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गीता दर्शन (भाग–2) प्रवचन–18

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संशयात्मा विनश्यति—(अध्याय—4) प्रवचन—अठारहवां

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। 40।।

और हे अर्जुन भगवत विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिए तो न सुख है और न यह लोक है, न परलोक है। अर्थात यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।

संशय से भरा हुआ, संशय से ग्रस्त व्यक्तित्व विनाश को उपलब्ध हो जाता है। भगवत्प्रेम से रहित और संशय से भरा न इस लोक में सुख पाता, न उस लोक में। विनाश ही उसकी नियति है।

दो बातें ठीक से समझ लेनी इस श्लोक में जरूरी हैं।

एक तो भगवत्प्रेम से रहित, दूसरा संशय से भरा हुआ। दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। संशय से भरा हुआ व्यक्ति भगवत्प्रेम को उपलब्ध नहीं होता है। भगवत्प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति संशयात्मा नहीं होता है। लेकिन दोनों को कृष्ण ने अलग-अलग कहा, क्योंकि दोनों के तल अलग-अलग हैं।

संशय का तल है मन और भगवत्प्रेम का तल है आत्मा। लेकिन मन से संशय न जाए, तो आत्मा के तल पर भगवत्प्रेम का अंकुरण नहीं होता। और आत्मा में भगवत्प्रेम का अंकुरण हो जाए, तो मन संशयरहित होता है। दोनों ही गहरे में एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन दोनों की अभिव्यक्ति का तल भिन्न-भिन्न है।

इसलिए यह भी ठीक से समझ लेना जरूरी है कि जब कहते हैं कि संशयात्मा–संशय से भरी हुई आत्मा–विनष्ट हो जाती है, तो ठीक से समझ लेना, संशयात्मा का तल आत्मा नहीं है; तल मन है। आत्मा में तो संशय होता ही नहीं है। लेकिन जिसके मन में संशय है, उसे मन ही आत्मा मालूम होती है। इसलिए कृष्ण ने संशयात्मा प्रयोग किया है।

जिसके मन में संशय है, इनडिसीजन है, वह मन के पार किसी आत्मा को जानता नहीं; वह मन को ही आत्मा जानता है। और ऐसा मन को ही आत्मा जानने वाला व्यक्ति विनाश को उपलब्ध होता है।

संशय क्या है? संशय का, पहला तो खयाल कर लें, अर्थ डाउट नहीं है, संदेह नहीं है। संशय का अर्थ इनडिसीजन है। अनिश्चय आत्मा, जिसका कोई भी निश्चय नहीं है; संकल्पहीन, जिसका कोई संकल्प नहीं है; निर्णयरहित, जिसका कोई निर्णय नहीं है; विललेस, जिसके पास कोई विल नहीं है। संशय चित्त की उस दशा का नाम है, जब मन ईदर-आर, यह या वह, इस भांति सोचता है।

एक बहुत अदभुत विचारक डेनमार्क में हुआ, सोरेन कीर्कगार्ड। उसने एक किताब लिखी है, नाम है, ईदर-आर–यह या वह। किताब ही लिखी हो, ऐसा नहीं; खुद भी इतने ही संशय से भरा था। एक युवती से प्रेम था, लेकिन तय न कर पाया वर्षों तक, विवाह करूं या न करूं! तय न कर पाया यह कि प्रेम विवाह बने या न बने! इतना समय बीत गया–इतना समय बीत गया कि वह युवती थक गई। उसने विवाह भी कर लिया। तब एक दिन उसके घर खबर करने गया कि मैं अभी तक तय नहीं कर पाया हूं। पर पता चला कि अब वह युवती वहां नहीं है। उसका विवाह हुए काफी समय हो गया है।

इस सोरेन कीर्कगार्ड ने किताब लिखी, ईदर-आर–यह या वह। उसे अनेक बार लोगों ने चौरस्तों पर खड़े देखा, दो कदम इस रास्ते पर बढ़ते, फिर लौट आते; फिर दो कदम दूसरे रास्ते पर बढ़ते, फिर लौट आते। गांव के बच्चे उसके पीछे दौड़ते और चिल्लाते, ईदर-आर–यह या वह! उसकी पूरी जिंदगी ऐसी ही इनडिसीजन में–टु बी आर नाट टु बी, होऊं या न होऊं, करूं या न करूं।

जब चित्त ऐसे संशय से बहुत गहन रूप से भर जाता है, तो विनाश को उपलब्ध होता है। क्यों? क्योंकि जो यही तय नहीं कर पाता कि करूं या न करूं, वह कभी नहीं कुछ कर पाता। जो यही तय नहीं कर पाता कि यह हो जाऊं या वह हो जाऊं, वह कभी भी कुछ नहीं हो पाता।

सृजन के लिए निर्णय चाहिए, असंशय निर्णय चाहिए। विनाश के लिए अनिर्णय काफी है। विनाश के लिए निर्णय नहीं करना पड़ता।

किसी भी व्यक्ति को स्वयं को नष्ट करना हो, तो इसके लिए किसी निर्णय की जरूरत नहीं होती। सिर्फ बिना निर्णय के बैठे रहें, विनाश अपने से घटित हो जाता है। किसी को पर्वत शिखर पर चढ़ना हो, तो श्रम पड़ता है, निर्णय लेना पड़ता है। लेकिन पत्थर की भांति पर्वत शिखर से लुढ़कना हो घाटियों की तरफ, तब किसी निर्णय की कोई जरूरत नहीं होती और श्रम की भी कोई जरूरत नहीं होती।

इस जगत में पतन सहज घट जाता है, बिना निर्णय के। इस जगत में विनाश स्वयं आ जाता है, बिना हमारे सहारे के। लेकिन इस जगत में सृजन हमारे संकल्प के बिना नहीं होता है। इस जगत में कुछ भी निर्मित हमारी पूरी की पूरी श्रम, शक्ति, चित्त, शरीर, सबके समाहित लग जाए बिना, इस जगत में कुछ निर्मित नहीं होता है। विनाश अपने से हो जाता है। बनाना हो, बनाना अपने से नहीं होता है।

संशय से भरा हुआ चित्त विनाश को उपलब्ध हो जाता है। इसका अर्थ है कि संशय से भरे चित्त को विनाश के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। विनाश आ जाता है, संशय से भरा हुआ चित्त देखता रहता है। घर में लगी हो आग, संशय से भरी आत्मा की क्या स्थिति होगी? बाहर निकलूं या न निकलूं? घर में लगी है आग, बाहर निकलूं या न निकलूं? संशय से भरे चित्त की यह स्थिति होगी।

आग नहीं रुकेगी आपके संशय के लिए, न आपके निर्णय के लिए। आग बढ़ती रहेगी। और संशय से भरा चित्त ऐसा होता है कि जितनी बढ़ेगी आग, उतना प्रगाढ़ हो जाएगा उसका भीतर का खंडन। उतना ही विचार तेज चलने लगेगा, निकलूं न निकलूं! आग नहीं रुकेगी। विनाश फलित होगा। वह आदमी घर के भीतर मरेगा। हम सब जिस जीवन में खड़े हैं–पदार्थ के, संसार के–वह आग लगे घर से कम नहीं है।

बुद्ध को किसी ने पूछा जब वे घर छोड़कर चले गए, दूसरे गांव के सम्राट ने आकर कहा, सुना है मैंने, तुम राजपुत्र होकर घर-द्वार छोड़कर चले आए। नासमझी की है तुमने। अपनी पुत्री से तुम्हारा विवाह कर देता हूं; मेरे राज्य के आधे के मालिक हो जाओ।

बुद्ध ने कहा, क्षमा करें। जिसे मैं पीछे छोड़ आया हूं, वह मकान और घर नहीं था। आग लगी थी वहां। उस लगी हुई आग को छोड़कर आया हूं मैं। और तुम फिर मुझे आग लगे घर में प्रवेश के लिए निमंत्रण देते हो! धन्यवाद तुम्हारे निमंत्रण के लिए; लेकिन शोक तुम्हारे अज्ञान के लिए! दुखी हूं कि तुम उसे महल कह रहे हो, जिसे मैं छोड़ आया हूं। महल मैंने नहीं छोड़ा, छोड़ा है मैंने आग लगा हुआ संसार। लपटें ही थीं वहां। तुम भी छोड़ो!

उस सम्राट ने कहा, सोचूंगा। तुम्हारी बात पर विचार करूंगा।

बुद्ध ने कहा, घर में आग लगी हो, तब कोई सोचता है कि निकलूं या न निकलूं?

नहीं; घर में आग लगी हो, तो शायद ही ऐसा आदमी मिले, जो सोचे। लेकिन जीवन में आग लगी हो, तो अधिकतम लोग ऐसे हैं, जो यही सोचते हैं, निकलें, न निकलें? बदलें, न बदलें? करें, न करें?

संशय से भरा हुआ चित्त समय को गंवा देता है, इसलिए विनष्ट होता है। समय एक अवसर है, एक अपरचुनिटी। और ऐसा अवसर, जो मिल भी नहीं पाता और खो जाता है। क्षण आता है हाथ में; दो क्षण कभी एक साथ नहीं आते। एक क्षण से ज्यादा इस पृथ्वी पर शक्तिशाली से शक्तिशाली मनुष्य के पास भी कभी ज्यादा नहीं आता। एक ही क्षण आता है हाथ में, बारीक क्षण। जान भी नहीं पाते कि आया और निकल जाता है।

संशय से भरा हुआ व्यक्ति जीवन के सभी क्षणों को गंवा देता है। क्योंकि संशय के लिए काफी समय चाहिए, और क्षण एक ही होता है हाथ में। जब तक वह सोचता है, तब तक क्षण चला जाता है। जब तक वह सोचता है, फिर क्षण चला जाता है। अंततः मृत्यु ही आती है संशय के हाथ में; जीवन पर पकड़ नहीं आ पाती; जीवन खो जाता है। जीवन खो जाता है निर्णय में ही कि करूं, न करूं।

सुना है मैंने रथचाइल्ड अमेरिका का एक बहुत बड़ा अरबपति हुआ। उससे किसी ने पूछा कि तुम्हारी सफलता का राज क्या है? गरीब थे तुम, अरबपति हो गए; तुम्हारी सफलता का राज क्या है? उसने कहा, मैंने एक भी अवसर नहीं खोया। जब भी अवसर आया, मैंने छलांग लगाई और पकड़ा।

दूसरे व्यक्ति ने पूछा कि तुम्हारा अवसर को पकड़ने का सीक्रेट और कुंजी क्या है?

उसने कहा, जब अवसर आया, तब मैंने यह नहीं सोचा कि करूं या न करूं। मैंने सदा एक नियम बनाकर रखा कि पछताना हो, तो करके पछताना; न करके कभी नहीं पछताना। क्योंकि न करके पछताने का कोई मतलब ही नहीं है। पछताना हो, तो करके पछता लेना। न करके कभी मत पछताना। क्योंकि किए को अनकिया किया जा सकता है, दि डन कैन बी अनडन। जो किया, उसे अनकिया किया जा सकता है। लेकिन जो अनकिया छूट गया, उसे फिर किया नहीं किया जा सकता। जो मकान बनाया, वह गिराया जा सकता है। लेकिन जो नहीं बनाया, वह समय खो गया जिसमें बनता; अब नहीं बनाया जा सकता।

रथचाइल्ड ने कहा, मैंने सदा एक नियम रखा, करके पछता लूंगा। इसलिए मैंने कभी यह नहीं सोचा कि करूं या न करूं। किया। और मैं तुमसे कहता हूं कि करके मैं आज तक नहीं पछताया हूं।

असल में निःसंशय व्यक्ति कभी नहीं पछताता। जीवन का अंतिम जोड़ हमारे किए हुए का जोड़ कम, हमारे लिए गए निःसंशय निर्णय का जोड़ ज्यादा है। जिंदगी के अंत में, जो किया, वह खो जाता है; लेकिन जिसने किया, जिस मन ने, करने, और करने, और करने, और निर्णय लेने की क्षमता और संकल्प का बल और असंशय रहने की योग्यता इकट्ठी होती चली जाती है। वही अंतिम हमारे हाथ में संपदा होती है। हमारे निःसंशय किए गए निर्णय की क्षमता ही हमारी आत्मा होती है।

उस आदमी ने पूछा, मैं भी ऐसा करना चाहता हूं, लेकिन पता नहीं चलता कि अवसर कब आता है! तुम्हें कैसे पता चलता है कि अवसर आता है? और अगर कभी अवसर आता ही है, तो जब तक पता चलता है, तब तक जा चुका होता है! तो तुम छलांग कैसे लगाते हो पकड़ने को?

तो रथचाइल्ड ने कहा कि मैं छलांग लगाता नहीं, मैं छलांग लगाता ही रहता हूं। जब भी अवसर आए, सवार हो जाता हूं। ऐसा नहीं कि मैं खड़ा देखता रहता हूं कि अवसर आएगा, तो छलांग लगाऊंगा और सवार हो जाऊंगा। क्योंकि जब अवसर आएगा, और जब तक मुझे पता चलेगा, तब तक जा चुका होगा। इस जगत में सब क्षणभंगुर है। मैं छलांग लगाता ही रहता हूं। आई कंटीन्यू जंपिंग, मैं कूदता ही रहता हूं। कभी भी अवसर आ जाए, अवसर का घोड़ा, वह मुझे उचकता हुआ ही पाता है। मेरी छलांग लगती ही रहती है। क्योंकि रथचाइल्ड ने कहा, छलांग व्यर्थ चली जाए, इसमें कोई हर्ज नहीं है; लेकिन अवसर का घोड़ा खाली निकल जाए, इसमें बहुत हर्ज है।

कृष्ण जब कहते हैं, संशयात्मा विनाश को उपलब्ध हो जाता है, तो वे और भी गहरे अवसर की बात कर रहे हैं। रथचाइल्ड तो इस संसार के अवसरों की बात कर रहा है। कृष्ण तो परम अवसर की बात कर रहे हैं कि जीवन एक परम अवसर है, इस परम अवसर में कोई चाहे तो परम उपलब्धि को पा सकता है–आनंद को, एक्सटैसी को, हर्षोन्माद को। उस उपलब्धि को पा सकता है कि जहां सब जीवन का कण-कण नाच उठता और अमृत से भर जाता है; जहां जीवन का सब अंधेरा टूट जाता; और जहां जीवन के सब फूल सुवासित हो खिल उठते हैं; जहां जीवन का प्रभात होता है और आनंद के गीत का जन्म होता है।

उस परम उपभोग के क्षण को हम चूक रहे हैं प्रतिपल, संशय के कारण। संशय कठिनाई में डालता है। जब भी कोई अवसर आता, हम बैठकर सोचते हैं, करें न करें!

एक युवक आज संध्या संन्यास लेने के लिए बैठा हुआ था मेरे पास। एक बार भीतर गया, फिर बाहर आया; फिर उसने कहा कि मैं दुबारा भीतर आता हूं। फिर भीतर आया। फिर कहा कि मैं और जरा बाहर जाकर सोचता हूं। फिर वह कुर्सी पर बैठकर सोचता रहा, सोचता रहा! मैं दो-चार बार आस-पास से उसके गुजरा और मैंने पूछा, सोचा? उसने कहा कि जरा सोचता हूं।

एक और मजे की बात है। जब क्रोध आता है, तब कभी इतना सोचते हैं? जब घृणा आती है कभी, तब कभी इतना सोचते हैं? जब वासना उठती है मन में, तब कभी इतना सोचते हैं? नहीं, बुरे में तो हम बड़े असंशय चित्त से लागू होते हैं। बुरा आ जाए द्वार पर, तो हम कहते हैं, आओ, स्वागत है! तैयार ही खड़े थे द्वार पर हम। शुभ आए, तो बहुत सोचते हैं!

यह भी बहुत मजे की बात है कि आदमी बुरे को करने में संशय नहीं करता, शुभ को करने में संशय करता है। क्यों? क्योंकि बुरे को करना पतन की तरह है; पहाड़ से पत्थर की तरह नीचे ढुलकना है। उसमें कुछ करना नहीं पड़ता। पत्थर तो महज जमीन की कशिश से खिंचा चला आता है। लेकिन शुभ, पर्वत शिखर की चढ़ाई है, गौरीशंकर की। चढ़ना पड़ता है। कदम-कदम भारी पड़ते हैं। और जैसे-जैसे शिखर पर ऊपर बढ़ती है यात्रा, वैसे-वैसे भारी पड़ते हैं। फिर एक-एक बोझ निकालकर फेंकना पड़ता है। अगर बहुत सोना-चांदी ले आए कंधे पर, तो छोड़ना पड़ता है। गौरीशंकर के शिखर तक जाने के लिए कंधे पर सोने-चांदी के बोझ को नहीं ढोया जा सकता। धीरे-धीरे शिखर तक पहुंचते-पहुंचते सब फेंक देना पड़ता है। वस्त्र भी बोझिल हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही शुभ की यात्रा है। एक-एक चीज छोड़ते जानी पड़ती है।

अशुभ की यात्रा, सब पकड़ते चले जाओ; बीच में पड़े हुए पत्थरों के साथ भी आलिंगन कर लो। वे भी लुढ़कने लगेंगे। सब इकट्ठा करते चले आओ। बढ़ाते चले जाओ। कुछ छोड़ना नहीं पड़ता। पकड़ते चले जाओ, बढ़ाते चले जाओ। और गङ्ढे में गिरते चले जाओ! जमीन खींचती चली जाती है।

क्रोध के लिए कोई सोचता नहीं। अगर कोई आदमी क्रोध के लिए दो क्षण सोच ले, तो क्रोध से भी बच जाएगा। और दो क्षण अगर संन्यास के लिए भी सोच ले, तो संन्यास से भी चूक जाएगा।

अशुभ के साथ जितना सोचें, उतना अच्छा। शुभ के साथ जितना निःसंशय हों, उतना अच्छा।

फिर यह भी ध्यान रख लें कि अशुभ को करके भी कुछ नहीं मिलता, अशुभ में सफल होकर भी कुछ नहीं मिलता और शुभ में असफल होकर भी बहुत कुछ मिलता है। शुभ के मार्ग पर असफल हुआ भी बहुत सफल है। अशुभ के मार्ग पर सफल हुआ भी बिलकुल असफल है। नहीं; जीवन के अंत में कुछ हाथ आता नहीं है।

सिकंदर मरा। जिस गांव में उसकी अर्थी निकली, गांव के लोग चकित हुए, उसके दोनों हाथ अर्थी के बाहर लटके हुए थे। लोग पूछने लगे, ये हाथ बाहर क्यों हैं? कभी किसी अर्थी के बाहर हाथ नहीं देखे! तो पता चला कि सिकंदर ने मरते समय अपने मित्रों को कहा, मेरे दोनों हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहा, रिवाज नहीं ऐसा। हमने कोई अर्थी के हाथ बाहर लटके नहीं देखे! सिकंदर ने कहा, न हो रिवाज। बेईमान रहे होंगे वे लोग, जिन्होंने हाथ अर्थी के भीतर रखे। मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहा, कैसी बातें करते हैं! क्या फायदा होगा? मतलब क्या? प्रयोजन क्या? सिकंदर ने कहा, मैं चाहता हूं कि लोग ठीक से देख लें, मैं खाली हाथ जा रहा हूं। वह जिंदगीभर जो मैंने इकट्ठा किया, उससे हाथ भरे नहीं।

सफल बहुत था सिकंदर। कम ही लोग इतने सफल होते हैं। पर मरते क्षण सिकंदर को यह खयाल कि मेरे हाथ खाली लोग देख लें; समझें कि सिकंदर भी असफल गया है–रिक्त, खाली हाथ।

असफलता भी शुभ के मार्ग पर बड़ी सफलता है। साधु के पास कुछ भी नहीं होता, फिर भी बंधे हाथ जाता है; बहुत कुछ लेकर जाता है। कम से कम अपने को लेकर जाता है। आत्मा को विनष्ट करके नहीं जाता; आत्मा को निर्मित करके, सृजन करके, क्रिएट करके जाता है। इस पृथ्वी पर इस जीवन में उससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है कि कोई अपने को पूरा जानकर और पाकर जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, संशय विनाश कर देता है अर्जुन! और अर्जुन बड़े संशय से भरा हुआ है। अर्जुन एकदम ही संशय से भरा हुआ है। उसे कुछ सूझ नहीं रहा है, क्या करे, क्या न करे! बड़ा डांवाडोल है उसका चित्त। अर्जुन शब्द का भी मतलब डांवाडोल होता है। ऋजु कहते हैं सरल को, सीधे को; अऋजु कहते हैं इरछे-तिरछे को, विषम को।

जो भी डांवाडोल है, इरछा-तिरछा होता है। वह ऐसे चलता है, जैसे शराबी चलता है। एक पैर इधर पड़ता है, एक पैर उधर पड़ता है। कभी बाएं घूम जाता है, कभी दाएं घूम जाता है। गति सीधी नहीं होती।

निःसंशय चित्त की गति स्टे्रट, सीधी होती है। संशय से भरे चित्त की गति सदा डांवाडोल होती है। रखता है पैर, नहीं रखना चाहता। फिर उठा लेता है। फिर रखता है; फिर नहीं रखना चाहता। अर्जुन वैसी ही स्थिति में है।

फिर कृष्ण साथ में यह भी कहते हैं, भगवत्प्रेम को उपलब्ध!

जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं। एक, वस्तुओं का प्रेम। जिससे हम सब परिचित हैं। जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा, व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं। सिर्फ इसलिए कि आपको अपने को बचाने की सुविधा रहे! समझें कि दूसरे, मैं तो लाख में एक हूं ही!

नहीं; इस तरह बचाना मत।

एक फ्रेंच चित्रकार सीजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। यह पूरी पहाड़ी अदभुत है। सीजां ने पूछा, इसके अदभुत होने का राज, रहस्य, प्रमाण? उस मैनेजर ने कहा, राज और रहस्य तो तुम रहोगे यहां, तो पता चल जाएगा। प्रमाण यह है कि इस पूरी पहाड़ी पर एक आदमी से ज्यादा प्रतिदिन नहीं मरता है। सीजां ने जल्दी से पूछा कि आज मरने वाला आदमी मर गया या नहीं? नहीं तो मैं भागूं।

आदमी अपने को बचाने के लिए बड़ा आतुर है। तो अगर मैं कहूं, लाख में एक; आप कहेंगे, बिलकुल ठीक। छोड़ा अपने को। आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, खयाल रखना।

लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलब्ध होता है। शेष आदमी वस्तुओं के प्रेम में ही जीते हैं। आप कहेंगे, हम व्यक्तियों को प्रेम करते हैं। लेकिन मैं आपसे कहूंगा, वस्तुओं की भांति, व्यक्तियों की भांति नहीं।

आज एक मित्र आए संन्यास लेने; पत्नी को साथ लेकर आए। पत्नी को समझाया, कि नहीं, वे घर छोड़कर नहीं जाएंगे। पति ही रहेंगे। पिता ही रहेंगे। संन्यास उनकी आंतरिक घटना है। चिंतित मत होओ। घबड़ाओ मत! लेकिन उस पत्नी ने कहा कि नहीं, मैं संन्यास नहीं लेने दूंगी। मैंने कहा, कैसा प्रेम है यह? अगर प्रेम गुलामी बन जाए, तो प्रेम है? प्रेम अगर स्वतंत्रता न दे, तो प्रेम है? प्रेम अगर जंजीरें बन जाए, तो प्रेम है? फिर यह पति व्यक्ति नहीं रहा, वस्तु हो गया; यूटिलिटेरियन; फिर यह व्यक्ति नहीं रहा। फिर पत्नी कहती है, मैं आज्ञा नहीं दूंगी, तो नहीं!

व्यक्ति का सम्मान न रहा, उसकी स्वतंत्रता का सम्मान न रहा; उसका कोई अर्थ न रहा; वह वस्तु हो गई।

हम व्यक्तियों को प्रेम भी करते हैं, तो पजेस करते हैं, मालिक हो जाते हैं। मालिक व्यक्तियों का कोई नहीं हो सकता। सिर्फ वस्तुओं की मालकियत होती है। अगर कोई पत्नी पति को पजेस करती है, कहती है, मालकियत है। कोई पति कहता है पत्नी को कि मेरी हो; तो फर्नीचर में और पत्नी में बहुत भेद नहीं रह जाता है। उपयोग हो गया, लेकिन व्यक्ति का सम्मान न हुआ। उस दूसरे व्यक्ति की निज आत्मा का कोई आदर न हुआ।

वस्तुओं को ही हम प्रेम करते हैं, इसलिए व्यक्तियों को भी प्रेम करते हैं, तो उनको भी वस्तु बना लेते हैं।

दूसरा प्रेम, व्यक्तियों का जो प्रेम है, वह कभी लाख में एक आदमी को, मैंने कहा, उपलब्ध होता है। व्यक्ति के प्रेम का अर्थ है, दूसरे का अपना मूल्य है; मेरी उपयोगिता भर मूल्य नहीं है उसका। यूटिलिटेरियन–मैं उसका उपयोग कर लूं–इतना ही उसका मूल्य नहीं है। उसका अपना निज मूल्य है। वह मेरा साधन नहीं है। वह स्वयं अपना साध्य है।

कांट ने, इमेनुएल कांट ने कहा है–नीति के परम सूत्रों में एक सूत्र। अनीति के लिए कांट कहता है, अनीति का एक ही अर्थ है, दूसरे व्यक्ति का साधन की तरह उपयोग करना अनैतिक है। और दूसरे व्यक्ति को साध्य मानना नैतिक है।

गहरे से गहरा सूत्र है कि दूसरा व्यक्ति अपना साध्य है स्वयं। मैं उससे प्रेम करता हूं एक व्यक्ति की भांति, एक वस्तु की भांति नहीं। इसलिए मैं उसका मालिक कभी भी नहीं हो सकता हूं।

लेकिन व्यक्ति के प्रेम को ही हम उपलब्ध नहीं होते।

फिर तीसरा प्रेम है, भगवत्प्रेम। वह अस्तित्व का प्रेम है, लव टुवर्ड्स दि एक्झिस्टेंस। लव टुवर्ड्स दि पर्सन, एंड लव टुवर्ड्स थिंग्स, आब्जेक्ट्स। वस्तुओं के प्रति प्रेम, मकान, धन-दौलत, पद-पदवी! व्यक्तियों के प्रति प्रेम, मनुष्य! अस्तित्व के प्रति प्रेम, भगवत्प्रेम है। समग्र अस्तित्व को प्रेम।

अब इसको थोड़ा ठीक से देख लेना जरूरी है। जब हम वस्तुओं को प्रेम करते हैं, तो हमें सारे जगत में वस्तुएं ही दिखाई पड़ती हैं, कोई परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही हम जानते हैं। प्रेम जानने की आंख है। प्रेम के अपने ढंग हैं जानने के। सच तो यह है कि प्रेम ही इंटिमेट नोइंग है। आंतरिक, आत्मीय जानना प्रेम ही है।

इसलिए जब हम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हैं, तभी हम जानते हैं। क्योंकि जब हम प्रेम करते हैं, तभी वह व्यक्ति हमारी तरफ खुलता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब हम उसमें प्रवेश करते हैं। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह निर्भय होता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह छिपाता नहीं है। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह उघड़ता है, खुलता है; भीतर बुलाता है, आओ; अतिथि बनो! ठहराता है हृदय के घर में।

जब कोई व्यक्ति प्रेम करता है किसी को, तभी जान पाता है। अगर अस्तित्व को कोई प्रेम करता है, तभी जान पाता है परमात्मा को। भगवत्प्रेम का अर्थ है, जो भी है, उसके होने के कारण प्रेम।

कुर्सी को हम प्रेम करते हैं, क्योंकि उस पर हम बैठते हैं, आराम करते हैं। टूट जाएगी टांग उसकी, कचरेघर में फेंक देंगे। उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। हटा देंगे। जो लोग मनुष्यों को भी इसी भांति प्रेम करते हैं, उनका भी यही है। पति को कोढ़ हो जाएगा, तो पत्नी डायवोर्स दे देगी, अदालत में तलाक कर देगी। टूट गई टांग कुर्सी की। हटाओ! पत्नी कुरूप हो जाएगी, रुग्ण हो जाएगी, अस्वस्थ हो जाएगी, अंधी हो जाएगी; पति तलाक कर देगा। हटाओ! तब तो वस्तु हो गए लोग।

जो व्यक्ति सिर्फ वस्तुओं को प्रेम करता है, उसके लिए सारा जगत मैटीरियल हो जाता है, वस्तु मात्र हो जाता है। व्यक्ति में भी वस्तु दिखाई पड़ती है। और भगवत चैतन्य तो कहीं दिखाई नहीं पड़ सकता।

भगवत चैतन्य को अनुभव करने के लिए पहले वस्तुओं के प्रेम से व्यक्तियों के प्रेम तक उठना पड़ता है; फिर व्यक्तियों के प्रेम से अस्तित्व के प्रेम तक उठना पड़ता है। जो व्यक्ति व्यक्तियों को प्रेम करता है, वह मध्य में आ जाता है। एक तरफ वस्तुओं का जगत होता है, दूसरी तरफ भगवान का अस्तित्व होता है, पूरा अस्तित्व। इन दोनों के बीच खड़ा हो जाता है। उसे दोनों तरफ दिखाई पड़ने लगता है। एक तरफ वस्तुओं का संसार है और एक तरफ अस्तित्व का लोक है। फिर वह आगे बढ़ सकता है।

सुना है मैंने, रामानुज एक गांव से गुजरते हैं। और एक आदमी आया। और उसने कहा कि मुझे भगवान से मिला दें। मुझे भगवान से प्रेम करा दें। मैं भगवत्प्रेम का प्यासा हूं। रामानुज ने कहा, ठहरो, इतनी जल्दी मत करो। तुमसे मैं कुछ पूछूं। तुमने कभी किसी को प्रेम किया? उसने कहा, कभी नहीं, कभी नहीं। मुझे तो सिर्फ भगवान का प्रेम है। रामानुज ने कहा, कभी किसी को किया हो भूल-चूक से? उस आदमी ने कहा, बेकार की बातों में समय क्यों जाया करवा रहे हैं? प्रेम इत्यादि से मैं सदा दूर रहा हूं। मैंने कभी किसी को प्रेम किया ही नहीं। रामानुज ने कहा, फिर तुमसे कहता हूं एक बार; एकाध बार, सोचो, किसी को किया हो–किसी पौधे को किया हो, किसी आदमी को किया हो, किसी स्त्री को किया हो, किसी बच्चे को किया हो–किसी को भी किया हो!

स्वभावतः, उस आदमी ने सोचा कि अगर मैं कहूं कि मैंने किसी को प्रेम किया है, तो रामानुज कहेंगे कि अयोग्य है तू। इसलिए उसने कहा, मैंने किया ही नहीं। साफ कहता हूं। प्रेम से मैं सदा दूर रहा हूं। मुझे तो भगवत्प्रेम की आकांक्षा है।

रामानुज ने कहा कि फिर मैं बड़ी मुश्किल में हूं। फिर मैं कुछ भी न कर पाऊंगा। क्योंकि अगर तूने किसी को थोड़ा भी प्रेम किया होता, तो उसी प्रेम की किरण के सहारे मैं तुझे भगवत्प्रेम के सूरज तक पहुंचा देता। थोड़ा-सा भी तूने किसी में झांका होता प्रेम से, तो मैं तुझे पूरे अस्तित्व के द्वार में धक्का दे देता। लेकिन तू कहता है कि तूने किया ही नहीं। यह तो ऐसे हुआ कि मैं किसी आदमी से पूछूं कि तूने कभी रोशनी देखी, दीया देखा? मिट्टी का दीया जलता हुआ देखा? वह कहे, नहीं, मुझे तो सूरज दिखा दें। मैंने दीया कभी देखा ही नहीं। पूछता हूं कि कभी तुझे एकाध किरण छप्पर में से फूटती हुई दिखाई पड़ी हो? वह कहे, कहां की बातें कर रहे हैं? किरण वगैरह से अपना कोई संबंध ही नहीं है। हम तो सूरज के प्रेमी हैं। तो रामानुज ने कहा कि जैसे उस आदमी से मुझे कहना पड़े कि क्षमा कर! तू किरण भी नहीं खोज पाया, सूरज तक तुझे कैसे पहुंचाऊं? क्योंकि हर किरण सूरज का रास्ता है।

व्यक्ति का प्रेम भी भगवत्प्रेम की शुरुआत है। व्यक्ति का प्रेम एक छोटी-सी खिड़की है, झरोखा, जिसमें से हम किसी एक व्यक्ति में से परमात्मा को देखते हैं। खिड़की! अगर, रामानुज ने कहा, तू एक में भी झांक सका हो, तो फिर मैं तुझे सब में झांकने की कला बता दूं। लेकिन तू कहता है, तूने कभी झांका ही नहीं!

हम वस्तुओं में जीते हैं। हम व्यक्तियों में भी झांकते नहीं। क्यों? क्या बात है? वस्तुओं के साथ बड़ी सुविधा है, व्यक्तियों के साथ झंझट है। छोटे-से व्यक्ति के साथ! घर में एक बच्चा पैदा हो जाए; अभी दो साल का बच्चा है, लेकिन वह भी एक उपद्रव है। व्यक्ति है। वह भी स्वतंत्रता मांगता है। उससे कहो, इस कोने में बैठो। तो फिर उस कोने में बिलकुल नहीं बैठता है! उससे कहो, बाहर मत जाओ, तो बाहर जाता है! उससे कहो, फलां चीज मत छुओ, तो छूकर दिखलाता है कि मेरी भी आत्मा है। मैं भी हूं। आप ही नहीं हैं।

इसलिए आज अमेरिका या फ्रांस में या इंगलैंड में लोग कहते हैं, एक बच्चे की बजाय एक टेलीविजन सेट खरीद लेना बेहतर। टेलीविजन सेट! जब चाहो बटन दबाओ, चले; बंद करो, बंद हो जाए। आन-आफ होता है।

व्यक्ति आन-आफ नहीं होता। उसको आप नहीं कर सकते आन-आफ। एक छोटे-से बच्चे को मां दबा-दबाकर सुला रही है; आफ करना चाह रही है। वे आन हो-हो जा रहे हैं! उठ-उठ आ रहे हैं! वे कह रहे हैं कि नहीं, अभी नहीं सोना है। छोटा-सा बच्चा भी इनकार करता है कि उसके साथ वस्तु जैसा व्यवहार न किया जाए। उसके भीतर परमात्मा है।

व्यक्ति से प्रेम करने में डर लगता है। क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता मांगेगा। वस्तुओं से प्रेम करना बड़ा सुविधापूर्ण है; स्वतंत्रता नहीं मांगते। तिजोरी में बंद किया; ताला डाला; आराम से सो रहे हैं। रुपए तिजोरी में बंद हैं। न भागते, न निकलते; न विद्रोह करते, न बगावत करते; न कहते कि आज इरादा नहीं है चलने का हमारा, आज नहीं चलेंगे! नहीं; जब चाहो, तब हाजिर होते हैं; जैसा चाहो, वैसा हाजिर होते हैं। वस्तुएं गुलाम हो जाती हैं, इसलिए हम वस्तुओं को चाहते हैं।

जो आदमी भी दूसरे की स्वतंत्रता नहीं चाहता, वह आदमी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा। और जो व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा, वह भगवत्प्रेम के झरोखे पर ही नहीं पहुंचा, तो भगवत्प्रेम के आकाश में तो उतरने का उपाय नहीं है।

भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत एक व्यक्तित्व है, दि होल एक्झिस्टेंस इज़ पर्सनल। भगवत्प्रेम का अर्थ है, जगत नहीं है, भगवान है। इसका मतलब समझते हैं? अस्तित्व नहीं है, भगवान है। क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब हुआ कि हम पूरे अस्तित्व को व्यक्तित्व दे रहे हैं। हम पूरे अस्तित्व को कह रहे हैं कि तू भी है; हम तुझसे बात भी कर सकते हैं।

इसलिए भक्त–भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने व्यक्तित्व दिया। भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने भगवान कहा। भक्त का अर्थ है, ऐसा प्रेम से भरा हुआ हृदय, जो इस पूरे अस्तित्व को एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है। सुबह उठता है, तो सूरज को हाथ जोड़कर नमस्कार करता है। सूरज को नमस्कार नासमझ नहीं कर रहे हैं। हालांकि बहुत-से नासमझ कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने शुरू किया था, वे नासमझ नहीं थे।

सूरज को नमस्कार उस आदमी ने किया था, जिसने सारे अस्तित्व को व्यक्तित्व दे दिया था। फिर सूरज का भी व्यक्तित्व था। तो हमने कहा, सूर्य देवता है; रथ पर सवार है; घोड़ों पर जुता हुआ है; दौड़ता है आकाश में। सुबह होता, जागता; सांझ होता, अस्त होता। ये बातें वैज्ञानिक नहीं हैं; ये बातें धार्मिक हैं। ये बातें पदार्थगत नहीं हैं; ये बातें आत्मगत हैं।

नदियों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। वृक्षों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। सारे जगत को व्यक्तित्व दे दिया। कहा कि तुममें भी व्यक्तित्व है। आज भी आप कभी किसी पीपल के पास नमस्कार करके गुजर जाते हैं। लेकिन आपने खयाल नहीं किया होगा कि जो आदमी, आदमियों को वस्तु जैसा व्यवहार करता है, उसका पीपल को नमस्कार करना एकदम सरासर झूठ है। पीपल को तो वही नमस्कार कर सकता है, जो जानता है कि पीपल भी व्यक्ति है, वह भी परमात्मा का हिस्सा है; उसके पत्ते-पत्ते में भी उसी की छाप है। कंकड़-कंकड़ में भी उसी की पहचान है। जगह-जगह वही है अनेक-अनेक रूपों में। चेहरे होंगे भिन्न; वह जो भीतर छिपा है, भिन्न नहीं है। आंखें होंगी अनेक, लेकिन जो झांकता है उनसे, वह एक है। हाथ होंगे अनंत, लेकिन जो स्पर्श करता है उनसे, वह वही है।

गदर के समय, म्यूटिनी के समय, अठारह सौ सत्तावन में, एक मौन संन्यासी, जो पंद्रह वर्ष से मौन था। नग्न संन्यासी। रात गुजर रहा था। चांदनी रात थी। चांद था आकाश में। वह नाच रहा था। धन्यवाद दे रहा था चांद को। उसे पता नहीं था कि उसकी मौत करीब है।

नाचते हुए नग्न वह निकला नदी की तरफ। बीच में अंग्रेज फौज का पड़ाव था। फौजियों ने समझा कि यह कोई जासूस मालूम पड़ता है। तरकीब निकाली है इसने कि नग्न होकर गीत गाता हुआ फौजी पड़ाव में से गुजर रहा है। उन्होंने उसे पकड़ लिया। और जब उससे पूछताछ की और वह नहीं बोला, तब शक और भी पक्का हो गया कि वह जासूस है। बोलता क्यों नहीं? हंसता है, मुस्कुराता है, नाचता है, बोलता क्यों नहीं?

मैंने कहा, गीत गाता हुआ, वाणी से नहीं। ऐसे भी गीत हैं, जो प्राणों से गाए जाते हैं। ऐसे भी गीत हैं, जो शून्य में उठते और शून्य में ही खो जाते हैं। वह तो मौन था, शब्द से तो चुप था। पर गीत गाता हुआ, नाचता हुआ, अपने समग्र अस्तित्व से पूर्णिमा के चांद को धन्यवाद देता हुआ!

सिपाहियों ने कहा कि बोलता क्यों नहीं है? मुस्कुराता है। आंखें कहती हैं। गाता है। नाचता है। बोलता क्यों नहीं है? बेईमान है। जासूस है! उन्होंने भाला उसकी छाती में भोंक दिया।

उस संन्यासी ने संकल्प लिया हुआ था कि एक ही शब्द बोलूंगा–आखिर, अंतिम, मृत्यु के द्वार पर। इस जगत से पार होते हुए धन्यवाद का एक शब्द इस पार बोलकर विदा हो जाऊंगा।

कठिन पड़ा होगा उसको कि क्या शब्द बोले! मुश्किल पड़ा होगा! एक ही वाक्य बोलना है–अंतिम!

छाती में घुस गया भाला। खून के फव्वारे बरसने लगे। वह जो नाचता था हृदय, मरने के करीब पहुंच गया। उस संन्यासी ने कहा, तत्वमसि श्वेतकेतु! उपनिषद का महावाक्य। उसने कहा, श्वेतकेतु, तू भी वही है। दैट आर्ट दाऊ। तू भी वही है।

नहीं समझे होंगे वे अंग्रेज सिपाही। लेकिन उसने उस सिपाही से कहा, तू भी वही है–तत्वमसि! उस अंग्रेज सिपाही से, जिसने उसकी छाती में भोंका भाला, उससे उसने कहा, तू भी वही है।

इस खिड़की में से भी वह उसी को देख पाया। इस भाला भोंकती हुई खिड़की में से भी उसी का दर्शन हुआ। भगवत्प्रेम को उपलब्ध हुआ होगा, तभी ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता है।

भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत व्यक्ति है। व्यक्तित्व है जगत के पास अपना, उससे बात की जा सकती है। इसलिए भक्त बोल लेता है उससे।

मीरा पागल मालूम पड़ती है दूसरों को, क्योंकि वह बातें कर रही है कृष्ण से। हमें पागल मालूम पड़ेगी, क्योंकि हमारे लिए तो वस्तुओं के अतिरिक्त जगत में कुछ भी नहीं है। व्यक्ति भी नहीं हैं, तो परम व्यक्ति तो होगा कैसे? लेकिन मीरा बातें कर रही है उससे! सूरदास उसका हाथ पकड़कर चल रहे हैं! आदान-प्रदान हो रहा है। डायलाग है। चर्चा होती है। प्रश्न-उत्तर हो जाते हैं। पूछा जाता है, प्रतिसंवाद हो जाता है। व्यक्ति!

जब जीसस सूली पर लटके और उन्होंने ऊपर आंख उठाकर कहा कि हे प्रभु, माफ कर देना इन सबको, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं; तब यह आकाश से नहीं कहा होगा। आकाश से कोई बोलता है? यह आकाश में उड़ते पक्षियों से नहीं कहा होगा। पक्षियों से कोई बोलता है? भीड़ खड़ी थी नीचे, उसने भी आकाश की तरफ देखा होगा; लेकिन आकाश में चलती हुई सफेद बदलियों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा होगा। नीला आकाश–खाली और शून्य। हंसे होंगे मन में कि पागल है। लेकिन जीसस के लिए सारा जगत प्रभु है। कह दिया, क्षमा कर देना इन्हें, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।

भगवत्प्रेम हो, तो व्यक्ति और परम-व्यक्ति के बीच चर्चा हो पाती है, संवाद हो पाता है, आदान-प्रदान हो पाता है। और उससे मधुर संवाद, उससे मीठा लेन-देन, उससे प्रेमपूर्ण पत्र-व्यवहार और कोई भी नहीं है। प्रार्थना उसका नाम है। भगवत्प्रेम में वह घटित होती है।

तो कृष्ण कहते हैं, संशयमुक्त, भगवत्प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति इस लोक में भी आनंद को उपलब्ध होता है, परलोक में भी। संशय से भरा हुआ, भगवत्प्रेम से रिक्त, इस लोक में भी दुख पाता है, उस लोक में भी।

दुख हमारा अपना अर्जन है, हमारी अपनी अघनग है। हमारा अपना अर्जित है दुख। दुख पाना हमारी नियति नहीं, हमारी भूल है। दुख पाने के लिए हमारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं है, और कोई रिस्पांसिबल नहीं है। दुखी हैं, तो कारण है कि संशय को जगह देते हैं। दुखी हैं, तो कारण है कि व्यक्ति को खोजा नहीं; परम व्यक्ति की तरफ गए नहीं।

आनंदित जो होता है, उसके ऊपर परमात्मा कोई विशेष कृपा नहीं करता है। वह केवल उपयोग कर लेता है जीवन के अवसर का और प्रभु के प्रसाद से भर जाता है।

गङ्ढे हैं। वर्षा होती है, तो गङ्ढों में पानी भर जाता है और झीलें बन जाती हैं। पर्वत के शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन पर्वत के शिखरों पर झील नहीं बनती। पानी नीचे बहकर गङ्ढों में पहुंचकर झील बन जाती है। पर्वत शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन वे पहले से ही भरे हुए हैं, उनमें जगह नहीं है कि पानी भर जाए। झीलों पर वर्षा होती है, तो भर जाता है। झीलें खाली हैं, इसलिए भर जाता है।

जो व्यक्ति संशय से भरा है, भगवत्प्रेम से खाली है, उसके पास संशय का पहाड़ होता है। ध्यान रखें, बीमारियां अकेली नहीं आतीं; बीमारियां सदा समूह में आती हैं। बीमारियां भीड़ में आती हैं। ऐसा नहीं होता है कि किसी आदमी में एक संशय मिल जाए। जब संशय होता है, तो अनेक संशय होते हैं। संशय भी भीड़ में आते हैं, एक नहीं आता। स्वास्थ्य अकेला आता है, बीमारियां भीड़ में आती हैं। श्रद्धा अकेली आती है, संशय बहुवचन में आते हैं।

संशय से भरा हुआ आदमी पहाड़ बन जाता है संशय का। उस पर भी प्रभु का प्रसाद बरसता है, लेकिन भर नहीं पाता। संशयमुक्त झील बन जाता है–गङ्ढा, खाली, शून्य–प्रभु के प्रसाद को ग्रहण करने के लिए गर्भ बन जाता है। स्वीकार कर लेता है।

इसलिए ध्यान रखें, निरंतर भक्तों ने अगर भगवान को प्रेमी की तरह माना, तो उसका कारण है। अगर भक्त इस सीमा तक चले गए कि अपने को स्त्रैण भी मान लिया और प्रभु को पति भी मान लिया, तो उसका भी कारण है। कारण है। और वह कारण है, गङ्ढा बनना है, ग्राहक बनना है, रिसेप्टिव बनना है। स्त्री ग्राहक है, रिसेप्टिव है; गर्भ बनती है; स्वीकार करती है। नए को अपने भीतर जन्म देती है, बढ़ाती है। अगर भक्तों को ऐसा लगा कि वे प्रेमिकाएं बन जाएं प्रभु की, तो उसका कारण है। इसीलिए कि वे गङ्ढे बन जाएं, प्रभु उनमें भर जाए।

लेकिन जो अहंकार के शिखर हैं, वे खाली रह जाते हैं। और जो विनम्रता के गङ्ढे हैं, वे भर जाते हैं।

प्रभु का प्रसाद प्रतिपल बरस रहा है। उसके प्रसाद की उपलब्धि आनंद है, उसके प्रसाद से वंचित रह जाना संताप है, दुख है।

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।। 41।।

हे धनंजय, समत्वबुद्धिरूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके, ऐसे परमात्मपरायण पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।

संशयरहित जो हो गया, कर्म जिसने अपने समर्पित कर दिए प्रभु को, बेशर्त दान है जिसका स्वयं का समग्र को; अपनी तरफ जो शून्य हो रहा; कह दिया प्रभु को पूर्ण जिसने; ऐसे पुरुष को–समर्पित, शून्य हुए, विनम्र, निःसंशय, भगवत्प्रेम से भरे हुए–ऐसे पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।

कृष्ण बार-बार अर्जुन को हजार-हजार मार्गों से कह रहे हैं कि अर्जुन, तू वह राज समझ ले, जिससे कर्म करते हुए भी बंधन नहीं बनता है।

समर्पण कर दिए जिसने सब कर्म प्रभु को, उसे बंधन नहीं होता है। फिर बंधेगा, तो प्रभु; खुलेगा, तो प्रभु। अपनी तरफ से उसने सारा बोझ उसे दे दिया है।

समर्पण ही लेकिन कठिनाई है। अहंकार बाधा है। अहंकार कहता है, मैं हूं। समर्पण कहेगा, तू है। अहंकार कहता है, मैं सब कुछ। समर्पण कहता है, मैं कुछ भी नहीं। और अहंकार इतना चालाक है, इतने सूक्ष्म हैं मार्ग उसके, इतनी महीन हैं तरकीबें उसकी; इतने होशियार, इतने गणित का खेल है उसका, कि जब अहंकार कहता है, मैं कुछ भी नहीं, तब भी वह कहता है, मैं कुछ हूं! कुछ भी नहीं हूं। मैं कुछ हूं। ना-कुछ होने में भी अहंकार खड़ा हो जाता है। समर्पण अति कठिन है।

रूमी ने एक छोटा-सा गीत लिखा है, वह इस सूत्र को समझाने को कहूं। रूमी ने लिखा है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। खटखटाया द्वार। जैसा कि प्रेमियों का मन आमतौर से होता है, अपेक्षाओं से भरा, ऐसा ही उसका भी भरा है। खटखटाया द्वार; आवाज नहीं दी। क्योंकि सोचा उस प्रेमी ने, मेरी खटखटाहट को भी तो पहचान लेगी प्रेयसी! मेरी खटखटाहट नहीं पहचानेगी क्या? मेरे पदचाप नहीं पहचानेगी क्या? प्रतीक्षा की होगी मेरी, तो जरूर मेरे पदचापों की आहट भी मिल गई होगी। और चाहा होगा मुझे, तो मेरे खटखटाने का ढंग भी तो मेरा है! नहीं दी आवाज; सिर्फ द्वार खटखटाया।

भीतर से पूछा उसकी प्रेयसी ने, कौन है द्वार पर! प्रेमी को दुख हुआ। प्रेमी को सुख मुश्किल से ही होता है। अपेक्षाएं होती हैं बहुत, उसी अनुपात में दुख भी बरसते हैं। दुख हुआ, पहचानी नहीं! प्रेम का सुख ही रिकग्नीशन है, कोई पहचाने! आना था दौड़ते हुए; खोलना था द्वार। कहना था कि पदचाप पड़े थे राह पर, तभी जान गई कि तुम आते हो। खटखटाया था द्वार, तभी खुल जाने थे द्वार और कहना था, तुम! आवाज तुम्हारी पहचानती हूं। लेकिन भीतर से पूछती है, कौन हो?

दुखी हुआ मन। कहा, मैं हूं। पहचाना नहीं? प्रेयसी ने कहा, जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार खुलना भी चाहें, तो खुलेंगे कैसे? जाओ। जब बचो न, तब आ जाना।

प्रेम के द्वार अहंकार के लिए कभी नहीं खुलते हैं। हालांकि अहंकार प्रेम के द्वार निरंतर ठकठकाता है और खुलवाना चाहता है। अहंकार प्रेम के ऊपर सदा बलात्कार है। सदा! तोड़ देना चाहता है। खुलते तो कभी नहीं, तोड़ देता है। लेकिन तोड़े गए द्वार, खुले हुए द्वार नहीं हैं। और तोड़े गए द्वार को जिसने खुला हुआ द्वार समझा, वह पागल है। क्योंकि जब द्वार खुलते हैं प्रेम के अपने से, तब उसका रस, उसका रहस्य और ही है। और जब तोड़े जाते हैं, तब उसका विरस, उसकी अर्थहीनता और ही है।

सोचा प्रेमी ने कि ठीक ही है बात। जब तक मैं हूं, तब तक प्रेम कैसा? क्योंकि प्रेम तो तभी है, जब तू ही है, मैं नहीं हूं। लौट गया।

पुराना प्रेमी रहा होगा; ओल्ड फैशन्ड! नए ढंग का होता, बहुत उपद्रव मचाता। कहानी पुरानी है, रूमी ने लिखी है। और फिर उस तरह के प्रेमी ने लिखी, जो प्रभु के द्वार की बात कर रहा है।

लौट गया प्रेमी। वर्ष आए और गए। वर्षाएं आईं और बीतीं; पतझड़ हुए और चुके; वसंत खिले और मिटे। न मालूम कितने चांद पूरे हुए और अस्त हुए। न मालूम कितना समय बीता! निश्चय ही अहंकार को मिटाना लंबी यात्रा है; आर्डूअस है; तपश्चर्यापूर्ण है।

फिर वर्ष, वर्ष, वर्ष बीतने के बाद पता भी न रहा कि कितना समय बीता; वह प्रेमी वापस आया। द्वार खटखटाए। फिर वही आवाज भीतर से, कौन हो? लेकिन अब प्रेमी ने कहा, तू ही है। और रूमी कहता है, द्वार खुल गए। तू ही है–द्वार खुल गए। समर्पण हुआ। छोड़ा मैं को। प्रेम के द्वार खुले।

लेकिन शायद इस पृथ्वी के लिए तो ठीक है कि जिसे हम प्रेम करें, उसके सामने मैं को छोड़ दें और तू को मान लें, तो द्वार खुल जाएं। लेकिन रूमी तो अब कहीं खोजे से मिलेगा नहीं, अन्यथा उससे कहता कि अगर मेरा वश चले, तो कविता अभी भी पूरी नहीं करूंगा। कहलाता फिर भी मैं कि प्रेमी ने कहा, तू है, तो प्रेयसी ने कहा, लौट जाओ फिर, और कुछ दिन प्रतीक्षा करो। क्योंकि जब तक तू का खयाल है, तब तक मैं कहीं न कहीं छिपा ही होगा। तू का खयाल भी मैं के कहीं छिपे होने की खबर है; अन्यथा तू का भी पता नहीं चलता। अगर मैं होता, तो लौटा देता।

समर्पण अहंकार का पूर्ण विसर्जन है, इतना पूर्ण कि तू कहने की भी जगह न रह जाए। तू कहने की भी जगह न रह जाए। लेकिन दूर की हुई यह बात। पहले तो हम तू कहने के योग्य बनें; मैं को छोड़ें! फिर हम तू से भी मुक्त हों; तू को भी छोड़ें। तब, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, फिर कर्म का कोई भी बंधन नहीं है। फिर कर्म नहीं बांधते हैं। फिर व्यक्ति मुक्त ही है। फिर उसकी मुक्ति को कुछ भी नहीं छू पाता। फिर उसकी मुक्ति अग्नि जैसी है। कुछ भी फेंको कचरा उसमें, जलकर राख हो जाता है।

अग्नि निर्दोष, क्वांरी है वर्जिन बच जाती है पीछे। अग्नि सदा ही क्वांरी बच जाती है। अग्नि क्वांरी ही बच जाती है, उसका क्वांरापन अदभुत है। कुछ भी डालो उसमें, हो जाता है राख; अग्नि क्वांरी की क्वांरी वापस खड़ी हो जाती है–शुद्ध, ताजी।

जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता, वह अग्नि की तरह क्वांरा और ताजा और शुद्ध हो जाता है। प्रभु के साथ मिलकर एक, इतना शुद्ध हो जाता है, फिर कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं कर पाता है। इतना स्वतंत्र हो जाता है कि फिर कोई बंधन उसे बांध नहीं पाते हैं। इतना मुक्त कि फिर कोई कारागृह उसके लिए कारागृह नहीं बन सकता है।

तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।

छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। 42।।

इससे, हे भरतवंशी अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए हृदय में स्थित, इस अपने संशय को ज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके युद्ध के लिए खड़ा हो।

इसलिए हे अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग को पाकर, संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट डाल।

दो बातें हैं। एक, समत्वबुद्धिरूपी योग को, समता को उपलब्ध हो। समता का अर्थ है, निष्पक्षता को। समता का अर्थ है, तटस्थता को। समता का अर्थ है, दोनों के पार, दुई के पार, द्वैत के पार। समत्वबुद्धिरूपी योग को!

हमारी बुद्धि सदा असम्यक है। असम्यक बुद्धि का अर्थ है कि कभी इस तरफ डोल जाती है, कभी उस तरफ डोल जाती है। हमारी चाल ऐसी है, जैसे कभी नट को रस्सी पर चलते हुए देखा हो। देखा है, नट को रस्सी पर चलते हुए? हाथ में एक डंडा लिए रहता है। कभी बाएं डोलता, कभी दाएं डोलता। कभी बाएं, कभी दाएं। रस्सी पर चलता है; बाएं-दाएं डोलता है।

यह भी खयाल में ले लेना कि जब वह बाएं डोल रहा है, तो उसका मतलब आप जानते हैं कि बाएं क्यों डोलता है? बाएं इसलिए डोलता है कि जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह बाएं डोलता है बैलेंस करने को। जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है कि कहीं दाएं गिर न जाऊं, तो वह तत्काल बाएं डोलता है। जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह दाएं डोलता है।

हमारी बुद्धि नट जैसी है। रस्सी पर बारीक, कभी धर्म की तरफ डोलते, कभी अधर्म की तरफ; कभी हिंसा की तरफ, कभी अहिंसा की तरफ; कभी पदार्थ की तरफ, कभी परमात्मा की तरफ। लेकिन डोलते ही रहते हैं, समत्व को उपलब्ध नहीं होते। ऐसे नहीं, जैसे कोई व्यक्ति जमीन पर खड़ा है; डोलता ही नहीं–स्ट्रेट, सीधा। जैसे दीए की लौ ऐसे कमरे में हो, जहां के सब द्वार बंद हैं। हवा का कोई झोंका भीतर नहीं आता। ज्योति सीधी है; जरा भी कंपती नहीं; खड़ी है!

बुद्धि जब ऐसी खड़ी होती है, अन-डोली, अन-वेवरिंग, कंपनमुक्त, मध्य में; न बाएं, न दाएं; न इस पक्ष में, न उस पक्ष में; जब मध्य में, समत्व को, समता को, समाधि को बुद्धि उपलब्ध होती है, तब वह समत्व बुद्धि को उपलब्ध हुआ व्यक्ति ही इस जगत के जाल, झंझट, समस्याओं की गांठ को काट पाता है। अन्यथा वह खुद ही उलझ जाता है, अपने ही कंपन से उलझ जाता है। हम अपने ही कंपन से उलझते चले जाते हैं, चौबीस घंटे।

कभी अपने मन की इस असम्यक, असम अवस्था की परीक्षा करना, निरीक्षण करना। देखना सुबह से एक दिन सांझ तक कि मन कैसा डोलता है! कितना डोलता है!

सुना है मैंने, एक चर्च में सुबह रविवार के दिन लोग प्रार्थना, प्रवचन को इकट्ठे हुए हैं। एक आदमी घर से तय करके आया कि सौ रुपए आज दान करने हैं। सौ रुपए लेकर आया। लेकिन जब वह सीढ़ियां चढ़ रहा था, उसने कहा, एकदम पूरे सौ रुपए! लौटा। चर्च के पास की किसी दूकान से रुपए भंजाकर लाया। सोचा पचास ही काफी होंगे देने। फिर अपनी हैसियत भी सौ देने की कहां है? अभी थी, पंद्रह मिनट पहले!

भीतर पहुंचा। खयाल आया, पचास न भी दूं, कौन मुझे मजबूर कर रहा है? अपने ही हाथ से फंसता हूं। सोचा, दस से भी काम चल जाएगा। बड़ी राहत मिली। बोझ टल गया। अभी कुछ दिया नहीं था। सब भीतर चलता था। अभी किसी को पता भी नहीं था कि वह क्या कर रहा है। लेकिन दस देने हैं, इसलिए आगे की बेंच पर जाकर बैठा।

स्वभावतः, जिसके खीसे में दस का नोट है, वह पीछे कैसे बैठे! आगे बैठा। फिर दस देने भी हैं। तो अगर थोड़ा पीछे बैठे और जब बर्तन घूमे पैसा डालने का, तो कौन देखेगा? पादरी कम से कम देख तो ले कि दस का नोट डाला है!

फिर पादरी का प्रवचन शुरू हुआ। आधा प्रवचन चला था, तब उसे खयाल आया कि पांच डालने से भी काम चल सकता है। प्रवचन पचहत्तर प्रतिशत पूरा होने आया, तब उसे खयाल आया कि इस तरह के भावावेश में पड़ना नहीं चाहिए। हजार और काम हैं। एक रुपया डालूं। कौन कहता है कि ज्यादा डालो? एक रुपया भी क्या कम है!

जब बर्तन घूमने लगा, तब उसके मन में आया कि कई लोग नहीं डाल रहे हैं; अगर मैं भी न डालूं, तो हर्ज क्या है? जब बर्तन उसके सामने आया, उसने चारों तरफ देखा कि कोई भी नहीं देख रहा है, तो सोचा कि एक रुपया उठा लूं!

ऐसा मन है। ऐसा ही है, पूरे समय। खोजेंगे अपने मन को, तो ऐसा ही पाएंगे, नट रस्सी पर जितना कंपता है, उससे भी ज्यादा कंपता हुआ। ऐसे मन से संशय नहीं कट सकता। संशय तो कटेगा, समत्व होगा तब; समता होगी तब; बीच में कोई ठहरेगा तब; संतुलन होगा तब; बैलेंस होगा तब–तब कटेगा।

तो कृष्ण कहते हैं, समत्व बुद्धि को उपलब्ध हो और ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन!

ज्ञान सच में ही तलवार है। शायद वैसी कोई और तलवार नहीं है। क्योंकि जितना सूक्ष्म ज्ञान काटता है, उतना सूक्ष्म और कोई तलवार नहीं काटती।

अभी वैज्ञानिकों ने कुछ किरणें खोज निकाली हैं, जो बड़ी शीघ्रता से, तेजी से काटती हैं; डायमंड को भी काटती हैं। लेकिन फिर भी ज्ञान की तलवार की बारीकी ही और है। संशय को वे भी नहीं काट सकते; डायमंड को काट सकते होंगे।

संशय बहुत अदभुत है। गहरे से गहरे और बारीक से बारीक अस्त्र को भी बेकार छोड़ जाता है; कटता ही नहीं। सिर्फ ज्ञान से कटता है।

ज्ञान का अर्थ? ज्ञान का अर्थ है, समत्वबुद्धिरूपी योग। वही, जब बुद्धि सम होती है, तो ज्ञान का जन्म होता है। बुद्धि की समता का बिंदु ज्ञान के जन्म का क्षण है। जहां बुद्धि संतुलित होती है, वहीं ज्ञान जन्म जाता है। और जहां बुद्धि असंतुलित होती है, वहीं अज्ञान जन्म जाता है। जितनी असंतुलित बुद्धि, उतना घना अज्ञान। जितनी संतुलित बुद्धि, उतना गहरा ज्ञान। पूर्ण संतुलित बुद्धि, पूर्ण ज्ञान। पूर्ण असंतुलित बुद्धि, पूर्ण अज्ञान। पूर्ण असंतुलित बुद्धि होती है विक्षिप्त की, पागल की, इसलिए उसके संशय का कोई हिसाब ही नहीं है। पागल, विक्षिप्त का संशय पूर्ण है। अपने पर ही संशय करता है पागल।

अभी-अभी अमेरिका से एक युवती मेरे पास आई। छः साल पागलखाने में थी। उसने अपने हाथ की कलाइयां मुझे बताईं, दोनों कलाइयां बिलकुल कटी हुई। कई बार काटा उसने खुद ही। वही उसका पागलपन था, कलाई काट डालना! रेजर मिल जाए, कैंची मिल जाए, छुरा मिल जाए, सब्जी काटने की छुरी मिल जाए, कुछ भी मिल जाए, बस कलाई काटती।

मैंने उससे पूछा कि तुझे कलाई काटने का यह खयाल क्यों चढ़ा था? उसने कहा, खयाल! मुझे ऐसा लगता था कि अगर मेरे हाथ कहीं मेरी गर्दन दबा दें और मैं मर जाऊं। तो इनको काट डालूं। अपने ही हाथ पर संशय कि कहीं गर्दन न दबा दें!

विक्षिप्त इस स्थिति में पहुंच जाता है कि वह दूसरे पर संशय करता है, ऐसा नहीं; अपने पर भी संशय करता है। अपने पर भी!

विक्षिप्त का संशय पूर्ण हो जाता है, ज्ञान शून्य हो जाता है। विमुक्त का संशय शून्य हो जाता है, ज्ञान पूर्ण हो जाता है।

दो छोर हैं, विक्षिप्त और विमुक्त। और हम बीच में हैं, नट की तरह डोलते हुए। हम अपनी रस्सी पकड़े हुए हैं, कभी विक्षिप्त की तरफ डोलते, कभी विमुक्त की तरफ।

सुबह मंदिर जाते हैं, तो देखें चाल। फिर लौटकर बाजार जाते हैं, तब देखें अपनी चाल। सुबह जब मंदिर का घंटा बजाते हैं प्रभु को कहने को कि आ गया, मैं आया, तब देखें भाव। फिर उसी मंदिर से लौटकर भागते हैं दुकान की तरफ, तब देखें आंखें। तब बड़ी हैरानी होती है कि एक आदमी, इतना फर्क! वही बैठा है गंगा के किनारे तिलक-चंदन लगाए, पूजा-पाठ, प्रार्थना! वही बैठा है दफ्तर में; वही बैठा है नेता की कुर्सी पर, तब उसकी स्थिति!

एक ही आदमी सुबह से सांझ तक कितने चेहरे बदल लेता है! चेहरे बदलते हैं इसलिए कि भीतर बुद्धि बदल जाती है। करीब-करीब पारे की तरह है हमारी बुद्धि। वह जो थर्मामीटर में पारा होता है–ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे। लेकिन वह बेचारा तापमान की वजह से होता है! हम? हम तापमान की वजह से नहीं होते। हम अपनी ही वजह से होते हैं। क्योंकि हमारे पास ही कोई कृष्ण खड़ा है, कोई बुद्ध, कोई महावीर। उसका पारा जरा भी यहां-वहां नहीं होता; ठहरा ही रहता है; समत्व को उपलब्ध हो जाता है।

ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन। और मजा ऐसा है कि अगर अर्जुन इतना भी तय कर ले कि हां, मैं काटने को राजी हूं, तो कट गया। क्योंकि संशय तय नहीं करने देता। इतना भी तय कर ले…।

रामकृष्ण के जीवन का एक संस्मरण कहूं, तो खयाल में आ जाए। फिर आखिरी सूत्र ही है यह।

रामकृष्ण ने बहुत दिन तक काली की मूर्ति की, प्रतिमा की पूजा की। स्वभावतः, भक्त थे, भाव से भरे थे। प्रतिमा बाहर की फिर गैर-जरूरी हो गई। आंख बंद करते, प्रतिमा खड़ी हो जाती। पर रामकृष्ण का मन आकार से न भरा। जब तक निराकार न मिले, तब तक मन भरता भी नहीं है। फिर आकार वह देवता का ही क्यों न हो, आकार ही है। सीमा फिर वह देवी की ही क्यों न हो, सीमा ही है। निराकार के पहले तृप्ति नहीं है। फिर भटकाव शुरू हो गया।

एक साधु रुका था आश्रम में, दक्षिणेश्वर के मंदिर में, तोतापुरी। रामकृष्ण ने कहा, मुझे निराकार समाधि चाहिए। तोतापुरी ने कहा, तू ज्ञान की तलवार उठा और भीतर जब काली की प्रतिमा आए, तो दो टुकड़े कर दे।

रामकृष्ण ने कहा, क्या कहते हैं? काली की प्रतिमा और दो टुकड़े, और मैं? ऐसे अपशकुन के शब्द न बोलो। तोतापुरी ने कहा, जब तक वह प्रतिमा न गिरे आकार की, तब तक निराकार का प्रवेश नहीं है। तो रामकृष्ण बहुत रोए। काली से जाकर बहुत माफी मांगी कि यह आदमी कैसी बातें कहता है!

लेकिन फिर बात तो ठीक थी। फिर राजी हुए। पर बैठें; आंख बंद करें; आंसू बहने लगें; आनंदमग्न हो जाएं। आंखें खोलें; तोतापुरी कहें कि काटा? तो वे कहें, भूल ही गए! फिर कहने लगे, तलवार! तलवार कहां से लाऊं? वहां भीतर तलवार कहां? तोतापुरी ने कहा, ज्ञानरूपी तलवार। फिर वे कहने लगे कि बहुत खोजता हूं, कोई तलवार तो मिलती नहीं। तलवार कहां से लाऊं?

तो तोतापुरी ने कहा, यह मूर्ति कहां से ले आए हो? मूर्ति लाते वक्त अड़चन न हुई? भीतर मूर्ति ले गए पत्थर की और तलवार लाते वक्त अड़चन होती है? बैठो! एक कांच का टुकड़ा ले आया तोतापुरी और उसने कहा कि आंख तुम बंद करो। और जब मैं देखूंगा तुम्हारी आंख में आनंद के आंसू आए, समझूंगा कि आ गई मूर्ति, तभी मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट दूंगा। जब मैं काटूं, तब तुम हिम्मत से उठाकर तलवार मार देना मूर्ति में। जैसे मूर्ति ले आए हो, ऐसे तलवार भी ले आओ।

रोते रहे। तोतापुरी ने काट दिया माथा। हिम्मत की, तलवार उठाई, मूर्ति को मारा। मूर्ति दो टुकड़े होकर गिर गई भीतर। रामकृष्ण गहरी समाधि में खो गए। तीन दिन तक उठ न सके। लौटकर कहा, दि लास्ट बैरियर–आखिरी बाधा गिर गई। और मैं भी कैसा पागल कि कहता था, तलवार कहां से लाऊं? मारने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए कहता था कि कहां से लाऊं? मालूम तो था कि जब मूर्ति भीतर ला सकते हैं, तो तलवार क्यों नहीं ला सकते?

कृष्ण भी जो कह रहे हैं अर्जुन से कि तू उठाकर तलवार काट डाल संशय को, अगर अर्जुन कहे कि अच्छा मैं राजी काटने को, तो कट जाएगा संशय। सिर्फ इतना कहे कि मैं राजी। वह संशय वही तो नहीं कहने देता कि मैं राजी। वह फिर नए सवाल उठाएगा। गीता अभी आगे और भी चलेगी। वह नए सवाल उठाएगा।

आदमी का मन उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता है। आदमी का मन, फिर से कहता हूं, उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता है। आमतौर से जो लोग सवाल पूछते हैं, वे इसलिए नहीं कि उत्तर मिल जाए, बल्कि इसलिए कि कहीं उत्तर न मिल जाए; इसलिए सवाल पूछे चले जाओ!

अर्जुन पूछता चला जाएगा सवाल पर सवाल। उत्तर कृष्ण हजार बार दे चुके हैं इसके पहले भी, हजार बार देंगे इसके बाद भी; लेकिन अर्जुन सवाल उठाए चला जाता है। इसके पहले कि कृष्ण का उत्तर हो, वह नए सवाल खड़े कर देता है। सवाल पुराने ही हैं; नया कोई सवाल नहीं है। सवाल वही है; शब्द बदल जाते हैं; आकार बदल जाता है। कृष्ण के उत्तर भी नए नहीं हैं। उत्तर एक ही है। अगर अर्जुन कहता, मैं डाल-डाल, तो कृष्ण कहते, मैं पात-पात। ठीक, तुम उधर सवाल खड़ा करते हो, हम इधर जवाब देते हैं!

लेकिन अथक है कृष्ण का परिश्रम! इतना परिश्रम बहुत कम गुरुओं ने लिया है। अथक है परिश्रम! उत्तर मिल जाए अर्जुन को, इसकी चेष्टा सतत कृष्ण करते चले जाते हैं।

जो व्यक्ति भी ज्ञान की तलवार उठा ले–समत्व बुद्धि की–संशय को काट डाले, लास्ट बैरियर, संशय के साथ ही आखिरी बाधा गिर जाती है और वे द्वार खुल जाते हैं जो कि परमात्मा के हैं, आनंद के, मुक्ति के, परम शांति के, परम निर्वाण के हैं।

प्रश्न:

भगवान श्री, सवाल मेरे पास बिलकुल नहीं हैं, लेकिन फिर भी एक बड़ा सवाल है। इस अध्याय के आखिर में लिखा गया है, ओम तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुन संवादे ज्ञान कर्म संन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः। ज्ञान-कर्म-संन्यास योग इस अध्याय का नाम दिया गया है; अतः ज्ञान-कर्म-संन्यास योग पर कुछ कहें।

ज्ञान-कर्म-संन्यास, ऐसा इस अध्याय का नाम है। एक ओर ज्ञान, दूसरी ओर संन्यास, बीच में कर्म। ज्ञान-कर्म-संन्यास योग। ज्ञान हो, कर्म न खोए, और संन्यास फलित हो।

ज्ञान से कर्म हो, तो संन्यास फलित होता है। ज्ञानपूर्ण कर्म हो, तो अकर्म बन जाता है। ज्ञानपूर्ण भोग हो, तो त्याग बन जाता है। ज्ञानपूर्ण अंधकार भी प्रभात है।

ये तीन शब्द बड़े सूचक हैं।

एक ओर ज्ञान; प्रारंभ ज्ञान से; स्रोत ज्ञान से। बहे कर्म में, संसार में। पहुंचे संन्यास तक, परमात्मा में। वर्तुल पूरा हो जाए।

ज्ञान जब कर्म बनता है, तभी संन्यास है। अगर ज्ञान पलायन बन जाए, तो फिर संन्यास नहीं है। ज्ञान अगर पलायन बन जाए, तो संन्यास नहीं है। ऐसा कहें, ज्ञान-पलायन-संन्यास योग; तो इससे विपरीत होगा।

आमतौर से संन्यासी यही करता है, ज्ञान-पलायन-संन्यास। कृष्ण उलटा अर्जुन को कह रहे हैं। उलटा इसलिए, संन्यासी से उलटा। वह तो सीधा ही कह रहे हैं। संन्यासी उलटा है। पलायन नहीं, एस्केपिज्म नहीं।

कृष्ण का मूल संदेश इस अध्याय में अपलायन का, नो एस्केपिज्म; भागो मत, बदलो। पीठ मत फेरो, मुकाबला करो। अस्तित्व का सामना करो; भागो मत। लेकिन अज्ञानी भी करते हैं सामना, तब वे लिप्त हो जाते हैं, और भोगी हो जाते हैं। ज्ञानी भी करते हैं सामना; लेकिन तब वे लिप्त नहीं होते और संन्यास को उपलब्ध हो जाते हैं।

ज्ञानपूर्ण हो जाए कर्म, वही संन्यास है। जो भी करें, समत्व बुद्धि से हो, प्रभु समर्पित हो, संन्यास है। अज्ञान से किया गया अकर्म भी संन्यास नहीं, ज्ञान से किया गया कर्म भी संन्यास है। अज्ञान में कोई कुछ भी न करे, तो भी पाप लगता है। ज्ञान में सब कुछ करे, तो भी पाप नहीं है।

अदभुत है संदेश!

इन नौ दिनों में इस ज्ञान-कर्म-संन्यास योग की बहुत-बहुत पहलुओं से मैंने बात आपसे की है, इस आशा में कि जल्दी, शीघ्र ही आए वह क्षण कि उठे ज्ञान की तलवार, टूट जाए संशय; खुले द्वार प्रभु का, उस उपलब्धि का, जिसे पाए बिना हमारे पास कुछ भी नहीं है; जिसे पाए बिना हाथ अर्थी पर खाली लटके होंगे। रिक्त, व्यर्थ, खोकर प्रभु के सामने खड़े होंगे, तो मुंह दिखाने का भी उपाय न होगा।

नहीं; जा सकें संपदा के साथ प्रभु के समक्ष; चढ़ा सकें नैवेद्य जीवन में जो पाया है उसका, इस आशा में ये बातें कहीं।

मेरे प्रिय आत्मन्, इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

चले न जाएंगे, दस मिनट और बैठे रहें अपनी ही जगह। संन्यासी मंच पर आ जाएंगे सब, धुन चलेगी। इसीलिए आज संन्यासियों का आनंद आपमें बंट सके, तो उन्हें रोका है। वे रुकने को राजी न थे, उनके आनंद में कमी पड़ेगी, बैठकर ही उन्हें धुन में उतरना पड़ेगा। लेकिन बैठकर ही नाचें, नाचना आंतरिक है, बैठकर ही डोलें, बैठकर ही खो जाएं। संन्यासी मंच पर होंगे, वे धुन करेंगे, आप भी साथ दें। यह अंतिम समापन आप सबकी धुन के साथ समाप्त हो। कोई उठे न, इतनी देर बैठे रहे, अपनी जगह बैठ जाएं। कोई उठे न, ताली दें, स्वर में स्वर दें, डोलें, आंखें बंद कर लें। देखने की फिक्र छोड़ दें, ताकि आप भीतर देख सकें। एक दस मिनट धुन चलेगी फिर हम विदा हो जाएंगे।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–19

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संन्यास की घोषणा (अध्याय—5) प्रवचन—पहला

श्रीमद्भगवद्गीता (अथ पंचमोऽध्यायः)

अर्जुन उवाच

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।। 1।।

हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं, इसलिए इन दोनों में एक जो निश्चय किया हुआ कल्याणकारक होवे, उसको मेरे लिए कहिए।

मनुष्य का मन निरंतर ही आज्ञा चाहता है। मनुष्य का मन, कोई और तय कर दे, ऐसी आकांक्षा से भरा होता है। निर्णय करना संताप है; निर्णय करने में चिंता है; स्वयं ही विचार करना तपश्चर्या है। मनुष्य का मन चाहता है, निर्णय भी न करना पड़े। कुछ भी न करना पड़े। सत्य ऐसे ही उपलब्ध हो जाए, बिना थोड़े-से भी श्रम, विचार, तपश्चर्या के।

अर्जुन कृष्ण से कहता है, आपने कर्म-संन्यास की बात कही, आपने निष्काम कर्म की बात कही। लेकिन मुझे तो ऐसा सुनिश्चित मार्ग बता दें, जिसमें मैं आश्वस्त होकर चल सकूं।

इस संबंध में बहुत-सी बातें समझ लेने जैसी हैं। कृष्ण ने इस बीच जो भी बातें कहीं, वे अर्जुन को आदेश की तरह नहीं हैं; अर्जुन के सामने समस्याओं को खोलकर रख देने की कोशिश की है। जीवन के सारे रास्तों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है। अंतिम निर्णय अर्जुन के हाथ में ही छोड़ा है कि वह निर्णय करे, संकल्प करे, निष्पत्ति अर्जुन स्वयं ले।

इस जगत में जो श्रेष्ठतम गुरु हैं, वे सदा ही शिष्यों को निष्पत्ति देने से बचते हैं, कनक्लूजंस देने से बचते हैं। क्योंकि जो निष्पत्ति दी हुई होती है, उधार, बासी, मृत हो जाती है। जो निष्पत्ति, जो निष्कर्ष स्वयं लिया होता है, उसकी जड़ें स्वयं के प्राणों में होती हैं। जिस नतीजे पर व्यक्ति अपने ही चिंतन और खोज और शोध से पहुंचता है, वह निर्णय उसके व्यक्तित्व को रूपांतरित करने की क्षमता रखता है।

जो निर्णय बाहर से आते हैं–उधार, विजातीय–उनकी कोई जड़ें व्यक्ति की स्वयं की आत्मा में नहीं हो पाती हैं। उन पर कोई अनुसरण भी करे, तो भी वे आचरण की सतह ही निर्मित करती हैं, आत्मा नहीं बन पाती हैं। जैसे बाजार से फूल लाकर हमने गुलदस्ते में लगा लिए हों, ऐसे ही दूसरे से मिले निर्णय भी गुलदस्ते के फूल बन जाते हैं; लेकिन जमीन में उगे हुए फूल नहीं हैं–प्राणवान, जीवित, जमीन से रस को लेते हुए, सूरज से रोशनी को पीते हुए, हवाओं में नाचते हुए–जिंदा नहीं हैं।

लेकिन आदमी का मन इतने आलस्य से भरा है, इतने तमस से, इतनी लिथार्जी से कि भोजन भी यदि किया हुआ मिल जाए, तो हम करना पसंद नहीं करेंगे। भोजन भी पचाया हुआ हो, तो पचाने को हम राजी नहीं होंगे। लेकिन जिस दिन भोजन पचाया हुआ मिल जाएगा, उस दिन हम प्लास्टिक के आदमी होंगे, जिंदा आदमी नहीं। जिंदगी की सारी गहरी प्रक्रिया स्वयं ही पचाने में निर्भर है। वह चाहे भोजन को पचाकर खून बनाना हो और चाहे जीवन के अनुभव को पचाकर ज्ञान की निष्पत्ति लेना हो। वह चाहे जगत में चलना हो और चाहे परमात्मा में प्रवेश हो। जिस बात को हम आत्मसात करते हैं, जो हमारे ही श्रम से फलित होती है, वही हमारी है। शेष सब उधार है और ठीक समय पर बेकार सिद्ध होता है, काम में नहीं आता है।

लेकिन अर्जुन की आकांक्षा वही है जो सभी आदमियों की आकांक्षा है। वह कहता है, मुझे सुनिश्चित कह दें; उलझाव में न डालें। ऐसी सब बातें न कहें, जिनमें मुझे सोचना पड़े और तय करना पड़े। आप ही मुझे कह दें कि क्या ठीक है। जो बिलकुल ठीक हो, मुझे कह दें।

कृष्ण को भी आसान है यही कि जो बिलकुल ठीक है, वही कह दें। लेकिन जो आदमी ऐसी मांग कर रहा हो कि जो बिलकुल ठीक है, वही मुझे कह दें, उससे बिलकुल ठीक बात कहनी खतरनाक है। क्योंकि ठीक बात को पाकर वह सदा के लिए ही बचकाना, जुवेनाइल रह जाएगा। वह कभी मैच्योर और प्रौढ़ नहीं हो सकता है।

इसलिए वे गुरु खतरनाक हैं, जिनके नीचे शिष्य सदा ही बचकाने, अप्रौढ़ रह जाते हों। वे गुरु खतरनाक हैं, जो निष्कर्ष दे देते हों। ठीक गुरु तो समस्याएं देता है। ठीक गुरु तो प्रश्न देता है। निश्चित ही ऐसे प्रश्न, ऐसी समस्याएं, ऐसे उलझाव, जिनसे गुजरकर अगर व्यक्ति चलने का साहस और हिम्मत जुटाए, तो निष्कर्ष पर जरूर ही पहुंच सकता है।

लेकिन बंधे-बंधाए, रेडिमेड उत्तर इस पृथ्वी पर किसी भी श्रेष्ठतम व्यक्ति ने कभी भी नहीं दिए हैं।

अर्जुन कहता है, मुझे तो तैयार–आप जानते ही हैं, वही कह दें, जो ठीक है। मुझे उलझाएं मत। मैं वैसे ही बड़े संभ्रम में, वैसे ही बड़े संशय में हूं, वैसे ही बहुत अनिश्चय में डूबा हुआ हूं। इतनी बातें न करें कि मैं और उलझ जाऊं। मैं कनफ्यूज्ड हूं।

अर्जुन जानता है कि उलझा हुआ है। लेकिन उलझे हुए मन को सुलझा हुआ सत्य भी मिल जाए, तो उसे भी उलझा लेता है। सुंदरतम व्यक्ति को भी हम विकृत आईने के सामने खड़ा कर दें, तो आईना तत्काल उसे विकृत कर लेता है। श्रेष्ठतम चित्र को भी हम, आंखें कमजोर हों, बिगड़ गई हों, ऐसे आदमी के सामने रख दें, तो भी आंखें उस श्रेष्ठतम चित्र को कुरूप कर लेती हैं।

निश्चित ही कृष्ण सीधे निष्कर्ष की बात कह सकते हैं, लेकिन उलझा हुआ अर्जुन समझ कैसे पाएगा! अर्जुन उलझा हो, तो सुलझी हुई बात को भी उलझा लेगा। इसलिए कृष्ण को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अर्जुन का उलझाव हल हो, तो ही सुलझे हुए सत्यों को सुनने की क्षमता आ सकती है।

हम वही समझ पाते हैं, जो हम समझ सकते हैं। हम अपने से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझ पाते हैं। और हम वही अर्थ निकाल लेते हैं, जो हमारे भीतर पड़ा है। हम वही अर्थ नहीं निकाल पाते हैं, जो कृष्ण जैसा व्यक्ति बोलता है।

अर्जुन के साथ कृष्ण की वार्ता सीधी नहीं है, बहुत उलझी और पगडंडियों से भरी है, बहुत गोल चक्रों में घूमती हुई है। इस सारी गीता की चर्चा से कृष्ण अर्जुन को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। सुलझ जाए, तो वे उसे निष्कर्ष की बात भी कह सकें। लेकिन अर्जुन सुलझने की पीड़ा से भी नहीं गुजरना चाहता है।

सुलझने की पीड़ा भी प्रसव की पीड़ा है। स्वयं का बहुत कुछ काटना, गिराना, हटाना पड़ेगा। सबसे बड़ी कठिनाई तो यही होती है कि मैं उलझा हुआ हूं, इसे इसकी पूरी नग्नता में जानना पड़ेगा। और कोई भी व्यक्ति मानने को राजी नहीं होता कि कनफ्यूज्ड है। कोई भी व्यक्ति मानने को राजी नहीं होता कि उसका मन उलझा हुआ है। सभी लोग मानकर चलते हैं कि वे सुलझे हुए हैं। अपने को धोखा देने की कुशलता भी अदभुत है। हर आदमी यह मानकर चलता है कि मैं सुलझा हुआ हूं।

इस दुनिया की सारी उलझनें निन्यानबे प्रतिशत कम हो जाएं, अगर लोगों को यह पता चल जाए कि हम उलझे हुए हैं। लेकिन लोग बिलकुल आश्वस्त हैं। लोग बिलकुल आत्मविश्वास से भरे हैं कि हम सुलझे हुए लोग हैं। और सारी दुनिया इतने उलझाव में है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। ये उलझाव कहां से आते हैं? हम सब सुलझे हुए लोग! ये इतने उलझाव इस जमीन पर पैदा कैसे होते हैं? यदि हम सब सुलझे हुए हैं, तो जगत एक शांत और एक आनंद से भरी हुई जगह होनी चाहिए–स्वर्ग; लेकिन जगत है एक नर्क।

हम सब उलझे हुए हैं। और उलझाव और भी भयंकर है, क्योंकि प्रत्येक उलझा हुआ आदमी समझता है कि मैं सुलझा हुआ हूं। हर पागल समझता है कि पागल नहीं है। पागलखानों में ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है, जो समझता हो कि मैं पागल हूं। पागलखाने के बाहर मिल भी जाए; पागलखाने के भीतर नहीं मिल सकता।

तो अर्जुन को यह भी दिखा देना जरूरी है कि वह कितना उलझा हुआ है। कृष्ण की अब तक की बातचीत से अर्जुन को एक बात तो कम से कम दिखाई पड़नी शुरू हो गई कि वह उलझा हुआ है। शुरू में जब उसने बोलना शुरू किया था, तो ऐसा लगता था कि वह जानकर बोल रहा है। धर्म और शास्त्र और नीति और परंपरा, इन सब की बात कर रहा था। ऐसा लगता था कि वह जानकर बोल रहा है। अज्ञानी आदमी जितने जानते हुए बोलते मालूम पड़ते हैं, उतने ज्ञानी कभी बोलते हुए मालूम नहीं पड़ते हैं।

बर्ट्रेंड रसेल ने कहीं कहा है कि जितना कम जानने वाला आदमी हो, उतनी दृढ़ता से बोल सकता है; उतना डाग्मैटिक हो सकता है। जितना जानने वाला आदमी हो, उतना हेजीटेट करता है; झिझकता है। क्योंकि जितना ज्यादा जानता है, उतना ही पाता है कि जीवन अति दुरूह है, गहन पहेली है। जितना जानता है, उतना ही पाता है कि जानना आसान नहीं है। और जितना जानता है, उतना ही पाता है कि जानने को अनंत शेष है।

अज्ञानी बिलकुल दृढ़ता से बोल सकता है। इतना कम जानता है कि अज्ञान का भी उसे पता नहीं है।

अर्जुन ने जब प्रश्न उठाने शुरू किए थे, तो वह ऐसे आदमी के प्रश्न थे, जिसे उत्तर पहले से ही पता हैं। अगर कृष्ण से पूछता था, तो इसलिए कि तुम भी शायद जो मैं कहता हूं वही कहोगे, गवाही मेरी बनोगे!

कृष्ण से अर्जुन ने गवाही, विटनेस ही मांगी थी, कि आप भी कह दें कि जो मैं कहता हूं, ठीक है। कि यह युद्ध व्यर्थ है। कि यह धन और राज्य के लिए संघर्ष गलत है। कि सब छोड़कर चले जाना धर्म की पुरानी व्यवस्था है। कि हिंसा पाप है; कि अहिंसा में, समस्त हिंसा का त्याग करके चले जाने में गौरव है।

अर्जुन ने जब ये बातें कही थीं, तो आश्वस्त भाव से कही थीं कि कृष्ण भी समर्थन करेंगे। लेकिन कृष्ण ने उनका समर्थन नहीं किया। और अब अर्जुन इस स्थिति में नहीं है कि कह सके कि मैं जानता हूं। इतना उसे साफ हुआ है कि मैं उलझा हुआ हूं। मुझे कुछ पता नहीं है।

यह बहुत बड़ी घटना है। ज्ञान के मार्ग पर पहला चरण है। ज्ञान के मार्ग पर अज्ञान की दृढ़ता पिघल जाए, तो बहुत बड़ी उपलब्धि है। अज्ञान की मजबूती ढीली पड़ जाए, अज्ञान का आश्वासन डिग जाए–बड़ी उपलब्धि है।

अर्जुन इस जगह कृष्ण के द्वारा लाया जा सका है, जहां वह कहता है, मुझे कुछ पता नहीं है। यह बात कीमत की है। लेकिन तत्काल वह कहता है कि जो आपको पता हो, वह सीधा आप मुझे कह दें।

इतना तो अच्छा हुआ कि वह कहता है, मुझे कुछ पता नहीं है। लेकिन अब यह दूसरा खतरा उसके साथ जुड़ा है। अभी वह दूसरे से तैयार ज्ञान को पाने की आकांक्षा रखता है। वह भी उसकी भ्रांति है। कोई छोटा-मोटा गुरु होता कृष्ण की जगह, तो बहुत प्रसन्न होता और कहता कि यह जो मैं जानता हूं, तुझे दिए देता हूं। तेरा काम है कुल इतना कि मान ले चुपचाप और आचरण कर।

लेकिन कृष्ण उन मनोवैज्ञानिक गुरुओं में से एक हैं, जो जब तक कि पात्र पूरा तैयार न हो, जब तक कि क्षमता अर्जुन की इस योग्य न हो कि वह सत्य को समझने और सत्य को प्रतिध्वनित करने की स्थिति में आ जाए, तब तक वे अभी और कुछ बातें करेंगे, और भी मार्गों की।

अर्जुन के नीचे से उसके सारे आश्वासन की भूमि हट जानी चाहिए। और अर्जुन के मन से यह खयाल भी हट जाना चाहिए कि कोई दूसरा दे सकेगा। इतनी तैयारी होनी चाहिए कि मैं खोजूं, श्रम करूं; सत्य को मुफ्त में पाने की आकांक्षा न करूं।

इसलिए कृष्ण ने वे सब मार्ग, जिनसे मनुष्य सरलता को, सत्य को, सुलझाव को उपलब्ध हुआ है, उन सबको धीरे-धीरे खोलकर अर्जुन के सामने रखने का तय किया है। पर उसके मन की बात ठीक से आप समझ लेना, वह हम सबके मन की बात है।

हम भी चाहेंगे कि इतनी लंबी चर्चा की क्या जरूरत है? कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि सत्य क्या है। अर्जुन की स्थिति भी भलीभांति जानते हैं। अर्जुन के लिए क्या हितकर है, यह भी भलीभांति जानते हैं। तो दे ही क्यों नहीं देते!

कल ही मेरे पास कोई एक व्यक्ति आए और उन्होंने कहा कि मुझे कुछ सोचना-समझना नहीं है। मुझे तो आप बता दें। आप जानते हैं, तो मुझे बता दें। मैं उसे करने में लग जाऊं।

देखने में लगेगा कि बड़ी श्रद्धा की बात है। लेकिन जिस व्यक्ति को स्वयं श्रम करने की जरा भी श्रद्धा नहीं है, उसकी श्रद्धा बड़ी धोखे की है और झूठी है। जो इंचभर भी अंधेरे में, अनजान में, असुरक्षा में खोजने के लिए तैयार नहीं है; जो अज्ञात में नाव लेकर यात्रा पर निकलने के लिए साहस नहीं जुटा पाता; जो सदा दूसरे का सहारा खोजकर आंख बंद कर लेने के लिए आतुर है–ऐसे आदमी की यात्रा सत्य की तरफ कभी भी नहीं हो सकती है। निश्चित ही ऐसे व्यक्ति को भी गुरु मिल जाएंगे, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों का शोषण करने की बड़ी सुविधा है। उनका शोषण चल रहा है।

जो भी मांग की जाएगी, उसको सप्लाई करने वाले लोग सदा ही उपलब्ध हो जाते हैं। अगर आप मांगेंगे अंधापन, तो आपकी आंखें फोड़ने वाले लोग भी मिल जाएंगे। आप मांगेंगे बहरापन, तो आप पर कृपा करके आपको बहरा कर देने वाले लोग भी मिल जाएंगे। आप चाहेंगे कि मैं तो किसी का हाथ पकड़कर चलूं और अपना कोई भी श्रम न लगाना पड़े, तो ऐसे लोग भी आपको मिल जाएंगे, जो कहेंगे, यह रहा हाथ; पकड़ो और चलो!

लेकिन ध्यान रखना, जो भी ऐसा व्यक्ति आपको मिल जाएगा, वह व्यक्ति आपके ऊपर करुणा नहीं कर रहा है। क्योंकि करुणा सदा ही आपके पैर को सबल बनाती है, आपकी आंखों को मजबूत करती है, आपके बल को जगाती है। वह व्यक्ति आपका शोषण कर रहा है। और शोषण केवल वही कर सकता है, जो नहीं जानता है। इसलिए अंधे अक्सर अंधों को नेतृत्व करने के लिए मिल जाते हैं। सच तो यह है कि अंधों के बड़े समाज में आंख वाले आदमी को नेतृत्व करना अति कठिन है। अंधों का समाज, सजातीय अंधे को ही अपने आगे कर लेने को सदा उत्सुक रहता है।

कृष्ण वैसे गुरु नहीं हैं। वे अर्जुन को कुछ भी देने के लिए राजी नहीं हैं, जिसको पाने की क्षमता स्वयं अर्जुन में न हो। और अर्जुन में अगर उसे पा लेने की क्षमता हो, तो कृष्ण उसे देने को तैयार हो सकते हैं। फिर कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर एक व्यक्ति पाने के लिए तैयार है श्रम करने को, तो उसे सत्य की किरण दी भी जा सकती है।

यह बहुत मजे की और विरोधाभासी बात मालूम पड़ेगी। जिनकी क्षमता नहीं है, उन्हें दिया नहीं जा सकेगा; यद्यपि जिनकी क्षमता नहीं है, वे सदा भिखारी की तरह मांगते हैं। और जिनकी क्षमता है, उन्हें सदा दिया जा सकता है; यद्यपि जिनकी क्षमता है, वे कभी भी भिखारियों की तरह मांगते नहीं हैं। अब यह बड़ी उलटी बात है।

सत्य के द्वार पर जो भिखारी की तरह खड़ा होगा, वह खाली हाथ वापस लौटेगा। सत्य के द्वार पर तो जो सम्राट की तरह खड़ा होता है, उसे ही सत्य मिलता है।

अभी भी कृष्ण भिखारी को पा रहे हैं अर्जुन में। इस वचन में भी अर्जुन ने अपने भिखारी होने की ही घोषणा की है।

श्री भगवानुवाच

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।। 2।।

श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन! कर्मों का संन्यास और निष्काम कर्मयोग, ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं। परंतु दोनों में कर्मों के संन्यास से निष्काम कर्मयोग, साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।

कृष्ण ने कहा, कर्म-संन्यास और निष्काम कर्म दोनों ही परम श्रेय को उपलब्ध कराने के मार्ग हैं। पहले इसे समझें। फिर दूसरी बात उन्होंने कही, लेकिन फिर भी सुगम होने से निष्काम कर्म साधक के लिए ज्यादा कल्याणकर है।

कर्म-संन्यास का अर्थ है, जो करने का जगत है, जहां हम सुबह से सांझ, सांझ से सुबह करने में संलग्न हैं। कर रहे हैं, बिना इस बात को ठीक से जाने कि क्यों? किस लिए? बिना ठीक से समझे कि इस सब करने की निष्पत्ति और फल क्या है! बिना इस बात को विचारे कि अतीत में जो किया है, उससे हम कहां पहुंचे हैं!

समस्त कर्मों का रूप पानी पर खींची गई रेखाओं जैसा है। खींचते हैं, तब लगता है कि कुछ खिंचा। खींचते हैं, तब लगता है कि कुछ बना। लेकिन अंगुली आगे भी नहीं बढ़ पाती कि रेखाएं मिट जाती हैं, विदा हो जाती हैं।

जो भी हम कर रहे हैं, वह अस्तित्व में पानी पर खींची गई रेखाओं से ज्यादा कुछ भी निर्मित नहीं कर पाता है। हमसे पहले भी अरबों लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं। जिस जगह आप बैठे हैं, एक-एक आदमी जहां बैठा है, वहां कम से कम एक-एक आदमी की जगह में दस-दस आदमियों की कब्र बन चुकी है। वे सारे लोग ही विराट कर्म में लीन रहे हैं। उन सबके कर्मों का इकट्ठा जोड़ क्या है?

यदि आज आदमी का समाज समाप्त हो जाए, तो आकाश के तारों को कुछ भी खबर न रहेगी कि कितना विराट कर्म चला है! वृक्षों को कुछ भी पता न होगा कि कितना विराट कर्म उनके नीचे चला है! पक्षी हमारे कर्म के इतिहास की कोई कथा न कहेंगे। सूरज उगता रहेगा। सागर की लहरें तटों से टकराती रहेंगी।

आदमी समाप्त हो जाए, तो कोई दस लाख वर्ष की लंबी यात्रा में आदमी ने जो कर्म किए हैं, उनका जोड़ क्या होगा? जैसे एक आदमी समाप्त होता है, तो उसके कर्मों का सब जोड़ तिरोहित हो जाता है; ऐसे ही सारी मनुष्यता भी समाप्त हो जाए, तो सब कर्मों का जोड़ तिरोहित हो जाएगा। उसकी कहीं रेखा भी छूटकर न रह जाएगी।

कर्म-संन्यास इस समझ का नाम है कि कर्म पानी पर खींची गई रेखाओं की भांति हैं। तो व्यर्थ क्यों खींचो! जो मिट ही जाता है, उसे खींचो ही क्यों! जो टिकता ही नहीं, उसे बनाने के पागलपन में क्यों पड़ो! जो अंततः स्वप्न सिद्ध होता है, उसे सत्य मानकर क्षणभर भी क्यों जीओ!

रात सपना देखते हैं। सपने में तो सपना बहुत सच होता है, सच से भी ज्यादा सच होता है। कभी पता नहीं चलता। और बड़े मजे की बात है कि जिंदगी में कई बार, करोड़ बार सपना देखा है। रोज सुबह पाया कि गलत है। और हर रात फिर भूल जाता है मन। कितने सपने देखे रोज! आज रात जब लौटकर फिर सपना देखेंगे, तो सपने में मन को याद न रहेगा कि पहले भी सपने देखे थे और सुबह पाया था कि सपने हैं। आज रात फिर सपना देखेंगे इसी भ्रम में कि सच है। आदमी का मन कुछ सीखता है या नहीं सीखता है? इतने सपने देखने के बाद भी रोज जब दुबारा फिर सपना आता है, तो फिर सच मालूम होता है।

कर्म-संन्यास कहता है कि कितने जन्मों में कितने कर्म किए, लेकिन हर बार भूल जाते हैं! फिर नया जन्म, फिर नया सपना शुरू हो जाता है। जैसे कल का सपना आज के सपने में जरा भी बाधा नहीं डालता और याद नहीं दिलाता, कोई रिमेंबरेंस पैदा नहीं होती, कोई स्मृति नहीं आती कि कल भी सपना देखा था, पाया सुबह कि गलत है। आज फिर सपना देख रहा हूं, उसी भ्रम में, जैसा कल, जैसा परसों, जैसा जीवनभर देखा है। इसका मतलब हुआ, मन ने कुछ सीखा नहीं।

हैरानी होती है। इतने सपने देखकर भी मन इतना-सा भी नहीं सीख पाता कि सपने सच नहीं हैं। जब आता है सपना, सब सच हो जाता है।

कर्म-संन्यास कहता है, हर जन्म इसी तरह विस्मरण हो जाता है। जन्म को छोड़ दें, आज तक जिंदगी में जो किया है, उससे क्या हो गया है? कुछ भी नहीं हुआ। पानी पर खींची रेखाओं की तरह सब मिट गया है। लेकिन आज भी रेखाएं खींचे चले जा रहे हैं; कल भी रेखाएं खींचेंगे। मरते वक्त पाएंगे, सब खो गया। नए जन्म में फिर नई रेखाएं खींचना शुरू कर देंगे।

कर्म-संन्यास कर्म के सत्य के प्रति इस होश का नाम है कि कर्म से कुछ भी फलित नहीं होता है। कर्म एक खेल से ज्यादा नहीं है। तो जो प्रौढ़ हो जाएगा इस समझ से, वह कर्म के बाहर हो जाएगा। छोड़ देगा कर्म को। छोड़ देगा, कहना शायद ठीक नहीं है, कर्म छूट जाएंगे उससे।

जैसे बच्चा बड़ा हो गया। अब वह कंकड़-पत्थरों से नहीं खेलता। अब वह रेत पर मकान नहीं बनाता। अब वह गुड्डे और गुड़ियों का विवाह नहीं रचाता। अब उससे कोई कहता है कि पहले तो तुम बहुत रस लेते थे, अब तुमने क्यों छोड़ दिए गुड़ियों के खेल? क्यों तुम रेत पर मकान नहीं बनाते? क्यों तुम रंगीन कंकड़-पत्थर इकट्ठे नहीं करते? तो वह बच्चा यह नहीं कहता कि मैंने छोड़ दिया। वह कहता है, अब मैं बड़ा हो गया; वह सब छूट गया!

कर्म-संन्यास कर्म का त्याग नहीं, कर्म के प्रति इस सत्य का अनुभव है कि कर्म का जगत स्वप्न का जगत है। तब कर्म छूट जाता है।

कृष्ण कहते हैं, यह मार्ग भी श्रेयस्कर है। यह मार्ग भी मंगलदायी है। इस मार्ग से भी परम अनुभूति तक पहुंचा जाता है। पर कृष्ण कहते हैं, कठिन है यह मार्ग। दूसरे मार्ग को कृष्ण कहते हैं, सरल है निष्काम कर्म।

निष्काम कर्म में कर्म के ऊपर आग्रह नहीं है। निष्काम कर्म में कर्म के पीछे जो फलाकांक्षा है, उसको समझने का आग्रह है। कर्म-संन्यास में कर्म को समझने का आग्रह है कि कर्म ही व्यर्थ है। निष्काम कर्म में कर्म की जो फलाकांक्षा है, उसको समझने का आग्रह है कि फलाकांक्षा व्यर्थ है।

कृष्ण कहते हैं, कर्म चलता रहे, भेद नहीं पड़ता; फलाकांक्षा भर विसर्जित हो जाए। खेल चलता रहे; कोई हर्जा नहीं; लेकिन बच्चा यह जान ले कि खेल है। यह भी तभी जाना जा सकता है, जब फलाकांक्षा दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाती, इसकी प्रतीति हो जाए।

कर्म-संन्यास तब आता है, जब प्रतीति हो जाए कि कर्म स्वप्नवत है, ड्रीम लाइक है। निष्काम कर्म तब फलित होता है, जब ज्ञात हो जाए कि फलाकांक्षा दुख है।

लेकिन फलाकांक्षा होती सुख के लिए है। कोई आदमी दुख की आकांक्षा नहीं करता। आकांक्षा सभी सुख की करते हैं। और बड़े मजे की बात है कि जब मिलता है, तो सिर्फ दुख मिलता है–सभी को। आकांक्षा सदा सुख की, फल सदा दुख! दौड़ते हैं पाने को स्वर्ग, मंजिल आती है सदा नर्क की। सोचते हैं, लगेगा हाथ आनंद का अनुभव, हाथ सिर्फ दुख-स्वप्न, पीड़ा और संताप लगते हैं।

निष्काम कर्म तब फलित होता है, जब कोई फलाकांक्षा की इस ट्रिक, फलाकांक्षा के इस रहस्य को समझ लेता है कि फलाकांक्षा सदा भरोसा देती है सुख का, लेकिन जब भी हाथ में आता है पक्षी सुख का, तो दुख का सिद्ध होता है। लेकिन होशियारी है। होशियारी यह है कि जो हाथ में आ जाता है, फलाकांक्षा उससे हट जाती; और जो पक्षी हाथ में नहीं, उस पर लग जाती है। हाथ में सदा दुख होता, आकांक्षा सदा उन पक्षियों के साथ उड़ती रहती, जो हाथ में नहीं हैं। जब उनमें से कोई भी पक्षी हाथ में आता, तो दुख सिद्ध होता। लेकिन और पक्षी उड़ते रहते हैं आकाश में, आकांक्षा उनका पीछा करती रहती है।

इसलिए आकांक्षा की इस निरंतर स्टुपिडिटी, इस निरंतर मूढ़ता का कभी अनुभव नहीं हो पाता। हाथ में आए पक्षी को हम कभी नहीं सोचते कि कल इसे भी चाहा था। आज हम कुछ और चाहने लगते हैं।

जिंदगीभर आकांक्षाएं फलित होती हैं, पूरी होती हैं, लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि जो चाहा, वह मिला? जो चाहते हैं, वह कभी नहीं मिलता है। जो नहीं चाहते हैं, वह सदा मिलता है। लेकिन जो नहीं चाहते हैं, जब वह मिल जाता है, तो हम उसके दुख को फिर किसी नई चाह के सपने में भुला देते हैं, फिर नए सपने में हम डूब जाते हैं।

निष्काम कर्म का रहस्य है, फलाकांक्षा की इस तरकीब को ठीक से देख लेना कि मन सदा ही, जो नहीं है पास, उसको खोजता रहता है। और जो पास है, उसमें दुख भोगता रहता है। और कभी यह गणित नहीं बिठाया जाता कि कल यह भी मेरे पास नहीं था, तब मैंने इसमें सुख चाहा था। और आज जब मेरे पास है, तो मैं दुख भोग रहा हूं। वर्तमान सदा दुख, भविष्य सदा सुख बना रहता है।

जब तक ऐसा दिखाई पड़ेगा कि वर्तमान दुख है और भविष्य सुख है, तब तक निष्काम कर्म फलित नहीं हो सकता। निष्काम कर्म फलित होगा, जब यह वर्तमान और भविष्य की स्थिति बिलकुल उलटी हो जाए। वर्तमान सुख बन जाए।

जैसे ही वर्तमान सुख बनता है, भविष्य की आकांक्षा तिरोहित हो जाती है। भविष्य की आकांक्षा, भविष्य में सुख था, इसीलिए थी। वर्तमान में दुख है, इसलिए भविष्य में सुख को हम प्रोजेक्ट करते हैं। आज दुख है, तो कल की कामना करते हैं कि कल सुख मिलेगा। कल के सुख की कामना में आज के दुख को झेलने में जरूर ही सुविधा बनती है। अगर कल भी सुख न हो, तो आज को गुजारना मुश्किल हो जाए। जो लोग कारागृह में बंद हैं, वे कारागृह के बाहर जब मुक्त होंगे, उस खुले आकाश की आकांक्षा में कारागृह को बिता देते हैं।

मैंने तो सुना है कि एक कारागृह में एक नया कैदी आया। उसे तीस वर्ष की सजा हुई है। वह भीतर सींकचों के गया। एक कैदी और उस कमरे में बंद है। उसने उससे पूछा कि भाई, तुम्हारी सजा कितनी है? उसने कहा कि मैं तो काफी, दस वर्ष काट चुका। मुझे सिर्फ बीस वर्ष और रहना है। तो उसने कहा कि तुम दरवाजे के पास स्थान ले लो, मुझे दीवाल के पास, क्योंकि तुम्हें जल्दी जाना पड़ेगा। मैं तीस वर्ष रहूंगा; तुम्हें बीस वर्ष ही रहना है। उसने अपना बोरिया-बिस्तर उठाकर सींकचों के पास लगा लिया। जल्दी उसका वक्त आने वाला है। बीस साल बाद वह खुले आकाश के नीचे पहुंच जाएगा! बीस साल बाद की वह मुक्ति की संभावना, बीस साल के कारागृह को भी गुजार देगी।

रोज हम कल के लिए टाल देते हैं। आज को झेलने में सुविधा तो बन जाती है, लेकिन इससे जीवन की पहेली हल नहीं होती। कल फिर यही हाथ लगता है। फिर कल हम परसों के लिए सोचने लगते हैं। रोज यही होता है। हमें रोज जिंदगी पोस्टपोन करनी पड़ती है, कल के लिए स्थगित कर देनी पड़ती है। वह कल कभी नहीं आता। अंत में मौत आती है और कल का सिलसिला टूट जाता है।

इसलिए तो हम मौत से डरते हैं। मौत से हम न डरें, मौत से डर का असली कारण कल के सिलसिले का टूट जाना है। मौत कहती है कि आगे कल नहीं होगा, इसलिए मौत से इतना डर लगता है। क्योंकि हम जीए ही नहीं कभी, हम तो कल की आशा में जीए। और मौत कहती है, अब कल नहीं होगा। इसलिए मौत घबड़ाती है।

अन्यथा मौत में डर का कोई भी कारण नहीं है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि जिसे हम जानते नहीं, उससे डरने का कोई कारण नहीं है। कोई नहीं कह सकता कि मौत बुरी है। क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उसको बुरा कैसे कहें? कोई नहीं कह सकता है कि मौत दुख देती है, क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उसे हम दुख देने वाली कैसे कहें! अपरिचित के संबंध में कोई भी निर्णय तो कैसे लिया जा सकता है!

नहीं; लेकिन मौत से हम नहीं डरते। डरने का कारण बहुत और है। वह डर यह है कि हमने जिंदगी सदा कल पर टाली। जीए आज नहीं; कहा, कल जी लेंगे। आज तो झेल लो दुख। कल सुख आएगा; सब ठीक हो जाएगा। आज है अंधेरा, कल सूरज निकलेगा। आज हैं कांटे, कल फूल खिलेंगे। आज घृणा और क्रोध है जिंदगी में, तो कल प्रेम की वर्षा होगी। लेकिन मौत एक ऐसी घड़ी ला देती है कि कल का सिलसिला टूट जाता है; आज ही हाथ में रह जाता है। तब हम तड़फड़ाते हैं। तब हम घबड़ाते हैं। मौत का डर आज के साथ जीने का डर है, और आज हम कभी जीए नहीं।

निष्काम कर्म की धारणा कहती है कि कल पर जो जीवन को टाल रहा है अर्थात फल की आकांक्षा में जो जी रहा है, वह पागल है। कल कभी आता नहीं। जो है, आज है, अभी है। अभी को जीने की कला चाहिए। अभी को जीने की क्षमता चाहिए। अभी को जीने की कुशलता चाहिए।

कृष्ण तो उसी को योग कहते हैं–आज और अभी, हिअर एंड नाउ, इसी क्षण जीने की जो क्षमता है–वही। लेकिन जिसे इस क्षण जीना है, उसे फल की दृष्टि छोड़ देनी चाहिए। इस क्षण तो कर्म है। फल? फल सदा भविष्य में है, कर्म सदा वर्तमान में है। करना अभी है, होना कल है। किया अभी जाएगा, फल कल होगा। फल कभी वर्तमान में नहीं है।

फल को छोड़ दें। लेकिन फल को हम तभी छोड़ सकते हैं, जब फल विषाक्त सिद्ध हो। फल अगर अमृत का मालूम पड़े, तो छोड़ नहीं सकते हैं। और फल अमृत का मालूम पड़ता है। यद्यपि किसी को अमृत का फल कभी मिलता नहीं। धोखा सिद्ध होता है। लेकिन मालूम पड़ता है। इस प्रतीति से कैसे छुटकारा हो सके?

इस प्रतीति से छुटकारे का एक ही मार्ग है कि अपने अतीत में जितने फलों की आकांक्षा आपने की है, उन्हें फिर से पुनर्विचार कर लें। वे मिल गए आपको। जो पत्नी चाही थी, वह मिल गई; जो पति चाहा था, वह मिल गया। जो नौकरी चाही थी, वह मिल गई; जो मकान चाहा था, वह मिल गया। ऐसा आदमी तो खोजना मुश्किल है, जिसे ऐसा कुछ भी न मिला हो, जो उसने चाहा था; कुछ न कुछ तो मिल ही गया होगा। उतना अनुभव के लिए काफी है। लेकिन मिलकर क्या मिला?

एक मित्र हैं मेरे। बड़े उद्योगपति हैं। स्वभावतः, जैसा होना चाहिए, नींद नहीं आती है रात। मुझसे आकर एक दिन सुबह कहा कि न मुझे परमात्मा की तलाश है, न मुझे आत्मा से प्रयोजन है, न मैं कोई बड़ा मोक्ष और स्वर्ग चाहता हूं। मुझे सिर्फ नींद आ जाए, तो मैं आपका जीवनभर ऋणी रहूंगा। बस मुझे नींद का सूत्र मिल जाए। मैंने कहा, सच! नींद मिलने से सब मिल जाएगा? उन्होंने कहा, सब मिल जाएगा। मेरा जीवन बिलकुल ही नारकीय हो गया है। जो उन्होंने कहा था, वह पास में पड़े टेप पर मैंने रिकार्ड कर लिया था। मैंने कहा कि फिर दुबारा और कुछ तो मांगने नहीं आ जाइएगा? उन्होंने कहा कि कभी नहीं। सिर्फ धन्यवाद देने आऊंगा। नींद भर आ जाए।

उन्हें ध्यान के कुछ प्रयोग करवाए। पंद्रह दिन बाद वे आए। कहने लगे, नींद तो आ गई, लेकिन और कुछ नहीं मिला! कहने लगे, नींद आ गई, लेकिन और कुछ नहीं मिला। मैंने उनका जो टेप किया हुआ था वक्तव्य, उन्हें सुनवाया। कहा कि आप कहते थे, नींद मिल जाए, तो सब कुछ मिल जाए! अब आप कहते हैं, नींद मिल गई, और कुछ नहीं मिला। धन्यवाद तो दूर, आप तो कुछ मेरा कसूर बता रहे हैं! मुझसे कोई गलती हुई?

चौंके! सुना अपना वक्तव्य, तो चौंके। और उन्होंने कहा कि जब नींद नहीं आती थी, तब ऐसा ही लगता था कि नींद मिल जाए, तो सब मिल जाए। और अब ऐसा लगता है। अब मैं क्या करूं! उन्होंने कहा, इसमें असत्य नहीं है। तब ऐसा ही लगता था कि नींद मिल जाए, तो सब मिल जाए। और अब ऐसा ही लगता है कि नींद मिल गई, तो क्या मिल गया! तो मैंने कहा, अब आपका क्या खयाल है? अब आप क्या चाहते हैं? और मैं आपसे कहूंगा, अगर वह भी मिल गया, तो आप फिर यही तो नहीं कहेंगे?

परमात्मा आसानी से मिलता नहीं। नहीं तो आप जाकर उससे कहें कि आप मिल गए, और तो कुछ नहीं मिला! अब क्या करें? वह आसानी से मिलता नहीं, इसलिए यह मौका आता नहीं। इस संसार में सब चीजें मिल जाती हैं, इसलिए दिक्कत है।

असल में जो भी फल की आकांक्षा से जी रहा है, उसे परमात्मा भी मिल जाए, तो कुछ भी नहीं मिलेगा, क्योंकि फल की आकांक्षा भ्रांत स्वप्न है। जो फल की आकांक्षा के बिना जी रहा है, उसे कुछ भी न मिले, तो भी सब मिला हुआ है। उसे नींद की झपकी भी लग जाए, तो परम आनंद है। उसे रोटी का एक टुकड़ा भी मिल जाए, तो अमृत है। परमात्मा तो दूर। परमात्मा मिल जाए, तब तो उसकी खुशी का, उसके आनंद का, उसके अनुग्रह का कोई ठिकाना ही नहीं है। लेकिन परमात्मा की छोटी-सी कृपा भी मिल जाए, तो भी उसका अनुग्रह अनंत है। और जो आकांक्षा में जी रहा है फल की, उसे परमात्मा भी मिल जाए, तो वह उदास खड़े होकर यही कहेगा कि ठीक है; आप मिल गए, लेकिन कुछ मिला नहीं!

फल की आकांक्षा खाली ही करती है, भरती नहीं। इसलिए जिस समाज में जितने फल मिल जाएंगे, जितनी आकांक्षाएं तृप्त हो जाएंगी, उतनी एंप्टीनेस पैदा हो जाएगी। गरीब मुल्क कभी भी इतना खाली नहीं होता, जितना अमीर मुल्क खाली हो जाता है। गरीब आदमी कभी भी इतना मीनिंगलेस अनुभव नहीं करता, कि अर्थहीन है मेरी जिंदगी, बेकार है। रोज काम बना रहता है। कल कुछ पाने को है। अमीर आदमी को एकदम डिसइलूजनमेंट होता है। एकदम विभ्रम। सब टूट जाता है। जो चाहा था, सब मिल गया। अब एकदम से सारी चीज ठहर गई होती है। अब कहीं कोई गति नहीं मालूम होती है। कल, खतम हो गया। अमीर आदमी–उस आदमी को अमीर कह रहा हूं, जिसे सब मिल गया, जो उसने चाहा था–वह मरने पर पहुंच गया। अब उसके आगे मौत के सिवाय कुछ भी नहीं है। इसलिए दुनिया के जो यूटोपियंस हैं, जो कल्पनावादी हैं, जो कहते हैं, जमीन पर स्वर्ग ला देना है, अगर वे किसी दिन सफल हो गए, तो सारी मनुष्यता आत्महत्या कर लेगी। उसके बाद फिर जीने का कोई कारण नहीं रह जाएगा।

यह बड़े मजे की बात है कि गरीब और भूखे आदमी की जिंदगी में थोड़ा अर्थ मालूम पड़ता है। और न्यूयार्क में रहने वाला जो अरबपति है, उसकी जिंदगी में अर्थ नहीं मालूम पड़ता। आज अगर पश्चिम, विशेषकर अमेरिका के दार्शनिकों से पूछें, तो वे कहते हैं, एक ही सवाल है–मीनिंगलेसनेस, एंप्टीनेस। एक ही सवाल है कि जीवन रिक्त क्यों है? खाली क्यों है? भरा हुआ क्यों नहीं है? गरीब कौमों ने कभी नहीं पूछा कि जीवन रिक्त क्यों है! क्योंकि आकांक्षाएं जीवन को भरे रहती हैं। फल की इच्छा भरे रहती है।

अमीर कौमों की इच्छाएं करीब-करीब पूरी होने के आ जाती हैं। जो भी मिल सकता है, वह मिल गया। अच्छी से अच्छी कार दरवाजे पर खड़ी है। अच्छा से अच्छा मकान पीछे खड़ा है। तिजोरी में जितनी संपत्ति चाहिए, उससे ज्यादा भरी है। जो भी मिल सकता है, वह है। अब सब मिल गया, और लगता है, कुछ भी नहीं मिला।

निष्काम कर्म उस व्यक्ति को उपलब्ध होता है, जो फलाकांक्षा की इस व्यर्थता को अनुभव कर लेता है कि पाकर भी फल कुछ पाया नहीं जाता है। फल को पा लेना भी निष्फलता है, ऐसी जिसकी प्रतीति और समझ गहरी हो जाए, वह कर्म से नहीं भागेगा, कृष्ण कहते हैं, वह कर्म करता रहेगा। लेकिन तब कर्म उसे अभिनय से ज्यादा नहीं होगा।

कृष्ण कहते हैं, दूसरा मार्ग अर्जुन, सरल है।

इसमें एक बात आपसे कहना चाहूंगा कि यह कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि दूसरा मार्ग सरल है। यह विशेष रूप से अर्जुन से कही गई बात है। यह जरूरी नहीं है कि सबके लिए दूसरा मार्ग सरल हो। किसी के लिए पहला मार्ग भी सरल हो सकता है। इसलिए कोई इस खयाल में न पड़े कि यह बात सामान्य है। यह अर्जुन के लिए एड्रेस्ड है। अर्जुन के ढंग के जो व्यक्ति हैं, उनके लिए दूसरा मार्ग सरल है। यह भी खयाल में ले लें। क्योंकि यह जो चर्चा है, अर्जुन से सीधी है। यह सबसे नहीं है। सबसे कोई चर्चा होनी भी बहुत कठिन है।

किसी के लिए पहला मार्ग भी सरल हो सकता है। किस के लिए होगा? उस व्यक्ति के लिए पहला मार्ग सरल होगा, जिसके जीवन का प्रशिक्षण कर्म का न हो, जिसके जीवन का प्रशिक्षण स्वप्न का हो। जैसे एक कवि। एक कवि का सारा शिक्षण जो है जीवन की व्यवस्था का, वह स्वप्न का है।

एक चित्रकार। उसके जीवन की जो सारी व्यवस्था है, उसका जो प्रशिक्षण है, वह जैसे बड़ा हुआ है, वह स्वप्न का है। असल में जो जितना बड़ा स्वप्न देख सके, उतना ही बड़ा चित्रकार हो सकता है। जो जितना सपने में डूब सके, उतना बड़ा कवि हो सकता है।

एक संगीतज्ञ। वह ध्वनि में स्वप्नों को तैरा रहा है। वह ध्वनि के माध्यम से सपनों को रूपांतरित कर रहा है। उसकी सारी साधना स्वप्न को ध्वनि में रूपांतरित करने की है। वह सपने हवा में तैरा रहा है; हवा में उड़ा रहा है, सपनों को पंख दे रहा है।

अगर कृष्ण ने यह बात एक कवि से, एक संगीतज्ञ से, एक चित्रकार से कही होती, तो कृष्ण यह कभी नहीं कहते कि दूसरा मार्ग सरल है। पहला मार्ग सरल होता।

एक संगीतज्ञ को यह समझना सदा आसान है कि कर्म पानी पर खींची गई रेखाओं से खो जाते हैं। कितनी मेहनत से सितार पर जिंदगीभर वह श्रम करता है! लहूलुहान हो जाती हैं अंगुलियां। पत्थर हो जाते हैं हाथ। दिन-रात मेहनत करके जब वह संगीत पैदा कर पाता है, तो क्षणभर भी तो नहीं टिकता। सारा श्रम–संगीत–हवा में गया, और गया, और खो गया। इधर पैदा नहीं हुआ, वहां लीन हो गया।

तानसेन जैसे व्यक्ति को जिंदगीभर की साधना के बाद अगर कृष्ण यह बात कहें कि दूसरा मार्ग सरल है तानसेन! तानसेन की समझ में नहीं पड़ेगा। पहला मार्ग तत्काल समझ में पड़ जाएगा। जिंदगीभर जो की थी मेहनत, जो श्रम, वह कहां है? पानी पर भी लकीर देर से मिटती है, संगीत का स्वर तो और भी जल्दी खो जाता है!

गाए गीत! रवींद्रनाथ से कोई कहे कि दूसरा मार्ग सरल है, तो मुश्किल पड़ेगा समझना। रवींद्रनाथ को पहली बात समझ में आ सकती है, कि सब गाए गीत हवा में खो गए। कहीं कुछ बचा नहीं। सब खो जाता है।

लेकिन अर्जुन से बात बिलकुल ठीक है। अर्जुन के व्यक्तित्व के बिलकुल अनुकूल है। अर्जुन की सारी व्यवस्था जीवन की कर्म की है, स्वप्न की नहीं। और उसका कर्म ऐसा है, अगर वह किसी की छाती में छुरा भोंक दे, तो कर्म डेफिनिट हो जाता है; संगीत की तरह खो नहीं जाता। वह मुर्दा लाश सामने पड़ी रह जाती है; और वह छुरा सदा के लिए डेफिनिट हो जाता है। वह कृत्य स्थिर मालूम होता है। हालांकि जो और गहरा जानते हैं, वे कहते हैं, वहां भी कोई भेद नहीं है। लेकिन वह बहुत गहरे देखने की बात है।

अर्जुन की जो शिक्षा है, उस शिक्षा में कर्म जो है, वह बहुत कठोर और ठोस है। उसकी हिंसा की शिक्षा है। वह क्षत्रिय है। वह सैनिक है। वह मारना और मरना ही जानता है। यह किसी की गर्दन काट देना, सितार पर तार छेड़ देने जैसा नहीं है–साधारणतः। अंततः तो ऐसा ही है। अंततः तो सितार का तार टूट जाए, कि आदमी की गर्दन टूट जाए, अंततः अल्टिमेटली कोई फर्क नहीं है। पर इमीजिएटली, अभी तो बहुत फर्क है।

अर्जुन की जो जीवन की सारी की सारी बनावट है, वह कर्म की है, स्वप्न की नहीं है। सपने उसने कभी नहीं देखे; उसने कृत्य किए हैं। उसने कविताएं नहीं लिखी हैं; उसने हत्याएं की हैं। उसने तार पर संगीत नहीं उठाया; उसने तो धनुष पर बाण खींचे हैं। कर्मठ होना उसकी नियति है, उसकी डेस्टिनी है।

इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं, अर्जुन! मार्ग तो दोनों ही ठीक हैं, फिर भी दूसरा सरल है। यह अर्जुन से कही जा रही है बात कि दूसरा सरल है।

इसलिए जब भी गीता को पढ़ें, तो सदा यह देख लें कि आप अर्जुन के ढंग के आदमी हैं, तो यह बात ठीक है। अगर अर्जुन से विपरीत आदमी हैं, तो उलटा कर लें सूत्र को–पहली बात सरल है। और दो ही तरह के लोग हैं जगत में, स्वप्न में जीने वाले, और कर्म में जीने वाले। भीतर, इंट्रोवर्ट, अंतर्मुखी; और एक्सट्रोवर्ट, बहिर्मुखी।

अर्जुन बहिर्मुखी है। बाहर जी रहा है।

एक कवि का जीवन भीतरी होता है। बाहर तो कभी-कभी कुछ बुदबुदे आ जाते हैं। असली जीवन तो भीतर होता है। कभी कुछ बाहर फूट जाता है, प्रासांगिक–अनिवार्य नहीं है। अधिक कविताएं तो भीतर ही उठती हैं और खो जाती हैं। लाख कविताएं पैदा होती हैं रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति में, तो एक प्रकट हो पाती है। वह भी अधूरी, पंगु। वह भी कभी पूरी प्रकट नहीं हो पाती। उससे भी रवींद्रनाथ कभी तृप्त नहीं होते।

अंतर्मुखी आदमी के जीवन की धारा भीतर घूमती है; बाहर कर्म के जगत में उसके बहुत कम स्पर्श होते हैं। बहिर्मुखी व्यक्ति की जीवन-धारा भीतर होती ही नहीं; उसके जीवन की सारी धारा बाहर घूमती है–अंतर्संबंधों में, संघर्षों में। बाहर के जगत में उसकी छाप होती है। पानी पर नहीं, वह पत्थर पर लकीरें खींचता मालूम पड़ता है। हालांकि लंबे अर्से में पत्थर भी पानी हो जाते हैं। लेकिन प्राथमिक, आज, अभी, पत्थर पर खींची गई लकीर ठहरी हुई मालूम पड़ती है।

इसलिए इस शर्त को समझ लेना आप। कृष्ण का यह वक्तव्य कंडीशनल है, शर्त के साथ है; अर्जुन को दिया गया है। इसलिए उन्होंने दोनों बातें कह दी हैं। दोनों मार्ग से पहुंच जाते हैं अर्जुन! कर्म-संन्यास से भी–सब कर्मों को छोड़कर जो निर्जरा को उपलब्ध हो जाता है, जैसे कोई महावीर। सब कर्म छोड़कर! या निष्काम कर्म से–जैसे कोई जनक, सब कर्मों को करते हुए। लेकिन दूसरा मार्ग सरल है, सुगम है। यह अर्जुन को दृष्टि में रखकर दिया गया वक्तव्य है।

प्रश्न:

भगवान श्री, आप इस बात पर जोर देते हैं कि आजकल के संन्यासियों को सक्रिय व सकर्म संन्यास में ही जीना चाहिए और आप कर्म-संन्यास को समाज के लिए हानिप्रद बताते हैं। समाज को ध्यान में रखते हुए, कर्म-संन्यास और निष्काम कर्म पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।

जैसा मैंने कहा, व्यक्ति होते हैं अंतर्मुखी, बहिर्मुखी; वे जो भीतर जीते हैं, और वे जो बाहर जीते हैं। जैसे व्यक्ति अंतर्मुखी और बहिर्मुखी होते हैं, ऐसे ही युग भी अंतर्मुखी और बहिर्मुखी होते हैं। हमारा युग बहिर्मुखी युग है, एक्सट्रोवर्ट एज! उपनिषद के ऋषियों का युग अंतर्मुखी युग है, इंट्रोवर्ट एज।

मैंने कहा, जैसे व्यक्तियों में भेद होता है, ऐसे युगों में भी भेद होता है। युग के भेद का मतलब यह है कि अंतर्मुखी युग में ऐसा नहीं कि बहिर्मुखी लोग नहीं होते। अंतर्मुखी युग में भी बहिर्मुखी लोग होते हैं, लेकिन न्यून, प्रभावहीन। प्रभाव अंतर्मुखी लोगों का होता है। शिखर पर वे ही होते हैं। बहिर्मुखी युग में भी अंतर्मुखी लोग होते हैं, लेकिन न्यून और प्रभावहीन। शिखर पर बहिर्मुखी लोग होते हैं।

सोचें। उपनिषद के युग में लौटें एक क्षण को। तो गांव के भिखारी ब्राह्मण के चरण भी सम्राट छूता। क्यों? अंतर्मुखी शिखर पर था। सम्राट से ज्यादा बहिर्मुखी और कौन होगा? लेकिन गांव के भिखारी ब्राह्मण के चरण में भी सम्राट को सिर रखना पड़ता। शिखर पर! वह जो जीवन की लहर थी उस समय, अंतर्मुखी को शिखर पर लिए थी। नहीं था कुछ उसके पास, जिसकी बाहर से गणना की जा सके। न धन था, जो बाहर से गिना जा सके। न पद था, जो बाहर से समझा जा सके। न पदवी थी, जिसका बाहर से हिसाब बैठ सके। कोई कैलकुलेशन बाहर से नहीं हो सकता था, लेकिन भीतर कुछ था। और भीतर का मूल्य था। तो भिखारी के पैर में भी सम्राट को बैठ जाना पड़ता। सम्राट थे; नहीं थे, ऐसा नहीं। धनपति थे; नहीं थे, ऐसा नहीं। बाहर के जगत में सक्रिय लोग थे; नहीं थे, ऐसा नहीं। लेकिन अंतर्मुखी प्रमुख था; प्राधान्य था। उसके चरणों में ही सब झुक जाता। वह शिखर पर था।

आज हालत बिलकुल उलटी है। आज हालत, बिलकुल उलटी है; आज देश का साधु भी हो, तो दिल्ली के चक्कर लगाता है! अगर आज साधु को भी प्रतिष्ठा पानी है, तो किसी मंत्री से सत्संग साधना पड़ता है! मंत्री प्रतिष्ठित नहीं होते साधुओं से अब; अब साधु मंत्रियों से प्रतिष्ठित होते हैं!

सब साधुओं के शिष्यगण मंत्रियों का चक्कर लगाते हैं कि हमारे साधुजी के पास चलें। कोई मंत्री जाता नहीं; लाए जाते हैं। चेष्टाएं की जाती हैं। किसी तरह साधु के पास में बिठाकर मंत्री की तस्वीर उतरवा लें, तो भारी कृत्य हो जाता है! ऐसा नहीं कि साधु की, कीमत वह मंत्री की ही है। धर्म की सभा का भी उदघाटन हो, तो राजनेता चाहिए!

बहिर्मुखी युग है। जो बाहर से आंकी जा सकती है प्रतिष्ठा, उसकी ही कीमत है। भीतर का कोई मूल्य नहीं। कवि भी आदृत होगा, ज्ञानी भी आदृत होगा, तो वह बाहर से आंका जा सके, अन्यथा नहीं आदृत हो सकेगा। ऐसा नहीं है कि अंतर्मुखी लोग नहीं हैं, लेकिन अंतर्मुखी प्रभाव की धारा पर नहीं है। युग बहिर्मुखी है।

युग भी रूपांतरित होते हैं। जीवन में सब चीजें बदलती रहती हैं। हर चीज ऋतु के अनुसार बदलती रहती है। हर अंतर्मुखी युग के बाद बहिर्मुखी युग होता है। बहिर्मुखी के बाद अंतर्मुखी युग होता है।

मैं जानकर जोर देता हूं कि इस युग को ऐसे संन्यासी की जरूरत है, जो कर्म-संन्यास में नहीं, बल्कि निष्काम कर्म में आस्थावान हो।

आज के युग को ऐसे संन्यासी की जरूरत है, जो जीवन की प्रगाढ़ धारा के बीच खड़ा हो जाए। जो जीवन को छोड़कर न हटे, न भागे। इसका यह मतलब नहीं है कि जो अंतर्मुखी हैं, उनको भी मैं खींचकर कहूंगा कि वे भी जीवन की धारा में खड़े हो जाएं। नहीं; पर वे न के बराबर हैं। उन्हें खींचकर खड़ा करने की कोई भी जरूरत नहीं है। वे भी पहुंच सकते हैं अपने मार्ग से। लेकिन उनके मार्ग से युग नहीं पहुंच सकता है। वे पहुंच जाएंगे अपने मार्ग से प्रभु तक। वे जाएं अपनी यात्रा पर। लेकिन यह जो विराट आज का युग है, यह जो बाहर संलग्न, इस बाहर संलग्न युग की धारा को अगर धार्मिक बनाना हो, तो धर्म को अंतर्मुखी सीमाओं को तोड़कर कर्म के बहिर्मुखी जाल में पूरी तरह छा जाना होगा।

अगर हम कर्मठ संन्यासी पैदा कर सकें, तो ही इस युग को प्रभावित करेगा। अगर हम ऐसा संन्यासी पैदा कर सकें जिसका चिंतन, जिसका मनन और जिसका आचरण, जिसका समस्त जीवन कर्म के जगत को भी रूपांतरित करता हो, ट्रांसफार्म करता हो; जो आंतरिक क्रांति से ही नहीं गुजरता हो, जो बाहर जीवन को भी क्रांति का उदघोष करता हो, तो हम इस युग को धार्मिक बना पाएंगे। अन्यथा धर्म सिकुड़ जाएगा कुछ अंतर्मुखी लोगों की गुफाओं में; और ये बहिर्मुखी लोग अधर्म की तरफ बढ़ते चले जाएंगे।

इन बहिर्मुखी लोगों के लिए बहिर्मुखी संन्यास। और ऐसा नहीं कि बहिर्मुखी संन्यास से पहुंचा नहीं जा सकता है। बिलकुल पहुंचा जा सकता है।

कृष्ण ने अर्जुन से जो कहा, वैसी बात आज पूरे युग से कही जा सकती है, अधिक लोगों से कही जा सकती है। लेकिन फिर भी, जिनकी यात्रा अंतर्मुखता की है, उन्हें कोई कारण नहीं है कि वे खींचकर कर्म के जगत और जाल में आएं। उन्हें उनकी नियति से हटाने का कोई भी प्रयोजन नहीं है।

लेकिन यदि हम सोचते हों कि अंतर्मुखता ही धर्म है, इंट्रोवर्शन ही धर्म है, और कर्म त्याग करके ही कोई संन्यासी हो सकता है, तो हम इस जगत को धार्मिक बनाने में सफल न हो पाएंगे।

और ध्यान रहे, अगर यह हमारी पृथ्वी अधार्मिक रह गई, यह हमारा युग अधार्मिक से अधार्मिक होता चला गया, तो इसका जिम्मा अधार्मिक लोगों पर नहीं होगा, बल्कि उन धार्मिक लोगों पर होगा, जिन्होंने इस युग के योग्य धर्म की अवतारणा नहीं की; जो इस युग के योग्य धर्म को अवतरित नहीं कर पाए; जो इस युग के प्राणों को स्पर्श कर सके, ऐसे धर्म का उदघोष न दे सके; जो ऐसा संदेश और मैसेज न दे सके, जो इस युग की भाषा और इस युग के प्राणों को स्पंदित कर दे।

इसलिए मैं जोर देता हूं कि अब संन्यासी निष्कामकर्मी हो। यह जोर मेरा वैसा ही है, जैसा कृष्ण का जोर था, कंडीशनल है। यह जोर वैसा ही है, जैसा कृष्ण का जोर था अर्जुन से कि दूसरा मार्ग तेरे लिए सुगम है। पहले मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है। ठीक ऐसे ही मैं कहता हूं, इस युग के लिए, बीसवीं सदी के लिए निष्काम कर्म ही सुगम है, सरल है, मंगलदायी है। पहले मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है, लेकिन अब वह मार्ग इंडिविजुअल होगा। अब उसमें इक्के-दुक्के लोग जा सकेंगे। राजपथ अब उसका नहीं होगा; अब पगडंडी होगी। अब राजपथ पर तो बहिर्मुखता का संन्यास ही गति कर सकता है।

और बहिर्मुखी संन्यास में और अंतर्मुखी संन्यास में रूप का ही भेद है, अंतिम मंजिल का कोई भी नहीं। शरीर का भेद है, आत्मा का कोई भी नहीं। आकार का भेद है, निराकार निष्पत्ति में कोई भी अंतर नहीं है। युग के अनुकूल, युगधर्म!

संन्यासी अब करीब-करीब जंगल, पहाड़ और गुफा में उपयोगी नहीं है। अगर पहाड़, गुफा और जंगल संन्यासी जाए भी, तो सिर्फ इसीलिए कि वहां से तैयार होकर उसे लौट आना है यहीं बाजार में, क्योंकि अब जीवन की विराट धारा जंगल और पहाड़ पर नहीं है।

और वे युग गए, जब अंतर्मुखता का आदर था। तो बाजार में जो बैठा था, उसकी भी आंख जंगल की तरफ थी। बैठता था बाजार में, इरादे उसके भी जंगल जाने के थे। और नहीं जा पाता था, तो पीड़ित अनुभव करता था। और कभी-कभार जब मौका पाता था, तो किसी जंगल के वासी के पास चरणों में जाकर, सिर रखकर सांत्वना ले आता था। अब हालत उलटी है। अब वहां कोई नहीं जाएगा। वह कट गया रास्ता।

जैसे, मैं अभी एक गांव में ठहरा हुआ था। इंदौर के पास एक जगह है, मांडू। मैं हैरान हुआ। मैंने इतिहास की किताबों में पढ़ा था कि मांडू की आबादी कभी नौ लाख थी। ज्यादा दिन पहले नहीं, सात सौ साल पहले। मांडू पहुंचा, तो बस स्टैंड पर जो तख्ती लगी थी, उस पर लिखा था, नौ सौ सत्ताइस आबादी। सात सौ साल पहले नौ लाख की आबादी की बस्ती सात सौ साल के भीतर नौ सौ सत्ताइस की आबादी रह गई! नौ सौ! क्या हुआ इस मांडू को? जहां कभी नौ लाख लोग रहते थे, उस जमाने के बड़े से बड़े महानगरों में एक था। उस गांव की मस्जिद जाकर मैंने देखी, तो मस्जिद में दस हजार लोग एक साथ नमाज पढ़ सकें, इतनी बड़ी मस्जिद थी। धर्मशाला जाकर देखी, तो दस हजार लोग इकट्ठे ठहर सकें, इतनी-इतनी बड़ी धर्मशालाएं हैं। सब खंडहर! नौ लाख लोगों के खंडहर! नौ सौ आदमी रहते हैं अब। हो क्या गया!

मैंने पूछा कि बात क्या हो गई! इतना एकदम से परिवर्तन कैसे हुआ? पता चला कि आवागमन के मार्ग बदल गए! सात सौ साल पहले जब ऊंट ही आवागमन का बुनियादी साधन था, तो मांडू अड्डा था ऊंटों के गुजरने का। फिर ऊंट ही खो गए, वह मार्ग ही बदल गया। अब मांडू से कोई यात्री ही नहीं गुजरते, तो मांडू में जो बसे थे बाजार, वे उजड़ गए! बाजार उजड़ गए, तो मस्जिदें और मंदिर उजड़ गए। धर्मशालाओं में कौन ठहरेगा! वह सब समाप्त हो गया।

नौ लाख की आबादी तिरोहित हो गई स्वप्न की तरह, क्योंकि पास से जो जत्थे गुजरते थे व्यापारियों के, उन्होंने कहीं और से गुजरना शुरू कर दिया। उन्होंने नए वाहन चुन लिए।

पुरानी दुनिया के सारे बड़े नगर नदियों के किनारे बसे हैं, क्योंकि नदियां जीवन का साधन थीं। उतने पानी के बिना बड़े नगर नहीं बस सकते थे। अब नया कोई नगर नदी के किनारे बसे, न बसे, कोई भेद नहीं पड़ता। आज के जमाने के सारे बड़े नगर समुद्रों के किनारे बसे हैं। बहुत दिन तक बसे रहेंगे, इस भ्रम में रहने की कोई जरूरत नहीं है। कभी बंबई भी मांडू हो जाएगी। वह तो जैसे ही कम्युनिकेशन के साधन बदले कि सब बदल जाता है।

यह मैंने इसलिए कहा कि जिस तरह ये बाहर के यात्रा-पथ हैं, ऐसे ही अंतर के चेतना के भी यात्रा-पथ हैं। उपनिषद के जमाने में अंतर्मुखी व्यक्ति के पास से अधिक लोगों को गुजरने का मौका था। आज अंतर्मुखी के पास से अधिक लोग नहीं गुजरेंगे। पगडंडियां रह गईं, कभी कोई जाता है। अब तो बहिर्मुखी के पास से अधिक लोग गुजरेंगे। यात्रा-पथ बदल गया है।

विज्ञान ने, समृद्धि ने, संख्या ने, सभ्यता ने सब दिशाओं से बहिर्मुखता को इतना प्रबल कर दिया है कि धर्म अगर अंतर्मुखी होने की जिद्द करे, तो वह जिद्द महंगी पड़ेगी। वह जिद्द महंगी पड़ रही है। इसलिए जो धर्म अंतर्मुखी होने का ध्यान रखे हुए हैं, वे पिछड़ गए।

खयाल करें, हिंदू धर्म पृथ्वी पर पुराने से पुराना धर्म है। कहें कि जिसका पीछे कोई छोर नहीं मिलता; सनातन है। लेकिन पिछड़ गया। क्योंकि हिंदू धर्म के पास संन्यासी अभी भी अंतर्मुखी हैं। क्रिश्चियनिटी फैली सारे जगत में। कोई और कारण नहीं है। क्रिश्चियनिटी के पास जो उपदेशक हैं, वे बहिर्मुखी हैं। और कोई कारण नहीं है। आज सिर्फ कैथोलिक क्रिश्चियनिटी के पास बारह लाख संन्यासी हैं। सारे जगत में फैले हैं। कुछ बुरा नहीं है। क्रिश्चियनिटी फैल जाए, उससे कुछ हर्ज नहीं है। कोई वहां से पहुंचे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। कोई कहां से पहुंचे, इससे कोई भेद नहीं है। मैंने उदाहरण के लिए कहा।

मैं यह कह रहा हूं कि अगर अंतर्मुखी धर्म अपने को अंतर्मुखी रखने की जिद्द रखेंगे, तो सिकुड़ते चले जाएंगे। दुनिया वहां से नहीं गुजरती अब। दुनिया जहां से गुजरती है, धर्म को वहां खड़ा होना चाहिए। अब अगर मांडू में हम जाकर तीर्थ बना लेंगे, तो ठीक है; बन सकता है। लेकिन मांडू के तीर्थ से अब ज्यादा लोग नहीं गुजरेंगे। अब मांडू की मस्जिद में दस हजार लोग नमाज नहीं पढ़ सकते। नौ सौ की आबादी में दस पढ़ लें, तो बहुत।

अंतर्यात्रा का जो पथ है मनुष्य की चेतना का, वह बहिर्मुखी है आज। सदा रहेगा, ऐसा नहीं है। सौ वर्ष में स्थिति बदल जाएगी। हमेशा बदल जाती है। पीरियाडिकल है। जैसे रात के बाद दिन आता है, दिन के बाद रात आती है, ऐसे अंतर्मुखता के बाद बहिर्मुखता आती है, बहिर्मुखता के बाद अंतर्मुखता आती है।

लेकिन ध्यान रहे, अभी पूरब को अंतर्मुख होने में बहुत समय लगेगा, क्योंकि अभी पूरब पूरी तरह बहिर्मुखी नहीं हुआ। अभी यहां दिन ही नहीं हुआ, तो रात कैसे होगी? पश्चिम अब जल्दी ही अंतर्मुख हो जाएगा। अभी पूरब को तो बहिर्मुखता में से गुजरना पड़ेगा। पश्चिम अंतर्मुख हो जाएगा, क्योंकि बहिर्मुखता अपने पूरे शिखर पर आ गई। और हर चीज जब अपने शिखर पर आ जाती है, तो लौटना शुरू हो जाता है। जब फल पक जाते हैं, तो गिर जाते हैं। पकना मौत है।

पश्चिम अंतर्मुखी होगा, जल्दी। लेकिन पूरब तो अभी बहिर्मुखी होगा। और अभी तो पश्चिम भी बहिर्मुखी है। अभी तो और एकाध-दो कदम वह अपने शिखर पर उठा सकता है।

इसलिए मैं कहता हूं कि नव-संन्यास की मेरी जो धारणा है, वह बहिर्मुखी संन्यास की है; वह निष्काम कर्म वाले संन्यास की है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जो कर्म त्याग कर संन्यास की तरफ जाते हैं, मैं उनके विरोध में हूं। मेरी उनके लिए शुभकामना है। लेकिन वे पगडंडी पर हैं; राजपथ आज उनका नहीं है।

प्रश्न:

भगवान श्री, आप कहते हैं कि इस युग के लिए निष्कामकर्मी संन्यासी अधिक उपयोगी हैं। इस संदर्भ में कृपया यह बताएं कि निष्कामकर्मी गृहस्थ और निष्कामकर्मी संन्यासी में क्या अंतर होगा?

निष्कामकर्मी गृहस्थ और निष्कामकर्मी संन्यासी में क्या अंतर होगा? गहरे में कोई अंतर नहीं होगा। ऊपर से अंतर हो सकता है।

असल में गृहस्थ और संन्यासी का जो अंतर है, वह कर्म-संन्यास वाला अंतर है। गृहस्थ और संन्यासी का जो भेद है, वह कर्म-संन्यास के मार्ग का भेद है। गृहस्थ उसको कहता है कर्म-संन्यासी, जो कर्म में उलझा हुआ है। संन्यासी उसे कहता है, जिसने कर्म छोड़ दिया।

निष्कामकर्मी संन्यासी के लिए गृहस्थ और संन्यासी में गहरे में कोई भेद नहीं है। ऊपर से भेद हो सकता है; गौण, घोषणा का; इससे ज्यादा नहीं। गृहस्थ अगर पूर्ण निष्काम से जी रहा है, तो संन्यासी है–अघोषित। उसने घोषणा नहीं की है। उसने जाहिर नहीं किया है कि मैं संन्यासी हूं। वह चुपचाप, मौन, संन्यास में जी रहा है। उसका संन्यास उसकी निजी आंतरिक धारणा है, सामाजिक व्यवस्था नहीं।

निष्कामकर्मी संन्यासी घोषणा करके जी रहा है कि मैं संन्यासी हूं। उसकी संन्यास की व्यवस्था भीतर तक, निज तक सीमित नहीं है। औरों तक भी उसने खबर कर दी है। इससे ज्यादा भेद नहीं है। निष्काम कर्म संन्यास में गृहस्थ और संन्यासी में कोई भेद नहीं है। हां, उस गृहस्थ में तो भेद है, जो सकामी है। लेकिन निष्कामकर्मी गृहस्थ में और निष्कामकर्मी संन्यासी में कोई भेद नहीं है; घोषणा का भेद है।

एक व्यक्ति ने अपने पुराने ही वस्त्र पहन रखे हैं, अपना नाम नहीं बदला है, घोषणा नहीं की है, जगत के सामने डिक्लेरेशन नहीं किया है कि मैं संन्यासी हूं। लेकिन निष्काम से जी रहा है, तो संन्यासी है। लेकिन उसके संन्यास का लाभ उसके लिए ही होगा। घोषणा के बाद उसका लाभ औरों के लिए भी हो सकता है। घोषणा के बाद उसका कमिटमेंट भी है, जिसमें वह अपने को धोखा देना कठिन पाएगा। जिसने घोषणा नहीं की है, वह अपने को धोखा देना आसान पाएगा।

एक व्यक्ति ने घोषणा कर दी है बाजार में खड़े होकर कि अब मैं संन्यासी हूं। दुकान पर बैठकर उसे चोरी करने में कठिनाई होगी। शराबखाने के सामने खड़े होने में झिझक आएगी। उसका कमिटमेंट है, उसका डिक्लेरेशन है। लोग जानते हैं, वह संन्यासी है। उसके गैरिक वस्त्र हैं।

अभी पूना में एक मित्र संन्यास लेने आए। उन्होंने कहा, मैं संन्यास तो लेना चाहता हूं, लेकिन मैं शराब की दुकान पर शराब बेचने का काम करता हूं। तो मैं संन्यास ले लूं? गेरुए वस्त्र पहनकर शराब बेचूंगा! मैंने कहा, शराब पीते तो नहीं हो? उसने कहा, शराब पीता नहीं हूं। मैंने कहा, तुम बेफिक्री से जाओ और ले लो। क्योंकि असली सवाल शराब पीने का है। उसने कहा, लेकिन आप मुझे मुश्किल में डाल रहे हैं! मैंने कहा, घोषणा करना संन्यास की मुश्किल में पड़ना है। पर इतनी मुश्किल उठाने की हिम्मत होनी चाहिए।

दूसरे दिन वह आया और उसने कहा कि मैंने नौकरी छोड़ दी है। इसलिए नहीं; लेकिन अब गैरिक वस्त्र पहनकर इन हाथों से किसी को शराब दूं, तो जहर देना है।

यह घोषणा का अंतर है। वह भीतर से संन्यासी रह सकता था; कोई कठिनाई न थी। शराब बेच सकता था, कर्तव्य की तरह, नौकरी की तरह, कोई प्रयोजन न था। चुपचाप लौटकर आ जाता, ध्यान करता, प्रार्थना करता, पूजा करता, प्रभु को स्मरण करता, अपने भीतर जीता रहता; शराब बेचता रहता। लेकिन तब समाज को उससे फायदा न हो पाता। उसकी घोषणा उसका कमिटमेंट है।

और एक बड़े मजे की बात है कि जब तक हम विचार को भीतर रखते हैं, तब तक विचार सदा आकाश में होता है। जब हम उसे बाहर प्रकट कर देते हैं, तो उसकी जमीन में जड़ें चली जाती हैं। अगर आपने संन्यास का खयाल भीतर रखा, तो वह हमेशा हवाई होगा। उसकी जड़ें नहीं होंगी। आपने घोषणा कर दी; उसकी जड़ें जमीन में गड़ जाएंगी। और हर चीज रोकने लगेगी–हर चीज!

एक आदमी बाजार सामान खरीदने जाता है, गांठ लगा लेता है कपड़े में। अब गांठ से कहीं सामान लाने का कोई भी संबंध है! लेकिन वह गांठ उसे दिनभर याद दिलाती रहती है कि गांठ लगी है, सामान ले जाना है। वह जब भी दिन में गांठ दिखाई पड़ती है, खयाल आता है, सामान ले जाना है।

मैंने सुना है कि एक संन्यासी को एक बार एक दुकानदार ने नौकरी पर रख लिया। संन्यासी से उसने कहा भी कि दुकान है, नौकरी पर रहोगे, कहीं ऐसा न हो कि बिगड़ जाओ। संन्यासी ने कहा, बिगड़ने का डर होता, तो नौकरी स्वीकार न करते। इतने सस्ते में संन्यास न खोते। रहेंगे। लेकिन ध्यान रखना, मेरे साथ आप भी बिगड़ सकते हो। वह सेठ हंसा; अपनी पूरी चालाकी में हंसा। उसने कहा, फिक्र छोड़ो। हम काफी होशियार हैं।

इस दुनिया में होशियार आदमी से ज्यादा नासमझ आदमी खोजने मुश्किल हैं। बहुत होशियार!

संन्यासी दुकान पर बैठने लगा। दिन में पच्चीस दफे उस व्यवसायी को उसके गेरुए वस्त्र दिखाई पड़ते। पच्चीस बार उसके मन में होता, यह आनंद! पता नहीं क्या! क्या इसे मिला है, पता नहीं! जब भी नजर जाती, उसे वह खयाल आता। सालभर बीत गया, तो संन्यासी ने कहा कि अब अगले वर्ष मेरा इरादा तीर्थयात्रा पर जाने का है। आप भी चलें! लालच उसे भी लगा, कि चलो हर्ज नहीं है, हो आऊं। पर उस व्यवसायी ने कहा कि तैयारी क्या करनी होगी? उसने कहा, कोई ज्यादा तैयारी नहीं करनी होगी। जो तैयारी करनी है, मैं करवाता रहूंगा।

सालभर में वह संन्यासी परिचित हो गया था सेठ की चालबाजियों से, दुकानदारी की बेईमानियों से, धोखाधड़ियों से। जब भी सेठ कुछ कम चीज तौलने लगता, तब वह संन्यासी कहता, राम! तीर्थयात्रा पर चलना है। वह सेठ घबड़ा जाता। यह बड़ा मुश्किल हो गया! वह कभी कुछ ज्यादा दाम किसी को बताने लगता किसी चीज का, और वह कहता, ओम! तीर्थयात्रा पर चलना है। वह तो घबड़ा जाता।

सालभर वह चोरी न कर पाया। सालभर वह बेईमानी न कर पाया। जब वे तीर्थयात्रा पर चलने लगे, तो उस संन्यासी से उसने कहा कि लेकिन तीर्थ तो पूरा हो गया! मैं पवित्र हो गया। स्नान हो गया। पर तूने भी खूब किया! तीर्थयात्रा के बहाने सालभर एक स्मृति का तीर–तीर्थयात्रा पर चलना है! और जब तीर्थयात्रा पर जाना है, तो चोरी तो मत करो। चोरी करोगे, तो जाना बेकार है। जाकर भी क्या करोगे!

बाहर की घोषणा आपके ऊपर एक रिमेंबरिंग की गांठ बन जाती है, एक चुभता हुआ तीर बन जाती है, जो छिदता रहता है। और जिंदगी बड़ी छोटी-छोटी चीजों से निर्मित है। इसलिए संन्यासी में और गृहस्थ में, जहां तक निष्काम कर्मयोग का संबंध है, भीतर से कोई भेद नहीं, बाहर से भेद है।

गृहस्थ निष्कामकर्मी, अघोषित संन्यासी है; निष्कामकर्मी संन्यासी, घोषित संन्यासी है। उसने जगत के सामने घोषणा कर दी है। और बहुत आश्चर्य की बात है कि बहुत बार घोषणा करते ही हम मजबूत हो जाते हैं। सच तो यह है कि घोषणा करते ही इसलिए नहीं, कि भीतर डर लगता है, कि कमजोर हैं। करें, न करें? घोषणा करने के लिए जो बल जुटाना पड़ता है भीतर, वही घोषणा के साथ प्रकट होते से और गहरे बल में ले जाता है। और एक बार एक बात की घोषणा हो जाए, तो हमारा एक कमिटमेंट, हमारा विचार कृत्य बन गया। और इस जगत में विचार में धोखा देना आसान, कृत्य में धोखा देना थोड़ा कठिन है। बस, इतना ही फर्क है।

अभी पांच मिनट आप रुकेंगे। पांच मिनट ये जो हमारे निष्काम संन्यासी हैं, ये कीर्तन करेंगे। पांच मिनट आप बैठे रहेंगे और कीर्तन के बाद हम विदा होंगे। शेष कल आपसे बात करेंगे। पांच मिनट बैठे रहें। उनके कीर्तन में आप भी आनंद लें और ताली बजाएं।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--2 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–25

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दर्शन, ज्ञान, चरित्र—और मोक्ष—प्रवचन—पच्‍चीसवां

सूत्र:

नाणेण जाणई भावे, दंसणेण या सद्दहे।

चरित्‍तेणे निगिण्‍हाई, तवेण परिसुज्‍झई।। 62।।

नादंसणिस्‍स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरण गुणा।

अगुणिस्‍स नत्‍थि मोक्‍खो, नत्‍थि अमोक्‍खरस निव्‍वाणं।। 63।।

हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्‍णाणओ किया।

पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ।। 64।।

संजोअसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्‍केण रहो पयाइ।

अंधो य पंगु य वणे समिच्‍चा, ते संपडत्‍ता नगरंपविट्टा।। 65।।

नाणेण जाणई भावे–ज्ञान से मनुष्य जानता है।

दंसणेण य सद्दहे–दर्शन से श्रद्धा उत्पन्न होती है।

चरित्तेण निगिण्हाइ–चरित्र से निरोध होता है, निषेध होता है।

तवेण परिसुज्झई–और तप से मनुष्य विशुद्ध होता है।

ज्ञान से हम जानते हैं। लेकिन जानना काफी नहीं है। जानना बहुत ऊपर-ऊपर है। मात्र जान लेने से श्रद्धा पैदा नहीं होती। जब तक कि स्वयं दर्शन न हो जाये, जब तक कि खुद की आंखों से हम न देख लें–तब तक श्रद्धा नहीं होती।

महावीर ने देखा; हमने सुना। जो सुनकर जान लिया, उससे श्रद्धा पैदा नहीं होगी। कृष्ण ने कहा; हमने सुना। मान लिया सुनकर। उससे श्रद्धा पैदा नहीं होगी। और अगर तुमने श्रद्धा किसी भांति आरोपित कर ली तो तुम भटक जाओगे। क्योंकि झूठी श्रद्धा जीवन को रूपांतरित नहीं करती। वही लक्षण है झूठी श्रद्धा का, कि जीवन तो कहीं और जाता है, श्रद्धा कुछ और कहती है। श्रद्धा कहती है, त्याग; और जीवन धन को इकट्ठा करता चला जाता है। तो श्रद्धा झूठी है, मिथ्या है।

जब जीवन और श्रद्धा साथ-साथ चलने लगे, जब जीवन श्रद्धा के पीछे छाया की भांति चलने लगे, तभी जानना की श्रद्धा सच्ची है।

तो महावीर कहते हैं, श्रद्धा मौलिक है। श्रद्धा से जो ज्ञान आविर्भूत हो, वही ज्ञान है। और जब श्रद्धा से ज्ञान आविर्भूत होगा तो ज्ञान से चारित्र्य अपने-आप निष्पन्न होता है।

जीवन का आधार ज्ञान पर मत रखना–दृष्टि पर, दर्शन पर रखना। अधिक लोगों ने जीवन के आधार ज्ञान पर रख लिए हैं। तर्क से, विचार से, बुद्धि से जो बात ठीक लगी है–सोचा, उसे स्वीकार कर लें। लेकिन जो तर्क से ठीक लगा है वह हृदय तक न जा सकेगा, क्योंकि तर्क की पहुंच हृदय तक नहीं। तर्क तो सिर्फ खोपड़ी की खुजलाहट है; बहुत ऊपर-ऊपर है। प्राणों को आंदोलित नहीं करता तर्क।

तर्क के लिए कभी किसी ने प्राण दिये? तर्क के लिए कभी कोई शहीद हुआ? तुम जिसके लिए मर सको, वही तुम्हारी श्रद्धा है। तुम जिसके बिना जी न सको, वही तुम्हारी श्रद्धा है। तुम कहो जीयेंगे तो इसके साथ, इसके बिना तो मृत्यु हो जायेगी–वही श्रद्धा है। जो जीवन से भी बड़ी है, वही श्रद्धा है। जिसके लिए जीवन भी निछावर किया जा सकता है, वही श्रद्धा है।

तर्क के लिए तुमने कभी किसी को जीवन निछावर करते देखा? दो और दो चार होते हैं–इस सत्य का अगर कोई प्रतिपादन करता हो और तुम तलवार लेकर खड़े हो जाओ, तो क्या वह सत्य की रक्षा के लिए अपने जीवन को देना चाहेगा? मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ेगा।

दो और दो चार होते हैं, इसके लिए मरने में कोई सार न मालूम होगा। वह कहेगा कि तुम्हारी मर्जी, दो और दो पांच कर लो कि दो और दो तीन कर लो; लेकिन दो और दो चार कोई ऐसी बात नहीं जिसके लिए मैं जीवन को गंवा दूं।

प्रेम के लिए कोई जीवन को गंवा सकता है। इसलिए श्रद्धा प्रेम की भांति है। महावीर कहते हैं, श्रद्धा पर जीवन को खड़ा करना। महावीर की श्रद्धा को समझ लेना। उनका विशेष शब्द है: श्रद्धान। यह तुम जिसे साधारणतः श्रद्धा कहते हो उससे महावीर का कोई प्रयोजन नहीं है। लोग कहते हैं, हमारी तो ईश्वर में बड़ी श्रद्धा है। जिसे तुमने देखा नहीं, श्रद्धा होगी कैसे? श्रद्धा कान से नहीं होती, श्रद्धा आंख से होती है।

इसलिए श्रद्धा का दूसरा नाम महावीर “दर्शन’ कहते हैं। श्रद्धा और दर्शन महावीर की भाषा में पर्यायवाची हैं; एक ही अर्थ रखते हैं, उनमें जरा भी फर्क नहीं है।

इसलिए तुम कहते हो, ईश्वर में हमारी श्रद्धा है। देखा? अनुभव किया? स्पर्श हुआ? जीये उसमें? तुम्हारा हृदय उसके साथ धड़का? तुम नाचे उसके साथ? कोई पहचान है? नहीं, तुम कहते हो मान्यता है। और लोग कहते हैं, बड़े बुजुर्ग कहते हैं, सनातन से चली आयी बात, परंपरा में है। लेकिन इससे श्रद्धा पैदा न होगी। यह तुम्हारा विश्वास है, श्रद्धा नहीं।

विश्वास और श्रद्धा का भेद यही है। विश्वास उधार; श्रद्धा अपनी। श्रद्धा होती है निज की, विश्वास ऐसा है जैसे बाजार से खरीद लाए कागज या प्लास्टिक के फूल और घर को सजा लिया। श्रद्धा ऐसे है जैसे बीज बोया, वृक्ष को सम्हाला, पानी दिया, खाद दी–फिर एक दिन फूल आये और हवाएं सुगंध से भर गयीं।

श्रद्धा के फूल तुम्हारे जीवन में लगते हैं–उधार और बासे नहीं; किसी और से नहीं; मांगे हुए नहीं।

विश्वास बड़ा सस्ता है। इतने सस्ते तुम सत्य को न पा सकोगे। सत्य जो सर्वोपरि है, उसे तुम विश्वास से न पा सकोगे। उधार कब किसने सत्य को जाना है!

उपनिषद कहते हैं: सत्यम् परं, परं सत्यम्; सत्य सर्वोत्कृष्ट है और जो सर्वोत्कृष्ट है वही सत्य है। सर्वोत्कृष्ट को इतने सस्ते कैसे पा सकोगे? अपने को दांव पर लगाना होगा। इसलिए मैं कहता हूं, दुकानदार सत्य तक नहीं पहुंचते; जुआरी पहुंचते हैं। क्योंकि सत्य की पहली शर्त यह है: अपने को गंवाओ तो मिलेगा; दांव पर लगाओ तो मिलेगा। यह बिलकुल जुए जैसा है। मिलेगा कि नहीं, यह पक्का नहीं है। तुम तो गंवा दोगे अपने को, तब मिलेगा। गंवाने के पहले कोई सुनिश्चित नहीं कर सकता कि मिलेगा ही।

इसलिए दुकानदार, गणित, तर्क बिठानेवाले लोग विश्वास से राजी हो जाते हैं। विश्वास मरा हुआ है, लाश है।

हां, महावीर को दिखायी पड़ा होगा। जो उन्होंने कहा वह उनकी श्रद्धा थी; जो तुमने सुना वह तुम्हारा विश्वास है।

इसलिए खयाल रखना, अगर मैं कुछ कह रहा हूं तो वह मेरी श्रद्धा है। और तुमने अगर सुनकर मान लिया तो तुम धोखे में पड़ गये। तुम्हारे लिए वह विश्वास होगा। चूंकि मेरे लिए श्रद्धा है, इसलिए तुम्हारे लिए श्रद्धा न हो जायेगी। जैसा मैंने देखा, तुम भी देखो।

तो मैं तुम्हें श्रद्धा नहीं दे सकता; मैं तुम्हें सिर्फ कुछ इशारे दे सकता हूं, जिनसे तुम भी आंख खोलो और देखो। जब तुम देख लोगे तभी श्रद्धा होगी। फिर तुम्हारे देखे को कोई छीन न सकेगा। क्योंकि देखते ही हृदय में विराजमान हो जाता है।

इसलिए महावीर ने श्रुतियों को, स्मृतियों को, सभी को इनकार कर दिया; वेद को इनकार कर दिया। यह शब्द विचारणीय है।

हिंदू कहते हैं, वेद उपनिषद श्रुतियां हैं। सुना ऐसा हमने; ऐसा सदपुरुषों ने कहा; ऐसा जो जागे, उनका बोध है–श्रुति! फिर हमने उसे याद रखा; सदियों सदियों तक सम्हाला धरोहर की तरह–स्मृति! सभी शास्त्र पहले श्रुति बनते, फिर स्मृति बन जाते। महावीर ने कहा, न श्रुति न स्मृति–श्रद्धा।

शास्त्र को तुम्हें स्वयं ही निर्मित करना होगा। तुम्हारा शास्त्र तुम्हें जन्म देना होगा। ऐसे गोद लिए शास्त्र काम न पड़ेंगे।

फर्क देखा! एक स्त्री मां बनती है–गोद लेकर मां बन जाती है। ऐसा मां बनने का धोखा देती है। न तो गर्भ रहा, न गर्भ की पीड़ा सही, न नौ महीने के लंबे कष्ट भोगे, न वमन हुआ, न दर्द उठा, न मितली आयी, न बोझ सहा, फिर प्रसव की पीड़ा भी न सही, कि जैसे प्राण संकट में पड़े, कि बचेंगे कि न बचेंगे।…उस अज्ञात जीवन के लिए जो पेट में है अपने ज्ञात जीवन को दांव पर लगाया–उस अनजान के लिए जो अभी आया नहीं; कौन है, कैसा है, कुछ पता नहीं है; जो ज्ञात है, परिचित है, पहचाना है, उसको खतरे में डाला; अपने प्राण जोखिम में डाले।

तो एक तो मां बनती है गर्भ को धारण करके। फिर होशियार लोग हैं। वे कहते हैं, “इतनी परेशानी में क्या पड़ना! बच्चे तो गोद भी लिए जा सकते हैं।’ गोद ले लो। लेकिन गोद लेने में और गर्भ लेने में बड़ा फर्क है। कामचलाऊ मां पैदा हो जायेगी, लेकिन असली मां पैदा न होगी। क्योंकि असली मां तो तभी पैदा होती है जब बच्चा पैदा होता है।

जब बच्चा पैदा होता है तो दो चीजों का जन्म होता है–बच्चे का और मां का। एक तरफ बच्चा पैदा होता है, दूसरी तरफ मां पैदा होती है। अभी कल तक जो एक साधारण स्त्री थी, अचानक मां बन जाती है! बच्चे को तुमने गोद में ले लिया तो बच्चा तो कभी पैदा नहीं हुआ; तुमसे तो पैदा नहीं हुआ। तो मां बनने का धोखा पैदा होता है।

विश्वास ऐसा ही है–गोद लिया हुआ सत्य। श्रद्धान, श्रद्धा ऐसे है–जन्म दिया हुआ सत्य। और कोई दूसरा तुम्हारे सत्य को कैसे जन्म दे सकेगा!

बड़ी पुरानी कहानी है सोलोमन के जीवन में। दो स्त्रियां सोलोमन की अदालत में आयीं। वे दोनों दावा कर रही थीं एक ही बच्चे का कि वह उसकी मां है। बड़ी कठिनाई थी। कैसे तय किया जाये? सोलोमन ने कहा, ठीक है। एक-एक को पास बुलाया और कान में कहा कि सुन, तय करना तो मुश्किल हो रहा है। कोई गवाह नहीं, कोई चश्मदीद गवाह नहीं है। तो उचित यही है कि आधा-आधा बच्चा बांट देते हैं। तो जिसका बच्चा था वह तो चीख मारकर रो उठी। उसने कहा कि नहीं, ऐसा मत करना; फिर पूरा ही उसे दे दो। लेकिन जिसका बच्चा नहीं था, उसने कहा कि ठीक है, न्याययुक्त है, तर्कयुक्त है–आधा-आधा बांट दो। जो चीख उठी थी। और जिसने तर्क का सहारा न लिया था, हृदय का सहारा लिया था, उसने कहा कि नहीं-नहीं, फिर उसे ही दे दो; मेरा नहीं है, उसी का है।

सोलोमन ने उसी को बेटा दे दिया। हृदय ने गवाही दे दी, किसका है!

यह तो कहानी पुरानी हो गयी।

एक मनोवैज्ञानिक का जीवन मैं पढ़ रहा था। उसने इस कहानी के बाबत चर्चा की है। और उसने लिखा है अगर आज अमरीका की किसी अदालत में यह मामला आये और जज तय न कर पाये, तो वह मनोवैज्ञानिक को बुलायेगा। क्योंकि अब तो अमरीका में मनोवैज्ञानिक से पूछा जाता है कि क्या करना, ये दोनों स्त्रियां दावा करती हैं, इनमें कौन झूठी है? और मनोवैज्ञानिक सोलोमन की तरकीब का उपयोग करें, तो जो स्त्री कहे, कि “लूंगी तो पूरा, नहीं तो पूरा दे दूंगी’, वह थोड़ा रुग्ण चित्त की मालूम पड़ेगी। जिद्दी! हठाग्रही! एकांतवादी! समझदार आदमी तो समझौतावादी होता है। बुद्धिमान तो सभी समझौतावादी होते हैं। वे कहते हैं, जहां पूरा न मिलता हो वहां आधा ले लो। तो मनोवैज्ञानिक उस स्त्री को–जो कहेगी कि ठीक है, मैं आधा लेने को राजी हूं–कहेगा स्वस्थ है, नार्मल है। और यह स्त्री तो आब्सैस्ड है, जो कहती है पूरा लूंगी, नहीं तो पूरा दे दूंगी, यह तो पागलपन से भरी है।

तो उस मनोवैज्ञानिक ने कहा है, अगर आज यह घटना घटे तो अमरीका की अदालत बच्चा उसको दे देगी जो आधा लेने को राजी थी, क्योंकि वह पागल नहीं है। तर्कयुक्त है उसका उत्तर, विचारपूर्ण है। यह कौन-सी समझदारी है कि अगर पूरा न मिलता हो तो आधा भी छोड़ दो। जितना मिलता हो उतना तो ले लो! मध्यमार्ग चुनो। अति पर तो मत जाओ!

जो लोग बुद्धि से चलते हैं, वे होशियारी से चलते हैं। जो श्रद्धान से चलते हैं, वे दीवाने होते हैं। इसलिए तो बुद्धि के लिए प्रेम सदा अंधा मालूम होता है। बुद्धि कहती है, थोड़ा सोचो, समझो, विचारो, हिसाब बिठाओ।

महावीर कह रहे हैं कि ज्ञान से तो मनुष्य केवल जानता है। जानना यानी परिचय बाहर-बाहर। हृदय तक बिधती नहीं बात। श्रद्धा से, दर्शन से बिधती है हृदय तक–रोएं-रोएं में समा जाती है; श्वास-श्वास में प्रविष्ट हो जाती है। इसलिए तुम ज्ञान को पकड़कर मत बैठे रह जाना।…नाणेण जाणई भावे–ज्ञान से तो बस जानना मात्र होता है। “एक्वेंटेन्स’। ऐसा परिचय बन जाता है।

जैसे तुमने हिमालय के संबंध में कुछ बातें भूगोल की किताब में पढ़ी हैं–क्या यह जानना वही है जो उसके लिए प्रगट होता है, जिसने हिमालय के दर्शन किए, जिसकी आंखों ने हिमालय की शीतलता को पीया, जिसकी आंखों ने हिमालय के सौंदर्य को अपने में प्रविष्ट होने दिया, जो हिमालय की घाटियों और शिखरों पर घूमा, जिसने हिमालय का स्पर्श किया? क्या यह जानना वही है जो भूगोल की किताब से मिल जाता है? भूगोल की किताब में तो कोरे कागजों पर स्याही के काले चिह्न हैं और कुछ भी नहीं। कहां वे स्वर्ण-शिखर! कहां वे बर्फ से ढंके हुए शीतल अछूते, कुंवारे लोक!

आंखें–आंखें ही केवल सत्य को देख सकेंगी। कही-सुनी पर बहुत ध्यान मत देना। देखा-देखी बात! देखो तो ही कुछ बात हुई। लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात।

नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे।

“दर्शन से ही श्रद्धा उत्पन्न होती है।’

श्रद्धा का अर्थ है, जुड़ गये तार तुम्हारे हृदय से; बात बुद्धि की न रही; बात केवल मत न रही, “ओपिनियन’ न रही। अब ऐसा नहीं कि ऐसा हम सोचते हैं–ऐसा है। श्रद्धा का अर्थ हुआ: ऐसा है। ऐसा नहीं कि हम सोचते हैं; ऐसा नहीं कि और लोग कहते हैं; ऐसा नहीं कि जाननेवालों ने कहा है; ऐसा नहीं कि हमने सुना है–ऐसा है।

विवेकानंद परमात्मा की खोज में भटकते थे। अनेक गुरुओं के पास गये। पूछा, ईश्वर है? विवेकानंद की निष्ठा और विवेकानंद की जलती हुई खोज! जिससे पूछते वह घबड़ा जाता। वे बलशाली व्यक्ति थे। वे ऐसे पूछते कि अगर उत्तर ठीक न मिला तो शायद चढ़ पड़ेंगे, शायद गर्दन दबा देंगे। रामकृष्ण के पास भी गये। औरों ने ईश्वर के बाबत चर्चा की थी। उसमें कई बड़े-बड़े लोग थे। उसमें रवींद्रनाथ के दादा थे; वे महर्षि समझे जाते थे। उनके पास भी विवेकानंद पहुंच गये थे। वे एक बजरे में रहते थे नाव में। आधी रात तैरकर नाव में चढ़ गए। पूरी नाव कंप गयी। वे ध्यान कर रहे थे अंदर। दरवाजा धक्का देकर तोड़ दिया। भीतर पहुंच गये पागल की तरह। आधी रात! पानी में सरोबोर! पूछा, “क्या बात है युवक! कैसे आये?’ तो विवेकानंद ने कहा, “ईश्वर है?’ तो उन्होंने कहा, “बैठो मैं तुम्हें समझाऊंगा।’ विवेकानंद ने कहा, “मैं समझने नहीं आया। मैं यह जानना चाहता हूं, ईश्वर है? ऐसा तुम्हें अनुभव हुआ है?’

झिझके महर्षि! विवेकानंद छलांग लगाकर नदी में कूद गये। बुलाया कि “सुनो, आये…चले?’ विवेकानंद ने कहा, झिझक ने सब कह दिया। समझने मैं आया नहीं, जानने मैं आया नहीं। मैं तो यह पूछने आया हूं कि तुमने देखा है? मैं किसी ऐसे आदमी की तलाश में हूं, जिसका हाथ ईश्वर के हाथ में हो। शास्त्र तो मैं भी पढ़ लूंगा। शास्त्र ही समझना हो तो तुमसे क्या समझेंगे, खुद ही पढ़ लेंगे।

फिर रामकृष्ण के पास भी वही सवाल किया था, कि ईश्वर है? तो रामकृष्ण ने क्या उत्तर दिया? रामकृष्ण ने कहा, तुम्हें जानना है? विवेकानंद झिझके! “अभी जानना है कि थोड़ी देर रुकोगे?’ विवेकानंद ने कहा, मैंने सोचा नहीं। यह तो मैंने सोचा ही न था कि कोई इस तरह पूछेगा जैसे कि पास के कमरे में है ईश्वर, दरवाजा खोला कि दिखा देंगे!

रामकृष्ण ने कहा, उस कमरे से भी पास है। तुम्हारे भीतर है! मेरे भीतर है! तुम कहो तो मैं दिखा दूं। और तुमने अभी तैयारी न की हो तो सोचकर आ जाना।

और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें–रामकृष्ण तो थोड़े पागल-से आदमी थे–उन्होंने विवेकानंद की छाती पर पैर लगा दिया। विवेकानंद धड़ाम से गिर पड?। बेहोश हो गये। घंटेभर बाद जब होश में आये तो कंप रहे थे पत्ते की तरह तूफान में! रोने लगे। क्योंकि जो दिखाया, जो प्रतीति हुई उस घड़ी में, उसने सारा, सारा जीवन बदल दिया। फिर रामकृष्ण से बहुत भागने की कोशिश की, बहुत भागने की कोशिश की, सब उपाय किए–लेकिन भाग न सके। इस आदमी ने विवेकानंद की आंखें किसी तरफ खोल दीं।

अब यह सवाल ज्ञान का न रहा। इसको महावीर श्रद्धान कहते हैं। श्रद्धा हुई। यह गैर पढ़ा-लिखा आदमी रामकृष्ण, महर्षि देवेंद्रनाथ को हरा दिया। वे बड़े ज्ञानी थे, बड़े पंडित थे, ब्रह्म-समाज के जन्मदाताओं में एक थे। लेकिन श्रुति थी, स्मृति थी–श्रद्धान न था।

महावीर कहते हैं, ज्ञान से जाना जाता है; दर्शन से श्रद्धा होती है। और जब श्रद्धा होती है तो चरित्र का जन्म होता है। क्योंकि जिस पर श्रद्धा ही नहीं है वह तुम्हारे चरित्र में कभी न उतर सकेगा। उतार लोगे तो पाखंड होगा। ऊपर-ऊपर होगा। किसी और को दिखाने को होगा। अंतर्तम में तुम विपरीत रहोगे, भिन्न रहोगे। बाहर के दरवाजे से एक, भीतर के दरवाजे से दूसरे रहोगे। कहोगे कुछ, करोगे कुछ। वह तुम्हारे चरित्र में न आ सकेगा। चरित्र में तो कोई बात तभी आती है जब श्रद्धा की भूमि में बीज पड़ता है।

जीसस ने कहा है, किसान बीज फेंकता है। कुछ रास्ते पर पड़ जाते हैं, जहां पथरीली जगह है; कभी उगते नहीं। कुछ रास्ते के किनारे पड़ जाते हैं, जहां जमीन तो ठीक है, लेकिन लोग गुजरते हैं, पैरों में दब जाते हैं; उग भी आते हैं तो मर जाते हैं। कुछ उस भूमि में पड़ते हैं, गीली, कोमल–जहां पैदा भी होते हैं, सुरक्षित भी रह जाते हैं।

तो जब तक कोई ज्ञान तुम्हारी श्रद्धा न बन जाये, जब तक हृदय की भूमि में कोई बीज न पड़े, जब तक तुम्हारी दृष्टि में कोई बात सत्य की तरह अनुभव में न आ जाये–तब तक चारित्र्य का, चरित्र का, आचरण का कोई रूपांतरण नहीं होता। हां, तुम चेष्टा करके रूपांतरण कर सकते हो। बहुतों ने यही किया है।

ज्ञान से सीधा चरित्र निर्मित किया जा सकता है–लेकिन वही चरित्र पाखंडी, हिपोक्रेट का चरित्र है। जो ज्ञान से सीधा चरित्र पर चला गया, वह अपने ऊपर एक तरह का आरोपण कर लेगा। वह सत्य बोलेगा, लेकिन झूठ से उसकी मुक्ति न होगी। झूठ भीतर-भीतर उबलेगा, सत्य ऊपर-ऊपर थोपेगा। वह अहिंसक हो जायेगा, लेकिन हिंसा भीतर दावानल की तरह जलती रहेगी। वह ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेगा, लेकिन कामवासना रोएं-रोएं में मौजूद रहेगी। उसके व्रत ऊपर-ऊपर होंगे; जैसे वस्त्र हैं ऐसे होंगे; हड्डी, मांस, मज्जा न बनेंगे।

जब ज्ञान श्रद्धा के माध्यम से गुजरकर चरित्र तक पहुंचता है, तब सम्यक चारित्र्य पैदा होता है।

चरित्र से, जो व्यर्थ है उसका निरोध हो जाता है। चरित्र का इतना ही अर्थ है। महावीर के हिसाब से चरित्र का अर्थ है: व्यर्थ का निरोध। इसे खयाल में लेना, क्योंकि महावीर की नकारात्मक दृष्टि का बुनियादी हिस्सा है। महावीर यह नहीं कहते कि तुम्हें ब्रह्मचर्य आरोपित करना है। ब्रह्मचर्य तो आत्मा का स्वभाव है; आरोपित करना नहीं। आरोपित तो इसलिए करना पड़ता है कि श्रद्धा से कभी वासना का सत्य, वासना की व्यर्थता तुम्हें दिखायी नहीं पड़ी। सुना किसी को, ब्रह्मचर्य की बातें मधुर लगीं, तुम्हारे अनुभव से भी थोड़ी मेल खाती लगीं। जीवन के दुख से भी तुम ऊब गये हो, परेशान हो गये हो। तो लगा कि ठीक ही है, उचित ही है। ऐसा उचित मानकर तुमने ब्रह्मचर्य आरोपण करना शुरू किया। तो ब्रह्मचर्य को विधायक रूप से आरोपित करना होगा, पाजिटिव रूप से आरोपित करना होगा। तुम्हें चेष्टा करके ब्रह्मचारी बनना होगा।

महावीर का कहना यह है, अगर तुम्हें दिखायी पड़ गया कि वासना व्यर्थ है तो ब्रह्मचर्य आरोपित नहीं करना पड़ता; वासना गिर जाती है, जो शेष रह जाता है वही ब्रह्मचर्य। इस भेद को खूब गहराई से समझ लेना।

असत्य गिरता है; सत्य तो–जो शेष रह जाता है, असत्य के गिर जाने पर जो शेष रह जाता है, तुम्हारा स्वभाव, वही सत्य है।

इसलिए महावीर कहते हैं, चरित्र से सिर्फ निरोध होता है, नकार होता है, व्यर्थ छूट जाता है। सार्थक तो है ही भीतर, व्यर्थ से जुड़ गया है। सार्थक को लाना नहीं है। आयोजन करके, निमंत्रण देकर, अभ्यास करके लाना नहीं है–सिर्फ व्यर्थ को देख लेना है। व्यर्थ को व्यर्थ की तरह देख लेना पर्याप्त है। व्यर्थ व्यर्थ की तरह दिखा कि हाथ से छूटा, गिरा। फिर तुम उसे दुबारा न उठा सकोगे। और तुम जो उसके बिना रह जाओगे, वही सत्य है, वही स्वभाव है। वह तुम सदा से थे।

इसका अर्थ यह हुआ कि तुम ठीक तो हो ही, कुछ गलत से तुम्हारा संबंध जुड़ गया है। ठीक होना तो सदा से ही है; गलत से संबंध जुड़ गया है। गलत से संबंध छूट जाये, तुम ठीक तो थे ही। ऐसा नहीं है कि तुम गलत हो गए हो और तुम्हें ठीक होना है; ऐसा ही है कि सोने के ऊपर मिट्टी की तह बैठ गयी, धूल जम गयी, दर्पण के ऊपर धूल बैठ गयी–बस धूल को हटा देना है, पोंछ देना है; दर्पण तो दर्पण है ही। धूल के भीतर शुद्ध दर्पण मौजूद है। धूल ने दर्पण को खराब थोड़े ही किया है! धूल से दर्पण नष्ट थोड़े ही हुआ है! ढंक गया है–उघाड़ना है।

इसलिए महावीर के लिए आत्मा एक आविष्कार है। सिर्फ उघाड़ना है। जैसे राख में अंगारा छिपा हो–फूंक मारी, राख गिर गयी, अंगारा रह गया। ऐसे ही दृष्टि की फूंक जब लग जाती है, राख झड़ जाती है; जो शेष रह जाता है, वही चरित्र है।

“चरित्र से निरोध होता है और तप से विशुद्धि होती है।’

तप का मैंने तुम्हें कल अर्थ कहा, वह खयाल रखना। तप का अर्थ है: जो दुख आयें उन्हें चुपचाप, बिना ना-नुच किये, बिना अस्वीकार किए स्वीकार कर लेना।

तप का भी अर्थ इतना ही है कि पिछले-पिछले जन्मों में, दूर की लंबी यात्रा में, हमने जो दुख के बीज बोए थे उनके फल पक गये हैं। उन्हें कौन भोगेगा? उन्हें भोगना ही होगा। तो जिसे भोगना ही है, उसे दुख से भोगना गलत है। जिसे भोगना ही है उसे सहज स्वभाव से, सरलता से, शांति से भोग लेना उचित है। क्योंकि अगर तुमने उसे दुख से भोगा तो तुमने फिर दुख के बीज बोये। तुमने प्रतिक्रिया की। तुम कहते रहे कि चाहता नहीं था, यह क्या हो रहा है? इनकार करते रहे। तो तुमने चाह की फिर प्रदर्शना की। तुम्हारी चाह भीतर बनी ही रही। तुम सुख चाहते थे और दुख मिल रहा है–तो तुम नाराज रहे, तुम क्रोधित रहे। दुख तो भोगना ही पड़ा। लेकिन ये क्रोध और नाराजगी के नये बीज बो लिये। इनका दुख फिर भोगना पड़ेगा।

महावीर कहते हैं, तुम चुपचाप, बिना कोई प्रतिक्रिया किये, दुख आये तो उसे भोग लो। जैसे दर्पण के सामने सुंदर व्यक्ति आ जाये कि कुरूप व्यक्ति आ जाये, दर्पण कोई इनकार नहीं करता, दोनों को झलका देता है। फिर दोनों चले जाते हैं, दर्पण खाली रह जाता है। तो महावीर कहते हैं, सुख आये तो पकड़ना मत, दुख आये तो धकाना मत। सुख आये तो समझना, किये हुए पुण्य-कर्मों का फल है। दुख आये तो समझना कि किये हुए पाप-कर्मों का फल है। निष्पक्ष, तटस्थ दर्पण की भांति खड़े रहना: दोनों आये हैं, दोनों चले जायेंगे। जो आता है वह जाने को ही आता है। जो आया है वह जाने के रास्ते पर ही है। सुबह हो गयी, सांझ हो जायेगी। सांझ हो गयी, सुबह हो जायेगी। सूरज ऊगा, सूर्यास्त होने लगा। इसलिए घबड़ाना मत। तुम सिर्फ चुपचाप खड़े रहना। तुम्हारी दृष्टि कोरी रहे, दर्पण की तरह रहे–बिना किसी पक्षपात के, बिना किसी विकल्प के। कोई धारणा मत बनाना। इस अवस्था का नाम तप है।

तप से आदमी शुद्ध होता है। क्यों? क्योंकि तप से जो अतीत है, उससे छुटकारा हो जाता है। अतीत है अशुद्धि…अतीत से छुटकारा है विशुद्धि। अतीत से दबे रहना है अशुद्धि।

कचरा, कूड़ा-कर्कट न-मालूम कितने जन्मों का छाती पर रखे हम बैठे हैं! यह है अशुद्धि। इससे छुटकारा पा जाना है शुद्धि। और जैसे ही कोई शुद्ध हुआ, वैसे ही महावीर कहते हैं: जो है, हमारा स्वरूप, स्वभाव, उसकी छवि उभरने लगती है; उसका रूप स्पष्ट होने लगता है। और एक से दूसरी चीज जुड़ी है। लेकिन शुरुआत श्रद्धा से।

दर्शन, ज्ञान, चरित्र–इनको महावीर ने मोक्ष का मार्ग कहा है। जीवन बड़ा संयुक्त है: बीज से पौधा, पौधे से वृक्ष, वृक्ष में फलों का लग जाना, फूलों का लग जाना।

कहीं बीच से शुरू मत करना! प्रारंभ से ही प्रारंभ करना। बहुत लोग जल्दबाजी में होते हैं। वे सोचते हैं, “फूल तो बाजार में मिल जाते हैं। क्यों इतनी परेशानी उठानी? क्यों इतनी झंझट लेनी? जो सस्ते में मिल जाता है, वह सस्ते में ले लिया जाये।’

अभी पश्चिम में वैज्ञानिक कहते हैं, जल्दी ही टेस्ट-टयूब में बच्चे होने लगेंगे, ताकि स्त्रियों को इतनी झंझट न उठानी पड़े। यह होगा। यह बीस वर्षों के भीतर होगा। यह तुम्हारे सामने होगा। क्योंकि स्त्रियों को एक बार पता हो गया कि बच्चे टेस्ट-टयूब में पैदा हो सकते हैं, तो जैसे ही मां के पेट में गर्भाधारण होगा, उसके अंडे को निकालकर टेस्ट-टयूब में रख दिया जायेगा। फिर वैज्ञानिक उसकी फिक्र कर लेंगे अस्पताल में। यह मां को नौ महीने की उपद्रव, परेशानी, कठिनाई, पीड़ा यह सब बच जायेगी। यह सब तो बच जायेगी, लेकिन मां भी पैदा न होगी।

जरा सोचो! तुम्हारा बच्चा टेस्ट-टयूब में पैदा हुआ, तो वह तुम्हारा है या किसी दूसरे का है, क्या फर्क पड़ता है? टेस्ट-टयूब अगर बदल गयी हो भूल-चूक से क्लर्कों की, तो तुम्हें कभी पता भी न चलेगा कि तुम्हारा है या किसी और का है! भेद ही क्या है?

फिर गणित का ऐसे विस्तार होता है। फिर वैज्ञानिक कहते हैं कि जरूरी क्यों हो कि तुम्हारे ही वीर्याणु से तुम्हारा बच्चा पैदा हो। अच्छे वीर्याणु मिल सकते हैं। यह बात सच है। आदमी जब बीज बोता है, खेती करता है, फूल लगाता है, तो अच्छे से अच्छे बीज चुनता है। तुम अपना बच्चा पैदा करना चाहते हो, अच्छे से अच्छे बीज चुनो। तुमसे बेहतर बीज मिल सकते हैं। तो जल्दी ही, आज नहीं कल जैसे फूलों की दुकानों पर बीज पैकेट में मिलते हैं, वैसे आज नहीं कल वैज्ञानिक बच्चों के वीर्याणु पैकेटों में बेचने लगेंगे। उसकी पूरी योजनाएं तैयार हैं। इतना ही नहीं, जैसे फूल के पैकेट पर फूल की तस्वीर बनी होती है कि कैसा फूल होगा जब फूल होगा, बच्चे की तस्वीर भी बनी होगी कि कैसा बच्चा होगा। तो तुम चुनाव कर सकते हो: कैसी आंख चाहिए, कैसे बाल चाहिए, कैसा चेहरा चाहिए, कितनी ऊंचाई चाहिए, लड़का चाहिए, लड़की चाहिए, वैज्ञानिक, कवि–तुम क्या चाहते हो? लेकिन तब एक बात पक्की है: सब ठीक हो जायेगा; बच्चा तुम्हारा नहीं होगा। मां बनने से, पिता बनने से, तुम वंचित रह जाओगे।

यह होनेवाला है, क्योंकि आदमी तकलीफों से बहुत डरने लगा है। तो जहां-जहां सुविधा मिले, सब स्वीकार कर लेता है। अगर सुविधा के कारण जीवन भी गंवा दे तो भी हर्ज नहीं, लेकिन सुविधा चाहिए।

तप का अर्थ है: जीवन संघर्षों से गुजरता है, तूफान भी आते हैं, कठिनाइयां भी हैं–उनको स्वीकार करना। उनको शांत भाव से स्वीकार कर लेना, तो तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे शुद्धि निखरेगी। आत्मा प्रगाढ़ होगी। तुम केंद्रित बनोगे, आत्मवान बनोगे। और एक से दूसरी चीज जुड़ी है। श्रद्धा से शुरू करना। हृदय से शुरू करना। क्योंकि वहीं तुम्हारे प्राणों का प्राण छिपा है। वही तुम्हारा मंदिर है। और फिर ज्ञान अपने-आप चला आता है।

आया ही था खयाल कि आंखें छलक पड़ीं

आंसू किसी की याद से कितने करीब थे।

आया ही था खयाल की आंखें छलक पड़ीं! खयाल ही उठता है, याद ही आती है कि आंखों में आंसू भर जाते हैं।

आंसू किसी की याद से कितने करीब थे! जैसे याद के करीब आंसू हैं और हृदय में किसी की याद उठी तो आंखें डबडबा आती हैं–ऐसा ही, जहां दर्शन घटा, वहां ज्ञान घटता है। बहुत करीब है ज्ञान दर्शन के। और जहां ज्ञान घटा, वहां चारित्र्य घटना शुरू हो जाता है। अगर एक ही बात सध जाये–दर्शन–तो सब सध जाता है।

महावीर ने तीन की बातें कहीं, ताकि तुम्हें पूरा विश्लेषण साफ हो जाये; अन्यथा दर्शन कहने से भी काम चल जाता। जब तुम्हें दिखायी पड़ जाता है कि दरवाजा कहां है, तो फिर तुम दीवाल से नहीं निकलते। और जब तुम्हें दिखायी पड़ जाता है कि आग हाथ को जला देती है, अनुभव में आ जाता है, तो फिर तुम हाथ आग में नहीं डालते। आग की तो बात दूर, आग की तस्वीर भी रखी हो तो तुम जरा बचकर चलते हो।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा समुद्र की यात्रा पर गया। इसके पहले कभी समुद्र की यात्रा न की थी, जहाज में बैठा न था। बस के अलावा और किसी वाहन में बैठा ही न था। जहाज में थोड़ी देर बैठा। उठा, कैप्टन के कमरे में जाकर बोला, “पेट्रोल-वेट्रोल तो भर लिया है?’ तो उसने कहा, “सब भर लिया है, तुम फिक्र न करो। बैठो अपनी जगह पर!’ थोड़ी देर बैठा रहा, फिर उठकर पहुंचा, और कहा, “सुनो जी! इंजिन-विंजिन तो ठीक है?’ कैप्टन थोड़ा झल्लाया। उसने कहा कि सब ठीक है, आप अपनी जगह पर बैठिये! लेकिन वह फिर थोड़ी देर बाद आया। उसे देखकर ही वह कैप्टन थोड़ा परेशान होने लगा। उसने कहा कि “फिर आ गए! अब क्या मामला है?’ तो मुल्ला ने कहा, “और सब तो ठीक-ठाक है? और कोई गड़बड़ तो नहीं है?’ उस कैप्टन ने कहा कि इससे तुम्हें मतलब क्या है? मुल्ला ने कहा, “मतलब? फिर बीच में मत कहना, जब रुक जाये कि उतरकर धक्के लगाओ!’

बस में बैठने के आदी! आदमी दूध से जल जाये तो छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगता है। तुम्हें दिखायी पड़े, आग जलाती है, अनुभव में आ जाये…।

तो तुमने खयाल किया है! अगर कहीं थियेटर में बैठे हो और लोग इतना ही चिल्ला दें, “आग!’ कि भगदड़ मच जाती है। किसी को आग दिखायी नहीं पड़ रही है, किसी ने हो सकता है मजाक ही की हो; लेकिन लोग इतना ही चिल्ला दें, “आग!’ कि भगदड़ मच जाती है। फिर तुम लाख समझाओ कि रुको, कोई सुननेवाला नहीं है। आग शब्द भी घबड़ा देता है। जीवंत अनुभव का इतना परिणाम है!

तो अगर वासना जला दे तो वासना की तो बात दूर, वासना शब्द भी तुम हाथ में न ले सकोगे। अगर कामवासना ने तुम्हारे जीवन को दग्ध किया और घाव बना दिये तो कामवासना की तो दूर, कामवासना की जहां चर्चा भी होती है वहां तुम न बैठ सकोगे। कोई अर्थ न रहा। व्यर्थ के लिए कौन बैठता है! और व्यर्थ की ही बात नहीं, जले जीवन के दुखद अनुभव हुए, घाव बने–कौन घावों को मांगने जाता है!

लेकिन तुम सुनते हो ब्रह्मचर्य की चर्चा, लोभ पैदा होता है। वासना की आग अभी दिखाई नहीं पड़ी और ब्रह्मचर्य की चर्चा से लोभ जगने लगता है–इससे अड़चन खड़ी होती है। इससे जीवन में एक भ्रांति आती है।

महावीर कहते हैं, शुरू करना दर्शन से। दर्शन, ज्ञान, चरित्र–यह सम्यक सरणि है। और जीवन को अगर ठीक से पहचानना हो तो जीवन को प्रतिपल जागकर देखते रहना। उसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। जो भी है–अगर क्रोध हो रहा है तो क्रोध को जागकर देखना–वही दर्शन बनेगा। करुणा का शास्त्र मत पढ़ना, क्रोध को गौर से देखना: उसी से करुणा किसी दिन पैदा होगी।

मैं हकीकत-आश्ना हूं हस्तिए-मोहूम का

देखता हूं गौर से फूलों को मुरझाने के बाद।

ऐसे गौर से देखने से कुछ लाभ न होगा। जब फूल मुर्झा गए, फिर देखने से कुछ सार नहीं।

बुढ़ापे में लोग कामवासना के संबंध में विचार शुरू करते हैं। जब फूल मुर्झा गए, जब जीवन में ऊर्जा खो गयी, जब थक गये, जब जीवन जवाब देने लगा, जब जिंदगी खुद ही उन्हें छोड़ने लगी और रद्दी के ढेर पर फेंकने लगी–तब वे त्यागने की बात सोचते हैं।

इसलिए महावीर ने एक बहुत अनूठा सूत्र भारत को दिया–और वह था: जब तुम जवान हो, जब जीवन की ऊर्जा भरी-पूरी है, तभी अगर तुम जीवन के दुख को देख लो और उससे छूट जाओ, भरी जवानी में त्याग का फल लग जाये, तो बड़ा शुभ है। क्योंकि तब ऊर्जा है। तो जिस ऊर्जा से तुम संसार की तरफ जाते थे, वही ऊर्जा तुम्हें मोक्ष की तरफ ले जाने का साधन बन जायेगी। ऊर्जा तो वही है। लेकिन जब ऊर्जा जा चुकी, थक गये, हाथ-पैर कमजोर पड़ गये, उठते नहीं बनता, बैठते नहीं बनता–तब तुम त्याग का सोचने लगे! यह त्याग न हुआ, यह तो अपने को धोखा देना हुआ। जिंदगी खुद ही तुम्हें त्यागे दे रही है। अब तुम्हारे त्याग का कोई अर्थ नहीं है। यह तो ऐसे ही हुआ कि जब दांत टूट गये तब तुमने बहुत-सी चीजें खाने का त्याग कर दिया। अब तुम उन्हें खा ही नहीं सकते।

ध्यान रखना, जो बीत रहा है अभी, आज, यहां, उसके प्रति जागना! दर्शन की क्षमता को वहां सजग करना। जैसे-जैसे दर्शन जागता जायेगा–क्रोध में, काम में, लोभ में, मोह में–वैसे-वैसे तुम पाओगे मोह, काम, क्रोध, लोभ गिरने लगे, और एक नयी ऊर्जा का भीतर आविर्भाव हुआ। क्योंकि जो ऊर्जा क्रोध में लगी है वही मुक्त होकर करुणा बन जाती है। दर्शन के माध्यम से क्रोध करुणा बन जाता है। और काम की यात्रा राम की यात्रा बन जाती है।

“सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान नहीं।’

नांदसणिस्स नाणं।

“ज्ञान के बिना चारित्र्य नहीं।’

नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा।

“चरित्रगुण के बिना मोक्ष नहीं।’

अगुणिस्स नत्यि मोक्खो

“और मोक्ष के बिना आनंद कहां, निर्वाण कहां।’

नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं।

बड़े सीधे-सरल, लेकिन बड़े वैज्ञानिक सूत्र हैं!

“दर्शन के बिना ज्ञान नहीं।’

इसलिए और कैसा भी ज्ञान तुमने इकट्ठा किया हो, उसे ज्ञान मत समझना। और कितना ही ज्ञान तुम्हारे पास हो, उसे तुम अज्ञान का आभूषण ही समझना; उससे अज्ञान ही सज गया है, संवर गया है, ज्ञान पैदा नहीं हुआ। उससे अज्ञान ढंक गया है, ज्ञान पैदा नहीं हुआ।

“ज्ञान के बिना चरित्र नहीं।’

दर्शन, ज्ञान, चरित्र। और ज्ञान की परीक्षा यही है कि वह तुम्हारे आचरण में उतर आये।

मैंने सुना है, प्रसिद्ध शहीद चंद्रशेखर आजाद को तीन ही गालियां आती थीं। और जब वह बहुत क्रोध में भी आ जाते तो उन्हीं तीन गालियों को बार-बार दोहराने लगते। गधा, नालायक, उल्लू के पट्ठे–बस तीन ही गालियां आती थीं। किसी मित्र ने कहा कि अगर तुम्हें गालियां देने में ऐसा रस आता है और क्रोध के वक्त गालियां कम पड़ जाती हैं तो और क्यों नहीं सीख लेते? कोई गालियों की कमी है?…कि गधा, नालायक, उल्लू के पट्ठे; फिर गधा, नालायक, उल्लू के पट्ठे–बार-बार वही दोहराने लगते हो, अच्छा भी नहीं मालूम होता! जैसे टूटा हुआ रिकार्ड दोहराने लगता है।

तो चंद्रशेखर आजाद ने कहा, “चौथी गाली की जरूरत नहीं है।’ कोट के खीसे से पिस्तौल निकाली और कहा, “गाली, फिर गोली। तीन गाली काफी हैं। फिर इसके बाद गोली।’ कहा कि मैं इस सूत्र को मानकर चलता हूं कि विचार आचरण में लाने चाहिए। तो गाली तो केवल विचार है, गोली आचरण है।

मगर मजा यह है कि अगर गाली है तो गोली अपने-आप आ जायेगी। गाली कब तक देते रहोगे? अगर क्रोध है तो हिंसा पैदा होगी। उससे बच न सकोगे। क्योंकि जिसको हम विचार में सम्हालते हैं, वह आज नहीं कल आचरण में झलक जाता है। क्योंकि आचरण कुछ भी नहीं है–निरंतर विचार, पर्त-पर्त विचार का ही जम जाना है। विचार ही तो वस्तुएं बन जाते हैं। जो तुमने सोचा है, कल वही तुम्हारा आचरण बन जायेगा। जो तुम्हारा आज विचार है वह कल आचरण होगा। और जो आज तुम्हारा आचरण है वह कल तुम्हारा विचार था।

विचार और आचरण एक ही यात्रा के हिस्से हैं। विचार पहला कदम है; आचरण अंतिम। अगर कोई विचार आचरण न बनता हो तो इस बात का एक ही अर्थ होता है कि वह विचार तुम्हारा नहीं है। इसलिए कैसे आचरण बने?

चिकित्सकों से पूछो! अगर तुम्हारे शरीर में खून की कमी हो जाये तो हर किसी का खून तुम्हारे काम न पड़ेगा। तुम्हारा ही टाइप चाहिए। मतलब हुआ कि तुम्हारा खून ही तुम्हारा शरीर स्वीकार करता है; और किसी तरह का खून स्वीकार नहीं करता। अगर तुम्हारे चेहरे पर प्लास्टिक सर्जन कुछ आपरेशन करे और चमड़ी बदलनी हो तो तुम्हारे ही पैर या जांघ की चमड़ी निकालकर लगानी पड़ती है। क्योंकि दूसरी किसी की चमड़ी तुम्हारा शरीर स्वीकार नहीं करता।

जो शरीर के संबंध में सही है वह आत्मा के संबंध में और भी ज्यादा सही है। तुम्हारा ही हो अनुभव तो ही तुम्हारी आत्मा स्वीकार करती है, अन्यथा नहीं स्वीकार करती। तुम्हारे ही प्राणों में पगा हो तो ही तुम्हारी आत्मा उसे अपने भीतर लेती है, अन्यथा बाहर फेंक देती है। जैसे हर किसी के खून को तुम्हारे भीतर नहीं डाला जा सकता और जैसे हर किसी की चमड़ी तुम्हारे पैर पर या तुम्हारे चेहरे पर नहीं चिपकायी जा सकती–शरीर तो बाहर है, आत्मा तो बहुत गहरे है, तुम्हारा आखिरी, आत्यंतिक अस्तित्व है। वहां तो केवल तुम ही तुम हो। तुम्हारा ही जो है, वही वहां पाएगा जगह; शेष सब अस्वीकृत हो जाता है।

इसलिए महावीर कहते हैं, सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान नहीं। ज्ञान के बिना चारित्र्य नहीं। चारित्र्य के बिना मोक्ष नहीं।

और जो अभी चरित्र में शुद्ध नहीं हुआ, उसकी मुक्ति कहां! क्योंकि मोक्ष तो जो गलत है उससे छूट जाने का नाम है, बंधन के टूट जाने का नाम है।

और मोक्ष के बिना निर्वाण कहां, आनंद कहां?

तो तुम अगर दुखी हो तो आकस्मिक नहीं। तुम दुखी रहोगे ही, क्योंकि आनंद तक जाने की तुम यात्रा नहीं कर रहे हो। और अगर कभी तुम उत्सुक भी होते हो तो तुम जल्दबाजी में हो, अधैर्य है बहुत। तो तुम सोचते हो, दो-चार कदम एक साथ उठ जायें कि दो-चार सीढ़ियां एक साथ छलांग लग जायें, कि जल्दी कुछ हो जाये। कुछ हैं जो ज्ञान से शुरू करते हैं। कुछ, जो और भी ज्यादा जल्दबाजी में हैं, वे चरित्र से शुरू कर देते हैं। जब भी तुम्हें खयाल उठता है, तुम सोचने लगते हो चरित्र को कैसे बदलें! तुम आखिरी बात पहले लाना चाहते हो? तुम भ्रांति में पड़ रहे हो। तुम सिर के बल खड़े हो जाओगे।

इसलिए मैं कहता हूं, जैन मुनि सौ में निन्यानबे सिर के बल खड़े हैं। उन्होंने चरित्र से शुरुआत कर दी। और महावीर के बड़े सीधे-साफ सूत्र हैं। इनको समझने के लिए कोई बहुत बुद्धिमत्ता नहीं चाहिए। इनमें उलझाव कुछ भी नहीं है। महावीर की उलझाने की आदत नहीं है; चीजों को बिलकुल साफ-साफ रख देने की आदत है। अब इससे ज्यादा साफ सूत्र क्या होगा: “दर्शन के बिना ज्ञान नहीं! ज्ञान के बिना चरित्र नहीं। चरित्र के बिना मोक्ष नहीं।’

लेकिन जैन मुनि क्या कर रहा है? वह चरित्र को साध रहा है। वह कहता है, जब चरित्र शुद्ध होगा तो ज्ञान शुद्ध होगा। जब ज्ञान शुद्ध होगा तो दर्शन शुद्ध होगा। उसने सारी प्रक्रिया उलटी कर ली है। वह सिर के बल खड़ा हो गया है। इसलिए न तो दर्शन उत्पन्न होता, न ज्ञान उत्पन्न होता, न चरित्र उत्पन्न होता। सब बासा है। सब उधार है। सब मुर्दा और लाश की भांति है। कोई उत्सव नहीं है सत्य का। कोई परमात्मा की जीवंत अनुभूति नहीं है।

“क्रिया-विहीन ज्ञान व्यर्थ है।’ हयं नाणं कियाहीणं। “और अज्ञानियों की क्रिया भी व्यर्थ है।’

ये सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं!

“हया अण्णाणओ किया।’

“क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है।’ अगर ऐसा कोई ज्ञान तुम्हारे पास है जो जीवन में आचरित नहीं हो रहा है, अपने-आप जीवन में उतर नहीं रहा है तो व्यर्थ है, गलत है। और अगर तुम अज्ञानी हो और क्रिया में लग गये हो, चरित्र बनाने में लग गये हो, तो वह भी व्यर्थ है।

क्रियाहीन ज्ञान तो व्यर्थ है; क्योंकि जानते तुम हो, लेकिन जीवन में काम में नहीं लाते हो। यह तो ऐसे ही है कि भोजन रखा है और तुम भूखे बैठे हो। यह भोजन व्यर्थ है। हो या न हो, बराबर है। यह सर्दी पड़ रही है, कंबल सामने रखे बैठे हो, ओढ़ते नहीं हो–कि धूप निकली है, तुम सर्दी में कंप रहे हो, जाकर धूप में नहीं बैठ जाते हो कि थोड़ा धूप का आनंद ले लो और शरीर को गरमा लो। यह ज्ञान तो व्यर्थ है जो आचरण में न उतर आये। इस भोजन का क्या करोगे?

जीसस के जीवन में उल्लेख है कि जीसस ने चमत्कार किया और पत्थरों को रोटी बना दिया। एक ईसाई मेरे पास आया था। वह कहने लगा, आप इसमें मानते हैं या नहीं? मैंने कहा, मैं मानता हूं क्योंकि इससे भी बड़ा चमत्कार दूसरे लोग कर रहे हैं। उन्होंने रोटियों को पत्थर बना दिया है! तो यह कोई बड़ी बात नहीं कि ईसा ने अगर पत्थर को रोटी बना दिया; यह तो मैं रोज देख रहा हूं कि करोड़ों-करोड़ों लोगों ने रोटी को पत्थर बना दिया है। चमत्कार तो वही है।

ज्ञान रखा है, किसी काम नहीं आता! तुमने ज्ञान का कभी उपयोग किया है? तुम कर ही नहीं सकते उपयोग, क्योंकि वह दर्शन से पैदा नहीं हुआ है। वह तुम्हारा है ही नहीं। भीतर गहरे मन में तुम जानते ही हो कि वह ठीक नहीं है। ऊपर-ऊपर से कहे जाते हो, ठीक है। लोकोपचार, समाज, परंपरा!

तुम्हारा ज्ञान एक शिष्टाचार मात्र है। लेकिन भीतर तुम्हें उस पर भरोसा नहीं है। जिस पर भरोसा नहीं उसे तुम कैसे जीवन में उतारोगे? जिस भोजन पर तुम्हें भरोसा नहीं है, उसे तुम कैसे करोगे? उसे तुम कैसे पचाओगे? उसे तुम क्यों चबाओगे? ऊपर से तुम कहते हो, भोजन है; भीतर तो तुम्हें दिखायी पड़ता है पत्थर, मिट्टी है। इसलिए ज्ञान पड़ा रह जाता है।

“क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया भी व्यर्थ है।’ और अगर अज्ञानी चरित्रवान होने की कोशिश में लग जाये तो वह भी व्यर्थ है; क्योंकि वह कितना ही आरोपित कर ले चरित्र, वह कभी उसके प्राणों का स्पंदन नहीं बनेगा। वह उसके जीवन का गीत न होगा। वह बस ऊपर-ऊपर होगा। जरा खरोंच दो–और असली मवाद बाहर निकल आएगा।

तो तुम तथाकथित चरित्रवानों को खरोंचना मत, अन्यथा चमड़ी से भी कम गहरा उनका चरित्र है। बिना खरोंचा रहे तो सब ठीक चल जाता है। जरा-सी खरोंच–और कठिनाई हो जाती है। इसलिए तो तुम्हारे चरित्रवान जीवन को छोड़कर भाग जाते हैं, क्योंकि जीवन में लगती हैं खरोंचें।

रवींद्रनाथ से किसी ने पूछा, “आपने शांतिनिकेतन बोलपुर में क्यों बनाया?’ तो उन्होंने कहा, “क्या ढोलपुर में बनाऊं? यहां कम से कम बोल तो सकते हैं। बोलपुर!’ और मैं तुमसे कहता हूं, जब तक तुम ढोलपुर में न बोल सको, तक तक तुम्हारे बोलपुर में बोलने का कोई मतलब नहीं है। शांति तो वहां घनीभूत होनी चाहिए जहां चारों तरफ अशांति है। ढोलपुर!

बीच बाजार में अगर तुम मुक्त न हो सको तो तुम्हारी मुक्ति दो कौड़ी की है। अगर हिमालय की चोटियों पर बैठकर तुम मुक्त हो जाओ तो उस मुक्ति का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि उतरते ही पहाड़ से नीचे तुम पाओगे, वह मुक्ति पहाड़ पर ही छूट गयी। बाजार में खरोंचें लगेंगी।

तुम अपने मुनियों को थोड़ा बाजार में लाओ! वहां पता चल जायेगा, क्योंकि वहां चारों तरफ धक्कम-धुक्की है।

मैंने सुना है, एक संन्यासी तीस वर्ष तक हिमालय में रहा। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। लोग उसकी पहाड़ी गुफा तक आने लगे, उसके चरण छूने। आखिर कुंभ का मेला भरा था, तो लोगों ने कहा, “महाराज! अब तो नीचे उतरो।’ तो उसको भी अब तो भरोसा आ गया था। तीस साल! एक दफा क्रोध नहीं हुआ। एक दफा नाराज नहीं हुआ। एक दफा कोई विकृति नहीं उठी। उसने कहा, आता हूं। वह आया। अब कुंभ का मेला! वहां कौन किसकी फिक्र करता है! धक्कम-धुक्की! वह नीचे उतरा तो धक्कम-धुक्की होने लगी। एक आदमी का पैर उसके पैर पर पड़ गया। वह भूल ही गया तीस साल का हिमालय का वास, शांति, ध्यान! झपटकर उसकी गर्दन पकड़ ली और कहा, “तूने समझा क्या है? किसके ऊपर पैर रख रहा है? होश से चल!’ लेकिन तभी उसे खयाल आया, अरे! तीस साल मिट्टी हो गये!

पर हिमालय में तुम बैठे थे, एकांत में, न किसी का पैर पैर पर पड़ता था, न मौके थे, न अवसर थे। खरोंच जरा-सी लग जाये, मुश्किल में पड़ जाओगे।

साधु अगर सम्यक चरित्र को उपलब्ध हो तो भगोड़ा नहीं होगा। भगोड? होने की कोई जरूरत नहीं है। उसके होने में साधुता होगी। उसने कुछ छोड़ा नहीं है; जो गलत था वह छूट गया है। और उसने कुछ थोपा नहीं है; जो ठीक था वह प्रगट हुआ है। उसका चरित्र उसकी आंतरिक आत्मा का ही प्रतिबिंब होगा। उसके जीवन में तुम विरोध न पाओगे। उसके भीतर कोई दोहरी पर्तें नहीं हैं। उसके व्यक्तित्व में तुम डबल-माइंड न पाओगे। ऐसा नहीं है कि वह कुछ भीतर है और कुछ होने की चेष्टा कर रहा है। वह जो भीतर है, वैसा ही बाहर प्रगट हो रहा है। इसलिए महावीर नग्न खड़े हुए।

नग्न खड़े होना बड़ा प्रतीकात्मक है, कि जैसा मैं भीतर हूं वैसा बाहर। कपड़े भी क्यों पहनूं? मैं वैसा क्यों दिखलाऊं जैसा कि मैं नहीं हूं?

तुमने देखा! कपड़े के पीछे सिर्फ शरीर को ढांकने की ही आकांक्षा थोड़े ही है। अगर सिर्फ शरीर को ढांकने की आकांक्षा हो तो ठीक। कपड़े के पीछे शरीर को वैसा दिखाने की आकांक्षा है जैसा वह नहीं है। तो महावीर का नग्न खड़े हो जाना कपड़ों का विरोध नहीं है; लेकिन तुम्हारी गहरी आकांक्षा का विरोध है।

देखा स्त्रियां या पुरुष! पुरुष कोट बनवाते हैं तो कंधों पर रुई भरवा लेते हैं, क्योंकि छाती उभरी हुई दिखायी पड़े। रुई सही; मगर कौन देख रहा है भीतर आकर! बाहर से चलते तो छाती उभरी दिखायी पड़ती है।

स्त्रियां स्तनों को हजार तरह से उभारकर दिखलाने की कोशिश में लगी रहती हैं। न मालूम कितने तरह के इंतजाम कर रखे हैं। जैसा नहीं है वैसा दिखाने की चेष्टा चल रही है।

महावीर नग्न खड़े हुए–सिर्फ इस अर्थ में। यह प्रतीकात्मक है कि जैसा हूं, ठीक हूं। अब इसको अन्यथा दिखाने की क्या जरूरत; अन्यथा दिखाने से अन्यथा हो तो न जाऊंगा। किसको धोखा देना है और क्या सार है?

दर्शन हो तो ज्ञान होता, ज्ञान हो तो एक चरित्र आना शुरू होता। लेकिन वह चरित्र बड़ा नैसर्गिक होता। उसमें आरोपण, चेष्टा, श्रम जरा भी नहीं होता। एक नैसर्गिक दशा होती है।

मुल्ला नसरुद्दीन के घर मैं मेहमान था। सुबह-सुबह उसकी पत्नी से किसी बात पर झंझट हो गयी। तो मुझे देखकर उसने थोड़ा ज्यादा रौब बांधना चाहा पत्नी पर। और उसने कहा कि देखो, मौलवी के सामने, समाज के सामने तुमने कसम नहीं खायी थी कि सदा मेरी आज्ञा का पालन करोगी?

मैं मौजूद था तो उसने सोचा कि शायद पत्नी थोड़ी झुकेगी और झंझट ज्यादा न करेगी।

लेकिन पत्नी ने कहा, “हां, खायी थी, मुझे याद है। लेकिन वह सिर्फ इसीलिए खायी थी कि मैं उस वक्त पहली-पहली मुलाकात में तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी।’

अब ऐसी कसम का क्या अर्थ, जो इसीलिए खायी गई हो कि पहली मुलाकात में क्या तमाशा खड़ा करें? और भीड़ लगी है, मौलवी है, समाज है, विवाह हो रहा है, गठबंधन डाला जा रहा है–अब इसमें कहां तमाशा खड़ा करो बीच में–इसलिए!

जिंदगी में तुम्हारी कसमें, तुम्हारे व्रत, तुम्हारे चरित्र, अगर किसी कारण से हैं तो ऊपर-ऊपर होंगे।

पत्नी बहुत नाराज हो गयी–यह मौलवी की और विवाह की बात उठते देखकर। और उसने कहा कि मेरे मन में कई दफे ऐसा लगता है कि तुम बार-बार सोचते होओगे कि मैं अगर किसी और को ब्याही गई होती तो अच्छा था।

मुल्ला ने कहा, “नहीं, कभी नहीं! मैं किसी का भला…किसी का बुरा क्यों चाहने लगा! हां, यह भावना जरूर मन में कभी-कभी उठती है कि तुम अगर जनम भर कुंवारी रहती तो बड़ा अच्छा होता।’

हम छिपाये जाते हैं। जहां प्रेम नहीं है, वहां प्रेम दिखलाए जाते हैं। जहां सदभाव नहीं है, वहां सदभाव दिखलाए चले जाते हैं। और जैसे हम नहीं हैं वैसा हम अपने चारों तरफ रूप खड़ा करते रहते हैं। धीरे-धीरे दूसरे तो धोखे में आते ही हैं, हम भी धोखे में आ जाते हैं। अपने ही प्रचारित असत्य अपने को ही सत्य मालूम होने लगते हैं। तब एक बड़ी दुविधा पैदा होती है। उसी दुविधा में लोग फंसे हैं।

महावीर कहते हैं, क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ, अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ। तो न तो आचरण करना जबर्दस्ती। क्योंकि जो तुम्हारे ज्ञान में न उतरा हो वह तुम्हें पाखंडित करेगा, तुम्हें पाखंडी बनाएगा। और अगर कोई तुम्हारे ज्ञान में उतरा हो तो उसकी परीक्षा यही है कि वह आचरण में उतरे। इससे तुम गलत अर्थ मत लेना, जैसा कि आमतौर से जैन अनुयायी लेते हैं। वे सोचते हैं कि जो ज्ञान में आ गया, अब इसको आचरण में उतारना है। नहीं, यह तो सिर्फ परीक्षा, कसौटी है। महावीर यह कह रहे हैं कि जो ज्ञान में आ गया है, वह आचरण में आना ही चाहिए। अगर ज्ञान में आ गया है तो आचरण में आने से बच नहीं सकता। लेकिन एक शर्त है कि ज्ञान में दर्शन के माध्यम से आया हो। अगर दर्शन के माध्यम से न आया हो तो ज्ञान की तरह पड़ा रहेगा–तुमसे दूर, संबंध न जुड़ेगा; तुम्हारे हृदय और तुम्हारे ज्ञान में कोई सेतु न होगा।

“जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है…और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है।’

जंगल में आग लगी हो और एक अंधा आदमी हो जंगल में, वह दौड़ सकता है; लेकिन उसे दिखायी नहीं पड़ता कि आग कहां है, लपटें कहां हैं। वह दौड़कर भी जल मरता है। और एक लंगड़ा हो, उसे दिखायी पड़ता है कि आग कहां लगी है, कहां से भागूं, कहा से निकलूं; लेकिन पैर नहीं हैं, तो भी जल मरता है।

जिस व्यक्ति के पास ज्ञान तो है, लेकिन आचरण नहीं, वह जल मरेगा। वह लंगड़ा है। जिस व्यक्ति के पास आचरण तो है, लेकिन बोध नहीं, वह भी जल मरेगा। उसके पास पैर तो थे, लेकिन आंख नहीं है।

“कहा जाता है कि ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है; जैसे कि वन में पंगु और अंधे के मिलने पर पारस्परिक संप्रयोग से वन से निकलकर दोनों नगर में प्रविष्ट हो जाते हैं। एक पहिए से रथ नहीं चलता।’

पासंतो पंगुलो दङ्ढो, धावमाणो य अंधओ।

अंधा भी मर जाता है। पैर थे, बच सकता था। पंगु भी मर जाता है। आंखें थीं, बच सकता था।

लेकिन दोनों का मिलन चाहिए।

संजो असिद्धीइ फलं वयंति, न हु एग चक्केण रहो पयाइ।

अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपडत्ता नगरं पविट्ठा।।

अगर दोनों साथ हो जाएं, अगर अंधा और लंगड़ा एक समझौते पर आ जायें, एक मैत्री कर लें, एक संबंध बना लें–संबंध कि लंगड़ा कहे कि मुझे तुम अपने कंधों पर बिठा लो, ताकि मैं तुम्हारी आंख का काम करने लगूं; संबंध कि अंधा कहे, तुम मेरे कंधों पर बैठ जाओ, ताकि मैं तुम्हारे पैर बन जाऊं। अंधा और लंगड़ा उस वन में जहां आग लगी है, बचकर निकल सकते हैं अगर एक व्यक्ति हो जायें, अगर दो न रहें। अगर लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठ जाये, अंधे के लिए देखे और अंधा लंगड़े के लिए चले, दोनों जुड़ जायें, यह संयोग अगर बैठ जाये, तो बचकर निकल सकते हैं, तो सोने में सुगंध आ जाये।

महावीर कहते हैं, एक पहिये से रथ नहीं चलता। और ऐसी ही व्यक्ति के जीवन की दशा है। जीवन में तो आग लगी है। यह जीवन का वन तो जल रहा है। इससे निकलने का उपाय? अकेला जिनके पास चरित्र है और जिनके पास बोध नहीं, वे भी न निकल सकेंगे। और जिनके पास ज्ञान है लेकिन चरित्र नहीं, वे भी न निकल सकेंगे। तुम्हारे भीतर एक रसायन घटे, एक अल्केमिकल परिवर्तन हो, एक कीमिया से तुम गुजर जाओ कि तुम्हारा ज्ञान दर्शन बने, तुम्हारी आंख बन जाये और तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा चरित्र बन जाये। दो तरफ ज्ञान में घटनाएं घटें, एक तरफ ज्ञान दर्शन बने और दूसरी तरफ ज्ञान चरित्र बने, तो पक्षी के दोनों पंख उपलब्ध हो गए। अब तुम उड़ सकते हो इस विराट के आकाश में।

है अंधेरी रात पर

दीवा जलाना कब मना है?

कल्पना के हाथ से

कमनीय जो मंदिर बना था

भावना के हाथ से जिसमें

वितानों को तना था,

स्वप्न ने अपने करों से

था जिसे रुचि से संवारा

स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से,

रसों से जो सना था

ढह गया वह तो जुटाकर

ईंट, पत्थर, कंकड़ों को

एक अपनी शांति की

कुटिया बनाना कब मना है?

है अंधेरी रात पर

दीवा जलाना कब मना है?

जिस दिन तुम दर्शन को उपलब्ध होओगे, उस दिन तुम्हारा पुराना भवन–सपनों का, स्वर्ग के रंगों का, इंद्रधनुषों का गिरेगा–धूल में गिरेगा। खंडहर भी न बचेंगे! क्योंकि सपने के कहीं कोई खंडहर बचते हैं! बस तिरोहित हो जायेगा, जैसे कभी न था। हाथ में राख भी न रह जायेगी।

दर्शन को उपलब्ध होते ही, जीवन को गौर से देखते ही एक बात साफ हो जाती है कि जीवन है, तुम हो–और बीच में तुमने जो सपने बनाए थे वे झूठे थे। वे तुम्हारी मूर्च्छा से उठे थे। वे तुम्हारी बंद आंखों से उठे थे। जैसे सुबह एक आदमी जागता है, आंख खोलता है–सारे सपने तिरोहित हो गए!

दर्शन का अर्थ है, ऐसे ही तुम जीवन के प्रति आंख खोलो, जागो और देखो! तो कितने-कितने तुमने सजाए हैं, संवारे हैं स्वप्न, कितने रंग भरे हैं! वे सब अचानक तिरोहित हो जायेंगे! कितने ही रंगीन हों, सपने सपने हैं। उनके तिरोहित हो जाने से घबड़ा मत जाना। ईंट-पत्थर से भी छोटी-सी कुटिया बनायी जा सकती है। सत्य से भी शांति की छोटी-सी कुटिया बनायी जा सकती है। झूठे सपनों के बड़े महलों से कुछ सार नहीं; उनमें कोई कभी रहा नहीं। लोगों ने सिर्फ सोचा है कि रहेंगे। वह सिर्फ बातचीत है। वह बातचीत कितनी ही सुंदर मालूम पड़े, वह सिर्फ लफ्फाजी है।

मैंने सुना है, मिर्जा गालिब के पास कोई आदमी रुपये उधार मांगने आया। उन्होंने बड़ी मीठी बातें कहीं। कवि थे। जो आदमी रुपये उधार मांगने आया था, उसने भी कविता में ही बात की। कहा–

काका! बड़े बे-वक्त आ गए

व्यर्थ ही रास्ता नापा

और आपको देखके मेरा मन कांपा

और आपने समय ठीक नहीं भांपा

मेरे शेर मारने गये हैं डाका

अभी तो चल रहा है फाका

लौटकर आने दो मेरे काका

आपका बन जायेगा खाका

अभी हाका करो, वर्ना

बीबी बना देगी आपका साका

और मैं करूंगा ताका

मेरे आका! अभी न करना इधर नाका

नहीं तो बीबी न छोड़ेगी एक बाल बांका।

इतनी लंबी कविता कही! लेकिन लेना-देना कुछ भी नहीं है। वह आदमी कविता से ही घबड़ाकर भाग गया होगा। फिर दुबारा न आया होगा।

तुम्हारे शब्द कितने ही रंगीन हों, और कितने ही काव्य के रंग तुमने भरे हों, और कितनी ही तुकबंदी बांधी हो, कितने ही शब्दों का सौंदर्य बिठाया हो–लेकिन भुलावे हैं! और जितने जल्दी जाग जाओ उतना अच्छा है।

दर्शन का क्या अर्थ? दर्शन का इतना ही अर्थ है: आंखें सपनों से खाली हो जायें।

और दर्शन मूल भित्ति है। अगर दर्शन को न समझ पाए तो पूरे महावीर बेबूझ रह जायेंगे। दर्शन का अर्थ है: आंख स्वप्न से खाली हो; आंख में कोई सपना न हो, कोई चाह न हो, कोई तृष्णा न हो। आंख उसको देखने को राजी हो जो है; आंख उसकी मांग न करे जो होना चाहिए।

फिर से दोहरा दूं। जब भी तुम कहते हो ऐसा होना चाहिए, तभी तुम उसे देखने में असमर्थ हो जाते हो–जो है। तब तुम उसे देखने लगते हो किसी गहरे तल पर–जो नहीं है और होना चाहिए। तब तुमने सपना बनाना शुरू कर दिया। तुमने यथार्थ को न देखा। तुमने आदर्श को मांगा। तुमने वह न देखा जो मौजूद था। तुम उसकी चाह करने लगे जो होना चाहिए। तुम आशा को बीच में ले आए। तुम कल्पना बीच में ले आए। फिर कल्पना ने ताने-बाने बुने। फिर सब चीजें गलत हो गयीं। फिर कल्पना के माध्यम से तुम जो देखते हो वह सत्य नहीं है। ऐसा तुम चाहते थे।

तुमने देखा, जब दो व्यक्ति एक-दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं तो एक-दूसरे में ऐसी चीजें देखने लगते हैं जो हैं ही नहीं। स्त्री पुरुष में ऐसा देखने लगती है कि ऐसा महावीर कभी हुआ ही नहीं। पुरुष स्त्री में देखने लगता है जगत का सारा सौंदर्य! ऐसी बातें करने लगते हैं कि जिसका हिसाब नहीं। चांदत्तारों को देखने लगते हैं–एक-दूसरे के चेहरों में, आंखों में। अनंत फूलों की गंध एक-दूसरे के पसीने से आने लगती है। ये सपने हैं! ऐसा वे चाहते हैं। फिर अगर सुहागरात पूरी होतेऱ्होते ये सब सपने टूट जाते हैं तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तो यह था कि तुम इतनी देर भी कैसे देख सके!

फिर प्रेमी सोचते हैं कि दूसरे ने मुझे धोखा दिया। कोई किसी को धोखा नहीं दे रहा–तुम ही धोखा खा रहे हो। फिर प्रेमी सोचता है, यह प्रेयसी तो गलत साबित हुई। यह तो मैंने जो फूल की गंध देखी थी वह निकली न। यह क्या मुझे धोखा दे गई! यह तो बड़ी कर्कशा निकली। और मैंने तो सारे संगीत, सारा साज इसके कंठ में सुना था! मैंने तो कोयल को कूकते सुना था। मैंने तो कोकिला जानी थी। और यह तो घर आते-आते स्वर कर्कश हो गया। तो क्या इसने मुझे धोखा दिया था? क्या उस क्षण इसने बनावट की थी? वह जो माधुर्य इससे मैंने पाया था, तो वह सब प्रवंचना थी? तो वह जाल था? वह मुझे फंसाने के लिए था? और प्रेयसी भी यही सोचने लगती है कि इस आदमी में जो भगवत्ता देखी थी वह कहां गई! इसके चरणों में सिर रखने का मन हुआ था–तो वे चरण सब बनावटी थे! वह सब पाखंड था?

जल्दी ही कांटे उभर आते हैं, फूल विदा हो जाते हैं। जल्दी ही यथार्थ प्रगट होता है और सपने हट जाते हैं।

और ऐसा प्रेमी और प्रेयसी के बीच होता है, ऐसा नहीं–ऐसा हमारे हर संबंध में होता है। ऐसे जीवन के हर मोड़ पर हम उन चीजों को देख लेते हैं जो हैं नहीं। हम उन इंद्रधनुषों को तान लेते हैं जो कहीं भी नहीं हैं। और फिर जब इंद्रधनुष नहीं पाते हैं तो रोते हैं, चीखते हैं, विषाद से भरते हैं, दुखी होते हैं, चिंतित होते हैं।

दर्शन का अर्थ है: जो है उसे बिना किसी आशा से समिश्रित किए, बिना किसी कल्पना में डुबाये, बिना कैसा होना चाहिए उसको बीच में लाये, देख लेने की कला!

आंख साफ हो तो तुम कभी उलझोगे न। आंख साफ हो तो यथार्थ से संबंध रहेगा; अयथार्थ तुम्हें बांधेगा न। और आंख साफ हो, तो साफ आंख से जो बोध संगृहीत होता है उसका नाम ज्ञान। साफ आंख से संगृहीत बोध का अंतिम जो परिणाम होता है, उसका नाम चारित्र्य। और चारित्र्य का जो आत्यंतिक फल है वह मोक्ष।

है अंधेरी रात पर

दीवा जलाना कब मना है?

रात अंधेरी है। यथार्थ कठोर है। लेकिन दीये के जलाने की कोई मनाही नहीं है।

है अंधेरी रात पर

दीवा जलाना कब मना है?

–आंख के दीये को जलाओ! दर्शन को जगाओ!

कल्पना के हाथ से कमनीय

जो मंदिर बना था

भावना के हाथ ने जिसमें

वितानों को तना था

स्वप्न ने अपने करों से

था जिसे रुचि से संवारा

स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से,

रसों से जो सना था

ढह गया वह तो जुटाकर

ईंट, पत्थर, कंकड़ों को

एक अपनी शांति की

कुटिया बनाना कब मना है?

शुद्ध दर्शन से जो दिखायी पड़ता है, यथार्थ, उस यथार्थ से ही अपनी जीवन की कुटिया को बना लेने का नाम चारित्र्य है।

स्वप्न से जीवन को बनाना और सत्य से जीवन को बनाना–बस यही जीवन को बनाने के दो ढंग हैं।

ढह गया वह तो जुटाकर

ईंट, पत्थर, कंकड़ों को

एक अपनी शांति की

कुटिया बनाना कब मना है?

है अंधेरी रात पर

दीवा जलाना कब मना है?

लेकिन यह किसी बाहर के दीये के जलाने की बात नहीं है–भीतर के दीये को जलाने की बात है। और यह दीया जलने लगता है जैसे-जैसे तुम आंख को साफ करके देखने लगते हो। तो क्या करो?

महावीर का शब्द है–सामायिक। पतंजलि का शब्द है–ध्यान। बुद्ध का शब्द है–सम्यक स्मृति। जीवन को जागरण से भरो! जो भी करते हो, करते समय स्मरण रखो कि सपनों को हटाते चलो। पुरानी आदतें हैं, वे बार-बार बीच में आ जायेंगी। उनको हटाते चलो।

तेरी दुआ है कि हो तेरी आरजू पूरी

मेरी दुआ है कि तेरी आरजू बदल जाए।

तुम तो चाहते हो कि तुम्हारी आकांक्षाएं पूरी हो जायें, लेकिन महावीर, बुद्ध, कृष्ण चाहते हैं तुम्हारी आकांक्षाएं बदल जायें। आकांक्षाएं पूरी करना चाहोगे तो सपनों में रहोगे। आकांक्षा बदल जाए, आकांक्षा न हो जाए, शून्य हो जाए–तो आकांक्षा के नीचे से जो शक्ति बचेगी, जो आकांक्षा में नियोजित थी, मुक्त होगी, वह तुम्हारे जीवन में विस्फोट हो जायेगा; जैसे अणु को हम तोड़ते हैं, तो छोटे-से अणु में जो आंख से भी दिखायी नहीं पड़ता, इतनी ऊर्जा प्रगट होती है! अणु के जो परमाणु हैं वह एक-दूसरे को बांधे हुए हैं। जब उन्हें हम अलग करते हैं तो जो शक्ति उनको बांधे थी, वह मुक्त होती है। उस मुक्त शक्ति का परिणाम हिरोशिमा में देखा, नागासाकी में देखा: एक लाख आदमी क्षणभर में राख हो गए। एक छोटे-से परमाणु को जिसको अब तक किसी ने देखा नहीं है, इतने क्षुद्र के भीतर इतनी ऊर्जा छिपी है! तो आत्मा के भीतर कितनी ऊर्जा न छिपी होगी! जरा आत्मा के बंधन को हटाना जरूरी है। जैसे अणु के बंधन को हटाया तो इतनी विराट ऊर्जा प्रगट हुई–आत्मा के बंधन हट जायें तो जो परम ऊर्जा प्रगट होती है उसी का नाम महावीर ने परमात्मा कहा है। वह आत्म-विस्फोट है।

बंधन हटाने हैं। बंधन आकांक्षाओं के, आशाओं के हैं। बंधन मूर्च्छा के हैं। तो मूर्च्छा को तोड़ने में लग जाओ।

सारे विचार का महावीर का एक संक्षिप्त भाव है: मूर्च्छा को तोड़ने में लग जाओ। जो भी करो अपने को जगाकर करो। राह पर चलो तो जागकर चलो। भोजन करो तो जागकर करो। किसी का हाथ हाथ में लो तो जागकर लो। और सदा ध्यान रखो कि बीच में सपना न आए। थोड़े दिन सपनों को ऐसे छांटते रहे, हटाते रहे, हटाते रहे तो जल्दी ही तुम पाओगे कभी-कभी क्षणभर को सपने नहीं होते और झलक मिलती है। वही झलक ज्ञान बनेगी। फिर उन झलकों को इकट्ठी करते जाना। वह अपने आप इकट्ठी होती चली जाती हैं। ज्ञान एक दफा हो तो कोई भूल नहीं सकता। वह तो हमें, दूसरों की बातें हैं, इसलिए याद रखनी पड़ती हैं। जो अपने में घटता है उसे विस्मरण करने का उपाय नहीं है। वह तो संगृहीत होता चला जाता है, सघन होता चला जाता है। और जैसे बूंद-बूंद गिरकर सागर बन जाता है, ऐसे बूंद-बूंद ज्ञान की गिरकर आचरण निर्मित होता है।

नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे।

चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई।।

“ज्ञान से जानना होता है; दर्शन से श्रद्धा, श्रद्धा से चरित्र, चरित्र से शुद्धि…’

नादंसणिस्स नाणं–दर्शन के बिना ज्ञान नहीं।

नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा–ज्ञान के बिना चरित्र नहीं।

अगुणिस्स नत्थि मोक्खो–चरित्र के बिना मोक्ष कहां?

नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं–और मोक्ष के बिना आनंद कहां?

उस परमानंद को चाहते हो तो दर्शन के बीज बोओ। दर्शन के बीज बोओ–ज्ञान की फसल काटोगे। उस ज्ञान की फसल को पचाओगे, पुष्ट होओगे, तो चारित्र्य उत्पन्न होगा।

और मोक्ष चारित्र्य की प्रभा है। चरित्रवान मुक्त है। चरित्रहीन बंधा है। चरित्रवान की जंजीरें गिर गयीं।

लेकिन अभी तो तुमने जो चरित्रवान देखे हैं, तुम उनको पाओगे कि उन्होंने नयी जंजीरें बना ली हैं। तो तुम्हारे चरित्रहीन भी बंधे हैं, तुम्हारे चरित्रवान भी बंधे हैं। और अकसर तो बड़ा व्यंग्य और बड़ी उलटी बात दिखायी पड़ती है: चरित्रहीनों से ज्यादा बंधे तुम्हारे चरित्रवान हैं। चरित्रहीनों से भी बंधे! चरित्रहीन में भी थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता मालूम पड़ती है। चरित्रवान तो बैठा है मंदिर में, स्थानक में, पूजागृह में बंद! ऐसा घबड़ाया, डरा! लेकिन कहीं चूक हो गयी है। चरित्र की प्रभा मोक्ष है। जो मुक्त न कर जाये, वह चरित्र नहीं।

तुम दर्शन से शुरू करना: किसी दिन मोक्ष की प्रभा उपलब्ध होती है। निश्चित होती है। यह जीवन का ठीक गणित है।

और महावीर जो भी कह रहे हैं, वह वैज्ञानिक संगति का सत्य है। उसमें एक-एक कदम वैज्ञानिक है। जैसे सौ डिग्री पानी गरम करो, भाप बन जाता है–ऐसे महावीर के वचन हैं: दर्शन से ज्ञान, ज्ञान से चरित्र, चरित्र से मोक्ष!

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–26

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तुम्‍हारी संपदा—तुम हो—प्रवचन—छब्‍बीसवां

प्रश्‍नसार:

1— न मालूम खोपड़ी में कहां से कहां चला गया! चाहता था योग से शक्ति, यहां समझने को मिली शांति। चाहता था धर्म से प्रभुता, यहां समझने को मिली शून्यता। कुछ निर्णय नहीं कर पाता हूं। मन विक्षिप्त हुआ जाता है। यह यात्रा न मालूम कहां जाकर रुकेगी। पुराना विश्वास बिखर चुका है, नये का जन्म नहीं हो रहा। अब न पीछे जा सकता हूं और न आगे ही बढ़ पाता हूं। कृपया मार्गदर्शन दें!

2—दर्शन के तत्‍क्षण बाद घटी घटना को ही क्‍या भजन कहते है?

3—जो दिन आपके साथ प्रेमपूर्वक बिताए उनको मैं कैसे भूलूं? अतीत को भूलना मेरे बस की बात नहीं है। आप वीतराग है। अब इन आसुओं के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है। मन बार—बार कहता है, आप कब आएंगे?

    पहला प्रश्न:

    न मालूम खोपड़ी में कहां से कहां चला गया! चाहता था योग से शक्ति, यहां समझने को मिली शांति। चाहता था धर्म से प्रभुता, यहां समझने को मिली शून्यता। कुछ निर्णय नहीं कर पाता हूं। मन विक्षिप्त हुआ जाता है। यह यात्रा न मालूम कहां जाकर रुकेगी। पुराना विश्वास बिखर चुका है, नये का जन्म नहीं हो रहा। अब न पीछे जा सकता हूं और न आगे ही बढ़ पाता हूं। कृपया मार्गदर्शन दें!

    धर्म की खोज में निकलनेवाले लोग अकसर किसी और चीज की खोज में निकलते हैं–उस खोज को धर्म का नाम दे देते हैं।

    शक्ति की खोज धर्म की खोज नहीं है। शक्ति की खोज तो अहंकार की ही खोज है। शक्तिशाली होने की आकांक्षा धर्म-विरोधी है।

    लेकिन अधिक लोग धर्म की यात्रा पर किन्हीं गलत कारणों से निकलते हैं; जो संसार में नहीं मिल सका, उसी को खोजने परमात्मा में जाते हैं।

    जो संसार में नहीं मिल सका, उसे खोजने परमात्मा में मत जाना। क्योंकि जो संसार में ही नहीं है, वह परमात्मा में तो हो ही नहीं सकता। जिसे तुम संसार में न पा सके, उसे तो समझ लेना कि पाने का कोई उपाय ही नहीं है।

    लेकिन स्वाभाविक है। संसार में हम जीये हैं अब तक जन्मों-जन्मों तक। वही एक भाषा परिचित है–पद की, धन की, प्रभुता की, शक्ति की। संसार असफल हुआ तो सोचते हैं चलो, उन्हीं आकांक्षाओं को प्रभु के मार्ग पर सफल कर लेंगे! तो फिर तुम्हें असफलता हाथ लगेगी। और भी गहन असफलता हाथ लगेगी! जैसे संसार के मार्ग पर लगी, उससे भी ज्यादा! तुम उजड़े-उजड़े हो जाओगे! लेकिन कारण धर्म का पथ नहीं है; कारण तुम्हारी गलत आकांक्षा है।

    जब कोई चाहता है शक्ति मिल जाये, तो किसके खिलाफ चाहता है? क्योंकि शक्ति तो सदा किसी के खिलाफ होती है। शक्ति का अर्थ ही हिंसा है।

    शक्ति हम चाहते ही इसीलिए हैं कि किसी दूसरे से बलशाली हो जायें, कि किसी दूसरे की छाती पर बैठ जायें, कि किसी दूसरे को दबा लें, कि किसी दूसरे को छोटा कर दें। शक्ति का अर्थ ही महत्वाकांक्षा है। वह अहंकार का ज्वर है।

    धर्म तो शांति की खोज है। शांति का अर्थ है: शक्ति की खोज व्यर्थ है, इस बात का बोध; और शक्ति की खोज से मैं सदा बीमार रहूंगा, स्वस्थ न हो पाऊंगा।

    शांति की खोज बिलकुल विपरीत है। शांति की खोज का अर्थ है: मैं इस “मैं’ को भी गिराता हूं, जिसमें शक्ति की आकांक्षा पैदा होती है; मैं इस बीज को दग्ध करता हूं। इसने मुझे तड़फाया, जन्मों-जन्मों तक भटकाया।

    बुद्ध ने, जब उन्हें परम ज्ञान हुआ तो आकाश की तरफ आंखें उठाकर कहा, “हे गृहकारक! हे तृष्णा के गृहकारक! अब तुझे मेरे लिए और कोई घर न बनाना पड़ेगा। बहुत तूने घर बनाए मेरे लिए, लेकिन अब मैं आखिरी जाल से मुक्त हो गया हूं। अब और मेरे लिए जन्म न होंगे।’

    जहां महत्वाकांक्षा न रही, तृष्णा न रही, वहां और जन्म न रहे। जहां महत्वाकांक्षा न रही, वहां भविष्य न रहा, समय न रहा; वहां हम शाश्वत में प्रवेश करते हैं।

    शाश्वत में प्रवेश होने से जो अनुभव होता है उसी का नाम शांति है। समय में दौड़ने से जो अनुभव होता है उसी का नाम अशांति है। आज से कल, कल से परसों! जहां हम होते हैं वहां कभी नहीं होते: अशांति का यही अर्थ है। जो हम होते हैं उससे हम कभी राजी नहीं होते–कुछ और होना चाहिए! हमारी मांग का पात्र कभी भरता नहीं। हमारा भिक्षापात्र खाली का खाली रहता है: कुछ और! कुछ और! कुछ और!

    तृप्ति तो असंभव है, क्योंकि जो भी मिलेगा उससे ज्यादा मिलने की कल्पना तो हम कर ही सकते हैं। जो भी मिल जायेगा उससे ज्यादा भी हो सकता है, इसकी वासना तो हम जगा ही सकते हैं।

    क्या तुम सोचते हो ऐसी कोई घड़ी हो सकती है वासना के जगत में, जहां तुम ज्यादा की कल्पना न कर सको? ऐसी तो कोई घड़ी नहीं हो सकती। सारा संसार मिल जाए तो भी मन कहेगा: और चांदत्तारे पड़े हैं!

    कहते हैं, सिकंदर जब डायोजनीज को मिला तो डायोजनीज ने एक बड़ा मजाक किया। उसने कहा, “सिकंदर! यह भी तो सोच कि अगर तू सारी दुनिया जीत लेगा तो बड़ी मुश्किल में पड़ जायेगा।’ सिकंदर ने कहा, “क्यों?’ तो डायोजनीज ने कहा, “फिर इसके बाद दूसरी कोई दुनिया नहीं है।’ और कहते हैं, यह सोचकर ही सिकंदर उदास हो गया। उसने कहा, “मैंने इस पर कभी विचार नहीं किया। लेकिन तुम ठीक कहते हो। सारी दुनिया जीतकर फिर मैं क्या करूंगा! फिर तो वासना अधर में लटकी रह जायेगी। फिर तो अतृप्ति अधर में लटकी रह जायेगी। फिर तो छाती पर अतृप्ति का पत्थर सदा के लिए रखा रह जायेगा। क्योंकि और तो कुछ पाने को नहीं है, लेकिन पाने की आकांक्षा थोड़े ही समाप्त होती है।’

    तुम कुछ भी पा लो, कितनी ही शक्ति, कितनी ही प्रभुता, कितनी ही प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा–ज्यादा की कल्पना सदा संभव है। तुम तृप्त न हो पाओगे। तुम्हारी तिजोड़ी कितनी ही बड़ी हो, और भी बड़ी हो सकती है; उसमें कुछ जोड़ा जा सकता है। तुम्हारा सौंदर्य कितना ही हो, उसमें कुछ जोड़ा जा सकता है। और जब तक जोड़ा जा सकता है तब तक तुम अतृप्त रहोगे। यह दौड़ तो कभी पूरी न होगी!

    इसलिए बुद्ध ने कहा है, तृष्णा दुष्पूर है। इसे कोई कभी भर नहीं पाया। नहीं कि संसार में भरने के साधन नहीं हैं; पर तृष्णा का स्वभाव दुष्पूर है। इस तृष्णा को जब हम थका-थका पाते हैं संसार में और भर नहीं पाते तो हम प्रभु की ओर मुड़ते हैं। प्रभु की ओर मुड़ना तो ठीक, लेकिन मुड़ने का कारण गलत होता है।

    प्रभु की ओर मुड़कर धीरे-धीरे तुम्हें समझ में पड़ेगा कि तुम्हारी आंखों में तो पुरानी वासना ही भरी है। तुम परमात्मा से भी वही मांग रहे हो जो तुमने संसार से मांगा था। तो तुम मुड़े तो जरूर, शरीर तो मुड़ गया, एक सौ अस्सी डिग्री मुड़ गया–लेकिन आत्मा नहीं मुड़ी।

    यही अड़चन प्रश्नकर्ता को मालूम हो रही है: “न मालूम कहां से कहां चला गया! चाहता था शक्ति, यहां समझने को मिली शांति…।’ इससे उलझन पैदा हो रही है। इससे उलझन सुलझनी चाहिए।

    समझ को थोड़ा जगाओ! साफ-सुथरा करो! अगर शक्ति मिल जायेगी तो क्या करोगे? और शक्ति पाने में नियोजित करोगे। लोग धन कमाते हैं, क्या करते हैं? और धन कमाने में लगाते हैं। और कमाकर क्या करेंगे? और कमाने में लगाते हैं। भोगोगे कब? जो मिलता है, उसे और आगे के लिये लगा देना पड़ता है। ऐसे जिंदगी हाथ से निकल जाती है। एक दिन मौत सामने खड़ी हो जाती है, जिसके आगे फिर कुछ भी नहीं है। तब तुम चौंकते हो, लेकिन तब बड़ी देर हो चुकी!

    मेरे पास आने का एक ही उपयोग हो सकता है कि जो मौत करेगी वह मैं तुम्हारे लिए अभी करूं। इसलिए तुम घबड़ाओगे। इसलिए तुम भागोगे, बचोगे, तुम उपाय करोगे। जानता हूं, तुम कुछ और खोजने आए हो। लेकिन तुम जो खोजने आए हो वह मैं तुम्हें नहीं दे सकता। वह देना तो तुम्हारी दुश्मनी होगी। मैं तो तुम्हें वही दे सकता हूं जो देना चाहिए। मैं तुम्हें शांति की दिशा में ही अग्रसर करूंगा।

    इसलिए एक महत्वपूर्ण बात समझ लेनी जरूरी है: शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है वह बड़ा बेबूझ है! शिष्य कुछ और ही मांगता है; गुरु कुछ और ही देता है। शिष्य जो मांगता है, अगर गुरु दे दे तो वह गुरु गुरु नहीं; वह दुश्मन है। गुरु जो देना चाहता है, उसे लेने को शिष्य राजी हो जाए तो ही शिष्य है।

    तुम अपनी मांग लेकर मेरे पास मत रहना। अन्यथा तुम्हारी मांग मेरे और तुम्हारे बीच दीवाल की तरह खड़ी रहेगी। जब मेरे पास ही हो तो यही कह दो कि अब तुम ही यह भी तय करो कि क्या ठीक है। इसका नाम ही समर्पण है।

    समर्पण का यह अर्थ नहीं है कि तुम कुछ मांगने आये हो; समर्पण करने से मिलेगा, इसलिए समर्पण करते हो। नहीं, समर्पण का अर्थ है: तुम अपनी मांग, तुम अपना मन सब समर्पण करते हो।

    तुम कहते हो, “अब मेरी कोई मांग नहीं; अब मेरा कोई मन नहीं; अब जो मर्जी हो! अब जो उस पूर्ण की मर्जी हो, वह होने दो! अब मैं यह न कहूंगा कि मेरी मर्जी पूरी हो।’

    मेरी मर्जी पूरी हो, यही अधार्मिक आदमी का लक्षण है।

    गुरजिएफ कहता था, तथाकथित धार्मिक लोग अकसर तो धर्म-विरोधी हैं। उसने तो यहां तक कहा कि जिनको तुम धर्म कहते हो वह सभी ईश्वर-विरोधी हैं। क्योंकि उनके पीछे वही आकांक्षाएं हैं; अपनी मर्जी पूरी करने के इरादे हैं।

    तुम ईश्वर को भी संचालित करना चाहते हो–अपनी मर्जी से! तुम उसे अपने पीछे चलाना चाहते हो। और ईश्वर केवल उन्हीं के साथ चल पाता है जो उसके पीछे चलने को राजी हैं।

    सत्य को अपने पीछे खड़ा करने के लिए तो बहुत से लोग उत्सुक हैं। सत्य के पीछे खड़ा होने को जो उत्सुक होता है वही शिष्य है। उसने ही सीखना शुरू किया।

    तो अब आ ही गए हो तो तुम जो कुछ सीखकर आये हो जिंदगी से, वह तुम्हारे काम नहीं पड़ेगा। जिंदगी में ही काम न पड़ा। जो नाव नदी-नाले में काम न आयी उसको लेकर तुम सागर में उतर रहे हो? जो नाव नदी-नालों में डुबाने लगी थी, उसको लेकर तुम सागर में उतरने का आयोजन कर रहे हो? फिर डूबो, तो परेशान मत होना!

    निश्चित ही डूबोगे, क्योंकि सागर के विराट का तुम्हें बोध नहीं। सागर में शक्ति की नाव मत चलाना; वह कागज की नाव है। वह अहंकार की नाव है; बुरी तरफ डूबोगे! कूल-किनारा न मिलेगा। बहुत तड़फोगे, परेशान होओगे! वहां तो शांति की नाव चलाना। क्योंकि शक्ति की सीमा होती है। शांति की कोई सीमा नहीं। शक्ति को छीना जा सकता है, शांति को छीना नहीं जा सकता है।

    खयाल किया तुमने! बड़े से बड़े शक्तिशाली की शक्ति छिन सकती है–छीनी जा सकती है।

    नेपोलियन हार गया अंत में तो उसे सेंट हेलेना के एक छोटे-से द्वीप में कारागृह में डाल दिया गया। सम्राट था। सारे जगत को जीतने चला था। आखिरी नतीजा यह हुआ कि कारागृह में पड़ा। द्वीप पर उसे चलने-फिरने की स्वतंत्रता थी। छोटा-सा द्वीप था। वह पूरा द्वीप ही कारागृह था। इसलिए कहीं भागने का तो कोई उपाय न था। पहले ही दिन वह सुबह-सुबह घूमने निकला। एक पगडंडी से गुजर रहा है। एक स्त्री घास का गट्ठर लिए सिर पर आती है। तो नेपोलियन का जो चिकित्सक है–उसे एक चिकित्सक दिया गया था क्योंकि वह बीमार था, परेशान था, उसकी रक्षा के लिए–वह चिकित्सक चिल्लाकर कहता है उस घसियारिन से कि “हट, तुझे पता है कौन आ रहा है! रास्ता छोड़!’ लेकिन नेपोलियन स्वयं रास्ता छोड़कर किनारे खड़ा हो गया और उसने कहा कि तुम भूल करते हो। वे दिन गये जब नेपोलियन के लिए पहाड़ हट जाते थे। अब तो घसियारिन भी न हटेगी। अब तो मुझे ही हट जाना उचित है। घसियारिन कम से कम स्वतंत्र तो है, मैं कैदी हूं! मेरी कोई हैसियत नहीं उसके सामने।

    नेपोलियन की शक्ति छिन जाती है! सम्राट दीन और दरिद्र हो जाते हैं। जो छिन जाती है, जिस पर दूसरों का कब्जा हो सकता है, जो परतंत्र है–उसका क्या मूल्य? वह नाव बड़ी छोटी है।

    तुमने खयाल किया: शक्ति के लिए दूसरों की जरूरत है! अगर नेपोलियन को जंगल में अकेला छोड़ दो, उसके पास कोई शक्ति नहीं है। प्रधानमंत्रियों को, राष्ट्रपतियों को जंगल में अकेला छोड़ दो, उनके पास कोई शक्ति नहीं है। शक्ति के लिए भीड़ चाहिए। शक्ति के लिए वे लोग चाहिए जिन पर शक्ति आरोपित की जा सके। लेकिन शांति तो अकेले में भी तुम्हारी है; अकेले में और भी ज्यादा तुम्हारी है। उसे तुमसे कोई छीन नहीं सकता, क्योंकि वह किसी पर निर्भर नहीं है। ठेठ हिमालय के एकांत में भी शांति तुम्हारी होगी; तुम्हारे साथ जाएगी।

    जो एकांत में भी तुम्हरे साथ हो, वही तुम्हारी संपदा है। और जो दूसरों पर निर्भर होती हो, उसे तुम एकांत में न ले जा सको, तो मृत्यु के पार कैसे ले जा सकोगे? वहां तो तुम अकेले जाओगे। न मित्र होंगे, न संगी-साथी, न पति-पत्नी, न बेटे-बेटियां, कोई भी न होगा। मौत में तो तुम अकेले प्रवेश करोगे। सब छूट जायेगा जो दूसरों पर निर्भर था। जो दूसरों ने दिया था वह दूसरे वापिस ले लेंगे। तुम कोरे के कोरे रह जाओगे। बुरी तरह डूबेगी यह नाव!

    इसलिए मैं शक्ति की कोई शिक्षण, शक्ति का कोई स्वरूप, शक्ति की कोई रूप-रेखा तुम्हें नहीं देता हूं। शांति! वही पाने योग्य है। जो खोया न जा सके, बस वही पाने योग्य है।

    पर तुम्हें अड़चन हुई है, यह भी मैं समझता हूं। तुम अगर शक्ति ही खोजने आये थे…जैसा लोग आते हैं। लोग तो सत्पुरुषों के पास भी चमत्कार के लिए ही जाते हैं। लोग तो वहां भी शक्ति का ही कोई तमाशा देखना चाहते हैं। लोगों की आंखें बाजार से इतनी भर गयी हैं कि जब वे मंदिर में भी आते हैं तो बाजार को अपने साथ ले आते हैं।

    नहीं, यहां तो उन लोगों के लिए ही सुविधा है जो बाजार से सब भांति जागकर आये हैं। कम से कम इतनी जाग तो लेकर आये हैं कि यह शक्ति की दौड़ व्यर्थ है। अब चलो, दूसरी यात्रा पर निकलें! शांति की यात्रा!

    संसार की पूरी यात्रा शक्ति की यात्रा है–बहाने कुछ भी हों। कोई धन इकट्ठा करता है। उससे भी पूछो, धन क्यों इकट्ठा करता है? धन से शक्ति आती है। एक-एक रुपये में भरी है शक्ति। कोई ज्ञान इकट्ठा करता है। उससे पूछो, क्यों? तो ज्ञान से शक्ति आती है। कोई राज-पदों पर पहुंचने के लिए आतुर है, उससे शक्ति आती है। संसार में हम वही करते हैं जिससे शक्ति आती है।

    तो अगर संक्षिप्त में कहें, तो संसार है शक्ति की दौड़। बहाने अलग-अलग होंगे। फिर शक्ति की दौड़ से जो जागने लगा, जिसने उसकी व्यर्थता देखी, वही धर्म की यात्रा पर निकलता है। यह यात्रा अंतर्यात्रा है और यहां शांत होते जाना है।

    शक्ति की दौड़ का एक ही परिणाम होता है–अशांति। अब तुमसे मैं एक बड़ी विरोधाभासी बात कहना चाहता हूं: शक्ति की दौड़ का एक ही परिणाम होता है–अशांति; और शांति की दौड़ का एक ही परिणाम है–शक्ति। लेकिन वह तुम्हारी कामना के कारण नहीं। शांत व्यक्ति शक्तिशाली हो जाता है। पर यह शक्ति बड़ी और है! यह शक्ति उद्विग्नता नहीं है–स्वभाव है। यह नैसर्गिक जीवन का हिस्सा है। यह किसी से ली नहीं गयी, किसी से छीनी नहीं गई, किसी को दी नहीं जा सकती। जब तुम अपने घर लौट आते हो और परम शांति में लीन होते हो, तो अचानक तुम पाते हो शक्ति का आविर्भाव हुआ है! लेकिन यह शक्ति तुम्हारी नहीं है। क्योंकि तुम तो अशांति के साथ ही चले गये। यह शक्ति परमात्मा की है।

    तुम मुझे ऐसा कहने दो: परमात्मा के अतिरिक्त और कोई शक्तिशाली नहीं है। और परमात्मा के अतिरिक्त और कोई शक्तिशाली हो भी नहीं सकता। वस्तुतः परमात्मा के अतिरिक्त किसी को स्वयं को “मैं’ कहने का अधिकार नहीं है। यह तो कामचलाऊ है। हम उपयोग करते हैं “मैं’; लेकिन “मैं’ तो वही कह सकता है जो शाश्वत है। हमारे “मैं’ का भरोसा क्या? घड़ीभर तो टिकता नहीं! क्षणभर तो टिकता नहीं! अभी कुछ, अभी कुछ! पानी पर खींची लकीर है!

    तुम जब मिटते हो…और तुम उसी समय मिट जाते हो जब तुम अशांति के रास्ते पर चलना छोड़ देते हो; अर्थात जब तुम शक्ति की खोज छोड़ देते हो, तुम बिखरने लगते हो। इसीलिए बेचैनी है।

    “खोपड़ी बड़ी उद्विग्न है’, प्रश्नकर्ता ने पूछा है। “परेशान हूं। आया था शक्ति खोजने, यहां मिली शांति। चाहता था प्रभुता, यहां मिली शून्यता।’

    शून्यता द्वार है प्रभु का। तुम अगर शून्य होने को राजी हो गये तो तुम्हें प्रभु होने से कोई भी रोक न सकेगा। और अगर तुम शून्य होने को राजी न हुए और तुमने प्रभुता की तलाश की, तो तुम भिखमंगे रहोगे, तुम सूने के सूने रहोगे, खाली के खाली रहोगे। इस विरोधाभास को अपने हृदय में बहुत गहरे बैठ जाने देना, क्योंकि यह जीवन का आत्यंतिक गणित है।

    जीसस ने कहा है: जो अपने को बचाएंगे वह मिट जायेंगे; और जो अपने को मिटाने को राजी हैं उन्हें कोई भी मिटा नहीं सकता। लाओत्सु ने कहा है: जो जीतने की यात्रा पर निकलेंगे, एक दिन हारे हुए पाये जाएंगे; और जो हारने को राजी है, उसे कोई हरानेवाला नहीं।

    गुंचा फिर लगा खिलने

    आज हमने अपना दिल

    खूं किया हुआ देखा

    गुम किया हुआ पाया।

    जब उस शांति की वर्षा होती है तो कली फिर खिलने लगती है। गुंचा फिर लगा खिलने! जो कली आंखों से बिलकुल ओझल हो गयी थी, जिसका पता भी न रहा था, जो बीज होकर कहीं भूमि में खो गयी थी–वह फिर अंकुरित हो आती है।

    गुंचा फिर लगा खिलने

    आज हमने अपना दिल

    खूं किया हुआ देखा।

    और जिसको हम समझते थे मर चुका, जिसका खून हो चुका, वह दिल फिर धड़कने लगा।

    आज हमने अपना दिल

    खूं किया हुआ देखा

    गुम किया हुआ पाया!

    और जो खो चुका था, गुम हो चुका था, वह फिर मिला।

    तो अगर तुम राजी हो अपने को मिटाने को, तो एक दिन तुम पाओगे: आज हमने अपना दिल खूं किया हुआ देखा! जिसको हम सोचे थे कि मर ही चुका, जिसे हम छोड़ ही आए थे दूर कहीं राह पर, जिस की हमने अर्थी सजा दी थी, जिसे हम दफना आये थे, या जिसे हमने सूली पर चढ़ा दिया था, जिसे हम जला चुके थे–अचानक वह दिल फिर लहलहाया, फिर हरा हुआ, फिर कली खुली! गुम किया हुआ पाया! और जो खो गया था वह फिर मिला।

    प्रभुता छोड़ो: प्रभुता मिलेगी! अहंकार छोड़ो: आत्मा मिलेगी! अपने को खो दो, मिट जाने दो, शून्य हो जाओ: पूर्ण के तुम पात्र हो जाओगे। पूर्ण तुममें उतरेगा। तुम्हारे शून्य में ही उतर सकता है। जगह चाहिए न! और पूर्ण जैसे मेहमान के लिए जगह बनानी हो, तो शून्य से कम जगह न पड़ेगी, जरूरी होगी। इतनी ही जगह चाहिए। पूरा शून्य चाहिए, तभी पूर्ण उतर सकता है! पूर्ण, शून्य में बिलकुल बैठ जाता है।

    पूर्ण की भी कोई सीमा नहीं है; शून्य की भी कोई सीमा नहीं है। असीम को बुलाओगे तो असीम होना ही पड़ेगा। जिस अतिथि को तुमने पुकारा है, उसके आतिथेय भी तो बनना होगा! मेजबान तो बनना होगा! जगह तो खाली करनी होगी! सिंहासन पर स्थान तो रिक्त करना होगा!

    इसलिए कहता हूं: शांति! फिक्र छोड़ो शक्ति की। शक्ति खोजनेवाले शक्ति को कभी नहीं पाते, केवल अशांति पाते हैं, और शांति खोजनेवाले शक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं।

    फिर डरो मत।

    उसका, उसको ही लौटा देने में इतना संकोच क्या? उसका उसके ही चरणों में चढ़ा देने में इतनी कंजूसी क्या?

    जान दी, दी हुई उसी की थी

    हक तो यह है कि हक अदा न हुआ।

    उसी की दी हुई थी, उसी को वापस लौटा दी, उसी को दे दी! एक लहर उछली सागर में, वापस सागर में गिर गई!

    जान दी, दी हुई उसी की थी

    हक तो यह है कि हक अदा न हुआ।

    सच तो यह है कि कर्तव्य-पालन न हो पाया। यह क्या खाक बात हुई, क्या दिया! जो उसका था उसी को लौटा दिया, इसमें कौन-सा कर्तव्य पालन हुआ?

    लेकिन हम बड़े कंजूस हैं! जिससे पाया है, उसी को लौटाने में बेईमानी कर जाते हैं। जिसने बनाया है, उससे भी छिपा लेते हैं। जिससे पाया है उससे भी चोरी कर जाते हैं।

    क्या है तुम्हारे पास अपना? सांस उसकी! बहता हुआ तुम्हारे शरीर में जल उसका। देह में मिट्टी के कण उसके! देह में समाया आकाश उसका! देह में जीवन की धारा अग्नि उसकी! और चैतन्य, वह उसी का अंश! जैसे तुम्हारे आंगन में आकाश समाया है–बाहर फैले आकाश का ही एक हिस्सा–ऐसे ही तुममें चैतन्य समाया है। विराट चैतन्य का एक छोटा-सा कोना, एक छोटा आंगन! सब उसका है।

    शून्य होने से डरते क्यों हो, घबड़ाते क्यों हो? बूंद की तरह डरो मत सागर के किनारे खड़े होकर, क्योंकि बूंद अगर सागर में गिर जाये तो सागर हो जायेगी। अगर किनारे पर पड़ी रह गयी तो बूंद ही रह जायेगी। सीमा तड़फायेगी तुम्हें। सीमा दुख देगी। असीम के साथ ही सुख हो सकता है। भूमा के साथ ही सुख हो सकता है। अल्प में कहां सुख, कैसा सुख?

    और घबड़ाओ मत! तुमने छोड़ दिया सब, तो तुम यह मत सोचना कि उसने तुम्हें छोड़ दिया। तुम शून्य हुए तो यह मत सोचना कि वह तुम्हें खाली समझकर तुम्हारे घर में प्रवेश न करेगा। खाली होओगे, तभी प्रवेश करेगा। तुमने सब छोड़ा, तभी तुमने पात्रता अर्जित कर ली। तुमने सब छोड़ा–अशेष भाव से! कुछ भी बचाना मत! रत्तीभर भी मत बचाना। अन्यथा बचाया हुआ ही बाधा हो जायेगी।

    तुम स्वयं के और सत्य के बीच कुछ भी रहस्य मत रखना, छिपाना मत! तुम सब भांति नग्न हो जाना। तुम सब भांति छोड़ देना, फिर चिंता की बात नहीं।

    मैं, और बज्मे-मै से यूं तिश्नाकाम जाऊं

    गर मैंने की थी तौबा, साकी को क्या हुआ था?

    साधारण मधुशालाओं में तो यह हो जाता है।

    मैं, और बज्मे-मै से यूं तिश्नाकाम जाऊं, कि मैं ऐसा प्यासा का प्यासा लौट जाऊं मधुशाला से!

    गर मैंने की थी तौबा, साकी को क्या हुआ था? मैंने अगर कसम खायी थी कि न पीऊंगा तो साकी तो भर ही दे सकता था पात्र को! साकी तो पिलाने का आग्रह कर सकता था! मेरे तौबा कर लेने से, मेरे कसम खा लेने से, उसने तो कसम न खायी थी, वह तो मुझे मना, समझा-बुझा सकता था और जबर्दस्ती करता तो हम पी ही लेते।

    साधारण मधुशाला में तो ऐसा हो जायेगा कि तुमने अगर तौबा की है तो तुम तिश्नाकाम ही वापस जाओगे, प्यासे ही वापस लौटोगे। लेकिन उस परम की मधुशाला में जिसने छोड़ दिया सब, वह कभी तिश्नाकाम नहीं जाता। जिसने पकड़ा सब, वही तिश्नाकाम जाता है। जिसने सब पकड़ा वह प्यासा रह जाता है। तुम पकड़नेवालों की तरफ तो देखो! कैसे प्यासे और कैसे उदास और कैसे थके और हारे रह गये हैं! तुम जरा छोड़े हुओं की तरफ तो देखो! महावीर, बुद्ध–तुम उनको तो देखो, कैसे भर गए हैं! प्यास सदा के लिए मिट गयी है, ऐसी गहन तृप्ति हुई है!

    उसकी मधुशाला से तुम वापिस न आओगे। अगर तुमने सब छोड़ा तो वह तुम्हें बहुत मनाएगा, बहुत तुम्हें पिलाने का आग्रह करेगा। तुम अगर सब उस पर छोड़ दो तो सब हो जाये।

    इसलिए मैं कहता हूं, शून्य हो जाओ। शून्य होने से मेरा अर्थ यह नहीं है कि तुम ना-कुछ हो जाओ। तुम ना-कुछ हो। शून्य में तुम्हारा यह ना-कुछपन मिट जायेगा। धूल जम गयी है, उसे तुमने संपदा समझा है। शून्य होने में यह धूल हट जाएगी और तुम्हारे भीतर की संपदा प्रगट हो जायेगी। शून्य होकर ही तुम पूर्ण को पाओगे। दूसरा कोई उपाय नहीं है।

    कहा है, “पुराना विश्वास बिखर चुका, नये का जन्म नहीं हुआ। अब न पीछे जा सकता हूं न आगे ही बढ़ पाता हूं।’

    कहीं मत जाओ! पुराना विश्वास बिखर चुका, अब तुम जल्दी मत करना नये विश्वास को बनाने की। क्योंकि डर यह है कि सौ में से निन्यानबे व्यक्ति, जब उनका पुराना विश्वास बिखरता है तो नए को फिर पुराने के ही ढांचे में बना लेते हैं। पुराने से परिचय होता है। पुराने से पहचान होती है। पुराने के रंग-ढंग पता होते हैं। पुराने की रूप-रेखा उनके हाथ में होती है। फिर नये विश्वास को वह पुराने के ढांचे में ही बना लेते हैं।

    पुराना विश्वास बिखर गया है, डरो मत! तुम मत ढालना नये विश्वास को, अन्यथा तुम फिर पुराने सांचे में ढाल लोगे। वही सांचा तुम जानते हो। तुम चुप रहो। तुम इस बीच की बड़ी बेचैन अवस्था में राजी रहो। और तब तुममें श्रद्धा का जन्म होगा। वह विश्वास नहीं होगी। वह तुम्हारी ढाली हुई न होगी। यही मैं फर्क करता हूं विश्वास और श्रद्धा में। विश्वास है तुम्हारा ढाला हुआ; क्योंकि तुम खाली रहने को राजी नहीं, कुछ न कुछ भरने को चाहिए। सत्य न सही तो झूठ ही सही। अपना न सही तो और का ही सही। देखा हुआ न सही तो सुना हुआ ही सही।

    तुम विश्वास को ढालोगे तो तुम्हारा ही ढाला हुआ विश्वास होगा। न, यह गृह उद्योग सत्य के जगत में काम न आयेगा।

    पुराना गिर गया, सौभाग्य! धन्यभागी हो! अब जल्दी मत करो नये को बनाने की। अगर तुम इस खालीपन में थोड़ी देर रह गए तो नया उतरेगा; वह तुम्हारा बनाया हुआ न होगा। धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुम्हारे शून्य को किसी प्रकाश ने उतरकर भर दिया। तुम तो गर्भ जैसे हो गए और कोई जीवन आया और तुम्हारे गर्भ में प्रविष्ट हो गया। यह तुम्हारा बनाया हुआ पुतला नहीं है–यह परमात्मा से आया हुआ जीवन है।

    श्रद्धा आती है; विश्वास लाया जाता है। विश्वास जबर्दस्ती है; श्रद्धा नैसर्गिक है; श्रद्धा सहज है। जो आदमी विश्वास के बिना रहने के लिए राजी है, उसके जीवन में श्रद्धा उतरती है।

    विश्वास का न होना अविश्वास नहीं है। क्योंकि अविश्वास तो फिर एक तरह का विश्वास है। कोई मानता है, ईश्वर है–यह भी विश्वास; कोई मानता है ईश्वर नहीं है–यह भी विश्वास। “नहीं’ लगा देने से कहीं फर्क पड़ता है? जो आदमी मानता है ईश्वर नहीं है–यह उसकी धारणा, उसका शास्त्र। कोई महावीर को मानता है, कोई मुहम्मद को–कोई माक्र्स को मानता है। कोई गीता को पूजता है, कोई कुरान को–कोई कैपिटल को पूजता है। फर्क कुछ भी नहीं है।

    वहां सोवियत रूस में पुराने देवता तो विदा हो गये, पुराने धर्म खो गये, पुराने चर्च खो गये; लेकिन कम्युनिज्म का नया चर्च निर्मित हो गया है। कम्युनिस्ट नेताओं की नयी प्रतिमाएं निर्मित हो गयी हैं। ईश्वर नहीं है, यही सिद्धांत हो गया है विश्वास का। बच्चों को रटाया जाता है। जैसे ईसाई रटाते हैं बच्चों को, जैसे मुसलमान रटाते हैं, हिंदू, जैन रटाते हैं बच्चों को, अपनी-अपनी धारणा–वैसे ही कम्युनिज्म अपनी धारणा रटाता है। लेकिन दोनों ही विश्वास हैं।

    विश्वास का अर्थ यही है: जो तुमने चेष्टा से करके पैदा कर लिया है। मनुष्य निर्मित का नाम है विश्वास। और जब मनुष्य कुछ निर्माण नहीं करता, न विश्वास न अविश्वास, न पक्ष न विपक्ष, खाली खड़ा रह जाता है; वह कहता है, जब तेरी मर्जी हो तब भर देना, अगर न भरेगा तो भी हम राजी हैं–तब एक दिन तुम्हारे शून्य में उस पूर्ण का आगमन होता है। तब तुम्हारी अंधेरी रात में जलता है उसका दीया। और यह तुम्हारा जलाया नहीं होता; क्योंकि तुम्हारा जलाया तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। तुम्हारा जलाया तुम्हारा ही हिस्सा होगा। तुम्हारा जलाया तुम्हारा ही निर्माण होगा। तुम परमात्मा को मौका दो। तुम थोड़े बीच में दखलंदाजी न करो। तुम खड़े देखते रहो।

    यह शुभ घड़ी है कि पुराना विश्वास बिखर चुका और नया पैदा नहीं हो रहा है। करना भी मत! तुम जल्दी करोगे, क्योंकि खाली जगह अखरती है। जैसे दांत टूट जाता है तो जीभ वहीं-वहीं जाती है–ऐसा जब पुराना विश्वास हट जाता है तो बार-बार मन वहीं-वहीं लौटता है कि जल्दी विश्वास बनाओ! घर खाली-खाली लगता है, बेचैनी मालूम होती है। इस बेचैनी को झेल लेना। लेकिन विश्वास अब मत बनाना। बहुत तुमने बनाए, कोई काम न आये। कितने-कितने धर्मों में तुम जी नहीं चुके हो! कितने-कितने शास्त्रों को तुम पूज नहीं चुके हो! कितने-कितने परमात्मा तुमने निर्मित नहीं किये हैं। कितनी प्रतिमाएं तुम्हारी अर्चना और पूजा को स्वीकार नहीं कर चुकी हैं। लेकिन क्या हुआ? अब तुम कह दो कि अब मैं न बनाऊंगा। अब जब प्रकृति ही उपजाएगी…। अब कागज और प्लास्टिक के फूल नहीं; अब तो जब असली फूल आएंगे तभी। मैं राजी हूं, प्रतीक्षा करूंगा।

    प्रार्थना करो, प्रतीक्षा करो; लेकिन विश्वास को निर्मित मत करो। होगा! धीरज रखो। और अगर धीरज से हुआ, अपने-आप हुआ और तुम सिर्फ साक्षी रहे, गवाह; बनानेवाले नहीं, तुमने सिर्फ जगते देखा श्रद्धा को, तुमने श्रद्धा का वृक्ष बढ़ते देखा, तुमने श्रद्धा में फूल-फल लगते देखे, तुम सिर्फ साक्षी रहे–तो तुम पाओगे यह श्रद्धा मुक्तिदायी है।

    इस श्रद्धा को ही महावीर ने दर्शन कहा है। दर्शन यानी जिसको तुमने देखा, बनाया नहीं। श्रद्धा तुम्हारा कर्म नहीं है, दर्शन है। श्रद्धा तुम्हारा कृत्य नहीं है, तुम्हारा दर्शन है। जिसको तुमने उठते देखा, फैलते देखा, पूरे आकाश को भरते देखा, तुम साक्षी रहे जिसके–तब विराट से आयी श्रद्धा। और जो विराट से आती है वह विराट कर जाती है। जो क्षुद्र की है वह क्षुद्र है।

    “अब न पीछे जा सकता हूं, न आगे ही बढ़ सकता हूं!’

    कोई जरूरत नहीं कहीं जाने की। तुम जहां हो, वहीं डूबने की जरूरत है। आगे-पीछे की भाषा मन की है। आगे-पीछे की भाषा महत्वाकांक्षा की है। आगे-पीछे की भाषा: प्रगति हो रही कि नहीं, गति हो रही कि नहीं, कहीं जा रहा हूं कि नहीं! जाना कहां है? जो हो, वहीं ठहर जाना है! जो हो, उसमें ही लवलीन हो जाना है। जो हो, उसमें ही तल्लीन हो जाना है। अपने में डूबना है, जाना कहां है? सब जाना बाहर है। घर आना है!

    और तुम यह मत सोचना कि घर आने के लिए भी कहीं जाना होगा। घर तो तुम हो ही। जरा बेचैनी छोड़ो, विचार छोड़ो, तो अचानक तुम पाओगे कि इस घर को तुमने कभी छोड़ा ही नहीं; तुम सदा ही इसमें थे। खयालों में ही छोड़ा था वस्तुतः कभी नहीं छोड़ा था।

    बोधिधर्म जब जाग्रत हुआ तो हंसने लगा, खूब हंसने लगा! उसके आसपास के और भिक्षुओं ने पूछा कि तुम पागल तो नहीं हो गये हो, हुआ क्या है? उसने कहा, मैं इसलिए हंस रहा हूं कि जिसको मैं खोजता था जन्मों-जन्मों से, उसे कभी खोया नहीं था। खूब मजाक रही!

    तुम्हीं सोचो कि वर्षों तक तुम खोजते रहे किसी चीज को और आखिर में खीसे में हाथ डाला और वहां पायी! और खीसे में तुमने खोजा ही नहीं अब तक; क्योंकि यह खयाल ही नहीं उठा कि खीसे में भी हो सकती है।

    तुम्हारी संपदा तुम हो। तुम्हारी संपदा तुम्हारे भीतर इसी क्षण मौजूद है। कहीं न जाओ–न आगे न पीछे, न उत्तर न दक्षिण, न पश्चिम न पूरब, न नीचे न ऊपर–दसों दिशाओं को छोड़ दो। दसों दिशाओं को छोड़कर जो खड़ा हो जाता है, उस अवस्था को महावीर कहते हैं समाधि। वह आ गया घर! वापसी हो गयी! उसने जान लिया उसे–जिसका विस्मरण हो गया था।

    यह भी खयाल रख लेना: तुम चाहते हो मुझे कि मैं तुम्हें कुछ चलाऊं, दौड़ाऊं, कहीं पहुंचाऊं, तुम्हें कोई ज्वर दूं, तुम्हें कोई तड़फ दूं, उत्साह दूं।

    मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, जरा हमें उत्साह दें–उत्साह ढीला पड़ा जा रहा है। उत्साह किसलिए? तुम कोई सैनिक नहीं हो कि कहीं युद्ध पर जा रहे हो। तुम संन्यासी हो, अपने घर आ रहे हो–उत्साह कैसा?

    लेकिन लोगों को उत्साह चाहिए, दौड़ने के लिए उत्साह जरूरी है, रुकने के लिए उत्साह की जरूरत है? रुकने के लिए तो उत्साह बाधा भी बन सकता है। क्योंकि वह तुम्हें दौड़ाए रखेगा। शांत बैठ जाना है–कैसा उत्साह? कहीं जाना नहीं, ऊर्जा का कोई उपयोग नहीं करना है। जैसे शांत झील हो, ऐसे हो जाना है–जिसमें तरंग नहीं उठती, लहर नहीं उठती।

    लेकिन तुम डरते हो। तुमने अब तक तो जिसको जीवन जाना है, वह दौड़-धूप है, आपा-धापी है। तुमने उसके अतिरिक्त कोई जीवन नहीं जाना। तुमसे अगर कोई बैठने को कहे तो लगता है, यह तो मरने जैसा हो गया; इसमें जीवन कहां है? लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, जीवन तुम्हारे भीतर है। उसे दौड़-धूप करके तुम न पा सकोगे। जब दौड़-धूप से थक जाओगे, बैठ जाओगे, और कहोगे, अब कहीं जाने की कोई इच्छा न रही–तत्क्षण तुम पाओगे कि वह मिल गया।

    दूसरा प्रश्न:

    दर्शन के तत्क्षण बाद घटी घटना को ही क्या भजन कहते हैं? कृपा करके समझाएं।

    “दर्शन’ महावीर की साधना-पद्धति का शब्द है; “भजन’ उनकी साधना-पद्धति का शब्द नहीं। दर्शन के बाद तो महावीर कहते हैं, ज्ञान घटता है। ज्ञान के बाद चारित्र्य घटता है। भजन की कोई जगह महावीर की विचार-शृंखला में नहीं है। भजन भक्तों की परंपरा का शब्द है। दोनों को जोड़ने की कोशिश मत करो, अन्यथा तुम और उलझ जाओगे। दोनों को अलग-अलग ही रखो। दोनों सही हैं; पर अलग-अलग सही हैं; अलग-अलग यंत्रों के अंग हैं।

    महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई जगह नहीं है। क्योंकि भजन का अर्थ होता है: उत्सव। भजन का अर्थ होता है: प्रभु-नाम-स्मरण। भजन का अर्थ होता है: तल्लीनता। भजन का अर्थ होता है: बेहोशी, बेखुदी। भजन तो ऐसा है जैसे कोई भीतर की शराब, पीये और मस्त हो गये! भजन तो नृत्य है, गुनगुनाना है, गीत है।

    महावीर के मार्ग पर भजन जैसी कोई चीज नहीं है। वह मार्ग बिलकुल भजन-शून्य है।

    इसलिए अगर महावीर के मार्ग के शब्द “दर्शन’ का उपयोग कर रहे हो तो भजन को भूल जाओ। महावीर कहते हैं, दर्शन से होगा ज्ञान, बोध। भजन तो है अबोध। महावीर कहते हैं, होगा ज्ञान। महावीर कहते हैं, आयेगी जागृति। भजन तो है गहरी आत्म-विस्मृति, तल्लीनता। और महावीर कहते हैं, ज्ञान से चारित्र्य रूपांतरित होगा।

    भजन है भक्तों का शब्द। उसे भी समझ लेना जरूरी है। भजन के लिए दर्शन जरूरी नहीं। भजन के लिए भाव जरूरी है। महावीर का “दर्शन’ पाना हो तो निर्भाव होना जरूरी है। वे विपरीत रास्ते हैं। वहां सारे भाव का त्याग कर देना है। वहां तो भाव राग है। वहां तो प्रेम भी बंधन है। भक्त के मार्ग पर भाव प्रारंभ है: भाव, भजन, भगवान! वहां न ज्ञान, न दर्शन, न चारित्र्य। भक्त को चरित्र इत्यादि की चिंता ही नहीं। वह कहता है, “चरित्र उसका, हमारा क्या? उसकी जैसी मर्जी! वह जैसा नाच नचाये!’ भक्त तो कहता है, “हम तो कठपुतली की भांति हैं; धागे उसके हाथ में हैं! वह जो बनाये हम बन जाते हैं। लीला उसकी है। सारा नाटक उसका रचा हुआ है। हम तो केवल पात्र हैं नाटक में–राम बना देता है, राम बन जाते हैं; रावण बना देता है, रावण बन जाते हैं।’

    भक्त की भाव-दशा बड़ी अलग है। तो भक्त प्रेम से चलता है, भाव से चलता है। भाव ही सघन होकर भक्ति बनती है। और भक्ति जब प्रगट होती है फूलों की तरह, तो भजन।

    भाव से शुरुआत है। जब भाव बहुत गहन होने लगता है, इतना गहन होने लगता है कि भाव करनेवाला धीरे-धीरे भाव में डूब जाता है, अलग नहीं रह जाता–तो भक्ति। और भक्ति जब इतनी सघन होती है कि स्वयं का तो दिखायी पड़ना बिलकुल बंद हो जाता है, स्वयं की जगह परमात्मा की प्रतीति होने लगती है, चारों तरफ उसका दर्शन होने लगता है–तो भगवान। और भगवान को पा लेने की जो खुशी है, वह भजन है। उसको पा लेने से जो नाच पैदा होता है कि मिल गया!…

    आर्किमिडीज के जीवन में एक कथा है कि वह एक वैज्ञानिक खोज कर रहा था। अपने टब में बैठा था स्नान करने, तब उसको सूझ आ गयी। तो नग्न बैठा था स्नानागार में, छलांग लगाकर उठा। भूल ही गया कि नग्न हूं। भूल ही गया कि स्नानागार है। खोज का मजा ऐसा था कि दौड़ा सड़कों पर और चिल्लाया: “इरेका! मिल गया!’ राजमहल पहुंच गया नंगा, भीड़ लग गयी। सम्राट ने भी कहा कि “तुम पागल हो गये हो! मिल भी गया तो इतने पागल होने की क्या बात है? नग्न क्यों हो?’ तब उसे याद आया। उसने कहा, “क्षमा करें! मिलने का क्षण इतना गहन था कि मैं भूल ही गया; अपना मुझे होश ही न रहा।’

    तो भजन तो ऐसा क्षण है: इरेका! मिल गया!

    जब भगवान की पहली दफा झलक मिलती है, जब उसकी छवि पहली दफा दिखाई पड़ती है, जब उसका रूप पहली दफा प्रगट होता है, जब उसकी सुगंध नासापुटों में पहली बार भरती है–इरेका!–तो भक्त नाच उठता है, गुनगुना उठता है, आंसुओं की धार बह जाती है–आनंद के आंसुओं की! सम्हाले नहीं सम्हलता! मस्ती भर जाती है! प्याला छलकने लगता है!–तो भजन!

    भजन बिलकुल दूसरी धारा का हिस्सा है। दोनों धाराएं पहुंचा देती हैं, लेकिन दोनों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं।

    शेख काबे से गया उस तक बिरहमन दैर से

    एक थी दोनों की मंजिल फेर था कुछ राह का।

    लेकिन वह कुछ फर्क बड़ा फर्क है! कोई मस्जिद से गया, कोई मंदिर से गया; कोई तप से गया, कोई भाव से गया–थोड़ा-सा फर्क है; लेकिन थोड़ा-सा फर्क भी बहुत बड़ा फर्क है। पहुंचकर तो सब रास्ते उसी पर मिल जाते हैं। लेकिन बीच में बड़े-बड़े अंतर हैं। और बीच में तुम दो रास्तों के बीच अपने को डांवांडोल मत करना। दो नावों पर कभी सवार मत होना। यद्यपि दोनों नावें उसी किनारे पहुंचा देंगी; लेकिन दो नावों पर सवार आदमी मुश्किल में पड़ जाता है। एक ही नाव पर सवार हुआ जा सकता है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि तुम यह घोषणा करो और चिल्लाओ और मानो कि मेरी ही नाव पहुंचाती है। वह भी पागलपन है। वह भी कमजोरी है। जो आदमी कहता है मेरी ही नाव पहुंचाती है, उस आदमी को संदेह है अभी। उसे अपनी नाव पहुंचाएगी, इसमें संदेह है। चिल्ला-चिल्लाकर वह विश्वास जगा रहा है। वह कहता है, “कहां जा रहे हो दूसरी नाव में? यह कभी न पहुंचाएगी। आओ, मेरी ही नाव पहुंचाती है!’ वह डरा है अपने से कि कहीं दूसरी भी नाव पहुंचाती हो तो उसका खुद का इस नाव में बैठना मुश्किल हो जाएगा।

    तुम हैरान होओगे! जो लोग दूसरों को कनवर्ट करने चलते हैं–जैसे ईसाई हिंदुओं को ईसाई बनाने में लगे रहते हैं, आर्य समाजी ईसाइयों को हिंदू बनाने में लगे रहते हैं–ये सब संदिग्ध लोग हैं; इनको अपनी नाव पर भरोसा नहीं है। ये जब तक दूसरे की नाव खाली न करवा लें तब तक इन्हें भरोसा नहीं। ये कहते हैं, दूसरी भी नावें हैं, इनमें भी लोग जा रहे हैं–कहीं ये लोग पहुंच तो नहीं जाते! ये खुद तो पहुंचे नहीं हैं अभी। इनकी नाव कहीं जाती नहीं मालूम हो रही है इनको। दूसरे! तो दो ही उपाय हैं या तो ये सही हैं, या हम सही हैं। अगर ये सही हैं तो हमको अपनी नाव में से उतरना पड़ेगा। अगर हम सही हैं तो इनको इनकी नाव से उतार लें।

    सारी दुनिया में धर्मों के बीच जो संघर्ष चलता है वह स्वयं की नाव पर विश्वास नहीं है, इसलिए चलता है। दूसरे को जब तुम समझाने जाते हो तब तुम गौर करना: कहीं तुम दूसरे के बहाने अपने को ही तो नहीं समझा रहे हो? कहीं दूसरे के बहाने अपने ही संदेहों को तो शांत नहीं कर रहे हो? जब तुम दूसरे को समझाने में राजी हो जाते हो कि तुम सही हो, तो तुम्हें बड़ा हलकापन मालूम होता है, तुमने खयाल किया। क्यों? एक बोझ था भीतर: कौन जाने हम गलत हों! दूसरे को समझा लिया, चलो एक आदमी और राजी हो गया! अपने पर तो भरोसा नहीं था; अब एक और राजी हो गया, शायद ठीक हों! दो राजी हो गये, तीन राजी हो गये, भीड़ इकट्ठी हो गयी, तो भरोसा पक्का हो गया कि नहीं, हम गलत कैसे हो सकते हैं! इतने लोग कैसे राजी हो जाते! हो सकता था हम भूल में होते, लेकिन इतने लोग! इतने लोग तो भूल में नहीं हो सकते!

    दूसरे को कनवर्ट करने की चेष्टा में अपने ही अविश्वासों को, संदेहों को शांत करने की चेष्टा छिपी है। इसलिए लोग चिल्लाते हैं कि बस यही मार्ग।

    महावीर के मार्ग पर बहुत लोग नहीं गये, क्योंकि महावीर ने कहा सभी मार्ग सही हैं।

    जैन अब हिम्मत नहीं करते यह कहने की कि सभी मार्ग सही हैं। वह हिम्मत छोड़ दी उन्होंने। अब तो वे कहते हैं यही मार्ग सही है। और कभी-कभी कैसी विडंबना हो जाती है!

    मैं एक जैन मुनि से बात कर रहा था। तो मैंने उनसे कहा कि जैन धर्म तो स्यादवाद को मानता है। जैन धर्म तो कहता है, और भी सही हैं। जैन धर्म का तो यह कहना है, “यही सही है’, यह दृष्टि गलत है। “यह भी सही है’, यह दृष्टि सही है। वह भी सही है, यह भी सही है। यह ही सही है, ऐसे आग्रह में तो दूसरे सब गलत हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि निश्चित, स्यादवाद का यही अर्थ है। फिर थोड़ी बात चलती रही। इधर-उधर की मैंने उनसे बात की, फिर थोड़े भूल गये वे तो मैंने उनसे कहा कि स्यादवाद के विपरीत अगर कोई हो, उसके लिए क्या कहियेगा? वह भी सही है? “कभी नहीं,’ उन्होंने कहा, “ऐसा कैसे हो सकता है? स्यादवाद के जो विपरीत है वह कभी सही नहीं हो सकता।’

    स्यादवाद का मूल आधार ही यही है कि जो मेरे विपरीत है वह भी सही हो सकता है। महावीर का आकाश बड़ा विराट है। वे कहते हैं, इतना बड़ा विराट आकाश है तो इतनी छोटी-छोटी पगडंडियों पर तुम चिल्लाते हो, यही सही है? तुम पगडंडी के नाप को आकाश का नाप बना देते हो? तुम पहुंचने के संकीर्ण मार्ग को मंजिल बना देते हो? मंजिल बहुत बड़ी है। सब तरह के मार्ग वहां समाविष्ट हो जाते हैं।

    ऐसा समझो कि गंगा बह रही है, नर्मदा भी बह रही है। गंगा बह रही है पूरब की तरफ, नर्मदा बह रही है पश्चिम की तरफ। अगर दोनों का रास्ते में मिलना हो जाये तो बड़ी मुश्किल हो जाये। क्योंकि गंगा कहे, मैं सागर की तरफ जाती हूं, तू पागल कहां जा रही है उलटी; और नर्मदा भी कहे, मैं भी सागर की तरफ जाती हूं, तुम्हें कुछ अड़चन हो गयी है…

    मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सवार हुआ। वह अपना बिस्तर वगैरह लगाकर ऊपर की बर्थ पर लेटने ही जा रहा था कि कुछ याद आ गयी तो उसने नीचे की सीट पर लेटे आदमी से पूछा, भाई साहब! आप कहां जा रहे हैं? तो उस आदमी ने कहा, कलकत्ते जा रहा हूं। मुल्ला बोला, हद्द हो गयी! हम तो बंबई जा रहे हैं। विज्ञान का चमत्कार तो देखो कि एक सीट कलकत्ता जा रही है, एक सीट बंबई जा रही है!

    अब गंगा और नर्मदा का अगर मिलन हो जाये तो बड़ी मुश्किल हो गयी। दोनों सागर की तरफ जा रही हैं और दोनों सागर में ही जा रही हैं। सब जाना सागर की तरफ है।

    मैं तो तुमसे कहता हूं, जो संसार की तरफ जा रहा है वह भी जरा लंबे रास्ते से परमात्मा की ही तरफ जा रहा है। क्योंकि सब जाना उसकी तरफ है–देर-अबेर! मैं तो तुमसे कहता हूं, जिसने वेश्या के द्वार पर दस्तक दी है, उसने भी अनजाने मंदिर के द्वार पर ही दस्तक दी है–थोड़ी दूर से दस्तक दी है। लेकिन वेश्या के पास भी वह मंदिर को ही खोजने गया है, क्योंकि प्रेम खोजने गया है। मिले न मिले, दूसरी बात। लेकिन आकांक्षा तो उसी की है। खुद भी परिचित न हो, यह भी हो सकता है। गलत दिशा में टटोलता हो, यह भी हो सकता है। लेकिन भीतर जो खोज चल रही है, वह तो उसी की चल रही है। सभी सागर की तरफ जा रहे हैं। और सभी पहुंच जाते हैं, क्योंकि सागर ने सब दिशाओं से घेरा है। सागर की कोई दिशा नहीं है। ऐसे परमात्मा की कोई दिशा नहीं है।

    तो ध्यान रखना, भजन से भी लोग पहुंचते हैं, भाव से भी पहुंचते हैं। पर भाव की नाव अलग है। उसकी चाल अलग है। उसकी पतवार अलग है। उसका रंग-ढंग अलग है। वह बड़ी सजी-संवरी है।

    महावीर की नाव बड़ी भिन्न है। जरा भी सजी-संवरी नहीं है। वहां भाव को कोई जगह नहीं है। वहां शुद्ध विचार और ध्यान है। वहां भूलना नहीं है, स्मरण रखना है। भाव में भूलना है, स्मरण नहीं रखना है। भाव में आत्मविस्मृति करनी है। और महावीर के मार्ग पर आत्मस्मृति जगानी है। बड़े विपरीत हैं। एक पूरब जा रहा है, एक पश्चिम जा रहा है–एक नर्मदा, एक गंगा–लेकिन दोनों सागर में पहुंच जाते हैं! और सागर में पहुंचकर दोनों सागर हो जाते हैं।

    भजन विधायक जीवन-दृष्टि है; दर्शन नकारात्मक जीवन-दृष्टि है।

    तू और तेरी चंचल सखियां, जब पानी भरने जाती हैं

    तब साये धानी होते हैं, तब धूप गुलाबी होती है।

    वह जो भक्त है, वह प्रत्येक खेल में परमात्मा को देख रहा है।

    तू और तेरी चंचल सखियां जब पानी भरने जाती हैं

    तब साये धानी होते हैं, तब धूप गुलाबी होती है।

    धूप भी गुलाबी हो जाती है, साये भी धानी हो जाते हैं। और जो भी जा रहा है पनघट की तरफ, वह वही है–उसकी चंचल सखियां हैं।

    सारा जगत अनेक-अनेक रूपों में उसी की लीला है। जिसने उसे पहचानना शुरू कर दिया, वह हर जगह उसे पहचान लेगा।

    मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से

    रिंद का, साकी का, मय का, खुम का, पैमाने का नाम।

    भक्त तो कहता है, भगवान है रसाध्यक्ष उस मधुशाला का! इस जीवन की मधुशाला का रसाध्यक्ष! और उसी की कृपा का फल है।

    रिंद का, साकी का, मय का, खुम का, पैमाने का नाम

    –इन सबके नामों की महिमा उसी के कारण है!

    मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से।

    –उस रसाध्यक्ष की अनुकंपा कि उसी की अनुकंपा से रिंद का, पियक्कड़ का…।

    भक्त तो पियक्कड़ है। वह तो भगवान की शराब पी रहा है। जीवन को तो उसने मधुसिक्त भाव से देखा है। “प्यारे’ को पहचानने की तरह उसने जीवन की खोज की है। वह सत्य की खोज में नहीं है–”प्यारे’ की खोज में है! महावीर सत्य की खोज में हैं। “प्यारा’ शब्द उनके ओंठ से निकलेगा भी नहीं।

    मोहतसिब की खैर ऊंचा है उसी के फैज से

    रिंद का, साकी का, मय का, खुम का, पैमाने का नाम।

    जिस गागर में सागर भरी, जिस गागर में मधु का सागर भरा है, जिस पात्र में मधु पड़ा है, जो पिलानेवाला है, जो पीनेवाला है–इन सबकी महिमा उसी के कारण है–उसकी ही अनुकंपा से है!

    भक्त की भाषा सुरा की, सुगंध की, संगीत की भाषा है। भक्त की भाषा प्रेम की, प्रियतम की, प्रियतमा की भाषा है। भक्त की भाषा रास की, रस की भाषा है।

    भजन का अर्थ है: जो डूबा! भजन का अर्थ है: जिसने अपने को खोया! भजन का अर्थ है: जिसने अपने को छोड़ा उसके हाथ में! भजन का अर्थ है: जो उसके आसपास नाचा और रास में सम्मिलित हुआ। भक्त को तो लगता है: यह सारा खेल, यह सारी लीला, चाहे कैसा ही ढंग रखती हो–यह कोयल की कुहू-कुहू, ये वर्षा के बादल, यह वर्षा की रिमझिम टाप–यह सब अनेक-अनेक रूपों में उसी का आगमन है! यह उसी के पैरों में बंधे हुए घुंघरुओं की आवाज है!

    भक्त संसार को सिर्फ संसार की तरह नहीं देखता–परमात्मा की अभिव्यक्ति की तरह देखता है। यह उसका प्रगट रूप है। यह उसी चित्रकार का चित्र है। ये रंग उसी के हाथ ने फैलाए हैं। ये गीत उसी ने रचे हैं। वेद कहते हैं: यह काव्य उसी का है! यह वही गुनगुनाया है! वही गुनगुना रहा है!

    साधक के मार्ग पर संसार और सत्य विपरीत हैं। संसार से हटना है अगर सत्य में जाना हो।

    भक्त के मार्ग पर संसार सत्य का ही परिधान है, उसी की वेषभूषा है। ये जो मोर नाच रहे हैं, ये मोर-पंख उसी के मुकुट पर लगे हैं। यह जो बांसुरी बज रही है, चाहे तुम्हें उसके ओंठ दिखायी पड़ते हों न दिखायी पड़ते हों, यह बांसुरी उसी के ओंठों पर रखी है; नहीं तो कभी की बजनी बंद हो जाती।

    मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं

    जी में आता है लगा दें आग मयखाने को हम।

    और अगर तुम्हें दिखायी न पड़े वह, तो फिर ऐसा लगेगा कि संसार में आग ही लगा दो।

    मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं–सब है लेकिन पिलानेवाला नहीं है, ढालनेवाला नहीं, साकी नहीं है।

    जी में आता है लगा दें आग मयखाने को हम!

    तो फिर यह सब व्यर्थ है। लेकिन अगर उसके हाथ तुम्हें दिखायी पड़ जायें कि उसी ने ढाली है सुरा, तो फिर सुरा भी अमृत है। अगर उसके हाथ दिखायी पड़ जायें तो जहर भी अमृत है! क्योंकि उसके हाथों में जहर हो ही कैसे सकता है!

    भक्त की दृष्टि बड़ी अलग है। भक्त की दृष्टि को तुम साधक की दृष्टि के साथ गडमगड्ड न करना। उन्हें अलग-अलग रखना, साफ-सुथरा रखना। फिर तुम्हें जो प्रीतिकर लगे, उस पर चले जाना; मगर मन में कभी भी यह खयाल मत रखना कि दूसरा गलत है। अगर तुमने यह सोचा कि दूसरा गलत है तो मैं तुमसे कहूंगा: तुम्हें अपने मार्ग पर संदेह है। दूसरे से तुम्हें क्या लेना-देना? होगा, वह भी ठीक होगा। और अगर उसे वहीं से आनंद के द्वार खुल रहे हैं, तो तुम कौन हो रोकनेवाले? और अगर उसे वहीं से परमात्मा की पहचान आ रही है, तो तुम कौन हो बाधा डालनेवाले?

    सत्य के एकाधिकारी, मोनोपोलिस्ट मत बनना। इसी तरह दुनिया में धर्म नष्ट हुआ, क्योंकि सभी धर्म सत्य के एकाधिकारी बन गये। और जब भी धर्म सत्य का एकाधिकारी बनता है, भ्रष्ट हो जाता है; संप्रदाय रह जाता है; धर्म मर जाता है, लाश रह जाती है। सत्य पर किसी की बपौती नहीं है। यही महावीर का स्यादवाद है। सत्य सबका है; सब ढंगों से पाया जा सकता है; सब मार्गों से पाया जा सकता है। ऐसा अगर तुम कह पाओ तो उसका अर्थ हुआ: कि तुम्हें अपने मार्ग पर श्रद्धा है, श्रद्धान है। इसलिए तुम्हें दूसरे के मार्ग को गाली देने की जरूरत नहीं। तुम्हें अपने मार्ग पर इतना भरोसा है कि इस भरोसे को दूसरे को गाली दे दे कर बढ़ाने की जरूरत नहीं है। तुम अपने मार्ग के प्रति इतने आश्वस्त हो कि अगर सारी दुनिया भी तुम्हारे मार्ग को छोड़ दे तो तुम अकेले ही गीत गुनगुनाते चले जाओगे। इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। तुम्हें भीड़ की अपेक्षा नहीं है, जरूरत नहीं है।

    कमजोर आदमी को भीड़ की जरूरत है। भरोसे की कमी हम भीड़ से पूरा कर लेते हैं। कमजोर आदमी को परंपरा की जरूरत है। तो हम कहते हैं, पांच हजार साल पुरानी है हमारी परंपरा! इस तरह भीड़ को हम पांच हजार साल पुराना बना देते हैं।

    भीड़ दो तरह से हो सकती है–या तो अभी हो; जैसी ईसाइयों के पास है। एक अरब आदमी! तो वे जरा अतीत की बात नहीं करते, क्योंकि अतीत की कोई जरूरत नहीं–भीड़ अभी है। फिर भीड़ को बढ़ाने का दूसरा ढंग यह है कि हिंदू कहते हैं हमारा धर्म सनातन है! माना कि हम बीस ही करोड़ हैं, इससे क्या होता है; लेकिन हम सनातन से हैं। तो उन सारे लोगों को जोड़ लो जो अब तक हिंदू रहे, तब तुम्हें पता चलेगा कि हिंदुओं की भीड़ कितनी है!

    जिनके पास ये दोनों उपाय नहीं, वे कहते हैं, “भविष्य! अभी छोड़ो–अतीत!’ नये-नये धर्म जब पैदा होते हैं, तो वे भविष्य की बात करते हैं। वे कहते हैं, भविष्य हमारा है। अतीत रहा होगा तुम्हारा! लेकिन अतीत की सीमा है। जो हो चुका उसकी सीमा है। जो अभी नहीं हुआ, वह असीम है। हमारी भीड़ कल देखना! तुम तो गये-गुजरे हो! सूर्यास्त हो रहा है! डूबते सूरज को कौन नमस्कार करता है! तुम इस नये सूरज को देखो!

    तो नये धर्म जब पैदा होते हैं तो वे भविष्य की बात करते हैं। क्योंकि वह ही एक रास्ता है भीड़ को बढ़ाने का। उनके पास न अतीत है, न भीड़ आज मौजूद है।

    लेकिन मैं धार्मिक आदमी उसको कहता हूं, जिसे भीड़ की जरूरत नहीं–किसी भी रूप में, अभी, कल या कभी! जो कहता है, अकेला काफी हूं। अकेला भी चला तो भी पहुंच जाऊंगा। उसके और परमात्मा के बीच सीधा संबंध है; भीड़ के माध्यम से नहीं है।

    और अच्छा ही है कि इतने मार्ग हैं क्योंकि इतने प्रकार के मनुष्य हैं। एक-एक व्यक्ति इतना भिन्न है कि यह बड़ा कठिन हो जाता कि एक ही मार्ग होता। तो कुछ लोग तो जाते, कुछ और लोग इसलिए ही न जा पाते क्योंकि वह उस मार्ग पर ठीक न बैठते।

    तुमने खयाल किया! स्कूल में बच्चे पढ़ते हैं। चूंकि हमने मान रखा है कि जो बच्चा गणित में होशियार है वही होशियार! तो जो बच्चा गणित में होशियार नहीं वह गधा हो जाता है। तुम जरा एक दूसरी दुनिया सोचो! जल्दी ही वह दुनिया आयेगी, जबकि गणित की बहुत जरूरत न रह जायेगी। कंप्यूटर पैदा हो गये हैं। आनेवाली सदी में छोटे-छोटे बच्चे भी कंप्यूटर अपनी जेब में रख सकेंगे। गणित का बड़े से बड़ा सवाल कंप्यूटर क्षण में पूरा कर देगा। उसके लिए करने की जरूरत न रह जायेगी। तो गणित की प्रतिभा समाप्त हो जायेगी। तब हम कहेंगे, जो बच्चा काव्य में गुणवान है वह प्रतिभा-संपन्न है। तब सारा नक्शा बदल जायेगा।

    अभी जो बच्चा गधा है वह भविष्य में गुणवान हो सकता है; और अभी जो गुणवान है, भविष्य में व्यर्थ हो सकता है। जब मूल्य बदलते हैं तो लोगों की स्थिति बदल जाती है।

    तुमने देखा! जैसे-जैसे मूल्य बदलते जाते हैं, वैसे-वैसे स्थिति बदलती जाती है। अगर धर्म भी ऐसा हो कि किन्हीं खास लोगों के पहुंचने के लिए हो जाये तो उतनी ही संकीर्ण हो जायेगी धारा; फिर बहुतों का क्या होगा, जो उस तरह से नहीं जा सकते? उनकी तो सोचो। अगर महावीर का ही अकेला मार्ग हो, तो जो बिना नाचे नहीं जा सकते, उनका क्या होगा? यह तो बड़ी कंजूसी हो जायेगी सत्य के ऊपर। यह तो सत्य का बड़ा संकीर्ण रूप हो जायेगा। जो नाचकर पहुंच सकते हैं, उनकी भी तो जगह होनी चाहिए! अगर नाचकर ही पहुंचने की जगह हो और चुपचाप शांत बैठनेवालों के लिए जगह न रह जाये तो भी बात जरा अशोभन हो जायेगी।

    निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मयखाना

    तो ठुकराए हुए इन्सां खुदा जाने कहां जाते!

    अगर मंदिर और मस्जिद से जिनका मन नहीं बैठता, अगर शास्त्र से, परंपरा से जिनका मन नहीं बैठता, उनके लिए अगर कोई और मार्ग न होता…अगर मिलता न मयखाना, तो ठुकराए हुए इन्सां खुदा जाने कहां जाते!

    नहीं, लेकिन सभी के लिए मार्ग है। उसने तुम्हें बनाया, उसी दिन तुम्हारा मार्ग भी तुम्हारे भीतर रख दिया है। जरा पहचानो! चल-चलकर थोड़ा देखो! अपनी चाल पहचानो! वही मौलिक है। फिर उस चाल से जिस धर्म का मेल बैठ जाता हो, वही तुम्हारा धर्म है। फिर जन्म की फिक्र छोड़ो, परंपरा की फिक्र छोड़ो, भीड़ की फिक्र छोड़ो, संस्कार की फिक्र छोड़ो। जिससे तुम्हारी लय बैठ जाती हो, जिसके साथ तुम्हारी सांस लयबद्ध हो जाती हो, बस वही तुम्हारा धर्म है; उसी से चल पड़ो। और भूलकर भी यह न कहना कि दूसरे नहीं पहुंचते, क्योंकि वह अधार्मिक की दृष्टि है।

    महावीर का मार्ग है: जीतनेवाले का मार्ग। संघर्ष! संकल्प! भक्त का मार्ग है: हारनेवाले का मार्ग। क्योंकि प्रेम हारऱ्हारकर जीतता है। हार ही प्रेम की कला है।

    मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना

    कुछ जीतने के खौफ से हारे चले गये।

    मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना

    प्रेम की बाजी कौन कब जीता है! कोई कभी नहीं जीता! यह बाजी जीतनेवाले के लिए है ही नहीं। यहां जिसने जीतने की कोशिश की वह प्रेम को नष्ट ही कर देता है, मार ही डालता है। यहां जीतने की चेष्टा में तो प्रेम मर ही जाता है, कुचल जाता है।

    मुश्किल था कुछ तो इश्क की बाजी को जीतना

    कुछ जीतने के खौफ से हारे चले गये।

    मगर यहां जो हारता है वही जीतता है। भक्त हारने के मार्ग पर चल रहा है। वह कहता है: किसी भांति मुझे इस योग्य बना दो कि तुम्हारे चरणों में सब भांति बिसर जाऊं, भूल जाऊं! मुझे ऐसी पिला दो कि फिर मुझे दुबारा होश न आये! मुझे मिटा डालो! यह तुम्हारे तीर को मेरे हृदय के बिलकुल आर-पार हो जाने दो! मुझ पर दया करो, मुझे समाप्त करो! करुणा करो और मुझे बिलकुल जला दो! राख भी न बचे!

    भक्त मिटने के मार्ग पर है। मिटकर वह सत्य को पाता है। क्योंकि जो मिटता है, वह वही है जो मिट सकता है। कुछ है कि जो मिट ही नहीं सकता।

    तो जब भक्त अपने को जलने के लिए छोड़ देता है तो राख, कूड़ा-कर्कट जल जाता है, सोना बच जाता है।

    महावीर का मार्ग जीतनेवाले का मार्ग है। कोई समर्पण नहीं, संघर्ष करना है। संघर्ष कर-करके छांटना है, गलत को छोड़ना है। तो उसमें भी वही घटता है। धीरे-धीरे कूड़ा-कर्कट छूट जाता है, सोना बच जाता है।

    महावीर फुटकर-फुटकर चलते हैं, एक-एक इंच लड़ते हैं। भक्त बड़ा थोक है। वह इकट्ठा अपने को समर्पण कर देता है।

    भक्ति छलांग है; महावीर यात्रा हैं। पर अपनी-अपनी मौज है। किन्हीं को छलांग में रस न होगा। वे कहेंगे, “आहिस्ता चलेंगे, सारा दृश्य देखते चलेंगे! धीरे-धीरे बढ़ेंगे, जल्दी क्या है? अनंत काल तो पड़ा है!’ किन्हीं को छलांग में रस है। वे कहते हैं, जब पहुंचना ही है तो यह क्या धीरे-धीरे, यह क्या सुस्त चाल, यह क्या सीढ़ी-सीढ़ी! कूद ही जाते हैं।

    अपने-अपने रस, अपनी-अपनी रुचि, अपने-अपने रुझान की बात है।

    लेकिन एक बात सदा स्मरण रखना: भक्त और साधक के मार्ग अलग हैं और उनको अलग रखना। तुम्हें जो रुचे उस पर चल जाना। ऐसा मत करना, ऐसा लोभ मत करना कि दोनों में से कुछ-कुछ बचा लें और दोनों में से कुछ-कुछ इकट्ठा कर लें। ऐसे लोभी भी हैं। लेकिन लोभी की बड़ी दुर्गति होती है। संसार में ही हो जाती है तो परमात्मा के मार्ग पर तो बहुत दुर्गति होती है। लोभ मत करना। ऐसा मत सोचना कि थोड़ा इसमें से भी ले लें जो सुखद लगे और थोड़ा दूसरे में से भी ले लें जो सुखद लगे। तो फिर तुम बैलगाड़ी और कार को मिलाकर जो इंतजाम कर लोगे, वह चलनेवाला नहीं है। वह तुम्हें किसी गङ्ढे में गिरायेगा।

    मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के बेटों ने ऐसा कबाड़खाने से सामान ला-लाकर एक कार बना ली। जब बन गयी कार तो उन्होंने मुल्ला को भी निमंत्रित किया। मुल्ला बैठ गया। वह कोई दस-पांच कदम ही गये होंगे कि कार गिरी एक खाई में, खेत में। मुल्ला चारों खाने चित्त पड़ा है। बेटों ने कहा, कि पापा डाक्टर को बुला लाएं? उसने आंख खाली। उसने कहा, “डाक्टर को बुलाने की कोई जरूरत नहीं; पशुओं के डाक्टर को बुला लाओ।’ तो उन्होंने पूछा, “आपको होश है? आप क्या कह रहे हैं? पशुओं के डाक्टर की क्या जरूरत है?’ तो उसने कहा, “अगर मैं आदमी होता तो तुम्हारी इस कार में बैठता? अगर मुझमें इतनी अकल होती…। तुम तो वैटनरी डाक्टर को बुला लाओ।’

    लोभ तुमसे कह सकता है कि थोड़ा भक्ति से चुन लो, थोड़े नारद के सूत्र बड़े प्यारे हैं; थोड़ा महावीर से चुन लो, महावीर के सूत्र बड़े प्यारे हैं! लेकिन “तुम’ चुननेवाले होओगे और “तुम’ जिन सूत्रों को चुन लोगे वह तुम्हारे अनुकूल होंगे। और तुम उन्हें छोड़ दोगे जो तुम्हारे अनुकूल नहीं मालूम होते। संभावना इसकी है कि जिन्हें तुम छोड़ोगे उनसे ही तुम्हारा रूपांतरण होता। और जो तुम चुनकर एक कृत्रिम ढांचा बना लोगे…कृत्रिम, याद रखना। अंग्रेजी में एक शब्द है: आर्गनिक। एक तो ढांचा होता है: सावयव। जैसे एक वृक्ष है, वृक्ष एक सावयव ढांचा है, आर्गनिक है। जैसे तुम हो, तुम्हारा शरीर एक आर्गनिक ढांचा है। अगर तुम्हारे हाथ को तोड़ दें तो हाथ अलग से न जी पायेगा; तुम्हारे साथ ही जी सकता था। उसका प्राण तुम्हारी सावयव एकता में था; अलग होकर मुर्दा हो जायेगा। तुम्हारी आंख को बाहर निकाल लें, फिर न देख पायेगी।

    मुल्ला नसरुद्दीन की एक आंख कांच की है। वह मजदूरों से काम लेता है तो वहां खड़ा रहता है। एक दिन जरूरी था उसको जाना। वह रहता है मौजूद, देखता रहता है तो मजदूर काम करते हैं; चला जाता है तो काम छोड़ देते हैं। तो उसने एक चमत्कार किया…। उसने कहा कि देखो। आंख खींचकर उसने बाहर निकाल ली और उसने कहा, “यह आंख रखे जा रहा हूं टेबल पर, यह तुम्हें देखती रहेगी। धोखा देने की कोशिश मत करना।’ मजदूर सकते में भी आ गये, क्योंकि कभी किसी आदमी को उन्होंने इस तरह आंख निकालते देखा नहीं था। और जब जो इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है आंख निकालने का, तो हो सकता है आंख देखे! तो वे बेचारे बड़ी देर तक काम में लगे रहे और देखते रहे, वह टेबल पर से आंख देख रही थी। फिर एक आदमी को होश आया। उसने जाकर एक टोकरी उसके ऊपर रख दी और फिर वह आराम करने लगे। उन्होंने कहा, अब तो कोई झंझट नहीं।

    मगर आंख देख ही नहीं सकती; आंख सावयव इकाई है, अलग होते ही व्यर्थ हो जाती है। हाथ अलग होते ही व्यर्थ हो जाता है।

    यांत्रिक एकता एक बात है। अगर तुम कार के एक यंत्र को बाहर निकाल लो, तो भी वह सार्थक है, बाजार में बिक सकता है। क्योंकि वह यंत्र का हिस्सा काम आ सकता है। उसका कोई उपयोग हो सकता है। हाथ को काटकर बाजार में बेचने जाओ, कोई न खरीदेगा; उसका कोई उपयोग नहीं। उसकी इकाई टूट गयी। वह निष्प्राण है।

    महावीर का मार्ग आर्गनिक है, सावयव है। उसमें से एक टुकड़ा मत निकालना; वह काम में न आयेगा। वह मुर्दा है। नारद का मार्ग भी सावयव है। सभी मार्ग सावयव हैं। उनमें से कुछ निकालना मत।

    इसलिए तो मैं गांधी के प्रयोग का बहुत पक्षपाती नहीं हूं: अल्लाह ईश्वर तेरे नाम! इसका मैं पक्षपाती नहीं हूं। क्योंकि अल्लाह किसी और सावयव इकाई का हिस्सा है, ईश्वर किसी और इकाई का हिस्सा है। अल्लाह और ईश्वर को जोड़ देने से न तो आदमी हिंदू रह जाता, न मुसलमान रह जाता–आदमी बड़ी अड़चन और दुविधा में पड़ जाता है। क्योंकि अल्लाह का अपना पूरा मार्ग है; उसे हिंदू मार्ग से कुछ लेने की जरूरत नहीं है। वह पूरा है अपने में–संपूर्ण है। हिंदू मार्ग अपने में पूरा है; उसे अल्लाह और मुसलमान से कुछ लेने की जरूरत नहीं है। सभी मार्ग अपने में पूर्ण हैं। सभी मार्ग पहुंचा देते हैं।

    इसलिए मैं तुमसे समझौतावादी बनने को नहीं कहता। अनेक समझौतावादी अपने को समन्वयवादी कहकर घोषित करते हैं, कि उन्होंने सबका समन्वय कर लिया है। डाक्टर भगवानदास ने एक किताब लिखी है सब धर्मों के समन्वय पर: द इसेंसियल युनिटी आफ आल रिलिजन्स! इस तरह की व्यर्थ किताबें बहुत लिखी गई हैं। वह सब तरफ से कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर लेते हैं। लेकिन वह सब मुर्दा हैं। किसी की आंख ले आये, किसी का कान काट लाये, किसी की नाक ले आये, किसी के पैर ले आये, किसी तरह जमा-जमूकर नक्शा खड़ा कर दिया–इसको कहते हैं: “इसेंसियल युनिटी आफ आल रिलिजन्स!’ यह सब धर्मों की एकता हो गयी! यह मरा हुआ आदमी है। इसमें कुछ भी जिंदा नहीं है। नाक जिंदा होती है किसी जिंदा आदमी के साथ; काट ली कि मुर्दा। आंख जिंदा होती है किसी जिंदा आदमी के साथ; अलग कर ली कि मुर्दा। फिर तुम अस्थि पंजर पर जमाकर बिलकुल खड़ा कर दो, तो शायद बच्चों के डराने के काम आ जाये, या रात में दरवाजे पर खड़ा कर दो तो चोर इत्यादि पास न आयें, या खेत में खड़ा कर दो तो पशु-पक्षियों को डराए–लेकिन और किसी ज्यादा काम का नहीं है।

    बहुत लोगों को सवाल उठता है। इस सदी में अनेक लोगों ने सब धर्मों के बीच समन्वय स्थापित करने की कोशिश की है। इस तरह की कोशिश पहले क्यों नहीं की गयी? क्या महावीर, बुद्ध, कृष्ण, और क्राइस्ट नासमझ थे? क्या डाक्टर भगवानदास और महात्मा गांधी और विनोबा ज्यादा समझदार हैं? इस सदी में यह समन्वय की जो कोशिश की गयी है, इसके गहरे में आधार राजनैतिक हैं। महावीर और बुद्ध को एक बात साफ थी कि प्रत्येक मार्ग अपने में संपूर्ण है, जीवंत है! उसमें से कुछ भी अलग किया, मर जायेगा।

    तो तुम भक्ति के मार्ग पर चलना चाहो तो भक्ति के मार्ग पर चलना, लेकिन समग्ररूपेण! और कुछ छोड़ना मत उसमें से, क्योंकि जो छोड़ा जा सकता था वह नारद ने ही छोड़ दिया है। जो नहीं छोड़ा जा सकता था, बस उतना ही बचाया है। अगर महावीर का मार्ग ठीक लगे तो महावीर के मार्ग पर चलना; छोड़ना मत उसमें से कुछ, क्योंकि जो छोड़ सकते तो महावीर खुद ही छोड़ देते। कुछ भी व्यर्थ नहीं है; बिलकुल मूलभूत, सारभूत जो है, वही बचाया है। इसमें से कुछ भी काटा नहीं जा सकता। और न कुछ जोड़ना; क्योंकि जो जोड़ा जा सकता था वह उन्होंने जोड़ दिया है। कुछ और जोड़ने की जरूरत नहीं है।

    प्रत्येक धर्म बड़ी सावयव इकाई है, जीवंत इकाई है, यंत्रवत नहीं। इतना स्मरण रहे तो फिर तुम्हारी जहां रुचि हो, जहां रुझान हो, तुम चल पड़ना! तुम पहुंच जाओगे। सभी नदियां सागर की तरफ जा रही हैं!

    आखिरी प्रश्न:

    बार-बार मन को समझाती हूं, पर समझा नहीं पाती हूं। जो दिन आपके साथ प्रेमपूर्वक बिताए, उन्हें मैं कैसे भूलूं! बार-बार आपका प्रेम याद आता रहता है। आप कहते हैं कि अतीत को भूल जाऊं; मगर यह मेरे बस की बात नहीं। आप वीतराग हो गये। अब इन आंसुओं के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है। जितना प्रेम आपने दिया उतना तो किसी ने भी नहीं दिया। और मन बार-बार कहता है, आप कब आएंगे?

    “सोहन’ का प्रश्न है।

    समझाने से तो उलझन बढ़ेगी। समझाने की कोई जरूरत नहीं, समझाने से समझ आती भी नहीं। और “सोहन’ के लिए समझदारी रास्ता भी नहीं हो सकती। नासमझी में जीना! और याद आती है तो उसे हटाने की कोशिश भी मत करना। याद में पूरी तरह डूबना। याद से पीड़ा हो तो पीड़ा को होने देना, रोना, जार-जार रोना, आंसुओं को बहने देना! वे आंसू पवित्र करेंगे।

    प्रेम के रास्ते पर बहे आंसू पवित्र करते हैं। और वैसी याद चिंता नहीं है। वैसी याद तो हृदय की उदभावना है।

    अड़चन इसलिए पैदा हो रही है कि मन समझा रहा है कि छोड़ो भी, याद से तो पीड़ा होती है। प्रेम के स्मरण से पीड़ा होती है। यह बुद्धि है जो बीच-बीच में बाधा डाल रही है।

    इस बुद्धि की मानकर चलने से कुछ भी हल न होगा। क्योंकि बुद्धि कभी हृदय को नहीं जीत पाती, अगर हृदय बलशाली हो। और सोहन के पास बलशाली हृदय है। बुद्धि भौंकती रहेगी, हृदय अपने रास्ते पर चलता जायेगा। अगर बुद्धि की सुनी तो बड़ी अड़चन पैदा होगी। क्योंकि हृदय बलशाली है और बुद्धि उसे बदल नहीं सकती।

    हृदय की ही सुनो! बुद्धि की छोड़ो। बुद्धि से कहो, “छोड़ भौंकना! तू भी याद में लग! तू भी रो! तू भी हृदय की अनुषंग बन जा, हृदय की छाया बन जा!’

    “सोहन’ के लिए कोई महावीर का रास्ता पहुंचानेवाला नहीं है, उसे तो भक्ति का ही कोई रास्ता पहुंचाएगा। तो प्रेम को भक्ति बनाओ, भाव को भक्ति बनाओ। और बेहोशी को, बेखुदी को रास्ता समझो: डूब गये, रोये, नाचे, गाये!

    इसलिए धीरे-धीरे दूर हट गया हूं। क्योंकि अगर मैं पास होऊं तो तुम रोओगे कैसे? अगर मैं पास होऊं और तुम्हें जब चाहिए तब मिल जाऊं, तो फिर आंसू कब बहाओगे? याद कैसे करोगे? यह भी उपाय है।

    बहुतों को मैंने अपने प्रेम में डाला और फिर धीरे-धीरे दूर हट गया। दूर हट जाना उपाय है। क्योंकि प्रेम अगर दूर हट जाने से मर जाये तो प्रेम न था। और दूर हट जाने से अगर प्रेम और गहन हो जाये तो भक्ति बनने में ज्यादा देर नहीं।

    भगवान दिखाई नहीं पड़ता; न तुम उसे छू सकते हो, न उससे बोल सकते हो। प्रेमी दिखायी पड़ता है, छुआ जा सकता है, बोला जा सकता है। अगर मैं तुम्हारे पास ही रहूं तो तुम्हारा प्रेम, प्रेम ही रह जायेगा। मुझे तुमसे दूर हटना होगा। इतना दूर हटना होगा कि मैं भी करीब-करीब अदृश्य हो जाऊं। अगर प्रेम फिर भी बच सका तो तुम पाओगे कि प्रेम ने धीरे-धीरे एक रूपांतरण लिया। वह अदृश्य का, अज्ञात का प्रेम बनने लगा! वही भक्ति है। धीरे-धीरे मेरी याद, मेरी याद न रह जायेगी। धीरे-धीरे मैं भी एक बहाना हो जाऊंगा। उस बहाने से परमात्मा की ही याद तुममें प्रवाहित होने लगेगी।

    प्रेम का दिन भी होता है, प्रेम की रात भी होती है। अगर प्रेम का दिन ही दिन हो, सुख ही सुख हो और प्रेम की पीड़ा न हो, तो प्रेम छिछला रह जाता है, गहरा नहीं होता। पीड़ा के बिना कोई भी चीज जगत में गहरी नहीं होती।

    सुख बड़ा ऊपर-ऊपर है, दुख बड़ा गहरा है। सुख की कहीं गहराई होती है? वह तो पानी के ऊपर-ऊपर की लहरें हैं। दुख की गहराई होती है। इसलिए दुख तुम्हारे हृदय को जितना गहरा छूता है उतना सुख कभी नहीं छू पाता। सुखी आदमी को तुम हमेशा छिछला पाओगे। दुखी आदमी के जीवन में एक गहराई होती है।

    और धन्यभागी हैं वे, जो प्रेम के कारण दुखी हैं! क्योंकि कारण पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। कोई इसलिए दुखी है कि धन नहीं मिला। धन मिलकर ही बहुत गहराई नहीं मिलती, तो धन के न मिलने से क्या खाक गहराई मिलेगी? उसका दुख व्यर्थ के लिए है। कोई इसलिए रो रहा है कि पद नहीं मिला। धन्यभागी हैं वे जो इसलिए रो रहे हैं कि प्रेम एक खाली जगह छोड़ गया है! उस खाली जगह को अपना पूजागृह बनाओ। प्रेम ने जहां हृदय को छुआ है और पीड़ा को जगाया है, उस पीड़ा को अपने से विपरीत मत समझो–उसके साथ बहो, उसको स्वीकार करो! वह पीड़ा तुम्हें मांजेगी। वह पीड़ा तुम्हें निखारेगी। वह पीड़ा अग्नि की तरह सिद्ध होगी और तुम्हारा स्वर्ण कुंदन बनेगा।

    सुबह तेरी है तो ऐ खालिके-सुबह!

    रात है किसकी करम फर्माई?

    –हे परमात्मा, अगर सुबह तूने बनायी तो फिर रात किसकी अनुकंपा का फल है?

    अगर प्रेम से सुख मिलता है तो प्रेम से दुख भी मिलेगा। प्रेम के दुख को स्वीकार करना! जिसने सिर्फ प्रेम के सुख को स्वीकार किया उसने आधे को स्वीकार किया; उसके पूरे प्राणों पर प्रेम का विस्तार न हो सकेगा। प्रेम का दिन स्वीकारा, प्रेम की रात भी स्वीकारना। और अगर दोनों स्वीकार हो गये तो ज्यादा देर न लगेगी कि परमात्मा सब तरफ दिखायी पड़ने लगे। दुख भी उसी का है, इसलिए सौभाग्य है।

    तू मेरे दिल में ही नहीं सारी कायनात में है

    तू दिन की तरह निहां इस अंधेरी रात में है।

    –फिर धीरे-धीरे दिन की भांति रात में भी वही छिपा मालूम पड़ेगा।

    तू दिन की तरह निहां इस अंधेरी रात में है।

    अंधेरा भी फिर उसका ही स्पर्श देगा।

    अनुपस्थिति भी जब उसकी उपस्थिति बन जाये तो प्रेम भक्ति बनती है। अनुपस्थिति भी जब उसकी उपस्थिति मालूम पड़ने लगे…क्योंकि अनुपस्थिति भी उसी की है न! उसी से जुड़ी है। तो अनुपस्थिति भी फिर परमात्मा की ही हो गयी, प्रभु की हो गयी, प्रेम की हो गयी! तो अनुपस्थिति को भरने की कोशिश मत करना। उसको जीना।

    तू मेरे दिल में ही नहीं सारी कायनात में है।

    और फिर धीरे-धीरे जब दिल में दुख और सुख दोनों क्षणों में वह दिखायी पड़ने लगे तो सारे संसार में भी दिखायी पड़ने लगेगा।

    प्रेमी चाहता क्या है? प्रेमी चाहता है कि प्रेमी में लीन हो जाये। भक्त चाहता क्या है?–कि भगवान में डूब जाये!

    तू है मुहीते-बेकरां मैं हूं जरा-सी आबे-जू

    या मुझे हमकिनार कर, या मुझे बे-किनार कर!

    तू है मुहीते-बेकरां–तू है बड़ा सागर! मैं हूं जरा-सी आबे-जू–मैं हूं एक छोटा-सा झरना। या मुझे हमकिनार कर–या तो मुझे अपने साथ ले ले…या मुझे बेकिनार कर–या मुझे मेरे किनारों से मुक्त कर दे।

    लेकिन दोनों ही बातों का एक ही अर्थ होता है। या तो तू मुझे अपने साथ ले ले, सागर बना ले, और या फिर मुझे बेकिनारा कर दे। मेरे किनारे मुझ से छीन ले! या तो मुझे डुबा ले या मेरे किनारे मुझसे छीन ले! लेकिन दोनों हालत में वह जो छोटा-सा झरना है, सागर हो जायेगा।

    तड़फ क्या है? पीड़ा क्या है? पीड़ा प्रेमी के मिलने से थोड़े ही पूरी होती है–पीड़ा प्रेमी में खो जाने से पूरी होती है। यही तो भक्त और प्रेमी का फर्क है।

    अगर तुम्हारे जीवन में मेरे प्रति प्रेम है और प्रेम अगर भक्ति में न रूपांतरित हुआ, तो यह प्रेम भी बंधन बन जायेगा। फर्क समझ लो। प्रेमी चाहता है, जिससे प्रेम किया वह मिल जाये। भक्त चाहता है, जिससे प्रेम किया उसमें हम खो जायें। प्रेमी प्रेम-पात्र को पास लाना चाहता है। भक्त प्रेम-पात्र के पास जाना चाहता है। बड़ा फर्क है। प्रेमी चाहता है, जिससे प्रेम किया उस पर कब्जा हो जाये। भक्त चाहता है, जिसे प्रेम किया उसका मुझ पर कब्जा हो जाये।

    ध्यान रखना, प्रेमी तो हारेगा; क्योंकि यह कब्जा संभव नहीं है। भक्त जीतेगा; क्योंकि भक्त कब्जा करना ही नहीं चाहता, सिर्फ कब्जा देना चाहता है।

    तू है मुहीते-बेकरां, मैं हूं जरा-सी आबे-जू

    या मुझे हमकिनार कर, या मुझे बेकिनार कर।

    यह जो दुख “सोहन’ को प्रतीत हो रहा है, गहरा उसे प्रतीत हो रहा है, इस दुख को सुख में बदला जा सकता है। इस पीड़ा से बड़े फूल खिल सकते हैं। लेकिन थोड़ी समझ में क्रांति लानी जरूरी है।

    हासिले-जीस्त मसर्रत को समझनेवाले

    एक नफस गम भी की दमभर तो खुदा याद रहे।

    थोड़ा-सा दुख भी चाहिए, दमभर तो खुदा याद रहे! अगर सुख ही सुख हो तो याद भूल जाती है। इसीलिए तो लोग सुख में याद नहीं करते, दुख में याद करते हैं। और जिसने यह सार समझ लिया कि दुख में याद गहन होती है, वह फिर दुख से न छूटना चाहेगा; वह तो दुख को भी सौभाग्य समझेगा। और अगर दुख को सौभाग्य समझ लिया तो सब घट गया। क्योंकि वहीं तो मनुष्य की उलझन है: दुख का अस्वीकार; सुख का स्वीकार। जब दुख का भी स्वीकार हो गया तो दुख दुख न रहा।

    ऐसा समझो कि जिस दुख को हम स्वीकार कर लेते हैं वह सुख हो जाता है। स्वीकार करते ही सुख हो जाता है। दुख का होना हमारे अस्वीकार में है। स्वीकार होते ही दुख का गुणधर्म बदल जाता है।

    मुझे खयाल में है। जिन-जिनसे भी प्रेम किया है, उनसे मैं धीरे-धीरे अपने को दूर हटाऊंगा ही। प्रेम तो शुरुआत है। वहीं रुक नहीं जाना है। दूर हटूंगा तो प्रेम भक्ति में बदल सकता है। अगर होगा तो भक्ति में बदल जायेगा। अगर नहीं होगा तो नाराजगी में बदल जायेगा। तो कुछ हैं जो मेरे पास से नाराज होकर हट जाते हैं। “सोहन’ उनमें से नहीं है; हटनेवाली नहीं है। लाख हटाने की चेष्टा करूं, वह हटनेवाली नहीं है। तो फिर उसकी हार भी जीत में बदल जायेगी।

    गुलशन में सबा को जुस्तजू तेरी है

    बुलबुल की जबां पे गुफ्तगू तेरी है

    हर रंग में जलवा है तेरी कुदरत का

    जिस फूल को सूंघता हूं, बू तेरी है।

    तो जो प्रेम मेरे प्रति है, उसे और फैलाओ! उसे इतना फैलाओ कि उस प्रेम के लिए कोई पता ठिकाना न रह जाये। मुझसे सीखो; लेकिन मुझ पर रुको मत। मुझसे चलो, लेकिन मुझ पर ठहरो मत।

    जैनों का शब्द तीर्थंकर बड़ा बहुमूल्य है। तीर्थंकर का अर्थ होता है: घाट बनानेवाला। घाट बना दिया, घाट बैठने के लिए नहीं है; दूर जाने के लिए है, दूसरे घाट जाने के लिए है।

    तो मैं अगर तुम्हारा घाट बन जाऊं और फिर तुम वहीं रुक जाओ और वहीं खील ठोंक दो, और वहीं नाव को अटका लो, तो यह तो काम का न हुआ। मैं तुम्हें मेरे किनारे पर कील ठोंककर रुकने न दूंगा। तुम लाख ठोंको, मैं उखाड़ता रहूंगा। एक न एक दिन तुम्हें दूसरे किनारे की तरफ जाने की तैयारी करनी होगी। उस यात्रा के लिए तैयार रहो। निश्चित ही दूसरी तरफ जाने में यह किनारा दूर होता हुआ मालूम होगा। लेकिन घबड़ाओ मत, मैं दूसरे पर मिल जाऊंगा–बहुत बड़ा होकर!

    पूछा है, “आप कब आएंगे?’

    दूसरे किनारे पर! अब इस किनारे पर नहीं। और दूसरे किनारे पर जिस रूप में आऊंगा, वह रूप शायद एकदम से पहचान में भी न आयेगा। दूसरे किनारे पर जिस ढंग से आऊंगा शायद वह ढंग एकदम से समझ में भी न आयेगा।

    गुलशन में सबा को जुस्तजू तेरी है

    बुलबुल की जबां पे गुफ्तगू तेरी है

    हर रंग में जलवा है तेरी कुदरत का

    जिस फूल को सूंघता हूं, बू तेरी है।

    वह पहचान तो विराट की पहचान होगी। उसे अभी से पहचानने लगो। थोड़े दिन यह देह होगी, फिर यह देह भी जायेगी; तब मैं तुमसे और भी दूर हो जाऊंगा। ऐसे धीरे-धीरे एक-एक कदम तुमसे दूर होता जाऊंगा। थोड़ी देर बाद यह देह भी खो जायेगी। फिर तुम मुझे किसी तरफ न देख सकोगे। सब तरफ देख पाओगे तो ही देख सकोगे। उसकी तैयारी करवा रहा हूं। उसका धीरे-धीरे तुम्हें अभ्यास करवा रहा हूं।

    ये क्षण बहुमूल्य हैं। इन क्षणों में मिले हुए सुख में तो सुखी होओ ही, इन क्षणों में मिले दुख में भी सुखी होओ। और बुद्धि की मत सुनो! हृदय की सुनो! आऊंगा जरूर, लेकिन दूसरे किनारे पर। आना सुनिश्चित है, लेकिन तुम इस किनारे पर मत रुके रह जाना; अन्यथा मैं उस किनारे प्रतीक्षा करूं और तुम इसी किनारे बने रहो! इस किनारे से तो मेरे भी जाने के दिन करीब आयेंगे। इसके पहले कि मैं इस किनारे से विदा होऊं, तुम अपनी खूंटी उखाड़ लेना, तुम अपनी नाव को चला देना।

    दूसरा किनारा दूर है और दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन जिस नदी का एक किनारा है उसका दूसरा भी है ही, दिखाई पड़े न दिखाई पड़े। कहीं एक किनारे की कोई नदी हुई है?

    तो प्रेम का एक रूप जाना, एक किनारा जाना–दूसरा भी है। वही भक्ति है।

    मनुष्य को प्रेम किया, शुभ है। लेकिन वहां रुक मत जाना। वह प्रेम धीरे-धीरे उठे लपट की तरह और परमात्मा के प्रेम में रूपांतरित हो। मेरा प्रेम तुम्हें मुक्त करे, तुम्हें मोक्ष दे, तो ही मेरा प्रेम है; बांध ले, अटका दे, तो फिर मेरा प्रेम नहीं।

    प्रेम सदा ही मोक्ष का द्वार है!

    आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–20

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निष्काम कर्म (अध्याय—5) प्रवचन—बीसवां

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।। 3।।

हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है, और न किसी की आकांक्षा करता है, वह निष्काम कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि रागद्वेषादि द्वंद्वों से रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक संसाररूप बंधन से मुक्त हो जाता है।

जीवन में या तो हम खिंचते हैं किसी से, आकर्षित होते हैं; या हटते हैं और विकर्षित होते हैं। या तो कहीं हम आकांक्षा से भरे हुए बंध जाते हैं, या कहीं हम विपरीत आकांक्षा से भरे हुए मुड़ जाते हैं। लेकिन ठहरकर खड़ा होना–आकर्षण और विकर्षण के बीच में रुक जाना–न हमें स्मरण है, न हमें अनुभव है। और आश्चर्य यही है कि न आकर्षण से कभी कोई व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है और न विकर्षण से। दोनों के बीच जो ठहर जाता है, वह आनंद को उपलब्ध होता है।

राग का अर्थ है, खिंचना; द्वेष का अर्थ है, हटना। साधारणतः राग और द्वेष विपरीत मालूम पड़ते हैं, एक-दूसरे के शत्रु मालूम पड़ते हैं। लेकिन राग और द्वेष की जो शक्ति है, वह एक ही शक्ति है, दो नहीं। आपकी तरफ मैं मुंह करके आता हूं, तो राग बन जाता हूं। आपकी तरफ पीठ करके चल पड़ता हूं, तो द्वेष बन जाता हूं। लेकिन चलने वाले की शक्ति एक ही है। जब वह आपकी तरफ आता है, तब भी; और जब आपसे पीठ करके जाता है, तब भी।

सभी आकर्षण विकर्षण बन जाते हैं। और कोई भी विकर्षण आकर्षण बन सकता है। वे रूपांतरित हो जाते हैं। इसलिए राग-द्वेष दो शक्तियां नहीं हैं, पहले तो इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए। एक ही शक्ति के दो रूप हैं। घृणा और प्रेम दो शक्तियां नहीं हैं; एक ही शक्ति के दो रूप हैं। मित्रता और शत्रुता भी दो शक्तियां नहीं हैं; एक ही शक्ति की दो दिशाएं हैं।

इसलिए सारा जगत, सारा जीवन, इस तरह के द्वंद्वों में बंटा होता है–राग-द्वेष, शत्रुता-मित्रता, प्रेम-घृणा। ये एक ही शक्ति के दो आंदोलन हैं। और हमारा मन या तो प्रेम में होता है या घृणा में होता है। प्रेम सुख का आश्वासन देता है; घृणा दुख का फल लाती है। राग सुख का भरोसा देता है; द्वेष दुख की परिणति बन जाता है। राग आकांक्षा है, द्वेष परिणाम है। ये दोनों एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं, आकांक्षा और परिणाम।

कृष्ण कहते हैं निष्काम कर्मयोग की परिभाषा में, कि जो व्यक्ति राग-द्वेष दोनों के अतीत हो जाता है, वह निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है।

राग-द्वेष दोनों के द्वंद्व के बाहर जो हो जाता है! लेकिन हम कभी द्वंद्व के बाहर नहीं होते। जिन्हें हम त्यागी कहते हैं, वे भी द्वंद्व के बाहर नहीं होते। वे भी केवल विरागी होते हैं। उनका राग उलटा हो गया होता है। घर को छोड़ते हैं, भागते हैं, घर को पकड़ते नहीं। धन को त्यागते हैं, छाती से नहीं लगाते। लेकिन त्याग करने में उतने ही आब्सेशन से, उतनी ही तीव्रता से भरे होते हैं, जितना धन को पकड़ने की आकांक्षा से भरे हुए थे। त्याग सहज नहीं, विकर्षण है। किसी की तरफ मैं जाऊं, तो भी मैं उससे बंधा हूं। और उससे भागूं, तो भी उससे ही बंधा हूं। जब जाता हूं, तब लोगों को दिखाई पड़ता है कि बंधा हूं।

विवेकानंद ने कहीं एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि जब पहली-पहली बार धर्म की यात्रा पर उत्सुक हुआ, तो मेरे घर का जो रास्ता था, वह वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरता था। संन्यासी होने के कारण, त्यागी होने के कारण, मैं मील दो मील का चक्कर लगाकर उस मुहल्ले से बचकर घर पहुंचता था। उस मुहल्ले से नहीं गुजरता था। सोचता था तब कि यह मेरे संन्यास का ही रूप है। लेकिन बाद में पता चला कि यह संन्यास का रूप न था। यह उस वेश्याओं के मुहल्ले का आकर्षण ही था, जो विपरीत हो गया था। अन्यथा बचकर जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। गुजरना भी सचेष्ट नहीं होना चाहिए कि वेश्या के मुहल्ले से जानकर गुजरें। जानकर बचकर गुजरें, तो भी वही है; फर्क नहीं है।

विवेकानंद को यह अनुभव एक बहुत अनूठी घड़ी में हुआ। जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत में मेहमान थे। विदा जिस दिन हो रहे थे, उस दिन जिस राजा के मेहमान थे, उसने एक स्वागत-समारोह किया। जैसा कि राजा स्वागत-समारोह कर सकता था, उसने वैसा ही किया। उसने बनारस की एक वेश्या बुला ली विवेकानंद के स्वागत-समारोह के लिए। राजा का स्वागत-समारोह था; उसने सोचा भी नहीं कि बिना वेश्या के कैसे हो सकेगा!

ऐन समय पर विवेकानंद को पता चला, तो उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। वे अपने तंबू में ही बैठ गए और उन्होंने कहा, मैं न जाऊंगा। वेश्या बहुत दुखी हुई। उसने एक गीत गाया। उसने नरसी मेहता का एक भजन गाया। जिस भजन में उसने कहा कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है, एक लोहे का टुकड़ा कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस पत्थर यह कहे कि मैं देवता के मंदिर में जो पड़ा है लोहे का टुकड़ा, उसको ही सोना कर सकता हूं और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को सोना नहीं कर सकता, तो वह पारस नकली है। वह पारस असली नहीं है।

उस वेश्या ने बड़े ही भाव से गीत गाया–प्रभुजी, मेरे अवगुण चित्त न धरो! विवेकानंद के प्राण कंप गए। जब सुना कि पारस पत्थर की तो खूबी ही यही है कि वेश्या को भी स्पर्श करे, तो सोना हो जाए। भागे! तंबू से निकले और पहुंच गए वहां, जहां वेश्या गीत गा रही थी। उसकी आंखों से आंसू झर रहे थे। विवेकानंद ने वेश्या को देखा। और बाद में कहा कि पहली बार उस वेश्या को मैंने देखा, लेकिन मेरे भीतर न कोई आकर्षण था और न कोई विकर्षण। उस दिन मैंने जाना कि संन्यास का जन्म हुआ है।

विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है; विपरीत है। वेश्या से बचना भी पड़े, तो यह वेश्या का आकर्षण ही है कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ, जिसका डर है। वेश्याओं से कोई नहीं डरता, अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के आकर्षण से डरता है।

विवेकानंद ने कहा, उस दिन मेरे मन में पहली बार संन्यास का जन्म हुआ। उस दिन वेश्या में भी मुझे मां ही दिखाई पड़ सकी। कोई विकर्षण न था।

यह जो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि द्वंद्वातीत महाबाहो! जिस दिन राग और द्वेष दोनों के अतीत कोई हो जाता, उस दिन निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है।

कठिन मामला मालूम होता है। क्योंकि कर्म हम दो ही कारणों से करते हैं। या तो आकर्षण हो, तो करते हैं; और या विकर्षण हो, तो करते हैं। या तो कुछ पाना हो, तो करते हैं; या कुछ छोड़ना हो, तो करते हैं। हमारे कर्म की जो मोटिविटी है, जो मोटिवेशन है, हमारे कर्म की जो प्रेरणा है, वह दो से ही आती है। या तो मुझे धन कमाना हो, तो मैं कुछ करता हूं; या धन त्यागना हो, तो कुछ करता हूं। या तो कोई मेरा मित्र हो, तो उसकी तरफ जाता हूं; या मेरा कोई शत्रु हो, तो उसकी तरफ से हटता हूं। लेकिन मेरा कोई मित्र नहीं, मेरा कोई शत्रु नहीं, तो फिर मैं चलूंगा कैसे? कर्म कैसे होगा? फिर मोटिवेशन नहीं है। यह बात ठीक से समझ लेनी जरूरी है।

पश्चिम के मनोवैज्ञानिक मानने को राजी नहीं हैं कि अनमोटिवेटेड एक्शन हो सकता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक मानने को राजी नहीं हैं कि बिना किसी अंतर्प्रेरणा के कर्म हो सकता है। सब कर्म मोटिवेटेड हैं। सभी कर्मों के पीछे करने की प्रेरणा होगी ही, अन्यथा कर्म फलित नहीं होगा। कर्म है, तो भीतर मोटिवेशन होगा।

कृष्ण कहते हैं, कर्म है और भीतर करने का कोई कारण है– सुखद या दुखद; आकर्षण का या विकर्षण का; राग का या द्वेष का–अगर कोई भी भीतर कारण है कर्म का, तो कर्म फिर बंधन का निर्माता होगा। और अगर कोई कारण नहीं है भीतर, फिर कर्म फलित हो, तो निष्काम कर्म है। और सुख के मार्ग से व्यक्ति बंधन के बाहर हो जाता है।

लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा कर्म हो नहीं सकता। कर्म होगा, तो आकर्षण से या विकर्षण से। इसलिए इसे थोड़ा गहरे में समझ लेना जरूरी है।

पश्चिम की पूरी साइकोलाजी की यह चुनौती है। पश्चिम के मनसशास्त्र का यह दावा है कि कर्म तो होगा ही कारण से। अकारण–न राग, न द्वेष; कहीं पहुंचना भी नहीं है, कहीं से बचना भी नहीं है–तो कर्म नहीं होगा।

अगर यह बात सच है, तो कृष्ण का पूरा विचार धूल में गिर जाता है। फिर उसकी कोई जगह नहीं रह जाती। क्योंकि कृष्ण की सारी चिंतना इस बात पर खड़ी है कि ऐसा कर्म संभव है।

जिसमें राग और द्वेष न हों, ऐसा कर्म कैसे संभव है? हम तो जो भी करते हैं, अगर हम अपने किए हुए कर्मों का विचार करें, तो पश्चिम के मनोविज्ञान का दावा सही मालूम पड़ता है। लेकिन हमारे कर्म रुग्ण मनुष्यों के कर्म हैं। हमारे कर्मों के ऊपर से निर्णय लेना ऐसे ही है, जैसे दस अंधे आदमियों की आंखों को देखकर यह निर्णय ले लेना कि जो भी आदमी चलते हैं, वे सब अंधे हैं। क्योंकि दस अंधे आदमी चलते हैं। दसों ही अंधे हैं और चलते हैं; इसलिए यह निर्णय ले लेना कि आंख वाला आदमी चलेगा ही नहीं, क्योंकि दस अंधे आदमी चलते हैं, और चलने वाले दसों अंधे हैं!

पश्चिम का मनोविज्ञान एक बुनियादी भ्रांति पर खड़ा है। वह बुनियादी भ्रांति दोहरी है। एक तो यह कि पश्चिम के मनोविज्ञान के सारे नतीजे बीमार लोगों को देखकर लिए गए हैं, पैथालाजिकल हैं। पश्चिम के मनोविज्ञान ने जिन लोगों का अध्ययन किया है, वे रुग्ण, विक्षिप्त, पागल, न्यूरोटिक हैं।

यह बहुत हैरानी की बात है कि पश्चिम के मनोविज्ञान के सारे निष्कर्ष बीमार आदमियों के ऊपर निर्भर हैं। सच बात तो यह है कि मनोवैज्ञानिक के पास कोई स्वस्थ आदमी कभी जाता नहीं। जाएगा किसलिए? मनोवैज्ञानिक जिनका अध्ययन करते हैं, वे रुग्ण हैं और बीमार हैं, करीब-करीब विक्षिप्त हैं। कहीं न कहीं कोई साइकोसिस, कोई न्यूरोसिस, कोई मानसिक रोग उन्हें पकड़े हुए है।

फ्रायड से लेकर फ्रोम तक पश्चिम के सारे मनोवैज्ञानिकों का अध्ययन बीमार आदमियों का अध्ययन है। बीमार आदमियों से वे सामान्य आदमी के संबंध में नतीजे लेते हैं, जो कि गलत है।

दूसरी बात, सामान्य आदमी के अध्ययन से भी नतीजे लेने गलत होंगे, क्योंकि सामान्य आदमी भी पूरा आदमी नहीं है। कृष्ण ने जो नतीजा लिया है, वह पूरे आदमी से लिया गया नतीजा है। इस मुल्क का मनोविज्ञान बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शंकर, नागार्जुन, रामानुज, इन लोगों के अध्ययन पर निर्भर है। मनुष्य जो हो सकता है परम, उस मनुष्य की परम संभावनाओं के अध्ययन पर इस मुल्क का मनसशास्त्र ठहरा हुआ है।

पश्चिम का मनसशास्त्र, मनुष्य जहां तक गिर सकता है आखिरी, उस आखिरी सीमा-रेखा पर खड़ा हुआ है। निश्चित ही, पश्चिम के मनोविज्ञान और पूरब के मनोविज्ञान का कोई तालमेल नहीं हो पाता।

हमने श्रेष्ठतम पर ध्यान रखा है, उन्होंने निकृष्टतम पर। हमने चोटी पर ध्यान रखा है, उन्होंने खाई पर। निश्चित ही, जो खाई का अध्ययन करेगा और जो शिखर का अध्ययन करेगा, उनके अध्ययन के नतीजे भिन्न होने वाले हैं। जो शिखर का अध्ययन करेगा, वह कहेगा कि शिखर पर सूरज की किरणों का बहुत स्पष्ट फैलाव है। बादल छूते हैं। जो खाई का अध्ययन करेगा, वह कहेगा कि अंधकार सदा भरा रहता है। बादलों का कभी कोई पता नहीं चलता है।

मनुष्य में दोनों हैं, ऊंचाइयां भी और खाइयां भी। मनुष्य में बुद्ध जैसे शिखर भी हैं; हिटलर जैसी रुग्ण खाइयां भी हैं। मनुष्य एक लंबा रेंज है। मनुष्य कहने से कुछ पता नहीं चलता। मनुष्य में आखिरी मनुष्य भी सम्मिलित है और प्रथम मनुष्य भी सम्मिलित है। जो ऊंचे से ऊंचे तक पहुंचा है शिखर पर जीवन के, वह भी सम्मिलित है; और जो नीचे से नीचे उतर गया है, वह भी सम्मिलित है। वे जो पागलखाने में बंद हैं विक्षिप्त, वे भी सम्मिलित हैं; और जो परम आनंद को उपलब्ध हुए हैं विमुक्त, वे भी सम्मिलित हैं।

पश्चिम ने विक्षिप्त लोगों के अध्ययन पर जो नतीजा लिया है, वह अपनी सीमा में ठीक है। विक्षिप्त आदमी कभी भी राग और द्वेष से मुक्त नहीं हो सकता। राग और द्वेष के कारण ही तो वह विक्षिप्त और पागल होता है; मुक्त होगा कैसे? वे तो उसके पागल होने के बुनियादी आधार हैं। विमुक्त मनुष्य राग और द्वेष के बाहर होता है। बाहर होता है, तभी विमुक्त है। अन्यथा विमुक्त नहीं है।

भारत ने श्रेष्ठतम को आधार बनाया। मुझे लगता है, उचित है यही। क्योंकि हम श्रेष्ठतम को आधार बनाएं, तो शायद हमारे जीवन में भी यात्रा हो सके। हम निकृष्टतम को आधार बनाएं, तो हमारे जीवन में भी पतन की संभावना बढ़ती है।

अगर हमें ऐसा पता चले कि आदमी कभी आनंद को उपलब्ध हो ही नहीं सकता, तो हम अपने दुख में ठहर जाते हैं। अगर हमें ऐसा पता चले कि जीवन में प्रकाश संभव ही नहीं है, तो फिर हम अंधेरे से लड़ने का संघर्ष बंद कर देते हैं। अगर हमें ऐसा पता चले कि हर आदमी बेईमान है, चोर है, तो हमारे भीतर वह जो बेईमान है और चोर है, वह जस्टीफाइड हो जाता है; वह न्याययुक्त ठहर जाता है, कि जब सभी लोग चोर और बेईमान हैं, तो वह जो पीड़ा है चोर और बेईमान होने की, विदा हो जाती है। हम अपनी चोरी और बेईमानी में भी राजी हो जाते हैं।

निकृष्टतम को आधार बना लिया जाए, तो मनुष्य रोज नीचे गिरेगा। और पचास सालों में पश्चिम के मनोविज्ञान ने आदमी को नीचे गिराने की सीढ़ियां निर्मित की हैं।

और बड़े मजे की बात है, जब आदमी नीचे गिरता है, तो पश्चिम का मनोवैज्ञानिक कहता है कि हम तो पहले ही कहते थे कि नीचे गिरने के सिवाय और कुछ हो नहीं सकता। सेल्फ फुलफिलिंग प्रोफेसीज! कुछ भविष्यवाणियां ऐसी होती हैं, जो खुद होकर अपने को पूरा कर लेती हैं।

किसी आदमी से कह दें कि तुम पंद्रह साल बाद फलां दिन मर जाओगे। जरूरी नहीं है कि यह भविष्यवाणी उसकी मृत्यु की जानकारी से निकली हो। लेकिन इस भविष्यवाणी से उसकी मृत्यु निकल सकती है। सेल्फ फुलफिलिंग हो जाएगी। पंद्रह साल बाद मरना है, यह बात ही आधा मार डालेगी। फिर वह रोज मरने की ही तैयारी करेगा या मरने से बचने की तैयारी करेगा, जो कि दोनों एक ही बात हैं। जिसमें कोई फर्क नहीं है। मरने से बचने की तैयारी करेगा या मरने की तैयारी करेगा, दोनों हालत में मृत्यु ही उसके जीवन की आधारशिला और केंद्र बन जाएगी। आब्सेस्ड हो जाएगा, फोकस्ड। मौत पर उसकी आंखें ठहर जाएंगी। सारी जिंदगी से सिकुड़ जाएंगी आंखें, और मौत पर ठहर जाएंगी।

पश्चिम के मनोविज्ञान ने पचास साल में जो-जो घोषणाएं की थीं, वे सब सही हो गईं। सही इसलिए नहीं हो गईं कि सही थीं, सही इसलिए हो गईं कि सही मान ली गईं। और आदमी ने कहा कि जब हो ही नहीं सकता अनमोटिवेटेड एक्ट, तो पागलपन है। उसे करने की कोशिश छोड़ दो।

लेकिन मैं कहता हूं, हो सकता है। उसे समझना पड़ेगा कि कैसे हो सकता है। तीन बातें ध्यान में ले लेनी जरूरी हैं, तो कृष्ण का निष्काम कर्मयोग खयाल में आ जाए।

पहली बात, कभी आप खेल खेलते हैं। न कोई राग, न कोई द्वेष; खेलने का आनंद ही सब कुछ होता है। आदतें हमारी बुरी हैं, इसलिए खेल को भी हम काम बना लेते हैं। वह हमारी गलती है। समझदार तो काम को भी खेल बना लेते हैं। वह उनकी समझ है।

हम अगर शतरंज भी खेलने बैठें, तो थोड़ी देर में हम भूल जाते हैं कि खेल है और सीरियस हो जाते हैं। वह हमारी बीमारी है। गंभीर हो जाते हैं। हार-जीत भारी हो जाती है। जान दांव पर लग जाती है। कुल जमा लकड़ी के हाथी और घोड़े बिछाकर बैठे हुए हैं! कुछ भी नहीं है; खेल है बच्चों का। लेकिन भारी हार-जीत हो जाएगी। गंभीर हो जाएंगे। गंभीर हो गए, तो खेल काम हो गया। फिर राग-द्वेष आ गया। किसी को हराना है; किसी को जिताना है। जीतकर ही रहना है; हार नहीं जाना है। फिर द्वंद्व के भीतर आ गए। शतरंज न रही फिर, बाजार हो गया। शतरंज न रही, असली युद्ध हो गया!

मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि शतरंज भी कोई पूरे भाव से खेल ले, तो उसकी लड़ने की क्षमता कम हो जाती है, क्योंकि लड़ने का कुछ हिस्सा निकल जाता है। निकास हो जाता है। हाथी-घोड़े लड़ाकर भी, लड़ने की जो वृत्ति है, उसको थोड़ी राहत मिल जाती है। हराने और जिताने की जो आकांक्षा है, वह थोड़ी रिलीज, उसका धुआं थोड़ा निकल जाता है।

हम खेल को भी बहुत जल्दी काम बना लेते हैं। लेकिन खेल काम नहीं है। बच्चे खेल रहे हैं। खेल काम नहीं है। खेल सिर्फ आनंद है, अनमोटिवेटेड। रस इस बात में नहीं है कि फल क्या मिलेगा। रस इस बात में है कि खेल का काम आनंद दे रहा है।

सुबह एक आदमी घूमने निकला है, कहीं जा नहीं रहा है। आप उससे पूछें, कहां जा रहे हैं? वह कहेगा, कहीं जा नहीं रहा, सिर्फ घूमने निकला हूं। कहीं जा नहीं रहा, कोई मंजिल नहीं है। यही आदमी इसी रास्ते पर दोपहर अपने दफ्तर भी जाता है। रास्ते के किनारे खड़े होकर देखें, सुबह जब यह घूमने जाता है, तब इसके चेहरे को, इसके पैरों की गति को, इसके हल्केपन को, इसकी ताजगी को। दोपहर उसी रास्ते से, वही आदमी, उन्हीं पैरों से दफ्तर जाता है, तब उसके भारीपन को, उसके सिर पर रखे हुए पत्थर को, उसकी छाती पर बढ़े हुए बोझ को–वह सब देखें। सुबह क्या था? मोटिवेटेड नहीं था, कहीं पहुंचना नहीं था, कोई अंत नहीं था। घूमना अपने में पर्याप्त था, घूमना ही काफी था।

हां, कुछ लोग घूमने को भी मोटिवेटेड बना ले सकते हैं। अगर नेचरोपैथ हुए, तो घूमने को भी खराब कर लेंगे! अगर कहीं प्राकृतिक चिकित्सा के चक्कर में हुए, तो घूमना भी खराब कर लेंगे। घूमना भी फिर सिर्फ घूमना नहीं है। फिर घूमना बीमारी से लड़ना है। और जो आदमी घूम रहा है बीमारी से लड़ने के लिए, वह बीमारी से तो शायद ही लड़ेगा, बीमारी उसके घूमने में भी प्रवेश कर गई! तब घूमना हल्का-फुल्का आनंद नहीं रहा; भारी काम हो गया। बीमारी से लड़ रहे हैं! स्वास्थ्य कमाने जा रहे हैं! फिर कहीं पहुंचने लगे आप। मोटिव भीतर आ गया।

लेकिन क्या कभी ऐसा जिंदगी में आपके नहीं हुआ कि शरीर ताकत से भरा है, सुबह उठे हैं और मन हुआ कि दस कदम दौड़ लें? अनमोटिवेटेड! कोई कारण नहीं है। सिर्फ शक्ति भीतर धक्के दे रही है। उसी तरह जैसे कि झरना बहता है पहाड़ से, फूल खिलते वृक्षों में, पक्षी सुबह गीत गाते हैं–अनमोटिवेटेड। कोई राग-द्वेष नहीं है; ऊर्जा भीतर है, वह बहना चाहती है, आनंदमग्न होकर बहना चाहती है।

कृष्ण कह रहे हैं कि जब भी कोई व्यक्ति राग और द्वेष दोनों को समझ लेता, तब उसकी ऊर्जा तो रहती है, जो राग-द्वेष में लगती थी, ऊर्जा कहां जाएगी? मुझे किसी से लड़ना नहीं है; मुझे किसी से जीतना नहीं है; फिर भी मेरी ताकत तो मेरे पास है। वह कहां जाएगी? वह बहेगी। वह अनमोटिवेटेड बहेगी। वह कर्म बनेगी, लेकिन अब उस कर्म में कोई फल नहीं होगा। अब वह बहेगी, लेकिन बहना अपने में आनंद होगा।

लेकिन हम इतने बीमार और रुग्ण हैं कि हमें कभी सुबह ऐसा मौका नहीं आया। कभी-कभी बाथरूम में आप गा लेते होंगे। शायद उतना ही है अनमोटिवेटेड–बाथरूम सिंगर्स। किसी को सुनाना नहीं है। कोई ताली नहीं बजाएगा। कोई अखबार में नाम नहीं छपेगा। कोई सुनने वाला श्रोता नहीं है। अकेले हैं अपने बाथरूम में। एक गीत की कड़ी फूट पड़ी है। शायद ठंडा पानी सिर पर गिरा हो। फव्वारे के नीचे खड़े हो गए हों। सुबह की ताजी हवा ने छुआ हो। फूलों को छूती हुई एक गंध आपके कमरे में आ गई हो। कोई पक्षी बाहर गाया हो। किसी मुर्गे ने बांग दी हो। आपके भीतर की ऊर्जा भी जग गई है; उसने भी एक कड़ी गुनगुनाई है, अनमोटिवेटेड, कोई कारण नहीं है। भीतर एक शक्ति है, जो बाहर अभिव्यक्त होना चाहती है।

साधारण लोगों की जिंदगी में बस ऐसे ही छोटे-मोटे उदाहरण मिलेंगे। आपके उदाहरण ले रहा हूं, ताकि आपको खयाल में आ सके। कृष्ण जैसे लोगों की पूरी जिंदगी ही ऐसी है–पूरी जिंदगी, चौबीस घंटे!

लेकिन अगर एक क्षण ऐसा हो सकता है, तो चौबीस घंटे भी हो सकते हैं। कोई बाधा नहीं रह जाती। क्योंकि आदमी के हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं होता। दो क्षण किसी आदमी के हाथ में नहीं होते। एक ही क्षण हाथ में होता है। अगर एक क्षण में भी एक कृत्य ऐसा घट सकता है, जिसमें कोई राग-द्वेष नहीं था, जिसमें भीतर की ऊर्जा सिर्फ उत्सव से भर गई थी, फेस्टिव हो गई थी, समारोह से भर गई थी और फूट पड़ी थी…।

दुनिया से समारोह कम हो गए हैं। क्योंकि दुनिया से वह जो रिलीजस फेस्टिव डायमेंशन है, वह जो उत्सव का आयाम है, वह क्षीण हो गया है। लेकिन दुनिया की अगर हम पुरानी दुनिया में लौटें, या आज भी दूर गांव-जंगल में चले जाएं, खेत में जब फसल आ जाएगी, तो गांव गीत गाएगा–अनमोटिवेटेड। उस गीत गाने से खेत की फसल के गेहूं ज्यादा बड़े नहीं हो जाएंगे। उस गीत के गाने से कोई फसल के ज्यादा दाम नहीं आ जाएंगे। लेकिन खेत नाच रहा है फसल से भरकर। पक्षी उड़ने लगे हैं खेत के ऊपर। चारों तरफ खेत के खेत में आ गई फसलों की सुगंध भर गई है। सोंधी गंध चारों तरफ तैरने लगी है। उसने गांव के मन-प्राण को भी पकड़ लिया है। खेत ही नहीं नाच रहे, गांव भी नाचने लगा है।

दुनिया के पुराने सारे उत्सव मौसम और फसलों के उत्सव थे। गांव भी नाच रहा है। रात, आधी रात तक चांद के नीचे पूरा गांव नाच रहा है। उस नाचने से कुछ मिलेगा नहीं। वह कोई गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में किया गया लोक-नृत्य नहीं है। उससे कुछ मिलने को नहीं है। उसकी कोई तैयारी नहीं है। लेकिन भीतर ऊर्जा है और वह बहना चाहती है।

कृष्ण जब अर्जुन को कह रहे हैं कि राग-द्वेष से मुक्त होकर यदि तू कर्म में संलग्न हो जाए, तो सुखद मार्ग से समस्त बंधनों के बाहर हो जाएगा। तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है, ऊर्जा हो भीतर, राग-द्वेष न हो बाहर, तो भी ऊर्जा सक्रिय होगी, क्योंकि ऊर्जा बिना सक्रिय हुए नहीं रह सकती।

एनर्जी, ऊर्जा अनिवार्य रूप से क्रिएटिव है। वह सृजन करेगी ही। वह बच नहीं सकती। इसीलिए तो बच्चों को आप बिठा नहीं पाते। आपको बहुत बेहूदगी लगती है बच्चों के कामों में। कहते हैं कि बेकाम क्यों कूद रहा है! आप बहुत समझदार हैं! आप कहते हैं, कूदना हो तो काम से कूद। मैं भी कूदता हूं दफ्तर में, दुकान में, लेकिन काम से! बेकाम क्यों कूद रहा है?

अब आपको पता ही नहीं है कि बेकाम क्यों कूद रहा है। ऊर्जा भीतर है; ऊर्जा कूद रही है। काम का कोई सवाल नहीं है। शक्ति भीतर नाच रही है, स्पंदित हो रही है।

धार्मिक व्यक्ति पूरे जीवन बच्चे की तरह है। निष्काम कर्म उसको ही फलित होगा, जिसका शरीर तो कुछ भी उम्र पा ले, लेकिन जिसका मन कभी भी बचपन की ताजगी नहीं खोता। वह फ्रेशनेस, वह ताजगी, वह क्वांरापन बना ही रहता है। इसीलिए तो कृष्ण जैसा आदमी बांसुरी बजा सकता है, नाच सकता है। वह बालपन कहीं गया नहीं।

ऊर्जा भीतर हो, तो ऊर्जा निष्क्रिय नहीं होती। ध्यान रहे, शक्ति हो, तो शक्ति सक्रिय होगी ही। चाहे कोई कारण न हो, अकारण भी शक्ति सक्रिय होगी। शक्ति का होना और सक्रिय होना, एक ही चीज के दो नाम हैं। शक्ति निष्क्रिय नहीं हो सकती। लेकिन चूंकि हम कभी राग और द्वेष के बाहर नहीं होते, इसलिए शक्ति राग और द्वेष की चैनल्स में चली जाती है। इसलिए दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है। पहली बात, कर्म राग-द्वेष से पैदा नहीं होता; कर्म पैदा होता है भीतर की ऊर्जा से। इनर एनर्जी से पैदा होता है कर्म।

चांदत्तारे भी चल रहे हैं बिना किसी राग-द्वेष के। कहीं उन्हें पहुंचना नहीं है। कण-कण के भीतर परमाणु घूम रहे हैं, नाच रहे हैं, नृत्य में लीन हैं। कुछ उन्हें पाना नहीं है। फूल खिल रहे हैं। पक्षी उड़ रहे हैं। आकाश में बादल हैं। झरने नदियां बनकर सागर की तरफ जा रहे हैं। सागर भाप बनकर आकाश में उठ रहा है। कहीं कोई राग-द्वेष नहीं है, सिर्फ आदमी को छोड़कर। कहीं कोई मोटिवेशन नहीं है।

पूछें गंगा से कि क्यों इतनी परेशान है? सागर पहुंचकर भी क्या होगा? गंगा उत्तर नहीं देगी। क्योंकि उत्तर देना भी बेकार है। गंगा है, तो सागर पहुंचेगी ही। गंगा सागर पहुंच रही है, यह कोई चेष्टा नहीं है। गंगा के भीतर पानी है, तो वह सागर पहुंचेगा ही।

आदमी को छोड़ दें, तो सारा जगत कर्म में लीन है, लेकिन कर्म राग-द्वेष रहित है। आदमी का क्या पागलपन है कि आदमी इस सारे जगत में बिना राग-द्वेष के कर्म में लीन न हो सके? आदमी भी हो सकता है।

पहली बात यह समझ लेनी जरूरी है कि कर्म का जन्म राग-द्वेष से नहीं होता; कर्म का जन्म भीतर की ऊर्जा से होता है। ऊर्जा कर्म है। लेकिन अब यह ऊर्जा जो कर्म बनती है, आप चाहें तो इसको किसी भी खूंटी पर टांग सकते हैं। मेरे पास कोट है, मैं किसी भी खूंटी पर टांग सकता हूं। किसी खूंटी के कारण मेरे पास कोट नहीं है, खयाल रखें। खूंटी के कारण मेरे पास कोट नहीं है, कोट मेरे पास है; अब मैं किसी भी खूंटी पर टांग सकता हूं। राग की खूंटी पर टांग दूं, द्वेष की खूंटी पर टांग दूं। मेरे भीतर ऊर्जा है।

जीवन ऊर्जा है। लाइफ इज़ एनर्जी। और तो कुछ जीवन है नहीं; ऊर्जा है। नाचती हुई शक्ति है। अनंत शक्ति का नृत्य है भीतर।

और अभी तो विज्ञान ने छोटे-से परमाणु में अनंत ऊर्जा को खोजकर बता दिया। जब हम पहले कभी यह कहते रहे कि एक-एक आदमी के भीतर परमात्मा की अनंत शक्ति भरी है, तो हंसी की बात मालूम पड़ती थी। लेकिन अब तो एक-एक परमाणु के भीतर अनंत शक्ति भरी है, तो एक-एक आदमी के भीतर क्यों भरी हुई नहीं हो सकती! और अगर मिट्टी के कण के भीतर, मृत कण के भीतर इतनी शक्ति है, तो मनुष्य के जीवित कोष्ठ, जीवित सेल के भीतर उससे अनंत गुनी हो सकती है।

अभी पश्चिम का विज्ञान एटम को तोड़ पाया है, कल सेल को भी तोड़ लेगा। जिस दिन जेनेटिक सेल तोड़ी जा सकेगी, उस दिन हम पाएंगे कि वह जो पूरब सदा से कहता रहा था कि छोटे-से पिंड में ब्रह्मांड है, उस नतीजे पर विज्ञान आज नहीं कल पहुंच जाएगा।

एक-एक व्यक्ति अनंत ऊर्जा से भरा हुआ है। इस ऊर्जा से कर्म पैदा होता है। यह पहली बात समझ लें। इस कर्म को हम चाहें, तो राग पर टांग सकते हैं, चाहें तो द्वेष पर टांग सकते हैं। यह हमारा चुनाव है। और चाहें तो अनटांगा छोड़ सकते हैं; यह भी हमारा चुनाव है। खूंटी कहती नहीं कि मुझ पर टांगो। मैं कोट को नीचे भी पटक दे सकता हूं। कोई खूंटी मुझे मजबूर नहीं करती। मैं चाहूं तो अपनी जीवन ऊर्जा को किसी आकर्षण में लगा दूं। किसी के पीछे दौड़ने लगूं। कोहिनूर के पीछे दौड़ सकता हूं। कोहिनूर मुझसे नहीं कहता कि मेरे पीछे दौड़ो। मैं कोहिनूर के पीछे दौड़ सकता हूं, कि जब तक कोहिनूर न मिल जाए, मेरा जीवन बेकार है।

अब मैंने एक खूंटी चुन ली, जिस पर मैं अपने को टांग कर रहूंगा। और सोचता हूं, टंग जाऊंगा, तो सब पा लूंगा। कोहिनूर मिल जाए, तो कुछ मिलना नहीं है। सिर्फ ऊर्जा व्यय हुई। और इतने दिन तक पीछे दौड़ने की जो आदत पड़ गई, वह फिर कहेगी, अब और किसी के पीछे दौड़ो। अब कोई और राग खोजो। कोई और आकर्षण, उसके पीछे दौड़ो।

चाहूं तो मैं द्वेष पर भी अपने को टांग सकता हूं। द्वेष पर भी टांग सकता हूं! मैं किसी के विरोध में लग जाऊं, मैं किन्हीं को नष्ट करने में लग जाऊं, मैं कुछ छोड़ने में लग जाऊं, तो भी मैं अपनी शक्ति को टांग सकता हूं।

दो ही तरह के लोग हैं। एक वे, जो किसी चीज को पाने में लग जाते हैं। एक वे, जो किसी चीज को छोड़ने में लग जाते हैं। एक को हम गृहस्थ कहते हैं, दूसरे को हम संन्यासी कहते हैं। हमारी आम बातचीत में, पकड़ने वाले को हम गृहस्थ कहते हैं, छोड़ने वाले को हम त्यागी कहते हैं। लेकिन कृष्ण नहीं कहेंगे। कृष्ण तो कहते हैं, जो दोनों के बाहर है, वह संन्यासी है। वह निष्काम कर्म को उपलब्ध हुआ, जो दोनों के बाहर है; जो अपनी ऊर्जा को किसी पर टांगता ही नहीं।

ध्यान रहे, जब आप अपनी ऊर्जा को न राग पर टांगेंगे, न द्वेष पर, तो भी ऊर्जा होगी। फिर ऊर्जा कहां जाएगी? अनटांगी गई ऊर्जा परमात्मा पर समर्पित हो जाती है; विराट में लीन हो जाती है। बिना टांगी गई ऊर्जा, अनफोकस्ड, अनंत के प्रति, अनंत के चरणों में बहने लगती है। जिस क्षण राग और द्वेष नहीं हैं, उसी क्षण व्यक्ति का समस्त जीवन परमात्मा को समर्पित हो जाता है।

तीन तरह के समर्पण हुए, राग को समर्पित, द्वेष को समर्पित, राग-द्वेष दोनों के अतीत परमात्मा को समर्पित। यह परमात्मा को समर्पित जीवन ही निष्काम कर्मयोग है।

और कृष्ण ने एक और बात उसमें कही। उन्होंने कहा कि यह बड़े सुख से बंधन के बाहर हो जाना है।

दुख से भी बंधन के बाहर हुआ जा सकता है। लेकिन दुख से बंधन के बाहर जो हो जाता है, उसके हाथों में पैरों में बंधन की थोड़ी-बहुत रेखा और चोट रह जाती है। जैसे कोई कच्चे पत्ते को वृक्ष से तोड़ ले। कच्चा पत्ता भी वृक्ष से तोड़ा जा सकता है। पत्ते में भी घाव रह जाता है, वृक्ष में भी घाव छूट जाता है। एक पका पत्ता वृक्ष से गिरता है। कहीं खबर नहीं होती–मौन, निष्पंद, चुपचाप। कहीं कोई आवाज भी नहीं होती कि पत्ता गिर गया। न वृक्ष को पता चलता, न पत्ते को पता चलता। कहीं कोई घाव नहीं छूटता। चुपचाप!

कृष्ण कहते हैं, सुखद ढंग से बंधन के बाहर हो जाने की राह मैं कह रहा हूं महाबाहो! तू कर्म कर और द्वंद्व, राग और द्वेष से दूर खड़े होकर कर्म में लग जा। एक दिन तू पके पत्ते की तरह चुपचाप बाहर हो जाएगा।

कच्चे पत्ते की तरह भी बाहर हुआ जा सकता है। संघर्ष से, समर्पण से नहीं। संकल्प से, समर्पण से नहीं। लड़कर, जूझकर, चुपचाप विसर्जित होकर नहीं। कोई लड़ भी सकता है। ध्यान रहे, राग और द्वेष से भी अगर कोई लड़ने में लग जाए, तो वह फिर द्वेष का ही नया रूप है।

इसलिए कृष्ण कह रहे हैं कि राग-द्वेष को समझकर!

जो यह देख लेता है कि राग भी दुख है, द्वेष भी दुख है। जो यह देख लेता है, राग भी पीड़ा में ले जाता, द्वेष भी पीड़ा में ले जाता। जो यह देख लेता है कि राग और द्वेष से कभी कोई आनंद फलित नहीं होता; कभी जीवन में उत्सव की घड़ी नहीं आती; नर्क ही निर्मित होता है। चाहते तो हैं कि बना लें स्वर्ग; जब बन जाता है, तो पाते हैं कि बन गया नर्क। चाहते तो हैं कि बना लें मंदिर; जब बन जाता है, तो पाते हैं कि अपने ही हाथ कारागृह निर्मित हो गया। ऐसा जो समझकर, ऐसी प्रज्ञा से, ऐसे बोध से जो दोनों के बाहर हो जाता है, वह बड़े सुखद मार्ग से–सूखे पत्ते की तरह–बंधन के बाहर गिर जाता है। कहीं कोई पता भी नहीं चलता है।

संन्यास तो वही अर्थपूर्ण है, जो इतना संगीतपूर्ण हो। इतना-सा भी विसंगीत पैदा नहीं होना चाहिए। जरा-सी भी चोट कहीं पैदा नहीं होनी चाहिए।

कर्म छोड़कर जो जाएगा, उससे तो चोट पैदा होगी। एक आदमी घर छोड़कर जाएगा। पत्नी रोएगी। आंसू पीछे होंगे ही। क्योंकि किसी की अपेक्षाएं टूटेंगी। बच्चे पीड़ित होंगे; अनाथ हो जाएंगे। कहीं किसी की छाती पर पत्थर गिरेगा ही। कहीं कुछ उजड़ जाएगा।

और ऐसा आदमी, जो सब छोड़कर जा रहा है, बहुत गहरे में स्वार्थी नहीं मालूम पड़ता? अपनी मुक्ति के लिए वह अपने चारों तरफ एक मरघट बनाकर जा रहा है। चीजें टूटेंगी; चारों तरफ दुख निर्मित होगा।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्मयोग!

पत्नी को छोड़कर कहीं जाना नहीं। चुपचाप भीतर ही पत्नी के प्रति राग और द्वेष छोड़ देना। पत्नी को भी पता नहीं चलेगा।

बड़े मजे की बात है। अगर चुपचाप भीतर से ही राग-द्वेष छोड़ दिया जाए, किसी को कहीं पता नहीं चलेगा सिवाय आपके। और अगर किसी को पता भी चलेगा, तो सुखद पता चलेगा। क्योंकि हम राग करके भी किसी को सुख नहीं दे पाते, सिर्फ दुख देते हैं। और द्वेष करके तो दुख देते ही हैं।

जैसे ही भीतर राग-द्वेष गिर जाता है, हम हलके हो जाते हैं। आनंदपूर्ण हो जाते हैं। संबंध सहज और सरल हो जाते हैं। हमारे भीतर से पत्नी मिट जाती है। दूसरी तरफ भी परमात्मा हो जाता है। पति मिट जाता है, परमात्मा हो जाता है। बेटा मिट जाता है, परमात्मा हो जाता है। फिर भी उस बेटे को स्कूल में भेज आते हैं। उसके भोजन का इंतजाम कर देते हैं। लेकिन अब यह इंतजाम परमात्मा के लिए है। बेटे को कभी पता नहीं चलेगा। बल्कि बेटा तो आनंदित होगा, क्योंकि जिसके पिता के मन में बेटे के लिए परमात्मा का भाव आ गया हो, उसके बेटे को दुख का कोई भी कारण नहीं है। आनंद ही आनंद का कारण है।

कृष्ण कहते हैं, सुख से, चुपचाप, अत्यंत शांतिपूर्ण मार्ग से निष्काम कर्मयोगी बंधन के बाहर हो जाता है। कोई जल्दी नहीं करता तोड़ने की, चुपचाप चीजों से सरक जाता है।

और जो तोड़कर सरकता है, वह बहुत कुशल नहीं है। जो तोड़कर हटता है, वह बहुत कलात्मक नहीं है। जो तोड़कर हटता है, उसे संगीत का बहुत बोध नहीं है। उसे सौंदर्य का बहुत बोध नहीं है। उसे मानवीय जीवन की गरिमा का बहुत स्पष्ट खयाल नहीं है। वह अपने ही लिए जी रहा है। धन कमाता था, तो अपने लिए; धर्म कमा रहा है, तो अपने लिए। लेकिन चारों तरफ और भी परमात्माओं के दीए जल रहे हैं, वे बुझ जाएं, इसकी उसे चिंता नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म को करते हुए कोई भी व्यक्ति सुख से, कहीं भी दुख का कोई स्पंदन खड़ा किए बिना, बाहर हो जाता है।

राग-द्वेष के अतीत होते ही ऊर्जा–अनमोटिवेटेड–सक्रिय हो जाती है। निश्चित ही, जो ऊर्जा बिना किसी लक्ष्य के, बिना किसी अंत के सक्रिय होगी, वह ऊर्जा अधर्म के लिए सक्रिय नहीं हो सकती। उस ऊर्जा की सक्रियता अनिवार्यरूपेण धर्म के लिए, मंगल के लिए, श्रेयस के लिए होगी। ऐसे व्यक्ति का सारा जीवन धर्म-कृत्य, धार्मिक कृत्य बन जाता है।

प्रश्न:

भगवान श्री, आपने कहा कि अकारण, अनमोटिवेटेड कर्म, निष्काम कर्म आनंद का स्रोत है। लेकिन निश्चित ही जीवन में ऐसी चीजें भी हैं, जिनमें मोटिवेशन की जरूरत पड़ती है। जैसे औद्योगिक, यांत्रिक काम आदि। तो कृपया बताएं कि जीवन में मोटिवेटेड कर्म के साथ अनमोटिवेटेड कर्म का संतुलन कैसे किया जाए?

संतुलन करने में जो पड़ेगा, वह बड़ी दुविधा में पड़ेगा। संतुलन नहीं किया जा सकता। जरूरत भी नहीं है।

जिस व्यक्ति को निष्काम कर्म का रस आ गया, वह अपनी दुकान भी उसी रस से चलाएगा। जिस व्यक्ति को निष्काम कर्म का रस आ गया, वह अपने उद्योग को भी उसी रस से चलाएगा।

कबीर ने दुकान बंद नहीं की। कबीर कपड़ा बुनता रहा। लोगों ने कहा भी कि अब तुम कपड़ा बुनो, यह अच्छा नहीं मालूम पड़ता! कबीर ने कहा, पहले जो कपड़ा बुना था, उसमें यह मजा न था। अब जो मजा है, वह बात ही और है। पहले तो कपड़ा बुनते थे, तो एक मजबूरी थी; अब आनंद है। पहले कपड़ा बुनते थे, तो किसी ग्राहक का शोषण करना था। अब कपड़ा बुनते हैं, तो किसी राम के अंग को, तन को ढंकना है।

कपड़ा बुनना जारी है। अब कबीर कपड़ा बुनता है और गाता रहता है, झीनी झीनी बीनी रे चदरिया। वह गा रहा है! वह बाजार कपड़े लेकर जाता है, तो दौड़ता हुआ ग्राहकों को बुलाता है कि राम, बहुत मजबूत चीज बनाई है। तुम्हारे लिए ही बनाई है!

आनंद आ गया निष्काम कर्म का, तो भूलकर भी आप सकाम कर्म न कर पाएंगे। वहां भी, जहां सकाम कर्म का जगत घना है, वहां भी निष्काम कर्म हो जाएगा। आनंद ही रह जाएगा।

अब किसी आदमी का आनंद हो सकता है कि वह एक बड़ा कारखाना चलाए। लेकिन तब वह आनंद परमात्मा को समर्पित हो जाएगा। तब वह किसी के शोषण के लिए नहीं है। बड़े कारखाने को चलाना उसका आनंद है। और यह आनंद अगर निष्काम कर्म का है, तो वह बड़ा कारखाना एक कम्यून बन जाएगा। उस बड़े कारखाने में मजदूर और मालिक नहीं होंगे। उस बड़े कारखाने में मित्र हो जाएंगे।

और इस पृथ्वी पर अगर कभी भी दुनिया में सच में ही कोई समता की घटना घटेगी, तो समाजवादियों से घटने वाली नहीं है। इस दुनिया में कभी भी कोई समता की घटना घटेगी, तो वह उन धार्मिक लोगों से घटेगी, जिनके भीतर अनमोटिवेटेड कर्म पैदा हुआ है; जिनके भीतर निष्काम कर्म पैदा हुआ है। कुछ भी किया जा सकता है, एक बार खयाल में आ जाए।

और जहां खतरा ज्यादा है, जैसे एक अंधा आदमी पूछ सकता है, एक अंधा आदमी पूछ सकता है कि जब मेरी आंखें ठीक हो जाएंगी, तो मैं टटोलने में और चलने में क्या समन्वय करूंगा? क्या संतुलन करूंगा? स्वभावतः, एक अंधा आदमी अभी टटोलकर चलता है। अभी उसने टटोलकर ही चलना जाना है। एक ही चलने का ढंग है, टटोलना। उससे हम कहते हैं कि तेरी आंखें ठीक हो जाएंगी। तो वह कहता है, मैं समझ गया। जब आंखें ठीक हो जाएंगी, तो बिना टटोलकर मैं चल सकूंगा। लेकिन फिर टटोलने में और न टटोलकर चलने में, दोनों में संतुलन कैसे करूंगा?

हम उससे कहेंगे, संतुलन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। तू बिलकुल पागल है! जब आंखें मिल जाएंगी, तो टटोलने की जरूरत ही नहीं रहेगी। वह आदमी कहेगा, लेकिन अंधेरे में तो टटोलना ही पड़ेगा! हम उससे कहेंगे कि आंख आ जाए, तब तू जानेगा कि टटोलने की जो प्रक्रिया थी, वह अंधे की प्रक्रिया थी। आंख वाले की वह प्रक्रिया नहीं है। संतुलन नहीं बनाना पड़ेगा। और जब तक आंख नहीं है, तब तक चलने से टटोलने का संतुलन बनाने का तो कोई सवाल नहीं है।

सकाम आदमी जहां जी रहा है, वह अंधे की दुनिया है। वहां वह फल को टटोलकर ही कर्म करता है। उसे अभी कर्म के आनंद का पता ही नहीं है। उसे एक ही पता है कि फल में आनंद है; कर्म में कोई आनंद नहीं है। अभी वह दुकान में बैठता है, तो दुकान में आनंद नहीं है। जो ग्राहक सामने खड़ा है, उसमें परमात्मा नहीं है। उसका परमात्मा तो उस रुपए में है, जो ग्राहक से मिलेगा, मिलने वाला है; जिसे वह तिजोड़ी में कल बंद करेगा। जिसे परसों गिनेगा और बैंक बैलेंस में इकट्ठा करेगा। उसका आनंद वहां है। यह कर्म जो घटित हो रहा है, इसमें उसका कोई आनंद नहीं है।

और जिस कर्म में आनंद नहीं है, हम पागल हैं, उसके फल में कैसे आनंद हो सकेगा? क्योंकि फल कर्म से पैदा होता है। जब बीज में आनंद नहीं है, तो फल में कैसे आनंद आ जाएगा? जब बीज जहर मालूम पड़ रहा है, तो फल अमृत कैसे हो जाएगा?

जिस कृत्य में आनंद नहीं है, उस कृत्य के फल में कभी आनंद नहीं हो सकता। लेकिन सकाम आदमी का मन फल में अटका है। वह कह रहा है, किसी तरह काम तो कर डालो। यह तो एक मजबूरी है। इसे करके निपटा दें। आनंद तो फल में है। फल मिल जाएगा और आनंद मिल जाएगा।

कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह यह कह रहे हैं, कर्म में ही आनंद है। कर्म किया, यही आनंद है। और जिसे कर्म में अभी आनंद मिल रहा है, उसे सदा आनंद मिल जाएगा। जो अभी ही आनंद ले लिया, वह सदा आनंद लेने का राज पहचान गया।

सकाम आदमी फल में आनंद देखता है, कर्म को करता है मजबूरी में। निष्काम आदमी कर्म में ही आनंद देखता है, कर्म को करता है आनंद से। कोई भी कर्म हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। युद्ध क्यों न हो। आखिर कृष्ण अर्जुन को कह ही रहे हैं कि तू युद्ध में जूझ जा। लेकिन किसी तरह की कामना लेकर नहीं। किसी तरह की कामना लेकर नहीं, कोई राग-द्वेष लेकर नहीं। तेरा स्वधर्म है। तू क्षत्रिय होकर ही आनंद को उपलब्ध हो सकता है। वही तेरा प्रशिक्षण है। तेरी जीवन ऊर्जा क्षत्रिय की तरह ही प्रकट हो सकती है, अभिव्यक्त हो सकती है। तू किसी तरह के लक्ष्य की फिक्र मत कर। तू क्षत्रिय होने में लीन हो जा। फल की चिंता छोड़ दे। तू कर्म को पूरा कर ले। यही तेरी निष्पत्ति है।

यह जो युद्ध के मैदान तक पर कृष्ण कह सकते हैं, तो दुकान तो युद्ध से बड़ा मैदान नहीं है। न दफ्तर बड़ा है; न उद्योग बड़ा है। दृष्टि का फर्क है। आप कहां हैं और क्या काम कर रहे हैं, यह सवाल नहीं है। आप क्या हैं और किस आंतरिक दृष्टि से काम कर रहे हैं, यही सवाल है।

कभी भी संतुलन नहीं बनाना पड़ेगा दोनों में, क्योंकि दोनों में से एक ही रहता है हाथ में, दोनों कभी नहीं रहते। या तो सकाम कर्म रहता है हाथ में, तब निष्काम से कोई तालमेल नहीं बिठाना है। और जब निष्काम आता है, तो सकाम चला जाता है। उससे तालमेल नहीं बिठाना पड़ता है। ठीक ऐसे ही जैसे एक कमरे में मैं रोशनी लेकर चला जाऊं। फिर अंधेरे और रोशनी के बीच कोई तालमेल नहीं बिठाना पड़ता। या तो अंधेरा रहता है या रोशनी रहती है। या तो ज्ञान रहता है या अज्ञान रहता है। या तो कामना रहती है, वासना रहती है, या प्रज्ञा रहती है। दोनों साथ नहीं रहते हैं। इसलिए दोनों को मिलाने की कभी भी जरूरत नहीं पड़ती।

लेकिन हमारे मन में यह सवाल उठेगा। क्यों? क्योंकि हम सकाम होना तो छोड़ना नहीं चाहते, और निष्काम का लोभ भी मन को पकड़ता है। हमारी तकलीफ जो है, वह यह है, हम टटोलने का मजा भी नहीं छोड़ना चाहते और आंख भी पाना चाहते हैं। हम चाहते हैं, जो सकाम जगत चल रहा है, वह भी चलता रहे, और यह जो निष्काम आनंद की बात चल रही है, यह भी चूक न जाए। हम चाहते हैं, फल का भी चिंतन करते रहें, और कर्म में भी आनंद ले लें। ये दोनों बात साथ संभव नहीं हैं। यह गली बहुत संकरी है, इसमें दो नहीं समाएंगे।

इसलिए जब तक लोभ मन को है–राग का, द्वेष का, पाने का, खोने का, हारने का, जीतने का–तब तक निष्काम न हो सकेंगे आप। और जिस क्षण यह बोध आ जाएगा कि दोनों बेकार हैं, उसी क्षण निष्काम हो जाएंगे। और निष्काम हो जाने के बाद सकाम बचेगा नहीं, जिससे संतुलन बिठालना पड़े, जिससे तालमेल करना पड़े।

यह बहुत मजे की बात है। अज्ञानी को निरंतर यह कठिनाई होती है कि कैसे मैं तालमेल बिठाऊं! उसका तालमेल बिठाना हमेशा खतरनाक है। एक आदमी कहता है, ठीक है। आप कहते हैं, निरअहंकार बड़ी अच्छी चीज है। लेकिन अहंकार से कैसे तालमेल बिठाऊं? अब अहंकार से निरअहंकार के तालमेल का कोई मतलब होता है? आप कहते हैं, अमृत बड़ी अच्छी चीज है, लेकिन जहर और अमृत को मिलाऊं कैसे? कहीं जहर और अमृत मिले हैं! मिलने का कोई उपाय नहीं है। जिस आदमी के हाथ में जहर है, उसके आदमी के हाथ में अमृत नहीं होता। और जिस आदमी के हाथ में अमृत आता है, उसके हाथ में जहर नहीं होता। दो में से एक ही सदा हाथ में होते हैं। दोनों हाथ में नहीं होते।

इसलिए लोग अक्सर पूछते हैं कि धर्म का और संसार का तालमेल कैसे करें? परमात्मा को और संसार को कैसे मिलाएं? ये मोक्ष को, परलोक को और इस लोक को कैसे मिलाएं? उनके सवाल बुनियादी रूप से गलत हैं, एब्सर्ड हैं, असंगत हैं। परमात्मा उतर आए, तो संसार खो जाता है; संसार होता ही नहीं। उसका मतलब, संसार परमात्मा ही हो जाता है। कुछ बचता नहीं परमात्मा के सिवाय। और जब तक संसार होता है, तब तक संसार ही होता है, परमात्मा नहीं होता। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।

जिसने परमात्मा को जाना, उसके लिए संसार नहीं है। जो संसार को जान रहा है, उसके लिए परमात्मा नहीं है। और ऐसा कभी भी नहीं हुआ, इंपासिबल है, असंभव है कि एक आदमी परमात्मा और संसार दोनों को जान रहा हो। यह ऐसे ही असंभव है, जैसे रास्ते से मैं गुजर रहा हूं, अंधेरा है, और एक रस्सी मुझे पड़ी दिखाई पड़ गई और मैंने समझा कि सांप है। भागा! तब किसी ने कहा, रुको! मत भागो! रस्सी है, सांप नहीं है। पास गया। देखा, कि रस्सी है। क्या मैं पूछूंगा कि रस्सी और सांप में कैसे तालमेल बिठाऊं? जब तक मुझे सांप दिखाई पड़ता है, तब तक रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। जब मुझे रस्सी दिखाई पड़ जाती है, तो सांप दिखाई नहीं पड़ता। तालमेल नहीं बैठता। सांप दिखाई पड़ता है, तो भागता रहता हूं। रस्सी दिखाई पड़ती है, तो खड़ा हो जाता हूं। लेकिन ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसे सांप और रस्सी दोनों एक साथ दिखाई पड़ जाएं। या कि संभव है? या कि आप सोचते हैं, ऐसा आदमी मिल सकता है, जिसे रस्सी और सांप एक साथ दिखाई पड़ जाएं? अब तक ऐसा नहीं हुआ। अगर ऐसा आदमी आप खोज लें, तो मिरेकल, चमत्कार होगा। रस्सी दिखाई पड़ेगी, तो रस्सी दिखाई पड़ेगी, सांप खो जाएगा। सांप दिखाई पड़ेगा, तो सांप दिखाई पड़ेगा, रस्सी खो जाएगी।

जब तक सकाम सांप दिखाई पड़ रहा है, तब तक निष्काम रस्सी दिखाई नहीं पड़ेगी। इसलिए प्रश्न संगत मालूम पड़ता है। भाषा में बिलकुल ठीक लगता है कि कैसे तालमेल बिठाएं? तालमेल कभी बिठाया नहीं जाता। इसलिए जो आदमी कहता है, मुझे संसार में परमात्मा दिखाई पड़ता है, वह गलत कहता है। जो आदमी कहता है मुझे संसार दिखाई नहीं पड़ता, परमात्मा दिखाई पड़ता है; वह आदमी ठीक कहता है। जो आदमी यह कहता है, कण-कण में परमात्मा है, वह गलत कहता है। जो कहता है, परमात्मा ही परमात्मा है, कण कहां है! वह ठीक कहता है।

लेकिन भाषा की कठिनाइयां हैं। भाषा की कठिनाइयां इसलिए हैं कि दो तरह के लोगों के बीच बात चल रही है सदा से। चाहे वह कृष्ण और अर्जुन के बीच हो; चाहे वह बुद्ध और आनंद के बीच हो; चाहे वह जीसस और ल्यूक के बीच हो; चाहे वह किसी के बीच हो। इस जगत का जो संवाद है, बड़ी मुश्किल का है। वह ज्ञानी और अज्ञानी के बीच चल रहा है।

अज्ञानी को सांप दिखाई पड़ रहा है, ज्ञानी को रस्सी दिखाई पड़ रही है। ज्ञानी कहे चला जाता है कि सांप नहीं है। अज्ञानी कहता है कि आप कहते हैं, तो ठीक ही कहते होंगे। लेकिन सांप है। मैं तालमेल कैसे बिठाऊं! अज्ञानी की वजह से ज्ञानी को भी गलत भाषा बोलनी पड़ती है। उसे कहना पड़ता है कि जिसे तुम सांप कह रहे हो, वह असल में रस्सी है। उसे कहना पड़ता है, सांप में रस्सी है। जब कि सांप है ही नहीं।

यह जो दो तलों की बात है, दो भिन्न तलों की बात है। इतने भिन्न, डायमेट्रिकली अपोजिट, एक-दूसरे से बिलकुल विपरीत। ज्ञानी को दिखाई पड़ रहा है कि जो आपको दिखाई पड़ रहा है, वह है ही नहीं। आपको वह दिखाई ही नहीं पड़ रहा है, जो ज्ञानी को दिखाई पड़ रहा है। और दोनों के बीच बातचीत है। यह भी मजे की बात है।

दो ज्ञानियों के बीच कभी बातचीत नहीं हो सकती; जरूरत नहीं है। दो अज्ञानियों के बीच कितनी ही बातचीत हो, बातचीत हो नहीं पाती; सिर्फ उपद्रव होता है। बातचीत बहुत होती है!

दो ज्ञानियों के बीच बातचीत हो सकती थी, लेकिन होती नहीं, क्योंकि जरूरत नहीं है। दोनों जानते हैं, कहने को कुछ भी नहीं है। अगर मुझे भी दिखाई पड़ रहा है कि सांप नहीं है, रस्सी है; और आपको भी दिखाई पड़ रहा है कि सांप नहीं है, रस्सी है; तो कौन बोले कि सांप नहीं है! जो बोले, वह पागल। जब दिखाई ही पड़ रहा है कि रस्सी है, तो पागल ही बोलेगा।

दो ज्ञानियों के बीच बातचीत नहीं हुई आज तक। एक बार ऐसा भी हो गया कि बुद्ध और महावीर एक ही धर्मशाला में ठहर गए, लेकिन बात नहीं हुई। बातचीत का कोई कारण नहीं था। बात करते भी क्या! अगर बुद्ध महावीर से कहते या महावीर बुद्ध से कहते कि सांप नहीं है, रस्सी है, तो दूसरा हंसता कि तुम पागल हो! है ही नहीं, तो बात क्या कर रहे हो!

दो ज्ञानियों के बीच बातचीत हो सकती है, लेकिन होती नहीं। दो अज्ञानियों के बीच हो ही नहीं सकती, लेकिन बहुत होती है, सुबह से सांझ, अनंतकाल से चल रही है! बोलते रहते हैं, जो जिसे बोलना है।

ज्ञानी और अज्ञानी के बीच बातचीत अति कठिन है। असंभव नहीं है, अति कठिन है। दो ज्ञानियों के बीच असंभव है, क्योंकि जरूरत नहीं है। दो अज्ञानियों के बीच असंभव है, क्योंकि दोनों को ही पता नहीं है। एक ज्ञानी और दूसरे अज्ञानी के बीच संभव है, लेकिन अति कठिन है। क्योंकि दो तलों पर बातचीत होती है।

ज्ञानी जो बोलता है, वह कुछ और जान रहा है। अज्ञानी जो सुनता है, वह कुछ और जान रहा है। ज्ञानी से बात अज्ञानी के पास गई कि उसका अर्थ बदल जाता है। ज्ञानी कुछ भी कहे, अज्ञानी वही समझेगा, जो समझ सकता है। वह तत्काल पूछेगा कि माना कि ईश्वर है…। मान सकता है वह। है, ऐसा जानता तो नहीं है। माना, कि कठिनाई शुरू हुई।

वह कहता है, मान लेते हैं कि सांप नहीं है! है तो ही! आप कहते हैं, मान लेते हैं कि सांप नहीं है। आप कहते हैं, मान लेते हैं कि रस्सी है। हालांकि है नहीं! क्योंकि अगर हो, रस्सी पता चल जाए, तो मानने की संभावना समाप्त हो गई। फिर कहने की जरूरत नहीं है कि हम मान लेते हैं कि रस्सी है; मान लेते हैं कि सांप नहीं है। फिर बात खतम हो गई। दिखाई पड़ गया। नहीं; वह कहता है, मान लेते हैं कि सांप नहीं है। मान लेते हैं कि रस्सी है। अब कृपा करके यह बताइए कि दोनों में तालमेल कैसे करें?

उसका प्रश्न संगत, कंसिस्टेंट मालूम होता है, लेकिन संगत है नहीं, बिलकुल असंगत है।

तो मैं भी आपसे कहना चाहूंगा, कभी ऐसी घड़ी नहीं आती, जब अज्ञान और ज्ञान में कहीं भी कोई मेल होता हो। अज्ञान गया कि ज्ञान। ज्ञान जब तक नहीं है, तब तक अज्ञान।

सकाम कर्म को निष्काम कर्म से मिलाने की कोशिश न करें। सकाम कर्म को समझने की कोशिश करें। सकाम कर्म की पीड़ा, संताप को अनुभव करें। सकाम कर्म के नर्क को भोगें, देखें, पहचानें। सकाम कर्म जब ऐसा लगने लगे, जैसे मकान में आग लगी है, चारों तरफ लपटें ही लपटें हैं, तब अचानक आप छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। और जब आप बाहर हो जाएंगे, तब ठंडी हवाएं और शीतल हवाएं और खुला आकाश–निष्काम कर्म का–आपको मिल जाएगा। लेकिन जब तक आप सकाम लपटों के भीतर खड़े हैं, तब तक मकान, जलते हुए मकान के भीतर से मत पूछें कि मैं शीतल हवाओं में और आग लगी लपटों में कैसे तालमेल करूं!

वह कृष्ण कह रहे हैं, छलांग लगा। द्वंद्व के बाहर आ जा। बाहर निकल आ।

यह खयाल में आ जाए, तो सकाम कर्म और निष्काम कर्म के बीच कोई समझौता, कोई कंप्रोमाइज नहीं है। लेकिन हम सदा ऐसा ही करते हैं। हम दुकान और मंदिर के बीच समझौता कर लेते हैं। हम आत्मा और शरीर के बीच समझौता कर लेते हैं। हम हर चीज में समझौता करते चले जाते हैं। हमारी जिंदगी एक लंबा समझौता है। और समझौते का अर्थ है कि धोखा। समझौते का अर्थ है कि खो दिया हमने अवसर, जहां कि सत्य मिल सकता था।

जो आदमी समझौते में जीएगा, वह सत्य को कभी भी उपलब्ध नहीं होगा। जितनी बड़ी कंप्रोमाइज, उतना बड़ा अनट्रुथ, उतना बड़ा झूठ। और ध्यान रहे, समझौते में सदा झूठ जीतता है, सत्य हार जाता है।

मैंने सुना है, एक बार ऐसा एक गांव में हुआ। एक आदमी ने रास्ते पर चलते एक आदमी को पकड़ लिया। और कहा कि हद हो गई! अब बहुत हो गया; अब बर्दाश्त के बाहर है। वह सौ रुपए जो आपने लिए थे, मुझे वापस लौटा दें! वह आदमी चौंका। उसने कहा कि क्या कह रहे हैं आप? मैंने और आपसे सौ रुपए कभी उधार लिए! मैंने आपकी शकल भी पहले नहीं देखी। उस आदमी ने कहा कि लो, सुनो मजाक! लेते वक्त पुराने परिचित थे, देते वक्त शकल भी पहचान में नहीं आती!

भीड़ इकट्ठी हो गई है! रास्ते पर चारों तरफ लोग आ गए हैं! लोगों ने कहा कि भई, क्या बात है! उस आदमी ने चिल्लाकर कहा कि मेरे सौ रुपए लूटे ले रहा है यह आदमी। कहता है, मेरी शकल भी नहीं देखी! उस आदमी ने कहा कि हैरान कर रहे हैं आप! सच में ही मैंने आपकी शकल नहीं देखी! लोगों को भी शक हुआ कि इतना झूठ तो कोई भी नहीं बोलेगा कि शकल भी न देखी हो और सौ रुपये!

अंततः लोगों ने, जैसा कि लोग होते हैं, उन्होंने कहा कि कंप्रोमाइज कर लो, पचास-पचास पर निपटारा कर लो! जिस आदमी को देने थे, उसने कहा, क्या कह रहे हैं आप? मैं इसकी शकल नहीं जानता। लोगों ने कहा, अब तुम ज्यादती कर रहे हो! उस आदमी ने कहा कि भई, ठीक है। हम पचास छोड़े देते हैं। और क्या! पचास छोड़े देता हूं, लोगों ने कहा, इनकी बात का खयाल रखकर! स्वभावतः, लोग उसके और साथ हो गए। उन्होंने कहा, पचास तो तुम दे ही दो!

मैं यह कह रहा हूं कि जब भी सच और झूठ में समझौता हो, तो झूठ जीतता है। जब भी! क्योंकि झूठ को खोने को कुछ भी नहीं है उसके पास। सच को खोने को कुछ है। झूठ का मतलब ही यह है कि खोने को कुछ भी नहीं है। अगर पूरा भी झूठ सिद्ध हो जाए, तो भी कुछ नहीं खोता। झूठ था! और सत्य का कुछ भी खो जाए, तो सब कुछ खो जाता है।

और यह भी मैं आपसे कह दूं कि सत्य जब खोता है, तो आधा नहीं खोता, पूरा ही खो जाता है। क्योंकि सत्य एक आर्गेनिक यूनिटी है; वह आधा नहीं खोता। सत्य के दो टुकड़े नहीं किए जा सकते। झूठ के हजार किए जा सकते हैं। वह मुर्दा चीज है। वह है ही नहीं। वह सिर्फ कागजी है। कैंची चलाएं और हजार टुकड़े कर लें। सत्य जीवंत है; उसके टुकड़े नहीं होते।

सकाम कर्म, अपने ही हाथों पैदा किया गया एक असत्य है। निष्काम कर्म जीवन की शाश्वत धारा का सत्य है। उस सत्य और इस असत्य के बीच कोई समझौता नहीं है।

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।। 4।।

और हे अर्जुन! ऊपर कहे हुए संन्यास और निष्काम कर्मयोग को मूर्ख लोग अलग-अलग फल वाले कहते हैं, न कि पंडितजन। क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष, दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।

इस जगत के सारे भेद मूढ़जनों के भेद हैं। इस जगत के बाहर जाने वाले मार्गों के सारे विरोध नासमझों के विरोध हैं। चाहे हो कर्म-संन्यास, चाहे हो निष्काम कर्म, ज्ञानी जानता है कि दोनों से एक ही अंत की उपलब्धि होती है।

रास्ते हैं अनेक, मंजिल है एक। नावें हैं बहुत, पार होना है एक। कहीं से भी कोई चले, कैसे भी कोई चले, आकांक्षा हो सत्य की खोज की; कैसे भी कोई यात्रा करे, कैसे भी वाहन से और कैसे ही पथों और कैसी ही सीढ़ियों से, आकांक्षा हो एक, आनंद को पाने की, तो सब मार्गों से, सब द्वारों से वहीं पहुंच जाता है व्यक्ति; एक ही जगह पहुंच जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं इस वक्तव्य में…। कृष्ण जैसे व्यक्तियों को निरंतर ही सचेत होकर बोलना पड़ता है। पहले उन्होंने दो मार्गों की बात कही। कहा कि एक मार्ग है, कर्म का त्याग। दूसरा मार्ग है, कर्म में आकांक्षा का त्याग। ये दो मार्ग हैं। दोनों श्रेयस्कर हैं। लेकिन दूसरा सरल है। अर्जुन से कहा, दूसरा सरल है। फिर दूसरे मार्ग पर उन्होंने इतनी व्याख्या की और कहा कि दूसरे मार्ग का क्या अर्थ है। राग और द्वेष के द्वंद्व के बाहर हो जाना दूसरे मार्ग का अर्थ है। लेकिन तत्काल उन्हें इस सूत्र में कहना पड़ता है कि मूढ़जन ही दोनों को विपरीत मान लेंगे या भिन्न मान लेंगे, ज्ञानी तो दोनों को एक ही मानते हैं।

ऐसा क्या कहने की जरूरत पड़ती है? ऐसा कहने की इसलिए जरूरत पड़ती है कि जब भी एक मार्ग की बात कही जाती है, तो भला कहने वाला जानता हो कि बाकी मार्ग भी सही हैं, लेकिन जिससे वह कह रहा होता है, उससे तो वह एक ही मार्ग की बात कह रहा होता है। कहीं उसे यह भ्रांति न पैदा हो जाए कि यही मार्ग ठीक है।

ऐसी भ्रांति रोज पैदा हुई है। कृष्ण का सचेत होना संगतिपूर्ण है, अर्थपूर्ण है। ऐसी भूल रोज हुई है। महावीर ने एक बात कही लोगों को। जिनसे कही थी, उनके काम की जो बात थी, वह कह दी थी। लेकिन सुनने वाले ने समझा कि यही मार्ग सच है। बाकी सब मार्ग गलत हो गए। बुद्ध ने एक बात कही, जो सुनने वाले के लिए काम की थी। उस युग के लिए जो धर्म थी, उस मनुष्य की चेतना के लिए जो सहयोगी थी–कही। सुनने वाले ने समझा कि यही मार्ग है; बाकी सब गलत है। क्राइस्ट ने कही एक बात; मोहम्मद ने कही एक बात। वे सभी बातें सही, सभी सार्थक। लेकिन सभी को सुनने वाले मान लेते हैं कि यही ठीक है; बाकी गलत है।

और अज्ञानी को खुद को ठीक मानना तब तक आसान नहीं होता, जब तक वह दूसरों को गलत न मान ले। अपने को ठीक मानता ही इसीलिए है कि दूसरे गलत हैं। अगर दूसरे भी सही हों, तो फिर खुद के सही होने की संभावना क्षीण हो जाती है। उसका अपने पर भरोसा ही तब तक रहता है, जब तक दूसरे गलत हों। अगर दूसरे गलत न हों, तो उसका खुद का आत्मविश्वास क्षीण हो जाता है। तो खुद के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए वह सबको गलत कहता रहता है। वह-वह गलत; मैं ठीक।

इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्ति को निरंतर सचेत रहना पड़ता है कि कहीं एक मार्ग को समझाते वक्त यह खयाल पैदा न हो जाए कि दूसरा मार्ग बिलकुल गलत है, भिन्न, अलग है, उससे नहीं पहुंचा जा सकता है।

मगर जो कृष्ण की मजबूरी है, उससे उलटी मजबूरी अर्जुन की है। अगर कृष्ण स्पष्ट रूप से कह दें कि यही ठीक, और दूसरी बात न करें, तो अर्जुन निश्चिंत होकर मार्ग पर लग जाए। अभी उसको कुछ थोड़ी निश्चिंतता बंधी होगी। सुना उसने कि निष्काम कर्म ज्यादा हितकर है, तो उसने सोचा होगा कि ठीक है, संन्यास बेकार है। अब निष्काम कर्म में लग जाना चाहिए। तत्काल कृष्ण कहते हैं कि मूढ़जन ही ऐसा समझते हैं कि दोनों भिन्न हैं।

अब फिर मुश्किल खड़ी हो जाएगी। अगर दोनों ही ठीक हैं, तो फिर चुनाव का सवाल खड़ा हो गया। एक गलत और एक ठीक है, तो चुनाव आसान हो जाए। अगर दोनों ही ठीक हैं, तो फिर चुनाव! और दो ही नहीं, अनंत हैं मार्ग।

चुनने वालों की वजह से समझदारों को भी नासमझों की भाषा में बोलना पड़ा और कहना पड़ा कि यही ठीक है। और अगर किसी समझदार ने ऐसा कहा कि यह भी ठीक है, वह भी ठीक है; यह भी ठीक है, वह भी ठीक है, तो सुनने वाले उसे छोड़कर चले गए।

देखें महावीर! इतनी प्रतिभा के आदमी पृथ्वी पर दो-चार ही हुए हैं, लेकिन महावीर को कोई जगत में स्थान नहीं मिल सका। न मिलने का कुल एक कारण है; एक भूल हो गई उनसे, नासमझों की भाषा बोलने से चूक गए। महावीर ने कह दिया, यह भी ठीक, वह भी ठीक। महावीर का विचार कहलाता है, स्यातवाद। वे कहते हैं, सब ठीक! वे कहते हैं, ऐसा झूठ भी नहीं हो सकता, जिसमें कुछ ठीक न हो। यह भी ठीक है, इससे उलटा भी ठीक है; दोनों से उलटा भी ठीक है। सुनने वालों ने कहा कि फिर माफ करिए; तब हम जाते हैं! हम उस आदमी को खोजेंगे, जो कहता हो, यह ठीक। या तो आपको पता नहीं, और या फिर आपको कुछ ऐसा पता है, जो अपने काम का नहीं।

महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हुए। हिंदुस्तान में महावीर को मानने वालों की संख्या आज भी तीस लाख के ऊपर नहीं जा पाती। पच्चीस सौ साल में पच्चीस आदमी भी अगर महावीर से दीक्षित हुए होते, तो उनकी संतान इतनी हो जाती! क्या हुआ?

और ये जो तीस लाख मानते हैं, इनमें से तीन भी मानते हों, ऐसा नहीं है। ये तीस लाख जन्म से मानते हैं। क्योंकि महावीर से राजी होना बहुत मुश्किल है। वे कहते हैं कि जो आदमी कहता है, यही ठीक, वह बिलकुल उपद्रव की बात कर रहा है। यह कभी मत कहो, यही ठीक। इतना ही कहो, यह भी ठीक, वह भी ठीक। पर ऐसे आदमी को अनुयायी नहीं मिल सकता। ऐसे आदमी को कैसे अनुयायी मिलेगा!

कृष्ण की भी वही कठिनाई है। वे अर्जुन को जब बताते हैं कोई बात ठीक, तो यह वक्तव्य जो उन्होंने दूसरा दिया, अर्जुन की आंख में देखकर दिया होगा। इसमें तो उल्लेख नहीं है, लेकिन निश्चित आंख को देखकर दिया होगा।

जब कृष्ण समझा रहे होंगे निष्काम कर्म, तब अर्जुन धीरे-धीरे अकड़कर बैठ गया होगा। उसने कहा होगा कि तब ठीक है। तो सब संन्यासी गलत। हम पहले ही जानते थे कि संन्यास वगैरह से कुछ होने वाला नहीं! छोड़ने से क्या मिलेगा!

जब उसकी आंख में यह झलक देखी होगी कृष्ण ने कि वह सोच रहा है कि सब संन्यासी गलत, ये बुद्ध और महावीर, ये सब छोड़कर चले गए लोग नासमझ, तब तत्काल वे चौंके होंगे। उसकी आंख की चमक उन्हें पकड़ में आई होगी। उन्होंने फौरन कहा कि मूढ़जन ही ऐसा समझते हैं अर्जुन, कि ये दोनों मार्ग अलग हैं। पंडितजन तो समझते हैं, दोनों एक हैं। तब उसको बेचारे को उसकी भभक थोड़ी-सी आई होगी। उस पर उन्होंने फिर पानी डाल दिया। वह अर्जुन फिर बेकार हुआ। वह फिर अपनी जगह शिथिल होकर बैठ गया होगा–शिथिल गात। फिर सोचने लगा होगा, टु बी, आर नाट टु बी! अब क्या करना है, यह या वह?

कृष्ण उसकी अकड़ नहीं टिकने देते। ऐसा गीता में बहुत बाहर आएगा। जब भी वे देखेंगे कि अर्जुन अकड़ा, लगा कि समझदार हुआ जा रहा है, फौरन थोड़ा-सा पानी डालेंगे। उसकी अकड़, उसका कलफ फिर धुल जाएगा।

बीच में जरूर अर्जुन की आंख में कृष्ण ने देखा है। अन्यथा अभी मूर्खों को याद करने की कोई जरूरत न थी। अर्जुन में मूर्ख आ गया होगा। अन्यथा यह वक्तव्य बेमानी है। अर्जुन की आंख में मूर्ख दिखाई पड़ गया होगा।

और ऐसा नहीं है कि मूर्ख ही मूर्ख होते हैं। समझदार से समझदार आदमी के मूर्ख क्षण होते हैं। समझदार से समझदार आदमी की आंखों में से कभी मूर्ख झांकने लगता है। और कभी-कभी महा मंदबुद्धि आदमी की आंख से भी बुद्धिमान झांकता है। आदमी के भीतर की चेतना बड़ी तरल है।

तो जब वह कृष्ण अर्जुन को देखते होंगे, कुछ बुद्धिमान हो रहा है, तब वे कुछ और कहते हैं। जब वे देखते होंगे कि मूर्खता सघन हो रही है, तब वे कुछ और कहते हैं।

चूंकि यह वक्तव्य सीधा अर्जुन को दिया गया है, इसलिए अर्जुन का एक-एक हाव, एक-एक भाव, एक-एक आंख की भंगिमा, एक-एक इशारा, इसमें सब पकड़ा गया है। गीता सिर्फ कही नहीं गई है; लिखी नहीं गई है; संवाद है दो जीते व्यक्तियों के बीच। पूरे वक्त चेतना तालमेल कर रही है। पूरे वक्त एक डायलाग है।

पश्चिम में एक बहुत बड़ा विचारक अभी था, मार्टिन बूवर। वह कहता था, जगत में सबसे बड़ी घटना है, डायलाग, संवाद। क्या मतलब था? वह कहता था, संवाद बड़ी घटना है। संवाद का अर्थ है, दो व्यक्तियों के बीच के हृदय ऐसे मिल जाएं कि जरा-सा अंतर, और संवादित हो सके। जरा-सा भेद, और तरंगें पहुंच जाएं, तरंगों को खबर मिल जाए।

यह मार्टिन बूवर को पता हो या न हो, दुनिया में अगर कुछ डायलाग हुए…फिल्मों के डायलाग की बात नहीं कर रहा हूं। क्योंकि जो पहले से तैयार कर लिया गया हो, वह डायलाग नहीं होता। वह तो सिर्फ आदमी नहीं बोल रहा, हिज मास्टर्स वाइस का वह जो कुत्ता बैठा रहता है, वही बोल रहा है। आदमी नहीं है वहां।

गीता एक डायलाग है, एक संवाद है। वहां कृष्ण जरा-सी भी झलक अर्जुन की आंख और चेहरे पर पकड़ रहे हैं। जरा-सा मुद्रा का परिवर्तन, और उन्होंने कहा कि अर्जुन! मूर्खजन ऐसा समझ लेते हैं कि दोनों अलग हैं। अर्जुन को ठिकाने लगाया होगा उन्होंने। सिर्फ एक डंडा मारा, वह अर्जुन फिर अपनी जगह बैठ गए होंगे।

आज के लिए इतना ही। एक पांच मिनट रुकेंगे। कोई जाएगा नहीं। पांच मिनट बैठे रहें। इतनी देर बैठे हैं, पांच मिनट और बैठे रहें। संन्यासी कीर्तन में संलग्न होते हैं। पांच मिनट अपनी जगह बैठकर चुपचाप उनके भाव को पी जाएं। और फिर चले जाएं। यह संकीर्तन प्रसाद है, इसको लेकर जाएं। बैठे रहें!

आज इतना ही


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गीता दर्शन–(भाग-2) प्रवचन–21

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सम्यक दृष्टि (अध्याय—5) प्रवचन—21

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।। 5।।

तथा ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधर्म प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग को फलरूप से एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है।

देखते सभी हैं; यथार्थ बहुत कम लोग देखते हैं। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह वही नहीं होता, जो है। वरन हम वही देख लेते हैं, जो हम देखना चाहते हैं। हमारी दृष्टि दर्शन को विकृत कर जाती है। हमारी आंखें दृश्य को देखती ही नहीं, दृश्य को निर्मित भी कर जाती हैं।

जीवन में चारों ओर बिना व्याख्या के हम कुछ भी अनुभव नहीं कर पाते हैं। और व्याख्या के साथ किया गया अनुभव विकृत अनुभव है। जो भी हम देखते हैं, उसमें हम भी सम्मिलित हो जाते हैं। दर्शन विकृत हो जाता है।

एक छोटी-सी घटना मुझे याद आती है। सुना है मैंने कि रामदास ने हजारों वर्षों बाद, राम के होने के हजारों वर्षों बाद, राम की कथा पुनः लिखी। राम तो एक हुए हैं, लेकिन कथाएं तो उतनी हो सकती हैं, जितने लिखने वाले हैं। लेकिन कथा कुछ ऐसी थी कि हनुमान को खबर लगी कि तुम्हारे भी सुनने योग्य है। हनुमान तो प्रत्यक्षदर्शी थे कथा के। फिर भी रोज-रोज खबर आने लगी, तो हनुमान चोरी से उस कथा को सुनने जाते थे जिसे रामदास दिनभर लिखते और सांझ इकट्ठे भक्तों के बीच सुनाते। कहानी है, पर अर्थपूर्ण है। और बहुत बार कहानियां सत्य से भी ज्यादा अर्थपूर्ण होती हैं।

राम की कथा चलती रही। हनुमान आनंदित थे। हैरान थे यह बात जानकर, कि रामदास हजारों साल के बाद, कथा को ठीक वैसा कह रहे हैं, जैसी वह घटी थी। यह बड़ी कठिन बात है। जो आंख के सामने देखते हैं, वे भी ठीक वैसा ही वर्णन नहीं करते, जैसा घटता है। आंख सम्मिलित हो जाती है। दृष्टि प्रवेश कर जाती है। हजारों साल बाद यह आदमी कहानी कह रहा है और ठीक ऐसी कि हनुमान भी भूल-चूक नहीं निकाल पाते हैं। कहीं जैसे कोई व्याख्या नहीं है। जैसे घटना सामने घटती हो।

लेकिन एक जगह हनुमान को भूल मिल गई। हनुमान ने खड़े होकर कहा कि माफ करें, और सब तो ठीक है, इसमें थोड़ी-सी बदलाहट कर लें। आप कह रहे हैं कि हनुमान जब अशोक वाटिका में गए, तो चारों तरफ शुभ्र, चांद की चांदनी की तरह फूल खिले थे। यह बात गलत है। हनुमान जब अशोक वाटिका में गए, तब फूल सुर्ख चारों ओर खिले थे, सफेद फूल नहीं खिले थे। लेकिन रामदास ने कहा, चुपचाप बैठ जाओ। बकवास मत करो। फूल सफेद थे।

अभी हनुमान अप्रकट थे। जाहिर होकर उन्होंने नहीं कहा था कि मैं हनुमान हूं। उन्होंने फिर कहा कि महाशय, सुधार कर लें। मैं किसी कारण से कह रहा हूं। रामदास ने कहा, बीच में गड़बड़ मत करो। फूल सफेद थे। और चुपचाप बैठ जाओ। मजबूरी में हनुमान को क्रोध आ गया। और खुद की देखी हुई बात को कोई आदमी झूठ कहे! तो वे प्रकट हुए और उन्होंने कहा, मैं खुद हनुमान हूं। अब बोलो तुम क्या कहते हो? फूल लाल थे। सुधार कर लो! रामदास ने कहा कि फिर भी कहता हूं कि चुपचाप बैठ जाओ और गड़बड़ मत करो। हनुमान हो, तो भले हो। फूल सफेद थे।

यह तो बहुत उपद्रव की बात हो गई। कोई रास्ता न था, तो हनुमान और रामदास को राम के सामने ले जाया गया। और हनुमान ने कहा कि यह एक आदमी है जिसको मैं कह रहा हूं कि फूल लाल थे, और जो कहता है कि फूल सफेद थे। मैं हनुमान हूं। हजारों साल बाद ये सज्जन कहानी लिख रहे हैं। लेकिन हद जिद्दी आदमी है! मुझसे कहता है, चुपचाप बैठ जाओ। अब आप ही निर्णय दे दें।

राम ने कहा, हनुमान, तुम क्षमा मांग लो। फूल सफेद ही थे; रामदास ठीक कहते हैं। तुम इतने क्रोध में थे कि तुम्हारी आंखें खून से भरी थीं। तुमने लाल फूल देखे होंगे। लेकिन फूल सफेद ही थे।

संभव है। कहानी भला संभव न हो, लेकिन खून से भरी आंखों में सफेद फूल लाल दिखाई पड़ सकते हैं, यह संभव है।

हम जो देखते हैं, उसमें हमारी आंख तत्काल प्रविष्ट हो जाती है। हम वही नहीं देखते, जो है। और जो व्यक्ति वही देखने में समर्थ हो जाता है, जो है, उसे ही कृष्ण ज्ञानी कहते हैं।

कृष्ण यहां कह रहे हैं कि कर्म से, निष्काम कर्म से या कर्म-संन्यास से; कर्मयोग से या कर्मत्याग से, एक ही परम स्थिति उपलब्ध होती है।

लेकिन ऐसा तो केवल वे ही देख पाते हैं, जो वही देखते हैं, जो है। जिनकी दृष्टि दर्शन में बाधा नहीं बनती। जिनके अपने खयाल यथार्थ के ऊपर आरोपित नहीं होते, इम्पोज नहीं होते। जो अपने को हटाकर देखते हैं, या ऐसा कहें कि जो शून्य होकर देखते हैं, जो बीच में नहीं आते। वे तो ऐसा ही देखते हैं कि चाहे कोई कर्म के जगत में जीकर आकांक्षाओं को छोड़कर चले, या कोई कर्म को ही छोड़कर चल दे, अंतिम उपलब्धि एक ही होती है।

लेकिन यह उनकी प्रतीति है, जिनके पास अपने कोई विचार आरोपित करने को नहीं हैं। यह उनकी स्थिति है, जो निर्विचार हैं। यह उनकी स्थिति है, जिनके पास अपना कोई भी खयाल यथार्थ के ऊपर रोपने को नहीं है। लेकिन बाकी शेष सारे लोग दोनों में विरोध देखेंगे।

विरोध दिखाई पड़ता है। कहां तो कर्म का जीवन, और कहां सारे कर्म को छोड़कर चले जाने वाला जीवन! अगर ये दोनों विरोधी नहीं हैं, तो फिर इस जगत में क्या विरोधी हो सकता है! कहां तो एक व्यक्ति, जो दैनंदिन जीवन के छोटे-छोटे कर्मों में घिरा है! कृष्ण, युद्ध के मैदान पर खड़े हैं। कहां बुद्ध, जीवन का सारा संघर्ष छोड़कर हट गए हैं। कहां जनक, महलों में, जीवन के घने बाजार के बीच, साम्राज्य के बीच खड़े हैं! कहां महावीर, वस्त्र के भी रहने से शरीर पर कहीं कर्म का कोई लेप न चढ़ जाए, इसलिए वस्त्र भी छोड़कर नग्न हो गए हैं! कहां मोहम्मद, तलवार लेकर जूझने को तैयार। कहां महावीर, पैर भी फूंककर रखेंगे कि चींटी न दब जाए! इन दोनों आदमियों को एक देख पाना अति कठिन है। सहज ही प्रतीत होता है कि विपरीत हैं दोनों बातें। विपरीत ही दिखाई पड़ती हैं दोनों बातें।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, विपरीत उसे दिखाई पड़ती हैं, जो अज्ञानी है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए।

इस जगत में जो-जो चीज विपरीत दिखाई पड़ती है, वह अज्ञान के कारण ही विपरीत दिखाई पड़ती है। जहां-जहां भेद, जहां-जहां द्वैत, डुअलिटी दिखाई पड़ती है, वह अज्ञान के कारण ही दिखाई पड़ती है। अंधेरे और प्रकाश में भी विरोध नहीं है। और जन्म और मृत्यु में भी विरोध नहीं है। जन्म भी वही है, जो मृत्यु है। और अंधेरा भी वही है, जो प्रकाश है।

लेकिन यह उसे दिखाई पड़ता है, जिसकी आंखों से सारा धुआं विचार का हट गया और जिसके प्राणों से अहंकार की बदलियां हट गईं। और जिसका अंतःप्राण पारदर्शी, ट्रांसपैरेंट हो गया। जो दर्पण की तरह हो गया। जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है; जो दिखाई पड़ता है, वही झलकता है।

जो दर्पण की तरह हो गया, निर्द्वंद्व, उसे तो सारे रास्ते परमात्मा तक ही पहुंचते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह तो कहेगा कि रावण भी अपने रास्ते से परमात्मा तक ही पहुंच रहा है। और राम भी अपने रास्ते से परमात्मा तक ही पहुंच रहे हैं। उतना गहरा देखने पर तो राम और रावण के बीच का भी फासला गिर जाएगा। लेकिन उतना गहरा देखना तभी संभव है, जब हमारे भीतर विचार का द्वैत विसर्जित हो गया हो।

हम देखते नहीं, हम विचार से देखते हैं। इस फर्क को खयाल में ले लें। एक फूल के पास खड़े हैं; गुलाब का फूल खिला है। आप सोचते होंगे, गुलाब के फूल को देखते हैं, तो गलत सोचते हैं। गुलाब के फूल को देख भी नहीं पाते कि मन के जगत में विचारों का जाल खड़ा हो जाता है। लगता है मन को, सुंदर है फूल! एक विचार आ गया। अतीत में जो-जो गुलाब का अनुभव है, उस सबकी स्मृति बीच में खड़ी हो गई। जो-जो सुना है, बचपन से जो-जो कंडीशनिंग हुई है। जरूरी नहीं है कि अगर आपको बचपन से न समझाया गया हो कि गुलाब सुंदर है, तो आपको सुंदर दिखाई पड़े। जरूरी नहीं है। बहुत कुछ तो सिखावन है।

अगर चीन में जाकर पूछें, तो गाल पर अगर हड्डी निकली हो, तो सुंदर है। हिंदुस्तान में नहीं होगी। बचपन से जाना है जिसे सुंदर, वह सुंदर प्रतीत होने लगा है। सारी दुनिया में सौंदर्य के अलग-अलग मापदंड हैं। नीग्रो के लिए ओंठ का मोटा होना बहुत सुंदर है। इसलिए नीग्रो स्त्रियां अपने ओंठ में पत्थर बांधकर और लटकाकर उसको चौड़ा करती रहेंगी। लेकिन हमारे मुल्क में ओंठ का पतला होना सौंदर्य है। ओंठ किसी का मोटा है, तो उसको भीतर दबाता रहेगा कि मोटा ओंठ बाहर दिखाई न पड़ जाए।

गुलाब का फूल सुंदर दिखाई पड़ता है, यह सुना-सीखा संस्कार है। यह विचार है या कि यह दर्शन है? यह दर्शन तो तभी होगा, जब गुलाब के फूल के पास खड़े हों और सिर्फ खड़े हों, सोचें जरा भी न। आंख से गुलाब को उतर जाने दें, विचार को बीच में न आने दें। उसे प्राणों तक पहुंच जाने दें, विचार को बीच में न आने दें। वह घुल जाए, मिल जाए श्वासों में। वह एक हो जाए प्राणों से। चेतना भीतर की, और गुलाब की चेतना कहीं आलिंगन में बद्ध हो जाए; कोई विचार न उठे; तब जो आप जानेंगे, वह गुलाब को जानना है। अन्यथा जो आप जानते हैं, वह गुलाब के संबंध में जाने हुए को दोहराना है। वह गुलाब को जानना नहीं है।

जो व्यक्ति जीवन में इस भांति निर्विचार देखने में समर्थ हो जाता है, उस व्यक्ति को अत्यंत विरोधी मार्ग भी एक ही मालूम पड़ते हैं। वह कह सकता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मूढ़जन को तो, बुद्धिहीन को तो बड़े विपरीत मालूम पड़ेंगे। लगेगा कि कहां संसार के कर्म का जाल और कहां सब छोड़कर किसी गुफा में बैठ जाना मौन, बड़ी विपरीत हैं बातें। लेकिन कृष्ण कहते हैं, नहीं हैं विपरीत। क्यों नहीं हैं विपरीत? नहीं हैं विपरीत इसलिए, कि चाहे कोई आकांक्षाओं को छोड़ दे, और चाहे कोई कर्म को छोड़ दे, दोनों से चित्त में एक ही अवस्था घटित होती है।

जिसने आकांक्षा को छोड़ दिया, उसके लिए कर्म अभिनय से ज्यादा, एक्टिंग से ज्यादा नहीं रह जाता। जिसने फल की आकांक्षा छोड़ दी, उसे कर्म खेल से ज्यादा, लीला से ज्यादा नहीं रह जाता। वह कर्म को छोड़े या न छोड़े, कर्म की कोई भी प्रभावना उसकी चेतना पर अंकित नहीं होती है। क्योंकि कर्म अंकित नहीं होते, फल की आकांक्षा अंकित होती है।

कभी आपने सोचा कि आप कर्म से कभी पीड़ित नहीं हैं, आप पीड़ित फल की आकांक्षा से हैं! और अगर कर्म से पीड़ित होते हैं, तो फल की आकांक्षा के कारण पीड़ित होते हैं। पीड़ा का जो जहर है, वह फल की आकांक्षा में है, अपेक्षा में है, एक्सपेक्टेशन में है। जितनी बड़ी अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कर्म देता है। जितनी छोटी अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कम हो जाती है। जितनी शून्य अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा विदा हो जाती है। लेकिन हम कोई कर्म जानते नहीं, जो हमने बिना फल की अपेक्षा के किया हो।

प्रयोग करें। चौबीस घंटे में तय कर लें कि एक छोटा-सा काम बिना फल की आकांक्षा के करेंगे। राह पर जा रहे हैं। किसी आदमी का छाता गिर गया है। उसे उठाकर दे दें। लेकिन लौटकर रुकें न, कि वह धन्यवाद दे। और धन्यवाद न दे, तो मन में देखें कि कहीं पीड़ा तो नहीं खटकती है? अगर धन्यवाद न दे, तो जरा मन में देखें कि कहीं विषाद का धुआं तो नहीं उतरता है? कहीं ऐसा तो नहीं लगता है कि कैसा आदमी है, धन्यवाद भी न दिया!

अगर धन्यवाद की भी अपेक्षा है, जो कि बहुत छोटी अपेक्षा है, नामिनल, न के बराबर…।

इसीलिए समझदार आदमी दिनभर धन्यवाद देते रहते हैं, ताकि जो व्यर्थ की अपेक्षाएं हैं लोगों की, वे उनकी तृप्त होती रहें। धन्यवाद देने वाले का कुछ भी नहीं बिगड़ता, लेकिन लेने वाले को बहुत कुछ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। अपेक्षा पर निर्भर है।

छोटा-सा शब्द धन्यवाद, भीतर जैसे फूल खिल जाता है। नहीं दिया धन्यवाद, भीतर की कली कुम्हला जाती है। इतनी छोटी-सी अपेक्षा भी प्राणों को उदास करती और प्रफुल्लित करती है। जितनी बड़ी अपेक्षाएं होंगी, फिर उतनी ही उदासी और प्रफुल्लता की अपेक्षा के अनुपात में दुख का भार बढ़ता चला जाएगा।

दिन में चौबीस घंटे में जो आदमी एक काम अपेक्षारहित कर ले, उसने प्रार्थना की, उसने नमाज पढ़ी, उसने ध्यान किया। एक काम आदमी अगर चौबीस घंटे में अपेक्षारहित, फलरहित कर ले, तो बहुत देर नहीं लगेगी कि उसके कर्मों का जाल धीरे-धीरे अपेक्षारहित होने लगे। क्योंकि उस छोटे-से काम को करके वह पहली दफे पाएगा कि जीवन न दुख में है, न सुख में है, वरन परम शांति में उतर गया। उस छोटे-से कृत्य के द्वारा शांत हो गया।

अपेक्षा सुख का आश्वासन देती है, दुख का फल लाती है। अपेक्षारहित कृत्य गहन शांति के सागर में डुबा जाता है। अपेक्षारहित कृत्य आनंद के द्वार खोल देता है।

देखें, प्रयोग करें। और जैसे-जैसे खयाल में आएगा, वैसे-वैसे समझ में आएगा कि अगर अपेक्षारहित कृत्य किया, तो वही अंतिम फल मिलता है, जो कर्म को छोड़ने वाले को मिलता होगा। जो आदमी कर्म छोड़कर भाग गया है, वह भी शांत हो जाता है, अशांति का कोई कारण नहीं रह जाता। लेकिन जिस आदमी ने फल की आकांक्षा छोड़ दी है, अशांति के सारे कारण मौजूद रहते हैं, लेकिन भीतर अशांति को पकड़ने वाली ग्राहकता, रिसेप्टिविटी नष्ट हो जाती है।

दो रास्ते हैं। एक दर्पण है। और मैं उसके सामने खड़ा हूं। मैं हट जाऊं, तो दर्पण पर तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दूं, मैं खड़ा रहूं, तो भी तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दूं, तो भी परिणाम यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। मैं हट जाऊं, दर्पण को बना रहने दूं, तो भी परिणाम यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। दोनों कृत्य बहुत अलग हैं। लेकिन परिणाम दोनों का एक है कि तस्वीर मिट जाती है।

दर्पण को तोड़ना कर्म को छोड़ने जैसा है। और आकांक्षा को तोड़ना स्वयं दर्पण से हट जाने जैसा है। दर्पण अपनी जगह है, मैं ही हट गया। कर्म अपनी जगह है, मैंने ही कर्म से अपनी आकांक्षा हटा ली, अहंकार को हटा लिया। मैं पीछे हो गया।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, दोनों में से कुछ भी हो जाए अर्जुन, परिणाम एक ही होता है। लेकिन ऐसा ज्ञानीजन जानते हैं। और जो ऐसा जानते हैं, उनका ही दर्शन सम्यक है। उनका ही देखना ठीक देखना है। जो ऐसा नहीं जानते, उनका देखना मिथ्या देखना है।

एक अंतिम बात और इस संबंध में आपसे कहूं, और वह यह है, न देखना, गलत देखने से बेहतर है। न देखना, आंख का बंद होना, मिथ्या देखने से बेहतर है। न देखने वाला किसी न किसी दिन जल्दी ही देखने पर पहुंच जाएगा। लेकिन गलत देखने वाले की ठीक देखने पर पहुंचने में बड़ी लंबी यात्रा है।

अज्ञान मिथ्या ज्ञान से भी खतरनाक है। फाल्स नालेज इग्नोरेंस से भी खतरनाक है। क्योंकि अज्ञान में एक विनम्रता है, मिथ्या ज्ञान में विनम्रता नहीं है। अज्ञानी कहता है, मैं नहीं जानता। एक गहरी विनम्रता है, ईगोलेसनेस है। अज्ञानी अनुभव करता है कि मैं नहीं जानता, तो जानने की संभावना निरंतर मौजूद रहती है।

मिथ्या ज्ञानी सोचता है कि मैं जानता हूं, बिलकुल ठीक से जानता हूं, जानने का द्वार भी बंद हो गया। जानने की यात्रा भी शुरू नहीं होगी। और मिथ्या ज्ञानी को खयाल है कि मैं जानता हूं, तो वह जिस चीज को जानता है, उसे जोर से पकड़े बैठा रहता है। और जब तक मिथ्या ज्ञान न हट जाए, तब तक सम्यक ज्ञान के उतरने का कोई उपाय नहीं है।

हाथ खाली हो, बेहतर। तो किसी दिन हीरे दिखाई पड़ जाएं, तो खाली हाथ उन्हें उठा ले सकते हैं। लेकिन हाथ कंकड़-पत्थर को हीरे समझकर बांधकर मुट्ठियां बंद हुए बैठे हों, तो खतरनाक। क्योंकि हीरे भी दिखाई पड़ जाएं, तो शायद ही दिखाई पड़ें। क्योंकि जिसकी मुट्ठी में रंगीन पत्थर बंद हैं और जो सोच रहा है कि मेरे पास हीरे हैं, वह शायद ही अपनी मुट्ठी को छोड़ इस बड़े जगत में खोजने निकले कि हीरे कहीं और हैं। हीरे तो उसके पास हैं ही, इसलिए उसकी यात्रा बंद है।

कृष्ण कहते हैं, जो इन दो विरोधों के बीच एक को देख पाता है, वही ठीक देखता है।

दो विरोधों के बीच एक को देख पाना इस जगत का सबसे बड़ा अनुभव है। दो विरोधों के बीच एक को देख पाना गहरी से गहरी, सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्टि है। नहीं दिखाई पड़ता। आकाश और पृथ्वी एक नहीं दिखाई पड़ते। कहां आकाश, कहां पृथ्वी! दो दिखाई पड़ते हैं साफ। जन्म और मृत्यु एक दिखाई नहीं पड़ते; साफ दो दिखाई पड़ते हैं। पत्थर और चेतना एक नहीं दिखाई पड़ते; साफ दो दिखाई पड़ते हैं।

लेकिन हमारा साफ दिखाई पड़ना बहुत ही गलत है। आकाश और पृथ्वी दो नहीं हैं। बता सकते हैं, कहां पृथ्वी समाप्त होती है और कहां आकाश शुरू होता है? आकाश पृथ्वी को सब ओर से घेरे हुए है। गङ्ढा खोदें पृथ्वी में। तो कुआं खोदते हैं, तब आप सोचते हैं कि आप पृथ्वी खोद रहे हैं? आप गलती कर रहे हैं। आप सिर्फ मिट्टी अलग कर रहे हैं और आकाश को प्रकट कर रहे हैं। जब आप गङ्ढा खोदकर कुआं खोदते हैं, तो जमीन के भीतर आकाश मिल जाता है। खोदते चले जाएं और आकाश मिलता चला जाएगा। आर-पार हो जाएं; यहां से खोदें और अमेरिका में निकल जाएं, तो बीच में आकाश ही आकाश मिलता चला जाएगा।

वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी भी श्वास लेती है, पोरस है। पृथ्वी भी छिद्रहीन नहीं है; सछिद्र है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर हम पृथ्वी को कनडेंस कर सकें, उसमें जितना आकाश है उसको बाहर निकाल सकें, तो एक छोटी-सी बच्चे के खेलने की गेंद के बराबर कर सकते हैं। लेकिन वह बच्चे की गेंद भी पोरस होगी और विज्ञान अगर किसी दिन और समर्थ हो जाए, तो उसे और छोटा कर सकता है।

आकाश और पृथ्वी अलग नहीं, एक ही हैं। पृथ्वी आकाश से ही बनती है, वैज्ञानिक कहते हैं। आकाश से ही जन्मती है। जैसे पानी में भंवर पड़ती है, पानी की ही भंवर। ऐसे ही आकाश जब भंवर से भर जाता है, नेबुला बन जाता है, तो पृथ्वी बनती है। फिर एक दिन पृथ्वी आकाश में खो जाती है।

रोज न मालूम कितने ग्रह आकाश में वापस खो रहे हैं, जैसे रोज आदमी मृत्यु में खो जाते हैं। और रोज बच्चे पैदा होते रहते हैं। आदमी ही पैदा होते हैं, ऐसा नहीं; चांदत्तारे भी रोज पैदा होते हैं। और रोज चांदत्तारे मरते रहते हैं। पैदा होते हैं शून्य आकाश से, विलीन हो जाते हैं शून्य आकाश में। आकाश और पृथ्वी दो नहीं।

गेहूं आप खा लेते हैं, खून बन जाता है। चेतना बन जाती है। कहते हैं, पत्थर और चेतना अलग है। सिर्फ नासमझ कहते हैं। क्योंकि मिट्टी भी आपके भीतर जाकर चेतन हो जाती है। आपका शरीर मिट्टी से ज्यादा क्या है? इसलिए कल जब मर जाएंगे, तो डस्ट अनटु डस्ट, मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी। मरे हुए आदमी को हम कहते हैं कि मिट्टी उठाओ जल्दी। कल तक आदमी था, जिंदा था, जीवित था। कोई कह देता, मिट्टी हो, तो छुरा निकालकर खड़ा हो जाता। आज हम कहते हैं, मिट्टी जल्दी उठाओ।

सब मिट्टी में खो जाता है। मिट्टी से ही आया था, इसीलिए मिट्टी में खो जाता है। रोज मिट्टी ही खा रहे हैं। जिसको आप भोजन कहते हैं, मिट्टी से ज्यादा नहीं है। हां, दो-चार स्टेजेज पार करके आता है, इसलिए खयाल में नहीं आता।

अभी अमेरिका में एक वैज्ञानिक ने, एक वनस्पति-शास्त्री ने एक बहुत अनूठा प्रयोग किया और बहुत हैरान हुआ। उसने एक वट-वृक्ष लगाया एक गमले में। गमले की मिट्टी नापकर लगाया। जितना पानी उसमें डालता था, उसका नाप रखता था। वृक्ष बड़ा होने लगा। फिर जब वृक्ष पूरा बड़ा हो गया, तो वृक्ष और गमले को उसने नापा। हैरान हुआ। वृक्ष को निकालकर नापा, तो और हैरान हुआ। वृक्ष तो सैकड़ों पौंड का हो गया और गमले की मिट्टी केवल डेढ़ पौंड कम हुई। और वह भी उसका कहना है कि वृक्ष में नहीं गई। वह डेढ़ पौंड मिट्टी भी पानी डालने में, हवा में, यहां-वहां उड़ गई।

यह वृक्ष कहां से आया? यह सैकड़ों पौंड का वृक्ष! इसमें थोड़ा-सा दान मिट्टी ने दिया, बड़ा दान आकाश ने दिया, हवाओं ने दिया, पानी ने दिया।

और शायद अभी हमें पता नहीं–विज्ञान को कम से कम पता नहीं–कि इस सब दान के बाद भी एक और अज्ञात स्रोत है परमात्मा का, जो प्रतिपल दे रहा है। उसने दिया। पर उसका तो किसी पौंड में वजन नहीं नापा जा सकता। वह किसी माप के बाहर है। लेकिन वैज्ञानिक सोचते थे कि शायद यह सारी की सारी मिट्टी है, तो गलत हो गई बात। इसमें आकाश भी समाया हुआ है। इसलिए जब इसको जला देंगे, तो आकाश आकाश में चला जाएगा। पानी पानी भाप बन जाएगा। मिट्टी जितनी है, वह फिर वापस राख होकर मिट्टी में खो जाएगी।

नहीं, आकाश और पृथ्वी अलग नहीं हैं। नहीं, मिट्टी और चेतना भी अलग नहीं हैं। नहीं, पदार्थ और परमात्मा भी अलग नहीं हैं। लेकिन अज्ञानी सब चीजों को दो में करके देखते हैं–विरोध में, पोलेरिटी में। जब तक अज्ञानी दो न बना ले, तब तक देख ही नहीं पाता है। और ज्ञानी जब तक दो में एक को न देख ले, तब तक देख ही नहीं पाता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा देखता है, वही देखता है। कर्म-संन्यास भी और कर्मयोग भी एक ही परम स्थिति को उपलब्ध करा देते हैं।

प्रश्न:

भगवान श्री, पहले दिन आपने कहा कि कर्म-संन्यास अंतर्मुखी व्यक्ति की साधना है तथा निष्काम कर्म बहिर्मुखी व्यक्ति की साधना है। लेकिन लोगों का अनुभव है कि कभी वे बहिर्मुखी होते हैं, तो कभी अंतर्मुखी। इस स्थिति में कृपया समझाएं कि कोई व्यक्ति ठीक-ठीक कैसे निर्णय करे कि वह अंतर्मुखी है अथवा बहिर्मुखी है?

बहिर्मुखता का अर्थ है, कि व्यक्ति की चेतना निरंतर बाहर की तरफ दौड़ती है। वह बाहर कोई भी हो सकता है। धन हो सकता है, धर्म हो सकता है। पद हो सकता है, परमात्मा हो सकता है। इससे फर्क नहीं पड़ता। किस चीज की तरफ दौड़ती है, इससे फर्क नहीं पड़ता। बहिर्मुखी चेतना, एक्सट्रोवर्ट कांशसनेस, बाहर की तरफ दौड़ती है। भीतर से बाहर की तरफ यात्रा होती रहती है।

इसका पता लगाया जा सकता है। कभी आंख बंद करके बैठें। देखें कि चेतना कहां दौड़ रही है। अगर बहिर्मुखी हैं, तो चेतना बाहर की तरफ दौड़ती हुई पाएंगे। धन के संबंध में सोच रहे होंगे, मित्रों के संबंध में, शत्रुओं के संबंध में या परमात्मा के संबंध में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाहर, कोई और, कोई आब्जेक्ट चित्त को पकड़े रहेगा। दौड़ते रहेंगे बाहर की तरफ।

बहिर्मुखी लोगों ने ही परमात्मा को ऊपर आकाश में बना रखा है। हाथ भी जोड़ेंगे वे, तो आकाश के परमात्मा को जोड़ेंगे। पूछें, परमात्मा कहां है? तो बहिर्मुखी आकाश की तरफ देखेगा। पूछें, परमात्मा कहां है? तो अंतर्मुखी आंख बंद करके भीतर की तरफ देखेगा।

अंतर्मुखी का लक्षण यह है कि जब आप आंख बंद करके बैठें, तो पाएं कि बाहर की तरफ चित्त नहीं दौड़ता। भीतर की तरफ डूबता जा रहा है, सिंकिंग की फीलिंग होगी, जैसे कोई नदी में डूब रहा है। भीतर की तरफ डूबते जा रहे हैं। बहिर्मुखी को बाहर दौड़ने में बड़ा रस मालूम पड़ेगा। अंतर्मुखी को भीतर डूबने में बड़ा रस मालूम पड़ेगा। बहिर्मुखी को भीतर डूबना मौत जैसा मालूम पड़ेगा कि मर जाएंगे। इससे तो बेहतर है कि कुछ और कर लें। अंतर्मुखी को बाहर की बात सोचना-विचारना बहुत ही कष्टपूर्ण, बहुत भारी, बहुत बोझिल हो जाएगा। अंतर्मुखी एकांत मांगेगा, बहिर्मुखी भीड़ चाहेगा। ये लक्षण बता रहा हूं।

अंतर्मुखी को एकांत में छोड़ दो, तो प्रसन्न हो जाएगा। भीड़ में खड़ा कर दो, तो उदास हो जाएगा। अंतर्मुखी भीड़ से लौटेगा, तो उसको लगेगा, कुछ खोकर लौट रहा हूं। और एकांत से लौटेगा, तो फुलफिल्ड, कुछ भरकर लौट रहा हूं; कुछ पाकर लौट रहा हूं। बहिर्मुखी को एकांत में रख दो, तो निर्जीव हो जाएगा। फीका, पीला पड़ जाएगा। जिंदगी लगेगी बेकार है। कुछ सार नहीं। क्लब में रख दो, मंदिर में रख दो, मस्जिद में रख दो, भीड़ में ले आओ–जिंदगी वापस लौट आएगी। पत्ते लहलहा उठेंगे। फूल खिलने लगेंगे।

यह एक-एक व्यक्ति को अपने जीवन की स्थितियों में जांचते रहना चाहिए कि उसकी अंतर्धारा बाहर की तरफ बहने को आतुर रहती है या भीतर की तरफ बहने को आतुर रहती है। टघनग इन, ऐसी है उसकी धारा, भीतर की तरफ मुड़ती चली जाती है; कि ऐसी है धारा कि बाहर की तरफ दौड़ती है, टघनग आउट।

यह प्रत्येक व्यक्ति अपने को कस ले सकता है। भीड़ में अच्छा लगता है कि अकेले में? कोई नहीं होता है कमरे में, सन्नाटा होता है, तब अच्छा लगता है? कि कमरे में कोई हो, तभी अच्छा लगता है? खाली बैठे रहते हैं, तो बेचैनी मालूम पड़ती है? कि खाली बैठे रहते हैं, तो रिलैक्स्ड, शांत, मौन मालूम पड़ता है? घर में मेहमान आते हैं, तब अच्छा लगता है? कि जब जाते हैं, तब अच्छा लगता है?

इसकी थोड़ी जांच करते रहना चाहिए। नहीं मेहमान आते हैं, तो बेचैन हो जाती है तबियत, उठाकर फोन करने लगते हैं? अखबार में जरा देर हो जाती है आने में, तो बेचैनी होती है, रेडियो खोल लेते हैं? कभी अपने को अकेला छोड़ते हैं या नहीं छोड़ते हैं? कोई न कोई होना ही चाहिए–कंपेनियन, साथी, संगी, मित्र, पत्नी, पति, बच्चे–कोई न कोई होना ही चाहिए? कि कभी ऐसा भी लगता है कि कोई भी न हो? अकेला! किस चीज का स्वाद है, इसे पहचानना चाहिए।

आज के युग में सौ आदमी में मुश्किल से एक आदमी स्वभावतः अंतर्मुखी है। निन्यानबे मौके पर आप पाएंगे, आप बहिर्मुखी हैं। और अगर लगता है कि आप बहिर्मुखी हैं, तो भूलकर भी अंतर्मुखी धर्म की बातों में मत पड़ जाना, अन्यथा बहुत कठिनाई में पड़ेंगे। और उसका एक ही परिणाम होगा, फ्रस्ट्रेशन। अगर बहिर्मुखी व्यक्ति अंतर्मुखी बातों में पड़ जाए, तो वह अपने को पापी, अपराधी, गिल्टी, नारकीय समझेगा। क्योंकि वह अंतर्मुखी तो हो नहीं पाएगा। तब वह समझेगा कि हम न मालूम किन जन्मों का पाप भोग रहे हैं! ध्यान करने बैठते हैं, एक क्षण ध्यान नहीं लगता! न मालूम कहां-कहां की बातें खयाल आती हैं!

नहीं, आप अपने स्वधर्म को नहीं पहचान रहे हैं। इसलिए परेशान हैं। और चूंकि पूरब का धर्म का बड़ा हिस्सा, अगर हम कृष्ण को छोड़ दें पूरब में, तो पूरब के बुद्ध और महावीर, नागार्जुन और शंकर, सब के सब अंतर्मुखी हैं। उन सब की बातों ने पूरब के मन को अंतर्मुखी धर्म का खयाल दे दिया है। और सौ में से निन्यानबे आदमी बहिर्मुखी हैं। इसलिए बड़ी बेचैनी हो गई, बड़ी मुश्किल हो गई।

तो बहिर्मुखी आदमी सोचता है, अपने वश का नहीं है धर्म। अपने भाग्य में नहीं है। मौन तो होता ही नहीं मन; ठहरता ही नहीं। भीतर तो कुछ पता ही नहीं चलता। भीतर तो जाना होता ही नहीं। तो जरूर हम किसी पिछले जन्मों के पापों और कर्मों का फल भोग रहे हैं।

नहीं; जरूरी नहीं है। आप सिर्फ एक भ्रांति का फल भोग रहे हैं। आप ठीक से समझ नहीं पाए कि आप बहिर्मुखी हैं। अगर बहिर्मुखी हैं, तो धर्म की रूप-रेखा आपके लिए बिलकुल अलग होगी। अगर बहिर्मुखी हैं, तो आपको धर्म भी ऐसा चाहिए, जो आपकी बहिर्मुख चेतना का उपयोग कर सके। अंतर्मुखी धर्म के लिए, ध्यान; बहिर्मुखी धर्म के लिए, प्रार्थना।

कभी आपने खयाल किया कि ध्यान और प्रार्थना बड़े अलग रास्ते हैं! ध्यान का मतलब है, अंतर्मुखी का धर्म। प्रार्थना का अर्थ है, बहिर्मुखी का धर्म। ध्यान में परमात्मा की भी गुंजाइश नहीं है। ध्यान का मतलब है, अकेले, अकेले, और अकेले। ध्यान का मतलब है, उस जगह पहुंच जाना है, जहां मैं ही अकेला रह जाऊं और कुछ न बचे। और प्रार्थना का मतलब है, परमात्मा; अकेले नहीं, दो। और प्रार्थना का मतलब है, उस जगह पहुंच जाना अंततः कि परमात्मा ही बचे, मैं न बचूं। इन दोनों का अंतिम फल एक हो जाएगा। लेकिन प्रार्थना दूसरे से शुरू होगी, परमात्मा से; और ध्यान स्वयं से शुरू होगा।

इसलिए ध्यान के जो धर्म हैं, जैसे जैन, वे परमात्मा को इनकार कर देंगे। परमात्मा को इनकार करने का बुनियादी कारण यह नहीं है कि परमात्मा नहीं है। परमात्मा को इनकार करने का बुनियादी कारण यह है कि महावीर का स्वधर्म अंतर्मुखी है। महावीर इंट्रोवर्ट हैं। परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, नान एसेंशियल है। महावीर के लिए परमात्मा की कोई भी जरूरत नहीं है। इसलिए महावीर कहेंगे, मैं ही परमात्मा हूं, और कोई परमात्मा नहीं है। जब वे अंतर्मुख होकर पूरे अपने भीतर पहुंचेंगे, तो पहुंच जाएंगे वहीं, जहां बहिर्मुखी व्यक्ति परमात्मा को प्रार्थना कर-करके पहुंचता है।

खयाल किया आपने! परमात्मा की यात्रा करने वाला आखिर में कहेगा, परमात्मा है, मैं नहीं हूं। अंतर्मुखी अंत में कहेगा, मैं ही हूं, अहं ब्रह्मास्मि, और कोई परमात्मा नहीं है। दोनों एक ही जगह पहुंच गए। लेकिन उनके वक्तव्य बड़े भिन्न हैं। उनकी यात्रा बड़ी भिन्न है। भिन्न है, विरोधी नहीं। और चूंकि एक ही जगह पहुंचाती है, इसलिए जो जानते हैं, वे कहेंगे, एक ही है।

मैंने कहा आपसे कि कृष्ण जो संदेश दे रहे हैं अर्जुन को, वह बहिर्मुखी के लिए है। इसलिए इस बात की बहुत संभावना है कि आने वाले भविष्य में गीता का मूल्य रोज-रोज बढ़ता जाएगा। बुद्ध और महावीर से भी ज्यादा शायद कृष्ण भविष्य के लिए ज्यादा उपयोगी सिद्ध होंगे। क्योंकि चेतना बहिर्मुखी होती चली जाती है। आदमी बाहर, और बाहर, और बाहर भटकता है।

अगर बाहर ही भटकना है, तो परमात्मा पर भटके, प्रार्थना का इतना ही मतलब है। बाहर ही भटकना है, धन पर भटकते हैं, धन पर न भटकें, परमात्मा पर भटकें। बाहर ही चेतना जाती है, मित्र ही खोजना है, तो शरीरधारी मित्र को न खोजें, अशरीरी मित्र को खोज लें। बिना कंपेनियन के नहीं चलता, तो साधारण साथी मत खोजें; परम साथी खोज लें। अगर पढ़ना ही है अखबार, तो अखबार न पढ़कर गीता ही पढ़ लें। अगर सुनना ही है संगीत, तो जरूरी क्या है कि फिल्म का संगीत सुनें! मीरा का पद या कबीर का पद सुन लें। बाहर ही जाएं, लेकिन बाहर की यात्रा को ही धर्म की यात्रा बना लें। तब आप अपराधी अनुभव नहीं करेंगे और ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कोई पाप कर रहा हूं।

अगर बहिर्मुखी धर्म में कोई अंतर्मुखी व्यक्ति फंस जाए, तो वह भी दिक्कत में पड़ेगा। वह अगर परमात्मा के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो, आंख बंद करेगा, परमात्मा खो जाएगा। मूर्ति नदारद हो जाएगी, वह अकेला ही रह जाएगा। वह भी पछताएगा। वह भी कहेगा कि मैं कैसा पापी हूं! परमात्मा का इतना ध्यान करता हूं, लेकिन भीतर मूर्ति नहीं बनती।

अंतर्मुखी के भीतर परमात्मा की मूर्ति नहीं बनेगी, सिर्फ बहिर्मुखी के भीतर बन सकती है। अंतर्मुखी तो तत्काल भीतर चला जाएगा, मूर्ति सब बाहर रह जाएंगी। परमात्मा की मूर्ति भी बाहर रह जाएगी। मूर्ति मात्र बाहर रह जाएगी। क्योंकि मूर्त का अर्थ है, बाहर। अमूर्त ही रह जाएगा। तो बेचारा वह भी तकलीफ में पड़ेगा, वह भी घबड़ाएगा।

इसलिए अगर क्रिश्चियनिटी में या इस्लाम में अंतर्मुखी व्यक्ति पैदा हो जाए, तो मुश्किल में पड़ जाता है, क्योंकि वे धर्म बहिर्मुखी हैं। अगर महावीर के धर्म में बहिर्मुखी पैदा हो जाए, तो मुश्किल में पड़ जाता है, क्योंकि वह धर्म अंतर्मुखी है।

इसलिए मोहम्मद के पीछे चलने वाले लोगों ने नासमझी से मंसूर जैसे अंतर्मुखी को काटकर दो टुकड़े कर दिया। क्योंकि मंसूर उनकी समझ में नहीं पड़ा। मंसूर कहने लगा, अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक, मैं ही ब्रह्म हूं। उन्होंने कहा, पागल हो गए हो! कभी भूलकर यह मत कहना कि तुम परमात्मा हो। कहां परमात्मा और कहां हम नाचीज? यह तो कुफ्र है। यह तो तुम काफिर की बात बोल रहे हो। तुम परमात्मा होने का दावा नहीं कर सकते हो। लेकिन मंसूर ने कहा कि मेरे अलावा और कौन परमात्मा होने का दावा कर सकता है! मैं कहता हूं, तुम भी परमात्मा होने का दावा कर सकते हो। तब तो उन्होंने कहा कि यह हद की बात कर रहा है! यह आदमी पागल हो गया।

बहिर्मुखी व्यवस्था है धर्म की, तो अंतर्मुखी व्यक्ति पागल मालूम होने लगेगा। मंसूर को काट डाला, मार डाला। और कठिनाई यह है कि बहिर्मुखी व्यक्ति कभी भी अंतर्मुखी की भाषा नहीं समझ पाएगा। अंतर्मुखी की भाषा बहिर्मुखी नहीं समझ पाएगा। उन दोनों की भाषाएं बड़ी दूर हैं। बड़ी कठिनाई है।

इसलिए मैंने कहा कि बहिर्मुखता के लिए निष्काम कर्मयोग; अंतर्मुखता, इंट्रोवर्शन के लिए कर्म-संन्यास।

असल में जो व्यक्ति अंतर्मुखी है, उसे करने की इच्छा ही नहीं होती। उसे कर्म का भाव ही पैदा नहीं होता। क्योंकि कर्म का अर्थ ही बाहर जाकर करना है। भीतर तो कर्म हो नहीं सकता। भीतर कर्म का कोई उपाय नहीं है। एक्शन बाहर ही जाकर करना पड़ेगा। भीतर कोई कर्म नहीं हो सकता। भीतर तो सिर्फ चैतन्य हो सकता है, कांशसनेस हो सकती है, एक्शन नहीं हो सकता। और अगर किसी को कर्म करना हो, तो बाहर ही हो सकता है, भीतर नहीं हो सकता। भीतर आप क्या कर्म करिएगा? भीतर सिर्फ चेतना हो सकती है।

इसलिए जो व्यक्ति अंतर्मुखी चेतना में साधना कर रहा हो, वह धीरे-धीरे कर्म से हटता चला जाएगा। कहना ठीक नहीं है कि कर्म से हटता चला जाएगा, धीरे-धीरे कर्म उससे हटते चले जाएंगे।

अब जैसे कि रमण हैं। सारा कर्म गिर जाएगा। बस उठने-बैठने के, खाने-पीने के, इतने ही अत्यंत अत्यल्प, जीवन के लिए बिलकुल ही अनिवार्य कर्म शेष रह जाएंगे। वह भी रमण जैसा आदमी इस तरह करेगा, जैसे कि न करना पड़ता, तो अच्छा! अगर बिना उठे चल जाता, तो अच्छा। देखी है रमण की फोटो! वह एक ही गद्दी पर बैठे रहेंगे दिनभर। वह तो हाथ ही मुश्किल में पड़ जाएगा टिका-टिका और हाथ ही कहेगा कि अब बहुत हो गया, जरा करवट बदल लो, तो वे करवट बदल लेंगे।

एक्सट्रोवर्ट को यह बात बिलकुल समझ में नहीं आएगी कि यह आदमी आलसी है! यह क्या कर रहा है? यह तो तमस हो गया, यह तो आलस्य हो गया। कुछ कर्म करो! लेकिन ऐसे व्यक्ति के भीतर कर्म उठता ही नहीं। वह हंसेगा। सब शांत हो गया भीतर। भीतर लौट गई धारा। वह अपने में लीन हो गया। कर्म तक पहुंचने की कोई संभावना नहीं रही। कोशिश भी करे, तो नहीं पहुंच सकता।

बहिर्मुखी उलटी हालत में होता है। बहिर्मुखी एक जगह बैठ जाए, तो टांग ही हिलाता रहेगा, कुछ नहीं तो। कुछ भी नहीं हिलाने का मौका है, तो बैठकर टांग ही हिला रहा है!

बुद्ध के सामने एक दिन एक आदमी बैठकर टांग हिला रहा है। बोल रहे हैं बुद्ध। उन्होंने बोलना बीच में बंद कर दिया। उन्होंने कहा, यह टांग क्यों हिला रहे हो? उस आदमी ने कहा, आप भी कहां की फिजूल की बात में आ गए! यों ही हिला रहे हैं। हमको कुछ पता ही नहीं था। बुद्ध ने कहा, तेरी टांग, और तुझे पता नहीं, और हिल रही है! टांग किसकी है यह? उस आदमी ने कहा, है तो मेरी। फिर तू क्यों हिला रहा है? उसने कहा, आप बड़ा कठिन सवाल पूछते हैं! इतना ही कह सकता हूं कि बिना हिलाए मैं रह नहीं सकता। कुछ न कुछ हिलाता ही रहूंगा। रात में भी बड़बड़ाता हूं, नींद में भी बोलता हूं।

महावीर जैसा आदमी एक ही करवट सोता है रातभर। करवट नहीं बदलेंगे रातभर। रातभर जहां पैर है वहीं पैर, जहां हाथ है वहीं हाथ! रात में एक दफा करवट न बदलेंगे। कोई पूछता है महावीर को या बुद्ध को…। बुद्ध भी करवट नहीं बदलते रातभर। वे कहते, अकारण! एक ही करवट से चल जाता है।

अब यह जो भाव दशा है। हम तो जागे में भी करवट बदलते रहते हैं। वे कहते हैं, नींद में एक ही करवट से…। एक करवट भी जैसे मजबूरी है! यानी एक करवट के बिना तो सो ही नहीं सकते। एक करवट तो लेनी ही पड़ेगी, इसलिए लेते हैं। मिनिमम, जो न्यूनतम संभव है, वह लेते हैं। आप कितनी करवट लेते हैं? मैक्जिमम! जितनी ज्यादा संभव है। बिस्तर भी थक जाता है रातभर!

अपने को पहचानें। यदि आपकी चित्त-दशा कर्म की तरफ दौड़ने वाली है, तो आपका मार्ग होगा, निष्काम कर्म। अगर आपकी चित्त-दशा अकर्म की तरफ दौड़ने वाली है, तो आपका मार्ग होगा, कर्म-संन्यास। दोनों से ही पहुंच जाते हैं। दोनों से ही लोग पहुंचते रहे हैं। दोनों से ही सदा पहुंचते रहेंगे।

लेकिन प्रत्येक युग में पलड़ा बदल जाता है। कभी अंतर्मुखता की धारा होती है जगत में, तो अंतर्मुखी धर्म निर्मित होते हैं। और जितने धर्म निर्मित हुए भारत में, वे करीब-करीब सब अंतर्मुखी हैं। वही धारा थी। भारत के बाहर जितने धर्म निर्मित हुए, वे सब बहिर्मुखी हैं। चाहे इस्लाम हो और चाहे ईसाइयत हो, धारा बहिर्मुखता की थी। इसलिए ईसाइयत और इस्लाम में ध्यान की धारणा विकसित न कर पाए वे। प्रेयर, प्रार्थना से आगे बात नहीं गई। प्रार्थना से काम चल गया। ध्यान की धारणा तो अंतर्मुखी साधकों ने विकसित की।

आप अपने लिए खोज लें। और कठिन नहीं है खोजना। जांच बड़ी आसान है। इसलिए और भी आसान है कि सौ में से निन्यानबे मौके पर बहिर्मुखी होंगे आप। एकाध आदमी अंतर्मुखी होता है। लेकिन दोत्तीन जांच-परख के लिए नियम बना लें: अकेले में कैसा लगता है, भीड़ में कैसा लगता है? स्वाद क्या है दोनों बातों का? अकेले में स्वाद मुंह का कड़वा हो जाता है कि मिठास से भर जाता है? भीड़ में स्वाद मधुर हो जाता है कि तिक्त हो जाता है? कर्म में अच्छा लगता है कि विश्राम में डूब जाते हैं, तो अच्छा लगता है?

ध्यान रहे, विश्राम का मतलब आलस्य नहीं है। आलस्य और विश्राम में बड़ा फर्क है। आलसी विश्राम में नहीं होता, सिर्फ श्रम से बचाव में होता है; एस्केप में होता है। विश्राम तो बड़ी पाजिटिव स्थिति है, निगेटिव नहीं है। विश्राम तो बड़ी जीवंत अवस्था है।

बुद्ध की मूर्ति देखें, तो आलसी नहीं मालूम पड़ते। चेहरे पर चमक है। आंखों में ज्योति है। शरीर पर आलस्य की छाया नहीं है। शरीर पर जागती हुई सुबह की रोशनी है। महावीर को देखें, खड़े हुए उनकी मूर्ति को देखें, तो भीतर से प्राण फूटे पड़ रहे हैं, बहे जा रहे हैं। आलस्य नहीं है, विश्राम है।

आलस्य, कहना चाहिए, चमकहीन होता है। विश्राम चमक से भरा होता है। विश्राम–भीतर तो झरना लबालब भरा है ऊर्जा का, लेकिन कर्म की इच्छा नहीं है। आलस्य–कर्म की तो इच्छा है, लेकिन शक्ति नहीं है, ऊर्जा नहीं है, इसलिए पड़े हैं! कर्म की तो बड़ी इच्छा है। दिल तो अपना भी है कि सिकंदर हो जाते, कि इंदिरा गांधी हो जाते। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाकी ऊर्जा नहीं है; भीतर एनर्जी नहीं है। पड़े हैं अपने बिस्तर से टिके हुए। ऊर्जा नहीं है, शक्ति नहीं है। इरादे तो बहुत हैं कि जीत लें दुनिया को। इरादे कर रहे हैं आंख बंद करके वहीं दुनिया को जीतने के। आलस्य में पड़े हुए लोग भी सिकंदर से कम यात्राएं नहीं करते! लेकिन भीतर ही भीतर करते हैं, बाहर नहीं। आलस्य और विश्राम में भेद है।

कर्म-संन्यास विश्राम की अवस्था है, आलस्य की नहीं। कर्मयोग और कर्म-संन्यास दोनों के लिए शक्ति की जरूरत है। दोनों के लिए। आलसी दोनों नहीं हो सकता। आलसी कर्मयोगी तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि कर्म करने की ऊर्जा नहीं है। आलसी कर्मत्यागी भी नहीं हो सकता, क्योंकि कर्म के त्याग के लिए भी विराट ऊर्जा की जरूरत है। जितनी कर्म को करने के लिए जरूरत है, उतनी ही कर्म को छोड़ने के लिए जरूरत है। हीरे को पकड़ने के लिए मुट्ठी में जितनी ताकत चाहिए, हीरे को छोड़ने के लिए और भी ज्यादा ताकत चाहिए। देखें छोड़कर, तो पता चलेगा। एक रुपए को हाथ में पकड़ें। पकड़े हुए खड़े रहें सड़क पर, और फिर छोड़ें। पता चलेगा कि पकड़ने में कम ताकत लग रही थी, छोड़ने में ज्यादा ताकत लग रही है।

कर्म-संन्यास भी शक्ति मांगता है। और कर्मयोग तो शक्ति मांगता ही है। आलसी के लिए दोनों मार्ग नहीं हैं। आलसी, अगर हम ठीक से कहें, तो थर्ड सेक्स है, नपुंसक। बहिर्मुखी भी नहीं है वह, अंतर्मुखी भी नहीं है; बीच की देहली पर खड़े हैं! थर्ड सेक्स, न पुरुष हैं, न स्त्री। न अंतर्मुखी, न बहिर्मुखी। बीच में खड़े हैं। उनकी कोई भी यात्रा नहीं है। न वे भीतर जाते, न वे बाहर जाते। वे कहीं जाते ही नहीं। वे अपनी देहली पर बैठे हुए हैं! भीतर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। जाने के लिए तो हिम्मत चाहिए, साहस चाहिए। यात्रा कोई भी हो, कहीं से भी जाना हो, बिना ऊर्जा, बिना साहस के कोई यात्रा संभव नहीं है।

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।। 6।।

परंतु हे अर्जुन! निष्काम कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है। और भगवत् स्वरूप को मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

फिर पुनः कृष्ण कहते हैं! शायद फिर अर्जुन की आंख में झलक लगी होगी कि जब दोनों ही मार्ग ठीक हैं, और जब कर्म को छोड़ने वाला भी वहीं पहुंच जाता है, जहां कर्म को करने वाला। तो अर्जुन के मन को लगा होगा, फिर कर्म को छोड़ ही दूं। छोड़ना चाहता है। छोड़ना चाहता था, इसीलिए तो यह सारा संवाद संभव हो सका है। सोचा होगा, कृष्ण अब बिलकुल मेरे अनुकूल आए चले जाते हैं। अब तो वही कहते हैं मेरे मन की, मनचाही, मनचीती बात। यही तो मैं चाहता हूं कि छोड़ दूं सब। और जब छोड़ने से भी पहुंच जाते हैं वहां, तो इस व्यर्थ के युद्ध के उपद्रव को मैं मोल क्यों लूं!

ये सब सपने उसकी आंखों में फिर तिर गए होंगे। ये सब उसकी आंखों में भाव फिर आ गए होंगे। उसे फिर जस्टीफिकेशन मिला होगा। उसे फिर लगा होगा कि फिर मैं ही ठीक था, फिर कृष्ण क्यों इतनी देर तक लंबी बातचीत किए! जब मैंने गांडीव रखा था और शिथिल गात होकर बैठ गया था, तभी मुझसे कहते कि हे अर्जुन, हे महाबाहो, तू तो कर्म-संन्यासी हो गया है। और कर्म-संन्यास से भी लोग वहीं पहुंच जाते हैं, जहां कर्म करने वाले पहुंचते हैं। प्रसन्न हुआ होगा मन में कहीं। जो चाहता था, वही करीब दिखा होगा। वही कृष्ण के मुंह से भी उसे सुनाई पड़ा होगा। वही कृष्ण की बात में भी ध्वनित हुआ होगा।

उसे देखकर ही कृष्ण तत्काल कहते हैं, लेकिन अर्जुन, जब तक आकांक्षा न छूट जाए और कर्म में निष्कामता न सध जाए, तब तक कोई व्यक्ति कर्म को छोड़ना आसान नहीं पाता है।

फिर दुविधा उन्होंने खड़ी कर दी होगी! अर्जुन से फिर छीन लिया होगा उसका मिलता हुआ आश्वासन। सांत्वना बंधती होगी, कंसोलेशन उतर रहा होगा उसकी छाती पर, वह फिर हटा दिया होगा। कहा कि नहीं, आकांक्षा छोड़कर कर्म का जो अभ्यास न कर ले, वह कर्म भी छोड़ पाए, यह बहुत कठिन है। क्योंकि जो आकांक्षा नहीं छोड़ पाता, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! जो आकांक्षा तक छोड़ नहीं सकता, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! और जो आकांक्षा नहीं छोड़ सकता और कर्म छोड़कर भाग जाएगा, बहुत डर तो यही है कि सिर्फ कर्म ही छूटेगा, आकांक्षा न छूटेगी। खतरा है। कर्म छोड़ना एक लिहाज से आसान है।

एक चोर है। हम जब उसे जेल में बंद कर देते हैं, तो चोरी का कर्म छूट जाता है। कर्म-संन्यास हो गया? कर्म तो छूट गया। चोरी तो नहीं कर पाता है अब। लेकिन चोर होना बंद नहीं होता। चोर होना जारी है। चोर वह अब भी है। प्रतीक्षा कर रहा है, कब अवसर मिले। शायद और बड़ा चोर होकर बाहर निकलेगा।

अब तक तो यही हुआ है। अब तक कोई कारागृह किसी चोर को चोरी से मुक्त नहीं करा पाया है, सिर्फ निष्णात चोर बनाकर बाहर भेजता है–ट्रेंड! क्योंकि और सदगुरु वहां उपलब्ध हो जाते हैं! और भी गहन ज्ञानी, अनुभवी पुरुष! और चोर को भी पता चल जाता है कि यह चोरी का दंड नहीं मिल रहा है। यह दंड तो चोरी ठीक से न करने का मिल रहा है। अभ्यास करूं, और-और साधूं कुशलता, तो फिर यह भूल नहीं होगी।

कोई अदालत, कोई जेलखाना अब तक किसी चोर को चोरी से नहीं छुड़ा पाया। कर्म से छुड़ा देता है। वही भ्रम है, जो कई बार कर्मत्यागी भी कर बैठता है

कर्मत्यागी सोचता है कि ठीक है, बाजार में बैठता हूं, तो लोभ पकड़ता है। तो बाजार छोड़ दूं। जैसे कि बाजार में लोभ पैदा करने का कोई उपाय हो! लोभ तो होता है भीतर। बाजार में तो लोभ नहीं होता। सोचता है, बाजार में लोभ पकड़ता है, बाजार छोड़ दूं। स्त्री को देखकर वासना जगती है, स्त्री की तरफ पीठ कर लूं। पद को देखकर मन होता है कि पद पर चढ़कर बैठ जाऊं, तो ऐसी जगह चला जाऊं, जहां पद ही न हो। तो कोई कर्म को छोड़कर भाग सकता है। सौ में से निन्यानबे मौके पर डर इस बात का है कि कर्म तो छूट जाए और आकांक्षा और वासना न छूटे। तब वह जंगल के झाड़ के नीचे बैठकर भी वही आदमी होगा, जो बाजार में था। आदमी में कोई क्वालिटेटिव, कोई गुणात्मक अंतर नहीं पड़ेगा। परिस्थिति बदल जाएगी, मनःस्थिति नहीं बदलेगी।

मनःस्थिति बदलनी बड़ी कठिन बात है! और जो मन:स्थिति बदल सकता है, कृष्ण कहते हैं, वह छोड़कर भी क्यों जाएं? वह यहां भी बदल सकता है। और जो यहां नहीं बदल सकता, क्या भरोसा है कि वह वहां बदल सकेगा? जाऊंगा तो मैं ही, मैं चाहे बाजार में रहूं और चाहे हिमालय पर चला जाऊं। बाजार तो यहीं रह जाएगा बंबई में, मैं हिमालय चला जाऊंगा। लेकिन मैं तो अपने साथ ही चला जाऊंगा। मेरे सारे रोग, मेरे सारे मन की रुग्णताएं मेरे साथ चली जाएंगी। उनको यहां नहीं छोड़कर जा सकूंगा।

हां, अवसर हो सकता है यहां छूट जाए। हो सकता है, दर्पण यहां छूट जाए, लेकिन चेहरा तो मेरा मेरे साथ चला जाएगा। और यह भी हो सकता है कि दर्पण न हो, तो चेहरा दिखाई न पड़े। लेकिन इससे चेहरा नहीं है, यह तो नहीं है। चेहरा तो है ही। कभी किसी झील में दिखाई पड़ जाएगा। कभी किसी पानी के झरने में दिखाई पड़ जाएगा। कभी कोई राहगीर गुजरता होगा, उसकी आंख में दिखाई पड़ जाएगा।

सुना है मैंने कि एक संन्यासी तीस वर्ष तक हिमालय पर था। तीस वर्ष जिस चीज को छुड़ाने आया था, वह कभी की छूट गई। फिर आश्वस्त हो गया। अहंकार से पीड़ित था, उसी से बचने सब छोड़कर हिमालय आया था। गल गया, हिमालय की ठंड! नहीं बचा होगा। लेकिन कहीं ठंड से, सर्दी से अहंकार गलते हैं? हिमालय की ऊंचाई अहंकार न चढ़ पाया होगा! इतनी ऊंचाई पर थक गया होगा, सांस भर गई होगी! नीचे ही रुक गया होगा, संन्यासी ऊपर चला गया होगा! लेकिन अहंकार कहीं थकता है ऊंचाइयां चढ़ने से?

सच तो यह है कि अहंकार ऊंचाइयां चढ़ने से बड़ा प्रसन्न होता है। अहंकार ऊंचाइयां चढ़ने की आकांक्षा का नाम है। जितना ऊंचा शिखर हो, उतना ही उसका दम फूलता नहीं और मजबूत होता है।

लेकिन तीस साल अहंकार की रेखा भी पता न चलती थी। भरोसा हो गया पक्का। बहुत तरह से खोजकर देखा, कहीं अहंकार न था। फिर उसने सोचा, अब क्या डर है! अब वापस चलूं। नीचे उतरकर एक गांव के पास रहने लगा। गांव के लोग आने लगे। दर्पण वापस लौट आए। कोई पैर छूने लगा, कोई महात्मा कहने लगा। भीतर कोई चीज जो तीस साल से बिलकुल पता न थी, धीरे-धीरे उठने लगी। पर अभी भी उसे पता नहीं है, क्योंकि पहचान भूल गई, रिकग्नीशन भूल गया। तीस साल से देखा नहीं, एकदम से समझ में नहीं आता कि क्या हो रहा है। लेकिन कुछ हो रहा है। कोई चीज, कोई गर्मी, कोई ऊष्मा चारों तरफ खून में फैलती चली जाती है।

फिर बड़ा मेला भरता था, कुंभ का भरता होगा। कुंभ का मेला महात्माओं की परीक्षा के लिए बड़ी अच्छी जगह है!

गांव के लोगों ने कहा, इतने बड़े महात्मा और कुंभ के मेला नहीं चलेंगे, तो नहीं चलेगा। बड़ा महात्मा और कुंभ के मेला न जाए, ऐसा हो नहीं सकता। चलना ही पड़ेगा। फिर महात्मा ने कहा, अब डर भी क्या है! जिस चीज से डरते थे, वह तो खतम ही हो चुकी। चल सकते हैं।

लेकिन यह खयाल भी आ जाना कि मेरा अहंकार खतम हो चुका है, बड़ा गहरा अहंकार है। इसका उसे पता नहीं। चल पड़ा। जब कुंभ के मेले में पहुंचे, भीड़ थी भारी, महात्मा को कोई पहचानता न था। और महात्मा को पहचानते न हों आप, तो महात्मा और गैर-महात्मा में कोई फर्क होता है? पहचान का ही फर्क होता है। ऐसा नहीं कि महात्मा और गैर-महात्मा में फर्क नहीं होता, लेकिन वह भीतरी फर्क है, वह आपकी पकड़ में नहीं आता। आप तो पहचान से ही पकड़ते हैं। अगर बगल में एक महात्मा बैठा हो और आप पहचानते न हों, तो बिलकुल नहीं पता चलेगा कि महात्मा बैठा है। पहचानते हों, तो पता चलेगा कि महात्मा बैठा है। पहचानते हों कि चोर है, तो पता चलेगा कि चोर बैठा है। बेईमान है, तो बेईमान बैठा है। भीतर जो है, वह तो बहुत गहरे में है, उसका आपको पता नहीं चलता। उसका तो खुद को भी पता चल जाए, तो काफी है। दूसरे को पता चलना तो बहुत मुश्किल है।

वहां कोई पहचानता नहीं था महात्मा को। गांव के थोड़े-से लोग पहचानते थे। वहां भारी भीड़; धक्का-मुक्की हो गई। किसी ने पैर पर जूता रख दिया महात्मा के। महात्मा को गुस्सा आ गया। उचककर उसकी गर्दन पकड़ ली और कहा, गर्दन दबा दूंगा! जानता नहीं मैं कौन हूं!

तब अचानक खयाल आया कि तीस साल विलीन हो गए एकदम! तीस साल पहले का आदमी वापस खड़ा हो गया। तीस साल पहले यही आदमी था वह, कि कोई पैर पर जूता रख देता, तो गर्दन पकड़ लेता और कहता, जान से मार डालूंगा। जानता नहीं मैं कौन हूं! वे तीस साल बीच के एकदम तिरोहित हो गए, जैसे थे ही नहीं। जैसे फिल्म में सिनेमा के पर्दे पर कैलेंडर एकदम से उड़ता है न; तारीख एकदम बदलती चली जाती है। तीन घंटे में कई साल बिताने पड़ते हैं। एक सेकेंड में तीस साल का कैलेंडर एकदम हवा में उड़ गया! वापस वह आदमी वहीं खड़ा हो गया, जिस दिन हिमालय गया था–अहंकार अपनी जगह, गर्दन पर हाथ कसे हुए!

लेकिन फिर उसने झुककर उस आदमी के पैर पड़ लिए, जिसकी गर्दन पकड़ी थी। वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, यह क्या करते हो! उस संन्यासी ने कहा कि आपने मुझ पर बड़ी कृपा की जो मेरे पैर पर जूता रख दिया। हिमालय तीस साल तक जो मुझे न बता पाया, वह आपके जूते ने मुझे बता दिया। तीस साल हिमालय में मुझे पता न चला कि अहंकार है, वह एक आदमी की जरा-सी चोट से पता चल गया। आपकी बड़ी अनुकंपा है। बड़ी कृपा है।

कृष्ण कहते हैं, कर्म से छोड़कर भाग जाना तो कठिन नहीं है, लेकिन अगर आकांक्षा न गई हो और अगर निष्काम कर्म न सध गया हो, तो कर्म छोड़ने से भी कुछ होगा नहीं।

अर्जुन की आंख में देखकर उन्होंने फिर बात खड़ी की होगी। और अर्जुन से कहा होगा, ऐसा मत सोच कि मैं कह रहा हूं कि तू छोड़कर चला जा। पहले तू निष्काम कर्म साध। यदि निष्काम कर्म सध जाए, तो कर्मत्याग भी कर सकता है।

लेकिन बड़े मजे की बात यह है कि अगर निष्काम कर्म सध जाए, तो कर्मत्याग करना, न करना बराबर है। कोई भेद नहीं है। फिर वह व्यक्ति की अंतर्मुखता या बहिर्मुखता पर निर्भर करेगा। अगर निष्काम कर्म सध जाए, तो बहिर्मुखी व्यक्ति कर्म को करता चला जाएगा, अंतर्मुखी व्यक्ति कर्म को अचानक पाएगा कि वे बंद हो गए हैं। लेकिन वासना से मुक्ति तो सधनी ही चाहिए, निष्कामता तो सधनी ही चाहिए। वह तो अनिवार्य शर्त है। उससे कोई बचाव नहीं है। इसलिए कृष्ण ने पुनः अर्जुन को याद दिला दी।

कृष्ण पूरे समय अर्जुन को पढ़ते चलते हैं। और गुरु वही है, जो शिष्य को पढ़ ले। शिष्य तो गुरु को कैसे पढ़ेगा! वह तो बहुत मुश्किल है, असंभव है। अगर शिष्य गुरु को पढ़ सके, तो वह खुद ही गुरु हो गया। उसके लिए अब किसी गुरु की जरूरत नहीं है। गुरु वही है, जो शिष्य को पढ़ ले खुली किताब की तरह, उसके एक-एक अध्याय को उसके जीवन के; उसके मन की एक-एक पर्त को झांक ले। गुरु वह नहीं है कि शिष्य जो कहे, वह उसे बता दे। गुरु वह है, जो वही बताए, जो शिष्य के लिए जरूरी है। गुरु वह नहीं है, जो शिष्य के लिए सिर्फ सिद्धांत जुटा दे। गुरु वह है, जो शिष्य के लिए ट्रांसफार्मेशन, रूपांतरण, क्रांति का मार्ग व्यवस्थित कर दे।

अर्जुन तो यही चाहता है कि कृष्ण कह दें कि अर्जुन, छोड़ दे, तो अर्जुन प्रफुल्लित हो जाए। और सारी दुनिया में डंके से कह दे कि कोई मैंने छोड़ा, ऐसा मत कहना। असल में अर्जुन चाहता है कि कृष्ण की गवाही मिल जाए, तो वह सारी दुनिया को कह सके कि मैं कोई कायर नहीं हूं। डर तो उसे यही है गहरे में, बहुत गहरे में। क्षत्रिय है वह। एक ही डर है उसे कि कोई कायर न कह दे। इसलिए वह फिलासफी की बातें कर रहा है। वह यह कह रहा है कि मुझे कोई दार्शनिक सिद्धांत मिल जाए, जिसकी आड़ में मैं पीठ दिखा सकूं और मैं दुनिया से कह सकूं कि मैं कोई कायर नहीं हूं। मैंने कर्म-त्याग कर दिया है। और अगर तुम कहते हो कि मैं गलत हूं, तो पूछो कृष्ण से। कृष्ण की गवाही से छोड़ा है। ये गवाह हैं।

लेकिन उसे पता नहीं कि वह जिस आदमी को गवाह बना रहा है, उस आदमी को गवाह बनाना बहुत आसान नहीं है। और जिस आदमी से वह अपनी कायरता के लिए, भागने के लिए, एस्केप के लिए, पलायन के लिए सहारे खोज रहा है, उस आदमी से इस तरह के सहारे खोजने संभव नहीं हैं। कृष्ण उसे क्रांति दे सकते हैं, सहारा नहीं दे सकते। कृष्ण उसे रूपांतरित कर सकते हैं, लेकिन पलायन नहीं करवा सकते। कृष्ण उसे नया व्यक्तित्व दे सकते हैं, लेकिन उसके भीतर छिपी हुई कमजोरियों के लिए आड़ नहीं बन सकते हैं।

इसलिए बार-बार कृष्ण जब भी–जब भी–कर्म-संन्यास की कोई बात कहते हैं, अर्जुन प्रफुल्लित मालूम होता है। वह कहता है, यही, यही! बिलकुल ठीक कह रहे हैं।

ऐसा मैं देखता हूं रोज। रोज मैं देखता हूं, साधुओं और संन्यासियों और गुरुओं के पास जो लोग बैठे होते हैं, वे कहते हैं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं महाराज! वे उसी वक्त कहते हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं, जहां उनको कोई सहारा मिलता है; जहां उन्हें लगता है कि ठीक, अपनी बेईमानी में कुछ सहारा मिल रहा है; अपनी चोरी में कुछ सहारा मिल रहा है। अगर कोई महात्मा समझाता है कि आत्मा तो शुद्ध-बुद्ध है, आत्मा ने कभी पाप ही नहीं किए; तो पापी बड़े सिर हिलाते हैं। वे कहते हैं, बिलकुल ठीक! यही तो हम कहते हैं। पापी को बड़ा रस आता है कि बिलकुल ठीक। महात्मा भी यही कह रहे हैं।

इसलिए महात्माओं के पास अगर पापी इकट्ठे हो जाते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन हिम्मत कृष्ण जैसी महात्माओं में जब तक न हो, तब तक सुनने वालों का कोई भी लाभ नहीं होता, हानि होती है। और मेरा ऐसा अनुभव है कि सौ में निन्यानबे महात्मा सुनने वालों को हानि पहुंचाते हैं, सहारा बन जाते हैं।

कृष्ण सहारा नहीं बनेंगे। इसलिए जरा-सी भी कोई बात ऐसी होती है कि अर्जुन उसको मैनिपुलेट कर सके, उसको घुमा-फिराकर अपना सहारा बना सके, कृष्ण फौरन छिन-भिन्न कर देते हैं; तलवार उठाकर काट देते हैं। वे कहते हैं, इस भूल में मत पड़ जाना। यह मत समझ लेना तू कि कर्म छोड़ना आसान है। जब तक निष्कामता न सध जाए, तब तक कर्म छोड़ना बहुत कठिन है।

और दूसरी बात यह कहते हैं कि अर्जुन, निष्काम कर्म सरल है। जो अर्जुन को कठिन मालूम पड़ रहा है, उसे वे सरल कहते हैं; और जो अर्जुन को सरल मालूम पड़ रहा है, उसे वे कठिन कहते हैं। इसे खयाल में रख लें।

अर्जुन को यही सरल मालूम पड़ रहा है, कर्म-त्याग बिलकुल सरल है। पत्नी को छोड़कर भाग जाना कोई कठिन बात है! दूकान को छोड़कर भाग जाना कोई बहुत कठिन बात है! जब कि दिवाला भी निकल रहा हो, तब तो और भी सरल है, तब तो कर्म-त्याग बिलकुल ही आसान है! दुख की घड़ी में कर्म को छोड़ देना कोई कठिन बात है? सुख की घड़ी में कोई छोड़ता नहीं।

यह अर्जुन कभी भी नहीं आज तक इसके पहले–यह कोई अर्जुन की कृष्ण की पहली मुलाकात नहीं है। जिंदगीभर के साथी हैं। गीता को अब तक पैदा होने का मौका नहीं आया था। अर्जुन अब तक ऐसे उपद्रव में, ऐसी क्राइसिस, ऐसे संकट में पड़ा नहीं था। और वह तो जरा दुविधा हो गई, नहीं तो वह संकट में पड़ता नहीं।

अगर दुश्मनी साफ-साफ होती, जैसे कि हिंदू-मुसलमानों का दंगा हो जाता है, तो कोई दिक्कत नहीं होती। क्योंकि उस तरफ न कोई अपनी पत्नी का भाई होता, न कोई मामा होता, न कोई गुरु होता, न कोई रिश्तेदार होता। हिंदू-मुस्लिम का दंगा हो जाता, तो दंगा बड़ा मजेदार होता–सीधा। कोई झगड़ा नहीं। कोई कांसिएंस को अर्जुन की दिक्कत न होती, अगर हिंदू-मुस्लिम का दंगा होता।

लेकिन यह दंगा हिंदू-मुस्लिम का नहीं, एक परिवार का था, एक घर का था। उस तरफ भी अपने लोग थे, जिनके साथ खेले और बड़े हुए, जिनसे सीखे और जिनकी गोद में बैठे। गुरु थे, पितामह थे, भाई थे, मित्र थे–सब अपने थे। उस तरफ भी अपने थे, इस तरफ भी अपने थे। दोनों तरफ परिवार बंटकर खड़ा था।

इसलिए प्रासांगिक रूप से आपसे कहता हूं, अगर कभी दुनिया में हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्धों के दंगे मिटाने हों, तो जब तक हिंदू-मुसलमान परिवार नहीं बन जाते, तब तक दंगे नहीं मिट सकेंगे। जब उस तरफ भी अपना कोई मरने को हो, तभी मरने से रोका जा सकता है, नहीं तो नहीं रोका जा सकता। इसलिए धार्मिक लोग शादी नहीं होने देते हैं एक-दूसरे में। क्योंकि शादी हो गई, तो दंगे नहीं करवाए जा सकते। अगर मेरी पत्नी मुसलमान के घर में है, और मेरे भाई की पत्नी ईसाई के घर में है, और मेरी बहन किसी जैन के घर में है, और मेरी मां यहूदी है, तो दंगा करना बहुत मुश्किल मामला हो जाएगा। दंगा होगा किससे? दंगा हो सकता है, क्योंकि चीजें कटी हैं।

अर्जुन क्राइसिस में पड़ गया, क्योंकि परिवार सब बंटा हुआ सामने खड़ा था। यहां भी अपने थे। जीतेंगे तो, हारेंगे तो, मरेंगे अपने ही। कुछ भी हो, अपने मर जाएंगे। इससे बेचैनी खड़ी हो गई। इसलिए मुश्किल में पड़ गया। इसलिए अब वह राह खोजने लगा, ज्ञान की बातें करने लगा। उसके मन में कभी भी, कभी भी हिंसा के प्रति कोई अड़चन न थी। वह इतनी मौज से मार सकता था कि वह हाथ भी नहीं धोता और मजे से खाना खाता। उसको कोई मारने में तकलीफ नहीं थी। मारने में वह कुशलहस्त है। उससे ज्यादा कुशलहस्त आदमी खोजना मुश्किल है मारने में। लेकिन आज क्या अड़चन थी! सोचता है, सरल तो यही है कि सब छोड़ दूं। और कृष्ण कैसा उलटा आदमी मिल गया! कहां गलत आदमी को सारथी बना लिया!

इसलिए भगवान को सारथी बनाने से जरा बचना चाहिए। वे दिक्कत में रखेंगे। आपके रथ को ऐसी जगह ले जाएंगे, जहां आप नहीं चाहते कि जाए। उसी दिन गलती हो गई, जिस दिन कृष्ण को सारथी बना लिया। जिसने भी कृष्ण को सारथी बनाया, फिर रास्ता सुगम नहीं है। रास्ता अड़चन का होगा, यद्यपि परम उपलब्धि आनंद की होगी। मार्ग कठिन होगा, फल अमृत के होंगे। और गलत सारथी मिला, तो मार्ग तो बड़ा सरल होगा, लेकिन फल नर्क हो सकता है। अंधेरी रात के गङ्ढ में गिरा देता है।

जैसे ही कृष्ण को दिखाई पड़ा कि उसको लग रहा है कि अब मैं उसके करीब आ रहा हूं, वे तत्काल हट जाते हैं। आते हैं और हट जाते हैं। उन्होंने फौरन कहा कि ध्यान रख, निष्काम कर्म साधे बिना कर्म-त्याग नहीं हो सकता। पहले तू युद्ध कर। ऐसे कर कि फल की कोई आकांक्षा न हो। अगर तू युद्ध करके फल की आकांक्षा के पार उठ गया, तो ठीक है; फिर तू कर्म भी त्याग कर देना। अर्जुन कहेगा, फिर कर्म-त्याग करने से मतलब ही क्या है! वक्त ही निकल गया। फिर तो राज्य हाथ में होगा। फिर त्याग करने का क्या मतलब है? कृष्ण कहते हैं, युद्ध तो कर ले, फल की आकांक्षा छोड़कर। और जब राज्य मिल जाए और युद्ध गुजर जाए और तू निष्काम साध ले, तब तू त्याग कर देना!

अर्जुन को यह बहुत कठिन लगता है। दुख की घड़ी तो गुजारो और सुख की घड़ी में छोड़ देना! लेकिन ध्यान रहे, धर्म की यही अपेक्षा है। सुख की घड़ी में जो छोड़े, वही धर्म को उपलब्ध होता है। दुख की घड़ी में कोई कितना ही छोड़े, धर्म को उपलब्ध नहीं होता है। दुख की घड़ी में कोई भी छोड़ना चाहता है। दुख की घड़ी में छोड़ना नैसर्गिक है, धार्मिक नहीं। सुख की घड़ी में छोड़ना एक बड़ी इंपासिबल रेवोल्यूशन, एक बड़ी असंभव क्रांति से गुजरना है। वह कृष्ण कहते हैं, उस असंभव क्रांति से गुजरना ही होगा अर्जुन!

आज इतना ही।

अब पांच मिनट उठेंगे नहीं जरा भी! एक भी नहीं उठेगा। क्योंकि और कोई प्रसाद बांटने के लिए हमारे संन्यासियों के पास नहीं है। वे अपना कीर्तन पांच मिनट आपको बांट देंगे। वह आपके मन में गूंजता हुआ घर ले जाएं। वह उनका प्रसाद लेकर जाएं। और बीच में कोई न उठे। एक जन उठ जाता है, तो बाकी लोगों को भी उठना पड़ता है। पांच मिनट बैठे रहें और पांच मिनट इस आनंद को लें और फिर चुपचाप चले जाएं।


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जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–27

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साधु का सेवन: आत्‍मसेवन—प्रवचन—सत्‍ताईसवां

सूत्र:

सम्‍मदंसणणाणं, एसोलहदि त्‍ति णवरिववदेसं।

सव्‍वणयपक्‍खरहिदो, भणिदोजोसोसमयसारो।। 66।।

दंसणाणचरित्‍तणि, सेविदव्‍वाणि साहुणा णिच्‍चं।

ताणि पुण जाण तिणिण वि, अप्‍पाणं जाण णिच्‍छयदो।। 67।।

णिच्‍छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्‍पा।

ण कुणदि किंचि वि अन्‍नं,ण मुयदि सो मोक्‍खमग्‍गो त्ति।। 68।।

अप्‍पा अप्‍पम्मि रओ, सम्‍माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।

जाणइ तं सण्‍णाणं, चरदिह चारित्‍तमग्‍गु त्‍ति।। 69।।

आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरित्‍ते य।

आया पच्‍चक्‍खाणे, आया में संजमे जोगे।। 70।।

हिमाच्छादित गौरीशंकर के शिखर करीब आने लगे। महावीर क्रमशः ऊंचाइयों और ऊंचाइयों पर उड़ रहे हैं! समझना क्रमशः कठिन होता जायेगा। क्योंकि जिन ऊंचाइयों की हमें आदत नहीं है, उन ऊंचाइयों को समझना तो दूर, उन ऊंचाइयों पर श्वास लेना भी कठिन हो जाता है। और जिन ऊंचाइयों का हमें कोई अनुभव नहीं, उनके संबंध में शब्द भला हमें सुनायी पड़ जायें, अर्थ का विस्फोट नहीं होता है। गुजर जाते हैं शब्द हमारे पास से। अगर बहुत बार सुने हुए हैं तो ऐसी भ्रांति भी होती है कि समझ में आ गये।

इसे स्मरण रखना कि महावीर जो कह रहे हैं, वह अगर समझ में न आये तो स्वाभाविक है; समझ में आ जाये तो संदेह करना, क्योंकि वही अस्वाभाविक है।

अनुभव से ही समझ में आयेगा। उसके पहले ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि अनुभव के लिए एक प्यास प्रज्वलित हो जाये, कि अनुभव की आकांक्षा पैदा हो, कि काश, ऐसी ऊंचाइयों पर हम भी उड़ सकते! जिन दूर की बातों को महावीर पास ला रहे हैं, काश हमारे भी जीवन की संपदा उन्हीं स्वर्ण-रत्नों से बन सकती!

प्यास उठ आये, बस इतना काफी है।…तो समझ में न आये, तो धैर्य रखना। घबड़ाना मत! और ऐसा मत सोच लेना कि हमारी समझ में आएगा ही नहीं। और ऐसा तो भूलकर भी मत सोच लेना कि यह बात समझने योग्य ही नहीं है। क्योंकि हमारा मन इस तरह के बहुत उपाय करता है। अहंकारी मन हो तो वह कह देता है, इन बातों में कुछ सार नहीं। इस तरह हम अपने अहंकार को सुरक्षित कर लेते है। इस तरह ऊंचाई पास आती थी तो हम उससे दूर हट जाते हैं। क्योंकि ऊंचाई के पास हमें अपनी नीचाई मालूम पड़ने लगती है!

ऊंचाइयों से दूर मत हटना। उन्हें बुलाना! उनकी खोज करना! तुम्हें जितने बड़े शिखर मिल जायें, उतना ही शुभ है। क्योंकि जितने तुम्हें शिखर मिलें, उतने ही अहंकार के विसर्जन की संभावना बढ़ेगी, उतना ही तुम छोड़ पाओगे यह “मैं’ का खयाल। इसीलिए तो तीर्थंकरों, प्रबुद्ध पुरुषों को हमने बहुत स्वागत से कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी मौजूदगी हमें हीन करती मालूम पड़ने लगी। उनके सामने हम खड़े हुए तो छोटे मालूम होने लगे। उनके पास हम आये, तो हम जैसे जमीन पर चींटियां रेंगती हों, ऐसे रेंगते हुए मालूम होने लगे। तो दो ही उपाय थे–या तो हम भी उनके साथ उड़ना सीखें और या हम उन्हें इनकार ही कर दें कि यह सब कल्पना-जाल है; कि ये दूर की बातें सब काव्य-शास्त्र हैं; कि ये बातें कहीं हैं नहीं; ये सब बातें हैं। या हम यह कहकर हट जायें कि ये बातें हमारी समझ में नहीं पड़तीं, तो जो समझ में ही नहीं पड़ती हैं उन बातों को मानकर हम चलें कैसे? वहां भी भूल हो जायेगी।

ध्यान रखना: जो तुम्हारे समझ में नहीं पड़ता वह इसलिए समझ में नहीं पड़ता कि उसका कोई अनुभव नहीं हुआ है। अनुभव के बिना समझ कैसे होगी? अनुभव के बिना कोई अंडरस्टैंडिंग, कोई प्रज्ञा का प्रादुर्भाव नहीं होता। तो तुम यह मत कहना कि जब समझ में ही नहीं आता तो हम चलें कैसे? क्योंकि चलोगे, तो ही समझ में आयेगा। यह तो तुमने अगर ऐसा मान लिया तो अपने जीवन में एक ऐसे पत्थर को रख लिया कि उसको पार करना फिर असंभव हो जायेगा।

कोई प्रेम को जानता नहीं; प्रेम करता है तब जानता है। और न ही कोई परमात्मा को जानता है, जब तक उतरता नहीं उस गहराई में। और न ही कोई आत्मा को जानता है, जब तक डूबता नहीं अपने आत्यंतिक केंद्र पर।

तो समझ नहीं है, इसको पत्थर की तरह उपयोग मत कर लेना। समझ आयेगी ही अनुभव से। इसलिए समझ से भी ज्यादा जरूरी है साहस। इसे मैं फिर से दोहराऊं: अध्यात्म के मार्ग पर समझ से भी ज्यादा जरूरी है साहस। क्योंकि साहस हो तो आदमी अनुभव में उतरता है; अनुभव में उतरे तो समझ आती है। इसलिए जिनको तुम समझदार कहते हो वह वंचित ही रह जाते हैं। क्योंकि समझदार यह कहेगा, यह अपनी समझ में नहीं आती। जो समझ में नहीं आती, चलूं कैसे? पता नहीं कोई भटकाव न हो जाये! पता नहीं जो हाथ में है, कहीं वह भी न खो जाये! ये बड़ी दूर की बातें, आकाश की बातें, कहीं मेरी पृथ्वी को उजाड़ न दें! एक छोटा घर बनाया है–वासना का, तृष्णा का–एक छोटा संसार रचाया है। ये कहीं परमात्मा और आत्मा के खयाल, यह दिव्य प्यास, कहीं मेरी सारी घर-गृहस्थी को डांवांडोल न कर दे।

तो समझदार आदमी कहता है, जब समझ में आयेगी तब करेंगे। साहसी कहता है, समझ में नहीं आती तो करेंगे और देखेंगे और समझेंगे।

साहस! वस्तुतः दुस्साहस चाहिए! इसलिए तो महावीर को हमने महावीर नाम दिया। उन्होंने बड़ा दुस्साहस किया। वह समझ के लिए न रुके। वह अनुभव में उतर गये।…जुआरी की हिम्मत! सब दांव पर लगा दिया। फिर समझ भी आयी। क्योंकि समझ अनुभव की छाया की तरह आती है।

तो दुनिया में दो तरह की समझ है। एक तो समझदारों की, जिनको तुम समझदार कहते हो–उनकी समझ अनुभव से नहीं आती; उनकी समझ सिर्फ बौद्धिक है, सिर्फ बुद्धि की है। वह शब्दों को समझ लेते हैं; शब्दों का संयोजन समझ लेते हैं; शब्दों का व्याकरण समझ लेते हैं; शब्दों का अर्थ भी बिठा लेते हैं–लेकिन बस सब खेल शब्दों का होता है!

शब्दों को हटा लो तो उनके पीछे कोई समझ बचेगी नहीं; शब्द के हटते ही सारी समझ हट जायेगी। तो समझ उनकी शब्दों का ही जोड़ है।

और एक ज्ञानी की समझ है; तुम उससे सब शब्द छीन लो तो भी उसकी समझ न छीन सकोगे। क्योंकि उसकी समझ अनुभव की है, शब्दों की नहीं। अगर शब्दों का उसने उपयोग भी किया है तो अपनी समझ को तुम तक पहुंचाने के लिए किया है। शब्दों के उपयोग से उसने समझ को पाया नहीं है। वह बौद्धिक नहीं है–अस्तित्वगत है, एक्जीसटेंशियल है। उसने जाना है, जीया है। तो तुम उसके सारे शब्द छीन लो, तब भी तुम उसकी समझ न छीन पाओगे। उसकी समझ शब्दों से बहुत गहरी है। उसने मौन में समझ पायी है। उसने तो खुद ही शब्द छोड़ दिये थे, तब समझ आयी है।

तो इसे खयाल रखना। और एक खतरा है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन वचनों को समझ लेंगे, समझते मालूम पड़ेंगे; क्योंकि ये वचन कोई बहुत दुरूह नहीं हैं। इनकी दुरूहता अगर कहीं है तो अनुभव में है, वचनों में नहीं है। वचन तो बड़े सीधे-साफ हैं। महावीर ने एक भी जटिल विचार का उपयोग नहीं किया–कोई ज्ञानी पुरुष कभी नहीं किया है। जटिल विचारों का उपयोग तो वे लोग करते हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है; और केवल बड़े-बड़े शब्दों की छाया में अपने अंधकार को छिपा लेना चाहते हैं।

दार्शनिक बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग करते हैं; बड़े-बड़े लंबे वचनों का उपयोग करते हैं। तुम उनके वचनों के बीहड़ में ही खो जाओगे। तुम्हें यह पक्का हो ही न पायेगा कि वे क्या कहना चाहते थे। उनके पास कहने को कुछ था भी नहीं। लेकिन जो नहीं था उनके पास कहने को, उसको उन्होंने इस ढंग से फैलाया कि शब्द-जाल ऐसा बड़ा हो गया कि तुम समझ ही न पाये। न समझने के कारण कई बार तुम्हें लगता है, बड़ी गहरी बात है।

महावीर जैसे पुरुष सुलझाने को हैं, उलझाने को नहीं। उनके वचन सीधे-साफ हैं; दो टूक हैं; गणित की तरह स्पष्ट हैं। दो और दो चार–बस ऐसे ही उनके वचन हैं।

तो खतरा यह भी है कि तुम्हें वचन सुनकर ऐसा लगे कि अरे, समझ गये! वहां मत रुक जाना। वह समझ कुछ काम न आयेगी। अगर तुम महावीर के वचनों को सुनकर समझ गये तो फिर महावीर ने बारह वर्ष मौन और ध्यान साधा, तो बहुत कम बुद्धि के आदमी रहे होंगे। तुम सुनकर समझ गये। महावीर को बारह वर्ष लगे, कठोर तपश्चर्या के, गहन संघर्ष के, रत्ती-रत्ती अपने को छांटा और काटा और जलाया, निखारा, जब अंतरज्योति पूरी शुद्ध हो गयी तब उन्हें यह समझ पैदा हुई। तुम्हारा धुएं से भरा हुआ मन, ईंधन गीला, लपट कहीं दिखायी नहीं पड़ती, बस धुआं ही धुआं फैलता मालूम होता है–इसमें ये शब्द तुम्हें याद हो सकते हैं। बहुत से पंडितों को याद हैं। इन शब्दों को तुम तोते की तरह कंठस्थ कर ले सकते हो। उस याददाश्त को तुम प्रज्ञा मत समझ लेना।

तो दो बातें स्मरण रखना: समझ में न आयें तो इनकार मत करना; और समझ में आ जायें तो भी वहीं मत रुक जाना। इन दोनों के बीच में मार्ग है। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने योग्य है। इतना ज्यादा भी समझ में न आ जाये कि पा लिया। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने योग्य है। प्यास जग जाये और यात्रा शुरू हो जाये। तो किसी दिन अनुभव भी घटेगा। तुम भी उड़ोगे उन आकाश की ऊंचाइयों में। तुम्हें भी पंख लगेंगे!

“जो सब नय-पक्षों से रहित है, वही समयसार है। उसी को सम्यक दर्शन और सम्यकज्ञान की संज्ञा दी है।’

सम्मदंसणणाणं, ऐसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं।

सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।।

“सव्वणयपक्खरहिदो’–जिसका मन सभी पक्षों से रहित है, जो सब नय-पक्षों से शून्य है, वही समयसार है। समयसार का अर्थ होता है: वही आत्मा की सार स्थिति है। वही अस्तित्व का निचोड़ है। वहीं तुम हो, वहीं तुम्हारी आत्मा है–जहां न कोई नय है, न कोई पक्ष है। इसे समझें।

साधारणतः तो हम नय-पक्षों से भरे हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है। जब तक तुम हिंदू हो, जैन हो, ईसाई हो, तब तक तुम्हें समयसार का पता न चलेगा। आत्मा का रस तुम्हें उपलब्ध न होगा। क्योंकि आत्मा न हिंदू, न मुसलमान, न जैन है।

जब तक तुम कहते हो, “मेरी ऐसी मान्यता है’, तब तक तुम सत्य को न जान सकोगे, क्योंकि सभी मान्यताएं सत्य को जानने में बाधा बन जाती हैं। मान्यता का अर्थ है कि बिना जाने तुम जानते हो। तो जिसने बिना जाने जान लिया है, वह जान कैसे सकेगा फिर? मान्यता-शून्य होने का अर्थ है: मुझे पता नहीं; इसलिए मैं किसी मान्यता को कैसे पकडूं? मैं कैसे कहूं कि क्या ठीक है? मुझे कुछ भी पता नहीं है।

तो ऐसा जो अज्ञान में खड़ा हो जाता है शांत चित्त से, जबर्दस्ती ज्ञान को नहीं पकड़ लेता, छिपाता नहीं ज्ञान के आवरण में अपने को, ज्ञान के वस्त्रों में अपने को ढांकता नहीं, जो अपने अज्ञान को स्वीकार कर लेता है–वही व्यक्ति ज्ञान की तरफ पहला कदम उठाता है। यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। ज्ञान की तरफ पहला कदम अपने अज्ञान के साथ ईमानदारी से खड़े हो जाना है। हम में से बहुत कम लोग ही ईमानदारी से खड़े होते हैं अज्ञान के साथ। अज्ञान को स्वीकार करने में अहंकार को चोट लगती है। अहंकार चाहता है दावा करना कि मैं जानता हूं। तो हम शास्त्र से, परंपरा से, अन्यों से, शिक्षकों से, गुरुओं से, कहीं न कहीं से इकट्ठा कर लेते हैं ज्ञान।

तुम्हारा ज्ञान सभी कुछ नय-पक्ष है। वह तुमने इकट्ठा किया है, जाना नहीं है। पक्षपात से भरे हो तुम। हर चीज के संबंध में तुमने कुछ तय कर लिया है। तुम तय करके बैठे हो। तुम तय करके बैठे हो, इसलिए तुम्हारी आंख खाली नहीं है; पक्ष से आंख दबी है। पक्ष की कंकड़ी तुम्हारी आंख में पड़ी है। तो कंकड़ी जब आंख में पड़ी हो तो फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता।

महावीर कहते हैं, आंख खाली चाहिए, निर्मल चाहिए! आंख ऐसी चाहिए कि सिर्फ देखती हो और आंख में कुछ न पड़ा हो। क्योंकि अगर आंख में कुछ भी पड़ा हो तो जो तुम देखोगे वह विकृत हो जायेगा।

सोचो…अगर तुम जैन हो, पढ़ो गीता–तुम्हें समझ में आ जायेगा! तुम गीता पढ़ ही न पाओगे, तुम्हें रस ही न आयेगा। घड़ी-घड़ी तुम्हारा जैन धर्म बीच में खड़ा हो जायेगा। तुम्हें ऐसा लगेगा, ये कृष्ण तो अर्जुन को भ्रष्ट करने लगे। ऐसा तुम कहो या न कहो, तुम्हारे भीतर यह पक्ष खड़ा रहेगा। आज तक किसी जैन ने गीता पर कोई वक्तव्य नहीं दिया, कोई महत्वपूर्ण बात नहीं कही। गीता को किनारे हटा दिया है।

हिंदू से कहो कि महावीर के वचन सुने, पढ़े? पढ़ भी ले तो मुर्दा भाव से पढ़ जायेगा। क्योंकि भीतर तो वह जानता ही है कि सब गलत है। हिंदू से कहो कुरान को पढ़े, तो भीतर तो वह मानता ही है कि “क्या रखा है! कहां वेद, कहां उपनिषद! क्या रखा है कुरान में? वही कुरान के माननेवाले की स्थिति है। वही बाइबिल को माननेवाले की स्थिति है। बाइबिल को माननेवाला जब वेद पढ़ता है तो उसे लगता है, बस गांव के ग्रामीण गडरियों के गीत हैं, इससे ज्यादा नहीं। जब वेद को माननेवाला आर्यसमाजी पंडित बाइबिल को पढ़ता है तो उसमें से कुछ भी सार नहीं पाता; उसमें से सब कचरा-कूड़ा इकट्ठा कर लेता है।

अगर तुम्हें इस दृष्टि की, पक्षपात से भरी दृष्टि की, ठीक-ठीक उपमा चाहिए हो तो दयानंद का ग्रंथ “सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ना चाहिए। वह पक्षपात से भरी आंख का, उससे ज्वलंत प्रमाण कहीं खोजना मुश्किल है। तो सभी में भूलें निकाल ली हैं उन्होंने–और बेहूदी भूलें, जो कि निकालनेवाले के मन में छिपी हैं, जो कहीं भी नहीं हैं। लेकिन निकालनेवाला पहले से मानकर बैठा है।

जो तुम मानकर बैठ जाते हो वह तुम खोज भी लोगे। अगर तुम्हीं मानकर बैठे हो तो फिर मुश्किल है। तुमने जानने के पहले अगर धारणा तय कर रखी है, तो तुम सत्य को कभी भी न जान पाओगे; तुम सत्य को कभी मौका न दोगे कि तुम्हारे सामने प्रगट हो जाये।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने एक मित्र दर्जी से कपड़े बनवाये। जब वह कपड़े पहनने गया, उठाने गया, दर्जी ने उसे पहनाकर बताया। उसे कपड़े जंचे नहीं; कुछ बेहूदे थे; कुछ अटपटे थे। कुछ शरीर पर बैठते भी न थे। लेकिन दर्जी प्रशंसा मारे जा रहा था। वह गुणगान किए जा रहा था। वह कह रहा था, “देखो तो जरा दाहिने आईने में! तुम्हारे मित्र भी तुम्हें पहचान न पायेंगे। तुम्हारी पत्नी भी शायद ही तुमको पहचान पाए। इतने सुंदर मालूम हो रहे हो…! जरा तुम बाहर तो जाओ, जरा सड़क पर चक्कर लगाकर आओ!’

मुल्ला बाहर गया–संकोच से भरा हुआ; क्योंकि बड़ा अटपटा-सा लग रहा था उसे उन कपड़ों में। जल्दी ही भीतर आ गया। जब वह भीतर आया तो दर्जी, जो उसका पुराना मित्र, बोला, “आइये राजकपूर साहब! बहुत दिनों बाद आये!’

अब दर्जी मानकर ही बैठा है कि गजब के कपड़े उसने सी दिये! जो तुम मानकर बैठे हो, तुम उसे सिद्ध करने की चेष्टा में लग जाते हो, जाने-अनजाने। तुम सब तरह से प्रमाण जुटाते हो। विपरीत प्रमाणों को तुम देखते ही नहीं। तुम्हारी आंखें चुनाव करने लगती हैं। जो पक्ष में पड़ता है तुम्हारे पक्ष के, वह तुम चुन लेते हो; जो विपक्ष में पड़ता है, वह तुम छोड़ देते हो।

सत्य को जानने का यह ढंग न हुआ। यह तो असत्य में जीने का ढंग हुआ। तो महावीर कहते हैं:

सम्मदंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं!

सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।।

जो सब नय-पक्षों से रहित है; जिसकी कोई धारणा नहीं, मान्यता नहीं; जिसका कोई विश्वास-अविश्वास नहीं; जो नग्न चित्त है; जो दिगंबर है; जिसके ऊपर कोई आवरण नहीं; आकाश ही जिसका आवरण है; विराट ही जिसका आवरण है; इससे कम को जिसने स्वीकार नहीं किया है–ऐसा नग्न चित्त, शांत मन, निष्पक्ष व्यक्ति–वही समयसार है। वह जान लेगा आत्मा का सारभूत, आत्मा का सत्य, उसे अस्तित्व की पहचान मिलेगी। वह अस्तित्व के मंदिर में प्रवेश पा सकेगा। पात्रता, पक्षपात रहित हो जाना है।

महावीर के पास लोग आते, प्रश्न पूछते, तो महावीर कहते, “तुम कुछ पहले से ही मानते तो नहीं हो? अगर मानते हो तो बात व्यर्थ, फिर संवाद न हो सकेगा।’

जब कोई मानकर ही चलता है तो विवाद हो सकता है, संवाद नहीं हो सकता। जब कुछ मानकर कोई भी नहीं चलता; जब कोई तैयार है सत्य के साथ जहां ले जाये; जब कोई इतना हिम्मतवर है कि सत्य जो दिखाएगा उसे स्वीकार करूंगा–तभी, महावीर कहते हैं, संवाद हो सकता है। तब महावीर कहते हैं, ज्यादा कुछ कहने को भी नहीं है। क्योंकि सत्य को कहा तो नहीं जा सकता। मैं कुछ इशारे कर देता हूं, तुम इनका पालन कर लो। इन इशारों के पालन करने से धीरे-धीरे तुम्हें भी वही अनुभव होने लगेगा जो मुझे हो रहा है। जिस द्वार से खड़े होकर मैं देख रहा हूं जीवन को, तुम भी देख सकोगे मेरे करीब आ जाओ। लेकिन अगर तुम मानते हो कि तुम्हें द्वार मिल ही गया है, तो फिर तुम मेरे करीब न आओगे और व्यर्थ खींचात्तानी होगी।

दुनिया में जहां भी जितनी बातचीत हो रही है, तुम अगर गौर करोगे तो बातचीत तो कहीं मुश्किल से होती है। संवाद कहां है? विवाद है। चाहे प्रगट हो, चाहे अप्रगट हो। जब भी दो व्यक्ति बात करते हैं तो खुलते कहां हैं? अपनी-अपनी चेष्टा में रत रहते हैं।

महावीर ने कोई शास्त्रार्थ नहीं किया; किसी से कोई विवाद नहीं किया। महावीर शंकराचार्य की तरह मुल्क में नहीं घूमे विवाद करते। महावीर की पकड़ बड़ी गहरी है। महावीर कहते हैं, विवाद से क्या होगा? अगर कोई पहले से मानकर बैठा है तो उसे मनाया नहीं जा सकता। और अगर जबर्दस्ती उसे चुप करा दिया जाये, तर्क से हो सकता है, तो भी उसका हृदय थोड़े ही राजी होता है! कभी-कभी ऐसा हुआ है कि तर्क में तुम किसी से हार गये हो, तो भी दिल में तो तुम घाव लिए रहे हो हो कि ठीक है, देखेंगे; आज जरा मुश्किल हो गयी, हम तर्क ठीक न खोज पाये! चुप कर दिये गये हो तुम, लेकिन तुम्हारा हृदय रूपांतरित तो नहीं हुआ। जबर्दस्ती तुम्हारी जबान रोक दी गयी है। यह हो सकता है, कोई तुमसे ज्यादा कुशल हो तर्क में।

तो तर्क में जो जीत जाता है, जरूरी नहीं कि उसके पास सत्य हो। और तर्क में जो हार जाता है जरूरी नहीं कि उसके पास सत्य न हो। यह भी हो सकता है, जिसके पास सत्य है उसके पास सत्य को सिद्ध करने का तर्क न हो। यह भी हो सकता है, जिसके पास सत्य को सिद्ध करने के तर्क हैं उसके पास कोई सत्य न हो। और जो कोई तर्क के द्वारा तुम्हें पराजित कर देता है वह केवल इतना ही सिद्ध कर रहा है कि वह तुमसे ज्यादा कुशल है, तुमसे ज्यादा अनुभवी है; इतना। उससे कुछ सिद्ध नहीं होता। और यह भी हो सकता है कि वह तुम्हारे पीछे चलने लगे, हार जाये तो तुम्हारे पीछे चले, तुम्हें मान ले। कल कुछ और मानता था, आज तुम्हें मान ले–लेकिन मान्यता तो मान्यता है। कल मानता था, ईश्वर नहीं है; आज तुमने तर्क दे-देकर सिद्ध कर दिया और उसने मान लिया कि ईश्वर है। कल एक मान्यता से भरा था, आज दूसरी मान्यता से भर गया है–विपरीत मान्यता से; लेकिन मान्यता तो दोनों ही मान्यताएं हैं। ज्ञान का जन्म न हुआ।

महावीर कहते हैं, एक पक्ष को दूसरे में नहीं बदलना है–पक्ष को गिरा देना है; तुम्हें निष्पक्ष होना है। इसलिए जैन भी महावीर के अनुयायी नहीं हैं। क्योंकि जैन होने में ही खराबी हो गयी। महावीर जैन न थे। महावीर के पास जैन होने का उपाय नहीं है। क्योंकि महावीर की मौलिक दृष्टि यही है कि सभी पक्ष भ्रष्ट कर देते हैं। अब जैन तो पहले से मानकर बैठ गया है कि महावीर ठीक हैं; इसीलिए वंचित हो गया है। पहले से मानकर बैठ गया कि महावीर जो कहते हैं, वह सही ही कहते हैं; इसीलिए महावीर से दूर हो गया है।

महावीर के साथ तो केवल वही खड़ा हो सकता है जो निष्पक्ष है–इतना निष्पक्ष कि यह भी नहीं कहता कि महावीर ठीक हैं। इतना ही कहता है कि मुझे पता नहीं; मैं खोजने को तैयार हूं। सूरज की कहीं से भी किरण आये, मैं पीछे जाने को तैयार हूं। मैं अनंत की यात्रा के लिए तैयार हूं।

और बिना मान्यता के यात्रा पर निकलना बड़ा दूभर है। क्योंकि तुम कहते हो कि जब कोई मान्यता ही नहीं है, तो हम यात्रा पर कैसे निकलें! वैज्ञानिक तक प्रयोग करने के पहले हाईपोथिसिस निर्मित करता है। हाईपोथिसिस का मतलब है, पक्ष तय करता है। तय करता है कि यह हो सकता है कम से कम। फिर यात्रा पर निकलता है।

महावीर का विज्ञान वैज्ञानिक के विज्ञान से भी ज्यादा गहरा है। महावीर कहते हैं, उतना पक्षपात भी खतरनाक है। क्योंकि उसी पक्षपात के कारण तुम वह देख लोगे जो नहीं था। और यह बात अब वैज्ञानिकों को भी समझ में आने लगी।

पोल्यानी ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी है: पर्सनल नालेज। तीन सौ वर्ष की वैज्ञानिक खोज के बाद वैज्ञानिकों को भी यह सिद्ध हो गया है कि हमारा जो ज्ञान है वह इम्पर्सनल नहीं है, अवैयक्तिक नहीं है; वह भी वैयक्तिक है। क्योंकि जो वैज्ञानिक खोज करने जाता है, उसकी धारणा वह जो खोज करता है उस पर आरोपित हो जाती है, उसको रंग देती है। इसलिए हम जो भी जानते हैं, वह वस्तुतः ऐसा है, कहना मुश्किल है। खोजनेवाला उस पर हावी हो जाता है।

तो पहले तो हम सोचते थे…अभी एक बीस वर्ष पहले तक वैज्ञानिक यही सोचते थे कि विज्ञान निष्पक्ष है। अगर कोई आदमी किसी स्त्री के संबंध में कहता है, बड़ी सुंदर और तुम्हें सुंदर नहीं लगती, तो तुम कहते हो, पसंद-पसंद की बात है। इसमें कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता।

तुम कहते हो, “चाहत की बात है। अपने रुझान की बात है। तुम्हें सुंदर मालूम पड़ती है, मुझे सुंदर नहीं मालूम पड़ती।’ झगड़ा खड़ा नहीं होता। क्योंकि जो आदमी कहता है, यह स्त्री सुंदर है, वह इतना ही कह रहा है कि मुझे सुंदर मालूम पड़ती है। यह पर्सनल, वैयक्तिक बात है; इसमें झगड़ा नहीं है। एक आदमी को एक तरह की सिगरेट पसंद पड़ती है, दूसरे आदमी को दूसरी तरह की पड़ती है। एक आदमी को एक तरह का साबुन पसंद है, दूसरे को दूसरी तरह का पसंद है। एक आदमी को एक तरह का फूल लुभाता है, दूसरे को दूसरी तरह का लुभाता है। कोई कहता है सुबह बड़ी सुंदर है, कोई कहता है मुझे जंचती नहीं–तो कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता; विवाद का कोई कारण नहीं, यह व्यक्तिगत रुझान है। लेकिन अगर कोई आदमी कहे, यह स्त्री सुंदर है, यह वैज्ञानिक सत्य है, तो फिर झगड़ा खड़ा होगा। वैज्ञानिक सत्य कहने का अर्थ यह हुआ कि यह सभी के लिए सुंदर है। तो फिर अड़चन आयेगी।

अब तक वैज्ञानिक मानते थे कि उनका सत्य वैज्ञानिक है और बाकी जो वक्तव्य हैं वे कवियों के हैं। लेकिन पोल्यानी की किताब ने और पोल्यानी की खोजों ने जीवनभर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि विज्ञान भी वैयक्तिक है। आइंस्टीन जो कह रहा है, वह आइंस्टीन कह रहा है। न्यूनट जो कह रहा है, वह न्यूटन कह रहा है। यद्यपि आइंस्टीन जो कह रहा है वह इतने प्रबल तर्क से कह रहा है कि अभी हम उसका विरोध न कर पायेंगे जब तक कि प्रबलतर आइंस्टीन न आ जाये। और यह तीन सौ साल में निरंतर हुआ। न्यूटन ने जो कहा वह आइंस्टीन ने गलत कर दिया। ऐसी-ऐसी चीजें जिनके बाबत हम सोचते थे बिलकुल सही हैं, वह भी सही न रहीं। ज्यामति जैसा शास्त्र भी सही न रहा। इकलेट ने जो सिद्ध किया था, वह गलत हो गया। दूसरे लोगों ने उससे विपरीत मान्यताएं सिद्ध कर दीं। गणित जैसा विषय भी अब वैज्ञानिक नहीं रहा। क्योंकि गणित की सामान्य मान्यताओं के विपरीत भी मान्यताएं लोगों ने सिद्ध कर दीं और नये गणित विकसित हो गये। तो अब तो दिखायी पड़ता है कि सारा ज्ञान व्यक्तिगत है, रुझान है। वह आदमी के ऊपर निर्भर है।

महावीर कहते हैं, जो परम सत्य को मानने चला है, मान्यता तो दूर, हाइपोथिसिस, परिकल्पना भी ठीक नहीं, नय भी ठीक नहीं। नय का अर्थ होता है: बड़ी सूक्ष्म-सी रेखा दृष्टि की; कोई दृष्टिकोण; कोई हाइपोथिसिस। वह भी ठीक नहीं। उसे खाली जाना चाहिए–कोरा। तुम्हारे मन के कागज पर कुछ भी न लिखा हो, अन्यथा जो लिखा है उसका प्रक्षेपण हो जायेगा। तुम्हारा मन का कागज बिलकुल कोरा हो। इसका अर्थ हुआ, तुम्हारा मन सक्रिय रूप से भाग न ले ज्ञान की खोज में, निष्क्रिय रहे; एक्टिव न हो, पैसिव रहे। स्त्रैण हो तुम्हारा चित्त! सिर्फ जो हो रहा है उसको स्वीकार करे; लेकिन कैसा होना चाहिए, कैसा होता, ऐसी कोई धारणा प्रक्षेपण न करे। इसे खयाल में लेना।

जगत में खोज के दो उपाय हैं–एक निष्क्रिय, एक सक्रिय। सक्रिय में तुम चेष्टा करते हो कुछ खोजने की; निष्क्रिय में तुम केवल निष्पक्ष भाव से खड़े होते हो। सक्रिय चेष्टा विचार बन जाती है; निष्क्रिय चेष्टा ध्यान बन जाती है। जब तुम सक्रिय होकर खोज में लग जाते हो तो तुम विचारों से भर जाते हो; क्योंकि विचार मन के सक्रिय होने का अंग हैं। मन जब सक्रिय होता है तो विचार से भर जाता है। मन जब निष्क्रिय होता है तो कोरा रह जाता है। आकाश में बादल हों तो सक्रिय; आकाश में कोई बादल न हो तो निष्क्रिय, कोई क्रिया नहीं हो रही।

महावीर कहते हैं, मन की सारी क्रिया शून्य हो जाये, नय-पक्षरहित हो जाये–सव्वणयपक्खरहिदो–तो जो शेष रह जाता है उस निष्क्रिय चित्त की दशा में जिसको लाओत्सु ने वू-वेइ कहा है–ऐसी निष्क्रियता, दर्पण जैसी निष्क्रियता; जैसे दर्पण “जो है’ उसको झलका देता है। अगर दर्पण कुछ जोड़ता है, घटाता है, तो सक्रिय हो गया; जैसा है वैसा का वैसा, तैसे का तैसा झलका देता है। उस स्थिति को महावीर कहते हैं, उपलब्ध हो जाओ तो वही समयसार है। वही अध्यात्म का निचोड़ है। वहीं से तुम्हें अनुभव का जगत शुरू होगा। उसी को सम्यक दर्शन और उसी को सम्यक ज्ञान की संज्ञा दी है।

महावीर कहते हैं, और सब तो शब्द हैं, मगर असली बात वही है। सम्यक ज्ञान कहो, सम्यक दर्शन कहो या कुछ और कहना हो–ध्यान, समाधि, निर्विकल्प दशा जो भी कहना हो कहो। लेकिन एक बात तय है कि वह निष्क्रिय दशा है। जिसमें तुम कुछ भी हिस्सा नहीं बंटाते; तुम सिर्फ खड़े रह जाते हो। इसे थोड़ा अभ्यास करना शुरू करो। यह मेरे कहने भर से साफ न हो जायेगा–इसका थोड़ा अभ्यास करना शुरू करो। कभी इसकी झलक मिलेगी। नाच उठोगे तुम, जब इसकी पहली झलक मिलेगी। तुम भरोसा न कर पाओगे कि अरे, मैं अब तक यह क्या करता रहा! तुम्हारा सारा जीवन तब एक नयी रूप-रेखा से भर जायेगा। थोड़ा अभ्यास करो।

शांत बैठकर वृक्ष को देखते हो तो देखते ही रहो। सक्रिय मत बनो। इतना भी मत कहो कि यह पीपल का वृक्ष है। यह भी मत कहो कि यह गुलाब की झाड़ी है। यह भी मत कहो कि गुलाब कितने सुंदर हैं। यह भी मत कहो कि अहा, कितने प्यारे फूल खिले हैं! ऐसा मन में कुछ भी मत कहो। क्योंकि ये सब नय-पक्ष हैं; ये सब तुम्हारी मान्यताएं हैं।

गुलाब का फूल तो बस गुलाब का फूल है–न सुंदर, न असुंदर। सुबह तो बस सुबह है। सब वक्तव्य तुम्हारे हैं; सुबह तो अवक्तव्य है। उसके बाबत तो कोई वक्तव्य नहीं हो सकता। अनिर्वचनीय है। सब वचन तुम्हारे हैं। तुम अपने को हटा लो। तुम कुछ कहो ही मत। तुम सक्रिय बनो ही मत। तुम सिर्फ सुबह को देखते रह जाओ। ऊगता है सूरज, ऊगने दो। वृक्षों में हवा सरसराती है, सरसराने दो। तुम शब्द न दो। तुम शब्द को मत बनाओ। तुम शब्द से रिक्त और शून्य देखते रहो, देखते रहो। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे-धीरे अभ्यास घना होगा। कभी ऐसा क्षण आ जायेगा, एक क्षण को भी, कि तुम सिर्फ देखते रहे और तुम्हारे भीतर डालने को कुछ भी न था। तुमने कुछ भी न डाला अस्तित्व में, तुम सिर्फ खड़े देखते रहे, दर्शक, द्रष्टा-मात्र, जिसको महावीर कहते हैं ज्ञायक-मात्र–सिर्फ देखते रहे! उस घड़ी में एक झरोखा खुलता है। पहली दफा अस्तित्व तुम्हारे सामने अपने रूप को प्रगट करता है। पहली बार तुम उसे देखते हो, जो है। क्योंकि पहली बार तुम कुछ जोड़ते नहीं, मिलाते नहीं, तुम कुछ डालते नहीं। तुम भी शुद्ध होते हो उस घड़ी में और अस्तित्व भी शुद्ध होता है। दो शुद्धियां एक-दूसरे का साक्षात्कार करती हैं। इसे महावीर कहते हैं समयसार।

तुमने कभी खयाल किया! दूधवाला दूध में पानी मिला लाता है; तुम कहते हो अशुद्ध कर दिया। तुमने इस पर कभी विचार किया कि उसने शुद्ध पानी मिलाया हो तो? अशुद्ध क्यों कह रहे हो? वह कहेगा कि हमने तो दोहरा शुद्ध कर दिया–शुद्ध पानी शुद्ध दूध, दोनों को मिलाया; अशुद्धि तो कुछ मिलायी नहीं है। पानी भी शुद्ध था, प्राशुक था। दूध भी शुद्ध था। अशुद्धि कैसे कह रहे हो, किस कारण कह रहे हो? फिर भी तुम कहोगे, दूध अशुद्ध है।

अशुद्धि का कारण यह नहीं कि तुमने अशुद्धि मिलायी। दो शुद्धियां भी मिला दो तो अशुद्धि का परिणाम आता है। अशुद्ध कहने का इतना ही अर्थ है कि दूध अब दूध न रहा और पानी पानी न रहा। तुम खयाल रखना, दूध ही अशुद्ध नहीं होता, पानी भी अशुद्ध हो गया। तुम दूध को कहते हो अशुद्ध हो गया, पानी को नहीं कहते; क्योंकि पानी तो मुफ्त मिलता है, इसलिए कोई चिंता नहीं है, कोई आर्थिक सवाल नहीं उठता। तुम कहते हो, दूध अशुद्ध हो गया। लेकिन दूसरी बात भी खयाल रखना, पानी भी अशुद्ध हो गया है। अगर किसी क्षण शुद्ध पानी की जरूरत हो, तब तुम समझोगे कि अरे, यह तो पानी भी अशुद्ध हो गया, दूध मिला दिया! मिलावट अशुद्धि है।

तो जब तुम अस्तित्व में मिलावट करते हो, जब तुम कुछ डालते हो, उंडेलते हो, जब तुम दूध में पानी डाल देते हो, तब सब अशुद्ध हो जाता है–तुम भी, अस्तित्व भी। जब तुम खड़े रह जाते हो–तटस्थ, साक्षी; यहां अस्तित्व, यहां तुम; दो दर्पण एक-दूसरे के सामने, बिना कुछ डाले हुए–तब दो शुद्धियों का साक्षात्कार होता है।

इस साक्षात्कार की अवस्था को महावीर कहते हैं समयसार। और जब तक यह न हो जाये तब तक तुम्हारी जिंदगी नाममात्र को जिंदगी है, अशुद्ध है, कुनकुनी जिंदगी है। इसमें ज्वाला न होगी। इसमें प्रकाश…यह ज्योतिर्मय न होगी। इसमें आनंद के फूल न लगेंगे, न प्रसाद होगा।

जीस्त है किसी मुफलिस का चिरागखाना

उसने सीखा ही नहीं खुलके फुरोजां होना।

नहीं, जिंदगी तो किसी गरीब का चिराग नहीं है। लेकिन हम सबने जिंदगी को गरीब का चिराग बना दिया है। यह खिलकर जल ही नहीं पाता, यह खुल के प्रज्वलित नहीं हो पाता। यह इसकी ज्योति ज्योति ही नहीं बन पाती–बुझी-बुझी, बुझी-बुझी, टिमटिमाती!

जीस्त है किसी मुफलिस का चिरागखाना

उसने सीखा ही नहीं खुलके फुरोजां होना

नहीं, जिंदगी तो किसी गरीब का चिराग नहीं है। लेकिन हम सबने जिंदगी को गरीब का चिराग बना दिया है। क्योंकि हमने जिंदगी को मौका ही नहीं दिया। हमने जिंदगी पर इतनी शर्तें लगा दी हैं। हमने जिंदगी पर इतने अवरोध खड़े कर दिये हैं, हमने जिंदगी की ज्योति के आसपास इतने पक्ष-विपक्ष, धारणाएं, मान्यताएं, विचार, ऐसा घेरा बांध दिया है, किला खड़ा कर दिया है, ईंट पर ईंट रख दी है विचारों और पक्षों की, कि जिंदगी की लपट उठे कैसे, प्रगट कैसे हो?

जिसे तुम अभी टिमटिमाता हुआ दीया जानते हो, वही महावीर में प्रज्वलित सूर्य होकर जला है। वही जीवन! वही कबीर ने कहा है कि एक सूरज, एक सूरज कहने से न हो सकेगा; जिस दिन मैं जागा, हजार-हजार सूरज मेरे भीतर एक साथ जल उठे। उस प्रकाशमयी दशा के लिए कोई उपमा खोजना मुश्किल है। हजार-हजार सूरज भी कम पड़ते हैं, क्योंकि सूरज तो एक न एक दिन चुक जाएंगे। सभी सूरज चुक जाते हैं। यह हमारा सूरज भी, वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार सालों में ठंडा हो जायेगा। इसका ईंधन चुकता जा रहा है। आखिर कब तक जलता रहेगा? सब ईंधन की सीमा है। कितना ही बड़ा हो, करोड़ों साल जले तो भी एक सीमा आती है और चुक जायेगा। सांझ दीया जलाया, सुबह बुझ जायेगा; फिर रात कितनी ही लंबी हो: लेकिन भीतर का दीया कुछ ऐसा है कि वह ज्योति शाश्वत है। हजारों सूरज जलते हैं और बुझ जाते हैं–और उस भीतर की ज्योति का कभी बुझना नहीं होता। इसलिए हजार सूरज का प्रतिमान भी छोटा है। लेकिन छोड़ो सूरज की तो बात दूर, हम तो अपने भीतर के दीये को टिमटिमाता दीया भी नहीं कह सकते। ज्योति मालूम ही नहीं पड़ती।

अनेक लोग सुनकर सुकरात की बात, कि महावीर की बात, कि बुद्ध की, कि कृष्ण की बात भीतर जाने की चेष्टा करते हैं। क्योंकि ये सभी लोग कहते हैं, जानो अपने को! आंख बंद करके भीतर जाने की कोशिश करते हैं, जल्दी से बाहर लौट आते हैं; क्योंकि अंधेरा ही अंधेरा मालूम पड़ता है। और ये सब तो कहते हैं, बड़ा ज्योतिर्मय लोक है!

नहीं, अभी तुम भीतर न जा सकोगे। अभी तो तुमने बाहर को भी शुद्ध आंख से नहीं देखा। अभी तो तुमने क ख ग भी नहीं पढ़ा जीवन के सत्य का।

इसलिए महावीर का पहला सूत्र कहता है: जो सब नय-पक्षों से रहित वही समयसार है। और अगर ऐसा न किया तो एक पक्ष में से दूसरा पक्ष निकलता जाता है। जैसे एक वृक्ष में अनेक शाखाएं निकलती हैं। फिर एक शाखा में अनेक उपशाखाएं निकलती हैं ऐसा तुमने अगर एक पक्ष बनाया तो जल्दी ही तुम पाओगे, तुम बहुत पक्षों से घिर गये। एक मेहमान को घर लाओगे, जल्दी ही पाओगे मेहमानों की भीड़ लग गई; क्योंकि एक मेहमान के पीछे दूसरा चला आता है। रिश्तेदारों के रिश्तेदार!

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक दफा एक आदमी आया पास के गांव से और एक बतख दे गया। कहा कि गांव के तुम्हारे मित्र ने भेजी है। मुल्ला बड़ा खुश हुआ। उसने बतख…उसने कहा कि रुको, शोरबा तो पीते जाना। उसने शोरबा बनवाया, मित्र को पिलाया और कहा कि कभी भी आओ तो जरूर आना। कोई दोत्तीन दिन बाद एक दूसरा आदमी आया। मुल्ला ने पूछा, आप कौन हो? उसने कहा, कि जो बतख लाया था उसका मैं मित्र हूं। कोई बात नहीं, मित्र के मित्र हो तो भी मित्र हो। उसको भी उसने भोजन करवाया, खिलवाया-पिलवाया। यह तो सिलसिला अंतहीन होने लगा। फिर दोत्तीन दिन बाद एक आदमी आ गया। उसने कहा, मित्र के मित्र का मित्र। ऐसे यह संख्या बढ़ने लगी। तो मुल्ला बहुत घबड़ा गया। दोत्तीन महीने में तो मुल्ला बहुत घबड़ा गया कि यह तो एक बतख क्या भेजी, यह तो सारा गांव आये जा रहा है! उसने कहा, कुछ करना पड़ेगा। फिर एक आदमी आ गया दो-चार दिन बाद। अब तो बहुत संख्या आगे हो गयी थी–मित्र के मित्र, मित्र के मित्र। काफी लंबी शृंखला हो गयी थी। उसने कहा, अब कुछ बताने की जरूरत नहीं, ठीक है। उसने पत्नी से कहा, सिर्फ गर्म पानी बना दे, कुछ और बनाना मत। गर्म पानी लेकर उसको पीने को दिया। कहा, बतख का शोरबा है। उसने चखा, उसने कहा, यह तो सिर्फ गर्म पानी मालूम होता है; इसमें बतख तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। उसने कहा कि खाक दिखाई पड़ेगी, यह शोरबे के शोरबा का शोरबा का शोरबा…सिर्फ पानी बचा है अब!

विचार से और विचार निकल आते हैं। पहला विचार ही व्यर्थ था, दूसरा और भी व्यर्थ होता है। तीसरा और भी व्यर्थ होता है। अंत में तुम्हारे पास विचारों की भीड़ लग जाती है, जिनमें सार्थकता कुछ भी नहीं होती।

मिलते गये हैं मोड़ नए हर मुकाम पर

बढ़ती गई है दूरी-ए-मंज़िल जगह-जगह।

और एक-एक मोड़ नए मोड़ ले आता है और तुम बढ़ते जाते हो, और मंजिल दूर होती जाती है। और जितने तुम चलते जाते हो विचारों में उतने ही तुम अपने से दूर होते जाते हो, क्योंकि वही मंजिल है।

अगर उस स्वयं को पाना हो तो लौटो उलटे, चलो गंगोत्री की तरफ! छोड़ो एक-एक विचार को। और जब तुम आखिरी विचार पर आओगे, तब तुम्हें पता चलेगा: यह मेरा पक्षपात था, जिससे सारी यात्रा शुरू हुई। उस पक्षपात को भी गिरा दो। निर्विचार तुम्हारे भीतर उठेगा। उस निर्विचार में ही समयसार है।

और जब तक वैसी शुद्ध दर्पण की दशा न आ जाये, तब तक तुम जिंदगी को तो जानोगे ही नहीं, न अपने को जानोगे। क्योंकि तुम चूकते ही रहोगे। जिंदगी है प्रतिपल अभी और यहां–और विचार तुम्हें उससे मिलने नहीं देता, क्योंकि विचार सदा कहीं और है–या तो भविष्य में या अतीत में। या तो अतीत की स्मृतियों से जुड़ा है विचार, जो कल हो चुका, परसों बीत चुका–उसका सब संग्रह। उसकी तुम उधेड़-बुन में लगे रहते हो। और या भविष्य…।

मुल्ला नसरुद्दीन को नींद न आती थी। एक डाक्टर ने कहा कि तू ऐसा कर भेड़ें गिन; भेड़ें गिनने से बड़ा लाभ होता है, गिनते-गिनते नींद आ जाती है। गिनते गए; एक, दो, तीन, हजार, दस हजार, लाख, जहां तक…बस चलते गए, चलते गए। एक ऐसी घड़ी आयेगी कि थककर तू नींद में गिर जाएगा। मुल्ला ने कहा, ठीक। उसने भेड़ें गिननी शुरू कीं। वह कई लाख पर पहुंच गया। उसने कहा, ऐसे तो बढ़ते गये तो ये तो करोड़ों अरबों हो जायेंगी। फिर करेंगे क्या इनका? तो उसने सोचा, अब बेहतर है कि अब इनका ऊन निकालना शुरू करें, बजाय इसके कि गिनते ही जाने से। उसने ऊन निकालना शुरू किया। अब वह लाखों भेड़ों का ऊन, गांठों पर गांठें लग गयीं! उसने सोचा, ऐसे अगर ऊन इकट्ठा करते गए तो कहां, रखेंगे कहां? गोदाम मिलते कहां आजकल? रखने की जगह कहां है? वर्षा सिर पर आ रही है। यह तो मुश्किल है। इसके कोट-कपड़े बनवाना शुरू कर दो। तो कंबल, कोट, कपड़े…लेकिन इतना ढेर हो गया कि वह एकदम घबड़ाया कि बाजार की हालत तो वैसे ही खराब है, खरीददार तो मिलता नहीं, मारे गये! तो वह आधी रात में चिल्लाया: बचाओ, बचाओ! तो उसकी पत्नी घबड़ाकर उठी। उसने कहा, हुआ क्या? उसने कहा, हुआ क्या…मर गये, लुट गये! पत्नी ने कहा, क्या, हुआ क्या? कोई सपना देखा, उसने कहा, सपना क्या, नींद तो आयी नहीं अभी। यह तो वह जो डाक्टर ने कहा था, भेड़ गिनो…कहां का नासमझ आदमी। भेड़ें गिनीं, ऊन काटा, कपड़े बनाये, बाजार में बेचने खड़े हो गये…खरीददार नहीं है। और इतना सब बना लिया है कि बरबाद हो जायेंगे।

विचार एक के बाद एक चलते चले जाते हैं–या तो अतीत के होते हैं या भविष्य के होते हैं। तो या तो स्मृति पैदा करते हैं वे और स्मृति के घावों को उघाड़ते हैं, या फिर कल्पना पैदा करते हैं और कल्पना से वासना को उकसाते हैं। तो या तो तुम अपने घावों को कुरेदते रहते हो, जो कि बड़ी व्यर्थ प्रक्रिया है और खतरनाक भी; क्योंकि उनसे घाव हरे बने रहते हैं। लौट-लौटकर, किसी ने गाली दी थी, तुम सोचने लगते हो; लौट-लौटकर क्रोधित होने लगते हो।

कभी तुमने खयाल किया! अगर तुम विचार करने बैठ जाओ और ठीक से स्मृति को जगाओ तो जब तुम्हें किसी ने गाली दी थी और अपमान किया था, तो उसकी स्मृति ही न आएगी; तुम अचानक पाओगे, फिर तुम्हारे रग-रेशे में क्रोध आ गया, तुम्हारे रोएं-रोएं में फिर क्रोध दौड़ गया! तुम फिर कुछ करने को उतारू हो गये! फिर घाव हरा हो गया।

या तो तुम घाव कुरेदते हो और या तुम भविष्य में कामना को उकसाते हो।

दोनों खतरनाक हैं। क्योंकि सभी कामनाएं आज नहीं कल विषाद में रूपांतरित हो जाएंगी। सभी कामनाएं आज नहीं कल घाव बन जायेंगी। जो अभी भविष्य है, कल अतीत हो जायेगा।

अगर कोई विचार न हो चित्त में तो तुम यहां होते हो–अभी। न कोई अतीत, न कोई भविष्य–यह वर्तमान का क्षण तुम्हें समग्रता से घेर लेता है।

गए हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन

कभी बहार से पहले, कभी बहार के बाद

–बगीचे में जाने से सार क्या?

गए हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन,

–बहुत बार गए हैं, अनेक बार गए हैं!

कभी बहार से पहले, कभी बहार के बाद

–या तो वसंत के पहले जाते हैं या वसंत जब बीत जाता है तब जाते हैं। हर हालत में पतझड़ हाथ लगता है।

तो अस्तित्व का जो बगीचा है वह तो अभी और यहां है। वर्तमान उसका ढंग है। तुम जाते हो–या तो जब बीत चुकी बहार या अभी जब आयी नहीं; या तो अतीत के ढंग से या भविष्य के ढंग से।

निर्विचार में जो खड़ा है वह वर्तमान से जुड़ता है। उसका सीधा-सीधा संबंध हो जाता है। वह आमने-सामने खड़ा होता है। यह प्रतीति, यह साक्षात्कार, महावीर कहते हैं, समयसार।

“साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन करना चाहिए। निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिए। ये तीनों आत्मरूप ही हैं। अतः निश्चय से आत्मा का सेवन ही उचित है।’

दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।

ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो।।

इस वचन के जो भी अनुवाद किए गए हैं, उनमें थोड़ा-सा फर्क मालूम होता है। और फर्क बहुमूल्य है। जिन्होंने अनुवाद किये हैं–जैन साधु, मुनि अनुवाद करते हैं। अनुवाद में उनका व्यक्तिगत पक्षपात उतर जाता है। जैसे दंसणाणचरित्ताणि: दर्शन, ज्ञान और चरित्र; सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं: इनका नित्य सेवन, यही साधु का लक्षण है। लेकिन अनुवाद क्या किया जाता है: साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन करना चाहिए। चाहिए कहीं मूल सूत्र में नहीं है। मूल सूत्र में तो सिर्फ व्याख्या है कि साधु कौन। साधु का कर्तव्य नहीं गिनाया है, साधु की परिभाषा है। साधु कौन? जो नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का सेवन करता है–पालन भी नहीं। मूल शब्द है: सेविदव्वाणि–जो सेवन करता है; पालन नहीं; जो भोजन करता है; जो उपभोग करता है; जो भोगता है। साधु है वह जो दर्शन, ज्ञान और चरित्र का नित्य भोग करता है।

अब बात साफ हो सकती है। पहले तो नित्य, प्रतिपल, वर्तमान में; न तो बीते कल में न आनेवाले कल में–अभी और यहां भोग करता है। असाधु या तो अतीत में भोगता है या भविष्य में।

गये हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन

कभी बहार से पहले कभी बहार के बाद।

–वह असाधु। साधु वह जो अभी और यहीं के द्वार से अस्तित्व में प्रवेश करता है; जो “अब’ के द्वार से अस्तित्व में प्रवेश करता है; जो यहां और ठीक अभी साक्षात्कार करता है अस्तित्व का।

सेवन…”सेवन’ बड़ा प्यारा शब्द है! इसका भोग करता है।

जैन मुनि “भोग’ शब्द को लाने में अड़चन अनुभव किए होंगे। “सेवन करता है’ उनको लगा होगा, इसे “करना चाहिए’ में बदलो।

यह हमारे सारे शास्त्रों के साथ होता है। जहां “है’ की सूचना है वहां “होना चाहिए’, हम अनुवाद करते हैं। जहां केवल “है’ की सूचना है–जैसे कि आग जलाती है, यह तो ठीक है; लेकिन आग को जलाना चाहिए, तब अड़चन हो गयी। कोई ऐसा अनुवाद न करेगा कि आग को जलाना चाहिए, क्योंकि आग इस तरह की बकवास को मानती ही नहीं। वह तो जलाती है। “चाहिए’–वासना, कामना आ गयी; भविष्य आ गया। “चाहिए’ का अर्थ ही हुआ कि कल हो सकेगा, आज नहीं हो सकता। “चाहिए’ का मतलब ही यह हुआ कि जो है नहीं; कोशिश करके लाना होगा। तो कोशिश में तो समय लगेगा। दिन लग सकते हैं, वर्ष लग सकते हैं, जन्म लग सकते हैं। कौन जाने कितना समय लगेगा तब हो पायेगा!

लेकिन साधारणतः दूसरे सुननेवाले भी इस अनुवाद से राजी होते हैं, क्योंकि उनको भी सुविधा मिल जाती है। वे भी कहते हैं, “चाहिए’ ठीक है। कल पर स्थगित करने का उपाय है। तो कल कर लेंगे। साधुता कल, असाधुता आज!

तुमने देखा, अगर दान देना हो तो तुम कहते हो देंगे; क्रोध करना हो तो तुम नहीं कहते, करेंगे। तुम कहते हो, करते हैं अभी! क्रोध होता है। और करुणा? करनी चाहिए! यह बड़े मजे की बात है। अगर दान देना है, तो तुम कहते हो, करेंगे!

एक मित्र संन्यास लेने आये थे, वे कहने लगे, सोचता हूं! बहुत दिन से सोच रहा हूं। अभी भी विचार कर रहा हूं, अभी भी पक्का नहीं कर पाता।

मैंने उनसे पूछा, क्रोध के संबंध में सोचते हो कि बिना ही सोचे पक्का कर लेते हो? वे कहने लगे कि क्रोध के संबंध में तो हालत उलटी है: सोचते हैं कि न करें और होता है। और संन्यास के संबंध में हालत यह है कि सोचते हैं कि लें, और नहीं होता।

हमने शुभ को, श्रेष्ठ को, सत्य को, शिवम् को टालने के उपाय किए हैं। तो इसलिए इन अनुवादों पर कोई एतराज भी नहीं करता। यह सिर्फ सूचक हैं।

महावीर कह रहे हैं:

दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।

वही है साधु, वही है साहु, जो नित्य सेवन कर रहा है दर्शन, ज्ञान, चरित्र का। जो कल पर नहीं छोड़ रहा है; जो अभी और यहीं जी रहा है; जिसने भविष्य के साथ नाते तोड़ लिए। भविष्य के साथ जिसका नाता है, वही गृहस्थ। क्योंकि गृहस्थ का अर्थ है: वासना, कामना; कल भोगेंगे। और गृहस्थ की भूल यही है कि कल आएगी मौत, तुम भोग न पाओगे। तुम कल पर टालते जाओगे, एक दिन मौत आ जायेगी। तुम्हारा सब टाला हुआ, टाला हुआ रह जायेगा।

महावीर इतना ही कह रहे हैं कि शुभ को टालना मत, स्थगित मत करना; जब शुभ का भाव उठे, तत्क्षण भोग लेना।

अशुभ को टालना; क्योंकि टल जाये तो अच्छा। अशुभ को कल पर छोड़ना!

मेरे देखे ऐसा है कि अगर तुम अशुभ को कल पर छोड़ो तो उसी तरह अशुभ न हो पायेगा जैसे अभी शुभ नहीं हो पा रहा है। कल पर छोड़ा, होता ही नहीं। तुम जरा करके देखो! कोई तुम्हें गाली दे, तुम कहो कि चौबीस घंटे बाद क्रोध करेंगे। अगर तुम कर लो चौबीस घंटे बाद क्रोध तो चमत्कार है। हो नहीं सकता। चौबीस घंटे! चौबीस क्षण तो रुको, क्रोध असंभव हो जायेगा।

अब्राहम लिंकन के जीवन में उल्लेख है, एक आदमी, मित्र उनका, बड़ा क्रोधित आया। किसी ने उसको पत्र लिखा था और बड़ी ऊलजलूल बातें लिखी थीं। लिंकन ने कहा, “बैठो इसी वक्त जवाब दो। और दिल खोलकर जवाब दो! डरने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारा मित्र भी हूं, तुम्हारा वकील भी हूं। यह हद्द हो गयी! लिखो दिल खोलकर! जो भी गालियां तुम्हें लिखनी हैं, लिख डालो पूरा।’ वह आदमी भी थोड़ा चौंका! ऐसा उसने सोचा ही न था कि लिंकन यह कहेंगे। पर वह बैठ गया लिखने। दिल तो भरा था। दिल खोलकर उसने गालियां दीं। लिंकन उसे उकसाता था, उकसावा देते रहे कि तू डर मत, लिख, सब लिख डाल! सब मवाद निकाल दे! कागज पर कागज, उसने गालियां और ऊलजलूल बातों के सब उत्तर दे डाले। और जब वह पूरा लिखकर उसने हलकी सांस ली, लिंकन ने कहा, ला अब यह पत्र मुझे दे दे। उसने कहा, पता तो लिख देने दो। तो उसने कहा, पता लिखने की कोई जरूरत नहीं। भेजने की कोई जरूरत नहीं। भेजेंगे सात दिन बाद। सात दिन बाद तू आना, फिर इसको पढ़ लेना। अगर तू सात दिन बाद कहे कि भेजना है तो भेज देंगे। उस आदमी ने कहा, ठीक है। कोई हर्जा नहीं। वह सात दिन बाद आया, उसने पत्र देखा। उसे भरोसा ही न आया कि मैं और ऐसा पत्र लिख सकता हूं।

सात दिन में आग सब ठंडी हो गयी, अंगारे बुझ गये। दी गयी गालियां उतनी महत्वपूर्ण न मालूम पड़ीं। उत्तर व्यर्थ मालूम पड़े। वह आदमी तो पागल मालूम ही पड़ा। अपना पत्र देखा तो उसने कहा, यह मेरा भी दिमाग खराब है। इसको जवाब नहीं देना, मेरे दिमाग के लिए कुछ उपाय बताओ, इस तरह की बातें मेरे मन में उठती हैं! अच्छा ही हुआ, उस आदमी ने कहा कि उसने यह पत्र लिखा। उसके पत्र के बहाने मुझे मेरी आत्मा के दर्शन तो हो गये थोड़े कि यह सब मेरे भीतर भरा पड़ा है।

मैं तुमसे कहता हूं अगर क्रोध को तुम कल पर टाल दो तो उसी तरह टल जायेगा, जैसे करुणा अभी तक टलती आयी है।

अशुभ को अगर तुम कहो, करेंगे भविष्य में, तो अशुभ भी उसी तरह विदा हो जायेगा तुम्हारे जीवन से जैसे शुभ विदा हो गया है।

महावीर कहते हैं, साधु वह है जो दर्शन, ज्ञान और चरित्र का अभी पालन कर रहा है, अभी सेवन कर रहा है। और “पालन’ से “सेवन’ शब्द ज्यादा बेहतर है, क्योंकि पालन में ऐसा लगता है कि कुछ चेष्टा करके आयोजन करके अपने को बांध रहा है; कोई अनुशासन। “सेवन’ में ऐसा लगता है: कुछ अनुभव में आ रहा है, उसको भोजन बना रहा है; उसको अपने रक्त, मांस-मज्जा में मिला रहा है।

“निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिए। ये तीनों आत्मरूप ही हैं।’

ये अलग-अलग नहीं हैं। यह जैनों की त्रिवेणी है या त्रिमूर्ति। क्योंकि ईश्वर का तो कोई भाव जैनों के पास नहीं है। सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चारित्र्य–ये उनके शिव, ब्रह्मा, विष्णु हैं। यह उनकी त्रिमूर्ति है। यह उनकी ट्रिनिटी है। और ये तीनों आत्मा के ही तीन रूप हैं। ये तुम्हारे होने की शुद्धता में प्रगट होते हैं। ये आत्मा ही हैं।

“अतः निश्चय से आत्मा का सेवन ही उचित है।’

यह बड़ा अदभुत वचन है! अपना ही भोजन उचित है। अपना ही भोग उचित है। अपने को ही पीयो, अपने को ही भोगो।

हम साधारणतः जीवन में दूसरे को भोगने का आयोजन करते हैं। “पर’ का हम सेवन करना चाहते हैं।

महावीर कहते हैं, “पर’ का सेवन करते-करते तो तुम संसार में भटक गये हो। अब तुम अपना ही सेवन करो। तुम अकेले अपने एकांत को ही भोगो। तुम अपने स्वभाव में डूबो। तुम्हारे भीतर जो छिपा है, इसके साथ नाचो, इसी को संगी-साथी बनाओ! भीतर होने दो रास!

तुमने अपने साथ संबंध ही नहीं जोड़े। तुम अपने से कभी आलिंगन नहीं किए। तुमने अपने को कभी चूमा नहीं, अपना कभी भोजन नहीं किया। अपना सेवन करो!

सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया

खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ।

और जब तक बूंद सागर न हो जाये, तब तक मिट्टी है। और जब तक हृदय में छिपा हुआ गीत प्रगट न हो जाये, तब तक वह हृदय का घाव है।

सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया

खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ।

हमारे जीवन में जो इतनी पीड़ा है, यह पीड़ा सिर्फ इसीलिए है कि हमारे भीतर जो पड़ा है, छिपा है, वह प्रगट नहीं हो पाया। जो गीत दबा पड़ा है हमारे प्राणों में, वह गाया नहीं गया। जो नाच हम छिपाये चल रहे हैं, वह नाचा नहीं गया। जो भोग हमारा स्वभाव है, वह भोगा नहीं गया। हमने अपने को अभिव्यंजना नहीं दी है। हमारा सितार ऐसा ही पड़ा है, उस पर हमने अंगुलियां नहीं नचायीं। वह सितार ऐसे ही धूल जमा पड़ा है। उससे विराट संगीत पैदा हो सकता था, उस तरफ हमने कोई ध्यान ही न दिया। हमारी नजरें दूसरे को तलाशती रहीं। हम दूसरे के संगीत में डूबने को आतुर रहे–और अपना घर भूल गये, अपना संगीत भूल गये। हमने और सब भोगा और हाथ सदा खाली पाए, और हमने उसे न भोगा जो हमारा था और जिसे भोगने से जीवन भर जाता।

कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से

मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती।

कितनी बार नहीं तुमने दोनों दुनियाओं को लूटकर अपने हृदय को भर देने की चेष्टा की है!

कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से

मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती।

लेकिन दिल है कि वह गरीब का गरीब, दीन का दीन, भिखारी का भिखारी, खंडहर का खंडहर, वहां कभी महल बन नहीं पाता–बनेगा भी नहीं। क्योंकि बाहर की तुम सारी दुनियाएं लूटकर ले आओ, तो भी कुछ न होगा, जब तक कि भीतर की दुनिया न लूटो। और भीतर की दुनिया कुछ ऐसी है–ऐसी अनंत कि भोगो और भोग के नये द्वार खुलते चले जाते हैं; रस लो, और नई रसधार बहती है। रसधार बड़ी होती जाती है, बड़ी होती जाती है। और कतरा एक दिन दरिया बन जाता है। बूंद एक दिन सागर हो जाती है।

तुम जब तक प्रगट न हो जाओगे अपनी परिपूर्ण महिमा में, तब तक दुखी रहोगे, घाव रहेगा। गीत गाना ही पड़ेगा। वह हमारी नियति है। अभिव्यंजित होना ही होगा, गूंजना ही होगा–एक परम संगीत से! एक दिव्य विभा से मंडित होना ही होगा!

अपनी महिमा को छिपाओ मत, भोगो!

हिंदू शास्त्रों में बड़े प्रसिद्ध वचन हैं:

आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः।

सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृति।

स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः।

आहार शुद्धि से सत्व शुद्धि; सत्व शुद्धि से स्मृति का लाभ; और स्मृति-लाभ से ग्रंथियों का खुलना; और समस्त उलझनों का अंत, समाप्ति, विप्रमोक्ष।

साधारणतः लोग यही अर्थ करते हैं, आहार शुद्धि से सत्व शुद्धि। यही अर्थ करते हैं: शुद्ध आहार। ब्राह्मण के हाथ का बनाया हुआ आहार। इसका गहरा अर्थ खयाल में नहीं आता: शुद्ध का आहार! परम शुद्ध का आहार! सत्व का आहार! वह जो तुम्हारे भीतर छिपा है, उसका आहार!

महावीर वर्षों तक उपवास किए, महीनों उपवास किए, दिनों उपवास किए! लेकिन उन्होंने अपने इस उपवास को उपवास कहा, निराहार न कहा; अनशन न कहा, उपवास कहा। उपवास का अर्थ है: अपने पास होते जाना; अपने निकट होते जाना। जो उपनिषद का अर्थ है, वही उपवास का अर्थ है। अपने पास, अपने पास, और पास होते चले जाना! निराहार न कहा अपने उपवास को, क्योंकि वह गलत जोर होता। भोजन नहीं किया, यह तो गौण बात है। अपना भोजन किया, यह महत्वपूर्ण बात है। आत्म-आहार किया। और आत्म-आहार से ऐसे भर गये कि भोजन कि जरूरत न रही। वह गौण बात है।

तुमने कभी खयाल किया! प्रेम के बहुत गहरे क्षणों में भूख नहीं लगेगी। कभी-कभी तुम चकित होओगे…एक महिला ने मुझे कहा…मैं यह बात कर रहा था। उसने सुनी, वह मुझसे मिलने आयी। उसने कहा कि एक बात आपसे कहनी है, मेरे जीवन में अटकी रही है सदा से। उसकी सास की मृत्यु हुई सांझ के वक्त। जैनों की “अंथऊ’ का समय। सूरज ढल गया, फिर भोजन तो हो नहीं सकता। सास मर गई बेवक्त। सासों के ढंग…! अब वह कोई ढंग का वक्त भी चुन सकती थी। दोपहर में मरती, रात मरती ठीक; अंथऊ के वक्त मर गई! तो भोजन तो हो नहीं सका; पड़ा रह गया। और ऐसा भी नहीं कि इस बहू का अपनी सास से कुछ विरोध रहा हो–बड़ा लगाव था। तो उस समय तो कुछ खयाल नहीं आया, लेकिन जैसे रात बढ़ने लगी, उसकी भूख बढ़ने लगी। इधर रो भी रही। सास ने उसे अपनी बेटी की तरह रखा था, बहुत गौरव से रखा था। वह मर गयी तो दुख स्वाभाविक था। रो रही है, दुखी हो रही है। लेकिन पेट में भूख लग रही है! और आधी रात भूख इतनी ज्यादा बढ़ गयी कि वह महिला चकित हुई। भूख इतनी बढ़ गयी कि उसे जाकर चोरी से अपने चौके में कुछ भोजन करना पड़ा। उसकी ग्लानि उसके मन में रह गयी।

और यह जो महिला, जिसने मुझे यह कहा, वह आठ-आठ दस-दस दिन के उपवास कर लेती है; इसलिए उसे भी बड़ा चक्कर मालूम हुआ कि “यह हुआ क्या! मैं आठ-आठ दस-दस दिन उपवास कर लेती हूं और कभी भूख ने मुझे ऐसा नहीं सताया कि उपवास तोड़ना पड़ा हो! और यह सास का मरना और इतना मेरा लगाव! तो एक अपराध-भाव उसके मन में अटका रह गया। किसी को भी उसने कहा नहीं–अपने पति को भी नहीं कहा, क्योंकि वह भी दुखी होंगे यह बात सोचकर कि मेरी मां मर गयी और तूने रात चोरी से भोजन किया। उसने मुझे कहा और कहा कि आप किसी को कहना मत! मुझे यह उलझन रह गयी है।

मैंने उससे कहा कि इससे विपरीत भी तुझे कभी हुआ? कभी आनंद के क्षण में, भूख न लगी हो? उसने कहा, “हां, यह भी मुझे हुआ। आप भी जब मेरे घर में आते हो तो मैं भोजन नहीं कर पाती। मैं इतनी प्रसन्न हो जाती हूं कि वर्ष में आप दो दिन के लिए आते हो, कि दो दिन मैं भोजन नहीं कर पाती; बस ऐसे ही चाय इत्यादि से काम चल जाता है। भूख ही नहीं लगती, ऐसा कुछ भरापन मालूम होता है।’

जब भी तुम आनंदित होओगे, तुम हैरान हो जाओगे कि पेट भरा है! तुम इतने भरे हो, इतने भीतर भरे हो कि पेट का खालीपन पता न चलेगा। प्रेम के बहुत गहरे क्षणों में भूख न लगेगी। दुख के क्षणों में भूख लगेगी। दुख में तुम एकदम खाली हो जाओगे। दुख में न केवल पेट खाली हो जायेगा, आत्मा भी खाली हो जायेगी।

इसलिए अकसर जिसने तुम्हारे जीवन को बहुत गहराई से भरा था, अगर वह मर जायेगा तो तुम्हें तत्क्षण भूख लगेगी। बेचैनी होगी तुम्हें यह सोचकर कि यह कोई वक्त है भूख लगने का। क्योंकि भोजन को तो हम उत्सव मानते हैं। दुख में तो कोई भोजन करता नहीं। पास-पड़ोस के लोगों को भोजन बनाकर लाना पड़ता है खिलाने अगर कोई मर जाये किसी के घर में; क्योंकि वह अपना चूल्हा जलाये तो वह भी तो अशुभ मालूम पड़ता है। यह कोई वक्त है! किसी का पति जल गया हो और वह चूल्हा जलाकर भोजन बना रही! चूल्हा नहीं जलता दिनों तक। लेकिन जब कोई निकटतम तुम्हारा मर जायेगा, तो न केवल तुम्हारा शरीर खाली हो गया, उसने तुम्हारी आत्मा के भी एक हिस्से को घेरा था, वह भी खाली हो गया। और खालीपन ऐसा मालूम होगा कि लगेगा कुछ भोजन कर लो।

कल ही एक संन्यासी ने मुझे कहा, कि विपस्सना का दस दिन प्रयोग करने के बाद, दसवें दिन, आखिरी दिन, उसे ऐसा लगा कि शरीर से आत्मा अलग हो गयी है। कोई आधी रात के वक्त, वह घबड़ा गया! यह अनुभव इतना प्रगाढ़ था और इतना साफ था कि मैं आत्मा से अलग हूं, कि उसे लगा कि अब मौत होने के करीब है। और जो पहली बात उसे याद आयी वह यह कि कुछ खाओ, जल्दी कुछ खाओ। जो कुछ भी उसे मिल सका आधी रात…होटल में रहता है…आधी रात जो कुछ भी मिल सकता है जगाकर, कुछ भी, उसने जल्दी अपना पेट भर लिया। उसने कल मुझे कहा कि यह मैंने कुछ गलत तो नहीं किया है? क्योंकि करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि कुछ भूल हो गयी। क्योंकि वह अनुभव तत्क्षण खो गया। लेकिन उस क्षण में मुझे इतने जोर की भूख लगी, जैसी मुझे कभी लगी न थी।

शरीर आत्मा से अलग होता हुआ मालमू पड़े, एक खालीपन मालूम होगा। और भरने का हम एक ही उपाय जानते हैं–पेट को भर लो; और हमें कोई उपाय नहीं मालूम। अगर इस क्षण में यह युवक अपने को प्रेम से भर लेता या आनंद से भर लेता तो यह अनुभव और ऊंचे शिखर पर पहुंच जाता। इसने शरीर से भर लिया। इसने इस क्षण में शरीर का सेवन कर लिया। भोजन मतलब शरीर। भोजन–जो शरीर बन जायेगा; अभी भोजन है, कल शरीर बन जायेगा। भोजन यानी बीज रूप से शरीर। इसने शरीर से भर लिया। यह क्षण था जब इसे आत्मा से भरना था। नाच उठता! गीत गाता! आंदोलित हो उठता आनंद से! प्रेम को जगाता! आत्मा से भरता! आत्मा का सेवन करता! तो यह घड़ी बड़ी गहरी हो जाती। यह अनुभव चिरस्थायी हो जाता। चूक हो गयी।

महावीर कहते हैं, “आत्मा से ही आत्मा का सेवन उचित है।’

आत्मा से आत्मा का भोजन, आत्मा से आत्मा का भोग ही उचित है।

आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः।

–आहार के शुद्ध होने से सत्व शुद्ध हो जाता है।

यह आहार की शुद्धि को तुम ब्राह्मण के द्वारा बनाया गया आहार मत समझना। इसे तो तुम समझना ब्रह्म के द्वारा बनाया गया आहार–वह जो तुम्हारे भीतर की अंतर्आत्मा है, जिस पर ब्रह्म के हस्ताक्षर हैं।

सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।

–और जिसने उस आत्मा का आहार कर लिया उसकी स्मृति ध्रुव हो जाती है। उसका बोध थिर हो जाता है। यही तो मैंने उस संन्यासी को कहा कि उस क्षण में आत्मा का आहार कर लिया होता, तो स्मृति ध्रुव हो जाती।

स्मृति का अर्थ यहां याददाश्त नहीं है। यहां स्मृति का अर्थ है परमात्मा का स्मरण, या आत्मा का स्मरण।

जिसको महावीर सम्यक दर्शन कह रहे हैं; वह थिर हो जाता है, उसकी लकीर खिंच जाती अमिट। फिर भूले न भूलती। फिर मिटाये न मिटती।

सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।

–और आत्मा के शुद्ध आहार से जब भीतर का सत्व शुद्ध होता है तो स्मृति धु्रव हो जाती है।

स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः।

–और स्मृति से, स्मृति के लाभ से सारी ग्रंथियां खुल जाती हैं–जिसको महावीर कहते हैं निर्गं्रथ दशा–सब गांठें खुल जाती हैं। और जो शेष रह जाता है–वही मोक्ष, वही समाधान, समाधि, विप्रमोक्ष! फिर कुछ और करने को शेष नहीं रह जाता।

“जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ नहीं करता है, और न कुछ छोड़ता है उसी को निश्चय-नय से मोक्ष-मार्ग कहा है।’

णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।

ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।।

बड़ी अदभुत बात महावीर कह रहे हैं! जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है–सम्यक ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य से समाहित! समाहित का अर्थ है, जिसके लिए ये ऊपर से थोपे गये नियम नहीं–जो इन्हें पचा गया; जो इसको इस भांति पी गया, इस भांति कि मांस-मज्जा बन गयी, समाहित हो गया! अब ऐसा नहीं कि वह चेष्टा करता है चारित्र्य की, कि मैं ठीक करूं और गैर-ठीक न करूं। ऐसा भी नहीं कि वह चेष्टा करता है ज्ञान को पकड़ने की, दर्शन को पकड़ने की। नहीं, ये सब समाहित हो गए।

तुमने भोजन किया…तो भोजन की दो घटनाएं घट सकती हैं। तुमने भोजन किया–या तो भोजन समाहित हो जायेगा और या अपच हो जायेगी। अपच होगी तो भोजन बिना पचा शरीर के बाहर फेंक देना होगा। वमन से निकले, मल-मूत्र से निकले–लेकिन अगर अपच हुआ तो उसे शरीर से बाहर फेंक देना होगा वैसा का वैसा। उसमें जो छिपा हुआ सत्व है, तुम्हारा हिस्सा न बन पाएगा। समाहित का अर्थ है: पच जाये। तो जो कूड़ा-कचरा है वह बाहर निकल जायेगा; जो सार-सार है वह तुम्हारे खून में, लहू में बहने लगेगा। वह तुम्हारे हृदय में धड़केगा, तुम्हारी आंखों से देखेगा, तुम्हारे मस्तिष्क से सोचेगा। वह तुम्हारे भीतर का हिस्सा हो जायेगा।

एक बार जो अन्न पच गया, फिर तुम्हें उसकी चिंता नहीं करनी होती कि अब वह क्या कर रहा है; खून ठीक चल रहा है कि नहीं; मस्तिष्क सोच रहा है या नहीं; हड्डी, मांस-मज्जा बन रही है या नहीं। तुम तो गले के नीचे उतार लेते हो भोजन को, फिर बात खतम हो गयी। अगर न पचे तो अड़चन होती है।

पंडित है ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान समाहित नहीं हुआ। ज्ञानी है ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान समाहित हो गया।

पंडित है ऐसा व्यक्ति जिसको अपच हो जाता है। भर लेता है ज्ञान को, लेकिन वह ज्ञान कहीं उसके जीवन की धारा का अंग नहीं होता; वह धारा में कंकड़-पत्थर की तरह पड़ा रहता है, धारा के साथ बहता नहीं।

समाहित का अर्थ है: जिसे तुम भूल जाओ, फिर भी तुम्हारे साथ हो; जिसकी तुम्हें चेष्टा न करनी पड़े, सहज तुम्हारे साथ हो। सहज-स्फूर्त यानी समाहित।

“जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ भी नहीं करता…’

अन्य कुछ की कोई जरूरत नहीं, ये तीन काफी हैं। इन तीन में सब हो जाता है। और न कुछ छोड़ता है। यह जैन मुनियों को बड़ी तकलीफ होगी सोचकर: न कुछ करता न कुछ छोड़ता; क्योंकि छोड़ना भी कृत्य है। छोड़ने में भी कर्ता आ जाता है और अहंकार आ जाता है। न तो पकड़ता और न छोड़ता, चुपचाप साक्षी-भाव से जीता है।

“उसी को निश्चय-नय से मोक्ष-मार्ग कहा है।’

वही है मुक्ति का मार्ग।

जो छोड़ने-पकड़ने में पड़ा वह अड़चन में पड़ेगा। वह यहां से वहां डोलेगा।

कभूं तो दैर में हूं, कभूं हूं काबे में

कहां-कहां लिए फिरता है शौक उस दर का।

वह उसके दरवाजे को कभी मंदिर में खोजेगा, कभी मस्जिद में खोजेगा, कभी यहां कभी वहां; और एक दरवाजा जहां कि वह छिपा है–स्वयं का–अनखुला रह जायेगा।

चमक सूरज में क्या रहेगी

अगर बेजार हो अपनी किरण से?

और जो व्यक्ति छोड़ने-पकड़ने में लग जायेगा, वह बेजार हो जायेगा। छोड़ने का मतलब है निंदा करनी होगी अपने कुछ अंगों की; शरीर की निंदा करनी होगी; धन की निंदा करनी होगी; कामवासना की निंदा करनी होगी, सबकी निंदा करनी होगी।

चमक सूरज में क्या रहेगी

अगर बेजार हो अपनी किरण से?

और ये अपनी ही किरणें हैं। अगर इनसे हम बेजार हो गये, और इनकी निंदा करने लगे और छोड़ने के चक्कर में पड़े गये, तो हम तोड़ते जायेंगे अपने को। लेकिन जीवन का अहोभाग्य इस दिशा से नहीं आता। जीवन का अहोभाग्य तो तब आता है जब जो भी हमें मिला है उसे हम रूपांतरित करने में कुशल हो जायें, समाहित करने में कुशल हो जायें।

कामवासना समाहित होकर ब्रह्मचर्य बन जाती है। क्रोध समाहित होकर करुणा बन जाता है। राग समाहित होकर प्रेम बन जाता है। हिंसा समाहित होकर अहिंसा बन जाती है। पचा लो! बेजार मत हो जाना! छोड़ने के उपद्रव में मत पड़ जाना! क्योंकि जो-जो तुम छोड़ दोगे, उस उसका रूपांतरण असंभव हो जायेगा। अगर क्रोध छोड़ दिया तो यह तो हो सकता है तुम अक्रोधी हो जाओ, लेकिन करुणावान न हो सकोगे। अगर कामवासना छोड़ दी, तो यह तो हो सकता है कि तुम काम-रहित हो जाओ, लेकिन ब्रह्मचर्य उपलब्ध न हो सकेगा। यह काम-रहितता वैसे ही होगी जैसे हम सांड को बैल बना देते हैं, ग्रंथि काट देते हैं, यंत्र को नष्ट कर देते हैं।

और तुम ऐसा मत सोचना कि यह जो मैं दृष्टांत दे रहा हूं, बड़े दूर का है। यह दूर का नहीं है। साधुओं ने यह सब किया है। रूस में साधुओं की एक जमात थी जो जननेंद्रिय काट लेती थी। काट देने से, एक अर्थ में तो हल हो जाता था। जब जननेंद्रिय ही न रही तो कोई उपाय न रहा। लेकिन ब्रह्मचर्य इस तरह उपलब्ध नहीं होता। ब्रह्मचर्य उपलब्ध तो तब होता है जब यह जीवंत ऊर्जा काम की समाहित होती है; जब तुम इसे बाहर नहीं फेंकते, भीतर पचा जाते हो; जब तुम इसे उछालते नहीं फिरते; जब यह ऊर्जा तुम्हारे भीतर ऊर्ध्वगमन बन जाती है।

क्रोध को काट देने से, कसम खा लेने से कि क्रोध न करूंगा, यह हो सकता है तुम दबा लो, दबाते जाओ, ऐसी घड़ी आ जाये कि किसी को भी पता न चले कि तुममें क्रोध है; लेकिन तुम्हें तो चलता ही रहेगा पता! तुम तो उसी के ऊपर बैठे हो। तुम तो ज्वालामुखी पर बैठे हो जो कभी भी फूट सकता है।

नहीं, करुणा पैदा न हो पायेगी। क्योंकि करुणा तो उसी ऊर्जा से निर्मित होती है जिससे क्रोध निर्मित होता है। ऊर्जा का दमन नहीं–ऊर्जा का रूपांतरण!

“इस दृष्टि से आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि होता है…।’

तो महावीर कह रहे हैं, फिर व्याख्या क्या होगी सम्यक दृष्टि की? जिसको गीता में स्थितिप्रज्ञ कहते हैं, उसी को महावीर सम्यक दृष्टि कहते हैं। स्थितिप्रज्ञ–जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गयी; सम्यक दृष्टि–जिसका दर्शन स्थिर हो गया है। एक ही बात है।

“आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि है। जो आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है वही सम्यक ज्ञान है और उसमें स्थिर रहना ही सम्यक चारित्र्य है।’

बड़ी अदभुत बात…! महावीर चरित्र यह नहीं कह रहे हैं जो तुम करते हो–उसमें चरित्र नहीं है। तुम जो हो…! साधारणतः हम सोचते हैं चरित्र का अर्थ है, जो हम करते हैं। अगर हमने क्रोध नहीं किया तो हम चरित्रवान हैं। अगर क्रोध किया तो हम चरित्रहीन हैं। अगर हमने कामवासना का संबंध बनाया तो हम चरित्रहीन हैं। अगर कोई कामवासना का संबंध न बनाया तो हम चरित्रवान हैं।

महावीर राजी न होंगे। महावीर कहेंगे, क्रोध किया या नहीं, यह सवाल नहीं–क्रोध है या नहीं? यह हो सकता है क्रोध किसी से भी न किया हो और क्रोध भीतर हो। तो भी वह कहते हैं, तुम सम्यक चारित्र्य को उपलब्ध न हुए।

“उसमें स्थित रहना ही सम्यक चारित्र्य है।’ आत्मा में स्थित रहना ही…! अपने में ऐसे खड़े हो जाना कि वहां से डांवांडोल न किए जा सको। वहां से तुम्हें कोई बाहर न ले जा सके–क्रोध या काम, कोई भी स्थिति “अप्पा अप्पम्मि रओ’–अपने में ही रमो! अपने में ही रम जाओ। अप्पा अप्पम्मि रओ। रमो अपने में! आपे में! कहीं और न जाओ! कहीं और न भटको!

सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।

–और यही है सम्यक दृष्टि हो जाने का मार्ग!

जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति।

यही है जानना, यही है देखना, यही है दर्शन, यही है चारित्र्य!

अप्पा अप्पम्मि रओ! “अपने में रम जाओ।’

हमारे पास जो शब्द है “स्वास्थ्य’, वह यही अर्थ रखता है: अप्पा अप्पम्मि रओ! स्वास्थ्य का अर्थ है: स्वयं में स्थित हो जाना। जब तुम बीमार होते हो तो तुम स्वयं में डांवांडोल हो जाते हो। सिर में दर्द है तो चेतना सिर के कारण डांवांडोल हो जाती है। पैर में कांटा लगा है तो कांटे के कारण चेतना डांवांडोल हो जाती है। जब तुम बिलकुल डांवांडोल नहीं होते–न सिर बुलाता, न पैर बुलाता, न पेट बुलाता–जब शरीर को तुम बिलकुल भूले रहते हो, ऐसा जैसा विदेह, है ही नहीं–तब तुम “स्वस्थ।’ यही तो आत्म-स्थिति की दशा है; जब तुम इतने अपने में लीन हो कि कोई गाली दे तो तुम बाहर नहीं आते। तुम वहीं अपने भीतर से सुन लेते हो, कोई परिणाम नहीं होता। तुम्हारी दशा में कोई भेद नहीं पड़ता। तुम वही रहते हो जैसा गाली देने के पहले थे; वैसे ही गाली देने के बाद रहते हो। गाली दी या न दी, बराबर। तुम पर कोई रेखा नहीं खिंचती, कोई खरोंच नहीं लगती। किसी ने सम्मान किया, तुम फूल नहीं जाते। तुम्हारे अहंकार का गुब्बारा बड़ा नहीं होने लगता। तुम वैसे ही रहते हो जैसे थे, कोई अंतर नहीं पड़ता।

रवींद्रनाथ को जब नोबल प्राइज मिली और वे वापिस कलकत्ता लौटे, तो कलकत्ते में बड़ा संकट था। अनेक लोगों को बड़ी चोट लगी थी कि रवींद्रनाथ को नोबल प्राइज मिल गयी। तो बंगाली बड़े नाराज भी थे। एक संपादक अखबार का जूतों की माला लेकर पहुंच गया स्वागत करने के लिए। तो सोचा था उसने कि रवींद्रनाथ खिन्न होंगे, नाराज होंगे, लेकिन रवींद्रनाथ के “कवि’ में कुछ “ऋषि’ का अंग था। इसलिए उनकी गीताजंलि में उपनिषदों की झलक है। कुछ उड़ानें उन्होंने उस आकाश में भी भरी थीं जहां ऋषि ही प्रवेश करते हैं। वे सिर्फ सामान्य कवि नहीं थे। उस आदमी को जूतों की माला लिए देखकर वे उसके पास गये, क्योंकि वह भीड़ में पीछे खड़ा था। थोड़ा संकोच भी लग रहा था। दूसरे फूलमाला लाए थे, वह जूतों की माला लाया था। उसको संकोच में देखकर उनको थोड?ा अच्छा भी न लगा। वे फूलों की माला छोड़कर उसके पास गये, और कहा कि अब ले ही आये हो तो पहना दो। वह आदमी और लज्जा से भर गया। वह जूते की माला पटककर भाग खड़ा हुआ। तो रवींद्रनाथ ने उसमें से एक जोड़ी चुन ली अपने पहनने के लायक, पैर के लायक जो जोड़ी थी वह पहन ली और वे चल पड़े घर की तरफ। उन्होंने कहा कि ठीक किया, मेरे जूते रास्ते में खो भी गए थे! यह आदमी भी वक्त पर ले आया! और जूते की दुकान पर जाने की झंझट से बचा दिया! और माला लाया तो काफी जूते लाया था, तो दो उनके नाप के मिल भी गये।

जब तुम्हें बाहर का सम्मान और असम्मान कुछ अंतर न लाता हो, तुम्हारी मुस्कुराहट न तो जरा फीकी पड़ती हो, न जरा गहरी होती हो, तुम वैसे ही रह जाते हो जैसे तुम हो–स्वभाव में स्थिर! अप्पा अप्पम्मि रओ! तो तुम स्वस्थ! तो तुम आत्मज्ञान को उपलब्ध! तो यही है सम्यक दृष्टि हो जाना। और यही सम्यक चारित्र्य है–इसमें स्थिर होना ही!

तो चारित्र्य का अर्थ दूसरे से संबंध नहीं है। अगर चारित्र्य का अर्थ दूसरे से ही संबंध है तो हिमालय की किसी एकांत गुफा में बैठे हुए तुम चारित्र्यवान न हो सकोगे।

इसलिए ये दो शब्द एक जैसे हैं–चरित्र और चारित्र्य। इनका फर्क समझ लेना। चरित्र का अर्थ है: जिसका संबंध दूसरे से है। और चारित्र्य का अर्थ है: स्वयं में स्थित। तुमने गाली दी तो मैंने क्रोध किया–यह चरित्र। तुमने प्रशंसा की तो मैंने धन्यवाद दिया–यह चरित्र। तुमने गाली दी कि प्रशंसा की, मैंने कुछ भी न किया, मैं वैसा ही रहा जैसा था–यह चारित्र्य।

तो अगर तुम हिमालय की गुफा में बैठ जाओ तो चरित्र तो समाप्त हो जायेगा, क्योंकि चरित्र तो दूसरे के बिना हो ही नहीं सकता; लेकिन चारित्र्य…चारित्र्य प्रगट होगा। एकांत में भी प्रगट होगा, जैसा एकांत में फूल खिलता है! कोई नहीं निकलता पास से तो भी उसकी गंध हवाओं में फैलती है। रात सब सो गये होते हैं, तब भी तारा आकाश में चमकता रहता है। वह चारित्र्य है। उसका दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं।

तुम बैठे हो अपने कमरे में, अकेले, और कोई आया, दरवाजे पर दस्तक दी–तुम तत्क्षण बदल जाते हो, कोट-टाई ठीक करके बैठ जाते हो। यह चरित्र!

तुम स्नानगृह में स्नान कर रहे हो। आईने के सामने मुंह भी बना-बिचका रहे हो। तत्क्षण तुम्हें खयाल होता है कि बच्चा तुम्हारा ताली के छेद में से देख रहा है। तुम समझ जाते हो कि यह बाप के लिए योग्य नहीं कि मुंह बिचकाए, बनाए, कि नाचे-कूदे, स्नानागृह में। यह चरित्र! यह दूसरे के देखते ही बदल जाता है।

जिसका दूसरे से कोई संबंध नहीं, जिसका तुमसे ही बस संबंध है–वह है चारित्र्य।

अप्पा अप्पम्मि रओ।

“आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन है। आत्मा ही चारित्र्य है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात ये सब आत्मरूप ही है।’

आया हु महं नाणे

“ज्ञान, आत्मा ही मेरा ज्ञान है।’

आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरित्ते य।

“और दर्शन और चरित्र भी मेरी आत्मा…।’

आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे।

“और आत्मा ही प्रत्याख्यान। और आत्मा ही व्रत-नियम, आत्मा ही संयम और योग अर्थात ये सब आत्मरूप ही हैं।’

महावीर के लिए आत्मा शब्द परम है। और जिसने उसमें थिरता पाली, सब पा लिया।

अगर तुमने त्याग किया दूसरों को दिखाने के लिए तो वह चरित्र हो गया, चारित्र्य नहीं। अगर तुमने त्याग किया भीतर के परम आनंद से, तो चारित्र्य। अगर तुम्हारा ज्ञान दूसरों से आया है तो वह ज्ञान नहीं। अगर तुम्हारा ज्ञान भीतर से आविर्भूत हुआ है तो ज्ञान। जो गीत तुमने दूसरों की नकल पर गुनगुनाया है, वह गीत नहीं। जो गीत सद्यःस्नात, अभी ताजा नहाया हुआ तुम्हारी अंतरात्मा से उठा है, अलौकिक, अद्वितीय, नितनूतन, यद्यपि सनातन–वही गीत! वही गीत वेद बन जाता है! वही गीत ऋचाएं! वही गीत उपनिषद बन जाते हैं।

महावीर का सारा जोर एक बात पर है कि तुम किसी तरह अपने घर लौट आओ। आपे में आ जाओ! अपने में आ जाओ! दूसरे में बहुत भटक लिए–दूसरे में होना ही संसार है। तो जो तुमने दूसरे के लिए किया, दूसरे को सोचकर किया, दूसरे की आशा-अपेक्षा में किया–वह सब संसार है। दूसरे से आशा-अपेक्षा छोड़ो! दूसरे से दृष्टि हटाओ। तुम वहीं लीन हो जाओ जो तुम हो। यही संयम, यही योग!

इश्क भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में

या तो खुद आशकार हो, या मुझे आशकार कर।

दो ही उपाय हैं। या तो हम परमात्मा से कहें: या तो खुद आशकार हो–या तो खुद को प्रगट कर; या मुझे आशकार कर–या मुझे प्रगट कर।

महावीर ने दूसरा ही रास्ता चुना है। वे कहते हैं, अपने को ही प्रगट करना है। प्रार्थना की उन्होंने गुंजाइश नहीं छोड़ी। उन्होंने इतना भी दूसरे पर भरोसा नहीं रखा है। परमात्मा भी दूसरा हो जायेगा, “पर’ हो जायेगा। तो परमात्मा भी संसार ही हो जायेगा। उतना भी दूसरे पर निर्भर नहीं रखना है। क्योंकि दूसरे पर निर्भरता तुम्हें कभी भी मोक्ष, कभी भी परम स्वतंत्रता में न ले जा सकेगी।

तेरी दुआ से कजा तो बदल नहीं सकती

मगर है इसमें ये मुमकिन कि तू बदल जाये।

यह बात बड़ी ठीक है। जब तुम प्रार्थना करते हो तो प्रार्थना से कोई तुम्हारी मौत नहीं रुक जायेगी, न प्रार्थना से कुछ और बदलेगा। लेकिन यही होता है कि प्रार्थना करने में तुम बदल जाते हो। जब तुम प्रार्थना करते हो तो तुम्हारी प्रार्थना से और कुछ भी नहीं बदलता, लेकिन प्रार्थना करनेवाला बदल जाता है।

तो महावीर ने इस सार को बहुत गहराई से पकड़ा। उन्होंने कहा कि, तो फिर प्रार्थना की जरूरत क्या? जब बदलना ही स्वयं को है, तो फिर परोक्ष क्यों? फिर प्रत्यक्ष क्यों नहीं? जब असली सवाल मेरे भीतर ही घटना है, जब असली में भगवान भक्त के भीतर ही प्रगट होना है, तो फिर बाहर की तलाश बंद। फिर बाहर क्यों टटोलूं किसी पैरों को? फिर अपने घर लौट आऊं। फिर अपने में ही लीन हो जाऊं।

अप्पा अप्पम्मि रओ!

और यह जो तुम्हारे भीतर की आत्मा की बात महावीर कर रहे हैं, यह तुम भूल भला गए हो, लेकिन बिलकुल भूल भी नहीं गए हो। थोड़ी पर्तें जम गई हैं धूल की, लेकिन पर्त के नीचे तुम्हारे प्राण अभी भी जीवंत हैं। जलधार अभी भी ताजी है। ऊपर-ऊपर काई छा गई है। तुम इसे भूल भी नहीं गए हो, क्योंकि कोई कैसे अपने को भूल जा सकता है? भूलने जैसी हालत है, लेकिन बिलकुल नहीं भूल गये हो। उसी में संभावना है। उसी में किरण है संभावना की। जरा-सा सहारा पकड़ लो तो तुम अपने को याद कर पाओगे।

एक मुद्दत से तेरी याद भी आयी न हमें

और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं।

सदियां बीत गयी हों, मुद्दत बीत गयी है और तुमने अपनी याद भी न की हो! लेकिन भूल गये हो, ऐसा भी नहीं है। इस बात को ठीक से समझना। अगर बिलकुल भूल गये हो, तब तो याद का कोई उपाय नहीं। और अगर बिलकुल याद है तो याद की कोई जरूरत नहीं। दोनों के बीच में है स्थिति: भूली-भूली सी याद है। भूली-भूली सी याद, धुंधली-धुंधली सी याद! सूरज नहीं निकला है, भर-दुपहरी नहीं है, अंधेरी रात भी नहीं है–सुबह का हलका-हलका सा आलोक! सूरज ऊगने-उगने को है। कुहासा छाया है। हाथ को हाथ नहीं सूझता, फिर भी सूझ बिलकुल नहीं खो गयी है। वह जो थोड़ी-सी सूझ बची है, जो थोड़ी-सी याद बची है, उसी को ही निखारो, प्रगाढ़ करो। उसी के सहारे भीतर की यात्रा होगी। उसी को निखारने और प्रगाढ़ने का नाम ध्यान है, विवेक है।

थोड़ा जागते चलो! जो थोड़ा-सा आसरा दिखायी पड़ रहा है, उसको पकड़ो, और उस दिशा में थोड़े बढ़ते चलो! थोड़ा साहस करो। वह भूली-भूली सी याद गहन होने लगेगी। भूल छंटती जायेगी, याद सघन होने लगेगी।

और जिस दिन भी कोई अपने घर लौट आता है, एक अनूठी घटना घटती है। इतने दुख, इतनी पीड़ाएं, इतनी शिकायत, इतने शिकवे, सब समाप्त हो जाते हैं। इतनी मांगें, इतनी वांछनाएं, इतनी आकांक्षाएं, इतनी तृष्णाएं, सब अचानक पूरी हो जाती हैं।

सब न मिलने की बातें थीं जब आकर मिल गए

सारे शिकवे मिट गए, सारा गिला जाता रहा।

तब पता चलता है कि वह सब जो मांगें थीं, अनंत-अनंत, वह एक ही मांग के खंड थीं। अपने से मिलने की असली मांग थी। उसको नहीं पहचान पा रहे थे, तो वही मांग अनंत खंडों में बंट गई थी। वह जो पद को चाहा था, वह अपने ही भीतर आत्मपद को चाहा था। वह जो धन को चाहा था, वह अपने ही भीतर उस शाश्वत धन को चाहा था, जो मेरा स्वभाव है। वह जो यश और प्रतिष्ठा चाही थी, उस यश और प्रतिष्ठा में अपनी ही महिमा की तलाश थी–गलत रास्ते पर गलत दिशा में।

महावीर का सारा योग आत्म-स्थिति है। कृष्ण ने कहा है गीता में: समत्वं योग उच्चते!

समत्व को उपलब्ध हो जाना योग है। महावीर भी कहते हैं, सम्यक दृष्टि, समत्व। सम्यकत्व–समता को उपलब्ध हो जाना! डांवांडोल न रहे चित्त, सम हो जाये। यहां-वहां न जाये, थिर हो जाये। थिरता सधे! ज्योति ऐसी हो जाये जैसे किसी घर में हवा के झोंके न आते हों, और ज्योति अकंप जलती हो, कंपती न हो। समत्वं योग उच्चते। यही दशा योग की दशा है। और महावीर कहते हैं, यही दशा–आया हु महं नाणे–यही दशा ज्ञान। आया में दंसणे चरित्ते य। और यही दर्शन और यही चरित्र!

आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे।

“और यही प्रत्याख्यान, व्रत, नियम, अनुशासन। और यही संयम और योग!’

महावीर ने जैसी महिमा का गुणगान आत्मा का किया है, किसी ने भी नहीं किया। महावीर ने सारे परमात्मा को आत्मा में उंडेल दिया है। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी है और किसी ने भी नहीं दी।

महावीर ने मनुष्य को सर्वोत्तम, सबसे ऊपर रखा है।

और यह जो दुर्लभ क्षण तुम्हें मिला है मनुष्य होने का, इसे ऐसे ही मत गंवा देना। इसे ऐसे भूले-भूले ही मत गंवा देना। इसे दूसरों के द्वार खटखटाते-खटखटाते ही मत गंवा देना। बहुत मुश्किल से मिलता है यह क्षण और बहुत जल्दी खो जाता है। बड़ा दुर्लभ है यह फूल; सुबह खिलता है, सांझ मुर्झा जाता है। फिर हो सकता है सदियों-सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़े।

इसलिए मनुष्य होना महिमा ही नहीं है, बड़ा उत्तरदायित्व है। अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ा कृत्य पूरा करना चाहा है। साथ दो! सहयोग दो!

अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ी घटना को घटाने का आयोजन किया है। साथ दो! सहयोग दो! और जब तक तुम खिल न पाओगे, नियति तुम्हारी पूरी न होगी।

तो समस्त ज्ञानी पुरुष कहते हैं तुम वापिस भेज दिये जाओगे। यह जीवन और मरण का चक्र चलता रहेगा। इससे केवल वे ही बाहर निकल पाते हैं जो इस जीवन और मरण के चक्र में चलते हुए भी अपने भीतर के सारे विचारों के चक्र को रोक देते हैं; जो इस जीवन-मरण के चक्र में रहते हुए भी, साक्षी हो जाते हैं और एक गहन अर्थ में बाहर हो जाते हैं।

साक्षी होकर जो बाहर हो गया संसार के, उसको फिर दुबारा लौटने की कोई जरूरत न रहेगी। और जो दुबारा नहीं लौटता, उसने ही अपनी नियति को पूरा किया। उसके भीतर ही बीज फूल को उपलब्ध हुए।

इस अवस्था को महावीर कहते हैं: परमात्म-अवस्था।

तुम परमात्मा होने को हो। इससे कम पर राजी मत होना। इससे जो कम पर राजी हुआ वह नासमझ है। तुम कंकड़-पत्थरों से राजी मत हो जाना। हीरों की अनंत राशियां तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं।

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--1 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–28

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जीवन का ऋत्: भाव, प्रेम, भक्‍ति—प्रवचन—अट्ठाईसवां

प्रश्‍नसार:

1— आप कहते हैं कि पुण्य भी बांधता है और पाप भी बांधता है। तो तीर्थंकरों को उनका करुणाजन्य कर्म क्यों नहीं बांधता?

2—पहली बार मैं किसी के प्रेम में पडा हूं, लेकिन मेरा अहंकार मुझे पूरी तरह प्रेम में डूबने नहीं देता। मेरा ह्रदय तो नारद के साथ है, लेकिन बुद्धि महावीर के साथ। उलझन है, खींचतानी है। कृपया मार्गनिर्देश दें।

3—कृपाकर कीर्तन—ध्‍यान के बारे में कुछ समझाएं।

पहला प्रश्न:

आप कहते हैं कि पुण्य भी बांधता है और पाप भी बांधता है। तो तीर्थंकरों को उनका करुणाजन्य कर्म क्यों नहीं बांधता?

पहली बात तीर्थंकर जो करते हैं वह कर्म नहीं है, कृत्य नहीं है; क्योंकि कर्ता का कोई भाव नहीं है। तीर्थंकर जो करते हैं वह करते नहीं–होता है। जैसे तुम श्वास ले रहे हो, श्वास लेना कृत्य नहीं है। जैसे श्वास सहज चल रही है, और जब न चलेगी तो तुम कुछ भी न कर पाओगे–जब तक चलेगी, चलेगी; जब रुकेगी तो रुक जायेगी। तुम्हारे हाथ के भीतर नहीं है। तुम्हारा कृत्य नहीं है। अहंकार-नियंत्रित नहीं है।

तीर्थंकर का कृत्य, कृत्य नहीं–श्वास जैसी सहज दशा है। होता है, किया नहीं जाता। करनेवाला कोई भी बचा नहीं है। करुणाजन्य है, ऐसा कहना भी गलत है। करुणापूर्ण है, लेकिन करुणाजन्य नहीं। करुणाजन्य तो तब होता है जब तुम्हें दया आए और तुम कुछ करो। करुणापूर्ण तब होता है जब तुम करुणा से पूर्ण हो गए हो–और उससे कुछ बहता है।

इन दोनों में फर्क है।

जब तुम्हें राह चलते किसी भिखमंगे पर दया आती है तो तुम्हारे भीतर कुछ हलन-चलन हो गया; तुम्हारी ज्योति कंप गयी; तुम्हारी प्रज्ञा थिर न रही। दूसरे के दुख से कंप गयी। पहले दूसरे के सुख से कंपती थी। किसी ने बहुत बड़ा मकान बना लिया तोर् ईष्या जगी थी; अब किसी के मकान में आग लग गयी, तो दया उठी। लेकिन हर हाल तुम कंपे, तुम थिर न रहे; तुम वैसे ही न रहे जैसा इस भिखमंगे को देखने के पहले थे। राह पर तुम निकले, कोई न था, अकेले थे, फिर एक भिखमंगा दिखायी पड़ा, दया उठी, भाव का निर्माण हुआ–फिर भाव से कृत्य आया। तुम्हारी दशा बदली। तीर्थंकर की दशा नहीं बदलती; इसलिए करुणाजन्य नहीं है कृत्य, करुणापूर्ण जरूर है। जब भिखारी नहीं है मार्ग पर, तब भी तीर्थंकर करुणा से भरे हैं। तुम नहीं भरे हो। तुम्हें करुणा से भरने के लिए किसी का दुखी होना जरूरी है।

इसे ठीक से समझना। अगर दुनिया से दुखी लोग विदा हो जायेंगे तो तुम्हारी दया भी समाप्त हो जायेगी। किस पर दया करोगे? किसको दान दोगे? तुम्हारी दान और दया के लिए किन्हीं का दुखी रहना जरूरी है। तुम्हारी दान, दया के लिए दुख आवश्यक है। कोई न होगा कोढ़ी, कोई न होगा बीमार–किसके पैर दबाओगे? तुम्हारी दया एकदम मर जायेगी, कुम्हला जायेगी। उसके लिए बाहर से कोई प्रेरणा चाहिए। तो तुम्हारी दया भी बाहर से पैदा हुआ परिणाम है।

तीर्थंकर करुणापूर्ण हैं–नहीं कि किसी पर करुणा करते हैं; करुणा से भरे हैं, जैसे दीये से प्रकाश झरता है: कोई निकल जाये तो उस पर पड़ता है, कोई न निकले तो भी जलता रहता है; किसी के निकलने से नहीं जलता और किसी के चले जाने से बुझ नहीं जाता; किसी पर निर्भर नहीं है। आत्म भाव की दशा है।

तो तीर्थंकर की करुणा तुम्हारे दुख के कारण नहीं है। तुम सुखी हो तो भी तीर्थंकर की करुणा तुम पर उतनी ही है जितने तुम दुखी हो। तुमसे कुछ प्रयोजन नहीं है। तुम नहीं हो तो भी तीर्थंकर की करुणा उतनी ही है, जब कि तुम हो। तुम्हारा होना न होना कुछ फर्क नहीं लाता। तीर्थंकर की करुणा तुम्हारे और तीर्थंकर के बीच संबंध नहीं है–तीर्थंकर की दशा है; उसकी अवस्था है; उसका आनंदभाव है। वह तुम पर इसलिए करुणा नहीं कर रहा है कि तुम दुखी हो। उससे तुम्हारी तरफ करुणा बहती है क्योंकि वह आनंदित है। इस भेद को बहुत ठीक से समझ लेना। तुम्हारी जरूरत है, इसलिए नहीं देता है वह; उसके पास जरूरत से ज्यादा है, इसलिए देता है।

जीसस के जीवन में कहानी है, जो उन्होंने बहुत बार कही। एक बगीचे के मालिक ने सुबह-सुबह मजदूर बुलाए। अंगूरों का बगीचा था और जल्दी ही फसल को काट लेना था। मौसम बदला जाता था। सुबह जो मजदूर आये उन्होंने दोपहर तक काम किया। मालिक आया, उसने देखा। उसने कहा, इतने मजदूरों से शाम तक काम निपटेगा नहीं। तो भेजा अपने मुनीम को कि और मजदूर ले आओ। तो भर-दुपहरी कुछ और मजदूर लाए गये। फिर आया मालिक। सांझ ढलने को थी। उसने कहा, इनसे भी काम न हो पायेगा; कुछ और बुला लाओ। तो सूरज ढलते-ढलते काम बंद होतेऱ्होते कुछ मजदूर आए। और जब रात्रि में उसने पैसे बांटे तो सबको बराबर दे दिये–जो सुबह आये थे उनको भी, जो दोपहर आये थे उनको भी, जो सांझ आये थे उनको भी। जिन्होंने दिनभर काम किया उनको भी, और जिन्होंने कुछ भी काम न किया था उनको भी। तो जो सुबह आये थे वे निश्चित नाराज हो गये। और उन्होंने कहा, “यह अन्याय है। हम सुबह से आये हैं, दिनभर पसीना बहाया है। हमें भी उतना, और इन्हें भी उतना जो अभी-अभी आये और जिन्होंने कुछ भी नहीं किया, जिन्हें करने का मौका ही न मिला, क्योंकि सूरज ढल गया?’

तो उस मालिक ने कहा, तुम्हें कम तो नहीं दिया है? उन्होंने कहा, “नहीं, कम नहीं दिया है। जितनी मजदूरी मिलती, उससे ज्यादा ही दिया है। लेकिन अन्याय हो रहा है। इन्होंने तो कुछ भी नहीं किया।’ तो उस मालिक ने कहा कि तुम अपनी फिक्र करो। तुम्हें जितना मिलना था उससे ज्यादा मिल गया, तुम प्रसन्न नहीं हो। तुम इनसे तुलना मत करो। इन्हें मैं काम के कारण नहीं देता; मेरे पास बहुत है, इसलिए देता हूं। मैं सबको बराबर दे रहा हूं। मेरे पास जरूरत से ज्यादा है। तुम्हारे काम के कारण नहीं; मेरे पास है, इसलिए; मैं बोझ से दबा हूं, इसलिए।

जीसस की कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है।

महावीर तुम्हें देते हैं तुम्हारे दुख के कारण नहीं। मिला है उन्हें, खूब मिला है! और उसको न बांटें तो वह बोझिल हो जाता है। उसे बांटना जरूरी है। अगर तुम न भी होओगे तो भी बांटेंगे। अगर तुम सुखी होओगे तो भी बांटेंगे।

तो तुम्हारे दुख से तुम तीर्थंकर की करुणा को मत जोड़ना। तुमसे उसका कोई संबंध नहीं है। तीर्थंकर की करुणा का संबंध उसके अंतर-आनंद से है, सच्चिदानंद से है। वह अपनी आत्मा में रमा है और उसने इतना पा लिया है। और जो पाया है वह कुछ ऐसा है कि बांटो तो बढ़ता है, न बांटो तो घट जाता है। इसलिए तुम पर करुणा करके तीर्थंकर कुछ कर रहे हैं, ऐसा नहीं। आनंद-भाव में बांटते हैं–बांटने से बढ़ता है। जितना बांटते हैं, उलीचते हैं, उतना बढ़ता चला जाता है; उतने नये स्रोत खुलते चले जाते हैं। तो जब रोज-रोज नया-नया आनंद बरस रहा हो, बासे को कौन रखेगा! तुम सांझ भोजन कर लेते हो, फिर बांट देते हो। लेकिन गरीब बासी रोटी को भी रख लेता है: कल काम पड़ेगी।

तुम बांटने से डरते हो, क्योंकि कल का पक्का नहीं है। और आज का अगर बांट दिया तो कल मिलेगा या नहीं! लेकिन तीर्थंकर उस दशा में हैं जहां प्रतिपल अनंत बरस रहा है। तो जो इस क्षण बरसा है, उसे बांट ही देना है; क्योंकि दूसरे क्षण के लिए जगह खाली करनी है। अगर न बांटा तो बासा पड़ा रह जायेगा और बासे के कारण नये के आने में बाधा पड़ेगी। और अगर बासा बहुत इकट्ठा हो गया, उसकी राशियां लग गयीं तो नये के जन्म की कोई संभावना न रह जायेगी।

तो न तो तीर्थंकर का कृत्य कृत्य है, और न करुणाजन्य है–करुणापूर्ण है। इसलिए कोई बंध नहीं–न पाप का न पुण्य का। तीर्थंकर से बहुत कुछ होता है, लेकिन तीर्थंकर कुछ करता नहीं।…सहजस्फूर्त; जैसे पक्षी गीत गाते हैं!

मिर्जा गालिब से कोई पूछा कि लोग आपकी कविताओं की बड़ी प्रशंसा करते हैं, लेकिन मेरी तो कुछ समझ में नहीं आतीं। और जो प्रशंसा करते हैं, मुझे शक है कि उनकी भी समझ में आती हैं! क्योंकि जब भी मैंने उनसे पूछा तो वे समझा न पाये, आप कुछ कहें।

गालिब ने बड़ा अजीब-सा उत्तर दिया। आकाश की तरफ देखा और कहा, “खुदा बड़ा है। कविता से खुदा का क्या लेना-देना?’ कहा, खुदा बड़ा है उस आदमी ने भी कहा, “यह तो निश्चित ही है कि खुदा बड़ा है। लेकिन इससे मेरे प्रश्न का क्या संबंध है?’ उन्होंने कहा, “थोड़ा ठहरो। खुदा बड़ा है, यह तुम मानते हो?’ उसने कहा, “निश्चित मानता हूं।’

“लेकिन खुदा को समझते हो?’

समझ में तो कुछ भी नहीं आता। तो गालिब ने कहा, “ऐसी ही मेरी कविताएं हैं। मैं ही कहां समझता हूं!’

समझ छोटे की होती है, विराट की नहीं। हमारी छोटी समझ है–कंजूस की, कृपण की समझ है। तो हम कृत्य की भाषा जानते हैं केवल; सहज की भाषा हमें पता नहीं। हम तो कर-करके मुश्किल से कर पाते हैं, तो हम यह कैसे मानें कि कुछ अपने-आप होता है। हम तो कर-करके भी नहीं कर पाते हैं और हार जाते हैं, विफल हो जाते हैं। जोड़-जोड़कर नहीं जुटा पाते तो हम यह कैसे मानें कि कोई लुटा-लुटाकर, और अपनी संपदा को बढ़ा लेता होगा? हम तो तिजोड़ियां बांध-बांधकर आखिर में पाते हैं राख हाथ में रह गयी। जोड़-जोड़ के भी कुछ नहीं जुड़ता हो, जिसने एक ही गणित जाना हो, वह यह कैसे मानेगा कि बांटने से बढ़ सकता है, पागल हुए हो? होश की बातें करो, वह कहेगा। यहां हार गए जीत-जीतकर, तुम कहते हो हार कर जीत हो जाती है!

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, ऐसा है। जोड़-जोड़कर नहीं जुड़ता, इससे सिद्ध होता है कि विपरीत शायद सही हो। क्योंकि जोड़-जोड़कर तो कोई कभी नहीं जोड़ पाया। तो एक बात तो तय हो गयी कि जोड़ने से नहीं जुड़ता है। अब तुम जरा दूसरा प्रयोग करके देख लो कि बांटने से बढ़ता है। लेकिन बांटोगे तो तभी जब होगा।

तीर्थंकर का अर्थ है: जो है; जिसके पास है।

बुद्ध के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि ऐसा मन होता है कि “मनुष्यता कि सेवा में सब कुछ लगा दूं। आपका आशीर्वाद चाहिए!’ कहते हैं, बुद्ध की आंखें गीली हो गयीं, उनमें आंसू झलक आए। और बुद्ध ने उस आदमी की तरफ ऐसी करुणा से देखा कि वह आदमी भी विचलित हुआ। बुद्ध के शिष्य भी थोड़े घबड़ाए कि उसने कुछ ऐसी बात तो कही नहीं, भली आकांक्षा जाहिर की थी।

वह आदमी बेचैन हुआ। उसने कहा कि आप इतने उदास क्यों हो गये? आपकी आंखें गीली क्यों हो आयीं? मैंने कुछ गलत पूछा? मैंने आपको कोई चोट पहुंचायी?

बुद्ध ने कहा कि नहीं, यह सोचकर ही मुझे दया आती है कि तुम देने का सोच रहे हो, लेकिन तुम्हारे पास है नहीं। तुम कहते हो, “सारी मनुष्यता की सेवा करनी है मुझे, कैसे यह जीवन अर्पित कर दूं!’ लेकिन जीवन कहां है? तुम्हें मैं देखता हूं तो खाली हाथ हो तुम! राख ही राख है भीतर, जीवन कहां है? तुम दोगे क्या? देने के पहले होना चाहिए। चूंकि हमारे पास नहीं है, इसलिए हम जोड़ते हैं। जोड़कर सोचते हैं कि हो जायेगा। जिनके पास है वे बांटते हैं। क्योंकि बांटकर उनको लगता है कि बढ़ता है।

किसी बगीचे के माली से पूछो, वृक्षों की कांट-छांट करता रहता है तो वृक्ष घने होते जाते हैं। कलम करता है तो वृक्ष सघन होते हैं, बढ़ते हैं। एक पत्ता काटो तो चार पत्ते निकल आते हैं। एक शाखा काटो तो दो शाखाएं पैदा हो जाती हैं। माली से पूछो जीवन का राज!

ऐसे ही तुम्हारे अंतर्जीवन का वृक्ष भी है। उसे बांटो तो कलम होती है। उसे सम्हालकर रख लो, डर के कारण छिपाकर रख लो, सब तरफ से ढांककर रख लो–मर जाता है पौधा जीवन का। ऐसे ही तो जीवन के पौधे कुम्हला गये हैं। छोड़ो खुली हवा में! ले जाने दो सुगंध को हवाओं को! छोड़ो खुले आकाश में! खेलने दो मेघों को, होने दो मेघ-मल्हार! नाचने दो तूफानों और आंधियों को वृक्ष के आसपास! बढ़ने दो वृक्ष को! खुलने दो, फैलने दो! यह बढ़ेगा, खूब बढ़ेगा! ऊपर भी, भीतर भी। ऊंचाइयों में भी बढ़ेगा और गहराइयों में भी बढ़ेगा। जितना वृक्ष ऊपर जाता है उतनी ही जड़ें नीचे गहरी चली जाती हैं। लेकिन हमने अभी कृपण का ही गणित जाना है। हमने धनी का गणित जाना ही नहीं! इसलिए जब हम तीर्थंकरों के संबंध में भी पूछते हैं तो हम अपने ही हिसाब से पूछते हैं। हम कहते हैं कि जब पुण्य भी बांध लेता, तो तीर्थंकर के करुणापूर्ण कृत्य उन्हें नहीं बांधते?

तीर्थंकर का अर्थ ही है कि जो पाप और पुण्य के पार हो गया। तीर्थंकर का अर्थ ही है जो कृत्य के पार हो गया और सहज में प्रवेश कर गया।

इस शब्द “सहज’ को खूब-खूब मंथन करना, चिंतन करना, ध्यान करना। यह शब्द बड़ा बहुमूल्य है। इस शब्द का अगर तुम्हें अर्थ-विस्फोट हो जाये तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जायेगी। “सहज’ का अर्थ है जो तुम्हारे बिना किये अपने से होता है। बहुत कुछ है जो सहज हो रहा है। उस पर भी तुम अपने को आरोपित किये हो। तुम कहते हो, “मैं’। किसी से प्रेम हो जाता है, तुम कहते हो, “मैं प्रेम करता हूं।’ होता है। तत्क्षण तुम बदल देते हो भाषा। तुम कहते हो, करता हूं! किसी ने कभी प्रेम किया? सुना कभी तुमने कि किसी ने प्रेम किया? कोई प्रेम कर सकता है? अगर मैं तुम्हें आज्ञा दूं कि करो प्रेम, तुम कर पाओगे? तुम कहोगे, यह भी कोई आज्ञा की बात है? यह कोई मेरे किये से होगा? होगा तो होगा। नहीं होगा तो नहीं होगा। होता है, तो होता है। नहीं होता है, तो नहीं होता है। जब हो जाता है तब रुका नहीं जा सकता; और जब नहीं होता है तब किया नहीं जा सकता।

लेकिन फिर भी तुम प्रेम पर भी थोप देते हो अहंकार को। तुम कहते हो, मैंने किया प्रेम। तुम कहते हो, मैं तो प्रेम कर रहा हूं और तुम नहीं कर रहे हो। और हम यही सिखाते भी हैं।

छोटे-छोटे बच्चों को भी मां कहती है, मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारी मां हूं। क्या पागलपन की बात हो रही है? कौन कर पाया प्रेम? बच्चे की तो छोड़ दो, बड़े नहीं कर पाये। बड़े-बड़े कुशल नहीं कर पाये। प्रेम को करोगे कैसे? कोई तुम्हारे हाथ की बात है? प्रेम कोई कृत्य तो नहीं। लेकिन अगर बच्चे को तुमने जोर दिया कि करो मुझे प्रेम, मैं तुम्हारी मां हूं, तो बच्चे को तुम एक ऐसी असमंजस में, ऐसे संकट में, ऐसी विडंबना में डाल रहे हो जिसका तुम्हें कुछ पता नहीं कि तुम क्या कह रहे हो। छोटा-सा बच्चा तड़फेगा; सोचेगा; कैसे करो प्रेम! लेकिन करना ही पड़ेगा; क्योंकि मां पर सब निर्भर है। दूध निर्भर है, जीवन निर्भर है। मां के सहारे ही बच सकता है बच्चा। बाप कहेगा, “मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारा बाप हूं। मैंने तुम्हें जन्म दिया!’ अब जन्म देने से कोई प्रेम का लेना-देना है? लेकिन बच्चा चेष्टा करेगा कि ठीक है; जब सब कहते हैं, बड़े-बूढ़े कहते हैं तो करना ही होगा। तो झूठा मुस्कुराएगा, झूठे पैर छुएगा, झूठी प्रसन्नता जाहिर करेगा। शुरू हुआ पाखंड! फिर जीवनभर ऐसे ही झूठ में जीयेगा। फिर मर जायेगा और प्रेम की सहज उदभावना से परिचित न हो पायेगा। क्योंकि पहले से ही प्रेम के मार्ग पर झूठ खड़ा हो गया।

न, मां इतना ही कर सकती है कि अगर उसे बच्चे के प्रति प्रेम है तो करे प्रेम। अगर उस प्रेम के संघात में, अगर उस प्रेम के संसर्ग में बच्चे की सहजता भी प्रफुल्लित हो उठेगी तो हो उठेगी–सौभाग्य! न हो तो मजबूरी है। हो जाये तो सौभाग्य; न हो तो कुछ किया नहीं जा सकता, असहाय अवस्था है। हो जाये तो धन्यभाग। परमात्मा को धन्यवाद दिया जा सकता है। न हो तो शिकायत करने का कोई उपाय नहीं है। स्वीकार कर लेना होगा, यही भाग्य है।

लेकिन इतना ही किया जा सकता है कि मां बच्चे को अगर प्रेम करती है तो करे। अगर उसके भीतर प्रेम का आविर्भाव हुआ है तो उलीचे, लुटाए, बरसाए। इस बरसा में ही बच्चे की वीणा भी बजेगी–बजनी ही चाहिए। इस प्रेम के परिवेश में बच्चे का सोया हुआ प्राण जाग्रत होगा। बच्चे के बीज–प्रेम के–अंकुरित होंगे। यह प्रेम सब तरफ से बरसता हुआ उसके भीतर भी प्रेम की हुंकार को उठाएगा। यह प्रेम का आह्वान उसके भीतर भी चैतन्य को जगाएगा। वह भी प्रेम से भरेगा, लेकिन तब प्रेम का सहज अनुभव होगा। एक दिन अचानक पायेगा वह मां को प्रेम करता है। करता है–भाषा की बात; पायेगा कि मां से प्रेम है। और तब उसके जीवन में एक बात निश्चित हो जायेगी कि भूलकर भी प्रेम को कृत्य न बनाएगा।

शिक्षक कहते हैं, सम्मान करो, श्रद्धा करो। श्रद्धा कहीं कोई करता है? होती है।

मैं विश्वविद्यालय में बहुत दिन तक था। शिक्षकों की एक ही परेशानी कि श्रद्धा खो गयी, कि विद्यार्थी आदर नहीं करते। मैंने बार-बार शिक्षकों के सम्मेलन में कहा कि यह बात ही तुम गलत तरफ से उठाते हो। श्रद्धा कोई कर सकता है? और जो की गयी श्रद्धा थी वह झूठी थी, इसलिए उखड़ गई है।

यह सदी थोड़ी सचाई की तरफ ज्यादा झुकी सदी है। आज का युवक अतीत के युवक से सचाई की तरफ ज्यादा झुका हुआ युवक है।

एक मां अपनी बेटी को कह रही थी कि जब तक मेरा विवाह नहीं हुआ तब तक मैंने किसी पुरुष का स्पर्श भी नहीं किया था। क्या तू भी बड़े होकर अपने बच्चों से यही कह सकेगी?

उस युवती ने कहा, कह तो सकूंगी, मगर इतनी अकड़ से नहीं जितनी अकड़ से तुम कह रही हो। क्योंकि मैं जानती हूं, यह झूठ है। तो कह तो सकूंगी अगर कहना ही पड़ेगा तो कह सकूंगी, लेकिन इतनी अकड़ से नहीं जितनी अकड़ से तुम कह रही हो।

थोड़ी सचाई की तरफ झुका हुआ युग है। तो जो झूठ जहां-जहां था वहां से टूट गया है।

तो शिक्षकों से मैंने बहुत बार कहा कि तुम जब भी यह सवाल उठाते हो कि विद्यार्थियों का आदर खो गया है, तब तुम्हें असल में दूसरा सवाल उठाना चाहिए–बुनियादी सवाल–कि तुम कहीं ऐसा तो नहीं कि गुरु नहीं रहे हो? क्योंकि गुरु हो तो आदर होता ही है–होना ही चाहिए; जैसे वर्षा हो तो वृक्ष हरे हो जायें। अब वृक्ष अगर सूखने लगें और बादल शिकायत करें कि यह वृक्षों को क्या हो रहा है, वर्षा आ गयी है और वृक्ष हरे नहीं हो रहे! तो हम यही कहेंगे कि तुम बरसे कहां? तुम बरसते तो वृक्षों का हरा हो जाना बिलकुल सहज था। यह अपने से होता है।

गुरु, गुरु नहीं है। आकांक्षा कर रहा है गुरु को जैसा सम्मान मिलना चाहिए वैसा सम्मान मिलने की। वह नहीं मिलता। नहीं मिलता, पीड़ा खड़ी होती है। वह जबर्दस्ती थोपने की कोशिश करता है। जबर्दस्ती जो उस आदर को करने लगता है वह भी विकृत हो जाता है। तब उसके जीवन में सहज श्रद्धा का उपाय न रहा। इसे खयाल में लेना।

जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है–सत्यम, शिवम, सुंदरम–जो भी सत्य है, सुंदर है, शिव है, वह सभी होता है, किया नहीं जाता। जो किया जाता है वह क्षुद्र है। दुकान चलायी जाती है। मकान बनाए जाते हैं। प्रेम नहीं किया जाता। श्रद्धा नहीं बनायी जाती। झूठ गढ़े जाते हैं, सत्य नहीं गढ़ा जाता। सत्य का तो सिर्फ आविष्कार होता है। सत्य तो है; झूठ बनाने पड़ते हैं।

तो अगर कर्ता बनना हो तो झूठ बनाना, क्योंकि कर्ता होने का एक ही उपाय है।

और अगर अकर्ता बनना हो तो सत्य की खोज करना।

तीर्थंकर यानी अकर्ता; जो अब कुछ अपनी तरफ से नहीं करता है; जो होता है उसे होने देता है, उसे रोकता भी नहीं; जो आता है उसे आने देता है–अगर जीवन है तो जीवन, अगर मौत है तो मौत; सुख है तो सुख, दुख है तो दुख; जवानी है तो जवानी, बुढ़ापा है तो बुढ़ापा–जो अपनी तरफ से बिलकुल निश्चेष्ट हो जाता है, सारी चेष्टा छोड़ देता है, जीवन के ऊपर आरोपण करने का कोई प्रयास नहीं करता। जीवन जहां ले जाये उसकी सहजता के साथ जो बहने को तत्पर है, वही तीर्थंकर है।

तो न तो तीर्थंकर को पाप लगता, न पुण्य लगता। तीर्थंकर को कर्म-बंध नहीं होता।

लेकिन इस संदर्भ में एक बात खयाल ले लेनी चाहिए, जैन शास्त्र बड़ी बहुमूल्य बात कहते हैं। वे कहते हैं, तीर्थंकर को तो कर्म-बंध नहीं होता, लेकिन आदमी तीर्थंकर कर्म-बंध के कारण होता है। सभी लोग तीर्थंकर नहीं होते। सभी परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति भी तीर्थंकर नहीं होते। “केवल ज्ञान’ को तो करोड़ों लोग उपलब्ध होते हैं, लेकिन तीर्थंकर तो कभी कोई एकाध होता है। तो फिर इतने लोग जो परम-ज्ञान को उपलब्ध होते हैं और परम सत्य में खो जाते हैं, सभी तीर्थंकर क्यों नहीं होते? तो कारण तो होना चाहिए।

महावीर जब ज्ञान को उपलब्ध हुए तो और भी बहुत लोग ज्ञान को उपलब्ध थे, लेकिन सभी तीर्थंकर न थे। जैन चौबीस की संख्या मानते हैं: एक प्रलय और सृष्टि के बीच में चौबीस तीर्थंकर। करोड़ों लोग, करोड़ों आत्माएं “केवल ज्ञान’ को उपलब्ध होंगी, लेकिन चौबीस ही तीर्थंकर? मामला क्या है? सभी ज्ञानी क्यों तीर्थंकर नहीं हैं?

तो इस फर्क को खयाल में लेना। वे कहते हैं तीर्थंकर का कर्म-बंध होता है। तीर्थंकर बनने के पहले जिस व्यक्ति ने खूब करुणा का अभ्यास किया है; तीर्थंकर बनने के पहले जिस व्यक्ति ने सब भांति अहिंसा का अभ्यास किया है; तीर्थंकर बनने के पहले जिसने सब भांति अपने चरित्र को इस तरह से नियोजित किया है कि उससे किसी को दुख न हो, किसी को पीड़ा न पहुंचे; जिसने एक गहन अनुशासन अपने जीवन में निर्मित किया है…जिसने ऐसा अनुशासन निर्मित नहीं किया वह भी ज्ञान को उपलब्ध हो जायेगा; लेकिन जब वह ज्ञान को उपलब्ध होगा तो तत्क्षण विराट में खो जायेगा। उसे इस जमीन पर पकड़ रखने के लिए कोई भी उपाय नहीं है। लेकिन जिसने खूब गहनता से सेवा, दया, करुणा, अहिंसा का अभ्यास किया है जन्मों-जन्मों तक…वह करुणा, सेवा, और दया सहज नहीं है, चेष्टित है…तो जिसने चेष्टित दया और करुणा का अभ्यास किया है, उसको तीर्थंकर का कर्म-बंध होता है।

जैन अदभुत हैं! वे कहते हैं, यह भी कर्म-बंध है। है तो यह भी। कितना ही पुण्य हो, लेकिन है तो यह भी बांधनेवाला है। करुणा से बंधे हो–तो बड़ी सोने की जंजीर है, हीरे-जवाहरातों से जड़ी जंजीर है, लेकिन बंधे हो! तो आखिरी जन्म में ऐसा व्यक्ति जब ज्ञान को उपलब्ध होता है तो अपने ज्ञान को लेकर चुपचाप उड़ नहीं जाता आकाश में; रुकता है जमीन पर। उसके पास जंजीरें हैं कुछ। जीवन की सांसारिक जंजीरें तो सब उसने तोड़ दी हैं, लेकिन करुणा की जंजीरें हैं उसके पास। उनके आधार पर वह थोड़ी देर पृथ्वी पर टिकता है। उन क्षणों में वह बांट पाता है, दे पाता है जो उसे मिला है।

तो तीर्थंकर तो कोई कर्म-बंध के कारण होता है। लेकिन तीर्थंकर का कोई कर्म-बंध नहीं होता।

तीर्थंकर का अर्थ है जिसने जाना ही नहीं, जो जनाने में कुशल है। तीर्थंकर का अर्थ है जो स्वयं नहीं हो गया केवल, बल्कि दूसरों को भी उस दिशा में इशारे करने में कुशल है; जिसने अपनी ही आंखें नहीं खोल लीं, बल्कि दूसरों की आंखों की भी चिकित्सा करने में जो कुशल है; जो अपनी आंखों के सहारे, अपनी दृष्टि के सहारे तुम्हें भी दर्शन करा देता है।

तो ज्ञानी तो केवल ज्ञानी है–उसने पा लिया और गया। तीर्थंकर ऐसा ज्ञानी है जो रुकता है थोड़ी देर। उसकी नाव इसके पहले कि छूटे अनंत के तट की ओर, इस किनारे पर वह थोड़ी देर रुकता है। और इस किनारे पर जो लोग अभी हैं और जिन्हें दूसरे किनारे का कोई पता भी नहीं, जिन्होंने स्वप्न में भी दूसरे किनारे को नहीं देखा, जिनकी कल्पना में भी दूसरे किनारे की छाया नहीं पड़ी है–ऐसे लोगों को भी दूसरे किनारे की अभीप्सा से भर देता है। इसके पहले कि खुद की नाव छोड़े और न मालूम कितने लोगों को तैयार कर देता है कि वे भी उत्सुक हो जायें, आतुर हो जायें, प्यासे हो जायें।

तीर्थंकर का अर्थ है: जान लिया और जनाया भी। सिर्फ जानकर ही जो चला गया, वह अकेला चला जाता है। उसके पीछे कोई परंपरा नहीं बनती जानेवालों की। जो सिर्फ जानकर चला गया, उसके पीछे कोई धर्म निर्मित नहीं होता; वह चुपचाप तिरोहित हो जाता है। उसकी कोई रेखा नहीं छूट जाती। लेकिन जो दूसरों को जनाने की अथक चेष्टा करता है, वह अथक चेष्टा उसके पिछले जन्मों में साधे गये अभ्यास का परिणाम है। लेकिन वह भी कर्म-बंध है। पर इस जन्म में, तीर्थंकर की दशा में, कोई कर्म-बंध नहीं होता। अब तो सब सहज होता है। इसको खयाल रखना।

तुम्हारी अगर अहिंसा भी होगी तो असहज होगी, चेष्टित होगी। तुम अगर दया भी करोगे तो प्रयास करोगे तो ही दया करोगे। तुम अगर करुणा करोगे तो अपने को बहुत ज्यादा खींचोगे तो ही कर पाओगे। अगर तुमने अपने को ज्यादा न खींचा तो तुम करुणा न कर पाओगे। हां, क्रोध कर पाओगे सहज। क्रोध तुममें सहज होता है, करुणा असहज। अगर तीर्थंकर को क्रोध करना हो तो असहज होगा, करुणा सहज। सिक्का उलटा हो गया। सारे गणित के नियम विपरीत हो गये। अगर तीर्थंकर को क्रोध करना पड़े…कभी-कभी तीर्थंकर क्रोध करते हैं। जैन तीर्थंकरों के जीवन में तो उल्लेख नहीं, क्योंकि जैन उल्लेख नहीं कर सकते। वे सोच ही नहीं सकते कि तीर्थंकर और क्रोध कर सकता है! बात भी ठीक है। तीर्थंकर से क्रोध सहज नहीं होता, इसलिए उसका उल्लेख करना उचित नहीं है। लेकिन और परंपराएं हैं। वहां भी तीर्थंकर होते हैं।

जैसे जीसस के जीवन में उल्लेख है कि वे चर्च में, मंदिर में गये–यहूदियों का जो सबसे प्राचीन मंदिर था जेरुसलम का–और वहां उन्होंने देखा कि ब्याजखोर मंदिर के भीतर दुकानें लगाकर बैठ गये हैं। तो उन्होंने कोड़ा उठा लिया और वे आग-बबूला हो गये और उनकी आंखों से आग बरसने लगी। और अकेले आदमी ने सैकड़ों ब्याजखोरों को मंदिर के बाहर उठाकर फेंक दिया। वह इतने घबड़ा गए। इतना जाज्वल्यमान रूप था उनका! ईसाइयों को बड़ी कठिनाई रही है यह समझाने में कि ईसा इतने क्रोधित कैसे हो गये! करुणा का मसीहा इतना क्रोधित कैसे हो गया!

लेकिन अगर तीर्थंकर चाहे तो चेष्टा से क्रोध कर सकता है। लेकिन वह क्रोध भी होगा किसी करुणा की ही सेवा में। इस कीमिया को समझना। यह करुणा ही थी जीसस की कि यह परमात्मा का मंदिर विकृत न हो जाये; यहां की प्रार्थना बाजारू न हो जाये; यह पूजागृह बाजार की गंदगी से न भर जाये। यह करुणा ही थी। इस करुणा के कारण ही वे क्रोधित हो गए। लेकिन यह क्रोध चेष्टित था, अभिनय था; जैसे कोई अभिनेता क्रोधित हो जाता है। जैसे राम रामलीला में अभिनय करते हुए रोते हैं कि मेरी सीता कहां है; वृक्षों से पूछते हैं कि मेरी सीता कहां गई–वह सिर्फ पूछना है, अभिनय है; भीतर कुछ भी नहीं है। भीतर तो उनकी सीता उनके घर है। अभिनेता हैं। राम तो वे हैं भी नहीं। अभिनय है।

जीसस की क्रोध की अवस्था भी करुणा की सेवा में किया गया अभिनय है।

गुरजिएफ तो बहुत कुशल था क्रोध करने में। ऐसी घटनाएं हैं जो बड़ी अनूठी हैं। कि गुरजिएफ धीरे-धीरे इतना कुशल हो गया अभिनय में कि वह आधे चेहरे से क्रोध कर सकता था और आधे से करुणा। और कई दफा उसने लोगों को चकित कर दिया और दुविधा में डाल दिया। दो आदमी मिलने आये–एक बाएं बैठा है, एक दाएं–तो वह आधे चेहरे से तो इस तरह देखता रहा जैसे कि हत्या कर देगा और आधे चेहरे से इस तरह देखता रहा कि फूल बरसते रहे। एक तरफ की आंख बड़ा प्रेम बरसाती रही और दूसरी तरफ की आंख आग बरसाती रही। जब वे दोनों आदमी मिलकर बाहर गए तो दोनों ने अलग-अलग वर्णन किया गुरजिएफ का, कि यह तो आदमी बहुत दुष्ट और हत्यारा मालूम होता है; यह तो ऐसा खतरनाक आदमी है कि अगर एकांत में मिल जाये तो गर्दन दबा दे। दूसरे ने कहा, तुम कहते क्या हो? तुम पागल हो गए हो? जरा उसकी आंख तो देखते! कैसा प्रेम! यह आदमी चींटी भी मार सकेगा?

ऐसा बहुत बार बहुत लोगों को हुआ। कुशलता इतनी गहरी हो सकती है!

अगर तुमने शरीर से अपने को बिलकुल अलग कर लिया है तो शरीर का तुम यंत्रवत उपयोग कर सकते हो। तुम एक हाथ हिलाते हो, दूसरा रोके रखते हो। इसी तरह एक आंख क्रोध कर सकती है, एक प्रेम कर सकती है। चेहरे का एक हिस्सा कुछ कह सकता है, दूसरा कुछ कह सकता है। और इसके पीछे वैज्ञानिक कारण है। क्योंकि तुम्हारे पास दो मस्तिष्क हैं, एक मस्तिष्क नहीं है। बायां मस्तिष्क अलग है, दायां मस्तिष्क अलग है। दोनों की प्रक्रिया अलग है। और यह भी हो जाता है कभी कि अगर दोनों के बीच का छोटा-सा सेतु है, वह टूट जाये, तो एक आदमी में दो आदमी पैदा हो जाते हैं, स्प्लिट पर्सनैलिटी हो जाती है।

तुम्हारा शरीर दो हिस्सों में बंटा है, इसे खयाल में रखना। इसलिए तो दायां हाथ अगर सक्रिय होता है तो बायां निष्क्रिय होता है। जिसका बायां सक्रिय होता है उसका दायां निष्क्रिय होता है। क्योंकि दोनों हिस्सों में एक हिस्सा पुरुष का और एक हिस्सा स्त्री का है। आधा हिस्सा निष्क्रिय है, आधा हिस्सा सक्रिय है। और तुम्हारा आधा चेहरा अलग होता है और आधा चेहर अलग होता है।

तुमने कभी खयाल नहीं किया! तुम अपना चित्र उतरवाना और एक ही हिस्से के आधे-आधे चित्रों को जोड़ देना और तुम पाओगे कि तुम्हारा चेहरा बड़ा नया ढंग ले लेता है। बाएं चेहरे के दो हिस्सों को जोड़ देना और दाएं चेहरे के दो हिस्सों को जोड़ देना और तुम पाओगे: तुम दो आदमी मालूम पड़ने लगे और ये दोनों आदमी तुमसे बिलकुल अलग मालूम पड़ते हैं। तुम्हारी एक आंख अलग है, दूसरी आंख अलग है। क्योंकि आधा शरीर बाएं मस्तिष्क से संचालित होता है, आधा दाएं मस्तिष्क से संचालित होता है। लेकिन चूंकि तुम बहुत ज्यादा जुड़े हो शरीर से, उससे दूर नहीं हो कि उपयोग कर सको। लेकिन गुरजिएफ कर सकता है। महावीर कर सकते हैं। किया न हो, हो सकता है। लेकिन कर सकते हैं।

महावीर क्रोध कर सकते हैं, लेकिन वह चेष्टा होगी और अभिनय होगा। और तुम भी करुणा कर सकते हो, लेकिन वह चेष्टा होगी और अभिनय होगा। क्रोध तुम्हारे लिए सहज है। कुछ करना नहीं पड़ता, अपने से होता है। किसी ने गाली दी, बस हो गया। तुम्हें कुछ करना थोड़े ही पड़ता है! किसी ने गाली दी, बटन दबा दी–हो गया। करुणा करनी हो तो बड़ा सोच-विचार करना पड़ता है, शास्त्र पढ़ने पड़ते हैं, सदगुरुओं के पास जाना पड़ता है, सत्संग करना पड़ता है, वचन, प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है; और फिर-फिर छूटकर क्रोध हो जाता है। जरा भूल हुई कि क्रोध हुआ। बहुत होश रखो तो थोड़ी-बहुत करुणा को तुम सम्हाल सकते हो।

इससे ठीक विपरीत दशा तीर्थंकर की है। करुणा सहज है, करनी नहीं पड़ती। तीर्थंकर सोया भी रहे तो भी करुणा होती है।

तुमने कभी खयाल किया कि तुम सोते-सोते भी क्रोधित रहते हो, बड़बड़ाते हो क्रोध में, मरने-मारने की धमकी देते हो! कभी अपनी पत्नी को कहना कि जब तुम सोये हो, तुम्हारे चेहरे का जरा अध्ययन करे। या तुम अपनी पत्नी के चेहरे का अध्ययन करना सोते हुए। शायद इसीलिए लोग अकेले में सोना पसंद करते हैं, भीड़-भाड़ में सोना पसंद नहीं करते, हर कहीं सो जाना पसंद नहीं करते; क्योंकि सोने की अवस्था में चित्त से वही प्रगट होने लगता है जो तुम्हारे लिए सहज स्वाभाविक है। नियंत्रण करनेवाला तो रह नहीं जाता, वह तो सो गया; नियंता तो सो गया, कर्ता तो सो गया।

तो अगर तुम क्रोधी आदमी हो तो तुम्हारा रात में चेहरा बिलकुल क्रोध से भरा हुआ होगा। अगर तुम कामुक आदमी हो तो रात तुम्हारा चेहरा काम से भरा होगा; तुम्हारे चेहरे पर काम रिसता होगा। तुम जैसे हो, रात का चेहरा तुम्हारा, तुम्हारे बाबत ज्यादा असली खबर देगा। दिन में तो तुम थोड़ा झूठ कर लेते हो, रात में तुम न कर पाओगे।

इसलिए तथाकथित साधु-संन्यासी सोने तक से डरते हैं। घबड़ाहट रहती है! क्योंकि सोए कि उन्होंने जो-जो साधा है दिन में, उस सब पर कब्जा गया। दिनभर तो साधा ब्रह्मचर्य, लेकिन रात कामवासना का स्वप्न मन को पकड़ लेता है। अब क्या करें, स्वप्न में कैसे साधें! स्वप्न में तो होश ही नहीं है, साधना कैसे हो पायेगा? ऐसी चित्त की दशा है।

साधारणतः जब तक हम मूर्च्छित हैं, बेहोश हैं, तब तक हमसे गलत तो सहज होता है और सही चेष्टा से होता है।

जब चित्त की दशा जागरूक होती है, प्रबुद्ध होती है, संबोधि को उपलब्ध होती है, तो जो ठीक है वह सहज होता है; जो गलत है, अगर वह करना पड़े किसी कारण से तो वह अभिनय से ज्यादा नहीं होता।

दूसरा प्रश्न:

पहली बार मैं किसी के प्रेम में पड़ा हूं, लेकिन मेरा अहंकार मुझे प्रेम में पूरी तरह डूबने नहीं देता। मेरा हृदय तो नारद के साथ है, लेकिन बुद्धि महावीर के साथ। भीतर से तो प्रेम करना चाहता हूं लेकिन बाहर कुछ और ही प्रकाशित होता है। फलस्वरूप बड़ी खींचातानी चलती है। क्या कोई आशा है इस उलझन से बाहर हो जाने की?

जहां-जहां उलझन है वहां-वहां सुलझन का उपाय है। उलझन होती ही नहीं, अगर सुलझने की आशा न हो। उलझन खड़ी ही वहां होती है जहां सुलझने का द्वार पास ही है।

हर समस्या में छिपा हुआ समाधान है और हर उलझन में छिपी हुई सुलझन है और हर प्रश्न अपने उत्तर को लिए हुए है। जरा खोज की जरूरत है।

तुम ऐसा कोई प्रश्न नहीं खोज सकते जिसका उत्तर न हो…देर-अबेर लगे। तुम ऐसी कोई उलझन नहीं बना सकते जिसका सुलझाव न हो। तुम न करना चाहो सुलझाव तो बात अलग। तब उलझन की समस्या नहीं है–तुम्हारी समस्या है; तुम करना ही नहीं चाहते। अगर तुम करना चाहो तो कोई बाधा नहीं है।

अब यह उलझन खड़ी की हुई है।

“पहली बार किसी के प्रेम में पड़ा हूं, लेकिन मेरा अहंकार मुझे प्रेम में पूरी तरह डूबने नहीं देता।’

अगर यह समझ में आ रहा है तो चुन लो। या तो अहंकार को चुन लो, तब प्रेम पागलपन है। तब छोड़ो बकवास! नारद का दिमाग फिर गया होगा! और अगर प्रेम को चुनना है, तो फिर अहंकार को गिराओ। दो नावों पर सवार मत हो जाओ, अन्यथा उलझन होगी। और दोनों नावें बड़ी अलग-अलग हैं। महावीर और नारद दोनों के कंधों पर हाथ मत रख लेना, अन्यथा तुम त्रिशंकु हो जाओगे। तब तुम बड़ी उलझन में पड़ोगे। लेकिन उलझन के लिए न तो महावीर जिम्मेवार होंगे और न नारद जिम्मेवार होंगे–जिम्मेवार तुम होओगे जिसने दोनों के कंधों पर हाथ रख लिये। किसने तुमसे कहा था?

नारद से पूछते तो नारद तो कहते हैं, महावीर गलत हैं। महावीर से पूछो तो महावीर कहते हैं, नारद गलत हैं। इसलिए जुम्मा उन पर न डाल सकोगे तुम। तुम उलझन अगर पैदा करना चाहो तो फिर बात अलग।

अब एक आदमी अगर दो नावों पर सवार हो और पूछे कि मैं क्या करूं, तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, साफ है बात: एक नाव पर सवार हो जाओ। निश्चित ही एक नाव पर सवार होने के लिए दूसरी नाव छोड़नी पड़ेगी। इसलिए दोनों के लाभ मन में मत रखना।

जिंदगी चुनाव है–प्रतिपल चुनाव और निर्णय है। और जब भी तुम एक बात चुनते हो तो कुछ छोड़ना पड़ता है। सच तो यह है एक बात चुनने के लिए हजार बातें छोड़नी पड़ती हैं।

तुम यहां आए मुझे सुनने, इस घंटे के हजार उपयोग हो सकते थे। तुम दुकान पर बैठ सकते थे, कुछ रुपया कमा लेते। तुम सिनेमा जा सकते थे, कोई फिल्म देख लेते। तुम शराब-घर में जा सकते थे, शराब पी लेते। गपशप कर लेते, अखबार पढ़ लेते, रेडियो सुन लेते। हजार उपयोग हो सकते थे इसके, वह तुमने छोड़े और यह उपयोग चुना कि मुझे सुनते हो। यह बड़ा चुनाव है। अब तुम अगर चाहो कि वे लाभ भी जो तुमने छोड़ दिये, मुझे सुनने से मिल जायें, तो तुम गलत चाह कर रहे हो। गलत चाह से अड़चन आती है।

अब अगर तुम्हें अहंकार में रस आ रहा हो तो छोड़ो प्रेम की बात। फिर पूरे अहंकारी बन जाओ। फिर राजनीति तुम्हारा धर्म होगी। फिर दौड़ो अहंकार, पद…दिल्ली की यात्रा करो! फिर तुम यहां बैठे क्या कर रहे हो? फिर यह समय गंवाया हुआ सिद्ध होगा। फिर तुम एक न एक दिन मुझ पर बहुत नाराज हो जाओगे। यह समय तो दिल्ली की यात्रा में लगाना था। बस तुम्हारा एक ही मंत्र होना चाहिए: दिल्ली चलो!

अगर अहंकार को ही भरना है, तो साफ-साफ भरो; फिर इधर-उधर बेईमानी मत करो! निश्चित ही, ध्यान रखना, अहंकार को भरने के थोड़े से सुख हैं। दुख भी बहुत हैं। सुख तो भ्रामक हैं, भासमान हैं, दुख बड़े यथार्थ हैं। तो सोच लेना, ठीक से देख लेना, दुख-सुख दोनों का दर्शन कर लेना। प्रेम के सुख तो बड़े सच्चे हैं, दुख केवल भासमान हैं। इसलिए बुद्धिमानों ने प्रेम चुना; बुद्धिहीनों ने अहंकार चुना। बुद्धिमानों ने धर्म चुना; बुद्धिहीनों ने राजनीति चुनी। बुद्धिमानों ने अंतर्जगत चुना; बुद्धिहीनों ने बाहर का जगत चुना। बाहर के जगत का धन दिखाई पड़ता है–है नहीं; सिर्फ मान्यता है। भीतर का धन दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन है। अदृश्य है–और दृश्य केवल दिखाई पड़ता है।

तो तुम्हारे ऊपर निर्भर है। उलझन चुन लोगे तो तुम कहीं के भी न रहोगे–घर के न घाट के! तुम धोबी के गधे हो जाओगे।…या तो घाट या घर। अगर अहंकार चुनना है तो घाट। अगर प्रेम चुनना है तो घर।

प्रेम चुनने का अर्थ है कि जीवन अपने-आप में मूल्यवान है और जीवन का चरम अर्थ जीवन की प्रफुल्लता में है–धन में नहीं, गीत में है; पद में नहीं, प्रसन्नता में है; वस्तुओं में नहीं, व्यक्तियों के अंतर्संबंधों में है। और बाहर नहीं भीतर है। यह बड़ा क्रांतिकारी निर्णय है। और निर्णय बहुत साफ-साफ लेना चािहए, क्योंकि निर्णय पर, इसी निर्णय पर सारे जीवन का ढांचा निर्भर करेगा। तुम कहां पहुंचोगे, यह इस पर निर्भर करेगा कि तुमने पहला कदम किस दिशा में उठाया था। अगर पहला कदम गलत उठा तो तुम लाख दौड़ो, लाख श्रम करो, तुम ठीक जगह न पहुंच पाओगे। तुम्हारी दौड़, तुम्हारी आपाधापी, अगर गलत कदम पर खड़ी है तो बुनियाद गलत है, यह भवन गिरेगा।

पूछा है, “पहली बार किसी के प्रेम में पड़ा हूं।’ इसलिए स्वाभाविक भी है। पहली बार जब कोई किसी के प्रेम में पड़ता है तो अहंकार बाधा डालता है। क्योंकि अब तक तुम अहंकार के प्रेम में रहे। अब तक तुमने सिर्फ अहंकार को ही प्रेम किया है। आज पहली दफा अहंकार के विपरीत कोई नये प्रेम का उदभव हुआ–जहां अहंकार को समर्पित करना होगा, जहां “मैं’ को मिटाना होगा। तो स्वभावतः, जिस “मैं’ को अब तक सींचा, जिस “मैं’ को अब तक सम्हाला, वह अगर बाधा डाले तो कुछ आश्चर्य नहीं। लेकिन तुमने जिसे सींचा है, तुम ही अगर पानी बंद कर दोगे, वह अपने से कुम्हला भी जायेगा, सूख भी जायेगा। अब तुम्हारे सामने है निर्णय। अब तक तो तुमने अहंकार को ही सींचा था, अब प्रेम का भी अंकुर उठा है। अब तुम सोच लो: अहंकार क्या दे सकता है और प्रेम क्या दे सकता है? अहंकार देने के बहुत-से आश्वासन देगा, लेकिन देता कभी कुछ नहीं–बस कोरे आश्वासन! यही तो सब सिकंदरों, नेपोलियनों की कथा है। प्रेम आश्वासन नहीं देता–देने की तो बात ही नहीं उठाता। प्रेम तो कहता है, सब खोना पड़ेगा। लेकिन खोनेवालों की कथा ही तो सारे भक्तों की कथा है, सारे धार्मिकों की कथा है, सारे ध्यानियों की कथा है।

प्रेम कहता है, खोओगे तो मिलेगा। और अहंकार कहता है, पाओगे तो मिलेगा। अहंकार का गणित बुद्धि की समझ में आ जाता है। स्वाभाविक है, पाओगे तो मिलेगा। और प्रेम कहता है, खोओगे तो मिलेगा। तो गणित कुछ अटपटा है, बेबूझ है, बुद्धि में आता नहीं।

अहंकार और बुद्धि के बीच तो एक तरह का समझौता है, एक षडयंत्र है। बुद्धि अहंकार की पक्षपाती है, अहंकार बुद्धि का पक्षपाती है। तो अगर तुमने सिर से ही पूछा तो तुम अहंकार के ही रास्ते पर भटकते-भटकते खो जाओगे; जैसे कोई सरिता मरुस्थल में भटकते-भटकते खो जाये और उसे सागर न मिले। हृदय से पूछो! हृदय और प्रेम का समझौता है। और हृदय कह रहा है…।

“लेकिन मेरा अहंकार मुझे प्रेम में पूरी तरह डूबने नहीं देता। मेरा हृदय नारद के साथ है और मेरी बुद्धि महावीर के साथ।’

तो तुम चुन लो! अगर तुम्हें लगता है कि हृदय गलत कह रहा है तो तुम बुद्धि के साथ कुछ दिन चल लो, दौड़ लो। सौ में से कभी कोई एकाध पहुंच पाता है। कोई महावीर! बहुत दुर्गम है। क्योंकि व्यर्थ की उलझन अस्मिता की खड़ी हो जाती है। कोई परमात्मा नहीं, जहां सिर झुकाया जा सके, तो बिना किसी परमात्मा के सामने सिर झुकाना आ जाना बहुत दुर्लभ है। महावीर को घटा; बिना किसी परमात्मा के सिर झुका दिया; बिना किसी वेदी के आहुति चढ़ा दी।

कोई नहीं है परमात्मा, इस कारण साधारणतः तो “मैं’ मजबूत होगा। तो इसकी बहुत कम संभावना है कि तुम महावीर हो सको; इसकी संभावना ज्यादा है कि तुम नीत्से हो जाओ। नीत्से का भी तर्क वही है। वह कहता है, कोई परमात्मा नहीं। लेकिन जैसे ही उसने कहा कोई परमात्मा नहीं, उसने तत्क्षण कहा जब परमात्मा नहीं है तो अब मनुष्य स्वतंत्र है कुछ भी करने को। फल क्या हुआ? फल हुआ नीत्से का पागल हो जाना। वह अहंकार मजबूत होता चला गया। कहीं कोई वेदी न मिली जहां चढ़ा देता। वेदी को इनकार कर दिया। इनकार करने का कारण ही यही बताया कि “अगर परमात्मा है तो मैं नीचा हो गया–और मैं नीचे कैसे हो सकता हूं! मेरे से ऊपर कोई भी नहीं हो सकता।’ इसलिए परमात्मा को इनकार किया। नीत्से पागल हुआ।

सौ में निन्यानबे मौके ये हैं कि तुम पागल हो जाओगे। महावीर तो बड़े कुशल व्यक्ति हैं। चुना तो ठीक वही मार्ग जो नीत्से का है; लेकिन परमात्मा नहीं है, इससे यह निष्कर्ष न लिया कि मनुष्य अब स्वच्छंद है। इससे उलटा ही निष्कर्ष लिया। महावीर ने कहा, “चूंकि परमात्मा नहीं है, इसलिए अब कोई स्वच्छंदता न चलेगी; सारा उत्तरदायित्व मेरा है।’ समझे फर्क? नीत्से ने कहा, कोई परमात्मा नहीं, तो अब करो जो करना है। महावीर ने कहा, अब तो कुछ करने का उपाय ही न रहा; अब तो जो भी किया, जिम्मेवारी मेरी है। परमात्मा होता तो कुछ रास्ता भी निकाल लेते–कुछ भी करने का, तीर्थ स्नान कर आते, मंदिर में पूजा कर देते, प्रार्थना करके समझा-बुझा लेते; पाप हो जाता, पश्चात्ताप कर लेते–और फिर वह करुणावान है, रहीम है, रहमान है; वह क्षमा कर ही देता; उसने तो बड़े-बड़े पापियों को क्षमा कर दिया।

कहते हैं, एक पापी ने मरते वक्त भूल से अपने लड़के को बुलाया: नारायण, नारायण! लड़के का नाम नारायण था और ऊपर के नारायण ने समझा कि मुझे पुकार रहा है। क्षमा कर दिया। स्वर्ग में उठा लिया। बैकुंठ में वास कर रहा है वह पापी अब। तो जो इतनी सरलता से फुसला लिया जाता है; रिश्वत भी जिसकी इतनी सस्ती है; बुलाया भी नहीं था जिसे, किसी और को ही बुलाया था, लेकिन नाममात्र का संयोग मिल गया, “नारायण’, और जो भूल में पड़ गया; जो ऐसा खुशामद-लोलुप है–ऐसा परमात्मा हो तो फिर कुछ भी करने की छूट है।

अगर महावीर से पूछो तो महावीर यह कहेंगे, अगर परमात्मा है तो फिर मनुष्य स्वच्छंद है। फिर जो भी करना हो करो; क्योंकि आखिर में तो वह है, उसके चरण पर गिड़गिड़ा लेना, रो लेना, माफी मांग लेना।

और वह करुणावान है, वह क्षमा कर देगा।

तो जो निष्कर्ष नीत्से ने लिया, वही निष्कर्ष महावीर ने लिया–लेकिन बिलकुल उलटी तरफ से। अगर परमात्मा है तो आदमी स्वच्छंद हो जायेगा। तो महावीर ने कहा, परमात्मा तो कोई भी नहीं है; इसलिए प्रार्थना का उपाय नहीं है। अपने को बनाना है, निर्मित करना है, छांटना है, काटना है, निखारना है, सब अपना ही है। खुद की जिम्मेवारी चरम है। यह उत्तरदायित्व आखिरी है। इसको तुम किसी और पर न टाल सकोगे। इसलिए तुम आखिर में यह न कह सकोगे कि मैं क्या करूं, हो गया। भोगना पड़ेगा। स्वच्छंदता का कोई उपाय नहीं।

तो महावीर ने तो परमात्मा के न होने से उत्तरदायित्व लिया। नीत्से ने परमात्मा के न होने से स्वच्छंदता ली। महावीर तो विमुक्त हो गये, नीत्से विक्षिप्त हो गया। दोनों के तर्क का प्रारंभ बिलकुल एक जैसा था, लेकिन अंत बड़ा भिन्न हुआ। कहां महावीर परम सुगंध को उपलब्ध हुए और कहां नीत्से पागलखाने में सड़ा और मरा!

सोच लेना! महावीर का रास्ता बहुत थोड़े लोगों के लिए है। उनके लिए है, जिनके लिए स्वतंत्रता स्वच्छंदता न बनेगी। उनके लिए है, जिनके लिए परमात्मा का अभाव अहंकार न बनेगा; जो कहेंगे, “जब परमात्मा ही नहीं तो मेरे होने का क्या? परमात्मा तक नहीं है तो मैं क्या हो सकता हूं?’

परमात्मा का अर्थ है सारे अस्तित्व का “मैं’; सारे अस्तित्व का केंद्र! जब सारा अस्तित्व केंद्रहीन है और “मैं’ रहित है, तो मैं एक छोटा-सा व्यक्ति, एक छोटी-सी लहर, एक जरा-सी तरंग!…जब सागर का ही कोई “मैं’ नहीं है तो मेरा मैं क्या हो सकता है? बात खतम हो गयी!

तो महावीर ने तो परमात्मा को इनकार करने में ही अपने भीतर “मैं’ की संभावना को इनकार कर दिया। इसलिए तुम यह मत सोचना कि महावीर और नारद वस्तुतः विपरीत हैं। अंततः तो सार एक ही निकलता है। महावीर ने परमात्मा को अस्वीकार करके “मैं’ को अस्वीकार कर दिया। नारद ने परमात्मा को स्वीकार करके “मैं’ उसके चरणों में चढ़ा दिया। हर हाल नारद और महावीर दोनों “मैं’ से मुक्त हो गये।

तो तुम चाहे कुछ भी निर्णय लो–तुम चाहे प्रेम के पक्ष में निर्णय लो, चाहे अहंकार के पक्ष में निर्णय लो–लेकिन एक बात ध्यान रखना, अहंकार तो मरेगा ही। उससे तुम बच न सकोगे। उसे अगर बचा लिया तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे, पागल हो जाओगे। उसी कारण तो सारी पृथ्वी करीब-करीब पागल जैसी है।

अगर मेरी सुनो तो मैं कहूंगा: हृदय की सुनो! प्रेम की सुनो! ज्यादा सुरक्षित मार्ग है। महावीर का मार्ग बहुत खाई-खड्ड से गुजरता है। डर है कि तुम कहीं गिर न जाओ! नारद का मार्ग बहुत सुरक्षित है। तुम्हारी कमजोरी को भी सम्हाल लेगा। तुम्हें सहारा देगा। महावीर का मार्ग बहुत अकेला है, अत्यंत एकांत का है। दूर, बहुत दूभर है! जाओ तो सोच समझकर जाना, कि नीत्से का खतरा तुम्हारे पीछे लगा रहेगा।

नारद के मार्ग पर नीत्से का खतरा नहीं है। ऐसा नहीं कि वहां कोई खतरा ही नहीं है। खतरा तो हर चलने में होता है, हर यात्रा में होता है। जो घर बैठे रहते हैं उन्हीं को खतरा नहीं है। हवाई जहाज से चलो तो खतरा है। बैलगाड़ी से चलो तो वह भी कभी-कभी उलट जाती है। लेकिन ऐसा है कि बैलगाड़ी से उलटकर मरते हुए लोग नहीं देखे जाते, थोड़ी चोट-वगैरह लग जाती हो…साधारणतः बैलगाड़ी उलट जाये तो इतना खतरा नहीं है, क्योंकि गति ही कोई बड़ी न थी; पृथ्वी से फासला ज्यादा दूर का न था।

नारद का रास्ता बहुत पृथ्वी के करीब है। प्रेम का रास्ता पृथ्वी के बहुत करीब है। और तुम्हारा जो सामान्य जीवन है उससे बहुत फासला नहीं है। तुम अपने सामान्य जीवन में जीते हुए भी नारद को सुगमता से साध सकते हो।

खतरा क्या है? खतरा एक ही है और वह यह है कि प्रेम कहीं वासना ही न बन जाए। प्रेम भक्ति बने, यह तो नारद का मार्ग है। और प्रेम कहीं वासना ही रह जाये, यह खतरा है।

जैसे महावीर के पीछे चलनेवाले जैन मुनि अहंकार की पाषाण प्रतिमाएं बन गए, वैसे ही नारद के पीछे चलने वाले भक्त केवल भोग-शृंगार में खो गये। खतरा तो है ही। खतरा तो सभी रास्तों पर है। चलनेवाले को खतरा तो है ही। इसलिए सम्हलकर तो चलना होगा। फिर भी खतरे की मात्राएं भिन्न-भिन्न हैं।

अगर नारद के मार्ग पर तुम भटके भी तो तुम वहां से नीचे न गिरोगे जहां तुम हो। क्योंकि वासना में तो तुम हो ही। अगर नारद के मार्ग से तुम गिरे भी तो बैलगाड़ी से गिरे; जमीन से ज्यादा दूर न थे। वासना में तुम हो ही। इतना ही धोखा दे सकते हो कि अब तुम अपनी वासना को प्रेम कहने लगो और प्रेम को भक्ति कहने लगो। बस नामों के धोखे दे सकते हो। कुछ ज्यादा खतरा न होगा। लेकिन महावीर के मार्ग से अगर तुम गिरे तो पागलपन है, विक्षिप्ता है और भयंकर अहंकार के खड़े हो जाने का डर है।

जैन मुनि को देखते हो! उससे ज्यादा गहन अहंकारी व्यक्ति खोजना मुश्किल है।

जैन मुनि श्रावक को हाथ जोड़कर नमस्कार भी नहीं कर सकता। कठिन है, असंभव है। मुनि और श्रावक को नमस्कार करे! आशीर्वाद दे सकता है, नमस्कार नहीं कर सकता।

लेकिन मैं पूछता हूं, जब नमस्कार ही नहीं कर सकते तो आशीर्वाद देने की झंझट भी क्या कर रहे हो? जब कुछ करना ही है तो नमस्कार बेहतर था, आशीर्वाद देने की बजाय। और जिसका नमस्कार सूख गया है उसके आशीर्वाद में कोई बहुत बल नहीं हो सकता। अहंकार से आया हुआ आशीर्वाद क्या फल लायेगा? वह तो झुके हुए हृदय से निकले तो ही लाभ होता है। वह तो लदे हुए वृक्ष की तरह है। जैसे वृक्ष झुक जाता है, जब फलों से लद जाता है। ऐसा जब कोई प्रेम से लदा हो और झुका हो, तभी उससे मीठे फलों के आशीर्वाद उपलब्ध होते हैं।…अकड़े खड़े हैं! एक डाल नहीं झुकी। फल तो हैं ही नहीं। आशीर्वाद कहां से होगा? लेकिन जैन मुनि अकड़कर खड़ा हो जाता है: तपश्चर्या है! कोई समर्पण किसी के प्रति नहीं है। सिर्फ संकल्प है।

तो सिर्फ संकल्प की शक्ति का खतरा यह है कि तुम्हारा अहंकार विक्षिप्त न हो जाये। फिर चुनाव तुम्हारा है। इतना निश्चित है कि उस मार्ग से भी लोग पहुंचे हैं।

लेकिन अगर मेरी सुनो तो हृदय की सुनना! और जब तुम हृदय की सुनोगे तो बुद्धि को तकलीफ होगी। क्योंकि हृदय को चुनने का अर्थ है: बुद्धि का प्रभुत्व गया; तर्क की तुम्हारे ऊपर जो मालकियत है, वह टूटी!

न जाने आज मैं क्या बात कहनेवाला हूं

जुबान खुश्क है, आवाज रुकती जाती है।

जैसे-जैसे प्रेम की बात कहने के करीब आओगे, वैसे ही पाओगे: जबान खुश्क हो गयी, आवाज रुकती जाती है, क्योंकि बुद्धि काम नहीं करती।

न जाने आज मैं क्या बात कहनेवाला हूं

जुबान खुश्क है, आवाज रुकती जाती है।

हृदय की तरफ सरकोगे तो बुद्धि मरने लगेगी। इसलिए बुद्धि बहुत संघर्ष करेगी। लेकिन चुनाव तो करना ही होगा।

और प्रेम का मार्ग सुगम है, छोटा है–करीब से करीब है। क्योंकि प्रेम सुगम है, सहज है। प्रेम को लेकर ही तुम पैदा हुए हो, ध्यान को इतनी आसानी से नहीं कहा जा सकता कि तुम लेकर पैदा हुए हो। ध्यान तो तुम बड़ी चेष्टा करोगे तो शायद दीया जले। लेकिन प्रेम की तड़फ तो तुम्हारे भीतर है ही; तुम्हारी श्वास-श्वास में भरी है! तुम्हारे रोएं-रोएं में भरी है। कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम के लिए प्यासा न हो! कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम देने को आतुर न हो! न दे पाओ, कुछ अड़चन आती हो; न मिल पाये, कुछ बाधा पड़ जाती हो–और बात। लेकिन कहां है ऐसा मनुष्य जो प्रेम के लिए आतुर न हो! प्रेम स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। वह जीवन के ऋत का हिस्सा है।

ध्यान बड़ी चेष्टा, बड़े परिमार्जन, बड़ी मर्यादा, बड़े अनुशासन से उपलब्ध होता है। तो जो नैसर्गिक है उसे तुम जल्दी काम में ला सकते हो।

तू न दे नामे को इतना तूल गालिब मुख्तसर लिख दे

कि हसरत सेज हूं, अर्जे-सितमहाए-जुदाई का।

–प्राणप्यारे को पत्र लिखते समय, पत्र को बहुत विस्तृत न बना, गालिब! बस इतना लिख दे, इतना काफी है संक्षेप में कि श्री चरणों में विरह की पीड़ा निवेदन करने की लालसा से लसित! काफी है!

“न दे नामे को इतना तूल’–चिट्ठी को बहुत लंबी मत कर। “गालिब, मुख्तसर लिख दे!’ बस संक्षेप में इतना लिख दे “कि हसरत सेज हूं अर्जे-सितमहाए-जुदाई का।’ कि विरह की पीड़ा बहुत हो गयी, अब श्री चरणों में यह निवेदन रखता हूं कि अब मिलने की बड़ी गहरी अभीप्सा है। बस काफी है।

प्रेम की चिट्ठी छोटी होती है।

ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय!

अगर प्रेम ने पुकारा हो तो इस आवाज को ऐसे ही मत लौट जाने देना। अगर प्रेम ने पुकारा हो तो सुनना, दो गाम उसके पीछे चलना! क्योंकि प्रेम के रास्ते से दो गाम चलकर भी आदमी परमात्मा तक पहुंच जाता है।

संकल्प का रास्ता बहुत लंबा, बहुत बीहड़, बहुत अकेले का है। हां, कुछ को वैसी चुनौती ही भाती है। जिनको वैसी चुनौती भाती है, उनको वही मार्ग चुनना चाहिए।

लेकिन प्रश्नकर्ता के प्रश्न से मुझे ऐसा लगता है कि उसे बुद्धि का मार्ग जमेगा नहीं, संकल्प का मार्ग जमेगा नहीं। क्योंकि जिन्हें संकल्प का मार्ग जमता है, उन्हें प्रेम की पुकार ही सुनायी नहीं पड़ती। वह दस्तक प्रेम देता रहे, उनके कान बहरे होते हैं। प्रेम में उन्हें सिर्फ पाप दिखायी पड़ता है।

तो संकल्प के मार्गवाला व्यक्ति तो यह पूछेगा ही नहीं। यह तो उसी ने पूछा है जिसका मार्ग प्रेम है; लेकिन बुद्धि की अड़चन में पड़ गया है। चाह तो गहरी यही है कि प्रेम में उतर जाये, लेकिन अहंकार उतरने नहीं देता, झुकने नहीं देता। तो इस अहंकार को तोड़ो! इस अहंकार से अपने को अलग करो। पूछनेवाला शिकार तो हो ही गया है। तीर तो लग ही गया है।

दिल को हम सर्दे-वफा समझे थे, क्या मालूम था

यानी, यह पहले ही नज़रे-इम्तिहां हो जायेगा।

–समझे थे कि दिल बहुत प्रेम-प्रवीण है, पता न था कि पहली नजर में ही मर मिटेगा!

प्रेम का तीर तो लगा है, अब तुम बुद्धि की सुन-सुनकर कहीं इस घाव को छिपा मत लेना! यह घाव सौभाग्य है। हां, जिनका मार्ग संकल्प का है, उन्हें यह घाव लगता ही नहीं। उनके आसपास से तीर निकल जाते हैं, उनको चुभते नहीं। इसलिए उनके सामने सवाल नहीं उठता। सवाल ही उसके सामने उठता है, जिसको प्रेम की आवाज सुनायी पड़ती है। अगर प्रेम की आवाज सुनायी पड़ी है तो चलो, हिम्मत करो! अहंकार में बचाने जैसा कुछ भी नहीं है।

और इतना मैं कहता हूं कि संकल्प के मार्ग पर भी आखिर में तो अहंकार छोड़ना ही पड़ेगा। प्रेम के मार्ग पर प्रथम ही छोड़ना पड़ता है, संकल्प के मार्ग पर अंत में छोड़ना पड़ता है। प्रेम के मार्ग और संकल्प के मार्ग में इतना ही भेद है। प्रेम के मार्ग पर जो पहला कदम है, वह संकल्प के मार्ग पर अंतिम कदम है। पहले तो संकल्प के मार्ग का साधक अपने को निखारता है, तेज से भरता है, उज्जवल करता है, चरित्र को निर्मित करता है, शील को बांधता है, मर्यादा बनाता है; सब तरह से अनुशासित होकर शील और चरित्र का स्तंभ बनता है। लेकिन इस सबके भीतर एक सूक्ष्म अहंकार बनता जाता है: “मैं हूं तपस्वी! मैं हूं संयमी! मैं हूं योगी!’ यह “मैं’ भरता जाता है। फिर आखिरी घड़ी आती है, तब उसे पता चलता है कि अब सब तो छूट गया, यह “मैं’ बचा। वह सब तो गिर गया जो गलत था, लेकिन उस सब गलत को गिराने में एक चीज भीतर निर्मित होती चली गयी–अब इसको गिराना है।

तो संकल्प के मार्ग पर अंततः, अंतिम, अहंकार को छोड़ना पड़ता है। भक्ति के मार्ग पर अहंकार पहले ही कदम में छोड़ना पड़ता है। इसलिए मैं कहता हूं जिसे छोड़ना ही है उसे इतनी देर भी क्या ढोना। जिसे छोड़ना ही पड़ेगा, आखिरी शिखर पर पहुंचने के पहले…।

कभी तुम हिमालय गये, कभी शिखर चढ़े?…तो जैसे-जैसे शिखर की ऊंचाई बढ़ने लगती है वैसे-वैसे सामान छोड़ना पड़ता है। आखिरी शिखर पर तो कोई नग्न होकर ही पहुंचता है, सब छोड़कर ही पहुंचता है। वस्त्र भी भारी हो जाते हैं। अपनी श्वास भी भारी होने लगती है। तो कंधे पर अगर तुम बोझ डाले हुए हो, छोड़ना पड़ेगा, छोड़ते जाना पड़ेगा।

अंतिम शिखर सत्य का: बस तुम बचते हो तुम्हारी शुद्धता में। कोई “मैं’ का भाव नहीं होता। महावीर उसे आत्मा कहते हैं। नारद उसे परमात्मा कहते हैं।

तीसरा प्रश्न:

कृपा कर कीर्तन-ध्यान के बारे में कुछ समझाएं।

कीर्तन समझने की बात नहीं–करने की बात है। कीर्तन शब्द में ही छिपा है राज–करने की बात! करो तो जानोगे। समझ से कीर्तन का कोई लेना-देना नहीं। वस्तुतः तो समझ को रख दोगे एक किनारे तभी कीर्तन कर सकोगे। तो समझ-समझकर अगर कीर्तन किया तो होगा ही नहीं। समझकर किया तो चूक ही जाओगे। अगर बुद्धिमानी के द्वारा किया, वहीं गलती हो जायेगी। समझने की फिक्र छोड़ो। अगर सच में ही समझना चाहते हो तो करो, समझ पीछे से आयेगी। डूबो!

कीर्तन-ध्यान तल्लीनता का नाम है। कीर्तन-ध्यान अहोभाव की अभिव्यक्ति है। धन्यभाव की! यह अहोभाव कि मैं हूं! यह अहोभाव कि परमात्मा ने मुझे सृजा! यह अहोभाव कि थोड़ी देर आंखें खुलीं, रोशनी देखी, फूल देखे, पक्षियों के गीत सुने, सूरज, चांदत्तारों का नृत्य देखा!

ये थोड़े क्षण, ये थोड़े लम्हे, जो जीने के मिले, ये न मिलते तो किससे शिकायत करते? ये मिले–अकारण मिले! मांगे न थे, बिना मांगे मिले! किसी ने दिये! यह किसी का प्रसाद–इस प्रसाद के प्रति जो धन्यवाद है, वही कीर्तन है।

तुमने चाहा तो न था कि तुम हो जाओ। तुम चाहते भी कैसे, जब तुम थे ही न? चाहने के लिए हो जाना तो पहले जरूरी है। तुमने चाहा तो न था कि तुम देख सको। क्योंकि देखा ही न होता, तो देखने की चाह कैसे पैदा होती; तुमने चाहा तो न था कि सुन सको यह गीत, यह संगीत जो जीवन का है, यह कलरव-नाद जो अस्तित्व का है–यह सब मिला है, यह वरदान है! यह तुम्हारे बिना मांगे मिला है। यह भीख नहीं है, यह प्रसाद है!

भीख और प्रसाद के फर्क को समझ लेना। तुमने मांगा और मिले–तो भीख। तुमने न मांगा, न तुमने चाहा और मिला–तो प्रसाद! यह प्रभु-प्रसाद है। यह परम अस्तित्व का प्रसाद है तुम्हारे लिए। लहर-लहर को उसने ऐसा बनाया कि वह सारे अस्तित्व को भोग सके! एक-एक कण को जीवंत किया, ताकि एक-एक कण को पूरे होने का स्वाद आ सके! इसके लिए धन्यवाद दोगे या नहीं? इतने कृपण मत बनो! धन्यवाद दो! कैसे धन्यवाद दोगे इसे?

आदमी कितना असहाय है! नाच सकता है, गीत गुनगुना सकता है! और क्या कर सकेगा? हमारे बस में और क्या है?

कीर्तन का इतना ही अर्थ है, जो हम कर सकते हैं; चढ़ाने को कुछ ज्यादा नहीं है! बस जो कुछ है, यह अहोभाव है। इसको ही हम उस समग्र के प्रति समर्पित करते हैं।

तो कीर्तन तो एक तरह का उन्माद है। पागलपन नहीं–उन्माद। भाषाकोश में तो दोनों का एक ही अर्थ है; जीवन के कोश में अर्थ अलग-अलग है। पागलपन है: जब तुम्हारी जीवन की अवस्था खंड-खंड हो जाये, टुकड़े-टुकड़े में टूट जाये; तुम एक न रह जाओ, अनेक हो जाओ। और उन्माद है: जब तुम्हारे सारे खंड इकट्ठे हो जायें, तुम एक हो जाओ; उस एक में होकर तुम नाच उठो, मस्त हो उठो!

उन्माद, सामान्य चित्त से ऊपर जाने की अवस्था है। पागलपन, सामान्य चित्त से नीचे गिर जाने की अवस्था है। दोनों में एक बात समान है कि दोनों सामान्य चित्त के बाहर हैं। इसलिए परमहंस पागल मालूम होते हैं। इसलिए परमात्मा के दीवाने भी विक्षिप्त जैसे मालूम होते हैं। एक बात समान है कि दोनों जिसको तुम सामान्य बुद्धिमानी कहते हो उसके बाहर हो गए। पागल नीचे गिरकर बाहर हो गया, मस्त ऊपर उठकर बाहर हो गया। लेकिन दोनों को एक मत समझ लेना। दोनों में जमीन-आसमान जैसा अंतर है।

न जाने क्यों जमाना हंस रहा है मेरी हालत पर

जुनूं में जैसा होना चाहिए वैसा गिरेबां है।

भक्त कहता है: क्यों हंस रहे हैं लोग? ये तो उन्माद में जैसा होना चाहिए, वैसे ही तो वस्त्र हैं, वैसा ही परिधान है। तो पागल को जैसा होना चाहिए, वैसा ही तो मैं हूं। लोग हंस क्यों रहे हैं!

न जाने क्यों जमाना हंस रहा है मेरी हालत पर

जुनूं में जैसा होना चाहिए वैसा गिरेबां है।

और क्या चाहिए?

कीर्तन तो उन्माद है! बुद्धिमान तो हंसेंगे। इसलिए दुनिया से कीर्तन खोता चला गया है। दुनिया बहुत बुद्धिमान होती चली गयी है। उसी बुद्धिमानी में बुद्धू हो गयी है। कीर्तन खोता चला गया है। नाच गुम हो गया है।

लोग अगर नाचते भी हैं अब तो बहुत निम्न तल पर नाचते हैं। वह कामोत्तेजना का नृत्य होता है। अब प्रभु-उन्माद का नृत्य कहीं भी नहीं होता। अब ऊर्जा ने उन ऊंचाइयों को छूना बंद कर दिया है। अब यहां तूफान भी उठते हैं, आंधियां भी आती हैं, तो भी जमीन का दामन नहीं छूटता। आकाश में नहीं उठ पाते! पक्षी उड़ते भी हैं, तो ऐसा घर के चारों तरफ चक्कर लगाकर फिर वहीं बैठे जाते हैं। दूर-दूर कि खो जाए पृथ्वी, दूर कि खो जाये नीड़–इतने दूर आकाश में नहीं जाते!

कीर्तन बड़ी दूर यात्रा है। यह परमात्मा के साथ नाचना है। जैसे तुम कभी किसी स्त्री के साथ नाचे, जिसे तुमने प्रेम किया, तो नृत्य में एक प्रसाद आ जाता है, एक गुणधर्म आ जाता है। किसी के साथ तुम नाचो, सिर्फ नाचने के लिए, औपचारिक, तो नाच तो हो जायेगा, क्रिया पूरी हो जायेगी; लेकिन भीतर प्राणों में कोई रस न बहेगा। फिर किसी के साथ नाचो, जिससे तुम्हें प्रेम है, तो कामोत्तेजना का, वासना का रस बहेगा!

कीर्तन है परमात्मा के साथ नाचना, उस परम प्यारे के साथ नाचना! तो जैसे साधारण कामोत्तेजना का नृत्य काम-केंद्र के आसपास भटकता है, वैसे कीर्तन सहस्रार के आसपास। तुम्हारे जीवन की आखिरी ऊंचाई पर, नृत्य के फूल खिलते हैं, हजार-हजार कमल खिलते हैं।

ऐ मुब्तिला-ए-जीस्त! ठहर खुदकुशी न कर

तेरा इलाज जहर नहीं है, शराब है।

कीर्तन! भक्त तो कहता है कि जीवन से घबड़ाकर आत्महत्या करने की तरफ मत जाओ, पागल हुए हो?

ऐ मुब्तिला-ए-जीस्त! ठहर खुदकुशी न कर!

–ऐ जीवन से उत्तप्त हुए, आत्मघात मत कर! भाग मत जीवन से! तेरा इलाज जहर नहीं, शराब है। मृत्यु तेरा इलाज नहीं है। जीवन की रसधार को पी लेना! परमात्मा की मधुशाला में प्रविष्ट हो जाना ही मंदिर में प्रवेश हो जाना है।

तर दामनी पर शैख हमारी न जाइए

दामन निचोड़ दें तो फरिश्ते वजू करें।

तो कीर्तन करनेवाला तो दीवाना है, पागल है, नर्तक है, गायक है, वादक है। और इतनी तीव्रता से नर्तन करता है, इतनी गहनता से कि अपने को भूल जाता है, खो देता है, खुद बचता ही नहीं।

पश्चिम का एक बहुत बड़ा नर्तक हुआ: निजिन्सकी। उसके संबंध में वैज्ञानिक बड़े चकित थे। उसके नृत्य जैसा नृत्य फिर कभी देखा नहीं गया–न उसके पहले, न उसके बाद। वैज्ञानिक हैरान थे कि जब वह नृत्य करते-करते छलांग लगाता था तो ऐसा लगता था कि पृथ्वी पर वापस लौटते समय बड़ा धीमे-धीमे वापस आता है; जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम उस पर काम नहीं करता। और भी नर्तक छलांग लगाते हैं, लेकिन तत्क्षण पृथ्वी पर वापिस लौट आते हैं। वह भी छलांग लगाता था, लेकिन ऐसे लौटता था जैसे कोई पक्षी का पंख डगमगाता-डगमगाता, आहिस्ता-आहिस्ता, हवा पर तिरता-तिरता जमीन की तरफ आता है। उसके बहुत अध्ययन किये गये। उससे पूछा भी गया कि चमत्कार कहां है? यह जादू कैसे पैदा होता है?

तो वह कहता है, मुझे पता नहीं। जब “मैं’ अपने को बिलकुल भूल जाता हूं, तभी यह छलांग घटती है। जब “मैं’ नहीं होता–तभी। जब तक मैं होता हूं, अगर मैं चेष्टा से ही छलांग लगाऊं, तो परिणाम में कुछ हाथ नहीं आता। लेकिन नाचते-नाचते एक ऐसी घड़ी आती है कि नाच रह जाता है, नर्तक नहीं रह जाता। उस क्षण अगर यह छलांग लगती है तो मैं खुद ही चकित होता हूं। मैं बिलकुल हलका, निर्भार हो जाता हूं; जैसे जमीन की कशिश का अहंकार का बड़ा बल हो। है भी। जमीन तुम्हारे अहंकार को ही खींच रही है। जिस दिन तुम्हारा अहंकार गया, आकाश खुला है। फिर तुम्हारे लिए जमीन की कोई पकड़ नहीं है।

नृत्य में, गीत में, कीर्तन में, भजन में, डूबा हुआ भक्त ज्ञानियों से कहता है: तर दामनी पर शैख हमारी न जाइए–हमारे भीगे दामन पर मत जाइए। दामन निचोड़ दें तो फरिश्ते वजू करें।

यह शराब इस जगत की शराब नहीं–यह बेहोशी किसी और जगत की बेहोशी है। यह अपने भीतर किसी और जगत को निमंत्रण है। भक्त जब कीर्तन में परिपूर्ण लवलीन होता है तब भक्त नहीं रहता, भगवान ही होता है। तब वह केवल शून्य हो गया होता है। और उस शून्य में उतर आती है परम मूर्च्छा। तुम खाली तो जगह करो। तुम सिंहासन तो रिक्त करो। परमात्मा प्रतिपल उत्सुक है तुम्हारे भीतर आ जाने को। तुम तो जरा बाहर हो जाओ!

कीर्तन का इतना ही अर्थ है: अपने से बाहर हो जाना; अपने घर को खाली छोड़ देना कि तू आ, अब भीतर कोई भी नहीं है; अब पूरी जगह तेरे लिए खाली है, तेरे लिए सुरक्षित है!

रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना, हसरत

इक तेरी याद के होने से है क्या-क्या दिल में।

रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना, हसरत

इक तेरी याद के होने से है क्या-क्या दिल में।

भक्त कहता है, भगवान की याद के साथ ही क्या-क्या नहीं होने लगता! आनंद, अहोभाव, आशा-निराशा, सुख-दुख, अभीप्सा, प्यासत्तृप्ति!

रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना, हसरत

–बस जरा तेरी एक याद आ जाती है तो हजार-हजार चीजें तेरे आसपास चली आती हैं।

तो कीर्तन की बहुत भंगिमाएं हैं। कभी भक्त विरह में नाचता है; तब उसकी कीर्तन में बड़ी उदास भंगिमा होती है। आंसू बहते हैं। पीड़ा और विरह होती है। कभी भक्त आनंदोल्लास में नाचता है; तब उसकी बड़ी प्रसन्न भंगिमा होती है, वसंत होता है, सब तरफ फूल होते हैं! तब उसकी मस्ती देखें! तब उसके चारों तरफ आनंद की किरणें नाचती हैं। कभी प्यास में नाचता है; कभी तृप्ति में नाचता है।

भक्त की बड़ी ऋतुएं हैं और कीर्तन की बड़ी भाव-भंगिमाएं हैं। कीर्तन बड़ी समृद्ध घटना है। जीवन की सभी गहराइयां उसमें समाविष्ट हैं, और सभी ऊंचाईयां भी। पहले तो भक्त छिपाता है अपने प्रेम को भीतर। प्रेम का वह अनिवार्य अंग है कि हम उसे किसी को बताना नहीं चाहते। वह कोई तमाशा थोड़े ही है! वह कुछ ऐसी बात थोड़े ही है जो दिखलाते फिरें! उसकी कोई प्रदर्शनी तो नहीं, कोई नुमाइश तो नहीं! उसे छिपाता है, उसे हीरे की तरह गांठ में बांधकर रखता है। कबीर कहते हैं: हीरा पायो गांठ गठियायो! उसे बिलकुल गांठ में बांध लेता है, किसी को पता भी नहीं चले, कानों-कान खबर न हो। जीसस ने कहा है, “बाएं हाथ में हो तो दाएं हाथ को पता न चले।’ सूफी फकीर कहते हैं, “रात, आधी रात उठकर कर लेना प्रार्थना; तुम्हारी पत्नी को भी पता न चले।’

पहले तो बड़ा निजी है; लेकिन ज्यादा देर निजी नहीं रहता। जब भरने लगता है पात्र तो पात्र ऊपर से बहने लगता है; फिर छिपाए नहीं छिपता, फिर प्रगट होने लगता है। जब प्रगट होने की घड़ी आती है, तब भजन कीर्तन बनता है। भक्ति जब तक भीतर-भीतर, भीतर-भीतर रसधार बहती है तो भजन, जप; फिर जब बहने लगती है बाहर, अवश होकर, तुम चाहो तो भी रोक नहीं पाते, इतनी ऊर्जा का जन्म होता है कि चारों तरफ फैलने लगती है ऊर्जा अपने-आप, तब कीर्तन!

कीर्तन भजन की अभिव्यक्ति है। कीर्तन भजन की अभिव्यंजना है।

तुम भी मजाज इन्सां हो आखिर लाख छुपाओ इश्क अपना

ये भेद मगर खुल जायेगा, ये राज मगर इफ्शां होगा।

–छिप न सकेगा यह भेद। यह राज मगर इफ्शां होगा। यह पता चल ही जायेगा। प्रेम को कौन कब छिपा पाया! तो प्रेम जब तुम्हारे बिना दिखाए दिखायी पड़ने लगता है, तुम्हारे रग-रोएं में झलकने लगता है, प्रेम की आभा तुम्हें घेर लेती है, तुम्हारी आंखों के पास, तुम्हारे चेहरे के पास एक प्रेम का आभामंडल निर्मित हो जाता है कि कोई चाहे तो छू ले, कि कोई चाहे तो थोड़ा-सा आभामंडल अपनी मुट्ठी में बांध ले, कि कोई चाहे तो तुम्हारे आभामंडल को पी ले–जब आभामंडल इतना वास्तविक हो जाता है तब कीर्तन प्रगट होता है!

तो जल्दी मत करना। कीर्तन तो भजन की आखिरी अवस्था है। पहले भजना। भीतर-भीतर-भीतर डुबाना, ताकि जड़ें फैल जायें। फिर एक दिन तुम भी चौंककर दखोगे:

तुम भी मजाज इन्सां हो आखिर लाख छिपाओ इश्क अपना

ये भेद मगर खुल जायेगा ये राज मगर इफ्शां होगा।

तब उन्माद की आखिरी घड़ी आती है। तब तुम्हारे अंतर की कोयल कूक उठती है! तब तुम्हारे अंतर का मोर नाच उठता है! तब फिर चिंता नहीं रह जाती। तब कीर्तन!

कीर्तन का अर्थ है: जब भक्ति प्रगट होकर बहने लगी। चैतन्य नाचते हुए, गांव-गांव ढोलक बजाते हुए! मीरा नाचती हुई गांव-गांव। फिर लोक-लाज की चिंता नहीं! फिर सब उपचार छूट जाते हैं। फिर सब उपाधियां गिर जाती हैं। निरुपाधिक! उपचार-मुक्त! भक्त उसके हाथ में कठपुतली होकर नाचने लगता है और गीत गुनगुनाने लगता है। फिर भक्त तो सिर्फ बांस की पोंगरी है। फिर उसे जो गीत गाना हो गा ले, जो गुनगुनाना हो गुनगुना ले। भक्त सिर्फ राह देता है; उपकरण-मात्र हो जाता है।

चलो भाव से! भाव जब सघन होगा तो भजन। और जब भजन फूट पड़ेगा हजार-हजार फूलों में और सुगंध बिखर जायेगी लोक-लोकांतर में, तब कीर्तन!

कीर्तन, भक्ति की परम दशा है।

आज इतना ही।


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गीात दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–22

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वासना अशुद्धि है (अध्याय—5) प्रवचन—बाईसवां

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।। 7।।

तथा वश में किया हुआ है शरीर जिसके, ऐसा जितेंद्रिय और विशुद्ध अंतःकरण वाला, एवं संपूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्काम कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता।

शरीर वश में किया हुआ है जिसका! इस बात को सबसे पहले ठीक से समझ लें। साधारणतः हमें पता ही नहीं होता कि शरीर के अतिरिक्त भी हमारा कोई होना है। वश में करेगा कौन? वश में होगा कौन? हम तो स्वयं को शरीर मानकर ही जीते हैं। और जब तक कोई व्यक्ति स्वयं को शरीर मानकर जीता है, तब तक शरीर वश में नहीं हो सकता, क्योंकि वश में करने वाले की हमें कोई खबर ही नहीं है।

शरीर से अतिरिक्त कुछ और भी है हमारे भीतर, इसका अनुसंधान ही हम कभी नहीं करते हैं। जहां तक बाहर के जीवन की जरूरत है, स्वयं को शरीर मानकर काम चल जाता है। लेकिन जहां तक गहरे जीवन, परमात्मा की, अमृत की, आनंद की खोज की जरूरत है, वहां शरीर की अकेली नाव से काम नहीं चलता है। शरीर की नाव संसार के लिए पर्याप्त है। लेकिन जिसने आत्मा की नाव नहीं खोजी, वह प्रभु के सागर में प्रवेश नहीं कर पाएगा।

और जिसे थोड़ा-सा भी पता चलना शुरू हुआ कि मैं शरीर से भिन्न हूं, उसे शरीर को वश में करना नहीं होता, शरीर तत्काल वश में होना शुरू हो जाता है। इस बात का अनुभव कि मैं शरीर से अलग, पृथक और ऊपर हूं, ट्रांसेंडेंटल हूं, शरीर का अतिक्रमण करता हूं, मालिक के आ जाने की खबर है। जैसे किसी कक्षा में शिक्षक भीतर आ जाए, शोरगुल बंद हो जाए। जैसे नौकरों के बीच में मालिक आ जाए और नौकर सम्हलकर अनुशासित हो जाएं। शरीर के भीतर इस बात का स्मरण भी आ जाए कि मैं भिन्न हूं, तो शरीर तत्काल अनुशासन में खड़ा हो जाता है।

शरीर वश में हो गया जिसका!

किसका? सिर्फ उसका ही होता है शरीर वश में, जिसको स्वयं के अशरीरी होने का अनुभव शुरू हुआ है।

लेकिन साधारणतः लोग शरीर को वश में करने में लग जाते हैं, बिना अशरीरी को खोजे। शरीर को वश में करने जो लग जाएगा बिना आत्मा की खोज के, वह शरीर को दो हिस्सों में बांट लेगा। और शरीर को ही शरीर से लड़ाता रहेगा। कभी भी शरीर वश में नहीं होगा। शरीर को भी शरीर से लड़ाया जा सकता है। लेकिन शरीर को शरीर से लड़ाकर कोई वश नहीं होता।

समझें, एक आदमी के मन में कामना है, वासना है। जहां भी आंख जाती है, वहीं वासना के विषय दिखाई पड़ते हैं। वह अपने हाथ से आंख फोड़ लेता है। वह शरीर से ही शरीर को लड़ा रहा है। हाथ भी शरीर है, आंख भी शरीर है।

शरीर से शरीर को लड़ाकर कोई भी शरीर को वश में नहीं कर सकता है। मन से मन को लड़ाकर कोई मन को वश में नहीं कर सकता है। कोई भी चीज वश में तभी होती है, जब उसके पार किसी तत्व का अनुभव शुरू होता है। अन्यथा वश में नहीं होती।

हमेशा जो पार है, वह वश में करने वाला सिद्ध होता है। शरीर से श्रेष्ठतर को खोज लें अपने भीतर और शरीर वश में हो जाएगा। श्रेष्ठतर के समक्ष निकृष्ट अपने आप ही झुक जाता है, झुकाना नहीं पड़ता है। और मजा नहीं है कि झुकाना पड़े। और जिसे जबर्दस्ती झुकाया है, वह आज नहीं कल बदला लेगा। जो सहज झुक गया है, श्रेष्ठ के आगमन पर जो उसके चरणों में गिर गया है, तो ही वश में हो पाता है।

शरीर से लड़कर, शरीर-दमन से, कृच्छ साधनाओं से, शरीर को कोड़े मारकर, शरीर को कांटों पर लिटाकर, शरीर को धूप में बिठाकर, शरीर को बर्फ में लिटाकर, शरीर को कितना ही कोई सताए, शरीर को कितना ही कोई परेशान करे, इससे कभी शरीर वश में नहीं होता। शरीर को परेशान करना और शरीर को सताना भी शरीर के द्वारा ही हो रहा है। इससे कभी भी शरीर वश में नहीं होता। हां, निर्बल हो सकता है, दीन हो सकता है, कमजोर हो सकता है। और निर्बलता से धोखा पैदा होता है कि वश में हो गया।

यदि हम एक आदमी को भोजन न दें, इतना कम भोजन दें, इतना न्यून कि उसकी शरीर की जरूरतें उस भोजन से पूरी न हो पाएं, तो उसमें वीर्य निर्मित नहीं होगा। वीर्य सदा अतिरिक्त शक्ति से निर्मित होता है। और तब उसे यह भ्रम पैदा हो सकता है कि मेरी कामवासना पर मेरा काबू हो गया। धोखे में है वह। अगर एक व्यक्ति के शरीर को दीन कर दिया जाए, हीन कर दिया जाए, उसकी शक्ति ही छीन ली जाए–अनशन से, सताकर, परेशान करके, शरीर को उसकी पूरी जरूरतें न देकर–तो शरीर कमजोरी की वजह से वासना की तरफ उठने में असमर्थ हो जाएगा। लेकिन इससे धोखे में नहीं पड़ जाना है।

अभी केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में कुछ विद्यार्थियों पर वे एक प्रयोग कर रहे थे। तीस विद्यार्थियों को तीस दिन तक भूखा रखा था। दस दिन के बाद ही उन विद्यार्थियों की काम में, यौन में, सेक्स में कोई रुचि न रह गई। वे कोई संन्यासी न थे; न ही वे कोई साधक थे; न ही वे कोई योगी थे। लेकिन दस दिन के बाद नंगी तस्वीरें उनके पास पड़ी रहें, तो वे उनको उठाकर भी नहीं देखेंगे। पंद्रह दिन के बाद तो उनसे अगर कोई बात करना चाहे वासना की, तो वे बिलकुल ही विरस हो गए। उनके चेहरों का रंग खो गया, उनके चेहरों की ताजगी खो गई, उनके शरीर की शक्ति खो गई। तीस दिन पूरे होने पर तीसों से पूछा गया और उन तीसों ने कहा कि हमें याद भी नहीं आता कि कभी हमारे मन में कामवासना भी उठती थी।

सब सूख गया। क्या शरीर वश में हो गया? दो दिन भोजन दिया गया, सब हरा हो गया। फिर वही वापस। फिर वे नंगी तस्वीरें सुंदर मालूम पड़ने लगीं। फिर नंगी फिल्म को देखने का रस आने लगा। फिर वही बात, फिर वही मजाक, फिर वही अश्लीलता! सब लौट आई। क्या हुआ!

अगर इन युवकों को जिंदगीभर न्यून भोजन पर रखा जाए, तो जिंदगी में अब वासना फिर न सिर उठाएगी। लेकिन यह शरीर पर विजय न हुई, यह शरीर की निर्बलता हुई।

शरीर पर तो तभी विजय है, जब शरीर हो पूरा सबल; शरीर निर्मित करता हो सभी रसों को; शरीर की शक्तियां हों पूर्ण युवा; शरीर के भीतर सब हो हरा और ताजा; और फिर भी, फिर भी वश में हो, तभी जानना कि शरीर वश में है। लेकिन यह तभी हो पाएगा, जब आत्मा सबल हो।

दो रास्ते हैं शरीर को वश में करने के। एक–झूठा, धोखे का, डिसेप्टिव। प्रतीत होता है, वश में हुआ; होता कभी भी नहीं। वह रास्ता है, शरीर को निर्बल करो। एक दूसरा रास्ता है, वास्तविक, प्रामाणिक, आथेंटिक, जिससे ही केवल शरीर वश में होता है। वह है, आत्मा को सबल करो।

शरीर को निर्बल करो, तो भी वश में मालूम होता है; आत्मा को सबल करो, तो वश में हो जाता है। शरीर को निर्बल करने से आत्मा सबल नहीं होती। आत्मा तो वहीं के वहीं होती है, जहां थी; सिर्फ शरीर निर्बल हो जाता है। आत्मा के सबल होने से शरीर को निर्बल नहीं करना पड़ता; लेकिन आत्मा पार उठ जाती है, सबल होकर शरीर के ऊपर मालिक हो जाती है।

और ध्यान रहे, सबलता अपने आप में, अपने आप में विजय है। इसलिए निर्बल के लिए मार्ग नहीं है।

लेकिन शरीर को वश में करने के नाम पर बहुत हैरानी की घटनाएं सारी दुनिया में घटी हैं। आसान है शरीर को निर्बल करना; कठिन है आत्मा को सबल करना। भूखा मरना बहुत कठिन नहीं है। न ही शरीर को सताना बहुत कठिन है। कुछ लोगों के लिए तो बहुत आसान है। जिन लोगों को भी सताने की वृत्ति है किसी को, किसी को भी सताने की जिनके मन में वृत्ति है…। दूसरे को सताने में कानून बाधा बनता है। पुलिस है, अदालत है। दूसरे को सताइएगा, झंझट में पड़िएगा। सताना अगर निरापद रूप से करना है, तो अपने को सताइए। न कोई पुलिस रोक सकती है, न कोई कानून। बल्कि लोग जुलूस भी निकालेंगे, शोभा-यात्रा भी कि तपस्वी हैं आप!

इसलिए जो दुष्टजन हैं, वायलेंट, जिनके मन में गहरी हिंसा है, दूसरे पर हिंसा प्रकट करने में कठिनाई है, वे अपने पर हिंसा शुरू कर देते हैं। और आत्म-हिंसा को लोग तपश्चर्या समझ लेते हैं। तपश्चर्या आत्महिंसा नहीं है।

और ध्यान रहे, जो आदमी अपने पर हिंसा करेगा, वह दूसरे पर कभी भी अहिंसक नहीं हो सकता है। जो अपने पर अहिंसक नहीं हो सका, वह इस पृथ्वी पर किसी पर भी अहिंसक नहीं हो सकता है। जीवन की सारी यात्रा स्वयं से शुरू होती है।

इसलिए मैं आपसे कहना चाहूंगा, और कृष्ण को जो जानते हैं थोड़ा भी, वे स्वभावतः समझते हैं भलीभांति कि कृष्ण का अर्थ, शरीर को जीत लेता है जो, उससे किसी निर्बल, शरीर को सताने वाले, मैसोचिस्ट, दुखवादी, आत्मपीड़क, आत्महिंसक व्यक्ति का नहीं होगा, नहीं हो सकता है। कृष्ण तो शरीर को बड़ा प्रेम करने वाले व्यक्तियों में से एक हैं।

ध्यान रहे, शरीर से भयभीत वही होता है, जिसकी आत्मा कमजोर है। क्योंकि अगर शरीर सबल हुआ, तो कमजोर आत्मा मुश्किल में पड़ जाएगी। शरीर लेकर भागेगा। रथ है बहुत कमजोर, घोड़े हैं बहुत मजबूत, गङ्ढे में गिरना निश्चित! डरेगा आदमी। लेकिन रथ भी है मजबूत, सारथी भी है सबल, कुशलता भी है लगाम को हाथ में साधने की, फिर मजबूत घोड़ों का मजा है। फिर घोड़ों को निर्बल करने की जरूरत नहीं है।

कृष्ण घोड़ों को निर्बल करने के पक्ष में नहीं हैं। कृष्ण आत्मा को सबल करने के पक्ष में हैं। यह आत्मा सबल कैसे हो जाएगी?

तो कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण शुद्ध है जिसका!

जितना अंतःकरण अशुद्ध होगा, आत्मा उतनी निर्बल होगी। आत्मा की निर्बलता हमेशा अशुद्धि से आती है। आत्मा की सबलता शुद्धि से आती है। वह जितनी प्योरिफाइड, जितनी पवित्र हुई चेतना है, उतनी ही सबल हो जाती है। आत्मा के जगत में पवित्रता ही बल है और अपवित्रता निर्बलता है।

इसलिए जब भी कोई अपवित्र काम आप करेंगे, तत्काल पाएंगे, आत्मा निर्बल हो गई। जरा चोरी करने का विचार करके सोचें। करना तो दूर, थोड़ा सोचें कि पड़ोस में रखी हुई आदमी की चीज उठा लें। अचानक भीतर पाएंगे कि कोई चीज निर्बल हो गई, कोई चीज नीचे गिर गई। सोचें भर कि चोरी कर लूं, और भीतर कोई चीज निर्बल हो गई। सोचें कि किसी को दान दे दूं, और भीतर कोई चीज सबल हो गई। सोचें मांगने की, और भीतर निर्बलता आ जाती है। सोचें देने की, और भीतर कोई सिर उठाकर खड़ा हो जाता है।

जहां अशुद्धि है, वहां निर्बलता है। जहां शुद्धि है, वहां सबलता है। और निर्बल और सबल होने को आप अशुद्धि और शुद्धि का मापदंड समझें। जब मन भीतर निर्बल होने लगे, तो समझें कि आस-पास जरूर कोई अशुद्धि घटित हो रही है। और जब भीतर सबल मालूम पड़ें प्राण, तब समझें कि जरूर कोई शुद्धि की यात्रा पर आप निकल गए हैं। ये दोनों बंधी हुई चीजें हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण जिसका शुद्ध है! अंतःकरण जिसका शुद्ध है…।

यह अंतःकरण की शुद्धि और अशुद्धि को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

अंतःकरण कब होता है अशुद्ध? जब भी–जब भी–हम किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं, किसी भी सुख के लिए। किसी भी सुख के लिए जब भी हम किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं, तभी अंतःकरण अशुद्ध हो जाता है। दूसरे पर निर्भरता अशुद्धि है। और दूसरे पर निर्भरताएं सभी बहुत गहरे अर्थ में पाप हैं। लेकिन हम कुछ पापों को सोशियलाइज किए हुए हैं, उनको हमने समाजीकृत किया हुआ है। इसलिए अंतःकरण को पता नहीं चलता।

अगर एक आदमी सोचता है कि आज मैं वेश्या के घर जाऊं, तो मन निर्बल होता मालूम पड़ता है कि पाप कर रहा हूं। लेकिन सोचता है, अपनी पत्नी के पास जाऊं, तो मन निर्बल होता नहीं मालूम पड़ता है। पत्नी के पास जाते समय मन निर्बल मालूम नहीं पड़ता है, क्योंकि पत्नी और पति के संबंध को हमने समाजीकृत किया है, सोशियलाइज किया है। वेश्या के पास जाते वक्त निर्बलता मालूम पड़ती है, क्योंकि वह पाप सोशियलाइज नहीं है, इंडिविजुअल है। पूरा समाज उसमें सहयोगी नहीं है, आप अकेले जा रहे हैं।

लेकिन जो आदमी गहरे में समझेगा, उसे समझ लेना चाहिए कि जिस क्षण भी मैं अपने सुख के लिए किसी के भी पास जाता हूं–चाहे वह पत्नी हो, चाहे वह पति हो, चाहे वह मित्र हो, चाहे वह वेश्या हो–जब भी मैं किसी और के द्वार पर भिक्षा का पात्र लेकर खड़ा होता हूं, तभी आत्मा अशुद्ध हो जाती है। न दिखाई पड़ती हो, लंबी आदत से अंधापन पैदा हो जाता है। बहुत बार एक ही बात को दोहराने से, करने से, मजबूत यांत्रिक व्यवस्था हो जाती है।

चोर भी रोज-रोज थोड़े ही अनुभव करता है कि आत्मा पाप में पड़ रही है। नियमित चोरी करने वाला धीरे-धीरे चोरी में इतना गहरा हो जाता है कि अंतःकरण की आवाज फिर सुनाई नहीं पड़ती है। फिर तो किसी दिन चोरी करने न जाए, तो लगता है कि कुछ गलती हो रही है।

लेकिन आत्मा निरंतर आवाज देती है। और इसलिए दूसरी बात आपसे कह दूं कि जब भी आप कोई पहला काम कर रहे हों जीवन में, तब बहुत गौर से आत्मा से पूछ लेना, उस वक्त आवाज बहुत साफ होती है। जितना ज्यादा करते चले जाएंगे, उतनी आवाज धीमी होती चली जाएगी। आदतें मजबूत हो जाएंगी। अशुद्धि ही शुद्धि मालूम पड़ने लगेगी। गंदगी ही सुगंध मालूम पड़ने लगेगी।

आदत दूसरा स्वभाव है। जोर से उसकी पर्त बन जाती है, फिर भीतर की आवाज आनी बंद हो जाती है। फिर खयाल में नहीं आता कि भीतर की कोई आवाज है। हमने उसको बंद कर दिया, और हमने इतनी बार ठुकराया। अब भी आत्मा बोलती है, लेकिन रोज धीमी हो जाती है, और धीमी आवाज होती चली जाती है। या हम इतने बहरे होते चले जाते हैं आदत से, कि वह आवाज सुनाई नहीं पड़ती है।

इसलिए पहली बार जब भी जो आप कर रहे हों, करने के पहले भीतर देख लेना, निर्बल होते हैं या सबल। जिस चीज से भी सबलता आती हो भीतर, उस चीज को समझना कि वह आत्मा के पक्ष में है। और जिस चीज से निर्बलता आती हो, समझना कि वह विपक्ष में है।

दूसरे पर निर्भर सभी सुख दुर्बल कर जाते हैं। असल में दूसरे के द्वार पर खड़े होना भिखारी होना है। वह भीख कितनी ही सूक्ष्म हो सकती है। इसलिए यह भी हो सकता है कि सिकंदर जैसा आदमी, बहादुर है, तलवार से भयभीत नहीं होता, युद्ध में मौत से नहीं डरता, लेकिन यह इतना बहादुर शेर जैसा आदमी भी घर आकर पत्नी से डरता है। यह क्या बात है? यह पत्नी से क्यों डरता है? इसने दुनिया में किसी और से कभी कुछ नहीं मांगा, लेकिन पत्नी के पास आकर कमजोर हो जाता है।

अक्सर यह होगा कि जो लोग मकान के बाहर बहुत हिम्मतवर दिखाई पड़ेंगे, मकान के भीतर बहुत कमजोर दिखाई पड़ेंगे। और स्त्रियां उनके राज को जानती हैं कि उनके सामने वे किसी गहरे अर्थ में भिखारी हैं। किसी सुख के लिए उन पर निर्भर हैं। उस सुख की निर्भरता उन्हें कमजोर बनाती है।

इसलिए पति चाहे कितनी ही बहादुरी करता हो बाहर, भला किसी युद्ध में चैंपियन हो जाता हो, वह घर आकर पत्नी के सामने एकदम दब्बू हो जाता है। वहां भीख शुरू हो गई। वहां गुलामी शुरू हो गई। वहां कुछ मांगना है उसे। वहां किसी पर निर्भर होना है। बस, उपद्रव शुरू हो गया।

यह मैं पति के लिए नहीं, सभी के लिए कह रहा हूं। जहां भी हम किसी पर कुछ मांगने को निर्भर होते हैं, वहां चित्त दीन होने लगता है।

कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण है शुद्ध जिसका।

तो एक, निर्भर नहीं है जो अपने सुखों के लिए किसी पर। दूसरी बात, चित्त में अशुद्धियां, इंप्योरिटीज किस द्वार से प्रवेश करती हैं?

कल-परसों मैंने आपसे बात की कि कामना, आकांक्षा, वासना के द्वार से अशुद्धियां प्रवेश करती हैं। वासना से ग्रस्त, पैसोनेट, इच्छा से भरा हुआ मन, कमजोर भी होता है, अशुद्ध भी होता है, दुखी भी होता है, अंधकार में भी डूबता है। मजा यह है कि इच्छा पूरी हो जाए, तो भी सुख नहीं मिलता! इच्छा पूरी हो जाए, तो भी सुख नहीं मिलता; इच्छा पूरी न हो, तब तो दुख मिलता ही है।

मुझे याद आती है एक यूनानी कथा। सुना है मैंने कि यूनान में एक सम्राट हुआ, मिडास। कहते हैं, सारी पृथ्वी जीत ली है उसने। सुंदर-सुंदर स्वर्ण के महल हैं उसके पास। अदभुत बगीचे हैं। ऐसे अदभुत बगीचे हैं कि एक दिन खबर मिली मिडास को कि स्वर्ग का देवता डिनोशियस उसके बगीचे को देखने आ रहा है। बड़े अदभुत झरने हैं उसके बगीचे में और एक तो उसका अपना बहुत ही प्यारा झरना है। उसने सोचा, डिनोशियस को वह झरना तो दिखाएंगे ही। फिर उसे खयाल आया कि डिनोशियस हो सकता है कि झरने का पानी पीने को आतुर हो जाए। इतना स्फटिक जैसा स्वच्छ जल है वहां! तो उसने एक तरकीब की। सोचा कि यदि डिनोशियस प्रसन्न हो जाए, तो कुछ वरदान मांग लूं। उसने झरने में शराब मिलवा दी।

और जब डिनोशियस आया, तो झरना सचमुच ऐसा सुगंध से भरा था और ऐसा स्फटिक जैसा स्वच्छ था कि उस देवता डिनोशियस को भी स्वर्ग के झरने फीके मालूम पड़े। और उसने कहा कि तुम्हारे झरने का पानी मैं जरूर ही पीऊंगा। उसने पानी पीया, शराब में डूबकर बेहोश हो गया। बेहोशी में मिडास ने उससे वरदान मांग लिया। मांग लिया वरदान कि मैं जो कुछ भी छुऊं, वह सोने का हो जाए। और उस दिन से मिडास जो भी छूता, सोने का हो जाता।

लेकिन मुश्किल शुरू हो गई। सोचता था कि किसी दिन अगर यह वरदान मिल जाए कि जो भी छुऊं सोने का हो जाए, तो मुझसे ज्यादा सुखी कोई भी न होगा। लेकिन मिडास से ज्यादा दुखी आदमी पृथ्वी पर कभी भी नहीं हुआ।

पत्नी को छुआ, वह सोने की हो गई। बेटी को छुआ, वह सोने की हो गई। खाने को छुआ, वह सोने का हो गया। पानी को छुआ, वह सोने का हो गया। एक दिन, दो दिन, भूखा-प्यासा चीखने-चिल्लाने लगा। पागल होने के करीब आ गया। लोग उसे देखकर भागने लगे कि कहीं छू न ले। घर के लोग भी ताले लगाकर अपने कमरों में छिप गए कि कहीं छू न ले। वजीरों ने छुट्टियां ले लीं। सेनापतियों ने कहा, क्षमा करो! पहले इस वरदान से छुटकारा लो, फिर हम आ सकते हैं। द्वारपाल अब तक लोगों से रक्षा करते थे उसकी। अब द्वारपाल बंदूकें उलटी लेकर खड़े हो गए और लोगों की रक्षा करने लगे उससे।

मिडास बड़ी मुश्किल में पड़ गया। चिल्लाता है, रोता है, मगर डिनोशियस का कोई पता नहीं लगता। कहते हैं, मरा; और जब वह मरा, तो उसके मुंह से जो वचन निकले, उसके मरते वक्त भी वह यही कह रहा था, बिफोर गोल्ड किल्स मी, एज इट किल्स आल मेन, डियर डिनोशियस, गिव मी बैक टेन फिंगर टिप्स, दैट लीव दि वर्ल्ड अलोन। इसके पहले कि सोना मुझे मार डाले, जैसा कि सभी को मार रहा है, मार डालता है, प्यारे डिनोशियस, वापस लौटा दो मुझे मेरी वे दस अंगुलियां, जिनसे मैं दुनिया को छुऊं, लेकिन दुनिया उनसे अस्पर्शित रह जाए। लेकिन वह यह कहते हुए ही मरा।

इच्छा पूरी न हो, तब तो दुख देती ही है; इच्छा पूरी हो जाए, तो और भी भयंकर दुख देती है। और दुख गंदगी है। सारे प्राण गंदगी से भर जाते हैं। दुख अंधेरा है, दुख धुआं है। जहां दुख नहीं है प्राणों में, वहां प्राणों की ज्योति उज्ज्वल जलती है, धुएं से मुक्त। ज्योति होती है सिर्फ, धुएं से रिक्त।

तो कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण है शुद्ध जिसका…।

वासना के द्वार से जिसने भी खोज की, उसका अंतःकरण शुद्ध नहीं होगा। सड़ेगा। वासना सड़ाती है। उससे ज्यादा सड़ाने वाला और कोई तत्व पृथ्वी पर नहीं है, और कोई केमिकल नहीं है। जितने ढंग से वासना सड़ाती है, उतने ढंग से कोई केमिकल नहीं सड़ाता है। व्यक्ति सड़ता चला जाता है।

तीसरी बात कृष्ण कहते हैं कि जिसने जीता शरीर को; जिसका अंतःकरण शुद्ध है; और जिसने जाना अपने को प्रभु के साथ एक!

दो शर्तें पूरी हों, तो ही तीसरी बात पूरी हो सकती है। शरीर पर हो विजय, तो ही अंतःकरण शुद्ध हो सकता है। नहीं तो शरीर ऐसे रास्तों पर ले जाएगा कि आत्मा अशुद्ध होती ही रहेगी। अंतःकरण हो शुद्ध, आत्मा हो पवित्र, तो उस पवित्रता के क्षण में ही विराट के साथ एकात्म सध सकता है। अपवित्रता दीवाल है। पवित्रता में सब दीवालें गिर जाती हैं। खुले आकाश से मिलन हो जाता है। अपवित्रता की दीवाल ही हमें परमात्मा से अलग किए हुए है। हमारी ही वासनाओं की अपवित्र दीवाल और ईंटें हमें मजबूती से अपने भीतर बंद किए हैं। गिर जाए दीवाल, तो व्यक्ति जान पाता है कि मैं और प्रभु एक हैं।

इस बात को ऐसा भी समझ लें, जो जानता है कि मैं और शरीर एक हैं, वह कभी नहीं जान पाएगा कि मैं और परमात्मा एक हैं। जो जान लेगा, मैं और शरीर भिन्न हैं, वह जान पाएगा कि मैं और परमात्मा एक हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसने अपने को शरीर से जोड़ रखा है, वह परमात्मा से टूटा हुआ पाएगा। और जिसने अपने को शरीर से तोड़ा, वह परमात्मा से जुड़ा हुआ पाएगा। जिसकी नजर शरीर से जुड़ी है, उसकी पीठ परमात्मा पर होगी। और जिसकी नजर शरीर से हटी, उसकी आंख परमात्मा पर पड़ जाएगी। इसलिए शरीर से मुक्त, शरीर के पार उठना अनिवार्य है।

शुद्ध अंतःकरण, वासनाओं की गंदगी की दीवाल बीच में नहीं चाहिए, तभी एकात्म–प्रभु और स्वयं के बीच ऐसा मिलन, जैसे मटकी टूट जाए और मटकी के भीतर का पानी सागर के पानी से एक हो जाए। मिट्टी की मटकी सागर के पानी को और गगरी के पानी को अलग-अलग रखती है। मिट्टी टूट जाए, बीच से हट जाए!

लेकिन अगर गगरी का पानी समझता हो कि मैं मिट्टी की गगरी हूं, तब कभी भी नहीं तोड़ेगा। फिर तो मैं ही टूट जाऊंगा! अगर गगरी के भीतर का पानी सोचता हो कि यह मिट्टी की जो पर्त मेरे चारों तरफ गगरी की है, यही मैं हूं, तो सागर से मिलन कभी भी न होगा। लेकिन पानी को पता चल जाए कि मैं गगरी नहीं, पानी हूं, तो गगरी तोड़ी जा सकती है। और गगरी टूटे, तो भीतर का पानी और बाहर का पानी एक हो जाए। वह जो भीतर की आत्मा और बाहर की आत्मा है, एक हो जाए।

और जब ऐसा हो जाए, तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति सब कुछ करे–सब कुछ, अनकंडीशनली; कोई शर्त नहीं है ऐसे व्यक्ति पर–सब कुछ करे, तो भी कर्म उससे चिपकते नहीं हैं। कर्मों का उस पर कोई भी लेप नहीं चढ़ता है।

इस वक्तव्य से बहुत-से लोगों को कठिनाई होती है। पूछता है आदमी, सब कुछ करे! चोरी करे, बेईमानी करे! तब वह फिर समझा नहीं बात। चोरी-बेईमानी करे, तो यहां तक पहुंचेगा नहीं। यहां पहुंच जाए, तो चोरी करने योग्य कुछ बचता नहीं। चोरी किसकी करे, वह भी नहीं बचता। चोरी कौन करे, वह भी नहीं बचता। मन होगा, पूछेगा कि कृष्ण कहते हैं, ऐसा आदमी कुछ भी करे! तो ऐसे आदमी पर कोई नैतिक बंधन नहीं?

बिलकुल नहीं। क्योंकि नीति के बंधन अभी जिसके ऊपर हैं, उसके भीतर अनीति होनी चाहिए। अनीति के लिए नीति के बंधन जरूरी हैं। और जो अभी अनीति से भरा है, वह तो अभी गंदगी से मुक्त नहीं हुआ, अंतःकरण शुद्ध नहीं हुआ। वह यहां तक आएगा नहीं। यह जो बात है, सब कुछ करे ऐसा व्यक्ति, उसके पहले तीन बातों को स्मरण रख लेना, शरीर पर पाई जिसने विजय, अंतःकरण हुआ जिसका शुद्ध, परमात्मा से जानी जिसने एकता!

इन तीन शर्तों के बाद बेशर्त, कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति कुछ भी करे। ऐसा व्यक्ति कुछ भी करेगा नहीं, इसीलिए कह पाते हैं कि ऐसा व्यक्ति कुछ भी करे। आपसे नहीं कह रहे हैं। अर्जुन से भी नहीं कह रहे हैं। ये तीन सीढ़ियां पार कर लेने के बाद ऐसा व्यक्ति कुछ भी करे। ऐसे व्यक्ति पर कोई भी नियम नहीं है, कोई नीति नहीं, कोई धर्म नहीं। क्योंकि ऐसा व्यक्ति उस जगह आ गया है, जहां अनीति बची ही नहीं। और जब अनीति न बचती हो, तो नीति की क्या सार्थकता है? अधर्म बचा नहीं। और जहां अधर्म न बचता हो, वहां धर्म बेकार है। और जिसने स्वयं को प्रभु के साथ एक जाना, जिसकी अस्मिता और अहंकार न बचा, अब कोई उपाय नहीं रहा कि उससे कुछ गलत हो जाए।

हमसे गलत होता है। ज्यादा से ज्यादा गलत हम रोक पाते हैं। ऐसे व्यक्ति से गलत होता ही नहीं। ऐसा व्यक्ति जो भी करता है, वही सही है। हमें वह करना चाहिए, जो सही है; वह नहीं करना चाहिए, जो गलत है। ऐसा व्यक्ति, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं, जो करता है, वही सही है; जो नहीं करता, वही गलत है। ऐसे व्यक्ति मापदंड हैं। ऐसे व्यक्ति चरम हैं, परम मूल्य है उनका। ऐसे व्यक्ति के लिए जो वक्तव्य है, वह वक्तव्य सबके लिए नहीं है।

अन्यथा चोर भी पढ़कर प्रसन्न होता है गीता के इस वचन को, कि ठीक है, कुछ भी करो! बेईमान भी पढ़कर प्रसन्न हो सकता है। और यह भी सोच सकता है कि ज्यादा तो हमसे नहीं बनता, पहली तीन चीजें नहीं बनतीं, कम से कम चौथी चीज तो करो ही। जितना बने, उतना ही क्या बुरा है!

नहीं, इसमें क्रम है। तीन के बिना चौथा पढ़ना ही मत। चौथे को काट देना गीता से अभी। जब तीन पूरी हो जाएं, तब तीन को काट देना, चौथी को पढ़ना। बेशर्त, अनकंडीशनल वही व्यक्ति हो सकता, जिसने अनिवार्य तीन शर्तें पूरी कर ली हैं।

यह बात, पश्चिम में जब पहली दफे गीता के अनुवाद हुए, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजी में, तो वहां भी कठिनाई हुई। उनको भी हैरानी हुई। क्योंकि बाइबिल टेन कमांडमेंट्स के ऊपर नहीं जाती। बाइबिल में एक भी कमांडमेंट ऐसा नहीं है, एक भी आदेश ऐसा नहीं है, कि जो करना हो, करो। बाइबिल कहती है, चोरी मत करो; बेईमानी मत करो; दूसरे की औरत को बुरी नजर से मत देखो; यह सब कहती है पड़ोसी को प्रेम करो; यह सब कहती है। ऐसा एक भी वक्तव्य बाइबिल में नहीं है, जो इसके मुकाबले हो। जो वक्तव्य यह कहता हो कि अब तुम्हें जो भी करना हो, करो।

तो जब पहली दफा गीता का अनुवाद हुआ, तो कठिनाई मालूम पड़ी। स्पष्ट लगा बाइबिल को पढ़ने वाले और प्रेम करने वाले लोगों को कि यह किताब तो थोड़ी-सी इम्मारल मालूम होती है, अनैतिक मालूम होती है। इसमें ऐसी बात भी है, कुछ भी करो! तो फिर टेन कमांडमेंट्स का क्या हुआ, चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, व्यभिचार मत करो! उनका क्या होगा? क्या व्यभिचार भी करो?

उन्हें पता नहीं कि जीसस जिन लोगों से बोल रहे थे, उनसे यह चौथी बात नहीं कही जा सकती थी। जिस समाज में बोल रहे थे, उस समाज में यह चौथी बात नहीं कही जा सकती थी। जिन लोगों के बीच बोल रहे थे, उनके जीवन का एक स्तर था, समझ की एक सीमा थी। ध्यान रहे, जीसस अत्यंत ही अविकसित समाज में बोल रहे थे, नहीं तो सूली न लगती। नासमझों के बीच बोल रहे थे।

कृष्ण नासमझ से नहीं बोल रहे हैं। कृष्ण एक बहुत संभावी आत्मा से बोल रहे हैं, जिसका बहुत विकास संभव है। एक बुद्धिमान आदमी से बोल रहे हैं, जो धर्म के संबंध में बहुत कुछ जानता है। अनुभव नहीं है उसे; जानता है, सुना है, पढ़ा है, सुशिक्षित है, सुसंस्कृत है। अर्जुन जैसे सुसंस्कृत आदमी कम होते हैं। उस जमाने में, जिसको हम कहें, शिखर पर जो संस्कृति के रहा होगा, ऐसा व्यक्तित्व है। कृष्ण भी जिसको सखा मान सकते हों, मित्र मान सकते हों, वह संस्कृति के शिखर पर है। उससे बात कर रहे हैं। जानते हैं, भूल नहीं हो पाएगी। इसलिए तीन शर्तों के बाद चौथी बात भी कह देते हैं।

जीसस ने कभी ऐसी बात नहीं कही। मोहम्मद ने कभी ऐसी बात नहीं कही। मोहम्मद और जीसस एक लिहाज से अभागे समाज में पैदा हुए, उन लोगों के बीच, जिनसे इतनी ऊंची बातें नहीं कही जा सकती थीं। ऊंची बातें कहने का अवसर, समय और स्थिति उनको नहीं मिली।

इसलिए गीता को जो पढ़ता है, उसे कुरान कभी फीका लग सकता है। लेकिन इसमें ज्यादती कर रहे हैं। कुरान को फीका मत देखना। जो गीता को पढ़ता है, उसे बाइबिल उतनी गहरी नहीं मालूम पड़ेगी। लेकिन ज्यादती मत करना।

जीसस और मोहम्मद, कृष्ण जैसे ही गहरे व्यक्ति हैं। लेकिन अर्जुन जैसा शिष्य पाना सदा आसान नहीं है। बात तो अर्जुन से कही जा रही है, इसलिए तीन शर्तें पूरी करके उन्होंने चौथी, अंतिम, दि अल्टिमेट, आखिरी बात भी कह दी कि फिर व्यक्ति कुछ भी करे, उस पर कोई नियम, कोई मर्यादा नहीं है।

राम की भी हिम्मत नहीं होती यह कहने की। राम भी मोहम्मद और जीसस से ऊंची बात नहीं कह पाते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। मर्यादा की बात करते हैं। इस बात से तो राम भी थोड़े चौंकते कि कुछ भी करे! इससे राम को भी अड़चन पड़ती! राम नैतिक चिंतन की पराकाष्ठा हैं।

लेकिन धर्म वहीं शुरू होता है, जहां नीति समाप्त होती है। धर्म आगे की यात्रा है और, जहां सब नियम गिर जाते हैं। क्योंकि नीति के नियम, माना कि बहुत सुंदर हैं, लेकिन नियम ही हैं। माना कि मर्यादाएं बड़ी अदभुत हैं, लेकिन मर्यादाएं ही हैं। माना कि दीवारें सोने की हैं, लेकिन फिर भी दीवारें हैं। माना कि बंधन नीति के सोने के हैं, लोहे की जंजीरें नहीं हैं; हीरे-जवाहरातों से जड़ी हैं, लेकिन फिर भी जंजीरें हैं।

कृष्ण तो परम मुक्ति की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, ये तीन शर्त तू पूरी कर, फिर तू कुछ भी कर। फिर अगर तू भागता भी हो यहां से, तो मैं तुझसे नहीं कहूंगा कि तू रुक। तू लड़ता हो, तो मैं नहीं कहूंगा कि मत लड़। लेकिन ये तीन शर्त पूरी हो जानीं चाहिए।

इस लिहाज से इस जमीन पर जगत के श्रेष्ठतम वक्तव्य दिए जा सके हैं। पृथ्वी पर किसी भी देश में इतने श्रेष्ठ वक्तव्य देने की स्थिति कभी भी पैदा नहीं हुई थी। इतनी उड़ान की और इतनी ऊंची बात, बादलों के पार, जहां सब अतिक्रमण हो जाता है, वहीं है परम स्वतंत्रता और परम मुक्ति। ऐसे व्यक्ति को कोई भी कर्म नहीं बांधता है।

प्रश्न:

भगवान श्री, आपने कर्म-संन्यास का अर्थ कर्म-त्याग कहा है। लेकिन पिछले छठवें श्लोक में कर्म-संन्यास का अर्थ संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग कहा गया है। कृपया कर्म-संन्यास के इन दो अर्थों में दिखाई पड़ने वाली भिन्नता को स्पष्ट करें।

कर्म-संन्यास का बहिर्अर्थ तो कर्म का त्याग है। अंतर्अर्थ भी है। क्योंकि मनुष्य के जीवन में जो भी घटना घटेगी, उसके दो पहलू होंगे, बाहर भी, भीतर भी। अगर कर्म-संन्यासी को आप देखेंगे बाहर से, तो दिखाई पड़ेगा कि कर्म का त्याग किया।

महावीर चले जंगल की तरफ; छोड़ दिया राजमहल, धन, घर, द्वार, प्रियजन, परिजन। हम देखने खड़े होंगे मार्ग में, तो क्या दिखाई पड़ेगा? दिखाई पड़ेगा कि महावीर जा रहे हैं सब छोड़कर। कर्म छोड़कर जा रहे हैं। अगर हम कहेंगे कि महावीर के कर्म संन्यास का क्या अर्थ है? तो अर्थ होगा, कर्म का त्याग। लेकिन अगर महावीर से पूछें कि उनके भीतर क्या हो रहा है? क्योंकि घर-द्वार, महल, हाथी, घोड़े भीतर नहीं हैं। कर्म, प्रिय, परिजन भीतर नहीं हैं। भीतर क्या है?

जब बाहर से कोई कर्म छोड़ता है, तो भीतर क्या छूटता है? भीतरी हिस्सा क्या है कर्म का? भीतरी हिस्सा कर्ता है, दि डुअर। डूइंग बाहर है; डुअर भीतर है। ये एक ही घटना के दो हिस्से हैं। बाहर कर्म छूटे, तो भीतर कर्ता विदा हो जाएगा। सच में ही कर्म छूट जाए, तो कर्ता तत्काल विदा हो जाएगा, क्योंकि कर्म के बिना कर्ता हो नहीं सकता। कर्ता का मतलब ही यह है कि जो कर्म करता है।

लेकिन भाषा में गलती होती है। एक पंखा है आपके हाथ में। मैं पूछता हूं, पंखे का क्या अर्थ है? आप कहते हैं, जो हवा करता है। लेकिन अभी पंखा हवा नहीं कर रहा है, आप हाथ में पकड़े हुए बैठे हैं। अभी पंखा है या नहीं? पंखे की परिभाषा है, जो हवा करता है; डोलता है, हवा करता है। अभी डोल नहीं रहा है। तो अगर ठीक सिमैनटिक्स, ठीक भाषा का प्रयोग करें, तो अभी वह पंखा है नहीं। पंखा तो वह है, जो पंख की तरह हवा करता है। पोटेंशियल है अभी, कर सकता है। इसलिए हम कामचलाऊ दुनिया में कहते हैं, पंखा है। इसका मतलब यह है कि पंखा हो सकता है। इसका उपयोग करें, तो यह पंखे का काम दे सकता है।

एक किताब रखी है। किताब का मतलब यह है कि जिसमें कुछ ज्ञान संगृहीत है। लेकिन मैं किताब उठाकर आपके सिर पर मार देता हूं, उस वक्त वह किताब नहीं है। उस वक्त वह पत्थर का काम कर रही है। भाषा में तो अब भी किताब है। हम कहेंगे, किताब फेंककर मार दी। लेकिन किताब, किताब का मतलब ही यह है कि जिसमें ज्ञान संगृहीत है। कहीं संगृहीत ज्ञान फेंककर मारा जा सकता है? लेकिन जब मैं किताब को फेंककर मार रहा हूं, तो वस्तुतः मैं किताब का उपयोग किताब की तरह नहीं कर रहा हूं, पत्थर की तरह कर रहा हूं। अगर वैज्ञानिक ढंग से कहना हो, तो उसको अब किताब नहीं कहना चाहिए। अब वह किताब नहीं है। अब इस वक्त वह पत्थर है।

जब तक आप कर्म कर रहे हैं, तब तक आप कर्ता हैं। कर्म बंद हुआ, कर्ता खो गया। कर्ता बचता नहीं। इससे उलटा भी सही है। कर्ता खो जाए, कर्म खो जाता है।

जहां तक दूसरों के देखने का संबंध है, वहां पहले कर्म खोता है। और जहां तक स्वयं के देखने का संबंध है, पहले कर्ता खोता है। अगर मैं अपने भीतर से देखूं, तो पहले मेरा कर्ता खो जाएगा, तभी मेरा कर्म खोएगा। पहले मैं कर्ता नहीं रह जाऊंगा, तभी मेरा कर्म गिर जाएगा। लेकिन जहां तक आप देखेंगे, पहले कर्म गिरेगा, पीछे आप अनुमान लगाएंगे कि कर्ता भी खो गया होगा। क्योंकि मेरे भीतर के कर्ता को आप देख नहीं सकते, सिर्फ मैं ही देख सकता हूं।

इसलिए कृष्ण जो कह रहे हैं कि जहां कर्तृत्व खो गया, जहां कर्ता खो गया! यह अंतर्व्याख्या है। भीतर से साधक को जानना पड़ेगा कि मेरा जो करने वाला था, वह अब नहीं रहा। अब कोई करने वाला भीतर नहीं है।

कब खोता है करने वाला? इसके लिए भी दोत्तीन सूत्र खयाल में लेंगे, तो उपयोगी होंगे। साधक की दृष्टि से बड़ी कीमत के हैं।

या तो कर्ता तब खोता है, जब आप समझें कि मैं शून्यवत हूं; हूं ही नहीं। समझें कि मैं क्या हूं? कुछ भी तो नहीं; मिट्टी का एक ढेर। कभी आंख बंद करके देखें, तो क्या पता चलता है? क्या हूं? सांस की धड़कन? क्या हूं? जैसे कि लोहार की धौंकनी चलती हो। कभी सांस को चलने दें, आंख बंद कर लें। और भीतर खोजें कि मैं कौन हूं!

क्या पता चलेगा? बस इतना ही पता चलेगा कि धौंकनी चल रही है। लोहार की धौंकनी ऊपर-नीचे हो रही है। श्वास भीतर आ रही है, बाहर जा रही है। अगर पूरे शांत होकर देखेंगे, तो सिवाय श्वास के चलने के कुछ भी पता नहीं चलेगा। क्या श्वास का चलना भर इतनी बड़ी बात है कि मैं कहूं कि मैं हूं! और फिर श्वास भी मैं तो नहीं चला रहा हूं! जब तक चलती है, चलती है; जब नहीं चलती है, तो नहीं चलती है। जिस दिन नहीं चलेगी, मैं चला नहीं सकूंगा। एक श्वास भी नहीं ले सकूंगा, जिस दिन नहीं चलेगी। श्वास ही चल रही है; वह भी मैं नहीं चला रहा। पता नहीं कौन अज्ञात शक्ति चला रही है! बस, इतना-सा खेल है। इस इतने से खेल को इतनी अकड़ से क्यों ले रहा हूं?

तो एक मार्ग तो है कि मैं खोजूं कि मैं हूं क्या! तो पता चले कि कुछ भी नहीं हूं।

बुद्ध का यह मार्ग है। बुद्ध कहते हैं, खोजो, तुम क्या हो! क्या-क्या हो, खोज लो। थोड़ी-सी मिट्टी है, थोड़ा-सा पानी है, थोड़ी-सी आग है, थोड़ी-सी हवा है।

वैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहता है, कोई चार और पांच रुपए के बीच का सामान है। थोड़ा एल्युमिनियम भी है, थोड़ा तांबा भी है, थोड़ा लोहा भी है। मुश्किल से चार-पांच रुपए के बीच; चार-पांच इसलिए कि दाम घटते-बढ़ते रहते हैं! बाकी इससे ज्यादा का सामान नहीं है आदमी के पास। हालांकि मर जाए, तो इतना पैसा भी मिल नहीं सकता। पांच रुपए में भी कोई खरीदने को राजी नहीं होगा। क्योंकि वह सामान भी इतना उलझा हुआ है कि उसको निकालने में बहुत रुपए लग जाएं। वह पांच रुपए के लायक नहीं है! बहुत गहरी खदान है। खोदने में ज्यादा पैसा खराब होगा, निकलेगा कुछ खास नहीं। इसीलिए तो जला देते हैं या गाड़ देते हैं। आदमी के शरीर का अब तक कोई उपयोग नहीं है।

तो बुद्ध कहते हैं कि खोजो कि तुम क्या-क्या हो? कुछ थोड़ी-सी चीजों का जोड़ हो। सांस चल रही है इस धौंकनी में। बस, यही हो? कहोगे कि थोड़े विचार भी हैं मेरे पास। माना। विचार भी क्या हैं? हवा में बने हुए खिलौने। पानी पर खींची गई रेखाएं। बहुत इम्मैटीरियल। क्या मतलब है! और एक आदमी की गर्दन काट कर खोजो, तो विचार कहीं भी नहीं मिलते। हवा के झोंके की तरह हैं। हवा के झोंके में पत्ते हिलते रहते हैं, जिंदगी के धक्के में विचार हिलते रहते हैं। किसी ने गाली दी, धक्का आया भीतर, थोड़े विचार हिलने लगे। गाली उठने लगी। किसी ने प्रशंसा की, गले में माला डाल दी, भीतर हवा का धक्का पहुंचा। बड़े प्रसन्न हो गए; छाती फूल गई; सांस जरा जोर से चलने लगी।

तो बुद्ध कहते हैं, जरा ठीक से देख लो कि तुम्हारा पूरा जोड़ क्या है। इसी जोड़ पर इतने अकड़े हुए हो? तो बुद्ध कहते हैं, संघात हो, सिर्फ एक जोड़ हो। नाहक परेशान मत होओ। शून्य समझो अपने को। जो इस जोड़ को ठीक से समझ ले, वह शून्यवत हो जाएगा। शून्यवत हो जाए, तो कर्ता खो जाता है।

एक और रास्ता है। वह रास्ता यह है कि न मैं पैदा हुआ; न मैं मरूंगा अपने हाथ से, न अपने हाथ से पैदा हुआ। जन्मते वक्त कोई मुझसे पूछता नहीं कि जन्मना चाहते हो? मरते वक्त कोई मुझसे दस्तखत नहीं करवाता कि अब आपके इरादे जाने के हैं? मुझसे कोई पूछता ही नहीं। मैं बिलकुल गैर-जरूरी हूं। जिंदगी मेरी, कहता हूं कि जिंदगी मेरी। और मुझसे बिना पूछे भेज दिया जाता हूं! कहता हूं, जिंदगी मेरी। और मुझसे बिना पूछे विदा कर दिया जाता हूं! कोई मुझसे इसके लिए भी नहीं पूछता कि आप जाना चाहते हैं, आना चाहते हैं, क्या इरादे हैं? नहीं, मेरी कोई पूछताछ ही नहीं है।

तो एक दूसरा मार्ग है, जो है नियति का, डेस्टिनी का। उस मार्ग से ही भाग्य की बहुत गहरी धारणा पैदा हुई। हमने तो उसके बहुत दुरुपयोग किए, लेकिन वह धारणा बड़ी गहरी है। वह यह कहती है कि मैं हूं ही नहीं, भाग्य है। न मालूम कौन मुझे पैदा कर देता, न मालूम कौन मुझे चलाता, न मालूम कौन मुझे विदा कर देता। मैं कुछ भी नहीं हूं।

एक सूखा पत्ता हवाओं में उड़ता हुआ। हवाएं जहां ले जाती हैं, चला जाता है। पत्ते की कोई आवाज नहीं, पत्ते की कोई पूछ नहीं। पत्ता कहे कि मुझे पूरब जाना है; कोई सुनता ही नहीं। पत्ता पश्चिम चला जाता है! पत्ता कहे, मुझे जमीन पर विश्राम करना है, हवाएं उसे आकाश में उठा देती हैं। तो नियति की एक धारणा है, वह हिंदू विचार की बहुत गहरी धारणा है।

बुद्ध ने शून्य का प्रयोग किया, हिंदू विचार ने नियति का प्रयोग किया। और कहा कि सब नियंता के हाथ में है। पता नहीं कौन अज्ञात, कोई अननोन शक्ति भेज देती है, वही बुला लेती है। जब हम कुछ हैं ही नहीं, तो हम नाहक क्यों इतराए हुए घूमें? क्यों परेशान हों? परमात्मा है, उसके हाथ में छोड़ देते हैं। तब कर्ता शून्य हो जाता है। जब हम कुछ करने वाले नहीं, तो जो उसकी मर्जी है, वह करा लेता है। नहीं मर्जी है, नहीं कराता है। ऐसा जो अपने को छोड़ दे पूरी तरह समर्पण में, तो भी कर्ता खो जाता है।

तीसरा एक रास्ता और है। और वह तीसरा रास्ता है, उसको जान लेने का, जो हमारे भीतर है। कृष्ण का वही रास्ता है, उसको जान लेने का, जो हमारे भीतर है। महावीर का भी वही रास्ता है।

निरंतर कहे चले जाते हैं, मैं, मैं, मैं। बिना इसकी फिक्र किए कि यह मैं कौन है? क्या है? इसका हम कोई पता नहीं लगाते। भीतर प्रवेश करें। इसके पहले कि मैं कहें, ठीक से जान तो लें, यह मैं किसको कह रहे हैं। जितने भीतर जाते हैं, उतना ही मैं खोता जाता है–जितने भीतर। जितने ऊपर आते हैं, उतना मैं होता है। जितने भीतर जाते हैं, उतना मैं खोता जाता है। एक घड़ी आती है कि आप तो होते हैं और मैं बिलकुल नहीं होता। एक ऐसा बिंदु आ जाता है भीतर, जो बिलकुल ईगोलेस, बिलकुल मैं शून्य है; जहां मैं की कोई आवाज ही नहीं उठती।

उसको जान लें, तो कर्ता खो जाता है। क्योंकि उसको जान लेने के बाद मैं का भाव नहीं उठता; और मैं का भाव न उठे, तो कर्ता निर्मित नहीं होता। कर्ता के निर्माण के लिए मैं का भाव अनिवार्य है। मैं की ईंट के बिना कर्ता का भाव निर्मित नहीं होता।

ये तीनों एक अर्थ में एक ही बात हैं। चाहे जान लें कि मैं कुछ भी नहीं हूं, तो भी कर्ता गिर जाता है। जान लें कि परमात्मा सब कुछ है, तो भी कर्ता गिर जाता है। जान लें कि मैं ऐसी जगह हूं, जहां मैं है ही नहीं, तो भी कर्ता गिर जाता है। तीनों स्थितियों से कर्ता शून्य हो जाता है। भीतर कर्ता शून्य होता है, बाहर कर्म गिर जाते हैं। वह उसका ही दूसरा हिस्सा है।

दोनों तरफ से चल सकते हैं। बाहर कर्म को छोड़ दें पूरी तरह अगर, तो भीतर कर्ता को न बचा सकेंगे। वह गिर जाएगा। भीतर कर्ता को विदा कर दें, तो बाहर कर्म को न बचा सकेंगे; वह खो जाएगा। कर्म-संन्यास की जो बहिर्व्याख्या है, वह कर्म-त्याग है। कर्म-संन्यास की जो अंतर्व्याख्या है, वह कर्ता-त्याग है।

प्रश्न:

भगवान श्री, इसी संबंध में एक बात और स्पष्ट कर लेने को है। कृष्ण कर्म-संन्यास अर्थात कर्मों में कर्तापन के त्याग को अर्जुन के लिए कठिन बता रहे हैं। तथा निष्काम कर्मयोग को सरल बता रहे हैं। कृपया स्पष्ट करें कि कर्मों में कर्तापन के त्याग के बिना निष्काम कर्म कैसे संभव होता है?

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि यह जो उन्होंने कर्म-संन्यास की बात कही है, यह कठिन है। और निष्काम कर्म की जो दूसरी पद्धति कही है, वह सरल है। निष्काम कर्म की पद्धति में कर्म भी नहीं छोड़ना पड़ता, कर्ता भी नहीं छोड़ना पड़ता। न कर्म के त्याग का सवाल है, न कर्ता के त्याग का सवाल है। प्राथमिक शर्त नहीं है वह। निष्काम कर्मयोग में सिर्फ कर्म के फल को छोड़ना पड़ता है–सिर्फ कर्म के फल को। यद्यपि कर्म का फल जिस दिन छूट जाता है, उस दिन कर्ता छूट जाता है। लेकिन वह परिणाम है।

कर्म-संन्यास में जो पद्धति सीढ़ियां बनाती है, निष्काम कर्मयोग में वह पद्धति परिणाम में आती है। फल छोड़ दो! फल छूटा, तो कर्ता नहीं बचता है। और जब कर्ता न बचे, तो कर्म अभिनय रह जाता है, खेल! दूसरों के लिए, अपने लिए नहीं। अपने लिए समाप्त हुआ।

ठीक ऐसे ही, जैसे पिता अपने बच्चे के साथ खेल रहा है। उसकी गुड़िया को सजा रहा है, उसके गुड्डे को तैयार करवा रहा है। बारात निकलवा रहा है। उसके लिए खेल है अब। बच्चे के लिए खेल नहीं है। खेल में सम्मिलित है, सम्मिलित होने से बिलकुल सम्मिलित नहीं है। सम्मिलित है पूरा, पर कहीं भी इनवाल्व्ड, कहीं भी डूबा हुआ नहीं है। मौज से खेल रहा है। बच्चा तो बहुत उद्विग्न और परेशान रहेगा कि पता नहीं गुड्डा ठीक बनता है कि नहीं! कोई वधू राजी होती है कि नहीं! पता नहीं शादी निपट पाएगी ठीक से कि नहीं निपट पाएगी! कोई अड़चन तो नहीं आ जाएगी! कोई ग्रह, मंगल बाधा तो नहीं देंगे! कोई पंडित पत्री में उपद्रव तो खड़ा नहीं करेगा! बच्चा बहुत चिंतित है। उसके लिए खेल नहीं है। उसके लिए मामला गंभीर है; काम है। बाप मजे से खेल रहा है साथ में। कर्म तो कर रहा है, भीतर कर्ता बिलकुल नहीं है।

कर्म तो कर रहा है, कर्ता क्यों नहीं है? क्योंकि बच्चा फल में उत्सुक है, एक्साइटेड है, उत्तेजित है। सांझ बैंड-बाजे बजेंगे, बारात निकलेगी। भारी काम उसके सिर पर है। सब ठीक से निपट जाए, इसकी चिंता है। सारे मित्र इकट्ठे होने वाले हैं, कोई भूल-चूक न हो जाए। चिंतित है, उद्विग्न है, परेशान है। हो सकता है, रातभर नींद न आए। रातभर सपने में भी शादी करे, तैयारियां करे। उठ-उठकर बैठ जाए। यह सब हो सकता है। लेकिन पिता भी वही तैयारी कर रहा है, लेकिन कोई फल का सवाल नहीं है। सांझ क्या होगा, इससे कोई मतलब नहीं है। खेल है, फल का कोई सवाल नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, दूसरी बात अर्जुन, सरल है कि तू फल का खयाल छोड़ दे और कर्म में लगा रह।

फल का खयाल छोड़ते ही कर्ता तो गिर जाएगा। क्योंकि फल अगर न हो, तो कर्ता को कोई मजा ही नहीं है; उसको बचने का कोई रस नहीं है। मैं कर्म करने से नहीं बचता हूं; मैं बचता हूं, कर्म से जो मिलेगा, उसकी आकांक्षा से, उसको पाने से, उसको इकट्ठा करने से। मेरा जो लोभ है, वह फल के लिए है।

अगर आपको कोई कहे कि आप जो कर्म कर रहे हैं, यह बिना किए आपको फल मिल सकता है, आप कर्म करने को राजी नहीं होंगे। आप कहेंगे, बिलकुल ठीक। यही तो हम पहले से चाहते थे। नहीं मिल सकता था बिना कर्म के, इसलिए कर्म करते थे। अगर बिना कर्म के मिल सकता है, तो सिर्फ पागल ही कर्म करने को राजी होगा। हम अभी तैयार हैं।

आपकी उत्सुकता कर्म में नहीं है; कर्म मजबूरी है। आपकी उत्सुकता फल में है। फल आकांक्षा है, कर्म मजबूरी है। कर्म करना पड़ता है, क्योंकि उसके बिना फल नहीं है। फल मिल जाए बिना कर्म के, तो कर्म फौरन छोड़ देंगे आप।

कर्ता का रस कहां है, कर्म में या फल में? कर्ता का रस फल में है। दिखता है जुड़ा हुआ कर्म से, असल में जुड़ा है फल से। कर्ता जो है, वह एरोड टुवर्ड्स दि रिजल्ट। उसका तीर जो है, वह हमेशा फल की तरफ है। कर्म की तरफ तो मजबूरी है।

इसलिए जिनको भी फल मिल सकता है बिना कर्म के, वे जरूर फल को बिना कर्म के पाने की कोशिश करेंगे। जो विद्यार्थी बिना पढ़े पास हो सकता है, वह पढ़ना छोड़ देगा। अगर सरल कर्म से काम हो सकता है, कि शिक्षक को जरा छुरा दिखाने से काम हो सकता है, तो सरल कर्म कर लेगा। चोरी से हो सकता है, तो उससे कर लेगा। सालभर का उपद्रव छोड़ देगा, दो-चार दिन में हो सकता है, उससे कर लेगा। रिश्वत से हो सकता है, उससे कर लेगा।

किसी का भी रस कर्म में नहीं है। ध्यान रहे, दुनिया में रिश्वत न हो, बेईमानी न हो, अगर लोगों का रस कर्म में हो। रस तो है फल में, तो फल फिर जैसे मिल जाए, उससे ही आदमी पा लेता है। और कम कर्म से मिल जाए, तो और बेहतर है। खुशामद से मिल जाए, और बेहतर।

मंदिर में जाकर लोग परमात्मा के सामने खुशामद कर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं, रिश्वत का वचन दे रहे हैं कि एक नारियल चढ़ा देंगे पांच आने का, जरा लड़के को पास करा दो! पक्का रहा, पांच आने का नारियल जरूर देंगे।

अब जिसके पास सब कुछ हो, उसको आप पांच आने का नारियल और देने का वायदा कर रहे हैं! अगर मान जाए, तो बुद्धू है। अगर परमात्मा आपकी मान जाए पांच आने के नारियल से, तो बुद्धू है निपट! लेकिन बुद्धू आप ही हैं। क्या देने गए हैं? क्या रिश्वत बता रहे हैं?

इसलिए भारत जैसे मुल्क में इतनी रिश्वत बढ़ सकी, उसका कारण है गहरे में कि हम तो रिश्वत देने वाली पुरानी कौम हैं। हम तो भगवान को सदा से–जब भगवान तक रिश्वत में पांच आने के राजी होता है, तो डिप्टी कलेक्टर नहीं होगा? तो कोई डिप्टी कलेक्टर भगवान से बड़ी चीज है? कि कोई मिनिस्टर कोई भगवान से बड़ी चीज है? अरे! हम भगवान को भी रास्ते पर ले आते हैं पांच आने का नारियल चढ़ाकर! मिनिस्टर है बेचारा! इसको तो निपटा ही लेंगे। और जब मिनिस्टर देखता है कि भगवान तक नहीं छोड़ रहे हैं नारियल, तो हम काहे को छोड़ें!

और अगर किसी दिन कोई दिक्कत भी आई भगवान के सामने, तो कह देंगे कि तुम तो हजारों साल से ले रहे हो; हमने तो अभी-अभी, अभी यही कोई बीस साल पहले शुरू किया। इतना अनुभव भी नहीं है। और तुम तो सदा से बैठे हो सिंहासन पर, तुम्हें कोई जल्दी भी नहीं है। हमारे सिंहासन का कोई भरोसा ही नहीं है। तो जितनी जल्दी ले लें, ले लेते हैं।

यह जो हमारा चित्त है, वह सदा फल के लिए उत्सुक है। इसलिए कुछ भी कर्म से बच सके और फल मिल जाए, तो हम ले लेंगे। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्मयोग चिंता नहीं करता कि तुम कर्म छोड़ो। वह चिंता करता है कि तुम फल छोड़ो। तुम फल की फिक्र छोड़ दो।

और फल की फिक्र दो तरह से छोड़ी जा सकती है। एक रास्ता तो यह है कि हम मान लें कि परमात्मा है; जो उसकी मर्जी। वह नियतिवादी जो मैंने बात कही, जो मानता है कि नियति है, परमात्मा को फल देना है, देगा; नहीं देना है, नहीं देगा। जो नियति की धारणा से जीता है गहरे में, वह छोड़ पाता है। वह कहता है, ठीक है; फल हमारे हाथ में नहीं है; परमात्मा जाने। हम ही हमारे हाथ में नहीं हैं, तो फल भी हमारे हाथ में कैसे हो सकता है?

या फिर वह फल छो॰? देता है, दूसरा, जो कि मानता है कि मैं तो हूं ही नहीं। मिट्टी का जोड़ हूं। मुझसे क्या फल आएगा! मैं क्या फल निकाल पाऊंगा! ना-कुछ हूं, मुझसे कुछ भी निकलने वाला नहीं है। बुद्ध का मार्ग है, वह कहता है, कुछ निकलने वाला नहीं है, इसलिए फल छोड़ देता है। मैं ही नहीं हूं, तो फल लेगा कौन? इसलिए फल छोड़ देता है।

तीसरा भी मार्ग है, वह कृष्ण का मार्ग या महावीर का मार्ग, कि पीछे, भीतर प्रवेश करता है और उसको खोज लेता है, जिसे किसी फल की जरूरत नहीं है। उसे खोज लेता है, जिसे सब मिला ही हुआ है। इसलिए कोई मांग नहीं रह जाती। तो भी फल गिर जाता है। फल गिर जाए, तो कर्ता खो जाता है। लेकिन निष्काम कर्म में कर्म बना रहता है और कर्म-संन्यास में कर्म भी गिर जाता है, उतना ही फर्क है।

अर्जुन से कहते हैं कृष्ण कि सरल है निष्काम कर्म। अर्जुन को देखकर कहते हैं, मैं फिर दोहरा दूं। जरूरी नहीं है कि आपके लिए भी सरल हो। अर्जुन से कहते हैं कि तेरे लिए सरल है अर्जुन, निष्काम कर्म। अर्जुन के लिए आसान है फल को छोड़ना। कर्म को छोड़ना कठिन है।

इसके लिए दोत्तीन बातें खयाल में ले लें।

मां के पेट में सात महीने का बच्चा करीब-करीब पच्चीस प्रतिशत निर्मित हो जाता है; पच्चीस प्रतिशत। बाकी पचहत्तर प्रतिशत बाकी सत्तर साल में निर्मित होगा। सात महीने का बच्चा पच्चीस प्रतिशत बिलकुल निर्मित हो जाता है, जिसमें अब कोई अंतर नहीं पड़ेंगे। सात साल का बच्चा तो पचहत्तर प्रतिशत निर्मित हो जाता है, जिसमें अब कोई फर्क नहीं पड़ेंगे! जिंदगी, जब हम पाते हैं जीने के लिए, खड़े होते हैं, तब तक करीब-करीब हमारे भीतर तय हो गई होती है। उसका एक पैटर्न, उसका एक ढांचा निर्मित हो गया होता है।

अर्जुन आज युद्ध के मैदान पर खड़ा है, कोरी स्लेट की तरह नहीं। अगर कोरी स्लेट की तरह होता, तो कृष्ण उससे कहते कि ये दो रास्ते हैं, तू कोई भी लिख ले; दोनों ही सरल हैं। क्योंकि तेरी स्लेट कोरी है। कुछ भी लिख। जो भी लिखेगा, वही काम दे जाएगा। लेकिन अर्जुन कोरी स्लेट की तरह नहीं खड़ा है। बहुत कुछ लिखा जा चुका है। जगह अब कुछ और लिखने को है नहीं; भरा हुआ खड़ा है। क्षत्रिय होना निर्णीत हो चुका है। क्षत्रिय होना उसका पूरा हो चुका है। अब उसको ब्राह्मण बनाने की कोशिश बड़ी उपद्रव की है।

ब्राह्मण बनाने का मतलब है, नई, अ ब स से शुरू करनी पड़ेगी यात्रा। अर्जुन को अगर वापस उसकी मां के पेट में, गर्भ में ले जाया जा सके, तो फिर से बात हो सकती है। अन्यथा नहीं हो सकती है। या फिर उसका पूरा ब्रेनवाश करना पड़े। तब कृष्ण के वक्त में उसका उपाय नहीं था; अब है। उसकी खोपड़ी बिलकुल साफ करनी पड़े बिजली के धक्कों से। हालांकि जरूरी नहीं है कि खोपड़ी साफ करने के बाद वह कोई बेहतर आदमी बन सके। जरूरी नहीं है। बहुत डर तो यही है कि वह आदमी सदा के लिए लंगड़ा हो जाए। क्योंकि तीस साल की उम्र में अगर हम किसी आदमी के मस्तिष्क को फिर से साफ करें, तो उसकी उम्र तो तीस साल होगी और पहले दिन के बच्चे जैसा व्यवहार करेगा। बहुत उपद्रव का मामला है।

तो अर्जुन एक सुनिश्चित व्यक्तित्व लेकर खड़ा है, एक पर्सनैलिटी है उसके पास। तो जब कृष्ण उससे कहते हैं कि अर्जुन, तू जो कि कर्म में ही जीया और बड़ा हुआ है, कर्म ही जिसका स्वभाव है, कर्म के बिना जिसने कभी कुछ न जाना, न सोचा, न किया। जिसके व्यक्तित्व की सारी गरिमा उसके कर्म के शिखर पर है। जिसका सारा गौरव, जिसकी सारी चमक, जिसकी सारी सफलता उसके कर्म की कुशलता है। इस आदमी को कृष्ण कहते हैं कि तेरे लिए सरल है कि तू फल को छोड़ दे।

और ध्यान रखें, क्षत्रिय के लिए फल को छोड़ना आसान है, कर्म को छोड़ना कठिन है। क्षत्रिय के लिए फल को छोड़ना आसान है, कर्म को छोड़ना कठिन है। ब्राह्मण के लिए कर्म को छोड़ना आसान है, फल को छोड़ना कठिन है। व्यक्तित्व की बनावटें हैं।

ब्राह्मण वैसे ही कर्म में नहीं होता। ब्राह्मण कर्म के जाल के बाहर खड़ा रहता है। समाज ने फल उसके लिए निश्चित कर रखा था। फल से वह राजी था। कर्म वह सदा से छोड़े हुए था। यद्यपि थोड़ा कर्म करने से ज्यादा फल मिल सकता था, लेकिन नहीं, वह बहुत थोड़े फल से राजी था, लेकिन कर्म की झंझट में नहीं था। कर्म छोड़कर खड़ा था।

अब महावीर या बुद्ध कर्म करें, तो क्या पैदा नहीं कर ले सकते हैं! लेकिन महावीर या बुद्ध भिक्षा का पात्र लेकर दो रोटी भीख मांग लेते हैं। उतने से तृप्त हैं। ब्राह्मण इस देश का सदा से कर्म छोड़कर जीया है। थोड़े-से फल से राजी है, अल्प फल से राजी है। कर्म के छोड़ने में उसे कोई कठिनाई नहीं है।

क्षत्रिय फल को बिलकुल छोड़ सकता है, लेकिन कर्म को नहीं छोड़ सकता। क्षत्रिय के लिए सवाल यह नहीं है कि हारूंगा या जीतूंगा। क्षत्रिय के लिए यह भी सवाल नहीं है कि विजय मिलेगी या हार हो जाएगी। क्षत्रिय के लिए सवाल यह है कि मैं लड़ा या नहीं लड़ा। क्षत्रिय को अंततः निर्णय इससे होगा कि वह लड़ा या नहीं लड़ा। लड़ने से भागा तो नहीं! क्षत्रिय अगर लड़ते हुए मर जाएगा, तो भी भागे हुए क्षत्रिय से ज्यादा शांति से मरेगा। कर्म से नहीं भागा; कर्म से नहीं हटा। लड़ लिया। जो कर सकता था, वह किया। जो हो सकता था, वह हुआ। फल का कोई बड़ा सवाल नहीं है उसके लिए।

और क्षत्रिय अगर फल की सोचे, तो क्षत्रिय नहीं हो सकता। क्योंकि युद्ध के क्षण में फल को भूल जाना पड़ता है। दुकान एक बात है, युद्ध दूसरी बात है। दुकान पर आप बैठकर आराम से सोच सकते हैं कि क्या लाभ होगा, क्या हानि होगी। क्योंकि कर्म कोई जान नहीं ले रहा है अभी आपकी। ग्राहक कोई आपकी गर्दन नहीं पकड़े हुए है। ग्राहक सामने बैठा है; आप सोच सकते हैं। आज नहीं करेंगे सौदा, कल कर लेंगे। क्षत्रिय के सामने तो कर्म इतना प्रखर है कि अगर वह फल को सोचने में चला जाए, चूक जाए, तो गर्दन कट जाए। उसको तो कर्म में ही होना चाहिए।

इसलिए जापान में, जहां कि क्षत्रियों का शायद आज की दुनिया में जीवित वर्ग है, समुराई। सारी पृथ्वी पर क्षत्रियों का एकमात्र, ठीक जैसा कि अर्जुन रहा होगा। अर्जुन को मैं समुराई कहता हूं! कभी समुराई हमने पैदा किए थे। अब वे नहीं हैं। जापान में एक छोटा-सा वर्ग है, समुराई। लड़ना ही उसका जीवन, उसका आनंद और उसकी कला है।

समुराई के युद्ध का जो सूत्र है, वह यह है कि जब तुम तलवार चलाओ, तब तलवार ही बचे, तुम न बचो। तलवार ही चले। तुम तो अपने को छोड़ो। तलवार ही हो जाओ। और यह भी मत सोचना कि एक क्षण बाद क्या होगा, क्योंकि एक क्षण के बाद का तुम सोचोगे, तो तुम्हारे सामने की तलवार तुम्हारी गर्दन काट जाएगी। तुम तो अभी देखना, जो हो रहा है। एक क्षण के बाद भी हटे, चेतना इतनी भी हटी, कि चूके।

तो अगर दो समुराई कभी युद्ध में पड़ जाएं, तो बड़ा मुश्किल हो जाता है। युद्ध निर्णायक नहीं हो पाता। बड़ी कठिनाई हो जाती है, क्योंकि दोनों उसी क्षण में जीते हैं। जो भी आगे की सोचता है, वही हार जाता है।

तो क्षत्रिय के लिए सरल है कि फल की फिक्र छोड़ दे। वैश्य के लिए सरल नहीं है कि फल की फिक्र छोड़ दे। वैश्य कह सकता है, कर्म छोड़ सकते हैं। फल! फल जरा छोड़ना मुश्किल है। क्षत्रिय कह सकता है, फल छोड़ सकते हैं। लेकिन कर्म! कर्म छोड़ना जरा मुश्किल है। ट्रेनिंग है, प्रशिक्षण है।

तो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तेरे लिए सुगम है, सरल है, फल की आकांक्षा छोड़, युद्ध में उतर जा। कर्म पूरा कर और शेष प्रभु पर छोड़ दे। तेरे लिए पहली बात आसान नहीं है कि तू कहे कि मैं कर्म छोड़कर चला जाऊं।

अगर यह अर्जुन कर्म छोड़कर चला भी जाए, मान लें एक क्षण को कि गीता यहीं समाप्त हो जाती है और अर्जुन छोड़कर चले जाते हैं जंगल में। क्या करेंगे? कोई आसनी बिछाकर किसी झाड़ के नीचे ध्यान करेंगे? ध्यान भी करेंगे, तो पास की झाड़ी में चलता हुआ शेर दिखाई पड़ेगा। धनुष-बाण खींच लेंगे। पक्षी सुनाई पड़ेंगे वृक्ष पर; याद आएगी बचपन की कि निशानेबाज था। आंख ही दिखाई पड़ती थी मुझे। और मेरे सारे साथियों को पूरा पक्षी दिखाई पड़ता था। गुरु द्रोण ने कहा था कि तू ही एक धनुर्धर है। यह याद आएगा। यह ट्रेनिंग है उसकी। ज्यादा देर ध्यान-व्यान नहीं करेगा, बहुत जल्दी शिकार करने में लग जाएगा। आदमी वैसा है।

कृष्ण उसे भलीभांति पहचानते हैं। कृष्ण उसके मन में गहरे देखते हैं कि वह आदमी कैसा है। वह लड़ने का कोई न कोई उपाय खोज लेगा जंगल में। वह कोई न कोई उपद्रव में पड़ेगा। वह बिना लड़े नहीं जी सकेगा। क्योंकि बिना लड़े तलवार पर जंग चढ़ जाएगी। बिना लड़े क्षत्रिय पर भी जंग चढ़ जाती है। उसकी तो धार, क्षत्रिय की धार तो उसके लड़ने में है।

मैंने सुना है कि एक समुराई तीस वर्ष तक एक ही तलवार से लड़ता रहा–एक ही तलवार से। और जब जापान के एक सम्राट ने उसे बुलाकर उसकी तलवार देखी, तो दंग रह गया। जैसे कल ही उस पर धार रखी गई हो! तो सम्राट ने पूछा कि क्या धार अभी रखवाई है? उसने कहा, समुराई को तलवार पर धार रखवानी नहीं पड़ती। लड़ने से रोज धार बनती रहती है। और जिस दिन समुराई को तलवार पर धार रखवानी पड़े, उस दिन वह गया, हारा। क्योंकि तलवार जंग खा गई, उतनी देर में समुराई भी जंग खा जाएगा।

अर्जुन तो तलवार की चमक है। उस पर जंग न चढ़ जाए। जंग उसको डुबा देगी। वह युद्ध भी खोएगा, क्षत्रित्व भी खोएगा, और ब्राह्मण हो नहीं सकता। उसके लिए अगले जन्म की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अगले जन्म में भी डर है। वह क्षत्रिय है। अगले जन्म में भी बहुत डर तो यह है कि क्षत्रिय ही होगा।

इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि तुझे देखकर मैं कहता हूं कि तेरे लिए यही निज-धर्म है। तेरी यही निजता है, तेरी यही इंडिविजुअलिटी है। तू इसके लिए निर्मित हुआ है। यही तेरी नियति है, यही तेरा भाग्य है कि तू लड़, तू कर्म में उतर। फल को जाने दे। फल हटा, कर्ता हट जाएगा, कर्म रह जाएगा। और अकेला कर्म रह जाए, तो निष्काम कर्म फलित हो जाता है।

अब पांच मिनट हम कीर्तन करेंगे। कोई उठे न। पांच मिनट संन्यासी जो देते हैं, उसे लेते हुए जाएं। उनका प्रसाद स्वीकार करें। कोई भी न उठे। पांच मिनट के लिए इतनी जल्दी न करें। और साथ दें। ताली तो बजा ही सकते हैं! आनंद में सम्मिलित हो जाएं।

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--2 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–29

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मोक्ष का द्वार: सम्‍यक दृष्‍टि—प्रवचन—उनतीसवां

सूत्र:

दंसणभट्ठा भट्ठ, दंसणभट्ठस्‍स नत्‍थि निव्‍वाणं।

सिज्झंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।। 71।।

सम्‍मत्‍तस्‍स य लंभो, तलोक्‍कस्‍स य हवेज्‍ज जो लंभो।

सम्‍मदंसणलंभो, वरं खु तेलोक्‍कलंभादो।। 72।।

किं बहुण भणिएणं, जे सिद्ध णरवरा गए काले।

सिज्‍झिहिंति जे वि भविया, तं जाणइ सम्‍ममाहप्‍पं।। 73।।

जह सलिलेण ण लिप्‍पई, कमलिणिपत्‍तं सहावपयडीए।

तह भावेण ण लिप्‍पई कसायविसएहिं सप्‍पुरिसो।। 74।।

उवभोगमिंदियेहिं, दव्‍वाणमचेदणाणमिदराणं।

जं कुणदिसम्‍मदिट्ठी, तं सव्‍वं णिज्‍जरणिमित्‍तं ।। 75।।

संवेतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई।

पगरणचेट्ठा कस्‍स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई।। 76।।

न कामभोगा समयं उवेति, न यावि भोगा विगइं उवेति।

जे तप्‍पओपी य परिग्‍गही य, से तेसु मोहा विगइं विगइं उवेई।।77।।

जिन-दर्शन की चिंतन-धारा के ठीक मध्य के सूत्रों पर हम आ गये हैं। धार यहां बहुत गहरी है। ऊपर-ऊपर से समझेंगे तो चूकेंगे। डुबकी गहरी लगानी होगी–साहस के साथ और अत्यंत धीरज के साथ–तो ही ये सूत्र समझ में आ सकेंगे।

और ये उन सूत्रों में से हैं, जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं; और उनमें से भी, जिनका जैनों ने सर्वाधिक गलत अर्थ किया है। उनको करना पड़ा गलत अर्थ; क्योंकि अगर इन सूत्रों का ठीक अर्थ करें तो जैन जो कर रहे हैं, न कर पाएंगे।

अगर ये सूत्र ठीक हैं तो जैन गलत हो जाते हैं और अगर जैनों को अपने को ठीक बनाए रखना है, बताए रखना है, तो इन सूत्रों की गलत व्याख्या करनी जरूरी है। वह जैसे हम सूत्रों में प्रवेश करेंगे, स्पष्ट होने लगेगा।

सभी अनुयायियों ने अपने गुरुओं के साथ अनाचार किया है; कभी-कभी तो सीधा बलात्कार! क्योंकि अगर गुरु पूरा ठीक है तो अनुयायी को गलत होने का उपाय नहीं छूटता। गुरु के विदा होते ही अनुयायी उसके वचनों में जोड़ता है, घटाता है, अर्थ को बदलता है, नये अर्थ बिठाता है, नये रंग डालता है। तब वे काम के योग्य हो जाते हैं। तब फिर उनका खतरा समाप्त हो जाता है। उनके प्राण ही निकल जाते हैं; निष्प्राण सूत्र रह जाते हैं।

पहला सूत्र:

दंसणभट्ठा भट्ठा–जो दर्शन से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है।

दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं–और दर्शन से जो भ्रष्ट है, उसकी कभी निर्वाण की उपलब्धि संभव नहीं है। वह कभी मोक्ष को उपलब्ध न हो सकेगा।

सिज्झंति चरियभट्ठा–यह बड़ा अनूठा सूत्र है! महावीर कहते हैं, चरित्र-विहीन दृष्टिवाला व्यक्ति भी सिद्धि प्राप्त कर सकता है। सिज्झंति चरियभट्ठा। वह भी पहुंच जायेगा जिसके पास कोई चरित्र नहीं; सिर्फ दृष्टि हो।

दंसणभट्ठा ण सिज्झंति। लेकिन जिसके पास दर्शन नहीं है, वह लाख उपाय करे तो भी न पहुंच पायेगा। चरित्र से ऊपर दर्शन के लिए इससे ज्यादा बहुमूल्य सूत्र नहीं हो सकता। एक-एक शब्द को गौर से समझें।

“दर्शन से जो भ्रष्ट है, वही भ्रष्ट है।’ जिसके पास आंख नहीं, वही भटका है। तुम चरित्र को कितना ही सुधार लो, तुम चरित्र को कितना ही अनुशासित, परिमार्जित कर लो; लेकिन अगर यह चरित्र तुम्हारी ही दृष्टि से निष्पन्न नहीं हुआ है, उधार है, तो इससे मोक्ष न हो सकेगा। तुम सत्य बोलो; क्योंकि शास्त्र कहते हैं, “सत्य बोलो; सत्यं वद!’ इसलिए सत्य बोलते हो। लेकिन प्राणों में असत्य संगृहीत होता है। ऐसा हो सकता है कि तुम जीवन को इस तरह से बांध लो कि असत्य कभी जबान के बाहर न आये। कठिन है, असंभव तो नहीं। जबान आखिर जबान है; काबू में रखी जा सकती है। और इतना तो कर ही सकते हो, अगर काबू में न रहती हो तो चुप हो जाओ, जबान काट ही दे सकते हो। इसलिए बहुत लोग मौन हो जाते हैं। लेकिन मौन से असत्य थोड़े ही मिट जायेगा…! अब असत्य बोलते तो नहीं, लेकिन असत्य अगर बोलने से ही जुड़ा होता तो एक बात थी; असत्य तो तुम्हारे प्राणों में बैठा है। न बोलोगे तो दूसरों तक न पहुंचेगा, लेकिन तुम तो उससे मुक्त न हो जाओगे। बोलने से तो अभिव्यक्त होता था, पैदा थोड़े ही होता था! बोलने से तो केवल प्रगट होता था, जन्मता थोड़े ही था! असत्य तो भीतर बैठा है। बोलने से दूसरे को भी खबर मिल जाती थी।

तो जो व्यक्ति चरित्र को साध लेगा शास्त्र के अनुसार, बिना स्वयं की दृष्टि के, दूसरों के और उसके बीच के संबंध तो ठीक हो जायेंगे, वह व्यक्ति नैतिक हो जायेगा–लेकिन महावीर कहते हैं–धार्मिक नहीं। मोक्ष उसके लिए नहीं है। परम आनंद का द्वार उसके लिए न खुलेगा। वह अच्छा नागरिक हो जायेगा। सज्जन हो जायेगा, लेकिन संत नहीं।

सज्जन का अर्थ है, जिससे किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। लेकिन स्वयं तो सज्जन अपना आत्मघात करता रहता है। जहर किसी पर नहीं फेंकता, लेकिन खुद ही पीता चला जाता है। तो खुद ही के रोएं-रोएं में, रग-रग में, श्वास-श्वास में जहर फैल जाता है। तो जिनको तुम सच्चरित्र कहते हो, कभी उनकी अंतरात्मा में भी झांककर देखना; तुम उन्हें दुश्चरित्रों से भी ज्यादा जहर से भरा हुआ पाओगे। पाओगे ही, क्योंकि दुश्चरित्र तो थोड़ा-बहुत बाहर भी फेंक लेता है; वह तो भीतर ही इकट्ठा किए चले जाते हैं। दुश्चरित्र का तो थोड़ा रेचन भी हो जाता है, उनका तो कोई रेचन भी नहीं होता। दुश्चरित्र तो ऐसा है कि श्वास लेता है; जीवनदायी आक्सीजन को पी लेता है, जीवन-विरोधी कार्बन डाय-आक्साइड को बाहर फेंक देता है।

लेकिन तुम जिसे सज्जन कहते हो, वह ऐसा है कि कार्बन डाय-आक्साइड को भीतर इकट्ठा किए जाता है फेफड़ों में, बाहर नहीं फेंकता। उसके खुद के फेफड़े सड़ने लगते हैं। सज्जन एक तरह के आत्मिक कैंसर की दशा में होता है।

इसलिए एक बहुत बड़ा चमत्कार मनोवैज्ञानिकों को अनुभव में आया है कि गहनतम अपराधियों की आंखों में भी कभी-कभी बच्चों जैसा निर्दोष भाव होता है; लेकिन तुम्हारे तथाकथित संतों की आंखों में नहीं होता। उनकी आंखों में बड़ी जटिलता, बड़ा गणित, बड़ा हिसाब…! और वे चौबीस घंटे अपने को पकड़े हुए हैं। क्षणभर को ढीला छोड़ा, तो वह जो बांध रखा है जन्मभर का जहर वह बिखर सकता है।

संत क्षणभर को विश्राम नहीं करता। संत के लिए–कहते हैं–कोई छुट्टी नहीं।…तथाकथित संत के लिए! वास्तविक संत तो चौबीस घंटे विश्राम में है। विश्राम ही उसकी जीवन-शैली है। लेकिन जिसे तुम संत कहते हो और जिसे महावीर के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा सज्जन कहना चाहिए, वह भी शिष्टाचारवश…। यह जो तथाकथित संत है यह एक क्षण को भी विश्राम में नहीं है; हो नहीं सकता, क्योंकि यह डरा हुआ है। जब भी अपने को ढीला छोड़ेगा, शिथिल करेगा, तो जो दबा रखा है वह गांठ खुलेगी।

तुमने कभी देखा, एक झूठ तुम बोल दो तो फिर तुम शिथिल नहीं हो पाते! क्योंकि तुम शिथिल हुए तो कहीं झूठ निकल न जाये! तुम कहीं गपशप में, बातचीत करने में भूल गए और कह दिया किसी से, तो झूठ बोलनेवाला आदमी ज्यादा नहीं बोलता, सोच-सोचकर बोलता है। और जो बहुत झूठ बोलता है, वह तो चौबीस घंटे सचेष्ट रहता है।

जिसको तुम सज्जन कहते हो उसने जीवन का सबसे बड़ा झूठ बोला है–जो उसके भीतर नहीं है वह उसने बाहर करके दिखला दिया है। वह सबसे बड़ी असत्य घटना है। आत्मा में नहीं है वह, आचरण में बतला दिया है। इस बड़े झूठ का परिणाम यह होता है कि तुम्हारा सज्जन तो विश्राम ले ही नहीं सकता। वह चौबीस घंटे संगीनधारी की तरह अपनी ही छाती पर पहरा देता है। यह कोई संत की अवस्था न हुई। यह कोई मुक्ति न हुई। यह तो बुरी तरह बंध जाना हुआ।

महावीर कहते हैं: दंसणभट्ठा भट्ठा! भटका वही, जिसके पास आंख नहीं।

सारा जोर दृष्टि पर है, आंख पर है।

तथाकथित चरित्रवान व्यक्ति ऐसा है जैसे कोई अंधा व्यक्ति एक ही रास्ते पर बार-बार आ-जाकर धीरे-धीरे इतना अभ्यस्त हो जाये कि आंख की तो जरूरत ही नहीं होती; लेकिन वह बिना लकड़ी टेके, बिना किसी का सहारा खोजे, बिना टटोले, बिना पूछे, निरंतर उसी रास्ते पर आने-जाने के कारण अभ्यस्त हो जाने की वजह से ऐसा चलने लगता है जैसा आंखवाले को चलना चाहिए। उसे चलते देखकर राह पर शायद तुम भी चमत्कृत हो जाओगे। शायद तुम्हें भी शक होगा कि कहीं आंख इस आदमी को मिल तो नहीं गयी। क्योंकि वह ठीक वैसा ही चल रहा है जैसे आंखवाले चल रहे हैं। लेकिन गहरा फर्क है। यह चलना केवल अभ्यासवश है। यह निरंतर इसी रास्ते पर आने-जाने से आदत हो गयी है। उसे रास्ते का एक-एक पत्थर परिचित है। उसे रास्ते का एक-एक मोड़ परिचित है। वह रास्ते पर चल लेता है, लेकिन चल लेने से कुछ आंख थोड़े ही खुल जाती है। आंख खुलने से चलना हो सकता था; इसने धोखा दे लिया।

जिसको तुम चरित्रवान कहते हो, वह ऐसा ही आदमी है जिसको अभी दिखायी तो नहीं पड़ा, लेकिन सुनकर औरों को, कान का भरोसा करके, अभ्यास कर लिया है। तो लोग अहिंसा का अभ्यास कर रहे हैं। अहिंसा का कोई अभ्यास हो ही नहीं सकता। अहिंसा की तो आंख होती है। प्रेम की एक दृष्टि होती है। प्रेम का एक भाव होता है। प्र्रेम तो एक नया जन्म है। तुम्हारा हृदय और ही ढंग से देखना शुरू करता है, तब अहिंसा फलित होती है। तब अहिंसा बड़ी जीवंत होती है। तब उस अहिंसा में पुलक होती है, प्रसन्नता होती है।

लेकिन तुम दूसरों को सुनकर, लोभ के कारण कि परलोक को सम्हालना है, चरित्र को बना ले सकते हो, अहिंसक हो सकते हो, फूंक-फूंककर पैर रख सकते हो।…चींटी भी न मरे, लेकिन तुम मर जाओगे! तुम सब बचा सकते हो, लेकिन अपने को न बचा सकोगे। और असली बात तो वही थी।

दंसणभट्ठा भट्ठा।

जिसके पास आंख नहीं है, वही भटका हुआ है: सम्यक दर्शन से जो भ्रष्ट, वही भ्रष्ट। महावीर का वचन बहुत साफ है।

दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं।

और जो दर्शन से भ्रष्ट है, उसका कोई निर्वाण नहीं, उसका कोई मोक्ष नहीं। यहां तक भी जैन को कठिनाई न होगी। आगे जो सूत्र है–सिज्झंति चरियभट्ठा, चरित्र-भ्रष्ट भी अगर आंखवाला है तो पहुंच जाता है–यहां अड़चन होगी। तो जैन जब अनुवाद करते हैं, जैन-मुनि जब अनुवाद करते हैं, तो वे क्या करते हैं अनुवाद में? वे इस सीधे-साधे वचन का जहां दो शब्द हैं केवल–सिज्झंति चरियभट्ठा–जो नहीं भी जानते प्राकृत वे भी कह सकते हैं–सिज्झंति चरियभट्ठा–वे भी सिद्धि को पहुंच जाते हैं जो चरित्र-भ्रष्ट हैं। जैन अनुवाद में क्या करते हैं? वे कहते हैं, “चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि तो चारित्र्य धारण करके सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं।’

चारित्र्य धारण करके? इस तरह महावीर को विकृत करने में सुविधा हो जाती है। जैनों को तकलीफ है कि अगर यह बात सही है कि चरित्र-भ्रष्ट व्यक्ति भी, सिर्फ आंख के होने के कारण सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है तो हमारे सारे चरित्र का, जो हमने आयोजन किया है, उसका क्या होगा? तो उसमें दो छोटे-से शब्द जोड़ दिए, कोष्ठक में रख दिए: “चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि तो (चारित्र्य धारण करके) सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।’ यह महावीर ने कहीं कहा नहीं। महावीर का वचन सिर्फ सीधा-साफ है। उन्हें कहना होता तो वे खुद ही कह देते; ये कोष्ठक वे भी लगा सकते थे।

सिज्झंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।

लेकिन दर्शन-भ्रष्ट नहीं सिद्ध होता; चरित्र-भ्रष्ट तो सिद्ध हो सकता है। अब यहां बहुत-से सवाल सोचने जैसे हैं। पहली बात: चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि! इसका अर्थ हुआ, महावीर यह स्वीकार करते हैं कि चरित्र-विहीन भी सम्यक दृष्टि हो सकता है। इसका यह अर्थ हुआ कि चारित्र्य का होना या न होना मौलिक नहीं है। चारित्र्य का होना न होना छाया की भांति है। छाया बन भी सकती है, न भी बने। क्योंकि छाया तुम पर निर्भर नहीं होती। तुम सोचते हो, तुम्हारी छाया तुम्हारा पीछा करती है–इस भूल में मत पड़ना। छाया तुम पर निर्भर नहीं होती, अन्य कारणों पर निर्भर होती है। छाया तुम्हारी नहीं है, जैसा तुम सोचते हो; सूरज पर निर्भर है। छाया में खड़े हो जाओगे तो छाया खो जायेगी। सूरज सिर पर आ जायेगा, छाया छोटी हो जायेगी। सूरज पीछे होगा, छाया आगे पड़ेगी। सूरज आगे होगा, छाया पीछे पड़ेगी। तुमने सदा यही सोचा है कि छाया मेरी…और गलत सोचा है। छाया से तुम्हारा क्या लेना-देना? अगर सूरज न होगा तो कोई छाया न होगी। छाया तुम पर निर्भर नहीं है, अन्य कारणों पर निर्भर है।

अगर तुम्हारे चारों तरफ कई प्रकाश लगा दिये जायें तो कई छायाएं एक साथ बनने लगेंगी। यहां तुम बैठे हो, अगर कोई प्रकाश नहीं तो छाया न बनेगी।

चारित्र्य मौलिक नहीं है, और-और कारणों पर निर्भर होता है; छाया की भांति है। लेकिन दर्शन मौलिक है। दृष्टि मौलिक है। वह तुम्हारी है। वह किसी सूरज पर निर्भर नहीं है। अंधेरे में भी जब सूरज नहीं होता तब भी तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे पास है। उसी दृष्टि के कारण तो तुम कहते हो, बड़ा घना अंधेरा है! अंधेरा भी तो दिखायी पड़ता है!

अंधे को अंधेरा भी दिखायी नहीं पड़ता, याद रखना! आमतौर से लोग सोचते हैं कि अंधा तो बेचारा अंधेरे में ही जीता होगा। इस भूल में मत पड़ना। किसी अंधे ने कभी अंधेरा नहीं देखा। जिसने प्रकाश ही नहीं देखा वह अंधेरा देखेगा कैसे? अंधा अंधेरे में नहीं होता। अंधे को तो पता ही नहीं है कि अंधेरा जैसी कोई चीज होती है। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। प्रकाश के लिए भी आंख, अंधेरे के लिए भी आंख…।

दृष्टि मौलिक है; किसी पर निर्भर नहीं–तुम्हारी है। और महावीर का यह बड़ा जोर है कि जो तुम्हारा है वही सत्य है; जो तुम्हारा नहीं उधार है, वह असत्य है।

चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। तो महावीर यह कह रहे हैं कि चरित्र कोई मौलिक बात नहीं है, गौण है। हो तो ठीक, न हो तो भी यह संभव है कि व्यक्ति मुक्ति को उपलब्ध हो जाये। लेकिन दर्शन-विहीन कभी मुक्ति को उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि वह मौलिक है।

अब दृष्टि की इतनी महिमा और चरित्र को ऐसा कचरे में डाल देना, महावीर करेंगे–ऐसा जैन सोच ही नहीं सकते। क्योंकि ढाई हजार साल तक धीरे-धीरे महावीर के वचन तो कम मूल्य के हो गये हैं; वे जो कोष्ठक लगे हैं, ज्यादा मूल्य के हो गए हैं। वह जो उनकी व्याख्याएं की गयी हैं, वे ज्यादा मूल्य की हो गयी हैं। अब जैन मुनि डरे होंगे कि यह तो खतरनाक वचन है। यह तो अग्नि जैसा है, जला देगा! इसमें कहीं लोग भटक न जायें! कहीं लोग यह न सोचने लगें कि चरित्र का कोई मूल्य नहीं है! क्योंकि अगर चरित्र का कोई मूल्य नहीं तो जैन मुनि का कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि वह चरित्र के ही मूल्य पर उसका सारा व्यवसाय है। तो यह कोष्ठक लगा देना जरूरी है।

यह महावीर के साथ बेईमानी है। यह महावीर के साथ बलात्कार है।

“चारित्र्य धारण करके सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं’–अगर ऐसा ही था तो कहने की जरूरत क्या है? जैसा जैन मुनि मानते हैं, अगर ऐसा ही है, अगर उनका वचन ही महावीर का ठीक-ठीक अनुवाद है–”चारित्र्य-विहीन सम्यक दृष्टि तो (चारित्र्य धारण करके) सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं’–अगर यही महावीर को कहना हो तो कहने की जरूरत क्या है? और अगर यही कहना होता तो फिर दूसरे वचन में भी उन्हें एक कोष्ठक और लगाना चाहिए था–”किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते हैं’–उसमें भी एक कोष्ठक लगा दो। “किंतु सम्यक दर्शन से रहित भी तो (सम्यक दर्शन को प्राप्त करके) सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।’ तब तो महावीर के अर्थ के सारे प्राण खो गये! फिर कहने की जरूरत क्या है? चरित्र-विहीन चरित्र पाकर सिद्धि पा लेते हैं, तो दर्शन-विहीन दर्शन पाकर सिद्धि पा लेंगे। कहने की जरूरत क्या है?

कहने का प्रयोजन साफ है। महावीर भेद करना चाहते हैं कि दर्शन को उपलब्ध व्यक्ति तो चरित्र के बिना भी मुक्ति को पा लेते हैं; लेकिन जो दर्शन को उपलब्ध नहीं है वह चरित्र पाकर भी मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो सकते।

यह इतना सीधा गणित की तरह, दो और दो चार जैसा साफ है। लेकिन बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं!

महावीर को तो दर्शन उपलब्ध हुआ। तो जिसको आत्मा मिल गयी वह छाया की फिक्र छोड़ देता है। जिसको आत्मा नहीं मिली वह छाया की ही चिंता करता है। उसे छाया ही आत्मा जैसी मालूम पड़ती है। जिसने अपने को देख लिया, फिर वह दर्पण में अपनी छवि देखने के लिए थोड़े ही बहुत आतुर होता है! जिसने अपनी आत्मा देख ली, वह दर्पण में अपनी छवि देखने के लिए कोई चिंता नहीं करता। और अगर दर्पण खो जाये तो वह पागल नहीं हो उठता कि अब मैं क्या करूं, अब अपने चेहरे को कैसे देखूंगा! जिसने आत्मा देख ली, वह चेहरे को देखने की फिक्र छोड़ देता है।

चारित्र्य तो छाया है। चारित्र्य तो दर्पण में देखा गया प्रतिबिंब है। चारित्र्य तो अपने और दूसरों के बीच संबंधों से जो दर्पण निर्मित होते हैं, उनमें देखी गयी छवि है। वह आत्मा का सीधा अनुभव नहीं है।

तुम झूठ बोले–एक तरह का चरित्र निर्मित हुआ। तुम सच बोले–दूसरे तरह का चरित्र निर्मित हुआ। लेकिन तुम किसी से बोले, झूठ या सच–दूसरे की जरूरत पड़ी! अकेले में तुम कैसे सच बोलोगे, कैसे झूठ बोलोगे? एकांत में बैठे पहाड़ पर तुम कैसे ईमानदार होओगे और कैसे बेईमान होओगे? कोई उपाय न रह जायेगा। दूसरा चाहिए!

और जिस चीज के होने में दूसरे की जरूरत पड़ती है उससे मोक्ष न हो सकेगा; क्योंकि मोक्ष का कुल अर्थ इतना ही है: अपने में पूरा हो जाना। यह तो पर-निर्भर हुआ।

महावीर कहते हैं, धिक्कार है परवशता पर! यह तो परवशता ही हुई। यह तो…दर्पण के बिना कोई उपाय न चलेगा। यह तो…अगर मुझे संत होना है तो लोगों के बीच होना चाहिए।

और मजे की बात है, जरा खयाल करना! अगर तुम्हें बड़ा संत होना हो तो लोगों को असंत होना चाहिए, तभी तुम बड़े संत हो सकोगे! अगर सभी लोग संत हों, तुम्हारा संतत्व खो जायेगा।

थोड़ी देर सोचो, कोई ऐसी दुनिया हो जहां सभी राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम हों, तो दशरथ के बेटे राम को कौन पूछेगा? यह तो पूछ इसलिए चलती है कि ये मर्यादा पुरुषोत्तम अकेले हैं। तो इनकी मर्यादा तुम्हारी अमर्यादा पर निर्भर है। साधु का साधु होना तुम्हारे असाधु होने पर निर्भर है।

अगर बहुत गहरे में देखो तो साधु मिट जायेगा, जिस दिन जगत साधु हो जायेगा। तो साधु का निहित स्वार्थ यही है कि जगत साधु न हो जाये, जगत असाधु रहे।

नेता तभी तक नेता है जब तक और लोगों को नेता होने का खयाल पैदा नहीं हुआ है। जब तक अनुयायी अनुयायी होने को राजी है, तब तक नेता, नेता है। जिस दिन अनुयायियों ने भी घोषणा कर दी कि हम भी नेता हो गए, उस दिन नेता खो जायेगा। अमीर तभी तक अमीर है, जब तक गरीब है। और तुम्हारे पास बड़ा महल तभी तक हो सकता है जब तक और लोगों के पास छोटे झोपड़े हैं। तो जैसे बड़ा महलवाला आदमी न चाहेगा कि सभी के पास बड़े महल हो जायें…।

यह तो साफ समझ में आता है, अर्थशास्त्र का सीधा नियम है, कि अमीर का मजा उसकी अमीरी में तभी तक है जब तक और लोग गरीब हैं। तुम्हारे पास एक शानदार कार है, तो उसका मजा तभी तक है जब तक दूसरे लोगों पर, राह चलते लोगों पर बरसात में तुम कीचड़ उछालते हुए कार से निकल जाते हो। अगर सभी के पास वैसी गाड़ियां हैं, बात खतम हो गयी! तुम्हारा सारा मजा इस कार में चला जायेगा। इस कार का मजा कार में न था; दूसरों के पास कार नहीं है, उसमें था। जीवन का जाल बड़ा जटिल है!

मेरे एक मित्र हैं कलकत्ते में। मैं उनके घर में कभी-कभी रुकता था। वे बिलकुल पागल थे अपने मकान के लिए। उन्होंने शानदार मकान बनाया था। कलकत्ते में उसकी कोई तुलना न थी। उन्होंने पूरे कलकत्ते को मात कर दिया था। चौबीस घंटे वे मकान के ही खयाल से भरे रहते थे…तो जब भी मैं उनके घर जाता तो मकान, मकान…यह दिखाते, वह दिखाते! नया स्विमिंग पूल बना डाला। क्या-क्या उन्होंने कर डाला है, वह दिखाते। एक बार जब मैं गया तो उन्होंने मकान की कोई बात न की। और मैं तो पहले से ही तैयार होकर आया था कि वह मकान की बात सुननी पड़ेगी। वे कुछ बोले ही नहीं मकान पर और कुछ बड़े उदास दिखे, उत्साह भी कुछ ढीला मालूम पड़ा, कुछ सुस्त से मालूम पड़े। सांझ होतेऱ्होते मैंने पूछा, “मामला क्या है? मकान का क्या हुआ?’ उन्होंने कहा, “वह बात ही मत उठाओ!’ मैंने कहा, “कुछ तो बात होगी। तुम उदास भी हो। वह सदा की प्रफुल्लता, मकान की चर्चा, कुछ नया किया, कुछ नया बनाया–वह सब हुआ क्या?’ वे मुझे हाथ पकड़कर बाहर लाए पड़ोस में, कहा कि वह देखो! एक आदमी ने उनसे बड़ा मकान बना लिया! वे बोले, जब तक इसको मात न कर दूं, तब तक अब क्या बात करना! मन बड़ा दुखी रहने लगा। अभी सुविधा भी नहीं है कि इतना ऊंचा उठा लूं। मात हो गया हूं!

मैंने कहा कि तुम्हारा मकान वैसा का वैसा है। इस पर किसी ने छुआ भी नहीं है। कुछ घटा नहीं, कुछ बिगड़ा नहीं; सब सुंदर है। लेकिन पास के आकाश में एक नया मकान खड़ा हो गया! किसी ने तुम्हारी लकीर के पास बड़ी लकीर खींच दी–तुम्हारी लकीर को छुआ भी नहीं है, तुम अचानक छोटे हो गये!

तो मैंने उनसे कहा, अब तुम यह तो सोचो, तो यह मजा तुम जो अपने मकान में ले रहे थे, अपने मकान का मजा न था; वह जो झोपड़े पास में थे, उनका मजा था। तो तुम्हारी अमीरी किसी के गरीब होने में निर्भर है।

और वही बात तुम्हारे साधु के संबंध में भी सच है। अगर दुनिया से असाधु खो जाये तो तुम्हारा साधु…फिर कौन उसे मंदिरों में विराजमान करेगा? कौन उसके सामने पूजा के थाल सजायेगा? कौन अर्चना के दीप उतारेगा? वह खो जायेगा। इसलिए साधु कहता तो यही है तुमसे कि सब साधु बनो; लेकिन उसकी अंतर्तम की प्रार्थना यही होती है कि हे प्रभु, इन सबको साधु मत बना देना! उसकी हालत, जिसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं “पेराडाक्सिकल इंटेशन’, विरोधाभासी आकांक्षा की है।

जैसे चिकित्सक के पास तुम जाते हो…तुमने कभी खयाल किया? अगर तुम्हारी जेबें भरी हों तो बीमारी के ठीक होने में ज्यादा देर लगती है। इस अर्थ में गरीब आदमी सौभाग्यशाली है। अगर तुम बहुत अमीर हो और एक दफे बीमार पड़ गए, तो पड़ गए, अब तुम ठीक न हो सकोगे। क्योंकि चिकित्सक की विरोधाभासी आकांक्षा है। वह तुम्हारी बीमारी पर जीता है और तुम्हें स्वस्थ करने का आयोजन कर रहा है। उसका सारा जीवन तुम बीमार रहो, इस पर निर्भर है। और उसकी सारी चेष्टा इस पर निर्भर है कि तुम ठीक हो जाओ। यह विरोधाभासी बात है।

मैंने सुना है, एक डाक्टर का बेटा कालेज से वापिस लौटा डाक्टर होकर। तो बाप बहुत दिन का थका था और विश्राम न लिया था, तो उसने कहा, “मैं सात दिन के लिए छुट्टी पर चला जाऊं, पहाड़ चला जाऊं। अब तू घर आ गया है, तू सम्हाल ले।’ सात दिन बाद जब बाप लौटा तो बेटे ने उसे बड़ी खुशी से दरवाजे पर कहा कि पिताजी, जिस सेठानी को आप बीस साल में ठीक न कर पाए उसे मैंने पांच दिन में ठीक कर दिया! बाप ने सिर ठोक लिया और उसने कहा, “नासमझ! उसी की वजह से तू कालेज में पढ़ सका और उसी पर आशा थी कि और बच्चे भी पढ़ लेंगे! उसे ठीक करना ही नहीं था। यह तूने क्या किया? तूने सारा खेल खराब कर दिया!’

चिकित्सक दिखाता है तुम्हें ठीक करने की चेष्टा। शायद खुद भी मानता है कि तुम्हें ठीक करना चाहता है। शायद खुद के चेतन में कहीं कोई बात भी नहीं है; तुम्हें ठीक ही करने का आयोजन करता है। लेकिन अंतस-चेतन में, गहरे अनकांशस में…अगर उसके हम अंतस-चेतन को खोल सकें तो कहीं तो यह बात छिपी होगी कि लोग बीमार रहें, बीमार रहें तो ही तो वह जी सकता है।

एक रात एक मधुशाला में बड़ा उत्सव रहा। एक आदमी पहली दफे अपने मित्रों को लेकर आया था और उसने खूब रुपये उछाले, खूब पीया-पिलवाया! मधुशाला का मालिक भी चकित हो गया! ऐसा दिलदार उसने कभी देखा न था! और जब आधी रात वे जाने लगे, हजारों रुपये लुटाकर, तो उसने अपनी पत्नी से कहा कि ऐसे ग्राहक रोज आते रहें तो कुछ ही दिनों में हम मालामाल हो जायेंगे। चलते-चलते उसने अपने इस ग्राहक को कहा कि कभी-कभी आया करें। उस ग्राहक ने कहा, “प्रार्थना करो हमारे लिए कि हमारा धंधा ठीक चलता रहे तो हम आते रहें।’ उसने कहा, “जरूर प्रार्थना करेंगे, क्यों न प्रार्थना करेंगे! रोज यही प्रार्थना करेंगे कि तुम्हारा धंधा…लेकिन यह तो बताओ तुम्हारा धंधा क्या है?’ उसने कहा, अब यह मत पूछो, अन्यथा तुम प्रार्थना न कर पाओगे। मैं मरघट पर लकड़ियां बेचता हूं। लोग मरते रहें, लकड़ियां बिकती रहें, तो मैं आता रहूं। मेरा धंधा चले…।

अब कुछ हैं जो मरघट पर लकड़ियां बेचते हैं, उनका धंधा ही यही है कि लोग मरें।

एक गांव में एक नया-नया इंस्पेक्टर आया। वह दिनभर बैठा रहा। कपड़े-लत्ते सजाकर, बैल्ट इत्यादि, जूते इत्यादि बांधकर दिनभर बैठा रहा। बार-बार चौंककर देखे; लेकिन कोई घटना ही न घटी दिनभर। न कोई चोरी हुई न कोई डाका पड़ा, न कहीं कोई हत्या हुई, न किसी ने आत्महत्या की, न कोई दंगा-फसाद हुआ, न कोई हिंदू-मुसलमान मरे, कुछ भी न हुआ। वह जरा उदास होने लगा। सांझ होने लगी तो उसका चेहरा एकदम फीका पड़ने लगा।

उसके मुंशी ने कहा, “आप घबड़ाओ मत! मुझे मनुष्य के स्वभाव पर पूरा भरोसा है। ठहरो, कुछ न कुछ होकर रहेगा। अभी रात पड़ी है। तुम इतने उदास क्यों हुए जा रहे हो?’

अब वह जो चोर को पकड़ने पर जीता है, वह पकड़ता चोर को है, लेकिन प्रतीक्षा करता है कहीं चोरी हो! वह जो न्यायाधीश है, वह सजा देता है हत्यारों को, लेकिन उसका सारा होना उन्हीं के होने पर निर्भर है। उन्हीं की साझेदारी में वह न्यायाधीश है। जीवन के इस व्यंग्य को समझना।

साधु तुमसे कहे चला जाता है कि क्या तुम असाधु बने हो, बनो साधु! बनना भर मत, अन्यथा वह नाराज हो जाएगा। एक साधु दूसरे साधु से प्रसन्न थोड़े ही है! एक साधु दूसरे साधु से बड़ा अप्रसन्न है। तुम असाधु हो, इससे वह खुश है। उसकी साधुता, उसका ऊंचा सिंहासन तुम्हारी छाती पर लगा है। अगर वास्तविक रूप से किसी दिन दुनिया धार्मिक हो जायेगी तो न असाधु रह जाएंगे, न साधु रह जाएंगे।

साधु का सारा बल इसमें है कि उनके पास चरित्र है और तुम्हारे पास नहीं है। उसने कुछ करके दिखा दिया है जो तुम नहीं कर पाए; भला वह करना बिलकुल मूढ़तापूर्ण है। भला वह इस तरह का मूढ़तापूर्ण हो कि एक आदमी रास्ते पर शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाता है। अब इसमें कुछ गुण नहीं है, लेकिन भीड़ लग जायेगी। लोग पैसे भी चढ़ाने लगेंगे। क्योंकि तुम शीर्षासन लगाकर घंटों नहीं खड़े रह सकते। बस इतना काफी है। कोई आदमी छत्तीस घंटे साइकिल पर चढ़ा हुआ चक्कर लगाता रहता है। उसको भी पैसे मिल जाते हैं, उसके भी अखबार में फोटो छप जाते हैं। कुछ अर्थ नहीं है। छत्तीस घंटे या छत्तीस जन्म भी साइकिल पर चढ़े रहो–क्या सार है? लेकिन जो दूसरे नहीं कर सकते, वह किसी ने कर दिया–बस काफी है, उसका सम्मान होना शुरू हो जाता है।

तुम्हारे साधुओं के सम्मान में तुमने देखा!

किसी ने तीन महीने का उपवास किया–बस तुम सम्मान से भर गए! यह तीन महीने साइकिल पर सवार रहने से ज्यादा भिन्न बात नहीं है। या किसी ने अपने शरीर को सुखाकर हड्डियां कर लिया–तुम प्रभावित हो गये! या किसी ने अपने बाल-बच्चों को, घर-गृहस्थी को, सबको छोड़कर, उजाड़कर जंगल में खड़ा हो गया–बस तुम चले पूजा के फूल लेकर! यह तुम नहीं कर पाते हो, तो तुम सोचते हो, तुम कमजोर हो और इस आदमी ने कर लिया!

अभी अमरीका में अपराधियों और अपराधियों से जूझ जानेवाले लोगों के संबंध में मनोवैज्ञानिक अध्ययन चलता है। बड़े हैरानी के नतीजे हाथ में आये हैं। अकसर तुमने देखा होगा कि कोई आदमी डूब रहा है या किसी घर में आग लग गयी है कोई बच्चा अंदर छूट गया है, तो हजारों की भीड़ लगी रहती है, हजारों लोग खड़े रहते हैं; कोई एकाध ही होता है जो उछलकर और मकान में दौड़ जाता है, आग का खतरा है, खुद की जान खतरे में डालता है, बच्चे को निकाल लाता है। अखबारों में खबर छपेगी, सत्कार होगा, स्वागत होगा! लोग कहेंगे, बहुत बहादुर है! बहुत गजब का आदमी है! साधु-चरित्र है! दयावान है! करुणावान है!

कोई नदी में डूब रहा है, कोई बचा लेता है। या रास्ते पर किसी आदमी ने किसी दूसरे पर हमला किया; अनेक लोग गुजर जाते हैं, लेकिन एक आदमी बीच में कूद पड़ता है और हमलावर को पकड़ लेता है या पुलिस को पकड़ा देता है या हमलावर को काबू में कर लेता है या हत्यारे को पकड़ लेता है–अपनी जान जोखिम में डालकर। तो अमरीका में एक अध्ययन किया जा रहा है कि ये किस तरह के लोग हैं जो इस तरह का काम करते हैं। और एक बड़ी हैरानी का नतीजा आया और वह यह कि ये उसी तरह के लोग हैं जिस तरह के लोगों को ये पकड़ते हैं। ये साधु-चरित्र लोग नहीं हैं।

जो आदमी, दो आदमी लड़ रहे हैं इनके बीच में कूद पड़ता है, यह क्रोधी आदमी है, यह खुद भी हत्या कर सकता है। वही हत्या की जो वृत्ति है, वही इसे बीच में कुदा देती है। यह कोई साधुता के कारण बीच में नहीं कूदता। यह कोई दया के कारण नहीं कूदता। और एक बड़े मजे की बात समझ में आयी है और वह यह, कि इसको इससे मतलब नहीं होता कि वह जो आदमी पिट रहा है उसको बचाये; इसको मतलब होता है, जो पीट रहा है उसको पीटे। इसकी जो एम्फेसिस है, इसका जो जोर है, वह इस पर नहीं रहता कि जो पिट रहा है उसको बचाए। उसके प्रति तो इसके मन में भी यह है कि यह तो गया-गुजरा आदमी है, यह कोई मतलब का आदमी है! यह तो जो पीट रहा है उसके पीट के दिखा दे, उस चेष्टा में रहता है।

एक आदमी ने कार का धक्का मारा एक स्त्री को शिकागो में। वह बूढ़ी औरत गिर पड़ी। और दूसरा आदमी जो मोटर साइकल पर चढ़ने के लिए तैयार ही था, उसने उस कार का पीछा किया। कोई दस मील की दौड़-धूप के बाद उसने उस आदमी को पकड़ लिया। और पकड़ने के लिए उसको गोली चलानी पड़ी और दूसरे आदमी के कार के टायर छेद डालने पड़े गोली से, तब वह पकड़ पाया। इस बीच वह महिला मर गयी। उससे जब पूछा गया कि जब यह महिला गिरी तो तेरे सामने दो विकल्प थे कि या तो तू इस महिला को उठाकर अस्पताल में पहुंचाता तो शायद यह बच जाती; लेकिन तूने उसकी तो फिकर ही न की, तू जान जोखिम में लगाकर इस आदमी के पीछे पड़ गया और इस आदमी को तूने पकड़ा दिया।

ऐसे बहुत-से अध्ययन किए गए और पाया गया कि जब दो आदमी लड़ रहे हों तो जो आदमी कूद पड़ता है उसको पिटनेवाले से कोई सहानुभूति नहीं होती; उसको पीटनेवाले सेर् ईष्या होती है। वह उसे कुछ करके दिखा देना चाहता है। वह यह कह रहा है कि मेरे रहते कौन किसको पीट रहा है! वह जो आदमी आग जलते मकान में कूद पड़ता है, उसको शायद आग में पड़े हुए बच्चे से कुछ लेना-देना नहीं होता; लेकिन यह उसके अहंकार के लिए बर्दाश्त के बाहर है कि कोई और कूद जाये। और कई बार ऐसा हुआ है कि दो आदमी एक साथ कूद गये और जो बच्चे को बचाकर ले आया और दूसरा खाली हाथ लौटा, तो उसकी निराशा देखो! बच्चे के बचने से कोई प्रयोजन नहीं है–कौन बचा लाया! किसने अपने अहंकार को तृप्त कर लिया! आदमी बड़ा उलझा हुआ है!

तो जैन साधु, जो व्याख्या कर रहे हैं, उस व्याख्या में महावीर से प्रयोजन नहीं है। उस व्याख्या में स्वयं को और स्वयं के पूरे व्यवसाय को बचा लेने की आकांक्षा है।

ये कोष्ठक बहुत खतरनाक हैं। महावीर का वचन सीधा है: सिज्झंति चरियभट्ठा। चरित्र-विहीन सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। सिद्धि का कोई संबंध चरित्र-भ्रष्ट होने या चरित्रवान होने से नहीं है। सिद्धि का संबंध दर्शन की शुद्धि से है; दृष्टि की सुघड़ता से है; दृष्टि की निर्मलता से है।

अब महावीर का यह वचन यह भी कहता है कि चरित्रहीन भी सम्यक दृष्टि हो सकता है, और चरित्रवान भी दृष्टि-विहीन हो सकता है।

शुभ होगा अगर तुम चरित्रवान और दृष्टिवान दोनों होओ। यह तो अच्छा ही होगा। यह तो सोने में सुगंध हो जायेगी कि तुम्हारे पास दृष्टि भी है और आचरण भी।

और अकसर तो दृष्टि होती है तो आचरण होता ही है; आ ही जाता है; लाना नहीं पड़ता।

लेकिन फिर महावीर ऐसा क्यों कहते हैं कि चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि भी पहुंच सकता है? वे यह कह रहे हैं कि बहुत बार ऐसा होता है कि जो तुम्हारा चरित्र है, वह दूसरों को चरित्र न मालूम पड़े; क्योंकि दूसरों की धारणाएं अनिवार्य रूप से, दर्शन से जो चरित्र पैदा होता है, उससे मेल खाएं न खाएं। इसे समझना। जिसके पास दृष्टि है, वह दीवाल से क्यों निकलने की कोशिश करेगा? वह तो दरवाजे से निकलेगा ही। लेकिन यह हो सकता है कि उसे जो दरवाजा मालूम होता है वह तुम्हें दरवाजा न मालूम होता हो, देखनेवालों को न मालूम होता हो।

महावीर जब नग्न खड़े हो गये, तो अनेकों को लगा, यह तो बात अनैतिक है, यह तो चरित्रहीनता है। तुम यह मत सोचना कि आज जब रास्ते पर कोई आदमी नग्न खड़ा हो जाता है तो तुम सोचते हो चरित्रहीनता है; उस दिन भी यही लोगों ने सोचा था। लोग वही के वही हैं। लोग वैसे के वैसे हैं। महावीर को मारा-पीटा, गांवों से निकाल दिया, गांवों में ठहरने न दिया, वर्षों उनको जंगलों में बिताने पड़े। नग्नता बड़ी बेचैन करनेवाली बात थी। जब कोई आदमी समाज में नग्न खड़ा हो जाता है तो सभी कपड़े पहननेवाले लोगों को कष्ट होता है। क्योंकि वह आदमी नग्न होकर किसी गहरे अर्थ में तुमको भी नग्न कर देता है। जब एक आदमी नग्न खड़ा हो जाता है तो तुमने जो-जो छिपा रखा है वस्त्रों में वह सब उसने उघाड़ दिया है। तुम भी उसी जैसे हो, थोड़े-बहुत विस्तार के फर्क होंगे। कोई ज्यादा फर्क तो है नहीं। वही सब तुम भी हो, जो वह आदमी है। उसे नंगा देखकर तुम भी नग्न हो जाते हो; तुम्हारे वस्त्रों का उसने सारा अर्थ गंवा दिया। तुम अपने को छिपाकर चल रहे थे। अगर तुम अपने को खुद ही कहीं नग्न पा लो तो पहचान न सकोगे बिना कपड़ों के।

दो छोटे बच्चे एक नग्न क्लब के पास से गुजरते थे और दीवाल में से पानी निकलने के छेद में से उन्होंने अंदर देखा। छोटे बच्चे, स्कूल से लौटते हुए! जब एक देख चुका तो दूसरा जो खड़ा था और देखने की प्रतीक्षा कर रहा था कि तुम हटो तो मैं देखूं, उसने पूछा, “कौन है अंदर?’ उसने कहा, “कहना मुश्किल है। सब बिना वस्त्र के हैं।’ उसने पहले ने पूछा, “स्त्रियां हैं कि पुरुष?’ उसने कहा, “अब कैसे बताऊं? कोई वस्त्र पहने ही हुए नहीं है।’

हमारा तो स्त्री-पुरुष का भेद भी करीब-करीब वस्त्र में है। छोटे बच्चों को तो स्त्री-पुरुष में यही भेद दिखाई पड़ता है कि अलग-अलग पकड़े पहने हुए हैं। गरीब-अमीर का भेद भी वस्त्रों में है। तुम जरा देखो! एक मजिस्ट्रेट को और चोर को दोनों को नग्न खड़ा कर दो–फिर कौन मजिस्ट्रेट है, कौन चोर है? मुश्किल हो जायेगी। वह तो सारा भेद वस्त्रों का है। इसलिए पुराने दिनों से मजिस्ट्रेट को खास ढंग से विग पहनाया जाता है। वह न केवल वस्त्रों से काम चलता है, वह सिर पर बालों का एक विग भी लगा ले, ताकि आदमीयत बिलकुल खो जाये, कुछ पता न चले। वकील काले चोगे में खड़े हो जाते हैं। विश्वविद्यालयों में दीक्षांत समारोह होते हैं और बड़े-बूढ़े भी बचकानी हरकतें करते हैं; चोगे पहन लेते हैं, उनमें खड़े हो जाते हैं। लेकिन वही भेद है, नहीं तो उपकुलपति कुलपति कौन; चांसलर, वाइसचांसलर कौन? मुश्किल हो जायेगा पहचान करना। इसलिए हम कपड़ों पर बड़ी जिद्द करते हैं।

अगर कोई आदमी रास्ते पर पुलिसवाले के कपड़े पहनकर निकल पड़े तो फौरन पकड़ लेंगे उसको कि यह तुम क्या कर रहे हो, क्योंकि इससे फर्क कम हो जाता है। तुमने कभी पुलिसवाले को वर्दी के बिना देखा? लज्जत ही खो जाती है, शान ही चली जाती है! वही आदमी जब अपनी वर्दी में खड़ा होता है, तब देखो। तब एक शान आ जाती है!

“कर्नल राज’ वहां बैठे हुए हैं, सिर छिपाए हुए हैं! उनको संन्यासी के वेश में देखो और जब वह मेजर, कर्नल के वेश में होते हैं, तब देखो! तब बात ही और बदल जाती है!

आदमी चलता और ढंग से है जब कपड़े कर्नल के होते हैं। उसके पैरों की आवाज, उसके जूतों की चरमराहट, उसके कपड़ों की शिकन, सब बदल जाती है। आदमी का थोड़ा हमें हिसाब है, हमें हिसाब तो कपड़ों के हैं।

कहते हैं गालिब को बहादुरशाह ने निमंत्रित किया था भोजन के लिए! वह गरीब आदमी था, अपने साधारण कपड़ों को पहने चला गया। मित्रों ने कहा भी कि इन कपड़ों में तुम्हें कोई दरबार में प्रवेश न करने देगा। पर उसने कहा कि निमंत्रण मुझे मिला है कि कपड़ों को?…जिद्दी! नहीं माना, गया। जब द्वारपाल को जाकर उसने कहा कि मुझे भीतर जाने दो, तो द्वारपाल ने धक्का देकर उसे हटा दिया। उसने कहा कि “भिखमंगों के लिए राजमहल में निमंत्रण!… दिमाग खराब हो गया है?’ उसको तो भरोसा ही नहीं आया कि यह दर्ुव्यवहार…! उसने खीसे से निमंत्रण-पत्र निकालकर दिखाया तो उसने झपट्टा मारकर वह भी छुड़ा लिया। उसने कहा, “किसी का चुराया होगा! किसका उठा लिया?’

वह बेचारा गालिब घबड़ाया, घर वापिस लौट आया। मित्रों ने कहा, “हमने पहले कहा था, हम जानते थे। हम कपड़े ले आये हैं।’ तो उन्होंने अचकन वगैरह पहना दी। ठीक-ठाक कपड़े पहना दिए, जूते नये पहना दिए। और जब यह आदमी वापस गया तो वही द्वारपाल झुककर नमस्कार किया कि आइये! तुम हंसना मत द्वारपाल पर, तुम भी होते तो यही करते। फिर जब भोजन के लिए बैठे तो बहादुरशाह ने…तो गालिब का बड़ा सम्मान था उसके मन में। वह भी कवि था, बहादुरशाह भी कवि था। और गालिब की कविता का तो क्या कहना! वैसे उस्ताद तो बहुत कम हुए हैं! तो उसने तो अपने पास ही बिठाया। और जब गालिब भोजन करने लगा तो उसने पहले उठायी मिठाई, अपने कोट को कहा कि ले खा, टोपी को लगाया कि ले खा! तो बहादुरशाह को कुछ लगा कि कवि पागल होते हैं, यह तो ठीक है; लेकिन इतने होते हैं, यह नहीं सोचा था। उसने कहा, “क्षमा करें! आप यह क्या कर रहे हैं? यह कौन-सी शैली है भोजन करने की?’ गालिब ने कहा, “मैं तो पहले भी आया था। मैं तो लौटा दिया गया, मैं फिर आया ही नहीं। ये तो अब वस्त्र आए हैं। यह भोजन इन्हीं के लिए है। इन्हीं को प्रवेश मिला है, मुझे तो प्रवेश नहीं मिला। मैं तो बाहर से ही लौट गया हूं। वह तो पहरेदार ने धक्का दे दिया। तो जिनकी वजह से मैं भी पीछे-पीछे चला आया हूं, क्योंकि मजबूरी थी, मेरे बिना ये वस्त्र कैसे आते, ये मेरे बिना आते ही नहीं और इनके बिना मैं नहीं आ सकता था, तो जिनके कारण मैं आ गया हूं छाया की तरह, उनको तो पहले भोजन करा दूं।’

महावीर जब नग्न खड़े हो गए तो उन्होंने तुम सबको नग्न कर दिया; उन्होंने सबके वस्त्र उघाड़ दिए। बड़ी अनैतिकता मालूम पड़ी लोगों को: यह आदमी तो खतरनाक है! इसको कौन चरित्रवान कहेगा? यह कैसी मर्यादा? यह तो मर्यादा छोड़ना है, यह तो स्वच्छंदता है।

इसलिए महावीर कहते हैं कि सम्यक दृष्टि तो अनिवार्यरूपेण आचरणवाला होता है, लेकिन उसका आचरण समाज की तथाकथित धारणा से मेल खाए न खाए। इसलिए वे कहते हैं, कि अगर न भी मेल खाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

सिज्झंति चरियभट्ठा। वह जिसको लोग सोचते हैं चरित्र-भ्रष्ट, वह भी केवल दर्शन के सहारे मुक्त हो जाता है, सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है। किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते।

इसलिए जो पाना है, जो खोजना है, वह दृष्टि है, वह देखने का ढंग है; वह साफ-सुथरी आंख है; वह निर्मल भाव-दशा है। आंख पर कोई विचार न रह जाये। आंख पर कोई धारणा न रह जाये। आंख पर कोई पक्षपात न रह जाये। आंख ऐसी निर्मल हो, पारदर्शी हो कि जो है, जैसा है, वैसा दिखाई पड़ने लगे–बस पर्याप्त है। उसके पीछे ज्ञान अपने से आ जाता है, चारित्र्य अपने से आ जाता है। लेकिन यह चारित्र्य जरूरी नहीं है कि समाज की सम्मत मान्यताओं के अनुकूल हो। यह तुम्हारी दृष्टि के अनुकूल होगा। लेकिन जिसके पास दृष्टि है वह चिंता भी नहीं करता कि उसके चरित्र को आदर मिलता है या नहीं। जिसके पास दृष्टि है वह तुम्हारे मत का कोई विचार नहीं रखता कि तुम क्या सोचते हो। तुम्हारे सोचने पर, तुम्हारी धारणाओं पर, तुम्हारी प्रशंसा और निंदा पर उसके चरित्र के आधार नहीं होते। उसके चरित्र के आधार अपनी अंतर्दृष्टि पर होते हैं। अगर वह अकेला भी है और सारा संसार भी उससे भिन्न सोचता है तो भी वह मस्त है।

“अर्श’ सुनता नहीं किसी की बात

हाल में अपने मस्त है शायद।

–वह अपनी मस्ती में होता है। वह उन्मत्त होता है अपने आनंद में।

“अर्श’ सुनता नहीं किसी की बात

हाल में अपने मस्त है शायद।

तो महावीर कोई चिंता नहीं करते कि तुम किसे आचरण कहते हो। महावीर को जो आचरण दिखाई पड़ता है, वह घटता है। और ऐसे बलशाली पुरुष ही, आचरण के नये मापदंड, नये प्रतिमान दे जाते हैं। ऐसे बलशाली पुरुष ही, ऐसे महावीर ही आचरण की नयी-नयी सूझें, नये-नये आकाश खोल जाते हैं। तो नग्नता को भी आचरण दे दिया। नग्नता महावीर के साथ जुड़कर निर्दोष हो गयी। लोग वस्त्रों में भी इतने सुंदर नहीं हैं, जितने महावीर अपनी नग्नता में सुंदर थे। लोग वस्त्रों में छिपकर भी, वस्त्रों में ढंके हुए भी इतने सुगंधपूर्ण नहीं हैं, जितने महावीर अपनी नग्नता में थे। महावीर की नग्नता शुद्ध निर्दोष बालपन हो गयी, छोटे बच्चे की नग्नता हो गयी।

महावीर इस जगत में नग्नता के निर्दोष होने के पहले प्रमाण हैं, तुम्हारे साथ तो वस्त्र भी गंदे हो जाते हैं; महावीर के साथ तो नग्नता भी पवित्र हो गयी। ऐसे वीर पुरुष ही जीवन को नये प्रतिमान, नयी गतियां, नये आयाम, नये क्षितिज, नये आकाश देते हैं। इसलिए धार्मिक व्यक्ति अनिवार्यरूपेण विद्रोही होता है–होगा ही। क्योंकि तुम्हारी पिटी-पिटायी, सड़ी-सड़ायी धारणाएं हैं। तुम रखो अपने पास! वह तुम्हारी धारणाओं के अनुकूल अपने को ढांचे में नहीं ढालता। वह तो अपनी दृष्टि के अनुकूल जीता है। अगर तुम्हारी मर्जी हो तो अपनी धारणाओं को बदल लेना, लेकिन तुम धार्मिक व्यक्ति को नहीं बदल सकते। धार्मिक व्यक्ति के साथ तुम संसर्ग में आए तो या तो तुम बदलोगे या तुम दुश्मन हो जाओगे, लेकिन धार्मिक व्यक्ति नहीं बदलता। कोई उपाय नहीं। इसलिए नहीं कि धार्मिक व्यक्ति जिद्दी होता है; इसलिए नहीं कि हठाग्रही होता है–बल्कि इसलिए कि उसकी दृष्टि उसे जहां दरवाजा दिखाती है वहीं जाता है। तुम जहां दरवाजा बताते हो वहां उसे दीवाल दिखाई पड़ती है। वह अंधों की बात नहीं मानता तो कुछ आश्चर्य तो नहीं। इसमें जिद्द क्या है? अगर अंधों की एक भीड़ हो और आंखवाला आदमी हो और अंधों की भीड़ कहे, तुम गलत चल रहे हो…।

मैंने सुना है, एच. जी. वेल्स की एक कहानी है कि मैक्सिको में एक छोटी-सी घाटी है जहां सभी अंधे हैं। क्योंकि वहां के पानी में और भूमि में कुछ ऐसे तत्व हैं कि बच्चे पैदा होते हैं और पैदा होते से ही महीने दो महीने के भीतर उनकी आंखों की ज्योति चली जाती है। एक आदमी, आंखवाला, उस घाटी में पहुंच गया। वह तो चकित हुआ। वह तो विश्वास न कर सका कि कोई सैकड़ों आदमी अंधे हैं, एक भी आंखवाला नहीं। उसे बड़ा उनसे प्रेम हो गया। वह उनके बीच रहने भी लगा। वह एक युवती के प्रेम में पड़ गया। अब तक तो बात ठीक थी कि वह अजनबी था और उलटी-सीधी बातें करता था–ऐसा अंधे सोचते थे–आंख की, रंग की, रोशनी की, इंद्रधनुषों की, फूलों की, हरियालों की…! और जब भी अंधे उससे पूछते तो कुछ समझा तो नहीं पाता। अंधे पूछते कि दिखाओ, “हरियाली कैसी है? समझाओ, हरियाली कैसी है?’ तो क्या समझाता! “समझाओ इंद्रधनुष, किसकी बात कर रहे हो तुम, कहां है? हम छूकर देखना चाहते हैं!’ वृक्षों को छू भी लेते तो हरियाली तो छूने से हाथ में समझ में नहीं आती। तो वे हंसते। वे कहते, कोई पागल आ गया है। स्वभावतः भीड़ उनकी थी। लोकतांत्रिक दृष्टि से वही सही थे। संख्या उनकी थी। यह अकेला था, वे सब थे। अब तक तो कोई बात न थी, लेकिन जब वह एक लड़की के प्रेम में पड़ गया तो जरा उस वादी के लोग हैरान हुए। उन्होंने कहा, अब जरा मुश्किल है। अगर यह आदमी विवाह करना चाहता है तो इसे हमारे जीवन के रीति-नियम स्वीकार करने होंगे। और पहला रीति-नियम यह है कि हम आंखों को नहीं मानते और हम मानते हैं कि आंखें सब झूठ हैं। तो इसको इस झूठ का खयाल छोड़ना पड़ेगा। इसको यह खयाल छोड़ना पड़ेगा कि यह आंखवाला है। और जो उसमें बहुत उत्साही थे, उन्होंने कहा कि इसकी आंख का आपरेशन कर दें। यह जहां बताता है, आंखें हैं, उनको निकालकर अलग कर दें; ठीक हम जैसा हो जायेगा।

बड़ी मुश्किल में पड़ गया वह आंखवाला आदमी। युवती से प्रेम भी था तो आधा मन वहां खिंचा। फिर आंखें खो देना और आंखों के साथ सारा रंग, सूरज के सारे खेल, चांदत्तारों की पूरी दुनिया–यह दांव बड़ा था। एक रात वह भाग खड़ा हुआ। दूसरे दिन सुबह वह उसकी आंख की शल्यक्रिया करनेवाले थे। वह वहां से भाग निकला क्योंकि यह बड़ी कीमत हो जायेगी। प्रेम तो फिर भी हो सकता है; आंख फिर कहां से लाऊंगा? और एक बार अंधा हो गया तो सदा के लिए अंधा हो गया। और इस सृष्टि को जिसने एक बार आंख से देख लिया, फिर बिना आंख के बहुत फीकी हो जायेगी; फिर जीने जैसी न रह जायेगी। वस्तुतः सचाई तो यह थी कि उस स्त्री के प्रेम में भी वह आंखों के कारण पड़ा था। वह उसका रूप, उसका रंग, उसके नक्श उसे भा गये थे। तो जिन आंखों के कारण वह स्त्री को खोज पाया था, उन्हीं आंखों को गंवा दे, यह उसकी समझ में न आया। वह भाग खड़ा हुआ।

महावीर जैसे व्यक्ति अंधों की बस्ती में पड़ जाते हैं। लेकिन आंखों की शल्यक्रिया करवाने को वे राजी न होंगे।

इसलिए महावीर कहते हैं, “चरित्र-विहीन सम्यक दृष्टि तो सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, किंतु सम्यक दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाते।’

जरा अपनी तरफ गौर करो, कैसी तुम्हारी हालत है!

वाए, दीवानगिए-शौक कि हरदम मुझको

आप जाना उधर और आप ही हैरां होना।

–हाय रे आकांक्षाओं का चक्कर कि अपने-आप उधर जाता हूं और अपने-आप भ्रमों को खड़ा कर लेता हूं! अपने-आप जाता हूं उधर और अपने-आप भटकता हूं!

और हर बार तय कर लेते हो तुम कि अब न करेंगे यह भूल, लेकिन वह तय किया काम नहीं आता। क्योंकि दृष्टि तो पास नहीं। भूल, भूल दिखायी कहां पड़ती है? कहते हो कि क्रोध अब न करेंगे। कहते हो कि क्रोध जलाता है। कहते हो कि क्रोध जहर है, लेकिन ये शब्द उधार हैं। ये सब शास्त्र से सुने हैं। ये किन्हीं जाननेवालों ने कहे होंगे, लेकिन यह तुमने जाना नहीं है। क्योंकि तुम जान लो तो जैसे आग में कोई जल जाये, तो दुबारा हाथ नहीं डालता–ऐसे ही तुम दुबारा क्रोध न करते। लेकिन तुम दुबारा फिर क्रोध करते हो।

वाए, दीवानगिए-शौक कि हरदम मुझको

आप जाना उधर और आप ही हैरां होना।

अजीब चक्कर है! लेकिन अगर समझो तो एक सूत्र है जिससे सारी बात साफ हो जाती है: तुम कान से जीये हो अब तक, आंख से नहीं जीये। “कानों सुनी सो झूठ सब।’ कान से सत्य मिलता ही नहीं–आंख से मिलता है। इसलिए तो हमने सत्य की खोज को दर्शन कहा है। वह आंख की खोज है। इसलिए तो जिन्होंने खोज लिया है उनको हमने द्रष्टा कहा है: आंख मिल गयी! अगर कान से मिलता होता सत्य तो हम दर्शन न कहते, श्रवण कहते। अगर कान से मिलता होता सत्य तो जो पा लेते उनको हम श्रोता कहते, द्रष्टा न कहते। सत्य का कुछ संबंध साक्षात्कार से है। कान को तो धोखे दिये जा सकते हैं, आंख को धोखे नहीं दिये जा सकते। और जिस आंख की हम बात कर रहे हैं वह इन बाहर की आंखों की ही बात नहीं, भीतर की आंख की बात है। वहां एक जागरूकता का पुंज चाहिए–ऐसा सघनीभूत कि उस सघनीभूत जागरूकता से तुम्हें दिखायी पड़ने लगे। वह तुम्हारे भीतर की रोशनी बन जाये!

नत्थि जागरतो भयम्!–बुद्ध ने धम्मपद में कहा है, जागे हुए को भय नहीं। सब भय सोये हुए को है।

ऋग्वेद में एक बड़ा बहुमूल्य सूत्र है: भूत्यै जागरणम्। अभूत्यै स्वप्नम्। जागने से उन्नति; सोने से, स्वप्न से अवनति!

जिसको महावीर सम्यक दृष्टि कहते हैं उसका अर्थ है: जागा हुआ, देखता हुआ, आंखवाला। तुम जीवन को देखने में लगो। शास्त्रों के पढ़ने से यह न होगा; तुम जीवन के शास्त्र को देखने में लगो। जीवन में जो भी है उसके संबंध में धारणाएं मत बनाओ; पहचान बनाओ। क्रोध है तो क्रोध को देखो। घृणा है तो घृणा को देखो। प्रेम है तो प्रेम को देखो। मोह है तो मोह को देखो। लोभ है तो लोभ को देखो। जल्दबाजी में मत पड़ो।

चरित्र की चेष्टा करनेवाला बड़ा जल्दबाज है। वह लोभ को देखता ही नहीं और अलोभ को साधने लगता है। यही फर्क है। वह क्रोध को देखता ही नहीं, अक्रोध की आकांक्षा में संलग्न हो जाता है। कामवासना में आंख नहीं डालता, और ब्रह्मचर्य के नियम ले लेता है। यही महावीर कह रहे हैं।

ऐसा चरित्र पहुंचाएगा न। उधार से कभी कोई गया नहीं। धर्म चाहिए नगद!

एक मुअम्मा है समझने का न समझाने का

जिंदगी काहे को है एक ख्वाब है दीवाने का।

जिसे अभी हम जिंदगी कह रहे हैं, सोयी-सोयी, एक स्वप्न से ज्यादा नहीं है। जिस दिन तुम जागोगे उस दिन तुम पाओगे, अब तक तुमने जिसे जीवन जाना था वह केवल एक स्वप्न था; और स्वप्न भी कोई बहुत मधुर नहीं। दुख-स्वप्न, नाइट-मेयर। कोई धन के सपने देख रहा है, कोई पद के सपने देख रहा है।

चरित्र का अनुयायी कहता है, छोड़ो धन की दौड़, छोड़ो पद की दौड़! और दृष्टि का अनुयायी कहता है, देखो पद की दौड़ को, देखो धन की दौड़ को! इस फर्क को खयाल में ले लेना। दृष्टिवाला कहता है, भागो मत! भागकर कहां जाओगे? अगर भीतर नींद है तो साथ चली जायेगी। अगर भीतर स्वप्न है तो साथ चला जायेगा। भागो मत! जागो! देखो जहां हो, जो है। जीवन का जो भी तथ्य है, मधुर कि कड़वा, सुस्वादु कि विषाक्त–चखो, पहचान बनाओ! उसी पहचान से धीरे-धीरे ज्ञान निसृत होता है। उसी से धीरे-धीरे बूंद-बूंद ज्ञान की टपकती है। तुम्हारा मधु-पात्र एक दिन भर जाएगा। और तब तुम्हारे जीवन में आचरण होगा। लेकिन वह आचरण जरूरी नहीं कि जैनों की मान्यता के अनुसार हो कि हिंदुओं की मान्यता के अनुसार हो कि बौद्धों की मान्यता के अनुसार हो। वह आचरण तुम्हारे स्वभाव के अनुसार होगा। यह भी खयाल में ले लेना।

प्रत्येक जाग्रत पुरुष का आचरण अद्वितीय होता है। तो तुम राम को कृष्ण से मत तौलना। अगर कृष्ण से राम को तौलोगे तो दो में एक ही ठीक रह जायेगा, दोनों ठीक नहीं हो सकते। और न तुम बुद्ध को महावीर से तौलना। और न तुम मुहम्मद को जीसस से तौलना। और न तुम जरथुस्त्र को लाओत्से से तौलना। तुम तौलना ही मत। क्योंकि प्रत्येक जाग्रत व्यक्ति का आचरण उसके अपने जागरण का परिणाम होता है। वह निजी है, अद्वितीय है, अनूठा है।

वैसा न कभी हुआ है, वैसा न कभी होगा।

सोए हुए लोगों का आचरण पंक्तिबद्ध होता है, दूसरों जैसा होता है; अनुकरण पर निर्भर होता है। दो महावीर नहीं हुए, न दो बुद्ध हुए, न दो कृष्ण हुए, न हो सकते हैं। इस अद्वितीयता को खूब गहरे में बिठा लेना। तब तुम्हें भय न रहेगा। तब तुम्हारी दृष्टि जागेगी तो तुम्हारा आचरण तुम जैसा होगा। और परमात्मा अगर कहीं होगा और तुमसे पूछेगा तो वह यह न पूछेगा कि तुम महावीर जैसे क्यों न हुए; वह तुमसे पूछेगा, तुम तुम जैसे क्यों न हुए? तुमने अपने स्वभाव को खिलाया क्यों न? तुम जो होने को पैदा हुए थे, विकसित क्यों न हुए? तुमने अपने बीज को फूलों तक क्यों न पहुंचाया? इसकी फिक्र छोड़ देना कि तुम किसी से तालमेल खा रहे हो कि नहीं; क्योंकि सत्य अनूठा है। किसी गहरे अर्थ में तालमेल खाता भी है और किसी गहरे अर्थ में बिलकुल भिन्न होता है। अगर बहुत गहराई में कृष्ण के उतरोगे, अंतस्तल में, तो ठीक महावीर को पा लोगे। लेकिन बाहर-बाहर से देखोगे तो महावीर कहां, कृष्ण कहां, बड़े अलग-अलग हैं! तुम भी अलग ही होनेवाले हो।

धर्म व्यक्ति को व्यक्ति बनाता है। और संप्रदाय व्यक्ति को भीड़ बना देते हैं। भीड़ से बचना!

धर्म निजी और वैयक्तिक खोज है।

दूसरा सूत्र: “एक ओर सम्यक्त्व का लाभ और दूसरी ओर त्रैलोक्य का लाभ हो तो त्रैलोक्य के लाभ से सम्यक दर्शन का लाभ श्रेष्ठ है।’

एक तरफ मिलती हो दृष्टि और दूसरी तरफ मिलते हों तीनों लोक के खजाने और सारी संपदा और साम्राज्य, तो भी महावीर कहते हैं, तीनों लोक के साम्राज्य और संपदा से दृष्टि का लाभ श्रेष्ठ है। क्योंकि अंधे के हाथ में साम्राज्य हो तो भी वह भिखारी रहेगा। और आंखवाले के पास भिक्षा का पात्र भी हो तो साम्राज्य बन जाता है। आंख का सारा खेल है। इसीलिए तो यह अनूठी घटना घटी कि महावीर भिखारी की तरह राह पर खड़े हो गये। लेकिन इनसे बड़े सम्राट कभी किसी ने देखे? कि बुद्ध ने राजमहल छोड़ दिया, राह के भिखारी हो गये, कुछ भी उनके पास न रहा; लेकिन फिर भी जितना इस आदमी के पास था किसके पास कब रहा! जीवन को बड़ी से बड़ी संपदा मिलती है दृष्टि से; और कोई संपदा उसके मुकाबले बड़ी नहीं।

सम्मत्तस्य य लंभो, तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो।

सम्मदंसणलंभो, वरं खु तेलोक्कलंभादो।।

मत चुनना तीन लोक की संपदा को, लोभ को, लाभ को! दृष्टि मिलती हो तो सब उसके लिए गंवा देने जैसा है। सब गंवाकर दृष्टि मिलती हो तो बचा लेना। और सब बचाकर दृष्टि खोती हो तो यह महंगा सौदा मत कर लेना। अंधे, आंखहीन तो सिर्फ भटकते हैं; पहुंचते नहीं। फिर गरीब हों कि अमीर, सफल हों कि असफल, सुखी हों कि दुखी, कुछ अंतर नहीं पड़ता; मौत सबको मटियामेट कर देती है, और सब को मिला जाती है।

पथ मिलकर सभी एक होंगे

तम घिरे यम के नगर में।

वह जो अंधा आदमी है, वह कुछ भी करे, मौत सबको एक ही जगह पहुंचा देगी।

पथ मिलकर सभी एक होंगे

तम घिरे यम के नगर में।

सिर्फ दृष्टिवाला बच जाता है। मौत सिर्फ अंधों को पकड़ पाती है। जिसके पास दृष्टि है, उसे मौत नहीं देख पाती। और जिनके पास दृष्टि नहीं है, उन्हें सिर्फ मौत ही दिखायी पड़ती है और मौत को वे दिखायी पड़ते हैं। हमारी दृष्टि पर सब निर्भर करता है।

तुमने कभी इस पर खयाल किया, विचार किया, ध्यान किया कि बहुत-बहुत अर्थों में बहुत-सी चीजें अदृश्य होती हैं? जैसे समझो, एक चींटी यहां से गुजर रही हो, बहुत-सी चींटियां गुजर रही होंगी। मैं यहां बोल रहा हूं, लेकिन चींटी के लिए जो मैं बोल रहा हूं, वह बिलकुल सुनायी न पड़ेगा। वह चींटी की सीमा के बाहर है। यहां वृक्ष खड़े हैं: जो मैं कह रहा हूं, वह जैसे कहा ही नहीं गया।…वे मौजूद हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी का आयाम अलग है।

मैं एक कहानी पढ़ता था। एक हवाई जहाज जल गया बीच आकाश में और एक युवती मर गई। वह युवती लंदन जा रही थी। तो मरते वक्त उसे बस एक ही खयाल था कि अरे, लंदन न पहुंच पायी! वह पति की प्रतीक्षा कर रही थी। पति आतुर होकर प्रतीक्षा कर रहा होगा। बस एक ही धुन थी, उस धुन के कारण उसकी प्रेतात्मा सीधी लंदन पहुंच गयी। लेकिन वह चकित हुई: लंदन बिलकुल खाली था! लोग कहां खो गये! क्योंकि जब अपना शरीर खो जाये तो दूसरों के शरीर दिखायी नहीं पड़ते। उसे अभी तो खयाल में नहीं आया था कि अपना शरीर खो गया। क्योंकि यह शरीर खो भी जाता है तो सूक्ष्म शरीर तो खोता नहीं; वह बिलकुल इस जैसा ही है–इससे ज्यादा सुंदर, इससे ज्यादा कमनीय, इससे ज्यादा सूक्ष्म; पर ठीक इसकी प्रतिलिपि! सचाई तो यह होगी कि यह शरीर उसकी प्रतिलिपि है। तो उसे अभी यह तो पता ही न चला था कि मेरा शरीर खो गया; लेकिन जब उसने लंदन में जाकर देखा; तो सारे घर खाली पड़े हैं। मकानों से रोशनी निकल रही है, खिड़कियों से रोशनी निकल रही है, लेकिन घर सन्नाटा है, कहीं कोई नहीं। वह थेम्स नदी के पुल पर खड़ी हो गयी जाकर। उसे भरोसा ही न हुआ कि जहां हजारों लोग निकलते रहते हैं, वहां कोई भी नहीं निकल रहा है। हजारों लोग अब भी निकल रहे हैं। लेकिन देह अपनी खो गयी तो दूसरी देह से संबंध नहीं जुड़ता। लेकिन तभी अचानक उसे दिखायी पड़ा, उसका पति भी पुल से निकल रहा है। जब पति निकला तो उसे दिखायी पड़ा। क्योंकि पति से एक लगाव था, एक घनीभूत वासना थी, प्रेम था। उस प्रेम के कारण एक सूत्र जुड़ा था। उस प्रेम के कारण वह पति के शरीर से ही नहीं जुड़ी थी, पति के सूक्ष्म शरीर से भी थोड़े संबंध हुए थे। उस सूक्ष्म शरीर से संबंध के कारण उसे पति थोड़ा-सा दिखायी पड़ा, पहले धुंधला-धुंधला, फिर रेखा उभरी, फिर साफ हुआ। लेकिन जब उसे पति दिखायी पड़ा तो चकित हुई कि जैसे ही उसे पति दिखायी पड़ा, और लोग भी दिखायी पड़ने लगे। क्योंकि जब एक शरीर दिख गया तो दूसरे शरीर भी दिखाई पड़ने लगे। तत्क्षण पूरा लंदन भरा था–एक क्षण में–लंदन खाली न था! हजारों लोग आ-जा रहे थे, मकान भरे थे!

यह कहानी मुझे बड़ी प्रीतिकर लगी, जिसने भी लिखी हो, बड़ी सूझ से लिखी है। कहानी तो कल्पित है, लेकिन सूझ गहरी है।

हमें वही दिखायी पड़ता है जहां हम हैं। अभी हमें शरीर दिखायी पड़ते हैं। इसलिए मौत से हमारा संबंध होने ही वाला है। मौत हमें दिखायी पड़ेगी क्योंकि शरीर की मौत होती है। इसलिए हम मौत से भयभीत हैं। जैसे ही दृष्टि जगती है और हमें दिखायी पड़ता है, हम शरीर नहीं हैं–मौत के हम बाहर हो गये! फिर मौत भी हमको नहीं देख सकती। वह भी हमको तभी तक देख सकती है जब तक हम शरीर हैं और शरीर में हैं, और माने हुए हैं कि हम शरीर ही हैं। जब तक हम शरीर के ठोसपन से जुड़े हैं, तभी तक हम मौत की सीमा में हैं। जैसे ही हम शरीर के ठोसपन से मुक्त हुए, हम मौत के बाहर हुए।

इस जिंदगी में इन तीनों लोकों में जो भी मिल जाता है, वह बाहर-बाहर है। वह हमारा कभी नहीं हो पाता। जो बाहर है वह बाहर ही रह जाता है; उसे तुम भीतर ले जाओगे बैसे? तुम संपत्ति का ढेर लगा लोगे, ढेर बाहर लगेगा, भीतर कैसे लगाओगे? भीतर ज्यादा से ज्यादा हिसाब रख सकते हो, संपत्ति के आंकड़े रख सकते हो; वह भी बहुत भीतर नहीं, वह भी मन में होंगे; वह भी चैतन्य में न पहुंच पाएंगे। चैतन्य तक तो आंकड़े भी नहीं पहुंचेंगे, संपत्ति तो बाहर रहेगी, गणित मन तक पहुंच जायेगा। संपत्ति मन तक भी नहीं पहुंचेगी, गणित भी न पहुंच पायेगा चैतन्य तक। तुम्हारी चेतना तो पार ही रहेगी। तो जब तक भीतर की कोई संपदा न मिल जाये तब तक कोई संपदा काम की नहीं है।

“अधिक क्या कहें? अतीतकाल में जो श्रष्ठजन सिद्ध हुए और जो आगे सिद्ध होंगे, वह इस एक सम्यक्त्व का ही परिणाम है। इसी एक सम्यकत्व का महात्म्य है।’

किं बहुणा भणिएणं–क्या कहें ज्यादा अब? जे सिद्धा णरवरा गए काले–वह जो बीते समय में हुए हैं सिद्ध…। जैनों से कुछ लेना-देना नहीं है इसका। ये वचन शुद्ध उन सबके लिए हैं जो सिद्ध हुए हैं। इसमें वेदों के ऋषि और उपनिषदों के कवि सभी सम्मिलित हैं।

किं बहुणा भणिएणं, जे सिद्धा णरवरा गए काले। जो-जो बीते समय में, बीते काल में…बेशर्त महावीर कह रहे हैं, कोई शर्त नहीं लगायी है। नहीं तो कहते, कि जैन सिद्ध जो हुए हैं अतीत में। जो अभी जागे हैं…! जैन से क्या लेना-देना जागने का? जो जाग गये, वे सभी जिन हैं।

सिज्झिहिंति जे वि भविया, तं जाणइ सम्ममाहप्पं।

–वे इसी सम्यकत्व के महात्म्य से उपलब्ध हए हैं। वे इसी दृष्टि के, इसी जागरण से, इसी ध्यान, इसी समाधि से उपलब्ध हुए हैं।

“जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता वैसे ही सत्पुरुष सम्यकत्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होते।’

तो महावीर क्यों कर कहेंगे, भाग जाओ संसार से! हां, किसी को स्वभाव के अनुकूल बैठता हो संसार से अलग हट जाना तो वह भागना नहीं है। जब किसी के घर में आग लगती है और कोई आदमी भागकर बाहर आता है तो तुम उसको भगोड़ा तो नहीं कहते! तुम यह तो नहीं कहते, एस्केपिस्ट हो, पलायनवादी हो! अगर वह घर में ही बैठा रहे और जल जाये तो तुम उसको मूढ़ जरूर कहोगे, लेकिन बाहर निकल आए तो भगोड़ा तो न कहोगे! किसी व्यक्ति को अगर संसार का जीवन तालमेल न खाता हो, उसके भीतर के संगीत में न बैठता हो, उसकी लयबद्धता खंडित होती हो, तो वह हट जाये। लेकिन वह भगोड़ा नहीं है। भगोड़ा तो वह है जो यह सोचता है कि संसार से हट जाने के कारण मुझे मोक्ष मिलेगा। जो संसार से हट जाने को मोक्ष पाने का साधन बनाता है, वह भगोड़ा है। मोक्ष का कोई संबंध संसार से भाग जाने से नहीं है।

महावीर कहते हैं, “जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से जल से लिप्त नहीं होता वैसे ही सत्पुरुष, सम्यकत्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होते।’ वह अगर कषायों और विषयों के बीच भी खड़े रहें, जैसे कमलिनी का पत्र सरोवर में पड़ा रहता है, तो भी लिप्त नहीं होते। एक दफा दिखायी पड़ना शुरू हो जाये, बस वह दृष्टि ही अलिप्तता बन जाती है।

दुनिया की महफिलों से उकता गया हूं या रब

क्या लुत्फ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो।

एक दफा वासना बुझ जाये, एक बार वासना की जगह दृष्टि का दीया जल जाये…

दुनिया से कुछ लगाव न उक्बा की आरजू है

तंग आ गये हैं इस दिले बे-मुद्दआ से हम।

और फिर न तो इस दुनिया का कोई लगाव रह जाता और न उस दुनिया की कोई आकांक्षा रह जाती है। जिनके मन में उस दुनिया की कोई आकांक्षा रह गयी है–वह दुनिया इसी दुनिया का विस्तार है–वह दुनिया से अभी उकताए नहीं। जो सोच रहे हैं, स्वर्ग में मजे करेंगे; जो सोच रहे हैं स्वर्ग में नचाएंगे अप्सराओं को; जो सोच रहे हैं, स्वर्ग में शराब के झरने बह रहे हैं, डुबकी लेंगे–वे इस दुनिया से उकताए नहीं हैं। समझ उन्हें आयी नहीं; जागरण हुआ नहीं।

“सम्यक दृष्टि मनुष्य अपनी इंद्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन तत्वों का जो भी उपयोग करता है, जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है।’

महावीर कहते हैं, सभी उपभोग बांधता नहीं; क्योंकि ध्यान भी करोगे तो भोजन करना होगा। तो ध्यान के लिए भी शरीर जरूरी होगा। वेश्या के घर जाना है तो भी शरीर से ही चलकर जाओगे और मंदिर जाना है तो भी शरीर से ही चलकर जाओगे। किसी की हत्या करनी हो तो भी ऊर्जा चाहिए, भोजन से मिलेगी; और किसी की सेवा करनी हो तो भी ऊर्जा चाहिए, भोजन से ही मिलेगी। भोजन छोड़ देने का सवाल नहीं है; भोजन का सम्यक उपयोग कर लेने का सवाल है।

तो महावीर कहते हैं, “सम्यक दृष्टि मनुष्य अपनी इंद्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है।’ वह इसीलिए जीता है ताकि जीवन के पार जा सके। वह इसीलिए भोजन करता है ताकि भगवत्ता को पा सके। वह इसीलिए जल पीता है, ताकि शरीर तृप्त हो, शांत हो, तो अंतर्गमन हो सके। उसकी दृष्टि हर घड़ी उस भीतर के सत्य पर लगी रहती है। वह उसी के लिए सारे जीवन को उपकरण बना लेता है।

श्रीमद्भागवत में एक वचन है: स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संतः! संत पुरुष तीर्थों को पवित्र करते हैं। तीर्थों के कारण कोई पवित्र नहीं होता; संत पुरुषों के कारण तीर्थ बन जाते हैं। जहां संत पुरुष बैठता है वहीं तीर्थ बन जाता है। जहां तीर्थंकर चलते हैं वहीं तीर्थ बन जाते हैं।

गंगा की खोज मत करो। तुम गंगा कभी न पहुंच पाओगे। तुम दृष्टि को, सम्यकत्व को उपलब्ध हो जाओ–गंगा तुम्हारी खोज करती चली जाएगी। नदी, नाला कोई भी तुम्हारे पास से गुजर जायेगा, गंगा जैसा पवित्र हो जायेगा। वास्तविक मूल्य, आत्यंतिक मूल्य तुम्हारे चैतन्य का है।

“कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता।’ यह वचन सुनना! यह गीता में कहा गया होता तो अड़चन न होती; यह महावीर ने कहा है।

इसको बहुत गौर से, होश से सुनना।

“कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई न सेवन करते हुए भी विषयों का सेवन करता है। जैसे कोई पुरुष विवाह आदि कार्यों में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता।’

यह गीता में तो बिलकुल ठीक था। तो कृष्ण की दृष्टि में साफ था। लेकिन जैनों ने महावीर की दृष्टि को ऐसा लीपा-पोता है कि महावीर के ही वचन पराये मालूम पड़ते हैं।

महावीर यह कह रहे हैं कि कोई तो ऐसे हैं, जागे होने के कारण, सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करते; भोजन करते हुए भी उपवासे हैं; ठेठ संसार में खड़े हुए भी संसार के बाहर हैं। और कोई ऐसे भी हैं कि न सेवन करते हुए भी सेवन करते हैं। उपवास किए हैं, लेकिन भोजन की कल्पना, भोजन की वासना…! ब्रह्मचर्य का व्रत लिए हैं, लेकिन कामवासना की लहरें…! हिमालय पर बैठ गये हैं जाकर, लेकिन संसार की पुकार उन्हें अभी भी सुनायी पड़ती है।

तो असली सवाल बाहर से भाग जाने का नहीं है–भीतर से जाग जाने का है।

फिर तुम भोग कर भी त्यागी हो सकते हो। और अगर वैसा न हुआ तो तुम त्याग कर लोगे और भोगी ही रहोगे।

गो मैं रहा रहीने-सितमहा-ए-रोजगार

लेकिन तेरे खयाल से गाफिल नहीं रहा।

रहा दुनिया की भीड़ में, रहा बाजार में, रहा उलझा संसार में…।

गो मैं रहा रहीने-सितमहा-ए-रोजगार

–काम-धंधों में उलझा हुआ; “लेकिन तेरे खयाल से गाफिल नहीं रहा!’ बस इतना ही कह सको तो काफी है। स्मरण बना रहा, सुरति सधी रही, ध्यान का धागा हाथ में रहा–फिर रहो तुम बाजार में, तुम कमलिनी के पत्र की भांति सरोवर में पानी के बीच रहते हुए भी पानी से अस्पर्शित रहोगे।

महावीर कहते हैं, जैसे कोई आदमी विवाह इत्यादि का आयोजन करता है…मुनीम, मालिक नहीं, तो बड़ी दौड़-धूप करता है, इंतजाम करता है: बैंडबाजे लाओ, भोजन-पत्तल सजाओ; लेकिन चूंकि वह मालिक नहीं है, इसलिए परेशान नहीं है। रात घर जाकर सो जाता है मजे से। कोई याद भी नहीं आती। काम था, कर दिया। कर्ता तो वह नहीं है। लेकिन मालिक चाहे दौड़-धूप भी न कर रहा हो, सिंहासन पर बैठा हो, लेकिन रात सो न पायेगा। उसकी लड़की का विवाह हो रहा है। बड़ी चिंताएं पकड़ेंगी। चिंताएं विवाह के कारण नहीं पकड़तीं, चिंताएं पकड़ती हैं–मेरी लड़की! जहां “मेरा’ है, ममत्व है, वहीं संसार है। जहां “मेरा’ नहीं, ममत्व नहीं, वहीं संसार खो गया। तो फिर तुम कर्ता-भाव से मुक्त होकर जो भी करो उसका कोई बंध नहीं है।

“इसी तरह काम-भोग न समभाव उपस्थित करते हैं और न विकृति…।’

ये वचन तुम सोचना–जैसे किसी महातांत्रिक ने कहे हों!

“इसी तरह काम-भोग न समभाव उपस्थित करते हैं और न विकृति या विषमता। जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है, वह उनमें विकृति को प्राप्त होता है।’

न रखना द्वेष, न रखना ममत्व। जो हो, चुपचाप अपने बोध को सम्हाले, होने देना। जो हो स्थिति, स्मरण न खोये, आत्मस्मरण न खोये। बस, इतना काफी है।

तो महावीर बड़ी हिम्मत का वचन कह रहे हैं। वे कह रहे हैं काम-भोग भी न तो बांधते हैं, न उन्हें छोड़ने से कोई छूटता है। न तो काम-भोग से कोई बंधन निर्मित होता है और न काम-भोग से कोई मुक्ति निर्मित होती है। हां, काम-भोग के प्रति द्वेष और ममत्व का भाव, उससे ही रज्जु निर्मित होती है जो बांधती है। तो तुम कोई ममत्व का भाव मत रखना और द्वेष मत रखना।

अब जिनको तुम संसारी कहते हो, जिनको तुम श्रावक कहते हो, इनका ममत्व है काम-भोग में। तुम अपने संन्यासी को पूछो, उसका क्या है? उसका द्वेष है।

अगर तुम्हें कोई नग्न तस्वीरों वाली किताब मिल जाये तो तुम छिपाकर उसे देख लोगे, या गीता का कवर चढ़ा दोगे ऊपर से और देख लोगे। बच न सकोगे। लेकिन उसी किताब को अगर तुम अपने मुनि महाराज के पास जाकर खोल दो, वह छलांग लगाकर खड़े हो जायेंगे, जैसे तुम सांप-बिच्छू की पिटारी ले आये! वह तुम पर चीखने-चिल्लाने लगेंगे कि यह तुमने क्या किया! भ्रष्ट कर दिया!

तुम्हारा ममत्व है, उनका द्वेष है। महावीर कहते हैं, दोनों ही खतरनाक हैं। कोई भी भाव बांध लेगा, फिर चाहे पक्ष का हो चाहे विपक्ष का हो। तुम संसार में निर्लिप्त, ऐसे जीना कि जैसे तुम्हारा कोई भाव नहीं है। जो हो रहा है, ठीक है। न तुम पकड़ने को उत्सुक हो, न तुम छोड़ने को उत्सुक हो।

विनोबा के पास कोई पैसे ले जाये तो वे आंख बंद कर लेते हैं। पैसे से ऐसा क्या डर? पैसे में ऐसा क्या बल? और अगर पैसे में इतना बल है कि संतों को आंख बंद करनी पड़ती है तो फिर बेचारे ये संसारी अगर पैसे के बल से दबे हैं तो क्या आश्चर्य! किसी की आंख एकदम फैल के दोगुनी हो जाती है और किसी की बंद हो जाती है!

मैं एक सज्जन को जानता था। उनको अगर दूसरे का भी नोट हाथ में लग जाये तो वह उसको ऐसा पुचकार के छूते थे, वैसा कलाकार मैंने नहीं देखा फिर दुबारा। बहुत लोग देखे।…मगर दूसरे के नोट को भी पुचकार के छूते थे। सम्मान तो होना ही चाहिए था। उसको उलट-पलटकर देखते, उसको ऐसे छूते जैसे प्रेयसी हो!

एक तरफ ये हैं कि पैसे को देखते से उनकी जीभ से एकदम लार टपकने लगेगी; और दूसरी तरफ लोग हैं कि आंख बंद कर लेंगे। लेकिन फर्क क्या हुआ? पैसे ने दोनों पर प्रभाव रखा। पैसे ने दोनों से कुछ करवा लिया।

महावीर कह रहे हैं कि पैसे में ऐसा कुछ भी नहीं है–न तो लार टपकाने योग्य कुछ है और न आंख बंद करने योग्य कुछ है। जिस दिन न ममत्व, न द्वेष, दोनों नहीं रह जाते, न राग न विराग–उसी दिन वीतरागता उपलब्ध होती है।

“वीतराग’ महावीर का बड़ा बहुमूल्य शब्द है। न राग न विराग, न पकड़ना न छोड़ना, कोई चुनाव नहीं, न इस तरफ न उस तरफ, न घृणा न मोह! अपने में थिर हो जाना, अपने में रम जाना, कि बाहर से कोई भी घटना घटे, तुम्हारे भीतर पक्ष-विपक्ष में कोई भी विचार न उठे, भाव न उठे–ऐसी वीतराग दशा ही मोक्ष का द्वार है। महावीर इस दृष्टि को सर्वाधिक मूल्यवान कहते हैं।

तूफान से उलझ गए लेकर खुदा का नाम

आखिर निजात पा ही गये नाखुदा से हम

–मांझी से छुटकारा पा लिया खुदा का नाम लेकर! लेकिन महावीर ने खुदा से भी छुटकारा पा लिया है। नाखुदा से तो छुटकारा पा ही लिया। किसी के पीछे तो वह चलते ही नहीं, कोई मांझी नहीं है; लेकिन खुदा से, परमात्मा से भी छुटकारा पा लिया। उन्होंने तो सीधा धर्म का विज्ञान निरूपित किया कि दृष्टि की शुद्धि ही तुम्हारी मार्गद्रष्टा है; वही सदगुरु है।

दृष्टि थिर हो जाये, अनुद्वेग सम्हल जाये, कोई उद्वेग न उठे। घृणा का, प्रशंसा का, सफलता-विफलता का, भोग और त्याग का कोई उद्वेग न उठे, तो तुम निर्वाण के करीब आने लगे।

“अनुद्वेगः श्रीयोमूलं!’ हिंदू शास्त्र कहते हैं, अनुद्वेग ही श्रेय का मूल है, निःश्रेयस का मूल है। यह अनुद्वेग दशा ही तुम्हें जल में कमलवत बना देगी। और धन्यभागी हैं वे जो सबके बीच रहकर और सबसे अछूते रह जाते हैं!

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–23

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मन का ढांचा– जन्मों-जन्मों का (अध्याय—5) प्रवचन–तैईसवां

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यग्शृण्वस्पृशग्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपग्श्वसन्।। 8।।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।। 9।।

और हे अर्जुन, तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आंखों को खोलता और मींचता हुआ भी, सब इंद्रियां अपने-अपने अर्थों में बर्त रही हैं, इस प्रकार समझता हुआ निःसंदेह ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं।

तत्व को जानता हुआ पुरुष सब करते हुए भी ऐसा ही जानता है, जैसे मैं कुछ भी नहीं करता हूं। इंद्रियां बर्तती हैं अपने-अपने स्वभाव से। इंद्रियों के वर्तन को, तत्व को जानने वाला पुरुष, अपना कर्म नहीं मानता है। तत्व को जानने वाला पुरुष कर्ता नहीं होता, वरन इंद्रियों के कर्मों का मात्र साक्षी होता है।

इसे दोत्तीन आयामों से समझ लेना उपयोगी है।

एक, तत्व को जानने वाला पुरुष। कौन है जो तत्व को जानता है? ध्यान रहे, कृष्ण नहीं कहते, तत्वों को जानने वाला पुरुष। कहते हैं, तत्व को जानने वाला पुरुष।

तत्व एक ही है। वह जो जीवन के, गहन जीवन के प्राण में छिपा है, वह अस्तित्व एक ही है।

हम साधारणतः पांच तत्वों की बात करते हैं, वे तत्व नहीं हैं। मिट्टी है, पानी है, आग है, आकाश है, वायु है; वे वस्तुतः तत्व नहीं हैं। और विज्ञान तो एक सौ आठ तत्वों की बात करता है। लेकिन अब इधर विज्ञान को यह खयाल आना शुरू हुआ कि जो उसने एक सौ आठ तत्व सोचे थे, वे कोई भी तत्व नहीं हैं।

विज्ञान भी एक सौ आठ तत्वों की लंबी संख्या के बाद एक नए नतीजे पर पहुंच रहा है और वह यह कि ये एक सौ आठ तत्व भी एक ही तत्व के रूप हैं। उस तत्व को विज्ञान इलेक्ट्रिसिटी कहता है, विद्युत कहता है। कृष्ण उस तत्व को विद्युत नहीं कहते, चेतना कहते हैं, कांशसनेस कहते हैं। शायद बहुत शीघ्र विज्ञान को स्वीकार कर लेना पड़ेगा कि वह तत्व चेतना ही है। क्यों? क्योंकि अब तक विज्ञान यह भी मानने को राजी नहीं था कि एक तत्व है। वह कहता था, एक सौ आठ तत्व हैं।

ऊपर से देखने पर अनंत तत्व मालूम पड़ते हैं जगत में। तत्वों के भीतर जब विज्ञान का प्रवेश हुआ, तो पता चला कि सभी तत्व एक ही तत्व के भिन्न-भिन्न रूप हैं। जैसे एक ही सोने के बहुत-से आभूषण हों। रूप अलग हैं। वह जो रूपायित हुआ है, जो पीछे छिपा है, वह एक है। इसे विज्ञान अब स्वीकार करता है कि वह एक तत्व विद्युत ऊर्जा है, शक्ति है। अभी उसे धर्म की दूसरी बात से भी सहमत होना पड़ेगा। अब तक वह पहली बात से भी सहमत नहीं था कि तत्व एक है। वह कहता था, तत्व अनेक हैं।

अब तक विज्ञान प्लूरालिस्ट था, अनेक को मानता था। अब विज्ञान मानिस्ट हुआ, अब वह एक को मानने लगा। वह कहता है, एक ही ऊर्जा है। पानी में भी वही ऊर्जा है और पत्थर में भी वही ऊर्जा है। उस ऊर्जा के कणों का विभिन्न जमाव है। बस, उसका ही सारा अंतर है। वह अंतर ठीक आभूषण जैसे सोने के विभिन्न जमाव से निर्मित होते हैं, वैसा ही अंतर है। और बहुत देर नहीं है कि एक तत्व को हम अब दूसरे तत्वों में रूपांतरित कर सकेंगे।

बहुत जमाने तक अल्केमिस्ट खोजते थे, कोई ऐसी तरकीब कि जिससे लोहा सोना हो जाए। अब बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि लोहा भी उसी ऊर्जा से बना है, जिससे सोना बना है। और लोहा सोना बन सकता है और सोना लोहा बन सकता है। ज्यादा देर नहीं है, मौलिक बात तय हो गई है कि दोनों को बनाने वाला संघटक एक ही तत्व है। इसलिए रूपांतरण हो सकता है।

ऐसे भी आप देखते हैं, कोयले को पड़ा हुआ। सोचते न होंगे कि हीरा भी कोयला है। हीरा भी कोयला है! हीरा भी कोयले का ही रूप है। लाखों साल तक जमीन के नीचे गर्मी में दबा रहने पर कोयला हीरे में रूपांतरित होता है। एक ही तत्व हैं; दोनों में कोई भी भेद नहीं है।

सारे तत्वों के भीतर एक है। धर्म की इस पहली घोषणा से विज्ञान रिलक्टेंटली, बहुत झिझकते-झिझकते राजी हो गया है। मजबूरी थी। विज्ञान सत्य को इनकार नहीं कर सकता है। अब दूसरा कदम और शेष रह गया है। और वह कदम यह है कि वह एक तत्व चेतन है या अचेतन? अब तक विज्ञान माने चला जाता है कि वह अचेतन है। यह उसका दूसरा आग्रह है। पहला आग्रह था, अनेक हैं तत्व। वह गिर गया। दूसरा आग्रह अभी शेष है कि वह तत्व अचेतन है।

धर्म का खयाल है कि वह तत्व अचेतन नहीं है। और उसके कारण हैं। क्योंकि धर्म का खयाल है कि निकृष्ट से श्रेष्ठ अगर जन्मता है, तो मानना होगा कि वह उसमें कहीं छिपा था, सदा मौजूद था। अगर बीज से वृक्ष पैदा होता है, तो चाहे दिखाई पड़ता हो और चाहे न दिखाई पड़ता हो, वृक्ष बीज में छिपा था, पोटेंशियली मौजूद था। अन्यथा पैदा नहीं हो सकता है। यदि चेतना पैदा हो रही है जगत में कहीं भी, और पदार्थ से ही पैदा हो रही है, तो समझना पड़ेगा कि वह पदार्थ में कहीं गहरे में छिपी है, मौजूद है। उसकी मौजूदगी को इनकार करना अवैज्ञानिक है, वैज्ञानिक नहीं। जो भी प्रकट हो सकता है, वह छिपा है और मौजूद है। अनमैनिफेस्टेड है, अव्यक्त है, अप्रकट है।

लेकिन विज्ञान कहता है कि एक ही चीज है अब जगत में, वह है विद्युत ऊर्जा। और धर्म भी कहता है, एक ही चीज है जगत में, वह है चेतना। यह चेतना अप्रकट हो सकती है विद्युत ऊर्जा में। मनुष्य में आकर विकसित होकर प्रकट हो जाती है।

एक छोटा बच्चा है। वह कल जवान होगा, परसों बूढ़ा होगा। आज विज्ञान मानता है कि जवान और बूढ़े होने का बिल्ट-इन-प्रोग्रेम उसके जेनेटिक सेल में मौजूद है। वह जो बच्चे का पहला अणु है मां-बाप से मिला, उसमें उसकी पूरी जिंदगी का ब्लूप्रिंट, पूरा नक्शा मौजूद है। अन्यथा वह हो नहीं सकता।

एक बीज आप जमीन में गाड़ देते हैं। फिर उसमें से अंकुर निकलता है, फिर पत्ते आते हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि इस बीज में ठीक वैसे ही पत्ते आते हैं, जैसे इस बीज के पिता वृक्ष में थे। यह पत्तों का बिल्ट-इन-प्रोग्रेम अगर बीज के भीतर छिपा हुआ न हो, तो बड़ा चमत्कार है। यह वैसे ही पत्ते वापस कैसे आ सकते हैं? या तो फिर यह बीज अदभुत होशियार है, या फिर इस बीज के पीछे कोई बहुत बड़ा जादूगर बैठा है। इस बीज में भी वैसे ही फूल लगेंगे, जैसे उस वृक्ष में लगे थे, जिससे यह बीज आया है। वे ही वृक्ष की पत्तियां होंगी, वे ही शाखाएं होंगी। वही फैलाव होगा। वही रूप-रंग होगा। वही फूल फिर से खिलेंगे। और इस एक बीज से फिर करोड़ों बीज पैदा होंगे–वही बीज, जिनसे यह पैदा हुआ था। इस बीज के भीतर बिल्ट-इन, छिपा हुआ प्रोग्रेम है।

वैज्ञानिक आज कह सकते हैं कि बीज में वृक्ष पूरी तरह छिपा हुआ है। प्रकट होने की देर है। समय लगेगा प्रकट होने में। लेकिन जो प्रकट होगा, वह मौजूद था। कह सकते हैं, बीज वृक्ष है, अदृश्य; और वृक्ष बीज है, दृश्य हो गया।

लेकिन इतनी जगत में चेतना दिखाई पड़ती है, यह पदार्थ में अगर छिपी न हो, तो प्रकट कहां से होगी! यह भी बिल्ट-इन है, इसका भी पदार्थ में छिपा हुआ रूप है। फिर यह कहना गलत है कि पदार्थ में छिपी है, क्योंकि धर्म भी कहता है, एक ही तत्व है; और विज्ञान भी कहता है, एक ही तत्व है। पदार्थ में छिपी है, ऐसा कहने से दो तत्वों का खयाल आता है–पदार्थ है कुछ, चेतना उसमें छिपी है। इसलिए विज्ञान के हिसाब से भी कहना ठीक नहीं कि पदार्थ में छिपी है। धर्म के लिहाज से भी कहना ठीक नहीं कि पदार्थ में छिपी है। फिर तो यही कहना ठीक है कि विज्ञान जिसे विद्युत कहता है, धर्म उसे चेतना कहता है। और धर्म की बात ही ज्यादा सही मालूम पड़ती है। क्योंकि जो प्रकट होता है, वह कहीं मौजूद होना चाहिए। अन्यथा वह प्रकट नहीं हो सकता है।

कृष्ण कहते हैं, जो इस एक तत्व को जानता है।

इसलिए तत्वों की बात उन्होंने नहीं कही। एक ही काफी है। अज्ञानी बहुत चीजों को जानते हैं; ज्ञानी एक को ही जानता है। इसलिए कई बार ऐसा हो सकता है कि अज्ञानी के साथ ज्ञानी परीक्षा में हार जाए।

अगर हम बुद्ध और महावीर को किसी अज्ञानी के साथ परीक्षा में बिठा दें, तो हार जाने का डर है! अज्ञानी बहुत चीजें जानता है। अगर अज्ञानी पूछने लगे कि आक्सीजन क्या है? तो बुद्ध जरा मुश्किल में पड़ेंगे। या अज्ञानी पूछने लगे कि साइकिल का पंक्चर कैसे जुड़ता है? तो महावीर को जरा अड़चन आएगी। और जरा क्या, काफी अड़चन आएगी! साइकिल रिपेयरिंग से उनका कभी कोई संबंध नहीं रहा।

अज्ञानी बहुत चीजें जानता है। एक को छोड़कर सब जानता है। ज्ञानी सबको छोड़ देता है और एक को जानता है। लेकिन उस एक को जानकर वह सब जान लेता है। और अज्ञानी सबको जानकर कुछ भी नहीं जानता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, एक को जान लेता है जो–एक तत्व को–ऐसे ज्ञानवान व्यक्ति को, ऐसे सांख्य को उपलब्ध व्यक्ति को, इंद्रियों का कर्म अपना किया हुआ नहीं, इंद्रियों का ही किया हुआ मालूम पड़ता है।

यह दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है।

इंद्रियां आपके काम कर रही हैं, लेकिन निरंतर आप एक भ्रांत आइडेंटिटी, एक झूठा तादात्म्य कर लेते हैं और सोचते हैं, मैं कर रहा हूं। जब आपको भूख लगती है, तब आप कहते हैं, मुझे भूख लगी है। कृपा करके फिर से सोचना, भूख आपको लगती है या पेट को लगती है? भूख आपको लगती है या आपको पता चलती है?

इन दोनों में फर्क है। भूख का लगना एक बात है, भूख का पता लगना दूसरी बात है। आपके पेट में जब भूख लगती है, तब आपको पता चलता है कि भूख लगी है। लेकिन भूख तो पेट को ही लगती है। और पेट को जरा से में धोखा दिया जा सकता है। और आपकी भूख मिट जाएगी। एक शक्कर की गोली आपके पेट में डाल दी जाए, पेट धोखे में आ जाएगा। भूख मर जाएगी। आप कहेंगे, भूख खतम हो गई। शक्कर की गोली से भूख खतम नहीं होती। सिर्फ शक्कर की गोली से पेट खबर देना बंद कर देता है कि भूख लगी है। खबर आपको नहीं मिलती; भूख खतम हो जाती है।

भूख तो लगती है पेट को। पेट की इंद्रिय को भूख लगती है। लेकिन आप कहते हैं, मुझे भूख लगी। कान को सुनाई पड़ता है, आप तो सिर्फ जानते हैं कि कान को सुनाई पड़ा। लेकिन आप कहते हैं, मुझे सुनाई पड़ता है। आंख से दिखाई पड़ता है, आपको तो पता चलता है कि आंख को दिखाई पड़ता है। आपको दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन आप कहते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है।

प्रत्येक इंद्रिय से हम अपने को जोड़ लेते हैं। असल में बहुत निकट है इंद्रिय, इसलिए जोड़ना आसानी से हो जाता है। आप चश्मा लगाए हुए हैं। चश्मे से आपको दिखाई पड़ता है, तो भी आप सोचते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है। चश्मे को दिखाई पड़ता है। चश्मे से आंख को दिखाई पड़ता है। आंख से आपको पता चलता है कि दिखाई पड़ रहा है। लेकिन चश्मा अलग हटाकर देखें, तब आपको पता चलेगा। तब आपको पता चलेगा कि नहीं, अब मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा। आप तो वहीं हैं, बीच से चश्मा हट गया। आंख बंद कर लें; आप तो अब भी वहीं हैं, जहां आंख खुली थी तब थे; लेकिन अब दिखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई आंख से पड़ता है। आंख यंत्र है, उपकरण है। सारी इंद्रियां काम करती हैं और आप अपने को जोड़ लेते हैं कि मैं। मुझे दिखाई पड़ता है; मुझे सुनाई पड़ता है; मुझे भूख लगती है; मुझे प्यास लगती है।

कृष्ण कहते हैं, जो उस एक तत्व को जान लेता है, वह यह भी जान लेता है, इंद्रियां अपना काम कर रही हैं, मैं कर्ता नहीं हूं। और इसलिए कई बार ऐसा भी हो जाता, कई बार ऐसा भी हो जाता है कि इन इंद्रियों के साथ निरंतर तादात्म्य के कारण आप अपने को यही समझ लेते हैं कि मैं इंद्रियों का जोड़ मात्र हूं। इंद्रियों का जोड़ मात्र! फिर उसका कभी पता नहीं चलता, जो जोड़ के पार है। जो ट्रांसेंडेंटल है, उसका कभी पता नहीं चलता।

इंद्रियों से यह जोड़ तोड़ देना पड़ेगा। इसे तोड़ने के दो उपाय हैं। एक तो निरंतर खयाल रखें कि जो इंद्रियों को हो रहा है, वह इंद्रियों को हो रहा है; आपको नहीं हो रहा है। इसकी रिमेंबरिंग चाहिए निरंतर, सतत स्मरण कि भूख पेट को लगी है; दर्द पैर में हो रहा है; कांटा हाथ में चुभा है; शरीर थक गया है। निरंतर, जिन-जिन क्रियाओं के पीछे आप निरंतर मैं का उपयोग करते हैं, बड़ी कृपा होगी, उसके पीछे उनसे संबंधित इंद्रियों का उपयोग करें। कहें कि पैर थक गया है।

और हैरानी होगी, यह बात अनुभव करने से फर्क मालूम पड़ेगा। जब आप कहेंगे, पैर थक गया है, तो इसका परिणाम चित्त पर बिलकुल दूसरा होगा, बजाय उसके, जब आप कहते हैं, मैं थक गया हूं। मैं बहुत बड़ी चीज है। पैर बहुत छोटी चीज है। पैर के थकने से जरूरी नहीं है कि मैं थक जाऊं। मैं बहुत ही और हूं। पैर से अपने को थोड़ा अलग करके देखना शुरू करें। इंद्रियों से थोड़ा दूर खड़े होकर देखना शुरू करें। जैसे-जैसे यह समझ गहरी होगी, वैसे-वैसे लगेगा, इंद्रियां अपना काम करती हैं। मैं कोई कर्ता नहीं हूं।

एक झेन फकीर से किसी ने जाकर पूछा, आपकी साधना क्या है? उसने कहा, जब भूख लगती, तब मैं खाना दे देता हूं। जब नींद आती है, तो मैं बिस्तर लगा देता हूं। तो उस आदमी ने पूछा, किसके लिए? तो झेन फकीर ने कहा, जिसको नींद आती है, उसके लिए; जिसको भूख लगती है, उसके लिए। उस आदमी ने पूछा, आप किस तरह की बातें कर रहे हैं! इस मकान में, इस झोपड़े में आप अकेले ही दिखाई पड़ते हैं, और तो कोई भी नहीं है!

उस फकीर ने कहा, जब मैं अज्ञानी था, तब मुझे भी एक ही दिखाई पड़ता था इस झोपड़े में। अब मुझे दो दिखाई पड़ते हैं। एक मैं, जो जानने वाला है; और एक वह, जो करने वाला है। जिसे भूख लगती है, वह मैं नहीं हूं। जिसे नींद आती है, वह मैं नहीं हूं। जो थक जाता है, वह मैं नहीं हूं। जो देखता है, जो सुनता है, वह मैं नहीं हूं। अब इस कमरे में एक वह भी है, जो थकता है; और एक वह भी है, जो कभी नहीं थका। एक वह भी, जो दुखी और सुखी होता रहता है; और एक वह भी, जो कभी दुखी और सुखी नहीं हुआ।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति इंद्रियों के काम को इंद्रियों का काम समझता है। जोड़ता नहीं अपने को, अलग जानता है। जितना यह ज्ञान बढ़ता जाता है कि मैं पृथक हूं, उतना ही इंद्रियां मालिक नहीं रह जातीं; गुलाम हो जाती हैं। उतना ही शरीर पर वश, शरीर की मालकियत आ जाती है।

लेकिन हम सारे लोग दुनिया में दूसरों की मालकियत करने में समय गंवा देते हैं, अपनी मालकियत का खयाल ही नहीं आ पाता। दूसरों की मालकियत! लेकिन ध्यान रहे, दूसरों की कितनी ही मालकियत आप कर लें, मालिक आप कभी न हो पाएंगे। मालिक तो सिर्फ वही हो सकता है, जो अपना मालिक हो जाता है। और दूसरों के जो मालिक होते हैं, वे गुलामों के भी गुलाम होते हैं।

मैंने सुना है, एक आदमी एक गाय को रस्सी से बांधकर एक सड़क से गुजरता है। एक फकीर भी निकल रहा है वहां से। उस फकीर ने अपने शिष्यों से कहा कि देखते हो तुम, यह एक आदमी और यह एक गाय दोनों बंधे हैं। जो गाय को बांधे हुए था, उसने कहा, माफ करिए, आप गलत बोलते हैं! मैं नहीं बंधा हूं; मैं गाय को बांधे हुए हूं। उस फकीर ने कहा, देखते हो शिष्यों, ये दोनों एक-दूसरे से बंधे हैं। उस आदमी ने कहा, गलत बोलते हैं आप। मैं गाय से नहीं बंधा हूं; गाय मुझसे बंधी है। मैंने गाय को बांधा हुआ है। उस फकीर ने कहा, अच्छा तो तुम गाय को छोड़ दो। फिर देखें, कौन किसके पीछे भागता है! जो पीछे भागेगा, वही गुलाम है, उस फकीर ने कहा। और मैं तुमसे कहता हूं, गाय बांधी गई है; तुम बंधे हो। गाय को तुम जबर्दस्ती बांधे हो, खुद को तुम स्वेच्छा से बांधे हुए हो। गाय मजबूरी में गुलाम है; तुम अपनी इच्छा से गुलाम हो। छोड़ो गाय को, जरा हम भी देखें कि कौन किसके पीछे भागता है! उस आदमी ने कहा कि यह तो नहीं हो सकेगा। गाय खरीदकर ला रहा हूं। तो उसने अपने शिष्यों से कहा कि देखते हो! अभी जो मैंने कहा था, वह गलत था। अब मैं तुमसे कहता हूं, गाय इस आदमी से नहीं बंधी है, यह आदमी गाय से बंधा है। यह आदमी गाय का गुलाम है।

असल में जिसको हम बांधते हैं, उससे हम बंध जाते हैं। जिसको हम गुलाम बनाते हैं, उसके हम गुलाम बन जाते हैं। इसलिए इस दुनिया में जितने ज्यादा गुलाम जिस आदमी के पास, उतनी बड़ी उसकी गुलामी। लेकिन दूसरे पर मालकियत का मजा बड़ा है।

और ध्यान रहे, दूसरे की मालकियत का मजा केवल उन्हीं को है, जिन्होंने अपनी मालकियत का रस नहीं जाना। जिसने एक बार भी अपनी मालकियत का रस जाना, वह इस दुनिया में किसी का मालिक न होना चाहेगा। क्योंकि वह जानता है कि किसी का मालिक होना, अपनी गुलामी के आधार रखना है। लेकिन हम बड़ा रस लेते हैं।

मैंने सुना है, एक दिन एक आदमी ने अपने मकान को पोतने के लिए एक आदमी को ठेका दिया है। दो रुपया घंटे से वह मकान पोतने का ठेका देकर गया है। जब सांझ को वापस लौटा, तो देखा कि वह आदमी झाड़ के नीचे आराम से लेटा हुआ है। उसने पूछा कि क्या कर रहे हो? मकान की पोताई नहीं कर रहे? उसने कहा कि कर रहा है; देखो! मकान की तरफ देखा, एक दूसरा आदमी पोताई कर रहा है! उस मकान के मालिक ने पूछा कि मैं समझा नहीं! तो उसने कहा कि मैंने दो रुपया घंटे के हिसाब से इस आदमी को काम करने के लिए रखा है। उस मकान मालिक ने पूछा, बड़े पागल हो! इससे तुम्हें फायदा क्या होगा? क्योंकि दो रुपए घंटे पर मैंने तुम्हें रखा है। दो रुपए घंटे पर तुमने इसे रखा है। फायदा क्या है? उसने कहा कि कभी-कभी मालिक होने का मजा हम भी लेना चाहते हैं! हम जरा वृक्ष के नीचे लेटे हैं। इट इज़ वर्थ टु बी दि बास फार सम टाइम। कभी थोड़ा बास हो जाने में थोड़ा मजा आता है। आज दिनभर से लेटे हैं और आज्ञा दे रहे हैं कि यह कर, ऐसा कर। फायदा तो कुछ भी नहीं, उसने कहा। दिनभर गंवाया, लेकिन जरा मालिक होने का मजा!

जिंदगी के आखिर में ऐसी हालत न हो कि पाएं कि जिंदगी गंवायी, थोड़ा मालिक होने का मजा लिया।

यह आदमी मूढ़ मालूम पड़ता है। लेकिन इससे कम मूढ़ आदमी खोजना मुश्किल है। यह आदमी मूढ़ मालूम पड़ता है; आप हंसते हैं इस पर। लेकिन जिंदगी के आखिर में अपना हिसाब करीब-करीब ऐसा पाएंगे कि थोड़ा बास होने का मजा लिया! हाथ में कुछ होगा नहीं। हाथ में तो केवल उनके कुछ होता है, जो अपने मालिक।

तो कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति जो तत्व को जान लेता, इंद्रियां अपना काम करती हैं, ऐसा जान लेता, और ऐसा जानते ही दूर खड़ा हो जाता है इंद्रियों के सारे धुएं के बाहर। इंद्रियों की बदलियों के बाहर सूरज के साथ एक हो जाता है।

वह जो सूरज के साथ एक हुआ है, वह मालिक है। उसकी कोई गुलामी नहीं है। ऐसा व्यक्ति ही निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है। ऐसे व्यक्ति के आनंद की कोई सीमा नहीं है। ऐसे व्यक्ति की मुक्ति का कोई अंत नहीं है। और जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक जीवन हम गंवा रहे हैं; तब तक हम जीवन से कुछ कमा नहीं रहे हैं। चाहे हम कितना ही कमाते हुए मालूम पड़ रहे हों, हम सिर्फ गंवा रहे हैं। यहां ढेर लग जाएगा धन का, और वहां जिंदगी चुक जाएगी। यहां सामान इकट्ठा हो जाएगा, और आदमी खो जाएगा। और यहां संसार की विजय-यात्रा पूरी हो जाएगी, और भीतर हम पाएंगे कि हम खाली हाथ आए और खाली हाथ जा रहे हैं।

इंद्रियों पर थोड़ी जागरूकता लानी जरूरी है। इसलिए कृष्ण के ये वचन सिर्फ व्याख्या से समझ में आ जाएंगे, इस भूल में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। ये सारे सूत्र साधना के सूत्र हैं।

लेकिन मजा है, हमारे मुल्क में लोग गीता का पाठ कर रहे हैं! सोचते हैं, पाठ से कुछ हो जाएगा। पाठ तोते भी कर लेते हैं। और पाठ करने वाले अक्सर धीरे-धीरे तोते हो जाते हैं। सब कंठस्थ हो जाता है। दोहराना आ जाता है। यंत्रवत गीता बोलने लगते हैं। सब अर्थ उन्हें पता हैं। सब शब्द उन्हें पता हैं। गीता पूरी कंठस्थ है। करने को कुछ बचता नहीं। कृष्ण अपना सिर ठोकते होंगे।

गीता के सूत्र साधना के सूत्र हैं। समझ लिया कि ठीक बात है, इंद्रियां अपना काम करती हैं। लेकिन कल सुबह फिर कहा कि मुझे भूख लगी है, तो गलती है। फिर समझे नहीं। फिर भीतर से थोड़ा सोचना चाहिए, मुझे भूख लगती है?

इंद्रियों के प्रत्येक कृत्य में खोजकर देखें, कर्ता आप नहीं हैं। इंद्रियों का समस्त कर्म प्रकृति से हो रहा है। आपकी कोई भी जरूरत नहीं है। कभी आप खयाल करते हैं! खाना तो आप मुंह में डाल लेते हैं; पचाते आप हैं? कौन पचाता है? खाना आप खाते हैं; पचाता कौन है? कभी पता चलता है, कौन पचा रहा है? इंद्रिय पचा रही है। पता ही नहीं चलता, कौन पचा रहा है! कौन इस रोटी को खून बना रहा है! मिरेकल घट रहा है पेट के भीतर।

अभी वैज्ञानिक फिलहाल समर्थ नहीं हैं। कहते हैं कि शायद अभी और काफी समय लगेगा, तब हम रोटी से सीधा खून बना सकेंगे। आपका पेट कर ही रहा है वह काम बिना किसी बड़े आइंस्टीन की बुद्धि के। इंद्रिय कुछ आइंस्टीन से कम बुद्धिमान मालूम नहीं पड़ती! प्रकृति कुछ कम रहस्यपूर्ण नहीं मालूम पड़ती।

वैज्ञानिक कहते हैं, और अगर हम किसी दिन रोटी से खून बनाने में समर्थ भी हो गए, तो एक आदमी का पेट जो काम करता है, उतना काम करने के लिए कम से कम एक वर्ग मील जमीन पर फैक्टरी बनानी पड़ेगी! एक पेट में जो काम चलता है, एक वर्ग मील का भारी कारखाना होगा, तब कहीं हम रोटी को खून तक ले जा सकते हैं। वह भी अभी सूत्र साफ नहीं हो सके। लेकिन आप रोज कर रहे हैं। कौन कर रहा है? आप कर रहे हैं? आप तो सो जाते हैं रात, तब भी होता रहता है। आप शराब पीकर नाली में पड़े रहते हैं, तब भी होता रहता है।

मैं एक स्त्री को देखने गया, वह नौ महीने से बेहोश थी, कोमा में पड़ी है। और डाक्टर कहते हैं, अब कभी होश में नहीं आएगी। चार साल तक बेहोश रह सकती है और बेहोशी में ही मर जाएगी। लेकिन बराबर ग्लूकोज दिया जा रहा है, दूध पिलाया जा रहा है, पेट पचा रहा है; वह नौ महीने से बेहोश है। शरीर खून बना रहा है। सांस चल रही है। कौन ले रहा है? यह काम कौन कर रहा है? आप? तो वह औरत तो बेहोश पड़ी है; वह तो है ही नहीं अब एक अर्थ में। प्रकृति किए चली जा रही है!

इंद्रियां प्रकृति के हाथ हैं, हमारे भीतर फैले हुए। इंद्रियां प्रकृति के हाथ हैं, हमारे द्वारा बाहर के आकाश और जगत तक फैले हुए। इंद्रियां प्रकृति का यंत्र हैं, वे अपना काम कर रही हैं, भूलकर उनसे अपने को न जोड़ें। जो इंद्रियों से अपने को जोड़ता है, वह अज्ञानी है। जो इंद्रियों से अपने को अलग देख लेता है, वह ज्ञानी है।

प्रश्न:

भगवान श्री, कल आपने अंतर्मुखी व बहिर्मुखी व्यक्तित्व की सविस्तार चर्चा की। इस संबंध में एक बात और स्पष्ट करना है। किसी का अंतर्मुखी होना अथवा किसी का बहिर्मुखी होना, इसके क्या मौलिक आधार व कारण हैं? और क्या बहिर्मुखता या अंतर्मुखता अपरिवर्तनीय है? स्वतः कृष्ण अंतर्मुखी हैं या बहिर्मुखी?

जो भी हम हैं, जहां भी हम हैं, जैसे भी हम हैं, वह हमारे अनंत जन्मों की यात्राओं का इकट्ठा जोड़ है। अनंत संस्कार का जोड़ है। बहिर्मुखी हैं तो, अंतर्मुखी हैं तो। जो हमने किया है–अंतहीन आवर्तन लिए हैं जीवन के–जो हमने किया है, उस सबका इकट्ठा रूप ही हमारा आज का होना है।

उदाहरण के लिए, कल आपने दिन में आठ दफे क्रोध किया। आठ बार क्रोधित हुए, नाराज हुए, आग से भर गए, आंखें खून से भर गईं। मैं भी कल था; कल मैंने आठ बार क्रोध नहीं किया। हम दोनों रात साथ-साथ सोए। एक ही कमरे में सोए। लेकिन मेरे सपने अलग होंगे, आपके सपने अलग होंगे। कमरा एक होगा। बिस्तर एक जैसा हो सकता है। सब एक जैसा है। मेरे सपने अलग होंगे, आपके सपने अलग होंगे। क्योंकि आठ बार दिन में क्रोध किया, सपनों में जुड़ेगा। नहीं किया आठ बार, सपनों में घटेगा।

फिर हम दोनों सुबह उठे। मैंने पाया कि मेरी चाय आने में थोड़ी देर हो गई। आपने भी पाया कि चाय आने में थोड़ी देर हो गई। तो हम दोनों की प्रतिक्रियाएं अलग होंगी। जिसने कल आठ बार क्रोध किया है, वह आज फिर सुबह तैयार उठ रहा है। फिर संभावना बहुत है कि वह तत्काल क्रोध कर ले। जिसने कल आठ बार क्रोध नहीं किया, उसकी संभावना है कि वह क्रोध का कोई मौका आए, तो छोड़ जाए, बच जाए, वंचित रह जाए।

एक-एक व्यक्ति अपने जीवन में जो भी कर रहा है–इस जीवन में तो ही, पिछले जीवनों में भी–उन सबका जोड़ है।

बहिर्मुखी का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जिसने निरंतर बहिर्मुखता को साधा है। निरंतर! धन खोजा कभी, कभी यश खोजा, कभी वासना, और चक्कर लेता रहा उन्हीं के। तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे मन की वह जो अंतर्मुखता की धारणा है, वह क्षीण होती चली जाती है। और अंतर्मुखी जो द्वार है, वह निरंतर बंद रहने से जंग खा जाता है। फिर उसे एकदम से खोला नहीं जा सकता। जैसे घर में कोई एक दरवाजे को दो-चार-दस साल बंद रखे, तो फिर एकदम से खोलना मुश्किल हो जाए। वह चूं-चर्राहट करे, बहुत आवाज करे; मुश्किल पड़े; तोड़ना पड़े। लेकिन जिस दरवाजे को हम रोज खोलते हैं, वह भी बीस साल पुराना होगा, लेकिन वह खुलने में सुगमता पाता है। जो हम करते रहते हैं निरंतर, वह सुगम हो जाता है।

हम सभी बहिर्मुख जीवन में जीते हैं। सारी शिक्षा, सारा समाज, परिवार, जगत बहिर्मुखी होने के लिए तैयारी करवाता है। एक-एक बच्चे को हम तैयार करते हैं, शिक्षा देते हैं। ध्यान की कभी नहीं देते, प्रतियोगिता की देते हैं, कांपिटीशन की देते हैं; एंबीशन, महत्वाकांक्षा की देते हैं। शांति की कभी नहीं देते, मौन की कभी नहीं देते, शब्द की जरूर देते हैं। शब्द सिखाते हैं हम हर बच्चे को, मौन किसी बच्चे को नहीं सिखाते। और शब्द में जो जितना कुशल हो जाए, संभव है कि उतना सफल हो जाए। मौन जो रह जाए, हो सकता है जिंदगी में हार जाए, असफल हो जाए।

पूरी जिंदगी हम बाहर की तरफ जीते हैं। सारा शिक्षण, सारी सफलता, सारा इंतजाम जगत का बहिर्मुखी है। और हम उसमें ही दौड़ते चले जाते हैं। बच्चे आते हैं, हम पागलों की दौड़ में हम उनको भी सम्मिलित कर लेते हैं। जैसे किसी पागलखाने में हम एक बच्चे को भेज दें। बहुत संभावना है कि बच्चा पागल हो जाएगा। पागलों के साथ रहेगा, पागल अपने ढंग सिखा देंगे। और अगर बच्चे न सीखें ढंग, तो मां-बाप नाराज होते हैं कि हम तुम्हें अपने ढंग सिखा रहे हैं और तुम सीखते नहीं! और मां-बाप कभी नहीं सोचते कि उनके ढंग से वे खुद कहां पहुंचे हैं! कहीं नहीं पहुंचे हैं। लेकिन बड़ा आग्रह है कि अपने ढंग बच्चों पर थोप दें।

सब पीढ़ियां अपने बच्चों को बहिर्मुखी कर जाती हैं। और बच्चे भी पिछले जन्म से बहिर्मुखी होकर आते हैं। ध्यान रहे, जो बच्चा आपके घर में पैदा होता है, वह थोड़ी ही देर पहले बूढ़ा रह चुका है। एकदम बच्चा तो इस जमीन पर कोई पैदा होता नहीं। बूढ़े पैदा होते हैं। वह तो बहिर्मुखी होने की सारी यात्रा लेकर आ ही रहे हैं। फिर दुबारा चारों तरफ से दबाव पड़ता है उनके बहिर्मुखी होने का। ऐसा जन्मों-जन्मों तक चलता है।

इस जन्मों-जन्मों की यात्रा में अगर धीरे-धीरे सौ में से निन्यानबे आदमी बहिर्मुखी हो जाते हैं, तो आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ लोग फिर भी अंतर्मुखी रह जाते हैं, हमारी सारी व्यवस्था के बावजूद, हमारे बावजूद! हमारे सारे इंतजाम को तोड़कर भी कुछ लोग भाग निकलते हैं।

यह बहिर्मुखता जीवन में उपयोगी है, इसलिए हम सीख लेते हैं; युटिलिटेरियन है। अंतर्मुखी आदमी जीवन में असफल हो जाता है। आप जानते हैं, हम अंतर्मुखी आदमी को कहते हैं, बुद्धू। लेकिन कभी समझा आपने, सोचा कि यह बुद्धू शब्द जो है बुद्ध से बना है!

असल में जब पहली दफा बुद्ध बैठ गए सब घर-द्वार छोड़कर, तो जो बुद्धिमान थे गांव में, उन्होंने कहा, बुद्धू निकला! बुद्ध को। क्योंकि बुद्धूपन तो था ही हम सबकी आंखों में, हम सबकी दुनिया में, हिसाब में। सुंदर स्त्रियां थीं, जैसी कि किसी आदमी को शायद ही कभी मिली हों। छोड़कर भाग गया! यह आदमी बुद्धू है। साम्राज्य था। हम जिंदगीभर खोजते हैं, और नहीं पाते। नाक रगड़ते रहते हैं पत्थरों पर और नहीं पहुंच पाते। और इस आदमी को जन्म से मिला था साम्राज्य। सिंहासन पर बैठने का क्षण आता था और भाग खड़ा हुआ! बुद्धू है।

बुद्ध को तो सीधा सामने किसी ने भी नहीं कहा होगा। लेकिन जब कोई और आदमी बुद्ध की तरह झाड़ के नीचे हाथ बांधकर बैठने लगा, तो उन्होंने कहा, यह भी बुद्धू हुआ; यह भी बुद्ध जैसा हुआ!

यह जो हमारा जगत है, वहां केवल बहिर्मुखता उपयोगी मालूम पड़ती है, अंतर्मुखी का कोई मूल्य नहीं है। कोई मूल्य नहीं है। लेकिन जीवन की गहराइयों में अंतर्मुखता का ही मूल्य है।

बुद्धू हम जिनको कहते हैं, वे हमको बुद्धू मानते हैं। बुद्ध से हम पूछने जाएंगे, तो वे हम को अज्ञानी मानते हैं। वे मानते हैं कि तुम सब नासमझ हो। क्योंकि तुम जो कर रहे हो, उससे कहीं पहुंचोगे नहीं। और जिन चीजों में तुम मूल्य देख रहे हो, उनमें कोई भी मूल्य नहीं है। अगर हार गए, तब तो हारोगे ही; अगर जीत गए, तो भी मुश्किल में पड़ोगे।

जिंदगी बहुत कंपनसेशन करती है, बहुत हैरानी के। जो लोग जिंदगी में असफल रहते हैं, उनको जिंदगी में तकलीफ होती है। असफलता की पीड़ा, अहंकार को चोट लगती है। जो लोग सफल हो जाते हैं, उनको मरते वक्त भारी पीड़ा होती है। बराबर हो जाता है दोनों का पलड़ा। मरते वक्त सफल आदमी को भारी पीड़ा होती है कि सब किया-कराया गया!

मैंने सुना है, एक आदमी बड़ा व्यवसायी है। लेकिन धीरे-धीरे कुछ दिन से पता चलता है कि उसका मुनीम पैसे हड़प रहा है। धीरे-धीरे बात पक्की हो गई, प्रमाण हाथ लग गए, तो उस मालिक ने उस मुनीम को एक दिन बुलाया और कहा कि तुम्हारी तनख्वाह कितनी है? उस मुनीम ने कहा कि पंद्रह सौ रुपए महीना। उस मालिक ने कहा, मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं। और आज से तुम्हारी तनख्वाह करते हैं दो हजार। फिर कहा, नहीं-नहीं-नहीं, दो हजार तो कम ही होगा। तुम्हारा काम देखते हुए ढाई हजार करना ठीक होगा। मुनीम तो एकदम हैरानी से खड़ा हो गया। उसने कहा, क्या कह रहे हैं आप! एकदम हजार रुपए की बढ़ती! छाती जोर से धड़कने लगी। मालिक ने कहा कि इतने से तुम खुश हो गए? मैंने तो सोचा था कि तीन हजार…। उस मुनीम ने हाथ पकड़ लिए और कहा, धन्यवाद! मालिक ने कहा कि एक आखिरी बात और कि आज से तुम्हारी नौकरी खतम। उस आदमी ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? अगर नौकरी ही खतम करनी थी, तो तीन हजार तक तनख्वाह क्यों बढ़ाई? उस मालिक ने कहा, अब तुम जरा ज्यादा परेशान रहोगे। पंद्रह सौ की नौकरी नहीं छूट रही है, तीन हजार की छूट रही है! अब जाओ।

सफल आदमी मरते वक्त पाता है कि तीन हजार की नौकरी गई। मुश्किल से तो राष्ट्रपति हो पाए थे, वह गया मामला! चपरासी मरते वक्त इतनी तकलीफ नहीं पाता। चपरासी जिंदा में बहुत तकलीफ पाता है, कि सिर्फ चपरासी! राष्ट्रपति मरते वक्त तकलीफ पाता है कि राष्ट्रपति हुए और मरे। तीन हजार तनख्वाह मिली, एंड फायर्ड!

जिंदगी बराबर कर देती है चपरासी और राष्ट्रपति को। चपरासी को जिंदगी में तकलीफ मिल जाती है, राष्ट्रपति को मरने में। अगर हिसाब लगाने जाएं, तो कुछ फर्क नहीं रहता। पलड़े बराबर हो जाते हैं।

बुद्ध जैसा आदमी कहेगा, तुम यह सब पाकर करोगे क्या? आखिर में एकदम हटा दिए जाओगे सबसे। और जो चीज छीन ही ली जानी हैं, उन्हें हम खुद छोड़ देते हैं अपनी मौज से। जो स्त्रियां छिन जाएंगी, जो धन छिन जाएगा, वह हम छोड़ देते हैं अपनी मौज से। हम मालिक हैं अपने। तुम गुलाम हो। तुम तड़पते हुए मरोगे; हम खुशी से जिंदा रहेंगे। और मौत हमसे कुछ भी न छीन पाएगी। मौत हमारे पास आकर थक जाएगी और हार जाएगी और मुश्किल में पड़ जाएगी कि क्या छीनो! क्योंकि हम सब पहले ही दे चुके, जो मौत हमसे ले लेती।

इस पृथ्वी पर बुद्धिमान लोगों ने वह सब खुद ही छोड़ दिया है, जो मौत उनसे छीन लेती है। और जिस व्यक्ति को मौत का खयाल है, वह अंतर्मुखी हो जाएगा; और जिसको जिंदगी का खयाल है, वह बहिर्मुखी हो जाएगा। जिंदगी में बहिर्मुखता उपयोगी है। मौत को ध्यान में रखिएगा, तो अंतर्मुखता उपयोगी है।

इसलिए जिन समाजों में मौत का स्मरण रहा है सदा, वे अंतर्मुखी रहे। और जिन समाजों में मौत भुला दी गई, उन समाजों में बहिर्मुखता बढ़ गई।

बुद्ध के पास कोई जाता, तो वे कहते, पहले ध्यान मत करो, पहले मरघट पर तीन महीने रहकर आओ। वह कहता, लेकिन मुझे ध्यान सीधा सिखा दें; मरघट से क्या मतलब है? बुद्ध कहते, जो आदमी मौत के प्रति जागा नहीं, वह अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट नहीं हो सकता। पहले तुम देखकर आओ, जिंदगी का फल क्या है! तब तुम्हारी बहिर्मुखता टूटेगी। पहले तुम देखो कि जो सफल हुए थे, वे कहां जा रहे हैं! जिन्होंने जिंदगी में सब पा लिया था, आखिर में वे अर्थी पर बंधे हुए मरघट पहुंच जाते हैं। तुम जरा मरघट पर तीन महीने रहकर देख आओ कि बहिर्मुखता का अंतिम परिणाम क्या है! फिर तुम अंतर्मुखी हो सकोगे।

लेकिन हम मौत की बात ही नहीं करते। बच्चों को हम कभी मौत की बात नहीं बताते। अर्थी निकलती हो, तो बच्चों को मां घर में बुला लेती है, भीतर आ जा। बाहर कोई अर्थी निकल रही है! बुद्धिमान मां हो, तो बच्चे को बाहर ले आना चाहिए कि देख, अर्थी निकल रही है। लेकिन तब मुश्किल में पड़ेगी वह। क्योंकि कहीं बच्चा अगर ज्यादा बुद्धिमान हो जाए, तो मुश्किल आ सकती है। बच्चा अगर पूछने लगे, अगर सभी को मर जाना है, तो फिर इस सब दौड़-धूप का क्या फायदा?

लेकिन मां-बाप अपने बच्चे के कंधे पर यात्रा करना चाहते हैं लंबी। वह श्रवण के अंधे मां-बाप ने तो तीर्थयात्रा की थी, बाकी सब मां-बाप भी अपने बच्चों पर धन की, यश की यात्रा करना चाहते हैं। सभी अंधे यात्रा करना चाहते हैं। वह कोई श्रवण के मां-बाप करना चाहते थे, ऐसा नहीं। सभी अंधे यात्रा करना चाहते हैं। फिर भी उन्होंने बेचारों ने तीर्थयात्रा की थी। सभी मां-बाप अपने बच्चों के कंधों से यात्रा करना चाहते हैं, इसलिए बच्चा अगर यात्रा करने में सहायता न दें, तो मां-बाप बड़े पीड़ित होते हैं।

एक मेरे मित्र हैं। उनका युवा पुत्र मर गया। पुत्र एक राज्य में मिनिस्टर था। बड़े पीड़ित हुए, बड़े दुखी हुए। मेरे निकट हैं। मैंने उनसे पूछा, इतनी पीड़ा, इतना दुख, बात क्या है? कहने लगे कि अगली बार उसके चीफ मिनिस्टर हो जाने की बिलकुल संभावना थी। मैं तो बहुत चौंका। मैंने सोचा भी नहीं था कि गहरे में पीड़ा कहां छिदती है।

चीफ मिनिस्टर हो जाने की संभावना थी! खुद भी होना चाहा है जिंदगीभर उन्होंने; हो नहीं पाए हैं। अब अपने अहंकार को पुत्र के कंधों पर रखकर यात्रा करना चाहते थे। वह हो जाता। वह मर गया। कहने लगे कि अब मैं तो बिलकुल मरा ही जैसा हो गया हूं। मैंने कहा, अभी दूसरा बेटा है, उस पर कुछ इरादे बांधो! कहे, वह है तो जरूर, लेकिन उतना योग्य नहीं है।

जिस दिन उनके घर गया, पुत्र मर गया है, लेकिन वे सब तारों की गड्डी पास में लिए बैठे हैं! जब मैं उनके घर गया सांत्वना प्रकट करने कि न हों परेशान, तो गड्डी उन्होंने सरका दी। कहा कि देखें, राष्ट्रपति का भी तार आया, प्रधान मंत्री का भी तार आया। लड़के का मरना, आंसू बह रहे हैं। लेकिन राष्ट्रपति का तार आया है, उसकी चमक भी है आंखों में। आदमी का मन!

बाप बेटों पर यात्रा करना चाहते हैं। जो खुद नहीं कर पाए, अनफुलफिल्ड ड्रीम्स, अधूरे रह गए, अतृप्त सपने बच्चों पर पूरा करना चाहते हैं। तो इसलिए वे उनको बहिर्मुखी बनाएंगे ही; वे उनको छोड़ नहीं सकते। अंतर्मुखी वे हो जाएं, तो कठिनाई हो जाएगी।

जिंदगी का खयाल रखा, तो जिंदगी में उपयोगिता बहिर्मुखता की है। अगर मृत्यु का स्मरण रखा, तो उपयोगिता अंतर्मुखता की है। और ध्यान रखें, जिंदगी तो चली जाएगी; मृत्यु बहुत थिर और स्थायी है। और जिंदगी का आखिरी पड़ाव मौत है। जो आखिरी पड़ाव को सम्हाल लेता है, वही आगे की यात्रा को सम्हालता है। और जो यहां बीच की व्यर्थ की बातों को सम्हाल रहा है, वह कुछ सम्हाल नहीं पाता, सिर्फ समय को खोता है। इसलिए हम बहिर्मुखी हो जाते हैं।

लेकिन जो बहिर्मुखी है, आज अगर हम उसे चाहें कि वह अंतर्मुखी हो जाए, तो बहुत कठिन है। जन्मों की यात्रा है उसकी बहिर्मुखता की। अगर हम कहें कि तू अंतर्मुखी हो जा, तो वह कहेगा कि असंभव मालूम होता है। फिर अगले जन्म तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन अगले जन्म में भी वह अंतर्मुखी हो नहीं पाएगा। क्योंकि इस जिंदगी का और जुड़ जाएगा बहिर्मुखता की यात्रा का हिस्सा। वह और भी बहिर्मुखी हो जाएगा।

इसलिए कोई जरूरत नहीं है कि बहिर्मुखी अंतर्मुखी हो, तभी धार्मिक हो सके। बहिर्मुखी बहिर्मुखी रहते हुए धार्मिक हो सकता है। उसकी धर्म की साधना में भेद होंगे। वही भेद कृष्ण स्पष्ट कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, भेद यही है कि बहिर्मुखी कर्म को छोड़ नहीं सकेगा। कर्म को करे, फल को छोड़ दे। कर्म में दौड़े, फल को छोड़ दे। कर्म करे, कर्ता को भुला दे। बहिर्मुखी रहे, लेकिन इस बहिर्मुखी यात्रा को भी धन से हटाकर धर्म पर लगा दे। पदार्थ से हटाकर परमात्मा पर लगा दे। पद से हटाकर परमपद पर लगा दे। इतना करे। धीरे-धीरे वहीं पहुंच जाएगा, जहां अंतर्मुखी पहुंचता है।

अंतर्मुखी का मार्ग अलग होगा। यह बदलाहट कठिन है। लेकिन कभी-कभी बदलाहट होती है। असंभव नहीं है। मैंने कहा, साधारणतः बहिर्मुखी अंतर्मुखी नहीं बनाया जा सकता। अंतर्मुखी बहिर्मुखी नहीं बनाया जा सकता। लेकिन कभी-कभी बदलाहट होती है।

बदलाहट दो कारणों से होती है। या तो कोई इतना बहिर्मुखी हो कि उसके जीवन में अंतर्मुखता न के बराबर, शून्य शेष रह जाए। सिर्फ बहिर्मुखी ही हो जाए। धन ही धन, धन ही धन; मकान, धन, दौलत, यश, इसी-इसी में डूब जाए। इतना डूब जाए, और उसी डूबे में कोई इतना बड़ा धक्का, कोई इतना बड़ा शॉक आ जाए कि सब छितर-बितर हो जाए, तो एकदम से कनवर्शन होता है। इतना बड़ा धक्का आए कि उसके बाहर के बनाए हुए सारे महल ताश के पत्तों की तरह एकदम गिर जाएं। सब राख हो जाए। इतने बड़े धक्के में संभावना है कि वह एकदम लौट जाए।

लेकिन अगर छोटा-मोटा बहिर्मुखी होगा, तो नहीं लौटेगा। आखिरी एक्सट्रीम पर गया हुआ बहिर्मुखी होगा, तो लौट सकता है। अंत पर पहुंच गया हो, जो भी पाने जैसा था पा लिया हो, और फिर सब जमीन पर गिरकर मिट्टी में मिल जाए। तो ऐसा आदमी–अब आगे तो कोई उपाय बचता नहीं–पीछे लौट जाता है।

लेकिन अगर पूरा बहिर्मुखी न हो, पचहत्तर परसेंट हो, तो अभी पच्चीस परसेंट आगे यात्रा बाकी रहती है। वह सोचता है, कोई बात नहीं। इस मध्यावधि चुनाव में नहीं आए, कोई फिक्र नहीं। डेढ़ साल और रुक जाओ। और रुक जाओ, डेढ़ साल और प्रतीक्षा करो। फिर एक दांव लगाया जाए। अभी मोरारजी तक नहीं थके हैं। अभी डेढ़ साल के बाद दांव लगाने की आकांक्षा है! बहिर्मुखता अगर पूरी हो, तो भी किसी बड़ी दुर्घटना के क्षण में–दुर्घटना के क्षण में–व्यक्ति सब छोड़ देता है, कि ठीक है, जाने दो। मिट्टी हो गया जो किया। ठीक उलटे पर लौट जाता है।

इसलिए कभी कोई वाल्मीकि गहन पाप करते-करते क्षणभर में संत हो जाता है। बहिर्मुखी है पूरा; अंतर्मुखी हो जाता है। एक गहन घटना घट गई, एक बहुत बड़ा शॉक, जो सोचा भी नहीं था। वाल्मीकि को खयाल न था। वाल्मीकि तो बाद में हुए। तब तो उनका नाम बाल्या भील था। काम था, डकैती, हत्या।

एक साधु को लूट लिया। पर उस साधु ने कहा कि तुम इतना उपद्रव, इतनी लूट-खसोट, यह सब करते हो। किसके लिए? मुझे मारना जरूर। रस्सी से बांधकर एक वृक्ष से कस दिया। कहा, मारना जरूर। लेकिन इतना जवाब तो दे दो! क्योंकि मेरा तो काम पूरा हो गया, साधु ने कहा, मेरे मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इतना तो बता दो कि यह करते किसलिए हो? उसने कहा, अपने घर वालों के लिए। तो उस साधु ने कहा, मुझे यहां बांध जाओ और जरा घर वालों से पूछकर आओ कि इस हत्या का जो फल होगा, उसके लिए वे बंटाने को राजी हैं? भागीदार होंगे?

आदमी शांत और सीधा मालूम पड़ता था। मरने को तैयार था। भागता नहीं था। सीधा बंधकर खड़ा हो गया था। बाल्या ने सोचा, पूछ लूं। हर्ज क्या है! लौटकर घर जाकर पत्नी से पूछा कि मैं इतनी हत्याएं करता हूं, इतने डाके डालता हूं। कल अगर इसके फल में मुझे नर्क जाना पड़े, तो कौन-कौन मेरे साथ चलेगा? पत्नी ने कहा, यह तुम जानो। यह तुम्हारा काम! इससे हमारा क्या लेना-देना? हमें तो तुम पत्नी बनाकर घर ले आए हो। दो रोटी दे देते हो, काफी है। तुम कहां से रोटी लाते हो, यह तुम जानो। तुम कैसे रोटी लाते हो, यह तुम्हारा काम है। पिता से पूछा। पिता ने कहा कि मुझ बूढ़े को क्यों फंसाते हो? तुम्हारा काम, तुम जानो! बूढ़ा आदमी हूं, मुझे दो रोटी देते हो, इतना तुम्हारा कर्तव्य है बेटे होने की तरह।

सारा भवन गिर गया उसका। सारी हत्याएं आंख के सामने खड़ी हो गईं, सारे डाके। जिनके लिए किए थे, वे भागीदार बनने को राजी नहीं हैं! लौट पड़ा। आदमी बदल गया। कोई सोच नहीं सकता था, इस डकैत और लुटेरे से रामायण का जन्म होगा। लौट गया बिलकुल। बात ही खतम हो गई। वह जिस साधु से उसको संदेश मिला था, वह साधु तो पीछे पड़ गया होगा, वाल्मीकि और भी आगे निकल गया।

क्या हुआ? एक दुर्घटना। एक ऐसा धक्का, जिसमें सारा मकान जिस बुनियाद पर खड़ा था, वह ढह गया। कभी ऐसा कनवर्शन…।

इसी को मैं कनवर्शन कहता हूं। हिंदू मुसलमान हो जाए, इसको मैं कनवर्शन नहीं कहता। यह निपट नासमझी है। ईसाई हिंदू हो जाए, यह पागलपन है। इसमें कोई मतलब नहीं है। ये सब पोलिटिकल स्टंट हैं कि कोई हिंदू को ईसाई बनाता रहे; कोई ईसाई को हिंदू बनाता रहे। कोई आर्यसमाजी किसी को शुद्ध करे; कोई किसी को अशुद्ध करे। यह सब पागलपन है।

एक ही कनवर्शन है, और वह कनवर्शन है, संसार से चित्त हट जाए और परमात्मा की तरफ चला जाए। एक ही रूपांतरण है, और कोई रूपांतरण नहीं है। ऐसे क्षणों में कभी होता है कि बहिर्मुखी एकदम अंतर्मुखी हो जाता है। लेकिन यह कभी-कभी होता है। मुश्किल से होता है। इसका हिसाब नहीं रखना चाहिए। यह एक्सेप्शनल है, अपवाद है। इसको नियम नहीं बनाना चाहिए। नियम तो यही है कि आप जो हैं, उसका ही उपयोग करके धर्म की यात्रा पर निकलें। प्रतीक्षा न करें कि अंतर्मुखी हो जाएंगे, तब।

इसमें एक-दो बातें और खयाल में ले लें।

साधारणतः आदमी बीच में होते हैं, न पूरे अंतर्मुखी होते हैं, न पूरे बहिर्मुखी होते हैं; मीडियाकर होते हैं। इनकी बड़ी तकलीफ होती है। इनकी जिंदगी में सब कुछ कुनकुना, ल्यूकवार्म होता है। न तो इतना उबलता कि भाप बन जाए, न इतना ठंडा होता कि बर्फ बन जाए। बस कुनकुना रहता है! दोनों तरफ यात्रा हो सकती है। पानी बहुत ठंडा हो जाए, तो बर्फ हो जाता है; पानी नहीं रह जाता। उबल जाए, भाप बन जाए, तो फिर पानी नहीं रह जाता। लेकिन कुनकुना बना रहे–न इधर, न उधर–वह पानी ही बना रहता है। न कभी वह सौ डिग्री तक पहुंचता है कि भाप बनकर उड़ जाए आकाश में। न कभी वह इतने शून्य डिग्री के नीचे पहुंचता है कि जमकर पानी बर्फ हो जाए।

अंतर्मुखता भी एक छोर है, बहिर्मुखता दूसरा छोर है। दोनों छोरों में से कहीं से भी छलांग लग सकती है। लेकिन बीच में से कहीं छलांग नहीं लग सकती। इसलिए बीच के लोग सबसे ज्यादा तकलीफ में पड़ जाते हैं। फिर भी बीच में भी बहुत कम लोग हैं, न के बराबर। और जिसकी समझ में आ जाए कि मैं बीच में हूं, उसे भी देखना चाहिए कि उसका झुकाव क्या है। अगर बहिर्मुखता का है, तो ठीक है। अंतर्मुखता का है, तो ठीक है। और अपनी नियति और अपने व्यक्तित्व को, अपने साइकोलाजिकल टाइप को ठीक से समझकर उसके अनुकूल साधना पद्धति को चुन लेना चाहिए।

यहां कृष्ण दो की बात कर रहे हैं, कर्म-संन्यास और कर्म-त्याग। इन दो में से कोई भी एक चुन लेना चाहिए। क्या चुनते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता। कहां पहुंचते हैं, असली सवाल यही है।

कृष्ण का व्यक्तित्व?

हां, पूछते हैं, कृष्ण का व्यक्तित्व कैसा है? यह थोड़ा कठिन है। यह थोड़ा कठिन इसलिए है कि कृष्ण के पास व्यक्तित्व नहीं है। इसलिए कठिन है।

जो पहुंच जाता है, उसके पास व्यक्तित्व खो जाता है। व्यक्तित्व उनके पास होते हैं, जो यात्रा में हैं। मंजिल पर व्यक्तित्व नहीं होते। मंजिल पर तो परमात्मा ही बचता है। व्यक्तित्व यात्रा में होते हैं। जैसे वाहन! मैं बैलगाड़ी पर बैठा हूं, आप हवाई जहाज पर बैठे हैं, कोई रेलगाड़ी में बैठा है, कोई मोटरगाड़ी में बैठा है। ये वाहन तो यात्रा में होते हैं। मंजिल पर पहुंचे कि वाहन से उतर जाता है आदमी। फिर न हवाई जहाज में होते हैं आप, न बैलगाड़ी में होते हैं। बैलगाड़ी भी गई, हवाई जहाज भी गया, मंजिल आ गई।

कृष्ण जैसे लोग मंजिल पर खड़े हुए लोग हैं। ये व्यक्तित्व से उतर गए। व्यक्तित्व गया। उसी व्यक्ति को हम अवतार कहते हैं, जिसका व्यक्तित्व नहीं है। इसको समझ लें। उसी व्यक्ति को अवतार कहते हैं, जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। जब अपना व्यक्तित्व नहीं होता, तभी तो परमात्मा प्रकट होता है। जब तक अपना व्यक्तित्व होता है, तब तक प्रकट नहीं होता।

कृष्ण तो बांसुरी की तरह हैं। अपना कोई स्वर नहीं है। परमात्मा जो बजा दे, वही। बांसुरी को कुछ गाना नहीं है। बांसुरी के पास अपना गीत गाने को नहीं है। बांसुरी तो पोली है, बांस का टुकड़ा है पोला। बस, परमात्मा जो बजा दे, वही बज जाएगा। कृष्ण जैसे व्यक्ति इसीलिए अवतार हैं, व्यक्ति नहीं हैं। पर्सनैलिटी गई। शून्य की भांति हैं खाली, रिक्त। अपना कुछ भी नहीं बचा। अब तो परमात्मा जो करवा ले। इसलिए कृष्ण के पास व्यक्तित्व नहीं है, न बहिर्मुखी, न अंतर्मुखी। कृष्ण के पास व्यक्तित्व ही नहीं है।

इसमें एक खयाल और ले लें।

महावीर भी जब ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, तो उनके पास कोई व्यक्तित्व नहीं बचता। बुद्ध भी जब ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, तो उनके पास भी कोई व्यक्तित्व नहीं बचता। लेकिन महावीर की जो साधना पद्धति है, उस साधना पद्धति के कारण एक व्यक्तित्व हमें मालूम पड़ता है। उनका कोई व्यक्तित्व बचता नहीं, लेकिन साधना पद्धति का एक व्यक्तित्व हमें मालूम पड़ता है। बुद्ध का भी एक व्यक्तित्व मालूम पड़ता है। उनकी भी एक साधना पद्धति है।

कृष्ण इस मामले में बहुत विशिष्ट हैं। उनकी एक साधना पद्धति नहीं है। वे समस्त साधना पद्धतियों की बात करते हैं। इसलिए उनका कोई व्यक्तित्व भी मालूम नहीं पड़ता। इसलिए कृष्ण को कोई जैसा चाहे, वैसा देख ले सकता है। भागवतकार कुछ और अर्थों में देखते हैं कृष्ण को; कवि कुछ और अर्थों में देखते हैं। केशव से पूछें, तो कुछ और कहेगा। सूर से पूछें, तो कुछ और कहेंगे। गीता के कृष्ण कुछ और मालूम होते हैं, भागवत के कुछ और मालूम होते हैं! हजार तरह की बातें उनके व्यक्तित्व से झलकती हैं। शून्य हैं। कोई एक साधना की पद्धति नहीं है।

इसीलिए राम को हमने कभी पूर्णावतार नहीं कहा। क्योंकि राम की एक विशिष्ट साधना पद्धति है, जीवन की एक व्यवस्था है। वह व्यवस्था ही उनका व्यक्तित्व मालूम पड़ती है। वे हमारे जगत से संबंधित होते हैं एक विशेष व्यक्तित्व को बीच में लेकर। कृष्ण हमसे सीधे संबंधित हैं; कोई व्यक्तित्व नहीं है। नग्न! कोई वस्त्र साथ में नहीं है। कोई मर्यादा नहीं, कोई सीमा नहीं।

इसलिए इस देश में हमने किसी को पूर्ण अवतार नहीं कहा सिवाय कृष्ण के। उसका कारण है। पूर्ण प्रकट हो रहा है उनसे। व्यक्तित्व से सदा अपूर्ण प्रकट होता है, चुना हुआ प्रकट होता है।

खतरे हैं पूर्ण प्रकट करने में। खतरा सबसे बड़ा तो यह है कि बहुत मिसअंडरस्टैंडिंग पैदा होगी। महावीर के संबंध में इतनी गलतफहमी नहीं हो सकती, क्योंकि उनकी रूप-रेखा साफ है। वे जो कहते हैं, वह एक साधना है। बुद्ध के संबंध में भ्रांति नहीं हो सकती, वे एक साधना हैं।

राम के संबंध में भ्रांति नहीं हो सकती; बात साफ है। राम प्रेडिक्टेबल हैं। अगर हमें पता भी न हो, अगर रामायण का एक पन्ना खो जाए, बिलकुल खो जाए, तो उस पन्ने को हम फिर से लिख सकते हैं। आगे के पन्ने और पीछे के पन्ने बता देंगे कि इस आदमी ने बीच में क्या किया होगा। प्रेडिक्टेबल है। अगर रामायण का एक अध्याय खतम हो जाए, तो फिर से लिखा जा सकता है; इसमें अड़चन नहीं आएगी। क्योंकि राम का व्यक्तित्व एक लीक में बंधा हुआ है, सीधा है। हम जानते हैं कि दो और दो चार हुए हैं, इतना सीधा है।

लेकिन कृष्ण के मामले में तय नहीं है। अगर एक अध्याय खो जाए, तो उसको दुबारा नहीं लिखा जा सकता, जब तक कृष्ण फिर से पैदा न हों। उसको कोई पूरा नहीं कर सकेगा। क्योंकि कुछ नहीं कहा जा सकता, यह आदमी क्या करेगा। यह बांसुरी बजाएगा बीच में, कि युद्ध में लड़ेगा, कि सखियों के साथ नाचेगा, कि स्त्रियों के कपड़े उठाकर वृक्ष पर चढ़ जाएगा! बीच में क्या करेगा, कुछ पक्का नहीं है। बीच में कुछ भी हो सकता है। अनप्रेडिक्टेबल है।

पूर्ण आदमी सदा ही भविष्यवाणी के बाहर होगा। और इसलिए पूर्ण व्यक्ति को समझना कठिन होगा। इसलिए कृष्ण को मानने वाले, प्रेम करने वाले बहुत हैं, लेकिन फिर भी कृष्ण को मानने वाले न के बराबर हैं।

कृष्ण को मानना बहुत दुरूह है, बहुत कठिन है। इसलिए जो भी मानता है, वह भी चुन लेता है। वह भी पूरे कृष्ण को नहीं मानता, वह भी चुनाव कर लेता है। कुछ लोग हैं, जो बाल-कृष्ण को मानते हैं। वे युवा-कृष्ण की बिलकुल बात ही नहीं करते। वे कहते हैं, हमारे तो बाल-गोपाल भले हैं। क्योंकि वह बाद का कृष्ण खतरनाक मालूम पड़ता है। तो वे तो कहते हैं, छोटा कन्हैया। उससे ही वे अपना काम चला लेते हैं। उनका डर अपना है। क्योंकि बाद में वह जो कृष्ण जवान हो जाता है और जवान होकर जो करता है, वह उनके लिए घबड़ाने वाला है।

अब सूरदास कैसे जवान कृष्ण को मानें! वे तो स्त्रियों को देखकर आंख फोड़ लिए! बड़ी कठिनाई है। कृष्ण और सूर के बीच, जवान कृष्ण और सूर के बीच तालमेल नहीं हो सकता। क्योंकि कहां सूरदास! देखा कि आंख भटकाती है वासना में, फोड़ दो आंख। आंख फोड़ दी! और कहां कृष्ण कि पूरी आंखें नचाकर बांसुरी बजा सकते हैं। और कहां सूरदास, आंख फोड़कर बैठ गए। सूरदास कहेंगे कि बाद का कृष्ण भरोसे का नहीं है। अपना बाल-कृष्ण ठीक है। वह सूरदास की सीमा है। इसलिए बाल-कृष्ण से अपना काम चला लेंगे।

अब अगर कोई केशव को कहे कि बाल-कृष्ण से काम चला लो–दही की मटकी तोड़े, यह करे, वह करे–वे कहेंगे, उसमें कुछ रस नहीं है। उसमें कोई खास बात नहीं है। केशव के लिए तो युवा कृष्ण, यौवन के पूरे राग-रंग में नाचता हुआ। क्योंकि केशव कहते हैं कि जो परमात्मा राग-रंग में पूरा न नाच सके, वह अभी कमजोर है। अभी उसे भी भय है क्या? आदमी भयभीत हो, समझ में आ जाए। परमात्मा भी भयभीत हो, तो फिर समझ में नहीं आता। वह तो अभय होकर…।

तो केशव बच्चे कृष्ण को छोड़ देंगे, युवा कृष्ण की कथा के आस-पास उनके सब गीत रचे जाएंगे। वह जो गीत-गोविंद का रूप होगा, वह युवा का होगा। वह राग-रंग है, युवा काव्य है, सौंदर्य है, संगीत है, वह सब उसमें आएगा।

ये अपने-अपने चुनाव होंगे। और कृष्ण इतने विराट हैं कि पूरा पचाने की हिम्मत न के बराबर होती है। थोड़ा-थोड़ा अपना जितना पच सके, आदमी चुन लेता है।

लेकिन मेरा कहना है, जब भी कोई चुनेगा, तब वह खंड कर देगा। और खंडित कृष्ण का कोई अर्थ नहीं होता। अखंड कृष्ण का ही कुछ अर्थ है। इसलिए मैं कहता हूं कि मानने वाले बहुत हैं, फिर भी मानने वाले न के बराबर हैं। क्योंकि जो पूरे अखंड कृष्ण को जान पाए, वही मान पाएगा, अन्यथा नहीं मान सकता है।

तो कृष्ण का कोई अपना व्यक्तित्व नहीं है। कृष्ण के सब व्यक्तित्व अपने हैं। इसलिए कृष्ण के हमने कितने नाम रखे, खयाल किया! इतने नाम रखे कृष्ण के, जिसका हिसाब नहीं। जितने नाम हो सकते हैं, सब कृष्ण के रख दिए। क्योंकि इतने आदमी इसमें झलके एक साथ! इतने व्यक्तित्व इसमें दिखाई पड़े।

कौन सोच सकता है कि जो आदमी बांसुरी बजाने जैसे कोमल जगत में जीता हो, वह आदमी चक्र लेकर खड़ा हो जाएगा! कोई सोच नहीं सकता कि जिन अंगुलियों ने बांसुरी बजाई हो, वे हत्या का चक्र भी हाथ ले सकती हैं! ये अंगुलियां बड़ी अजीब हैं! इनका व्यक्तित्व क्या है? बांसुरी बजाने वाली अंगुलियां चक्र हाथ में नहीं ले सकती हैं। सुदर्शन लेकर हत्या का इंतजाम करना, अचूक हत्या का इंतजाम करना, बांसुरी बजाने वाली अंगुलियों का काम नहीं है! इन अंगुलियों का कोई व्यक्तित्व अगर होता, तो यह मुश्किल था।

हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध या महावीर या जीसस चक्र लेकर खड़े हो जाएंगे। सोच भी नहीं सकते। लेकिन कृष्ण सोचे जा सकते हैं। इनकंसिवेबल हैं, सोचना कठिन पड़ता है, लेकिन वे कर सकते हैं।

यह जो व्यक्ति है, इसके पास अपना कोई निजी व्यक्तित्व नहीं है। इसलिए इस मुल्क के समझदार लोगों ने इसे पूर्ण अवतार कहा। पूर्ण अवतार इसीलिए कि जिसके पास अपनी कोई धारणा नहीं, जिसके पास अपना कोई वाहन नहीं, जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है; पूरा परमात्मा जैसा प्रकट होना चाहे, हो सकता है। जो जरा भी बाधा नहीं देगा।

अगर राम से परमात्मा कहे कि जरा नाचो, तो राम कहेंगे, ठहरिए! यह हमसे न हो सकेगा। नाचना! तो राम परमात्मा से कहेंगे, सम्हालिए। इतना आगे हम न जा सकेंगे। यह हमसे न होगा। राम परमात्मा में भी चुनाव कर लेंगे। वे कहेंगे, इतना हम प्रकट कर सकते हैं, इसके आगे हमसे प्रकट न होगा। हमारी सीमा है। लेकिन कृष्ण से कुछ भी कहे, वे राजी हो जाएंगे। राजी क्या, वे देर ही नहीं लगाएंगे। वे नाचने लगेंगे!

यह जो कृष्ण की स्थिति है, यह एक व्यक्तित्व-मुक्त, ट्रांस-पर्सनैलिटी, यह व्यक्तित्व-अतीत उनकी स्थिति है। और इसीलिए उनको हम पूर्ण कह पाए।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।। 10।।

जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता।

परमात्मा को समर्पण करके समस्त कर्मों को जीता है जो पुरुष, वह कमल के पत्तों की भांति जल में रहते हुए भी जल से, पाप से लिप्त नहीं होता है।

दोत्तीन छोटी-सी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। पहली बात, परमात्मा को समर्पित कर देता है जो!

हम भी परमात्मा को समर्पित करना चाहते हैं। कभी-कभी करते हैं, लेकिन केवल अपनी असफलताएं! सफलताएं कभी भी नहीं। केवल पराजय, जीत कभी भी नहीं। केवल दुख, सुख कभी भी नहीं।

कोई हार जाता है, तो कहता है, भाग्य। और कोई जीत जाता है, तो कहता है, मैं। कोई टूट जाता है, गिर जाता है, तो कहता है, अवसर, समय। सफल हो जाता है, तो कहता है, मैं। सफलताएं सब मैं को समर्पित कर देते हैं; असफलताएं सब परमात्मा को समर्पित कर देते हैं! दुख आते हैं, तो परमात्मा की तरफ हाथ उठाकर कहते हैं कि क्यों देता है दुख! सुख आते हैं, तो अकड़कर निकलते हैं कि देखा, सुख निर्मित कर लिया!

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब समर्पित कर देता है जो।

समर्पित तो हम भी करते हैं, सब नहीं, चुन-चुनकर समर्पित करते हैं। सब! कह देता है, हार तेरी, जीत तेरी। कह देता है, तू ही है, मैं नहीं। कह देता है, फल तेरे। न फल आएं, तो निष्फलता तेरी। मेरा कुछ भी नहीं। स्वभावतः, जो इतनी सामर्थ्य दिखा पाएगा…।

और ध्यान रहे, समर्पण से बड़ी सामर्थ्य नहीं है। समर्पण से बड़ा संकल्प भी नहीं है। समर्पण कमजोरों की दुनिया की बात नहीं है, समर्पण इस जगत में बड़ी से बड़ी शक्ति की घटना है।

जो कह देता है, सब तेरा, स्वभावतः उसी क्षण बाहर हो जाता है। स्वभावतः, उसी क्षण सारी झंझट के बाहर हो जाता है। फिर छुएगा कैसे! फिर पाप छुएंगे कैसे? जब कर्म ही नहीं छूता, तो पाप कैसे छुएंगे! पुण्य भी नहीं छुएंगे, ध्यान रखना। नहीं तो भूल होती है निरंतर गीता पढ़ने वालों को। वे सोचते हैं कि ऐसे आदमी को पाप नहीं छूते, पुण्य इकट्ठे करता चला जाता है! पुण्य भी नहीं छुएंगे। जिसे पाप नहीं छूते, उसे पुण्य छुएंगे? वह जो कमल का पत्ता होता है; क्या आप सोचते हैं, गंदा पानी उसको नहीं छूता, स्वच्छ पानी छू लेता है? क्या पानी में इत्र डाल देंगे, तो छू लेगा?

नहीं, जब कर्म ही नहीं छूते, तो न पाप छूता है, न पुण्य छूते हैं। कुछ भी नहीं छूता। वैसा आदमी अस्पर्शित, अनटच्ड जीवन से गुजर जाता है। बस, ठीक कमल के पत्ते की तरह। जल में ही होता है। पूरे समय जल की धार भी उस पर पड़ती है। कभी जल की लहरें छलांग मारकर उसकी छाती पर पड़ जाती हैं। बूंदें चमकने लगती हैं उसकी छाती पर मोतियों की तरह। लेकिन अस्पर्शित; पत्ते को छू नहीं पातीं। पड़ी रहती हैं ऊपर, तो पड़ी रहें। परमात्मा को समर्पित। सागर जाने, सागर की लहरें जानें। जब वापस लेना होगा हवा के झोंकों को, फिर उतर जाएंगी बूंदें। लेकिन पत्ता अस्पर्शित रह जाता है।

ठीक ऐसे ही, जो पुरुष कर देता सब कर्म समर्पित प्रभु को, वह भी अस्पर्शित जीवन में यात्रा करता है। और जिसे न पाप छुएं और न पुण्य, उसकी ताजगी, उसका क्वांरापन, उसकी वर्जिनिटी…। सच पूछें, तो वही क्वांरा है। जिसे छू जाएं पाप और पुण्य, वह क्वांरा न रहा।

ईसाइयों की कथा है कि जीसस क्वांरी लड़की से पैदा हुए। ईसाई समझाने में बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं कि कैसे पैदा हुए होंगे क्वांरी लड़की से! बड़ी मुश्किल में रहे हैं। ईसाइयों को बड़ी कठिनाई आई है कि कैसे समझाएं कि क्वांरी लड़की से पैदा हुए होंगे।

काश! जीसस को समझाने वालों को पता होता कि कर्मों के बाहर कमल के पत्ते की तरह भी रहा जा सकता है। अगर कर्मों के बाहर रहा जा सकता है, तो संभोग के क्षण में भी संभोग के बाहर रहा जा सकता है। अगर संभोग के क्षण में संभोग के बाहर रहा जा सके; वह व्यक्ति कहीं भी संभोग में सम्मिलित न हो, न पुरुष, न स्त्री; संभोग बाहर घटती घटना हो, परमात्मा को समर्पित; तो निश्चित कहना पड़ेगा कि यह बेटा वर्जिन मां का है; क्वांरी मां का बेटा है।

और मुझे लगता है कि जीसस क्वांरी मां से ही पैदा हुए होंगे। सच तो यह है कि जीसस के संबंध में यह बात दुनिया को पता चल गई। कृष्ण भी क्वांरी मां से पैदा होंगे। महावीर और बुद्ध भी क्वांरी मां से पैदा होंगे। क्योंकि इतना पवित्र पुत्र जिस मां से पैदा हो, उस मां को अगर क्वांरापन न हो, तो पैदा हो नहीं सकता।

पर क्वांरेपन का बहुत गहरा अर्थ है–अस्पर्शित, कृत्य के बाहर। कर्म परमात्मा को समर्पित है तब। तब कोई भी व्यक्ति इस जीवन से ऐसे गुजर जाता है, जैसे आया ही न हो। ऐसे गुजर जाता है कि जैसे हवा का झोंका आया और निकल गया। जैसा आया, वैसा ही निकल गया।

यह सूत्र, निष्काम कर्मयोगी हो कोई या कोई कर्म-त्याग के संन्यास में जी रहा हो, दोनों के लिए सार्थक है। एक ही बात स्मरण रखने की है, सारे कर्म परमात्मा को समर्पित!

वही है धार्मिक, जो कहता है कि करने वाला परमात्मा है। वही है अधार्मिक, जो कहता है, करने वाला मैं हूं। अगर आपने प्रार्थना करने में भी यह कहा कि मैंने प्रार्थना की है, तो आप अधार्मिक हो गए। आपने पूजा करके भी यह कहा कि मैंने पूजा की है, तो आप अधार्मिक हो गए! जहां कृत्य का भाव स्वयं से जुड़ा, अधर्म आ गया। और जहां कृत्य परमात्मा पर छोड़ दिया, वहीं धर्म है।

आज इतना ही! फिर कल हम बात करेंगे।

पांच मिनट बैठे रहेंगे, वैसे ही जैसे कमल का पत्ता पानी में बैठा रहता है। थोड़ा इस कीर्तन को इस कीर्तन की लहरों को उछल जाने दें आपके पास। शायद कुछ बूंद पड़ी रह जाएं! बैठे रहें पांच मिनट। इतनी देर बैठे रहे हैं, पांच मिनट जल्दी न करें। कोई एकाध जन बीच में उठता है, दूसरों को तकलीफ होती है। तो पांच मिनट भजन का आनंद लें, और फिर चुपचाप चले जाएं।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--2 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जीवन का सिंगार—(कविता)

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कुछ अंबर की बात करे, कुछ धरती का साथ धरे।
कुछ तारों की गूथे माला,फिर जीवन का सिंगार करे।

उलझे सपनों की रुनकझुनक, तारा मंडल की अभिलाषा सी।
कुछ मौन थिरकते शब्दों को, पढ़ने की है अस्मिता सी।
है बंधन,तटबन्धन तो जैसा, रेखाओं में बिंदी एक सीती सी।
अपनी आशाओं को कह दों, अब और नए कोई द्वार धरे।
कुछ तारों की गूथे माला, फिर जीवन का सिंगार करे…..

कुछ होना है, कुछ बनना है, यह जीवन बस यूं खोना है।
है अथक थकाते तटबन्ध भी, मुट्ठी भर बालू होना है।
सपने-सपनों पर चढ़कर कहते, कुछ पाना है या रोना है।
सांसों की ठंडी सेजों पर, टीसों का बिछा बिछौना है।
जीवन की छूटती नैया का सत्कार करे, सम्माैन करे।
कुछ तारों की बात करे, फिर जीवन का सिंगार करे।।

सहमे रातों के साए से, ना डर कर भागों बस थिर हो लो।
थम जाओ अ-मन मन कर लों, बन अंगद का तुम पग धर लो।
है सौर्य ध्या-न का ध्ववज फेरा, इस कुरू छेत्र को विजय कर लो
फिर शान्तौ मुकुट मन्दिकर बन कर, स्वतंत्रता के नये द्वार खोलों।
सायों की कालिक छानें तक, पथ-पाथेय पर कुछ ध्या्न धरे।
कुछ तारों की गूथे माला, फिर जीवन का सिंगार करे।।

कुछ कहने को जब कानों में, जब आकर हमे जगाते है।
हम पलकों को मल लेते है, और करवट ले सो जाते है।
उन सूलों को भी फूल समझ, सीने भी छिदते जाते है।
इक आस का पंछी बैठ कही, सपनों के राग सुनाते है।
गौ-धुलि बन मिटटी भी तेरा, हास करे परिहास करे।
कुछ अंबर की बात करे, कुछ धरती का साथ धरे।
कुछ तारों की गूथे माला, फिर जीवन का सिंगार करे।

स्वातमी आनंद प्रसाद ‘’मानस’’


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कठोरत्मद—हे मृत्यु. तुल्यु (कविता)

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है देव—तरू की कोमलता,
कांटे की कठोरता,
में भी वह पस्फुेटित नही होता,
क्या वहीं जीवन नहीं परिवर्तित,
क्या उस कठोर कंटक में भी नहीं
बहती वही सरस सुकोमल धारा।
पर क्याी उस कठोरता में दंभ नहीं है मैं का,
और उस कठोरता में छिपी नहीं कहीं मृत्युा।

वह अहं खो नहीं देता,
उस जीवन की सरलता-सरसता,
उसका झूमना इठलाना,
छीन नहीं लेता उसके जीवन से,
और भर देता एक झूठा दंभ।
—खो देता है अपनी नैसर्गिता को,
और चूक जाता है,
उस सरस माधुर्य से जो जीवन में श्रेष्ठक को।

सुकोमलता में ही जीवन का रहस्ये छुपा है,
वहीं वो रहता और रचाता-बसता है,
वहीं जन्महता है नया जीवन,
कितना कोमल और नाजुक होता है,
जब कहीं भी बनता है जीवन,
और मर कर हो जाता है कठोर,
क्या हम हो जाते होते है कठोर,
जब नहीं सरक जाते मृत्युर के कुछ करीब।
क्या इसमें कहीं छुपा हो है अहं,

जो जीवित है वो तरल है,
स्फुीटन भरा है।
है देव—फिर हम क्यों हो जाते है कठोर।
पाषाणता क्या— हमारी
पूजा की नियति है।
क्यों पुजते है, उस कठोर को,
उन देवालयों में
क्याे हम वैसा होना चाहते है।
नहीं देखते पल-पल जीवन का फेलाव,
प्लवित पुष्पोंज में, पक्षियों के कंठों के नाद में,
नदी के बहते जल में…………..
और जहां तहाँ तू भाषिता सा दिखता है।
क्या हम अंदर से पाषाण से नहीं हो गये है।
और वंचित हो रहे है,
उस जीवन धारा से,
तू तो जाना है।
फिर कभी क्योंै नहीं कहता,
किसी निशब्दी में चुप से,
हमारे कानों में आकर…..कि कठोरत्म. है मृत्युं तुल्यय।

स्वाेमी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’


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जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–30

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प्रेम है आत्‍यंतिक मुक्‍ति–प्रवचन—तीसवां

प्रश्‍न सार:

1—नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी, चंचल है मति मोरी।

2—आपने कहा कि जहां उत्‍कट प्‍यास होगी वहां पानी को आना ही पड़ेगा। अब पानी तो आ गया है; लेकिन क्‍या मैं तुरंत अंजुलि भरकर पानी पीना शुरू करूं, या पानीमुंह तक आ जाए, उसकी प्रतीक्षा करूं?

3—आपके प्रति इतना प्रेम हुए भी आपको सुनते वक्‍त कभी—कभी अकुलाहट और क्रोध क्‍यों उठने लगता है?

पहला प्रश्न:

नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी,

चंचल है मति मोरी!

भक्ति के मार्ग पर मन की चंचलता बाधा नहीं है। भक्ति के मार्ग पर मन की चंचलता साधन बन जाती है। वही भक्ति और ज्ञान का भेद है।

ज्ञान के मार्ग पर चंचलता बड़ी बाधा है। क्योंकि ध्यान उपजाना होगा। और ध्यान तो तभी उपजेगा जब मन की सारी कल्पनाएं, सारे विचार, सारी तरंगें सो जायें। ध्यान तो मन की अचंचल दशा का नाम है। तो ज्ञान के मार्ग पर चंचल मन शत्रु मालूम होता है। उससे संघर्ष करना होगा। लेकिन भक्ति के मार्ग पर चंचल मन से कोई विरोध नहीं है। जो लहरें मन की संसार के लिए उठती हैं उन्हीं लहरों को परमात्मा के लिए उठाना है। लहरें बनी रहें–बस परमात्मा के लिए उठने लगें! तरंगें उठती रहें, विचार हों, भावनाएं हों, कोई अड़चन नहीं है–लेकिन उन सभी भावनाओं और तरंगों और विचारों में परमात्मा का रूप समा जाये। चंचल मन भी उसके चरणों में समर्पित हो जाये

इसलिए भक्ति बड़ी सहज है, और ज्ञान असहज है। भक्ति तुम्हारे स्वभाव का उपयोग करती है। ज्ञान, तुम जैसे हो, उसे इनकार करता है; और तुम जैसे होने चाहिए, उसके आदर्श को निरूपित करता है। भक्ति कहती है, तुम जैसे हो, ऐसे ही भगवान को स्वीकार हो। तुम भर भगवान को स्वीकार कर लो, भगवान ने तुम्हें स्वीकार किया ही हुआ है। उसके स्वीकार के बिना तुम हो ही न सकते थे। बुरे भले, जैसे हो, तुम उसके चरणों में अपने को डाल दो। तुम उससे ही कह दो कि हमारे किए कुछ न होगा। कर-करके ही तो हम भटके। किया तो बहुत, कुछ भी न हुआ। अब तेरी मर्जी!

तो भक्ति और ज्ञान के फासले को समझ लेना। यह प्रश्न साधक का तो सम्यक है, लेकिन शब्दावली भक्त की है।

“नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी

चंचल है मति मोरी!’

यह शब्दावली तो भक्त की है। और यह प्रश्न साधक का है, भक्त का नहीं। इसे तुम स्पष्ट अलग-अलग कर लोगे तो सुलझाव हो जायेगा। अगर तुम साधक होने के मार्ग पर हो तो भक्ति का कोई सवाल नहीं है। “नरहरि’ का कोई सवाल नहीं है। तब तो तुम हो और तुम्हें अपने प्राणों को अपनी ही ऊर्जा से शुद्ध करना है। तब तुम अकेले हो; कोई संग-साथ नहीं है।

लेकिन, अगर तुम भक्ति के मार्ग पर हो तो “नरहरि’ तुम्हें घेरे खड़ा है; तुम्हारी श्वास-श्वास में छिपा है। तुम जब चंचल होते हो तब वही तुम्हारे भीतर चंचल हो रहा है। ये लहरें भी उसी की हैं, यह सागर भी उसी का है।

यह सागर और लहर में फासला क्यों करते हो? लहर हो सकती है सागर के बिना? सागर हो सकता है लहर के बिना? सागर होगा लहर के बिना तो मुर्दा होगा। उसमें प्राण ही न होंगे। उसमें जीवन का कोई लक्षण न होगा। और लहरें हो सकती हैं सागर के बिना? असंभव। न तो लहरें हो सकती हैं सागर के बिना; अगर होंगी तो किसी चित्र में चित्रित होंगी, वास्तविक न होंगी, कागजी होंगी। और सागर नहीं हो सकता लहरों के बिना; अगर होगा तो मुर्दा होगा। उसमें कोई जीवन न होगा। जीवन होगा तो हवाएं भी उठेंगी और जीवन होगा तो तरंगें भी उठेंगी। और जितना विराट सागर होगा उतने विराट तूफानों को झेलने की झमता होगी। ये लहरें भी उसी की हैं। यह मन भी उसी का! हम भी उसी के! यह तन भी उसी का!

भक्त की भाषा अलग है। इस प्रश्न में उलझन है। यह प्रश्न साफ नहीं है। और जिसने भी ये दो पंक्तियां रची होंगी, उसके मन में भी साफ नहीं थी बात कि वह क्या कह रहा है। उसके मन में खिचड़ी रही। प्रश्न तो साधक का था, और भाषा भक्त की थी। ऐसी उलझन में जो भी पड़ेगा वह बड़े संकट में पड़ जाता है–आत्मसंकट में। उसका मन दो खंड़ों में बंट जाता है। वह टिकिट तो लेता है कलकत्ता जाने की और ट्रेन में बैठ जाता है बंबई की। तो वह सोचता है, टिकिट भी मेरे पास है; और वह सोचता है टिकिट-चैकर मुझे परेशान क्यों कर रहा है! टिकिट उसके पास है, लेकिन उसे किसी और दिशा में जाना था। जहां वह जा रहा है, वहां की टिकिट उसके पास नहीं है।

ऋग्वेद में एक परम वचन है: “ऋतस्य यथा प्रेत’; जो प्राकृतिक है, वही प्रिय है। जो स्वाभाविक है, वही शुभ है। स्वभाव के अनुसार जीवन व्यतीत करो। ऋतस्य यथा प्रेत! यही लाओत्सु का आधार है: ताओ। पूरे ताओ को इस ऋग्वेद के एक छोटे-से सूत्र में रखा जा सकता है: ऋतस्य यथा प्रेत।

जो प्राकृतिक, वही प्रिय। तुम श्रेय और प्रेय को तोड़ो मत। जो प्रीतिकर लग रहा है वही श्रेयस्कर है। प्रीतिकर लगना श्रेयस्कर की खबर है। कहीं पास ही श्रेय भी छुपा होगा। तुम श्रेय के द्वार को खोज लो।

इसलिए वेदों का जो ऋषि है, वह कोई भगोड़ा नहीं है। उसने जीवन का निषेध नहीं किया है। जीवन का परम स्वीकार है। परमात्मा ने जो दिया है, वह प्रसाद है। वह उसकी भेंट है। उसका अस्वीकार कैसे हो? उसका त्याग कैसे हो?

त्याग का तो अर्थ ही होगा: कि तेरी भेंट हम…राजी नहीं होते तेरी भेंट से! तेरी भेंट, भेंट के योग्य नहीं! तूने जीवन दिया, यह ले वापिस!

दोस्तोवस्की के बड़े प्रसिद्ध उपन्यास “ब्रदर्स करमाझोव’ में एक पात्र नाराज होकर ईश्वर से कहता है: यह अपनी टिकिट तू वापिस ले ले। यह जीवन हमें नहीं चाहिए! सम्हाल अपने जीवन को! जीवन को जो त्यागकर जा रहा है, वह यही कह रहा है कि ये फूल हमें न भाये, ये फूल हमें शूल सिद्ध हुए। यह तूने जो वर्षा की थी, यह अमृत की नहीं थी, जहर की थी। और यह तूने हमें जीवन दिया था, यह देने योग्य न था। तूने किसे धोखा देना चाहा?

त्यागी यह कह रहा है कि हम छोड़ते हैं तेरे जीवन को; हमें आवागमन से छुटकारा चाहिए। त्यागी प्रकृति के विपरीत चलता है। वह नदी की धार के विपरीत लड़ता है। वह गंगोत्री की तरफ बहता है; भक्त गंगासागर की तरफ। भक्त कहता है, जहां ले जाये गंगा! हम भी उसी के, गंगा भी उसी की, हवाएं भी उसी की। तो जहां भी पहुंचा देगा वहीं मंजिल होगी! और हम कौन हैं मंजिल को तय करें! तो अगर मन में तरंगें उठती हैं तो उन्हीं तरंगों में वह प्रभु के नाम को गुनगुनाता है।

इसलिए भक्त तुम्हें गुनगुनाता मिलेगा। ज्ञानी तुम्हें मौन मिलेगा। ज्ञानी बाहर से ही मौन नहीं है, भीतर से भी चुप है। शब्द उठा कि संसार उठा। वह संसार से ही नहीं डर गया, शब्द से भी डर गया है। भक्त तुम्हें बाहर भी गुनगुनाता मिलेगा, भीतर भी गुनगुनाता मिलेगा। लहरें उसे स्वीकार हैं। वह लहरों को बदलने की कीमिया जानता है। उसने लहरें भी परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दी हैं। वह इससे भयभीत नहीं होता। प्रकृति और उसके बीच कोई विरोध नहीं है। इनकार की भाषा उसे नहीं आती। वस्तुतः भक्त के लिए इनकार की भाषा में ही नास्तिकता छिपी है।

इसलिए ऐसा तो हुआ कि अनेक ज्ञानी नास्तिक हुए; लेकिन एक भी भक्त नास्तिक नहीं हुआ। यह तुम थोड़ा सोचना।

बुद्ध नास्तिक हैं। परमज्ञान को उपलब्ध हो गए, लेकिन नास्तिकता इससे नहीं छूटी है। महावीर नास्तिक हैं। परमज्ञान को उपलब्ध हुए, लेकिन परमात्मा की कोई जगह नहीं। क्योंकि जब पूजा की ही जगह न हो तो परमात्मा की कैसे जगह हो सकती है? जब प्रार्थना की ही जगह न हो तो परमात्मा की कैसे जगह हो सकती है?

तो एक अनूठी घटना घटी कि बुद्ध और महावीर जैसे परमज्ञानी नास्तिक हैं। जब पश्चिम को पहली दफा पता चला बुद्ध और महावीर का तो पश्चिम में तो ईसाई शास्त्री समझ ही न सका यह, कि धार्मिक और नास्तिक, यह हो कैसे सकता है! क्योंकि पश्चिम में इस्लाम, यहूदी, ईसाई, तीनों ही भक्ति के संप्रदाय हैं। वो ज्ञान के संप्रदाय, उनमें कोई भी नहीं है। तो उन्होंने एक ही तरह का ढंग जाना था–भक्त का। यह उनके लिए असंभव था कि भगवान के बिना भक्त हो कैसे सकता है! तो प्रथम-रूप जो किताबें लिखी गयीं जैन धर्म और बौद्ध धर्म पर, पश्चिम के लेखकों ने लिखीं, उन्होंने लिखा: ये नीतिशास्त्र की व्यवस्थाएं हैं, धर्म नहीं हैं। मारल कोड्स! क्योंकि धर्म तो ईश्वर के बिना होगा कैसे? लेकिन धर्म ईश्वर के बिना हो सकता है। वस्तुतः साधक का धर्म ईश्वर के बिना ही होगा।

भगवान, भक्त के हृदय का आविर्भाव है। वह पूजा का ही सघन रूप है। वह प्रार्थना ही पर्त दर पर्त जमती जाती है, तब परमात्मा बनती है। वह लहरें, तरंगें अस्वीकार नहीं की गयीं, तभी सागर मिलता है। ज्ञानी तो धीरे-धीरे लहरों को अस्वीकार करके सागर को भी छोड़कर मरुस्थल में विराजमान हो जाता है।

ऋतस्य यथा प्रेत!

तो घबड़ाओ मत! उसने तरंगें दी हैं, उसी को समर्पित कर दो। और उसी की बात उसे लौटा देने में लगता क्या है?

सामवेद में भी एक वचन है: देवस्य पश्य काव्यम्! यह जो दिखायी पड़ रहा है, यह परमात्मा का प्रगट काव्य है। छिपा है वही पीछे। यह जो गुनगुनाहट दिखायी पड़ती है प्रकृति के नाम से, इसके पीछे उसी का कंठ छिपा है। चाहे कोयल की कुहू-कुहू में और चाहे कौवों की शिकायत में–वही छिपा है। कांव-कांव हो कि कुहू-कुहू, अंधेरी रात हो कि प्रकाश से भरा हुआ दिवस हो, और जन्म हो कि मृत्यु हो–सब तरफ उसी के हाथ हैं। यह काव्य उसका है।

देवस्य पश्य काव्यम्! यह जो दिखाई पड़ रहा है संसार, यह उसी का प्रगट काव्य है। जैसे कवि तो छिपा है और हमें केवल कविता हाथ लग रही है।

तुम्हारे भीतर भी जो तरंगें उठा रहा है वह वही है। तुम भी उसी की तरंग हो। तुममें उठी तरंगें भी उसी की तरंगें हैं।

तो यदि भक्त का तुम्हारे पास मन हो तो चिंता मत करो। उसने तरंगें उठाने योग्य तुम्हें समझा, इसके लिए धन्यवाद दो। उसने तुम्हें जीवन दिया। उसने तुम्हें रस दिया। उसने तुम्हें होने के हजार-हजार आयाम दिये। उसने तुम्हें प्रेम दिया, राग-रंग दिए। स्वीकार करो! और स्वीकार करते ही तुम पाओगे कि दंश चला गया। कांटा नहीं चुभता फिर। भक्त तो कहता है:

पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिखे पर, नाहक

आदमी कोई हमारा दमेत्तहरीर भी था?

भक्त तो भगवान से कहता है कि फरिश्तों ने जो हमारे संबंध में खबर दी हैं, उनका भरोसा मत करना। हमारे पाप-पुण्यों का जो लेखा-जोखा तुम्हारे फरिश्तों ने बताया है उसका भरोसा मत करना। “आदमी कोई हमारा दमेत्तहरीर भी था?’ अगर पूछना हो तो आदमियों से पूछना, क्योंकि आदमी ही समझ पाएंगे कि तुमने हमें ऐसा बनाया था। फरिश्तों को क्या पता कि तुमने कितना प्रेम भर दिया था हमारे रग-रेशे में? फरिश्तों को क्या पता कि कितना नाच और कितनी तरंगें तुमने दी थीं? नहीं, इनकी बात पर भरोसा मत करना। अगर हमने भूल-चूक की हो तो तुमने करवायी थी। और अगर गवाह चाहिए हो तो आदमियों से पूछना, क्योंकि वे हमें समझ सकेंगे। क्योंकि जैसे वे हैं वैसे हम हैं।

पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिखे पर, नाहक

आदमी कोई हमारा दमेत्तहरीर भी था?

अगर कोई चश्मदीद आदमी हमारा गवाह हो तो ही बात का भरोसा करना।

ईसाइयत कहती है कि जीसस होंगे तुम्हारे गवाह। जीसस बाइबिल में जगह-जगह दो वचनों का उपयोग करते हैं। कभी-कभी वे कहते हैं, मैं हूं ईश्वर-पुत्र! लेकिन इससे भी ज्यादा बार वे कहते हैं, मैं हूं मनुष्य का पुत्र! सन आफ मैन! बड़ा जोर है उनका इस बात पर कि मैं आदमी का बेटा हूं; जैसे ईश्वर का बेटा होना नंबर दो है। और जीसस कहते हैं कि मैं तुम्हारा गवाह हूं। यह थोड़े सोचने जैसी बात है।

इस्लाम मुहम्मद को ईश्वर का अवतार नहीं मानता, न तीर्थंकर मानता है–इतना ही मानता है, ईश्वर का भेजा हुआ दूत; लेकिन आदमी। यह बात महत्वपूर्ण है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि आदमी ही आदमी का गवाह हो सकेगा। अगर राम तुम्हारे लिए गवाही देंगे तो गड़बड़ हो जायेगी, क्योंकि वे अपने मापदंड से सोचेंगे। उनके मापदंड बड़े कठोर हैं, अति कठोर हैं, अमानवीय हैं, असंभव हैं! कोई धोबी कह देता है अपनी पत्नी को कि “मैं कोई रामचंद्र नहीं हूं कि सालों सीता रावण के घर रही और फिर भी उसे स्वीकार कर लिया! एक रात भी अगर तू घर नहीं रही, मैं स्वीकार करनेवाला नहीं हूं।’ यह खबर काफी हो जाती है राम को सीता को त्याग देने के लिए।…मर्यादा!

अब ऐसा व्यक्ति अगर तुम्हारे बाबत गवाही देगा तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। इसकी गवाही का मापदंड बड़ा ऊंचा होगा, अमानवीय होगा। तुम तो इसके सामने हर हालत में पापी सिद्ध हो जाओगे।

इसलिए इस्लाम कहता है, मुहम्मद कोई ईश्वर के अवतार नहीं हैं। वे आदमी जैसे आदमी हैं। और आदमी की जो मुसीबतें हैं, उसकी मुसीबतें हैं। और आदमी की जो आंतरिक पीड़ाएं हैं! उनकी आंतरिक पीड़ाएं हैं। और आदमी के मन के जो भाव हैं, वेग हैं, वह उनके भाव, वेग हैं। उनकी गवाही का अर्थ है।

भक्त तो कहता है, तुमने जैसा बनाया वैसा मैं हूं। मैंने स्वयं को तो बनाया नहीं है। यह मन भी तुमने दिया है। मुझे तो सिर्फ मिला है। इसका कर्ता मैं नहीं हूं। इसलिए तुम जानो, तुम्हारी जिम्मेवारी है।

अगर भक्त को भगवान का स्मरण भी भूल जाता है तो भी वह बहुत चिंता नहीं करता। वह कहता है, तुम्हीं भुला रहे हो।

तू है तो तेरी फिक्र क्या,

तू नहीं, तो तेरा जिक्र क्या?

अगर तू है तो हमने तेरी फिक्र न भी की तो भी तू है! और अगर तू नहीं है तो तेरा जिक्र भी करते रहे तो क्या सार?

तू है तो तेरी फिक्र क्या,

तू नहीं, तो तेरा जिक्र क्या?

और निश्चित ही आदमी कमजोर है, असहाय है! क्षणभर भाव से भर जाता है; क्षणभर बाद भाव का तूफान उतर जाता है, ज्वार उतर जाता है, सब भूल जाता है।

देखो मंदिर में आदमी को पूजा करते–कैसी पवित्रता झलकती है उसके चेहरे से! नमाज पढ़ते देखो किसी को–कैसा निर्दोष भाव आंखों में उतर आता है! चेहरे पर कोई अद्वितीय आभा आ जाती है। फिर इसी आदमी को बाजार में देखो, किसी से लड़ते-झगड़ते, दुकान चलाते, तो तुम भरोसा ही न कर सकोगे कि वही आदमी है! मन है प्रतिपल बदला जाता: अभी कुछ, अभी कुछ। मन तरंगायित है। चंचल होना मन का स्वभाव है। अगर उसकी याद भी आती है तो भी थिर नहीं हो पाती। किसी क्षण बड़े जोर से आती है, रोएं-रोएं को कंपा जाती है। और कभी भूल जाता है तो दिनों निकल जाते हैं और याद नहीं आती। जब तुम्हें याद आती है, तब तुम चौंकते हो, रोते हो कि अरे, इतने दिन भूला रहा!

लेकिन मनुष्य की यह नैसर्गिक स्थिति है। श्वास भीतर जाती है, फिर बाहर जाती है। तुम भीतर ही श्वास को रखना चाहोगे, मर जाओगे। भीतर जो आयी है वह बाहर जायेगी। बाहर जो गयी है वह फिर भीतर आयेगी। ऐसा प्रतिपल श्वास का आंदोलन चलेगा। सभी स्थितियों में विरोध रहेगा। दिन काम करोगे, रात सो जाओगे। एक क्षण तय करोगे, दूसरे क्षण निश्चय टूट जायेगा। ऐसे ही श्वास आती-जाती रहेगी। ऐसी ही लहरों पर नौका डोलती रहेगी।

अब दो उपाय हैं। एक तो ज्ञानी का उपाय है, जो कि बड़ा दुर्गम है; क्योंकि स्वयं से चेष्टा करनी पड़ेगी। अपने छोटे-छोटे हाथों से इस पूरे सागर को शांत करना पड़ेगा। इसलिए महावीर को अगर हमने महावीर कहा तो ऐसे ही नहीं कहा। बड़ी घनघोर तपश्चर्या थी! दुर्धर्ष! जन्मों-जन्मों की तपश्चर्या थी, तब कहीं जाकर वह क्षण आया सौभाग्य का कि लहरें शांत हुईं। यह बड़ी लड़ाई थी। हां, जिन्हें लड़ने का शौक है वे इस रास्ते पर जा सकते हैं। यह रास्ता भी पहुंचा देता है। भक्त ने तो प्राकृतिक रास्ते को चुना है।

और अगर तुम नैसर्गिक और स्वाभाविक ढंग से, बिना बहुत जद्दोजहद के, बिना व्यर्थ का संघर्ष किए पहुंच जाना चाहते हो तो भक्त का ही रास्ता है। उसी पर छोड़ दो। जो ज्ञानी जन्मों-जन्मों में कर पाता है, भक्त क्षण में कर लेता है। और जो क्षण में हो सकता है उसको जन्मों-जन्मों में करने की जिद्द, जिद्द ही है। जो क्षण में हो सकता हो, उसे जन्मों-जन्मों तक करके क्या करना है? इकट्ठा ही छोड़ सकते हो…।

रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। वह हजार सोने की अशर्फियां लाया। उसने उनके चरणों में रख दीं और कहा कि यह मुझे आपको देना है। रामकृष्ण ने कहा कि ठीक है, अब तू ले आया है तो लौटाऊंगा तो तुझे बुरा लगेगा, ले लिया। ये मेरी हो गयीं। अब तू इतना काम कर दे मेरी तरफ से: इनको ले जाकर गंगा में डाल आ। यह मेरी हो गयीं। अब तू इतना काम और कर दे मेरे लिए कि इनको जाकर गंगा में डाल आ।

वह आदमी गया तो, लेकिन लौटा नहीं, बड़ी देर होने लगी। तो रामकृष्ण ने कहा कि जाओ, देखो वह क्या कर रहा है! वह वहां एक-एक अशर्फी को बजा-बजाकर, खनका-खनकाकर फेंक रहा था पानी में। भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। चमत्कार हो रहा था कि यह आदमी भी क्या कर रहा है! और वह एक-एक को बजाता, परखता, देखता, फेंकता। तो देर लग रही थी। गिनती रखता–तीन सौ तीन, तीन सौ चार–ऐसा धीरे-धीरे जा रहा था! तो रामकृष्ण ने कहा, उससे जाकर कहो कि नासमझ, जब इकट्ठी करनी हों तो एक-एक अशर्फी को जांच-जांचकर, परख-परखकर गिनती कर-करके, खाते में लिख-लिखकर करना पड़ता है। जब पूरी फेंकनी हैं नदी में तो हजार हुईं कि नौ सौ निन्यानबे हुईं कि एक हजार एक हुईं! जब फेंकना है तो इकट्ठा फेंका जा सकता है; गिन-गिनकर वहां क्या कर रहा है?

भक्त कहता है, जब डालना ही है उसके चरणों में तो गिन-गिनकर क्या डालना, इकट्ठा ही डाल देंगे! और यह भी अहंकार क्यों करना कि पुण्य ही उसके चरणों में डालेंगे!

यह भक्त की महिमा है। वह कहता है, पाप भी उसी के चरणों में डाल देंगे! यह भी अहंकार हम क्यों रखें कि हम पुण्य ही तेरे चरणों में चढ़ाएंगे, पाप न चढ़ाएंगे? इसमें भी बड़ी सूक्ष्म अस्मिता है छिपी हुई, कि मैं और पाप तेरे चरणों में चढ़ाऊं! नहीं, पहले पुण्य का निर्माण करूंगा, फिर चढ़ाऊंगा। मैं, और गलत तेरे चरणों में आऊं–नहीं! आऊंगा–सर्व सुंदर होकर, सर्वांग सुंदर होकर, महिमा से आवृत्त होकर–तब तेरे चरणों में रखूंगा! इसमें भी बड़ी अस्मिता है। भक्त कहता है, अब जैसा भी हूं, दीनऱ्हीन, बुरा-भला, सुंदर-असुंदर, स्वीकार कर लो!

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो

जमीन है न बोलती

न आसमान बोलता

जहान देखकर मुझे

नहीं जबान खोलता

नहीं जगह कहीं जहां

न अजनबी गिना गया

कहां-कहां न फिर चुका

दिमाग-दिल टटोलता

कहां मनुष्य है कि जो

उम्मीद छोड़कर जीया

इसीलिए अड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो

इसीलिए खड़ा रहा

कि तुम मुझे पुकार लो!

पुकार कर दुलार लो

दुलार कर सुधार लो!

भक्त कहता है, तुम्हीं…! पुकारकर दुलार लो, दुलारकर सुधार लो! तुम्हीं…!

भक्त की बड़ी अनूठी भाव-दशा है। भक्त को कुछ भी करना नहीं है, सिर्फ कर्तापन का भाव छोड़ना है। ज्ञानी को बहुत कुछ करना है–लंबी यात्रा है। और मजा यह है कि ज्ञानी कर-करके भी अंत में यही कर पाता है कि कर्तापन का भाव छोड़ पाता है। वह उसकी अंतिम सीढ़ी है। भक्त की वही प्रथम सीढ़ी है। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं, ज्ञानी क्रमशः चलता है, भक्त छलांग लगाता है। ज्ञानी सीढ़ी से उतरता है; भक्त छलांग लगाता है।

इसलिए महावीर के वचनों में तुम्हें एक क्रमबद्धता मिलेगी, एक वैज्ञानिक शृंखला मिलेगी। एक कदम दूसरे कदम से जुड़ा हुआ है। एक-एक कदम ब्योरेवार, साफ-साफ! सब इंगित-इशारे हैं। पूरा नक्शा है। जगह-जगह मील के पत्थर हैं। कितने आ गये, कितना आगे जाने को है–सब लिखा है।

महावीर ने चौदह गुणस्थान कहे हैं और पूरी यात्रा को चौदह खंडों में बांट दिया है। एक-एक खंड का स्पष्ट मील का पत्थर है। तुम पक्की तरह जान सकते हो कि तुम कहां हो, कितने चल गये हो और कितना चलने को बाकी है। चौदहवें गुणस्थान के बाद ही यात्रा पूरी होती है।

भक्त के पास कोई गुणस्थान नहीं है। भक्त के पास कोई नक्शा ही नहीं है। भक्त के पास कोई क्रमबद्ध सीढ़ियां नहीं हैं। भक्त को कुछ पता भी नहीं कि वह कहां है। वह इतना ही भर जानता है कि जहां भी हूं, उसी का हूं; जैसा भी हूं, उसी का हूं। बस इतना सूत्र उसके हृदय में सघन होता चला जाता है।

और यह निर्भर करता है तुम पर, चाहो तो एक क्षण में छलांग लग जाये, चाहो तो तुम जन्मों-जन्मों तक छलांग का विचार करते रहो।

जो गणित से जीते हैं उनके लिए ज्ञान का रास्ता है। जो प्रेम से जीते हैं उनके लिए भक्ति का रास्ता है।

“नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी

चंचल है मति मोरी!’

उस चंचल मति को उसके चरणों में रख दो! कहना, ले सम्हाल! फिर अगर वह कहे कि नहीं, तुम्हीं सम्हालो मेरे लिए, तो जैसे रामकृष्ण ने उस आदमी से कहा था कि जा मेरे लिए गंगा में फेंक आ, तो तुम सम्हालना जब तक उसने तुम्हें दी है। वह अमानत है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। वह कहता है, सम्हाल मेरे लिए। अमानत है, तो तुमने सम्हाल ली है; जब मांगेगा तब वापस लौटा देंगे।

दूसरा प्रश्न:

दो दिन पहले संध्या के दर्शन में आपने एक युवती से कहा था, श्रद्धा करो। और मैंने भी आपकी बात पर श्रद्धा की कि जहां उत्कट प्यास होगी वहां पानी को आना ही पड़ेगा। अब पानी तो आ गया है, लेकिन क्या मैं तुरंत अंजलि भर के पीना शुरू करूं या पानी मुंह तक आ जाये, इसकी धैर्य से प्रतीक्षा करूं?

तुम्हारी जैसी मर्जी!

साधना के जगत में हर जगह भक्त और साधक का फर्क है। साधक तत्क्षण अंजलि भरकर पी लेगा। भक्त थोड़ी मान-मनौवल चाहता है। वह कहता है, भगवान कहे, “पीयो!’ थपथपाए कि “चलो पीयो भी! माना कि बहुत देर प्यासे रहे, अब तो पी लो।’ तो वह रूठकर खड़ा हो जाता है।

झुकाया तूने, झुके हम, बराबरी न रही

यह बंदगी हुई ऐ दोस्त! आशिकी न रही।

वह बड़े मान-मनौवल लेता है। वह कहता है, “झुकें? क्यों झुकें?’ और वह यह इसीलिए कह पाता है, “क्यों झुकें’, क्योंकि वह झुका तो है ही।

सब उसने छोड़ा है तो यह हक अर्जित किया है कि वह थोड़ा रूठने-मनाने का खेल खेल सकता है।

साधक के सामने जब पानी आता है तो वह तत्क्षण पी लेता है, क्योंकि ऐसे ही तो बहुत प्रतीक्षा की उसने। और वह सदा डरा होता है कि कहीं छूट न जाये, आया हुआ कहीं खो न जाये। जिसने, इतने श्रम से आया है, इतनी लंबी यात्रा करके आया है, तब कहीं पानी के दर्शन हुए, वह तो एकदम झुक जाता है और पीने में लग जाता है। लेकिन भक्त को तो बिना कुछ किए मिलता है। वह कोई लंबी यात्रा करके आया नहीं है। “उसके’ प्रसाद से मिलता है। “उसकी’ अनुकंपा से मिलता है। उसने कुछ अर्जित किया, ऐसा नहीं है। उसने किसी योग्यता के बल पर पाया, ऐसा नहीं। उसने तो अपनी अपात्रता को जाहिर करके, उसके ही हाथ में सब छोड़कर पाया है। तो वह चाहे तो थोड़ी मान-मनौवल कर सकता है। रुक सकता है। वह कहता है, “आने दो, थोड़ा और जल को बढ़ने दो। इतना आ गया है तो ओंठ तक भी आ ही जायेगा। तब पी लेंगे। अंजुलि भी क्यों बांधें? और जिसने इतनी कृपा की है कि जल को ले आया है इतने करीब, वह इतनी और भी करेगा।’

उल्फत का जब मजा है कि वह भी हों बेकरार

दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई।

और भक्त को तो जैसे-जैसे भक्ति में गहराई आती है, वैसे-वैसे यह बात दिखाई पड़ने लगती है कि मैं ही उसे नहीं खोज रहा हूं, वह भी मुझे खोज रहा है। सचाई भी यही है। प्यासा ही जलस्रोत को नहीं खोज रहा है, जलस्रोत भी प्रतीक्षा कर रहा है कि आओ। क्योंकि जब प्यासा जलस्रोत पर तृप्त होता है, तब जलस्रोत भी तृप्त होता है। प्यासे की ही प्यास नहीं बुझती, जलस्रोत की भी जन्मों-जन्मों की प्यास बुझती है। जलस्रोत का सुख यही है कि किसी की प्यास बुझे।

तुम ही खोज रहे हो परमात्मा को, अगर ऐसा ही होता और उसे कोई प्रयोजन नहीं है तुमसे, तो खोज पूरी भी होती, इसकी संभावना नहीं है। क्योंकि अगर उसको रस ही न हो खोजे जाने में, तो तुम कैसे खोज पाते? तुम खोज पाते हो, क्योंकि वह भी चाहता है तुम खोज लो। वह ऐसी जगह खड़ा होता है कि तुमसे मिलन हो जाये। वह ऐसे तुम्हारे पास ही आकर खड़ा हो जाता है कि तुम जरा ही खोजबीन करो कि मिलना हो जाये।

तुमने बच्चों को देखा है न, छिया-छी खेलते, बस वही खेल है! वे कोई ज्यादा दूर नहीं चले जाते कि फिर तुम खोज ही न पाओ। वहीं कमरे में बिस्तर के पीछे छिपे हैं, कि पलंग के नीचे चले गए हैं। तुमको भी पता है, उनको भी पता है।

जिसको पता है वह भी दो-चार चक्कर लगाकर बिस्तर के नीचे आ जाता है कि अरे! और इस तरह चमत्कृत होता है कि जैसे कुछ पता न था। हालांकि वह आंख बंद किये खड़ा था, लेकिन उसने थोड़ी-सी आंख खोलकर देख लिया था कि कहां जा रहे हो! सबको पता है।

इसलिए हिंदू इस जगत को लीला कहते हैं।…छिया-छी है।

परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है। तुम्हीं अकेले नहीं हो खोज में। यह तुम्हारा हाथ ही उसके हाथ की तरफ नहीं बढ़ा है, उसका हाथ भी तुम्हारे हाथ की तरफ बढ़ा है। शायद तुमने हाथ बढ़ाया, उससे पहले ही उसने हाथ बढ़ा दिया है। तुम्हें जब से बनाया, तब से ही हाथ बढ़ाए खड़ा है। तुमने बड़ी देर कर दी है।

उल्फत का जब मजा है कि वह भी हों बेकरार

दोनों तरफ हो आग बराबर लगी हुई।

–आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है। प्यासा वह भी है कि तुम आओ।

वैज्ञानिक कहते हैं, सूरज निकलता है, फूल खिलते हैं। अब तक ऐसा ही समझा जाता रहा है कि यह एकतरफा लेन-देन है: सूरज निकला, फूल खिले। सूरज तो बहुत कुछ देता है फूलों को। सूरज के बिना तो फूल खिल न सकेंगे। कवियों को सदा इस बात पर संदेह रहा है और अब कुछ वैज्ञानिकों को भी संदेह होना शुरू हुआ है। और वह संदेह यह है कि एकतरफा तो जगत में कुछ भी नहीं हो सकता। यहां तो सब लेन-देन संतुलित है। यहां तो दोनों तराजू समान होने चाहिए। अन्यथा अव्यवस्था हो जायेगी। सूरज देता रहे, फूल लेते रहें; सूरज देता रहे, फूल लेते रहें–तो एक दिन सूरज का दिवाला निकल जायेगा। और फूलों के पेट इतने बड़े हो जाएंगे कि वे अपने को सम्हाल न पाएंगे। नहीं, फूल भी कुछ दे रहे होंगे। और सुबह जब सूरज निकलता है तो फूल ही नहीं खिलते, सूरज भी फूलों को खिला देखकर खिलता होगा।

यह अब तक तो कविता रही है। लेकिन अभी इधर दस वर्षों में वैज्ञानिकों को इस पर संदेह आने लगा है और शक होने लगा है कि यह कविता कहीं सच ही न हो। क्योंकि सब तरफ जीवन में लेन-देन बराबर है। तुम जिसे प्रेम देते हो, तत्क्षण उससे प्रेम पाते हो। अगर तुम ही प्रेम दे रहे हो और दूसरी तरफ से प्रेम नहीं लौटता, तुम जल्दी ही थक जाते हो। तुम उदास हो जाते हो। तुम अपने रास्ते पर लग जाते हो। तुम सोचते हो, यह द्वार अपने लिए नहीं। तुम अगर मित्रता बांट रहे हो और दूसरी तरफ से मित्रता के लिए कोई प्रतिसंवेदन नहीं होता, कोई संवाद नहीं उठता, दूसरे हृदय से कुछ खबर नहीं आती कि तुम्हारी मित्रता स्वीकार की गयी, अस्वीकार की गयी; चाही गई थी, नहीं चाही गई थी; दूसरा प्रसन्न हुआ कि नहीं प्रसन्न हुआ; दूसरा अगर तटस्थ ही खड़ा रहे उपेक्षा से–तो जल्दी ही मित्रता सूख जाती है। सींचना तभी संभव हो पाता है जब दोनों तरफ से बह चले; आये भी जाये भी; लौटे। और जब तुम किसी को प्रेम देते हो और प्रेम वापस लौटता है तो हजार गुना होकर लौटता है। फिर तुम देते हो, फिर हजार गुना होकर लौटता है। दो प्रेमी एक-दूसरे को देकर इतना पा लेते हैं जितना उन्होंने दिया कभी भी नहीं था; क्योंकि दोनों की तरफ हजार गुना होकर लौटने लगता है।

दो प्रेमियों का जोड़ केवल जोड़ नहीं होता, गुणनफल होता है। जो अंतिम हिसाब है उसमें ऐसा नहीं होता कि तीन + तीन = छह। उसमें ऐसा होता है: तीन तीन से = नौ। गुणनफल की तरह चलती है, बढ़ती जाती है संख्या। बड़ा होता चला जाता है। दोनों प्रेमी छोटे हो जाते हैं और दोनों के आसपास आने-जानेवाला प्रेम बहुत बड़ा हो जाता है। दोनों प्रेमी दो तट की भांति हो जाते हैं और प्रेम की गंगा बड़ी होने लगती है। लेकिन यह तभी संभव है जब लौटता भी हो।

मेरी भी दृष्टि यही है कि फूल भी लौटाते हैं। और जिस दिन पृथ्वी पर एक भी फूल न होगा, उस दिन सूरज ऊगना न चाहेगा। ऊगने का कोई अर्थ न रह जायेगा। किसके लिए?

मैं यहां बोल रहा हूं। तुम अगर समझते हो तो ही बोल सकता हूं। तुम्हारी आंख से, तुम्हारे भाव से, तुम्हारी मुद्रा से अगर समझ को लौटते हुए देखता हूं तो ही बोल सकता हूं। अन्यथा फिर दीवालों से बोलने में और तुमसे बोलने में कोई फर्क न रह जायेगा। फिर दीवालों से ही बोल ले सकता हूं। तुम दीवाल नहीं हो। इसलिए धीरे-धीरे मैंने भीड़ में बोलना बंद कर दिया, क्योंकि मैंने पाया कि वहां बड़ी दीवाल खड़ी है। भीड़ तो खड़ी होती है, लेकिन दीवाल की तरह खड़ी होती है। वहां संवेदनशील चित्त नहीं हैं। तो मैं बोलता हूं, लेकिन लौटता कुछ भी नहीं। और अगर लौटता न हो, कम से कम समझ न लौटती हो, आंखों की झलक न लौटती हो, जरा-सी रोशनी है, तुम्हारी आंख में कौंध जाती है, अगर वह न लौटती हो, तो बोलना व्यर्थ हो जाता है।

मैं कहता हूं, सूरज नहीं ऊगेगा, जिस दिन फूल नहीं खिलेंगे। यह तो हम जानते हैं कि फूल नहीं खिलेंगे अगर सूरज नहीं ऊगेगा। दूसरी बात भी इतनी ही सुनिश्चित है। फूलों की तरफ से किसी ने अभी बहुत गवाही नहीं दी। फूलों की तरफ से खोज नहीं हुई। फूल छोटे-छोटे हैं, सूरज बड़ा है।

लेकिन आदमी के जगत में उलटी हालत है। आदमी छोटा है और कहता है, हम परमात्मा को खोजते हैं। और परमात्मा बड़ा है, सूरज की भांति। परमात्मा तुम्हें खोज रहा है। तुम छोटे-छोटे फूल हो। वह तुम्हारी तलाश कर रहा है। उसकी किरणें तुम्हें आकर घेर लेना चाहती हैं, तुम्हारे साथ हवाओं में नाचना चाहती हैं। इसे अगर स्मरण रखा तो कोई डर नहीं है, थोड़ी देर रुक जाना। जो छाती तक आ गया है पानी, वह ओंठों तक भी आ जायेगा। वह तुम्हें डुबा लेना चाहता है अपने में। वह डूबकर बड़ा मस्त होगा। वह डुबाकर बड़ा मस्त होगा। वह तुम्हें अपने में आत्मसात कर लेना चाहता है। तुम उसी की ऊर्जा हो–दूर भटक गयी। वह तुम्हें पाकर वैसा ही प्रसन्न होगा जैसे कोई प्रेयसी, उसका पति खोया हुआ वापिस लौट आए; या कोई मां, उसका बेटा खोया हुआ वापिस लौट आए; या कोई बाप।

यह आनंद एकतरफा होनेवाला नहीं है। इस जगत में एकतरफा कुछ भी नहीं है। इसे तुम जीवन का बुनियादी सत्य समझो। यहां जहां भी एक तरफ तुम कुछ देखो, समझना कि दूसरी तरफ भी कुछ हो रहा है। यहां ताली एक हाथ से नहीं बजती।

तो भक्त अकेला ही ताली न बजा पाएगा। और भक्त अकेला भजन न कर पायेगा। और भक्त अकेला कीर्तन न कर पायेगा। अगर पाए न कि भजन में वह भी सम्मिलित है, कहीं पीछे खड़ा वह भी गुनगुना रहा है, और कीर्तन में अगर पाए न कि वह भी नाच रहा है–कितनी देर भक्त अकेला चल पाएगा? ईंधन जल्दी ही चुक जायेगा। वही है जो ईंधन को डाले चला जाता है। इसलिए अगर साधक हो और बड़ी मेहनत से पहुंचे हो जलस्रोत पर, तो अंजुलि भरकर पीना ही पड़ेगा; तुम देर तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते। क्योंकि साधक मानता है, मैं ही खोज रहा हूं; परमात्मा मुझे नहीं खोज रहा है। परमात्मा का साधक को कोई बड़ा सवाल ही नहीं है। साधक सत्य खोजता है। सत्य का अर्थ होता है: तटस्थ। भक्त भगवान खोजता है। भगवान का अर्थ होता है: व्यक्ति, प्रेम से लबालब! सत्य रूखा शब्द है। सत्य में तर्क की भनक है, गणित का स्वाद है। सत्य शब्द में कोई रसधार नहीं है, मरुस्थल जैसा है। अब तुम लगाओ सत्य को छाती से, तुमको पता चलेगा! तो तुम तो लगा रहे हो, लेकिन सत्य बिलकुल हाथ नहीं फैला रहा। जैसे तुम किसी खंभे को छाती से लगा रहे हो, ऐसा सत्य छाती से लगेगा।

“भगवान!’ भक्त यही कह रहा है कि अस्तित्व तुम्हारे प्रति तटस्थ नहीं है। इतना ही अर्थ है भगवान शब्द का। भगवान से कोई मतलब नहीं है कि कोई बैठा है आकाश में व्यक्ति की तरह। यह शब्द तो सूचक है। यह तो इतना कह रहा है कि अस्तित्व तुम्हारे प्रति उदासीन नहीं है। अस्तित्व तुम्हारे प्रति प्रेम से लबालब है, भरा हुआ है। यह सत्य नहीं है, बल्कि प्रेम है।

इसलिए जब जीसस ने कहा कि परमात्मा प्रेम है तो उनका यही अर्थ था। कह सकते थे, परमात्मा सत्य है। गांधी ने कहा ही है: द्रुथ इज गाड; सत्य परमात्मा है। लेकिन सत्य बड़ा रूखा-सूखा शब्द है; जैसे किसी तर्क का, गणित का, हिसाब का शब्द है। इसमें भगवान का रस नहीं। सत्य को परमात्मा कहने का अर्थ है कि परमात्मा नहीं है, सत्य है। फिर सत्य को खोजना पड़ेगा। सत्य तुम्हें नहीं खोजेगा। सत्य को क्या पड़ी है? सत्य में तो कोई प्राण भी नहीं हो सकते। जब सत्य में प्राण होते हैं और भीतर ज्योति का दीया जलता है, तब वह परमात्मा हो जाता है, तब वह सत्य नहीं रह जाता। इसलिए जीसस ज्यादा सही हैं, जब वे कहते हैं परमात्मा प्रेम है या प्रेम परमात्मा है।

तो अगर तुमने भक्त की तरह से छलांग लगायी है तो कोई फिक्र नहीं, रुके रहना, ठहरे रहना–वह बढ़ेगा। तुम जितनी जिद्द करोगे उतनी तीव्रता से बढ़ेगा। तुम्हारी जिद्द भी तुम्हारे भरोसे की अभिव्यक्ति होगी। तुम्हारी जल्दबाजी अधैर्य की, तुम्हारी प्रतीक्षा तुम्हारे धैर्य की!

खुद्दारियां यह मेरे तजस्सुस की देखना

मंजिल पर आकर अपना पता पूछता हूं मैं।

भक्त कहता है, देखो मेरी तलाश का स्वाभिमान कि मंजिल पर आ गया हूं और मंजिल पर आकर अपना पता पूछता हूं।…छिया-छी!

भक्त कभी-कभी बड़े स्वाभिमान से भी बात करता है। भक्त ही कर सकता है स्वाभिमान से बात, क्योंकि जिसका कोई अहंकार नहीं वही स्वाभिमान से बात कर सकता है।

महाराष्ट्र में प्यारी कथा है विठोबा के मंदिर की, कि एक भक्त अपनी मां की सेवा कर रहा है और कृष्ण उसे दर्शन देने आए हैं। उन्होंने द्वार पर दस्तक दी है। तो उसने कहा, अभी गड़बड़ न करो, अभी मैं मां के पैर दाबता हूं। लेकिन कृष्ण ने कहा, सुनो भी मैं कौन हूं! जिसके लिए तुमने सदा प्रार्थना की और सदा पुकारा, वही कृष्ण हूं। इतनी मुश्किल और इतनी प्रार्थनाओं के बाद आया हूं।’ तो उसके पास एक ईंट पड़ी थी, उसने ईंट सरका दी, लेकिन उस तरफ देखा नहीं, और कहा, “इस पर बैठो, विश्राम करो, जब तक मैं मां के पैर दाब लूं।’ वह रातभर पैर दाबता रहा और कृष्ण उस ईंट पर खड़े-खड़े थक गये और मूर्ति हो गये होंगे। तो विठोबा की मूर्ति है वह ईंट पर खड़ी है। मगर गजब का भक्त रहा होगा–गजब का भरोसा रहा होगा!

खुद्दारियां यह मेरे तजस्सुस की देखना!

–यह स्वाभिमान मेरी खोज का!

मंजिल पर आकर अपना पता पूछता हूं मैं।

कृष्ण को भी खड़ा रखा। कृष्ण को भी ईंट पर खड़ा कर दिया। भक्त का भरोसा इतना है, भक्त की श्रद्धा इतनी है कि जल्दी क्या है! बेचैनी क्या है! भक्त को भगवान मिला ही हुआ है। भगवान लौट जायेगा, यह तो सवाल ही नहीं उठता। लौट भी जायेगा तो जायेगा कहां!

इसलिए अगर भक्त की दशा हो और खेल थोड़ी देर और चलाना हो, तो जलस्रोत सामने फूट पड़े, तुम्हें छाती तक डुबा ले, तो भी खड़े रहना, कोई हर्जा नहीं। आएगा! वह भी आ रहा है, तुम्हें खोज रहा है। वह ओंठों तक भी आयेगा। लेकिन अगर बहुत चेष्टा से आए हो तो इतना धैर्य मत करना। क्योंकि जो चेष्टा से मिलता है वह क्षण में खो भी सकता है। मन की किसी भाव-दशा में जलस्रोत दिखाई पड?ता है; भाव-दशा बदल जाये, खो जायेगा। अगर मन की तरंगों पर कब्जा पाकर, ध्यानस्थ होकर, उसके जलस्रोत की झलक मिली हो तो जल्दी पी लेना, क्योंकि तरंगों का क्या पता, विचार फिर आ जायें, फिर चूक जाओ!

साधक कई बार चूक जाता है पहुंच-पहुंचकर; क्योंकि साधक का पहुंचना मन की एक खास दशा पर निर्भर करता है। वह दशा बड़ी संकीर्ण है और बड़ी कठिन है! उसे क्षणभर भी बांधकर रखना बहुत मुश्किल है। महावीर ने कहा है, अड़तालीस सैकिंड तुम ध्यान में रह जाओ तो सत्य की उपलब्धि हो जायेगी। अड़तालीस सैकिंड! अड़तालीस सैकिंड भी मन को ध्यान की अवस्था में रखना कठिन है।

लेकिन भक्त तो चौबीस घंटे भी भगवान के भाव में रह सकता है। वह भूलता भी है तो भी उसी को भूलता है; याद भी करता है तो भी उसी की याद करता है–लेकिन उससे कभी नहीं छूटता। उसका भूलना भी उसी का भूलना है! अगर पीठ भी करता है तो उसी की तरफ करता है और मुंह भी करता है तो उसी की तरफ करता है। भक्त की बड़ी अनूठी स्थिति है!

तो तुम पर निर्भर है, पूछनेवाले पर निर्भर है। अगर बामुश्किल खोज पाए हो तो जब पहुंच जाओ पास तो देर मत कर देना, एकदम पी लेना! कौन जाने, कहीं पास आया हुआ स्रोत फिर न खो जाये! हां, अगर भक्त हो तो थोड़ा मजा और खेल का ले सकते हो। और पहुंचकर खेल का जो मजा है वह और ही है! पहले तो हम तड़फते हैं, डरे हुए रहते हैं, परेशान रहते हैं, बेचैन रहते हैं!

इसलिए तुमने अकसर देखा, मंजिल पर जब लोग पहुंच जाते हैं तो सामने ही बैठ जाते हैं विश्राम के लिए! वैसे चलते रहे, बड़े मीलों चलकर आए होंगे, लेकिन ठीक जब द्वार पर आ जाते हैं तो सोचते हैं ठीक, सीढ़ियों पर बैठ जाते हैं विश्राम करने के लिए। अब कुछ देर नहीं, लेकिन अब पहुंच ही गए तो अब जल्दी भी क्या है!

तीसरा प्रश्न:

आपके प्रति इतना प्रेम रहते हुए भी आपको सुनते वक्त कभी-कभी अकुलाहट और क्रोध क्यों उठने लगता है?

प्रेम है–इसीलिए।

तुम्हारा प्रेम क्रोध से मुक्त तो अभी नहीं हो सकता। तुम्हारे प्रेम में तो क्रोध अभी होगा ही। तुम्हारी दोस्ती में तुम्हारी दुश्मनी भी अभी होगी। क्योंकि तुम बंटे-बंटे हो। अभी तुम एकरस नहीं। अभी तो तुम जिससे प्रेम करते हो, उसी को क्रोध भी करते हो। अभी तो तुम जिस पर श्रद्धा करते हो, उसी पर अश्रद्धा भी करते हो। अभी तो तुम विरोधाभासी हो। अभी तो तुम्हारा चित्त एक द्वंद्व की अवस्था में है–जहां विपरीत से छुटकारा नहीं हुआ; जहां विपरीत मौजूद है। तो अगर तुम मुझे प्रेम नहीं करते तो जरूर कोई नाराजगी न होगी।

तुमने देखा, अगर किसी को दुश्मन बनाना हो तो पहले दोस्त बनाना जरूरी है। तुम बिना दोस्त बनाए किसी को दुश्मन बना सकते हो? कैसे बनाओगे? कोई उपाय नहीं। दोस्ती दुश्मनी में बदल सकती है, दुश्मनी दोस्ती में बदल सकती है; लेकिन सीधी दुश्मनी बनाने का कोई उपाय नहीं। हम नाराज उन्हीं पर होते हैं जिनसे हमारा लगाव है। अपनों से हम नाराज होते हैं, परायों से तो हम नाराज नहीं होते।

तो मुझसे अगर तुम्हारा लगाव है तो बहुत बार नाराजगी भी होगी। उससे कुछ घबड़ाने की जरूरत नहीं–वह प्रेम की छाया है। उससे कुछ चिंतित भी मत हो जाना। क्योंकि उससे अगर तुम चिंतित हुए तो खतरा है। खतरा यह है कि तुम अगर उस पर बहुत ज्यादा ध्यान देने लगे चिंतित होकर, तो कहीं वही तुम्हारे ध्यान से मजबूत न होने लगे। स्वीकार कर लेना कि ठीक है, प्रेम है तो कभी-कभी नाराजगी भी हो जाती है। लेकिन उस पर ज्यादा ध्यान मत देना। ध्यान देने से; जिस पर भी हम ध्यान दें वही बढ़ने लगता है। ध्यान भोजन है।

इसीलिए तो हम बहुत रस लेते हैं। अगर कोई तुम्हारे प्रति ध्यान न दे तो तुम कुम्हालने लगते हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बच्चे को अगर मां का ध्यान न मिले तो बच्चा, भोजन सब तरह से मिले, चिकित्सा मिले, सुविधा-सुख मिले, तो भी कुम्हला जाता है। ध्यान मिलना चाहिए। ध्यान पाने के लिए बच्चा तड़फता है, रोता है, चीखता है। तुमने देखा, बच्चे को कह दो, “घर में मेहमान आ रहे हैं, शोरगुल मत करना’! वैसे वह शांति से बैठा था, खेल रहा था अपने खिलौनों से, मेहमान के आते ही वह शोरगुल मचाएगा। क्योंकि इतने लोग घर में मौजूद हैं, इनका ध्यान आकर्षित करने का मौका वह नहीं चूक सकता। और वह एक ही रास्ता जानता है ध्यान आकर्षित करने का कि कुछ उपद्रव खड़ा कर दे।

ध्यान भोजन है। इसीलिए तो लोग इतने आतुर होते हैं कि दूसरों का ध्यान आकर्षित कर लें। कोई राजनेता बनना चाहता है–वह कुछ भी नहीं है, आकांक्षा इतनी है कि हजारों लोगों का ध्यान मेरी तरफ हो। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री…तो करोड़ों लोगों का ध्यान मेरी तरफ हो।

तुमने देखा कि राजनेता जब तक पद पर होते हैं तब तक स्वस्थ रहते हैं; जैसे ही पद से उतरे कि बीमार पड़ जाते हैं! राजनेता जब तक सफल होता रहता है तब तक बिलकुल स्वस्थ रहता है; असफल हुआ कि मरा, फिर नहीं जी सकता। क्या हो जाता है? जब तक ध्यान मिलता है तब तक भोजन। ध्यान ऊर्जा है। तुम जब भी किसी की तरफ देखते हो गौर से, तब तुम उसे ऊर्जा दे रहे हो। तुम्हारी आंखों से जीवन-स्रोत बहता है।

इसलिए जिन लोगों को ठीक-ठीक रास्ते से ध्यान नहीं मिल पाता वे उलटे उपाय भी करते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि राजनेताओं में और अपराधियों में कोई फर्क नहीं है। फर्क इतना ही है कि राजनेता समाज-सम्मत उपाय से ध्यान आकर्षित करता है; अपराधी, समाज-असम्मत उपाय से। हत्या कर देता है किसी की, अखबार में फोटो तो छप जाता है, चर्चा तो हो जाती है। लोग कहते हैं, बदनाम हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा! तुम भला सोचते होओ कि अपराधी को कैसा कठिन नहीं मालूम पड़ता होगा जब जंजीरें डालकर पुलिस के आदमी उसे जेलखाने की तरफ ले जाते हैं! तुम गलती में हो, तुम जरा फिर से गौर से देखना! जब किसी आदमी को जंजीर बांधकर पुलिसवाले ले जाते हैं तो तुम उसकी अकड़ देखना–वह किस शान से चलता है! बाजार में वह प्रतिष्ठित है, वह खास आदमी है! बाकी किसी के हाथ में तो जंजीरें नहीं और बाकी की तरफ तो चार-पांच पुलिसवाले आसपास नहीं चल रहे हैं, उसी के पास चल रहे हैं! जैसे राष्ट्रपति के आगे-पीछे पुलिसवाले, ऐसा अपराधी के आगे पीछे भी पुलिसवाले! जैसे राजनेता को भीड़ देखती है, वैसे अपराधी को भी देखती है।

मैंने सुना है, एक राजनेता मरा तो उसकी प्रेतात्मा अपनी अर्थी के साथ गयी। एक दूसरी प्रेतात्मा, एक पुराने भूतपूर्व राजनेता, वे भी वहां मौजूद थे मरघट पर। तो उस नये राजनेता की प्रेतात्मा ने उनसे कहा कि अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ इकट्ठी होगी, मैं कभी का मर गया होता। इतनी भीड़ इकट्ठी हुई, जिंदगी में कभी नहीं हुई थी! अगर मुझे पहले पता होता तो मैं कभी का मर गया होता!

भीड़ को इकट्ठा करने का बड़ा शौक है, बड़ा रस है। उसके पीछे मनोवैज्ञानिक सत्य है। अगर कोई भी उपाय न मिले तो आदमी उलटे-सीधे उपाय करता है।

एक आदमी ने अमरीका में इस सदी के प्रारंभ में अपने को प्रसिद्ध करने के लिए आधे बाल काट लिए, आधी दाढ़ी-मूंछ काट ली। न्यूयार्क की सड़कों पर वह तीन दिन घूमता रहा। जहां गया वहीं लोगों ने चौंककर देखा कि क्या हुआ! सब अखबारों में उसका नाम छपा। तीन दिन में वह आदमी हर आदमी की जबान पर था। और जब उससे पूछा गया कि यह तुमने किसलिए किया है, तो उसने कहा कि इसमें क्या कुछ बताने की बात है! मैं मरा जा रहा था, कोई मुझे जानता ही नहीं! हम आए और चले! किसी की नजर भी न पड़ी! यह भी कोई जिंदगी हुई? और मुझमें कोई गुणवत्ता तो है नहीं; मैं कोई बड़ा कवि नहीं हूं, कोई बड़ा चित्रकार नहीं हूं कि लोग मुझे देखेंगे–तो मैंने कहा, कुछ तो करूं! यह मुझे सूझ गया। मगर अब चित्रकार मेरा चित्र उतारने को आ रहे हैं और कवि मेरे संबंध में कविताएं लिख रहे हैं।

खयाल रखना, जिस पर भी तुमने ध्यान दिया वह मजबूत होता चला जाता है। आधुनिक विज्ञान ने जो बड़ी से बड़ी खोजें की हैं उनमें एक खोज बड़ी चमत्कारी है–और वह यह कि जब वैज्ञानिक निरीक्षण करता है परमाणुओं का, अणुओं का, गहरी खुर्दबीन से, तो एक बहुत अनूठी बात पता चली कि जब वह उनका निरीक्षण करता है तब उनका व्यवहार बदल जाता है। परमाणुओं का निरीक्षण करने से व्यवहार बदल जाता है! यह तो हद्द हो गयी। इसका तो यह अर्थ हुआ कि जब तुम गौर से कुर्सी को देखते हो तो कुर्सी वही नहीं रह जाती, जब वह कोई नहीं देख रहा था, जैसी तब थी! यह आदमी के संबंध में तो समझ में आता है कि रास्ते पर तुम चले जा रहे हो, कोई भी नहीं है, तो तुम एक ढंग के आदमी होते हो। फिर रास्ते पर कोई निकल आया, दो आदमी निकल आए, तो तुम बदल जाते हो, तुम थोड़े सम्हलकर चलने लगते हो। और अगर दो स्त्रियां निकल आएं और अगर सुंदर हुईं, तब तो तुम बिलकुल ही बदल जाते हो। तब तो तुम एकदम झाड़ देते हो अपने को; सब तरह से सुंदर होकर, टाई-वाई ठीक करके चल पड़ते हो! चेहरे पर रौनक आ जाती है, पैर में गति आ जाती है!

तुमने देखा, दस आदमी बैठकर बात कर रहे हों और एक स्त्री वहां आ जाये, बात का पूरा का पूरा रूप बदल जायेगा–तत्क्षण! अब वह दसों के बीच एक होड़ शुरू हो गयी कि इस स्त्री का ध्यान कौन आकर्षित करे!

स्त्री यानी मां! उसी से आंख का पहला संबंध है। उसी से पहला ध्यान मिला था। उसी की आंख से पहली जीवन की ज्योति पायी थी। जैसे ही स्त्री को देखा कि तत्क्षण वही ध्यान की ज्योति पाने की आकांक्षा जगती है। और दसों में प्रतिस्पर्धा हो जायेगी कि कौन इस स्त्री को आकर्षित कर लेता है। जो आकर्षित कर लेगा वह जीत गया, वह नेता हो गया, बाकी नौ हार गये।

वैज्ञानिक कहते हैं कि वस्तुएं तक वही नहीं रह जातीं निरीक्षण करने के साथ, जैसी वह पहले थीं। उनमें भी रूपांतरण हो जाता है। यह तो हद्द हो गयी। परमाणु को देखने के साथ ही व्यवहार बदल जाता है–इससे एक बात सिद्ध होती है कि परमाणु भी आत्मवान हैं। वहां भी चैतन्य है। चैतन्य के अतिरिक्त तो ऐसा नहीं हो सकता।

तो तुम जब वृक्ष को गौर से देखते हो तो तुम यह मत सोचना कि वृक्ष वही रहा–बदल गया। इस पर बहुत प्रयोग हो रहे हैं। अगर तुम एक वृक्ष को चुन लो बगीचे में और रोज उसके पास जाकर उसको ध्यान दो, और ठीक उसके ही मुकाबले वैसा ही दूसरा वृक्ष हो उसको ध्यान मत दो, पानी दो, खाद दो, सब बराबर, सिर्फ ध्यान मत दो और एक वृक्ष को चुनकर तुम उसे रोज ध्यान दो, दुलराओ, पुचकारो, प्यार करो, उससे थोड़ी बात करो, थोड़ी गुफ्तगू अपनी कहो, थोड़ी उसकी सुनो–तुम अचानक हैरान होओगे, जिस वृक्ष को ध्यान दिया वह दुगनी गति से बढ़ता है।

इसके अब तो वैज्ञानिक प्रमाण हैं। उसमें जल्दी फूल आ जाते हैं। और फूल उसके बड़े होंगे। खाद और पानी में कोई फर्क नहीं है। दोनों वृक्ष एक साथ रोपे गए थे, एक ऊंचाई के थे; लेकिन जल्दी ही, जिसको ध्यान दिया गया था वह बढ़ जायेगा, जिसको ध्यान नहीं दिया गया, उपेक्षित, दुर्बल, दीन रह जायेगा।

यही सत्य भीतर के संबंध में भी है। उन्हीं बातों को ध्यान दो जिन्हें तुम बढ़ाना चाहते हो। मुझसे तुम्हें प्रेम है, प्रेम को ही ध्यान दो। हां, बीच-बीच में छाया पड़ती है क्रोध की, ध्यान मत देना। क्योंकि जिसको तुम ध्यान दोगे वह बढ़ेगा। प्रेम को ही ध्यान देना! ध्यान देते-देते तुम पाओगे, क्रोध कम होने लगा। एक दिन ऐसी घड़ी आयेगी कि क्रोध की सारी ऊर्जा ध्यान में निमज्जित होकर प्रेम बन जायेगी। तब क्रोध की छाया भी न बनेगी। तब प्रेम शुद्ध होगा। और जहां प्रेम शुद्ध है वहीं प्रार्थना का जन्म हो जाता है।

“आपके प्रति इतना प्रेम रहते हुए भी, आपको सुनते वक्त कभी-कभी अकुलाहट और क्रोध क्यों उठने लगता है?’

और भी कारण हैं। मैं जो कह रहा हूं, वह सभी से तुम्हें सांत्वना मिले, ऐसा जरूरी नहीं है। उसमें बहुत है जिससे तुम्हें सांत्वना न मिलेगी। उसमें बहुत है जिससे तुम्हारी धारणाएं टूटेंगी। उसमें बहुत है जिनके कारण तुम्हारे बंधे हुए विचार उखड़ेंगे। उसमें बहुत है जिनसे तुम्हारी अब तक की की गयी व्यवस्था में विघ्न-बाधा पड़ेगी। तो अकुलाहट भी होगी।

अगर तुम एक रास्ते पर चल रहे थे और सोच रहे थे कि सब ठीक है और मुझसे मिलना हो गया, और मैंने कहा कि कुछ भी ठीक नहीं है इसमें–तो अकुलाहट स्वाभाविक है।

एक सूफी मेरे पास लाया गया। तीस साल से निरंतर स्मरण-स्मरण परमात्मा का कर रहा है, जिक्र कर रहा है। और ऐसी घड़ी आ गयी थी कि उसे अब सब जगह परमात्मा दिखायी पड़ता है–वृक्षों में, पहाड़ों में, पत्थरों में। तो मैंने उससे कहा कि तीन दिन मेरे पास रहो और तीन दिन के लिए यह स्मरण बंद कर दो। उसने कहा, क्यों? मैंने कहा, तीस साल हो गए, अब इसका भी तो पता लगाना जरूरी है कि यह कहीं स्मरण ही तो नहीं है! यह कहीं आत्म-सम्मोहन तो नहीं है! क्योंकि बार-बार दोहरा-दोहरा-दोहराकर कहीं ऐसा तो नहीं तुमने खयाल पैदा कर लिया है! तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, सिर्फ भ्रांति हो रही है।

उसने कहा, यह बात तो ठीक है। वह थोड़ा डरा भी। लेकिन फिर भी उसने कहा, मैं कोशिश करूंगा। तीन दिन वह मेरे पास था। उसने परमात्मा का स्मरण छोड़ दिया, नमाज न पढ़ी। तीसरे दिन सुबह वह मुझ पर बहुत नाराज हो गया। उसने कहा, यह तो सब खराब कर दिया। तीस साल की मेरी साधना पर पानी फेर दिया! यह तुमने कैसी दुश्मनी की? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?

मैंने कहा, मैंने कुछ बिगाड़ा नहीं है, कोई दुश्मनी नहीं की है। एक तथ्य का तुम्हारे सामने उदघाटन हुआ। यह परमात्मा जो तुम सोच रहे हो कि तुम्हें दिखायी पड़ता है, अभी दिखायी नहीं पड़ा है। तुमने सिर्फ अपनी आंख में धुंध खड़ी कर ली है। तीस साल की मेहनत अगर तीन दिन में खो जाये, तो बचाने योग्य ही न थी। तीस साल में अगर वह घड़ी न आयी कि तुम्हारे बिना याद किए परमात्मा याद रहे तो कब आयेगी? तो कहीं कुछ भूल हो रही है। तुम्हारी याददाश्त में कहीं कोई भूल-चूक है। तुम्हारी प्रक्रिया भ्रांत है।

तो स्वाभाविक है कि वह मुझ पर नाराज हुआ। वह नाराज होकर चला गया। फिर कोई पंद्रह दिन बाद वापस लौटा। उसने कहा, क्षमा करना। शायद आप जो कहते हैं, ठीक है; यद्यपि मैं नाराज हुआ, क्योंकि मेरी सांत्वना छीन ली, मेरी सुरक्षा छीन ली। मैं सोचता था, एक सत्य मिल गया है और वह सत्य छीन लिया! यद्यपि अब मैं समझता हूं कि आपने छीना कुछ भी नहीं। मेरी मुट्ठी खाली थी। मैंने खोलकर न देखी थी। मैंने मान रखा था। अब मैं पूछने आया हूं कि क्या करूं।

तो ऐसा बहुत बार होगा कि सुनते-सुनते तुम्हें अकुलाहट होगी। क्योंकि तुम अपनी सारी मान्यताओं को घर नहीं छोड़कर आ गये हो। तुम उन्हें साथ ले आये हो। जब मैं कुछ बोल रहा हूं तो तुम्हारी मान्यताओं से सतत संघर्ष चल रहा है। एक शब्द तुम्हारे भीतर जाता है तो तुम्हारे हजार शब्दों की भीड़ उसे भीतर घुसने नहीं देती। बेचैनी खड़ी होगी, अकुलाहट खड़ी होगी और क्रोध भी उठेगा। लेकिन इसे समझने की कोशिश करना।

अकुलाहट तभी खड़ी होती है जब मेरे शब्द तुम्हें कुछ दृष्टि देते हैं और वह दृष्टि तुम्हारी धारणाओं के विपरीत पड़ती है। तो जल्दी मत करना। सुनना, समझना। वह अकुलाहट तुम्हारे मन की तरकीब है धुआं खड़ा करने की, ताकि तुम समझ ही न पाओ। उस अकुलाहट में तुम चूक जाओगे। उस वक्त शांत रहकर सुन लेना। मन से कहना, घबड़ा मत, घर चलकर विचार कर लेंगे; पहले समझ लेने दे। तुझे तो हम समझते हैं, वर्षों तेरे साथ रहे हैं; इस बात को भी समझ लेने दे। फिर दोनों पर ठीक-ठीक तौलकर विचार कर लेंगे, तराजू में रख लेंगे, हिसाब-किताब लगा लेंगे। फिर जो ठीक होगा उसे मान लेंगे।

अगर तुमने ठीक से सुना तो फिर कोई अड़चन नहीं है। सत्य की एक खूबी है। तुम उसे ठीक से सुन लो, फिर तुम उससे बचकर भाग न सकोगे। उससे बचने का एक ही उपाय है कि तुम ठीक से सुनो ही न; सुनते वक्त ही तुम गड़बड़ कर दो तो ठीक है। अगर सुन लिया तो फिर असत्य उसके सामने टिक न सकेगा। अगर तुम्हारी धारणा ठीक होगी तो बचेगी; अगर ठीक न होगी तो गिर जायेगी। दोनों हालत में शुभ है।

फिर मेरी बातें सुन-सुनकर तुम्हारे जीवन में रूपांतरण होंगे। वे रूपांतरण समाज को स्वीकृत होंगे, ऐसा नहीं है। समाज को धार्मिक व्यक्ति कभी स्वीकृत नहीं रहा, क्योंकि समाज अभी तक धार्मिक नहीं है। समाज को सांप्रदायिक व्यक्ति स्वीकृत हैं, क्योंकि समाज सांप्रदायिक है। हिंदू स्वीकृत है, मुसलमान स्वीकृत है, ईसाई स्वीकृत है; धार्मिक व्यक्ति किसी को स्वीकृत नहीं है। मैं न तुम्हें हिंदू बना रहा, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। मेरी चेष्टा अनूठी है। मैं तुम्हें सिर्फ धार्मिक बनाना चाहता हूं: विशेषण-शून्य।

तो तुम जब लौटकर जाओगे, अगर मेरी बात तुम्हारे मन में गूंज गई, तुम्हारे हृदय को छू गई, तुम्हारे प्राणों का तार बज गया, तो तुम कुछ अन्यथा होने लगोगे। रूपांतरण शुरू होगा। तुम जहां हो, वहां अड़चन आएगी। तुम मुझ पर क्रोधित भी होओगे।

मुझको तो होश नहीं तुझको खबर हो शायद

लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया।

तो तुम मुझ पर नाराज होओगे। कहोगे कि इस आदमी न बर्बाद किया। भले-चंगे थे! अपना काम-धाम करते थे। यह सब गड़बड़ हो गया। ये गेरुए वस्त्र, यह माला–लोग कहते हैं, पागल हो गये! लोग कहते हैं, सम्मोहित हो गये! अड़चन होगी दफ्तर में, दुकान में। मैं जानकर ही अड़चन खड़ी कर रहा हूं; क्योंकि उसी अड़चन के माध्यम से तुम बदलोगे, अन्यथा तुम बदल न सकोगे।

सुविधा से कोई बदलता नहीं–चुनौती से बदलता है। चुनौती कष्टपूर्ण होती है। प्रथम चरण में बड़ी पीड़ा होती है; लेकिन पीड़ा के बाद ही नया जन्म है।

तो तुम्हारी नाराजगी, तुम्हारा क्रोध एकदम अकारण है, ऐसा भी नहीं है। फिर जो मेरे प्रेम में पड़ गए हैं, काफी गहरे, जिनको समाज की भी चिंता नहीं है अब, उनको भी अड़चन है। उनको मेरे बिना खाली-खाली लगता है। वह भी नाराजगी का कारण है। वे मुझे न सुनें ज्यादा दिन तक तो बेचैनी होती है। तो जिस आदमी पर हमें निर्भर हो जाना पड़ता है, उस पर नाराजगी होने लगती है कि यह तो बात बुरी हुई। यह तो एक तरह की परतंत्रता हो गयी। अगर वह दो-चार महीने मेरे पास न आएं तो मन बड़ा-बड़ा वीरान हो जाता है; दौड़ होने लगती है आने की; हजार काम छोड़कर आने का मन होने लगता है। यह नशा ऐसा है। इसकी तलफ भी होगी। तो जैसी नाराजगी आनी शुरू होगी कि यह क्या मामला हुआ, यह तो हम जैसे किसी के वश में हो गए, जैसे कोई हमें खींचने लगा, कोई धागे बंध गए, जैसे प्रेम ने कुछ जंजीरें बना लीं! तो भी नाराजगी आती है।

तेरे बगैर किसी चीज की कमी तो नहीं

तेरे बगैर तबियत उदास रहती है।

सब हो तुम्हारे पास लेकिन अगर तुमने अपने हृदय में मुझे थोड़ी-सी जगह दी तो मेरे बिना थोड़ी तबियत उदास रहने लगेगी। तो जो तुम्हें उदास कर रहा है, उससे तुम नाराज न होओगे तो क्या करोगे? यद्यपि यह उदासी संक्रमण काल की है। जल्दी ही यह उदासी भी चली जाएगी। और जल्दी ही ऐसी घड़ी भी आ जायेगी कि यहां भाग-भागकर आने की जरूरत न रहेगी। तुम जहां होओगे वहीं मैं चला आऊंगा। वह घड़ी आने के पहले यह उदासी की घड़ी गुजरेगी।

वीरां है मयकदा खुम-ओ-सागर उदास हैं

तुम क्या गए कि रूठ गये दिन बहार के।

तो अगर मेरे साथ तुमने अपनी बहार का संबंध जोड़ा–जो कि जुड़ ही जाएगा; अगर तुम्हारा नाच मेरे साथ पैदा हुआ, तो संबंध जुड़ ही जायेगा; अगर तुम यहां आकर खुश हुए, प्रसन्न हुए, आनंदित हुए, उत्साह जगा, उत्सव हुआ–तो घर लौटकर तुम उदास हो जाओगे। तो मन यहां की तरफ भागा-भागा रहेगा। करोगे कुछ, याद यहां की बनी रहेगी। पत्नी, बच्चे पराए मालूम होने लगेंगे। अपना ही घर धर्मशाला मालूम होने लगेगा। तो नाराजगी बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन यह संक्रमण की बात है। थोड़े और गहरे उतरोगे तो धीरे-धीरे तुम्हें पहली दफा पत्नी-बच्चे अपने मालूम होंगे।

मैं तुम्हें तोड़ने को नहीं हूं, किसी से भी तोड़ने को नहीं हूं! वही मेरी निष्ठा है। तुम्हें मैं किसी से भी तोड़ने की चेष्टा नहीं कर रहा हूं। तुम्हें जोड़ने की ही चेष्टा है। लेकिन इसके पहले कि असली जोड़ घटे, नकली जोड़ टूटेंगे। इसके पहले कि तुम अपने बच्चों को सच में प्रेम कर पाओ, वह जो झूठा प्रेम है–जो तुमने अब तक समझा है प्रेम है–वह जायेगा। वह जायेगा तो तुम बेचैन होओगे। तुम्हारे हाथ खाली लगने लगेंगे। तुम्हारा हृदय रिक्त होता हुआ मालूम पड़ेगा। लेकिन भरने की वह पहली शर्त है। तुम्हें पहले सूना करूंगा, खाली करूंगा, ताकि तुम भरे जा सको। तुम्हें काटना भी पड़ेगा, छैनी उठाकर तुम्हारे कई टुकड़े अलग भी करने पड़ेंगे–तभी तुम्हारी प्रतिमा निखर सकती है।

तो अकारण नहीं है, स्वाभाविक है। अगर समझ लिया तो बेचैन न होओगे। ये बेचैनी की घड़ियां बीत जायेंगी।

प्रेम कभी भी किसी को दुखी नहीं किया है। और प्रेम कभी किसी के लिए बंधन नहीं बना है। अगर मालूम पड़ता हो तो इतना ही समझना कि नया-नया है। यह स्वाद अभी जबान पर बैठा नहीं; एक दफा बैठ जायेगा तो तुम पाओगे, प्रेम ही स्वतंत्रता है।

प्रेम मुक्ति है। प्रेम से बड़ी कोई मुक्ति नहीं।

आज इतना ही।


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कौन हो तुम—(कविता)

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है सृष्टि के लबों पर,
फैलती मुस्काटन हो तुम।
गीत गाते भ्रमरों के,
गुंज का गुंजान हो तुम।।

गा रहा है गीत कोई,
थी कभी नीरवता सोई।
बैठ की अकुलाहटों में,
दूर तनहाई भी रोई।
कौन सुर में आ गुनगुनाता,
विहंगम के कंठ बैठ गाता,
पुष्प में वहीं मुसकुराता,
दिखता नहीं है फिर भी

है जहां देखो वो पात।।
है वो कीर्ति के पर जो,
सृष्टिक की पहचान हो तुम।।

जब भी मैं दीपक जलाता,
मुस्कराता तुम्हीं को पाता,
एक विस्मृ त सी कड़ी को,
कौन छंद में जोड़ जाता।।
साज भी तुम राग भी तुम,
गीत की पहचान हो तुम….

आ गई संध्यान की बेला,
मैं खड़ा फिर भी अकेला
छटपटाते तटबंधो से
छूटता है जीवन का मेला।
कैसे पथ को अब संवारे
एक नई पहचान हो तुम…..
है सृष्टिा के लबों पर
फैलती मुस्का‍न हो तुम।।

स्वाीमी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’


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हे निर्दय अशोक—(कविता)

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है निर्दय अशोक,
तुझे होता नहीं क्यों शोक।

जब सारी बगिया,
पतझड़ मना रही होती है।
तू निर्झर सा अडिग खड़ा,
कैसे झूमता,मुस्कराता रहता है।
तेरी मंजरी जब फूलती है।
कैसे गमक जाता है उपवन सारा।

कोयल के गीत,
भ्रमरों की गुंजान,
तितली की चपलता,
सब मुग्‍ध और मदहोश रहते है।
और छाया रहता है तेरे होने का जादू।
सब और……
फिर तेरे आँचल के साये में।
सीता कैसे कुम्हला गई?
पर तू धन्य है।
तुमने अपनी सीतल छाया,
और प्यानर के आँचल के तले,
उसे मुरझाने न दिया,
न उसे सूखने ही दिया,
छुपा लिया हनुमान को,
अपनी लता पुंजों मैं।
शायद तभी तेरा नाम समर्थक बन पाया,
सच तुझे तो शोक नहीं,
पर हर लेता तेरा संग भी शोक को,
क्यों न मैं भी,
बैठ तेरे संग-साथ,
होने दूँ सम्प्रेषण..तुझको अपने में,
और बहने दु तेरा धारा अविरल यूं ही,
और उस निष्ठुर पाप का करू सामना,
और बन जाऊँ मैं तेरे जैसा है,
और हर लू सब के,
शोक,संताप और व्य था।
और कहलाऊ अशोक…

स्वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’


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जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–31

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सम्‍यक दर्शन के आठ अंग—प्रवचन—इकतीसवां

सूत्र:

निस्‍संकिय निक्‍कंखिय निव्‍वितिगिच्‍छा अमूढ़दिट्ठी य।

उवबूह थिरीकरणे, वच्‍छल पभावणे अट्ठ।। 78।।

जत्‍थेव पासे कई दुप्‍पउत्‍तं, काएण वाया अदु माणसेण।

तत्‍थेव धीरो पडिसाहरेज्‍जा, आइन्‍नओ खिप्‍पमिक्‍खलीणं।। 79।।

तिण्‍णो हु सि अण्‍णवं महं, किं पुणचिट्ठसि तीरमागओ।

अभितुर पारं गमित्‍तए, समयं ! मा पमायए।। 80।।

पहला सूत्र:

“सम्यक दर्शन के आठ अंग हैं: निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना।’

एक-एक अंग को बहुत ध्यान से समझना जरूरी है।

“निःशंका…’

सम्यक दर्शन का पहला अंग, पहला चरण: अभय। मन में कोई शंका न हो, कोई भय न हो।

साहस! क्योंकि जो साहसी हैं वे ही केवल सत्य की खोज पर जा सकेंगे। सत्य की खोज में, समझ से भी ज्यादा मूल्य साहस का है। साहस का अर्थ होता है: जहां कभी न गये हों, जिसे कभी न जाना हो, अपरिचित, अनजान, अज्ञेय–उसमें प्रवेश।

सत्य है अपरिचित। उसे अब तक जाना नहीं। जो जाना-माना है, उससे भय मिट जाता है; उससे हम परिचित हो जाते हैं। जिस रास्ते पर बहुत बार आये-गये, उस रास्ते पर फिर डर नहीं लगता। पहली बार, नये रास्ते पर, भय प्रतीत होता है: पता नहीं, रास्ता कहां ले जाये, और पता नहीं रास्ते पर क्या घटे! और सत्य का रास्ता तो तुम कभी चले नहीं। जिस रास्ते पर तुम चले हो, वह है संसार का रास्ता। साहस के अभाव के कारण ही हम बार-बार संसार के रास्ते पर ही परिभ्रमण करते रहते हैं।

मनस्विद कहते हैं कि आदमी अपरिचित सुख से भी डरता है; परिचित दुख को भी पकड़े रखता है, कम से कम परिचित तो है! कम से कम जाना-माना, अपना तो है! इतने दिनों का नाता तो है! अपरिचित सुख से भी भय लगता है, कि पता नहीं क्या हो, क्या घटे! और जो व्यक्ति सत्य की खोज में चला है, वह तो अत्यंत अपरिचित की खोज में चला है।

अकसर लोग सत्य की खोज नहीं करते, शास्त्र को पकड़कर बैठ जाते हैं। क्योंकि शास्त्र में कहीं जाना नहीं–शब्द का खेल है; बुद्धि की खुजलाहट है। तोते की तरह रट लेंगे, याद कर लेंगे और सोच लेंगे, पहुंच गये। जैसे कोई हिमालय के नक्शे को लेकर बैठ जाये, छाती से लगाकर रखे और सोचे कि पहुंच गये; लेकिन हिलेरी को या तेनसिंग को जब गौरीशंकर चढ़ना होता है तो यह छाती पर नक्शे लगाने जैसा नहीं है, यह जीवन को दांव पर लगाना है। साहस चाहिये! मृत्यु भी घट सकती है। जो है वह भी खो सकता है। और उसका तो कोई पता नहीं जो मिलने को है।

तो जिसके पास जुआरी जैसा दिल है कि जो है उसे दांव पर लगा दे, उसके लिये जो नहीं है, वही केवल सत्य की खोज में सफल हो पाता है। दुकानदार सफल नहीं हो पाते। हिसाबी-किताबी सफल नहीं हो पाते। इसलिये महावीर सम्यक दर्शन का पहला सूत्र कहते हैं: निःशंका। मन में जरा भी भय न हो, तो ही जा सकोगे। अभय का, वीरों का मार्ग है–कायरों का नहीं, भगोड़ों का नहीं।

अब यहां तो उलटी हालत घटी है। जैन धर्म को स्वीकार करनेवाले, जरा भी साहसी नहीं हैं। साहस से उनका कोई संबंध नहीं रहा है और उन्होंने अपनी कायरता को अच्छे-अच्छे शब्दों में ढांक लिया है…अहिंसा! अकसर मुझे ऐसा दिखाई पड़ा कि जो आदमी डरता है कि कोई उसकी हिंसा न कर दे, वह अहिंसक हो जाता है। इस भय से कि कहीं दूसरा मेरी हानि न कर दे, वह कहता है हानि किसी को पहुंचाना ही नहीं। वह स्वयं भी हानि नहीं पहुंचाता, क्योंकि हानि पहुंचाने में हानि उठाने का खतरा भी जुड़ा है। वह किसी को मारता भी नहीं है, क्योंकि मारने जाने में अपने मारे जाने की भी संभावना खुलती है। वह अहिंसा की बात करता है।

यहां खयाल रखना, अहिंसा वीरों का वेश है–उनका नहीं जो अभी डर रहे हैं, भयभीत हो रहे हैं, घबड़ा रहे हैं। उनकी अहिंसा किसी काम की नहीं है। वह तो केवल लफ्फाजी है। वह तो ऊपर से थोप लिया आवरण है। वह तो अपने को छिपा लेना है, सुरक्षा है।

महावीर कहते हैं, निःशंका पहला चरण है। और जो संसार से ही घबड़ा गये हैं, वह सत्य की यात्रा पर क्या खाक निकल सकेंगे! जहां डरने जैसा कुछ भी न था, क्योंकि जहां खोने जैसा ही कुछ न था, वहां जो डर गये, वे सत्य की यात्रा पर कैसे निकल सकेंगे? इस भेद को खयाल में लो।

सत्य की खोज के नाम पर तुम कहीं संसार से डरकर तो नहीं बैठ गये हो। जैन मुनियों को मैं देखता हूं तो ऐसा ही प्रतीत होता है। अधिक मौकों पर वे सत्य की खोज में नहीं गये, सिर्फ संसार की खोज से रुक गये हैं। संसार की खोज से रुक जाना अनिवार्य रूप से सत्य की खोज नहीं है। हां, सत्य का खोजी संसार की खोज से मुक्त हो जाता है, यह जरूर सही है। लेकिन संसार की खोज छोड़ देनेवाला सत्य की खोज पर निकल जाता है, यह आवश्यक नहीं है।

ऐसा समझो, एक आदमी गौरीशंकर चढ़ने जाता है–गौरीशंकर चढ़ने जायेगा तो पूना छूटेगा। लेकिन पूना छोड?कर कोई बैठ जाये, इससे गौरीशंकर नहीं पहुंच जायेगा। पूना छोड़कर बैठने के हजार उपाय हैं: पूना की ठीक सीमा पर बाहर बैठा रहे; जहां पूना का कारपोरेशन का क्षेत्र शुरू होता है, बस उसकी सीमा पर बैठा रहे। लेकिन इससे कोई गौरीशंकर पर नहीं पहुंच जायेगा। हां, गौरीशंकर की यात्रा पर जो गया है वह पूना से जरूर मुक्त हो जायेगा; उसे पूना छोड़ना ही पड़ेगा।

महावीर ने संसार छोड़ा, सत्य की यात्रा पर गये, इसलिये। बड़े साहस का कदम उठाया। लेकिन जैन मुनि!…वह संसार से डरकर बैठ गया है। संसार से जो डर गया वह सत्य में तो जायेगा ही कैसे? परिचित से जो डर रहा है वह अपरिचित में तो जायेगा कैसे? दिखाई पड़नेवाले से जो डर रहा है वह अदृश्य की यात्रा पर तो कैसे कदम उठायेगा? जहां भीड़ है, संगी-साथी हैं, परिवार है, मित्र हैं, उस रास्ते पर, राजपथ पर चलने से डर रहा है, तो बीहड़ वनों में और पगडंडियों पर उतरेगा? सत्य की खोज पर तो जाना पड़ता है अकेले। वहां तो कोई साथी न होगा, कोई संगी न होगा। वहां तो शास्त्र भी छोड़ देने होंगे, शब्द भी छोड़ देने होंगे। वहां तो समाज से जो लिया है वह सब छोड़कर जाना होगा। भाषा भी छोड़ देनी होगी। इसलिये महावीर ने अपने संन्यासी को मुनि कहा था, कि वह भाषा का त्याग कर दे। क्योंकि भाषा तो समाज की ही देन है। गौर से देखें तो भाषा ही समाज है। जब तुम बोलते हो तभी समाज बनता है; जब तुम नहीं बोलते तो समाज नहीं बनता। तुम अगर चुप खड़े हो तो तुम अकेले हो; बोले, कि जुड़े।

थोड़ी देर को सोचो! एक गांव तय कर ले कि अब वाणी का त्याग करते हैं, पूरा गांव चुप हो जाये, तो उस गांव में अकेले-अकेले लोग रह जायेंगे। उस गांव में समाज न रहेगा, क्योंकि सेतु गिर जायेंगे। दो आदमियों के बीच जो सेतु हैं वे तो शब्द हैं। अगर सारा गांव तय कर ले कि अब हम चुप होंगे तो गांव मिट जायेगा; व्यक्ति रह जायेंगे, समूह न रह जाएगा। समूह तो जीता है भाषा पर।

महावीर ने कहा कि तुम भाषा भी छोड़ोगे तो ही जा सकोगे सत्य तक। हां, जब सत्य को जान लो, तब चाहे भाषा का उपयोग करके लोगों को समझा देना। लेकिन जानते समय छोड़कर जाना होगा, मौन होना होगा, शून्य होना होगा। और जो भी तुम्हारे पास है उस सबको उसके लिए दांव पर लगा देना होगा, जिसको न तुम जानते, न कोई आश्वासन है जिसका कि पक्का है, मिलेगा। क्योंकि कोई दूसरा तुम्हें आश्वासन नहीं दे सकता। अगर मुझे कुछ मिला तो मैं लाख सिर पटकूं तो भी तुम्हें समझा नहीं सकता कि तुम्हें भी मिलेगा। कोई उपाय नहीं है।

सत्य की अनुभूति आंतरिक है। वस्तुतः नहीं है सत्य, कि तुम्हें दिखा दूं हाथ में रखकर, कि यह रहा सत्य, ताकि तुम्हें भरोसा आ जाये। तुम छूकर तो न देख सकोगे, आंख से न देख सकोगे, कान से सुना न जा सकेगा। भरोसा करना होगा। उसी भरोसे को महावीर कहते हैं: निःशंका, ट्रस्ट। एक गहन श्रद्धा की जरूरत होगी; एक ऐसी श्रद्धा की, जिसमें जरा भी संदेह न हो, क्योंकि जरा भी संदेह हुआ तो संदेह पैर को पीछे खींच लेता है। संदेह पैर को आगे बढ़ने ही नहीं देता। अगर तुम्हें जरा भी डर रहा और पता, पता नहीं होगा ऐसा, न होगा ऐसा–अगर ऐसी तुम आशंका में घिरे रहे, तो कदम उठेगा नहीं।

इसलिए पहला कदम महावीर कहते हैं: निःशंका। लेकिन हम तो बड़ी आशंका से भरे हैं। और हमारी आशंकाएं बड़ी अदभुत हैं! हमारी आशंकाएं ऐसी हैं कि जैसे कोई नंगा कहे कि मैं नहाऊं कैसे, क्योंकि नहा लूंगा तो फिर कपड़े कहां निचोडूंगा, कपड़े कहां सुखाऊंगा! नंगा है, कपड़े हैं नहीं; लेकिन स्नान नहीं करता इस डर से कि कहीं कपड़े भीग न जायें। भिखारी है, डरता है कि कहीं चोर-लुटेरे न मिल जाएं। पास कुछ भी नहीं। लुटेरे मिल भी जाएंगे तो उन्हीं को लुटना पड़ेगा, कुछ देकर जाना पड़ेगा। लेकिन, भिखारी भी डरता है कि कहीं चोर-लुटेरे न मिल जाएं। हमारी दशा ऐसी ही है। हमारे पास कुछ भी नहीं और आशंका बहुत है कि कहीं खो न जाये।

कभी तुमने सोचा, क्या है तुम्हारे पास जो खो जायेगा? हाथ तुम्हारे खाली हैं, हृदय तुम्हारा रिक्त है, संपत्ति के नाम पर कुछ ठीकरे इकट्ठे कर रखे हैं जो मौत तुमसे छीन ही लेगी। तुम लाख उपाय करो तो भी अंततः मौत से तुम हारोगे। कितने ही बचो, इधर बचो उधर बचो, इधर छिपो उधर छिपो, एक न एक दिन मौत तुम्हारी गर्दन पकड़ ही लेगी।

अंततः मौत जीतेगी, तुम न जीत पाओगे–इतनी बात निश्चित है। बीच में कितनी देर तुम धोखा दे लेते हो, मौत को इससे क्या फर्क पड़ता है? अंततोगत्वा मौत तुम्हारी गर्दन पकड़ लेगी और तुम्हारे ठीकरों को उगलवा लेगी। जिसे तुमने इनकमटैक्स आफिस से बचा लिया होगा, उसको तुम मौत से न बचा सकोगे। जिसको तुमने चोरों से, डाकुओं से बचा लिया होगा, उसको तुम मौत से न बचा सकोगे।

यहां, पहली तो बात: तुम्हारे पास कुछ है नहीं, और जो तुम्हारे पास है वह सब मौत छीन लेगी। तो गंवाने का डर क्या है? भय क्या है? लेकिन तुम बड़े भयभीत होते हो।

महावीर कहते हैं, ठीक से अपनी स्थिति को समझो तो आशंका का कोई कारण ही नहीं है। आशंका के लिए जरा भी कोई आधार नहीं है। आशंका कल्पित है और जब आशंका गिर जाये, और तुम देख लो खुली आंख से कि आशंका की तो कोई बात ही नहीं है, मेरे पास कुछ है नहीं…।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर एक भिखारी आया। तो मुल्ला ने उसे देखते ही से कहा कि मालूम होता है गांव में नये-नये आये हो।

उस भिखारी ने कहा, आप कैसे पहचान गए? बिलकुल ठीक कहते हैं। मैं अभी स्टेशन से ही उतरकर चला आ रहा हूं। मगर आप पहचाने कैसे? आप कोई ज्योतिषी हो?

उसने कहा कि मैं कोई ज्योतिषी नहीं, लेकिन गांव के भिखारी जानते हैं कि यहां कुछ मिलेगा नहीं।

भिखारी को भी देने योग्य हमारे पास क्या है! हमारे पास है ही कहां कुछ! लेकिन हम मानकर बैठे हैं, मान्यता है, और मान्यता में हम काफी रस लेते हैं। मान्यता के ढक्कन को उघाड़कर भी भीतर के खाली बर्तन को नहीं देखते। डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि खाली ही हो! मुट्ठी हम बांधकर रखते हैं, खोलते नहीं, क्योंकि कहीं दिखाई न पड़ जाये कि खाली है। हम अपने को समझाये रखते हैं कि है, बहुत है। हम गुनगुनाते रहते हैं कि बहुत है। और फिर आशंका पैदा होती है कि कहीं छिन न जाये।

महावीर जब तुमसे कहते हैं, आशंका नहीं चाहिये, निःशंका की स्थिति चाहिये, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम निःशंका को आरोपित करो। वे इतना ही कह रहे हैं कि तुम अपनी आशंका को जरा गौर से खोलकर, आंखों के सामने बिछाकर तो देख लो: वहां कोई कारण है? कोई भी कारण नहीं है! जिस दिन तुम्हें ऐसी दृष्टि उपलब्ध होगी कि डरने का कोई भी कारण नहीं है, खोने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि है ही नहीं, उसी क्षण तुम्हारे जीवन में एक नई ऊर्जा का आविर्भाव होगा। उस नई ऊर्जा को कहो: श्रद्धा, भरोसा, ट्रस्ट। उस नई ऊर्जा को कहो: निःशंका। तब तुम असंदिग्ध भाव से बिना पीछे लौटकर देखे, सत्य की खोज में निकल जाओगे। वह भाव तुम्हें, यह अनुभव कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, ना-कुछ ही दांव पर लगाना है, मिला तो ठीक न मिला तो कुछ खोता नहीं–तो फिर दांव पर लगाने में तुम झिझकोगे नहीं। तुम सभी दांव पर लगा दोगे।

मैंने सुना है, एक आदमी अमरीका की एक कार बेचनेवाली दुकान में गया। वह जिस कार को खरीदना चाहता था, उसका मिलना मुश्किल था। दुकानदार ने कहा, “कम से कम साल भर रुकना पड़ेगा। लंबा क्यू है। और कोई उपाय नहीं अभी देने का।’ वह आदमी बड़ा नाराज हो गया। उसने कहा कि सालभर! गुस्से में उसने अपने खीसे से नोटों के बंडल निकाले और जो कचरा फेंकने की टोकरी थी, उसमें डालकर दरवाजे के बाहर हो गया। दुकानदार भी चकित हो गया। और बहुत धनी लोग देखे थे, मगर यह आदमी अदभुत है! हजारों डालर, ऐसे कचरे में डालकर चला गया। उसने जल्दी से नोट निकलवाये, गिनती करवाई; दुगने थे, जितने कि कार के दाम हो सकते थे। उसने फौरन अपने आदमियों को कहा कि जाकर कार उसके घर पहुंचा दो। कार घर पहुंचा दी। दूसरे दिन वह हैरान हुआ। भागा हुआ उस आदमी के घर गया और कहा, “महानुभाव! वह सब नोट नकली हैं।’ उस आदमी ने कहा, नकली न होते तो हम कचराघर में फेंकते?

एक बार तुम्हें दिखाई पड़ जाये कि नोट नकली हैं, तो कचराघर में फेंकना भी आसान है। अड़चन कहां है? वस्तुतः ढोना मुश्किल हो जायेगा। उस बोझ को तुम किसलिये ढोओगे! उस बोझ को किस कारण ढोओगे!

महावीर तुमसे श्रद्धा जन्माने को नहीं कहते। यही महावीर का और अन्य शिक्षकों का भेद है। महावीर कहते हैं, तुम अपनी आशंका को ठीक से पहचान लो, वह गिर जाएगी। जो शेष रह जायेगा, वही श्रद्धा है। इसलिये महावीर श्रद्धा शब्द का उपयोग नहीं करते। एक-एक शब्द खयाल करना। यहां महावीर श्रद्धा कह सकते थे, लेकिन नहीं कहा; साहस कह सकते थे, नहीं कहा। नकारात्मक शब्द उपयोग किया: निःशंका। कोई विधायक शब्द उपयोग न किया, क्योंकि विधायक की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ आशंका की समझ आ जाए कि व्यर्थ है, कोरी है, अकारण है–जैसे ही आशंका गिर जाती है तो जो शंकारहित चित्त की दशा है वही श्रद्धा है, वही साहस है, वही अभय है। तुम्हारे भीतर एक अनूठी ऊर्जा का जन्म होगा। वह दबी पड़ी है। तुम्हारी चट्टान ने, आशंका की चट्टान ने उस झरने को फूटने से रोका है। हटा दो चट्टान: झरना अपने से फूट पड़ेगा! झरना तो है ही! झरना तुमने खोया नहीं है।

इसलिए महावीर नहीं कहते कि झरने को खोजो। महावीर नहीं कहते कि श्रद्धा को आरोपित करो। महावीर कहते हैं, सिर्फ आशंका को उघाड़ो।

दूसरा चरण है: निष्कांक्षा। जो भी तुम करो सत्य की खोज में, उसमें कोई आकांक्षा मत रखना। क्योंकि आकांक्षा ही संसार है। अगर सत्य की खोज पर भी आकांक्षा लेकर गये, तो तुम अपने को धोखा दे रहे हो, तुम संसार में ही दौड़ रहे हो। तुम्हें भ्रांति हो गई है कि तुम सत्य की खोज पर जा रहे हो। सत्य की खोज पर वही जाता है जिसकी आकांक्षा गिर गई।

आकांक्षा को हम समझें। फिर नकारात्मक शब्द है: निष्कांक्षा। आकांक्षा क्या है? जैसे हम हैं उससे हम राजी नहीं हैं। एक बड़ी गहरी बेचैनी है–कुछ होने की, कुछ पाने की, कहीं और होने की, कहीं और जाने की। जहां हम हैं वहां अतृप्ति! जैसे हम हैं वहां अतृप्ति! जो हम हैं उससे अतृप्ति! कुछ और होना था, कहीं और होना था। किसी और मकान में, किसी और गांव में! किसी और पति के पास, किसी और पत्नी के पास! कोई और बेटे होते! कोई और देह होती! कोई और तिजोड़ी होती! लेकिन कुछ और! “कुछ और’ की दौड़ आकांक्षा है।

तुम थोड़ा सोचो! कहीं भी तुम होते, क्या इससे आकांक्षा की दौड़ रुक जाती? तुम सोचते हो, जिस महल में तुम्हें होना चाहिए था, उसमें कोई है, उससे तो पूछो! वह कहीं और होने की दौड़ में लगा है। तुम जिस पद पर नहीं हो और सोचते हो, होना चाहिए थे, उस पद पर भी कोई है। उससे तो पूछो! वह कहीं और जाने की तैयारी में लगा है। जिस गांव तुम पहुंचना चाहते हो, वहां भी कोई रहता है। उससे तो पूछो! वह बिस्तर-बोरिया बांधे बैठा है कि कब ट्रेन मिल जाये कि वह कहीं और चल पड़े।

यहूदियों में एक कहानी है। एक यहूदी धर्मगुरु ने–गरीब आदमी था–एक रात सपना देखा। सपना देखा कि देश की राजधानी में जो पुल है नदी के ऊपर, उसके एक किनारे बिजली के ठीक खंभे के नीचे बड़ा धन गड़ा है। उसने धन भी देखा–हीरे-जवाहरात चमकते हुए! सुबह उठा, सोचा सपना है। लेकिन दूसरी रात सपना फिर आया, ठीक वैसा का वैसा। दूसरे दिन सुबह जागकर वह एकदम यह न कह सका कि सपना है, क्योंकि सपने इस तरह नहीं दुहरते। फिर भी उसने सोचा कि क्या भरोसा, कहां जाना! लेकिन तीसरी रात सपना फिर आया, तब रुकना मुश्किल हो गया। उसने कहा, कोई राजधानी इतनी दूर भी नहीं है, जाकर देख तो आऊं मामला क्या है! वह कभी राजधानी गया भी न था। जब वह गया तो चकित हुआ। ठीक जैसा पुल उसने सपने में देखा था वैसा ही पुल राजधानी का है। तब तो उत्साह बढ़ा। तेजी से चलने लगा। दूसरी तरफ पहुंचा। ठीक बिजली का खंभा वहीं है जहां सपने में देखा था। ठीक वैसा ही बिजली का बल्ब लगा है–तब तो भरोसा और बढ़ा। लेकिन एक मुसीबत थी। सपने में उसने यह न देखा था कि एक पुलिसवाला वहां पहरा देता है। तो वह राह देखने लगा कि पुलिसवाला जाये तो मैं खोदकर देखूं। लेकिन पुलिसवाला तभी जाता जब दूसरा आ जाता, डयूटी बदलती। वह दोत्तीन दिन ऐसे चक्कर मारता रहा। पुलिसवाले ने भी बार-बार इस आदमी को वहां चक्कर मारते देखा। उसे बुलाया पास और कहा कि सुनो, क्या मामला है? आत्महत्या करनी है पुल से कूदकर? क्योंकि इसीलिये वहां वह खड़ा रहता था कि कोई आत्महत्या न कर ले। मामला क्या है?

उस यहूदी धर्मगुरु ने कहा, अब आपसे छिपाना क्या है; एक सपने के चक्कर में पड़ गया हूं। वह पुलिसवाला हंसा और उसने कहा, ठहरो! इसके पहले कि तुम अपना सपना कहो, मैं भी तुम्हें कह दूं। तीन दिन से मैं भी एक सपना देख रहा हूं। मैं एक सपना देख रहा हूं कि फलां-फलां गांव में…। जो उसने नाम लिया तो वह धर्मगुरु बड़ा हैरान हुआ, वह तो उसी के गांव का नाम है! फलां-फलां गांव में फलां-फलां नाम का एक धर्मगुरु है।

उसने कहा, अरे ठहरो! यह मेरा नाम है और मेरे गांव का तुम पता ले रहे हो! मैं ही हूं वह धर्मगुरु।

वह पुलिसवाला बहुत हंसा। उसने कहा कि मैं तीन दिन से एक सपना देखता हूं कि जहां धर्मगुरु सोता है उसके बिस्तर के नीचे एक खजाना गड़ा है। मैं तो एक दिन तो सोचा सपना है, दूसरे दिन कैसे सोचूं कि सपना है! हीरे-जवाहरात सब साफ दिखाई पड़ते हैं। और आज तीसरी रात फिर सपना देखा है। और तुमसे इसलिए कह रहा हूं कि तुम्हारा चेहरा उस सपने में मुझे दिखाई पड़ता है। यह माजरा क्या है? तुम तीन दिन से यहां चक्कर भी लगा रहे हो।

उस धर्मगुरु ने कहा कि अब कुछ माजरा नहीं है। मैं कुछ और ही सपना देखा हूं। लेकिन अब मैं कुछ कहूंगा नहीं, अब मैं जाता हूं गांव अपने वापस।

वह भागा आया। उसने अपनी खाट के नीचे खोदा, पाया, खजाना था!

हसीद फकीर इस कहानी में बड़ा रस लेते हैं। क्योंकि यह कहानी जीवन की कहानी है। तुम सोच रहे हो, कहीं और खजाना गड़ा है, किसी राजधानी में, किसी पुल के पास। वहां जो खड़ा है वह सोच रहा है कि तुम्हारे घर खजाना गड़ा है।

तुमने कभी देखा! कभी-कभी राह से चलते भिखमंगे को देखकर भी धनपति के मन में भीर् ईष्या आ जाती है। कभी-कभी सम्राटों के मन मेंर् ईष्या आ जाती है। क्योंकि जिस मस्ती से भिखारी चल सकते हैं उस मस्ती से सम्राट तो नहीं चल सकते। बोझ भारी है, चिंता बहुत है। रात सो भी नहीं सकते। कौन सम्राट सो सकता है भिखारी की तरह! राह के किनारे की तो बात दूर; सुंदरतम, सुविधा से सुविधापूर्ण कक्षों में भी, आरामदायक बिस्तरों पर भी नींद नहीं आती। चिंताएं इतनी हैं, मन ऊहापोह में लगा रहता है। और भिखारी राह के किनारे, अखबार को बिछाकर ही सो जाता है और घुर्राटे लेने लगता है। कभी-कभी सम्राटों के मन में भीर् ईष्या उठती है कि ऐसा स्वास्थ्य, ऐसी निश्चिंतता, ऐसी शांति, ऐसे विश्राम की दशा काश, हमारी भी होती! भिखमंगा भी रोज महल के पास से निकलता है, सोचता है, काश, हमारे पास ऐसा महल होता!

आकांक्षा का अर्थ है: तुम जहां हो वहां राजी नहीं। जो जहां है वहां राजी नहीं। कहीं और दिखाई पड़ता है जीवन का स्वप्न पूरा होता। वहां जो है, उसका भी जीवन का स्वप्न पूरा नहीं हो रहा है। यहां भिखमंगे तो पराजित हैं ही, यहां सिकंदर भी पराजित हैं। यहां भिखमंगे तो खाली हाथ हैं ही, यहां सिकंदर भी खाली हाथ हैं। जिस दिन तुम्हें आकांक्षा की यह व्यर्थता दिखाई पड़ जाती है, उसी दिन निष्कांक्षा पैदा होती है, निष्काम-भाव पैदा होता है।

सत्य के जगत में तुम आकांक्षा से नहीं जा सकोगे। क्योंकि सभी आकांक्षा संसार में लौटा लाती है। तो महावीर कहते हैं, अगर तुम स्वर्ग की आकांक्षा से सत्य की खोज करो, चूक जाओगे। क्योंकि स्वर्ग की खोज फिर संसार की ही खोज है। परिमार्जित, सुधरे हुए संस्कार–संसार का ही संस्करण है वह। यहीं जो सुख नहीं मिल पाये हैं, उनका ही बढ़ा-चढ़ा रूप है, फैला विस्तार है। जो शराब यहां नहीं पी, वहां बहिश्त में उसके झरने बहाये हैं–वह तुम्हारी ही कल्पना है। जो स्त्रियां यहां उपलब्ध नहीं हो सकीं, वहां अप्सराओं की तरह बैठी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं! इतना ही नहीं, अगर तुम किसी वृक्ष के नीचे ध्यान वगैरह करो, तो उर्वशी और मेनका आकर तुमको परेशान करेंगी। तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं बिलकुल कि तुम कब करो तपश्चर्या कि वे आयें। यह वासना, अतृप्त वासना ही, नये-नये विक्षेप कर रही है। यह अतृप्त वासना का ही विस्तार है।

तो महावीर कहते हैं, किसी भी तरह के लाभ की आकांक्षा–वह स्वर्ग का ही लाभ क्यों न हो–संसार में लौटा लायेगी, सम्यक दृष्टि पैदा न होगी।

निष्कांक्षा! कैसे निष्कांक्षा पैदा हो? आकांक्षा को समझने से; आकांक्षा की व्यर्थता को देख लेने से। जैसे कोई आदमी रेत से तेल निचोड़ रहा हो, और न निचुड़ता हो और परेशान हो रहा हो और कोई उसे बता दे कि “पागल, रेत में तेल होता ही नहीं; इसलिए तू लाख उपाय कर, तेरे उपायों का सवाल नहीं है, तेल निकलेगा नहीं; तू लाख सिर मार, तेरा सिर टूटेगा, गिरेगा, रेत से तेल निकलेगा नहीं।’

अकांक्षा से कभी सत्य नहीं निकला, क्योंकि आकांक्षा स्वप्नों की जननी है। आकांक्षा का जिसने सहारा पकड़ा, वह सपनों में खो गया; उसने अपने सपनों का संसार बना लिया। लेकिन सत्य उससे कभी निकला नहीं। वह रेत की तरह है; उससे तेल निकल नहीं सकता। तेल वहां है नहीं।

ध्यान रखना, महावीर की प्रक्रिया का यह अनिवार्य हिस्सा है कि वह जो है उसे देखने को कहते हैं। आकांक्षा है तो आकांक्षा को देखो, पहचानो, परखो, चारों तरफ से अवलोकन, निरीक्षण करो, विश्लेषण करो। खोज करो कि इससे तुम जो चाह रहे हो वह हो भी सकता है? अगर नहीं हो सकता तो आकांक्षा गिर जायेगी। जो शेष रह जायेगी, चित्त की दशा, निष्कांक्षा, वही दूसरा चरण है सम्यक दृष्टि का।

तीसरा–निर्विचिकित्सा। जुगुप्सा का अभाव। अपने दोषों को तथा दूसरों के गुणों को छिपाने का नाम है जुगुप्सा। प्रत्येक व्यक्ति उलझा है जुगुप्सा में। हम अपने दोष छिपाते हैं और दूसरों के गुण छिपाते हैं।

अगर तुमसे कोई कहे फलां आदमी देखा, कितनी प्यारी बांसुरी बजाता है, तुम फौरन कहते हो: वह क्या बांसुरी बजायेगा! चोर, लुच्चा, लंपट! अब चोर, लुच्चा, लंपट से बांसुरी बजाने का कोई भी संबंध नहीं है। कोई चोर है, इससे बांसुरी बजाने में बाधा नहीं पड़ती। लेकिन तुम तत्क्षण दबा देते हो कि वह चोर है, वह क्या बांसुरी बजायेगा!

और तुम अपने दोषों को छिपाये चले जाते हो। तुम अगर क्रोध भी करते हो तो जिस पर क्रोध करते हो उसी के हित के लिये करते हो, सुधार के लिये, एक तरह की सेवा समझो। अगर तुम बच्चे को पीटते भी हो, तो उसी के भविष्य के लिये। हालांकि कभी पीटने से, किसी का भविष्य बना नहीं, बिगड़ा भला हो। मां अगर बेटे को पीटती है, तो सोचती है, क्योंकि वह कपड़े खराब कर आया, धूल-धवांस में खेला, या गलत बच्चों के साथ खेला। लेकिन अगर भीतर खोज करे तो पायेगी कि वह क्रोध से उबल रही थी। पति से कुछ झंझट हो गई थी। पति पर न फेंक पाई क्रोध को, बच्चे की प्रतीक्षा करती रही। क्योंकि यह बच्चा कल भी उन्हीं बच्चों के साथ खेला था और कल भी यह धूल-धवांस से भरा लौटा था। बच्चे हैं–लौटेंगे ही। बच्चे बूढ़े नहीं हैं। और समय के पहले उन्हें बूढ़ा बनाने की चेष्टा बड़ी खतरनाक है। उनके लिये अभी कपड़ों का कोई मूल्य नहीं है–और शुभ है कि कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि जिस दिन कपड़ों का मूल्य हो जाता है उसी दिन अपने भीतर के सब मूल्य खो जाते हैं। अभी भीतर का आनंद पर्याप्त है, कपड़े गंदे भी हो जाते हैं तो चिंता नहीं; लेकिन भीतर का खेल शुद्ध रहता है, स्वच्छ रहता है। अभी भीतर की मौज इतनी बड़ी है कि थोड़ी धूल पड़ जाये तो बर्दाश्त कर लेती है। अभी बच्चे में प्रदर्शन का भाव नहीं जगा है और अभी थोथी वस्तुओं का मूल्य निर्मित नहीं हुआ है। अभी असली का मूल्य है। खेल का आनंद, रस मूल्यवान है। कपड़े इत्यादि अभी निर्मूल्य हैं। अभी इनका कोई, कोई अर्थ नहीं है। लेकिन कल भी वह ऐसा ही आया था, तब मां ने कुछ भी न कहा था। लेकिन आज टूट पड़ती है, पीटने लगती है। पूछो तो कहेगी, सुधार के लिये! लेकिन अगर गौर से निरीक्षण करे तो पायेगी कि पति पर नाराजगी थी। पति पर निकाल न सकी–पति परमात्मा है! ऐसा पतियों ने ही समझाया हुआ है, तो उन पर नाराजगी निकाली भी नहीं जा सकती। वहां द्वार-दरवाजा बंद है।

तो जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है, ऐसा ही क्रोध भी अपने से कमजोर की तरफ बहता है। बच्चे से ज्यादा कमजोर और तुम क्या पाओगे? बच्चे से ज्यादा कोमल और तुम क्या पाओगे? पति अगर नाराज हो जाता है दफ्तर में मालिक से, तो घर पत्नी पर निकाल लेता है। पत्नी नाराज हो जाती है, बच्चे पर निकाल लेती है। बच्चे को तुमने देखा! जाकर अपने कमरे में बैठकर या तो किताब फाड़ डालेगा, या अपनी गुड़िया की टांगें तोड़ देगा, क्योंकि अब और कहां निकाले!

सारा संसार वहां खतम हो जाता है।

हम अपने दोषों को भी बड़ी सुंदर व्याख्या देते हैं। हम दूसरों के गुणों को भी स्वीकार नहीं करते, अस्वीकार करते हैं। और हम अपने दोषों को भी बचाते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा उससे पूछ रहा था। एक आदमी मुसलमान था, हिंदू हो गया था। उसके बेटे ने पूछा कि पिताजी, इसको हम क्या कहें? उसने कहा, “क्या कहना, गद्दारी है! जो आदमी मुसलमान से हिंदू हो गया, यह गद्दारी है।’ पर उसके बेटे ने कहा कि कुछ ही दिन पहले, एक आदमी हिंदू से मुसलमान हुआ था, तब आपने यह न कहा? उसने कहा कि वह धर्म-रूपांतरण था। उस आदमी को बुद्धि आई थी, सदबुद्धि का आविर्भाव हुआ था।

तो जब हिंदू मुसलमान बने, तो मुसलमान कहता है, सदबुद्धि; और जब मुसलमान हिंदू बन जाये तो गद्दार! यही हिंदू के लिए मूल्य है।

मैं एक जैन संत को जानता था। वे हिंदू थे और जैन हो गये। तो जैन उनसे बड़े प्रसन्न थे, हिंदू बड़े नाराज थे। हिंदू उनकी बात भी न करते। लेकिन जैन उन्हें बड़ा सम्मान देते, उतना सम्मान देते, जितना कि उन्होंने कभी जैन संतों को भी नहीं दिया था। क्योंकि इस आदमी का हिंदू से जैन हो जाना, इस बात का सबूत था कि जैन धर्म सही है। तब तो कोई हिंदू जैन होता है, नहीं तो क्यों होगा! तो जैनों से भी ज्यादा आदृत जैनों में वे थे; लेकिन हिंदुओं में उनका बड़ा अनादर था क्योंकि यह गद्दार था। इसने हिंदू धर्म की अवमानना की।

तुम इसे जरा गौर करना। हमारे जीवन में दोहरे मूल्य होते हैं। अपनी भूल को भी हम सोने से ढंक लेते हैं; दूसरे के सौंदर्य को भी हम मिट्टी से पोत देते हैं। इसको महावीर कहते हैं जुगुप्सा।

जुगुप्सा के अभाव का नाम है: निर्विचिकित्सा।

यह बहुत बहुमूल्य सूत्र है। इसे अगर खयाल में रखा तो ही तुम आत्म-रूपांतरण को पा सकोगे, अन्यथा नहीं। क्योंकि जो आदमी अपनी भूलें छिपाता है और दूसरों के गुण दबाता है, वह आदमी कभी गुणवान न हो सकेगा। दूसरे के गुण को देखना, पहचानना, स्वीकार करना; क्योंकि दूसरे में देखकर ही तो तुममें भी उसके जन्म का सूत्रपात होगा। किसी के मधुर कंठ को सुनकर ही तो तुम्हें भी खयाल उठेगा कि मेरा कंठ भी मधुर हो सकता है। किसी कोयल की कुहू-कुहू सुनकर तो तुम्हारे भीतर भी रस का संचार होगा।

लेकिन तुमने कहा, “यह क्या कुहू-कुहू है? यह सब शोरगुल है! यह सब उत्पात है! यह कोई संगीत है?’ अगर तुमने कुहू-कुहू को इनकार किया तो तुमने अपने भीतर भी कुहू-कुहू की संभावना को इनकार कर दिया।

तो दूसरे में जब कोई महिमा दिखाई पड़े तो सम्मान और समादर से, अहोभाव से, उसे स्वीकार करना। उस स्वीकृति में, तुम्हारे भीतर भी महिमा के जन्म का पहला बीजारोपण होगा। और अपने भीतर जब कोई दोष दिखाई पड़े तो उसे छिपाना मत, क्योंकि छिपाने से दोष मिटते नहीं, छिप जाते हैं, और भीतर-भीतर बढ़ते रहते हैं। जिसे तुमने छिपाया वह बढ़ेगा। अपना दोष हो तो उसे प्रगट कर देना; उसे स्वीकार कर लेना।

तुमने कभी खयाल किया, दोष स्वीकार करते से ही तुम्हारे भीतर क्रांति घटित हो जाती है! उस दोष का तुम्हारे ऊपर कब्जा छूट जाता है।

ईसाइयों में कन्फैशन का बड़ा मूल्य है। उसी कन्फैशन की तरफ महावीर का इशारा है। कन्फैशन का अर्थ होता है: अपनी बड़ी से बड़ी भूल को भी स्वीकार कर लेना। स्वीकार करते ही तुम हलके हो जाते हो। प्रगट करते ही तुम निर्विकार हो जाते हो। छिपाया, दबाया, तो जो आज छिपाया है उसे कल भी छिपाना पड़ेगा। और मजा यह है कि जिसे तुम छिपाओगे, दूसरे उघाड़ने की कोशिश करेंगे। क्योंकि जो तुम उनके साथ कर रहे हो, वही वे तुम्हारे साथ कर रहे हैं। तुम उनके गुणों को दाब रहे हो, उनके दुर्गुणों को उघाड़ रहे हो–वे तुम्हारे गुणों को दाब रहे हैं, तुम्हारे दुर्गुणों को उघाड़ रहे हैं। तो तुम जो छिपाओगे, उसे लोग उघाड़ेंगे। और अगर तुमने छिपाया और न छिपा पाये और लोगों ने उघाड़ा तो भी दुख होगा, पीड़ा होगी, नाराजगी होगी, क्रोध होगा। इससे अंधेरा बढ़ेगा, प्रकाश घटेगा। जो हो गई हो भूल, उसे स्वीकार कर लेना।

चौथा चरण है: अमूढ़दृष्टि। यह बहुत क्रांतिकारी चरण है।

महावीर ने कहा है, दुनिया में तीन तरह की मूढ़ताएं हैं, भ्रांत दृष्टियां हैं। एक मूढ़ता को वे कहते हैं, लोकमूढ़ता। अनेक लोग अनेक कामों में लगे रहते हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि समाज ऐसा करता है; क्योंकि और लोग ऐसा करते हैं। उसको महावीर कहते हैं: लोकमूढ़ता। क्योंकि सभी लोग ऐसा करते हैं, इसलिए हम भी करेंगे!…सत्य का कोई हिसाब नहीं है–भीड़ का हिसाब है। तो यह तो भेड़चाल हुई।

एक स्कूल में एक शिक्षक ने पूछा एक छोटे बच्चे से कि तुम्हारे घर भेड़ें हैं, तो अगर तुमने अपने आंगन में दस भेड़ें बंद कर रखी हैं और उनमें से एक छलांग लगाकर बाहर निकल जाये, तो कितनी पीछे बचेंगी? उस बच्चे ने कहा: एक भी नहीं। उस शिक्षक ने कहा, “तुम्हें कुछ गणित का हिसाब है? मैं कह रहा हूं दस अंदर हैं, और एक छलांग लगाकर निकल जाये तो कितनी बचेंगी?’ उसने कहा, “गणित की तुम समझो, भेड़ों को मैं अच्छी तरह जानता हूं। एक निकल गई तो सब निकल गईं। गणित का मुझे भला पता न हो, लेकिन भेड़ों का मुझे पता है।’

भेड़चाल! भीड़ के पीछे चले चलना! यह भरोसा रखकर कि जहां सब जा रहे हैं ठीक ही जा रहे होंगे! और मजा यह है कि बाकी सबका भी यही भरोसा है। वह जो तुम्हारे पड़ोस में चल रहा है, तुम्हारी वजह से चल रहा है। कि तुम जा रहे हो तो ठीक ही जा रहे होओगे; और तुम जा रहे हो उसकी वजह से कि वह जा रहा है तो ठीक ही जा रहा होगा। इसको महावीर कहते हैं: लोकमूढ़ता।

और सत्य की तरफ केवल वही जा सकता है जो भेड़चाल से ऊपर उठे; जो धीरे-धीरे अपने को जगाए और देखने की चेष्टा करे कि जो मैं कर रहा हूं, वह करना भी था या सिर्फ इसलिए कर रहा हूं कि और लोग कर रहे हैं!

अकसर तुम कहते पाये जाते हो कि हमारे घर में तो यह सदा से चला आया है। हमारे पिता भी करते थे, उनके पिता भी करते थे, इसलिए हम भी कर रहे हैं। तुमने कभी यह भी पूछा कि इसके करने का कोई प्रयोजन है, कोई लाभ है? इसके करने से जीवन में कुछ संपदा, शांति, आनंद का अवतरण होता है? नहीं, तुम्हारे पिताजी भी सत्यनारायण की कथा करवाते थे, तुम भी करवा रहे हो; क्योंकि हमारे यहां सदा से होता चला आया है! और सत्यनारायण की कथा में सत्य जैसा कुछ भी नहीं है; मगर हो रही है कथा! क्योंकि न करवायें, तो तुम अकेले पड़ जाते हो, भीड़ से टूटते हो।

और भीड़ के साथ हम जुड़े रहते हैं–भय के कारण। अकेले होने में डर लगता है। मंदिर तुम चले जाते हो–पिताजी भी जाते थे; पिताजी के पिताजी भी जाते थे। उनसे भी अगर पूछा जाता, वे कहते, “हम क्या करें, हमारे पिताजी जाते थे, उनके पिताजी जाते थे।’ ऐसे पंक्तिबद्ध मूढ़ता चलती रहती है।

हिम्मत होनी चाहिए साधक में, कि वह इस पंक्ति के बाहर निकल आये। अगर उसे ठीक लगे तो बराबर करे, लेकिन ठीक लगना चाहिए स्वयं की बुद्धि को। यह उधार नहीं होना चाहिए। और अगर ठीक न लगे, तो चाहे लाख कीमत चुकानी पड़े तो भी करना नहीं चाहिए, हट जाना चाहिए।

तुम झुक जाते हो पत्थर की मूर्ति के सामने जाकर, क्योंकि और सब भी कहते हैं कि भगवान की मूर्ति है। और तुम कभी भी नहीं सोचते कि भगवान की मूर्ति है! भगवान की कोई मूर्ति हो सकती है? क्योंकि समस्त ज्ञानी कहते हैं, वह अमूर्त, निराकार, निर्गुण, अनंत, असीम–उसकी मूर्ति हो सकती है? हां, अगर तुम्हें लगता हो, तुम्हारी अंतरप्रज्ञा कहती हो, हां, हो सकती है, तुम्हारे भाव में लगता हो कि हां, है–तो झुकना। फिर चाहे सारा संसार कहे कि नहीं है तो फिक्र मत करना। तो महावीर यह नहीं कह रहे हैं, वे तुम्हें कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दे रहे हैं कि तुम क्या करो। वे इतना ही कह रहे हैं कि जो भी तुम करो वह तुम्हारी अंतःप्रज्ञा की साक्षी से किया गया हो, बस। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम मस्जिद जाओ कि मंदिर जाओ कि गुरुद्वारा कि चर्च। इससे कोई प्रयोजन नहीं है। जो तुम्हारी अंतःप्रज्ञा कहे, जो तुम्हारा बोध कहे, वही तुम करना; उससे अन्यथा मत करना, अन्यथा वह लोकमूढ़ता होगी।

दूसरी मूढ़ता को उन्होंने कहा–देवमूढ़ता, कि लोग देवताओं की पूजा करते हैं। कोई इंद्र की पूजा कर रहा है कि इंद्र पानी गिरायेगा; कि कोई कालीमाता की पूजा कर रहा है कि बीमारी दूर हो जायेगी। लोग देवताओं की पूजा कर रहे हैं।

महावीर कहते हैं, देवता भी तो तुम्हारे ही जैसे हैं! यही वासनायें, यही जाल, यही जंजाल उनका भी है। यही धन-लोलुपता, यही पद-लोलुपता, यही राजनीति उनकी भी है। तो अपने ही जैसों की पूजा करके, तुम कहां पहुंच जाओगे? जो उन्हें नहीं मिला है वह तुम्हें कैसे दे सकेंगे?

महावीर कहते हैं कि देवता का अर्थ है: होंगे स्वर्ग में, सुख में होंगे, तुमसे ज्यादा सुख में होंगे; लेकिन अभी आकांक्षा से मुक्त नहीं हुए।

महावीर और बुद्ध ने मनुष्य की गरिमा को देवता के ऊपर उठाया। महावीर और बुद्ध ने देवताओं को आदमी के पीछे छोड़ दिया। महावीर और बुद्ध ने कहा कि जो निर्विकार हो गया है, जो निष्कांक्षा से भर गया है, जो निष्काम हो गया है, देवता भी उसके पैर छुएं, देवता भी उसके चरणों में झुकें। हिंदू बहुत नाराज हुए, क्योंकि जैन कथायें हैं, बौद्ध कथायें हैं–ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी बुद्ध और महावीर के चरणों में झुका देती हैं। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो खुद ब्रह्मा आकर चरण छुआ। हिंदुओं को बड़ा कष्ट हो जाता है कि यह क्या बात हुई: “ब्रह्मा से पैर छुआ रहे हो! ब्रह्मा तो जगत का स्रष्टा है। उसने तो बनाया। और ब्रह्मा से पैर छुआ रहे हो!’

लेकिन जैनों और बौद्धों का कारण है।

वे कहते हैं, ब्रह्मा का जीवन तो उठाकर देखो। कथा है, कि उसने पृथ्वी को बनाया, और वह पृथ्वी पर मोहित हो गया, कामातुर हो गया। कामांध होकर पृथ्वी के पीछे भागने लगा। पिता, बेटी के प्रति कामांध हो गया! बेटी घबड़ा गई कि इस पिता से कैसे बचे! तो वह अनेक-अनेक रूपों में छिपने लगी। वह गाय बन गई, तो ब्रह्मा सांड बन गया। और इस तरह सारी सृष्टि हुई।

जैन और बौद्ध कहते हैं कि ये तो देवता भी कामातुर हैं! तो तुम हिंदू देवताओं की कथायें पढ़ो। किसी ऋषि की पत्नी सुंदर है, तो कोई देवता लोलुप हो जाता है, काम-लोलुप हो जाता है, तो षडयंत्र करके स्त्री के साथ कामभोग कर लेता है।

महावीर और बुद्ध कहते हैं कि यह तो देवमूढ़ता हुई। अगर पूजना है तो उनको पूजो, जिनके जीवन से सारी आकांक्षा चली गई है। अगर पूजना है, तो उनको पूजो, जिनके जीवन से सारे मल-दोष समाप्त हो गए हैं।

इन देवताओं का चरित्र तो देखो, महावीर कहते हैं! हम गौर से कभी देवताओं का चरित्र देखते नहीं, अन्यथा हम बड़े चकित होंगे कि इस चरित्र के रहते हुए, इनको देवता कहे जाने का कारण क्या है! दिव्यता तो कहीं भी मालूम नहीं पड़ती।

इंद्र के संबंध में कितनी कथायें हैं कि जब भी कोई तेजस्वी व्यक्ति, कोई तपस्वी, चैतन्य की ऊंचाइयों पर पहुंचने लगता है, सहस्रार के करीब उसकी ऊर्जा आती है, कि इंद्र का देवासन डोलने लगता है।

क्यों? क्योंकि उसे डर लगता है कि कोई प्रतिद्वंद्वी पैदा हुआ। प्रतिद्वंद्वी! यह तो कोई राजनीतिज्ञ की स्थिति हो गई, कि कोई राष्ट्रपति है, कोई प्रधानमंत्री है, और दूसरा चेष्टा करने लगा, और लोक में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी तो घबड़ाहट पैदा हो जाती है कि यह आदमी कुर्सी छीनने आ रहा है!

यह इंद्र देवता कैसा, जिसको अपने आसन के छिन जाने की इतनी चिंता और घबड़ाहट है; और फिर जो उस आसन को बचाने के लिये सब तरह के उपाय करता है–सही, गलत; भेज देता है मेनका को कि भ्रष्ट करो विश्वामित्र को! यह तो ऐसे ही हुआ जैसे राजनेता के पास किसी वेश्या को भेज दिया, और फिर चित्र निकलवा लिये और अखबारों में छाप दिये तो लोक में प्रतिष्ठा खतम हो गई! यह तो कोई सम्यक उपाय भी न हुआ। यह तो शुद्ध राजनीति भी न हुई। यह तो राजनीति का भी बड़ा गर्हित रूप हुआ। यह तो तरकीब बड़े वासनातुर चित्त की हो सकती है।

तो महावीर कहते हैं, पहली मूढ़ता–लोकमूढ़ता; दूसरी मूढ़ता–देवमूढ़ता।

देवताओं से सावधान!

दिव्यत्व की पूजा करो–देवताओं की नहीं। और दिव्यत्व कभी-कभी घटता है–उन मनीषियों में, जिनके भीतर चैतन्य सब तरह से शुद्ध और निर्विकार हुआ। ध्यान की आखिरी ऊंचाई–समाधि–समाधि की पूजा करो! इसलिए जैनों ने महावीर की पूजा की, ऋषभ की पूजा की, नेमि की पूजा की; तीर्थंकरों की पूजा की, देवताओं की पूजा नहीं की। मनुष्यों की पूजा की, जो परमशुद्ध हो गए! बौद्धों ने बुद्ध की पूजा की, बुद्ध को भगवान कहा; लेकिन देवताओं को नहीं पूजा। यह बड़ी क्रांतिकारी घटना थी। यह बड़ी गहरी दृष्टि थी। इस दृष्टि से बड़े रूपांतर हुए। धर्म का नया रूप प्रगट हुआ।

और तीसरी मूढ़ता, महावीर कहते हैं–गुरुमूढ़ता। लोग हर किसी को गुरु बना लेते हैं! जैसे बिना गुरु बनाए रहना ठीक नहीं मालूम पड़ता–गुरु तो होना ही चाहिए! तो किसी को भी गुरु बना लेते हैं। किसी से भी कान फुंकवा लिए! यह भी नहीं सोचते कि जिससे कान फुंकवा रहे हैं उसके पास कान फूंकने योग्य भी कुछ है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम पहले गुरु बना चुके हैं, तो आपका ध्यान करने से कोई अड़चन तो न होगी? मैंने कहा, “अगर तुम्हें पहले गुरु मिल चुका है तो यहां आने की कोई जरूरत नहीं।’ वे कहते हैं, “मिला कहां!’ वह तो गांव में जो ब्राह्मण था, उसी को बना लिया था।

अभी उसको खुद ही कुछ नहीं मिला। तो तुम सोचते तो थोड़ा कि जिसे तुम गुरु बनाने जा रहे हो, वह कम से कम तुमसे एक कदम तो आगे हो! लेकिन गुरु होना चाहिए!…बिना गुरु के कैसे रहें! तो किसी को भी गुरु बना लेते हो! जो मिल गया वही गुरु हो गया। पिता के गुरु थे तो वही तुम्हारे गुरु हो गये, पति के गुरु थे तो वही पत्नी के गुरु हो गये। बिना इस बात का विचार किए कि यह बड़ी महिमापूर्ण बात है, यह जीवन की बड़ी चरम खोज है–गुरु को खोज लेना!

गुरु को खोज लेने का अर्थ, एक ऐसे हृदय को खोज लेना है जिसके साथ तुम धड़क सको और उस लंबी अनंत की यात्रा पर जा सको।

तो महावीर कहते हैं, ये तीन मूढ़ताएं हैं और इन मूढ़ताओं के कारण व्यक्ति सत्य की तरफ नहीं जा पाता। या तो भीड़ को मानता है, या देवी-देवताओं को पूजता रहता है। कितने देवी-देवता हैं! हर जगह मंदिर खड़े हैं। हर कहीं भी झाड़ के नीचे रख दो एक पत्थर और पोत दो लाल रंग उस पर, थोड़ी देर में तुम पाओगे, कोई आकर पूजा कर रहा है! तुम करके देखो! तुम सिर्फ बैठे रहो दूर छिपे हुए, देखते रहो। तुमने ही पत्थर रख दिया है और सिंदूर पोत दिया है; थोड़ी देर में कोई न कोई आकर पूजा करेगा। बड़ी मूढ़ता है।

मैंने सुना है, जिस आदमी ने अमरीका में पहला बैंक खोला, उससे बाद में जब पूछा गया, कि तुमने यह बैंक खोला कैसे? उसने कहा कि कोई काम-धाम न था मेरे पास, कुछ और न सूझा मेरे लिए तो मैंने एक तख्ती लटका दी अपने घर के सामने, “बैंक’ उस पर लिख दिया। थोड़ी देर में देखा कि एक आदमी आकर ढाई सौ डालर जमा करवा गया। तो मैं खुद भी चमत्कृत हुआ। यह मैंने सोचा न था। दूसरे दिन देखा कि एक दूसरा आदमी आया और वह भी कोई सौ डालर जमा करवा गया। फिर तो मेरी इतनी हिम्मत बढ़ गई कि मेरे पास जो पच्चीस डालर थे वे भी मैंने जमा कर दिये। बैंक चल पड़ा!

तुम अगर थोड़ी देर किसी पत्थर पर, सिंदूर पोतकर बैठ जाओ, तो शाम होतेऱ्होते तुम खुद ही पूजा करोगे। क्योंकि तुम देखोगे कि इतने लोग पूजा कर रहे हैं, सभी गलत थोड़े ही हो सकते हैं! माना कि तुम्हीं ने रंग पोता था, लेकिन जरूर कुछ बात होगी, कुछ राज होगा। शायद तुमने ठीक पत्थर पर रंग पोत दिया है। अनजाने सही। तुमने परमात्मा की किसी प्रतिमा पर रंग डाल दिया, इतने लोग पूज रहे हैं!

यह मूढ़ता छूटनी चाहिए।

…तो महावीर कहते हैं अमूढ़दृष्टि पैदा होती है।

अमूढ़दृष्टि चौथा चरण है सम्यक दर्शन का।

पांचवां चरण है: उपगूहन।

उपगूहन का अर्थ है: अपने गुणों और दूसरों के दोषों को प्रगट न करना। यह जुगुप्सा के ठीक विपरीत है। अपने गुण प्रगट न करना और दूसरे के दोष प्रगट न करना। हम तो करते हैं उलटा ही: अपने गुण प्रगट करते हैं, जो नहीं हैं वे भी प्रगट कर देते हैं; और दूसरे के दोष प्रगट करते हैं, जो नहीं है वे भी प्रगट कर देते हैं, जो हैं उनकी तो बात ही छोड़ दो।

महावीर कहते हैं, जिसको सत्य की खोज पर जाना है, उसे ये सारे संयम, ये अनुशासन, ये मर्यादाएं, अपने जीवन में उभारनी पड़ेंगी। अपने गुणों को मत कहना, दूसरों के दोषों को मत कहना। तुम्हारा क्या प्रयोजन है? दूसरे का दोष है–दूसरा जाने। और तुम जान भी कैसे सकते हो, क्योंकि तुम दूसरे के स्थान पर खड़े नहीं हो सकते। दूसरे की परिस्थिति का तुम्हें पता नहीं है। दूसरे ने किस परिस्थिति में ऐसा दोष किया, इसका तुम्हें कुछ पता नहीं है। अगर वैसी ही ठीक परिस्थिति तुम्हारे जीवन में भी होती तो शायद तुम भी न बच सकते।

कोई भूखा है, और किसी ने चोरी कर ली; किसी की मां मर रही है और दवा नहीं है, और किसी ने किसी का जेब काट लिया–तुम भी उसकी परिस्थिति में अपने को रखकर देखो, तो शायद तुम भी यही कर लेते।

लेकिन हम परिस्थिति से तोड़ लेते हैं तथ्यों को अलग। हम कहते हैं, यह आदमी चोर है! और हम परिस्थितियों की बात ही भूल जाते हैं। यह किन परिस्थितियों में चोर था?

मनोवैज्ञानिक पश्चिम में बहुत अध्ययन कर रहे हैं अपराध के ऊपर। और उनके जो नतीजे हैं वे बहुत घबड़ानेवाले हैं। आनेवाली सदी में, अगर उनके नतीजे स्वीकार किये गये तो अदालतों को विदा हो जाना पड़ेगा। अदालतों के ज्यादा दिन नहीं हैं–दिन लद गये! क्योंकि अदालतें बुनियादी गलती पर खड़ी हैं। मजिस्ट्रेट इस तरह से बैठकर निर्णय करता है जैसे कि चोर होना कोई सारी परिस्थितियों से टूटा हुआ अलग तथ्य है। उन्हीं परिस्थितियों में यह मजिस्ट्रेट भी चोरी करता।

मनस्विद कहते हैं कि अपराध की जितनी समझ बढ़ती जा रही है, उससे पता चलता है कि लोग मजबूरी में अपराध करते हैं।

दो तरह के अपराधी हैं। एक तो अपराधी हैं जो इस तरह मजबूर हो जाते हैं, इस तरह मजबूर किये जाते हैं, सारी समाज की परिस्थिति उन्हें ऐसी जगह ले आती है, जहां अपराध किये बिना वे जी नहीं सकते। जहां अपराध करना ही उनके बचने का एकमात्र उपाय रह जाता है। अगर अपराध न करना हो तो मरने के सिवा उनके पास कोई सुविधा नहीं है। और मजा यह है कि इस समाज में मरना भी अपराध है। यहां आत्महत्या करना भी अपराध है। अगर करते पकड़े गये तो सजा पाओगे। यहां जीना तो मुश्किल है ही, यहां मरना भी मुश्किल है। यहां जीने भी नहीं देते ठीक से, यहां मरने की भी आज्ञा नहीं है।

तो ऐसी परिस्थिति में कुछ लोग हैं, जो अपराध करते हैं। और कुछ दूसरा एक वर्ग है जो किसी मानसिक रोग के कारण अपराध करता है। उसकी परिस्थिति नहीं थी अपराध करने की। जैसे क्लिप्टोमैनिया है। कुछ लोग हैं जिनको चोरी का रोग होता है। अपराध नहीं। उनको चोरी करने में मजा आता है। उनको कोई कमी नहीं है। वे लखपति हो सकते हैं, और ऐसी चीजों की चोरी कर सकते हैं जिनका कोई मूल्य भी नहीं है; जैसे कि माचिस की डिबिया उन्होंने खीसे में रख ली। कोई कारण नहीं है, क्योंकि उनके पास खूब है। और माचिस की डिबिया का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन उनको कुछ मानसिक रोग है।

मैं एक प्रोफेसर को जानता हूं। उनको इस तरह का रोग था। उनकी पत्नी ने मुझे कहा कि आप कुछ करिये। वे कोई ऐसी चीज भी चुराकर नहीं लाते हैं कि कोई अपराध कहा जा सके। किसी के घर बैठे हैं, पैंसिल दिख गई, वह खीसे में सरका ली। किसी के यहां भोजन करने गये हैं, चम्मच ही डाल लिया। पत्नी परेशान कि यह आज नहीं कल, यह झंझट…। और उसने मुझसे कहा कि आपसे उनका लगाव है; शायद…।

तो मैं उनसे धीरे-धीरे बात किया। मैंने उनकी बड़ी प्रशंसा की, क्योंकि मैं समझा कि उनको कोई कमी तो है नहीं। धनपति घर से हैं, अच्छी नौकरी पर हैं। पत्नी भी नौकरी पर है, खुद भी नौकरी पर हैं। सब कुछ है। तो कोई चम्मच चुराने का कोई परिस्थिति में तो कारण नहीं है। तो जरूर कुछ मन में कारण होगा। तो मैंने कभी उनकी चोरी का विरोध नहीं किया। इस ढंग से उनको फुसलाया कि उनको लगे कि शायद मैं भी उसी रोग का बीमार हूं। उनको मैंने इसी तरह बात की कि जैसे मैं भी चम्मचें उठा लाता हूं। तो उन्होंने कहा, “अरे! यह तो अच्छा हुआ; आपसे दिल खोल सकते हैं। आपको मैं दिखाऊंगा, घर चलिए।’ उन्होंने एक अलमारी में, जितनी चीजें चुराई थीं वे सब सजा रखी थीं। उस पर चिटें भी लगा रखी थीं कि किसके घर से कब लाए। और उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से दिखाईं।

उनका इलाज करना पड़ा। वे मानसिक रूप से रोगी थे। चोरी के माध्यम से, वे यह सिद्ध कर रहे थे कि वे दूसरों से ज्यादा कुशल हैं। दूसरे उनकी चोरी नहीं पकड़ पाते, वे कर जाते हैं। यह चोरी में चोरी कारण नहीं थी–अपनी कुशलता, अपनी होशियारी, सिद्ध करने की चेष्टा थी।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इस तरह का बीमार चिकित्सा चाहता है। उसको मनोचिकित्सा चाहिए। और जिसने परिस्थितिगत रूप से चोरी की हो, उसकी परिस्थिति में रूपांतरण चाहिए। अपराध समाप्त हो जाते हैं। या तो कोई परिस्थिति के कारण चोर है तो परिस्थिति बदलनी चाहिए; और या कोई मानसिक रोग के कारण चोर है, तो मानसिक रोग का इलाज होना चाहिए। जेलखाने खाली हो जाते हैं। जेलखाने में बस दो तरह के लोग पड़े हुए हैं।

महावीर कहते हैं, दूसरे के दोष को बताना ही मत। तुम्हें क्या पता, किस मजबूरी में, किस कठिनाई में उसने किया हो? और तुम्हें क्या पता उसके जन्मों-जन्मों की जीवन-कथा का? लंबी यात्रा है। उस लंबी यात्रा में कहां उसने किसी दोष को अर्जित कर लिया हो, अनजाने सीख लिया हो!

और फिर तुम कौन हो निर्णायक?

जीसस ने भी यही बात कही है। कहा है कि निर्णायक मत बनना, “जज ई नाट!’ दूसरे के न्यायाधीश मत बनना। दूसरा स्वयं जिम्मेवार है अपने कृत्यों के लिए; अपने कृत्यों का फल स्वयं पा लेगा। तुम बीच में निंदा, तुम बीच में विरोध और व्याख्या मत करना। और ध्यान रखना, जैसे दूसरे के गुणों को देखना जरूरी, दुर्गुणों को देखना जरूरी नहीं–अपने दुर्गुणों को देखना जरूरी है, अपने गुणों को देखना जरूरी नहीं है। क्योंकि जो व्यक्ति अपने गुणों को बहुत देखने लगता है, वह फूलने लगात है गुब्बारे जैसा। उसका अहंकार मजबूत होने लगता है। तो अपने गुब्बारे को, अहंकार के गुब्बारे को दोषों को देख-देखकर फोड़ते रहना, ताकि अहंकार बड़ा न हो। और अपने गुणों की कोई चर्चा मत करना। क्योंकि अगर वे हैं तो उनकी सुगंध अपने से पहुंच जाएगी। अगर वे नहीं हैं तो चर्चा करने से कुछ सार नहीं।

“उपगूहन’ के बाद छठवां है: स्थिरीकरण। महावीर कहते हैं कि जीवन की, सत्य की इस यात्रा में बहुत बार चूकें होंगी; बहुत बार पांव यहां-वहां पड़ जायेंगे; बहुत बार तुम भटक जाओगे। तो उसके कारण व्यर्थ परेशान मत होना और अपराध भाव भी मत लाना। यह स्वाभाविक है। जब भी तुम्हें स्मरण आ जाए, फिर अपने को मार्ग पर आरूढ़ कर लेना। उसका नाम है: स्थिरीकरण। फिर अपने को स्थिर कर लेना।

जैसे तुमने तय किया, क्रोध न करेंगे; समझ आई कि क्रोध न करेंगे; देखा, बार-बार क्रोध करके कि सिवाय दुख के कुछ भी न हुआ; देखा क्रोध करके कि अपने लिये भी नर्क बना, दूसरे के लिये भी नर्क बना–तय किया, अब क्रोध नहीं करेंगे। ऐसी समझपूर्वक एक स्थिति बनी क्रोध न करने की। लेकिन फिर भी चूकें होंगी। किसी आवेश के क्षण में पुनः क्रोध हो जाएगा। लंबी आदत है। जन्मों-जन्मों के संस्कार हैं; इतनी जल्दी नहीं छूट जाते। फिर-फिर पकड़ लिये जाओगे। तो जब याद आ जाए, जैसे ही याद आ जाए, अगर क्रोध के मध्य में याद आ जाए, तो पुनः अपने को अक्रोध में स्थिर कर लेना। अगर गाली आधी निकल गई थी, तो बस आधी को पूरा भी मत करना। यह भी मत कहना कि अब पूरी तो कर दूं। बीच से ही रोक लेना। वहीं क्षमा मांग लेना। वहीं हाथ जोड़ लेना। कहना, माफ करना, क्षमा करना, भूल हो गई। वापस लौट आना। फिर स्थिर हो जाना।

स्थिरीकरण बहुत उपयोगी सूत्र है। और जिनको जीवन को साधना है, उनके लिए निरंतर उसका उपयोग करना होगा, क्योंकि भूलें तो होंगी ही। फिर भूलों को लेकर मत बैठ जाना और उनमें बहुत रस मत लेने लगना, कि भूल हो गई, अपराध का भाव, और गिल्ट…। क्योंकि वह भी गलत है। वह भी नाहक अपने घाव को कुरेद-कुरेदकर खराब करना है। हो गई भूल, याद आ गई, वापस लौट जाए।

तुम ध्यान करने बैठते हो, थिरता टूट जाती है: किसी विचार के पीछे चल पड़े। कभी-कभी ऐसे विचार, जिनसे तुम्हें जाने का कोई संबंध न था–तुम ध्यान करने बैठे, एक कुत्ता भौंकने लगा; अब कुत्ते के भौंकने से तुम्हारा कोई लेना-देना न था, लेकिन कुत्ते के भौंकने से तुमको अपने मित्र के कुत्ते की याद आ गई। मित्र के कुत्ते की याद आई तो मित्र की याद आ गई। मित्र के साथ कभी दो साल पहले कोई सुंदर दिन बिताया था पहाड़ों पर, वह याद आ गया–चल पड़े!

जब याद आ जाये कि अरे! तब तत्क्षण स्थिर हो जाना। फिर वापस लौट आना। फिर इसको लेकर परेशान मत होना, कि यह मैंने क्या कर लिया, क्योंकि वह परेशानी भी फिर ध्यान में न लगने देगी। तो जैसे ही याद आ जाए, स्मरण हो, चुपचाप अपने को स्थिर कर लेना। नहीं तो लोग क्या करते हैं–पहले गलती करते हैं, फिर गलती के संबंध में पश्चात्ताप करते हैं, फिर रोते हैं, अपराध अनुभव करते हैं–तो गलती से भी ज्यादा गलती हो गई। गलती तो एक जगह होकर पूरी हो गई फिर उसका सिलसिला चल पड़ा। अब उसका पश्चात्ताप करो। अब रोओ। अब कहो कि भूल हो गई, डिग गया अपने पथ से, पापी हो गया!

महावीर कहते हैं, इस सब में पड़ने की इतनी ऊर्जा खराब मत करना। आया स्मरण, कि भूल के रास्ते पर चले गये थे, तत्क्षण चुपचाप वापस लौट आना। ऐसा बार-बार स्थिरीकरण होतेऱ्होते, होतेऱ्होते, जिसको कृष्ण ने स्थिति भी कहा है, स्थितिप्रज्ञ कहा है–वह स्थिति घटेगी। कभी ऐसी घड़ी आ जाती है कि फिर कोई भूल नहीं होती। तुम्हारी थिरता शाश्वत हो जाती है। तुम्हारी लौ अकंप हो जाती है।

सातवां: वात्सल्य। इसे समझना।

भक्ति के संप्रदाय, प्रार्थना को मूल्य देते हैं। तो तीन शब्द समझ लेना, तो ही वात्सल्य समझ में आयेगा: प्रार्थना, प्रेम, वात्सल्य। प्रार्थना होती है, जो अपने से बड़ा है–परमात्मा, उसके प्रति। प्रार्थना में एक मांग होती है। प्रार्थना शब्द में ही मांग छिपी है। इसलिए मांगनेवाले को हम प्रार्थी कहते हैं। मांगा उससे जा सकता है जिसके पास हमसे ज्यादा हो, अनंत हो। तो प्रार्थना सिर्फ भगवान से की जा सकती है। लेकिन महावीर की व्यवस्था में भगवान की कोई जगह नहीं है–प्रार्थना की कोई जगह नहीं।

फिर दूसरा शब्द है: प्रेम। प्रेम होता है सम अवस्था, सम स्थितिवाले लोगों में–एक स्त्री में, एक पुरुष में; दो मित्रों में, मां में, बेटे में; भाई-भाई में–ऐसा समस्थिति! परमात्मा ऊपर है, प्रार्थी नीचे है। लेकिन प्रेमी साथ-साथ खड़े हैं। परमात्मा से सिर्फ मांगा जा सकता है, उसको दिया तो क्या जा सकता है! देने को हमारे पास कुछ भी नहीं है। उसके सामने हम निपट भिखारी हैं, समग्ररूपेण भिखारी। देंगे क्या? देने को कुछ भी नहीं है। अपने को भी दें तो भी वह देना नहीं है, क्योंकि हम भी उसी के हैं तो देना क्या है? उससे हम सिर्फ मांग सकते हैं, सिर्फ मांग सकते हैं। उसके सामने हम सिर्फ भिखारी हो सकते हैं।

इसलिए महावीर कहते हैं, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि परमात्मा के कारण सारा संसार भिखारी हो जाता है।

प्रेम में हम लेते हैं, देते हैं, क्योंकि दोनों समान हैं। जिसको तुम प्रेम करते हो, तुम देते भी हो; लेकिन देते तुम इसीलिए हो कि मिले। जो तुम्हें प्रेम करता है, वह भी देता है; लेकिन देता इसीलिए है कि मिले, वापिस हो। तो प्रेम में लेन-देन है। परमात्मा की तरफ से इकतरफा है; सिर्फ मिलता है; देने को हमारे पास कुछ भी नहीं है। प्रेमी लेते-देते हैं।

वात्सल्य ठीक प्रार्थना का उलटा है। वात्सल्य का अर्थ है: तुम दो। इसलिए हम कहते हैं, मां का वात्सल्य होता है बेटे की तरफ। बेटा क्या दे सकता है? छोटा-सा बेटा है, अभी पैदा हुआ, चल भी नहीं सकता, बोल भी नहीं सकता, कुछ लाया भी नहीं, बिलकुल नंग-धड़ंग चला आया है। हाथ खाली है। वह देगा क्या? इसलिए समान तल तो है नहीं मां का और बेटे का। और मांग भी नहीं सकता, क्योंकि मांगने के लिए भी अभी उसके पास बुद्धि नहीं है। तो मां का वात्सल्य है। मां उसे जो प्रेम करती है वह सिर्फ देने-देने का है। मां देती है, वह लौटा भी नहीं सकता। उसको अभी होश ही नहीं लौटाने का।

वात्सल्य का अर्थ है: तुम दो जैसे मां देती है।

तो महावीर कहते हैं, प्रार्थना नहीं, प्रेम नहीं–वात्सल्य। तुम तो लुटाओ, जो तुम्हारे पास है दिये चले जाओ। इसकी फिक्र ही मत करो कि किसको दिया। बस इसकी फिक्र करो कि दिया। तो जो तुम्हारे पास हो, वह तुम देते चले जाओ। कुछ तुम्हारे पास बाहर का देने का न हो तो भीतर का दो। वस्तुएं न हों तो अपना प्राण बांटो, अपना अस्तित्व बांटो, पर दो और देते रहो!

तो जैसे भक्ति के रास्ते पर प्रार्थना सूत्र है, ठीक उससे विपरीत, ध्यान के रास्ते पर वात्सल्य सूत्र है। भक्ति के रास्ते पर तुम भिखारी होकर भगवान के मंदिर पर जाते हो: ध्यान के रास्ते पर तुम सम्राट होकर, तुम बांटते हुए जाते हो, तुम देते हुए जाते हो! तुम मांगते नहीं। क्योंकि मांग में तो आकांक्षा है–वह तो पहले ही चरण में समाप्त हो गई।

अब तुम्हारे पास कुछ है, तुम उसे बांटते हो–और जब तुम बांटते हो, तब तुम पाते हो: और आने लगा! अनंत ऊर्जा उठने लगी! तुम्हारे सब जलस्रोत खुल जाते हैं। तुम्हारे झरने सब फूट पड़ते हैं। जितना तुम्हारे कुएं से पानी उलीचा जाता है, तुम पाते हो: उतना ही नया पानी आ रहा है। सागर तुममें अपने को उंडेलने लगता है।

तो लुटाओ! दोनों हाथ उलीचिए, यही सज्जन को काम। कबीर ने कहा है: उलीचो! महावीर का वात्सल्य वही है जिसको कबीर कहते हैं: उलीचना।

और प्रभावना!

और आठवां चरण है सम्यक दर्शन का: प्रभावना। यह महावीर का अपना शब्द है। इसके लिए कहीं तुम्हें पर्याय न मिलेगा। प्रभावना का अर्थ होता है: इस भांति जीयो कि तुम्हारे जीने से धर्म की प्रभावना हो। इस ढंग से उठो-बैठो कि तुम्हारे उठने-बैठने से धर्म झरे। और जिनके जीवन में धर्म की कोई रोशनी नहीं है, उनको भी प्यास पैदा हो। तुम्हारा चलना, तुम्हारा व्यवहार, तुम्हारे जीवन की शैली–सभी प्रभावना बन जाए। प्रभावना–धर्म की, सत्य की।

तुम एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व बन जाओ कि जिनके भी पास ज्योति नहीं है, उनको भी ज्योति होनी चाहिए! और यह जीवन–अंधेरे का भी क्या कोई जीवन है, ऐसा भाव उठे! तुम जहां से गुजर जाओ, वही लोगों के हृदय में एक लहर दौड़ जाए। और लोगों का जीवन सत्य की तरफ उन्मुख हो।

महावीर कहते हैं, इस सत्य की खोज का आठवां अंग है: प्रभावना। क्योंकि तुम जब सत्य को खोजने चले हो, तो अकेले नहीं। उसमें भी कंजूसी मत कर बैठना। नहीं तो वह भी स्वार्थ हो जायेगा। तो जिसकी खोज पर तुम चले हो और जो तुम्हें मिलने लगा है, उसकी खोज पर औरों को भी लगा देना। लेकिन खयाल रखना, महावीर बड़े अनूठे शब्दों का उपयोग करते हैं। वे यह नहीं कहते, तुम लोगों को उपदेश देना। वे यह नहीं कहते, तुम लोगों को आदेश देना। वे कहते हैं, प्रभावना!

तुम्हारे होने के ढंग से ही उनको उपदेश मिल जाए। तुम्हारे होने के ढंग से उनको आदेश मिल जाए। तुम्हारा होने का ढंग ही उनको पकड़ ले और एक नये नृत्य में डुबा दे और एक, एक नई मस्ती से भर दे! तुम्हारा होना ही, तुम्हार अस्तित्व मात्र, तुम्हारा उनके पास से गुजर जाना: एक नए जगत का प्रवेश हो जाए उनके जीवन में! तुम्हारा उनके पास आ जाना, तुम्हारा सत्संग, तुम्हारी मौजूदगी, उन्हें रूपांतरित कर दे! उनकी आंखें उस तरफ उठ जायें जहां कभी न उठी थीं। लेकिन इसके लिए वे जो शब्द उपयोग करते हैं, वह बड़ा अनूठा है: प्रभावना! तुम उन्हें प्रभावित भी करने की चेष्टा मत करना। तुम्हारा होना प्रभावना बने! वे प्रभावित हों: तुमसे नहीं–धर्म से; तुमसे नहीं–सत्य से; जो तुममें घटा है–उससे; वह जो पारलौकिक तुममें उतरा है–उससे।

ये आठ अंग स्मरण हों तो सम्यक दर्शन निर्मित होता है।

यह पहला सूत्र है:

निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढ़दिट्ठी य।

उवबूह थिरीकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ।।

ये आठ बातें सम्यक दर्शन के आठ अंग हैं।

दूसरा सूत्र: “जब कभी अपने में दुष्प्रयोग की प्रवृत्ति दिखाई दे तो उसे तत्काल मन, वचन, काया से धीर (सम्यक दृष्टि) समेट ले; जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा शीघ्र ही सीधे रास्ते पर आ जाता है।’

और महावीर इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि तुम कभी ऐसा मत समझ लेना कि सिद्ध हो गये। क्योंकि इस अनंत की खोज के मार्ग पर बहुत ऐसे पड़ाव आते हैं जहां यह भ्रम पैदा होता है कि हो गये सिद्ध। सिद्ध होने का भ्रम बड़ा आसान है, क्योंकि अहंकार को बड़ा भाता है, कि हो गये सिद्ध, पहुंच गये!

तुम ध्यान रखना कि ऐसा भाव जब भी तुम्हें आएगा कि पहुंच गए, तभी तुम तत्क्षण पाओगे कि कुछ विकृति घटी, कुछ दुष्प्रयोग हुआ, कहीं कोई भूल हुई।

तो स्मरण रखना कि भूल होती रहेंगी अंतिम क्षण तक। निर्वाण के आखिरी क्षण तक भूल होती रहेंगी। समाधि के परम फूल के खिलने तक भूल होती रहेंगी।

भूल मनुष्य का स्वभाव है। और भूलों का जन्मों-जन्मों का इतिहास है। इसलिए जहां भी कहीं ऐसा लगे, कि दुष्प्रयोग में प्रवृत्ति दिखाई दे, उसे तत्काल मन, वचन और काया से (सम्यक दृष्टि) धीरपुरुष समेट ले; जैसे कि जातिवंत घोड़ा रास के द्वारा शीघ्र ही सीधे रास्ते पर आ जाता है।

तो अपनी लगाम को कभी भी छोड़ मत देना। जब तक घोड़ा है, तब तक लगाम को हाथ में रखना। घोड़ा यानी मन। जब तक मन है, तब तक लगाम मत छोड़ देना। मन पर भरोसा मत कर लेना। क्योंकि बहुत बार घोड़ा बिलकुल ठीक-ठीक चल रहा है, घंटों तक ठीक-ठीक चल रहा है और तुम्हारा मन होता है, अब लगाम की क्या जरूरत है, रख दो ताक पर; अब तो सब ठीक चल रहा है, अब होश की क्या जरूरत है, अब निरंतर स्मरण की क्या जरूरत है, घोड़ा तो ठीक अपने-आप ही चल रहा है! ऐसा भरोसा मत करना। लगाम के रखते ही तत्क्षण घोड़ा अपने स्वभाव के अनुकूल बरतने लगेगा। लगाम तो हाथ में रखनी पड़ेगी जब तक घोड़ा है। जब तक मन न मर जाए, जब तक कि मन से परिपूर्ण मुक्ति न हो जाए, जब तक तुम्हारे भीतर विचारों की तरंगें उठती हैं–तब तक लगाम का खयाल रखना। और जैसे ही तुम्हें लगे कि कहीं घोड़ा गलत रास्ते पर जाने लगा, मार्ग से च्युत हुआ, दुष्प्रयोग में लगा, कहीं कोई प्रवृत्ति उठने लगी, फिर आंख गलत पर पड़ी, फिर कान ने गलत को सुना, फिर हाथ गलत की तरफ बढ़े, फिर विचार में गलत की छाया पड़ी–तत्क्षण मन, वचन, काया से धीरपुरुष अपने को फिर ऐसे समेट ले…मन, वचन, काया से–शरीर को तत्क्षण हटा ले वहां से।

शरीर को हटाने का अर्थ समझना। जब भी तुम्हारे मन में कोई तरंग उठती है, तत्क्षण शरीर में भी समानांतर तरंग उठती है। अगर तुम्हारे मन में कामवासना उठी, तो तत्क्षण शरीर कामवासना के लिये तत्पर होने लगता है, तरंग उठती है। और जब भी तुम्हारे मन में कोई तरंग उठती है, और शरीर में तरंग उठती है, तो तुम्हारे भीतर भाषा और वचन निर्मित होता है। रूप बनता है विकार का। प्रतिमायें उठती हैं। स्वप्न निर्मित होता है।

वचन से अर्थ है: विचार; मन की कल्पना का जाल। और मन, शरीर, वचन, तीनों में एक साथ लहर आती है। तीनों को एक साथ खींच लेना! किसी एक को खींच लेने से काम न चलेगा। तुम, हो सकता है शरीर को खींचकर दरवाजा बंद करके बैठ जाओ, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। बहुत-से जैन मुनि शरीर को खींचकर बैठ गए हैं, लेकिन मन और वचन में तरंगें उठती रहती हैं। शरीर को खींच लेना बहुत आसान है। शरीर को खींच लेने में बहुत कठिनाई नहीं है। शरीर बहुत स्थूल है। उससे भी गहरा वचन है। विचार में भी तरंग न उठे।

लेकिन बहुत-से लोग विचार को भी खींचकर बैठ जाते हैं। फिर भी मन में तरंग उठती है। मन यानी अचेतन। तो दिनभर याद नहीं आते, लेकिन रात सपने में याद आ जाते हैं। दिनभर तुम सम्हाले रहते हो। कोई विचार नहीं उठने देते। लेकिन स्वप्न में विचार आ जाते हैं। तो भी, दुष्प्रवृत्ति हो गई। तो भी, तुम च्युत हुए। इन सबसे धीरपुरुष अपने को खींचता रहता है।

“तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुंचकर क्यों खड़ा है? उसे पार करने में शीघ्रता कर हे गौतम, क्षणभर का भी प्रमाद मतकर!’

यह तीसरा सूत्र है आज के लिए। यह महावीर ने अपने महानिर्वाण के क्षणभर पहले कहा था। यह अपने पट्ट शिष्य गौतम के लिये कहा था।

गौतम महावीर का प्रथम गणधर है–उनका सबसे ज्यादा निकट का शिष्य। लेकिन विडंबना भाग्य की, कि वह आया था सबसे पहले, लेकिन मुक्ति का स्वाद न ले सका। वह महावीर के पास वर्षों रहा, फिर भी उस परम दशा को न पहुंच सका, जिसको हम कैवल्य कहें, समाधि कहें। मन मिट न सका। और उसने कुछ छोड़ा हो करने में, ऐसा भी नहीं है। उसने सब किया जो महावीर ने कहा। लेकिन एक छोटा-सा राग पैदा हो गया–वह राग था महावीर के प्रति। वह राग था महावीर के चरणों का। उतने ही राग ने रोक लिया। एक प्रेम लग गया महावीर से। महावीर के बिना उसे तकलीफ होने लगी। दिन को भी कहीं जाता तो बस महावीर की ही याद आती रहती। महावीर ने उसे कई बार कहा कि तूने सब छोड़ दिया, अब मुझे क्यों पकड़ लिया है? क्योंकि असली सवाल छोड़ने का नहीं–असली सवाल तो पकड़ ही छोड़ देने का है।

तुमने कुछ पकड़ा, किसी ने कुछ और पकड़ा, किसी ने कुछ और पकड़ा–लेकिन पकड़ तो जारी रहती है। किसी ने धन पकड़ा, किसी ने धर्म पकड़ा। किसी ने पत्नी पकड़ी, किसी ने गुरु पकड़ा–लेकिन पकड़ तो जारी रहती है।

और महावीर बड़े कठोर हैं इस दृष्टि से। क्योंकि उनका पूरा राग से ही विरोध है। वह पूरा रास्ता ही वीतराग का है। तो यह गौतम सब छोड़ आया। पत्नी होगी, बच्चे होंगे, घर-द्वार होगा, मित्र-परिजन होंगे, धन-संपत्ति होगी, पद-प्रतिष्ठा होगी–सब छोड़ आया! यह बड़ा पंडित था, ब्राह्मण था। इसने सब शास्त्र वेद, उपनिषद, सब छोड़ दिये। लेकिन उस सबको छोड़कर महावीर के चरणों को पकड़कर बैठ गया। यह अब महावीर का दीवाना बन गया। तो महावीर उससे बार-बार कहते रहे कि तू मुझे भी छोड़। यह बात ही सुनकर उसको कष्ट होता। यह बात ही कल्पना के बाहर थी: महावीर को छोड़ो! वह सब छोड़ने को तैयार था महावीर के लिए। सब छोड़ा ही महावीर के लिए था। अब यह तो बात जरा ज्यादा हो गई कि महावीर को भी छोड़ो। तो फिर सब छोड़ा ही किसलिए था! वह महावीर के लिए ही छोड़ा था। वह मुक्त न हो सका।

महावीर ने जिस दिन देह छोड़ी, उसे सुबह ही दूसरे गांव में उपदेश के लिए भेजा। शायद जानकर ही भेजा हो। क्योंकि वह पास रहेगा तो बहुत दुखी होगा। यह मृत्यु उसके सामने, कहीं उसे विक्षिप्त न कर दे। उसका लगाव बहुत था। फिर पीछे से खबर मिलेगी तो बात आई-गई हो जाएगी। फिर धीरे-धीरे सम्हल जाएगा। आघात मृत्यु का सीधे, महावीर को अपने सामने ही, मरा हुआ देखना, देह से छूट जाना देखना–शायद उसके प्राणों को तोड़ दे, शायद वह सह न पाये! तो उसे दूसरे गांव भेज दिया। जब वह सांझ को लौट रहा था दूसरे गांव से तो राहगीरों ने रास्ते में उससे कहा कि गौतम, तुम्हें कुछ पता है, महावीर जा चुके! अब तुम कहां जा रहे हो? अब वह सत्पुरुष न रहा!

तो वह वहीं रोने लगा। वहीं छाती पीटकर चिल्लाने लगा। भरी आंखों से, टपकते आंसुओं से, उसने उन लोगों से पूछा कि “एक बात मुझे पूछनी है कि यह कैसा हुआ? यह उन्होंने कैसा अन्याय किया? जीवनभर मैं उनके साथ रहा। तो आज तो कम से कम मुझे बाहर न भेजते, दूर न भेजते! यह उन्होंने कौन-सा बदला लिया! एक ही बात पूछनी है मुझे: मरते समय मुझे याद किया था? मरने के पहले मेरे लिये कोई इशारा छोड़ा? क्योंकि मैं तो अभी भी अंधेरे में भटक रहा हूं। मेरा क्या होगा? दीया बुझ गया–अब मेरा क्या होगा?’ तो उन लोगों ने…यह सूत्र महावीर ने गौतम के लिए कहा है, इसलिए गौतम का नाम इस सूत्र में आता है…उन लोगों ने गौतम को कहा, महावीर ने तुझे याद किया था। वे यह सूत्र तेरे लिये छोड़ गए हैं: “तू महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुंचकर क्यों खड़ा है? उसे पार करने में शीघ्रता कर! हे गौतम, क्षणभर का भी प्रमाद मत कर!’

तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ।

अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम्! मा पमायए।।

“हे गौतम! तू पूरा भवसागर पार कर गया, सारा संसार छोड़ दिया, सब तरफ से राग की जड़ें उखाड़ लीं–और अब तू किनारे को पकड़कर क्यों रुका है?’

किनारा यानी महावीर। ऐसा समझो कि तुम उस दूर के किनारे को पाने के लिए सारी नदी पार करते हो, निश्चित ही उस किनारे जाने के लिए ही नदी पार करते हो। फिर इस नदी के सारे कष्ट उठाते हो–तूफान, झंझावात, धार के उपद्रव, मृत्यु का डर, डूब जाने का भय–यह सबको तुम पार कर जाते हो। फिर उस दूसरे किनारे को पकड़कर रुक जाते हो। रुके हो नदी में ही। किनारे को पकड़कर रुके हो! तुम कहते हो, इसी किनारे के लिए तो सारी नदी पार की, वह किनारा छोड़ा, नदी छोड़ी, इतना संघर्ष झेला–अब इस किनारे को न छोड़ेंगे!

तो महावीर कहते हैं, यह तो कुछ लाभ न हुआ। रुके तुम अब भी नदी में हो। अब इस किनारे को भी छोड़ो, बाहर निकलो! अब पार हो गए, नदी छूट गई, किनारे को भी छोड़ो!

तो गुरु का उपयोग दूर के किनारे की तरह है। नदी को पार करने में निमित्त बना लेना, लेकिन जब नदी पार हो जाए, तो गुरु को पकड़कर मत रुक जाना। महावीर कहते हैं, क्षणभर का भी प्रमाद मत कर, और इसमें क्षणभर की देर मत कर, आलस्य मत कर–क्योंकि समय बीता जाता है, फिर लौटकर न आएगा!

और जो महावीर के जीते-जी न हो सका, वह महावीर की मृत्यु के कारण हो गया। गौतम को वह चोट भारी पड़ी। किनारा उसने नहीं छोड़ा, किनारा खुद ही जा चुका था अब। अब पकड़ने को कुछ था भी नहीं। जो जीवनभर महावीर के साथ रहकर बोध न हुआ, वह महावीर के मरने के एक दिन बाद…गौतम समाधि को उपलब्ध हो गया। उसने जान लिया: संसार ही असार नहीं है, यहां सदगुरु के चरण भी छूट जाते हैं! यहां संपत्ति ही नहीं छूटती, सदगुरु भी छूट जाता है। यहां सभी कुछ असार है। यहां अपने में ही लौट आने में सार है।

ऐसा समझ कर…और तो सब छोड़ ही चुका था, यह महावीर के प्रति लगाव था, यह भी छूट गया और यह लगाव बिलकुल मानवीय है, समझ में आता है। महावीर जैसा प्यारा पुरुष हो तो किसे लगाव न हो! गौतम की अड़चन समझ में आती है। महावीर ही कठोर मालूम होते हैं। गौतम का भाव तो ठीक ही है; समझ में पड़ता है। इतना प्यारा पुरुष कभी-कभी होता है। और ऐसे प्यारे पुरुष के पास पकड़ लेने का मन किसके मन में न होगा! और एकबारगी ऐसा भी होता है कि छोड़ो मोक्ष, छोड़ो बैकुंठ–यही चरण काफी है! ऐसा ही गौतम को हुआ होगा। सब संसार छोड़ने की हिम्मत की थी, लेकिन ये चरण न छोड़ सका। लेकिन फिर ये चरण एक दिन छूट गए। जो भी बाहर है, वह छूट ही जाएगा।

इसलिए महावीर कहते हैं: आत्मा में ही रमण करो। सब तरफ से अपने में ही लौट आओ! अपने में ही लीन हो जाओ! उस आत्मलीनता को ही महावीर ने मोक्ष कहा है।

यह जो निमंत्रण गौतम के लिए है, यही निमंत्रण तुम्हारे लिए भी है।

पोत अगणित इन तरंगों ने

डुबाए, मानता मैं

पार भी पहुंचे बहुत से

बात यह भी जानता मैं

किंतु होता सत्य यदि यह

भी, सभी जलयान डूबे

पार जाने की प्रतिज्ञा

आज बरबस ठानता मैं

डूबता मैं, किंतु उतराता

सदा व्यक्तित्व मेरा

हों युवक डूबे भले ही

है कभी डूबा न यौवन

तीर पर कैसे रुकूं मैं

आज लहरों में निमंत्रण!

महावीर दूर अनंत के सागर की लहरों का निमंत्रण हैं। और निमंत्रण ही नहीं, उस दूर के सागर तक पहुंचने का एक-एक कदम भी स्पष्ट कर गए हैं। महावीर ने अध्यात्म के विज्ञान में कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ा, खाली जगह नहीं है। नक्शा पूरा है। एक-एक इंच भूमि को ठीक से माप गए हैं और जगह-जगह मील के पत्थर खड़े कर गए हैं।

ये आठ सूत्र सम्यक दर्शन के सध जाएं तो सब सध गया। ये आठ सध जाएं तो समाधि सध गई, क्योंकि इन आठ के सधते ही सारी समस्याएं तिरोहित हो जाती हैं। जो शेष रह जाता है, वही समाधान है।

महावीर के निमंत्रण को अनुभव करो! उनकी पुकार को सुनो! ऐसे खाली नाममात्र को जैन होकर बैठे रहने से कुछ भी न होगा। ऐसी नपुंसक स्थिति से कुछ लाभ नहीं। उठो! अपने का जगाओ! बहुत बड़ी संभावना तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। खतरा है! इसलिए महावीर कहते हैं: अभय, साहस चाहिए!

खतरा यही है:

पोत अगणित इन तरंगों ने

डुबाए, मानता मैं

–बड़ा है, विराट है सागर! और न मालूम कितने पोत डूब चुके हैं!

पोत अगणित इन तरंगों ने

डुबाए, मानता मैं

पार भी पहुंचे बहुत से

बात यह भी जानता मैं।

लेकिन कुछ हैं जो पार भी पहुंच गए हैं। कोई महावीर, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई मुहम्मद पार भी पहुंच गये हैं। बहुत-से खो भी गये हैं। अनंत खो गए हैं।

कहते हैं, हजार बुलाए जाते तो सौ पहुंचते हैं। सौ जो पहुंचते हैं, उनमें से दस चलते हैं। और दस चलते हैं, एक कहीं सिद्धावस्था को उपलब्ध हो पाता है।

किंतु होता सत्य यदि यह

भी, सभी जलयान डूबे

पार जाने की प्रतिज्ञा

आज बरबस ठानता मैं

लेकिन, अगर यह भी सत्य होता कि जो भी गया, सभी डूब गए, तो भी–

पार जाने की प्रतिज्ञा,

आज बरबस ठानता मैं

–क्योंकि यहां इस किनारे कुछ भी तो नहीं है। यहां बचे भी, तो भी तो कुछ बचने जैसा नहीं है। और सागर में अगर डूबे भी तो डूबकर भी कुछ मिलता है।

डूबता मैं किंतु उतराता

सदा व्यक्तित्व मेरा।

तुम तो डूब जाओगे, लेकिन आत्मा उतराएगी। तुम तो डूबोगे तभी आत्मा उतराएगी। तुम तो आत्मा में पत्थर की तरह हो। तुम्हारी वजह से आत्मा तैर नहीं पाती, तिर नहीं पाती।

हों युवक डूबे भले ही

है कभी डूबा न यौवन

तीर पर कैसे रुकूं मैं

आज लहरों में निमंत्रण।

सुनो इस निमंत्रण को! करो हिम्मत! चलो थोड़े कदम महावीर के साथ! थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे कि जीवन की रसधार बहने लगेगी। थोड़े ही कदम चलकर तुम पाओगे, संपदा करीब आने लगगी। आने लगीं शीतल हवाएं–शांति की, मुक्ति की! फिर तुम रुक न पाओगे। फिर तुम्हें कोई भी रोक न सकेगा। थोड़ा लेकिन स्वाद जरूरी है। दो कदम चलो, स्वाद मिल जाए; फिर तुम अपने स्वाद के बल ही चल पड़ोगे।

लाओत्सु ने कहा है, एक कदम तुम उठा लो, फिर फिक्र नहीं। बस एक कदम तुम न उठाओ तो बड़ी फिक्र है। पहला कदम तुम उठा लो तो बस, दूसरा तुम उठाओगे ही। क्योंकि पहले को उठाने में ही ऐसा रस बरस जाता है, फिर कौन पागल होगा जो दूसरा कदम न उठाए! और एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा भी अंततः पूरी हो जाती है! दो कदम तो कोई एकसाथ चल भी नहीं सकता। एक कदम! छोटा कदम! जितनी तुम्हारी सामर्थ्य में आता हो, इतना बड़ा कदम! लेकिन उठाओ! बैठे-बैठे बहुत जन्म खोए–और मत खोओ!

धम्मपद में बुद्ध ने कहा है: “उत्तिट्ठे!’ उठो! “न पमज्जेय्य!’ उठो! प्रमाद मत करो! सोये मत रहो! आलसी मत रहो! जो उठता है, वही पाता है। जो सोया रहता, वह सभी कुछ खो देता है।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–24

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अहंकार की छाया है ममत्व— (अध्याय-5) प्रवचन—चौबीसवां

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये।। 11।।

इसलिए निष्काम कर्मयोगी ममत्व बुद्धिरहित केवल इंद्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्यागकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

ममत्व बुद्धि को त्यागकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए, जो जानते हैं, वे पुरुष शरीर, मन, इंद्रियों से काम करते हैं।

इस संबंध में दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।

एक, मनुष्य ने जो भी किया है अनंत जीवन में, आज तक, इस घड़ी तक, उस कर्म का एक बड़ा जाल है। और आज ही मैं सब करना बंद कर दूं, तो भी मेरे पिछले अतीत जन्मों के कर्मों का जाल टूट नहीं जाता है। उसका मोमेंटम है। जैसे मैं साइकिल चला रहा हूं। पैडल बंद कर दिए हैं, अब नहीं चला रहा हूं, लेकिन साइकिल चली जा रही है–मोमेंटम है। दो मील से चलाता हुआ आ रहा हूं, साइकिल के चाकों ने गति पकड़ ली है। अगर दो-चार-पांच मिनट मैं बंद भी कर दूं, तो भी साइकिल चलती चली जाती है। फिर अगर उतार हो जीवन में, तब तो मीलों भी चली जा सकती है। चढ़ाव हो, तो जल्दी रुक जाएगी।

और जीवन में हमारे उतार है, चढ़ाव नहीं है। जैसे हम जीते हैं, वह सदा ही उतार में जीते हैं–और नीचे, और नीचे, और नीचे। बच्चे शिखर पर होते हैं, बूढ़े घाटियों में पहुंच जाते हैं। होना नहीं चाहिए। होना चाहिए उलटा, होता यही है। बच्चे एकदम पवित्र सुगंध लेकर आते हैं, बूढ़े सिवाय दुर्गंध के और कुछ भी लेकर जाते हुए मालूम नहीं पड़ते हैं। जिंदगी में हम कमाते कम, लुटते ज्यादा हैं। पाते कम, खोते ज्यादा हैं।

जिंदगी एक उतार है हमारी। रोज हम नीचे उतरते जाते हैं। कल जिसने चोरी की थी, वह आज और भी ज्यादा चोरी करेगा। कल जो झूठ बोला था, आज वह और भी ज्यादा झूठ बोलेगा। कल जो क्रोधी था, वह आज और क्रोधी हो जाएगा। और रोज यह क्रोध, यह हिंसा, यह घृणा, यह काम, यह वासना, रोज बढ़ते चले जाएंगे। फिर मन एक निश्चित आदत बना लेता है। फिर अपनी आदतों को दोहराए जाता है, बढ़ाए चला जाता है।

हम उतार पर हैं। बच्चे श्रद्धा से भरे होते हैं, बूढ़े चालाकी से भर जाते हैं। बच्चे सरल होते, बूढ़े जटिल हो जाते हैं। जिंदगी के सारे अनुभव उन्हें और गङ्ढों में पहुंचा देते हैं।

तो हम उतार पर हैं, एक तो यह बात खयाल में ले लें। और अनंत जन्मों का हमारे कर्मों का मोमेंटम है, गति है। अगर मैं आज सारे काम बंद भी कर दूं, तो कोई अंतर नहीं पड़ता; मेरा मन फिर भी उतरता चला जाएगा।

इसलिए कृष्ण ने इसमें एक बहुत अदभुत बात कही। उन्होंने कहा है कि ऐसे पुरुष, जो निष्काम कर्म में जीते हैं, वे अपने पिछले कर्मों की जो गति है, उसे काटने के लिए कर्म में रत होते हैं। वह जो उन्होंने गति दी है पिछले जन्मों में अपने कर्मों की, वह जो किया है, उसे अनडन करने के लिए, उसे पोंछ डालने के लिए, कर्म में रत होते हैं।

अगर उन्होंने क्रोध किया है अतीत जन्मों में, तो वे क्षमा के कर्म में लग जाते हैं। अगर उन्होंने कठोरता और क्रूरता की है, तो वे करुणा के कृत्य में लीन हो जाते हैं। अगर उन्होंने वासना और कामना में ही जीवन को बिताया है अनंत-अनंत बार, तो अब वे सेवा में जीवन को लगा देते हैं। ठीक जो उन्होंने किया है अब तक, उससे बिलकुल विपरीत, उतार की तरफ जाने वाला नहीं, चढ़ाव की तरफ जाने वाला कर्म वे शुरू कर देते हैं।

लेकिन उसमें भी एक शर्त कृष्ण की है। और वह जिसे खयाल में न रहेगी, वह भूल में पड़ सकता है। वह शर्त यह है कि ममत्व को छोड़कर! क्योंकि कोई आदमी ममत्व के साथ, और ऊपर की यात्रा करना चाहे, तो गलती में है, यह असंभव है।

ममत्व नीचे की यात्रा पर सहयोगी है, ममत्व ऊपर की यात्रा पर बाधा है। कर्म निर्मित करने हों, तो ममत्व कीमिया है, केमिस्ट्री है। उसके बिना कर्म निर्मित नहीं होते। और कर्म काटने हों, तो ममत्व तत्काल ही अलग कर देना जरूरी है, अन्यथा कर्म कटते नहीं।

ममत्व से अर्थ क्या है? ममत्व से अर्थ है, एक तो हूं मैं, जैसे मैं खड़ा हो जाऊं धूप में, तो एक तो मैं हूं जो खड़ा हूं, और धूप में मेरी एक छाया बनेगी। वह छाया मेरे चारों तरफ, जहां मैं जाऊंगा, घूमती रहेगी। मैं तो ईगो है और ममत्व ईगो की छाया है, अहंकार की छाया है। मैं तो मेरा खयाल है कि मैं हूं; और मैं अकेला नहीं हो सकता, इसलिए मैं मेरे के एक जाल को फैलाता हूं अपने चारों तरफ।

मेरे के बिना मैं के खड़े होने में बड़ी कठिनाई है। इसलिए मेरे की छाया जितनी बड़ी हो, उतना ही लगता है कि मैं बड़ा हूं। मेरा धन, मेरे मित्र, मेरा परिवार, मेरा मकान, मेरा महल, मेरे पद जितने बड़े हों…।

मैंने सुना है, एक दिन सुबह-सुबह एक लोमड़ी शिकार के लिए निकली है। चली है शिकार को। देखा है कि उसकी बड़ी लंबी छाया बनती है। सूरज निकल रहा है पीछे, बड़ी लंबी छाया है! उस लोमड़ी ने अपनी छाया देखी और सोचा, आज तो एक ऊंट शिकार को मिल जाए, तभी काम चलेगा! स्वभावतः, इतनी बड़ी छाया बनती है, तो लोमड़ी छोटी नहीं हो सकती! लोमड़ी के तर्क में कहीं कोई गलती नहीं है। गणित ठीक है। इतनी बड़ी छाया बन रही है कि एक ऊंट मिले शिकार में, तो ही काम चल सकेगा, लोमड़ी ने सोचा।

दिनभर खोजते दोपहर हो गई है। शिकार मिला नहीं। सूरज सिर पर आ गया है। लोमड़ी भूखी है। नीचे की तरफ देखा, छाया बड़ी छोटी बनती है, न के बराबर। उसने कहा, क्या हुआ! क्या भूख में मैं इतनी सिकुड़ गई? अब तो एक चींटी भी मिल जाए, तो शायद काम चल जाए!

लोमड़ी का तर्क ठीक है। हम अपनी छाया से ही सोचते हैं कि हम कितने बड़े हैं। छाया को नाप लेते हैं, सोच लेते हैं कि इतने बड़े हैं। अगर छाया बड़ी है मेरे की–मेरा मकान बड़ा है, तो मैं बड़ा; और अगर मेरा मकान छोटा है, तो मैं छोटा। मेरे धन का ढेर बड़ा है, तो मैं बड़ा; और मेरे धन का ढेर छोटा है, तो मैं छोटा। मुझे नमस्कार करने वाले लोग ज्यादा हैं, तो मैं बड़ा; और मुझे नमस्कार करने वाले लोग थोड़े हैं, तो मैं छोटा! छाया!

और जिंदगी के शुरू में सभी को वही भूल होती है, जो उस लोमड़ी को हुई थी। जब जिंदगी शुरू होती है, तो हर आदमी सोचता है कि मैं! मेरे जैसा कोई भी नहीं। सारी जमीन भी छोटी पड़ेगी। और जब जिंदगी अंत होने के करीब आती है, तो पता चलता है कि अब तो कुछ भी नहीं रहा, छाया सिकुड़ गई है!

हम छाया को देखकर जीते हैं, इसलिए हम छाया को बढ़ाते रहते हैं, बड़ा करने की कोशिश में लगे रहते हैं। मेरे का अर्थ है, मैं की छाया, शैडो आफ दि ईगो। मैं तो झूठा है। ध्यान रहे, कोई भी झूठ खड़ा करना हो, तो और पच्चीस झूठ का सहारा लेना पड़ता है। सत्य को खड़ा करना हो, तो सत्य अकेला खड़ा हो जाता है, इंडिपेन्डेंट, स्वतंत्र। कोई झूठ अकेला खड़ा नहीं होता। किसी झूठ को आप अकेला कभी खड़ा नहीं कर सकते; उसको तो बैसाखियां लगानी पड़ती हैं और नए झूठों की।

झूठ को खड़ा करना हो, तो पच्चीस झूठों का जाल खड़ा करना पड़ता है। और ऐसा नहीं है कि बात यहीं समाप्त हो जाती है। वे जो पच्चीस झूठ आपने खड़े किए, प्रत्येक उनमें से एक के लिए भी पच्चीस। और यह इनफिनिट रिग्रेस है। और यह रोज करते रहना पड़ेगा।

मैं बड़ा से बड़ा झूठ है मनुष्य की जिंदगी में। अगर इस अस्तित्व में किसी को मैं कहने का हक हो सकता है न्यायसंगत, तो वह सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं हो सकता है। लेकिन उसने कभी कहा नहीं कि मैं हूं। लोग बहुत दफे चिल्लाकर पूछते हैं, कहां हो तुम? तो भी बोलता नहीं। लोग खोजने भी निकल जाते हैं, पहाड़ की कंदराओं को खोद डालते हैं, नदियों के उदगम तक चले जाते हैं, सारी जमीन छान डालते हैं, आकाश-पाताल एक कर देते हैं, फिर भी उसका पता नहीं चलता कि कहां है वह!

जिसे अधिकार है कहने का कि कह सके मैं, वह चुप है। और जिन्हें कोई अधिकार नहीं है, वे जिंदगीभर सुबह से सांझ तक बोलते रहते हैं–मैं, मैं, मैं। शायद इसीलिए परमात्मा नहीं बोलता, क्योंकि वह आश्वस्त है कि है। और हम इसीलिए बोलते हैं कि हमें कोई भरोसा नहीं है। बोल-बोलकर भरोसा पैदा करते रहते हैं कि हूं! चौबीस घंटे दोहरा-दोहराकर भरोसा पैदा करते रहते हैं अपने ही मन में, आटोहिप्नोटिक, खुद को सम्मोहित करते रहते हैं कि मैं हूं। इसलिए अगर कोई आपके मैं को जरा-सी भी चोट पहुंचा दे, तो आप तिलमिला उठते हैं। क्योंकि आपका झूठ बिखर सकता है।

इस मैं के बड़े झूठ को खड़ा करने के लिए मेरे का जाल फैलाना पड़ता है, उसको कृष्ण ममत्व कहते हैं। मेरे का जाल।

मैं अकेला खड़ा नहीं रह सकता। अगर आपसे आपका मकान छीन लिया जाए, तो आप यह मत सोचना कि सिर्फ मकान छिना, आपके मैं की भी दीवालें गिर गई हैं। अगर आपसे आपका धन छीन लिया जाए, तो सिर्फ तिजोड़ी खाली नहीं होती, आप भी खाली हो जाते हैं। आपसे आपका पद छीन लिया जाए, तो पद ही नहीं छिनता, आपके भीतर की अकड़ भी छिन जाती है।

वह मैं मेरे के छिनने से क्षीण होता है। मेरे के बढ़ने से बड़ा होता है। तो जिसे भी धोखे में रखना है अपने को कि मैं हूं, उसे मेरे को बनाए जाना चाहिए, बढ़ाए जाना चाहिए। और जिसे धोखा तोड़ना हो, उसे ममत्व को छोड़कर देखना चाहिए कि मेरे को छोड़कर मैं बचता हूं?

जिसने मेरे को छोड़ा, वह अचानक पाता है, मैं भी खो गया। और जब तक मैं न खो जाए, तब तक कर्मों की धारा बंद नहीं होती। और जब तक मेरा न खो जाए और मैं न खो जाए, तब तक ऊर्ध्व यात्रा, ऊपर की यात्रा शुरू नहीं होती। मैं का पत्थर हमारी गर्दन में लटका हुआ हमें नीचे डुबाए चला जाता है।

अहंकार से बड़ा पाप नहीं है। बाकी सारे पाप उसी से पैदा होते हैं। संततियां हैं। मूल अहंकार है। फिर लोभ, और क्रोध, और काम, सब उस अहंकार के आस-पास जन्म लेते चले जाते हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ममत्व को छोड़ दे जो!

मेरा क्या है? हाथ, जब मैं विदा होंऊगा, बिलकुल खाली होंगे। और जिसे मैं ले जा न सकूंगा, वह मेरा कैसे है? और जिसे मैं मेरा कह रहा हूं, वह मेरे पहले भी था; मैं उसे लाया नहीं, वह मेरा कैसे है? और जिसे मैं मेरा कह रहा हूं, मुझसे पहले न मालूम कितने लोगों ने उसे मेरा कहा है। वे सब खो गए। वह अभी भी बना है। हम भी खो जाएंगे, वह फिर भी बना रहेगा।

जमीन को हम कहते हैं, मेरी जमीन। उस जमीन ने हमारे जैसे बहुत-से पागल देखे हैं। जिन्होंने मेरे की घोषणा की, लड़े, कटे और मिट्टी में खो गए। वह जमीन हंसती होगी कि दावेदार खोते नहीं! वही पुराना दावा जारी रहता है! कितने लोग दावेदार हो चुके हैं उस जमीन के टुकड़े के, जिसके आप भी दावेदार हैं! कितने लोगों ने नहीं कहा कि मेरा है। फिर वे सब मेरे का दावा करने वाले लोग खो गए; वह जमीन अपनी जगह पड़ी है। वह जमीन हंसती होगी, जब आप अपने घर पर तख्ती लगाते होंगे कि मेरी जमीन, तब जमीन जरूर मुस्कुराती होगी कि फिर कोई पागल आ गया! फिर वही भूल!

इस दुनिया में नई भूलें करने वाले लोग तक खोजना मुश्किल हैं। लोग पुरानी भूलें ही किए चले जाते हैं। नई भूल करना है भी मुश्किल। आदमी सब भूलें कर चुका है; हजारों बार कर चुका है।

कृष्ण कहते हैं, ममत्व छूट जाए, कर्म जारी रहे, तो ऊर्ध्व यात्रा शुरू हो जाती है। अतीत के कर्म कटते हैं और आदमी ऊपर उठता है।

लेकिन ममत्व बहुत गहरा है। धन का तो है ही, पद का तो है ही; ज्ञान का और त्याग तक का ममत्व होता है। आदमी कहता है, मैं इतना जानता हूं। जानने पर भी मेरे को हावी कर लेता है। हद हो गई! ममत्व अज्ञान का हो, तो समझ में आ सकता है। ज्ञान का भी ममत्व!

इसलिए उपनिषद कहते हैं कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, कभी-कभी ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। अगर किसी ने ज्ञान पर कहा कि मेरा, तो वह अज्ञानी से भी लंबी भटकन में पड़ जाएगा। क्योंकि अज्ञानी क्षमा किया जा सकता है; ज्ञानी क्षमा नहीं किया जा सकता।

त्याग को भी लोग कहते हैं, मेरा। आदमी बहुत अदभुत है। एक आदमी कहता है, धन मेरा; एक आदमी कहता है कि धन मेरा था, अब त्याग मेरा है। मैंने लाख रुपये त्याग कर दिए! अब वह त्याग पर भी मेरे होने का दावा करता है। धन पर कोई दावा करे, समझ में आता है; पागल है। लेकिन त्याग का भी कोई दावा करे, तब तो महा पागल है। एक आदमी कहता है, मेरे पास लाख रुपए हैं। अकड़कर चलता है रास्ते पर। दूसरा आदमी कहता है, मैंने लाख रुपए त्याग कर दिए हैं। वह और भी ज्यादा अकड़कर चलता है रास्ते पर। त्याग भी मेरा! तब लगता है कि आदमी के पागलपन की कोई सीमा नहीं है और अहंकार की तरकीबों का कोई अंत नहीं है। वह कहीं से भी रास्ता खोज लेता है।

इस पृथ्वी पर जो मान ले कि मैं अज्ञानी हूं, समझना कि उसने ज्ञान का बहुत बड़ा कदम उठाया। जो मान ले कि मैं भोगी हूं, समझना कि उसने त्याग का बहुत बड़ा कदम उठाया। क्योंकि यह मान्यता, यह समझ विनम्र कर जाती है और अहंकार को तोड़ती है। लेकिन इस पृथ्वी पर कोई मानने को राजी नहीं है कि मैं अज्ञानी हूं।

मैंने सुना है कि एक ज्ञानी एक चर्च में गया, एक पादरी। और जो भी धर्मशास्त्र पढ़ लेते हैं, वे ज्ञानी हो जाते हैं! ज्ञानी होना बड़ा सरल है! है नहीं, मान लेना बहुत सरल है। उस पादरी को खयाल है कि मैं जानता हूं। आते ही उसने पहली धाक लोगों पर जमा देनी चाही। उसने खड़े होकर लोगों से कहा कि मैं तुमको समझाऊंगा बाद में, पहले मैं यह पूछ लूं कि तुम में कोई अज्ञानी हो, तो खड़ा हो जाए।

कौन खड़ा होता! लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। जैसे मैं आपसे पूछूं कि कोई अज्ञानी हो, तो खड़ा हो जाए। तो जो जिसको अज्ञानी समझता होगा–अपने को छोड़कर ही समझेगा सदा–वह उसकी तरफ देखेगा कि फलां खड़ा हो रहा है कि नहीं? अब तक खड़ा नहीं हुआ! पत्नी पति की तरफ देखेगी, पति पत्नी की तरफ देखेगा; बाप बेटे की तरफ देखेगा, बेटा बाप की तरफ देखेगा कि अभी तक खड़े नहीं हो रहे! कोई खड़ा नहीं होगा।

कोई खड़ा नहीं हुआ। उस पादरी ने कहा, कोई भी अज्ञानी नहीं है? धक्का लगा उसे। क्योंकि वह सोचता था, वह ज्ञानी है। और जब कोई भी खड़ा नहीं होता, तो सभी ज्ञानी हैं! तभी एक डरा हुआ सा आदमी, बहुत दीन-हीन सा आदमी झिझकता हुआ, चुपचाप उठकर खड़ा हो गया। उस पादरी ने कहा, आश्चर्य! चलो, एक आदमी तो अज्ञानी मिला। क्या तुम अपने को अज्ञानी समझते हो? उसने कहा कि नहीं महानुभाव, आपको अकेला खड़ा देखकर मुझे बड़ी शर्म मालूम पड़ती है, इसलिए मैं खड़ा हो गया हूं। आप अकेले ही खड़े हैं! अच्छा नहीं मालूम पड़ता, शिष्टाचार नहीं मालूम पड़ता। आप अजनबी हैं, बाहर से आए हैं। इसलिए मैं खड़ा हो गया हूं, अज्ञानी मैं नहीं हूं।

इस पृथ्वी पर कोई अपने को अज्ञानी मानने को राजी नहीं है। कोई अपने को भोगी मानने को राजी नहीं है। कोई अपने को अहंकारी मानने को राजी नहीं है। कोई अपने को ममत्व से घिरा है, ऐसा मानने को राजी नहीं है। और सब ऐसे हैं। और जब बीमारी अस्वीकार की जाए, तो उसे ठीक करना मुश्किल हो जाता है। बीमारी स्वीकार की जाए, तो उसका इलाज हो सकता है, निदान हो सकता है, चिकित्सा हो सकती है।

देख लेना ठीक से। कृष्ण कहते हैं, ममत्व को छोड़ देता है जो!

पर ममत्व को मानना पहले कि ममत्व है आपकी जिंदगी में, तभी छोड़ सकेंगे। जो बहुत चालाक हैं, वे कहेंगे, छोड़ना क्या है! ममत्व तो हमारी जिंदगी में है ही नहीं। धोखा पक्का हो गया।

ममत्व है। लगता है, कोई मेरा है–चाहे पत्नी, चाहे पिता, चाहे मां, चाहे बेटा, चाहे मित्र, चाहे शत्रु–मेरा है! शत्रु तक से ममत्व होता है। इसलिए ध्यान रखना, जब शत्रु मरता है, तब भी आप कुछ कम हो जाते हैं, समथिंग लेस। क्योंकि उसकी वजह से भी आपमें कुछ था। वह भी आपको कुछ बल देता था। उसके खिलाफ लड़कर भी कुछ कमाई चलती थी। वह भी आपके ममत्व का हिस्सा था।

ममत्व जो छोड़ दे, फिर भी कर्म में संलग्न हो। इंद्रियों और शरीर के कर्मों को करता चला जाए, इसलिए ताकि पिछले कर्मों की गति कटे और कर्म-बंधन से मुक्ति हो, ऐसे व्यक्ति को कृष्ण निष्काम कर्मयोगी कहते हैं।

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।

अयुक्तः कामकारेण फलै सक्तो निबध्यते।। 11।।

इसी से निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फल को परमेश्वर के अर्पण करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है। और सकामी पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बंधता है।

दो ही प्रकार के वर्ग हैं जगत में, दो ही प्रकार के लोग हैं जगत में, सकामी और निष्कामी। आध्यात्मिक अर्थों में दो ही विभाजन हो सकते हैं। वे, जो कर्म में लीन होते हैं तभी, जब फल की आकांक्षा से उत्प्रेरित होते हैं। जब तक फल की आकांक्षा का तेल न मिले, तब तक उनके कर्म की ज्योति जलती नहीं। फ्यूल जो है, वह फल की आकांक्षा से मिलता है। वह जो ईंधन है, उसके बिना उनकी कर्म की अग्नि जलती नहीं। उनके कर्म की अग्नि को जरूरी है कि ईंधन मिले फल की आकांक्षा का।

और ध्यान रहे, फल की आकांक्षा बड़ी गीली चीज है; सूखी चीज नहीं है। होगी ही गीली। क्योंकि सूखी चीज भविष्य में कभी नहीं होती। सूखी चीज सदा अतीत में होती है। भविष्य में तो गीली आकांक्षाएं होती हैं। हो सकता है, हो भी जाएं; हो सकता है, न भी हों। पता नहीं क्या मार्ग लें, क्या फल आए। कुछ पक्का नहीं होता।

भविष्य बहुत गीला है। गीली लकड़ी की तरह है; मुड़ेगा; मुड़ सकता है। अतीत सूखा होता है, सूखी लकड़ी की तरह; मुड़ नहीं सकता। भविष्य की आकांक्षाओं को जो ईंधन बनाते हैं अपने जीवन की कर्म-अग्नि में, धुएं से भर जाते हैं। गीला है ईंधन। हाथ में फल नहीं लगता है, सिर्फ धुआं लगता है–दुख–आंखों में आंसू भर जाते हैं धुएं से, और कुछ परिणाम नहीं लगता है हाथ में।

एक तो इस तरह के लोग हैं जो कर्म में इंचभर भी न चलेंगे, जब तक फल उनको खींचे न। फल उनको ऐसे ही न खींचे, जैसे कि कोई जानवर की गर्दन में रस्सी बांधकर खींचता है। क्या आपको पता है कि पशु हम जानवर को इसीलिए कहते हैं। पशु संस्कृत का बहुत अदभुत शब्द है। उसका अर्थ है, जिसे खींचना हो, तो गले में पाश बांधना पड़ता है, उसको पशु कहते हैं। जिसे खींचने के लिए पाश बांधना पड़े, वह पशु। इसलिए बहुत पुराने ज्ञानी हमको पशु ही कहेंगे। जो भी भविष्य की आकांक्षा से बंधे हुए चलते हैं, वे पशु हैं।

पशु का मतलब, कर्म से नहीं चलते, फल से बंधे हुए चलते हैं। गर्दन फंसी है एक जाल में। भविष्य के हाथ में है वह रस्सी। वह खींच रहा है। या तो भविष्य खींचे, तो हम चलते हैं; कोई हमारी गर्दन में रस्सी बांध ले। और या अतीत धक्का दे, तो हम चलते हैं। जैसे कोई जानवर को पीछे से लकड़ी मारे या कोई बाहर से रस्सी खींचे आगे से। या तो कोई पुल करे या पुश करे, तो ही जानवर चले।

तो पुराने ज्ञानी कहते हैं कि वह आदमी पशु है, जो या तो अतीत के कर्मों के धक्के की वजह से चलता है और या भविष्य की आकांक्षाओं के पाश में बंधकर खिंचता है। वह आदमी नहीं है अभी।

आदमी कौन है? आदमी वह है, जो अतीत के धक्के को भी नहीं मानता और जो भविष्य की आकांक्षा को नहीं मानता, जो वर्तमान के कर्म में जीता है। जो अतीत के धक्के को भी स्वीकार नहीं करता और जो भविष्य के आकर्षण को भी स्वीकार नहीं करता। जो कहता है, मैं तो अभी, यह जो क्षण मिला है, इसमें जीऊंगा।

लेकिन यह जीना तभी संभव है, जब कोई अतीत को और भविष्य को परमात्मा पर समर्पित कर दे। अन्यथा अतीत धक्के मारेगा, अन्यथा भविष्य खींचेगा।

आदमी बहुत कमजोर है। आदमी स्वभावतः बहुत सीमित शक्ति का है। आदमी भविष्य को और अतीत को बिना परमात्मा के सहारे के छोड़ना बहुत मुश्किल पाएगा। लेकिन परमात्मा को समर्पित करके आसान हो जाती है बात। छोड़ देता है कि जो तेरी मर्जी होगी, कल वह हो जाएगा। अभी जो समय मुझे मिला है, वह मैं काम में लगा देता हूं। और मेरा आनंद इतना ही है कि मैंने काम किया; फल से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।

आनंद जिसका कर्म बन जाता है! लेकिन तभी बन पाता है, जब कोई प्रभु पर समर्पित करने की सामर्थ्य रखता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, फल की आकांक्षा को छोड़कर, निष्काम होकर प्रभु को समर्पित कर देता है जो सारा जीवन, वही आनंद को उपलब्ध होता है। कामीजन, सकामीजन कभी आनंद को उपलब्ध नहीं होते। दुख का धुआं ही उनका फलश्रुति है।

लेकिन हम तो अगर मंदिर में परमात्मा पर कुछ समर्पण भी करने जाएं, तो सकाम होते हैं। प्रार्थना भी हम मुफ्त में नहीं करते; प्रार्थना में भी हम कुछ पाना चाहते हैं! हाथ भी जोड़ते हैं परमात्मा को, तो शर्त, कंडीशन होती है। कुछ मिल जाए। जिसे कुछ नहीं चाहिए, वह मंदिर जाता नहीं। जाता ही तब है कोई, जब उसे कुछ चाहिए।

और ध्यान रहे, जब कोई कुछ मांगने मंदिर जाता है, तो मंदिर पहुंच ही नहीं पाता। मंदिर पहुंच ही नहीं सकता है। मंदिर के द्वार पर ही निष्काम हो जाए जो, वही भीतर प्रवेश कर सकता है।

आप कहेंगे, हम तो मंदिर में रोज प्रवेश कर जाते हैं।

आप मकान में प्रवेश करते हैं, मंदिर में नहीं। मंदिर और मकान में बड़ा फर्क है। जिस मकान में भी आप निष्काम प्रवेश कर जाएं, वह मंदिर हो जाता है। और मंदिर में भी सकाम प्रवेश कर जाएं, वह मकान हो जाता है।

यह आप पर निर्भर करता है कि जहां आप प्रवेश कर रहे हैं, वह मंदिर है या मकान। जिस भूमि पर आप निष्काम होकर खड़े हो जाएं, वह तीर्थ हो जाती है। और जिस भूमि पर आप सकाम होकर खड़े हो जाएं, वह पाप हो जाती है। भूमि पर निर्भर नहीं है यह। यह आप पर निर्भर है। लेकिन हम तो पूरे समय कामवासना से ही जीते हैं। कुछ भी करेंगे…।

एक मित्र कल मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि इस भजन-कीर्तन से क्या मिलेगा? मैं भी करना चाहता हूं, लेकिन मिलेगा क्या? स्वाभाविक। न मिले, तो नाहक परेशान होने से कोई सार नहीं। मैंने उनसे कहा कि जब तक मिलने का खयाल है, तब तक कीर्तन न कर पाओगे। क्योंकि मिलने के खयाल से तो कीर्तन का कोई संबंध ही नहीं जुड़ता। फिर दूकान करो।

कीर्तन का तो अर्थ ही यह है कि कुछ घड़ी ऐसी भी है, जब हम कुछ भी नहीं पाना चाहते। कुछ दस क्षण के लिए हम ऐसे जीना चाहते हैं कि कुछ पाना नहीं, नान-परपजिव, कोई प्रयोजन नहीं है। जीवन मिला है, इसके आनंद में, इसके उत्सव में नाच रहे हैं। श्वास चल रही है, इसके आनंद-उत्सव में नाच रहे हैं। परमात्मा ने हमें भी इस योग्य समझा कि जीवन दे, इसकी खुशी में नाच रहे हैं। कुछ पाने के लिए नहीं, धन्यवाद की तरह, एक आभार, ग्रेटिटयूड की तरह। कीर्तन एक आभार है, थैंक्स गिविंग। कुछ पाने के लिए प्रयोजन नहीं है। कुछ मिलेगा नहीं उससे।

ऐसा जब मैं कहता हूं, कुछ मिलेगा नहीं उससे, तो आप यह मत समझ लेना कि जो कीर्तन करते हैं, उन्हें कुछ मिलता नहीं है। ऐसा मत समझ लेना। जब मैं कहता हूं, कुछ मिलेगा नहीं, तो मैं यह कहता हूं कि कीर्तन में आना हो, तो मिलने का खयाल छोड़कर आना। जो आ जाता है, उसे तो बहुत मिलता है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। लेकिन उसका खयाल रखकर जो आएगा, उसको नहीं मिलेगा। यह कठिनाई है।

अगर आप यह खयाल रखकर आए कि बहुत कुछ मिलेगा, तो आप खाली हाथ लौट जाएंगे। और अगर आप खाली मन आए; कुछ लेने नहीं, सिर्फ प्रभु को धन्यवाद देने, बेशर्त; हृदय भर जाएगा किसी अनूठे आनंद से। एक नया ही द्वार खुल जाएगा।

ध्यान रहे, कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि जो निष्काम कर्म करता है, उसे फल मिलता नहीं है। इस भूल में मत पड़ जाना कि उसको फल नहीं मिलता। और इस भूल में भी मत पड़ जाना कि जो सकाम कर्म करता है, उसको फल मिलता है। हालत बिलकुल उलटी है।

जो सकाम जीता है, उसे फल कभी नहीं मिलता। और जो निष्काम जीता है, उसके जीवन पर प्रतिपल फल की वर्षा होती है! लेकिन बड़ा उलटा नियम है जिंदगी का। जो मांगता है, वह भिखारी की तरह मांगता रहता है, उसे कभी नहीं मिलता। और जो नहीं मांगता, वह सम्राट की तरह खड़ा हो जाता है और सब उसे मिल जाता है।

जीसस ने कहा है, जो बचाएगा, वह खो देगा; और जो खो देगा, वह पा लेगा।

अजीब-सी बात कही है! जो बचाएगा, वह खो देगा। हम सब बचा रहे हैं। आखिर में खाली, शून्य हाथ में रह आएगा। और जो खो देगा, वह पा लेगा। उससे फिर कुछ छीना नहीं जा सकता है।

कृष्ण की बात को भी ठीक से समझ लें। वे कहते हैं, दो तरह के लोग हैं। एक कामना से जीने वाले, सकामी। कुछ भी करेंगे, पहले पक्का कर लेंगे, फल क्या मिलेगा! प्रेम तक करने जाएंगे, तो पहले पक्का कर लेंगे, फल क्या मिलेगा! प्रार्थना करने जाएंगे, तो पहले पक्का कर लेंगे कि फल क्या मिलेगा! फल पहले, फिर कुछ कदम उठाएंगे। इन्हें फल कभी नहीं मिलेगा। मेहनत ये बहुत करेंगे। दौड़ेंगे बहुत, पहुंचेंगे कहीं भी नहीं। इनकी हालत करीब-करीब वैसी होगी…।

मुझे याद आता है कि मेरे गांव के पास वर्ष में कोई दोत्तीन बार मेला भरता था। और बचपन से ही एक बात मेरी समझ में कभी भी नहीं आई कि उस मेले में लकड़ी के घोड़ों की चकरी लगती थी। और जितने भी लोग जाते, उस पर बैठते; पैसे खर्च करते; उस चक्कर में गोल चक्कर खाते। बच्चे चक्कर खात थे, तो ठीक। एक दिन मैंने देखा कि मेरे स्कूल के शिक्षक भी उस पर बैठकर चक्कर खा रहे हैं! मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने जाकर उनसे पूछा–काफी चक्कर वे ले चुके, उनकी जेब के सब पैसे खाली हो गए उस चक्कर में–मैंने उनसे पूछा कि आप पहुंचे कहां? चले तो बहुत। उन्होंने कहा, पहुंचे! लकड़ी के घोड़े पर बैठकर चकरी में घूम रहे हैं। पहुंच कहीं भी नहीं रहे, सिर्फ चकरा रहे हैं।

अनेक को उतरकर चक्कर खाते देखा। किसी को वामिट होते देखी। समझ में मेरे कभी न आया कि यह हो क्या रहा है! लेकिन अब धीरे-धीरे समझ में आता है कि वह मेले की चकरी तो बहुत छोटी है, उस पर तो कभी कोई बैठता है। संसार की चकरी पर सब बैठे रहते हैं। कहीं पहुंचते नहीं। हालांकि हर पल लगता है कि अब पहुंचे, अब पहुंचे! घोड़ा बढ़ता ही चला जाता है। लगता है, अब पहुंचे, अब पहुंचे। कहीं पहुंचते नहीं। चक्कर खाकर नीचे गिर पड़ते हैं। और लकड़ी के घोड़े की चकरी पर से तो उतरकर अपने घर वापस लौट आते हैं; लेकिन जिंदगी की चकरी से जब चक्कर खाकर गिरते हैं, तो कब्र में वापस पहुंचते हैं; घर-वर नहीं पहुंचते।

जिंदगीभर कामना दौड़ाती है–लकड़ी के घोड़े ही हैं; कहीं पहुंचाते नहीं–दौड़ाती है। शायद आपको खयाल न हो, यह संस्कृत का शब्द संसार बहुत अदभुत है। इसका मतलब होता है, चक्कर, दि व्हील। वह जो भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर व्हील बना हुआ है, वह नेहरू को पता नहीं था, नहीं तो वे कभी न बनाते। उनको पता नहीं था कि वह बुद्ध का प्रतीक है। और अशोक ने अपने स्तंभ पर खुदवाया था इसलिए कि यह संसार चकरी की तरह है। इस पर बैठकर घूमते रहोगे सदा, पहुंचोगे कहीं नहीं। उनको पता नहीं था, नहीं तो वे कभी न बनवाते, क्योंकि दिल्ली में तो सिर्फ चकरी वाले ही लोग इकट्ठे होते हैं। जिनको अपने गांव छोटे पड़ते हैं, उनको जरा बड़े घोड़े चाहिए। दिल्ली में काफी सरकस चलता है बड़े घोड़ों वाला! उस पर बैठकर वे चक्कर खाते रहते हैं। पांच साल के बाद फिर जनता से कहते हैं कि हमें पहुंचाओ; हमें फिर चक्कर खाना है!

यह पूरा का पूरा संसार सकाम चक्कर है, ए व्हील आफ डिजायरिंग। बस, इच्छा होती है, यह मिल जाएगा, यह मिल जाएगा। चक्कर लगा लेते हैं, मिलता कभी कुछ नहीं है। मरते हुए आदमी से पूछो कि क्या मिला?

मैंने उस शिक्षक से पूछा था, कहां पहुंचे? वे चौंककर खड़े हो गए। उन्होंने मुझसे उलटा ही कहा। उन्होंने कहा कि अभी तुम न समझ सकोगे, तुम्हारी उम्र कम है।

उन्होंने मुझसे कहा, अभी तुम न समझ सकोगे, तुम्हारी उम्र कम है। मैं अभी तक नहीं समझा। अभी भी गांव जाता हूं, तो उनके पास जाता हूं कि अब जरा मेरी उम्र तो काफी हो गई, अब समझा दें। उस चकरी पर आप बैठे थे, कहां पहुंचे? अब मुझसे इस बार मैं गया, तो वे कहने लगे, छोड़ो भी उस बकवास को। तीस साल हो गए! मैंने कहा, उस वक्त आपने कहा था कि उम्र कम है। अब तीस साल…। कब? कहीं ऐसा न हो कि दुबारा मैं आऊं और आप न बचें, क्योंकि आपकी उम्र अब अस्सी साल होती है। मुझे कब बताइएगा कि आप पहुंचे कहां थे उस चकरी पर बैठकर!

वे मुझे देखते हैं कि डर जाते हैं! वे समझते हैं कि मैं आया, वह चकरी का सवाल उठेगा। एक दफा मैंने उनको बैठा देख लिया! अभी तक इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाए कि वे मुझसे कह दें कि कहीं नहीं पहुंचा। इतना कमजोर है आदमी! एक दफा मुझसे कह दें, झंझट मिट जाए। मैं तो नहीं छोडूंगा। मैं तो जब भी जाता हूं, पहले उनके घर पहुंचता हूं कि अब बता दें। एक साल और बीत गया। अभी तक मेरी समझ में नहीं आया कि आप कहां पहुंचे थे।

वह आदमी शक्तिशाली है, जो कमजोरी को स्वीकार कर लेता है, क्योंकि तब कमजोरी के पार हुआ जा सकता है। सकाम दौड़ता है बहुत, पहुंचता कहीं भी नहीं है, सिवाय दुख के। निष्काम कहीं भी नहीं पहुंचना चाहता है, और जहां खड़ा होता है, वही से पहुंच जाता है।

तो यह मत सोचना आप कि निष्काम व्यक्ति को फल नहीं मिलता। निष्काम को ही फल मिलता है। लेकिन निष्काम फल चाहता नहीं। वह कर्म को पूरा कर लेता है और चुप रह जाता है। परमात्मा पर छोड़ देता है।

इतने भरोसे से जो समर्पण कर सकता है परमात्मा पर, वह अगर निष्फल चला जाए, तो इस पृथ्वी पर धर्म की फिर कोई जगह नहीं है। जो इतने भरोसे से परमात्मा पर छोड़ देता है कि करूंगा मैं और सो जाऊंगा, फल तेरे ऊपर रहा। अगर वह भी निष्फल चला जाए, तो फिर इस पृथ्वी पर धर्म की कोई भी जगह नहीं है।

लेकिन वह कभी निष्फल नहीं गया। इसलिए धर्म का कितना ही ह्रास होता चला जाए, धर्म मर नहीं सकता। और धर्म का कितना ही विरोध होता रहे, कोई न कोई उसे फिर जगा लेता है, फिर पुनरुज्जीवित कर देता है।

जिसको भी जिंदगी में इस राज का पता चल जाता है कि बिना मांगे मिलता है और मांगने से नहीं मिलता, वही व्यक्ति धार्मिक हो जाता है। और जब तक आपको इस सीक्रेट का पता नहीं है, आप चाहे हिंदू हों, चाहे मुसलमान, चाहे जैन, चाहे ईसाई, चाहे आप कोई भी हों; मंदिर जाते हों, मस्जिद जाते हों–कुछ भी न होगा।

जिस दिन आपको यह पता चल जाएगा कि जो नहीं मांगता, उसे मिलता है। जो प्रभु पर छोड़ देता है, वह पा लेता है। और जो अपने ही हाथ में सब कुंजी रखता है, वह सब गंवा देता है। जब तक आपको इसका पता नहीं है। तब तक आपकी जिंदगी में धर्म का अवतरण नहीं हो सकता है।

इस सूत्र में कृष्ण ने धर्म की बुनियादी ‘की’, कुंजी की बात कही है।

प्रश्न:

भगवान श्री, आपने पिछली चर्चा में कहा है कि प्रार्थना बहिर्मुखी लोगों की साधना है और ध्यान अंतर्मुखी लोगों की साधना है। तब तो आज के इस बहिर्मुखी युग को प्रार्थना की साधना में ले जाना चाहिए। लेकिन आप तो ध्यान का आंदोलन चलाते हैं! आपकी नई ध्यान पद्धति अंतर्मुखी व बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लिए किस ढंग से संबंधित है? इन दोनों बातों पर प्रकाश डालें।

निश्चित ही, ध्यान अंतर्मुखी व्यक्ति की यात्रा रही है और प्रार्थना बहिर्मुखी व्यक्ति की यात्रा रही है। लेकिन ध्यान के हजारों मार्ग संभव हो सकते हैं और प्रार्थना के भी हजारों रूप संभव हो सकते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि ध्यान के जितने रूप आज तक रहे हैं, उनसे और ज्यादा रूप नहीं हो सकते। और ऐसा भी नहीं है कि जितनी प्रार्थनाओं की पद्धतियां अब तक खोजी गई हैं, उससे और ज्यादा पद्धतियां नहीं खोजी जा सकती हैं।

मैं जिस ध्यान की पद्धति की बात करता हूं, वह बहुत गहरे अर्थों में दोनों का जोड़ है। मैं जिसे ध्यान कहता हूं, वह दोनों का जोड़ है। उसमें तीन हिस्से बहिर्मुखी व्यक्ति के लिए हैं और चौथा हिस्सा अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए है। जो तीन हिस्से उस ध्यान के कर लेगा बहिर्मुखी व्यक्ति भी, वह भी वहीं पहुंच जाएगा, जहां अंतर्मुखी व्यक्ति पहुंचता है। और अंतर्मुखी व्यक्ति को पहले तीन हिस्सों को करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, वह पहले ही हिस्से से चौथे में छलांग लगा जाएगा।

ध्यान की ऐसी प्रक्रिया संभव है, जिसमें बहिर्मुखी और अंतर्मुखी दोनों के लिए द्वार खोजा जा सके। और प्रार्थना भी ऐसी खोजी जा सकती है, जिसमें अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों के लिए द्वार खोजा जा सके।

उदाहरण के लिए, आपने यहां कीर्तन देखा है। इस कीर्तन में अंतर्मुखी भी सम्मिलित हो सकता है, बहिर्मुखी भी सम्मिलित हो सकता है। लेकिन थोड़ी ही देर में फर्क पड़ने शुरू हो जाएंगे। बहिर्मुखी नृत्य में गहरा बढ़ता चला जाएगा। उसकी आवाज प्रकट होने लगेगी, उसका गीत झरने लगेगा, उसका नृत्य बढ़ने लगेगा। अंतर्मुखी अगर गीत से शुरू भी करेगा, थोड़ी देर में गीत खो जाएगा। नृत्य से शुरू भी करेगा, थोड़ी देर में नृत्य खो जाएगा। अंततः वह गिर पड़ेगा, चुप हो जाएगा, मौन में डूब जाएगा।

बहिर्मुखी नृत्य की चरम स्थिति में जो अनुभव करेगा, वही अंतर्मुखी गिरकर, बिलकुल मुर्दे की भांति पड़कर अनुभव करेगा। दोनों अपनी-अपनी यात्रा पर निकल जाएंगे।

और मेरी अपनी समझ ऐसी है कि भविष्य के लिए ऐसी विधियां खोजी जानीं चाहिए, जो विधियां दोनों के लिए उपयोगी हो सकें; और जिस भांति का व्यक्ति भी उसमें प्रवेश करे, वह अपने लिए द्वार खोज ले।

यह कीर्तन है। इसमें अंतर्मुखी थोड़ी ही देर में गाना छोड़ देगा, नाचना छोड़ देगा, डूब जाएगा, खो जाएगा कहीं। बहिर्मुखी नाच में गहरा चला जाएगा, और इतना गहरा चला जाएगा, आखिर में नाच ही बचेगा, नाचने वाला खो जाएगा। तब फिर वह भी वहीं पहुंच जाएगा, जहां वह नाच खो गया और एक आदमी शून्य हो गया। फिर नाच ही रह गया और नृत्य करने वाला खो गया, वह भी भीतर शून्य हो गया। दोनों की परम स्थिति एक हो जाएगी। लेकिन दोनों एक ही विधि से प्रवेश कर पा सकते हैं।

ठीक ऐसा ही मेरा ध्यान भी है। उसमें तीन चरण एक्सट्रोवर्ट हैं। पहले चरण में गहरी श्वास है, वह बहिर्मुखी के लिए बड़ी उपयोगी है। दूसरे चरण में नृत्य है, कूदना है, चिल्लाना है, वह भी बहिर्मुखी के लिए बड़ा उपयोगी है। तीसरे चरण में, मैं कौन हूं, इसकी इंक्वायरी, जिज्ञासा है। जोर से पूछना है, मैं कौन हूं। वह भी बहिर्मुखी के लिए बहुत उपयोगी है। और चौथे में बिलकुल मौन हो जाना है।

पूछेंगे आप कि चार चरणों में एक रखा सिर्फ अंतर्मुखी के लिए, तीन रखे बहिर्मुखी के लिए? क्योंकि मैं कहता हूं कि आज का युग बहिर्मुखी है। सौ आदमी करने आएंगे, तो मुश्किल है कि पच्चीस भी अंतर्मुखी हों, पचहत्तर तो बहिर्मुखी–निन्यानबे की संभावना है बहिर्मुखी होने की और एक की अंतर्मुखी होने की। उसके लिए भी जगह बना रखी है।

इसलिए अंतर्मुखी व्यक्ति जब मेरे पास आता है, तो वह कहता है, सांस लेते बनती ही नहीं; नाचते बनता ही नहीं; पूछूं किससे? कौन पूछे? कौन पूछे, मैं कौन हूं! वह कहता है, हमें तो सीधा चौथे में जाना अच्छा लगता है। मैं उसको कहता हूं, चौथे में चले जाओ।

लेकिन बहिर्मुखी व्यक्ति से कहें कि चुपचाप बैठ जाओ; वह कहेगा, मुश्किल मालूम पड़ता है। कैसे चुपचाप बैठे जाएं? कुछ तो चलता ही रहता है! तो मैं उससे कहता हूं, पहले खूब चला लो। चिल्लाओ जोर से। रोओ, कूदो, नाचो, गाओ। खूब चला लो। इतना चला लो कि तुम्हारा चलने का जो मन है, उसको पूरी-पूरी तृप्ति मिल जाए। उसी तृप्ति के मार्ग से पहुंचो वहां, जहां चलना ठहर जाता है।

मेरी पद्धति में बहिर्मुखी अंतर्मुखी दोनों के लिए समान प्रवेश है।

ये जो अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के मार्ग हैं, ये कोई विपरीत मार्ग नहीं हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों के लिए एक ही जगह पहुंचा देने वाले मार्ग हैं।

प्रश्न:

भगवान श्री, इस गीता ज्ञान यज्ञ से नाचने-गाने का क्या संबंध है, इसे और स्पष्ट कीजिए। और इस संकीर्तन में नाचना अस्तव्यस्त, डिसआर्डरली और मनमाना क्यों है, इसे भी साफ करें।

स्वभावतः, ऐसा खयाल और मित्रों को भी उठा। उन्होंने भी मुझे पूछा है कि गीता ज्ञान यज्ञ से कीर्तन का, धुन का, नृत्य का क्या संबंध? और फिर नृत्य भी हो, तो व्यवस्थित हो, तालबद्ध हो! डिसआर्डरली, अव्यवस्थित, अराजक, केआटिक, इसका क्या मतलब है?

इसका मतलब है।

एक तो मैं आपको यह जाहिर कर दूं कि जो गीता मैं समझा रहा हूं, आप समझने से ही समझ लेंगे, ऐसा मेरा भरोसा नहीं। समझने से केवल बुद्धि तक बात पहुंचती है, हृदय तक नहीं पहुंचती। और गीता जिसे समझनी हो, वह अगर सिर्फ बुद्धि से समझने चलेगा, तो पंडित तो हो जाएगा, ज्ञानी नहीं हो पाएगा। इंटलेक्ट बता सकती है, क्या अर्थ है। विश्लेषण कर सकती है। तोड़त्तोड़कर तर्क व्यवस्था दे सकती है, लेकिन हृदय को छूती नहीं। तर्क से हृदय के फूल खिलते नहीं। और न ही तर्क और बुद्धि से हृदय की वीणा की झंकार पैदा होती है।

जानता हूं भलीभांति कि आज की दुनिया में कोई उपाय नहीं है कि आपसे बुद्धि के द्वारा कहा जाए। बुद्धि से कहना पड़ेगा, इसलिए घंटे सवा घंटे आपके साथ बुद्धि के साथ मेहनत करता हूं आपकी। और आखिर में बिलकुल निर्बुद्धि एक काम करवाता हूं। बिलकुल बुद्धिहीन! सिर्फ यही आपको खबर देने के लिए कि बुद्धि से जो नहीं हो सकेगा, वह बुद्धि को छोड़कर हो पाता है। और यह भी खबर देने के लिए कि घंटेभर मैंने आपकी बुद्धि को समझाने की कोशिश की, जिनकी समझ में आ गया होगा, उनको इस नृत्य में भी समझ में आना चाहिए। और अगर समझ में इसमें न आए, तो उनके पास केवल बौद्धिक शब्द पहुंचे और कुछ भी नहीं पहुंचा है।

अगर मेरी बातें समझ में आई हैं, तो आपका हृदय खुलेगा, नाचना चाहेगा, प्रफुल्लित होगा, प्रमुदित होगा। आप यही सोचते हुए नहीं जाएंगे कि जो बोला, वह तर्कयुक्त मालूम होता है। आप ऐसा अनुभव करते जाएंगे कि जो बोला, वह हृदय को स्पर्शित करता मालूम पड़ता है।

हृदय को स्पर्शित करना और बात है। इसलिए चाहता हूं कि अंत हृदय की किसी घटना से हो। इसलिए यहां चाहा कि दस मिनट, पांच मिनट भूल जाएं विचार को, शब्द को; घंटेभर मैं बोलता हूं, छोड़ें उसे। शब्द असमर्थ हैं। शब्द की असमर्थता आपको बताना चाहता हूं। और यह भी बताना चाहता हूं कि शायद जो मैं न कह पाया होऊं, जो कृष्ण भी न कह पाए हों, वह इन नाचते हुए संन्यासियों के नृत्य से आपको उसकी झलक मिल जाए।

और ध्यान रहे, अर्जुन नहीं समझ पाया कृष्ण से जितना, उतना कृष्ण से गोपियां समझ गईं। लेकिन गोपियों को कृष्ण ने कोई गीता नहीं कही थी। उनके साथ नाच लिए थे। गोपियों से कोई गीता नहीं कही, बांसुरी बजाकर नाच लिए थे किसी वंशी वट में, यमुना के तट पर। और गोपियां जितना समझीं, उतना अर्जुन नहीं समझ पाया। अर्जुन को गीता कही है। बड़ा बौद्धिक कम्युनिकेशन है, बड़ा बुद्धिगत संवाद है।

आपसे मैं भी बुद्धि की बात कहता हूं, लेकिन कृष्ण का और भी गहरा पहलू है, वह भी आपसे छूट न जाए। गीता पढ़ने वाले लोगों से अक्सर छूट जाता है। कृष्ण सिर्फ गीता कहने वाले कृष्ण ही नहीं हैं, कृष्ण नाचने वाले कृष्ण भी हैं। और वह उनका असली, और ज्यादा गहरा, और ज्यादा महत्वपूर्ण रूप है।

गीता न भी कही होती, तो कोई और भी कह सकता था, यह मैं आपसे कहता हूं। गीता बुद्ध भी कह सकते हैं, महावीर भी कह सकते हैं, क्राइस्ट भी कह सकते हैं। अगर कृष्ण ने गीता न कही होती, तो कोई और कह सकता था। लेकिन अगर कृष्ण न नाचे होते, तो न बुद्ध नाच सकते, न महावीर नाच सकते, न जीसस नाच सकते। वह अधूरा रह गया होता। वह बात और किसी से होनी मुश्किल थी।

इसलिए कृष्ण के व्यक्तित्व का जो गहरा रूप है, वह तो उनका नाचता हुआ, बांसुरी बजाता हुआ रूप है। गीता सुनकर कहीं ऐसा खयाल न हो कि गीता सिर्फ एक दर्शन शास्त्र का विवेचन है, एक मेटाफिजिक्स है। गीता सुनकर ऐसा भी लगे कि वह एक जीवन-संगीत भी है। ऐसा भी लगे कि वह नाचने की एक कला भी है।

इसलिए मैंने जानकर, कंसीडर्डली, पीछे पांच-सात मिनट– पांच-सात मिनट आपके अधैर्य को देखकर; नहीं तो मैं तो चाहता कि घंटेभर चर्चा हो, तो घंटेभर नृत्य हो। लेकिन आपकी हिम्मत बहुत कमजोर है, इसलिए पांच मिनट! पांच मिनट में ही कई की दम टूट जाती है, वे भागने की तैयारी में हो जाते हैं। उन्हें पता नहीं कि क्या हो रहा है। उन्हें पता नहीं कि क्या बंट रहा है। उन्हें पता नहीं कि क्या घटना घट रही है। उसे पांच मिनट प्रेम से देख लें; उसे पी जाएं। और मैं आपसे कहता हूं कि जो मेरे समझाने से नहीं हो सका होगा, जो कृष्ण के कहने से नहीं हो सका होगा, वह भी उस नृत्य से हो सकता है।

अव्यवस्थित इसलिए कि व्यवस्था का संबंध बुद्धि से है। हृदय का व्यवस्था से कोई संबंध नहीं है। जिस दिन नृत्य व्यवस्थित हो जाता है, बौद्धिक हो जाता है, इंटेलेक्चुअल हो जाता है। एक-एक पद है, एक-एक चाप है। सब इंतजाम है। वह गणित हो जाता है। शास्त्रीय संगीत बिलकुल मैथमेटिकल है। वह गणित है। कहना चाहिए, वह गणित ही है।

यह कोई संगीत नहीं है, यह कोई गणित नहीं है। यह तो हृदय का उन्मेष है। हृदय के उन्मेष में हिसाब नहीं होता। गणित में दो और दो चार होते हैं, प्रेम में जरूरी नहीं है। प्रेम में दो और दो पांच भी हो सकते हैं। प्रेम के पास हिसाब नहीं है। ये तो प्रेम में आए हुए संन्यासी हैं, वे नाच रहे हैं।

मुझे कहा किसी ने कि इनको थोड़ी ट्रेनिंग दे देनी चाहिए कि ये थोड़ा ढंग से नाचें। तो ट्रेनिंग से नाचने वाले तो सारी दुनिया में बहुत हैं; कोई कमी है! सो तो आप जाकर थिएटर में देख आते हैं; सब ट्रेनिंग से नाच चल रहा है। लेकिन ट्रेनिंग से जब कोई नाचता है, तो शरीर ही नाचता है; हृदय नहीं नाचता। ट्रेनिंग से कहीं नाच हुए हैं? हां, नाच हो जाएगा, लेकिन वह वेश्या का होगा, अभिनेता का होगा, एक्टर का होगा, एक्ट्रेस का होगा। संन्यासी का नहीं होगा।

संन्यासी के नृत्य में कुछ भेद है। वह नृत्य नहीं है, वह हृदय का उन्मेष है। कुछ चीज भीतर भर गई है, वह बाहर बह रही है। शरीर नहीं सम्हलता, इसलिए नाच रहा है।

यह नृत्य कोई लयत्तालबद्ध व्यवस्था नहीं है, इसलिए डिसआर्डरली है। इसमें कोई व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था होनी भी नहीं चाहिए, तभी उसकी मौज है, तभी उसकी नैसर्गिकता है, तभी उसकी स्पांटेनिटी है, और तभी आप उसमें भीतर प्रवेश कर पाएंगे। आज मैंने यह कहा, तो जरा आज फिर गौर से देखना आप। आप शायद सोचते होंगे कि ठीक है…।

एक मित्र आए, वे बोले, हम तो कीर्तन बीस साल से करते-करते थक गए। कुछ होता नहीं। होगा भी नहीं। क्योंकि कीर्तन कोई किया थोड़े ही जाता है। होना चाहिए। वह आनंद की अभिव्यक्ति बननी चाहिए। वे कहते हैं, हमें कीर्तन बीस साल हो गए करते-करते, कुछ हुआ नहीं। तो वे कुछ फल की आकांक्षा से कर रहे होंगे; कीर्तन सकाम हो गया। वे सोच रहे होंगे, कुछ हो जाए।

ये संन्यासी जो यहां बैठे हैं, कुछ होने के लिए नहीं कर रहे हैं। इनका आनंद है। गीता घंटेभर सुनी। अगर इतने आनंद से भी हृदय न भर जाए, कि नाच लें पांच मिनट और फिर विदा हो जाएं, तो बेकार गई बात।

इसलिए जानकर यह अव्यवस्थित है। यह अव्यवस्थित ही रहेगा। फिर भी आपके डर से, आपकी मौजूदगी से नए संन्यासी कोई आते हैं, तो वे तो हिम्मत भी नहीं जुटा पाते हैं। वे धीमे-धीमे करते रहते हैं। लेकिन मैं चाहता हूं कि दो-चार वर्ष में पूरे मुल्क में इस हवा को फैलाऊंगा। पूरे मुल्क में क्यों, सारी दुनिया के कोने-कोने तक फैलाने जैसी है। और वह जो फेस्टिव डायमेंशन है मनुष्य के उत्साह का, उमंग का; उत्सव का जो आयाम है चित्त का, वह खुलना चाहिए।

धर्म बहुत गंभीर हो गया है। और जितना गंभीर होगा धर्म, उतना रुग्ण और बीमार होगा। गंभीर शकलों को मंदिरों से विदा कर दो। मंदिर नृत्य के और जीवन के उत्सव के स्थल हों, तो हम धर्म को वापस ला पाएंगे।

गंभीर चेहरे, बीमार, घबड़ाए हुए, जिंदगी से परेशान, पीड़ित– नहीं, मंदिर को बेरौनक कर गए हैं। मंदिर तो जीवन के नृत्य का क्षण है। वहां तो जिंदगी की सारी गंभीरता बाजार में छोड़कर चले जाना चाहिए। वहां तो नाचते हुए ही जाना चाहिए। वहां तो नाचना चाहिए घड़ीभर सब भूलकर, लोग-लिहाज, लाज-लज्जा, सब भूलकर।

कल एक महिला ने मुझे खबर दी कि कोई बूढ़ी महिला पीछे कह रही थी कि यह क्या पाप हो रहा है! स्त्री और पुरुष साथ नाच रहे हैं! कृष्ण को न समझ पाएगी ऐसी बुद्धि। अगर नृत्य और कीर्तन में भी स्त्री-पुरुष का खयाल बना रहे, तो अच्छा है कि नृत्य-कीर्तन मत करो। इतना भी न भूलता हो! दूसरे का शरीर न भूलता हो, तो अपना शरीर कैसे भूलेगा? अगर इसका भी खयाल बना रहे कि पास में स्त्री खड़ी है, इसलिए बच-बचकर नाचो, तो मत नाचना। क्योंकि फिर अपने शरीर का खयाल भूलने वाला नहीं है।

कोई तो घड़ी हो, जहां आप शरीर न रह जाएं और सिर्फ वही रह जाएं, जो भीतर हैं। वहां न कोई स्त्री है, न कोई पुरुष है। किसी घड़ी में तो सब भूल जाना चाहिए। लेकिन हमारे मंदिर में भी स्त्री-पुरुषों के फासले बने हुए हैं। स्त्रियां अलग बैठी हैं, पुरुष अलग बैठे हैं!

सुनी है न आपने घटना मीरा की कि जब वह गई वृंदावन, तो मंदिर के पुजारी ने भीतर न आने दिया। उसने कहा कि मैं स्त्री को देखता ही नहीं। तो मीरा ने खबर भिजवाई कि गोस्वामी को कहो कि मैं तो सोचती थी, एक ही पुरुष है, कृष्ण! तुम दूसरे पुरुष कहां से आ गए?

क्षमा मांगी आकर कि माफ कर दो। भूल हो गई।

ये नासमझियां धर्म के नाम पर बहुत हैं। ये तोड़ने जैसी हैं। उन्मुक्त! किसी घड़ी में तो जीवन के सारे थोथे नियमों को एक तरफ रखकर डूब जाएं। और फिर देखने वाली दृष्टि कैसी बेहूदी है! जिस स्त्री को, जिस पुरुष को यहां कीर्तन नहीं दिखाई पड़ा, कृष्ण का नाम नहीं सुनाई पड़ा, हरिनाम नहीं सुनाई पड़ा, उसे दिखाई पड़ा कि एक औरत एक पुरुष के पास नाच रही है! उस स्त्री की बुद्धि कितनी है! उस स्त्री की समझ कैसी है! और जिसने मुझे खबर दी उसने कहा कि वह वृद्धा थी। अगर वृद्ध होकर भी अभी यौन के इतने अंतर भूले नहीं, तो फिर कब? कब्र के बाद? अर्थी उठ जाएगी तब? कब होगा? ये भेद कब गिरेंगे? ये कहीं तो गिर जाने चाहिए।

इसलिए अव्यवस्थित है, कोई व्यवस्था नहीं है। हरिनाम की कोई व्यवस्था नहीं होती, सिर्फ आनंद होता है। अराजक है, केआटिक है। जानकर है, क्योंकि जितना अराजक होगा, उतने ही भीतर के बंधन गिरेंगे। और भीतर जो छिपी आत्मा है, वह प्रकट हो सकेगी।

और किसी पाने की आकांक्षा से नहीं है। सिर्फ प्रभु को धन्यवाद देने की आकांक्षा है। घंटेभर सुनी गीता; हृदय के कहीं फूल खिले; कहीं कोई वीणा का तार छुआ और बजा; कहीं कोई भीतर बुझा हुआ दीया जला, तो बाद में पांच मिनट परमात्मा को धन्यवाद देकर विदा हो जाना चाहिए। इसलिए कि यह भी समझ हमारी कहां, तेरी ही है! उसको ही समर्पित करके चले जाना चाहिए। यह भी हम कहां समझ पाते! तूने समझाना चाहा, तो हम समझ गए। तूने दिखाना चाहा, तो दिखाई पड़ गया। तूने इशारा किया, तो इशारा मिल गया। तुझे धन्यवाद दे देते हैं और चले जाते हैं।

थैंक्स गिविंग है। यह सिर्फ आभार है। और आज तो मैं आपसे कहूंगा, अपनी जगह बैठकर ही डोलें और ताली बजाएं और प्रभु का नाम लें। और एक भी आदमी जाए न।

एक सूत्र और ले लें।

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।। 13।।

और हे अर्जुन, वश में है अंतःकरण जिसके, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष निःसंदेह न करता हुआ और न करवाता हुआ, नौ द्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर, अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती हैं, ऐसा मानता हुआ आनंदपूर्वक, सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।

इसमें एक ही नई बात कही है, वह समझ लें।

कहा है, अंतःकरण वश में हुआ जिसका! इस संबंध में हमने बात की है। न करता है, न कराता हुआ, सच्चिदानंद परमात्मा में सदा स्थित रहता है। यह आखिरी बात इस सूत्र में नई है।

ऐसा व्यक्ति, ऐसे ज्ञान को उपलब्ध, इंद्रियों से अपने को भिन्न जानता है जो, वासनाएं जिसके अंतःकरण को अशुद्ध और कुरूप और दुर्गंधित नहीं करतीं; कर्म करता हुआ भी जानता नहीं, मानता नहीं कि मैं कर्म करता हूं। प्रभु ही करता है। कराता हुआ भी नहीं मानता कि मैं कराता हूं। प्रभु ही कराता है। ऐसा पुरुष प्रतिपल, हर घड़ी, सोते-जागते, उठते-बैठते सच्चिदानंद परमात्मा में ही स्थिर रहता है। एक क्षण को भी वह हटता नहीं वहां से। हटे तो हम भी नहीं हैं, लेकिन हमें इसका पता नहीं है, उसे पता होता है। हटे तो हम भी नहीं हैं। सच्चिदानंद परमात्मा हमारा स्वरूप है।

लेकिन हमारी हालत वैसी है, जैसा मैंने सुना है, एक मछली ने एक दिन जाकर सागर की रानी मछली से पूछा कि यह सागर कहां है? बहुत सुनती हूं चर्चा! मछलियां बड़ी बात करती हैं! पुरखों से सुनी है यह बात कि सागर है कोई। पर कहां है? सागर कहां है?

स्वभावतः, मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही जीती है और सागर में ही समाप्त हो जाती है। जो इतना निकट है और सदा निकट है, वह दिखाई नहीं पड़ता। जो बहुत ऑबियस है, जो बिलकुल सदा ही साथ है, वह दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ने के लिए बीच-बीच में खो जाना जरूरी है।

मछली को सागर से निकालो, तब उसे पता चलता है कि सागर कहां है। डाल दो तट पर मछली को निकालकर, तब तड़फन आती है। तब पता चलता है, सागर कहां है। अन्यथा सागर में रही मछली को कभी पता नहीं चलता कि सागर कहां है। पता चलेगा भी कैसे? दूरी चाहिए पता चलने को। पर्सपेक्टिव चाहिए, फासला चाहिए। थोड़ा फासला हो तो पता चलता है, नहीं तो पता नहीं चलता।

तो सागर की मछली को पता न हो, आश्चर्य नहीं है। हमको भी पता नहीं है कि हम परमात्मा में ही जीते, पैदा होते, जन्मते, बड़े होते, बिखरते, विसर्जित होते हैं। और सागर की मछली तो कोशिश करने से कभी किनारे पर भी आ सकती है। हम परमात्मा के किनारे पर कभी नहीं आ सकते, क्योंकि कोई किनारा है ही नहीं। इसीलिए तो हमें पता नहीं चलता कि परमात्मा कहां है।

लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? अगर परमात्मा कोई चीज होती, तो बताई जा सकती थी, यह रही। एक पत्थर भी बताया जा सकता है, यह रहा; और परमात्मा नहीं बताया जा सकता कि कहां है! क्योंकि परमात्मा कहां है, यह पूछना ही गलत है। परमात्मा का मतलब ही यह होता है कि जो सब जगह है, जो सब कहीं है, एवरीव्हेयर। हर कहीं है जो, उसका नाम परमात्मा है।

इसका यह मतलब भी होता है कि जैसे हम दूसरी चीजों को बता सकते हैं कि यह रही, ऐसे हम परमात्मा को नहीं बता सकते। इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा का मतलब है, वही, जो कहीं भी नहीं है, नोव्हेयर। कहीं नहीं बता सकते कि यह रहा। कहीं भी अंगुली निर्देश नहीं कर सकती कि यह रहा। सब चीजों को बता सकते हैं, यह रही, परमात्मा को नहीं बता सकते। अगर परमात्मा को बताना हो, तो अंगुली के इशारे से नहीं बता सकते; मुट्ठी बंद करके बताना पड़ेगा कि यह रहा। अंगुली से इशारा करेंगे, तो गलती हो जाएगी। क्योंकि फिर अंगुली के अतिरिक्त जो इशारे छूट गए, वहां कौन होगा? वहां भी वही है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। सब जगह वही है।

परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व, दि एक्झिस्टेंस। हम भी उसी में जीते हैं, लेकिन हमें पता नहीं है। लेकिन जिस व्यक्ति ने अंतःकरण को शुद्ध कर लिया, उसे इसका पता हो जाता है। ठीक ऐसे ही पता हो जाता है, जैसे कि दर्पण पर धूल जमी हो और चेहरा न बनता हो। और किसी ने दर्पण को साफ कर लिया और चेहरा बन जाए। और दर्पण में दिखाई पड़ जाए कि अरे, मैं तो यह रहा! लेकिन जब धूल जमी थी, तब भी दर्पण पूरा दर्पण था। धूल हट गई, तब भी दर्पण वही दर्पण है। लेकिन जब धूल पड़ी थी, तो चेहरा बन नहीं पाता था, प्रतिफलित नहीं होता था; अब प्रतिफलित होता है।

शुद्ध अंतःकरण मिरर लाइक, दर्पण के जैसा हो जाता है। इसलिए कृष्ण ने कहा, जिसका अंतःकरण शुद्ध है! जिसके अंतःकरण से सारी फलाकांक्षा की धूल हट गई, वासनाओं का सब जाल हट गया, कूड़ा-करकट सब फेंक दिया उठाकर, कर्ता का बोझ हटा दिया, सब परमात्मा पर छोड़ दिया। इतना शुद्ध और हलका हुआ अंतःकरण, शांत और मौन, निर्भार हुआ अंतःकरण, जानता है प्रतिपल कि मैं सच्चिदानंद परमात्मा में हूं। होता ही उसी में है सदा। लेकिन अब जानता है। अब ध्यानपूर्वक जानता है। अभी सोया हुआ था, अब जागकर जानता है।

जैसे आप सोए हों। सूरज की रोशनी बरसती है चारों तरफ, आप सोए हैं। आपकी बंद पलकों पर सूरज की रोशनी टपकती है, लेकिन आपको कोई भी पता नहीं, आप सोए हैं, सूरज चारों तरफ बरस रहा है। आपके खून में सूरज की गर्मी जा रही है, आपके भीतर तक। आपका हृदय सूरज की गर्मी में धड़क रहा है। सब तरफ सूरज है, बाहर और भीतर, लेकिन आपको कोई पता नहीं है; आप सोए हैं।

फिर एक आदमी उठ आया और उसने जाना और अब वह पाता है कि हर घड़ी सूरज में है। सोया हुआ भी सूरज में है, जागा हुआ भी सूरज में है। लेकिन सोए हुए को पता नहीं है, कांशसनेस नहीं है।

अंतःकरण जिसका शुद्ध होता है, वह जानता है प्रतिपल, मैं परमात्मा में हूं। और जिसको यह पता चल जाए कि प्रतिपल मैं परमात्मा में हूं, स्वभावतः सच्चिदानंद की तिहरी घटना उसके जीवन में घट जाती है।

ये सत, चित, आनंद, तीन शब्द हैं। यह भारत की मनीषा ने जो श्रेष्ठतम नवनीत निकाला है सारे जीवन के अनुभव से, उनका इन तीन शब्दों में जोड़ है।

सत! सत का अर्थ है, एक्झिस्टेंस; जिसका अस्तित्व है। चित! चित का अर्थ है, कांशसनेस, जिसमें चेतना है। आनंद! आनंद का अर्थ है, ब्लिस; जो सदा ही आनंद में है। ये तीन शब्द भारत की समस्त साधना की निष्पत्तियां हैं।

अस्तित्व है किसका? पत्थर का? पानी का, जमीन का? आदमी का? दिखाई पड़ता है, है नहीं। क्योंकि आज है और कल नहीं हो जाएगा। भारत उसको अस्तित्व कहता है, जो सदा है। जो बदल जाता है, उसके अस्तित्व को अस्तित्व नहीं कहता। उसके अस्तित्व का कोई मतलब नहीं है। अस्तित्व उसका है, जो अपरिवर्तनीय, नित्य है। वही है अस्तित्ववान। बाकी तो सब खेल है छाया का।

बच्चे थे आप, फिर जवान हो गए, फिर बूढ़े हो गए। न तो बचपन का कोई अस्तित्व है; बचपन भी एक फेज है; एक्झिस्टेंस नहीं, चेंज! बचपन एक परिवर्तन है। इसे जरा समझें।

हम कहते हैं एक आदमी से, यह बच्चा है। कहना नहीं चाहिए। वैज्ञानिक नहीं है कहना। साइंटिफिक नहीं है। क्योंकि बच्चा है, ऐसा कहने से लगता है, कोई चीज स्टैटिक, ठहरी हुई है। कहना चाहिए, बच्चा हो रहा है। जवान हो रहा है। है की स्थिति में तो कोई जवान नहीं होता, नहीं तो बूढ़ा हो ही नहीं सकेगा फिर। बूढ़ा भी बूढ़ा नहीं होता। बूढ़ा भी होता रहता है। नदी बहती है, तो हम कहते हैं, नदी बह रही है। कहते हैं, नदी है। कहना नहीं चाहिए है, है। कहना चाहिए, नदी हो रही है।

इस जगत में इज़, है शब्द ठीक नहीं है। गलत है। सब चीजें हो रही हैं। हम कहते हैं, वृक्ष है। जब हम कहते हैं, है, तब वृक्ष कुछ और हो गया। एक नई पत्ती निकल गई होगी। एक पुरानी पत्ती टपक गई होगी। एक फूल खिल गया होगा। एक कली आ गई होगी। जब तक हमने कहा, है, तब तक वृक्ष बदल गया।

बुद्ध के पास एक आदमी मिलने आया और उसने कहा कि अब मैं जाता हूं। बड़ी कृपा की आपने। फिर आऊंगा कभी। बुद्ध ने कहा, तुम दुबारा अब न आ सकोगे। और तुमसे मैं कहता हूं कि तुम जो आए थे, वही तुम जा भी नहीं रहे हो। घंटेभर में गंगा का बहुत पानी बह चुका है।

यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। इसलिए परमात्मा को हम कहते हैं, एक्झिस्टेंस; और जगत को कहते हैं, चेंज। संसार है परिवर्तन और परमात्मा है अस्तित्व। सत का अर्थ है, वह जो सदा है।

जिस व्यक्ति का अंतःकरण शुद्ध हुआ, वह जानता है, मैं सदा हूं। न मैं कभी पैदा हुआ और न कभी मरूंगा। न मैं बच्चा हूं, न मैं बूढ़ा हूं, न मैं जवान हूं। मैं वह हूं, जो सदा है, जो कभी परिवर्तित नहीं होता है।

दूसरा शब्द है, चित। चित का अर्थ है, चैतन्य। जो व्यक्ति जितना शुद्ध होकर भीतर झांकता है, उतना ही पाता है कि वहां चेतना ही चेतना है; वहां कोई मूर्च्छा नहीं। और जब कोई अपने भीतर देख लेता है कि सब चैतन्य है, उसे बाहर भी चैतन्य दिखाई पड़ने लगता है।

ध्यान रहे, जो हम भीतर हैं, वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। चोर को चोर दिखाई पड़ते हैं बाहर। ईमानदार को ईमानदार दिखाई पड़ते हैं बाहर। बाहर हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम भीतर हैं। चूंकि भीतर हम मूर्च्छित हैं, इसलिए बाहर हमें पदार्थ दिखाई पड़ता है। जब हम भीतर चेतना को अनुभव करते हैं शुद्ध अंतःकरण में, तो बाहर भी चेतना का सागर दिखाई पड़ने लगता है। तब सब चीजें चेतन हैं। तब पत्थर भी जीवंत और चेतन है। तब इस जगत में कुछ भी जड़ नहीं है। तो ऐसा व्यक्ति सदा चेतना में थिर होता है।

और तीसरी बात है, आनंद। जिसे पता चल गया अस्तित्व का, उसका दुख मिट जाता है। दुख परिवर्तन में है। जहां परिवर्तन है, वहीं दुख है। और जहां परिवर्तन नहीं है, वहीं आनंद है। जिस व्यक्ति को पता चल गया कि परिवर्तन के बाहर हूं मैं, उसके जीवन से दुख विदा हो जाता है।

मूर्च्छा में दुख है। जहां बेहोशी है, वहां दुख है। ध्यान रखें, इसलिए दुखी आदमी शराब पीने लगते हैं। और शराबी आदमी दुखी हो जाते हैं। जहां-जहां दुख है, वहां-वहां बेहोशी की तलाश होती है। और जहां-जहां बेहोशी है, वहां-वहां दुख बढ़ता चला जाता है, विशियस सर्किल की तरह। इसलिए दुखी आदमी शराब पीने लगेगा। दुनिया में जितना दुख बढ़ेगा, उतनी शराब बढ़ेगी। जितनी शराब बढ़ेगी, उतना दुख बढ़ेगा। और एक-दूसरे को बढ़ाते चले जाएंगे। जितना ही आदमी होश से भरता है, उतना ही दुख के बाहर हो जाता है।

नित्य का पता चल जाए, चैतन्य का अनुभव हो जाए, आनंद की घटना घट जाती है। और ध्यान रहे, यह आनंद किसी से मिलता नहीं। यह फर्क है। सुख किसी से मिलता है। आनंद किसी से मिलता नहीं है, भीतर से आता है। सुख सदा बाहर से आता है। सुख सदा किसी पर निर्भर होता है। आनंद सदा ही स्वतंत्र होता है। इसलिए सुख के लिए दूसरे का मोहताज होना पड़ता है। आनंद के लिए किसी का मोहताज होने की जरूरत नहीं है।

अगर मुझे सुखी होना है, तो मुझे समाज में किसी के साथ होना पड़ेगा। और अगर मुझे आनंदित होना है, तो मैं अकेला भी हो सकता हूं। अगर इस पृथ्वी पर मैं अकेला रह जाऊं और आप सब कहीं विदा हो जाएं, तो मैं सुखी तो नहीं हो सकता, आनंदित हो सकता हूं।

लेकिन ध्यान रहे, जिनसे हमें सुख मिलता है, उनसे ही दुख मिलता है। जिसे आनंद मिलता है, उसे दुख का उपाय नहीं रह जाता।

एक बात अंतिम। आप सोच न पाएंगे, मनुष्य की भाषा में सब भाषाओं के विपरीत शब्द हैं, आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख का ठीक पैरेलल दुख है। खड़ा है सामने। प्रेम के पैरेलल, समानांतर खड़ी है घृणा। दया के समानांतर खड़ी है क्रूरता। सबके समानांतर कोई खड़ा है। आनंद अकेला शब्द है। क्योंकि आनंद स्वनिर्भर है, द्वंद्व के बाहर है, अद्वैत है। सुख-दुख, प्रेम-घृणा, सब द्वंद्व के भीतर हैं, द्वैत हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण शुद्ध हुआ जिसका, वह सच्चिदानंद परमात्मा में स्थिर, सदा स्थिर होता है।

शेष कल हम बात करेंगे। पर बैठे रहें। पांच मिनट अब उस आनंद की खबर को अपने भीतर समा जाने दें। देखें। ताली बजाएं। गा सकें, गाएं। बैठे-बैठे डोल सकें, डोलें। इस आनंद को लें और फिर पांच मिनट बाद चुपचाप विदा हो जाएं।

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--2 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–1

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जिन सूत्र (महावीर)—(भाग—2)

ओशो

सत्‍य के द्वार की कुंजी: सम्‍यक—श्रवण—प्रवचन—पहला

सोच्‍चा जाणइ कल्‍लाणं, सोच्‍चा जाणइ पावणं।

उभयं पि जाणए सोच्‍चा, जं छेपं तं सम्‍मायरे।। 81।।

णाणाssणत्‍तीए पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्‍चा।

विहरइ विसुज्‍झमाणी, जावज्‍जीवं पि निवकंपो।। 82।।

जह जह सुयभोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्‍वं।

तह तह पल्‍हाइ मुणी, नवनवसेवेगसद्धाओ।। 83।।

सूई जहा सुसुत्‍ता, न नस्‍सइ कयवरम्‍मि पडिआ वि।

जीवो वि तह ससुत्‍तो, न नस्‍सइ गओ वि संसारे।। 84।।

फिर हम महावीर के तीर्थ की चर्चा करें। ऐसे सत्पुरुषों को फिर-फिर सोचना जरूरी है। सोच-सोचकर सोचना जरूरी है। बार-बार उनका स्वाद हमारे प्राणों में उतरे। हमें भी वैसी प्यास जगे। जिस प्यास ने उन्हें परमात्मा बनाया, वही प्यास हमें भी परमात्मा बनाये। क्योंकि अंततः प्यास ही ले जाती है।

जब प्यास इतनी सघन होती है कि सारा प्राण प्यास में रूपांतरित हो जाता है, तो परमात्मा दूर नहीं। परमात्मा पाने के लिए कुछ और चाहिए नहीं। ऐसी परम प्यास चाहिए कि उसमें सब कुछ डूब जाए, तल्लीन हो जाए।

तो फिर महावीर की चर्चा करें। और महावीर की फिर चर्चा करने में यह बात सबसे पहले समझ लेनी जरूरी है कि महावीर ने श्रवण पर बड़ा जोर दिया है। महावीर कहते हैं, सोया है आदमी, तो कैसे जागेगा? कोई पुकारे उसे, कोई हिलाये-डुलाये, कोई जगाये। कोई उसे खबर दे कि जागरण का भी कोई लोक है। सोया आदमी अपने से कैसे जागेगा। सोया तो जागने का भी सपना देखने लगता है। सोया तो सपने में भी सोचने लगता है, जाग गये! भेद कैसे करेगा सोया हुआ आदमी कि जो मैं देख रहा हूं वह स्वप्न है या सत्य? कोई जागा उसे जगाये। कोई जागा उसे हिलाये। इसलिए महावीर कहते हैं, सुनकर ही सत्य की यात्रा शुरू होती है।

महावीर ने कहा है, मेरे चार तीर्थ हैं। श्रावक का, श्राविका का; साधु का, साध्वी का। लेकिन पहले उन्होंने कहा, श्रावक का, श्राविका का। श्रावक का अर्थ है, जो सुनकर पहुंच जाए। साधु का अर्थ है, जो सुनकर न पहुंच सके, सुनना जिसे काफी न पड़े जिसे कुछ और करना पड़े। साधुओं ने हालत उल्टी बना दी है। साधु कहते हैं कि साधु श्रावक से ऊपर है। ऊपर होता तो महावीर उसकी गणना पहले करते। तो उसे प्रथम रखते। महावीर कहते हैं, ऐसे हैं कुछ धन्यभागी, जो केवल सुनकर पहुंच जाते हैं। जिन्हें कुछ और करना नहीं पड़ता। करना तो उन्हें पड़ता है जो सुनकर समझ नहीं पाते। तो करनेवाला सुनने से दोयम है, नंबर दो है।

इसे समझना।

बुद्ध कहते थे, ऐसे घोड़े हैं कि जिनको मारो तो ही चलते हैं। ऐसे भी घोड़े हैं कि कोड़े की फटकार देखकर चलते हैं, मारने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे भी घोड़े हैं कि कोड़े की छाया देखकर चलते हैं। फटकारने की भी जरूरत नहीं पड़ती।

श्रावक को सुनना काफी है। उतना ही जगा देता है। तुमने किसी को पुकारा, कोई जग जाता है। पर किसी को हिलाना पड़ता है। किसी के मुंह पर पानी फेंकना पड़ता है। तब भी वह करवट लेकर सो जाता है। श्रावक है वह, जिसने सुनी पुकार और जाग गया। साधु है वह, जो करवट लेकर सो गया। जिसको हिलाओ, शोरगुल मचाओ, आंखों पर पानी फेंको। श्रवण–सम्यक-श्रवण–सुधी व्यक्ति के लिए पर्याप्त है। इशारा बहुत है बुद्धिमान को।

पहला सूत्र है आज का–

सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं।

उभयं पि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे।।

“सुनकर ही कल्याण का–आत्महित का मार्ग जाना जा सकता है।’ सुनकर ही। “सुनकर ही पाप का मार्ग भी जाना जा सकता है। अतः सुनकर ही हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो श्रेयस हो उसका आचरण करे।’

जाओ उनके पास, जो जाग गये हैं। बैठो उनके पास, जो जाग गये हैं। डूबो उनकी हवा में, जो जाग गये हैं। उनकी तरंगें तुम्हें जगायें। सत्संग का इतना ही अर्थ है। सुनो उन्हें, जिन्होंने पाया है। उनके शब्दों में भी शून्य होगा। उनकी आवाज में भी मंत्र होगा। उनके इशारे में भी तुम्हारे जीवन की नाव निर्मित हो जाएगी। सुनकर ही। और उपाय भी तो नहीं है।

गुरजिएफ कहता था–इस सदी का एक बहुत बड़ा तीर्थंकर–कहता था, हमारी हालत ऐसे है जैसे रेगिस्तान में, जंगल में, निर्जन में कुछ यात्री रात पड़ाव डालें। खतरा है। बीहड़ है। जंगली पशु हमला कर सकते हैं। डाकू-लुटेरे छिपे हों। अनजान जगह है। अपना कोई नहीं, पहचान नहीं। ऐसा ही तो संसार है। तो क्या करे यात्रीदल? एक को जागता हुआ छोड़ देता है कि कम से कम एक जागता रहे, बाकी सो जाएं। फिर पारी-पारी से और लोग जागते रहते हैं। जो जागा है, वह खुद के सोने के पहले किसी और को उठा देता है। कम से कम एक दीया तो जलता रहे अंधेरे में। कम से कम कोई एक तो जागकर देखता रहे। खतरा आये तो हमें सोया हुआ न पाये।

सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि तुम जब सोये हो तब कोई तुम्हारे पास में बैठा हुआ, जागा हुआ है। तुम तो सोये हो, तो सपने में डूब जाओगे। तुम तो न-मालूम कितने वासनाओं, कल्पनाओं के लोक में भटक जाओगे। तुम तो न-मालूम कितने मन के खेलों में डूब जाओगे। लेकिन जो जागा है, वह यथार्थ को देखता रहेगा। उसे सुनो। जब जागा हुआ कुछ कहे, तो सुनो, समझो।

जागे हुए के साथ तर्क का सवाल नहीं है, क्योंकि उसकी भाषा बड़ी और है। उससे तर्क करके तुम कुछ भी न पाओगे। उससे तर्क करके केवल तुम बंद रह जाओगे। जागे के साथ तर्क नहीं हो सकता। जागे के साथ तो केवल श्रवण हो सकता है। उससे विवाद नहीं हो सकता, केवल सुनना हो सकता है। वह जो कहे, उसे पीओ। वह जो कहे, तुम्हारे सोचने का सवाल उतना नहीं है जितना पीने का सवाल है। क्योंकि वह जो कह रहा है, उसे पीकर ही तुम समझ सकोगे कि सही है या गलत है। और तो कोई उपाय नहीं।

लेकिन अगर ठीक से सुना गया, तो सत्य की महिमा है कि ठीक से सुननेवाले को सत्य तत्क्षण हृदय में चोट करने लगता है। कहा गया अगर असत्य है, तो ठीक से सुनते समय ही साफ हो जाता है कि असत्य है। तय नहीं करना पड़ता, विचार भी नहीं करना पड़ता। असत्य के कोई पैर ही नहीं हैं। पैर तो सत्य के हैं। असत्य तो तुम्हारे हृदय तक जा ही नहीं सकता। असत्य तो लंगड़ा है। असत्य तो बाहर ही गिर जाएगा। तुम अगर शांत बैठे सुनने को तैयार हो, तो घबड़ाओ मत कि कहीं ऐसा न हो कि असत्य भीतर प्रवेश कर जाए। असत्य तो तभी प्रवेश करता है जब तुम शांत, मौन श्रवण नहीं करते। तुम्हारी नींद के द्वार से ही असत्य प्रवेश करता है। तुम्हारी मूर्च्छा से ही प्रवेश करता है।

अगर तुम सजग होकर सुनने बैठे हो, तो असत्य गिर जाएगा बाहर। तुम्हारी आंख का सामना न कर सकेगा असत्य। वह शांत सुननेवाले के प्राण पर्याप्त हैं असत्य को गिरा देने को। जो सत्य है, वही चला आयेगा चुंबक की तरह खिंचता हुआ। जो सत्य है वही तुम्हारे प्राणों में तीर की तरह प्रवेश कर जाएगा। जो असत्य है, बाहर रह जाएगा। तुम सत्य हो, तुम सत्य को ही खींच लोगे।

लेकिन अगर तुमने ठीक से न सुना, अगर तुमने विचार किया, तुमने सोचा, तुमने कहा यह ठीक है या नहीं, मेरी अतीत मान्यताओं से मेल खाता, नहीं खाता, तो संभव है कि असत्य तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाए। असत्य बहुत तार्किक है। जीवंत तो जरा-भी नहीं, लेकिन बड़ा तर्कयुक्त है।

सत्य के पास कोई तर्क नहीं, कोई प्रमाण नहीं। सत्य अस्तित्ववान है, वही उसका प्रमाण है। इसलिए शास्त्र कहते हैं सत्य स्वयं प्रमाण है। असत्य स्वयं अप्रमाण है। सुन लो ठीक से। उस सुनने में ही चुनाव हो जाएगा।

“सोच्चा जाणइ कल्लाणं।’ सुनकर ही कल्याण का पता चल जाता है कि क्या है कल्याण। “सोच्चा जाणइ पावगं।’ सुनकर ही पता चल जाता है कि पाप क्या है, गलत क्या है, अकल्याण क्या है? और महावीर की बड़ी खूबी है; वे कहते हैं मेरे पास कोई आदेश नहीं है। मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम ऐसा करो। महावीर कहते हैं, तुम सिर्फ सुन लो।

“अतः सुनकर हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना।’

महावीर यह भी नहीं कहते कि पाप को छोड़ो। कहने की जरूरत नहीं। ठीक से सुननेवाले को पाप पकड़ता ही नहीं। महावीर यह भी नहीं कहते कि सत्य का अनुसरण करो। यह बात ही व्यर्थ होगी। जिसने ठीक से सुना है वह सत्य के अनुसरण में लग जाता है। अनुसंधान में लग जाता है। इसका यह अर्थ हुआ–सम्यक-श्रवण कुंजी है सत्य के द्वार की। जिसके हाथ में सम्यक-श्रवण है, वह पहुंच जाएगा। उसे कोई रोक न सकेगा।

इसे हम थोड़े वैज्ञानिक अर्थों में समझें।

आदमी के पास आंख है देखने को, कान हैं सुनने को। आंख से जब तुम देखते हो, तो एक ही दिशा में देख सकते हो। आंख बहु-आयामी नहीं है। “मल्टी-डायमेंशनल’ नहीं है। एक तरफ देखो, तो सब दिशाएं बंद हो जाती हैं। आंख एकांगी है। आंख एकांत है। इसलिए महावीर का जोर कान पर ज्यादा है, आंख की बजाय। कान बहु-आयामी है। आंख बंद करके सुनो, तो चारों तरफ की आवाजें सुनायी पड़ती हैं। आंख समग्र को नहीं ले पाती। कान समग्र को भीतर ले लेता है। यह पहली बात खयाल में लेने की!

आंख से जब भी तुम देखते हो, तो एक दिशा में, एक रेखा में। उतनी रेखा को छोड़कर शेष सब बंद हो जाता है। आंख है जैसे टार्च। एक दिशा में प्रकाश की धारा पड़ती है। लेकिन शेष सब अंधकार में हो जाता है।

महावीर कहते हैं, यह एकांगी होगा; यह एकांत होगा। तुम एक पहलू को जान लोगे, लेकिन शेष पहलुओं से अनजान रह जाओगे। यह ऐसा ही होगा जैसे उन पांच अंधों की कथा है, जो हाथी को देखने गये थे। सबने हाथी के अंग छुए, लेकिन सभी का दर्शन–अंधे थे, सभी की प्रतीति एकांगी थी। जिसने पैर छुआ उसने सोचा कि हाथी खंभे की भांति है। जिसने कान छुए उसने सोचा कि हाथी पंखे की भांति है। अलग-अलग। वे सभी सत्य थे, लेकिन सभी अधूरे सत्य थे।

और महावीर कहते हैं, अधूरा सत्य असत्य से भी बदतर है। क्योंकि असत्य को तो पहचानने में कठिनाई नहीं, वह तो निष्प्राण है, वह तो लाश की तरह है। उसको तो तुम समझ ही जाओगे कि यह मुर्दा है। आधा सत्य खतरनाक है। क्योंकि आधे सत्य में थोड़ी-सी प्राणों की झलक है। श्वास अभी चलती है, मरीज अभी मरा नहीं। लगता है जिंदा है। अभी शरीर थोड़ा गरम है, ठंडा नहीं हो गया है। खून अभी बहता है। लगता है जिंदा है। आधा सत्य असत्य से बदतर है। इसलिए महावीर का सारा संघर्ष आधे सत्यों के खिलाफ है, असत्य के खिलाफ नहीं। उन्होंने कहा असत्य तो सुनकर ही समझ में आ जाता है कि असत्य है। लेकिन आधे सत्य बड़े भरमाते हैं।

महावीर ने एक नये जीवन-दर्शन को जन्म दिया। उसे कहा, स्यातवाद। उसे कहा, अनेकांतवाद। उसे कहा कि मैं सारे एकांगी सत्यों को इकट्ठा कर लेना चाहता हूं। ये पांचों अंधों ने जो कहा है हाथी के संबंध में, यह सभी सच है। और सत्य इन सभी का इकट्ठा जोड़ है, समन्वय है।

कान की खूबी है कि कान आंख से ज्यादा समग्र है। जब तुम सुनते हो तो चारों दिशाओं से सुनते हो। कान ऐसे हैं जैसे दीया जले। सब तरफ प्रकाश पड़े। आंख ऐसे हैं जैसे टार्च। एक दिशा में। एकांगी। महावीर कहते हैं कि दर्शनशास्त्र एकांगी है। श्रवणशास्त्र बहु-अंगी है। इसलिए महावीर ने एक बड़ी क्रांतिकारी प्रज्ञा दी। उन्होंने कहा कि सुनो। अगर ध्यान में जाना है, तो सुनकर जल्दी जा सकोगे, बजाय देखकर। इसलिए समस्त ध्यानियों ने आंख बंद कर लेनी चाही है। समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं कहती हैं आंख बंद कर लो।

यह भी थोड़ा समझने जैसा है कि परमात्मा ने आंख को ऐसा बनाया है कि चाहो तो खोल लो, चाहो तो बंद कर लो। कान को ऐसा नहीं बनाया। कान खुला है। बंद करने का उपाय नहीं। आंख तुम्हारे हाथ में है। कान अब भी परमात्मा के हाथ में है। तुम्हारे वश में नहीं कि तुम उसे खोलो, बंद करो। सदा खुला है। तुम्हारी गहरी से गहरी नींद में भी कान खुला है। आंख तो बंद है। जब तुम मूर्च्छा में खोये हो, तब भी कान खुला है। आंख तो बंद है। नींद में पड़े आदमी के पास जागा आदमी खड़ा रहे, तो देख न पायेगा। नींद में पड़ा आदमी देखेगा कैसे, आंख तो बंद है। लेकिन अगर वह आदमी उसका नाम ले, आवाज दे, तो सुन तो पायेगा।

हम सोये हैं। श्रवण से रास्ता मिलेगा। आंख तो हमारी बंद ही है। और खुली भी हो तो ज्यादा से ज्यादा अधूरा सत्य देख सकती है। पूरा सत्य आंख के वश में नहीं है। तुम्हारे हाथ में मैं एक छोटा-सा कंकड़ दे दूं और तुमसे कहूं इसे पूरा एक-साथ देख लो, तो तुम न देख पाओगे। आंख इतनी कमजोर है! एक हिस्सा देखेगी, दूसरा हिस्सा दबा रह जाएगा। एक छोटा-सा कंकड़ भी तुम पूरा नहीं देख सकते, तो पूरे परमात्मा को, पूरे सत्य को कैसे देख सकोगे? इसलिए जिन्होंने देखने पर जोर दिया है, उन्होंने अधूरे दर्शनशास्त्र जगत को दिये हैं। महावीर का दर्शनशास्त्र परिपूर्ण है, समग्र है। जोर बड़ा भिन्न है। सुनो! सत्य को देखना नहीं, सत्य को सुनना है। सत्य कोई वस्तु थोड़े ही है कि तुम उसे देख लोगे। सत्य तो किसी व्यक्ति का अनुभव है। वह कहेगा तो तुम सुन लोगे। महावीर खड़े रहें तुम्हारे समक्ष, तुम कुछ भी न देख पाओगे। बहुतों ने महावीर को देखा था और कुछ भी न देखा। गांव-गांव खदेड़े गये। पत्थर मारे गये। गांव-गांव निकाले गये। महावीर को देखने में क्या अड़चन आती थी?

इस महिमावान पुरुष को ऐसा तिरस्कार क्यों झेलना पड़ा? लोग अंधे हैं। दिखायी उन्हें पड़ता ही नहीं। सुन सकते हैं। इसलिए सुनने की कला को सीख लेना धर्म के जगत में पहला कदम है।

क्या है सुनने की कला? कैसे सुनोगे? जब सुनो, तो सोचना मत। क्योंकि तुमने अगर सोचा सुनते समय, तो तुम वह न सुन पाओगे जो कहा गया। कुछ और सुन लोगे। सुनते समय पूर्व-धारणाओं को लेकर मत चलना। नहीं तो पूर्व-धारणाएं पर्दे का काम करेंगी। रंग घोल देंगी जो कहा गया है उसमें। तुमने कभी खयाल किया, रात तुम अलार्म लगाकर सो गये हो, चार बजे उठना है ट्रेन पकड़ने। और जब अलार्म बजता है, तो तुम एक सपना देखते हो कि मंदिर की घंटियां बज रही हैं। अलार्म खतम! तुमने एक सपना बना लिया।

अब घड़ी एलार्म बजाती रहे, क्या करेगी घड़ी? तुमने एक तरकीब निकाल ली। तुमने कुछ और सुन लिया! सुबह तुम हैरान होओगे कि हुआ क्या? अलार्म भरा था, अलार्म बजा भी, मैं चूक क्यों गया? तुम्हारे पास अपनी एक धारणा थी, एक सपना था। तो अगर तुमने सुना कोई पक्षपात के साथ, तो तुम कुछ का कुछ सुन लोगे।

मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र के साथ ज्यादा देर तक गपशप में लगा रहा। रात बहुत बीत गयी। चौंककर उठा, उसने कहा बहुत देर हो गयी, अब घर जाऊं। मित्र ने कहा, आज भाभी तो बहुत इत्र-पान करेंगी। मुल्ला ने कहा तूने मुझे समझा क्या है? अगर घर जाते ही पहला शब्द पत्नी से प्रीतम न निकलवा लूं, तो मेरा नाम बदल देना। या तेरी जिंदगी भर गुलामी कर दूंगा। मित्र भलीभांति मुल्ला की पत्नी को जानता है, उसने कहा कोई फिक्र नहीं, दो मील चलना पड़ेगा–इस अंधेरी रात में–लेकिन मैं आता हूं, शर्त रही!

नसरुद्दीन घर गया। उसने जाकर द्वार पर दस्तक दी और जोर से बोला, “प्रीतम आ गये हैं।’ पत्नी चिल्लायी अंदर से, “प्रीतम जाएं भाड़ में।’ उसने मित्र से कहा, “देखा, कहलवा लिया न! पहला शब्द प्रीतम निकलवा लिया न!’

अगर कोई धारणा है, अगर पहले से कोई पक्षपात है, तो तुम कुछ का कुछ सुन लोगे। तुम सत्य को अपने हिसाब से ढाल लोगे। तुम उसे असत्य कर लोगे। ऐसे ही तो लोग चूके महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, जरथुस्त्र को, जीसस को। कुछ का कुछ सुन लिया। कहा था कुछ, सुन लिया कुछ। सुननेवाले के पास अपना मन था, अपना मजबूत मन था, उसने मन के माध्यम से सुना। मन को हटाकर सुनो, तो महावीर का श्रवण समझ में आयेगा। मन को किनारे रख दो, जहां तुम जूते उतार आये हो वहीं मन को उतार आना। एक बार जूते भी मंदिर में ले आओ तो इतना अपवित्र नहीं, मन को मंदिर में मत लाना। नहीं तो मंदिर में कभी आ ही न सकोगे।

“सुनकर ही कल्याण का, आत्महित का मार्ग जाना जा सकता है। सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जा सकता है।’

श्रवण की कला आते ही तुम दूध और पानी को अलग-अलग करने में कुशल हो जाते हो। विवेक का जन्म होता है। तुम हंस हो जाते हो। इसीलिए तो हमने ज्ञानियों को परमहंस कहा है। परमहंस का अर्थ है, गलत को और सही को वे तत्क्षण अलग कर लेंगे। उनकी आंख, उनकी दृष्टि, उनकी भावदशा बड़ी साफ है, निर्मल है। जो जैसा है उसे वे वैसा ही देख लेते हैं। जैसे को तैसा देख लेते हैं। उसमें कुछ जोड़ते नहीं। फिर कोई भ्रांति खड़ी नहीं होती।

बतानेवाले वहीं पर बताते हैं मंजिल

हजार बार जहां से गुजर चुका हूं मैं

तुम भी गुजरे हो। मंदिर के आसपास ही परिक्रमा चल रही है। क्योंकि परमात्मा सब जगह मौजूद है। कहीं भी जाओ, उसी के पास परिक्रमा चल रही है। कुछ भी देखो, तुमने उसी को देखा है। कुछ भी सुनो, तुमने उसी को सुना है। कोयल पुकारी हो, कि झरने की आवाज हो, कि जलप्रपात हो, कि हवाएं गुजरी हों वृक्षों से, वही गुजरा है। लेकिन, तुम उसे पहचान नहीं पाते।

बतानेवाले वहीं पर बताते हैं मंजिल

हजार बार जहां से गुजर चुका हूं मैं

मंजिल तो तुम्हारे भीतर है; गुजर चुके, यह कहना भी ठीक नहीं। जहां तुम सदा से हो, मंजिल वहीं है। कसौटी तुम्हारे पास नहीं। सोने का ढेर लगा है चारों तरफ, तुम्हारे पास सोने को कसने का पत्थर नहीं। हीरे-जवाहरात बरस रहे हैं चारों तरफ, तुम्हारे पास जौहरी की आंख नहीं।

और महावीर कहते हैं, श्रवण पहला सूत्र है। सुनो। ऐसा कभी भी नहीं हुआ है पृथ्वी पर कि जागे पुरुष न रहे हों। ऐसा होता ही नहीं। उनकी शृंखला अनवरत है। अनुस्यूत हैं वे। अस्तित्व में प्रतिपल कोई न कोई जागा हुआ पुरुष मौजूद है। अगर तुम सुनने को तैयार हो, तो परमात्मा तुम्हें पुकार ही रहा है। कभी महावीर से, कभी कृष्ण से, कभी मुहम्मद से। वह तुम्हें हजार ढंगों से पुकारता है। वह हजार भाषाओं में पुकारता है। वह हजार तरह से तुम्हारे हाथ हिलाता है। लेकिन तुम हो कि तुम सुनते नहीं।

मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर

रात ही तारी रही इंसान के इद्राक पर

अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा

दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा

और मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर, रात ही तारी रही इंसान के इद्राक पर। सूरज चमकता ही रहा है, सदियों से, सदा से। सूरज इस अस्तित्व का अनिवार्य अंग है। लेकिन आदमी अंधेरे में ही जीता है। आदमी अपने भीतर बंद है। ऐसा समझो कि सूरज निकला हो और तुम घर के भीतर द्वार-दरवाजे बंद किये बैठे हो। फिर सूरज करे भी तो क्या? द्वार-दरवाजे खोलो, थोड़े ग्रहणशील बनो। कान का यही अर्थ है। कान प्रतीक है ग्रहणशीलता का।

इसे भी समझ लेना।

आंख आक्रामक है, कान ग्राहक है। और महावीर की अहिंसा इतनी गहरी है कि वह आंख का उपयोग न करेंगे। क्योंकि आंख में आक्रमण है। जब मैं तुम्हें देखता हूं, तो मेरी आंख तुम तक गयी। जब मैं तुम्हें सुनता हूं, तब मैंने तुम्हें अपने भीतर लिया। जब मैं तुम्हें देखता हूं, तो देखने में एक आक्रमण है। इसलिए कोई आदमी तुम्हें घूरकर देखे, तो अच्छा नहीं लगता। कोई तुम्हें गौर से सुने, तो बहुत अच्छा लगता है, खयाल किया? गौर से सुननेवाले को तुम बड़ा प्यार करते हो। लोग तलाश में रहते हैं, कोई मिल जाए सुननेवाला।

पश्चिम में, जहां कि सुननेवाले कम होते चले गये हैं, मनोविश्लेषक है। वह “प्रोफेशनल’ सुननेवाला है। व्यवसायी। उसे पैसे चुकाओ, वह घंटे भर बड़े गौर से सुनता है। पता नहीं सुनता है कि नहीं सुनता, लेकिन जतलाता है कि सुनता है।

लोग बड़े प्रसन्न लौटते हैं मनोवैज्ञानिक के पास से। वह कुछ भी नहीं करता। वह कहता है सिर्फ तुम बोलो, हम सुनेंगे।

सुननेवाला इतना भला लगता है, इतना ग्राहक! तुम्हें स्वीकार करता है। लेकिन अगर कोई तुम्हें गौर से देखे, तो अड़चन आती है। मनस्विद कहते हैं तीन सेकेंड तक बर्दाश्त किया जा सकता है। वह सीमा है। उसके आगे आदमी लुच्चा हो जाता है। लुच्चे का मतलब, गौर से देखनेवाला। और कुछ मतलब नहीं। जो मतलब आलोचक का होता है, वही लुच्चे का होता है। दोनों एक ही शब्द से बने हैं–लोचन, आंख। लुच्चे का अर्थ है, जो तुम्हें घूरकर देखे। आलोचक का भी यही अर्थ होता है कि जो चीजों को घूर-घूरकर देखे, कहां-कहां भूल है।

लेकिन तुम गौर से सुननेवाले को बड़ा आदर देते हो। घूर के देखनेवाले को बड़ा अनादर। हां, किसी से तुम्हारा प्रेम हो, तो तुम क्षमा कर देते हो। वह तुम्हें गौर से देखे, चलेगा। लेकिन जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं, तो तीन सेकेंड से ज्यादा आंख नहीं टिकनी चाहिए किसी पर। वहां से शिष्टाचार समाप्त हो जाता है। वहां से बात अशिष्ट हो जाती है। तो हम रास्ते पर आंखें बचाकर चलते हैं। देखते भी हैं, नहीं भी देखते हैं। दुबारा लौटकर नहीं देखते। देखने का मन भी हो, तो भी आंखें यहां-वहां कर लेते हैं।

तुमने कभी खयाल किया, लोग एक-दूसरे की आंखों में आंखें डालकर बात नहीं करते, क्योंकि वह बेहूदगी है। लोग इधर-उधर देखते हैं। बात एक-दूसरे से करते हैं, देखते कहीं-कहीं हैं। कोई आदमी ठीक तुम्हारी आंखों में देखकर बात करे, तुम बेचैनी अनुभव करोगे, तुम्हें पसीना आने लगेगा। तुम थोड़े घबड़ाओगे कि मामला क्या है? कोई जासूस है? सरकारी आदमी है? मामला क्या है, ऐसा गौर से क्यों देखता है? या पागल है? प्रयोजन होगा कुछ। कुछ तलाश कर रहा है, कुछ खोज रहा है।

कान ग्राहक है। आंख सक्रिय है। कान निष्क्रिय-स्वीकार है। कान ऐसे है जैसे कोई द्वार को खोलकर अतिथि की प्रतीक्षा करे। सत्य निमंत्रित करना है। सत्य को बुलाना है। सत्य को कहना है, द्वार खुले हैं, आओ। आंखें बिछा रखी हैं, आओ। मैं तैयार हूं, आओ। तुम मुझे सोया हुआ न पाओगे, आओ। दरवाजे बंद न होंगे, तुम्हें दस्तक देने की भी तकलीफ न होगी, आओ।

आंख खोजने जाती है। कान प्रतीक्षा करता है। इसे ऐसा समझो। आंख पुरुष है। कान स्त्री है। पुरुष सक्रिय है, आक्रामक है। स्त्री ग्राहक है। पुरुष जन्म नहीं दे सकता बच्चे को, स्त्री देती है। उसके पास गर्भ है। वह अपने भीतर लेने को राजी है। सत्य भी तुम्हारे गर्भ में प्रवेश पाये, तो ही जन्म हो सकेगा। सत्य को तुम्हें जन्माना होगा। यह कहीं रखा नहीं है कि गये और उठा लिया और आ गये। या बाजार में बिकता है, खरीद लिया, या दाम चुका दिये। यह तो तुम्हें जन्म देना होगा और प्रसव की पीड़ा से गुजरना होगा। तुम्हें स्त्री-जैसा होना होगा। समस्त धर्म के खोजियों ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि सत्य को पाना हो, तो स्त्रैण ग्राहकता चाहिए। स्वीकार का भाव चाहिए।

श्रद्धा स्वीकार है, तर्क खोज है। विज्ञान खोजता है। धर्म प्रतीक्षा करता है। विज्ञान जाता है कोने-कांतर, उघाड़ता है, जबर्दस्ती भी करता है। विज्ञान एक तरह का बलात्कार है। अगर प्रकृति राजी नहीं है अपने पर्दे उठाने को, अगर प्रकृति राजी नहीं है घूंघट हटाने को, तो विज्ञान दुर्योधन-जैसा है। वह द्रौपदी को नग्न करने की चेष्टा करता है। उसमें बलात चेष्टा है। आक्रमण है।

धर्म प्रतीक्षा है। धर्म भी उघाड़ लेता है संसार को। धर्म भी सत्य को उघाड़ लेता है, लेकिन प्रेमी की तरह। तुम्हारी प्रेयसी तुम्हारे सामने वस्त्र गिरा देती है। वस्त्र खींचने नहीं पड़ते। प्रेयसी खुद ही उघड़ने को राजी होती है। आतुर होती है। सत्य स्वयं उघड़ने को आतुर है, लेकिन प्रेम से उघड़ेगा। आक्रमण से नहीं। परमात्मा खुद घूंघट उठाने के लिए तैयार है, तैयार नहीं बड़ा प्रतीक्षारत है, लेकिन जबर्दस्ती से न होगा। आंख में थोड़ी जबर्दस्ती है। कान में कोई भी जबर्दस्ती नहीं। कान कहीं जा नहीं सकता। ध्वनि कान तक तैरकर आती है।

कान रिक्त है, आंख भरी हुई है। आंख में पर्त दर पर्त विचारों की हैं, पर्त दर पर्त बादलों की हैं। आंख में बड़े पर्दे हैं। कान बिलकुल खाली है। कान के पास कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक तंतु-जाल है। चोट होती है, कान सजग हो जाता है, स्वीकार कर लेता है।

महावीर कहते हैं, जो सुनेगा–ठीक से सुनेगा, सम्यक-श्रवण, “राइट लिसनिंग’; कृष्णमूर्ति जिसको कहते हैं “राइट लिसनिंग’, ठीक से जो सुनेगा–सत्य अपने-आप असत्य से अलग हो जाता है। दूध दूध, पानी पानी हो जाता है। ठीक से सुनने से तुम परमहंस हो जाते हो।

मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफ्लाक पर

रात ही तारी रही इंसान के इद्राक पर

और आदमी के बोध पर अंधेरा छाया रहा, और सूरज था कि चमकता ही रहा।

अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा

दिल में तारीकी दिमागों में अंधेरा ही रहा

फिर कभी-कभी किसी महावीर के पास थोड़ी-सी झलक मिलती है।

कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाबे-सहर देखा तो है

जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है

किसी महावीर के पास, किसी महावीर की वाणी को सुनकर–जिस तरफ कभी देखा ही न था…भूल ही गये थे, सोचा ही न था कि वह भी कोई आयाम है…उस तरफ देखा तो है। माना कि अभी यह सपना है। पहली दफे जब महावीर की वाणी किसी के हृदय में उतरती है, नाचती, घूंघर बजाती, संगीत की तरह मधुर, मधु की तरह मीठी, जब पोर-पोर हृदय में प्रवेश करती है, तो एक नये स्वप्न का प्रादुर्भाव होता है। सत्य के स्वप्न का प्रादुर्भाव। पहली बार याद आनी शुरू होती है जिसको हम भूले बैठे हैं और जो हमारा है। और जो हमारा स्वभाव है और जिसकी तरफ हमने पीठ कर ली है। और जिसकी तरफ हमने आंख उठानी बंद कर दी है और जिस तरफ हमने पहुंचना ही छोड़ दिया है। हम भूल ही गये हैं कि घर भी लौटना है। बढ़ते ही चले जाते हैं संसार में।

लेकिन यह स्वप्न!

कुछ नहीं तो कम से कम ख्बाबे-सहर देखा तो है

यह सुबह का सपना ही सही अभी, किसी की वाणी से पहली दफा तरंगें उठी हैं, और सुबह का भाव, सुबह का बोध जगा है।

जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है

लेकिन यह तभी संभव होगा, जब तुम्हारा हृदय शून्य और शांत हो, मौन हो।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक नदी के किनारे से गुजर रहा था। सांझ घिरने लगी। सूरज ढल चुका है। और एक आदमी डूब रहा है; और वह आदमी चिल्लाया, सहायता करो, सहायता करो, मैं डूब रहा हूं! मुल्ला किनारे पर खड़ा है, वह बोला हद्द हो गयी; अरे, डूबने में किसी से क्या सहायता की जरूरत, डूब जाओ! इसमें सहायता की क्या जरूरत है!

तुम कुछ का कुछ सुन ले सकते हो। इससे सावधान रहना। लेकिन जब तक तुमने मन को बिलकुल हटाकर न रखा हो, तुम कुछ का कुछ सुनोगे ही।

इसलिए ध्यान श्रवण के लिए मार्ग बनाता है। ध्यान का अर्थ है, मन की सफाई। ध्यान का अर्थ है, अ-मन की तरफ यात्रा। ध्यान का अर्थ है, थोड़ी घड़ियों को मन की धूल से चित्त के दर्पण को बिलकुल साफ कर लेना। महावीर के पास लोग आते, तो महावीर कहते–कुछ देर ध्यान, फिर सुनना।

इसलिए मैं इतना जोर देता हूं ध्यान पर। तुम मुझे सीधा-सीधा न सुन सकोगे। कई बुद्धिमान आ जाते हैं, वह कहते हैं ध्यान वगैरह से हमें कुछ मतलब नहीं, हमें तो आपको सुनने में मजा आता है। मर्जी आपकी! लेकिन यह मजा कहीं ले जानेवाला नहीं। यह बुद्धि की खुजलाहट है। खुजलाने से थोड़ा अच्छा लगता है, मीठा-मीठा लगता है। जल्दी ही लहूलुहान हो जाएंगे। नहीं, इससे कुछ सुनने से सार न होगा। क्योंकि सच तो यह है, सुन तुम पाओगे ही न बिना ध्यान के। ध्यान तुम्हें तैयार करेगा कि तुम सुन सको।

फिर महावीर कहते हैं, “उभयं पि जाणए सोच्चा।’ दोनों देख लिये। क्या है सत्य, क्या असत्य। देख लिया क्या है मंगलदायी, क्या अमंगलदायी। “जं छेयं तं समायरे।’ यह उनकी बड़ी अनूठी बात है। वह जरा भी किसी पर अपने को आरोपित नहीं करना चाहते। वह कहते हैं, फिर तुम्हारी अपनी इच्छा। फिर तुम्हें जो श्रेयस्कर लगे। वह यह नहीं कहते कि तुम सत्य का अनुसरण करना। यह तो बात ही गलत हो जाएगी। सत्य को जानकर कभी ऐसा हुआ है कि किसी ने अनुसरण न किया हो? वह यह नहीं कहते कि असत्य का त्याग करना। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि असत्य को जानकर और त्याग न हो गया हो। कंकड़-पत्थर पहचान लिए कंकड़-पत्थर हैं फिर कौन तिजोड़ी में रखता है? हां, जब तक हीरों का भ्रम था तब तक तिजोड़ी में संभाले बैठे थे। जिस दिन पहचान आ जाती है कूड़ा-कर्कट, कूड़ा-कर्कट है, उसे घर के बाहर हम फेंक आते हैं। त्याग थोड़े ही करना पड़ता है, उद्घोषणा थोड़े ही करनी पड़ती है कि देखो, आज हम बड़ा त्याग कर रहे हैं, सारा कूड़ा-कर्कट कचरे-घर में डाल रहे हैं। जब कूड़ा-कर्कट हो गया, तो त्याग कैसा!

इसलिए ध्यान रखना, महावीर त्याग करने को नहीं कहते। वह तो कहते हैं सिर्फ जागकर देख लो; जो ठीक है, वही तुम्हारा मार्ग हो जाएगा, जो गलत है, उस पर कभी कोई गया ही नहीं। जानकर कभी कोई ने दीवाल से निकलने की कोशिश की है? द्वार दिख गया, फिर लोग द्वार से निकलते हैं, कौन सिर तोड़ता है दीवाल से!

“फिर जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना।’ फिर तुम्हें जो श्रेयस्कर लगे, इतने बलपूर्वक महावीर कहते हैं कि फिर जो श्रेयस्कर हो, क्योंकि वह जानते हैं कि सत्य श्रेयस्कर है। पहचान भर की कमी है। ज्ञान भर की कमी है।

अक्सर लोग मेरे पास आते हैं, वह कहते हैं हमें पता है कि ठीक क्या है, लेकिन क्या करें गलत हो जाता है। पता संदिग्ध है। कहते हैं हमें मालूम है कि क्रोध बुरा है, लेकिन हो जाता है। कहते हैं, बहुत बार कसम भी खायी, व्रत भी लिया, फिर भी हो जाता है। तो इसका अर्थ इतना ही है कि अभी जाना नहीं कि क्रोध बुरा है। अभी क्रोध की आग अनुभव नहीं बनी। अभी क्रोध का जहर खुद के कंठ को जलाया नहीं। किसी और ने कहा होगा, सुना होगा, शास्त्र में पढ़ा होगा, लेकिन अभी तुम्हारे जीवन का अनुभव नहीं बना। शास्त्र से उधार लिया होगा। सभी शास्त्र कहते हैं क्रोध बुरा है। सुनते-सुनते तुम भी मानने लगे हो कि क्रोध बुरा है। लेकिन, तुम्हारे प्राणों ने अभी इसकी गवाही नहीं दी। और जब तक तुम गवाही न बनो, तब तक जीवन में कोई क्रांति नहीं होती। उधार ज्ञान से क्रांति नहीं होती।

ज्ञान तुम्हारा होना चाहिए। दूसरे जाग गये इससे कुछ न होगा, जाग तुम्हारी होनी चाहिए। सुन लो उन्हें, उनकी पुकार से जागो, लेकिन जैसे ही आंख खुलेगी तत्क्षण तुम देख लोगे कि सपना सपना है, सत्य सत्य है। फिर कोई सपने को थोड़े ही चुनता है!

“जो श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना चाहिए।’ महावीर ने कहा है, मैं कोई आदेश नहीं देता, मैं जो कहता हूं वह सिर्फ उपदेश है, आदेश नहीं। क्योंकि मैं कौन हूं, जो तुमसे कहूं ऐसा करो। ऐसा करना कहते ही हिंसा हो जाएगी। मैं तुम्हें दबाने लगा। मैं तुम्हें ढालने लगा। महावीर कहते हैं, तुम परम स्वातंत्र्य हो। तुम्हारी स्वतंत्रता से ही तुम्हारा अनुशासन निकले। और तुम्हारे अनुभव से ही तुम्हारा आचरण बने। तो ही सार्थक है। अन्यथा जन्मों-जन्मों तक धोखा चलता रहता है। जैसे ही समझ की जरा-सी झलक आती है–

कोई दम में हयाते-नौ का फिर परचम उठाता हूं

बईमां-ए-हमीयत जान की बाजी लगाता हूं

मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज्म?-नाज से आखिर

जैसे ही समझ आनी शुरू होती है, यात्रा बदली। मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं; मुझे जाना ही है इक दिन तेरी बज्मे-नाज़ से आखिर। एक दिन जाना ही है, तो रुकने का अर्थ क्या? मौत आनी ही है, तो जीवन को पकड़ने का सार क्या? जिस जीवन में मौत घटनी ही है, वह जीवन मौत की ही तैयारी है। जिस जीवन में मौत आती ही है, वह जीवन मरा हुआ है, वह वास्तविक जीवन नहीं। जो मुझसे छीन ही लिया जाना है, उसे रोकने की चेष्टा करने से सार क्या है? जो मुझसे छिन ही जाएगा, उस साम्राज्य को बनाने का पागलपन बस पागलपन ही है। मैं जाऊंगा, मैं जाऊंगा, मैं जाता हूं, मैं जाता हूं; मुझे जाना है एक दिन तेरी बज्मे-नाज़ से आखिर। जैसे ही बोध जगना शुरू होता है, जीवन में क्रांति आनी शुरू होती है।

संन्यास बोध की छाया है। संन्यास समझ की प्रगाढ़ता है। संन्यास सम्यक-बोध, केवल सम्यक-बोध है। शुद्ध, सार बोध है। चेष्टा नहीं है। अगर तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम जबर्दस्ती करोगे। तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम खंड-खंड हो जाओगे। तुमने चेष्टा से कुछ साधा, तो तुम दो टुकड़ों में टूट जाओगे। एक टुकड़ा जिस पर तुम जबर्दस्ती कर रहे हो और एक टुकड़ा जो जबर्दस्ती कर रहा है। तुम्हारे भीतर बड़ी आत्म-हिंसा शुरू हो जाएगी।

दूसरा सूत्र—

णाणाssणत्‍तीए पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्‍चा।

विहरइ विसुज्‍झमाणी, जावज्‍जीवं पि निवकंपो।।

“और फिर ज्ञान के आदेश द्वारा सम्यक दर्शन-मूलक तप, नियम, संयम में स्थित होकर कर्म-मल से विशुद्ध जीवनपर्यंत निष्कंप (स्थिर चित्त) होकर विहार करता है।’

और जिसने जान लिया सत्य क्या है, उसके जीवन में एक नयी ही ऊर्जा का आविर्भाव होता है। निष्कंप हो जाता है चित्त। चित्त कंपता तभी तक है, जब तक हमें सत्य और असत्य का बोध नहीं। तब तक डांवांडोल होता है, यह करूं या वह करूं? यहां जाऊं, या वहां जाऊं? मंदिर कि वेश्यालय? ऐसा डोलता है। धन कि ध्यान? ऐसा डोलता है। शरीर कि आत्मा? ऐसा डोलता है। जब तक तुम्हारे भीतर सत्य और असत्य की ठीक-ठीक प्रतीति नहीं है तब तक तुम्हें असत्य में सत्य की भ्रांति होती रहती है। सत्य में असत्य की भ्रांति होती रहती है। मन डांवांडोल रहता है। इस डांवांडोल चित्त के कारण ही तो बेचैनी है, अशांति है। महावीर कहते हैं–

णाणाऽऽणत्तीए पुणो, दंसणतवनियमसंयमे ठिच्चा।

विहरइ विसुज्झमाणी, जावज्जीवं पि निवकंपो।।

जिसने सत्य की प्रतीति की, वह निष्कंप हो जाता है। जिसको कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ कहा है। ठहर जाती है उसकी प्रज्ञा। ऐसी ठहर जाती है, जैसे बंद घर में दिया जलता हो, जहां हवा का कोई झोंका न आता हो। निष्कंप हो जाती है वह लौ। ऐसी भीतर चेतना की लौ निष्कंप हो जाती है। कुछ चुनने को न रहा–चुनाव हो गया, सत्य को जानते ही चुनाव हो गया। सत्य को जानते ही निर्णय हो गया। जीवन की दिशा उपलब्ध हो गयी; अर्थ, अभिप्राय आ गया। अब कुछ चुनाव नहीं करना है। अब व्यक्ति सत्य की तरफ ऐसे ही बहने लगता है जैसे नदियां सागर की तरफ बह रही हैं।

हम साधारणतः नदी के विपरीत तैरने का प्रयास कर रहे हैं। हमारी कोशिश असंभव को संभव बनाने की है। हम स्वभाव के प्रतिकूल चेष्टा में रत हैं। हम इस जीवन को, जो केवल क्षणभंगुर है, शाश्वत बनाने की आयोजना कर रहे हैं। हम मिट्टी-पत्थर को हीरे-जवाहरातों की तरह छाती से लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हम हड्डी-मांस-मज्जा की देह को अपना शाश्वत घर समझने की, समझाने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी चेष्टा है कि किसी तरह दो और दो चार न हों, पांच हो जाएं। हो नहीं सकता। संसार में असफलता मिलती है, क्योंकि सांसारिक मन की चेष्टा असंभव को पूरा करने की चेष्टा है।

जिस व्यक्ति को सत्य और असत्य दिखायी पड़ने शुरू हो गये, शुद्ध निर्मल प्रतीति होनी शुरू हुई, उसके जीवन में तप, नियम, संयम अपने-आप उतर आते हैं। इन्हें लाना नहीं पड़ता। इन्हें खींच-खींचकर आयोजना नहीं करनी पड़ती। एक बात सूत्र की तरह याद रखना, जिसे खींच-खींचकर लाना पड़ता हो, वह आएगा नहीं। इस जगत में जबर्दस्ती कुछ घटता ही नहीं। सत्य सहज है। इसलिए जब तक साधना सहज न हो, तब तक तुम व्यर्थ ही कष्ट अपने को दे रहे हो।

न मालूम कितने लोग अकारण खुद को पीड़ा देने में लगे रहते हैं। कोई उपवास कर रहा है, कोई धूप में खड़ा है, कोई रात सोता नहीं, कोई दिन-रात खड़ा रहता है–वर्षों से खड़ा है, कोई कांटों पर लेटा है, ये सारे के सारे लोग रुग्ण लोग हैं। यह तप नहीं है। यह तो एक तरह की आत्महिंसा है। ये लोग “मेसोचिस्ट’ हैं। इन्हें स्वयं को दुख देने में रस आ रहा है। कुछ लोग होते हैं, जिनको स्वयं के घाव में अंगुलियां डालकर दुख और पीड़ा पैदा करने में रस आता है। ये बीमार-चित्त लोग हैं। ये तपस्वी नहीं हैं। यह तप क्रोध से भरा है। यह तप हिंसा से डूबा हुआ है। ऐसे तप से कोई कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हुआ। तप से कोई सत्य को उपलब्ध होता ही नहीं; सत्य की उपलब्धि से तप उपलब्ध होता है।

तप, संयम, नियम तुम्हारी सहजता से आने चाहिए। तुम्हारे अनुभव से आने चाहिए। तो मैं तुमसे कहूंगा, अगर क्रोध हो तो कसम मत खाना कि क्रोध न करेंगे। अगर क्रोध होता हो, तो क्रोध को ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना क्या है। क्रोध को बोधपूर्वक करना। क्रोध में उतरना। उस आग को जलाने दो, क्योंकि बिना जले तुम चेतोगे नहीं। उस आग को बुझाओ मत, पानी मत फेंको–व्रत और नियम, कसमें, इनका पानी फेंककर अंगारों को बुझाओ मत–आग को जलने दो, आग को प्रज्वलित होने दो, आग को पूरी तरह जलने दो, ताकि तुम्हें दग्ध कर जाए, ताकि तुम्हें अनुभव हो जाए कि क्रोध कैसी अग्नि है! वही अनुभव तुम्हें क्रोध की तरफ जाने से रोक लेगा। फिर जीवन में एक नियम आता है। वह नियम कसम से आया नियम नहीं है। वह नियम बोध से आया नियम है।

“और संयम में स्थित होकर विशुद्ध साधक जीवनपर्यंत निष्कंप, स्थिर-चित्त होकर विहार करता है।’

महावीर और बुद्ध के कारण भारत के वे भूमिखंड जहां वे जीए, “विहार’ कहलाने लगा। लेकिन विहार शब्द को समझना। विहार का मतलब है–विहार बड़े सुख की, महासुख की दशा है–जब चित्त बिलकुल स्थिर हो जाता है, जब कोई चीज डांवांडोल नहीं करती, कोई विकल्प मन में नहीं रह जाते और चित्त निर्विकल्प होता है; जब तुम्हारी दिशा सत्य की तरफ सीधी और साफ हो जाती है, जब तुम रोज-रोज रास्ते नहीं बदलते, जब तुम्हारा प्रवाह संयत हो जाता है, तब तुम्हारे जीवन में एक महासुख का आविर्भाव होता है, वैसे महासुखी का जहां-जहां विचरण होता है, वह भूमिखंड भी सुख से भर जाता है; वह भूमिखंड भी, हवा के कण भी, वृक्ष-पहाड़-पर्वत भी, नदी-नाले भी उसकी आंतरिक-आभा को झलकाने लगते हैं।

कथाएं हैं बड़ी प्यारी कि महावीर जहां से निकल जाते, कुम्हलाये वृक्ष हरे हो जाते। महावीर जहां से निकल जाते, असमय में वृक्षों में फूल लग जाते। ऐसा हुआ होगा, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। ऐसा होना चाहिए, ऐसा जरूर कहता हूं। जिन्होंने ये कहानियां गढ़ी हैं, उन्होंने बड़े गहरे काव्य को अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने जीवन के सत्य को बड़ी गहरी भाषा दी है। मानता नहीं कि वृक्षों ने ऐसा किया होगा–आदमी नहीं करते, वृक्षों की तो बात क्या; आदमी नहीं खिलते, तो वृक्षों की तो बात क्या है–लेकिन ऐसा होना चाहिए। लेकिन अगर वृक्षों में फूल न खिले हों तो जिन्होंने कहानी लिखी उनका कोई दोष नहीं, वृक्षों की भूल रही होगी। वे चूक गये। इसमें कवि क्या करे! कवि ने तो बात ठीक-ठीक कह दी, ऐसा होना चाहिए था। नहीं हुआ, वृक्ष नासमझ रहे होंगे। अगर असमय फूल न खिले, तो चूक फूलों की है; उसमें महावीर क्या करें? महावीर ने स्थिति तो पैदा कर दी थी। वृक्षों में थोड़ी भी समझ होती तो फूल खिलने चाहिए थे। वातावरण मौजूद था–और मौसम क्या चाहिए, महावीर मौजूद थे! अब किसकी और प्रतीक्षा थी? और किस वसंत की अब अभीप्सा है? वसंत मौजूद था। इससे बड़ा वसंत कभी पृथ्वी पर आया है? खिले हों तो ठीक, न खिले हों, फूलों की गलती; महावीर का कोई कसूर नहीं है।

तुममें से भी बहुत महावीर के पास से गुजरे होंगे, क्योंकि नया तो यहां कोई भी नहीं है। सभी बड़े पुराने यात्री हैं। जराजीर्ण! सदियों-सदियों चले हैं। तुममें से भी कुछ जरूर महावीर के पास गुजरे होंगे। नहीं महावीर, तो मुहम्मद के पास गुजरे होंगे। नहीं मुहम्मद, तो कृष्ण के पास गुजरे होंगे। ऐसा तो असंभव है इस विराऽऽऽट और अनंत की यात्रा में तुम्हें कभी कोई महावीर-जैसा पुरुष न मिला हो। अगर तुम्हारे फूल न खिले, तो कसूर तुम्हारा है। मौसम तो आया था, द्वार पर खड़ा था, वसंत ने तो दस्तक दी थी, तुम सोये पड़े रहे। तालमेल बैठ जाए, फूल खिल जाते हैं।

मेरे पास कुछ लोग आते हैं, वे कहते हैं हमें भरोसा नहीं आता कि दूसरे लोग आपके पास आकर इतने आनंदित क्यों हैं! जिसका तालमेल बैठ जाता है, उसके फूल खिल जाते हैं। जिसका तालमेल नहीं बैठता, वह तर्क की उधेड़बुन में ही लगा रह जाता है। वह सोच-विचार में लगा रहता है, क्या ठीक, क्या गलत? उसका तर्क वसंत से मेल नहीं खाने देता। ऋतु आ जाती है, वृक्ष उदास ही खड़ा रहता है, वह सोचता ही रहता है यह वसंत है या नहीं? और आए वसंत को जाने में देर कितनी लगती है! वसंत आ गया। वसंत आ, गया! इतनी देर। चूके तर्क में, संदेह में कि जो था, नहीं हो जाता है।

“जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त होकर अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है।’

वेद कहते हैं–”रसो वै सः।’ वह परमात्मा रसरूप है। महावीर की भाषा में परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं, लेकिन रस से थोड़े ही बच सकोगे? परमात्मा छोड़ दो, रस को थोड़े ही छोड़ सकोगे? वेद कहते हैं परमात्मा रसरूप है, महावीर कहते हैं रसरूप हो जाना परमात्मरूप हो जाना है। यह सिर्फ भाषा का ही फर्क है।

“जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से।’ नारद भी अब और क्या करेंगे! यह भाषा का ही थोड़ा-सा भेद है। महावीर कहते हैं, जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से, ऐसे रस की वर्षा होती है। स्थिरचित्त होते ही द्वार खुल जाता है। बाढ़ आ जाती है। कूल-किनारे तोड़कर बहती है चेतना की धारा। “अतिशय रस के अतिरेक से।’ अतिरेक हो जाता है। अतिशयोक्ति हो जाती है। तुम्हारा पात्र संभाल नहीं पाता। बहने लगता है। देना ही पड़ता है, बांटना ही पड़ता है। किसी को साझेदार बनाना ही पड़ता है। जब तक नहीं मिला तब तक अकेले रह जाओ, मिलते ही ढूंढ़ना पड़ेगा किसी को, किसी सुपात्र को जो लेने को तैयार हो।

महावीर बारह वर्ष तक मौन खड़े रहे, जंगलों में, पर्वतों में, पहाड़ों में। जब अतिशय रस का अतिरेक हुआ, भागे आए। भाग गये थे जिस बस्ती से, उसी में वापिस लौट आए; ढूंढ़ने लगे लोगों को, पुकारने लगे, बांटने लगे। अब घटा था अब इसे रखना कैसे संभव है! जैसे एक घड़ी आती है, नौ महीने के बाद, मां का गर्भ परिपक्व हो जाता है। फिर तो बच्चा पैदा होगा। फिर तो उसे नहीं गर्भ में रखा जा सकता। अब तक संभाला, अब तो नहीं संभाला जा सकता। उसे बांटना होगा।

शास्त्रों ने बहुत कुछ बात बहुत तरह से महावीर, बुद्ध और ऐसे पुरुषों का संसार का त्याग करके पहाड़ों और वनों में चले जाना, इसकी कथा कही है। लेकिन वह कथा अधूरी है। दूसरा हिस्सा, जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, उन्होंने छोड़ ही दिया। दूसरा हिस्सा जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, वह है उनका वापिस लौट आना लोक-मानस के बीच। एक दिन जरूर वे जंगल चले गये थे। तब उनके पास कुछ भी न था। जब गये थे तब खाली थे। खाली थे, इसीलिए गये थे, ताकि भर सकें। इस भीड़-भाड़ में, इस उपद्रव में, इस विषाद में, इस कलह में शायद परमात्मा से मिलना न हो सके। तो गये थे एकांत में, गये थे मौन में, शांति में, ताकि चित्त थिर हो जाए, पात्रता निर्मित हो जाए। लेकिन भरते ही भागे वापिस।

वह दूसरा हिस्सा ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि दूसरे हिस्से में ही वह असली में महावीर हुए हैं। पहले हिस्से में वर्द्धमान की तरह गये थे। जब लौटे तो महावीर की तरह लौटे। जब बुद्ध गये थे तो गौतम सिद्धार्थ की तरह गये थे। जब आए तो बुद्ध की तरह आए। यह कोई और ही आया। यह कुछ नया ही आया।

“जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है…।’ और जिसे कभी नहीं सुना उसे सुनता है। सत्य ऐसा है जिसे कभी नहीं सुना, जिसे कभी नहीं देखा। ऐसा अनजान, ऐसा अपरिचित, ऐसा अज्ञेय है।

“उस अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है…।’ जब चित्त थिर होता है, तो शांति भी बोलने लगती है। तो मौन भी मुखर हो जाता है। जब भीतर सब शून्य होता है, तो बाहर से शून्य भी तरंगित होकर भीतर प्रवेश करने लगता है। जब तुम ध्यान की आखिरी अवस्था में आते हो, तो अस्तित्व तुमसे बोलता है। परमात्मा तुमसे बोलता है। ध्यान की परम अवस्था में परमात्मा की तरफ से, अस्तित्व की तरफ से तुम्हारी तरफ संदेश आने शुरू हो जाते हैं।

इसको खयाल में लेना।

प्रार्थना में भक्त भगवान को पातियां भेजता है। ध्यान में, भगवान भक्त को। प्रार्थना में भक्त भगवान से बोलता है, कहता है कुछ; ध्यान में भगवान साधक से बोलता है, कहता है कुछ। महावीर का मार्ग ध्यान का मार्ग है।

“जह जह सुयभोगाहइ।’ और जैसे-जैसे उस परम सुख में डूबना होता है, जैसे-जैसे उस अतिशय रस में उतरना होता है…”अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं।’ और जैसे-जैसे अपूर्वश्रुत का अवगाहन होता है। जैसे-जैसे सुनायी पड़ता है शून्य का स्वर, जिसको झेन फकीर कहते हैं “साउंडलेस साउंड’–शून्य का स्वर, एक हाथ की ताली, कोई बोलता नहीं है, कोई बोलनेवाला नहीं है, अस्तित्व ही संदेश देता है। जब परमात्मा चारों तरफ से तरंगायित होने लगता है–अपूर्वश्रुत का अवगाहन–”वैसे-वैसे नितनूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है’।

इसे लक्षण समझना साधु का। इसे लक्षण समझना संन्यासी का। अगर आह्लाद न हो, तो समझ लेना कि कहीं भूल हो गयी। अगर नाचता न मिले संन्यासी, तो समझ लेना कहीं भूल हो गयी। अब जाओ जैन-आश्रमों में, जैन-मंदिरों में, जैन-पूजागृहों में, जैन-मुनियों को देखो, इस सूत्र का कहीं भी तुम्हें कोई लक्षण मिलेगा? रूखे-सूखे, मरुस्थल-जैसे, जहां कभी कोई हरियाली नहीं। कहीं कुछ भूल-चूक हो गयी। रूखे-सूखेपन को उन्होंने साधना समझ लिया है। उनसे तो संसारी भी कभी ज्यादा आनंदित दिखायी पड़ता है। यह तो इलाज बीमारी से महंगा पड़ गया। यह तो औषधि रोग से भी भयंकर सिद्ध हुई।

संसारी भी कभी हंसता मिलता है, तुमने जैन-मुनियों को हंसते देखा? न हंस सकेंगे। हंसना उन्हें कठिन हो जाएगा। हंसना उन्हें सांसारिक मालूम पड़ेगा। तुमने उन्हें आह्लादित देखा? तुमने उन्हें देखा किसी गहन संगीत से भरे हुए? तुमने उन्हें बांसुरी बजाते, वीणा बजाते देखा? तुमने उन्हें नाचते देखा? नहीं, असंभव है। कहीं कुछ भूल हो गयी। और भूल वहां हो गयी–प्रथम चरण पर–उन्होंने प्रतिज्ञा लेकर संन्यास लिया। सत्य को जानकर नहीं, शास्त्र को मानकर संन्यास लिया। अनुभव से नहीं, विश्वास से संन्यास लिया। व्रत, अनुशासन थोपा। अपने ऊपर बलात्कार किया। उसी में सूख गये, खराब हो गये।

“जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त होता है, अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है।’

न, अब यहां एक बात खयाल ले लेने जैसी है। तुमने रागयुक्त लोगों को तो प्रसन्न देखा। इससे तुम यह भूल मत कर लेना कि वैराग्ययुक्त लोग तो कैसे प्रसन्न हो सकते हैं! वैराग्य की अपनी प्रसन्नता है। और राग की प्रसन्नता से बड़ी ऊंची और बड़ी गहरी। राग की भी कोई प्रसन्नता हो सकती है! सिर्फ मन को समझा लेना है। वैराग्य का भी आनंद है। तुमने क्या किया? राग से भरा हुआ आदमी थोड़ा प्रफुल्लित दिखायी पड़ता है, तो तुमने उससे विपरीत वैराग्य की प्रतिमा बना ली। क्योंकि रागी हंसता है, रागी गीत गाता है, तो वैरागी हंस नहीं सकता, गीत नहीं गा सकता। तुम्हारा वैरागी राग का ही शीर्षासन है। उल्टा खड़ा कर दिया वैरागी को। लेकिन वास्तविक वैराग्य परम राग है। वास्तविक वैराग्य का तो कैसे रागी मुकाबला करेंगे! उस नृत्य को तो कैसे रागी पहुंच सकते हैं! उस आह्लाद को तो, कमल के उन फूलों को तो तभी कोई छू सकता है जब चित्त सब भांति निर्मल हुआ हो। वैसी मुस्कुराहट तो केवल परम शांत चित्त से ही उठ सकती है।

हो गयी तश्ना-लबो आज रहीने-कौसर

मेरे लब पे लबे-लालीने निगार आ ही गया

तृष्णा स्वर्ग की अमृत-नदी से कृतज्ञ हो गयी, प्रिय के ओंठ मेरे ओंठों पर आ गये–

हो गयी तश्ना-लबो आज रहीने-कौसर

मेरे लब पे लबे-लालीने निगार आ ही गया

वह तो ऐसा है जैसे परमात्मा ने आलिंगन किया। परम वैराग्य का आह्लाद तो ऐसे है जैसे परमात्मा के ओंठ तुम्हारे ओंठ पर आ गये। रागी तो असंभव चेष्टा में लगा है। रागी तो ऐसी चेष्टा में लगा है, जैसे कोई रेत से तेल निचोड़ रहा हो। रागी तो ऐसी चेष्टा में लगा है कि नीम के पौधों को सींच रहा हो और आम की आशा कर रहा हो।

आग को किसने गुलिस्तां न बनाना चाहा

जल बुझे कितने खलील आग गुलिस्तां न बनी

रागी तो आग को फुलवाड़ी बनाने में लगा है। अंगारों को फूल बनाने में लगा है।

आग को किसने गुलिस्तां न बनाना चाहा

जल बुझे कितने खलील आग गुलिस्तां न बनी

कभी आग फुलवाड़ी बनी है? कभी अंगारे फूल बने? साधारण आदमियों से लेकर सिकंदरों तक चेष्टा करते हैं और हार जाते हैं। पराजय संसार का निचोड़ है। इसीलिए तो हमने महावीर को जिन कहा। जिन अर्थात जिसने जीत लिया। जिन अर्थात जिसने पा लिया। जिन अर्थात जो वस्तुतः सफल हुआ। सफल ही नहीं सुफल भी हुआ। जिसके जीवन में फल लगे।

“जैसे-जैसे अश्रुतपूर्व का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन…।’ और वैराग्य भी नितनूतन फूल खिलाता है। तुम यह मत सोचना कि वैराग्य एक बंधी-बंधायी रूढ़ि है। तुम यह मत सोचना कि विरागी बस उसी-उसी ढांचे में बंधा हुआ रोज जीता है। वस्तुतः रागी जीता है ढांचे में, वैरागी तो प्रतिपल नये, और नये में प्रवेश करता है। विरागी का न तो कोई अतीत है–वह अतीत को नहीं ढोता–और न उसकी कोई अतीत को पुनरुक्त करने की आकांक्षा है। इसलिए कुछ भी पुनरुक्त नहीं होता। वैरागी की सुबह हर रोज नयी है। वैरागी की सांझ हर सांझ नयी है। वैरागी का हर चांद नया है, हर सूरज नया है। वह धूल को संभालता ही नहीं, इसलिए प्रतिपल ताजा है, निर्मल है।

है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम

मुतरिबे-फर्दा हूं “सागर’ माजी के अजादारों में नहीं

है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम–जो टूट चुके साज, अतीत जो बीत चुका, उसे तो मैं पाप समझता हूं। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है। जो जा चुका, जा चुका।

है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम

मुतरिबे-फर्दा हूं सागर–मैं भविष्य का गायक हूं।

माजी के अजादारों में नहीं–मैं अतीत के लिए रोनेवालों में नहीं।

विरागी, वीतरागी, स्वयं में थिर हुआ संन्यासी कोई धूल लेकर नहीं चलता। वह कोई संग्रह लेकर नहीं चलता। जो बीत गया, बीत गया। जो बीत रहा है, बीत रहा है। वह सदा नया है। सुबह की ओस की भांति ताजा। सदा स्वच्छ है। क्योंकि मन का संग्रह ही अस्वच्छ करता है, अपवित्र करता है, बासा करता है।

तुमने कभी खयाल किया, जो तुम अनुभव कर चुके बार-बार, वे बासे हो जाते हैं। छोटे बच्चे को देखा, तितलियों के पीछे भागते! तुम नहीं भाग सकोगे। क्योंकि तुम कहते हो तितलियां हैं, देख लीं बहुत। छोटे बच्चे को देखा, छोटी-छोटी चीजों से चमत्कृत होते हैं! छोटी-छोटी चीजें उसे आश्चर्य से भर जाती हैं। घास का फूल, और छोटे बच्चे को ऐसा आंदोलित कर देता है, ऐसा रस-विभोर कर देता है कि वह खड़ा है और देख रहा है, आंखों पर उसे भरोसा नहीं आता कि ऐसा चमत्कार हो सकता है! छोटे बच्चे को देखा, सागर के किनारे कंकड़-पत्थर-सीपी बीन लेता है, ऐसे जैसे कि हीरे-जवाहरात हों, कोहिनूर हों! क्या मामला है? इस छोटे बच्चे के पास ताजा मन है। इसके पास कुछ अतीत का संस्मरण नहीं है। इसलिए ये यह नहीं कह सकता कि यह पुराना है। इसके पास तौलने का कोई उपाय ही नहीं है कि कह सके पुराना है।

वैराग्य नया जन्म है। फिर से छोटे बच्चे की भांति हो जाना है। जीसस ने कहा है, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। हिंदू कहते हैं द्विज होना होगा, दुबारा जन्म लेना होगा। एक जन्म तो मां-बाप से मिलता है। वह जन्म शरीर का है। एक जन्म तुम्हें स्वयं ही अपने को देना होगा। वह आत्मसृजन है। वही आत्मसाधना है। तब फिर व्यक्ति सदा ताजा रहता है। रोज-रोज आह्लाद से भरा हुआ।

ऐसी कथा है, रामकृष्ण को छोटी-छोटी चीजों में रस था। कभी-कभी उनके भक्त भी उनको रोकते थे कि परमहंसदेव, अच्छा नहीं मालूम होता, लोग क्या कहेंगे? उनकी पत्नी भी उन्हें समझाती कि ऐसा आप न करें। ब्रह्मज्ञान की चर्चा चल रही हो, बीच में उठकर वे चौके में पहुंच जाते–क्या बना है आज? अब यह बात जमती नहीं। दूसरों तक को संकोच होता। शिष्यों को लगता कि लोग क्या कहेंगे? फिर आकर ब्रह्म-चर्चा शुरू कर देते। लेकिन बड़ी सरलता की खबर मिलती है। जैसे उपनिषदों के वचन “अन्नं ब्रह्म’ पर टीका कर रहे हों–जीवन से। ब्रह्म की चर्चा और अन्न की चर्चा में कुछ भेद नहीं। बीच में उठकर पूछ आए तो हर्ज क्या! छोटे बच्चे-जैसी सरलता। छोटा बच्चा बार-बार पहुंच जाता है चौके के पास, पकड़ लेता है मां का आंचल, क्या बन रहा है?

सरल-चित्त हो जाता है विरागी। ऐसा सरल कि रीति-नियम, व्यवस्था, अनुशासन, सब व्यर्थ हो जाते हैं। आंतरिक सहजता से जीता है।

न अहदे-माजी की यह रवायत

न आज और कल की यह हिकायत

हयात है हर कदम पे “सागर’

नयी हकीकत नया फसाना

जीवन उसके लिए प्रतिपल नया है। नयी हकीकत नया फसाना। वीतरागी तो गायक है जीवन के नये स्वर का, संगीतज्ञ है जीवन की वीणा का, नर्तक है जीवन के महानृत्य का। और प्रतिपल उमंग है, और प्रतिपल नया है।

“तह तह पल्हाइ मुणी।’ बड़ा प्यारा वचन है। महावीर कहते हैं–”जह जह सुयभोगाहइ’–जैसे-जैसे वह महासुख भरने लगता है, रस बरसता है, “तह तह पल्हाइ मुणी’–और पल्लवित होता मुनि, आह्लादित होता; उमंग उठती है, उल्लास उठता है, भीतर नृत्य-गान उठता है। जैसे आषाढ़ में जब बादल घिर जाते हैं और मोर नाचते हैं, ऐसे ही आंतरिक-जीवन में जब प्रकाश के बादल चारों ओर घिरने लगते हैं–आषाढ़ के प्रथम दिवस आते हैं–तो मन का मोर नाचता है। जह जह सुयभोगाहइ, तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसेवेगसद्धाओ। और प्रतिपल नये-नये पल्लव खिलते, नये-नये फूल, नयी-नयी श्रद्धा। नितनूतन!

लोग समझते हैं श्रद्धा कोई बंधा-बंधाया ढांचा है। लोग सोचते हैं कि श्रद्धा कोई हिंदू, जैन, बौद्ध, ईसाई हो जाना है। श्रद्धा में इतने नूतन फूल लगते हैं कि वह जैन ढांचे में समा न सकेगी। न बौद्ध ढांचे में समा सकेगी। न हिंदू, न मुसलमान के ढांचे में समा सकेगी। श्रद्धा को कौन समा पाया? यह बड़ा आकाश भी श्रद्धा के आकाश से छोटा है। श्रद्धा को कौन कब बांध पाया? कौन लकीरों में बांध पाया? श्रद्धा की कौन कब परिभाषा कर पाया?

और महावीर को समझते समय यह खयाल रखना, और धर्मों ने कहा है, परमात्मा पर श्रद्धा करो, श्रद्धा के बिना तुम परमात्मा पर न पहुंच सकोगे; महावीर ने कहा, परमात्मा की तो फिकिर छोड़ो–हो, न हो–श्रद्धा करो, क्योंकि श्रद्धा ही परमात्मा है। औरों ने कहा है परमात्मा पर श्रद्धा करो, महावीर ने कहा श्रद्धा पर श्रद्धा करो। नवनवसेवेगसद्धाओ।

मेरी मस्ती में अब होश ही का तौर है साकी

तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी

मेरी मस्ती में अब होश का ही तौर है साकी–अब मेरी मस्ती में भी होश का ही रंग-ढंग है। अब यह बेहोशी भी बेहोशी नहीं है, अब इसमें होश का ही दीया जलता है। अब यह मस्ती कोई पागलपन नहीं है, यह मस्ती ही परम बुद्धिमत्ता, प्रज्ञा, प्रतिभा है।

मेरी मस्ती में अब होश का ही तौर है साकी

तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी

और तेरे सागर में शराब नहीं, अंगूरी शराब नहीं।

कुछ और है साकी…।

जब तुम्हारा ध्यान नयी-नयी सीढ़ियां और सोपान पार करता है, तो तुम एक दिन पाते हो कि परमात्मा ने अपनी सुराही से उंडेला कुछ तुममें।

तेरे सागर में ये सहबा नहीं कुछ और है साकी

और यह शराब कुछ ऐसी है, यह मस्ती कुछ ऐसी है कि जगाती है, सुलाती नहीं। उठाती है, गिराती नहीं। संभालती है, डगमगाती नहीं। होश लाती है, बेहोशी काटती है। “तह तह पल्हाइ मुणी’। और जैसे-जैसे यह अंगूरी शराब, यह अमृत भीतर उतरना शुरू होता है, मुनि पल्लवित होता, प्रफुल्लित होता, आह्लादित होता। “नवनवसेवेगसद्धाओ’।

“जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं…।’ बड़ा प्यारा सूत्र है…”जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही ससूत्र जीव संसार में नष्ट नहीं होता।’

सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि।

जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे।।

सुई गिर जाए बिना धागा पिरोयी, तो खोजना बड़ा मुश्किल हो जाता है। ऐसे ही हमारा जीवन धागा पिरोया नहीं अभी। ध्यान का धागा अनुस्यूत नहीं किया अभी। अभी हमारा जीवन एक बिखरी राशि है। जैसे फूल किसी ने लगा दिये ढेर में। अभी हमारा जीवन एक माला नहीं बना कि फूलों को कोई पिरो दे एक धागे में। जब जीवन माला बनता है, तो ही जीवन में अर्थवत्ता आती है। ढेर की तरह हम क्षण-क्षण जीते हैं, लेकिन हमारे सारे क्षणों को जोड़नेवाला कोई अनुस्यूत धागा नहीं है। हमने अनंत जन्म जीए हैं, लेकिन सब ढेर की तरह लगा है, उसके भीतर कोई शृंखला नहीं है। शृंखला न होने से हमारी सरिता सागर तक नहीं पहुंच पाती।

तुम ही हो वह जिसकी खातिर

निशिदिन घूम रही यह तकली

तुम ही यदि न मिले तो है सब

व्यर्थ कताई असली-नकली

अब तो और न देर लगाओ,

चाहे किसी रूप में आओ,

एक सूत भर की दूरी है

बस दामन में और कफन में

ध्यान का सूत्र, और जीवन महाजीवन बन जाता है। और मृत्यु समाधि बन जाती है। ध्यान का सूत्र, और पदार्थ में परमात्मा झलकने लगता है। ध्यान का सूत्र, और जीवन का क्षुद्र से क्षुद्र अंग भी विराट से विराट की आभा से परिप्लावित हो जाता है। ध्यान से जीया गया जीवन ही जीवन है। शेष भटकाव है। शेष ऐसी यात्रा है कि तुम्हें पता नहीं क्यों जा रहे, कहां जा रहे, किसलिए जा रहे? कौन हो, यह भी पता नहीं।

“जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही ससूत्र जीव संसार में नष्ट नहीं होता है।’ यहां स्मरण दिला दूं, जैन-शास्त्रकार जब इस सूत्र का अनुवाद करते हैं, तो वह ससूत्र का अर्थ करते हैं–शास्त्रज्ञानयुक्त जीव, जो कि बिलकुल ही गलत है। मौलिक रूप से गलत है। महावीर के मूल वचन में कहीं भी शास्त्र का उल्लेख नहीं है। “सूई जहा ससुत्ता’–सुई जहां धागे के साथ है–ससुत्ता–सूत्र के साथ है, “न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि’, गिर भी जाए तो खोती नहीं। “जीवो वि तह ससुत्तो’–और जो जीव भी सूत्र के साथ जुड़ा है, “न नस्सइ गओ वि संसारे’–वह संसार में कभी नष्ट नहीं होता। मौत आए, हजार बार आए, ससूत्र जीव को जीवन ही लाती है। मृत्यु भी उसे मारती नहीं। ससूत्र जीव को जहर भी अमृत हो जाता है। इसमें शास्त्रयुक्तज्ञान का कहीं कोई उल्लेख नहीं है।

लेकिन जैन-मुनि इसका अनुवाद करते हैं–”जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार में नष्ट नहीं होता है।’ अब उन्होंने कुछ अपने हिसाब से डाल लिया! शास्त्रज्ञान की तरफ इशारा नहीं है, अन्यथा महावीर खुद ही कह देते; मुनियों के लिए न छोड़ते।

ससूत्रता। एक क्रमबद्धता, एक शृंखला बने जीवन, ऐसा बिखरा-बिखरा न हो। तुम अपने जीवन को देखो, एक पैर बायें जा रहा है, दूसरा पैर दायें जा रहा है। आधा मन मंदिर जा रहा है, आधा वेश्यालय में बैठा है। दुकान पर बैठे हैं, राम-राम जप रहे हैं; जब राम-राम जप रहे हैं, दुकान भीतर चल रही है। ऐसे सूत्रहीन नहीं काम चलेगा। जीवन में एक दिशा हो, एक गंतव्य हो, एक खोज, एक अन्वेषण हो। और जीवन में एक शृंखला हो, अन्यथा शक्ति कम है, खोजना बहुत है; समय कम है, खोजना बहुत है; ऐसे तुम भटकते रहे कभी बायें, कभी दायें; कभी यहां, कभी वहां, तो सब खो जाएगा।

यह अवसर खो मत देना। यह अवसर मुश्किल से मिलता है। महावीर ने बार-बार कहा है, मनुष्य होना मुश्किल से घटता है। इसे ऐसे मत गंवा देना। एक सूत्रबद्धता लाओ जीवन में। एक दिशा-बोध।

जैसे-जैसे दिशा आएगी, वैसे-वैसे तुम पाओगे कठिनाइयों में भी आशीर्वाद बरसने लगे। दुख में भी सुख की झलक मिलने लगी। तूफान में भी सकून, शांति आने लगी।

लुत्फ आने लगा जफाओं में

वो कहीं मेहरबां न हो जाएं

आज इतना ही।


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जिन सूत्र-(भाग–2) प्रवचन–2

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यात्रा का प्रारंभ आपने ही घर से—प्रवचन—दूसरा

प्रश्‍न सार:

1—संन्‍यास लेकर साधना करना, संन्‍यास न लेकर साधना करना—दोनों स्‍थितियों में आपके मार्ग का ही अनुसरण है। फिर संन्‍यास से विशेष फर्क क्‍या है?

2—आपने कहा आँख आक्रमण होती है। लेकिन आपकी आंखों में तो प्रेम का सागर दिखाता है, और जी करता है उन्‍हें निहारता ही रहूं। क्‍या आँख को कान—जैसा ग्राहक बनाया जा सकता है।

3—क्‍या स्‍वाद को भी परमात्‍मा—अनुभूति का साधन बनाया जा सकता है?

4—भगवान का प्रवचन सुनते हुए उनकी आवाज से ह्रदय व कर्ण—तंतुओं पर एक अजीब तरह का कंपन। तब से साधारण ध्‍वनियों से भी अजीब कंपन व आनंद की लहर पैदा होना। क्‍या बुद्ध—पुरूषों के स्‍वर में विशेष कुछ? साथ ही भगवान की अपस्‍थिति में एक आनंददायक गंध का मिलना। वहीं गंध कभी ध्‍यान में व आश्रम में अन्‍यत्र भी मिलना। क्‍या काल—विशेष की गंध विशेष भी होती है?

5—आप कहते, संन्‍यास सत्‍य का बोध है। क्‍या संन्‍यास के लिए गैरिक वस्‍त्र व माला अनिवार्य? क्‍या कोई बिना दीक्षा लिये आपके बताए मार्ग पर नहीं चल सकता?

पहला प्रश्न:

हम संन्यास लेते हैं और साधना करते हैं, हम संन्यास नहीं लेते और साधना करते हैं–दोनों हालत में आपके मार्ग का अनुसरण करते हैं। कृपया बताएं कि संन्यास से जीवन में विशेष फर्क क्या आता है?

संन्यास लिये बिना फर्क को जानने का कोई उपाय नहीं। संन्यास स्वाद है। संन्यास है स्वाद मेरे निकट आने का। संन्यास साहस है समर्पण का।

साधना तुम करते हो; लेकिन संन्यासी अकेला नहीं है, तुम अकेले हो। तुम भी साधना करते हो, संन्यासी भी साधना करता है। संन्यासी मेरे साथ है, तुम मेरे साथ नहीं।

मैं तो दोनों के साथ हूं! लेकिन तुम साधना करते हो अपने हिसाब से। सुनते हो मुझे, पर चुनते तुम्हीं हो। संन्यासी चुनता भी नहीं। वह एक बार मुझे चुन लेता है। उसने छोड़ दिया चुनाव। उसने कहा, बहुत हो गया!

मैं तो दोनों के साथ हूं, लेकिन संन्यासी मेरे साथ हो जाता है। और इससे बड़ा क्रांतिकारी फर्क पड़ता है। पर वैसा फर्क जानोगे तो ही जानोगे।

एक बड़ी प्रसिद्ध ईसाई महिला हुई–थैरेसा। गरीब भिखारिन थी। और एक दिन उसने अपने गांव में घोषणा की कि मैं जीसस के लिए एक बड़ा चर्च, एक बड़ा मंदिर बनाना चाहती हूं। लोग हंसे। लोगों ने पूछा, तेरे पास संपत्ति कितनी है! तो उसने दो पैसे निकालकर अपनी जेब से बताए कि मेरे पास दो पैसे हैं। लोग और भी हंसे। उन्होंने कहा तू पागल हो गयी है। दो पैसों में कहीं चर्च बना है? उसने कहा वह तो मुझे भी मालूम है। लेकिन मैं अकेली नहीं हूं; परमात्मा भी मेरे साथ है। दो पैसे और थैरेसा तो ना-कुछ है; लेकिन दो पैसे + परमात्मा बहुत कुछ है। और क्या चाहिए!

जिस जगह उसने खड़े होकर यह बात कही थी, आज दुनिया का सबसे सुंदर चर्च है। बना–किसी गहरे समर्पण से बना; संपत्ति से नहीं बना। यह बात कि थैरेसा अकेली नहीं है। दो पैसे हैं थैरेसा के पास, लेकिन परमात्मा भी है।

तुम जब साधना कर रहे हो मेरी बात सुनकर, तो तुम चुनाव कर रहे हो–जो तुम्हें लगता है ठीक–वह तुम करते हो; जो तुम्हें ठीक नहीं लगता वह तुम नहीं करते हो। तो तुम्हारा खयाल है कि तुम मेरी मानकर चल रहे हो, तुम अपनी ही मानकर चल रहे हो।

संन्यासी का अर्थ है: उसने कहा, अब हम अपनी न मानेंगे, आपकी मानेंगे। अब हम चुनना छोड़ते हैं। अब हम राजी हैं जहां ले चलो। संन्यासी का अर्थ है: प्रेम का अंधापन। संन्यासी ने कहा कि अब तुम्हारी आंख काफी है, हमारी आंख की कोई जरूरत नहीं। पर यह तुम न जान सकोगे। जैसे कोई आदमी पूछे कि प्रेमी और गैर-प्रेमी में फर्क क्या है? जिसने स्वाद लिया है उसमें, और जिसने स्वाद नहीं लिया है, फर्क क्या है? स्वाद के बिना जानने का कोई उपाय नहीं है। इसे खयाल में ले लेना।

मैं तो साथ हूं, लेकिन तुम जिस दिन मेरे साथ हो जाओगे उस दिन जीवन में एक क्रांति घटनी शुरू होगी, जिसकी तुम अभी कल्पना भी नहीं कर सकते। तब तुमने एक सहारा लिया। तब तुमने कोई हाथ पकड़े। तब तुम्हारे जीवन में एक भरोसा आया।

मैं एक बड़े वैज्ञानिक की जीवन-कथा पढ़ता था। वनस्पतिशास्त्री हुआ बड़ा। वह एक पहाड़ की कंदरा में खिलनेवाले फूलों का अध्ययन करना चाहता था, लेकिन उन फूलों तक पहुंचने का कोई उपाय न था। वह बड़ी गहरी खाई-खड्ड में थे। वैसे फूल कहीं और खिलते भी न थे। कोई उपाय न देखकर उसने अपने छोटे बेटे को रस्सी में बांधा, कमर से रस्सी बांधी और उसे उस खड्ड में लटकाया। और उससे कहा कि तू कुछ फूल उखाड़ लाना। छोटा बेटा लटका। वह बड़ी खुशी से लटका। उसने तो खेल समझा। और जब बाप लटका रहा हो, तो बेटे को क्या फिकिर! वह तो बड़ा आनंदित हुआ। उसने तो नीचे जाकर फूल भी इकट्ठे कर लिये; लेकिन बाप के हाथ-पैर कंप रहे थे। भेजा तो है बेटे को, लेकिन यह खतरनाक काम है। लौटेगा जिंदा? उसने ऊपर से चिल्लाकर पूछा, कोई तकलीफ तो नहीं है? कोई घबड़ाहट तो तुझे नहीं हो रही है? उसने कहा घबड़ाहट कैसी! जब रस्सी मेरे बाप के हाथ में है, तो घबड़ाहट कैसी?

बाप घबड़ा रहा है, डर रहा है; क्योंकि यात्रा तो जोखिम की है। अब इस बेटे के भीतर जो भरोसा है, वह अगर न हो, तो खतरा हो सकता है। घबड़ाहट ही खतरा पैदा कर देती है।

अब यह बड़े मजे की बात है, बड़ा दुष्ट-चक्र है–घबड़ाहट के कारण तुम संन्यास नहीं लेते। डर–संसार का, समाज का, प्रतिष्ठा का। डर के कारण तुम अकेले-अकेले चलते हो। अकेले के कारण तुम और भी डर की स्थिति पैदा कर रहे हो।

और कुछ जीवन की सूक्ष्मतम घटनाएं हैं, हृदय के कुछ राज और रहस्य, जो भरोसे से ही खुलते हैं, श्रद्धा से खुलते हैं।

तो तुम साधना कर रहे हो–वह बुद्धि से है। जिसने संन्यास लिया, वह हृदय में उतरा; उसने बुद्धि को एक तरफ रखा। उसने कहा अब सुनेंगे हृदय की, अब गुनेंगे प्रेम की। निश्चित ही प्रेम अंधा है; लेकिन प्रेम के अंधेपन में ऐसी आंखें हैं कि सदियों तक बुद्धिमानी में जीओ तो भी उन्हें तुम पा न सकोगे। प्रेमी पागल है।

इसलिए जिन्होंने संन्यास नहीं लिया है, वे सोचते हैं कि संन्यासी पागल है। ठीक ही सोचते हैं। लेकिन यह पागलपन कुछ ऐसा है कि हजार बुद्धिमत्ताएं इस पर निछावर की जा सकती हैं। साधना तो तुम भी कर रहे हो, लेकिन संन्यासी ने कुछ गहन में प्रतिज्ञा जगायी है।

बैठे हैं तेरे दर पे कुछ करके उठेंगे

या वस्ल ही हो जाएगा या मरके उठेंगे

उसने जीवन को दांव पर लगाने की हिम्मत की है। संन्यासी जुआरी है। तुम होशियार हो। तुम दुकानदार हो।

मुझे सुनकर तुमने जो पाया है, वह कुछ भी नहीं है–उसके मुकाबले जो तुम मेरे पास आकर पाओगे। जो तुमने बुद्धि से सुनकर पाया है, वह तो भोजन की मेज से गिर गये टुकड़े हैं। भिखमंगा ही तुमने रहना तय किया है–बात और! संन्यासी मेरा अतिथि है। तुम बाहर-बाहर रहोगे। नहीं कि मैंने निमंत्रण नहीं भेजा था; तुमने निमंत्रण स्वीकार न किया। तुमने हजार बहाने उठाए। तुमने कहा आते हैं, अभी और काम हैं।

जीसस ने एक कहानी कही है कि एक सम्राट की बेटी का विवाह था और उसने एक हजार देश के प्रतिष्ठिततम लोगों को निमंत्रण भेजे। लेकिन किसी ने कहा कि अभी तो फसल कटने का समय है और मैं न आ सकूंगा, क्षमा चाहता हूं। और किसी ने कहा कि अदालत में मुकदमा है और मैं क्षमा चाहता हूं। और किसी ने कुछ और, और किसी ने कुछ और…। जब उसके संदेशवाहक वापिस लौटे हैं तो उन्होंने कहा कि बहुत-से मेहमानों ने बहुत-से बहाने बताए, वे न आ सकेंगे।

तो सम्राट ने कहा, फिर तुम रास्तों पर जाओ और जो भी आने को राजी हो, उसे बुला लाओ। अब निमंत्रण की फिकिर छोड़ो, क्योंकि मेरा राजमहल खाली न रहे। मेरी बेटी का विवाह है। राजमहल में भीड़ हो। जो भी राह पर मिले! अब तुम मेरे निमंत्रण की फिकिर मत करना। जो आने को राजी हो, उसको बुला लाना।

आए मेहमान। भिखमंगे भी आए। गरीब भी आए। अशिक्षित भी आए। जिनको निमंत्रण न भेजा गया था, वे भी आए। और जीसस ने कहा है, यह कहानी घटी हो या न घटी हो, क्योंकि सम्राटों के निमंत्रण में लोग कभी इनकार नहीं करते, लेकिन परमात्मा के निमंत्रण के साथ रोज ही ऐसा होता है।

निमंत्रण तो मैंने तुम्हें भेज दिया है। तुम मेरी शिकायत न कर सकोगे। मैंने तो बुलावा दे दिया है। अब तुमने कोई बहाना निकाल लिया, तुम्हारी मर्जी! यह महल तो खाली न रहेगा। मेहमान तो आएंगे। तुम न आए तो कुछ फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी जगह कोई और होगा।

मुझे सुनकर तुमने जो पाया, वह तो भोजन के टेबिल से गिर गये टुकड़े हैं। उनसे ही तृप्ति मत मान लेना। मेरे पास आकर तुम जो पाओगे…।

मेरे पास आने का और क्या उपाय है? कंधे से कंधा लगाकर खड़े हो जाओ तो मेरे पास थोड़े ही आ जाओगे। हृदय से हृदय लगाकर खड़े हो जाओ, तो! संन्यासी ने वही किया है। उसने हिम्मत की है। उसने मेरे साथ होने के लिए जगहंसाई मोल ली है। लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, पागल हुए! लोग कहेंगे, बुद्धि खो दी! कुछ तो सोचो! सम्मोहित हो गये? किस जाल में पड़ गये हो? तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और किसी की बातों में आ गया! पर उसने मेरे साथ रहना चुना है, संसार के साथ रहना नहीं चुना। उस चुनाव में ही क्रांति घटती है।

छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना

तेरे शादाब ओंठों की मगर कुछ और है साकी

तुम्हें अगर पैमाने से छलकती शराब से ही तृप्ति होती हो, तुम्हारी मर्जी!

छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना

खूब है वह शराब भी।

तेरे शादाब ओंठों की मगर कुछ और है साकी

लेकिन अगर ओंठों पर ओंठ रखकर ही पीना हो शराब को, तो संन्यास लिये बिना कोई उपाय नहीं है। और यह तो तुम पास आओगे तो ही जानोगे। यह बात समझाने-समझने की नहीं। यह बात कुछ करने की है।

मेरे किये जो हो सकता है, वह मैं कर रहा हूं। लेकिन तुम भी हाथ बढ़ाओ। मैंने तुम्हारे द्वार पर दस्तक दी है, कम से कम दरवाजा खोलो!

नहीं तो ऐसा न हो कि तुम समझदारी में बैठे ही रह जाओ। यह मधुशाला सदा न खुली रहेगी। कोई मधुशाला सदा नहीं खुली रहती है। द्वार-दरवाजे बंद होने का समय आ जाएगा।

उस महफिले-कैफो-मस्ती में,

उस अंजुमने-इर्फानी में

सब जाम-बकफ बैठे ही रहे,

हम पी भी गये, छलका भी गये

तुम बुद्धिमानों की सभा जैसी सभा मत बना लेना अपनी।

उस अंजुमने-इर्फानी में

–बड़े बुद्धिमानों की सभा थी।

उस महफिले-कैफो-मस्ती में

–मस्ती और आनंद और उल्लास के क्षण में बुद्धिमानों की बड़ी सभा थी।

सब जाम-बकफ बैठे ही रहे

–बुद्धिमान थे, कैसे पीएं! तो अपने जाम सामने रखकर बैठे ही रहे। गैर-बुद्धिमान जो थे–

हम पी भी गये, छलका भी गये!

पी लो और छलका लो! कब तब जाम लिये बैठे रहोगे? किसकी राह देखते हो? कोई कहे? किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? समय बीता जाता है। पल-पल, घड़ी-घड़ी मधुशाला के द्वार बंद होने का समय आया जाता है। फिर मत रोना! अभी अपनी करोगे, फिर मत चीखना-चिल्लाना! क्योंकि बंद दरवाजों के सामने चीखने-चिल्लाने से फिर कुछ भी नहीं होता।

और मैं कहता हूं, ऐसा बहुत-से लोग कर रहे हैं। महावीर को गये पच्चीस सौ साल हो गये, कितने लोग अभी भी उस दरवाजे के सामने चीख रहे, चिल्ला रहे हैं! उन्हीं को जैन कहते हैं। बुद्ध को गये पच्चीस सौ साल हो गये, कितने लोग उस दरवाजे के सामने प्याले लिये खड़े हैं कि खोलो द्वार, हम प्यासे हैं; भरो हमारे प्याले! लेकिन मधुशाला जा चुकी! उन्हीं को तो बौद्ध कहते हैं। ऐसे ईसाई हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं।

मैं तुम्हें आगाह किये देता। मेरे जाने के बाद तुम संन्यास लोगे। लेकिन तब किसी मतलब का न होगा; फिर थोथा होगा।

महावीर के साथ संन्यासी होने में तो साहस था; महावीर के बाद जैन-मुनि होने में कोई साहस नहीं। जैन-मुनि प्रतिष्ठा है अब। अब तो उसका आदर है। महावीर के साथ तो अनादर था। जैन-मुनि होना उस समय तो केवल कुछ थोड़े-से हिम्मतवर लोगों की बात थी। इसीलिए तो महावीर को महावीर कहा। उनके साथ जो खड़े हुए, उनके लिए भी हिम्मत की बात थी। सब तरह से प्रतिष्ठा, पद, मान, सम्मान खोना पड़ा।

जीसस के साथ जो चले, उनके लिए तो सूली मिली। अब तो जीसस के पीछे जो चलते हैं, वे सिंहासनों पर विराजमान हैं। पीछे तो बड़ा आसान हो जाता है।

मैं एक कहानी पढ़ रहा था। न्यूयार्क के बड़े चर्च में, सबसे बड़े चर्च में, जो कि दुनिया का सबसे ज्यादा संपत्तिशाली चर्च है, प्रधान पुरोहित अपने प्रवचन की तैयारी कर रहा है कि उसके एक शागिर्द ने दौड़कर उससे कहा कि सुनो, क्या कर रहे हो? कौन आया है, पीछे तो देखो! देखा तो खुद जीसस! वेदी के सामने खड़े हैं! प्रधान पुरोहित भी घबड़ाया। ऐसा कभी हुआ न था। जीसस को गये दो हजार साल हो गये। यह कौन सज्जन आ गये हैं! बिलकुल जीसस-जैसे मालूम पड़ते हैं! बड़ा मुश्किल है, कहें इनसे कुछ कि न कहें! शागिर्द ने पूछा कि क्या करूं, कुछ आज्ञा? तो बड़े पुरोहित ने कहा एक काम कर, कि वह जो दान की पेटी है, उस पर बैठ जा। यह आदमी पता नहीं किस तरह का है, कौन है! लगता जीसस-जैसा है, लेकिन पेटी न ले भागे! दान की पेटी पर बैठ जा और व्यस्त दिखने की कोशिश कर। इसकी तरफ ध्यान मत दे।

अगर जीसस चर्च में आज आ जाएं तो पुरोहित को अपनी प्रतिष्ठा, सम्मान, धन बचाने की फिकर होगी कि यह आदमी कहां भीतर आ गया!

कृष्ण की तुम बड़ी पूजा करते हो; लेकिन कभी सोचा कि कृष्ण तुम्हारे द्वार पर आ जाएं मोर-मुकुट बांधे, बांसुरी बजाने लगें, तो तुम पुलिस में खबर करोगे! तुम घबड़ा जाओगे!

मरे हुए पैगंबरों की पूजा बड़ी आसान है, क्योंकि उसमें कुछ भी तो लगता नहीं। कुछ भी लगता नहीं। कुछ दांव नहीं। कुछ जोखिम नहीं। लाभ ही लाभ है। जीवित पैगंबर के साथ खड़े होने में हानि ही हानि है, लाभ कहां?

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, अगर हम संन्यास लें तो लाभ क्या होगा? मैं उनसे कहता हूं, कहीं और! तुम कहीं और लेना, यहां तो हानि होगी। यहां तो जो तुम्हारे पास है वह भी खो जाएगा। यहां तो शून्यता मिलेगी, रिक्तता मिलेगी। यहां तो जो है वह खो जाएगा। तुम भी खो जाओगे। मिटना हो तो यहां आना। लाभ की बात, तो कहीं और! कहीं, जहां जीवन खो चुका है। कहीं, जहां केवल लकीरें रह गयी हैं। पिटी हुई लकीरें रह गयी हैं–मुर्दा लकीरें, मुर्दा शास्त्र। वहां कोई जोखिम नहीं है, लाभ ही लाभ है।

लोग तुम्हें गीता पढ़ते देख लें तो लाभ ही लाभ है। लोग सोचते हैं, आदमी भला होगा; भरोसेऱ्योग्य मालूम होता है; धार्मिक है। दुकान पर भी बैठे हो अगर गीता लेकर तो ग्राहक तुमसे ज्यादा मोल-भाव नहीं करेगा।

इसीलिए तो लोग चंदन-तिलक लगाकर बैठते हैं। राम-राम बोलते रहते हैं दुकान पर!

धार्मिक आदमी को दूसरों को लूटने में सुविधा हो जाती है, आसानी हो जाती है। लाभ ही लाभ है! मेरी किताब लेकर तुम बैठोगे तो हानि ही हानि है। किसी ने देख लिया कि अरे, तो तुम भी उलझ गये! तो तुम पर भी भरोसा गया!

संन्यास, अभी मेरे साथ संन्यास, दुस्साहस है! लेकिन धन्यभागी हैं वे जो दुस्साहस कर लेते हैं! क्योंकि जो खोने को राजी नहीं, वह पा न सकेगा। जो सब खोने को राजी है, वही सब पाने का मालिक होता है। जो मिटने को राजी है, परमात्मा उसी को भर देता है, पूरा कर देता है। तुम खाली तो होओ, तुम जगह तो बनाओ–प्रभु आएगा।

दूसरा प्रश्न:

कल आपने कहा कि आंख आक्रामक होती है। लेकिन आपकी आंखों में तो मुझे प्रेम का सागर दिखायी देता है और जी करता है कि उन्हें निहारता ही रहूं। कृपया बताएं कि क्या कान की तरह आंख को भी ग्राहक बनाया जा सकता है?

मेरी आंखों में तुम्हें प्रेम का सागर दिखायी पड़ सकता है। क्योंकि मैं तुम्हें नहीं देख रहा हूं, तुम्हारे भीतर जो छिपा है उसे देख रहा हूं। मैं तुम्हें देख ही नहीं रहा हूं। मैं तुम्हारी संभावना को देख रहा हूं। मैं बीज को नहीं देख रहा हूं–मैं उन फूलों को देख रहा हूं जो कभी खिलेंगे, खिल सकते हैं। मैं तुम्हारे आर-पार देख रहा हूं। लेकिन यह देखना तभी संभव है जब कोई स्वयं को देख लिया हो; उसके पहले संभव नहीं है। स्वयं को जानने के बाद तो सभी चीजें अनाक्रामक हो जाती हैं। स्वयं को जानने के बाद तो हिंसा बच ही नहीं सकती। स्वयं को जाननेवाला तो सब भांति हिंसा से शून्य हो जाता है। लेकिन यह तो स्वयं को जानने के बाद घटेगा। अभी तो तुम्हें चुनाव करना होगा। अभी तो तुम्हें अपने व्यक्तित्व में वे बातें चुननी होंगी जो कम से कम आक्रामक हैं। और एक-एक कदम यात्रा करनी होगी, एक-एक सीढ़ी चढ़नी होगी। आंखें भी अनाक्रामक हो जाती हैं। सारा व्यक्तित्व ही अनाक्रामक हो जाता है। जिस दिन परमात्मा ही दिखायी पड़ने लगता है, आक्रमण करोगे किस पर?

यहां तुम इतने बैठे हो, मुझे एक ही दिखायी पड़ रहा है। रूप होंगे अनेक। बहुत शैलियों में परमात्मा आया है। रंग-ढंग अलग हैं। आकृति अलग है। लेकिन है वही। जैसे सोने को किसी ने बहुत-बहुत आभूषणों में ढाला हो। जैसे कुम्हार ने एक ही मिट्टी से बहुत-बहुत ढंग के बर्तन बनाए हों। उस अरूप को देखने की क्षमता लेकिन तभी आती है जब तुमने उसे अपने भीतर पा लिया हो।

इसे स्मरण रखो।

तुम वही देख सकते हो दूसरे में, जो तुमने स्वयं में पहले देख लिया हो। तुम दूसरे में वही देखते रहोगे जो तुम स्वयं में देखते हो। अगर तुम क्रोधी हो, तो दूसरे में तुम्हें क्रोध दिखायी पड़ता रहेगा। अगर तुम दुष्ट हो, तो दूसरे में तुम्हें दुष्टता दिखायी पड़ती रहेगी। अगर तुम हिंसक हो, तो सारा संसार तुम्हें हिंसक मालूम पड़ता रहेगा। अगर तुम चोर हो, तो तुम हर एक से डरे रहोगे, क्योंकि तुम्हें हर जगह चोर ही दिखायी पड़ेगा। जगत प्रतिबिंब है तुम्हारा, दर्पण है–तुम्हारी ही छवि बनती है।

जैसे ही तुमने स्वयं को जाना–स्वयं की वास्तविकता में, उसकी परिपूर्णता में–वैसे ही रूप खो जाते हैं, अरूप का सागर चारों तरफ फैल जाता है। फिर कुछ भी आक्रमण नहीं, क्योंकि आक्रमण करे कौन? करे किस पर? कौन मारे? किसे मारे? फिर तो ऐसा है जैसे अपने ही दोनों हाथ। एक हाथ से दूसरे हाथ को मारने का अर्थ क्या है? तब दूसरा भी स्वयं है। तब तुम दूसरे में भी अपने को फैला हुआ पाते हो। तभी प्रेम घटता है, जब दूसरा मिट जाता है। लेकिन दूसरा तभी मिटेगा जब तुम मिट जाओ। इसलिए सारी यात्रा अपने घर से शुरू होती है। सारी पूजा, सारी प्रार्थना, सारी साधना अपने अंतर्तम से शुरू होती है।

एक बार भीतर के सौंदर्य की झलक मिल गयी कि तुम जहां आंख खोलोगे वहीं, वहीं तुम उसे विराजमान पाओगे। तुम चकित होओगे, तुम चमत्कृत होओगे कि इतने दिन तक चूकते कैसे रहे! इन्हीं रास्तों से गुजरे, यही वृक्ष थे, यही लोग थे, यही पशु-पक्षी थे, यही कोयल रोज गीत गाती रही, यही आंखें थीं, कल भी इनमें झांका था, लेकिन परमात्मा से चूकते क्यों रहे? जिसकी पहचान अपने भीतर न थी, जिसकी प्रत्यभिज्ञा भीतर न हुई थी, उसे तुम बाहर पहचानते कैसे? बाहर पहचानने की सारी संभावना अंतर्तम में घटती है। पहले वहां। सबसे पहले वहां।

हुस्न ही हुस्न है जिस सिम्त भी उठती है नजर

कितना पुरकैफ ये मंजर, ये समां है साकी

हुस्न ही हुस्न है जिस सिम्त भी उठती है नजर–फिर तो जहां आंख उठती है, सौंदर्य ही सौंदर्य है! इस अस्तित्व में असुंदर तो कुछ हो नहीं सकता। कहीं देखने में भूल हो गयी होगी। इस अस्तित्व में असुंदर के होने का उपाय नहीं है। अस्तित्व सौंदर्य से भरा है, सौंदर्य का सागर है।

कितना पुरकैफ ये मंजर

कितना आनंद से भरा हुआ है सब…

ये समां है साकी।

लेकिन, यह आनंद पहले भीतर स्वाद लेना पड़े। यह आनंद पहले भीतर उठे। यह भीतर से तुम्हारे प्राणों में जगे और तुम्हारी आंखों और कानों और तुम्हारे हाथों में छा जाए। फिर तुम जो छुओगे वही परमात्मा है। अभी तो तुम जो छुओगे वही मिट्टी हो जाता है। सोना छुओ, मिट्टी हो जाता है। क्योंकि अभी सिवाय वासना के कुछ भी भीतर नहीं है। वासना सोने को छुए, मिट्टी हो जाता है। प्रार्थना मिट्टी को छुए, सोना हो जाती है।

तुम्हारे पास आंख चाहिए, दृष्टि चाहिए। तुम्हारे पास भीतर सघन प्रतीति चाहिए। निश्चित ही तब फिर कुछ आक्रमण नहीं रह जाता। इसीलिए तो कृष्ण गीता में अर्जुन को कह सके, कि तू फिकर मत कर! तू सिर्फ एक उसको याद रख। तू सिर्फ उस एक को अपने भीतर विराजमान देख। तू केवल उस एक को पहचान ले जिसका तू उपकरण मात्र है। जो तुझसे अभिव्यक्त हुआ है, बस तू उसको पहचान ले। उसकी शरणागति हो जा। फिर कोई चिंता नहीं। फिर तू युद्ध कर न कर, कुछ भेद नहीं पड़ता। न कोई कभी मारा गया है, न कभी कोई मारा जा सकता है।

अगर कोई मुझसे पूछे, तो कृष्ण ने गीता में जो कहा है, वह महावीर का परिशिष्ट है। अगर महावीर प्रारंभ हैं, तो गीता अंत है। बड़ा मुश्किल होगा यह समझना; क्योंकि जैनों को तो गीता से बड़ा विरोध रहा है; क्योंकि उन्हें तो लगा यह आदमी कृष्ण, हिंसा की तरफ उत्तेजित कर रहा है लोगों को, हिंसा की तरफ भेज रहा है। जैनों को तो ऐसा लगा कि अर्जुन तो भाग जाना चाहता था, जैन-मुनि होना चाहता था, छोड़ देना चाहता था, यह सब हिंसा है–और कृष्ण ने इसको भरमाया, भटकाया! तो जैनों ने क्षमा नहीं किया कृष्ण को, सातवें नर्क में डाला है। और सब पापी तो छूट जाएंगे; लेकिन कृष्ण अंततः जब यह सृष्टि पूरी समाप्त होगी तब छूटेंगे।

बात तर्कपूर्ण है; क्योंकि और पापियों ने पाप किये हों, लेकिन पाप को दर्शन-शास्त्र तो नहीं बनाया। और पापियों ने हिंसा की हो, लेकिन अपराध का भाव तो उनके भीतर था ही कि हम गलत कर रहे हैं। कृष्ण ने तो गलत को सही है, ऐसा सिद्ध किया। गलत को दर्शन दिया। गलत को शास्त्र बनाया। तो साधारण पापियों को तो ठीक है कि आज नहीं कल उनका दंड पूरा हो जाएगा। इस आदमी को कितना दंड दें? इसने तो अपराध का भाव ही हटा दिया। अपराध का भाव हो तो आदमी रूपांतरित होता है। हिंसा हो गयी, दुखी होता है; पश्चात्ताप करता है; व्रत-नियम लेता है; अपने कर्मों को धोने-पोंछने की, निर्जरा की चिंता करता है; शुभ कर्म करता है कि अशुभ हो गया है, अब इसको किसी तरह तराजू को बराबर करो, संतुलन करो; जीवन में हिसाब की व्यवस्था बिठाता है; आज गलती हो गयी कल न हो, इसका निर्णय लेता है।

कृष्ण ने तो समझा दिया की गलती है ही नहीं, हो ही नहीं सकती। “न हन्यते हन्यमाने शरीरे।’ मारने से भी कहीं शरीर मरता है? न आग में जलाने से जलता, न शस्त्रों से छेदने से छिदता। “नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।’

तो यह तो हिंसा के लिए है। इससे बड़ा और प्रबल समर्थन क्या होगा? ऐसा जैनों ने समझा। चूक गये! क्योंकि वे महावीर को भी नहीं समझे, तो कृष्ण को कैसे समझेंगे? महावीर को समझा होता, तो कृष्ण महावीर का ही अंतिम चरण हैं; महावीर ने जो कहा, उसकी ही निष्पत्ति हैं, उसका ही परम रूप हैं।

महावीर ने कहा, मत मारो, क्योंकि दूसरे में भी तुम्हारे जैसी ही चेतना विराजमान है। यह पहला कदम हुआ शिक्षा का: मत मारो, क्योंकि दूसरे में भी तुम्हारे जैसी ही चेतना विराजमान है। जब तुम इसमें निष्णात हो गये, तब दूसरा कदम उठता है, आखिरी शिक्षा आती है, चरम शिक्षा आती है, कि अब अगर तुम मारना चाहो, तो मारो, लेकिन तुम मारनेवाले मत बनना। अगर परमात्मा की मर्जी हो तो तुम निमित्त हो जाओ। क्योंकि कोई मरता कहां!

अहिंसा पहले कदम पर सिखाती है: मत मारो। क्योंकि तुममें मारने की बड़ी आकांक्षा है: दूसरे को विनष्ट करने की बड़ी आकांक्षा है। अभी तुम्हें यह तो दिखायी पड़ना संभव न हो सकेगा कि दूसरे में परमात्मा है। पहले मारने से रुको, ताकि परमात्मा दिखायी पड़ जाए। फिर दिखायी पड़ गया परमात्मा, फिर कृष्ण कहते हैं, अब क्या फिकिर! अब अगर परमात्मा की मर्जी हो तो मारो! क्योंकि अब तुम जानते हो कि मारने से भी कोई मरता नहीं। यह अहिंसा का आखिरी कदम हुआ।

लेकिन, पहले स्वयं के भीतर प्रतीति सघन होनी चाहिए। जिसने स्वयं को जाना उसने सबको जान लिया। जो उस एक को जानने से चूक गया, वह सब जानने से चूक गया।

पूछा है, “कल आपने कहा आंख आक्रामक होती है…।’

आंख क्या आक्रामक होगी? तुम आक्रामक हो, इसलिए आंख भी आक्रामक हो जाती है। यह तो पहला पाठ तुम्हें दिया कि आंख की बजाय तुम कान की तरफ झुको। इसको तुम शाब्दिक अर्थों में मत लेना। इसका कुल इतना ही प्रतीक-अर्थ है कि तुम सक्रियता से निष्क्रियता की तरफ झुको; करने की बजाय न करने की तरफ झुको; बाहर दौड़ने की बजाय भीतर उतरो; पुरुष न होकर स्त्री बनो; ग्राहक बनो, आक्रामक नहीं। तुम इससे यह मतलब मत समझ लेना कि आंखें फोड़ लो, कि आंखें बंद कर लो, कि अब तो कान से ही जीएंगे।

यह तो केवल प्रतीक था। कान के लिए जो मैंने समझाया, वह तो केवल प्रतीक था। अगर तुम्हारी समझ में आ जाए तो फिर तुम्हारी आंख भी कान-जैसी ही हो जाएगी; तुम्हारे हाथ भी कान-जैसे हो जाएंगे। यह तो इंद्रियां हैं। तुम्हारे हाथ में मैं तलवार दे दूं; तलवार थोड़े ही कुछ करती है, तुम पर निर्भर है। तुम चाहो तो किसी स्त्री के साथ बलात्कार कर सकते हो इस तलवार के कारण; और तुम चाहो तो कोई किसी स्त्री के साथ बलात्कार करने जा रहा हो, तो तुम उस तलवार के कारण बलात्कार को रोक सकते हो। तलवार क्या करेगी! मैंने तुम्हें माचिस दे दी; तुम चाहो तो दीया जला लो, अंधेरे में रोशनी हो जाए। तुम्हारे रास्ते पर ही नहीं, दूसरों के रास्ते पर दीया जला दो; उनके रास्ते पर भी रोशनी हो जाए। और तुम चाहो तो घर में आग लगा दो किसी के। माचिस में थोड़े ही कुछ है! माचिस ने थोड़े ही कहा है कि किसी के घर में आग लगाओ, कि दीया जलाओ! तुम पर निर्भर है।

आंख भी अनाक्रामक हो सकती है–तुम अगर अनाक्रामक हो। और कान भी आक्रामक हो सकता है।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उस पर बड़ी नाराज हो रही थी। और चिल्ला रही थी कि बहुत हो गया; अब मेरे बर्दाश्त के बाहर है। अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकती। मुल्ला ने कहा हद्द हो गयी! मैं कुछ बोला ही नहीं हूं। मैं सिर्फ चुप बैठा हूं! उसने कहा वह मुझे मालूम है। लेकिन तुम इस ढंग से चुप बैठे हो कि अब बर्दाश्त के बाहर है!

चुप बैठना भी बर्दाश्त के बाहर हो सकता है। ढंग पर निर्भर है। तुम्हारी खामोशी में भी हिंसा हो सकती है। तुम इसलिए चुप बैठ सकते हो कि तुम इतनी गहन हिंसा से भरे हो कि अब तुम कुछ कहना भी नहीं चाहते। लेकिन तुम्हारी चुप्पी में भी गाली हो सकती है। गाली के लिए बोलना ही थोड़े ही जरूरी है, बिना बोले गाली हो सकती है। तुम्हारे उठने-बैठने के ढंग में गाली हो सकती है। तुम जिस ढंग से दूसरे को सुनते हो, उसमें गाली हो सकती है।

तुमने देखा कभी? कोई आदमी घर आया। तुम सुनना नहीं चाहते। तुम उसके सामने बैठकर ही जम्हाई लेते हो। तुम उससे कुछ कहते नहीं। कहते तो तुम हो, बड़ी कृपा हुई, आए! कितने दिनों से आंखें तरस गयी थीं! कहते तो तुम यही हो। कहते तो तुम हो, अतिथि तो देवता है! और जम्हाई ले रहे हो। बार-बार घड़ी देख रहे हो। अब और क्या कहना है? कुछ सिर पर हथौड़ा मारोगे तभी उसकी समझ में आएगा? कोई बोल रहा है, तुम बार-बार घड़ी देख रहे हो। तुम क्या कह रहे हो? शायद तुम्हें भी पता न हो। तुम बिना कहे कुछ कह रहे हो। तुम्हारे बोलने में, तुम्हारे सुनने में, तुम्हारे उठने-बैठने में, न बोलने में, चुप रहने में–सब तरफ से हिंसा हो सकती है।

मैंने सुना है, अमरीका का एक बड़ा धार्मिक उपदेशक है, डाक्टर फोसदिक। उसके संबंध में एक मित्र किसी को कह रहा था कि हम दोनों साथ-साथ मछली मारने गये। अब कुछ मामला ऐसा है…मछली मारनेवाले या कार चलानेवाले, कुछ काम ऐसे हैं कि वह गाली देना सीख ही जाते हैं। कार चलानेवाला गाली न दे, बड़ा मुश्किल! क्रोध आ ही जाता है। इतने लोग, कोई उसके सामने से निकल जाता है; कोई गलत, नियम तोड़ देता है; कोई उसको पीछे छोड़ देता है; कोई उसके आगे है, वह हार्न बजाए जा रहा है और वह हटता ही नहीं है!

मेरे एक मित्र हैं। वे कहते हैं कि मैंने इसीलिए खुद कार चलानी छोड़ दी, क्योंकि उसमें गाली देना बिलकुल जरूरी है। उससे बचा ही नहीं जा सकता। मछली मारने का काम भी ऐसा ही है। घंटों बैठे हैं और मछली पकड़ में नहीं आती, क्या करो! या कभी-कभी मछली फंस भी जाती है और तुम खींच ही रहे थे कि छूट गयी। कभी तो ऐसा हो जाता है, हाथ में भी आ गयी और छलांग लगा गयी। तो मछुए भी गाली देने लगते हैं।

यह फोसदिक अपने मित्र के साथ मछली मारने गया। और उस मित्र ने लौटकर अपनी पत्नी से कहा कि आज एक बड़ी हैरानी की बात देखी। जब फोसदिक ने एक बड़ी मछली पकड़ी घंटों की मेहनत के बाद, तो वह बड़ा खुश था; लेकिन जैसे ही उसने हाथ में उठायी वह छलांग लगा गयी और नाव के बाहर कूद गयी। तो मित्र ने कहा, मैं सोचता था कि अब तो इसके मुंह से कुछ अपशब्द निकलेगा, कोई गाली! लेकिन फोसदिक बिलकुल चुप रहा, कुछ भी नहीं बोला। मित्र ने अपनी पत्नी को कहा कि इतनी अपवित्र शांति मैंने कभी नहीं देखी। अपवित्र शांति! धर्मगुरु है, गाली दे नहीं सकता, अपशब्द बोल नहीं सकता। लेकिन शांति भी अपवित्र हो सकती है। चुप रहने में भी तीर हो सकते हैं, कांटे हो सकते हैं, जहर हो सकता है।

तुम सभी जानते हो। चुप रहकर भी तुम चोट पहुंचा सकते हो। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि बोलकर इतनी गहरी चोट पहुंचायी ही नहीं जा सकती, जितनी चुप रहकर पहुंचायी जा सकती है।

तो जरूरी नहीं है कि तुम्हारा कान मैंने कह दिया कि अनाक्रामक है, तो हो। तुम पर निर्भर है। यह तो प्रतीक था।

सुनने और देखने में भेद है। कान सुनता है, ग्रहण करता है। आंख जाती है, छूती है, खोजती है। बस इतना प्रतीक था। तुम कान-जैसे बनना। तुम्हारी आंख भी कान-जैसी बन जाए। वह भी ग्राहक हो। वह इस परम सौंदर्य को, जो चारों तरफ फैला है, इसे पीए। इसे उघाड़े न, बलात्कार न करे! व्यभिचार न करे, चोट न करे! बस इतनी बात थी।

यह हो सकता है। लेकिन यह होगा तुम्हारे रूपांतरण से।

तीसरा प्रश्न:

“रसो वै सः’ के संदर्भ में बताएं कि क्या स्वाद को भी परमात्म-अनुभूति का साधन बनाया जा सकता है?

बनाए जाने का सवाल ही नहीं है। सभी अनुभव उसी के साधन हैं। स्वाद भी।

मैं तुम्हें अस्वाद नहीं सिखाता। मैं तुम्हें परम स्वाद सिखाता हूं। आंख भी उसी को देखे। कान भी उसी को सुनें। हाथ उसी को छुएं। रस उसी का ही तुम्हारी जिह्वा में उतरे, तुम्हारे कंठ के पार जाए। तुम उसे ही खाओ और तुम उसे ही पीओ, और तुम उसे ही बिछाओ और तुम उसे ही ओढ़ो। वही हो जाए तुम्हारा सब कुछ। तुम उसी में स्नान करो, तुम उसी में श्वास लो! तुम उसी में चलो, उसी में बैठो; उसी में बोलो, उसी में सुनो! तुम्हारा सारा जीवन उसी से भर जाए। क्योंकि परमात्मा कोई खंड नहीं है कि तुम गये मंदिर, घंटा-भर परमात्मा को दे दिया और तेईस घंटे अपने लिए बचा लिये। यह तो धोखा है। ऐसे कहीं कुछ जीवन में क्रांति नहीं होती। यह तो तुमने हिसाब कर लिया कि चलो एक घंटे परमात्मा को दे दें, दूसरी दुनिया भी सम्हाल ली। यह दुनिया तो तेईस घंटे सम्हाल ही रहे हैं। कुछ वह एक घंटा महंगा नहीं है। और उस एक घंटे भी तुम परमात्मा के मंदिर में हो कैसे सकते हो? जो आदमी तेईस घंटे परमात्मा के विपरीत जी रहा हो, वह एक घंटे परमात्मा में जीएगा कैसे?

ऐसा समझो कि गंगा बस काशी में आकर पवित्र हो जाती हो–पहले अपवित्र, बाद में फिर अपवित्र–ऐसा कैसे होगा? गंगा तो सतत धारा है। अगर पहले पवित्र थी, तो ही काशी में पवित्र हो सकेगी। और काशी में पवित्र है, तो आगे भी पवित्र ही रहेगी। शृंखला है, सातत्य है, सिलसिला है।

तो ऐसा थोड़े ही है कि तुम मंदिर के द्वार पर आए, बाहर तो पवित्र नहीं थे; भीतर गये, घंटा बजाया–पवित्र हो गये, प्रार्थना कर ली! फिर बाहर आए, फिर चोगा बदल लिया, फिर पवित्र हो गए, फिर अपवित्र हो गये, फिर बैठ गये अपनी दुकान पर, फिर वही करने लगे जो कल तक करते थे। उस मंदिर में जाने ने तुम्हारे जीवन में कोई रूपांतरण न किया।

नहीं, धर्म तो चौबीस घंटे की बात है। तब तो बड़ी कठिनाई है। चौबीस घंटे अगर धर्म में जीना हो, तो तुम कहोगे बड़ा मुश्किल है! इसलिए मैं कहता हूं कि सोना भी उसी में। जब बिस्तर बिछाओ, तो उसी को देखना। जागना भी उसी में; जब आंख खोलो, तो उसी को देखना। यही तो अर्थ था प्राचीन परंपराओं का कि लोग प्रभु का स्मरण करते सोते, राम-राम जपते हुए सोते। यह कोई जपने की बात नहीं है कि तुमने राम-राम शब्द दोहरा दिया और सो गये। भाव दशा की। कि राम का नाम ही जपते उठते। भाव दशा की! आंख खोलते तो उसी को देखते; आंख बंद करते तो उसी को देखते। उसी में है नींद, उसी में है जागृति। भोजन करते, तो भी उसी के नाम-स्मरण से करते; थोड़ा भोग पहले उसे लगा देते। पहले भोग, फिर भोजन; तो भोजन भी पवित्र हो गया। तो फिर भोजन भी प्रार्थना हो गयी।

इसे तुम ऐसा समझो कि भूख लगे तुम्हें, तो भी जानना उसी को भूख लगी तुम्हारे भीतर। सच भी यही है, वही भूखा होता है। वही जीता है। वही जन्मता है। वही विदा होता है। वही शरीर में आया, वही शरीर से जाएगा। उसकी ही भूख, उसकी ही प्यास। तो उठना-बैठना ही फिर पर्याप्त आराधना हो जाती है। आराधना ऐसी अनुस्यूत हो जाए जैसे श्वास। याद भी अलग से न करनी पड़े, तो ही तुम परम मुक्ति के स्वाद को चख सकोगे।

वह रसरूप है। इसलिए जहां भी रस मिले, उसी को समर्पण कर देना। भोजन में रस आए, प्रसन्न होना कि प्रभु प्रसन्न हुआ, उसे रस मिला। तुम केवल साधन हो। तुम्हारे माध्यम से उसने आज फिर भोजन किया। तुम माध्यम हो। तुम्हारे माध्यम से आज उसने फिर बगीचे के फूलों की सुगंध ली। वही तो तुम्हारे भीतर चैतन्य होकर बैठा है। तुम तो मिट्टी के दीये हो; ज्योति तो उसकी है। सब अनुभव उसके हैं।

ऐसा जो व्यक्ति भाव में निमज्जित होने लगे और सब भांति अपने को परमात्मा में गूंथ ले–इसी को महावीर ने कहा, सुई गिर जाए, बिना धागा-पिरोयी, तो खो जाती है। धागा-पिरोयी सुई गिर भी जाए तो नहीं खोती। ऐसा निमज्जित हुआ व्यक्ति अगर भटक भी जाए तो नहीं भटकता। क्योंकि ऐसे व्यक्ति के भटकने का उपाय ही न रहा। यह भटकाव भी उसी का है! अगर ऐसे व्यक्ति की नाव मझधार में भी डूब जाए तो उसे चिंता नहीं होती। मझधार भी उसी की है! ऐसे व्यक्ति को कोई चिंता होती ही नहीं। सभी कुछ उसी का है! इस समर्पण-भाव से तुम्हें सब जगह उसी का रस आने लगेगा।

ऋग्वेद में वचन है: “केवलाघो भवति केवलादि।’ अकेले मत खाना, बांटकर खाना। अकेले खाने में पाप है। खाने में पाप नहीं। अन्न तो ब्रह्म है। लेकिन अकेले खाने में पाप है। छीनकर खाने में पाप है। चुराकर खाने में पाप है। बांटकर खाना। साझेदार बनाकर खाना। फिर पाप खो गया।

जितना तुम बांट सको, जो भी तुम्हारे पास है, उसे तुम अहर्निश बांटो। गा सकते हो, तो गाओ–गीत बांटो। नाच सकते हो, तो नाचो–नाच बांटो। जो भी तुम्हारे पास है, उसे बांटो। बस पुण्य हो जाएगा। बांटने में पुण्य है। रोक लेने में पाप है।

यह बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है। नदी ठहर जाए तो पाप है। नदी ठहरकर डबरा बन जाए तो पाप है। बहती रहे, सागर की तरफ उंडलती रहे, सागर में जाकर उतरती रहे–फिर पाप नहीं।

तुम्हारे जीवन में बहाव रहे! भोजन करो, लेकिन…तुमने खयाल किया, पशुओं को देखा, पशु जब भी भोजन करते हैं तो उठाकर भोजन अकेले में भाग जाते हैं। बांट नहीं सकते, भयभीत हैं। दूसरा दुश्मन है! आदमी अकेला प्राणी है संसार में, जो दूसरे को निमंत्रण देकर भोजन करता है। बुला लाता है।

मेरे एक प्रोफेसर थे। बहुत प्यारे आदमी थे! दुर्गुण एक था–शराबी थे। मैं उनके घर एक बार मेहमान हुआ। था उनका विद्यार्थी मैं, लेकिन उनका बड़ा सम्मान मेरे प्रति था। वे बड़े बेचैन हुए कि वे शराब कैसे पीएंगे; अब ये कुछ दिन मैं उनके घर रहूंगा। मैंने उन्हें कुछ बेचैन देखा। मैंने पूछा कि मामला क्या है? आप कुछ बेचैन मालूम होते हैं। उन्होंने कहा कि तुमसे छुपाना क्या! मुझे शराब पीने की आदत है। तो मैंने कहा, आप पी सकते हैं। इसमें परेशान होने की क्या बात है? उन्होंने कहा कि परेशान होने की बात है कि मैं अकेला नहीं पी सकता। दो-चार-दस को बुलाता हूं, तब पी सकता हूं। वह हुल्लड़ मचेगी, तुम्हें अच्छा न लगेगा।

मैंने कहा, फिर शराब पाप न रही, फिर पुण्य हो गयी। मैं भी बैठूंगा और मजा लूंगा। पी तो नहीं सकता, क्योंकि मैंने कोई और शराब पी ली है और अब कोई शराब उसके ऊपर नहीं हो सकती। लेकिन बैठूंगा। यह तो पुण्य हो गया, यह तो प्रार्थना हो गयी कि आप लोगों को बुलाकर पीते हैं। यह तो मुझे अत्यंत खुशी की बात मालूम पड़ी कि आप अकेले नहीं पी सकते। तो शराब में भी सौंदर्य आ गया।

पाप भी पुण्य हो सकता है। पुण्य भी पाप हो सकता है। जीवन बड़ा जटिल है। जीवन गणित जैसा नहीं है। अगर तुमने गणित की तरह पकड़ा तो तुम चूक जाओगे। तो कभी-कभी तुम पुण्य भी कर सकते हो और वह पाप हो। और कभी-कभी तुम पाप भी कर सकते हो और पुण्य हो जाए।

मैंने उनसे कहा, पुण्य हो गया। आप बुलाकर पीते हैं, अकेले नहीं पी सकते, छिपकर नहीं पी सकते–बस, ठीक है। फैलते हैं–शुभ है। आज यह शराब पीकर फैल रहे हैं, कल और बड़ी शराब पीकर भी फैलेंगे। फैलना तो जारी है। सागर की तरफ चल तो रहे हैं।

यह ऋग्वेद का सूत्र: “केवलाघो भवति केवलादि’–वही पापमय है भोजन, जो अकेले कर लिया जाए, बांटा न जाए। जो भी हो तुम्हारे पास–भोजन की ही बात नहीं है–जो भी रसपूर्ण हो, जो भी आनंदपूर्ण हो, उसे छिपाकर मत बैठना। प्रकाश तुम्हारे भीतर जगे तो उसे ढांक मत लेना।

जीसस ने कहा है अपने शिष्यों को कि जब तुम्हारे भीतर परमात्मा का स्वर गूंजे, तो चढ़ जाना छप्पर पर, जितने जोर से चिल्ला सको, चिल्लाना; ताकि जो गहरी नींद में सोए हैं, वे भी सुन लें, वे भी वंचित न रह जाएं।

तो जो तुम्हारे पास हो, उसे बांटना, फैलाना!

संस्कृत का शब्द “ब्रह्म’ बड़ा प्रीतिकर है! इसका अर्थ होता है: जो फैलता ही चला जाता है; जो विस्तीर्ण ही होता चला जाता है। आधुनिक विज्ञान ने ब्रह्म शब्द को बड़ा नया अर्थ दे दिया है। आइंस्टीन के पहले तक ऐसा समझा जाता था कि संसार कितना ही बड़ा हो, फिर भी इसकी सीमा तो होगी ही। हम न पा सकते हों सीमा, हमारी सामर्थ्य न हो, हमारे साधन सीमित हों, पर फिर भी कहीं इसकी सीमा तो होगी ही। यह बात खयाल में थी। और यह भी बात खयाल में थी कि यह संसार जैसा है, बस वैसा ही है। अब इसमें नया क्या हो सकता है! नया आएगा कहां से? संसार के बाहर तो कुछ और है नहीं। तो जो है, है। इसी में रूपांतरण होता रहता है, रूप बदलते रहते हैं। नदी का जल सागर में गिर जाता है। सागर का जल बादलों में उठ जाता है। बादलों का जल नदी में गिर जाता है। लेकिन जल तो घूमता रहता है–वही का वही है।

फिर आइंस्टीन की खोजों ने एक बड़ा अनूठा आयाम खोला। वह आयाम यह था कि संसार जैसा है वैसा ही नहीं है, विस्तीर्ण हो रहा है। “एक्सपैंडिंग यूनिवर्स।’ फैलता जा रहा है! बड़ी तीव्र गति से फैल रहा है! जैसे कोई छोटा बच्चा अपने गुब्बारे में हवा भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जा रहा हो! तब ब्रह्म शब्द के नये अर्थ उभरकर आए।

ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है: “दि एक्सपैंडिंग वन।’ वह जो फैलता ही जा रहा है। ब्रह्म का अर्थ है: विस्तीर्ण होता जा रहा है। जो ठहरा नहीं है। जो कहीं ठहरता नहीं। जो किसी सीमा को सीमा नहीं बनाता, जो हमेशा सीमा के ऊपर से बह जाता है।

अगर तुम्हें परमात्मा को जानना हो, तो छोटे पैमाने पर ही सही, लेकिन तुम भी सीमा मत बनाना। फैलना, फैलते जाना! सुगंध हो तुम्हारे पास, बांटना हवाओं को! प्रकाश हो, बांट देना रास्तों पर! बोध हो, दे देना दूसरों को! जो कुछ भी तुम्हारे पास हो…!

और ऐसा तो कौन है मनुष्य जिसके पास कुछ भी न हो! ऐसा तो मनुष्य है ही नहीं कोई कि जिसके पास कुछ भी न हो। परमात्मा तो सभी के भीतर है, इसलिए कुछ न कुछ तो होगा। खोजना। तुम अकारण नहीं हो सकते। तुम्हारे द्वारा उसने कोई गीत गाना ही चाहा है। तुम्हारे द्वारा उसने कोई नाच नाचना ही चाहा है। तुम्हारे द्वारा उसने कोई फूल खिलाना ही चाहा है। व्यर्थ तुम नहीं हो सकते। तुम्हारी कोई नियति है। तुम्हारे भीतर छिपा हुआ कोई राज है। खोलो, खोजो! मेरे लिए धर्म उसी रहस्य को खोजने की कुंजी है। तुम तुम बनो! तुम्हारी नियति खुले, बिखरे, फैले। तुम्हारे जीवन में बाढ़ आए।

इसी को तो महावीर ने कहा कि मुनि जैसे-जैसे उस अश्रुतपूर्व को सुनता, जानता; जैसे-जैसे अतिशय रस के अतिरेक से भरता, वैसे-वैसे प्रफुल्लित होता; वैसे-वैसे उत्साहित होता; वैसे-वैसे फूल खिलने लगते हैं, कमल खिलने लगते हैं, पंखुड़ियां खुलने लगती हैं, कलियां फूल बनतीं। फैलो! कली मत रह जाना। वही दुर्भाग्य है।

मेरे लिए अधार्मिक आदमी वही है, जो कली रह गया। धार्मिक वही है, जो फूल बन गया। फूलो! फैलो! कोई सीमा मत बांधो। बाढ़ बनो। और तुम जितना फैलोगे, तुम पाओगे उतनी ज्यादा फैलने की क्षमता आने लगी। तुम जितना बांटोगे, उतना पाओगे मिलने लगा। और कुछ भी पाप नहीं है, रोक लेना पाप है।

अर्थशास्त्री कहते हैं कि रुपया जितना चले उतना समाज संपन्न होता है। इसीलिए तो रुपये को “करेंसी’ कहते हैं। “करेंसी’ का मतलब, जो चलता रहे, भ्रमण करता रहे। अब समझ लो कि दस आदमी हैं गांव में और दसों के पास दस रुपये हैं, वे दसों अपने रुपयों को रखकर बैठ गये हैं, तो गांव में केवल दस रुपये हैं। फिर दसों अपने रुपयों को चलाते हैं। एक-दूसरे से सामान खरीदते हैं। एक का रुपया दूसरे के पास जाता है, दूसरे का तीसरे के पास जाता है–दस रुपये के सौ हो जाते हैं, हजार हो जाते हैं। क्योंकि रुपया आता है, जाता है। पकड़े रहो, तो एक ही रहता है। आता रहे, जाता रहे, तो अनेक हो जाते हैं। तुम गड़ाकर रख दो जमीन में, तो “करेंसी’ “करेंसी’ न रही, मर गयी। इसीलिए तो कंजूस आदमी से अभागा आदमी दुनिया में दूसरा नहीं है। “करेंसी’ मार डालता है। चलने नहीं देता। चलन को रोक देता है। नदी को बहने नहीं देता, डबरा बना लेता है। फिर डबरा सड़ता है। फिर डबरे में घास-पात गिरते हैं, बदबू आती है। कृपण आदमी में बदबू आती है।

इसीलिए तो दानी की इतनी महिमा रही है। दान को धर्म का आधार कहा है; लोभ को पाप का। कारण, लोभ रोक लेता है; दान बांट देता है। दान से चीजें फैलती हैं। और जो बात बाहर की संपदा के संबंध में सही है, मैं तुमसे कहना चाहता हूं, भीतर की संपदा के संबंध में और भी ज्यादा सही है। जब बाहर तक की संपदा रोक लेने से मर जाती है–मरी-मरायी संपदा भी रोक लेने से मर जाती है–जब बाहर की संपदा चलाने से मरी-मरायी संपदा भी जीवित मालूम होने लगती है, तो भीतर की थोड़ी सोचो! वहां का धन तो जीवंत धन है। उसे रोका कि गया! उसे चलने दो। चलन में रहने दो। “करेंसी’ बनाओ।

एक ही पाप है मेरी दृष्टि में। और वह पाप है, जो तुम्हें मिला है भीतर, उस पर तुम सांप की तरह कुंडली मारकर बैठ गये हो, तो पाप है। उसे बांटो! परमात्मा बांटने के नियम को मानता है, फैलने के नियम को मानता है। तुम भी फैलो!

नहीं, स्वाद में कोई पाप नहीं; लेकिन स्वाद अकेले मत लेना। बांटना। भोजन में कोई पाप नहीं है। उसी की भूख है! लेकिन जो तुम्हारे पास हो उसे बांटकर खाना। इतना भर स्मरण रहे कि किसी भी चीज की मालकियत मत बनाना। आए हाथ में, चली जाने देना। जैसी आयी, वैसी जाने देना, बहने देना। जहां तुम मालिक बने, वहीं पाप शुरू हुआ। जब तक तुम मालिक नहीं हो, केवल संपदा को यहां से वहां जाने देने के माध्यम हो, उपकरण हो, निमित्त मात्र हो–वहां तक परमात्मा तुम्हारे भीतर खूब खिलेगा, खूब फैलेगा। तो एक ही सूत्र याद रखने जैसा है: कृपण मत होना।

चौथा प्रश्न:

पिछले दिन आपका प्रवचन सुनते हुए आपकी आवाज से हृदय और कर्णत्तंतुओं पर एक अजीब तरह का कंपन हुआ और तब से साधारण ध्वनियां भी अजीब कंपन और आनंद की लहर पैदा कर रही हैं। कृपया बताएं कि क्या बुद्धपुरुषों के स्वर में कुछ है, जो विशेष प्रभाव पैदा करता है? साथ ही आपकी उपस्थिति में एक विशेष आनंददायक गंध मिलती है; और वह कभी आश्रम में और कभी ध्यान के समय भी मिलती है। इस संदर्भ में भी बताएं कि क्या काल या समय-विशेष की विशेष गंध भी होती है?

सुनोगे यदि, तो कुछ निश्चित कंपेगा हृदय में। जगह दोगे मुझे भीतर आने की थोड़ी; राह में न अड़कर खड़े हो जाओगे; द्वार-दरवाजा बंद न करोगे, खोलोगे; तो हवाएं आएंगी, सूरज की रोशनी आएगी, भीतर कुछ होगा। अगर तुमने मुझे जगह दी, तो जो मेरे भीतर हुआ है, उसके कंपन तुम तक पहुंचेंगे।

यही तो सत्संग का अर्थ है। यही तो सारा प्रयोजन है कि मैं यहां हूं और तुम यहां हो। यही तो प्रयोजन है कि किसी भांति मेरे हृदय और तुम्हारे हृदय की लयबद्धता बंध जाए। किसी भांति, जिस लय से, जिस तरंग से मैं जी रहा हूं, उस तरंग का तुम्हें भी थोड़ा-सा स्वाद आ जाए, अनुभव आ जाए।

उपाय क्या है?

थोड़ी दूर मेरे साथ चलो। थोड़ी दूर मेरे साथ धड़को। थोड़ी दूर मेरे साथ श्वास लो। जब तुम मुझे गौर से सुनोगे, तो तुम पाओगे, तुम वहां सुननेवाले नहीं रहे, मैं यहां बोलनेवाला नहीं रहा, दोनों की सीमा-रेखाएं कहीं घुल-मिल गयीं। कभी-कभी तुम पाओगे, तुम यहां बोलनेवाले होकर बैठ गये, मैं वहां सुननेवाला होकर बैठ गया।

कभी-कभी तुम चौंककर पाओगे, कौन-कौन है?

जब सुरति बंधेगी, जब मेरा तुम्हारा धागा मिलेगा, तो अचानक “मैं’ और “तू’ की आवाजें बंद हो जाएंगी। सुनने के किसी गहन क्षण में कभी-कभी क्षणभर को “तारी’ लग जाएगी। वह क्षणभर की “तारी’ समाधि के अनुभव-जैसी है। क्षणभर का है–आएगा, जाएगा–लेकिन स्वाद दे जाएगा। बूंद एक गिर जाएगी अमृत की। फिर तुम तड़पोगे। फिर तुम वही न हो सकोगे जो तुम थे कल तक। तुम किसी को समझा भी न सकोगे कि क्या हो गया है। बताने का भी कोई उपाय न पाओगे। बेबूझ होगी घटना। लेकिन इतनी गहन होगी कि उसे तुम इनकार भी न कर सकोगे।

इधर मैं बोल रहा हूं, तो तुम्हें कुछ समझाने को नहीं। इस खयाल में पड़ना ही मत। यहां मैं बोल रहा हूं तुम्हें कुछ समझाने को नहीं। यहां मैं बोल रहा हूं कि बोलने के माध्यम से मेरा और तुम्हारा तालमेल किसी क्षण बैठ जाए। कब बैठ जाए, कोई जानता नहीं। कब किसका बैठ जाए, कोई जानता नहीं। कब किसकी घड़ी आ जाए, कोई जानता नहीं। मगर सुनते-सुनते…इसीलिए तो रोज बोले चला जाता हूं। अगर कुछ समझाना होता, तो बात खतम हो जाती। यह बात खतम होनेवाली नहीं है, क्योंकि समझाने से इसका कोई संबंध नहीं है। यह बात चलती रहेगी। क्योंकि इसका प्रयोजन कुछ और ही है।

इसका प्रयोजन रासायनिक है, बौद्धिक नहीं है। “अल्केमिकल’ है। इसका प्रयोजन है कि सुनते-सुनते, सुनते-सुनते, कभी-कभी एक क्षण को तुम अपने को भूल जाओगे। सुनने में लवलीन हो जाओगे, तल्लीन हो जाओगे, तन्मय हो जाओगे; एक क्षण को तुम भूल जाओगे, वह जो अहंकार तुम चौबीस घंटे पकड़े रखते हो, एक क्षण को तुम्हारे हाथ से छूट जाएगा। किसी पंक्ति के काव्य में डूबकर, क्षणभर को तुम छुटकारा पा जाओगे अपनी सहज अहंकार की व्यवस्था से। उसी क्षण में मिलन हो जाएगा। उसी क्षण में तीर की तरह मैं तुम्हारे हृदय में चुभ जाऊंगा। एक बूंद तुम पर बरस जाएगी।

मेघ तो दूर हैं, लेकिन एक बूंद बरस जाए, तो फिर चातक प्रतीक्षा कर सकता है जन्मों-जन्मों तक। फिर कोई अड़चन नहीं है। फिर चातक जानता है कि होता है सत्य; होता है प्रेम; होती है प्रार्थना; होते हैं ऐसे क्षण जिनको परमात्मा के कहने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं–कि है परमात्मा! कि कहीं ऐसी घड़ी आती है जीवन में, जब हजार-हजार सूरज प्रगट हो जाते हैं। हजार-हजार नीलकमल तुम्हारे प्राणों में खिल जाते हैं।

बोलता हूं; इस बोलने का प्रयोजन ऐसे ही है जैसे कोई संगीतज्ञ वीणा को बजाए। तो कुछ समझाने को नहीं बजाता। तुम मुझे एक वीणावादक की तरह याद रखना। यह बोलना मेरी वीणा है। यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं, कह कम रहा हूं, गा ज्यादा रहा हूं। इसका प्रयोजन तुम्हारी समझ में आ जाए, तो बस काफी है। वह प्रयोजन इतना ही है, इस वाद्य को सुनते-सुनते…जैसे वीणा को सुनते-सुनते कभी-कभी “तारी’ लग जाती है। डोलने लगता है आदमी। कुछ भीतर कंपने लगता है। कोई पत्थर जैसी चीज भीतर पिघलने लगती है, बहने लगती है। एक क्षण को एक झरोखा खुलता, एक वातायन खुलता, आकाश दिखायी पड़ जाता है। जैसे बिजली कौंध गयी। अंधेरा खो गया–एक क्षण को सही–लेकिन फिर तुम जानते हो कि प्रकाश है, और तुम यह भी जानते हो कि राह है। एक क्षण को दिखी थी बिजली की कौंध में, लेकिन दिख गयी। अब तुम्हें कोई यह नहीं कह सकता कि राह नहीं है, और तुम्हें कोई यह नहीं कह सकता कि प्रकाश सब कल्पना है, कि प्रकाश सब सपना है। अब तुम्हें कोई भी झुठला न सकेगा। यह है प्रयोजन।

तो ऐसा हो सकता है, सुनते-सुनते एक कंपन हो गया हो। हो जाए कंपन, तो एकदम खो भी न जाएगा, क्योंकि इतना गहरा घटता है! फिर तुम चले भी जाओगे उठकर यहां से, तो कंपन जारी रहेगा। और तब उन कंपती हुई नयी तरंगों के आधार से जब तुम वृक्षों को देखोगे, तो उनकी हरियाली और ही होगी! उन्हीं फूलों को जिन्हें कल भी देखा था, फिर देखोगे, तुम पाओगे उन फूलों की कोमलता और ही है! कोई दिव्य आभा उन्हें घेरे है। हरियाली के चारों तरफ कोई आभामंडल वृक्षों को घेरे है। उन्हीं लोगों को देखोगे, अपनी पत्नी को घर जाकर देखोगे और पाओगे, वह तुम्हारी पत्नी ही नहीं, उसमें परमात्मा भी है। अपने पति को घर जाकर देखोगे, तो पति होना गौण हो जाएगा, उसका परमात्मा होना प्रमुख हो जाएगा। अपने बेटे को देखोगे, तो बेटा ही नहीं रह जाएगा।

इस नये अनुभव के आधार पर तुम्हारे जीवन की सारी संरचना में क्रांति होने लगेगी। क्योंकि जो तरंग तुम्हारे भीतर मुझे सुनकर पैदा हुई, वह तरंग तुम्हारी है। इसलिए मेरे सुनने से तुम उसको बांध मत लेना। वह तरंग तो तुम्हारी है। मेरा बोलना तो निमित्त-मात्र था। मेरे बोलने की संगति में तुम अपने ही भीतर के किसी छिपे हुए तल से परिचित हुए हो। लेकिन परिचित तुम अपने ही भीतर के तल से हुए हो। मेरे प्रकाश में जो तुमने देखा है, वह तुम्हारा ही है; वह मेरा नहीं है। रोशनी मेरी होगी, लेकिन जो खजाना तुमने खोज लिया है वह तुम्हारा ही है।

इसलिए तुम यह मत सोचना कि वह, यहां मुझे सुनना तुमने बंद किया कि खो जाएगा। जो इस तरह हो कि मेरे सुनने से पैदा हो और बाहर जाते ही खो जाए, तो समझना कि तुमने सुना ही नहीं। वह बौद्धिक था। वह सिर की खुजलाहट थी। सुन लिया, अच्छा लगा, मनोरंजन हुआ, लेकिन तुम कहीं हिले नहीं। तुम्हारी नींव का कोई पत्थर न सरका। तुम्हारे भीतर कोई नये का उदघाटन न हुआ, कोई नये का आविष्कार न हुआ। तो थोड़ी-सी शब्दों की, सूचनाओं की, तथ्यों की संपदा बढ़ जाएगी, उधारी थोड़ी और तुम्हारी बढ़ जाएगी। तुम और उधार हो गये, तुम्हारा नगद होना और भी ढंक गया। इससे कुछ लाभ न होगा। तुम ज्ञानी बन जाओगे, पंडित बन जाओगे, लेकिन इससे धर्म का जन्म न होगा।

अगर सच में तुमने सुना, ऐसी गहनता से सुना कि तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व जैसे कान हो गया–आंख भी कान, हाथ भी कान, हृदय भी कान–जैसे तुम सिर्फ एक द्वार हो गये, और तुमने मुझे आने दिया–तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि कितना मुझे आने दोगे–अगर तुम मुझे पूरा आने दो तो तरंगें नहीं, अंधड़ उठ जाएंगे। अगर तुम मुझे पूरा आने दो तो तूफान उठ जाएंगे। अगर तुम मुझे पूरा आ जाने दो, हिम्मत करके तुम पूरे द्वार-दरवाजे खोल दो और कहो कि आओ, राजी हूं–इसी को तो मैं संन्यास कहता हूं, इसी को तो मैं दीक्षा कहता हूं–तो तुम फिर दुबारा वही न हो सकोगे। एक नये जीवन का प्रारंभ हुआ। फिर तो मुझे बोलने की भी जरूरत न होगी। अगर तुम राजी हो और खुले हो, तो मेरी चुप्पी भी तुम्हें कंपाएगी। क्योंकि असली में मेरा सवाल ही नहीं है।

मेरी खामोशी-ए-दिल पर न जाओ

कि इसमें रूह की आवाज भी है

बोलता हूं, या चुप हूं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। बोलूं तो रूह की आवाज है, न बोलूं तो रूह की आवाज है।

तुम जब सुनने में तत्पर हो जाओगे, जब तुम सुनने में कुशल हो जाओगे, तो तुम मेरी चुप्पी को भी सुन सकोगे, मेरे मौन को भी सुन सकोगे।

मेरी खामोशी-ए-दिल पर न जाओ

कि इसमें रूह की आवाज भी है

आज तुम शब्द न दो, न दो

कल भी मैं कहूंगा

तुम पर्वत हो अभ्रभेदी शिलाखंडों के गरिष्ठपुंज

चांपे इस निर्झर को रहो, रहो

तुम्हारे रंध्र-रंध्र से

तुम्हीं को रस देता हुआ

फूटकर–मैं बहूंगा

तुम्हीं ने धमनी में बांधा है लहू का वेग

यह मैं अनुक्षण जानता हूं

गीत जहां सब कुछ है, तुम धृति-पारमिता

जीवन के सहज छंद–

तुम्हें पहचानता हूं

मांगो तुम चाहो जो: मांगोगे, दूंगा

तुम दोगे जो–मैं सहूंगा

आज नहीं

कल सही,

कल नहीं

युगऱ्युग बाद ही:

मेरा तो नहीं है यह

चाहे वह मेरी असमर्थता से बंधा हो

मेरा यह भावऱ्यंत्र?

एक मचिया है सूखी घास-फूस की

उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान

साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो

आज नहीं कल सही,

चाहूं भी तो कब तक छाती में दबाए

यह आग–मैं रहूंगा?

आज तुम शब्द न दो, न दो

कल भी–मैं कहूंगा।

कवि के ये शब्द बड़े गहन हैं।

परमात्मा जब उतरता है, छिपाना मुश्किल। परमात्मा जब उतरता है, तो उसे प्रगट होने देने से रोकना मुश्किल। परमात्मा जब उतरता है, तो प्रगट होगा ही।

एक मचिया है, सूखी घास-फूस की

मेरा यह भावऱ्यंत्र

चाहे वह मेरी असमर्थता से बंधा हो

मेरा तो नहीं है यह

उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान

साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो

आज नहीं

कल सही,

चाहूं भी तो कब तक छाती में दबाए

यह आग–मैं रहूंगा

आज तुम शब्द न दो, न दो

कल भी–मैं कहूंगा।

जिसके जीवन में परमात्मा उतरा है, उसे खोजना ही पड़ेगा संवाद का कोई उपाय। उसे शब्द खोजने ही पड़ेंगे, क्योंकि उसे बांटना पड़ेगा। उसे साझीदार बनाने ही होंगे।

यहां मैं बोले चला जा रहा हूं, सिर्फ इसीलिए कि तुम साझीदार बनो। निमंत्रण है मेरा कि जो मुझे हुआ है, चाहो तो तुम्हें भी हो सकता है। आग यहां लगी है, एक चिनगारी भी तुम ले लो तो तुम्हारे भी सूर्य प्रज्वलित हो जाएं। दीया यहां जला है, तुम जरा मेरे पास आ जाओ, या मुझे पास आ जाने दो, तो तुम्हारा दीया भी जल जाए। जलते ही मेरा न रह जाएगा। जलते ही तुम पाओगे तुम्हारा ही था, सदा से तुम्हारा था।

और पूछा है कि आपकी उपस्थिति में एक विशेष आनंददायक गंध मिलती है और कभी आश्रम में, कभी ध्यान के समय में भी मिलती है। वह गंध भी तुम्हारी ही है। कस्तूरी कुंडल बसै। इसमें मेरी चेष्टा इतनी ही है कि तुम्हें तुम्हारी तरफ उन्मुख कर दूं, कि तुम्हें धक्का दे दूं तुम्हारी तरफ। कहां भागे फिरते हो? कहां ढूंढ़ते हो कस्तूरी? तुम्हारी ही नाभि में छिपी है। हां, कभी-कभी मुझे सुनते-सुनते तुम्हें गंध आ जाएगी। तुम सोचोगे, मेरी है। तुम्हारी है! तुम शांत हो गये सुनते-सुनते, थिर हो गये सुनते-सुनते, सुनते-सुनते तन्मयता जगी, उस तन्मयता में तुम्हारी ही गंध ने तुम्हें छू लिया और भर दिया। इसीलिए तो कभी ध्यान में भी उठेगी। अगर मेरी होती तो तुम्हारे ध्यान में कैसे उठती!

मेरा कुछ लेना-देना नहीं। मैं तो दर्पण हूं, तुम अपने को ही देख लो। दर्पण से ज्यादा नहीं। पर उतना ही प्रयोजन है। मैं यहां नहीं हूं। दर्पण कुछ होता थोड़े ही है, दर्पण तो एक खालीपन है। तुम हटे कि दर्पण खाली। तुम आए कि दर्पण भरा लगता है।

सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से गुजरता था। एक दर्पण पड़ा मिल गया। उठाकर देखा। कभी दर्पण इसके पहले उसने देखा न था। सोचा, अरे! तस्वीर तो मेरे पिताजी की मालूम पड़ती है। मगर जवानी की होगी। हद्द हो गयी! मैंने कभी सोचा भी न था कि मेरे पिताजी और तस्वीर उतरवाएंगे! ऐसे रंगीन तबीयत के तो आदमी न थे! मगर मिल गयी तो अच्छा हुआ। झाड़-पोंछकर खीसे में रखकर घर चला आया। कहीं बच्चे, पत्नी फोड़-फाड़ न दें, खो-खवा न दें, ऊपर चढ़ गया, छप्पर में छिपाकर रख आया। लेकिन पत्नी से कभी कोई पति कुछ छिपा पाया है! पत्नी ने देखा, कुछ छिपा रहा है। रात जब मुल्ला सो गया तो वह उठी, दीया जलाया, छप्पर के पास गयी, निकाला, देखा; तो उसने कहा अरे! तो इस औरत के पीछे दीवाना है! आज पता चला!

दर्पण हूं मैं। तुम जो लेकर आओगे वही तुम्हें दिखायी पड़ जाएगा। दर्पण से ज्यादा नहीं। इसलिए किन्हीं-किन्हीं क्षणों में जब तुम अपनी ऊंचाई पर होओगे, तो तुम्हें अपनी ऊंचाई भी मुझमें दिखायी पड़ जाएगी। और किन्हीं-किन्हीं क्षणों में जब तुम अपनी नीचाई पर होओगे, तो तुम्हारी नीचाई भी मुझमें दिखायी पड़ जाएगी। तो जो जैसा आता है वैसा, वैसा ही मुझमें देखकर लौट जाता है।

किन्हीं गहन क्षणों में जब तुम अपनी आखिरी ऊंचाई पर छलांग लेते हो, क्षणभर को उड़ते हो आकाश में, तब तुम्हें ऐसा लगेगा कि ये ऊंचाइयां मेरी तो नहीं हो सकतीं; तो तुम सोचोगे कि शायद किसी और की, किसी और ने दिखा दीं। लेकिन स्मरण रखना, तुम्हारी ही ऊंचाइयां हैं, तुम्हारी ही नीचाइयां हैं; मुझ पर मत थोपना। क्योंकि उस थोपने में भ्रांति हो जाती है। उस थोपने में बड़ी भूल हो जाती है।

हां, मेरी निकटता में तुम्हें कुछ दिखायी पड़ सकता है। तो न तो इस दर्पण की पूजा करना। क्योंकि तुम सोचोगे, यह गंध इसी दर्पण से उठी; यह स्वाद इसी दर्पण से आया। इस दर्पण की पूजा में मत पड़ना। और न नाराज होकर इस दर्पण को तोड़-फोड़ देना। इन दोनों से बचना।

आखिरी सवाल:

आपने कहा कि संन्यास सत्य का बोध है। फिर क्या संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र और माला भी अनिवार्य हैं? और क्या कोई व्यक्ति बिना दीक्षा लिए आपके बताए मार्ग पर नहीं चल सकता है? कृपाकर मार्गदर्शन करें।

मार्गदर्शन के बिना भी चलो न! मार्गदर्शन की क्या जरूरत है? जब दीक्षा के बिना चल सकते हो…। दीक्षा और क्या है? अत्यंत समीपता से लिया गया मार्गदर्शन है। बहुत पास से, बहुत करीब से, बहुत पास से सुना गया मार्गदर्शन है। श्रद्धा से सुना गया मार्गदर्शन है। दीक्षा और क्या है?

मुझसे पूछते हो, मार्गदर्शन दें। तुम लेने को तैयार हो? वही लेने की तैयारी तो संन्यास की घोषणा है कि मैं तैयार हूं, आप दें। मेरी झोली फैली है, आप भरें। फिर मैं अगर कंकड़-पत्थर से भी भर दूं, तो भी अगर तुमने श्रद्धा से स्वीकार किया हो तो वे कंकड़-पत्थर तुम्हारे लिए हीरे-मोती हो जाएंगे। लेकिन अगर तुमने अश्रद्धा से झोली फैलायी हो और हीरे-मोतियों से भी भर दूं, तो कंकड़-पत्थर हो जाएंगे। क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा बड़ी शक्ति है। तुम्हारी श्रद्धा बड़ा रूपांतर करनेवाली ऊर्जा है।

सब कुछ तुम पर निर्भर है, अंततः तुम पर निर्भर है। अगर पात्र गलत हो, अगर पात्र दूषित हो, अगर पात्र गंदा हो, तो उसमें फिर शुद्ध जल न भरा जा सकेगा। मैं तो शुद्ध ही ढालूंगा, लेकिन वह तुम तक पहुंच न पाएगा। सब कुछ तुम पर निर्भर है। अगर मार्गदर्शन चाहिए, तो करीब आओ।

संन्यास तो सिर्फ करीब आने की तुम्हारी तरफ से घोषणा है। गैरिक वस्त्र, माला तो केवल प्रतीक हैं। लेकिन तुम…और जीवन के अंगों में तुम प्रतीकों को सत्कारते हो या नहीं सत्कारते हो? तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया, तो तुम कुछ भेंट ले जाते हो कि नहीं ले जाते हो? फूल ले गये तुम, गुलाब का एक फूल ले गये–अपनी प्रेयसी को देने या प्रेमी को देने। वह प्रेयसी तुमसे पूछे, यह गुलाब के फूल में क्या धरा है? किसलिए ले आए गुलाब के फूल, क्या प्रेम काफी नहीं है? तो तुम भी चौंकोगे। तुम उसे आलिंगन करना चाहो; वह कहे दूर रहो, आलिंगन में क्या धरा है? क्या प्रेम बिना आलिंगन के नहीं हो सकता? तुम उसका हाथ हाथ में लेना चाहो और वह झिड़क दे और कहे, दूर रहो! इस हाथ में हाथ लेने से पसीना ही पैदा होगा, प्रेम कैसे पैदा होगा? प्रेम करो, यह फिजूल की बातें क्यों करते हो? तुम्हें पता है कैसे प्रेम करोगे फिर? फिर प्रेम का कोई उपाय न रह जाएगा।

प्रेम जैसी अपूर्व घटना भी माध्यम चाहती है। नाव चाहती है, जिस पर सवार हो सके। प्रेम तो बड़ा सूक्ष्म है। कहीं स्थूल में जड़ें देनी होंगी; नहीं तो प्रेम टिक न पाएगा।

आकाश में खिले सुंदरतम फूल भी गहरी भूमि में गड़े होते हैं। वे अगर यह तय कर लें कि आकाश में ही रहेंगे, तो खो जाएंगे। कमल जल के ऊपर उठा हुआ भी, सरोवर की कीचड़ में दबा होता है। अगर कमल कहे, क्या सार है कीचड़ में पड़े होने से? कीचड़ कीचड़ है, मैं कमल हूं। तो टूट जाएगा संबंध। कमल कुम्हलाएगा और मर जाएगा।

तुमने कभी खयाल किया, किसी ने प्रेम से तुम्हें एक रूमाल भेंट दे दिया; उस रूमाल का मूल्य फिर नहीं रह जाता, अमूल्य हो जाता है! ऐसे बाजार में चार आने में मिलता है। लेकिन तुमसे कोई कहे कि चार आने में दे दो, तो तुम कहोगे, पागल हो गये हो? प्राण चले जाएं, इसे न दे सकूंगा। वह कहेगा, तुम पागल या मैं पागल? चार आने में जितने चाहो बाजार में मिलते हैं। दर्जन से लो तो और भी सस्ते मिलते हैं। क्या पागल हो रहे हो? लेकिन तुम कहते हो, मेरी प्रेयसी की याददाश्त है। या मेरे मित्र की याददाश्त है। किसी ने बहुत भाव से दिया है।

छोटे-छोटे प्रतीक हैं। छोटे-छोटे प्रतीकों पर बसा बड़ा आकाश है। प्रतीक को मत देखो, पीछे छिपे आकाश को देखो।

तुम गये, किसी के चरणों में सिर रखा। क्या सार है? श्रद्धा क्या बिना चरणों में सिर रखे नहीं हो सकती? ठीक! किसी पर तुम्हें क्रोध आ जाता है, तुम क्या करते हो? उठाकर जूता उसके सिर पर मार देते हो। तुम क्या कर रहे हो? श्रद्धा के विपरीत। उसका सिर अपने चरणों में रख रहे हो। क्रोध बिना इसके नहीं हो सकता? क्रोध में जूता उठाने की क्या जरूरत है? जूते और क्रोध का क्या लेना-देना? गाली देने की क्या जरूरत है क्रोध में? क्योंकि प्रेम में स्तुति करने को तुम राजी नहीं। प्रेम में प्रार्थना करने को तुम राजी नहीं। तो फिर क्रोध में गाली भी छोड़ दो!

नहीं, आदमी जहां है, वहां आदमी पृथ्वी और आकाश का मिलन है; शरीर और आत्मा का मिलन है; स्थूल और सूक्ष्म का मिलन है। आदमी जहां है, वहां दो जगतों में एकसाथ खड़ा है। जड़ें जमीन में हैं, फूल आकाश में हैं। दोनों जुड़े हैं।

ये गैरिक वस्त्र तो केवल प्रतीक हैं। लेकिन जिन्होंने भाव से लिये हैं, उनके जीवन में क्रांति हो जाएगी। मैंने तो निश्चित भाव से दिये हैं। लेनेवाले पर निर्भर है। यह माला तो बस प्रतीक है। इस माला में कुछ भी धरा नहीं।

परसों एक मित्र पूछते थे–संन्यास उन्होंने लिया, भाववाले व्यक्ति हैं। सरलचित्त हैं–पूछने लगे, इस माला का वैज्ञानिक कारण क्या है? वैज्ञानिक कारण माला का हो ही कैसे सकता है? वैज्ञानिक कारण–और माला का! कोई भी कारण वैज्ञानिक नहीं हो सकता माला का–कारण धार्मिक है। कारण आत्मिक है, वैज्ञानिक नहीं है। तो मैंने उनसे कहा, वैज्ञानिक पूछना हो तो “लक्ष्मी’ से पूछ लेना। वैज्ञानिक कारण? प्रेम का कहीं कोई वैज्ञानिक कारण होता?

मुल्ला नसरुद्दीन की लड़की के प्रेम में एक युवक पड़ गया। वह आया, उसने मुल्ला को कहा कि आपकी लड़की से मुझे प्रेम हो गया है, मुझे विवाह की आज्ञा दें। मुल्ला ने कहा, पहले सिद्ध करो, प्रेम का कारण क्या है? उस युवक ने कहा, कारण कुछ भी नहीं है, महानुभाव! प्रेम हो गया है। प्रेम में कहीं कारण होता? और जहां कारण हो, वहां प्रेम हो सकता है? कारण हो तो प्रेम हो ही नहीं सकता। कारण हो तो व्यवसाय होता है, धंधा होता है, सौदा होता है। अकारण होता है प्रेम।

तुम्हारा मुझसे प्रेम हो गया है। मेरा तुमसे प्रेम हो गया है। अब कुछ प्रतीक देना जरूरी है। यह माला तो ऐसे समझो जैसे भांवर पड़ गयी। फंसे! यह तो एक तरह का विवाह हुआ। इसका कोई कारण नहीं है। यह प्रेम हो गया। इसका कोई बुद्धियुक्त हिसाब नहीं है। यह कुछ हृदय की बात हो गयी।

तुमने मेरे हाथ में हाथ डाल दिया; मैंने तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले लिया। इसकी याददाश्त के लिए तुम्हें यह माला दे दी कि अब तुम इसे याद रखना। अब तुम अकेले नहीं हो, मैं भी हूं। अब तुम जो करो, मुझे भी याद रखकर करना। अब तुम जो भी बनो, मैं भी जुड़ा हूं। अगर शराबघर जाओ, जाना–लेकिन मुझको भी घसीटोगे। यह माला लटकी रहेगी। यह कहती रहेगी, अकेले नहीं जा रहे हो। यह तुम्हें रोकेगी। यह कई बार तुम्हारे पैर को आगे बढ़ने से रोक लेगी। यह कई बार तुम्हें उस जगह ले जाएगी जहां तुम कभी न गये थे, और उस जगह से रोक देगी जहां तुम बहुत बार गये थे। क्रोधित होने को हो रहे होओगे कि यह माला दिखायी पड़ जाएगी। आग-बबूला होने को जा ही रहे थे, कि हाथ उठाकर मारने को ही थे कि यह गैरिक वस्त्र दिखायी पड़ जाएंगे, कोई भीतर लौट जाएगा। कहेगा, यह तुम क्या कर रहे हो?

अब तुम ही नहीं हो, अब मैं भी तुम्हारे साथ प्रतिबद्ध हुआ। यह एक “कमिटमेंट’ है, एक प्रतिबद्धता है। यह मेरा भरोसा है तुम पर। यह मैं कहता हूं कि ठीक है, अब तुम नरक जाओगे तो मुझको भी जाना पड़ेगा। तुम्हारी मर्जी! प्रेम में घसिटन तो होती है। अगर तुम नर्क ही जाना चाहोगे तो ठीक है, मैं भी आऊंगा; लेकिन अब अकेला न छोडूंगा।

ये सिर्फ प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। इनकी कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं हो सकती–जरूरत भी नहीं है।

ये इंकिलाब का मुज्दा है, इंकिलाब नहीं

ये आफताब का परतौ है, आफताब नहीं

यह केवल शुभ समाचार है क्रांति का, यह क्रांति नहीं है। तुमने वस्त्र पहन लिये गैरिक तो कोई क्रांति हो गयी, ऐसा नहीं है–सिर्फ शुभ समाचार है।

ये इंकिलाब का मुज्दा है इंकिलाब नहीं

तुमने गैरिक वस्त्र पहन लिये, तो कोई सूरज उग गया, ऐसा नहीं है। यह तो केवल प्रतिबिंब है।

ये आफताब का परतौ है…

ये तो केवल झलक है।

…आफताब नहीं।

और, सूरज से जुड़ा है गैरिक रंग। यह सूरज का रंग है। यह सूरज की पहली किरण का रंग है। यह सूर्योदय की खबर है। यह एक शुभ समाचार है। यह तो शुरुआत है मेरे साथ जुड़ने की। इसे अंत मत समझ लेना।

भड़कती जा रही है दम-ब-दम इक आग-सी दिल में

ये कैसे जाम हैं साकी, ये कैसा दौर है साकी

यह तो तुम राजी हुए, तो शुरुआत हुई। बहुत पीने-पिलाने को है। यह तो तुम निमंत्रण स्वीकार कर लिये।

भड़कती जा रही है दम-ब-दम इक आग-सी दिल में

ये गैरिक वस्त्र तो उस भीतर दिल की आग के बाहर प्रतीक हैं।

ये कैसे जाम हैं साकी, ये कैसा दौर है साकी

यह तो सूचना है सारे जगत को। यह तो खबर है औरों को कि वे जान लें कि अब तुम वही नहीं हो जो कल तक थे। यह तो खबर है औरों को कि अब वे तुमसे अपेक्षा न करें–वैसी अपेक्षाएं जैसी उन्होंने कल तक की थीं। यह तो खबर है औरों को कि अब वे गाली दें, तुम उत्तर न दोगे। यह तो उनको खबर है कि तुम बदल गये, कि तुम मर गये और नये हो गये, कि तुम्हें सूली लग गयी और तुम्हारा नया पुनर्जन्म हुआ।

बागवानों को बताओ, गुलो-नसरीं से कहो

इक खराबे-गुलो-नसरीने-बहार आ ही गया

जाओ! मालियों को बताओ! खबर कर दो बागवानों को!

बागवानों को बताओ, गुलो-नसरीं से कहो

और फूलों से कह दो।

इक खराबे-गुलो-नसरीने-बहार आ ही गया

जहां कोई आशा न थी वसंत आने की, वहां भी वसंत आ ही गया। यह तो सिर्फ वसंत के आने की खबर है।

जिनके भीतर हिम्मत हो वसंत को झेलने की, इस आग में जलने की और निखरने की, शुद्ध सोना बनने की–मैं राजी हूं।

प्रतीकों पर मत जाओ। यह तो बहाने हैं। इनसे धोखा मत खाओ। यह तो केवल शुरुआत है–अ, ब, स। जैसे छोटे बच्चों को हम पढ़ाते हैं, “ग’ गणेश का–पहले पढ़ाते थे, अब पढ़ाते हैं “ग’ गधे का। क्योंकि गणेश तो एक “सेकुलर’ राज्य में, धर्म-निरपेक्ष राज्य में ठीक नहीं है। गधा प्रतीक है। “ग’ गधे का। हालांकि “ग’ न गधे का है और न गणेश का। मगर बच्चे को पढ़ाने के लिए कुछ तस्वीर देनी पड़ती है–”ग’ गधे का, “ग’ गणेश का, कुछ तो; क्योंकि बच्चा “ग’ नहीं जानता, गधे को जानता है। गधे के साथ “ग’ सीख लेता है। फिर गधा तो भूल जाता है “ग’ रह जाता है। फिर ऐसा थोड़े ही है कि जब भी तुम पढ़ोगे, तो कभी “ग’ आएगा तो फिर कहोगे “ग’ गधे का। तो तुम पढ़ ही न पाओगे। फिर तो गधे और गणेश सब गये। फिर तो “ग’ रह जाता है–शुद्ध।

यह तो सिर्फ शुरुआत है–अ, ब, स। “संन्यास’ गैरिक वस्त्र का। “संन्यास’ माला का। लेकिन यह तो शुरुआत है। धीरे-धीरे जैसे तुम रगोगे-पगोगे, रस-भीगोगे, डूबोगे, संन्यास ही रह जाएगा; गैरिक वस्त्र और माला महत्वपूर्ण न रह जाएंगे। तुम कृतज्ञ रहोगे उनके लिए, क्योंकि उन्होंने यात्रा करवायी। पहला कदम उनसे उठा। तुम्हारा धन्यवाद उनके प्रति रहेगा। लेकिन तुम उनसे बंधे न रह जाओगे।

ये बंधन तुम्हारी मुक्ति की तरफ पहले कदम हैं।

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--2 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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