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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–25

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माया अर्थात सम्मोहन—(अध्याय-5) प्रवचन—पच्‍चीसवां

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।। 14।।

और परमेश्वर भी भूतप्राणियों के न कर्तापन को और न कर्मों को तथा न कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में रचता है। किंतु परमात्मा के सकाश से प्रकृति ही बर्तती है, अर्थात गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं।

परमात्मा स्रष्टा तो है, लेकिन कर्ता नहीं है। इस सूत्र में कृष्ण ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है, परमात्मा स्रष्टा तो है, लेकिन कर्ता नहीं है। कर्ता इसलिए नहीं कि परमात्मा को यह स्मरण भी नहीं है–स्मरण हो भी नहीं सकता है–कि मैं हूं। मैं का खयाल ही तू के विरोध में पैदा होता है। तू हो, तो ही मैं पैदा होता है। परमात्मा के लिए तू जैसा अस्तित्व में कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं का कोई खयाल परमात्मा को पैदा नहीं हो सकता है।

मैं के लिए जरूरी है कि तू सामने खड़ा हो। तू के खिलाफ, तू के विरोध में, तू के साथ-सहयोग में मैं निर्मित होता है। परमात्मा के मैं का, अहंकार के निर्माण का कोई भी उपाय नहीं है। इसलिए कर्ता का कोई खयाल परमात्मा को नहीं हो सकता। लेकिन स्रष्टा वह है। और स्रष्टा से अर्थ है कि जीवन की सारी सृजन-धारा उससे ही बहती है। सारा जीवन उससे ही जन्मता और उसी में लीन होता है। लेकिन इस स्रष्टा की बात को भी थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी होगा।

स्रष्टा भी बहुत तरह से हो सकता है कोई। एक मूर्तिकार एक मूर्ति का निर्माण करता है। मूर्ति बनती जाती है, मूर्तिकार से अलग होती चली जाती है। जब मूर्ति बन जाती है, तो मूर्तिकार अलग होता है, मूर्ति अलग होती है। मूर्तिकार मर भी जाए, तो जरूरी नहीं कि मूर्ति मरे। मूर्तिकार के बाद भी मूर्ति जिंदा रह सकती है। मूर्तिकार ने जो सृष्टि की, वह सृष्टि अपने से अन्य है, अलग है, बाहर है। मूर्तिकार बनाएगा जरूर, लेकिन मूर्तिकार पृथक है।

एक नृत्यकार नाचता है। एक नर्तक नाचता है। वह भी सृजन करता है नृत्य का। लेकिन नृत्य नर्तक से अलग नहीं होता है। नर्तक चला गया, नृत्य भी चला गया। नर्तक मर जाएगा, तो नृत्य भी मर जाएगा। नर्तक ठहर जाएगा, तो नृत्य भी ठहर जाएगा। नृत्य नर्तक से भिन्न कहीं भी नहीं है, फिर भी भिन्न है। इस अर्थ में तो भिन्न नहीं है नर्तक से नृत्य, जिस अर्थ में मूर्ति मूर्तिकार से भिन्न होती है। लेकिन फिर भी भिन्न है। भिन्न इसलिए है कि नर्तक तो नृत्य के बिना हो सकता है, लेकिन नृत्य नर्तक के बिना नहीं हो सकता। नर्तक नृत्य के बिना हो सकता है, लेकिन नृत्य नर्तक के बिना नहीं हो सकता।

मूर्तिकार और मूर्ति में जो भेद है, वैसा भेद तो नृत्यकार और नर्तक में नहीं है, लेकिन पूरा अभेद भी नहीं है। एक भी नहीं हैं दोनों। क्योंकि नृत्यकार हो सकता है, नृत्य न हो, लेकिन नृत्य नहीं हो सकेगा। ठीक ऐसे ही, जैसे सागर हो सकता है, लहर न हो। लेकिन लहर नहीं हो सकती सागर के बिना। सागर के होने में कोई कठिनाई नहीं है बिना लहर के। लेकिन लहर सागर के बिना नहीं हो सकती है। इसलिए सागर और लहर एक भी हैं और एक नहीं भी हैं।

परमात्मा का जगत से जो संबंध है, वह नर्तक जैसा है। इसलिए अगर हिंदुओं ने नटराज की धारणा की, तो बड़ी कीमती है। नाचते हुए परमात्मा की धारणा की है। नृत्य करते शिव को सोचा, तो बहुत गहरा है। शायद पृथ्वी पर नृत्य करते हुए परमात्मा की धारणा हिंदू धर्म के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। जहां भी लोगों ने परमात्मा की सृष्टि की बात सोची है, वहां सृष्टि मूर्ति और मूर्तिकार वाली सोची है, नृत्य और नर्तक वाली नहीं।

लोग उदाहरण देते हैं कि जैसे कुम्हार घड़े को बनाता है। नहीं, परमात्मा इस तरह जगत को नहीं बनाता है। परमात्मा इसी तरह जगत को बनाता है, जैसे नर्तक नृत्य को बनाता है–एक। पूरे समय डूबा हुआ नृत्य में और फिर भी अलग। क्योंकि चाहे तो नृत्य को छोड़ दे और अलग खड़ा हो जाए। नृत्य बचेगा नहीं उसके बिना। नर्तक उसके बिना बच सकता है। इसलिए नृत्य नर्तक पर निर्भर है, नर्तक नृत्य पर निर्भर नहीं है।

परमात्मा और प्रकृति के बीच नर्तक और नृत्य जैसा संबंध है। प्रकृति निर्भर है परमात्मा पर। परमात्मा प्रकृति पर निर्भर नहीं है। परमात्मा न हो, तो प्रकृति खो जाएगी, शून्य हो जाएगी। लेकिन परमात्मा प्रकृति के बिना भी हो सकता है। भेद भी है और अभेद भी, भिन्नता भी है और अभिन्नता भी, दोनों एक साथ।

प्रकृति के बीच परमात्मा वैसे ही है, जैसे नृत्य के बीच नर्तक है। लेकिन जब नर्तक नाचता है, तो शरीर का उपयोग करता है। शरीर की सीमाएं शुरू हो जाती हैं। पैर थक जाएगा, जरूरी नहीं कि नर्तक थके। पैर टूट भी सकता है, जरूरी नहीं कि नर्तक टूटे। पैर चलने से थकेगा, पैर की सीमा है। हो सकता है, नर्तक अभी न थका हो। नर्तक नृत्य करते शरीर के भीतर कैटेलिटिक एजेंट की तरह है। कैटेलिटिक एजेंट की बात थोड़ी खयाल में ले लें, तो कृष्ण का सूत्र समझ में आएगा।

विज्ञान में कैटेलिटिक एजेंट का बड़ा मूल्य है, अर्थ है। कैटेलिटिक एजेंट से ऐसे तत्वों का प्रयोजन है, जो स्वयं भाग तो नहीं लेते किसी क्रिया में, लेकिन उनके बिना क्रिया हो भी नहीं सकती। जैसे कि हाइड्रोजन और आक्सीजन को हम मिला दें, तो पानी नहीं बनेगा। बनना चाहिए, क्योंकि हाइड्रोजन और आक्सीजन के अतिरिक्त पानी में और कुछ भी नहीं होता। हाइड्रोजन और आक्सीजन को मौजूद कर देने से पानी नहीं बनेगा। बनना चाहिए। क्योंकि पानी को अगर हम तोड़ें, तो सिवाय हाइड्रोजन और आक्सीजन के कुछ भी नहीं होता।

फिर पानी कैसे बनेगा? अगर हाइड्रोजन और आक्सीजन के बीच में बिजली कौंधा दें, तो पानी बनेगा।

बिजली क्या करती है कौंधकर? वैज्ञानिक कहते हैं, बिजली कुछ भी नहीं करती; सिर्फ उसकी मौजूदगी, प्रेजेंस कुछ करती है। सिर्फ मौजूदगी! बिजली कुछ नहीं करती, सिर्फ उसकी मौजूदगी कुछ करती है। सिर्फ मौजूदगी। ध्यान रहे, बिजली कर्ता नहीं बनती; कुछ करती नहीं। सिर्फ मौजूदगी; बस उसके मौजूद होने में, उसकी मौजूदगी की छाया में हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बन जाते हैं।

इसीलिए अगर हम पानी को तोड़ें, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन तो हमको मिलेंगे, लेकिन बिजली नहीं मिलेगी। क्योंकि बिजली कृत्य में प्रवेश नहीं करती। लेकिन बड़े मजे की बात यह है कि बिजली अगर मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलते भी नहीं हैं। इनके मिलन के लिए बिजली की मौजूदगी जरूरी है। अब इस मौजूदगी को हम क्या कहें? इस मौजूदगी ने कुछ किया जरूर, फिर भी कुछ भी नहीं किया; कर्ता नहीं है।

परमात्मा को इस सूत्र में कृष्ण बिलकुल कैटेलिटिक एजेंट कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि सारी प्रकृति बर्तती है। यद्यपि परमात्मा की मौजूदगी के बिना प्रकृति बर्त नहीं सकेगी। फिर भी परमात्मा की मौजूदगी में प्रकृति ही बर्तती है, परमात्मा नहीं बर्तता।

जैसे मैंने उदाहरण के लिए कल आपको कहा था, उसे थोड़ा गहरे में देख लें। आपको भूख लगी है। मैंने आपसे कहा, भूख आपको नहीं लगती, पेट को लगती है। निश्चित ही भूख आपको नहीं लगती, पेट को लगती है। आपको सिर्फ पता चलता है कि पेट को भूख लगी। लेकिन अगर आप शरीर के बाहर हों, तो फिर पेट को भूख लग सकती है या नहीं? आप मर गए समझिए। शरीर अब भी है, पेट अब भी है। भूख अब भी लगनी चाहिए; क्योंकि पेट को भूख लगती थी, आपको तो लगती नहीं थी। आप अब नहीं हैं, पेट को भूख अब नहीं लगती है। यद्यपि इससे यह मतलब नहीं कि आपको भूख लगती थी। आपकी मौजूदगी पेट को भूख लगने के लिए जरूरी थी। अन्यथा उसको भूख भी नहीं लगती। फिर भी भूख आपको नहीं लगती थी, भूख पेट को ही लगती थी।

सारी प्रकृति बर्तती है अपने-अपने गुणधर्म से, परमात्मा की मौजूदगी में। सिर्फ उसकी प्रेजेंस काफी है। बस वह है, और प्रकृति बर्तती चली जाती है। लेकिन वर्तन का कोई भी कृत्य परमात्मा को कर्ता नहीं बनाता है। कर्ता और स्रष्टा में मैं यही फर्क कर रहा हूं। उसके बिना सृष्टि चल नहीं सकती, इसलिए उसे मैं स्रष्टा कहता हूं। वह सृष्टि को चलाता नहीं रोज-रोज, इसलिए उसे मैं कर्ता नहीं कहता हूं।

कृष्ण के इस सूत्र में उन्होंने कहा है, जो जानते हैं, वे जानते हैं कि प्रकृति अपने गुणधर्म से काम करती रहती है।

पानी भाप बनता रहता है। परमात्मा पानी को भाप नहीं बनाता। लेकिन परमात्मा की मौजूदगी के बिना पानी भाप नहीं बनेगा। पानी भाप बनकर बादल बन जाएगा। बादल सर्द होंगे, बरसा होगी। पहाड़ों पर पानी गिरेगा। गंगाओं से बहेगा। सागर में पहुंचेगा। फिर बादल बनेंगे। यह चलता रहेगा। बीज वृक्षों से गिरेंगे जमीन में, फिर अंकुर आएंगे। परमात्मा किसी बीज को अंकुर बनाता नहीं, लेकिन परमात्मा के बिना कोई बीज अंकुरित नहीं हो सकता है। उसकी मौजूदगी! लेकिन मौजूदगी का यह जो कैटेलिटिक एजेंट का खयाल है, इसे एक तरफ से और समझें।

पश्चिम में एक वैज्ञानिक है, जीन पियागेट। उसने मां और बेटे के बीच, मां और बच्चे के बीच, जीवनभर क्या-क्या होता है, इसका ही अध्ययन किया है। वह कुछ अजीब नतीजों पर पहुंचा है, वह मैं आपसे कहना चाहूंगा। वे भी कैटेलिटिक एजेंट जैसे नतीजे हैं। लेकिन कैटेलिटिक एजेंट तो पदार्थ की बात है। मां का संबंध और बेटे का संबंध पदार्थ की बात नहीं, चेतना की घटना है।

जीन पियागेट का कहना है कि मां से बच्चे को दूध मिलता है, यह तो हम जानते हैं। लेकिन कुछ और भी मिलता है, जो हमारी पकड़ में नहीं आता। क्योंकि पियागेट ने ऐसे बहुत-से प्रयोग किए, जिनमें बच्चे को मां से अलग कर लिया। सब दिया, जो मां से मिलता था। दूध दिया। सेवा दी। सब दिया। लेकिन फिर भी मां से जो बच्चा अलग हुआ, उसकी ग्रोथ रुक गई, उसका विकास रुक गया। उसके विकास में कोई बाधा पड़ गई। वह रुग्ण और बीमार रहने लगा।

चालीस साल के निरंतर अध्ययन के बाद पियागेट यह कहता है कि मां की मौजूदगी, प्रेजेंस कुछ करती है। सिर्फ उसकी मौजूदगी। बच्चा खेल रहा है बाहर। मां बैठी है अपने मकान के भीतर। मां भीतर मौजूद है, बच्चा कुछ और है। सिर्फ मौजूदगी, एक मिल्यू, एक हवा मां की मौजूदगी की!

अरब में एक बहुत पुरानी कहावत है कि चूंकि परमात्मा सब जगह नहीं हो सकता था, इसलिए उसने माताओं का निर्माण किया। बहुत बढ़िया कहावत है। चूंकि परमात्मा सब जगह कहां-कहां आता, इसलिए उसने बहुत-सी मां बना दीं, ताकि परमात्मा की मौजूदगी मां से बह सके।

मां से कुछ बहता है, जो इम्मैटीरियल है, पदार्थगत नहीं है। जिसको नापा नहीं जा सकता है। कोई ऊष्मा, कोई प्रीति, कोई स्नेह की धार–शायद किसी दिन हम जान लें।

बहुत-सी चीजें हैं, जो हमारे चारों तरफ हैं, अभी हम नाप नहीं पाए। जमीन में ग्रेविटेशन है, हम जानते हैं। पत्थर को ऊपर फेंकें, नीचे आ जाता है। लेकिन अभी तक ग्रेविटेशन नापा नहीं जा सका कि है क्या! यह जमीन की जो कशिश है, यह क्या है! चांद पर हम पहुंच गए हैं, लेकिन अभी कशिश के मामले में हम कहीं नहीं पहुंचे हैं। अभी हमें पता नहीं कि यह कशिश क्या है, जमीन जो खींचती है।

पियागेट कहता है कि मां और बेटे के बीच भी ठीक ऐसी ही कशिश है, कोई ग्रेविटेशन है। जिससे बेटा वंचित हो जाए, तो हमें पता नहीं चलेगा, लेकिन सूखना शुरू हो जाएगा, मुर्झाना शुरू हो जाएगा।

कोई आश्चर्य नहीं है कि अमेरिका में जिस दिन से परिवार शिथिल हुआ और मां और बेटे के संबंध क्षीण हुए, उसी दिन से अमेरिका विक्षिप्त होता जा रहा है। पचास सालों में अमेरिका रोज पागलपन के करीब गया है। और अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उस पागलपन का सबसे बड़ा कारण यह है कि मां और बेटे के बीच संबंध की जो धारा थी, वह क्षीण हो गई।

अमेरिका की स्त्री बच्चे को दूध पिलाने को राजी नहीं है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, इतना ही दूध तो बोतल से भी पिलाया जा सकता है। और कोई हैरानी नहीं है कि मां के स्तन से भी अच्छा स्तन बनाया जा सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। लेकिन फिर भी उसके भीतर से जो अनजानी धारा बहती थी, वह जो कैटेलिटिक एजेंट था मदरहुड का, मातृत्व का, वह नहीं पैदा किया जा सकता। दूध के साथ वह भी बहता था। अभी हमारे पास नापने का उसे कोई उपाय नहीं है।

लेकिन हम आज नहीं कल…रोज-रोज जितनी हमारी समझ बढ़ती है, यह बात साफ होती चली जाती है कि मानवीय संबंधों में भी कुछ बहता है। जब भी ऐसा कोई बहाव होता है, तभी हमें प्रेम का अनुभव होता है। और जब परमात्मा और हमारे बीच ऐसा कोई बहाव होता है, तो हमें प्रार्थना का अनुभव होता है। ये दोनों अनुभव किसी अदृश्य मौजूदगी के अनुभव हैं।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, परमात्मा कुछ करता नहीं।

ध्यान रहे, करना उसे पड़ता है, जो कमजोर हो। करना कमजोरी का लक्षण है। जो शक्तिशाली है, उसकी मौजूदगी ही करती है।

एक शिक्षक क्लास में आता है और आकर डंडा बजाकर विद्यार्थियों को कहता है कि देखो, मैं आ गया। मैं तुम्हारा शिक्षक हूं। चुप हो जाओ! यह शिक्षक कमजोर है। सच में जब कोई शिक्षक कमरे में आता है, तो सन्नाटा छा जाता है, उसकी मौजूदगी से। कहना पड़े, तो शिक्षक है ही नहीं।

इसलिए पुराने सूत्र यह नहीं कहते कि गुरु को आदर करो। पुराने सूत्र कहते हैं, जिसको आदर करना ही पड़ता है, उसका नाम गुरु है।

जिस गुरु को आदर करने के लिए कहना पड़े, वह गुरु नहीं है। जो गुरु कहे, मुझे आदर करो, वह दो कौड़ी के योग्य है। वह कोई गुरु-वुरु नहीं है। गुरु है ही वह कि आप न भी चाहें कि आदर करो, तो भी आदर करना ही पड़े। उसकी मौजूदगी, तत्काल भीतर से कुछ बहना शुरू हो जाए। नहीं; वह चाहता भी नहीं। नहीं; वह कहता भी नहीं। उसे पता भी नहीं है कि कोई उसे आदर करे। लेकिन उसकी मौजूदगी, और आदर बहना शुरू हो जाता है।

परमात्मा परम शक्ति का नाम है। अगर उसको भी कुछ करके करना पड़े, तो कमजोर है। कृष्ण कहते हैं, वह कुछ करता नहीं है। वह है, इतना ही काफी है। उसका होना पर्याप्त है। पर्याप्त से थोड़ा ज्यादा ही है। और प्रकृति काम करती चली जाती है। उसकी मौजूदगी में सारा काम चलता चला जाता है।

लेकिन प्रकृति बर्तती है अपने गुणों से, अपने नियमों से। इसलिए जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, जो इस मौलिक तत्व को और आधार को समझ लेता है, वह फिर मैं करता हूं, इस भ्रांति से छूट जाता है।

इतना बड़ा विराट अस्तित्व चल रहा है बिना कर्ता के, तो मेरी छोटी-सी गृहस्थी बिना कर्ता के नहीं चल पाएगी? इतने चांदत्तारे यात्राएं कर रहे हैं बिना कर्ता के! रोज सुबह सूरज उग आता है। हर वर्ष वसंत आ जाता है। अरबों-खरबों वर्षों से पृथ्वियां घूमती हैं, निर्मित होती हैं, मिटती हैं। अनंत तारों का जाल चलता रहता है। बिना किसी कर्ता के इतना सब चल रहा है। लेकिन मैं कहता हूं, मेरी दुकान बिना कर्ता के कैसे चलेगी!

जो व्यक्ति इस मूल आधार को समझ लेता है कि इतना विराट अस्तित्व चलता चला जा रहा है, तो मेरे क्षुद्र कामों में मैं नाहक ही कर्ता को पकड़कर बैठा हुआ हूं। इतना विराट चल सकता है कर्ता से मुक्त होकर, तो मैं भी चल सकता हूं। जिस व्यक्ति को यह स्मरण आ गया, वह संन्यासी है। जिस व्यक्ति को यह स्मरण आ गया कि इतना विराट चलता है बिना कर्ता के, तो अब मैं भी बिना कर्ता के चलता हूं। उठूंगा सुबह, दुकान पर जाकर बैठ जाऊंगा। काम कर लूंगा। भूख लगेगी, खाना खा लूंगा। नींद आएगी, सो जाऊंगा। लेकिन अब मैं कर्ता नहीं रहूंगा। प्रकृति करेगी, मैं देखता रहूंगा। बाधा भी नहीं डालूंगा। क्योंकि जो बाधा डालेगा, वह भी कर्ता हो जाएगा।

आपको नींद आ रही है और आपने कहा, हम न सोएंगे, तो भी आप कर्ता हो गए। सुबह नींद आ रही है और आप जबर्दस्ती बोले कि हम तो ब्रह्ममुहूर्त में उठकर रहेंगे, तो भी कर्ता हो गए।

जीवन को सहज, जैसा जीवन है, उसको कर्ता को छोड़कर प्रकृति पर छोड़ देने वाला व्यक्ति संन्यासी है। कृष्ण उसी निष्काम कर्मयोगी की बात कर रहे हैं।

लेकिन हमारे मन में बड़ी-बड़ी भ्रांत धारणाएं हैं। आज दोपहर एक बहुत मजेदार बात हुई। एक महिला मुझे मिलने आई। आते ही उसने एक चांटा मेरे मुंह पर मार दिया। मैंने उससे पूछा, और क्या कहना है? तो उसने कहा, दूसरा गाल भी मेरे सामने करिए। मैंने दूसरा गाल भी उसके सामने कर दिया। उसने दूसरा चांटा भी मार दिया। मैंने कहा, और क्या कहना है? उसने कहा कि नहीं, और कुछ नहीं कहना। मैं तो आपकी परीक्षा लेने आई थी। मैंने कहा, मेरे शरीर को चांटा मारकर मेरी परीक्षा कैसे होगी? उससे नहीं कहा, क्योंकि जिसकी शरीर पर बुद्धि अटकी हो, उससे कुछ भी कहना कठिन है।

मेरे शरीर को चोट पहुंचाकर मेरी परीक्षा कैसे होगी? लेकिन हमारा भरोसा शरीर पर है। तुम मुझे छुरा भी मारोगे, तो भी शरीर अपना काम जो करता है, कर लेगा। चांटा मारोगे, तो मेरे गाल पर हाथ का निशान बन जाएगा। शरीर अपना काम बर्त लेगा। अगर मेरे भीतर खयाल हो कि मुझे मारा गया, तो उपद्रव भीतर तक प्रवेश कर जाएगा। अन्यथा मैं देखूंगा कि मेरे शरीर को मारा गया। शरीर को मारा गया; शरीर को जो करना है, वह अपना कर लेगा।

और हैरानी की बात है कि शरीर चुपचाप अपने नियम में बर्तकर अपनी जगह वापस लौट जाता है। प्रकृति बड़ी शांति से अपना काम कर लेती है। उसके हाथ का निशान बन गया था, थोड़ी देर बाद मैंने देखा, वह खो गया; शरीर उसे पी गया। लेकिन अगर मैं कर्ता बन जाऊं, मुझे मारा गया या मैं मारूं या उत्तर दूं या कुछ करूं, तो फिर उपद्रव शुरू हुआ। लेकिन हमारी पकड़ शरीर की भाषा से, प्रकृति की भाषा से ऊपर नहीं उठती।

अगर मुझे मजाक करना होता, तो एक चांटा मैं भी उसे मार सकता था। मजाक करना होता! लेकिन गरीब नासमझ औरत, उसके साथ मजाक करनी ठीक भी नहीं। लेकिन हम भाषा कौन-सी समझते हैं!

जब वह चली गई, तो मुझे खयाल आया। एक फकीर हुआ, नसरुद्दीन। उसके पास एक गधा था, जिस पर वह यात्रा करता रहता था। एक दिन पड़ोस का एक आदमी उसका गधा मांगने आया और उसने नसरुद्दीन से कहा कि अपना गधा मुझे दे दें; बहुत जरूरी काम है। नसरुद्दीन ने कहा कि गधा तो कोई और उधार मांग ले गया है। लेकिन तभी–गधा ही तो ठहरा–पीछे से अस्तबल से गधे ने आवाज दी। वह आदमी क्रोध से भर गया। उसने कहा कि धोखा देते हैं मुझे? गधा अंदर बंधा हुआ मालूम पड़ता है। नसरुद्दीन ने कहा, क्या मतलब तुम्हारा? मेरी बात नहीं मानते; गधे की बात मानते हो? मैं कहता हूं, मेरा तुम्हें भरोसा नहीं आता। गधा आवाज देता है, उसका तुम्हें भरोसा आता है! किस तरह की भाषा समझते हो? आदमी हो कि गधे?

मैं जो कह रहा हूं, वह समझ में नहीं आएगा। मेरे शरीर को एक चांटा मारकर कोई परीक्षा लेने आता है। लेकिन शरीर सवारी से ज्यादा नहीं है, गधे से ज्यादा नहीं है। पर कुछ लोग उसकी ही भाषा समझते हैं।

प्रकृति की भाषा से ऊपर हम नहीं उठ पाते, इसलिए परमात्मा की हमें कोई झलक भी नहीं मिल पाती है। परमात्मा की झलक लेनी हो, तो प्रकृति की भाषा से थोड़ा पार जाना पड़ेगा। और यह चारों तरफ जो भी हमें दिखाई पड़ रहा है, सब प्रकृति का खेल है। जो भी हमारी आंख में दिखाई पड़ता है, जो भी हमारे कान में सुनाई पड़ता है, जिस भी हम हाथ से छूते हैं, वह सब प्रकृति का खेल है। प्रकृति अपने गुणधर्म से बरत रही है। अगर इतने पर ही कोई रुक गया, तो वह कभी परमात्मा की झलक को उपलब्ध न होगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, उसकी झलक को अगर उपलब्ध होना हो, तो यह प्रकृति का काम है, ऐसा समझकर गहरे में इसे प्रकृति को ही करने दो। तुम मत करो। तुम कर्ता मत रह जाओ, तुम सिर्फ द्रष्टा हो जाओ; साक्षी हो जाओ कि प्रकृति ऐसा कर रही है। तुम सिर्फ देखते रहो एक दर्शक की भांति। और धीरे-धीरे-धीरे वह द्वार खुल जाएगा, जहां से, जिसने कभी कुछ नहीं किया, यद्यपि जिसके बिना कभी कुछ नहीं हुआ, उस परमात्मा की प्रतिमा झलकनी शुरू हो जाएगी।

प्रश्न:

भगवान श्री, आपने पिछली एक चर्चा में कहा है कि परमात्मा अर्थात अस्तित्व, एक्झिस्टेंस, समग्रता, टोटेलिटी। लेकिन इस श्लोक में भूतप्राणी और परमात्मा, या प्रकृति और परमात्मा ऐसे दो अलग-अलग विभाग कैसे कहे गए हैं, इसके क्या कारण हैं?

वही, जैसा मैंने कहा, नृत्य और नृत्यकार। अगर हम नृत्यकार की तरफ से देखें, तो दोनों एक हैं। लेकिन अगर नृत्य की तरफ से देखें, तो दोनों एक नहीं हैं। जैसे लहर और सागर। सागर की तरफ से देखें, तो दोनों एक हैं। लहर की तरफ से देखें, तो दोनों एक नहीं हैं।

तो यदि हम परमात्मा की तरफ से देखें, तब तो प्रकृति है ही नहीं; वही है। लेकिन अगर प्रकृति की तरफ से देखें, तो प्रकृति है।

ये जो भेद हैं, सब भेद मनुष्य की बुद्धि से निर्मित हैं–सब भेद। और अगर कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी समझाना हो किसी को–कृष्ण भलीभांति जानते हैं अभेद को, नहीं कोई भेद है, एक ही है। लेकिन समझना हो किसी को, तो तत्काल दो करने पड़ेंगे।

यह बहुत समझने जैसी बात है। जैसे कि कांच के एक प्रिज्म में से हम सूरज की किरण को निकालें, तो सात टुकड़ों में बंट जाती है। किरण तो एक होती है, लेकिन तत्काल प्रिज्म में से निकलते ही के साथ सात हो जाती है।

कभी पानी में एक लकड़ी के डंडे को डालकर देखें। डंडा सीधा हो, पानी में जाते ही तिरछा दिखाई पड़ने लगता है। बाहर निकालें, फिर सीधा हो गया। फिर पानी में डालें, फिर तिरछा हो गया! क्या, बात क्या है? डंडा तिरछा हो जाता है? हो नहीं जाता। लेकिन पानी के माध्यम में किरणों का प्रवाह, किरणों की धारा और दिशा थोड़ी-सी झुक जाती है पानी की मौजूदगी से, इसलिए डंडा तिरछा दिखाई देने लगता है। और आप दस दफे निकालकर देख लें कि डंडा सीधा है, ग्यारहवीं बार फिर डालें, तो भी तिरछा ही दिखाई पड़ेगा। आप यह मत सोचना कि हम दस बार देख लिए कि सीधा है, इसलिए ग्यारहवीं बार धोखा नहीं होगा, अब की दफे सीधा दिखाई पड़ेगा। तिरछा ही दिखाई पड़ेगा।

बुद्धि का एक माध्यम है। समझाया तो जाता है बुद्धि से और समझा भी जाता है बुद्धि से। सत्य है अद्वैत, लेकिन समझ सदा द्वैत की होती है। ट्रुथ इज़ नान-डुअल; अंडरस्टैंडिंग इज़ आलवेज डुअल। सत्य तो है एक, लेकिन समझ सदा होती है द्वैत की। समझाना हो, तो दो करने ही पड़ेंगे। असल में जब भी कोई किसी को समझाता है, तभी दो हो गए। समझाने वाला और समझने वाला जहां आ गए, वहां दो आ गए। कोई समझा रहा है, कोई समझ रहा है–दो हो गए।

एक फकीर का मुझे स्मरण आता है। एक झेन फकीर बांकेई के पास एक आदमी गया और उसने कहा कि मुझे कुछ सत्य के संबंध में कहो। बांकेई बैठा रहा; कुछ भी न बोला। उस आदमी ने समझा कि शायद बहरा मालूम पड़ता है। जोर से कहा कि मुझे सत्य के संबंध में कुछ कहिए! लेकिन बांकेई वैसे ही बैठा रहा। लगा कि वज्र बहरा मालूम होता है। हिलाया जोर से बांकेई को उस आदमी ने। बांकेई हिल गया। उसने कहा कि मैं पूछ रहा हूं सत्य के संबंध में। बांकेई ने कहा, मुझे सुनाई पड़ता है। उस आदमी ने कहा, जवाब क्यों नहीं देते? तो बांकेई ने कहा, अगर मैं जवाब दूं, तो द्वैत हो जाएगा। और अगर मैं चुप रहूं, तो तुम समझोगे नहीं। तुमने मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया है।

कृष्ण को अगर अद्वैत की ओर इशारा करना हो, तो मौन रह जाना पड़े। लेकिन अर्जुन की समझ के बाहर होगा मौन। और भाषा जब भी विचार शुरू करती है, तभी टूट शुरू हो जाती है। तोड़ना ही पड़ेगा। अनिवार्य रूप से बुद्धि खंडन करती है, खंड करती है, एनालिसिस करती है, टुकड़े करती है।

इसीलिए तो विज्ञान की जो पद्धति है, वह एनालिसिस है। तोड़ो, खंड-खंड करते जाओ, और तोड़ते चले जाओ। हर चीज को, जिसको भी समझना हो, तोड़ना पड़ेगा।

अभी पचास साल पहले डाक्टर होता था, तो वह पूरे आदमी का डाक्टर होता था। वह आपकी बीमारी का इलाज कम करता था, बीमार का इलाज ज्यादा करता था। आपसे परिचित होता था भलीभांति। मरीज को पूरी तरह पहचानता था। आज हालत बिलकुल बदल गई है। अगर बाएं कान में दर्द है, तो एक डाक्टर के पास जाइए; दाएं कान में दर्द है, तो दूसरे डाक्टर के पास जाइए। उसको आपसे मतलब नहीं है। बस, उस कान के टुकड़े से मतलब है। बाकी मरीज बेकार है; हो या न हो। वह अपने कान की जांच कर लेगा।

इसलिए आज मरीज की कोई चिकित्सा नहीं होती, सिर्फ बीमारी की चिकित्सा होती है। और इनमें बड़ा फर्क है। टु ट्रीट ए डिसीज एंड टु ट्रीट ए पेशेंट, बहुत फर्क बातें हैं। क्योंकि जब मरीज की चिकित्सा करनी हो, तो करुणा की जरूरत पड़ती है। और जब सिर्फ बीमारी की चिकित्सा करनी हो, तो यांत्रिकता पर्याप्त है। स्पेशलिस्ट जो है, वह कान की जांच करके और लिख देगा कि क्या गड़बड़ है।

विज्ञान जैसे विकसित होगा, चीजें खंड-खंड होती चली जाएंगी। विज्ञान की प्रक्रिया बुद्धि की प्रक्रिया है। धर्म जैसे विकसित होगा, चीजें जुड़ती चली जाएंगी, खंड इकट्ठे होते जाएंगे। विज्ञान का मैथड है एनालिसिस, धर्म का मैथड है सिंथीसिस, जोड़ते चले जाओ। इसलिए धर्म जब परम स्थिति को उपलब्ध होता है, तो एक ही रह जाता है। और विज्ञान जब परम स्थिति को उपलब्ध होता है, तो परमाणु हाथ में रह जाते हैं, अनंत परमाणु। और जब धर्म विकसित होता है, तो अनंत अद्वैत, एक ही हाथ में रह जाता है।

कृष्ण की कठिनाई है, और वह सब कृष्णों की कठिनाई है, चाहे वे कहीं पैदा हुए हों–जेरूसलम में, कि मक्का में, कि चीन में, कि तिब्बत में–कहीं भी पैदा हुआ हो कोई जानता हुआ आदमी, उसकी कठिनाई यही है कि बुद्धि से कहते ही दो करने पड़ते हैं।

इसलिए कृष्ण दो कर रहे हैं, अर्जुन की तरफ से–इस बात को स्मरण रखना–लहर की तरफ से दो कर रहे हैं। कह रहे हैं कि प्रकृति है एक अर्जुन! यह सारा काम प्रकृति कर रही है। इतना तू समझ और द्रष्टा हो जा। अगर अर्जुन द्रष्टा हो जाए, तो एक दिन वह पाएगा कि न कोई प्रकृति है, न कोई परमात्मा है, एक ही है। जैसे कि हम एक आदमी से कहें कि ये जो लहरें तुझे दिखाई पड़ रही हैं, ये सागर नहीं हैं।

आपको खयाल नहीं होगा; आप सागर के किनारे बहुत बार गए होंगे, लेकिन लहरों को देखकर लौट आए और समझा कि सागर को देखकर आ रहे हैं। सागर को आपने कभी नहीं देखा होगा; सिर्फ लहरों को देखा है। सागर की छाती पर लहरें ही होती हैं, सागर नहीं होता। लेकिन कहते यही हैं कि हम सागर को देखकर चले आ रहे हैं। सागर का दर्शन कर आए। दर्शन किया है सिर्फ लहरों का। सागर बड़ी गहरी चीज है; लहरें बड़ी उथली चीज हैं। कहां लहरों का उथलापन और कहां सागर की गहराई! पर लहरों को हम सागर समझ लेते हैं।

आप अगर मेरे पास आएं और कहें कि मैं सागर का दर्शन करके आ रहा हूं, तो मैं कहूंगा, ध्यान रखो, सागर और लहरें दो चीज हैं। तुम लहरों का दर्शन करके आ रहे हो, उसको सागर मत समझ लेना। सागर बहुत बड़ा है। बहुत गहरे, भीतर छिपा है। और अगर सागर को देखना हो, तो तब देखना, जब लहरें बिलकुल शांत हों। तब तुम झांक पाओगे सागर में।

आप मुझसे कह सकते हैं कि बड़ी गलत बात आप कह रहे हैं। सागर और लहरें तो एक ही हैं! लेकिन यह उसका अनुभव है, जिसने सागर को जाना। जिसने लहरों को जाना, उसका यह अनुभव नहीं है।

तो कृष्ण की कठिनाई है। वे तो सागर को जानते हुए खड़े हैं। लेकिन अर्जुन तो लहरों पर जी रहा है। उससे वे कहते हैं कि जिसे तू जान रहा है, वह प्रकृति है। इस लहरों की उथल-पुथल को, इस लहरों की अशांति को तू सागर मत समझ लेना। यह सागर का हृदय नहीं है। सागर के हृदय को तो पता ही नहीं है कि कहीं लहरें भी उठ रही हैं। सागर के गहरे में तो पता भी नहीं है। वहां कभी कोई लहर उठी ही नहीं है। इसलिए दो हिस्सों में तोड़ लेना पड़ता है।

ज्ञान में सब द्वैत गलत है। अज्ञान में सब अद्वैत समझ के बाहर है। अज्ञान में अद्वैत समझ के अतीत है, पार है। ज्ञान में द्वैत विदा हो जाता है, बचता नहीं।

फिर क्या किया जाए? जब ज्ञानी अज्ञानी से बोले, तो क्या करे? मजबूरी में अज्ञानी की भाषा का ही उपयोग करना पड़ता है, इस आशा में कि उसी भाषा का उपयोग करके क्रमशः इशारा करते हुए, किसी घड़ी धक्का दिया जा सकेगा।

एक बच्चे को हम सिखाने बैठते हैं। उससे हम कहते हैं कि ग गणेश का। अब सेकुलर गवर्नमेंट आ गई, तो अब हम कहते हैं, ग गधे का! धर्मनिरपेक्ष राज्य हो गया, अब गणेश को तो उपयोग कर नहीं सकते! गधा सेकुलर है, धर्मनिरपेक्ष! गणेश तो धार्मिक बात हो जाएगी। इसलिए बदलना पड़ा किताबों में। पर गधे से या गणेश से ग का क्या लेना-देना? फिर बच्चा बड़ा हो जाएगा, तो हर बार जब भी पढ़ेगा कुछ, तो क्या पढ़ेगा कि ग गणेश का, ग गधे का? भूल जाएंगे। गधे भी भूल जाएंगे, गणेश भी भूल जाएंगे। ग बचेगा। मुक्त हो जाएगा, जिससे जोड़कर बताया था। लेकिन बताते वक्त बहुत जरूरी था।

अगर हम बच्चे को बिना किसी प्रतीक के बताना चाहें, तो बता न सकेंगे। और अगर बड़ा होकर भी बच्चा प्रतीक को पकड़े रहे, तो गलती हो गई; वह पागल हो गया। दोनों करने पड़ेंगे। प्रतीक से यात्रा शुरू करनी पड़ेगी, और एक घड़ी आएगी, जब प्रतीक छीन लेना पड़ेगा।

तो कृष्ण द्वैत की बात करेंगे, करते रहेंगे, करते रहेंगे। और जब लगेगा कि अर्जुन उस जगह आया, जहां द्वैत छीना जा सकता है, तो अद्वैत की बात भी करेंगे। उस इशारे की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन इस घड़ी तक, अभी तक अर्जुन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। इसलिए कृष्ण प्रकृति और परमात्मा, दो की बात कर रहे हैं।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यंति जन्तवः।। 15।।

और सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के द्वारा ज्ञान ढंका हुआ है। इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं।

और न ही वह परम शक्ति किसी के पाप या किसी के पुण्य या अशुभ या शुभ कर्मों को ग्रहण करती है। उस परम शक्ति को शुभ-अशुभ का भी कोई परिणाम, कोई प्रभाव नहीं होता है। लेकिन हम, वे जो अज्ञान से दबे हैं, वे जो स्वप्न में खोए हैं, वे उस स्वप्न और अज्ञान और माया में डूबे हुए, पाप और पुण्य के जाल में घूमते रहते हैं। इसमें दोत्तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।

पहली बात तो यह कि पाप और पुण्य केवल उसी के जीवन की धारणाएं हैं, जिसे खयाल है कि मैं कर्ता हूं। इसे ठीक से खयाल में ले लें। जो मानता है, मैं कर्ता हूं, करने वाला हूं, फिर उसे यह भी मानना पड़ेगा कि मैंने बुरा किया, अच्छा किया। अगर परमात्मा कर्ता नहीं है, तो अच्छे-बुरे का सवाल नहीं उठता है। जो आदमी मानता है कि मैंने किया, फिर वह दूसरी चीज से न बच सकेगा कि जो उसने किया, वह ठीक था, गलत था, सही था, शुभ था, अशुभ था!

कर्म को मान लिया कि मैंने किया, तो फिर नैतिकता से बचना असंभव है। फिर नीति आएगी। क्योंकि कोई भी कर्म सिर्फ कर्म नहीं है। वह अच्छा है या बुरा है। और कर्ता के साथ जुड़ते ही आप अच्छे और बुरे के साथ भी जुड़ जाते हैं। अच्छे और बुरे से हमारा संबंध कर्ता के बिना नहीं होता। जिस क्षण हमने सोचा कि मैंने किया, उसी क्षण हमारा कर्म विभाजन हो गया, अच्छे या बुरे का निर्णय हमारे साथ जुड़ गया। तो परमात्मा तक अच्छा और बुरा नहीं पहुंच पाता, क्योंकि कर्ता की कोई धारणा वहां नहीं है।

ऐसा समझें कि पानी हमने बहाया। जहां गङ्ढा होगा, वहां पानी भर जाता है। गङ्ढा न हो, तो पानी उस तरफ नहीं जाता। कर्ता का गङ्ढा भीतर हो, तो ही अच्छे और बुरे कर्म उसमें भर पाते हैं। वह न हो, तो नहीं भर पाते हैं। कर्ता एक गङ्ढे का काम करता है। परमात्मा के पास कोई गङ्ढा नहीं है, जिसमें कोई कर्म भर जाए। कर्ता नहीं है। परमात्मा की तो बात दूर, हममें से भी कोई अगर कर्ता न रह जाए, तो न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है। बात ही समाप्त हो गई। अच्छे और बुरे का खयाल तभी तक है, जब तक हमें भी खयाल है कि मैं कर्ता हूं।

मुझे निरंतर प्रीतिकर रही है एक घटना। कलकत्ते के एक मुहल्ले में एक नाटक चलता था। पुरानी बात है। एक बड़े बुद्धिमान आदमी विद्यासागर देखने गए हैं। सामने ही बैठे हैं। प्रतिष्ठित, नगर के जाने-माने पंडित हैं। सामने बैठे हैं। फिर नाटक कुछ ऐसा है, कथा कुछ ऐसी है कि उसमें एक पात्र है, जो एक स्त्री को निरंतर सता रहा है, परेशान कर रहा है। बढ़ती जाती है कहानी। उस स्त्री की परेशानी और उस आदमी के हमले और आक्रमण भी बढ़ते चले जाते हैं। और फिर एक दिन एक अंधेरी गली में उसने उस स्त्री को पकड़ ही लिया। बस, फिर बरदाश्त के बाहर हो गया विद्यासागर के। छलांग लगाकर मंच पर चढ़ गए, निकाला जूता और पीटने लगे उस आदमी को!

लेकिन उस आदमी ने विद्यासागर से भी ज्यादा बुद्धिमानी का परिचय दिया। उसने सिर झुकाकर उनका जूता सिर पर ले लिया। जूता हाथ में लेकर जनता से कहा कि इतना बड़ा पुरस्कार मुझे कभी नहीं मिला। मैं सोच नहीं सकता था कि विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी मेरे अभिनय को वास्तविक समझ लेगा!

विद्यासागर को तो पसीना छूट गया। खयाल आया कि नाटक देख रहे थे! नाटक था; कर्ता बन गए। दर्शक न रह पाए। भूल गए। समझा कि स्त्री की इज्जत जा रही है, तो बचाने कूद पड़े। बहुत उस आदमी से कहा, जूता वापस कर दो। माफ कर दो। उसने कहा, यह मेरा पुरस्कार है। इसे तो मैं घर में सम्हालकर रखूंगा। क्योंकि मैंने सोचा भी नहीं था कि इतना कुशल हो सकेगा मेरा अभिनय कि आप धोखे में आ जाएं।

क्या, हुआ क्या? विद्यासागर को बचाने का खयाल पकड़ गया। कर्ता आ गया कहीं से, सात्विक अहंकार। बुरा नहीं था, पायस ईगोइज्म। बड़ा शुद्ध अहंकार रहा होगा। लेकिन अहंकार कितना ही शुद्ध हो, जहर कितना ही शुद्ध हो, जहर ही है। शुद्ध जहर और खतरनाक है। आजकल तो मिलता नहीं शुद्ध जहर।

मैंने सुना है, एक आदमी ने जहर खा लिया और सो गया। सुबह पाया कि सब ठीक है। वापस गया। दुकानदार को उसने कहा कि कैसा जहर दिया? उसने कहा, भई हम क्या करें, अडल्ट्रेशन! जहर शुद्ध अब कहां मिलता है!

लेकिन अहंकार तो शुद्ध मिलता है। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, उनके पास शुद्ध अहंकार होता है। जिनको हम बुरे लोग कहते हैं, उनके पास अशुद्ध अहंकार होता है। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, हम चाहे कहें या न कहें, जो अपने को अच्छे लोग समझते हैं, उनके पास बड़ा सूक्ष्म और पैना अहंकार होता है। सूक्ष्म, सुई की तरह। पता भी नहीं चलता कि कहां पड़ा है, लेकिन चुभता रहता है।

विद्यासागर कूद पड़े। भीतर लगा होगा, बचाऊं। स्त्री की इज्जत चली जा रही है! लेकिन उस अभिनेता ने ठीक ही कहा। क्योंकि ये जूते अभिनय में नहीं पड़े थे; ये जूते तो वास्तविक पड़े थे एक अर्थ में। स्त्री को सताना तो अभिनय था, एक्टिंग था। लेकिन विद्यासागर के जूते जो अभिनेता को पड़े थे, ये तो वास्तविक थे। लेकिन उस अभिनेता ने इनको भी अभिनय में लिया। और उसने कहा कि बड़ी कृपा है कि पुरस्कार दिया। विद्यासागर अभिनय को वास्तविक समझ लिए, उसने वास्तविक को भी अभिनय माना। इसलिए फिर जूते का लगना बुरा और भला न रहा। और विद्यासागर के बाबत निर्णय लेने की कोई जरूरत न रही कि उन्होंने बुरा किया कि अच्छा किया।

जहां कर्ता है, वहां शुभ और अशुभ पैदा होते हैं। जहां कर्ता नहीं, वहां शुभ और अशुभ पैदा नहीं होते हैं। कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा तक हमारे शुभ और अशुभ कुछ भी नहीं पहुंचते। हम ही परेशान हैं, अपनी ही माया में।

यह माया क्या है जिसमें हम परेशान हैं? इस माया शब्द को थोड़ा वैज्ञानिक रूप से समझना जरूरी है।

अंग्रेजी में एक शब्द है, हिप्नोसिस। मैं माया का अर्थ हिप्नोसिस करता हूं, सम्मोहन। माया का अर्थ इलूजन नहीं करता, माया का अर्थ भ्रम नहीं है। माया का अर्थ है, सम्मोहन। माया का अर्थ है, हिप्नोटाइज्ड हो जाना।

कभी आपने अगर किसी हिप्नोटिस्ट को देखा है, मैक्स कोली या किसी को देखा है; नहीं तो घर में छोटा-मोटा प्रयोग खुद भी कर सकते हैं, तो आपकी समझ में आएगा कि माया क्या है।

अगर एक व्यक्ति सुझाव देकर, सजेशन देकर बेहोश कर दिया जाए, और कोई भी सहयोग करे तो बेहोश हो जाता है। घर जाकर प्रयोग करके देखें। अगर पत्नी आपकी मानती हो–जिसकी संभावना बहुत कम है–तो उसे लिटा दें और सुझाव दें कि तू बेहोश हो रही है। और सहयोग कर। और अगर न मानती हो, तो खुद लेट जाएं और उससे कहें कि तू मुझको सुझाव दे–जिसकी संभावना ज्यादा है–और मानें। पांच-सात मिनट में आप बेहोश हो जाएंगे। या जिसको आप बेहोश करना चाहते हैं, वह बेहोश हो जाएगा। इंडयूस्ड स्लीप पैदा हो जाएगी। पैदा की हुई नींद में चले जाएंगे। उस नींद में चेतन मन खो जाता है, अचेतन मन रह जाता है।

मन के दो हिस्से हैं। चेतन बहुत छोटा-सा हिस्सा है, दसवां भाग। अचेतन, अनकांशस नौ हिस्से का नाम है; और एक हिस्सा चेतन है। जैसे बर्फ के टुकड़े को पानी में डाल दें, तो जितना ऊपर रहता है, उतना चेतन; और जितना नीचे डूब जाता है, उतना अचेतन। नौ हिस्से भीतर अंधेरे में पड़े हैं। एक हिस्सा भर थोड़ा-सा होश में भरा हुआ है। सुझाव से वह एक हिस्सा भी नीचे डूब जाता है। बरफ का टुकड़ा पूरा पानी में डूब जाता है।

अचेतन मन की एक खूबी है कि वह तर्क नहीं करता, विचार नहीं करता, सोच नहीं करता। जो भी कहा जाए, उसे मानता है। बस, मान लेता है। बड़ा श्रद्धालु है! जो बेहोश हो गया, उससे अब आप कुछ भी कहिए। उससे आप कहिए कि अब तुम आदमी नहीं हो, घोड़े हो गए। घोड़े की आवाज करो! तो वह हिनहिनाने लगेगा। उसका मन मान लेता है कि मैं घोड़ा हो गया। अब उसको खयाल भी नहीं रहा कि वह आदमी है। वह घोड़े की तरह हिनहिनाने लगेगा। उसके मुंह में प्याज डाल दो और कहना कि यह बहुत सुगंधित मिठाई का टुकड़ा डाल रहे हैं। वह प्याज की दुर्गंध उसे नहीं आएगी, उसे सुगंधित मिठाई मालूम पड़ेगी। वह बड़े रस से लेगा और कहेगा, बहुत मीठी है, बड़ी सुगंधित है।

अचेतन मन में हमारे, मूर्च्छित मन में हमारे, कुछ भी हो जाने की संभावना है। जो भी हम होना चाहें, वह हम हो जा सकते हैं। यह तो आपने कोशिश करके सम्मोहन पैदा किया, लेकिन जन्म के साथ हम अनंत जन्मों के सजेशन साथ लेकर आते हैं। उनका एक गहरा सम्मोहन हमारे पीछे अचेतन में दबा रहता है। अनंत जन्मों में हम जो संस्कार इकट्ठे करते हैं, वे हमारे अनकांशस माइंड में, अचेतन मन में इकट्ठे हैं। वे इकट्ठे संस्कार भीतर से धक्का देते रहते हैं। हमसे कहते रहते हैं, यह करो, यह करो। यह हो जाओ, यह हो जाओ, यह बन जाओ। वे हमारे भीतर से हमें पूरे समय धक्का दे रहे हैं।

जब आप क्रोध से भरते हैं, तो आपने कई बार तय किया है कि अब दुबारा क्रोध नहीं करूंगा। लेकिन फिर जब क्रोध का मौका आता है, तो सब भूल जाते हैं कि वह तय किया हुआ क्या हुआ! फिर क्रोध आ जाता है। फिर तय करते हैं, अब क्रोध नहीं करूंगा। शर्म भी नहीं खाते कि अब तय नहीं करना चाहिए। कितनी बार तय कर चुके! अब कम से कम तय करना ही छोड़ो। फिर तय करते हैं कि अब क्रोध नहीं करेंगे। फिर कल सुबह!

आदमी की स्मृति बड़ी कमजोर है। वह भूल जाता है, कितनी दफे तय कर चुका। अब तो मुझे खोजना चाहिए कि तय कर लेता हूं, फिर भी करता हूं, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि आपके अचेतन से क्रोध आता है और निर्णय तो चेतन में होता है। तो चेतन का निर्णय काम नहीं करता। ऊपर-ऊपर निर्णय होता है, भीतर तो जन्मों का क्रोध भरा है। जब वह फूटता है, सब निर्णय वगैरह दो कौड़ी के अलग हट जाते हैं, वह फूटकर बाहर आ जाता है। वह सम्मोहित क्रोध है; वह माया है।

कितनी बार तय किया है कि ब्रह्मचर्य से रहेंगे! लेकिन वह सब बह जाता, वह कहीं बचता नहीं। जन्मों-जन्मों की यात्रा में कामवासना गहरी होती चली गई है, वह बड़ी भीतर बैठ गई है, वह सम्मोहक है।

मैं एक युवक पर प्रयोग कर रहा था। उसे मैंने बेहोश किया। और मैंने उसे बेहोशी में पोस्ट-हिप्नोटिक सजेशन के लिए कहा कि जब तू होश में आ जाएगा, तब यह जो तकिया रखा हुआ है तेरे पास, तू इसे बिना छाती से लगाए, बिना चूमे नहीं रहेगा, इसका तू चुंबन लेकर रहेगा। यह बड़ा प्यारा तकिया है। इससे ज्यादा सुंदर न तो कोई स्त्री है पृथ्वी पर, न कोई पुरुष है। यह मैंने उसे बेहोशी में कहा। मान लिया उसने। उसने तकिए पर हाथ फिराकर देखा। मैंने कहा, देखता है कितनी सुकोमल त्वचा है इसकी! इस तकिए की चमड़ी कितनी सुकोमल है! उसने कहा, हां, बहुत सुकोमल है। कितनी गुदगुदी है! उसने कहा, बहुत गुदगुदी है। मैंने कहा, होश में आने के बीस मिनट बाद तू रुक न सकेगा। इस तकिए को छाती से लगाकर रहेगा और चुंबन भी लेगा।

फिर उसे होश में ला दिया गया। दस-पांच मित्र बैठकर इसको देखते थे। फिर वह होश में आ गया, सब बातचीत करने लगा। सब तरह से सब दस मित्रों ने जांच कर ली कि वह बराबर होश में आ गया है। बाथरूम गया; लौटकर आया। उससे एक गणित करवाया; उसने जोड़ करके बताया। किताब पढ़वाई। किताब पढ़कर उसने बताई। उसने कहा, यह सब क्या करवा रहे हैं! वह बिलकुल होश में है। लेकिन बस, अठारह मिनट के बाद, जैसे बीस मिनट करीब घड़ी आने लगी, उसकी बेचैनी बढ़ने लगी और माथे पर पसीना आने लगा। वही पसीना, जो कोई पुरुष किसी स्त्री के सामने प्रेम निवेदन करते वक्त अनुभव करता है। अब वह तकिए से जुड़ गया है अचेतन में।

अब हम सारे लोग, और वह तकिया मेरे पीछे रखा है, वे सज्जन मेरे बगल में बैठे हैं। लेकिन अब उनका किसी में रस नहीं है। वे चोरी-चोरी से उस तकिए को बार-बार देखने लगे हैं! वैसे ही जैसे कि कोई किसी के प्रेम की माया में पड़ता है, तो सारी दुनिया बैठी रहे, कोई नहीं दिखाई पड़ता! सम्मोहन है। बिलकुल अचेतन की बेहोशी है।

मैंने तकिया और दूर हटा दिया। जब मैंने तकिया छुआ, तो उसको वैसी ही चोट लगी, जैसे कोई किसी की प्रेयसी को छू दे। उसके चेहरे पर सारा भाव झलक गया। फिर मैं उठा, और जैसे ही बीस मिनट करीब आने को थे, मैं तकिए को उठाकर जाकर अलमारी में बंद करने लगा। वह भागा हुआ मेरे पास आया और बिलकुल होश के बाहर उसने तकिया छीना, चूमा और छाती से लगाया।

सारे लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? वह रोने लगा। उसने कहा, मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या कर रहा हूं। लेकिन अब मुझे बड़ी राहत, बड़ी रिलीफ मिली। कुछ ऐसी बेचैनी हो रही थी कि इसको बिना किए रुक ही नहीं सकता; इस तकिए को छाती से लगाना ही पड़े। मैं बिलकुल पागल हूं!

उसे कुछ पता नहीं कि बेहोशी में उसे क्या कहा गया है।

क्या स्त्री और पुरुष के बीच जो आकर्षण है, वह ऐसा ही नहीं है! लेकिन किसी ने आपको सम्मोहित नहीं किया। आप ही सम्मोहित हैं अनंत जन्मों की यात्रा से। प्रकृति का ही सम्मोहन है। इसको माया–पुराना शब्द है इसके लिए माया, नया शब्द है हिप्नोसिस।

माया से आवृत, अपने ही चक्कर में डूबा हुआ आदमी भटकता रहता है स्वप्न में। एक ड्रीमलैंड बनाया हुआ है अपना-अपना। खोए हैं अपने-अपने सपनों में। कोई पैसे से सम्मोहित है। तो देखें, जब पैसा वह देखता है, तो कैसे उसके प्राण! छोटे-मोटे लोगों की बात छोड़ दें। जो पैसे के बड़े त्यागी मालूम पड़ते हैं, उनको भी अगर बहुत गौर से देखें, तो पाएंगे कि वे हिप्नोटाइज्ड हैं पैसे से।

अभी खान अब्दुल गफ्फार उर्फ सरहदी गांधी भारत होकर गए। वे तो गांधीजी के प्रतिनिधि आदमी हैं। लेकिन अभी उनकी कमेटी के आदमी ने खबर दी है, टी.एन.सिंह ने, कि वह रात जो दिन में उनको थैली मिलती थी, जब थैली मिलती थी, तब तो वे ऐसा दिखाते थे कि कोई बात नहीं; लेकिन रात दरवाजा बंद करके दो बजे रात तक रुपया गिनते थे! उस आदमी ने लिखा है कि मैं तो जब उनको पहली दफे दिल्ली के एयर पोर्ट पर स्वागत करने गया था–रिसेप्शन कमेटी का आदमी है–तो जब मैंने उन्हें पोटली हाथ में दबाए हुए उतरते देखा, तो मेरे हृदय में बड़ा भाव उठा था कि कितना सीधा-सादा आदमी है। लेकिन जब रात मैंने दो-दो तीनत्तीन बजे तक उन्हें दरवाजा बंद करके रुपए गिनते देखा, तब मुझे बड़ी हैरानी हुई कि क्या बात है!

जब वे गए, तब भी पोटली उनके हाथ में थी। वही पोटली, जिसे लेकर वे आए थे। दिल्ली के एयर पोर्ट पर तब भी वही पोटली थी विदा करने वालों को। लेकिन टी.एन.सिंह ने कहा कि लेकिन तब मुझे धोखा नहीं हो सका, क्योंकि बाईस सूटकेस एयर पोर्ट पर थे, जो पीछे आ रहे थे। और अस्सी लाख का वायदा किया था उनको उनके मित्रों ने, कि भारत से भेंट करेंगे। लेकिन चालीस लाख ही हो पाया, इसलिए बड़े नाराज गए कि सिर्फ चालीस लाख!

आदमी की पकड़ बड़ी हैरानी की है! त्याग भी करता हुआ दिखाई पड़ता हुआ आदमी जरूर नहीं कि हिप्नोसिस के बाहर हो। त्याग भी एंटी हिप्नोटिक हो सकता है, वह भी सम्मोहन का ही विपरीत वर्ग हो सकता है। अक्सर ऐसा होता है। पैसे को पकड़ने वाले, पैसे को छोड़ने वाले–सम्मोहित होते हैं। शरीर को पकड़ने वाले, शरीर को छोड़ने वाले–सम्मोहित होते हैं।

सम्मोहन के बाहर जो जाग जाता है, एक अवेकनिंग, होश से भर जाता है कि यह सब प्रकृति का खेल है और इस खेल में मैं इतना लीन होकर डूब जाऊं, तो पागल हूं। और एक-एक इंच पर जागने लगता है। तो जब वह किसी स्त्री से या किसी पुरुष से आकर्षित होकर उसके हाथ को छूता है, तब जानता है कि यह शरीर और शरीर का कोई आंतरिक आकर्षण मालूम होता है। मैं दूर खड़े होकर देखता रहूं।

कभी इसको प्रयोग करके देखें। कभी अपनी प्रेयसी के हाथ में हाथ रखकर आंख बंद करके साक्षी रह जाएं कि हाथ में हाथ मैं नहीं रखे हूं; हाथ ही हाथ पर पड़ा है। और तब थोड़ी देर में सिवाय पसीने के हाथ में कुछ भी नहीं रह जाएगा। लेकिन अगर सम्मोहन रहा, तो पसीने में भी सुगंध आती है! कवियों से पूछें न।

हमारी पृथ्वी पर कवियों से ज्यादा हिप्नोटाइज्ड आदमी खोजना मुश्किल है। वे पसीने में भी गुलाब के इत्र को खोज लेते हैं! आंखों में कमल खोज लेते हैं! पैरों में कमल खोज लेते हैं। पागलपन की भी कुछ हद होती है। सम्मोहित! क्या-क्या खोज लेते हैं! जो कहीं नहीं है, वह सब उन्हें दिखाई पड़ने लगता है उनकी हिप्नोसिस में, उनके भीतर के सम्मोहन में। ऐसा भी नहीं है कि उनको दिखाई नहीं पड़ता। उनको दिखाई पड़ने लगता है। प्रोजेक्शन शुरू हो जाता है।

किसी के प्रेम में अगर आप गिरे हों, तो पता होगा कि कैसा प्रोजेक्शन शुरू होता है। दिनभर उसी का नाम गूंजने लगता है। किसी के भी पैर की आहट सुनाई पड़े, पता लगता है, वही आ रहा है। कोई दरवाजा खटखटा दे, लगता है कि उसी की खबर आ गई। हवा दरवाजा खटखटा जाए, तो लगता है कि पोस्टमैन आ गया, चिट्ठी आ गई।

फिर जब डिसइलूजनमेंट होता है, प्रेम जा चुका होता है, सम्मोहन टूट जाता है, तब? तब उस आदमी की शकल देखने जैसी भी नहीं लगती। तब वह रास्ते पर मिल जाए, तो ऐसा लगता है, कैसे बचकर निकल जाएं! क्या हो जाता है? वही आदमी है! उसी के पदचाप संगीत से मधुर मालूम होते थे। उसी के पदचाप आज सुनने में अत्यंत कर्णकटु हो गए! उसी के शब्द ओंठों से निकलते थे, तो लगता था, अमृत में भीगकर आते हैं। आज उसके ओंठों से सिवाय जहर के कुछ और मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता है। उसी की आंखें कल गिरती थीं, तो लगता था कि आशीर्वाद बरस रहे हैं। आज उसकी आंखों में सिवाय तिरस्कार और घृणा के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हो क्या गया? वही आंख है, वही आदमी है। भीतर की हिप्नोसिस उखड़ गई। भीतर का सम्मोहन उखड़ गया, टूट गया, विजड़ित हो गया।

कृष्ण कहते हैं, प्रकृति की माया, प्रकृति की हिप्नोसिस में डूबा हुआ आदमी अपने ही अच्छे और बुरे के सोच-विचार में भटकता रहता है।

समझें, एक रात आपने सपना देखा कि चोरी की है। और एक रात आपने सपना देखा कि साधु हो गए हैं। सुबह जब उठते हैं, तो क्या चोरी का जो सपना था, वह बुरा; और साधु का जो सपना था, वह अच्छा! सुबह जागकर दोनों सपने हो जाते हैं। न कुछ अच्छा रह जाता है, न बुरा रह जाता है। दोनों सपने हो जाते हैं।

संत उसे ही कहते हैं, जो अच्छे और बुरे दोनों के सपने के बाहर आ गया। और जो कहता है कि वह भी सपना है, यह भी सपना है। बुरा भी, अच्छा भी, दोनों सम्मोहन हैं।

इस सम्मोहन से कोई जाग जाए, तो ही–तो ही केवल–जीवन में वह परम घटना घटती है, जिसकी ओर कृष्ण इशारा कर रहे हैं।

प्रश्न:

भगवान श्री, माया और परमात्मा में क्या भिन्नता है? माया से ज्ञान कैसे व क्यों ढंकता है?

माया और परमात्मा में क्या भिन्नता है?

जो माया में डूबे हैं, उन्हें तो बड़ी भिन्नता है। जैसे जो रात सपने में डूबा है, उसे तो सपने में और जागने में बड़ी भिन्नता है। लेकिन जो जाग गया, उसे सपने में और जागने में भिन्नता नहीं होती, क्योंकि जागकर सपना बचता ही नहीं। भिन्नता किससे? इसको ठीक से समझ लें।

एक रस्सी पड़ी है और मुझे सांप दिखाई पड़ रहा है। तो जब तक मुझे सांप दिखाई पड़ रहा है, तब तक तो रस्सी और सांप में बड़ी भिन्नता है। क्योंकि रस्सी को देखकर मैं भागूंगा नहीं, सांप को देखकर भागूंगा। रस्सी को देखकर डरूंगा नहीं, सांप को देखकर डरूंगा। रस्सी को देखकर मारने की तैयारी नहीं करूंगा, सांप को देखकर मारने की तैयारी करूंगा। सांप पैर पर पड़ जाए, तो मर भी जा सकता हूं। रस्सी पैर पर पड़ जाए, तो मरने का कोई सवाल ही नहीं है।

जिस आदमी को अंधेरे में रस्सी सांप जैसी दिखाई पड़ रही है, उससे अगर आप कहो कि रस्सी और सांप सब एक हैं; बेफिक्री से जा। तो वह कहेगा, माफ करो। रस्सी और सांप एक नहीं हैं! रस्सी भी सांप दिखाई पड़ रही हो, तो भी उसके लिए तो सांप ही है।

सांपों का जो लोग अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि सत्तानबे परसेंट सांप में जहर ही नहीं होता। सिर्फ सौ में तीन सांपों में जहर होता है। लेकिन जिन सांपों में जहर नहीं होता, उनके काटे हुए लोग भी मर जाते हैं। अब जहर होता ही नहीं, तो बड़ा चमत्कार है। जब जहर नहीं है, तो यह आदमी काटने से मर क्यों गया?

आदमी सांप के जहर से कम मरता है। सांप ने काटा, इस सम्मोहन से मरता है। इसीलिए तो जहर उतारने वाले जहर उतार देते हैं। जहर वगैरह कोई नहीं उतारता। अगर सांप बिना जहर का रहा, तो मंत्र वगैरह काम कर जाते हैं। और सत्तानबे परसेंट सांप बिना जहर के हैं। इसलिए बड़ी आसानी से उतर जाता है। कठिनाई नहीं पड़ती। इतना भरोसा भर दिलाना है कि उतार दिया। चढ़ा तो था ही नहीं! उतर जाता है! लेकिन जरूरी नहीं है कि न उतारा, तो नहीं मरता आदमी। आदमी मर सकता था। इसलिए काम तो पूरा हुआ, आदमी को बचाया तो है ही।

इसलिए मैं मंत्र के खिलाफ में नहीं हूं। जब तक नकली सांप से मरने वाले लोग हैं, तब तक नकली मंत्र से जिलाने वाले लोगों की जरूरत रहेगी। जरूरत है। रस्सी पर भी पैर पड़ जाए और अगर आपको खयाल है कि सांप है, तो मौत हो सकती है। आपके लिए फर्क है।

मैंने सुना है, एक गांव में एक फकीर रहता है गांव के बाहर। और एक काली छाया अंदर जा रही है। उस फकीर ने पूछा, तू कौन है? उसने कहा, मैं मौत हूं। तू इस गांव में किसलिए जा रही है? उसने कहा कि गांव में प्लेग आ रही है और मुझे दस हजार आदमी मारने हैं!

महीनेभर में कोई पचास हजार आदमी मर गए। फकीर ने कहा, हद हो गई! आदमी झूठ बोलते हैं, बोलते हैं; लेकिन मौत भी झूठ बोलने लगी! अब तो परमात्मा का भी भरोसा करना ठीक नहीं है। पता नहीं, वह भी झूठ बोलने लगा हो!

जागता रहा कि कब लौटे, तो पकडूं। एक रात मौत वापस लौटती थी। कहा, ठहर। हद हो गई! इतना झूठ! मुझसे कहा, दस हजार लोग मारने हैं। पचास हजार तो मर चुके! उस मौत ने कहा, मैंने दस हजार मारे हैं; बाकी अपने आप मर गए। बाकी घबड़ाहट में मर गए। मेरा कोई हाथ नहीं है। बाकी यह समझकर कि प्लेग आई, मर गए। दस हजार मारकर मैं जा रही हूं, बाकी चालीस हजार अपने आप मरे हैं। और आगे भी मरें, तो मेरा कोई जिम्मा नहीं है।

रस्सी और सांप एक नहीं हैं उसे, जिसे रस्सी सांप दिखाई पड़ रही है। जगत जिन्हें दिखाई पड़ रहा है अभी, उनसे यह कहना कि माया और परमात्मा एक हैं, बड़ा कठिन है समझना। कैसे एक हो सकते हैं? एक नहीं हैं।

जगत दिखाई पड़ रहा है, तब तक परमात्मा है ही नहीं। एक का सवाल कहां है! माया ही है। नींद है गहरी; वही है। जिस दिन नींद से कोई जागता है, तो परमात्मा ही बचता है, जगत नहीं बचता।

इसलिए एक बहुत कठिन पहेली है यह। बहुत कठिन पहेली है। पहेली इसलिए कठिन है कि जिन लोगों ने जाना, उन्होंने कहा, परमात्मा ही है, जगत नहीं है। पर हम, जो जानते हैं, जगत है, उनसे पूछते ही गए कि कुछ तो बताओ! जगत है तो ही। शंकर कहते हैं कि जगत माया है। माया मतलब, नहीं है। पर हम पूछते हैं, हम कैसे मान लें कि माया है। पैर में कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है!

योरोप में एक विचारक हुआ, इंग्लैंड में, बर्कले। वह भी कहता था शंकर की तरह कि सब जगत इलूजन है, एपियरेंस है, दिखावा है, कुछ है नहीं। वह डाक्टर जानसन के साथ एक दिन सुबह घूमने निकला। और उसने डाक्टर जानसन से भी कहा कि सब जगत माया है।

जानसन बहुत यथार्थवादी। उसने एक पत्थर उठाकर बर्कले के पैर पर पटक दिया। लहूलुहान हो गया पैर। बर्कले पैर पकड़कर बैठ गए। जानसन खड़ा है बगल में। वह कहता है कि जब सब माया है, तो पैर किसलिए पकड़कर बैठे हो! पत्थर है ही नहीं।

शंकर से लोग पूछते हैं कि जगत माया है, कैसे मानें? तुम भी तो भिक्षा मांगते हो। भूख लगती है। खाना भी खाते हो। सोते भी हो। कैसे मानें? शंकर का वश चले, तो शंकर कहें, जगत है ही नहीं। लेकिन लोग, जिनसे उन्हें बात करनी है, वे कहते हैं, जगत है। परमात्मा नहीं है तुम्हारा। कहीं दिखाई नहीं पड़ता! जगत तो दिखाई पड़ता है। उलटी बातें कहते हो। जो है, उसको कहते हो, नहीं है। और जो नहीं है, उसको कहते हो, है। तो शंकर क्या कहें? शंकर कहते हैं, परमात्मा तो है। यह जगत नहीं है, लेकिन तुम्हें दिखाई पड़ता है।

माया का अर्थ है, जो नहीं है और दिखाई पड़ता है। जिस दिन तुम जानोगे उसे, जो है, उस दिन जो दिखाई पड़ता था और नहीं था, वह खो जाएगा, तिरोहित हो जाएगा। संबंध कभी जोड़ना नहीं पड़ेगा।

जब तक जगत है, जगत है; परमात्मा नहीं है। संबंध का कोई सवाल नहीं है। जिस दिन परमात्मा होता है, परमात्मा ही होता है; जगत नहीं होता। संबंध का कोई सवाल नहीं है।

इसलिए परमात्मा और माया के बीच कोई भी संबंध नहीं है, रिलेटेड नहीं हैं। संबंध हो नहीं सकता। एक सत्य और एक असत्य के बीच संबंध हो कैसे सकता है? नदी पर अगर हमें एक ब्रिज बनाना हो, एक सेतु, एक पुल बनाना हो; एक किनारा सच हो और दूसरा किनारा झूठ हो, पुल बना सकते हैं आप? कैसे बनाइएगा पुल? सच्चे किनारे पर एक हिस्सा पुल का रख जाएगा, पर दूसरे हिस्से को कहां रखिएगा? और अगर दूसरा हिस्सा झूठ पर भी रखा जा सकता है, तो फिर सच का भी शक हो जाएगा।

माया और ब्रह्म दोनों कभी आमने-सामने खड़े नहीं होते किसी मनुष्य के अनुभव में, लेकिन इस तरह के मनुष्य आमने-सामने खड़े हो जाते हैं, एक का अनुभव ब्रह्म का और एक का अनुभव माया का। वे आमने-सामने बातचीत करते हैं। तब इन दो शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। वह जो ब्रह्म को जानता है, उसे मानना तो पड़ता है कि जगत है, क्योंकि सामने वाला कह रहा है कि है। इस चर्चा को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, अगर वह कह दे कि नहीं ही है। तब भी सामने वाला कहेगा कि जिसको तुम इतने जोर से कहते हो, नहीं है, वह कुछ तो होना चाहिए, नहीं तो इतने जोर की जरूरत क्या है? जब तुम कहते हो, नहीं है, तो तुम किस चीज को कह रहे हो कि नहीं है। किसी चीज को तो नहीं कह रहे हो! मान लो, नहीं है जगत; लेकिन जिससे कह रहे हो, वह तो है! यह कठिनाई है।

संसार और सत्य, माया और ब्रह्म, आमने-सामने एनकाउंटर उनका कभी होता नहीं। उनका कभी कोई मिलन नहीं होता। उनके बीच कोई संबंध नहीं है। माया का मतलब ही है कि जो नहीं है और दिखाई पड़ता है।

सांप दिखाई पड़ रहा है और नहीं है; रस्सी है। अब बड़ी कठिनाई है कि वह कहां से आ रहा है! क्यों दिखाई पड़ रहा है! कृष्ण कहेंगे, वह तुम्हारा प्रोजेक्शन है, तुम्हारी माया है। तुमने ही किसी भय के क्षण में, डर के क्षण में रस्सी को सांप समझ लिया है। वहां कहीं है नहीं।

रस्सी और सांप के बीच क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं है। क्योंकि जो उठा लेगा जाकर रस्सी, देखेगा, रस्सी है, उसके लिए सांप खो गया। संबंध कैसे बनाएगा? जिसको रस्सी नहीं दिखाई पड़ती, सांप दिखाई पड़ता है, उसके पास रस्सी नहीं है। संबंध कैसे बनाएगा?

ब्रह्म और माया के बीच कोई भी संबंध नहीं है। माया है ही नहीं सिवाय प्रोजेक्शन के, प्रक्षेपण के। मन की कल्पनाओं की क्षमता है कि हम फैलाव कर लेते हैं। फैलाव बड़ा कर ले सकते हैं। इतना फैल सकता है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। उसमें हम जीते हैं।

एक छोटी-सी कहानी और आज की बात मैं पूरी करूं।

हमारा सपना कितनी ही बार टूटे, हम फिर सम्हाल लेते हैं। रोज टूटता है। सुबह टूटता है, दोपहर टूटता है, सांझ टूटता है, हम फिर थेगड़े लगा लेते हैं। हम बड़े कुशल कारीगर हैं अपने सपने में थेगड़े लगाने में। एक इच्छा हार जाती है, कुछ नहीं पाते। तत्काल दूसरी इच्छा निर्मित कर लेते हैं। कारण खोज लेते हैं, इसलिए हार हो गई! अगली बार ऐसा नहीं होगा। एक आशा खंडित हो जाती है, दूसरी आशा तत्काल निर्मित कर लेते हैं। जिंदगी रोज, यथार्थ रोज हमारे प्रोजेक्शन को तोड़ता है, लेकिन हम बनाए चले जाते हैं, निर्मित किए चले जाते हैं!

मैंने सुना है, सांझ एक धनपति अपने दरवाजे को बंद करने के ही करीब है कि उसके चपरासी ने फिर भीतर आकर कहा कि सुनिए, चौबीस, दो दर्जन बीमा एजेंटों को हम आज दिनभर में बाहर निकाल चुके हैं। पच्चीसवां हाजिर है। कहता है, भीतर आने दें। चौबीस लोगों को भगाया जा चुका है। उस धनपति को भी दया आ गई। उसने कहा, अच्छा, उस पच्चीसवें को आ जाने दो। अब दरवाजा बंद ही होने के करीब है।

वह अंदर आया। धनपति ने उसे देखा और कहा कि तुम सौभाग्यशाली हो। क्योंकि चौबीस, दो दर्जन बीमा एजेंट आज मैं दरवाजे के बाहर से ही भगा चुका हूं। तुम्हें पता है! तुम सौभाग्यशाली हो। तुम्हें भीतर आने दिया। उस आदमी ने कहा कि आई नो वेरी वेल सर, बिकाज आई एम देम! मुझे अच्छी तरह पता है, क्योंकि वे चौबीस आदमी मैं ही हूं।

वह आदमी चौबीस दफे आ चुका है दिनभर में। वह एक ही आदमी है। मुझे भलीभांति पता है, वह मैं ही हूं। मालिक तो हैरान हो गया। उसने कहा, चकित करते हो तुम। तुम अभी तक थके नहीं? उस बीमा एजेंट ने कहा कि कौन कब थकता है?

कोई थकता नहीं। कितनी ही आशाएं निराशाएं हों, फिर भी लगता है कि शायद एक मौका और! एक बार और! जाल को हम फैलाए चले जाते हैं। मौत भी सामने आ जाए, तो भी हम मौत के पार प्रोजेक्शन को फैलाए चले जाते हैं। मरता हुआ आदमी सोचता है, गाय को दान कर दें, स्वर्ग में इंतजाम हो जाएगा। प्रोजेक्शन फैला रहे हैं अभी भी। मौत दरवाजे पर खड़ी है, लेकिन उनकी फिल्म का प्रोजेक्टर अभी भी काम कर रहा है। वह बंद नहीं हो रहा है। वे अभी फैलाए चले जा रहे हैं! वे सोच रहे हैं कि चार आने किसी ब्राह्मण को दे दें, तो भगवान को बता सकेंगे कि चार आने एक ब्राह्मण को दिए थे, जरा अच्छी-सी जगह! और अगर आपके मकान में ही हो सके, तो बहुत अच्छा है। यहीं ठहरा लें!

लंदन में, लंदन यूनिवर्सिटी का मेडिकल हास्पिटल है। हर तीन महीने में वहां एक अजीब घटना घटती है। उस हास्पिटल की हर तीन महीने में ट्रस्टीज की बैठक होती है।

अगर कभी आप उस बैठक को देखें, तो बहुत हैरान होंगे। थोड़ी देर में चकित हो जाएंगे। आप देखेंगे कि प्रेसिडेंट की जगह जो आदमी प्रेसिडेंट की चेयर पर बैठा हुआ है, कुर्सी पर बैठा हुआ है अध्यक्ष की, न तो हिलता, न तो डुलता, न उसकी पुतली हिलती। बहुत हैरान होंगे। थोड़ी देर में आपको शक होगा कि वह आदमी जिंदा है या मरा हुआ! जब आप पास जाएंगे, तो पाएंगे, वह तो मुर्दा है। लाश रखी है सौ साल से!

जरेमी बैंथम नाम के आदमी ने वह हास्पिटल बनाया था। फिर वह अपनी वसीयत में लिख गया कि यह मैं मरने के बाद भी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मैं अस्पताल बनाऊं और अध्यक्षता कोई और करे। इसलिए मेरी लाश को यहां रखना। और मैं ही अध्यक्षता करूंगा, जब भी ट्रस्टीज की बैठक होगी। प्रेसिडेंट मैं ही रहूंगा।

तो अभी भी उसकी लाश रखी हुई है। सामने प्रेसिडेंट की तख्ती उसके रखी रहती है। हर बार जब ट्रस्टीज की बैठक पूरी होती है और किसी मसले पर वोटिंग होती है, तो उनको लिखना पड़ता है, दि प्रेसिडेंट इज़ प्रेजेंट, बट नाट वोटिंग। मौजूद हैं सभापति, लेकिन वोट नहीं कर रहे हैं! यह सौ साल से चल रहा है।

आदमी का पागलपन! ऐसा हमारा सारा मन है। इसको हम फैलाए चले जाते हैं। इस मन से जागे बिना कोई प्रभु की यात्रा पर नहीं निकला है।

आज इतना। लेकिन पांच मिनट बैठे रहेंगे। मुर्दा आदमी बैठे हैं, तो जिंदा आदमी को तो बैठे रहना चाहिए। इट मैटर्स नाट इफ यू डोंट वोट, मगर बैठें! कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जो वोट कर सकते हों, वे ताली बजाएं और भजन में साथ दें।
आज इतना ही।


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अष्‍टावक्र महागीता–(भाग–4) प्रवचन–13

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संन्‍यास—सहज होने की प्रक्रिया—प्रवचन—तैरहवां

दिनांक 8 दिसंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

आपने संन्यास देते ही मुक्त करने की बात कही, लेकिन मुक्त होते ही संन्यासी का जीवन आमूल रूप से परिवर्तित क्यों नहीं हो पाता है? हालत ऐसी है कि संन्यास के बाद भी वह अपनी पुरानी मनोदशा में ही जीता है। कभी—कभी तो सामान्य सतह से भी नीचे गिर जाता है। मुक्ति का सुवास उसे तत्‍क्षण एक ईमानदार महामानव क्यों नहीं बना पाता? क्या इससे ‘संचित’ का संकेत नहीं मिलता कि सब कुछ पूर्व—कर्म से बंधा है, नीयत है?

पहली बात मैंने कहा, मैं संन्यास देते ही तुम्हें मुक्त कर देता हूं;

मैंने यह नहीं कहा कि तुम मुक्त हो जाते हो। मेरे मुक्त करने से तुम कैसे मुक्त हो जाओगे? मेरी घोषणा के साथ जब तक तुम्हारा सहयोग न हो, तुम मुक्त न हो पाओगे। तुमने अगर अपने बंधनों में ही प्रेम बना रखा है और जंजीरें तुम्हें आभूषण मालूम होने लगी हैं और कारागृह को तुम घर समझते हो, तो मैंने कह दिया कि तुम मुक्त हो गये, लेकिन इससे तुम खुले आकाश के नीचे न आ जाओगे। मेरी घोषणा काफी नहीं है; तुम्हारा सहयोग जरूरी है।

मेरी तरफ से तो तुम मुक्त ही हो। मेरी तरफ से तो कोई व्यक्ति अमुक्त है ही नहीं, अमुक्त हो ही नहीं सकता। अमुक्ति एक स्वप्न है; आंख खोलने की बात है, समाप्त हो जायेगा। लेकिन तुम मेरी घोषणा मात्र से मुक्त नहीं हो जाते। तुम नये—नये बहाने खोजते हो।

अब तुम यह बहाना खोज रहे हो कि क्या इससे ‘संचित’ का संकेत नहीं मिलता कि सब कुछ पूर्व—कर्म से बंधा है, नियत है?

तुम चाहते हो किसी तरह तुम अपनी जिम्मेवारी, अपना दायित्व टाल दो; तुम कह दो, ‘हमारे किए क्या होगा! सब बंधा हुआ है।’ तुम बचना चाहते हो। तुम सहयोग तक करने से बचना चाहते हो। तुम आंख तक खोलने से बचना चाहते हो। तुम अपनी बंद आंख के लिए हजार बहाने खोजते हो।

प्रश्न महत्वपूर्ण है, सभी के काम का है. ‘ आपने संन्यास देते ही मुक्त करने की बात कही……।’ मैं इसीलिए कहता हूं कि मैंने मुक्त कर दिया, क्योंकि तुम मुक्त हो, मेरे किए से नहीं मुक्त हो जाते। मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है। मैं तुम्हारे स्वभाव की घोषणा कर रहा हूं। तुम मेरे वक्तव्य को गलत मत समझ लेना। तुम यह मत समझ लेना कि मैं तुम्हें मुक्त कर रहा हूं। मुक्त तो तुम थे ही, भूल गये थे, याद दिला दी।

सदगुरु सिवाय स्मरण दिलाने के और कुछ भी नहीं करता है। जो तुम्हारा है वही तुम्हें दे देता है। जो तुमने मान रखा था, जगा देता है और कह देता है मान्यता थी, भ्रम था, झूठ था। तुमने रस्सी में सांप देख लिया था, मैं दीया ले कर तुम्हारे पास खड़ा हूं; कहता हूं गौर से देख लो। मैं तुम्हें सांप से मुक्त किए दे रहा हूं। क्या इसका यह अर्थ हुआ कि सांप था और मैं तुम्हें मुक्त कर रहा हूं सांप से? इसका इतना ही अर्थ हुआ कि सांप तो था ही नहीं, इसीलिए मुक्त कर रहा हूं, अन्यथा मुक्त तुम होते कैसे? दीया लाने से भी क्या होता था? अगर सांप था तो था। अंधेरे में शायद थोड़ा शक—शुबा भी रहता कि शायद रस्सी हो; दीया लाने से तो और साफ हो जाता कि नहीं सांप ही है। दीया लाने से तुम कैसे मुक्त हो सकते थे?

सदगुरु के पास आने से तुम मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि सदगुरु दीया है—एक रोशनी। उस रोशनी में तुम्हारे जीवन का पुनरावलोकन कर लेना। रस्सी दिखाई पड़ जाये तो क्या कहना चाहिए अब. तुम सांप से मुक्त हो गये? कि जाना कि सांप था ही नहीं? तुम एक झूठे सांप से भयभीत हो रहे थे, जो नहीं था उससे घबड़ा गये थे।

इसलिए मैंने कहा कि मैं संन्यास देते ही तुम्हें मुक्त कर देता हूं। मेरा काम पूरा हो गया। लेकिन इससे तुम्हारा काम पूरा हो गया, ऐसा मैंने नहीं कहा। तुम्हारा भी सहयोग अगर परिपूर्ण हो तो बात घट जाये। जहां सदगुरु और शिष्य संपूर्ण सहयोग में मिल जाते हैं, वहीं क्रांति घट जाती है। लेकिन तुम जब राजी होओगे तब न!

तुम स्वतंत्र होना ही नहीं चाहते। तुम बंधन के लिए नये —नये तर्क खोज लेते हो। तुम बहाने ईजाद करने में बड़े कुशल हो।

अब तुम पूछ रहे हो. ‘लेकिन मुक्त होते ही संन्यासी का जीवन आमूल रूप से परिवर्तित क्यों नहीं हो पाता?’

अब यह और भी महत्वपूर्ण बात समझो। संन्यास का या मुक्ति का परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि यह परिवर्तन की आकांक्षा भी अमुक्त मन की आकांक्षा है। तुम अपने को बदलना चाहते हो। क्यों बदलना चाहते हो? यह बदलने की चाह कहां से आती है? तुम परमात्मा हो, इससे श्रेष्ठ कुछ हो नहीं सकता अब। जो श्रेष्ठतम था, हो चुका है, घट चुका है। तुम बदलना चाहते हो। तुम परमात्मा में भी थोड़ा श्रृंगार करना चाहते हो। तुम थोड़ा रंग—रोगन करना चाहते हो। तुम कहते हो कि बदलाहट क्यों नहीं होती?

मुक्ति का बदलाहट से कोई संबंध नहीं है। मुक्ति की तो घोषणा ही यही है कि अब बदलने को कुछ बचा नहीं; जैसा है वैसा है। अष्टावक्र के वचन तुम सुन नहीं रहे हो? —जैसा है वैसा है। अब बदलना किसको? बदले कौन? बदले किसलिए? बदले कहां?

अब तुम पूछते हो कि परिवर्तन क्यों नहीं हो पाता? तो तुम मुक्ति का अर्थ ही नहीं समझे।

परिवर्तन तो अहंकार की ही आकांक्षा है। तुम अपने में चार चांद लगाना चाहते हो। धन मिले तो तुम अकड़ कर चल सको। पद मिले तो अकड़ कर चल सको। पद नहीं मिला, धन नहीं मिला, या मिला भी तो सार नहीं मिला—अब तुम चाहते हो कम से कम ध्यान की अकड़ हो, योग की अकड़ हो, संतत्व की अकड़ हो, कम से कम महात्मा तो हो जायें! लेकिन परिवर्तन नहीं हो रहा! अभी तक महात्मा नहीं हुए। अभी भी जीवन की छोटी—छोटी चीजें पकड़ती हैं। भूख लगती, प्यास लगती, नींद आती—और कृष्ण तो गीता में कहते हैं कि योगी सोता ही नहीं। और भूख लगती, प्यास लगती,

पसीना आता, धूप खलती। तो तुम पाते हो कि अरे, अभी तक महात्मा तो बने नहीं; कांटों की शैथ्या पर तो सो नहीं सकते अभी तक—तो फिर कैसी मुक्ति?

तुम मुक्ति का अर्थ ही न समझे। मुक्ति का अर्थ है : तुम जैसे हो परिपूर्ण हो, इस भाव का उदय। भूख तो लगती ही रहेगी लेकिन अब तुम्हें न लगेगी, शरीर को ही लगेगी, बस इतना फर्क होगा। फर्क भीतरी होगा। बाहर से किसी को पता भी न चलेगा, कानों—कान खबर न होगी। जिस मुक्ति की बाहर से खबर होती है, समझना कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई; अहंकार फिर प्रदर्शन कर रहा है, फिर शोरगुल मचा रहा है कि देखो, मैं महात्मा हो गया! मुक्ति की तो कानों—कान खबर नहीं पड़ती। मुक्ति तो तुम्हारी साधारणता को अछूता छोड़ देती है।

अब तुम्हारी घबराहटें अजीब हैं! एक सज्जन आये, वे कहने लगे कि संन्यास तो ले लिया लेकिन चाय अब तक नहीं छूटी। यहां हम चाह को छोड़ने की बात कर रहे हैं, वे चाय छोड़ने की बात कर रहे हैं। दरिद्रता की कोई हद है! और चाय छोड़ भी दी तो क्या पा लोगे? चाय ही छूटेगी न! तुम पा क्या लोगे? लेकिन तुम्हें मूढ़ों ने समझाया है कि चाय छोड़ने से मोक्ष मिल जाता। काश! मोक्ष इतना सस्ता होता कि चाय छोड़ने से मिल जाता, कि तुम धूम्रपान न करते और मोक्ष मिल जाता! कितने तो लोग हैं जो धूम्रपान नहीं करते हैं, मोक्ष पा लिया? तुम भी उन जैसे ही हो जाओगे, नहीं करोगे तो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धूम्रपान करना। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि धूम्रपान करने से मोक्ष मिलता है। मैं इतना ही कह रहा हूं धूम्रपान करने और न करने से मोक्ष का कोई संबंध नहीं। करो, तुम्हारी मर्जी; न करो, तुम्हारी मर्जी। ये असंगत बातें हैं। चाय पीते हो कि नहीं पीते, इससे कुछ संबंध नहीं है। चाय पीते हो कि कॉफी पीते हो, इससे कुछ संबंध नहीं है। मोक्ष तो जागरण है। पहले तुम चाय पीते थे, सोये —सोये पीते थे, अब तुम जाग कर पीओगे। और अगर जागरण में चाय छूट जाये अनायास, छोड़नी न पड़े, तुम्हें अचानक लगे कि बात खतम हो गई, रस न रहा अब, तो गई, तो छोड़ने का भाव भी पैदा नहीं होगा कि मैंने कुछ त्याग कर दिया।

क्षुद्र को त्याग कर क्षुद्र त्यागी ही तो बनोगे न, महाशय कैसे बनोगे? क्षुद्र आशय हैं तुम्हारे। कोई धूम्रपान छोड़ना चाहता, कोई चाय छोड़ना चाहता, कोई कुछ छोड़ना चाहता। तुम्हारे आशय क्षुद्र हैं। इनको तुम छोड़ भी दो तो तुम क्षुद्र रहोगे। फिर तुम सड़क पर अकड़ कर चलोगे कि अब कोई आये और चरण छुए, क्योंकि महात्मा ने चाय छोड़ दी।

तुम जरा अपनी क्षुद्रता का हिसाब तो समझो! पूछते हो कि जीवन आमूल रूप से परिवर्तित क्यों नहीं होता है? जीवन में खराबी क्या है जो परिवर्तित हो? मैंने तो कुछ खराबी नहीं देखी। भूख लगनी चाहिए। भूख न लगे तो बीमार हो तुम। भूख लगनी स्वाभाविक है। प्यास लगनी चाहिए। प्यास न लगे तो बीमार हो तुम। सोओगे भी। और स्वभावत: जो कांटों का बिस्तर बना कर सो रहा है, वह पागल है, विक्षिप्त है। यह देह तुम्हारी है, तुम्हारा मंदिर है, इसे कांटों पर सुला रहे हो?

और जो अपनी देह के प्रति कठोर है, वह दूसरों की देहों के प्रति भी सदय नहीं हो सकता, असंभव। जो अपने के प्रति सदय न हो सका, वह दूसरे के प्रति कैसे सदय होगा? तुम हिंसक हो। तुम दुष्ट प्रकृति के हो। तुम काटे बिछा कर लेट रहे हो। अब तुम्हारी मर्जी होगी कि सारी दुनिया काटी पर लेटे। अगर सारी दुनिया न लेटे कीटों पर तो तुम हजार तरह के उपाय करोगे, उपदेश करोगे,

समझाओगे कि काटी पर लेटने से मोक्ष मिलता है, देखो मैं लेटा! देखो मेरी कट गई, तुम भी कटवा लो! इससे बड़ा आनंद मिलता है!

कांटों पर लेटने से बड़ा आनंद मिलता है! किसको तुम धोखा दे रहे हो? ही, कांटों पर लेटने से इतना ही हो सकता है कि तुम्हारी संवेदनशीलता धीरे— धीरे क्षीण हो जाये, तुम्हारी चमड़ी पथरीली हो जाये, तुम चट्टान जैसे हो जाओ। और जीवन का रहस्य तो फूल जैसे होने में है, चट्टान जैसे होने में नहीं है। जीवन का रहस्य तो कोमलता में है। जीवन का रहस्य तो स्त्रैणता में है। परुष हो गये, अति पुरुष हो गये—उतने ही कठोर हो जाओगे; उतना ही तुम्हारे जीवन से काव्य खो जायेगा, माधुर्य खो जायेगा, संगीत खो जायेगा, गीत खो जायेगा, तुम्हारे भीतर का छंद समाप्त हो जायेगा।

तो तुमने कांटों पर लेटे आदमी को कभी कोई प्रतिभाशाली आदमी देखा? तुम जा कर काशी में अनेक को पा सकते हो कांटों पर लेटे, लेकिन कभी तुम्हें प्रतिभा के दर्शन होते हैं वहां? तुमने कांटों पर लेटे किसी आदमी को अलबर्ट आइंस्टीन की प्रतिभा जैसा देखा? कांटों पर लेटे आदमी को तुमने कभी बीथोवन या तानसेन या कालीदास या भवभूति, एम्स, ऐसी किसी ऊंचाइयों को छूते देखा? तुमने इन कांटों पर लेटे आदमियों से उपनिषद पैदा होते देखे, वेद की ऋचाओं का जन्म होते देखा? ये कांटों पर लेटे आदमियों को जरा गौर से तो देखो, इनका सृजन क्या है? इनकी सृजनात्मकता क्या है? इनसे होता क्या है? बस कांटे पर लेटे हैं, यही गुणवत्ता है! इतना ही काफी है परमात्मा का सौभाग्य? और परमात्मा के प्रति अहोभाव प्रगट करने के लिए कीटों पर लेट जाना काफी है? यह भी खूब धन्यवाद हुआ कि परमात्मा जीवन दे और तुम कीटों पर लेट गये! और परमात्मा फूल जैसी देह दे और तुम उसे पथरीला करने लगे!

नहीं, इससे होगा क्या? किस बात को तुम आमूल क्रांति चाहते हो?

जीवन तो जैसा है वैसा ही रहेगा, वैसा ही रहना चाहिए। हा, इतना फर्क पड़ेगा…. और वही वस्तुत: आमूल क्रांति है। आमूल का मतलब होता है मूल से। चाय पीना मूल में तो नहीं हो सकता, न सिगरेट पीना मूल में हो सकता है और न बिस्तर पर सोना और न कांटों पर सोना मूल में हो सकता है। न भोजन करना और न उपवास करना मूल में हो सकता है। मूल में तो साक्षी— भाव है।

आमूल क्रांति का अर्थ होता है : जो अब तक सोये —सोये करते थे, अब जाग कर करते हैं। जागने के कारण जो गिर जायेगा गिर जायेगा, जो बचेगा बचेगा; लेकिन न अपनी तरफ से कुछ बदलना है, न कुछ गिराना, न कुछ लाना। साक्षी है मूल।

शब्दों के अर्थ भी समझना शुरू करो।’ आमूल’ कहते हो, आमूल क्रांति नहीं हुई। आमूल क्रांति का क्या मतलब है? अब सिर के बल चलने लगोगे सड़क पर, तब आमूल क्रांति हुई? क्योंकि पैर के बल तो साधारण आदमी चलते हैं; तुम सिर के बल चलोगे तो आमूल क्रांति हो गई। लोग तो भोजन खाते हैं, तुम कंकड़—पत्थर खाने लगोगे, तब आमूल क्रांति हो गई?

आमूल क्रांति का अर्थ है : लोग सोये हैं, मूर्च्‍छित हैं, तुम जाग गये, तुम साक्षी हो गये। अब देह को भूख लग आती है तो लगती है, और देह भोजन कर लेती है, तृप्त हो जाती है; तुम पीछे खड़े देखते हो शांत भाव से। भूख लगी, भोजन का आयोजन कर देते; तृप्ति हो जाती, तुम देखते रहते। तुम द्रष्टा हुए।

लेकिन तुम किन्हीं छोटी—छोटी क्रांतियों को करने में लगे हुए हो। तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने तुम्हें बड़े क्षुद्र आशय दिए हैं। उन क्षुद्र आशयों के कारण मैं तुम्हें महा सूत्र दे देता हूं कि तुम मुक्त हुए, फिर भी तुम दीन बने रहते हो, दरिद्र बने रहते हो। तुम्हें इतनी बड़ी संपदा दे देता हूं फिर भी तुम आते हो, कहते हो कि यह नहीं छूट रहा, वह नहीं छूट रहा। तुमसे कहा किसने कि तुम छोड़ो? मैंने नहीं कहा। किसी और ने कहा होगा। तो तुम्हारे जीवन में बड़ी कीचड़ मची है, साफ—सुथरा नहीं! तुम मेरे भी संन्यासी हो, तो भी वस्तुत: मेरे नहीं हो; हजार स्वर तुम्हारे भीतर पड़े हैं। जिन बातो का मैं निरंतर खंडन कर रहा हूं वे भी तुम्हारे भीतर पड़ी हैं, और तुम्हारे भीतर अभी भी मूल्यवान हैं और महत्वपूर्ण हैं। इसलिए तुम्हारे मन में बार—बार उठने लगता है प्रश्न. अभी तक क्रांति नहीं हुई?

तुम एक दफा इस क्रांति की लिस्ट बनाओ। क्या तुम चाहते हो क्रांति में? तब तुम बड़े हैरान होओगे कि तुम बड़ी अजीब—अजीब बातें लिस्ट में लिखने लगे। ऐसी अजीब बातें लिखने लगे जिनका कोई मूल्य नहीं है।

एक सज्जन मेरे पास आये। वे कहने लगे. ‘इतना ध्यान करता हूं, लेकिन शरीर तो बूढ़ा होता जा रहा है। ध्यानी का तो शरीर बूढ़ा नहीं होना चाहिए।’ ये आमूल क्रांतिया हैं! ध्यानी का शरीर का नहीं होना चाहिए! बुढ़ापे में कुछ खराबी है? जो जवान हुआ का होगा। ध्यानी भी का होगा। ध्यानी भी मरेगा। फर्क इतना ही रहेगा कि ध्यानी जब का होगा तब भी साक्षी रहेगा कि जो का हो रहा है वह मैं नहीं हूं, इतना फर्क होगा। और ध्यानी जब मरेगा तो जागता मरेगा और जानता मरेगा कि जो मर रहा है, वह मेरी देह थी, वह मैं नहीं हूं। मृत्यु तो होगी। नहीं तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मोहम्मद, क्राइस्ट, कोई मरते ही नहीं। क्योंकि ध्यानी थे, मरेंगे कैसे? ध्यानी तो अमृत को उपलब्ध हो जाता है! तो मर नहीं सकते थे। के भी न होते।

तुम झूठी बातो में पड़े हो और तुमने व्यर्थ की बातें अपने भीतर इकट्ठी कर ली हैं। मैं लाख चेष्टा करता हूं तुम्हारी व्यर्थ की बातें छीन लूं तुम कहीं कोने—कातर में छिपा लेते हो।

मैं वस्तुत: तुम्हें मुक्त कर रहा हूं। मैं तुम्हें क्रांति से भी मुक्त कर रहा हूं परिवर्तन से भी मुक्त कर रहा हूं मैं तुम्हें मूलत: मुक्त कर रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं : ये सब कुछ करने की बातें ही नहीं हैं; तुम जैसे हो भले हो, को हो, शुभ हो, सुंदर हो। तुम इसे स्वीकार कर लो। तुम अपने जीवन की सहजता को व्यर्थ की बातो से विकृत मत करो। विक्षिप्त होने के उपाय मत करो, पागल मत बनो! तुम्हारे सौ में से निन्यानबे महात्मा पागलखानों में होने चाहिए और अगर तुम पागल बनने को क्रांति कहते हो तो कम से कम मेरे पास मत आओ। मैं तुम्हें पागल बनाने में जरा भी उत्सुक नहीं हूं।’हालत ऐसी है कि संन्यास के बाद भी वह अपनी पुरानी मनोदशा में ही जीता है।’

और किस दशा में जीओगे? इधर तुमने संन्यास लिया, उधर तुम्हारी देह एकदम स्वर्णकाया हो जायेगी? इधर तुमने संन्यास लिया और वहां तुम्हारे पास मन एकदम बुद्ध का, महावीर का, कृष्ण का, क्राइस्ट का हो जायेगा? मन तो मन ही है। मन तो मन जैसा ही रहेगा। फर्क क्या पड़ेगा? फर्क इतना ही पड़ेगा कि अब तक मन मालिक था, अब तुम मालिक हो जाओगे। अब तक देह चलाती थी, अब तुम चलाओगे। अब तक देह खींचती थी, तुम मजबूरी में खिंचे जाते थे; अब तुम मजबूरी में न खिचोगे, अब तुम होशपूर्वक, बोधपूर्वक जाओगे।

मन तो मन ही है। मन तो कंप्यूटर है, यंत्र है। एकदम कैसे बदल जायेगा? तुम्हारा मन है क्या? तुम्हारे अब तक के जीवन— अनुभवों का सार है। जैसे कि तुम आत्मकथा लिख रहे हो, और तुम अपनी आत्मकथा में सब बातें लिखते जाओ और फिर तुम एक दिन संन्यास ले लो और फिर तुम किताब खोल कर देखो, तुम कहो कि मेरी आत्मकथा तो वही की वही है! तुम क्या पागलपन की बात कर रहे हो? तुम्हारे संन्यास से तुम्हारी लिखी गई आत्मकथा थोड़े ही बदल जायेगी।

मन तो अतीत है, हो चुका। मन तो अतीत की धूल है। वह जो कल बीत गया, उसके चिह्न हैं। तुम्हारे संन्यास लेने से वह चिह्न थोड़े ही मिट जायेंगे; वे तो बने रहेंगे। वह तो हो चुका। जो हो चुका हो चुका; अब उसमें कुछ फर्क होने वाला नहीं है। वह तो बन गई अमिट लकीर। इतना ही होगा कि अब तुम चौंक कर जानोगे कि मैंने भ्रांति से मन के साथ अपना तादात्म्य कर लिया था। यह मन मैं नहीं हूं। यह मन मेरे पास एक यंत्र है। इसकी जब जरूरत हो, उपयोग कर लूंगा। गणित करना होगा तो मन का उपयोग करना होगा। महावीर भी मन का उपयोग किए बिना गणित नहीं हल कर सकते। अगर मैं तुमसे बोल रहा हूं तो मन का उपयोग कर रहा हूं; बिना मन का उपयोग किए तुमसे बोल नहीं सकता। क्योंकि वाणी तो मन का संग्रह है। भाषा तो मन में अंकित है। जो भी तुमसे कह रहा हूं वह कह नहीं सकूंगा अगर मन का उपयोग न करूं। तो मन का उपयोग तो जारी है। और वही कह सकूंगा तुमसे जो मन ने अतीत में जाना है, जो मन ने अतीत में पहचाना है। मन तो संपदा है। लेकिन फर्क इतना पड़ गया कि जब मैं खाली बैठा हूं और किसी से बोल नहीं रहा हूं तो चुप होता हूं मन शांत होता है। ऐसे ही जैसे जब तुम कहीं नहीं जा रहे, अपनी कुर्सी पर बैठे हो, तुम्हारे पैर नहीं चलते रहते। कुछ लोगों के चलते रहते हैं, बैठे हैं कुर्सी पर तो पैर ही हिलाते रहते हैं। इसका मतलब? इसका मतलब : या तो चलो या बैठो, दो में से कुछ एक करो। यह क्या धोबी के गधे, घर के न घाट के। यह बैठे हो कुर्सी पर, पैर क्यों हिला रहे हो? अगर चलना है तो चलो, वह भी शुभ है, बैठना है तो बैठो। मगर बीच में तो मत अटके रहो, त्रिशंकु तो न बनो। जब तुम बैठे हो, तब तुम पैर नहीं चलाते क्योंकि तुम जानते हो कि अभी पैर का कोई उपयोग नहीं है। पैर मौजूद हैं, लेकिन तुम चलाते नहीं। कुछ उठाना है तो हाथ हिलाते हो; कुछ उठाना नहीं है तो हाथ नहीं हिलाते।

जब कुछ सोचना है तो मन का उपयोग करते हो; जब कुछ सोचना नहीं तो मन का उपयोग नहीं करते। कुछ बोलना है तो मन का उपयोग करते हो। कुछ निवेदन करना है तो मन का उपयोग करते हो। जब कुछ संवाद नहीं है, कोई संबंध नहीं जोड़ना, किसी से कुछ कहना नहीं, तब मन शांत होता है। तब मन नहीं होता, बंद होता है। तुम निपट सन्नाटे में होते हो। एक गहरी प्रशांति तुम्हें घेरे होती है। तुम जागे होते हो। तुम परिपूर्ण होश में होते हो।

मन तो तुम्हारा वही रहेगा, सिर्फ मन के साथ तादात्म्य छूट जायेगा। अब तुम ऐसा न कहोगे कि मैं यह मन हूं और ऐसा भी न कहोगे कि मैं यह देह हूं।

और तुम कहते हो ‘कभी—कभी तो सामान्य सतह से भी नीचे गिर जाता है।’

किसको तुम सामान्य कहते हो? तुम्हारे मन में बड़ी निदायें भरी हैं।’सामान्य आदमी’ निंदा का शब्द है, गाली दे रहे हो तुम। तुम यह कह रहे हो : ‘सामान्य से भी नीचे गिर जाता है!’ ये सामान्य आदमी चाय पी रहे, धूम्रपान कर रहे, सिनेमा जा रहे! अब अगर तुम सिनेमा चले गये तो तुम्हारे मन में भाव उठा कि सामान्य से नीचे गिर गये। मैंने तुम्हें इतना मुक्त किया है कि मैं तुमसे कहता हूं तुम गिर सकते ही नहीं, गिरने का कोई उपाय नहीं है।

‘सामान्य’ किसको कहते हो? ये जो अनंत— अनंत कोटि लोग हैं, इनके प्रति तुम्हारे मन में बड़ी गहन निंदा है। क्यों तुम चाहते हो कि इनसे तुम विशिष्ट हो जाओ? यह विशिष्ट होने की आकांक्षा अहंकार ही तो है, और क्या है? इस विशिष्ट होने की आकांक्षा में तुम अध्यात्म समझे बैठे हो, कि संन्यास तुमने समझा है!

मेरे पास आते हैं पुराने ढब के संन्यासी। वे कहते हैं : यह आप क्या कर रहे हैं, सामान्य आदमियों को संन्यास दिए दे रहे हैं!

मैंने कहा : परमात्मा नहीं झेंपता सामान्य आदमी बनाने से तो मैं क्यों परेशान होऊं संन्यास देने से? और परमात्मा सामान्य आदमी ज्यादा बनाता है, तुम देख रहे हो। तुम्हारे जैसे विशिष्ट आदमी तो कभी—कभी बनाता है और मुझे शक है कि वह बनाता भी है! क्योंकि मैंने अभी तक कोई संन्यासी पैदा होते नहीं देखा, सब सामान्य आदमी पैदा होते हैं; संन्यासी तो तुम बन जाते हो।

अब्राहम लिंकन जब अमरीका का प्रेसिडेंट हुआ, उसका चेहरा बहुत सुंदर नहीं था, घरेलू ढंग का था। किसी ने पूछ लिया उससे कि तुम अमरीका के प्रेसिडेंट भी हो गये, लेकिन तुम्हारा चेहरा इतना कुरूप क्यों है? अब्राहम लिंकन ने कहा कि जहां तक मैं समझता हूं परमात्मा कुरूप आदमियों को पसंद करता है, क्योंकि सुंदर कम बनाता और कुरूप ज्यादा बनाता है। यह परमात्मा की पसंदगी मालूम होती है। इतना ही कह सकता हूं और तो मुझे कुछ पता नहीं। लाख में एकाध को सुंदर बनाता है, बाकी को तो साधारण बनाता है। तो परमात्मा साधारण को पसंद करता है, इसीलिए।

मगर सुंदर तो शायद परमात्मा बनाता भी होगा; तुमने किसी को देखा कि परमात्मा किसी को संन्यासी बनाता है? सब सामान्य बच्चों की तरह पैदा होते हैं। बुद्ध हों कि महावीर हों कि कृष्ण हों कि क्राइस्ट हों, सब सामान्य बच्चों की तरह पैदा होते हैं।

परमात्मा सामान्य का प्रेमी है—सहज का, साधारण का। आदमी का अहंकार है जो विशिष्ट होना चाहता है।

झेन फकीर रिंझाई अपने झोपड़े में बैठा था और एक शिष्य ने उससे कहा कि तीन साल आपके चरणों की सेवा करते हो गये, अभी तक मैं आप जैसा क्यों नहीं हो पाया? रिंझाई ने कहा. देखो, सामने देखो। चीड़ के दो वृक्ष खड़े हैं; एक छोटा है, एक बड़ा है। एक को परमात्मा ने ऐसा बनाया, एक को परमात्मा ने ऐसा बनाया। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि मैंने इन दोनों वृक्षों में कभी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं देखी। छोटे ने कभी कहा नहीं कि मैं छोटा क्यों बनाया गया और बडे ने कभी अकड़ कर नहीं कहा कि ३ छोटे, अपनी हैसियत से रह। मुझे देख, मैं कितना बड़ा हूं! इनमें मैंने कभी विवाद नहीं सुना। मुझे मेरे जैसा बनाया, तुम्हें तुम जैसा बनाया।

छोटे—बड़े की धारणा आदमी की है। साधारण—असाधारण की धारणा आदमी की है। सब एक जैसे हैं। सब एकरस हैं। अगर एक ही ब्रह्म सब में विराजा है, तो कौन विशिष्ट, कौन सामान्य? यह तुम्हारे भीतर जो भाव है कि कभी—कभी सामान्य सतह से भी नीचे गिर जाता है? तुम कुछ धारणायें लेकर चल रहे हो कि संन्यासी को ऐसा होना चाहिए; संन्यासी को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। अब कभी हो गया क्रोध, किसी ने धक्का मार दिया, अब क्रोध हो गया, अब तुम घर लौट कर बैठे उदास कि यह मामला क्या है, सामान्य से नीचे गिर गये, क्रोध हो गया! संन्यासी को तो क्रोध होना नहीं चाहिए! तो तुम मेरे संन्यास को समझे नहीं। मैं तुमसे कह रहा हूं कि संन्यासी अहंकार का विसर्जन कर दे, तो ही संन्यासी है। अब यह एक नया अहंकार तुम पाल रहे हो कि संन्यासी को क्रोध नहीं होना चाहिए। क्यों नहीं होना चाहिए? हो जाये तो ठीक, न हो जाये तो ठीक है। जो परमात्मा करवा ले, ठीक है। अगर तुम इतनी परम स्वीकृति को जीने लगो तो ये सामान्य—असामान्य, विशिष्ट— साधारण, ये सब कोटियां तुम्हारी गिर जायेंगी। और तब तुम अचानक चौंक कर एक दिन पाओगे. क्रोध भी खो गया। क्योंकि क्रोध जीता ही इन्हीं कोटियों के कारण है कि मैं विशिष्ट!

तुम्हें जब कोई धक्का मार देता है, तुम क्या कहते हो? जानते नहीं, मैं कौन हूं! क्या मतलब हुआ. ‘जानते नहीं मैं कौन हूं? होश सम्हालो!’

यह अहंकार ही तो क्रोध पैदा कर रहा है। फिर एक नया अहंकार तुमने पैदा कर लिया कि मैं संन्यासी हूं क्रोध नहीं करूंगा चाहे कुछ भी हो जाये। अब यह एक नया अहंकार है। फिर तुम विशिष्ट हुए। क्रोध तो होगा, अब भीतर सरकेगा।

उस आदमी के जीवन में विकृतियां खो जाती हैं जिस आदमी के जीवन में मूल्य तिरोहित हो जाते हैं। इसलिए अष्टावक्र बार—बार कहते हैं न कुछ शुभ है, न कुछ अशुभ है; न कुछ कर्तव्य न कुछ अकर्तव्य; न कुछ नीति न कुछ अनीति। ये वचन बड़े क्रांतिकारी हैं। मुझे पक्का भरोसा नहीं हैं कि तुम समझ पा रहे हो, क्योंकि तुम्हारे भीतर सदियों से बैठा हुआ धारणाओं का जाल है। वह उधर बैठा सोच रहा है कि अच्छा ऐसा. ऐसा तो हो नहीं सकता। तुम्हें यह घबड़ाहट लगी है कि तुम्हारी कोटियों का क्या होगा!

तुम संन्यासी भी होना चाहते हो तो विशिष्ट होने को। और मैं तुम्हें संन्यासी बना रहा हूं, ताकि तुम अति सामान्य हो जाओ, सहज हो जाओ। तुम्हारा पुराना संन्यासी विशिष्ट था—घर में नहीं रहेगा, जंगल में रहेगा, किसी के साथ नहीं उठेगा—बैठेगा, साधारण बोलचाल में नहीं उतरेगा, दूर—दूर, पृथक—पृथक, अलग— अलग, हर बात में भेद प्रगट करेगा; सामान्य से अपने को अलग करने की हर चेष्टा करेगा। मैंने तुम्हें संन्यास दिया है और तुम्हें जीवन से दूर करने की कोई चेष्टा नहीं की। तुम पति हो, पत्नी हो, बेटे हो, बाप हो, घर है, द्वार है, दूकान भी चलाओगे, नौकरी भी करोगे—तुम्हें मैंने संन्यास दिया है, तुम जैसे हो वैसे ही। तुम्हें मैं अन्यथा नहीं देखना चाहता।

अगर तुम मेरी बात समझ गये तो मैंने तुम्हें मुक्ति दे दी है। अब तुम्हारे ऊपर कोई बोझ नहीं है—कुछ होने का बोझ नहीं है।

‘मुक्ति का सुवास उसे तत्‍क्षण एक ईमानदार महामानव क्यों नहीं बना पाता?’

महामानव बनने की आकांक्षा पागलपन है।’महामानव’—मतलब क्या होता है? दूसरे मानव पीछे पड़ जायें, तुम झंडा लिए आगे चले जा रहे हो—’झंडा ऊंचा रहे हमारा!’ महामानव! आदमी होना काफी नहीं, पर्याप्त नहीं? तुम किसी न कसी तरफ महान हो कर रहोगे?

सहज मानव कहो, महामानव नहीं। और सहज मानव ही वस्तुत: महामानव है। जिसको तुम महामानव कहते हो वह तो अहंकार की एक नई यात्रा है। इससे सावधान रहो। अहंकार के रास्ते बडे

सूक्ष्म हैं, बड़े बारीक हैं। वह हर जगह से अपनी तरकीब खोज लेता है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी अपने मायके गई। बार—बार नसरुद्दीन को लिखती कि कुछ दिनों के लिए आप भी बनारस आ जायें। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन पूना छोड़ता नहीं। आखिरकार उनकी श्रीमती ने पत्र के साथ एक चित्र भी भेजा जिसमें एक पार्क की बेंच पर एक जोड़ा बैठा हुआ है—पति—पत्नी एक—दूसरे का हाथ पकड़े हुए, एक—दूसरे की आंखों में आंखें डाले हुए। और पास के ही एक बेंच पर उनकी श्रीमती जी अकेली बैठी हैं—चिंतित, उदास अवस्था में, खोई—खोई, जैसे सब संपत्ति खो गई है। साथ के पत्र में लिखा था ‘देखो, तुम्हारे बिना मैं कितनी अकेली हो गई हूं!’

मुल्ला ने चित्र को देखा और गुस्से से भर कर तार किया ‘यह सब तो ठीक है, पर यह लिखो कि फोटो किसने खींची?’

आदमी के मन में अगर संदेह है तो कोई रास्ता खोज ही लेगा। अहंकार अगर है तो कोई रास्ता खोज ही लेगा। तुम इधर से दबाओगे उधर से निकल आयेगा। तुम इधर से बचोगे, कोई और नया मार्ग खोज कर आ जायेगा।

साधक को स्मरण रखना है कि अहंकार के सारे मार्ग पहचान लिए जायें।

मैं तुमसे अहंकार छोड़ने को नहीं कह रहा हूं, क्योंकि अहंकार छोड़ना भी अहंकार बन जाता है। मैं तुमसे इतना ही कह रहा हूं. तुम कृपा करके अहंकार के मार्ग पहचानो—कहां—कहां से आता है, कैसे —कैसे आता है, कैसी सूक्ष्म प्रक्रियाएं लेता है, कैसे वेश पहनता है? तुम पहचान भी नहीं पाते। कभी विनम्रता बन कर आ जाता है। अब महामानव बन कर आ रहा है। अब वह कह रहा है कि तुम, अरे तुम कोई साधारण मानव हो! तुम महामानव हो। तुम्हें कुछ करके दिखाना है दुनिया में। तुम्हें नाम छोड़ जाना है दुनिया में। अभी धन कमाना था, अभी चुनाव जीतना था; अब किसी तरह वहा से छूटे तो अब महामानव होना है। लेकिन जो है, उससे तुम राजी नहीं; कुछ हो कर दिखाना है।

मैं तुमसे कह रहा हूं : तुम जो हो ऐसे ही तुम सुंदर हो। तुम जैसे हो इसी में विश्राम को उपलब्ध हो जाओ।

तुम जरा मेरी बात को समझो, गुनो! थोड़ा इसका रस लो। तुम जैसे हो वैसे में ही राजी हो जाओ। क्रोध आये तो कहना कि मैं क्रोधी हूं, तो आता है। किसी से झंझट—झगड़ा हो जाये तो कह देना कि मैं झझटी आदमी हूं तो झंझट होती है। ऐसा मैं हूं! अपने हृदय को खोल कर रख दो, सहज, जैसे हो। और तब तुम्हारे भीतर सहज मानव पैदा होगा, जिसको बाउल कहते हैं : आधार—मानुष, सहज मनुष्य। उस सहज की तलाश हो रही है। साधो, सहज समाधि भली!

तुम कुछ असहज करके दिखाना चाहते हो। तुम कुछ ऐसा करके दिखाना चाहते हो जो किसी ने न किया हो, ताकि तुम ऊपर दिखाई पड़ो, ताकि तुम सबसे पृथक, श्रेष्ठ मालूम पड़ो।

तुम्हारे तथाकथित महात्माओं में और तुम्हारे राजनीतिज्ञों में बहुत फर्क नहीं होता, क्योंकि राजनीति का मौलिक अर्थ इतना ही होता है कि दूसरों को नीचे दिखाना है; अपने को ऊपर, दूसरे को नीचे। जहां ऐसी वृत्ति है वहा राजनीति है। और जहां ऐसा भाव आ गया कि हम सब एक ही के हिस्से हैं और एक ही हममें विराजमान, कौन ऊपर कौन नीचे, एक की ही लीला है, बुरा भी वही भला भी वही, छोटा भी वही बड़ा भी वही, राम भी वही रावण भी वही—जिस दिन ऐसा भाव आ गया उस दिन तुम धार्मिक हो गये।

और अंततः पूछा है, ‘क्या इससे ‘संचित’ का संकेत नहीं मिलता?’

इससे सिर्फ इस बात का संकेत मिलता है कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं उसमें से तुम कुछ भी न समझे। कुछ और बात का संकेत नहीं मिलता। इससे इतना ही संकेत मिलता है कि मैं यहां बीन बजाये जाता हूं तुम वहां पगुराये जाते हो। तुम समझ नहीं पाते जो मैं कह रहा हूं। तुम अपनी ही धुन गाये जाते हो। मेरे और तुम्हारे प्रयोजन अलग— अलग मालूम होते हैं। तुम कुछ विशिष्ट होने आये हो, और मेरी सारी चेष्टा है कि तुम्हें जमीन पर ले आऊं, साधारण, सहज। तुम्हारी आकांक्षा है कि तुम अहंकार में सजावटें कर लो और मेरी इच्छा है कि तुम्हारा अहंकार नग्न दिगंबर छूट जाये, जैसा है वैसा है। अगर मेरे पास रहना है तो मुझे समझ कर रहो, अन्यथा तुम मुझे भी चूकोगे। और तुम्हारे जीवन में कुछ सुलझाव आने की बजाय उलझाव आ जायेंगे। क्योंकि द्वंद्व खड़ा हो जायेगा। अगर तुम्हें महामानव होना है, तुम कोई और महात्मा खोजो जो तुम्हें शिक्षा देगा—शुभ की अशुभ की, क्या करना क्या नहीं करना; अनुशासन देगा, ब्रह्ममुहूर्त में उठने से लेकर रात सोने तक तुम्हारे जीवन को कैदी का जीवन बना देगा, सारी व्यवस्था दे देगा। तुम कोई महात्मा खोजो।

मैं साधारण आदमी हूं और मैं तुम्हें साधारण ही बना सकता हूं। मेरे जीवन में कुछ भी विशिष्टता नहीं है। विशिष्टता का आग्रह भी नहीं है। मैं बस तुम्हारे जैसा हूं। फर्क अगर कुछ होगा तो इतना ही है कि मुझे इससे अन्यथा होने की कोई आकांक्षा नहीं है। मैं परम तृप्त हूं। मैं राजी हूं। मैं अहोभाग्य से भरा हूं; जैसा है सुंदर है, सत्य है। जो भी हो रहा है, उससे इंच भर भिन्न करने की कोई आकांक्षा नहीं है, कोई योजना नहीं है। मेरे पास कर्ता का भाव ही नहीं है। देखता हूं। जो दृश्य परमात्मा देता है, वही देखता हूं। अगर तुम भी द्रष्टा होने को राजी हो और कर्ता का पागलपन तुम्हारा छूट गया है, तो ही मेरे पास तुम्हारे जीवन में कोई सुगंध, कोई अनुभूति का प्रकाश फैलना शुरू होगा। अन्यथा तुम मुझे न समझ पाओगे। मैं तो आलसी शिरोमणि हूं; तुम्हें भी वहीं ले चलना चाहता हूं जहां कर्तापन न रह जाये; जहां प्रभु जो कराये तुम करो, जो बुलवाये बोलो, जो न करवाये न करो; जहां तुम बीच—बीच में आओ ही न; जहां तुम मार्ग से बिलकुल हट जाओ।

मैं बिलकुल मार्ग से हट गया हूं जो होता है होता है। ऐसा ही तुम्हारे भीतर भी हो जाये, ऐसे आधार—मानुष को पुकारा है मैंने; ऐसे सहज मनुष्य को पुकार दी है।

संन्यास यानी सहज होने की प्रक्रिया। और सहज होने की प्रक्रिया का आधार भाव यही है कि मुक्त तुम हो, इसलिए कुछ और होना नहीं है। अपनी सहजता में डूब गये कि मुक्त हो गये।

इसलिए मैं तो घोषणा करता हूं तुम्हारी मुक्ति की। अगर तुम्हारी भी हिम्मत हो तो स्वीकार कर लो। साहस की जरूरत है।

दूसरा प्रश्न :

कोई बीस वर्षों से आप हम लोगों से बोल रहे हैं और आपके अनेक वक्तव्य एक—दूसरे का खंडन करते हैं; लेकिन आश्चर्य कि आज तक आपने अपना एक भी वक्तव्य वापिस नहीं लिया और न किसी वक्तव्य में कुछ संशोधन करने की जरूरत मानी। और आपके समस्त वक्तव्य अब सार्वजनिक संपत्ति बन गये हैं। क्या आप जान—बूझ कर ऐसा कर रहे हैं और इसके पीछे क्या राज है कोई? और क्या यह खतरा नहीं है कि कालांतर में लोग संदेह करें कि ये सारे वक्तव्य एक ही महापुरुष के हैं?

मैं जो भी बोलता हूं, बोल दिया कि मेरा संबंध छूट गया उससे। फिर मेरा क्या रहा उसमें? जो बात मैंने तुमसे कह दी, तुम्हारी हो गई। दूसरे क्षण में जो बात मैं कहूंगा, वह हो सकता है पहली के विपरीत दिखाई पड़ती हो; लेकिन अब पहली को बदलने वाला मैं कौन हूं? जिस क्षण में पहली बात उठी थी, वह क्षण न रहा। उस क्षण के न रह जाने से अब उसे वापिस करने का भी कोई उपाय नहीं रह गया है। इसलिए

मैं पीछे लौट कर देखता ही नहीं। उस क्षण में वही सत्य था जो मैंने कहा। वह उस क्षण का सत्य था। और संगति में मेरी श्रद्धा नहीं है। मेरी श्रद्धा सत्य में है। मैं जो भी कहूं वह एक—दूसरे से संगत हो, ऐसा मेरा कोई आग्रह नहीं है। क्योंकि अगर एक—दूसरे से मैं जो भी कहूं वे सब वक्तव्य संगत होने चाहिए तो मैं असत्य हो जाऊंगा। क्योंकि सत्य स्वयं बहुत विरोधाभासी है। कभी सुबह है, कभी रात है। और कभी धूप है और कभी छाव है। और कभी जीवन है और कभी मृत्यु है। सत्य के मौसम बदलते हैं। सत्य बड़ा विरोधाभासी है। राम में भी है, रावण में भी है। शुभ में भी है, अशुभ में भी है। सत्य के अनेक रूप हैं। सत्य अनेकांत है।

इसलिए जो मैंने एक क्षण में कहा वह सत्य का एक पहलू था; दूसरे क्षण में जो कहा वह सत्य का दूसरा पहलू होगा; तीसरे क्षण में जो कहा वह सत्य का तीसरा पहलू होगा। वे सभी सत्य के पहलू हैं, लेकिन सत्य विराट है। शब्द में तो छोटा—छोटा ही पकड़ में आता है, पूरा तो कभी पकड़ में नहीं आता। नहीं तो एक बार कह कर बात खतम कर देता। पूरा नहीं आता पकड़ में। पूरा आ नहीं सकता। शब्द बड़े संकीर्ण हैं। सत्य तो है आकाश जैसा और शब्द हैं छोटे —छोटे अपान।

तो जितना आयन में समाता है उतना उस बार कह दिया। कल के आंगन में कुछ और समायेगा परसों के आंगन में कुछ और।

तो मैं पीछे लौट कर नहीं देखता। और पीछे लौट कर देखने का अर्थ भी क्या है? न मैं आगे की फिक्र करता, न मैं पीछे की फिक्र करता। इस क्षण में जो घटता है घट जाने देता हूं। फिक्र नहीं करता, क्योंकि मैं कोई कर्ता नहीं हूं। मैं अगर कहूं कि दस साल पहले जो मैंने कहा था, अब मैं वापिस लेता हूं—तो उसका तो अर्थ यह हुआ कि उसका कर्ता मैं था। और अब मैं अनुभव कर रहा हूं कि उससे झंझट आ रही है; अब मैं जो कह रहा हूं वह उसके विपरोत पडता है, इसलिए साफ—सुथरा कर लेना, उसे वापिस ले लेना। लेकिन जो दस साल पहले कहा गया था, किसी संदर्भ में, किसी परिस्थिति में किसी व्यक्ति की मौजूदगी में, किसी चुनौती में, वह उस क्षण का सत्य था। उसे वापिस लेने का मुझे

कोई अधिकार नहीं। उसे मैंने बोला भी नहीं था, तो वापिस लेने का मेरा क्या अधिकार है? मैं उसका मालिक नहीं हूं। जो मुझसे बोला था उस क्षण वही मुझसे अब भी बोल रहा है—इतना मैं जानता हूं। उस क्षण उसने ऐसा बोलना चाहा था, इस क्षण ऐसा बोल रहा है। अगर इसमें किसी को संगति बिठानी हो तो परमात्मा, वह फिक्र करे। मैंने अपने को बांसुरी की तरह छोड़ दिया है।

अब बांसुरी यह थोड़े ही कहेगी कि ‘कल तुमने एक गीत गाया और आज तुम दूसरा गाने लगे? हे वेणु—वादक, रुको! यह असंगति हुई जाती है। कल तुम कोई और राग छेड़े थे, आज तुमने कोई राग छेड़ दिया। नहीं—नहीं, या तो जो कल गाया था वही गाओ, या फिर आज जो तुम गा रहे हो तो कल के लिए क्षमा मांग लो।’ बांसुरी ऐसा कहेगी. जिसने कल गाया था, वही आज भी गा रहा है। कल उसने उस राग को पसंद किया था, आज उसने कोई और राग चुना है।

मैं बीच में पड़ने वाला कौन गुम इसलिए मुझे चिंता नहीं सताती।

तुम्हारा प्रश्न भी ठीक है। कोई दूसरा व्यक्ति इतने वक्तव्य देता तो या तो पागल हो जाता. क्योंकि अगर इतना बोझ अपने सिर पर रखता तो विक्षिप्त हो जाता। इन सबके बीच कैसे हिसाब बिठाता, कितने गीत गाये गये? मगर मैं तो जो गीत इस क्षण गाया जा रहा है, उससे ही संबंधित हूं। उससे अन्यथा का मुझे कुछ हिसाब नहीं है।

संगति बिठाने में मेरी रुचि नहीं है। और तुम भी इस फिक्र में मत पड़ना। तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं। तुम भी इस फिक्र में मत पड़ना। तुम भी यह हिसाब मत लगाना कि मेरे सारे वक्तव्यों में कुछ संगति खोज लो। संगति है, लेकिन तुम जिस दिन बांसुरी बनोगे उस दिन पता चलेगी, उसके पहले पता नहीं चलेगी। वक्तव्यों में संगति नहीं है; जो ओंठ मेरी बांसुरी पर रखे हैं, वे एक के ही ओंठ हैं, उसमें संगति है। वक्तव्य अलग— अलग, गीत अलग—अलग, छंद अलग—अलग; लेकिन यह तो तुम्हें उसी दिन पता चलेगा जब तुम भी बांस की पोगरी हो जाओगे। तब तुम अचानक देख पाओगे. अरे, सब जो विपरीत दिखाई पड़ता था, संयुक्त हो गया! वह जो सब खंड—खंड दिखाई पड़ता था, अखंड हो गया। वह जो सब टुकड़े—टुकड़े मालूम पड़ता था और तालमेल नहीं बैठता था, वह किसी एक विराट व्यवस्था का अंग था, उसमें एक अनुशासन था। वह तुम्हें उसी दिन दिखाई पड़ेगा जिस दिन परमात्मा बोलने लगेगा तुम्हारे ओंठ से और तुम्हारे ओंठ से गाने लगेगा, तुम बांसुरी हो जाओगे।

मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं। इसलिए किसी वक्तव्य को न तो कहने की इच्छा है न उसे वापिस लेने की इच्छा है। जो जिस क्षण में हो जाये, मैं राजी हूं।

तुम मुझे एक कवि समझो। तुम कवि से आकांक्षा नहीं करते कि उसकी दो कविताओं में संगति हो। या तुम मुझे एक चित्रकार समझो। तुम चित्रकार से आशा नहीं करते कि उसके दो चित्रों में एक संगति हो। सच तो यह है चित्रकार से तुम्हारी अपेक्षा होती है कि उसका दूसरा चित्र बिलकुल अनूठा हो, पहले से बिलकुल मेल न खाये। अगर कोई चित्रकार अपने उन्हीं—उन्हीं चित्रों को दोहराये चला जाये तो तुम कहोगे यह चित्रकार मुर्दा है।

ऐसा पिकासो के जीवन में उल्लेख है, कोई मित्र पिकासो की एक पेंटिंग खरीदा। कई लाख रुपये में खरीदी। वह पिकासो के पास लाया और उसने कहा कि यह पेंटिंग मौलिक रूप से तुम्हारी ही है न, किसी ने कोई नकल तो नहीं की, कोई धोखाधड़ी तो नहीं है? इसके पहले कि मैं खरीदूं मैं तुमसे पूछ लेना चाहता हूं।

पिकासो ने पेंटिंग की तरफ देखा और कहा कि झंझट में पड़ना मत, यह सब नकल है, यह, असली नहीं है।

पिकासो की प्रेयसी पास बैठी थी, वह बड़ी चौंकी। उसने कहा. ‘रुको! तुम होश में हो?’ पिकासो से कहा. ‘यह चित्र तुमने मेरी आंखों के सामने बनाया, मुझे भली— भांति याद है, यह चित्र तुम्हारा ही बनाया हुआ है।’

पिकासो ने कहा : ‘मैंने कब कहा कि मैंने नहीं बनाया, लेकिन यह नकल है।’

अब और उलझन हो गई। पत्नी ने कहा. ‘तुमने ही बनाया और नकल! तुम कह क्या रहे हो?’ पिकासो ने कहा. ‘मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं ऐसा चित्र पहले भी बना चुका, फिर यह दुबारा बनाया। यह दुबारा मैंने बनाया कि किसी और ने बनाया, क्या फर्क पड़ता है? यह मौलिक नहीं है। यह पुनरुक्ति है। मेरे हाथ से ही हुई पुनरुक्ति, लेकिन यह मौलिक नहीं है। ऐसा चित्र मैं पहले बना चुका हूं। यह फिर पुनरुक्ति है। पुनरुक्ति तो मौलिक नहीं होती।’

तो हम पिकासो से आशा करते हैं कि वह जो हर चित्र बनाये, वह ऐसा अनूठा हो कि पुराने चित्रों से भिन्न हो। कवि से हम आशा करते हैं, एक ही गीत न गाये चला जाये।

मेरे गांव में एक कवि हैं। एक ही कविता उन्होंने लिखी है, वह भी पता नहीं चुराई या क्या किया। क्योंकि जो एक ही लिखता है, वह संदिग्ध है। अगर कवि थे तो कभी तो दूसरी लिखते। एक ही कविता जानते हैं वे : ‘हे युवक!’ बस कुछ युवक के संबंध में एक कविता है। और उनसे पूरा गांव परेशान है। क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि वे कवि—सम्मेलन में उपस्थित न हो जायें और उनको वह ‘हे युवक’ कविता सुननी ही पड़ेगी।

गांव की यह परेशानी जब मैं छोटा था तभी मुझे समझ में आ गई। तो कोई भी कवि—सम्मेलन हो, मैं उनके घर जा कर खबर कर आता कि कवि—सम्मेलन हो रहा है और आपको बुलाया है। ऐसा बार—बार जब मैंने किया, कहीं भी कवि—सम्मेलन हो, कुछ भी हो, मैं उनको बुला आता। और कभी—कभी तो ऐसी जगह भी कि जहां कोई कवि—सम्मेलन नहीं, कोई सभा हो रही, कुछ हो रही, मैं उनको निमंत्रण कर आता कि आप आइये और लोगों को बड़ी कविता की इच्छा है। एक दिन मुझसे कहने लगे कि तुम मालूम होते हो, मेरे बड़े प्रेमी हो, तुम्हीं आते हो हमेशा! और ऐसी सभाओं में उनकी कविता पढ्वा देता जहां कि लोग सिर ठोंक लेते, क्योंकि वे आये नहीं थे यह सुनने।

मैं पहले उनको निमंत्रण दे आता, फिर मंच के पास—छोटा गांव—मंच के पास खड़ा हो जाता। जैसे ही वे आते, मैं उनसे कहता : ‘वकील साहिब, आइये— आइये!’ मंच पर चढ़ा देता। अब कोई गांव में कह भी नहीं सकता। वे थे वकील, तो कोई झगड़ा—झांसा भी नहीं कर सकता। उनको मंच पर चढ़ा कर बिठा देता। फिर भीड़ में जा कर वहां से चिट लिख कर भेजने लगता कि एक कविता होनी चाहिए, वकील साहिब की एक कविता होनी चाहिए। सारा गांव जानता कि मेरे अलावा उस कविता को कोई नहीं सुनना चाहता है। अगर सभापति मेरी चिटों पर कोई ध्यान न देते तो मैं बीच में खड़ा हो जाता कि जनता वकील साहिब की कविता सुनना चाहती है। अब जनता यह कह भी नहीं सकती कि कोई नहीं सुनना चाहता, क्योंकि वकील साहिब, झगड़ा—झंझट की बात है। और जनता चिट लिख—लिख कर भेज रही है। सभापति को मजबूरन कहना पड़ता कि वकील साहिब, आपकी कविता सुनाइये। वे ‘हे युवक’…… वह शुरू कर देते।

जब ऐसा बहुत बार हुआ तो एक दिन मुझसे वे बोले कि मामला क्या है, तुम्हीं क्यों आते हो? सब कवि—सम्मेलन, सब सभायें, धर्म की सभा कि राजनीति की, कुछ भी हो, तुम क्या सभी के संयोजक हो?

मैंने कहा : नहीं, वे संयोजक तो सब अलग—अलग हैं, लेकिन वे जानते हैं कि मैं आपका भक्त हूं तो मुझे भेज देते हैं। धीरे— धीरे तो उनको शक होने लगा कि मैं. .क्योंकि कोई उनकी कविता सुनना न चाहे, वह समझ में भी आये उन्हें कि कोई सुनना नहीं चाहता, सब लोग ऐसे उदास हो कर बैठ जायें, इधर—उधर देखने लगें कि फिर आ गये ये। नौबत यहां तक पहुंची कि मुझे जो अध्यक्ष इत्यादि सभाओं के होते वे मुझे पहले बुला कर कहते कि भाई, वकील साहिब को न बुला आना। हम तुम्हें मिठाई खिलायेंगे, अगर वकील साहिब को न लाये।

अब एक ही कविता, वह जरूर उन्होंने चुराई होगी।

कवि से हम आशा करते हैं कि वह नई कवितायें कहे, चित्रकार से कि नये चित्र बनाये; मूर्तिकार से कि नई मूर्तियां गढ़े। दार्शनिक से हम आशा करते हैं कि उसने जो कहा है, बस उसी को —कहता रहे।

नहीं, मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं। मैं कोई पंडित नहीं हूं। मेरे वक्तव्य तुम कविताओं की तरह लेना। जिसको मैंने बाधना चाहा है, वह तो एक है; लेकिन उसे बहुत—बहुत अलग— अलग दिशाओं से बांधना चाहा है। जो मैं प्रगट करना चाहता हूं वह तो एक है; लेकिन बहुत—बहुत अलग—अलग रंगों में मैंने वे चित्र बनाये हैं। तुम समझ पाओगे यह बात तभी, जब तुम भी ऐसे खाली हो जाओगे जैसा खाली मैं हूं।

तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि मैंने अब तक कोई ऐसा वक्तव्य नहीं दिया है जिसको मैं समझता हूं कि विरोधाभासी है। भिन्न—भिन्न वक्तव्य दिए हैं, अलग— अलग बातें कही हैं, अलग— अलग ढंग से गीत को बांधा है; लेकिन जो मैंने कहा है, वह एक ही है। बहुत अलग—अलग माध्यमों में बांधा है।

एक गीत को हम कविता की तरह कागज पर लिख सकते हैं और उसी गीत को हम संगीत की तरह वीणा पर बजा सकते हैं। अब कागज पर लिखी कविता में और वीणा के बजते—हिलते तारों में कोई भी संगति नहीं है। उसी कविता को हम चित्र की तरह चित्रित भी कर सकते हैं। तुमने देखा होगा, रागिनियों के चित्र देखे होंगे। हर रागिनी का चित्र भी बनाया जा सकता है। क्योंकि हर राग का रंग भी है।’राग’ शब्द का अर्थ ही रंग होता है। राग का अर्थ ही होता है रंग। हर राग का रंग है।

तो अगर मैं शांति की कोई कविता कहूं तो शांति की वीणा पर धुन भी बजाई जा सकती है कि उस धुन को सुन कर शांत भाव पैदा होने लगे। और शांत चित्र भी बनाया जा सकता है नीले—हरे रंगों में, कि चित्र को देख कर शांति पैदा होने लगे। और शांति की प्रतिमा भी बनाई जा सकती है—बुद्ध की प्रतिमा कि उसे तुम गौर से देखते रहो तो तुम्हारे भीतर अशांति खोने लगे। ये अलग— अलग माध्यम हैं। लेकिन जो मैं कहना चाहता हूं वह तो एक ही है।

इसलिए मुझे तो कोई विरोधाभास दिखाई भी नहीं पड़ा कि पश्चात्ताप करूं, कि वापिस ले लूं। ही, तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं। तुम्हें बहुत बार लगता होगा कि कभी मैं कुछ कह देता हूं, कभी कुछ कह देता हूं। क्योंकि तुम इतने विस्तीर्ण सत्य को लेने को तैयार नहीं हो। तुम बहुत संकीर्ण सत्य को लेने को तैयार हो। जब मैं कहता हूं भक्ति से भगवान मिल जायेगा, तो जो भक्त है वह कहता है ठीक। और जब मैं ज्ञान पर बोल रहा होता हूं तो मैं कहता हूं भक्ति से कैसे भगवान मिलेगा? वह भक्त घबड़ाया, उसने कहा. ‘मामला गड़बड़ हो गया! हम तो कल राजी हो गये थे, हम तो बिलकुल तैयार हो गये थे कि अब संन्यास ले लें इस आदमी से, यह अपनी ही बात कह रहा है और आज ये कह रहे हैं कि भक्ति से कैसे भगवान मिलेगा?’ क्योंकि भक्त जब तक है तब तक कैसे भगवान मिलेगा? जब तक मैं है तब तक तो तू बना रहेगा। और जब तक तू है तब तक मैं भी बना रहेगा। साक्षी से मिलेगा, भक्ति से नहीं। भक्ति में तो राग है।

तो तुम घबड़ाये। लेकिन जो साक्षी को मानने वाला था, वह चौंक कर बैठ गया। उसने कहा अब बात ठीक हुई; यह आदमी अब तक गलत—सलत बोल रहा था, लेकिन आज पते की कही। लेकिन मैं एक ही बात कह रहा हूं। ये अलग—अलग माध्यम हैं। ये अलग—अलग मार्ग हैं। इन सबसे उसी एक शिखर पर हम पहुंच जाते हैं।

और मैंने ऐसा चुना है कि मैं सभी मार्गों की तुमसे बात करूंगा। ऐसा पहली दफा हो रहा है। बुद्ध ने एक मार्ग की बात कही, महावीर ने एक मार्ग की बात कही, नारद ने एक मार्ग की, अष्टावक्र ने एक मार्ग की। इसका दुष्परिणाम हुआ। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जिसने अष्टावक्र को माना वह नारद के विपरीत हो गया, जिसने नारद को माना वह बुद्ध के विपरीत हो गया; जिसने बुद्ध को माना वह महावीर के विपरीत हो गया। और मेरा जानना है कि ये कोई भी विपरीत नहीं हैं; ये सब एक ही तरफ इशारा कर रहे हैं। अंगुलियां अलग—अलग; जिस चांद की तरफ इशारा है, वह चांद एक है। तुम चांद को देखो, अंगुली को पकड़ कर मत बैठ जाओ। इस सत्य को उजागर करने के लिए मैंने तय किया कि मैं सब पर बोलूंगा। और जब मैं एक पर बोलता हूं तो मैं सब भूल जाता हूं जो मैं पहले बोला; तभी तो इस पर बोल सकता हूं, नहीं तो बोल न पाऊंगा। तब न्याय न हो सकेगा।

अगर, समझो कि अष्टावक्र पर बोलते वक्त मैं जरा भीतर नारद का राग भी रखूं कि कहीं ऐसा न हो, नारद गलत न हो जायें, तो फिर लीपा—पोती हो जायेगी। फिर अष्टावक्र पर मैं पूरे रूप से न बोल सकूंगा। जब अष्टावक्र पर बोलता हूं तो नानक समझें अपनी, नारद समझें अपनी, कबीर—मीरा अपनी फिक्र कर लें; मैं फिक्र नहीं करता। फिर मेरी फिक्र एक ही है कि अष्टावक्र के साथ प्रामाणिक रूप से उनकी बात पूरी की पूरी तुम तक पहुंचा दूं। फिर मैं अष्टावक्र के साथ पूरा लीन हो जाता हूं। फिर मैं नहीं बोलता, फिर मैं अष्टावक्र को बोलने देता हूं। इसलिए तुम्हें विरोधाभास दिखाई पड़ते हैं। मगर तुम कहीं से भी चल पड़ो, तुम किसी भी मार्ग को पकड़ लो। जिस दिन पहुंचोगे उस दिन जानोगे कोई विरोधाभास नहीं है।

‘कोई बीस वर्षों से आप हम लोगों से बोल रहे हैं। आपके अनेक वक्तव्य एक—दूसरे का खंडन करते हैं।’

इसलिए भी मेरा रस है इस बात में कि हर वक्तव्य का खंडन हो जाये, ताकि तुम वक्तव्य से बंधे न रह जाओ। मैं अवक्तव्य की तरफ तुम्हें ले चल रहा हूं अनिर्वचनीय की तरफ ले चल रहा हूं। मेरा वक्तव्य तुम्हारी छाती पर पत्थर बन कर न बैठ जाये। इसके पहले कि तुम पकड़ो, मैं उसे तोड़ भी देता हूं। मैं तुम्हें मुक्त करना चाहता हूं बांधना नहीं। तुम मेरे वक्तव्यों में न बंध जाओ। तुम बंध भी न सकोगे। मैं मौका ही नहीं देता। तुम तो कई दफा तैयारी कर लेते हो। तुम तो बिलकुल बैठ जाते हो कि ठीक है आ गया घर। अब अपना सम्हाल लें, अब कहीं जाना— आना नहीं, यह हो गई बात पक्की। लेकिन इसके पहले कि तुम सम्हलो, मैं छीनना शुरू कर देता हूं। एक हाथ से देता हूं दूसरे से छीन लेता हूं। क्योंकि मैं चाहता हूं कि तुम एक ऐसी दशा में आ जाओ जहॉ कोई वक्तव्य तुम्हारे ऊपर न हो। अवक्तव्य, अनिर्वचनीय, शून्य रह जाये। मेरे वक्तव्य सत्य के मार्ग में बाधा न बनें, क्योंकि सभी वक्तव्य बाधा बन जाते हैं। वक्तव्य को पकड़ा कि तुम सांप्रदायिक हो गये।

इसी तरह तो मुसलमान मुसलमान है, उसने कुरान का वक्तव्य पकड़ लिया। बौद्ध बौद्ध है; उसने बुद्ध का वक्तव्य पकड़ लिया। जैन जैन है, उसने महावीर का वक्तव्य पकड़ लिया। मैं तुम्हारे लिए कोई वक्तव्य नहीं छोड़ जाना चाहता। मैं तुम्हें अवक्तव्य, अनिर्वचनीय दशा में छोड़ जाना चाहता हूं। सब कहूंगा और सब छीन लूंगा। इधर एक हाथ से दूंगा, दूसरे हाथ से अलग कर लूंगा। कभी तो तुम समझोगे कि यह खाली दशा, जब तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं होता, यही सत्य की दशा है। जब पकड़ने को कुछ भी नहीं होता तभी तुम मुक्त हो। जहां तुमने कुछ पकड़ा कि तुम पकड़े गये। पकड़ने वाला पकड़ा जाता है। जिसे तुम पकड़ते हो वह तुम्हें पकड़ लेता है।

वक्तव्य को पकड़ने वाला सांप्रदायिक हो जाता है। अवक्तव्य में जीने वाला धार्मिक है। फिर अवक्तव्य में जीने वाला सब वक्तव्यों को समझ लेता है, तो भी किसी वक्तव्य से ग्रसित नहीं होता, परिभाषित नहीं होता।

‘आपके अनेक वक्तव्य एक—दूसरे का खंडन करते हैं। लेकिन आश्चर्य कि आज तक आपने अपना एक भी वक्तव्य वापिस नहीं लिया है।’

लेने की कोई जरूरत नहीं है। अगर किसी वक्तव्य को मैं वापिस लूं तो उसका अर्थ यह होगा कि किसी वक्तव्य के पक्ष में वापिस ले रहा हूं। कल कोई बात कही थी, उसे वापिस लेता हूं; क्योंकि आज कुछ कहना चाहता हूं और चाहता हूं कि कल की बात बाधा न बने; आज की बात तुम्हें पूरी तरह पकड़ ले, इसलिए कल की बात वापिस लेना चाहता हूं। नहीं, वापिस तो मैं सभी लेना चाहता हूं इसलिए कोई भी वापिस न लूंगा। जाल तो मैं पूरा वापिस समेट लेना चाहता हूं लेकिन मेरे समेटने से न होगा, तुम्हारे समझने से होगा। मैं ऐसा ही खंडन करता जाऊंगा।

तुमने महावीर का स्यादवाद समझा? महावीर से कोई पूछता, ईश्वर है, तो महावीर सात वक्तव्य देते। ईश्वर है? तो महावीर कहते. हा है, ‘स्वाद अस्ति’। और इसके पहले कि वह आदमी पकड़ ले, महावीर कहते हैं. शायद नहीं है, ‘स्वाद नास्ति’। और उसके पहले कि वह आदमी इस वक्तव्य को पकड़ ले, महावीर कहते हैं कि शायद दोनों है ‘अस्ति, नास्ति’। और इसके पहले कि वह आदमी इस वक्तव्य को पकड़ ले, महावीर कहते हैं. शायद दोनों नहीं है। ऐसा महावीर चलते जाते। छ: वक्तव्य देते हैं। और इसके पहले कि आदमी इनमें से कोई भी वक्तव्य पकड़ ले, महावीर कहते हैं : अवक्तव्य,

कहा नहीं जा सकता। वह सातवां है।

सब वक्तव्यों के बाद याद रखना, मैं तुमसे कहना चाहता हूं. अवक्तव्य। जो मैं कहना चाहता हूं वह कहा नहीं जा सकता। कहने की कोशिश कर रहा हूं क्योंकि तुम अनकहे को अभी समझ न सकोगे। इसलिए कभी कहता हूं ईश्वर है, यह भी एक वक्तव्य है—ईश्वर के संबंध में। कभी कहता हूं ईश्वर नहीं है, यह भी एक वक्तव्य है—ईश्वर के संबंध में। पहले वक्तव्य में ‘ही’ के द्वारा ईश्वर को समझाया गया, दूसरे वक्तव्य में ‘नहीं’ के द्वारा समझाया गया। पहले वक्तव्य में दिन के द्वारा, दूसरे वक्तव्य में रात के द्वारा। पहले वक्तव्य में भाव के द्वारा, दूसरे वक्तव्य में अभाव के द्वारा। पहले वक्तव्य में आस्तिकता के सहारे, दूसरे वक्तव्य में नास्तिकता के सहारे।

अब तुम बड़े हैरान होओगे कि नास्तिक का वक्तव्य भी ईश्वर के संबंध में है। और ईश्वर में दोनों मिले हैं ‘है’ भी और ‘नहीं’ भी। तभी तो चीजें होती हैं और ‘नहीं’ हो जाती हैं।

तुम देखते हो, एक वृक्ष है; कल नहीं था, फिर बीज फूटा, फिर वृक्ष हो गया, आज है, कल फिर नहीं हो जायेगा। अगर परमात्मा का स्वभाव सिर्फ ‘है’ ही हो तो वृक्ष ‘नहीं’ कैसे होगा? परमात्मा के स्वभाव में दोनों बात होनी चाहिए। वृक्ष का होना भी परमात्मा को राजी है, वृक्ष का न होना भी राजी है। जब वृक्ष ‘नहीं’ हो जाता तब भी परमात्मा को कोई बाधा नहीं पड़ती; वृक्ष हो जाता है तो भी बाधा नहीं पड़ती। तो परमात्मा में ‘ही’ भी है, ‘नहीं’ भी है। अभाव भी, भाव भी। यह जरा कठिन है। आस्तिक का वक्तव्य सरलतम है। वह कहता है ‘है’। नास्तिक का वक्तव्य थोड़ा कठिन है लेकिन बहुत कठिन नहीं। वह कहता ‘नहीं’ है। लेकिन खयाल करते हैं, दोनों वक्तव्यों में ‘है’ तो है ही। कोई कहता है परमात्मा ‘है’; कोई कहता है परमात्मा ‘नहीं है’! पर ‘है’ तो दोनों में ही मौजूद है। है —पन तो है ही। महावीर फिर तीसरा वक्तव्य बनाते हैं कि दोनों है; अलग—अलग मत कहो; अलग— अलग कहने में बात अधूरी रह जाती है, पूरा कह दो। ऐसा बढ़ते जाते हैं और अंत में असली बात कहते हैं कि अवक्तव्य है, कहा नहीं जा सकता।

ये सब कहने के उपाय हुए। इस बहाने कहना चाहा। लेकिन जो भी कहा वह छोटा—छोटा रहा; जिसे कहा जाना था वह बहुत बड़ा है, समाया नहीं, अटा नहीं, कह नहीं पाये। तो आखिर में असली बात कहे देते हैं कि मौन से ही उसे कहा जा सकता है।

‘आश्चर्य कि आपने आज तक अपना एक भी वक्तव्य वापिस नहीं लिया है।’

सभी वक्तव्य उसी एक की तरफ इशारे हैं।

‘और न किसी वक्तव्य में कोई संशोधन करने की जरूरत समझी।’

संशोधन का तो मतलब होता है अहंकार।

ऐसा हुआ कि गुजरात के एक पुराने गांधीवादी आनंद स्वामी एक रात मेरे साथ रुके। बैठ कर गपशप होती थी। तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं गांधी जी का पुराना से पुराना रिपोर्टर हूं। जब गांधी जी अफ्रीका से भारत आये, तो जो वक्तव्य उन्होंने पहला दिया था उसकी रिपोर्ट अखबारों में मैंने ही दी थी। लेकिन उस वक्तव्य में गांधी जी ने कुछ अपशब्द उपयोग किए थे, अंग्रेजों के प्रति कुछ गालियां उपयोग की थीं, वे मैंने छोड़ दी थीं। और जब दूसरे दिन गांधी जी ने रिपोर्ट पढ़ी अखबारों में तो उन्होंने पता लगवाया कि यह रिपोर्ट किसने दी है। मुझे बुलवाया, मुझे गले लगा लिया और कहा : रिपोर्टर ऐसा होना चाहिए! तुमने गालियां छोड़ दीं, यह अच्छा किया। क्योंकि दे कर तो पीछे मैं भी पछताया। अपशब्द बोले नहीं जाने चाहिए। ऐसा ही करना। यह सही—सही रिपोर्टिंग है। और उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई, ऐसा स्वामी आनंद ने मुझसे कहा।

मैंने कहा कि आप एक काम और किए कभी कि गांधी जी गाली न दें और आप एकाध रिपोर्ट में गाली जोड़ देते, फिर देखते क्या होता है! वे कहते, क्या मतलब? मैंने कहा, पहली रिपोर्ट भी हो तो गई गलत, हो तो गई झूठ, जो कहा था वह आपने छोड़ दिया; जो कहा था वह कहा गया था। और गांधी जी ने पीठ थपथपाई, इसका तो मतलब यह हुआ कि गांधी जी पीछे पछताये जो कहा था। तो जो कहा था, बेहोशी में कहा होगा। अगर होश में कहा था तो पछताने का क्या सवाल है? बेहोशी में कहा होगा। फिर जब होश आया, पीछे से लौट कर जब देखा, तो लगा कि यह तो मेरे अहंकार को चोट लगेगी, यह मेरे महात्मापन का क्या होगा! लोग कहेंगे, गाली दे दी! तो डरे होंगे कि कहीं अखबार में रिपोर्ट न निकल जाये, नहीं तो वह इतिहास की संपत्ति हो जायेगी। तो तुम्हें बुलाया। तुम्हारी पीठ थपथपाई। तुमने उनके अहंकार को बचाया, उन्होंने तुम्हारे अहंकार को बचाया। तुम इससे बड़े खुश हुए। यह झूठ, और गांधी कहते हैं कि सत्य पर मेरा आग्रह है और सत्याग्रह को मानते हैं। और सत्य, कहते हैं, सबसे ऊपर है। मगर यह तो सत्य न हुआ। और अगर यह सत्य है तो फिर गांधी जी एक दिन गाली न दें, तुम उसमें गाली जोड़ देना, फिर वह क्यों असत्य होगा? वह भी सत्य है। गाली हटाओ कि जोड़ो, बराबर।

मैंने कहा : अगर मैं होता तो तुमसे कहता तुम्हें रिपोर्टिंग आती नहीं है, यह धंधा तुम छोड़ो, तुमने झूठ किया। हालाकि झूठ गांधी जी के अहंकार के समर्थन में था, इसलिए वे राजी हो गये। अगर असमर्थन में होता तो? तो गांधी जी वक्तव्य देते अखबारों में कि यह रिपोर्ट झूठी है। झूठी तो यह थी ही, पर उन्होंने कोई वक्तव्य अखबारों में तो दिया ही नहीं कि मैंने गालियां दी थीं, उनका क्या हुआ? उल्टे तुम्हारी पीठ थपथपाई। यह तो बड़ा लेन—देन हो गया, यह तो पारस्परिक हिसाब हो गया। तुमने उन्हें बचाया, उन्होंने तुम्हें बचाया। और अगर वे तुम्हें कहें कि तुम बड़े से बड़े रिपोर्टर हो, तो आश्चर्य क्या? महात्मापन पर थोड़ी चोट लगती, वह तुमने बचा ली। और तुमने सदियों के लिए धोखा दिया, क्योंकि अब कोई निश्चित रूप से कह सकेगा कि गांधी ने कभी गाली नहीं दी, जो कि झूठ होगी बात। और गांधी की कथाओं में लिखा जायेगा, उन्होंने कभी गाली नहीं दी। और उन्होंने गाली दी थी, मैंने कहा, अभी तुम लिख जाओ इसको कम—से—कम।

वे मुझसे इतने नाराज हो गये, क्योंकि वे सोचते थे कि मैं भी उनकी पीठ थपथपाऊंगा। मैंने कहा, यह तो तुमने बेईमानी की। फिर मुझे कभी नहीं मिले।

मैंने जो कहा, कहा है। बदलना क्या है? कहते वक्त होश से कहा है। बदलेगा कौन? जितने होश से कहा है, उससे ज्यादा होश से कहा ही नहीं जा सकता है, इसलिए बदलने का कोई सवाल नहीं है। जो हुआ, हुआ। अब उससे मेरी बदनामी हो कि नाम हो, उससे मैं महात्मा समझा जाऊं कि दुरात्मा समझा जाऊं, ये बातें गौण हैं। जो कहा गया, वह कहा गया। क्या तुम समझोगे, तुम्हारे ऊपर है। इसलिए कभी किसी बात में संशोधन करने की मैंने जरूरत नहीं मानी। संशोधन का कोई अर्थ ही नहीं है।

‘क्या आप जानबूझ कर ऐसा करते हैं और इसके पीछे क्या कोई राज है?’

नहीं, जानबूझ कर नहीं करता हूं; ऐसा हो रहा है, ऐसा होते देखता हूं। और यही सहज मालूम होता है। इसमें कोई असहजता नहीं है। पीछे से क्या लीपा—पोती करनी? जो क्षण जैसा था वैसा था। उस क्षण के संबंध में मेरा वक्तव्य गवाही रहेगा। मेरा कोई वक्तव्य मेरे संबंध में झूठ नहीं कहेगा। ही, तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं कि तुम्हें अड़चन होती है समझने में, लेकिन यह तुम्हारी समस्या है, मेरी नहीं। यह उलझन तुम्हारी है, इसमें तुम कुछ रास्ता निकालो। तुम्हारी उलझन को बचाने के लिए मैं सच को झूठ करूं, झूठ को सच करूं, यह मुझसे न हो सकेगा।

‘और क्या यह खतरा नहीं है कि कालांतर में लोग संदेह करें कि सारे वक्तव्य एक ही महापुरुष के हैं?

हर्जा क्या है? अगर लोग ऐसे ही समझेंगे कि बहुत—से लोगों की ये बातें हो सकती हैं, एक की नहीं हो सकतीं, तो हर्जा क्या है? यह लोग जानें। और पीछे का हम क्या हिसाब रखें आज से कि कल लोग क्या सोचेंगे! भविष्य को हम अज्ञात ही रहने दें।

मैं जानता हूं कि मेरे वक्तव्य अड़चन देंगे। कोई व्यक्ति जो मेरे वक्तव्यों के आधार पर पी एच डी. लेना चाहेगा, इतनी आसानी से न ले पायेगा। लाख सिर मारेगा तो भी उसकी सूझ—बूझ में न पड़ेगा। यह कोई नहर नहीं है जो मैंने तुमसे कही; यह उद्दाम वेग में बाढ़ में आई हुई नदी है, इसको तुम पी एच डी. के हिसाब से न बांध सकोगे। लेकिन पी एच. डी मिले किसी को, न मिले ,. इसकी परेशानी मैं क्यों लूं?’

एक जगह आधुनिक कला की प्रदर्शनी हो रही थी। अब आधुनिक कला तो आप जानते हैं, कुछ भी समझ में नहीं आता।

कहते हैं एक बार पिकासो का चित्र उल्टा टांग दिया किसी ने प्रदर्शनी में, तो वह उल्टा ही टंगा रहा और लोग उसकी प्रशंसा करते रहे और आलोचकों ने उसकी प्रशंसा में लेख लिख मारे। और जब पिकासो पहुंचा उसने कहा किसने यह बदतमीजी की, मेरा चित्र उल्टा लटका हुआ है!

मगर उल्टा—सीधे का पता लगाना मुश्किल है।

एक बार पिकासो के पास एक आदमी आया, वह दो पेंटिंग खरीदना चाहता था और एक ही तैयार थी। वह अरबपति आदमी था। उसने कहा, जो पैसे चाहिए, लेकिन अभी इसी वक्त…..। पिकासो भीतर गया, उसने कैंची से पेंटिंग के दो टुकड़े कर दिए, दो पेंटिंग हो गईं। अब पिकासो की पेंटिंग ऐसी है कि तुम चार टुकड़े भी कर दो तो भी पता नहीं चलेगा कि बीच से काटी कि क्या हुआ। एक बार तो कहते हैं एक आदमी ने अपना पोट्रेंट बनवाया। पिकासो ने बनाया। कई हजार डालर मांगे। उस आदमी ने कहा, और सब तो ठीक है, लेकिन मेरी नाक ठीक नहीं। पिकासो ने कहा, अच्छा ठीक है, झंझट तो बहुत होगी, लेकिन हम ठीक कर देंगे। जब वह आदमी चला गया तो पिकासो बड़ा उदास बैठा है। उसकी प्रेयसी ने पूछा, इतने उदास क्यों हो? उसने कहा कि मुझे ही पता नहीं कि नाक बनाई कहां है! अब कहा ठीक कर दो!

यह आधुनिक कला तो ऐसी है। तो आध्रनिक चित्रों की एक प्रदर्शनी होती थी। लोग बड़े हैरान हुए, क्योंकि प्रदर्शनी में जो पुरस्कार बांटने के लिए न्यायाधीश नियुक्त किया था, एक ज्योतिषी……। लोगों ने पूछा. ज्योतिषी महाराज को कला का क्या पता? इनको हमने भूत—प्रेत उतारते भी देखा, हाथ, कुंडली पढ़ते भी देखा, ज्योतिषशास्त्र भी, मगर कला का इनको कुछ पता है, यह तो हमें पता ही नहीं था। आज तक ये कहां छिपे रहे?

तो संयोजकों ने कहा, इन्हें कला का कुछ पता भी नहीं है, लेकिन यह कला ऐसी है कि इसमें पता होने का सवाल कहां है? और सच तो यह है कि यह कला ऐसी उलझन— भरी है कि सिर्फ ज्योतिषी ही पता लगा सकता है कि इसमें कौन—सा ठीक है, कौन—सा गलत है।

मैं जो कह रहा हूं जब इकट्ठा तुम उसे फैलाओगे तो बहुत कठिन हो जायेगा, यह सच है। उसमें पता लगाना कि मैंने क्या कहा, क्या नहीं कहा, क्यों ऐसा कहा, फिर क्यों ऐसा खंडन कर दिया। चलो अच्छा ही है, भविष्य के लिए थोड़ा बौद्धिक अभ्यास होगा।

ये वक्तव्य मैं पंडितो के लिए छोड़ भी नहीं जा रहा हूं; ये तो उनके लिए छोड़ जा रहा हूं जो ध्यानी हैं। ध्यानी को समझ में आयेंगे, पंडित को समझ में नहीं आयेंगे।

तो इनके पीछे एक राज है और वह राज यह है कि ध्यानी को ही समझ में आ सकते हैं ये, पंडित को बिलकुल समझ में नहीं आयेंगे। पंडित तो कहेगा कि यह आदमी या तो पागल था या बहुत तरह के आदमी थे। ये एक आदमी के वक्तव्य नहीं हैं, कई आदमियों के वक्तव्य एक—दूसरे से मिल गये हैं, डांवांडोल हो गये हैं, गड्डमगड्ड हो गये हैं। यह कोई एक आदमी की बात नहीं हो सकती, एक आदमी इतनी बातें कैसे कह सकता है?

राज है—ये वक्तव्य पंडित के लिए छोड़े नहीं जा रहे हैं। ये वक्तव्य ध्यानी के लिए छोड़े जा रहे हैं। हा, जो ध्यान और प्रेम में डूब कर इनको पढ़ेगा, वह समझ लेगा। नहीं कि वक्तव्य समझ लेगा; समझ लेगा उसको जिसने ये दिए थे, समझ लेगा उस चैतन्य की दशा को जिसमें ये दिए गये थे; समझ लेगा उस साक्षी— भाव को जिसमें इनका अवतरण हुआ था।

मेरे एक—एक शब्द में मेरे शून्य की थोड़ी—सी झलक रहेगी। और मेरे शब्द के आसपास खाली जगह में मेरी मौजूदगी रहेगी।

राज इनमें है; लेकिन तर्क और विचार का नहीं—ध्यान और शून्य का।

आखिरी प्रश्न :

कल आपने भय की चर्चा की कि सब कुछ भय से ही हो रहा है। वेद भी ऐसा ही कहते हैं। वेदों में भी आदमी को डराया ही गया है। यह भय क्यों और कैसे पैदा हुआ जिसके कारण मैं बहुत परेशान हूं? भय के अतिरिक्त मुझमें कोई वासना नहीं है। इस भय मात्र को मिटाने के उपाय बताने की अनुकंपा करें।

पहली बात. जब तक तुम भय को मिटाना चाहोगे, भय न मिटेगा। मिटाने में ही भय छिपा है। तुम न केवल भयभीत हो, तुम भय से भी भयभीत हो। इसलिए तो मिटाना चाहते हो। तुम मिटा न सकोगे। तुम मिटोगे तो भय चला जायेगा। तुम भय को न मिटा सकोगे। भय ही तुम्हारे अहंकार की छाया है।

समझो कि भय क्या है।

तुम जानते हो मौत होगी, इसे तुम झुठला नहीं सकते। रोज कोई मरता है। हर मरने वाले में तुम्हारे ही मरने की खबर आती है। जब भी कोई अरथी निकलती है, तुम्हारी ही अरथी निकलती है। और जब भी कोई चिता जलती है, तुम्हारी ही चिता जलती है। कैसे भुलाओगे त्र तुम जानते हो कि तुम भी मरोगे। जन्म गये तो मरोगे तो ही। यह देह तो मरण—शैव्या पर धरी है। यह तो चढ़ी है चिता पर। यह तो तुम रोज मरते जा रहे हो। भयभीत कैसे न होओगे? यह डर तो खायेगा। यह तो घबडायेगा कि मौत करीब आ रही है, पता नहीं कब आ जाये! कभी भी आ जाये, किसी भी क्षण आ सकती है।

इस जीवन में एक ही चीज निश्चित है—मृत्यु; और तो कुछ निश्चित नहीं है। इस निश्चित मृत्यु से तुम घबडाओगे कैसे न पू घबडाओगे तो ही। यह बिलकुल स्वाभाविक है। तुमने शरीर को समझ लिया मैं, तो मौत होने वाली है। मौत होगी तो भय होगा। तुमने मन को समझ लिया मैं। और मन तो शरीर से भी ज्यादा अस्थिर है; क्षण भर भी वही नहीं रहता, बदलता ही जाता है; पानी की धार है, अभी कुछ, अभी कुछ। सुबह प्रेम से भरा था, दोपहर घृणा से भर गया। अभी— अभी श्रद्धा उमग रही थी, अभी— अभी अश्रद्धा पैदा हो गई। अभी— अभी बड़ी करुणा दर्शा रहे थे, अभी— अभी क्रोध में आ गये। अभी जिसके लिए मरने को तैयार थे, अभी उसको मारने को तत्पर हो गये।

यह मन तो भरोसे का नहीं है; यह तो बिलकुल कैप रहा है। यह तो पानी की लहर है। इस पर तो खींचों कुछ, खिंचता नहीं है, मिट जाता है। इस मन के साथ तुमने अपने को एक समझा है! क्षणभंगुर मन के साथ तुमने अपने को एक समझा है। मृत्यु के मुख में चले जा रहे शरीर के साथ तुमने अपने को एक समझा। तुम भयभीत कैसे न होओगे? और तुम पूछते हो. भय से छुटकारा कैसे हो? भय स्वाभाविक है। भय तुम्हारे भ्रांत तादात्म्य की छाया है। जिस दिन तुम जानोगे कि मैं शरीर नहीं, मैं मन नहीं, उसी दिन तुम जानोगे कि भय गया। लेकिन उस दिन तुम यह भी जानोगे कि मैं भी नहीं, न शरीर मैं हूं न मन मैं हूं। तब जो शेष रह जाता है वहां तो मैं खोजे भी मिलता नहीं। वहा तो मैं की कोई धारणा ही नहीं बनती। मैं तो पैदा ही तादात्म्य से होता है। किसी चीज से जुड़ जाओ तो मैं पैदा होता है। शरीर से जुड़ जाओ तो मैं। मन से जुड़ जाओ तो मैं। धन से जुड़ जाओ तो मैं। धर्म से जुड़ जाओ तो मैं। कहीं भी जोड़ लो अपने को तो मैं। जब सब जोड़ छूट गये तो मैं बचता नहीं। तब भीतर रह जाता है शून्य स्वभाव। उस शून्य स्वभाव में कोई भय की रेखा भी पैदा नहीं होती।

तो तुम पूछते हो कि भय से कैसे छुटकारा हो?

नहीं, भय से छुटकारे की चेष्टा न करो; भय को समझो कि भय क्यों है? छुटकारे के तो तुम उपाय कर ही रहे हो। तो कोई भगवान के चरणों को पकड़े पड़ा है कि हे प्रभु, बचाओ, तुम्हारी शरण आया हूं। लेकिन भय के कारण ही पड़ा है। तुम भगवान को याद ही करते हो जब तुम भयभीत हो जाते हो।

एक नाव डूबी—डूबी हो रही थी और मुल्ला नसरुद्दीन और उसका मित्र दोनों कैप रहे हैं। नसरुद्दीन का मित्र घुटने टेक कर बैठ गया, नमाज पढ़ने लगा। उसने कहा, ‘हे अल्लाह, हे परम पिता, अगर तूने मुझे बचा लिया तो मैं अब कभी भी शराब न पीऊंगा। अगर तूने मुझे आज बचा लिया तो मैं कभी धूम्रपान न करूंगा।’ वह बड़े त्याग करने लगा। आखिर में वह यह कहने ही जा रहा था कि अगर तूने मुझे बचा लिया तो मैं संन्यासी हो जाऊंगा, फकीर हो जाऊंगा—तभी मुल्ला बोला, ‘ठहर—ठहर! रुक! इतनी जल्दी मत कर, किनारा दिखाई पड़ रहा है।’ और वह आदमी उठ कर खड़ा हो गया और भूल गया सब बकवास। जब किनारा ही दिखाई पड़ रहा है तो फिर कौन फिक्र करता है!

मुल्ला एक बार चढ़ रहा था वृक्ष पर, खजूर लगे थे। लंबा वृक्ष। पैर खिसके, तो कहने लगा, ‘हे प्रभु अगर आज वृक्ष तक पहुंचा दो, खजूर तोड़ लूं तो पूरा नगद एक रुपया चढ़ाऊंगा। पक्का मानो। हालांकि अतीत में मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया कि तुम भरोसा करो, मगर इस बार करो।’ चढ़ गया। जब खजूर के बिलकुल पास पहुंचने लगा फलों के, तो उसने सोचा, यह तो तुम भी मानोगे कि इतने से खजूर के लिए एक रुपया ज्यादा है। जब खजूर पर हाथ ही रख दिया तो उसने कहा कि चढ़े तो हम और पैसा तुम्हें चढ़ाये! इसी बीच पैर खिसका और धड़ाम से जमीन पर गिरा। खजूर भी छूट गये। नीचे गिरा, जल्दी कपड़े झाडू कर ऊपर देख कर बोला, ‘यह भी क्या बात हुई। अरे जरा मजाक भी नहीं समझे! अगर आज गिराया न होता तो एक नगद कलदार चढ़ाते।’

बस आदमी जब भय में होता है तब भगवान; जैसे ही भय के जरा बाहर हुआ कि भगवान इत्यादि सब भूल जाता है। तुम्हारा भगवान तुम्हारे भय का ही रूप है।

और लोग मानते हैं कि आत्मा अमर है। यह भी तुम्हारे भय की ही धारणा है। मैं यह नहीं कह रहा कि आत्मा अमर नहीं है। लेकिन तुम्हारा मानना कि आत्मा अमर है— भय की धारणा है। डरे हो मौत से, तो कहते हो, आत्मा अमर है। कैप रहे हो। आत्मा का कोई पता नहीं, अमरता की तो बात ही छोड़ो। मगर आत्मा अमर है! इन सिद्धातो में अपने को छिपाने की कोशिश मत करो।

भय से मुक्ति संभव है—भय को जानने के द्वारा। भय का साक्षात्कार करो। जहां भी तुम्हें लगे भय है, वहां भय पर ध्यान करो। समझने की कोशिश करो—क्यों है? कहा है? किस कोने में छिपा? मन के किस अचेतन में बैठा? कहां से उठता यह धुआं? क्यों उठता?

जिन मित्र ने पूछा है, मुझे लगता है कि उन्होंने भय का कभी साक्षात्कार नहीं किया। भय ने उन्हें पंगु कर दिया है। तुम इस पंगुता को तोड़ो। जब भय लगे, बैठ कर शांति से ध्यानपूर्वक भय को पहचानो कहां है। लगता है शरीर मर जायेगा, तो शरीर तो मरना ही है, इसमें भय की क्या बात है?

यह तो होना ही है। इसमें भय करने से प्रयोजन क्या है?

सुकरात मरता था, एक शिष्य ने पूछा, आप भयभीत नहीं हैं? तो सुकरात ने आंख खोली और उसने कहा, भय? दो ही संभावनायें हैं : या तो जैसा नास्तिक कहते हैं कि मैं मर जाऊंगा, बिलकुल मर जाऊंगा, कुछ भी न बचेगा; जब कुछ बचेगा ही नहीं तो भय किसका, किसको होगा? बात खतम हो गई। सुकरात न रहा, खतम हो गई बात। रह कर भी क्या करना था पू इतने दिन रहे तो भी क्या कर लिया? जन्म के पहले भी नहीं थे, तब तो कोई तकलीफ नहीं थी; मौत के बाद फिर नहीं हो जायेंगे, तो तकलीफ क्या है?

तुमसे मैं पूछता हूं : जन्म के पहले तुम नहीं थे, अगर नास्तिक सही हैं, तो जन्म के पहले तुम नहीं थे; कौन सी तकलीफ थी नहीं होने में? कोई याद आती है तकलीफ? जन्म के पहले की कोई तकलीफ याद है? जब थे ही नहीं तो तकलीफ कैसी ? जब कोई था ही नहीं तो तकलीफ किसको? मरने के बाद फिर नहीं हो गये, तो अब घबड़ाना क्या है? फिर वैसे ही होगा जैसे जन्म के पहले थे, ऐसे ही समझो।

तो सुकरात ने कहा : अगर नास्तिक सही हैं, कि आत्मा समाप्त हो जायेगी मृत्यु में, कुछ भी न बचेगा, तो भय क्या? जैसे जन्म के पहले नहीं थे वैसे फिर नहीं हो गये, बात खतम हो गई, आई—गई हो गई। एक लहर उठी, खो गई। या हो सकता है, आस्तिक सही हों। अगर आस्तिक सही हैं और आत्मा बचेगी, तो फिर भय कैसा? शरीर ही गया, हम तो बचे ही रहे। हम तो शरीर थे ही नहीं।

तो सुकरात ने कहा : दो ही संभावनायें हैं या तो आस्तिक सही हों या नास्तिक सही हों। और सुकरात बड़ा हिम्मत का आदमी है। वह यह भी नहीं कहता है कि मैं मानता हूं इसमें कौन सही है। वह कहता है. मुझे कुछ पता नहीं है। मगर भय कैसा? दो में से कोई एक ही ठीक हो सकता है। दोनों हालत में भय व्यर्थ है।

तो अगर शरीर का जाने का भय लगता है तो क्या डर है? शरीर तो जायेगा।

एक फकीर के दो बेटे थे, मर गये एक दुर्घटना में। जब वह फकीर घर आया नमाज पढ़ कर मस्जिद से तो उसकी पत्नी ने कहा, पहले तुम भोजन कर लो, फिर तुम्हें एक बात कहनी है। उसने भोजन कर लिया। लेकिन वह बार—बार पूछने लगा, बेटे कहा हैं? क्योंकि उसको बेटों से बड़ा लगांव था। जुड़वां बेटे थे। और कहने लगा कि वे सदा मस्जिद पहुंच जाते थे, आज मस्जिद भी नहीं पहुंचे, बात क्या है? पत्नी ने कहा, पीछे बताऊंगी, आप पहले भोजन कर लें। उसने भोजन कर लिया, हाथ—पैर धो कर बैठ गया। तो उसने कहा, अब दूसरे कमरे में आयें, लेकिन पहले एक बात कहनी है। बीस साल पहले एक आदमी कुछ हीरे —जवाहरात मेरे पास रख गया था अमानत के तौर पर, आज वापिस मांगने आया, तो मैं उसे लौटा दूं? फकीर ने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है? जो उसकी है चीज, उसे लौटा दो। इसमें मेरे पूछने के लिए रुकने की जरूरत ही न थी। तुमने लौटाए क्यों न? क्या कुछ मन में बेईमानी आ गई?

उसने कहा, बस फिर सब ठीक है, अंदर आयें। उसने चादर उठा दी, दोनों लड़के मुर्दा पड़े थे। फकीर तो सन्नाटे में आ गया। लेकिन तब समझा बात। बीस साल पहले दोनों पैदा हुए थे; जिसने दिया था, वह आज वापिस ले गया। हंसने लगा। उसने पत्नी से कहा, तूने ठीक किया। तूने यह बात

मुझसे ठीक ही पूछी। और फिर देख मजे की बात, बीस साल पहले ये दोनों जब पैदा नहीं हुए थे तब भी सब ठीक था, अब ये दोनों चले गये तो गलत होने का क्या कारण है! तब भी तो हम मजे में थे जब ये नहीं थे। जैसे तब थे वैसे अब होंगे। एक सपना था, देखा और टूट गया।

तो अगर शरीर के कारण भय लगता है तो यह शरीर तो जायेगा। इसे बचाने का कोई उपाय नहीं। अगर मन के कारण भय लगता है तो मन तो तुम हो ही नहीं। थोड़े जागो! ध्यान करो! होश से भरो। जैसे—जैसे जागने लगोगे, चैतन्य की ज्योति जलने लगेगी, शरीर—मन से अलग होने लगोगे, वैसे —वैसे भय विसर्जित हो जायेगा।

लेकिन तुम भय के खिलाफ मत लड़ो। खिलाफ लड़ोगे तो तुम भीतर तो कंपते ही रहोगे। हालत उल्टी बनी रहेगी।

भय से मुक्त हो कर अपूर्व जीवन के फूल खिलते हैं। भय से दबे रह कर सब जीवन की कलियां बिन खिली रह जाती हैं, पंखुड़ियां खिलती ही नहीं। भय तो जड़ कर जाता है। तो मैं जानता हूं तुम्हारी तकलीफ। लेकिन तुम भय से बचने के लिए उत्सुक हो तो कभी न बच पाओगे। मैं तुमसे कहता हूं : भय को जानो, देखो—है; जीवन का हिस्सा है। आंख गड़ा कर भय को देखो, साक्षात्कार करो। जैसे—जैसे तुम्हारी आंख खुलने लगेगी और भय को तुम ठीक से देखने लगोगे, पहचानने लगोगे—कहां से भय पैदा होता है—उतना ही उतना भय विसर्जित होने लगेगा, दूर हटने लगेगा। और एक ऐसी घड़ी आती है अभय की, जब कोई भय नहीं रह जाता। मृत्यु तो रहेगी, शरीर मरेगा, मन बदलेगा, सब होता रहेगा; लेकिन तुम्हारे अंतस्तल में कुछ है शाश्वत—सनातन छिपा, जिसकी कोई मृत्यु नहीं। उसका थोड़ा स्वाद लो। साक्षी में उसका स्वाद मिलेगा। उसके स्वाद पर ही भय विसर्जित होता है; और कोई उपाय नहीं है।

हरि ओंम तत्सत्!


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–3

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ज्ञान है परमयोग—प्रवचन—तीसरा

सूत्र:

जेण तच्‍चं विवुज्‍झेज्‍ज, जेण चितं णिरूज्‍झदि।

जेण अत्‍ता विसुज्‍झेज्‍ज, तं णाणं जिणसासणे।। 85।।

जेण रागा विरज्‍जेज्‍ज, जेण सेए सु रज्‍जदि।

जेण मित्‍ती पभावेज्‍ज, तं णाणं जिणसासणे।। 86।।

जे पस्‍सदि अप्‍पाणं, अबद्धपुट्ठं अणन्‍नमविसेसं।

अपदेससुत्‍तमज्‍झं, पस्‍सदि जिणसासणं सव्‍वं।। 87।।

जो अप्‍पाणं जाणदि, असुइ—सरीरादु तच्‍चदो भिन्‍नं।

जाणग—रूव—सरूवं, सो सत्‍थं जाणदे सव्‍वं।। 88।।

एदम्‍हि रदो णिच्‍चं, संतुट्ठो होहि णिच्‍चमेदिम्‍हि।

एदेण होहि तित्‍तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्‍खं।। 89।।

एक यहूदी लोककथा है।

एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्न हो गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया। बंजारा बड़ा प्रसन्न था गधे के साथ, अब उसे पैदलयात्रा न करनी पड़ती। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता। और गधा बड़ा स्वामिभक्त था।

लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पड़ा और मर गया। दुख में उसने उसकी कब्र बनायी, और उस कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा।

उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्मा की मृत्यु हो गयी। तो वह भी झुका कब्र के पास। इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे, उसने कुछ रुपये कब्र पर चढ़ाये। बंजारे को हंसी भी आयी। लेकिन तब उस भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालूम न पड़ा। और फिर उसे यह भी समझ में आया कि यह तो बड़ा उपयोगी व्यवसाय हो गया।

फिर वह उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो गया। लोग आते, गांव-गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्मा की मृत्यु हो गयी; और गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए फकीर की समाधि बन गयी। ऐसे वर्ष बीते, वह बंजारा बहुत धनी हो गया।

फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा। उसे भी लोगों ने कहा, एक महान आत्मा की कब्र है यहां, दर्शन किये बिना मत चले जाना। वह गया। देखा वहां उसने इस बंजारे को बैठा, तो उसने कहा, अरे! किसकी कब्र है यह? और तू यहां बैठा क्यों रो रहा है? उस बंजारे ने कहा, अब आप से क्या छिपाना, जो गधा आपने दिया था, उसी की कब्र है। जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया, मरकर और भी ज्यादा साथ दे रहा है। सुनते ही फकीर खिलखिलाकर हंसने लगा। उस बंजारे ने पूछा, आप हंसे क्यों? फकीर ने कहा, तुझे पता है, जिस गांव में मैं रहता हूं वहां भी एक पहुंचे हुए महात्मा की कब्र है। उसी से तो मेरा काम चलता है। वह किस महात्मा की कब्र है, तुझे मालूम? उसने कहा मुझे कैसे मालूम, आप बतायें। उसने कहा, वह इसी गधे की मां की कब्र है।

धर्म के नाम पर अंधविश्वासों का बड़ा विस्तार है। धर्म के नाम पर थोथे, व्यर्थ के क्रियाकांडों, यज्ञों, हवनों का बड़ा विस्तार है। फिर जो चल पड़ी बात, उसे हटाना मुश्किल हो जाता है। जो बात लोगों के मन में बैठ गयी, उसे मिटाना मुश्किल हो जाता है। और इसे बिना मिटाये वास्तविक धर्म का कोई जन्म नहीं हो सकता। अंधविश्वास न हटे, तो धर्म का दीया जलेगा ही नहीं। अंधविश्वास उसे जलने ही न देगा।

महावीर के सामने यह बड़े से बड़ा सवाल था। दो विकल्प थे। दोनों खतरनाक थे। सभी बुद्धिमान व्यक्तियों के सामने यही सवाल है। और दो ही विकल्प हैं। एक विकल्प है नास्तिकता का, जो अंधविश्वास को इनकार कर देता है। और अंधविश्वास के साथ-साथ धर्म को भी इनकार कर देता है। क्योंकि नास्तिकता देखती है इस धर्म के ही कारण तो अंधविश्वास खड़े होते हैं। तो वह कूड़े-कर्कट को तो फेंक ही देती है, साथ में उस सोने को भी फेंक देती है। क्योंकि इसी सोने की वजह से तो कूड़ा-कर्कट इकट्ठा होता है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी; वैसा नास्तिक का तर्क है।

नास्तिक बहुत थे भारत में जब महावीर पैदा हुए। चार्वाक की बड़ी गहन परंपरा थी। चार्वाक शब्द ही आता है चारुवाक से। इसका अर्थ होता है, जो वचन सभी को प्रीतिकर लगते हैं। चारु वाक। जो धारणा सभी को प्रीतिकर लगती है। ईश्वर नहीं है, बहुत गहरे में सभी को प्रीतिकर लगता है। क्योंकि ईश्वर नहीं है तो तुम अनुभव करते हो कि तुम स्वतंत्र हो। फिर तुम्हारे ऊपर कोई भी नहीं है। ईश्वर नहीं है, तो फिर न कुछ पाप है, न पुण्य है। फिर जो मर्जी हो करो। चार्वाकों का दूसरा नाम है लोकायत। लोकायत का अर्थ भी होता है, जो लोक को प्रिय है। जो अधिकतम लोगों को प्रिय है।

तो चाहे तुम्हें ऊपर से अधिकतम लोग धार्मिक मालूम पड़ते हों, लेकिन भीतर से जांचने जाओगे तो अधिकतम को तुम नास्तिक पाओगे। भला मंदिर-मस्जिद में मिलें वे तुम्हें, पूजा-प्रार्थना करते मिलें, लेकिन अंतर्तम में वे नास्तिक हैं। वे जानते हैं कि ईश्वर इत्यादि है नहीं। क्योंकि ईश्वर के होने का अर्थ होता है, एक महान उत्तरदायित्व। फिर एक-एक कदम सम्हालकर रखना होगा। फिर पाप और पुण्य का विचार करना होगा। फिर तुम जो कर रहे हो, उसका निर्णय होने को है। रत्ती-रत्ती का हिसाब चुकाना होगा। ईश्वर की मौजूदगी घबड़ाती है। कोई भी तो नहीं चाहता कि सिर पर कोई और हो। ईश्वर के हटते ही मनुष्य अपना खुद मुख्तार हो जाता है। सब कुछ अपने हाथ में आ जाता है।

चार्वाकों ने कहा है–ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।

अगर ऋण लेकर भी घी पीना पड़े, कोई फिकिर नहीं। ले लो ऋण। देना-लेना किसको है! बचता कौन है! लौटकर आता कौन है! मरने के बाद कोई हिसाब नहीं है। न कर्म का, न पाप का, न पुण्य का; न शुभ का, न अशुभ का। कर लो जो करना है। एक ही खयाल रखो, भोग लो, छीन-झपट से सही, चोरी-चपाटी से सही, लेकिन एक ही मूल्य है नास्तिक के सामने–किसी भी तरह भोग लो। चूस लो जीवन में जो मिला है। फिर आना नहीं होगा। बचोगे भी नहीं। मिट्टी, मिट्टी में गिरेगी और मिट जायेगी। तो नास्तिक अंधविश्वास से तो बच जाते हैं, लेकिन साथ ही धर्म से भी बच जाते हैं।

फिर दूसरा सामान्य विकल्प है तथाकथित धार्मिक आदमी का। वह धर्म को तो पकड़ता है, लेकिन धर्म के साथ इतना कूड़ा-कर्कट ले आता है कि उस कूड़े-कर्कट के कारण धर्म के हीरे को खोजना ही मुश्किल हो जाता है।

महावीर जब जन्मे, दोनों विकल्प थे। एक तरफ आस्तिक था। धर्म का जाल था और उस धर्म में फंसे हुए लोग थे, जो केवल पुरोहित-पंडित के हाथ में फंस गये थे। परमात्मा तक पहुंचने का कोई उनके पास उपाय न था। पंडित ही बीच में उन्हें लूटे ले रहा था। और दूसरी तरफ नास्तिक थे, जिन्होंने पंडित को इनकार किया, साथ ही परमात्मा को भी फेंक दिया था।

महावीर के सामने सवाल था धर्म बच जाए और अंधविश्वास हट जाए। तो उन्होंने एक ऐसे धर्म को जन्म दिया, जिसमें नास्तिकता भी है और आस्तिकता भी। यह उनका अदभुत समन्वय था। इसलिए उन्होंने कहा, ईश्वर तो नहीं है। क्योंकि ईश्वर के साथ अंधविश्वास आने शुरू हो जाते हैं। ईश्वर किसी की पकड़ में आता नहीं। न समझ में आता। ईश्वर इतने दूर का तारा है कि हमारी आंखें उसे देख भी नहीं पातीं। तो स्वभावतः इतने दूर की चीज को समझने के लिए बीच में दलाल खड़े करने होते हैं। यात्रा इतनी लंबी है कि बीच के पड़ाव बनाने पड़ते हैं। वे ही पड़ाव मंदिर और मस्जिद, गुरुद्वारा बन जाते हैं। वे ही पड़ाव पंडित-पुरोहित बन जाते हैं।

तो पुरोहित कहने लगता है, तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, लेकिन मेरा सीधा संबंध है। पुरोहित कहने लगता है, तुम फिकिर मत करो, तुम्हारे लिए मैं प्रार्थना कर दूंगा। तुम चिंता छोड़ो। यह तुमसे न हो सकेगा। तुम बड़े असहाय, बड़े कमजोर, बड़े सीमित हो। तो एक व्यवसाय खड़ा होता है मनुष्य और परमात्मा के बीच में। परमात्मा तो नहीं मिलता, परमात्मा के नाम पर धोखाधड़ी हाथ में आती है।

तो महावीर ने परमात्मा को तो इनकार कर दिया। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं है। बल्कि इसलिए कि परमात्मा के कारण ही आस्तिक आस्तिक नहीं हो पा रहा है। महावीर परम आस्तिक थे इसलिए परमात्मा को इनकार कर दिया। क्योंकि देखा, यह औषधि तो बीमारी से भी महंगी पड़ रही है। इस औषधि को लाते ही चिकित्सक बीच में खड़ा हो जाता है। बीच में दुकानदार खड़ा हो जाता है। परमात्मा को इनकार कर दिया। लेकिन परमात्मा को इस तरह इनकार नहीं किया जैसा चार्वाक, लोकायत और नास्तिक करते हैं।

परमात्मा को बाहर तो इनकार कर दिया और भीतर स्थापित कर दिया। कहा, मनुष्य के भीतर है परमात्मा। जो भीतर है, उसके लिए पंडित और पुरोहित की जरूरत नहीं। वह इतने पास है, जगह कहां कि तुम अपने बीच और परमात्मा के बीच में पुरोहित को खड़ा कर लो। इतनी भी जगह नहीं। इतना भी स्थान नहीं। तुम ही परमात्मा हो। इसलिए कहीं दूर का संदेश नहीं है, संदेशवाहक की जरूरत नहीं है। कहीं चिट्ठी-पाती लिखनी नहीं है, इसलिए डाकिये की कोई जरूरत नहीं है। आंख बंद करो, जागो, वह मौजूद है।

इसलिए महावीर ने आत्मा को परमात्मा के पद पर उठाया। यह बड़ी अनूठी दृष्टि थी। इस तरह नास्तिक के पास जो खूबी की बात थी–अंधविश्वास नहीं–वह भी महावीर ने पूरी कर ली और आस्तिक के पास जो खूबी की बात थी–धर्मभाव, श्रद्धा–वह भी पूरी कर ली। ऐसा अदभुत समन्वय न इसके पहले कभी हुआ था, न इसके बाद हुआ।

कुफ्रो-इलहास से नफरत है मुझे

और मज़हब से भी बेज़ार हूं मैं

नास्तिकता और अधर्म से भी नफरत है, और मजहब से भी बेजार हूं मैं। और धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह भी मन को बहुत पीड़ा देता है।

कुफ्रो-इलहास से नफरत है मुझे

और मज़हब से भी बेज़ार हूं मैं

हूरो-गिल्मां का यहां जिक्र नहीं

नौए-इंसा का परस्तार हूं मैं

और यहां स्वर्ग के सुखों की कोई बात नहीं, मैं तो सिर्फ आदमी का उपासक हूं। महावीर ने आदमी को, “अत्ता’ को, आत्मा को सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रखा। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी, किसी ने कभी न दी थी।

इस बात को खयाल में लेकर चलें तो आज के सूत्र साफ हो सकेंगे। क्योंकि आज के सूत्र मनुष्य की स्तुति में कहे गये सूत्र हैं। आज के सूत्र मनुष्य की महिमा के गीत हैं। इस महिमा की तुम्हें जरा-सी भी झलक मिलनी शुरू हो जाए तो तुम क्षुद्र से अपने-आप मुक्त होने लगोगे। तुम्हें जरा-सी भी याद आ जाए कि तुम कौन हो, जैसे किसी भिखमंगे को याद आ जाए कि अरे! मैं कहां भटक रहा हूं, मैं तो राजपुत्र हूं! जैसे किसी भिखमंगे को याद आ जाए भूला-बिसरा धन, कि जहां बैठकर भीख मांग रहा है, वहीं उसकी तिजोड़ी गड़ी है। याद आते ही–अभी तिजोड़ी खोदी भी नहीं है–लेकिन याद आते ही भिखमंगा भिखमंगा नहीं रहा, उसके हाथ का भिक्षापात्र गिर जाएगा।

मैंने सुना है, एक सम्राट अपने बेटे से नाराज हो गया तो उसे निकाल दिया, राज्य के बाहर। राजा का बेटा था, कुछ और करना जानता भी न था। मजदूरी कर न सकता था। कभी सीखी नहीं कोई बात। कोई कला-कौशल न आता था। तो जब कभी राजा हट जाए राज्य से, तो भिखारी होने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह जाता। तो यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं कि महावीर और बुद्ध दोनों राजपुत्र थे और दोनों ने जब राज्य छोड़ा, तो दोनों भीख मांगने लगे। यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं। राजपुत्र और कुछ जानता नहीं। या तो वह सम्राट हो सकता है, और या भिखारी हो सकता है। एक अति से दूसरी अति पर ही जा सकता है। बीच में कोई जगह नहीं। वह राजपुत्र भीख मांगने लगा किसी दूर की राजधानी में।

वर्षों बीत गये। भूल ही गया यह बात धीरे-धीरे। रोज-रोज भीख मांगो तो कहां, कैसे याद रहे कि तुम सम्राट के बेटे हो! कितनी दूर तक इसे याद रखोगे! रोज-रोज भीख मांगना, भीख का मिलना मुश्किल है। कपड़े उसके जराजीर्ण हो गये, पैर लहूलुहान हो गये, शरीर काला हो गया, अपना ही चेहरा दर्पण में देखे तो पहचान न आये, भूल ही गया, फुर्सत कहां रही? याद करने की सुविधा कहां रही? भीख मांगने से समय कहां कि याद करे, बैठे सोचे कि राजमहल…और फिर वह याद पीड़ादायी भी हो गयी। और उस याद से तो घाव को ही छेड़ना है। सार भी क्या है? उससे कुछ सुख तो मिलता नहीं, दुख ही मिलता है। कांटे चुभाने से बार-बार प्रयोजन क्या है! तो धीरे-धीरे हम उन बातों को भूल जाते हैं, जिनसे दुख मिलता है। वह भूल गया।

उसका पिता बूढ़ा हुआ। एक ही बेटा था। पछताने लगा बाप। अब मौत करीब आती है, अब कौन मालिक होगा इस साम्राज्य का? बुरा-भला जैसा था, उसने अपने वजीर भेजे कि उसे खोज लाओ। जिस दिन वजीर उस गांव में पहुंचे जहां वह भिखमंगा भीख मांग रहा था, एक छोटे-से होटल के सामने जहां जुआरी ताश खेल रहे थे वह भीख मांग रहा था, एक टूटे-से ठीकरे में।

राजमहल से आया रथ रुका। वजीर नीचे उतरा। सूरज की किरणों में चमकता हुआ स्वर्ण-रथ! यह वर्षों का भिखमंगापन जैसे एक क्षण में खो गया। वजीर उतरा और उसके पैरों पर गिर गया, और कहा कि आप चलें, पिता ने याद किया है। अभी उस भिक्षापात्र में जो कुछ थोड़े-से पैसे पड़े थे–एक-एक पैसे को मांग रहा था, उसने भिक्षापात्र उसी समय नीचे गिरा दिया। उसकी आवाज बदल गयी। उसने कहा कि जाओ, मेरे लिए ठीक वस्त्रों का इंतजाम करो। जाओ, मेरे लिए ठीक स्नानगृह का इंतजाम करो। अभी मांगता था भीख, तो आवाज में बड़ी दयनीयता थी। उस आवाज और इस आवाज में कोई हिसाब ही न था लगाना। कोई पहचान ही न सकता यह उसी भिखारी की आवाज है। और जब वह बैठ गया रथ पर, तो उसकी आंखों की चमक…एक क्षण में सारा भिखमंगापन खो गया।

तो तुम्हें याद भी आ जाए तुम्हारी महिमा, तुम्हारे स्वरूप की थोड़ी-सी झलक भी, स्वप्न ही सही–अंधेरी से अंधेरी रात में भी तुम्हें सुबह का स्वप्न भी आ जाए–तो रात टूटने लगी। इसलिए महावीर ने ये सूत्र कहे हैं–

“जिससे तत्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है, तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिन-शासन ने ज्ञान कहा है।’

जेण तच्चं विवुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि।

जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।

जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे सत्य का बोध हो, उसे ही जिन्होंने जाना उन्होंने ज्ञान कहा है। शास्त्र से मिल जाए जो ज्ञान, काम का नहीं। आत्मा में डुबकी लगाकर मिले, तो ही काम का है। शास्त्र से मिला ज्ञान तो बड़ा ऊपर-ऊपर है। उससे तुम बदलते नहीं, बदलते हुए मालूम भी नहीं पड़ते। उससे तुम्हें बदलने का धोखा भर पैदा हो जाता है–एक प्रवंचना। जिस सत्य की प्रतीति तुम्हें नहीं हुई, उस सत्य को तुम अगर पूरा भी करते रहो, तो भी तुम्हारी आत्मा से उसका कोई तालमेल नहीं होता।

मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को लोगों ने देखा बीच बाजार में सिर के पीछे तकिया लगाये, दोनों हाथों से संभाले चला जा रहा है। धीरे-धीरे लोग इकट्ठे हो गये। भीड़ जमा हो गयी। फिर किसी ने कहा कि मुल्ला, माजरा क्या है? यह कर क्या रहे हो? इस तरह किसी को चलते नहीं देखा–तकिया सिर से लगाये, दोनों हाथों से पकड़े, कर क्या रहे हो? मुल्ला ने कहा, करूं क्या, भाई! डाक्टर ने कहा हृदय का दौरा पड़ा है, तकिये से सिर मत उठाना। तो तकिये से सिर तो उठा ही नहीं सकता हूं!

जिन्होंने शास्त्र से सूचनाएं ली हैं, उनकी सूचनाएं ऐसी ही हैं। वे तकिया बांध लेंगे सिर से, लेकिन करेंगे तो वही जो कर सकते हैं। करेंगे तो वही जो उनके अनुभव में सही मालूम पड़ रहा है। दूसरे के अनुभव से हम ज्यादा से ज्यादा धोखा खा सकते, धोखा दे सकते, लेकिन दूसरे का अनुभव हमारा जीवंत सत्य नहीं बनता है।

तो महावीर शास्त्रज्ञान को ज्ञान नहीं कहते। जिससे तत्व का बोध होता है, जिससे सत्य की प्रतीति होती है। किससे होती है सत्य की प्रतीति? सत्य कहीं लिखा थोड़े ही है। तुम्हारे होने का नाम सत्य है। तुम्हारे अस्तित्व का नाम सत्य है। सत्य कहीं बाहर पड़ा थोड़े ही है कि उसे खोजना है, उघाड़ना है। तुम लिये फिर रहे हो। अपने प्राणों में लिये फिर रहे हो। और जब तक तुम्हारी आंखें बाहर भटकती रहेंगी, तुम वंचित रहोगे। आंख को घर लौटाना है। आंख बंद करनी है, भीतर उतरना है सीढ़ी दर सीढ़ी, एक-एक सोपान। तुम्हारे ही गहन में, तुम्हारी ही गहराई में सत्य पड़ा है। डुबकी लगानी है। यह हीरा कहीं खोजने नहीं जाना है, यह तो तुम्हारे ही अंतर्तम-सागर में पड़ा है। उस डुबकी लगाने का नाम ही है चित्त का निरोध।

चित्त का अर्थ है, जो बाहर ले जाए। चित्त का अर्थ है, बहिर्गमन। चित्त का अर्थ है ऐसे विचार, जो बाहर की तरफ तरंगायित करें। बैठे हैं, सोचने लगे धन का–मिल जाए खूब धन…विचार शुरू हो गये। बैठे हैं, सोचने लगे हो जाएं किसी बड़े पद पर…यात्रा शुरू हो गयी। कितनी बार नहीं तुमने अपने मन में सोचा कि राष्ट्रपति हो गये! कितनी बार नहीं तुमने अपने मन में सोचा कि कुबेर हो गये! कितनी बार तुमने अपने मन में ऐसी योजनाएं नहीं बनायीं! फिर चौंककर खुद हंसे हो अपने मन में कि यह भी क्या कर रहा हूं! क्या सार है? लेकिन फिर भी चित्त बार-बार इन्हीं योजनाओं में घूमता है।

चित्त का अर्थ है, वस्तुओं से चेतना का संबंध। और जब तक चित्त है तब तक संबंध बनते चले जाते हैं। तुम राह पर चल रहे हो, पास से एक कार गुजर गयी, तुम्हारे ही पीछे महावीर भी चल रहे हैं, वह कार उनके पास से भी गुजरी। लेकिन तुम्हारा चित्त पैदा कर जाएगी कार, महावीर में कुछ पैदा न होगा। कार दोनों के पास से गुजरी। तुम्हारे पास से गुजरी इतना ही नहीं, गुजरते ही चित्त पैदा हुआ, तुम जुड़े, तुम कार से लगे। कार तो चली गयी, तुम्हारा चित्त पीछा करने लगा। तुमने सोचा, ऐसी कार मेरी हो! कैसे खरीद लूं? क्या उपाय करूं? महावीर के पास से भी वही कार गुजरी, चित्त पैदा नहीं हुआ। कार गुजर गयी, महावीर गुजर गये, दोनों के बीच कोई संबंध न बना। चित्त का अर्थ है, वस्तुओं से संबंध बन जाना। तुम प्रतिपल वस्तुओं से संबंध बना रहे हो। तुम बहुचित्तवान हो।

महावीर पहले मनीषी हैं, जिन्होंने इस शब्द का उपयोग किया, “बहुचित्तवान।’ फिर यह शब्द खो गया। उसके पहले भी कभी न था। उसके पहले भी किसी ने ऐसा न कहा था कि आदमी में बहुत चित्त हैं। उसके पहले ऐसी ही धारणा थी कि आदमी में एक चित्त है।

महावीर ने कहा, एक से काम न चलेगा, आदमी भीड़ है। आदमी के मन में जितनी वस्तुओं से संबंध बनाने का राग है, उतने ही चित्त हैं। कार से संबंध बना, एक चित्त पैदा हुआ। मकान से संबंध बना, दूसरा चित्त पैदा हुआ। धन से संबंध बना, तीसरा चित्त पैदा हुआ।

अनंत चित्त हम पैदा कर रहे हैं। चित्त प्रतिपल उठ रहे हैं, तरंगों की भांति, जैसे सागर में लहरें उठ रही हैं। जैसे सागर में लहरें उठती हैं हवा के थपेड़ों से, ऐसे ही वस्तुओं से उठती हुई तरंगें हमारे मन में चित्त को पैदा कर जाती हैं।

महावीर ने कहा, मनुष्य बहुचित्तवान है। फिर ढाई हजार साल तक इस शब्द का किसी ने कुछ चिंतन नहीं किया। अभी पश्चिम में मनोवैज्ञानिक फिर इस शब्द को खोज लिये हैं। उनको महावीर का कुछ भी पता नहीं है। महावीर बहुत ही अपरिचित हैं पश्चिम को। पश्चिम ने थोड़े शब्द पतंजलि के सुने हैं। बुद्ध के काफी शब्द सुने हैं। उपनिषद और वेद भी पहुंच गये हैं। लेकिन महावीर पश्चिम के सामने बिलकुल अपरिचित हैं। महावीर का तो उन्हें पता ही नहीं है कि उनके पहले भी एक मनीषी ने इस शब्द का उपयोग किया है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक एक शब्द का उपयोग करते हैं जो ठीक महावीर के बहुचित्तवान का रूपांतर है। वे कहते हैं, मनुष्य “पोलिसाइकिक’ है। बहुचित्तवान।

जिन्होंने भी मन को बहुत गहरे में खोजा है, उन्हें यह सत्य मिल ही जाएगा कि तुम हजारों चित्त पैदा कर रहे हो। चित्त यानी तरंगें। तरंगें ही तरंगें। उन तरंगों के कारण तुम बाहर भागे जाते हो। उन तरंगों के कारण तुम घर नहीं लौट पाते। रात तुमने कभी देखा, अगर बहुत चित्त उठ रहे हों, बहुत तरंगें उठ रही हों, तो नींद तक संभव नहीं होती। अगर तुमने लाटरी का टिकिट खरीदा है, तो उस रात नींद नहीं आती। चित्त में तरंगें उठने लगीं। अभी लाटरी मिली नहीं है।

मैंने सुना है, एक अदालत में मुकदमा था। दो आदमियों ने एक-दूसरे का सिर खोल दिया था। और मजिस्ट्रेट ने पूछा कि हुआ क्या? किस बात से तुम लड़े? और तुम दोनों पुराने दोस्त हो! उन्होंने कहा, वह भी ठीक है। हम दोनों पुराने दोस्त हैं, लेकिन बात ही ऐसी आ गयी। कुछ शरमाने लगे दोनों बात बताने में। मजिस्ट्रेट ने कहा, तुम कहो, शरमाओ मत। तो उस पहले आदमी ने कहा कि जरा मामला ऐसा है, शरमाने जैसा ही है, अब हो गया! मैंने इससे कहा कि मैं एक खेत खरीद रहा हूं। और यह बोला कि खरीद तो मैं भी रहा हूं, एक भैंस। मैंने कहा, देख, भैंस मत खरीद, अपनी दोस्ती टिकेगी नहीं। कहीं खेत में घुस जाए, कुछ से कुछ हो जाए। अगर खरीदता ही है तो सोच-समझकर खरीदना। तो यह क्या बोला! यह बोला कि जाओ भी भई, भैंस तो भैंस है। अब उसके पीछे कोई चौबीस घंटे थोड़े ही लगा रहूंगा। कभी तुम्हारे खेत में घुस भी गयी तो घुस भी सकती है। तो मैंने इससे कहा कि मत खरीद भैंस, खेत तो मैंने खरीदने का पक्का ही कर लिया है। तो इसने मुझसे कहा, तू ही मत खरीद खेत, भैंस का तो मैंने बयाना भी दे दिया है। बस बात बढ़ गयी।

तो मैंने कहा अगर खरीदना ही है तो खरीद ले, लेकिन ध्यान रख, मेरे खेत में न घुसे, और मैंने ऐसा रेत पर खेत खींचकर बताया कि यह रहा मेरा खेत। इसमें कभी तेरी भैंस न घुसे, इसका खयाल रखना। इसने क्या किया, इसने एक लकड़ी से ऐसा इशारा करके रेत में निशान बना दिया और कहा, यह घुस गयी भैंस, कर ले क्या करता है! उसी में, उसी में सिरफुटौअल हो गयी।

अभी किसी ने खेत खरीदा नहीं है! अभी भैंस खरीदी नहीं गयी है! इस अवस्था का नाम चित्त है। तुम जरा खयाल करना, कितना चित्त तुम्हारे भीतर है! जो जा चुका, उसको तुम संगृहीत किये बैठे हो, अब वह कहीं भी नहीं है। और जो नहीं हुआ, उसकी योजना बना रहे हो। वह भी अभी कहीं नहीं है। इन दो के बीच तुम दबे हो, तुम्हारी आत्मा दबी है–पिस रही है। दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय।

एक तुम्हारा अतीत है, जो जा चुका। किसी ने कभी गाली दी थी बीस साल पहले, वह अभी भी ताजी है तुम्हारे भीतर। शायद वह आदमी भी जा चुका हो। वह गाली तो निश्चित ही जा चुकी है। शायद वह आदमी क्षमा भी मांग चुका हो।

मुल्ला नसरुद्दीन और उसके मित्र में कुछ झंझट हो गयी थी। वर्षों बीत गये उस बात को, लेकिन जब भी मिलना होता है तो मुल्ला उसे याद दिलाता है कि खयाल रखना! आखिर एक दिन उसने कहा कि देखो मुल्ला, कितनी बार तुमसे क्षमा मांग चुका, और कितनी बार तुम क्षमा कर चुके, और कितनी बार तुम मुझसे कह चुके कि ठीक है, भुला दी बात, क्षमा कर दी, फिर तुम याद क्यों दिलाते हो? मुल्ला ने कहा, मैंने भुला दी, वह ठीक है, लेकिन तुम मत भूल जाना, इसीलिए याद दिलाता हूं।

लेकिन जब दूसरे को याद दिलानी पड़े, तो खुद भी याद रखनी ही पड़ती है। भूलोगे कैसे? अतीत है, उसे हम सम्हाले हैं। अब कहीं भी नहीं है, सिर्फ स्मृति में पड़े रह गये दाग, सिर्फ स्मृति पर खिंची रह गयी कुछ रेखाएं। अस्तित्व में उन रेखाओं की अब कोई भी जगह नहीं है। अस्तित्व अतीत का कोई हिसाब ही नहीं रखता। अस्तित्व का कोई इतिहास नहीं है। अस्तित्व सदा ताजा और नया है। वह अतीत को ढोता ही नहीं। कल जो बीत गया, उसका उसे कुछ पता ही नहीं।

पूछो फूलों से, पूछो वृक्षों से, पूछो बादलों से, पूछो छोटे-छोटे बच्चों से, जो अभी अस्तित्व के बहुत करीब हैं। अभी नाराज था बच्चा और कहता था कभी तुमसे बोलेंगे न, और क्षणभर बाद तुम्हारी गोदी में बैठा है। भूल ही गया! याद ही न रही! बच्चा अभी निर्मल है। अभी चित्त बहुत सघन नहीं। तो या तो तुम्हारे चित्त में अतीत है, जा चुका, नहीं कहीं है अब, बस तुम्हीं ढो रहे हो, और या भविष्य है, जो अभी हुआ ही नहीं। कहीं भी नहीं है, बस तुम ही योजना बना रहे हो। इन दो पाटन के बीच, इन दो के दबाव के बीच चित्त पैदा होता है।

चित्त-निरोध का अर्थ है, इन दोनों पाटों को हटा देना। अतीत को जाने दो; जो गया, गया। और जो आया नहीं, नहीं आया। तुम बस वर्तमान में रह जाओ। वर्तमान में चित्त नहीं होता। इस क्षण कहां है चित्त? जरा-सी तरंग उठी भविष्य की, आया। जरा-सी याद आयी अतीत की, आया। तो स्मृति में और कल्पना में है चित्त। ठीक वर्तमान के क्षण में चित्त नहीं है। ठीक वर्तमान के क्षण में चित्त का निरोध है। महावीर कहते हैं, जहां चित्त-निरोध होता है, वहीं आत्मा विशुद्ध होती है। जब चित्त नहीं रहा, तो आत्मा में कोई अशुद्धि न रही। चित्त आत्मा का मैल है। चित्त आत्मा की अशुद्धि है।

“जेण तच्चं विवुज्झेज्ज’–जिसने तत्व को जाना। या जो तत्व को जानना चाहता है। “जेण चित्तं णिरुज्झदि’–उसे चित्त का निरोध करना पड़ा। उसे चित्त को त्याग देना पड़ा। सत्य को चाहते हो, तो चित्त को दांव पर लगा दो। शास्त्र पढ़ने से यह न होगा। शास्त्र पढ़ने से तो उल्टा चित्त और बढ़ेगा। शास्त्र भी तुम्हारे भीतर तरंगें लेने लगेगा। संसार तो तरंगें लेगा ही, शास्त्र भी तरंगें लेने लगेगा। “जेण अत्ता विसुज्झेज्ज’–और जिसने आत्मा की विशुद्धि जान ली चित्त के निरोध से, “तं णाणं जिणसासणे’–इसी को जिनों ने ज्ञान कहा है।

यह ज्ञान की बड़ी अदभुत व्याख्या हुई। इस ज्ञान का, जिसे तुम ज्ञान कहते हो, उससे कुछ संबंध न रहा। जो विद्यापीठ में मिल जाता है, वह ज्ञान नहीं। जो आत्मपीठ में मिलता है वही ज्ञान। जो बाहर मिल जाता है, सूचना मात्र है। जो भीतर जगता है, वही ज्ञान है। जो दूसरे से मिल जाता है, उधार है, उच्छिष्ट है। जो तुम्हारी आत्मा में ही निखरता है, वही ज्ञान है।

महावीर ने सब भांति भीतर जाने का, अंतर्यात्रा का निर्देश किया है। और जब तक यह न हो, तब तक तुम अंधविश्वास के बाहर न हो सकोगे।

इक न इक दर पर जबीने-शौक घिसती ही रही

आदमीयत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही

तुमने बहुत दरवाजे खोजे।

इक न इक दर पर जबीने-शौक घिसती ही रही।

और तुम अपना माथा न मालूम कितने दरवाजों पर घिस चुके हो। तुमने अपने प्रेम को न मालूम कितने चित्तों में उलझाया है। कभी मंदिर, कभी मस्जिद, कब अपने घर आओगे?

इक न इक दर पर जबीने-शौक घिसती ही रही

आदमीयत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही

आदमी पिसता ही रहेगा, तुम पिसने की ही तैयारी कर रहे हो।

अहले-बातिन इल्म से सीनों को गरमाते रहे

जिहल के तारीक साये हाथ फैलाते रहे

–और तथाकथित ब्रह्मज्ञानी बातों से लोगों के हृदय को गरमाते रहे।

अहले-बातिन इल्म से सीनों को गरमाते रहे

–लेकिन वह गर्मी ज्यादा देर टिकने वाली नहीं। वह तुम्हारे ईंधन से नहीं आती।

अहले-बातिन इल्म से सीनों को गरमाते रहे

बातें तो बहुत चलती रहीं ब्रह्मज्ञान की। वेदों की कोई कमी है? शास्त्रों की कोई कमी है? कितने लोग वेद को दोहराते रहे तोतों की भांति! और थोड़ी-बहुत गर्मी भी आ जाती है दोहराने से, लेकिन टिकती नहीं। जब तक तुम्हारे भीतर की आग न जले, जब तक तुम्हारी आत्मा प्रज्वलित न हो, तब तक यह उधार गर्मी काम आने वाली नहीं।

अहले-बातिन इल्म से सीनों को गरमाते रहे

जिहल के तारीक साये हाथ फैलाते रहे

और अंधेरा बढ़ता ही गया, अज्ञान बढ़ता ही गया। वेद भी बढ़ते गये, शास्त्र भी बढ़ते गये और अज्ञान भी बढ़ता गया। चमत्कार है! आदमी ने जितना जाना, उतना आदमी अज्ञानी हो गया। चमत्कार है! आज से ज्यादा गहन अज्ञान कभी भी न था। और आज से ज्यादा ज्ञान कब रहा? रोज नया ज्ञान पैदा हो रहा है, रोज नये शास्त्र रचे जा रहे, रोज नयी सूचनायें अवतरित हो रही हैं, लेकिन आदमी का अंधेरा मिटता नहीं। जरूर कहीं भूल हो रही है।

जिसे हम ज्ञान समझते हैं वह ज्ञान नहीं है। सूचना मात्र है। अगर सूचना की तरह ही उसे लो, तो खतरा नहीं है। ज्ञान की तरह लिया, तो खतरा हो जाएगा। मैं तुमसे बोल रहा हूं, जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मेरे लिए ज्ञान है। कहते ही तुम्हारे लिए सूचना हो गया। जो मैं कह रहा हूं, वह मैंने जाना, लेकिन जो मैं कह रहा हूं, वह तुमने सुना। इसको ही तुम सब कुछ मत समझ लेना। इससे इशारे लेना जरूर, इससे उत्साह लेना जरूर, इससे प्रेरणा लेना जरूर, इससे प्यास लेना जरूर, लेकिन इसी को सब कुछ मत समझ लेना। ये इशारे ऐसे ही हैं जैसे मील के पत्थरों पर निशान बना होता है तीर का–और आगे।

मील के पत्थर को छाती से लगाकर मत बैठ जाना। मील का पत्थर तो यात्रा पर बढ़ाने को है, सूचना मात्र है। मंजिल नहीं है। कितना ही प्यारा मील का पत्थर मिल जाए, तो भी उसे सीने से लगाकर मत बैठ जाना, उससे मिली गर्मी काम न आयेगी। उससे मिली गर्मी धोखा हो जायेगी।

“जिससे जीव राग-विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है, और जिससे मैत्री-भाव बढ़ता है, उसी को जिन-शासन ने ज्ञान कहा है।’

जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेए सु रज्जदि।

जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।

एक-एक शब्द बहुत ध्यानपूर्वक भीतर लेना।

“जिससे जीव राग-विमुख होता है…।’

ज्ञान की कसौटी दे रहे हैं महावीर। इसको कसते रहना। अगर तुमने बहुत जान लिया और वह जाना हुआ तुम्हें राग से विमुख नहीं करता, तो महावीर कहते हैं, वह जाना हुआ थोथा है, धोखा है, उधार है, बासा है। उसे छोड़ दो। इससे तो जानना बेहतर कि तुम नहीं जानते हो। कम से कम सचाई तो होगी। कसौटी क्या है ज्ञान की? जिससे राग-विमुखता पैदा हो।

राग को समझें।

राग का अर्थ होता है, किसी भी वस्तु, किसी भी व्यक्ति के साथ ममत्व का भाव बांधना; कहना मेरा। मेरा मकान, तो राग हो गया। मकान में रहने में कुछ अड़चन नहीं है, “मेरे’ में मत रहना। मकान में खूब रहना, कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन मकान को मकान रहने देना, तुम तुम रहना, दोनों के बीच में “मेरे’ का सेतु मत बनाना।

चित्त का अर्थ है, जो तुम्हारा नहीं है उसे अपना बनाने की अभीप्सा, आकांक्षा। और राग का अर्थ है, जो तुम्हें मिल गया है, उसे अपना मान लेने की स्थिति। कहा, मेरा मकान, मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरा भाई, मेरी बहन। जहां मेरा आया, मम जहां आया, ममत्व आया, वहीं राग निर्मित हुआ।

राग बंधन है। जो जानते हैं वे तो यह भी न कहेंगे कि मेरा शरीर। वे तो कहेंगे, शरीर पृथ्वी का है। जल, वायु, आकाश का है, मेरा क्या? मैं नहीं था, तब भी था। मैं जब नहीं रहूंगा, तब भी होगा। मेरा क्या है?

वक्त की समी-ए-मुसलसल कारगर होती गयी

जिंदगी लहज़ा-ब-लहज़ा मुख्तसर होती गयी

सांस के पर्दों में बजता ही रहा साजे-हयात

मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गयी

यह शरीर बना रहेगा, यह श्वास भी चलती रहेगी, तुम जीवन के भ्रम से भी भरे रहोगे और मौत रोज करीब आयी चली जाती है।

सांस के पर्दों में बजता ही रहा साजे-हयात

जिंदगी का संगीत बजता ही रहा सांसों में। और मौत?

मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गयी

तुम्हारी श्वास भी तुम्हारी नहीं। तुम्हारी देह भी तुम्हारी नहीं। जैसे-जैसे गहरे जाओगे, वैसे-वैसे पाओगे मेरा कुछ भी नहीं, मेरे अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं। मन भी मेरा नहीं है। वह भी बाहर की तरंगों से आता है। देह भी मेरी नहीं, वह भी बाहर से बनती है और बाहर ही खो जाएगी। आखिर में बच रहता है साक्षीभाव, बस वही मेरा है।

राग में बहोगे, तो शरीर मेरा है; शरीर से जो जुड़े हैं, जिनसे रक्त का संबंध है, वे मेरे हैं; जिनसे प्रेम का, वासना का संबंध है, वे मेरे हैं; जिनसे काम-धंधे का संबंध है, वे भी मेरे हैं–मेरा नौकर, मेरा मालिक; जिनसे किसी और तरह के संबंध हैं–मेरा डाक्टर, मेरा इंजीनियर; जैसे-जैसे तुम इस “मेरे’ को बढ़ाते चले जाते हो, यह बड़ा होता चला जाता है। यह सारा संसार तुम्हें “मेरा’ मालूम पड़ सकता है। जितना तुम्हारा “मेरे’ का फैलाव होगा, उतने ही गहन अंधकार में तुम उतरते जाओगे। दीया उतना ही अंधेरे में खो जाएगा। ऐसा समझो, बादल है “मेरे’ का; सूरज है “साक्षीभाव’ का। जितना मेरा और मेरे के बादल तुम्हारे चारों तरफ होंगे, सूरज उतना ही ओट में हो जाएगा। हटाओ बादलों को। ज्ञान की कसौटी महावीर कहते हैं यही है–”जेण रागा विरज्जेज्ज।’ जिससे राग गिरने लगे। जिससे मेरे की भ्रांति टूटने लगे।

अब यह बड़ा विरोधाभासी वक्तव्य है, लेकिन परम मूल्य का है। जैसे-जैसे मेरे का भाव गिरेगा वैसे ही वैसे तुम्हें मैं का अनुभव होगा कि मैं कौन हूं। तुम्हें अभी इसका कुछ भी पता नहीं। तुम्हें बिलकुल पता है कि मेरे कौन हैं। मैं कौन हूं, इसका कोई भी पता नहीं।

तुमसे अगर कोई पूछे आप कौन हैं, तो तुम बताते हो मैं फलां का बेटा हूं। यह भी कोई बात हुई! वह पूछता है, आप कौन हैं, आप पिता की बता रहे हैं। वह पूछता है, आप कौन हैं, आप कहते हैं, मैं डाक्टर हूं! डाक्टरी आपका धंधा होगी, आप डाक्टर नहीं हो सकते। वह पूछता है, आप कौन हैं, आप कहते हैं, मैं ब्राह्मण हूं, हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, जैन हूं। यह आपकी पैदाइश का संयोग होगा, आप नहीं। कुछ अपनी कहो! मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि हमें तो कुछ पता ही नहीं।

हम तो जब भी “मैं’ की कोई परिभाषा करते हैं, तो मेरे से करते हैं। मेरे का हमें पता है। मैं का हमें कोई पता नहीं। और जिसे मैं का ही पता नहीं, उसके मेरे का क्या भरोसा! जिसे अपना ही पता नहीं, उसे और क्या पता होगा! यह अपना ही पता नहीं जो कि प्राथमिक होना चाहिए, तो बाकी तो सब द्वितीय है। पहली ही बुनियाद भ्रांत हो गयी, तो सारा भवन भ्रांत हो जाता है। महावीर कहते हैं, मेरे को छोड़ते-छोड़ते जब मैं ही बचता है–शुद्ध मैं–उसको ही महावीर ने आत्मा कहा है। शुद्धतम मैं। जहां मेरे की कोई रेखा भी नहीं रही। मेरे की कोई कालिख न रही। कोई बादल न रहा आकाश में। नीला, खाली, कोरा, आकाश! सूरज तब बड़ा प्रगट होकर, प्रखर होकर स्पष्ट होता है।

“और जिससे श्रेय में अनुरक्त होता है।’

जेण सेए सु रज्जदि।

दुनिया में दो हैं यात्राएं–प्रेय और श्रेय। साधारणतः जो अज्ञान में डूबा है, वह प्रेय में अनुरक्त होता है। वह कहता है, जो प्रिय है, वही मैं करूंगा। जिसको ज्ञान की पहली किरण उतरने लगी, वह कहता है, जो श्रेय है वही करूंगा।क्या फर्क है? प्रेय तो होता है मन का विषय और श्रेय है चैतन्य का विषय। जो ठीक है, वही करूंगा। जो सत्य है, वही करूंगा। जो शुभ है, वही करूंगा। श्रेयस ही मेरा जीवन होगा। यही साधुता का लक्षण है।

साधु का अर्थ नहीं कि भाग जाओ घर से। साधु का अर्थ है, श्रेय को साधो। प्रेय से श्रेय को ऊपर रखो।

कल एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा, ध्यान करने आया हूं। लेकिन ध्यान मुझे प्रीतिकर नहीं मालूम पड़ता। होता ही नहीं मन करने का। अच्छा नहीं लगता करना। तो अब सवाल है, अगर मन को सुनना है तो फिर ध्यान न हो सकेगा। मन कहता है यह क्या कर रहे हो? इतनी देर ताश के पत्ते ही खेल लेते, तो थोड़ा रस आता। इतनी देर सिनेमा में ही बैठ गये होते, तो थोड़ा रस आता। इतनी देर मित्रों से गपशप ही कर ली होती। यह भी क्या! क्या कर रहे हो यहां, समय क्यों खो रहे हो? जीवन भागा जा रहा है। भोग लो। मन हमेशा प्रेय की तरफ उत्सुक करता है। वह कहता है, जो प्रीतिकर है, वह करो। लेकिन मन के लिए जो प्रीतिकर है, वही नर्क सिद्ध होता है आत्मा के लिए। और मन के लिए जो प्रीतिकर है, वही आत्मा के लिए जहर सिद्ध होता है। प्रेय को मान-मानकर ही तो हम भटके हैं इतने जन्मों तक।

तो महावीर कहते हैं ज्ञान की किरण आयी, इसका प्रमाण होगा कि श्रेय ऊपर आने लगा। अब तुम यह नहीं कहते कि मन क्या कहता है वह करेंगे। अब तुम कहते हो, जो करना चाहिए वही करेंगे। प्रारंभ में तो बड़ा संघर्ष होगा। मन की पुरानी आदतें हैं। जल्दी पीछा न छोड़ेगा। मन के पुराने संस्कार हैं, वह बार-बार तुम्हें पुरानी ही धारणाओं में खींच लेगा। लेकिन संघर्ष करना होगा। मन से ऊपर उठना होगा। और धन्यभागी हैं वे जो मन से थोड़ा ऊपर उठ जाते हैं। क्योंकि मन के ऊपर उठते ही जीवन का परम धन है। मन के ऊपर उठते ही सौभाग्य है। मन के ऊपर उठते ही परम आशीष की वर्षा हो जाती है। मन के साथ अभिशाप है। मन के शुरुआत में तो सभी चीजें प्रीतिकर मालूम होती हैं, अंत में सभी कड़वी हो जाती हैं।

महावीर ने कहा है, जो प्रारंभ में मीठा हो, जरूरी नहीं कि अंत में भी मीठा हो। और जो प्रारंभ में कड़वा हो, जरूरी नहीं कि अंत में भी कड़वा हो। बहुत-सी औषधियां कड़वी होती हैं लेकिन स्वास्थ्य लाती हैं। और बहुत-सी मिठाइयां मीठी होती हैं और सिर्फ रुग्ण करती हैं। इसलिए चुनाव श्रेय का करना। विवेक से करना, बोध से करना। मन की मानकर मत करना। मन उलझाता है।

“जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेए सु रज्जदि।’ जिससे श्रेय सधे, वही ज्ञान है। “जेण मित्ती पभावेज्ज।’ और जिससे मैत्री बढ़े, प्रेम बढ़े, वही ज्ञान है। निश्चित ही पंडित का ज्ञान प्रेम को बढ़ाता नहीं। मुल्ला-मौलवी का ज्ञान प्रेम को बढ़ाता नहीं। घटाता है। हिंदू मुसलमान से घृणा करता है, मुसलमान हिंदू से घृणा करता है। जैन हिंदुओं से, हिंदू जैनों से। यह ज्ञान नहीं हो सकता। यह शास्त्र होगा। शास्त्र लड़वाता है। ज्ञान जुड़वाता है। ज्ञान है परम योग। शास्त्र में संघर्ष है। तुम्हारी मान्यताएं, तुम्हारे विश्वास, तुम्हें दूसरों से खंड-खंड कर देते हैं।

तुमने कभी देखा, तुम किसी आदमी के पास बैठे हो। बिलकुल सटकर बैठे हो, और तुमने पूछा, आपका धर्म? और उसने कहा, मुसलमान। तुम जरा सरक गये। अभी तुम बिलकुल पास बैठे थे। तुम जैन हो, या हिंदू हो, तुम जरा सरक गये। और अगर उसने कहा कि हिंदू हूं, जैन हूं, तो तुम और जरा पास आ गये। आदमी वही है। अभी तुम पास बैठे ही थे, लेकिन अगर उसने कहा मुसलमान, अगर कहा हिंदू, अगर कहा ईसाई, बस एक दीवाल खड़ी हो गयी। सत्य की दीवाल!

बस तुम अलग हो गये। तुमने पक्का कर लिया कि यह आदमी गलत है। ईसाई कैसे ठीक हो सकता है, मुसलमान कैसे ठीक हो सकता है। मैं जैन हूं, बस जैन ही ठीक है।

तुम्हारा विश्वास तो तुम्हें तोड़ रहा है दूसरे से। यह विश्वास फिर ज्ञान नहीं हो सकता। यह तुम्हारी धारणा जोड़ नहीं रही। और महावीर कहते हैं ज्ञान की यह कसौटी है कि वह जोड़ेगा। उससे प्रभाव बढ़ेगा प्रेम का। उससे मैत्री सघन होगी। उससे तुम बेशर्त मैत्री में उतर जाओगे। तुम्हारी कोई शर्त न रहेगी कि तुम कौन हो। यहां हिंदू हैं मेरे पास संन्यासी, मुसलमान हैं मेरे पास संन्यासी, ईसाई हैं, यहूदी हैं, पारसी हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्ख हैं; दुनिया का ऐसा कोई धर्म नहीं है जिस धर्म से मेरे पास संन्यासी न हों। शायद ऐसा कहीं भी आज घट नहीं रहा है। यह अभूतपूर्व है। लेकिन यह घटना चाहिए सभी जगह। क्योंकि ज्ञान की किरण उतरे और इतना भी न कर पाये, कि अंधविश्वासों की और विश्वासों की दीवाल न गिरा पाये, तो ऐसे ज्ञान का क्या करोगे? दो कौड़ी का है। दीया पैदा हो जाए और अंधेरा न हटे, तो ऐसे दीये को क्या करोगे? वह बुझा है। उसे फेंको। उसे व्यर्थ मत ढोओ।

“मैत्रीभाव बढ़े, उसी को जिन-शासन ने ज्ञान कहा है।’

“जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष तथा आदि, मध्य, और अंतहीन देखता है, निर्विकल्प देखता है, वही समग्र जिन-शासन को देखता है।’

जिसने आत्मा को देख लिया, उसने महावीर के पूरे शास्त्र को देख लिया। यह बात थोड़ी सुनो।

“जे पस्सदि अप्पाणं।’ जिसने अपने को देख लिया।

जे पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुट्ठं अणन्नमविसेसं।

अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं।।

उसने सारा जिन-शास्त्र देख लिया, जिसने स्वयं को देख लिया। ऐसी सीधी-साफ, ऐसी दो-टूक बात किसने कही है! महावीर बहुत स्पष्ट हैं। तुम जैन-शास्त्रों में बैठकर सिर मत पचाते रहना। उतरो अपने में। महावीर कहते हैं, एक ही शास्त्र है पढ़ने योग्य, वह स्वयं की चेतना है। एक ही जगत है प्रवेश योग्य, एक ही मंदिर है जाने योग्य, वह स्वयं की आत्मा है।

“जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, देह-कर्मातीत जानता है।’ देह और कर्म, इन दो के जो अपने को पार देख लेता है, वही आत्मा को जानता है। “अनन्य।’ और जो जानता है कि बस मेरा शुद्ध होना ही, शुद्धतम साक्षीमात्र ही स्वरूप है, स्वभाव है। “आदि, मध्य, अंतहीन।’ न तो मेरा कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है, न कोई मध्य है। मैं शाश्वत हूं। “अविशेष।’ ऐसी बात को जो बिलकुल जीवन का सामान्य स्वभाव अनुभव करता है, कोई विशेष बात नहीं है यह, यह स्वाभाविक है, यह आत्मा का गुणधर्म है, ऐसा जो देख लेता है, “निर्विकल्प देखता है।’ उसकी आंखों में फिर विकल्प के बादल नहीं होते। विचार के बादल नहीं होते। “वही समग्ररूप से जिन-शासन को देखता है।’ हम तो उलझे हैं बहुत छोटी बातों में। हमने तो बड़े छोटे-छोटे पड़ाव बना लिये, उन्हीं को हम मंजिल समझ रहे हैं।

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज्म?-नाज़ से आखिर

अभी फिर दर्द टपकेगा मेरी आवाज से आखिर

अभी फिर आग उठेगी शिकस्ता साज से आखिर

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज्म?-नाज़ से आखिर

जहां से जाना है, वहां बहुत मत पकड़ो।

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज्म?-नाज से आखिर

यह महफिल सदा नहीं चलेगी। सपने जैसी है। यहां से उठना ही होगा। यहां से सभी को उठना पड़ा है। एक न एक दिन, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, विदा होना पड़ा है। यहां बहुत राग की जड़ें मत फैलाओ। यहां ऐसे रहो जैसे कोई अतिथिशाला में ठहरता है। विश्रामगृह में रुकता है। यहां बहुत मोह के संबंध मत बनाओ। अन्यथा जाना कठिन हो जाएगा। और अगर न जा सके, तो वापस-वापस फेंक दिये जाओगे। मोह के बंधन ही तुम्हें खींच लाएंगे।

मैंने सुना है…पढ़ता था मैं एक ईसाई फकीर का जीवन। वह पहाड़ों में किसी गुफा की तलाश कर रहा था, एकांत-साधना के लिए। एक गुफा के पास पहुंचा तो देखकर चकित हो गया। वहां उसने एक फकीर को देखा, जिसने अपने को गुफा के भीतर लोहे की जंजीरों से बांध रखा था। उसने पूछा, मैंने बहुत तरह के साधक देखे, तुम यह क्या किये हो? यह तुमने खुद जंजीरें बांधीं, कि कोई तुम्हें बांध गया! उसने कहा, मैंने ही बांधी हैं। किसलिए बांधीं? तो उसने कहा, इस डर से कि कहीं किसी कमजोर क्षण में संसार में वापस न लौट जाऊं। ये जंजीरें मुझे जाने नहीं देतीं। ठोंक दी हैं दीवाल से, इनके खोलने का कोई उपाय नहीं।

मगर यह भी कोई संसार से मुक्ति हुई? अगर लोहे की जंजीरों के कारण किसी गुफा में पड़े रहे, तो यह कोई संसार से मुक्ति हुई? यह नये तरह का बंधन हुआ। यह मोक्ष न हुआ। बोध से मुक्ति होती है। बोध का अर्थ है, जहां से जाना है, वहां से जा ही चुके। जहां से जाना है, वहां घर क्या बसाना। जहां से जाना ही होगा, वहां जड़ें क्या फैलाना। थोड़ी देर का विश्राम है, ठीक है कर लेंगे। लेकिन जाने के वक्त लौटकर न देखेंगे।

अभी फिर दर्द टपकेगा मेरी आवाज से आखिर

अभी हंस रहे हो, अभी रोओगे। तो जब रोना ही है, तो हंसी में बहुत अर्थ नहीं रह गया।

अभी फिर आग उट्ठेगी शिकस्ता साज से आखिर

अभी मेरा साज टूट जाएगा, अभी वीणा टूटी पड़ी होगी, अभी चिता जलेगी।

मुझे जाना है इक दिन तेरी बज्म?-नाज़ से आखिर

यह तेरी महफिल बड़ी प्यारी है, लेकिन जाना है। जाना पड़ेगा। तो यहां ऐसे रहना जैसे कमल रहता है जल में। रहना, लेकिन जल को छूने मत देना। जल में ही रहना और जल से अलिप्त रहना।

“जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्वतः भिन्न तथा ज्ञायक-स्वरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है।’

जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं।

जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं।।

“आत्मा को इस शरीर से तत्वतः भिन्न और ज्ञायक-स्वरूप जानता है।’

यह गहनतम सूत्र है ध्यान का। जिसे भी हम देखने में समर्थ हो जाते हैं, वह हम से भिन्न है। तुम अपने शरीर को देखने में समर्थ हो, शरीर तुमसे भिन्न है। तुम अपने विचार को देखने में समर्थ हो, विचार तुमसे भिन्न है। तुम सिर्फ अपने साक्षीभाव को देखने में समर्थ नहीं हो, इसलिए साक्षीभाव से तुम अभिन्न हो। उससे तुम अलग नहीं हो सकते। काटते-काटते, हटाते-हटाते जो भिन्न है उसे जानते-जानते आदमी उस अंतिम पड़ाव पर पहुंचता है, जहां केवल वही शेष रह जाता है। जिसको अपने से अलग नहीं किया जा सकता, वह तुम्हारा शुद्ध ज्ञायक-स्वरूप है। उस शुद्ध में ही जीने का नाम धर्म है। और उस शुद्ध में ही ठहर जाने का नाम मोक्ष है। उस शुद्ध को जिन्होंने जान लिया, वे ही मुक्त हैं। और महावीर कहते हैं, जिसने उस ज्ञायक-स्वरूप को जान लिया, वही समस्त शास्त्रों को जानता है। उसने सब जान लिये कुरान, बाइबिल, वेद, गीता। फिर कहीं कुछ और जानने की जरूरत न रही।

इसे थोड़ा समझो।

सभी रहस्यवादियों ने–महावीर, कृष्ण, बुद्ध, सभी रहस्यवादियों ने–एक बात पर जोर दिया है कि शास्त्र को जानकर तुम स्वयं को न जान सकोगे, लेकिन अगर स्वयं को जान लो तो सभी शास्त्रों को जान सकोगे। शास्त्र की तरफ से जो स्वयं को जानने चला, उसने प्रारंभ से ही गलत यात्रा शुरू कर दी। वह शब्दों में भटक जाएगा, शब्दों के बड़े जंगल हैं। शब्दों का बड़ा बीहड़ जंगल है। उससे लौटना मुश्किल हो जाएगा। सिद्धांतों की बड़ी भीड़ है। तुम उसमें भटक जाओगे। बड़ा तर्कजाल है। उससे छूटना मुश्किल हो जाएगा। फिर, शास्त्र से तुम जो भी जानोगे, वह बुद्धि से जानोगे। अनुभव से नहीं, हृदय से नहीं। बुद्धि तुम्हारी भरती जाएगी, और हृदय खाली का खाली रह जाएगा। तुम्हारे जीवन का संतुलन डांवांडोल हो जाएगा। फिर तुम चाहे आस्तिक बन जाओ, चाहे नास्तिक, कुछ फर्क नहीं पड़ता

पश्चिम में एक बहुत बड़ा नास्तिक हुआ–वोल्तेयर। उसने जिंदगीभर ईश्वर, आत्मा, धर्म, इनका खंडन किया। फिर वह बीमार पड़ा, हृदय का दौरा पड़ा। तब वह घबड़ा गया। तब एकदम उसने अपनी पत्नी को कहा, अपने मित्रों को कहा कि जल्दी ही किसी धर्मगुरु का बुलाओ। पर उन्होंने कहा, धर्मगुरु! क्या तुम भूल गये अपने सिद्धांत? उसने कहा छोड़ो सिद्धांत, इधर मैं मर रहा हूं, तुम्हें सिद्धांत की पड़ी है। अभी तक तो जिंदा था, तो कभी मैंने सोचा न था। लेकिन कौन जाने, यह धर्मगुरु ठीक ही हों! मरते वक्त मुझे आगे का इंतजाम कर लेने दो। धर्मगुरु बुलाया गया। संयोग की बात वह ठीक हो गया।

जब वह फिर स्वस्थ हो गया, तो उसने फिर अपने पुराने राग शुरू कर दिये। फिर नास्तिकता! फिर ईश्वर, फिर आत्मा का खंडन! मित्रों ने कहा यह तुम क्या कर रहे हो? उसने कहा वह सिर्फ मौत के भय के कारण, वह कोई असली बात न थी। वह तो सिर्फ भावावेश था। फिर वह अपनी बुद्धि में प्रवेश कर गया–बहुत बड़ा बुद्धिमान आदमी था। बहुत तर्कशील आदमी था। तो उसने उसके लिए भी तर्क खोज लिया कि वह तो भय के कारण जरा कंप गया था। उसको तुम कुछ गौर मत दो।

लेकिन फिर दस-पंद्रह साल बाद वह दौरा पड़ा। तब वह फिर घबड़ाया। उसने कहा, बुलाओ धर्मगुरु को। लेकिन मित्रों ने कहा, अब तुम्हारे भय के कारण हम धोखे में न पड़ेंगे। कहते हैं मित्र घेरा बांधकर खड़े हो गये। उन्होंने कहा, न तो हम धर्मगुरु को भीतर आने देंगे, न तुमको बाहर जाने देंगे। अब धोखा न चलेगा। रोने लगा वोल्तेयर। छाती पीटने लगा कि यह तुम क्या कर रहे हो, मैं मरा जा रहा हूं। इधर मौत खड़ी है, तुम्हें सिद्धांतों की पड़ी है। छोड़ो मैंने क्या कहा था। मैं क्या कहता हूं उसे सुनो। लेकिन मित्रों ने कहा कि अब नहीं। फिर वह ठीक नहीं हुआ, मर गया। लेकिन उसकी अवस्था को हम थोड़ा सोचें।

बुद्धि कहीं भी ले जाती नहीं। जब सब ठीक चल रहा है, तब तो शायद तुम्हें परमात्मा की याद भी नहीं आती। तब धर्म की तुम्हें याद भी नहीं आती। मंदिर के पास से तुम ऐसे गुजर जाते हो जैसे मंदिर है ही नहीं। जब चीजें गड़बड़ हो जाती हैं, हाथ-पैर डांवांडोल होने लगते हैं, मौत करीब आने लगती है, तब तुम्हें धर्म की याद आती है।

लेकिन यह याद बड़ी मूल्यवान नहीं है। अगर तुम फिर ठीक हो गये, तो फिर तुम उसी अकड़ से चलने लगोगे।

बुद्धि से आदमी नास्तिक हो, तो किसी मतलब का नहीं। बुद्धि से अगर आस्तिक हो, तो किसी मतलब का नहीं। क्योंकि बुद्धि तो सिर्फ यंत्र है, तुम्हारी आत्मा नहीं। जब तक आत्मा न डूब जाए, तन्मय न हो जाए; जब तक आत्मा का पोर-पोर न भीग जाए, तब तक कुछ सार नहीं। बुद्धि में सिद्धांतों का होना ऐसे ही है, जैसे किसी को भूख लगी हो, वह पाकशास्त्र पढ़ रहा है। खूब सुंदर भोजन, स्वादिष्ट भोजनों का वर्णन है। कैसे बनाना, यह भी लिखा है। एक से एक व्यंजन, सब ब्यौरे से लिखे हैं। भूख लगी आदमी को, वह पाकशास्त्र पढ़ रहा है। इससे क्या भूख मिटेगी? इससे शायद भूख थोड़ी बढ़ जाए, यह हो सकता है, लेकिन मिट तो नहीं सकती। और जिसने पाकशास्त्र को ही भोजन समझ लिया, उस अभागे आदमी को हम क्या कहें, वह पागल है। वेद तो पाकशास्त्र है।

भीतर आत्मा के रसायन में पगना होगा, रंगना होगा। भोजन पकाना होगा अपनी ही आत्मा में। उस गहनतम प्रयोगशाला में उतरना होगा। महावीर कहते हैं, तुमने अगर स्वयं को जाना, तो तुम गवाही हो जाओगे सभी शास्त्रों के। तुम कह सकोगे कि हां, वे सभी ठीक हैं। और यह भी खयाल रख लेना, जिस व्यक्ति ने स्वयं को जाना, वह कहेगा सभी ठीक हैं। वह यह न कहेगा, कुरान ठीक है, बाइबिल गलत है। वह यह न कहेगा, वेद सही हैं और बुद्ध गलत हैं। उसको तो दिखायी पड़ गया अनुभव। अब शब्दों के भेद होंगे, रूप-रेखा अलग होगी, रंग-ढंग अलग होंगे, लेकिन भीतर का प्राण तो उसे समझ में आ गया। उसे मूलसूत्र तो पकड़ में आ गया। अब सभी ठीक हैं। इसलिए महावीर ने एक सिद्धांत को जन्म दिया, जिसको अनेकांतवाद कहते हैं।

अनेकांतवाद का अर्थ होता है, सभी दृष्टियां ठीक हैं। कोई दृष्टि गलत नहीं। महावीर ने दर्शन का बड़ा अनूठा अर्थ किया है। दर्शन का अर्थ है, ऐसी दृष्टि जहां सभी दृष्टियां ठीक हैं। दर्शन का अर्थ है, सभी दृष्टियों को ठीक मानकर सभी दृष्टियों के ऊपर उठ जाना। कोई दृष्टि में बंधा न रह जाए व्यक्ति। तो धर्म का अर्थ तो हुआ, जब व्यक्ति किसी धर्म में बंधा न रह जाए। धार्मिक व्यक्ति हिंदू नहीं हो सकता, मुसलमान नहीं हो सकता, जैन नहीं हो सकता। धार्मिक होना काफी है। काफी से ज्यादा है। यह विशेषण बिलकुल व्यर्थ है।

“अतः हे भव्य ‘….अंतिम सूत्र… “तू इस ज्ञान में सदा लीन रह, इसी में सदा संतुष्ट रह, इसी में तृप्त हो, इसी से तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा।’

“एदम्हि रदो णिच्चं। हे भव्य, तू इस ज्ञान में डूब।’

“संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। इसी में संतुष्ट हो।’

“एदेण होहि तित्तो। इसी में तृप्त हो।’

“होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं। और उत्तम सुख तुझे निश्चित मिलेगा। तू उत्तम सुख हो जाएगा।’

तू महासुख स्वयं हो जाएगा।

जिसे हम संसार समझ रहे हैं और जहां हम सुख खोज रहे हैं, वहां मिलता किसी को कभी सुख? वहां सिर्फ आभास है, मृगमरीचिका है, खिलौने हैं। वही व्यक्ति प्रौढ़ है, जिसे यह दिखायी पड़ गया कि संसार में सिर्फ खिलौने हैं। छोटा बच्चा खेल रहा है। गुड्डा-गुड्डी का विवाह रचाता है। और उसी तरह उत्तेजित होता है जैसे कि तुम असली विवाह में उत्तेजित होते हो। उसको तो तुम कहते हो बच्चा है, खिलवाड़ में लगा है। लेकिन तुम जो विवाह रचाते हो, वह खिलवाड़ से कहीं ज्यादा है? वह भी खिलवाड़ है। थोड़े बड़े पैमाने पर है। छोटे बच्चे बारात निकालते हैं अपने गुड्डे की, तुम राम की बारात निकालते हो। रामलीला करते हो। उसमें सम्मिलित होते हो। लेकिन सब खेल है। खेल से कब जागोगे?

मताए-सोजो-साजे-जिंदगी पैमाना-ओ-बरबत

मैं खुद को इन खिलौनों से भी अब बहला नहीं सकता

कब वह वक्त आएगा, जब तुम कहोगे–जीवन के सुख-दुख, शराब और संगीत…।

मताए-सोजो-साजे-जिंदगी पैमाना-ओ-बरबत

मैं खुद को इन खिलौनों से भी अब बहला नहीं सकता

कब वह वक्त आएगा जब तुम कहोगे कि अब इन खिलौनों से भी बहलाने का वक्त जा चुका। अब मैं इन खिलौनों से भी अपने को बहला नहीं सकता। उसी दिन तुम प्रौढ़ बनोगे। उसी दिन तुम्हारे भीतर बोध का जन्म हुआ। उसी दिन वस्तुतः तुम जन्मे। उसके पहले तक तो एक सपना था।

रुखसत ऐ हमसफरो! सहरे-निगार आ ही गया

खुल्द भी जिस पे हो कुर्बां वो दियार आ ही गया

महावीर कहते हैं, जो इन खिलौनों से जग गया, बात हो गयी। इधर खिलौनों से छूटे कि वहां सत्य हाथ में आया नहीं। इधर सपना टूटा कि वहां आंख खुली नहीं। आंख का खुलना और सपने का टूटना युगपत है। एकसाथ है। ऐसा थोड़े ही है कि पहले अज्ञान मिटेगा, फिर ज्ञान होगा। अज्ञान मिटा कि ज्ञान हुआ, ज्ञान हुआ कि अज्ञान मिटा। एक साथ! एक पल में! रुखसत ऐ हमसफरो! अलविदा। कहने लगता है वैसा व्यक्ति अपने साथियों से कि अब विदाई आ गयी, अब तुम चलो जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो, लेकिन मैं तो विदा हुआ–

रुखसत ऐ हमसफरो! सहरे-निगार आ ही गया

मेरी मंजिल आ गयी।

खुल्द भी जिस पे हो कुर्बां वो दियार आ ही गया

और स्वर्ग भी जिस पर कुर्बान हो जाएं, वह खुशी का नगर, वह अंतःपुर आ गया।

हमने इस देश में आत्मा को एक और नाम दिया है। वह नाम है पुरुष। पुरुष उसी धातु से बनता है, जिससे पुर। पुरुष का अर्थ होता है, भीतर के नगर में रहनेवाला।

रुखसत ऐ हमसफरो! सहरे-निगार आ ही गया

खुल्द भी जिस पे हो कुर्बां वो दियार आ ही गया

इधर खिलौने हाथ से छूटे नहीं, इधर तुम खाली हुए संसार के उपद्रव से, वहां तुम भरे नहीं परमात्मा की परम शांति से।

“हे भव्य, तू इस ज्ञान में सदा लीन रह।’

किस ज्ञान में? शास्त्र के नहीं, शब्द के नहीं। स्वयं के, ध्यान के, अपने अनुभव के अंतर-संगीत में डूब।

“इसी में सदा संतुष्ट रह। इसी में तृप्त हो। इसी से तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा।’

महावीर कहते हैं, उत्तम सुख। जो सुख कभी न छिने, वह उत्तम। जो आए तो आए, फिर जाए न, वह उत्तम। जो आए तो सदा के लिए आ जाए, जो आए तो शाश्वत आ जाए, जो मिले तो फिर जिससे बिछड़ना न हो, वह उत्तम। जिस सुख में बिछड़ना हो, वह केवल दुख का ही एक चेहरा है। जिस हंसी में आंसू छिपे हों, वह रोने का ही एक ढंग है। जहां से हट जाना पड़े, वहां रहना केवल हटने की तैयारी है। जिस योग में वियोग संभव हो, वह योग ही नहीं। वह केवल योग का धोखा है। वह शराब है, नशा है। बोध नहीं, जागरण नहीं। डूबो, अपने में।

देखना ही है जो इंसान में भगवान तुम्हें

आदमी को ही आदमी की नज़र से देखो

चल रहे हैं जो उन्हें चल के डगर से देखो

तैरनेवाले को तट से न, लहर से देखो

डूबना पड़े। यह जो डूब गये, उनकी बातें हैं। जो खो गये परम सागर में, उनके वचन हैं।

चल रहे हैं जो उन्हें चल के डगर से देखो

ऐसे किनारे बैठकर मत देखते रहना। तुम्हें पता न चलेगा उनका आनंद। दौड़नेवाले का आनंद बैठनेवाले को कैसे पता चलेगा! कभी तुम दौड़े हो सुबह के सूरज में, सुबह की ताजी हवाओं में, जब मलय-बहार सब तरफ घेर लेती है, सुबह की नयी सुगंध? तुम दौड़े हो हवाओं में, तुमने किया है संघर्ष? नहीं तो तुम्हें पता नहीं चलेगा, वह जो पुलक, वह जो ताजगी उस क्षण घेर लेती है दौड़नेवाले को। तुम बैठे किनारे से देखते रहोगे, दौड़नेवाला भी दिखायी पड़ता है, हवा के झपेड़े भी दिखायी पड़ते हैं क्योंकि उसके वस्त्र उड़े जा रहे हैं, उसके बाल उड़े जा रहे हैं, और यह भी दिखायी पड़ता है कि बड़ा ताजा और बड़ा प्रसन्न है, लेकिन भीतर उसके जो घट रहा है, वह तो तुम कैसे जानोगे, कैसे देखोगे?

चल रहे हैं जो उन्हें चल के डगर से देखो

तैरनेवाले को तट से न, लहर से देखो

तैरनेवाले का कुछ मजा है। वह तैरनेवाला ही जानता है। वह तुम्हें बताना भी चाहे तो नहीं बता सकता। “गूंगे केरी सरकरा।’ उसने स्वाद तो लिया है, लेकिन कैसे कहे? कहने को कुछ उपाय नहीं है। गूंगा ज्यादा से ज्यादा तुम्हारा हाथ पकड़कर खींच सकता है कि आओ, तुम भी रस ले लो, तुम भी चखो इस स्वाद को। तैरनेवाले से तुम पूछो कि क्या है मजा? यह पानी के थपेड़ों में उलझना तेरा, यह पानी के साथ नाच, यह नृत्य लहरों में, क्या है मजा? तो वह कहेगा, आओ, खींचेगा तुम्हारा हाथ। वही महावीर कर रहे हैं। वही सदा सत्पुरुषों ने किया है। खींचते हैं तुम्हारा हाथ कि आओ। तुम कहते हो, पहले समझाओ। तुम कहते हो, पहले हमें पक्का भरोसा आ जाए कि कुछ सार है, तो उतरेंगे। यहीं अड़चन है।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन तैरना सीखने नदी पर गया था। पैर फिसल गया, काई जमी थी घाट पर, गिर पड़ा। भागा वहां से। जो सिखाने उसे ले गया था उसने कहा, कहां जा रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा, हो गया। अब जब तक तैरना सीख न लूं, नदी के पास भी न फटकूंगा। यह तो खतरनाक मामला है, अभी पैर फिसल गया, अगर पानी में चले गये होते तो गये। अब आनेवाला नहीं हूं। अब तैरकर, सीखकर ही आऊंगा। लेकिन उस आदमी ने कहा, तुम तैरना सीखोगे कहां? कोई गद्देत्तकियों पर तो आदमी तैरना सीखता नहीं। कितने ही हाथ-पैर तड़फाओ गद्देत्तकियों पर, उससे तैरना न आएगा। सुविधापूर्ण है वैसा तैरना, खतरा बिलकुल नहीं है–अपने गद्देत्तकियों पर हाथ-पैर फेंक रहे हैं, कौन क्या करेगा? डूबने का कोई डर नहीं है। लेकिन डूबने का जहां डर न हो, वहां तैरना आता ही नहीं। जितनी बड़ी जोखम, उतनी ही बड़ी आत्मा का जन्म होता है। वह डूबने से ही तैरने की कला आती है। डूबने की संभावना से ही तैरने का सत्य पकड़ में आता है।

अन्यथा तुम ऊपर-ऊपर रह जाओगे। दौड़नेवाले को किनारे से बैठकर देख लोगे, तैरनेवाले को किनारे से बैठकर देख लोगे। महावीर को ऐसे ही तो देखा तुमने। ऐसे ही तो तुम मुझ को भी देख रहे हो।

चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख…

चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख

यानी पहचान खिलाड़ी को बस बिसात न देख

मेरी डोली की गरीबी पे ओ हंसनेवाले!

मेरी दुल्हन को देख, लौटती बारात न देख

लेकिन दुल्हन बड़ी भीतर है। डोली ही दिखायी पड़ती है, बारात दिखायी पड़ती है। दुल्हन तो डोली में छिपी है। डोली कभी बहुत सजी-संवरी हो, अमीर की हो, तो भी जरूरी नहीं कि दुल्हन भीतर हो ही। डोली गरीब की भी हो, रंग-रोगन सब उड़ गया हो, तो भी दुल्हन हो सकती है।

चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख

तुमने अगर मेरे शब्द-शब्द चुने, तो तुमने फूल-पात चुना। तो तुमने चमन को न देखा। तो यह बहार जो आयी थी तुम्हारे पास, ऐसे ही गुजर गयी। तुमने खंड-खंड चुने, तुमने समग्र को न देखा।

चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख!

वसंत को जिसने देख लिया, फिर एक-एक कली और एक-एक फूल को थोड़े ही गिनता फिरता है। आ गया वसंत। वसंत को पूरा जिसने देख लिया, सब फूल समा गये उसमें। ध्यान रहे, खंडों का जोड़ नहीं है पूर्ण। खंडों के जोड़ से बहुत ज्यादा है पूर्ण। वसंत सभी फूलों और कलियों का जोड़ नहीं है, वसंत कलियों और फूलों के जोड़ से ज्यादा है। वसंत बहुत विराट है। कलियों और फूलों में तो थोड़ी-थोड़ी झलक पड़ी है, थोड़ी प्रतिछवि आयी है। कलियों और फूलों में तो थोड़ा-सा प्रतिबिंब बना है, थोड़ी लहर गूंजी है।

चमन को देख तो फिर फूल-पात को न देख

यानी पहचान खिलाड़ी को बस बिसात न देख

महावीर हैं, बुद्ध हैं, बड़ी उनकी बिसात है। शतरंज के मोहरे बिछाकर बैठे हैं। तुम मोहरों को ही मत देखते रहना, खिलाड़ी को देख। उनके शब्द तो मोहरे हैं शतरंज के। उनके सिद्धांत भी मोहरे हैं। उसी में मत उलझ जाना।

यानी पहचान खिलाड़ी को बस बिसात न देख

मेरी डोली की गरीबी पे ओ हंसनेवाले!

मेरी दुल्हन को देख, लौटती बारात न देख

बहुत कम लोग हैं जिन्होंने महावीर की दुल्हन देखी। लौटती बारात देखी। तो जैन-शास्त्रों में बड़ा उल्लेख है कि महावीर ने कितना त्याग किया–कितने घोड़े, कितने हाथी, कितने हीरे, कितने जवाहरात! बड़ी लंबी संख्याएं हैं। बड़े शून्यों पर शून्य रखे हैं। त्याग तो दिखा उन्हें, इसलिए बड़ा वर्णन किया है। लेकिन यह लौटती बारात है। इसको तो महावीर छोड़कर चले गये। इसमें तो उन्हें कुछ भी न दिखा।

जिसको महावीर ने छोड़ दिया, उसको जैनियों ने बड़े विस्तार से लिखा है। इनको जरूर कुछ दिखता होगा, अन्यथा कौन कागज खराब करता है। यह लौटती बारात है। यह देख रहे हैं कि कौन-कौन आए थे। प्रधानमंत्री थे बारात में, राष्ट्रपति थे, गर्वनर थे, यह लौटती बारात देख रहे हैं, यह दूल्हे को भूल ही गये हैं! दुल्हन की तो बात ही दूर, दुल्हन तो दूर छिपी है घूंघट में, डोली में। महावीर के त्याग को तो देखा, महावीर के भोग को देखा? महावीर की दुल्हन देखी? महावीर ने जो छोड़ा, वह तो तुमने गिन लिया! महावीर ने जो पाया, उसको गिना? वह तो बिलकुल चूक गया।

तो महावीर की बड़ी अधूरी तस्वीर लोगों के हाथ में है–और अधूरी ही नहीं, गलत तस्वीर हाथ में है। लोग कहते हैं, महावीर महात्यागी। मैं तुमसे कहता हूं, इतने बड़े महाभोगी कभी-कभी होते हैं। उन्होंने परमसत्य को भोगा। परमसत्ता को भोगा।

जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं।

जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं।।

एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि।

एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं।।

किसने उनके उत्तम सुख को देखा? किसने देखा उनके स्वर्ग को? लेकिन वह देखा भी नहीं जा सकता बाहर से। बाहर से तो लौटती बारात दिखायी पड़ती है। शतरंज के मोहरे दिखायी पड़ते हैं। खिलाड़ी तो भीतर छिपा है। दुल्हन तो डोली में है।

चल रहे हैं जो उन्हें चल के डगर से देखो

तैरनेवाले को तट से न, लहर से देखो।

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--2 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

गीता दर्शन (भाग–3) प्रवचन–4

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ज्ञान विजय है (अध्याय-6) प्रवचन—चौथा

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।। 7।।

और हे अर्जुन, सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादिकों में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की वृत्तियां अच्छी प्रकार शांत हैं अर्थात विकाररहित हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं।

सुख-दुख में, प्रीतिकर-अप्रीतिकर में, सफलता- असफलता में, जीवन के समस्त द्वंद्वों में जिसकी आंतरिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती है; कितने ही तूफान बहते हों, जिसकी अंतस चेतना की ज्योति कंपती नहीं है; जो निर्विकार भाव से भीतर शांत ही बना रहता है–अनुद्विग्न, अनुत्तेजित–ऐसी चेतना के मंदिर में, परम सत्ता सदा ही विराजमान है, ऐसा कृष्ण ने अर्जुन से कहा। तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।

एक, द्वंद्व में जो थिर है, विपरीत अवस्थाओं में जो समान है। सफलता हो कि असफलता, मान हो कि अपमान, जैसे उसके भीतर कोई अंतर ही नहीं पड़ता है, जैसे भीतर कोई स्पर्श ही नहीं होता है। घटनाएं बाहर घट जाती हैं और व्यक्ति भीतर अछूता छूट जाता है। पहले तो इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना जरूरी है कि इसका क्या अर्थ है, क्या अभिप्राय है? क्या प्रक्रिया इस तक पहुंचने की है? क्या मार्ग है?

पहले तो यह ठीक से समझ लें कि हम उद्विग्न कैसे हो जाते हैं? जब दुख आता है तब भी और जब सुख आता है तब भी, तब भीतर चेतना की ज्योति को कंपने का अवसर क्यों बन जाता है? क्या है कारण? क्या दुख ही कारण है? यदि दुख ही कारण है, तब तो कृष्ण जो कहते हैं, वह कभी संभव नहीं हो पाएगा, क्योंकि कृष्ण पर भी दुख आएंगे।

जब भीतर की चेतना समतुलता खो देती है सुख में, उत्तेजित हो जाती है, क्या सुख ही कारण है? यदि सुख ही कारण है, तब तो फिर इस पृथ्वी पर कोई भी कभी उस स्थिति को नहीं पा सकेगा, जिसकी कृष्ण बात करते हैं। स्वयं कृष्ण भी नहीं पा सकेंगे।

हम सब ऐसा ही सोचते हैं कि उद्विग्न हो गए दुख के कारण; उत्तेजित हो गए सुख के कारण। नहीं, सुख और दुख कारण नहीं हैं। जब तक आप सुख और दुख को कारण समझेंगे, तब तक उत्तेजित होते ही रहेंगे। आपने कारण ही गलत समझा है, आपका निदान ही भ्रांत है।

सुख से उत्तेजित नहीं होता है कोई। सुख के साथ अपने को एक समझ लेता है, इससे उत्तेजित होता है। दुख से कोई उत्तेजित नहीं होता। दुख में अपने को खो देता है, इसलिए उत्तेजित होता है।

दुख और सुख के बाहर खड़े रहने में हम समर्थ नहीं हैं; भीतर प्रवेश कर जाते हैं। एक आइडेंटिटी हो जाती है, एक तादात्म्य हो जाता है। जब आप पर दुख आता है, तो ऐसा नहीं लगता है, मुझ पर दुख आया। ऐसा लगता है, मैं दुख हो गया। जब सुख आपको घेर लेता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सुख आपके चारों ओर आपको घेरकर खड़ा है; ऐसा लगता है कि आप ही सुख हो गए; सुख की एक लहर मात्र।

यह तादात्म्य, यह सुख और दुख के साथ बंध जाने की वृत्ति ही उत्तेजना का कारण है। और यह वृत्ति तोड़ी जा सकती है।

सुख-दुख आते रहेंगे। सुख-दुख बंद नहीं होते। बुद्ध के पैरों में भी कांटे चुभ जाते हैं। बुद्ध भी बीमार पड़ते हैं। बुद्ध को भी मृत्यु आती है। लेकिन हमसे कुछ भिन्न ढंग से आती है। मृत्यु तो ढंग नहीं बदलेगी। मृत्यु तो अपने ही ढंग से आएगी। लेकिन बुद्ध अपने को इतना बदल लेते हैं कि मृत्यु के आने का ढंग पूरा का पूरा बदल जाता है।

बुद्ध मरने के करीब हैं। जीवन का दीया बुझने के करीब है। शरीर छूटने को है। और एक भिक्षु बुद्ध से पूछता है, बहुत पीड़ा हो रही है। भिक्षु कहता है, बहुत मन दुखी हो रहा है। थोड़े ही क्षणों बाद आप नहीं होंगे! बुद्ध कहते हैं, जो नहीं था, वही नहीं हो जाएगा। जो था, वह रहेगा। मृत्यु आ रही है। बुद्ध कहते हैं, जो नहीं था, वही नहीं हो जाएगा। इसलिए तुम व्यर्थ दुखी मत हो जाओ। क्योंकि मृत्यु उसे ही मिटा सकती है, जो नहीं था; जिसे हमने सोचा भर था कि है। स्वप्न था जो। हमारी धारणा मात्र थी, अस्तित्व नहीं था जिसका। विचार मात्र था, वस्तु-जगत में जिसकी कोई संभावना भी न थी, वही मिट जाएगा। जो नहीं था, वही मिट जाएगा; वह था ही नहीं। और जो था, उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। जो है, वह रहेगा।

मृत्यु तो आ रही है, लेकिन बुद्ध मृत्यु को और तरह से देखते हैं। मैं मरूंगा, ऐसा बुद्ध नहीं देखते। बुद्ध देखते हैं, जो मर सकता है, जो मरा ही हुआ है, वह मरेगा। स्वयं को दूर खड़ा कर पाते हैं, तटस्थ हो पाते हैं। मृत्यु की नदी बह जाएगी, बुद्ध तट पर खड़े रह जाएंगे–अछूते, बाहर।

पीड़ा भी आती है, दुख भी आता है। सब आता रहेगा। रात भी आएगी, सुबह भी होगी। इस पृथ्वी पर आप ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, तो रात उजाली नहीं हो जाएगी। आप ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, तो दुख सुख नहीं बन जाएगा। आप ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, तो कांटा गड़ेगा तो फूल जैसा मालूम नहीं पड़ेगा, कांटे जैसा ही मालूम पड़ेगा। फिर अंतर कहां होगा?

भीतर की चेतना कब डांवाडोल होती है? पैर में कांटा चुभता है तब? नहीं; जब भीतर की चेतना ऐसा मानती है कि मुझे कांटा चुभ गया, तब। अगर भीतर की चेतना कांटे के पार रह जाए, तो अनुद्विग्न रह जाती है। तो फिर चेतना अस्पर्शित, अनटच्ड, बाहर रह जाती है।

यह बाहर रह जाने की कला ही योग है। इस बाहर रह जाने की कला के संबंध में ही कृष्ण कह रहे हैं। और ऐसी थिर हो गई चेतना में, ऐसी जैसी ज्योति को हवा के झोंकों में कोई अंतर न पड़ता हो; ऐसी चेतना में ही परम सत्ता विराजमान हो जाती है। द्वार खुल जाते हैं उसके मंदिर के। वह विराजमान है ही। हमें उसका पता नहीं चलता।

चेतना दो में से एक चीज का ही पता चला सकती है। या तो तादात्म्य की दुनिया में संयुक्त रहे, तो संसार का पता चलता रहता है। या तादात्म्य की दुनिया से हट जाए, तटस्थ हो जाए, तो परमात्मा का पता चलना शुरू हो जाता है।

ऐसा समझें कि हम बीच में खड़े हैं। इस ओर संसार है, उस ओर परमात्मा है। जब तक हमारी नजर संसार के साथ जोर से चिपटी रहती है, तब तक पीछे नजर उठाने का मौका नहीं आता। जब संसार से नजर थोड़ी ढीली होती है, पृथक होती है, अलग होती है, तो अनायास ही–अनायास ही–परमात्मा पर नजर जानी शुरू हो जाती है।

दृष्टि तो कहीं जाएगी ही। दृष्टि का कहीं जाना धर्म है। लेकिन दो तरफ जा सकती है, पदार्थ की तरफ जा सकती है, परमात्मा की तरफ जा सकती है। और परमात्मा की तरफ जाने का एक ही सुगम उपाय है कि वह पदार्थ की तरफ तादात्म्य को उपलब्ध न हो। बस, परमात्मा की तरफ बहनी शुरू हो जाती है।

वह परमात्मा सदा मौजूद ही है। लेकिन हमारी दृष्टि उस पर मौजूद नहीं है। हम उससे विपरीत देखे चले जाते हैं। हम जो हैं, उससे हम अपना तादात्म्य नहीं करते; और जो हम नहीं हैं, उससे हम अपने को एक समझ लेते हैं! क्यों हो जाती है ऐसी भूल?

भूल इतनी बड़ी है कि उसे भूल कहना शायद ठीक नहीं। क्योंकि भूल उसे ही कहना चाहिए, जिसे कोई कभी करता हो। जिसे सभी निरंतर करते हैं, उसे भूल कहना एकदम ठीक नहीं मालूम पड़ता।

भूल का मतलब ही यह होता है कि सौ में कभी एक कर लेता हो, तो हम हकदार हैं कहने के कि कहें, भूल। सौ में सौ ही करते हैं। कभी करोड़ दो करोड़ में एक आदमी नहीं करता है। तो भूल एकदम सिर्फ भूल नहीं है; मैथमेटिकल इरर जैसी भूल नहीं है कि दो और दो जोड़े और पांच हो गए, ऐसी भूल नहीं है। वह कोई कभी करता है। सिर्फ भूल कहने से नहीं चलेगा; भ्रांति है।

भूल और भ्रांति में थोड़ा फर्क है। और भूल और भ्रांति के फर्क को खयाल में ले लेना, दूसरी बात है। तो इस सूत्र को समझा जा सकेगा।

भूल वह है, जिसमें व्यक्ति जिम्मेवार होता है, खुद की ही कुछ गलती से कर जाता है। भ्रांति वह है, जिसमें जाति, मनुष्य जैसा है, वही जिम्मेवार होती है। मनुष्य के होने का ढंग ही जिम्मेवार होता है।

रास्ते से आप गुजर रहे हैं और एक रस्सी को आपने सांप समझ लिया, तो वह आपकी भूल है। सब गुजरने वाले सांप नहीं समझेंगे। वह सांप से डरने वाला चित्त, सांप से भयभीत चित्त, सांप के अनुभवों से भरा हुआ चित्त, रस्सी से भी सांप का अनुमान कर लेगा। वह इनफरेंस है उसका कि कहीं सांप न हो। लेकिन सभी को सांप नहीं दिखाई पड़ेगा। वह भूल है, इसलिए बहुत कठिनाई नहीं है। टार्च जला ली जाए, दीया जला लिया जाए और भूल मिट जाएगी। वह व्यक्तिगत है। वह मनुष्य के चित्त से पैदा नहीं होती; व्यक्तिगत चित्त से पैदा होती है। वह इंडिविजुअल है, कलेक्टिव नहीं है।

लेकिन जिस भूल की मैं बात कर रहा हूं या कृष्ण इस सूत्र में बात कर रहे हैं, वह कलेक्टिव है। ऐसा नहीं है कि किसी को रस्सी सांप दिखाई पड़ती है। जो भी गुजरता है, उसी को दिखाई पड़ती है। बल्कि किनारे बुद्ध और महावीर और कृष्ण जैसे लोग खड़े होकर चिल्लाते रहें कि यह सांप नहीं, रस्सी है, फिर भी सांप ही दिखाई पड़ता है। तो इसको भूल कहना आसान नहीं है।

दीए जला लो, रोशनी कर दो, चिल्ला-चिल्लाकर कहते रहो कि यह रस्सी है, सांप नहीं! फिर भी जो गुजरता है, सुनकर भी उसे सांप ही दिखाई पड़ता है, रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। तो यह भूल कलेक्टिव माइंड की है, इसलिए भ्रांति है।

यह उस तरह की है, जैसे हम एक लकड़ी को पानी में डाल दें और वह तिरछी हो जाए। तिरछी होती नहीं, दिखाई पड़ती है। लकड़ी को बाहर खींच लें, वह फिर सीधी मालूम होती है। फिर पानी में डालें, वह फिर तिरछी मालूम होती है। अंदर लकड़ी को पानी में हाथ डालकर टटोलें, वह सीधी मालूम पड़ती है। लेकिन आंख को फिर भी तिरछी दिखाई पड़ती है! वह भूल नहीं है, भ्रांति है। आप हजार दफे जान लिए हैं भलीभांति कि लकड़ी तिरछी नहीं होती पानी में, फिर भी जब लकड़ी पानी में दिखाई पड़ेगी, तो तिरछी ही दिखाई पड़ेगी।

भ्रांति वह है, जो समूहगत मन से पैदा होती है।

इसे मैं भ्रांति कहता हूं, हमारे तादात्म्य को। दुख और सुख के साथ हम अपने को एकदम एक कर लेते हैं। यह समूहगत मन, कलेक्टिव माइंड से पैदा होने वाली भ्रांति है। जैसे पानी में लकड़ी डाल दी और वह तिरछी मालूम हुई। यह सांप दिखाई पड़ने लगे रस्सी में, वैसी भूल नहीं है। इसलिए हजार दफे समझने के बाद, फिर, फिर वही भूल हो जाती है।

अचेतन से आती है यह भ्रांति। आप कम जिम्मेवार हैं, अभी। आप अनंत जन्मों में जिस ढंग से जीए हैं, उसकी जिम्मेवारी ज्यादा है। गहरे में बैठ गई है यह बात। क्यों बैठ गई है? बैठ जाने का सूत्र भी समझ लेना चाहिए।

इतने गहरे में जब भ्रांति बैठी हो, तो उसका कोई सूत्र बहुत गहरा होता है। और इसीलिए तोड़ने में इतनी मुश्किल पड़ती है। गीता चिल्लाती रहती है, पढ़ते रहते हैं। कोई तोड़ता नहीं। बहुत मुश्किल मालूम पड़ता है। क्योंकि गीता तो आप पढ़ते हैं बुद्धि से, जो बहुत ऊपर है। और भ्रांति आती है बहुत गहरे से आपके। उन दोनों का कोई मेल नहीं हो पाता।

पढ़ लेते हैं, सुख-दुख में समबुद्धि रखनी चाहिए। फिर जरा-सा पैर में कांटा गड़ा, और सब सूत्र खो जाते हैं। गीता भूल जाती है, पैर पकड़ लेते हैं। और कहते हैं, मुझे कांटा गड़ गया! वह जो बुद्धि ने सोचा था, वह काम नहीं पड़ता। बुद्धि से भी ज्यादा गहरी भ्रांति है कहीं। भ्रांति अचेतन में है। और क्यों है?

दुख के कारण नहीं है भ्रांति; भ्रांति सुख के कारण है। भ्रांति दुख के कारण नहीं है, इस बात को तो कोई भी मानने को राजी हो जाएगा। यह बड़ी सुखद है बात कि यह पता चल जाए कि पैर में कांटा गड़ता है, वह मुझे नहीं गड़ता। यह तो कोई भी मानने को राजी हो जाएगा। बीमारी आती है, वह मुझे नहीं आती। मौत आती है, वह मुझे नहीं आती। यह तो कोई भी मानने को राजी हो जाएगा।

नहीं, कठिनाई दुख से नहीं है; कठिनाई सुख से है। सुख मैं नहीं हूं, यह मानने को हम स्वयं ही राजी नहीं होते। इसलिए दुख सवाल नहीं है, सवाल सुख है। जब आप कहते हैं कि मैं जिंदा हूं, तो फिर आपको कहना पड़ेगा कि मैं मरूंगा।

ध्यान रखें, भूल मरने से नहीं आती, जिंदगी के साथ आती है। जिंदगी–मैं जिंदा हूं! और अगर भूल तोड़नी है, तो जिंदगी से तोड़नी पड़ेगी, मौत से नहीं। लेकिन लोग मौत से तोड़ने का उपाय करते हैं। बैठ-बैठकर याद करते रहते हैं कि आत्मा अमर है। मैं कभी नहीं मरूंगा।

लेकिन उनको खयाल नहीं है कि जब आप अपने को जीवित समझ रहे हैं, तो एक दिन आपको, मरता हूं, यह भी समझना पड़ेगा। यह उसका दूसरा हिस्सा है। लेकिन कोई भी बैठकर यह स्मरण नहीं करता कि मैं जीवित कहां हूं! यह बहुत घबड़ाने वाली बात होगी। अगर तोड़ना है, तो यहां से तोड़ना पड़ेगा।

जब सुख आए, तब तो मन तत्काल राजी हो जाता है कि मैं सुख हूं। जब कोई गले में फूलमाला डाले, तब तो ऐसा लगता है, मेरे ही गले में डाली है। मुझ में कुछ गुण हैं। और जब कोई जूतों की माला गले में डाल दे, तो हम समझते हैं, वह आदमी शैतान था, दुष्ट था; मेरे गले में नहीं डाली।

जब कोई सम्मान करे, तब तो तादात्म्य करने के लिए बड़ी तैयारी होती है। लेकिन जब कोई अपमान करे, तब तो हम खुद ही तादात्म्य तोड़ना चाहते हैं। दुख से तो कोई तादात्म्य बनाना चाहता नहीं। बनता है। बनता इसलिए है कि सुख से सब तादात्म्य बनाना चाहते हैं।

सुख से हम क्यों तादात्म्य बनाना चाहते हैं? और जब तक सुख से न टूटे, तब तक दुख से कभी न टूटेगा। जब तक सम्मान से न टूटे, तब तक अपमान से न टूटेगा। जब तक प्रशंसा से न टूटे, तब तक निंदा से न टूटेगा। जब तक जीवन से न टूटे, तब तक मृत्यु से न टूटेगा।

इसलिए साधक को शुरू करना है सुख से। दुख से तो सभी शुरू करते हैं, कभी नहीं टूटता। सुख से शुरू करना है। सुख में अपने को बाहर रखने की चेष्टा! जब सुख आए, तब दूर खड़े करने की कोशिश अपने को!

और यह बड़े मजे की बात है कि सुख से कोई शुरू नहीं करता। यद्यपि सुख से कोई शुरू करे, तो बहुत सरल है। यह दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं। सुख से कोई शुरू नहीं करता। सुख से कोई शुरू करे, तो बहुत सरल है। दुख से लोग शुरू करते हैं। दुख से शुरू किया नहीं जा सकता। दुख से शुरू करना असंभव है।

हमारे संबंध सुख से हैं, दुख तो सुख के पीछे आता है। इनडायरेक्ट हैं उससे हमारे संबंध, डायरेक्ट नहीं हैं; परोक्ष हैं, प्रत्यक्ष नहीं हैं। जिससे हमारे प्रत्यक्ष संबंध हैं, उससे ही संबंध तोड़े जा सकते हैं। और सरलता से तोड़े जा सकते हैं।

लेकिन सुख से कोई शुरू नहीं करता, और वहीं सरलता से टूट सकते हैं। दुख से सभी लोग शुरू करते हैं, वहां कभी टूट नहीं सकते। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि दुखी लोग धर्म की तलाश में निकल जाते हैं। सुखी आदमी धर्म की तलाश में कभी नहीं जाता।

एक मित्र अपने किसी मित्र को मेरे पास लाए थे। कई बार मुझे कहा था कि उन्हें आपके पास लाना है। लेकिन वे आने को राजी नहीं होते, वे कहते हैं, मैं सब भांति सुखी हूं। अभी उनके पास जाने की क्या जरूरत! मैंने कहा, तो थोड़ा ठहरो। क्योंकि सब भांति सुखी रहना सदा नहीं हो सकता। थोड़ा रुको। थोड़ा ठहरो। थोड़ा धीरज रखो। जल्दी दुख आ जाएगा। और जो आदमी कहता है कि मैं सब भांति सुखी हूं, अभी मैं क्यों जाऊं; वह दुख में आने को राजी हो जाएगा, हालांकि तब आना बेकार होगा। अभी आने में कुछ हो सकता है। क्योंकि सुख बीज है, दुख फल है। सुख के बीज को नष्ट करना बहुत आसान है; दुख के बड़े विराट वृक्ष को नष्ट करना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

और जैसे एक बीज को बोने से वृक्ष एक और करोड़ बीज हो जाते हैं, ऐसे ही एक सुख की आकांक्षा करने से बड़े दुख का वृक्ष फलित होता है। लेकिन उस दुख के वृक्ष में करोड़ सुखों की आकांक्षाएं फिर लग जाती हैं।

मैंने कहा, लेकिन रुको। यही नियम है कि लोग दुख में धर्म की तलाश करते हैं, जब कि तलाश नहीं की जा सकती। और लोग सुख में कहते हैं कि हम तो सुखी हैं; तलाश की क्या जरूरत है?

ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि लोग धर्म को भी सुख के लिए तलाश करते हैं। धर्म को भी सुख के लिए तलाश करते हैं! इसलिए दुख में कहते हैं कि ठीक है, अभी चित्त दुखी है, तो हम धर्म की तलाश करें।

और धर्म का सुख से कोई भी संबंध नहीं है। धर्म का तो पूरा विज्ञान सुख से तोड़ने का विज्ञान है। यद्यपि जो सुख से टूट जाता है, वह आनंद से जुड़ जाता है। वह बिलकुल दूसरी बात है।

कभी भूलकर भी आप यह मत समझना कि जिसे आप सुख कहते हैं, उससे आनंद का कोई भी संबंध है। इतना ही संबंध हो सकता है–है–कि सुख के कारण आनंद कभी नहीं आ पाता। बस इतना ही संबंध है। सुख के कारण ही अटकाव खड़ा रहता है और आनंद के द्वार तक आप नहीं पहुंच पाते।

फिर जैसा होता है, उनकी पत्नी चल बसी; दुख आ गया। फिर उनके मित्र उन्हें ले आए। कहने लगे कि पत्नी चल बसी है; मैं बहुत दुखी हो गया हूं। चित्त बहुत उद्विग्न है। कुछ रास्ता बताएं। तो मैंने उन्हें कहा कि अब ठीक से दुखी ही हो लो। ठीक से दुखी हो लो। रोओ, छाती पीटो, सिर पटको। वे बहुत चौंके। उन्होंने कहा कि आपसे ऐसी आशा लेकर नहीं आया। कुछ कंसोलेशन, कुछ सांत्वना चाहिए! तो मैंने कहा कि फिर तुम मेरे पास भी सुख की ही तलाश में आए, कि किसी तरह तुम्हारे दुख को हलका करूं और तुम्हें थोड़ा सुख मिल जाए! इसके पहले कि तुम नई पत्नी खोजो, थोड़ा मैं तुमको सुव्यवस्थित कर दूं। इस शक्ल को लेकर नई पत्नी खोजने में बहुत मुश्किल होगी।

वे कहने लगे, आप कैसी बातें कर रहे हैं? मेरी पत्नी मर गई है! मैंने उनसे कहा कि ईमान से पूछो अपने मन से, नई पत्नी की तलाश शुरू नहीं हो गई है? वे कहने लगे, आपको कैसे पता चल गया? मैंने कहा, मुझे कुछ पता नहीं चल गया। आदमी के मन को मैं जानता हूं; तुम्हारे बाबत मैं कुछ नहीं कह रहा हूं। जल्दी ही तुम नई पत्नी खोज लोगे। फिर तुम कहोगे, मैं सब सुख में हूं; अब धर्म की क्या जरूरत है!

धर्म तुम्हारा उपकरण नहीं बन सकता। धर्म कोई इमरजेंसी मेजर नहीं है कि तुम तकलीफ में हो, तो जल्दी से इमरजेंसी दरवाजा खोल लिया धर्म का और चले गए। धर्म तुम्हारे दुख से छुटकारे का उपाय नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो धर्म सुख से छुटकारे का उपाय है। उसके लिए तो मन कभी तैयार नहीं होता है, इसलिए कभी धर्म जीवन में आता नहीं।

और ध्यान रहे, जो सुख से छूट जाता है, वह दुख से तत्काल छूट जाता है। और जो दुख से छूटना चाहता है और सुख पाना चाहता है, वह कभी दुख से छूट ही नहीं सकता, क्योंकि वह सुख से नहीं छूट सकता।

दुख सुख का ही दूसरा पहलू है, अनिवार्य। और दुख को छोड़ने की हमारी तैयारी है, उससे हम छूट नहीं सकते। सुख को छोड़ने की हमारी तैयारी नहीं है।

मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि सुख की पीड़ा को समझें। सुख के पूरे रूप को समझें। हर सुख के पीछे छिपे हुए दुख को समझें। हर सुख के धोखे के प्रति जागें। हर सुख सिर्फ प्रलोभन है आपको फिर एक नए दुख में गिरा देने का। जब तक सुख के प्रति इतना होश न हो, तब तक आप किनारे पर खड़े न हो पाएंगे।

लाओत्से कहता था, जब भी कोई मेरा सम्मान करने आया, तो मैंने कहा, मुझे माफ करो, क्योंकि मैं अपमान नहीं चाहता हूं। उस आदमी ने कहा, लेकिन हम सम्मान देने आए हैं! लाओत्से ने कहा, तुम सम्मान देने आए हो, और अगर मैं सम्मान लेने को राजी हुआ, तो आस-पास गांव के कहीं अपमान निकट ही होगा। वह अपनी यात्रा शुरू कर देगा। क्योंकि मैंने कभी सुना नहीं कि ये दोनों अलग-अलग जीते हैं। ये पेयर है, जोड़ा है। ये साथ ही चलते हैं। इनमें कभी डायवोर्स हुआ नहीं है। इनमें कभी कोई तलाक नहीं हुआ है। ये सदा साथ ही खड़े रहते हैं। यह अनिवार्य जोड़ा है। तुम मुझ पर कृपा करो। तुम मेरे अपमान को निमंत्रण मत दिलवाओ। तुम अपने सम्मान को वापस ले जाओ।

लाओत्से को उस मुल्क के सम्राट ने धन-धान्य से भेंट देनी चाही। लोगों ने कहा कि इतना बड़ा अदभुत फकीर तुम्हारे देश में और भीख मांगे, तुम्हारे लिए शोभा नहीं है। सम्राट खुद उपस्थित हुआ लाओत्से के झोपड़े पर, बहुत रथों में धन-धान्य, वस्त्र, आभूषण, सब लेकर, करोड़ों का सामान लेकर। लाओत्से ने कहा कि अभी मैं मेरा मालिक हूं, तुम मुझे नाहक भिखारी बना दोगे। तुम अपना यह सब साज-सामान ले जाओ। और अगर तुम्हें मेरी मालकियत से कोई एतराज हो, तो मैं तुम्हारे राज्य की भूमि छोड़कर चला जाऊं। लेकिन तुम मुझे परेशान मत करो। राजा ने कहा कि क्या कहते हैं आप? मैं तो सुख देने आया था! लाओत्से ने कहा, अनंत जन्मों का अनुभव यह कहता है कि जो भी सुख देने आया, वह दुख के अतिरिक्त कुछ दे नहीं गया। अब और धोखा नहीं।

लेकिन जागना पड़े सुख में; जागना पड़े सम्मान में; जागना पड़े वहां, जहां अहंकार को तृप्ति मिलती है; अहंकार के चारों तरफ फूल सज जाते हैं, वहां जागना पड़े। और वहां जागना सरल है, क्योंकि शुरुआत है वहां; अभी यात्रा शुरू होती है। दुख तो अंत है, सुख प्रारंभ है। और सदा जो प्रारंभ में सजग हो जाए, वह बाहर हो सकता है। बीच में सजग होना बहुत मुश्किल हो जाता है।

लेकिन हम प्रारंभ में सोना चाहते हैं। लोग कहते हैं, सुख की नींद। सुख एक नींद ही है। सुख में बहुत मुश्किल से कोई जागता है।

दूसरा सूत्र स्मरण रखें कि जरूर जल्दी, आजकल में सुख आएगा, तब सजग रहें कि दुख पीछे खड़ा है, प्रतीक्षा कर रहा है। जरूर आजकल में सम्मान आएगा, तब चौंककर खड़े हो जाएं; लाओत्से को स्मरण करें कि अब यह आदमी अपमान का इंतजाम किए दे रहा है। जल्दी कोई सिंहासन पर बैठने का मौका आएगा, तब भाग खड़े हों। फिर दुख से आपकी कभी कोई मुलाकात न होगी।

और एक बार यह सूत्र आपकी समझ में आ गया कि सुख से बचने की सामर्थ्य दुख से बचने की पात्रता है; और जिस दिन आप सुख से बचने की सामर्थ्य जुटा लेते हैं, दुख से बचने की पात्रता मिल जाती है, उसी दिन आनंद का द्वार खुल जाता है। जैसे ही सुख से कोई अपने को दूर खड़ा कर ले, वैसे ही चित्त की डोलती हुई लौ थिर हो जाती है। और जो सुख में नहीं डोला, वह दुख में कभी नहीं डोलेगा।

ध्यान रखें, सुख में डोल गए, तो दुख में डोलना ही पड़ेगा। वह अनिवार्य कंपन है, जो सुख के पैदा हुए कंपनों की परिपूर्ति करते हैं, कांप्लिमेंट्री हैं। जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं आपने घुमा दिया, तो वह दाएं जाएगा, जाना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है बचने का। सुख में कंपित हो गए, तो दुख में कंपित होना पड़ेगा।

लेकिन हम सुख में कंपित होना चाहते हैं और दुख में कंपित नहीं होना चाहते। इससे उलटा करना पड़े। सुख में कंपित न होना चाहें, फिर आपको दुख छू भी नहीं सकेगा। सुख की खोज में रहें कि जब सुख मिले, तब होश से भर जाएं और देखें कि सुख आपको कंपित तो नहीं कर रहा है।

कठिन नहीं है। बस, स्मरण करने की बात है। कठिन जरा भी नहीं है। हमें खयाल ही नहीं है, बस इतनी ही बात है। हमें स्मृति ही नहीं है इस बात की कि सुख ही हमारा दुख है। दुख को हम दुख समझते हैं, सुख को हम सुख समझते हैं; बस, वहीं भ्रांति है। और वह भ्रांति समूहगत है। व्यक्तिगत नहीं है, समूहगत है।

जब आपका बेटा स्कूल से प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण होकर घर नाचता हुआ आए, तब आप जानना कि वह दुख की तैयारी कर रहा है। काश, मां-बाप बुद्धिमान हों, तो उसे कहें कि इतने सुखी होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जितना तू सुखी होगा, उतना ही दुख दूसरे पलड़े पर रख दिया जाएगा, जो आजकल में लौट आएगा। उस बच्चे में समूहगत मन पैदा हो रहा है, और हम सहयोग दे रहे हैं। हम भी घर में बैंड-बाजा बजाकर, फूल-मिठाई बांट देंगे। हमने उसके सुख के साथ तादात्म्य होने की, जोड़ बांधने की चेष्टा शुरू कर दी। हमने उसके मन को एक दिशा दे दी, जो उसे दुख में ले जाएगी।

हम सब बच्चों को अपनी शक्ल में ढाल देते हैं। हमारे मां-बाप हमें ढाल गए थे, उनके मां-बाप उन्हें ढाल गए थे! बीमारियां बीमारियों को ढालती चली जाती हैं। रोग रोग को जन्म देते चले जाते हैं।

उस बच्चे के भी अतीत के अनुभव हैं, उस बच्चे के भी पिछले जन्मों के अनुभव हैं। उनमें भी उसने इसी भूल को दोहराया था। इस जन्म में फिर हम बचपन से उसके दिमाग को, उसके मस्तिष्क को फिर कंडीशन करते हैं, फिर संस्कारित करते हैं। सुख में सुखी होने की तैयारी दिखलाते हैं। फिर दुख में वह दुखी होता है।

जन्म होता है, तो बैंड-बाजा बजाकर हम बड़ी खुशी मनाते हैं। हमने कंडीशनिंग शुरू कर दी। आप कहेंगे, छोटे बच्चे को तो पता भी नहीं चलेगा, पहले दिन के बच्चे को कि बैंड-बाजा खुशी में बज रहा है।

लेकिन अभी जो लोग, जो वैज्ञानिक मनुष्य के शरीर की स्मृति पर काम करते हैं, बाडी मेमोरी पर, उनका कहना है कि वे बैंड-बाजे भी बच्चे के अचेतन मन में प्रवेश करते हैं। वे बैंड-बाजे ही नहीं, मां के पेट में जब बच्चा होता है, तब भी जो घटनाएं घटती हैं, वे भी बच्चे की अचेतन स्मृति का हिस्सा हो जाती हैं; वे भी बच्चे को निर्मित करती हैं।

ये बैंड-बाजे, यह खुशी की लहर, यह चारों तरफ जो सुख के साथ एक होने की भावना प्रकट की जा रही है, इसकी तरंगें भी बच्चे में प्रवेश कर जाती हैं। फिर यही तरंगें मृत्यु के वक्त दुख लाएंगी।

अगर मृत्यु के वक्त दुख न लाना हो, तो जन्म के वक्त सुख के साथ तादात्म्य पैदा करने की व्यवस्था को हटाएं। सुख जहां से शुरू होता है, वहां से तोड़ना शुरू करें।

योग सुख में जागने का नाम है। जागकर देखें कि मैं अलग हूं। और फिर आप अपने दुख में भी जागकर देख सकेंगे कि अलग हैं; कोई अड़चन न आएगी, कोई कठिनाई न पड़ेगी। तटस्थ होते रहें।

समय लगेगा। समय लगने का आंतरिक कारण नहीं है; समय लगने का कुल कारण इतना है कि हमारी आदतें मजबूत हैं और पुरानी हैं। डोलने की आदत मजबूत है, बहुत पुरानी है। हमें पता ही नहीं चलता, कब हम डोलने लगे। जब कोई आपकी प्रशंसा के दो शब्द कहता है, तब आपको पता ही नहीं चलता कि मन सुनने के साथ ही, बल्कि शायद सुनने के थोड़ी देर पहले ही डोल गया। उस आदमी का चेहरा देखा। लगा कि कुछ प्रशंसा में कहेगा, और भीतर कुछ डोल गया। यह भी जानकर डोल जाएगा कि प्रशंसा झूठी है, तो भी डोल जाएगा। क्योंकि आप भी जानते हैं कि आप भी दूसरों की झूठी प्रशंसाएं कर रहे हैं और उनको डुला रहे हैं! और कोई आपकी भी प्रशंसा कर रहा है और आपको डोला रहा है!

बिना आपको कंपित किए, आपका उपयोग नहीं किया जा सकता। आपको कंपाकर ही उपयोग किया जा सकता है। इसलिए इतनी खुशामद दुनिया में चलती है। इतनी खुशामद चलती है, क्योंकि पहले आपको थोड़ा डांवाडोल किया जाए, तभी आपका उपयोग किया जा सकता है। डांवाडोल होते ही आप कमजोर हो जाते हैं।

ध्यान रखें, जैसे ही आपकी चेतना कंपी कि आप कमजोर हो जाते हैं। फिर आपका कुछ भी उपयोग किया जा सकता है। जो आपकी खुशामद कर रहा है, वह आपको कमजोर कर रहा है, वह आपको भीतर से तोड़ रहा है।

इसलिए कृष्ण ने इसमें एक शब्द उपयोग किया है कि जो सुख-दुख में अनडोल रह जाए, वही स्वाधीन है। इसमें एक शब्द उपयोग किया है कि वही स्वाधीन है, जो सुख और दुख में सम रह जाए। उसे दुनिया में कोई पराधीन नहीं बना सकता।

हमें तो कोई भी पराधीन बना सकता है, क्योंकि हमें कोई भी कंपा सकता है। और जैसे ही हम कंपे कि जमीन हमारे पैर के नीचे की गई। कोई भी कंपा सकता है। कोई भी आपसे कह सकता है कि ऐसी सुंदर शक्ल कभी देखी नहीं, बहुत सुंदर चेहरा है आपका! कंप गए आप। अब आपका उपयोग किया जा सकता है; अब आपसे गुलामी करवाई जा सकती है।

कोई भी आपसे कह देता है कि आपकी बुद्धिमत्ता का कोई मुकाबला नहीं; बेजोड़ हैं आप! कंप गए आप। और उस आदमी ने आपको बुद्धिमान कहकर बुद्धू बना दिया! अब आपसे कम बुद्धि का आदमी भी आपसे गुलामी करवा सकता है। कंप गए आप। कंपे कि कमजोर हो गए। कंपे कि पराधीन हुए।

जो आदमी भीतर कंपित होता है सुख-दुख में, वह कभी भी गुलाम हो जाएगा। उसकी पराधीनता सुनिश्चित है। वह पराधीन है ही। एक छोटा-सा शब्द, और उसको गुलाम बनाया जा सकता है। सिर्फ उस आदमी को पराधीन नहीं बनाया जा सकता, जिसको सुख और दुख नहीं कंपाते। उसको अब इस दुनिया में कोई पराधीन नहीं बना सकता। कोई उपाय न रहा। उस आदमी को हिलाने का उपाय न रहा। अब तलवारें उसके शरीर को काट सकती हैं, लेकिन वह अडिग रह जाएगा। अब सोने की वर्षा उसके चरणों में हो सकती है, लेकिन मिट्टी की वर्षा से ज्यादा कोई परिणाम नहीं होगा। अब सारी पृथ्वी का सिंहासन उसे मिल सकता है, वह उस पर ऐसे ही चढ़ जाएगा, जैसे मिट्टी के ढेर पर चढ़ता है; और ऐसे ही उतर जाएगा, जैसे मिट्टी के ढेर से उतरता है।

भीतरी शक्ति अकंपन से आती है। भीतरी शक्ति, आंतरिक ऊर्जा, परम शक्ति उस व्यक्ति को उपलब्ध होती है, जो अकंप को उपलब्ध हो जाता है। और अकंप वही हो सकता है, जो सुख-दुख में कंपित न हो।

योगारूढ़ होने के पहले यह अकंप, यह निष्कंप दशा उपलब्ध होनी जरूरी है। और इस निष्कंप दशा में ही आदमी के पास इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति, इतनी स्वतंत्रता और इतनी स्वाधीनता होती है, कहना चाहिए, आदमी स्व होता है, स्वयं होता है कि इस पात्रता में ही परमात्मा से मिलन है; इसके पहले कोई मिलन नहीं है।

जो सुख-दुख से कंप जाता है, वह इतना कमजोर है कि परमात्मा को सह भी न पाएगा। इतना कमजोर है! एक चांदी के सिक्के से जिसके प्राण डांवाडोल हो जाते हैं। एक जरा-सा कांटा जिसकी आत्मा तक छिद जाता है। एक जरा-सी तिरछी आंख किसी की जिसकी रातभर की नींद को खराब कर जाती है। वह आदमी इतना कमजोर है कि कृपा है परमात्मा की कि उस आदमी को न मिले। नहीं तो आदमी टूटकर, फूटकर, एक्सप्लोड ही हो जाएगा, बिलकुल नष्ट ही हो जाएगा।

इतनी बड़ी घटना उस आदमी की जिंदगी में घटेगी, जो एक रुपए से कंप जाता है, जिसका एक रुपया रास्ते पर खो जाए, तो मुश्किल में पड़ जाता है! इतनी बड़ी घटना को झेलने की उसकी सामर्थ्य नहीं होगी। वह इतना क्रिस्टलाइज्ड नहीं है, इतना संगठित नहीं है भीतर, इतना सत्तावान नहीं है कि परमात्मा को झेल सके। वह पात्रता उसकी नहीं है।

नियम से सब घटता है। जिस दिन आप पात्र हो जाएंगे स्वाधीन होने के, उसी दिन परम सत्ता आप पर अवतरित हो जाती है। वह सदा उतरने को तैयार है, सिर्फ आपकी प्रतीक्षा है। और आप इतनी क्षुद्र बातों में डोल रहे हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। कभी हिसाब लगाकर देखें कि आपको कैसी-कैसी बातें डांवाडोल कर जाती हैं! कैसी क्षुद्र बातें डांवाडोल कर जाती हैं! रास्ते से गुजर रहे हैं, दो आदमी जरा जोर से हंस देते हैं; आप डांवाडोल हो जाते हैं।

एक मित्र को संन्यास लेना है। वे मुझसे रोज कहते हैं, लेना है, लेकिन मैं तो इन्हीं कपड़ों में संन्यासी हूं। अनेक लोग आकर मुझसे यही कहते हैं कि हममें कमी ही क्या है? हम तो इन्हीं कपड़ों में संन्यासी हैं! तो मैं कहता हूं, फिर डर क्या है? डाल लो गेरुए वस्त्र। तब कंप जाते हैं। बड़ा शक्तिशाली संन्यास है! वह गेरुआ वस्त्र डालने से कंपता है। क्यों कंपता है?

वह दूसरों की आंखों का कंपन है। रास्ते से गुजरेंगे, लोग क्या कहेंगे? दफ्तर में जाएंगे, लोग क्या कहेंगे? दफ्तर में गए, कहीं चपरासी ने हंस दिया ऐसा मुंह करके, मुस्कराकर, तो फिर क्या होगा? कोई क्या कहेगा? इतना भयभीत कर देती है बात। इतने कमजोर चित्त में बहुत बड़ी घटनाएं नहीं घट सकतीं।

गेरुए कपड़े पहनने से कोई बड़ी घटना नहीं घट जाएगी। लेकिन गेरुआ कपड़ा पहनने से एक सूचना हो जाती है कि अब दूसरे क्या कहते हैं, इसकी फिक्र छोड़ी। यह बड़ी घटना है। गेरुए कपड़े में कुछ भी नहीं है, लेकिन इस घटना में बहुत कुछ है।

लोग क्या कहेंगे! लोगों के कहे हुए शब्द कितना कंपा जाते हैं! शब्द! जिनमें कुछ भी नहीं होता है; हवा के बबूले। एक आदमी ने होंठ हिलाए। एक आवाज पैदा हुई हवा में। आपके कान से टकराई। आप कंप गए। इतनी कमजोर आत्मा! नहीं; फिर बड़ी घटनाओं की पात्रता पैदा नहीं हो सकती।

कृष्ण कहते हैं कि सुख-दुख में जो अडोल रह जाए, अकंप, उसकी चेतना थिर होती है। और वैसी चेतना परमात्मा के भीतर विराजमान है और वैसी चेतना में परमात्मा विराजमान है।

चलें निष्कंप चेतना की तरफ! बढ़ें! सुख से शुरू करें, दुख से कभी शुरू मत करना। सुख से शुरू करें, दुख तक पहुंच जाएगी बात। दुख से कभी शुरू मत करना। दुख से कभी शुरू नहीं होती बात।

सुख को ठीक से देखें और पाएंगे कि सुख दुख का ही रूप है। सुख में ही तलाश करें और पाएंगे कि सुख में ही दुख के सारे के सारे बीज, सारी संभावना छिपी है। और सुख से अपने को न कंपने दें।

न कंपने देने के लिए क्या करना पड़ेगा? क्या आंख बंद करके खड़े हो जाएंगे कि सुख न कंपाए? अगर बहुत ताकत लगाकर खड़े हो गए, तो आप कंप गए!

अगर एक आदमी कहे कि मैं तो अंधेरे में से निकल जाता हूं। आंख बंद कर लेता हूं; हाथ पकड़कर जोर से ताकत लगाता हूं; बिलकुल निकल जाता हूं बिना डरे। यह हाथ और यह ताकत, ये सब डर के लक्षण हैं। इस आदमी का यह कहना कि मैं अंधेरे में बिना डरे निकल जाता हूं, यह भी डरे हुए आदमी का वक्तव्य है। नहीं तो अंधेरे का पता ही नहीं चलता; यह निकल जाता। उजाले में तो नहीं कहता यह आदमी कि मैं उजाले में बिना डरे निकल जाता हूं! अंधेरे की कहता है कि अंधेरे में बिना डरे निकल जाता हूं।

नहीं; अगर आपने बहुत ताकत लगाई, तो समझ लेना कि आप कंप गए, वह ताकत कंपन ही है। नहीं; ताकत लगाने की कोई जरूरत नहीं है।

इस बात को, तीसरे सूत्र को, ठीक से खयाल में ले लें। इससे साधक को बड़ी कठिनाई होती है।

ताकत लगाई अगर आपने और कहा कि ठीक है, अब सुख आएगा, तुम डालना मेरे गले में माला और मैं बिलकुल छाती को अकड़ाकर और सांस को रोककर बिलकुल अकंप रह जाऊंगा!

आप कंप गए। बुरी तरह कंप गए। यह इतनी ताकत लगाई माला के लिए! चार आने में बाजार में मिल जाती है। चार आने के लिए इतनी ताकत लगानी पड़ी आत्मा की, तब तो कंपन काफी हो गया। और कितनी देर मुट्ठी बांधकर रखिएगा? थोड़ी देर में मुट्ठी ढीली करनी पड़ेगी। सांस कितनी देर रोकिएगा? थोड़ी देर में सांस लेंगे। तो जो डर था, वह थोड़ी देर बाद शुरू हो जाएगा।

नहीं; समझ की जरूरत है, शक्ति की जरूरत नहीं है। समझ की जरूरत है। जब सुख आए, तो समझने की कोशिश करिए; ताकत लगाकर दुश्मन बनकर मत खड़े हो जाइए। क्योंकि जिसके खिलाफ आप दुश्मन बनकर खड़े हुए, उसकी ताकत आपने मान ली। ताकत मत लगाइए, समझ।

और ध्यान रखिए, जितनी समझ कम हो, लोग उतनी ज्यादा ताकत लगाते हैं। सोचते हैं, ताकत से समझ का काम पूरा कर लेंगे। कभी नहीं पूरा होता। रत्तीभर समझ, पहाड़भर ताकत से ज्यादा ताकतवर है। समझ का काम कभी ताकत से पूरा नहीं होगा। समझ को ही विकसित करिए।

जब सुख आए, तो उसको देखिए गौर से, भोगिए, समझने की कोशिश करिए। और देखिए कि रोज कैसे सुख दुख में बदलता जा रहा है। और अंत तक यात्रा करिए और देखिए कि सुख से शुरू हुआ था और दुख पर पूरा हुआ! दो-चार-दस सुखों के बीच से गुजरिए समझते हुए। और आप पाएंगे कि आपकी समझ में वह जगह आ गई, वह मैच्योरिटी, वह प्रौढ़ता आपकी समझ में आ गई कि अब ताकत लगाने की जरूरत नहीं है। आप, बस अब सुख आता है और जानते हैं कि वह दुख है। इतनी सरलता से जिस दिन आप रहेंगे, उस दिन निष्कंप चित्त पैदा होगा; ताकत से नहीं पैदा होगा।

इसलिए बहुत से हठवादी धर्म को ताकत से छीनना चाहते हैं। वे कभी धर्म को नहीं उपलब्ध हो पाते, सिर्फ अहंकार को उपलब्ध होते हैं। ताकत से अहंकार मिल सकता है। समझ से अहंकार गलता है।

अगर ताकत लगाकर आपने कहा कि ठीक, अब हम सुख को सुख नहीं मानते, दुख को दुख नहीं मानते; और खड़े हो गए आंख बद करके ताकत लगाकर, तो सिर्फ अहंकार मजबूत होगा। और कुछ भी होने वाला नहीं है। और यह अहंकार अपने तरह के सुख देने लगेगा; और यह अहंकार अपने तरह के दुख लाने लगेगा; खेल शुरू हो जाएगा।

समझ, अंडरस्टैंडिंग पर खयाल रखिए। जितनी समझ बढ़ती है, जितनी प्रज्ञा बढ़ती है, उतना ही…।

बुद्ध ने तीन शब्द उपयोग किए हैं–प्रज्ञा, शील, समाधि। बुद्ध कहते हैं, जितनी प्रज्ञा बढ़े, जितनी समझ बढ़े, उतना शील रूपांतरित होता है, चरित्र बदलता है। जितना चरित्र रूपांतरित हो, उतनी समाधि निकट आती है।

लेकिन शुरुआत करनी पड़ती है प्रज्ञा से, समझ से। समझ बनती है शील बाहर की दुनिया में, और भीतर की दुनिया में समाधि। यहां समझ बढ़ती है, तो बाहर की दुनिया में चरित्र पैदा होता है। और चरित्र का अगर ठीक-ठीक अर्थ समझें, तो चरित्र केवल उसी के पास होता है, जो अकंप है। जो जरा-जरा सी बात में कंप जाता है, उसके पास कोई चरित्र नहीं होता।

सुना है मैंने कि इमेनुअल कांट, जर्मनी का एक बहुत प्रज्ञावान पुरुष, रात दस बजे सो जाता था, सुबह चार बजे उठता था। नौकर से कह रखा था, जो उसकी सेवा करता था, कि दस और चार के बीच कुछ भी हो जाए, भूकंप भी आ जाए, तो मुझे मत उठाना।

लेकिन फिर ऐसा हुआ कि इमेनुअल कांट जिस विश्वविद्यालय में शिक्षक था, अध्यापक था, उस विश्वविद्यालय ने तय किया कि उसे चांसलर, कुलपति बना दिया जाए। रात बारह बजे तार आया; नौकर को तार मिला। इतनी खुशी की बात थी। गरीब इमेनुअल कांट, साधारण प्रोफेसर था, चांसलर होने का निर्णय किया विश्वविद्यालय की एकेडेमिक कौंसिल ने! तो नौकर भूल गया यह। सोचा था कि भूकंप के लिए मना किया है। मगर यह तो बात इतनी खुशी की, इतने सुख की है, इसकी तो खबर दे देनी चाहिए।

गया और जाकर इमेनुअल कांट को हिलाया और उठाया, कहा कि शुभकामनाएं करता हूं! आपको विश्वविद्यालय ने कुलपति चुना। इमेनुअल कांट ने आंख खोली, एक चांटा नौकर को मारा और वापस चादर ओढ़कर सो गया।

नौकर तो बहुत हैरान हुआ। बड़ा हैरान हुआ! यह क्या हुआ? भूकंप को मना किया था; यह तो बात ही कुछ और है!

सुबह इमेनुअल कांट ने उठकर पहला तार यूनिवर्सिटी आफिस को किया कि मुझे क्षमा करें, इस पद को मैं स्वीकार न कर सकूंगा, क्योंकि इस पद के कारण मेरे नौकर को भी भ्रांति हुई और कहीं मुझे न हो जाए। इसमें मैं नहीं पडूंगा। इस पद के कारण मेरी कल की नींद खराब हुई, अब और आगे की नींद मैं खराब न करूंगा। इससे झंझटें आएंगी। इससे झंझटों की शुरुआत हो गई। वर्षों से मैं कभी दस और चार के बीच उठा नहीं!

सुबह नौकर से कहा कि तू बिलकुल पागल है! नौकर ने कहा, लेकिन आपने तो कहा था, भूकंप आए तो नहीं उठाना है! कांट ने उसे कहा कि दुख के भी भूकंप होते हैं, सुख के भी भूकंप होते हैं। और जो सुख के भूकंप स्वीकार कर लेता है, उसी के घर दुख के भूकंप आते हैं; अन्यथा कोई कारण नहीं है। शुरुआत हो गई थी। अगर मैं कल खुश होकर तुझे धन्यवाद दे देता, तो मैं गया था! बस, मैंने फिर निमंत्रण दे दिया, दरवाजे खोल दिए दुख के लिए।

उस नौकर ने कहा, लेकिन मुझे आपने चांटा क्यों मारा? कांट ने कहा कि तू समझता होगा, मिठाई बांटूंगा! तो मैंने तुझे खबर दी कि जिसे तू सुख समझकर आ रहा है, उससे भी आखिर में दुख ही आने वाला है, इसलिए मैंने कहा, चांटा अभी ही मार दूं। तुझे भी पता होना चाहिए कि सुख सदा दुख को ही लाता है पीछे, देर-अबेर।

जागें। सुख को समझने की कोशिश करें। वह जैसे-जैसे समझ बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे संतुलन, तटस्थता, उपेक्षा आती जाएगी। आप पार खड़े हो जाएंगे। उस पार खड़े व्यक्ति को कह सकते हैं हम कि वह मंदिर बन गया परम सत्ता का। परम सत्ता उसके भीतर प्रतिष्ठित ही है।

प्रश्न:

भगवान श्री, इस श्लोक में एक शब्द आया है, जितात्मनः, जिस पुरुष ने अपनी आत्मा जीत ली। आत्मा के साथ जीतना शब्द का कैसा अर्थ होगा, इसे स्पष्ट करें।

जिसने स्वयं को जीता, स्वयं की आत्मा जीती, इसका क्या अर्थ होगा?

दो अर्थ खयाल में लेने जैसे हैं। एक तो, हम स्वयं को भी नहीं जीत पाए हैं और सब जीतने की योजनाएं बनाते हैं। स्वयं को भी नहीं जीत पाए! और जो व्यक्ति स्वयं को जीते बिना और सारी जीत की योजना बनाता है, उससे ज्यादा विक्षिप्त और कौन होगा! अगर जीत की ही यात्रा करनी है, तो पहले स्वयं की कर लेनी चाहिए। स्वयं को न जीतने का क्या अर्थ है?

अगर मैं आपसे कहूं कि आज आप क्रोध मत करना, तो क्या आपकी स्वयं पर इतनी शक्ति है कि आज आप क्रोध न करें? यह तो बड़ी बात हो गई। अगर मैं आपसे इतना ही कहूं कि पांच मिनट आंख बंद करके बैठ जाएं और राम शब्द को भीतर न आने दें, तब आपको पता चल जाएगा कि अपने ऊपर कितनी मालकियत है!

आंख बंद कर लें और मैं कहता हूं, पांच मिनट राम शब्द आपके भीतर न आने पाए। तो इतनी भी ताकत नहीं है कि राम शब्द को आप भीतर आने से रोक सकें। इस पांच मिनट में इतना आएगा, जितना जिंदगी में कभी नहीं आया था! एकदम राम-जप शुरू हो जाएगा! राम-जप का जो फायदा होगा, वह होगा। लेकिन स्वयं की हार सिद्ध हो जाएगी। स्वयं पर हमारा रत्तीभर भी वश नहीं है।

तो जिसने स्वयं की आत्मा जीती! यहां आत्मा से एक अर्थ तो स्वयं की सत्ता; स्वयं के होने पर जिसकी मालकियत है।

जांच करें, तो अपनी गुलामी पता चलेगी कि हम कैसे कमजोर हैं! कैसे कमजोर हैं! हमारी कमजोरी सब तरफ लिखी हुई है। हर द्वार-दरवाजे पर, हर इंद्रिय पर, हर वृत्ति पर, हर वासना पर, हर विचार पर हमारी कमजोरी और गुलामी लिखी हुई है। अपने को धोखा देने से कुछ न होगा।

तो एक तो स्वयं को जीतने का स्मरण दिलाया है। आत्मा का एक अर्थ तो है, स्वयं। और आत्मा जीती जिसने, इसका दूसरा अर्थ है, और भी गहरा, और वह है, जिसने जाना स्वयं को। क्योंकि जानना जीतना बन जाता है। ज्ञान विजय है। आत्मज्ञान आत्म-विजय है।

तो एक तो अर्थ है कि हमारा जो व्यक्तित्व है, वह इतना स्वाधीन हो कि मैं कह सकूं कि मेरा बल, मेरा वश मेरे ऊपर है। आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं। मैं अपने पर भरोसा कर सकता हूं।

लेकिन कर सकते हैं? अगर सोचेंगे, तो पाएंगे, क्या भरोसा कर सकते हैं! एक व्यक्ति को आप कहते हैं कि कल भी तुझे मैं प्रेम करूंगा। कभी सोचा है आपने कि एक गुलाम आदमी यह वादा कर रहा है। कल? कल भी प्रेम कर सकेंगे? थोड़ा एक बार और सोचें। और कल अगर प्रेम कपूर की तरह तिरोहित हो गया आकाश में, तो क्या होगा उपाय उसको वापस लाने का?

इसे ऐसा देखें, आज प्रेम में पड़ गए हैं किसी के, अगर मैं आपसे कहूं कि एक घंटा इस व्यक्ति को अब प्रेम मत करें। अगर आप समर्थ हों कि कहें कि ठीक, यह एक घंटा मेरी जिंदगी में इससे प्रेम का घंटा नहीं रहेगा। तो भरोसा किया जा सकता है कि कल जब प्रेम उड़ जाए, तब भी आप, प्रेम करने का जो वचन दिया है, वह पूरा कर सकें। अन्यथा भरोसा नहीं किया जा सकता है। अभी आप कहेंगे, यह कैसे हो सकता है कि मैं प्रेम न करूं? कल आप कहेंगे कि यह कैसे हो सकता है कि मैं प्रेम करूं? विवश, बंधे हुए हैं।

एक तो पहला, प्राथमिक और बहिर अर्थ है, स्वयं को इस अर्थ में जीत लेने का कि मैं अपने पर भरोसा कर सकूं। दूसरा अर्थ है, स्वयं को जान लेने का।

महावीर ने कहा है, जिसने जाना स्वयं को, उसने जीता भी। इसलिए महावीर के साथ जिन जुड़ गया। जिन का अर्थ है, जिसने जीता। लेकिन जाना, तो जीता। क्योंकि जिसे हम जानते ही नहीं, उसे हम जीतेंगे कैसे? जिसे जीतना है, उसे जाने बिना जीतने का कोई उपाय नहीं है। ज्ञान विजय है। जिसे भी हम जान लेते हैं, उसके हम मालिक हो जाते हैं।

तो दूसरे अर्थ में हम आत्म-अज्ञानी हैं। हमें कुछ पता ही नहीं कि मैं कौन हूं! नाम-धाम पता है, उससे कुछ होने का हमारा संबंध नहीं है। पता ही नहीं, मैं कौन हूं! इसकी कोई खबर ही नहीं। जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं, उसे आत्मवान कहना भी सिर्फ शब्दों के साथ खिलवाड़ है।

अभी एक फकीर था, गुरजिएफ। वह कहता था, सभी के भीतर आत्मा नहीं है। और जब उसने पहली दफा यह कहा, तो बहुत हड़बड़ी मची। क्योंकि लोगों ने कहा कि यह तो किसी शास्त्र में नहीं लिखा है। सभी शास्त्रों में लिखा है, सबके भीतर आत्मा है। और तुम कहते हो कि सभी के भीतर आत्मा नहीं है! तो गुरजिएफ कहता था कि जिसे पता ही नहीं है, उसके भीतर होना और न होना बराबर है। यानी एक आदमी कहे कि मेरे घर में खजाना है। उससे पूछो, कहां है? वह कहे कि यह मुझे पता नहीं। तो न होने और होने में क्या फर्क है? कोई भी तो फर्क नहीं है; वर्चुअली कोई भी फर्क नहीं है।

तो गुरजिएफ कहता था, मैं नहीं मानता कि सबके भीतर आत्मा है। और मैं कहता हूं कि वह ठीक कहता था। आत्मा उसी के भीतर है, जो जानता है।

एक आदमी के बाबत मैंने सुना है, बड़ी हड़बड़ी में एक सड़क के किनारे खड़े होकर वह अपने सब खीसे देख रहा है। दो-चार लोग भी इकट्ठे खड़े हो गए हैं उसकी हड़बड़ी देखकर। फिर इस खीसे में हाथ डालता है, फिर उस खीसे में हाथ डालता है। सिर्फ एक खीसा कोट का ऊपर का छोड़ देता है।

फिर आखिर किसी ने पूछा कि महाशय, आप कई बार खीसों में हाथ डालकर देख चुके और बड़े परेशान हैं; पसीने की बूंदें आ गईं; मामला क्या है? उस आदमी ने कहा कि मेरा बटुआ खो गया है। मैंने सब खीसे देख लिए हैं, सिर्फ एक को छोड़कर। तो उन्होंने पूछा कि महाशय, उसको भी देख क्यों नहीं लेते? उस आदमी ने कहा कि उसे देखने में बड़ा डर लगता है कि अगर उसमें भी न हुआ तो? इसलिए मैं उसको छोड़कर बाकी में देख रहा हूं!

भीतर जाने में भी हम डरते हैं कि कहीं आत्मा न हुई तो? इधर बाहर से किताब पढ़कर बैठ जाते हैं; बड़ी चैन मिलती है कि भीतर आत्मा है, परमात्मा है। अमृत के झरने फूट रहे हैं। आनंद की धाराएं बह रही हैं। बाहर किताब में पढ़कर बड़े निश्चिंत हो जाते हैं। लेकिन कभी खीसे में हाथ नहीं डालते भीतर। कहीं न हुई तो? तो एक भरोसा और टूट जाए, एक आशा और विखंडित हो जाए। एक आश्वासन, जिसके सहारे सब दुख झेले जा सकते थे; सब खीसे टटोले जा सकते थे जिसके सहारे कि अगर यहां न मिला तो ठीक है, कोई हर्ज नहीं, वहां तो खोज ही लेंगे; तो वहां तो मिल ही जाएगा। कहीं वह भी न टूट जाए, उस भय से भीतर झांककर भी नहीं देखते।

आत्मजयी का अर्थ है, वह व्यक्ति, जो अपने भीतर पूरी आंखों से देख सकता है। वह जानता है कि वहां है; उसने देखा है कि वहां है; उसने पाया है कि वहां है। अब वह निर्भय है। अब उसकी छाती में छुरा भोंक दो, तो भी निर्भय है; क्योंकि वह जानता है, यह छुरा उसमें प्रवेश नहीं कर सकेगा, जिसे उसने जान लिया है। अब मौत उसके दरवाजे पर खड़ी हो जाए, तो आलिंगन कर लेगा; क्योंकि वह जानता है कि जिसे उसने अपने भीतर जाना है, उसको मौत छू पाए, इसका कोई उपाय नहीं है। अब आप उसको गालियां दें और अपमानित करें, तो वह हंसेगा, क्योंकि वह जानता है, तुम्हारी गालियां उस तक नहीं पहुंच सकतीं; तुम्हारे अपमान उस तक नहीं पहुंच सकते, जो वह है। अब वह विजयी हुआ, अब वह जिन हो गया।

तो एक तो बाहर के अर्थों में कि हम अपनी किसी भी चीज के लिए अपने पर भी भरोसा नहीं कर सकते; हमारी वृत्तियां हमें जहां ले जाती हैं, हमें जाना पड़ता है; परवश, पराधीन। और एक इस अर्थों में कि हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, आत्मजयी, आत्मा को जीत लिया है जिसने, उसमें परमात्मा सदा प्रतिष्ठित है।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।

युक्त इच्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाग्चनः।। 8।।

और ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है अंतःकरण जिसका, विकाररहित है स्थिति जिसकी और अच्छी प्रकार जीती हुई हैं इंद्रियां जिसकी तथा समान है मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण जिसको, वह योगी युक्त अर्थात भगवत की प्राप्ति वाला है, ऐसा कहा जाता है।

इस श्लोक में पिछले सूत्र में कुछ और नई दिशाएं संयुक्त की गई हैं। ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जो!

ज्ञान कहते हैं स्वयं को जान लेने को। विज्ञान कहते हैं पर को जान लेने को। विज्ञान का अर्थ है, दूसरे को जानने की जो व्यवस्था है। ज्ञान का अर्थ है, स्वयं को जान लेने की जो व्यवस्था है।

कृष्ण कहते हैं, तृप्त है जो ज्ञान-विज्ञान से। इसका क्या अर्थ होगा? इसका क्या यह अर्थ होगा कि जो व्यक्ति आत्मज्ञानी है, योगारूढ़ है, योग को उपलब्ध है, क्या वह समस्त विज्ञान को जानकर तृप्त हो गया है?

ऐसा अर्थ लेने की कोशिश की गई है, जो गलत है। क्योंकि अगर ऐसा होता, तो इस हमारे भारत में, जहां हमने बहुत योगारूढ़ व्यक्ति पैदा किए, हमने समस्त विज्ञानों का सार खोज लिया होता। वह हमने नहीं खोजा। तब तो हमारा एक योगी समस्त आइंस्टीनों और समस्त न्यूटनों और समस्त प्लांकों का काम पूरा कर देता। तब तो कोई बात ही न थी। तब तो अणु का रहस्य हम खोज लिए होते। तब तो समस्त विराट ऊर्जा का जो भी रहस्य है, हमने खोज लिया होता। इसलिए जो इसका ऐसा अर्थ लेता हो, वह गलत लेता है। ऐसा इसका अर्थ नहीं है। इसका अर्थ और गहरा है। यह बहुत ऊपरी अर्थ भी है, यह बहुत गहरा अर्थ भी नहीं है।

समस्त ज्ञान-विज्ञान से आत्मा है तृप्त जिसकी!

विज्ञान से तृप्ति का अर्थ है, जिसके जीवन से कुतूहल विदा हो गया। कुतूहल, क्यूरिआसिटी विदा हो गई। असल में क्यूरिआसिटी बहुत बचकाने मन का लक्षण है।

यह बहुत सोचने जैसी बात है। जितनी छोटी उम्र, उतना कुतूहल होता है–यह कैसा है, वह कैसा है? यह क्यों हुआ, यह क्यों नहीं हुआ? जितना छोटा मन, जितनी कम बुद्धि, उतना कुतूहल होता है।

इसलिए एक और बड़े मजे की बात है कि जिस तरह बच्चे कुतूहल से भरे होते हैं, इसी तरह जो सभ्यताएं बचकानी होती हैं, वे विज्ञान को जन्म देती हैं। बहुत हैरानी होगी! जो सभ्यताएं जितनी चाइल्डिश होती हैं, उतनी साइंटिफिक हो जाती हैं।

योरोप या अमेरिका एक अर्थों में बहुत बचकाने हैं, बहुत बालपन में हैं, इसलिए वैज्ञानिक हैं। कुतूहल भारी है। चांद पर क्या है, जानना है! कुतूहल भारी है। मंगल पर क्या है, जानना है! जानते ही चले जाना है। कुतूहल का तो कोई अंत नहीं है। क्योंकि संसार का कोई अंत नहीं है।

इसलिए कोई सोचता हो कि जब मैं सब जान लूंगा, तब तृप्त होऊंगा, तो वह पागल है। वह सिर्फ पागल हो जाएगा।

ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जिसका मन, इसका अर्थ? इसका अर्थ है, जिसका कुतूहल चला गया। जो इतना प्रौढ़ हो गया कि अब वह यह नहीं पूछता कि ऐसा क्यों है, वैसा क्यों है? प्रौढ़ व्यक्ति कहता है, ऐसा है।

फर्क समझें। बच्चे पूछते हैं, ऐसा क्यों है? वृक्ष के पत्ते हरे क्यों हैं? गुलाब का फूल लाल क्यों है? आकाश में तारे क्यों हैं? प्रौढ़ व्यक्ति कहता है, ऐसा है, दिस इज़ सो। वह कहता है, ऐसा है। क्योंकि अगर पत्ते वृक्ष के पीले होते, तो भी तुम पूछते कि पीले क्यों हैं? अगर वृक्ष पर पत्ते न होते, तो तुम पूछते कि पत्ते क्यों नहीं हैं?

एक नव-संन्यास में दीक्षित संन्यासिनी ने–वह अमेरिका से आई है–उसने मुझसे पूछा चार-छः दिन पहले कि व्हाय आई हैव कम टु यू–मैं तुम्हारे पास क्यों आ गई? मैंने कहा कि तू मेरे पास न आती, तो पूछ सकती थी, व्हाय आई हैव नाट कम टु यू? इसका क्या मतलब है! किसी और के पास पहुंचती, तो तू पूछती कि व्हाय? आपके पास क्यों आ गई? यह प्रश्न तो कहीं भी सार्थक हो सकता था–कहीं भी–इसलिए व्यर्थ है।

समझें। यह प्रश्न कहीं भी सार्थक हो सकता था, इसलिए व्यर्थ है। जो प्रश्न किसी जगह सार्थक होता है, सब कहीं नहीं, वही सार्थक है। जो प्रश्न सभी जगह लग सकता है, उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। उसका कोई भी अर्थ नहीं रह जाता।

प्रौढ़ व्यक्ति जानता है, जगत ऐसा है। इसलिए प्रौढ़ सभ्यताओं ने विज्ञान को जन्म नहीं दिया, प्रौढ़ सभ्यताओं ने धर्म को जन्म दिया। जब भी सभ्यता अपने प्राथमिक चरण में होती है, तो विज्ञान को जन्म देती है; और जब सभ्यता अपने शिखर पर पहुंचती है, तो धर्म को जन्म देती है। धर्म उस प्रौढ़ मस्तिष्क की खबर है, जो कहता है, चीजें ऐसी हैं–थिंग्स आर सच।

कुतूहल व्यर्थ है, बचकाना है। बच्चे करें, ठीक। कुतूहल बचपन है।

तो जब कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जो, जिसके अब कोई प्रश्न न रहे! उसका यह मतलब नहीं है कि जिसको सब उत्तर मिल गए। सब उत्तर कभी किसी को मिलने वाले नहीं हैं। और अगर किसी दिन सब उत्तर मिल गए, तो उससे खतरनाक कोई स्थिति न होगी। जिस दिन सब उत्तर मिल जाएंगे, उस दिन मरने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और जिस दिन सब उत्तर मिल जाएंगे, उसका यही अर्थ होगा कि परमात्मा सीमित है, अनंत नहीं है, असीम नहीं है। जो असीम है सत्य, उसके बाबत सब उत्तर कभी नहीं मिल सकते।

और सब उत्तर टेंटेटिव हैं, सब उत्तर कामचलाऊ हैं। कल नए प्रश्न खड़े हो जाएंगे और सब उत्तर बिखर जाते हैं। जब न्यूटन एक उत्तर देता है, तो बिलकुल सही मालूम पड़ता है। बीस-पच्चीस साल बीत नहीं पाते हैं कि दूसरा आदमी नए सवाल खड़े कर देता है और न्यूटन के सब उत्तर बिखर जाते हैं। फिर आइंस्टीन उत्तर देता है, पुराने उत्तर बिखर जाते हैं। अब तो हर दो साल में उत्तर बिखर जाते हैं, नए सवाल खड़े हो जाते हैं। सब पुराने उत्तर एकदम गिर जाते हैं।

प्रौढ़ व्यक्ति जानता है कि सब उत्तर मनुष्य के द्वारा निर्मित हैं और अस्तित्व निरुत्तर है। अस्तित्व निरुत्तर है, इसीलिए अस्तित्व रहस्य है।

रहस्य का मतलब होता है, निरुत्तर। जहां से कोई उत्तर कभी नहीं आएगा। अल्टिमेट आंसर कोई भी नहीं है, कोई चरम उत्तर नहीं है। कोई नहीं कह सकता कि बस, यह उत्तर हो गया, दिस इज़ दि आंसर। कोई ऐसा नहीं है। देयर आर आंसर्स, बट नो आंसर। उत्तर हैं, लेकिन कोई उत्तर नहीं है, जो कह दे कि बस, यह उत्तर हो गया; अब कोई सवाल उठने का सवाल न रहा। कुतूहल पैदा होता ही चला जाएगा। और हर नया उत्तर नए प्रश्नों के कुतूहल पैदा कर जाता है।

जब कोई व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है कि किसी प्रश्न का कोई अंतिम उत्तर नहीं है, तब वह प्रश्न ही छोड़ देता है। उस प्रश्न-गिरी हुई स्थिति का नाम, विज्ञान-ज्ञान से तृप्त हो जाना है। वह व्यक्ति प्रौढ़ हुआ। उस व्यक्ति का अब कोई कुतूहल न रहा। अब वह राह से गुजर जाता है बिना पूछे, क्योंकि वह जानता है कि पूछ-पूछकर भी कुछ नहीं पाया जा सकता है। और सब उत्तर सिर्फ नए प्रश्नों को जन्म देने वाले सिद्ध होते हैं। न वह अब यह पूछता है कि मैं कौन हूं? न वह अब यह पूछता है कि तू कौन है? वह पूछता ही नहीं।

क्या होगा? जब कोई नहीं पूछता है, तब कौन-सी घटना घटेगी? जब चित्त कोई भी प्रश्न नहीं पूछता, तब बड़े रहस्य की बात है। जब कोई भी प्रश्न नहीं होता चित्त में, सब प्रश्न गिर जाते हैं, तब चित्त इतना मौन होता है, इतना शांत होता है कि किसी दूसरे मार्ग से जीवन के रहस्य के साथ एक हो जाता है। उत्तर नहीं मिलता, लेकिन जीवन मिल जाता है। उत्तर नहीं मिलता, लेकिन अस्तित्व मिल जाता है। वही उत्तर है। रहस्य के साथ आत्मसात हो जाता है।

एक ढंग है, पूछकर जानने का; और एक ढंग है, न पूछकर जानने का। न पूछकर जानने का ढंग, धर्म का ढंग है। पूछकर जानने का ढंग, विज्ञान का ढंग है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान दोनों से जो तृप्त हो गया। प्रौढ़ हो गया, मैच्योर हुआ, अब पूछता ही नहीं। क्योंकि कहता है, सब पूछना बच्चों का पूछना है। और सब उत्तर थोड़े ज्यादा उम्र के बच्चों के द्वारा दिए गए उत्तर हैं। और कोई फर्क नहीं है। थोड़ी छोटी उम्र के बच्चे सवाल पूछते हैं; थोड़ी बड़ी उम्र के बच्चे सवालों का जवाब दे देते हैं।

कभी आपने घर में खयाल किया कि अगर आपके घर में दो बच्चे हैं, एक छोटा है, एक थोड़ा बड़ा है। आपसे सवाल पूछते हैं; आप जवाब देते हैं। आप जरा घर के बाहर चले जाएं। छोटा बच्चा बड़े बच्चे से सवाल पूछने लगता है, बड़ा बच्चा छोटे बच्चे को जवाब देने लगता है। वही काम जो आप कर रहे थे, वह करने लगता है!

ये सब सवाल-जवाब बच्चों के बीच हुई चर्चाएं हैं। प्रौढ़ता उस क्षण घटित होती है, जहां कोई सवाल नहीं है, जहां कोई जवाब नहीं है, जहां इतना परम मौन है कि पूछने का भी कोई–कोई पूछने का भी विघ्न नहीं है।

तो कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान से जो तृप्त है।

नहीं, ऐसा नहीं कि सब ज्ञान-विज्ञान जान लिया। बल्कि ऐसा कि सब जानने की चेष्टा को ही व्यर्थ जाना। सब जानने की चेष्टा को ही व्यर्थ जाना। सब कुतूहल व्यर्थ जाने। सब पूछना व्यर्थ जाना। फ्यूटिलिटी जाहिर हो गई कि कुछ पूछने से कभी कुछ मिला नहीं। यही अंतर है फिलासफी और धर्म का। यही अंतर है दर्शन और धर्म का।

दार्शनिक पूछे चले जाते हैं। वे बूढ़े हो गए बच्चे हैं, जिनका बचपन हटा नहीं। वे पूछे चले जाते हैं। वे पूछते हैं, जगत किसने बनाया? और पूछते हैं कि फिर उस बनाने वाले को किसने बनाया? और फिर पूछते हैं कि उस बनाने वाले को किसने बनाया? और पूछते चले जाते हैं। और उन्हें कभी खयाल भी नहीं आता कि वे क्या पागलपन कर रहे हैं! इसका कोई अंत होगा? इसका कोई भी तो अंत नहीं होने वाला है।

अज्ञान अपनी जगह रहेगा। ये सारे उत्तर अज्ञान से दिए गए उत्तर हैं। इनसे कुछ हल नहीं होगा। प्रश्न फिर खड़ा हो जाएगा। पूछते हैं, जगत किसने बनाया? कहते हैं, ईश्वर ने बनाया। अज्ञान में दिया गया उत्तर है। सच तो यह है कि अज्ञानी ही पूछते रहते हैं, अज्ञानी ही उत्तर देते रहते हैं!

उत्तर और प्रश्नों में जगत की पहेली हल होने वाली नहीं है। तो कहते हैं कि जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है, ऐसे भगवान ने यह संसार बना दिया। भगवान को भी कुम्हार बनाने से नहीं चूकते! उसको कुम्हार बना दिया। घड़ा कैसे बनेगा बिना कुम्हार के? तो जगत कैसे बनेगा बिना भगवान के? तो एक महा कुम्हार, उसने घड़े की तरह जगत को बना दिया।

लेकिन कोई बच्चा जरूर पूछेगा कि यह तो हम समझ गए कि जगत उसने बना दिया, लेकिन उसको किसने बनाया? तो जो जरा धैर्यवान हैं, वे फिर कुछ और उत्तर खोजेंगे। कोई अधैर्यवान हैं, तो डंडा उठा लेंगे। वे कहेंगे, बस, अतिप्रश्न हो गया! अब आगे मत पूछो, नहीं सिर खोल देंगे!

जब अतिप्रश्न ही कहना था, तो पहले प्रश्न पर ही कह देना था कि व्यर्थ मत पूछो। क्योंकि फर्क क्या पड़ा! बात तो वहीं की वहीं खड़ी है। राज वहीं का वहीं खड़ा है। सिर्फ प्रश्न पहले जगत के साथ लगा था कि किसने बनाया, अब वही प्रश्न परमात्मा के साथ लग गया कि किसने बनाया। अल्टिमेट के साथ जुड़ा है वह, अल्टिमेट के साथ ही जुड़ा हुआ है। पहले जगत आखिरी था, अब परमात्मा आखिरी है। हम पूछते हैं, उसको किसने बनाया? और अगर आप कहते हैं कि वह बिना बनाया, स्वयंभू है, तो फिर पहले जगत को ही स्वयंभू मान लेने में कौन-सी अड़चन आती थी?

दार्शनिक बच्चों के कुतूहल में पड़े हुए लोग हैं। इसलिए सब फिलासफी चाइल्डिश होती है। कितने ही बड़े दार्शनिक हों, कितने ही गुरु-गंभीर उन्होंने ग्रंथ लिखे हों, चाहे हीगल हों और चाहे बड़े मीमांसक हों, कितने ही उन्होंने गुरु-गंभीर ग्रंथ लिखे हों और कितने ही बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग किया हो और कितना ही जाल बुना हो, अगर बहुत गहरे में उतरकर देखेंगे, तो छिपा हुआ बच्चा पाएंगे, जो कुतूहल कर रहा है, क्यूरिअस है कि यह क्यों है, वह क्यों है! फिर अपने ही उत्तर दे लेता है। खुद के ही सवाल हैं और खुद के ही जवाब हैं और खुद का ही खेल है।

कृष्ण कहते हैं, जो तृप्त हुआ इस सब बचकानेपन से। जो प्रौढ़ हुआ, जो कहता है, पूछना ही व्यर्थ है, क्योंकि उत्तर कौन देगा! जो इतना प्रौढ़ हुआ कि कहता है कि चीजों का स्वभाव ऐसा है। कोई सवाल नहीं है। आग जलाती है और पानी ठंडा है। ऐसा है। ऐसा वस्तुओं का स्वभाव है।

महावीर का एक वचन है बहुत कीमती, जिसमें उन्होंने कहा है, वत्थूस्वभावो धम्म, वस्तु के स्वभाव को जान लेना ही धर्म है। ऐसा जान लेना कि ऐसा वस्तुओं का स्वभाव है; इसका यह स्वभाव है, उसका वह स्वभाव है; बस, इतना ही जान लेना धर्म है। मगर ऐसा जानना तभी संभव हो सकता है, जब ज्ञान-विज्ञान की वह जो जिज्ञासा है–अनंत जिज्ञासा है, दौड़ाती ही रहती है कि और जानूं, और जानूं–वह शांत हो जाए, तृप्त हो जाए।

तो कृष्ण कहते हैं, जिसकी जिज्ञासा, जिसका कुतूहल क्षीण हुआ, जो प्रौढ़ हुआ। जिसने अस्तित्व को स्वीकार किया और पूछना बंद किया। और जिसने जाना कि मैं एक लहर हूं इस विराट सागर में, क्या पूछूं? किससे पूछूं? कौन देगा जवाब? मैं खुद ही जवाब हूं। चुप हो जाऊं, मौन हो जाऊं, उतरूं गहरे में। जानूं कि अस्तित्व क्या है! पूछूं न, उत्तर की तलाश न करूं, अनुभव की तलाश करूं। उस अनुभव में जो फलित होता है, उस अनुभव में व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है, ऐसा जानने वालों ने कहा है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा जानने वालों ने कहा है। ऐसा कहा जाता है।

ऐसा क्यों कहते हैं? यह आखिरी बात, फिर हम सांझ बात करेंगे। कृष्ण ऐसा क्यों कहते हैं कि ऐसा कहा जाता है?

ऐसा कृष्ण इसलिए कहते हैं कि मेरा कोई दावा नहीं है कि ऐसा मैं कहता हूं। जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने ऐसा ही कहा है। मैं कोई दावेदार नहीं हूं। कृष्ण ऐसा नहीं कहते कि ऐसा मैं ही कह रहा हूं। ऐसा उन्होंने भी कहा है, जो जानते हैं। ज्ञान ऐसा कहता है। इससे व्यक्ति को विदा करने की कोशिश है।

और ध्यान रहे, ज्ञानी में व्यक्ति नहीं रह जाता। बोले, तो भी नहीं रह जाता। मैं कहे, तो भी नहीं रह जाता। ये सिर्फ कामचलाऊ बातें रह जाती हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ऐसा कहा जाता है। ऐसा मैं भी कहता हूं। ऐसा और भी कहते हैं। ऐसा जो भी जानते हैं, वे कहते हैं। ऐसा ज्ञान का कथन है। ऐसा ज्ञान कहता है।

समस्त द्वंद्वों से पार, कुतूहल से पार, व्यर्थ जानने की दौड़ और जिज्ञासा से पार, प्रौढ़ हुआ चित्त, समतुल हुआ चित्त, निर्द्वंद्व हुआ चित्त, समबुद्धि में ठहरा हुआ चित्त, अकंप हुआ चित्त, परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है।

पांच मिनट और बैठे रहेंगे। अभी इतनी बात सुनी; प्रश्न हैं, जवाब हैं, पांच मिनट थोड़ा अनुभव में उतरने की कोशिश करेंगे। हालांकि मन यह करता है कि सुन तो सकते हैं दो घंटे, लेकिन अनुभव में पांच मिनट उतरने में भी कठिनाई होती है।

तो पांच मिनट अनुभव में उतरेंगे। और मैं चाहूंगा कि साथ दें। यहां कीर्तन करेंगे संन्यासी, तो वे आनंद में मग्न हो रहे हैं, आप भी उनके आनंद में भागीदार हों। ताली बजाएं, उनके साथ गीत गाएं। संकोच न करें, पड़ोसी क्या कहेगा! वह वैसे ही काफी कह रहा है। आप उसकी कोई बहुत फिक्र न करें।

जिनको नाच में सम्मिलित होना हो, वे भी ऊपर आ जाएं या सामने आ जाएं। जिनको बैठकर ताली देनी हो, गीत गाने हों, वे भी गीत गाएं और साथ दें। पांच मिनट लीन होकर देखें। सब प्रश्न, सब जिज्ञासा, सब गीता, वेद छोड़कर वहां उतर जाएं जहां से गीता जन्मती है और वेद आविर्भूत होते हैं। डूबें थोड़ा अपने भीतर!

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–14

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जीवन तैयारी है, मृत्‍यु परीक्षा है—प्रवचन—चौदहवां

प्रश्‍नसार:

1—भगवान श्री की आंखों से निरंतर आशीर्वाद की वर्षा। उनके दृष्‍टि पात मित्र से शरीर में कंपन व अंतर्तम में बर्छी की चुभन। मृत्‍यु घटित होती—सी लगती है। फिर भी आत्‍यंतिक—मृत्‍यु क्‍यों नहीं?

2—भगवान श्री के सान्‍निध्‍य से भीतर प्रेम—प्रवाह प्रारंभ—हर व्‍यक्‍ति, हर वस्‍तु के प्रति। प्रेम पूरित होकर किसी से गले लगने को बढ़ने पर दूसरे द्वारा संकोच व अनुत्‍साह, प्रश्‍न कर्ता का पीछे हाट जाना। मार्गदर्शन की मांग।

3—तूने आटा लगाया और फंसाया। अब हम अकेले तड़प रहे है। जिम्‍मेवार कौन?

4—भगवान श्री, तेरी रजा पूरी हो।

पहला प्रश्न:

आपकी आंखों से निरंतर आशीर्वाद बरसता-सा प्रतीत होता है, मधुर और सलोना। श्रोताओं पर आपकी आंखें घूमती हैं और जैसे ही मुझ पर पड़ती हैं, लगता है कोई बर्छी मेरे अंतर्तम में छिद गयी। सारा शरीर कांप जाता है। मृत्यु-सी घटित होती है। लेकिन आत्यंतिक-मृत्यु क्यों नहीं घट जाती?

वह भी घटेगी। थोड़ी प्रतीक्षा, थोड़ी बाट जोहनी होगी। प्रारंभ हो गया है। धीरे-धीरे मरने की कला आती है। इतना साहस नहीं होता कि एक छलांग में आदमी मर जाए। रत्ती-रत्ती छूटता है। लेकिन एक-एक कदम से चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं है।

और ध्यान निश्चित ही मृत्यु जैसा है। क्योंकि जिसे हमने जीवन कहा है वह जीवन नहीं है। और जिसे हमने अब तक मृत्यु समझा है वह मृत्यु नहीं है। हम बड़े धोखे में हैं। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह केवल एक सपना है। और जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह है केवल इस सपने का टूट जाना। लेकिन चूंकि सपने को हम सत्य मानते हैं, जोर से पकड़ते हैं उसे, छाती से लगाये रखते हैं उसे। जीवन को जोर से पकड़ने के कारण ही मौत दुखदायी मालूम होती है। अन्यथा मृत्यु में कोई दुख नहीं है। मृत्यु विश्राम है, विराम है। जीवन को गलत समझा है, इसलिए मृत्यु के संबंध में भी गलत दृष्टि बन गयी है।

ध्यान है मृत्यु को ठीक-ठीक जानना, पहचानना। अहंकार को धीरे-धीरे डुबाना और खोना। जहां तुम नहीं होते, वहीं परमात्मा होता है। जहां तुम मिटे, परमात्मा हुआ। तुम्हारे मिटे बिना वह हो भी नहीं सकता। तुम बहुत जगह घेरे हो। उसके लिए अवकाश नहीं है भीतर आने को। मिटो, मरो, विदा होओ, ताकि वह आ सके। और तुम ही तुम्हारी बीमारी हो। लेकिन इस बीमारी को तुमने अपना शृंगार समझा है। इस अहंकार को तुमने अपनी आत्मा समझा है। इससे भूल हो रही है।

जो मेरे पास आयेंगे, वे चाहे किसी कारण से मेरे पास आ रहे हों, मैं उन्हें पास मरने के लिए ही बुला रहा हूं। मैं उन्हें स्वाद देना चाहता हूं मृत्यु का। एक बूंद भी तुम चख लो मृत्यु की, तो मृत्यु के द्वार से ही अमृत की पहली झलक मिलती है। मृत्यु के आवरण में छिपा है अमृत। मृत्यु की ओट में छिपा है परमात्मा।

जब मंसूर को सूली लगी, तो वह आकाश की तरफ देखकर खिलखिलाकर हंसने लगा। किसी ने पूछा उस भीड़ में से जो उसकी हत्या कर रही थी कि क्या देखकर हंस रहे हो? तो मंसूर ने कहा, तुम जिसे मृत्यु समझ रहे हो, वह मेरे परमात्मा से मेरा मिलन का द्वार है। उसे मैं खड़ा देख रहा हूं। वह हाथ फैलाये बाहुओं में लेने को तत्पर है। तुम यहां मुझे मारो कि वहां मैं उसके आलिंगन में गिरा। इसलिए हंस रहा हूं कि तुम्हें किसी को दिखायी नहीं पड़ता! वह बिलकुल सामने खड़ा है। इधर मेरे मरने की देर है कि उधर मिलन हुआ। जल्दी करो, देर क्यों लगा रहे हो?

जिन्होंने भी स्वयं को जाना, उन्होंने जाना, मृत्यु कचरे को ले जाती है, सोने को तो छोड़ जाती है। व्यर्थ को बहा ले जाती है, सार्थक को तो निखार जाती है, साफ-सुथरा कर जाती है। मृत्यु वरदान है। और जिसे मृत्यु में भी वरदान दिख गया, उसे फिर कहां वरदान न दिखेगा! जिसने मृत्यु में भी परमात्मा के हाथ देख लिये, स्वभावतः जीवन में तो उसके हाथ देख ही लेगा। उसने आखिरी कसौटी पार कर ली।

जब तक तुम मृत्यु में जीवन का सूत्र न खोज लोगे, तब तक तुम्हें बार-बार जन्मना होगा, मरना होगा। तुम फिर-फिर भेजे जाओगे, क्योंकि परीक्षा में तुम उत्तीर्ण नहीं होते। जीवन तैयारी है, मृत्यु परीक्षा है। परीक्षा अंत में है, स्वभावतः। जीवनभर तैयारी करते हैं हम, तैयारी किसलिए? कभी सोचा मृत्यु अंत में क्यों आती है? परीक्षा को अंत में आना ही होगा। मृत्यु जीवन की समाप्ति नहीं है। जीवनभर में तुमने कुछ सीखा, कुछ जाना, कुछ निचोड़ा, कुछ सार हाथ आया, इसकी परीक्षा है। अगर कुछ सार हाथ आया हो, तो मृत्यु तुम्हें मार नहीं पाती। अगर कुछ भी हाथ न आया हो, तो मृत्यु तुम्हें मार पाती है। फिर फेंके जाते हो जन्म में। जो मृत्यु से चूका, फिर जन्मेगा।

मृत्यु से चूकने के कारण ही जन्म है। जो मृत्यु को जागकर जी लिया, सौभाग्य से जी लिया, जिसने मृत्यु को आत्मसात कर लिया; जो मरा तन्मयता से, आनंद से, अहोभाव से, जिसने मृत्यु में भी परमात्मा के हाथ फैले देख लिये, फिर उसका कोई जन्म नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं, ध्यान तो मृत्यु को ही सीखना है। स्वेच्छा से सीखना है। और अभी तुम न सीखोगे तो मौत जब आयेगी, तो अचानक तुम अपने को तैयार न कर पाओगे।

मौत तो अचानक आती है, अकस्मात, कोई खबर नहीं देती, कोई पूर्व-संदेशा नहीं भेजती। एक दिन अचानक द्वार पर खड़ी हो जाती है: तुम अस्त-व्यस्त! तुम चलने को तैयार भी नहीं होते, बोरिया-बिस्तर भी बांधा नहीं होता, व्यर्थ से सार्थक को छांटा नहीं होता, सार से असार को अलग नहीं किया होता, सब उलझा पड़ा होता है–बीच में मौत आकर खड़ी हो जाती है। क्षणभर का समय भी नहीं देती कि तुम जमा लो, कि तुम तैयारी कर लो, कि तुम पाथेय जुटा लो, कि आनेवाली लंबी यात्रा के लिए तुम अपने को तत्पर कर लो, एक क्षण का अवकाश नहीं; मौत आयी–समय गया। मौत के आते ही समय नहीं बचता।

अकस्मात आनेवाली यह मृत्यु, इसकी अगर तुमने जीवन में रोज-रोज तैयारी न की, तो जैसा पहले भी इसने तुम्हें गैरत्तैयार पाया, इस बार भी पायेगी।

फिर चूकोगे, फिर उतरोगे जन्म के गङ्ढे में, फिर भटकोगे इन्हीं अंधेरी गलियों में, फिर इन्हीं कंटकाकीर्ण मार्गों पर, फिर इन्हीं वासनाओं की, इन्हीं क्रोध-कामनाओं की, लोभ, मद-मत्सर की भीड़ में फिर खो जाओगे।

इसलिए कहता हूं, ध्यान मृत्यु है। और अगर तुमने मुझे गौर से देखा, तो उस गौर के क्षण में ध्यान की थोड़ी-सी झलक तुम्हें आयेगी। अगर तुमने शांत होकर मुझे देखा, तो शांति के क्षण में बर्छी चुभेगी। चुभनी ही चाहिए। वही प्रयोजन है मेरा और तुम्हारा यहां होने का कि मैं तुम्हें थोड़े मृत्यु के दर्शन दे दूं। और एक बार तुम्हें मृत्यु की झलक आने लगे और रसधार बहने लगे, और तुम देखो कि अरे, कैसा नासमझ था, मृत्यु तो वरदान है, अब तक मैंने अभिशाप समझा! बस, फिर तुम्हें कोई डिगा न सकेगा। फिर तुम चल पड़े सीधी डगर पर। फिर मिली राह। अब तुम्हारी दिशा उचित हुई।

जैसे-जैसे मृत्यु का रस बढ़ने लगेगा, वैसे-वैसे जिसे तुम जीवन कहते हो, इससे हाथ छूटने लगेंगे। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि त्यागो। मैं तो सिर्फ इतना ही कहता हूं, जागो। जैसे-जैसे जागोगे, त्याग घटता है। किया त्याग भी कोई त्याग है! करना पड़े, बात ही व्यर्थ हो गयी! हो जाए। दृष्टि से हो, दर्शन से फले, बोध का परिणाम हो। इधर तुम जागो, उधर जागने की छाया की तरह त्याग भी घटे। स्वाभाविक है कि जब कोई चीज व्यर्थ दिखायी पड़ जाए, हाथ से छूट जाए; मुट्ठी खुल जाए, गिर जाए। उसे त्याग क्या कहना! छूट गयी। छोड़ा, ऐसा क्या कहना! छोड़ने जैसा क्या है! कचरे में न पकड़ने जैसा है कुछ, न छोड़ने जैसा है कुछ। लेकिन यह तो मृत्यु के स्वाद से ही संभव होगा।

तो यहां मेरे पास जब होओ, तब सच ही मेरे पास हो जाओ। तब कोई दूरी मत रखो। तब बीच में विचारों का व्यवसाय न चलने दो। तब चिंतन की धारा मत बहने दो। तब हटाकर सब बदलियों को सीधा-सीधा मुझे देखो! यहां मैं नहीं हूं। जैसे ही तुम सीधा-सीधा मुझे देखोगे, नहीं होने की एक लहर तुममें भी उठेगी। इधर मैं मिटा हूं, अगर मेरे साथ संगसाथ क्षणभर को भी साधा, तो उधर तुम भी पाओगे कि मिटने लगे।

सत्संग का इतना ही अर्थ है, किसी ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में मिटने की कला सीख लेना, जो मिट गया हो। किसी शून्य के पास बैठकर शून्य होने का अनुभव ले लेना। शुरू-शुरू में जरूरत है सहारे की। अकेले तो तुम बहुत घबड़ाओगे। इधर मैं हूं, तो तुम्हें भरोसा है कि आदमी मिट भी जाए तो भी होता है, घबड़ाने की कोई बात नहीं। वस्तुतः जितना मिट जाए, उतना ही प्रगाढ़ता से होता है। जब कोई आदमी बिलकुल शून्य हो जाता है, तो पूर्ण हो जाता है। इस आश्वासन में बंधे तुम मेरे करीब आ सकते हो। बिना इस आश्वासन के तुम बहुत डरोगे। तुम नाव को किनारे से छोड़ोगे नहीं। तुम किनारे को जकड़े रहोगे।

ठीक हो रहा है। छुरी चुभती है, चुभने दें। और आकांक्षा भी ठीक है। वह आकांक्षा सूचक है कि छुरी को चुभने दिया है। पूछा है, आत्यंतिक-मृत्यु कब घटित होगी? घबड़ाओ मत, वह भी होगी। चले चलो। राह पर हो।

सत्संग का जिसे सुख आ गया, उसकी भावदशा ऐसी हो जाती है–

कुछ न हुआ, न हो

मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल

पास तुम रहो।

मेरे नभ के बादल यदि न कटे–

चंद्र रह गया ढंका,

तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे

लेश गगन भास का,

रहेंगे अधर हंसते, पथ पर, तुम

हाथ यदि गहो।

कुछ न हुआ, न हो

रहेंगे अधर हंसते, पथ पर, तुम

हाथ यदि गहो।

बहु रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा–

मंद सबों ने कहा,

मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा–

ज्ञान, जहां का तहां रहा,

रहे, समझ है मुझमें पूरी, तुम

कथा यदि कहो।

अगर, तुमने फैलाया अपने प्राणों का सेतु मेरी तरफ, तुमने अगर हाथ मेरी तरफ बढ़ाया–मेरा हाथ बढ़ा ही है–मैं तुम्हारे हाथ गहने को तैयार हूं। प्रतीक्षा है बस तुम्हारे हाथ के बढ़ने की। हाथ से हाथ भी छू जाएगा, तो छुरी लगेगी। हाथ में हाथ पकड़ आ जाएगा, तो आत्यंतिक मृत्यु भी घटेगी। अब तुम जिनको भी ऐसा हो रहा हो–उन्हें जानना चाहिए कि सौभाग्यशाली हैं, कुंजी हाथ में आने लगी। देर न लगेगी ताले खोल लेने में। छोटी-सी कुंजी होती है, बड़े से बड़े विराट महलों के ताले खुल जाते हैं। छोटी-सी कुंजी होती है, बड़े-बड़े द्वार खुल जाते हैं। यह जो अभी छोटी-सी छुरी की तरह छिदती मालूम पड़ती है, यह कुंजी है। इसी राह चले चले, तो महामृत्यु घटेगी। भागना भर मत। घबड़ाना भर मत।

साधक अपनी मृत्यु खोज रहा है। परमात्मा का तो हमें पता नहीं। इतना ही पता है कि हम जो हैं, गलत हैं। इस गलत को मिटाने के लिए साधक आकांक्षा कर रहा है। इस आशा में कि जब गलत मिटेगा, तो जो शेष रहेगा, ठीक होगा। प्रकाश का हमें कुछ पता नहीं, यह अंधेरा हमें खूब भटका लिया है, इतना हमें पता है। यह अंधेरा न रहेगा, तो जो बचेगा वह प्रकाश होगा, यही हम सोच सकते हैं, यही हम कामना कर सकते हैं।

साधक ने जीवन तो देखा–तुम सब ने जीवन देखा–चारों तरफ जीवन का सपना तुम्हारे फैला है, पाया क्या? सब पा लिया हो तो भी कुछ नहीं मिलता। जो कुछ नहीं पा पाते वे तो नंगे रह ही जाते हैं, खाली रह ही जाते हैं, जो सब पा लेते हैं वे भी खाली रह जाते हैं। इस जीवन की जैसे ही समझ साफ होती, वैसे ही आदमी सोचता है कि यह जीवन तो देख लिया, अब मृत्यु को भी देख लें। शायद जो यहां नहीं, वहां हो। इधर खोजा, इस राह पर खोजा, नहीं मिला, विपरीत राह पर खोज लें। अपने से दूर जाकर देख लिया, अब अपने पास आकर देख लें। बाहर जाकर देख लिया, अब भीतर आकर देख लें। विचार करके, चिंतन-मनन करके देख लिया, अब ध्यान करके देख लें। होने की प्रगाढ़ आकांक्षा करके देख ली, अब न होने की कामना करके देख लें। वह न होने की कामना ही प्रार्थना है।

जैसे-जैसे मृत्यु इंच-इंच तुममें प्रवेश करेगी, तुम पाओगे मृत्यु के बहाने परमात्मा तुम्हारे भीतर आने लगा। वह सदा मृत्यु के बहाने ही आता है। वह केवल उनके पास ही आता है, जो मरने को तत्पर हैं। जो कहते हैं तेरे बिना जीना, इसके लिए हम राजी नहीं। तेरे साथ मरने को राजी हैं, तेरे बिना जीने को राजी नहीं। जो ऐसा दांव लगाता है, वही उसे पाता है।

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या!

जैसे-जैसे उसकी थोड़ी-सी किरणें तुम्हारे भीतर प्रवेश करती हैं, तो पहले तो किरणें मारती हैं, मिटाती हैं, जलाती हैं।

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या!

तारक में छवि प्राणों में स्मृति

पलकों में नीरव पद की गति

लघु उर में पुलकों की संसृति

भर लायी हूं तेरी चंचल

और करूं जग में संचय क्या!

थोड़ा-सा परमात्मा संचय कर लो–

भर लायी हूं तेरी चंचल

लघु उर में पुलकों की संसृति

और करूं जग में संचय क्या!

तेरा अधर-विचुंबित प्याला

तेरी ही स्मित-मिश्रित हाला

तेरा ही मानस मधुशाला;

फिर पूछूं क्यों मेरे साकी!

देते हो मधुमय विषमय क्या!

परमात्मा का हाथ तुम्हारे पहचानने में आने लगे, फिर तुम न पूछोगे।

फिर पूछूं क्यों मेरे साकी

देते हो मधुमय विषमय क्या!

फिर उस प्याली में जो भी हो; मृत्यु सही, तो महाजीवन है। जहर अमृत है। फिर मिटा डाले वह तो यही तुम्हारे निर्माण की प्रक्रिया है। नष्ट कर डाले, प्रलय में डाल दे तुम्हें, तो यही तुम्हारा सृजन है।

सुनार सोने को आग में डालता है। अगर सोने के पास भी थोड़ी बुद्धि होती, तो चिल्लाता, तड़फता, कहता यह क्या करते हो, मार ही डालोगे क्या? लेकिन सोने को पता भी कैसे हो कि यही शुद्ध स्वर्ण बनने की प्रक्रिया है। ऐसे, आग में गुजरकर ही जो शेष रह जाएगा, वही कुंदन है। मरकर भी तुम्हारे भीतर जो नहीं मरता, वही आत्मा है। मिटकर भी जो तुम्हारे भीतर नहीं मिटता, वही तुम्हारा वास्तविक होना है।

मृत्यु से गुजरना ही होगा। मेरे पास तुम अगर और कुछ सीखकर गये, तो तुम कूड़ा-कर्कट बीनकर चले गये। अगर मौत सीखकर गये, तो तुमने कुंजी ले ली।

हमने भारत के परम रहस्यवादी ग्रंथों को उपनिषद कहा है। उपनिषद का अर्थ होता है, गुरु के पास होना। उपनिषद का अर्थ होता है, पास बैठना। बस इतना।

पास बैठने से क्या हो जाएगा?

जो मिट गया है, उसके पास बैठने से तुम्हारे भीतर भी मिटने का साहस जगेगा। जो मिट गया है उसके पास बैठने से, उसकी खाई में झांकने से, उसकी अतल गहराई में झांकने से तुम भी खिंचने लगोगे अतल गहराई की तरफ। जो मिट गया है उसे देखकर तुम्हें पता चलेगा कि जो मिट गया है, कैसा कमलवत हो गया है; मरकर कैसे महाजीवन का अवतरण हो जाता है!

इस जगत में सबसे कठिन बात यह भरोसा है कि मरकर भी मैं बचूंगा। यह बड़ी से बड़ी श्रद्धा है कि मरकर मैं बचूंगा। जिसको यह भरोसा आ गया, वही धार्मिक है। और जो इस भरोसे के सहारे पर चल पड़ा, साधक है। जो पहुंच गया, उसे हम सिद्ध कहते हैं।

रोम-रोम में नंदन पुलकित

सांस-सांस में जीवन शत-शत

स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित

मुझमें नित बनते मिटते प्रिय

स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या;

फिर पूछूं क्यों मेरे साकी!

देते हो मधुमय विषमय क्या!

मृत्यु दे रहा हूं तुम्हें, ले लेना। दो खयाल रखना। एक, घबड़ाकर बचाने में मत लग जाना। उस बचाने की प्रक्रिया में तुम्हारे भीतर हजार तर्क उठते हैं, हजार संदेह उठते हैं। वे तर्क और संदेह केवल निमित्त मात्र हैं, वस्तुतः गहरे में तुम बचना चाहते हो, भागना चाहते हो। भागने के लिए कोई रेशनलाइजेशन, कोई बुद्धिगत उपाय खोजते हो। तो एक तो इससे बचना। और दूसरी बात, स्वाभाविक है कि आकांक्षा उठे कि थोड़ी-थोड़ी मृत्यु घटती है, ऐसा रस आ रहा है, पूरी क्यों नहीं घट जाती! उसकी बहुत ज्यादा चाहना मत करना। उसकी प्रतीक्षा करना, चाहना नहीं। क्योंकि चाहने से बाधा पड़ेगी। और देर लगेगी।

कुछ ऐसा है कि जहां से चाह आती है, वह मृत्यु का स्रोत नहीं है। जहां से चाह आती है, वहीं जीवेषणा है। एक क्षण को तुमने मेरी आंख में देखा, या मैंने तुम्हें देखा। एक धक्का लगा, एक सुख की तरंग उठी, कुछ चुभा हृदय में। पीड़ा भी हुई, लेकिन मीठी हुई। जो पीड़ा को देखेगा सिर्फ, वह भाग खड़ा होगा। जो मिठाई को देखेगा सिर्फ, वह और की मांग करने लगेगा। लेकिन दोनों डांवांडोल हो गये।

तुमने सुना, जीसस को जब सूली लगी तो उनके दोनों तरफ दो चोरों को भी सूली दी गयी। जीसस बीच में थे, सूली पर लटके, दोनों तरफ दो चोरों को भी सूली दी गयी थी। जिनने ऐसा आयोजन किया था, उनका तो केवल अर्थ इतना ही था कि वे जीसस को भी एक चोर-लफंगे से ज्यादा नहीं समझते। इसलिए दो चोरों के साथ-साथ सूली दी थी। लेकिन, ईसाई संतों ने बड़ी अनूठी बात इस साधारण-सी घटना में खोज ली। यह साधारण-सी घटना एक गहरा बोध-प्रसंग बन गयी।

जैकब बहुमे ने कहा है कि जीसस के दोनों तरफ दो चोर खड़े हैं, लटके हैं सूली पर, अगर तुम जरा बायें झुककर नमस्कार किये तो चोर को नमस्कार हो गयी, दायें झुककर नमस्कार किये तो चोर को नमस्कार हो गयी। ठीक बीच में रहे तो ही तुम्हारा नमस्कार जीसस को पहुंचेगा। यह तो बड़ी मीठी बात कही बहुमे ने। जरा इधर-उधर हुए कि चूके। सत्य मध्य में है। दोनों तरफ चोर हैं। दोनों तरफ असत्य है। परमात्मा मध्य में है, दोनों तरफ शैतान है।

तो न तो भाग जाना घबड़ाकर, न बहुत वासना से भरकर मेरी तरफ भागने लगना। दोनों हालत में चूक हो जाएगी, क्योंकि दोनों अतियां हैं। तुम जहां हो वहीं शांति से, स्वीकार-भाव से प्रतीक्षा करना। वहीं नत हो जाना, वहीं तुम्हारा सिर झुके। न तो तुम कहना कि मैं चाहता हूं ऐसा हो, न तुम कहना मैं चाहता हूं वैसा हो। तुम कहना, अब मैं कुछ चाहता ही नहीं। चाह को तुम हटा लेना। क्योंकि चाह डांवांडोल कर देगी। चाह कंपित कर देगी। तुम बेचाह होकर, जो घटे उसके स्वीकार-भाव से भरना।

इसे समझो। चाह में अस्वीकार है। बेचाह में स्वीकार है। जब तुम कहते हो, जो हो उसके लिए मैं राजी हूं, तो मृत्यु, आत्यंतिक-मृत्यु भी जल्दी घटेगी। लेकिन तुमने कहा कि जल्दी घटे, तुम यह कह रहे हो कि मैं अपनी आकांक्षा जो घट रहा है उसके ऊपर रखता हूं। यह अपनी आकांक्षा को घटने के ऊपर रखना ही जीवेषणा है। तो मौत नहीं घटेगी, देर लग जाएगी। मांगा, तो देर लग जाएगी।

छोड़ो परमात्मा पर, जो दे रहा है उसके लिए धन्यवाद दो। जो नहीं दे रहा है, जानो कि अभी तैयारी न होगी। क्योंकि जब फसल के पकने का समय आ जाता है, फसल पकती ही है। सभी चीजें अपने समय पर पक जाती हैं।

और हर बात की घड़ी, हर बात का बंधा हुआ क्रम है। छलांगें नहीं लगतीं। क्रमिक, धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता तैयारी होती है। क्योंकि तुम अगर तैयार न हो और कुछ तुम्हें मिल जाए, तो तुम गंवा दोगे। तुम अगर तैयार न हुए और कुछ तुम्हारी अपात्रता में गिरा, तो नष्ट हो जाएगा।

धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता चुभने दो इस छुरी को। इसकी पीड़ा को भी स्वीकार करो, इसके प्यार को भी स्वीकार करो। इसकी पीड़ा भी, इसकी मिठास भी। तुम चुनो मत। जितना हो रहा है, उसके लिए धन्यवाद; जो नहीं हो रहा है, उसके लिए भरोसा कि होगा। ऐसी श्रद्धा से जो चलता है, वह एक दिन मिट भी जाता है और मिटकर सर्वांग सुंदर भी हो जाता है।

दूसरा प्रश्न:

जबसे आपके शिष्यों का, आपके साहित्य का और अंततः आपका ही संपर्क उपलब्ध हुआ है, मेरे जीवन में प्रेम का प्रवाह आरंभ हो गया है। हर आदमी, हर चीज अच्छी लगने लगी है। परंतु कई बार जब मैं प्रेम से भरकर दूसरे के गले मिलना चाहता हूं, तो वह दूसरा सकुचा जाता है और फिर मैं पीछे हट जाता हूं। कृपया बतायें कि ऐसे समय में मैं क्या करूं?

प्रेम नाजुक बात है। प्रेम को अगर ठीक से समझा, तो उसमें यह बात समाहित है कि दूसरे का ध्यान रखना। प्रेम का अर्थ ही यह होता है कि दूसरे का ध्यान रखना।

तुम किसी के गले लगना चाहते हो, लेकिन दूसरा लगना चाहता है या नहीं? इतना काफी नहीं है कि तुम गले लगना चाहते हो। शुभ है कि तुम्हारे हृदय में गले लगने का भाव जगा। धन्यभागी हो! आभारी बनो प्रभु के। लेकिन इतने से जरूरी नहीं है कि दूसरे को तुम्हारे कंधे लगना ही पड़ेगा। तब तो प्रेम न हुआ, तब तो बलात्कार हुआ। तब तो तुमने दूसरे के साथ जबर्दस्ती की, यह तो हिंसा हो गयी। यह तो प्रेम के बहाने हिंसा हो गयी।

प्रेम तो रत्ती-रत्ती संभलकर चलता है, इंच-इंच संभलकर चलता है। प्रेम तो देखता है कि दूसरा कितने दूर तक चलने को राजी है, उससे इंचभर ज्यादा नहीं चलता। क्योंकि प्रेम का अर्थ ही है कि तुम्हें दूसरे का खयाल आया। दूसरे का मूल्य! दूसरा साध्य है, साधन नहीं! तुम गले लगना चाहते हो; दूसरा लगना चाहता है या नहीं? दूसरे को देखकर कदम उठाना। और धीरे-धीरे कदम उठाना, अन्यथा दूसरा घबड़ा ही जाएगा। तब तुम्हारा प्रेम आक्रमण जैसा मालूम पड़ेगा। तुमने दूसरे की चिंता ही न की। तुम इतनी देर भी न रुके कि पूछ तो लेते कि मैं पास आता हूं, आ जाऊं?

प्रेम सदा द्वार पर दस्तक देता है। पूछता है, क्या भीतर आ सकता हूं? अगर इनकार आये, तो प्रतीक्षा करता है, नाराज नहीं हो जाता। क्योंकि यह दूसरे की स्वतंत्रता है। दूसरे का स्वत्व है, अधिकार है कि वह कब तुम्हारे गले लगे, कब न लगे। तुम्हें प्रेम का अवरतण हुआ है, उसे तो नहीं हुआ। तुम्हारे भीतर प्रेम फैलना शुरू हुआ है, उसे तो तुम्हारे प्रेम का कोई पता नहीं। और वह दूसरा व्यक्ति तो प्रेम के नाम पर इतने धोखे खा चुका है कि उसे क्या पता कि फिर कोई नया धोखा नहीं पैदा हो रहा है। प्रेम के नाम पर ही लोगों को सताया गया है, इसलिए लोग सकुच गये हैं। मां ने किया प्रेम, बाप ने किया प्रेम, भाई ने किया प्रेम, पत्नी ने किया प्रेम, मित्रों ने किया प्रेम, और सबने प्रेम के नाम पर चूसा, और सबने प्रेम के नाम पर तुम्हारी छाती पर पत्थर रखे। बहाना प्रेम था, काम कुछ और लिया। जिसने भी कहा, मुझे तुमसे प्रेम है, उसी से तुम डरने लगे। क्योंकि अब कुछ और होगा! इस प्रेम के पीछे छिपा हुआ कोई न कोई रोग होगा।

रोगी आदमी के प्रेम में भी रोग होता है। स्वाभाविक है। कुछ और होता है! बाप अपने बेटे से कहता है कि तू देख, पढ़-लिख, बड़ा बन, प्रतिष्ठित हो। तुझसे मेरा प्रेम है इसलिए यह कह रहा हूं। लेकिन बेटा अगर अप्रतिष्ठित हो जाए, बड़े पदों पर न पहुंचे, तो प्रेम खो जाता है। तो प्रतिष्ठा से प्रेम होगा, बेटे से कहां प्रेम है! महत्वाकांक्षा से प्रेम होगा; शायद, मेरा बेटा है, खूब प्रशंसा पाये, इससे प्रेम होगा, क्योंकि इसके बहाने मेरा अहंकार भी तृप्त होगा। मेरा बेटा प्रधानमंत्री हो गया, राष्ट्रपति हो गया, तो यह अहंकार की ही यात्रा हुई प्रेम के द्वारा। यह प्रेम नहीं। यह प्रेम के पीछे महत्वाकांक्षा का रोग है। प्रेम तो कुछ भी नहीं मांगता, देता है।

पत्नी कहती है, मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। पति कहता है, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। और जैसे-जैसे प्रेम के जाल में दूसरा फंसता है, पता चलता है कि यह तो फांसी हो गयी। पत्नी स्वतंत्रता मार डालती है पति की बिलकुल। हिलने-डुलने योग्य भी नहीं रहने देती–पंगु कर देती है। पक्षाघात! पति पत्नी की स्वतंत्रता मार डालता है। दोनों एक-दूसरे के गुलाम हो जाते हैं।

प्रेम गुलामी देता है? प्रेम स्वतंत्रता देता है। प्रेम स्वतंत्रता में सहारा देता है। प्रेम चाहता है, तुम्हें जो सुखद हो, करो। यह प्रेम नहीं है, कुछ और है। यह प्रेम के नाम पर दूसरे पर मालकियत करने का सुख है। यह हिंसा है। दूसरे को वस्तु बना देना, परिग्रह बना लेना हिंसा है।

पति-पत्नी निरंतर कलह में लगे रहते हैं। कलह क्या है? कलह यही है कि कौन किस पर मालकियत करके दिखा दे! कौन छोटा है, कौन बड़ा है?

जीवनभर संघर्ष चलता है पति-पत्नी में। संघर्ष एक ही बात का है कि मालिक कौन है? ऐसे पत्नी कहती है, तुम्हारी दासी। पर यह शब्द ही है, ऐसा स्वीकार नहीं करती। ऐसा दासी कहकर भी पैर पकड़ने से शुरू करती है, गर्दन पर समाप्त करती है। आखिर में गर्दन दबा लेती है।

प्रेम से इतने कांटे चुभे हैं लोगों को, और प्रेम के नाम पर इतना-इतना दुख लोगों ने पाया है कि जब भी तुम कहोगे कि मुझे तुमसे प्रेम हो गया है और हाथ फैलाओगे, दूसरा सकुचा जाए, आश्चर्य नहीं है। दूसरे का ध्यान रखना। और एक खयाल रखना कि प्रेम जब भी आक्रामक होता है, तो दूसरे को घबड़ा देता है। प्रेम में आक्रमण होना ही नहीं चाहिए। आक्रमण होते ही प्रेम में हिंसा समाविष्ट हो जाती है। अब राह चलते किसी अजनबी को तुम जबर्दस्ती गले लगाकर आलिंगन कर लो, तो वह पुलिस-थाने में खबर करेगा कि यह आदमी पागल है। कुछ लेना-देना नहीं है मुझसे!

तुम्हारे भीतर प्रेम का अवतरण हुआ है, लेकिन जब तुम दूसरे को आलिंगन करते हो तो दूसरा भी समाविष्ट हुआ। तुम अकेले न रहे। हां, तुम एकांत अपने कमरे में बैठकर प्रेम के गीत गुनगुनाना, नाचना, कोई मनाही नहीं है। अन्यथा तुमने प्रेम का गलत अर्थ समझा। और फिर इस बात का भी डर है कि तुम जिसे प्रेम कह रहे हो, वह प्रेम है? या कि वासना ने नये रूप रखे? या वासना नये ढंग लेकर आयी? या वासना ने प्रेम का आवरण पहना? क्योंकि मेरी नजर ऐसी है कि जब भी तुम किसी व्यक्ति की तरफ वासना से भरकर देखते हो, तो दूसरा सकुचाता है, डरता है, घबड़ाता है; क्योंकि वासना तो एक कारागृह है। और घबड़ाहट स्वाभाविक है। क्योंकि वासना का अर्थ ही यह होता है कि तुम दूसरे व्यक्ति का उपयोग करना चाहते हो। कोई भी नहीं चाहता उसका उपयोग किया जाए।

उपयोग का मतलब हुआ कि तुमने दूसरे व्यक्ति को वस्तु में बदल दिया। उसकी आत्मा मार डाली। उपयोग तो वस्तुओं का होता है, व्यक्तियों का नहीं। कुर्सी का उपयोग होता है, टेबल का उपयोग होता है, मकान का उपयोग होता है, व्यक्तियों का तो नहीं। जब भी तुम वासना से किसी की तरफ देखते हो, तब तुमने इस ढंग से देखा कि तुम कामवासना के लिए इस दूसरे व्यक्ति का उपयोग करना चाहते हो। दूसरा तत्क्षण सचेत हो जाता है, सावधान हो जाता है। वह अपनी रक्षा में लग जाता है।

आक्रामक प्रेम में डर है कि कहीं कामवासना छिपी हो। वास्तविक प्रेम तो प्रार्थनापूर्ण होता है, वासनापूर्ण नहीं होता। वास्तविक प्रेम को दूसरे को गले लगाना जरूरी भी नहीं है। वास्तविक प्रेम तो एक आशीर्वाद है। तुम किसी के पास से गुजरे, आशीर्वाद से भरे हुए गुजरे, काफी है। आत्मा आत्मा को गले लग गयी, शरीर को शरीर से लगाने से क्या प्रयोजन है! कभी-कभी आत्मा के गले लगने के साथ-साथ शरीर का गले लगना भी घट जाए, तो शुभ है। लेकिन वह घटे, घटाया न जाए। कभी ऐसा होगा कि तुम बड़े आशीर्वाद से भरे हुए किसी के पास से निकलते थे और उसके हृदय में भी तुम्हारे आशीर्वाद की तरंगें पहुंचीं और दोनों एक-साथ किसी अनजानी शक्ति के वशीभूत होकर एक-दूसरे के गले लग गये।

तो तुम गले लगे ऐसा नहीं, दूसरा गले लगा ऐसा नहीं, प्रेम ने दोनों को गले लगा दिया। यह बड़ी और घटना है। जब तुम लगते हो गले, तो वासना है। तुम्हारी वासना के कारण दूसरा हटेगा। कृपा करके ऐसा आक्रमण किसी पर मत करना। तुम दूसरे को भयभीत कर दोगे।

वासना की आंख से देखा जाना किसी को भी पसंद नहीं। प्रेम की आंख से देखा जाना सभी को पसंद है। तो दोनों आंखों की परिभाषा समझ लो। वासना का अर्थ है, वासना की आंख का अर्थ है कि तुम्हारी देह कुछ ऐसी है कि मैं इसका उपयोग करना चाहूंगा। प्रेम की आंख का अर्थ है, तुम्हारा कोई उपयोग करने का सवाल नहीं, तुम हो, इससे मैं आनंदित हूं। तुम्हारा होना, अहोभाग्य है! बात खतम हो गयी। प्रेम को कुछ लेना-देना नहीं है। वासना कहती है, वासना की तृप्ति में और तृप्ति के बाद सुख होगा; प्रेम कहता है, प्रेम के होने में सुख हो गया। इसलिए प्रेमी की कोई मांग नहीं है।

तब तो तुम अजनबी के पास से भी प्रेम से भरे निकल सकते हो। कुछ करने का सवाल ही नहीं है। हड्डियों को हड्डियों से लगा लेने से कैसे प्रेम हो जाएगा! प्रेम तो दो आत्माओं का निकट होना है। और कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि जिसके पास तुम वर्षों से रहे हो, बिलकुल पास रहे हो, पास न होओ; और कभी ऐसा भी हो सकता है कि राह चलते किसी अजनबी के साथ तत्क्षण संग हो जाए, मेल हो जाए, कोई भीतर का संगीत बज उठे, कोई वीणा कंपित हो उठे। बस काफी है। उस क्षण परमात्मा को धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाना। पीछे लौटकर भी देखने की प्रेम को जरूरत नहीं है। पीछे लौट-लौटकर वासना देखती है। और वासना चाहती है कि दूसरा मेरे अनुकूल चले।

अब जिन मित्र ने पूछा है, वह कहते हैं कि दूसरा हट जाता है अगर मैं आलिंगन करना चाहता हूं। इतनी तो स्वतंत्रता दूसरे को दो, अन्यथा यह तो बलात्कार हो जाएगा। यह तो एक तरह की तानाशाही हो जाएगी। तुम दूसरे को इतना भी नहीं मौका देते कि वह हट सके। दूसरा सकुचा रहा है, वह इस बात की खबर दे रहा है कि तुम्हारे प्रेम में अभी प्रार्थना का स्वर नहीं है। अभी प्रेम में कहीं छिपी वासना है; कहीं दुर्गंध है। कहीं देह की बदबू है। आत्मा की सुवास नहीं। अभी वह तुम्हारे से हटकर यह खबर दे रहा है तुम्हें कि तुम अभी उस परिशुद्धि को उपलब्ध नहीं हो, जहां अजनबी भी तुम्हारे हाथों में, तुम्हारी बांहों में आये और समा जाए। तो इसका संकेत समझना।

दूसरे व्यक्ति की परिपूर्ण स्वतंत्रता को सदा स्वीकार करना। और इतना काफी है कि तुम पास से निकल गये। दूसरा दिखा, दूसरे में तुम्हें परमात्मा दिखा, परमात्मा का रूप दिखा, तुम अहोभाव से गुजर गये। कभी-कभी ऐसा हो जाएगा कि दोनों के हृदय में एक-साथ कोई तीसरी शक्ति–परमात्मा कहो, प्रेम कहो–एक साथ उठेगी, समवेत, और तुम दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में गिर जाओगे। लेकिन वह आलिंगन तुम्हारा नहीं होगा, न दूसरे का होगा, वह आलिंगन परमात्मा का होगा। उस क्षण की प्रतीक्षा करो। तब तक जल्दी मत करना। प्रेम बड़ी पवित्र घटना है।

जब तुम प्रेम करने की चेष्टा करने लगते हो, तभी अपवित्र हो जाता है प्रेम। तुम्हारा कृत्य नहीं है प्रेम–प्रेम है समर्पण, परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ देना। पहले परमात्मा का आलिंगन तो कर लो। फिर, परमात्मा के बहुत रूप हैं, इनका आलिंगन भी हो जाएगा। और हुआ या नहीं, उसका कोई प्रयोजन नहीं है। प्रेम पाप नहीं है, लेकिन प्रेम को थोपना पाप है। प्रेम तो बड़ा पुण्य है। फिराक की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं–

कोई समझे तो एक बात कहूं

इश्क तौफीक है गुनाह नहीं

प्रेम तो प्रसाद है–तौफीक। प्रभु-प्रसाद, प्रभु-कृपा, अनुकंपा; न मालूम कितने पुण्यों का फल है। इश्क तौफीक है गुनाह नहीं। अपराध नहीं है प्रेम, लेकिन तुम प्रेम के साथ भी दर्ुव्यवहार कर सकते हो। तुम इसे पाप बना सकते हो। आदमी ने यही तो किया, प्रेम को पाप बना दिया। तुम श्रेष्ठतम को भी निकृष्टतम कीचड़ में घसीट सकते हो। और तुम श्रेष्ठतम को निकृष्ट कीचड़ से निकाल भी सकते हो। तुम पर निर्भर है।

तो सदा ध्यान रखना, दूसरे की स्वतंत्रता पर आंच न आने पाये। और यह मैं अजनबियों के लिए ही नहीं कह रहा हूं, जिनको तुम अपना मानते हो, उनके संबंध में भी खयाल रखना। तुम्हारी पत्नी की स्वतंत्रता को आंच न आने पाये। तुम्हारे पति की स्वतंत्रता को आंच न आने पाये। जहां आंच आने लगे, समझना प्रेम पाप होने लगा। आलोक तो मिले, आंच न आये। प्रकाश तो मिले, लेकिन ताप पैदा न हो। चांद की तरह हो प्रेम, सूरज की तरह नहीं। जला न दे, झुलसा न दे। चांद की तरह–सुधा बरसे, अमृत बरसे, सोमरस बहे। शीतलता दे। तो ही प्रेम पुण्य है।

जो तुम्हारे बहुत पास हैं, तुम्हारा बेटा, तुम्हारी बेटी–छोटा बच्चा तुम्हारे घर पैदा हुआ है, परमात्मा ने एक रूप लिया, परमात्मा तुम्हारी तलाश में आया इस बहाने, इस निमित्त–तुम इस छोटे-से बच्चे को ढांचों में मत ढालना। तुम इस तरह की कोशिश मत करना, कि यह तुम्हारे पीछे-पीछे चले, तुम्हारी हां में हां मिलाये। तुम जो कहो, वही करे। तुम इसे मार मत डालना। परमात्मा तुम्हारे घर आया है, तुम इस बच्चे को परमात्मा की प्रतिष्ठा देना। इसकी स्वतंत्रता को स्वीकार करना।

हां, अपना अनुभव इसे दे देना। लेकिन वह अनुभव आदेश न हो। तुमने जो जाना है, उसकी संपत्ति इसे सौंप देना। लेकिन चुनाव का हक इसी को देना कि वह चुन ले–राजी हो, न हो राजी। न राजी हो तो नाराज मत होना। राजी हो तो प्रसन्न मत होना। क्योंकि प्रसन्नता और नाराजगी की राजनीति से ही हम बच्चों के ऊपर जबर्दस्ती करते हैं। बाप एक बात कहता है बेटे से, कहता है तेरी जो मर्जी हो वैसा कर। लेकिन अगर बाप की मर्जी के खिलाफ करता है, तो बाप दुखी मालूम पड़ता है। तो बेटा बाप को सुखी करना चाहता है कि चलो! अगर बाप की मर्जी के अनुसार करता है, तो बाप प्रसन्न होता है। तो बेटा बाप को प्रसन्न करना चाहता है कि चलो! ऐसे-ऐसे धीरे-धीरे बेटे की आत्मा खो जाती है।

इसीलिए तो दुनिया में इतनी भीड़ है और इतने आत्महीन लोग हैं। आत्मा कहां? आत्मा तो स्वतंत्रता में पनपती है, फैलती है, फूलती है। तो चाहे अजनबी, चाहे जिनको तुम अपने कहते हो…अपने जिनको कहते हो वे भी अजनबी हैं। जो बेटा तुम्हारे घर पैदा हुआ है, उसे तुम जानते हो, कौन है? कहां से आया है? क्या संदेश लाया है? क्या उसकी नियति है? तुम्हें कुछ भी तो पता नहीं! सिर्फ तुम्हारे घर पैदा हो गया है, तुम्हें माध्यम चुन लिया है। तुम इससे ज्यादा पागलपन से मत भर जाना कि उसकी गर्दन दबाने लगो। अजनबी तो अजनबी है।

इसीलिए तो सारे धर्मशास्त्र कहते हैं, यहां कौन अपना है? अपने ही हम अपने नहीं हैं, दूसरे की तो बात ही मुश्किल है। अपना ही हमें पता नहीं कि हम कौन हैं, तो किस को हम पहचानें। न, पास हों लोग कि दूर हों, अपने हों कि पराये हों, स्वतंत्रता को मत तोड़ना। जहां प्रेम स्वतंत्रता तोड़ता है, वहीं पाप हो जाता है। अन्यथा प्रेम तो इस जगत में, इस अंधेरे जगत में परमात्मा की किरण है। इस गहन अंधकार में प्रेम ही एकमात्र ज्योतिशिखा है।

फिर किसी के सामने चश्मेत्तमन्ना झुक गयी

शौक की शोखी में रंगे-एहतिराम आ ही गया

बारहा ऐसा हुआ है याद तक दिल में न थी

बारहा मस्ती में लब पर उनका नाम आ ही गया

जिंदगी के खाका-ए-सादा को रंगीं कर दिया

हुस्न काम आये न आये इश्क काम आ ही गया

सौंदर्य साथ दे या न दे, प्रेम सदा साथ देता है। सौंदर्य काम आये न आये, प्रेम सदा काम आ जाता है।

जिंदगी के खाका-ए-सादा को रंगीं कर दिया

वह जिंदगी की जो सादी-सी रूपरेखा है, सादा रेखाचित्र है, उसे रंगीन कर देता है प्रेम।

जिंदगी में जो हरियाली दिखायी पड़ती है, वह प्रेम की आंखों के कारण। जो फूल खिलते हैं, वह प्रेम की आंखों के कारण। जीवन के कंकड़-पत्थरों में जो कभी-कभी हीरे दिखायी पड़ जाते हैं, वह प्रेम के कारण। पदार्थ में परमात्मा की थोड़ी-सी जो झलक मिलने लगती है, वह प्रेम के कारण। अगर प्रेम न हो, तो बनाओ मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, सब व्यर्थ होंगे।

प्रेम के कारण ही मंदिर की पत्थर की प्रतिमा में परमात्मा की झलक मिलती है। प्रेम के कारण ही काबे का साधारण-सा पत्थर परमात्मा का प्रतीक हो जाता है। कितने लोगों ने चूमा है उस पत्थर को! किसी और पत्थर को इतने लोगों ने नहीं चूमा होगा। धन्यभागी है काबा का पत्थर! करोड़ों-करोड़ों लोग जनम-जनम प्रतीक्षा करते हैं उस पत्थर के पास जाकर चूम लेने की। इतने लोगों के चुंबन ने अगर उस पत्थर को परमात्मा नहीं बना दिया है, तो फिर परमात्मा हो ही नहीं सकता। इतने लोगों ने प्रेम बरसाया है, पत्थर भी परमात्मा हो ही जाएगा।

जब तुम मंदिर में जाकर, किसी और के मंदिर में जाकर मूर्ति देखते हो, तो मत कहना पत्थर की है। तुम्हारे लिए पत्थर की होगी, क्योंकि प्रेम की तुम्हारे पास आंख नहीं। लेकिन जो भक्ति से, श्रद्धा से भरकर उसी मंदिर में जाता है, उसे पत्थर की प्रतिमा मुस्कुराती लगती है कभी, कभी आंसू बहाती लगती है। उसे पत्थर की प्रतिमा जीवंत मालूम होती है।

जिंदगी के खाक-ए-सादा को रंगीं कर दिया,

हुस्न काम आये न आये इश्क काम आ ही गया

सौंदर्य तो आज नहीं कल खो जाता है। सौंदर्य तो सपना है। पानी पर खींची लकीर है। लेकिन प्रेम, प्रेम सत्य है। प्र्रेमपात्र बदल जाते हों, प्रेम नहीं बदलता। बचपन में अपनी मां को कोई प्रेम करता है; पिता को प्रेम करता है; थोड़ा बड़ा होकर भाई-बहन को प्रेम करता है; पास-पड़ोस, मित्रों को प्रेम करता है; और थोड़ा बड़ा होकर किसी स्त्री को प्रेम करता है; और थोड़ा बड़ा होकर बच्चों को प्रेम करता है; और थोड़ा बड़ा होकर किसी दिन किसी मंदिर में, किसी मस्जिद में झुकता है किसी अज्ञात प्रेमपात्र के लिए। प्रेमपात्र बदलते रहते हैं, लेकिन प्रेम नहीं बदलता। बचपन से लेकर अंत तक, जन्म से लेकर मृत्यु तक अगर कोई एक चीज तुम्हारे भीतर सदा चलती रहती है, तो प्रेम है। जैसे सांस सदा चलती रहती है। सांस शरीर को संभाले रखती है, प्रेम आत्मा को संभाले रखता है।

प्रेम सौभाग्य है! लेकिन भूलकर भी दूसरे पर उसे मत थोपना। अपने भीतर संभालकर! बाहर उछालने की जरूरत भी नहीं है। दिखावा करने का, प्रदर्शन करने का कोई कारण भी नहीं है। कबीर ने कहा है–हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यों खोले? हीरा मिल जाता है किसी को रास्ते पर पड़ा, जल्दी से गांठ में गठियाकर संभालकर चल पड़ता है, फिर इधर बार-बार थोड़े ही खोलकर देखता है? अगर कभी शक भी हो तो थोड़ा हाथ डालकर समझ लेता है कि है, फिर अपना चल पड़ता है।

प्रेम का हीरा तुम्हें मिला–हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यों खोले? अब इसमें कोई दिखाना थोड़े ही है, बाजार में जाकर घोषणा थोड़े ही करनी है कि हम एक बड़े प्रेमी हो गये, कि जो मिलता है उसको गले लगते हैं। संभाल लो भीतर, बांध लो गांठ और जितना भीतर छिपा सको उतना भीतर छिपा दो। तुम पाओगे, वह हीरा बीज बन जाता है। उसमें अंकुर आते हैं। यह हीरा कोई पत्थर नहीं है, यह हीरा तो प्राण का सारभूत अंश है। इसे छिपा दो अपने अचेतन की गहराइयों में। इसे बाहर मत उछालते फिरो, अन्यथा गंवा दोगे।

बीज तो जमीन में छिपा देने को होता है। बाहर रखे रहोगे, खराब हो जाएगा। छिपा दो अपनी चेतना की भूमि में। गहन तल में डाल दो। वहां से फूटेगा, वहां से निकलेंगी कोंपलें, वहां से उगेगा अंकुर, और एक बीज में लाखों-करोड़ों बीज लगेंगे।

यह जो छोटा-सा प्रेम का दीया जला है, इसे हवाओं में लेकर मत भटको यहां-वहां, बुझ जाएगा। इसे तो संभालकर रखो। यह सूरज बन सकता है।

तीसरा प्रश्न:

तूने आटा लगाया और हमें फंसाया। अब हम कष्ट पा रहे हैं और अकेले-अकेले तड़फ रहे हैं, इसका जिम्मेवार कौन?

आटे का लोभ। आटे के लोभ ने फंसा दिया। न करते लोभ, न फंसते। अब जब फंस ही गये हो, तो पीड़ा कांटे के कारण नहीं हो रही है। अभी भी कांटे से संघर्ष चल रहा होगा, इसीलिए हो रही है।

अब कांटे के साथ ही हो लो। अब कांटे से राजी हो जाओ। जिससे हम राजी हो जाते हैं, उसी से पीड़ा होनी बंद हो जाती है। पीड़ा से भी राजी हो जाओ, तो पीड़ा समाप्त हो जाती है।

इसे समझना।

जब तक हम लड़ते रहते हैं किसी चीज से, तभी तक पीड़ा होती है। जब स्वीकार कर लिया, कहा कि चलो, सौभाग्य कि इस योग्य समझे गये कि फंसाये गये, कि इस योग्य समझे गये कि कांटा हमारे लिए डाला गया। जीसस ने कहा है, परमात्मा अपना जाल फेंकता है मछुवे की भांति। उसमें बहुत-सी मछलियां फंस जाती हैं, लेकिन सभी चुनी नहीं जातीं। जिनको व्यर्थ पाता है, उन्हें वापस सागर में छोड़ देता है; जिन्हें सार्थक पाता है, उन्हें घर ले जाता है।

अगर फंस गये होओ मेरे जाल में, कांटा छिद गया, सौभाग्यशाली हो! परमात्मा का लोभ रहा होगा। आटे का लोभ उसी को मैं कह रहा हूं। आत्मा को पाने का लोभ रहा होगा–आटे का लोभ! वह लोभ भी सौभाग्य है! धन के लोभी तो बहुत हैं, धर्म के लोभी कहां? पदार्थ के लोभी तो बहुत हैं, परमात्मा के लोभी कहां? कंकड़-पत्थर बीननेवाले तो बहुत हैं, करोड़ों हैं, हीरों के पारखी कहां? उसी को आटे का लोभ कह रहा हूं। नहीं तो मेरे पास आ नहीं सकते थे। मेरे पास आने में बाधाएं तो बहुत हैं, सुविधाएं कहां हैं? जो सब तरह की बाधाओं को तोड़कर आ सकता है, वही आ सकता है।

यह कांटा जो तुम्हें छिद गया है, यह तुम्हारे जन्मों-जन्मों का पुण्य ही हो सकता है, अन्यथा छिद नहीं सकता था। अब इस कांटे से लड़ो मत। कहीं भीतर लड़ाई चल रही होगी। कहीं अब भी लग रहा होगा कि यह कहां उलझ गये! यह कांटा तो पीड़ा दे रहा है! पीड़ा तो होगी। सभी निखार पीड़ा से संभव होते हैं। यह प्रसव-पीड़ा है। अनेक बार गर्भवती स्त्री को मन में खयाल आता है, कहां उलझ गये! बोझ बढ़ता जाता है पेट में, वमन होने लगता है, भोजन पचता नहीं, रात नींद नहीं आती, एक लंबी यातना हो जाती है। कितनी बार नहीं गर्भवती स्त्री सोचती होगी कि अच्छा होता कि प्रेम में पड़े ही न होते! लेकिन इस पीड़ा को झेल लेती है, तो मां बन जाती है। और मां बने बिना कोई स्त्री पूर्ण नहीं होती।

पुरुष तो बाप बनने से कुछ बहुत नहीं पाता–थोड़ी बहुत झंझटें पाता होगा–क्योंकि बाप होना पुरुष का कोई निसर्ग नहीं है, सामाजिक व्यवस्था है। प्रकृति में आदमी को छोड़कर और तो बाप कहीं होता नहीं। मां तो सभी जगह होती है। पशु में, पक्षी में, सब जगह मां होती है। मां नैसर्गिक व्यवस्था है। बाप सामाजिक व्यवस्था है। इसी कारण माक्र्स जैसे विचारकों ने तो यह भी कहा कि जब समाजवाद पूरी तरह व्यवस्थित हो जाएगा, तो बाप की संस्था खो जाएगी। क्या जरूरत रह जाएगी? राज्य काम कर देगा बाप का। वैसे कर ही रहा है धीरे-धीरे। शिक्षा मुफ्त, अस्पताल मुफ्त, तो बाप का काम छिनता जा रहा है। एक न एक दिन कम्युनिज्म जब पूरी तरह फैल जाएगा–ऐसा माक्र्स का खयाल–बाप समाप्त हो जाएगा। मां समाप्त नहीं होगी। मां को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है।

तो बाप को तो थोड़ी झंझट-सी ही होती है बाप बनकर, लेकिन मां बड़ी सौभाग्य से भर जाती है। मां बने बिना स्त्री ऐसी ही होती है जैसे कि कोई वृक्ष जिस पर फूल नहीं आया, फल नहीं लगे–बांझ। प्रसाद नहीं होता। मां बनते ही स्त्री के भीतर से एक आभा फूटती है। जीवनदात्री! लेकिन वह जीवनदात्री बनने के लिए पीड़ा सहनी पड़ती है।

और इसलिए ठीक भी है कि बाप को तो कोई पीड़ा सहनी नहीं पड़ती। इसलिए बच्चा पैदा हो जाता है, इससे बाप को तो कोई पीड़ा सहनी नहीं पड़ती। बाप तो करीब-करीब बाहर खड़ा रह जाता है। बाप का कोई बहुत बड़ा सहयोग नहीं है। जो बाप करता है वह एक इंजेक्शन भी कर सकता है। इससे कोई, बाप का कोई ऐसा आत्यंतिक साथ नहीं है। झेलना तो मां को पड़ता है। एक नये जीवन का आरोपण, उस नये जीवन का भीतर बढ़ना। फिर वह उसी बच्चे के लिए जीती है। नौ महीने तक उसी के लिए सांस लेती है, उसी के लिए भोजन करती है, उसी के लिए उठती-बैठती है। स्वभावतः एक गहन सृजन की प्रक्रिया होती है, लेकिन पीड़ा! फिर बच्चे का पैदा होना और बड़ी प्रसव-पीड़ा है।

तो जैसे-जैसे तुम मेरे जाल में फंसोगे, वैसे-वैसे पीड़ा बढ?गी। तुम गर्भित हुए। सत्य ने तुम्हारे भीतर जगह बनायी। अब तुम्हें बहुत-सी पीड़ाएं होंगी जो तुम्हें कभी भी न हुई थीं। वह सत्य को जन्म देने की पीड़ाएं हैं। और वे बढ़ती जाएंगी क्रमशः, जैसे-जैसे नौ महीने का समय करीब आयेगा वे बढ़ती जाएंगी। और आखिरी क्षण में तो महापीड़ा होगी। लेकिन उस पीड़ा से गुजरे बिना कोई सत्य को जन्म नहीं दे पाता।

सत्य को जन्म देना हो, तो गर्भ धारण करना ही होगा। जिसको तुम अभी कांटा कह रहे हो, वह तुम्हारे भीतर पड़ गया गर्भ का बीज है। चुभता है, इसलिए कांटा कहते हो, ठीक। गड़ता है, इसलिए कांटा कहते हो, ठीक। लेकिन उसी कांटे में तुम्हारा सारा भविष्य, तुम्हारी सारी नियति निर्भर है। अगर सत्य तुमसे जन्म ले ले, तो वही तुम्हारा जन्म होगा। और निश्चित ही यह पीड़ा साधारण प्रसव की पीड़ा से बहुत ज्यादा है। क्योंकि साधारण प्रसव की पीड़ा में तो तुम दूसरे को जन्म देते हो, नौ महीने में झंझट खतम हो जाती है। यहां तो तुम्हें अपने को जन्म देना है। समय का कुछ पक्का नहीं कितना लगेगा। नौ महीने भी लग सकते हैं, नौ वर्ष भी लग सकते हैं, नौ जन्म भी लग सकते हैं। तुम पर निर्भर है। कितनी त्वरा, कितनी प्यास, और झेलने की कितनी क्षमता! अहोभाव से झेलने की क्षमता, आनंदभाव से झेलने की क्षमता, नाचते हुए झेलने की क्षमता, इस पर निर्भर करता है; उतना ही समय कम होता जाएगा।

पीड़ा स्वाभाविक है। लेकिन उस पीड़ा को सौभाग्य बनाने की चिंता करो।

आज भी है “मज़ाज़’ खाकनशीं

और नजर अर्श पर है क्या कहिये

जैसे ही तुम मेरे करीब आये, एकदम से तुम आसमान पर तो न पहुंच जाओगे। रहोगे तो तुम जमीन पर, सिर्फ नजर आकाश की तरफ उठेगी। अड़चन शुरू हुई। पैर जमीन पर, आंख आकाश की तरफ! पहले जमीन पर ही आंखें भी गड़ी थीं। एक तालमेल था। दुकान पर थे तो दुकान पर थे। अब पैर दुकान पर होंगे, आंखें मंदिर में। अब करते होओगे भोजन, स्मरण आत्मा का। अब गिनते होओगे रुपये और भीतर याद परमात्मा की। अब अड़चन हुई। अब एक द्वंद्व शुरू हुआ। एक महाद्वंद्व, एक संघर्ष, जिसको गीता कहती है–कुरुक्षेत्र। अब एक धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, उपद्रव शुरू हुआ! अब एक बड़ा संघर्ष है।

आज भी है “मज़ाज़’ खाकनशीं

और नजर अर्श पर है क्या कहिये

फिर वही रहगुजर है क्या कहिये

जिंदगी राह पर है क्या कहिये

आह तो बेअसर थी बरसों से

नग्मा भी बेअसर है क्या कहिये

हुस्न है अब न हुस्न के जलवे

अब नज़र ही नज़र है क्या कहिये

धीरे-धीरे, सौंदर्य तो सब खो जाएगा, दिखायी पड़नेवाली चीजें तो सब खो जाएंगी, रूप तो सब खो जाएगा, आकार तो सब खो जाएगा, आंख ही बचेगी। शुद्ध।

अब नजर ही नजर है क्या कहिये

उसी को तो हमने दर्शन कहा है, द्रष्टा की स्थिति कहा है, साक्षीभाव कहा है। सब खो जाएगा। सब दृश्य खो जाएंगे। सिर्फ आंख। पहले तो बड़ा सूनापन, बड़ा सन्नाटा लगेगा।

तो पूछा है, अकेले-अकेले तड़फ रहे हैं, इसका जिम्मेवार कौन? मुझे पता है, जब व्यक्ति परमात्मा की तरफ चलता है, तो पहले तो संसार छूटने लगता है हाथों से, भीड़ विदा होने लगती है, अकेला रह जाता है। परमात्मा मिले, इसके पहले बिलकुल अकेला हो जाता है। जब बिलकुल अकेला हो जाता है, तभी तो परमात्मा के योग्य बनता है। महावीर ने उस अकेलेपन को कैवल्य कहा है। जब बिलकुल केवल तुम ही रह गये, तुम्हारा होना ही रह गया।

हुस्न है अब न हुस्न के जलवे,

अब नज़र ही नज़र है क्या कहिये!

पीड़ा होगी। बड़ी गहन रात्रि मालूम होगी। पर सूरज के ऊगने के पहले रात तो गहन अंधेरी हो ही जाती है।

इस एकांत को अकेलापन मत समझो। इस एकांत को उसे पाने की तैयारी समझो। जरा-सी दृष्टि बदलने की बात है, जरा दृष्टिकोण बदलने की बात है और सब अर्थ और हो जाता है। अकेलापन अकेलापन मालूम होता है अगर उन लोगों का खयाल करो, जिनने कल तक घेरा था और अब वे दूर हटते चले गये हैं। स्वभावतः अगर पति ध्यान करेगा, पत्नी थोड़ी दूर होने लगेगी। पत्नी ध्यान करेगी, पति थोड़ा दूर होने लगेगा। घर-द्वार, बच्चे, अपने, दूर होने लगेंगे। ऐसा बाहर से दूर हों ऐसा जरूरी नहीं, लेकिन भीतर। भीतर कोई सरकने लगेगा पार, गहरे में जाने लगेगा। बाहर से आंख झपकने लगेगी, भीतर आंख खुलने लगेगी।

रोज ऐसा होता है।

रात तुम सोते हो, तब तुम्हें पत्नी की याद रह जाती है? पति की याद रह जाती है? बेटे-बेटी की याद रह जाती है? मित्र-प्रियजन की याद रह जाती है? कुछ भी नहीं। आंख बंद हुई, संसार गया। तुम अपने भीतर डूबे। ध्यान में तो यह घटना और भी गहरी घटेगी। तो अकेलापन आयेगा। अगर तुमने बाहर पर नजर रखी, तो यह लगेगा अकेलापन; अगर भीतर पर नजर रखी तो यह लगेगा एकांत। एकांत और अकेलेपन में बड़ा फर्क है। भाषाकोश में कोई फर्क नहीं है। भाषाकोश में तो दोनों का अर्थ एक ही लिखा है। जीवन के कोश में बड़ा फर्क है।

एकांत का अर्थ तो बड़ा आनंदपूर्ण है। अकेलेपन का बड़ा दुखपूर्ण है। तुम गलत व्याख्या मत करो। इसे अकेलापन मत कहो, इसे कहो एकांत। इसे कहो शुद्ध अपना होना। इसे कहो तैयारी। प्रभु के पास जा रहे हैं, तो भीड़ लेकर तो कोई कभी गया नहीं। एकाकी। अकेले ही जाना पड़ता है। उस मंदिर में दो तो कभी साथ प्रविष्ट हुए नहीं। एक ही प्रविष्ट होता है। तो इसे तैयारी समझो। और जितना एकांत बढ़ने लगेगा उतना जानना कि प्रभु पास आ रहा है, संसार दूर हो रहा है। एक क्रांति घट रही है। पहले-पहले तो यह मिटने-जैसा ही लगेगा। इसीलिए तो इसको मैं मृत्यु कहता हूं।

मिटते हुओं को देखकर क्यों रो न दे “मज़ाज़’

आखिर किसी के हम भी मिटाये हुए तो हैं

जो मेरे पास आ रहे हैं, वह समझेंगे। वह इस बात को समझेंगे। जब वह दूसरे को मिटते, एकांत की पीड़ा में उतरते देखेंगे, तो वह समझेंगे।

मिटते हुओं को देखकर क्यों रो न दे “मज़ाज़’

आखिर किसी के हम भी मिटाये हुए तो हैं

सीने में उनके ज़ल्वे छुपाये हुए तो हैं

हम अपने दिल को तूर बनाये हुए तो हैं

बस इतना ही खयाल रहे कि रोशनी जलती रहे। दिल का दीया जलता रहे। भीतर होश बना रहे। संसार तो छूटेगा, छूटना ही है। लाख उपाय करो, पकड़कर रखा जा सकता नहीं। कोई नहीं रख सका, तुम भी न रख सकोगे। कोई अपवाद नहीं है।

जो कल छूटना ही है, उसे अपने हाथ से छोड़ देना कला है। शान है उसमें। गरिमा है, गौरव है। यही तो संन्यासी का गौरव है। संन्यासी का गौरव क्या है? यही कि संसारी को जबर्दस्ती छुड़ाया जाता; संन्यासी खुद ही कह देता है कि ठीक है, जो छूटना है, छूट गया। संसारी बड़ी पीड़ा से छोड़ता है, रो-रोकर छोड़ता है, दीन होकर छोड़ता है। लगता है जैसे लूटा जा रहा है। संन्यासी यह देखकर कि यहां तो सभी लुट जाते हैं, खुद खड़ा होकर लुट जाता है। कहता है, ठीक है। पीड़ा होगी, भीड़ विदा होगी, अकेलापन आयेगा, उसी अकेलेपन की राह से परमात्मा आयेगा। अकेलापन तो सेतु है उसके आने के लिए; हमने पुल बनाया। इसे इस तरह देखोगे, तो इस पीड़ा में भी सुख होगा।

जब तुम कुछ निर्माण कर रहे होते हो, तो माथे से पसीना बहता रहे, तो भी सुख होता है। क्योंकि तुम जानते हो, यह तो श्रम है। और इस श्रम के पीछे फल है। यह तो श्रम है, सृजन है। इसके पीछे अहोभाव चला आ रहा है। इसके पीछे उपलब्धि है।

इस एकांत से ही परमात्मा तुम्हारे पास आयेगा। जिस दिन तुम मौन हो जाओगे, उस दिन वह बोलेगा। जिस दिन तुम अकेले हो जाओगे, उसी दिन उसके हाथ तुम्हारे हाथ में आ जाते हैं। वह कोई दूर थोड़े ही है। पास ही है, लेकिन तुम भीड़ में इतने उलझे हो कि उसे देख नहीं पाते।

खुद दिल में रह के आंख से परदा करे कोई

हां, लुत्फ जब है पा कर भी ढूंढा करे कोई

ऐसा ही लुत्फ चल रहा है। पाया ही हुआ है, उसी को ढूंढ रहे हैं। उसे कभी खोया नहीं है, लेकिन भीड़ में आंखें उलझ गयी हैं। भीड़ में आंखें उलझने के कारण वह तुम्हारे पास ही खड़ा है, कंधे से कंधा सटाये, तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है, तुम्हारी सांसों में चल रहा है, बह रहा है, दिखायी नहीं पड़ता। इधर से अकेले हुए, भीड़ को विदा किया, वह दिखायी पड़ने लगेगा। एक दफा दिखायी पड़ जाए, फिर मैं तुमसे नहीं कहता कि भीड़ को छोड़ो, फिर मैं कहता हूं, उतर जाना संसार में। फिर तुम्हें सभी के भीतर वही दिखायी पड़ने लगेगा। फिर भीड़ उसी की भीड़ है। लेकिन अभी भीड़ उसी की नहीं है। अभी तो अपने भीतर भी उसे नहीं जाना, तो दूसरे के भीतर कैसे जानना हो सकता है!

“तरु’ का प्रश्न है।

रोयें न अभी अहले-नजर हाल पर मेरे

होना है अभी मुझको खराब और जियादा

आवारा-ओ-मजनू ही पे मौकूफ नहीं कुछ

मिलने हैं अभी मुझको खिताब और जियादा

तो तरु से मैं कहता हूं, अभी घबड़ा मत, अभी तो और मुसीबतें आने को हैं। और कोई तुझसे सहानुभूति दिखायें तो उनसे कह देना–

रोयें न अभी अहले-नजर हाल पे मेरे

होना है अभी मुझको खराब और जियादा

आवारा-ओ-मजनू ही पे मौकूफ नहीं कुछ

मिलने हैं अभी मुझको खिताब और जियादा

लेकिन मजनू हुए बिना कौन लैला को पा सका! और मजनू हुए बिना कोई परमात्मा को कैसे पा सकता है! आवारा हुए बिना! आवारा का अर्थ है जिसका अब कुछ भी नहीं; रिक्त, खाली, अकेले। ऐसा हुए बिना कौन उसे निमंत्रण दे सका!

जीसस निरंतर कहते थे कि कोई गड़रिया अपनी भेड़ों को लेकर आता। सांझ का अंधेरा घिरने लगा, सूरज ढल गया, अचानक देखता कि एक भेड़ खो गयी। तो सभी भेड़ों को उस अंधेरी रात में किसी वृक्ष के तले छोड़कर, उस भेड़ को खोजने निकल जाता है जो खो गयी। मिले हुओं को छोड़कर उसे खोजने निकल जाता जो खो गयी। अंधेरी रात में पुकारता, टेरता, और जब वह मिल जाती, तो पता है क्या करता? उसे कंधे पर रख लौटता। खो गये को कंधे पर रखकर लौटता है। और जीसस कहते थे, मैं भी ऐसा ही गड़रिया हूं।

अगर हम सच में ही रो उठें, तो उसके हाथ तुम्हारे आंसू तक पहुंच ही जाएंगे, पोंछ देंगे तुम्हारे आंसू। अगर हम सच ही पीड़ा से भर जाएं, तो वह दौड़ा चला आयेगा। हम अगर भटक ही जाएं उसको खोजते-खोजते, तो आयेगा जरूर, और कंधे पर रखकर ले जाएगा। उसे खोजना कोई आदमी का ही अकेले कृत्य थोड़े ही है। उसकी भी कुछ जिम्मेवारी है। दोतरफा जिम्मेवारी है। हम उसे खोजें, वह हमें खोजे। और ऐसा ही चल रहा है।

परमात्मा तो हमें खोज ही रहा है। जिस दिन हम खोजने लगते हैं, उसी दिन हममें और उसमें तालमेल हो जाता है।

आखिरी प्रश्न:

भगवान श्री, तेरी रज़ा पूरी हो!

चैतन्य भारती ने पूछा है। “पूछना’ कहना ठीक नहीं, कहा है। “तेरी रज़ा पूरी हो।’ यही प्रार्थना का मूलमंत्र है। इसमें ही पग जाओ पूरे-पूरे, तो कुछ और करने को नहीं है!

जीसस को सूली हुई, आखिरी क्षण उन्होंने आकाश की तरफ मुंह उठाकर कहा कि हे परमात्मा, यह क्या दिखा रहा है! एक संदेह उठ आया होगा कि मैं तेरे लिए जीआ, तेरी प्रार्थना में जीआ, तेरी पूजा में जीआ, तेरे नाम को फैलाने के लिए जीआ और यह तू मुझे क्या दिखा रहा है! एक शिकायत आ गयी होगी–हलकी-सी बदली, छोटी-सी बदली जीसस की छाती पर तैर गयी। एक क्षण को सूरज ढक गया होगा। लेकिन जीसस तत्क्षण पहचान लिये कि चूक हो गयी, भूल हो गयी। तत्क्षण कहा, क्षमा कर, यह मैंने क्या कहा! तेरी रज़ा पूरी हो! तू जो दिखा रहा है, वही ठीक है। तेरी रज़ा से ऊपर मेरी रज़ा नहीं है। तेरी इच्छा से ऊपर मेरी इच्छा नहीं है। तू जो चाहता है, वही मैं चाहूं, बस इतनी ही मेरी इच्छा है। यह मैंने कैसे कहा!

आखिरी क्षण! बिलकुल स्वाभाविक है। बड़ी पीड़ा जीसस को दी गयी। सूली पर लटकाया गया। स्वाभाविक है, मानवीय। इस बात से सिद्ध होता है कि जीसस परमात्मा के बेटे तो थे ही, आदमी के बेटे भी थे। इससे कुछ और सिद्ध नहीं होता। इससे सिर्फ आदमियत सिद्ध होती है।

और जीसस ने बहुत बार बाइबिल में जगह-जगह कहा, कहीं वह कहते हैं मैं आदमी का बेटा हूं, कहीं कहते हैं परमात्मा का बेटा हूं। वह दोनों हैं। सभी दोनों हैं। उन्हें याद आ गयी, सभी को याद नहीं आयी है।

तो आदमी का बेटा बोला, यह क्या दिखा रहा है मुझे! लेकिन तभी उन्हें स्मरण आ गया होगा कि अरे! मैं आदमी का बेटा ही नहीं, परमात्मा का भी बेटा हूं। फिर बाप की जो मर्जी! फिर उसकी जो रज़ा! वह कुछ बुरा तो न चाहेगा। उससे ज्यादा समझदार मैं तो नहीं हो सकता। अगर उसने यही चाहा है, तो यही ठीक होगा, इसीलिए चाहा है। उसकी चाह का निर्णय मैं कौन हूं करनेवाला?

पूछा है, “तेरी रज़ा पूरी हो।’ इसे मैं कहता हूं प्रार्थना का मूलमंत्र। अगर यही तुम्हारे जीवन पर छा जाए, इसी रंग में तुम रंग जाओ, तो यही गैरिक-वस्त्र है, यही गेरुआ रंग है। यही संन्यासी की भावदशा है। हर घड़ी जो भी हो, तुम यही जानना कि परमात्मा ने किया, ठीक ही किया होगा। बुरा हो तो, भला हो तो, सुख मिले तो, दुख मिले तो, कांटे मिलें तो, फूल मिलें तो, तुम सभी उसी को समर्पित करते चले जाना। तुम सभी उसको अर्पित करते चले जाना। कहना, जो तेरी रज़ा। तुम प्रसन्न रहना। तुम बोझ अपने सिर पर न ढोना। तुम नाहक ही अपने सिर पर बोझ रखे हो। करनेवाला वही। तुम व्यर्थ करने की झंझट अपने सिर पर ले लिये हो।

सुनी है तुमने कहानी? एक सम्राट आता था। राह पर उसने एक भिखारी को देखा। दूर है गांव। सम्राट को दया आ गयी, उसने भिखारी को कहा, तू भी आ, रथ में बैठ जा। वह भिखारी बैठ तो गया, लेकिन अपनी पोटली जो सिर पर रखे था, सिर पर ही रखे रहा। वह सम्राट ने कहा पोटली नीचे रख दे, अब इसको सिर पर क्यों रखे है? उसने कहा कि नहीं मालिक, इतना ही क्या कम है कि आपने मुझे बैठने दिया; अब पोटली का बोझ भी आपके रथ पर रखूं! नहीं, नहीं, ऐसा मैं कैसे कर सकता हूं! लेकिन तुम रथ पर बैठे हो, पोटली सिर पर रखे हो, क्या सोचते हो रथ पर बोझ नहीं है? बोझ तो रथ पर ही है, चाहे तुम सिर पर रखो, चाहे तुम नीचे रख दो।

परमात्मा कर्ता है। सारा कृत्य उसका है। वस्तुतः परमात्मा का कोई और अर्थ नहीं है। इस सारे खेल का जो इकट्ठा जोड़ है। इस सारे कर्म के महत प्रवाह का जो केंद्र है, वही तो परमात्मा है। लेकिन हम सब अपनी-अपनी पोटली सिर पर रखे हैं, हम कहते हैं, मैं कर रहा हूं। हम कहते हैं, अब इतना बोझ परमात्मा पर क्या डालना! चांदत्तारे जो चला रहा है, वह तुम्हें नहीं चला पायेगा! सारी प्रकृति कैसे लयबद्ध-स्वर में बह रही है! एक तुम्हीं चिंता लिये बैठे हो कि तुम्हें स्वयं को चलाना है। इस चिंता का छोड़ देने का ही अर्थ है, “तेरी रज़ा पूरी हो।’ इस चिंता को तभी कोई छोड़ सकता है जब अहंकार को छोड़ दे। जब कह दे कि अब मैं नहीं हूं, तू ही है।

जिसके हृदय में यह दीया जल जाए कि उसकी मर्जी पूरी हो, और मैं अपनी मर्जी को उसके विरोध में खड़ा न करूंगा, लड़ाऊंगा नहीं, मैं धार के खिलाफ, धारे के खिलाफ बहूंगा नहीं, नदी जहां ले जाएगी वहीं जाऊंगा, समर्पित करता हूं, अपने को छोड़ता हूं उसकी धारा में–डुबाये तो डूबूंगा और डूबने को ही किनारा समझूंगा। बचाये तो बचूंगा। ऐसी चित्तदशा में दुख हो सकता है? पीड़ा हो सकती है? ऐसी चित्तदशा में नर्क हो सकता है? असंभव। स्वर्ग खुल गया।

बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दीये

इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है

आस्था के दीये बुझते गये। और यह सबसे बड़ा दीया है आस्था का। यही आस्तिकता है।

बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दीये

इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है

और जैसे-जैसे आस्था के दीये बुझते गये हैं वैसे अंधेरा गहन होता गया है। और यह सबसे महत्वपूर्ण दीया है। आस्था का–तेरी रज़ा, तेरी मर्जी, तेरी इच्छा पूरी हो। मैं समर्पित। मैं बहूंगा। मैं तैरूंगा भी नहीं। मैं पतवार न चलाऊंगा। मैं नाव में पाल बांध दिया हूं अब, तेरी हवाएं जहां ले जाएं।

रामकृष्ण कहते थे, दो तरह से नदी पार हो सकती है। या तो पतवार चलाओ, या पाल खोल दो। पाल जो खोल देता है, वही भक्त है। पतवार जो चलाता है, वह भक्त नहीं है। वह अभी भी अपने पर भरोसा किये है। वह अभी भी अपनी बाहुओं के बल पर जी रहा है। अभी सोचता है, अगर मैं न कुछ किया, तो उस पार पहुंचूंगा नहीं। भक्त कहता है, अगर इस पार रखा है, तो यह पार भी उसी का है। तो इस पार ही रहेंगे। उस पार पहुंच ही गये। इसी पार रहते हुए उस पार पहुंच गये।

दूर कितने भी रहो तुम, पास प्रतिपल,

क्योंकि मेरी साधना ने पल निमिष चल,

कर दिये केंद्रित सदा को ताप बल से

विश्व में तुम और तुम में विश्व भर का प्यार!

हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार।

इस गांव एक काशी, उस गांव एक काबा,

इसका इधर बुलावा, उसका उधर बुलावा,

इससे भी प्यार मुझको, उससे भी प्यार मुझको,

किसको गले लगाऊं, किससे करूं दिखावा;

परजात क्यों बनाऊं, दीवार क्यों उठाऊं,

हर घाट जल पीआ है, गागर बदल-बदल कर

जिसे दिखायी पड़ने लगा, सभी घाट उसके हैं। बहुत बार शरीर बदले, वह सिर्फ गागर का बदलना है। बहुत बार इच्छाएं बदलीं, वह भी सिर्फ गागर का बदलना है। बहुत बार मन बदला, वह भी सिर्फ गागर का बदलना है। प्यास एक है और उस प्यास को तृप्त करनेवाला जल एक है।

हर घाट जल पीआ है, गागर बदल-बदलकर।

और एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए, यह दिखायी पड़ने लगे–थोड़ी-सी भी झलक आ जाए कि सारे कृत्यों के पीछे वही है, सारे घाटों के पीछे वही है; प्यास में भी वही, जल में भी वही; जो तुम्हें चला रहा है, वही सबको चला रहा है; जो तुम्हें राह पर चलने का सुझाव दे रहा है, वही तुम्हारे राह पर पत्थर भी रख रहा है; तो जरूर दोनों में कुछ तालमेल होगा। बिना पत्थरों के चुनौती न होगी। इसलिए पत्थर भी रख रहा है। तुम्हें पुकार भी रहा है कि आओ और चलो, और राह को दुर्गम भी बना रहा है। क्योंकि दुर्गम राह पर चलोगे तभी तुम्हारा निर्माण होगा, सृजन होगा।

तुम्हें आनंद की आकांक्षा से भी भरा है, और हजार-हजार तरह के दुख भी पैदा कर रहा है, क्योंकि उन दुखों के बीच ही अगर तुम आनंदित हो सको, तो ही आनंद का कोई अर्थ है। अगर दुख न होते और तुम आनंदित होते, तो उस आनंद में कोई रीढ़ न होती, कोई बल न होता। विपरीत स्थिति पैदा करके चुनौती पैदा की गयी है। संघर्ष का मौका तुम्हें निखारने का उपाय है।

समझने की कोशिश हर घटना, हर पल में करना। और जैसे ही कभी तुम भूलने-भटकने लगो; और मन होने लगे कहने का कि हे प्रभु! यह क्या दिखा रहा है, तो तत्क्षण जाग जाना, चौंकना! अपने को झकझोर लेना और कहना, तेरी मर्जी पूरी हो। तेरी रज़ा पूरी हो। यह तुम्हारा मंत्र बन जाए–महामंत्र। इसे तुम ओंकार समझो। राम-राम जपने से जो लाभ न होगा, वह लाभ इस एक सूत्र को पकड़ लेने से होगा–तेरी रज़ा पूरी हो। हर घड़ी; निमिष-पल; रात-दिन; सुख में, दुख में; हार में, जीत में; सम्मान में, अपमान में; इसे याद रखना, और गहरे इसे दोहाराते रहना–तेरी रज़ा पूरी हो। और जब दोहराओ, तो केवल शब्द ही मत दोहराना, इसमें अपनी आत्मा उंडेल देना। इस एक मंत्र में सारे मंत्र समा जा सकते हैं।

जीसस ने कहा है, “दाई किंग्डम कम, दाई विल बी डन’, प्रभु, तेरा राज्य उतरे; प्रभु तेरी रज़ा पूरी हो।

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--2 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

गीता दर्शन (भाग-3) प्रवचन–5

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हृदय की अंतर-गुफा (अध्याय-6) प्रवचन—पांचवां

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।। 9।।

और जो पुरुष सुहृद, मित्र, बैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बंधुगणों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह अति श्रेष्ठ है।

कृष्ण के लिए समत्वबुद्धि समस्त योग का सार है। इसके पूर्व के सूत्रों में भी अलग-अलग द्वारों से समत्वबुद्धि के मंदिर में ही प्रवेश की योजना कृष्ण ने कही है। इस सूत्र में भी पुनः किसी और दिशा से वे समत्वबुद्धि की घोषणा करते हैं। बहुत-बहुत रूपों में समत्वबुद्धि की बात करने का प्रयोजन है।

प्रयोजन है, भिन्न-भिन्न, भांति-भांति प्रवृत्ति और प्रकृतियों के लोग हैं। समत्वबुद्धि का परिणाम तो एक ही होगा, लेकिन यात्रा भिन्न-भिन्न होगी। हो सकता है, कोई सुख और दुख के बीच समबुद्धि को साधे। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि सुख और दुख के प्रति किसी व्यक्ति की संवेदनशीलता ही बहुत कम हो। हम सबकी संवेदनशीलताएं, सेंसिटिविटीज अलग-अलग हैं। हो सकता है, किसी व्यक्ति के लिए सुख और दुख उतने महत्वपूर्ण द्वार ही न हों; यश और अपयश ज्यादा महत्वपूर्ण हों।

आप कहेंगे कि यश तो सुख ही है और अपयश दुख ही है! नहीं; थोड़ा बारीकी से देखेंगे, तो फर्क खयाल में आ जाएगा।

ऐसा हो सकता है कि एक व्यक्ति यश पाने के लिए कितना ही दुख झेलने को राजी हो जाए; और ऐसा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति, अपयश न मिले, इसलिए कितना ही दुख झेलने को राजी हो जाए। इससे उलटा भी हो सकता है। ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जो अपने सुख के लिए कितना ही अपयश झेलने को राजी हो जाए। ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जो दुख से बचने के लिए कितना ही यश खोने को राजी हो जाए।

तो जिसके लिए अपयश और यश ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, उसके लिए सुख और दुख का द्वार काम नहीं करेगा। उसके लिए यश और अपयश में समबुद्धि को साधना पड़ेगा।

वही साधना पड़ेगा हमें, जो हमारा चुनाव है, जो हमारा द्वंद्व है। हम सबके द्वंद्व अलग अलग हैं।

यह भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति के लिए अपयश, यश का भी कोई मूल्य न हो, लेकिन मित्रता और शत्रुता का भारी मूल्य हो। एक व्यक्ति ऐसा हो सकता है कि मित्र के लिए हजार तरह के यश खोने को राजी हो जाए; और एक व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है कि यश के लिए हजार मित्रों को खोने के लिए राजी हो जाए। तो जिस व्यक्ति के लिए मित्र और शत्रु महत्वपूर्ण बात है, उसे न यश महत्वपूर्ण है, न सुख; न दुख महत्वपूर्ण है, न अपयश। उसके लिए मित्रता और शत्रुता के बीच ही समत्व को साधना होगा।

जो आपके लिए महत्वपूर्ण है द्वंद्व, वही द्वंद्व आपके लिए मार्ग बनेगा। दूसरे का द्वंद्व आपके लिए मार्ग नहीं बनेगा।

एक व्यक्ति हो सकता है, जिसे सौंदर्य का कोई बोध ही न हो। बहुत लोग हैं, जिन्हें सौंदर्य का कोई बोध ही नहीं है। वे भी दिखलाते हैं कि उन्हें सौंदर्य का बोध है। और अगर उनके पास थो॰? पैसे की सुविधा है, तो वे भी अपने घर में वानगाग के चित्र लटका सकते हैं और पिकासो की पेंटिंग्स लटका सकते हैं, लेकिन फिर भी सौंदर्य का बोध और बात है। जिसे सौंदर्य का बोध है, उसके लिए द्वंद्व, कुरूपता और सौंदर्य के बीच संतुलन का होगा। सभी को वह बोध नहीं है।

सौंदर्य का बोध रवींद्रनाथ जैसे किसी व्यक्ति को होता है। तो उस बोध के परिणाम ये होते हैं कि छोटा-सा असौंदर्य भी सहना कठिन हो जाता है। छोटा-सा, बहुत छोटा-सा, जिस पर हमारी दृष्टि भी न जाए, वह भी रवींद्रनाथ को असह्य हो जाएगा। अगर कोई व्यक्ति थोड़ा इरछा-तिरछा भी रवींद्रनाथ के पास आकर बैठ गया, तो वे बेचैन हो जाएंगे। जरा-सा अनुपात अगर ठीक नहीं है, तो उन्हें बड़ी कठिनाई शुरू हो जाएगी। एक व्यक्ति अगर जोर की आवाज में बोल दे और सौंदर्य खो जाए आवाज का, संगीत खो जाए, तो रवींद्रनाथ को पीड़ा हो जाएगी। और हो सकता है, आपको जोर से बोलना महज आदत हो। आपको कोई बोध ही न हो।

प्रत्येक व्यक्ति के बोधत्तंतु भिन्न-भिन्न हैं। हम सभी के पास अपना-अपना द्वंद्व है। तो समझें कि अपना द्वंद्व ही अपना द्वार बनेगा। इसलिए कृष्ण हर द्वंद्व की बात करते हैं।

इस सूत्र में वे कहते हैं, मित्र और शत्रु के बीच जो सम है।

अर्जुन के लिए यह सूत्र उपयोगी हो सकता है। अर्जुन के लिए मित्रता और शत्रुता कीमत की बात है। क्षत्रिय के लिए सदा से रही है। बहुत संवेदनशील क्षत्रिय अपनी जान दे दे, वचन न छोड़े। मित्र को दिया गया वायदा पूरा करे, चाहे प्राण चले जाएं। अगर वणिक बुद्धि का व्यक्ति हो, तो एक पैसा बचा ले, चाहे हजार वचन चले जाएं, हजार मित्र खो जाएं। बुरे-भले की बात नहीं है, अपना-अपना द्वंद्व है।

सुना है मैंने, राजस्थान में एक लोक-कथा है। एक गांव में गांव के राजपूत सरदार ने गांवभर में खबर रख छोड़ी है कि कोई मूंछ बड़ी न करे। खुद मूंछ बड़ी कर रखी है। और अपने दरवाजे पर तख्त डालकर बैठा रहता है। और गांव में खबर कर रखी है कि कोई मूंछ ऊंची करके सामने से न निकले। अगर मूंछ भी हो, तो नीची कर ले।

गांव में एक नया वणिक आया है, नया वैश्य आया है। उसने नई दुकान खोली है। उसको भी मूंछ रखने का शौक है। पहली बार राजपूत के सामने से निकल रहा है। राजपूत ने कहा, वणिक-पुत्र, मूंछ नीची कर लो! शायद तुम्हें पता नहीं, मेरे दरवाजे के सामने मूंछ ऊंची नहीं जा सकती। वणिक-पुत्र ने कहा, मूंछ तो ऊंची ही जाएगी! तलवारें खिंच गईं। राजपूत दो तलवारें लेकर बाहर आ गया। राजपूत था इसलिए दो लाया। एक वणिक-पुत्र के लिए, एक अपने लिए।

वणिक-पुत्र ने तलवार देखी। कभी पकड़ी तो न थी। सिर्फ मूंछ ऊंची रखने का शौक था। सोचा, यह झंझट हो गई। वणिक-पुत्र ने कहा, ठीक है। खुशी से इस युद्ध में मैं उतरूंगा। लेकिन एक प्रार्थना कि जरा मैं घर होकर लौट आऊं। उस राजपूत ने कहा, किसलिए? वणिक-पुत्र ने कहा, आपको भी ठीक जंचे, तो आप भी यही करें। हो सकता है, मैं मर जाऊं, तो मेरे पीछे मेरी पत्नी और बच्चे दुखी न हों; उनकी मैं गर्दन काटकर आता हूं। अगर आपको भी जंचती हो बात, हो सकता है, आप मर जाएं, तो आप अपनी पत्नी और बच्चों की गर्दन काट दें; फिर हम लड़ें मौज से। राजपूत ने कहा, बात ठीक है।

वणिक-पुत्र अपने घर गया। राजपूत ने भीतर जाकर गर्दनें साफ कर दीं। बाहर आकर बैठ गया। थोड़ी देर में वणिक-पुत्र मूंछ नीची करके लौट आया। उसने कहा, मैंने सोचा नाहक झंझट क्यों करनी! जरा-सी मूंछ को नीची करने के लिए उपद्रव क्यों करना! यह तुम्हारी तलवार सम्हालो! उस राजपूत ने कहा, तुम आदमी कैसे हो? मैंने अपनी पत्नी और बच्चे साफ कर दिए! तो उस वणिक-पुत्र ने कहा कि फिर तुम जानते ही नहीं कि वणिक का अपना गणित होता है। हमारा अपना हिसाब है!

प्रत्येक व्यक्ति का टाइप है, और प्रत्येक व्यक्ति के रुझान हैं, और प्रत्येक व्यक्ति की संवेदनशीलताएं हैं, और प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके जीवन का महत्वपूर्ण द्वंद्व है। और हर एक को अपना द्वंद्व देख लेना चाहिए कि मेरा द्वंद्व क्या है? प्रेम और घृणा मेरा द्वंद्व है? मित्रता-शत्रुता मेरा द्वंद्व है? धन-निर्धनता मेरा द्वंद्व है? यश-अपयश मेरा द्वंद्व है? सुख-दुख, ज्ञान-अज्ञान, शांति-अशांति, मेरा द्वंद्व क्या है?

और जो भी आपका द्वंद्व हो, कृष्ण कहते हैं, उस द्वंद्व में समबुद्धि को उपलब्ध होना मार्ग है।

ध्यान रहे, दूसरे के द्वंद्व में आप समबुद्धि को बड़ी आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं। अपने ही द्वंद्व का सवाल है। दूसरे के द्वंद्व में आपको समबुद्धि लाने में जरा भी कठिनाई नहीं पड़ेगी। आप कहेंगे कि बिलकुल ठीक है। अगर आपकी जिंदगी में कभी यश का खयाल नहीं पकड़ा, अगर आपको कभी राजनीति का प्रेत सवार नहीं हुआ, यश का, तो आप कहेंगे कि ठीक है, इलेक्शन जीते कि हारे। इसमें तो हम सम ही रहते हैं, इसमें कोई हमें कठिनाई नहीं है। आपको कभी वह भूत नहीं पकड़ा हो, तो आप बिलकुल समबुद्धि बता सकते हैं। लेकिन असली सवाल यह नहीं है कि आप बताएं; असली सवाल वह है कि जिसे भूत पकड़ा हो। आपका अपना भूत क्या है, आपका अपना प्रेत क्या है, जो आपका पीछा कर रहा है? उसकी ठीक पहचान जरूरी है।

इसलिए कृष्ण अलग-अलग सूत्र में अलग-अलग प्रेतों की चर्चा कर रहे हैं। वे यहां कहते हैं कि मित्र और शत्रु के बीच समभाव।

बड़ी कठिनाई है। एक बार धन और निर्धनता के बीच समभाव आसान है, क्योंकि धन निर्जीव वस्तु है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेंगे।

एक बार यश और अपयश के बीच समभाव आसान है, क्योंकि यश और अपयश आपकी निजी बात है। लेकिन मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखना बहुत कठिन है। क्योंकि एक तो निजी बात नहीं रही; कोई और भी सम्मिलित हो गया; मित्र और शत्रु भी सम्मिलित हो गए। आप अकेले न रहे, दूसरा भी मौजूद हो गया। और इसलिए भी महत्वपूर्ण और कठिन है कि धन जैसी निर्जीव वस्तु नहीं है सामने। आप सोने को और मिट्टी को समान समझ लें एक बार, तो बहुत कठिनाई नहीं है, क्योंकि दोनों जड़ हैं। लेकिन मित्र और शत्रु दोनों जीवंत हैं, चेतन हैं, उतने ही जितने आप। आपके ही तल पर खड़े हुए लोग हैं; आप जैसे ही लोग हैं। कठिनाई, जटिलता ज्यादा है।

इसलिए मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखने की क्या प्रक्रिया होगी? कौन रख सकेगा मित्र और शत्रु के बीच समभाव? उसको ही कृष्ण योगी कहते हैं। कौन रख सकेगा? तो इसके थोड़े से सूत्र खयाल में ले लें।

एक, जो व्यक्ति अपने लिए किसी का भी शोषण नहीं करता, जो व्यक्ति अपने लिए किसी का भी शोषण नहीं करता, वही व्यक्ति मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखने में सफल हो पाएगा।

आप मित्र कहते ही उसे हैं, जो आपके काम पड़ता है। कहावत है कि मित्र की कसौटी तब होती है, जब मुसीबत पड़े। जो आपके काम पड़ जाए, उसे आप मित्र कहते हैं। जो आपके काम में बाधा बन जाए, उसे आप शत्रु कहते हैं। और तो कोई फर्क नहीं है। इसलिए मित्र कभी भी शत्रु हो सकता है, अगर काम में बाधा डाले। और शत्रु कभी भी मित्र हो सकता है, अगर काम में सहयोगी बन जाए।

अगर आपका कोई भी काम है, तो आप समभाव न रख सकेंगे। मित्र और शत्रु के बीच वही समभाव रख सकता है, जो कहता है, मेरा कोई काम ही नहीं है, जिसमें कोई सहयोगी बन सके और जिसमें कोई विरोधी बन सके। जो कहता है, इस जिंदगी को मैं नाटक समझता हूं, काम नहीं। जो कहता है, यह जिंदगी मेरे लिए सपने जैसी है, सत्य नहीं। जो कहता है, यह जिंदगी मेरे लिए रंगमंच है; यहां मैं खेल रहा हूं, कोई काम नहीं कर रहा हूं।

जो थोड़ा भी गंभीर है जीवन के प्रति और कहता है कि यह काम मुझे करना है, वह शत्रुओं और मित्रों के बीच कभी भी समभाव को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि काम ही कहेगा कि मित्रों के प्रति भिन्न भाव रखो, शत्रुओं के प्रति भिन्न भाव रखो। अगर मुझे कुछ भी करना है इस जमीन पर, अगर मुझे कोई भी खयाल है कि मैं कुछ करना चाहता हूं, तो फिर मैं मित्र और शत्रु के बीच समभाव न रख सकूंगा। मित्र और शत्रु के बीच समभाव तभी हो सकता है, जब मेरा कोई काम ही नहीं है इस पृथ्वी पर। मुझे कहीं पहुंचना नहीं है। मुझे कुछ करके नहीं दिखा देना है।

इसका यह भी मतलब नहीं है कि मैं बिलकुल निठल्ला और निष्क्रिय बैठ जाऊं, तो मित्र और शत्रु के बीच समभाव हो जाएगा। अगर मैंने निठल्ला बैठना भी अपनी जिंदगी का काम बना लिया, तो कुछ मेरे मित्र होंगे जो निठल्ले बैठने में सहायता देंगे और कुछ मेरे शत्रु हो जाएंगे जो बाधा डालेंगे।

इसका यह अर्थ नहीं है। इसका इतना ही अर्थ है कि काम तो मैं करता ही रहूंगा, लेकिन यह जिद्द, यह अहंकार मेरे भीतर न हो कि यह काम मुझे करके ही रहना है। तो फिर ठीक है। जो काम में साथ दे देता है, उसका धन्यवाद; और जो काम में बाधा दे देता है, उसका भी धन्यवाद। जो रास्ते से पत्थर हटा देता है, उसका भी धन्यवाद; और रास्ते पर जो पत्थर बिछा देता है, उसका भी धन्यवाद।

न मुझे कहीं पहुंचना है, न मुझे कुछ कर लेना है। जीता हूं; परमात्मा जो काम मुझसे लेना चाहे, ले ले। जितना मुझसे बन सकेगा, कर दूंगा। कोई ऐसी जिद्द नहीं है कि यह लक्ष्य पूरा होना ही चाहिए। तो फिर मित्र और शत्रु के बीच कोई बाधा नहीं रह जाती। फिर समान हो जाती है बात।

तो पहली बात तो आपसे यह कहना चाहूं कि जिस व्यक्ति को भी जीवन को एक काम समझ लेने की नासमझी आ गई हो, और जिसे ऐसा खयाल हो कि उसे जिंदगी में कुछ करके जाना है, वह शत्रु और मित्र निर्मित करेगा ही। और वह समभाव भी न रख सकेगा।

दूसरी बात आपसे यह कहना चाहता हूं कि शत्रु और मित्र के बीच समभाव रखना तभी संभव है, जब आपके भीतर वह जो प्रेम पाने की आकांक्षा है, वह विदा हो गई हो। दूसरी बात भी ठीक से समझ लें।

हम सबके मन में मरते क्षण तक भी प्रेम पाने की आकांक्षा विदा नहीं होती। पहले दिन बच्चा पैदा होता है तब भी वह प्रेम पाने के लिए आतुर होता है, उतना ही जितना बूढ़ा मरते वक्त आखिरी श्वास लेते वक्त होता है। प्रेम पाने की आतुरता बनी रहती है; ढंग बदल जाते हैं। लेकिन प्रेम कोई करे मुझे! कोई मुझे प्रेम दे! प्रेम का भोजन न मिलेगा, तो मैं भूखा होकर मर जाऊंगा, मुश्किल में पड़ जाऊंगा।

एक बार शरीर को भोजन न मिले, तो हम सह पाते हैं। लेकिन अगर चित्त को भोजन न मिले–प्रेम चित्त का भोजन है। चित्त को प्राण मिलते हैं प्रेम से।

तो जब तक जरूरत है प्रेम की, तब तक मित्र और शत्रु को एक कैसे समझिएगा! सम कैसे हो जाइएगा! तटस्थ कैसे होंगे! मित्र वह है, जो प्रेम देता है। शत्रु वह है, जो प्रेम नहीं देता है। तो जब तक आपकी प्रेम की आकांक्षा शेष है कि कोई मुझे प्रेम दे…।

और यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया में सारे लोग चाहते हैं कि कोई उन्हें प्रेम दे। शायद ही कोई चाहता है कि मैं किसी को प्रेम दूं! इसको थोड़ा बारीकी से समझ लेना उचित होगा।

हम सबको यह भ्रम होता है कि हम प्रेम देते हैं। लेकिन अगर आप प्रेम सिर्फ इसीलिए देते हैं, ताकि आपको लौटते में प्रेम मिल जाए, तो आप सिर्फ इनवेस्टमेंट करते हैं, देते नहीं हैं। आप सिर्फ व्यवसाय में संलग्न होते हैं।

मैं अगर आपको प्रेम देता हूं सिर्फ इसलिए कि मैं प्रेम चाहता हूं और बिना प्रेम दिए प्रेम नहीं मिलेगा, तो मैं सिर्फ सौदा कर रहा हूं। मेरी चेष्टा तो प्रेम पाने की है। देता हूं इसलिए कि बिना दिए प्रेम नहीं मिलेगा।

यह मेरा दिया हुआ प्रेम वैसा ही है, जैसा कि कोई मछली को मारने वाला कांटे पर आटा लगा देता है। आटा लगाकर कांटे पर और लटकाकर बैठ जाता है अपनी बंसी को। मछलियां सोचती होंगी कि आटा खिलाने के लिए कोई बड़ी कृपा करके आया है! पर आटा सिर्फ ऊपर है, भीतर कांटा है। मछली आटा ही खाने को आएगी और तब पाएगी कि कांटा उसके प्राणों तक चुभ गया है। अगर किसी में कांटा भी डालना हो, तो आटा लगाकर ही डालना पड़ता है।

अगर मुझे किसी से प्रेम लेना है और किसी के ऊपर प्रेम की मालकियत कायम करनी है, तो पहले घुटने टेककर प्रेम निवेदन करना पड़ता है। वह आटा है।

तो दूसरा सूत्र आप खयाल में ले लें, जब तक प्रेम की आकांक्षा है कि कोई मुझे प्रेम दे…।

और ध्यान रहे, जब तक यह आकांक्षा है, तब तक आप बच्चे हैं, जुवेनाइल हैं, आप विकसित नहीं हुए। विकसित मनुष्य वह है, प्रेम पाने का कोई सवाल जिसे नहीं रह गया। जो बिना प्रेम के जी सकता है। प्रौढ़ मनुष्य वह है, जो प्रेम नहीं मांगता।

और यह बड़े मजे की बात है, और इसी से तीसरा सूत्र निकलता है। जो आदमी प्रेम नहीं मांगता, वह आदमी प्रेम देने में समर्थ हो जाता है। और जो आदमी प्रेम मांगता चला जाता है, वह कभी प्रेम देने में समर्थ नहीं होता।

मगर बड़ा उलटा है। हम सबको लगता है, हम प्रेम देने में समर्थ हैं। बाप सोचता है, मैं बेटे को प्रेम दे रहा हूं। लेकिन मनोवैज्ञानिक से पूछें, मनसविद से पूछें। वह कहता है, बाप भी बेटे को थपथपाकर आशा करता है कि बेटा भी बाप को थपथपाए। हां, थपथपाने के ढंग अलग होते हैं। बेटा और ढंग से थपथपाएगा, बाप और ढंग से थपथपाएगा। बेटा कहेगा, डैडी, आप जैसा ताकतवर डैडी इस दुनिया में कोई भी नहीं है! डैडी, जिनकी छाती में हड्डियां भी नहीं हैं, उनकी छाती फूलकर आकाश जैसी हो जाएगी। बेटा भी थपथपा रहा है।

बेटा भी अगर बाप का प्रेम चुपचाप ले ले और उत्तर न दे, तो बाप दुखी और पीड़ित लौटता है। बेटा अगर मां का प्रेम वापस न लौटाए, तो मां भी चिंतित और परेशान और पीड़ित हो जाती है।

बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी प्रेम वापस मांग रहा है। आदमियों से नहीं मिलता, तो लोग कुत्ते पाल लेते हैं। दरवाजे पर आते हैं, कुत्ता पूंछ हिला देता है। क्योंकि अब पत्नियां पूंछ हिलाएं, जरूरी नहीं है। बच्चे पूंछ हिलाएं, जरूरी नहीं है। सब गड़बड़ हो गई है पुरानी व्यवस्था पूंछ हिलाने की।

जिन-जिन मुल्कों में आदमी पूंछ हिलाना बंद कर रहे हैं, वहां-वहां कुत्ते का फैशन बढ़ता जाता है। वह सब्स्टीटयूट है। दरवाजे पर खड़ा रहता है; आप आए, वह पूंछ हिला देता है। आप बड़े खुश हो जाते हैं। आश्चर्यजनक है! कुत्ते की हिलती पूंछ भी आपको तृप्ति देती है। कम से कम कुत्ता तो प्रेम दे रहा है! हालांकि कुत्ते का भी प्रयोजन वही है। वह भी पूंछ हिलाकर आटा डाल रहा है। उसके भी अपने कांटे हैं। वह भी जानता है कि बिना पूंछ हिलाए यह आदमी टिकने नहीं देगा। यह भोजन मिलता है, घर में विश्राम मिलता है, यह पूंछ हिलाकर वह आपसे खरीद रहा है। वह भी इनवेस्ट कर रहा है। सारी दुनिया इनवेस्टमेंट में है।

जो आदमी प्रेम मांग रहा है, वह मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि को उपलब्ध नहीं हो सकता। सिर्फ वही आदमी समबुद्धि को उपलब्ध हो सकता है, वह तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं, जो प्रेम मांगने के पार चला गया और जो प्रेम देने में समर्थ हो गया। जिसे प्रेम देना है और लेना नहीं है, वह मित्र को भी दे सकता है, शत्रु को भी दे सकता है। क्योंकि लेने का तो कोई सवाल नहीं है, इसलिए फर्क करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

सुना है मैंने, जीसस एक कहानी कहा करते थे। वह कहानी आपको इस बात को समझाने में सहयोगी होगी। जीसस कहा करते थे प्रेम को ही समझाने के लिए। कभी-कभी जीसस के शिष्य सवाल उठा देते थे कि मैं तो आपकी इतनी सेवा करता हूं, फिर भी आप मुझे इतना ही प्रेम करते हैं, जितना कि उस आदमी को करते हैं, जिसने आपकी कभी कोई सेवा नहीं की! मैं आपके साथ बरसों से परेशान होता हूं, दर-दर भटकता हूं। मुझे भी आप उतना ही प्रेम देते हैं, उस अजनबी आदमी को भी उतना ही प्रेम दे देते हैं, जो रास्ते पर आपको पहली बार मिलता है!

तो जीसस एक कहानी कहा करते थे। वे कहते थे कि एक बहुत बड़ा धनपति था–बहुत बड़ा। उसके पास बहुत धन था, जिसका कोई हिसाब भी न था। मगर इस वजह से बहुत बड़ा धनपति था, इसलिए नहीं। ईसा कहते थे, वह इसलिए बड़ा धनपति था कि धन पर उसकी पकड़ खो गई थी और धन की उसकी आकांक्षा खो गई थी। उसकी अब कोई और आकांक्षा न थी कि मुझे और धन मिल जाए। इसलिए वह बड़ा धनपति था। और वह धन बांट सकता था। क्योंकि जिसकी आकांक्षा शेष है कि मुझे और धन मिल जाए, वह बांट नहीं सकता, वह दान नहीं कर सकता। वह बांट सकता था। अब पाने की कोई आकांक्षा न थी।

एक दिन सुबह उसके अंगूर के खेत पर उसने अपने मजदूर भेजे और कहा कि गांव से कुछ मजदूर बुला लाओ। सुबह सूरज उगने के वक्त कुछ मजदूर खेत पर काम करने आए। लेकिन मजदूर कम थे। फिर उसने आदमी भेजा; फिर बाजार से कुछ मजदूर आए। लेकिन तब सूरज काफी चढ़ चुका था; दोपहर होने के करीब थी। लेकिन फिर भी मजदूर कम थे, काम ज्यादा था। फिर उसने और आदमी भेजे। ऐसा हुआ कि दोपहर के बाद भी कुछ लोग आए। और ऐसा हुआ कि सांझ ढलते हुए भी कुछ लोग आए। और फिर सूरज ढलने लगा। और मजदूरी बंटने का समय आ गया। उसने सब मजदूरों को बराबर पैसे दिए।

सुबह से जो मजदूर आए थे, उनकी तेवर चढ़ गईं। उन्होंने कहा, यह अन्याय है। हम सुबह से आए हैं! दिनभर सूरज के चढ़ते और उतरते हमने काम किया। और कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अभी आए हैं, जिन्होंने काम हाथ में लिया ही था कि सूरज ढल गया और सांझ हो गई और अंधेरा उतर आया। और हम सबको तुम बराबर देते हो!

उस धनपति ने कहा, मैं तुमसे यह पूछता हूं कि तुमने जितना काम किया, उतना काम के योग्य तुम्हें मिल गया या उससे कम है? उन्होंने कहा, नहीं, हमें उससे ज्यादा ही मिल गया है। तो उस आदमी ने कहा, फिर तुम इनकी चिंता मत करो। इन्हें मैं इनके काम के कारण नहीं देता; मेरे पास बहुत है, इसलिए देता हूं। तुम्हें तुम्हारे काम से ज्यादा मिल गया हो, तुम निश्चिंत चले जाओ। और इन्हें मैं इनके काम के कारण नहीं देता; मेरे पास देने को बहुत है, इसलिए देता हूं।

जिसके पास देने को प्रेम है–और उसी के पास है, जिसको अब मांगने की इच्छा न रही, जो अब प्रेम का भिखारी न रहा, जो सम्राट हुआ। बहुत मुश्किल से कभी कोई बुद्ध, कभी कोई कृष्ण इस हालत में आते हैं, जब कि वे प्रेम के मालिक होते हैं, जब वे सिर्फ देते हैं और लेते नहीं। मांगते नहीं, मांगने का कोई सवाल ही नहीं, सिर्फ बांटते चले जाते हैं। ऐसा व्यक्ति शत्रु को भी दे देगा और मित्र को भी दे देगा, क्योंकि कोई कमी पड़ने वाली नहीं है। और मित्र और शत्रु में फर्क क्यों करें? जब दोनों को देना ही है, तो फर्क का क्या सवाल है! लेना हो, तो फर्क का सवाल है, क्योंकि मित्र देगा और शत्रु नहीं देगा। लेकिन देना ही हो, तो फर्क का क्या सवाल है!

तो तीसरा सूत्र खयाल रख लें कि जो प्रेम के मालिक हुए, वे ही केवल मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि को उपलब्ध हो सकते हैं।

मैंने कहा कि धन और निर्धनता के बीच समबुद्धि लानी बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि धन बड़ी बाहरी घटना है। और यश-अपयश के बीच भी समबुद्धि लानी बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि यश-अपयश भी लोगों की आंखों का खेल है। लेकिन मित्र और शत्रु के बीच समभाव लाना बहुत गहरी घटना है। क्योंकि आप और आपका प्रेम और आपका पूरा व्यक्तित्व समाहित है। आप पूरे रूपांतरित हों, तो ही मित्र और शत्रु को समभाव से देख पाएंगे।

ये तीन तो आधारभूत सूत्र आपको खयाल में रखने चाहिए। और जब भी, जब भी मन कहे कि यह आदमी मित्र है, तब पूछना चाहिए, क्यों? यह सवाल, जब भी मन कहे, फलां आदमी शत्रु है, तो पूछना चाहिए, क्यों? क्या इसलिए कि उससे मुझे प्रेम नहीं मिलेगा? क्या इसलिए कि वह मेरे किसी काम में बाधा डालेगा? किसलिए वह मेरा शत्रु है? और किसलिए कोई मेरा मित्र है? क्या इसलिए कि वह मुझे प्रेम देगा, मैं भरोसा कर सकता हूं? मेरे वक्त पर काम पड़ेगा? मेरे काम में सहयोगी होगा, बाधा नहीं बनेगा?

अगर यही सवाल आपको उठते हों, तो फिर एक बार सोचना कि आप जिंदगी में कोई काम करने के पागलपन से भरे हैं। अहंकार सदा कहता है कि कुछ करने को आप हैं।

जो भी करने को है, वह परमात्मा कर लेता है। आप नाहक के बोझ से न भरें। आप व्यर्थ विक्षिप्त न हों। उससे कुछ काम तो न होगा, उससे सिर्फ आप परेशान हो लेंगे। उससे कुछ भी न होगा।

इस दुनिया में कितने लोग आते हैं, जो सोचते हैं, कुछ करना है उनको। आप जरूर कुछ करते रहें, लेकिन इस खयाल से मत करें कि आपको कुछ करना है। इस खयाल से करते रहें कि परमात्मा की मर्जी; वह आपसे कुछ कराता है, आप करते हैं।

अगर ऐसा आपने देखा, तो शत्रु भी आपको परमात्मा का ही काम करता हुआ दिखाई पड़ेगा, क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त और कोई है नहीं। तब आप समझेंगे कि परमात्मा का कोई हिसाब होगा; वह शत्रु से भी काम ले रहा है, मुझसे भी काम ले रहा है। उसके अनंत हाथ हैं; वह हजार ढंग से काम ले रहा है। तब आपको शत्रु और मित्र बनाने की कोई जरूरत न रह जाएगी।

इसका यह मतलब नहीं है कि आपके शत्रु और मित्र नहीं बनेंगे। वे बनेंगे; वह उनकी मर्जी। आपको बनाने की कोई जरूरत न रह जाएगी। और आप दोनों के बीच समभाव रख सकेंगे।

यह समता आ जाए, तो भी मनुष्य योग में प्रतिष्ठित हो जाता है। समत्व कहीं से आए; वही सार है।

तो कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं शत्रु और मित्र के बीच ठहर जाने को। अर्जुन के लिए यह सूत्र काम का हो सकता है। उसकी सारी तकलीफ गीता में यही है। उसको कष्ट यही हो रहा है कि उस तरफ बहुत-से मित्र हैं, जिनको मारना पड़ेगा। शत्रु हैं, उनको मारना पड़े, उसमें तो उसे अड़चन नहीं है; अर्जुन को अड़चन नहीं है। अगर विभाजन साफ-साफ होता, तो बड़ी आसानी होती। मगर विभाजन बड़ा उलटा था। युद्ध बहुत अनूठा था। और इसीलिए गीता उस युद्ध के मंथन से निकल सकी; नहीं तो नहीं निकल पाती।

युद्ध इसलिए अनूठा था कि उस तरफ भी मित्र खड़े थे, सगे-साथी खड़े थे, प्रियजन खड़े थे, परिवार के लोग थे। कोई भाई था, कोई भाई का संबंधी था, कोई पत्नी का भाई था, कोई मित्र का मित्र था। सब गुंथे हुए थे। उस तरफ, इस तरफ एक ही परिवार खड़ा था। साफ नहीं था कि कौन है शत्रु, कौन है मित्र! सब धुंधला था। उसी से अर्जुन चिंतित हो आया। उसे लगा, अपने ही इन मित्रों को, प्रियजनों को मारकर अगर यह इतना बड़ा राज्य मिलता हो, तो हे कृष्ण, छोडूं इस राज्य को, भाग जाऊं जंगल। इससे तो मर जाना बेहतर। आत्महत्या कर लूं, वह अच्छा। इतने सब मित्रों की, इतने प्रियजनों की हत्या करके राज्य पाकर क्या करूंगा? वह क्षत्रिय बोला। वह क्षत्रिय का मन है। राज्य दो कौड़ी का है, लेकिन प्रियजनों को, मित्रों को मारने का क्या प्रयोजन है?

वह क्षत्रिय का ही मन बोल रहा है, जो मित्र और शत्रु की कीमत आंकता है। उस तरफ भी अपने ही लोग खड़े हैं। दुर्भाग्य, अभाग्य का क्षण कि बंटवारा ऐसा हुआ है। ऐसा ही होने वाला था। क्योंकि जो अर्जुन के मित्र थे, वे ही दुर्योधन के भी मित्र थे। खुद कृष्ण बड़ी मुश्किल में बंटकर खड़े थे। कृष्ण इस तरफ खड़े थे, कृष्ण की सारी फौजें कौरवों की तरफ खड़ी थीं। अजीब थी लड़ाई! अपनी ही फौजों के खिलाफ, अपने ही सेनापतियों के खिलाफ कृष्ण को लड़ना था। और उस तरफ से कृष्ण के ही सेनापति कृष्ण के खिलाफ लड़ने को तत्पर थे।

सारा बंटवारा प्रियजनों का था। मजबूरी में कोई इस तरफ खड़ा हो गया था, कोई उस तरफ। लेकिन सभी बेचैन थे। फिर भी अर्जुन सर्वाधिक बेचैन था। क्योंकि कहा जा सकता है कि अर्जुन उस युद्ध में सर्वाधिक शुद्ध क्षत्रिय था। वह सर्वाधिक बेचैन हो उठा था। भीम उतना बेचैन नहीं है। उसे मित्र दिखाई ही पड़ नहीं रहे हैं। शत्रु इतने साफ दिखाई पड़ रहे हैं कि पहले इनको मिटा डालना उचित है, फिर सोचा जाएगा। अर्जुन चिंता और संताप में पड़ा है।

कृष्ण का यह सूत्र अर्जुन के लिए विशेष है, मित्र और शत्रु के बीच समभाव। इसका मतलब है कि कोई फिक्र न करो, कौन मित्र है, कौन शत्रु है। दोनों के बीच तटस्थ हो जाओ। कौन अपना है, कौन पराया है, इस भाषा में मत सोचो। यह भाषा ही गलत है। योगी के लिए निश्चित ही गलत है।

और बड़े मजे की बात यही है कि अर्जुन तो केवल युद्ध से बचने का उपाय चाहता था। उसकी सारी जिज्ञासा निगेटिव, नकारात्मक थी। किसी तरह युद्ध से बचने का उपाय मिल जाए! लेकिन कृष्ण जैसा शिक्षक ऐसा अवसर चूक नहीं सकता था।

कृष्ण की सारी शिक्षा पाजिटिव है। कृष्ण की सारी चेष्टा अर्जुन के भीतर योग को उत्पन्न कर देने की है। अर्जुन तो सिर्फ इतना ही चाहता था, किसी तरह से यह जो संताप पैदा हो गया है मेरे मन में, यह जो चिंता हो गई है, इससे मैं बच जाऊं। कृष्ण ने इसका पूरा उपयोग किया, अर्जुन के इस चिंता के क्षण का, इस अवसर का। कृष्ण इसके लिए उत्सुक नहीं हैं कि वह चिंता से कैसे बच जाए। कृष्ण इसके लिए उत्सुक हैं कि वह निश्चिंत कैसे हो जाए।

इस फर्क को आप समझ लेना। चिंता से बच जाना एक बात है। वह तो रात में ट्रैंक्वेलाइजर लेकर भी आप चिंता से बच जाते हैं। शराब पी लें, तो भी चिंता से बच जाते हैं। शराब कई तरह की हैं। अर्जुन को भी शराब पिलाई जा सकती थी। भूल-भाल जाता नशे में; टूट पड़ता युद्ध में।

शराब कई तरह की हैं–कुल की, यश की, धन की, राज्य की, प्रतिष्ठा की, अहंकार की। वह कुछ भी उसे पिलाई जा सकती थी। भूल जाता। दीवाना हो जाता। उसके घाव छुए जा सकते थे। कृष्ण उसके घाव छू सकते थे कि अर्जुन, तू जानता है कि तेरी द्रौपदी के साथ दुर्योधन ने क्या किया! नशा शुरू हो जाता।

उसके घाव छुए जा सकते थे। घाव बहुत गहरे थे और हरे थे। कृष्ण के लिए कठिनाई न पड़ती। इतनी लंबी गीता कहने की कोई भी जरूरत न थी। जरा से घाव उकसाने की जरूरत थी। जहर फैल जाता उसके भीतर। कहना था कि याद आता है वह दिन, जब द्रौपदी को नग्न किया था! भूल गया वह क्षण, जब द्रौपदी को नग्न करने की चेष्टा के बीच तू सिर झुकाए बैठा था और तेरे ही सामने दुर्योधन अपनी जांघ को उघाड़कर थपथपा रहा था और द्रौपदी से कह रहा था, आ मेरी जांघ पर बैठ जा! वह क्षण तुझे याद है? बस, इतना काफी होता। गीता कहने की कोई जरूरत न थी। अर्जुन कूद पड़ा होता।

लेकिन कृष्ण ने वह नहीं किया। उसको सिर्फ नशा देकर लड़ा देने की बात न थी; सिर्फ चिंता से बचा देने की बात न थी; निश्चिंत बनाने की, विधायक प्रक्रिया की बात थी।

तो कृष्ण पूरी मेहनत यह कर रहे हैं कि वह चिंता के बाहर हो जाए, इतना काफी नहीं; युद्ध में उतर जाए, इतना काफी नहीं; काफी यह है कि वह योगारूढ़ हो जाए। जरूरी यह है कि वह योगस्थ हो जाए, वह योगी हो जाए। और योगी होकर ही युद्ध में उतरे, तो युद्ध धर्मयुद्ध बन सकेगा, अन्यथा युद्ध धर्मयुद्ध नहीं होगा।

दुनिया में जब भी दो लोग लड़ते हैं, तो कभी ऐसा हो सकता है, थोड़ी-बहुत मात्रा का भेद होता है। कोई थोड़ा ज्यादा अधार्मिक, कोई थोड़ा कम अधार्मिक। लेकिन ऐसा मुश्किल से होता है कि एक धार्मिक हो और दूसरा अधार्मिक। अधार्मिक होने में ही मात्रा-भेद होता है। कोई नब्बे प्रतिशत अधार्मिक होता है, कोई पंचानबे प्रतिशत अधार्मिक होता है। लेकिन युद्ध हमेशा अधर्म और अधर्म के बीच ही चलता है।

कृष्ण एक अनूठा प्रयोग करना चाह रहे हैं; शायद विश्व के इतिहास में पहला, और अभी तक उसके समानांतर कोई दूसरा प्रयोग हो नहीं सका। वह प्रयोग यह करना चाह रहे हैं, युद्ध को एक धर्मयुद्ध बनाने की कीमिया अर्जुन को देना चाह रहे हैं।

वे अर्जुन से कह रहे हैं, तू योगी होकर लड़; तू समत्वबुद्धि को उपलब्ध होकर लड़; तू शत्रु और मित्र के बीच बिलकुल तटस्थ होकर लड़; अपने और पराए के बीच फासला छोड़ दे। क्या होगा फल, इसकी चिंता न कर। इसकी ही चिंता कर कि क्या है तेरा चित्त! कौन मरेगा, कौन बचेगा, इसकी फिक्र मत कर। इसकी ही फिक्र कर कि चाहे कोई मरे, चाहे कोई बचे, चाहे तू मरे या तू बचे, लेकिन मृत्यु और जन्म के बीच तुझे कोई फर्क न हो; तू समत्व को उपलब्ध हो जा। चाहे सफलता आए चाहे असफलता, चाहे विजय आए और चाहे पराजय, तू दोनों को समभाव से झेल सके। तेरे चित्त की लौ जरा भी कंपित न हो। तू निष्कंप हो जा।

युद्ध के क्षण में किसी को योगी बनाने की यह चेष्टा बड़ी इंपासिबल है, बड़ी असंभव है।

ये कृष्ण जैसे लोग सदा ही असंभव प्रयास में लगे रहते हैं। उनकी वजह से ही जिंदगी में थोड़ी रौनक है; उनकी वजह से ही, ऐसे असंभव प्रयास में लगे हुए लोगों की वजह से ही, जिंदगी में कहीं-कहीं कांटों के बीच एकाध फूल खिलता है; और जिंदगी के उपद्रव के बीच कभी कोई गीत जन्मता है। असंभव प्रयास, दि इंपासिबल रेवोल्यूशन, एक असंभव क्रांति की आकांक्षा है कि अर्जुन योगी होकर युद्ध में चला जाए।

दो बातें आसान हैं। अर्जुन को योगी मत बनाओ, बेहोश करो, और भी भोगी बना दो–युद्ध में चला जाएगा। दूसरी भी बात संभव है, अर्जुन को योगी बनाओ–युद्ध को छोड़कर जंगल चला जाएगा। ये दो बातें बिलकुल आसान और संभव हैं। ये बिलकुल पासिबल के भीतर हैं। दो में से कुछ भी करो। अर्जुन को और भोग की लालच दो–युद्ध में लगा दो। अर्जुन को योगी बनाओ–जंगल चला जाए।

कृष्ण एक असंभव चेष्टा में संलग्न हैं। और इसीलिए गीता एक बहुत ही असंभव प्रयास है। असंभव होने की वजह से ही अदभुत; असंभव होने की वजह से ही इतना ऊंचा, इतना ऊर्ध्वगामी है। वह असंभव प्रयास यह है कि अर्जुन, तू योगी भी बन और युद्ध में भी खड़ा रह। तू हो जा बुद्ध जैसा, फिर भी तेरे हाथ से धनुष-बाण न छूटे।

बुद्ध जैसा होकर बोधिवृक्ष के नीचे बैठ जाने में अड़चन नहीं है; कोई अड़चन नहीं है। लेकिन बुद्ध जैसा होकर युद्ध के क्षण में युद्ध के मैदान पर खड़े रहने में बड़ी अड़चन है। और इसलिए वे सब द्वार खटखटा रहे हैं। कहीं से भी अर्जुन को प्रकाश दिखाई पड़ जाए।

इस सूत्र में वे कहते हैं, मित्र और शत्रु के बीच समबुद्धि, तो तू योग को उपलब्ध हो जाता है।

योगी युग्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।

एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।। 10।।

इसलिए उचित है कि जिसका मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, ऐसा वासनारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित हुआ निरंतर आत्मा को परमेश्वर के ध्यान में लगाए।

यहां दोत्तीन बातें कृष्ण कहते हैं, जो बड़ी विपरीत जाती हुई मालूम पड़ेंगी। और ऐसे सूत्रों की बड़ी गलत व्याख्या की गई है। प्रकट व्याख्या मालूम पड़ती है, इसलिए गलती करने में आसानी भी हो जाती है।

कहते हैं वह, वासना से रहित हुआ, संग्रह से मुक्त हुआ, समत्व को पाया हुआ, ऐसा जो योगी-चित्त है, वह एकांत में परमात्मा का स्मरण करे, परमात्मा को ध्याये, परमात्मा का ध्यान करे; परम सत्ता की दिशा में गति करे।

एकांत में! तो इस सूत्र के गलत अर्थ बहुत आसान हो गए। तो यही तो अर्जुन कह रहा है कि मुझे जाने दो महाराज इस युद्ध से। एकांत में जाऊं, चिंतन-मनन करूं, प्रभु का स्मरण करूं। जाने दो मुझे। कृष्ण फिर उसे रोक क्यों रहे हैं? फिर युद्धोन्मुख क्यों कर रहे हैं? फिर कर्मोन्मुख क्यों कर रहे हैं? फिर क्यों कह रहे हैं कि कर्म में रत रहकर तू जी? सम होकर, समत्व को पाकर, पर कर्म में रत होकर।

एकांत! तो एकांत से कृष्ण का जो अर्थ है, वह समझ लेना चाहिए।

एकांत से अर्थ अकेलापन नहीं है। एकांत से अर्थ अकेलापन नहीं है, आइसोलेशन नहीं है। एकांत से अर्थ लोनलीनेस नहीं है। एकांत से अर्थ है, अलोननेस। एकांत से अर्थ है, स्वयं होना, पर-निर्भर न होना। एकांत से अर्थ, दूसरे की अनुपस्थिति नहीं है। एकांत से अर्थ है, दूसरे की उपस्थिति की कोई जरूरत नहीं है।

इस फर्क को ठीक से समझ लें।

आप जंगल में बैठे हैं। बिलकुल एकांत है। कोई नहीं चारों तरफ। दूर कोसों तक कोई नहीं। फिर भी मैं नहीं मानता कि आप एकांत में हो सकेंगे। आपके होने का ढंग भीड़ में होने का ढंग है। आप अकेले हो सकेंगे; एकांत में नहीं हो सकेंगे। अकेले तो प्रकट हैं। अकेले बैठे हैं। कोई नहीं दिखाई पड़ता आस-पास। लेकिन एकांत नहीं हो सकता। भीतर झांककर देखेंगे, तो उन सबको मौजूद पाएंगे, जिनको गांव में, घर छोड़ आए हैं। मित्र भी वहां होंगे, शत्रु भी वहां होंगे; प्रियजन भी वहां होंगे, परिवार भी वहां होगा; दुकान-बाजार, काम-धंधा, सब वहां होगा। भीतर सब मौजूद होंगे। पूरी भीड़ मौजूद होगी। तो अकेले में तो आप हैं, लेकिन एकांत में नहीं हैं। एकांत का तो अर्थ है कि भीतर एक ही स्वर बजे, कोई दूसरे की मौजूदगी न रह जाए भीतर। तो इससे उलटा भी हो सकता है। जिस आदमी को एकांत का रहस्य पता चल गया हो, वह भीड़ में खड़े होकर भी एकांत में होता है। भीड़ कोई बाधा नहीं डालती। भीड़ सदा बाहर है। कौन आपके भीतर प्रवेश कर सकता है?

आप यहां बैठे हैं, इतनी भीड़ में बैठे हैं। आप अकेले हो सकते हैं। भीड़ अपनी जगह बैठी है। कोई आपकी जगह पर नहीं चढ़ा हुआ है। अपनी-अपनी जगह पर लोग बैठे हुए हैं। कोई चाहे, तो भी आपकी जगह पर नहीं बैठ सकता है। अपनी-अपनी जगह पर लोग हैं। अगर उनका हाथ भी आपको छू रहा है चारों तरफ से, तो हाथ ही छू रहा है। हाथ का स्पर्श भीतर प्रवेश नहीं करता। भीतर आप बिलकुल एकांत में हो सकते हैं।

एक ही स्वर हो भीतर, स्वयं के होने का; एक ही स्वाद हो भीतर, स्वयं के होने का; एक ही संगीत हो भीतर, स्वयं के होने का। दूसरे का कोई भी पता नहीं। कोसों तक नहीं, अनंत तक कोई भी पता नहीं। भीतर कोई है ही नहीं दूसरा। आप बिलकुल अकेले हैं।

इस एकांत, इस आंतरिक, इनर एकांत का अर्थ और है, और बाह्य अकेलेपन का अर्थ और है। भीड़ से भाग जाना बड़ी सरल बात है, लेकिन स्वयं के भीतर से भीड़ को बाहर निकाल देना बहुत कठिन बात है।

भीड़ से निकल जाने में कौन-सी कठिनाई है? दो पैर आपके पास हैं, निकल भागिए! दो पैर काफी हैं भीड़ से बाहर निकलने के लिए, कोई कठिन बात है? दो पैर आपके पास हैं, निकल भागिए! मत रुकिए तब तक, जब तक कि भीड़ न छंट जाए। एकांत में पहुंच जाएंगे? अकेलेपन वाले एकांत में पहुंच जाएंगे।

लेकिन भीड़ को भीतर से बाहर निकाल फेंकना अति कठिन मामला है। पैर साथ न देंगे; कितना ही भागिए, भीतर की भीड़ भीतर मौजूद रहेगी। जहां भी जाइएगा, साथ खड़ी हो जाएगी। जहां भी वृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठेंगे, भीतर के मित्र बात-चीत शुरू कर देंगे कि कहिए, क्या हाल है! मौसम कैसा है? सब शुरू हो जाएगा! बैठकखाना वापस आपके साथ भीतर मौजूद हो जाएगा। और कई बार तो ऐसा होगा कि जिनकी मौजूदगी में जिनका कोई पता नहीं चलता, उनकी गैर-मौजूदगी में उनका पता और भी ज्यादा चलता है!

अपनी पत्नी के पास बैठे हैं घंटेभर, तो भूल भी जा सकते हैं कि पत्नी है। भूल भी जा सकते हैं। अक्सर भूल ही जाते हैं। पत्नी नहीं है, तब उसकी खाली जगह उसका ज्यादा स्मरण दिलाती है। आदमी जिंदा है, तो पता नहीं चलता; मर जाता है, तो घाव छोड़ जाता है; ज्यादा याद आता है। जगह खाली हो जाती है।

किसी की मौजूदगी की वजह से आपके भीतर भीड़ नहीं होती; आपके भीतरी रसों की वजह से ही भीड़ होती है। आंतरिक रस है। दूसरे में हम रस लेते हैं। इसलिए जब कोई मौजूद होता है, तो उतनी जल्दी नहीं रहती है। जानते हैं कि कभी भी रस ले लेंगे; मौजूद तो है। लेकिन पता चल जाए कि मौजूद नहीं है, तो रस ज्यादा आने लगता है। क्योंकि पता नहीं, अभी रस लेना चाहें, तो दूसरा मौजूद मिले, न मिले। तो गैर-मौजूदगी और भी ज्यादा पकड़ लेती है, जोर से पकड़ लेती है।

रवींद्रनाथ ने कहीं मजाक में लिखा है कि जिन पति-पत्नियों को अपना प्रेम जिंदा रखना हो, उन्हें बीच-बीच में एक-दूसरे से छुट्टी, हॉलीडे लेते रहना चाहिए। रवींद्रनाथ के एक पात्र ने तो अपनी प्रेयसी से कहा है–बहुत पीछे पड़ी है वह स्त्री, तो उसने कहा कि ठीक है कि हम राजी हो जाएं, विवाह कर लें। उस पात्र ने कहा, मैं राजी हूं विवाह करने को। लेकिन तेरी दूसरी शर्त मेरी समझ में नहीं आती! क्योंकि उस स्त्री की दूसरी शर्त यह है कि हम विवाह तो कर लें, लेकिन झील के एक तरफ मैं रहूंगी और झील के दूसरी तरफ तुम रहना। कभी-कभी निमंत्रण पर हम एक-दूसरे से मिल लिया करेंगे। या कभी-कभी अनायास, झील में नाव खेते या नदी के तट पर टहलते मुलाकात हो जाएगी, तो किसी झाड़ के नीचे बैठकर बात कर लेंगे! तो वह आदमी कहता है, इससे बेहतर है, हम विवाह ही न करें। विवाह किस लिए? पर वह स्त्री कहती है, विवाह तो हम कर लें, लेकिन रहें फासले पर; ताकि एक-दूसरे की याद आती रहे; ताकि एक-दूसरे को भूल न जाएं। कहीं ऐसा न हो कि एक-दूसरे के पास इतने आ जाएं कि भूल ही जाएं। भूल ही जाते हैं। अनुपस्थिति याद को जगा जाती है।

तो इस खयाल में मत रहना आप कि भीड़ के बीच में हैं, तो भीड़ में हैं। भीड़ में होने का अर्थ है कि भीड़ आपके भीतर है, तो आप भीड़ में हैं। भीड़ आपके भीतर नहीं है, तो आप बिलकुल अकेले हैं।

कृष्ण जैसा आदमी कहीं भी खड़ा हो–कैसी भी भीड़ में, कैसे भी बाजार में–अरण्य ही चलता है, जंगल ही है। हम जैसा आदमी कहीं भी खड़ा हो जाए, जंगल में भी, तो भीड़ ही चलती है, बाजार ही है। हमारे होने के ढंग पर निर्भर है।

तो जब अर्जुन से कहा कृष्ण ने कि ऐसा व्यक्ति समत्व को उपलब्ध हुआ, थिर हुआ, शांत हुआ, एकांत में प्रभु को ध्याता है, प्रभु का ध्यान करता है, तो क्या अर्थ होगा? किसी जंगल में, किसी पहाड़ पर, किसी गुफा में?

नहीं, एक और गुफा है, अंतर-हृदय की, वहां। एक और अरण्य है स्वयं के भीतर ही, शून्य का, वहां। एक इनर स्पेस है, एक भीतरी आकाश है। इस बाहर के आकाश से भी विराट और बड़ा, वहां। हृदय की गुफा में। वहां एकांत में वह प्रभु को ध्याता है। और वहीं प्रभु का ध्यान किया जा सकता है; बाहर के जंगलों में कोई प्रभु का ध्यान नहीं किया जा सकता।

इसे भी थोड़ा-सा समझ लें।

साधक के लिए विशेष ध्यान में ले लेने जैसी बात है कि प्रभु का ध्यान अंतर-गुफा में किया जाता है, हृदय की गुफा में। नकल में हम कितनी ही गुफाएं बाहर बना लें पत्थरों को खोदकर, उनसे हल नहीं होता। पत्थर बहुत कमजोर है। हृदय को खोदना पत्थर से भी जटिल चीज को तोड़ना है; ज्यादा कठिन है। हीरे की छेनियां भी टूट जाएंगी।

हृदय में गुफा है। सबके भीतर एक अंतर-आकाश है।

एक आंग्ल-भारतीय विचारक आबरी मेनन ने एक छोटी-सी किताब लिखी है। उसके पिता तो भारतीय थे, उसकी मां अंग्रेज थी। आबरी मेनन ने एक छोटी-सी किताब लिखी है, दि स्पेस आफ दि इनर हार्ट, अंतर-हृदय का आकाश। किताब बहुत मधुर संस्मरण से शुरू की है।

वेटिकन के पोप से मिलने गया था मेनन; तो वेटिकन के पोप के चरणों में सिर झुकाकर आशीर्वाद लेने को झुका। तभी वेटिकन के पोप ने अपने साथ खड़े हुए महासचिव को पूछा, किस जाति का व्यक्ति है यह, कौन है? किस जाति का व्यक्ति है यह, कौन है? साथ खड़े हुए सेक्रेटरी ने वेटिकन के पोप को कहा, अंग्रेज है, आंग्ल है। वेटिकन के पोप ने मेनन के चेहरे पर हाथ फेरा और कहा, नहीं। इसके चेहरे का ढंग भारतीय है।

झुका हुआ मेनन अपने मन में सोचने लगा, सच में मैं कौन हूं? उसको एक सवाल उठा कि मैं भारतीय हूं या अंग्रेज हूं? लेकिन अंग्रेज होना और भारतीय होना चमड़ी से ज्यादा गहरी बात नहीं है। भीतर मैं कौन हूं? चमड़ी तो मेरी दोनों की है। अंग्रेज की भी है थोड़ी चमड़ी मेरे पास और एक भारतीय की भी चमड़ी है थोड़ी मेरे पास। खून भी मेरे पास भारतीय का है और अंग्रेज का भी है। फिर मैं कौन हूं? क्या यही चमड़ी और खून का जोड़ मैं हूं? या मैं कुछ और भी हूं? वह झुका हुआ मेनन नीचे सोचने लगा।

उठकर खड़ा हुआ, वेटिकन के पोप ने फिर पूछा कि कहो, कौन हो तुम? तो उसके मन में हुआ कि वेटिकन के पोप के संबंध में कहा जाता है कि वह इनफालिबल है, वह कभी भूल नहीं करता। ईसाई मानते हैं कि उनका जो बड़ा पुरोहित है, वह कभी भूल नहीं करता। मधुर मान्यता है। मेनन को खयाल आया कि अगर मैं कहूं कि आंग्ल-भारतीय हूं, आधा भारतीय आधा अंग्रेज हूं, तो कहीं पोप को दुख न हो। वह यह न सोचे कि मैंने उसे फालिबल सिद्ध किया, मैंने कहा कि वह भी गलती कर सकता है। तो मेनन ने कहा कि हां, आप ठीक कहते हैं महानुभाव! मैं भारतीय हूं।

पोप बहुत खुश हुआ। मेनन ने अपनी किताब में लिखा है कि इसलिए नहीं खुश हुआ कि मैं भारतीय था और भारतीय से मिलकर उसे खुशी हुई। इसलिए भी खुश नहीं हुआ कि मैं कोई खास आदमी था और मुझसे मिलकर खुशी हुई। खुश इसलिए हुआ कि पोप इनफालिबल है, उससे कभी भूल नहीं होती।

पर मेनन ने लिखा है कि मेरे चित्त में एक चक्कर चल पड़ा उस दिन से कि मैं कौन हूं? क्या मैं यह हड्डी और मांस और चमड़ी का जोड़ मैं हूं? मैं कौन हूं? अगर सच में यह पोप मेरी आंखों में झांककर कहता और कहता कि ठीक है, मैं समझ गया; तुम्हारा शरीर तो भारतीय है या अंग्रेज, पर तुम कौन हो? क्या तुम शरीर ही हो? तो वह बड़ी खोज में लग गया कि मैं कहां पाऊं कि मैं कौन हूं?

उसने बहुत खोजा, बहुत खोजा, और आखिर में हम सोच भी नहीं सकते कि उसे अपना उत्तर छांदोग्य उपनिषद से मिला। छांदोग्य उपनिषद पढ़ते वक्त उसे यह शब्द सुनाई पड़ा, खयाल आया, हृदय की गुफा, दि इनर स्पेस आफ दि हार्ट, वह अंतर-हृदय का आकाश। उसने कहा कि अगर मैं कोई भी हूं, तो मेरे हृदय की गुफा में ही भीतर प्रवेश करूं तो जान पाऊंगा, अन्यथा नहीं जान पाऊंगा।

फिर उसने एक कमरे में अपने को बंद कर लिया महीनों के लिए। रोटी सरका जाता कोई समय पर, वह रोटी खा लेता। पानी सरका जाता, वह पानी पी लेता। और वह आंख बंद करके बस एक ही चिंतन में लग गया, एक ही ध्यान में कि मैं कौन हूं?

शरीर मैं नहीं हूं। उसने एक महीने तक इसका ही निरंतर ध्यान किया कि शरीर मैं नहीं हूं, शरीर मैं नहीं हूं। एक महीने तक इस एक शब्द के सिवा उसने कोई उपयोग न किया कि शरीर मैं नहीं हूं। सोते-जागते, उठते-बैठते, होश में, बेहोशी में, जानता रहा, दोहराता रहा, समझता रहा, स्मरण करता रहा–शरीर मैं नहीं हूं। एक महीने के बाद उसने आंख खोलकर अपने शरीर को देखा और पाया कि निश्चित ही शरीर मैं नहीं हूं। एक यात्रा का पड़ाव पूरा हो गया।

और उसने लिखा है कि जिस दिन मैंने पाया कि मैं शरीर नहीं हूं, फिर मैंने आंख बंद की और मैंने कहा कि अब मैं जानने चलूं कि मैं कौन हूं! एक बात तो पूरी हुई कि क्या मैं नहीं हूं। अब मैं जानूं कि मैं कौन हूं!

और जब मैंने भीतर झांका, तो मुझे छांदोग्य की बात समझ में आई कि भीतर एक अंतर-गुफा है हृदय की, जहां मैं हूं, जो मैं हूं। और जैसे-जैसे उस अंतर-गुफा में मैंने प्रवेश किया, तो मैंने पाया, आश्चर्य! इतना बड़ा आकाश भी नहीं है, जितनी बड़ी वह अंतर-गुफा है। और जैसे-जैसे मैं उसमें भीतर गया, वैसे-वैसे एक रहस्य उदघाटित हुआ कि जैसे-जैसे चला भीतर, वैसे-वैसे मैं मिटता गया। खाली, शून्य ही रह गया। एकांत ही रह गया। सिर्फ एकांत, मैं भी न रहा। मेरी मौजूदगी भी तो एकांत में बाधा है।

तो आपको एकांत का अंतिम अर्थ कहता हूं, जिससे कृष्ण का प्रयोजन है। अगर आप भी बच रहे, तो भी एकांत नहीं है। एक क्षण ऐसा आता है, जब आप भी नहीं हैं; सिर्फ चैतन्य रह जाता है, आप भी नहीं होते हैं। आपको पता भी नहीं होता कि मैं भी हूं, सिर्फ होना रह जाता है। उस शुद्ध होने में एकांत है। उस एकांत में प्रभु को ध्याया जाता है। ध्याया क्या जाता है, उस एकांत में प्रभु को जान ही लिया जाता है। उस एकांत में प्रभु से मिलन ही हो जाता है।

तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष एकांत में प्रभु को ध्याता है।

यह ध्याता शब्द बहुत अदभुत है। प्रभु का ध्यान करता है। क्या आप किसी ऐसी चीज का ध्यान कर सकते हैं, जिसका आपको पता न हो? क्या यह संभव है कि जिसको आप जानते न हों, उसका आप ध्यान कर सकें? यह कैसे संभव है? जिसे जानते नहीं, उसका ध्यान कैसे करिएगा? ध्यान के लिए तो जानना जरूरी है। लेकिन हम सब प्रभु का ध्यान करते हैं। और हमें प्रभु का कोई भी पता नहीं है!

ध्यान हो कैसे सकता है, जिसका हमें पता नहीं है! जिसे हमने जाना ही नहीं, यह भी नहीं जाना कि जो है भी या नहीं है! यह भी नहीं जाना कि है, तो कैसा है! कुछ भी जिसकी हमें खबर नहीं है, उसका ध्यान कर रहे हैं लोग बैठकर! आंख बंद करके लोग कहते हैं कि हम प्रभु का ध्यान कर रहे हैं!

अगर उनकी खोपड़ी थोड़ी चीरी जा सके और उनकी खोपड़ी में झांका जा सके, तो आपको पता चल जाएगा, वे किसका ध्यान कर रहे हैं! किसका ध्यान कर रहे हैं, पता चल जाएगा।

नानक एक गांव में ठहरे हैं। और नानक कहते हैं, न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान है। तो गांव का मुसलमान नवाब नाराज हो गया। उसने कहा, बुला लाओ उस फकीर को। कैसे कहता है? किस हिम्मत से कहता है कि न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान है?

नानक आए। उस नवाब ने पूछा कि मैंने सुना है, तुम कहते हो, न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान? नानक ने कहा, हां, न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान। तो तुम कौन हो? तो नानक ने कहा कि मैंने बहुत खोजा, बहुत खोजा। चमड़ी, हड्डी, मांस, मज्जा, वहां तक तो मुझे लगा कि हां, हिंदू भी हो सकता है, मुसलमान भी हो सकता है। लेकिन वहां तक मैं नहीं था। और जब उसके पार मैं गया, तो मैंने पाया कि वहां तो कोई हिंदू-मुसलमान नहीं है!

तो उस नवाब ने कहा कि फिर तुम हमारे साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने चलोगे? क्योंकि जब कोई हिंदू-मुसलमान नहीं, तो मस्जिद में जाने में एतराज नहीं कर सकते हो। नानक ने कहा, एतराज! मैं तो यह पूछने ही आया था कि मस्जिद में ठहरूं, तो आपको कोई एतराज तो नहीं है?

नवाब थोड़ा चिंतित हुआ, एक हिंदू कहे! पर उसने कहा कि देखें, परीक्षा कर लेनी जरूरी है। मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिए ले गया नानक को। नवाब तो मस्जिद में नमाज पढ़ने लगा, नानक पीछे खड़े होकर हंसने लगे। तो नवाब को बड़ा क्रोध आया। हालांकि नमाज पढ़ने वाले को क्रोध आना नहीं चाहिए। लेकिन नमाज कोई पढ़े तब न!

बड़ा क्रोध आया और जैसे क्रोध बढ़ने लगा, नानक की हंसी बढ़ने लगी। अब नमाज पूरी करनी बड़ी मुश्किल पड़ गई। तबियत तो होने लगी, गर्दन दबा दो इस फकीर की। लेकिन नमाज पूरी करनी जरूरी थी। बीच में तोड़ा नहीं जा सकता नमाज को। तो जल्दी पूरी की, जैसा कि अधिक लोग करते हैं।

पूजा अधिक लोग जल्दी करते हैं। इतने जल्दी करते हैं कि कोई भी शार्ट कट मिल जाए, तो जल्दी छलांग लगाकर वे पूजा निपटा देते हैं। लांग रूट से पूजा में शायद ही कोई जाता हो। शार्ट कट सबने अपने-अपने बनाए हुए हैं, उनसे वे निकल जाते हैं, तत्काल! बाई पास! पूजा को निपटाकर वे भागे, तो फिर लौटकर नहीं देखते पूजा की तरफ। एक मजबूरी, एक काम, उसे निपटा देना है!

नवाब ने जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की और आकर नानक से कहा कि बेईमान निकले, धोखेबाज निकले। तुमने कहा था, नमाज में साथ दूंगा। साथ न दिया। नानक ने कहा, मैंने कहा था नमाज में साथ दूंगा, लेकिन तुमने नमाज ही न पढ़ी, साथ किसका देता? तुम तो न मालूम क्या-क्या कर रहे थे! कभी मेरी तरफ देखते थे। कभी नाराज होते थे। कभी मुट्ठियां बांधते थे। कभी दांत पीसते थे। यह कैसी नमाज पढ़ रहे थे? मैंने कहा कि ऐसी नमाज तो मैं नहीं जानता। साथ भी कैसे दूं! और सच, भीतर तुमने एक भी बार अल्लाह का नाम लिया? क्योंकि जहां तक मैं देख पाया, मैंने देखा कि तुम काबुल के बाजार में घोड़े खरीद रहे हो!

नवाब तो मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, क्या कहते हो! काबुल के बाजार में घोड़े! बात तो सच ही कहते हो। कई दिन से सोच रहा हूं कि अच्छे घोड़े पास में नहीं हैं। तो नमाज के वक्त फुरसत का समय मिल जाता है। और तो काम में लगा रहता हूं। तो अक्सर ये काबुल के घोड़े मुझे नमाज के वक्त जरूर सताते हैं। मैं खरीद रहा था। तुम ठीक कहते हो। मुझे माफ करो। मैंने नमाज नहीं पढ़ी, सिर्फ काबुल के बाजार में घोड़े खरीदे।

आप जब प्रभु का स्मरण कर रहे हैं, तो ध्यान रखना, प्रभु को छोड़कर और सब कुछ कर रहे होंगे। प्रभु को तो आप जानते नहीं, स्मरण कैसे करिएगा? ध्यान कैसे करिएगा?

कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष–यह शर्त है ध्यान की, इतनी शर्त पूरी हो, तो ही प्रभु का ध्यान होता है, नहीं तो ध्यान नहीं होता। हां, और चीजों का ध्यान हो सकता है। प्रभु का ध्यान, उसकी शर्त–समत्व को जो उपलब्ध हुआ, निष्कंप जिसका चित्त हुआ, ऐसा व्यक्ति फिर एकांत में, अंतर-गुहा में प्रभु को ध्याता है। फिर प्रभु ही प्रभु चारों तरफ दिखाई पड़ता है। खुद तो खोजे से नहीं मिलता, प्रभु ही प्रभु दिखाई पड़ता है। उसकी ही स्मृति रोम-रोम में गूंजने लगती है। उसका ही स्वाद प्राणों के कोने-कोने तक तिर जाता है। उसकी ही धुन बजने लगती है रोएं-रोएं में। श्वास-श्वास में वही। तब ध्यान है।

ध्यान का अर्थ है, जिसके साथ हम आत्मसात होकर एक हो जाएं। नहीं तो ध्यान नहीं है। अगर आप बच रहे, तो ध्यान नहीं है। ध्यान का अर्थ है, जिसके साथ हम एक हो जाएं। ध्यान का अर्थ है कि कोई आपको काटे, तो आपके मुंह से निकले कि प्रभु को क्यों काट रहे हो! ध्यान का अर्थ है कि कोई आपके चरणों में सिर रख दे, तो आप जानें कि प्रभु को नमस्कार किया गया है। सोचें नहीं, जानें। आपका रोआं-रोआं प्रभु से एक हो जाए। लेकिन यह घटना तो एकांत में घटती है। इनर अलोननेस, वह जो भीतरी एकांत गुहा है, जहां सब दुनिया खो जाती, बाहर समाप्त हो जाता। मित्र, प्रियजन, शत्रु सब छूट जाते। धन, दौलत, मकान सब खो जाते। और आखिरी पड़ाव पर स्वयं भी खो जाते हैं आप। क्योंकि उस स्वयं की भीतर कोई जरूरत नहीं है, बाहर जरूरत है।

अगर ठीक से समझें, तो वह जिसको आप कहते हैं मैं, वह साइनबोर्ड है, जो घर के बाहर लगाने के लिए दूसरों के काम पड़ता है। आपने कभी खयाल किया कि जब आप अपने दरवाजे के भीतर घुसते हैं, तो साइनबोर्ड को अपनी छाती पर लटकाकर मकान के भीतर नहीं जाते। क्यों? आपका ही घर है, यहां साइनबोर्ड को ले जाने की क्या जरूरत है? साइनबोर्ड तो दरवाजे की चौखट पर लगा देते हैं। बाहर से जाने वाले, राह से गुजरने वाले, औरों को पता चले कि कौन यहां रहता है। आप अपना साइनबोर्ड अपनी छाती पर लटकाकर घर के भीतर नहीं जाते।

वह जिसको हम कहते हैं, मैं, नाम-धाम, पता-ठिकाना, वह भी एक साइनबोर्ड है बहुत सूक्ष्म, जो हमने दूसरों के लिए लगाया है। जब भीतर के एकांत में कोई प्रवेश करता है, तो उसे ले जाने की कोई भी जरूरत नहीं पड़ती। वहां आपकी भी कोई जरूरत नहीं है। आप भी वहां शून्यवत हो जाते हैं। उस शून्यवत एकाकार स्थिति में प्रभु को ध्याया जाता है।

यह एकांत जंगल में, अरण्य में भाग जाने वाला एकांत नहीं, यह स्वयं के भीतर प्रविष्ट हो जाने वाला एकांत है।

और कृष्ण ने यहां अर्जुन को जो कहा है, वह योग की परम उपलब्धि है। समस्त योग इसलिए है कि हम अंतर-गुफा में कैसे प्रवेश करें। योग विधि है अंतर-गुफा में प्रवेश की। और अंतर-गुफा में प्रवेश के बाद जो प्रभु का ध्यान है, वह अनुभव है, वह प्रतीति है, वह साक्षात्कार है।

सबके भीतर है वह गुफा। लेकिन सब अपनी गुफा के बाहर घूमते रहते हैं, कोई भीतर जाता नहीं। शायद हमें स्मरण ही नहीं रहा है, क्योंकि न मालूम कितने जन्मों से हम बाहर घूमते हैं। और जब भी एकांत होता है, तो हम अकेलेपन को एकांत समझ लेते हैं। और तब हम तत्काल अपने अकेलेपन को भरने के लिए कोई उपाय कर लेते हैं। पिक्चर देखने चले जाते हैं, कि रेडियो खोल लेते हैं, कि अखबार पढ़ने लगते हैं। कुछ नहीं सूझता, तो सो जाते हैं, सपने देखने लगते हैं। मगर अपने अकेलेपन को जल्दी से भर लेते हैं।

ध्यान रहे, अकेलापन सदा उदासी लाता है, एकांत आनंद लाता है। वे उनके लक्षण हैं। अगर आप घड़ीभर एकांत में रह जाएं, तो आपका रोआं-रोआं आनंद की पुलक से भर जाएगा। और आप घड़ीभर अकेलेपन में रह जाएं, तो आपका रोआं-रोआं थका और उदास, और कुम्हलाए हुए पत्तों की तरह आप झुक जाएंगे। अकेलेपन में उदासी पकड़ती है, क्योंकि अकेलेपन में दूसरों की याद आती है। और एकांत में आनंद आ जाता है, क्योंकि एकांत में प्रभु से मिलन होता है। वही आनंद है, और कोई आनंद नहीं है।

तो अगर आपको अकेले बैठे हुए उदासी मालूम होने लगे, तो आप समझना कि यह एकांत नहीं है; यह दूसरों की याद आ रही है आपको। और एकांत की खोज करना। और एकांत खोजा जा सकता है।

ध्यान कहें, स्मरण कहें, सुरति कहें, नाम कहें, कोई भी, सब एकांत की खोज है। इस बात की खोज है कि मैं उस जगह पहुंच जाऊं, जहां कोई रूप-रेखा न रह जाए दूसरे की। और जहां दूसरे की कोई रूप-रेखा नहीं रह जाती, वहां स्वयं की भी रूप-रेखा के बचने का कोई कारण नहीं रह जाता। सब हो जाता है निराकार।

उस निराकार क्षण में ईश्वर को ध्याया जाता है, जाना जाता है, जीया जाता है। हम फिर अलग होकर नहीं देखते उसे। वह परिचय नहीं है। हम उसके साथ एकमेक होकर जानते हैं। वह पहचान नहीं है दूर से, बाहर से, अलग से। वह एक होकर ही जान लेना है। हम वही होकर जानते हैं।

और जिस दिन कोई अपनी अंतर-गुहा में पहुंच जाता है, वह स्वयं ही भगवान हो जाता है।

भगवान हो जाने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि वहां उसके और भगवान के बीच कोई फासला नहीं रह जाता। और प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल यही है कि वह भगवान हो जाए। भगवान के होने के पहले कोई पड़ाव मंजिल मत समझ लेना।

निराकार हो जाने के पहले, कहीं रुक मत जाना। सब पड़ाव हैं। रुकना तो वहीं है, जहां स्वयं भी मिट जाए, सब मिट जाए; शून्य, निराकार रह जाए। वही है परम आनंद। उस परम आनंद की दिशा में ही कृष्ण अर्जुन को इस सूत्र में इशारा करते हैं।

आज के लिए इतना ही।

लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट उस अंतर-गुहा की तलाश में कीर्तन करेंगे, आप भी साथ दें। जो सुना, उसे भूल जाएं। जो समझा, उसे थोड़ा पांच मिनट जीएं।

कोई उठेगा नहीं, कोई यहां-वहां हिलेगा नहीं। जिन मित्रों को भी सम्मिलित होना हो, वे भी सम्मिलित हो सकते हैं।

और अपनी जगह बैठकर भी सम्मिलित हों। ये पांच मिनट इस आनंद में डूबने की कोशिश करें। अपनी जगह बैठकर ही ताली बजाएं, गीत भी गाएं, संन्यासियों को साथ दें।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र (भाग–2) प्रवचन–15

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त्‍वरा से जीना ध्‍यान है—प्रवचन—पंद्रहवां

सूत्र:

सीसं जहा सरीरस्‍स, जहा मूलस दुमस्‍स य।

सव्‍वस्‍स साधुधम्‍मस्‍स, तहा झाणं विधीयते।। 117।।

लवण व्‍व सलिजजोए, झाणे चितं विलीयए जस्‍स।

तस्‍स सुहासुहडहणो, अप्‍पाउणलो पयासेइ।। 118।।

जस्‍स न विज्‍जदि रागो, दोसो मोहो व जोग परिक्‍कमो।

तस्‍स सुहासुहडहाणो, झाणमओ जायए अग्‍गी।। 119।।

पलियंकं बंधेउं, निसिद्धमण—वयणकायवावारो।

नासग्‍गनिमियनयणो, मन्‍दीकयसासनीसासो।। 120।।

गरहियनियदुच्‍चरिओ, खामियसत्‍तो नियत्‍तियपमाओ।

निच्‍चलचित्‍तो तास झाहि, जाव पुरओव्‍व पडिहाइ।। 121।।

थिरकयजोगाणं पुण, मुणीणझाने सुनिच्‍चलमणाणं।

गामम्‍मि जणाइण्‍णे, सुण्‍णे रण्‍णे व ण विसेसो।। 122।।

मनुष्य कुछ खोज रहा है। मनुष्य खोज है। खोज को नाम हम कुछ भी दें। कहें आनंद, कहें महाजीवन, कहें परमात्मा, निर्वाण, मोक्ष; यह भेद नामों के हैं। एक बात सुनिश्चित है कि आदमी चाहे कैसा ही हो, खोज रहा है। ठीक-ठीक साफ भी न हो कि क्या खोज रहा हूं, फिर भी खोज रहा है। खोज जैसे मनुष्य का अंतर्तम है। बिना खोजे मनुष्य नहीं रह सकता। खोज में ही मनुष्य की मनुष्यता है।

पशु-पक्षी हैं। खोज नहीं रहे हैं। वृक्ष हैं, चट्टानें-पहाड़ हैं, हैं। खोज नहीं रहे हैं। कहीं जा नहीं रहे, कोई जिज्ञासा नहीं। अस्तित्व जैसा है, स्वीकार है। कोई रूपांतर करने की कामना नहीं। क्रांति का कोई स्वर नहीं। प्रकृति में विकास है, मनुष्य में क्रांति है। वहीं मनुष्य भिन्न है।

डार्विन का सिद्धांत सारी प्रकृति के संबंध में सही है, आदमी भर को छोड़कर। प्रकृति विकास कर रही है। कर रही है कहना ठीक नहीं, हो रहा है। विकास या “एवोल्यूशन’ का अर्थ ही इतना है, जो तुम्हारे बिना किये हो रहा है। मनुष्य भर कुछ ऐसा है कि कुछ करता है। उस करने में क्रांति है। जो होता है, विकास है; जो किया जाता है, वही क्रांति है।

इस क्रांति की दृष्टि को बहुत गहरे में पकड़ लेना जरूरी है कि मनुष्य बिना किये नहीं रह सकता। कुछ करेगा, कुछ बदलेगा। कुछ मिटायेगा, कुछ बनायेगा। रूपांतरण, सुंदरतम, सत्यतर की खोज जारी रहती है। कोई छोटे पैमाने पर, कोई बड़े पैमाने पर। कोई दौड़ता है, कोई घसिटता है। लेकिन इस यात्रा में सभी सम्मिलित हैं।

मनुष्य खड़ा नहीं, जैसे वृक्ष खड़े हैं। मनुष्य रुका नहीं, जैसे पशु-पक्षी रुके हैं। टटोलता है, अंधेरे में सही। गिरता है, फिर उठता है। कहीं कोई एक अदम्य भरोसा है गहरे में कि कुछ पाने को है। जीवन जैसा दिखायी पड़ता है, उतने पर समाप्त नहीं। कुछ छिपा है। उसे उघाड़ना है। उसका आविष्कार करना है। यह जो दिखायी पड़ रहा है, यह केवल बाह्य रूप है। भीतर कुछ हीरे छिपे होंगे। जब परिधि है, तो केंद्र भी होगा। जब घर की बाहर की दीवाल है, तो भीतर का अंतर्तम मंदिर भी होगा। तो आदमी उघाड़ रहा है, पर्दे उघाड़ रहा है। घूंघट हटा रहा है। इस खोज के दो रूप हो सकते हैं। एक रूप, जिससे विज्ञान पैदा होता है। तब हम पर्दा उठाते हैं जरूर, अपने पर से नहीं उठाते; पर पर से उठाते हैं। विज्ञान भी घूंघट हटाता है, लेकिन वैज्ञानिक स्वयं घूंघट में रह जाता है। आइंस्टीन ने खोज लिया हो कोई सत्य सापेक्षता का प्रकृति में, अस्तित्व में, लेकिन खुद पर्दे में और घूंघट में रह गया।

मरते वक्त आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि दुबारा जन्म हो, तो तुम क्या बनना चाहोगे? तो उसने कहा एक बात पक्की है, वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा। प्लंबर भी बन जाऊंगा तो ठीक है, लेकिन वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा। क्या कारण था आइंस्टीन को ऐसा कहने का कि वैज्ञानिक न बनना चाहूंगा? पूछा तो था क्या बनना चाहोगे, उत्तर में उसने कहा क्या नहीं बनना चाहूंगा। वैज्ञानिक नहीं बनना चाहूंगा। एक बात धीरे-धीरे उस मनीषी को दिखायी पड़ने लगी थी कि दूसरों पर से सब पर्दे भी उठ जाएं, और तुम अंधेरे में रह जाओ, तो सार क्या? सारे जगत में सूरज निकल आये और तुम्हारा भीतर का लोक अंधकार में दबा रह जाए, तो सार क्या? सब जान लो और अपने को न जान पाओ, तो इस जानने का मूल्य क्या? यह सब जानना भीतर के अज्ञान के सामने व्यर्थ हो जाएगा।

विज्ञान भी पर्दा उठाता है, धर्म भी। धर्म पर्दा उठाता है जाननेवाले पर से, ज्ञाता पर से। विज्ञान पर्दा उठता है ज्ञेय पर से। विज्ञान उठाता है आब्जेक्ट पर से पर्दा, विषय पर, जो दिखायी पड़ता है दृश्य उससे। धर्म उठाता है पर्दा द्रष्टा पर से, जो देखनेवाला है, जो जाननेवाला है, जो मैं हूं। और धर्म की ऐसी समझ है कि जिसने स्वयं को जान लिया, उसने सब जान लिया। अपना घर भीतर आह्लाद से, प्रकाश से भर गया, तो सारा जगत प्रकाश से भर गया।

अगर तुम प्रसन्न हो, तो तुमने खयाल किया, तुम्हारी प्रसन्नता के कारण फूल भी हंसते हुए मालूम होते हैं। तुम उदास हो, तो फूल भी उदास मालूम होते हैं। फूलों को तुम्हारी उदासी से क्या लेना-देना! तुम अगर दुखी हो, पीड़ित हो, तो चांद भी रोता मालूम पड़ता है। तुम अगर आनंदित हो, नाच रहे, तुम्हारा प्रिय घर आ गया, मित्र को खोजते थे मिल गया, तो चांद भी नृत्य करता मालूम होता है। चांद वही है। पृथ्वी पर हजारों लोग चांद को देखते हैं; लेकिन एक ही चांद को नहीं देखते। हर आदमी का चांद अलग है। क्योंकि हर आदमी की देखनेवाली आंख अलग है। कोई खुशी से देख रहा है–किसी का प्रियजन घर आ गया। कोई दुख से देख रहा है–किसी का प्रियजन छूट गया। कोई नाच रहा है खुशी में, सौभाग्य में; कोई रो रहा है, आंसू बहा रहा है। आंसुओं की ओट से जब चांद दिखायी पड़ता है, तो आंसुओं में दब जाता है। गीत की ओट से जब दिखायी पड़ता है, तो चांद में भी गीत उठने लगता है।

इसे खयाल लेना, तुम जैसे हो, वैसा तुम्हारा संसार हो जाता है। तुम जैसे नहीं हो, वैसा तुम्हारा संसार हो ही नहीं सकता। क्योंकि तुम ही मौलिक रूप से अपने संसार के निर्माता हो। तुम्हारी आंख, तुम्हारे कान, तुम्हारे हाथ प्रतिपल संसार को निर्मित कर रहे हैं। एक लकड़हारा इस बगीचे में आ जाए, तो वह देखेगा कि कौन-कौन से वृक्ष काटे जाने योग्य हैं। अनजाने ही! उसे फूल न दिखायी पड़ेंगे! उसे वृक्षों की हरियाली न दिखायी पड़ेगी। उसे केवल लकड़ी दिखायी पड़ेगी, जो बाजार में बिक सकती है। एक कवि आ जाए, तो उसे ऐसे रंग दिखायी पड़ेंगे जो तुम्हें दिखायी नहीं पड़ते। तुम्हें सब वृक्ष हरे मालूम पड़ते हैं। कवि को हर हरियाली अलग हरियाली मालूम पड़ती है। हर वृक्ष का हरापन अद्वितीय है। अलग-अलग है। तुम कहते हो फूल खिले हैं, लेकिन प्रगाढ़ता से तुम्हारी चेतना के सामने फूल प्रगट नहीं होते। क्योंकि वहां कोई प्रगाढ़ता नहीं है। कोई चित्रकार आये, कोई संगीतज्ञ आये, तो संगीतज्ञ सुन लेगा कोयल की कुहू-कुहू, इन पक्षियों का कलरव। हम जो होते हैं, वैसा हमें संसार दिखायी पड़ने लगता है। धर्म कहता है, जिसने स्वयं को जान लिया, उसने सब जान लिया। इक साधे सब सधे। और वह एक तुम्हारे भीतर है।

धर्म और विज्ञान दोनों एक ही खोज के दो पहलू हैं।

विज्ञान बहिर्मुखी खोज है, धर्म अंतर्मुखी। विज्ञान जाता है दूर अपने से, धर्म आता है पास और पास। उस पास आने का नाम ही ध्यान है।

महावीर के ये सूत्र ध्यान के सूत्र हैं। इन सूत्रों को बहुत गहरे में उतरने देना। क्योंकि ध्यान धर्म का सार है। कुंजी है। ध्यान को जिसने समझा, उसने धर्म को समझा। और ध्यान को छोड़कर जो सारे धर्मशास्त्र भी समझ ले, वह कुछ भी धर्म को नहीं समझा। उसका धर्म का जानना ऐसे ही है जैसे कोई भूखा पाकशास्त्र के शास्त्र पढ़ता रहे, या मिठाइयों की तस्वीरों को रखे बैठा रहे। उससे भूख न मिटेगी। ध्यान है धर्म का प्राण। ध्यान है धर्म की वास्तविकता। ध्यान है धर्म का अर्थ और अभिप्राय। ये सूत्र ध्यान के सूत्र हैं। पहला सूत्र–

“जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट या मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है।’

“सीसं जहा सरीरस्स–जैसे शरीर में सिर।’ पैर काट दो, आदमी जी जाएगा। हाथ काट दो, आदमी जी जाएगा। सिर काट दो, आदमी नहीं जी सकेगा। अभी तो वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रयोग किये हैं कि सिर को काटकर अकेला जिलाया रखा जा सकता है। यंत्रों के सहारे। यांत्रिक हृदय खून को गतिमान करता रहेगा। और यांत्रिक फेफड़े श्वास लेते रहेंगे। अकेला सिर जिलाये रखा जा सकता है। सारे शरीर को हटाकर भी। लेकिन सिर के हट जाते ही–सारा शरीर मौजूद है–लेकिन फिर जिलाया नहीं जा सकता। और जिलाये रखा भी जा सके, तो उस जीवन का कोई अर्थ न होगा। क्योंकि सारा अर्थ और अभिप्राय तो मनुष्य की प्रतिभा में है, प्रज्ञा में है। उसके बोध में है। गहन मस्तिष्क के अंतस्तलों में छिपा है जीवन का अर्थ।

तो महावीर कहते हैं–”सीसं जहा सरीरस्स’–जैसा सिर है शरीर में अत्यंत मुख्य, मालिक, राजा, सिंहासन पर बैठा। “जहा मूलम दुमस्स य।’ और जैसे जड़ें हैं वृक्ष की। वृक्ष को काट दो, नया अंकुर आ जाएगा–जड़ें भर बचा लो। जड़ें काट दो, बड़े से बड़ा वृक्ष समाप्त हो जाएगा। इसीलिए तो उपनिषद कहते हैं कि आदमी उलटा वृक्ष है। उसकी जड़ें ऊपर की तरफ, सिर में हैं। उलटा लटका वृक्ष है मनुष्य।

बड़ा महत्वपूर्ण प्रतीक है उपनिषदों में। और सब वृक्ष की जड़ें जमीन में हैं, आदमी के सिर की जड़ें आकाश में। पैर आदमी की शाखाएं-प्रशाखाएं हैं। जड़ें उसके सिर में हैं। सूक्ष्म जड़ें हैं। ऐसा कहें कि मनुष्य की जड़ें आकाश में, अनंत आकाश में। या परमात्मा में, अगर धार्मिक शब्द प्रिय हो। लेकिन एक बात सुनिश्चित है कि किसी गहरे अर्थ में आदमी सिर से जुड़ा है जगत से। पैर से नहीं जुड़ा है।

इसीलिए तो ब्राह्मणों ने कहना चाहा कि हम सिर हैं और शूद्र पैर हैं। ऐसे यह बात दंभ की है लेकिन बात तो ठीक ही है। अगर ब्राह्मण ब्राह्मण हो, तो सिर है। क्योंकि ब्राह्मण का अर्थ होता है, जिसने ब्रह्म को जान लिया। वह जानने की घटना तो सहस्रार में घटती है, सिर में घटती है। जिसने ब्रह्म को जान लिया, वही ब्राह्मण है। तो ठीक है कि ब्राह्मण सिर है। और यह कहना भद्दा है और आज के लोकतांत्रिक युग में तो बहुत भद्दा है कि शूद्र पैर है, लेकिन बात सही है। इसे हम उलटाकर कहें तो बात ठीक हो जाती है। जो अभी पैर ही हैं, वे शूद्र हैं। शूद्र पैर हैं, यह कहना तो अभद्र है, लेकिन जो अभी भी पैर हैं और जिनका सहस्रार नहीं खुला, जिनके मस्तिष्क में छिपे कमल अभी बंद पड़े हैं, वे शूद्र हैं। प्राचीन दृष्टि ऐसी थी कि पैदा तो सभी शूद्र होते हैं–सभी–ब्राह्मण भी, पैदाइश से तो सभी शूद्र होते हैं, फिर कभी कोई साधना से ब्राह्मण होता है।

महावीर की क्रांति का यह अनिवार्य हिस्सा था। महावीर और बुद्ध दोनों की अथक चेष्टा थी कि ब्राह्मण का संबंध जन्म से छूट जाए। कोई व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण नहीं होता। हो नहीं सकता। क्योंकि ब्राह्मणत्व अर्जित करना होता है। मुफ्त नहीं मिलता। जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं, फिर कभी कोई, एकाध कोई विरला, कोई जाग्रत, जागा हुआ ब्राह्मण हो पाता है। ब्राह्मण तभी होता है, जब उसे अपनी जड़ों की स्मृति आती है। ब्राह्मण तभी होता है, जब अपनी सिर से फैली जड़ों को वह आकाश में खोज लेता है। जो सहस्रार तक पहुंचा है, वही ब्राह्मण है। अन्यथा कुछ और होगा।

महावीर कहते हैं, “जैसे सिर है मनुष्य के शरीर में और जैसे जड़ें हैं वृक्षों में।’

जड़ों को काट दो, कितना ही बलशाली वृक्ष मर जाएगा। या जड़ों को काटते रहो, तो वृक्ष दीनऱ्हीन हो जाएगा।

जापान में टोकियो के बड़े बगीचे में चार सौ साल पुराना एक पौधा है। वह अगर वृक्ष होता, तो एकड़ों जमीन घेरता। लेकिन वह एक छोटी-सी बसी में–चाय पीने की बसी में आरोपित है। चार सौ साल पहले जिस आदमी ने उसे आरोपित किया था–जरा-सी इंचभर पतली पट्टी है मिट्टी की, चाय पीने की बसी में, उसमें लगाया हुआ है। और बसी के नीचे छेद है, उन छेदों से वह जड़ें काटता रहा है। तो पौधा चार सौ साल पुराना है, लेकिन केवल कुछ इंच बड़ा है। जराजीर्ण हो गया है। बड़ा वृद्ध है। चार सौ साल लंबी यात्रा है। लेकिन ऐसा है जैसे अभी चार दिन का पौधा हो। जड़ें नीचे कटती गयीं, रोज-रोज जड़ों को माली छांटता रहा। फिर उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी यह काम करती रही। वह पौधा अनूठा है। जड़ों को बढ़ने न दिया, नीचे जड़ें न बढ़ीं, ऊपर वृक्ष न बढ़ा। वृक्ष को काटो, फिर नया हो जाएगा। जड़ को काट दो, बस वृक्ष समाप्त हुआ। उसके प्राण जड़ में हैं।

आदमी की जड़ें कहां हैं। होनी तो चाहिए ही, क्योंकि आदमी बिना जड़ों के जी नहीं सकता–कोई नहीं जी सकता। हम अस्तित्व में किसी न किसी भांति अपनी जड़ों को फैला रहे होंगे। हमें पता हो, न पता हो–वृक्षों को भी कहां पता है कि उनकी जड़ें हैं। वृक्षों को भी कहां बोध है कि गहरे अतल अंधेरे में फैली उनकी जड़ें हैं। आदमी की भी जड़ें हैं–गहरे अतल प्रकाश में फैली, आकाश में फैली। ठीक कहते हैं उपनिषद, आदमी उलटा वटवृक्ष है। जड़ें ऊपर हैं, शाखाएं नीचे की तरफ फैली हैं।

तुमने सुना होगा, बेबीलोन में दुनिया के सात चमत्कारों में एक चमत्कार था, और वह था एक उलटा बगीचा। वृक्ष इस तरह लगाये गये थे कि नीचे लटक रहे थे। एक बड़ा सेतु बनाया गया था। सेतु के ऊपर मिट्टी डाली गयी थी। और वृक्षों को सेतु के नीचे लटकाया गया था। अब तो सिर्फ उसकी कथा रह गयी, कुछ खंडहर उसके बचे हैं, लेकिन अतीत में वह दुनिया के बड़े-बड़े चमत्कारों में से एक था।

जब भी कभी बेबीलोन के उस बगीचे के संबंध में मैंने पढ़ा है, या उसके खंडहरों के चित्र देखे, तो मुझे खयाल आया कि जरूर यह खयाल कहीं न कहीं उपनिषदों से तैरकर बेबीलोन तक पहुंचा होगा। क्योंकि उपनिषद अकेले शास्त्र हैं दुनिया में, जिन्होंने कहा–आदमी उलटा लटकता वृक्ष है। यह बगीचा सिर्फ बगीचा नहीं था। नहीं हो सकता। यह आदमी का प्रतीक रहा होगा। यह एक शिक्षण की पाठशाला रही होगी। आदमी ऐसा ही वृक्ष है, जिसकी जड़ें ऊपर हैं।

“जहा मूलम दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।’ वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। यह जो अनुवाद है, दो तरह से हो सकता है। जैन-मुनि इसी तरह का अनुवाद करते रहे, जैसा मैं पढ़ रहा हूं–जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट है वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। खयाल देना आखिरी हिस्से पर–वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। मूल का अनुवाद एक और तरह से भी हो सकता है। लेकिन जैन-मुनियों ने उसे शायद पसंद नहीं किया। “सव्वस्स साधुधम्मस्स…’ सब साधुओं का धर्म। या तो हम कहें कि साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। या सब साधुओं के धर्म का मूल ध्यान है।

“सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।’

मैं दूसरे ही अर्थ को ज्यादा पसंद करूंगा। सभी साधुओं के धर्म का मूल ध्यान है। और इसलिए भी कि महावीर का बहुत जोर था इस बात पर कि सभी धर्म सही हैं। सभी साधुओं के धर्म सही हैं। इसलिए महावीर ने, महावीर के प्रसिद्ध महामंत्र ने सब साधुओं को नमस्कार किया है–”णमो लोए सव्व साहूणम।’ समस्त साधुओं को मेरा नमस्कार है।

लेकिन जैन-मुनि इसका अनुवाद ऐसा करते हैं जिसमें बाकी साधुओं को काटा जा सके। वे कहते हैं, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। क्योंकि जैन-साधु तो जैन-साधु को ही साधु मानता है। किसी और का साधु तो साधु नहीं है। महावीर इतने कृपण नहीं हो सकते। ऐसी कंजूसी उन्हें शोभा भी न देगी। महावीर ने निश्चित ही यही कहा होगा कि सभी साधुओं के धर्मों का मूल ध्यान है। और तब इस सूत्र का अर्थ और भी गंभीर हो जाता है। फिर चाहे ईसाई हों, या मुसलमान हों, या यहूदी हों, या हिंदू हों, या बौद्ध हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

और यह बात तथ्य की है कि चाहे धर्म कहीं पैदा हुआ हो, चाहे किसी रूप-रंग में जन्मा हो, चाहे कैसी ही भाषा धर्म ने चुनी हो, लेकिन जहां भी साधु पैदा हुआ है, वहां उसका मूल ध्यान है। वह ध्यान कहता हो या न कहता हो–कहे प्रार्थना, कहे पूजा, कहे ध्यान, या कुछ और, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ध्यान का मूल तो रहेगा ही। चाहे वृक्ष देवदारू का हो, चाहे चिनार का; चाहे आकाश को छूनेवाला वृक्ष हो और चाहे छोटा-मोटा पौधा हो; चाहे गुलाब का पौधा हो, चाहे चांदनी का, चाहे चंपा का, क्या फर्क पड़ता है! एक बात सुनिश्चित है। सभी वृक्षों का मूल उनकी जड़ में है। बहुत फर्क है जैन-साधु में, बौद्ध-साधु में, हिंदू-साधु में, ईसाई-साधु में। वे सब फर्क ऊपर-ऊपर हैं। जड़ में तो कोई फर्क नहीं हो सकता। जड़ तो चाहिए ही होगी। जड़ के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, ध्यान के बिना साधु नहीं हो सकता। ध्यान के बिना धर्म नहीं हो सकता।

इसलिए पहला अनुवाद ठीक है। उस अर्थ को स्वीकार करने में कुछ अड़चन नहीं। साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। बिलकुल ठीक है। लेकिन दूसरा और भी ज्यादा ठीक है–सब साधुओं के धर्म का मूल ध्यान है।

ध्यान को हम समझें कि क्या है!

ओ रंभाती नदियो,

बेसुध कहां भागी जाती हो?

वंशी-रव

तुम्हारे ही भीतर है!

ध्यान का पहला सूत्र है–जिसे तुम खोजने चले हो, वह खोजनेवाले में छिपा है। कस्तूरी कुंडल बसै। यह ध्यान के पाठ का प्रारंभ है कि पहले अपने घर को टटोल लो। आनंद को खोजने चले हो? जगत बहुत बड़ा है। पहले घर में खोज लो, वहां न मिले, तो फिर जगत में खोजना। कहीं ऐसा न हो कि आनंद की राशि घर में लगी रहे और तुम जगत में खोजते फिरो। अकसर ऐसा ही होता है। ऐसा ही हुआ है।

हम खोज रहे हैं, मिलता भी नहीं है वहां, तो हम और दूर निकलते जाते हैं खोज में। जितना ही पाते हैं कि मिलना नहीं हो रहा है, उतनी ही हमारी खोज बेचैन और विक्षिप्त होती जाती है। जितना ही हम पाते हैं कि दौड़कर नहीं पहुंच रहे हैं, हम दौड़ को और बढ़ाये जाते हैं। हमारे मन का तर्क कहता है कि शायद ठीक से नहीं दौड़ रहे, शायद जितनी शक्ति से दौड़ना चाहिए उतनी शक्ति से नहीं दौड़ रहे हैं। और दौड़ो, और उपाय करो; सारे लोग बाहर दौड़े जा रहे हैं, तो होगा तो जरूर बाहर, इतने लोग गलत थोड़े ही हो सकते हैं!

हम जिस भीड़ में पैदा होते हैं, जन्म से ही हम पाते हैं कि भीड़ भागी जा रही है किसी के साथ। हम भी भीड़ के हिस्से हो जाते हैं। कोई धन खोज रहा है, कोई पद खोज रहा है, कोई यश खोज रहा है। लेकिन खोज बाहर है, सभी की बाहर है, तो हम भी उसमें लग जाते हैं, संलग्न हो जाते हैं। मनुष्य का मन भीड़ से चलता है। भीड़ का एक मनोविज्ञान है। तुम जहां बहुत लोगों को जाते देखते हो, तुम भी चल पड़ते हो। अनजाने यह बात स्वीकृत कर ली गयी है कि जहां इतने लोग जा रहे हैं, वह ठीक ही जा रहे होंगे।

इसीलिए तो दुनिया में बहुत-सी भ्रंात धारणाएं भी सदियों तक चलती हैं। पता भी चल जाता है कि गलत हैं, तो भी चलती हैं, क्योंकि भीड़ जब तक उन्हें न छोड़ दे तब तक नये लोग आते हैं और पुरानी धारणाओं को पकड़ते चले जाते हैं। जब तक भीड़ उन्हें पकड़े है तब तक नये बच्चे भी उन्हें पकड़ लेंगे, क्योंकि बच्चे तो अनुकरण करते हैं। हम सब अनुकरण में हैं।

इसलिए अलग-अलग संस्कृति, अलग-अलग समाज में, अलग-अलग चीजें मूल्यवान हो जाती हैं। किसी समाज में धन का बहुत मूल्य है। जैसे अमेरिका। तो अमेरिका में जो भीड़ है, वह धन की दीवानी है। और सब चीजें गौण हैं, धन प्रमुख है। हर चीज धन से खरीदी जा सकती है। इसलिए धन को पा लो। जिन समाजों में त्याग का बड़ा मूल्य रहा है उन समाजों में सदियों तक लोगों ने त्याग किया है। क्योंकि त्याग को सम्मान था। बचपन से ही व्यक्ति सुनता है त्याग की महिमा, उसके मन में भी भाव जगने शुरू होते हैं–यही मैं भी करूं।

भारत में ऐसा हुआ। सदियों तक त्याग की महिमा रही। उस त्याग की महिमा के कारण करोड़ों लोग त्यागी बने। लेकिन त्यागी बन जाओ कि धन की दौड़ में पड़ जाओ, कोई फर्क नहीं है, अनुकरण जारी है। जैसे पुराने दिनों में महात्मा का प्रभाव था और हर एक व्यक्ति महात्मा बनना चाहता था, वैसे अब अभिनेता का प्रभाव है। हर एक व्यक्ति अभिनेता बनना चाहता है। कोई फर्क नहीं पड़ा आदमी में।

तुम यह मत समझना कि पहले जो आदमी महात्मा बनना चाहते थे, वे बड़े महात्मा थे। कुछ फर्क नहीं है। वह उस भीड़ का मनोविज्ञान था, यह इस भीड़ का मनोविज्ञान है। उस दिन महात्मा पूज्य था, समादृत था, उसकी प्रतिष्ठा थी। महात्मा बनने में अहंकार की तृप्ति थी। अब अभिनेता बनने में अहंकार की तृप्ति है। बात वही की वही है।

क्रांति तो तब घटती है जब तुम भीड़ से हटते हो। जब तुम कहते हो, अनुकरण अब मैं न करूंगा। अब मैं अपने से सोचूंगा। तुम लाख दोहराओ, तुम करोड़ हो तो भी कोई फिकिर नहीं, मैं अपनी सुनूंगा, मैं अपनी अंतरात्मा की सुनूंगा। मैं अपने हृदय की वाणी से चलूंगा।

जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वाणी को सुनना शुरू करता है, वैसे ही समझ में ध्यान का सूत्र पड़ने लगता है। ध्यान के सूत्र का अर्थ है, जिसे हम खोजते हैं, वह कुछ भी क्यों न हो, उसे हम पहले अपने घर तो खोज लें।

सुना है, सूफी फकीर स्त्री हुई राबिया। वह एक सांझ अपने घर के सामने कुछ खोज रही थी, दो-चार लोग आते थे, उन्होंने पूछा, क्या खो गया? उसने कहा मेरी सुई गिर गयी। तो वे दो-चार भी उसको साथ देने लगे–बूढ़ी औरत है, आंखें भी कमजोर हैं! लेकिन फिर उनमें से किसी एक को होश आया कि सुई बड़ी छोटी चीज है, जब तक ठीक से पता न चले कहां गिरी, तो इतने बड़े रास्ते पर कहां खोजते रहेंगे? तो उसने पूछा कि मां, यह बता दे कि सुई गिरी कहां है? तो वहीं आसपास हम खोज लें, इतने बड़े रास्ते पर! उसने कहा बेटा! यह तो पूछो ही मत, सुई तो घर के भीतर गिरी है। वे चारों हाथ छोड़कर खड़े हो गये, उन्होंने कहा तू पागल हुई है! सुई घर के भीतर गिरी है, खुद भी पागल बनी, हमको भी पागल बनाया। जब सुई घर के भीतर गुमी है, तो भीतर ही खोज। उसने कहा, वह तो मुझे भी पता है। लेकिन भीतर अंधेरा है, बाहर रोशनी है–सूरज अभी ढला नहीं–अंधेरे में खोजूं भी कैसे? खोज तो रोशनी में ही हो सकती है।

वे हंसने लगे। उन्होंने कहा कि मालूम होता है बुढ़ापे में तेरा सिर फिर गया है! सठिया गयी तू! अगर घर में रोशनी नहीं है, तो भी खोजना तो घर में ही पड़ेगा। तो रोशनी भीतर ले जा। दीया मांग ला उधार पड़ोसी से, अगर तेरे घर में दीया नहीं।

अब हंसने की बारी उस बुढ़िया की थी। वह बड़ी महत्वपूर्ण सूफी फकीर औरत हुई। वह हंसने लगी। उसने कहा कि मैं तो सोचती थी कि तुम इतने समझदार नहीं हो जितनी समझदारी की बात कर रहे हो। मैं तो उसी तर्क का अनुसरण कर रही थी, जिसका तुम सब कर रहे हो। तुम सब भी बाहर खोज रहे हो, बिना बूझे कि खोया कहां? भीतर खोया है, खोज बाहर रहे हो। और कारण जो मैंने बताया, वही तुम्हारा है। क्योंकि आंखों की रोशनी बाहर पड़ती है, आंखें बाहर देखती हैं, बाहर सब साफ-सुथरा है, भीतर बड़ा गहन अंधकार है।

भीतर तुमने कभी आंख बंद करके देखा? कबीर को पढ़ो, दादू को पढ़ो, नानक को पढ़ो, तो वे कहते हैं, हजार-हजार सूरजों जैसा प्रकाश! तुम भीतर आंख बंद करते हो, सिर्फ अंधेरा। कुछ सूरज का प्रकाश वगैरह नहीं दिखायी पड़ता। सूरज तो दूर, मिट्टी का दीया भी नहीं टिमटिमाता। झट आंख खोलकर तुम फिर बाहर आ जाते हो। कम से कम रोशनी तो है! कम से कम रास्ते परिचित तो हैं। चीजें दिखायी तो पड़ती हैं। फिर खोज शुरू कर देते हो।

भीतर, जो आदमी बाहर का आदी हो गया है, जब पहली दफा जाएगा तो अंधेरा पायेगा। ऐसे ही जैसे तुम भरी दोपहरी में बाहर चलकर घर आते हो, एकदम अंधेरा मालूम पड़ता है। बैठ जाओ थोड़ा। थोड़ी देर में आंखें अभ्यस्त होंगी। आंख प्रतिपल बड़ी और छोटी होती रहती है। कभी धूप से आकर आईने में आंख को देखना, तो तुम पाओगे कि आंख बड़ी छोटी हो गयी है। क्योंकि इतनी धूप भीतर नहीं ले सकती, तो छोटी हो जाती है। जब अंधेरे में बैठेते हो, तो आंख बड़ी होती है। जैसे कैमरे का लेंस काम करता है, वैसे ही आंख काम करती है। थोड़ी देर बैठते हो तो घर में जहां पहले अंधेरा मालूम पड़ा था, अंधेरा समाप्त हो जाता है, रोशनी मालूम पड़ने लगती है।

अगर कोई व्यक्ति अंधेरे में देखने का अभ्यास करता ही रहे, जैसा कि चोर कर लेते हैं, तो दूसरे के घर में जहां बिलकुल अंधेरा है–घर का मालिक भी जहां बिना चीजों से टकराये नहीं चल सकता–वहां भी अपरिचित चोर दूसरे के अंधेरे घर में बड़ी व्यवस्था से चल लेता है, न तो चीज गिरती है, न आवाज होती है। जिस घर में शायद कभी भी न आया हो! चोर की आंखों को अंधेरे का अभ्यास हो गया है। उसने धीरे-धीरे अंधेरे में देखने की पटुता पा ली है। उसकी आंखें अंधेरे से सामंजस्य कर ली हैं। धूप से आते हो घर, अंधेरा मालूम पड़ता है। ऐसे ही बाहर जन्मों-जन्मों से भटके हो, जब आंख बंद करते हो तो भीतर अंधेरा मालूम पड़ता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है।

कबीर और नानक और दादू गलत नहीं। हजार-हजार सूरज प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन थोड़ा अभ्यास!

ध्यान का अर्थ है, भीतर होने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, बाहर से हटने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, बाहर पर पर्दा डाल देने का अभ्यास। बाहर पर्दा डाला कि भीतर पर्दा उठा। भीतर पर्दा उठाने की और कोई तरकीब नहीं है, बस बाहर पर्दा डाल दो।

“जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट, वैसे समस्त धर्मों का मूल ध्यान।’

जैन-मुनि से पूछो ध्यान के संबंध में। वह भूल ही गया है। और सब साध लिया है, ध्यान बिलकुल भूल गया है। अहिंसा साधता है, अस्तेय साधता है, अचौर्य साधता है, ब्रह्मचर्य साधता है, सब साधता है, सिर्फ ध्यान भूल गया है। यह दुर्घटना कैसे घटी होगी? क्योंकि महावीर चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं सब धर्मों का मूल ध्यान है।

मेरे पास जैन-मुनि आते हैं, वे कहते हैं, कैसे ध्यान करें? तुम मुनि कैसे हुए? क्योंकि मुनि तो कोई हो ही नहीं सकता बिना ध्यान के! मुनि का अर्थ है, जिसका चित्त मौन हो गया। चित्त मौन कैसे होगा बिना ध्यान के? अब तुम पूछने आये हो कि ध्यान कैसा! कितने वर्षों से मुनि हो? कोई कहता है तीस वर्ष से मुनि हैं, कोई कहता चालीस वर्ष से मुनि हैं। तो तुम मुनि शब्द का अर्थ भी भूल गये। मुनि का अर्थ ही ध्यानी होता है–मौन! जिसके भीतर चित्त में अब तरंगें नहीं उठतीं विचार की। जो निर्विचार हुआ, निर्विकल्प हुआ।

मगर खयाल ही भूल गया है। मुनि शब्द का अर्थ ही भूल गया है। ध्यान तो ऐसा लगने लगा जैसे जैन-धर्म से ध्यान का कोई संबंध नहीं है। और जैन-धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़ा है। सभी धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़े हैं। और कोई उपाय ही नहीं। जैन-धर्म उसी दिन मरने लगा, जिस दिन ध्यान से संबंध छूट गया। अब तुम साधो अणुव्रत और महाव्रत, अब तुम साधो अहिंसा, लेकिन तुम्हारी अहिंसा पाखंड होगी। क्योंकि ऊपर से आरोपित होगी। भीतर से आविर्भाव न होगा।

ध्यानी अहिंसक हो जाता है। होना नहीं पड़ता। ध्यानी में महाकरुणा का जन्म होता है। अपने को जानकर दूसरे पर दया आनी शुरू होती है। क्योंकि अपने को जानकर पता चलता है कि दूसरा भी ठीक मेरे जैसा है। अपने को जानकर यह स्पष्ट अनुभव हो जाता है कि सभी सुख की तलाश कर रहे हैं, जैसे मैं कर रहा हूं। अपने को जानकर पता चलता है, जैसे दुख मुझे अप्रिय है, वैसा सभी को अप्रिय है। जिसने अपने को जान लिया, वह अगर अहिंसक न हो, असंभव! और जिसने अपने को नहीं जाना, वह अहिंसक हो जाए, यह असंभव!

कल मैं महर्षि महेश योगी के गुरु का जीवन-चरित्र पढ़ रहा था। ब्रह्मानंद सरस्वती का। वह युवा थे। प्रकट, प्रगाढ़ खोजी थे। गुरु की तलाश में थे। किसी व्यक्ति की खबर मिली कि वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, तो वह भागे हिमालय पहुंचे। वह आदमी मृगचर्म बिछाये, बिलकुल जैसा योगी होना चाहिए वैसा योगी दिखायी पड़ता था। प्रभावशाली आदमी मालूम पड़ता था। सशक्त, बलशाली! इस युवा ने–ब्रह्मानंद ने–पूछा कि महाराज! यहां कहीं आपकी झोपड़ी में थोड़ी अग्नि मिल जाएगी? अग्नि! हिंदू संन्यासी अग्नि नहीं रखते अपने पास। न अग्नि जलाते हैं। उन्होंने कहा, तुझे इतना भी पता नहीं है कि संन्यासी अग्नि नहीं छूते। फिर भी उस युवा ने कहा, फिर भी महाराज! शायद कहीं छिपा रखी हो। वह जो योगी थे, बड़े आग हो गये, बड़े नाराज हो गये, चिल्लाकर बोले कि नासमझ कहीं का! तुझे इतनी भी अकल नहीं कि हम और अग्नि चुराकर रखेंगे! क्या समझा है तूने हमें? तो ब्रह्मानंद ने कहा, महाराज! अगर अग्नि नहीं है, नहीं छुपायी, तो ये लपटें कहां से आ रही हैं? लपटें तो आ गयीं।

ऊपर से थोपकर कोई अभिनय कर सकता है। यह घटना मुझे प्रीतिकर लगी। अग्नि छुपाने का सूत्र भी इसमें साफ है। यह बाहर की अग्नि को छूने की बात नहीं, न बाहर की अग्नि रखने न रखने से कुछ फर्क पड़ता है, यह तो भीतर की आग संन्यासी न छुए। लेकिन ध्यान की जब तक वर्षा न हो जाए, भीतर की आग बुझती नहीं। जब तक ध्यान की रसधार न बहे, तब तक भीतर कुछ अंगारे-सा जलता ही रहता है, चुभता ही रहता है।

महावीर ने तो कहा कि मूल धर्म है–ध्यान। जिसने ध्यान साध लिया, सब साध लिया।

तो हम समझें, यह ध्यान क्या है? पहली बात, अंतर्यात्रा है। दृष्टि को भीतर ले जाना है। बाहर भागती ऊर्जा को घर बुलाना है। जैसे सांझ पक्षी लौट आता है, नीड़ पर, ऐसे अपने नीड़ में वापस, वापस आ जाने का प्रयोग है ध्यान।

जब सुविधा मिले, तब समेट लेना अपनी सारी ऊर्जा को संसार से–घड़ीभर को सही–सुबह, रात, जब सुविधा मिल जाए तब बंद कर लेना अपने को। थोड़ी देर को भूल जाना संसार को। समझना कि नहीं है। समझना कि स्वप्नवत है। अपने को अलग कर लेना। अपने को तो॰? लेना बाहर से। और अपने भीतर देखने की चेष्टा करना–कौन हूं मैं? मैं कौन हूं? यही एक प्रश्न। शब्द में नहीं, प्राण में। यही एक प्रश्न, बोल-बोल कर मंत्र की तरह दोहराना नहीं है, बोध की तरह भीतर बना रहे। एक प्रश्न-चिह्न खड़ा हो जाए भीतर अस्तित्व में–मैं कौन हूं?–और इसी प्रश्न के साथ थोड़ी देर रहना। एकदम से उत्तर न मिल जाएगा। और एकदम से जो उत्तर मिले, समझना कि थोथा है। एकदम से उत्तर मिल सकता है, वह उत्तर सीखा हुआ होगा। पूछोगे, मैं कौन हूं? भीतर से उत्तर आयेगा–तुम आत्मा हो। वह तुमने शास्त्र से पढ़ा है। इतनी सस्ती आत्मा नहीं है। किसी से सुन लिया है। भीतर से आयेगा–अहं ब्रह्मास्मि। वह उपनिषद में पढ़ लिया होगा, या सुन लिया होगा।

वर्षों की चेष्टा के बाद, वर्षों प्रश्न के साथ रहने के बाद–और प्रश्न के साथ रहने का अर्थ ही यह है कि तुम थोथे और उधार उत्तर स्वीकार मत करना, अन्यथा उत्तर फिर बाहर फेंक देगा। देख लेना कि ठीक है; यह कठोपनिषद से आता है, बिलकुल ठीक है; यह गीता से आता है, बिलकुल ठीक है; क्षमा कर गीता मैया! छोड़ पीछा! कुछ मुझे भी जानने दे! गीता बाहर है। असली गीता तो भीतर है। तुम्हारी गीता तो घटने को है, अभी घटी नहीं। अभी तुम्हारा महाभारत तो शुरू है। अभी तो तुम्हारा अर्जुन थका भी नहीं। अभी तो तुम्हारा अर्जुन कंपा भी नहीं। अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने गांडीव छोड़ा भी नहीं और कहा कि मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं। अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने प्रश्न ही नहीं पूछा, तो तुम्हारा कृष्ण बोले कैसे?

तो बाहर के कृष्ण और बाहर के अर्जुन को थोड़ा बाहर ही छोड़ देना। प्रश्न बनना, तो तुम अर्जुन बनोगे। और ध्यान रखना, जहां भी अर्जुन प्रगट होता है, वहां कृष्ण प्रगट हो ही जाएंगे। जहां प्रश्न है, वहां उत्तर आयेगा ही। तुम प्रश्न भर पैदा कर लो, लेकिन प्रश्न सच्चा हो, प्रगाढ़ हो, ज्योतिर्मय हो। तुम अपने को दांव पर लगाने को तैयार होओ। अर्जुन ने ऐसे ही पूछा होता–काम चलाऊ; ऐसे ही कृष्ण को प्रभावित करने के लिए, देखो मैं कितना धार्मिक हुए जा रहा हूं–अर्जुन ने ऐसे ही पूछा होता कि चलो, क्या हर्ज है, कृष्ण को भी तृप्ति मिल जाएगी कि कैसा महान शिष्य मेरा, कैसा महान साथी! अर्जुन कोई अभिनय नहीं कर रहा था। वही तो गीता का यथार्थ है। वस्तुतः उसके प्राण कंप गये देखकर।

तुमने अगर आंख खोलकर जगत को देखा है, तुम्हारे प्राण भी कंपने चाहिए। तुमने अगर गौर से देखा, तो युद्ध-पंक्तियां बंधी खड़ी हैं। हजारों तरह का युद्ध चल रहा है, संघर्ष चल रहा है, हिंसा हो रही है। तुम उसमें भागीदार हो। अर्जुन को इतना ही तो दिखायी पड़ा कि कम से कम मैं तो अलग हो ही जाऊं; जो हो रहा है, हो। कम से कम यह दाग मेरे उपर तो न पड़े। वह थककर बैठ गया। उसने कहा, मैं भाग जाऊं। छोड़ दूं सब। कुछ सार नहीं। इतनी मृत्यु! इतनी हिंसा! मिलेगा क्या? राज-सिंहासन पर बैठ जाऊंगा तो क्या होगा? इतनी लाशों के ऊपर राज-सिंहासन रखा जाएगा? नहीं, यह प्रतिस्पर्धा, यह प्रतियोगिता मेरे काम की नहीं। उस घड़ी तैयारी बनी। उस घड़ी जिज्ञासा उठी और यह जिज्ञासा कुतूहल न थी। यह ऐसे ही पूछ लिया प्रश्न न था चलते-चलते। इसके पीछे गहरे प्राण दांव पर लगाने की तैयारी थी। तुम अभी अर्जुन नहीं बने, तुम्हारी गीता पैदा नहीं हो सकती।

तो जब बाहर की गीता उत्तर देने लगे, कहना कि महाराज, हे कृष्ण महाराज, तुम बाहर रहो! अभी मुझे प्रश्न को जीने दो, अभी अर्जुन पैदा नहीं हुआ, तुम समय के पहले आ गये। उधार जो तुमने सीख लिया हो, बुद्धि में जो इकट्ठा कर लिया हो कूड़ा-कर्कट सब तरफ से बटोरकर, उसे बाहर रख देना।

ध्यान की प्रक्रिया थोथे ज्ञान से मुक्त होने की प्रक्रिया है। और जब कोई थोथे ज्ञान से मुक्त हो जाता है, तो वास्तविक का जन्म होता है। शायद वास्तविक तो मौजूद ही है, थोथे के कारण पता नहीं चलता।

एक बौद्ध भिक्षु हुआ–आर्य असंग। बड़ा बहुमूल्य भिक्षु हुआ। उसके जीवन में बड़ी अनूठी कथा है। नालंदा में आचार्य था। फिर समझ आयी संसार की व्यर्थता की तो सब छोड़कर चला गया। तय कर लिया कि अब तो ध्यान में ही डूबूंगा, हो गया ज्ञान बहुत। जान लिया सब, और जाना तो कुछ भी नहीं। पढ़ डाले शास्त्र सब, हाथ तो कुछ भी न आया। छोड़कर पहाड़ चला गया। एक गुफा में बैठ गया। तीन साल अथक ध्यान किया। लेकिन कहीं मंजिल करीब आती मालूम न पड़ी।

हतोत्साह, हताशा से भरा गुफा से बाहर निकल आया। सोचा लौट जाऊं। तभी उसने क्या देखा कि एक चिड़िया वृक्षों से पत्ते तोड़त्तोड़कर लाती है, पत्ते गिर-गिर जाते हैं, घोंसला बनता नहीं; मगर फिर चली जाती है, फिर ले आती है, फिर चली जाती है, फिर ले आती है। उसने सोचा क्या इस चिड़िया से भी कमजोर है मेरा साहस और मेरी आशा और मेरी आस्था? घोंसला बन नहीं रहा है, लेकिन इसकी कहीं भी आशा नहीं टूटती, हताशा नहीं आती। वह फिर वापस गुफा में चला गया। तीन साल तक कहते हैं, फिर उसने हिम्मत करके ध्यान किया। कुछ न हुआ। सब श्रम लगा दिया, लेकिन कुछ न हुआ। फिर घबड़ाकर एक दिन बाहर आ गया और कहा, अब बहुत हो गया!

फिर उस वृक्ष के नीचे बैठा था कि देखा एक मकड़ी जाला बुन रही है। गिर-गिर जाती है, जाले का धागा सम्हलता नहीं, फिर-फिर बुनती है। फिर उसे खयाल आया कि आश्चर्य की बात है, ऐसी चीजें मुझे बाहर आते ही से दिखायी पड़ जाती हैं। अभी मकड़ी भी नहीं हारी, मैं क्यों हारूं? एक बार और कोशिश कर लूं। कहते हैं, वह फिर तीन साल ध्यान किया। कुछ न हुआ। बहुत परेशान हुआ। अब उसने सोचा, अब बाहर निकलूंगा पता नहीं फिर कुछ हो जाए, तो अब की दफे आंख बंद करके ही चले जाना है। अब कुछ भी हो रहा हो बाहर–मकड़ी हो कि चिड़िया हो कि कुछ भी हो, परमात्मा कोई भी इशारे दे, अब बहुत हो गया, नौ साल कोई थोड़ा वक्त नहीं, सारा जीवन गंवा दिया!

वह आंख बंद करके भागा। वह जैसे ही पहाड़ से नीचे उतर रहा था, उसने देखा एक कुतिया, उसकी पीठ सड़ गयी है, उसमें कीड़े पड़ गये हैं–वह उसे दिखायी पड़ी। उससे न रहा गया। बैठा, उसके कीड़े अलग किये, जब वह उसके घाव धो रहा था, तभी ध्यान घटा। जो नौ साल में नहीं घटा था, वह घटा। अचानक, जैसे कुछ गहन में भीतर खींचे लिये चला गया। आंख बंद हो गयीं, वह भीतर पहुंच गया। जिसकी तलाश थी, वह रोशनी सामने खड़ी है। जिसकी तलाश थी, वह बुद्धत्व खिला। उसने कहा, हे प्रभु! इतने दिन तक खोजता था–नौ वर्ष अथक श्रम किये, तब तुम न दिखायी पड़े, तब यह रोशनी न मिली, अब! तो कहते हैं उस रोशनी से उत्तर आया कि मैं तो तब भी तेरे ही भीतर था, लेकिन तेरे ध्यान की चेष्टा बड़ी अहंकार-पूर्ण थी। तेरा अहंकार बाधा बन रहा था। इस कुतिया के घाव धोते वक्त एक क्षण को तेरा अहंकार मौजूद न रहा। करुणा हो, तो अहंकार मौजूद नहीं रहता। प्रेम हो, तो अहंकार समाप्त हो जाता है। मैं तो सदा से तेरे पास था–नौ महीने से भी और नौ सालों से भी, नौ जन्मों से भी । मैं तो भीतर था ही, मैं तेरा स्वभाव हूं, लेकिन तू भीतर नहीं आ पाता था। ध्यान भी कर रहा था तू, तो उसमें अकड़ थी–मैं पाकर रहूंगा। वह अहंकार की उदघोषणा थी।

भीतर जाना है जिन्हें उन्हें बाहर की दौड़ छोड़नी है। और बाहर की दौड़ का जो सूक्ष्म सूत्र है–अहंकार–वह भी तोड़ना है। स्वयं को मिटाये बिना कोई ध्यान को उपलब्ध नहीं होता। और स्वयं को मिटाये बिना कोई स्वयं को उपलब्ध नहीं होता। यह जिसको हमने अभी स्वयं समझा है, जिसको अभी हम कहते हैं–”मेरा’, “मैं’, यह हमारी आत्मा नहीं है। यह आत्मा ही होती, तो हम परम आनंद से भर गये होते। यह अहंकार है।

अहंकार का अर्थ है, यह हमने बाहर से इकट्ठा किया है। किसी स्कूल में “गोल्ड मेडल’ मिल गया था, वह जुड़ गया। किसी अखबार में नाम छप गया था, वह काटकर चिंदी जोड़ ली। कोई आदमी ने हंसकर कह दिया कि तुम बड़े सुंदर हो, वह भी जोड़ लिया। किसी ने कहा कि तुम बड़े त्यागी हो, किसी ने कहा तुम बड़े सच्चरित्र हो, कहीं “पद्मश्री’ मिल गयी, कहीं “भारतरत्न’ हो गये, इस तरह के सब पागलपन इकट्ठे कर लिये, उन सबको जोड़कर अहंकार की थेगड़ी बनाकर बैठ गये हैं।

तुम जरा कभी सोचना कि “मैं कौन हूं’, तो जो भी उत्तर आयें तुम हैरान होओगे, ये बाहर से दिये गये उत्तर हैं। कोई तुम्हारी मां ने दिया था, कोई तुम्हारे पिता ने, कोई तुम्हारे मित्र ने, कोई तुम्हारी पत्नी ने, कोई तुम्हारे शत्रु ने, कोई अपनों ने, कोई परायों ने। इन सबको इकट्ठा कर के तुमने एक घास-फूस की झूठी प्रतिमा खड़ी कर ली है। और निश्चित ही यह प्रतिमा प्रतिपल घबड़ायी रहती है, क्योंकि यह बिलकुल झूठी है। यह कभी भी गिर सकती है और बिखर सकती है। इसमें कोई बल नहीं है, कोई प्राण नहीं है।

ध्यान का अर्थ है, पहले बाहर से भीतर मुड़ना। और भीतर जाते वक्त तुम पाओगे दरवाजे पर अड़ा हुआ ताला। वह ताला है अहंकार का।

“जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो गया, उसके चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है।’

“जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है।’ नमक की डली पानी में डालते ही खो जाती है। विलीन हो जाती है। ऐसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प ध्यान में लीन हो गया, जिसने बाहर को छोड़ा, बाहर से बने हुए प्रतिबिंबों के अहंकार को छोड़ा, निर्विकल्प हुआ, निशल्य हुआ, अपने एकांत में ठहरा, तत्क्षण जन्मों-जन्मों की चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों की जो राशि है, वह विलीन हो जाती है।

महावीर बड़ी क्रांतिकारी घोषणा कर रहे हैं। वह कह रहे हैं, जन्मों-जन्मों की कर्म की शृंखला को मिटाने के लिए यह मत सोचना कि जन्म-जन्म लगेंगे अब शुभ कर्म करने में, एक-एक कर्म को काटना पड़ेगा। तब तो असंभव हो जाएगा। क्योंकि हम कितने अनंत काल से कर्म करते रहे। अगर एक-एक कर्म को काटना पड़े, तो अनंत काल लग जाएगा। तब तो मुक्ति असंभव है।

महावीर कहते हैं, एक क्षण में भी घट सकती है घटना, त्वरा चाहिए, तीव्रता चाहिए; अग्नि की प्रगाढ़ता चाहिए–एक क्षण में सारा अतीत भस्म हो सकता है। और तुम ऐसे ताजे हो सकते हो, जैसे तुम पहले क्षण जन्मे, जैसे इसके पहले तुम कभी थे ही नहीं। तुम्हारा सारा इतिहास ध्यान की एक गहरी झलक में विलीन हो सकता है, विदा हो सकता है। जन्मों-जन्मों की जमी धूल तुम्हारे दर्पण पर, हवा के एक झोंके में बिखर सकती है। झोंका बलशाली चाहिए!

ध्यान एक मशाल बने। दोनों छोरों से जले।

जर्मनी की एक बहुत विचारशील महिला रोज़ा लक्ज़ेंबर्ग कहती थी कि मैंने एक ही बात जीवन में पायी कि अगर तुम अपनी मशाल को दोनों तरफ से एक-साथ जलाओ, त्वरा से जीओ, सघनता से जीओ, तो परमात्मा दूर नहीं। हम ढीले-ढीले जीते हैं, सुस्त-सुस्त जीते हैं–कुनकुने-कुनकुने–कभी वह घड़ी नहीं आती जहां हमारा जल वाष्पीभूत हो जाए। हम लंबा जीना चाहते हैं, गहरा नहीं जीना चाहते। हम आशीर्वाद देते हैं कि सौ साल जीओ। सौ साल जीने से क्या होगा! जैसे मुर्दे की तरह जी रहे हो, ऐसे हजार साल भी जीओ तो कोई सार नहीं है। यह आशीर्वाद भ्रांत है। यह आशीर्वाद शुभ नहीं है। सौ साल जीने से क्या लेना! एक दिन भी जीओ, लेकिन जीओ! ऐसे सौ साल घसिटने से क्या होगा?

अब एक रात अगर कम जीये, तो कम ही सही

यही बहुत है कि हम मशालें जला के जीये

इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितनी देर जीये! कितने गहरे जीये…!

ध्यान रखना, बाहर की तरफ जानेवाला व्यक्ति मात्रा और परिमाण पर जोर देने लगता है–सौ साल जीये। भीतर जानेवाला व्यक्ति कहता है, जीओ चाहे एक क्षण, लेकिन ऐसी परिपूर्णता से जीओ, ऐसी समग्रता से जीओ कि उस एक क्षण में शाश्वतता समाविष्ट हो जाए। और एक क्षण में शाश्वत समाविष्ट हो जाता है। एक छोटा-सा क्षण अनंत काल बन सकता है। सवाल गहराई का है। लंबाई का नहीं।

ऐसा समझो कि एक आदमी पानी में तैर रहा है। ऐसा तैरता चला जाता है एक किनारे से दूसरे किनारे, यह एक ढंग है। यह हम सबका ढंग है। सतह पर तैरने का। और एक आदमी डुबकी लगाता है, पानी में गहरे जाता है। गहराई में जाना ध्यान है, सतह पर तैरते रहना संसार है। सतह पर तैरनेवाले राजनीति में हैं। गहरे जानेवाले धर्म में।

“पानी का योग पाकर नमक जैसे विलीन हो जाता है, ऐसे ही निर्विकल्प समाधि में…।’

निर्विकल्प समाधि का अर्थ है, जब ध्यान सध गया। जब ध्यान अभ्यास न रहा, सिद्धि हो गयी। जब तुम्हारे भीतर निर्विचार रहना तुम्हारी सहज संपदा हो गयी–तुम जब चाहो तब आंख बंद करके निर्विचार हो गये। पहले तो बड़ा कठिन होगा। पहले तो उलटी हालत हो जाएगी। जब आंख बंद करोगे, विचारों का हमला होगा। उससे भी ज्यादा–दुकान पर बैठकर जितना नहीं होता उतना मंदिर में होता है, कभी खयाल किया? दुकान पर बैठकर काम में लगे रहते हो, उलझे रहते हो विचारों का कोई खास हमला पता नहीं चलता है। लेकिन मंदिर में जाकर बैठते हो कि चलो घड़ीभर शांति से बैठें, आंख बंद की कि न मालूम कहां-कहां के विचार खड़े हो जाते हैं। संगत-असंगत; अच्छे-बुरे; सार्थक-व्यर्थ; जिनसे कुछ भी नहीं लेना-देना, वे सब सिर उठाने लगते हैं। क्या हो जाता है?

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं जब ध्यान करते हैं, तब विचार और ज्यादा आते हैं। इससे तो बिना ध्यान में कम आते हैं। बिना ध्यान में कम आते हैं, क्योंकि जब तुम बिना ध्यान में हो, तब तुम्हारा मन कहीं संलग्न होता है, कहीं लगा होता है। तो जिस तरफ तुम संलग्न हो, उसी सीमा से बंधे हुए विचार, उसी दिशा से बंधे हुए विचार आते हैं। जब तुम ध्यान में बैठे हो–असंलग्न, अव्यस्त–तो सभी दिशाओं से विचार आते हैं। तब तुम घबड़ा जाते हो। ध्यान लगता नहीं। शुरू-शुरू में यह स्वाभावकि है। बहुत-से विचार तुम्हारे भीतर पड़े हैं, जो तुमने दबा रखे हैं, वह उभरेंगे। इसलिए पहले ध्यान में रेचन होगा। सब कूड़ा-कबाड़ उठेगा। जैसे वर्षों तक किसी ने घर को बुहारा न हो, फिर एक दिन घर में आये तो धूल उठने लगे। धूल की पर्तें की पर्तें जमी हैं। हां, बाहर बैठे रहो, पोर्च में, तो भीतर सब शांति है, कोई धूल नहीं उठती। भीतर जाओ, तो धूल उठती है। ऐसे ही जन्मों-जन्मों तक हमने विचार की धूल को जमने दिया है–भीतर गये नहीं, बुहारी लगायी नहीं। भीतर कभी वर्षा होने न दी, स्नान होने न दिया, अब जब भीतर जाएंगे तो जन्मों-जन्मों का कचरा उठेगा।

इसकी सफाई करनी होगी। और जब कोई सफाई करता है, तो धूल बड़े जोर से उठती है। ऐसे ही ध्यान में विचार बड़े जोर से उठते हैं। लेकिन यह तो संक्रमण की बात है। सफाई हो जाएगी, विचार चले जाएंगे।

अगर कोई व्यक्ति शांतिपूर्वक प्रयोग करता जाए, तो धीरे-धीरे-धीरे कुछ करना नहीं होता, सिर्फ अपने विचारों के साक्षी-भाव बने रहने से; साक्षी, द्रष्टा बने रहने से; देखते रहो–अलिप्त–ठीक है, विचार आते हैं, जाते हैं; देखते रहो, आने भी दो, जाने भी दो; न रोको, न धकाओ; रस मत लो; विरस, उदासी, तटस्थ; जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं; ऐसे देखते-देखते तुम पाओगे कि धीरे-धीरे अंतराल भी आने लगे। कुछ क्षण आ जाते हैं जब कोई विचार नहीं होता। उन्हीं अंतरालों में पहली दफा बदलियां छंटेंगी, सूरज की रोशनी उतरेगी। उन्हीं अंतरालों में पहली दफा निर्विकल्पता के थोड़े-थोड़े अनुभव होंगे–छोटे-छोटे, क्षणभंगुर–लेकिन वे क्षण बहुमूल्य हैं। जिन्होंने उन क्षणों को जान लिया, समझो कि उन्होंने स्वर्ग की यात्रा कर ली। थोड़ी देर को सही, लेकिन किसी और लोक में प्रवेश कर गये। फिर क्षण बड़े होने लगते हैं। धीरे-धीरे विचारों से छुटकारा होता चला जाता है। विचार दूर होते चले जाते हैं। और व्यक्ति अपने में लीन होता चला जाता है। इस लीनता को कहते हैं, निर्विकल्प। इस स्थिति को कहते हैं, समाधान, समाधि। और तब चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है।

“जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं हैं तथा मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रगट होती है।’

ध्यान अग्नि है। क्योंकि जलाती है कचरे को। क्योंकि जलाती है व्यर्थ को, और असार को। ध्यान अग्नि है, क्योंकि जलाती है अहंकार को। ध्यान मृत्यु जैसी है। क्योंकि मारती है तुम्हें–तुम जैसे अभी हो, और जन्माती है उसे–जैसे तुम होने चाहिए। तुम्हारे भविष्य को प्रगट करती है, तुम्हारे अतीत को विदा करती है। तुम्हें संसार की पकड़ के बाहर ले जाती है और परमात्मा की सीमा में प्रवेश देती है। ध्यान के इस द्वार से खोज करनी है अपने असली स्वरूप की।

तुम कहां से आ रहे हो, नाम क्या है?

वह पुकारूं शब्द मत मुझको बताओ

जो तुम्हारा आवरण है।

पर कहो वह नाम

जिसको फूल और नक्षत्र ये कहते नहीं

नाम जो असहाय, मर जाता उसी दिन

जिस दिवस हम भूमितल पर जन्म लेते हैं

झेन फकीर कहते हैं कि बताओ अपना मौलिक चेहरा–वह चेहरा, जब तुम पैदा नहीं हुए थे तब तुम्हारा था। वह चेहरा, जब तुम मर जाओगे तब भी तुम्हारा होगा–बताओ वह मौलिक चेहरा। अभी तो हम जो चेहरे रखे हुए हैं, ये सब ओढ़े हुए चेहरे हैं।

तुम कहां से आ रहे हो,

नाम क्या है?

वह पुकारूं, शब्द मत मुझको बताओ

जो तुम्हारा आवरण है।

कोई को हम कहते हैं राम, किसी को कृष्ण, किसी को कुछ, किसी को कुछ। यह तो पुकारू नाम है। तुम जब आये थे, तो कोई नाम लेकर न आये थे। तुम जब आये थे, तब खाली, अनाम आये थे। तुम जब आये थे, तब कोई लेबिल तुम पर लगा न था। न हिंदू थे, न मुसलमान थे, न जैन थे, न ईसाई थे। तुम जब आये थे, तब न सुंदर थे, न कुरूप थे। तुम जब आये थे, न बुद्धू थे, न बुद्धिमान थे। तुम जब आये थे, तब कोई विशेषण न लगा था। विशेषण-शून्य। तुम कौन थे तब?

ध्यान में उसकी फिर से खोज करनी है। ध्यान में फिर उस जगह को छूना है, जहां से संसार शुरू हुआ है, जहां से समाज शुरू हुआ; जहां तुम्हें नाम दिया गया, विशेषण दिये गये; शिक्षा दी गयी, संस्कार दिये गये; तुम्हें एक रूप, ढांचा दिया गया; उस ढांचे के पार कौन थे तुम? एक दिन मृत्यु आयेगी, यह देह छिन जाएगी। जब तुम्हारी चिता पर जलेगी यह देह, तो अग्नि इसकी फिकिर न करेगी–हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो; सिक्ख, ईसाई, कौन हो? सुंदर हो, कुरूप; स्त्री हो, पुरुष; धनी हो, गरीब हो, अग्नि कोई चिंता न करेगी, बस भस्मीभूत ही कर देगी। मिट्टी तुम्हें अपने में मिला लेगी। तब तुम कौन बचोगे? जो तुमने इस संसार में जाना और माना था, वह सब तो फिर छिन जाएगा। उस सबके छिन जाने के बाद भी जो बच जाता है, वही हो तुम।

ध्यान में हम उसी की खोज करते हैं, जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा। तो ध्यान का अर्थ हुआ–किसी भांति इन सारी समाज के द्वारा दी गयी संस्कार की पर्तों को पार कर के अपने स्वभाव को पहचानना है। स्वभाव को पहचान लेना ध्यान है। इसलिए महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है। वत्थू सहावो धम्मं। वस्तु के स्वभाव को जान लेना धर्म है। तुम्हारा जो स्वभाव है, उसको जान लेना तुम्हारा धर्म है। जैन और हिंदू और मुसलमान नहीं, तुम कौन हो इसे पहचान लेना धर्म है।

तुम जवानी हो

कि शैशव

आप अपना पाठ फिर दोहरा रहा है?

जिंदगी हो,

या सुनहला रूप धर कर

मृत्यु विचरण कर रही है?

कौन हो तुम? क्या है तुम्हारा नाम? कहां से आते हो? कहां को जाते हो? तो एक तो हमारे ऊपर पड़ी हुई पर्तें हैं, कंडीशनिंग, संस्कार। इन पर्तों की गहरी गहराई में कहीं हमारा स्वरूप दब गया है। जैसे हीरे पर मिट्टी चढ़ गयी हो। मिट्टी पर मिट्टी चढ़ती चली गयी हो। हीरा बिलकुल खो गया हो। फिर भी खो तो नहीं जाता, मिट्टी हीरे को मिटा तो नहीं सकती, दब जाता है।

महावीर कहते हैं, आत्मा सिर्फ दब गयी है। ध्यान से उस दबे तक कुआं खोदना है। अपने भीतर सारी पर्तों को तोड़कर उस जगह पहुंचना है जहां तोड़ने को कुछ भी न रह जाए।

ऐसा समझो कि जो दूसरों ने तुम्हें बताया है कि तुम हो, वही छोड़ना है, वही बाधा है। स्वयं मैं कौन हूं, जानने के लिए वह सब छोड़ देना होगा, जो दूसरों ने तुम्हें बताया है कि तुम हो। दूसरों को अपना पता नहीं, तुम्हारा क्या पता होगा? दूसरों को तुम्हारा कोई पता नहीं है। नाम दे दिया है, क्योंकि नाम के बिना काम नहीं चलता। कोई नाम तो चाहिए। तो एक लेबिल लगा दिया है। सुविधा हो गयी। पुकारने में व्यवस्था हो गयी। चिट्ठी-पत्री लिखने के लिए आसानी हो गयी। एक पता-ठिकाना बना लिया है। यह सब कृत्रिम है। यह स्वभाव नहीं है। अगर तुम जंगल में रखे गये होते और किसी ने तुम्हारा नाम न पुकारा होता, तो तुम्हारे पास कोई नाम होता? तुम्हारे पास कोई नाम न होता। अगर तुम जंगल में पाले गये होते और किसी ने तुम्हें बताया न होता कि तुम हिंदू हो, कि मुसलमान, कि जैन, तो तुम कौन होते? न तुम हिंदू होते, न मुसलमान होते, न जैन होते। अगर तुम जंगल में पाले गये होते और कोई तुमसे कहता नहीं कि तुम सुंदर हो कि असुंदर, तो तुम कौन होते? सुंदर होते कि असुंदर होते? कोई तुमसे कहता नहीं कि बुद्धू हो कि बुद्धिमान, तो तुम कौन होते? यह सब तो सिखावन है। सिखावन की पर्तों को तोड़कर…तो ध्यान है कुदाली, खोद देना है सारे संस्कारों को, पहुंच जाना है जलस्रोत तक। जैसे ही तुम जलस्रोत तक पहुंचे कि एक अभिनव जगत का आविर्भाव होता है। पहली दफा अपने पर आंख पड़ती है। पहली दफा भराव आता है। पहली दफा परितृप्ति, परितोष।

सलिल कण हूं कि पारावार हूं मैं

स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं

बंधा हूं, स्वप्न हैं, लघु वृत्त में हूं

नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं

यह जो बंधन है तुम्हारे ऊपर–

बंधा हूं, स्वप्न हैं, लघु वृत्त में हूं

तो एक छोटी-सी सीमा बन गयी है,

नहीं तो व्योम का विस्तार हूं मैं

नहीं तो आकाश-जैसे बड़े हो तुम।

सलिल कण हूं कि पारावार हूं मैं

स्वयं छाया, स्वयं आधार हूं मैं

समाना चाहती जो बीन उर में

विकल वह शून्य की झंकार हूं मैं

भटकता खोजता हूं ज्योति तम में

सुना है ज्योति का आगार हूं मैं

लेकिन कब तक सुनोगे? जानोगे कब?

सुना है ज्योति का आगार हूं मैं

सुना है कि परमात्मा हूं। सुना है कि आत्मा हूं। सुना है कि मोक्ष मेरे भीतर बसा है–

सुना है ज्योति का आगार हूं मैं

जानोगे कब? ध्यान जानने की प्रक्रिया है।

लवण व्व सलिलजोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स।

तस्स सुहासुहडहणो, अप्पाअणलो पयासेइ।।

“जैसे नमक गल जाए, ऐसे ध्यान की अग्नि में सब अतीत कर्म जल जाते हैं।’

जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिक्कमो।

तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी।।

“और उस आग में समस्त शुभ-अशुभ कर्मों का विनाश हो जाता है। जहां न राग बचते हैं, न द्वेष बचते हैं, मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं बचता।’

इसको खयाल में ले लेना, यह ध्यान की अनिवार्य शर्त है। “मन-वचन-काया रूप व्यापार का न रह जाना।’

यह महावीर के ध्यान की पद्धति का अनिवार्य हिस्सा है। ध्यान की बहुत पद्धतियां हैं। महावीर की अपनी विशिष्ट पद्धति है। उसका पहला सूत्र है: मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं रह जाए।

जब तुम ध्यान करने बैठो, तो पहली चीज महावीर कहते हैं: शरीर थिर हो, कंपे न। इसके पीछे बड़ा विज्ञान है। क्योंकि शरीर और मन जुड़े हैं। जब शरीर कंपता है, तो मन भी कंपता है। जब मन कंपता है, तो शरीर भी कंपता है। तुमने देखा, जब क्रोध से भर जाते हो, तो हाथ-पैर कंपने लगते हैं। मन कंपा, शरीर कंपा। जब तुम भय से भर जाते हो, तो हाथ-पैर कंपित होने लगते हैं। मन कंपा, शरीर कंपा। जब तुम्हारा शरीर रुग्ण होता है, कंपता है, तो मन भी दीनऱ्हीन हो जाता है। तो मन भी साहस खो देता है, आत्मविश्वास खो देता है, हीनग्रंथि से भर जाता है। शरीर और मन एक-दूसरे पर निरंतर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। शरीर स्वस्थ होता है, तो मन भी स्वस्थ होता है। मन स्वस्थ होता है, तो शरीर भी स्वस्थ होता है।

वैज्ञानिक तो कहते हैं कि मन और शरीर दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो पहलू हैं। और ठीक कहते हैं। पश्चिम में तो विज्ञान ने शरीर और मन ऐसा कहना ही बंद कर दिया, उन्होंने एक ही शब्द बना लिया: मनोशरीर। दो कहना ठीक नहीं, एक ही है।

महावीर को यह प्रतीति साफ रही होगी। इसलिए पहली बात वह कहते हैं–जब ध्यान में बैठो, तो शरीर को बिलकुल थिर कर लो। कभी कोशिश करना। जैसे-जैसे शरीर थिर होगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे मन भी शांत होने लगा। फिर इसके बाद वचन को थिर करना। विचार को। शरीर को पहले, क्योंकि वह सब से स्थूल है। फिर विचार की तरंगों को धीरे-धीरे शांत करना। कहना, शांत हो जाओ। फिर जब मन-काया और वचन, तीनों शांत होने लगें–पहले काया, फिर वचन, फिर मन–मन का अर्थ है, सूक्ष्म तरंगें, जो अभी विचार भी नहीं बनीं। जिसको फ्रायड अनकांशस कहता है। जिसको फ्रायड कांशस माइंड कहता है, उसको महावीर वचन कहते हैं।

जो तुम्हारे भीतर विचार के तल पर आ गया, प्रगट हो गया, वह विचार–वचन। और जो अभी अप्रगट है, प्रगट होने के रास्ते पर है, अभी तैयार हो रहा है, अभी गर्भ में छिपा है–वह मन। सबसे ज्यादा प्रगट शरीर है, उससे कम प्रगट विचार है, उससे भी कम प्रगट मन है। क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की तरफ चलना और एक-एक को थिर करते जाना। जब इन तीनों का व्यापार नहीं रह जाता, तो जो घटना घटती है, उसका नाम ध्यान। “राग और द्वेष और मोह नहीं।’ राग, द्वेष, मोह बाहर की यात्रा पर हैं। भीतर तो तुम अकेले हो, किससे करो राग? किससे करो द्वेष? किससे करो मोह? भीतर तो तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं। तो अपने आप राग, द्वेष, मोह क्षीण हो जाते हैं। ध्यान की घड़ी में न तुम्हारा कोई अपना होता है, न पराया होता है। ध्यान की घड़ी में न तुम्हारा कोई परिग्रह होता है। ध्यान की घड़ी में तुम्हारी कोई मालकियत नहीं रह जाती है। और मजा यही है कि ध्यान की घड़ी में तुम पहली दफा मालिक होते हो। मालकियत कोई भी नहीं रह जाती, साम्राज्य सब खो जाता है और तुम सम्राट होते हो।

स्वामी रामतीर्थ अपने को बादशाह कहा करते थे। पास कुछ था नहीं। जब अमरीका गये, तो वहां भी वह अपने को बादशाह ही कहते थे। कहते हैं अमरीकी प्रेसीडेंट उनको मिला था तो उसने पूछा, और सब तो ठीक है, लेकिन आपकी बादशाहत समझ में नहीं आती। लंगोटी को छोड़कर आपके पास कुछ भी नहीं, आप कैसे बादशाह! राम तो बोलते थे तो भी वह कहते कि “बादशाह राम’ ऐसा कहता है। उन्होंने किताब लिखी: “बादशाह राम के छह हुक्मनामे।’ राम हंसने लगे। उन्होंने कहा कि इसीलिए तो मैं बादशाह हूं कि मेरे पास कुछ भी नहीं। जिनके पास कुछ है, उन्हें चिंता होती है। जिनके पास कुछ है, उन्हें फिक्र होती है। जिनके पास कुछ है, वह उस कुछ के गुलाम होते हैं। मैं बादशाह इसीलिए तो हूं कि मैं किसी का गुलाम नहीं, मेरे पास कुछ भी नहीं। पता नहीं अमरीकी प्रेसीडेंट को समझ में आयी यह बात, या नहीं आयी। शायद ही आयी हो! क्योंकि राजनीतिज्ञ को धर्म की बात शायद ही समझ में आये।

धर्म और राजनीति विपरीत दिशाएं हैं। राजधानी की तरफ जाना हो तो तीर्थ कभी न पहुंच सकोगे। तीर्थ जाना हो, तो राजधानी की तरफ पीठ कर लेना।

धर्म और राजनीति विपरीत हैं। एक दफा पापी भी पहुंच जाए स्वर्ग, राजनीतिज्ञ–संदिग्ध है बात!

मैंने सुना है, एक दफा स्वर्ग के द्वार पर दो आदमी साथ-साथ पहुंचे–एक फकीर और एक राजनीतिज्ञ। द्वार खुला, फकीर को तो बाहर रोक दिया द्वारपाल ने, राजनीतिज्ञ को बड़े बैंडबाजे बजाकर भीतर लिया। बड़े फूलहार, स्वागतद्वार! फकीर बड़ा चिंतित हुआ। उसने कहा यह तो हद्द हो गयी अन्याय की! वहां भी यही आदमी जमीन पर भी हार लेता रहा, हम सोचते थे कि कम से कम स्वर्ग में तो हमें स्वागत मिलेगा, सांत्वना थी, वह भी गयी। यहां भी इस आदमी को फिर अंदर पहले लिया गया, मुझे कहा कि रुको बाहर। यह कैसा स्वर्ग है! यहां भी राजनीतिज्ञ ही चला जा रहा है! बड़े फूल बरसाये, दुदुंभी बजी।

जब सब शोरगुल बंद हो गया, तब फिर द्वार खुला और द्वारपाल ने कहा, अब आप…आप भी भीतर आ जाएं। उसने सोचा कि शायद मेरे लिए भी कोई इंतजाम होगा, लेकिन वहां कोई नहीं था; न बैंड, न बाजा। वह थोड़ा चकित हुआ। उसने कहा, क्षमा करें, लेकिन यह मामला क्या है? हम जिंदगीभर परमात्मा की पूजा और प्रार्थना में लगे रहे, और यह स्वागत! और यह आदमी कभी भूलकर भी परमात्मा का नाम न लिया! तो उस द्वारपाल ने कहा, तुम समझे नहीं। तुम्हारे जैसे फकीर तो सदा से आते रहे, राजनीतिज्ञ पहली दफा आया है। और फिर सदियां बीत जाएंगी फिर शायद कभी आये! वह तो आता ही नहीं, इधर कभी आने का मौका ही नहीं मिलता।

बाहर का जगत है, वहां राग है, द्वेष है, स्पर्धा है। मोह है। मित्र हैं, शत्रु हैं। भीतर के जगत में तुम बिलकुल अकेले हो। शुद्ध एकांत है। उस शुद्ध एकांत में राग-द्वेष खो जाते हैं। मोह खो जाता। लेकिन तुम्हें ये शर्तें पूरी करनी पड़ें–काया, वचन, मन। इन तीनों को थिर करना पड़े। इस चेष्टा में लग जाओ। यह चेष्टा शुरू में बड़ी कठिन होती है। ऐसे जैसे आंखें कमजोर हों और कोई आदमी सुई में धागा डाल रहा हो। बस ऐसी ही कठिनाई है। आंखें हमारी कमजोर हैं। दृष्टि हमारे पास नहीं है, हाथ कंपते हैं। सुई में धागा डाल रहे हैं, कंप-कंप जाता है। सुई का छेद छोटा है, धागा पतला है। मगर अगर चेष्टा जारी रहे, तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों धागा पिरोया जा सकता है। कठिन होगा, असंभव नहीं।

और महावीर कहते हैं, जिस सुई में धागा पिरो लिया गया, वह गिर भी जाए तो खोती नहीं। और जिस सुई में धागा नहीं पिरोया है, वह अगर गिर जाए तो खो जाती है।

यह ध्यान का धागा तुम्हारे प्राण की सुई में पोना ही है। इसे डालना ही है। यह ध्यान का सूत्र ही तुम्हें भटकने से बचायेगा। तुम गिर भी जाओगे, तो भी खोओगे नहीं; वापिस उठ आओगे। यह कठिन तो बहुत है। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हें धोखा देते हैं। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हारा शोषण करते हैं। यह सरल तो निश्चित नहीं है, यह कठिन तो है ही, लेकिन कठिनाई ध्यान के कारण नहीं है, कठिनाई तुम्हारे कारण है।

ध्यान अपने आप में तो बड़ा सरल है, सीधी-सी बात है। सब थिर हो जाए, शांत हो जाए, ध्यान घट जाता है। लेकिन तुमने कंपने का इतना अभ्यास किया है कि थोड़ा अभ्यास अकंपन का भी करना होगा। तुमने मन चलाने के लिए इतनी स्पर्धा की है अब तक, सारा शिक्षण, सारा संस्कार मन को ही चलाने का है। तुमने मन को तो खूब सीखा है, ध्यान को सीखा नहीं, बस यही अड़चन है। तुम्हारा सारा जीवन-व्यापार मन से चला है। और ध्यान के लिए तो कोई जीवन में जगह नहीं है। इसलिए तुम भूल गये। तुम्हारी ध्यान की क्षमता जंग खा गयी है। बस उतनी ही कठिनाई है। जिस दिन ध्यान देना शुरू करोगे, जंग थोड़ी साफ करोगे, फिर निखर आयेगा तुम्हारा स्वभाव।

“वह ध्यान, वह ध्याता आसन बांधकर और मन-वचन- काया के व्यापार को रोककर दृष्टि को नासाग्र पर स्थिर करके मंद-मंद श्वासोच्छवास ले।’

पहले शरीर को थिर कर लिया, फिर मन-वचन-काया को थिर किया, फिर शांत थिर आसन में बैठे हुए दृष्टि नासाग्र पर रखी। इसका उपयोग है। सिर्फ इतना ही उपयोग है, वह खयाल लेना। अगर तुम आंख खोलकर बैठो ध्यान में–पूरी आंख खोलकर बैठो–तो हजार व्यवधान होंगे। कोई निकला, कोई गया, पक्षी उड़ा, सड़क से कोई गुजरा–कुछ न कुछ होता रहेगा। तो आंख पर जब दृश्य बदलते रहते हैं, तो उनकी वजह से भीतर चित्त पर कंपन होते हैं। तो हम सोचते हैं, फिर बेहतर है आंख बंद कर लें। लेकिन आंख तुमने बंद की कि तुम्हारे आंख बंद करने के साथ सपने शुरू हो जाते हैं। तुमने जब भी आंख बंद की है, तो बस जब तुम सोने गये हो तभी बंद की है। और तो तुम कभी आंख बंद करते नहीं। तो ऐसोसिएशन, एक संबंध बन गया है। आंख बंद करते ही सपने शुरू हो जाते हैं। तुम बैठो कुर्सी पर आराम से आंख बंद करके, थोड़ी देर में तुम पाओगे, दिवास्वप्न शुरू हो गया। जागे हो और सपना देख रहे हो।

तो चाहे वास्तविक जगत में परिवर्तन हो रहे हों, तो भी तुम्हारे भीतर कंपन होता है; आंख बंद करके सपने देखो, तो भी कंपन होगा। क्योंकि दृश्य फिर उपस्थित हो गये। इन दोनों से बचने के लिए सभी ध्यानियों ने नासाग्र-दृष्टि पर जोर दिया है। तो मध्य में ठहरा लो। न तो आंख खोलकर देखो कि बाहर वस्तुओं का जगत दिखायी पड़े, न आंख बंद करके देखो, नहीं तो सपने का जगत दिखायी पड़ेगा। तुम नाक के नोक पर अपनी आंख को रोककर बैठ जाओ। आधी खुली आंख सपने को भी कठिनाई होगी, आधी खुल आंख बाहर की चीजें भी दिखायी नहीं पड़ेंगी। धीरे-धीरे जब अभ्यास सघन हो जाए, जब नासाग्र-दृष्टि में चित्त थिर होने लगे, रस बहने लगे, सुख की पुलक उठने लगे, तब तुम आंख बंद करके भी कर सकते हो। फिर सपना नहीं आयेगा। और जब आंख बंद करने में सपना न आये, तो फिर तुम खुली आंख से भी ध्यान कर सकते हो। फिर बाहर लोग चलते रहें, फिरते रहें, घटनाएं घटती रहें, तुम्हारे भीतर कोई अंतर न पड़ेगा। लेकिन प्रथम जो शिशु की भांति प्रविष्ट हो रहा है ध्यान के जगत में, उसके लिए नासाग्र-दृष्टि बड़ी उपयोगी है।

“और मंद-मंद श्वासोच्छवास ले।’ खयाल किया तुमने कभी कि तुम्हारी श्वास तुम्हारे चित्त की दशाओं से बंधी है। जब तुम क्रोधित होते हो, श्वास ऊबड़-खाबड़ हो जाती है। जैसे ऐसे रास्ते पर चल रहे हो–कच्चे रास्ते पर। नीची-ऊंची हो जाती है, गति टूट जाती है। लय भंग हो जाता है। छंद बिखर जाता है। जब तुम प्रसन्न हो, तब खयाल किया, श्वास में एक लय होती है। एक संगीत होता है। जब तुम कामवासना से भरते हो, तब खयाल किया, श्वास विक्षिप्त हो जाती है। बड़े जोर से चलने लगती है। जब तुम्हारा चित्त बिलकुल कामवासना से मुक्त होता है, तब श्वास बड़ी शांत, धीमी, थिर हो जाती है।

मन के वेग श्वास को प्रभावित करते हैं। इससे उलटा भी सच है। श्वास का परिवर्तन मन को प्रभावित करता है। तुम कभी कोशिश करके देखो। क्रोध आ जाए, तब तुम धीरे-धीरे श्वास लेकर क्रोध करने की कोशिश करो, तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम पाओगे, अगर श्वास धीमी लेते हो, क्रोध नहीं होता। अगर क्रोध होता है, तो श्वास धीमी नहीं रहती। तुम कभी बिलकुल श्वास धीमी लेकर संभोग में उतरने की कोशिश करो। मुश्किल पड़ जाएगी। कामऊर्जा उठती न मालूम पड़ेगी, क्योंकि श्वास की चोट चाहिए। श्वास का ताप चाहिए। कामवासना में उतरना तो एक तरह का बुखार है। जब तक श्वास जोर से ताप पैदा न करे, आक्सीजन जरूरत से ज्यादा शरीर में न दौड़े, तब तक शरीर की ऊर्जा बाहर फिंकने को राजी नहीं होती। उसको तो फेंकने के लिए भीतर से धक्के चाहिए श्वास के। आदमी की श्वास उसके मन को थिर करती है, या अथिर करती है।

तो महावीर ठीक कह रहे हैं, नासिकाग्र-दृष्टि हो, और श्वास धीमी-धीमी, आनंद-पूर्ण, मंद-मंद, मंद-मंद श्वांसोच्छवास। क्योंकि ध्यान की अवस्था तो ठीक संभोग से उलटी अवस्था है। ध्यान की अवस्था तो क्रोध से उलटी अवस्था है। ध्यान की अवस्था तो दौड़ने से उलटी अवस्था है। दौड़ने में श्वास तेज हो जाती है, और ध्यान की अवस्था तो थिर होना है, दौड़ना बिलकुल बंद करना है। शरीर को जरा कंपने भी नहीं देना है, तो श्वास की कोई जरूरत नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा होगा, ध्यान करते-करते तुम डर भी जाओगे कि कहीं श्वास रुक तो नहीं गयी! घबड़ाना मत। वे बड़े कीमती क्षण हैं, जब तुम्हें ऐसा लगता है, श्वास रुक तो नहीं गयी! तुम ध्यान के करीब आ रहे, घर के करीब आ रहे। उस वक्त चौंककर घबड़ा मत जाना, नहीं तो घबड़ाते से ही श्वास का छंद फिर टूट जाएगा। जब ऐसा लगने लगे कि श्वास रुक रही है, बड़े आनंदित होना, बड़े अनुगृहीत होना। कहना, हे प्रभु, धन्यवाद! तो घर करीब आ रहा है!

जब कोई बिलकुल गहरे ध्यान में पहुंच जाता है, तो श्वास नाममात्र को रह जाती है। पता ही नहीं चलता कि चल रही है या नहीं चल रही है। क्योंकि अब कोई भी गति नहीं हो रही, तो श्वास की कोई जरूरत नहीं है। सब गति ठहर गयी। जरा-सी श्वास की जरूरत है, जितने से शरीर और आत्मा का धागा जुड़ा रहता है, बस। वह बड़ी धीमी है। इसीलिए योगी चाहते हैं तो जमीन के नीचे महीनों तक रुक जाते हैं। चमत्कार कुछ भी नहीं है। सिर्फ मंद-मंद श्वास लेने की कला है। आक्सीजन की जरूरत इतनी कम कर लेते हैं कि उस छोटी-सी गुहा में जमीन के भीतर जितनी आक्सीजन है, वह महीने-भर तक काम दे देती है।

हमारी आक्सीजन की जरूरत बहुत ज्यादा है। क्योंकि श्वास हम बहुत ले रहे हैं। शरीर में हजार तरह की क्रियाएं चल रही हैं। जो योगी जमीन के भीतर बैठता है, वह जो महावीर कह रहे हैं यही करता है। शरीर को थिर, वचन को थिर, मन को थिर, नासाग्र-दृष्टि और श्वास को धीरे-धीरे मंद करता जाता है। फिर एक ऐसी घड़ी आ जाती है कि श्वास करीब-करीब रुक जाती है। उस करीब-करीब श्वास रुकी हालत में योगी महीनों तक भी छोटी-सी जगह में रह सकता है। उस जगह में जितनी हवा है, उतनी पर्याप्त है।

तुम्हें पता होगा, मेढक वर्षा के बाद जमीन में छिप जाते हैं और श्वास बंद कर लेते हैं। वैज्ञानिक बहुत चकित रहे हैं। साइबेरिया में जो सफेद भालू होते हैं, वे भी छह महीने जब अंधेरा हो जाता है साइबेरिया में–छह महीने सूरज होता है, छह महीने रात–तो रात के समय में वे सब बर्फ में सोकर पड़ जाते हैं, श्वास बंद कर लेते हैं। मरते नहीं। छह महीने! इसको विज्ञान कहता है–हाइबरनेशन।

योगियों ने यह कला बहुत पहले खोज ली, कि जब मेढक कर सकता है, रीछ कर सकते हैं, भालू कर सकते हैं, तो आदमी क्यों नहीं कर सकता? क्योंकि शरीर का शास्त्र तो एक ही जैसा है।

अगर सब थिर हो जाए, तो प्राणवायु की जरूरत कम हो जाती है। इसलिए ध्यान में अगर कभी तुम्हें ऐसा हो कि श्वास थिर हो जाए, तो घबड़ा मत जाना। घबड़ाने से तो बाहर फिंक जाओगे। बड़ी मुश्किल से जो पाया था, खो जाएगा। तब तो और भी राजी हो जाना, और भी श्वास को कह देना कि तू बिलकुल विदा होजा तो भी ठीक, अगर मृत्यु भी आती मालूम पड़े तो कहना कि ठीक है, मैं मरने को राजी हूं। क्योंकि ध्यान में मर जाने से बड़ा और सौभाग्य क्या! मरना तो होगा ही। लेकिन जो ध्यान में मर गया, उससे बड़ा सौभाग्य कोई भी नहीं है। जीवन से बड़ा सौभाग्य है ध्यान में मर जाना। मगर कोई मरता नहीं, ध्यान के क्षण में तो परम जीवन का द्वार खुलता है।

“अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे, सब प्राणियों से क्षमा-भाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं।’

तो ध्यान कोई सदा करने के लिए नहीं है। ध्यान औषधि है। बीमारी जब चली गयी, तो ध्यान को भी छोड़ देना। जब तक बीमारी है, तब तक औषधि है। जब ध्यान की भी जरूरत नहीं रह जाती, तभी समाधि फलती है।

समाधि का अर्थ है, आत्मा का स्वास्थ्य। मिल गया, वापिस। कांटा चुभा था, दूसरे कांटे से निकाल दिया, फिर दोनों कांटे फेंक दिये। विचार का कांटा चुभा है, ध्यान के कांटे से निकाल लेना है। फिर दोनों कांटे फेंक देने हैं। तो ध्यान कोई सदा नहीं करते रहना है। ध्यान तो सीढ़ी है। औषधि है। उपाय कर लिया, काम पूरा हो गया, ध्यान भी गया।

तो महावीर कहते हैं, जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं। जब तक तुम्हें अतीत का सारा कचरा समाप्त होता हुआ न दिखायी पड़े। जब तुम्हें ऐसा दिखायी पड़े कि अतीत सब समाप्त हो गया, जैसे मैं कभी था ही नहीं, सब अतीत पोंछ डाला; जब तुम इतने नये हो गये जैसे सुबह ही ओस, जैसे तुम अभी-अभी पैदा हुए; जब तुम इतने नये और ताजे हो गये, तो फिर ध्यान की कोई जरूरत नहीं। अब तुम समाधि में जी सकते हो। अब तुम्हारा उठना, बैठना, चलना, सब समाधि है।

“अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे। सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे…।’

यह सब बातें ध्यान में सहयोगी हैं। इनसे सहायता मिलेगी। जो बुरा किया है अतीत में, अब दुबारा न करूंगा। जो बुरा किया, वह बुरा था। तुमने खयाल किया, आमतौर से हम बुरा कर लेते हैं, हम जानते भी हैं कि बुरा हो गया, तो भी हम रेशनलाइज़ेशन करते हैं। हम हजार तर्क जुटाते हैं, हम कहते हैं वह मजबूरी थी। या इसके अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता था। अन्यथा कोई मार्ग ही न था। या हम सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि हमने जो किया, ठीक ही किया। आदमी बड़े तर्क जुटाता है, गलत को भी सही सिद्ध करने के लिए। लेकिन महावीर कहते हैं, अगर तुम गलत को सही सिद्ध करने की कोशिश में लगे हो, तो एक बात पक्की है, ध्यान में कभी न पहुंच सकोगे। गलत को गलत मान लेना, स्वीकार कर लेना, क्षमा मांग लेना, क्योंकि गलत को गलत की तरह जानते ही फिर उसके दुबारा दोहरने का कारण नहीं रह जाता।

“अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे।’ सब प्राणियों से। महावीर कहते हैं, इसकी फिकर न करे कि किसके साथ मैंने बुरा किया, क्षमा ही मांगनी है तो इसमें क्या कंजूसी! इसके पीछे बड़ा राज है। क्योंकि महावीर कहते हैं, हम इतने जन्मों से इस पृथ्वी पर हैं कि करीब-करीब हम सभी के साथ बुरा-भला कर चुके होंगे। इतनी लंबी यात्रा है कि हम करीब-करीब सभी से मिल चुके होंगे। असंभव है यह बात कि कोई भी ऐसा पृथ्वी पर हो जिससे किसी जन्म में, किसी मार्ग पर, किसी चौराहे पर मिलना न हुआ हो। तो महावीर कहते हैं, इतना लंबा अतीत है, तुम कहां हिसाब करोगे किससे क्षमा मांगें, किससे न मांगें! और फिर क्षमा ही मांगनी है, तो इसमें क्या हिसाब-किताब रखना! सभी से क्षमा मांग लेना।

“सभी प्राणियों से क्षमाभाव चाहे। प्रमाद को दूर करे।’ तंद्रा को तोड़े। निद्रा को तोड़े, आलस्य को छोड़े। क्योंकि जितने ही तुम तेजस्वी बनोगे, जागरूक बनोगे, उतनी जल्दी घर करीब आयेगा, उतनी जल्दी मंजिल करीब आयेगी। नींद-नींद में लथड़ाते-लथड़ाते, किसी तरह चलते-चलते तुम मंजिल तक पहुंच न पाओगे। तुम कहीं बीच में मार्ग पर सो जाओगे।

“और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं।’ संघर्ष है। हजार बाधाएं हैं। मन के पुराने तर्क हैं। पुरानी आदतें हैं। संस्कार हैं। गलत को ठीक करने की चेष्टा अहंकार की चेष्टा है। दूसरा ठीक भी करे, तो हम गलत मानने को तत्पर रहते हैं। खुद गलत भी करें तो ठीक सिद्ध करने का उपाय करते हैं। ये सब उपद्रव हैं। इन सब उपद्रवों को पार कर के ही कोई ध्यान तक पहुंचता है।

फजा में मौत के तारीक साये थरथराते हैं

हवा के सर्द झोंके कल्ब पर खंजर चलाते हैं

गुजश्ता इसरतों के ख्वाब आईना दिखाते हैं

मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं

फजा में मौत के तारीक साये थरथराते हैं

हवा में सब तरफ मौत की अंधेरी छाया है। प्रतिक्षण मौत आ सकती है, किसी भी क्षण मौत आ सकती है।

हवा के सर्द झोंके कल्ब पर खंजर चलाते हैं

और हृदय प्रतिपल क्षीण हो रहा है, जैसे कि हवा का हर झोंका छुरी चला रहा हो। प्रतिपल हम मर रहे हैं। एक घड़ी गयी, एक घड़ी जिंदगी गयी। एक घड़ी गयी, एक घड़ी मौत करीब आयी।

गुजश्ता इसरतों के ख्वाब आईना दिखाते हैं

और इंद्रियों की कामवासना है, सुखभोग की आकांक्षाएं हैं, वे नये-नये सपने बुने रही हैं। इधर जीवन हाथ से जा रहा, उधर वासना सपने बुन रही है। इधर मौत पास आ रही है, उधर वासना खींचे चली जाती है। वह कहती है, आज की रात और!

गुजश्ता इसरतों के ख्वाब आईना दिखाते हैं

मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं

जमीं चीं-बर-जबीं है आसमां तखरीब पर माइल

रफीकाने-सफर में कोई बिस्मिल है कोई घायल

तआकुब में लुटेरे हैं, चट्टानें राह में हाइल

मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं

बड़ी चट्टानें हैं। बड़ी बाधाएं हैं। हजार तरह के उपद्रव हैं। कोई हत्यारा है, कोई घायल है, कोई दुखी है, कोई दुखी कर रहा है। इन सबसे, इन सबके बीच से आसमान नाराज मालूम पड़ता है, जमीन क्रुद्ध मालूम पड़ती है, ऐसा लगता है हम अजनबी हैं और हर चीज हमारी दुश्मन है। फिर भी आदमी को बढ़ते ही जाना है।

चिरागे-दैर फानूसे-हरम कंदीले-रहबानी

ये सब हैं मुद्दतों से बेनियाजे-नूरे-इर्फानी

न नाकूसे बिरहमन है, न आहंगेऱ्हुदी-ख्वानी

मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं

और इस सबसे भी ऊपर और एक मुश्किल खड़ी हो गयी है।

चिरागे-दैर फानूसे-हरम कंदीले-रहबानी

मंदिर का दीपक कभी का बुझ गया। काबे का फानूस मुर्दा है। उसमें कोई ज्योति नहीं।

चिरागे-दैर फानूसे-हरम कंदीले-रहबानी

गिरजे की मोमबत्ती में कोई रोशनी नहीं रही।

ये सब हैं मुद्दतों से बेनियाजे-नूरे-इर्फानी

न-मालूम कितनी सदियों से इनके साथ परमात्मा का संबंध छूट गया है। परमात्मा का नूर अब इनमें झलकता नहीं।

न नाकूसे बिरहमन है–

न तो ब्राह्मण के शंखनाद की आवाज जगाने को है।

न आहंगेऱ्हुदी-ख्वानी

और न कुरान का पाठ है। न सुबह पढ़नेवाली अजान है। कोई जगाने को नहीं। नींद के हजार उपाय हैं। जगानेवाले खुद गहरे सोये हैं।

मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं।

लेकिन ध्यानी को इन सारी कठिनाइयों को पार करके बढ़ते ही जाना है। कठिनाइयों को बहाना मत बनाना। यह मत कहना, हम इस वजह से न कर सके।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, क्या करें, समय नहीं है। ध्यान कब करें? ये वे ही लोग हैं, जो सिनेमा में भी बैठे हैं। ये वे ही लोग हैं, जो होटल में भी दिखायी पड़ते हैं। ये वे ही लोग हैं, जो सुबह रोज अखबार बड़ी तल्लीनता से पढ़ते हैं। ये वे ही लोग हैं जो रेडियो भी सुनते हैं, टेलिविजन भी देखते हैं। ये वे ही लोग हैं, जो ताश भी खेलते हैं। और जब ताश खेलते मिल जाते हैं, तो कहते हैं, क्या करें, समय काट रहे हैं। और इनसे कहो ध्यान, तो कहते हैं समय नहीं है। और इन्हें खयाल भी नहीं आता कि ये क्या कह रहे हैं! ये कैसा बहाना कर रहे हैं! कहो कि ध्यान, तो वह कहते हैं, अभी तो बहुत संसार में उलझनें हैं। संसार की उलझनें कब कम होंगी? कभी कम हुई हैं? बढ़ती ही जाती हैं। इनसे कहो ध्यान, तो तत्क्षण कोई तरकीब निकालते हैं। तरकीब केवल इतना ही बताती है कि इन्हें अभी पता ही नहीं कि ये क्या गंवा रहे हैं। मुश्किल तो यह है, विडंबना यह है कि पता हो भी कैसे। यह तो पाकर ही पता चलता है कि क्या गंवा रहे थे। यह तो ध्यान जिस दिन लगेगा, उस दिन पता चलता है कि अरे, हम किस चीज के लिए समय नहीं पा रहे थे! तब पता चलता है कि सब समय इसी पर लगा दिया होता तो अच्छा था। क्योंकि जो ध्यान में गया समय, वही बचा हुआ सिद्ध होता है। जो ध्यान के बिना गया, वह गया। वह रेगिस्तान में खो गयी नदी। ध्यान में जो लगा, वही सागर तक पहुंचता है। शेष सब रेगिस्तान में भटक जाता है।

“जिन्होंने अपने योग, अर्थात मन-वचन-काया को स्थिर कर लिया और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य अरण्य में कोई अंतर नहीं रह जाता है।’

ध्यान जिसका सध गया, हिमालय सध गया भीतर। तुम गौरीशंकर पर विराजमान हो गये भीतर। फिर तुम बीच बाजार में बैठे रहो, तो अंतर नहीं पड़ता। जिसका ध्यान सध गया, उसे फिर कोई विघ्न न रहा, कोई बाधा न रही। ध्यान बड़ी से बड़ी संपदा है। शांति का, आनंद का एकमात्र आधार है।

तुम दूसरे के द्वारा जल्दी ही परेशान हो जाते हो। क्योंकि चैन से होने का पाठ तुमने सीखा नहीं। दूसरा तुम्हें जल्दी ही क्षुब्ध कर देता है। हालांकि तुम कहते हो, यह आदमी जिम्मेवार है। इसने गाली दी, इसलिए मैं क्रुद्ध हो गया। असली बात दूसरी है। तुम्हारे पास ध्यान नहीं है, इसलिए इसकी गाली काम कर गयी। तुम्हारे पास ध्यान होता, इसकी गाली कितनी ही आग से भरी आती, तुम्हारे पास आकर बुझ जाती। अंगारा नदी में फेंककर देखो। जब तक नदी को नहीं छूता, तब तक अंगारा है। जैसे ही नदी को छुआ कि राख हुआ।

तुम्हारे भीतर ध्यान की सरिता हो, तो न गालियां चुभतीं न क्रोध, न अपमान, न सम्मान, न सफलता न असफलता, न यश न अपयश, कुछ भी नहीं छूता। भीतर ध्यान हो, तो महावीर कहते हैं, तुम पहाड़ पर रहो कि भरे बाजार में, सब बराबर है।

रोम-रोम में नंदन पुलकित,

सांस-सांस में जीवन शत-शत

स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित

मुझमें नित बनते-मिटते प्रिय!

स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या!

स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या!

जिसके भीतर ध्यान की कीमिया पैदा हो गयी, वह अपने स्वर्ग को खुद ही निर्मित करने लगता है। वह मिट्टी छू देता है, सोना हो जाती है। तुम सोना छुओ, मिट्टी हो जाता है। तुम प्यारे से प्यारे आदमी को मिल जाओ, जल्दी ही कटुता आ जाती है। तुम प्रीतम से प्रीतम व्यक्ति को खोज लो, जल्दी ही संघर्ष शुरू हो जाता है। ध्यानी मिट्टी को भी छुए, सोना हो जाता है। ध्यानी कुटिया में भी रहे, तो महल हो जाता है। ध्यानी के होने में कुछ राज है। उसके पास भीतर का जादू है। वह जादू है।

स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या!

शून्य में भी लय बजती है। नर्क में भी फेंक दो ज्ञानी को, ध्यानी को, तो स्वर्ग बना लेगा।

तुम थोड़ा सोचो, अगर तुम्हें स्वर्ग भी किसी तरकीब से–पीछे के रास्ते से सही, रिश्वत के द्वारा, कोई तरकीब से–पहुंचा भी दिया जाए, तो स्वर्ग तुम भोग सकोगे? तुम नर्क बना ही लोगे। तुम्हारा नर्क तुम अपने भीतर लिये चलते हो।

तुम जानते सब बात हो,

दिन हो कि आधी रात हो,

मैं जागता रहता कि कब

मंजीर की आहट मिले,

मेरे कमल-वन में उदय

किस काल पुण्य प्रभात हो;

किस लग्न में हो जाए कब

जाने कृपा भगवान की!

ध्यान का केवल इतना ही अर्थ है–जागते रहना। सतत जागते रहना। भीतर अंधेरा न हो, निद्रा न हो।

तुम जानते सब बात हो,

दिन हो कि आधी रात हो,

मैं जागता रहता कि कब

मंजीर की आहट मिले,

कौन जाने कब परमात्मा पुकार दे! कौन जाने किस क्षण अस्तित्व बरस उठे! कौन जाने किस क्षण आकाश टूटे!

तुम जानते सब बात हो,

दिन हो कि आधी रात हो,

मैं जागता रहता कि कब

मंजीर की आहट मिले,

मेरे कमल-वन में उदय

किस काल पुण्य प्रभात हो;

किस लग्न में हो जाए कब

जाने कृपा भगवान की!

जीसस की कहानी। एक धनी तीर्थयात्रा को गया। उसने अपने नौकरों को कहा कि तुम जागे रहना, मैं कभी भी वापिस आ सकता हूं। घर लापरवाही में न मिले। तुम मुझे सोये न मिलो। तुम जागे रहना। मेरे आने की तिथि तय नहीं है। मैं कल आ सकता, मैं परसों आ सकता, मैं महीनेभर बाद आऊं, मैं सालभर बाद आऊं।

पुराने शास्त्र परमात्मा को अतिथि कहते हैं। अतिथि का मतलब, जो तिथि बिना बताये आता है। अतिथि शब्द बड़ा अदभुत है। “गेस्ट’ शब्द में वह बात नहीं है। “मेहमान’ में वह बात नहीं है। अब हमें अतिथि तो कहना ही नहीं चाहिए, क्योंकि अब तो सभी तिथि बताकर आते हैं। पहले ही चिट्ठीत्तार करके आते हैं कि आ रहे हैं। अब कोई अतिथि नहीं रहा। अतिथि का मतलब, जो अचानक आ जाए। अकस्मात! तुम्हें ख्याल भी न था। सपने में झलक न थी, और आ जाए!

परमात्मा अतिथि है। जागे रहना है। कब आ जाएगा, पता नहीं। किस क्षण तुम्हारी अंतरंग-वीणा उसकी वीणा के साथ बजने लगेगी, किस क्षण तुम नाचने लगोगे उसके साथ, किस क्षण उसके हाथ में हाथ आ जाएगा, कुछ पक्का नहीं है। इसकी कोई घोषणा नहीं हो सकती। एक ही उपाय है कि हम जागते रहें। हम एक क्षण भी न गंवायें। वह कभी भी आये, हमें जागा पाये। वह कभी भी आये, हमें स्वागत के लिए तैयार पाये।

जागो हे अविनाशी!

जागो किरण-पुरुष, कुमुदासन,

विधुमंडल के वासी,

जागो, हे अविनाशी!

रत्नजड़ित पथचारी जागो,

उडु, वन, वीथि-बिहारी जागो,

जागो रसिक विराग लोक के,

मधुबन के संन्यासी,

जागो, हे अविनाशी!

जागने की कला का नाम ध्यान है। सोये रहना–संसारी; जागे रहना–संन्यासी। भीतर की घटना है। उठो-बैठो, चलो-फिरो, जागरण न खोये।

जागो, हे अविनाशी!

जागो, मधुबन के संन्यासी!!

जागो, हे अविनाशी!!!

आज इतना ही।


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समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–6

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क्षांति—प्रवचन—छठवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,

अंबरनाथ; प्रातः 12 फरवरी, 1973

ओम शिष्य, भय संकल्प का हनन करता है और प्रयासों का स्थगन। यदि शील गुण का अभाव हो, तो यात्री के पांव लड़खड़ाते हैं और चट्टानी पथ पर कर्म के पत्थर उसके पांवों को लहूलुहान कर देते हैं।

ओ साधक, अपने पावों को दृढ़ कर। क्षांति (धैर्य) के सत्व में अपनी आत्मा को नहला, क्योंकि अब तू उसी के नाम के द्वार को पहुंच रहा है–बल और धैर्य का द्वार।

अपनी आंखों को बंद मत कर, और दोरजे (सुरक्षा के वज्र) से अपनी दृष्टि को मत हटा। काम के बाण उस व्यक्ति को बद्ध कर देते हैं, जो विराग को प्राप्त नहीं हुआ है।

कंपन से सावधान! भय की सांस के नीचे पड़ने से धैर्य की कुंजी में जंग लग जाता है और जंग लगी कुंजी ताले को नहीं खोल सकती।

जितना ही तू आगे बढ़ता है, उतना ही तेरे पांवों को खाई-खंदकों का सामना करना होता है। और जो मार्ग उधर जाता है, वह एक ही अग्नि से प्रकाशित है–साधक के हृदय में जलने वाली साहस की अग्नि से। जितना ही कोई साहस करता है, वह उतना ही पाता है। और जितना ही वह डरता है, उतना ही वह ज्योति मंद पड़ जाती है। और वही ज्योति मार्गदर्शन कर सकती है। वह हृदय-ज्योति वैसी ही है, जैसे किसी ऊंचे पर्वत-शिखर पर चमकने वाली अंतिम सूर्य की किरण, जिसके बुझने पर अंधेरी रात का आगमन होता है। जब वह ज्योति भी बुझ जाती है, तब तेरे ही हृदय से निकल कर एक काली और डरावनी छाया मार्ग पर पड़ेगी और तेरे भय-कंपित पैरों को भूमि से बांध देगी।

इस सूत्र में साधक के लिए बहुत बहुमूल्य बातें हैं।

“ओ शिष्य, भय संकल्प का हनन करता है और प्रयासों का स्थगन’।

भय शायद आंतरिक मार्ग पर सबसे बड़ी कठिनाइयों में एक है। और ऐसा भय नहीं, जिससे हम संसार में परिचित हैं, कुछ और ही तरह का भय है। भय दो प्रकार के हैं। एक तो भय है, जिसका प्रत्यक्ष कारण सामने होता है। कोई आदमी छाती के सामने छुरा लेकर खड़ा है, आप भयभीत होते हैं। इस भय का कारण प्रत्यक्ष है, सामने है। एक और भय है।

एक तो भय का यह आयाम है, जहां कारण होते हैं। कारण बाहर होते हैं, भीतर आप भयभीत होते हैं। कारण भी भय पैदा नहीं करते। सिर्फ जो भय भीतर सोया है, उसे जगा देते हैं; वह जो भीतर छिपा है, उसे प्रकट कर देते हैं। कोई छुरा लेकर छाती के सामने खड़ा हो, तो उसके छुरे से भय पैदा नहीं होता। भय तो भीतर है, छुरे से प्रकट हो जाता है। लेकिन कारण है, साफ है।

दूसरा भय और भी गहरा है, जो छुरे के कारण या किसी बाहय स्थिति के कारण नहीं अनुभव होता, बल्कि भीतर जो भय पड़ा है, उसके कंपन से ही प्रतीत होता है। अकारण प्रतीत होता है। अध्यात्म के मार्ग पर वह जो अकारण भय प्रतीत होता है, वही बाधा है। और जैसे-जैसे व्यक्ति संसार से दृष्टि हटाने लगता है, वैसे-वैसे कारण विलीन होने लगते हैं। और खुद का ही भय कंपित होने लगता है। अब कोई कंपाने वाला नहीं होता, अपना ही भय है।

कारण वाले भय से तो छूटना आसान है; क्योंकि कारण की रुकावट की जा सकती है, कारण से बचाव किया जा सकता है। कोई छुरा लेकर खड़ा हो, तो आप तलवार लेकर खड़े हो सकते हैं। अपने चारों तरफ सुरक्षा की दीवाल बना सकते हैं। बीमारी हो, तो औषधि का इंतजाम हो सकता है। बाहर जो कारण हैं, उनके विपरीत कारण बाहर निर्मित किए जा सकते हैं। और भय से सुरक्षा मिल जाती है। लेकिन जब अकारण भय का पता चलता है कि भय बाहर से नहीं आ रहा, कोई उसे जगा नहीं रहा, भय मेरे भीतर ही है, मेरी आत्मा में ही है। मैं अपने से ही कंप रहा हूं, कोई मुझे कंपा नहीं रहा। यह कंपन मेरा ही है, मेरे अस्तित्व में ही यह कंपन छिपा है। तब बड़ी कठिनाई होती है कि उपाय क्या हो? इस भय को मिटाने के लिए क्या किया जाए? इससे सुरक्षित होने के लिए कौन सा आयोजन हो?

कोई आयोजन काम न देगा। सांसारिक भय से बचना आसान है। हम सभी ने इंतजाम कर लिया है सांसारिक भय से बचने का। हमारी पूरी समाज की व्यवस्था सांसारिक भय से बचने का उपाय है। तो यहां पुलिस है, अदालत है, कानून है, राज्य है, वे सब हमारे उपाय हैं बाहर के भय से बचने के। लेकिन भीतर जो भय है, उससे बचने के लिए आदमी क्या करे? और उससे न बच सके, तो आत्मिक जगत में कोई प्रवेश नहीं हो पाएगा। क्योंकि वह तो जगत ही भीतर का है, वहां बाहर कुछ है ही नहीं, जिससे इंतजाम हो सके, बचाव हो सके। वहां आप होंगे अकेले और आपका भय होगा–अकारण भय।

एक वृक्ष हवा के झोंके में कंपता है, तो हवा के झोंके को रोका जा सकता है। लेकिन एक वृक्ष अपने अस्तित्व में अपनी जड़ों में ही कंपन को लिए है और कंपता है, तब क्या किया जाए? इसी भय की चर्चा है। और यही भय संकल्प का हनन कर देता है।

जितना ही भीतर होता है कंपन, उतने ही आप दृढ़ नहीं हो पाते हैं। जितना होता है भीतर कंपन, आपको अपनी ही बात का कोई भरोसा नहीं हो पाता। आप जानते हैं कि जो आप कह रहे हैं, वह कहते समय भी आप कंप रहे हैं। आप जानते हैं, जो आप निर्णय ले रहे हैं, निर्णय लेते समय भी कंप रहे हैं। आप जानते हैं कि आपका संकल्प सदा अधूरा है। और अधूरा संकल्प, संकल्प नहीं है। अधूरे संकल्प का कोई अर्थ ही नहीं होता। कोई आदमी कहे कि मैं आधा तैयार हूं, उसका कोई अर्थ नहीं होता। तैयारी या तो पूरी होती है या नहीं होती। आप अगर कहें कि मैं छलांग लगाने को आधा तैयार हूं, तो कैसे छलांग होगी? एक पैर तैयार नहीं है और एक पैर तैयार है–आधे आप तैयार हैं। छलांग होगी कैसे? छलांग तो तभी हो सकती है, जब तैयारी पूरी हो। जरा सा भी विपरीत भाव मन में है, तो छलांग नहीं हो सकती। और जो भय से कंप रहा

है, उसमें विपरीत भाव सदा बना रहता है। उसे अपने पर भरोसा नहीं हो सकता, जो भय से कंप रहा है।

इसलिए महावीर ने अभय को साधक के लिए पहली सीढ़ी कहा है। और ठीक कहा है, क्योंकि जब तक अभय न हो जाए, तब तक कुछ भी न होगा। बड़ी मजे की घटना महावीर के संदर्भ में घटी है। और वह यह है कि महावीर ने कहा कि जब तक तुम अभय को उपलब्ध नहीं होते, तब तक तुम अहिंसक न हो सकोगे। आदमी हिंसक इसलिए तो है कि भयभीत है। हिंसा भय का बचाव है। कोई मुझे न मार डाले, इसलिए मैं खुद ही मारने को तैयार हूं। और कोई मुझे मारने आए, इसके पहले ही मैं उसे मारने चला जाता हूं। और बचना हो, तो यही उचित है कि आक्रमण के पहले ही आक्रमण कर दिया जाए। क्योंकि जो पहल करता है आक्रमण में, वह आगे निकल जाता है। हिंसा इसलिए इतनी हमारे मन को घेरे हुए है कि हम भीतर भयभीत हैं। हम डरे हुए हैं; इसलिए हम दूसरे को डराना चाहते हैं।

और हमें एक ही अनुभव है निडर होने का। वह तब हमें होता है, जब हमसे कोई डरता है, तो ही हमें निडर होने का अनुभव होता है–तुलनात्मक है। अगर आप किसी को डरा सकते हैं तो आपको आनंद आता है। आपको लगता है कि ठीक, अब मैं डरने वाला नहीं हूं, डरानेवाला हूं। वह जो आपसे ज्यादा डरता है, आपके सामने कंपता है, उसको देख कर आपको भरोसा आता है कि मैं कम कंप रहा

हूं या आप अपने कंपन को ही भूल जाते हैं।

सम्राट होने का मजा क्या होगा? सत्ता में होने का मजा क्या है? हिंसा का मजा है, जो सत्ता में है, वह आपको कंपा सकता है। जिसके हाथ में शस्त्र है, वह आपको कंपा सकता है। जिसके हाथ में धन है वह आपको कंपा सकता है। और जिसके चारों तरफ लोग कंपते रहते हैं, उसको यह भरोसा रहता है कि मैं कंपने वाला नहीं हूं कंपाने वाला हूं।

हिटलर के संबंध में उसके एक अत्यंत विश्वासपात्र, निकट व्यक्ति ने किसी को पत्र में लिखा है कि हिटलर जब भी किसी को मरवाता था, तब बहुत प्रसन्न होता था। अक्सर अपने सामने वह किसी को गोली मरवा कर मरवा डालता था और सामने ही कोई तड़प कर शांत हो जाता था, उसके चेहरे पर ऐसी शांति और आनंद की लहरें छा जाती थीं। तो उस अत्यंत निकट जन ने हिटलर से पूछा कि तुम इतने प्रसन्न क्यों हो जाते हो, जब कोई मरता है? तो हिटलर ने कहा कि मुझे यह भरोसा आता है कि मैं मरने वाला नहीं हूं, मारने वाला हूं। मौत मेरा कुछ भी न बिगाड़ सकेगी। जब मैं किसी को मार डालता हूं, तो मैं मौत का मालिक हो गया हूं।

नादिर को, तैमूर को, चंगेज को, नेपोलियन को, सिकंदर को, हिटलर को, स्टालिन को, माओ को जो रस प्रतीत होता है दूसरे को नष्ट करने में, वह इस बात का है कि मैं जब नष्ट कर सकता हूं स्वयं, तो मुझे कौन नष्ट कर सकेगा? तुलना में जो हमसे ज्यादा डरता है, हम उससे बड़े हो जाते हैं। और इसलिए हर आदमी अपने आसपास किसी न किसी को डराता रहता है।

अगर एक दफ्तर में जाएं, तो मालिक मैनेजर को डरा रहा है; मैनेजर अपने नीचे के हेड क्लर्क को डरा रहा है; हेड क्लर्क अपने क्लर्क को डरा रहा है; क्लर्क चपरासी को डरा रहा है, चपरासी लौटकर अपनी पत्नी को डरा रहा है, पत्नी अपने बच्चों को डरा रही है। और यह चल रहा है। बच्चे को कुछ नहीं सूझता, तो अपने गुड्डे की टांग तोडकर उसको नष्ट कर देता है और प्रसन्न होता है।

अगर हम समाज को देखें, तो उसमें पर्त दर पर्त भय का संबंध है। और अगर पति पत्नी को नहीं डराए, तो पत्नी पति को डरा रही है। ऐसा घर पाना बहुत मुश्किल है, जहां न पति पत्नी को डरा रहा हो, न पत्नी पति को डरा रही हो। और ऐसा घर मिल जाए, तो समझना कि वह घर है, बाकी तो सब हायररकी है सताने की, एक दूसरे को परेशान करने का इंतजाम है।

हमें अपने से कमजोर की तलाश है; क्योंकि उसके सामने हम शक्तिशाली मालूम पड़ते हैं। अपने से दीन की तलाश है, क्योंकि उसके सामने हम धनी मालूम पड़ते हैं। अपने से मूढ़ की तलाश है; क्योंकि उसके सामने हम ज्ञानी मालूम पड़ते हैं। पर अगर इस सारी खोज को हम ठीक से देखें, तो ये सारे संबंध रुग्ण हैं और भय पर खड़े हैं। यह जो भय है, यह मिटता नहीं किसी को डराने से, सिर्फ छिपता है। और छिपा हम रहे हैं जन्मों से। और रत्ती भर हम उसे मिटा नहीं पाए हैं। सच तो यह है कि जितना हमने छिपाया है, उतना ही उसको मिटाना मुश्किल हो गया है। क्योंकि छिपा-छिपा कर हमने ही उसे ऐसे अंधेरे में डाल दिया है, जहां खुद को भी दिखाई नहीं पड़ता कि कहां है?

यह सूत्र कहता है, ओ शिष्य, भय संकल्प का हनन करता है और प्रयासों का स्थगन।

तब हम सोचते बहुत हैं कि करें और कर कभी भी नहीं पाते। हजार बार सपना लेते हैं कि उठाएं पैर, उठाते कभी भी नहीं! विचार ही करते रहते हैं करने का। विचार से तो कोई यात्रा होती नहीं। कितनी बार तय करता है आदमी अपने को बदल डालने का; लेकिन वह बदलाहट की कोई शुरुआत नहीं होती। वह हमेशा स्थगित करता है, पोस्टपोन करता है कि कल करेंगे शुरू। और कल कभी नहीं आता।

कल यही मन फिर आगे पर टाल देता है। आगे पर टालना हमारी बड़ी तरकीब है। उससे हमारी दोनों बातें सधी रहती हैं। हमें यह भी नहीं होता कि हम बदलाहट का कोई उपाय नहीं कर रहे हैं! कल करेंगे–आयोजन कर रहे हैं, प्लानिंग कर रहे हैं। इसलिए मन में यह भी भरोसा रहता है कि हम बदलने की तरफ चल रहे हैं। और चलते कभी भी नहीं। कौन सा भय हमें रोकता है चलने में? वह कोई कारण वाला भय नहीं है, जो हमें रोकता है। यह हमारी भयभीत अवस्था है।

सोरेन कीर्कगार्ड ने कहा है कि आदमी को जितना ही मैंने समझा, उतना ही मैंने पाया कि आदमी एक कंपन है–जस्ट ए ट्रेम्बलिंग। भीतर उसके सब कंप रहा है।

तो इस बात को पहले तो इस भांति अनुभव करें कि भय के कारण बाहर नहीं हैं, भय भीतर है। कारणों से सिर्फ पता चलता है, प्रकट होता है। जैसे कि कोई आपके हाथ में छुरा मार दे, तो खून की धार निकल पड़ती है। छुरे से खून की धार पैदा नहीं होती। खून की धार तो बह रही थी, छुरे से प्रकट होती है। ऐसे ही भय की धार भी आपके भीतर बह रही है; जो कोई छुरा लेकर सामने खड़ा होता है, तो वह धार फूट पड़ती है। वह भी आपके ही भीतर है, जैसे खून आपके भीतर है। खून दिखाई पड़ता है, वह दिखाई नहीं पड़ता है। इसलिए आपके खयाल में नहीं आता। जब कोई आपके सामने छुरे की धार रखने लगता है, तो जो लहर आपके भीतर होने लगती है,वह छुरे से नहीं आ रही। छुरे से केवल आपको स्मरण आ रहा है। जो दबी थी, वह मुखर हो रही है। जिसको आप छिपा कर बैठे थे, वह गतिमान हो रही है। जिसको आप भूल गए थे, उसको आपको पुनः स्मरण करना पड़ रहा है।

बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे कि जाओ मरघट पर और महीनों मृत्यु पर ध्यान करो। और जब कोई लाश लाई जाए तो बैठ जाओ, और शांति से एकाग्र होकर उसे देखते रहो। फिर जब चिता सजे तो देखते रहो, निरीक्षण करो, विचार मत करो। सिर्फ देखो कि मौत में क्या हो रहा है? फिर जब जलने लगे लाश और राख हो जाए सब और जब प्रियजन विदा हो जाएं रोकर, तो बैठे रहो उस सुलगती आग, बुझती आग के पास। अभी-अभी जो था, अब नहीं है। धीरे-धीरे तुम्हें अपनी लाश भी दिखाई पड़ने लगेगी। आज नहीं कल, तुम्हें स्मरण आ जाएगा कि कोई तुम्हें भी लेकर मरघट की तरफ आ रहा है। और तुम्हारे प्रियजन भी इकट्ठे होकर तुम्हें चिता पर चढ़ा देंगे और तुम भी राख हो जाओगे। तब बहुत भय पकड़ेगा। उस भय से भागना मत मरघट से। तुम जमे ही रहना।

आपको पता है, लोग कहते हैं मरघट पर मत जाना, वहां भूत हैं। भूत नहीं हैं वहां; आपका भय वहां प्रकट होता है। मगर आदमी हमेशा बाहर चीजों को स्थापित कर देता है। मरघट पर भय की वजह से भूत मालूम पड़ते हैं, भूत की वजह से भय नहीं होता। भूतों को रहने के लिए काफी जगह है। और भूत भी मरघट न चुनेंगे रहने के लिए, क्योंकि आप ही तो भूत होंगे कभी। भूत भी मरघट चुनने वाले नहीं हैं। भूत भी मरघट से उतना ही डरते हैं, जितना आप डरते हैं। मरघट पर जो डर है, वह भूत का नहीं है। डर की वजह से भूत अनुभव होता है। मरघट है मौत, वह उसका प्रतीक है। उसके पास जाते ही आपके भीतर वह जो छिपा है, वह तरंगित होने लगता है। आपके भीतर के भय का सरोवर कंपित होने लगता है। उस कंपित अवस्था में आपको भूत-प्रेत दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। वह प्रोजेक्शन है। वह आपका भय बाहर फैलकर दिखाई पड़ता है तब।

एक पत्ता हिल जाता है हवा में और आपको किसी के पदचाप सुनाई पड़ जाते हैं! और एक पत्ता गिर जाता है वृक्ष से, जरा-सी आहट, आप भाग खड़े होते हैं! फिर भागने से आप अपने ही भय को और बढ़ा लेते हैं। जो भय छोटा-सा था, भागने से और बड़ा हो जाता है। क्योंकि अब आप अच्छी तरह कंपित हो जाते हैं; अब आप अपने ही भय के जाल में ग्रसित होते जा रहे हैं। और तब कुछ भी हो सकता है और तब आपको कुछ भी दिखाई पड़ सकता है। और वह इतना साकार होगा कि आप कभी भी मानने को राजी नहीं होंगे कि वह असत्य था।

लेकिन भूल हो रही है। जो पद पर दिखाई पड़ रहा है, वह पद पर नहीं है, वह प्रोजेक्टर में है। फिल्म-गृह में आपके पीठ के पीछे प्रोजेक्टर लगा होता है। उसकी तरफ कोई देखते नहीं। दो छोटे से छेद से प्रोजेक्टर की मशीन चित्रों को फेंकती रहती है, आप देखते हैं पद पर। पर्दा होता है सामने, प्रोजेक्टर होता है पीछे। पद पर जो दिखाई पड़ता है, वह पद में नहीं है। वह सिर्फ पद पर दिखाई पड़ता है। जो पद पर दिखाई पड़ता है, वह पीछे जो मशीन है प्रक्षेप करने की, उसमें छिपा है।

जब आपको भूत दिखाई पड़े तो आप जरा पीछे लौट कर अपने में देखना; वहां भय है। किसी भी तरह के भूत हों, जिनसे भय पैदा होता है, हमारी नजर तत्काल, पद पर पकड़ जाती है और हम भूल जाते हैं कि हम ही उसे फैला रहे हैं; हमारे भीतर से ही वह निकलकर बाहर खड़ी हो रही है छाया। सब भूत-प्रेत, सब भय के जो कारण हमें बाहर दिखाई पड़ते हैं, वे हमारा ही सृजन हैं। और फिर हम इतना उपद्रव अपने चारों तरफ खड़ा कर लेते हैं! पर उसमें एक सुविधा है। यह मानने में आसानी रहती है कि कोई हमें भयभीत कर रहा है। जिम्मा किसी और का हो जाता है, उत्तरदायित्व किसी और का है। अगर आप भाग रहे हैं, तो आप नहीं भाग रहे हैं, भूत आपको भगा रहा है। जिम्मेदारी भूत की हो गई। आप जिम्मेदारी से बच गए। आप ही भाग रहे हैं–और आप खड़े हो जाएं, तो भूत भागना शुरू कर देता है।

विवेकानंद ने लिखा है, बहुत बार वे इसे कहते भी थे कि पहली-पहली बार जब संन्यासी होकर वे काशी पहुंचे, तो काशी के बंदरों ने उन्हें बहुत सताया। एक झाड़ के नीचे बैठकर ध्यान कर रहे थे, बंदर वहां इकट्ठे हो गए, डराने लगे। विवेकानंद ने बचने का उपाय किया। जब भी कोई डराए तो बचने का उपाय करना पड़ता है। और जब आप बचने का उपाय करते हैं, तो आप डराने वाले का साहस बढ़ाते हैं। विवेकानंद सरकने लगे पीछे उस झाड़ से, हटने लगे, बंदर चारों तरफ से और पास आने लगे, विवेकानंद ने भागने का विचार किया कि बंदर झपट पड़े। विवेकानंद भागे, तो बंदरों की भीड़ और भी जो वृक्षों पर बैठे थे, वे भी नीचे उतर आए। अचानक विवेकानंद को खयाल आया, यह तो मुसीबत हो जाएगी। ये तो आज मुझे मार ही डालेंगे। खयाल आया कि कहीं मेरे भय को देख कर तो ये इतने ज्यादा साहसी नहीं हुए जा रहे हैं? लौट कर खड़े हो गए। खड़े होने से ही बंदर ठिठक गए। विवेकानंद बंदरों की तरफ आगे बढ़े, बंदर भागकर वृक्षों पर चढ़ गए। फिर विवेकानंद बार-बार इस बात को कहे कि उस दिन मुझे भय का सारा सार समझ आ गया।

जिससे भयभीत हो जाओ, वह तुम्हारा पीछा करेगा। तुम उसके पीछे लगे तो वह अपना बचाव करेगा। तुम खड़े हो जाओ, भयभीत मत होओ, तो सारे जगत से तुम्हें भयभीत करने के सारे कारण तिरोहित हो जाते हैं।

भय भीतर है। कारण पद से ज्यादा नहीं हैं, बहाने हैं। और यह भय संकल्प को नष्ट कर देता है। आप इकट्ठे नहीं हो पाते हैं। इस भय के कारण डांवांडोल ही होते हैं। और तब स्थगित करते चले जाते हैं। स्थगन भी भय है।

“यदि शील गुण का अभाव हो, तो यात्री के पांव लड़खड़ाते हैं और चट्टानी पथ पर कर्म के पत्थर उसके पांव को लहूलुहान कर देते हैं।’

इस भय से बचने के लिए क्या किया जाए?

शील उपाय है।

यह शील समझने जैसा है। आपको खयाल है कि अगर आप असत्य बोलें, तो आपके भीतर कंपन बढ़ जाता है। झूठ बोलने वाला कंपता है, सच बोलने वाला नहीं कंपता। अब तो हमने यंत्र खोज लिए, जिनसे आपका झूठ बोलना फौरन पकड़ा जाता है। क्योंकि आपका कंपन यंत्रों में खबर देता

है, ग्राफ बन जाता है नीचे कि आप कंप रहे हैं और किस मात्रा में कंप रहे हैं।

पश्चिम की अदालतों में लाई-डिटेक्टर्स का उपयोग शुरू किया है और आप उससे बच नहीं सकते, आप कुछ भी करें। आपसे कुछ सवाल पूछे जाते हैं। पूछा जाता है, इस समय घड़ी में कितना बजा है। घड़ी सामने अदालत में लगी है। झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। आप कहते हैं, बारह बजे हैं। नीचे की वह जो मशीन है, वह काम करना शुरू कर देती है कि अभी यह आदमी नहीं कंप रहा है, अभी इसमें कोई कंपन नहीं है। क्योंकि कंपन तो इलेकिटरकल है। पूरा शरीर विद्युत की तरंगों से भर जाता है, तो विद्युत की तरंगें यंत्र पकड़ लेता है। आपके पैर के नीचे यंत्र लगा है, वह कह रहा है, ठीक अभी यह आदमी नहीं कंप रहा है। आपसे पूछा जाता है, इस कपड़े का रंग क्या है? आप कहते हैं नीला है। अभी भी नहीं कंप रहा है। ऐसे दस-पांच प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनमें आप झूठ बोल ही नहीं सकते।

फिर आपसे पूछा जाता है, क्या आपने चोरी की? छाती में धक्का लगता है, नीचे यंत्र में भी धक्का लग जाता है। भीतर आप जानते हैं चोरी की है और ऊपर आप कहते हैं, नहीं की है। दो हिस्से हो गए। आप इकट्ठे नहीं हैं, बंट गए। क्योंकि आप दुनिया को झूठ कह दें कि चोरी नहीं की, आप अपने को कैसे झूठा कहेंगे? भीतर आप जानते हैं कि चोरी की और बाहर आप कहते हैं, चोरी नहीं की। आपकी तरंगें विभाजित हो गईं। नीचे ग्राफ कट गया, और आपके हृदय की धड़कन बढ़ गई। और आपके हाथ-पैर की विद्युत-धारा गतिमान हो गई। अब आप कंपने लगे। अब आप जानते हैं, कहीं मैं पकड़ा न जाऊं, कहीं यह बात खुल न जाए, कहीं कोई गवाह न मिल जाए, यह बात तो झूठ है। अब आप बचाव में पड़ गए। यह यंत्र नीचे पकड़ लेगा।

जब आप असत्य बोलते हैं, तब आप कंपते हैं। जितना आप कंपते हैं, उतना आप भय को शक्ति दे रहे हैं। क्योंकि भय कंपन है, जब आप क्रोध करते हैं, तब आप कंपते हैं। जब आप घृणा करते हैं, तब आप कंपते हैं। आप भय को बढ़ा रहे हैं। तो जो घृणा से भरा है, क्रोध से भरा है, विद्वेष से भरा है,र् ईष्या से भरा है, वह भय को बढ़ा रहा है। ए सब भय के भोजन हैं।

शील का अर्थ हैः भय के भोजन से बचना। जिनसे भय बढ़ता है और कंपन बढ़ता है, वैसे कामों, विचारों से बचना, ताकि कंपन कम हो जाए।

ठीक इसके विपरीत बात भी है। क्योंकि कुछ चीजें हैं, जिनसे कंपन बढ़ता है और कुछ चीजें हैं, जिनसे कंपन घटता है। अगर घृणा से बढ़ता है, तो प्रेम से घटता है। इसलिए जब हम गहरे प्रेम में होते हैं, तो भय नहीं पकड़ता। प्रेमी भयभीत होते ही नहीं। और जो एक दूसरे से भयभीत हैं, उनके बीच प्रेम का पुष्प कभी पैदा नहीं हो पाता। कोई उपाय नहीं। क्योंकि भय और प्रेम का कोई संबंध नहीं। सबसे धोखा

हो जाता है। घृणा से कंपन बढ़ता है, आपका रोआं-रोआं कंप जाता है। आप वस्तुतः कंपन अनुभव कर सकते हैं। यंत्रों की कोई जरूरत नहीं। क्रोध में आप कंपते हैं। यह कंपन आपके पूरे शरीर की विद्युत धारा में फैल जाता है। प्रेम में आप स्थिर हो जाते हैं।

पश्चिम का एक मनोवैज्ञानिकों का समूह कुछ बंदरों पर प्रयोग कर रहा

था, छोटे बंदर के बच्चों पर। प्रयोग अनूठा है और बड़ी कीमती उसकी निष्पत्तियां हैं। उन्होंने इन छोटे बच्चों के लिए दो झूठी बंदरियां बनाईं। उनकी माताओं का काम करेंगी वे झूठी बंदरियां। एक थी सिर्फ तारों की बनी हुई मादा, स्तन थे उसके और स्तन से दूध बच्चों को मिलने वाला था। लेकिन तारों का बना हुआ पूरा ढांचा था। और दूसरी मादा थी, उससे दूध मिलने वाला नहीं था, लेकिन वह ऊन से बनी हुई थी। ढांचा ऊन का था। और भीतर उसके बिजली चल रही थी, जिससे वह तप्त थी। बंदर दूध पीने तो चले जाते थे तार वाली मां के पास; लेकिन बस दूध पी कर हट जाते थे। और तत्क्षण चले जाते थे उस मां के पास, जहां उन्हें गर्मी का अनुभव होता; उससे लिपटे रहते। अनुभव यह हुआ कि अगर बंदरों को भयभीत कर दिया जाए, तो फिर वे दूध पीने भी नहीं जाते थे दूसरी मां के पास; भूखे रह जाते। लेकिन उस मां के पास रहते, जिससे उन्हें प्रेम की गर्मी का आभास होता। तार वाली मां के पास वे कंपते रहते, ऊन वाली मां के पास वे शांत हो जाते। उनका कंपन बंद हो जाता। भरोसा। कोई प्रेम भी नहीं है वहां, केवल गर्मी है। लेकिन भरोसा–खयाल है कि वहां प्रेम की गरमाहट है, वह उनको आश्वस्त कर देती है।

फिर इन मनोवैज्ञानिकों ने कुछ बंदरों को तार वाली मां के पास ही बड़ा किया और कुछ बंदरों को ऊन वाली मां के पास बड़ा किया। ऊन वाली मां के पास जो बच्चे बड़े हुए, वे कम भयभीत होते थे, तार वाली मां के पास जो बच्चे पैदा हुए, बड़े हुए, वे सदा भयभीत रहते थे, सदैव कंपते रहते, डरे रहते थे।

प्रेम के क्षण में भय कम होता है। आपको प्रेम के क्षण में जो सुखद अनुभूति होती है, वह भय के कम होने की है। और अगर प्रेम वस्तुतः पूरी युग में भी शांति से जा सकता है बिना भयभीत हुए।

तो घृणा है शील के विपरीत, प्रेम है शील। क्रोध शील के विपरीत है। अक्रोध, क्षमा, शील, आप खोज लें। जिस-जिससे आपका कंपन बढ़ता हो, वह शील नहीं है। और जिस-जिससे आपका कंपन कम होता हो, आपका भय क्षीण होता हो, वह शील है। अगर महावीर और बुद्ध अभय हैं, तो अभय होने का कारण यह नहीं कि आप उनको छुरा मारेंगे, तो वे नहीं मर जाएंगे। मर ही जाएंगे। कि आप उनको जहर दे देंगे, तो वे नहीं मरेंगे। मर ही जाएंगे। अभय है तो इस कारण कि उनके भीतर जिन-जिन चीजों से कंपन पैदा होता था, उनके भोजन-स्रोत समाप्त कर दिए गए। भय को भी भोजन चाहिए। हम भय को इकट्ठा कर रहे हैं और भोजन भी दे रहे हैं!

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं भय से छूटना है। लेकिन अगर मैं उनसे कहूं कि तब क्रोध से, घृणा से,र् ईष्या से छूटना पड़ेगा। क्रोध से सीधा नहीं छूटा जा सकता, भय से सीधा नहीं छूटा जा सकता। भय से छूटना चाहें और भय के सारे भोजन जुटाते रहें, तो छूटना कैसे हो सकेगा? तब आप अपने ही विपरीत काम में लगे हैं।

बुद्ध ने शील को सुरक्षा कहा है। शील में सत्य, प्रेम, करुणा, क्षमा सब आ जाते हैं। वे सब गुण जो आपके भीतर से भय को विसर्जित कर देते हैं।

“शील का अभाव हो, तो यात्री के पांव लड़खड़ाते हैं और चट्टानी पथ पर कर्म के पत्थर उसके पांव को लहूलुहान कर देते हैं। ‘

तो ध्यान रखना, धर्म के लिए शील का मूल्य नीति का मूल्य नहीं। इसलिए नहीं सत्य बोलना कि झूठ बोलने से दूसरों को हानि होती है। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं। इसलिए क्रोध मत करना कि दूसरों को दुख होता है। इससे भी धर्म का कोई लेना-देना नहीं। यह नैतिक व्यवस्था की बात है। धर्म उन्हीं शब्दों का उपयोग करता है। लेकिन उसका प्रयोजन भिन्न है।

धर्म कहता है, इसलिए झूठ मत बोलना कि झूठ बोले कि तुम कंपे और तुम कंपे कि आगे की यात्रा असंभव है। इसका दूसरे से कोई संबंध नहीं है। दूसरे को लाभ हो जाएगा, लेकिन वह प्रयोजन नहीं। तुम असत्य बोले कि कंपे। फिर इन कंपते पैरों से उस पर्वत-शिखर पर नहीं जाया जा सकता, जो कि परम अनुभव है। और उसके बिना जीवन सदा नरक बना रहेगा। क्रोध से दूसरे को हानि होती है निश्चित। लेकिन क्रोध न करेंगे तो दूसरे को लाभ होगा; वह भी निश्चित है। पर धर्म के लिए वह प्रयोजन नहीं है। वह गौण है, बाई-प्रोडक्ट, उप-उत्पत्ति है। एक आदमी गेहूं बोता है, भूसा भी पैदा हो जाता है; भूसा पैदा करने के लिए कोई गेहूं नहीं बोता है। गेहूं ही पैदा करने के लिए बोता है; भूसा भी पैदा हो जाता है, वह दूसरी बात है। ठीक भूसा जैसी है नीति, धर्म के लिए। वह पैदा होती है, पर वह लय नहीं है। आप ही हैं लय। और तब धर्म एक वैज्ञानिक व्यवस्था हो जाती है। तब मामला साफ है।

इसलिए नहीं कहते आपसे कि क्रोध मत करो कि दूसरे को दुख देना बुरा

है और दूसरों को दुख दोगे, तो नरक चले जाओगे। नहीं इसलिए क्रोध मत करो कि क्रोध के कारण तुम अभी नरक में हो। चले जाओगे, यह फिजूल की बात है। वह भी तरकीब है हमारी कि इसे आगे रखेंगे तो उपाय बना सकते हैं। बीच में कुछ क्रोध कर लेंगे, माफी मांग लेंगे। इसके पहले कि नरक जाएं, क्षमा कर लेंगे, कसम खा लेंगे, व्रत ले लेंगे, कुछ पुण्य कर लेंगे, कुछ दान कर लेंगे, तीर्थ-यात्रा कर आएंगे। तो इसके पहले कि नरक में ढकेले जाएं, हम कुछ इंतजाम कर लेंगे, समय अगर मिल जाए। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, समय बिलकुल नहीं है। समय है ही नहीं। क्रोध किया कि आप नरक में हैं। दोनों के बीच उपाय नहीं है क्षण भर का भी। प्रेम किया

कि आप स्वर्ग में हैं। दोनों के बीच में जगह, अंतराल नहीं है।

साधक के लिए तो दृष्टि इस पर ही टिका रखनी है। इस खोज में, दुख के पार ले जानेवाली खोज में–कौन उसके पैरों को मजबूत करेगा, क्या उसके पैरों को मजबूत करेगा? वही नीति है, वही शील है।

“ओ साधक, अपने पांवों को दृढ़ कर । क्षांति (धैर्य) सत्व में अपनी आत्मा को नहला, क्योंकि अब तू उसी के नाम के द्वार को पहुंच रहा है–बल और धैर्य का द्वार। ‘

अपने पांवों को दृढ़ कर

इसका मतलब इतना ही है कि ऐसा कुछ भी मत कर, जिससे तू कंपे। ऐसा कुछ कर, जिससे तेरा कंपन न हो, तू ठहर सके, खड़ा हो सके। पैरों में बल शारीरिक बात नहीं है, पैरों में बल आत्मिक बात है। वह जो पैरों में खड़े होने का बल है इस पथ पर, वह तभी आएगा जब मेरे भीतर कंपती हुई आत्मा अकंप हो जाए। जैसे कि किसी रों से मजे से चला जा सकता है। सच तो यह है कि वहां जितने कंपते पैर हों, उतनी ही यात्रा सुगम होती है। संसार के रास्ते पर कंपते पैर ठीक हैं। वह पूरा रास्ता ही कंप रहा है। वहां पैरों को ठहराने का उपाय ही नहीं है। और वहां जितने आपके कंपते हैं पैर, उतनी आप तेजी से यात्रा कर लेंगे। वहां ठहरे हुए आदमी की कोई गति नहीं है; वहां तो भागते-दौड़ते आदमी की गति है।

लेकिन संसार के पार, उसे हम सत्य कहें, मुक्ति कहें, परमात्मा कहें, जो भी नाम दें, उसकी तरफ जाने वाले आदमी के पैर अकंप चाहिए।

कैसे होंगे अकंप?

धैर्य से।

हम कंप क्यों जाते हैं इतनी जल्दी?

धैर्य की बड़ी कमी है। थोड़ी भी प्रतीक्षा नहीं कर पाते, रत्तीभर नहीं रुक पाते।

हमारी हालत वैसी है, जैसे छोटे बच्चे हैं। छोटे बच्चे आम की गोई को बो देते हैं जमीन में लेकिन घड़ी आधी घड़ी में उखाड़ कर फिर देखते हैं कि अभी तक अंकुर आया कि नहीं? अंकुर कभी नहीं आएगा; क्योंकि दिन में दस बार तो वह निकाल ली जाएगी जमीन से। अंकुर आ सकता था, एक महीने, दो महीने की प्रतीक्षा करनी जरूरी थी। पानी देना जरूरी था। और गोई छिपी रहे जमीन के गर्भ में, यह जरूरी था। उसे बार-बार निकाल लेना खतरनाक है। और हम सब छोटे बच्चे हो दिन में भी हो सकता है, लेकिन तब बड़ा धैर्य चाहिए। तीन जन्मों में भी न होगा, धैर्य की कमी हो तो।

धैर्य प्रयास को गहराई दे देता है; अधैर्य उथलापन ला देता है।

अधैर्य की वजह से हम ऊपर ही ऊपर रह जाते हैं। धैर्य तीव्रता देता है और गहराई में उतरने की संभावना बन जाती है।

महाकाश्यप बुद्ध के पास आया। तो बुद्ध से महाकाश्यप ने पूछा कि कितना समय लगेगा? कब आएगी वह घड़ी जब मैं भी बुद्ध हो जाऊंगा? बुद्ध ने कहा, अगर तूने दोबारा पूछा तो समय बहुत लग जाएगा। फिर मैं भी तेरी कोई सहायता नहीं कर सकता। अभी तू क्षम्य है, नया-नया पहली दफा आया है। पूछ लिया कोई हर्ज नहीं। अब दोबारा मत पूछना, तो जल्दी हो सकती है बात।

फिर महाकाश्यप का दूसरा ही उल्लेख है। बस दो ही उल्लेख हैं बुद्ध के जीवन में महाकाश्यप के। और वह उनका सबसे कीमती शिष्य था। एक यह उल्लेख है और एक और उल्लेख है कि वर्षों बाद, कोई चालीस वर्ष बाद, एक दिन बुद्ध आकर मौन बैठ गए हैं मंच पर। उनके हाथ में एक कमल का फूल है, और वह उस फूल को देखे चले जाते हैं। और हजारों लोग इकट्ठे हुए हैं और वे सुनना चाहते हैं। और बुद्ध बोलते नहीं, मौन बैठे हैं और उस फूल को देखे चले जाते हैं। ऐसा कभी न हुआ था। आखिर किसी ने खड़े होकर कहा कि यह कब तक चलेगा। हम सुनने आए हैं दूर से, आप चुप बैठे हैं। तो बुद्ध ने कहा, जो मैं शब्दों से कह सकता था, वह मैं कई बार कह चुका। आज मैं वह कह रहा हूं, जो शब्दों से नहीं कहा जा सकता। अगर कोई समझता हो, तो इशारा करे। हजारों लोग इकट्ठे थे, सन्नाटा छा गया। शब्द ही समझ में नहीं आते थे, तो निःशब्द क्या समझ में आएगा!

लेकिन एक खिलखिलाहट की आवाज भीड़ में गूंजी। और बुद्ध ने कहा कि मालूम होता है महाकाश्यप है; पकड़ो उसे, भाग न जाए। चालीस साल पहले इस आदमी की वाणी सुनी थी, आज इसकी हंसी सुनी। बुद्ध ने कहा, महाकाश्यप क्यों हंसता है तू? क्या हुआ तुझे? तो महाकाश्यप ने कहा, जिसकी प्रतीक्षा कर रहा था, वह हो गया। शब्द से नहीं हुआ, आपके मौन से हो गया। तो बुद्ध ने वह फूल, जो उनके हाथ में था, वह महाकाश्यप को दिया और कहा कि जो मैं शब्दों से दे सकता था, मैंने दे दिया सबको; और जो मैं शब्दों से नहीं दे सकता था, वह मैं महाकाश्यप को देता हूं।

फिर महाकाश्यप की एक अलग परंपरा बनी शिष्यों की, जिसमें मौन हस्तांतरण की व्यवस्था हुई। उसमें अट्ठाईस महागुरु हुए भारत में। और शिष्य को तभी दान मिला उस ज्ञान का, जब वह इस घड़ी में आ गया धैर्य की। वर्षों क्षांति, प्रतीक्षा। और जरा भी अधैर्य नहीं कि कब हो। कब होने का सवाल ही नहीं, ना भी हो, तो चलेगा। जब इस अवस्था में कोई शिष्य आ गया, तो फिर महाकाश्यप की परंपरा का सूत्र मिला।

बोधिधर्म उसमें अट्ठाईसवां गुरु हुआ महाकाश्यप के बाद। और कहते हैं, बोधिधर्म भारत भर में घूमा, लेकिन कोई आदमी न मिल सका, जो इतना धैर्यवान हो, जिसे वह मौन में कुछ कहे और वह ले ले। तो उसे चीन जाना पड़ा। और तब चीन में छह गुरुओं की परंपरा चली। लेकिन फिर सातवां आदमी नहीं खोजा जा सका। वह जो फूल बुद्ध ने महाकाश्यप को दिया था, वह बड़ा पुरस्कार था महाकाश्यप के सतत मौन का और धैर्य का, चुपचाप प्रतीक्षा का।

इस महापथ पर जो यात्रा करते हैं, धैर्य के सत्व में उन्हें अपनी आत्मा को नहलाना होगा, उन्हें अनंत प्रतीक्षा की तैयारी करनी होगी। ऐसा नहीं है कि उन्हें अनंत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। यही उल्टी बात है। अनंत प्रतीक्षा की तैयारी होगी, तो क्षण भर में भी हो सकता है। और इसी क्षण पाने की चेष्टा होगी, तो अनंत में भी नहीं होगा। होने का मार्ग ही है कि मैं राजी हूं प्रतीक्षा के लिए। रोकने का उपाय यही है कि अभी हो। जीवन में जो भी महत्तर है वह ऐसा नहीं होता। अधैर्य के साथ उसका कोई संबंध नहीं। जो भी महान है जीवन में, उसकी पात्रता के लिए उतनी ही महान प्रतीक्षा चाहिए। हम परमात्मा को भी ऐसे चाहते हैं, जैसे बाजार गए हों, और कोई सामान खरीद लाए!

परमात्मा कोई वस्तु नहीं है। यह थोड़ा कठिन मालूम पड़ेगा।

परमात्मा एक भाव-दशा है, वस्तु नहीं।

और धैर्य, अनंत धैर्य ही आप में उस भाव-दशा को पैदा कर देता है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। कोई आता नहीं है बाहर से; आप ही मौन प्रतीक्षा करते-करते परमात्मा हो जाते हैं।

यह जल्दबाजी–अभी हो जाए–आपके भीतर उपद्रव बनाए रखती है; तूफान चलता रहता है। धैर्य में तूफान अपने आप खो जाता है। बुद्ध का बहुत जोर था, महावीर का बहुत जोर था धैर्य पर। और दुनिया

में कोई भी अध्यात्म की धारा नहीं है, जहां धैर्य पर जोर न हो। आपने पूछा कि कब होगा। जान लेना कभी न होगा। आप चुप रहे, मन में यह सवाल ही न उठे कि कब होगा अभी भी हो सकता है, इसी क्षण भी हो सकता है।

“धैर्य के सत्व में अपनी आत्मा को नहला’

चौबीस घंटे, जहां तक बन सके, जिस बात में भी बन सके, धैर्य रखना। और अगर थोड़े से आपको धैर्य के अनुभव हो जाएं, तो फिर आप अधैर्य कभी न करेंगे। सच तो यह है कि अधैर्य करके हम बिगाड़ते हैं सब। अधैर्य करके हम ही बिगाड़ देते हैं। फिर जितना बिगड़ जाता है, उतना अधैर्य और बढ़ जाता है। धैर्य करके हम साथ देते हैं और जितना धैर्य का साथ होता है, उतनी सफलता हो जाती है। सफलता हो जाती है, तो और भरोसा बढ़ जाता है और धैर्य की संभावना बढ़ जाती है। जीवन में दुष्टचक्र निर्मित होते हैं, आप अधैर्य करते हैं, काम बिगड़ जाता है। तो आप सोचते हैं कि इतना अधैर्य किया, तब भी बिगड़ गया। अगर धीरज रखते तो कहीं के न रहते, तो और अधैर्य करो, और जल्दबाजी मचाओ।

मौसमी फूल उगाने हों, तो अधैर्य चल भी सकता है। लेकिन ऐसे वृक्ष लगाने हों जो कि शाश्वत हों, सनातन हों, और जिनमें फूल सदा ही आते रहें, और जो सदा युवा हों, सदा हरे हों, ऐसे शाश्वत वृक्ष लगाने हों, तो फिर मौसमी फूल लगाने वाला जो मन है, वह काम नहीं आएगा। उससे बचना होगा। भूमि चाहिए धैर्य की, तभी शाश्वत के बीज पनपते हैं। सूत्र कहता है, अपनी आंखों को बंद मत कर, और दोरजे (सुरक्षा के वज्र) से अपनी दृष्टि को मत हटा। काम के बाण उस व्यक्ति को विद्ध कर देते हैं, जो विराग को प्राप्त है और क्या है? हड्डियां हैं, मांस है, मज्जा है, सौंदर्य कहां है? क्या है? इसका स्मरण रखो। इस स्मरण को गहरा करो, तो सुंदर स्त्री दिखाई पड़कर जो आकर्षण की धारा भीतर पैदा हो जाती है, जो वासना जग जाती है, उसके विपरीत एक कवच निर्मित हो जाएगा। सुंदर स्त्री के दिखाई पड़ने पर तब आपके भीतर कुछ भी न होगा। बुद्ध ने कहा है, स्त्री को उसके शरीर को भेदकर देखो। धन आकर्षित करे, तो धन के प्रति सजग होकर देखो कि उससे किसी को क्या मिला है? किसी को क्या मिल सकता है? लोभ पकड़े, क्रोध पकड़े, जो भी पकड़े, उसे सजग होकर देखो कि उससे क्या मिला है? और किसको क्या मिल सकता है? और तुम क्या पा सकोगे? अगर यह प्रतीति और यह विचार और यह निरीक्षण निरंतर चलता रहे, तो विराग का जन्म होता है।

विराग दोरजे है। विराग एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है अपने चारों तरफ, चित्त के चारों तरफ एक सुरक्षा की दीवाल निर्मित करने की। तिब्बत में जब भी कोई साधक गहरी साधना में जाना चाहता है, तो गुरु पूछता है, क्या तुझे दोरजे उपलब्ध हो गया? अगर दोरजे मिल गया हो, तो ही आगे बढ़; क्योंकि खतरे हैं बिना दोरजे के।

साधारण आदमी को इतना खतरा नहीं है जितना साधक को खतरा है। साधारण आदमी को इतनी सुरक्षा की जरूरत भी नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे साधारण नागरिक को कोई रक्षा-कवच पहनने की जरूरत नहीं है। लेकिन सैनिक युद्ध के मैदान पर जाए, तो उसे रक्षा-कवच की जरूरत है। साधारण आदमी ठीक है, वासनाओं से बिंध जाता है। तीर छिद जाते हैं, चलता जाता है।

लेकिन साधक तो किसी बड़ी यात्रा पर निकला है, जहां उसकी शक्ति अगर इन क्षुद्र बातों में खोती है, तो यात्रा असंभव हो जाएगी। और पहाड़ियों से गिरने का खतरा है। समतल भूमि पर तो आदमी चल भी सकता है। तो तिब्बत में वे कहते हैं कि उस यात्रा पर निकलने के पहले रक्षा-कवच, दोरजे, वज्र-कवच चाहिए। बौद्धों का एक संप्रदाय है वज्रयान। पूरी परंपरा ही इस वज्र के निर्मित करने पर खड़ी है। और यह वज्र निर्मित होता है।

अब तक तो ऐसा था कि यह बात सिर्फ ऐसी लगती थी काल्पनिक होगी, लेकिन अब तो वैज्ञानिक जांच की भी सुविधा है। अब ऐसे यंत्र निर्मित हो गए हैं, जो आपके पास रख दिए जाएं, तो आपकी विद्युतत्तरंगों की खबर देते हैं। अगर आप क्रोध से भरे हैं, तो यंत्र खबर देता है। अगर आप प्रेम से भरे हैं तो यंत्र खबर देता है। अगर आप बैठे हैं और एक सुंदर स्त्री आपके पास से निकले तो यंत्र खबर देता है कि आप प्रभावित हुए कि नहीं। एक हीरा आपके सामने पड़ा हो तो यंत्र खबर देता है कि आप लालायित हुए या नहीं। क्योंकि जब आप लालायित होते हैं तो आपकी विद्युत-ऊर्जा उस हीरे की तरफ बहनी शुरू हो जाती है। और जब लालायित नहीं होते तो आपके पास से कोई विद्युत-ऊर्जा नहीं बहती। हीरा वहां पड़ा होता है, आप यहां होते हैं, दोनों के बीच कोई संबंध नहीं होता। इस अवस्था का नाम विराम है।

भर्तृहरि के संबंध में कथा है। वह सारा राज्य छोड़कर चले गए। और वह असाधारण व्यक्ति थे भर्तृहरि। क्योंकि उन्होंने राग को इतना जाना, जितना शायद ही किसी ने जाना हो। उन्होंने भोग को इतना जाना, जितना शायद ही किसी ने जाना हो। और स्वभावतः जो भोग को इतना जान लेगा वह उससे छूट जाएगा।

अज्ञान में ही बंधन है।

और भर्तृहरि इतना भोगे कि ऊब गए। किताब लिखी है “शृंगार शतक’। उसमें बड़ी प्रशंसा की है सौंदर्य की, भोग की, राग की। इस संसार की प्रशंसा में वैसे वचन फिर नहीं कहे गए। उतना अनुभव का आदमी भी नहीं हुआ, जिसने शरीर में, काम में, यौन में ऐसी गति पाई हो–संसार जैसे परम अर्थों में भोगा गया है। लेकिन व्यर्थ हो गया।

फिर भर्तृहरि छोड़कर चले गए। दो किताबें लिखी हैं उन्होंने। फिर दूसरी किताब लिखी “वैराग्य शतक’। एक था “शृंगार शतक’। फिर लिखा “वैराग्य शतक’।

भर्तृहरि जंगल में बैठे हैं एक दिन, तो एक बड़ी अदभुत घटना घटी। एक वृक्ष की आड़ में ध्यान कर रहे हैं। एक घुड़सवार दौड़ता हुआ आया। और जिस वक्त घुड़सवार की नजर नीचे गई, उसी वक्त भर्तृहरि की भी नजर नीचे गई। देखा कि बहुत बड़ा हीरा रास्ते पर पड़ा है। और उसी क्षण दूसरी तरफ से भी एक घुड़सवार आया और उसकी भी नजर हीरे पर पड़ी। एक क्षण में यह सब हो गया। और दोनों घुड़सवारों की तलवारें निकल गईं। क्योंकि वह हीरा दोनों को दिखाई पड़ गया था। और भर्तृहरि को भी दिखाई पड़ रहा है। दोनों ने तलवारें हीरे के पास टेक दीं और दोनों ने कहा कि नजर मेरी पहले पड़ी है और मालिक मैं हूं। थोड़ी ही देर में खून-खराबा हो गया। दोनों की छातियों में तलवारें घुस गईं। थोड़े ही क्षण में दोनों की लाशें पड़ी थीं और खून पड़ा था चारों तरफ। हीरा अपनी जगह पड़ा था।

भर्तृहरि हंसने लगे। उन्होंने कहा, अदभुत, जिसकी मालकियत की कोशिश की गयी और हीरे पड़े रह जाते हैं।

उस घड़ी अगर हम कुछ झांक सकते तो दो आदमी तीव्र वासनाओं से भरे हुए हीरे पर टिके थे। वे तलवारें ही हीरे के पास नहीं टिक गई थीं, उन दोनों की आत्माएं भी बाहर निकल कर उस हीरे के पास टिक गई थीं। तभी तो कोई अपनी जान दे को तैयार हो जाता है। वह हीरा उनके सारे जीवन के सत्व को खींच लिया। हीरे ने खींचा, ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि हीरे का कोई कसूर नहीं। हीरे को पता ही नहीं। वे खुद ही खिंच गए, असुरक्षित थे, कोई दोरजे उनके पास न था।

यह एक आदमी भर्तृहरि भी वहीं बैठा था। और यह हंसने लगा और इसे बड़ी हंसी आई, क्योंकि जीवन का सारा उपद्रव प्रत्यक्ष हो गया उस घटना से। यह सारा संघर्ष व्यक्तियों का, समाजों का, राष्ट्रों का, सब प्रगट हो गया–उस छोटी से घटना से। जिस पर हम लड़ते हैं, वह पड़ा रह जाता है और हम नष्ट हो जाते हैं।

भर्तृहरि ने आंखें बंद कर लीं। यह भर्तृहरि दोरजे में है। वह हीरा वहां पड़ा है, भर्तृहरि भी वहां हैं, लेकिन दोनों के बीच कोई संबंध निर्मित नहीं हो रहा है। भर्तृहरि यात्रा पर नहीं निकल रहे हैं हीरे की तरफ।

जीवन को जो जितना सजग होकर देखेगा, उतनी ही उसकी वासना क्षीण होती है और विराग का जन्म होता है।

विराग कोई राग की दुश्मनी नहीं, राग का अभाव है। इसलिए आप उनको विरागी मत समझ लेना, जो भागते हैं। यहां यह भी हो सकता था। भर्तृहरि देखते हीरे को और भाग खड़े होते वहां से कि यहां हीरा पड़ा है, यहां मैं नहीं रुक सकता–इसका मतलब था कि राग था, दोरजे नहीं था पास में। जो लोग भागते हैं संसार से, उनके पास दोरजे नहीं है, अन्यथा भागने की कोई जरूरत नहीं है। भागते इसलिए हैं कि डर है। अगर थोड़ी देर रुके तो हीरा जीत जाएगा और मैं हार जाऊंगा। इसलिए रुको ही मत। हीरा दिखे कि भाग खड़े होओ।

लेकिन भागने में ही तुमने खबर कर दी कि तुम्हारी यात्रा हीरे की तरफ हो गई। वह पत्थर का टुकड़ा न रहा, हीरा हो गया। और हीरा होते ही वासना प्रवेश कर गई। नहीं तो पत्थर का टुकड़ा है।

जो भागता है संसार से, वह विरागी नहीं है, वस्तुतः वह विपरीत रागी है। उसका भी राग है, लेकिन शीर्षासन करता हुआ राग है। वहां सिर टेक दिया है उसने, जहां आपके पैर टिके हैं। और मैं मानता हूं कि जहां पैर टिके हैं, वहां सिर टेकना कोई अच्छी बात नहीं। और उल्टा उपद्रव हो गया। पैर ही ठीक थे, हीरे पर सिर टेकने की क्या जरूरत?

विराग का अर्थ है: वह जो खींचता था, अब नहीं खींच पाता, क्योंकि मैं सुरक्षित हूं, क्योंकि मुझे दिखाई पड़ गई राग की व्यर्थता।

समझें इस फर्क को।

राग सार्थक है दोनों हालत में। अगर मैं हीरे को पकडूं, और राग सार्थक है विपरीत हालत में अगर मैं हीरे से भागूं। क्योंकि दोनों हालत में हीरा वजनी है और मैं कमजोर हूं। या तो हीरा अपनी तरफ खींच लेता है या अपने से हटा देता है। लेकिन दोनों हालत में हीरा पड़ा रहता है और मैं गतिवान हो जाता हूं। मैं कंपित हो जाता हूं, हीरा नहीं कंपता। एक पत्थर का टुकड़ा जीत जाता है, और मैं हार जाता हूं। इधर या उधर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन हीरे ने आपको चला दिया, चलायमान कर दिया। हीरे ने संसार निर्मित कर दिया।

यह मन का चलायमान हो जाना ही संसार है।

लेकिन एक और अवस्था भी है कि हीरा भी पड़ा है और आप भी हैं, लेकिन कोई गति नहीं हो रही आपके भीतर से। न हीरे की तरफ कुछ जा रहा है, न हीरे के विपरीत कुछ जा रहा है। कुछ हो ही नहीं रहा; हीरा ही पड़ा है, जैसे कोई भी पत्थर पड़ा हो। और हीरा पत्थर ही है। दिया हुआ मूल्य आदमी का है।

एक कोहिनूर को भी डालना और एक कंकड़ को भी डालना। कंकड़ जरा भी शर्मिदा न होगा कोहिनूर के सामने। और कंकड़ एक बार भी प्रार्थना न करेगा परमात्मा से कि मुझे कोहिनूर बना दो। कोहिनूर भी अकड़ कर नहीं बैठेगा कि मैं कोई हूं, कुछ खास हूं। पत्थर, पत्थर है।

अगर आदमी जमीन पर न हो, तो कोहिनूर में और कंकड़ में क्या फर्क होगा? कोई भी फर्क नहीं होगा। आदमी ने फर्क पैदा किया। आदमी को कोहिनूर पत्थर नहीं है। क्यों पत्थर नहीं है कोहिनूर? कोहिनूर में जो चमक है वह आदमी की वासना की चमक है। वह जो कोहिनूर में दिखाई पड़ रहा है, वह आदमी के भीतर का भाव है। आदमी अपने को उंडेल रहा है कोहिनूर में। और जो देख रहा है, वह अपनी ही सोई ऊर्जा है।

अगर व्यक्ति राग को ठीक से समझता जाए, तो विराग को उपलब्ध होता है। विराग वज्र है। और जब विराग की एक दीवाल चारों तरफ खड़ी हो जाती है तो आप इस भरे संसार में भी संसार से बाहर हो जाते हैं। फिर आप ठेठ बाजार में बैठे हुए हिमालय पर हो सकते हैं।

“अपनी आंखों को बंद मत कर, और दोरजे से अपनी दृष्टि को मत हटा’

संसार से आंखों को बंद मत कर, बंद करने से कुछ हल न होगा। संसार आंखों के भीतर खड़ा हो जाएगा। अगर कुछ करना ही है तो संसार से आंखों को हटा, दोरजे पर लगा; बंद मत कर। वह जो सुरक्षा हो सकती है, उस पर अपनी पूरी दृष्टि को लगा। विराग तेरी समस्त दृष्टि में बस जाए।

“काम के बाण उस व्यक्ति को बद्ध कर देते हैं, जो विराग को प्राप्त नहीं हुआ है। ‘ “कंपन से सावधान। भय की सांस के नीचे पड़ने से धैर्य की कुंजी में जंग लग जाता है और जंग लगी कुंजी ताले को नहीं खोल सकती। ‘

एक तो कुंजी का मिलना मुश्किल है। और मिल भी जाए तो हम उसे जंग लगा लेते हैं। धैर्य की कुंजी में जंग लग जाता है कंपन से, भय से।

“जितना ही तू आगे बढ़ता है, उतना ही तेरे पांव को खाई-खंदकों का सामना करना होता है। और जो मार्ग उधर जाता है, वह एक ही अग्नि से प्रकाशित है–साधक के हृदय में जलने वाली अग्नि से।’

वहां कोई बाहर का दीया साथ न देगा। और वहां कोई बाहरी प्रकाश नहीं है उस रास्ते पर। रास्ता अंधेरा है। और अगर कोई बाहरी प्रकाश के आधार से जा रहा है वहां तो नहीं जा सकेगा। क्योंकि वह अंधकार बाहरी प्रकाश से नहीं मिट सकता। वह अंधकार और तरह का अंधकार है। आपके दीए उसे नहीं मिटा सकेंगे। उस अंधकार को मिटाने के लिए एक ही दीया है, और वह है, साधक के हृदय में जलने वाली साहस की अग्नि।

भय बाधा है, साहस सीढ़ी है।

भय से विपरीत है साहस। साहस का क्या मतलब होता है?

साहस का मतलब होता है, जो अभी नहीं हुआ है, जो अभी प्रकट नहीं, उसके लिए चेष्टा; जो अभी अज्ञात में है, उसके लिए प्रयास।

भय का मतलब है, जो ज्ञात है, उसको पकड़ कर बैठ जाना।

आपका एक पैर जमीन पर है, जब आप एक कदम उठाते हैं जमीन से, तो आप अज्ञात में कदम उठा रहे हैं। अब यह पैर उस जमीन पर पड़ेगा, जिससे आप परिचित नहीं हैं। अगर आप भयभीत आदमी हैं, तो जिस जमीन पर आप खड़े हैं, उसको पकड़े रहें। अगर साहस के आदमी हैं तो जिस जमीन को जान लिया, उसको छोड़ें।

ध्यान रहे, भय पकड़ है, साहस त्याग है।

जो जान लिया, उसे छोड़ें। जिसे पहचान लिया और जिसमें कुछ भी न पाया, अब उसको खोने में डर क्या है? ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि जो जमीन पैर के नीचे है, वह खो जाएगी। लेकिन वह जान ली गई है, जी ली गई है। अब उसका सार क्या है? नई भूमि का खतरा है। पता नहीं भूमि हो भी या न हो। इस खतरे के कारण साहस की जरूरत है। और धर्म की यात्रा तो निरंतर अज्ञात से अज्ञात में है।

जो हम जानते हैं, वह संसार है।

और जो हम नहीं जानते हैं, वह ही परमात्मा है।

उस अनजान में तो साहस की जरूरत पड़ेगी। तो पहले तो भय को हटा देना जरूरी है और फिर साहस को जन्माना जरूरी है।

“एक ही अग्नि से प्रकाशित है वह मार्ग–साधक के हृदय में जलने वाली अग्नि से। जितना ही कोई साहस करता है, वह उतना ही पाता है। और जितना ही वह डरता है, उतनी ही वह ज्योति मंद पड़ जाती है।’

जैसे दीया जलता है बाहर का, तो आपको पता है, आक्सीजन से जलता है, नाइट्रोजन से बुझता है। आक्सीजन न हो पास दीए के हवा में, तो दीया बुझने लगता है। नाइट्रोजन ज्यादा

हो, तो दीया बुझने लगता है। अगर तूफान चल रहा हो, और आपके घर के दीए के लिए डर पैदा हो जाए कि तूफान में बुझ न जाए, तो एक कांच का बर्तन उस पर ढांक देना बचाने के लिए। तूफान शायद न बुझा पाता, वह कांच का

ढंकने वाला बर्तन उसे शीघ्र ही बुझा देगा। क्योंकि कांच के ढंके बर्तन के भीतर बहुत थोड़ी आक्सीजन है; जल्दी ही जल जाएगी दीए में। नाइट्रोजन बचेगी, वह नाइट्रोजन बुझा देगी।

भीतर के दीए में भय नाइट्रोजन है और साहस आक्सीजन। वह भीतर का दीया जलता है जितना साहस हो, बुझता है जितना भय हो। और जैसे नाइट्रोजन और आक्सीजन का अपना रासायनिक विज्ञान है, वैसा ही उस भीतर का भी अपना रासायनिक विज्ञान है। तो सब उपायों से, जिन-जिन उपायों से साहस बढ़े, बढ़ाना है। और जिन-जिन उपायों से भय कम हो, वे-वे उपाय करना। तो ही वह ज्योति जलेगी, जो वहां साथ देगी।

एक साधक अपने गुरु के घर से विदा हो रहा था। रात थी अंधेरी। और उस साधक ने कहा, मैं रात यहीं रुक जाऊं; रात अंधेरी है और रास्ता अजान है, फिर कोई संगी-साथी भी नहीं। तो गुरु ने कहा कि मैं तुझे दीया जलाकर दे देता हूं, तू यह दीया लेकर चला जा। दीया जला कर गुरु ने दे दिया। वह साधक अपने हाथ में दीया लेकर सीढ़ियां उतर गया, तो आखिरी सीढ़ी पर गुरु ने कहा, एक क्षण रुक, और फूंक मार कर दीया बुझा दिया! उस साधक ने कहा, यह क्या खेल करते हैं आप?

गुरु ने कहा, इस अंधेरे रास्ते पर तो मैं तुझे दीया दे दूंगा, लेकिन मैं तुझे उस अंधेरे रास्ते पर कैसे दीया दे सकता हूं? और इस अंधेरे रास्ते पर भी तू बिना दीए के ही चल, अपने ही पैर की रोशनी से। बेहतर है कम से कम तुझे यह तो पता चले, कि अंधेरे में भी चला जा सकता है। तेरा साहस तो बढ़े। और फिर उस रास्ते पर, जिसका तू पथिक है, मैं कोई दीया तुझे न दे सकूंगा। अचानक मुझे खयाल आया, इसलिए मैंने फूंक मारकर बुझा दिया, कि जब असली रास्ते पर दीया न दे सकूंगा, तो नकली रास्ते पर भी दीया देने से क्या सार है। और यह दीया देकर मैं तेरा भय बढ़ा रहा हूं। दीया बुझा कर तेरा साहस बढ़ा रहा हूं। तू अंधेरे में उतर जा, रास्ता मिल ही जाएगा। और खोजना, अंधेरा भी कट ही जाएगा। कोई अंधेरा शाश्वत नहीं है। और फिर मेरे जलाए दीए का भरोसा क्या, मेरी एक फूंक ने बुझा दिया! बाहर देख, कितनी आंधी चल रही है? और जो एक फूंक से बुझ गया है, वह आंधी में बुझ जाएगा। तो जो बुझ ही जानेवाला है, उसे देने का भी क्या प्रयोजन है! अगर मैं तुझे ऐसा दीया नहीं दे सकता, जो बुझे नहीं, तो जो बुझ सकता है, उसे देने का भी कोई अर्थ नहीं।

यह बात मूल्यवान है और ध्यान में रखने की है कि उस रास्ते पर आपके भीतर की ज्योति ही काम पड़ेगी। और भय अगर ज्यादा हुआ, तो ज्योति आपके भीतर की नहीं जग सकती। साहस हुआ, तो जग सकती है।

“वह हृदय-ज्योति वैसी ही है, जैसे किसी ऊंचे पर्वत शिखर पर चमकने वाली सूर्य की अंतिम किरण, जिसके बुझने पर अंधेरी रात का आगमन होता है। जब वह ज्योति भी बुझ जाती है, तब तेरे ही हृदय से निकल कर एक काली और डरावनी छाया मार्ग पर पड़ेगी और तेरे भय-कं

चारों तरफ पड़ती है।

इस जगत और उस जगत के परमात्मा के नियम विपरीत हैं। ठीक ऐसे ही जैसे आप झील के किनारे जाकर खड़े हो जाएं और अगर मछलियां देखती हों झील की तो उन्हें आपका प्रतिबिंब जो दिखाई पड़ेगा, वह उलटा दिखाई पड़ेगा। सिर नीचे होगा और पैर ऊपर होंगे, और मछलियां समझेंगी कि आप उलटे खड़े हैं। लेकिन मछलियों को क्या पता कि झील के बाहर नियम उलटे हैं। झील के बाहर आदमी सीधा खड़ा है। जिनको हम सीधा कहते हैं झील के बाहर, वह झील में उलटा दिखाई पड़ता है। प्रतिबिम्ब उलटे हो जाते हैं। जिसे हम संसार कहते हैं, वह झील के भीतर पड़ा हुआ जगत है। यहां नियम उलटे हैं।

इस सूत्र को समझने के लिए कह रहा हूं कि यहां छाया तभी बनती है आपकी, जब आपके चारों तरफ रोशनी होती है। यहां प्रकाश होता है, तो ही छाया बनती है। वहां जब प्रकाश नहीं होता, तब छाया बनती है। वहां के नियम उलटे हैं। यहां अंधेरे में कोई छाया नहीं बनती। यहां आप अंधेरे में खड़े हो जाए८, तो कोई छाया नहीं बनेगी। इस जगत में छाया बनाने के लिए प्रकाश की जरूरत है। उस जगत का नियम उलटा है। वहां छाया बनती है तब, जब प्रकाश नहीं होता। और छाया मिट जाती है, जब प्रकाश होता है। अगर आपके आसपास अंधेरा पता चलता हो, तो भय को कम करना और साहस को बढ़ाना। यहां हम ध्यान में लगे हैं, वह भी भय कम करने और साहस को बढ़ाने का उपाय है। हजार तरह से यह हो सकता है। कभी छोटी-छोटी बातों से हो जाता है।

एक महिला ने, भारतीय महिला ने मुझे आकर कहा कि विदेशी महिलाएं नग्न हो जाती हैं, हमारी इतनी हिम्मत नहीं है। क्या बिना नग्न हुए घटना न घटेगी? नग्न होने से घटना घटने का कोई संबंध नहीं, संबंध किसी और बात से है। वह बात है भय और साहस की। वह जो सरलता से नग्न खड़ा हो गया, उसने बहुत सा भय छोड़ा है। वह कितना ही क्षुद्र मालूम पड़े कि कपड़े छोड़ने से क्या हुआ, कपड़ा नहीं छोड़ा उसने। कपड़े ही छोड़ा होता, तो कुछ भी न होता। लेकिन कपड़ा छोड़ने के पीछे कपड़े में छिपा हुआ जो भय है, वह भी छोड़ा।

लोग मुझसे आकर पूछते हैं, कपड़ा छोड़ने से क्या होगा? कपड़ा छोड़ने की बात ही नहीं है यहां। लेकिन कपड़ा पकड़े हुए क्यों हैं? और छोड़ने से कुछ नहीं होगा, तो पकड़ने से क्या हो जाएगा? वह जो पकड़ है, वह भय है भीतर। फिर बहाने हम कोई भी खोज ले सकते हैं। क्योंकि हम अपने भय को भी रेशनलाइज करते हैं, उसके भी तर्क बिठाते हैं। वह जो नग्न खड़ा हो जा रहा है, वह एक भय छोड़ रहा है और एक साहस कर रहा है। हो सकता है, शरीर उसका कुरूप हो, और लोग क्या कहेंगे? जिस शरीर को हजारों-हजार–से खुद भी नहीं देखा है दूसरों के देखने का तो सवाल ही नहीं है। उसे लोग देख कर क्या कहेंगे! क्या सोचेंगे! शरीर की नग्नता भी तो अपने को अनावृत छोड़ देना है लोगों के लिए। पागल समझेंगे, अनैतिक समझेंगे, अधार्मिक समझेंगे, बुरा समझेंगे–क्या समझेंगे लोग! वह सारा भय भीतर पकड़ रहा है; उस भय को छोड़ने की बात है। वस्त्र के साथ वह भी कभी गिरता है; वस्त्र के गिरने के साथ कभी भीतर साहस का भी जन्म होता है।

मुझे याद आती है एक घटना। अमेरिका का एक युवा कवि है जिन्सबर्ग। बड़ी अजीब सी घटना उसके कवि सम्मेलन में घटी। केलिफोर्निया में एक कवि सम्मेलन में वह अपने गीत पढ़ रहा था। गीत में ऐसे शब्दों का भी उपयोग था, जिनको हम अश्लील कहते हैं। लेकिन जिन्सबर्ग का यह कहना है कि वे अश्लील शब्द नहीं हैं और हम उन्हें अश्लील इसलिए तो कहते हैं कि शरीर के कुछ अंगों को अश्लील कहते हैं, और वे हमारे अंग भी हैं। और जो है, उसकी कितनी ही निंदा करो, उससे कोई छुटकारा नहीं। जो है, वह है, यथार्थ है। इसलिए वह अश्लील शब्दों का भी सहज प्रयोग करता है। लोग गुस्से में आ गए। और एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि क्या तुम यह समझ रहे हो कि अश्लील शब्दों का कविता में उपयोग कर लिया, तो कोई बड़ा साहस किया।

तो जिन्सबर्ग ने कहा कि अब साहस की ही बात आ गई, तो तुम आ जाओ मंच पर और नग्न हो जाओ, या मैं नग्न हो जाता हूं। वह आदमी घबड़ाया; क्योंकि उसने यह नहीं सोचा था कि मामला यहां आ जाएगा। और जिन्सबर्ग कपड़े उतार कर नग्न खड़ा हो गया। और उसने कहा कि जो मैं कविता में कह रहा हूं, वह कविता में नहीं कह रहा हूं, बल्कि मैं मनुष्य को उसके पूरे यथार्थ में स्वीकार करता हूं। मेरे मन में कोई निंदा नहीं है।

और कितने ही वस्त्र ढांको, आदमी भीतर नंगा है। वस्त्र ढांकने में कुछ भय है। तो उस महिला को मैंने कहा कि नहीं, ऐसी चिंता की कोई बात नहीं है। वस्त्र छोड़ना आवश्यक नहीं है। ध्यान बिना वस्त्र छोड़े भी हो जाता है; हो गया है बहुतों को। बुद्ध ने कभी वस्त्र नहीं छोड़े और ध्यान हो गया। महावीर ने छोड़े और ध्यान हो गया। कोई वस्त्र छोड़ने से ध्यान के होने न होने की बात नहीं है। वह महिला बहुत प्रसन्न हो गई। उसने कहा, तब बिलकुल ठीक है।

क्या बिलकुल ठीक है? कौन सी चीज बिलकुल ठीक है? ध्यान के बहाने भय है, बच गए। ऐसी जटिलता है आदमी के मन की। छोटे-छोटे भी भय छोड़ें। छोटे-छोटे भी साहस करें। एक-एक कदम उठाते-उठाते हजारों मील की यात्रा भी पूरी हो जाती है।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन (भाग-3) प्रवचन–6

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अंतर्यात्रा का विज्ञान (अध्याय—6) प्रवचन—छठवां

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।। 11।।

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।

उपविश्यासने युग्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।। 12।।

शुद्ध भूमि में कुशा, मृगछाला और वस्त्र है उपरोपरि जिसके, ऐसे अपने आसन को न अति ऊंचा और न अति नीचा स्थिर स्थापन करके, और उस आसन पर बैठकर

तथा मन को एकाग्र करके, चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में किया हुआ, अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।

अंतर-गुहा में प्रवेश के लिए, वह जो हृदय का अंतर- आकाश है, उसमें प्रवेश के लिए कृष्ण ने कुछ विधियों का संकेत अर्जुन को किया है।

योग की समस्त विधियां बाहर से प्रारंभ होती हैं और भीतर समाप्त होती हैं। यही स्वाभाविक भी है। क्योंकि मनुष्य जहां है, वहीं से प्रारंभ करना पड़ेगा। मनुष्य की जो स्थिति है, वही पहला कदम बनेगी। और मनुष्य बाहर है। इसलिए योग की कोई भी शुरुआत स्वभावतः बाहर से होगी। हम जहां हैं, वहीं से यात्रा पर निकल सकते हैं। जहां हम नहीं हैं, वहां से यात्रा शुरू नहीं की जा सकती है।

इस संबंध में दोत्तीन अनिवार्य बातें समझ लेनी चाहिए, फिर कृष्ण की विधि पर हम विचार करें।

बहुत बार ऐसा हुआ है। जो जानते हैं, उनका मन होता है आपसे कहें, वहीं से शुरू करो, जहां वे हैं। उनकी बात इंच-इंच सही होती है, फिर भी बेकार हो जाती है।

मैं जहां हूं, अगर मैं किसी दूसरे को कहूं कि वहां से शुरू करो, तो भला बात कितनी ही सही हो, वह दूसरे के लिए व्यर्थ हो जाएगी। उचित और सार्थक तो यही होगा कि दूसरा जहां है, वहां से मैं कहूं कि यहां से शुरू करो।

बहुत बार जानने वाले लोगों ने भी अपनी स्थिति से वक्तव्य दे दिए हैं, जो कि किसी के काम नहीं पड़ते हैं। और उन वक्तव्यों से बहुत बार हानि भी हो जाती है। क्योंकि वहां से आप कभी शुरू ही नहीं कर सकते हैं। सुनेंगे, समझेंगे, सारी बात खयाल में आ जाएगी और फिर भी पाएंगे कि अपनी जगह ही खड़े हैं; इंचभर हट नहीं पाते हैं। क्योंकि जहां आप खड़े हैं, वहां से वह बात शुरू नहीं हो रही है। वह बात वहां से शुरू हो रही है, जहां करने वाला खड़ा है। और यात्रा तो वहां से शुरू होगी, जहां आप खड़े हैं।

मैं अगर मंदिर के भीतर खड़ा हूं, तो मैं आपसे कह सकता हूं कि मंदिर के भीतर आ जाओ। और सीढ़ियों की चर्चा छोड़ सकता हूं। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं, वहां सीढ़ियों का कोई भी प्रयोजन नहीं है। द्वार-दरवाजों की बात न करूं, हो सकता है। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं, अब वहां कोई द्वार-दरवाजा नहीं है। लेकिन आपको द्वार-दरवाजा भी चाहिए होगा, सीढ़ियां भी चाहिए होंगी, तभी मंदिर के भीतर प्रवेश हो सकता है।

जो आत्यंतिक वक्तव्य हैं, अंतिम वक्तव्य हैं, वे सही होते हुए भी उपयोगी नहीं होते हैं।

कृष्ण ऐसी बात कह रहे हैं, जो कि पूरी सही नहीं है, लेकिन फिर भी उपयोगी है। और बहुत बार कृष्ण जैसे शिक्षकों को ऐसी बातें कहनी पड़ी हैं, जो कि उन्होंने मजबूरी में कही होंगी–आपको देखकर, आपकी कमजोरी को देखकर। वे वक्तव्य आप पर निर्भर हैं, आपकी कमजोरी और सीमाओं पर निर्भर हैं।

अब जैसे कृष्ण कह रहे हैं आसन की बात कि आसन न बहुत ऊंचा हो, न बहुत नीचा हो।

जो भीतर पहुंच गया, वहां ऊपर-नीचा आसन, न-आसन, कुछ भी शेष नहीं रह जाते। वैसा भीतर पहुंचा हुआ आदमी कह सकता है, जैसा कबीर ने बहुत जगह कहा है कि क्या होगा आसन लगाने से? सब व्यर्थ है! कबीर गलत नहीं कहते। कबीर एकदम ठीक ही कहते हैं। लेकिन कबीर जो कहते हैं उसमें और आप में इतना बड़ा अंतराल, इतना बड़ा गैप है कि वह कभी पूरा नहीं होगा।

कबीर कहते हैं, क्या होगा मृगछाल बिछा लेने से? ठीक ही कहते हैं, गलत नहीं कहते हैं। मृग की चमड़ी भी बिछा ली, उस पर बैठ भी गए, तो क्या होगा? आत्यंतिक दृष्टि से, आखिरी दृष्टि से कबीर ठीक ही कहते हैं कि क्या होगा? कितने ही मृगचर्म बिछाकर बैठ जाएं, तो होना क्या है?

फिर भी जब कृष्ण कहते हैं, तो कबीर से ज्यादा करुणा है उनके मन में। जब वे अर्जुन से कहते हैं कि मृगचर्म पर बैठकर, न अति ऊंचा हो आसन, न अति नीचा हो, सम हो, ऐसे आसन में बैठकर, चित्त को एकाग्र करे, इंद्रियों के व्यापार को समेट ले, इंद्रियों का मलिक हो जाए–तो ही योग में प्रवेश होता है।

कृष्ण और कबीर के इन वक्तव्यों में इतना फासला क्यों है? देखकर लगेगा कि या तो कृष्ण गलत होने चाहिए, अगर कबीर सही हैं। या कबीर गलत होने चाहिए, अगर कृष्ण सही हैं, जैसा कि सारी दुनिया में चलता है।

हम सदा ऐसा सोचते हैं, इन दोनों में से दोनों तो सही नहीं हो सकते। हां, दोनों गलत हो सकते हैं। लेकिन दोनों सही नहीं हो सकते।

कबीर तो कहते हैं, फेंक दो यह सब। इस सबसे कुछ न होगा। और कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि इस सबसे यात्रा शुरू होगी! क्या कारण है? और मैं कहता हूं, दोनों सही हैं। कारण सिर्फ इतना है कि कबीर वहां से बोल रहे हैं, जहां वे खड़े हैं। और कृष्ण वहां से बोल रहे हैं, जहां अर्जुन खड़ा है। कबीर वह बोल रहे हैं, जो उनके लिए सत्य है। कृष्ण वह बोल रहे हैं, जो कि अर्जुन के लिए सत्य हो सके।

गहरे अर्थों में क्या फर्क पड़ता है? आत्मा का कोई आसन होता है? गङ्ढे में बैठ गए, तो आत्मा न मिलेगी? ऊंची जमीन पर बैठ गए, तो आत्मा न मिलेगी? अगर ऐसी छोटी शर्तों से आत्मा का मिलना बंधा हो, तो बड़ा सस्ता खेल हो गया!

नहीं; आत्मा तो मिल जाएगी कहीं से भी। फिर भी, जहां हम खड़े हैं, वहां इतनी ही छोटी चीजों से फर्क पड़ेगा, क्योंकि हम इतने ही छोटे हैं। जहां हम खड़े हैं, इतनी क्षुद्र बातों से भी भेद पड़ेगा।

कभी ध्यान करने बैठे हों, तो खयाल में आएगा। अगर जरा तिरछी जमीन है, तो पता चलेगा कि उस जमीन ने ही सारा वक्त ले लिया। अगर पैर में एक जरा-सा कंकड़ गड़ रहा है, तो पता चलेगा कि परमात्मा पर ध्यान नहीं जा सका, कंकड़ पर ही ध्यान रह गया! एक जरा-सी चींटी काट रही है, तो पता चलेगा कि चींटी परमात्मा से ज्यादा बड़ी है! परमात्मा की तरफ इतनी चेष्टा करके ध्यान नहीं जाता और चींटी की तरफ रोकते हैं, तो भी ध्यान जाता है!

जहां हम खड़े हैं अति सीमाओं में घिरे, अति क्षुद्रताओं में घिरे; जहां हमारे ध्यान ने सिवाय क्षुद्र विषयों के और कुछ भी नहीं जाना है, वहां फर्क पड़ेगा। वहां इस बात से फर्क पड़ेगा कि कैसे आसन में बैठे। इस बात से फर्क पड़ेगा कि कैसी भूमि चुनी। इस बात से फर्क पड़ेगा कि किस चीज पर बैठे। क्यों फर्क पड़ जाएंगे? हमारे कारण से फर्क पड़ेगा। हमें इतनी छोटी चीजें परिवर्तित करती हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं है!

तो कबीर जैसे लोगों के वक्तव्य हमारे लिए खतरनाक सिद्ध भी हो जाते हैं। क्योंकि हम कहते हैं, ठीक है। कबीर कहते हैं कि क्या आसन? और बिलकुल ठीक कहते हैं। बात बिलकुल ठीक लगती है। लेकिन फिर भी जहां हम हैं, वहां बिलकुल ठीक नहीं है।

और सारे वक्तव्य इस जगत में रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। और जो लोग भी एब्सोल्यूट, निरपेक्ष वक्तव्य देने की आदत से भर जाते हैं, वे हमारे किसी काम के सिद्ध नहीं होते।

जैसे कृष्णमूर्ति हैं। उनके सारे वक्तव्य निरपेक्ष हैं, एब्सोल्यूट हैं, और इसलिए बिलकुल बेकार हैं। सही होते हुए भी बिलकुल बेकार हैं। वर्षों कोई सुनता रहे; वहीं खड़ा रहेगा जहां खड़ा था, इंचभर यात्रा नहीं होगी। क्योंकि जिन चीजों से हम यात्रा कर सकते हैं, उन सबका निषेध है। और बात बिलकुल सही है, इसलिए समझ में आ जाएगी कि बात बिलकुल सही है। समझ में आ जाएगी और अनुभव में कुछ भी न आएगा। और समझ और अनुभव के बीच इतना फासला बना रहेगा कि उसकी पूर्ति कभी होनी संभव नहीं है।

और कृष्णमूर्ति को सुनने वाले, चालीस साल से सुनने वाले लोग कभी मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि हम चालीस साल से सुन रहे हैं। हम सब समझते हैं कि वे क्या कहते हैं। बिलकुल ठीक समझते हैं। इंटलेक्चुअल अंडरस्टैंडिंग हमारी बिलकुल पूरी है। लेकिन पता नहीं, कुछ होता क्यों नहीं है!

अगर उनसे कहो कि आसन ऐसा लगाना, तो वे कहेंगे, आप भी क्या बात कर रहे हैं! आत्मा का आसन से क्या लेना-देना? अगर उनसे कहो कि दृष्टि इस बिंदु पर रखना, वे कहेंगे कि इससे क्या होगा? अगर उनसे कहो, इस विधि का उपयोग करना, तो वे कहते हैं, कृष्णमूर्ति कहते हैं, कोई मेथड नहीं है।

वे बिलकुल ठीक कहते हैं, मगर आप गलत आदमी हैं। और आपको नहीं सुनना चाहिए था उन्हें। बिना विधि के आपने जिंदगी में कुछ भी नहीं किया है, बिना मेथड के कुछ भी नहीं किया है। आपके मन की सारी समझ, आपके चित्त की सारी व्यवस्था मेथड और विधि से चलती है।

एक बहुत बड़ा वक्तव्य आपने सुना कि किसी मेथड की कोई जरूरत नहीं है। आपका वह जो आलसी मन है, वह कहेगा कि बात तो बिलकुल ठीक है, मेथड की क्या जरूरत है! झंझट से भी बच गए। अब कोई विधि भी नहीं लगानी है। कोई आसन भी नहीं लगाना है। कोई मंत्र नहीं पढ़ना है। कोई स्मरण नहीं करना है। कुछ नहीं करना है। मगर कुछ नहीं तो आप पहले से ही कर रहे हैं। अगर पहुंचना होता, तो बहुत पहले पहुंच गए होते। और अब आपको और एक पक्का मजबूत खयाल मिल गया कि कुछ भी नहीं करना है।

ध्यान रहे, कुछ भी नहीं करना इस पृथ्वी पर सबसे कठिन करने वाली बात है। इसलिए आप जिसको समझते हैं, कुछ भी न करना, वह कुछ भी न करना नहीं है।

तो कृष्ण का यह वक्तव्य ऐसा लगेगा कि बड़ा साधारण है, लेकिन साधारण नहीं है। अगर समतुल आसन हो और आपके शरीर के दोनों हिस्से बिलकुल समान स्थिति में भूमि पर हों, कोई हिस्सा नीचा-ऊपर न हो, आपके शरीर को झुकना न पड़े, तो उसके बहुत वैज्ञानिक कारण हैं।

जमीन चौबीस घंटे प्रतिपल अपने ग्रेविटेशन से हमारे शरीर को प्रभावित करती है। उसका गुरुत्वाकर्षण पूरे समय काम कर रहा है। जब आप बिलकुल समतुल होते हैं, तो गुरुत्वाकर्षण न्यूनतम होता है, मिनिमम होता है। जब आप जरा भी तिरछे होते हैं, तो गुरुत्वाकर्षण बढ़ जाता है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण का और आपके शरीर का संबंध बढ़ जाता है। अगर मैं बिलकुल सीधे आसन में बैठा हुआ हूं, तो गुरुत्वाकर्षण बिलकुल सीधी रेखा में, सिर्फ रीढ़ को ही प्रभावित करता है। अगर मैं जरा झुक गया, तो जितना मैं झुक गया, पृथ्वी उतने ही हिस्से में कोण बनाकर गुरुत्वाकर्षण से शरीर को प्रभावित करने लगती है।

इसीलिए तिरछे खड़े होकर आप जल्दी थक जाएंगे, सीधे बैठकर आप कम थकेंगे। तिरछे बैठकर आप जल्दी थक जाएंगे। जमीन आपको ज्यादा खींचेगी। इसलिए लेटकर आप विश्राम पा जाते हैं, क्योंकि लेटकर आप जरा भी तिरछे नहीं होते, पूरी जमीन का गुरुत्वाकर्षण आपके शरीर पर समान होता है।

समान गुरुत्वाकर्षण आधार है कृष्ण के इस वक्तव्य का। जरूरी नहीं है कि कृष्ण को गुरुत्वाकर्षण का कोई पता हो; आवश्यक भी नहीं है। कोई न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण को पैदा नहीं किया है। न्यूटन नहीं था, तो भी गुरुत्वाकर्षण था। शब्द नहीं था हमारे पास कि क्या है। लेकिन इतना पता था कि जमीन खींचती है, और शरीर को चौबीस घंटे प्रतिपल खींचती है।

शरीर को हम ऐसी स्थिति में रख सकते हैं कि जमीन का अधिकतम आकर्षण शरीर पर हो। और जहां शरीर पर अधिकतम आकर्षण होगा, वहां शरीर जल्दी थकेगा, बेचैन होगा, परेशान होगा और चित्त को थिर करने में आपके लिए कठिनाई होगी–कृष्ण के लिए नहीं।

शरीर ऐसी स्थिति में हो सकता है, जहां गुरुत्वाकर्षण न्यूनतम है, मिनिमम है। जिसको हम सिद्धासन कहते हैं, सुखासन कहते हैं, पद्मासन कहते हैं, वे न्यूनतम गुरुत्वाकर्षण के आसन हैं। और आज तो वैज्ञानिक भी स्वीकार करता है कि अगर सिद्धासन में आदमी बहुत दिन तक, बहुत समय तक रह सके, तो उसकी उम्र बढ़ जाएगी। बढ़ जाएगी सिर्फ इसलिए कि उसके शरीर और जमीन के आकर्षण के बीच जो संघर्ष है, वह कम से कम होगा और शरीर कम से कम जरा-जीर्ण होगा।

अगर कृष्ण कहते हैं कि ऐसी भूमि चुनना ध्यान के लिए, जो नीची-ऊंची न हो; बहुत ऊंची भी न हो, बहुत नीची भी न हो। उसके भी कारण हैं। एक आदमी गङ्ढे में भी बैठ सकता है। एक आदमी एक मचान बांधकर भी बैठ सकता है। खतरे क्या हैं? अगर आप गङ्ढे में बैठ जाते हैं, जमीन के नीचे बैठ जाते हैं, तो एक दूसरे नियम पर ध्यान दे देना जरूरी है।

मैं यहां बोल रहा हूं, इस माइक को थोड़ा मैं नीचे कर लूं, अपने हाथ के तल पर ले आऊं, तो मेरी आवाज इस माइक के ऊपर से निकल जाएगी। मेरी ध्वनि तरंगें इसके ऊपर से निकल जाएंगी। यह आवाज मेरी ठीक से नहीं पकड़ पाएगा। इसे मैं बहुत ऊंचा कर दूं, तो भी मेरी ध्वनि तरंगें नीचे से निकल जाएंगी। यह माइक उन्हें पकड़ नहीं पाएगा। यह माइक मेरी ध्वनि तरंगों को तभी ठीक से पकड़ेगा, जब यह ठीक समानांतर, वाणी की तरंगों के समानांतर होगा। मेरे होंठों के जितने समानांतर होगा, उतनी ही सुविधा होगी इसे मेरी ध्वनि पकड़ लेने के लिए।

पूरी पृथ्वी पूरे समय अनंत तरह की तरंगों से प्रवाहित है। अनंत तरंगें चारों ओर फैल रही हैं। इन तरंगों में कई वजन की तरंगें, कई भार की तरंगें हैं। और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जितने बुरे विचारों की तरंगें हैं, वे उतनी ही भारी हैं, उतनी ही हैवी हैं। जितने शुभ विचारों की तरंगें हैं, उतनी हलकी हैं, निर्भार हैं।

अगर आप एक गङ्ढे में बैठकर ध्यान करते हैं, कुएं में बैठकर ध्यान करते हैं, तो आपके संपर्क में इस पृथ्वी पर उठने वाली जितनी निम्नतम तरंगें हैं, उनसे ही आपका संपर्क हो पाएगा। वे तो कुएं में उतर जाएंगी, श्रेष्ठ तरंगें कुएं के ऊपर से ही प्रवाहित होती रहेंगी।

इसलिए पहाड़ों पर लोगों ने यात्रा की। पहाड़ों पर यात्रा का कारण था। कारण थी ऊंचाई, और ऊंचाई से तरंगों का भेद।

तरंगों की अपनी पूरी स्थितियां हैं। हर तल पर विभिन्न प्रकार की तरंगें यात्रा कर रही हैं। और एक तरह की तरंग एक सतह पर यात्रा करती है। तो गङ्ढे के लिए इनकार किया है।

लेकिन आप पूछेंगे कि फिर बहुत ऊंची जगह के लिए क्यों इनकार किया है? क्योंकि ऊंचे जितने हम होंगे, उतनी श्रेष्ठतर तरंगें मिल जाएंगी!

तो वह भी आप ध्यान रख लें। ऊंचे पर श्रेष्ठतर तरंगें मिलेंगी, लेकिन अगर आपकी पात्रता न हो, तो श्रेष्ठतर तरंगें भी सिर्फ आपके भीतर उत्पात पैदा करेंगी। आपकी पात्रता के साथ ही श्रेष्ठतर तरंगों को झेलने की क्षमता पैदा होती है।

आप कितना झेल सकते हैं? हम जहां जीते हैं, वही तल अभी हमारे झेलने का तल है। जहां बैठकर आप दुकान करते हैं, भोजन करते हैं, बात करते हैं, जीते हैं जहां, प्रेम करते हैं, झगड़ते हैं जहां, वही आपके जीवन का तल है। उस तल से ही शुरू करना उचित है; न बहुत नीचे, न बहुत ऊपर।

जहां आप हैं, वहीं आपकी टयूनिंग है। अभी आप वहीं से शुरू करें। और जैसे-जैसे आपकी क्षमता बढ़े वैसे-वैसे ऊपर की यात्रा हो सकती है। और जैसे-जैसे आपकी क्षमता बढ़े, तो आप गङ्ढे में बैठकर भी ध्यान कर सकते हैं। क्षमता बढ़े, तो ऊपर जा सकते हैं, पर्वत शिखरों की यात्रा कर सकते हैं।

पुराने तीर्थ इस हिसाब से बनाए गए थे कि जो श्रेष्ठतम तीर्थ हो, वह सबसे ऊपर हो। और धीरे-धीरे साधक यात्रा करे; धीरे-धीरे यात्रा करे। वह आखिरी यात्रा कैलाश पर हो उसकी पूरी। वहां जाकर वह समाधि में लीन हो। वहां शुद्धतम तरंगें उसे उपलब्ध होंगी। लेकिन उसकी क्षमता भी निरंतर ऊंची उठती जानी चाहिए, ताकि उतनी शुद्ध तरंगों को वह झेलने में समर्थ हो सके। अन्यथा शुद्धतम को झेलना भी उत्पात का कारण हो सकता है। जितनी आपकी पात्रता नहीं है, उससे ज्यादा आपके ऊपर गिर पड़े, तो वह आपको हानि ही पहुंचाता है, लाभ नहीं।

सूफी फकीरों में गङ्ढे में जाकर ध्यान करने की प्रक्रिया है, कुएं में जाकर ध्यान करने की प्रक्रिया है, नीचे जमीन में उतरकर ध्यान करने की प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया के लिए तभी आज्ञा दी जाती है, जब कोई श्रेष्ठतम पर्वत शिखर पर ध्यान करने में समर्थ हो जाता है–तब। यह क्यों? यह तब आज्ञा दी जाती है, जब वह व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है कि उसके आस-पास सब तरह की गलत तरंगें मौजूद रहें, लेकिन वह अप्रभावित रह सके, तब उसे गङ्ढे में बैठकर साधना करने की आज्ञा दी जाती है।

कृष्ण ने अर्जुन को देखकर कहा है कि तू ऐसा आसन चुन, जो बहुत नीचा न हो, ऊंचा न हो, तिरछा-आड़ा न हो। वहां तू सरलता से शांत होने में सुगमता पाएगा।

मृगचर्म की बात कही है। उसके भी कारण हैं। और कारण ऐसे हैं, जो आज ज्यादा स्पष्ट हो सके हैं। इतने स्पष्ट कृष्ण के समय में भी नहीं थे। प्रतीति थी, प्रतीति थी कि कुछ फर्क पड़ता है। लेकिन किस कारण से पड़ता है, उसकी वैज्ञानिक स्थिति का कोई स्पष्ट बोध नहीं था।

संन्यासी इस देश में हजारों, लाखों वर्षों से कहना चाहिए, लकड़ी की खड़ाऊं का उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। मृगचर्म का उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। सिंहचर्म का उपयोग करता रहा है, अकारण नहीं। लकड़ी के तख्त पर बैठकर ध्यान करता रहा है, अकारण नहीं। कुछ प्रतीतियां खयाल में आनी शुरू हो गई थीं कि भेद पड़ता है।

जो चीजें भी विद्युत के लिए नान-कंडक्टिव हैं, वे सभी ध्यान में सहयोगी होती हैं। लेकिन अब इसके वैज्ञानिक कारण स्पष्ट हो सके हैं। आज विज्ञान कहता है कि जिन चीजों से भी विद्युत प्रवाहित होती है, उन पर बैठकर ध्यान करना खतरे से खाली नहीं है। क्यों? क्योंकि जब आप गहरे ध्यान में लीन होते हैं, तो आपका शरीर एक बहुत अनूठे रूप से एक बहुत नए तरह की अंतर्विद्युत पैदा करता है, एक इनर इलेक्ट्रिसिटी पैदा करता है। जब आप पूरे ध्यान में होते हैं, तो आपके शरीर की बाडी इलेक्ट्रिसिटी सक्रिय होती है।

और सबके शरीर में विद्युत का बड़ा आगार है। हम सबके शरीर में विद्युत का बड़ा आगार है। उसी विद्युत से हम जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं। यह जो श्वास आप ले रहे हैं, वह सिर्फ आपके शरीर की विद्युत को आक्सीजन पहुंचाकर जीवित रखती है, और कुछ नहीं करती। वह आक्सीडाइजेशन करती है। आपको प्रतिपल आपके शरीर की विद्युत को चलाए रखने के लिए आक्सीजन की जरूरत है, इसलिए श्वास के बिना आप जी नहीं सकते। और शरीर विद्युत का, कहना चाहिए, एक जेनेरेटर है। वहां पूरे समय विद्युत पैदा हो रही है। इस विद्युत को ध्यान के समय में कंजरवेशन मिलता है, संरक्षण मिलता है।

साधारणतः आप विद्युत को फेंक रहे हैं। मैंने इतना हाथ हिलाया, तो भी मैंने विद्युत की एक मात्रा हाथ से बाहर फेंक दी। मैं एक शब्द बोला, तो उस शब्द को गति देने के लिए मेरे शरीर की विद्युत की एक मात्रा विनष्ट हुई। रास्ते पर आप चले, उठे, हिले, आपने कुछ भी किया कि शरीर की विद्युत की एक मात्रा उपयोग में आई।

लेकिन ध्यान में तो सब हिलन-डुलन बंद हो जाएगा। वाणी शांत होगी, विचार शून्य होंगे, शरीर निष्कंप होगा, चित्त मौन होगा, इंद्रियां शिथिल होकर निष्क्रिय हो जाएंगी। तो वह जो चौबीस घंटे विद्युत बाहर फिंकती है, वह सब कंजर्व होगी, वह सब भीतर इकट्ठी होगी।

अगर आप ऐसी जगह बैठे हैं, जहां से विद्युत आपके शरीर के बाहर जा सके, तो आपको ठीक वैसा ही शॉक अनुभव होगा, जैसा बिजली के तार को छूकर अनुभव होता है। और जो लोग ध्यान में थोड़े गहरे गए हैं, उनमें से अनेकों का यह अनुभव है। मेरे पास सैकड़ों लोग हैं, जिनका यह अनुभव है कि अगर वे गलत जगह बैठकर ध्यान किए हैं, तो उनको शॉक लगा है, उनको धक्का लगा है।

जब आप बिजली का तार छूते हैं, अगर लकड़ी की खड़ाऊं पहनकर छू लें, तो शॉक नहीं लगेगा। क्यों? शॉक बिजली की वजह से नहीं लगता, बिजली के तार को छूने से नहीं लगता शॉक। शॉक लगता है, बिजली के तार से आपके भीतर बिजली आ जाती है और झटके के साथ जमीन उसको खींच लेती है। वह जो जमीन खींचती है झटके के साथ, उसकी वजह से शॉक लगता है। अगर आप खड़ाऊं पहने खड़े हैं, तो शॉक नहीं लगेगा। बिजली का तार आपने छू लिया है। वह नहीं लगेगा इसलिए कि जमीन उसे झटके से खींच नहीं सकी और लकड़ी की खड़ाऊं ने बिजली को वापस वर्तुल बनाकर लौटा दिया।

शॉक लगता है वर्तुल के टूटने से, सर्किट टूटने से शॉक लगता है। अगर बिजली एक वर्तुल बना ले, तो आपको कभी धक्का नहीं लगता। और वर्तुल बनाने का एक ही उपाय है कि आप नान-कंडक्टर पर बैठे हों।

मृगचर्म नान-कंडक्टर है, सिंहचर्म नान-कंडक्टर है। बिजली उसके पार नहीं जा सकती, वह बिजली को वापस लौटाता है। लकड़ी नान-कंडक्टर है, वह बिजली को वापस लौटा देती है। खड़ाऊं नान-कंडक्टर है, वह बिजली को वापस लौटा देती है।

तो जो ध्यान कर रहा है, उसके लिए खड़ाऊं उपयोगी है। जो ध्यान कर रहा है, उसे लकड़ी के तख्त पर बैठना उपयोगी है। जो ध्यान कर रहा है, उसे मृगचर्म का उपयोग सहयोगी है।

फिजूल लगेगा। अगर कबीर से पूछने जाएंगे, कृष्णमूर्ति से, वे कहेंगे, बकवास है। लेकिन अगर वैज्ञानिक से पूछने जाएंगे, वह कहेगा, सार्थक है बात। और सार्थक है।

एक घड़ी ऐसी आ जाती है, जहां बिलकुल बेकार है। लेकिन वह घड़ी अभी आ नहीं गई है। वह घड़ी आ जाए, तब तक उपयोगी है। एक घड़ी ऐसी आ जाती है कि शरीर की विद्युत का अंतर-वर्तुल निर्मित हो जाता है। और जो लोग भी परम शांति को उपलब्ध होते हैं, उनके हृदय में अंतर-वर्तुल निर्मित हो जाता है। विद्युत अंतर-वर्तुल बना लेती है। फिर वे जमीन पर बैठ जाएं, तो उन्हें कोई शॉक नहीं लगने वाला है।

लेकिन वह घटना अभी आपको नहीं घट गई है। आपके भीतर कोई अंतर-वर्तुल नहीं है, कोई इनर सर्किट नहीं है। आपको तो अभी बाह्य-वर्तुल पर निर्भर रहना पड़ेगा। वह मजबूरी है; उससे बचने का उपाय नहीं है; उससे पार होने का उपाय है। जो बचने की कोशिश करेगा, कि इसे बाई-पास कर जाएं, वह दिक्कत में पड़ेगा। उसके पार हो जाना ही उचित है। क्योंकि पार होकर ही पात्रता निर्मित होती है।

तो कृष्ण कहते हैं, ऐसी आसनी पर बैठे, ऐसा आसन लगाए, ऐसी जमीन पर हो, ऊंचा न हो, नीचा न हो और तब, तब इंद्रियों को सिकोड़ ले।

और इंद्रियों को सिकोड़ना ऐसी स्थिति में आसान होता है। बाह्य विघ्न और बाधाओं को निषेध करने की व्यवस्था कर लेने पर इंद्रियों को सिकोड़ लेना आसान होता है।

कभी आपने खयाल न किया होगा, योग ने ऐसे आसन खोजे हैं, जो आपकी इंद्रियों को अंतर्मुखी करने में अदभुत रूप से सहयोगी हो सकते हैं। इस तरह की मुद्राएं खोजी हैं, जो आपकी इंद्रियों को अंतर्मुखी करने में सहयोगी हो सकती हैं। बैठने के ऐसे ढंग खोजे हैं, जो आपके शरीर के विशेष केंद्रों पर दबाव डालते हैं और उस दबाव का परिणाम आपकी विशेष इंद्रियों को शिथिल कर जाना होता है।

अभी अमेरिका में एक बहुत बड़ा विचारक और वैज्ञानिक था, थियोडर रेक। उसने मनुष्य के शरीर के बाबत जितनी जानकारी की, कम लोगों ने की है। वह कहता था कि शरीर में ऐसे बिंदु हैं मनुष्य के, जिन बिंदुओं को दबाने से मनुष्य की वृत्तियों में बुनियादी अंतर पड़ता है। और यह कोई योगी नहीं था रेक। रेक तो एक मनसविद था। फ्रायड के शिष्यों में से, बड़े शिष्यों में से एक था। और उसने हजारों लोगों को सहायता पहुंचाई। उसे कुछ पता नहीं था। काश, उसे पता होता तिब्बत और भारत में खोजे गए योगासनों का, तो उसकी समझ बहुत गहरी हो जाती।

वह बिलकुल अंधेरे में टटोल रहा था; लेकिन उसने ठीक जगह टटोल ली। उसने कुछ स्थान शरीर में खोज लिए, जिनको दबाने से परिणाम होते हैं। जैसे उसने दांतों के आस-पास ऐसी जगह खोज ली जबड़ों में, जिनमें आदमी की हिंसा संगृहीत है। आपको खयाल में भी नहीं आ सकता। और अगर कोई आदमी बहुत वायलेंट है, बहुत हिंसक है, तो थियोडर रेक उसकी जो चिकित्सा करेगा, वह बहुत अनूठी है। वह यह है कि उसको लिटाकर वह सिर्फ उसके जबड़ों के विशेष स्थानों को दबाएगा, इतने जोर से कि वह आदमी चीखेगा, चिल्लाएगा, मारने-पीटने लगेगा। और अक्सर यह होता था कि थियोडर रेक को उसके मरीज बुरी तरह पीटकर जाते थे, मारकर जाते थे! लेकिन दूसरे दिन से ही उनमें अंतर होना शुरू हो जाता। उनकी हिंसा में जैसे बुनियादी फर्क हो गया।

रेक का कहना था, और कहना ठीक है, कि हिंसा का जो बुनियादी केंद्र है, वे दांत हैं–समस्त जानवरों में, आदमियों में भी। क्योंकि आदमी सिर्फ एक जानवरों की शृंखला में आगे आ गया जानवर है, उससे ज्यादा नहीं।

समस्त जानवर दांत से ही हिंसा करते हैं। दांत या नाखून, बस दो ही हिस्से हैं। आदमी ने हिंसा की ऐसी तरकीबें खोज ली हैं, जिनमें नाखून की भी जरूरत नहीं है, दांत की भी जरूरत नहीं है। लेकिन शरीर का जो मैकेनिज्म है, शरीर का जो यंत्र है, उसे कुछ भी पता नहीं कि आपने छुरी बना ली है। उसे कुछ भी पता नहीं कि आपने दांतों की जगह औजार बना लिए हैं, जिनसे आप आदमी को ज्यादा सुविधा से काट सकते हैं। शरीर को कोई पता नहीं है। शरीर के अंग तो, सेल तो, पुराने ढंग से ही काम करते चले जाते हैं।

इसलिए जब भी आप हिंसा से भरते हैं, खयाल करना, आपके दांतों में कंपन शुरू हो जाता है। आपके दांतों में विशेष विद्युत दौड़नी शुरू हो जाती है। दांत पीसने लगते हैं। आप कहते हैं, क्रोध में इतना आ गया कि दांत पीसने लगा। दांत पीसने का क्रोध से क्या लेना-देना! आप मजे से क्रोध में आइए, दांत मत पीसिए! लेकिन दांत पीसे बिना आप न बच सकेंगे, क्योंकि दांत में विद्युत दौड़नी शुरू हो गई।

लेकिन दांत का उपयोग सभ्य आदमी करता नहीं। कभी-कभी असभ्य लोग कर लेते हैं कि क्रोध में आ जाएं, तो काट लें आपको। सभ्य आदमी काटता नहीं। लेकिन दांतों को कुछ पता नहीं कि आप सभ्य हो गए हैं। जब आप नहीं काटते, तो दांतों में जो विद्युत पैदा हो गई, जो काटने से रिलीज हो जाती, वह रिलीज नहीं हो पाएगी। वह दांतों के मसूढ़ों के आस-पास संगृहीत होती चली जाएगी, उसके पाकेट्स बन जाएंगे।

आदमी के दांतों की बीमारियों में नब्बे प्रतिशत कारण दांतों के आस-पास बने हिंसा के पाकेट हैं। इसलिए जानवरों के दांत जैसे स्वस्थ हैं! जरा कुत्ते के दांत खोलकर देख लेना, तो खुद शर्म आएगी कि न कभी दतौन करता, न कभी मंजन करता, न कोई टुथपेस्ट का, किसी मार्क के टुथपेस्ट का कोई उपयोग करता। ऐसी चमक, ऐसी रौनक, ऐसी सफेदी! बात क्या है? बात गहरे में शारीरिक कम और मनस से ज्यादा जुड़ी हुई है।

हिंसा के पाकेट्स कुत्ते के दांत में नहीं हैं। और अगर कुत्तों के दांतों में कभी हिंसा के पाकेट्स हो जाते हैं, तो वे खेलकर उसको रिलीज कर लेते हैं। आपने कुत्तों को देखा होगा, खेलने में काटेंगे। काटते नहीं हैं, सिर्फ भरेंगे मुंह, छोड़ देंगे। वे रिलीज कर रहे हैं। खेलकर हिंसा को मुक्त कर लेंगे। तो जानवरों के दांत जैसे स्वस्थ हैं, आदमी सपने में भी नहीं सोच सकता कि उतने स्वस्थ दांत पा जाए।

आपकी अंगुलियों के आस-पास भी हिंसा के पाकेट्स इकट्ठे होते हैं। वहां भी हिंसा है। वह भी हमने बंद कर दी है। अब हम अंगुलियों से किसी को चीरते-फाड़ते नहीं। कभी-कभी गुस्से में हो जाता है, किसी का कपड़ा फाड़ देते हैं, नाखून चुभा देते हैं, अलग बात है। लेकिन सामान्यतया, हम आमतौर से दूसरी चीजों का उपयोग करते हैं, सब्स्टीटयूट। हमने बुनियादी प्रकृति की चीजों का उपयोग बंद कर दिया है। तो हमारी अंगुलियों के आस-पास हिंसा इकट्ठी हो जाएगी।

आदमी की अंगुलियों को देखकर कहा जा सकता है कि उसके चित्त में कितनी हिंसा है। उसकी अंगुलियों के मोड़ बता देंगे कि उसके भीतर कितनी हिंसा है। क्योंकि अंगुलियां अकारण नहीं मुड़ती हैं।

तो बुद्ध की अंगुलियों का मोड़ अलग होगा। अलग होगा ही। कोई हिंसा भीतर नहीं है। हाथ एक फूल की तरह खिल जाएगा। अंगुलियों के भीतर कोई पाकेट्स नहीं हैं।

और ठीक ऐसे ही हमारे पूरे शरीर में पाकेट्स हैं। ऐसे बिंदु हैं, जहां बहुत कुछ इकट्ठा है। अगर उन बिंदुओं को दबाया जा सके, उन बिंदुओं को मुक्त किया जा सके, तो भेद पड़ेगा।

इस मुल्क ने जो योगासन खोजे, विशेष पद्धतियां बैठने की खोजीं…। अगर आपने बुद्ध या महावीर की मूर्ति देखी है, करीब-करीब सभी ने देखी होगी, गौर से नहीं देखी होगी। उन्होंने भी गौर से नहीं देखी, जो रोज महावीर को नमस्कार करने मंदिर में जाते हैं! लेकिन असली राज उस मूर्ति की व्यवस्था में छिपा हुआ है।

अगर महावीर की मूर्ति को गौर से देखेंगे, तो आपको क्या दिखाई पड़ेगा कि महावीर का पूरा शरीर एक विद्युत सर्किट है। दोनों पैर जुड़े हुए हैं। दोनों पैरों की गद्दियां घुटनों के पास जुड़ी हुई हैं।

विद्युत के रिलीज के जो बिंदु हैं, वह हमेशा नुकीली चीजों से विद्युत बाहर गिरती है। गोल चीजों से कभी विद्युत बाहर नहीं गिरती, सिर्फ नुकीली चीजों से विद्युत बाहर यात्रा करती है। जितनी नुकीली चीज हो, उतनी ज्यादा विद्युत बाहर यात्रा करती है।

जननेंद्रिय से सर्वाधिक विद्युत बाहर जाती है। और इसीलिए संभोग के बाद आप इतने थके हुए और इतने बेचैन और उद्विग्न हो गए होते हैं। क्योंकि आपका शरीर बहुत-सी विद्युत खो दिया होता है। संभोग के बाद आपका ब्लड-प्रेशर बहुत ज्यादा बढ़ गया होता है। हृदय की धड़कन बढ़ गई होती है। आपकी नाड़ी की गति बढ़ गई होती है। और पीछे निपट थकान हाथ लगती है। उसका कारण? उसका कारण सिर्फ वीर्य का स्खलन नहीं है। वीर्य के स्खलन के साथ-साथ जननेंद्रिय बहुत बड़ी मात्रा में विद्युत को शरीर के बाहर फेंक रही है। उस विद्युत के भी पाकेट्स हैं।

इसलिए सिद्धासन या पद्मासन में जो बैठने का ढंग है, एड़ियां उन बिंदुओं को दबा देती हैं, जहां से जननेंद्रिय तक विद्युत पहुंचती है। और उसका पहुंचना बंद हो जाता है। दोनों पैर शरीर के साथ जुड़ जाते हैं और दोनों पैर से जो विद्युत निकलती है, वह शरीर वापस एब्जार्ब कर लेता है, फिर पुनः अपने भीतर ले लेता है। दोनों हाथ जुड़े होते हैं, इसलिए दोनों हाथों की विद्युत बाहर नहीं फिंकती, एक हाथ से दूसरे हाथ में यात्रा कर जाती है। पूरा शरीर एक सर्किट में है।

महावीर की या बुद्ध की मूर्ति आप देखेंगे, तो खयाल में आएगा कि पूरा शरीर एक विद्युत चक्र में है। इस बने हुए विद्युत वर्तुल के भीतर इंद्रियों को सिकोड़ लेना अत्यंत आसान है। अत्यंत आसान है, बहुत सरल है।

यह विद्युत का जो वर्तुल निर्मित हो जाता है, यह आपके और आपकी इंद्रियों के बीच एक प्रोटेक्शन, एक दीवाल बन जाता है। आप अलग कट जाते हैं, इंद्रियां अलग पड़ी रह जाती हैं।

ध्यान रहे, विद्युत का स्रोत आपके भीतर है। इंद्रियां केवल विद्युत का उपयोग करती हैं। और अगर बीच में वर्तुल बन जाए–जो कि बिलकुल एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, एक साइंटिफिक प्रोसेस है–बीच में वर्तुल बन जाए, तो इंद्रियां बाहर रह जाती हैं, आप भीतर रह जाते हैं। और आपके और इंद्रियों के बीच में विद्युत की एक दीवाल खड़ी हो जाती है, जिसको पार नहीं किया जा सकता। इस क्षण में अंतर-आकाश में यात्रा आसान हो जाती है। अति आसान हो जाती है।

इसलिए कृष्णमूर्ति कितना ही कहें या कबीर कितना ही कहें, थोड़ी सावधानी से उनकी बात सुनना। उनकी बात खतरे में ले जा सकती है। वे कह दें, आसन से क्या होगा? वे कह दें कि इससे क्या होगा, उससे क्या होगा? मेथडॉलाजी से क्या होगा? अपनी तरफ से वे ठीक कह रहे हैं। उनका अंतर-आकाश और उनकी अंतर्विद्युत की यात्रा शुरू हो गई है। शायद उन्हें पता भी नहीं हो।

कृष्णमूर्ति के साथ तो निश्चित ही यह बात है कि कृष्णमूर्ति के साथ जो प्रयोग उनके बचपन में किए गए, वे करीब-करीब उनको बेहोश करके किए गए। इसलिए उनको कुछ भी पता नहीं है कि वे किन प्रयोगों से गुजरे हैं। कांशसली उन्हें कुछ भी पता नहीं है, सचेतन रूप से, कि वे किन प्रयोगों से गुजरे हैं; और जहां पहुंचे हैं, किस मार्ग से गुजरकर पहुंचे हैं।

उनकी हालत करीब-करीब वैसी है, जैसे हम किसी आदमी को सोया हुआ उसके घर से उठा लाएं और बगीचे में उसकी खाट रख दें। और बगीचे में उसकी आंख खुले और वह कहे कि ठीक। और कोई पूछे उससे कि बगीचे में कैसे आऊं? तो वह कहे, कोई रास्ता नहीं है; बस आ जाओ। कोई मार्ग नहीं है, बस आ जाओ। जागो, और बगीचे में पाओगे कि तुम हो। वे ठीक कह रहे हैं। वे गलत नहीं कह रहे हैं।

लेकिन कृष्णमूर्ति को बगीचे में ले आने वाले कुछ लोग थे, एनीबीसेंट थी, लीडबीटर था। उन लोगों ने कृष्णमूर्ति के बचपन में, जब करीब-करीब कोई होश उनके पास नहीं था…। इसलिए कृष्णमूर्ति को बचपन की कोई याद नहीं है, बचपन की कोई याददाश्त नहीं है। बचपन और उनके बीच में एक भारी बैरियर है, एक भारी दीवाल खड़ी हो गई है।

कृष्णमूर्ति को अपनी मातृभाषा का कोई भी स्मरण नहीं है। यद्यपि नौ साल का या दस साल का बच्चा अपनी मातृभाषा को कभी नहीं भूलता। दस साल का बच्चा अपनी मातृभाषा काफी सीख चुका होता है–काफी, करीब-करीब पूरी। लेकिन कृष्णमूर्ति को उसकी कोई याददाश्त नहीं है।

कृष्णमूर्ति के नाम से एक किताब है, एट दि फीट आफ दि मास्टर–श्री गुरु चरणों में। नाम उस पर कृष्णमूर्ति का है। वह तब लिखी गई। लेकिन वे कहते हैं कि मुझे कुछ याद नहीं, मैंने कब लिखी! वह उनसे लिखवाई गई। सिर्फ मीडियम की तरह उन्होंने उसमें काम किया। उन्हें कुछ स्मरण नहीं कि उन्होंने कब लिखी। वे यह भी नहीं कहते कि मैं उसका लेखक हूं या नहीं।

लीडबीटर, एनीबीसेंट और थियोसाफिस्टों ने कृष्णमूर्ति को बहुत ही अचेतन मार्गों से वहां पहुंचाया, जहां पहुंचकर, जहां जागकर उन्होंने पाया कि किसी मार्ग की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन वे भी मार्गों से पहुंचे हैं।

आज जब वे लोगों से कह देते हैं, कोई मार्ग नहीं है, कोई विधि, कोई व्यवस्था नहीं है, तो सुनने वालों का इतना अहित हो जाता है कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।

कृष्णमूर्ति के सत्यों ने न मालूम कितने लोगों को भयंकर हानियां पहुंचाई हैं। और उसके कारण हैं। उनका कोई कसूर नहीं है। उन्होंने आंख खोली और पाया कि वे बगीचे में हैं। वे आपसे भी कहते हैं, आंख खोलो और पाओगे कि तुम बगीचे में हो!

नहीं! कई बार ऐसा होता है कि अतीत जन्मों में कोई साधक यात्रा कर चुका होता है, परिपक्व हो गई होती है यात्रा। जैसे निन्यानबे डिग्री पर पानी खौल रहा हो गर्म। अभी भाप नहीं बना है, एक डिग्री की कमी रह गई है। पिछले जन्म से वह निन्यानबे डिग्री की हालत लेकर आया है। और इस जन्म में कुछ छोटी-सी घटना हो जाए कि एक डिग्री गर्मी पूरी हो जाए कि वह भाप बनना शुरू हो जाए। और आप उससे कहें कि मैं कैसे गर्म होऊं? तो वह कहे, कुछ खास करने की जरूरत नहीं है। जरा आकर धूप में, खुले आकाश में खड़े हो जाओ; भाप बन जाओगे। और आप जमे हुए बरफ के पत्थर हैं। आप खड़े हो जाना धूप में, कुछ न होगा। बरफ तो कुछ सिकुड़ा हुआ था, एक जगह में सीमित था; और पानी बनकर और फैल जाएंगे; ज्यादा जमीन घेर लेंगे; और मुसीबत खड़ी हो जाएगी।

आपके लिए तो भयंकर आग की भट्ठियां चाहिए। एटामिक भट्ठियां! तब, तब शायद आप भाप बन पाएं उतनी ही तीव्रता से।

इसलिए कई बार पिछले जन्म से आया हुआ साधक, अगर बहुत यात्रा पूरी कर चुका है; इंच, आधा इंच बाकी रह गया है; जरा-सा झटका, जरा-सी बात, कोई भी जरा-सी बात, जो हमें लगेगा कि कैसे इससे हो सकता है…!

रिंझाई ने कहा है, एक फकीर ने, जो कि जरा-सी बात से जाग गया। सोया है एक रात एक वृक्ष के तले। पतझड़ के दिन हैं और वृक्ष से पके पत्ते नीचे गिर रहे हैं। वह खड़ा होकर नाचने लगा और गांव-गांव कहता फिरा कि अगर किसी को भी ज्ञान चाहिए हो, तो पतझड़ के समय में वृक्ष के नीचे सो जाए। और जब पके पत्ते नीचे गिरते हैं, तो ज्ञान घटित हो जाता है!

उसे हुआ। पका पत्ता टूटते देखकर उसके लिए सारी जिंदगी पके पत्ते की तरह टूट गई। मगर वह यात्रा कर चुका है निन्यानबे दशमलव नौ डिग्री तक। नाइनटी नाइन प्वाइंट नाइन डिग्री पर वह जी रहा होगा। एक सूखा पत्ता गिरा और सौ डिग्री पूरी हो गई बात, वह भाप बनकर उड़ गया।

उसका कोई कसूर नहीं है कि वह लोगों से कहता है, ज्ञान चाहिए? पतझड़ में सूखे वृक्ष के नीचे बैठ जाओ, ध्यान करो। जब सूखा पत्ता गिरे, मेडिटेट आन इट; उस पर ध्यान करो, ज्ञान हो जाएगा।

जिन्होंने सुना, उन्होंने, कई ने पतझड़ के पत्तों के नीचे बैठकर कोशिश की। क्योंकि जब रिंझाई जैसा आदमी कहता है, तो ठीक ही कहता है। और रिंझाई की आंखें गवाही देती हैं कि वह ठीक कहता है। झूठ कहने का कोई कारण भी तो नहीं है। उसका आनंद कहता है कि उसे घटना घटी है। और सारा गांव जानता है उसका कि पतझड़ में घटी है और सूखे पत्ते गिरते थे रात में, तब घटी है। सुबह हमने इसे नाचते हुए पाया। सांझ उदास था, सुबह आनंद से भरा था। रात कुछ हुआ है; एक्सप्लोजन हुआ है। झूठ तो कहता नहीं। वह आदमी गवाह है; उसकी जिंदगी गवाह है; उसकी रोशनी, उसकी सुगंध गवाह है। लेकिन फिर अनेक लोगों ने पत्तों के नीचे रात-रात गुजारी; बहुत ध्यान किया। कुछ न हुआ। सिर्फ सूखे पत्ते गिरते रहे! सुबह वे और उदास होकर घर लौट आए। रातभर की नींद और खराब हो गई।

लोगों के स्थान हैं उनकी यात्राओं के।

कृष्ण जो कह रहे हैं, वह अर्जुन के लिए कह रहे हैं। अर्जुन जहां खड़ा है वहां से–वहां से यात्रा शुरू करनी है।

आसन उपयोगी होगा। स्थान, समय उपयोगी होगा। दोपहर में बैठकर ध्यान करें, बहुत कठिनाई हो जाएगी। कोई कारण नहीं है। क्योंकि दोपहर कोई ध्यान का दुश्मन नहीं है। लेकिन बहुत कठिनाई हो जाएगी।

सूर्य जब पूरा उत्तप्त है और सिर के ऊपर आ जाता है, तब सिर को शांत करना बहुत कठिन है। सूर्य जब जाग रहा है सुबह, बालक है अभी। अभी गर्मी भी नहीं है उसमें। और जब उसकी किरणें आप पर सीधी नहीं पड़तीं, आड़ी पड़ती हैं; आपके शरीर के आर-पार जाती हैं, सिर से नीचे की तरफ नहीं आतीं।

ठीक दोपहर में जब सूर्य सिर के ऊपर है, तब सूर्य की सारी किरणें आपके शीर्ष से, जिसे सहस्रार कहते हैं योगी, उससे प्रवेश करती हैं और आपके सेक्स सेंटर तक चोट पहुंचाती हैं। उस वक्त पूरी धारा आपके सिर से यौन केंद्र तक बह रही है।

और ध्यान की यात्रा उलटी है। ध्यान की यात्रा यौन केंद्र से सहस्रार की तरफ है। और सूर्य की किरणें दोपहर के क्षण में सहस्रार से यौन केंद्र की तरफ आ रही हैं। नदी जैसे उलटी जा रही हो और आप उलटे तैर रहे हों, ऐसी तकलीफ होगी। ऐसी तकलीफ होगी!

सुबह यह तकलीफ नहीं होगी। सूर्य की किरणें आर-पार जा रही हैं आपके। आपको सूर्य की किरणों से नहीं लड़ना पड़ेगा। संध्या भी यह तकलीफ नहीं होगी। फिर किरणें आर-पार जा रही हैं। इसलिए प्रार्थना का नाम ही धीरे-धीरे संध्या हो गया। संध्या का मतलब ही इतना है, वह क्षण, जब सूर्य की किरणें आर-पार जा रही हैं। चाहे सुबह हो, चाहे सांझ हो, बीच का गैप–जब सूरज आपके ऊपर से सीधा प्रभाव नहीं डालता।

लेकिन रात के बारह बजे, आधी रात फायदा हो सकता है। उसका उपयोग योगियों ने किया है, अर्धरात्रि का। क्योंकि तब सूरज आपके ठीक नीचे पहुंच गया। और सूरज की किरणें आपके यौन केंद्र से सहस्रार की तरफ जाने लगी हैं। दिखाई नहीं पड़ रही हैं, पर अंतरिक्ष में उनकी यात्रा जारी है। उस वक्त नदी सीधी बह रही है। आप उसमें बह जाएं, तो सरलता से तैर जाएंगे। तैरने की भी शायद जरूरत न पड़े; बह जाएं, जस्ट फ्लोट, और आप ऊपर की तरफ निकल जाएंगे।

लेकिन दोपहर के क्षण में जब सूरज आपके ऊपर से नीचे की तरफ यात्रा कर रहा है, तब आप फ्लोट न कर सकेंगे, बह न सकेंगे। तैरना भी मुश्किल पड़ेगा; क्योंकि सूर्य की किरणें आपके जीवन का आधार हैं! सूर्य जीवन है, उससे लड़ना बहुत मुश्किल मामला है।

इसलिए सूर्य पर त्राटक शुरू हुआ। वह अभ्यास है सूर्य से लड़ने का। वह आपके खयाल में नहीं होगा। त्राटक करने वाले के खयाल में भी नहीं होता; क्योंकि किताब में कहीं कोई पढ़ लेता है और करना शुरू कर देता है।

सूर्य की किरणों पर जो त्राटक है, घंटों लंबा अभ्यास है खुली आंखों से, वह इस बात की चेष्टा है कि हम सूर्य की किरणों के विपरीत लड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं! अगर किसी ने त्राटक का गहन अभ्यास किया है, तो वह ठीक दोपहर बारह बजे भी ध्यान में ऊपर यात्रा कर सकता है; क्योंकि उसने सूर्य की किरणों के साथ सीधा संघर्ष करके तैरने की व्यवस्था कर ली है। अन्यथा नहीं।

तो अगर पूछें कि किस समय ध्यान करें? तो जो परम ज्ञानी है, वह कहेगा, समय का कोई सवाल नहीं है। ध्यान तो टाइमलेसनेस है। आप समय के बाहर चले जाएंगे। समय का कोई सवाल ही नहीं है। सुबह हो, कि दोपहर हो, कि सांझ हो।

वह ठीक कह रहा है। ध्यान की जो परम स्थिति है, वह समय के बाहर है, कालातीत है। लेकिन ध्यान का प्रारंभ समय के भीतर है, इन दि टाइम। ध्यान का अंत समय के बाहर है। ध्यान का प्रारंभ समय के भीतर है। और जो समय की व्यवस्था को ठीक से न समझे, वह ध्यान में व्यर्थ की तकलीफें पाएगा, व्यर्थ के कष्ट पाएगा। अकारण मुसीबतें खड़ी कर लेगा; व्यर्थ ही अपने हारने का इंतजाम करेगा। जीतने की सुविधाएं जो मिल सकती थीं, वह खो देगा।

करीब-करीब ऐसा है, जैसे कि नदी में नाव चलाते हैं पाल बांधकर। जब हवाओं का रुख एक तरफ होता है, तो यात्रा करते हैं। पाल को खुला छोड़ देते हैं, फिर मांझी को, नाविक को पतवार नहीं चलानी पड़ती। हवाएं पाल में भर जाती हैं और नाव यात्रा करने लगती है।

ध्यान की नाव के भी क्षण हैं, स्थितियां हैं। जब हवाएं अनुकूल होती हैं–और ध्यान की हवाएं सूर्य की किरणें हैं–जब हवाएं अनुकूल होती हैं, जब ग्रेविटेशन अनुकूल होता है, जब तरंगें अनुकूल होती हैं, जब चारों तरफ ठीक अनुकूल स्थिति होती है, तब पाल खुला छोड़ दें; बहुत कम श्रम में यात्रा हो जाएगी।

और जब सब चीजें प्रतिकूल होती हैं, तो फिर बहुत मेहनत करनी पड़ती है। तब भी जरूरी नहीं है कि दूसरा किनारा मिल जाए। हवाएं बहुत तेज हैं, नदी की धार बहुत प्रगाढ़ है। आप बहुत कमजोर हैं। बहुत संभावना तो यही है कि थककर अपने किनारे पर वापस लग जाएं। हाथ जोड़ लें कि यह अपने से न हो सकेगा।

यही होता है। ध्यान में जो लोग भी लगते हैं, ठीक व्यवस्था न जानने से, राइट टयूनिंग न जानने से व्यर्थ परेशान होते हैं और परेशान होकर फिर यह सोच लेते हैं कि शायद अपने भाग्य में नहीं है, अपनी नियति में नहीं है, अपने कर्म ठीक नहीं हैं, अपनी पात्रता नहीं है। ऐसा अपने को समझाकर, वह जो दुनिया है व्यर्थ की, उसमें फिर वापस लौटकर लग जाते हैं, अपने किनारे पर लग जाते हैं।

ऐसा न हो, इसलिए कृष्ण अर्जुन को ठीक प्राथमिक बातें कह रहे हैं।

प्रश्न:

भगवान श्री, इस श्लोक में दो और छोटी बातें साफ करें, तो अच्छा हो। पहली बात कुशा, मृगचर्म और वस्त्र, यह क्रम दिया है, उपरोपरि। और दूसरी बात, शुद्ध भूमि। इस पर कुछ कहें।

कुश का बहुत उपयोग ध्यान के लिए किया गया है, कई कारणों से। एक तो, जिन दिनों ध्यान की प्रक्रिया विकसित हो रही थी इस पृथ्वी पर, जिन क्षणों में ध्यान का उदघाटन हो रहा था, आविष्कार हो रहा था, उन क्षणों से बहुत संबंध कुश का है।

हमारे पास शब्द है उस समय का, कुशल। वह कुश से ही बना हुआ शब्द है। आपने कभी सोचा न होगा कि हम एक आदमी को कहते हैं कि बहुत कुशल ड्राइवर है; कहते हैं, बहुत कुशल अध्यापक है; लेकिन कुशल का मतलब आपको पता है।

कुशल का कुल मतलब इतना ही है, ठीक कुश को ढूंढ़ लेने वाला। सभी घास कुश नहीं है। तो जिन दिनों ध्यान इस पृथ्वी पर बड़ा व्यापक था, विशेषकर इस देश में, और जिस दिन ध्यान के प्राथमिक चरण हमने उदघाटित किए थे, उस दिन कुशल उस आदमी को कहते थे, जो हजारों तरह की घास में से उस घास को खोज लाए, जो ध्यान में सहयोगी होती है, उस कुश को खोज लाए।

एक विशेष तरह की घास अपने साथ एक विशेष तरह का वातावरण, एक विशेष तरह की ताजगी ले आती है।

हमें अनुभव होता है कई बार कि कुछ चीजों की मौजूदगी कैटेलिटिक का काम करती है–कुछ चीजों की मौजूदगी। आपने अपने चारों तरफ फूल रख लिए हैं, आपने अपने चारों तरफ एक सुगंध छिड़क रखी है, आपने अपने चारों तरफ धूप जला रखी है, तो आप एक विशेष मौजूदगी के भीतर घिर गए हैं। इस मौजूदगी में कुछ बातें सोचनी मुश्किल, कुछ बातें सोचनी आसान हो जाएंगी। जब चारों तरफ आपके सुगंध हो, तो दुर्गंध के खयाल आने मुश्किल हो जाएंगे।

कुछ विशेष प्रकार की घास, कुछ विशेष प्रकार की धूप, जो कि ध्यान के ही माध्यम से खोजी गई थी कि सहयोगी हो सकती है। उसकी अपनी पूरी वैज्ञानिक प्रक्रिया है।

लुकमान के जीवन में उल्लेख है कि लुकमान पौधों के पास जाता, उनके पास आंख बंद करके, ध्यान करके बैठ जाता और उन पौधों से पूछता कि तुम किस काम में आ सकते हो, मुझे बता दो! तुम किस काम में आ सकते हो? तुम्हारे पत्ते किस काम में आएंगे, किस बीमारी के काम आएंगे? तुम्हारी जड़ किस काम में आएगी? तुम्हारी छाल किस काम में आएगी?

कहानी अजीब-सी मालूम पड़ती है, लेकिन लुकमान ने लाखों पौधों के पत्ते, जड़ों और उन सबका विवरण दिया है कि वे किस काम में आएंगे।

असंभव मालूम पड़ता है कि पौधे बता दें। लेकिन जब लुकमान की किताब हाथ में लगी वैज्ञानिकों के, तो कठिनाई यह हुई कि दूसरी बात और भी असंभव है कि लुकमान के पास कोई प्रयोगशाला रही हो, जिसमें लाखों पौधों की करोड़ों प्रकार की चीजों का वह पता लगा पाए। वह और भी असंभव है। क्योंकि लेबोरेटरी मेथड्स तो अब विकसित हुए हैं; और केमिकल एनालिसिस तो अब विकसित हुई है, लुकमान के वक्त में तो थी ही नहीं। लेकिन आपकी केमिकल एनालिसिस, रासायनिक प्रक्रिया से और रासायनिक विश्लेषण से आप जो पता लगा पाते हैं, वह गरीब लुकमान बहुत पहले अपनी किताबों में लिख गया है, सुश्रुत अपनी किताबों में लिख गया है, धनवंतरि ने उसकी बात कर दी है। और इनके पास कोई प्रयोगशाला नहीं थी, कोई प्रयोगशाला की विधियां नहीं थीं। इनके पास जानने का जरूर कोई और विधि, कोई और मेथड था, कोई और उपाय था।

वह ध्यान का उपाय है। ध्यान के गहरे क्षण में आप किसी भी वस्तु के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकते हैं।

मनोवैज्ञानिक उसे एक खास नाम देते हैं, पार्टिसिपेशन मिस्टीक। एक बहुत रहस्यमय ढंग से आप किसी के साथ एकात्म हो सकते हैं।

ध्यान के क्षण में, गहरी शांति और मौन के क्षण में, अगर आप गुलाब के फूल को सामने रख लें और इतने एकात्म हो जाएं कि उस गुलाब से पूछ सकें कि बोल, तू किस काम में आ सकता है? तो गुलाब नहीं बोलेगा, लेकिन आपके प्राण ही, आपकी अंतर्प्रज्ञा ही कहेगी, इस काम में।

तो कुशल उस व्यक्ति को कहते थे, जो अनंत तरह की घासों के बीच से उस कुश घास को खोज लाता था, जो ध्यान में सहयोगी होने का वातावरण निर्मित करती है।

इसलिए कृष्ण ने कहा सबसे पहले, कुश।

वस्त्र! विशेष वस्त्र। सभी वस्त्र सहयोगी नहीं होते। जिन वस्त्रों में आपने भोजन किया है, उन्हीं वस्त्रों में ध्यान करना कठिन होगा। जिन वस्त्रों में आपने संभोग किया है, उन्हीं वस्त्रों में ध्यान करना तो महा कठिन होगा। जिस बिस्तर पर लेटकर आपने कामवासना के विचार किए हैं, उसी बिस्तर पर बैठकर ध्यान करना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि प्रत्येक वृत्ति और प्रत्येक वासना अपने चारों तरफ की चीजों को इनफेक्ट कर जाती है।

ऐसे लोग आज भी पृथ्वी पर हैं और ऐसी प्रक्रियाएं भी हैं कि मेरा रूमाल उन्हें दे दिया जाए, तो वे मेरे बाबत सब कुछ बता देंगे, हालांकि वे कुछ भी नहीं जानते कि मैं कौन हूं और यह रूमाल किसका है। क्योंकि यह रूमाल मेरे साथ रहकर मेरी सब तरह की संवेदनाओं को, मेरी सब तरह की तरंगों को, मेरे सब तरह के प्रभाव को आत्मसात कर जाता है, पी जाता है।

सूती कपड़े बहुत तीव्रता से पीते हैं, रेशमी कपड़े बहुत मुश्किल से पीते हैं। रेशमी कपड़े बहुत रेसिस्टेंट हैं। इसलिए ध्यान के लिए रेशमी कपड़ों का बहुत दिन उपयोग किया जाता रहा है। वे बिलकुल रेसिस्टेंट न के बराबर हैं। कम से कम दूसरी चीजों के प्रभावों को पीते हैं, इंप्रेसिव नहीं हैं, उन पर इंप्रेशन नहीं पड़ता। कम पड़ता है, फिसल जाता है, बिखर जाता है, टूट जाता है।

सूती कपड़ा एकदम पी जाता है। तो सूती कपड़े की खूबी भी है, खतरा भी है। अगर ध्यान के वक्त सूती कपड़े का उपयोग करें, तो वह ध्यान को पी जाएगा। लेकिन फिर उसकी सुरक्षा करनी पड़ेगी, उसको बचाना पड़ेगा। क्योंकि वह दूसरे प्रभावों को भी इसी तरह पी जाएगा। और चौबीस घंटे में तो ध्यान का मुश्किल से कभी एक क्षण आएगा, बाकी तो क्षण बहुत होंगे; वह सब पी जाएगा।

इसलिए रेशमी कपड़े का उपयोग किया जाता रहा। वह प्रभावों को नहीं पीता है। और आपके चारों तरफ एक निष्प्रभाव की धारा बना देता है। स्वच्छतम हों, कोरे हों, रेशमी हों।

और फिर जिन्होंने पाया कि कपड़े का किसी भी तरह उपयोग करो, कुछ न कुछ कठिनाई होती है, तो महावीर ने दिगंबर होकर प्रयोग किया। उसके कारण थे। ऐसे ही नग्न नहीं हो गए। ऐसा कोई दिमाग खराब नहीं था। कारण थे। कैसे ही कपड़े का उपयोग करो, कुछ न कुछ प्रभाव संक्रमित हो जाते हैं। आप अगर अपने ध्यान के कपड़े भी अलग रख दें, तो आप ही रखेंगे, आप ही उठाएंगे; कहीं तो रखेंगे। और अब हमारे घरों में ऐसी कोई जगह नहीं है, जिसे हम समस्त प्रभावों के बाहर रख सकें।

अगर आप अपने घर में एक छोटा-सा कोना समस्त प्रभावों के बाहर रख सकते हैं, तो वह मंदिर हो गया। मंदिर का उतना ही मतलब है। गांव में अगर एक घर आप ऐसा रख सकते हैं, जो समस्त प्रभावों के बाहर है, तो वह मंदिर है। मंदिर का उतना ही अर्थ है। लेकिन कुछ भी अब बाहर रखना बहुत मुश्किल है। एक कोना…।

इसलिए वे कह रहे हैं, शुद्ध स्थान।

शुद्ध स्थान से मतलब है, अप्रभावित स्थान। जो जीवन की निम्नतर वासनाएं हैं, उनसे बिलकुल अप्रभावित स्थान। और इस तरह के अप्रभावित स्थान का परिणाम गहरा है। और वह घर बहुत गरीब है, चाहे वह कितना ही अमीर का घर हो, जिस घर में ऐसी थोड़ी-सी जगह नहीं, जिसे शुद्ध कहा जा सके। किस जगह को शुद्ध कहें?

जिस जगह बैठकर आपने कभी कोई दुष्विचार नहीं सोचा; जिस जगह बैठकर आपने कोई दुष्कर्म नहीं किया; जिस जगह बैठकर आपने सिवाय परमात्मा के स्मरण के और कुछ भी नहीं किया; जिस जगह बैठकर आपने ध्यान, प्रार्थना, पूजा के और कुछ भी नहीं किया; जिस जगह प्रवेश करने के पहले आप अपनी सारी क्षुद्रताओं को बाहर छोड़ गए–ऐसा एक छोटा-सा कोना!

और निश्चित ही ऐसा कोना निर्मित हो जाता है। और अगर इस कोने पर सैकड़ों लोगों ने प्रयोग किया हो, तो वह धीरे-धीरे घनीभूत होता चला जाता है, क्रिस्टलाइज हो जाता है। वह आपकी इस दुनिया के बीच एक अलग दुनिया बस जाती है। वह एक अलग कोना हो जाता है। जिसके भीतर प्रवेश करते से ही परिणाम शुरू हो जाएंगे। जिसके भीतर कोई अजनबी आदमी भी आएगा, तो परिणाम शुरू हो जाएंगे।

कई बार आपको अनुभव में आया होगा, इससे उलटा आया होगा, लेकिन बात तो समझ में आ जाएगी। कई बार आपको अनुभव में आया होगा, किसी घर में प्रवेश करते, किसी स्थान पर बैठते, मन बहुत दुष्विचारों से भर जाता है। किसी व्यक्ति के पास जाते, मन बहुत दुष्कर्मों की वासनाओं से भर जाता है। इससे उलटा बहुत कम खयाल में आया होगा। क्योंकि इससे उलटे आदमी बहुत कम हैं, इससे उलटी जगह बहुत कम हैं कि किसी के पास जाकर मन उड़ान लेने लगता है आकाश की, जमीन को छोड़ देता है। क्षुद्र से हट जाता है, विराट की यात्रा करने लगता है–किसी के पास।

इस तरह किसी के पास होने का पुराना नाम सत्संग था। सत्संग का मतलब किसी को सुनना नहीं था। सत्संग का मतलब कोई व्याख्यान नहीं था। सत्संग का मतलब, सन्निधि; ऐसे व्यक्ति की सन्निधि, जहां पहुंचकर आपकी अंतर्यात्रा को सुगमता मिलती है।

इसलिए इस मुल्क में दर्शन का बड़ा मूल्य हो गया। पश्चिम के लोग बहुत हैरान होते हैं कि दर्शन से क्या होगा? किसी के पास जाकर आप नमस्कार कर आए, उससे क्या होगा? पश्चिम के लोगों को पता नहीं कि कोई गहरा वैज्ञानिक कारण दर्शन के पीछे है।

अगर किसी पवित्र व्यक्ति के पास जाकर आप दो क्षण खड़े भी हुए हैं, दो क्षण सिर भी झुकाया है, तो परिणाम होगा।

सिर झुकाने का भी विज्ञान तो है ही। क्योंकि जैसे ही आप सिर झुकाते हैं, उस पवित्र व्यक्ति की तरंगें आप में प्रवेश करने के लिए सुविधा पाती हैं, आप रिसेप्टिव होते हैं। किसी के चरणों में सिर रखने का कुल कारण इतना था कि आप अपने को पूरा का पूरा सरेंडर करते हैं उसकी किरणों के लिए, उसके रेडिएशन के लिए, वह आप में प्रवेश कर जाए। एक क्षण का भी वैसा स्पर्श, एक आंतरिक स्नान करा जाता है।

तो शुद्ध स्थान के लिए कृष्ण कह रहे हैं। शुद्ध स्थान हो, ऐसी वस्तुएं आस-पास मौजूद हों, जो ध्यान में यात्रा करवाती हैं। इस तरह की बहुत-सी चीजें खोज ली जा सकीं। ऐसी सुगंधें खोज ली गईं, जो ध्यान में सहयोगी हो जाती हैं। ऐसी वस्तुएं खोज ली गईं, जो ध्यान में सहयोगी हो जाती हैं। ऐसे चार्ज्ड आब्जेक्ट्स खोज लिए गए, जो ध्यान में सहयोगी हो जाते हैं।

आज भी, आज भी बचाने की कोशिश चलती है, लेकिन पता नहीं रहता। पता नहीं है, इसलिए बचाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। आज भी कोशिश चलती है अंधेरे में टटोलती हुई, लेकिन उसके साइंटिफिक, उसके वैज्ञानिक कारण खो जाने की वजह से जो बचाने की कोशिश में लगा है, वह बुद्धिहीन मालूम पड़ता है। जो तोड़ने की कोशिश में लगा है, बुद्धिमान मालूम पड़ता है।

और उस व्यक्ति को बहुत कठिनाई हो जाती है, जो जानता है कि बहुत-सी चीजें तोड़ देने जैसी हैं, क्योंकि उनके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं, वे सिर्फ समय की धारा में जुड़ गई हैं। और बहुत-सी चीजें बचा लेने जैसी हैं, क्योंकि उनके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण हैं। यद्यपि समय की धारा में वैज्ञानिक कारण भूल गए हैं और खो गए हैं।

यह बाह्य परिस्थिति का निर्माण करना है एक मनःस्थिति के जन्माने के लिए। और निश्चित ही बाहर की परिस्थिति में सहारे खोजे जा सकते हैं, क्योंकि बाहर की परिस्थिति में विरोध और अड़चन भी होती है।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। 13।।

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।। 14।।

उसकी विधि इस प्रकार है कि काया, सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किए हुए दृढ़ होकर, अपने नासिका के अग्रभाग को देखकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ और ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित रहता हुआ, भयरहित तथा अच्छी प्रकार शांत अंतःकरण वाला और सावधान होकर मन को वश में करके, मेरे में लगे हुए चित्त वाला और मेरे परायण हुआ स्थित होवे।

उस विधि के और अगले कदम।

एक, शरीर बिलकुल सीधा हो, स्ट्रेट, जमीन से नब्बे का कोण बनाए। वह जो आपकी रीढ़ है, वह जमीन से नब्बे का कोण बनाए, तो सिर सीध में आ जाएगा। और जब आपकी बैक बोन, आपकी रीढ़ जमीन से नब्बे का कोण बनाती है और बिलकुल स्ट्रेट होती है, तो आप करीब-करीब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाते हैं–करीब-करीब, एप्रोक्सिमेटली। और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाना ऊर्ध्वगमन के लिए मार्ग बन जाता है, एक।

दूसरी बात, दृष्टि नासाग्र हो। पलक झुक जाएगी, अगर नासाग्र दृष्टि करनी है। नाक का अग्र भाग देखना है, तो पूरी आंख खोले रखने की जरूरत न रह जाएगी। आंख झुक जाएगी। अगर आप बैठे हैं, तो मुश्किल से दो फीट जमीन आपको दिखाई पड़ेगी। अगर खड़े हैं, तो चार फीट दिखाई पड़ेगी। लेकिन वह भी ठीक से दिखाई नहीं पड़ेगी और धुंधली हो जाएगी, धीमी हो जाएगी। दो कारण हैं।

एक, अगर बहुत देर तक नासाग्र दृष्टि रखी जाए, तो पूरा संसार आपको, आपके चारों तरफ फैला हुआ संसार, वास्तविक कम, स्वप्नवत ज्यादा प्रतीत होगा। जो कि बहुत गहरा उपयोग है। अगर आप ऐसी अर्धखुली आंख रखकर नासाग्र देखेंगे, तो चारों तरफ जो जगत आपको बहुत वास्तविक, ठोस मालूम पड़ता है, वह स्वप्नवत प्रतीत होगा।

इस जगत के ठोसवत प्रतीत होने में आपके देखने का ढंग ही कारण है। इसलिए जिसे ध्यान में जाना है, उसे जगत वास्तविक न मालूम पड़े, तो अंतर्यात्रा आसान होगी। जगत धुंधला और ड्रीमलैंड मालूम पड़ने लगेगा।

कभी देखना आप, बैठकर सिर्फ नासाग्र दृष्टि रखकर, तो बाहर की चीजें धीरे-धीरे धुंधली होकर स्वप्नवत हो जाएंगी। उनका ठोसपन कम हो जाएगा, उनकी वास्तविकता क्षीण हो जाएगी। उनका यथार्थ छिन जाएगा, और ऐसा लगेगा जैसे कोई एक बड़ा स्वप्न चारों तरफ चल रहा है।

यह एक कारण, बाहरी। बहुत कीमती है। क्योंकि संसार स्वप्न मालूम पड़ने लगे, तो ही परमात्मा सत्य मालूम पड़ सकता है। जब तक संसार सत्य मालूम पड़ता है, तब तक परमात्मा सत्य मालूम नहीं पड़ सकता। इस जगत में दो सत्यों के होने का उपाय नहीं है। इसमें एक तरफ से सत्य टूटे, तो दूसरी तरफ सत्य का बोध होगा।

आपसे आंख बंद कर लेने को कहा जा सकता था। लेकिन आंख बंद कर लेने से संसार स्वप्नवत मालूम नहीं पड़ेगा। बल्कि डर यह है कि आंख बंद हो जाए, तो आप भीतर सपने देखने लगेंगे, जो कि सत्य मालूम पड़ें। अगर आंख पूरी बंद है, तो डर यह है कि आप रेवरी में चले जाएंगे, आप दिवास्वप्न में चले जाएंगे।

पश्चिम में एक विचारक है, रान हुबार्ड। वह ध्यान को भूल से दिवास्वप्न से एक समझ बैठा। आंख बंद करके स्वप्न में खो जाने को ध्यान समझ बैठा। जानकर भारत में–आंख न तो पूरी खुली रहे, क्योंकि पूरी खुली रही तो बाहर की दुनिया बहुत यथार्थ है; न पूरी बंद हो जाए, नहीं तो भीतर के स्वप्नों की दुनिया बहुत यथार्थ हो जाएगी। दोनों के बीच में छोड़ देना है। वह भी एक संतुलन है, वह भी एक समता है, वह भी दो द्वंद्वों के बीच में एक ठहराव है। न खुली पूरी, न बंद पूरी–अर्धखुली, नीमखुली, आधी खुली।

वह जो आधी खुली आंख है, उसका बड़ा राज है। भीतर आधी खुली आंख से सपने पैदा करना मुश्किल है और बाहर की दुनिया को यथार्थ मानना मुश्किल है। जैसे कोई अपने मकान की देहलीज पर खड़ा हो गया; न अभी भीतर गया, न अभी बाहर गया, बीच में ठहर गया।

और जब आंख नासाग्र होती है, जब दृष्टि नासाग्र होती है, तो आपको एक और अदभुत अनुभव होगा, जो उसका दूसरा हिस्सा है। जब दृष्टि नासाग्र होगी, तो आपको आज्ञा चक्र पर जोर पड़ता हुआ मालूम पड़ेगा। दोनों आंखों के मध्य में, दोनों आंखों के मध्य बिंदु पर, इम्फेटिकली, आपको जोर पड़ता हुआ मालूम पड़ेगा। जब आंख आधी खुली होगी और आप नासाग्र देख रहे होंगे, तो नासाग्र तो आप देखेंगे, लेकिन नासांत पर जोर पड़ेगा। देखेंगे नाक के अग्र भाग को और नाक के अंतिम भाग, पीछे के भाग पर जोर पड़ना शुरू होगा। वह जोर बड़े कीमत का है। क्योंकि वहीं वह बिंदु है, वह द्वार है, जो खुले तो ऊर्ध्वगमन शुरू होता है।

आज्ञा चक्र के नीचे संसार है, अगर हम चक्रों की भाषा में समझें। आज्ञा चक्र के ऊपर परमात्मा है, आज्ञा चक्र के नीचे संसार है। अगर हम चक्रों से विभाजन करें, तो आज्ञा चक्र के नीचे, दोनों आंखों के मध्य बिंदु के नीचे जो शरीर की दुनिया है, वह संसार से जुड़ी है। और आज्ञा चक्र के ऊपर का जो मस्तिष्क का भाग है, वह परमात्मा से जुड़ा है। उस पर जोर पड़ने से–वह जोर पड़ना एक तरह की चाबी है, जिससे बंद द्वार खोलने के लिए चेष्टा की जा रही है। वह सीक्रेट लाक है। कहें कि उसको खोलने की कुंजी यह है। जैसा कि आपने कई ताले देखे होंगे, जिनकी चाबी नहीं होती, नंबर होते हैं। नंबर का एक खास जोड़ बिठा दें, तो ताला खुल जाएगा। नंबर का खास जोड़ न बिठा पाएं, तो ताला नहीं खुलेगा।

यह जो आज्ञा चक्र है, इसके खोलने की एक सीक्रेट की है, एक गुप्त कुंजी है। और वह गुप्त कुंजी यह है कि जो शक्ति, जो विद्युत हमारी आंखों से बाहर जाती है, उसी विद्युत को एक विशेष कोण पर रोक देने से उस विद्युत का पिछला हिस्सा आज्ञा चक्र पर चोट करने लगता है। वह चोट उस दरवाजे को धीरे-धीरे खोल देती है। वह दरवाजा खुल जाए, तो आप एक दूसरी दुनिया में, ठीक दूसरी दुनिया में छलांग लगा जाते हैं। नीचे की दुनिया बंद हो गई।

इसमें तीसरी बात कृष्ण ने कही है, ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ।

ध्यान के इस क्षण में जब आधी आंख खुली हो, नासाग्र हो दृष्टि और आज्ञा चक्र पर चोट पड़ रही हो, अगर आपके चित्त में जरा भी कामवासना का विचार आ गया, तो वह जो द्वार खोलने की कोशिश चल रही थी, वह समाप्त हो गई; और आपकी समस्त जीवन ऊर्जा नीचे की तरफ बह जाएगी। क्योंकि जीवन ऊर्जा उसी केंद्र की तरफ बहती है, जिसका स्मरण आ जाता है।

कभी आपने सोचा है कि जैसे ही कामवासना का विचार आता है, जननेंद्रिय के पास का केंद्र फौरन सक्रिय हो जाता है। विचार तो खोपड़ी में चलता है, लेकिन केंद्र जननेंद्रिय के पास, सेक्स सेंटर के पास सक्रिय हो जाता है। बल्कि कई दफा तो ऐसा होता है कि आपको भीतर कामवासना का विचार चल रहा है, इसका पता ही तब चलता है, जब सेक्स सेंटर सक्रिय हो जाता है। वह पीछे धीरे-धीरे सरकता रहता है। लेकिन विचार तो मस्तिष्क में चलता है और केंद्र बहुत दूर है, वह सक्रिय हो जाता है! उसकी भी कुंजी है वही। अगर विचार कामवासना का चलेगा, तो आपकी जीवन ऊर्जा कामवासना के केंद्र की तरफ प्रवाहित हो जाएगी।

ध्यान के क्षण में अगर कामवासना का विचार चला, तो आप ऊपर तो यात्रा कम करेंगे, बल्कि इतनी नीचे की यात्रा कर जाएंगे, जितनी आपने कभी भी न की होगी। इसलिए सचेत किया है। साधारणतः भी आप कामवासना में इतने नीचे नहीं जा सकते, जितना आधी आंख खुली हो, नासाग्र हो दृष्टि और उस वक्त अगर काम-विचार चल जाए, तो आप इतनी तीव्रता से कामवासना में गिरेंगे, जिसका हिसाब नहीं।

इसलिए बहुत लोगों को ध्यान की प्रक्रिया शुरू करने पर कामवासना के बढ़ने का अनुभव होता है। उसका कारण है। बहुत लोगों को…न मालूम कितने लोग मुझे आकर कहते हैं कि यह क्या उलटा हुआ? हमने ध्यान शुरू किया है, तो कामवासना और ज्यादा मालूम पड़ती है! उसके ज्यादा मालूम पड़ने का कारण है।

अगर ध्यान के क्षण में कामवासना पकड़ गई, तो कामवासना को ध्यान की जो ऊर्जा पैदा हो रही है, वह भी मिल जाएगी। इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत में थिर होकर। उस क्षण तो कम से कम कोई काम-विचार न चलता हो।

तो अगर आपको चलाना ही हो, तो एक सरल तरकीब आपको कहता हूं। ध्यान करने के पहले घंटेभर काम-चिंतन कर लें। पक्का ही कर लें कि परमात्मा को स्मरण करने के पहले घंटेभर बैठकर काम का चिंतन करेंगे, यौन-चिंतन करेंगे।

और यह बड़े मजे की बात है कि अगर कांशसली यौन-चिंतन करें, तो घंटाभर बहुत दूर है, पांच मिनट करना मुश्किल हो जाएगा–चेतन होकर अगर करें, सावधानी से अगर करें।

काम-चिंतन की एक दूसरी कुंजी है कि वह अचेतन चलता है, चेतन नहीं। अगर आप होशपूर्वक करेंगे, तो आप खुद ही अपने पर हंसेंगे कि यह मैं क्या-क्या मूढ़ता की बातें सोच रहा हूं! वह तो बेहोशी में सोचें, तभी ठीक है। होश में सोचेंगे, तो कहेंगे, क्या मूढ़ता की बातें सोच रहा हूं!

इसलिए कामुक व्यक्ति को शराब बड़ी सहयोगी हो जाती है। उन व्यक्तियों को, जिनकी काम-शक्ति क्षीण हो गई हो, उनको भी शराब बड़ी सहयोगी हो जाती है। क्योंकि वे फिर बेहोशी से इतने भर जाते हैं कि फिर काम-चिंतन में लीन हो पाते हैं।

तो ध्यान करने के पहले अगर आप घंटेभर आंख बंद कर लें। आधी आंख नहीं, आंख बंद कर लें। और सचेत रूप से मेडिटेट आन सेक्स–सचेत रूप से, अचेत रूप से नहीं–जानकर ही कि अब मैं कामवासना पर चिंतन शुरू करता हूं। और शुरू करें। पांच मिनट से ज्यादा आप न कर पाएंगे। और जैसे ही आप पाएं कि अब करना मुश्किल हुआ जा रहा है, अब कर ही नहीं सकता, तब ध्यान में प्रवेश करें। तो शायद पंद्रह मिनट, आधा घंटा आपके चित्त में कोई काम का विचार नहीं होगा। क्योंकि अर्जुन कोई ब्रह्मचारी नहीं है। पूर्ण ब्रह्मचारी हो, तब तो यह कोई सवाल नहीं उठता। तब तो ब्रह्मचर्य की याद दिलाने की भी जरूरत नहीं है।

एक बहुत मजे की घटना आपसे कहूं।

महावीर के पहले जैनों के तेईस तीर्थंकरों ने ब्रह्मचर्य की कभी बात नहीं की, नेवर। महावीर के पहले तेईस तीर्थंकरों ने जैनों के कभी नहीं कहा, ब्रह्मचर्य। वे चार धर्मों की बात करते थे–अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य। इसलिए पार्श्वनाथ तक के धर्म का नाम चतुर्याम धर्म है।

महावीर को ब्रह्मचर्य जोड़ना पड़ा, पांच महाव्रत बनाने पड़े; एक और जोड़ना पड़ा। जो लोग खोज-बीन करते हैं इतिहास की, उन्हें बड़ी हैरानी होती है कि क्या महावीर को ब्रह्मचर्य का खयाल आया! बाकी तेईस तीर्थंकरों ने क्यों ब्रह्मचर्य की बात नहीं की?

ये तेईस तीर्थंकर जिन लोगों से बात कर रहे थे, वे निष्णात ब्रह्मचारी थे। ये उपदेश जिनको दिए गए थे, उनके लिए ब्रह्मचर्य सहज था। यह लोक-चर्चा नहीं थी। यह आम जनता से कही गई बात नहीं थी, जो कि ब्रह्मचारी नहीं हैं।

महावीर ने पहली दफा तीर्थंकरों के आकल्ट मैसेज को, जो बहुत गुप्त मैसेज थी, बहुत छिपी मैसेज थी, जो कि बहुत गुप्त राज था और केवल निष्णात साधकों को दिया जाता था, उसको मासेस का बनाया। और इसीलिए दूसरी घटना घटी कि तेईस तीर्थंकर फीके पड़ गए और ऐसा लगने लगा कि महावीर जैन धर्म के स्थापक हैं। क्योंकि वे पहले, पहले पापुलाइजर हैं, पापुलाइज करने वाले हैं, लोकप्रिय करने वाले पहले व्यक्ति हैं। पहली दफा जनता में उन्होंने वह बात कही, जो कि सदा थोड़े साधकों के बीच, थोड़े गहन साधकों के बीच कही गई थी। इसलिए तेईस तीर्थंकरों को ब्रह्मचर्य की कोई बात नहीं करनी पड़ी। महावीर को बहुत जोर से करनी पड़ी। सबसे ज्यादा जोर ब्रह्मचर्य पर देना पड़ा, क्योंकि अब्रह्मचारियों के बीच चर्चा की जा रही थी।

कृष्ण जब अर्जुन से कह रहे हैं कि ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ! इसका यह मतलब नहीं है कि ब्रह्मचारी, इसका इतना ही मतलब है कि ध्यान के क्षण में ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ।

हां, यह बड़े मजे की बात है कि अगर कोई ध्यान के क्षण में ब्रह्मचर्य में ठहर जाए, क्षणभर को भी ठहर जाए, तो फिर अब्रह्मचर्य में जाना रोज-रोज मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि जब एक दफे ऊर्जा ऊपर चढ़ जाए, तो इतना आनंद लाती है, जितना नीचे सेक्स में गिराई गई ऊर्जा में सपने में भी नहीं मिल सकता है। सोचने में भी नहीं मिल सकता है। उससे कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है। एक बार यह ऊपर का अनुभव हो जाए, तो ऊर्जा नीचे जाने की यात्रा बंद कर देगी।

इसलिए तीन बातें कहीं। थिर आसन में, सीधी रीढ़ के साथ बैठा हुआ, अर्धखुली आंख, नासाग्र दृष्टि, आज्ञा चक्र पर पड़ती रहे चोट, ब्रह्मचर्य व्रत में ठहरा हुआ, तो ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, मुझे उपलब्ध हो जाता है, मुझमें प्रवेश कर जाता है, मुझसे एक हो जाता है। और जब भी कृष्ण कहते हैं मुझसे, तब वे कहते हैं परमात्मा से।

अर्जुन से वे कह सके सीधी-सीधी बात, मुझसे। क्योंकि जिसने जाना परमात्मा को, वह परमात्मा हो गया। इसमें कोई अस्मिता की घोषणा नहीं है कि कृष्ण कह रहे हैं, मैं परमात्मा हूं। इसमें सीधे तथ्य का उदघोषण है। वे हैं; हैं ही। और जो भी जान लेता है परमात्मा को, वह परमात्मा ही है। वह कहने का हकदार है कि कहे कि मुझमें। लेकिन वहां मैं जैसी कोई चीज बची नहीं है, तभी वह हकदार है। जिसका मैं समाप्त हुआ, वह कह सकता है, मैं परमात्मा हूं।

कृष्ण कहते हैं, वह मुझे जान लेता है।

और शेष बात हम रात करेंगे। लेकिन अभी उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन में भाग लें, फिर विदा हों।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र (भाग–2) प्रवचन–16

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गुरु है द्वार—प्रवचन—सोलहवां

प्रश्‍न सार:

1—नानकदेव भी जाग्रतपुरूष थे, लेकिन उन्‍होंने स्‍वयं को भगवान नहीं कहा। आप……..?

2—ध्‍यान के एक गहन अनुभव पर भगवान से मार्ग दर्शन की प्रार्थाना।

3—अफसोस, दिल का हाल कोई पूछता नहीं। और सब कहते है तेरी सूरत बदल गई।

और सब कुछ लूटा के होश में आये तो क्‍या किया। मैं क्‍या करूं…… ?

4—आप उत्‍तर न देंगे तो मैं पागल हो जाऊंगा।

पहला प्रश्न:

नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे। लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि मैं भगवान हूं। उन्होंने यह भी कहा कि आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना चाहिए। और जो व्यक्ति अध्यात्म की राह बताये, उसे गुरु कहना चाहिए।

पूछा है आर. एस. गिल ने। सिक्ख ही पूछ सकता है ऐसा प्रश्न। क्योंकि प्रश्न हृदय से नहीं आया। प्रश्न थोथा है, और बुद्धि से आया। प्रश्न परंपरा से आया। मान्यता से आया। पक्षपात से आया। पर समझने-जैसा है, क्योंकि ऐसे पक्षपात सभी के भीतर भरे पड़े हैं।

पहली बात, पहले ही प्रश्न की पंक्ति में पूछनेवाला कह रहा है–नानकदेव! देव का क्या अर्थ होता है? देव का अर्थ होता है दिव्य, डिवाइन। दिव्यता का अर्थ होता है भगवत्ता। नानकदेव कहने में ही साफ हो गया कि मनुष्य के पार, मनुष्य से ऊपर; दिव्यता को स्वीकार कर लिया है। भगवान का क्या अर्थ होता है? बड़ा सीधा-सा अर्थ होता है–भाग्यवान। कुछ और बड़ा अर्थ नहीं। कौन है भाग्यवान? जिसने अपने भीतर की दिव्यता को पहचान लिया। कौन है भाग्यवान? जिसकी कली खिल गयी, जो फूल हो गया। कौन है भाग्यवान? जिसे पाने को कुछ न रहा–जो पाने योग्य था, पा लिया। जब पूरा फूल खिल जाता है, तो भगवान है। जब गंगा सागर में गिरती है, तो भगवान है। जहां भी पूर्ण की झलक आती है, वहीं भगवान है।

भगवान शब्द का अर्थ ठीक से समझने की कोशिश करो। नानक ने न कहा हो, मैं कहता हूं कि नानक भगवान थे। और नानक ने अगर न कहा होगा, तो उन लोगों के कारण न कहा होगा जिनके बीच नानक बोल रहे थे। उनकी बुद्धि इस योग्य न रही होगी कि वे समझ पाते। कृष्ण तो नहीं डरे। कृष्ण ने तो अर्जुन से कहा–सर्व धर्मान परित्यज्य…, छोड़-छाड़ सब, आ मेरी शरण, मैं परात्पर ब्रह्म तेरे सामने मौजूद हूं। कृष्ण कह सके अर्जुन से, क्योंकि भरोसा था अर्जुन समझ सकेगा। नानक को पंजाबियों से इतना भरोसा न रहा होगा कि वे समझ पायेंगे। इसलिए नहीं कहा होगा। और इसलिए भी नहीं कहा कि नानक उस विराट परंपरा से थोड़ा हटकर चल रहे थे जिस विराट परंपरा में कृष्ण हैं, राम हैं, उससे थोड़ा हटकर चल रहे थे।

नानक एक नया प्रयोग कर रहे थे कि हिंदू और मुसलमान के बीच किसी तरह सेतु बन जाए। एक समझौता हो जाए। एक समन्वय बन जाए। मुसलमान सख्त खिलाफ हैं किसी आदमी को भगवान कहने के। अगर नानक सीधे-सीधे हिंदू-परंपरा में जीते तो निश्चित उन्होंने घोषणा की होती कि मैं भगवान हूं। लेकिन सेतु बनाने की चेष्टा थी। जरूरी भी थी। उस समय की मांग थी। मुसलमान को भी राजी करना था। मुसलमान यह भाषा समझ ही नहीं सकता कि मैं भगवान हूं। जिसने ऐसा कहा उसने मुसलमान से दुश्मनी मोल ले ली।

नानक हाथ बढ़ा रहे थे मित्रता का, इसलिए नानक को ऐसी भाषा बोलनी उचित थी जो मुसलमान भी समझेगा। नहीं तो जो मंसूर के साथ किया, वही उन्होंने नानक के साथ किया होता। या उन्होंने कहा होता, नानक भी हिंदू हैं, यह सब बकवास है। हिंदू और मुसलमान के एक होने की।

जिसको समन्वय साधना हो, वह बहुत सोचकर बोलता है। नानक बहुत सोचकर बोले। उन्होंने कृष्ण जैसी घोषणा नहीं की। उनकी जो घोषणा है, वह मुहम्मद जैसी है। उसमें मुसलमान को फुसलाने का आग्रह है। पंजाब है सीमा-प्रांत, वहां हिंदू और मुसलमान का संघर्ष हुआ। वहां हिंदू और मुसलमान के बीच विरोध हुआ। वहीं मिलन भी होना चाहिए। वहीं हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के सामने दुश्मन की तरह खड़े हुए, वहीं मैत्री का बीज भी बोया जाना चाहिए। सीमांत-प्रांत यदि समन्वय के प्रांत न हों, तो युद्ध के प्रांत हो जाते हैं। तो नानक ने बड़ी गहरी चेष्टा की।

इसलिए सिक्ख-धर्म बिलकुल हिंदू-धर्म नहीं है। न मुसलमान-धर्म है। सिक्ख दोनों के बीच है। कुछ हिंदू है, कुछ मुसलमान। दोनों है। दोनों में जो सारभूत है, उसका जोड़ है। इसलिए सिक्ख-धर्म की पृथक सत्ता है।

लेकिन इसे हमें समझना होगा इतिहास के संदर्भ में, नानक क्यों न कह सके जैसा कृष्ण कह सके। बुद्ध कह सके, महावीर कह सके, नानक क्यों न कह सके। नानक के सामने एक नयी परिस्थिति थी, जो न बुद्ध के सामने थी, न महावीर के, न कृष्ण के। न तो बुद्ध को, न महावीर को, न कृष्ण को, किसी को भी मुसलमान के साथ सामना न था। यह नयी परिस्थिति, और नयी भाषा खोजनी जरूरी थी। और जीवंत पुरुष सदा ही परिस्थिति के अनुकूल, परिस्थिति के लिए उत्तर खोजते हैं। यही तो उनकी जीवंतता है। उन्होंने ठीक उत्तर खोजा। लेकिन पूछनेवाले को सोचना चाहिए नानक देव क्यों?

इस देश में जो पले, वे चाहे हिंदू हों, चाहे जैन हों, चाहे सिक्ख हों, चाहे बौद्ध हों, इस देश की हवा में, इस देश के प्राणों में एक संगीत है, जिससे बचकर जाना मुश्किल है। यहां तो मुसलमान भी जो बड़ा हुआ है, वह भी ठीक उसी अर्थ में मुसलमान नहीं रह जाता जिस अर्थ में भारत के बाहर का मुसलमान मुसलमान होता है। यहां के मुसलमान में भी हिंदू की धुन समा जाती है। महावीर ने कहा, कोई भगवान नहीं, कोई संसार को बनानेवाला नहीं, लेकिन महावीर को माननेवालों ने महावीर को भगवान कहा। बुद्ध ने कहा, सब मूर्तियां तोड़ डालो, सब मूर्तियां हटा दो, किसी की पूजा की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्ध के माननेवालों ने बुद्ध की पूजा की। इस मुल्क में भगवत्ता की तरफ ऐसा सहज भाव है कि जिन्होंने इनकार किया, उनको भी भगवान मान लिया गया। यह इस मुल्क की आंतरिक दशा है।

तो जिन मित्र ने प्रश्न पूछा है, वह भी कहते हैं–नानकदेव! नानक कहने से काम चल जाता। देव क्यों जोड़ दिया? “भगवान’ शब्द का उपयोग न किया, “देव’ शब्द को उपयोग किया। लेकिन बात तो वही हो गयी। घोषणा तो हो गयी कि नानक आदमी पर समाप्त नहीं हैं, आदमी से ज्यादा हैं।

और ठीक ही है, वह आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी तो हैं ही, लेकिन धन, आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी होना तो जैसे उनका प्रारंभ है, अंत नहीं। वहां से शुरुआत है, वहां समाप्ति नहीं।

“नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे।’ निश्चित ही। इसमें कोई दो मत नहीं है। लेकिन जागते और सोते में कुछ फर्क करोगे? प्रकृति और परमात्मा में फर्क क्या है? जागने और सोने का। प्रकृति है सोया हुआ परमात्मा। परमात्मा है जागी हुई प्रकृति। फर्क क्या है? बुद्ध में और तुममें फर्क क्या है? बुद्ध जागे हुए, तुम सोये हुए। तुम सोये हुए बुद्ध हो। आंख खोल ली कि तुम ही हो गये। आंख की ओट में ही फर्क है, बस। आंख खोली कि प्रकाश ही प्रकाश है। आंख बंद की कि अंधेरा ही अंधेरा है।

एक आदमी सो रहा है, उसी सोये आदमी के पास एक जागा हुआ आदमी बैठा है। दोनों आदमी हैं, सही। लेकिन क्या दोनों एक ही जैसे आदमी हैं? तो फिर नींद और जागरण में कुछ फर्क करोगे, न करोगे? नींद और जागरण में इतना क्रांतिकारी फर्क है कि अगर हम जागे हुओं को कहें कि यह बिलकुल दूसरे ही ढंग का आदमी है, तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं। क्योंकि सोया हुआ आदमी क्या आदमी है! सोये हुए आदमी में और चट्टान में क्या फर्क है? सोये हुए आदमी और वृक्ष में क्या फर्क है? मूर्च्छित आदमी और पत्थर में क्या फर्क है? न पत्थर जाग रहा है, न सोया हुआ आदमी जाग रहा है। दोनों समान हैं।

नींद में हम प्रकृति में गिर जाते हैं। जागकर हम परमात्मा में उठने लगते हैं। और यह जागरण जिसको अभी हम जागरण कहते हैं, यह तो शुद्ध जागरण नहीं है। इसमें तो नब्बे प्रतिशत से ज्यादा नींद समाविष्ट है। जब कोई व्यक्ति सौ प्रतिशत जाग जाता है, तो उसी को किसी परंपरा में भगवान कहा है, किसी परंपरा में अरिहंत कहा है, किसी परंपरा में तीर्थंकर, किसी परंपरा में पैगंबर, किसी परंपरा में गुरु, कोई फर्क नहीं पड़ता, शब्दों का ही फर्क है। लेकिन हम शब्दों से बंध जाते हैं। सिक्ख है, तो जो उसने सुना है उससे बंध गया है। हिंदू है, तो बंध गया है; जैन है, तो बंध गया है। हम सब सुने हुए शब्दों से बंध जाते हैं। और फिर शब्दों के कारण सत्यों को देखने में अड़चन हो जाती है।

“नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि मैं भगवान हूं।’ उन्हें अर्जुन न मिला होगा। क्योंकि मैं भगवान हूं, यह कहने के लिए कोई सुननेवाला चाहिए। कोई समझनेवाला चाहिए। कोई आत्यंतिक प्रेम से सुननेवाला चाहिए। अन्यथा यह बात विवाद ही पैदा करेगी, इससे कुछ हल न होगा। मैं भगवान हूं, यह तो कहा ही जा सकता है किसी बड़े गहरे श्रद्धा के क्षण में, जबकि दो व्यक्ति इतने जुड़े हों कि संदेह का उपाय न हो। कृष्ण कह सके।

फिर यह भी खयाल रखें कि प्रत्येक जाग्रतपुरुष अपनी भाषा चुनता है, अपना ढंग चुनता है। कोई जाग्रतपुरुष किसी और जाग्रतपुरुष का अनुकरण नहीं करता। तालमेल बैठ जाए, ठीक; अनुकरण नहीं करता। नानक ने अपने ढंग से चुना। नानक को अपनी शैली बनानी पड़ी। अब अगर तुम इस तरह सोचते फिरे कि जो बुद्ध ने कहा है वही नानक कहें, जो नानक ने कहा है वही मैं कहूं, तो तुम व्यर्थ की उलझन में पड़ रहे हो। मैं वही कहूंगा जो मैं कह सकता हूं। नानक ने मुझसे नहीं पूछा, मैं उनसे क्यों पूछूं? नानक की मौज, उन्होंने नहीं कहा कि मैं भगवान हूं। मेरी मौज, मैं कहता हूं।

और मैं मानता हूं कि अस्तित्व एक ऐसी घड़ी के करीब आ रहा है, जहां यह घोषणा करनी उपयोगी है। हर पच्चीस सौ वर्ष में मनुष्य की चेतना एक ऐसे द्वार के निकट आती है, जहां जागरण बड़ा आसान है। बुद्ध से, महावीर से पच्चीस सौ वर्ष पहले कृष्ण हुए। कृष्ण ने भगवत्ता की घोषणा की। फिर पच्चीस सौ साल बाद बुद्ध, महावीर हुए; जरथुस्त्र हुआ परसिया में; लाओत्सू, कन्फयूशियस हुए चीन में; हेराक्लाइटस, सुकरात हुए यूनान में। पच्चीस सौ वर्ष के बाद फिर एक गहन विस्फोट हुआ और सब तरफ सारे जगत में एक गुनगुनाहट गूंज गयी अध्यात्म की। फिर पच्चीस सौ वर्ष पूरे होते हैं। इस सदी के पूरे होतेऱ्होते सारी पृथ्वी पर धर्म की अनुगूंज होगी। घड़ी करीब आ रही है, जब लोग हिम्मत से घोषणा करें भगवत्ता की।

क्योंकि जब कोई तुमसे कहता है मैं भगवान हूं…अगर वह यह कहता हो कि मैं भगवान हूं और तुम भगवान नहीं हो, तब तो वह तुम्हारा दुश्मन है; और अगर वह इसलिए कहता हो कि मैं भगवान हूं, क्योंकि तुम भी भगवान हो; वह इसलिए घोषणा करता हो कि मैं भगवान हूं, ताकि तुम्हें भी याद आये तुम्हारे भगवान होने की…देखो मेरी तरफ, अगर मैं भगवान हो सकता हूं, तो तुम क्यों नहीं हो सकते, कोई भी कारण नहीं, कोई रुकावट नहीं; ठीक तुम जैसा हूं मैं, अगर मैं भगवान हो सकता हूं, तो तुम क्यों नहीं हो सकते? हो सकते हो। अगर यह फूल खिला, तो तुम्हारी कली भी खिल सकती है।

यह घोषणा जरूरी है अब, क्योंकि द्वार फिर करीब आयेगा। जैसे हर वर्ष मौसम का एक वर्तुल घूमता है–मंडलाकार; फिर वर्षा आती, फिर सर्दी आती, फिर गर्मी आती है, फिर वर्षा आती है–जैसे बारह महीने में एक वर्तुल घूमता है मौसम का, ऐसे ही आध्यात्मिक मौसम का भी एक वर्तुल है जो घूमता है। जैसे चौदह वर्ष में बच्चा जवान होने लगता, वीर्य परिपक्व होता, वासना जगती; और अगर सब ठीक चलता रहे तो बयालीस वर्ष के करीब वासना क्षीण होने लगती, ब्रह्मचर्य की याद आने लगती; अगर सब ठीक चलता रहे, तो सत्तर वर्ष का होतेऱ्होते व्यक्ति पुनः फिर बच्चे की तरह सरल हो जाता है। कुछ गड़बड़ हो जाए, तो बात अलग है। वह नियम की बात नहीं है। भटक गये तो बात अलग। अन्यथा नियम से सब चलता रहे, तो ऐसा होगा। एक वर्तुल है जीवन का भी। मरते-मरते फिर व्यक्ति सरल हो जाता है, जैसे छोटा बच्चा जन्म के बाद सरल होता।

ठीक ऐसा ही एक बड़ा वर्तुल है, जो पच्चीस सौ वर्ष का घेरा लेता है। हर पच्चीस सौ वर्ष में मनुष्य की चेतना ज्वार पर होती है। और जब ज्वार हो, तब बड़ी सुगमता से ऊंचाइयां छुई जा सकती हैं। जब ज्वार न हो, तब बड़ी कठिनता से ऊंचाइयां छुई जा सकती हैं।

नानक ने अपना समय देखा, मैं अलग अपना समय देख रहा हूं। नानक मेरे समय के लिए नहीं बोले, मैं उनके समय के लिए नहीं बोलूंगा। नानक अपने भक्तों से बोले, मैं अपने भक्तों से बोल रहा हूं। नानक का अपना प्रयोजन है, मेरा अपना प्रयोजन है। इसलिए व्यर्थ के प्रश्न बीच में मत उठाओ। क्या नानक ने कहा, यह नानक से पूछो कहीं मिल जाएं तो। मुझसे क्या पूछते हो? क्या मैं कहता हूं, वह मुझसे पूछो।

“उन्होंने यह भी कहा कि आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना चाहिए।’ मैं तुमसे कहता हूं, तुम किसी को भी मानो, हर मानने में एक ही परमात्मा को मान सकते हो, करोगे क्या? पूजो पीपल को कि पहाड़ को, चरण उसी के पाओगे। वहीं सिर झुकेगा। उसके अतिरिक्त कोई है नहीं। मैं तो तुमसे कहता हूं कहीं भी चढ़ाओ पूजा के फूल, सब पूजा के फूल उसी के चरणों में गिर जाते हैं, क्योंकि उसी के चरण हैं, और कुछ है ही नहीं। फूल भी उसी के हैं, चरण भी उसी के हैं, चढ़ानेवाला भी उसी का है। इसलिए मैं तुम्हें संकीर्ण नहीं बनाता। मैं नहीं कहता कि सिर्फ एक को छोड़कर किसी को मत मानो। मैं तुमसे कहता हूं, तुम किसी को भी मानो, एक ही माना जाएगा। अंततः तुम पाओगे वही एक पूजा गया। मंदिर में पूजो कि मस्जिद में, राम में कि कृष्ण में, बुद्ध में कि महावीर में, कहीं भी सिर झुकाओ, किसी के भी सामने सिर झुकाओ।

तुमने नानक की कहानी सुनी? गये काबा, रात सो गये तो काबा के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो गये। मुल्ला-मौलवी नाराज हो गये होंगे, भागे हुए आये। कहा कि कैसे नासमझ हो! और हमने तो सुना कि तुम बड़े ज्ञानी हो, औलिया हो; यह कैसा ज्ञान? तुम्हें तो साधारण शिष्टाचार के नियम भी मालूम नहीं। पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो रहे! परमात्मा की तरफ पैर करके सो रहे! कहानी कहती है कि नानक हंसे और उन्होंने कहा ऐसा करो, तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो। कहते हैं उन्होंने पैर घुमाये सब तरफ, लेकिन जहां भी पैर घुमाये, वहीं काबा का पत्थर हो गया।

ऐसा हुआ हो, जरूरी नहीं। लेकिन कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। मैं नहीं मानता कि ऐसा वस्तुतः हुआ है। पर इतना मैं जानता हूं कि होना चाहिए ऐसा ही। क्योंकि काबा का ही पत्थर सब तरफ है, सब पत्थरों में वही पत्थर है। पत्थर मात्र काबा के पत्थर हैं, तो कहां पैर करो! और ऐसा थोड़े ही है कि परमात्मा उत्तर में है, दक्षिण में नहीं; पूरब में है, पश्चिम में नहीं; ऊपर है, नीचे नहीं। परमात्मा ने तो सभी कुछ घेरा है। चलो तो उसमें, बैठो तो उसमें, सोओ तो उसमें; ओढ़नी भी वही है, बिछौनी भी वही है, करोगे क्या! खाओ तो उसे, पीओ तो उसे, श्वास लो तो उसकी, उपाय कहां है, परमात्मा से बचने की जगह कहां है!

मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जितने भी तुम्हें पूजना हो। तुम्हें जो रूप भा जाए, पूजो। तुम्हें जो नाम भा जाए, पूजो। इस अर्थ में हिंदू बड़े अदभुत हैं। दुनिया का कोई धर्म हिंदुओं जैसी गहराई को नहीं छू पाया। क्योंकि दुनिया के सभी धर्म किसी अर्थों में थोड़े संकीर्ण हैं। हिंदुओं के पास एक ग्रंथ है–विष्णु सहस्रनाम। उसमें परमात्मा के हजार नाम हैं। कोई भी नाम छोड़ा ही नहीं। जो भी नाम हो सकते थे संभव, वह सब जोड़ दिये हैं। कोई भी नाम लो, उसी का नाम है। कोई को भी पुकारो, उसी को पुकार रहे हो। चुप रहो, तो उसके साथ चुप बैठे हो; बोलो, तो उसके साथ बोल रहे हो। इधर तुम सोचते हो मैं तुमसे बोल रहा हूं, तो तुम गलती में हो। मैं उसी से बोल रहा हूं। तुमसे मैं नाहक सिर नहीं मारूंगा। तुम तो दीवाल जैसे हो। मैं उसी से बोल रहा हूं। तुम्हें जब पुकारता हूं, तो उसी को पुकार रहा हूं।

मुसलमान, ईसाई, यहूदी, तीनों धर्म यहूदियों की संकीर्णता से पैदा हुए हैं। तीनों धर्मों का मूलस्रोत यहूदी है। और सिक्ख-धर्म भी आधा यहूदी है। इसलिए थोड़ी-सी संकीर्णता है। नानक में तो न रही होगी, सिक्खों में है।

हिंदू कहते हैं, सभी कुछ उसका है। इसलिए तो हिंदू बड़े अदभुत हैं। पत्थर रख लेते हैं वृक्ष के नीचे, सिंदूर पोत देते हैं, पूजा शुरू! अभी पत्थर था, अभी सिंदूर लगाया, पूजा शुरू! पत्थर को भगवान बनाने में देर नहीं लगती। अनगढ़ पत्थर पूजने लगते हैं। गढ़ो, मूर्ति बनाओ, समय जाया होता है। मिट्टी के गणेश बना लेते हैं। पूज भी लेते हैं, पूजने के बाद समुंदर में सिरा भी आते हैं। बड़े अदभुत लोग हैं। क्योंकि उसी का समुंदर है, मिट्टी उसी की है; बना लिया, सिरा दिया। दुनिया में कोई जाति अपनी मूर्तियों को सिराती नहीं। बना ली, तो फिर घबड़ाती है, कहीं मूर्ति का अपमान न हो जाए। हिंदू अदभुत हैं। नाच-गाना करके जाकर नदी में डुबा आते हैं कि अब बस विश्राम करो, अब हमको भी तो चैन लेने दो। और भी तो काम हैं! फिर अगले साल देखेंगे। और फिर तुम सभी जगह हो। सागर तुम्हारा, मिट्टी तुम्हारी, आकाश तुम्हारा। सब तुम्हारा है। तो ऐसा मोह क्या बांधना!

ध्यान रखना, परमात्मा निराकार है, इसका अर्थ यही हुआ कि सभी आकार उसके। मुसलमानों ने बड़ी जिद्द पकड़ ली कि परमात्मा निराकार है तो मूर्तियां तोड़ने लगे। अगर समझे होते कि परमात्मा निराकार है, तो यही समझ में आता कि सभी आकार उसके। निराकार का अर्थ आकार तोड़ना नहीं है, आकार में उसको देखना है। आकार रोक न पाये, आकार द्वार बने, दरवाजा बने; बाधा न बने।

मैं तो तुमसे कहता हूं, पूजो जिसको पूजना हो, कम से कम पूजो तो। क्योंकि मेरा जोर तुम्हारी पूजा में है। तुमने पूजा, तुमने प्रार्थना की, तुम झुके, बस काफी है। जहां तुम झुके, वहीं परमात्मा के चरण हो गये।

परमात्मा के चरण तो वहां थे ही, तुम झुक नहीं रहे थे इसलिए दिखायी नहीं पड़ते थे। झुके कि दिखायी पड़ गये। और हिसाब कौन लगाये कि कहां है और कहां नहीं है! मंदिर में है कि मस्जिद में है कि गुरुद्वारे में है। हिसाब लगाने की जरूरत कहां। बेहिसाब सब जगह है। अमर्याद सब जगह है।

जिन मित्र ने पूछा है, वह नानक को समझे न होंगे। “आदमी को एक परमात्मा को छोड़कर किसी को भी नहीं मानना चाहिए।’ मान ही नहीं सकते। यही कहा होगा नानक ने कि जहां भी मानो, उसी को मानना, उस एक को ही मानना। सिक्ख कुछ गलत समझे होंगे। कम से कम पूछनेवाला सिक्ख तो गलत समझा ही है। मानना एक को ही। इसका अर्थ हुआ, जहां भी आंख पड़े, उसी को खोजना। जहां सिर झुके, उसी के चरण टटोलना। जहां तक हाथ पहुंच सके, उसी की तलाश करना। जहां तक मन जा सके, उसी में उड़ने देना मन को। जहां तक स्वप्न उठ सकें, उठने देना उसी में। जीना तो उसमें, सोना तो उसमें। उठना, बैठना, तो उसमें। उस एक में।

इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम एक धारणा को पकड़ लेना, और सब धारणाओं को इनकार कर देना। अगर एक धारणा ही भगवान का ढंग है, तो भगवान बड़ा सीमित हुआ। फिर वह निराकार न हुआ, फिर असीम न हुआ, फिर सारी सत्ता उसकी न हुई। वही होना चाहिए सभी में, तभी निराकार है। तभी शाश्वत है, सर्वव्यापी है।

“और जो व्यक्ति अध्यात्म की राह बताये, उसे गुरु कहना चाहिए।’ गुरु भी क्यों कहना! क्योंकि उपनिषद तो कहते हैं, गुरु परमात्मा है, गुरुर्ब्रह्मा। झंझट हो जाएगी! अगर किसी को गुरु कहा, तो परमात्मा मान लिया उसको। सारे भारत के शास्त्र कहते हैं कि गुरु साक्षात ब्रह्म है। परमात्मा तो दूर है, दिखायी नहीं पड़ता है। गुरु दिखायी पड़ता है। परमात्मा तो आकाश की गंगा है, कहां है पता नहीं, गुरु ऐसी गंगा है जो तुम्हारे घर के द्वार से बह रही है। स्नान तो उसी में हो सकता है। इसमें स्नान होगा, तो ही तुम परमात्मा की गंगा के योग्य बनोगे। पहला परमात्मा तो गुरु ही है। गुरु से मिलने पर ही तो पहली दफा, परमात्मा है, इसकी प्रतीति होती है।

मगर लोग जड़ हैं। शब्दों को पकड़कर बैठ जाते हैं। वे कहते हैं, गुरु कहेंगे हम तो, भगवान नहीं कह सकते। इसलिए नानक को गुरु कहते हैं। लेकिन गुरु का अर्थ ही यही है, जिसमें भगवान प्रगट हुआ हो। जो भगवान के साथ एकाकार हो गया हो। जिसकी मौजूदगी में भगवान की झलक मिले। जिसके सत्संग में तुम्हारे भीतर का भगवान भी जगे और नाचे और प्रफुल्लित हो। गुरु का अर्थ ही यही है, जो तुम्हें खींचने लगे, प्रबल आकर्षण बन जाए। जो चुंबक की तरह तुम्हें खींचने लगे। किसी ऐसी जगह ले जाने लगे जहां तुम अपने से न जा सकते। भय पकड़ता, हिम्मत न होती। गुरु तो परमात्मा है। कबीर ने कहा है–

गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांय

किसके चरण छुऊं पहले? दोनों सामने खड़े हैं। दुविधा बड़ी साफ है। अगर परमात्मा के चरण पहले लगूं, तो गुरु का अपमान होता है। और गुरु के बिना परमात्मा तो कभी मिल नहीं सकता था। तो यह तो अकृतज्ञ होगा कृत्य। यह तो गुरु के प्रति आभार न हुआ। गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांय। अगर गुरु के पैर पड़ता हूं, तो परमात्मा का अपमान हो जाएगा। गुरु के साथ इसीलिए तो थे कि परमात्मा को खोजना था। बड़ी दुविधा है! क्या करूं?

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय

लेकिन गुरु ने तत्क्षण गोविंद को बता दिया कि तू गोविंद के ही पैर लग। पद तो कबीर का यहीं पूरा हो जाता है, पक्का नहीं फिर वह पैर किसके लगे! मैं जानता हूं कि वह गुरु के लगे। क्योंकि उनकी इस दूसरी पंक्ति में ही साफ है–”बलिहारी गुरु आपकी।’ गुरु ने कह दिया कि लग परमात्मा के, देर क्यों कर रहा है, रुक क्यों रहा है, सोच क्या रहा है? चुनाव थोड़े ही करना है। यहीं के लिए तो तुझे ले आया था अपने साथ, आ गयी वह घड़ी, अब झुक परमात्मा को, भूल मुझे। पद तो यहां पूरा हो जाता है, फिर किसी ने कभी कबीर को पूछा नहीं कि वस्तुतः तुम लगे किसके पैर? मैं मानता हूं कि कबीर गुरु के ही पैर लगे–”बलिहारी’ शब्द में ही बात आ गयी। अब कैसे और कुछ किया जा सकता है।

गुरु अंततः तुम्हें अपने से भी मुक्त कर देता है–”बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।’

तो गुरु तो परमात्मा है। गुरु तो परमातमा का द्वार है। ये जो प्रश्न उठते हैं, ये उठ आते हैं संस्कारों से। संस्कार बाधा हैं। संस्कारों से मुक्त होना है। और एक ऐसा चित्त पाना है, जहां कोई संस्कार तथ्यों पर धूमिल छाया न डालते हों। जहां तथ्य प्रगट होते हों, जैसे हैं वैसे ही। भक्त की कोशिश यही है कि भगवान होना है।

तुझी से तुझे छीनना चाहता हूं

ये क्या चाहता हूं, ये क्या चाहता हूं

भक्त बेचैन भी होता है कि यह भी क्या चाह रहा हूं! लेकिन तुझ ही को तुझ ही से छीनना चाहता हूं, चेष्टा तो यही है कि यहां जो प्राणों का दीया जल रहा है, यह भगवत्ता का दीया हो जाए। जब तक भक्त भगवान न हो जाए, तब तक यात्रा पूरी नहीं हुई। इंचभर भी दूरी रह गयी, तो कुछ पाने को शेष रहेगा। है क्या ईश्वर?

ईश्वर वह प्रेरणा है

जिसे अब तक शरीर नहीं मिला

टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल,

जो वृंत पर अब तक नहीं खिला

टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल, जो वृंत पर अब तक नहीं खिला–बस वही ईश्वर है। ईश्वर भविष्य है, संभावना है। ईश्वर तुम जो हो सकते हो उसका नाम है। ईश्वर तुम्हें जो होना ही चाहिए उसका नाम है। ईश्वर तुम्हारी बीजरूप संभावना है। तुम्हारे बीज में छिपा हुआ सत्य है।

टहनी के भीतर अकुलाता हुआ फूल,

जो वृंत पर अब तक नहीं खिला

मैं जब ईश्वर की बात कर रहा हूं तो मैं किसी दर्शनशास्त्र की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो तुम्हारे जीवन-काव्य की बात कर रहा हूं। तुम मुझे एक कवि की तरह याद रखना। मैं कोई दर्शनशास्त्री नहीं हूं। मैं तुम्हें कोई शास्त्र नहीं दे रहा हूं। संकेत दे रहा हूं। और जीवन के काव्य को समझना हो तो बंधी-बंधायी, पिटी-पिटायी धारणाओं को हटाना, ताकि जीवन अपनी सुषमा को, अपने सौंदर्य को प्रगट कर सके। मन को थोड़ा किनारे कर के रखना।

तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद

सदा प्राणों में कहीं सुनता रहा हूं तुम्हारा संवाद–

बिना पूछे, सिद्धि कब? इस इष्ट से होगा कहां साक्षात

कौन-सी वह प्रात, जिसमें खिल उठेगी क्लिन्न,

सूनी शिशिर-भीगी रात?

चला हूं मैं; मुझे संबल रहा केवल बोध–

पग-पग आ रहा हूं पास;

रहा आतप-सा यही विश्वास

स्नेह के मृदुघाम से गतिमान रखना निबिड़

मेरे सांस और उसांस।

आह, संख्यातीत रूपों में तुम्हें किया है याद!

तुमने जब भी कुछ चाहा है, मैं कहता हूं, तुमने परमात्मा ही चाहा है। तुमने धन चाहा, तो धन में भी तुम परमात्मा को ही खोजते थे। तुमने पद चाहा, तो पद में भी तुम परमपद को ही खोजते थे। तुमने किसी स्त्री के प्रेम में आंसू बहाये, तो तुम प्रार्थना को ही टटोलते थे। तुम किसी मोह से भरे, तुम किसी राग में गिरे, तो उन सब खाई-खड्डों में भी तुम प्रभु का ही मार्ग खोजते थे। अनंत-अनंत रूपों में अनंत-अनंत ढंगों से आदमी उसी को खोज रहा है। भला तुम्हारी खोज गलत हो, लेकिन तुम्हारे प्राणों की अकुलाहट गलत नहीं है। भला तुम रेत से तेल निचोड़ने की चेष्टा कर रहे होओ, लेकिन तेल निचोड़ने की आकांक्षा थोड़े ही गलत है। तुम वहां खोज रहे हो, जहां न पा सकोगे, विषाद हाथ लगेगा, विफलता हाथ लगेगी, लेकिन इससे तुम्हारी खोज की ईमानदारी को तो इनकारा नहीं जा सकता। पत्थर पूजो, प्रेमी को पूजो, अनजाने, तुम्हारी बिना पहचान के परमात्मा की तरफ ही तुम बढ़ रहे हो।

तुम्हें मैंने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद

और कोई उपाय भी नहीं है। जिस दिन तुम ऐसा समझोगे, उस दिन तुम्हारे जीवन में एक लयबद्धता आ जाएगी। तब तुम देखोगे, सब कदम जो किन्हीं भी रास्तों पर पड़े, सभी मंदिर की तरफ पड़े। कभी भटके भी तो मंदिर से ही भटके। कभी दूर भी गये, तो परमात्मा से ही भटके, लेकिन चेष्टा उसी की तरफ जाने की लगी थी। हारे भी बहुत बार, पराजित भी बहुत बार हुए, गिरे भी बहुत बार, विषाद भी आया, हताशा भी आयी, लेकिन यह सब उसी के मार्ग पर घटा है। और अंतिम निर्णय में तुम पाओगे, इस सबने ही तुम्हें मार्ग को खोजने में सहायता दी है। कुछ भी व्यर्थ नहीं गया है। कुछ व्यर्थ जा नहीं सकता।

जीवन के परम अर्थशास्त्र में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता है। लेकिन पता तो तब चलता है जब हम पहुंच गये–आखिरी घड़ी। तब हम लौटकर देख सकते हैं कि अरे, अगर मैं भटका न होता तो मार्ग भी पाना मुश्किल होता! कि मैंने धन से पाने की कोशिश की, वह भी जरूरी था। वह भी शिक्षण था। कि मैंने प्रेम में प्रार्थना खोजी, वह भी शिक्षण था। उस सबसे बचकर अगर आ जाता, तो इस मंदिर तक आ ही नहीं सकता था।

इसलिए मैं तो कहता हूं, जिस तरह तुम्हें याद आ सके उसी तरह याद करो। सब में वही है। और सबसे उसी की खोज चल रही है। श्रद्धा चाहिए। एक आदमी पीपल के वृक्ष के पास श्रद्धा से जल चढ़ा रहा है। तुम पीपल का वृक्ष देखते हो, हाथ से गिरती जलधार देखते हो, मैं उसके भीतर गिरती श्रद्धा की धार देखता हूं। एक आदमी मंदिर की मूर्ति के सामने बैठा दीया जला रहा है। तुम पत्थर देखते हो, मृण्मय दीया देखते हो, उसके भीतर चिन्मय की धार नहीं देखते। एक आदमी विराट, सूनी मस्जिद में बैठा परमात्मा का गीत गुनगुना रहा है। कोई है जो चुप बैठा है वृक्ष के तले, बुद्ध की भांति–न कोई प्रार्थना है, न कोई पूजा है; न कोई बाह्य उपकरण है, न कोई साधन है; न मंदिर है, न मस्जिद है; आंख बंद है–अपने में लीन। लेकिन इन सबके भीतर एक बात समान है, वह भीतर की चैतन्य-धारा। बाहर के उपकरण भिन्न-भिन्न हैं। बाहर के तो सब खिलौने हैं, जिससे मर्जी हो उससे खेल लेना, भीतर रसधार बहती रहे।

कल मैं पढ़ रहा था–

खके-सेहरा पे जमे, या कफे-कातिल पे जमे

फर्के-इंसाफ पे या पाये-सलासिल पे जमे

तेग-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे

खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा

कहां खून गिरता है–पत्थर पर गिरता है, कि लाश पर गिरता है, कि मंदिर पर गिरता है–कहां गिरता है, इससे क्या फर्क पड़ता है?

खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जाएगा

ऐसा ही मैं तुमसे कहता हूं–श्रद्धा फिर श्रद्धा है, टपकेगी तो जम जाएगी। और जहां श्रद्धा जमी, वहीं भगवान है। श्रद्धा होनी चाहिए। असली बात भीतर है, असली बात अंतर्तम की है। अगर वहां न हो, तो कहीं भी भगवान नहीं है। अगर वहां श्रद्धा हो, तो सब कहीं, सब दिशाओं में वही है। भीतर हो, तो बाहर भी वही है। भीतर न हो, तो फिर बाहर कहीं भी नहीं है। फिर जाओ तीर्थयात्रा, काबा और काशी, कोई अंतर न पड़ेगा। तुम व्यर्थ ही भटकोगे। घर आओ, कहीं और नहीं जाना है। तुम्हारे भीतर है तीर्थ।

फिर खयाल रखना, आदमी आदमी में बड़े भेद हैं। तो आदमी आदमी के ईश्वर में भी भेद होंगे। चांद निकला आकाश में–पूर्णिमा की रात, शरद पूनो–हजारों, करोड़ों प्रतिबिंब बनते हैं पृथ्वी पर। सागर भी प्रतिबिंब बनाता है, मानसरोवर में भी प्रतिबिंब बनेगा। शांत झीलों में भी बनेगा। तूफान आये हुए सागर में भी बनेगा। मिट्टी के कूड़े-कचरे से भरे डबरों में भी बनेगा। नाली का जल कहीं इकट्ठा हो गया होगा, उसमें भी बनेगा। चांद के प्रतिबिंब करोड़-करोड़ बनेंगे, चांद एक है। गंदे डबरे में भी बनेगा। प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो जाएगा। क्योंकि प्रतिबिंब तो है ही कहां, जो गंदा हो जाए! प्रतिबिंब तो मात्र प्रतिछाया है।

लेकिन फिर भी गंदा डबरा तो गंदा है। तो गंदे डबरे से अगर तुम पूछोगे कि जो चांद तेरे भीतर बना, उसके संबंध में तेरा क्या खयाल है? तो गंदा डबरा जो कहेगा, उसमें गंदगी जुड़ी होगी। स्वाभाविक है। उसने तो वही चांद देखा, जो उसकी गंदगी में प्रतिछायित हो सकता था। मानसरोवर से पूछोगे, तो वह अपने चांद की बात करेगी। इसीलिए तो दुनिया में इतने धर्म हैं। अगर ठीक से समझो, तो हर आदमी का खुदा अलग होगा। आदमी आदमी में इतने फर्क हैं।

मेरे भीतर का ईश्वर,

विकराल क्रोध है, ऊसर, अनजोती जमीन

पर तांडव का त्यौहार रचानेवाला!

मेरे भीतर का ईश्वर,

है मेरे मन के स्वर्ग-लोक की नींव हिला

मेरे भीतर भूकंप मचानेवाला!

मेरे भीतर का ईश्वर,

है अग्निचंड, मैं उसके भीतर जलता हूं

मेरे भीतर का ईश्वर,

है घन घमंड, अंबर का उद्वेलित समुद्र,

मेघों को, जाने, हांक कहां ले जाता है।

मेरे भीतर का ईश्वर

है नामहीन, एकाकी, अभिशापित विहंग

जो हृदय-व्योम में चिल्लाता, मंडराता है।

मेरे भीतर का ईश्वर,

है जोर-जोर से पटक रहा मेरे मस्तक को पत्थर पर।

मेरे भीतर का ईश्वर,

पर चतुरंग प्रभंजन वेगवान

मेरे मन के निर्जन, अकूल, आश्रयविहीन,

उत्तप्त प्रांत में ज्वालाएं भड़काता है।

भीतर उर के मुद्रिक कपाट

बाहर-बाहर वह प्रलय-केतु फहराता है।

आदमी आदमी का ईश्वर अलग-अलग होगा। तुम क्रोधित हो, तो तुम्हारा ईश्वर क्रोधित होगा। तुम अहंकारी हो, तो तुम्हारे भीतर का ईश्वर अहंकारी होगा। तुम शांत हो, तो तुम्हारा ईश्वर शांत होगा। तुम उदास हो, तो तुम्हारा ईश्वर उदास होगा। क्योंकि तुम ही तो तुम्हारे ईश्वर को प्रतिबिंब दोगे। तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे भीतर रूप धरेगा। तुम ही तो उसकी परिभाषा बनोगे। तुम ही तो सीमा बनाओगे। तुम ही तो बागुड़ लगाओगे। तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे-जैसा होगा।

इसीलिए दुनिया में इतने ईश्वरों की भिन्न धारणाएं हैं। इसीलिए हर सदी का ईश्वर भी अलग होता है। बदलता चला जाता है। ईश्वर बदलता, ऐसा नहीं, प्रतिबिंब बदलते हैं। क्योंकि प्रतिबिंब धारण करनेवाले बदलते हैं। पुरानी बाइबिल का ईश्वर बड़ा क्रोधी, रुद्र-रूप, जरा-सी बात पर नाराज हो जानेवाला, जरा-सी बात पर अग्नि बरसा देनेवाला, जरा-सी बात पर महाप्रलय ला देनेवाला। क्रोध में उसने डुबा दी दुनिया एक दफा। थोड़े-से लोग चुने हुए बचा लिये थे नोह की नाव में; बाकी सब डुबा दिये। आग बरसा दी नगरों पर। जरा नाराज हुआ कि विकराल क्रोध!

ईश्वर क्रोधी है? नहीं, जिन यहूदियों ने पुरानी बाइबिल लिखी, वे क्रोधी रहे होंगे। पुरानी बाइबिल यहूदियों के संबंध में खबर देती है। वेद में ईश्वर की धारणा है, वह धारणा ईश्वर की खबर नहीं देती, वेद जिन्होंने रचे उनकी खबर देती है। कोई ऋषि प्रार्थना कर रहा है कि मेरी गौओं के थन में दूध बढ़ जाए और मेरे दुश्मन की गौओं के थन का दूध सूख जाए। हे प्रभु, ऐसा कुछ कर कि मेरी फसल तो खूब आये, पड़ोसी की फसल न आ पाये। क्या ईश्वर इस तरह की प्रार्थनाएं सुनता है? क्या ईश्वर की इससे कोई धारणा हमारे मन में साफ होती है–यह कैसा ईश्वर है? नहीं, इससे इतना ही पता चलता है, जो प्रार्थना करनेवाले थे उनकी याचना, उनके हृदय की खबर।

तुम जब ईश्वर के संबंध में बोलते हो, तो ध्यान रखना कि तुम्हारे ईश्वर के संबंध में बोल रहे हो। मैं जब ईश्वर के संबंध में बोलता हूं, तो ध्यान रखना मैं अपने ईश्वर के संबंध में बोल रहा हूं। यह बिलकुल स्वाभाविक है।

ईश्वर बड़ी निजी धारणा है। और हर एक की अपनी दृष्टि से प्रभावित होती है। एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारी सारी दृष्टि चली गयी, जब तुम्हारे मन में कोई पक्षपात न रहा–न हिंदू का, न मुसलमान का, न सिक्ख का, न जैन का, कोई पक्षपात न रहा–तुम सब शास्त्रों, सब शब्दों से मुक्त हुए, तुम शून्य में विराजमान हुए, तब उस मानसरोवर में जो झलकता है, वह ईश्वर की निकटतम प्रतिमा है। वह प्रतिमा इतनी निकटतम है, क्योंकि मानसरोवर का स्वच्छ स्फटिक जैसा जल कोई विकृति पैदा नहीं करता है। पारदर्शी। जैसा है वैसा ही झलका देता है। वह झलक इतनी स्पष्ट और इतनी ईश्वर जैसी है, इसलिए उपनिषद के ऋषि कह सके–अहं ब्रह्मास्मि। वह झलक इतनी स्पष्ट और इतनी साफ कि उपनिषद के ऋषि कह सके, हम ब्रह्म हैं। ब्रह्म में और उस झलक में कोई फर्क न रहा। कभी-कभी बहुत थोड़े-से लोग उस ऊंचाई पर पहुंचे हैं, जिन्होंने “अहं ब्रह्मास्मि’ की घोषणा की है। कोई मंसूर कह सका, अनलहक–मैं हूं सत्य।

यह तब घटता है, जब समाधि घटती है। जब सब कचरा तुम्हारे चित्त का बह गया। तुम भी जब निर्विकार, निराकार, निर्विकल्प हुए, तब घटता है। इसकी आकांक्षा करो। इस पर भरोसा करो। क्योंकि श्रद्धा न होगी, तो यह कभी भी न घटेगा।

यह मानकर तो चलो कि परमात्मा ने जिन्हें बनाया है, उनकी अंतिम नियति परमात्मा ही हो सकता है। परमात्मा ने जिसे सृजा है, उसका अंतिम निखार परमात्मा ही हो सकता है। और तुम जब तक परमात्मा न हो जाओगे, तब तक तुम वापिस-वापिस भेजे जाओगे। क्योंकि परमात्मा तब तक राजी न होगा, जब तक तुम उसके जैसे ही होकर चरणों में नैवेद्य न बन जाओ। तब तक राजी न होगा, जब तक तुम ठीक उस जैसे न हो जाओ। इसीलिए मैं कहता हूं, स्मरण रखो इस बात का कि तुम अभी बंद कली हो, खिलना है। तुम बंद परमात्मा हो, खिलना है। तुम छिपे परमात्मा हो, प्रगट होना है।

दूसरा प्रश्न:

सक्रिय-ध्यान के तीसरे चरण में काफी शक्ति लगाने पर वहां प्रकाश के सिवाय कुछ भी नहीं बचता है। फिर भय पकड़ता है कि मरा! हे प्रभो, उस घड़ी में क्या करना चाहिए?

उस घड़ी में मरना चाहिए। मरे बिना थोड़े ही चलेगा। उस घड़ी में अपने को बचाने की चेष्टा ही फिर तुम्हें वापस लौटा लायेगी। उस घड़ी में खुद को खो देना। उस घड़ी तो कहना–

अंतिम यह अभिलाष हृदय में!

जीवन दीप जलाकर मेरा,

चाहे कोई हरे अंधेरा;

किंतु बुझे यदि दीप कभी तो

बुझे तुम्हारे कोमल कर से,

अंतिम यह अभिलाष हृदय में!

परमात्मा के हाथ से अगर तुम्हारा दीया बुझता हो, तो और क्या सौभाग्य हो सकता है!

किंतु बुझे यदि दीप कभी तो,

बुझे तुम्हारे कोमल कर से

अंतिम यह अभिलाष हृदय में!

पूछा है कि ध्यान के अंतिम चरण में केवल प्रकाश बचता है। और क्या चाहते हो? कुछ और की भी इच्छा है? प्रकाश का तो अर्थ हुआ, जो बचना चाहिए वही बचा अब। शुद्धतम बचा। प्रकाश प्रभुरूप है। प्रभु प्रकाश की आभा है। इस प्रकाश में तुम भी मत बचो। इसीलिए तो घबड़ाहट लगती है। सब गया, तो आखिर में लगता है, अब मैं भी जाऊंगा। क्योंकि तुमने अब तक अपना जो रूप जाना है, वह उसी सभी का जोड़ था। वह सब तो गया, अब तुम कैसे बचोगे? तुम्हारा सब गया, तो तुम भी जाओगे। इससे घबड़ाहट पैदा होती है।

ध्यान के अंतिम चरण में मृत्यु घटेगी है। उसको घटने देना है। स्वागत से घटने देना है। सहर्ष घटने देना है। तो समाधि तत्क्षण उपलब्ध हो जाएगी। अगर डर-डरकर वापिस लौटते रहे, तो यह यात्रा तो ऐसी हुई कि गंगा गयी सागर तक और ठिठककर खड़ी रह गयी और लौटने लगी गंगोत्री की तरफ। सागर तक गये हैं, तो गिरना ही होगा। फिर यह गंगा कहे कि नहीं, अब मैं गिरना नहीं चाहती, मैं तो मिलने आयी थी, गिरने थोड़े ही आयी थी; मैं तो सागर होने आयी थी, मिटने थोड़े ही आयी थी, तो क्या कहोगे तुम गंगा से? तुम कहोगे, सागर होने का एक ही उपाय है कि सागर में खो जाओ। तुममें सागर तभी खो सकता है, जब तुम सागर में खो जाओ। तुम मिटो, तो सागर हो जाए।

ध्यान की आखिरी घड़ी में तुम्हारी गंगा सागर के किनारे आकर खड़ी हो जाती है, तब मन घबड़ाता है, स्वाभाविक है। मैं समझ सकता हूं। सभी का घबड़ाया है। कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई नानक, कोई कबीर उस घबड़ाहट से बचा नहीं। वह सभी का घबड़ाया है। वह मनुष्य का स्वाभाविक रूप है। अब तक जिसे अपना जाना था, जीवन जाना था, वह सब छूटता लगता है, बिखरता लगता है। सारा अतीत शून्य में लीन होता मालूम पड़ता है, भविष्य का कुछ पता नहीं है, तो मृत्यु मुंह बाकर खड़ी हो जाती है। उस क्षण नाचते हुए मृत्यु में समा जाना। लौटकर पीछे मत देखना। लौटकर पीछे देखा कि मुश्किल में पड़ जाओगे। लौट भी न पाओगे और गिर भी न पाओगे, त्रिशंकु हो जाओगे। बड़ी दुविधा में पड़ जाओगे, बड़े द्वैत में पड़ जाओगे। उधर सागर बुला रहा होगा, इधर पीछे का अतीत बुला रहा होगा। उधर भविष्य खींचेगा, इधर अतीत खींचेगा। तुम दोनों के बीच खिंचकर पिस जाओगे।

बहुत बार ऐसा हुआ है कि जिन लोगों ने ध्यान की इस घड़ी में मरने से विरोध किया, वे विक्षिप्त हो गये हैं। क्योंकि लौट भी नहीं सकते अब; अब गंगोत्री तक जाना कैसे संभव है? जहां तक आ गये, आ गये, लौटना तो होगा नहीं; और आगे जाना नहीं चाहते, तो सारी ऊर्जा तुम्हारे भीतर उमड़ने-घुमड़ने लगेगी। उससे विक्षिप्तता पैदा हो सकती है। धर्म के जगत में या तो मृत्यु को घटने दो, या पागल हो जाओगे।

इसलिए मैं कहता हूं–मरो।

पूछा है–हे प्रभो! उस घड़ी में क्या करना चाहिए?’ कुछ करना नहीं चाहिए। चुपचाप सरक जाना चाहिए सागर में। जैसे ओस की बूंद, घास की पत्ती से सरककर पृथ्वी में गिर जाती है, खो जाती है, ऐसे चुपचाप सरक जाना चाहिए और गिर जाना चाहिए। गिरकर तुम पाओगे कि पहली दफे जाना तुम कौन हो। मिटकर तुम पाओगे कि हुए। शून्य होकर पाओगे कि पूर्ण उतरा तुममें। इधर तुम गये कि उधर परमात्मा आया। प्रकाश तो उसके आगमन की खबर है। जैसे सुबह सूरज निकलने के पहले एक लाली छा जाती है क्षितिज पर, प्राची सुर्ख होने लगती है–सूरज की अगवानी में यह सूरज का पहला संदेश हुआ। आता ही है सूरज अब। अब देर नहीं। पक्षी चहकने लगते हैं, हवाएं फिर गतिमान होने लगती हैं, प्रकृति जागने लगती है, प्राची लाल हो गयी, सूरज आता ही है अब।

जब ध्यान के आखिरी चरण में प्रकाश बचे, तो समझना कि प्राची लाली हो उठी, लाल हो उठी, अब सूरज आता ही है। अब मंत्रमुग्ध, नाचते, अहोभाग्य मानकर गिरने को तैयार हो जाना, मिटने को तैयार हो जाना। ध्यान का अंतिम चरण मृत्यु है। इसीलिए ध्यान के बाद जो घटना घटती है, उसे हम समाधि कहते हैं। समाधि का अर्थ, महामृत्यु। जो मरने योग्य था, मर गया; जो नहीं मर सकता था, वही बचा। मर्त्य गया, अमृत बचा। मरणधर्मा से छुटकारा हुआ, अमृत से गांठ बंधी।

और जिसे तुम जिंदगी कहते हो, उसमें बचाने-जैसा भी क्या है! क्या है बचाने को तुम्हारे पास? तुम व्यर्थ ही बचाने की चिंता में लगे रहते हो, बचाने को कुछ भी नहीं! हालत वैसी ही है जैसे कोई नंगा नहाता नहीं, क्योंकि कहता है कि नहाऊंगा तो कपड़े कहां सुखाऊंगा? नंगा है, कपड़े सुखाने की चिंता के कारण नहाता नहीं! तुम्हारे पास है क्या? तुम्हारे हाथ बिलकुल खाली हैं। तुम्हारे प्राण खाली हैं, तुम रिक्त हो। इस रिक्तता को भी नहीं छोड़ पाते! नहीं है कुछ, तो भी मुट्ठी नहीं खोल पाते! अगर कुछ होता, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाती।

बेदिलों की हस्ती क्या, जीते हैं न मरते हैं

ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है

कुछ भी नहीं है–

ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है

बेदिलों की हस्ती क्या जीते हैं न मरते हैं

तुम जिसे जीवन कहते हो, वह जीवन नहीं है। जीवन और मृत्यु के बीच में अटके हो। तुम जिसे मृत्यु कहते हो वह मृत्यु नहीं है, तुम जिसे जीवन कहते हो वह जीवन नहीं है। मृत्यु तो केवल उन्होंने ही जानी, जो समाधि में मरे। तुम जिसे मृत्यु कहते हो, वह तो एक बीमारी का दूसरी बीमारी में बदल जाना है। वह तो वस्तुओं का परिवर्तन है। घर बदल लेना है। भीतर के सब रोग वही के वही रहते हैं, घर बदल जाता है। तुम जिसे जीवन कहते हो, अगर वही जीवन है, तो फिर परमात्मा की खोज व्यर्थ है। परमात्मा को हम खोजते इसीलिए हैं कि जिसे हमने अब तक जीवन जाना है, वह धीरे-धीरे सिद्ध होता है कि जीवन नहीं था, भ्रांति थी। माया थी, एक सपना था।

परमात्मा की खोज का इतना ही अर्थ है कि यह जीवन, जीवन सिद्ध नहीं हुआ, अब हम महाजीवन को खोजते हैं, किसी और जीवन को खोजते हैं।

लेकिन जिन मित्र ने पूछा है, उनका प्रश्न बिलकुल ही अनिवार्य है। सभी ध्यानियों को घटता है, इसलिए चिंता मत लेना। डर लगे, तो अपराध-भाव भी मत पैदा होने देना, स्वाभाविक है। कोई भी उस घड़ी आकर ठिठक जाता है। यहीं तो गुरु की जरूरत हो जाती है। उस घड़ी अगर गुरु न हो, तो तुम लौट जाओगे। या कम से कम वहीं अटके रह जाओगे। गुरु के बिना इस घड़ी में पागल होने की पूरी संभावना है। गुरु का केवल इतना मतलब है कि वह तुम्हें आश्वस्त कर सके कि मत डरो, देखो मैं खो गया हूं, फिर भी हूं। बहुत होकर हूं। अनंत होकर हूं। शाश्वत होकर हूं। आ जाओ, ले लो छलांग। डरो मत। झिझको मत। संदेह न करो। उतर आओ। गुरु हाथ बढ़ा दे, खींच ले, मरने की हिम्मत दे दे, मिटने का बल दे दे, तो उतरते से ही तुम्हें पता चलेगा कि नाहक परेशान थे।

मैंने सुना है, एक आदमी एक अंधेरी अमावस की रात में पहाड़ पर भटक गया। अंधेरा गहन। हाथ को हाथ न सूझे। किसी तरह टटोल-टटोलकर वह रास्ता खोज रहा था कि एक खड्ड में गिर गया। खड्ड में गिरा तो उसने एक वृक्ष की जड़ को पकड़ लिया जोर से। सारी रात कैसे कटी, कहना कठिन है। रोते ही, आंसू बहाते ही रात बीती। सर्द रात, ठिठुर रहा, हाथ जड़ हुए जाते, कब वृक्ष की जड़ हाथ से छूट जाएगी, कहना मुश्किल! बल खोता जाता, मृत्यु निश्चित है, पता नहीं नीचे कितना बड़ा खड्ड हो! और फिर आधी रात के करीब हाथ बिलकुल ठंडे सुन्न हो गये। पकड़ संभव न रही। जड़ छूट गयी और वह आदमी गिरा। और गिरने के बाद उस घाटी में एक खिलखिलाहट की आवाज आयी, क्योंकि नीचे कोई खाई न थी, समतल जमीन थी। गिरकर पता चला कि गिरने को कुछ नीचे था ही नहीं। नाहक कष्ट झेला।

लेकिन अंधेर में पता कैसे चले? गिरकर पता चला कि नीचे समतल भूमि थी। खिलखिलाकर हंसने लगा।

सुनो मेरी, उतर आओ! लौटकर मत देखो; जो गया, गया। और प्रभु द्वार पर खड़ा है। सुनो मेरी। स्वागत कर लो! गले भेंट लो। आनंद से उतर आओ। नाचते, गुनगुनाते। सौभाग्य समझो! प्रकाश आया, प्राची लाल हो उठी, सूरज करीब है। मैं तुमसे कहता हूं–मरो!

तीसरा प्रश्न:

अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता। और सब यही कह रहे हैं–तेरी सूरत बदल गयी। और यह भी कह रहे हैं कि सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या आये! ऐसी मेरी हालत है, मैं क्या करूं? मेरे प्रश्न का उत्तर देने की कृपा करेंगे। आपने उत्तर नहीं दिया, तो मैं सचमुच पागल हो जाऊंगा।

तो अभी क्या ढोंग ही रच रहे हो! सचमुच पागल हो जाओगे? तो पागल होना भी तुम्हारी स्वेच्छा पर है? कि जब होना चाहोगे तब हो जाओगे। तो स्वांग होगा। मेरे उत्तर देने न देने से पागल होने का क्या संबंध है? या तो पागल हो; और या पागल नहीं हो तो कैसे हो जाओगे?

जिसने संन्यास लिया, मेरे लिए तो पागल हो ही गया। संन्यास का अर्थ ही यह है कि तुम अब ऐसी डगर पर चले जहां हिसाब-किताब नहीं, जहां तर्क व्यर्थ हैं। जहां श्रद्धा सार्थक है। तुम ऐसी डगर पर चले, जो प्रेम की डगर है। और प्रेम तो अंधा है। या कि प्रेम के पास ऐसी आंखें हैं, जिनको सिर्फ प्रेमी ही जानते हैं, और कोई नहीं जानता। और प्रेम तो एक पागलपन है, एक दीवानगी है। प्रेम तो मजनू होना है। प्रेम का तो अर्थ ही यही है कि अब सब दांव पर लगाने की तैयारी है, लेकिन अब और देर सहने की तैयारी नहीं।

तो तुम पूछते हो कि पागल हो जाऊंगा। मेरी तरफ से तो जिस दिन तुम्हें संन्यास दिया, उसी दिन मैंने मान लिया कि तुम पागल हो गये। पागल हुए बिना परमात्मा को कब किसने पाया है? पागल होने का इतना ही अर्थ है कि जीवन में बड़ी त्वरा से खोज हो रही है। कुनकुनी नहीं, उबलती हुई खोज। दुकानदारी नहीं, जुआरी की तरह–सब लगा दिया।

होशियार मेरे पास नहीं आते। मेरे पास तो प्यासे आते हैं। होशियारों के लिए तो बहुत और जगहें हैं, जहां वे संसार को भी सम्हाले रहते हैं, परमात्मा का भी थोड़ा सहारा पकड़े रहते हैं। न यह दुनिया जाए, न वह दुनिया जाए। कुछ दांव पर लगाना नहीं है। सब सम्हालकर रखना है, दोनों नाव पर सवार रहना है। मेरे पास तो तुम आये हो, तो उसका अर्थ ही यही है कि तुमने पागल होने की हिम्मत जुटायी।

और दूसरे तुम्हारे हृदय को नहीं देख सकते। पूछा है, “अफसोस कोई दिल का हाल नहीं पूछता।’

दिल तो दूसरों को दिखायी पड़ नहीं सकता। दिल तो वही है जिसे तुम जानते हो, अपने निजी एकांत में। दिल तो अत्यंत वैयक्तिक है। वहां तो तुम किसी को निमंत्रण भी नहीं दे सकते। अपने निकटतम मित्र को भी वहां तुम नहीं ले जा सकते। उस जगह तो बस तुम्हारा ही आना-जाना है। दूसरे को तुम्हारे दिल का क्या पता चलेगा? इसलिए यह आशा ही छोड़ दो कि कोई तुमसे दिल का हाल पूछेगा। कोई पूछे तो तुम बता भी न सकोगे। एक तो कोई पूछेगा ही नहीं। दूसरे को तो यह भी पक्का नहीं होता कि तुम में दिल है भी!

इसीलिए तो लोग कहते हैं, आत्मा नहीं है। क्योंकि बाहर से तो सिर्फ इतना ही दिखायी पड़ता है, शरीर है; बहुत से बहुत अनुमान लगता है कि मन होगा, वह भी अनुमान है, दिखायी तो कुछ पड़ता नहीं।

हृदय की तो बात ही नहीं जमती कि तुम्हारे भीतर हृदय होगा। फिर आत्मा तो और भी आखिरी बात हो गयी।

शरीर की पहचान तो साफ है। मन की थोड़ी-बहुत अनुमान से पहचान होती है कि मेरे भीतर भी विचार चलते हैं, दूसरे के भीतर भी चलते होंगे। चलने चाहिए। क्योंकि शरीर मेरा जैसा लगता है, तो मन भी शायद मेरे जैसा हो। फिर मन के भीतर छिपा हुआ हृदय, उस तक तो पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तो केवल प्रेम से पहुंच हो पाती है, अनुमान से नहीं। फिर हृदय के भीतर छिपी आत्मा है। उस तक तो प्रेम से भी पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तो ध्यान से ही पहुंच हो पाती है। फिर आत्मा के भीतर छिपा परमात्मा है, उस तक तो किसी चीज से भी पहुंच नहीं होती, ध्यान से भी नहीं होती। लेकिन जब तुम आत्मा में पहुंच जाते हो, तो परमात्मा तुम्हें खींच लेता है। आत्मा तक मनुष्य जा सकता है, वहां तक मनुष्य के कृत्य की सीमा है।

इसीलिए तो महावीर ने परमात्मा की बात नहीं की। क्योंकि जहां तक मनुष्य जा सकता है वहीं तक बात करनी उचित है, आगे की क्या बात करनी! आगे तो घटना घटती है–अपने से घटती है। ऐसा समझो कि तुम छत पर खड़े हो। जब तक खड़े हो, ठीक; छलांग लगा लो, तो छलांग लगाने के बाद फिर जमीन तक आने के लिए थोड़े ही तुम्हें कुछ करना पड़ता है। छलांग लगा ली कि फिर तो गुरुत्वाकर्षण काम करने लगता है। फिर तो जमीन का ग्रेविटेशन तुम्हें खींच लेता है, कशिश खींच लेती है। फिर तुम यह थोड़े ही पूछोगे कि छलांग लगाने के बाद फिर मैं क्या करूं कि जमीन तक आ जाऊं? हम कहेंगे, तुम सिर्फ छलांग लगा लो, बाकी काम छोड़ो, फिक्र तुम मत मरो, वह जमीन कर लेगी।

आत्मा तक मनुष्य जाता है। आत्मा के बाद कशिश परमात्मा की शुरू होती है। वहां से सीमा परमात्मा की। छलांग लग गयी, फिर वह तुम्हें खींच लेता, उसका गुरुत्वाकर्षण खींच लेता।

“अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता।’

अफसोस मत करो। ऐसे अफसोस किया तो व्यर्थ ही परेशान होओगे। कौन पूछेगा दिल का हाल तुमसे? कोई जरूरत भी नहीं किसी को पूछने की। और बताने की भी आकांक्षा मत करो। तुम्हारी प्रार्थना प्रदर्शन न बने।

“हां, लोग कहते हैं कि तेरी सूरत बदल गयी।’

सूरत तक उनकी पहचान है। चेहरा दिखायी पड़ता है, तुम थोड़े ही दिखायी पड़ते हो। उतना भी पूछ लेते हैं, बड़ी कृपा है, अन्यथा कौन किसकी सूरत देखता है! अपनी देखने से फुर्सत मिले तो आदमी दूसरे की सूरत देखे! अपनी देखने से तो फुर्सत मिलती नहीं। तुम जब घर से निकलते हो तो तुम्हीं बहुत परेशान होते हो आईना वगैरह देखकर कि कहीं कुछ गलती न रह जाए, कोई दाग न रह जाए, कोई कचरा न लगा रह जाए, कहीं कोई आदमी देख ले! कौन देखता है, तुम इसकी फिकर तो करो? तुम किसकी सूरत देखते हो? कोई किसी की सूरत नहीं देख रहा। लोग अपने-अपने अहंकारों में ग्रस्त हैं। लोग अपने-अपने में बंद हैं।

तो कोई अगर तुम्हारी सूरत भी देख लेता है, तो बड़ी कृपा! और कोई अगर इतना भी पहचान लेता है कि तुम्हारी सूरत बदल गयी है, तो उसे धन्यवाद दो। उसके मन में तुम्हारे लिए कुछ सहानुभूति होगी। कुछ जगह होगी तुम्हारे लिए। कुछ लगाव होगा, कुछ राग होगा। और लोग पहले सूरत ही पहचान पाते हैं। लेकिन सूरत निश्चित बदलती है, यह पक्का है। कभी तो क्षणभर में क्रांति हो जाती है।

कभी-कभी मैं देखता हूं, एक आदमी आता है, अस्त- व्यस्त, संदिग्ध, मन डांवांडोल; उसकी चाल भी देखकर कह सकते हैं कि डांवांडोल है, कुछ तय नहीं किया है; भीतर कंपन है, बाहर भी कंपन है–मेरे सामने बैठता है, कहता है कि संन्यास लूं, या न लूं? कई दिन से सोच रहा हूं, कुछ तय नहीं हो पाता। जब कोई चीज तय नहीं हो पाती, तो तुम भीतर बहुत डांवांडोल हो जाते हो, बंट जाते हो। फिर वह हिम्मत जुटा लेता है, सुन लेता है मेरी पुकार। मैं कहता हूं–कूदो, देखेंगे; सोचना बाद में कर लेंगे। सोचना इतना जरूरी भी नहीं है। वह कहता है, बिना सोचे कैसे संन्यास ले लूं?

मैं कहता हूं, जिन्होंने लिया, बिना सोचे ही लिया। हालांकि लेने के बाद पछताये नहीं। क्योंकि लेने के बाद पाया कि लेने योग्य था। कुछ चीजें हैं, जिनको लेकर ही पता चलता है क्या हैं। स्वाद से ही पता चलता है क्या हैं। पहले से पता भी कैसे चले? मैं कहता हूं, तुम ले लो। मैं देता हूं, तुम ले लो। फिर भीतर-भीतर स्वाद ले लेना, फिर बाद में तय कर लेना कि लेने योग्य था या नहीं। हिम्मतवर आदमी होता है, साहसी होता है, उतर जाता है। इधर मैं माला उसके गले में डालता हूं, उधर एक रूपांतरण शुरू होता है, उसकी सूरत बदलने लगती है। क्योंकि एक निष्कर्ष आ गया। एक दुविधा मिटी। दुविधा के मिटते ही भीतर जो लड़ते खंड थे, इकट्ठे हो जाते हैं। जब ले ही लिया, तो एक हलकापन हो जाता है, चिंता गयी। चेहरे पर प्रसाद आ जाता है। और ले सका, इतना आत्मविश्वास कर सका, इतनी श्रद्धा कर सका, तो जब वह आदमी जाता है तो उसकी चाल मैं देखता हूं अब और हो गयी। जैसे वृक्ष को जड़ें मिल गयी हों। उसके पैर जमीन में लगे होते हैं बल से। उसका सिर आकाश में उठा होता है बल से। यही आदमी क्षणभर पहले आया था, यही क्षणभर बाद जा रहा है, सूरत बदल जाती है।

लेकिन सूरत बदलती है भीतर की बदलाहट से। कोई रंगरोगन लगाने से सूरतें नहीं बदलतीं। भीतर का दीया जलता है, तो चेहरे पर रोशनी आ जाती है। भीतर का दीया जलता है, तो चेहरे पर आभा आ जाती है। कुछ रहस्यपूर्ण चेहरे को मंडित कर लेता है। एक प्रभामंडल पैदा हो जाता है।

लोग ठीक ही कहते हैं कि सूरत बदल गयी। सूरत इसीलिए बदल गयी कि दिल बदल गया है। लोग नहीं पूछेंगे दिल का हाल, क्योंकि लोगों को न अपने दिल का पता है, न तुम्हारे दिल का पता है। लोग दिल को तो भूल ही गये हैं। दिल को तो विस्मरण ही कर दिया है। दिल के विस्मरण करने के कारण ही तो परमात्मा से टूट गये हैं, क्योंकि दिल ही जोड़ है। मैंने तुमसे कहा, शरीर, शरीर के भीतर मन, मन के भीतर हृदय, हृदय के भीतर आत्मा, आत्मा के भीतर परमात्मा। हृदय ठीक मध्य में है। इस तरफ मन और शरीर, उस तरफ आत्मा और परमात्मा। हृदय ठीक मध्य में है। जोड़ है। सेतु है। कड़ी है।

जो लोग हृदय को भूल गये हैं, वे आत्मा को तो कैसे याद करेंगे! उनके लिए आत्मा तो केवल एक कोरा शब्द है, अर्थहीन। जो लोग हृदय को भूल गये हैं, उनके लिए परमात्मा तो बिलकुल व्यर्थ है। वे कैसे परमात्मा शब्द का सार्थक उपयोग करें, समझ में भी नहीं आ सकता।

तो पहली तो बात है, हृदय जगे। लेकिन मैं तुम्हारे हृदय की बात करूंगा, लोगों से आशा मत करो। वही मैं कर रहा हूं रोज सुबह-शाम। तुम्हारे हृदय की बात तुमसे कह रहा हूं कि धीरे-धीरे तुम अपने हृदय की भाषा पहचानने लगो। और रही पागल होने की बात, मेरे हिसाब से तो तुम हो ही गये हो। और अब तुम किसलिए रुके हो, अगर नहीं हो गये हो तो जाओ। पागल होने का अर्थ समझ लेना।

पागल होने का अर्थ है, तर्क से नाता तोड़ना। हिसाब-किताब के जगत से नाता तोड़ना। रहस्य के जगत में पदार्पण। पागल होने का अर्थ है, गद्य से पद्य की तरफ यात्रा। पागल होने का अर्थ है, साफ-सुथरे राजमार्गों को छोड़कर जीवन की रहस्य की पगडंडियों पर चलना। चलो तो बनती हैं। सीमेंट से पटे हुए राजमार्ग नहीं हैं, जहां सारी भीड़ चल रही है।

पागल होने का अर्थ है–अकेला होना। भीड़ चल रही है–हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की–जब तक तुम भीड़ के हिस्से बने हो, तब तक तुमने अभी परमात्मा की खोज पर कुछ दांव पर नहीं लगाया। जिस दिन तुम उतरते हो भीड़ को छोड़कर, राजमार्ग को छोड़कर; उतरते हो जीवन के बीहड़ जंगल में–और जीवन बीहड़ जंगल है, खतरे हैं वहां, वन्य-पशु हैं वहां, भटक जाने की पूरी संभावना है; पहुंचना, जरूरी नहीं कि पहुंचो ही, निश्चित नहीं है–जो आदमी राजमार्ग को छोड़कर बीहड़ के मार्ग पर उतरता है, पागल है। तुम्हारे संगी-साथी कहेंगे, क्या कर रहे हो? समझ-बूझ से काम लो। लेकिन अगर तुम समझ-बूझ को समझ पाये हो तो एक बात समझ में आ गयी होगी कि समझ-बूझ से कितना ही काम लो, हाथ कुछ आता नहीं। तो तुम कहते हो, अब तो समझ-बूझ छोड़कर जीकर देखना है। अब तो मस्त होकर जीकर देखना है। अब तो दीवाना होकर जीकर देखना है।

धार्मिक व्यक्ति स्वेच्छा से जीवन की सुरक्षाओं को छोड़कर असुरक्षा को वरण करता है। तर्क, विचार, गणित की साफ-सुथरी, पटी-पटायी लीकों को छोड़कर प्रेम की, प्रार्थना की बेबूझ पहेलियों को सुलझाने चल पड़ता है।

लेकिन ऐसे ही व्यक्ति किसी दिन परमात्मा को पाने में सफल होते हैं। परमात्मा तार्किक नहीं है, प्रेमी है। और सत्य तर्क की कोई निष्पत्ति नहीं, नयी आंखों का दर्शन है। ये आंखें जो तुम्हारे पास हैं, काफी नहीं। तीसरी आंख पैदा करो। और यह कान जो तुम्हारे पास हैं, काफी नहीं। तीसरा कान पैदा करो। संन्यास उसी तीसरी आंख और तीसरे कान की खोज है।

मेरे साथ होना है, तो पागल होकर ही हो सकते हो। और जब तक मैं हूं, हो लो, क्योंकि पीछे पछताने से कुछ भी न होगा। पीछे पछताये होत का, जब चिड़ियां चुग गयीं खेत।

भुलायी नहीं जा सकेंगी ये बातें

बहुत याद आयेंगे हम याद रखना

इसलिए अभी जब तुम्हारे पास हैं, तो पागल हो लो, कल पर मत छोड़ो। यह नृत्य, यह संगीत, जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं, ले लो। संकोच मत करो। फैलाओ झोली और भर लो।

भुलायी नहीं जा सकेंगी ये बातें

बहुत याद आयेंगे हम याद रखना।

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--2 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–7

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घातक छाया—प्रवचन—सातवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,

अंबरनाथ; रात्रि 12 फरवरी,1973

हे शिष्य, उस घातक छाया से सावधान रह। उस समय तक कोई भी उच्चस्थ आत्मा का प्रकाश निम्नस्थ आत्मा के अंधकार को नहीं मिटा सकता, जिस समय तक उससे सभी अहंकारी विचार निकल नहीं गए हैं और यात्री यह नहीं कहता है कि मैंने इस क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया है, मैंने कारण का नाश कर दिया है। अतः जो छायाएं पड़ती हैं, वे अब नहीं टिक सकतीं। क्योंकि अब उच्चस्थ और निम्नस्थ आत्मा के बीच अंतिम महायुद्ध आरंभ हो गया है। इस महायुद्ध में समस्त रण-क्षेत्र समा गया है, वह मानो है ही नहीं।

लेकिन, जब एक बार तू क्षांति (धैर्य) के द्वार को पार कर जाता है, तब तीसरा चरण भी उठ जाता है। तेरा शरीर तेरा सेवक है। और अब चौथे चरण की तैयारी कर। यह लोभ का द्वार है जो अंतरस्थ मनुष्य को फांसता है।

इसके पहले कि तू गंतव्य के निकट पहुंचे, इसके पहले कि तेरे हाथ चौथे द्वार के सांकल को उठाने के लिए उठें, तुझे अपनी आत्मा के उन सभी मानसिक परिवर्तनों को पराभूत करना और विचार-वृत्तियों का हनन करना है, जो सूम और कपटपूर्ण ढंग से आत्मा के ज्योतित मंदिर में बिना पूछे घुस जाते हैं।

यदि तुझे उनके हाथों नहीं मरना है, तो तुझे अपने सृजनों को, अपने विचारों की संतान को निर्दोष बनाना है, जो अदृश्य और अजाने ढंग से मनुष्य मात्र के बीच, उसके पार्थिव अर्जनों के बीच घर बना लेती है और जो पूर्ण सा भासता है, उसकी शून्यता को और जो शून्य सा भासता है, उसकी पूर्णता को तुझे समझना है। ओ निर्भय मुमुक्षु, अपने ही दृश्य के कुएं की गहराई में झांक और तब उत्तर दे। हे बाहय छायाओं के द्रष्टा, अपनी ही आत्मा की शक्तियों को जान।

यदि यह नहीं करता है, तो तू नष्ट हो जाएगा।

अंधेरे का अपना कोई अस्तित्व नहीं, अस्तित्व तो प्रकाश का है।

पर अंधेरा भी दिखाई पड़ता है और वास्तविक मालूम होता है। और कौन कहेगा कि अंधेरा नहीं है? अनुभव में तो ऐसा आता है कि प्रकाश से भी ज्यादा वास्तविक अंधेरा है, क्योंकि प्रकाश को तो जलाना पड़ता है, फिर भी बुझ-बुझ जाता है; अंधेरे को जलाना भी नहीं पड़ता, फिर भी बना रहता है। और प्रकाश तो कितना ही बड़ा दिखाई पड़े, सीमित मालूम पड़ता है; अंधेरा असीम है। और ऐसा लगता है कि अंधेरे के सागर में प्रकाश कभी जलता है और बुझ जाता है, लेकिन सागर बना रहता है, जबकि वस्तुतः अंधेरा नहीं है। फिर अंधेरा दिखाई कैसे पड़ता है? और अगर अंधेरा नहीं है, तो अंधेरा है क्या? अगर उसका अस्तित्व नहीं है, तो उसकी यह प्रतीति, उसकी यह भ्रांत प्रतीति भी क्यों होती है?

इसे थोड़ा समझ लें, तो इस सूत्र में प्रवेश हो सके।

प्रकाश है। और अंधेरा केवल प्रकाश का अभाव है, उसकी गैर मौजूदगी है, उसकी अनुपस्थिति है। इसलिए हम प्रकाश को जला सकते हैं, अंधेरे को नहीं जला सकते। इसलिए हम प्रकाश को बुझा सकते हैं, अंधेरे को नहीं बुझा सकते। इसीलिए हम प्रकाश को एक जगह से दूसरी जगह ले जा सकते हैं, अंधेरे को एक जगह से दूसरी जगह नहीं ले जा सकते। जो है ही नहीं, उसे ले जाने का भी कोई उपाय नहीं। जो है ही नहीं, उसे बनाने का भी कोई उपाय नहीं। जो है ही नहीं, उसे मिटाने का भी कोई उपाय नहीं। क्योंकि अंधेरे के साथ हम कुछ भी नहीं कर सकते, इसलिए अंधेरा नहीं है। जो है, उसके साथ ही कुछ किया जा सकता है।

और हमें अगर अंधेरे के साथ भी कुछ करना हो, तो प्रकाश के साथ ही कुछ करना पड़ता है। अगर अंधेरा चाहिए ही, तो प्रकाश बुझाना पड़ता है, अंधेरा नहीं जलाना पड़ता। अगर अंधेरा न चाहिए, तो प्रकाश जलाना

पड़ता है; अंधेरे को हटाना नहीं पड़ता। अंधेरे के साथ कुछ करने का

उपाय ही नहीं। जो नहीं है, उसके साथ कुछ किया भी नहीं जा सकता। अंधेरा है अभाव; वह प्रकाश के न होने का नाम है, आंखें जब प्रकाश को नहीं पातीं, तो उसमें नहीं पाने में जो प्रतीति होती है, वह है अंधकार। अंधकार खाली जगह है। और हमारे भीतर बड़ा अंधकार है।

बाहर के अंधकार को तो हम बाहर के प्रकाश से मिटा लेते हैं, भीतर के अंधकार को भीतर के प्रकाश से ही मिटा सकेंगे। बहुत लोग नासमझी में पड़ जाते हैं। वे भीतर के अंधेरे को सीधा ही मिटाने की कोशिश में लग जाते हैं, तब अड़चन खड़ी हो जाती है। जब वे भीतर के अंधेरे को सीधा ही काटने-पीटने लगते हैं, तो उलझन में पड़ जाते हैं, तनाव से भर जाते हैं, और भी अशांत हो जाते हैं। भीतर भी अंधेरे को मिटाने का यही उपाय है कि भीतर का प्रकाश जलाया जाए। सीधे अंधेरे की बात ही मत करें, सीधे अंधेरे की चिंता ही मत करें।

ऐसा समझें, कोई मेरे पास आता है और कहता है, क्रोध बहुत है, क्या

करूं? उससे मैं कहता हूं, क्रोध की बात ही मत करो। तुम क्रोध को रहने दो, तुम शांत कैसे हो सकते हो, इसकी बात करो। और जिस दिन तुम शांत होने लगोगे, क्रोध अपने आप तिरोहित हो जाएगा। क्योंकि क्रोध केवल अभाव है। कोई कहता है, कामवासना से कैसे छुटकारा हो। उसे मैं कहता हूं उसे तुम छुओ ही मत। तुम प्रेम को फैलाओ। जितना प्रेम विराट होता जाएगा, उतना ही काम क्षीण और शून्य होता जाएगा।

नकार में मत पड़ो, विधेय की खोज करो। जो वस्तुतः है, उसकी ही चिंता

में लगो, तो कुछ हो सकेगा।

लेकिन हममें से बहुत लोग इसीलिए भटकते हैं कि हम नकार के साथ ही उलझ जाते हैं, हम छायाओं से लड़ते हैं और फिर हार जाते हैं। तो मन में सीधा लगता है कि जब छाया से हार गए तो छाया बहुत शक्तिशाली होनी चाहिए।

स्वभावतः सीधा तर्क और गणित है कि जिससे हम हार गए, वह मजबूत होना चाहिए। लेकिन छाया से आप हारते नहीं हैं, छाया से जीत भी नहीं सकते। छाया है ही नहीं। छाया से लड़कर आप अपनी शक्ति ही नष्ट करते हैं। और खुद की शक्ति नष्ट हो जाती है, तो पराजित, हारे हुए गिर जाते हैं। छाया को न कोई चोट पहुंचती है और न छाया आपको कोई चोट पहुंचाती है, लेकिन हार हो जाती है। अपनी ही शक्ति खोकर आदमी हार जाता है। और धर्म है विधायकता। जब तक कोई नकार से चलता है, तब तक धार्मिक विज्ञान की प्रक्रिया उसके हाथ में नहीं आती है।

इस सूत्र को अब हम समझें।

“हे शिष्य, उस घातक छाया से सावधान रह। उस समय तक कोई भी उच्चस्थ आत्मा का प्रकाश निम्नस्थ आत्मा के अंधकार को नहीं मिटा सकता, जिस समय तक उससे सभी अहंकारी विचार नहीं निकल गए हैं और यात्री यह नहीं कहता कि मैंने इस क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया है।’

आदमी के भीतर उस प्रकाश के जलाने के लिए क्या करें?

एक और बात समझ लें।

पहली तो बात यह है: अंधेरे से मत लड़ें, प्रकाश को जलाने की चेष्टा करें। दूसरी बात, जो प्रकाश जलाया जाता है, वह बुझ जाएगा। सभी निर्मित चीजें नष्ट हो जाती हैं। और जो प्रकाश पैदा किया जाता है, वह कल मरेगा। जन्म के बाद मृत्यु है। भीतर का प्रकाश अगर हमने जलाया–तो कितनी देर चलेगा? जिसके ईंधन में हम हैं, वह कितनी देर चलेगा? और जिसको हमने पैदा किया, वह हमसे बड़ा नहीं हो सकता, वह हमसे क्षुद्र होगा। और हम ही मिट जाते हैं, तो हमारा जलाया हुआ दीया कितना टिकेगा? और जो हमारा ही पैदा किया हुआ है, वह हमें मार्ग-दर्शन नहीं दे सकता।

तो दूसरी बात समझ लें कि भीतर का प्रकाश जलता नहीं है। भीतर का प्रकाश है ही; आवृत है, ढंका है; उघाड़ना है, अनढंका करना है। जैसे कि पत्थर की ओट में एक झरना छिपा

हो और धक्का मार रहा हो पत्थर को, कि हटो द्वार से, तो मैं फूट पडूं, वैसा ही भीतर का प्रकाश है। द्वार पर कोई पत्थर है, वह अटका रहा है।

एक बड़े मजे की बात है कि अंधकार प्रकाश को जरा भी नहीं रोक सकता। इसलिए असली दुश्मन अंधकार नहीं है। आप दीया जलाएं, तो अंधकार यह नहीं कह सकता कि नहीं जलने देंगे। अंधकार दीए को बुझा भी नहीं सकता। कभी सुना है कि अंधकार ने दीए को बुझा दिया, कि अंधकार ने हमला किया हो और दीया मिट गया हो? कभी सुना है कि अंधकार ने बाधा डाली? एक घर में जाएं, जो हजार साल से अंधेरे में दबा हो और वहां भी एक छोटा-सा दीया जलाएं तो हजार साल पुराना अंधकार भी उस नए दीए की ज्योति को बुझा न सकेगा; रोक भी न सकेगा जलने से। अंधकार नहीं रोकता है। फिर कौन रोक रहा है पत्थर की तरह भीतर प्रकाश को जलने से, या प्रकाश को प्रगट होने से? कौन अड़ा है झरने पर?

अंधकार नहीं, अहंकार–”मैं’ का भाव। और क्यों “मैं’ का भाव बाधा बनता होगा? जब तक हमें खयाल है कि “मैं हूं,’ तब तक हम विराट से अपने को तोड़कर चलते हैं। और वह प्रकाश विराट का है। प्रकाश हमारा नहीं है। हम तो जब तक हैं, तब तक वह प्रकाश प्रगट न हो सकेगा। हम ही बाधा हैं। बुद्ध ने बहुत बार कहा है, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और तुम समझ रहे हो स्वयं को साधक। और तुम्हारे अतिरिक्त कोई बाधा नहीं है। और तुम सोच रहे हो, मैं साध लूंगा इस सत्य को! और तुम्हीं हो अड़चन। तुम्हीं अड़े हो मार्ग में, मध्य में; तुम्हीं झरने को फूटने नहीं देते। “मैं’ का भाव, “मैं हूं,’ इस घोषणा में ही विराट दब गया है। और विराट के रास्ते बड़े मौन हैं। और विराट के रास्ते बड़े विनम्र हैं। और विराट जबर्दस्ती नहीं करता है। विराट आक्रमक नहीं है। विराट प्रतीक्षा करता है। और हमारे “मैं’ की जो आवाज है, वह रुकावट बन जाती है।

यह सूत्र कहता है, अहंकार के विचार जब तक नहीं निकल गए हैं, तब तक वह प्रकाश नहीं उपलब्ध होगा, जिससे अंधेरा मिट जाए।

अहंकार है क्या? क्या है आपके भीतर जिसको आप कहते हैं “मैं’ हूं? शब्द के अतिरिक्त और क्या है? कभी आपने सोचा, किसे आप पुकारते हैं “मैं’? कौन है यह उसका कोई भी पता नहीं–सिर्फ एक लेबल! भीतर क्या है, उसका हमें कोई पता नहीं। ऊपर से एक नाम है। बच्चा पैदा होता है, तो हमें नाम देना पड़ता है। कहना पड़ता है राम, कृष्ण कुछ नाम देना पड़ता है। बच्चा बिना नाम के पैदा होता

है। और इस दुनिया में बिना नाम के बड़ी मुश्किल हो जाती है। उसका कोई नाम न हो तो बड़ी कठिनाइयां खड़ी हो जाती हैं। एक नाम उसे देते हैं कि तेरा नाम हुआ राम। इस नाम से दूसरे उसे पुकारते हैं। लेकिन उसे खुद को पुकारने के लिए भी एक नाम चाहिए अलग। क्योंकि अगर वह भी कहे राम, तो लोग समझेंगे पता नहीं, किसी दूसरे को पुकारता है।

स्वामी राम ऐसा करते थे। स्वामी राम ने “मैं’ कहना बंद कर दिया और वे सीधा राम का ही उपयोग करने लगे थे। वे कहते थे, राम को बड़ी प्यास लगी, तो सुनने वाला समझ ही नहीं पाता था कि वे कह रहे हैं मुझे प्यास लगी है। तो सुनने वाला पूछता, किसको? वे कहते राम को। तो वह आसपास देखता कि किसकी बात चल रही है।

राम एक दिन गांव से लौटे, तो उन्होंने कहा कि आज राम को रास्ते में बड़ी गालियां पड़ रही थीं। जिसके घर मेहमान थे, उन्होंने कहा, किसको? तो उन्होंने कहा, राम को। तो उन घर वालों ने पूछा कि महाराज, सीधा-सीधा क्यों नहीं कहते कि आपको गालियां पड़ गईं। राम ने कहा, लेकिन राम को ही पड़ रही थीं, मैं तो खड़ा हुआ सुन भी नहीं रहता कि आपका खुद का नाम क्या है? इस नाम से आपका क्या लेना-देना?

और अगर नाम ही अपना नहीं है, तो फिर और क्या है आपका? बताइएगा

किसके बेटे हैं? किसके भाई हैं? किसके पति हैं? किसकी पत्नी हैं? यह बताइएगा?

ये संबंध हैं। इनका आपसे कोई लेना-देना नहीं। इन संबंधों के बिना आप हो सकते हैं। इन संबंधों के बिना आप थे। ये कल खो जाएंगे, तो आप मिट नहीं जाएंगे। आपका अपना होना

है। वह होना क्या है? वह अस्तित्व क्या है? संबंधों में जो बंधा है, वह भीतर जो संबंधों से जुड़ा है, वह कौन है? उसका उसे कोई पता नहीं चलता। आप दुकानदार हैं, कि डाक्टर हैं, कि शिक्षक हैं, कि चोर हैं, कि साधु हैं; इससे भी कोई पता नहीं चलता। इससे यही पता चलता है कि आप क्या करते हैं। यह पता नहीं चलता कि आप क्या हैं। एक आदमी डाक्टरी करता है, एक आदमी चोरी करता है–ये उनके काम हैं। और जो चोरी करता है, वह डाक्टर हो सकता है। आज जो डाक्टर है, वह कल चोर हो सकता है। इससे अस्तित्व का कोई पता नहीं चल सकता कि वह क्या है? तो आप बताएंगे अपना परिचय–नाम, धाम, पता-ठिकाना, काम; लेकिन इसमें कोई भी आप नहीं हैं, यह सब झूठा मामला है। लेकिन इसको हम मानकर चलते हैं कि यही हमारा होना है, और यही पत्थर बन जाता है। इस झूठे होने के कारण वास्तविक होना प्रकट नहीं हो पाता। और जो नकली से राजी हो गया है, उसके असली होने के लिए कोई जगह नहीं। क्योंकि मान लिया कि अपने को पा ही लिया, जान ही लिया, अब जानने को कुछ बाकी नहीं।

अगर सुकरात से लेकर आज तक सभी जानने वालों ने एक ही बात कही है कि अपने को जानो–तो बड़ी अजीब-सी लगती है। सभी तो अपने को जानते हैं। ऐसा कोई आदमी देखा, जो अपने को नहीं जानता हो? फिर, यह सुकरात का दिमाग फिर गया है? उपनिषद के ऋषि पागल हैं? यह बुद्ध और महावीर एक ही रटन लगाए हुए हैं कि अपने को जानो। और यहां एक आदमी नहीं है ऐसा, जो अपने को न जानता हो। जरूर कहीं कोई गड़बड़ हो रही है। हमारे जानने में कहीं न कहीं भ्रांति है, तभी तो इतना चिल्लाते हैं। और हमको भी हैरानी होती है सुनकर कि क्या बकवास लगा रखी है कि अपने को जानो। अपने को तो हम जानते ही हैं कि मेरा नाम यह है, मेरा घर का पता यह है, मैं इस बाप का बेटा हूं, इसका भाई हूं, इसका पति हूं, यह मेरी दुकान है, यह मेरा फोन नंबर है। यह मेरा होना है। अब और क्या अपने को जानूं?

आपका फोन नंबर आप नहीं हैं। आपकी दुकान में लगी तख्ती आप नहीं हैं। आपके नाम के पीछे लगी उपाधियां आप नहीं हैं। आपके नाम के जो आगे लगे, कुछ भी नाम के आगे-पीछे आप नहीं हैं। नाम भी आप नहीं हैं। काम-चलाऊ हैं ये शब्द। और इस दुनिया में अड़चन होगी, इसलिए कामचलाऊ व्यवस्था करनी पड़ती है।

अहंकार कामचलाऊ व्यवस्था है, एक उपाय है और हम उसी को सत्य मानकर अड़ जाते हैं। बस फिर वह जो भीतर छिपा था, उसको प्रकट होने के लिए हम ही बाधा बन जाते हैं।

तो पहली बात तो जाननी जरूरी यह है कि आप अपने को अब तक जो-जो मानते रहे, वह-वह आप नहीं हैं। यह विचार गहन हो जाए, तो अहंकार को छोड़ देने में कोई भी अड़चन नहीं है। क्योंकि हाथ में लेबल के सिवाय कुछ भी नहीं है। बिलकुल कागजी नोट है, चलते हैं, काम देते हैं, लेकिन सत्व उनमें जरा भी नहीं है। इस झूठ के प्रति जागें। सूत्र कहता है, अहंकारी विचार जब तक नहीं निकल गए, उस समय तक कोई भी उच्चस्थ आत्मा का प्रकाश निम्नस्थ आत्मा के अंधकार को नहीं मिटा सकता, और यात्री यह नहीं कहता कि मैंने इस क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया है, मैंने कारण का नाश कर दिया है। अतः छायाएं पड़ती हैं, वे अब नहीं टिक सकती हैं।

कारण है अहंकार। और अहंकार ही कारण है इस भाव का कि मैं शरीर हूं। इसे भी थोड़ा खयाल में ले लें।

मैं है केवल नाम, एक शब्द जरूरी; लेकिन बिलकुल असत्य। और इस असत्य के पास अपनी कोई भी संपदा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, आत्मा का इसे कोई पता नहीं है। लेकिन ये नाम, ये शब्द थोथे हैं, औपचारिक उपाय भर हैं। यह अहंकार भी तो कहीं अपने पैर टिकाएगा। इसको भी तो कोई जगह चाहिए, जिस पर यह खड़ा हो सके। यह अहंकार कहां खड़ा हो और कहां पैर टिकाए? यह शरीर पर पैर टिका देगा। शरीर है “पदार्थ’ यह उस पर पैर टिका देता है। शरीर कभी भी इंकार नहीं करता। यह शरीर पर पैर टिका देता है और कहता है, यह मैं हूं। मैं यानी मेरा शरीर। और तब एक अदभुत जाल निर्मित होता है–एक झूठ। शरीर बहुत वास्तविक है। एक वास्तविक चीज के ऊपर झूठ खड़ा हो जाता है।

ध्यान रहे, झूठ को भी चलना हो, तो किसी न किसी वास्तविकता का सहारा लेना जरूरी है, खुद नहीं चल सकता, उसके पास कुछ भी नहीं है। झूठ का मतलब ही यह है कि उसके पास कुछ भी नहीं है, उसे सहारा लेना पड़ता है। इसलिए झूठ बोलनेवाला हमेशा पूरे उपाय करता है आपको समझाने का, कि मैं सच बोल रहा हूं। अगर भरोसा आ जाए कि यह झूठ है, तो झूठ वहीं गिर जाता है।

एमेनुअल कांट ने बड़ी कीमत की बात कही है। उसने कहा है कि अगर सारी दुनिया में सभी लोग झूठ बोलने लगें, तो झूठ बिलकुल बेकार हो जाए। झूठ तभी तक चलता है, जब तक कुछ लोग सच बोल रहे हैं, या आशा रहती है कि कोई न कोई सच बोलता है। अगर सभी लोग तय ही कर लें कि हम झूठ ही बोलेंगे, और जो भी बोलेंगे वह झूठ ही होगा, तो फिर झूठ के चलने का कोई उपाय न रह जाएगा। पर बड़ी अड़चनें होंगी, काम चलना ही मुश्किल हो जाएगा।

सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन ट्रेन में सवार हुआ। जिस धंधे में वह लगा था, उसी धंधे का एक दूसरा आदमी भी उसी डिब्बे में चलती-भागती गाड़ी में सवार हुआ। वह मुल्ला का प्रतियोगी था, उसी धंधे में। मुल्ला ने मन में सोचा अगर मैं इससे पूछूंगा कि कहां जा रहे हो, तो यह जरूर झूठ बोलेगा। फिर भी मुल्ला ने कहा देखें और पूछा, कहां जा रहे हो? उस आदमी ने कहा, दिल्ली जा रहा हूं। मुल्ला ने मन में कहा कि जरूर कलकत्ता जा रहा होगा। यह आदमी विरोधी है धंधे में, और सिवाय झूठ के कभी सच बताता नहीं, जरूर कलकत्ता जा रहा होगा; पक्का है मामला। लेकिन तभी उसे खयाल आया कि गाड़ी तो दिल्ली जा रही है। मुस्कुराया वह, हंस कर बोला कि क्यों झूठ बोलते हो? दिल्ली जा रहे हो और झूठ बोलते हो कि दिल्ली जा रहे, ताकि समझूं कि कलकत्ते जा रहे हो!

बड़ी अड़चन हो जाए, यदि सारे लोग झूठ बोल रहे हों। तो हिसाब लगाना मुश्किल हो जाए, और किसी बात का कोई भरोसा भी न रहे। दुनिया चलती है थोड़े से सच के सहारे। झूठ भी चलता है सच के सहारे। अहंकार बिलकुल सरासर झूठ है, उसका कोई भी अस्तित्व नहीं है। शरीर का अस्तित्व है, आत्मा का अस्तित्व है; अहंकार का कोई अस्तित्व नहीं है। अहंकार मात्र एक खयाल है। या तो अहंकार आत्मा में अपने पैर गड़ाए तो चल सकता है। लेकिन आत्मा में वह पैर गड़ा नहीं सकता; क्योंकि आत्मा के प्रकाश में–वह क्योंकि अंधकार है–टिकेगा नहीं। इसलिए शरीर के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। अहंकार अपनी जड़ें शरीर में डाल देता है। शरीर के सहारे अहंकार सच्चा हो जाता है, वास्तविक हो जाता है, यथार्थ हो जाता है।

अहंकार की प्रतीति है यह कि मैं शरीर हूं। यह आपकी प्रतीति नहीं है, यह आपके अहंकार की प्रतीति है कि मैं शरीर हूं। इसलिए जिस दिन अहंकार छूटता है, उसी दिन यह खयाल भी छूट जाता है कि मैं शरीर हूं। तब तो वही रह जाता है, जो आप हैं। वह शरीर में है, शरीर में रमा है, बसा है, शरीर उसका घर है, देह है, आवास है, एक पड़ाव, एक मुकाम है। अभी है इस घर में, कल नहीं होगा। और बहुत घरों में रहा, बहुत घर बदले, और बहुत घर बदलने पड़ेंगे। और जब भी जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं वस्त्र, तो हम फेंक देते हैं और नए वस्त्र ग्रहण कर लेते हैं।

रामकृष्ण मरने के करीब थे। उनकी पत्नी बहुत रोने-पीटने, चिल्लाने लगी। तो रामकृष्ण ने कहा, तू क्यों घबराती है? क्योंकि मैं नहीं मर रहा हूं; ये तो वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो गए हैं। देखती है, गले में कैंसर हो गया है और यह शरीर सड़ गया है। अब इस शरीर में रहना एक गिरते हुए घर में रहना है, जो किसी भी क्षण गिर सकता है। इसलिए छोड़ता हूं इस जीर्ण-शीर्ण देह हो। मैं नहीं मर रहा हूं, केवल वस्त्र बदल रहा हूं।

शारदा ने रामकृष्ण की आंखों में देखा। क्योंकि यह जो आदमी था, यह कोई सिद्धांत की बात नहीं कह रहा था, कोई शास्त्र पढ़कर नहीं कह रहा था कि मैं आत्मा हूं। अनुभव से ही कह रहा था, आंखों में वह अनुभव की झलक थी। और जब भीतर प्रकाश फूटता है, तो उसकी झलक स्वभावतः आंखों तक आ जाती है। और मरते क्षण में रामकृष्ण ने कहा कि मैं नहीं मरूंगा, तू चिंता न कर, मेरी कोई मृत्यु नहीं, सिर्फ कपड़े बदल रहा हूं। और ये कपड़े तो तू भी कहेगी कि अकारण हो गए हैं, बोझ हो गए हैं, बदल दें।

और रामकृष्ण की मृत्यु हो गई। और एक ही स्वर उन आंखों में देखा, झलक उस प्रकाश की जो अहंकार के हट जाने पर दिखाई देती है। लेकिन सभी को दिखाई पड़ेगी रामकृष्ण की आंखों में झलक, ऐसा जरूरी नहीं है। शारदा को दिखाई पड़ सकी; क्योंकि उसका बड़ा गहन प्रेम था। उसने रामकृष्ण पर भरोसा किया था सदा। वह भरोसा कारण बन गया। और रामकृष्ण जब कह रहे हैं कि मैं नहीं मरूंगा, तो बात खतम हो गई कि वे नहीं मरेंगे।

रामकृष्ण मर गए और शारदा विधवा न हुई। सारे प्रियजन, परिचित, सब इकट्ठा हो गए और कहा, चूड़ियां फोड़ डालो, वस्त्र बदल डालो। मगर शारदा ने कहा, वे कह कर गए हैं कि मैं नहीं मरूंगा, और वे नहीं मरे हैं। मैं अनुभव करती हूं कि जीर्ण-शीर्ण देह छूट गई है, वे हैं। शारदा अकेली स्त्री है भारत में, जो पति के मरने पर विधवा न हुई। वह बहुत वर्ष जीयी, लेकिन चूड़ियां हाथ पर रहीं और उसकी आंखों में कभी आंसू दिखाई नहीं पड़े। और वह जैसे रोज रामकृष्ण की मौजूदगी में थी, वैसे ही रही। लोग तो समझने लगे कि पागल हो गई है, क्योंकि जिस वक्त ठीक रामकृष्ण के सोने का समय होता, उस वक्त वह मसहरी भी डालती, उन्हें सुलाती भी। जब उनके भोजन का वक्त होता, तो उन्हें बुलाने भी आती, उनका खाना भी लगाती, थाली भी लगाती, बैठकर पंखा भी चलाती।

एक दफा विवेकानंद ने उससे पूछा कि मां, यह भी मान लें कि देह मिट गई, वे हैं, लेकिन यहां तो नहीं हैं? तो शारदा हंसने लगी। उसने कहा, देह की वजह से यहां और वहां का सवाल था। जब देह ही मिट गई, तो अब सब जगह हैं। अब तो जहां भी देखूं, उनको देख पा सकती हूं, जहां भी उनको निमंत्रण दे सकूं, वहीं से वे निमंत्रित हैं। देह की वजह से अड़चन थी कि वे कहीं होते थे; अब सब जगह हैं।

पर हमारे भीतर भी अस्तित्व है। उस अस्तित्व पर एक भारी पर्दा है–एक झूठ का पर्दा। और वह पर्दा वास्तविक हो गया है, शरीर की सहायता से। शरीर दुश्मन नहीं है आपका, दुश्मन अहंकार है। जैसे आपने देखा न, वृक्षों पर एक पीले रंग की बेल फैल जाती है। वह बिना जड़ों की होती है, उसे अमरबेल कहते हैं। अहंकार अमरबेल है। उसमें कोई जड़ नहीं है। लेकिन किसी भी वृक्ष पर अमरबेल फैल जाती है, तो वृक्ष का रस चूसने लगती है; उसी को चूस कर जीती है। वृक्ष धीरे-धीरे सूखता जाता है और बेल फैलती रहती है। और उसकी कोई जड़ नहीं है!

अहंकार अमरबेल है। वह शरीर को पकड़ लेता है; उसी को चूसने लगता है और हम शरीर के खिलाफ हो जाते हैं। हम सोचते हैं कि शरीर हमें दिक्कत डाल रहा है। शरीर की वजह से हमें आत्मा का पता नहीं चलता। भूल है आपकी। शरीर कोई बाधा नहीं डाल रहा है। शरीर तो सिर्फ वाहन है। आप जहां ले जाएं–नरक ले जाएं तो नरक चला जाएगा, स्वर्ग ले जाएं तो स्वर्ग। आप मुक्त होना चाहें, तो मुक्ति के द्वार तक आपको पहुंच देगा। शरीर तो केवल साधन है। असली अड़चन शरीर से नहीं, अहंकार से है। लेकिन दिखाई पड़ती है शरीर में;क्योंकि अहंकार की अमरबेल शरीर को ग्रस लेती है और शरीर से रस पाती है। झूठ को कोई न कोई सच्चा सहारा चाहिए।

“अहंकार जब तक निकल न जाए और यात्री यह न कह सके कि मैंने क्षणभंगुर शरीर का त्याग कर दिया है’

त्याग का अर्थ है कि अब मैं नहीं मानता हूं कि यह क्षणभंगुर शरीर मैं हूं। त्याग का मतलब यह न समझना कि आप शरीर को छोड़ दें, कि शरीर से अलग हो जाएं। यह बोध कि मैं शरीर नहीं हूं, त्याग हो गया। यह प्रतीति कि मैं शरीर नहीं हूं, त्याग हो गया।

“मैंने कारण का नाश कर दिया है।’

कारण है अहंकार।

“अतः जो छायाएं पड़ती हैं, वे अब नहीं टिक सकतीं। क्योंकि अब उच्चस्थ और निम्नस्थ आत्मा के बीच महायुद्ध आरंभ हो गया है। इस महायुद्ध में समस्त रण-क्षेत्र समा गया है। वह मानो है ही नहीं।’

यहां एक बहुत विचारणीय बात है, और जटिल भी। इस जगत में प्रत्येक चीज द्वंद्व में है। इस जगत में प्रत्येक चीज अपने विपरीत के साथ है। होने का यही उपाय है। जन्म है मृत्यु के साथ। हम कितना ही चाहें कि जन्म हो और मृत्यु न हो, यह हो नहीं सकता। जन्म एक छोर है उसी चीज का, मृत्यु दूसरा छोर है उसी चीज का। कोई उपाय नहीं है इस द्वंद्व में से एक को बचाने का, और दूसरे को समाप्त करने का।

अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि हर चीज की विपरीत चीज अनिवार्य है। और वे तो यहां तक गए हैं कि बहुत न समझ में आनेवाली बातें विज्ञान को खयाल में आने लगी हैं। अभी एक विचारक ने प्रस्तावना की है कि समय बढ़ता है आगे की तरफ; अतीत जाता है, वर्तमान आता है; वर्तमान जाता है, भविष्य आता है। यह समय अगर है, तो इसके विपरीत समय भी होना चाहिए। नहीं तो यह नहीं हो सकता। इसका दूसरा छोर होना चाहिए, रिवर्स टाइम–जहां पहले भविष्य होता हो, फिर वर्तमान होता हो, फिर अतीत होता

हो। इससे उल्टी कोई धारा होनी चाहिए। हमें पता न हो, लेकिन जरूर कोई उल्टी धारा होनी चाहिए। उस उल्टी धारा के बिना यह समय न हो सकेगा।

पदार्थ है, तो भौतिक विज्ञान फिजिक्स का नया सिद्धांत है कि एंटी-मैटर, विपरीत पदार्थ भी होना चाहिए। क्या होगा विपरीत पदार्थ? बड़ा कठिन है। लेकिन एक बात खयाल में लेनी जरूरी है कि विज्ञान भी इस बात को स्वीकार कर रहा है कि जगत में किसी भी चीज में एक ध्रुव नहीं हो सकता। दो ध्रुव अनिवार्य हैं। जैसे हम सोचें, पुरुष ही पुरुष हों जगत में, स्त्रियां न हों, यह हो नहीं सकता। हम सोचें, स्त्रियां हों, पुरुष न हों जगत में, यह हो नहीं सकता। यह पोलर अपोजिट हैं। ये दो ध्रुव हैं। और ये दोनों एक साथ ही हो सकते हैं, जैसे ऋण और धन विद्युत एक साथ हो सकती हैं।

लाओत्से ने चीन में हजारों साल पहले जो विचार प्रस्तुत किया था, वह बहुत ठीक-ठीक विकसित होता चला गया है। और अनेक-अनेक आयामों में सही सिद्ध हुआ है। चीन में वे कहते हैं “यिन’ और “यांग’। “यिन’ है स्त्री का नाम और “यांग’ है पुरुष का नाम। या “चिन’ को हम कहें निषेध, और “यांग’ को हम कहें विधेय। या “यिन’ को हम कहें पृथ्वी और “यांग’ को हम कहें स्वर्ग–कोई भी दो। लेकिन “यिन’ और “यांग’ दो से अस्तित्व बना है। और एक के होते ही हम शून्य में विलीन हो जाते हैं। एक का कोई अस्तित्व नहीं होता।

ब्रह्म इसलिए शून्य है, वह अकेला है। जैसे ही हम दो से हटे कि हम ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। वह है, लेकिन शून्यवत। उसके होने को पदार्थवत नहीं कहा जा सकता। जब तक हम हैं पदार्थ में, तब तक विपरीत होगा। तो अगर आपके भीतर आत्मा है, तो आपके भीतर विपरीत आत्मा जैसी चीज भी होगी; नहीं तो आत्मा नहीं हो सकती। अगर आपके भीतर उच्चाशय है, तो निम्नाशय भी होगा। और आपके भीतर अगर श्रेष्ठ है, तो निकृष्ट भी होगा। और आपके भीतर अगर स्वर्ग की तरफ उड़ान की कामना है, तो नर्क की तरफ जानेवाली जड़ें भी होंगी। आप एक कुरुक्षेत्र हैं; उसमें आपके भीतर पांडव भी होंगे और कौरव भी होंगे। आप हो ही नहीं सकते इस द्वंद्व के बिना।

जैसे राज मकान बनाता है, दरवाजे उठाता है, तो गोल दरवाजे बनाता है, विपरीत ईंटों को लगा देता है। विपरीत ईंटें एक-दूसरे से टकरा जाती हैं। तो उनकी टकराहट से ही मंडल निर्मित हो जाता है शक्ति का। उस शक्ति पर बड़ा भवन खड़ा हो जाता है। वह भवन गिरेगा नहीं, क्योंकि वह बीच में विपरीत ईंटें जो नीचे लगी हैं, वे एक-दूसरे से टकरा कर शक्ति का एक वर्तुल निर्मित कर रही हैं। बड़ा भवन उस पर टिका रहेगा। वही विरोध उस बड़े भवन का आधार है।

आपके भीतर भी एक विरोध है। उस विरोध के कारण ही आप संसार में हैं। इसलिए बुद्ध कहते हैं, जिस दिन विरोध नहीं होगा, उस दिन तुम मुझसे यह मत पूछो कि आत्मा, तुम्हारी आत्मा मोक्ष में होगी कि नहीं होगी। मैं तुमसे कहता हूं, नहीं होगी; क्योंकि तुम्हारी आत्मा को होने के लिए भी द्वंद्व अनिवार्य है। निद्वंद्व अवस्था में होने का कोई अर्थ नहीं है, न-होने का कोई अर्थ नहीं है। दोनों बातें व्यर्थ हैं। इसलिए बुद्ध ने निर्वाण शब्द चुना। निर्वाण का अर्थ होता है, दीए का बुझ जाना। द्वंद्व ही खो गया, तो तुम भी खो जाओगे। जैसे कोई दरवाजे में लगी इट यह पूछे कि अगर यह विपरीत जो विरोध हम ईंटों में है, अगर यह न रहे तो दरवाजा होगा कि नहीं होगा? द्वंद्व गया, दरवाजा गया। आकाश बचेगा, जो दरवाजे में था; दरवाजा नहीं बचेगा। आपके भीतर जो एक है, वह बचेगा; जो दो की वजह से दिखाई पड़ता था, वह खो जाएगा। उस एक का आपको कोई पता नहीं। आपको इन दो का जरूर पता है। आपके भीतर कोई निरंतर ऊंची आवाज मालूम पड़ती है। चोरी करने जाते हैं, कोई भीतर शंकित होने लगता है। हत्या करने जाते हैं, भीतर द्वंद्व खड़ा हो जाता है। दान देने जाते हैं, तो भी एक नीचे की आवाज है, जो रोकने लगती है कि ठहरो अभी।

मैंने सुना है कि मार्कट्वेन एक बार एक चर्च में गया। वह जो चर्च का पुरोहित था, बोल रहा था। वाणी उसकी मधुर थी, शब्द उसके प्यारे थे, बड़ा काव्य था, और धर्म की बड़ी सरल उसकी व्याख्या थी। मार्कट्वेन बड़ा प्रभावित हो गया। उसने खीसे में हाथ डालकर सोचा कि दस डालर दान कर दूं। डालर खीसे में थे। लेकिन दस मिनट व्याख्यान और आगे चला, तो मार्कट्वेन ने सोचा, दस भी देने की क्या जरूरत है, पांच से भी काम चल सकता है और फिर अभी किसी को बताया भी तो नहीं है कि दस देना है, तो कोई अपराध भी नहीं कर रहे हैं। पांच से ही काम चल जाएगा। और व्याख्यान लंबा चला, तो ढ़ाई-दो पर उतरता गया मार्कट्वेन। और उसने लिखा है, जब मेरे सामने बर्तन आया दान का, तो मेरी तबीयत हुई कि एकाध-दो डालर इसमें से उठा लूं। तब तक मैं वहां पहुंच चुका था। किसी तरह अपने को रोक कर भागा कि कहीं उठा ही न लूं! देने की तो बात ही खतम हो गई।

वह जो आपके भीतर जब भी शुभ करने का कुछ होता है, तो एक विपरीत शक्ति बोलती है। जब अशुभ करने का होता है, तब भी एक विपरीत शक्ति बोलती है। ये दो आपके भीतर आवाजें हैं। इन आवाजों को जो ठीक से पहचानने लगता है, उसे अपने भीतर का द्वंद्व और युद्धक्षेत्र स्पष्ट हो जाता है। और जैसे ही व्यक्ति अपने अहंकार को छोड़ता है, अनुभव करता है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे ही यह युद्ध स्पष्ट होता है। तब एक नए तल पर उसे दिखाई पड़ता है कि मेरा होना ही दो में विभाजन है। कुछ है मेरे भीतर जो नीचे की तरफ जा रहा है, और कुछ है मेरे भीतर जो ऊपर की तरफ जा रहा है। और उन दोनों के खिंचाव के मध्य में “मैं’ हूं। और उन दोनों के खिंचाव की वजह से मेरा संताप है; मेरी चिंता, दुख, पीड़ा।

“इस महायुद्ध में समस्त रण-क्षेत्र समा गया है। वह मानो है ही नहीं।’

रणक्षेत्र नहीं बचा है, सिर्फ सेनाएं छा गई हैं दोनों तरफ। पर ये आपको दिखाई नहीं पड़ेगा, क्योंकि आप तो शरीर में इतने उलझे हुए हैं कि आपको यह पता चलना भी मुश्किल है कि शरीर के पीछे छिपी आत्मा के अस्तित्व में क्या घटित हो रहा है। आप तो शरीर के तल पर लगे हैं। वहीं आपका संघर्ष संसार में चल रहा है; किसी से धन के लिए, किसी से पद के लिए।

भीतर का संघर्ष तो उन्हीं को पता चलता है, जो शरीर से हटते हैं, आंख उठाते हैं भीतर को, देखते हैं कि बाहर भी संघर्ष है, भीतर भी संघर्ष है। बाहर का संघर्ष तो बहुत क्षुद्र है, भीतर का संघर्ष बहुत विराट है। वह शाश्वत युद्ध है, जहां दो शक्तियां आपको खींच रही हैं–एक ऊपर की तरफ, एक नीचे की तरफ। और जब आप ऊपर की तरफ जाना चाहते हैं, तो नीचे की तरफ संतुलन बनाने के लिए आपको फौरन खिंचाव शुरू हो जाता है।

यह बहुत मजे की बात है, जब तक आप ऊपर की तरफ नहीं जाना चाहते हैं तब तक नीचे का खिंचाव ज्यादा नहीं होता। जिस दिन आप संत होना चाहेंगे, उस दिन आपको पता चलेगा कि आपके भीतर का शैतान बहुत प्रबल है। जब तक संत नहीं होना है, तब तक शैतान का पता नहीं चलेगा। क्योंकि इसकी कोई जरूरत नहीं है। शैतान को चुनौती तो तब मिलती है, जब आप संत होने की कोशिश करते हैं। तब आपको पता चलता है कि कितनी शैतानी भीतर छिपी है।

कथाएं हैं बौद्ध कि बुद्ध जब ठीक अपने भीतर प्रवेश करने लगे, तो मार ने, काम ने उनके ऊपर हमला किया। जीसस जब परमज्ञान के निकट पहुंचने लगे, तब की घटना है, कि शैतान उन्हें बहुत प्रलोभन देने लगा। और जीसस को कहना पड़ा कि शैतान हट, तेरे प्रलोभन मेरे लिए निरर्थक हैं। हमें बहुत हैरानी होती है कि कुछ वहम हो गया होगा कि शैतान कहां है? कौन जीसस के पीछे खड़ा होगा? खुद का

ही कोई वहम हो गया होगा। बुद्ध को कौन मार हमला करने आता है? कौन कामदेव बाण लेकर खड़ा है? खुद का ही कोई वहम हो गया होगा।

जहां हम हैं, वहां ऐसा सोचना स्वाभाविक है; क्योंकि हमें भीतर के युद्ध का कोई भी पता नहीं, भीतर के तनाव का कोई पता नहीं। वह तो उन्हीं को पता चलता है, जो उस भीतर के तनाव में एक दिशा को पकड़ना शुरू करते हैं, दूसरी दिशा तत्काल बलवती हो जाती है।

अगर आप जमीन पर लेटे हुए हैं, तो आपको थकान का पता नहीं चलता। इसलिए रात हम लेट जाते हैं, लेटने से थकान मिट जाती है। क्यों? आपको पता है, लेटने में होता क्या है? लेटने का मतलब है कि जमीन के गुरुत्वाकर्षण से दिन भर आपका जो संघर्ष चल रहा था, वह आपने छोड़ दिया; अब आप लड़ नहीं रहे हैं। अब आप जमीन पर लेट गए हैं, गुरुत्वाकर्षण से अब आप दुश्मनी नहीं कर रहे हैं। जब आप खड़े हैं, तब आप जमीन से लड़ रहे हैं। जमीन नीचे खींच रही है, आप खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं।

आपको पता है, कमर का दर्द सिर्फ आदमी की जाति में होता है, जानवरों में कहीं नहीं होता। सीधे खड़े होने का उपद्रव है कमर का दर्द।

जो लोग शरीर को अनुभव करते हैं, जैसे शरीर-शास्त्री हैं वे कहते हैं, आदमी की रीढ़ अभी तक पूरी सीधी नहीं हो पाई; जमीन उसको खींचती है। और इसलिए अगर योग में रीढ़ को सीधा करने के बड़े उपाय किए हैं, तो उसके पीछे कारण है। वह संघर्ष है नीचे के गुरुत्वाकर्षण से। जब आप रात लेट जाते हैं, संघर्ष आपने छोड़ दिया, फिर कोई थकान नहीं आती। और कोई आदमी दौड़ता रहा हो दिन भर, और वह कहे कि मैं बिलकुल थका हूं। और आप सदा लेटे रहे हों, तो आप कहेंगे कि वहम में पड़ गए हो, थकने का कोई सवाल ही नहीं, हम भी तो हैं।

बुद्ध और महावीर खड़े होकर चल रहे हैं भीतर की दुनिया में; हम वहां लेटे हुए हैं। वे थकते हैं, उन्हें विपरीत का अनुभव हो रहा है। जीसस जब भगवान होने लगते हैं, तब तत्क्षण शैतान का अनुभव होता है। शैतान का मतलब यह है कि खुद के ही भीतर की नीचे की ताकत भी आखिरी उपाय करती है कि कहां जाते हो? और यह द्वंद्व भी तब तक नहीं मिटता, जब तक कोई ऊपर जाना चाहता है, तब तक नीचे का खिंचाव जारी रहता है। इसलिए हमारे पास तीन शब्द हैं। एक शब्द है “स्वर्ग’, वह ऊपर की दिशा का सूचक है–उच्चस्थ आत्मा जहां जाना चाहती है, जैसी होना चाहती है। दूसरा शब्द है हमारे पास “नरक’, वह निम्नस्थ आत्मा की तीर्थ-यात्रा का सूचक है–जहां हमारी नीचे की वृत्तियां जाना चाहती हैं। एक और शब्द है हमारे पास “मोक्ष’–उस अवस्था का सूचक है, जहां हम न ऊपर जाना चाहते हैं, जहां न नीचे जाना चाहते हैं; हम कहीं जाना ही नहीं चाहते। उस मध्य के बिंदु पर छुटकारा है।

मुसलमान फकीर औरत थी राबिया। एक दिन लोगों ने बाजार में देखा, एक हाथ में आग लिए है, लपटें हैं, मशाल है; और एक हाथ में ठंडे पानी की मटकी लिए, राबिया भागी चली जा रही है। लोगों ने पूछा, राबिया, क्या कर रही हो? दिमाग तो खराब नहीं हो गया? और जा कहां रही हो? तो राबिया ने कहा कि तुम्हारे नरक को बुझाने और तुम्हारे स्वर्ग को जलाने।

या तो तुम नीचे जाते हो या तुम ऊपर जाते हो, लेकिन तुम जाते जरूर हो। उसी में कलह है और उसी में संघर्ष है। लेकिन ध्यान रहे मध्य में कोई एकदम से जा भी नहीं सकता। ऊपर जाए, तो नीचे जानेवाली शक्तियों का अनुभव होना शुरू होता है। और जब ऊपर और नीचे जाने का तनाव पूरा होता है और कोई तनाव का आगे उपाय नहीं रह जाता, जब तार बिलकुल पूरे खिंच जाते हैं अपनी आत्यंतिक स्थिति में, तभी आप को, अपने आंतरिक जीवन का जो ढांचा है, उसकी पूरी प्रतीति होती है कि वह नरक और स्वर्ग दोनों से मिलकर बना है। तभी आपको प्रतीति होती है कि वह भीतर शैतान और भगवान दोनों एक साथ खड़े हैं। इन दोनों की पूरी जो एक साथ प्रतीति है, उस प्रतीति के बाद ही दोनों से छुटकारा हो सकता है। दोनों से छुटकारा ही वस्तुतः भगवत्ता में प्रवेश है, वस्तुतः ब्रह्म में प्रवेश है।

यह सूत्र कहता है: लेकिन जब एक बार तू धैर्य के द्वार को पार कर जाता है, तब तीसरा चरण भी उठ जाता है। तेरा शरीर तेरा सेवक है। और अब चौथे चरण की तैयारी कर। यह लोभ का द्वार है, जो अंतरस्थ मनुष्य को फांसता है।

चौथा द्वार है विराग, और इसे सूत्र कह रहा है कि यह द्वार लोभ से बहुत गहन रूप से संबंधित है। हैरानी होगी यहां! विराग का लोभ से क्या संबंध? उलटे मालूम पड़ते हैं। कहीं कोई भूल तो नहीं हो गई सूत्र में। विराग का द्वार लोभ का द्वार क्यों है?

विराग का द्वार लोभ का द्वार है, भूल जरा भी नहीं है। लेकिन जरा जटिल और सूम है बात। संसार से विरक्त हो गया मन; संसार की व्यर्थता जान ली, सब देख लिया, कहीं कुछ पाया नहीं; राख ही हाथ में आई, हाथ खाली के खाली रहे, कुछ भर न सका, मन का भिक्षापात्र खाली रहा; कोई वासना, कोई कामना, कोई मांग पूरी न हुई। उल्टे जितना मांगा, उतने दुख आए; जितना चाहा, उतनी पीड़ा मिली; जितने दौड़े उतने भटके; यात्रा बहुत की, मंजिल कोई न मिली। ऐसा सारा अनुभव विराग ले आता है। यह द्वार है विराग का। संसार व्यर्थ हो गया।

लेकिन ध्यान रहे, संसार के व्यर्थ हो जाने से जरूरी नहीं कि लोभ व्यर्थ हो गया हो। लोभ नया रूप भी ले सकता है। विरागी के भी लोभ हो सकते हैं। इसलिए विराग के द्वार पर एक तरफ संसार का लोभ छूट गया, अब कहीं परलोक का लोभ न पकड़ ले! इसलिए विराग के द्वार लोभ से बहुत सचेत होना जरूरी है। देखें चारों तरफ दिखाई पड़ जाएगी, यह बात सच है। पूछें किसी तपस्वी को, किसलिए तप कर रहे हो? फौरन लोभ का पता चल जाएगा। कहता है कि मुझे शाश्वत आत्मा चाहिए, कि मुझे स्वर्ग चाहिए, कि मुझे परम आनंद चाहिए, कुछ चाहिए या मुझे परमात्मा चाहिए, कुछ चाहिए। चाह, चाहे धन की हो, चाहे धर्म की, चाह तो चाह है।

लोभ तो लोभ है; लोभ का विषय क्या है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लोभ की वृत्ति तो वही है। कल तक मैं चाहता था, यहां पद मिले; अब मैं कहता हूं परम-पद मिले, मुझे परमात्मा चाहिए। कल तक मैं कहता था कि यहां धन मिले, लेकिन मैंने पाया कि यहां का धन तो क्षणभंगुर है; अब मैं कहता हूं मुझे ऐसा धन मिले जो शाश्वत हो। यह लोभ घटा या बढ़ा?

संसारी का लोभ बड़ा छोटा होता है, कौड़ियों से भर जाता है। सरल लोभ है, जटिल नहीं है। साधु का लोभ जटिल है, कौड़ियों से नहीं भरता। वह कहता है, ये कौड़ियां हैं, इनको इकट्ठा करके मैं क्या करूंगा? इकट्ठा वह भी करना चाहता है, लेकिन कौड़ियां इकट्ठी नहीं करना चाहता! कोई हीरे मिलते हों, तो इकट्ठे करे। लेकिन इसमें लोभी कौन बड़ा है? जो कौड़ियां इकट्ठी कर रहा है वह? या जो इसलिए कौड़ियां छोड़ रहा है कि कौड़ियां हैं, मुझे हीरे चाहिए वह?

यह लोभ नया हो गया और इसने नया आयाम ले लिया।

अगर हम शास्त्रों को देखें, तो सौ में से निन्यानबे शास्त्र लोभ के शास्त्र हैं। इनमें लोभ भरा पड़ा है; लोभ आध्यात्मिक है। लेकिन क्या आध्यात्मिक लोभ हो सकता है? क्या लोभ भी आध्यात्मिक हो सकता है? लोभ ही तो संसार है। लेकिन धोखा है; क्योंकि हम पदार्थ बदल लेते हैं। जो आदमी धन मांगता है, हम उसे कहते हैं, क्या क्षुद्र मांग रहे हो! जो कहता है, मुझे तो परमात्मा तू ही चाहिए–इसको हम कहते हैं, देखो, धन नहीं मांगता, परमात्मा को ही मांगता है। संतों की, तथाकथित बहुत संतों की कथाएं हैं कि वे परमात्मा के सामने खड़े हो कर धन नहीं मांगते, पद नहीं मांगते, स्वास्थ्य नहीं मांगते; वे कहते हैं, हमें तो तू ही चाहिए। लेकिन मांगते हैं। यह लोभ छोटा हुआ या बड़ा हुआ? और ये ज्यादा कुशल और चालाक लोग हैं; क्योंकि वे परमात्मा को मांग रहे हैं, बाकी सब तो उसके पीछे मिल ही जाएगा। उस बाकी के लिए क्या मांगना?

मैंने सुना है कि एक सम्राट यात्रा पर गया था। और जब वह वापिस लौट रहा था युद्ध जीत कर, बहुत धन लूटकर, तो उसने अपनी सारी रानियों को खबर भिजवाई, तुम क्या चाहती हो? तो किसी रानी ने कहा कि कोहिनूर लेते आना, किसी रानी ने कहा यह ले आना, वह ले आना। हजार चीजें थी दुनिया की; जिसकी जो वासना थी। लेकिन एक रानी ने कहा कि मैं तो सिर्फ तुम्हें ही चाहती हूं। सम्राट अपने साथ एक फकीर को ले गया था, उससे वह कभी-कभी सलाह लेता था। उसने फकीर को कहा कि रानी तो यह है एक सच्ची, जिसने कुछ भी न मांगा। वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा कि इसकी तरकीब हमसे पूछो। यह रानी हम जैसी है, यह होशियार है। बाकी सबने व्यर्थ की चीजें मांगीं, इसने तुमको ही मांगा है। और बाकी सब जो तुम लूट कर ला रहे हो, वह तुम्हारे साथ अपने आप आ जाता है। उसकी कोई बात नहीं है।

फकीर ने कहा, यह रानी हम जैसी है, इसका गणित हमसे समझो। हम परमात्मा को ही मांगते हैं, हम और संसार वगैरह नहीं मांगते हैं। सब संसार उसके हैं और वही मिल गया, तो फिर पाने को कुछ बचता नहीं है। लेकिन लोभ बदलता नहीं है, लोभ के विषय बदल जाते हैं।

विराग के द्वार पर सचेत होना जरूरी है, कि संसार ही न छूटे, लोभ भी छूट जाए। नहीं तो विराग का द्वार नए लोभ की शुरुआत, नए संसार का जन्म बन जाता है। तब उसकी चिंता पकड़ लेती है। कोई आदमी रात भर नहीं सोया; क्योंकि धन नहीं मिला, जितना चाहिए था। कोई आदमी रात भर नहीं सोया; क्योंकि अभी तक भगवान के दर्शन नहीं हुए। पर फर्क क्या है? चिंता तो दोनों को पकड़ लेती है, दुख दोनों को पकड़ लेता है। रोते दोनों हैं, तड़पते दोनों हैं। फर्क क्या है? आदमी वही का वही है, सिर्फ दिशा बदल ली लोभ की। अब यह जो लोभ है वह ज्यादा सूम, ज्यादा खतरनाक है। मात्रा इसकी बहुत बारीक है, लेकिन यह रोएं-रोएं में बिंध जाएगी।

वास्तविक संन्यासी वह नहीं है, जो संसार का लोभ छोड़ कर मोक्ष का लोभ करने लगता है। वास्तविक संन्यासी वह है, जो लोभ की व्यर्थता समझ लेता और लोभ नहीं करता है। जो यह भी लोभ नहीं करता कि ध्यान मिलना चाहिए। जो यह भी लोभ नहीं करता कि आनंद मिलना चाहिए। क्योंकि जहां तक चाहिए लगा है, वहां तक कुछ मिलेगा भी नहीं। चाह ही तो उपद्रव है। हम उसी को जोड़ते चले जाते हैं नई-नई चीजों से; लेकिन उसको साथ रखते हैं। और जब कुछ भी नहीं चाहिए, तब कोई दुख नहीं है। इसलिए बुद्ध ने तो आनंद शब्द का उपयोग करने से अपने को रोका है।

बुद्ध से किसी ने पूछा है कि आप कभी नहीं कहते हैं आनंद की कुछ बात। तो बुद्ध ने कहा, तुम्हारे लोभ को जगाने की मेरी इच्छा नहीं; मैं कहूं आनंद, तुम समझोगे सुख। क्योंकि तुम सुख ही जानते हो। तो मैं तुम से ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकता हूं कि वहां दुख न होगा। आनंद होगा, यह मैं तुम से नहीं कह सकता। तुम्हारे लोभ का डर है। इतना ही कह सकता हूं कि वहां दुख न होगा। इसलिए बुद्ध ने मोक्ष की परिभाषा की है “दुख-निरोध’, आनंद की उपलब्धि नहीं। स्वभावतः बुद्ध को माननेवाले बहुत लोग नहीं मिल सके इस मुल्क में। आज तो बुद्ध का भिक्षु खोजना मुश्किल है।

लेकिन शंकर को हजारों संन्यासी मिल सके। और आज तो सारे संन्यासी करीब-करीब शंकर के हो गए हैं। क्या बात होगी? और बात वही कह रहे हैं, बुद्ध भी और शंकर भी। शंकर के जो विरोधी हैं, रामानुज और दूसरे, वे तो कहते हैं, शंकर भी छिपा हुआ बौद्ध है, प्रच्छन्न बौद्ध है। यह आदमी हिंदू है ही नहीं, यह छिपा हुआ बौद्ध है; सिर्फ हिंदू शब्दों में बौद्ध धर्म की बातें कर रहा है। उनकी बात में सच्चाई है; क्योंकि शंकर वही कह रहे हैं, जो बुद्ध ने कहा। लेकिन एक फर्क है। और बुद्ध जहां कहते हैं दुख-निरोध, वहां शंकर कहते हैं परम आनंद। हमारे लोभ को शंकर के साथ सुविधा है, बुद्ध के साथ सुविधा नहीं है। बुद्ध कहते हैं दुख-निरोध, समझ में आ जाता है ठीक है; लेकिन सिर्फ दुख-निरोध! इतना उपद्रव, और इतनी चेष्टा, इतनी साधना, इतने पहाड़ दुर्गम पार करने और सिर्फ दुख-निरोध! बस कांटा निकल जाएगा और कुछ भी नहीं! तो मन यहीं टूट जाता है, हम बैठ जाते हैं, कोई लोभ नहीं खींचता।

लेकिन बुद्ध इस चौथे द्वार का खयाल रखकर कह रहे हैं दुख-निरोध। नहीं तो चौथे द्वार पर जब संसार से विराग होगा, तब परमात्मा से राग हो जाएगा। संसार से विराग होगा, मोक्ष से राग हो जाएगा। और तब हम फिर घूमकर भीतर के संसार में लौट आएंगे। यह रास्ता पर्वतीय है और घुमावदार है। और इसमें कहीं से भी आप नए चक्कर निर्मित कर ले सकते हैं, और शिखर पर पहुंचने से रुक सकते हैं।

इसलिए बहुत सोचकर कहा है सूत्र में कि विराग का चौथा द्वार लोभ का द्वार है, जो अंतरस्थ मनुष्य को फांसता है।

अंतरस्थ मनुष्य को फांसता है।

दो तरह के मनुष्य हैं। बहिर्मुखी मनुष्य, एकसट्रोवर्ट, जुंग ने जिनको कहा है, उनको संसार फांसता है। अंतरस्थ, इंट्रोवर्ट, अंतर्मुखी मनुष्य जिनको जुंग ने कहा है, उनको यह भीतर का लोभ, आनंद, शांति , मोक्ष, ब्रह्म, ये फांस लेते हैं। अंतरस्थ मनुष्य को फांस लेता है चौथे द्वार पर लोभ। “इसके पहले कि तू गंतव्य के निकट पहुंचे, इसके पहले कि तेरे हाथ चौथे द्वार की सांकल को उठाने के लिए उठें, तुझे अपनी आत्मा के उन सभी मानसिक परिवर्तनों को पराभूत करना और विचार-वृत्तियों का हनन करना है, जो सूम और कपटपूर्ण ढंग से आत्मा के ज्योतित मंदिर में बिना पूछे घुस जाते हैं।’

इस चौथे द्वार पर हाथ लगाने के पहले, मन में उन सारी चीजों को ठीक से समझ लेना है, जो तरकीब से, कपटपूर्ण ढंग से इस मंदिर में प्रवेश करना चाहेंगे। लोभ नए नाम ले लेगा, वासनाएं नए वस्त्र पहन लेंगी और आपके साथ मंदिर में घुस जाना चाहेंगी। लेकिन उनके साथ मंदिर एकदम तिरोहित हो जाएगा। आप फिर दूसरे घर में प्रवेश कर गए, जो आपका ही बनाया हुआ है। मंदिर में प्रवेश तो उसी का होता है, जो मन को बाहर ही छोड़ जाता है। अगर आप मन को मंदिर के द्वार पर नहीं रख गए, तो आप मंदिर में कभी प्रविष्ट नहीं होते हैं। ऐसे आप जा-आ सकते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और मन सूम रास्ते खोजता है। सूम रास्ते मन के बड़े जटिल हैं और पकड़ में नहीं आते। अगर कोई आपसे कहे कि अहंकार छोड़ दो, तो आप अहंकार छोड़ने लगते हैं और विनम्रता पकड़ने लगते हैं। और एक दिन ऐसा आ जाता है कि आप कहते हैं कि इस पृथ्वी पर मुझसे ज्यादा विनम्र कोई भी नहीं है। अहंकार पीछे से आ गया वापिस।

सुना है मैंने, जंगल में रहनेवाले एक तपस्वी संन्यासी के पास एक व्यक्ति गया और उसने कहा कि “हैं संन्यासी तो आप, कितनी भीड़-भाड़ से दूर जंगल में आ गए! और मैंने सुना है कि आप किसी को शिष्य भी नहीं बनाते। आपको कोई शिष्यों का मोह नहीं है। सुना है मैंने, आप कोई प्रसिद्धि की आकांक्षा भी नहीं रखते हैं, कोई यश की कामना भी नहीं करते। और भी मैंने संन्यासी देखे हैं।’ दो-चार संन्यासी की उसने बात कही। और वह जो त्यागी पुरुष था, उसकी रीढ़ सीधी हो गई, उसकी आंखों में चमक आ गई, चेहरे पर रौनक आ गई। उसने कहा कि बिलकुल ठीक कहते हो। अरे, वे भी कोई संन्यासी हैं, जो यश चाहते हैं, पद-प्रतिष्ठा चाहते हैं! एक मुझको देखो, जो एकांत जंगल में बैठा हूं। न पद की कोई आकांक्षा है, न यश की कोई आकांक्षा है; कोई आए तो ठीक, कोई न आए तो ठीक।

अब यह आदमी सूम रास्ते से वापस लौट गया। इसे भी इसने पद बना लिया कि इधर मैं बैठा हूं अकेले में। इस ऊंचाई पर कोई भी नहीं बैठा है, जहां मैं बैठा हूं–भीड़-भाड़ से दूर। कोई इच्छा ही नहीं है कि कोई मेरे संबंध में जाने। लेकिन भीतर यह इच्छा जरूर होगी कि लोग जानें कि मेरी कोई इच्छा नहीं है, कि कोई मेरे संबंध में जाने। यह सूम है और घूम कर वर्तुलाकार आदमी को वापस वहां खड़ा

कर देती है।

“यदि तुझे उनके हाथों नहीं मरना है, तो तुझे अपने सृजनों को, अपने विचारों की संतानों को निर्दोष बनाना है, जो अदृश्य और अजाने ढंग से मनुष्य-मात्र के बीच, उसके पार्थिव अर्जनों के बीच घर बना लेती है और जो पूर्ण सा भासता है, उसकी शून्यता को और जो शून्य सा भासता है उसकी पूर्णता को तुझे समझना है। ओ निर्भय मुमुक्षु अपने ही हृदय के कुएं की गहराई में झांक और तब उत्तर दे। हे बाहय छायाओं के द्रष्टा, अपनी ही आत्मा की शक्तियों को जान।

“यदि यह नहीं करता है, तो तू नष्ट हो जाएगा।’

और यह जो सारे अपने ही विचारों की संतति-परंपरा है, जो अपने ही लोभ की सूम तरंगें हैं, अपनी ही वासना के सूम जाल हैं, इनके संबंध में अगर तू ठीक से सचेत नहीं हो जाता है, तो विराग के द्वार से भी पुनः लोभ के गर्त में गिर जाएगा। नहीं जागता है, नहीं सचेत होता है, तो नष्ट हो जाएगा। और इस संबंध में जो भी तुझे कहना हो, सोचकर मत कह, अपने हृदय की गहराई में झांक, जैसे कोई कुएं में झांके और वहां से उत्तर दे।

यह थोड़ा समझ लें।

उत्तर दो तरह से हम दे देते हैं। एक उत्तर तो सीधा खोपड़ी से दे दिया जाता है; उसका कोई मूल्य नहीं है, व्यर्थ है। किसी ने आपसे पूछा कि क्या आप ईश्वर को मानते हैं? आप जल्दी उत्तर दे देंगे; कहेंगे हां या ना। आस्तिक होंगे, तो कह देंगे कि मानता हूं, ईश्वर है। नास्तिक होंगे, तो कह देंगे कि नहीं मानता हूं, ईश्वर नहीं है। लेकिन क्या कभी आपने रुक कर अपने हृदय की गहराई में झांका कि ईश्वर को मैं मानता हूं? जानता हूं, ईश्वर है? कभी आपने आंख बंद की और अपने भीतर उतरे, और खोजा कि मेरे प्राणों की गहराई में क्या

भाव है? तो शायद आप जल्दी उत्तर न दे पाएं; तो शायद आप कहें कि रुको, कुछ वर्ष मुझे खोजने दो, तब मैं उत्तर दूंगा, क्योंकि अभी मुझे पता ही नहीं कि मेरे प्राणों की गहराई में क्या भाव है? ईश्वर की कोई है अनुगूंज वहां?

अगर मैं आपसे कहूं कि विराग के द्वार पर समझ लेना ठीक से कि कहीं लोभ न पकड़ ले, तो अपने भीतर झांकना और देखना कि आप जो वैराग्य की चेष्टा भी कर रहे हैं, उसमें ही तो कहीं लोभ नहीं छिपा है? ध्यान अगर कर रहे हैं, तो उसमें भी कहीं लोभ नहीं छिपा है? अगर परमात्मा की थोड़ी खोज भी कर रहे हैं, तो उसमें तो कहीं लोभ नहीं छिपा है? अगर उसमें ही लोभ छिपा है, तो समझना कि वही बाधा है। परमात्मा की तरफ से कोई बाधा नहीं है कि आप उसे न जान लें। वह उघड़ा हुआ है। अभी पर्दा आपकी आंख पर है, उस पर नहीं। और आनंद की कोई अड़चन नहीं है। वह चारों तरफ भरा है आपके; रोएं-रोएं से प्रवेश करने को तैयार है, लेकिन कोई रोआं तक आपका खुला नहीं है; द्वार सब बंद हैं।

लोभ जिस-जिस की मांग करता है, उस-उस के लिए ही बाधा है। लोभ जो मांगता है, उसी के लिए उपद्रव हो जाता है, उसी के लिए रुकावट खड़ी हो जाती है।

“अपने अंतस की गहराई में झांक और तब उत्तर दे।’

यह उत्तर भी किसी दूसरे को देना नहीं है, यह उत्तर स्वयं को ही दे लेना है कि मेरी मनोदशा क्या है। मंदिर भी जा रहा हूं, तो मंदिर ही जा रहा हूं, या मंदिर भी एक सौदे की जगह है, जहां मैं परलोक के कुछ सौदे कर रहा हूं, कुछ दूरगामी योजनाएं बना रहा हूं? यह अगर साफ-साफ न हो, तो श्रम व्यर्थ जाता है और साधक व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन (भाग–3) प्रवचन–8

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योगाभ्यास–गलत को काटने के लिए (अध्याय-6) प्रवचन—आठवां

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।

न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।। 16।।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। 17।।

परंतु हे अर्जुन, यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न बिलकुल न खाने वाले का तथा न अति शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यंत जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

यह दुखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करने वाले का तथा कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य शयन करने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

समत्व-योग की और एक दिशा का विवेचन कृष्ण करते हैं। कहते हैं वे, अति–चाहे निद्रा में, चाहे भोजन में, चाहे जागरण में–समता लाने में बाधा है। किसी भी बात की अति, व्यक्तित्व को असंतुलित कर जाती है, अनबैलेंस्ड कर जाती है।

प्रत्येक वस्तु का एक अनुपात है; उस अनुपात से कम या ज्यादा हो, तो व्यक्ति को नुकसान पहुंचने शुरू हो जाते हैं। दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।

एक, आधारभूत। व्यक्ति एक बहुत जटिल व्यवस्था है, बहुत कांप्लेक्स युनिटी है। व्यक्ति का व्यक्तित्व कितना जटिल है, इसका हमें खयाल भी नहीं होता। इसीलिए प्रकृति खयाल भी नहीं देती, क्योंकि उतनी जटिलता को जानकर जीना कठिन हो जाएगा।

एक छोटा-सा व्यक्ति उतना ही जटिल है, जितना यह पूरा ब्रह्मांड। उसकी जटिलता में कोई कमी नहीं है। और एक लिहाज से ब्रह्मांड से भी ज्यादा जटिल हो जाता है, क्योंकि विस्तार बहुत कम है व्यक्ति का और जटिलता ब्रह्मांड जैसी है। एक साधारण से शरीर में सात करोड़ जीवाणु हैं। आप एक बड़ी बस्ती हैं, जितनी बड़ी कोई बस्ती पृथ्वी पर नहीं है। टोकियो की आबादी एक करोड़ है। अगर टोकियो सात गुना हो जाए, तो जितने मनुष्य टोकियो में होंगे, उतने जीवकोश एक-एक व्यक्ति में हैं।

सात करोड़ जीवकोशों की एक बड़ी बस्ती हैं आप। इसीलिए सांख्य ने, योग ने आपको जो नाम दिया है, वह दिया है, पुरुष। पुरुष का अर्थ है, एक बहुत बड़ी पुरी के बीच रहते हैं आप, एक बहुत बड़े नगर के बीच। आप खुद एक बड़े नगर हैं, एक बड़ा पुर। उसके बीच आप जो हैं, उसको पुरुष कहा है। इसीलिए कहा है पुरुष कि आप छोटी-मोटी घटना नहीं हैं; एक महानगरी आपके भीतर जी रही है।

एक छोटे-से मस्तिष्क में कोई तीन अरब स्नायु तंतु हैं। एक छोटा-सा जीवकोश भी कोई सरल घटना नहीं है; अति जटिल घटना है। ये जो सात करोड़ जीवकोश शरीर में हैं, उनमें एक जीवकोश भी अति कठिन घटना है। अभी तक वैज्ञानिक–अभी तक–उसे समझने में समर्थ नहीं थे। अब जाकर उसकी मौलिक रचना को समझने में समर्थ हो पाए हैं। अब जाकर पता चला है कि उस छोटे से जीवकोश, जिसके सात करोड़ संबंधियों से आप निर्मित होते हैं, उसकी रासायनिक प्रक्रिया क्या है।

यह सारा का सारा जो इतना बड़ा व्यवस्था का जाल है आपका, इस व्यवस्था में एक संगीत, एक लयबद्धता, एकतानता, एक हार्मनी अगर न हो, तो आप भीतर प्रवेश न कर पाएंगे। अगर यह पूरा का पूरा आपका जो पुर है, आपकी जो महानगरी है शरीर की, मन की, अगर यह अव्यवस्थित, केआटिक, अराजक है, अगर यह पूरी की पूरी नगरी विक्षिप्त है, तो आप भीतर प्रवेश न कर पाएंगे।

आपके भीतर प्रवेश के लिए जरूरी है कि यह पूरा नगर संगीतबद्ध, लयबद्ध, शांत, मौन, प्रफुल्लित, आनंदित हो, तो आप इसमें भीतर आसानी से प्रवेश कर पाएंगे। अन्यथा बहुत छोटी-सी चीज आपको बाहर अटका देगी–बहुत छोटी-सी चीज। और अटका देती है इसलिए भी कि चेतना का स्वभाव ही यही है कि वह आपके शरीर में कहां कोई दुर्घटना हो रही है, उसकी खबर देती रहे।

तो अगर आपके शरीर में कहीं भी कोई दुर्घटना हो रही है, तो चेतना उस दुर्घटना में उलझी रहेगी। वह इमरजेंसी, तात्कालिक जरूरत है उसकी, आपातकालीन जरूरत है कि सारे शरीर को भूल जाएगी और जहां पीड़ा है, अराजकता है, लय टूट गई है, वहां ध्यान अटक जाएगा।

छोटा-सा कांटा पैर में गड़ गया, तो सारी चेतना कांटे की तरफ दौड़ने लगती है। छोटा-सा कांटा! बड़ी ताकत उसकी नहीं है, लेकिन उस छोटे-से कांटे की बहुत छोटी-सी नोक भी आपके भीतर सैकड़ों जीवकोशों को पीड़ा में डाल देती है और तब चेतना उस तरफ दौड़ने लगती है। शरीर का कोई भी हिस्सा अगर जरा-सा भी रुग्ण है, तो चेतना का अंतर्गमन कठिन हो जाएगा। चेतना उस रुग्ण हिस्से पर अटक जाएगी।

अगर ठीक से समझें, तो हम ऐसा कह सकते हैं कि स्वास्थ्य का अर्थ ही यही होता है कि आपकी चेतना को शरीर में कहीं भी अटकने की जरूरत न हो।

आपको सिर का तभी पता चलता है, जब सिर में भार हो, पीड़ा हो, दर्द हो। अन्यथा पता नहीं चलता। आप बिना सिर के जीते हैं, जब तक दर्द न हो। अगर ठीक से समझें, तो हेडेक ही हेड है। उसके बिना आपको पता नहीं चलता सिर का। सिरदर्द हो, तो ही पता चलता है। पेट में तकलीफ हो, तो पेट का पता चलता है। हाथ में पीड़ा हो, तो हाथ का पता चलता है।

अगर आपका शरीर पूर्ण स्वस्थ है, तो आपको शरीर का पता नहीं चलता; आप विदेह हो जाते हैं। आपको देह का स्मरण रखने की जरूरत नहीं रह जाती। जरूरत ही स्मरण रखने की तब पड़ती है, जब देह किसी आपातकालीन व्यवस्था से गुजर रही हो, तकलीफ में पड़ी हो, तो फिर ध्यान रखना पड़ता है। और उस समय सारे शरीर का ध्यान छोड़कर, आत्मा का ध्यान छोड़कर उस छोटे-से अंग पर सारी चेतना दौड़ने लगती है, जहां पीड़ा है!

कृष्ण का यह समत्व-योग शरीर के संबंध में यह सूचना आपको देता है। अर्जुन को कृष्ण कहते हैं कि यदि ज्यादा आहार लिया, तो भी योग में प्रवेश न हो सकेगा। क्योंकि ज्यादा आहार लेते ही सारी चेतना पेट की तरफ दौड़नी शुरू हो जाती है।

इसलिए आपको खयाल होगा, भोजन के बाद नींद मालूम होने लगती है। नींद का और कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। नींद का वैज्ञानिक कारण यही है कि जैसे ही आपने भोजन लिया, चेतना पेट की तरफ प्रवाहित हो जाती है। और मस्तिष्क चेतना से खाली होने लगता है। इसलिए मस्तिष्क धुंधला, निद्रित, तंद्रा से भरने लगता है। ज्यादा भोजन ले लिया, तो ज्यादा नींद मालूम होने लगेगी, क्योंकि पेट को इतनी चेतना की जरूरत है कि अब मस्तिष्क काम नहीं कर सकता। इसलिए भोजन के बाद मस्तिष्क का कोई काम करना कठिन है। और अगर आप जबर्दस्ती करें, तो पेट को पचने में तकलीफ पड़ जाएगी, क्योंकि उतनी चेतना जितनी पचाने के लिए जरूरी है, पेट को उपलब्ध नहीं होगी।

तो अगर अति भोजन किया, तो चेतना पेट की तरफ जाएगी; और अगर कम भोजन किया या भूखे रहे, तो भी चेतना पेट की तरफ जाएगी। दो स्थितियों में चेतना पेट की तरफ दौड़ेगी। जरूरत से कम भोजन किया, तो भी भूख की खबर पेट देता रहेगा कि और, और; और जरूरत है। और अगर ज्यादा ले लिया, तो पेट कहेगा, ज्यादा ले लिया; इतने की जरूरत न थी। और पेट पीड़ा का स्थल बन जाएगा। और तब आपकी चेतना पेट से अटक जाएगी। गहरे नहीं जा सकेगी।

कृष्ण कहते हैं, भोजन ऐसा कि न कम, न ज्यादा।

तो एक ऐसा बिंदु है भोजन का, जहां न कम है, न ज्यादा है। जिस दिन आप उस अनुपात में भोजन करना सीख जाएंगे, उस दिन पेट को चेतना मांगने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। उस दिन चेतना कहीं भी यात्रा कर सकती है।

अगर आप कम सोए, तो शरीर का रोआं-रोआं, अणु-अणु पुकार करता रहेगा कि विश्राम नहीं मिला, थकान हो गई है। शरीर का अणु-अणु आपसे पूरे दिन कहता रहेगा कि सो जाओ, सो जाओ; थकान मालूम होती हैं; जम्हाई आती रहेगी। चेतना आपकी शरीर के विश्राम के लिए आतुर रहेगी।

अगर आप ज्यादा सोने की आदत बना लिए हैं, तो शरीर जरूरत से ज्यादा अगर सो जाए या जरूरत से ज्यादा उसे सुला दिया जाए, तो सुस्त हो जाएगा; आलस्य से, प्रमाद से भर जाएगा। और चेतना दिनभर उसके प्रमाद से पीड़ित रहेगी। नींद का भी एक अनुपात है, गणित है। और उतनी ही नींद, जहां न तो शरीर कहे कि कम सोए, न शरीर कहे ज्यादा सोए, ध्यानी के लिए सहयोगी है।

इसलिए कृष्ण एक बहुत वैज्ञानिक तथ्य की बात कर रहे हैं। सानुपात व्यक्तित्व चाहिए, अनुपातहीन नहीं। अनुपातहीन व्यक्तित्व अराजक, केआटिक हो जाएगा। उसके भीतर की जो लयबद्धता है, वह विशृंखल हो जाएगी, टूट जाएगी। और टूटी हुई विशृंखल स्थिति में, ध्यान में प्रवेश आसान नहीं होगा। आपने अपने ही हाथ से उपद्रव पैदा कर लिए हैं और उन उपद्रवों के कारण आप भीतर न जा सकेंगे। और हम सब ऐसे उपद्रव पैदा करते हैं, अनेक कारणों से; वे कारण खयाल में ले लेने चाहिए।

पहला तो इसलिए उपद्रव पैदा हो जाता है कि हम इस सत्य को अब तक भी ठीक से नहीं समझ पाए हैं कि अनुपात प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होगा। इसलिए हो सकता है कि पिता की नींद खुल जाती है चार बजे, तो घर के सारे बच्चों को उठा दे कि ब्रह्ममुहूर्त हो गया, उठो। नहीं उठते हो, तो आलसी हो।

लेकिन पिता को पता होना चाहिए, उम्र बढ़ते-बढ़ते नींद की जरूरत शरीर के लिए रोज कम होती चली जाती है। तो बाप जब बहुत ज्ञान दिखला रहा है बेटे को, तब उसे पता नहीं कि बेटे की और उसकी उम्र में कितना फासला है! बेटे को ज्यादा नींद की जरूरत है।

मां के पेट में बच्चा नौ महीने तक चौबीस घंटे सोता है; जरा भी नहीं जगता। क्योंकि शरीर निर्मित हो रहा होता है, बच्चे का जगना खतरनाक है। बच्चे को चौबीस घंटे निद्रा रहती है। इतना प्रकृति भीतर काम कर रही है कि बच्चे की चेतना उसमें बाधा बन जाएगी; उसे बिलकुल बेहोश रखती है। डाक्टरों ने तो बहुत बाद में आपरेशन करने के लिए बेहोशी, अनेस्थेसिया खोजा; प्रकृति सदा से अनेस्थेसिया का प्रयोग कर रही है। जब भी कोई बड़ा आपरेशन चल रहा है, कोई बड़ी घटना घट रही है, तब प्रकृति बेहोश रखती है।

चौबीस घंटे बच्चा सोया रहता है। मांस बन रहा है, मज्जा बन रही है, तंतु बन रहे हैं। उसका चेतन होना बाधा डाल सकता है। फिर बच्चा पैदा होने के बाद तेईस घंटे सोता है, बाईस घंटे सोता है, बीस घंटे सोता है, अठारह घंटे सोता है। उम्र जैसे-जैसे बड़ी होती है, नींद कम होती चली जाती है।

इसलिए बूढ़े कभी भूलकर बच्चों को अपनी नींद से शिक्षा न दें। अन्यथा उनको नुकसान पहुंचाएंगे, उनके अनुपात को तोड़ेंगे। लेकिन बूढ़ों को शिक्षा देने का शौक होता है। बुढ़ापे का खास शौक शिक्षा देना है, बिना इस बात की समझ के।

इसलिए हम बच्चों के अनुपात को पहले से ही बिगाड़ना शुरू कर देते हैं। और अनुपात जब बिगड़ता है, तो खतरा क्या है?

अगर आपने बच्चे को कम सोने दिया, जबर्दस्ती उठा लिया, तो इसकी प्रतिक्रिया में वह किसी दिन ज्यादा सोने का बदला लेगा। और तब उसके सब अनुपात असंतुलित हो जाएंगे। अगर आप जीते, तो वह कम सोने वाला बन जाएगा। और अगर खुद जीत गया, तो ज्यादा सोने वाला बन जाएगा। लेकिन अनुपात खो जाएगा।

अगर मां-बाप बलशाली हुए, पुराने ढांचे और ढर्रे के हुए, तो उसकी नींद को कम करवा देंगे। और अगर बच्चा नए ढंग का, नई पीढ़ी का हुआ, उपद्रवी हुआ, बगावती हुआ, तो ज्यादा सोना शुरू कर देगा। लेकिन एक बात पक्की है कि दो में से कोई भी जीते, प्रकृति हार जाएगी; और वह जो बीच का अनुपात है, वह सदा के लिए अस्तव्यस्त हो जाएगा।

बूढ़े आदमी को जब मौत करीब आने लगती है, तो तीन-चार घंटे से ज्यादा की नींद की कोई जरूरत नहीं रहती। उसका कारण है कि शरीर में अब कोई निर्माण नहीं होता, शरीर अब निर्मित नहीं होता। अब शरीर विसर्जित होने की तैयारी कर रहा है। नींद की कोई जरूरत नहीं है। नींद निर्माणकारी तत्व है। उसकी जरूरत तभी तक है, जब तक शरीर में कुछ नया बनता है। जब शरीर में सब नया बनना बंद हो गया, तो बूढ़े आदमी को ठीक से कहें तो नींद नहीं आती; वह सिर्फ विश्राम करता है; वह थकान है। बच्चे ही सोते हैं ठीक से; बूढ़े तो सिर्फ थककर विश्राम करते हैं। क्योंकि अब मौत करीब आ रही है। अब शरीर को कोई नया निर्माण नहीं करना है।

लेकिन दुनिया के सभी शिक्षक–स्वभावतः, बूढ़े आदमी शिक्षक होते हैं–वे खबरें दे जाते हैं, चार बजे उठो, तीन बजे उठो। कठिनाई खड़ी होती है। बूढ़े शिक्षक होते हैं; बच्चों को मानकर चलना पड़ता है। अनुपात टूट जाते हैं।

भोजन के संबंध में भी वैसा ही होता है। बचपन से ही, बच्चों को कितना भोजन चाहिए, यह बच्चे की प्रकृति को हम तय नहीं करने देते। यह मां अपने आग्रह से निर्णय लेती है कि कितना भोजन। बच्चे अक्सर इनकार करते देखे जाते हैं घर-घर में कि नहीं खाना है। और मां-बाप मोहवश ज्यादा खिलाने की कोशिश में संलग्न हैं! और एक बार प्रकृति ने संतुलन छोड़ दिया, तो विपरीत अति पर जा सकती है, लेकिन संतुलन पर लौटना मुश्किल हो जाता है।

हम सब बच्चों की सोने की, खाने की सारी आदतें नष्ट करते हैं। और फिर जिंदगीभर परेशान रहते हैं। वह जिंदगीभर के लिए परेशानी हो जाती है।

इजरायल में एक चिकित्सक ने एक बहुत अनूठा प्रयोग किया है। प्रयोग यह है, हैरान करने वाला प्रयोग है। उसे यह खयाल पकड़ा बच्चों का इलाज करते-करते कि बच्चों की अधिकतम बीमारियां मां-बाप की भोजन खिलाने की आग्रहपूर्ण वृत्ति से पैदा होती हैं। बच्चों का चिकित्सक है, तो उसने कुछ बच्चों पर प्रयोग करना शुरू किया। और सिर्फ भोजन रख दिया टेबल पर सब तरह का और बच्चों को छोड़ दिया। उन्हें जो खाना है, वे खा लें। नहीं खाना है, न खाएं। जितना खाना है, खा लें। नहीं खाना है, बिलकुल न खाएं। फेंकना है, फेंक दें। खेलना है, खेल लें। जो करना है! और विदा हो जाएं।

वह इस प्रयोग से एक अजीब निष्कर्ष पर पहुंचा। वह निष्कर्ष यह था कि बच्चे को अगर कोई खास बीमारी है, तो उस बीमारी में जो भोजन नहीं किया जा सकता, वह बच्चा छोड़ देगा टेबल पर, चाहे कितना ही स्वादिष्ट उसे बनाया गया हो। उस बीमारी में उस बच्चे को जो भोजन नहीं करना चाहिए, वह नहीं ही करेगा। और एक बच्चे पर नहीं, ऐसा सैकड़ों बच्चों पर प्रयोग करके उसने नतीजे लिए हैं। और उस बच्चे को उस समय जिस भोजन की जरूरत है, वह उसको चुन लेगा, उस टेबल पर। इसको वह कहता है, यह इंस्टिंक्टिव है; यह बच्चे की प्रकृति का ही हिस्सा है।

यह प्रत्येक पशु की प्रकृति का हिस्सा है। सिर्फ आदमी ने अपनी प्रकृति को विकृत किया हुआ है। संस्कृति के नाम पर विकृति ही हाथ लगती है। प्रकृति भी खो जाती मालूम पड़ती है। कोई जानवर गलत भोजन करने को राजी नहीं होता, जब तक कि आदमी उसको मजबूर न कर दे। जो उसका भोजन है, वह वही भोजन करता है।

और बड़े मजे की बात है कि कोई भी जानवर अगर जरा ही बीमार हो जाए, तो भोजन बंद कर देता है। बल्कि अधिक जानवर जैसे ही बीमार हो जाएं, भोजन ही बंद नहीं करते, बल्कि सब जानवरों की अपनी व्यवस्था है, वॉमिट करने की। वह जो पेट में भोजन है, उसे भी बाहर फेंक देते हैं। अगर आपके कुत्ते को जरा पेट में तकलीफ मालूम हुई, वह जाकर घास चबा लेगा और उल्टी करके सारे पेट को खाली कर लेगा। और तब तक भोजन न लेगा, जब तक पेट वापस सुव्यवस्थित न हो जाए।

सिर्फ आदमी एक ऐसा जानवर है, जो प्रकृति की कोई आवाज नहीं सुनता। लेकिन हम बचपन से बिगाड़ना शुरू करते हैं। इसलिए इस चिकित्सक का कहना है कि सब बच्चे इंस्टिंक्टिवली जो ठीक है, वही करते हैं। लेकिन बड़े उन्हें बिगाड़ने में इस बुरी तरह से लगे रहते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है! जब उन्हें भूख नहीं है, तब उनको मां दूध पिलाए जा रही है! जब उनको भूख लगी है, तब मां शृंगार में लगी है; उनको दूध नहीं पिला सकती! सब अस्तव्यस्त हो जाता है।

इसलिए भी हमारा भोजन, हमारी निद्रा, हमारा जागरण, हमारे जीवन की सारी चर्या अतियों में डोल जाती है, समन्वय को खो देती है।

दूसरी बात, प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत अलग है। उम्र की ही नहीं, एक ही उम्र के दस बच्चों की जरूरत भी अलग है। एक ही उम्र के दस वृद्धों की भी जरूरत अलग है। एक ही उम्र के दस युवाओं की भी जरूरत अलग है। जो भी नियम बनाए जाते हैं, वे एवरेज पर बनते हैं–जो भी नियम बनाए जाते हैं।

जैसे कि कहा जाता है कि हर आदमी को कम से कम सात घंटे की नींद जरूरी है। लेकिन किस आदमी को? यह किसी आदमी के लिए नहीं कहा गया है। यह सारी दुनिया के आदमियों की अगर हम संख्या गिन लें और सारे आदमियों के नींद के घंटे गिनकर उसमें भाग दे दें, तो सात आता है; यह एवरेज है। एवरेज से ज्यादा असत्य कोई चीज नहीं होती।

जैसे अहमदाबाद में एवरेज हाइट क्या है आदमियों की? ऊंचाई क्या है औसत? तो सब आदमियों की ऊंचाई नाप लें। उसमें छोटे बच्चे भी होंगे, जवान भी होंगे, बूढ़े भी होंगे, स्त्रियां भी होंगी, पुरुष भी होंगे। सबकी ऊंचाई नापकर, फिर सबकी संख्या का भाग दे दें। तो जो ऊंचाई आएगी, उस ऊंचाई का शायद ही एकाध आदमी अहमदाबाद में खोजने से मिले–उस ऊंचाई का! वह औसत ऊंचाई है। उस ऊंचाई का आदमी खोजने आप मत जाना। वह नहीं मिलेगा।

सब नियम औसत से निर्मित होते हैं। औसत कामचलाऊ है, सत्य नहीं है। किसी को पांच घंटे सोना जरूरी है। किसी को छः घंटे, किसी को सात घंटे। कोई दूसरा आदमी तय नहीं कर सकता कि कितना जरूरी है। आपको ही अपना तय करना पड़ता है। प्रयोग से ही तय करना पड़ता है। और कठिन नहीं है।

अगर आप ईमानदारी से प्रयोग करें, तो आप तय कर लेंगे, आपको कितनी नींद जरूरी है। जितनी नींद के बाद आपको पुनः नींद का खयाल न आता हो, और जितनी नींद के बाद आलस्य न पकड़ता हो, ताजगी आ जाती हो, वह बिंदु आपकी नींद का बिंदु है।

समय भी तय नहीं किया जा सकता कि छः बजे शाम सो जाएं, कि आठ बजे, कि बारह बजे रात; कि सुबह छः बजे उठें, कि चार बजे, कि सात बजे! वह भी तय नहीं किया जा सकता। वह भी प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की आंतरिक जरूरत भिन्न है। और उस भिन्न जरूरत के अनुसार प्रत्येक को अपना तय करना चाहिए।

लेकिन हमारी व्यवस्था गड़बड़ है। हमारी व्यवस्था ऐसी है कि सबको एक वक्त पर भोजन करना है। सबको एक वक्त पर दफ्तर जाना है। सबको एक समय स्कूल पहुंचना है। सबको एक समय घर लौटना है। हमारी पूरी की पूरी व्यवस्था व्यक्तियों को ध्यान में रखकर नहीं है। हमारी पूरी व्यवस्था नियमों को ध्यान में रखकर है। हालांकि इससे कोई फायदा नहीं होता, भयंकर नुकसान होता है। और अगर हम फायदे और नुकसान का हिसाब लगाएं, तो नुकसान भारी होता है।

अभी अमेरिका के एक विचारक बक मिलर ने एक बहुत कीमती सुझाव दिया है जीवनभर के विचार और अनुसंधान के बाद। और वह यह है कि सभी स्कूल एक समय नहीं खुलने चाहिए। यह तो स्कूल में भर्ती होने वाले बच्चों पर निर्भर करना चाहिए कि वे कितने बजे उठते हैं; उस हिसाब से उनके स्कूल में भर्ती हो जाए। कई तरह के स्कूल गांव में होने चाहिए। सभी होटलों में एक ही समय, खाने के समय पर लोग पहुंच जाएं, यह उचित नहीं है। सब लोगों के खाने का समय उनकी आंतरिक जरूरत से तय होना चाहिए।

और इससे फायदे भी बहुत होंगे।

सभी दफ्तर एक समय खोलने की कोई भी तो जरूरत नहीं है। सभी दूकानें भी एक समय खोलने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बड़े फायदे तो ये होंगे कि अभी हम एक ही रास्ते पर ग्यारह बजे ट्रैफिक जाम कर देते हैं; वह जाम नहीं होगा। अभी जितनी बसों की जरूरत है, उससे तीन गुनी कम बसों की जरूरत होगी। अभी एक मकान में एक ही दफ्तर चलता है छः घंटे और बाकी वक्त पूरा मकान बेकार पड़ा रहता है। तब एक ही मकान में दिनभर में चार दफ्तर चल सकेंगे। दुनिया की चौगुनी आबादी इतनी ही व्यवस्था में नियोजित हो सकती है, चौगुनी आबादी! अभी जितनी आबादी है उससे। यही रास्ता अहमदाबाद का इससे चार गुने लोगों को चला सकता है।

लेकिन गड़बड़ क्या है? ग्यारह बजे सभी दफ्तर जा रहे हैं! इसलिए रास्ते पर तकलीफ मालूम हो रही है। रास्ता भी परेशानी में है और आप भी परेशानी में हैं, क्योंकि ग्यारह बजे सबको दफ्तर जाना है, तो ग्यारह बजे सबको खाना भी ले लेना है। फिर सबको समय पर उठ भी आना है। ऐसा लगता है कि नियम के लिए आदमी है, आदमी के लिए नियम नहीं है।

हम एक बच्चे को कहते हैं कि उठो, स्कूल जाने का वक्त हो गया। स्कूल को कहना चाहिए कि बच्चा हमारा नहीं उठता, यह आने का वक्त नहीं है। स्कूल थोड़ी देर से खोलो! जिस दिन हम वैज्ञानिक चिंतन करेंगे, यही होगा। और उससे हानि नहीं होगी, अनंत गुने लाभ होंगे।

यह जो कृष्ण कह रहे हैं, यह आप अपने-अपने, एक-एक व्यक्ति अपने लिए खोज ले कि उसके लिए कितनी नींद आवश्यक है। और यह भी रोज बदलता रहेगा। आज का खोजा हुआ सदा काम नहीं पड़ेगा। पांच साल बाद बदल जाएगा, पांच साल बाद जरूरत बदल जाएगी।

सारी तकलीफें पैंतीस साल के बाद शुरू होती हैं आदमी के शरीर में–बीमारियां, तकलीफें, परेशानियां। अगर साधारण स्वस्थ आदमी है, तो पैंतीस साल के बाद उपद्रव शुरू होते हैं। और उपद्रव का कुल कारण इतना है–यह नहीं कि आप बूढ़े हो रहे हैं, इसलिए उपद्रव शुरू होते हैं–उपद्रव का कुल कारण इतना है कि आपकी सब आदतें पैंतीस साल के पहले के आदमी की हैं और उन्हीं आदतों को आप पैंतीस साल के बाद भी जारी रखना चाहते हैं, जब कि सब जरूरतें बदल गई हैं।

आप उतना ही खाते हैं, जितना पैंतीस साल के पहले खाते थे। उतना कतई नहीं खाया जा सकता। शरीर को उतने भोजन की जरूरत नहीं है। उतना ही सोने की कोशिश करते हैं, जितना पैंतीस साल के पहले सोते थे। अगर नींद नहीं आती, तो परेशान होते हैं कि मेरी नींद खराब हो गई। अनिद्रा आ रही है। कोई गड़बड़ हो रही है। तो ट्रैंक्वेलाइजर चाहिए, कि कोई दवाई चाहिए, कि थोड़ी शराब पी लूं, कि क्या करूं! लेकिन यह भूल जाते हैं कि अब आपकी जरूरत बदल गई है। अब आप उतना नहीं सो सकेंगे।

रोज जरूरत बदलती है, इसलिए रोज सजग होकर आदमी को तय करना चाहिए, मेरे लिए सुखद क्या है।

और ध्यान रखें, दुख सूचना देता है कि आप कुछ गलत कर रहे हैं। सिर्फ दुख सूचक है। और सुख सूचना देता है कि आप कुछ ठीक कर रहे हैं। समायोजित हैं, संतुलित हैं, तो भीतर एक सुख की भावना बनी रहती है। यह सुख बहुत और तरह का सुख है। यह वह सुख नहीं है, जो ज्यादा भोजन कर लेने से मिल जाता है। ज्यादा भोजन करने से सिर्फ दुख मिल सकता है। यह वह सुख नहीं है, जो रात देर तक जागकर सिनेमा देखने से मिल जाता है। ज्यादा जागकर सिर्फ दुख ही मिल सकता है। यह सुख संतुलन का है।

ठीक समय पर अपनी जरूरत के अनुकूल भोजन; ठीक समय पर अपनी जरूरत के अनुकूल निद्रा; ठीक समय पर अपनी जरूरत के अनुकूल स्नान। ठीक चर्या, सम्यक चर्या से एक आंतरिक सुख की भाव-दशा बनती है।

वह बहुत अलग बात है। वह सुख है बहुत और अर्थों में। वह उत्तेजना की अवस्था नहीं है। वह सिर्फ भीतर की शांति की अवस्था है। उस शांति की अवस्था में व्यक्ति ध्यान में सरलता से प्रवेश कर सकता है। और योग के लिए अनिवार्य है वह।

तो अपनी चर्या की सब तरफ से जांच-परख कर लेनी चाहिए। किसी नियम के अनुसार नहीं, अपनी जरूरत के नियम के अनुसार। किसी शास्त्र के अनुसार नहीं, अपनी स्वयं की प्रकृति के अनुसार। और दुनिया में कोई कुछ भी कहे, उसकी फिक्र नहीं करना चाहिए। एक ही बात की फिक्र करनी चाहिए कि आपका शरीर सुख की खबर देता है, तो आप ठीक जी रहे हैं। और आपका शरीर दुख की खबर देता है, तो आप गलत जी रहे हैं। ये सुख और दुख मापदंड बना लेने चाहिए।

अति श्रम कोई कर ले, तो भी नुकसान होता है। श्रम बिलकुल न करे, तो भी नुकसान हो जाता है। फिर उम्र के साथ बदलाहट होती है। बच्चे को जितना श्रम जरूरी है, बूढ़े को उतना जरूरी नहीं है। बुद्धि से जो काम कर रहा है और शरीर से जो काम कर रहा है, उनकी जरूरतें बदल जाएंगी। बुद्धि से जो काम कर रहा है, उसे ज्यादा भोजन जरूरी नहीं है। शरीर से जो काम कर रहा है, उसे थोड़ा ज्यादा भोजन जरूरी होगा। वह ज्यादा, जो बुद्धि से काम कर रहा है, उसको मालूम पड़ेगा। उसके लिए वह ठीक है।

जो शरीर से काम कर रहा है, उसे और किसी श्रम की अब जरूरत नहीं है, कि वह शाम को जाकर टेनिस खेले। वह पागल है। लेकिन जो बुद्धि से काम कर रहा है, उसके लिए शरीर के किसी श्रम की जरूरत है। उसे किसी खेल का, तैरने का, दौड़ने का, कुछ न कुछ उपाय करना पड़ेगा।

प्रकृति संतुलन मांगती है।

हेनरी फोर्ड ने अपने संस्मरण में लिखवाया है कि मैं भी एक पागल हूं। क्योंकि जब एयरकंडीशनिंग आई, तो मैंने अपने सब भवन एयरकंडीशन कर दिए। कार भी एयरकंडीशन हो गई। अपने एयरकंडीशन भवन से निकलकर मैं अपनी पोर्च में अपनी एयरकंडीशन कार में बैठ जाता हूं। फिर तो बाद में उसने अपना पोर्च भी एयरकंडीशन करवा लिया। कार निकलेगी, तब आटोमेटिक दरवाजा खुल जाएगा। कार जाएगी, दरवाजा बंद हो जाएगा। फिर इसी तरह वह अपने एयरकंडीशंड पोर्च में दफ्तर के पहुंच जाएगा। फिर उतरकर एयरकंडीशंड दफ्तर में चला जाएगा।

फिर उसको तकलीफ शुरू हुई। तो डाक्टरों से उसने पूछा कि क्या करें? तो उन्होंने कहा कि आप रोज सुबह एक घंटा और रोज शाम एक घंटा काफी गरम पानी के टब में पड़े रहें।

गरम पानी के टब में पड़े रहने से हेनरी फोर्ड ने लिखा है कि मेरा स्वास्थ्य बिलकुल ठीक हो गया। क्योंकि एक घंटे सुबह मुझे पसीना-पसीना हो जाता, शाम को भी पसीना-पसीना हो जाता। लेकिन तब मुझे पता चला कि मैं यह कर क्या रहा हूं! दिनभर पसीना बचाता हूं, तो फिर दो घंटे में इंटेंसली पसीने को निकालना पड़ता है, तब संतुलन हो पाता है।

प्रकृति पूरे वक्त संतुलन मांगेगी। तो जो लोग बहुत विश्राम में हैं, उन्हें श्रम करना पड़ेगा। जो लोग बहुत श्रम में हैं, उन्हें विश्राम करना पड़ेगा। और जो व्यक्ति भी इस संतुलन से चूक जाएगा, ध्यान तो बहुत दूर की बात है, वह जीवन के साधारण सुख से भी चूक जाएगा। ध्यान का आनंद तो बहुत दूर है, वह जीवन के साधारण जो सुख मिल सकते हैं, उनसे भी वंचित रह जाएगा।

ध्यान और योग के प्रवेश के लिए एक संतुलित शरीर, अति संतुलित शरीर चाहिए। एक ही अति माफ की जा सकती है, संतुलन की अति, बस। और कोई एक्सट्रीम माफ नहीं की जा सकती। अति संतुलित! बस, यह एक शब्द माफ किया जा सकता है। बाकी और कोई अति, कोई एक्सट्रीम, कोई एक्सेस माफ नहीं की जा सकती। अति मध्य, एक्सट्रीम मिडिल, माफ किया जा सकता है, और कुछ माफ नहीं किया जा सकता।

बुद्ध ऐसा कहते थे। बुद्ध कहते थे, अति से बचो। मध्य में चलो। सदा मध्य में चलो। हमेशा मध्य में रहो, बीच में। खोज लो हर चीज का बीच बिंदु, वहीं रहो।

एक दिन सारिपुत्र ने बुद्ध को कहा कि भगवन! आप इतना ज्यादा जोर देते हैं मध्य पर कि मुझे लगता है कि यह भी एक अति हो गई! हर चीज में मध्य, मध्य! यह तो एक अति हो गई!

बुद्ध ने कहा, एक अति माफ करता हूं। मध्य की अति, दि एक्सेस आफ बीइंग इन दि मिडिल, उसको माफ करता हूं। बाकी कोई अति नहीं चलेगी। एक अति को चलाए रहना–मध्य, मध्य, मध्य–सब चीजों में मध्य। तो ध्यान में बड़ी सुगमता हो जाए।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान में बड़ी कठिनाई है। ध्यान में बड़ी कठिनाई नहीं है। आप उपद्रव में हैं और आपके उपद्रव की सारी की सारी व्यवस्था आप ही कर रहे हैं, कोई नहीं करवा रहा है! जो नहीं खाना चाहिए, वह खा रहे हैं! जो नहीं पहनना चाहिए, वह पहन रहे हैं! जैसे नहीं बैठना चाहिए, वैसे बैठ रहे हैं। जैसे नहीं चलना चाहिए, वैसे चल रहे हैं! जैसे नहीं सोना चाहिए, वैसे सो रहे हैं। सब अव्यवस्थित किया हुआ है। फिर पूछते हैं एक दिन कि ध्यान में कोई गति नहीं होती है, बड़ी तकलीफ होती है। क्या मेरे पिछले जन्मों का कोई कर्म बाधा बन रहा है? ध्यान में कोई गति नहीं होती। बहुत मेहनत करता हूं, कुछ सार हाथ नहीं आता है।

कभी नहीं आएगा, क्योंकि मेहनत करने वाला इस स्थिति में नहीं है कि भीतर प्रवेश हो सके। आपको अपनी पूरी स्थिति बदल लेनी पड़ेगी।

ध्यान एक महान घटना है, एक बहुत बड़ी हैपनिंग है। उसकी पूर्वत्तैयारी चाहिए। उसकी पूर्वत्तैयारी के लिए यह सूत्र बहुत कीमती है। और इसीलिए कृष्ण कोई सीधे, डायरेक्ट सुझाव नहीं दे रहे हैं। सिर्फ नियम बता रहे हैं। न अति भोजन, न अति अल्प भोजन। न अति निद्रा, न अति जागरण। न अति श्रम, न अति विश्राम। कोई सीधा नहीं कह रहे हैं, कितना। वह कितना आप पर छोड़ दिया गया है। वह अर्जुन पर छोड़ दिया गया है। वह आपकी जरूरत और आपकी बुद्धि खोजे। और प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का नियंता बन जाए। कोई किसी दूसरे से मर्यादा न ले, नहीं तो कठिनाई में पड़ेगा।

जैसे आमतौर से घरों में पति पहले उठ आते हैं। थोड़ा चाय-वाय बनाकर तैयार करते हैं। मगर बड़ा संकोच अनुभव करते हैं कि कोई देख न ले कि पत्नी अभी उठी नहीं है और वे चाय वगैरह बना रहे हैं! लेकिन यह बिलकुल उचित है, वैज्ञानिक है।

स्त्रियों के सोने की जितनी जांच-पड़ताल हुई है, वह पुरुषों से दो घंटा पीछे है–सारी जांच-पड़ताल से। आज अमेरिका में कोई दस स्लीप लेबोरेटरीज हैं, जो सिर्फ नींद पर काम करती हैं। वे कहती हैं कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच नींद का दो घंटे का फासला है। अगर पुरुष पांच बजे सुबह स्वस्थ उठ सकता है, तो स्त्री सात बजे के पहले स्वस्थ नहीं उठ सकती है। लेकिन अगर स्त्री ने शास्त्र पढ़े हैं, तो पति के पहले उठना चाहिए! पति अगर पांच बजे उठे, तो स्त्री को कम से कम साढ़े चार बजे तो उठ आना चाहिए। तब नुकसान होगा!

निद्रा का जो अध्ययन हुआ है वैज्ञानिक, उससे पता चला है कि रात में दो घंटे के लिए, चौबीस घंटे में, प्रत्येक व्यक्ति के शरीर का तापमान नीचे गिर जाता है। सुबह जो आपको ठंड लगती है, वह इसलिए नहीं लगती कि बाहर ठंडक है! उसका असली कारण आपके शरीर के तापमान का दो डिग्री नीचे गिर जाना है। बाहर की ठंडक असली कारण नहीं है।

हर व्यक्ति का चौबीस घंटे में दो घंटे के लिए तापमान दो डिग्री नीचे गिर जाता है। वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि वे ही दो घंटे उस व्यक्ति के लिए गहरी निद्रा के घंटे हैं। अगर उन दो घंटों में वह व्यक्ति ठीक से सो ले, तो वह दिनभर ताजा रहेगा। और अगर उन दो घंटों में वह ठीक से न सो पाए, तो वह चाहे आठ घंटे सो लिया हो, तो भी ताजगी न मिलेगी।

और वे दो घंटे प्रत्येक व्यक्ति के थोड़े-थोड़े अलग होते हैं। किसी व्यक्ति का रात दो बजे और चार बजे के बीच में तापमान गिर जाता है। तो वह व्यक्ति चार बजे उठ आएगा बिलकुल ताजा। उसे दिनभर कोई अड़चन न होगी। किसी व्यक्ति का सुबह पांच और सात के बीच में तापमान गिरता है। तब वह अगर सात बजे के पहले उठ आएगा, तो अड़चन में पड़ेगा।

पुरुषों और स्त्रियों के बीच अनेक प्रयोग के बाद दो घंटे का फासला खयाल में आया है। तो अधिक पुरुष पांच बजे उठ सकते हैं, लेकिन अधिक स्त्रियां पांच बजे नहीं उठ सकती हैं। वे शरीर के फर्क हैं, वे बायोलाजिकल फर्क हैं।

जैसे-जैसे समझ बढ़ती है, लेकिन एक बात साफ होती जाती है कि शरीर की अपनी नियमावली है। और शरीर के नियम, सिर्फ आपके शरीर के नियम नहीं हैं, बल्कि बड़े कास्मास से जुड़े हुए हैं। देखा है हमने, चांद के साथ समुद्र में अंतर पड़ते हैं। कभी आपने खयाल किया कि स्त्रियों का मासिक-धर्म भी चांद के साथ संबंधित है और जुड़ा हुआ है! अट्ठाइस दिन इसीलिए हैं, चांद के चार सप्ताह। ठीक चांद के साथ जैसे समुद्र में अंतर पड़ता है, ऐसे स्त्री के शरीर में अंतर पड़ता है।

लेकिन अभी जैसे-जैसे सभ्यता विकसित होती है, स्त्रियों का मासिक-धर्म अस्तव्यस्त होता चला जाता है सभ्यता के साथ। क्या हो गया? कहीं कोई संतुलन टूट रहा है। वह जो विराट के साथ हमारे शरीर के तंतु जुड़े हैं, उनमें कहीं-कहीं विकृतियां हम अपने हाथ से पैदा कर रहे हैं। कहीं कोई गड़बड़ हो रही है।

आज जमीन पर, मैं मानता हूं, करीब-करीब पचास प्रतिशत से ज्यादा स्त्रियां मासिक-धर्म से अति परेशान हैं। अनेक तरह की परेशानियां उनके मैंसेस से पैदा होती हैं। और वह मैंसेस इसलिए परेशानी में पड़ा है कि स्त्री के व्यक्तित्व में जो प्रकृति के साथ अनुकूलता होनी चाहिए, जो संतुलन होना चाहिए, वह खो गया है। वह कोई संबंध नहीं रह गया है।

हमने अपने ढंग से जीना शुरू कर दिया है, बिना इसकी फिक्र किए कि हम बड़ी प्रकृति के एक हिस्से हैं। और हमें उस बड़ी प्रकृति को समझकर उसके सहयोग में ही जीने के अतिरिक्त शांत होने का कोई उपाय नहीं है।

लेकिन आदमी ने अपने को कुछ ज्यादा समझदार समझकर बहुत-सी नासमझियां कर ली हैं। ज्यादा समझदारी आदमी के खयाल में आ गई है और वह सारे संतुलन भीतर से तोड़ता चला जा रहा है।

जब तक हमारे पास रोशनी नहीं थी, तब तक पृथ्वी पर नींद की बीमारी किसी आदमी को भी न थी। अभी भी आदिवासियों को नींद की कोई बीमारी नहीं है। आदिवासी भरोसा ही नहीं कर सकता कि इन्सोमनिया क्या होता है! आदिवासी से कहिए कि ऐसे लोग भी हैं, जिनको नींद नहीं आती, तो वह बहुत हैरान हो जाता है कि कैसे? क्या हो गया? आदिवासी से पूछिए कि तुम कैसे सो जाते हो? वह कहता है, सोने के लिए कुछ करना पड़ता है! बस, हम सिर रखते हैं और सो जाते हैं।

जानकर आप हैरान होंगे कि जो आदिवासी सभ्यता के और भी कम संपर्क में आए हैं, उनको स्वप्न भी न के बराबर आते हैं–न के बराबर! इसलिए जिस आदिवासी को स्वप्न आ जाता है, वह विशेष हो जाता है–विशेष! वह साधारण आदमी नहीं समझा जाता, विजनरी, मिस्टिक, कुछ खास आदमी! बड़ी घटना घट रही है!

आज भी जमीन पर ऐसी आदिवासी कौमें हैं; जैसे एस्कीमो हैं, जो कि दूर ध्रुव पर रहते हैं। उनको अब भी भरोसा नहीं आता कि सब लोगों को सपने आते हैं। लेकिन अमेरिका के वैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा आदमी ही नहीं है, जिसको सपना न आता हो! वे अमेरिका के आदमी के बाबत बिलकुल ठीक कह रहे हैं। उनके अनुभव में जितने आदमी आते हैं, सबको सपने आते हैं। वे तो कहते हैं, जो आदमी कहता है, मुझे सपना नहीं आता, उसकी सिर्फ मेमोरी कमजोर है। और कोई मामला नहीं है। उसको याद नहीं रहता। आता तो है ही।

और अब तो उन्होंने यंत्र बना लिए हैं, जो बता देते हैं कि सपना आ रहा है कि नहीं आ रहा है। इसलिए अब आप धोखा भी नहीं दे सकते। सुबह यह भी नहीं कह सकते कि मुझे याद ही नहीं, तो कैसे आया? अब तो यंत्र है, जो आपकी खोपड़ी पर लगा रहता है और रातभर ग्राफ बनाता रहता है, कब सपना चल रहा है, कब नहीं चल रहा है। और अब तो धीरे-धीरे ग्राफ इतना विकसित हुआ है कि आपके भीतर सेक्सुअल ड्रीम चल रहा है, तो भी ग्राफ खबर देगा। रंग बदल जाएगा स्याही का। क्योंकि आपके मस्तिष्क में जब तंतु कामोत्तेजना से भर जाते हैं, तो उनके कंपन, उनकी वेव्स बदल जाती हैं। वह ग्राफ पकड़ लेगा।

अब आपके तथाकथित ब्रह्मचारियों को बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि दिनभर ब्रह्मचर्य साधना बहुत आसान है, सवाल रात का है, नींद का है, सपने का है। वह भी पकड़ लिया जाएगा। वह पकड़ा जाएगा, उसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि स्वप्न की क्वालिटी अलग-अलग होती है। और प्रत्येक स्वप्न की जो कंपन विधि है, वह अलग-अलग होती है। जब आपके भीतर कोई कामोत्तेजक स्वप्न चलता है, तो स्वप्न बिलकुल विक्षिप्त हो जाता है और ग्राफ बिलकुल पागल की तरह लकीरें खींचने लगता है। जब आपके भीतर गहरी नींद होती है, तो स्वप्न बिलकुल बंद हो जाता है; ग्राफ सीधी लकीर खींचने लगता है; उसमें कंपन खो जाते हैं।

लेकिन बड़ी हैरानी की बात है कि सभ्य आदमी, सुशिक्षित आदमी रातभर में मुश्किल से दस मिनट गहरी नींद में होता है, जब स्वप्न नहीं होता। सिर्फ दस मिनट! पूरी रात स्वप्न चलता रहता है।

लेकिन आदिवासी अभी भी हैं, जिनको सपना नहीं चलता; जिनकी नींद प्रगाढ़ है। स्वभावतः, सुबह उनकी आंखों में जो निर्दोष भाव दिखाई पड़ता है, वह उस आदमी की आंख में नहीं दिखाई पड़ सकता जिसको रातभर सपना चला है। सुबह आदिवासी की आंख वैसे ही होती है, जैसे गाय की। उतनी ही सरल, उतनी ही भोली, उतनी ही निष्कपट। रात वह इतनी गहराई में गया है कि हम कह सकते हैं कि बेहोशी में ठीक परमात्मा में उतर गया है।

सुषुप्ति समाधि ही है। सिर्फ बेहोश समाधि है, इतना ही फर्क है। उपनिषद तो कहते हैं, सुषुप्ति जैसी ही है समाधि। एक ही उदाहरण उपनिषद देते हैं। समाधि कैसी? सुषुप्ति जैसी। फर्क? फर्क इतना, कि समाधि में आपको होश रहता है और सुषुप्ति में आपको होश नहीं रहता।

आप परमात्मा की गोद में सुषुप्ति में भी पहुंच जाते हैं, लेकिन आपको पता नहीं रहता। समाधि में भी पहुंचते हैं, लेकिन जागते हुए पहुंचते हैं। लेकिन फायदा दोनों में बराबर मिल जाता है।

लेकिन सभ्य आदमी की नींद ही खो गई है, सुषुप्ति बहुत दूर की बात है। स्वप्न ही हमारा कुल जमा हाथ में रह गया है। जैसे कि लहरों में सागर के ऊपर ही ऊपर रहते हों, गहरे कभी न जा पाते हों, ऐसे ही नींद में भी गहरे नहीं जा पाते।

स्वयं के भीतर पहुंचने के लिए कम से कम गहरी नींद तो जरूरी ही है। लेकिन गहरी नींद उसे ही आएगी जिसका श्रम और विश्राम संतुलित है; जिसका भोजन और भूख संतुलित है; जिसकी वाणी और मौन संतुलित है; उसके लिए ही गहरी नींद उपलब्ध होगी। वह गहरी नींद का फल और पुरस्कार उसको मिलता है, जिसका जीवन संतुलित है।

नींद में ही जाना मुश्किल हो गया है, ध्यान में जाना तो बहुत मुश्किल है। क्योंकि ध्यान तो और आगे की बात हो गई, जागते हुए जाने की बात हो गई।

कृष्ण ठीक कहते हैं, अपने-अपने आहार को, विहार को संतुलित कर लेना जरूरी है; किसी नियम से नहीं, स्वयं की जरूरत से।

प्रश्न:

भगवान श्री, इस श्लोक में अंत में, कर्मों में सम्यक चेष्टा, ऐसा कहा गया है। कृपया कर्मों में सम्यक चेष्टा, इसका अर्थ भी स्पष्ट करें।

कर्मों में सम्यक चेष्टा। वही बात है, कर्म के लिए। कर्मों में असम्यक चेष्टा का क्या अर्थ है, खयाल में आ जाए, तो सम्यक चेष्टा का खयाल आ जाएगा।

कभी किसी स्कूल में परीक्षा चल रही हो, तब आप भीतर चले जाएं। देखें बच्चों को। कलम पकड़कर वे लिख रहे हैं। स्वाभाविक है कि अंगुली पर जोर पड़े। लेकिन उनके पैर देखें, तो पैर भी अकड़े हुए हैं। उनकी गर्दन देखें, तो गर्दन भी अकड़ी हुई है। उनकी आंखें देखें, तो आंखें भी तनाव से भरी हैं। लिख रहे हैं हाथ से, लेकिन जैसे पूरा शरीर कलम पकड़े हुए है!

असम्यक चेष्टा हो गई; जरूरत से ज्यादा चेष्टा हो गई। यह तो सिर्फ अंगुली चलाने से काम हो जाता, इसके लिए इतने शरीर को लगाना, बिलकुल व्यर्थ हो गया। यह तो ऐसा हुआ कि जहां सुई की जरूरत थी, वहां तलवार लगा दी। और सुई जो काम कर सकती है, वह तलवार नहीं कर सकती, ध्यान रखना आप। इतना तना हुआ बच्चा जो उत्तर देगा, वे गलत हो जाएंगे। क्योंकि चेष्टा असम्यक है, अतिरिक्त श्रम ले रही है, व्यर्थ तनाव दे रही है।

आप भी खयाल करना, जब आप लिखते हैं, तो सिर्फ अंगुली पर भार हो, इससे ज्यादा भार असम्यक है। एक आदमी साइकिल चला रहा है, तो पैर की अंगुलियां पैडिल को चलाने के लिए पर्याप्त हैं। लेकिन छाती भी लगी है; आंखें भी लगी हैं; हाथ भी अकड़े हैं। सब अकड़ा हुआ है! असम्यक चेष्टा हो रही है। अननेसेसरी, व्यर्थ ही अपने को परेशान कर रहा है। लेकिन आदत की वजह से परेशान है।

हमारी सारी चेष्टाएं असम्यक हैं। या तो हम जरूरत से कम करते हैं; और या हम जरूरत से ज्यादा कर देते हैं। ध्यान रखना जरूरी है, किस कर्म के लिए कितना श्रम; किस कर्म के लिए कितनी शक्ति।

और नहीं तो कई दफे ऐसा हो जाता है कि मैंने सुना है, एक आदमी एक सांझ–रात उतर रही है एक गांव के ऊपर–सड़क पर तेजी से कुछ खोज रहा है। और लोग भी खड़े हो गए और कहा कि हम भी सहायता दे दें, क्या खोज रहे हो? तब तक वह आदमी थक गया था, तो हाथ जोड़कर परमात्मा से प्रार्थना कर रहा है कि मैं एक नारियल चढ़ा दूंगा; मेरी खोई चीज मिल जाए। तो लोगों ने कहा, भई, तेरी चीज क्या है, वह तो तू बता दे!

उसका एक पैसा खो गया है। पांच आने का नारियल! पुराने जमाने की कहानी है। पांच आने का नारियल, एक पैसा खो गया है, उसको चढ़ाने के लिए सोच रहा है! उन लोगों ने कहा, तू बड़ा पागल है। एक पैसा खो गया, उसके लिए पांच आने का नारियल चढ़ाने की सोच रहा है! उस आदमी ने कहा, पहले पैसा तो मिल जाए, फिर सोचेंगे कि चढ़ाना है कि नहीं। नहीं मिला तो अपना निर्णय पक्का है! मिल गया तो पुनर्विचार के लिए कौन रोक रहा है!

हमारे पूरे जीवन की व्यवस्था ऐसी ही है, जिसमें हम कभी भी यह नहीं देख रहे हैं कि जो हम पाने चले हैं, उस पर हम कितना दांव लगा रहे हैं! वह इतना लगाने योग्य है? जो मिलेगा, उसके लिए किया गया श्रम योग्य है? इज़ इट वर्थ? कभी कोई नहीं सोचता। कभी कोई नहीं सोचता कि जितना हम लगा रहे हैं, उतना उससे जो मिल भी जाएगा–अगर सफल भी हो जाएं, तो जो मिलेगा–वह इसके योग्य है? एक पैसे पर कहीं हम पांच आने का नारियल तो चढ़ाने नहीं चल पड़े!

और फिर इस तरह की जो आदत बढ़ती चली जाए, तो इसकी दूसरी अति, इसका दूसरा रिएक्शन और प्रतिक्रिया भी होती है कि कभी-कभी जब कि सचमुच लगाने का वक्त आता है दांव, तब हमारे पास लगाने को ताकत ही नहीं होती।

संयत श्रम, कर्मों में सम्यक चेष्टा। जीवन को एक विचार देने की जरूरत है; एक अविचार में, विचारहीनता में जीने की जरूरत नहीं है।

एक आदमी धन कमाने चल पड़ा है। चले तो सोच ले कि धन मिलकर जो मिलेगा, उसके लिए इतना सब गंवा देने की जरूरत है? इतना सब, आत्मा भी बेच डालने की जरूरत है? सब कुछ गंवा देने की जरूरत है धन पाने के लिए? असम्यक चेष्टा हो रही है।

कृष्ण मना नहीं करते कि धन मत कमाओ। कहते हैं, सम्यक चेष्टा करो। थोड़ा सोचो भी कि गंवाओगे क्या? कमाओगे क्या? थोड़ा हिसाब भी रखो। थोड़ी व्यवहार बुद्धि का भी उपयोग करो।

नहीं है बिलकुल वैसी बुद्धि। वैसी संयत बुद्धि का हमारे पास कोई खयाल नहीं है। कारण इतना ही है कि हमने कभी उस तरह सोचा नहीं।

सोचना शुरू करें। एक-एक कर्म में सोचना शुरू करें कि कितनी शक्ति लगा रहा हूं; इतना उचित है? तत्काल आप पाएंगे कि व्यर्थ लगा रहे हैं। थोड़े कम में हो जाएगा, थोड़े और कम में हो जाएगा।

सुना है मैंने कि अकबर ने एक दफा चार लोगों को सजाएं दीं। चारों का एक ही कसूर था। चारों ने मिलकर राज्य के खजाने से गबन किया था। और बराबर गबन किया था। असल में चारों साझीदार थे। सबने बराबर अशर्फियां ले ली थीं।

चारों को बुलाया अकबर ने। और पहले को कहा, तुमसे ऐसी आशा न थी! जाओ। वह आदमी चला गया। दूसरे आदमी से कहा कि तुम्हें सिर्फ इतनी सजा देता हूं कि झुककर सारे दरबारियों के पैर छू लो, और जाओ। तीसरे को कहा कि तुम्हें एक वर्ष के लिए राज्य-निष्कासन देता हूं। राज्य के बाहर चले जाओ। चौथे को कहा कि तुम्हें आजीवन कैदखाने में भेज देता हूं।

कैदी जा चुके, दरबारियों ने पूछा कि बड़ा अजीब-सा न्याय किया है आपने! दंड इतने भिन्न, जुर्म इतना एक समान; यह कुछ न्याय नहीं मालूम पड़ता है! एक आदमी को सिर्फ इतना ही कहा कि तुमसे ऐसी आशा न थी और एक आदमी को आजीवन कैद में भेज दिया!

अकबर हंसा और उसने कहा कि मैं उनको जानता हूं। अगर तुम्हें भरोसा न हो, तो जाओ, पता लगाओ, वे चारों क्या कर रहे हैं! गए। सबसे पहले तो उस आदमी के पास गए, जिस आदमी से कहा था कि तुमसे ऐसी आशा न थी। उसके घर पहुंचे। पता चला, वह फांसी लगाकर मर गया। हैरान हो गए। लौटकर अकबर से कहा।

अकबर ने कहा, देखते हैं, वहां सूई भी काफी थी। उतना कहना भी ज्यादा पड़ गया। उतना कहना भी ज्यादा पड़ गया; वह आदमी ऐसा था। इतना काफी सजा थी, कि तुमसे ऐसी आशा न थी। बहुत सजा हो गई! जिसको थोड़ा भी अपने व्यक्तित्व का बोध है, उसके लिए बहुत सजा हो गई। अब जाकर देखो उस आदमी को जिसको कि सजा दी है जीवनभर की।

वे वहां गए, तो जेलर ने बताया कि वह आदमी जेलखाने में रिश्वत का इंतजाम फैलाकर भागने की योजना बना रहा है। उससे मिले, तो वह कोई उदास न था। कहा कि उदास नहीं हो! आजीवन सजा हो गई। उसने कहा कि छोड़ो भी। जिस दुनिया में सब कुछ हो रहा है, उसमें हम कोई सदा जेल में रहेंगे! निकल जाएंगे। जहां सब कुछ संभव हो रहा है, वहां कोई हम सदा जेल में रहेंगे! तुम दो-चार दिन में देखना कि हम बाहर हैं। और तुम पंद्रह-बीस दिन के बाद देखोगे कि हम दरबार में हैं। तुम चिंता मत करो; हम जल्दी लौट आएंगे। और वैसे भी बहुत थक गए थे, पंद्रह-बीस दिन का विश्राम मिल गया! हैरान हुए कि उसको जीवनभर की सजा मिली है, वह आदमी यह कह रहा है। और जिससे सिर्फ इतना कहा है कि तुझसे इतनी अपेक्षा, ऐसी आशा न थी, वह फांसी लगाकर मर गया!

अकबर ने ठीक–जिसको कहें कर्म में सम्यक चेष्टा, कितना कहां जरूरी है–उतना ही; उससे रत्तीभर ज्यादा नहीं।

योगी को तो ध्यान में रखना ही पड़ेगा कि कर्म में सम्यक चेष्टा हो। बुद्ध ने तो सम्यक चेष्टा पर बहुत बड़ी व्यवस्था दी है। सारी चीजों पर सम्यक होने की व्यवस्था दी है। बुद्ध जिसे अष्टांगिक मार्ग कहते हैं, सब सम्यक पर आधारित है। उसमें सम्यक व्यायाम, सम्यक श्रम, सम्यक स्मृति, सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान–सब चीजें सम्यक हों। कोई भी चीज असम न हो जाए। उसी सम्यक की तरफ कृष्ण इशारा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, तुम्हारे कर्मों में तुम सदा ही संयत रहना। उतनी ही चेष्टा करना, जितनी जरूरी है; न कम, न ज्यादा। और फिर तुम पाओगे कि कर्म तुम्हें नहीं बांध पाएंगे।

सम्यक जिसने चेष्टा की है, वह कर्म के बाहर हो जाता है। जो ज्यादा करता है, वह भी पछताता है, क्योंकि अंत में फल बहुत कम आता है। जो कम करता है, वह भी पछताता है, क्योंकि फल आता ही नहीं। लेकिन जो सम्यक कर लेता है, वह कभी भी नहीं पछताता। फल आए, या न आए। जो सम्यक कर लेता है, वह कभी नहीं पछताता। क्योंकि वह जानता है, जितना जरूरी था, वह किया गया। जो जरूरी था, वह मिल गया है। जो नहीं मिलना था, वह नहीं मिला है। जो मिलना था, वह मिल गया है। मैंने अपनी तरफ से जितना जरूरी था, वह किया था; बात समाप्त हो गई।

एक मित्र अभी मेरे पास आए। उनकी पत्नी चल बसी है। बहुत रो रहे थे, बहुत परेशान थे। मैंने उनसे कहा कि पत्नी के साथ तुम्हें कभी इतना खुश नहीं देखा था कि सोचूं कि मरने पर इतना रोओगे! मैंने कहा, असम्यक चेष्टा कर रहे हो। उस वक्त थोड़ा ज्यादा खुश हो लिए होते, तो इस वक्त थोड़ा कम रोना पड़ता।

वे थोड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, क्या मतलब? मैंने कहा, थोड़ा बैलेंसिंग हो जाता। मैंने उनसे पूछा, सच बताओ मुझे, पत्नी के मरने से रो रहे हो या बात कुछ और है? क्योंकि बातें अक्सर और होती हैं, बहाने और होते हैं। आदमी की बेईमानी का कोई अंत नहीं है। उन्होंने कहा, क्या मतलब आपका? मेरी पत्नी मर गई और आप कहते हैं, बहाने और बेईमानी। यहां बहाने! मेरी पत्नी मर गई है, मैं दुखी हूं। मैंने कहा, मैं मानता हूं कि तुम दुखी हो। लेकिन मैं फिर से तुमसे पूछता हूं कि तुम सोचकर मुझे दो-चार दिन बाद बताना कि सच में रोने का यही कारण है कि पत्नी मर गई है?

चार दिन बाद वे लौटे और उन्होंने कहा कि शायद आप ठीक कहते हैं। भीतर झांका, तो मुझे खयाल आया कि जितनी मुझे उसकी सेवा करनी चाहिए थी, वह मैंने नहीं की। जितना मुझे उस पर ध्यान देना चाहिए था, वह भी मैंने नहीं दिया। सच तो यह है कि जितना प्रेम सहज उसके प्रति मुझमें होना चाहिए था, वह भी मैं नहीं दे पाया। उस सब की पीड़ा है कि अब! अब माफी मांगने का भी कोई उपाय नहीं रहा।

ध्यान रहे, अगर आपने किसी व्यक्ति को पूरा प्रेम कर लिया है, जितना संभव था, जो सम्यक था; पूरी सेवा कर ली है, जो सम्यक थी; सब ध्यान दिया, जो सम्यक था; तो मृत्यु के बाद जो दुख होगा, वह दुख बहुत भिन्न प्रकार का होगा। और वह दुख आपको तोड़ेगा नहीं, मांजेगा। वह पीड़ा आपको निखारेगी, नष्ट नहीं करेगी। वह पीड़ा आपके जीवन में कुछ अनुभव और ज्ञान दे जाएगी, सिर्फ जंग नहीं लगा जाएगी। क्योंकि जो हो सकता था, सम्यक था, जो ठीक था, वह कर लिया गया था। जो मेरे हाथ में था, वह हो गया था। फिर शेष तो सदा परमात्मा के हाथ में है।

लेकिन हममें से कोई भी सम्यक कभी नहीं कर पाता। न पति पत्नी के लिए, न पत्नी पति के लिए। न बेटे बाप के लिए, न बाप बेटे के लिए। सब असम्यक होता है। जिस दिन छूट जाता है कोई, उस दिन भारी पीड़ा का वज्राघात होता है। उस दिन लगता है कि अब! अब तो कोई उपाय न रहा। अब तो कोई उपाय न रहा।

इसलिए जो बेटे बाप के मरने की प्रतीक्षा करते हैं, वे भी बाप के मरने पर छाती पीटकर रोते हैं। जो बेटे न मालूम कितनी दफे सोच लेते हैं कि अब यह बूढ़ा चला ही जाए, तो बेहतर। न मालूम कितनी दफे! मन ऐसा है। मन ऐसा सोचता रहता है। हालांकि आप झिड़क देते हैं अपने मन को, कि कैसी गलत बात सोचते हो! ठीक नहीं है यह। लेकिन मन फिर भी सोचता रहता है। फिर यह बेटा छाती पीटकर रो रहा है। यह असंतुलन है जीवन का।

अगर इसने पिता की सम्यक सेवा कर ली होती! यह तो पक्का ही है कि पिता जाएगा। मौत से कोई बचेगा? वह जाने वाला है। अगर इसने थोड़ा खयाल रखा होता कि पिता जाने ही वाला है, जाएगा ही; थोड़ी सेवा कर ली होती, थोड़ा प्रेम दिया होता, थोड़ा सम्मान किया होता–यह तो पता ही है कि वह जाएगा ही–इसने अगर सम्यक चेष्टा कर ली होती जो जाने वाले व्यक्ति के साथ कर लेनी है, तो शायद पीछे यह घाव इस भांति का न लगता। यह घाव दूसरे अर्थ में लग रहा है। यह न किया हुआ जो छूट गया है, और जिसके करने का अब कोई उपाय नहीं रह गया, यह उसकी पीड़ा है, जो जिंदगीभर सालेगी, कांटे की तरह चुभती रहेगी।

सम्यक कर्मों में! कर्मों में सम्यक चेष्टा का अर्थ है, समस्त कर्मों में जो किया जाने योग्य है, वह जरूर करना चाहिए। जितनी शक्ति से किया जाने योग्य है, उतनी शक्ति लगानी चाहिए; न कम, न ज्यादा।

निर्णय कौन करेगा कि कितनी लगाई जानी चाहिए? आपके अतिरिक्त कोई निर्णय नहीं कर सकता है। आप ही सोचें। और बड़ा अनुभव होगा, अदभुत अनुभव होगा। जिस काम में आप संयत चेष्टा कर पाएंगे, उस काम के बाद आप बिलकुल निर्भार हो जाएंगे, मुक्त हो जाएंगे। काम कर लिया, बात समाप्त हो गई।

अगर आप दफ्तर में पूरे पांच घंटे ठीक श्रम कर लिए हैं, सम्यक, तो दफ्तर आपकी खोपड़ी में घर नहीं आएगा। नहीं तो घर आएगा; आएगा ही; सस्पेंडेड; लटका रहेगा खोपड़ी पर। क्योंकि दफ्तर में तो बैठकर विश्राम किया!

मैंने सुना है कि एक दिन दफ्तर के मैनेजर को उसके मालिक ने…। अचानक मालिक अंदर आ गया। आने का वक्त नहीं था, नहीं तो मैनेजर तैयार रहता। वह अपने पैर फैलाए हुए कुर्सी पर सो रहा था! घबड़ाकर चौंका। क्षमायाचना की और कहा कि माफ करें, कल रात घर नहीं सो पाया। तो मालिक ने कहा, अच्छा, तो तुम घर भी सोते हो! यह हम सोच भी नहीं सकते थे। घर भी सोते हो? यह हम सोच ही नहीं सकते थे, क्योंकि दिनभर तो यहां सोते हो। तो घर सोते होगे, इसका हमें खयाल ही नहीं आया!

अब यह आदमी जो दफ्तर में बेईमानी कर रहा है, दफ्तर इसके साथ बदला लेगा। वह घर चला जाएगा। यह घर से बेईमानी करके दफ्तर चला आया है, घर दफ्तर चला आएगा।

जिस कर्म को आपने पूरा नहीं कर लिया है, सम्यक नहीं कर लिया है, वह आपके भीतर अटका रहेगा, वह आपका पीछा करेगा। इसलिए हम बड़ी अजीब हालत में हैं। जब आप चौके में बैठकर भोजन करते हैं, तब दफ्तर में होते हैं। जब दफ्तर में बैठे होते हैं, तो अक्सर भोजन कर रहे होते हैं। यह सब चलता रहता है!

यह सब इतना ज्यादा कनफ्यूजन मस्तिष्क में इसलिए पैदा होता है कि जब भोजन कर रहे हैं, तब सम्यक रूप से भोजन कर लें। सब छोड़ें उस वक्त। जितनी जरूरी चेष्टा है भोजन करने की, जितना ध्यान देना जरूरी है भोजन को, उतना ध्यान दे दें। जितना चबाना है, उतना चबा लें। जितना स्वाद लेना है, उतना स्वाद ले लें। जितना भोजन करना है, सम्यक चेष्टा पूरी भोजन की थाली पर करके कृपा करके उठें, तो भोजन आपका पीछा नहीं करेगा; और तृप्ति भी आएगी।

जो भी काम करना है, उसे पूरा कर लें। पूरा किया गया काम, संयत किया गया काम, सस्पेंडेड, लटका हुआ नहीं रह जाता, और व्यक्ति प्रतिपल बाहर हो जाता है–प्रत्येक कर्म के बाहर हो जाता है। और तब वैसा व्यक्ति कभी भी भार, बर्डन नहीं अनुभव करता मस्तिष्क पर। निर्भार होता है, वेटलेस होता है, हल्का होता है। सब पूरा है।

सुकरात मर रहा है, तो किसी मित्र ने पूछा कि कोई काम बाकी तो नहीं रह गया? सुकरात ने कहा, मेरी कोई आदत कभी किसी काम को बाकी रखने की नहीं थी। मैं हमेशा ही तैयार था मरने को। कभी भी मौत आ जाए, मेरा काम पूरा, साफ था। सब जो करने योग्य था, मैंने कर लिया था। जो नहीं करने योग्य था, नहीं किया था। मेरा हिसाब सदा ही साफ रहा है। मेरे खाते-बही, कभी भी मौत का इंस्पेक्टर आ जाए, देख ले, तो मैं वैसा नहीं डरूंगा, जैसा इनकम टैक्स के इंस्पेक्टर को देखकर कोई भी दुकानदार डरता है, ऐसा सुकरात ने कहा होगा। सिर्फ एक छोटी-सी बात रह गई, वह भी मुझे पता नहीं था, नहीं तो मैं सुबह उस आदमी को कहता।

एचीलियस नाम के आदमी ने एक मुर्गी मुझे उधार दी थी, छः आने उसके बाकी रह गए हैं। बस इतना ही सस्पेंडेड है। बस, और कुछ भी नहीं है। वह भी मैं चुका देता, लेकिन जेल में पड़ा हूं और छः आने कमाने का भी कोई उपाय मेरे पास नहीं है। अचानक मुझे जेल में ले आए, अन्यथा मैं उसके छः आने चुका देता। एक काम भर इस पृथ्वी पर मेरा अधूरा पड़ा है, वे छः आने एचीलियस को देने हैं। मेरे मरने के बाद तुम मेरे मित्र, एक-एक, दो-दो पैसा इकट्ठा करके उसे दे देना, ताकि बहुत भार मुझ पर न रह जाए। छः आने का इकट्ठा बहुत पड़ेगा। एक-एक पैसे का तुम सब का रह जाएगा। किसी रास्ते पर, किसी मार्ग पर अगर अनंत में कभी मिलना हो गया, तो मैं चुका दूंगा। बस, इतना ही बोझ है, बाकी सब निपटा हुआ है।

आप मरते वक्त कितने आने के बोझ से भरे होंगे? कोई हिसाब लगाना मुश्किल हो जाएगा। न मालूम कितना अटका रह जाएगा सब तरफ! किसी को गाली दी थी, माफी नहीं मांग पाए। किसी पर क्रोध किया था, क्षमा नहीं कर पाए। किसी को प्रेम करने के लिए कहा था, लेकिन कर नहीं पाए। किसी को सेवा का भरोसा दिया था, लेकिन हो नहीं पाई। सब तरफ सब अधूरा अटका रह जाएगा।

यह अटका, अधूरा ही आपको वापस नए जन्मों में लेता चला जाएगा। ये असम्यक कर्म आपको वापस नए कर्मों में लेते चले जाएंगे। और पिछला कर्म भी पूरा नहीं होता, इस जन्म का पूरा नहीं होता, और एडीशन, और भार बढ़ता चला जाता है। हल्के न हो पाएंगे फिर।

कर्मों का विचार, कर्म के सिद्धांत के पीछे जो मूल आधार है, वह यही है कि वही व्यक्ति कर्म से मुक्त हो जाता है, जो सब कर्मों को संयत रूप से कर लेता है और उनके बाहर हो जाता है। फिर उसकी कोई मृत्यु नहीं है, उसका मोक्ष है; क्योंकि लौटने का कोई कारण नहीं है।

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।। 18।।

इस प्रकार योग के अभ्यास से अत्यंत वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भली प्रकार स्थित हो जाता है, उस काल में संपूर्ण कामनाओं से स्पृहारहित हुआ पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है।

योग के अभ्यास से संयत, शांत, शुद्ध हुआ चित्त। इस बात को ठीक से समझ लें।

योग के अभ्यास से!

हमारा अशुद्ध होने का अभ्यास गहन है। हमारे जटिल होने की कुशलता अदभुत है। स्वयं को उलझाव में डालने में हम कुशल कारीगर हैं। हमने अपने कारागृह की एक-एक ईंट काफी मजबूत बनाकर रखी है। और हमने अपनी एक-एक हथकड़ी की जंजीर को बहुत ही मजबूत फौलाद से ढाला है। हमने सब तरह का इंतजाम किया है कि जिंदगी में आनंद का कोई आगमन न हो सके। हमने सब द्वार-दरवाजे बंद कर रखे हैं कि रोशनी कहीं भूल-चूक से प्रवेश न कर जाए। हमने सब तरफ से अपने नरक का आयोजन कर लिया है। इस आयोजन को काटने के लिए इतने ही आयोजन की विपरीत दिशा में जरूरत पड़ती है। उसी का नाम योग-अभ्यास है।

योगाभ्यास की कोई जरूरत नहीं है। जैसा कि कृष्णमूर्ति कहते हैं, कोई जरूरत नहीं है योगाभ्यास की। जैसा कि झेन फकीर कहते हैं जापान में कि किसी अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है। अगर आपने नरक की तरफ कोई यात्रा न की हो, तो कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन अगर आपने नरक की तरफ तो भारी अभ्यास किया हो, और सोचते हों कृष्णमूर्ति को सुनकर कि स्वर्ग की तरफ जाने के लिए किसी अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है, तो आप अपने नरक को मजबूत करने के लिए आखिरी सील लगा रहे हैं।

अशांत होने के लिए कितना अभ्यास करते हैं, कुछ पता है आपको? एक आदमी को गाली देनी होती है, तो कितना रिहर्सल करना पड़ता है, कुछ पता है आपको? कितनी दफे मन में देते हैं पहले! किस-किस रस से देते हैं! किस-किस कोने से, किस-किस एंगल से सोचकर देते हैं! किस-किस भांति जहर भरकर गाली को तैयार करके देते हैं!

एक आदमी को गाली देने के लिए कितने बड़े रिहर्सल से, पूर्व-अभ्यास से गुजरना पड़ता है। उस पूर्व-अभ्यास के बिना गाली भी नहीं निकल सकती है।

अशांत होने के लिए कितना श्रम उठाते हैं, कभी हिसाब रखा है? सुबह से शाम तक कितनी तरकीबें खोजते हैं कि अशांत हो जाएं! अगर किसी दिन तरकीबें न मिलें, तो खुद भी ईजाद करते हैं।

मेरे एक मित्र हैं। उनके बेटे ने मुझे कहा कि मैं बड़ी मुसीबत में हूं। मैं कोई रास्ता ही नहीं खोज पाता कि पिता को अशांत करने से कैसे बचूं! मैंने कहा कि वे जिन बातों से अशांत होते हों, वह मत करो। उसने कहा, यही तो मजा है कि अगर मैं ठीक कपड़े पहनकर दफ्तर पहुंच जाऊं, तो वे कहते हैं, अच्छा! तो कोई फिल्म स्टार हो गए आप? अगर ठीक कपड़े पहनकर न पहुंचूं, तो वे कहते हैं, क्या मैं मर गया? जब मैं मर जाऊं, तब इस शक्ल में घूमना! अभी मेरे रहते तो मजा कर लो।

वह बेटा मुझसे पूछने आया कि मैं क्या करूं, जिससे पिता अशांत न हों? क्योंकि मैं कुछ भी करूं, वे तरकीब खोज ही लेते हैं। ऐसा कोई काम मैं नहीं कर पाया, जिसमें उन्होंने तरकीब न खोज ली हो। वह सोचकर विपरीत करता हूं, उसमें भी निकाल लेते हैं। अच्छे कपड़े पहनता हूं, तो कहते हैं, अच्छा, फिल्म स्टार हो गए! क्या इरादे हैं? हीरो बन गए? न पहनकर ठीक कपड़ा पहुंचूं, तो कहते हैं, यह तो मैं जब मर जाऊं, तब इस शक्ल में घूमना। अभी तो मैं जिंदा हूं; अभी तो मजे करो, गुलछर्रे कर लो! तो मैं क्या करूं?

मैंने कहा, एकाध दफा दिगंबर पहुंचकर देखा कि नहीं देखा! और तो कोई तीसरा रास्ता ही नहीं बचता! दिगंबर पहुंचकर देख। उसने कहा कि आप भी क्या कह रहे हैं! बिलकुल मेरी गर्दन काट देंगे!

हम सब ऐसा खोजते रहते हैं, खूंटियां खोजते रहते हैं। खूंटियां खोजते रहते हैं! खूंटियां न मिलें, तो अपनी कीलें भी गाड़ लेते हैं।

अशांत होने के लिए भारी अभ्यास चल रहा है। बड़ी योग-साधना करते हैं हम अशांत होने के लिए, क्रोधित होने के लिए, परेशान होने के लिए! कुछ ऐसा लगता है कि अगर आज परेशान न हुए, तो जैसे दिन बेकार गया। कई दफे ऐसा होता भी है। क्योंकि परेशानी से हमको पता चलता है कि हम भी हैं। नहीं तो और तो कोई पता चलने का कारण नहीं है।

तो बड़ी-बड़ी परेशानियां करके दिखलाते रहते हैं। भारी परेशानियां हैं। उससे पता चलता है कि हम भी कोई हैं, समबडी! क्योंकि जितना बड़ा आदमी हो, उतनी बड़ी परेशानियां होती हैं! तो हर छोटा-मोटा आदमी भी छोटी-मोटी परेशानियों को मैग्नीफाई करता रहता है। बड़ी करके खड़ा कर लेता है। उनके बीच में खड़ा रहता है। यह सब अभ्यास चलता है। बिना अभ्यास के यह भी नहीं हो सकता। यह भी सब अभ्यास का फल है।

तो कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं कि योगाभ्यास से शांत हुआ चित्त, तो इससे विपरीत अभ्यास करना पड़ेगा। विपरीत अभ्यास का क्या अर्थ है? विपरीत अभ्यास का अर्थ है कि अब तक हम निगेटिव इमोशंस के लिए, नकारात्मक भावनाओं के लिए कारण खोज रहे हैं चौबीस घंटे; योगाभ्यास का अर्थ है, पाजिटिव इमोशंस के लिए चौबीस घंटे कारण खोजने में जो लगा है।

और जिंदगी में दोनों मौजूद हैं। खड़े हो जाएं गुलाब के फूल के किनारे। वह जो अभ्यासी है अशांति का, वह कहेगा, व्यर्थ है, बेकार है सब। कांटे ही कांटे हैं, एकाध फूल खिलता है कभी। वह जो योगाभ्यासी है, वह जो पाजिटिव को, विधायक को खोजने निकला है, वह कहेगा, प्रभु तेरा धन्यवाद! आश्चर्य है, जहां इतने कांटे हैं, वहां भी इतना कोमल फूल खिल सकता है! यह उनके देखने के ढंग का फर्क होगा।

जब आप किसी आदमी से मिलते हैं, तो उसमें बुरा अगर आप खोजते हैं तत्काल, तो आप अभ्यासी हैं अशांति के। उस आदमी में कुछ तो भला होगा ही, नहीं तो जीना मुश्किल था। बुरे से बुरे आदमी का भी जीना असंभव है, अगर वह एब्सोल्यूट बुरा हो जाए। चोर भी किन्हीं के साथ तो ईमानदार होते हैं। और डाकू भी किन्हीं के साथ वचन निभाते हैं। बेईमान भी बेईमान नहीं हो सकता सदा, चौबीस घंटे, किन्हीं के साथ ईमानदारी से जीता है। जो आपका दुश्मन है, वह भी किसी का मित्र है; वह भी मित्रता जानता है। जो आपकी छाती में छुरा भोंकने को तैयार है, वह किसी दिन किसी के लिए अपनी छाती में भी छुरा भोंकने की तैयारी रखता है।

इस जमीन पर, इस अस्तित्व में कोई बिलकुल बुरा है, ऐसा नहीं है। और कोई बिलकुल भला है, ऐसा भी नहीं है। लेकिन आपके चुनाव पर निर्भर है कि आप क्या चुनते हैं। आपके अभ्यास पर निर्भर है कि आप क्या चुनते हैं। अगर आपने तय कर रखा है कि बुरा ही चुनेंगे, तो आपको बुरा मिलता चला जाएगा। जिंदगी में भरपूर बुरा है। अगर आपने तय कर लिया है कि अंधेरा ही चुनेंगे, तो दिनभर विश्राम करना आप आंख बंद करके, रात को निकल जाना खोजने; मिल जाएगा। मिलेगा वही-वही।

बुरे को खोजना है, बुरा मिल जाएगा। दुख को खोजना है, दुख मिल जाएगा। पीड़ा खोजनी है, पीड़ा मिल जाएगी। शैतान खोजना है, शैतान मिल जाएगा। परमात्मा खोजना है, तो वह भी मौजूद है, जस्ट बाई दि कार्नर। वहीं, जहां शैतान खड़ा है। शायद इतना भी दूर नहीं है। शायद शैतान भी परमात्मा के चेहरे को गलत रूप से देखने के कारण है।

जिस आदमी को कांटों के बीच फूल खिला हुआ मालूम पड़ता है और जो कहता है, धन्य है! लीला है, रहस्य है प्रभु का! इतने कांटों के बीच फूल खिलता है! उस आदमी को बहुत दिन कांटे दिखाई नहीं पड़ेंगे। जो इतने कांटों के बीच फूल को देख लेता है, वह थोड़े ही दिनों में कांटों को फूल के मित्र की तरह देख ही पाएगा। वह, कांटे फूल की रक्षा के लिए हैं, यह भी देख पाएगा। अंततः वह यह भी देख पाएगा कि कांटों के बिना फूल नहीं हो सकता है, इसलिए कांटे हैं। और आखिर में कांटों का जो कांटापन है, खो जाएगा; और कांटे भी धीरे-धीरे फूल ही मालूम पड़ने लगेंगे।

और जिस आदमी ने देखा कि कांटे ही कांटे हैं; कहीं एकाध फूल खिल जाता है भूल-चूक से, यह एक्सिडेंट मालूम होता है। यह फूल एक्सिडेंट है, कांटे असलियत हैं। बात भी ठीक लगती है। कांटे बहुत, फूल एक। वह आदमी बहुत दिन तक फूल में भी फूल को नहीं देख पाएगा। बहुत जल्दी उसको फूल में भी कांटे दिखाई पड़ने लगेंगे।

हमारी दृष्टि धीरे-धीरे फैलकर निरपेक्षपूर्ण हो जाती है। लेकिन अस्तित्व? अस्तित्व द्वंद्व है; वहां दोनों मौजूद हैं।

योगाभ्यासी का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जो जीवन में शांति की खूंटियां खोजता है, आनंद की खूंटियां खोजता है। फूल खोजता है। आशा खोजता है। सौंदर्य खोजता है। आनंद खोजता है। जो जीवन में नृत्य खोजता है, उत्सव खोजता है। जीवन में उदासी बटोरने का जिसने ठेका नहीं लिया है। जो जगह-जगह जाकर कांटे और कंकड़ नहीं खोजता रहता है। और जिनको इकट्ठा करके छाती पर रखकर चिल्लाता नहीं है कि जिंदगी बेकार है, अर्थहीन है।

योगाभ्यास का अर्थ है, जीवन को विधायक दृष्टि से देखने का ढंग। योग जीवन की विधायक कीमिया है, पाजिटिव केमेस्ट्री है। और उसका अभ्यास करना पड़ेगा। क्योंकि आपने अभ्यास किया हुआ है। अगर आप पुराने अभ्यास को ऐसे ही, बिना अभ्यास के छोड़ने में समर्थ हों, तो छोड़ दें। तो फिर नए अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं है।

लेकिन वह पुराना अभ्यास जकड़ा हुआ है, भारी है; वह छूटेगा नहीं। उसे इंच-इंच जैसे बनाया, वैसे ही काटना भी पड़ेगा। जैसे घर बनाया, वैसे अब एक-एक ईंट उसकी गिरानी भी पड़ेगी। भला वह ताश का ही घर क्यों न हो, लेकिन ताश के पत्ते भी उतारकर रखने पड़ेंगे। भला ही वह कितनी ही झूठी व्यवस्था क्यों न हो, लेकिन झूठ की भी अपनी व्यवस्था है; उसको भी काटना और मिटाना पड़ेगा।

योगाभ्यास गलत अभ्यासों को काटने का अभ्यास है। ठीक विपरीत यात्रा करनी पड़ेगी। जिस व्यक्ति में कल तक देखा था बुरा आदमी, उसमें देखना पड़ेगा भला आदमी। जिसमें देखा था शत्रु, उसमें खोजना पड़ेगा मित्र। जहां देखा था जहर, वहां अमृत की भी तलाश करनी पड़ेगी। यह तो हुई एक बहिर्व्यवस्था।

और फिर अपने में भी यही करना पड़ेगा। अपने भीतर भी जिन-जिन चीजों को बुरा देखा था, उन-उन में शुभ को खोजना पड़ेगा। कामवासना में देखा था नरक का मार्ग, अब कामवासना में स्वर्ग का मार्ग भी देखना पड़ेगा। स्वर्ग का मार्ग कामवासना में देखते से ही, काम की वासना ऊर्ध्वगामी होकर स्वर्ग के मार्ग को भी लगा देती है। कल तक क्रोध में देखा था सिर्फ क्रोध, अब क्रोध में उस शक्ति को भी देखना पड़ेगा, जो क्षमा बन जाती है। क्रोध की शक्ति ही क्षमा बनती है। काम की शक्ति ही ब्रह्मचर्य बनती है। लोभ की शक्ति ही दान बन जाती है।

देखना पड़ेगा; खोजना पड़ेगा। अब तक एक तरह से देखा था जीवन को, अब ठीक विपरीत तरह से देखना पड़ेगा। उस विपरीत तरह के देखने की क्या विधियां हैं, उनकी बात मैं संध्या करूंगा। इस सूत्र पर भी पूरी बात संध्या करेंगे। अभी इतना ही खयाल में लें कि अगर गलत का अभ्यास किया है, तो गलत को काटने का भी अभ्यास करना पड़ेगा।

निश्चित ही, जब गलत कट जाता है, तो जो शेष रह जाता है वह शुभ है। इसलिए एक अर्थ में कृष्णमूर्ति या झेन फकीर जो कहते हैं, ठीक कहते हैं। क्योंकि शुभ के पाने के लिए किसी अभ्यास की जरूरत नहीं है। लेकिन अशुभ को काटने के लिए अभ्यास की जरूरत है। इसलिए एक दृष्टि से वे बिलकुल गलत कहते हैं।

फर्क समझें आप। शुभ को पाने के लिए किसी अभ्यास की जरूरत नहीं है। शुभ स्वभाव है। लेकिन अशुभ को काटने के लिए…।

ऐसा समझ लें, तो ठीक होगा। मेरे हाथों में आपने जंजीरें डाल दी हैं, तो क्या मैं कहूं कि स्वतंत्रता पाने के लिए जंजीरें तोड़ने की जरूरत है? स्वतंत्रता पाने के लिए तो किसी जंजीर को तोड़ने की क्या जरूरत है! स्वतंत्रता पर कोई जंजीरें नहीं हैं। लेकिन फिर भी जंजीर तोड़नी पड़ेगी। परतंत्रता को तोड़ने के लिए जंजीर तोड़नी पड़ेगी। और जब जंजीर टूट जाएगी और परतंत्रता टूट जाएगी, तो जो शेष रह जाएगी, वह स्वतंत्रता है।

स्वतंत्रता के लिए जंजीर नहीं तोड़नी पड़ती है। लेकिन परतंत्रता के लिए, परतंत्रता को तोड़ने के लिए जंजीर तोड़नी पड़ती है।

शुभ तो स्वभाव है। सत्य तो स्वभाव है। धर्म तो स्वभाव है। परमात्मा तो स्वभाव है। परमात्मा को पाने के लिए कोई जरूरत नहीं है। लेकिन परमात्मा को खोने के लिए जो-जो उपाय आपने किए हैं, उन उपायों को काटने के लिए अभ्यास करना पड़ता है। वही अभ्यास योगाभ्यास है।

उस संबंध में हम रात बात करेंगे। अभी तो पांच मिनट थोड़ा-सा योगाभ्यास करें। थोड़ा कीर्तन। थोड़ा कीर्तन में डूबें।

लेकिन कीर्तन में भी कोई देखेगा कि अरे, इसमें क्या रखा है! कोई देखेगा कि चिल्लाने-नाचने से क्या होगा!

कांटे देख रहे हैं आप। फूल देखने की कोशिश करें, तो फूल दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे। और सिर्फ दिखाई पड़ने से नहीं दिखाई पड़ेंगे; थोड़ा सम्मिलित हों, तो जल्दी खिलने शुरू हो जाएंगे।

तो ताली दें; उनके गीत में आवाज दें। डोलें अपनी जगह पर। एक पांच मिनट भूलें अपने को, खोएं।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–17

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ध्‍यान है आत्‍मरमण—प्रवचन—सत्रहवां

जे इंदियाणं विसया मणुण्‍णा, न तेसु भावं निसिरे कयाई।

न याउमणुण्‍णेसु मणं पि कुज्जा,समाहिकामें समणे तवस्‍सी।। 123।।

सुविदियजगस्‍सभावो, निस्‍संगो निब्‍भओ निराओ य।

वेरग्‍गभाविणमणो, झााणंमिसुनिच्‍चलो होई।। 124।।

देहविवितं पेच्‍छइ, अप्‍पपाणं तह य बव्‍वसंजोगे।

देहोवहिवोसग्‍गं निस्‍संगो सव्‍वहा कुणइ।। 125।।

णाहं होमि परेसिं ण में परे संति णाणमहमेक्‍को।

इदि जो झायदि झाणे, सो अप्‍पाणं हवादि झादा।। 126।।

णातीतमट्ठं ण य आगमिस्‍सं, अट्ठं नियच्‍छंति तहागया उ।

विधूतकप्‍पे एयाणुपस्‍सी, णिज्झोसइत्‍ता खवगे महेसो।। 127।।

मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो।

अप्‍पा अप्‍पम्‍मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।। 128।।

न कसायमुत्‍थेहि वहिज्‍जइ माणसेहिं दुक्‍खेहिं।

ईसा—विसाय सोगा इएहिं, झाणो वगयचियो।। 129।।

चालिज्‍जइ बिभेइ य धीरो न परीसहोवसग्‍गेहिं।

सुहुमेसु न संमुच्‍छइ,भावेसु न देवमायासु।। 130।।

पहला सूत्र:

“समाधि की भावना वाला तपस्वी इंद्रियों के अनुकूल विषयों में कभी राग-भाव न करे और प्रतिकूल विषयों में भी मन में द्वेष न लाए।’

मनुष्य के मन के आधार ही चुनाव में हैं। मनुष्य के मन की बुनियाद चुनने में है। चुना, कि मन आया। न चुनो, मन नहीं है। इसलिए कृष्णमूर्ति बहुत जोर देकर कहते हैं, च्वाइसलेस अवेयरनेस–चुनावरहित सजगता।

चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।

मन को तो बहुत लोग मिटाना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो मन से परेशान न हो। मन से बहुत पीड़ा मिलती है, बेचैनी मिलती है। मन का कोई मार्ग शांति तक, आनंद तक जाता नहीं; कांटे ही चुभते हैं। मन आशा देता है फूलों की, भरोसा बंधाता है फूलों का; हाथ आते-आते तक सभी फूल कांटे हो जाते हैं। ऊपर लिखा होता है–सुख। भीतर खोजने पर दुख मिलता है। जहां-जहां स्वर्ग की धारणा बनती है, वहीं-वहीं नर्क की उपलब्धि होती है।

तो स्वाभाविक है कि मनुष्य मन से छूटना चाहे; लेकिन चाह काफी नहीं है। यह भी हो सकता है कि मन से छूटने की चाह भी मन को ही बनाए। क्योंकि सभी चाह मन को बनाती हैं। चाह मात्र मन की निर्मात्री है।

तो बुनियाद को खोजना जरूरी है, मन बनता कैसे है? यह पूछना ठीक नहीं कि मन मिटे कैसे? इतना ही जानना काफी है कि मन बनता कैसे है! और हम न बनाएं तो मन नहीं बनता। हमारे बनाए बनता है। हम मालिक हैं।

लेकिन ऐसा हो गया है कि बुनियाद में हम झांकते नहीं, जड़ों को हम देखते नहीं, पत्ते काटते रहते हैं। पत्ते काटने से कुछ हल नहीं होता।

महावीर का यह पहला सूत्र, निर्विकल्प भावदशा के लिए पहला कदम है। महावीर कहते हैं, न तो राग में, न द्वेष में। ये दो ही तो मन के विकल्प हैं। इन्हीं में तो मन डोलता है, घड़ी के पेंडुलम की तरह। कभी मित्रता बनाता, कभी शत्रुता बनाता। कभी कहता अपना, कभी कहता पराया।

जैसे ही तुमने राग बनाया, तुमने द्वेष के भी आधार रख दिए। खयाल किया? किसी को भी मित्र बनाए बिना शत्रु बनाना संभव नहीं। शत्रु बनाना हो तो पहले मित्र बनाना ही पड़े। तो मित्र बनाया कि शत्रुता की शुरुआत हो गई। तुमने कहा किसी से “मेरा है’, संयोग-मिलन को पकड़ा–बिछोह के बीज बो दिए। जिसे तुमने जोर से पकड़ा, वही तुमसे छीन लिया जाएगा।

तो यह भी संभव हो जाता है कि आदमी देखता है, जिसे भी मैं पकड़ता हूं, वही मुझसे छूट जाता है। तो छोड़ने को पकड़ने लगता है, कि सिर्फ छोड़ने को पकड़ लूं। यही तो तुम्हारे त्यागी और विरागियों की पूरी कथा है।

धन को पकड़ते थे; पाया कि दुख मिला, तो अब धन को नहीं पकड़ते। लेकिन “नहीं पकड़ने’ पर उतना ही आग्रह है। पहले धन के लिए दीवाने थे, अब धन पास आ जाए तो घबड़ा जाते हैं, जैसे सांप-बिच्छू आया हो; जैसे जहर आया हो।

मन तो फिर कंप गया। पहले धन के लिए कंपता था, अब धन के विरोध में कंप गया। पहले खोजते थे सुंदर देह, सुंदर स्त्री, सुंदर पुरुष; अब अपने को समझा लिया कि दुख ही दुख पाया।

तो तुम जाओ त्यागी-वैरागियों के पास, तुम उन्हें वहां शरीर की निंदा करते हुए पाओगे। और तुम यह भी देख पाओगे कि निंदा में बड़ा रस है। शरीर के भीतर मांस-मज्जा है, कफ-पित्त है, दुर्गंध है, मल-मूत्र है, इसकी चर्चा करते हुए तुम त्यागियों को पाओगे। जैसे भोगी चर्चा करता है सुंदर आंखों की, स्वर्ण जैसी काया की, स्वर्गीय सुगंध की, वैसे ही त्यागी भी चर्चा करता है। त्यागी चर्चा करता है शरीर में भरे मल-मूत्र की! यह तो गंदगी का टोकरा है। यह तो चमड़ी ही ऊपर ठीक है, बाकी सब भीतर गंदा भरा है। चमड़ी के धोखे में मत आओ।

लेकिन दोनों का राग शरीर से है। जिसको हम विराग कहते हैं, वह भी सिर के बल खड़ा हो गया राग है; शीर्षासन करता हुआ राग है। शरीर से छुटकारा नहीं हुआ। बंधे शरीर से ही हैं। जो अभी कह रहा है कि शरीर मल-मूत्र की टोकरी है, अभी शरीर से उसका लगाव बना है। वह इसी लगाव को तोड़ने के लिए तो अपने को समझा रहा है कि शरीर मल-मूत्र की टोकरी है। कहां जाता है पागल! शरीर में कुछ भी नहीं है। वह तुम्हें नहीं समझा रहा है, वह अपने को ही समझा रहा है तुम्हारे बहाने। वह शरीर की निंदा करके अपने भीतर जो छिपी वासना है, उस पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहा है।

निंदा हम उसी की करते हैं, जिससे हम डरते हैं। दमन भी हम उसी का करते हैं, जिससे हम भयभीत हैं । लेकिन भयभीत हम उसी से होते हैं, जिसमें हमारा राग है।

इस सारी व्यवस्था को समझना जरूरी है। इसलिए महावीर कहते हैं, “न तो अनुकूल विषयों में राग-भाव करे, न प्रतिकूल विषयों में द्वेष-भाव करे।’

न तो कहो कि शरीर स्वर्ण की काया है, न कहो कि मल-मूत्र की टोकरी है। चुनो ही मत–इधर या उधर। डोलो ही मत। शरीर जो है, है। तुम इसके संबंध में कोई धारणा मत बनाओ और कोई व्याख्या मत करो। तथ्य को तथ्य की भांति देखो। न तो इसके प्रशंसा के गीत गाओ, न तो स्तुति में ऋचाएं रचो, और न निंदा में गालियां निकालो। न तो शरीर गाली के योग्य है, और न स्तुति के योग्य है। शरीर बस, शरीर है। जैसा है, उतने पर ठहर जाओ।

यह तो उदाहरण हुआ। ऐसा ही जीवन की हर चीज में है। धन तो धन है। न तो कहो कि यही मेरा सर्वस्व है; और न कहो, यह क्या है! यह तो मिट्टी ही है। कहो ही मत कुछ। कहा, कि मन बना। तुमने इधर निर्णय लिया कि मन की ईंट रखी। तुम सिर्फ देखते रहो; द्रष्टा बनो। चुनाव मत करो। बीच में खड़े रहो; न इधर जाओ, न उधर।

देखा! पेंडुलम घड़ी का रुक जाए तो घड़ी रुक जाती है। बायें जाए, दायें जाए, तो घड़ी चलती रहती है। पेंडुलम के चलने से घड़ी चलती है। मन के गतिमान होने से मन निर्मित होता है। मन डोलता नहीं, अडोल हो जाता है। वहीं ध्यान का जन्म होता है।

“जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं; निस्संग, निर्भय और आशारहित हैं, तथा जिनका मन वैराग्य से युक्त है, वही ध्यान में सुनिश्चल भलीभांति स्थित होता है’।

इसलिए एक बात खयाल में ले लेना–”जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है…।’

महावीर कहते हैं, संसार से वही मुक्त हो सकता है, जिसने जल्दबाजी नहीं की; जो संसार के स्वभाव से सुपरिचित है। कच्चे-कच्चे भागे, बिना पके वृक्ष से छूट गए–पीड़ा रह जाएगी। किसी की सुनकर संसार छोड़ दिया; अपने जानने, अपने अनुभव से नहीं छोड़ा, किसी के प्रभाव में छोड़ दिया, तो ऊपर-ऊपर छूटेगा, भीतर-भीतर संसार खींचता रहेगा।

इसलिए महावीर का यह सूत्र अति मूल्यवान है, “जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं, वे ही केवल वीतरागता को उपलब्ध हो सकते हैं।’

वस्तुतः जो संसार से परिचित हो गया, वह वीतराग न होगा तो और करेगा क्या? फिर कोई उपाय नहीं। वीतराग-भाव तुम्हारा निर्णय नहीं है, तुम्हारे जीवन-अनुभव का निचोड़ है। वीतराग-भाव राग के विपरीत तुम्हारा संकल्प नहीं है; राग, द्वेष सब के अनुभव से तुमने पाया, कुछ सार नहीं है; इस अनुभव का नाम ही वीतरागता है।

इस पर मेरा भी बहुत जोर है। जहां रस हो वहां से भागना मत। रस का पूरा अनुभव कर लेना। दूसरे क्या कहते हैं, इसकी चिंता मत करना क्योंकि दूसरों का अनुभव तुम्हारा अनुभव नहीं बनेगा। अगर तुम्हें अभी भोजन में रस हो तो रस ले लेना। रस इतना ले लेना कि भीतर कोई भी आकांक्षा शेष न रह जाए। कहीं कोने-कातर में मन के, किसी रस को दबा मत रहने देना, उभाड़ लेना; पूरा उभाड़ लेना। हां, इतना ही खयाल रखना कि रस बोधपूर्वक लेना, जागे लेना।

रस तो बहुत लोग लेते हैं। जो सोए-सोए लेते हैं, वे रस से कोई निष्पत्ति नहीं निकाल पाते। उनके जीवन में अनुभवों का ढेर तो लग जाता है, निचोड़ नहीं होता। अनुभव में दब जाते हैं, अनुभव में खो जाते हैं, लेकिन अनुभव से कुछ जीवन-सत्य के मणि-माणिक्य नहीं खोजकर ला पाते।

अनुभव अगर सोए-सोए किया गया तो किया ही नहीं गया। उससे कुछ सार न होगा। अगर जागकर किया गया तो अनुभव तुम्हारे लिए शिक्षण दे जाएगा, कुछ पाठ सिखा जाएगा। वही पाठ जीवन की संपदा है। वही पाठ वेद है, वही कुरान है, वही धम्मपद है। जिन्होंने जीवन के अनुभव को जाग-जागकर देखा, जाग-जागकर भोगा, उनके हाथ में कोई ज्योति आ गई। जो व्यर्थ था, वह व्यर्थ दिखाई पड़ गया, जो सार्थक था, वह सार्थक दिखाई पड़ गया।

जैसे प्रकाश पैदा हो जाए तो कमरे में क्या है, सब साफ हो जाता है। कहां कचरा पड़ा है कोने में, वह भी पता चल जाता है। कहां तिजोड़ी है, हीरे-जवाहरात रखे हैं, वह भी पता चल जाता है। अगर तुम कमरे में सोए हो अंधेरे, तो भी तिजोड़ी है, कचरा भी पड़ा है, लेकिन तुम्हें कुछ पता नहीं चलता।

और जब तक तुम्हें तिजोड़ी न दिखाई पड़े, तब तक कचरा कचरा है, यह भी पता नहीं चल सकता। जीवन में सार्थकता की थोड़ी प्रतीति हो तो क्या-क्या निस्सार है, वह अपने आप साफ हो जाता है। कांटों का बोध हो जाए तो फूलों का बोध हो जाता है। फूलों का बोध हो जाए तो कांटों का बोध हो जाता है।

जागकर जीवन के सारे अनुभव जिसने लिए, अधैर्य न किया, जल्दबाजी न की, लोभ न किया, यह न कहा कि चलो, ऋषि-महर्षि तो कहते हैं, कि छोड़ो संसार! ऋषि-महर्षि ठीक ही कहते हैं लेकिन वे अपने अनुभव से कहते हैं। उन्होंने संसार का दुख भोगा, उन्होंने संसार की पीड़ा झेली। उनकी पीड़ा को जब तक तुम न झेलोगे, तब तक उनकी निष्पत्तियां तुम्हारी निष्पत्तियां नहीं हो सकतीं।

हम तो लोभ से भर जाते हैं। जब बुद्ध या महावीर जैसा कोई व्यक्ति हमारे पास से गुजरता है, तो उसकी दमक, उसकी प्रभा, उसकी शांति का वायुमंडल हमें लोभ से भर देता है। हम कहते हैं, काश, ऐसा आनंद हमारा होता! ऐसा आनंद कैसे हमारा हो जाए? कैसे डुबकी लगे इसी सागर में, जिसमें तुम डूबे?

तो हम महावीर और बुद्ध के वचनों को पकड़ने लगते हैं। हमने उनका गीत तो सुना, लेकिन किस पीड़ा से वे इस गीत को उपलब्ध हुए, उसकी हमें कोई खबर नहीं है।

अश्कों में जो पाया है वो गीतों में दिया है

इस पर भी सुना है कि जमाने को गिला है

जो तार से निकली वो धुन सबने सुनी है

जो साज पे गुजरी है वो किसको पता है

जो साज पे गुजरी है वो किसको पता है

जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है

जब तुम महावीर या बुद्ध या कृष्ण या क्राइस्ट के पास होते हो तो जो धुन निकल रही है वह तो सुनाई पड़ती है, जो गीत पैदा हो रहा है वह तो सुनाई पड़ता है, लेकिन किन पीड़ाओं से इस गीत का निखार हुआ है, किन पर्वत-खंडों को तोड़कर यह झरना बहा है; किन आंसुओं ने इन गीतों में धुन भरी है; किस कंटकाकीर्ण मार्ग पर गुजरकर मंदिर के ये स्वर्ण-कलश दिखाई पड़े हैं, उसका तो हमें कुछ भी पता नहीं चलता। गीत से हम लोभित हो जाते हैं। धुन हमें बांध लेती है। हम पूछने लगते हैं, हम क्या करें? कैसे तुम्हें हुआ, कैसे हमें भी हो जाए?

तो अगर हम महावीर का अनुकरण करने लगे, बड़े धोखे में पड़ जाएंगे। हम महावीर जैसा वेष रख सकते हैं। अगर वे निर्ग्रंथ हैं, नग्न हैं, तो हम नग्न हो सकते हैं, दिगंबर हैं, दिगंबर हो सकते हैं। कैसे उठते हैं, कैसे बैठते हैं, कैसे चलते हैं, हम भी ठीक वैसा ही अभ्यास कर सकते हैं।

लेकिन तुम पाओगे कि जो धुन उनके भीतर पैदा हुई थी वह तुम्हारे भीतर पैदा न हुई। क्योंकि मौलिक चीज खो रही है; जड़ नहीं है। तुम्हारे जीवन के अनुभव का निचोड़ नहीं है। महावीर को तुमने ऊपर से ओढ़ लिया। वे तुम्हारे प्राण में विकसित हुए फूल नहीं हैं।

यही तो दुर्भाग्य है जैन मुनियों का। यही दुर्भाग्य है बौद्ध भिक्षुओं का। यही दुर्भाग्य है ईसाई साधु-संतों का। जिससे वे प्रभावित हुए थे, ठीक ही प्रभावित हुए थे। आश्चर्य नहीं है कि जीसस की हवा तुम्हें पुकार बन जाए, आह्वान बन जाए! कि महावीर की आंख तुम्हारी आंख से मिले और तुम्हारी अतल गहराइयां कंपित हो उठें, तुम्हारे प्राणों में कोई नाद बजने लगे–स्वाभाविक है।

लेकिन तुम यह भी तो पूछो कि किन पीड़ाओं से, किस तपश्चर्या से? महावीर का शब्द सुनकर तुम्हारे भीतर मधुर वातास फैल जाए; महावीर का शब्द-शब्द तुम्हारे भीतर मधु घोलने लगे–ठीक! लेकिन यह भी तो पूछो कि ये शब्द किस मौन से आए हैं? किस ध्यान में इनका जन्म हुआ है? किस साधना में गर्भित हुए हैं? कहां से पैदा हुए हैं।

शब्द को ही पकड़कर तुम याद कर लो तो मुर्दा शब्द तुम्हारे मस्तिष्क में अटका रह जाएगा, शोरगुल भी करेगा; लेकिन तुम्हारे भीतर वैसी शांति पैदा न हो सकेगी, जो महावीर के भीतर है। क्योंकि शब्द के कारण शांति पैदा नहीं हुई, शांति के कारण शब्द पैदा हुआ है।

महावीर की वीतरागता ऐसे ही आकश से नहीं टपक पड़ी है, छप्पर नहीं टूट गया है। महावीर की वीतरागता इंच-इंच सम्हाली गई है, साधी गई है। और जीवन के अनुभव में उसकी जड़ें हैं। अनुभव पृथ्वी है।

तुम किसी पौधे से प्रभावित हो गए, काट लाए पौधा ऊपर से और जड़ें वहीं छोड़ आए, तो थोड़ी-बहुत देर पौधा हरा रह जाए, लेकिन कुम्हलाने लगेगा; ज्यादा देर जीवंत नहीं रह सकता। और अगर तुम जड़ें ले आओ, पौधा छोड़ भी आओ तो भी चलेगा। क्योंकि जड़ें आरोपित करते ही तुम्हारे घर में भी पौधा अंकुरित होने लगेगा।

“जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं…।’

परिचित भी नहीं कहते; महावीर कहते हैं–”सुपरिचित।’ परिचित तो हम सभी हैं थोड़े-बहुत, लेकिन नींद-नींद में हैं। कुछ हो भी रहा है, कुछ पता भी चल रहा है, लेकिन सब धुंधला-धुंधला है। न तो आंखें प्रगाढ़ हैं, न ज्योति जली है, न एक-एक अनुभव को पकड़कर निचोड़ लेने की कला सीखी है। तो रोज हम वही किए जाते हैं।

तुमने कभी खयाल किया? नया क्या करते हो? जो कल किया था, वही फिर दोहरा लेते हो। कैसे आदमी हो तुम? यह तो यंत्र जैसा हुआ। कल क्रोध किया था, आज भी कर लिया। और कल पछताए थे क्रोध करके, आज भी पछता लिए। कल भूल हो गई थी, रो लिए थे, क्षमा मांग ली थी। आज फिर भूल हो गई, फिर रो लिए, फिर क्षमा मांग ली। ऐसे वर्तुलाकार तुम कब तक भटकते रहोगे?

इसको ही पूरब में हमने संसार कहा है–संसार-चक्र। गोल-गोल घूमता रहता है, कोल्हू की बैल की तरह घूमता रहता है। बैल को शायद लगता हो कि गति हो रही है, विकास हो रहा है। कहीं जा रहा हूं, कहीं पहुंच रहा हूं। लेकिन जरा देखो, कहां पहुंच रहा है! चलता जरूर है, मगर बंधा है एक ही केंद्र से। उसी के आसपास चक्कर काटता रहता है।

तुम जरा गौर से देखो, तुम्हारे जीवन में विकास है? उत्क्रांति है? तुम कहीं जा रहे? कुछ हो रहा? कि सिर्फ उसी-उसी को पुनरुक्त कर रहे हो? वही राहें, वही लीक! जैसे कल सुबह उठे थे, वैसे आज सुबह उठ आए। जैसे कल रात सो गए थे, आज रात भी सो जाओगे। कितनी बार सूरज ऊगा है; और तुम्हें वहीं का वहीं पाता है!

तो सुपरिचित नहीं हो; परिचित तो हो। सुपरिचित का अर्थ है कि जो अनुभव तुम्हारे जीवन में गुजरा उसके गुजरने के कारण ही अब तुम और हो गए। तुमने उससे कुछ सीखा, कुछ संपत्ति जुटाई। अगर तुमने आज क्रोध किया तो तुमने उस क्रोध से कुछ सीखा। कल अगर क्रोध करना भी पड़ा तो ठीक आज जैसा नहीं करोगे। उसमें कुछ फर्क होगा, भेद होगा, सुधार होगा, तरमीम होगी, संशोधन होगा, कुछ छोड़ोगे, कुछ जोड़ोगे।

तो ठीक है, विकास हो रहा है। अगर ऐसे ही क्रोध से सीखते गए…सीखते गए…सीखते गए तो एक दिन तुम पाओगे कि क्रोध अपने आप, जैसे-जैसे तुम सुपरिचित हुए, विदा हो गया है। जीवन का ज्ञान क्रांति है।

“जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है…।’

इसलिए खयाल रखना, किसी के प्रभाव में कुछ कसम मत ले लेना। किसी के प्रभाव में कुछ छोड़ मत देना।

अकसर ऐसा होता है, जाते हो तुम सुनने, सत्संग में बैठते हो, बातें प्रभावित कर देती हैं! कोई कसम खा लेता है ब्रह्मचर्य की, लेकिन ब्रह्मचर्य की कसम मंदिर में थोड़े ही खानी होती है! अगर तुम मुझसे पूछो तो ब्रह्मचर्य की कसम वेश्यालय में किसी ने खायी हो तो शायद टिक भी जाए, मंदिर में खायी नहीं टिक सकेगी। अगर कामभोग के अनुभव से ही आयी हो तो टिक जाएगी। मंदिर में प्रवचन सुनकर, शास्त्र पढ़कर, एक भावाविष्ट अवस्था में तुमने ले ली हो, टिकेगी नहीं, टूटेगी।

तुमने तो हुक्मेत्तर्केत्तमन्ना सुना दिया

किस दिल से आह तर्केत्तमन्ना करे कोई!

संत तो कहे चले जाते हैं, छोड़ो यह इश्क का जाल! छोड़ो यह प्रेम की झंझट! छोड़ो यह भोग!

तुमने तो हुक्मेत्तर्केत्तमन्ना सुना दिया

तुमने तो कह दिया, दे दिया आदेश कि छोड़ दो प्रेम!

किस दिल से आह तर्केत्तमन्ना करे कोई!

लेकिन जिसे जीवन का अभी कोई अनुभव नहीं है, वह कैसे प्रेम को छोड़ दे?

जिसे जाना ही नहीं, उसे छोड़ोगे कैसे? जिसे पाया ही नहीं, उसे छोड़ोगे कैसे? एक बात को खयाल रखना, जो पाया हो वही छोड़ा जा सकता है। जो तुम्हारी मुट्ठी में हो उसी को गिराया जा सकता है। जो तुम्हारे पास हो उसे ही फेंका जा सकता है।

लेकिन अकसर ऐसा होता है कि बूढ़े बच्चों को सिखाते हैं। इससे बड़ी झंझट पैदा होती है। बूढ़े बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं। और बूढ़े भी कुछ जानकर दे रहे हैं, ऐसा नहीं है। जैसे जवानी में नशा होता है राग का, वैसे बुढ़ापे में नशा होता है वैराग्य का। न तो जवानी के राग में कोई समझ है, न बुढ़ापे के वैराग्य में कोई समझ है। जैसे जवानी में आदमी अंधा होता है, वैसे बुढ़ापे में भी अंधा होता है। बुढ़ापे का अंधापन बुढ़ापे का है, जवानी का अंधापन जवानी का है।

बूढ़े जवानों की निंदा किए चले जाते हैं। कभी उन्होंने मन में सोचा, कि जब तुम जवान थे, तुम्हारे बूढ़ों ने भी ऐसा ही किया था; तुमने सुना था? अगर तुम इतना भी न समझ पाए कि तुम्हारे बूढ़ों की तुमने नहीं सुनी, तुम्हारे जवान बेटे तुम्हारी कैसे सुन लेंगे, तो तुम कुछ भी नहीं समझ पाए। तो तुम बूढ़े…धूप में बाल पक गए होंगे तुम्हारे, सुपरिचित नहीं हो।

जो बूढ़ा सुपरिचित है, वह युवकों से कहेगा, ठीक से भोगना; जागकर भोगना; होश से भोगना। वह यह नहीं कहेगा कि भोग छोड़ना। वह कहेगा, जब भोगने के दिन हैं तो खूब होश से भोग लेना। कहीं ऐसा न हो कि भोगने के दिन निकल जाएं और भोग की आकांक्षा भीतर शेष रह जाए तो बड़ी झंझट पैदा होती है। पैरों में चलने की सामर्थ्य नहीं रह जाती और मन में दूर पहाड़ चढ़ने की कल्पना और सपने रह जाते हैं। तब बड़ी दुविधा पैदा होती है। इसी दुविधा के कारण बूढ़े निंदा करते हैं। उनकी निंदा में अगर गौर करो, तोर् ईष्या पाओगे। बूढ़ा जब निंदा करता है जवान की, तो वह सिर्फर् ईष्या कर रहा है।

डी. एच. लारेन्स ने कहीं लिखा है कि जब मैं छोटे बच्चों को वृक्षों पर चढ़ा देखता हूं तो तत्क्षण मेरे मन में होता है, उतरो! गिर पड़ोगे! लेकिन तब मैंने बार-बार यह कहकर सोचा कि मामला क्या है? मैं अपने भीतर खोजूं तो! तो मुझे पता चला कि छोटे बच्चों को वृक्ष पर चढ़ते देखकर मुझेर् ईष्या होती है। मैं नहीं चढ़ पाता अब। उम्र न रही। अब हाथ-पैर में वैसी लोच न रही, न वैसा साहस रहा; न खतरा मोले लेने का वैसा निर्बोध चित्त रहा। तो कहता तो हूं कि “उतरो, गिर पड़ोगे,’ लेकिन भीतर कहीं कोईर् ईष्या पंख फड़फड़ाती है, कि मैं नहीं चढ़ पाता अब। जब मैं नहीं चढ़ पाता तो कोई भी न चढ़े।

बूढ़ों की निंदा में तुम अकसर पाओगे, जो वे नहीं कर पाते हैं, कोई भी न करे। इन्हीं से बच्चे शिक्षित होते हैं। और बच्चे उन चीजों को छोड़ने का विचार करने लगते हैं, जिनका अभी अनुभव ही नहीं हुआ है। गैर-अनुभव से छोड़ी गई कोई भी बात लौट-लौटकर आ जाएगी; फिर-फिर तुम्हें पकड़ेगी; फिर-फिर तुम्हें सताएगी।

महावीर के इस सूत्र को खूब हृदय में हीरे की तरह सम्हालकर रख लेना–

“जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं, निस्संग, निर्भय और आशारहित हैं…।’

जो ठीक से परिचित हुआ संसार से, जिसने सब कडुवे-मीठे अनुभव लिए, जो डरा नहीं, जो निस्संकोच उतर गया अंधेरों में, जो गङ्ढों में भी गिरा और भयभीत न हुआ, जिसने सारे जीवन के अनुभव लेने की ठानी कि परिचित तो हो लूं! इस जीवन में आया हूं, ठीक से जान तो लूं, कि क्या है? जिसने उधार वचन न सीखे, और उधार सिद्धांतों का बोझ न ढोया; और शास्त्रों से न जीया, जीवन के शास्त्र को ही शिक्षा देने का जिसने मौका और अवसर दिया, वह अपने आप निस्संग हो जाएगा।

निस्संगता का अर्थ है, जीवन को ठीक से पहचानोगे तो तुम पाओगे, तुम अकेले हो। साथ होना धोखा है। हम सब अकेले हैं। अकेले के कारण डर लगता, भय होता, असुरक्षा मालूम होती; तो हमने संग-साथ बना लिया है। लेकिन संग-साथ मान्यता भर है। तुम मरोगे, अकेले जाओगे। तुम आए अकेले, जाओगे अकेले। थोड़ी देर को अपरिचित लोगों से…और ध्यान रखना, जब मैं अपरिचित कह रहा हूं तो मेरा मतलब यह नहीं है जिसे तुम नहीं जानते। जिसे तुम सोचते हो कि तुम जानते हो, वह भी तो अपरिचित है।

तुम्हारी पत्नी परिचित है? एक दिन एक अपरिचित स्त्री के साथ सात चक्कर लगा लिए थे, परिचय हो गया? तुम्हारा बेटा तुमसे परिचित है? एक दिन एक अनजान आत्मा तुम्हारे घर में पैदा हो गई थी। सिर्फ तुम्हारे गर्भ से पैदा हुआ, तो परिचित है? तुमने उसके अवतरण में थोड़ा साथ-सहयोग दिया, तो परिचित है?

खलील जिब्रान ने कहा है, तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं। तुमसे आते हैं जरूर। तुम माध्यम हो। लेकिन दावा मत करना कि हमारे बच्चे हमारे हैं। तुम उन्हें प्रेम तो देना, ज्ञान मत देना। क्योंकि वे कल में जीयेंगे। वे भविष्य में जीयेंगे। उस भविष्य का तुम्हें सपना भी नहीं आ सकता। तुम्हारा ज्ञान अतीत का है। वे भविष्य में जीयेंगे। तुम अपना प्रेम देना, अपना ज्ञान मत देना। और दावा मत करना कि बच्चे हमारे हैं।

एक आदिम जाति है–होपी। अकेली होपी भाषा ऐसी भाषा है, जो इस संबंध में सच के करीब पहुंचती है। तुम अपने बेटे को लेकर कहीं जाते हो, कोई पूछता है “कौन है?’ तुम कहते हो, “मेरा बेटा,’ या “मेरी बेटी।’ होपी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं है, अगर होपी बाप अपने बेटे को लेकर कहीं जा रहा है और कोई पूछता है, यह कौन है, तो वह कहता है, यह लड़का है, जिसके साथ हम रहते हैं। यह लड़का है, जो हमारे घर पैदा हुआ है। पता नहीं कौन है!

यह बात ज्यादा समझ में आने जैसी लगती है–यह लड़का हमारे साथ रहता है, हम इस लड़के के साथ रहते हैं। संयोग है। यह हमारे घर में पैदा हुआ है; वैसे हम जानते नहीं कौन है!

कौन जानता है? कभी अपने छोटे बच्चे की आंखों में झांककर देखा–जानते हो? इससे ज्यादा अजनबी आंखें और कहां पाओगे? कोई उपाय नहीं है। अपने को नहीं जानते, दूसरे को हम जानेंगे कैसे?

और एक बात तय है कि अकेले हम आते हैं, अकेले हम जाते हैं, और बीच में यह जो दो दिन का मेला है, इसमें हम बड़े संबंध बना लेते हैं। राह पर चलते लोगों के हाथ में हाथ डाल लेते हैं। कोई पत्नी हो जाती है, कोई पति हो जाता है। कोई मित्र हो जाता है, कोई शत्रु हो जाता है। हम जल्दी से संबंध जोड़ लेते हैं, ताकि अकेलापन छिप जाए। हम संबंध की चादर फैला देते हैं ताकि अकेलापन भीतर छिप जाए। हम अकेले होने से डरे हैं, भयभीत हैं। कोई तो अपना हो इस अजनबी दुनिया में! दो-चार को अपना बनाकर थोड़ा भरोसा आता है। कोई फिक्र नहीं, कोई तो अपना है! किसी से तो नाता है!

जिस व्यक्ति ने भी जीवन को गौर से देखा, वह यह पाएगा कि हम निस्संग हैं। और जब निस्संग हैं तो नाते-रिश्तों के धोखे में पड़ने का कोई कारण नहीं।

इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सब नाते-रिश्ते तोड़कर आज भाग जाओ। भागने का तो खयाल उसी को आता है, जिसको समझ नहीं आई। मां मां रहेगी, पिता पिता रहेगा, बेटा बेटा रहेगा; लेकिन भीतर अब तुम जानते हो, जागकर जानते हो कि कोई, कोई का नहीं। कोई अपना नहीं। खेल के नियम हैं।

जैसे ताश खेलते हैं, तो ताश के पत्तों में रानी होती है, राजा होता है, गुलाम होता और सब कुछ होता है; लेकिन कोई हम मानते थोड़े ही, कि राजा-रानी हैं! जानते हैं कि ताश का पत्ता है, खेल है। अगर कोई आदमी ताश के पत्तों में एकदम उठकर खड़ा हो जाए और कहे, कि यह सब धोखा है, मैं तो त्याग करता हूं यह राजा-रानियों का। तुम्हें हंसी आएगी। क्योंकि त्याग करने का खयाल तो तभी सार्थक हो सकता है, जब राजा-रानी सच्चे हों। तुम कहोगे पागल हुए हो? है ही कौन, जिसको तुम त्याग कर रहे हो? ये राजा-रानी तो कागज पर बने चिह्न हैं। यह तो हमारी मान्यता है। त्याग तो तब हो सकता है, जब हो।

तो जब कोई आदमी कहता है, मैं पत्नी को छोड़कर जंगल जा रहा हूं, तो चूक गया। पत्नी को छोड़कर जंगल जाने की क्या जरूरत थी? पत्नी जब तुम्हारे बिलकुल पास बैठी है, हाथ में हाथ डाले बैठी है, तब भी तुम अकेले हो, यह जानना है। पत्नी अकेली है, यह जानना है। बेटा जब तुम्हारी गोद में खेल रहा है, तब भी जानना है कि तुम अकेले हो, बेटा अकेला है।

संबंध ताश के पत्तों का खेल है; संयोग मात्र है। नदी-नाव संयोग! थोड़ी देर को मिलना हो गया है। इन थोड़े क्षणों में इस तरह जीओ कि तुम्हारे कारण किसी को व्यर्थ दुख न पहुंचे; बस काफी है। थोड़ी देर राह पर साथ हो लिए हैं, गीत गुनगुना लो, ठीक! कुछ देते बने, दे दो; ठीक! लेकिन इस भ्रांति में मत पड़ना कि यह सदा संबंध रहनेवाला है–निस्संग!

और जिसको यह पता चला कि मैं निस्संग हूं, वह निर्भय हो जाता है। मूल भित्ति है, जीवन से जो सुपरिचित होता है, वह निस्संग हो जाता है। जीवन को देखोगे तो दिखाई ही पड़ जाएगा अकेला हूं; बिलकुल अकेला हूं। जन्मों-जन्मों से अनंत की यात्रा पर अकेला हूं।

और जब अकेला हूं, और साथ-संगी होने का कोई उपाय ही नहीं है तो भय कैसा? जब अकेला ही हूं और अकेला ही रहा हूं और अकेला ही रहूंगा तो अब भय भी क्या करना! जब कोई आदमी तथ्यों को देख लेता है, तथ्य स्वीकार हो जाते हैं।

अकसर ऐसा होता है कि युद्ध के मैदान पर जब सैनिक जाते हैं, तो बहुत डरे रहते हैं–जाने के पहले डरे रहते हैं; बड़े घबड़ाए रहते हैं, मौत की तरफ जा रहे हैं। पता नहीं लौटेंगे, नहीं लौटेंगे! लेकिन जैसे ही युद्ध के मैदान पर पहुंच जाते हैं, भय समाप्त हो जाता है। फिर गोलियां चलती रहती हैं और बम गिरते हैं और वे ताश भी खेलते रहते हैं, गपशप भी करते हैं, हंसते भी हैं, गुनगुनाते भी हैं, भोजन भी करते हैं–सब चलता है।

एक दफा युद्ध के मैदान पर पहुंच गए, एक बात स्वीकृत हो जाती है कि ठीक है, मौत है। जो है, है। उससे बचने का क्या है? भागने का कहां है?

जैसे ही हम तथ्यों के साथ आंख मिलाना सीख जाते हैं, एक अभय पैदा होता है कि जो है, है। मौत है तो है, करोगे क्या? जाओगे कहां? भागोगे कहां? फिर युद्ध के क्षेत्र से तो भागना संभव भी है। युद्ध के क्षेत्र में तो बचने का कोई उपाय हो भी सकता है, लेकिन जीवन के क्षेत्र में कहां भागोगे?

यहां तो मौत सुनिश्चित ही है। कहीं भी जाओ, कैसे भी बचो, कहीं भी छिपो, मौत तुम्हें खोज ही लेगी। तो जब होना ही है तो स्वीकार हो जाता है।

“निस्संग, निर्भय और आशारहित…।’

यह आशारहित शब्द को बहुत खयाल से समझने की जरूरत है। जीवन में हम कामना से भी ज्यादा आशा से बंधे हैं। साधु-संत तुम्हें कहते हैं, वासना छोड़ो, यह नहीं कहते कि आशा छोड़ो। क्योंकि अगर आशा छोड़ो तो साधु-संत भी आशा ही के सहारे जी रहे हैं–स्वर्ग की आशा, मोक्ष की आशा, इस संसार में नहीं मिला तो परलोक में मिलेगा सुख, इसकी आशा।

महावीर की बात कुछ और है। महावीर कह रहे हैं, आशा जानी चाहिए। आशारहितता जब तक न हो जाए, तब तक मुक्ति नहीं है।

आशा वासना का सूक्ष्मतम रूप है। आशा का अर्थ है, जो आज नहीं हुआ, कल होगा। जो आज नहीं हो पाया, कल कर लेंगे। आज चूक गए, कल न भूलेंगे, कल न चूकेंगे। आशा का अर्थ है, जीवन को कल पर टालने की सुविधा।

रोज-रोज हारते हैं, लेकिन कल की आशा बचाए रखते हैं!

बहुत घुटन है, कोई सूरते-बयां निकले,

अगर सदा न उठे, कम से कम फुगां निकले!

फकीरे-सहर के तन पर लिबास बाकी है,

अमीरे-सहर के अरमां अभी कहां निकले!

हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे

मलाल क्यों हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले!

–कुछ सपने अगर झूठे निकल गए तो इतना दुखी होने की क्या जरूरत?

हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे

और अभी संसार तो बना है; तो और सपने बना लेंगे

मलाल क्यों हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले!

–कुछ ख्वाब झूठे निकल गए, कुछ सपने सच न सिद्ध हुए तो इसमें दुखी होने की क्या बात है?

आदमी हारता है एक में, तो लोग उसे आश्वासन देते हैं, क्या घबड़ाते हो? एक बार आदमी हार जाता है, दूसरी बार जीत जाता है। दूसरी बार हार जाता है, तीसरी बार जीत जाता है। चले चलो! जीतोगे।

हालांकि इस संसार में कोई अब तक जीता नहीं। यहां सभी हारे हैं। जीत यहां संभव नहीं है। हार यहां स्वभाव है। लेकिन आशा कहे चली जाती है, आज हार गए, ठीक से संघर्ष न कर पाए, विधि-विधान न जुटा पाए, अब समझदार भी हो गए ज्यादा, अनुभव भी हो गया, कल जीत लेंगे।

ऐसे जो कभी नहीं घटता, कभी नहीं घटेगा, उसकी आशा में हम जीये चले जाते हैं। और हाथ से रोज-रोज जीवन चुकता जाता है। इधर जीवन राख हुआ जा रहा है, उधर आशा सुलगती रहती है, सुलगाए रखती है। हम दौड़े रहते हैं।

वासना से भी ज्यादा खतरनाक पकड़ है आशा की। क्योंकि ऐसा तो दिखाई पड़ता है कि बहुत से लोग वासना से ऊब जाते हैं, मगर आशा से नहीं ऊबते। इधर वासना से ऊबते हैं, तो भागते हैं संसार छोड़कर; लेकिन संन्यास में भी आशा को तो जलाए ही रखते हैं कि जो संसार में नहीं मिला, वह संन्यास में मिल जाएगा।

महावीर की दृष्टि में संन्यास घटता है, जब तुम आशारहित हो गए। जब तुमने यह स्वीकार कर लिया कि कुछ होता ही नहीं, होनेवाला नहीं है। सब आशाएं व्यर्थ हैं, धोखा हैं, प्रवंचना हैं, मृग-मरीचिका हैं।

तुम तो घबड़ाओगे। तुम कहोगे, अगर ऐसा आदमी आशारहित हो जाए, हताश हो जाए, निराश हो जाए तो जीयेगा कैसे? चलेगा कैसे? उठेगा कैसे? सुबह बिस्तर से बाहर कैसे निकलेगा? अगर कुछ भी नहीं होना है तो बिस्तर से बाहर निकलने का भी क्या प्रयोजन?

हम डरते हैं। हम डरते हैं कि ऐसा आदमी अगर निराश हो गया तो फिर जीना असंभव है; श्वास लेना असंभव है। लेकिन हमें पता नहीं है। निराश भी हम तभी तक होते हैं, जब तक आशा है। जब आशा बिलकुल विदा हो जाती है तो निराश भी होने को कुछ नहीं बचता। इसे समझना।

निराशा आशा की असफलता है।

निराशा आशा का अभाव नहीं है, निराशा आशा की असफलता है। जिस आदमी ने आशा छोड़ दी, उसी के साथ निराशा भी छूट गई। अब निराश होने को भी कुछ न बचा। जब आशा ही न बची तो निराश होने का क्या बचा? जब जीत का कोई खयाल ही न रहा तो हारोगे कैसे?

इसलिए लाओत्से कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता। क्योंकि मैं जानता हूं, जीत होती ही नहीं। और मैं जीत की कोई आकांक्षा नहीं करता हूं। मुझे कोई हरा नहीं सकता।

कैसे हराओगे उस आदमी को, जो जीतने के लिए आतुर ही नहीं है? जिसने जीतने की व्यर्थता को समझ लिया, उसे तुम कैसे हराओगे?

हार और जीत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

आशा-निराशा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

स्वर्ग-नर्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

तुम दुख से बचना चाहते हो, सुख पाना चाहते हो; मिलता तो दुख ही है। तुम निराशा से बचना चाहते हो, आशा को उकसाए रखते हो; मिलती तो निराशा ही है।

महावीर कहते हैं, आशारहित हो जाओ; आशा से शुद्ध हो जाओ। आशा को छोड़ दो। आशा के छोड़ते ही एक क्रांति घटती है। वह क्रांति है, भविष्य का विसर्जित हो जाना। वह क्रांति है, भविष्य का समाप्त हो जाना। निराशा नहीं आती, भविष्य विदा हो जाता है। और भविष्य के विदा होते ही तुम्हारी ऊर्जा यहीं और अभी ठहर जाती है।

वही ध्यान का पहला चरण है–ऊर्जा यहां, अभी ठहर जाए। कल में न भटकती फिरे, कल में तलाश न करे। आज और यहीं और इसी क्षण तुम्हारा सारा अस्तित्व संगठित हो जाए।

अभी तुम बिखरे-बिखरे हो। कुछ अतीत में पड़ा है, जो अब रहा नहीं; कुछ वहां उलझा है…कुछ क्या, काफी उलझा है। नब्बे प्रतिशत आदमी अतीत में उलझा है। किसी ने गाली दी थी बीस साल पहले, अभी भी वहां उलझाव बना है। तीस साल पहले कोई मित्र चल बसा था दुनिया से, अभी भी एक घाव बना है। पंद्रह साल पहले कोई हार हो गई थी, अभी तक उसकी तिक्तता जीभ पर बनी है। अभी तक छूटती नहीं है। अभी तक बार-बार याद आ जाती है।

नब्बे प्रतिशत आदमी वहां उलझा है, जो है नहीं; और जो दस प्रतिशत है वह वहां उलझा है, जो अभी आया नहीं। ऐसे हम शून्य में जीते हैं।

यही ठीक अर्थ है माया में जीने का। माया का अर्थ है, उसमें जीना, जो नहीं है–अतीत; और उसमें जीना, जो अभी आया नहीं है–भविष्य।

और ब्रह्म में जीने का अर्थ है अभी जीना, यहीं जीना, सौ प्रतिशत इसी क्षण में इकट्ठे हो जाना। सारी प्राण-ऊर्जा इसी क्षण में आकर इकट्ठी हो जाए, केंद्रित हो जाए, संगठित हो जाए, एकाग्र हो जाए। तो उस ऊर्जा की एकाग्रता में ही हमारा पहला संबंध, पहला साक्षात्कार सत्य से होता है।

इसलिए महावीर कहते हैं, आशारहितता।

हम अपने को धोखा दिए चले जाते हैं। हम कहते हैं, कल अच्छा हो सकेगा। मनुष्य की बड़ी से बड़ी जो भ्रांति की कला है, वह यह है कि कल थोड़ा सुधार हो जाएगा। आज दुकान ठीक नहीं चल रही है, कल चलेगी। आज ग्राहक नहीं आए, कल आएंगे। आज सम्मान नहीं मिला, कोई कारण नहीं है, कल क्यों न मिलेगा। थोड़ी और कोशिश करें।

प्रत्येक नया दिन नई नाव ले आता है,

लेकिन समुद्र है वही, सिंधु का तीर वही

प्रत्येक नया दिन नया घाव दे जाता है,

लेकिन पीड़ा है वही, नैन का नीर वही

कुछ बदलता नहीं। पीछे लौटकर देखो! रेगिस्तान की तरह…रिक्त है जीवन। अपने अतीत को देखो, वहां कुछ भी नहीं है। न होने का कारण ही जो-जो तुम अतीत में चूक गए हो, वह तुम भविष्य में रख लिए हो। जो तुम्हें पीछे नहीं मिल सका, उसे तुमने आगे सरका लिया है। जो तुम सत्य में नहीं पा सके, उसका सपना देख रहे हो।

जब महावीर कहते हैं, कि “आशारहितता’, तो उनका अर्थ यह है: सत्य यहां है, इस क्षण! तुम इस क्षण से और कहीं न भटको। तुम इस क्षण में लौट आओ। इस क्षण में होगा मिलन। इस क्षण में घटेगी वह क्रांति, जिसको समाधि कहें, सम्यक ज्ञान कहें या कोई और नाम देना हो तो और नाम दें।

इस क्षण से द्वार खुलता है अस्तित्व में। यह क्षण द्वार है। केवल वर्तमान सच है, शेष सब झूठ है। जो बीत गया, बीत गया, अब नहीं है। जो नहीं आया, अभी नहीं आया है। जो बीत गया वह कभी सच था, जब वह वर्तमान था। और जो नहीं आया है, वह कभी सच होगा लेकिन तभी जब वर्तमान बनेगा।

तो एक बात तय है कि केवल वर्तमान के अतिरिक्त और कुछ भी सच नहीं होता। तो तुम वर्तमान में होने की कला सीख जाओ, तो सत्य के साथ हो जाओगे। सत्य से सत्संग जुड़ेगा।

और वह पल जो गया, सो गया ही

जो नया आए, रहे वह नया ही

यह नहीं होगा, नया भी जाएगा

और हर क्षण नया ही क्षण आएगा

फिर क्षणिक क्या? खंड क्या है, छिन्न क्या?

आज, कल अत्यंत और अभिन्न क्या?

सब सनातन, सिद्ध और समग्र है

सब अचिंत्य, अनादि और अव्यग्र है

और वह पल जो गया सो गया ही

जो नया आए, रहे वह नया ही

इसे थोड़ा सोचना।

तुम्हारी आशा के कारण नया भी नया नहीं हो पाता। तुम जो-जो योजना बना लेते हो, उसके कारण नए को भी जूठा कर देते हो, पुराना कर देते हो, आने के पहले ही खराब कर देते हो। तुम्हारी अपेक्षा नए पर पहले से ही छाया डाल देती है।

तुम कुछ मानकर चल रहे हो, यह होगा; अगर हुआ तो भी मजा नहीं आता। क्योंकि इसको तो तुम बहुत बार सपने में देख चुके थे; बहुत बार सोच चुके थे, वही हुआ। होने के पहले ही पुराना पड़ गया।

अगर न हुआ तो दुखी होओगे कि नहीं हुआ; अगर हुआ तो सुखी न होओगे। आदमी का गणित बड़ा अजीब है।

तुमने खयाल किया, जिससे अपेक्षा हो उससे सुख नहीं मिलता। राह तुम चल रहे हो, तुम्हारा रूमाल गिर जाए और एक अजनबी आदमी उठाकर रूमाल दे दे तो तुम धन्यवाद देते हो; क्योंकि अपेक्षा नहीं थी। तुम प्रसन्न होते हो कि भला आदमी है। लेकिन तुम्हारी पत्नी ही रूमाल उठाकर दे दे, तो तुम धन्यवाद भी नहीं देते! हां, अगर उठाकर न दे तो नाराज होओगे कि तुमने उठाकर दिया क्यों नहीं? उठाकर दे, तो प्रसन्न नहीं होते; न धन्यवाद, न अनुग्रह। न दे तो नाराज होते हो।

जिससे अपेक्षा होती है, उससे हम दुख पाते हैं, सुख नहीं पाते। अगर पूरा हो जाए तो होना ही चाहिए था; इसलिए सुख का कोई कारण नहीं है। पत्नी ने रूमाल उठाकर दिया–देना ही चाहिए था; उसका कर्तव्य ही था। इसमें बात क्या हो गई धन्यवाद की? अगर न दिया तो कर्तव्य का पालन नहीं हुआ।

अगर बेटा बाप को सम्मान दे तो कोई सुख नहीं मिलता; न दे सम्मान तो दुख मिलता है। यह बड़ी हैरानी की बात है। फिर तुम कहते हो, हम दुखी क्यों हैं?

अगर तुमने धंधा किया और दस हजार रुपये मिलने की आशा थी, मिल गए तो कोई खास सुख नहीं होता–मिलने ही थे। निश्चित ही था। मिलने के पहले ही तुम योजना बना चुके थे कि मिलेंगे। इतना ही नहीं, मिलने के बाद क्या-क्या करोगे उस सबकी भी योजना बना चुके थे। तो जब मिलते हैं, तब चौंकाते नहीं तुम्हें। विस्मय से नहीं भरते, आनंद-विभोर नहीं करते। अगर न मिले तो तुम दुखी जरूर हो जाते हो।

कलकत्ते में मेरे एक मित्र हैं, उनके घर मैं कभी-कभी रुकता था। एक बार मुझे लेकर एअरपोर्ट से वे घर जा रहे थे, उदास थे; तो मैंने पूछा कि क्या मामला है? वे बोले कि बड़ा नुकसान लग गया, कोई पांच लाख का नुकसान लग गया। उनकी पत्नी भी पीछे थी कार में, वह हंसने लगी। उसने मुझसे कहा, आप इनकी बातों में मत पड़ना। मैंने कहा, वे उदास हैं और तू हंस रही है; बात क्या है?

तो उसने कहा, मामला ऐसा है कि नुकसान हुआ नहीं, पांच लाख का लाभ हुआ है। लेकिन दस लाख का होना चाहिए था, इसलिए ये दुखी हैं। इनको मैं लाख समझा रही हूं कि तुम्हें पांच लाख का लाभ हुआ। मगर ये कहते हैं, वह कोई सवाल ही नहीं है, दस का होना निश्चित ही था। पांच का नुकसान हो गया।

अब जिसको दस लाख का लाभ होना है, उसे पांच लाख का भी लाभ हो तो प्रसन्नता कैसे हो? क्योंकि प्रसन्नता तो तुम्हारी अपेक्षा पर निर्भर होती है।

तुम खयाल करना, अगर तुम अपेक्षाशून्य हो जाओ तो तुम्हारे जीवन में आनंद की वर्षा हो जाएगी। अगर तुम्हारी कोई आशा न रह जाए तो तुम पाओगे, प्रतिपल स्वर्ग के फूल खिलने लगे। जिसकी कोई आशा नहीं है उसे तो सांस चलना भी बड़े आनंद की घटना मालूम पड़ती है। जिंदा हूं, यह भी बहुत है । यह भी कोई जरूरी तो नहीं है कि होना चाहिए। इसकी भी कोई ऐसी अनिवार्यता तो नहीं है। यह जगत मुझे जिलाए ही रखे, इसकी क्या अनिवार्यता है? मेरे दीये को बुझा दे तो शिकायत कहां करूंगा? अपील की कोई कोर्ट भी तो नहीं है। मेरा दीया जल रहा है, यह भी धन्यभाग है।

जिस व्यक्ति के जीवन में आशा नहीं है, होना मात्र भी परम आनंद है। छोटी-छोटी चीजें आनंद की हो जाती हैं। हवाओं का वृक्षों से गुनगुनाते हुए गुजर जाना! वृक्षों में नई कोपलों का फूट आना! सुबह पक्षियों की चहचहाहट! रात आकाश का तारों से भर जाना! राह पर किसी आदमी का नमस्कार कर लेना, किसी बच्चे का मुस्कुरा देना, किसी का प्रेम से हाथ हाथ में ले लेना–सभी कुछ अपूर्व है।

लेकिन आशारहित व्यक्ति हो तो प्रतिक्षण सोने का है; प्रतिक्षण में सुगंध है, प्रतिक्षण में स्वर्ग है।

महावीर कहते हैं, “संसार से जो सुपरिचित, निस्संग, निर्भय और आशारहित है, उसी का मन वीतरागता को उपलब्ध होता है; और वही ध्यान में सुनिश्चल, भलीभांति स्थित होता है।’

ध्यान की स्थिरता का अर्थ है, वर्तमान के क्षण से यहां-वहां न जाना; जरा भी डांवांडोल न होना। जो है, उसके साथ पूरी समरसता से जीना। जो है, उससे अन्यथा की न मांग है, न चाह है, न आशा है। जो है, वैसा ही होना चाहिए। ऐसा ही भाव है। जो है, वह वैसा है ही जैसा होना चाहिए था। न कोई विरोध है, न कोई निंदा है, न कोई आलोचना है।

तथ्य की इस स्वीकृति का नाम तथाता है। और जो ऐसी तथाता को उपलब्ध हुआ, उसको महावीर और बुद्ध दोनों ने तथागत कहा है। तथागत बुद्ध और महावीर का विशिष्ट शब्द है। उसका अर्थ होता है, तथाता को उपलब्ध; तथ्य की स्वीकृति को पूर्णता से उपलब्ध है। जो है, है; जो नहीं है, नहीं है। और इसमें मेरा कोई चुनाव नहीं है। मैं राजी हूं। जो है, उसके होने से राजी हूं। जो नहीं है, उसके नहीं होने से राजी हूं। अन्यथा की कोई चाह नहीं है। तथ्य का पूरा स्वागत है। ऐसा व्यक्ति ही ध्यान को स्थित होता है।

आमतौर से तो हम रोते ही रहते हैं। लोगों की आंखें देखो, तुम उन्हें सदा आंसुओं से भरी पाओगे। हजार शिकायतें हैं। शिकायतें ही शिकायतें हैं। सारा अतीत व्यर्थ गया, वर्तमान व्यर्थ जा रहा है, भविष्य की आशा पर टंगे हैं। बड़ा पतला धागा है, जिससे तलवार लटकी है। वह भी होगा इसका पक्का भरोसा थोड़े ही है! सिर्फ आशा है, भरोसा नहीं है।

भरोसा हो भी कैसे सकता है? आशा तो पहले भी की थी, हर बार टूट गई। आशा-आशा करके तो अब तक गंवाया; मिला कुछ भी नहीं। लेकिन बिना आशा के जीयें भी कैसे? तो फिर आगे के लिए सरका लेते हैं। पीछे के लिए रोते रहते हैं, आगे के लिए रोते रहते हैं। और बीच के क्षण में परमात्मा तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता रहता है। परमात्मा कहता है, यहां, इसी क्षण! खोलो आंखें! देखो, मैं मौजूद हूं!

लेकिन हमें फुर्सत कहां? वर्तमान का छोटा-सा क्षण, बड़ा छोटा है–आणविक, हमारी चिंताओं में अतीत और भविष्य की, कहीं खो जाता है।

कभी सोचना बैठकर–

आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर

देखे थे हमने जो वह हंसी ख्वाब, क्या हुए?

पहले भी तुम ख्वाब देखते रहे थे; उनका क्या हुआ? अब फिर ख्वाब देख रहे हो। जो उनका हुआ, वही इनका भी होगा। मरते वक्त रोओगे कि ख्वाब में ही गंवाया। आशा में ही बंधे-बंधे नष्ट हुए।

ख्वाब छोड़ो। ये स्वप्नीली आंखों पर थोड़ा पानी छिड़को होश का। थोड़ा झकझोरो अपने को, जगाओ। और इस क्षण में लौट आओ। पकड़-पकड़कर…।

पहले तो बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि मन की पुरानी आदतें हैं, वह खिसक-खिसक जाता है। तुमने इधर से पकड़ा, वह दूसरी गली से निकल गया। पीछे गया, आगे गया, यहीं भर नहीं आता। लेकिन तुम कोशिश करते रहो, कोशिश करते रहो, कभी अगर क्षणभर को भी यहां रुक जाएगा, तो स्वाद की शुरुआत हो जाएगी–सत्य का स्वाद! फिर स्वाद पकड़ लेता है। फिर उस स्वाद के कारण मन ज्यादा-ज्यादा रुकने लगता है।

“ध्यानऱ्योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य संयोगों से भिन्न देखता है। अर्थात देह तथा उपाधि का सर्वथा त्याग करके निस्संग हो जाता है।’

जिसने यह जाना कि कोई मेरा नहीं है, कोई मित्र नहीं, कोई प्रियजन नहीं; जिसने यह समझा कि मैं अकेला हूं, उसे जल्दी ही एक और नई समझ आएगी। और वह समझ होगी कि मैं शरीर नहीं हूं। क्योंकि दूसरों के साथ हम जो संबंध जोड़े हैं, वह शरीर से जोड़े हैं। जब दूसरों से संबंध टूट जाता है तो शरीर से संबंध शिथिल होने लगता है। जो आदमी दौड़ता है, उसके पैर मजबूत रहते हैं। जब वह घर बैठ जाता है, दौड़ना बंद कर देता है, पैर अपने आप कमजोर हो जाते हैं। अगर वह वर्षों तक बैठा ही रहे तो फिर चल ही न पाएगा।

जब तुम्हारा मन शरीर के माध्यम से दूसरों से बहुत संबंध बनाता है, हजार तरह के नाते जोड़ता है तो शरीर मजबूत रहता है। शरीर की पकड़ गहरी रहती है, आसक्ति भारी रहती है। क्योंकि उसी के द्वारा…वही तो सेतु है दूसरे तक पहुंचने का।

लेकिन जब दूसरों से संबंध धीरे-धीरे छोड़ देते हो, भीतर जान लेते हो, जाग जाते हो कि कोई अपना नहीं, तो यह शरीर की दौड़ बंद हो जाती है। इस दौड़ के बंद होते ही धीरे-धीरे शरीर के साथ तुम्हारी जो आंतरिक आसक्ति है, वह क्षीण हो जाती है। जब कोई अपना नहीं है तो एक दिन पता चलता है कि शरीर भी अपना नहीं है। मैं शरीर नहीं हूं, यह बोध गहन होता है।

और जब यह बोध गहन होता है, तब एक और नई क्रांति घटती है कि मैं मन भी नहीं हूं। जैसे शरीर जोड़ता है दूसरों से, ऐसा मन जोड़ता है शरीर से। जैसे-जैसे तुम पीछे हटते जाते हो, सेतु टूटते जाते हैं।

शरीर जोड़ता है संसार से, पर से। पर से संबंध गिरा, शरीर का संबंध शिथिल हुआ। शरीर का पता चला कि शरीर मुझसे अलग है, मैं देह नहीं, तो मन जोड़ता है शरीर से। अब मन के भी जोड़ने का कोई कारण न रहा। मैं शरीर नहीं हूं तो मन का जोड़ भी उखड़ा।

और जैसे ही जोड़ उखड़ा कि आखिरी क्रांति घटती है। पता चलता है कि मैं मन भी नहीं हूं; उसके पार जो शेष है, वही हूं। वही हूं।

उससे संबंध कभी नहीं छूटता। वही है शाश्वत आत्मा। वही है तुम्हारे भीतर सनातन। वही है नित्य। वही है अमृतधर्मा।

शरीर मरता है; इसलिए शरीर के साथ जुड़े तो भय रहेगा। मन बदलता है; मन के साथ जुड़े तो जीवन में कभी थिरता न होगी।

शरीर और मन के पार जो छिपा है–साक्षी, चैतन्य–उससे जुड़े तो फिर सब शाश्वत है, सब थिर है। फिर कोई परिवर्तन की लहर नहीं आती। फिर तुम उस अनंत गृह में पहुंचे, जहां से निकलने का कोई कारण नहीं। जहां तुम सदा के लिए विश्राम कर सकते हो। जहां विराम है–चिंताओं से, विचारों से, अशांतियों से, तनावों से। तुम अपने घर वापिस आए।

“ध्यानऱ्योगी अपने शरीर को तथा समस्त बाह्य संयोगों को भिन्न देखता है। देह तथा उपाधि का सर्वथा त्याग करके निस्संग हो जाता है।’

“वही श्रमण आत्मा का ध्याता है, जो ध्यान में चिंतवन करता है कि मैं न पर का हूं, न पर पदार्थ या भाव मेरे हैं। मैं तो एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूं।’

“चिंतवन’–जैनों का अपना शब्द है। इसे तुम चिंतन से एक मत समझ लेना। चिंतन से भिन्न करने के लिए ही इस शब्द को गढ़ा गया है–चिंतवन। चिंतन का अर्थ होता है, सोचना, और चिंतवन का अर्थ होता है देखना।

तुम ऐसा बैठकर सोच सकते हो कि मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं; इससे कुछ लाभ न होगा। यह तो मन में ही उठी तरंग है। यह तो मन ही दोहरा रहा है। नहीं, ऐसा सोचना नहीं है, ऐसा देखना है। ऐसा विचार में नहीं, भीतर दोहराना है। ऐसा भीतर अनुभव में लाना है। ऐसा स्पष्ट दिखाई पड़े कि मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं। इसमें जरा भी शंका और शल्य न रहे। इसमें जरा भी संदेह की छाया न पड़े। यह श्रद्धा परिपूर्ण हो। यह हो जाती है।

जो आशारहित, निस्संग भाव से जीता है, स्वभावतः धीरे-धीरे उसे यह दृष्टि उपलब्ध होती है। यह सम्यकत्व उपलब्ध होता है। वह देखने लगता है अपने भीतर। उसे साफ दिखाई पड़ने लगता है कि मैं देखनेवाला हूं। जो भी दिखाई पड़ता है, वह मैं नहीं हूं। हो भी कैसे सकता हूं? जो मुझे दिखाई पड़ता है, उससे मैं अलग हो गया। मैं तो वह हूं, जिसे दिखाई पड़ता है।

इसलिए धीरे-धीरे समस्त दृश्यों से अपने को मुक्त करके शुद्ध द्रष्टा में लीन हो जाने का नाम चिंतवन है।

“वही श्रमण आत्मा का ध्याता है…।’

और महावीर कहते हैं, वही ध्यान को उपलब्ध हुआ, जो चिंतवन करता है, जो देखता है, जिसके अनुभव में आता है, जिसकी प्रतीति में उतरता है कि मैं न पर का हूं, न पर मेरे हैं। मैं एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूं।

“तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते…।’

“तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। कल्पनामुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।’

“तथागत अतीत और भविष्य में नहीं देखते’–वही तथागत की परिभाषा है; जो न पीछे देखता है, न आगे। जो बस यहीं है; इस क्षण में पर्याप्त है। जो इस क्षण से बाहर नहीं जाता।

जैसे दीये की लौ हवा के झोंके में कंपती इधर-उधर, फिर हवा के झोंके बंद हो गए और दीये की लौ अकंप जलती है। जब तुम अकंप होते हो, तुम यहां होते हो। जरा कंपे कि या तो अतीत में गए, या भविष्य में गए। दो ही दिशाएं हैं कंपने की।

अकंप होने की दिशा है वर्तमान।

“तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते।’

न तो अतीत में कोई सार्थकता है, और न भविष्य में कोई सार्थकता है। तथागत तथ्य में देखते हैं। तथ्य में देखने से ही, तथ्य के साथ जुड़ने से ही, जो है उसमें उतरने से ही, सत्य का अनुभव उपलब्ध होता है।

तथ्य द्वार है सत्य का।

“…कल्पनामुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो।’

अनुपश्यी वर्तमान का! वर्तमान की प्रतीति में, वर्तमान के अनुभव में, वर्तमान के साक्षात्कार की जो दशा है, जो इस समय गुजर रहा है सामने से, उसको ही देखता है। उसका ही अनुपश्यी होता है।

अवेयरनेस, जागरूकता बस इस क्षण की होती है। इसे थोड़ा करने की कोशिश करो। कठिन है, अति कठिन है। लेकिन जब सधता है तो सभी कठिनाइयां सहने योग्य थीं, ऐसा पता चलेगा। तब बहुमूल्य हीरा, अमूल्य हीरा हाथ लगता है।

थोड़ी कोशिश करो। जो भी तुम कर रहे हो…रास्ते पर चल रहे हो, तो बस चलने का ही अनुपश्यन, चलने की ही जागरूकता रहे। भोजन कर रहे हो तो भोजन करने की ही जागरूकता रहे।

झेन फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है? उसने कहा, जब भोजन करता हूं तो सिर्फ भोजन करता हूं और जब कुएं से पानी भरता हूं तो सिर्फ कुएं से पानी भरता हूं। और जब सो जाता हूं तो सिर्फ सो जाता हूं।

उस आदमी ने कहा, यह भी कोई साधना हुई? यह तो सभी करते हैं।

बोकोजू ने कहा, काश! सभी यह करते होते तो पृथ्वी पर बुद्ध ही बुद्ध होते। सब तथागत होते। तुम जब भोजन करते हो तब तुम हजार काम और भी करते हो। भोजन तो शायद ही करते हो, और ही काम ज्यादा करते हो।

आदमी भोजन पर बैठा है, वह यंत्रवत भोजन को फेंके जाता है शरीर में। मन हजारों दिशाओं में भटकता है। न मालूम कहां-कहां की यात्राएं करता है। न मालूम कितनी योजनाएं बनाता है।

तुम रास्ते पर चलते हो, जब चलते हो तो सिर्फ चलते हो? चलने का तो खयाल ही नहीं रखते। जो वर्तमान में हो रहा है उसको तो देखते ही नहीं। उससे तो तुम चूकते ही चले जाते हो। और वर्तमान बड़ा छोटा-सा क्षण है। जरा चूके कि गया। चूके नहीं कि गया! एक शब्द भी उठा मन में कि वर्तमान गया। तुमने अगर इतना भी कहा कि “अरे! वर्तमान को देखूं,’ वर्तमान गया। तुमने इतना भी कहा मन में कि मुझे वर्तमान में जागरूक रहना है, तो तुम जब यह कह रहे थे तब वर्तमान जा रहा था।

जो है, वह तो शब्द मात्र से भी चूक जाता है। इसलिए भीतर शब्द न उठे, निशब्द रहे तो ही वर्तमान पकड़ में आता है। निशब्द रहे और जो क्रिया तुम कर रहे हो, उसमें ही पूरी तल्लीनता रहे। जैसे यही परम कृत्य है।

इसीलिए कबीर ने कहा है कि जो खाता-पीता हूं, वही तेरी सेवा है प्रभु! जो उठता-बैठता हूं, वही तेरी परिक्रमा है प्रभु! “खाऊं पिऊं सो सेवा।’

बड़ी अदभुत बात कबीर ने कही कि मैं जो खाता-पीता हूं, वही तुझे मैंने भोग लगा दिया प्रभु! और भोग कहां लगाऊं? उठता-बैठता हूं, यही तेरे मंदिर की परिक्रमा है; अब और परिक्रमा करने कहा जाऊं? इसका अर्थ हुआ कि अगर क्षण को कोई पूरी तरह जीये तो सब हो गया। क्षण से चूके कि सब चूके। क्षण में जागे कि सब पाया।

“हे ध्याता, तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा, तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यही परम ध्यान है।’

यह परम ध्यान का परम सूत्र!

“हे ध्याता, तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर…।’ ध्यान के लिए शरीर की चेष्टा का कोई प्रयोजन नहीं है।

“…न वाणी से कुछ बोल।’ न भीतर शब्द को निर्मित कर। क्योंकि ध्यान से उसका भी कोई संबंध नहीं है।

“…और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा।’

एक निशब्द शून्य भीतर घेर ले। उस निशब्द शून्य में जागरण का दीया भर जलता रहे, बस! शून्य हो और जागृति हो।

शून्य + जागृति–कि ध्यान हुआ।

ध्यान का यही परम सूत्र है।

“…तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी।’

मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो।

अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।।

यही परम ध्यान है।

इसे थोड़ा खयाल में ले लें। कभी बैठे हैं तो बैठे रह जाएं; तो बैठने में ही लीन हो जाएं। भीतर से शब्दों को विदा कर दें, नमस्कार कर लें। कुछ चिंतन भी न करें। आत्मा का भी चिंतन न करें। यह भी मत सोचें कि मैं आत्मा हूं, शुद्ध-बुद्ध हूं। क्योंकि वह सब चूकना है।

न चिंतन करें, न शरीर की कोई क्रिया में संलग्न हों, बैठे हैं तो बैठने में डूब जाएं और भीतर सिर्फ जागे रहें, बस एक खयाल रखें कि होश बना रहे, नींद न आ जाए।

अगर ध्यान का किसी चीज से विरोध है तो नींद से; और किसी चीज से विरोध नहीं है। संसार छोड़कर मत भागो। घर-गृहस्थी छोड़कर मत भागो। इससे कुछ लेना-देना नहीं है। सिर्फ नींद को गिरा दो।

जब मैं कह रहा हूं, नींद को गिरा दो तो मेरा मतलब यह नहीं है कि रात तुम सोओ मत। जब जागो तो परिपूर्णता से जागो। आहिस्ता-आहिस्ता चलो, उठो, बैठो एक बात खयाल रखो कि भीतर होश को सम्हाले रखना है।

अभी नाजुक है। अभी बार-बार खो जाएगा। सम्हालते-सम्हालते आने लगेगा। फिर धीरे-धीरे तुम पाओगे, जब दिन की जागृति में जागरण सध गया, तो नींद में भी शरीर तो सो जाएगा, तुम जागे रहोगे। शरीर तो विश्राम करेगा, लेकिन तुम्हारे भीतर एक प्रहरी जागा रहेगा।

जिस दिन चौबीस घंटे जागरण सध जाता, उसी दिन व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता।

तो जागने में तो जागना पहले साधो, फिर नींद की फिक्र कर लेंगे। पहले तो जागने से नींद को हटाओ। तुम्हें भी कई दफे लगा होगा कि तुम्हारे भीतर जागरण की कई मात्राएं होती हैं।

जैसे समझो कि तुम रास्ते पर जा रहे हो और अचानक एक सांप रास्ते से निकल जाए तो तुम चौंक पड़ते हो। सांप नहीं निकला था तब तुम किस अवस्था में थे? थोड़ी तंद्रा थी। चले जा रहे थे डूबे-डूबे, सोये-सोये; थोड़े-थोड़े जागे, थोड़े-थोड़े सोये। सांप सामने आया, मौत सामने आ गई, एक धक्का लगा, एकदम जाग गये। एक क्षण को तुम उस अवस्था में आए जिसको महावीर कहते हैं, प्रत्येक क्षण की बनाना है।

तुम कार चला रहे थे, गीत गुनगुना रहे थे, कि सिगरेट पी रहे थे, कि रेडियो सुन रहे थे। चले जा रहे थे अपनी धुन में। अचानक दूसरी कार तेजी से सामने आ गई, मौत का खतरा आया। दुर्घटना होनेऱ्होने को थी, बाल-बाल बचे। उस क्षण एक जोर तुम्हारे भीतर ऊर्जा का उठेगा। तुम जाग जाओगे। एक क्षण को लगेगा, सब नींद टूट गई। खतरा इतना था कि नींद रह नहीं सकती थी।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं खतरे में रस ही इसीलिए है कि उससे कभी-कभी जागने की झलकें आती हैं। लोग पहाड़ पर चढ़ने जाते हैं, गौरीशंकर चढ़ते हैं, खतरनाक है, जान-जोखिम में डालना है। लेकिन जब जोखिम होती है तो भीतर जागरण होता है। जब जोखिम बहुत होती है तो भीतर बहुत जागरण होता है। पहाड़ पर चढ़नेवाले को शायद पता भी न हो, कि वह क्यों पहाड़ पर चढ़ने के लिए पागल हुआ जा रहा है! लेकिन मनस्विद कहते हैं, और सदा से ज्ञानियों को इस बात का खयाल रहा है कि खतरे में लोगों को इसीलिए रस आता है कि खतरे में थोड़ी-सी नींद टूटती है और जागरण का स्वाद मिलता है।

लेकिन पहाड़ पर अगर रोज-रोज चढ़ते रहे…जो पहाड़ पर चढ़ने जाता है उसको तो थोड़ा रस आता है, लेकिन नेपाल में जो आदमी दूसरों को पहाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं जिंदगी से, उनको कुछ नहीं होता।

वह अभ्यस्त हो गया, यह यांत्रिक हो गया।

बाहर तो हर चीज यांत्रिक हो जाती है, जब तक कि भीतर का जागरण ही सीधा-सीधा न खोजा जाए…जैसे तुम कभी आग जलाते हो, अंगारों पर राख जम जाती है, ऐसी चित्त पर नींद जमी है। इसे थोड़ा झकझोरना है। इसे झकझोरते रहना है। अंगारा जलता रहे।

“हे ध्याता, न तो तू शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा। तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यही परम ध्यान है।’

“जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्नर् ईष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुखों से बाधित, ग्रस्त या पीड़ित नहीं होता।’

“वह धीर पुरुष न तो परीषह, न उपसर्ग आदि से विचलित होता है, न ही सूक्ष्म भावों, से भयभीत होता है, और देव-निर्मित मायाजाल से मुक्त होता है।’

ध्यान, धर्म का मौलिक आधार है।

जैसे किसी को दर्शनशास्त्र में जाना हो तो विचार, तर्क मौलिक आधार है। वैसे ही किसी को स्वयं में जाना हो, स्वभाव में जाना हो तो ध्यान मौलिक आधार है।

तुम और सब साध लो और ध्यान न सधे, तो तुमने जो साधा है, वह धर्म नहीं है। तुम तप साधो, योग साधो, और हजार तरह के क्रियाकांड और विधियां करो; यज्ञ करो, हवन करो, पूजा-प्रार्थना करो, लेकिन तुम्हारे भीतर अगर ध्यान नहीं सधा तो यह सब साधना बाहर-बाहर है; भीतर तुम न आ पाओगे।

और इस भीतर आने के लिए कुछ करने जैसा नहीं है। इस भीतर आने की प्रक्रिया को तुम्हारी सारी क्रियाओं में से साधा जा सकता है। तुम दुकान पर बैठे बाजार में काम कर रहे हो, ध्यान-पूर्वक करो–सोओ मत। मजदूर हो, कि अध्यापक हो, कि दफ्तर में क्लर्क हो, कि स्कूल में चपरासी हो, कुछ भी हो; गरीब हो, कि अमीर हो; सैनिक हो कि दुकानदार हो; कोई भी कृत्य हो जीवन का, वहीं एक बात साधी जा सकती है कि जो भी तुम करो, उसे होशपूर्वक करते रहो।

पृथ्वी यह परिस्थिति यह,

स्थान और पुरजन ये दलदल है,

एरावत बन हम फंसते हैं

मदांध हो समझते हैं

कमलवन हमारा है, हमारा है

यहां कुछ भी हमारा नहीं। यहां जो भी हमारा मालूम पड़ता है, वह सब दलदल है। लेकिन इस हमारे के दलदल में कुछ है, जो हमारा स्वभाव है। मेरा तो कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं हूं।

यह मैं क्या है? इस मैं को हम कैसे पकड़ें? इस मैं की तरफ हम किन यात्राओं, किन यात्रापथों से चलें? इस मैं का सुराग कैसे मिले?

महावीर के इन सूत्रों का अर्थ हुआ कि इस मैं को जानना हो तो पहले तो जिस-जिस को तुमने मेरा माना है, उससे अपना संबंध शिथिल कर लो। क्योंकि “मेरे’ के दलदल में, “मैं’ फंसा है। तो पहले तो दलदल से बाहर कर लो। एक बार दलदल से बाहर हो जाए, मेरे का जाल छूट जाए तो फिर दूसरा काम करने का है, और वह यह है कि मैं सोया न रहे।

बाहर का दलदल मिटे, फिर भीतर का दलदल मिटाओ। बाहर का दलदल है संबंधों का जाल, और भीतर का दलदल है एक तरह की सुप्ति, एक तरह की निद्रा, एक तरह की तंद्रा।

हम ऐसे चल रहे हैं जैसे कोई शराबी चल रहा हो। चल भी रहे हैं, साफ भी नहीं है–अंधेरे में टटोलते से, खोये-खोये से, सोये-सोये से।

तो झकझोरो! पुकारो! खींचो इस भीतर के दलदल से अपने को बाहर।

महावीर कहते हैं, इसके लिए न तो कोई योगासन करने जरूरी हैं। शरीर की कोई क्रिया अपेक्षित नहीं है। न कोई बहुत बड़ा विचारक होना जरूरी है। कोई बड़े विश्वविद्यालयों से बड़ी उपाधियां लेकर आना जरूरी नहीं है। न शास्त्रों का पठन-पाठन आवश्यक है। क्योंकि चिंतन यहां काम आता ही नहीं। यहां तो सिर्फ एक चीज काम आती है, और वह जागरण है।

तो तुम जो भी करते हो, अपने छोटे-छोटे कृत्यों में…बुहारी लगा रहे हो घर में, बस जागकर लगाओ।

एक झेन फकीर हुआ; सम्राट उसके पास आया था सीखने ध्यान। तो उस फकीर ने कहा कि रुको, जब ठीक समय आएगा, मैं शुरू करूंगा। उस सम्राट ने कहा, मैं ज्यादा देर नहीं रुक सकता, मेरे पिता वृद्ध हैं उनकी मृत्यु कभी भी हो सकती है। उन्होंने ही मुझे भेजा है कि उनके जीते-जी मैं ध्यान को उपलब्ध हो जाऊं। तो जल्दी करें।

उस फकीर ने कहा, अगर जल्दी की तो देर हो जाएगी। जल्दी करने में बड़ी देर हो जाती है। यह तो काम धीरज का है। तुमने अगर समय की मांग की तो फिर न हो सकेगा। तो तुम पहले तय कर लो। मैं तो तुम्हें स्वीकार ही तब करूंगा शिष्य की तरह, जब तुम मुझ पर छोड़ दो। जब समय परिपक्व होगा, जब मौसम आएगा और जब मैं समझूंगा, कि अब शुरू करना पाठ, शुरू कर दूंगा।

कोई और उपाय न देखकर सम्राट ने स्वीकार कर लिया। तीन साल, कहते हैं बीत गए और फकीर ने ध्यान की बात ही न की। लेकिन एक दिन फकीर आया और सम्राट बुहारी लगा रहा था आश्रम में, वही उसका काम था, और फकीर ने आकर पीछे से उस पर हमला किया एक लकड़ी के डंडे से।

सम्राट तो बहुत चौंका, उसने कहा, यह आप क्या करते हैं?

फकीर ने कहा, ध्यान की शुरुआत आज हुई। अब तुम खयाल रखना। तुम कुछ भी कर रहे हो…तुम्हारा काम है लकड़ी काटकर लाना, बुहारी लगाना, भोजन पकाना, तुम सब करना, लेकिन एक ध्यान रखना कि मैं कभी भी पीछे से हमला करूंगा, इसका होश रखना।

उसने कहा, यह किस तरह का ध्यान हुआ? फकीर ने कहा, वह तुम फिक्र मत करो। तुम बस इतना होश रखो।

कहते हैं ऐसा एक वर्ष बीता। और वह फकीर अनेक-अनेक रूपों से पीछे से हमला करता। धीरे-धीरे होश सम्हलने लगा। क्योंकि जब कोई चौबीस घंटे हमले के बीच में पड़ा हो तो कैसे रहेगा बेहोशी में? वह बार-बार चौंककर इधर-उधर देख लेता। जरा-सी पीछे से आवाज आती कि वह सजग हो जाता। हमले से बचना जरूरी था। बिल्ली भी चलती, कोई हवा का झोंका आता तो भी वह सजग हो जाता।

एक वर्ष होतेऱ्होते ऐसी हालत हो गई कि जब भी फकीर हमला करता–इसके पहले कि फकीर हमला करता, उसका हाथ लकड़ी को पकड़ लेता। हमला करना मुश्किल हो गया। फकीर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा, तुमने पहला पाठ सीख लिया। अब दूसरा पाठ–कि अब रात जरा सम्हलकर सोना, क्योंकि मैं सोते में हमला करूंगा।

लेकिन अब सम्राट को भी खयाल में आ गया था कि एक बड़ी गहरी शांति, अकारण–भीतर भरी थी। एक बड़ा प्रसाद, बड़ी प्रसन्नता! कुछ सीधा संबंध भी नहीं दिखाई पड़ता था कि आदमी किसी के पीछे से हमला करे तो प्रसाद का क्या संबंध? इतने आनंद का क्या कारण? लेकिन आनंद ही आनंद था। जरूर इसमें भी कुछ राज होगा।

रात कुछ दिन तो चोटें खायीं, फिर धीरे-धीरे नींद में भी सम्हलकर सोने लगा। नींद में भी, कमरे में फकीर प्रवेश करता तो वह आंख खोलकर बैठ जाता। गहरी नींद सोया होता, घुर्राटे लेता होता, लेकिन जरा आवाज होती कि वह चौंक जाता।

तुमने देखा किसी मां को? तूफान हो, आंधी हो, नींद नहीं खुलती। बच्चा जरा रो दे, नींद खुल जाती है। जिस तरफ ध्यान होता है, उस तरफ संबंध हो जाता है।

तुम यहां सारे लोग सो जाओ आज रात, फिर मैं आकर पुकारूं, “राम’, तो किसी को सुनाई न पड़ेगा, लेकिन जिसका नाम राम है उसे सुनाई पड़ जाएगा। क्योंकि राम से उसका एक सेतु बंधा है, एक संबंध बंधा है।

एक साल बीतते-बीतते ऐसा हो गया कि फकीर नींद में भी हमला न कर पाता। हमला करता कि इसके पहले ही हमला रोकने का इंतजाम हो जाता।

एक दिन सुबह की बात है, सर्दी के दिन! फकीर, बूढ़ा फकीर वृक्ष के नीचे धूप में बैठा कुछ पढ़ रहा था, और वह युवक संन्यासी–सम्राट–बुहारी लगा रहा था। बुहारी लगाते- लगाते उसे खयाल आया कि दो साल से यह आदमी सब तरह से मुझ पर चोट कर रहा है, लाभ भी बहुत हुए, लेकिन मैंने कभी यह नहीं सोचा कि मैं भी इस पर कभी हमला करके देखूं, इस बूढ़े पर, यह भी जागा हुआ है या नहीं?

ऐसा खयाल भर आया, कि उस बूढ़े ने अपनी किताब पर से आंख उठाई और कहा, नासमझ! ऐसा मत करना, मैं बूढ़ा आदमी हूं।

वह बहुत घबड़ा गया। उसने कहा, “हुआ क्या? मैंने तो सिर्फ सोचा।’ उसने कहा, “जब जागरूकता बहुत सघन होती है तो जैसे अभी तू पैर की आवाज को पकड़ने लगा, ऐसे विचार की आवाज भी पकड़ में आने लगती है। विचार की भी तो आवाज है। विचार की भी तो तरंग है। विचार से भी तो घटना घटती है। जैसे तू अभी नींद में भी जाग जाता है, मेरा पैर नहीं पड़ता तेरे कमरे के पास कि तू बैठ जाता है तैयार होकर। मैं इतने सम्हलकर चलता हूं, कोई उपाय नहीं। जरा-सी आवाज तुझे चौंका देती है। एक दिन तेरे जीवन में भी ऐसी घड़ी आएगी–अगर जागता ही गया–कि विचार की तरंग भी पर्याप्त होगी।’

ध्यान का अर्थ है: जागरण।

जैसे-जैसे तुम जागते जाते हो, वैसे-वैसे जीवन की सूक्ष्मतम तरंगों का बोध होता है। परमात्मा जीवन की आत्यंतिक तरंग है, आखिरी सूक्ष्म तरंग है। तुम्हारी जब जागरण की आखिरी गहराई आती है, तब परमात्मा का शिखर तुम्हारे सामने प्रगट होता है।

उस घड़ी में न तो तुम बचते, न परमात्मा बचता। उस घड़ी में तो एक आह्लाद बचता है–असीम! अपरिभाषित!

आज मिलन-त्यौहार मनाये कौन वहां?

बरस रही रसधार कि गाये कौन वहां?

वीणा को स्वरकार बजाये कौन वहां?

बरस रही रसधार कि गाये कौन वहां?

अमृत बरसता है। इतना कहने को भी कोई नहीं बचता कि अमृत बरस रहा है–कि गाये कौन वहां? बरस रही रसधार।

वीणा बजती है, बजानेवाला भी नहीं रह जाता।

वीणा को स्वरकार बजाये कौन वहां?

इसको हिंदुओं ने अनाहत नाद कहा है–अपने से हो रहा नाद: ओंकार।

इसको महावीर ने स्वभाव कहा है–अपने से जो हो रहा। आनंद हमारा स्वभाव है। हम सच्चिदानंद-रूप हैं। लेकिन इस रूप को जानने के लिए जो आंख चाहिए ध्यान की, वह हमारे पास नहीं है। या है भी, तो बंद पड़ी है।

सौ-सौ बार चिताओं ने मरघट पर मेरी सेज बिछाई

सौ-सौ बार धूल ने मेरे गीतों की आवाज चुराई

लाखों बार कफन ने रोकर मेरा तन शृंगार किया पर

एक बार भी अब तक मेरी जग में मौत नहीं हो पाई

मैं जीवन हूं, मैं यौवन हूं

जन्म-मरण है मेरी क्रीड़ा

इधर विरह-सा बिछुड़ रहा हूं

उधर मिलन-सा आ मिलता हूं।

जिसे तुमने अब तक समझा है तुम हो, वे तो केवल सतह पर उठी तरंगें हैं। और जो तुम हो उसका तुम्हें पता नहीं है। उसका न तो कभी जन्म हुआ और न कभी मृत्यु हुई।

उस शाश्वत को जगाओ।

उस शाश्वत में जागो।

उस शाश्वत को बिना पाए विदा मत हो जाना। जीवन उसको पाने का अवसर है। जिसने ध्यान का धन पा लिया, उसने जीवन में कुछ कमा लिया। और जो और सब कमाने में लगा रहा और ध्यान के धन को न कमा पाया, उसने जीवन व्यर्थ गंवा दिया।

इस अवसर से चूकना मत। पहले बहुत बार चूके हो, इसलिए चूकने की संभावना बहुत है। क्योंकि चूकने की आदत बन गई है। लेकिन कितने ही बार चूके होओ, पा लेना संभव है। क्योंकि जिसे पाना है, वह तुम्हारा स्वभाव है। वह तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। जरा पर्दे हटाना। जरा घूंघट हटाना।

घूंघट के पट खोल!

घूंघट बहुत तलों पर है। संबंधों का घूंघट, फिर शरीर का घूंघट, फिर मन का घूंघट। इन तीन पर्तों को तुम तोड़ दो तो तुम्हारी अपने से पहचान हो जाए।

अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।

आत्मा आत्मा में रम जाती है फिर। यही परम ध्यान है।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–18

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मूक्‍ति द्वंद्वातीत है—प्रवचन—अठारहवां

प्रश्‍न सार:

1—राग और द्वेष के दो पहिये से संसार निर्मित होता है। क्‍या मोक्ष के भी ऐसे ही दो पहिये होते है?

2—गुरु मृत्‍यु है या ब्रह्म है, या एक साथ दोनों है?

3—सूली ऊपर सेज पिया की, किस विद्य मिलना होय?

4—आपका स्‍मरण मुझे प्रगाढ़ रसमयता और आनंद से भर देता है। मेरी चाल में आपकी धुन के धूंधर बजते है, तो अब मैं ध्‍यान को कहां रखूं?

5—वहां तक आया हूं, जहां लगता है कि अब कुछ हो सकता है।

6—मन एकदम शांत होगा तो सांसारिक कार्य कैसे होंगे?

पहला प्रश्न:

आप कहते हैं कि राग और द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित होता है। क्या इनके ठीक विपरीत कोई दो पहिये और हैं, जिनसे मोक्ष निर्मित होता है? कृपा करके समझाएं।

पहली बात: जहां दो हैं, वहां संसार है। जहां एक बचा, वहां मोक्ष प्रारंभ हुआ।

द्वैत संसार है, अद्वैत मोक्ष है।

इसलिए संसार के तो दो पहिये हैं, मोक्ष के नहीं।

दूसरी बात: संसार गति है, प्रवाह है, खोज है, तलाश है, मार्ग है, इसलिए दो पहियों की जरूरत है। दो पहियों के बिना यह गाड़ी चलेगी नहीं।

मोक्ष, कहीं जाना नहीं है, मोक्ष तो पहुंच गए। मोक्ष तो वहां है, जहां सब जाना समाप्त हुआ। गाड़ी चलती रहे तो मोक्ष नहीं है। जहां रुक गया सब, ठहर गया सब, परम विश्राम आ गया, जिसके पार कोई लक्ष्य न बचा, वहीं मोक्ष है।

वासना जहां शून्य होती है, कामना जहां विराम लेती है, लक्ष्य जहां संपूर्ण हो गए। सिद्धि जहां श्वास-श्वास में है–फूल खिल गया। अब और खिलने को कुछ बचा नहीं। पूर्णता उतरी। अब कुछ और उतरने को बचा नहीं।

इसलिए दो पहियों का तो सवाल ही नहीं है, एक पहिये की भी जरूरत नहीं है–पहिये की जरूरत नहीं है।

तो पहली तो बात; जहां तक दो हैं, वहां तक संसार है। जहां एक है, वहां मोक्ष है।

दूसरी बात: जहां तक यात्रा है, वहां तक संसार है। जहां यात्रा समाप्त हुई, वहीं मोक्ष है।

तो दो पहियों की तो जरूरत है ही नहीं, एक पहिये की भी जरूरत नहीं है। और एक पहिया हो भी, तो व्यर्थ होगा।

तीसरी बात: पूछा, “राग-द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित होता है।’–सच है। क्योंकि राग एक तरफ झुकाता, द्वेष दूसरी तरफ झुकाता। राग-द्वेष के झंझावात में हमारा चित्त कंपता है। आसक्ति और विरक्ति, राग और द्वेष, शत्रु और मित्र, अपना और पराया, हितकर और अहितकर, इन दोनों के बीच हम कंपते हैं। जब दोनों के बीच हम थिर हो जाते हैं और कंपन समाप्त हो जाता है, न राग बुलाता, न द्वेष बुलाता; जहां हम निर्द्वंद्व होकर, निष्कंप होकर बीच में समाधिस्थ हो जाते हैं; जहां मध्य-बिंदु मिल जाता है, वहां मोक्ष है।

राग और द्वेष के विपरीत मोक्ष में कुछ भी नहीं है। राग और द्वेष से मुक्ति, मोक्ष है। मोक्ष संसार का विरोध नहीं है, मोक्ष संसार का अभाव है। संसार नहीं बचता, इतना ही कहो, बस काफी है। फिर जो शेष रह जाता है, वही मोक्ष है।

जैसे एक आदमी बीमार है; जब बीमारियां हटा लेते हैं हम, तो जो शेष रह जाता है, वही स्वास्थ्य है।

स्वास्थ्य बीमारियों के विपरीत नहीं है कुछ, बीमारियों का समाप्त हो जाना है। जहां कोई बीमारी नहीं बची, वहां स्वास्थ्य सहज रूप से मुखरित होता है।

संसार बाधा की तरह है, पत्थर है: झरने को रोके हुए। पत्थर हट गया, झरना बहा। झरना तो मौजूद ही है। मोक्ष तो मौजूद ही है तुम्हारे भीतर। संसार से तुम्हारी पकड़ छूटी कि जो सदा से मिला हुआ था, उसका पता चलता है। जो मिला ही हुआ था, उसकी प्रत्यभिज्ञा होती है, उसकी पहचान होती है।

मोक्ष कुछ ऐसा नहीं है, जिसे तुमने खो दिया हो। मोक्ष स्वभाव है। खोने का कोई उपाय ही नहीं। कहीं भूलकर, चूककर रख आये हो, ऐसा कोई उपाय नहीं है। तुम हो मोक्ष।

इसलिए इनके विपरीत कोई दो पहिये और हैं? ऐसा पूछना ही ठीक नहीं है। संसार मोक्ष के विपरीत नहीं है, इसलिए संन्यासी संसार का विरोधी नहीं है। जो संन्यासी संसार का विरोधी है, वह अभी संसार में है। उसने राग को द्वेष से बदल लिया। कुछ लोग धन को राग करते थे, वह द्वेष करने लगा। कुछ लोग देह को राग करते थे, वह द्वेष करने लगा। सांसारिक जिनको वह कहता है, जो-जो करते थे, उससे उलटा करने लगा।

संन्यासी अगर संसार का विरोधी है तो मैं तुमसे कहता हूं, संसार में है। सिर के बल खड़ा होगा, मगर खड़ा बाजार में है। हिमालय पर बैठा हो, लेकिन खड़ा बाजार में है। भाग जाए सब छोड़कर, लेकिन जिससे भाग रहा है, उससे छुटकारा नहीं हुआ है। भीतर मन में उसकी आकांक्षा शेष है। उसी आकांक्षा को दबाने के लिए तो विपरीत कर रहा है।

संन्यासी उसे कहता हूं मैं, जो संसार का विरोधी नहीं है, जो संसार में जागा; जिसने संसार को भर-नजर देखा।

महावीर कहते हैं, जो सुपरिचित हुआ; जिसने संसार की व्यर्थता समझी।

संसार के विपरीत किसी चीज को पकड़ने का सवाल ही नहीं है, संसार की व्यर्थता स्पष्ट हो जाए तो जो शेष रह जाता है–इस कूड़े-कर्कट के बह जाने के बाद, जो जलधार भीतर शेष रह जाती है, वही मोक्ष है।

अगर मोक्ष कहीं संसार से अलग है तो फिर भागना पड़े गुफाओं में, कंदराओं में खोजना पड़े, तपश्चर्या में आंखें बंद करके कहीं दूर, जहां कोई न हो, वहां जाना पड़े। लेकिन मोक्ष यहीं है। मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है।

समझ आ गई तो मुक्ति आ गई। नासमझी रही तो बंधन रहा। नासमझी अर्थात बंधन। समझदारी अर्थात मोक्ष।

ज्ञान मुक्ति है।

तो संसार को छोड़ना नहीं, न संसार के विपरीत सोचना। वह विपरीत की भाषा ही भूल जाओ। विरोध की भाषा ही भूल जाओ। शत्रुता का रोग ही छोड़ो। सिर्फ भर आंख देख लेना है, ठीक से पहचान लेना है। जहां हो, वहीं जागकर देख लेना है।

उस जागरण में जो भी व्यर्थ है, वह अपने से छूट जाता है, गिर जाता है। एक अंधेरे कमरे में तुम बैठे हो, हीरे भी पड़े हैं और कूड़ा-कर्कट भी पड़ा है, फिर कोई दीया लेकर भीतर आ गया। जब तक दीया न था तब तक पता न था, कूड़ा-कर्कट क्या है, हीरे क्या हैं? हो सकता है, अंधेरे में तुमने कूड़े-कर्कट की तो गठरी बांध ली हो और हीरों का खयाल ही न आया हो। फिर कोई दीया लेकर आ गया, आंख मिली, दृष्टि खुली, दर्शन हुआ। तुम हंसोगे, अगर तुमने अपनी गठरी में कूड़ा-कर्कट बांध रखा था। जल्दी गांठ खोलोगे। जल्दी गठरी खाली कर लोगे। जल्दी से हीरे भर लोगे। इसमें कुछ त्याग थोड़े ही होगा!

इसमें कुछ अभ्यास थोड़े ही होगा! इसमें कोई श्रमसाध्य प्रक्रिया थोड़े ही होगी!

बस दीये का आना, आंख का खुलना, दिखाई पड़ जाना सार का असार से भिन्न–पर्याप्त है। मोक्ष है बोध।

“कहते हैं आप, राग और द्वेष के दो पहियों से संसार निर्मित होता है…।’ निश्चित ही। संसार दो के बिना निर्मित नहीं होता। संसार एक से निर्मित ही नहीं हो सकता। एक पहिये से कहीं कोई गाड़ी चली है?

यह गाड़ी शब्द बड़ा अदभुत है। इस पर तुमने शायद कभी सोचा न हो। गाड़ी का मतलब होता है, जो गड़ी है। मगर हम चलती हुई चीज को गाड़ी कहते हैं। गाड़ी तो चल ही नहीं सकती। जो गड़ी है, वह चलेगी कैसे? वृक्ष चलते हैं? गड़े हैं। चलती चीज को हम गाड़ी क्यों कहते हैं? बड़ा मधुर व्यंग्य है उस शब्द में।

संसार चलता तो है, पहुंचता कहीं नहीं। लगता है चलता है; ऐसे गड़ा है। ऐसे सपने में ही चलना होता है, यथार्थ में कोई चलना नहीं होता। भाग-दौड़, आपाधापी! जब आंख खुलती है, तुम पाते हो वहीं के वहीं खड़े हो, अपनी खाट पर पड़े हो। सब सपने में दौड़-धूप की। बड़े आकाश छान डाले। जब सुबह आंख खुली तो पाया, अपने बिस्तर में पड़े हैं।

तो संसार गाड़ी है। ऐसे तो गड़ा है। यथार्थ में तो गड़ा है, स्वप्न में चल रहा है, कल्पना में चल रहा है, कामना में चल रहा है, विचार में चल रहा है, मन में चल रहा है–ऐसे गड़ा है। गाड़ी बस चलती मालूम पड़ती है।

कभी छोटे-छोटे बच्चे, जो साइकिल चलाना नहीं जानते, साइकिल पर सवार हो जाते हैं–खड़ी साइकिल पर, स्टैंड पर खड़ी साइकिल पर। जोर से पैडल मारते हैं और बड़े प्रफुल्लित होते हैं क्योंकि जब चाक चलने लगता है–वह गाड़ी है। गड़ी है, मगर बच्चा बड़ा प्रसन्न हो रहा है। जितने जोर से पैडल मारता है, जितने जोर से चाक घूमता है–उसकी किलकारी सुनो!

ऐसी ही किलकारी दे रहे हैं राजनेता, धनिक, पद-प्रतिष्ठा को प्राप्त लोग। साइकिल पर चढ़े हैं। साइकिल स्टैंड पर खड़ी है। स्टैंड यानी गड़ी है। मगर चाक जोर से चल रहा है। पैडल काफी मार रहे हैं, पसीना-पसीना हुए जा रहे हैं। एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा भी कर रहे हैं, कि किसकी गाड़ी तेज चल रही है। कौन आगे जा रहा है! किसको पीछे छोड़ दिया है!

ये सब किलकारियां एक दिन व्यर्थ सिद्ध होती हैं, जब होश आता है कि हम जिसको चला रहे हैं वह गड़ा है।

संसार चलता हुआ मालूम पड़ता है और चलता नहीं। यहां कोई विकास नहीं है। गति तो बहुत है, प्रगति बिलकुल नहीं है। चलना तो बहुत है, पहुंचना बिलकुल नहीं है। यहां तो आश्चर्य है कि तुम बहुत चलकर अगर अपनी जगह पर भी खड़े रह जाओ तो भी बहुत चमत्कार है। डर तो यह है कि तुम जहां अपने को पाये थे, उससे भी पिछड़ जाओगे। दौड़-दौड़कर अपनी जगह पर भी बने रहे तो काफी है।

संसार के लिए तो दो चाक चाहिए। झूठी ही सही गाड़ी, माया की ही सही, लेकिन है तो गाड़ी। दो चाक चाहिए। इसलिए जीवन में हम हर जगह जरा खोजबीन करेंगे तो हम पाएंगे, हर चाक के पीछे दूसरा चाक छिपा है। सफलता के पीछे विफलता छिपी है। सुख के पीछे दुख छिपा है। दिन के पीछे रात छिपी है। पुण्य के पीछे पाप छिपा है। हंसी के पीछे रुदन छिपा है। यहां तुम एक चीज तो पाओगे ही नहीं। यहां सब चीजें जोड़ी से हैं।

संसार जोड़ी से जीता है। मोक्ष का अर्थ है, यह दो का विभाजन गया। यह दो में खंडित होने की प्रक्रिया समाप्त हुई। यह जो लौ बायें कंपती थी, दायें कंपती थी, अब कंपती नहीं, अब मध्य में खड़ी हो गई। अब इसने कंपन छोड़ा, चिंतन छोड़ा। विचार की तरंगें अब नहीं आतीं। अब निर्विचार।

निर्विचार का आकाश मोक्ष है।

संसार के विरोध में नहीं है मोक्ष, संसार का अभाव है मोक्ष। इसे तुम जितने गहरे में बांधकर रख सको, रख लेना। इस पर गांठ बांध लेना। क्योंकि अगर यह तुम्हें खयाल न रहा तो बहुत डर है कि तुम्हारा संन्यास भी संसार का विरोध बन जाए।

विरोध में उतर जाना बड़ा आसान है। मन की सारी राजनीति द्वंद्व की है। इसलिए विरोध तो बिलकुल सुगम है, सरल है, ढलान है। जैसे पहाड़ से कोई नीचे की तरफ उतर रहा है, धीमे भी चलना चाहे तो चल नहीं सकता; दौड़ना पड़ता है। ढलान है। कोई शक्ति नहीं लगती। अगर कार पहाड़ के नीचे उतार रहे हो तो पेट्रोल की भी जरूरत नहीं पड़ती। बंद कर दो इंजन, गाड़ी अपने आप ढलकती-ढलकती चली आती है।

मन की वृत्ति द्वंद्व की है, संघर्ष की है। पहले लड़ रहे थे धन के लिए, फिर लड़ने लगे ध्यान के लिए। मगर लड़ाई जारी रही। पहले लड़ते थे जीवन के लिए, फिर लड़ने लगे मोक्ष के लिए। लड़ाई जारी रही। रोग अपनी जगह रहा। नाम बदला, लेबल बदला, लेकिन भीतर की विषय-वस्तु वही की वही रही।

तो इसे स्मरण रखना। कम से कम मेरे संन्यासी–ठीक से स्मरण रखना कि संसार का विरोध नहीं है संन्यास, संसार की समझ है संन्यास। और समझ के लिए भागना उचित नहीं है। क्योंकि जिससे भागोगे उसे समझोगे कैसे? जिसे समझना हो, वहीं खड़े रहना। जिसे समझना हो, उसका ठीक से अवलोकन करना। ठीक से निरीक्षण करना, ठीक से साक्षी बनना। एक-एक पर्दा उठाकर देख लेना। सब घूंघट उघाड़-उघाड़कर देख लेना। कुछ भी छुपा न रह जाए। उसी समझ में मोक्ष का आविर्भाव होगा।

जैसे-जैसे प्रज्ञा बढ़ेगी, समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे तुम पाओगे, तुम मुक्त होने लगे।

आखिरी बात: मोक्ष परलोक में नहीं है। वह भी द्वंद्व है–इस लोक का, उस लोक का; पृथ्वी का, आकाश का। मोक्ष परलोक में नहीं है। मोक्ष का लोकों से कोई संबंध नहीं है।

मोक्ष है तुम्हारी आत्मा की दशा। मोक्ष का स्थान-समय से कोई संबंध नहीं है। मोक्ष का संबंध है, तुम्हारा अपने में लीन हो जाना। अपने में डूब जाना। अपने से भरपूर होकर अपने रस में मग्न हो जाना।

यह अभी घट सकता है। और अगर अभी नहीं घट सकता तो कभी नहीं घट सकता। और जब भी घटेगा, अभी घटेगा, वर्तमान के क्षण में घटेगा। इसलिए महावीर कहते हैं, जो महर्षि हैं, जो मनीषी हैं, वे बीत गए अतीत की चिंता नहीं करते। अनागत–न आए हुए भविष्य का विचार नहीं करते। वे शुद्ध वर्तमान में जीते हैं। वे वर्तमान को देखते हैं, वर्तमान का पश्ययन करते हैं, वर्तमान का दर्शन करते हैं।

एक पहिया है संसार का अतीत में, एक पहिया है भविष्य में। यह संसार की गाड़ी बड़ी अदभुत है, बड़ी विचित्र है। एक पहिया है वहां, जो अब है नहीं। और एक पहिया है वहां, जो अभी हुआ नहीं। ऐसे दो शून्यों में संसार चल रहा है। और जो है, वह अभी इन दोनों के बीच है; वह मध्य में है।

बुद्ध ने तो अपने मार्ग को मज्झिम निकाय कहा। सिर्फ इसीलिए कहा कि जो अतियों से बच गया और मध्य में खड़ा हो गया, वही उपलब्ध हो जाता है।

दूसरा प्रश्न:

कभी आप कहते हैं, गुरु साक्षात ब्रह्म है, और कभी कहते हैं, गुरु साक्षात मृत्यु है। क्या वह एक साथ, एक समय में दोनों है? कृपा करके कहें।

गुरु मृत्यु है, इसीलिए गुरु ब्रह्म है। उसमें मृत्यु घट सकती है, इसीलिए महाजीवन का सूत्रपात हो सकता है।

पुराने हिंदू शास्त्र कहते हैं, “आचार्यो मृत्युः।’ आचार्य मृत्यु है। गुरु मृत्यु है। क्या अर्थ है उनका? क्या प्रयोजन है?

शिष्य जब गुरु के पास आता है तो जैसा है, वैसा तो उसे मरना होगा। और जैसा होना चाहिए, वैसा होना होगा। जब शिष्य गुरु के पास आता है तो बीमारियों का जोड़ है, उपाधियों का जोड़ है। गुरु की औषधि बीमारियों को तो मिटा देगी। लेकिन जैसा शिष्य आता है अहंकार से भरपूर, वह अहंकार तो सिर्फ बीमारियों का बंडल है। जब बीमारियां हटती हैं, वह अहंकार भी मर जाता है। वह उनके बिना जी भी नहीं सकता।

फिर जो शेष बचता है, वह तो कुछ ऐसा है, जिसका शिष्य को पता ही नहीं था। वह तो मरने के बाद ही पता चलता है। अहंकार की मृत्यु के बाद ही आत्मा का बोध होता है।

शायद शिष्य आता है अपने प्रयोजन से। वह शायद महाजीवन की तलाश में आता है। वह शायद सोचकर आता भी नहीं कि गुरु के पास मरना होगा, मिटना होगा। धीरे-धीरे, इंच-इंच गलना होगा, बिखरना होगा। वह तो किसी लोभ से आया था। वह तो शायद संसार की वासना को ही और थोड़ी गति मिल जाए, और थोड़ी शक्ति मिल जाए, कामना के जगत में और थोड़ा बलशाली हो जाऊं, जीवन के संघर्ष में और थोड़ा संकल्प मिल जाए इसलिए आया था।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, संकल्प-शक्ति की कमी है–विल-पावर। आप कृपा करें, संकल्प-शक्ति दे दें।

मैं पूछता हूं, संकल्प-शक्ति का करोगे क्या? संकल्प-शक्ति का उपयोग संघर्ष में है, संसार में है; मोक्ष में तो कोई भी नहीं। अशांत होना हो तो संकल्प-शक्ति की जरूरत है। शांत होना हो तो विसर्जित करो। जो थोड़ी-बहुत है, वह भी विसर्जित करो। उसे भी डाल आओ गंगा में। उससे भी छुटकारा लो। संकल्प तो बाधा बनेगा, समर्पण मार्ग है।

लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कुछ आशीर्वाद दें। जीवन में बड़ी निराशा है। आशा का दीया जला दें। मैं उनसे कहता हूं, तुम गलत जगह आ गए। यहां तो आशा के दीये बुझाए जाते हैं।

सुना कल महावीर का सूत्र!–आशारहितता को जो उपलब्ध हो जाए…।

तुम आते हो शायद निराशा मिटाने। तुम आते हो यहां, कि थोड़ा बल मिल जाए और संसार में जाकर फिर तुम जूझ पड़ो। शायद अभी हार गए थे। शायद अभी जीत नहीं पाते थे। शायद अभी बलशाली लोगों से संघर्ष हो रहा था। तुम कमजोर पड़ते थे। और बल लेकर, और शक्ति लेकर, और ऊर्जा लेकर उतर जाओ जीवन के युद्ध में।

लेकिन तब तुम गलत जगह आ गए। अगर तुम गुरु के पास गए तो गलत जगह गए। इसके लिए तो तुम्हें कोई झूठा गुरु चाहिए। इसलिए झूठे गुरु चलते हैं। झूठे सिक्के इसीलिए चलते हैं क्योंकि तुम जो चाहते हो, उसे वे पूरा करने का आश्वासन देते हैं। वह कभी पूरा होता है या नहीं, यह सवाल नहीं है। आश्वासन काफी है; उसमें ही तुम लुटते हो।

इसे ध्यान रखना, यह सदगुरु की पहचान है–जो तुमसे आशा छीन ले; जो तुमसे संकल्प छीन ले। यह सदगुरु की पहचान है–जो तुम्हें मिटा दे। तुम भला किसी कारण से उसके पास आए हो, वह तुम्हारी चिंता ही न करे। उसके लिए तो आत्यंतिक बात ही महत्वपूर्ण है। वह तो तुम्हारे भीतर मोक्ष को लाना चाहता है।

और स्वभावतः तुम कैसे मोक्ष की कामना कर सकते हो? संसार को ही तुमने जाना है। वहां भी सफलता नहीं जानी। किसने जानी! सिकंदर भी असफल होता है। संसार में असफलता ही हाथ लगती है।

तो तुम वही सफलता पाने के लिए आ गए हो अगर, तो केवल असदगुरु से ही तुम्हारा मेल हो पाएगा, जहां गंडात्ताबीज मिलता हो, मदारीगिरी से भभूत बांटी जाती हो, जहां तुम्हें इस बात का भरोसा मिलता हो कि ठीक, यहां कुछ चमत्कार हो सकता है; जहां तुम्हारा मरता-बुझता अहंकार प्रज्वलित हो उठे; जहां थोड़ा कोई तुम्हारी बुझती ज्योति को उकसा दे।

मगर वह ज्योति संसार की है। वही तो नर्क की ज्योति है। वही तो अंधकार है। उसी ने तो तुम्हें पीड़ा दी है, सताया है। उसी से बिंधे तो तुम पड़े हो। वही तो तुम्हारी छाती में लगा विषाक्त तीर है। सदगुरु उसे खींचेगा। उसके खींचने में ही तुम मरोगे। सदगुरु तो मृत्यु है तुम्हारी; जैसे तुम हो। यद्यपि उसी मृत्यु के बाद तुम्हें पहली दफा उसका दर्शन होता है, जो वस्तुतः तुम हो।

धोखा मरता है, सत्य तो कभी मरता नहीं। असत्य मरता है, सत्य की तो कोई मृत्यु नहीं।

आग में हम सोने को डाल देते हैं, कूड़ा-कर्कट जल जाता है, सोना कुंदन होकर बाहर आ जाता है।

गुरु तो आग है, अग्नि है। और इसीलिए गुरु ब्रह्म है। क्योंकि वहीं से तुम मिटते हो। और जहां तुमने मिटना सीख लिया, वहीं तुमने ब्रह्म होना सीख लिया।

गुरु सूली है। लेकिन उसी सूली पर लटककर तुम्हें पहली दफा पता चलता है कि जो सूली पर मर गया वह मैं नहीं था। इधर सूली लगी, उधर सिंहासन मिला। इस तरफ सूली है, उस तरफ सिंहासन है। तुम्हें सूली भर दिखाई पड़ती है।

तुमने जीसस के चित्र देखे होंगे; सूली को अपने कंधे पर ढोते हुए, गोलगोथा की पहाड़ी पर वे जा रहे हैं। सूली ठोंक दी गई जमीन में, उन्हें सूली पर लटका दिया गया है। लेकिन ये अधूरे चित्र हैं। ये चित्र जीसस की नजर से नहीं बनाए गए। ये जिन लोगों ने देखा होगा गोलगोथा की सड़क पर जीसस को सूली ले जाते, उनकी स्मृतियां हैं। यह चित्रकार ने बाहर से देखकर बनाया है। जीसस से तो पूछो! जीसस सूली ढो रहे हैं? नहीं, जीसस तो अपने सिंहासन की तैयारी कर रहे हैं। यह सूली तो सिंहासन की सीढ़ी बनेगी।

इस तरफ सूली है, उस तरफ सिंहासन है। दृश्य में सूली है, अदृश्य में सिंहासन है। रूप में सूली है, अरूप में सिंहासन है। आकार में सूली है, आकार की सूली है, निराकार में सिंहासन है, निराकार का सिंहासन है।

तो जिन्होंने जीसस को केवल सूली ढोते देखा वे जीसस को देख ही नहीं पाए। जिस दिन तुम्हें जीसस की सूली में सिंहासन दिखाई पड़ जाए उस दिन तुम अर्थ समझोगे। उस दिन तुम्हें पहली दफा सूली सूली न लगेगी। सूली परम कृतज्ञता का कारण बन जाएगी।

गुरु के चरणों में धन्यवाद सदा के लिए रहता है क्योंकि यही है, जिसने मिटने का बोध दिया। न मिटते, न हो सकते। यही है, जिसने मिटाया। मिटाया तो बनने की शुरुआत हुई। झाड़ी धूल, तो दर्पण निखरा।

लेकिन तुम जिसे जिंदगी कहते हो, गुरु उसे जिंदगी नहीं कहता। और तुम जिसे मृत्यु कहते हो, गुरु उसे मृत्यु नहीं कहता। अलग भाषाएं हैं, अलग आयाम हैं। दो लोक बड़े भिन्न-भिन्न हैं। गुरु कुछ और भाषा बोलता है। वह तुम्हारे लिए अटपटी है।

मध्ययुग में भारत में उस भाषा का नाम ही अलग हो गया–सधुक्कड़ी; उलट बांसुरी। साधुओं की भाषा। उल्टी भाषा। जहां मृत्यु जीवन का पर्याय है। और जहां सूली सिंहासन का पर्याय है। तुम्हारे भाषाकोश में कुछ और लिखा है। गुरु के पास आकर तुम्हें नई भाषा सीखनी होगी। कष्टपूर्ण है। क्योंकि तुमने अपनी भाषा को खूब कंठस्थ कर लिया है। वह तुम्हारे रोएं-रोएं में समा गई है।

तुम जब मुझे सुनते हो, तब तुम मुझे थोड़े ही सुनते हो। तुम तत्क्षण उसका भाषांतर करते हो। तुम उसका अनुवाद करते हो। इधर मैं कुछ कहता हूं, तुम तत्क्षण अपनी भाषा में उसका अनुवाद कर लेते हो, भाषांतर कर लेते हो। जब तुम यह छोड़ोगे, तभी तुम मेरे पास आओगे। तुम्हारी भाषा मेरे और तुम्हारे बीच बाधा है।

कल मैं एक गीत पढ़ता था:

जिंदगी से उन्स है, हुस्न से लगाव है

धड़कनों में आज भी इश्क का अलाव है

दिल अभी बुझा नहीं

–इसे लोग दिल का न बुझना कहते हैं।

जिंदगी से उन्स है

–राग है जीवन से।

हुस्न से लगाव है

–सौंदर्य के लिए अभी तड़फ है, आकांक्षा है।

धड़कनों में आज भी इश्क का अलाव है।

और अभी भी धड़कनों में राग की, आसक्ति की आंच है।

दिल अभी बुझा नहीं

अगर तुम मुझसे पूछो तो इन्हीं कारणों से तुम्हारा दिल जल नहीं पा रहा है। बुझने की तो बात ही दूर है, जला ही नहीं। इन्हीं के कारण तो दिल पर राख पड़ गई है।

रंग भर रहा हूं मैं खाक-ए-हयात में

आज भी हूं मुनहमिक फिक्रे-कायनात में

गम अभी लुटा नहीं

हर्फे-हक अजीज है, जुल्म नागवार है

अहदे-नौ से आज भी अहद अस्तवार है

मैं अभी मरा नहीं

तुम जिसे जिंदगी कहते हो…तुम जब कहते हो, “मैं अभी मरा नहीं’, तो तुम बड़ी अजीब बातें कह रहे हो। अगर तुम्हारे स्वप्न में अभी भी प्राण अटके हैं तो तुम कहते हो, “मैं अभी मरा नहीं। दिल अभी बुझा नहीं।’

अगर कामना अभी भी तुम्हें तड़फाती है और वासना के दूर के सुहावने ढोल तुम्हें अभी भी बुलाते हैं तो तुम कहते हो, दिल अभी बुझा नहीं।

जहां कुछ भी नहीं है, वहां तुम चित्त से रंग भरते हो। जहां कुछ भी नहीं है, जहां कोरा पर्दा है, वहां तुम कल्पनाओं, वासनाओं, तृष्णाओं के बड़े रंगीले इंद्रधनुष बनाते हो। और कहते हो:

मैं अभी मरा नहीं

हर्फे-हक अजीज है, जुल्म नागवार है

अहदे-नौ से आज भी अहद अस्तवार है

मैं अभी मरा नहीं

इसी कारण तुम मुर्दा हो।

तुम जिसे जीवन कहते हो, उसे समझो मृत्यु। तब मैं जिसे मृत्यु कहता हूं, तुम तत्क्षण समझ जाओगे उसका अर्थ। तुम जिसे जीवन कहते हो, यह बड़ी क्रमिक मृत्यु है। आहिस्ता-आहिस्ता आत्मघात है। यह रोज-रोज, धीमे-धीमे मरते जाना है।

जिस दिन तुम यह समझोगे कि यह मृत्यु है, उस दिन पहली बार तुम्हें किसी और जीवन की पुकार सुनाई पड़ेगी–कोई और आह्वान! उस दिन तुम धार्मिक हुए। उस दिन तुम्हारी आंखें अदृश्य की तरफ उठने लगीं। उस दिन तुम्हारे हाथ में थोड़ा-सा सही, छोटा सही, पतला सही, धागा आया, जिसके सहारे तुम सूरज तक पहुंच सकोगे।

तो मैं कहता हूं, गुरु मृत्यु है, गुरु ब्रह्म है; इन दोनों में कोई विरोध नहीं है।

गुरु इसीलिए ब्रह्म है क्योंकि वह मृत्यु है। गुरु सूली है क्योंकि वह सिंहासन है। एक द्वार से मिटाता है, दूसरे द्वार से बनाता है। एक हाथ से मिटाता चलता है, दूसरे से बनाता चलता है। जो मिटने को राजी हैं, उन्हें बनने का सौभाग्य मिल जाता है। जो मिटने से कतराते हैं, वे बनने से वंचित रह जाते हैं।

तीसरा प्रश्न:

हे भगवान!

सूली ऊपर सेज पिया की

किस विध मिलना होय?

प्रीतम आन मिलो,

नैना नीर झरे, हृदय पीर करे

प्रीतम आन मिलो।

सूली ऊपर सेज पिया की–सदा से ऐसा ही है। लेकिन सूली हमें दिखाई पड़ती है क्योंकि हम नासमझ हैं। क्योंकि हमने अभी पिया की भाषा नहीं समझी; अभी पिया के प्रतीक हमारे सामने खुले नहीं। अभी हमने अपनी ही भाषा से पिया को भी समझना चाहा है। इसलिए लगता है–सूली ऊपर सेज पिया की।

घबड़ाहट होती है। कौन नहीं घबड़ाएगा मरने से? गुरु के पास आकर डर लगता है, बेचैनी होती है।

एक युवती परसों सांझ मेरे पास आयी। कैलिफोर्निया से यात्रा करके आयी है। और आकर बोली कि मैं तत्क्षण वापिस लौट जाना चाहती हूं। क्योंकि पहली तो बात यही मेरी समझ में नहीं आती कि मैं आयी क्यों? और अब आ गई हूं तो मुझे डर लगता है कि जिंदा अब मैं लौट न पाऊंगी। वह रोने लगी। उसने कहा कि मेरा बच्चा है, मेरा पति है। मुझे जाने दें।

उसे सूली दिखाई पड़ी है। लेकिन उस सूली में सिंहासन की थोड़ी-सी झलक भी है, इसीलिए खिंची चली आयी है–अपने बावजूद। उससे मैंने कहा, अब लौटना मुश्किल है। अब तो कठिन है। अब तो एक ही उपाय है, मरकर ही लौट। वह बहुत घबड़ा गई। क्योंकि अभी नई है और उसे मेरी भाषा से अभी ठीक-ठीक पहचान नहीं। उसने कहा, मरकर लौट? क्या मतलब आपका? मैंने कहा, नई होकर लौट। तब वह थोड़ी आश्वस्त हुई।

“सूली ऊपर सेज पिया की!’

सूली दिखाई पड़ती है; है तो सेज ही। है तो पिया का आमंत्रण ही। लेकिन जो मरने को राजी हैं, वही उसके मिलने के हकदार हो पाते हैं। इसलिए सूली ऊपर सेज पिया की।

अब डरो मत। हिम्मत करो। ऐसे भी मिटोगे। मरना तो होगा ही। एक ही बात सुनिश्चित है इस जगत में, वह मृत्यु। और सब तो अनिश्चित है। हो न हो; संयोग की बात है। एक बात सुनिश्चित है–मृत्यु। बड़ा अदभुत जीवन है। जीवन ऐसा जिसमें सिर्फ एक बात निश्चित है, वह मरना। बाकी सब अनिश्चित है। जो होगा ही, उसे स्वेच्छा से वरण करो। बस, इतना ही फर्क है समाधि में और मृत्यु में। जो जबर्दस्ती मारा जाता है, तब मृत्यु। मृत्यु हमारी समाधि की व्याख्या है क्योंकि हम राजी न थे मरने को। उसी व्याख्या के कारण हम चूक गए एक अभूतपूर्व घटना से।

बहुत बार तुम मरे हो। लेकिन हर बार झिझकते, लड़ते, झगड़ते, संघर्ष करते, मजबूरी में, विवश, असहाय मरे हो। इसीलिए तो हम कहते हैं, यमदूत आते हैं और खींचते हैं। कोई यमदूत नहीं आते। तुम इतने जोर से पकड़ते हो कि मौत लगती है, खींच रही है। भैंसों पर बैठकर आते हैं यमदूत। बड़ी डरावनी सूरत! खींचते हैं, जबर्दस्ती करते हैं।

बड़ी गलत कहानियां हैं। कोई जबर्दस्ती नहीं करता। तुम जिंदगी को जबर्दस्ती पकड़ते हो। इसलिए जब जिंदगी हाथ से छूटने लगती है, तुम्हें लगता है जबर्दस्ती हो रही है। तुम अपने से छोड़कर तो देखो। तुम पाओगे, यमदूत विदा हो गए। तुम पाओगे, न कोई भैंसे हैं, न काली सूरतोंवाले यमदूत हैं; तुम अचानक पाओगे, परमात्मा हाथ फैलाए खड़ा है।

वही परमात्मा तुम्हारी जिंदगी की अतिशय पकड़ के कारण यमदूत मालूम होता है। तुम अगर राजी हो, तुम अगर उसके साथ चल पड़ने को तत्पर हो, तुम तैयार हो, इधर मौत आयी और तुम उठ खड़े हुए; और तुमने कहा, मैं तैयार हूं। कहां चलूं? किस तरफ चलूं? कौन-सी दिशा में यात्रा करनी है? मैं तेरी प्रतीक्षा ही करता था।

तुम अचानक पाओगे, यमदूत विदा हो गए। वे यमदूत तुम्हारी व्याख्या के कारण थे। तुमने एक दुश्मनी बांध रखी थी। जीवन से लगाव बनाया था और मृत्यु से द्वेष किया था। तुमने द्वेष गिराया मृत्यु से, जीवन से लगाव छोड़ा, तत्क्षण तुम पाओगे, जो अंधेरे की तरह आया था वह ज्योतिर्मय हो उठा है। तब तुम्हें यमदूत न दिखाई पड़ेंगे, शायद कृष्ण की बांसुरी सुनाई पड़े, या बुद्ध की परम शांत प्रतिमा का आविर्भाव हो, या महावीर का मौन तुम्हें घेर ले, या नाचती हुई गौरांग की प्रतिमा उठे। लेकिन एक बात तय है, कुछ घटेगा जो अनूठा है, अदभुत है, आश्चर्यजनक है, अवाक कर देनेवाला है। कुछ दुखद नहीं घटेगा, कुछ घटेगा जो महासुख जैसा है, स्वर्गीय है। पर देखने के, सोचने के, व्याख्या के ढंग बदलो।

“सूली ऊपर सेज पिया की, किस विध मिलना होय।’

और जब एक दफा सूली दिखाई पड़ती है तो फिर सवाल उठता है, किस विध मिलना होय? क्योंकि वह सूली अटकाती मालूम पड़ती है। सूली को कैसे पार करें?

तुम बिना मरे परमात्मा में लीन होना चाहते हो। यह नहीं हो सकता। यह तो ऐसा हुआ कि गंगा कहे, मैं बिना उतरे सागर में लीन होना चाहती हूं। बूंद कहे, मैं बिना उतरे सागर में, सागर होना चाहती हूं। यह तो नहीं हो सकता। यह तो जीवन के गणित के विपरीत है।

बूंद को खोना होगा। गंगा को उतरना होगा।

सागर मिलेगा, बेशर्त मिलेगा, पूरा मिलेगा, लेकिन उतरे बिना कभी नहीं मिला है, कभी नहीं मिलेगा।

सूली को देखना बंद करो तो दूसरा सवाल उठना बंद हो जाए–किस विधि मिलना होय?

मरना ही विधि है। सूली विधि है। और सूली के कारण तुम घबड़ाते हो। तुम कहते हो, किस विधि मिलना होय? कोई रास्ता बताएं कि सूली से बचकर निकल जाएं, कि इधर-उधर से निकल जाएं। सूली यहां रही, रही आए, हम जरा पीछे के दरवाजे से निकल जाएं।

सूली विधि है। अगर तुम मुझसे पूछो, मरना विधि है।

“किस विध मिलना होय?’

मरो! मिटो! खो जाने को राजी हो जाओ।

“प्रीतम आन मिलो’–तुम मिटे कि प्रीतम मिले।

ऐसे चीखने-पुकारने से कुछ भी न होगा। सूली से डरते रहे और कहते रहे, “प्रीतम आन मिलो’, तो कुछ भी न होगा।

“नैना नीर झरे, हृदय पीर करे

प्रीतम आन मिलो।’

नहीं, इतना काफी नहीं है। तुम तुम ही हो। और तुम तुम ही रहकर आंसू भी गिरा रहे हो। वे आंसू भी तुम्हारे हैं। उन आंसुओं में भी तुम्हारी भाषा है। उन आंसुओं में भी तुम्हारे संस्कार हैं। उन आंसुओं में भी तुम्हारी दृष्टि है। तुम्हारी आंख के आंसू हैं, तुम्हारी दृष्टि से भरे हैं। उन आंसुओं में भी तुम गौर से देखोगे तो सूली ही झलक रही है। जैसी तुम्हारी आंख में झलक रही है, तुम्हारे आंसुओं में भी सूली झलक रही है। वे तुम्हारी घबड़ाहट के आंसू हैं। वे तुम्हारी बेचैनी के आंसू हैं।

सूली को स्वीकार करो। तब एक अभिनव अनुभव होगा। आंसू फिर भी शायद बहें, लेकिन अब आनंद के होंगे। और आंसुओं में सिंहासन की झलक होगी। और तब तुम्हें कहना न पड़ेगा, प्रीतम आन मिलो। उस घड़ी में मिलन हो ही जाता है। अन्यथा कभी हुआ नहीं, अन्यथा हो नहीं सकता। इधर तुम मिटे कि मिलन हुआ। तुम ही बाधा थे। और तो कुछ रोक नहीं रहा था। तुम ही रोके हो।

“नैना नीर झरे, हृदय पीर करे’–अभी तुम्हारी पीर में भी, पीड़ा में भी तुम हो। तुम रोते भी हो तो तुम्हारे आंसू कुंआरे नहीं हैं। तुम पीर से भी भरते हो तो तुम्हारी पीड़ा में भी शिकायत है। तुम्हारी पीड़ा में भी दंश है। तुम्हारी पीड?ा में तुम्हारा सारा संसार छिपा है।

मंदिरों में जाकर देखो। लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, मांगते क्या हैं? आंसू झर रहे हैं, मांगते क्या हैं? मांगते संसार की चीजें हैं। हाथ फैलाए हैं परमात्मा की तरफ, लेकिन परमात्मा को नहीं मांगते। परमात्मा से भी दो कौड़ी की चीजें मांगकर आ जाते हैं; कि दुकान ठीक चले, कि मुकदमा जीत जाएं, कि किसी स्त्री से विवाह हो जाए, कि लड़के को नौकरी लग जाए, कि बीमारी दूर हो जाए। तुम मांगते क्या हो?

तो तुम्हारे आंसू बड़े झूठे थे। अब जो आदमी मांग रहा है कि मुझे बीमारी है, वह दूर हो जाए–वह रो रहा है, लेकिन उसके रोने में परमात्मा की प्रार्थना तो नहीं है। उसके आंसुओं में बीमारी की, असहाय अवस्था की घोषणा तो है, लेकिन जीवन का धन्यभाव नहीं है, अहोभाव नहीं है।

जरा गौर करना, तुम्हारे आंसू तुम्हारे हैं। तुम गलत हो तो तुम्हारे आंसू भी गलत हैं। और तुम्हारा हृदय तुम्हारा है। तुम गलत हो तो तुम्हारे हृदय की पीर भी गलत है।

जिसे तू इंतहा-ए-दर्दे-दिल कहता है ऐ नादां

वही शौक-ए-वफा की इब्तदा मालूम होती है

जिसे तुम समझते हो कि यह दिल के दर्द की चरम सीमा है, यह केवल प्रेम की शुरुआत है, चरम सीमा नहीं।

जिसे तू इंतहा-ए-दर्दे-दिल कहता है ऐ नादां

ऐ नासमझ! जिसे तू कहता है कि यह दिल के दर्द की आखिरी घड़ी आ गई–नैना नीर झरे, हृदय पीर करे–वही शौक-ए-वफा की इब्तदा मालूम होती है। यह केवल शुरुआत है। यह प्रेम की यात्रा का पहला कदम है। और परमात्मा से मिलन तो अंतिम कदम पर होगा, पहले कदम पर नहीं।

और पहले कदम और अंतिम कदम के बीच यात्रा क्या है?–तुम्हारे मिटने की यात्रा है। तुम धीरे-धीरे अपने को छोड़ते जाओ। छलांग में छोड़ सको तो सौभाग्य। कंजूस हो तो धीरे-धीरे छोड़ो, क्रमशः छोड़ो। कृपण हो तो इंच-इंच छोड़ो, रत्ती-रत्ती त्याग करो। साहसी हो, एक क्षण में छलांग हो सकती है। कह दो एक क्षण में कि अब मैं नहीं। उसी क्षण में तुम पाओगे, परमात्मा उतर आया। इधर तुमने जगह खाली की, कि वह आया।

तुम भीतर के सिंहासन पर अकड़कर बैठे हो। वहीं से तुम पूछताछ कर रहे हो। वहां से जगह खाली नहीं करते, बातें करते हो। अच्छी-अच्छी बातें सीख ली हैं–”प्रीतम आन मिलो। नैना नीर झरे, हृदय पीर करे।’

काव्य से कुछ भी न होगा। कविता काफी नहीं है। सुंदरतम कविताएं करो, लेकिन केवल जीवन से प्रमाण दोगे तो ही कुछ होगा। मिटने की तैयारी दिखाना शुरू करो।

चौबीस घंटे स्मरण रखो कि कैसे-कैसे ढंग से तुम अपने को भरते हो और अहंकार को सख्त करते हो, मजबूत करते हो। जरा-जरा सी बात में अहंकार मजबूत होता है। जरा-जरा सी बात में अहंकार चोट खाता है। चोट खाए सांप की तरह फुफकारता है।

इसे जागकर देखो। इस सांप से छुटकारा पाओ। ऐसे जीयो, जैसे तुम नहीं हो। ऐसे जीयो, जैसे परमात्मा है और तुम नहीं हो। कोई गाली दे तो समझो, उसी को दी गई। तुम परेशान मत होओ। कोई सम्मान करे तो समझो, उसी का किया गया। तुम गौरवान्वित मत होओ। तुम अहंकार से मत भरो। कांटा चुभे तो जानो, उसी को चुभा। फूल बरसें तो जानो उसी पर बरसे। तुम अपने को हटा ही लो। भूख हो तो उसकी, प्यास हो तो उसकी। प्रसन्नता हो तो उसकी, तृप्ति हो तो उसकी। तुम अपने को हटा ही लो।

तब–केवल तब ही उस महत का पदार्पण होता है।

चौथा प्रश्न:

मिठास की याद भी मुंह को स्वाद से भर देती है। प्रकाश का स्मरण अंतस को आलोक और ऊष्मा से भर देता है। मैंने सुना था कि “ध्यानमूलं गुरुमूर्ति।’ और मुझे आपका स्मरण एक प्रगाढ़ रसमयता, आनंद और तन्मयता से भर जाता है। जब मेरी चाल में हर क्षण घूंघर की तरह आपकी धुन बजती है, जब मेरे रोम-रोम में ध्यानमूर्ति, प्रेममूर्ति और गुरुमूर्ति आप बसते हैं तो अब मैं ध्यान को कहां रखूं?

प्रेम जग जाए तो ध्यान की चिंता छोड़ो। प्रेम के पीछे-पीछे छाया की तरह चला आएगा ध्यान। छाया को रखने के लिए कोई स्थान तो नहीं बनाना पड़ता। तुम घर में आते हो, तुम्हारे लिए जगह चाहिए। तुम्हारी छाया के लिए तो कोई अलग से जगह नहीं चाहनी होती। छाया तो कोई जगह घेरती नहीं।

अगर प्रेम आ गया तो ध्यान छाया की तरह आता है; उसके लिए कोई अलग से जगह बनाने की जरूरत नहीं है। अगर ध्यान आ गया तो प्रेम छाया की तरह आता है। फिर प्रेम को अलग से बसाने की कोई जरूरत नहीं। एक साधै सब सधै।

जिसने पूछा है, उसके लिए प्रेम ही अनुकूल पड़ेगा। ध्यान का शास्त्र बाधा बनेगा।

तुम प्रार्थना की चर्चा करो, पूजा की, अर्चना की चर्चा करो, धूप-दीये जलाओ, नाचो, गुनगुनाओ, आह्लादित होओ। प्रार्थना में उतरो। तुम्हारा मंदिर प्रार्थना की यात्रा से आएगा।

जिसने पूछा है, वह इसे ठीक से याद रखे। ध्यान की चिंता में मत पड़ो। अक्सर ऐसा होता है। मन बड़ा लोभी है। प्रेम सधता है तो मन में यह होता है कि अरे! ध्यान नहीं सध रहा है। कहीं ऐसा तो न होगा कि आखिर में मैं चूक जाऊं!

उधर वह पीछे मंजु बैठी है। उसको भी फिकर लगी रहती है कि ध्यान नहीं सध रहा भगवान! प्रेम सध रहा है। तो घबड़ाहट लगी रहती है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि ध्यान चूक जाए तो कुछ चूक जाए!

प्रेम मिल गया तो मिल गया। ध्यान भी अपने आप चला आएगा। फूल खिल गए, सुगंध अपने आप फैलेगी। लेकिन इस चिंता के कारण बाधा पड़ सकती है।

तो अपनी वृत्ति को ठीक से पहचान लेना। अगर प्रेम में तन्मयता आती हो, छोड़ दो ध्यान। शब्द ही भूल जाओ। यह शब्द तुम्हारे लिए औषधि नहीं है। यह औषधि किसी और के लिए होगी। तुम्हारे रोग की औषधि तुम्हें मिल गई, रामबाण औषधि मिल गई। अब तुम फिक्र छोड़ो।

तुमने देखा! केमिस्ट की दुकान पर लाखों औषधियां रखी हैं। तुम अपना प्रिस्क्रिप्शन लेकर गए, तुम्हें अपनी औषधि मिल गई। डाली अपनी झोली में, चल पड़े। तुम इसकी फिक्र नहीं करते कि इन सब औषधियों में से और तो कुछ ले लें। इतनी दुकान पर औषधियां रखी हैं, एक ही लेकर चले? इतने से कहीं काम हल होगा! तुम्हारी बीमारी की औषधि मिल गई, बात पूरी हो गई।

तो अगर प्रेम से रस झर रहा हो तो तुम भाषा प्रेम की सीखो। कंठ को भरो उमंग से। ध्यानी तो खोज रहा है, इसलिए ध्यानी थोड़ा रूखा-सूखा होगा ही। भक्त ने तो पा ही लिया। ध्यानी अंत में कहेगा, रसधार बही। भक्त पहले दिन से कहता है कि रसधार बही। भक्त के लिए पहला दिन आखिरी दिन जैसा है। महावीर भी कहते हैं, अतिशय हो जाता रस का, अतिरेक हो जाता रस का, लेकिन आखिरी घड़ी में होगा ध्यानी के लिए। भक्त पहले कदम से ही नाचने लगता है। उसका भरोसा ऐसा है। उसकी श्रद्धा ऐसी है। जो ज्ञानी को सोच-सोचकर, चिंतन कर-करके, मनन कर-करके, निदिध्यास्न कर-करके मिलता है, भक्त श्रद्धा से पा लेता है।

अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए

जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा

भक्त तो भगवान से भी मनुहार लेने लगता है। वह तो रूठ भी जाता है भगवान से, कि अगर तू नहीं गाएगा साथ, तो हम भी न गाएंगे।

अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए

जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा

आंसू के द्वारे कटी सुबह, दुख के घर बीती दोपहरी

अब जाने डोला कहां रुके, अब जाने शाम कहां पर हो

बरसात भिगोकर पलक गई, तन झुलसाकर पतझर लौटा

खंडहर घर को कर जेठ चला, पनघट मरघट बनकर लौटा

पी डाली उम्र सितारों ने, चुन डाले गीत बहारों ने

लौटा तो गेह मुसाफिर यह, खाली ही हाथ अगर लौटा

दिन एक मिला था सिर्फ मुझे, मिट्टी के बंदीखाने में

आधा जंजीरों में गुजरा, आधा जंजीर तुड़ाने में

प्राणों को पकड़े खड़ी देह, पांवों को जकड़े पड़ा गेह

अब जाने इतने पर्दों में बेपर्दा श्याम कहां पर हो?

अब तू चाहे आंख दिखाए, अब तू चाहे कसम खिलाए

जब तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा

पर्दे बहुत हैं। भक्त कहता है, अब मैं कहां खोजता फिरूं? किन-किन पर्दों को उठाऊं? अब तू ही मुझे खोज ले। और दुख मैंने बहुत उठाए। सारी जिंदगी दुख उठाने में बीती। सारी जिंदगी सुख की आशा करने में, दुख को काटने में गुजारी। अब बहुत हो गया। अब मैं दुख को काटने की फिकर नहीं करता, और न सुख की तलाश करता हूं; अब मैं सुखी होता हूं।

इस बात को खयाल में लेना। भक्त कहता है, अब मैं सुख की खोज नहीं करता, अब मैं सुखी होता हूं। अब इस क्षण से खोज बंद हुई। अब मैं नाचूंगा। अब मैं आनंदित हूं। अब मैंने तय कर लिया कि खोजने से नहीं मिलता, खो जाने से मिलता है।

भक्त की श्रद्धा बड़ी अनूठी है। अगर श्रद्धा का सूत्र हाथ में हो तो तुम ध्यान की चिंता छोड़ दो। अगर तुम श्रद्धा कर सकते हो तो धन्यभागी हो। अगर संदेहशून्य मन से, जो मैं तुमसे कह रहा हूं उसकी मिठास तुम्हें अनुभव होती है, अगर मुझे सुनकर तुम्हारे अंतस में आलोक प्रगाढ़ होता है, ऊष्मा भरती है तो फिर तुम ध्यान के लिए अलग से जगह बनाने की सोचो ही मत। तुम्हारा ध्यान तुम्हें मिल गया।

प्रेम तुम्हारा ध्यान है।

अब इसमें व्याघात मत डालो, व्यवधान मत डालो। यह जो पूछ रहा है, यह मन है। यह मन कह रहा है, ध्यान का क्या? यह तो प्रेम है, ठीक; यह तो भक्ति है, ठीक; लेकिन ध्यान का क्या? मन एक बिबूचन पैदा कर रहा है।

तुम ध्यान की चिंता में पड़ गए कि भक्ति खो जाएगी। और ध्यान तो मिलेगा कि नहीं पक्का नहीं है, भक्ति खो जाएगी यह पक्का है।

और जिस मन ने अभी बाधा खड़ी की है, कल अगर कभी तुम्हारा ध्यान भी जमने लगे, सधने लगे, तो यही मन कहेगा, ठीक है, ध्यान तो ठीक है; लेकिन प्रेम का क्या? भक्ति का क्या? यह ध्यान तो सूखा-सूखा है, मरुस्थल है। इसमें रसधार कहां बहेगी? इसमें नाचोगे कैसे? इससे शांति तो मिल जाएगी लेकिन आनंद? नाचता हुआ आनंद, नर्तन करती हुई दिव्यता कहां मिलेगी?

ऐसे मन तुम्हें डांवांडोल करेगा। मन की आदत यही है। तुम जहां हो, वह तुम्हें कहीं और के सपने दिखाता है। वह कहता है, कहीं और होना चाहिए। वह तुमसे कहता है, इससे बेहतर जगह है। और इसलिए तुम जहां हो, वहां से चुका देता है।

और अगर तुम इस अभ्यास में बहुत ज्यादा कुशल हो गए–चूकने के अभ्यास में–तो तुम हर जगह चूकते चले जाओगे। तुम स्वर्ग में भी होओगे तो भी मन तुमसे कहेगा, पता नहीं नर्क में क्या हो रहा है! हो सकता है, लोग वहां ज्यादा मजा उठा रहे हों।

मैंने तो सुना है, एक फकीर मरा और स्वर्ग पहुंचा। तो वह बड़ा चकित हुआ स्वर्ग में प्रवेश करके। क्योंकि उसने देखा, कई लोग जंजीरों से बंधे हैं।

उसने जो देवदूत उसे अंदर ले जा रहा था, उससे पूछा कि मेरी यह समझ के बाहर है। मैंने तो सुना था, स्वर्ग मुक्ति है। और यहां भी जंजीरें बंधी हैं? इसे देखकर तो मेरी घबड़ाहट बढ़ती है। यह मामला क्या है? ये लोग बंधे क्यों हैं?

उसने कहा कि ये लोग नर्क जाना चाहते हैं इसलिए जंजीरें डालना पड़ीं। ये लोग एकदम उतावले हो रहे हैं। ये कहते हैं, स्वर्ग तो देख लिया, अब नर्क देखना है। ये कहते हैं, यहां तो ऊब आने लगी। देख लिया, जो देखना था। पता नहीं नर्क में कहीं ज्यादा मजा हो!

मन ऐसा है। स्वर्ग भी पहुंच जाओगे तो भी चैन से न बैठने देगा। अब जिसने पूछा है, “मिठास की याद भी मुंह को स्वाद से भर देती है।’ जब याद इतने स्वाद से भर रही है तो चल पड़ो। स्मरण तुम्हारा मार्ग है, सुरति तुम्हारी विधि है। अब इस मिठास में डूबो। मिठास हो जाओ।

“प्रकाश का स्मरण अंतस को आलोक से, ऊष्मा से भर देता है। मैंने सुना था कि ध्यानमूलं गुरुमूर्ति। और मुझे आपका स्मरण एक प्रगाढ़ रसमयता, आनंद और तन्मयता से भर देता है…।’

तो फिर अब बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? तो फिर रुके क्यों हो? जहां से रस बहे, जानना वहीं सत्य है। रस सत्य की खबर लाता है। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव रस है। जहां से रस बहे, समझना परमात्मा छिपा है। पत्थर से बहे, तो प्रतिमा हो गई वह परमात्मा की। भोजन से बहे, तो अन्न ब्रह्म हो गया। संगीत से आए तो संगीत अनाहत का नाद हो गया। जिस व्यक्ति की उपस्थिति में लगने लगे वह रस, तो उपस्थिति उसकी भगवतस्वरूप हो गई। वह व्यक्ति भगवान हो गया।

जहां से रस मिल जाए, चल पड़ना उस तरफ अंधे की भांति। फिर आंखों को रख देना। इन आंखों का काम तो तभी तक था, जब तक रस का पता न हो। यह आंखों से टटोल-टटोलकर चलना तभी तक ठीक था, जब तक रस का पता न हो। जब रस की झलक मिलने लगी, तो अब सब छोड़ो समझदारी। अब हो जाओ नासमझ। अब हो जाओ पागल। अब हो जाओ उन्मत्त। दौड़ पड़ो। अब चलने से काम न चलेगा। आंधी-अंधड़ की तरह चल पड़ो परमात्मा की तरफ।

“जब मेरी चाल में हर क्षण घूंघर की तरह आपकी धुन बजती है, जब मेरे रोम-रोम में ध्यानमूर्ति, प्रेममूर्ति और गुरुमूर्ति आप बसते हैं तो अब मैं ध्यान को कहां रखूं?’

अब ध्यान को रखकर करोगे क्या? अब ध्यान की जरूरत कहां रही? यह तो ऐसा हुआ कि किसी अंधे को आंखें मिल गईं और अब वह पूछता है कि यह मेरी लकड़ी, जिससे मैं टटोल-टटोलकर चलता था जब मैं अंधा था, तो अब इस लकड़ी का क्या करूं? और कहां रखूं? मैं इसको छोड़ तो सकता नहीं, क्योंकि इसने कितना साथ दिया है! अंधा था तो इसी से टटोल-टटोलकर चलता था। आंखें तो आज मिलीं, अंधा तो जन्मों से था। लकड़ी ने जन्मों साथ दिया, इसे कैसे छोड़ दूं?

प्रेम मिल गया तो ध्यान की कोई जरूरत नहीं। ध्यान मिल गया तो प्रेम की कोई चिंता नहीं। दो में से एक सध जाए। और दोनों के बीच अपने मन को डांवांडोल मत करना, अन्यथा तुम त्रिशंकु हो जाओगे।

और जब मैं कह रहा हूं, एक सध जाए तो मेरा मतलब यही है कि एक के सधते दूसरा अनायास अपने आप सध जाता है।

उजाड़ से लगा चुका उम्मीद मैं बहार की

निदाघ से उम्मीद की, वसंत की बयार की

मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी

अंगार से लगा चुका उम्मीद मैं तुषार की

कहां मनुष्य है जिसे न भूल शूल सी गड़ी

इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो

पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो

ध्यानी कहता है, मैं अपने को सुधारूंगा। ध्यानी का अर्थ है: सारा दायित्व मेरे ऊपर है।

प्रेमी का अर्थ है: इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो। कि तुम मुझे पुकार लो, कि पुकार कर दुलार लो, कि दुलार कर सुधार लो।

प्रेमी का अर्थ है, कि वह कहता है, कि मैंने छोड़ दिया तुम्हारे हाथों में। अब तुम सुधार लो। मेरे किए न होगा। मेरे किए होगा भी कैसे? मैं गलत हूं, मैं जो करूंगा वह और गलती को बढ़ाएगा। मैं नासमझ हूं। मैं जो करूंगा उससे नासमझी और उलझ जाएगी। मैं वैसे ही उलझा हूं।

तुमने कभी देखा, कोई चीज उलझी हो, सुलझाने जाओ तो और उलझ जाती है। मैं वैसे ही भ्रम में हूं। अब इसमें और उपद्रव करूंगा तो और कीचड़ मच जाएगी।

प्रेमी की दृष्टि और है। वह कहता है, कि मैंने तुम्हारे हाथों में छोड़ा अपने को। तुम मुझे बना सके तो तुम मुझे सुधार न सकोगे? तुम मुझे जीवन दे सके तो तुम मुझे ज्योति न दे सकोगे? तुमने बिन मांगे जीवन दिया, तुमने बिन मांगे अहोभाग्य बरसाया, तो मांगता हूं तुमसे, ज्योति न दे सकोगे? बिन मांगे जीवन देते हो, मांगे ज्योति न दोगे?

प्रेमी परमात्मा पर छोड़ रहा है। और इसी छोड़ने में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है। क्योंकि जैसे ही तुमने उस पर छोड़ा, तुम्हारा अहंकार मिटना शुरू हुआ। और अहंकार मूल है सारे उपद्रव का, सारी भूलों का, सारे पाप का, सारी नासमझियों का। अहंकार द्वार है नर्क का।

तो जिसने पूछा है–कृष्ण गौतम का प्रश्न है–उससे मैं कहता हूं:

आगाज़ जो अच्छा है, अंजाम बुरा क्यों हो?

नादां है जो कहता है, अंजाम खुदा जाने!

जब प्रारंभ अच्छा है, अंत भी अच्छा होगा। तुम फिक्र छोड़ो। नासमझ है, जो कहता है कि शुरुआत तो बड़ी अच्छी हो रही है, परिणाम परमात्मा जाने! जब शुरुआत अच्छी है तो परिणाम भी अच्छा होगा। जब बीज मिठास के और रस के हैं तो फल भी रस के और मिठास के होंगे।

तुम चल पड़ो। अब तुम बैठे-बैठे विचार मत करो। चिंतन अक्सर आलस्य बन जाता है। बहुत सोच-विचार करनेवाले लोग चलने की बात भूल ही जाते हैं। इसलिए दार्शनिक कुछ भी नहीं कर पाते। सोचते-सोचते जीवन गंवा देते हैं। करने के लिए मौका ही नहीं बचता, समय नहीं बचता, शक्ति नहीं बचती।

मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में एक दार्शनिक भर्ती हुआ। युद्ध में जरूरत थी, सभी भर्ती किए जा रहे थे, वह भी भर्ती कर लिया गया। लेकिन बड़ी कठिनाई हुई। क्योंकि जो इसे शिक्षण दे रहा था वह बड़ी परेशानी में पड़ गया। वह कहे, “बायें घूम।’ सारी दुनिया घूम जाए, वह वहीं खड़ा है। तुम खड़े क्यों हो? वह कहता, जब तक मैं सोच न लूं कि बायें घूमूं क्यों? आखिर बायें घूमने से फायदा क्या है? और फिर दायें घूमना पड़ेगा, तो यहीं क्यों न खड़े रहो?

आखिर वह जो शिक्षण देनेवाला था, परेशान हो गया। उसने कहा कि तुम किसी काम के नहीं हो। अगर तुम इतना सोच-विचार करोगे तो युद्ध के मैदान पर क्या होगा? इतना सोच-विचार सैनिक के लिए नहीं है। मगर अब तुम भर्ती हो ही गए हो तो कोई तो काम देना।

तो उसे मेस में भेज दिया–भोजनालय में–कि वहां तुम कुछ काम करो। पहले ही दिन उसको मटर के दाने दिए, कि बड़े-बड़े एक तरफ कर लो, छोटे-छोटे एक तरफ कर दो।

घंटेभर बाद जब उसका शिक्षक आया तो दाने वैसे के वैसे रखे थे और वह माथे से हाथ लगाए–जैसे रोडेन की प्रतिमा है न! विचारक–वैसे बैठा था।

“तुम क्या कर रहे हो? कुछ किया नहीं?’

उसने कहा, “मैं यही तो सोच-विचार में पड़ा हूं। बड़े एक तरफ कर दूं, छोटे एक तरफ कर दूं, कुछ मझोल हैं; इनको कहां करना? और जब तक सब बात साफ न हो जाए तब तक कोई भी कृत्य करना खतरे से खाली नहीं है। मैं सोच-विचारवाला आदमी हूं।’

गौतम! दार्शनिक होने की कोई जरूरत नहीं। अब ध्यान की चिंता छोड़ो। तुम्हें जिससे संगति बैठ सकती है, वह स्वर बजा है। अब चल पड़ो। अब श्रद्धा से भरपूर, भरोसे से। सोच-विचार एक तरफ रखकर, अब दौड़ो।

पांचवां प्रश्न:

वहां तक आया हूं, जहां लगता है कि कुछ हो सकता है। अब कोई भय नहीं मालूम देता। प्रभु, प्रणाम! प्रणाम!! प्रणाम!!!

शुभ है ऐसी घड़ी, जब ऐसा भाव सघन होने लगे कि अब कुछ हो सकता है। मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक महत्व की घड़ी यही घड़ी है, जब भरोसा आता है कि अब कुछ हो सकता है।

अन्यथा साधारणतः तो भरोसा आता ही नहीं कि कुछ, और मुझे हो सकेगा? और उस गैर-भरोसे का भी कारण है। जन्मों-जन्मों से कुछ न हुआ, आज अचानक कैसे हो सकेगा? अनंत काल में न हुआ, आज कैसे हो सकेगा?

इसलिए इस जगत में सबसे बड़ी महत्वपूर्ण घटना, जहां से और महत्वपूर्ण घटनाओं की शुरुआत होती है, वह इस क्षण का आ जाना है, जब तुम्हें यह लगे कि हां, मुझे कुछ हो सकता है।

इसीलिए तो लोग बुद्ध पर, महावीर पर, कृष्ण पर, क्राइस्ट पर भरोसा नहीं करते। क्योंकि उनको लगता है, जब हमें नहीं हो सकता तो किसी को कैसे हुआ होगा? आखिर हम भी मनुष्य जैसे मनुष्य हैं–हड्डी, मांस, मज्जा के बने। जैसे तुम थे–महावीर हो, कि बुद्ध हो, कि कृष्ण हो, कि क्राइस्ट हो। हम भी जन्मे, तुम भी जन्मे। हम भी मरण की तरफ जा रहे हैं, तुम भी मरे। हमें भी भूख लगती है, तुम्हें भी लगती है। हमारा भी शरीर जीर्ण-शीर्ण होता है, वृद्ध होता है, तुम्हारा भी हुआ। हमारी भी कमर झुक गई, तुम्हारी भी झुक जाएगी, तुम्हारी भी झुक गई थी।

तो अंतर कहां है? हमारे जैसे मनुष्य! हमें नहीं हुआ, हमें नहीं घटा वह अघट, हमारे जीवन में नहीं उतरा आकाश। हमारा आंगन तो सिकुड़ता ही गया। आकाश के तो दर्शन ही नहीं हुए। हमारे तो झरोखे बंद ही होते गए। कभी कोई खुला प्रकाश, सूरज का दर्शन न हुआ, तो तुम्हें कैसे हुआ होगा? या तो तुम धोखा दे रहे हो, या तुम भ्रम में पड़े हो, या तो तुम सिर्फ बातचीत कर रहे हो और या फिर तुम कोई सपना देख रहे हो।

ध्यान रहे, जिस दिन तुम्हें भरोसा आता है कि मुझे हो सकता है, उसी दिन पहली दफे बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट पौराणिक नहीं रह जाते, ऐतिहासिक हो जाते हैं। उसी क्षण सारा इतिहास नया हो जाता है, जैसे तुम्हारे लिए फिर से लिखा गया। पहली दफा ऐसे व्यक्तियों पर, जिनके जीवन में परमात्मा की झलक आयी, प्रतिबिंब उतरा, जिनमें किसी तरह परमात्मा की प्रभा प्रगट हुई, तुम्हें भरोसा आता है। जिस दिन तुम्हें अपने पर भरोसा आता है उसी दिन तुम्हें कृष्ण, महावीर, बुद्ध पर भरोसा आता है।

लोग ईश्वर पर भरोसा नहीं करते क्योंकि उनका अपने पर भरोसा नहीं है। नास्तिक की असली नास्तिकता आत्म-अविश्वास है। वह कहता है, कोई ईश्वर नहीं है। क्योंकि भीतर जब ईश्वर का पता नहीं चलता, किरण भी नहीं पता चलती, झलक भी नहीं पता चलती, सपने में भी कोई तरंग नहीं लहराती तो ईश्वर हो कैसे सकता है?

ईश्वर होता है उस क्षण, जब तुम्हारे भीतर तुम होने लगते हो।

शुभ घड़ी है। लेकिन ध्यान रखना, यह घड़ी कई बार आएगी और जाएगी। इसलिए जब चली जाए तो घबड़ा मत जाना, उदास मत हो जाना। क्योंकि यह बड़ी दूर की झलक है। जैसे आकाश में क्षणभर को बिजली कौंध गई हो और तुम्हें दूर हिमालय का शिखर दिखाई पड़ गया हो। पर बिजली गई, फिर घना अंधेरा है। और ध्यान रखना, जब बिजली के बाद अंधेरा होता है तो बिजली के पहले के अंधेरे से ज्यादा घना हो जाता है।

तो जिनके जीवन में यह सौभाग्य का क्षण आता है, उन्हें लगता है, अब कुछ हो सकता है, वे बड़ी खतरे की स्थिति में भी हैं। उन्हें सचेत कर देना जरूरी है। क्योंकि यह बिजली की कौंध है; यह खो जाएगी। यह बहुत बार पकड़ में आएगी, बहुत बार छूट जाएगी। और जब छूटेगी तब तुम ऐसे अतल अंधेरे में गिरोगे, जैसे कि तुम कभी भी नहीं थे।

लेकिन अगर सावधान रहे और स्मरण रखा कि ऐसा होता है, तो तुम उन अंधेरी रातों को भी पार कर जाओगे। और जो अभी बिजली की कौंध की तरह घटा है, वह एक दिन सुबह के सूरज की तरह घटेगा। पहले झलक आती है, फिर झलक साफ होती है; फिर झलक झलक नहीं रह जाती, तुम्हारा सुनिश्चित अनुभव हो जाता है। फिर अनुभव नहीं रह जाता है, परमात्मा फिर अनुभव जैसा नहीं मालूम होता, तुम्हारा स्वत्व हो जाता है, तुम्हारा स्वभाव हो जाता है।

मधुर निर्यात और आयात, साधते हो दोनों के खेल

छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल

तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज

भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज

पर खयाल रखना–

मधुर निर्यात और आयात साधते हो दोनों के खेल।

छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल

एक क्षण तो लगता है, इतने करीब; और एक क्षण लगता है, इतने दूर। एक क्षण लगता है, हाथ की पहुंच के भीतर; और एक क्षण लगता है, असंभव! बिलकुल असंभव! ऐसा बहुत बार होगा।

तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज

भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज

तो डरना मत। यह झलक सौभाग्य है।

लेकिन जिनके जीवन में सौभाग्य आता है, उसके साथ-साथ उतने ही खतरे भी आते हैं। जब तुम्हारे पास कुछ नहीं होता तो खोने को भी कुछ नहीं होता। जब कुछ होता है तो खोने को भी कुछ होता है। जितना ज्यादा तुम्हारे पास होगा, उतने ही तुम खतरे में भी हो; क्योंकि उतना ही खोने को भी तुम्हारे पास है।

एक युवक छह महीने पहले आया। आने के महीनेभर बाद उसने संन्यास लिया और मुझसे पूछा कि क्या मैं वापस जा सकता हूं अपने घर? मैंने कहा, जा सकते हो। लेकिन वह गया नहीं। महीनेभर और रुका। फिर उसने पूछा कि क्या मैं जा सकता हूं? मैंने कहा कि अब जाना ठीक नहीं।

वह थोड़ा चौंका। उसने कहा कि महीनेभर पहले आपने कहा कि जा सकते हो। अब आप कहते हो, जाना ठीक नहीं, मामला क्या है? क्योंकि मैं तो सोचता था, महीनेभर में मैं और तैयार हो जाऊंगा तो जाने के योग्य हो जाऊंगा।

मैंने कहा, महीनेभर पहले जब तुमने पूछा था, तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं था। तो मैंने कहा, जाओ। कोई फर्क नहीं पड़ता था। अब तुम्हारे पास कुछ खोने को है। थोड़ा-सा अंकुर फूटा है। अब मैं कहता हूं, मत जाओ। अभी रुको। अब तुम्हारे पास कुछ है, जो खो सकता है अभी जाने से। अब थोड़ी देर रुक जाओ। जरा इसे मजबूत होने दो। जरा इसकी जड़ें गहरी होने दो। अन्यथा तुम इतने दुख में पड़ जाओगे, जितने दुख में तुम पहले भी न थे।

तुम्हें पता है? एक गरीब आदमी है, गरीबी उसको भी है। फिर एक अमीर आदमी है, जिसका दिवाला निकल गया; वह भी गरीब है। दोनों के पास कुछ भी नहीं है। लेकिन जिसका दिवाला निकल गया है उसकी गरीबी का कोई अंदाज तुम गरीब आदमी की गरीबी से नहीं लगा सकते। गरीब आदमी क्या खाक गरीब है! जो अमीर ही कभी नहीं रहा, उसे गरीबी का कोई पता ही नहीं हो सकता। जो अमीर रह चुका है, उसकी गरीबी की पीड़ा बड़ी गहरी है। जिसने वैभव के दिन जाने, वही जानता है, दुर्दिन क्या है। जिसने वैभव के दिन ही नहीं जाने, वह तो दुर्दिन में भी मस्त चादर ओढ़कर सोता है। कोई दुर्दिन जैसी कोई बात ही नहीं। सहज सामान्य जीवन है।

ऐसा ही आंतरिक संपदा के संबंध में भी सच है।

जिन मित्र ने पूछा है, उनके जीवन में बड़ी महत्वपूर्ण घटना घटने के करीब आ रही है, घट रही है। पहली किरण उतरी है।

सावधान! क्योंकि इस पहली किरण के साथ ही जब अंधेरा फिर से आएगा तो बहुत गहरा होगा। तुम बहुत तड़फोगे फिर।

तुम्हारे खो जाने में दुख, तुम्हारे पा जाने में आज

भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज

मधुर निर्यात और आयात, साधते हो दोनों के खेल

छनक में निकल चले थे दूर, पलक में पल-पल बढ़ता मेल

परमात्मा ऐसी बहुत धूप-छांव तुम्हें देगा। परमात्मा बहुत बार करीब और बहुत बार दूर निकल जाएगा। यह छिया-छी का खेल है। ऐसे ही तुम्हें वह मजबूत करता है, बलशाली करता है। ऐसे ही तुम्हें जीवन देता है। ऐसे ही तुम्हारी परिपक्वता आती है। ऐसे ही मिलकर-खोकर, खोकर-मिलकर, बार-बार धूप-छांव से गुजारकर तुम्हें पकाता है; परिपक्व करता है। तुम्हें प्रौढ़ता देता है। तुम्हारे जीवन में एकता आती है।

और एक ऐसी घड़ी आती है कि वह मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक; हर हालत में तुम प्रसन्न होते हो। अंधेरी रात भी उसी की, जगमगाते सूरज का दिन भी उसी का। जब तुम्हें कुछ भी उसका पता नहीं चलता, तब भी तुम जानते हो, वह है। और जब उसका पता चलता है, तब भी तुम जानते हो, वह है। उस घड़ी धूप-छांव का खेल बंद होता है।

अभी तो खतरा आएगा। पूर्व-सावधान कर देना उचित है।

आरजुओं में हरारत है, न उम्मीदों में जोश

सर्द अब हर गर्मिये-बाजार है तेरे बगैर

जिंदगी एक मुश्तकिल आजार है तेरे बगैर

सांस एक चलती हुई तलवार है तेरे बगैर

अभी तो जब खोओगे तो लगेगा–

सांस एक चलती हुई तलवार है तेरे बगैर

जिंदगी एक मुश्तकिल आजार है तेरे बगैर

बड़ी कठिनाई होगी, जैसी कभी न हुई थी। लेकिन यह केवल सौभाग्यशालियों को होती है कठिनाई। ऐसा दुर्दिन केवल उन्हें मिलता है, जिन्हें प्रभु की थोड़ी-सी झलक मिलनी शुरू हुई।

तुम्हारे पैर ठीक जमीन पर पड़ रहे हैं। मगर अभी भटकोगे। इतनी जल्दी कुछ भी नहीं होता। और पाकर जब भटकोगे तो बहुत रोओगे। उन आंसुओं में याद रखना। उन आंसुओं में भरोसे को कायम रखना।

अभी तो भरोसा आसान है। जब कुछ ठीक हो रहा होता है तब तो भरोसा बिलकुल आसान है। जब सब गलत जाने लगता है, तब भरोसा कठिन होता है।

लेकिन उसी कठिनाई की चुनौती को जो मान लेता है उसके जीवन में विकास होता है।

तेरा-मेरा संबंध यही, तू मधुमय औ’ मैं तृषित हृदय

तू अगम सिंधु की रास लिये

मैं मरु असीम की प्यास लिये

मैं चिर-विचलित संदेहों से

तू शांत अटल विश्वास लिये

तेरी मुझको आवश्यकता, आवश्यकता तुझको मेरी

मैं जीवन का उच्छवास लिये

तू जीवन का उल्हास लिये

तुझसे मिल पूर्ण चला बनने, बस इतना ही मेरा परिचय

तेरा-मेरा संबंध यही, तू मधुमय औ’ मैं तृषित हृदय

हम प्यासे हैं। हम भूखे हैं। हम अतृप्त हैं–तृषित हृदय। और परमात्मा में छिपी है वह सुधा, वह अमृत, जो हमें तृप्त करेगी। परमात्मा और हमारे बीच जो संबंध है, वह प्यासे और जल के बीच का संबंध है।

अभी तुम्हें सरोवर दिखाई पड़ा है, पर दूर से दिखाई पड़ा है। अभी बहुत संभावना है कि फिर तुम वृक्षों की ओट में हो जाओगे। शायद सरोवर की तरफ चलने में ही बहुत बार वृक्ष ओट में आ जाएंगे और सरोवर खो जाएगा। चलोगे भी सरोवर की तरफ, तो भी अनेक बार सरोवर दिखाई पड़ेगा, अनेक बार खो जाएगा।

जब खो जाए, तब भूलना मत कि है। क्योंकि जब दिखाई पड़ता है तब बिलकुल आसान मानना, कि है। जब खो जाता है तब बहुत दुर्गम मानना, कि है। तब उदास हो, हताश हो, थककर बैठ मत जाना।

जो इस क्षण में हुआ है, इसे तुम सदा के लिए अपनी एक चिर-संचित निधि बना लो। यह जो भरोसा जगा है कि अब कुछ हो सकता है, इसे भूलना मत। कुछ भी हो, कैसी भी परिस्थिति हो, इसे फिर-फिर जगा लेना। इसे याद रखना। यह तुम्हारी स्मृति से उतर न जाए।

तो जो अभी झलक की तरह मिला है, वह तुम्हारी स्थायी संपदा बन जाता है।

आखिरी प्रश्न:

मन जब एकदम शांत रहने लगेगा तब सांसारिक कार्य कैसे होंगे?

अशांत रहकर भी चल रहे हैं, तो शांत रहकर और भले तरह से चलेंगे। आखिर शांति किसी काम में बाधा तो नहीं है। अशांत रहकर भी कर लेते हो तो शांत रहकर तो और कुशलता से कर सकोगे। यह तो सीधा-सा गणित है।

एक आदमी अशांत है और कोई काम कर रहा है, तो अर्थ हुआ कि अशांति बड़ी शक्ति ले रही है। मन का तनाव बड़ी शक्ति पी रहा है। फिर भी काम कर रहा है, किसी तरह खींच रहा है। तब भी कर लेता है। तो थोड़ा सोचो, जब तुम शांत हो जाओगे और सारी शक्ति काम में ही पड़ेगी–क्योंकि मन कोई शक्ति रोकेगा नहीं; अशांति नहीं, तनाव नहीं, कोई चिंता नहीं–जब तुम पूरे-पूरे काम में उंडलोगे तो काम की गति तो बढ़ेगी, कुशलता बढ़ेगी, गुणवत्ता बढ़ेगी।

यह प्रश्न ही क्यों उठता है? यह प्रश्न इसलिए उठता है कि तुम्हें अब तक यही समझाया गया है कि जो शांत हो जाते हैं, वे संसार से भाग जाते हैं। इसीलिए संन्यास से एक भय हो गया है। शांति से भय हो गया है। यह भय बिलकुल निर्मूल है।

मैं तुमसे कहता हूं, अशांत भला भाग जाते हों संसार से, शांत क्यों भागने लगे? शांत को भागने के लिए जरूरत ही क्या रही? शांत को तो आनंद आएगा चारों तरफ की अशांति के बीच खड़े होने में। क्योंकि यहां कसौटी होगी।

यहां प्रतिपल भरोसा गहरा होगा कि अशांति कितनी ही हो बाहर, अब मेरे भीतर प्रवेश नहीं करती। मैं अभेद्य दुर्ग में विराजमान हो गया हूं। मेरी शांति अटूट है। अब कोई चीज इसे विशृंखल नहीं करती। मेरी शांति अब कमजोर नहीं है कि टूट जाए; कि कोई भी चीज मेरे मन को डांवांडोल करे। अब सब परीक्षाओं से गुजर रहा हूं और मेरी शांति और गहरी और मजबूत होती चली जाती है।

नहीं, मैं तुमसे कहता हूं, शांत आदमी जो भी करेगा उसमें उसकी कुशलता बढ़ जाएगी।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं कह रहा हूं, शांत आदमी वे सब काम करेगा ही, जो तुम कर रहे हो। क्योंकि कुछ काम हैं, जो केवल अशांत आदमी ही कर सकता है, क्योंकि उनका मूल अशांति में है।

जैसे एक आदमी चोरी कर रहा है, तो मैं तुमसे यह नहीं कह सकता कि शांत आदमी चोरी कर सकेगा। कर सके तो कुशलता से करेगा; मगर कर सकता नहीं। क्योंकि चोरी के लिए बड़ा सोया चित्त चाहिए। बड़ा दीन-दुर्बल चित्त चाहिए। चोरी के लिए बड़ा अशांत, विक्षिप्त चित्त चाहिए।

शांत आदमी क्रोध न कर सकेगा। कर सके तो बड़ी कुशलता से करेगा, मगर कर न सकेगा। क्योंकि क्रोध का मूल अशांति में है। लेकिन जीवन के सहज काम तो और कुशल हो जाएंगे।

शांत आदमी ज्यादा बेहतर पति होगा, ज्यादा बेहतर पत्नी होगी, ज्यादा बेहतर बेटा होगा, ज्यादा बेहतर बाप होगा, ज्यादा बेहतर मित्र होगा। शांत आदमी के जीवन में, जो भी शांति के साथ बच सकता है, वह सभी बेहतर, स्वर्णमयी होकर, सुगंधमयी होकर होगा। उसके सोने में सुगंध आ जाएगी।

तो मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम्हारी सभी चीजें बचेंगी। लेकिन मैं यह कहता हूं, जो बचाने योग्य हैं वे बचेंगी। जो बचाने योग्य ही नहीं हैं, जिनको तुम भी बचाना नहीं चाहते हो, वे ही केवल खो जाएंगी। महंगा सौदा नहीं है।

महंगा सौदा तो तुम अभी कर रहे हो अशांति को चुनकर।

“मन जब एकदम शांत रहने लगेगा तब सांसारिक कार्य कैसे होंगे?’ मन बहाने खोज रहा है। मन कह रहा है, शांत मत हो जाना। यह क्या कर रहे हो? ध्यान में लगे हो? अपनी जड़ें खोद रहे हो? सब गड़बड़ हो जाएगा।

मन का तो सब गड़बड़ हो जाएगा, यह सच है। मन ठीक ही कह रहा है। क्योंकि मन है तुम्हारा रोग, बीमारी।

अगर तुम महत्वाकांक्षी हो तो महत्वाकांक्षा चली जाएगी। अगर तुम पागल की तरह स्पर्धा में लगे हो, स्पर्धा चली जाएगी। अगर तुम व्यर्थ चीजों को जोड़ने-बटोरने में लगे हो तो वह पागलपन उतर जाएगा।

तो मन तो ठीक कह रहा है। मन को संसार की फिक्र नहीं है, मन को अपनी फिक्र है। मन यह कह रहा है, कि मेरा क्या होगा? तुम तो शांत होने लगे, कुछ मेरी तो सोचो! कितने दिन तुम्हारे साथ रहा!

यह तो ऐसे ही हुआ, कि तुमने दवा लेनी शुरू की, बीमारी तुमसे कहे, कि जरा यह भी तो सोचो, मेरा क्या होगा? तुम तो दवा लेने लगे। और मैं कितने दिन से साथ रही! जन्मों-जन्मों का, जुग-जुग का संग-साथ–तुम दवा लेने लगे? धोखेबाज कहीं के! दगाबाज कहीं के! दवा लेने लगे? यह तुम क्या कर रहे हो? सब खराब हो जाएगा।

लेकिन तुम बीमारी की नहीं सुनते। मन को तुमने अब तक बीमारी नहीं जाना। तुम सोचते हो, मन तुम हो। यहीं भूल हो रही है। तुम मन नहीं हो। तुम मन के पार साक्षी हो। उस साक्षी का परम आनंद घटेगा शांति में। शांति में मन चला जाएगा, तुम बचोगे। मन के बहुत-से व्यापार, जो रुग्ण हैं, जिन्होंने सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं दिया, वे भी चले जाएंगे। लेकिन उनका चला जाना हितकर है।

मन सदा ध्यान में बाधा डालता है। क्योंकि ध्यान मन की मृत्यु है। मन समझाता है:

बहुत खोया, और खोने दो मुझे

और भी गुमराह होने दो मुझे

आज पलकों की छबीली छांह में लग गई है आंख

सोने दो मुझे

बहुत खोया, और खोने दो मुझे

आज पलकों की छबीली छांह में लग गई है आंख

सोने दो मुझे

लेकिन जिसे तुम पलकों की छबीली छांह समझ रहे हो, वहीं से तुम्हारे जीवन का सारा ज्वर, सारा उत्ताप पैदा हुआ है। जिसे तुम सौंदर्य समझ रहे हो उसी ने तुम्हारे जीवन को कुरूप किया है। और जिसे तुम सोचते हो तुम्हारा बल, वही तुम्हारी नपुंसकता है, वही तुम्हारी निर्बलता है। इसे ठीक से देखो।

और अगर तुम्हें यह चिंता हो कि तुम अगर शांत हो गए तो संसार का क्या होगा, तो यह चिंता तुम बिलकुल मत करो। बहुत अशांत लोग हैं। तुम्हारे जाने से यहां कुछ बाधा न पड़ेगी। यहां काफी पागल हैं। तुम इस चिंता में मत पड़ो कि मैं अगर ठीक हो गया, तो पागलखाने का क्या होगा? यह चलता ही रहा है। यह चलता ही रहेगा।

ये रंगे-बहारे-आलम है

क्यों फिक्र है तुझको ऐ साकी!

महफिल तो तेरी सूनी न हुई,

कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए

–यह महफिल भरी ही रहती है।

महफिल तो तेरी सूनी न हुई,

कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए

तुम उठने में संकोच मत करो। कुछ बाहर खड़े हैं, जोर से चिल्ला रहे हैं, जगह दो। क्यू में खड़े हैं। तुम हटो, वे बड़े प्रसन्न होंगे। तुम्हें वे धन्यवाद देंगे। इसीलिए तो लोग संन्यासी का स्वागत करते हैं! चलो एक जगह खाली हुई। इसीलिए तो लोग त्यागी की महिमा गाते हैं, चरण छूते हैं कि धन्य प्रभु! कम से कम आपने तो जगह खाली की!

तुम अक्सर पाओगे त्यागियों के पास भोगियों को स्तुति करते। जैन मंदिरों में देखो! जो छोड़कर बैठ गए हैं संसार, जो संसार को जोर से पकड़े हैं, वे उनके चरण छू रहे हैं। वे कह रहे हैं, बड़ी कृपा आपकी।

शायद उन्हें भी साफ न हो। मगर मामला क्या है? मामला यह है कि ये भी प्रतियोगी थे। ये हट गए मैदान से। जितने प्रतियोगी कम हुए उतना ही अच्छा है।

संसारी सदा संन्यासियों की प्रशंसा करता रहा है। लेकिन प्रशंसा निश्चित ही झूठ होगी, बेमन से होगी; असली नहीं होगी। असली होती तो खुद ही संन्यासी हो जाता। यह बड़े आश्चर्य की बात है। भोगी त्यागी के चरण छूता है। अगर यह श्रद्धा सच होती तो खुद ही त्यागी हो गया होता। यह श्रद्धा झूठी है। वह कह रहा है, आपने बड़ी कृपा की। आपने बड़ा ही अच्छा किया जो छोड़ दी झंझट।

जब एक राजनीतिज्ञ विदा होता है दिल्ली से तो बाकी राजनीतिज्ञ उसका विदाई समारोह करते हैं। कहते हैं कि गिरि साहब, आप चले बंगलोर! बड़ी कृपा! फिर न आना। आप बंगलोर में ही बसना। आबोहवा भी अच्छी है। और दिल्ली में रखा क्या है?

चलो, क्यू में एक आदमी कम हुआ। थोड़े हम आगे सरके। ऐसी आशा से तो आदमी जी रहा है।

तुम इसकी फिक्र मत करना कि संसार का क्या होगा? संसार तुम्हारे बिना बड़े मजे से चल रहा था, तुम्हारे बिना बड़े मजे से चलता रहेगा।

ये रंगे-बहारे-आलम है

क्यों फिक्र है तुझको ऐ साकी!

महफिल तो तेरी सूनी न हुई,

कुछ उठ भी गए, कुछ आ भी गए

तुम सिर्फ अपनी चिंता कर लो। और इतना मैं तुमसे कह सकता हूं आश्वासन के साथ, कि जो भी शुभ है, वह बचेगा। जो भी श्रेयस्कर है, वह बचेगा। जो भी अशुभ है, वह छूट जाएगा। मेरे मन में तो पाप और पुण्य की परिभाषा यही है: शांत मन जिसे न कर सके, वही पाप। जिसे करने के लिए अशांत मन अनिवार्य शर्त है, वही पाप। शांत मन ही जिसे कर सके, वही पुण्य। शांत मन जिसके होने के लिए अनिवार्य भूमिका है, वह पुण्य है।

पुण्य बचेगा। पुण्य की कुशलता बचेगी। पाप खोते चले जाएंगे। नर्क छूटेगा, स्वर्ग शेष रहेगा। बंधन गिरेंगे, मुक्ति उपलब्ध होगी। मोक्ष बचेगा। उसमें तुम्हारी कुशलता बढ़ेगी।

तुम पछताओगे न। तुम कभी लौटकर ऐसा न सोचोगे कि बड़ी गलती कर ली, जो शांत हो गए।

अब तक किसी ने ऐसा नहीं कहा। जो भी शांत हुए हैं सदियों-सदियों में–अनंत लोग हुए हैं। यह शृंखला छोटी नहीं है। बहुत लोग हुए सदियों-सदियों में, उनमें से किसी एक ने भी नहीं कहा कि शांत होकर पछतावा हुआ।

और इन सदियों में उनसे हजारों गुने लोग अशांत रहे, उन सबने सदा यह कहा कि चूक गए कुछ। कुछ भूल हो गई। कहीं जीवन का तार टूट गया। वीणा बजी नहीं। बांसुरी पर धुन उतरी नहीं। आए तो जरूर, खाली आए, खाली जा रहे हैं।

निरपवाद रूप से जो लोग अशांत रहे हैं, वे पछताए हैं।

निरपवाद रूप से जो लोग शांत हुए हैं उन्होंने धन्यभाग, सौभाग्य माना है।

आज इतना ही।


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समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–8

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अस्तित्व से तादात्म्य—प्रवचन—आठवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,

अंबरनाथ; रात्रि 13 फरवरी, 1973

चौथे मार्ग विराग पर वासना या इच्छा का हल्का सा झोंका भी आत्मा की शुभ्र दीवारों पर पड़ने वाले स्थिर प्रकाश को हिला देगा। अंतःकरण में, जो तेरी उच्चस्थ आत्मा और निम्नस्थ आत्मा के बीच पथ या सेतु है, जो वृत्तियों का महापथ है और जो अहंकार को झकझोर कर जगाने वाला है, माया के भ्रांत सुखों के लिए राग या खेद की छोटी से छोटी लहर भी, बिजली की कौंध जैसी भासती लहर भी, तेरे तीन पुरस्कारों को तुझसे छीन लेगी, जो तूने श्रम से जीते हैं।

क्योंकि तू जान कि उस नित्य में कोई छूट नहीं है।

महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत का जो अपने पूर्वजों के चरण चिन्हों पर चलते चले आए हैं, वचन हैं: आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान कि तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।

विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है। यदि तू इस मार्ग का स्वामी होना चाहता है तो तुझे पहले से बहुत बढ़ कर अपने मन और दृष्टि को घातक कर्म से मुक्त रखना है।

तुझे अपने को शुद्ध आलय (परमात्मा) से परितृप्ति कर लेना है और निसर्ग के आत्म-भाव के साथ एक हो जाना है। इसके साथ एक होकर तू अजेय है, पृथक रह कर तू समवृत्ति की क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूलस्रोत है।

मंजिल जैसे-जैसे शिखर पर पहुंचती है, वैसे-वैसे कठिन होती जाती है। मंजिल जैसे-जैसे पास आती है वैसे-वैसे भटकने की संभावना भी बढ़ जाती है। क्योंकि जितनी हो ऊंचाई, उतना ही गिरने का डर है। नरक से गिरने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि उससे कोई नीचे की जगह नहीं है। लेकिन स्वर्ग से गिरने की सारी सुविधा है; क्योंकि सब कुछ उसके नीचे है। मोक्ष से भी गिरने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि मोक्ष के नीचे ऊपर, दोनों तरफ कुछ भी नहीं है। नरक से सब कुछ ऊपर है, इसलिए नरक से कोई गिर नहीं सकता। स्वर्ग से सब कुछ नीचे है; इसलिए स्वर्ग से कोई भी गिर सकता है। मोक्ष से गिरने का फिर कोई उपाय नहीं–न बढ़ने का, न गिरने का; क्योंकि उसके नीचे-ऊपर दोनों ही दिशाएं नहीं हैं।

साधक जैसे-जैसे मोक्ष की तरफ पहुंचता है, वैसे-वैसे स्वर्गीय होता चला

जाता है, वैसे-वैसे उसके सुख सूम, वैसे-वैसे उसकी प्रतीति अत्यंत तरल, शुद्ध, वैसे-वैसे उसका अनुभव बहुमूल्य, नाजुक होता जाता है। और जितना नाजुक होता है अनुभव, जितना सूम होता है, उसे उतनी ही छोटी-सी घटना नष्ट भी कर डालती है। जितनी मूल्यवान चीज है, उतनी ही नाजुक हो जाती है। और इस यात्रा में तो हम अपने को रोज ही नाजुक बनाते हैं–संवेदनशील, सेंसिटिव। जरा सा झोंका सब तोड़ दे सकता है। और जब हवा की आंधी उठती है तो सड़क के किनारे पत्थरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता, लेकिन वृक्षों की शाखाओं में लगे फूल झड़ जाते हैं। पत्थर अपनी जगह बने रहते हैं, पत्थर नष्ट नहीं होते, लेकिन फूल नष्ट हो जाते हैं। जरा सा झोंका हवा का और फूल गिर जाते हैं। फिर जितना हो नाजुक फूल, उतने जल्दी गिर जाता है, और जितनी ऊंची शिखा पर हो, उतनी जल्दी गिर जाता है।

यह सूत्र इस संबंध में ही विचारणीय है।

“चौथे मार्ग विराग पर वासना या इच्छा का हल्का सा झोंका भी आत्मा की दीवालों पर पड़ने वाले स्थिर प्रकाश को हिला देगा।’

चौथे द्वार विराग पर वासना का हल्का सा झोंका भी, वह जो नये प्रकाश की झलक आ रही है, उसे हिला देगा; उस प्रकाश को डांवांडोल कर देगा, उस प्रकाश को ओझल कर देगा, कंपित कर देगा। और भीतर का प्रकाश कंपित हुआ, तो आगे नहीं जाया जा सकता; पीछे गिरना शुरू हो जाता है। प्रकाश की स्थिरता ही आगे जाने का मार्ग है। भीतर का प्रकाश जितना डांवांडोल होता है, उतना हम नीचे गिर जाते हैं। जिस दिन भीतर का प्रकाश अकंप हो जाता है, कुछ भी उसे कंपा नहीं पाता, कंपने की संभावना नहीं रह जाती, उसी दिन हम परम स्थिति को उपलब्ध हो जाते हैं। तो भीतर की ज्योति मापदंड है कि वह कितनी कंपती है, कितनी ठहरी है।

वासनागत जगत में छोटी-मोटी वासनाओं से कुछ पता भी नहीं चलता। क्योंकि आप इतने बड़े रोगों से भरे होते हैं कि छोटे रोगों का क्या पता चले! आपके भी अनुभव में होगा कि अगर बड़ा रोग आ जाये, तो छोटा रोग भूल जाता है। अगर पैर में कांटा गड़ा हो और कोई छुरी लेकर सामने खड़ा हो जाये, तो आपको फिर कांटे का बिलकुल पता नहीं चलता है। आपने काले ही वस्त्र पहन रखे हों और कोई कालिख से आपको पोत डाले, आपके वस्त्रों पर, कोई पता नहीं चलता। लेकिन जितने हों शुभ्र वस्त्र, जरा सी धूल भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। पृष्ठभूमि जितनी हो शुभ्र, उतना ही अशुभ्र भयंकर मालूम पड़ता है। क्योंकि सब प्रतीतियां तुलनात्मक हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ता है साधक और विराग के करीब पहुंचता है, वैसे-वैसे राग की छोटी सी झलक भी भयंकर तूफान की तरह मालूम पड़ती है और सब उखाड़ कर रख देती है। क्योंकि पौधे विराग के अभी बहुत नये हैं, उनकी जड़ें अभी बहुत गहरी नहीं; अभी ये बिलकुल बच्चे हैं।

सुना है मैंने, एक सूफी फकीर जुन्नैद जिंदगी भर रोता रहा। अपने को पीटता था, रोता था। रास्तों से निकलता था, तो अपने को खुद चांटे मारता था। लोग उससे पूछते थे कि “क्यों इतना पश्चात्ताप करता है? क्या तूने किया है पाप? क्योंकि जैसा हम तुझे जानते हैं, तुझसे ज्यादा पवित्र आदमी खोजना मुश्किल है। और अगर तू इतना दुखी है, पश्चात्ताप से भरा है, तो हमारी क्या गति होगी? और हम इतने पाप कर रहे हैं, हमें जरा भी पश्चात्ताप नहीं है। तूने पाप क्या किया है? यह गांव तुझे बचपन से जानता है–न तूने कभी चोरी की, न कभी क्रोध किया, न किसी को गाली दी, न किसी का अपमान किया। तुझसे ज्यादा पवित्र आदमी पृथ्वी पर भी शायद दूसरा न हो।’ लेकिन जुन्नैद अपने को सजा देता रहा।

मरते वक्त, उसके शिष्य हजारों थे, वे इकट्ठे हुए, उन्होंने कहा, अब तो बता दो कि सजा किसको दे रहे थे?तो उसने कहा कि एक बार मेरे मन में ऐसा खयाल आ गया था कि मैं बड़ा पवित्र हूं; वही पाप हो गया। और परमात्मा के सामने खड़े होकर मैं अब आंखें भी न उठा सकूंगा, क्योंकि मैंने एक पाप किया है। कि मैं पवित्र हूं–यह खयाल मुझे एक बार आ गया था, उसकी ही सजा अपने को दे रहा हूं। लोगों ने कहा, पागल हो गये हो? अगर इतने से पाप से तुम परमात्मा के सामने आंखें न उठा सकोगे, तो हमारा क्या होगा? जुन्नैद ने कहा, तुम मजे से आंखें उठा सकोगे। तुम्हारे पाप इतने हैं कि तुम्हें शर्म भी न आयेगी। और शर्म भी कितनी करोगे? मैं भी तुम जैसा होता, तो कोई चिंता न थी; बस वह एक अटक गया है। शुभ्र वस्त्र पर वह काला दाग ऐसा दिखायी पड़ता है कि उसे मैं भूल नहीं पाता, उसकी ही पीड़ा है।

इसे खयाल रखें कि जैसे-जैसे आप बढ़ते हैं अंतर्यात्रा में, वैसे-वैसे छोटी-छोटी चीजें बड़ी मूल्यवान हो जाती हैं। क्षुद्र भी विराट की यात्रा पर बड़ा विराट मालूम होने लगता है। और जब तक उससे छूटना न हो जाये, तब तक आप वापिस फेंके जा सकते हैं। मार्ग संकीर्ण है, ऊंचाई ज्यादा है, और आप नये और नाजुक हैं इस यात्रा पर। जरा सी भूल भयंकर हो सकती है।

“विराग पर वासना का हल्का सा झोंका भी आत्मा की शुभ्र दीवालों पर पड़ने वाले स्थिर प्रकाश को हिला देगा। अंतःकरण में जो तेरी उच्चस्थ आत्मा और निम्नस्थ आत्मा के बीच सेतु है, जो वृत्तियों का महापथ है और जो अहंकार को झकझोर कर जगानेवाला है, माया के भ्रांत सुखों के लिए राग या खेद की हल्की छोटी सी लहर भी, बिजली की कौंध जैसी भासती लहर भी, तेरे तीन पुरस्कारों को तुझसे छीन लेगी, जो तूने श्रम से जीते हैं।’

विराग के द्वार पर खड़े होकर अहंकार की जरा सी झलक सब नष्ट कर देगी।

और विराग के द्वार पर अहंकार आता है। रागी का अहंकार है, विरागी का अहंकार है। रागी का अहंकार बहुत स्थूल है, साफ दिखाई पड़ता है। विरागी का अहंकार बहुत सूम है, साफ दिखायी नहीं पड़ता। और इसलिए ज्यादा खतरनाक है। जो शत्रु दिखायी पड़ता हो, ज्यादा खतरनाक नहीं है, उसके कुछ उपाय किये जा सकते हैं। अदृश्य शत्रु बहुत खतरनाक है, क्योंकि वह दिखायी नहीं पड़ता।

कृष्णमूर्ति ने साधुओं को, संन्यासियों को पायस-ईगोइस्ट कहा है, पवित्र अहंकारी। ठीक है, वह डर है। और अपवित्र अहंकार इतना खतरनाक नहीं है; क्योंकि वह जो अपवित्रता है, वह भी तो पता चलती रहती है। पवित्र अहंकार बहुत खतरनाक है; क्योंकि पवित्रता में अहंकार बिलकुल छिप जाता है। जहर के चारों तरफ शक्कर की एक पर्त हो जाती है और तब उस जहर को पी जाना बहुत आसान है। अपवित्र अहंकार तो शुद्ध जहर है। उसके आसपास शक्कर की पर्त भी नहीं, उसका तो पीने वाले को पता भी चलता है। पवित्र अहंकार का पता भी नहीं चलता है।

धर्मों में जो संघर्ष चलता है, वह पवित्र अहंकारियों का संघर्ष है। शुद्ध जहर है, लेकिन पर्त पर पवित्रता है। त्यागी है कोई, तो वह भी उतनी ही अकड़ से चलता है, उसकी अकड़ बहुत सूम है, भोगी भी उतनी अकड़ से नहीं चलता है। जिनके पास धन है, वे क्या अकड़ कर चलेंगे–उसके मुकाबले जिसने धन को लात मार दी। स्वभावतः जिसके पास धन है, जिसने धन को लात मार दी, उससे छोटा अहंकार है। और धन तो बहुतों के पास होता है; धन को लात मारना बहुतों की हिम्मत नहीं होती। वह जो सब छोड़ दिया है, उसे एक नयी चीज पकड़ लेती है कि मैंने सब छोड़ दिया है। त्याग भी भोग बन जाता है, और विनम्रता अहंकार हो जाती है और पवित्रता भी पाप बन जाती है।

विराग के क्षण में यह भाव पकड़ेगा कि “मैंने छोड़ा, दूसरे नहीं छोड़ पा रहे हैं; मैंने त्यागा, दूसरे नहीं त्याग पा रहे हैं–मुझसे बड़ा त्यागी कौन! मैंने संसार को लात मार दी! जो इतना कठिन था, अति कठिन को मैंने पूरा किया है।’ यह “मैं’ निर्मित हुआ।

सूत्र कहता है ः अगर यह “मैं’ निर्मित हुआ, तो वे जो तीन द्वार तूने श्रम से पार किये थे, तत्क्षण खो जायेंगे। तू वापिस अपनी जगह खड़ा हो जायेगा, जहां तू था। इसमें क्षण की देरी न लगेगी। जो श्रम से पाया है, वह बिलकुल आसानी से खोया जा सकता है।

ध्यान रखना: श्रम से पाया हुआ, जरूरी नहीं कि श्रम से ही खोया जाये। जिस मकान को बनाने में वर्षों लगे हों, उसे दिन भर में गिराया जा सकता है; क्षण में गिराया जा सकता है। और यह जो भीतर का भवन है, जिसको जन्मों से बनाया हो, उसे क्षण में भूमिसात किया जा सकता है। एक छोटी सी बात, और सब नष्ट हो जाता है। तो जितना आप आगे बढ़ते हैं, उतना ही सूम में विनाश की संभावना बढ़ जाती है। जितनी सृजन की संभावना बढ़ती है उतनी ही विनाश की संभावना बढ़ जाती है। इसे ऐसा समझें कि आपकी सभी संभावनाएं साथ-साथ बढ़ती हैं। इस सूत्र को, इस नियम को बहुत गहराई से पकड़ लें। आप में एक ही दिशा नहीं बढ़ती, साथ ही दूसरी दिशा भी बढ़ती है। जैसे आप जितना सुख पाने में समर्थ हो जाते हैं, उतना ही दुख पाने में भी समर्थ हो जाते हैं। सुख के साथ दुख की क्षमता बढ़ जाती है। पशु बहुत दुखी नहीं दिखायी पड़ते, क्योंकि बहुत सुखी होने का उनमें उपाय नहीं है। एक अमीर आदमी को जितना दुखी कर सकते हैं, उतना गरीब आदमी को नहीं कर सकते। क्योंकि अमीर आदमी ने जब सुख की क्षमता बढ़ा ली, तब उसकी दुख की क्षमता भी बढ़ गयी।

वह जो विपरीत है, वह साथ-साथ बढ़ता है; वह किनारे-किनारे चलता है। आप एक को नहीं बढ़ा सकते; वह दूसरा खाई की तरह हमेशा शिखर के पास मौजूद है। जितनी आपकी नीति बढ़ती है, उतनी अनीति भी आपके किनारे खड़ी है। जितना आपका पुण्य बढ़ता है, उतना पाप भी आपके किनारे खड़ा है। पापी नहीं गिर सकता, आप गिर सकते हैं। जितनी हो श्रेष्ठता, उतनी निकृष्टता का डर है। जितनी सृजन की क्षमता बढ़ती है, उतना विध्वंस भी बढ़ जाता है। दोनों चीजें साथ चलती हैं, दोनों विपरीत चीजें साथ चलती हैं। जितनी आपकी शांति बढ़ती है–यह सुन कर हैरानी होगी–उतनी ही आपकी क्रोध की क्षमता बढ़ जाती है। यह बड़ा उल्टा मालूम पड़ेगा।

और हमने ऋषि-मुनियों की कथायें पढ़ी हैं, जिनमें वे भयंकर क्रोधी हैं, तो उसका कारण आपको समझ लेना चाहिए। अगर दुर्वासा जैसे ऋषियों की कथा है, तो उसका कारण है। जितनी उनकी शांति बढ़ गयी, उतनी ही उनकी क्रोध की क्षमता बढ़ गयी। वे क्रोध न करें, यह दूसरी बात है; बचा

ले जायें, यह दूसरी बात है। करें, तो उन जैसा क्रोध फिर दूसरा नहीं कर सकता है। तो उनका क्रोध परिणामकारी होगा। आपका क्रोध परिणामकारी नहीं होता। इसलिए हमने यह मीठी बात सैकड़ों कथाओं में जोड़ी कि ऋषि का अभिशाप खतरनाक है। आपके अभिशाप का कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि आप तो अभिशाप देते ही रहते हैं, ऋषि देता नहीं। ऋषि से संभावना ही हम नहीं मानते कि वह अभिशाप देगा। लेकिन अगर कभी ऋषि से अभिशाप हो, तो वह फलित होगा; उसको रोकने की कोई क्षमता फिर कहीं भी नहीं।

तो ऐसी कथाएं हैं हमारे पास, बहुत मूल्यवान, बहुत प्रतीकात्मक–कि ऋषि ने अगर शाप दे दिया, तो फिर भगवान भी उसे बदल नहीं सकता, वह झेलना ही पड़ेगा, क्योंकि वह इतनी ऊंचाई से दिया गया है। और जो आदमी इतनी ऊंचाई से गिरने को राजी हुआ है, जो इतना खो रहा है अपने अभिशाप के पीछे, उसके अभिशाप का फल होगा।

जब आप अभिशाप देते हैं तो उसका कोई फल नहीं होता। क्योंकि आप कुछ खो नहीं रहे हैं, आप दांव पर कुछ लगा ही नहीं रहे, आपकी गाली नपुंसक है।

आपका आशीर्वाद भी व्यर्थ है, आपका अभिशाप भी व्यर्थ है। जब आशीर्वाद की क्षमता बढ़ती है, तब अभिशाप की क्षमता भी बढ़ जाती है। उस वक्त सावधान रहना जरूरी है।

समस्त धर्मों ने कहा है कि साधक को दूसरे के संबंध में बुरा विचार भूल कर भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह तत्क्षण परिणामकारी हो सकता है। आप करते रहो, उससे कुछ हर्जा नहीं होता। आपको होता होगा, किसी और को नहीं हो सकता। आप कितना ही सोचो कि फलां आदमी मर जाये तो अच्छा। कोई आपके सोचने से मरने वाला नहीं। लेकिन ऋषि के मन में यह भाव आ जाये तो मृत्यु घटित हो सकती है। क्योंकि ऋषि के मन में यह भाव आ नहीं सकता। आ जाये, तो यह घटित हो जायेगा। क्योंकि ऋषि इस भाव के साथ नीचे गिर रहा है। और बहुत-सी ऊर्जा उसके नीचे गिरने से मुक्त हो रही है, रिलीज हो रही है। वह ऊर्जा आपकी मौत बन सकती है। वह दांव पर अपने को लगा रहा है। आप जब किसी को अभिशाप देते हैं, दांव पर तो कुछ भी नहीं लगाते, सिर्फ मन का खेल है। ऋषि अपनी जिंदगी भर की कमाई, शायद अनेक जन्मों की कमाई, दांव पर लगा रहा है। वह इतनी ऊंचाई से गिर रहा है कि उसके गिरने में शक्ति है।

आपको पता है, जितनी गति हो, उतनी शक्ति हो जाती है। अगर एक छोटे से कंकड़ को भी हम प्रकाश की गति से फेंक सकें, तो दुनिया की कोई ताकत भी उसको रोक नहीं सकेगी, वह सभी चीजों को छेद करके बाहर निकल जायेगा। एक छोटा सा कंकड़, एक टुकड़ा रेत का, अगर प्रकाश की गति से फेंका जाये, तो उसके पास वही शक्ति होगी, जो एटम बम के पास है। बस गति के साथ शक्ति बढ़ जाती है। अगर बंदूक की गोली आपको मार डालती है, तो सिर्फ उसके भीतर छिपी हुई बारूद ही नहीं है, जिस गति से फेंकी जाती है, वह गति भी है। कोई यहां से धीमे से आपको फेंक कर मार दे, तो गोली नीचे गिर जायेगी, कुछ होगा नहीं। बारूद नहीं है असली चीज, असली चीज गति है–कितनी गति से फेंकी गयी है।

जब ऋषि गिरता है, तो उसमें गति होती है–बड़ी ऊंचाई से गिरने की गति। और जब आप गिरते हैं तो जमीन पर धम्म से गिर जाते हैं, कोई गति नहीं होती; जहां खड़े थे, वहीं गिरते हो। आपका अभिशाप गतिहीन है।

इसलिए दुर्वासा का खतरा है। और वह कुछ कहते हैं, तो फिर उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वह कुछ कह कर अपनी ताकत खो रहा है। वह ताकत कहां जायेगी? एक गोली की तरह उसकी ताकत आपकी तरफ आ रही है। इसलिए समस्त धर्मों ने कहा है कि इसके पहले कि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक ऊंचाइयों की तरफ बढ़े, उसे शील को साध लेना चाहिए; नहीं तो वह खतरनाक है।

बुद्ध ने तो नियम बनाया था कि उनके भिक्षु हर प्रार्थना के बाद अनिवार्य रूप से प्रार्थना भी करें कि मुझे जो इस प्रार्थना से मिला है, वह सारे जगत को बंट जाये, मेरे पास न रहे। इस भाव को वह गहरा करता जाये कि जो भी मैं पाऊं अध्यात्म में, जो भी शक्ति हो, वह सबको बंट जाये, वह मेरे पास न रहे, वह मेरे लिए न हो। यह करुणा प्रार्थना के साथ-साथ बढ़ती रहे, तो बचाव रहेगा। नहीं तो प्रार्थना अकेली किसी दिन खतरनाक हो सकती है। क्योंकि शक्ति हाथ में होगी और करुणा का कोई बोध नहीं होगा। तो बुद्ध ने कहा है कि प्रार्थना से जो भी मिले, तुम उसे रोज ही बांट देना; तुम उसे इकट्ठा ही मत करना; वह परिग्रह ही मत करना। नहीं तो किसी दिन शक्ति हाथ में होगी और खतरा पास होगा। बारूद हाथ में होगी और आग भी पास होगी। और जैसे-जैसे शिखर पर बढ़ेंगे, बारूद और आग करीब-करीब आते जायेंगे। ठेठ शिखर के पास पहुंच के बारूद और आग बिलकुल पास-पास होगी। उस वक्त बचाना कठिन हो सकता है।

पर जितना कठिन हो, उतना ही बचाने का मजा भी है। और जितना कठिन हो उतना रस भी है। और जितना कठिन हो, उतना ही उस कठिनाई से पार उठने में आप और बड़े शिखर पर स्थापित हो जाते हैं। और यदि गिरते हैं, तो खाई में पड़ जाते हैं। अगर नहीं गिरते, तो शिखर बहुत करीब आ जाता है।

ध्यान रहे, यह अनुपात में है। जिस जगह से आप जितने नीचे गिर सकते हैं, उस जगह से आप उतने ही ऊपर उठ सकते हैं। यह अनुपात बराबर है। अगर एक पहाड़ से, इस आध्यात्मिक शिखर से आप हजारों मील नीचे गिर सकते हैं, अगर भूल करें; और भूल से अगर बच जायें, तो हजारों मील ऊपर उठ जाते हैं। ये दोनों बातें साथ-साथ हैं।

कहा जाता है कि महापुरुष भूल नहीं करते; यह बिलकुल गलत है। महापुरुष छोटी भूल नहीं करते हैं। करते हैं, तो महान भूल करते हैं। लोग कहते हैं कि छोटे आदमी, और बड़े आदमी में यही फर्क है कि छोटा आदमी भूल करता है, बड़ा आदमी भूल नहीं करता; यह बिलकुल गलत है। छोटे और बड़े आदमी में यह फर्क नहीं है। छोटे और बड़े आदमी में यही फर्क है कि छोटा आदमी छोटी भूल करता है, बड़ा आदमी बड़ी भूलें करता है। छोटा आदमी छोटी भूलें न करे, तो थोड़ा-सा आगे बढ़ता है। बड़ा आदमी बड़ी भूलें न करे, तो बड़ा आगे बढ़ता है। आपकी भूल जितना आपको गिराती है, उतना ही आपकी न भूल आपको उठा सकती है। इससे ज्यादा नहीं हो सकता है। दोनों चीजें साथ-साथ बढ़ती चली जाती हैं। उस दूसरे का खयाल रखना, जो आपके साथ चल रहा है। और जितने आप शक्तिमान हो रहे हैं, उतना ही वह दूसरा भी शक्तिमान हो रहा है।

“इस विराग के क्षण में जरा सा झोंका अहंकार को झकझोर कर जगा देगा। बिजली की कौंध जैसी भासती छोटी सी हलकी लहर भी तेरे तीन पुरस्कारों को तुझसे छीन लेगी, जो तूने श्रम से जीते हैं।’

“क्योंकि तू जान कि उस नित्य में कोई झूठ नहीं है।’

उसका नियम शाश्वत है, उसमें कोई झूठ नहीं है।

अगर आप बैलगाड़ी पर से गिरते हैं, तो भी जमीन का गुरुत्वाकर्षण का नियम काम करता है; लेकिन चोट उतनी ही लगती है, जितनी ऊंचाई पर बैलगाड़ी में बैठे थे। और अब हवाई जहाज से गिरते हैं, तब भी वही नियम काम करता है गुरुत्वाकर्षण का; लेकिन तब बचने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि आप बैठे हवाई जहाज में थे, बैलगाड़ी में नहीं। इसलिए बैलगाड़ी का चालक आंख बंद करके भी दोपहर में यात्रा करता है। वहां कोई ज्यादा डर नहीं है। और भटके भी, तो बहुत नहीं भटक सकता। न भी पहुंचे, तो भी मंजिल बहुत दूर नहीं होगी। पहुंच ही जायेगा। वह जो बैलगाड़ी का चालक है, सो भी जाता है, तो बैल भी चला लेते हैं। आपके जागे होने की बहुत जरूरत नहीं है। दुकान आपके बैल भी चला लेते हैं, बाजार आपके बैल भी चला लेते हैं। आपकी इंद्रियां भी काम को कर लेती हैं।

जब आप अपने घर लौटते हैं तो आपको याद रखने की जरूरत नहीं कि रास्ता कहां से कहां जा रहा है। सोचने की भी जरूरत नहीं, पैर ही खुद जाते हैं। खड़े होकर सोचना नहीं पड़ता कि अब बायें घूमें कि दायें घूमें, पैर ही मुड़ जाते हैं। जब आप गाड़ी ड्राइव करते हैं, तो हाथ ही काम चला लेते हैं; आंख की भी जरूरत नहीं होती। मन की, विचार की तो कोई जरूरत नहीं होती। और आत्मा को जगाने का तो कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन जितनी ऊंचाई पर आप हैं, उतना ही सजग होना पड़ेगा।

जो लोग अभी चांद पर भेजे गये हैं अंतरिक्ष यात्रा के लिए, उन सबको ध्यान और योग की शिक्षा देनी पड़ी है। रूस में पहली दफा ध्यान के प्रति उत्सुकता आयी है अंतरिक्ष यात्रा

के कारण। क्योंकि अंतरिक्ष यात्री को तो बिलकुल ध्यानी ही होना चाहिए, नहीं तो जरा सी चूक, इंच भर की चूक और अनंत का फासला हो जायेगा। फिर दोबारा मिलने का कोई उपाय नहीं होगा। चांद पर उतरने की घटना सिर्फ यांत्रिक विकास का ही परिणाम नहीं है, ध्यान का भी उसमें इतना ही हाथ है। क्योंकि अंतरिक्ष यात्री को पल-पल का बोध रखना जरूरी है। और एक पल की चूक, सब चूक हो सकती है। और जरा सा भटकाव, कि हमें कभी पता भी नहीं चलेगा कि हमारे यात्री कहां गये और उनका क्या हुआ। वहां भूल-चूक नहीं चलेगी।

जितनी ऊंचाई बढ़ती है, उतना ही भूल-चूक से सावधान होना जरूरी है, और भूल-चूक उतनी ही महंगी हो जाती है। ऊंचा चढ़ने वाला खतरे अपने हाथ से मोल ले रहा है। लेकिन खतरों के बिना कोई उपलब्धि भी नहीं है।

“और वह जो नियम है, तू जान कि उस नित्य नियम में कोई छूट नहीं है।’

यह कभी मत सोचना कि तू छोड़ दिया जायेगा, तू अपवाद हो जायेगा। यह भ्रांति मन को पकड़ती है कि इतनी सी भूल है, परमात्मा क्षमा कर देगा। जितनी ऊंचाई हो, उतनी ही क्षमा असंभव हो जायेगी। आपको क्षमा किया जा सकता है। जीसस को या बुद्ध को क्षमा नहीं किया जा सकता। आप इतनी भूलें कर रहे हैं कि क्षमा न हों, तो आप जी ही नहीं सकते। क्षमा का मतलब केवल इतना ही है कि आप जहां खड़े हैं, वहां भूल से कोई बड़ा नुकसान नहीं होता। आप जमीन पर ही खड़े हैं। बुद्ध आकाश में उड़ रहे हैं। वहां से गिरना खतरनाक है।

और जितनी आपकी योग्यता बढ़ती जाती है, यह अस्तित्व आपसे उतनी ही ज्यादा योग्यता की मांग करता है। यह कसौटी है।

सुना है मैंने कि ऐसा हुआ एक बार अवनींद्रनाथ ठाकुर बड़े कलाकार थे, रवींद्रनाथ के चाचा थे। नंदलाल बसु उनके शिष्य थे और अवनींद्रनाथ के बाद भारत में उनका कोई मुकाबला न था। और नंदलाल अवनींद्रनाथ के पास सीखते थे चित्रकला। तो एक दिन रवींद्रनाथ बैठ कर गपशप करते थे अवनींद्रनाथ से। नंदलाल कृष्ण का एक चित्र बना कर लाये। चित्र ऐसा अदभुत था कि रवींद्रनाथ ने कहा है कि मैंने ऐसा कृष्ण का कोई चित्र कभी नहीं देखा है, शायद अद्वितीय है। अवनींद्रनाथ ने, लेकिन चित्र को देखा, और चित्र को फेंक दिया बाहर, मकान के। और कहा, नंदलाल, इससे अच्छा तो बंगाल के पटिये कृष्ण का चित्र बना लेते हैं!

बंगाल में कृष्णाष्टमी के समय दो-दो, चार-चार पैसे में गांव के गरीब चित्रकार कृष्ण का चित्र बनाते हैं, वे चित्रकार पटिये कहलाते हैं, कृष्ण-पट बनाते हैं।

तुझसे अच्छा वे बना लेते हैं–इससे ज्यादा अपमान और कुछ हो नहीं सकता दो पैसे का चित्र बनाने वाला पटिया! यह भी तू कोई कृष्ण का चित्र बना कर लाया है, जा पटियों से सीख!

रवींद्रनाथ तो दंग रह गये। और रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मुझे हुआ कि यह क्या कर रहे हैं अवनींद्रनाथ। जहां तक मेरी समझ है, इनका भी कोई चित्र इस चित्र के मुकाबले नहीं है। पर वह गुरु हैं और नंदलाल शिष्य हैं। बीच में बोलना उचित भी नहीं है। नंदलाल वापिस चले गये, वह चित्र जहां पड़ा था, वहीं पड़ा रहा।

अवनींद्रनाथ बाहर गये और चित्र उठा कर लाये, उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे। तब तो रवींद्रनाथ और हैरान हुए। उन्होंने कहा, आप कर क्या रहे हैं। शिष्य आपका चला गया, तो मैं बोल सकता हूं कि मुझे भरोसा नहीं कि आपने भी कृष्ण का इससे सुंदर चित्र बनाया हो। अवनींद्रनाथ ने कहा, वह मैं भी जानता हूं। तब बात और जटिल हो गयी। और रवींद्रनाथ ने पूछा, तो फिर इतना ज्यादा कठोर होने की क्या जरूरत थी उस गरीब लड़के पर? उन्होंने कहा कि वह लड़का गरीब होता तो मैं इतना कठोर न होता। उसकी प्रतिभा अदभुत है, और अभी और संभावनाओं से उसे कसा जा सकता है। अगर मैं कह दूं कि ठीक, तो रुक जायेगा। तुम्हें पता नहीं कि कितनी पीड़ा मुझे होती है कि उसको मैं कह नहीं सकता ठीक, उसको मैं कभी नहीं कहूंगा ठीक। क्योंकि मेरा ठीक कहना उसकी हत्या है। साधारण शिष्यों को तो मैं ठीक कह ही देता। यह तो अदभुत है चित्र, इससे साधारण चित्रों को भी ठीक ही कह देता। उनसे ज्यादा आशा भी नहीं है।

जैसे-जैसे व्यक्ति ऊपर उठता है, वैसे-वैसे अस्तित्व ज्यादा आशा करता है, वैसे-वैसे चारों तरफ से शक्तियां कसती जाती हैं। कोई पीठ थपथपाने नहीं आता। जितने आप ऊपर जाते हैं, उतना ही अस्तित्व आपसे ज्यादा मांगता है। जितने बड़े शिखर पर आप होते हैं, उतनी अस्तित्व की मांग बढ़ती चली जाती है। क्योंकि अस्तित्व आपके भीतर से उस सबको निकाल लेना चाहता है, जो छिपा है। जिनकी कोई योग्यता नहीं है, वे क्षमा किये जा सकते हैं। जैसे ही योग्यता बढ़ती है, वैसे ही जरा सी भूल अक्षम्य हो जाती है।

नंदलाल तीन साल के लिए नदारद हो गये। अवनींद्रनाथ जो भी आता, उससे पूछते, नंदलाल कहां है? किसी को पता नहीं कि नंदलाल कहां चले गये। तीन साल बाद लौटे, तो पहचानना

मुश्किल था। वह गांव-गांव बंगाल में घूमते रहे। जहां-जहां उन्हें पता लगा कि कोई पटिया है, उसके पास जाकर सीखते कि कृष्ण का चित्र कैसे बनाते हैं? तीन साल बाद जब लौटे, तो उनकी हालत एक गरीब पटिये की हो गयी थी। उनको पहचानना मुश्किल था कि लड़का वही है। अवनींद्रनाथ बूढ़े हो गये थे, उनकी आंखों में कम दिखायी पड़ता था। लेकिन नंदलाल आकर सामने खड़ा हो गया। और नंदलाल ने कहा कि आपकी बड़ी कृपा है, जो आपने मुझसे कहा। अगर उस दिन आप ऐसा न करते, तो मेरे भीतर जो छिपा था, वह छिपा ही रह जाता। आपकी कठोर करुणा के लिए धन्यवाद देने आया हूं।

हम सब सोचते हैं कि करुणा कठोर नहीं हो सकती। हम सोचते हैं कि अनुकंपा कठोर नहीं हो सकती। कठोर नहीं होती उनके लिए, जिनमें कोई योग्यता नहीं होती। उनको छोड़ा जा सकता है, अस्तित्व उन्हें क्षमा करता है। जैसे-जैसे योग्यता बढ़ती है, अस्तित्व कठोर होता जाता है; क्योंकि अस्तित्व करुणावान होता जाता है।

ये सारे शब्द जो मैं प्रयोग कर रहा हूं, ये सब प्रतीक शब्द हैं, इसका खयाल रखना। क्योंकि एक मित्र ने आज ही पूछा है कि आप कहते हैं कि परमात्मा की तरफ हाथ जोड़ कर सिर झुका दें, मुझे पता नहीं कि कौन परमात्मा है, किसके प्रति सिर झुकाऊं? और जिसका मुझे पता ही नहीं है और फिर वह परमात्मा मेरी मदद करेगा क्या?

सवाल इसका नहीं है कि परमात्मा का पता है या नहीं, सवाल सिर्फ इसका

है कि आपने हाथ जोड़े और सिर झुकाया। यह बात मूल्यवान नहीं है कि किसके लिए झुकाया; वह गौण है, वह बहाना है सिर्फ। आप झुके, यही मूल्यवान है। परमात्मा आपकी मदद नहीं करेगा, क्योंकि वह ही मदद करता होता, तो कभी का कर देता। आप ही अपनी मदद करेंगे। लेकिन जितना आप झुकते हैं, उतनी आप अपनी मदद कर रहे हैं। और आप झुक नहीं सकते बिना परमात्मा की धारणा के, इसलिए कहता हूं झुको। नहीं पता है उसका, तो अज्ञात के लिए झुको। यह भी पता नहीं है, तो सिर्फ झुको, भूल जाओ, उसकी बात ही भूल जाओ, सिर्फ झुको।

समर्पण किसके प्रति, इसका मूल्य नहीं है। समर्पण का मूल्य है। झुक जाने का मूल्य है।

झुका हुआ आदमी अनेक शक्तियों को पाने का हकदार हो जाता है; अकड़ा हुआ आदमी अपने ही हाथ से बंद हो जाता है, उसे कोई शक्ति उपलब्ध नहीं होती। परमात्मा तो बहाना है, शब्द है। तुम्हें झुकाना असली बात है। किस बहाने तुम झुक जाते हो, यह गौण है। कोई बहाना खोज लो और झुको।

लेकिन बड़ा मजा है, बिना बहाने के अकड़े रहते हो। जब झुकने की बात आती है, पूछते हो, कौन परमात्मा, किसके लिए झुकना! अकड़े किसके लिए हो? किस कारण अकड़े हो? क्या है, जिससे अकड़े हो? यह कभी कोई नहीं पूछता कि मैं किस कारण अकड़ा हूं! क्या है मेरे भीतर जिससे मैं अकड़ा हुआ हूं? यह मिट्टी की देह से अकड़े हुए हो? इस जीवन से अकड़े हुए हो, जो अभी है और अभी नहीं हो जायेगा? बुद्धि से अकड़े हुए हो–क्योंकि दो-दो चार है, ऐसा जोड़ लेते हो? किस बात की अकड़ है? थोड़ा सोचो, बजाय इसके कि किसके सामने झुकें, ऐसा सोचो कि किसके कारण अकड़ रहे हैं, क्या है भीतर जिससे अकड़ रहे हैं?

और तब दिखायी पड़ेगा, भीतर कुछ भी तो नहीं है, जिसके कारण अकड़ रहे हैं। यह दिखायी पड़ जाये, तो झुकना हो जायेगा। फिर सवाल नहीं कि किसके आगे झुकें। और अगर थोड़ी सी समझ हो, तो पता चलेगा, अकड़ ही सब दुखों का कारण है और झुक जाना ही सभी सुखों का द्वार है। क्योंकि झुका हुआ आदमी की कृपा संभव हो पायेगी। आप अकड़े ही खड़े रहें कि कैसे झुकें, अगर नदी को देना है, तो दे देगी। और यह भी शर्त क्या लगानी है, अगर परमात्मा इतना बड़ा देनेवाला है, तो क्या शर्त लगानी कि झुको। यह भी क्या छोटी शर्त लगानी कि झुको, देना है तो दे दे। नदी बहती रहेगी। ऐसा नहीं है कि आपको पानी नहीं देना चाहती। देने, न देने का कोई संबंध नहीं है। जो झुकता है, वह पानी पा जाता है। जो नहीं झुकता, वह प्यासा रह जाता है।

इस अर्थ में जब आपसे कहता हूं कि हाथ जोड़कर झुक जायें, तो समझना कि सब प्रतीक है। मुझे भी पता है कि आपको परमात्मा का पता नहीं है। पता ही होता, तो आप यहां आते क्यों? और जब आपको पता ही चल जायेगा, तब झुकियेगा? तब झुकने की कोई जरूरत न रह जायेगी। क्योंकि पता ही तब चलता है, जब आदमी पूरी तरह झुक ही गया हो। उसके पहले तो पता नहीं चलता। अगर आप यह शर्त रखते हैं कि जब पता चल जायेगा, तब झुकेंगे, तो आपको कभी पता नहीं चलेगा। आप झुक जायें, पता का बिलकुल ही विचार न करें;झुकते ही पता चलना शुरू हो जायेगा।

“महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत का, जो अपने पूर्व तथागतों के चरण-चिन्हों पर चलते चले आये हैं, वचन हैं: आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान कि तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।’

तथागत बड़ा कीमती शब्द है और जटिल भी। बुद्धों के लिए तथागत शब्द का प्रयोग हुआ है, समस्त बुद्धों के लिए, जाग्रत पुरुषों के लिए। तथागत का शाब्दिक अर्थ होता है, जो अपने से पहले बुद्धों के चरण-चिन्हों पर चले।

जटिलता यह है कि चरण-चिन्ह बनते नहीं, उस लोक में कोई चरण-चिन्ह नहीं बनते। सभी बुद्ध अनूठे होते हैं, और अपने ही जैसे होते हैं। और किसी दूसरे जैसे नहीं होते। किन्हीं दो बुद्धों के बीच किसी तरह की तुलना संभव नहीं है। जीसस बुद्ध हैं, महावीर बुद्ध हैं, गौतम बुद्ध हैं, कृष्ण बुद्ध हैं, सब जागे हुए पुरुष हैं। दो में कोई तालमेल नहीं है। कहां कृष्ण, कहां महावीर! कहां बुद्ध, कहां जीसस! क्या मेल है? क्या तालमेल है? चरण-चिन्ह भी कहां एक से हैं? सोलह हजार पत्नी किसी को दे दे। एक-एक पत्नी का अनुभव सभी को है। किन्हीं-किन्हीं को दो का है, तीन का भी है। वे जानते हैं कि कैसा है, कैसी अड़चन हो जाती है। सोलह हजार!

हिम्मतवर लोग थे, जो उन्होंने सोची बात। और कृष्ण इनके बीच भी बांसुरी बजा रहे हैं। एक ही पत्नी के साथ बांसुरी बजाकर देखिए!

नाच चल रहा है–यह कोई और ही है। जीसस से उसका कोई मेल नहीं, महावीर से उसका कोई मेल नहीं। यह सारा अस्तित्व एक नृत्य मालूम हो रहा

है। जैसे दुख ऊपरी है और व्यर्थ है। दुख सिर्फ नासमझी है। पाप, पुण्य, पश्चात्ताप–सब ऊपरी बातें हैं। महोत्सव आंतरिक है, गहरा है।

तथागत शब्द इसलिए, समझने जैसा है। तथागत का मतलब है: सब बुद्ध पुरुष एक से ही हैं। लेकिन बाहर से तो बड़े भिन्न हैं, ऊपर से तो उनको साथ रखना ही मुश्किल है। कृष्ण को और क्राइस्ट को एक ही घर में ठहराएं–बड़ी मुश्किल होगी।

ऊपर से देखने पर तो बुद्ध पुरुषों में कोई मेल नहीं, प्रत्येक बुद्ध पुरुष अद्वितीय, अनूठा और अपने जैसा है, लेकिन गहरे में वे एक ही चरण-चिन्ह पर चले हैं।

गहरे में उनके चरण-चिन्ह बिलकुल एक हैं, लेकिन इतनी गहरी आंख हो तो ही दिखाई पड़ते हैं। ऊपर के आवरण का भेद है, वस्त्रों का भेद है, व्यक्तित्वों का भेद है; आत्मा का भेद नहीं है।

“महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत का, जो पूर्वजों के चरण-चिन्हों पर चलते चले आये हैं’

इसलिए बुद्ध पुरुष सदा नया है और सदा पुराना है। नया है, अगर आप उसको ऊपर से देखें और पुराना है अगर भीतर से जानें। अत्यंत नूतन है, मौलिक है और अत्यंत सनातन है, प्राचीन है। वह जो भी कह रहा है, एकदम अनूठा है और वह जो भी कह रहा है, वह सदा बुद्ध पुरुषों ने कहा है। ये विपरीत दिखायी पड़नेवाली बातें अगर एक साथ समझ में आ जायें, तो तथागत शब्द का अर्थ समझ में आयेगा।

भीतर के लोक में बुद्ध और महावीर बिलकुल एक जैसे हैं। क्या है उनकी एक जैसी स्थिति?

यहां हम इतने लोग बैठे हैं, सब अलग-अलग हैं। ऊपर से चाहे, एक जैसे भी हों, क्योंकि शरीर एक ही जैसा है, वस्त्र एक जैसे हैं, ऊपर से तो बहुत सी बातें एक जैसी हैं, लेकिन भीतर वह जो विचार चल रहे हैं, वह सबके अलग-अलग हैं। वह भीतर का विचार सबको भिन्न कर देता है। बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, महावीर, उनके भीतर विचार नहीं हैं, शून्य है। वह शून्य सबको एक जैसा कर देता है, भीतर से।

उस शून्य की अभिव्यक्ति में भेद पड़ता है। जब वह शून्य प्रकट होता है, तो व्यक्तित्व की पर्तों से आता है। जैसे कि हम प्रकाश जलायें और हर प्रकाश के आसपास अलग-अलग रंग के कांच के घेरे खड़े कर दें। एक नीला कांच का घेरा हो, एक लाल कांच का घेरा हो, एक हरा कांच का घेरा हो, एक सा दीया जले। और प्रकाश का रंग एक है। वह भीतर जले, लेकिन चारों घेरों के बाहर अलग-अलग प्रकाश दिखाई पड़ेगा।

बुद्ध के भीतर जो प्रकाश जल रहा है और क्राइस्ट के भीतर जो प्रकाश जल रहा है, वह एक है। वे दोनों तथागत हैं, वहां सब शून्य हो गया। दो शून्य में कोई भेद नहीं होता। दो विचारों में भेद होता है, दो मनों में भेद होता है। दो समाधियों में भेद नहीं होता। हम अगर सब यहां शांत हो जायें तो हमारे भीतर फिर कोई भेद नहीं रह जायेगा। सब भेद ऊपरी हैं, भीतरी कोई भेद नहीं है बुद्ध पुरुष में। हममें सब तालमेल ऊपरी है, भीतरी बिलकुल भेद है। ऊपर से हम करीब-करीब एक जैसे जीते हैं। भीतर बहुत भेद है। इसलिए दो मित्र भी बनाना मुश्किल है जगत में, क्योंकि दोनों में बड़ा भेद है। भीतर के विचार कलह उत्पन्न करते हैं। दो बुद्ध पुरुषों को मिलने की भी जरूरत नहीं है।

सुना है मैंने कि महावीर और बुद्ध एक बार एक ही गांव में, एक ही धर्मशाला में ठहरे और मिले नहीं। बड़ा अशोभन मालूम पड़ता है, मिलते तो अच्छा होता, मनुष्यता का लाभ होता। ऐसा भी नहीं कि मिलाने की कोशिश न की होगी लोगों ने। बड़ी कोशिश की होगी और बड़े लोग परेशान भी हुए होंगे कि मिलते क्यों नहीं? मिल लेना चाहिए। हमारी समझ के बाहर है बात कि मिलने का कोई अर्थ ही नहीं; क्योंकि वे भीतर इतने एक जैसे हैं कि किससे मिलना, क्या मिलना? क्या अर्थ? भीतर दो शून्य हैं, वह मिल भी जायें, तो एक ही शून्य बनेगा। दो शून्य मिलकर दो शून्य नहीं बनते, दो शून्य मिल कर एक ही शून्य बनता है। हजार शून्य भी मिला दो, तो एक ही शून्य बनता है। ऐसा नहीं कि हजार शून्य बन जाते हैं।

शून्य का मतलब है कि वह कोई इकाई नहीं है, खालीपन है। दो खालीपन मिलेंगे, तो क्या होगा? एक खालीपन हो जायेगा। अगर बुद्ध और महावीर को हम पास बिठा दें, तो वहां दो आदमी नहीं हैं; वहां एक आदमी हो जाएगा। अगर हम सारे तथागतों को इकट्ठा कर लें, तो वहां हजार तथागत नहीं होंगे; वहां एक ही शून्य रह जायेगा। इस अर्थ में तथागत को कहा जाता है कि वह अनूठा भी है और अपने पूर्वजों के चरण-चिन्हों पर भी चलता है।

“उन सब तथागतों का वचन है, आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान, तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।’

अगर विराग के बाद भी तेरे दुख बने रहते हैं, तो समझना कि तू चूक गया। विरागी को दुख नहीं होना चाहिए। रागी का दुख समझ में आता है। क्योंकि राग जब पूरा नहीं होता है, तो दुख होता है। राग जब असफल होता है, तो दुख होता है। राग में अपेक्षा है–पूर्ति न होने पर दुख होता है। पूर्ति हो जाये तो भी दुख होता है; क्योंकि राग की अपेक्षा निरंतर विस्तीर्ण होती चली जाती है। विरागी को दुख नहीं होना चाहिए। अगर विरागी को दुख भी होता है, तो जानना कि तू चूक गया है। बुद्ध पुरुषों ने कहा है कि सभी दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं; विराग अगर सही हो जाये। और विराग के क्षण में अगर भूल से भटकाव न हो और अहंकार न पकड़ ले, और कोई सूम वासना खेल न दिखाने लगे, तो सभी दुख विसर्जित हो जाते हैं। और अगर तुझे दुख विसर्जित नहीं हुए, तो समझना कि तू चूक गया और निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।

“विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है। यदि इस मार्ग का स्वामी होना चाहता है, तो तुझे पहले से बहुत बढ़कर अपने मन और दृष्टि को घातक कर्म से मुक्त रखना है।’

विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है, वहां कोई अपवाद नहीं हो सकेगा। निश्चित ही होना भी यही चाहिए। जब सभी दुखों को छोड़ने के लिए कोई तैयार है, सभी दुखों से मुक्त होने की आशा रख रहा है, तो उसे कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। दुख छोड़ने की जो आशा रख रहा है, सब दुख से बाहर हो जाने की चेष्टा कर रहा है, उसे कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ेगा।

वह कठोर परीक्षा क्या है? वह कठोर परीक्षा दो चीजों के बीच में है। एक तो कि दुखों से छुटकारा तब तक असंभव है, जब तक वासना से पूर्ण छुटकारा न हो। सूम वासना रह जाये, तो सूम दुख रह जायेंगे। वासना होगी, तो कहीं न कहीं दुख होगा। मांग होगी, तो पीड़ा होगी। चाह होगी तो कांटा चुभा ही रहेगा छाती में। वह जो वासना के वस्त्र हम पहने हुए हैं, उन सबको बिलकुल ही छोड़ देना पड़ेगा। वे ही हमें कसे हैं और दुख दे रहे हैं।

सुना है मैंने, ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दर्जी को कपड़े बनाने को दिये थे। बड़ी मुश्किल से सालों में पैसा इकट्ठा करके बड़ा बहुमूल्य कपड़ा खरीदा था। दर्जी ने कपड़े भी बना दिये, बड़ी देर लगायी, बड़े चक्कर कटवाए। आखिर एक दिन कपड़े बन कर तैयार हो गये। उत्सव का दिन कोई करीब आ रहा था और नसरुद्दीन बहुत खुश था। वह कपड़े लेने गया, लेकिन कपड़े पहन कर बड़ी मुश्किल में पड़ गया; बहुत उदास हो गया। उसने कहा, यह तुमने क्या किया? बरबाद कर दिया सारा कपड़ा। यह कालर तो देखो कि मेरे सिर तक जा रही है।

उस दर्जी ने कहा, इसमें कालर का कसूर नहीं है, थोड़ा सिर को ऊंचा करो। उसने खींच कर नसरुद्दीन की गर्दन सीधी कर दी, गर्दन ऊपर हो गयी। लेकिन गर्दन तो ऊपर रह गयी, पर फंस गयी भीतर। अब वह नीचे न कर सका–क्योंकि वह कालर! उसने कहा एक हाथ छोटा और एक हाथ बड़ा! उसने कहा तुम्हारा शरीर ही गड़बड़ है, तो मैं क्या कर सकूंगा? जरा इस हाथ को आगे खींचो। तो उसने एक हाथ खींच कर आगे कर दिया। और नसरुद्दीन ने कहा कि यह नीचे जो कमीज है, यह नीचे तक पूरी नहीं पहुंच रही। तो उसने कहा, थोड़ा आगे झुको। तो नसरुद्दीन आगे झुक गया। पायजामे की टांग एक लंबी थी, एक छोटी थी। और वह ठीक करता गया और नसरुद्दीन बिगड़ता गया। कपड़ा ठीक होता चला गया, तो नसरुद्दीन की दशा

बड़ी विकृत हो गयी। वह अष्टावक्र की हालत में हो गया, आठ जगह से झुक गया। और दर्जी ने कहा, जरा आइने में तो देखो, गांव की सारी सुंदरियां पागल हो जायेंगी! महीने भर की मेहनत है मेरी इन कपड़ों पर! नसरुद्दीन ने देखा, हालत बड़ी विचित्र थी; लेकिन इस आशा से कि सुंदरियां पागल हो जायेंगी, वह खुश हुआ। उसने कहा, क्या कहते हो! दर्जी ने कहा, मैंने इतनी मेहनत कभी किन्हीं वस्त्रों पर नहीं की।

नसरुद्दीन निकला, तो अपनी मुद्रा और आसन को संभाले हुए–एक हाथ लंबा तो लंबा किये, गर्दन ऊंची किये, एक पैर छोटा तो भीतर सिकुड़े, एक पैर लंबा तो आगे किये, वस्त्र छोटे तो आगे झुके–इस आशा में कि सुंदरियां पागल हो जायेंगी!

सभी की गति ऐसी ही है, अपनी-अपनी मुद्रा संभाले हैं। वासना में जीनेवाला आदमी अष्टावक्र हो जाता है।

नसरुद्दीन घर की तरफ चला इस आशा में कि अब देखें कि कौन सुंदरी पागल होगी। कई लोगों ने चौक कर जरूर देखा। स्त्रियों ने भी चौंक कर देखा। ऐसे विचित्र आदमी को कौन चौंक कर नहीं देखेगा! नसरुद्दीन समझा दर्जी ठीक ही कह रहा है। एक अजनबी आदमी ने जो नसरुद्दीन को नहीं जानता था क्योंकि बाकी गांव के लोग तो जानते थे कि इसमें कुछ अनूठा नहीं है, इस आदमी से ऐसी ही आशा है एक अजनबी, जो गांव में नया-नया आया था, उसने कहा कि ठहरो नसरुद्दीन, तुम्हारे दर्जी का पता क्या है? किसने बनाया है यह? नसरुद्दीन ने कहा, क्या! मेरे दर्जी का पता पूछकर क्या करोगे? उसको लगा कि यह आदमी प्रतियोगिता करना चाहता है। उस अजनबी ने कहा कि मैं जानना चाहता हूं तुम्हारे दर्जी का पता, क्योंकि तुम जैसे अष्टावक्र के लिए जिसने कपड़े बना दिये, उसकी प्रतिभा का मुकाबला नहीं–ही मस्ट बी ए जीनियस। इतना

इरछा-तिरछा शरीर और उसने कपड़े बिलकुल ठीक-ठीक बिठा दिये–आश्चर्य! उसके मैं दर्शन करना चाहता हूं। उसको पता नहीं है यह बेचारा अष्टावक्र नहीं है, कपड़ों की वजह से अष्टावक्र है।

आपकी जो विकृत दशा है, वह वासनाओं का जो घेरा है चारों तरफ, उसके ही कारण है। कोई वासना टांग खींच रही है, कोई वासना सिर उठा रही है, कोई वासना एक हाथ खींच रही है; आप अपने को सम्हाले हैं बड़ी कठिन मुद्रा में। योगी भी क्या ऐसे आसन करेंगे, जो आप कर रहे हैं! और संभाले हैं इस आशा से कि कोई न कोई वासना इस ढंग से शायद पूरी होगी।

यह जो मनुष्य की दशा है और जन्मों-जन्मों तक आदमी अष्टावक्र रहा है, इसलिए विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर मालूम पड़ता है। क्योंकि आपके अंग-अंग फिर से सीधे किये जा रहे हैं। आपकी विकृत दशा को फिर से सामान्य करना है। जो आप झुक गये हैं जगह-जगह से, वहां-वहां के जोड़ कठोर हो गये हैं, उन जोड़ों को तोड़ना है। और आदतें बन गयी हैं मजबूत वासना की कि विराग के द्वार पर भी खड़े होकर, वे वासना की आदतें आपको अपने ढंग से झुकाती हैं। इसलिए क्रूर और कठोर मालूम पड़ता है। जैसे किसी आदमी के शरीर की सब हड्डियां गलत ढंग से जुड़ गयी हों, तो फिर उनको पुनः तोड़ना पड़े और फिर से जोड़ना पड़े, और जोड़ के बाद पलस्तर बांधने पड़ें कि कहीं वे फिर गलत आड़ी-टेढ़ी न जुड़ जायें।

करीब-करीब विराग को यही काम करना पड़ता है। क्योंकि आपकी जन्मों-जन्मों में सारी व्यवस्था गड़बड़ जुट गयी है। जो जहां होना चाहिए, वहां नहीं है और जहां नहीं होना चाहिए, वहां है। जिन अंगों का जो रूप आप समझ रहे हैं, जैसा आपके पास है, वह उनका स्वाभाविक रूप नहीं है–परवर्टेड, विकृत रूप है। सब चीजें विकृत हो गयी हैं; राग ने सब विकृत कर दिया है। और राग की दौड़ में आदमी विकृत होने को तैयार है।

सिकंदर अफलातून का शिष्य था। अफलातून से वह दर्शन सीखता था। लेकिन सिकंदर था सम्राट और अफलातून एक गरीब दार्शनिक था। एक दिन सिकंदर ने उससे कहा कि तुम घोड़ा बन जाओ, और मैं तुम्हारे ऊपर सवारी करना चाहता हूं। तो अफलातून को उसने घोड़ा बना दिया, जैसे बच्चे बना लेते हैं, और अफलातून पर सवारी की। उसके दस-पांच दरबारी जो मौजूद थे, उनको उसने कहा, देखो ज्ञानी की दशा! यह ज्ञानी मुझे सिखाने चला है। तो अफलातून ने कहा कि मेरी ही वासनाओं की वजह से यह मेरी दशा है, जो तुम्हारा घोड़ा बना हूं। मैं तुम्हें ज्ञान सिखाकर भी सौदा ही कर रहा हूं, उससे भी मैं कुछ पाना ही चाहता हूं। वह पाने की चाह ही इस हालत में ले आयी कि तुम मेरे सिर पर बैठ गये हो। मेरी चाह ने ही मुझे घोड़ा बना दिया, तुमने नहीं। तुम क्या कर सकते हो? मेरी वासना ने ही मुझे नीचे गिराया है, तुम मुझे नीचे नहीं गिरा सकते हो।

इस जगत में जो भी आपकी दशा है, वह आपकी ही वासना के कारण है। और इसलिए विराग बहुत कठोर मालूम पड़ता है। क्योंकि वह आपकी पूरी दशा को तोड़ेगा, आपको पुनः निर्मित करेगा, आपको नष्ट करेगा, तोड़ेगा, और नया निर्माण करेगा। वहां अगर जरा सी भी पुरानी आदत प्रवेश कर गयी, तो आपने इस द्वार तक जो भी उपलब्धि की है–दान, शील, क्षांति–वह सब खो जायेगी और आप वापिस उस जगह खड़े हो जायेंगे, जहां से आपने यात्रा शुरू की थी। इसलिए विराग के साथ अति सावधान होना जरूरी है।

“तुझे अपने को शुद्ध-आलय (परमसत्ता) से परितृप्ति कर लेना है और निसर्ग के आत्मभाव के साथ एक हो जाना है। इसके साथ एक होकर तू अजेय है। पृथक रहकर तू समवृत्ति की क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूलस्रोत है।’

शुद्ध आलय परमसत्ता के साथ अपने को परितृप्त कर लेना है।

वासना का अर्थ है, जो मिला है, उससे हम तृप्त नहीं। जो है, उससे हम तृप्त नहीं। हम अस्तित्व से कहते हैं कि इतना काफी नहीं, यह और चाहिए, यह और चाहिए। अस्तित्व से हमारी मांग है कि हम तृप्त होंगे तब, जब यह सब हो जाये। अस्तित्व ने जो दिया है, उससे हम राजी नहीं। और अस्तित्व ने सब दिया है–जीवन दिया है, और जीवन के अनूठे रहस्य दिये हैं, और जीवन की बड़ी गहराई दी है, और जीवन का परम आनंद छिपा रखा है भीतर आपके। लेकिन वह खुलेगा तब जब आप राजी हो जायें अस्तित्व से। आपको तो उसे देखने की फुरसत ही नहीं कि अस्तित्व ने क्या दिया है! आप तो मांग किये जा रहे हैं कि ये दो, ये दो, ये दो। इस देने की मांग में वह छिप ही गया है, जो दिया ही हुआ है। और आपको पता नहीं, जो आप मांग रहे हैं, वह कुछ भी नहीं है। जो आपको मिला ही हुआ है, उसके सामने, जो आप मांग रहे हैं, वह कुछ भी नहीं।

एक बहुत अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया, पोट्रट बनवाया। चित्र बन गया, तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आयी। वह बहुत खुश थी। चित्रकार से उसने कहा, कि क्या उसका पुरस्कार दूं? चित्रकार गरीब आदमी था। गरीब आदमी वासना भी करे तो कितनी बड़ी करे, मांगे भी तो कितना मांगे?

हमारी मांग, सब गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से। हम जो मांग रहे हैं, वह क्षुद्र है। जिससे मांग रहे हैं, उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए।

तो उसने सोचा मन में कि सौ डालर मांगूं, दो सौ डालर मांगूं, पांच सौ डालर मांगूं। फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी। इतना देगी, नहीं देगी! फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं, शायद ज्यादा दे। डर तो लगा मन में कि इस पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर! तो उसने फिर भी हिम्मत की। उसने कहा कि आपकी जो मर्जी। तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स थी, उसने कहा,तो अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो। यह बड़ी कीमती पर्स है।

पर्स तो कीमती थी, लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गयी कि पर्स को रखकर करूंगा भी क्या? माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता-जाता नहीं। इससे तो बेहतर था कुछ सौ डालर ही मांग लेते। तो उसने कहा, नहीं-नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा, आप कोई सौ डालर दे दें। उस महिला

ने कहा, तुम्हारी मर्जी। उसने पर्स खोली, उसमें एक लाख डालर थे, उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर वह चली गयी।

सुना है कि चित्रकार अब तक छाती पीट रहा है और रो रहा है–मर गये, मारे गये, अपने से ही मारे गये!

आदमी करीब-करीब इस हालत में है। परमात्मा ने जो दिया है, वह बंद है, छिपा है। और हम मांगे जा रहे हैं–दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात। और वह जीवन की जो संपदा उसने हमें दी है, उस पर्स को हमने खोल कर भी नहीं देखा है।

स्वीकृति, अस्तित्व का स्वीकार–यह अर्थ है परितृप्ति का।

जो मिला है, वह जो आप मांग सकते हैं, उससे अनंत गुना ज्यादा है। लेकिन मांग से फुरसत हो, तो दिखायी पड़े, वह जो मिला है। भिखारी अपने घर आये, तो पता चले कि घर में क्या छिपा है। वह अपना भिक्षापात्र लिये बाजार में ही खड़ा है! वह घर धीरे-धीरे भूल ही जाता है, भिक्षा-पात्र ही हाथ में रह जाता है। इस भिक्षापात्र को लिये हुए भटकते-भटकते जन्मों-जन्मों में भी कुछ मिला नहीं। कुछ मिलेगा नहीं।

“तुझे अपने शुद्ध आलय से परितृप्ति कर लेनी है–परमसत्ता से, और निसर्ग के आत्मभाव के साथ एक हो जाना है।’

मांग छोड़, यह मांग ही निसर्ग से तोड़ती है। यह जो है, उसके साथ ही राजी हो जा। राजी होते ही रहस्य खुलने शुरू हो जाते हैं; क्योंकि आंख तब आगे मांगने के लिए नहीं उलझती; खुल जाती है, मुक्त हो जाती है। फिर हम देख सकते हैं–जो है।

“इसके साथ एक होकर तू अजेय है, फिर तेरी कोई पराजय नहीं। पृथक रहकर तू समवृत्ति क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूल-स्रोत है।’

समवृत्ति का अर्थ है ः माया।

जैसे शंकर ने कहा है कि दो तरह के सत्य हैं–पारमार्थिक सत्य और व्यवहारिक सत्य। वैसा बुद्ध ने कहा कि दो तरह के सत्य हैं–पारमार्थिक सत्य और समवृत्ति सत्य। समवृत्ति सत्य का वही अर्थ है, जो शंकर की भाषा में माया का है। जैसे ही आदमी ने मांगा कि वह माया के जगत में प्रवेश कर गया। मांग के साथ ही आप भिखारी बन गये। अब आप सपनों में भटकेंगे।

मांग स्वप्न का द्वार है।

जैसे ही आपने मांगना बंद कर दिया, आप सम्राट हो गये, माया के बाहर हो गये। जो है पारमार्थिक सत्य, वह प्रगट होना शुरू हो जायेगा।

और जब तक हम कहते हैं, ऐसा होना चाहिए, तब तक हम स्वप्न निर्मित कर रहे हैं, तब तक हम माया में जी रहे हैं।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन(भाग–3) प्रवचन–9

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योग का अंतर्विज्ञान (अध्याय—6) प्रवचन—नौवां

प्रश्न: भगवान श्री, योग के अभ्यास और उसकी आवश्यकता पर बात चल रही थी। आपने समझाया था कि धर्म और आत्मा तो हमारा स्वभाव ही है। उसे उपलब्ध नहीं करना है, वह मिला ही हुआ है। लेकिन योग का अभ्यास अशुद्धि को काटने के लिए करना पड़ता है। कृपया योगाभ्यास से अशुद्धि कैसे कटती है, इस पर कुछ कहें।

स्वभाव कहते हैं उसे, जो हमें मिला ही हुआ है। जिसे हम चाहें तो भी खो नहीं सकते। जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है। स्वभाव का अर्थ है, जो मेरा होना ही है, जो हमारा अस्तित्व ही है।

जो जानते हैं, वे कहते हैं कि हमारा स्वभाव स्वयं परमात्मा होना है। ऐसा कोई एक नहीं कहता; इस पृथ्वी पर कोने-कोने में, अलग-अलग सदियों में, अलग-अलग स्थानों पर जब भी किसी ने जाना है, उसने यही कहा है। यह निरपवाद घोषणा है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं हुआ है मनुष्य के इतिहास में जिसने कहा हो कि मैंने जान लिया भीतर जाकर और मनुष्य के भीतर परमात्मा नहीं है।

जिन्होंने कहा है, परमात्मा नहीं है, वे कभी भीतर नहीं गए। और जो भीतर गए हैं, उन्होंने सदा कहा है कि परमात्मा है। अगर कोई सत्य निरपवाद सत्य हो सकता है, तो वह एक सत्य यही है कि मनुष्य का स्वभाव परमात्मा ही है।

लोग परमात्मा को खोजते हैं। कभी खोज न पाएंगे, क्योंकि खोजा उसे जा सकता है जिसे खोया हो। असल में जो खोजने निकला है, वह स्वयं ही परमात्मा है, इसलिए खोज कैसे पाएगा? हम अगर परमात्मा से अलग होते, तो कहीं न कहीं उसे खोज ही लेते, कहीं न कहीं मुठभेड़ हो ही जाती, कहीं न कहीं आमने-सामने पड़ ही जाते। लेकिन हम स्वयं ही परमात्मा हैं। इसलिए जो परमात्मा को खोजने निकला है, उसे अभी पता ही नहीं कि वह जिसे खोज रहा है, वह उसका स्वयं का ही होना है।

यह तो हमारा स्वभाव है, जिसे हम कभी खो नहीं सकते, लेकिन आश्चर्य कि इसे भी हम खोए हुए मालूम पड़ते हैं, अन्यथा खोजते ही क्यों! खो तो नहीं सकते, फिर कुछ और हो सकता है, जो खोने से मिलता-जुलता है। वह है विस्मरण, वह है फारगेटफुलनेस।

स्वभाव को खोया नहीं जा सकता, लेकिन स्वभाव को भूला जा सकता है। विस्मरण किया जा सकता है। यद्यपि विस्मरण के समय में भी कुछ बदलाहट नहीं होगी; हम जो थे, वही होंगे। लेकिन फिर भी हम जो हैं, वह हम अपने को समझ नहीं पाएंगे।

परमात्मा सिर्फ विस्मृत है।

योग की क्या जरूरत है जब परमात्मा स्वभाव है? योग की जरूरत है इस विस्मरण को तोड़कर स्मरण को पुनर्स्थापित करने के लिए। यह जो फारगेटफुलनेस है, यह जो भूल जाना है, इस भूल जाने की व्यवस्था को तोड़ देने के लिए योग का प्रयोग है।

ठीक से समझें, तो योग का समस्त प्रयोग निगेटिव है, नकारात्मक है। वह किसी चीज को पाने के लिए नहीं, कोई चीज बीच में अटकाव बन गई है, उसे तोड़ने के लिए है। योग से कोई नई चीज निर्मित नहीं होगी; योग से कोई नई उपलब्धि नहीं होगी; योग से तो जो सदा-सदा से मिला ही हुआ है, वही पुनर्स्मरण होगा।

बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो किसी ने बुद्ध से पूछा है कि आपने पाया क्या? तो बुद्ध बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा कि मत पूछो। ऐसा मत पूछो। क्योंकि मैंने पाया कुछ भी नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि फिर इतनी मेहनत व्यर्थ गई? फिर लोग कहते हैं कि आपको मिल गया। तो मिला क्या है? आप कहते हैं, पाया नहीं! बुद्ध ने कहा, अगर ठीक से कहूं, तो यही कह सकता हूं, मैंने कुछ खोया है, मैंने कुछ पाया नहीं।

तब तो स्वभावतः पूछने वाला और भी चकित हुआ। और उसने कहा, खोने के लिए इतनी मेहनत! तो फल क्या है? अभिप्राय क्या है? और अब आप उपदेश क्यों देते हैं?

बुद्ध ने कहा, इसीलिए कि तुम भी कुछ खो सको। जो मैंने पाया है, अब मैं कह सकता हूं कि वह सदा ही मेरे भीतर था, सिर्फ मुझे पता नहीं था। इसलिए कैसे कहूं कि मैंने पाया! था ही। इतना ही कह सकता हूं कि वह जो मेरे भीतर था, उसको भी जानने में कुछ बाधाएं मेरे भीतर थीं, उन बाधाओं को मैंने खोया। अज्ञान मैंने खोया है। और ज्ञान पाया है, ऐसा मैं नहीं कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। स्वयं को मैंने खोया है। लेकिन परमात्मा को मैंने पाया, ऐसा मैं न कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। लेकिन मेरी वजह से दिखाई नहीं पड़ता था। मेरे मैं की वजह से दिखाई नहीं पड़ता था। मेरी विस्मृति गहरी थी और दिखाई नहीं पड़ता था।

योग है विस्मरण को काटने की विधि।

विस्मरण क्यों है? विस्मरण के होने का भी कारण है। अकारण तो नहीं विस्मरण हो सकता। विस्मरण के होने का कारण है। तीन बातें खयाल में लें, तो स्मरण की प्रक्रिया समझ में आ सकेगी।

विस्मरण का पहला बुनियादी कारण तो यह है कि जो भी हम हैं, उसे बिना एक बार भूले, हमें कभी पता नहीं चलेगा। जो भी हम हैं, उसे एक बार बिना करीब-करीब खोए, हमें पता नहीं चलेगा। असल में पता चलने के लिए विरोधी घटना घटनी चाहिए। पता चलने का नियम है।

अगर आप कभी बीमार नहीं पड़े, तो आप स्वस्थ हैं, ऐसा आपको कभी पता नहीं चलेगा। कभी भी आपको यह पता नहीं चलेगा कि आप स्वस्थ हैं। बीमार पड़ेंगे, तो पता चलेगा कि स्वस्थ थे। बीमार पड़ेंगे, तो पता चलेगा कि अब स्वस्थ हो गए। लेकिन बीमारी के कंट्रास्ट के बिना, बीमारी के विरोध के बिना, आपको अपने स्वास्थ्य का कोई स्मरण नहीं हो सकता है।

अगर इस पृथ्वी पर अंधेरा न हो, तो प्रकाश का किसी को भी पता नहीं चलेगा। प्रकाश होगा, पता नहीं चलेगा। पता चलने के लिए विपरीत का होना जरूरी है। वह जो विपरीत है, वही पता चलवाता है। अगर बुढ़ापा न हो, तो जवानी तो होगी, लेकिन पता नहीं चलेगा। अगर मौत न हो, तो जिंदगी तो होगी, लेकिन पता न चलेगा। जिंदगी का पता चलता है मौत के किनारे से। वह जो मौत की पृष्ठभूमि है, उस पर ही जीवन उभरकर दिखाई पड़ता है। अगर मौत कभी न हो, तो आपको जीवन का कभी भी पता नहीं चलेगा। यह बहुत उलटी बात लगेगी, लेकिन ऐसा ही है।

स्कूल में शिक्षक लिखता है, काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से। सफेद ब्लैकबोर्ड पर भी लिख सकता है। लिखावट तो बन जाएगी, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगी। लिखता है काले ब्लैकबोर्ड पर और तब सफेद खड़िया उभरकर दिखाई पड़ने लगती है।

जिंदगी के गहरे से गहरे नियमों में एक है कि उसी बात का पता चलता है जिसका विरोधी मौजूद हो; अन्यथा पता नहीं चलता।

अगर हमारे भीतर परमात्मा है, सदा से है, तो भी उसका पता तभी चलेगा, जब एक बार विस्मरण हो। उसके बिना पता नहीं चल सकता।

इसलिए विस्मरण स्मरण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। ईश्वर से बिछुड़ना, ईश्वर से मिलन का प्राथमिक अंग है। ईश्वर से दूर होना, उसके पास आने की यात्रा का पहला कदम है। केवल वे ही जान पाएंगे उसे, जो उससे दूर हुए हैं। जो उससे दूर नहीं हुए हैं, वे उसे कभी भी नहीं जान पाएंगे।

अगर आपको अपनी मां की गोद से कभी सिर हटाने का मौका न मिले, तो आपको मां की गोद का भर पता नहीं चलेगा, और सब पता चलता रहेगा। मां की गोद छूट जाती है, तब ही पता चलता है कि वह गोद थी। उसका अर्थ और अभिप्राय है।

जीवन का यह सत्य स्वयं के स्वभाव को भूलने के लिए भी लागू होता है। भूलना ही पड़ता है, तो ही हमें बोध होता है। बोध के जन्म की यह अनिवार्य प्रक्रिया है।

और भूलने का ढंग क्या होता है? भूलने का एक ही ढंग है। भूलने का एक ही ढंग है, अगर स्वयं को भूलना हो, तो स्वयं को गलत समझना पड़ेगा, तभी भूल सकते हैं; नहीं तो भूल नहीं सकते। स्वयं को कुछ और समझना पड़ेगा, तभी जो हैं, उसे भूल सकते हैं, अन्यथा भूलेंगे कैसे? इसलिए चेतना अपने को शरीर समझ लेती है, पदार्थ समझ लेती है, मन समझ लेती है, विचार समझ लेती है, भाव समझ लेती है, वृत्ति-वासना समझ लेती है–सिर्फ आत्मा नहीं समझती। दूसरे के साथ तादात्म्य हो जाता है। यह भूलने का ढंग है।

योग इस भूलने के ढंग से विपरीत यात्रा है, पुनः घर की ओर वापसी; रिटघनग होम। बहुत दूर निकल गए हैं; फिर वापस पुनर्यात्रा। निश्चित ही, पुनः उसी जगह पहुंचेंगे, जहां से चले थे। लेकिन आप वही नहीं होंगे। क्योंकि जब आप चले थे, तब आपको उस जगह का कोई भी पता नहीं था। अब जब आप पहुंचेंगे, तो आपको पूरा पता होगा। वहीं पहुंचेंगे, जहां से चले थे। वहीं प्रभु के मंदिर में प्रवेश हो जाएगा, जहां से बाहर निकले थे। लेकिन जब दुबारा पहुंचेंगे, इस बीच के क्षण में प्रभु को भूलकर, तो प्रभु के मिलन के आनंद और एक्सटैसी का, समाधि का, प्रभु के मिलन के उत्सव का, प्रभु के मिलन की वह जो अपूर्व घटना घटेगी, वह प्राणों में अमृत बरसा जाएगी।

वहीं पहुंचेंगे, लेकिन वही नहीं होंगे, क्योंकि बीच में विस्मरण घट चुका। और अब जब स्मरण आएगा, तो यह काले तख्ते पर सफेद रेखाओं की तरह उभरकर आएगा। पहली दफे, जो लिखा है, वह पढ़ा जा सकेगा। पहली दफे, जो स्वभाव है, वह प्रकट होगा। पहली दफे, जो छिपा है, वह उघड़ेगा। पहली दफे, जो दबा है, वह अनावृत होगा। यह जीवन का अनिवार्य हिस्सा है।

कोई पूछे, ऐसा क्यों है? तो वह बच्चों का सवाल पूछ रहा है। वैज्ञानिक से पूछें कि पृथ्वी गोल क्यों है? वह कहेगा, है। हम तथ्य बता सकते हैं, क्यों नहीं बता सकते। पूछें कि सूरज में रोशनी क्यों है? वह कहेगा, है। या और अगर थोड़ी खोजबीन की, तो कहेगा, हीलियम गैस की वजह से है, इसकी वजह से है, उसकी वजह से है; कि उदजन का अणु-विस्फोट हो रहा है, इस वजह से है। लेकिन पूछें कि क्यों हो रहा है सूरज पर, जमीन पर क्यों नहीं हो रहा है? तो वैज्ञानिक कहेगा, इसको मत पूछें। ऐसा हो रहा है, वह हम कह सकते हैं। व्हाई मत पूछें, क्यों मत पूछें। हाउ, कैसे; कैसे हो रहा है, वह हम बता सकते हैं।

धर्म भी विज्ञान है। वह भी यह नहीं कहेगा, नहीं कह सकता है, कि क्यों। इतना ही कह सकता है, कैसे!

आदमी विस्मरण करता है। कैसे विस्मरण करता है? पर के साथ तादात्म्य करके विस्मरण करता है। कैसे स्मरण करेगा? पर के साथ तादात्म्य तोड़ेगा, तो पुनः स्मरण हो जाएगा। बस, इस प्रक्रिया की बात की जा सकती है। क्यों इस प्रक्रिया की मैं आपसे चर्चा कर रहा हूं? क्योंकि योग शुद्ध विज्ञान है। इसलिए बहुत मजे की घटना घटी है।

हिंदुस्तान में तीन बड़े धर्म पैदा हुए–जैन, हिंदू, बौद्ध। उनमें कितने ही झगड़े हों और उनमें कितने ही सैद्धांतिक विवाद हों, लेकिन योग के संबंध में उनमें कोई भी विवाद नहीं उठा। योग के संबंध में कोई विवाद नहीं है। क्या बात है?

योग है साइंस, सिद्धांत नहीं। दार्शनिक सिद्धांत नहीं, मेटाफिजिक्स नहीं, योग तो एक प्रक्रिया है, एक प्रयोग है, एक एक्सपेरिमेंट है। उसे कोई भी करे, अनुभव फलित होगा।

इसलिए योग एक अर्थ में समस्त धर्मों का सार है। भारत में तो तीन धर्म पैदा हुए, वे ठीक ही हैं। भारत के बाहर भी जो धर्म पैदा हुए–चाहे इस्लाम, और चाहे ईसाइयत, और चाहे यहूदी धर्म, चाहे पारसी धर्म–भारत के बाहर भी जो धर्म पैदा हुए, उनका भी योग से कभी भी कोई विरोध खड़ा नहीं होता है।

अगर ठीक से समझें, तो योग समस्त धर्मों की प्रक्रिया है–समस्त धर्मों की–वे कहीं पैदा हुए हों। अगर भविष्य में कभी किसी दुनिया में किसी समय में धर्म का विज्ञान स्थापित होगा, तो उसकी आधारशिला योग बनने वाली है। क्योंकि योग सिर्फ प्रक्रिया है।

योग यह नहीं कहता कि परमात्मा क्या है। योग कहता है, परमात्मा को कैसे पाया जा सकता है। योग यह नहीं कहता कि आत्मा क्या है। योग कहता है, आत्मा को कैसे जाना जा सकता है। हाउ! योग यह नहीं कहता कि किसने प्रकृति बनाई और नहीं बनाई। योग कहता है, अस्तित्व में उतरने की सीढ़ियां ये रहीं, उतरो और जानो। योग कहता है, हम न बताएंगे, तुम्हीं आंख खोलो और देख लो। आंख खोलने का ढंग हम बताए देते हैं।

योग बिलकुल शुद्ध साइंस है, सीधा विज्ञान है। हां, फर्क है। साइंस आब्जेक्टिव है, पदार्थगत है। योग सब्जेक्टिव है, आत्मगत है। विज्ञान खोजता है पदार्थ, योग खोजता है परमात्मा।

यह पुनर्स्मरण, यह पुनर्वापसी की यात्रा योग कैसे करता है, उस संबंध में भी कुछ बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। क्योंकि कृष्ण ने कहा, उसके ही सतत अभ्यास से परमात्मा में प्रतिष्ठा उपलब्ध होती है। मैं कहूंगा, पुनर्प्रतिष्ठा उपलब्ध होती है।

है क्या योग? योग करता क्या है? योग की कीमिया, केमेस्ट्री क्या है? योग का सार-सूत्र, राज, मास्टर-की क्या है? उसकी कुंजी क्या है? तो तीन चरण खयाल में लें।

एक, मनुष्य के शरीर में जितनी शक्ति का हम उपयोग करते हैं, इससे अनंत गुनी शक्ति को पैदा करने की सुविधा और व्यवस्था है। उदाहरण के लिए, आपको अभी लिटा दिया जाए जमीन पर, तो आपकी छाती पर से कार नहीं निकाली जा सकती, समाप्त हो जाएंगे। लेकिन राममूर्ति की छाती पर से कार निकाली जा सकती है। यद्यपि राममूर्ति की छाती में और आपकी छाती में कोई बुनियादी भेद नहीं है। और राममूर्ति की छाती की हड्डियों में जरा-सी भी किसी तत्व की ज्यादा स्थिति नहीं है, जितनी आपकी हड्डियों में है। राममूर्ति का शरीर उन्हीं तत्वों से बना है, जिन तत्वों से आपका। राममूर्ति क्या कर रहा है फिर?

राममूर्ति, जिस शक्ति का आप कभी उपयोग नहीं करते–आप अपनी छाती का इतना ही उपयोग करते हैं, श्वास को लेने-छोड़ने का। यह एक बहुत अल्प-सा कार्य है। इसके लायक छाती निर्मित हो जाती है। राममूर्ति एक बड़ा काम इसी छाती से लेता है, कारों को छाती पर से निकालने का, हाथी को छाती पर खड़ा करने का।

और जब राममूर्ति से किसी ने पूछा कि खूबी क्या है? राज क्या है? उसने कहा, राज कुछ भी नहीं है। राज वही है जो कि कार के टायर और टयूब में होता है। साधारण सी रबर का टयूब होता है, लेकिन हवा भर जाए एक विशेष अनुपात में, तो बड़े से बड़े ट्रक को वह लिए चला जाता है। राममूर्ति ने कहा कि मैं अपने फेफड़े से वही काम ले रहा हूं, जो आप टायर और टयूब से लेते हैं। हवा को एक विशेष अनुपात में रोक लेता हूं, फिर छाती से हाथी गुजर जाए, वह मेरे ऊपर नहीं पड़ता, भरी हुई हवा के ऊपर पड़ता है। पर एक प्रक्रिया होगी फिर उस अभ्यास की, जिससे छाती हाथी को खड़ा कर लेती है।

हमारे शरीर की बहुत क्षमताएं हैं, जिनका हम हिसाब नहीं लगा सकते। वे सारी की सारी क्षमताएं अनुपयुक्त, अनयूटिलाइज्ड रह जाती हैं। क्योंकि जीवन के काम के लिए उनकी कोई जरूरत ही नहीं है। जीवन के लिए जितनी जरूरत है, उतना शरीर काम करता है।

अगर हम वैज्ञानिकों से पूछें, तो वैज्ञानिकों का खयाल है कि दस प्रतिशत से ज्यादा हम अपने शरीर का उपयोग नहीं करते। नब्बे प्रतिशत शरीर की शक्तियां अनुपयोगी रहकर ही समाप्त हो जाती हैं। जीते हैं, जन्मते हैं, मर जाते हैं। वह नब्बे प्रतिशत शरीर जो कर सकता था, पड़ा रह जाता है।

योग का पहला काम तो यह है कि उन नब्बे प्रतिशत शक्तियों में से जो सोई पड़ी हैं, उन शक्तियों को जगाना, जिनके माध्यम से अंतर्यात्रा हो सके। क्योंकि बिना शक्ति के कोई यात्रा नहीं हो सकती है। एनर्जी, ऊर्जा के बिना कोई यात्रा नहीं हो सकती है। अगर आप सोचते हैं कि हवाई जहाज किसी दिन बिना ऊर्जा के चल सकेंगे, तो आप गलत सोचते हैं। कभी नहीं चल सकेंगे।

हां, यह हो सकता है, हम सूक्ष्मतम ऊर्जा को खोजते चले जाएं। बैलगाड़ी चलती है, तो ऊर्जा से। पैदल आदमी चलता है, तो ऊर्जा से। सांस चलती है, तो ऊर्जा से। सब मूवमेंट, सब गति ऊर्जा की गति है, शक्ति की गति है।

अगर आप सोचते हों कि परमात्मा तक बिना ऊर्जा के सहारे आप पहुंच जाएंगे, तो आप गलती में हैं। परमात्मा की यात्रा भी बड़ी गहन यात्रा है। उस यात्रा में भी आपके पास शक्ति चाहिए। और जिस शक्ति का आप उपयोग करते हैं साधारणतः, वह शक्ति आपके जीवन के दैनिक काम में चुक जाती है, उसमें से कुछ बचता नहीं है। और अगर थोड़ा-बहुत बचता है–अगर थोड़ा-बहुत बचता है–तो भी आपने उसको व्यर्थ फेंक देने के उपाय और व्यवस्था कर रखी है। कुछ बचता नहीं। आदमी करीब-करीब बैंक्रप्ट, दिवालिया जीता है। जो शक्ति उसे मिलती है, दैनंदिन कार्यों में चुक जाती है। और जो शक्ति छिपी पड़ी है, उसे वह कभी जगा नहीं पाता।

तो योग का पहला तो आधार है, छिपी हुई पोटेंशियल ऊर्जा को जगाना। सब तरह के उपाय योग ने खोजे हैं कि वह कैसे जगाई जाए। इसलिए प्राणायाम खोजा। प्राणायाम आपके भीतर सोई हुई शक्तियों को हैमर करने की, चोट करने की एक विधि है। फिर योग ने आसन खोजे। आसन आपके शरीर में छिपे हुए जो ऊर्जा के स्रोत-क्षेत्र हैं, उन पर दबाव डालने की प्रक्रिया है, ताकि उनमें छिपी हुई शक्ति सक्रिय हो जाए।

आपने ट्रेन को चलते देखा है। शक्ति तो बहुत साधारण-सी उपयोग में आती है, पानी और आग की, और दोनों से बनी हुई भाप की। लेकिन भाप के धक्के से इंजन का सिलेंडर धक्का खाकर चलना शुरू हो जाता है। फिर ट्रेन चल पड़ती है। इतनी बड़ी शक्ति, इतने बड़े वजन की ट्रेन सिर्फ पानी की भाप, स्टीम चलाती है।

आपके शरीर में भी बहुत-सी शक्तियां हैं, जिन शक्तियों को दबाकर सक्रिय किया जाए, तो आपके भीतर न मालूम कितने सिलेंडर चलने शुरू हो जाते हैं, जो कि अभी बिलकुल वैसे ही पड़े हैं। इन शक्तियों के बिंदुओं को, जहां शक्ति छिपी है, योग चक्र कहता है। प्रत्येक चक्र पर छिपी हुई शक्तियां हैं। और प्रत्येक चक्र को दबाने के, गतिमान करने के, डायनेमिक करने के आसन हैं, प्राणायाम की विधियां हैं।

हम भी साधारणतः उपयोग करते हैं, हमारे खयाल में नहीं होता है। आपने कभी खयाल किया है कि रात आप सिर के नीचे तकिया रखकर क्यों सो जाते हैं? कभी खयाल नहीं किया होगा। कहते हैं कि नींद नहीं आती है, इसलिए सो जाते हैं। तकिया रखकर आप न सोएं, तो नींद क्यों नहीं आती?

जब आप तकिया नहीं रखते, तो शरीर के खून की गति सिर की तरफ ज्यादा होती है। क्योंकि सिर भी शरीर की सतह में, बल्कि शरीर से थोड़ा नीचे ढल जाता है। तो सारे शरीर का खून सिर की तरफ बहता है। और जब खून सिर की तरफ बहता है, तो सिर के जो तंतु हैं, मस्तिष्क के, वे खून की गति से सजग बने रहते हैं। फिर नींद नहीं आ सकती। खून बहता रहता है, तो मस्तिष्क के तंतु सजग रहते हैं। तो फिर नींद नहीं आ सकती। तो आप तकिया रख लेते हैं।

और जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता जाता है; तकिए बढ़ते चले जाते हैं–एक, दो, तीन! क्यों? क्योंकि उतना सिर ऊंचा चाहिए, ताकि खून जरा भी भीतर न जाए। नहीं तो मस्तिष्क की दिनभर इतनी चलने की आदत है कि जरा-सा खून का धक्का और सिलेंडर चालू हो जाएगा; आपका मस्तिष्क काम करना शुरू कर देगा।

योगी शीर्षासन लगाकर खड़ा होता है। आप समझें कि दोनों का नियम एक ही है, तकिया रखने का और शीर्षासन का आधारभूत नियम एक ही है। उलटा काम कर रहा है वह। वह सारे शरीर के खून को सिर में भेज रहा है। योगी जब शीर्षासन लगाकर खड़ा हो रहा है, तो वह कर क्या रहा है? वह इतना ही कर रहा है कि वह सारे शरीर के खून की गति को सिर की तरफ भेज रहा है।

अभी जितना आपका मस्तिष्क काम कर रहा है, वैज्ञानिक कहते हैं कि सिर्फ एक चौथाई मस्तिष्क काम करता है, तीन चौथाई बंद पड़ा हुआ है, स्टैगनेंट, वह कभी कोई काम नहीं करता। खून की तीव्र चोट से वह जो नहीं काम करने वाला मस्तिष्क का हिस्सा है, सक्रिय किया जा सकता है। क्योंकि यह हिस्सा भी खून की चोट से ही सक्रिय होता है। खून का धक्का आपके मस्तिष्क के बंद सिलेंडर को गतिमान कर देता है।

मस्तिष्क के वे हिस्से सक्रिय हो जाएं, जो मौन चुपचाप पड़े हैं, तो आपकी समझ और आपके विवेक में आमूल अंतर पड? जाते हैं–आमूल अंतर पड़ जाते हैं। आप नए ढंग से सोचना और नए ढंग से देखना शुरू कर देते हैं। नए ढंग से, एक नई दृष्टि, और एक नया द्वार, न्यू परसेप्शन, डोर्स आफ न्यू परसेप्शन, प्रत्यक्षीकरण के नए द्वार आपके भीतर खुलने शुरू हो जाते हैं।

मैंने उदाहरण के लिए कहा। इस तरह के शरीर में बहुत-से चक्र हैं। इन प्रत्येक चक्र में छिपी हुई अपनी विशेष ऊर्जा है, जिसका विशेष उपयोग किया जा सकता है। योगासन उन सब चक्रों में सोई हुई शक्ति को जगाने का प्रयोग है।

योग के द्वारा शरीर एक डायनेमिक फोर्स, एक बहुत जीवंत ऊर्जा की जीती-जागती, साकार प्रतिमा बन जाता है। इस शक्ति के पंखों पर चढ़कर अंतर्यात्रा हो सकती है। अन्यथा अंतर्यात्रा अत्यंत कठिन है। वह प्रभु का जो स्मरण है, तभी हो सकता है।

तो पहला तो योग का विशेष अभ्यास है, वह है, शक्ति के सोए हुए स्रोतों को सजीव करना, जाग्रत करना, पुनर्जीवित करना।

बहुत स्रोत हैं। कभी-कभी अचानक घटनाएं घटती हैं, तब लोगों को पता चलता है। अभी स्विटजरलैंड में एक आदमी एक ट्रेन से गिर पड़ा था। चोट लगी बहुत जोर से उसके कानों को। जब वह अस्पताल में भर्ती किया गया, तो पाया गया कि दस मील के भीतर जो भी रेडियो स्टेशन हैं, उसके कान ने, उन रेडियो स्टेशंस को पकड़ना शुरू कर दिया। बड़ी हैरानी हुई। कभी सोचा न था कि कान के पास यह क्षमता हो सकती है कि रेडियो स्टेशन को सीधा पकड़ ले, बीच में रेडियो की जरूरत न रहे!

लेकिन योग सदा से कहता है कि कान के पास ऐसी क्षमता छिपी पड़ी है, सिर्फ उसे सजग करने की बात है। यह भूल-चूक से हो गया, एक्सिडेंटल, कि आदमी ट्रेन से गिरा और उस केंद्र पर चोट लग गई और शक्ति सक्रिय हो गई। योग इसे व्यवस्थित रूप से सक्रिय करना जानता है।

उसके कुछ दिन पहले स्वीडन में एक आदमी को आंख का कुछ आपरेशन किया, और अचानक उसे दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू हो गए। दिन में! आकाश में तारे तो दिन में भी होते हैं, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह से आपको दिखाई नहीं पड़ते। अगर आप एक गहरे कुएं में चले जाएं, गहरे अंधेरे कुएं में, तो दिन में भी आपको गहरे कुएं में से आकाश में थोड़े-से तारे दिखाई पड़ सकते हैं। लेकिन उस आदमी को तो सूरज की रोशनी में खड़े होकर तारे दिखाई पड़ने लगे। क्या हो गया?

योग बहुत दिन से कहता है कि आंख की क्षमता बहुत है। जितनी आप जानते हैं, उससे बहुत ज्यादा। लेकिन उसके सोए हुए शक्ति केंद्र हैं, उनको सजग करना जरूरी है। शरीर में ऐसे बहुत ऊर्जा-स्रोत हैं, और योग ने सबको सक्रिय करने की प्रक्रियाएं खोजी हैं। उनका ही अभ्यास, उनका ही सतत अभ्यास व्यक्ति को परमात्मा की दिशा में सक्रिय कर पाता है, एक।

दूसरी बात, जैसा हमारा मन है, साधारणतः हम सोचते हैं, साधारणतः हमारा खयाल है कि यह जो हमारा मन है, जैसा यह मन है, इसी मन को लेकर हम परमात्मा की तरफ चले जाएंगे, तो हम गलत सोचते हैं। इस मन को लेकर जाना असंभव है। इसी मन के कारण तो हम पदार्थ की तरफ आए हैं। यह मन हमारा पदार्थ से संबंध जोड़ने का इंतजाम है; यह परमात्मा से तोड़ने का कारण है; यह जोड़ने का कारण नहीं बन सकता है।

यह जो मन है हमारे पास, यह मन पदार्थ से जोड़ने की व्यवस्था है। इसी मन को आप परमात्मा की तरफ नहीं ले जा सकते। आपको एक नए मन को पैदा करने की जरूरत है।

और योग कहता है, वैसा नया मन पैदा किया जा सकता है। और उस नए मन को पैदा करने की भी पूरी कीमिया योग ने खोजी है कि वह नया मन कैसे पैदा हो। जैसे मैंने कहा कि शरीर की शक्ति जगाने के लिए आसन, प्राणायाम, मुद्राएं और इस तरह की सारी व्यवस्था है। हठयोग ने उस पर अपूर्व चेष्टा की है, और ऐसे राज खोज लिए हैं, जिनमें से बहुत-से राजों से अभी विज्ञान भी अपरिचित है।

जैसे विज्ञान को अभी तक खयाल नहीं था कि शरीर में खून या खून की गति वालेंटरी हो सकती है, स्वेच्छा से हो सकती है। विज्ञान समझता है कि खून की गति नान-वालेंटरी है, स्वेच्छा के बाहर है, आप कुछ कर नहीं सकते। लेकिन हठयोग बहुत हजारों साल से कह रहा है कि शरीर की कोई भी गति स्वेच्छा से चालित हो सकती है। खून भी हमारी इच्छा से चले और बंद हो सकता है। शरीर का बुढ़ापा, युवावस्था भी हमारी इच्छा के अनुकूल निर्धारित हो सकती है। शरीर की उम्र भी हम विशेष प्रक्रियाओं से लंबी और कम कर सकते हैं।

एक आदमी इजिप्त में, एक सूफी योगी, अठारह सौ अस्सी में समाधिस्थ हुआ, जीवित। और चालीस साल बाद उखाड़ा जाए, इसकी घोषणा करके समाधि में, कब्र में चला गया, अठारह सौ अस्सी में। चालीस साल बाद उन्नीस सौ बीस में कब्र खुदेगी। जो बूढ़े उसको दफनाने आए थे उस चालीस साल के विश्राम के लिए, उनमें से करीब-करीब सभी मर गए। उन्नीस सौ बीस में एक भी नहीं था। जो जवान थे, उनमें से भी अनेक बूढ़े होकर मर चुके थे। जो बच्चे थे, वे ही कुछ बचे थे। जो उस भीड़ में छोटे बच्चे खड़े थे, वे ही बचे थे।

उन्नीस सौ बीस तक करीब-करीब बात भूली जा चुकी थी। वह तो सरकारी दफ्तरों के कागजातों में बात थी और किसी के हाथ पड़ गई। किसी को भरोसा नहीं था कि वह आदमी अब जिंदा मिलेगा उन्नीस सौ बीस में। लेकिन कुतूहलवश–किसी को भरोसा नहीं था कि वह जिंदा मिलने वाला है। चालीस साल! कुतूहलवश कब्र खोदी गई। वह आदमी जिंदा था। और बड़ा आश्चर्य जो घटित हुआ वह यह कि इस चालीस साल में उसकी उम्र में कोई भी फेर-बदल नहीं हुआ था। उसके जो चित्र छोड़े गए थे अठारह सौ अस्सी में फाइलों के साथ, उससे उसके चेहरे में चालीस साल का कोई भी फर्क नहीं था।

उन्नीस सौ बीस में कब्र के बाहर आकर वह आदमी नौ महीने और जिंदा रहा। और नौ महीने में उतना फर्क पड़ गया, जितना चालीस साल में नहीं पड़ा था। और उस आदमी से पूछा गया कि तुमने किया क्या? उसने कहा कि मैं कुछ ज्यादा नहीं जानता हूं। सिर्फ प्राणायाम का एक छोटा-सा प्रयोग जानता हूं। श्वास पर काबू करने का एक छोटा-सा प्रयोग जानता हूं, और कुछ भी नहीं जानता।

तो एक हिस्सा तो शरीर है ऊर्जा का, जिसके योग ने सूत्र खोजे। दूसरा हिस्सा नया मन, ए न्यू माइंड पैदा करने की प्रक्रियाएं हैं, जो योग ने खोजीं। पहले प्रयोग के लिए योगासन हैं, प्राणायाम हैं, मुद्राएं हैं। दूसरे प्रयोग के लिए ध्वनि, शब्द और मंत्रों का प्रयोग है। तो मंत्रयोग की पूरी लंबी व्यवस्था है।

हमें खयाल में भी नहीं है कि हमारा चित्त जो है, वह ध्वनियों से चलता है। ध्वनियों से!

ओंकारनाथ ठाकुर इटली में मुसोलिनी के मेहमान थे–भारत के एक बड़े संगीतज्ञ। मुसोलिनी ने ऐसे ही मजाक में–भोजन पर निमंत्रित किया था ठाकुर को–मजाक में, भोजन करते वक्त मुसोलिनी ने कहा कि मैं सुनता हूं कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे, तो जंगली जानवर आ जाते; गउएं नाचने लगतीं; मोर पंख फैला देते। यह कुछ मुझे समझ में नहीं आता कि संगीत से यह कैसे हो सकता है! ओंकारनाथ ठाकुर ने कहा कि कृष्ण जैसी मेरी सामर्थ्य नहीं। संगीत के संबंध में उतनी मेरी समझ नहीं। सच तो यह है कि संगीत के संबंध में कृष्ण जैसी समझ पृथ्वी पर फिर दूसरे आदमी की नहीं रही है। लेकिन थोड़ा-बहुत क ख ग, जो मैं जानता हूं, वह मैं आपको करके दिखा दूं कि समझाऊं! मुसोलिनी ने कहा, समझाने में तो कोई सार नहीं है। तुम कुछ करके ही दिखा दो।

कुछ न था हाथ में। खाना ले रहे थे, तो कांटा-चम्मच हाथ में थे। सामने चीनी के बर्तन, प्यालियां थीं। ओंकारनाथ ठाकुर ने वे प्यालियां और बर्तन चम्मच-कांटे से बजाना शुरू कर दिया। पांच मिनट, सात मिनट और मुसोलिनी की आंख झप गई और जैसे वह नशे में आ गया। और उसका सिर टेबल से टकराने लगा। जोर से बजने लगे बर्तन और मुसोलिनी का सिर और जोर से टकराने लगा। और जोर से बजने लगे बर्तन! और फिर मुसोलिनी चिल्लाया कि रोको, क्योंकि मैं सिर को नहीं रोक पा रहा हूं! रोका, तो सिर लहूलुहान हो गया था।

मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि मैंने जो वक्तव्य दिया था, उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं। जरूर कृष्ण की बांसुरी से जंगली जानवर आ गए होंगे। जब कि एक सभ्य आदमी का सिर सारी कोशिश करके भी नहीं रुक सकता है। और सिर्फ कांटे-चम्मच बर्तन पर बजाए जा रहे हैं, कोई बड़ा वाद्य नहीं!

चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। ध्वनि से हम जीते हैं।

अभी पश्चिम में इस पर बहुत काम शुरू हुआ है, साउंड इलेक्ट्रानिक्स पर, ध्वनिशास्त्र पर। क्योंकि पश्चिम में पागलपन रोज बढ़ता जा रहा है। और अब साउंड इलेक्ट्रानिक्स के समझने वाले लोग कहते हैं कि उसके बढ़ने का कारण ट्रैफिक की ध्वनियां हैं। सड़क पर जो ध्वनियां हो रही हैं, हार्न बज रहे हैं, कारें निकल रही हैं, भोंपू बज रहे हैं, ट्रक निकल रहे हैं, हवाई जहाज उड़ रहे हैं, सुपरसोनिक उड़ रहे हैं, जंबो जेट उड़ रहे हैं, वे सब जो आवाजें पैदा कर रहे हैं, उन ध्वनियों को यह मन नहीं सह पा रहा है; विक्षिप्त हो रहा है।

अगर किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी पागल हो सकता है, तो क्या यह मानने में बहुत कठिनाई है कि किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी शांत हो जाए? अगर किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी का मन विक्षिप्त हो सकता है, तो क्या यह मानने में बहुत अड़चन होगी कि किन्हीं और ध्वनियों को, विपरीत ध्वनियों को सुनकर मनुष्य का मन समाधिस्थ हो जाए?

मंत्रयोग उसकी चेष्टा है। और इस तरह की ध्वनियां मंत्रयोग ने खोजीं, जिन ध्वनियों का उच्चार, आंतरिक उच्चार, हृदयगत उच्चार, प्राणगत उच्चार मन को नई शक्ल देना शुरू कर देता है, नया पैटर्न।

प्रत्येक ध्वनि का अपना पैटर्न है, अपना ढांचा है। आप कभी ऐसा करें कि एक पतले, झीने कागज पर रेत के दाने बिछा दें। फिर नीचे से जोर से कहें, राम! और रेत के दाने हिलेंगे और कागज पर एक पैटर्न बन जाएगा। आप कितनी ही बार राम कहें, वही पैटर्न रेत के कणों पर बनेगा। कहें, अल्लाह! दूसरा पैटर्न बनेगा। फिर कितनी ही बार अल्लाह कहें, उस कागज के ऊपर वही दूसरा पैटर्न दोहरेगा। फिर एकाध कोई गंदी गाली देकर भी देखें, उसका भी अपना पैटर्न बनेगा।

और एक और मजे की बात है कि गंदी गाली का जो पैटर्न बनेगा उसके ऊपर, वह बहुत कुरूप होगा। और राम का जो पैटर्न बनेगा, बहुत समायोजित, संतुलित, सुंदर, अनुपात में होगा। अल्लाह का जो पैटर्न बनेगा, बहुत सुंदर, बहुत समायोजित होगा।

आप एक-एक शब्द को उस कागज के नीचे दोहराकर देखें कि उसका पैटर्न कैसा बनता है। जो पैटर्न रेत के दानों पर बन रहा है, वही आपके चित्त में भी बनता है।

आपका चित्त एक बहुत–रेत के दाने तो कुछ भी नहीं– आपका चित्त तो सबसे ज्यादा संवेदनशील वस्तु है इस पृथ्वी पर। छोटी-सी ध्वनि तरंग उसको रूप देती है। हम जो शब्द सुन रहे हैं, जो बातें सुन रहे हैं, जो गीत सुन रहे हैं, रास्ते पर आवाजें सुन रहे हैं, वे हमारे एक तरह के मन को निर्मित करते हैं।

योग कहता है, एक नए तरह का मन चाहिए पड़ेगा, अगर परमात्मा की तरफ जाना है। तो उन ध्वनियों का उपयोग करो, जिन ध्वनियों से परमात्मा की तरफ जाने वाला लयबद्ध मन निर्मित हो जाए। और इसीलिए एक शब्द को ही निरंतर दोहराने की प्रक्रियाएं ईजाद की गईं। उसका कारण है। ताकि वह पैटर्न, उस शब्द से बनने वाला पैटर्न थिर हो जाए मन पर, मन पर बैठ जाए; मन उसको इंबाइब कर ले, पी ले; मन उसके साथ एकाकार हो जाए। तो नया मन निर्मित होना शुरू हो जाएगा।

ध्वनिशास्त्र चित्त के रूपांतरण की बड़ी अदभुत–बड़ी अदभुत–कुंजियां खोज लिया है। हजारों साल उस तरफ मेहनत की गई है।

तो दूसरा तत्व योग का है, ध्वनि। पहला तत्व है, ऊर्जा। दूसरा तत्व है, ध्वनि। और तीसरा तत्व है, ध्यान, अटेंशन, दिशा।

चेतना उसी दिशा में बहती है, जिस तरफ चेतना को हम उन्मुख करते हैं। जहां उन्मुख करते हैं, वहीं चेतना बहती है। और जिस तरफ चेतना बहती है, उस तरफ बहती है और शेष तरफ बहना उसका बंद हो जाता है। परमात्मा की तरफ कैसे बहे? क्योंकि परमात्मा की कोई दिशा नहीं है, खयाल रखना।

मैं यहां बोल रहा हूं, तो आपका ध्यान मेरी तरफ बहेगा। लेकिन शेष सब तरफ बंद हो जाएगा। अगर कोई पीछे से आवाज कर दे, तो आपका ध्यान चौंककर उस तरफ बहेगा, लेकिन तब तक आपके संबंध मुझसे टूट जाएंगे। लेकिन परमात्मा की तो कोई दिशा नहीं है, सब दिशाओं में वह व्याप्त है–दिशाहीन, दिशातीत। तो परमात्मा को हम किस दिशा में खोजें? कहां ध्यान ले जाएं? इस जगत में और कुछ भी खोजना हो, तो दिशा है। परमात्मा की तो कोई दिशा नहीं, उसे हम कैसे खोजें?

तो ऐसी ध्वनियां पैदा की हैं योग ने, जो दिशाहीन हैं। जैसे ओम, यह दिशाहीन ध्वनि है। अगर आप ओम का पाठ करें, तो यह ध्वनि सर्कुलर है। इसलिए ओम का जो प्रतीक बनाया है, वह भी सर्कुलर है, वर्तुलाकार है। अगर आप भीतर ओम की ध्वनि करें, तो आपको ऐसा अनुभव होगा, जैसे मंदिर के ऊपर गुंबज होती है गोल। वह गोल गुंबज ओम की ध्वनि से जुड़कर बनाई गई है, वह जो मंदिर के ऊपर अर्ध गोलाकार छप्पर है। जब आप भीतर जोर से ओम का पाठ करेंगे, तो आपको अपने सिर और चारों तरफ एक वर्तुलाकार स्थिति का बोध होगा, दिशाहीन। यह ओम कहीं से आता हुआ नहीं मालूम पड़ेगा। सब कहीं से आता हुआ और सब कहीं जाता हुआ मालूम पड़ेगा।

यह एक अदभुत ध्वनि है, जो योग ने खोजी है। इस ध्वनि के मुकाबले जगत में कोई दूसरी ध्वनि नहीं खोजी जा सकी। इसे इसलिए मूल ध्वनि, बीज ध्वनि…।

इस वर्तुलाकार स्थिति में आप परमात्मा की तरफ उन्मुख होंगे, अन्यथा आप उन्मुख न हो सकेंगे। कोई न कोई चीज आपको खींचती रहेगी अपनी तरफ; कोई न कोई दिशा आपको पुकारती रहेगी। दिशामुक्त होंगे, तो भीतर की तरफ यात्रा शुरू होगी।

योग के सतत अभ्यास से, कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, परमात्मा में प्रतिष्ठा मिलती है।

फिर अभी योग पर और बहुत बात होगी, तो हम धीरे-धीरे उसकी और बात करेंगे।

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।

योगिनो यतचित्तस्य युग्जतो योगमात्मनः।। 19।।

और जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक नहीं चलायमान होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।

जैसे वायुरहित स्थान में दीए की ज्योति थिर हो, अकंप, निष्कंप, जरा भी कंपित न हो, ऐसे ही योगी का चित्त, चेतना थिर हो जाती है। यही उपमा योगी की चेतना के लिए कही गई है।

ध्यान रहे, जब तक किसी दिशा में ध्यान जाएगा, तब तक चेतना की लौ कंपित होगी। राह पर बजता है एक कार का हार्न, चेतना कंपित होगी। कोई सज्जन पीछे ही व्याख्यान दिए जा रहे हैं, चेतना कंपित होगी। सब ध्वनियां चेतना को कंपित करेंगी। तो निष्कंप चेतना कब हो पाएगी?

जब इन समस्त ध्वनियों के पार हम अपने भीतर कोई मंदिर खोज पाएं, जहां ये कोई ध्वनियां प्रवेश न करें। हम अपने भीतर ऊर्जा का एक ऐसा वर्तुल बना पाएं, जहां चेतना अकंप ठहर जाए, जैसे वायुरहित स्थान में दीया ठहर जाए। चित्त के लिए ध्वनि ही वायु है।

तो ध्वनि का एक विशेष आयोजन भीतर करना पड़े, तभी लौ ठहर पाएगी। योग उसका अभ्यास है। और निश्चित ही ऐसी संभावनाएं हैं। आपको भी उपलब्ध हो सकती हैं। कोई विशेषता नहीं है कि किसी विशेष को उपलब्ध हों। जो भी श्रम करे उस दिशा में सतत, उसे उपलब्ध हो जाएं; तो चित्त मंडलाकार अपने भीतर ही बंद हो जाता है।

बौद्धों ने उसे मंडल कहा है। ऐसा मंडल बन जाता है कि आप अपने भीतर ही घूमते हैं, बाहर से कुछ आता नहीं, बाहर आप जाते नहीं। न आपकी चेतना बाहर जाती है, न बाहर से कोई ध्वनित्तरंग आपके भीतर प्रवेश करती है। इस मंडल में ठहरी हुई चेतना वायुरहित स्थान में दीए की लौ जैसी हो जाती है। इतनी अकंप चेतना ही प्रभु में प्रतिष्ठा पाती है, क्योंकि निष्कंप होना ही प्रभु में प्रतिष्ठित हो जाना है–निष्कंप होना ही।

कंपना ही संसार में जाना है। निष्कंप हो जाना, प्रभु में पहुंच जाना है। कंपे, कंपित हुए, संसार में गए। अगर ठीक से समझें, तो संसार एक कंपन, अनंत कंपन का समूह है। जैसे हवा में एक पत्ता कंप रहा हो वृक्ष का। बाएं हवा आती है, बाएं कंप जाता है। दाएं आती है, दाएं कंप जाता है। हिलता-डुलता, कंपता रहता है; कभी थिर नहीं हो पाता। ठीक ऐसे ही वासना में, वृत्ति में, विचार में, सब में चित्त कंपता रहता है, कंपित होता रहता है, डोलता रहता है।

इस डोलते हुए चित्त को अवसर नहीं है कि यह जान सके उस जगह को, जहां यह है। इस डोलती हुई लौ को पता भी नहीं चलेगा कि किस दीए के तेल से, किस स्रोत से इसे रोशनी मिल रही है, प्राण मिल रहे हैं। यह तो हवा के झोंकों में हवा को ही जान पाएगी ज्योति, उस स्रोत को न जान पाएगी। उस स्रोत को जानने के लिए ठहर जाना, थिर हो जाना, रुक जाना जरूरी है।

यह रुक जाना कैसे फलित हो? यह योगी की उपमा तो ठीक है, लेकिन यह योगी आदमी हो कैसे? ठहरे कैसे? रुके कैसे?

कभी-कभी बहुत कठिन दिखाई पड़ने वाली बातें बहुत छोटे-से प्रयोगों से हल हो जाती हैं। कठिन तभी तक दिखाई पड़ती हैं, जब तक हम कुछ करते नहीं हैं और सिर्फ सोचते चले जाते हैं। सरल हो जाती हैं उसी क्षण, जब हम कुछ करते हैं! कोई अनुभव, बड़ी से बड़ी कठिनाई को कोई छोटा-सा अनुभव तोड़ जाता है।

सुना है मैंने, आज जहां रूस का बहुत बड़ा महानगर है, स्टैलिनग्राद, पुराना नाम था उस गांव का पैत्रोग्राद। पीटर महान ने उसको बसाया था, रूस के एक सम्राट ने। और पीटर महान जब उसे बसा रहा था, तो उसने एक पहाड़ी के कोने को चुना था अपने लिए कि इस जगह मैं अपना भवन बनाऊं। लेकिन उस पहाड़ी को हटाना बड़ा भारी प्रश्न था। और पीटर महान चाहता था, समतल भूमि हो जाए। बहुत इंजीनियरों को कहा, लाखों रुपए देने की बात कही। इंजीनियर कहते थे, बहुत खर्च है। कई लाख खर्च होंगे, तो यह पत्थर हटेगा।

एक दिन पीटर महान खुद गया देखने। सच में इतना बड़ा पत्थर था कि उसे काट-काटकर हटाने के सिवाय कोई उपाय उस समय नहीं था। एक बैलगाड़ी वाला किसान पास से गुजरता था, वह हंसने लगा। उसने कहा, लाखों रुपए! हम सस्ते में जमीन सपाट कर दे सकते हैं। इंजीनियर हंसे, सम्राट हंसा, कहा कि भोला किसान है, क्यों पागलपन में पड़ता है! उसने कहा कि हम कर ही देंगे सस्ते में, इसमें कोई लाखों का सवाल नहीं है। और उसने कर दिया। तो उस महल के नीचे एक पत्थर लगाया था पीटर महान ने उस किसान की स्मृति में–उस किसान की स्मृति में।

उस किसान ने बहुत कम, कुछ ही हजार रुपयों में वह पत्थर सपाट कर दिया। लेकिन उसने और ढंग से सोचा। सोचा कम, और किया कुछ ज्यादा। उसने पत्थर को काट-काटकर फेंकने का खयाल ही नहीं लाया। उसने तो पत्थर के चारों तरफ गङ्ढा खोदना शुरू करवाया। चारों तरफ गङ्ढा खोदा और उस पत्थर को गङ्ढे में नीचे गिरा दिया, ऊपर से मिट्टी डलवा दी। जमीन सपाट हो गई।

पीटर जब देखने आया, तो उसने कहा, वह पत्थर कहां गया? उस किसान ने कहा, पत्थर से आपको क्या प्रयोजन! जमीन सपाट चाहिए, जमीन सपाट हो गई। लेकिन पीटर महान बोला कि मैं यह जानना चाहता हूं, वह पत्थर गया कहां? उसको हटाना बहुत मुश्किल था! उस किसान ने कहा कि आप सदा उसको दूर हटाने की भाषा में सोचते थे, हमने उसको और गहराई में पहुंचा दिया।

तो उसके नाम पर एक स्मरण का पत्थर पीटर ने लगवाया था कि बड़े इंजीनियर जिसे महीनों सोचते रहे और हल न कर पाए, एक छोटे-से ग्रामीण किसान ने उसे हल कर दिया।

कई बार बड़े बुद्धिमान जिसे हल नहीं कर पाते, छोटे-से प्रयोगकर्ता उसे हल कर लेते हैं। और योग के संबंध में तो ऐसा ही मामला है–बिलकुल ऐसा ही मामला है।

आप अगर सोच-सोचकर हल करना चाहें, तो जिंदगी में कोई प्रश्न हल नहीं होगा। अगर आप चाहते हों कि शांत हो जाएं और विचार कर-करके शांत होना चाहें, आप कभी शांत न हो पाएंगे। क्योंकि विचार करना सिर्फ एक और तरह की अशांति है, और कुछ भी नहीं। आप सोचते हों, विचार कर-करके शांत होंगे, तो आप और अशांत हो जाएंगे; क्योंकि विचार करना एक अशांति से ज्यादा नहीं है।

इसलिए जो लोग शांत होना चाहते हैं, वे उन लोगों से भी ज्यादा अशांत हो जाते हैं, जो शांत होने की फिक्र नहीं करते। उनकी अशांति दोहरी हो जाती है। एक तो अशांति होती ही है और एक अशांति और पकड़ लेती है कि शांत कैसे हों!

लेकिन कोई छोटी-सी प्रक्रिया चित्त को एकदम शांत कर जाती है। कोई बहुत छोटी-सी प्रक्रिया, कोई मेथड चित्त को ऐसे शांत कर जाता है, जैसे वह कभी अशांत ही न था।

करीब-करीब ऐसा है कि जैसे कोई किसी वृक्ष के पत्ते काटता रहे और सोचे कि वृक्ष को समाप्त करना है। वह पत्ते काट न पाए और नए पत्ते आ जाएं। और वृक्ष की आदतें ऐसी हैं कि एक पत्ता काटो, तो चार आ जाते हैं। वृक्ष समझता है, कलम की जा रही है। जब तक जड़ न काटी जाए, तब तक वृक्ष के पत्ते काटने से वृक्ष का अंत नहीं होता।

हम सब एक-एक विचार से लड़ते रहते हैं। कोई कहता है कि मुझे क्रोध बहुत आता है, तो मेरा क्रोध कैसे ठीक हो जाए? मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है, क्रोध कैसे ठीक हो जाए? क्रोध, बस क्रोध ठीक हो जाए। वह समझता है कि क्रोध कोई अलग चीज है लोभ से। वह समझता है, लोभ कोई अलग चीज है मान से। वह समझता है, मान कोई अलग चीज है काम से। वह समझता है, ये सब अलग चीजें हैं। अलग चीजें नहीं हैं, सब पत्ते हैं। और एक को काटिएगा, तो चार निकल आएंगे।

योग कहता है, जड़ को काटिए, पत्तों को मत काटिए। जड़ कट गई, तो पूरा वृक्ष गिर जाएगा।

क्रोध नहीं गिर सकता उस आदमी का, जिसका काम बाकी है। उस आदमी का लोभ नहीं गिर सकता, जिसका काम बाकी है। उस आदमी का मान नहीं गिर सकता, अहंकार नहीं गिर सकता, जिसका काम बाकी है। और मजा यह है कि चार में से कोई एक भी बच जाए, तो बाकी तीन अनिवार्य रूप से मौजूद रहेंगे। वे जा नहीं सकते।

हां, यह हो सकता है कि आपमें एक की मात्रा थोड़ी ज्यादा हो, दूसरे की थोड़ी कम हो। लेकिन अगर चारों का हिसाब जोड़ा जाए, तो सब आदमियों में बराबर मात्रा मिलेगी–चारों को जोड़ लिया जाए, तो।

लेकिन हम सब उस सर्कस के बंदरों जैसे हैं! मैंने सुना है कि एक सर्कस के मालिक के पास बंदर थे। वह सुबह उनको चार रोटी देता, शाम को तीन रोटी। एक दिन उसने बंदरों से कहा कि कल से हम व्यवस्था बदल रहे हैं। तुम्हें सुबह तीन रोटी मिलेंगी, शाम चार रोटी। बंदर एकदम नाराज हो गए। रोज सुबह चार रोटी मिलती थीं, शाम तीन रोटी। उसने कहा, कल से हम व्यवस्था बदलते हैं। कल सुबह से तुम्हें तीन रोटी सुबह मिलेंगी, चार रोटी शाम। बंदर बहुत नाराज हो गए। चीखने-चिल्लाने लगे, कि हम बरदाश्त नहीं कर सकते यह बात। बंदरों ने तीन रोटी लेने से इनकार कर दिया। वह मालिक बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि पागलो, जोड़ो भी तो!

तो मैंने सुना है कि बंदरों ने कहा, जोड़ करता ही कौन है! हमें सुबह चार चाहिए, जैसी हमें सदा मिलती रही हैं! कोई रास्ता न देखकर उन्हें चार रोटियां दी गईं, बंदर राजी हो गए। शाम उनको तीन रोटी मिलतीं, सुबह चार मिलतीं। वे तृप्त। सुबह तीन मिलतीं, शाम चार मिलतीं, सात ही होती थीं, लेकिन जोड़ कौन करता है! आदमी नहीं करते, तो बंदर क्यों करें?

मैंने सुना है, उन बंदरों ने कहा, आदमी नहीं करते! हम बंदर क्यों जोड़ की झंझट में पड़ें! हमें चार सुबह मिलती थीं, चार चाहिए। शाम तीन मिलती थीं, तीन चाहिए। हम झंझट में नहीं पड़ते।

एक आदमी में थोड़ा क्रोध ज्यादा होता है, थोड़ा लोभ कम होता है, दोनों का जोड़ बराबर सात होता है। इन चारों का जोड़ सब आदमियों में बराबर है। लेकिन जोड़ कोई करता नहीं। और एक-एक को, जिसको क्रोध ज्यादा लगता है, वह कहता है, क्रोध से किस तरह छूट जाऊं? लोभ की तो मुझे झंझट नहीं है; क्रोध ही की झंझट है। उसे पता नहीं है कि अगर क्रोध काट दिया जाए, तो क्रोध की जितनी रोटियां हैं, कहीं और जुड़ जाएंगी। क्रोध कट नहीं सकता अकेला। चारों साथ रहते हैं, या चारों साथ जाते हैं।

योग कहता है, ऊपर से मत लड़ो। जड़ पकड़ो।

जड़ कहां है? जड़ कहां है? न तो क्रोध जड़ है, न लोभ जड़ है, न काम जड़ है, न अहंकार जड़ है। जड़ कहां है?

योग कहता है, जड़ आपके मन की सिस्टम, मन की जो व्यवस्था है आपकी, उसमें जड़ है। ऐसे मन में लोभ, क्रोध होगा ही; काम, अहंकार होगा ही। यह मन का, जो आपके पास मन है, उसका स्वभाव है। इस मन को ही बदलो। इस मन की जगह नए मन को स्थापित करो। यह मन रहा और इस मन का यंत्र रहा, तो सब जारी रहेगा। इस यंत्र को नया करो, नया यंत्र स्थापित करो। तो तुम्हारे पास नया मन होगा, जिसमें क्रोध नहीं होगा, काम नहीं होगा, मोह नहीं होगा, लोभ नहीं होगा।

लेकिन इस मन को बदलने का राज क्या है?

योग उसी राज का विस्तार है। और योग ने तीन प्रकार के राज कहे, तीन तरह के लोगों के लिए। क्योंकि तीन तरह के लोग हैं। वे लोग हैं, जो विचार प्रधान हैं जिनके भीतर, बुद्धि प्रधान है जिनके भीतर, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे भाव प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे कर्म प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा।

योग की तीन शाखाएं हैं प्रमुख–फिर तो अनंत शाखाएं हो गईं–कर्म, भक्ति और ज्ञान। और उन तीनों की तीन कुंजियां हैं। और एक-एक आदमी का जो टाइप है, उस आदमी को वह कुंजी लागू होती है। ताला खुलने पर एक ही मकान में प्रवेश होता है। लेकिन अलग-अलग आदमी, अलग-अलग दरवाजों पर, अलग-अलग ताले डालकर खड़े हैं।

अब जो आदमी विचार से ही जीता है, उसके लिए प्रार्थना, कीर्तन, भजन बिलकुल अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगे। उसमें उसका कसूर नहीं है, वैसा मन उसके पास है। वह सोचेगा, विचार करेगा। विचार करेगा, तो सोचेगा कि क्या होगा! क्योंकि विचार प्रश्न उठाता है। और जहां प्रश्न उठते हैं विचार में, वहां भाव में प्रश्न नहीं उठते हैं। भाव कभी प्रश्न नहीं उठाते। भाव निष्प्रश्न हैं। भाव स्वीकार है, एक्सेप्टिबिलिटी है। भाव राजी हो जाता है, विचार संघर्ष करता है। तो विचार के लिए तो अलग ही रास्ता खोजना पड़े। योग ने उसके लिए रास्ता खोजा।

ज्ञानयोग का अर्थ है, उस जगह पहुंच जाओ, जहां न ज्ञेय रह जाए और न ज्ञाता रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। उसकी पूरी प्रक्रिया है। ज्ञेय को छोड़ो, आब्जेक्ट्स को छोड़ो। जिसे जानना हो, उसे छोड़ो; और जो जानने वाला है, उसे भी छोड़ो। वह जो जानने की क्षमता है, उसमें ही ठहरो, उसी में रमो। वह जो ज्ञान की क्षमता है, नोइंग फैकल्टी जो है, जानने की क्षमता, उसी में रमो।

जैसे मैं फूल देख रहा हूं। तो तीन हैं वहां। एक मैं हूं, जो देख रहा है। एक फूल है, जिसे देख रहा हूं। और हम दोनों के बीच दौड़ती ज्ञान की धारा है। ज्ञानयोग कहता है, फूल को भी भूल जाओ, स्वयं को भी भूल जाओ, यह जो दोनों के बीच में ज्ञान की धारा बह रही है, इसी में ठहर जाओ, इसी में खड़े हो जाओ–ज्ञान की धारा में।

भाव वाले आदमी को यह बात समझ में न पड़ेगी कि ज्ञान की धारा में कैसे खड़े हो जाएं! नहीं पड़ेगी समझ में, क्योंकि भाव वाला आदमी समझ से जीता नहीं। भाव वाला आदमी भावना से जीता है, समझ से नहीं। भाव वाले आदमी से कहो कि नाचो, आनंदमग्न होकर नाचो, प्रभु-समर्पित होकर नाचो। वह नाचने लगेगा। वह यह नहीं पूछेगा, नाचने से क्या होगा? वह नाचने लगेगा। और नाचने से सब हो जाएगा।

नाचने में वह क्षण आता है, कि नाचने वाला भी मिट जाता है, नाचने का खयाल भी मिट जाता है, नृत्य ही रह जाता है–नृत्य ही। परमात्मा भी भूल जाता है, जिसके लिए नाच रहे हैं; जो नाचता था, वह भी भूल जाता है; सिर्फ नाचना ही रह जाता है–सिर्फ नृत्य, जस्ट डांसिंग। जस्ट नोइंग की तरह घटना घट जाती है। जैसे सिर्फ जानना रह जाता है, बस द्वार खुल जाता है। सिर्फ नृत्य रह जाता है, तो भी द्वार खुल जाता है।

मीरा अगर गाएगी, तो गाने में कृष्ण भी खो जाएंगे, मीरा भी खो जाएगी, गीत ही रह जाएगा। ध्यान रहे, जब मीरा गाती है, मेरे तो गिरधर गोपाल, तो न तो गोपाल रह जाते, न मेरा कोई रह जाता। मेरे तो गिरधर गोपाल, यह गीत ही रह जाता है–सिर्फ यह गीत। गिरधर भी भूल जाते हैं, गायक भी भूल जाता है; मीरा भी खो जाती है, कृष्ण भी खो जाते हैं; बस, गीत रह जाता है। सिर्फ गीत जहां रह जाता है, वहां वही घटना घट जाती है, जो सिर्फ ज्ञान रह जाता है।

लेकिन महावीर गीत को पसंद नहीं कर पाएंगे। महावीर कहेंगे, केवल ज्ञान, जस्ट नोइंग, सिर्फ ज्ञान रह जाए, बस। वहीं द्वार खुलेगा। वह महावीर का टाइप है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करेंगे! गीत रह जाए। ज्ञान बड़ा रूखा-सूखा है। ज्ञान का करेंगे भी क्या! गीत बड़ा आर्द्र, बड़ा गीला, नहा जाता है आदमी। ज्ञान तो रेगिस्तान जैसा मालूम पड़ेगा मीरा को। उसके चारों तरफ रेगिस्तान था भी। वह परिचित भी थी अच्छी तरह। रेगिस्तान जैसा मालूम पड़ेगा, रूखा-सूखा, जहां कभी कोई वर्षा नहीं होती। और गीत तो बड़ी हरियाली से भरा है। अमृत बरस जाता है। गीत बड़ा गीला है–स्नान से। प्राणों के कोने-कोने तक गीत स्नान करा जाता है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करिएगा? गीत काफी है।

लेकिन और लोग भी हैं, जिनको न गीत में कोई अर्थ होगा और न ज्ञान में कोई अर्थ होगा। जिनका अर्थ और जिनके जीवन का अभिप्राय तो कर्म से खुलेगा। कर्म ही!

आर्किमिडीज के बाबत आपने सुनी होगी कहानी कि आर्किमिडीज अपने स्नानगृह में टब में लेटा हुआ है। वैज्ञानिक है। कर्मठ है। कुछ करना ही उसकी जिंदगी है। कुछ करके खोजना ही उसकी जिंदगी है। एक पहेली पर हल कर रहा है प्रयोगशाला में। बहुत मुश्किल में पड़ा है। कोई हल सूझता नहीं है। हजार तरह के प्रयोग कर लिए हैं। कोई रास्ता निकलता नहीं है।

सम्राट ने आर्किमिडीज को कहा है…। सम्राट को किसी ने एक बहुत बहुमूल्य मुकुट भेंट किया है सोने का। लेकिन सम्राट को शक है कि उस बहुमूल्य सोने के मुकुट में भीतर तांबा मिलाया गया है। लेकिन तोड़कर मुकुट को देखे बिना कोई उपाय नहीं है। और तोड़ो तो इतना बहुमूल्य मुकुट है कि शायद दुबारा फिर न बन सके।

तो सम्राट ने आर्किमिडीज को कहा है कि तू बिना तोड़े पता लगा। इसको छूना भी नहीं; इसको जरा भी खरोंच भी नहीं लगनी चाहिए। और पता लगाना है कि भीतर कहीं कोई और धातु तो नहीं डाल दी गई है।

वह आर्किमिडीज बड़े प्रयोग कर रहा है। फिर वह उस दिन अपने बाथरूम में जाकर अपने टब में बैठा है। टब पूरा भरा था। वह उसके अंदर बैठा है, तो बहुत-सा पानी टब के बाहर निकल गया है उसके बैठने से। अचानक उसे, टब में बैठने से और पानी के निकलने से, एक अंतःप्रज्ञा, एक इनसाइट उसके मन में कौंध गई कि मैं जरा इस पानी को तो तौल लूं कि यह कितना पानी निकल गया बाहर! यह पानी उतना ही तो नहीं है, जितना मेरा वजन है! अगर यह मेरे वजन के बराबर पानी बाहर निकल गया है, तो फिर कोई रास्ता खोज लिया जाएगा।

बस, उसको बात सूझ गई। वह चिल्लाया। नंगा था, दरवाजा खोलकर सड़क पर भागा। चिल्लाया, यूरेका! मिल गया! सड़क के लोगों ने कहा कि क्या कर रहे हो यह? कहां भागे जा रहे हो? वह नंगा भाग रहा है महल की तरफ कि मिल गया! सम्राट ने भी कहा कि रुको। कुछ होश तो लाओ! नंगे भाग रहे हो सड़क पर, लोग क्या कहेंगे!

आर्किमिडीज वापस लौट आया। वह कर्म की एक समाधि में प्रवेश कर गया था। कर्मठ आदमी था। वह भूल गया स्वयं को, वह भूल गया सम्राट को, वह भूल गया सवाल को। रह गया सिर्फ एक बोध, मिल जाने का, एक उपलब्धि का। बस, वही रह गया शेष।

आर्किमिडीज कहता था कि जिंदगी में जो आनंद उस क्षण में जाना, कभी नहीं जाना। जो रहस्य उस दिन खुल गया, वह मिला सो मिला, वह तो कोई बड़ी कीमत की बात न थी। लेकिन नग्न सड़क पर दौड़ना, और मुझे पता ही नहीं कि मैं हूं। मुझे यह भी पता न रहा, जब सड़क पर लोगों ने पूछा, क्या मिल गया? तो मुझे एकदम से यह भी पता न रहा कि क्या मिल गया? वह सवाल क्या था, जो मिल गया है? सिर्फ मिल गया! बस, एक धुन रह गई मन में कि मिल गया।

वह जो मिलने का क्षण है, कर्मठ व्यक्ति को भी मिलता है, लेकिन उसे कर्म से ही मिलता है। अब जैसे अर्जुन जैसा आदमी है, जब तलवारें चमकेंगी और जब कर्म का पूर्ण क्षण होगा, जब अर्जुन भी नहीं बचेगा, दुश्मन भी नहीं बचेगा, सिर्फ कर्म रह जाएगा। तलवार मैं चला रहा हूं, ऐसा नहीं रहेगा; तलवार चल रही है, ऐसे क्षण की स्थिति आ जाएगी, तब अर्जुन जैसे आदमी को समाधि का अनुभव होगा।

ये तीन खास प्रकार के लोग हैं। और योग ने इन तीनों पर, वैसे फिर इन तीनों के बहुत विभाजन हैं और योग ने बहुत-सी विधियां खोजी हैं, लेकिन इन तीन विधियों के द्वारा साधारणतः कोई भी व्यक्ति चेतना को उस थिर स्थान में ले आ सकता है।

ज्ञान रह जाए केवल; भाव रह जाए केवल; कर्म रह जाए केवल। तीन की जगह एक बचे, दो कोने मिट जाएं। द्रष्टा मिट जाए, दृश्य मिट जाए, दर्शन रह जाए। ज्ञाता मिट जाए, ज्ञेय मिट जाए, ज्ञान रह जाए। तीन की जगह एक रह जाए। बीच का रह जाए, दोनों छोर मिट जाएं, तो व्यक्ति की चेतना थिर हो जाती है, ऐसी जैसे कि जहां वायु न बहती हो, पवन न बहता हो, वहां दीए की ज्योति थिर हो जाती है।

उस दीए की ज्योति के थिर होने को ही, कृष्ण कहते हैं, योगी को उपमा दी गई है। योगी भी ऐसा ही ठहर जाता है।

आज के लिए इतना ही।

पांच मिनट लेकिन कोई उठेगा नहीं। पांच मिनट यहां वह भाव वाली प्रक्रिया…। पांच-सात मिनट ये संन्यासी नाचेंगे। इनके साथ आप भी मिट जाएं। और नाच ही रह जाए। गीत ही रह जाए। उठें न! पांच मिनट बैठे रहें। कोई उठकर अस्तव्यस्त न हो। और यहां मंच पर कोई नहीं आएगा देखने के लिए। मंच पर तो जो नृत्य में सम्मिलित होते हैं, वही आएंगे। आप अपनी जगह बैठें। वहां से ताली बजाएं। आनंदित हों। गीत दोहराएं।


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समाधि के सप्‍त द्वार-(ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–9

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स्वामी बन—प्रवचन—नौवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,

अंबरनाथ; रात्रि 13 फरवरी, 1973

मनुष्य में आलय अर्थात विश्वात्मा या परमात्मा के शुद्ध और उजजवल सत्व को छोड़ कर सब कुछ मृण्मय है। मनुष्य उसकी स्फटिक किरण है, प्रकाश की एक रेखा जो भीतर अपूर्व रूप से निर्दोष और निष्कलुष है–नीची भूमि पर एक मृतिका रूप। वही प्रकाश-रेखा तेरा जीवन-गुरु और तेरी सच्ची आत्मा है–द्रष्टा और मूक चिंतक। और तेरी निम्न-आत्मा का शिकार आत्मा केवल भूल करनेवाले शरीर में आहत होती है। इन दोनों पर नियंत्रण और स्वामित्व कायम कर और तू निकट जाते हुए संतुलन के द्वार के भीतर जाने में सुरक्षित है।

दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत आकाश में जो लुभानेवाली शक्तियां हैं, जो दुष्टभाव वाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी हैं, उनसे दूर ही रह।

दृढ़ बन। अब तू मध्य द्वार के निकट आ रहा है, जो क्लेश का भी द्वार है, जिसमें दस हजार नागपाश हैं।

ओ पूर्णता के साधक अपने विचारों का स्वामी बन, यदि तुझे इसकी देहली पार करनी है।

और यदि तुझे अपने गंतव्य पर पहुंचना है, तो अमृत सत्य के खोजी अपनी आत्मा का स्वामी बन।

उस एक शुद्ध प्रकाश पर अपनी आत्म-दृष्टि को एकाग्र कर, जो प्रकाश सभी प्रभावों से मुक्त है। और अपनी स्वर्ण-कुंजी का प्रयोग कर।

कठिन कर्म पूरा हो गया। तेरा श्रम पूर्ण हुआ। और वह विस्तृत पाताल जो तुझे निगलने को मुंह फैलाए था, लगभग पाट दिया गया है……।

केंद्र से देखें, तो मनुष्य परमात्मा है। और मनुष्य को उसकी परिधि की तरफ से देखें, तो मनुष्य संसार है। बाहर से पकड़ें मनुष्य को, तो पदार्थ है; भीतर से चिन्मय ज्योति है।

मनुष्य दो का मिलन है–आकार का और निराकार का।

और यही मनुष्य की पीड़ा भी है; यही उसका आह्लाद है। मनुष्य की पीड़ा यही है कि वह एक नहीं, दो से निर्मित है, दो विपरीत तत्वों से। इसलिए उसके भीतर निरंतर तनाव है, खिंचाव है। पदार्थ खींचता है अपनी ओर, आत्मा खींचती है अपनी ओर। और मनुष्यता दोनों के बीच में फंस जाती है, जकड़ जाती है, उलझ जाती है।

अगर एक ही तत्व हो, तो कोई तनाव न हो। मरे हुए आदमी में फिर कोई तनाव नहीं होता; उसकी देह फिर शांत हो जाती है। समाधिस्थ आदमी में भी फिर कोई तनाव नहीं होता; आत्मा ही बचती है। मृतक देह पड़ी हो, तो शरीर बचा है, समाधिस्थ व्यक्ति पड़ा हो, तो उसके लिए भीतर अब आत्मा ही बची है, शरीर भूल गया है। जब तक दोनों हैं–और दोनों के बीच हम डांवांडोल हैं–तब तक चिंता, तनाव, संताप, बेचैनी है। और कहीं भी कोई किनारा लगता मालूम नहीं पड़ेगा। और दोनों ही खींचते हैं अपनी ओर। स्वभावतः ठीक है खींचना। पदार्थ खींचता है नीचे की ओर; आत्मा उठ जाना चाहती है ऊपर की ओर।

ऐसा समझें कि जैसे एक मिट्टी का दीया हो और जलती हो एक ज्योति उसमें तो मिट्टी का दीया तो जमीन का हिस्सा है, और ज्योति भागती रहती है सूर्य की ओर, ऊपर की ओर। कभी आपने अग्नि को नीचे की ओर भागते हुए देखा है? अग्नि भागती है ऊपर की ओर, वह सूर्य का हिस्सा है। मिट्टी का दीया नीचे पड़ा है जमीन से बंधा।

आदमी की देह मिट्टी की है। उसके भीतर का निवासी ज्योतिर्मय है। वह भीतर का निवासी ऊपर उठना चाहता है, और देह नीचे। और आदमी इन दोनों का जोड़ है। इसलिए आदमी जब तक आदमी है, बेचैन रहेगा। आदमी रहते हुए कोई समाधान नहीं है।

दो तरह से समाधान मिलता है। या तो आदमी राजी हो जाए, शरीर को पूरी तरह मान ले, ऊपर की यात्रा छोड़ दे। तो जो लोग बहुत निम्न जीवन जीते हैं, उनके बाहर कितना ही उपद्रव होता हो, दूसरे में वे कितनी ही तकलीफें खड़ी करते हों, भीतर एक अर्थ में वे शांत होते हैं। कारागृह में जाएं और अपराधियों की आंखों में देखें, साधु-गृहों में बैठे हुए साधुओं की आंखों से ज्यादा शांत अपराधियों की आंखें मिलेंगी। कारण है उसका, उन्होंने लड़ाई छोड़ दी और नीचे गिरने को तैयार हो गए। वह जो ऊपर का स्वर है, दबा डाला और नीचे के स्वर के साथ अपना पूरा तालमेल बिठा लिया। और या फिर उस व्यक्ति की आंखों में शांति मिलती है, जिसने नीचे को जीत लिया और ऊपर की यात्रा ही उसका समग्र जीवन बन गई।

एक के साथ शांति है; दो के साथ अशांति है।

और हम दो में हैं। आदमी का होना ही दो के बीच है। इस सूत्र को इस दृष्टि से समझने की कोशिश करें।

“मनुष्य में आलय के शुद्ध और उजजवल सत्व को छोड़कर सब कुछ मृण्मय है।’

आलय बुद्ध का बड़ा प्रिय शब्द है। आलय का अर्थ तो होता है घर। लेकिन बुद्ध बड़े विराट अर्थों में उसका प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं कि समस्त चेतना का एक घर है, एक आलय है, एक स्टोर हाउस है। सारे जगत में जितनी चेतनाएं हैं, वे सब इकट्ठे एक ही घर की किरणें हैं, एक ही सूर्य की किरणें हैं। और उन सबका एक केंद्र है, उस केंद्र का नाम आलय है।

मनुष्य में आलय अर्थात विश्वात्मा या परमात्मा के शुद्ध और उजजवल सत्व को छोड़कर, उस आलय से आपको जो मिला है उसको छोड़कर, शेष सब आपके भीतर मिट्टी है। उस आलय से जो किरण आपको उपलब्ध हुई है, वही भर मिट्टी नहीं है, बाकी सब मिट्टी है। और अगर आपको इस किरण का कोई पता न चले, तो आप अपनी मिट्टी की देह को ही अपना अस्तित्व समझते रहते हैं। और तब जीवन मिट्टी का उठना और मिट्टी का गिरना हो जाता है।

और किरण को खोजना अति कठिन इसलिए हो गया है–कि मिट्टी बहुत है और किरण बहुत सूक्ष्‍म और छोटी है। अनुपात मिट्टी का बहुत ज्यादा है। वह जो जीवन की किरण है, बड़ी मंदिम और बड़ी छोटी है। वह जो आपके भीतर आपकी आत्मा है, अति सूक्ष्‍म है। आपकी देह स्थूल है। जो स्थूल है, वह दिखाई पड़ता है, हर क्षण अनुभव में आता है। जो सूक्ष्‍म है, उसकी आवाज भी सुनाई नहीं पड़ती है। उसको सुनने के लिए भी कानों की तैयारी चाहिए। उसको सुनने के लिए बहुत ध्यानपूर्वक खोज करनी पड़ेगी। और जिस तरफ ध्यान जाता है, वही हमें सुनाई पड़ता है। आप मुझे सुन रहे हैं, तो आपको और कुछ भी सुनाई नहीं पड़ेगा। एक पक्षी अगर गुन-गुन कर रहा हो, तो सुनाई नहीं पड़ेगा। फिर अगर ध्यान दें, तो तत्क्षण सुनाई पड़ेगा।

कभी आपने खयाल किया हो, कमरे में बैठकर आप किताब पढ़ रहे हैं, घड़ी दीवाल पर लगी है, उसकी टिक-टिक हो रही है, सुनाई नहीं पड़ती। फिर ध्यान दें, किताब बंद कर दें, तत्क्षण टिक-टिक सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। आप जब ध्यान न दिए थे, तब घड़ी बंद नहीं थी। लेकिन जब ध्यान ही न दिया हो, तो टिक-टिक धीमी आवाज है, वह चोट नहीं करती है। कोई हथौड़ा पड़ रहा होता, तो शायद सुनाई पड़ जाता,बहुत स्थूल था। टिक-टिक बहुत सूक्ष्‍म है। ध्यान देंगे बारीकी से तो सुनाई पड़ेगी; नहीं तो नहीं सुनाई पड़ेगी,आप अपने काम में लगे रहेंगे। जिस तरफ हम ध्यान को मोड़ते हैं, उसी तरफ का आयाम सुनाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है। उसके प्रति हम संवेदनशील हो जाते हैं। लेकिन घड़ी की टिक-टिक भी बहुत स्थूल है। आपको अपने हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है? हो रही है, लेकिन अगर बिलकुल शांत बैठ कर ध्यान दें, तो सुनाई पड़ने लगेगी।

अपने हृदय की धड़कन भी स्थूल है; वह बिलकुल सूक्ष्‍म नहीं है। वह जो भीतर आत्मा की किरण है, वह तो अति सूक्ष्‍म है। किरण की तो चोट भी क्या होती है। और आप इतने व्यर्थ के शोरगुल में उलझे हैं, और इतनी स्थूल आवाजें आपके चारों तरफ हैं कि जब तक इस सबसे ध्यान खींच न लिया जाए, और मौन भीतर बैठ न जाया जाए, तब तक शायद वह जो भीतर की किरण है, उसकी कोई प्रतीति नहीं होगी।

इसलिए आत्मा की हम बातें करते रहते हैं, लेकिन आत्मा का हमें कोई पता नहीं चलता। और हम जानते यही हैं कि शरीर ही हैं। और मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। डर लगता है मिटने से, भय होता है, तो मानने का मन होता है कि आत्मा हो। ऐसा हम चाहते हैं कि आत्मा हो और हम न मरें। लेकिन चाह का सवाल नहीं है। जिसका हमें पता ही नहीं है, वह हो भी, तो उसके होने से क्या फर्क पड़ता है? और जिसका हमें पता है, वह न भी हो, तो भी मुसीबत तो उससे होगी।

ज्ञान ही अस्तित्व है।

जिसका हमें पता नहीं, वह ना के बराबर है। होगा या नहीं होगा, क्या फर्क पड़ता है? और जिसका हमें ज्ञान है, न भी है, तो भी वह हमारे जीवन को प्रभावित करेगा। एक स्वप्न को भी आप सत्य मान लें, तो आपका जीवन उससे प्रभावित हो जाएगा। और आप इस सारे जीवन को भी स्वप्न मान लें, तो आप इससे अप्रभावित हो जाएंगे।

आपकी मान्यता में आपका अस्तित्व है, और जैसा आप मान लेते हैं, हो जाता है।

यह जो भीतर किरण है, यह इतनी सूक्ष्‍म है कि जब तक स्थूल से हमारा ध्यान संपूर्ण रूप से न हटे, तब तक यह सुनाई न पड़ेगी। इसे सुनने के कई उपाय हो सकते हैं; कई उपाय हैं। मेरी दृष्टि में जो उपाय सर्वाधिक उपयोगी हो सकता है, वह यह है कि पहले आप अपने आस-पास पूरा तूफान उठा लें। इसलिए ध्यान के जो प्रयोग मैं आपको करवा रहा हूं, वे सब तूफानी हैं। पूरा तूफान उठा लें, जितना शोरगुल हो सकता हो, खड़ा कर लें। स्थूल की जितनी आवाजें हो सकती हैं, वे सब हो जाने दें। बाहर कुछ भी शांत न रह जाए, सभी कुछ उपद्रव हो जाए, विक्षिप्तता चारों तरफ खड़ी हो जाए, तब अचानक रुक जाएं कंट्रास्ट में, इस तूफान की पृष्ठभूमि में शायद क्षण भर को आपको शांति की किरण दिखाई पड़ जाए। विपरीत में देखना आसान होता है। लेकिन तब विपरीत को अति तक ले जाना जरूरी है।

जो लोग विश्राम की कला के संबंध में खोज करते हैं, आर्ट आफ रिलेक्जेशन के संबंध में, उन्होंने एक मौलिक सूत्र खोजा है, यह अति वैज्ञानिक है। अगर कोई आपसे कहे कि शरीर को शिथिल छोड़ दो, विश्राम में छोड़ दो, आप क्या करोगे? कैसे छोड़ दोगे? ऐसे लेट जाने का नाम विश्राम नहीं है। विश्राम एक बड़ी ही अनूठी अवस्था है, जिसका आपको पता ही नहीं। आप जागना जानते हैं, जो कि श्रम है; आप सोना जानते हैं, जो कि थकना है। विश्राम का आपको पता नहीं है। जागना श्रम है, सोना थक जाना है। इसलिए मजदूर गहरा सो लेता है। इसलिए नहीं कि उसको गहरा विश्राम पता है; इसलिए कि वह गहरा थक जाता है। अमीर नहीं सो पाता; क्योंकि वह थक नहीं पाता। हमारी नींद थकान है, सिर्फ ध्यानी की नींद विश्राम होती है। हम जितने थक जाते हैं, उतनी नींद में गिर जाते हैं। शरीर जबाब दे देता है, वहां और श्रम नहीं किया जा सकता, शरीर गिर जाता है।

थकान और श्रम के बीच में, मध्य में एक बिंदु है, जो विश्राम है।

लेकिन हम विश्राम में जाएं कैसे? हम दोनों में घूम सकते हैं–श्रम कर सकते हैं, थक सकते हैं। बीच में एक जगह है और उसका कैसे पता करें? कब विश्राम का क्षण है?

तो विश्राम की कला कहती है कि पहले लेट जाओ और सारे शरीर को जितना तान सको, तनाव से भर सको, भरो। जैसे यह हाथ है मेरा, इसको अगर मुझे विश्राम में ले जाना है, तो पहले मैं इसको खींचूं इसकी नस-नस को, इसको इतना तनाव से भर दूं कि इससे आगे तनाव में जाने का कोई उपाय न रहे। जितना मैं खींच सकूं इस हाथ को, जितना तान सकूं इसका रोआं-रोआं, इसकी चमड़ी का टुकड़ा-टुकड़ा, इसके भीतर की नस, मांस, मज्जा, खून, सब खिंच जाए। और मैं उस जगह आ जाऊं, जब मैं समझ रहा हूं कि अब इससे आगे और तनाव पैदा नहीं किया जा सकता, तब इसे एकदम से ढीला छोड़ दूं, वे जो दबी हुई थीं मांस-पेशियां, एकदम शिथिल हो जाएंगी और उनका क्रमशः शिथिल होना आप अनुभव कर सकते हैं। अगर ध्यानपूर्वक हाथ को आप अनुभव करें, तो आप पाएंगे कि सीढ़ी-सीढ़ी हाथ विश्राम में जा रहा है, और तब एक जगह आ कर हाथ रुक जाएगा, जिससे नीचे नहीं जाया जा सकता। वह विश्राम का क्षण होगा। और इस विश्राम को जानना हो, तो तनाव की पृष्ठभूमि बनानी पड़ती है।

ठीक वही सूत्र ध्यान के लिए है कि पहले आपके भीतर जितना तूफान हो मन में, उसको पूरा उठा लें। जितना करना, क्रिया पूरा उठा लें। कुछ रत्ती भर भी छोड़ें न, जो भी हो सकता

है आपके भीतर पागलपन, सारा निकाल लें। तूफान हो जाए, एक बवंडर, एक आंधी और तब एकदम से ठहर जाएं तत्क्षण; सीढ़ी-सीढ़ी, एक-एक कदम उस जगह आ जाएंगे, जहां आप पाएंगे कि अब विश्राम है।

उस विश्राम के क्षण में ही कभी आपको भीतर की किरण का पहली दफा स्पर्श होगा। नहीं कहा जा सकता, कब होगा। यह अति सूक्ष्‍म है, इसलिए बहुत मोटे नियम काम नहीं आते। लेकिन होगा। हुआ है, बहुतों को हुआ है, आपको भी होगा। लेकिन होगा, उस दिन, जिस दिन तालमेल बैठ जाएगा। आपका तूफान बिलकुल शांत होगा, और केंद्र बिलकुल शांति में खड़ा होगा। अचानक किरण छू जाएगी, आप पहली दफा आत्मा हो जाएंगे। थे सदा से, लेकिन जिसका पता ही नहीं है, उसके होने का क्या मतलब है! और जिस क्षण वह किरण, जो सदा से मौजूद है, आपको दिखाई पड़ेगी और अनुभव में आ जाएगी, उस दिन ही देह मिट गई। नहीं कि आप मर जाएंगे; देह चलेगी, उठेगी, सोएगी, पर अब आप देह नहीं हैं। आपका तादात्म्य बदल गया है।

कल तक देह से लगता था “मैं’ हूं, आज वह बात खो गई है। आज देह के भीतर जो किरण है छिपी हुई रहस्य की, वही आप हो गए हैं। अब यह देह रहना चाहे–इसकी जरूरत है, इसका उपयोग है, इसकी आवश्यकताएं हैं, तो वह भी पूरी करेंगे। लेकिन अब इस देह का उपयोग एक घर से ज्यादा नहीं रहा। और यह घर भी एक विश्रामालय है, जहां थोड़ी देर को रुकना है। और असली घर तो अब वह हो गया, जहां से किरण आई। और जहां किरण वापिस जाए, अपने मूलस्रोत में, उद्गम में लौट जाए। तो ही हमें जीवन के मूल आधार और परम रहस्य का अनुभव हो सकता है।

इसलिए बुद्ध ने उसको आलय कहा है, उसको असली घर कहा है, जहां लौटेगी मूलस्रोत, मूल उद्गम में, जैसे गंगा गंगोत्री में लौट जाए। ऐसे जिस दिन आपकी किरण के सहारे को पकड़ कर आप उस महासूर्य में पहुंच जाएंगे, जहां से इस किरण का आना हुआ था, जैसे कोई भटका हुआ यात्री अनेक-अनेक वर्षों की भटकन के बाद अचानक अपने घर में आ जाए, तो जैसा आह्लाद से नाच उठे, फिर वैसा ही नृत्य आपके जीवन में प्रकट होने लगेगा। आपको अपना असली घर मिल गया। परमात्मा असली घर है, और हम उसकी भटकी हुई किरणें हैं। पर हम वही हैं–कितने ही भटक जाएं! और किरण सूर्य से कितनी ही दूर चली जाए, सूर्य ही है।

यह सूत्र कहता है कि मनुष्य में आलय के शुद्ध और उजजवल सत्वों को छोड़कर सब कुछ मृण्मय है, सब कुछ मिट्टी है। मनुष्य उसकी ही स्फटिक किरण है, प्रकाश की एक रेखा जो भीतर अपूर्व रूप से निर्दोष और निष्कलुष है–नीची भूमि पर मिट्टी का एक रूप।

लेकिन अपने स्वभाव में अपूर्व रूप से निर्दोष, निष्कलुष!

किरण की कुछ खूबियां हैं। एक खूबी तो प्रकाश की किरण की यह है कि उसे आप गंदा नहीं कर सकते। उसे गंदा करने का कोई भी उपाय नहीं है। कभी आपने खयाल किया, एक स्वच्छ सरोवर में, निर्मल सरोवर में सूर्य का प्रतिबिंब बनता है। सूर्य की किरणें निर्मल सरोवर की छाती पर नाचती हैं, लहर-लहर सोना हो जाती है। वही सूर्य, एक गंदी तलैया में भी नाचता है। गंदी तलैया में बास, गंदगी है, कीचड़-कबाड़ है, कचरा है, पास जाने का मन न हो, इतना कुरूप है; सब गंदा है। सूरज की किरण उस पर भी नाचती है, उस गंदी तलैया में। क्या आप सोचते हैं कि शुद्ध सरोवर पर नाचती किरण शुद्ध, और गंदी तलैया पर नाचती किरण अशुद्ध हो जाती होगी? क्या किरण में गंदगी प्रवेश कर सकती है? क्या गंदी तलैया किरण को गंदा कर पाती होगी? क्या गंदी तलैया में स्वर्ण-सूर्य का जो प्रतिबिंब बनता है, वह गंदा हो जाता होगा?

प्रकाश का स्वभाव है निर्दोष होना; उसे अशुद्ध नहीं किया जा सकता। आपके भीतर भी वह जो परम प्रकाश की किरण है, वह निष्कलुष और निर्दोष है, चाहे कितने ही किए हों पाप, तो भी। और चाहे कितनी ही गंदगी इकट्ठी की हो जन्मों-जन्मों में। वह सब मिट्टी के साथ ही जुड़ी है, तलैया के साथ। उस प्रकाश की किरण पर उसका जरा भी कोई प्रभाव नहीं है। वह तो शुद्ध ही है, शुद्ध होना उसका स्वभाव है।

इसे ठीक से समझ लें।

कुछ चीजें हैं जो शुद्ध हो सकती हैं अशुद्ध हो सकती हैं। उनका स्वभाव नहीं है शुद्ध होना। आप पानी को गंदा कर सकते हैं, शुद्ध कर सकते हैं। शुद्ध होना उसका स्वभाव नहीं है। वह शुद्ध भी हो सकता है, अशुद्ध भी हो सकता है। उसमें परिवर्तन संभव है।

प्रकाश को आप गंदा नहीं कर सकते। शुद्ध होना उसका स्वभाव है, अशुद्ध होने का कोई उपाय नहीं है।

अशुद्ध आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। शुद्ध होना आत्मा का स्वभाव है, शुद्ध ही आत्मा है। तो एक तो यह बात खयाल में ले लें कि कुछ भी किया हो, कुछ भी हुआ हो, आत्मा अशुद्ध नहीं होती। लेकिन उसका यह मतलब नहीं कि आप कुछ भी कर सकते हैं। इसका मतलब ऐसा लिया गया है।

इसलिए हमारे देश में जहां कि आत्मा की इतनी चर्चा है, आदमी इतना गंदा है। उन देशों से भी ज्यादा गंदा है जिन देशों में आत्मा की इतनी चर्चा नहीं है। उन देशों से भी ज्यादा गंदा है जहां कि आत्मा का विश्वास ही नहीं है।

अजीब बात मालूम पड़ती है। और जब पश्चिम के लोग भारत की किताबों से प्रभावित होकर भारत आते हैं, तो भारत का आदमी उनके सारे प्रभाव पोंछ डालता है। वहां से आते हैं सोचकर कि ऋषि-मुनियों के देश में जाते हैं और लौटते हैं सारी आशाएं खोकर। क्योंकि यहां जिस आदमी से मिलना होता है उसका ऋषि-मुनि से कोई लेना-देना नहीं।

यहां जो आदमी है यह इतना अपवित्र कैसे हो गया है? इतना क्षुद्र, इतना अशुद्ध क्यों है?

इसका कारण यह महान सूत्र है। यह हैरानी की बात लगेगी कि मैं कहता हूं कि इसका कारण यह महान सूत्र है। महान सूत्र नहीं, हमारे हाथों में तो कुछ भी पड़ जाए, हम उसमें से जो गलत है, वह निकाल लेंगे। इस मुल्क को इस बात का सूत्र बुद्ध ने दिया, महावीर ने दिया, कृष्ण ने दिया कि तुम निष्कलुष हो, तुम पवित्र हो और शुद्ध होना तुम्हारा आत्यंतिक स्वभाव है। कोई उपाय नहीं है तुम्हारे अशुद्ध होने का। हमने कहा, तब बिलकुल ठीक है। यह कहा था, इसलिए कि तुम आशा से भरो। यह कहा था इसलिए कि तुम इस आशा की किरण को पकड़ कर उस शुद्ध-स्वभाव की यात्रा करो। हमने कहा, तब बिलकुल ठीक है। अगर स्वभाव शुद्ध ही है, तो फिर पाप कर लेने में हर्ज क्या है?

इसे हमने कोई जान कर ऐसा सोचा हो, ऐसा नहीं। यह हमारे अचेतन मन ने ग्रहण किया है। हम पाप करने में सरल हो गए। जब अशुद्ध होता ही नहीं है, तो फिर अशुद्धि का डर क्या रखना। और जब शुद्ध है ही तो फिर यह पाप करने की सुविधा मिली है, यह क्यों खोना? यह अचेतन में बैठ गई बात। तो यह मुल्क आत्मा का परम-ज्ञान लेकर भी मनुष्य की दृष्टि से बहुत हीन और दीन हो गया।

इस सूत्र का यह मतलब आप मत लेना कि आप शुद्ध हैं ही, इसलिए बात समाप्त हो गई। इस सूत्र से आप इतना ही मतलब लेना कि आपके भीतर जो अज्ञात किरण है, जो कि आप नहीं हो। आप तो जो हो, वह अशुद्ध है ही। आप तो गंदी तलैया हो! और उस किरण का आपको कोई भी पता नहीं है, जिसकी इस सूत्र में चर्चा है। उपनिषद जिसका गीत गाते हैं, गीता जिसका गुणगान करती है, वह आत्मा की किरण आप अभी नहीं हो। आप हो सकते हो, लेकिन होने की एक शर्त यह है कि यह गंदी तलैया से आपका

तादात्म्य छूटे। अगर यह गंदी तलैया भरती चली जाती है, तो तादात्म्य का छूटना मुश्किल है, वह और बढ़ता चला जाता है। अगर इसे मैं ऐसा कहूं कि आप जैसे हैं, गंदे हैं; आप जैसे हो सकते हैं, और जो आपकी आत्यंतिक नियति है, वह सदा शुद्ध है, तो ठीक होगा। तब हमें दो बिंदु मिल जाएंगे। जैसा मैं हूं, वह गंदा हूं, लेकिन जैसी मेरी नियति है, मेरी आत्यंतिक गहरी प्रकृति है, वह अशुद्ध नहीं है।

तो जो मैं अभी दिखाई पड़ रहा हूं, उसे मुझे छोड़ना है। और जो अभी मैं हूं और दिखाई नहीं पड़ रहा हूं, उसे मुझे पाना है। नहीं तो इस देश में ऐसा हुआ है, साधु, संन्यासी, ज्ञानी समझाते रहते हैं। चोर, पापी, बेईमान, काला-बाजारी, वे सब बैठकर सुनते हैं, और वे मन में कहते हैं कि बिलकुल ठीक है महाराज। कहां अशुद्ध! आत्मा बिलकुल शुद्ध है।

मैं एक संन्यासी को जानता हूं। जो भारत में थोड़े से कुछ महाज्ञानी हुए उनमें एक हैं कुंदकुंद। वह उन कुंदकुंद के शास्त्रों पर प्रवचन करते हैं। वह एक संन्यासी हैं। उनका प्रवचन सुनने जो लोग इकट्ठे होते हैं, उनके चेहरे ही बता सकते हैं कि इनका कुंदकुंद से कोई लेना-देना नहीं है। सब चोरों की जमात–अच्छे चोरों की, क्योंकि बुरे चोर तो जेलों में पड़े हैं, उनको तो अवसर नहीं हैं। अच्छे चोरों की जमात इकट्ठी हो जाती है। काफी दान-दक्षिणा करते हैं, मंदिर बनाते हैं, आश्रम खुलवाते हैं, तीर्थयात्रा होती है। मुझसे उनका एक भक्त पूछ रहा था कि इतने धनपति सब क्यों यहां कुंदकुंद को सुनने आते हैं? कुंदकुंद में इनका क्या रस हो सकता है?

तो मैंने उनको कहा, कुंदकुंद में एक ही रस है, क्योंकि कुंदकुंद की घोषणा है कि तुम सदा शुद्ध हो, तुम अशुद्ध हो ही नहीं सकते। ये सब चोर इकट्ठे हो कर सुन के बड़े आश्वस्त होते हैं, सदा शुद्ध, बिलकुल ठीक है। तो वे सौ रुपए की चोरी करते हैं, उसमें से दस रुपया दान-पुण्य भी करते हैं कि कुंदकुंद ठीक कहा तुमने, तुम्हारी वाणी से हम आश्वस्त हुए। नाहक परेशान हुए जाते थे, चिंता में पड़ते थे, पीड़ा झेलते थे, मन में ग्लानि होती थी। तुमने सब पोंछ डाली, सब धो डाली। वह सौ की चोरी की है, उसमें से दस प्रतिशत दान कर देते हैं। और दस प्रतिशत दान करके, फिर सौ की चोरी करने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि अब कोई डर भी न रहा, अब कोई चिंता नहीं है, कुंदकुंद पर भरोसा पक्का है। और कुंदकुंद ठीक कहते हैं। और ये चोर बिलकुल गलत समझ लेते हैं। पर कठिनाई है, कुंदकुंद कुछ भी कहें, इससे क्या होता है? वह जो समझनेवाला आदमी है, वह क्या समझेगा, अंतिम परिणाम तो उससे होनेवाला है।

यह सूत्र, इसलिए मैं कहता हूं, थोड़ा सावधानीपूर्वक समझना। इसका यह मतलब नहीं है कि आप ठीक हैं बिलकुल। आप तो बिलकुल गलत हैं। और जो ठीक है आपके भीतर, उसका तो आपको कोई पता ही नहीं है। इसलिए फिर उसको मैं कहूं कि आप हैं, तो ठीक न होगा। ऐसा उचित होगा कहना कि आप जब बिलकुल मिट जाएंगे, तभी आपको उसका पता चलेगा, जो सदा शुद्ध है। यह जो गंदी तलैया है, जब तिरोहित हो जाएगी,तब वह किरण शुद्ध होगी। वह शुद्ध है। लेकिन इस गंदी तलैया से जुड़ कर वह तो खो ही गई, तलैया ही रह गई है।

“वही प्रकाश-रेखा तेरा जीवन-गुरु और तेरी सच्ची आत्मा है–द्रष्टा और मूक चिंतक।’

गुरु की तलाश आदमी करता है, स्वभावतः बाहर खोजता है। क्योंकि हम खोजते ही बाहर हैं। कुछ भी खोजना हो तो बाहर खोजते हैं। धन खोजना हो तो बाहर खोजते हैं, धर्म खोजना हो तो बाहर खोजते हैं। गुरु भी खोजना हो, तो बाहर खोजते हैं। खोज ही हमारी बाहर है। आंखें ही हमारी बाहर दौड़ती हैं, हाथ हमारे बाहर फैलते हैं, पैर हमारे बाहर भागते हैं। भीतर का हमें कुछ पता नहीं है। गुरु को भी हम बाहर खोजते हैं। कोई उपाय भी नहीं, क्योंकि भीतर का भी कौन हमें कहे।

और गुरु भीतर है। यह जीवन की जो किरण है–यही तेरा जीवन, यही तेरा गुरु है। क्योंकि इस किरण का तुझे पता चल जाए, तो रास्ता मिल गया। इसी किरण के रास्ते पर तू चलता जाए, तो तू महासूर्य तक पहुंच जाएगा। इस किरण का स्मरण आ जाए, तो हम सूर्य के हो गए। यह जीवन-किरण है तेरी गुरु, तेरी सच्ची आत्मा। लेकिन गुरु को हमें बाहर खोजना पड़ता है; क्योंकि हम सभी कुछ बाहर ही खोजते हैं। जीवन की जटिलताओं में एक जटिलता यह भी है कि गुरु भीतर है और हमें बाहर खोजना पड़ता है। इसका

क्या अर्थ हुआ? इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि तब फिर गुरु न खोजा जाए, तो फिर गुरु की कोई जरूरत नहीं?

एक मित्र ने सवाल पूछा है कि कृष्णमूर्ति कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अगर कृष्णमूर्ति की यह बात मान ली, तो कृष्णमूर्ति तुम्हारे तो कम से कम गुरु हो ही गए। कृष्णमूर्ति कहते हैं यह, तुम नहीं कहते हो। और कृष्णमूर्ति को तुम मान लो, तो और गुरु होने में होता क्या है? बचता क्या है? मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम किसी को गुरु नहीं बना सकते हैं, क्योंकि हम तो कृष्णमूर्ति को मानते हैं। तो गुरु तो बना लिया, गुरु बनाने का और अर्थ क्या होता है? किसी को माना, क्योंकि अपने पर भरोसा नहीं है, इसलिए किसी का सहारा लिया, इतना ही गुरु का अर्थ होता है। जिस दिन अपना ही भरोसा आ जाता है, उस दिन तो गुरु की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन अभी वह भरोसा नहीं है। तो फिर बाहर गुरु की खोज का क्या अर्थ है?

एक तो यह बात है, जो कृष्णमूर्ति कहते हैं: गुरु की कोई जरूरत नहीं है। वे बिलकुल ठीक कहते हैं; क्योंकि जीवन-गुरु भीतर है। लेकिन वे भी लोगों को समझा रहे हैं कि इसकी कोई जरूरत नहीं। इस अर्थ में तो गुरु हो जाते हैं, शिक्षक हो जाते हैं। और वे कितना ही कहें कि मैं कोई शिक्षा नहीं देता–फिर क्या देते हैं? और वे कितना ही कहें कि मुझसे कुछ ग्रहण मत कर लेना, लेकिन वे जो सुनने आते हैं, वे ग्रहण करके जाते हैं। वह जो सुनने आया है, वह शिष्य है, इसलिए आया है। उसे गुरु की तलाश है, और वह चाहता है कि कोई उसे बता दे रास्ता, जो उसे पता नहीं है। और यह सच है गहरे अर्थों में कि गुरु भीतर है, कोई दूसरा क्या रास्ता बताएगा, उसी से रास्ता मिलेगा। लेकिन आदमी क्या करे, वह कहां जाए? उसे खुद नहीं मिल रहा है, यह साफ है। और खुद मिलता होता, तो कभी का मिल गया होता।

आज ही एक व्यक्ति ने मुझे आकर कहा कि अनेक ज्ञानी जब कहते हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं और गुरु भीतर है, तो फिर हम क्यों किसी को गुरु मानें? तो मैंने उनको कहा कि अब तक बिना गुरु के तुम रहे हो, मिल गया? अगर मिल गया तो बात खतम हो गई। और नहीं मिला बिना गुरु के, तो अब तुम क्या करोगे? मिलना होता तो मिल गया होता। अब तुम करोगे क्या? और तुम मेरे पास क्यों आए हो?

आदमी की उलझन बड़ी है। वह आदमी मुझसे कहने लगा: “मैं इसलिए आया

हूं यही पूछने आपसे कि मेरा मानना ठीक तो है कि बिना गुरु के चल जाएगा? कि अगर मैं गुरु न बनाऊं, तो कोई अड़चन तो नहीं आएगी?’ गुरु बनाना हो, तो किसी से पूछने जाना पड़ता है? न बनाना हो, तो भी किसी से पूछने जाना पड़ता है? गुरु से बचने का उपाय नहीं दिखता है।

कोई गुरु के पक्ष में है, तो उसके शिष्य बन जाते हैं लोग। कोई गुरु के विपक्ष में है, तो उसके शिष्य बन जाते हैं लोग। जो गुरु के पक्ष में है, वह समझाता है गुरु बिना ज्ञान नहीं होगा। वह भी समझाता है, जो गुरु के विपक्ष में है। वह भी कहता है गुरु भर मत बनाना, नहीं तो ज्ञान नहीं होगा। वह भी समझाता है।

मेरी दृष्टि है कि आप गुरु से बच नहीं सकते। भीतर का गुरु है, उसका

आपको पता नहीं है। आपको बाहर गुरु पकड़ना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा। लेकिन बाहर का गुरु सिर्फ एक काम कर सकता है। वह गुरु नहीं हो सकता, लेकिन बाहर के गुरु के निकट रह कर शांत होकर उसके सान्निध्य में, उसकी मौजूदगी में, उसके उठने-बैठने में, उसकी वाणी में, उसके मौन में, उसकी आंखों में, उसके हाथों में, उसके जीवन की जो धारा बह रही है आपके पास, उसमें किसी दिन आपको उसकी प्रतिध्वनि मिल सकती है, जो आपके भीतर है–झलक। क्योंकि गुरु का अर्थ ही है: वह व्यक्ति जिसने भीतर के गुरु को पा लिया। और कोई अर्थ नहीं है।

जिसने जीवन-गुरु को पा लिया, वह व्यक्ति गुरु हो गया। वह अपना तो गुरु हो ही गया, लेकिन अब वह आपके लिए भी झलक का काम बन सकता है, दर्पण बन सकता है। उसकी कोई किरण आपको भी चोट कर सकती है। उसकी वीणा के स्वर नाचने लगे। उसकी नाच की धुन आपके भीतर भी प्रवेश कर जाए, तो आपकी वीणा भी झंकृत हो सकती है।

वीणावादक कहते हैं कि अगर एक शांत कमरे में एक वीणा रखी जाए शांत मौन एक कोने में और दूसरे कोने में आहिस्ता से दूसरी वीणा के स्वर झंकृत किए जाएं और फिर झंकार बढ़ती ही जाए, तो एक घड़ी आती है कि वह जो शांत मौन रखी वीणा है, उसके तार कंपित होने लगते हैं। यह जो झंकार कमरे में गूंजती है, यह झंकार उस वीणा को भी पकड़ लेती है, उसके तार भी आहिस्ता से कंपने लगते हैं। ऐसा ही कंपन गुरु के पास आपके भीतर के गुरु में हो जाता है। इसलिए गुरु के प्रति समर्पण का इतना मूल्य है। क्योंकि समर्पण न हो तो आप अकड़े खड़े हैं। वीणा के तार ढीले छोड़ ही नहीं रहे हैं कि वे कंप सकें। समर्पण हो तो यह कंपन हो सकता है। समर्पण हो, तो आप खुल गए, आपका झरोखा खुला है।

और समान, समान को आंदोलित करता है, समान-समान को प्रभावित करता है। समान से समान गतिमान हो जाता है। अगर बाहर कोई गुरु है, वह आपका गुरु नहीं है असल में, आपका गुरु आपके भीतर छिपा है। लेकिन यह तो भीतर छिपा है, उसमें कोई प्रतिध्वनि तो हो, कोई हलन-चलन हो, कोई चोट पड़े, कोई झंकार हो। यह बाहर का गुरु अपने अस्तित्व से, अपने होने के ढंग से ही आपके भीतर के गुरु के लिए पुकार, आवाहन बन जाता है, एक चुंबक बन जाता है। और फिर आपको पहचान भी इसके पास आनी शुरू हो जाती है कि अगर किसी दिन भीतर का गुरु मिलेगा, तो कैसा होगा।

विवेकानंद निरंतर एक कहानी कहा करते थे कि एक मादा सिंहनी छलांग लगाती थी एक पहाड़ से। गर्भिणी थी, और छलांग लगाते हुए उसको बच्चा हो गया। और नीचे भेड़ों का एक झुंड गुजरता था, बच्चा भेड़ों के झुंड में गिर गया। फिर भेड़ों ने उसे बड़ा कर लिया। और उस शेर के बच्चे ने सदा यही जाना, सिंह के बच्चे ने कि वह भेड़ है। और कोई जानने का उपाय भी न था। क्योंकि जिनके पास हम होते हैं, हम जानते हैं कि हम उन्हीं जैसे हैं। मां–दूध पिलानेवाली मां भेड़ थी, संगी-साथी भेड़ थे। सिंह को पता भी कैसे चले कि मैं भेड़ नहीं हूं?

वह भेड़ों जैसी आवाज करना सीख गया, भेड़ों जैसा भागता था। थोड़ी बेचैनी तो उसे होती थी, क्योंकि वह भेड़ों से बहुत बड़ा हो गया। लेकिन तब यही समझा गया कि थोड़ी एबनार्मल, असाधारण देह है। भेड़ें भी उसको भेड़ ही समझती थीं; क्योंकि उन्हीं जैसी आवाज करता। उन्हीं के साथ बड़ा हुआ, उन्हीं के साथ खेलाकूदा; सिंह जैसा कोई लक्षण उसमें उनको दिखाई भी नहीं पड़ा। न हमला करता था, न काटता था, न खाता था। भेड़ें जो खाती थीं, वही खाता था। भेड़ें जो बोलती थीं, वही बोलता था। भेड़ होना उसका जीवन था। थोड़ा एबनार्मल था, थोड़ा असाधारण था। थोड़ी लंबाई ज्यादा थी, शरीर जरा बड़ा था, रंग-रूप भिन्न था। तो असाधारण बच्चे तो सभी जातियों में पैदा हो जाते हैं। भेड़ों में भी हो जाते हैं। असाधारण होने की वजह से उसे थोड़ी परेशानी भी होती थी, वह अपने को दीन-हीन भी समझता था। आप भी अगर पांच फीट लंबे लोगों में दस फीट के हो जाएं, तो आप कमर झुका कर और डरे-डरे चलेंगे। क्योंकि आप बीमार हैं।

मैं जिस विश्वविद्यालय में था, मेरे एक प्रोफेसर को बीमारी हो गई थी। सारे लोग कहते थे, बीमारी है; वे भी कहते थे, बीमारी है। वे नौ फीट होते जा रहे थे, धीरे-धीरे लंबे होते जा रहे थे। बड़े परेशान रहते थे, वे सो नहीं सकते थे–चिंता, इलाज। मैंने उनको पूछा कि तुम्हें तकलीफ क्या है? तकलीफ और कुछ नहीं, यह लंबा होता जाना ही तकलीफ है। इसमें क्या तकलीफ है? कोई तकलीफ है तुम्हें? कोई पीड़ा, परेशानी, कोई दिक्कत तुम्हें हो रही है, जिसका तुम इलाज करवा लो? बस यह बड़ा होते जाना क्योंकि जो देखता है, वह मुझे चौंक कर देखता है! पत्नी कहती है, यह क्या हो रहा है? कहीं जाती हूं तो लोग पूछते हैं, क्या ये तुम्हारे पति हैं? वे झुककर चलते थे बिलकुल कि कितने नीचे हो जाएं!

वैसी हालत उस सिंह की रही होगी। बड़ा परेशान था, बेचैन था। और एक दिन और मुसीबत आ गई। एक सिंह ने उस झुंड पर हमला कर दिया। भेड़ें भागीं और भेड़ों के बीच में यह सिंह भी घसर-पसर भागा। वह जो दूसरा सिंह था, वह देखकर चमत्कृत हो गया। ऐसा दृश्य उसने कभी नहीं देखा था कि यह हो क्या रहा है! एक सिंह, और भेड़ों के बीच में भाग रहा है! और भेड़ें उससे घसर-पसर करती भाग रही हैं! कोई उससे परेशान भी नहीं! और यह क्यों भाग रहा है? और भेड़ें इसके साथ इतना तालमेल कैसे बनाए हुए हैं? वह सिंह भेड़ों को मारने की बात तो भूल ही गया, भूख की तो बात भूल गया। वह भागा, बामुश्किल इस सिंह को पकड़ पाया। भेड़ होती, तो पकड़ना आसान भी होता, वह था तो सिंह। तो भागता तो सिंह की तरह था। बामुश्किल पकड़ पाया, जवान था और यह बूढ़ा था सिंह।

पकड़ लिया, तो वह मिमियाने लगा, रोने लगा, हाथ जोड़ने लगा कि क्षमा कर दो, माफ कर दो, अब कभी तुम्हारे रास्ते में न आऊंगा, मुझे जाने दो। उसने कहा, तू पागल हो गया है? तू भेड़ नहीं है। उसने कहा, मैं भेड़ हूं, थोड़ी असाधारण, थोड़ी ऊंचाई मेरी ज्यादा है। रंग-रूप जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं है, पर हूं मैं भेड़।

वह सिंह उसे पकड़कर नदी के किनारे ले गया। वह रोता, चीखता कि मुझे जाने दो, मेरे सब संगी-साथी पीछे पिछड़ गए हैं। उसको घबड़ाहट हो गई कि अब मारा गया, अब मेरी मौत करीब है। लेकिन वह बूढ़ा सिंह उसको किसी तरह ले गया नदी के किनारे और कहा, झांककर देख पागल, नदी में अपने चेहरे को। उस सिंह ने,भेड़ बने सिंह ने बड़े डरते-डरते पानी में झांककर देखा। क्षण भर में सब बदल गया। क्षण भर में! भेड़ की आवाज खो गई। सिंह की गर्जना प्रकट हुई। जैसे ही देखा अपना चेहरा नीचे, गर्जना निकल गई। जो कभी उसने जानी न थी कि उसके भीतर छिपी है, सिंह की गर्जना। एक क्षण में वह सिंह हो गया। वह सिंह था, सिर्फ भ्रांति टूट गई।

गुरु का इतना ही अर्थ है कि वह पकड़ कर आपको किसी पानी में दिखा दे कि आप क्या हो। या खुद पानी बन जाए और आपको दिखा दे कि आप क्या हो। एक झलक आपको अपनी मिल जाए, आपको अपना गुरु मिल गया।

यह सूत्र कहता है कि वह किरण, वह प्रकाश की रेखा ही तेरा जीवन-गुरु, तेरी सच्ची आत्मा है–द्रष्टा और मूकचिंतक। और तेरी निम्न आत्मा का शिकार आत्मा केवल भूल करनेवाले शरीर में आहत होती है। इन दोनों पर नियंत्रण और स्वामित्व कायम कर। और तू निकट आते हुए संतुलन के द्वार के भीतर जाने में सुरक्षित है।

“और तेरी निम्न आत्मा का शिकार आत्मा केवल भूल करनेवाले शरीर में आहत होती है।’

और तूने जितनी भूलें की हैं, और तूने जितने पाप किए हैं, उन सबकी छाया, प्रतिबिंब और चिन्ह तेरे शरीर में ही छूटते हैं, तुझमें नहीं। उनकी पीड़ा का, उनके फल का भोग भी तेरे शरीर में ही होता है, तुझमें नहीं। लेकिन तू अपने को शरीर के साथ एक मानता है, इसलिए तू अकारण, व्यर्थ ही पीड़ित होता है।

भेड़ के साथ जिसने अपने को एक माना है, वह भेड़ की भांति पीड़ित होगा। और यह पीड़ा काफी वास्तविक है, इसलिए कहने से कुछ अर्थ नहीं है कि वह झूठ है। वह जो सिंह भाग रहा था भेड़ों के बीच में, क्या उसका डर कुछ कम था? क्या उसकी छाती कुछ कम घबड़ा रही होगी? और अगर भागते ही जाता, तो हार्टअटैक उसको आता, जैसा किसी भी भेड़ को आ सकता था। यह सब वास्तविक है। इतना कहने से कि भ्रांति है, कुछ हल नहीं होता। होगी भ्रांति, लेकिन जब भ्रांति चलती है, तब तो वास्तविकता है। और तब तो उसकी पीड़ा उतनी ही सच्ची है, जितनी वास्तविक पीड़ा होगी।

कौन सी पीड़ा हो रही सिंह को?

वह सिंह है और भेड़ माने हुए है, इसलिए दुख पा रहा है।

वह दुख कहां छिपा है? उसकी धारणा में, उसके तादातमय में।

आपने जितने पाप किए हैं, जितनी भूलें की हैं, जितनी बुराइयां की हैं, वे सब आपमें नहीं छिपी हैं, आपकी भ्रांति में छिपी हैं–और आपकी भ्रांति है कि मैं शरीर हूं। सारी छाप शरीर पर पड़ती है। और सारी छाप का फल शरीर को भोगना पड़ता है। और शरीर के साथ मेरा तादातमय है, इसलिए मैं भी भोगता हुआ प्रतीत होता हूं। वह प्रतीति है, लेकिन दुख तो पूरा है। इससे कोई भेद नहीं पड़ता।

मनसविद कहते हैं कि उनके पास लोग आते हैं। अगर उनसे कहा जाए कि तुम्हें मानसिक बीमारी है, तो इससे कुछ हल नहीं होता। पुराने दिनों में, आज से सौ वर्ष पहले, फ्रायड के पहले, कोई मन का डाक्टर तो होता नहीं था, शरीर के ही डाक्टर थे। शरीर का डाक्टर इतना ही कह देता था कि यह कोई बीमारी नहीं है–जांच कर लेता शरीर की। और आप कहते हैं कि मेरे तो सिर में दर्द होता ही चला जाता है। और सिर में कोई दर्द न हो वस्तुतः, तो चिकित्सक इतना ही कह सकता था कि आपको भ्रांति है, आपको खयाल है कि दर्द है। दर्द है नहीं, इसलिए कोई इलाज हो नहीं सकता है, आप भ्रांति छोड़ दो। लेकिन भ्रांति कोई कैसे छोड़ दे? और जिसको दर्द हो रहा है, आपके कहने से भ्रांति हो जाती है? दर्द तो हो रहा है। और दर्द उतना

ही है, जितना कोई वास्तविक दर्द हो।

फ्रायड के बाद मनसविदों ने यह बात कहनी बंद कर दी कि भ्रांति है। यह खयाल में आया कि भ्रांति भी तो दर्द जब देती है, तो उतना ही देती है, जितना कोई सत्य दे। इसलिए यह कहने से कोई हल नहीं है। इस भ्रांति को मिटाने का उपाय करना जरूरी है।

क्या होगा उपाय?

जब तक हमारी यह तादातमय की भाव-दशा बनी है कि मैं शरीर हूं, तब तक हम क्या करें? कैसे खोजें कि यह भ्रांति है? क्या उपाय करें कि हमें दिखाई पड़ने लगे?

दोत्तीन बातें उपयोगी हैं।

पहली: नियंत्रण, स्वामित्व कायम कर।

हमारा अपने पर कोई नियंत्रण ही नहीं है, कोई मालकियत नहीं है। कोई स्वामित्व न हो, तो शरीर ही हमें चलाता है। हम सोचते भले हैं कि हम शरीर को चला रहे हैं, लेकिन शरीर ही हमें चलाता है। और यह बड़े मजे का मामला है, आप सदा यही सोचते हैं कि आप मालिक हैं और आप सब चला रहे हैं। आप एक चौबीस घंटे की डायरी लिखें कि आपने शरीर को चलाया कि शरीर ने आपको चलाया, तो आपको पता

चलेगा कि शरीर ने आपको चलाया है। और आप शरीर को जरा भी–जरा भी नहीं चला सके। तो जो शरीर आपको चलाता है, तो फिर बहुत कठिन है भ्रांति से जागना, क्योंकि जिसमें भ्रांति है वह आपका मालिक बना है। इसको कैसे जानें?

पुरानी आदत है, शरीर इतना आसानी से चुप नहीं हो जाएगा। और पहले कई दफा आपने चुप करना चाहा है, वह चुप नहीं हुआ। उसने और ज्यादा शोरगुल मचाया। फिर आपने भोजन कर लिया, तो वह जानता है थोड़ा शोरगुल मचाओ। आपके छोटे-छोटे बच्चे जानते हैं। तो शरीर तो बहुत पुराना अनुभवी है। छोटा बच्चा बाप से कहता है कि आज खिलौना लाना। बाप कहता है कि नहीं ला सकते। छोटा बच्चा जानता है कि बाप की हिम्मत कितनी है। तीन दफे ज्यादा से ज्यादा कहेगा कि नहीं ला सकते। चौथी दफे झुकेगा। वह शोरगुल मचाना शुरू कर देता है, पैर पटकता है, कूदता-फांदता है। वह जानता है कि कितनी सीमा है। बाप थोड़ा झुकता है। जब वह ज्यादा उपद्रव मचाने लगता है, वह कहता है कि भाई ठहर, दो-चार दिन रुको। वह कहता है कि बिलकुल रुक सकते हैं। उसने पकड़ लिया हाथ। अब वह जानता है कि थोड़ा और दबाने की जरूरत है, और ये राजी होंगे। और यह कई दफे हो चुका है। और फिर भी बाप की नासमझी है कि फिर भी वह पहले ना कहता है, और फिर तीन दफे में हार जाता है। इसमें उसकी सब प्रतिष्ठा भी खो जाती है। इससे तो पहली दफा हां भर देना बेहतर है।

फ्रायड ने कहा है, सिर्फ उन्हीं बातों में ना कहना बच्चों को, जिनमें तुम ना कायम रख सको, अन्यथा तुम बच्चों को नष्ट कर रहे हो। अगर तुमको पहले से ही पता हो कि ना तुम कायम न रख सकोगे और यह बच्चा जीत जाएगा और तुमसे हां भरवा लेगा, तो बेहतर है तुम पहली दफे ही हां भर देना। उसमें तुम मालिक तो रहोगे। पर ऐसी बातों के लिए बच्चों को कहना जो तुम करवा सको।

जैसे एक बच्चा रो रहा है और आप उससे कहते हैं, चुप हो जा। अगर वह चुप नहीं होगा, तो आप क्या करेंगे? और बच्चे को एक दफा पता चल गया कि तुम कहते हो चुप हो जाओ, नहीं होता, तो आप कुछ नहीं कर सकते, तो उसको आपकी नपुंसकता पता चल गई। फ्रायड ने कहा है कि बच्चे को ऐसी बात मत कहना, जो तुम न करवा सको। बच्चे से कहना कमरे से बाहर निकल जा; अगर न निकले, तो उसे उठा

कर बाहर रखा जा सकता है, दरवाजा बंद किया जा सकता है, लेकिन उससे कहो मत रो, तो क्या करेंगे? आप जो करेंगे उसमें और ज्यादा रो सकता है। और एक बार उसको ऐसा पता चल जाए कि कुछ चीजें हैं, जो आप कहते हैं और करवा नहीं सकते, तो मालिक वह हो रहा है; आप धीरे-धीरे कमजोर होते जा रहे हैं।

छोटे-छोटे बच्चे ही समझ लेते हैं, तो शरीर तो बहुत प्राचीन है। हजारों बार शरीर में आप रहे और शरीर की निश्चित प्रक्रिया हो गई है। आपको भूख लगी है, तो शरीर और शोरगुल मचाएगा कि अभी चाहिए, अभी चाहिए, अभी चाहिए।

तपश्चर्या का अर्थ शरीर को कष्ट देना नहीं है। तपश्चर्या का अर्थ सिर्फ नियंत्रण बदलना है। शरीर मालिक नहीं है, मालिक मैं हूं। भूख लगी है, मुझे पता चल गया। अब तुम चुप हो जाओ और मुझे भूख आज नहीं भरनी है, पूरी नहीं करनी है, आज मुझे भूखा रहना है। फिर इस बात पर टिकना। थोड़े ही दिन के प्रयोग में आप पाएंगे कि आपके कहते ही कि आज भोजन नहीं करना है, शरीर चुप हो जाएगा।

लेकिन शुरू में नहीं होगा यह। शुरू में तो वह बहुत उपाय करेगा; मन में न मालूम कितनी तरह के विचार पैदा करेगा। न मालूम कितने जगह के निमंत्रण आ जाएंगे; न मालूम कितनी जगह राजभोज होने लगेगा। सारे रास्ते पर गुजरेंगे, तो सब दुकानें खो जाएंगी, सिर्फ होटलें दिखाई पड़ने लगेंगी। वह सब उपाय करेगा अपनी तरफ से, सारी चेष्टा करेगा; क्योंकि उसकी पुरानी प्रतिष्ठा है और उस प्रतिष्ठा को आप हटाए डाल रहे हैं।

लेकिन अगर आप टिके रहे, और आपने साहस का उपयोग किया, तो आज नहीं कल शरीर समझ जाएगा कि मालकियत खो गई है। और वह आपका अनुगमन करने लगेगा। तब एक बड़ी अदभुत घटना घटती है, जो कि वे ही लोग जानते हैं, जो शरीर की मालकियत कर लेते हैं। तब आपके कहते ही शरीर चुप हो जाता है। कहते ही–आपने कहा कि आज भोजन नहीं, तो शरीर चुप हो जाता है। क्योंकि वह जानता है कि इस आदमी से भोजन अब मिलने का कोई उपाय न रहा।

शरीर की अपनी समझ है। और शरीर बड़ा समझदार यंत्र है। और आपका रग-रग रेशा-रेशा वह पहचानता है कि आप किस तरह के आदमी हैं। आपका ही शरीर है, चारों तरफ आपके घेरा है। सब तरह से आपसे परिचित है। कौन आपसे इतना ज्यादा परिचित है, जितना आपका शरीर है। वह इंच-इंच रत्ती-रत्ती जानता है कि किस तरकीब से आप झुकते हैं; वह सारा उपाय करता है। शरीर की भी पालिटिक्स है आपके साथ। उसकी भी राजनीति है। और वहां भी द्वंद्व और संघर्ष है। इस द्वंद्व और संघर्ष को तोड़ना पहली जरूरत है; तभी तादातमय टूट सकेगा।

“दूसरे तट को जानेवाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत आकाश में जो लुभानेवाली शक्तियां हैं, जो दुष्टभाव वाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी हैं, उनसे दूर ही रह।’

पहली बात, शरीर को मालकियत से उतारें। इसका मतलब यह नहीं कि शरीर के दुश्मन हो जाएं, उसको नष्ट कर डालें। इसका मतलब यह है कि उसे, जहां वह होना चाहिए–सेवक–वहां उसे बिठा दें। वह वहीं ही योग्य है, और वहां उसकी बड़ी उपयोगिता है। और एक बार आप उसके मालिक हो जाएं, तो शरीर से आप वह काम ले सकते हैं, जिसके बिना आत्मा की कोई यात्रा नहीं हो सकती। शरीर फिर अदभुत यंत्र है।

अभी तक जगत में मनुष्य के शरीर जैसा अदभुत यंत्र कोई भी नहीं है। बहुत सूक्ष्‍म, बहुत विराट, सब उसमें समाहित है। और उसमें अनंत शक्तियां प्रसुप्त हैं, जो सब जाग जाएं, तो आपके जीवन में अनंत द्वार खुल जाते हैं। आप स्वयं एक छोटे-मोटे विश्व हैं। लेकिन वह मालिक हो शरीर, तो आप सिर्फ गुलाम हैं। और हालत ऐसी है, जैसे बैलगाड़ी आगे हो और बैल पीछे बंधे हों, तो कहीं कोई जाना नहीं होता। आप बहुत तड़पते हैं, चिल्लाते हैं, कि कहीं जाना जरूरी है, यात्रा करनी जरूरी है, मंजिल पर पहुंचना चाहिए, समय नष्ट हो रहा है। पर काम आप ऐसा कर रहे हैं कि समय नष्ट होगा ही। बैल पीछे बंधे हैं, गाड़ी आगे बंधी है; धक्का-मुक्की में गाड़ी उलटी टूटती है, बैल परेशान होते हैं, कहीं कोई यात्रा नहीं होती है।

आत्मा पीछे बंधी है शरीर के, तो यात्रा नहीं हो सकती है। आत्मा आगे होनी चाहिए, शरीर पीछे होना चाहिए, तो फिर बड़ी यात्रा हो सकती है। और शरीर अदभुत वाहन है। उसका उपयोग किया जा सकता है।

दूसरी बात खयाल रखनी जरूरी है कि इस नियंत्रण के प्रयोग में उदासी न पकड़ ले; चित्त प्रसन्न रहे। क्योंकि शरीर की जो सबसे गहरी तरकीब है, वह आपको उदास करके पराजित करने की है। अगर आप भूखे हैं और उपवास किया है तो आपका मन उदास हो जाएगा। अगर उपवासा आदमी उदास है, तो समझना कि उपवास व्यर्थ हो गया। इससे बेहतर था, वह भोजन कर लेता और प्रसन्न रहता। अगर उपवासा आदमी उदास है, तो समझना बात व्यर्थ हो गई, बात खतम हो गई। क्योंकि उदासी शरीर की तरकीब है आपसे बदला लेने की। और शरीर आपको थका डालेगा। और उदासी कितने दिन तक झेलिएगा?

इसलिए जब शरीर पर नियंत्रण करना हो, तो दूसरा सूत्र खयाल रखना कि शरीर उदासी की लहरें भेजेगा; शरीर सब तरफ से आपको उदास करने की कोशिश करेगा। आप उदास मत होना, आप प्रसन्न रहना। अगर आप प्रसन्नता कायम रख सकें, तो अदभुत अनुभव होते हैं। आपको पता नहीं है, इसलिए बड़ी अड़चनें होती हैं। शरीर के भीतर शक्ति के तीन तल हैं। एक तल तो रोज मर रहा है काम के लिए, वह बहुत छोटा-सा है। रोज जो आपको काम करने पड़ते हैं–उठना-बैठना, चलना, दफ्तर जाना, वह सब काम के लिए, एक छोटा सा स्रोत आपके शरीर के ऊपर है। यह जल्दी थक जाता है, चुक जाता है। क्योंकि इसकी पूंजी बहुत कम है।

समझें ऐसा कि आप दिन भर के थके-मांदे लौटे हैं। और आप कहते हैं कि बिलकुल पड़ जाऊं और सो जाऊं। अब एक शब्द भी बोलने की इच्छा नहीं है, हाथ भी हिलाने की इच्छा नहीं है, बस सो जाना चाहता हूं। तभी अचानक घर में आग लग जाए; आपकी सब उदासी खो जाती है, थकान खो जाती है। आप एकदम सचेत हो जाते हैं, शक्ति का स्रोत दौड़ पड़ता है। यह शक्ति कहां से आई–यह आपमें नहीं थी अभी तक? यह दूसरा स्रोत है शरीर का, इमरजेन्सी का। तात्कालिक जरूरत जब आ जाए, तो शरीर में नया स्रोत काम शुरू कर देता है; शक्ति दौड़ जाती है। अब आप रात भर आग बुझाने में लग सकते हैं और थकान नहीं आएगी।

इससे भी गहरा एक स्रोत है, जो अनंत स्रोत है। वह तभी उपलब्ध होता है, जब दोनों स्रोत चुक जाते हैं, और आप डरते नहीं, और प्रसन्नतापूर्वक और भी आगे श्रम करते चले जाते हैं। तब एक घड़ी आती है कि तीसरा स्रोत फूटता है, जो कि कास्मिक है, जो कि जागतिक है। वह आपका नहीं है; कहना चाहिए कि आपके नीचे छिपा हुआ जो चैतन्य का सागर है, उसका है। जिस दिन वह टूट पड़ता है, उस दिन फिर चुकने का कोई उपाय नहीं। उस दिन फिर आप शाश्वत जीवन के मालिक हो गए।

इधर मैं देखता हूं, ध्यान में लोग आते हैं, तो वे मुझे कहते हैं कि थक जाता है शरीर। मैं उनसे कहता हूं, फिकर मत करो, तुम चलते जाओ। एक ही खयाल रखना कि प्रसन्नता से, उदासी से नहीं। जल्दी ही दूसरी पर्त टूट जाएगी, वह जल्दी टूट जाती है। अगर दूसरी पर्त टूट जाती है, तब वे ध्यान के बाद थकान अनुभव नहीं करते, ताजगी अनुभव करते हैं। जब यह दूसरी पर्त भी थका डालेंगे आप तब एक और तीसरी पर्त टूटेगी। उसके बाद आपके पास शाश्वत ऊर्जा है, उसके बाद अनंत जीवन आपका है, उसके बाद आप वहां आ गए, जहां कोई चीज कभी नहीं चुकती। प्रसन्नता का सहारा लेकर चलेंगे, तो ही इतने गहरे उतर पाएंगे। उदास हो गए, तो आप वापिस लौट जाएंगे।

इसलिए बहुत गहरे में आप इसको पकड़ लें कि धर्म की साधना आपका आह्लाद हो, आनंद हो। आनंद अंत में नहीं, पहले चरण पर भी हो। आखीर में मिलेगा, ऐसा नहीं है, आज भी हो। उत्सवपूर्वक नाचते, गाते, प्रसन्न उस तरफ बढ़ें तो शरीर को आप जीत लेंगे। क्योंकि शरीर की जो बुनियादी तरकीब है, उसके विपरीत आपने एंटीडोट, विपरीत औषधि तैयार कर ली। शरीर उदास करके आपको पराजित कर देता है। प्रसन्न रहकर आप शरीर के मालिक हो सकते हैं।

यह सूत्र कहता है: दूसरे तट को जानेवाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह।

यह बड़े मजे का सूत्र है। और दूसरी ही पंक्ति में जो बात आती है, आप सोच भी न सकेंगे कि वह बड़ी उल्टी है। ठीक इसके बाद कि ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह, कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे।

अक्सर तो ऐसा होता नहीं है। वे लोग प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं, जो कामदेव की कानाफूसी पर कान देते हैं। कामदेव से जो बचते हैं, उनकी हालतें देखें, वे प्रसन्न नहीं दिखाई पड़ते हैं। जाएं जैन साधुओं को देखें, वे मरने के पहले मर गए हैं; कोई प्रसन्नता नहीं है। इनको क्या रोग लग गया है? ये कामदेव से लड़ रहे हैं। मनसविद कहते हैं कि जिसकी काम-वासना प्रकट होकर, खुलकर बहती है, वह प्रसन्न रहता है। जिसकी काम-वासना अवरुद्ध कुंठित हो जाती है, वह अप्रसन्न और उदास हो जाता

है। वे कहते हैं कि जवान आदमी प्रसन्न दिखाई पड़ता है, क्योंकि उसकी काम-वासना अभी उभार पर है। बूढ़ा आदमी उदास हो जाता है, क्योंकि काम-वासना का ज्वर उतर गया है। बच्चे बहुत प्रसन्न मालूम होते हैं, क्योंकि अभी काम-वासना उनके रोएं-रोएं में जग रही है, तैयार हो रही है, फैल रही है। अभी; रोएं-रोएं में शक्ति काम की दौड़ रही है। इसलिए वे इतने आनंदित हैं, भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं, कूद रहे हैं। आप उनको एक जगह बिठा नहीं सकते हैं। शक्ति नाच रही है, बच्चे प्रसन्न हैं–काम-वासना के उठते हुए ज्वार की पहली झलक। जवान प्रसन्न हैं, नाचते, गीत गाते हैं। बूढ़े उदास हैं। सारा खेल काम-वासना का है। और जो-जो काम-वासना से लड़ते हुए लोग हैं, वे प्रसन्न नहीं देखे जाते हैं।

यह सूत्र बड़ा अजीब है। यह सूत्र कहता है, ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। और साथ ही तत्काल कहता है, कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे!

ध्यान रखना, यह प्रसन्नता अगर आप में न आ सके, तो आपको कामदेव की कानाफूसी पर ध्यान देना ही पड़ेगा। इस कारण तत्काल यह बात कही गई है। अगर आप उदास हो गए हों और शरीर ने आपको उदास कर दिया, तो आपको पता है, जब आप उदास होते हैं, तो काम-वासना ज्यादा मन को पकड़ती है। क्योंकि फिर एक ही उपाय शरीर के पास रह जाता है प्रसन्न होने का–काम-वासना। प्रसन्न चित्त हो, आनंद से भरे हों, तो काम-वासना का खयाल भी नहीं आता। क्योंकि आनंद का खयाल तो तभी आता है, जब आप आनंदित नहीं होते।

हम उसी चीज को मांगते हैं, जो हमारे पास नहीं होती; जो पास ही होती है, उसको हम क्यों मागेंगे। दुखी और उदास लोग काम-वासना के प्रति बहुत ज्यादा आकर्षित होते हैं। थोड़ी-सी झलक उनको खुशी की वहां मिलती है, वही उनका आकर्षण बन जाती है। अगर इस आकर्षण से बचना है, तो काम-वासना में उत्सुक हुए बिना प्रसन्न होना पड़ेगा, आनंदित होना पड़ेगा। और अगर आनंद बिना काम-वासना के मिल जाए, तो फिर काम-वासना खींचेगी भी नहीं। क्योंकि अब कोई जरूरत भी न रही है। सिर्फ प्रसन्नचित्त व्यक्ति ही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है, उदास चित्त व्यक्ति कभी उपलब्ध नहीं हो सकता है; क्योंकि उदासी इतना बोझ बन जाएगी कि वह करेगा क्या, उसको हटाने के लिए फिर! उदासी हटाने का जो नैसर्गिक उपाय है, वह काम-वासना है। इसलिए काम-वासना से गुजरकर आपको लगाता है कि राहत मिली, विश्राम मिला, हल्के हो गए; मुस्कुरा सकते हैं।

यह सूत्र बहुत गहन है और मन की बड़ी गहराई की बात है। अगर उदास हैं, तो कामदेव आपको पराजित कर लेगा; उसकी बात फिर आपको माननी पड़ेगी। अगर प्रसन्न हैं, तो उसकी बात सुनने की कोई जरूरत नहीं, उसकी कानाफूसी से ध्यान हटाया जा सकता है। आप खुद ही इतने प्रसन्न हैं कि अब और कोई प्रसन्नता की मांग का कोई सवाल नहीं है।

“दूसरे तट को जानेवाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत प्रकाश में जो लुभानेवाली शक्तियां हैं, जो दुष्ट भाववाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी हैं, उनसे दूर ही रह।’

तिब्बत का शब्द है ल्हामयी। ल्हामयी का अर्थ है, ऐसी आत्माएं, शरीर जिनके छूट गए हैं और नए शरीर जिन्हें नहीं मिले हैं–प्रेतात्माएं। लेकिन विशेष तरह की प्रेतात्माएं जो दूसरों को पथ-भ्रष्ट करने में आनंद लेती हैं। इसे हम अनुभव से भी जान सकते हैं। शरीर के भीतर भी बहुत ऐसे लोग हैं, शरीर में भी ऐसी बहुत आत्माएं हैं, जो दूसरे को अगर थोड़ा सा पथ-भ्रष्ट कर सकें, तो बड़ी प्रसन्न होती हैं।

आपको भी पता न होगा कि कई बार आप भी यह कार्य करते हैं और ल्हामयी हो जाते हैं। कोई आदमी आकर आपसे कहता है कि मैं ध्यान कर रहा हूं, ऐसे-ऐसे चरण हैं ध्यान के, कि नाचता हूं, कूदता हूं, श्वास लेता हूं, हू-हू करता हूं। आपको ध्यान का कोई भी पता नहीं, आप कहते हैं, यह क्या कर रहे हो? पागल हो जाओगे। दिमाग खराब हो गया है? जैसे कि आपको पागल होने का और पागल होने की कला का कुछ पता हो! जैसे कि आपको ध्यान के रहस्यों का कोई पता हो! जैसे कि आप ध्यान कर चुके हैं! और जैसे कि आप इस रास्ते से भी गुजर चुके हैं और पागल हो चुके हैं, अनुभवी हैं। इस भांति आप उससे कहते हैं, यह क्या कर रहे हो, पागल होना है? बिना यह समझे कि आप उसको पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं। पर खयाल भी नहीं आता कि हम पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं, ऐसे ही कह रहे हैं। और अगर वह आदमी आपसे राजी हो जाए, तो आपका चित्त प्रसन्न होगा। और राजी न हो, तो आप थोड़े उदास होंगे।

लोग बड़ी मेहनत करते हैं दूसरों को राजी करने के लिए कि यह मत करो, और यह करो! इतनी कोशिश वे खुद को भी नहीं करते राजी करने के लिए कि मैं वह करूं, जितनी वे दूसरों के लिए करते हैं। बड़ा सिर पचाते हैं, बड़े सेवाभावी हैं। दूसरों के काम में लगे रहते हैं। इस तरह की आत्माएं चारों तरफ मौजूद हैं।

तिब्बती खोज इस संबंध में बहुत गहरी है। जब कोई आदमी मरता है, तो साधारण आदमी अगर हो, तो तत्क्षण पैदा हो जाता है, ज्यादा देर नहीं लगती उसको नया शरीर ग्रहण करने में, क्योंकि सामान्य गर्भ सदा उपलब्ध होते हैं। जब कोई असाधारण आदमी मरता है, कोई महापुरुष या कोई महापापी, तब उसको जन्म लेने में काफी समय लग जाता है, क्योंकि उसके योग्य गर्भ तत्काल, रेडीमेड नहीं होते हैं; कभी-कभी निर्मित होते हैं। जैसे हिटलर मर जाए, तो सैकड़ों वर्ष लग जाएंगे उसको मां-बाप खोजने में। उसके योग्य गर्भ पाने के लिए उसको प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इस प्रतीक्षा के क्षण में वह प्रेत होगा। कोई ज्ञानी मर जाए और अभी उस जगह न पहुंचा हो, जहां से फिर जन्म नहीं होता, तो उसको भी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, सैकड़ों वर्ष, तभी उसके योग्य गर्भ मिल सकेगा।

नीचे के छोर पर और ऊपर के छोर पर प्रतीक्षा करनी होती है। जो लोग ऊपर के छोरी पर प्रतीक्षा करते हैं, उनको हम देव कहते रहे हैं। जो नीचे के छोर पर प्रतीक्षा करते रहते हैं, उनको हम प्रेत कहते रहे हैं। दोनों छोर पर प्रतीक्षा करती हुई आत्माएं हैं, जिनको अभी गर्भ लेना है। देव स्वभावतः आनंदित होते हैं किसी की सहायता करने में। प्रेत आनंदित होते हैं, किसी को भ्रष्ट करने में, पथ से हटाने में। ये दोनों आत्माएं आपके आसपास काम कर रही हैं।

यह सूत्र कहता है कि प्रसन्न रह, और ध्यान रख कि अगर तू उदास हुआ, तो तेरे आसपास ऐसी ल्हामयी आत्माएं हैं, जो उदासी के क्षण में तुझे पकड़ ले सकती हैं और तुझसे ऐसे काम करवा सकती हैं, जो तूने स्वयं खुद कभी न किए होते। आपको कई बार ऐसा लगता है कि यह काम मैं नहीं करना

चाहता था; फिर भी किया। यह मेरी मरजी न थी, तय भी किया था कि नहीं करूंगा; फिर भी किया। और कई बार ऐसा भी होता है कि आप कोई अच्छा काम करना बिलकुल पक्का कर लेते हैं और फिर ऐन वक्त पर बदल जाते हैं।

एक महिला कल सांझ मेरे पास पहुंची; रो रही थी। बहुत भाव में थी। संन्यास लेना था। मैंने उसे कहा, कल; कल दोपहर। आज वह पहुंची, वह बोली कि मैं महीने भर से तैयार हूं संन्यास लेने को, और कल तो बहुत भाव में थी। लेकिन जैसे ही आपने कहा, कल आकर ले लेना, न मालूम क्या हुआ, मेरा भाव ही चला गया। मुझे संन्यास अब नहीं लेना है। और रो रही है अभी भी, और कह रही है कि मैं लेना चाहती हूं और लेने की बहुत तैयारी है और बहुत दिन से प्रतीक्षा है। और पता नहीं क्या हो गया है मेरे भीतर कि अब मैंहिम्मत ही नहीं जुट रही है लेने की। और साथ में उसे यह भी लगता है कि लेना है। और नहीं ले पा

रही है, इसलिए रो भी रही है।

हमें खयाल में नहीं है, हमारे चारों तरफ विचार का एक विराट जगत है, उसमें आत्माएं भी हैं, उसमें विचारों के पुंज भी हैं। उनको हम किन्हीं क्षणों में पकड़ लेते हैं और आविष्ट हो जाते हैं। और उस आवेश में फिर हम जो करते हैं, वह हमारा किया हुआ नहीं है। शुभ विचार भी हम पकड़ते हैं, शुभ आत्माएं भी हमें सहारा देती हैं। अशुभ विचार भी पकड़ते हैं, अशुभ आत्माएं भी बाधा डालती हैं।

लेकिन जो अति प्रसन्न है, इस नियम को समझ लेना, वह सुरक्षित है। जो उदास है, वह असुरक्षित है। उदासी के क्षण में उपद्रवी आत्माएं, उपद्रवी विचार पकड़ लेते हैं। प्रसन्नता

और आनंद के अहोभाव में, जो श्रेष्ठ है, उससे संबंध जुड़ता है। जो सदा आनंदित रहने की कोशिश करे, उसे इस जगत की जितनी दिव्य शक्तियां है, उन सभी का सहयोग मिल जाता है। जो सदा उदास बना रहे, इस जगत में जो भी मूढ़तापूर्ण है, जो भी भारी वजनी और पथरीला है, सबका उसके साथ सत्संग हो जाता है।

जब आप उदास बैठते हैं, तब आपके चारों तरफ उदास चेतनाओं की एक जमात बैठी है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती है। जब आप आनंदित होते हैं, तब आपके चारों तरफ कुछ आनंदित चेतनाएं नाच रही हैं, जो आपको दिखाई नहीं पड़तीं। आप अपने आसपास एक वर्तुल निर्मित कर रहे हैं।

ध्यान रहे, साधक सदा प्रसन्न रहे, न हो परिस्थिति प्रसन्न होने की, तो भी कोई कारण खोज ले, और प्रसन्न रहे। प्रसन्नता को सूत्र बना ले।

“दृढ़ बन। अब तू मध्य द्वार के निकट आ रहा है, जो क्लेश का भी द्वार है, जिसमें दस हजार नागपाश हैं।’

अब तू करीब आ रहा है यात्रा के मध्य बिंदु पर। और मध्य बिंदु आखिरी बिंदु है। अगर तू उस पार हो गया, तो दूसरे छोर पर जाना आसान हो जाएगा। और मध्य बिंदु अटकाव बन गया, तो तू वापिस गिर सकता है। और इस मध्य बिंदु पर दस हजार नागपाश हैं। दस हजार उलझनें खड़ी होंगी। दस हजार उपद्रव खड़े होंगे। जितने उपद्रव तूने किए हैं अनंत-अनंत जन्मों में, सब तुझे पकड़ेंगे और वापिस बुला लेना चाहेंगे। जिन-जिनका तूने साथ किया हो, जिन-जिन नासमझियों का, वे सब नासमझियां एक बार आखिरी कोशिश करेंगी कि लौट आओ; इतने पुराने संगी-साथी, कहां जाते हो?

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम इतने अशांत तब न थे, जब ध्यान न करते थे। अब ध्यान करते हैं, तो शांति भी बढ़ रही है और बड़ी अशांति भी मालूम पड़ती है। वह अशांति आपकी पुरानी संगी-साथिन है।

यहां भी किसी को डायवोर्स करना हो, तलाक देना हो, तो बड़ी मुसीबतें आती हैं। उस भीतर के लोक में तो तलाक और मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बहुत पुराने नाते-रिश्ते हैं, बहुत वायदे हैं आपके दिए हुए कि सदा तुम्हारा हूं, सदा तुम्हारे साथ रहूंगा। अब अचानक छोड़ने लगते हैं, तो फिर जोर से पकड़ लिए जाते हैं, ग्रंथियां कस जाती हैं। मध्यबिंदु पर दस हजार नागपाश प्रतीक्षा कर रहे हैं।

“ओ पूर्णता के साधक, अपने विचारों का स्वामी बन, यदि तुझे इसकी देहली पार करनी है।’

“और यदि तुझे अपने गंतव्य पर पहुंचना है, तो अमृत सत्य के खोजी, अपनी आत्मा का स्वामी बन।’

“उस एक शुद्ध प्रकाश पर अपनी दृष्टि को एकाग्र कर, जो प्रकाश सभी प्रभावों से मुक्त है। और अपनी स्वर्ण कुंजी का प्रयोग कर।’

“कठिन कर्म पूरा हो गया। तेरा श्रम पूर्ण हुआ। और वह विस्तृत पाताल जो तुझे निगलने को मुंह फैलाए था, लगभग पाट दिया गया है।’

अगर मध्य बिंदु पार हो गया, तो विशाल खाई, जो मुंह फैलाए थी, वह लगभग पाट दी गई है। मध्यबिंदु के बाद पतन बहुत मुश्किल है। बहुत चेष्टा की जाए, तो ही हो सकता है। मध्यबिंदु के पहले पतन बहुत आसान है। बहुत चेष्टा की जाए, तो ही बच सकता है। मध्यबिंदु के बाद पतन बहुत मुश्किल है। अगर आप बहुत प्रयास ही करें, तो ही वापिस गिर सकते हैं। अन्यथा अपने आप मध्य बिंदु के बाद कोई वापिस नहीं गिरता है। मध्य बिंदु के बाद नया लोक खुल जाता है। पुराने संगी-साथी छूट जाते हैं। एक अति से अब आप दूसरी अति में प्रवेश करते हैं। इस मध्य बिंदु को पार करने के लिए शरीर के स्वामी बनें, पहली बात। फिर विचार के स्वामी बनें, दूसरी बात। फिर आत्मा के स्वामी बनें, यह तीसरी बात।

शरीर से शुरू करें; क्योंकि उसकी ही मालकियत न हो सके, तो फिर मन की मालकियत न हो सकेगी। मन की मालकियत न हो सके, तो फिर आत्मा की भी न हो सकेगी। शरीर–मैंने कहा कि उसको जीतें। फिर जिस दिन आपको लगे कि अब शरीर पर मालकियत हो गई, उस दिन से मन पर भी वही प्रयोग शुरू कर दें। मन में एक विचार आए कि क्रोध करना है, तो कह दें कि क्रोध नहीं करना है, मन चुप हो जा। फिर अड़े रहें अपने वचन पर, फिर मन कितनी ही कोशिश करे, दूर खड़े रहें, देखते रहें, क्रोध न करें। आज नहीं कल आप पाएंगे कि मन आपकी सुनने को राजी हो गया। और जब आप कहेंगे कि नहीं करना है क्रोध तो क्रोध का भाव तत्क्षण विसर्जित हो जाएगा।

यह ऐसे ही घटता है, जैसे मेरा यह हाथ ऊपर है और मैं कहूं कि मुझे नहीं रखना है ऊपर हाथ, तो नीचे आ जाता है। यह हाथ मेरा है। अगर यह हाथ मैं कहूं कि नीचे आओ, और ऊपर ही अटका रहे, और मैं कितना ही कहूं कि नीचे आओ, और नीचे न आए, तो उसका मतलब हुआ कि हाथ मेरा नहीं है।

आप कहते हैं कि विचार आपके हैं। कहना नहीं चाहिए कि आपके हैं। क्योंकि आप एक विचार को बाहर करना चाहें, तो कर नहीं सकते। आप कहें कि यह विचार मेरे भीतर न आए, आपके वश में नहीं। आप कहें, न आए, तो और ज्यादा आता है। आप कहें कि मत सताओ मुझे, तो और सताता है। आप कहते हैं कि मैं क्रोध न करूंगा, तो और क्रोध से भर जाते हैं। विचार अभी मालिक है।

जो शरीर पर प्रयोग किया है, धीरे-धीरे वही प्रयोग मन पर भी करने का है। अगर आप साहसपूर्वक और प्रसन्न चित्तता से लगे रहें, तो मन के भी मालिक हो जाएंगे।

और तीसरी बात है आ इस संदर्भ में इस जगह आत्मा की मालकियत का मतलब इतना ही है कि आपके पूरे व्यक्तित्व की मालकियत शरीर, मन, आत्मा, ये तीनों, आपके पूरे व्यक्तित्व की जो समग्रता है, इस समग्रता की मालकियत। इस समग्र की भी आपकी ही आज्ञा से गति हो। और ऐसी स्थिति आ जाती है, जब आपकी ही आज्ञा से समग्र की गति होने लगती है। और अगर आप चाहें कि मैं इसी क्षण मर जाऊं, तो इसी क्षण मौत घट जाएगी; क्योंकि समग्र आपको मानता है। इस समग्र की मालकियत का उतना आसान सूत्र नहीं है, जितना शरीर और मन का है। लेकिन जो लोग शरीर और मन के मालिक हो जाते हैं, उनके लिए तत्क्षण आत्मा के सूत्र की कुंजी मिल जाती है कि अब वे आत्मा के लिए क्या करें। वह उनको स्वयं दिखाई पड़ जाता है। जो शरीर के लिए किया, वह बाहर था; जो मन के लिए किया, वह बीच में था; अब आत्मा के लिए वही करना है, जो बहुत गहरे में है। आत्मा के लिए करने का सार अर्थ है कि अस्तित्व भी आपकी आज्ञा मानने लगे।

अभी क्या है?

अभी आप अगर कहें कि कोई हर्जा नहीं अगर मौत आए, तो मैं स्वीकार कर लूंगा, लेकिन आपका अस्तित्व भीतर कहता है नहीं, स्वीकार नहीं करेंगे, कैसे मर सकते हैं? नहीं मरना चाहते हैं, तो मालकियत उस पर आपकी नहीं है। पर शरीर और मन की यात्रा ठीक हो जाए, तो उसी सूत्र को सूक्ष्‍म में भीतर प्रयोग करने से अस्तित्व की भी मालकियत उपलब्ध होती है।

इस मालकियत के होते ही आपको वह प्रकाश की किरण दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, जो आप हैं। फिर उस पर ही दृष्टि को एकाग्र करें, और उस किरण की धारा में ही अपने को छोड़ दें। वह किरण ही आपका जीवन-गुरु है। इस किरण को नाव बना लें। और वह नाव परमात्मा की तरफ चलनी शुरू हो जाएगी।

आत्मा की मालकियत। आत्मा की मालकियत के लिए ही ये सारे के सारे सूत्र हैं। लेकिन अब तू उस खाई को पार कर चुका है, जो मानवीय वासनाओं के द्वार को घेर कर खड़ी है। अब तू “काम’ और उसकी दुदात सेना पर विजय पा चुका है।

तूने अपने हृदय से अशुद्धियों को निकाल दिया है और कलुषपूर्ण वासनाओं से अब वह मुक्त है। लेकिन ओ गौरवशाली योद्धा, तेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ है। ओ शिष्य (लानू) पवित्र-द्वीप को घेरने वाली दीवार को ऊंचा उठा। यही वह बांध होगा जो तेरे मन की उस मद और संतुष्टि से रक्षा करेगा, जो बड़ी उपलब्धि के विचार से उत्पन्न होती है।

अहंकार का भाव काम को बिगाड़ कर धर देगा, अतः मजबूत बांध बना, नहीं तो कहीं लड़ाकू लहरों की भयानक बाढ़ जो महा संसार के माया के समुद्र से आकर इसके किनारों पर चढ़ाई और चोट करती है, यात्री और उसके द्वीप को ही न निगल जाए। हां यह तब भी घटित हो सकता है, जब विजय उपलब्ध हो गई हो।

तेरा द्वीप हिरण है और तेरे विचार कुत्ते हैं, जो जीवन की ओर उसकी यात्रा का पीछा कर उसकी प्रगति को अवरुद्ध करते हैं। उस हिरण के लिए शोक है, जिसे भूंकते कुत्ते उसके ध्यानमार्ग नाम की शरणस्थली पर पहुंचने के पहले ही पराजित कर देते हैं।

हे सुख-दुख के विजेता, इसके पहले कि तू ध्यान-मार्ग में स्थित हो और उसे अपना कहे, तेरी आत्मा को पके आम के जैसा होना है। दूसरे के दुखों के लिए उसके चमकदार व सुनहरे गूदे की तरह और अपनी पीड़ा व शोक के लिए उसकी पथरीली गुठली की तरह।

अहंकार के नागपाश से बचने के लिए अपनी आत्मा को कठोर बना, उसे वज्र आत्मा नाम पाने के योग्य बना।

क्योंकि जिस प्रकार धरती के धड़कते हृदय की गहराई में गड़ा हीरा धरती के प्रकाशों को प्रतिबिंबित नहीं कर पाता है, उसी प्रकार का तेरा मन और आत्मा है, ध्यान-मार्ग में डूब कर उसे भी माया के जगत की भ्रांति-भरी शून्यता को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहिए।
आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–3) प्रवचन-7

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अपरिग्रही चित्त—(अध्याय—6) प्रवचन—सातवां

युग्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।। 15।।

इस प्रकार आत्मा को निरंतर परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ, स्वाधीन मन वाला योगी मेरे में स्थितरूप परमानंद पराकाष्ठा वाली शांति को प्राप्त होता है।

निरंतर परमात्मा में चेतना को लगाता हुआ योगी!

सुबह जिन सूत्रों पर हमने बात की है, उन्हीं सूत्रों की निष्पत्ति के रूप में यह सूत्र है। समझने जैसी बात इसमें निरंतर है। निरंतर शब्द को समझ लेने जैसा है। निरंतर का अर्थ है, एक भी क्षण व्यवधान न हो।

निरंतर का अर्थ है, एक भी क्षण विस्मरण न हो। जागते ही नहीं, निद्रा में भी भीतर एक अंतर-धारा प्रभु की ओर बहती ही रहे–सतत, कंटिन्यूड, जरा भी व्यवधान न हो–तो निरंतर ध्यान हुआ, तो निरंतर स्मरण हुआ।

जैसे श्वास चलती है। चाहे काम करते हों, तो चलती है; चाहे विश्राम करते हों, तो चलती है। याद रखें, तो चलती है; न याद रखें, तो भी चलती है। जागते रहें, तो चलती है; सो जाएं, तो भी चलती रहती है। श्वास की भांति ही जब प्रभु की ओर स्मरण, प्रभु की प्यास, प्रभु की लगन भीतर चलने लगे, तो अर्थ होगा पूरा निरंतर का; तो निरंतर का अर्थ खयाल में आएगा।

लेकिन हमें तो एक क्षण भी प्रभु को स्मरण करना कठिन है। निरंतर तो असंभव मालूम होगा। एक क्षण भी जब स्मरण करते हैं, तब भी प्राणों की कोई अकुलाहट भीतर नहीं होती। एक क्षण भी जब स्मरण करते हैं, तब भी प्राणों की परिपूर्णता उसमें संलग्न नहीं होती। एक क्षण भी जब पुकारते हैं, तो ऐसे ही ऊपर से, सतह से पुकारते हैं। वह प्राणों की अंतर-गहराइयों तक उसका कोई प्रभाव, कोई संस्पर्श नहीं होता।

और कृष्ण तो कहते हैं कि ऐसा निरंतर प्रभु की ओर बहता हुआ व्यक्ति ही मुझे उपलब्ध होता है, प्रभु को उपलब्ध होता है, प्रभु में प्रतिष्ठा पाता है। तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि शेष सब जन निराश हो जाएं। एक क्षण भी नहीं हो पाती है पुकार, तो निरंतर तो कैसे हो पाएगी! साफ है, सीधी बात है कि सब निराश हो जाएं। और जो भी निरंतर के इस अर्थ को समझेंगे, प्राथमिक रूप से निराशा अनुभव होगी, कि फिर हमारे लिए कोई द्वार नहीं, मार्ग नहीं।

नहीं; लेकिन निराश होने का कोई भी कारण नहीं है। इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि हमें स्मरण की प्रक्रिया ही ज्ञात नहीं है। इससे कुछ और सिद्ध नहीं होता। और यह आपसे कहूं कि जो व्यक्ति एक क्षण भी ठीक से स्मरण कर ले, उसकी निरंतर की स्मरण-व्यवस्था अपने आप नियत और निश्चित हो जाती है। क्यों? क्योंकि हमारे हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी भी होता नहीं। कोई उपाय नहीं कि दो क्षण हमारे हाथ में एक साथ हो जाएं। एक ही क्षण होता है हमारे हाथ में। जब भी होता है, एक ही क्षण होता है। एक जब रिक्त हो जाता है, तब दूसरा हाथ में आता है। एक जब जा चुका होता है, तब दूसरे का आगमन होता है। लेकिन हमारे हाथ में जब भी होता है, एक ही क्षण होता है। इससे ज्यादा क्षण हमारे पास नहीं होते।

इसलिए अगर एक क्षण में भी प्रभु-स्मरण की प्रक्रिया में प्रवेश हो जाए, तो निरंतर में प्रवेश होने में कोई भी बाधा नहीं है। क्योंकि एक क्षण में जो प्रवेश को जान गया, वह हर क्षण में उस प्रवेश को उपलब्ध हो सकेगा। और एक ही क्षण हमारे पास होता है। इसलिए बहुत अड़चन नहीं है। कुंजी पास नहीं है, यही अड़चन है।

निरंतर स्मरण करने का एक ही अर्थ है कि जिसे क्षण में भी स्मरण करने की क्षमता आ गई, वह निरंतर स्मरण करने की पात्रता पा ही जाता है। लेकिन क्षण में भी स्मरण की पात्रता नहीं है।

और ईश्वर को हम अक्सर उधार लेकर जीते हैं। यह शब्द भी हमने किसी से सुन लिया होता है। यह प्रतिमा भी हमने किसी से सीख ली होती है। यह परमात्मा का रूप, लक्षण भी हमने किसी से सीख लिया होता है। सब उधार है। यह हमारे प्राणों का आथेंटिक, प्रामाणिक कोई अनुभव नहीं होता है पीछे। यह कहीं हमारे प्राणों की अपनी प्रतीति और साक्षात नहीं होता है। इसीलिए क्षण में भी पूरा नहीं हो पाता, सतत और निरंतर तो पूरे होने का कोई सवाल नहीं है।

इसलिए पहले सूत्र में कृष्ण ने कहा है कि जो अंतर-गुफा में प्रवेश कर जाए, एकांत को उपलब्ध हो जाए। और उसमें एक शब्द छूट गया, मुझे अभी याद दिलाया कि जो अपरिग्रह चित्त का हो। उसकी मैं कल बात नहीं कर पाया, उसकी भी थोड़ी आपसे बात कर लूं।

एकांत का मैंने अर्थ आपको कहा। जिसके भीतर भीड़ न रह जाए। जिसके भीतर दूसरे के प्रतिबिंबों का आकर्षण न रह जाए। जिसके भीतर दूसरों के प्रतिबिंब जैसे आईने से हमने धूल साफ कर दी हो, ऐसे साफ कर दिए गए हों। ऐसा एकांत जिसके मन में हो, वह अंतर-गुहा में प्रवेश कर जाता है।

एक शब्द और कृष्ण ने कहा है, अपरिग्रही चित्त वाला, अपरिग्रही चित्त।

क्या अर्थ होता है अपरिग्रह का? सीधा-सादा अर्थ शब्दकोश में जो लिखा होता है, वह यह है कि जो वस्तुओं का संग्रह न करे। लेकिन कृष्ण का यह अर्थ नहीं हो सकता। नहीं हो सकता इसलिए कि कृष्ण, व्यक्ति जीवन और संसार को छोड़ जाए, इसके पक्ष में नहीं हैं। अगर सारी वस्तुओं को छोड़ दे, तो संसार और जीवन छूट ही जाता है। कृष्ण इस पक्ष में भी नहीं हैं कि कर्म को छोड़कर चला जाए। अगर सारी वस्तुओं को कोई छोड़कर चला जाए, तो कर्म भी अपने आप छूट जाता है। तो कृष्ण का अर्थ अपरिग्रह से कुछ और होगा।

कृष्ण का अर्थ है अपरिग्रही चित्त से, ऐसा चित्त जो वस्तुओं का उपयोग तो करता है, लेकिन वस्तुओं को अपनी मालकियत नहीं दे देता है। जो वस्तुओं का उपयोग तो करता है, लेकिन वस्तुओं का मालिक ही बना रहता है। कोई वस्तु उसकी मालिक नहीं हो जाती। वस्तुओं का उपयोग करता है, लेकिन वस्तुओं के साथ कोई राग का, कोई आसक्ति का संबंध निर्मित नहीं करता।

ऐसा समझें कि जैसे आपका नौकर आपके घर में वस्तुओं का उपयोग करता है। सम्हालकर रखता है चीजों को, सम्हालकर उठाता है। उनका उपयोग भी करता है, काम में भी लाता है। लेकिन आपकी कोई बहुमूल्य चीज खो जाए, तो उसे कोई पीड़ा नहीं होती। यद्यपि आपसे ज्यादा उस वस्तु के संपर्क में नौकर को आने का मौका मिला था। शायद आपको इतना मौका भी न मिला हो। आपसे ज्यादा उसने उपयोग किया था। लेकिन खो जाए, टूट जाए, नष्ट हो जाए, चोरी चली जाए, तो नौकर को जरा भी चिंता पैदा नहीं होती। वह रात शांति से घर जाकर सो जाता है। क्या, बात क्या है?

वस्तु का उपयोग तो कर रहा था, लेकिन वस्तु से किसी तरह का रागात्मक कोई संबंध न था। लेकिन अगर चीज टूट गई हो–समझें कि एक घड़ी फूट गई हो, जिसे वह रोज साफ करता था और चाबी देता था, वह आज गिरकर टूट गई हो। नौकर को कुछ भी भीतर नहीं टूटेगा, क्योंकि घड़ी ने भीतर कोई स्थान नहीं बनाया था।

लेकिन टूटी हुई घड़ी के बाद अगर आप नौकर से कहें कि यह तो बहुत बुरा हो गया। आज तो मैं सोच रहा था कि संध्या जाते समय घड़ी तुम्हें भेंट कर दूंगा। तो उस दिन उसकी नींद हराम हो जाएगी। घड़ी से एक रागात्मक संबंध निर्मित हुआ। नहीं थी घड़ी, उससे हो गया! इतने दिन तक घड़ी थी, घड़ी का उपयोग किया था, कोई रागात्मक संबंध न था। आज घड़ी टूटकर चूर-चूर हो गई है। लेकिन मालिक ने कहा कि दुख, दुर्भाग्य तुम्हारा, क्योंकि सोचता था मैं कि आज संध्या यह घड़ी तुम्हें भेंट कर दूंगा। अब घड़ी है नहीं, जो भेंट की जा सके। लेकिन नौकर अब चिंतित और दुखी और पीड़ित होने वाला है। होगा इसलिए पीड़ित और दुखी कि अब जो घड़ी नहीं है, उससे भी एक रागात्मक संबंध स्थापित हुआ। वह मिल सकती थी, मेरी हो सकती थी। अब भीतर उसने जगह बनाई। अब तक वह बाहर दीवाल पर लटकी थी, अब वह हृदय के किसी कोने में लटकी है।

जब वस्तुएं बाहर होती हैं और भीतर नहीं, जब उनका उपयोग चलता हो, लेकिन आसक्ति निर्मित न होती हो, तब कृष्ण का अपरिग्रह फलित होता है। जीवन को जीना है उसकी समग्रता में, लेकिन ऐसे, जैसे कि जीवन छू न पाए। गुजरना है वस्तुओं के बीच से, व्यक्तियों के बीच से, लेकिन अस्पर्शित।

इसलिए और जो अपरिग्रह की व्याख्याएं हैं, वे सरल हैं। कृष्ण की व्याख्या कठिन है। और जो व्याख्याएं हैं, साधारण हैं। ठीक है, जिन वस्तुओं से मोह निर्मित हो जाता है, उनको छोड़कर चले जाओ, थोड़े दिन में मन भूल जाता है। बड़ी से बड़ी चीज को मन भूल जाता है। छोड़ दो, हट जाओ, तो मन की स्मृति कमजोर है, कितने दिन तक याद रखेगा! भूल जाएगा, विस्मरण हो जाएगा। नए राग बना लेगा, पुराने राग विस्मृत हो जाएंगे।

आदमी मर भी जाए जिसे हमने बहुत प्रेम किया था, तो कितने दिन, कितने दिन स्मरण रह जाता है? रोते हैं, दुखी-पीड़ित होते हैं। फिर सब विस्मरण हो जाता है, फिर सब घाव भर जाते हैं। फिर नए राग, नए संबंध निर्मित हो जाते हैं। यात्रा पुनः शुरू हो जाती है।

किसके मरने से यात्रा रुकती है! किस चीज के खोने से यात्रा रुकती है! कुछ रुकता नहीं; सब फिर चलने लगता है पुनः। जैसे थोड़ा-सा बीच में भटकाव आ जाता है; रास्ते से जैसे गाड़ी का चाक उतर गया; फिर उठाते हैं चाक को, वापस रख लेते हैं; गाड़ी फिर चलने लगती है।

तो अगर कोई वस्तुओं को छोड़कर भाग जाए, तो थोड़े दिन में उन्हें भूल जाता है। लेकिन भूल जाना, मुक्त हो जाना नहीं है। भाग जाना, मुक्त हो जाना नहीं है। सच तो यह है, भागता वही है, जो जानता है कि मैं साथ रहकर मुक्त न हो सकूंगा। अन्यथा भागने का कोई प्रयोजन नहीं है। भागता वही है, जो अपने को कमजोर पाता है।

हीरे-जवाहरात का ढेर लगा हो। मैं आंख बंद कर लेता हूं, इसलिए कि अगर दिखाई पड़ेगा, तो बहुत मुश्किल है कि मैं अपने पर काबू रख पाऊं। आंख बंद करके मैं यह नहीं बताता हूं कि मैं हीरे-जवाहरात के प्रति अनासक्त हूं; केवल इतना ही बताता हूं कि बहुत दीन हूं, बहुत कमजोर हूं। आंख खुली कि आसक्ति निर्मित हो जानी सुनिश्चित है। इसलिए आंख बंद करके बैठा हूं। लेकिन आंख बंद करने से आसक्तियां अगर मिटती होतीं, तो हम सब अपनी आंखें फोड़ डालते और मुक्त हो जाते। तब तो अंधे परम गति को उपलब्ध हो जाते!

इतना सरल नहीं है। ऐसे अपने को धोखा तो दिया जा सकता है, लेकिन मुक्ति का क्षण करीब नहीं आता है। भाग जाऊं छोड़कर; यहां हीरे-जवाहरात रखे हैं; दूर निकल जाऊं। ठीक है, दूर निकल जाऊंगा। मौजूद नहीं होगी चीज, मन कहीं और उलझ जाएगा। किसी वृक्ष के नीचे बैठकर किसी अरण्य में कंकड़-पत्थर बीनने लगूंगा, उन्हीं का ढेर सम्हालकर रख लूंगा। लेकिन इससे छुटकारा नहीं है।

कृष्ण का अपरिग्रह एक डीपर मीनिंग, एक गहरे अर्थ को सूचित करता है। वह अर्थ है, वस्तुएं जहां हैं, वहीं रहने दो; तुम जहां हो, वहीं रहो; दोनों के बीच सेतु निर्मित मत होने दो। दोनों के बीच कोई सेतु न बन जाए, दोनों के बीच आवागमन न हो। तुम तुम रहो; वस्तुओं को वस्तुएं रहने दो। न तुम वस्तुओं के हो जाओ, न वस्तुओं को समझो कि वे तुम्हारी हो गई हैं।

और ये दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं। जिस दिन आपने समझा, वस्तु मेरी हो गई; आप वस्तु के हो गए। जिस दिन आपने कहा कि यह वस्तु मेरी है, उस दिन आप पक्का जानना कि आप भी वस्तु के हो गए।

मालकियत म्यूचुअल होती है, पारस्परिक होती है। आप किसी को गुलाम नहीं बना सकते बिना उसके गुलाम बने। यह असंभव है। जब भी आप किसी को गुलाम बनाते हैं, तो आपको पता हो, न पता हो, आप उसके गुलाम बन जाते हैं। गुलामी पारस्परिक है।

हां, यह दूसरी बात है कि एक गुलाम कुर्सी पर ऊपर बैठा है, दूसरा गुलाम कुर्सी के नीचे बैठा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार तो नीचे बैठा हुआ ज्यादा मुक्त होता है, ऊपर बैठे हुए से। क्योंकि वह जो नीचे बैठा है, उसका काम शायद कुर्सी पर ऊपर बैठने वाले आदमी के बिना भी चल जाए। लेकिन वह जो कुर्सी के ऊपर बैठा है, उसका काम नीचे बैठे वाले के बिना नहीं चलने वाला है। उसकी डिपेंडेंस गहरी है, उसकी पराधीनता भारी है।

अगर हम एक सम्राट के सब गुलामों को मुक्त कर दें, तो गुलाम सम्राट की कोई खास याद न करेंगे। कहेंगे, बहुत अच्छा हुआ। लेकिन सम्राट! सम्राट दिन-रात बेचैन और चिंतित होगा; क्योंकि गुलामों के बिना वह ना-कुछ हो जाता है। कुछ भी नहीं है! और गुलाम तो सम्राट के बिना कुछ ज्यादा हो जाएंगे; लेकिन सम्राट गुलामों के बिना बहुत कम हो जाएगा। उसकी गुलामी भारी है। दिखाई नहीं पड़ती। दिखाई न पड़ने का उसने इंतजाम कर रखा है। वह गुलामों की गर्दन दबाए हुए है ऊपर से, बिना इस बात को समझे हुए कि उसकी गर्दन भी गुलामों के हाथ में है।

सब गुलामियां पारस्परिक होती हैं। सब बंधन पारस्परिक होते हैं।

देखा है, रास्ते से एक सिपाही एक आदमी को हथकड़ियां डालकर ले जा रहा है। तो दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है कि सिपाही मालिक है, हथकड़ियों में बंधा हुआ गुलाम गुलाम है, कैदी है। लेकिन अगर सिपाही उस कैदी को छोड़कर भाग खड़ा हो, तो कैदी उसका पीछा नहीं करेगा। लेकिन अगर कैदी भाग खड़ा हो, तो सिपाही उसका पीछा करेगा; जान की आ जाएगी उसके ऊपर। हथकड़ी तो पड़ी थी कैदी के हाथ में, लेकिन साथ ही वह सिपाही के हाथ में भी पड़ी थी। महंगा पड़ जाएगा कैदी का भागना। दोनों बंधे हैं पारस्परिक। हां, एक जरा कुर्सी पर बैठा है, एक जरा कुर्सी के नीचे बैठा है। दोनों बंधे हैं।

जिस चीज से भी हम संबंध निर्मित करते हैं, सेतु बन जाता है, और सेतु बनाने के लिए दो की जरूरत पड़ती है। जैसे नदी पर हम सेतु बनाते हैं, ब्रिज बनाते हैं। एक किनारे पर पाया रखकर ब्रिज न बनेगा। दूसरे किनारे पर भी रखना ही होगा। दोनों किनारों पर पाए रखे जाएंगे, तो सेतु बनेगा। तो जब भी हम किसी वस्तु या किसी व्यक्ति से संबंध निर्मित करते हैं, तो एक सेतु निर्मित होता है। एक किनारा हम होते हैं, एक किनारा वह होता है।

कृष्ण ने एक सेतु तोड़ने के लिए एकांत का प्रयोग किया, वह सेतु है व्यक्ति और व्यक्ति के बीच। दूसरा सेतु तोड़ने के लिए वह अपरिग्रह का प्रयोग करते हैं, वह सेतु है व्यक्ति और वस्तु के बीच।

और ध्यान रहे, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सेतु रोज-रोज कम होते चले जाते हैं। अपने आप ही कम होते चले जाते हैं। और व्यक्ति और वस्तु के बीच सेतु बढ़ते चले जाते हैं। उसका कुछ कारण है, वह मैं आपको खयाल दिला दूं।

यह बात थोड़ी-सी अजीब लगेगी, लेकिन ऐसा हुआ है; ऐसा हो रहा है। उसके होने के बुनियादी कारण हैं। व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सेतु रोज कम होते चले जाते हैं, क्योंकि व्यक्तियों के साथ सेतु बनाने में बड़ी झंझटें और कांप्लेक्सिटीज हैं, बड़ा उपद्रव है।

सबसे बड़ा उपद्रव तो यही है कि दूसरा भी जीवित व्यक्ति है। जब आप उसको गुलाम बनाने की कोशिश करते हैं, तब वह भी बैठा नहीं रहता। वह भी जोर से अपना जाल फेंकता है। पति अपने को कितना ही कहता हो कि मैं स्वामी हूं, मालिक हूं, बहुत गहरे में जानता है कि जिस दिन मालिक बना है किसी स्त्री का, उसी दिन वह स्त्री मालिक बन गई है, या उसी दिन से चेष्टा में लगी है। सतत संघर्ष चल रहा है मालकियत की घोषणा का कि कौन मालिक है! वह लड़ाई जिंदगीभर जारी रहेगी।

व्यक्तियों के साथ संघर्ष स्वाभाविक है, क्योंकि सभी स्वाधीन होना चाहते हैं। लेकिन नासमझी के कारण किसी को पराधीन करके स्वाधीन होना चाहते हैं, जो कि कभी नहीं हो सकता। जिसने दूसरे को पराधीन किया, वह स्वयं भी पराधीन हो जाएगा। स्वाधीन तो केवल वही हो सकता है, जिसने किसी को पराधीन करने की योजना ही नहीं बनाई।

व्यक्ति के साथ जटिलताएं बढ़ती चली जाती हैं, वस्तु के साथ जटिल मामला नहीं है। आपने एक कुर्सी घर में लाकर रख दी है एक कोने में, तो वहीं रखी रहेगी। आप ताला लगाकर वर्षों बाद भी लौटें, तो कुर्सी वहीं मिलेगी। बहुत आज्ञाकारी है! लेकिन एक पत्नी को उस तरह बिठा जाएंगे, या पति को या बेटे को या बेटी को, तो यह असंभव है। जब तक आप लौटेंगे, तब तक सब दुनिया बदल चुकी होगी। वहीं तो नहीं मिलने वाला है कोई भी।

जीवित व्यक्तित्व की अपनी आंतरिक स्वतंत्रता है, वह काम करेगी। चेतना है, वह काम करेगी। वस्तु से हम अपेक्षा कर सकते हैं; व्यक्ति से अपेक्षा करनी बहुत कठिन है। क्योंकि कल व्यक्ति क्या करेगा, नहीं कहा जा सकता। व्यक्ति अनप्रेडिक्टेबल है। वस्तुओं की भविष्यवाणी हो सकती है; व्यक्तियों की भविष्यवाणी नहीं हो सकती।

इसलिए जितना मरा हुआ आदमी होता है, उतना ज्योतिषी उसके बाबत सफल हो जाता है बताने में। जिंदा आदमी हो, तो बहुत मुश्किल होती है। और मुर्दों के सिवाय ज्योतिषियों के पास कोई जाता हुआ दिखाई भी नहीं पड़ता है! जिंदा आदमी अनप्रेडिक्टेबल है। कल क्या होगा, नहीं कहा जा सकता। जिंदा आदमी एक स्वतंत्रता है।

तो व्यक्तियों के साथ तो बड़ी कठिनाई हो जाती है, इसलिए आदमी धीरे-धीरे व्यक्तियों की मालकियत छोड़कर वस्तुओं की मालकियत पर हटता चला जाता है। तिजोड़ी में एक करोड़ रुपया बंद है, तो उनकी मालकियत ज्यादा सुरक्षित मालूम होती है। और आप एक करोड़ लोगों का वोट लेकर प्रधान मंत्री बन गए हैं, तो पक्का मत समझना कि अगले इलेक्शन में वे साथ देने वाले हैं! अनप्रेडिक्टेबल हैं। वह एक करोड़ लोगों की मालकियत भरोसे की नहीं है। वह एक करोड़ रुपए जो तिजोड़ी में बंद हैं, भरोसे के हैं। इस अर्थ में भरोसे के हैं कि मुर्दा जड़ चीज है; मालकियत आपकी है।

व्यक्तियों के ऊपर मालकियत खतरे का सौदा है। इसलिए जैसे-जैसे आदमी के पास समझ बढ़ती जाती है–नासमझी से भरी समझ–वैसे-वैसे वह व्यक्तियों से संबंध कम और वस्तुओं से संबंध बढ़ाए चला जाता है।

इसलिए बड़े परिवार टूट गए। क्योंकि बड़े परिवारों में बड़े व्यक्तियों का जाल था। लोगों ने कहा, इतने बड़े परिवार में नहीं चलेगा। व्यक्तिगत परिवार निर्मित हुए। पति-पत्नी, एक-दो बच्चे–पर्याप्त। लेकिन अब वे भी बिखर रहे हैं। वे भी बच नहीं सकते। क्योंकि पति और पत्नी के बीच भी संबंध बहुत जटिल होता चला जाता है। आने वाले भविष्य में शादी बचेगी, यह कहना बहुत मुश्किल है। सिर्फ वे ही लोग कह सकते हैं, जिन्हें भविष्य का कोई भी बोध नहीं होता। बच नहीं सकती है। खतरे भारी पैदा हो गए हैं। डर यही है कि वह बिखर जाएगी।

लेकिन इसकी जगह वस्तुओं का परिग्रह बढ़ता चला जाता है। एक आदमी दो मकान बना लेता है, दस गाड़ियां रख लेता है, हजार रंग-ढंग के कपड़े पहन लेता है। घर में समा लेता है। चीजें इकट्ठी करता चला जाता है। चीजों पर मालकियत सुगम मालूम पड़ती है। कोई झगड़ा नहीं, कोई झंझट नहीं। चीजें जैसी हैं, वैसी रहती हैं। जो कहो, वैसा मानती हैं।

तो धीरे-धीरे आदमी चीजों की मालकियत पर ज्यादा उतरता चला जाता है। जितनी पुरानी दुनिया में जाएंगे, उतना ही व्यक्तियों के संबंध ज्यादा मालूम पड़ेंगे। जितनी आज की दुनिया में आएंगे, उतने व्यक्तियों के संबंध कम, और व्यक्तियों और वस्तुओं के संबंध ज्यादा हो जाएंगे। इसलिए भविष्य के लिए अपरिग्रह का सूत्र बहुत सोचने जैसा है। भविष्य में परिग्रह भारी होता जाएगा, होता जा रहा है, रोज बढ़ता जा रहा है।

आज योरोप में तो लोग, आम प्रचलित कहावत हो गई है कि पति-पत्नी एक बच्चे को पैदा करें या न करें, तो सोचते हैं कि एक बच्चा पैदा करें कि एक फ्रिज खरीद लें? एक बच्चा पैदा करें कि एक और नया माडल कार का निकला है, वह खरीद लें? एक बच्चा पैदा करें कि टी.वी. का एक सेट खरीद लें? यह विकल्प है! क्योंकि एक बच्चा इतना खर्चा लाएगा, उससे तो कार का नया माडल खरीदा जा सकता है। और कार ज्यादा भरोसे की है। ज्यादा भरोसे की है। जहां चाहो, वहां खड़ा करो; जहां चाहो, मत खड़ा करो। जो व्यवहार करना चाहो, करो। रिटेलिएट नहीं करती, उत्तर भी नहीं देती, झंझट भी नहीं करती। गुस्सा आ आए, गाली दो, लात मार दो; चुपचाप सह लेती है।

तो वस्तुओं पर हमारा आग्रह बढ़ता चला जाता है। आदमी अपने चारों तरफ वस्तुओं का एक जाल इकट्ठा करके सम्राट होकर बैठ जाता है बीच में कि मैं मालिक हूं। व्यक्तियों को इकट्ठा करके ऐसी मालकियत बड़ी कठिन है! प्रौढ़ व्यक्तियों को इकट्ठा करके, तो बहुत कठिन है। प्राइमरी स्कूल के शिक्षक से पूछो कि तीस छोटे-से बच्चे इकट्ठे हो जाते हैं चारों तरफ, तो कैसी मुसीबत पैदा हो जाती है। जरा-जरा से बच्चे, लेकिन शिक्षक की जान ऐसी अटकी रहती है कि वह घंटे की राह देखता रहता है कि कब घंटा बजे और वह भागे! क्योंकि तीस जीवित बच्चे! जरा सिर मोड़कर तख्ते पर कुछ लिखना शुरू करता है कि यहां बगावत फैल जाती है।

वैसे मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तख्ते को इसीलिए ऐसा बनाया है कि शिक्षक बीच-बीच में पीठ कर पाए। क्योंकि अगर छः-सात घंटे वह पीठ ही न करे, तो बच्चों को इतना सप्रेस करना पड़े अपने आपको कि वे बीमार पड़ जाएं। तो रिलीफ के लिए मौका मिल जाता है। पीठ करके तख्ते पर लिखता है, तब तक कोई मजाक में कुछ कह देता है, कोई पत्थर उछाल देता है, कोई चोट कर देता है, कोई आंख मिचका देता है, बच्चे रिलैक्स हो जाते हैं। तब तक शिक्षक वापस लौटता है; फिर पढ़ाई शुरू हो जाती है। वह बच्चों के लिए बड़ा सहयोगी है तख्ता, जिसकी वजह से शिक्षक को बीच-बीच में मुड़ना पड़ता है। लेकिन ये जिंदा बच्चे हैं, इन पर मालकियत!

छोटे-से बच्चे पर भी मालकियत करनी बहुत मुश्किल बात है। मां-बाप भी छोटे-छोटे बच्चों को फुसलाते हैं और रिश्वत खिलाते हैं। हां, रिश्वत बच्चों जैसी होती है, चाकलेट है, टाफी है। बाप घर लौटता है, तो सोच लेता है कि आज क्या रिश्वत ले चलनी है। क्योंकि बच्चा दरवाजे पर खड़ा होगा। छोटा-सा बच्चा, जिसकी अभी जीवन की कोई ताकत नहीं, कुछ नहीं। उससे भी बाप डरता है घर लौटते वक्त। छोटे-छोटे बच्चों से भी बाप और मां को झूठ बोलना पड़ता है। पिक्चर देखने जाते हैं, तो कहते हैं, गीता ज्ञान सत्र में जा रहे हैं!

व्यक्ति के साथ संबंध बनाना जटिल बात है। छोटा-सा जीवित व्यक्ति और जटिलताएं शुरू हो जाती हैं। तो हम फिर व्यक्तियों को हटाना शुरू कर देते हैं। हटा दो व्यक्ति को, वस्तुओं से संबंध बना लो। घर में जाओ, जहां भी नजर डालो, आप ही मालिक हो। कुर्सियां रखी हैं, फर्नीचर रखा है, फ्रिज रखा है, कार रखी है, रेडिओ रखे हैं। आप बिलकुल मालिक की तरह हैं। जहां भी नजर डालो, मालिक हैं। तो वस्तुएं बढ़ती जाती हैं, व्यक्ति से संबंध क्षीण होते चले जाते हैं। सभ्यता जब विकसित होती है, तो वस्तुओं से संबंध रह जाते हैं आदमियों के और आदमियों से खो जाते हैं।

इसलिए दूसरे सूत्र को जानकर मैंने फिर से कह देना चाहा, वह छूट गया था, कि अपरिग्रह।

अपरिग्रही चित्त वह है, जो वस्तुओं की मालकियत में किसी तरह का रस नहीं लेता। उपयोगिता अलग बात है, रस अलग बात है। वस्तुओं में जो रस नहीं लेता, वस्तुओं के साथ जो किसी तरह की गुलामी के संबंध निर्मित नहीं करता, वस्तुओं के साथ जिसका कोई इनफैचुएशन, वस्तुओं के साथ जिसका कोई रोमांस नहीं चलता।

रोमांस चलता है वस्तुओं के साथ। जब आप कभी नई कार खरीदने का सोचते हैं, तो बहुत फर्क नहीं पड़ता। स्थिति करीब-करीब वैसे हो जाती है, जैसे कोई नया व्यक्ति किसी नई लड़की के प्रेम में पड़ जाता है और रात सपने देखता है। कार उसी तरह सपनों में आने लगती है! वस्तुओं का भी इनफैचुएशन है। उनके साथ भी रोमांस चल पड़ता है। यह वस्तुओं में रस न हो, वस्तुओं का उपयोग हो।

और ध्यान रहे, वस्तुओं में जितना ज्यादा रस होगा, आप उतना ही कम उपयोग कर पाएंगे। जितना कम रस होगा वस्तु का, उतना पूरा उपयोग कर पाएंगे। क्योंकि उपयोग के लिए एक डिटैचमेंट, एक अनासक्त दूरी जरूरी है।

मैं एक मित्र को जानता हूं। दस साल से मैं उनके बरांडे में एक स्कूटर को रखा हुआ देखता हूं। दो-चार बार पहले पहल मैंने पूछा कि क्या स्कूटर बिगड़ गया है? उन्होंने कहा, ऐसा दुश्मन का न बिगड़े! स्कूटर बिगड़ा नहीं है। फिर मैं चुप रह गया। कई बार उनको देखा कि बरांडे में ही खड़े स्कूटर को स्टार्ट करके, फिर बंद करके, भीतर चले जाते हैं! मैंने पूछा कि बात क्या है? कभी निकालते नहीं!

इनफैचुएशन है भारी उनका। स्कूटर क्या है, उनकी प्रेयसी है। उसको ऐसा सम्हालकर, पोंछत्तांछकर रख देते हैं, निकालते नहीं। निकलते तो अपनी फटी साइकिल पर ही हैं। जब निकलते हैं, उसी पर! मैंने कई दफा देखा। मैंने कहा, यह स्कूटर किसलिए है? वे बोले कि कभी समय-बेसमय! लेकिन आज तो वर्षा हो रही है, तो नाहक रंग खराब हो जाएगा। कभी धूप तेजी होती है, तो नाहक रंग खराब हो जाएगा। मैंने उनका स्कूटर निकलते नहीं देखा है।

सभी के पास ऐसी स्कूटर जैसी थोड़ी-बहुत चीजें होंगी। सभी के पास। वह आप रखे हुए हैं सम्हालकर। स्त्रियों के पास बहुत हैं। उसका कारण है। क्योंकि पुरुष तो बाहर के जगत में व्यक्तियों से बहुत तरह के संबंध बना लेते हैं। स्त्रियों के हमने पुरुषों से सब तरह के संबंध तुड़वा दिए हैं। उनको घर के भीतर बंद कर दिया है।

तो पुरुषों के जगत में तो बहुत तरह के संबंध हो पाते हैं–दल है, क्लब है, पार्टी है, संघ है, मित्र है, फलां हैं, ढिकां हैं, हजार उपाय हैं। और पुरुष बाहर की दुनिया में घूमकर बहुत तरह के संबंध निर्मित करता रहता है। लेकिन स्त्री को हमने घर में बंद कर दिया। तो उसके हम किसी तरह के बाहर जगत से संबंध निर्मित नहीं होने देते। तो उसकी जो संबंध बनाने की जो प्यास है, अतृप्ति है, वह वस्तुओं पर निकलती है। इसलिए स्त्रियां वस्तुओं के लिए बिलकुल इनफैचुएटेड हो जाती हैं।

मेरे पास कई स्त्रियां आती हैं, वे कहती हैं, संन्यास हमें लेना है, लेकिन दिक्कत सिर्फ एक है कि तीन सौ साड़ियां! और कोई दिक्कत नहीं है; और हमें कोई कष्ट ही नहीं है संन्यास में। सिर्फ कठिनाई यह है कि इन तीन सौ साड़ियों का क्या होगा! एक का मामला नहीं है, न मालूम कितनी स्त्रियों ने मुझे आकर कहा कि संन्यास की बात बिलकुल जमती है मन को, सब ठीक है, लेकिन…! तब उनका कमजोर हिस्सा आ जाता है, साफ्ट-कार्नर, वे साड़ियां! वह इनफैचुएशन है।

उसका कारण है कि पुरुषों ने जो जगत बनाया है, उसमें स्त्रियों को व्यक्तियों से संबंध बनाने के सब दरवाजे बंद कर दिए, तो उसने वस्तुओं से अपना संबंध बना लिया। वह वस्तुओं के लिए दीवानी है। पति को सजा हो जाए, उनको हीरे की अंगूठी चाहिए। चलेगा, पति तो सालभर बाद वापस आ जाएगा; ऐसी क्या अड़चन है! लेकिन हीरे की अंगूठी! वस्तुओं से इतना गहरा संबंध, उसका कारण भी वही है। व्यक्तियों से संबंध बनाने का उपाय न होने से सारी की सारी चेतना वस्तुओं से संबंध निर्मित करने में लग गई है।

अपरिग्रह का अर्थ है, वस्तुओं में रस नहीं है, इनफैचुएशन नहीं है। वस्तुएं हैं, उनका उपयोग ठीक है। हीरे की अंगूठी है, तो पहन लें; और नहीं है, तो नहीं। हीरे की अंगूठी है, तो ठीक; नहीं है, तो न होना ठीक। जिस दिन ये दोनों बातें एक-सी हो जाएं और खिलवाड़ हो जाए कि हीरे की अंगूठी हो, तो खेल है; और न हो, तो घास की अंगूठी भी बनाकर पहनी जा सकती है; और बिलकुल न हो, तो नंगी अंगुली का अपना सौंदर्य है। इतनी सरलता से चित्त चलता हो वस्तुओं के बीच में, तो अपरिग्रही चित्त है। भागा हुआ नहीं, वस्तुओं के बीच जीता हुआ। लेकिन रसमुक्त। उपयोग करता है, लेकिन आसक्त नहीं, विक्षिप्त नहीं, पागल नहीं है।

और वही व्यक्ति उपयोग कर पाता है, जो विक्षिप्त नहीं है। जो विक्षिप्त है, वह तो उपयोग कर ही नहीं पाता। उसका उपयोग तो वस्तु कर लेती है। वस्तु को सम्हालकर रखता है, सेवा करता है, झाड़ता-पोंछता है। और सपने देखता रहता है कि कभी पहनूंगा, कभी पहनूंगा। वह कभी कभी नहीं आता। और वह वस्तु हंसती होगी, अगर हंस सकती होगी।

अपरिग्रही चित्त, एकांत में जीने वाला चित्त ही प्रभु के सतत स्मरण में उतर सकता है। और सतत स्मरण में उतरने का अर्थ है, एक क्षण भी अगर पूर्ण स्मरण में उतर जाए, तो सतत स्मरण बन जाता है। भूला नहीं जा सकता; भूलने का उपाय नहीं है।

प्रभु की एक झलक मिल जाए, तो भूलने का उपाय नहीं है। एक क्षण भी द्वार खुल जाए और हम देख लें कि वह है, फिर कोई हर्ज नहीं है। हम कभी न देख पाएं, तो भी भीतर उसकी धुन बजती ही रहेगी। श्वास-श्वास जानती ही रहेगी, रोआं-रोआं पहचानता ही रहेगा कि वही है, वही है, वही है। पूरे जीवन की यह धुन बन जाएगी कि वही है। लेकिन एक क्षण भी!

कृष्ण कहते हैं, सतत, प्रतिक्षण, निरंतर, व्यवधान न हो जरा भी, तब मुझमें प्रतिष्ठा है।

एक क्षण भी हो जाए, तो निरंतर हो जाएगा। एक क्षण कैसे हो जाए? कहां जाएं हम उस क्षण को पाने के लिए? वह मोमेंट, वह क्षण कहां मिले कि एक बार दरस-परस हो जाए, एक बार आंख के सामने आ जाए उसकी छवि? एक बार हम स्वाद ले लें उसके आलिंगन का, एक क्षण के लिए–कहां जाएं? कहां खोजें?

स्वयं के ही अंदर। उसके अतिरिक्त कहीं कोई और उससे मिलन न होगा। अपने ही भीतर। और अपने भीतर जाना हो, तो जो-जो बाहर है, उसके इलीमिनेशन के अतिरिक्त और कोई विधि नहीं है। जो-जो बाहर है, यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं, इस बोध के अतिरिक्त भीतर जाने का कोई उपाय नहीं है।

सुनी है मैंने एक छोटी-सी कहानी, वह मैं आपसे कहूं, फिर मैं दूसरा सूत्र लूं।

एक झेन फकीर हुआ। उसके पास, उसके मंदिर में जहां वह ठहरता है, उसके वृक्ष के नीचे जहां वह विश्राम करता है, दूर-दूर से साधक आते हैं। दूर-दूर से साधक आते हैं, उससे पूछते हैं, ध्यान की कोई विधि। वह उन्हें ध्यान की विधियां बताता है। वह उन्हें कोई सूत्र देता है कि जाकर इस पर ध्यान करो।

एक छोटा-सा बच्चा भी कभी-कभी उस वृक्ष के नीचे आकर बैठ जाता है। कभी उसके मंदिर में आ जाता है। बारह साल उसकी उम्र होगी। वह भी सुनता है बड़े ध्यान से बैठकर। बड़ी बातें! उसकी समझ में नहीं भी पड़ती हैं, पड़ती भी हैं। क्योंकि कुछ नहीं कहा जा सकता।

कई बार जिनको लगता है कि समझ में पड़ रहा है, उन्हें कुछ भी समझ नहीं पड़ता। और कई बार जिन्हें लगता है कि कुछ समझ में नहीं पड़ रहा है, उन्हें भी कुछ समझ में पड़ जाता है। बहुत बार ऐसा ही होता है कि जिसे लगता है, कुछ समझ में नहीं पड़ रहा है–इतना भी समझ में पड़ जाना कोई छोटी समझ नहीं है।

वह छोटा बच्चा आकर बैठता है। कोई साधक, कोई संन्यासी, कोई योगी आकर झेन फकीर से ध्यान के लिए कोई विषय, कोई आब्जेक्ट मांगता है। वह देखता रहता है। उसने देखा कि जब भी कोई साधक आता है, तो मंदिर का घंटा बजाता है, झुककर तीन बार नमस्कार करता है, झुककर विनम्र भाव से बैठता है; आदर से प्रश्न पूछता है, मंत्र लेता है, विदा होता है। फिर साधना करके, वापस लौटकर खबर देता है।

एक दिन सुबह वह बच्चा भी उठा, स्नान किया, फूल लिए हाथ में, आकर जोर से मंदिर का घंटा बजाया। झेन फकीर ने ऊपर आंख उठाकर देखा कि शायद कोई साधक आया। लेकिन देखा, वह छोटा बच्चा है, जो कभी-कभी आ जाता है। आकर तीन बार झुककर नमस्कार किया। फूल चरणों में रखे। हाथ जोड़कर कहा कि मुझे भी वह मार्ग बताएं, जिससे मैं ध्यान को उपलब्ध हो सकूं।

उस गुरु ने बहुत बड़े-बड़े साधकों को मार्ग बताया था, इस छोटे बच्चे को क्या मार्ग बताए! लेकिन विधि उसने पूरी कर दी थी, इनकार किया नहीं जा सकता था। ठीक व्यवस्था से घंटा बजाया था। हाथ जोड़कर नमस्कार किया था। चरणों में फूल रखे थे। विनम्र भाव से बैठकर प्रार्थना की थी कि आज्ञा दें, मैं क्या करूं कि ध्यान को उपलब्ध हो जाऊं, प्रभु का स्मरण आ जाए। उस छोटे-से बच्चे के लिए कौन-सी विधि बताई जाए!

उस गुरु ने कहा, तू एक काम कर, दोनों हाथ जोर से बजा। लड़के ने दोनों हाथ की ताली बजाई। गुरु ने कहा कि ठीक। आवाज बिलकुल ठीक बजी। ताली तू बजा लेता है। अब एक हाथ नीचे रख ले। अब एक ही हाथ से ताली बजा। उस बच्चे ने कहा, बहुत कठिन मालूम पड़ता है। एक हाथ से ताली कैसे बजाऊं? तो उस गुरु ने कहा, यही तेरे लिए मंत्र हुआ। अब इस पर तू ध्यान कर। और जब तुझे पता चल जाए कि एक हाथ से ताली कैसे बजेगी, तब तू आकर मुझे बता देना।

बच्चा गया। उस दिन उसने खाना भी नहीं खाया। वह वृक्ष के नीचे बैठकर सोचने लगा, एक हाथ की ताली कैसे बजेगी? बहुत सोचा, बहुत सोचा।

आप कहेंगे, कहां के पागलपन के सवाल को उसे दे दिया। सभी सवाल पागलपन के हैं। कोई भी सवाल कभी सोचा होगा, इससे कम पागलपन का नहीं रहा होगा।

कोई सोच रहा है, जगत को किसने बनाया? क्या एक हाथ से ताली बजाने वाले सवाल से कोई बहुत बेहतर सवाल है! कोई सोच रहा है कि आत्मा कहां से आई? एक हाथ से ताली बजाने के सवाल से कोई ज्यादा अर्थपूर्ण सवाल है!

लेकिन उस बच्चे ने बड़े सदभाव से सोचा। सोचा, रात उसे खयाल आया कि ठीक। मेंढक आवाज करते थे। उसने भी मेंढक की आवाज मुंह से की। और उसने कहा कि ठीक। यही आवाज होनी चाहिए एक हाथ की।

आकर सुबह घंटा बजाया। विनम्र भाव से बैठकर उसने आवाज की मुंह से, जैसे मेंढक टर्राते हों। और गुरु से कहा, देखिए, यही है न आवाज, जिसकी आप बात करते थे? गुरु ने कहा कि नहीं, यह तो पागल मेंढक की आवाज है। एक हाथ की ताली की आवाज!

दूसरे दिन फिर सोचकर आया; तीसरे दिन फिर सोचकर आया। कुछ-कुछ लाया, रोज-रोज लाया। यह है आवाज, यह है आवाज। गुरु रोज कहता गया, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। वर्ष बीतने को पूरा हो गया। वह रोज खोजकर लाता रहा। कभी कहता कि झींगुर की आवाज, कभी कहता कि वृक्षों के बीच से गुजरती हुई हवा की आवाज। कभी कहता कि वृक्षों से गिरते हुए पत्तों की आवाज। कभी कहता कि वर्षा में पानी की आवाज छप्पर पर। बहुत आवाजें लाया, लेकिन सब आवाजें गुरु इनकार करता गया। कहा कि नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं।

फिर उसने आना बंद कर दिया। फिर बहुत दिन गए वापस लौटा। घंटा बजाया। पैरों में फिर फूल रखे। हाथ जोड़कर चुपचाप पास बैठ गया। गुरु ने कहा, लाए कोई उत्तर? आवाज खोजी कोई? उसने सिर्फ आंखें उठाकर गुरु की तरफ देखा–मौन, चुप। गुरु ने कहा, ठीक है। यही है आवाज–मौन, चुप। गुरु ने कहा, यही है आवाज। तुझे पता चल गया, एक हाथ की आवाज कैसी होती है। अब तुझे और भी कुछ आगे खोज करना है?

उसने कहा, लेकिन अब आगे खोज करने को कुछ भी न बचा। एक-एक आवाज को, खोज को, आप इनकार करते गए, इनकार करते गए, इनकार करते गए। सब आवाजें गिरती गईं। फिर सिवाय मौन के कुछ भी न बचा। पिछले महीनेभर से मैं बिलकुल मौन ही बैठा हूं। कोई आवाज ही नहीं सूझती; कोई शब्द ही नहीं आता; मौन ही मौन! और अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। एक हाथ की आवाज जान पाया, नहीं जान पाया, मुझे पता नहीं। लेकिन इस मौन में मैंने जो देखा, जो जाना, शायद लोग उसी को परमात्मा कहते हैं।

एक-एक चीज को इनकार करते चले जाना पड़ेगा। किसी से भी शुरू करें। शरीर से शुरू करें, तो जानना पड़ेगा कि शरीर नहीं है। भीतर जाएं, श्वास मिलेगी। जानना पड़ेगा, श्वास भी वह नहीं है। और भीतर जाएं, विचार मिलेंगे। जानना पड़ेगा, विचार भी वह नहीं है। और भीतर जाएं, वृत्तियां मिलेंगी। जानना पड़ेगा, वृत्तियां भी वह नहीं है। और उतरते जाएं, और उतरते जाएं। भाव मिलेंगे, जानें कि भाव भी वह नहीं है। उतरते जाएं गहरे-गहरे कुएं में!

एक घड़ी ऐसी आ जाएगी कि इनकार करने को कुछ भी न बचेगा, सन्नाटा और शून्य रह जाएगा। आ गई अंतर-गुफा, जहां अब यह भी कहने को नहीं बचा कि यह भी नहीं है। वहीं, उसी क्षण, उसी क्षण वह विस्फोट हो जाता है, जिसमें प्रभु का अनुभव होता है। बस, वह अनुभव एक क्षण को हो जाए, फिर निरंतर श्वास-श्वास, रोएं-रोएं, उठते-बैठते, सोते-जागते वह गूंजने लगता है। तब है स्मरण निरंतर।

और कृष्ण कहते हैं, ऐसे निरंतर स्मरण को उपलब्ध व्यक्ति ही मुझमें प्रतिष्ठित होता है, प्रभु में प्रतिष्ठित होता है। या उलटा कहें तो भी ठीक कि ऐसे व्यक्ति में, ऐसे निराकार, शून्य हो गए व्यक्ति में, ऐसे सतत सुरति से भर गए व्यक्ति में प्रभु प्रतिष्ठित हो जाता है।

प्रश्न:

भगवान श्री, पिछले दो श्लोकों में एक छोटी-सी पर विशेष बात रह गई है। उसमें कहा गया है ध्यान के साधक के लिए–विशेष आसन, शुद्ध भूमि, सीधा शरीर, और नासिकाग्र दृष्टि और ब्रह्मचर्य व्रत। उसके बाद कहा गया है, भयरहित और अच्छी प्रकार शांत अंतःकरण वाला। भयरहित का साधक के लिए क्या अर्थ होगा, कृपया इसे स्पष्ट करें।

भयरहित और अच्छी प्रकार शांत चित्त वाला!

महत्वपूर्ण है यह, काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि भय जिसे है, वह परमात्मा में प्रवेश न कर पाएगा। क्यों? तो भय को थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। भय है क्या? वस्तुतः भय का मूल आधार क्या है? भयभीत क्यों हैं हम? क्या है मूल कारण जिससे सारे भय का जन्म होता है?

बीमारी का भय है। दिवालिया हो जाने का भय है। इज्जत मिट जाने का भय है। हजार-हजार भय हैं। लेकिन भय तो गहरे में एक ही है, वह मृत्यु का भय है। बीमारी भी भयभीत करती है, क्योंकि बीमारी में मृत्यु का आंशिक दर्शन शुरू हो जाता है। गरीबी भयभीत करती है, क्योंकि गरीबी में भी मृत्यु का आंशिक दर्शन शुरू हो जाता है। अप्रतिष्ठा भयभीत करती है, क्योंकि अप्रतिष्ठा में भी मृत्यु का आंशिक अंश दिखाई पड़ने लगता है।

जहां-जहां भय है, वहां-वहां मृत्यु का कोई अंश दिखाई पड़ता है। प्रत्यक्ष न भी दिखाई पड़े, थोड़ा खोज करेंगे, तो दिखाई पड़ जाएगा कि मैं भयभीत क्यों हूं। कहीं न कहीं कुछ मुझमें मरता है, तो मैं भयभीत होता हूं। चाहे मेरा धन छूटता हो, तो धन के कारण जो सुरक्षा थी भविष्य में कि कल भी भोजन मिलेगा, मकान मिलेगा, मर नहीं जाऊंगा। धन छिनता है, तो कल खतरा खड़ा हो जाता है कि कल अगर भोजन न मिला तो? प्रतिष्ठा है; धन न हो पास में, तो भी आशा कर सकता हूं कि कल कोई साथ देगा, कल कोई सहयोग देगा। लेकिन प्रतिष्ठा भी खो जाए, तो डर लगता है कि कल इस बड़े जगत में कोई साथी-संगी न होगा, तो क्या होगा?

जहां भी भय है, वहां थोड़ी-सी भी खोज करेंगे, थोड़ा-सा खोजेंगे, तो स्किन डीप कुछ और कारण भला हो, लेकिन जरा-सी खरोंच के बाद गहरे में मृत्यु खड़ी हुई दिखाई पड़ेगी। मृत्यु ही भय है। और सब भय उसके ही हलके डोज हैं। उसकी ही हलकी मात्राएं हैं। मृत्यु का भय एकमात्र भय है।

कृष्ण कहते हैं कि अभय को उपलब्ध हो कोई, भयरहित हो कोई, तो ही ध्यान में गति है, तो ही समाधि में चरण पड़ेंगे। तो क्या बात है? यहां समाधि और ध्यान में भय को लाने की क्या जरूरत? यहां मौत का सवाल कहां है?

यहां है। मौत का सवाल है, महामृत्यु का सवाल है। क्योंकि साधारण मृत्यु में तो सिर्फ शरीर मिटता है, आप नहीं मिटते। सिर्फ वस्त्र बदलते हैं, आप नहीं बदलते। आप तो फिर, पुनः, पुनः-पुनः नए शरीर, नए वस्त्र धारण करते चले जाते हैं।

तो साधारण मृत्यु, जो जानते हैं, उनकी दृष्टि में मृत्यु नहीं, केवल शरीर का परिवर्तन है। गृह परिवर्तन है, नए घर में प्रवेश है, पुराने घर का त्याग है। लेकिन ध्यान में महामृत्यु घटित होती है। आप भी मरते हैं, शरीर ही नहीं मरता। आप भी मरते हैं, मैं भी मरता है। वह अहंकार और ईगो भी मरती है, मन मरता है।

स्वभावतः, जब शरीर के ही मरने में इतना भय लगता है, तो मन के मरने में कितना भय न लगता होगा! और इसलिए अभय हुए बिना कोई ध्यान में प्रवेश न कर सकेगा।

जैसा कृष्ण ने कहा भयरहित, ऐसा ही महावीर ने अभय को पहला सूत्र कहा है। अभय हुए बिना कोई ध्यान में न जा सकेगा। क्योंकि थोड़ी ही देर, थोड़ी ही भीतर गति होगी और पता चलेगा, यह तो मृत्यु घटने लगी।

ध्यान के अनुभव में मृत्यु का अनुभव आता ही है, अनिवार्य है। उससे कोई बचकर नहीं निकल सकता। जब आप ध्यान में गहरे उतरेंगे, तो वह घड़ी आ जाएगी जहां लगेगा, कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं मर जाऊं। लौट चलूं वापस, यह किस उपद्रव में पड़ गया! वापस लौटो।

ध्यान से न मालूम कितने लोग वापस लौट आते हैं। सिर्फ भीतर वह जो मृत्यु का भय पकड़ता है, उसकी वजह से वापस लौट आते हैं। और मजा यह है कि वही क्षण है पार होने का। उसी क्षण में अगर आप निर्भय प्रवेश कर गए, तो आप समाधि में पहुंच जाएंगे। और अगर उससे आप वापस लौट आए, तो जहां आप थे, वहीं आ जाएंगे। और एक खतरा और ले आएंगे। वह यह कि अब ध्यान में जाने की हिम्मत भी न कर सकेंगे, क्योंकि वह मृत्यु का डर अब और गहरा और साफ हो जाएगा।

जब ध्यान में मृत्यु की प्रतीति होती है, तब आप अमृत के द्वार पर खड़े हैं। अगर भयभीत हो गए, तो द्वार से वापस लौट आए। और अगर प्रवेश कर गए, तो अमृत में प्रवेश कर गए। फिर कोई मृत्यु नहीं है।

मृत्यु में प्रवेश करके ही अमृत का अनुभव होता है। मिटकर ही जानना पड़ता है उसे, जो है। स्वयं को खोकर ही पाना पड़ता है उसे, जो सर्व है।

इसलिए ठीक है कृष्ण अगर कहें कि भयरहित चित्त से ही प्रवेश संभव है।

इधर मेरा रोज का अनुभव है। सैकड़ों व्यक्ति कितनी आतुरता और कितनी प्यास से ध्यान में प्रवेश करते हैं, लेकिन शीघ्र ही…। जो ज्यादा श्रम नहीं करते, उनको तो अड़चन नहीं आती, क्योंकि वे उस बिंदु तक भी नहीं पहुंचते, जहां मृत्यु का अनुभव हो। लेकिन जो जरा ज्यादा श्रम करते हैं, वे उस बिंदु पर पहुंच जाते हैं, जहां मृत्यु दिखाई पड़ने लगती है कि मैं मरा, मैं गया। अब अगर एक कदम आगे बढ़ता हूं भीतर, तो अब मैं नहीं बचूंगा। सब टूट-फूटकर बिखर जाएगा। फिर लौट नहीं सकूंगा। यह प्रतीति इतनी प्रगाढ़ होती है, यह पूरे प्राणों को इस भांति पकड़ लेती है कि साधक भागकर बाहर आ जाता है। यह रोज घटता है।

इसलिए ध्यान में जाने वाले साधक को, जो उसे ध्यान में जाने का मार्ग-निर्देश कर रहा है, उचित है कि कहता रहे कि भय को छोड़ देना; मृत्यु घटित होगी। वह क्षण आएगा, जब भय पकड़ेगा। वह क्षण आएगा, जब सब भीतर ऐसा लगेगा कि खो गया; सब खो रहा है। डूब रहा हूं सागर में, अतल गहराई में; लौटने का अब शायद कोई उपाय न होगा।

वह क्षण आएगा ही। यह अगर पूर्व-सूचना दे दी गई हो, तो साधक जब पहुंचता है उस क्षण में, तो निर्भय हो, साहस बांध, छलांग लगा पता है। अगर यह पूर्व-सूचना न दी गई हो, तो बहुत संभावना यही है कि साधक वापस लौट आए, घबड़ा जाए।

लौट आए साधक को बड़ी तकलीफ हो जाती है। तकलीफ तो यह हो जाती है बड़ी कि अब वह ध्यान की तरफ जाने की हिम्मत अब न जुटा पाएगा। अब यह स्मरण उसका सदा पीछा करेगा। अब वह ध्यान की बात न सोच पाएगा।

और भी एक खतरा है, वह भी मैं आपसे कह दूं, कि जो साधक इस भांति मृत्यु से भयभीत होकर लौट आता है, बहुत संभावना है, सौ में कम से कम तीस प्रतिशत लोगों को, कि वे थोड़े-से विक्षिप्त हो जाएं। क्योंकि जो उन्होंने देखा है, मिटने का जो अनुभव उनके निकट आया, वह उनके सारे स्नायुओं को कंपा जाता है; उनके हाथ-पैर कंपने लगेंगे, उनका चित्त भय से सदा घबड़ाया हुआ रहने लगेगा। वे नींद लेने तक में डरने लगेंगे। उनका डर बढ़ जाएगा।

इसलिए ध्यान में कोई भी जाए, तो यह जानकर जाए, ठीक से परिचित होकर जाए कि मृत्यु की प्रतीति होगी। भय कुछ भी नहीं है। क्योंकि वह मृत्यु की प्रतीति सौभाग्य है। वह उसको ही होती है, जो ध्यान के बिलकुल मंदिर के द्वार पर चढ़कर पहुंच जाता है–उसको ही, उसके पहले नहीं होती। वह आखिरी प्रतीति है मन की।

मन मरने के पहले आखिरी बार आपको घबड़ाता है कि मर जाओगे, लौट चलो। अगर आप न घबड़ाए, तो मन मर जाता है, आप बच जाते हैं। आपके मरने का कोई उपाय नहीं है। आप नहीं मर सकते।

लेकिन अभी तक आपने समझा है कि मैं मन हूं। इसलिए जब मन कहता है, मर जाऊंगा! तो आप समझते हैं, मैं मर जाऊंगा। वह आपकी भ्रांति स्वाभाविक है। स्वाभाविक, लेकिन सही नहीं। स्वाभाविक, लेकिन सत्य नहीं। इसलिए जो भी ध्यान का निर्देश करेगा, जैसा कृष्ण अर्जुन को निर्देश कर रहे हैं, तो वे उन सारी बातों का निर्देश करेंगे ही, जिन-जिन की जरूरत पड़ेगी।

तो एक, निर्भय। और ठीक रूप से शांत हुए मन वाला। ठीक रूप से शांत हुए मन वाले का क्या अर्थ है? इस ठीक से शांत मन वाला, इस शब्द से, इन शब्दों के समूह से बहुत-सी गलत व्याख्याएं प्रचलित हुई हैं।

एक तो, जब कृष्ण कहते हैं, ठीक से शांत हुए मन वाला, तो इसके दो मतलब साफ हो गए कि ऐसी शांति भी हो सकती है, जो ठीक से शांति न हो। गलत किस्म की शांति भी हो सकती है। इसका मतलब साफ है। अशांति तो गलत होती ही है; ऐसी शांतियां भी हैं, जो गलत होती हैं। इसलिए तो ठीक से शांत, इस शर्त को लगाना पड़ा है।

इसलिए आप सब तरह के शांत हुए लोग ध्यान में प्रवेश कर जाएंगे, इस भ्रांति में मत पड़ना। गलत ढंग से शांत हुए लोग भी हो सकते हैं। कौन से ढंग से आदमी गलत रूप से शांत हो जाता है?

ऐसी बहुत-सी विधियां प्रचलित हैं, जिनसे आपको शांति का भ्रम पैदा हो सकता है। वह गलत रूप की शांति है। जैसे इस तरह की हिप्नोटिज्म, सम्मोहन की विधियां हैं, जिनसे आपको प्रतीति हो सकती है कि आप शांत हैं।

अगर आप कुवे से पूछें, एमाइल कुवे से। वे पश्चिम के एक बड़े हिप्नोटिस्ट विचारक हैं। तो वे कहते हैं, शांत होने के लिए और कुछ करना जरूरी नहीं है। सिर्फ अपने मन में यह दोहराते रहें कि मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं। इसे दोहराते रहें। गो आन रिपीटिंग इट। रात सोते वक्त दोहराते रहें, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं, शांत हो रहा हूं। दोहराते-दोहराते सो जाएं। कब नींद आ जाए, पता न चले; आप दोहराते रहें, मैं शांत हो रहा हूं। आप मत रुकें। नींद आ जाए, रोक दे, बात अलग। आप दोहराते चले जाएं।

अगर रात सोते वक्त आप दोहराते रहें, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं, तो नींद का क्षण जब आएगा, तो आपका चेतन मन तो सो जाएगा, वह जो दोहरा रहा था, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं। लेकिन मैं शांत हो रहा हूं, इसकी प्रतिध्वनि अचेतन में गूंजती रह जाएगी। वह रातभर आपके भीतर गूंजती रहेगी–मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं।

कुवे कहते हैं, सुबह जब नींद खुले, तो पहली बात मन में दोहराना, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं, मैं शांत हो रहा हूं। जब भी स्मरण आ जाए, दोहराना, मैं शांत हो रहा हूं।

इस भांति अगर आप दोहराते रहें, तो आप अपने को आटो-हिप्नोटाइज कर लेंगे। आपको अशांति रहेगी, लेकिन पता नहीं चलेगी। आपको लगेगा, मैं शांत हो गया हूं। यह स्वयं को दिया गया धोखा है। यह शांति झूठी है। यह शांति केवल भ्रम है।

लेकिन यह हो जाता है। मन की यह क्षमता है कि मन अपने को धोखा दे सकता है। मन की बड़ी क्षमता सेल्फ डिसेप्शन है। खुद को धोखा देना मन की बड़ी क्षमता है। अगर आप दोहराए चले जाएं, तो यह हो जाता है।

अब तो मनोवैज्ञानिक इसको बहुत ठीक से स्वीकार करते हैं कि यह हो जाता है। जिन बच्चों को स्कूल का शिक्षक कहता चला जाता है, तुम गधे हो, तुम गधे हो। और एक शिक्षक ने कहा, तो दूसरा शिक्षक दूसरी क्लास में फिर धारा को पकड़ लेता है कि तुम गधे हो। और एक बच्चा सुनता है। वह भी मन में दोहराता है, मैं गधा हूं। दूसरे लड़के भी उसकी तरफ देखते हैं कि तुम गधे हो। घर जाता है, बाप भी कहता है कि तुम गधे हो। जहां जाता है, वहां पता चलता है कि सिर्फ कान की कमी है, बाकी मैं गधा हूं! और जब इतने सब लोग कहते हैं, तो इन सबको गलत करना भी ठीक नहीं मालूम पड़ता। मन फिर इनको सही करने के उपाय खोजने लगता है कि सब लोग सही ही कहते होंगे। इतने लोग जब कहते हैं, तो इनको गलत कहना भी तो ठीक नहीं है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आज दुनिया में जितने अप्रौढ़ चित्त दिखाई पड़ते हैं, उनका जिम्मेवार शिक्षक, शिक्षा की व्यवस्था है, जहां इनको हिप्नोटाइज किया जा रहा है कि तुम ऐसे हो, तुम ऐसे हो, तुम ऐसे हो। कहा जा रहा है; सर्टिफिकेट दिए जा रहे हैं; अखबारों में नाम दिए जा रहे हैं; सिद्ध हो जाता है कि वह आदमी ऐसा है।

आपने कभी खयाल किया है, बीमार पड़े हों बिस्तर पर–सभी कभी न कभी पड़ते हैं–आपने कभी खयाल किया है कि बीमार पड़े हों, बड़ी तकलीफ मालूम पड़ती है, बड़ी बेचैनी है, बड़ी भारी बीमारी है। डाक्टर आया। डाक्टर के बूट बजे, उसकी शक्ल दिखाई दी। उसका स्टेथस्कोप! थोड़ी बीमारी एकदम उसको देखकर कम हो गई! अभी उसने दवा नहीं दी है। डाक्टर ने थोड़ा ठकठकाया, इधर-उधर ठोंका-पीटा। उसने अपना स्पेशलाइजेशन दिखाया कि हां! फिर उसने कहा कि कोई बात नहीं, बहुत साधारण है, कुछ खास नहीं है। दो दिन की दवा में ठीक हो जाएंगे। फिर उसने जितनी बड़ी फीस ली, उतना ही अर्थ मालूम पड़ा कि यह बात ठीक होगी ही।

आपने खयाल किया है, डाक्टर की दवा और उसका प्रिस्क्रिप्शन आने में तो थोड़ी देर लगती है, लेकिन मरीज ठीक होना शुरू हो जाता है। मन ने अपने को सुझाव दिया कि जब इतना बड़ा डाक्टर कहता है, तो ठीक हैं ही। अगर आप बीमार पड़े हैं और आपको पता चला कि डाक्टर ने ऐसा कहा है कि बिलकुल ठीक हैं, कोई खास बीमारी नहीं है, तो तत्काल आपके भीतर बीमारी क्षीण होने का अनुभव आपको हुआ होगा–तत्काल! एक ताजगी आ गई है। बुखार कम हो गया है। बीमारी ठीक होती मालूम पड़ती है। अभी कोई दवा नहीं दी गई है, तो यह परिणाम कैसे हुआ है?

पश्चिम में डाक्टर एक नई दवा पर काम करते हैं, उस दवा को कहते हैं, धोखे की दवा, प्लेसबो। बड़े हैरान हुए हैं। दस मरीज हैं, दसों एक बीमारी के मरीज हैं। पांच को दवा दी है और पांच को सिर्फ पानी दिया है। बड़ी मुश्किल है। दवा वाले भी तीन ठीक हो गए, पानी वाले भी तीन ठीक हो गए! अब दवा को क्या कहें? यह दवा थी नहीं; यह सिर्फ पानी था। लेकिन दवा वाले भी, पांच में से तीन ठीक हो गए हैं और ये भी पांच में से तीन ठीक हो गए हैं, पानी वाले! अब क्या कहें?

मनोविज्ञान तो कहता है कि अब तक की जितनी दवाएं हैं दुनिया में, वे सिर्फ सजेशन का काम करती हैं। असली परिणाम सजेशन का है, सुझाव का है। असली परिणाम दवा के तत्व का नहीं है। इसीलिए तो इतनी पैथी चलती हैं। इतनी पैथी चल सकती हैं? पागलपन की बात है। बीमारी अगर होगी, तो इतनी पैथी चल सकती हैं वैज्ञानिक अर्थों में?

होम्योपैथी भी चलती है! और होम्योपैथी के नाम पर करीब-करीब शक्कर की गोलियां चलती हैं। कम से कम हिंदुस्तान में बनी तो बिलकुल शक्कर की गोली ही होती हैं। शक्कर भी शुद्ध होगी, इसमें संदेह है। बायो-केमिस्ट्री चलती है। आठ तरह की दवाओं से सब बीमारियां ठीक हो जाती हैं! नेचरोपैथी चलती है; दवा वगैरह की कोई जरूरत नहीं है! पेट पर पानी की पट्टी या मिट्टी की पट्टी से भी बीमार ठीक होते हैं! जंत्र, मंत्र, तंत्र–सब चलता है। जादू-टोना चलता है। सब चलता है। क्या, मामला क्या है? और आदमी सबसे ठीक होता है!

आदमी के ठीक होने के ढंग बड़े अजीब हैं। शक इस बात का है कि आदमी की अधिक बीमारियां भी उसके सुझाव होती हैं, कि उसने माना है कि वह बीमार हुआ है। और आदमी का अधिकतर स्वास्थ्य भी उसका सुझाव होता है कि उसने माना है कि वह ठीक हुआ है। बीमारियां भी बहुत मायनों में झूठी होती हैं, मन का खेल। और उसके स्वास्थ्य के परिणाम भी झूठे होते हैं, मन का खेल। लेकिन मन आटो-सजेस्टिबल है, अपने को सुझाव दे सकता है।

उस तरह की शांति झूठी है, जो कुवे की पद्धति से आती है। जो कहती है कि तुम शांत हो रहे हो। इसको माने चले जाओ, कहे चले जाओ, दोहराए चले जाओ–शांत हो जाओगे।

जरूर शांत हो जाएंगे। लेकिन वैसी शांति सिर्फ सतह पर दिया गया धोखा है। वह शांति वैसी है, जैसे नाली के ऊपर हमने फूलों को बिछा दिया हो, तो क्षणभर को धोखा हो जाए। हां, किसी नेता की पालकी निकलती हो सड़क से, तो काफी है। चलेगा। क्षणभर को धोखा हो जाए, कोई नाली नहीं है, फूल बिछे हैं। लेकिन घड़ीभर बाद फूल कुम्हला जाएंगे, नाली की दुर्गंध फूलों के पार आकर फैलने लगेगी। थोड़ी देर में नाली फूलों को डुबा लेगी।

झूठी शांति हो सकती है–सुझाव से, सम्मोहन से। और सम्मोहन की हजार तरह की विधियां दुनिया में प्रचलित हैं, जिनसे आदमी अपने को मान ले सकता है कि मैं शांत हूं। और भी रास्ते हैं। और भी रास्ते हैं, जिनसे आदमी अपने को शांत करने के खयाल में डाल सकता है। लेकिन उन रास्तों से शांत हुआ आदमी भीतर नहीं जा सकेगा। जबर्दस्ती भी अपने को शांत कर सकते हैं। जबर्दस्ती भी अपने को शांत कर सकते हैं! अगर अपने से लड़े ही चले जाएं, और जबर्दस्ती अपने ऊपर किए चले जाएं सब तरह की, तो अपने को शांत कर सकते हैं।

लेकिन वह शांति होगी बस, जबर्दस्ती की शांति। भीतर उबलता हुआ तूफान होगा। भीतर जलती हुई आग होगी। ठीक ज्वालामुखी भीतर उबलता रहेगा और ऊपर सब शांत मालूम पड़ेगा।

ऐसे शांत बहुत लोग हैं, जो ऊपर से शांत दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इनके भीतर बहुत ज्वालामुखी है, उबलते रहते हैं। हां, ऊपर से उन्होंने एक व्यवस्था कर ली है। जबर्दस्ती की एक डिसिप्लिन, एक आउटर डिसिप्लिन, एक बाह्य अनुशासन अपने ऊपर थोप लिया है। ठीक समय पर सोकर उठते हैं। ठीक भोजन लेते हैं। ठीक बात जो बोलनी चाहिए, बोलते हैं। ठीक शब्द जो पढ़ने चाहिए, पढ़ते हैं। ठीक समय सो जाते हैं। यंत्रवत घूमते हैं। गलत का प्रभाव न पड़ जाए, उससे बचते हैं। जिस प्रभाव में उनको जीना है, शांति में जीना है, उसका धुआं अपने चारों तरफ पैदा रखते हैं। तो फिर एक-एक सतह ऊपर की पर्त शांत दिखाई पड़ने लगती है और भीतर सब अशांत बना रहता है।

कृष्ण कहते हैं सशर्त बात, ठीक रूप से हो गया है मन शांत जिसका।

किसका होता है ठीक रूप से फिर शांत मन? ठीक रूप से शांत उसका होता है, जो शांति की चेष्टा ही नहीं करता, वरन ठीक इसके विपरीत अशांति को समझने की चेष्टा करता है। इसको फर्क समझ लें आप। झूठे ढंग से शांत होता है वह मन, जो अशांति के कारणों की तो फिक्र ही नहीं करता कि मैं अशांत क्यों हूं, शांत करने की फिक्र करता चला जाता है। भीतर अशांति के कारण बने रहते हैं पूर्ववत, भीतर अशांति का सब कुछ जाल, व्यवस्था मौजूद रहती है पूर्ववत, और वह ऊपर से शांत करने का इंतजाम करता चला जाता है।

जो व्यक्ति अपने भीतर की अशांति के ऊपर शांति को आरोपित करता है, वह गलत ढंग की शांति को उपलब्ध होता है। वह ध्यान में नहीं ले जाने वाली है। फिर ठीक ढंग की शांति का अर्थ हुआ, जो व्यक्ति अपने भीतर के अशांति के कारणों को समझता है।

ध्यान रहे, ठीक ढंग की शांति शांति लाने से आती ही नहीं। ठीक ढंग की शांति अशांति के कारणों को समझकर, अशांति को निमंत्रण देने के हमने जो इंतजाम किए हैं, उनको समझकर आती है।

आप अशांत क्यों हैं, इसे समझें। यही बुनियादी बात है। शांत कैसे हों, इसे मत समझें। यह बुनियादी बात नहीं है। अशांत क्यों हैं?

अशांति के कारण दिखाई पड़ेंगे; हैं ही। हम ही अपने को अशांत करते हैं। कारण हैं भीतर हमारे। अशांति के कारणों को समझें। और जब अशांति के कारण बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ेंगे, तो आपके हाथ में है। अब आप अशांत होना चाहें, तो मजे से हों, कुशलता से हों, ढंग से हों, पूरी व्यवस्था से हों; न होना चाहें, तो कोई दूसरा आपको कह नहीं रहा है कि आप अशांत हों।

अशांति के कारण हैं। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि एक तरफ शांत होने की व्यवस्था करते हैं, दूसरी तरफ अशांति के बीजों को पानी डालते चले जाते हैं!

अब एक आदमी कहता है कि मुझे शांत होना है, लेकिन अहंकार का पोषण किए चला जाता है। अब उसको कोई कहे कि वह शांत होगा कैसे! एक तरफ कहता है, शांत होना है, दूसरी तरफ परिग्रह के लिए पागल हुआ चला जाता है कि एक चीज और बढ़ जाए घर में तो स्वर्ग उतर आएगा! अब वह एक तरफ शांत होना चाहता है! शायद वह इसीलिए शांत होना चाहता है कि जो फर्नीचर अभी नहीं उपलब्ध कर पाता है, शायद शांत होकर उपलब्ध कर ले। जो दुकान अभी ठीक से नहीं चलती, शायद शांत होने से ठीक चलने लगे। शांत भी वह इसीलिए शायद होना चाहता है कि अशांति का जो इंतजाम कर रहा है, उसमें जरा और कुशलता और व्यवस्था आ जाए।

अभी एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा कि मन बहुत अशांत है, परीक्षा पास है। मेडिकल कालेज का विद्यार्थी है। परीक्षा पास है, मन बहुत अशांत है। कोई रास्ता बताएं कि मेरा मन शांत हो जाए। मैंने कहा, शांत करना किसलिए चाहते हो? करोगे क्या शांत करके? उसने कहा, करना किसलिए चाहता हूं? आप भी क्या बात पूछते हैं! मुझे गोल्ड मेडल लाना है परीक्षा में। तो शांत हुए बिना बहुत मुश्किल है।

मैंने कहा कि तू मुझे माफ कर, नहीं पीछे मुझे बदनाम करेगा कि मुझसे पूछा, मैंने रास्ता बताया और तू शांत नहीं हो पाया! क्योंकि गोल्ड मेडल जिसे लाना है, वह अशांति का तो सब आरोपण किए चला जा रहा है; अशांति का कारण थोपता चला जा रहा है। मेरा अहंकार दूसरों के अहंकार के सामने स्वर्ण-मंडित दिखाई पड़े। मैं सबके आगे खड़ा हो जाऊं। यही तो अशांति की जड़ है। और तू शांत होना चाहता है इसीलिए, ताकि सबके पहले खड़ा हो जाए! तू उलटी बातें कर रहा है। अगर तुझे शांत होना है, तो पहले तो तू यह समझ, अशांत तू कब से हुआ है!

उसने कहा कि आप ठीक ही कहते हैं, जब से यह गोल्ड मेडल मेरे दिमाग में चढ़ा है, तभी से मैं अशांत हूं। पहले मैं ऐसा अशांत नहीं था। पिछले वर्ष बड़ी मुश्किल हो गई कि मैं फर्स्ट क्लास आ गया। उसके पहले तो मैं कभी फर्स्ट क्लास आया नहीं था। गोल्ड मेडल कभी मेरे सिर ने न पकड़ा था। पिछले साल गड़बड़ हो गई। तब से मैं बिलकुल अशांत हूं। न नींद है, न चैन है। गोल्ड मेडल दिखाई पड़ता है। वह नहीं आया, तो क्या होगा! कोई शांति की तरकीब बता दें कि मैं शांत हो जाऊं, तो यह गोल्ड मेडल–कम से कम इस सालभर शांत रह जाऊं, बस!

अब यह आदमी जो पूछ रहा है, यह हम सब का यही पूछना है। हम शांत इसीलिए होना चाहते हैं, ताकि अशांति की बगिया को ठीक से पल्लवित कर सकें। बहुत मजेदार है आदमी का मन। तो फिर शांति झूठी ही होगी। फिर ऊपर से छिड़कने वाली शांति होगी। भीतर तो कुछ होने वाला नहीं है।

इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, ठीक रूप से शांत हो गया मन जिसका, तो वे कहते हैं कि जिसने अशांत होने के कारण छोड़ दिए हैं।

और अशांत होने के कारण आपने छोड़े कि मन ऐसे ही शांत हो जाता है, जैसे कोई वृक्ष की शाखा को खींचकर खड़ा हो जाए हाथ से, और रास्ते से आप गुजरें और आपसे पूछे कि मुझे इस वृक्ष की शाखा को इसकी जगह वापस पहुंचाना है, क्या करूं? तो आप कहें कि कृपा करके वृक्ष की शाखा को उसकी जगह पहुंचाने का आप कोई इंतजाम न करें, सिर्फ इसे पकड़कर मत खड़े रहें, इसे छोड़ दें। यह अपने से अपनी जगह पहुंच जाएगी। वृक्ष काफी समर्थ है। आप कृपा करके इसे छोड़ें। आप पहुंचाने का कोई उपाय न करें। वृक्ष को आपकी सहायता की कोई भी जरूरत नहीं है। आप सिर्फ छोड़ें। लेकिन वह आदमी कहे कि अगर मैं छोड़ दूं और यह अपनी जगह न पहुंच पाए, तो बड़ी कठिनाई होगी। मैं इसीलिए पकड़े खड़ा हूं कि जब मुझे ठीक विधि मिल जाए, तो इसकी जगह इसको पहुंचाकर अपने घर जाऊं!

वह आदमी ठीक कहता मालूम पड़ता है। वह कहता है कि मैं इसीलिए पकड़े खड़ा हूं कि कहीं शाखा भटक न जाए इधर-उधर। तो जब मुझे कोई ठीक विधि बताने वाला आदमी मिल जाएगा, कोई सदगुरु, तो मैं इसे इसकी जगह पहुंचाकर अपने घर चला जाऊंगा!

कृपा करें, उससे कहें कि तू हाथ छोड़ दे इस शाखा का, यह अपनी जगह पहुंच जाएगी। यह तेरी वजह से परेशानी में है और अटकी है। तू छोड़! यह अपने आप चली जाएगी।

आपने कभी देखा है, शाखा जब छोड़ दें आप हाथ से, तो एकदम अपनी जगह पर नहीं चली जाती। कई बार डोलती है। पहले लंबा डोल लेती है, फिर छोटा, फिर और छोटा, फिर और छोटा, फिर और छोटा। फिर कंपती रहती है। फिर कंपते-कंपते शांत हो जाती है। क्यों? क्योंकि आपने खींचकर उसके साथ जो कशमकश की, और आपने जो इतनी शक्ति खींचकर लगाई, उसको उसे फेंकना पड़ता है, थ्रोइंग आउट। उस शक्ति को वह बाहर फेंकती है, छिड़कती है। नहीं तो वह अपनी जगह नहीं पहुंच पाएगी, जब तक आपके हाथ से दी गई शक्ति को फेंक न दे। उसे फेंकने के लिए वह कंपती है, डोलती है, उसे बाहर निकालती है, फिर अपनी जगह वापस पहुंच जाती है।

ठीक ऐसे ही चित्त अशांति के कारणों से अटका है। आप कहते हैं, शांत कैसे हो जाएं? तो गलत पूछते हैं। आप इतना ही पूछें कि अशांत कैसे हो गए? और कृपा करके जहां-जहां अशांति दिखाई पड़े, उस-उस कारण को छोड़ दें। चित्त अपने आप थोड़ा कंपेगा, डोलेगा। कम डोलेगा, कम डोलेगा, वापस अपनी जगह शांत हो जाएगा। और जब चित्त सब अशांति के कारणों से छूटकर अपनी जगह पहुंच जाता है, तो अपनी जगह पहुंच गए चित्त का नाम ही शांति है। स्व-स्थान पर पहुंच गया चित्त शांति है।

कहां-कहां आपने अटकाया है चित्त को, वहां-वहां से हटा दें। हटा दें, अर्थात न अटकाएं, बस। हटाने के लिए कुछ और आपको अलग से करने की जरूरत नहीं है, सिर्फ न अटकाएं। व्यक्तियों से अटकाया है, वस्तुओं से अटकाया है, अहंकार से बांधा है, यश, सम्मान–किससे बांधा है? कहां से अशांति पकड़ रही है? उसे वहां से हट जाने दें। चित्त शांत हो जाएगा। और तब कृष्ण जो कहते हैं, वह समझ में आएगा–ठीक रूप से शांत हुआ चित्त।

ठीक रूप से शांत हुआ चित्त वह है, जिसके भीतर अशांति के कोई कारण न रहे–तब। अन्यथा आप जो भी करेंगे, वह सब गैर-ठीक रूप से हुई शांति होगी। और उस शांति से कोई द्वार समाधि का नहीं खुलता। वह अंतर-गुहा के द्वार ठीक शांति से ही गुजरते हैं।

ये दो बातें खयाल में रखेंगे, तो अंतर-गुहा के पास पहुंचने में निरंतर आसानी होती चली जाती है।

एक पांच मिनट और रुकेंगे। संन्यासी कीर्तन करेंगे, उसमें साथ दें। शब्द सुने, बुद्धि की थोड़ी बात की। अब थोड़ी अबुद्धि की, बुद्धिहीन थोड़ी बात कर लें।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र (भाग–2) प्रवचन–19

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ध्‍यानाग्‍नि से कर्म भस्‍मिभूत—प्रवचन—उन्‍नीसवां

सूत्र:

जह चिरसंचयमिंधण—मनलो पवणसहिओ दुयं दहइ।

तह कम्‍मेंधममियं, खणेण झाणानलो डहइ।। 131।।

झाणोवरमेउवि मुणी, णिच्‍वमणिच्‍चइभावणापरमो।

होइ सुभावियचित्‍तो, धम्‍मझाणेण जो पुव्विं।। 132।।

अद्धुवमसरणमेगत्त मन्‍नत्‍तसंसारलोयमसुइत्‍तं।

आसवसंवरणिज्‍जर, धम्‍मं बोधि च चिंतिज्‍ज।। 133।।

पहला सूत्र:

“जैसे चिर-संचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है।’

मनुष्य अति प्राचीन है; कहें कि सनातन है, सदा से है।

अनंत जन्मों में अनंत कर्म हुए हैं–पुण्य हुए हैं, पाप हुए हैं। यदि उन सब पुण्य और पापों के लिए एक-एक का हिसाब चुकाना पड़े तो मुक्ति असंभव है। एक तो इतना लंबा काल! उस लंबे काल में इतने कर्मों की शृंखला! उसे छांटते-छांटते अनंत काल व्यतीत होगा।

और यह जो अनंत काल व्यतीत होगा पुराने कर्मों को तोड़ने में, इस बीच भी नए कर्म निर्मित होंगे। तोड़ना भी कर्म है। किसी कर्म से छूटने की चेष्टा नया कर्म और नए कर्म की शुरुआत है। तब तो जाल दुष्टचक्र जैसा है। इसके बाहर होना मुश्किल है।

कुछ तो करोगे! अधर्म न करोगे, धर्म करोगे। पाप न करोगे, पुण्य करोगे। लेकिन महावीर कहते हैं, पुण्य भी वैसे ही बांध लेता है, जैसे पाप। बुरा करनेवाले का भी अहंकार होता है, भला करनेवाले का भी अहंकार होता है; और कभी-कभी तो बुरा करनेवाले से ज्यादा सघन होता है। बुरा करनेवाले को तो थोड़ी पीड़ा भी होती है, दीनता भी होती है, अपराध भाव भी होता है। भला करने का अहंकार तो स्वर्णमंडित हो जाता है। उसमें हीरे-जवाहरात टक जाते हैं। भला करनेवाले का अहंकार तो पुण्य से शोभायमान हो जाता है, प्रदीप्त हो जाता है।

ठीक भी करें तो भी करनेवाले की मजबूती बढ़ती है, कर्ता का भाव बढ़ता है। मंदिर बनाओ, दान दो, उपवास करो, तप करो तो भी हर कृत्य से कर्ता मजबूत होता है। और कर्ता का मजबूत होना ही संसार है। कर्ता का मजबूत होना ही संसार में वापस लौट आने की सीढ़ी है।

कर्ता क्षीण होना चाहिए।

कर्ता क्षीण होगा तो कर्म क्षीण होंगे।

धीरे-धीरे यह भाव ही मिट जाना चाहिए कि मेरे भीतर कोई कर्ता है। सिर्फ साक्षी शेष रहे। सिर्फ द्रष्टा शेष रहे।

तो कर्म को कर्म से काटा नहीं जा सकता। न पाप को पुण्य से काटा जा सकता है। क्योंकि यह हो सकता है, पाप की जगह पुण्य रख लो, लेकिन बंधन बदलेंगे नहीं; रूपांतरित भला हो जाएं। पहले से सुंदर हो जाएं; ज्यादा सजे-बजे हो जाएं; पहले से ज्यादा शृंगार हो जाए उनका। हथकड़ियों पर सोना मढ़ा जा सकता है, लेकिन हथकड़ियों को इस तरह तोड़ने का कोई उपाय नहीं है। कर्म से कर्म नहीं टूटता।

तो फिर कर्म कैसे टूटेगा?

अगर कर्म से कर्म नहीं टूटता तो क्या आदमी के लिए कोई भी आशा नहीं है? अगर हर कृत्य नए जाल को बना जाएगा तो फिर हम इस जाल के कभी बाहर हो सकेंगे या न हो सकेंगे?

महावीर कहते हैं, बाहर हुआ जा सकता है, लेकिन कर्म द्वार नहीं है बाहर होने का। कर्म ही तो संसार में आने की व्यवस्था है। अकर्म द्वार है।

ध्यान का अर्थ है: अकर्म की दशा।

ध्यान का अर्थ है: साक्षी की दशा।

ध्यान का अर्थ है: ऐसी जागरूक चेतना, जो कृत्य के साथ अपना तादात्म्य नहीं करती।

राह चलते हो तुम, लेकिन भीतर कोई जागकर देखता रहता है कि मैं नहीं चल रहा हूं, शरीर चल रहा है। मैं तो देख रहा हूं कि शरीर चल रहा है।

भूख लगती है, भीतर कोई देखता रहता है, भूख मुझे नहीं लगी है, शरीर को लगी है। भोजन किया जाता है, शरीर में भोजन डाला जा रहा है, कोई भीतर जागकर देखता रहता है। तृप्ति हो जाती है, भूख मिट जाती है, कोई भीतर साक्षी की तरह अवलोकन करता रहता है कि अब भूख मिट गई, शरीर तृप्त है। लेकिन किसी भी स्थिति में अपने को जोड़ता नहीं कृत्य से।

कृत्य से तोड़ लेने का नाम ध्यान है।

चौबीस घंटे कृत्य हो रहे हैं। कुछ न भी करो, खाली बैठे रहो तो भी श्वास चलती है; तो भी कृत्य हो रहा है। तुम कहते हो कि मैं श्वास ले रहा हूं। हालांकि तुमने कभी सोचा नहीं कि इससे ज्यादा झूठी बात क्या होगी, कि तुम कहते हो, मैं श्वास ले रहा हूं। जब श्वास न आएगी तब ले सकोगे? जब रुक जाएगी तब तुम कहोगे, कोई फिक्र नहीं, मैं तो लेना जारी रखूंगा? जो श्वास बाहर गई और न लौटी तो तुम लौटा सकोगे?

उस वक्त पता चलेगा कि श्वास भी मैं नहीं ले रहा था, श्वास चल रही थी। और चलने की क्रिया के साथ मैंने नाहक ही अपने को कर्ता की तरह जोड़ लिया था। भूख तुम्हें लगी है? भूख तुमने लगाई है? लग रही है, सच है; लेकिन तुम नाहक बीच में जुड़ जाते हो। तुम दूर खड़े देख सकते हो। भूख शरीर में घटनेवाली घटना है।

महावीर ने इसीलिए उपवास पर बड़ा जोर दिया। वह उपवास आत्मदमन के लिए नहीं था; जैसा जैन मुनि करते रहे। महावीर का उपवास शरीर को पीड़ा देने के लिए नहीं था। महावीर का उपवास तो सिर्फ एक भीतर अवकाश पैदा करने के लिए था कि चेतना जागकर देखती रहे। जैसे-जैसे भूख सघन होती जाए, वैसे-वैसे संभावना बढ़ती है कि तादात्म्य पैदा हो जाए। जब भूख बहुत जोर से हो तो तुम भूल ही जाओ कि मैं साक्षी हूं। भूख थोड़ी-थोड़ी लगी हो, भोजन पास में हो, फ्रिज के पास ही बैठे हो, चौके से सुगंध आ रही है, तब शायद तुम ध्यान की बातों का मजा भी ले लो। तुम कहो, कहां भूख! मैं तो साक्षी हूं। भूख इतनी नहीं है। साक्षी होने में कुछ खर्च नहीं हो रहा है। लेकिन जब भूख पीड़ा की तरह चुभे, छाती में गहरी उतरती जाए, रोआं-रोआं चीखने-चिल्लाने लगे, तब ध्यान रखना कठिन होता चला जाएगा।

महावीर ने उपवास को सिर्फ ध्यान की प्रक्रिया समझा। ऐसी घड़ी आती है, जहां भूख अपने प्रचंड वेग में खड़ी होती है कि आदमी पागल हो जाए; कि आदमी कुछ भी खा ले; कि चोरी कर ले, कि हत्या कर दे।

रेगिस्तान में चलनेवाले लोगों का अनुभव है कि कभी प्यास ऐसी लग आती है कि आदमी अपनी पेशाब पी जाता है, पानी न मिले तो। ऊंट की पेशाब पी जाता है, अगर पानी न मिले तो। ऐसी प्यास लग सकती है रेगिस्तान में कि आदमी को होश ही न रह जाए, साक्षी की तो बात और। यह भी खयाल न रहे, मैं क्या पी रहा हूं।

ये तो सब सुविधा की बातें हैं कि तुम कहते हो, जल शुद्ध है या नहीं? छना है या नहीं? ये तो सुविधा की बातें हैं कि तुम कहते हो कि प्राशुक है? उबाला गया है, या किसी गंदी नाली से भर लाए हो? ये सुविधा की बातें हैं। रेगिस्तान में जब प्यास पकड़ी हो, सामने नाली भी पड़ जाए गंदगी से बहती, तो भी आदमी पी लेगा। महावीर ने इसको महत्वपूर्ण प्रयोग बनाया। क्योंकि भूख बड़ी गहरी बात है; सबसे गहरी बात है।

आदमी के जीवन में दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं: एक है कामवासना और एक है भूखवासना। कामवासना से समाज जीता है। कामवासना समाज का भोजन है। अगर तुम कामवासना को रोक लो तो तुमने समाज की एक शाखा को तोड़ दिया। अब आगे कोई संतति पैदा न होगी। तुम्हारी कामवासना से तुम्हारे बच्चे जीते हैं। तुम्हारी कामवासना से जीवन जीता है, संसार चलता है।

तो कामवासना संसार के लिए भोजन है। उसके बिना संसार मरेगा। अगर सभी लोग ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाएं तो संसार तत्क्षण रुक जाएगा।

इसलिए पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक इमेन्युएल कांट ने ब्रह्मचर्य को पाप कहा। उसकी बात में बल है। वह कहता है, ब्रह्मचर्य तो एक तरह की हिंसा है। तुम किसी को पैदा होने से रोक रहे हो। तो किसी को जिंदा रहकर मारो या पैदा होने से रोको, बात तो बराबर है। किसी की गर्दन काटो, या किसी को पैदा न होने दो। पैदा न होने देने का मतलब हुआ कि तुमने गर्दन बनने के पहले ही काट दी।

फिर इमेन्युएल कांट ने कहा कि नीतिशास्त्र का आधारभूत नियम है कि जिस सूत्र को मानकर हम चलें उसके मानने से ऐसी घटना नहीं घटनी चाहिए कि उस सूत्र को मानना ही असंभव हो जाए। नहीं तो वह आत्मघाती सूत्र हुआ।

जैसे समझो, इमेन्युएल कांट कहता है, झूठ बोलना पाप है, अनैतिक है। क्योंकि अगर सभी लोग झूठ बोलने लगे तो झूठ बोलना संभव न रह जाएगा। झूठ तो चलता इसीलिए है कि कुछ लोग अभी भी सच में भरोसा करते हैं। झूठ झूठ के कारण नहीं चलता, सच पर भरोसा करनेवालों के कारण चलता है। झूठ के अपने पैर नहीं हैं। सच की बैसाखी को लेकर चलता है। इसीलिए तो झूठ बोलनेवाला बड़ा दावा करता है कि मैं सच बोल रहा हूं। जब तक वह तुम्हें भरोसा न दिला दे कि मैं सच बोल रहा हूं, तब तक झूठ बोलने का अवसर नहीं, उपाय नहीं।

एक अदालत में मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा था। एक बहुत सीधे-सादे, साधु पुरुष को उसने धोखा दे दिया। उसकी जेब काट ली। पुरानी मित्रता थी और साधु पुरुष था; इस पर भरोसा करता था। गांव भर को पता था कि वह आदमी अत्यंत साधु है। मजिस्ट्रेट को भी पता था। मजिस्ट्रेट ने कहा, “नसरुद्दीन! किसी और को धोखा देते। यह तुम्हारा पुराना मित्र, बचपन का साथी। गांव में साधु की तरह पूजा जाता, इसकी तुमने जेब काटी? तुम्हें संकोच न हुआ? जो इतना भरोसा करता है तुम पर, उसकी जेब काटी?’

नसरुद्दीन ने कहा, “तो और किसकी काटूं? वह जो भरोसा करता है, उसी की काटी जा सकती है। जो भरोसा नहीं करता उसकी तो काटनी मुश्किल है।’

साधु को ही धोखा दिया जा सकता है; धोखेबाज को कैसे दोगे? ईमानदार के साथ ही बेईमानी की जा सकती है; बेईमान के साथ कैसे करोगे?

इमेन्युएल कांट ने कहा, कि जिस सूत्र को मानने से उस सूत्र को मानना असंभव हो जाए, वह अनैतिक है। तो झूठ अगर सभी लोग मान लें, अगर झूठ सार्वलौकिक हो जाए, युनिवर्सल हो जाए तो झूठ असंभव हो जाएगा। अगर यह घोषणा कर दी जाए कि सभी लोग झूठ बोलते हैं और सभी लोगों को झूठ बोलना ही धर्म है तो उसी दिन झूठ मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि कौन तुम्हारा भरोसा करेगा? तुम सच भी कहो तो लोग समझेंगे, झूठ बोल रहे हो।

अगर चोरी नियम हो तो चोरी असंभव हो जाएगी। अगर सभी लोग चोरी कर रहे हों तो चोरी का अर्थ क्या है? एक घर से दूसरे घर चीजें उठाकर रखने में फायदा क्या है? सार क्या है? जहां सभी चोर हों…इसलिए तुमने देखा होगा, कि चोरों के जो मंडल होते हैं, वे आपस में चोरी नहीं करते। क्योंकि वहां तो नियम मानकर चलना चाहिए कि चोरी नहीं। नहीं तो जीवन ही मुश्किल हो जाएगा।

इमेन्युएल कांट ने कहा है, ऐसा ही ब्रह्मचर्य भी है। अगर सभी लोग ब्रह्मचारी हो जाएं तो इस जगत में ब्रह्मचर्य को पालन करने के लिए भी कोई न बचेगा। इसका अर्थ हुआ कि अगर दुनिया में ब्रह्मचारी चाहिए तो कुछ कामी चाहिए ही होंगे; नहीं तो ब्रह्मचारी न बचेंगे।

तो ब्रह्मचर्य का नियम सार्वलौकिक नहीं हो सकता। इसके मानने के लिए भी, इसके माननेवालों के होने के लिए भी, इसको तोड़नेवालों की जरूरत है।

महावीर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकते हैं क्योंकि महावीर के माता-पिता ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं थे। अगर महावीर के माता-पिता ने ही ब्रह्मचर्य साधा होता तो महावीर के होने की संभावना ही न थी। तो महावीर के होने के लिए महावीर के माता-पिता की कामवासना को धन्यवाद तो देना ही होगा। बुद्ध को, या कृष्ण को, या क्राइस्ट को होने के लिए भी कामवासना का सहारा ही लेकर आना पड़ेगा।

इसे समझने की जरूरत है।

ब्रह्मचर्य जीवन का समाप्त–अंतिम अध्याय होगा; अंतिम पटाक्षेप हो जाएगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ब्रह्मचर्य पालन मत करना। क्योंकि सभी ब्रह्मचर्य पालन कर सकें, यह असंभव है। एक भी पालन कर पाए, यह भी बड़ा कठिन है, तो सभी कर पाएंगे यह तो असंभव है।

इमेन्युएल कांट ने असंभव की बात को संभव मानकर गलत सिद्ध करने की चेष्टा की है। यह होनेवाला नहीं है। लाखों वर्षों से आदमी ब्रह्मचर्य की चर्चा करता है, शास्त्र लिखता है। कभी कोई एकाध व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो पाता है। यह बात कठिन है।

मैं यह कह रहा हूं कि कामवासना दूसरों का भोजन है, भविष्य का भोजन है, आनेवाली पीढ़ियों का भोजन है। इसीलिए कामवासना का इतना प्रबल प्रभाव है। तुम्हारे बच्चे तुमसे आने को तड़फ रहे हैं। इसलिए तुम लाख चेष्टा करो ब्रह्मचर्य साधने की, उनके प्राण संकट में पड़े हैं। वे धक्के मारेंगे। वे तुम्हारे नियम तोड़ेंगे, तुम्हारी प्रतिज्ञा का खंडन करेंगे और जन्म लेने की आतुरता प्रगट करेंगे।

जब तुम्हारे भीतर कामवासना उठती है तो वह भी तुम्हारी नहीं है। वह भी आनेवाले जन्मों का, आनेवाले जीवनों का आकर्षण है, खिंचाव है। तुमसे आनेवाले जीवन कह रहे हैं कि अपना काम पूरा करो। इसके पहले कि तुम विदा हो जाओ, तुम माध्यम बनो। जीवन की शृंखला जारी रहे।

तो एक तो कामवासना का आदमी पर बड़ा प्रभाव है। लेकिन वह इतना बड़ा प्रभाव नहीं है कि आदमी ब्रह्मचर्य से न रह सके। क्योंकि दूसरे का जीवन संकट में पड़ता है, तुम्हारा तो पड़ता नहीं। तुम तो हो। तुम्हारा तो पड़ता–तुम्हारे मां बाप, उनके मां बाप अगर ब्रह्मचर्य का नियम लेते। तुम तो हो गए। तुम तो हो। तुम्हारा तो अब कोई संकट में पड़ने का कोई कारण नहीं है।

दूसरी महत्वपूर्ण वासना है भोजन की। वह कामवासना से ज्यादा गहरी है, क्योंकि उससे तुम्हारा ही जीवन संकट में पड़ता है। कामवासना से कोई होनेवाले लोग, जिनका हमें कोई पता नहीं है, न होंगे। क्या लेना-देना है? लेकिन भोजन छोड़ने से तुम नहीं हो जाओगे।

तो महावीर ने उपवास को बड़ा गहरा प्रयोग बनाया। जैसे-जैसे भूख बढ़ती जाती है, तुम्हारा जीवन संकट में पड़ता है, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर होश की क्षमता क्षीण होती जाती है। भूखा क्या न करता?

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, भूख सब पापों की जड़ है। शायद सच कहते हैं। जब तक भूख न मिटे, दुनिया से शायद पाप मिट भी न सकेंगे। भूखा कुछ भी कर सकता है। और भूखा कुछ करे तो क्षम्य भी मालूम पड़ता है।

महावीर ने गहरे उपवास किए। सिर्फ एक बात जानने के लिए कि क्या ऐसी भी कोई सीमा है भूख की, जहां मेरा होश खो जाता हो? क्या ऐसी भी कोई सीमा आती है, जहां कि मैं भूल जाऊं कि मैं साक्षी हूं और कर्ता हो जाऊं?

इस गहरे परीक्षण के लिए उपवास। उपवास आत्मदमन नहीं है महावीर का, ध्यान का एक गहन प्रयोग है। उपवास शब्द में भी वह बात छिपी है। इसलिए महावीर ने उपवास को अनशन नहीं कहा, भूखा रहना नहीं कहा, उपवास कहा। उपवास का अर्थ होता है: अपने निकट होना। अपने निकट वास। उपवास का अर्थ होता है: आत्मा के पास होना। उपवास का अर्थ होता है, कर्ता से हटना, साक्षी की तरफ धीरे-धीरे सरकना।

तो तुम कुछ भी करो, उस करने में अगर साक्षीभाव बना रहे तो धीरे-धीरे कर्ता से मुक्ति हो जाती है। और कर्ता से मुक्ति होते ही सारे कर्मों का जाल, अनंत जन्मों का, एक क्षण में भस्मीभूत हो जाता है।

यह महावीर की बड़ी अनूठी उदघोषणा है। इस उदघोषणा में ही मनुष्य की संभावना है।

अगर ऐसा नहीं होता तो फिर मोक्ष की कोई संभावना मानी नहीं जा सकती। अगर हम कर्म से ही छूटकर मुक्त हो सकेंगे तो फिर हम कर्म से कभी छूट नहीं सकते। कर्ता से छूटने से अगर मुक्ति होती हो तो मुक्ति संभव है।

इसे खयाल में रख लेना। यही गीता का भी आत्यंतिक संदेश है कि अर्जुन, तू कर्ता न रह जा। बड़े दूसरे मार्ग से कृष्ण इसी निष्पत्ति पर पहुंचते हैं कि अर्जुन, तू कर्ता न रह जा। तू कर्म की फिक्र छोड़। कर्म तो होता रहा, होता रहेगा। तू ऐसा भाव छोड़ दे कि मैं कर रहा हूं।

महावीर की और गीता की भाषा बड़ी विपरीत है। इसलिए यह समझना भी जरूरी है कि कभी-कभी विपरीत भाषाओं से भी एक ही सत्य की उदघोषणा होती है। भाषा में मत उलझ जाना। जैन गीता को पढ़ते भी नहीं। जैनों के लिए गीता में कुछ सार भी नहीं मालूम होता। सार तो दूर, खतरनाक मालूम होती है, हिंसात्मक मालूम होती इ।

हिंदुओं ने महावीर का उल्लेख ही नहीं किया अपने शास्त्रों में। इतना जीवंत व्यक्ति इस भूमि पर चला, हिंदू शास्त्रों में उल्लेख भी नहीं है। इससे गहरी और निंदा और विरोध क्या हो सकता था? जैनों ने तो फिर भी कम से कम थोड़ी भलमनसाहत की। कृष्ण का उल्लेख तो किया। माना कि नर्क में डाला, माना कि कृष्ण मरकर सातवें नर्क गए, मगर फिर भी इतना सम्मान तो दिया कि उल्लेख किया–निंदा के लिए सही! भूले तो नहीं, बिसराया तो नहीं। लेकिन हिंदुओं ने तो हद्द कर दी। उन्होंने महावीर को नर्क में डालने योग्य भी न माना। महावीर का उल्लेख ही न किया। अगर बौद्ध शास्त्र न हों तो महावीर का उल्लेख सिर्फ जैन शास्त्रों में रह जाएगा। और अगर बौद्ध शास्त्र न हों तो जैनों के पास प्रमाण जुटाना भी मुश्किल हो जाएगा कि महावीर कभी हुए।

इसीलिए जब पहली दफा हिंदू शास्त्रों का पश्चिम में अनुवाद हुआ तो पश्चिम के विचारकों ने यही समझा कि महावीर बुद्ध का ही एक नाम है। मूर्ति एक जैसी लगती भी है। उपदेश भी अहिंसा का कुछ एक जैसा मालूम पड़ता है। यह बुद्ध का ही एक रूप है। महावीर को स्वीकार ही नहीं किया था। क्योंकि हिंदू शास्त्रों में कहीं उल्लेख ही नहीं।

कारण क्या रहा होगा?

भाषा बड़ी भिन्न है। भिन्न ही कहनी ठीक नहीं, ठीक विपरीत है। एक अगर रात कहता तो दूसरा दिन कहता; ऐसा फासला है। जमीन और पृथ्वी का फसला है। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि दोनों एक ही बात कहना चाह रहे हैं। कृष्ण ईश्वर की धारणा का उपयोग करते हैं उस बात को कहने के लिए। वे कहते हैं, ईश्वर कर्ता है, तू निमित्त। तू साक्षीभाव से जो हो रहा है, होने दे। इतना भर खयाल छोड़ दे कि मैं कर रहा हूं। फिर जो करवाए परमात्मा, कर।

महावीर परमात्मा की धारणा का उपयोग नहीं करते। उनकी भाषा में परमात्मा का कोई प्रत्यय, कोई प्रतीक नहीं है। वे इतना ही कहते हैं, तू साक्षीभाव से कर। ध्यान की आत्यंतिक गहराई में, साक्षीभाव की परमदशा में अचानक तू जागकर देखेगा कि तुझसे अब तक जो हुआ था वह तुझसे हुआ ही नहीं था।

यही अर्थ है कि सारे कर्म भस्मीभूत हो जाते हैं। वह तूने स्वप्न में किया था। वह कभी हुआ ही नहीं। सपने के खयाल थे। सपने में बुदबुदाया था। सपने में कुछ सोचा था कि कर रहा हूं, कुछ हो रहा है। सुबह जागकर पाया है कि सब सपने व्यर्थ हैं। सुबह जागकर तू हंसा है कि रात जो देखा, कितना सत्य मालूम पड़ता था! कितना यथार्थ मालूम पड़ता था। जागते ही सब खो जाता है।

कभी एक प्रयोग करो छोटा। सपने में जागने की चेष्टा करो। कठिन है, लेकिन हो जाता है। अगर रोज-रोज इसी धारणा को लेकर रात सोओ कि सपने में चेष्टा करूंगा कि जाग जाऊं; कि सपने को जान लूं कि सपना है। ऐसा अगर रोज रात को सोते वक्त यही धारणा, यही भावना करते-करते सोओ तो तीन और नौ महीने के बीच किसी न किसी दिन ऐसी घटना घटेगी कि अचानक तुम सपना देख रहे होओगे और भीतर स्मरण आ जाएगा कि अरे! यह तो सपना है। और एक तब अनूठा मीठा अनुभव होता है। बड़ा अदभुत, बड़ा अनुपम, अपूर्व। क्योंकि जैसे ही तुम्हें याद आता है कि अरे! यह तो सपना है कि सपना तत्क्षण खो जाता है। और उस सपने के खोने में पहली दफे तुम्हें पता चलता है कि होश में आना और सपने का टूट जाना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

ऐसा ही जीवन भी एक बड़ा सपना है।

महावीर माया शब्द का भी उपयोग नहीं करते। क्योंकि माया शब्द के उपयोग के लिए भी परमात्मा का होना जरूरी है। वह परमात्मा की शक्ति हो तो माया। कोई मायावी हो तो माया। कोई जादूगर हो तो जादू। कोई जादूगर तो है नहीं महावीर की भाषा में, इसलिए कोई माया भी नहीं है।

लेकिन यह सूत्र घोषणा कर रहा है कि जो कर्म केवल ध्यान में उतरने से समाप्त हो जाते हैं, वे वस्तुतः न रहे होंगे। अगर रहते तो ध्यान में उतरने से क्या होता था? ध्यान में उतरने से सत्य थोड़े ही बदलता है। ध्यान में उतरने से केवल माया ही बदल सकती है।

तुम कमरे में बैठे हो, आंखें झपकी हैं, सपना ले रहे हो। अगर जाग जाओगे तो सपना टूट जाएगा, लेकिन तुम्हारे जागने से कमरे की कुर्सी, फर्निचर, दीवालें थोड़े ही समाप्त हो जाएंगी! जो है, वह तो तुम्हारे ध्यान में जाने से नष्ट नहीं होगा। वस्तुतः तुम जैसे ध्यान में जाओगे, प्रगट होगा, पूरे रूप में प्रगट होगा, जो है। जो नहीं है, वहीं खो जाएगा।

इस सूत्र का मैं यह अर्थ करता हूं कि महावीर यह कह रहे हैं कि तुमने अब तक जो किया है, हुआ, वह सब सपने में हुआ है। जागते ही एक क्षण में मिट जाएगा।

जह चिरसंचयमिंधण-मनलो पवणसहिओ दुयं दहइ।

“जैसे चिर-संचित ईंधन को वायु से प्रदीप्त आग तत्काल जला डालती है…।’

तह कम्मेंधणममियं, खणेण झाणानलो डहइ।।

“…वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है।’

“मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के चिंतवन में लीन रहे।’

यह भी खयाल में रखना कि महावीर अकेले चिंतक हैं, जिन्होंने ध्यान को धर्म और अधर्म, दो खंडों में बांटा। अकेले! पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में। पतंजलि ने वैसा नहीं किया, बुद्ध ने वैसा नहीं किया, कृष्ण ने वैसा नहीं किया। अकेले महावीर ने ध्यान को धर्म और अधर्म, दो में बांटा। और इसमें बड़ी वैज्ञानिक सूझ है। यह उनका अनुपम दान है।

मनुष्य-जाति को सभी जाग्रत पुरुषों ने कुछ दिया है, जो विशिष्ट है। कुछ है, जो सामान्य है; जो सभी ने दिया है। कुछ है, जो एक-एक ने दिया है और विशिष्ट है। यह महावीर की विशिष्ट देन है ध्यान के शास्त्र और विज्ञान को। महावीर कहते हैं, अधर्म ध्यान और धर्म ध्यान।

थोड़े तुम चौंकोगे। अधर्म ध्यान? ध्यान से तो हम संबंध ही धर्म का जोड़ते हैं। लेकिन महावीर की पहुंच गहरी है। महावीर कहते हैं, कुछ ऐसी घड़ियां हैं, जो अधर्म की होती हैं, लेकिन ध्यान बंध जाता है।

जैसे जुआरी जुआ खेल रहा है; जब वह पांसे हाथ में लेकर चल रहा है तो उसके चित्त में बड़ी एकाग्रता होती है। ऐसा भी हो सकता है कि मंदिर में जो माला जप रहा है, उससे ज्यादा एकाग्रता जुआरी जब पांसे हाथ में लेकर चलता हो, तब हो।

कोई हत्यारा किसी को मारने जा रहा है, तब बड़ा एकाग्र होता है। कोई विचार नहीं उठते। इधर-उधर सोच भी नहीं जाता। तीर की तरह एक ही बात, एक ही भाव, एक हवा, उसे घेरे रखती है।

तुमने भी कभी देखा हो, शायद जुआ न खेला हो, हत्या भी न की हो, लेकिन कभी क्रोध में थोड़ी-बहुत झलक आयी होगी। हो सकता है क्रोध का मजा भी यही हो कि ध्यान बंध जाता है। क्रोधी आदमी क्रोध के क्षण में सब भूल जाता है। इसीलिए तो अक्सर क्रोध के बाद तुम कहते हो, मेरे बावजूद हो गया। मैं करना नहीं चाहता था और हो गया।

तुम्हारे बावजूद? तुम्हारा मतलब क्या? किया तो तुम्हीं ने। हुआ तो तुम्हीं से। साथ तुम्हारा था।

लेकिन तुम कहते हो, सब मैं भूल ही गया। बेहोश था। कुछ याद ही न रहा। न नियम याद रहे, न शिष्टाचार याद रहा। और खुद की खायी कसमें भी याद न रहीं। कितनी बार तय किया कि नहीं करूंगा क्रोध, फिर हो गया।

लेकिन जब क्रोध पकड़ता है तो आदमी एकदम एकाग्र हो जाता है। महावीर ने इसको रौद्र ध्यान कहा है–क्रोध में।

कामवासना में भी आदमी ध्यान से भर जाता है।

मैंने सुना है, एक आदमी को पकड़ा गया क्योंकि उसने एक राह के किनारे बैठे दुकानदार की थैली झपट ली; रुपयों की थैली झपट ली। वह दुकानदार रुपये गिन रहा था और थैली में डाल रहा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तू भी खूब चोर है। चोर हमने बहुत देखे, भरे बाजार में, भरी दुपहरी में इतने आदमी वहां खड़े थे, यह पुलिसवाला भी चौरस्ते पर मौजूद था, यह तेरे को चोरी करने का वक्त मिला?

उसने कहा, उस समय मुझे सिवाय थैली और रुपये के कोई भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। उस समय बस, यह थैली और रुपये दिखाई पड़ रहे थे। और सब मेरे ध्यान से उतर गया था। मेरा ध्यान बिलकुल थैली पर लग गया था। न मुझे पुलिसवाला दिखाई पड़ा…।

तुमने देखा, कामातुर आदमी को कुछ दिखाई नहीं पड़ता! तुलसीदास की कथा है कि एक मुर्दे की लाश का सहारा लेकर नदी पार गए। पत्नी से मिलने जा रहे थे। गहरा कामांध भाव रहा होगा। याद भी न आयी कि यह लाश है। समझा कि कोई लकड़ी का डूंगर बहा जाता है। फिर कहते हैं, पत्नी के घर पहुंचकर, लटके सांप को पकड़कर जीना चढ़ गए–सोचकर कि रस्सी है।

पत्नी ने जो कहा, निश्चित ही कुछ न कुछ महावीर के धर्म और अधर्म ध्यान का पता तुलसीदास की पत्नी को रहा होगा। क्योंकि पत्नी ने कहा कि इतना ध्यान तुम अगर राम पर लगा देते, जितना तुमने मुझ पर लगाया है, तो परम आनंद और परम मुक्ति तुम्हें उपलब्ध हो जाती। इतना ध्यान, जो तुमने काम पर लगाया, अगर राम पर लगा देते…।

और वही घटना तुलसीदास के जीवन में क्रांति बनी। वह एक शब्द चोट कर गया। वह एक शब्द जैसे कुछ छिपे हुए जन्मों-जन्मों की खोज को स्पष्ट कर गया। वह एक शब्द जीवनभर के लिए क्रांतिकारी सूत्र हो गया। समझ में आ गई बात कि काम के लिए इतना ध्यान लगा रहा हूं, इतना राम पर लग जाए तो सब मिल जाए। काम से मिलेगा भी तो क्या मिलेगा?

महावीर दो भाग करते ध्यान के: अधर्म-ध्यान और धर्म-ध्यान। वे कहते हैं ध्यान तो दोनों हैं। अधर्म-ध्यान ऐसा ध्यान है, जिसमें ध्यान तो होता, मिलता कुछ भी नहीं। ध्यान तो होता है; कष्ट मिलता है, दुख मिलता है, पीड़ा मिलती है। ध्यान तो है लेकिन गलत दिशा में आरोपित है।

धर्म-ध्यान का अर्थ है: वही ध्यान, जो गलत दिशा में आरोपित था, ठीक दिशा में लगा। काम से मुड़ा, राम की तरफ लगा। धन से हटा, धर्म की तरफ लगा। क्रोध से हटा, करुणा पर बरसा।

“मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे…।’

पहले अधर्म-ध्यान से हटे और धर्म-ध्यान में लगे। पहले उन-उन विषयों से अपने ध्यान को मुक्त करे, जिनसे जन्मों-जन्मों में सिवाय कांटों के और कुछ भी न मिला। फूल का आश्वासन रहा, हाथ जब आए, कांटे आए। दरवाजा दूर से दिखा, पास जब आए, सिर दीवाल से टकराया। दूर से सब स्वर्णिम मालूम पड़ा, पास आते-आते सब मिट्टी हो गया।

इस अनुभव के आधार पर पहले तो ध्यान की ऊर्जा को अधर्म से मुक्त करना है क्योंकि यही ऊर्जा धर्म में लगेगी। अगर यह ऊर्जा अधर्म से मुक्त नहीं है तो तुम्हारे पास धर्म में लगाने को ऊर्जा न होगी।

इसलिए अक्सर होता है–तुम्हें भी हुआ होगा, मुझे बहुत लोग आकर कहते हैं–कि मंदिर में जाकर बैठते हैं, माला जपते हैं, तब न मालूम कहां-कहां के खयाल आते हैं। ये वे ही खयाल हैं, जिन पर तुमने अब तक ध्यान किया है। ये हर कहीं से नहीं आ रहे हैं, आकाश से नहीं आ रहे हैं। ये तुम्हारे पुराने अभ्यास से आ रहे हैं, और इसीलिए आ रहे हैं कि अब तक तुम्हारे चित्त ने जिस चीज को ध्यान जाना, वही तो आएगा, जब तुम ध्यान करने बैठोगे। पुराना एसोसिएशन, पुराना साहचर्य, पुराना संबंध।

पावलोव ने बड़े प्रयोग किये मनुष्य के संस्कारों पर। उसका बड़ा जाहिर, प्रसिद्ध प्रयोग है कि एक कुत्ते को रोटी देता है। जब उसके सामने रोटी रखता है तो कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगती है। साथ में वह घंटी बजाता है। ऐसा रोज करता है पंद्रह दिन तक। रोटी देता है, घंटी बजाता है, लार टपकती है। फिर सोलहवें दिन रोटी नहीं देता, सिर्फ घंटी बजाता है, और लार टपकती है। अब लार से और घंटी का कोई भी संबंध नहीं है। तुम किसी कुत्ते के सामने घंटी बजाओ, वह लार नहीं टपकाएगा; लेकिन पावलोव का कुत्ता टपकाता है।

पावलोव ने यह सिद्धांत निकाला इससे, कि रोटी और लार का तो संबंध था, दोनों के बीच में घंटी भी समा गई। दोनों के साथ-साथ घंटी भी जुड़ गई।

इसलिए अक्सर तुम्हें भी हुआ होगा। पावलोव ने न भी किया हो प्रयोग, तुम अपने पर कर सकते हो। तुम अगर रोज एक बजे भोजन करते हो, एकदम घड़ी में तुमने देखा, एक बजा–भूख लगी। अभी एक क्षण पहले तक भूख का पता भी न था। और हो सकता है, घड़ी बिगड़ी हो और एक अभी बजा न हो, अभी ग्यारह ही बजे हों। लेकिन देखा, एक बज गया, एकदम कौंध की तरह भीतर कोई भूख जग आयी…साहचर्य!

तुमने अब तक जहां भी ध्यान किया है–कभी क्रोध पर किया, कभी काम पर किया, कभी धन पर किया। फिर तुम मंदिर गए। तुम कहते हो, ध्यान करने जा रहे हैं। तो तुमने जहां-जहां ध्यान किया है, वहां-वहां ध्यान जुड़ गया। घंटी से लार बंध गई। एक बजे से भूख जुड़ गई। अब तुम मंदिर में बैठे, एक बजने लगा, घंटी बजने लगी। अब तुम मंदिर में बैठे, तुम कहते हो, ध्यान करना है। माला फेरने लगे। तुम कहते हो जैसे ही कि ध्यान करना है, मन में न मालूम कितने कूड़ा-कर्कट उठने लगे। क्योंकि तुम्हीं उठा रहे हो उनको। तुम कहते हो, ध्यान करना है। और ध्यान तुमने जिन-जिन चीजों पर किया है अब तक, उनका अभ्यास प्रबल है।

कोई सुंदर स्त्री खड़ी हो गई। तुम झिड़कते हो कि हटो भी! मैं ध्यान कर रहा हूं। यह मंदिर है, यह कोई वेश्यालय नहीं है। मैं यहां पूजा-पाठ करने आया, ध्यान करने आया, माला फेर रहा हूं। हटो भी! लेकिन तुम जितना हटाते हो, माला तो याद नहीं आती, सुंदर स्त्री खड़ी होऱ्हो जाती है। तुम चकित भी होते हो कि यह सुंदर स्त्री, जब दुकान पर बैठकर धन कमा रहा हूं, तब इतना नहीं सताती। यह मंदिर में क्यों पीछा करती है?

ऋषि-मुनियों की कथाएं हैं, अप्सराएं सता रही हैं उनको। कोई किसी को सताएगा? अप्सराओं को क्या पड़ी है? ऋषि-मुनियों से क्या लेना-देना! और सताना ही होता तो कोई ढंग के आदमी चुनतीं–ऋषि-मुनि! सूखे, हड्डी-कंकाल! काफी समय हो गया तब मर चुके। न देह में सौंदर्य रहा, न देह में रस रहा। इनको अप्सराएं स्वर्ग से सताने आ रही हैं!

कहीं कुछ गड़बड़ है। ऋषि के मन में ध्यान के पुराने साहचर्य, संबंध बने हैं। स्त्रियों पर ध्यान किया होगा। अब कहते हैं, चौबीस घंटे ध्यान करने वृक्ष के नीचे गुफा में आकर बैठ गए हैं। ध्यान शब्द ही अधर्म से जुड़ा रहा है जन्मों-जन्मों तक। तो जब तुम धर्म के नाम पर भी ध्यान करते हो तो अधर्म तुम पर हमला करता है।

महावीर कहते हैं, यह साहचर्य तोड़ना पड़ेगा। जो पावलफ ने ढाई हजार साल बाद रूस में कहा, वह महावीर ने भारत में पच्चीस सौ सदियों पहले कह दिया था कि पहले साहचर्य को तोड़ो। एकदम मंदिर में मत भागे जाओ, पहले बाजार से मुक्त तो हो लो। नहीं तो मंदिर में बैठोगे, अप्सराएं आएंगी। और वे अप्सराएं अगर तुम गौर से देखोगे, तुम भलीभांति पहचान लोगे, कोई अप्सराएं नहीं हैं, यही जमीन की स्त्रियां हैं। यह हो सकता है कि कई स्त्रियों ने मिलकर एक अप्सरा बना दी हो। किसी स्त्री की नाक पसंद पड़ी, किसी स्त्री का कान पसंद पड़ा, किसी की आंख पसंद पड़ी, किसी के ओंठ पसंद पड़े, किसी के शरीर की गंध पसंद पड़ी, किसी के शरीर का अनुपात पसंद पड़ा; ऐसा मन चुनता रहा, ध्यान करता रहा। इन सबको इकट्ठा कर लिया। अब जब तुम ध्यान करने बैठे, तुमने तुम्हारी कल्पना में एक स्त्री खड़ी हुई, जो अप्सरा मालूम होती है। क्योंकि जितनी स्त्रियां तुम जानते हो उनमें से किसी जैसी नहीं लगती, परम सुंदर है।

मगर गौर से खोजना तो तुम पाओगे, अरे! यह नाक कमला की रही, ये कान निर्मला के रहे; ये ओंठ विमला के रहे। अड़चन न होगी। अगर जरा गौर से देखोगे, तो अप्सरा को तोड़कर देखोगे, विश्लेषण करोगे तो सब समझ में आ जाएगा।

जहां-जहां ध्यान किया था, वहां-वहां से खंड इकट्ठे हो गए हैं। यह अप्सरा स्वर्ग से नहीं आयी और किसी इंद्र ने नहीं भेजी, मगर कहानी बड़ी प्रीतिकर है। यह अप्सरा तुम्हारी इंद्रियों से आयी, इसलिए इंद्र ने भेजी। यह तुम्हारी ही इंद्रियों का सार-निचोड़ है। तुम्हारी आंखों ने जो देखा, और जो सार निचोड़ा, तुम्हारे कानों ने जो सुना और सार निचोड़ा, तुम्हारे हाथों ने जो छुआ और सार निचोड़ा। यह तुम्हारी सारी इंद्रियों ने जो निचोड़ा, इन सारी इंद्रियों के पीछे बैठा हुआ मन है, इंद्र। इंद्रियों का मालिक यानी इंद्र। उस मन में जो इकट्ठा हो गया है। अधर्म-ध्यान से जो-जो निष्पत्तियां वहां इकट्ठी हो गई हैं जन्मों-जन्मों की यात्रा में, वे ही जब तुम ध्यान करने बैठोगे, तुम्हारे सामने खड़ी हो जाएंगी। निश्चित ही वे ऐसी कोई भी स्त्री से बहुत सुंदर होंगी, जिनसे तुम परिचित हो।

वास्तविक स्त्रियों से कल्पना की स्त्रियां निश्चित ही सुंदर होती हैं। इसीलिए कवि किसी भी स्त्री से तृप्त नहीं हो पाते। क्योंकि कल्पना की स्त्री उनकी बड़ी सुंदर होती है। सभी स्त्रियां ओछी पड़ जाती हैं। जो लोग साधारण स्त्रियों से तृप्त हो जाते हैं, एक बात का सबूत देते हैं कि उनके पास कल्पना की शक्ति नहीं है; और कुछ सबूत नहीं देते। जितना कल्पना-प्रवण व्यक्ति होगा, जितनी प्रगाढ़ क्षमता होगी कल्पना करने की, उतना ही यह संसार उसे अतृप्त करेगा। क्योंकि उसकी धारणा बड़ी ऊंची होती है। उसकी कल्पना की स्त्रियां एकदम सुगंध की प्रतिमाएं हैं। स्वप्न से निर्मित, फूलों के पराग से निर्मित, चांद की चांदनी से, हवाओं की ताजगी से, ओस की ताजगी से निर्मित। साधारण स्त्री, साधारण पुरुष बहुत स्थूल है, बहुत पार्थिव है; उसकी कल्पना बड़ी पारलौकिक है।

जब ऋषियों को अप्सराओं ने घेरा तो किसी ने नहीं घेरा। ये किसी स्वर्ग से नहीं आयी हैं, ये ऋषियों की कल्पना से आयी हैं।

महावीर कहते हैं, पहले तो धर्म-ध्यान पर जाना जरूरी है। अधर्म से, अधर्म के विषयों से चित्त को हटाना और धर्म के विषय देना जरूरी है। महावीर बहुत गणितज्ञ, वैज्ञानिक की तरह इंच-इंच बढ़ते हैं। वे कहते हैं, जल्दबाजी में कुछ भी न होगा। एकदम तुम आज तय कर लो कि मंदिर में चले जाओगे; कुछ फर्क न पड़ेगा। मंदिर में बैठोगे, लेकिन रहोगे बाजार में। ऊपर-ऊपर मंदिर में होओगे, भीतर-भीतर बाजार में। बाजार से बड़े पुराने नाते हैं।

“मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे…।’

अधर्म से हटे, धर्म की तरफ गतिमान हो। विषयों को धीरे-धीरे बदले।

और दूसरी बात इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण ध्यान में रखनी जरूरी है कि अधर्म-ध्यान के विषय अधार्मिक हैं। ध्यान तो वही है। धर्म-ध्यान के विषय बदल गए, ध्यान तो वही है।

फिर एक तीसरी अवस्था है, जिसको महावीर समाधि कहते हैं, सम्यकत्व कहते हैं। वस्तुतः समाधि, वस्तुतः निर्विकल्प चित्त की दशा है। वहां कोई भी विषय नहीं रह जाते। वहां तो धर्म-ध्यान से विषयों को छुड़ाना पड़ता है।

पहले ध्यान को गलत विषयों से छुड़ाओ, ठीक विषयों पर लगाओ। ठीक विषयों पर लगाना केवल संक्रमण की प्रक्रिया है, ताकि गलत से छूटने में सहारा मिल जाए। फिर जब गलत से छुटकारा हो जाए तो मत करना ऐसा, कि अब ठीक पर बैठकर रह जाओ। यह तो केवल उपाय था। जैसे बीमार को औषधि देते हैं। बीमारी चली गई, अब औषधि का क्या करना? अब इसे फेंकना होगा। इससे भी मुक्त होना होगा। यह तो केवल बीच का सहारा था; संक्रमण की स्थिति थी।

तो धर्म-ध्यान भी वस्तुतः ध्यान नहीं है, संक्रमण की स्थिति है; सीढ़ी है। फिर तो ध्यान से भी मुक्त होना है। फिर तो ये धर्म के विषय भी छोड़ देने हैं। तभी परम ध्यान होगा। जब कोई भी विषय न रह जाए, तुम्हारी चेतना बचे, चेतना की ज्योति बचे। लेकिन उस ज्योति का प्रकाश किसी चीज पर न पड़ता हो–न धन पर, न धर्म पर; न काम पर, न अकाम पर; न क्रोध पर न करुणा पर।

करुणा का उपयोग कर लेना क्रोध से बचने के लिए; लेकिन फिर करुणा से ग्रसित मत हो जाना। उससे भी पार जाना है। एक ऐसी घड़ी खोजनी है, जहां तुम हो। बस तुम हो। अकेले तुम हो।

उसको महावीर कहते हैं केवल, केवल दशा, कैवल्य, जहां बस तुम हो। ऐसा समझो कि शून्य में कोई दीया जलता हो। जहां प्रकाशित करने को कुछ भी नहीं है, बस प्रकाश है। क्योंकि जो भी चीज मौजूद हो, वह प्रकाश को थोड़ा-सा धूमिल और दूषित करती है। क्योंकि कोई चीज मौजूद हो तो उसकी छाया पड़ती है। कोई चीज मौजूद हो तो अंधेरा पैदा होता है।

निर्विषय चित्त, निर्विकार चित्त तभी संभव है, जब मात्र ध्यान रह जाए–शुद्ध, एकदम शुद्ध। ध्यान के लिए कोई वस्तु न रह जाए, बस ध्यान की ऊर्जा रह जाए।

“मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी…।’

फिर एक घड़ी आती है, जब आदमी धर्म-ध्यान से भी उपरत हो जाता है। उसके भी पार हो जाता है, अतिक्रमण कर जाता है। फिर भी, महावीर कहते हैं, इन थोड़ी-सी बातों का चिंतवन करता रहे।

“…सदा अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के चिंतवन में लीन रहे।’

क्योंकि महावीर कहते हैं, कि चित्त की शक्ति बड़ी प्रबल है। कभी-कभी क्षणभर को तुम पार भी हो जाते हो; और अगर शिथिल हो गए तो चित्त तुम्हें वापस खींच ले सकता है। इसलिए ऐसी घड़ी भी आ जाए कि तुम्हें लगे अब ध्यान की कोई जरूरत नहीं, यह भी महावीर सावधानी बरतने को कहते हैं कि तुम अभी जल्दी से ध्यान छोड़ मत देना। इतनी धारणाओं का चिंतवन करते रहना–

“अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि–इन बारह भावनाओं का चिंतवन जारी रखना।’

इनमें से एक-एक भावना समझने जैसी है। ये महावीर की मूल भित्तियां हैं–ये बारह भावनाएं। जिन्होंने इन बारह भावनाओं को साध लिया, समाधि अपने आप फलित हो जाती है।

“अनित्य’–महावीर कहते हैं, इस बात को सदा स्मरण रखें कि जो भी है यहां, सब क्षणभंगुर है। इसे क्षणभर को न भूलें। क्षणभंगुरता को क्षणभर को न बिसारें। जन्मों-जन्मों का मन पर यह प्रभाव है कि बदलती हुई चीजें थिर मालूम होती हैं।

तुम देखते हो दीवाल, वृक्ष, सब थिर मालूम होते हैं, हालांकि तुम जानते हो, सब बदल रहे हैं। जो फूल कल नहीं था, आज आ गया। जो पत्ते कल थे, गिर गए। यह दीवाल भी जो बहुत मजबूत है, यह भी राख हो जाएगी। यह भी आज नहीं कल रेत होकर बह जाएगी। कितने महल बने और बिखर गए। पहाड़ बनते हैं और खो जाते हैं। सागर बनते हैं और मिट जाते हैं। महाद्वीप के महाद्वीप लीन हो जाते हैं।

लेकिन फिर भी आंखें एक भ्रम देती हैं कि जैसे सब थिर है। तुम रोज बूढ़े हो रहे हो लेकिन मन ऐसा ही माने रखता है कि सब ठीक चल रहा है। सब वैसे का वैसा ही है। रोज सुबह आईने के सामने खड़े होकर तुम अपने को देख लेते हो, लगता है, सब ठीक है। वैसा का वैसा है।

प्रक्रिया इतनी धीमी है और तुम्हारा होश इतना कम है। तो या तो प्रक्रिया बहुत तेजी से हो तो कुछ हो सकता है। कि रात तुम सोओ जवान और सुबह बूढ़े हो जाओ तो शायद तुम्हें अकल आए कि अरे! सब क्षणभंगुर है।

मगर बूढ़ा होना इतने धीमे-धीमे होता है, इतने आहिस्ता-आहिस्ता होता है, इतने रत्ती-रत्ती होता है, कि पता ही नहीं चलता। एक-एक बूंद रीतता है सागर। ऊपर से ऐसा लगता है, वही का वही; वैसा का वैसा है।

तो या तो जो क्षणभंगुरता है, वह बड़ी तीव्रता से, त्वरा से घूमने लगे कि घर के बाहर गए, लौटकर आए, पत्नी बूढ़ी हो गई। गए थे तो जवान छोड़ गए थे। घर के बाहर गए, लौटकर आए तो देखा, कि घर राख हो गया। गए थे तो बिलकुल अभी महल की तरह खड़ा छोड़ गए थे। लौटकर आए तो रेत पड़ी है, रेत का ढेर लगा है।

या तो ऐसा हो…ऐसा तो होता नहीं है। ऐसा तो स्वभाव नहीं वस्तुओं का। तो फिर दूसरा उपाय है, कि तुम्हारा बोध गहरा हो, तुम्हारा होश गहरा हो कि बहुत धीमे से, बारीक से हो रहे फर्क को भी तुम पहचान पाओ। वह भी आंख से बच न जाए।

जागकर देखो तो तुम हर सुबह चेहरे में अंतर पाओगे। लौटकर घर आओ, तुम अंतर पाओगे। लेकिन बड़ी जागरूकता चाहिए होगी। क्योंकि अंतर बड़े आहिस्ता हो रहे हैं, बड़े धीमे-धीमे हैं।

ऐसा समझो कि बाजार में कोई साग-सब्जी तौलता है तो मोटे बांट-बटखरों से तौलता है। कोई फर्क नहीं पड़ता, तोला इधर कि तोला उधर, साग-सब्जी है। सोना नहीं तौला जाता ऐसे। बांट-बटखरे हर तरह के काम नहीं दे देंगे। रत्ती-रत्ती का हिसाब रखना होता है। तो सुनार भी तौलता है लेकिन वहां रत्ती-रत्ती का हिसाब है। लेकिन यह भी तौल बहुत गहरी तौल नहीं है। वैज्ञानिक तौलता है, वहां तो रत्ती का भी हजारवें हिस्से का खयाल है। वहां तो सेकेंड-सेकेंड का खयाल है। सेकेंड के हजारवें हिस्से का खयाल है। तो ही…।

जैसे-जैसे बहुमूल्य को पहचानना हो वैसे-वैसे तुम्हारे बांट-बटखरे ज्यादा सुनिश्चित होने चाहिए। और एक ही बटखरा है, एक ही बांट है हमारे पास, वह है जागरूकता का, होश का, ध्यान का। नाम कुछ भी हो, बांट एक ही है। यह बहुत स्पष्ट होना चाहिए। इसमें रत्ती-रत्ती का पता चलना चाहिए। यह ऐसा मोटा, साग-सब्जी तौलने जैसा बांट न हो, सोना तौलने जैसा; या वैज्ञानिक का कांटा हो, जहां रत्ती का लाखवां हिस्सा भी पहचाना जा सकता है–कि कम हुआ कि ज्यादा हुआ।

तो तुम्हारा होश बढ़े।

पहली भावना है: अनित्य। चलते, उठते, बैठते, सोते, जागते एक बात तुम्हारे भीतर सतत बनी रहे; एक स्मरण बना रहे–सब बदल रहा है, सब बदला जा रहा है।

क्या होगा इसका परिणाम? इसका परिणाम यह होगा कि तुम मोहग्रस्त न होओगे। जो बदल ही रहा है उसको पकड़ने का कोई अर्थ नहीं है। जो जा ही रहा है, जाएगा ही, उसके साथ लगाव और आसक्ति बनाने का कोई अर्थ नहीं है। जो छूटेगा ही, वह छूट ही गया। बुद्धिमान व्यक्ति को इस संसार में पकड़ने को कुछ भी नहीं, क्योंकि कुछ पकड़ा ही नहीं जा सकता। यहां थिर कुछ भी नहीं है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति कोई अपेक्षा नहीं रखता थिर होने की।

अगर तुम महावीर को जाकर धोखा दे दो तो महावीर चकित नहीं होते। तुम्हारा मित्र तुम्हें आकर धोखा दे दे, तुम चकित होते हो। क्या कारण है? तुम चकित होते हो क्योंकि तुम मानते थे, कि मित्र सदा मित्र रहेगा। थिरता की अपेक्षा कर रहे थे क्षणभंगुर जगत में। यहां कोई थिर नहीं है। न शत्रु थिर है, न मित्र थिर है। कल मित्र शत्रु हो सकता है, शत्रु मित्र हो सकता है। सब चीजें बदल रही हैं। सब चीजें उथल-पुथल में हैं।

लेकिन तुम सोचते थे, मित्र सदा मित्र है। और जब मित्र धोखा दे जाता है, तुम एकदम चौंककर खड़े रह जाते हो। तुम चकित हो जाते हो।

तुम चकित मित्र के कारण नहीं होते, न उसके धोखे के कारण होते हो। तुम अपनी थिर अपेक्षा के कारण चकित होते हो।

तुम महावीर को जाकर धोखा दे आओ, कोई अंतर न पड़ेगा। वे चकित न होंगे, क्योंकि उनकी कोई अपेक्षा नहीं है।

शायद वे अपने भीतर दोहराएंगे कि देखा, संसार कैसा थिर है! सब अनित्य है। यहां मित्र भी अपना नहीं। यहां शत्रु भी पराया नहीं। यहां किसी का भरोसा, गैर-भरोसा करने का कोई कारण नहीं।

एक बड़ी प्रसिद्ध सूफी कहानी है, एक सम्राट ने अपने सारे बुद्धिमानों को बुलाया। और उनसे कहा कि मैं कुछ ऐसा सूत्र चाहता हूं–छोटा हो। बड़े शास्त्र नहीं चाहिए। मुझे फुर्सत भी नहीं बड़े शास्त्र पढ़ने की–ऐसा सूत्र चाहता हूं, एक वचन में पूरा हो जाए। और हर घड़ी काम आए। दुख हो कि सुख, जीत हो कि हार, जीवन हो कि मृत्यु, सूत्र काम आए। तो तुम एक ऐसा सूत्र खोज लाओ।

उन्होंने बड़ी मेहनत की, बड़ा विवाद किया। कुछ निष्कर्ष नहीं हो सका। तो उन्होंने कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़े हैं। बड़ा विवाद है, संघर्ष है। कोई निष्कर्ष नहीं हो पाता। अच्छा हो…कि हमने सुना है एक सूफी फकीर गांव के बाहर ठहरा है। कहते हैं बड़ा प्रज्ञा को उपलब्ध, संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति है। हम उसी के पास चलें।

उस सूफी फकीर ने अपनी अंगूठी पहन रखी थी अंगुलि में, वह निकालकर सम्राट को दे दी और कहा कि इसे पहन लो। इस पत्थर के नीचे छोटा-सा कागज रखा है, उसमें सूत्र लिखा हुआ है। वह मेरे गुरु ने मुझे दिया था। मुझे तो जरूरत भी न पड़ी तो मैंने तो अभी तक खोलकर देखा भी नहीं। शर्त उन्होंने एक ही रखी थी कि जब कुछ और उपाय न रह जाए, सब तरफ से निरुपाय हो जाओ, तब इसे खोलकर पढ़ना। ऐसी कोई घड़ी न आयी। उनकी बड़ी कृपा है। इसलिए मैं तो इसे खोलकर पढ़ा नहीं लेकिन जरूर इसमें कुछ राज होगा। आप रख लो। लेकिन शर्त याद रखना–इसका वचन दे दो कि जब कोई और उपाय न रह जाएगा, सब तरफ से निरुपाय, असहाय हो जाओगे, तभी अंतिम घड़ी में इसे खोलना। क्योंकि यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है और साधारणतः खोला गया तो अर्थहीन है। बड़ी प्रखर वेदना की स्थिति में इसे खोलना।

यह शब्द वेदना–सुनते हो, बड़ा बहुमूल्य है। यह उसी से बना है, जिससे वेद बना। वेदना के दो अर्थ होते हैं। एक तो अर्थ होता है, दुख। और एक अर्थ होता है ज्ञान। गहरे दुख के क्षण में ही ज्ञान होता है।

तो उस फकीर ने कहा कि जब वेदना का बहुत गहरा क्षण हो, तब इसे खोलना। यह वेद का सूत्र है। यह वेद है। इसे हर घड़ी में खोल लोगे तो बेकाम है। क्योंकि तुम तैयार ही न होओगे। तुम्हारा इससे तालमेल न बैठेगा। तुम जब बिलकुल वेदना में जल रहे हो, चिता में बैठे हो और सब तुम्हारे सांसारिक उपाय व्यर्थ हो जाएं–क्योंकि तुम सम्राट हो, तुम्हारे पास बहुत उपाय हैं–तो इसको मत खोलना। जब तुम पाओ कि तुम दीन-दरिद्र, सम्राट नहीं; असहाय–लकड़ी के टुकड़े की तरह सागर में पड़े तरंगों के हाथ में–कहां ले जाएं, पता नहीं; तब इसे खोलना। उस वेदना के क्षण में इसका वेद-सूत्र तुम्हारे काम आ जाएगा।

सम्राट ने अंगूठी पहन रखी। वर्षों बीत गए। कई दफे खयाल भी आया–लेकिन शर्त पूरी करनी थी। वचन दिया था तो खोला नहीं। कई दफे जिज्ञासा भी हुई। फिर सोचा कि खराब न हो जाए कहीं।

फिर घड़ी भी आ गई। वर्षों बाद सम्राट हार गया। दुश्मन जीत गया, उसके राज्य को हड़प लिया। वह भागा एक घोड़े पर, अपनी जान बचाने को। राज्य तो गया, संगी-साथी भी थोड़ी देर बाद उसे छोड़ दिए। दो-चार सैनिक, उसके रक्षक साथ थे; वे भी धीरे-धीरे हट गए क्योंकि अब कुछ बचा ही न था तो रक्षा करने का भी कोई सवाल न था।

दुश्मन पीछा कर रहा है, वह एक पहाड़ी घाटी से भागा जा रहा है अपने घोड़े पर। पीछे घोड़ों की आवाजें आ रहीं हैं, टापें सुनाई पड़ रहीं हैं। प्राण संकट में हैं। और अचानक उसने पाया कि रास्ता समाप्त हो गया। आगे तो भयंकर गङ्ढ है। लौट भी नहीं सकता। पीछे दुश्मन पास आ रहा है। आगे जा भी नहीं सकता। एक क्षण को किंकर्तव्यविमूढ़, हतप्रभ खड़ा रह गया! क्या करे?

याद आयी अचानक, खोली अंगूठी, पत्थर हटाया, निकाला कागज, उसमें एक छोटा-सा वचन लिखा था: “दिस टू विल पास–यह भी बीत जाएगा।’

सूत्र को पढ़ते ही मुस्कुराहट आ गई उसे। एक बात खयाल में आयी, सब तो बीत गया–सम्राट न रहा, साम्राज्य गया। सुख बीत गया। तो जब सुख बीत जाता है तो दुख भी थिर तो नहीं हो सकता। शायद सूत्र ठीक ही कहता है। अब करने को भी कुछ नहीं है।

लेकिन सूत्र ने जैसे उसके भीतर कोई सोया तार छेड़ दिया, कोई साज छेड़ दिया। “यह भी बीत जाएगा।’ ऐसा बोध आते ही जैसे एक सपना टूट गया। अब वह व्यग्र नहीं, बेचैन नहीं, घबड़ाया हुआ नहीं…कि ठीक है। वह बैठ गया।

संयोग की बात! थोड़ी दूर तक तो, थोड़ी देर तक तो घोड़ों की टापें सुनाई पड़ती रहीं, फिर टापें बंद हो गईं। शायद सैनिक किसी दूसरे रास्ते पर मुड़ गए। घना जंगल है, बीहड़-पहाड़ हैं, पक्का उन्हें पता भी नहीं है, कि सम्राट किस तरफ गया है। धीरे-धीरे घोड़ों की टापें दूर हो गईं।

अंगूठी उसने वापिस पहन ली।

कुछ दिनों बाद फिर दुबारा उसने अपने मित्रों को इकट्ठा कर लिया। हमला किया, पुनः जीता, फिर अपने सिंहासन पर बैठ गया। जब सिंहासन पर बैठा तो बड़ा आह्लादित हो रहा था, तभी उसे पुनः उस घड़ी की याद आयी। उसने फिर अंगूठी खोली, फिर कागज को पढ़ा, फिर मुस्कुराया। वह सारा आह्लाद, विजय का उल्लास, विजय का दंभ, सब विदा हो गया।

उसके वजीरों ने पूछा, “आप बड़े प्रसन्न थे, आप एकदम शांत हो गए! क्या हुआ?’

सम्राट ने कहा, यह सूत्र–”यह भी बीत जाएगा।’ अब सभी बीत जाएगा। तो न इस संसार में दुखी होने को कुछ है, न सुखी होने को कुछ है।

इसको महावीर कहते हैं, अनित्य भावना।

था जिंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ

उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग जर्द था

जिसको मौत का पता है, वह उड़ने के पहले भी जानता है कि पंख टूटेंगे और गिरूंगा।

था जिंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ

जिसके पास बोध है, उसे मौत का खटका प्रतिक्षण लगा है। हृदय की धक-धक और कोई खबर नहीं लाती। धक-धक मौत का खटका है।

यह धक-धक ही बंद होगी एक दिन। यह धक-धक ही पहुंचा देगी उस जगह, जहां फिर धक-धक न होगी।

था जिंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ

उड़ने से पेश्तर भी मेरा रंग जर्द था

बुद्धिमान उड़ने के पहले भी जानता है, पंख टूटेंगे। वासनाओं के इंद्रधनुष गिरेंगे। सपने उजड़ेंगे। जिंदगी यहां जिंदगी जैसी नहीं है। जो टिकती नहीं, बचती नहीं, सदा नहीं रहती, उसे जिंदगी क्या कहना? पूरब की परिभाषा यही है कि वही है सत्य–जो सदा है, सनातन है, शाश्वत है। क्षणभंगुर सत्य नहीं है, क्षणभंगुर सपना है।

पूरब और पश्चिम की परिभाषाओं में बड़ा फर्क है। अगर पश्चिम में तुम पूछो, सपना क्या है? सत्य क्या है? तो अलग व्याख्याएं हैं। पश्चिम कहता है, सपना वह है, जो नहीं है; और सत्य वह है, जो है। पूरब कहता है, हैं तो दोनों ही। सपना भी है अन्यथा होता कैसे? सत्य भी है। फर्क होने और न होने का नहीं है, फर्क शाश्वतता का, क्षणभंगुरता का है।

सत्य वह है, जो है, था और होगा। सपना वह है, जो पहले नहीं था, अभी है, और अभी नहीं हो जाएगा।

पूरब और पश्चिम की व्याख्या बड़ी बुनियादी रूप से भिन्न हैं। इसलिए पश्चिम में जब माया का अनुवाद करते हैं वे, तो सदा: इल्यूजन। वह गलत है अनुवाद। माया का अनुवाद इल्यूजन नहीं है, भ्रम नहीं है।

इल्यूजन का अर्थ होता है: जो नहीं है; सिर्फ दिखाई पड़ा। माया का अर्थ होता है, जो है लेकिन क्षणभंगुर है। होने में कोई शक नहीं है, शाश्वतता में शक है। टिकेगा नहीं। लहर की तरह आया और गया। यह भी बीत जाएगा।

तो जो चीज भी तुम्हें लगती हो, बीत जाएगी, याद रखना। अगर यह एक सूत्र भी पकड़ में आ जाए तो और क्या चाहिए? तो तुम्हारी पकड़ ढीली होने लगेगी। तुम धीरे-धीरे उन सब चीजों से अपने को दूर पाने लगोगे, जो चीजें बीत जाएंगी। क्या अकड़ना! कैसा गर्व! किस बात के लिए इठलाना! सब बीत जाएगा। यह जवानी बीत जाएगी।

याद बन-बनके कहानी लौटी

सांस होऱ्होके बिरानी लौटी

लौटे सब गम जो दिए दुनिया ने

मगर न जाकर जवानी लौटी

यह सब बीत जाएगा। यह जवानी, यह दो दिन की इठलाहट, यह दो दिन के लिए तितलियों जैसे पंख। ये सब बीत जाएंगे। यह दो दिन की चहल-पहल, फिर गहरा सन्नाटा। फिर मरघट की शांति।

महावीर कहते हैं, मौत को मत भूलना। अनित्य का यही अर्थ है। अनित्य भावना का अर्थ हुआ, मृत्यु को स्मरण रखना। प्रतिपल मृत्यु को स्मरण रखना।

मनुष्य की महिमा यही है कि उसे मृत्यु का पता है। मृत्यु के पता से ही धर्म का जन्म हुआ है। मृत्यु का जिसको जितना बोध है, उसके जीवन में धर्म की उतनी प्रगाढ़ता हो जाएगी।

इसीलिए तो लोग बुढ़ापे में धार्मिक होने लगते हैं। मौत करीब आने लगती है। पगध्वनि ज्यादा साफ सुनाई पड़ती है। चीजें दूर होने लगती हैं। “यह भी बीत जाएगा’, इसका स्मरण ज्यादा-ज्यादा आने लगता है।

इसीलिए तो आदमी दुख में परमात्मा को स्मरण करता है। क्योंकि दुख में पता चलता है, यहां पर कुछ भी नहीं है, खोजूं परमात्मा को। सुख में फिर भूल जाता है। मौत करीब आती है तो याद आ जाता है। लेकिन कोई अगर तुम्हें चमत्कार से जवान बना दे…।

मुल्ला नसरुद्दीन बीमार था, उसके डाक्टर ने कहा, बचना मुश्किल है। तो उसने अपनी पत्नी को कहा, अब डाक्टर को बुलाने की कोई जरूरत नहीं। नाहक फीस खराब करनी। अब तो पुरोहित को बुलाओ। अब तो मंत्र सुना दे कान में। पढ़ दे कुरान। पुरोहित आने लगा।

संयोग की बात, मुल्ला मरा नहीं। डाक्टर के डायग्नोसिस में, निदान में कहीं भूल थी। महीनेभर जी गया तो उसने फिर डाक्टर को बुलाया। अब वह स्वस्थ हो गया था, सब ठीक था। उसने डाक्टर से कहा, डाक्टर ने जांच की और उसने कहा, चमत्कार है। तुम बिलकुल ठीक हो गए हो। मैं तो सोचता था, तुम बचोगे नहीं तीन सप्ताह से ज्यादा। और अब तो ऐसा लगता है, तुम कम से कम दस साल बचोगे।

उसने अपनी पत्नी को कहा, अब पुरोहित को बुलाने की कोई जरूरत नहीं। और पुरोहित को जाकर कह दे कि अब दस साल तो मौत का कोई कारण नहीं है। इसलिए दस साल इस तरफ कृपा मत करना। लेकिन नौ साल बाद, तीन सौ चौसठ दिन बीत जाने के बाद अगर जीवित रहो तो आ जाना। एक दिन बचे, तब आ जाना।

आदमी बिलकुल मरने के वक्त याद करता। धर्म को टालता। लेकिन इसमें सार की बात समझ लेने जैसी है–मौत याद दिलाती धर्म की। लेकिन मौत क्या इस तरह थोड़े ही है कि तुम कहो दस साल बाद होने वाली है तो जब एक दिन बचे, नौ साल तीन सौ चौसठ दिन बीत जाएं, तब तुम आ जाना। मौत तो किसी पल आ सकती है। मौत अभी आ सकती है। मौत कल आ सकती है। हम मौत से घिरे हैं।

अनित्य भावना का अर्थ है: मौत हमें घेरे हुए है। हम मौत के हाथ में पड़े ही हैं। हम मौत के जाल में फंसे ही हैं। कब जाल सिकोड़ लिया जाएगा और कब हम हटा लिए जाएंगे, कुछ तय नहीं है। लेकिन इतना तय है कि यह होगा।

अगर तुम थोड़े-से होशपूर्वक सोचो तो जैसे-जैसे मौत साफ होगी, वैसे-वैसे धर्म की तरफ तुम्हारी दिशा, अपने आप तुम्हारा हृदय का कांटा धर्म की दिशा में मुड़ने लगेगा।

“अनित्य, अशरण’–अशरण महावीर का बुनियादी सूत्र है। जैसे कृष्ण का सूत्र है शरणागति। इसलिए मैं कहता हूं, बड़ी विपरीत भाषाएं हैं और फिर भी एक ही तरफ ले जाती हैं।

कृष्ण कहते हैं, परमात्मा की शरण गहो। मामेकं शरणं व्रज सर्वधर्मान् परित्यज्य। आ तू मेरी शरण। छोड़ सब धर्म।

महावीर कहते हैं, अशरण हो रहो। किसी की शरण भूलकर मत जाना। क्योंकि पर से मुक्त होना है। अकेले हो तुम। कोई दूसरा सहारा नहीं है। सब सहारे धोखे हैं। सहारों के कारण ही अब तक तुम भटके हो। अब सहारों का सहारा छोड़ो। अब तुम बेसहारे हो, इस सत्य को समझो। अपने पैर पर खड़े हो जाओ। कोई दूसरा तुम्हारा कल्याण न कर सकेगा। तुमने ही करना चाहा तो ही कल्याण होनेवाला है। और दूसरे की शरण पर छोड़कर कहीं तुम ऐसा मत करना कि यह सिर्फ धोखाधड़ी हो। ऐसा दूसरे पर टालकर तुम बच रहे हो।

अक्सर शरणागति में जानेवाले लोग यही करते हैं। एक मित्र मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हम तो आपकी शरण आ गए। मैं उनको कहता हूं, कुछ ध्यान करो। वे कहते हैं, अब हमें क्या करना? हम तो आपकी शरण आ गए। मैं उनसे पूछा कि जब तुम दुकान करते हो, तब तुम मेरी शरण नहीं छोड़ते। तुम यह नहीं कहते, अब क्या दुकान करें! करो बंद दुकान। जब मेरी शरण आ गए, कर दो दुकान बंद। उन्होंने कहा, वह कैसे हो सकता है!

दुकान तुम नहीं छोड़ते, बाजार तुम नहीं छोड़ते, धन तुम नहीं छोड़ते। सिर्फ शरण आ गए, ध्यान छोड़ते हो? और ध्यान तुमने कभी किया नहीं। छोड़ने को भी तुम्हारे पास है नहीं। तो किसको धोखा दे रहे हो?

वे सोचते हैं कि वे बड़ी ऊंची बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि हम आपकी शरण आ गए; अब और क्या करना है?

अगर यह सच हो तो कृष्ण का सूत्र काम कर जाएगा। लेकिन यह सौ में निन्यान्नबे मौकों पर सच होता नहीं। इसलिए कृष्ण का सूत्र तुम्हारे लिए धोखे का कारण बन जाता है। तुम अपने को उस आड़ में छिपा लेते हो। तुम कहते हो, अब कृष्ण के सहारे हैं। अब वे जहां ले जाएंगे, जाएंगे।

मगर इसमें बेईमानी है। अगर यह पूरा हो तो ठीक। फिर तुम दीन हो जाओ, दरिद्र हो जाओ, सड़क पर भीख मांगो, तो भी तुम प्रसन्न हो। तुम कहोगे, उनकी शरण हैं; जहां ले जाएं। यही दिया, यही जरूरी होगा। गरीबी आवश्यक रही होगी। तुम शिकायत न करोगे। शरणागति में शिकायत नहीं है। शरणागति में सब स्वीकार है।

लेकिन आदमी बड़ा बेईमान है। वह मतलब की जो बातें हैं, खुद करता है। जिन बातों को वह सोचता है, गैर-मतलब हैं, करना चाहता नहीं, उनको वह छोड़ता है। वह कहता है, आपकी शरण हैं। मोक्ष अब आप सम्हालो। संसार तो हम सम्हाल रहे हैं, मोक्ष आप सम्हालो। धन तो हम कमाएंगे, अब ध्यान तो आपके ही हाथ में है। बस, आपके चरणों में सिर रख दिया।

सिर में कोई कीमत है ही नहीं। कचरा भरा है। उसको चरणों में रख दिया, सोचते हैं कि बहुत बड़ा काम कर दिया। कुछ हो तो सिर में! घास-फूस भरा है। वे खेत में झूठे आदमी देखे? खड़े रहते हैं। बड़ी हांडी लगी रहती है। कुर्ता भी बड़ा पहने रहते हैं। पशु-पक्षियों को डराने के काम आ जाते हैं। बस वैसा ही सिर है। उसको रख देने से भी क्या होगा?

कृष्ण ने कहा था, “सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ किससे कहा था? जिससे कहा था, उसके पास था कुछ। शरण में रखने को कुछ था। चरणों में न्योछावर करने को कुछ था। अर्जुन बड़ा बलशाली व्यक्ति था। और ऐसे ही उसने नहीं रख दिया जल्दी। कि कृष्ण ने कहा और उसने रख दिया, उसने कहा, जी हुजूर! ठीक कहते हैं। जो हुकुम! उसने बड़ी जद्दोजहद की। सिर था मूल्यवान। ऐसे ही रख देने का न था। सब जांच-परख की; इसलिए गीता का जन्म हुआ।

लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, आपके चरणों में सिर रख दिया, अब आप सम्हालें। वे उत्तरदायित्व से बच रहे हैं।

महावीर को यह दिखाई पड़ा कि हजारों लोग धर्म के नाम पर खुद धोखा खा रहे हैं, दूसरों को धोखा दे रहे हैं। तो महावीर ने बहुत जोर दिया–अशरण भावना। किसी की शरण नहीं जाना है। महावीर ने कहा, उत्तरदायित्व तुम्हारा है। पाप तुम्हारे, पुण्य तुम्हारे, तुम दूसरे के चरणों में कैसे जा सकते हो? दूसरे से कुछ सीखना हो, सीख लेना। कुछ पूछना हो, पूछ लेना। करना तो तुम्हें होगा। साधना तो तुम्हें होगा।

तो महावीर कहते हैं, इसे याद रखना–अशरण भावना। बड़ा डर लगता है आदमी को अकेले होने में। बड़ा भय लगता है, असुरक्षा मालूम होती है।

नाजुक कश्ती, नाजुक चप्पू और इस पर तूफान का जोर

पार करेगा दरिया को तू अपनी जान-ए-चार तो देख

बड़ा डर लगता है। नाजुक कश्ती–नाजुक भी कहना ठीक नहीं, कागज की कश्ती। अब डूबी, तब डूबी। चलाने के पहले ही पता है कि डूबेगी।

नाजुक कश्ती, नाजुक चप्पू और इस पर तूफान का जोर

और चारों तरफ अंधड़ जीवन के, मृत्यु के, परिवर्तन के, क्षणभंगुरता के।

नाजुक कश्ती, नाजुक चप्पू और इस पर तूफान का जोर

पार करेगा दरिया को तू…

यह सागर तुझसे होगा पार?

…अपनी जान-ए-चार तो देख?

थोड़ी अपनी समार्थ्य तो देख।

इसलिए घबड़ाहट होती है। लेकिन महावीर कहते हैं, कोई और उपाय ही नहीं है। छोटी कश्ती है तो कश्ती को मजबूत करो। चप्पू कमजोर हैं तो नए चप्पू बनाओ। तूफान का जोर है तो तूफान से लड़ने की हिम्मत जगाओ।

सागर बड़ा है माना, लेकिन अगर तुम होश से चलो तो तुम्हारा होश सागरों से बहुत बड़ा है। आकाश बड़ा है माना, लेकिन जिसके पास आत्मा है, उसके लिए आकाश भी छोटा है। अपने को जगाओ।

महावीर का पूरा जोर आत्मबल पर, स्वयं की संभावना को वास्तविकता बनाने पर है।

“अन्यत्व’–चौथी भावना। स्मरण रखो कि तुम कौन हो। जो बाहर दिखाई पड़ रहे हैं, भाई है, बहन है, पत्नी है, पति है, मित्र है; वे अन्य हैं। उनके साथ अपने मैं को बहुत ज्यादा ग्रसित मत कर लेना। वह धोखा होगा। परिवार मत बसा लेना। यहां हम अकेले हैं। अकेले आए, अकेले जाएंगे। यहां परिवार तो सिर्फ हमारी एक कल्पना है, एक धारणा है।

अकेले चूंकि रहने में घबड़ाहट होती है, एक परिवार बना लेते हैं। रास्ते पर दो यात्री मिल जाते हैं, हाथ में हाथ डाल लेते हैं। दोनों अपरिचित। कहां से आते हैं, पता नहीं। कहां को जाते हैं, पता नहीं।

दूसरे बाहर हैं; इनसे मैं अन्य हूं।

फिर यह मेरा शरीर भी मुझसे बाहर है। मेरी चेतना इससे भी अन्य है। फिर यह मेरा मन भी मुझसे बाहर है। ये विचार भी मुझसे अन्य हैं। ऐसा काटते जाना–इलिमिनेशन। एक-एक को छोड़ते जाना, जिससे तुम्हें पता चल जाए कि यह मैं नहीं हूं। ऐसे हटते-हटते-हटते-हटते…जैसे कोई प्याज को छीलता है; एक छिलका छीला, दूसरा आया। उसको भी छीलो, वह भी छिलका है। ऐसे छीलते-छीलते अखीर में शून्य हाथ लगता है। प्याज पूरी समाप्त हो जाती है। छिलके ही छिलके हैं।

ऐसा ही अहंकार पूरा समाप्त हो जाता है। छिलके ही छिलके हैं। और फिर जो शून्य हाथ में लगता है, उसी को महावीर ने आत्मा कहा है। वह जो सबसे भीतर छिपा हुआ शून्य साक्षी है, द्रष्टा होना जिसका एकमात्र गुणधर्म है, वही मैं हूं। मैं कौन हूं यह जानने के लिए पहली प्रक्रिया है यह जानना कि मैं कौन नहीं हूं। गलत के साथ संबंध छोड़ते-छोड़ते एक दिन पता चलता है ठीक का। कृष्णमूर्ति कहते हैं, असार को पहचान लेना, सार को पहचान लेने की पहली व्यवस्था है। असत्य को समझ लेना सत्य की तरफ पहला कदम है। क्या गलत है इसे समझ लेना क्या ठीक है, उसकी तरफ यात्रा बन जाती है।

पांचवीं भावना–”संसार।’ इस संसार को भूलना मत। संसार का अर्थ है महावीर के विचारों में: जन्म-मरण रूप संसरण; इसीलिए संसार। यह जो चाक है जन्म-मरण का–घूमता रहता है, घूमता रहता है–जन्म, फिर मृत्यु; फिर जन्म, फिर मृत्यु। एक ही चाक। चाक के आरे घूमते रहते हैं। यह जो जन्म-मरण रूपी संसरण है, यही संसार है।

इसे याद रखना। यहां हम मरने से तो बचना चाहते हैं, लेकिन हमें यह खयाल नहीं कि जब तब हम जन्म से नहीं बचना चाहते तब तक मरने से न बच सकेंगे। यहां हम मृत्यु से तो बचना चाहते हैं और जीवन को पकड़ना चाहते हैं। बड़ी मूढ़ता का कृत्य है। जिसने जीवन को पकड़ा उसने मृत्यु को भी पकड़ लिया। ये दोनों इकट्ठे हैं। एक ही चके के दो आरे हैं।

अगर मृत्यु से बचना हो तो जन्म को भी छोड़ देना। अगर मृत्यु से बचना हो तो जीवन से भी दूर खड़े हो जाना। जीवेषणा छोड़ोगे तो यमदूतों का आना बंद होगा। जीवेषणा के पीछे छिपी-छिपी मौत आती है। इसलिए महावीर कहते हैं, संसार के चाक को याद रखना।

“लोक’–छठवीं धारणा। महावीर कहते हैं, यह संसार जो दिखाई पड़ रहा है, यह तो संसार है ही; इसके पीछे छिपे हुए संसार भी हैं, उन सभी संसारों का नाम लोक। नर्क है, स्वर्ग है, मनुष्य-लोक है। इन तीनों का इकट्ठा नाम लोक।

इससे तो बचना ही। लेकिन यह मत सोचना कि इससे बचकर और स्वर्ग में पहुंच जाएंगे। कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर मजा करेंगे। वह मजा करने की धारणा इसी संसार को बचा लेने का उपाय है।

मजा क्या करोगे? कभी सोचा? कल्पवृक्ष के नीचे बैठ गए तो करोगे क्या? कभी बैठकर शांति से सोचना कि बैठ गए कल्पवृक्ष के नीचे, अब क्या करना? तो तुम पाओगे, सारी संसार की वासनाएं उठनी शुरू हो गईं। कितना धन चाहिए–अचानक तुम कहोगे, हो जाए करोड़ रुपये की बरसात। आ जाएं सजी हुई थालियां भोजन की, कि नाचने लगें सुंदर स्त्रियां आसपास, कि मिल जाए सिंहासन चक्रवर्ती का।

तुम जरा बैठकर सोचना। अभी बैठे नहीं हो कल्पवृक्ष के नीचे, लेकिन सिर्फ कल्पना भी करोगे तो तुम पाओगे, कल्पवृक्ष का खयाल आते ही सारा संसार फिर आ गया।

तो महावीर कहते हैं, संसार से ही नहीं छूटना, संसार के पीछे छिपे संसारों से भी छूटना है।

“अशुचि’–सातवीं धारणा। महावीर कहते हैं, जहां-जहां मिश्रण है वहां-वहां अशुद्धि है।

देखा तुमने! दूधवाला दूध में पानी मिला लाता है, तुम कहते हो, दूध अशुद्ध है। मगर, अगर दूधवाला कहे कि शुद्ध पानी मिलाया है, तो अशुद्ध कैसे हो जाएगा? दूध भी शुद्ध था, पानी भी शुद्ध था, तो दो चीजें शुद्ध होकर मिलती हैं तो और भी शुद्धि बढ़ गई होगी, दोहरी हो गई होगी। दुगुनी हो गई है। कौन कहता है अशुद्ध है?

लेकिन फिर भी तुम कहोगे, अशुद्ध है। असलियत बात यह है, अशुद्धि का अर्थ ही इतना होता है: विजातीय से मिल जाना। दूध पानी नहीं है, इसलिए पानी के मिलाने से अशुद्ध हुआ। दूसरी बात तुमने खयाल नहीं दी क्योंकि पानी मुफ्त मिलता है। नहीं तो दूसरी बात भी सच है। पानी भी अशुद्ध हो गया दूध के मिलाने से। क्योंकि पानी का स्वभाव दूध नहीं है। पानी मुफ्त मिलता है इसलिए कोई फिक्र नहीं करता। करो पानी को अशुद्ध, कोई चिंता नहीं करता। दूध को मत करो क्योंकि दूध के दाम लगते हैं। लेकिन दोनों अशुद्ध हो जाते हैं। दो शुद्ध चीजें भी मिलती हैं तो परिणाम अशुद्धि होता है।

महवीर कहते हैं, यहां संसार में सब मिलावट है। यहां सब चीज एक-दूसरे से मिली है। खिचड़ी हो गई है। इसलिए सब अशुद्ध हैं। तुम्हारी आत्मा मन में घुल गई है। मन शरीर में घुला है। शरीर बाहर संसार में डूबा है। सब एक-दूसरे को छेदे हैं। एक-दूसरे से भिदे पड़े हैं। एक-दूसरे में उलझे हैं। एक-दूसरे से गांठ बंधी है। इसलिए अशुद्धि है।

इस अशुद्धि को याद रखना–अशुचि।

और इसे याद रखना, कि तुम शुद्ध तो तभी हो, जब बस केवल तुम हो। जरा कुछ जुड़ा कि अशुद्धि हुई। कोई विचार आया, कोई भाव आया, कोई कल्पना उठी, अशुद्धि हुई। दूध में पानी पड़ा, या पानी में दूध पड़ा।

“आस्रव’–महावीर का पारिभाषिक शब्द है। आस्रव का अर्थ होता है: द्वार पर सम्हलकर बैठना। क्योंकि प्रतिपल तुम्हारे मन में बाहर के जगत से संस्कार आ रहे हैं, वासनाएं आ रही हैं।

तुम बैठे हो राह के किनारे, ध्यान कर रहे हो, एक कार निकल गई। कार के निकलते ही, कार का दृश्य आंख में आते ही तत्क्षण तुम्हारे भीतर कोई सोयी वासना जग गई–ऐसी कार मेरे पास हो। शायद तुमने इतने शब्दों में कहा भी नहीं। शायद तुमने फिर आंख बंद कर ली, फिर अपनी माला फेरने लगे। लेकिन एक झलक कार की, और एक वासना का उठ आना, उमग आना भीतर घट गया। यह आस्रव।

आस्रव का अर्थ है: बाहर से चीजों को तुम्हें अशुद्ध करने का मौका देते रहना।

तो जागे रहना। कुछ भी बाहर से निकले, तुम होश रखना, आस्रव मत होने देना। कार निकल जाए, देखते रहना। कार के निकलने में कोई बाधा नहीं है। सुंदर स्त्री निकल जाए, देखते रहना। सुंदर पुरुष निकल जाए, देखते रहना। सुंदर पुरुष-स्त्री के निकलने में बाधा नहीं है। जब तक तुम्हारे भीतर छाप न पड़े, जब तक तुम्हारे भीतर संस्कार न हों, जब तक तुम्हारे भीतर कोई तरंग न उठे तक तब कोई हर्जा नहीं है।

अगर तुम भीतर निस्तरंग रह सको तो बाजार में भी हिमालय है। हिमालय पर भी बैठकर अगर तुम निस्तरंग न रह सको तो बाजार है।

“संवर’–यह भी महावीर का पारिभाषिक शब्द है। महावीर कहते हैं, जो गलत हो सकता है, उसे होने मत देना। और जो ठीक हो रहा है, उसे सम्हालना। उसका संवरण करना।

जैसे तुम ध्यान कर रहे हो, धर्म-ध्यान कर रहे हो, कोई निकला: कार निकली, स्त्री निकली, पुरुष निकला तो आस्रव–इस छाया को भीतर मत पहुंचने देना, दरवाजे पर रोक देना–एक। और भीतर जो ध्यान की प्रक्रिया चल रही है, उसे सम्हालना; उसका संवरण करना। तो बाहर से कुछ भीतर न आए और भीतर से कुछ बाहर न जाए।

“निर्जरा’–और जो भी छोड़ने योग्य है, छूटता हो तो पुरानी आदत के वश पकड़ना मत। जैसे पुराने पत्ते वृक्ष से गिरते हैं तो वृक्ष पकड़ता नहीं।

आदमी अदभुत है। यहां कचरा भी नहीं छोड़ा जाता। आदमी उसको भी सम्हालकर रख लेता है, पता नहीं कब काम पड़े। लोग टूटी-फूटी चीजें इकट्ठी करते रहते हैं। घर को कबाड़ बना लेते हैं इस आशा में, कि पता नहीं कब काम पड़ जाए।

एक दिन मैंने देखा, मुल्ला नसरुद्दीन एक ही जूता पहने चला आ रहा है। मैंने पूछा कि दूसरे का क्या हुआ? उसने कहा, दूसरे का कुछ नहीं हुआ। एक रास्ते पर मिल गया। तो मैंने कहा, इस एक का क्या करोगे? उसने कहा, जब एक मिल सकता है तो दूसरा भी मिल सकता है। इसको तो सम्हालकर रख लें।

आदमी कुछ भी इकट्ठा कर रहा है। यह बाहर ही नहीं हो रहा, यह भीतर भी हो रहा है। भीतर भी तुम व्यर्थ हो गई चीजों को पकड़े चले जाते हो।

तो पुराने पत्ते वृक्ष से छूट ही नहीं पाते। नए पत्तों को आने की जगह नहीं, अवकाश नहीं। तुम नए नहीं हो पाते, क्योंकि तुम पुराने को जकड़े रहते हो। अतीत को पकड़े रहते हो।

किसी ने बीस साल पहले गाली दी थी, अब उसे किसलिए पकड़े हो? मगर नहीं, उसे तुम पकड़े बैठे हो। शायद वह आदमी भी मर चुका। शायद वह आदमी हजार दफे क्षमा भी मांग चुका, लेकिन फिर भी वह गाली पकड़ी है। वह वहां बैठी है। उसे तुम किसलिए पकड़े हो? उसे जाने दो।

निर्जरा का अर्थ है: जो व्यर्थ हो जाए और छूटने लगे–और व्यर्थ होकर चीजें अपने आप छूटती हैं। स्वभावतः गिरती हैं। तुम उनको पकड़ मत लेना, रोक मत लेना। सूखे पत्तों को गिर जाने देना, उड़ जाने देना।

तो तुम ऐसे प्रतिपल नए होते रहोगे।

फिर “धर्म’–धर्म का अर्थ है स्वभाव। महावीर का धर्म का अर्थ रिलीजन या मजहब नहीं है, महावीर का अर्थ है: स्वभाव। जैसे अग्नि का धर्म है जलाना; जैसे पानी का धर्म है नीचे बहना; नीचे की तरफ, गङ्ढे की तरफ बहना। जैसे अग्नि का धर्म है ऊपर लपट की तरह उठना, आकाश की तरफ दौड़ना; ऐसे मनुष्य का धर्म है परमात्मा होना। उसका स्वभाव है। ऐसा नहीं कि मनुष्य को परमात्मा होना है, मनुष्य परमात्मा है; उघाड़ना है।

तो महावीर कहते हैं, धर्म को मत भूलना।

लेकिन जैनियों से पूछो, जैन पंडितों से, जैन मुनियों से पूछो; वे धर्म का अर्थ करेंगे, जैन धर्म। वे कहते हैं, जैन धर्म को याद रखना। यह बात गलत हो गई। महावीर जैन धर्म की कोई बात नहीं कह रहे हैं। यह मजहब की बात ही नहीं है। महावीर जैसे व्यक्ति मजहब की बातें करते ही नहीं। मजहब जैसे रोग और महावीर जैसे चिकित्सक उनकी बात करें! असंभव।

महावीर कहते हैं, धर्म याद रखना–सिर्फ धर्म। बुद्ध और महावीर दोनों ने धर्म शब्द का बड़ा अदभुत प्रयोग किया है। वह प्रयोग है: सीधा-सरल स्वभाव। जो लाओत्सु की भाषा में ताओ का अर्थ है और जो वेद की भाषा में ऋत का अर्थ है, वही महावीर और बुद्ध की भाषा में धर्म का अर्थ है।

धर्म का अर्थ है: जो होना तुम्हारा स्वभाव है। उस स्वभाव से विपरीत मत होना। उस स्वभाव से विपरीत को पकड़ना मत। उस स्वभाव से विपरीत को आने मत देना। उस स्वभाव के अनुकूल को सम्हालना और उस स्वभाव को सदा स्मरण रखना कि मैं कौन हूं। भला आज साफ-साफ न भी हो सके कि मैं परमात्मा हूं, लेकिन याद मत बिसारना, भूलना मत। याद बनाए ही रखना। आज नहीं उघड़ेगा, कल उघड़ेगा। कल नहीं परसों उघड़ेगा। लेकिन जिसे याद है, वही उघाड़ पाएगा। और जिसे याद ही नहीं, वह क्या खाक उघाड़ेगा! तुम्हें भला भूल ही गया हो कि धन कहां गड़ा है, लेकिन इतनी याद भी हो कि गड़ा है तो तुम खोजते रहोगे। इस कोने में खोदोगे, उस कोने में खोदोगे, इस कमरे में, उस कमरे में, आंगन में, आंगन के बाहर–खोदते रहोगे। तुम्हें याद हो कि धन गड़ा है।

मैंने सुना है, एक बाप मरा। उसके पांच बेटे थे। पांचों काहिल और सुस्त थे। सिर्फ धन में उनकी लोलुपता थी, क्योंकि गुलछर्रे करें। मरते बाप से कहा कि देखो, धन तो मैं बहुत छोड़े जा रहा हूं। वह मैंने सब खेत में गड़ा दिया है। बाप तो मर गया। वे पांचों बेटे बाप को मरघट पर किसी तरह जल्दी-जल्दी समाप्त करके भागे खेत। खोद डाला पूरा खेत। वहां कुछ गड़ा न था। लेकिन जब पूरा खेत खुद गया तो उन्होंने कहा, अब बीज भी फेंक ही दो। फसल आयी। खूब फसल आयी।

तब उन्हें समझ आयी कि धन वहां सोने-चांदी की तरह नहीं गड़ा था। उस खोदने में ही धन पैदा हुआ। उस खोदने में ही खेत उर्वर हो गया। बीज फेंक दिए। ऐसे वे खेती करनेवाले न थे। अलाल थे, काहिल थे। बाप कहता कि खेती करना, जमीन को खोदना, बखर लगाना, वह उनसे होनेवाला नहीं था। वे बाप के मरते ही चादर तानकर सो गए होते। लेकिन धन गड़ा था, इस आशा में खोदने चले गए।

तुम्हारे भीतर तुम्हें याद बनी रहे कि परमात्मा छिपा है कहीं, तो खोज जारी रहेगी। अगर तुमने यह बात ही विस्मृत कर दी तो खोदोगे क्या? खोजोगे क्या?

इसलिए महावीर कहते हैं, धर्म को याद रखना।

और “बोधि’–बोधि है अंतिम नियति, कैवल्य, समाधि। तुम्हारा परमात्मा हो जाना। तुम हो सकते हो, इसे मत भूलना।

तो दो बातें: धर्म–कि तुम हो। लेकिन उसमें एक खतरा है। कहीं ऐसा न हो कि तुम बिना ही खोदे और मान लो, कि हो। बिना ही उघाड़े भरोसा कर लो कि ठीक है, जब महावीर कहते हैं तो ठीक कहते होंगे।

इतने से काम नहीं चलेगा। इतना याद रखना कि तुम हो, लेकिन अभी जो तुम हो, उसे भी उघाड़ना है। तुम जो हो, अभी होना है। यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। इसे मैं फिर से दोहरा दूं। तुम जो हो, अभी होना है। अभी तुम्हें अपने स्वरूप को उघाड़ना है।

इसलिए धर्म की याद रखना और बोधि की याद रखना कि घटना घटती है। संबोधि कल्पना नहीं है, कवियों का कल्पनाजाल नहीं है। घटा है, यथार्थ है। जीवन का परम यथार्थ है। बुद्ध और महावीर, कृष्ण और कबीर, नानक और दादू इनकी याद का और कोई अर्थ नहीं है। इनकी याद का इतना ही अर्थ है कि इस रास्ते पर कुछ लोग परम अवस्था को उपलब्ध हुए हैं। ताकि तुम्हें भरोसा बना रहे। वे गवाहियां हैं। वे प्रमाणपत्र हैं। उनके कारण तुम इस संदेह में पूरी तरह डूब न जाओगे कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि ऐसा होता ही नहीं है! तो हम अपना व्यर्थ समय करें, व्यर्थ शक्ति करें।

इन ज्योतिर्मय पुरुषों के कारण तुम अपने अंधेरे को स्वीकार नहीं कर पाते और अपने प्रकाश को तुम कभी-कभी याद करते रहते हो। आ ही जाती है याद कहीं न कहीं। इसलिए मस्जिदें बनीं, मंदिर बने जगत में, गुरुद्वारे बने। वे याददाश्त की जगह हैं। जा रहे हो बाजार, रास्ते में मंदिर दिखाई पड़ गया; अगर तुममें थोड़ी भी बुद्धि हो तो मंदिर तुम्हें याद करा जाएगा कि बाजार जाओ भला, लेकिन आना मंदिर है। बाजार का चक्कर लगाकर आओ, मगर आना मंदिर है। आज नहीं आ सकते भला, लेकिन कल आना जरूर है। कि जीवन की नियति मंदिर में है, दुकान में नहीं है। कि जीवन का परम सौभाग्य राजधानियों में नहीं है। कि जीवन का परम सौभाग्य ध्यान में है; महत्वाकांक्षा में नहीं है, हिंसा में नहीं है, परिग्रह में नहीं है–कि ध्यान, कि धर्म, कि बोधि।

मगर क्या ऐसी चीजें होती हैं?

अगर तुम्हें याद भूल जाए, तुम अगर यह मान ही लो कि ऐसी चीजें होती ही नहीं तो फिर तुम उस दिशा में खोज ही न करोगे, तड़फोगे ही न। तुम प्यासे ही न होओगे। जो होता ही नहीं, उस दिशा में हम जाते ही नहीं। यह याद बनी रहे।

इसके परिणाम देखो। सोवियत रूस है; राज्य ने मान लिया कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई मोक्ष नहीं। तो इन पचास वर्षों में एक भी व्यक्ति रूस में समाधि को उपलब्ध नहीं हो सका। यह तो बड़ा अहित हो गया। हालांकि मैं यह नहीं कहता हूं कि रूस धार्मिक रहता तो जरूरी था कोई समाधि को उपलब्ध हो जाता। लेकिन संभावना थी। बीस करोड़ लोगों का मुल्क है। कोई बहुत हजारों लोग समाधि को उपलब्ध हो जाते, ऐसा भी नहीं है। मगर एकाध तो हो ही सकता था। वह भी नहीं हुआ।

अगर सारी दुनिया कम्युनिस्ट हो जाए और नास्तिक हो जाए तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, पागल सिद्ध हो जाएंगे।

यह तो बात ही दूर ही रही कि हम बुद्धत्व को पाने की चेष्टा करेंगे, जिनत्व को पाने की चेष्टा करेंगे; अगर हम जिन हो भी जाएंगे घर के भीतर, तो हम बाहर खबर न करेंगे; नहीं तो लोग पागलखाने ले जाएंगे।

रूस में यह हो रहा है। जो व्यक्ति भी राज्य की धारणाओं से भिन्न बात कहता है, वह करार दे दिया जाता है कि इसका दिमाग खराब है। उसको तत्क्षण मनोचिकित्सालय ले जाकर इलेक्ट्रिक शाक, इन्सुलिन शाक, दवाइयां पिलाना शुरू कर देते हैं। वह लाख चिल्लाए।

अब तुम थोड़ा सोचो, कितना बड़ा अंतर पड़ा है। अच्छा किया यहूदियों ने जीसस को सूली तो लगा दी। यह कहा कि यह आदमी गलत है, खतरनाक है। अगर जीसस आज रूस में होते तो सूली न मिलती, किसी पागलखाने में इलेक्ट्रिक शाक मिलते, जो कि और भी दुखांत है। क्योंकि सूली तो जीसस को नहीं मार पाई, लेकिन पागलखाना तो नष्ट कर देता।

जब महावीर कहते हैं, बोधि को स्मरण रखना, भावना करना, तो इसका अर्थ है: बुद्धत्व उपलब्ध हुआ है, बुद्ध हुए हैं, जिन हुए हैं। आज भी हो सकते हैं, कल भी होते रहेंगे। यह हमारा स्वरूप-सिद्ध अधिकार है। जो भी हिम्मत करेगा, जो भी दावा करेगा, उसको मिलकर रहेगा। अगर हम न पाते हों, हमारी कमजोरी है। अगर हमें न मिलता हो तो केवल एक खबर मिलती है: हमने चेष्टा नहीं की। हमने श्रम नहीं किया। हमने योग्यता अर्जित नहीं की।

लेकिन बोधि को पाने जो भी चले, वह स्मरण रखे, बहुत कुछ खोना होगा। जैसे हम हैं, वैसे तो हमें मिटना होगा। जो हम हैं, वैसे तो हमें विसर्जित होना होगा।

मिलने को मिलेगा बिलआखिर

ऐ अर्श सुकूने-साहिल भी

तूफाने-हवादिस से लेकिन

बच जाए सफीना मुश्किल है

वह किनारा मिलेगा शांति का–सुकूने-साहिल भी। अंततः मिलेगा। लेकिन–

तूफाने-हवादिस से लेकिन

बच जाए सफीना मुश्किल है

लेकिन यह नाव तूफान में बचेगी, यह मुश्किल दिखाई पड़ता है। मुश्किल ही नहीं है, मैं तो कहता हूं, यह निश्चित है, यह नाव तो डूबेगी। तुम बचोगे, नाव डूबेगी।

नाव यानी तुम्हारा शरीर। नाव यानी तुम्हारा मन। नाव यानी तुम्हारा अहंकार। यह तो नहीं बचेगा। यह तो तूफान में जाएगा। इसको बचाने की कोशिश की तो तुम उस पार जाने से भी वंचित रह जाओगे। और यह तो फिर भी जाएगा। यह तो फिर भी न बचेगा। यह तो बचाकर भी नहीं बचता। जाना इसका स्वभाव है। और जो बचता है सदा, और जाना जिसका स्वभाव नहीं है, उसकी तुमने याद नहीं की। उसकी सुरति नहीं जगाई।

निराला की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं:

स्नेह-निर्झर बह गया है

स्नेह-निर्झर बह गया है,

रेत ज्यों तन रह गया है

आम की यह डाल जो सूखी दिखी

कह रही है अब यहां पिक या शिखी

नहीं आते, पंक्ति में वह हूं लिखी

नहीं जिसका अर्थ

जीवन ढह गया है

दिए हैं मैंने जगत को फूल-फल

किया है अपनी प्रभा से चकित चल

पर अनस्वर था सकल पल्लवित पल

ठाठ जीवन का वही, जो ढह गया है

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा

श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा

बह रही है हृदय पर केवल अमा

मैं अलक्षित हूं यही कवि कह गया है

स्नेह-निर्झर बह गया है

रेत ज्यों तन रह गया है

यह तन तो रेत जैसा ढह ही जाएगा। यह तो घर है, घास-फूस की मचिया है। यह तो मिट्टी का बना घर है। यह मिटेगा ही। यह नाव तो डूबेगी ही। यह तो हर हाल डूबेगी। जो बचाना चाहते हैं, उनकी भी डूबती है। जो डुबाने-डूबने की फिक्र छोड़कर चल पड़ते हैं, उनकी भी डूबती है। नाव तो डूबती है, लेकिन जिसने नाव को बचाया वह खुद भी डूब जाता है। और जिसने नाव की फिक्र न की, नाव तो डूब जाती है, लेकिन वह उबर जाता है।

यहां जो डूबते हैं, वे ही उबरते हैं। यहां जो बचने की चेष्टा करते हैं, वे डूबे ही रह जाते हैं।

हम न औतार थे न पैगंबर, क्यूं यह अजमत हमें दिलाई गई

मौत पाई सलीब पर हमने उम्र वनवास में बिताई गई

ये बड़ी मीठी पंक्तियां हैं। राम को वनवास मिला ठीक, वे अवतार थे। जीसस को सूली लगी ठीक, वे मसीहा थे।

हम न औतार थे न पैगंबर क्यूं यह अजमत हमें दिलाई गई

मौत पाई सलीब पर हमने उम्र वनवास में बिताई गई

तुम राम हो या न हो, उम्र तो वनवास में बीतेगी। तुम राम हो या न हो, सीता तो तुम्हारी चुराई ही जाएगी। तुम जीसस हो या न, सूली तो लगेगी। वह तो निश्चित है। उसका अवतार और पैगंबर से कुछ लेना नहीं। वह तो जन्म का स्वभाव है कि मृत्यु होगी। वह तो पाने का स्वभाव है कि खोना पड़ेगा। वह तो पत्ते के आने में ही तय हो गया कि सूखेगा और गिरेगा। वसंत पतझड़ की तैयारी है। यह तो होगा ही। लेकिन इसे अगर तुम स्वेच्छा से हो जाने दो–वही फर्क है। वही फर्क है तुममें और जीसस में; तुममें और राम में।

राम इसे स्वेच्छा से हो जाने देते हैं। वनवास तो हुआ। वे तैयार हो गए। धनुषबाण लेकर खड़े हो गए घर के बाहर, कि चला। एक बार भी ना-नुच न की। यह नहीं कहा कि कैसा अन्याय है! यह कैसा बलात व्यवहार! बाप पर धोखे का शक भी न किया, शिकायत भी न की।

वनवास तो सभी को होता है। राम ने स्वीकार किया इसीलिए अवतार हो गए। सूली तो सभी को लगती है। किसी को खाट पर पड़े-पड़े लगती है, इससे क्या फर्क पड़ता है? खाट भी वैसी ही लकड़ी की बनी है, जैसी सूली बनती है। कहां सूली लगती है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सूली तो लगती है। मौत तो सभी की होती है। जीसस ने स्वीकार कर ली। अंतिम घड़ी में कहा, हे प्रभु! तेरी मर्जी पूरी हो। उसी क्षण पैगंबर हो गए।

सभी यहां पैगंबर और अवतार होने को हुए हैं। इससे कम पर राजी मत हो जाना। दुख तो मिलेगा ही। तो फिर इस दुख के साथ थोड़ा सर्जनात्मक खेल खेल लो। इसे स्वीकार कर लो। इसे आनंद और अहोभाव से उठा लो। मरने को तैयार हो जाओ। अपनी सूली अपने कंधे पर ढोने को तैयार हो जाओ। और तुम पाओगे कि अमृत उपलब्ध हुआ। अमृत मिला ही हुआ है। थोड़ा मृत्यु से तुम ऊपर उठो, तो अमृत के दर्शन हों। हम ऐसे हैं, जैसे कोई आदमी जमीन पर आंख गड़ाये चल रहा हो, और आकाश उपलब्ध है और आंख उठाकर देखता न हो। और कहता हो, आकाश कहां है? जमीन ही जमीन दिखाई पड़ती है। मिट्टी ही मिट्टी दिखाई पड़ती है।

ऐसे ही तुम्हारे भीतर मिट्टी भी है, जमीन भी है, आकाश भी है। आकाश यानी तुम्हारी आत्मा। मिट्टी, जमीन यानी तुम्हारा शरीर। शरीर से थोड़ी आंख उठाओ। शरीर यानी मृत्यु।

शरीर से थोड़ी आंख ऊपर उठाओ। आत्मा यानी अमृत, शाश्वत जीवन।

उस स्थिति को महावीर ने मुक्ति, मोक्ष कहा है। मोक्ष को पाए बिना जाओ तो आना व्यर्थ हुआ। फिर-फिर भेजे जाओगे। वह पाठ सीखे बिना इस पाठशाला से कोई कभी छूटा नहीं। सीख ही लो। जो सीख जाता है, उसे दुबारा नहीं भेजा जाता है। जरूरत ही न रही।

पुनर्जन्म के सिद्धांत का इतना ही अर्थ है कि बिना पाठ सीखे जो गया उसे वापिस स्कूल भेज दिया जाता है–फिर उसी कक्षा में। सीखकर आना ही होगा, ज्ञान की संपदा जगानी ही होगी। तुम्हारे भीतर का वेद जब तक गुनगुनाने न लगे, जब तक तुम्हारे भीतर की ऋचाएं प्रगट न हो उठें, तब तक परमात्मा तुम्हारा पीछा नहीं छोड़नेवाला है।

आज इतना ही।


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समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–10

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आगे बढ़—प्रवचन—दसवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,

अंबरनाथ; 14 फरवरी, 1973

अब तू उस खाई को पार कर चुका है, जो मानवीय वासनाओं के द्वार को घेर कर खड़ी है। अब तू “काम’ और उसकी दुदात सेना पर विजय पा चुका है।

तूने अपने हृदय से अशुद्धियों को निकाल दिया है और कलुषपूर्ण वासनाओं से अब वह मुक्त है। लेकिन ओ गौरवशाली योद्धा, तेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ है। ओ शिष्य (लानू) पवित्र-द्वीप को घेरने वाली दीवार को ऊंचा उठा। यही वह बांध होगा जो तेरे मन की उस मद और संतुष्टि से रक्षा करेगा, जो बड़ी उपलब्धि के विचार से उत्पन्न होती है।

अहंकार का भाव काम को बिगाड़ कर धर देगा, अतः मजबूत बांध बना, नहीं तो कहीं लड़ाकू लहरों की भयानक बाढ़ जो महा संसार के माया के समुद्र से आकर इसके किनारों पर चढ़ाई और चोट करती है, यात्री और उसके द्वीप को ही न निगल जाए। हां यह तब भी घटित हो सकता है, जब विजय उपलब्ध हो गई हो।

तेरा द्वीप हिरण है और तेरे विचार कुत्ते हैं, जो जीवन की ओर उसकी यात्रा का पीछा कर उसकी प्रगति को अवरुद्ध करते हैं। उस हिरण के लिए शोक है, जिसे भूंकते कुत्ते उसके ध्यानमार्ग नाम की शरणस्थली पर पहुंचने के पहले ही पराजित कर देते हैं।

हे सुख-दुख के विजेता, इसके पहले कि तू ध्यान-मार्ग में स्थित हो और उसे अपना कहे, तेरी आत्मा को पके आम के जैसा होना है। दूसरे के दुखों के लिए उसके चमकदार व सुनहरे गूदे की तरह और अपनी पीड़ा व शोक के लिए उसकी पथरीली गुठली की तरह।

अहंकार के नागपाश से बचने के लिए अपनी आत्मा को कठोर बना, उसे वज्र आत्मा नाम पाने के योग्य बना।

क्योंकि जिस प्रकार धरती के धड़कते हृदय की गहराई में गड़ा हीरा धरती के प्रकाशों को प्रतिबिंबित नहीं कर पाता है, उसी प्रकार का तेरा मन और आत्मा है, ध्यान-मार्ग में डूब कर उसे भी माया के जगत की भ्रांति-भरी शून्यता को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहिए।

सारी वासनाओं के मूल में काम-वासना है।

वासना का रूप कोई भी हो, गहरे में खोजेंगे तो काम को ही पाएंगे।

हिंदुओं ने तो जगत के सृजन में ही काम को मूल माना है; सारी सृष्टि कामवासना का ही फैलाव है। चाहे कोई धन चाहता हो, चाहे कोई पद चाहता हो, चाह मात्र अपने मौलिक रूप में कामना है, काम-वासना है। धन भी इसलिए चाहा जाता है, पद भी इसलिए चाहा जाता है। ए प्रकारांतर से अलग-अलग द्वारों से एक ही वासना की तरफ ले जाते हैं। तो जिसने काम-वासना पर विजय पा ली, उसने सभी वासनाओं पर विजय पा ली।

काम-वासना क्या है?

अगर हम वैज्ञानिकों से पूछें तो वे कहते हैं, आदमी के जीवन में दो बातें बहुत आधारभूत हैं। एक तो जीवन बचना चाहता है, सरवाइव करना चाहता है, जीवन नष्ट नहीं होना चाहता है, जीवेषणा है। मैं जीऊं अकारण, इसका कोई कारण नहीं है। अगर कोई आपसे पूछे, आप क्यों जीना चाहते हैं, तो आप कोई कारण नहीं बता सकेंगे। जीना चाहते हैं, यह अकारण है, बस ऐसा है। यह वैसे ही अकारण है जैसे सौ डिग्री पर पानी गरम हो कर भाप बन जाता है। अगर हम पूछें कि क्यों सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है, नब्बे डिग्री पर बनने में क्या अड़चन थी, या एक सौ दस डिग्री पर बनता, तो क्या हर्जा हो जाता? अगर हम वैज्ञानिक से पूछें कि हाईड्रोजन आक्सीजन से मिल कर ही पानी क्यों बनता है? कोई उत्तर नहीं है। बनता है, क्यों का कोई सवाल ही नहीं है। ठीक ऐसे ही जीवन जीना चाहता है, क्यों का कोई सवाल नहीं है। जो भी है वह मिटना नहीं चाहता है। होने में ही बने रहने की कामना छिपी है।

इस कामना के दो रूप हो जाते हैं। आप भी होना चाहते हैं, रहना चाहते हैं, बचना चाहते हैं, अमरत्व की आकांक्षा है। न मिटें, ऐसा गहरे में छिपा है, इसलिए आदमी सब तरह से अपनी सुरक्षा करता है। लेकिन व्यक्ति की मृत्यु तो होगी। कितना ही उपाय हो, कितनी ही सुरक्षा हो, व्यक्ति मरेगा। क्योंकि व्यक्ति का जन्म होता है।

लेकिन व्यक्ति के भीतर जो जीवन है, वह बच सकता है। आपकी लहर मरेगी, लेकिन आपके भीतर जो सागर है जीवन का, वह बच सकता है। काम-वासना उसी जीवन की बचने की चेष्टा है। आप मिट जाएंगे, लेकिन आपके भीतर से जीवन निकल कर नए रूप ले लेगा। और इसके पहले कि आप मिटें, आपके भीतर जो जीवन की धारा छिपी है, वह नए शरीर खोज लेगी। आप खो जाएंगे, लेकिन आपका कुछ मौलिक अस्तित्व का हिस्सा, आपकी जीवन-धारा का कोई अंश आपके बच्चों में, बच्चों के बच्चों में यात्रा करता रहेगा।

काम-वासना जीवन को हर हालत में बचाने की आकांक्षा का हिस्सा है।

ऐसा मनुष्य में ही है, ऐसा नहीं है, समस्त जीवन में है। वृक्ष भी अपने बीजों को सुरक्षित भूमि तक पहुंचाने की कोशिश करता है। अगर आप वृक्षों का अध्ययन करें, तो चकित हो जाएंगे। बड़े वृक्ष अपने बीजों को अपने से दूर पहुंचाने की कोशिश करते हैं। क्योंकि अगर बीज वृक्ष के नीचे ही गिर जाएं, तो बड़े वृक्ष के नीचे उनके अंकुरित होने का उपाय नहीं, उसकी छाया में ही मर जाएंगे।

आपने सेमर का फूल देखा है? आपने कभी सोचा न होगा कि बीज में सेमर की रूई क्यों चिपकी होती है? उस वृक्ष की कोशिश है कि रूई के कारण हवा के झोंके में बीज दूर चला जाए। नीचे गिरेगा, तो नष्ट हो जाएगा। बीज को दूर पहुंचाने की कोशिश है, वह जो सेमर की रूई है। बीज खुद न उड़ सकेगा, रूई के सहारे उड़ जाएगा, दूर गिरेगा कहीं जा कर, जहां अंकुरित हो सकेगा। और इसलिए एक वृक्ष करोड़ों बीज पैदा करता है कि एक व्यर्थ चला जाएगा, दो व्यर्थ चले जाएंगे, लेकिन करोड़ों बीजों में से अगर एक भी अंकुरित हो गया, तो जीवन पल्लवित होता रहेगा।

मैं एक मछली की जाति के संबंध में अभी पढ़ रहा था, उस मछली का जीवन बहुत थोड़ा है, लेकिन अपने जीवन में वह मछली दस करोड़ अंडे देती है। दस करोड़ अंडे! और मछली के अंडों का जीवन बड़ा संकटपूर्ण है। दस करोड़ अंडों में से दो ही मछलियां पैदा हो पाती हैं।

आदमी के भीतर भी इतने ही बीज पैदा होते हैं। एक पुरुष चार-पांच अरब बच्चों को जन्म दे सकता है। एक संभोग में लाखों जीवाणु उपयोग में आते हैं, जो सभी जीवन बन सकते थे। लेकिन जीवन में आपके दस-पांच बच्चे ज्यादा से ज्यादा पैदा हो जाएंगे।

जीवशास्त्री कहते हैं कि जीवन बचने की आकांक्षा के कारण कोई भी अवसर खोना नहीं चाहता है। और इतने विपुलता से अपने को फैलाता है कि अगर हजारों-लाखों मिल कर भी व्यर्थ चले जाएं, तो भी जीवन बचा रहे। जीवन की बचने की यह आकांक्षा ही आपको काम-वासना जैसी मालूम पड़ती है। यह गहरी से गहरी है, इससे ही आप जन्मे हैं, इससे ही जीवन आपसे जन्मने के लिए आतुर भी है। काम-वासना के द्वार से जीवन में आपने प्रवेश किया है। और इसके पहले कि आपकी देह व्यर्थ हो जाए, वह जीवन जो आपने आवास बनाया था, नए आवास बनाने की कोशिश करता है। इसलिए काम-वासना उद्दाम है। कितना ही उपाय करें, वह मन को पकड़ लेती है। वह आपसे बड़ी मालूम पड़ती है; आपके सब संकल्प, ब्रह्मचर्य के नियम, आपकी सब कसमें, सब प्रतिज्ञाएं पड़ी रह जाती हैं। और काम-वासना जब वेग पकड़ती है, तो आप पाते हैं कि आविष्ट हो गए, कोई बड़ी धारा आपको खींचे लिए जा रही है, और आप बहे जाते हैं। इतनी मौलिक है काम-वासना।

और समस्त अध्यात्म की खोज इस काम-वासना के रूपांतरण में है, क्योंकि यह जो जीवन की धारा अगर बाहर की तरफ बहती रहे तो नई देह, नए शरीर पैदा होते रहेंगे। यही जीवन की धारा अगर अपने पर लौट आए, तो आपका परम जीवन उपलब्ध हो जाएगा। इस जीवन-धारा के दो उपयोग हैं, जैविक बायोलाजी के अर्थों में संतति, अध्यात्म के अर्थों में आत्मा। इससे शरीर भी पैदा हो सकते हैं, अगर यह बाहर जाए। और इससे आपकी आत्मा की किरण भी निखरकर प्रकट हो सकती है, अगर यह भीतर आए। यही धारा बाहर जाकर नए शरीरों का जन्म बनती है; यह धारा भीतर जाकर आपका नया जन्म बनती है।

जिस व्यक्ति की काम-वासना ऊर्ध्वमुखी हो जाती है, अंतर्मुखी हो जाती है, वह द्विज हो जाता है; उसका नया जन्म हो गया। एक जन्म तो मिलता है मां-बाप से, वह शरीर का जन्म है। और एक जन्म आपको स्वयं अपने को देना पड़ता है, वह आत्मा का जन्म है। इसलिए समस्त धर्म काम-वासना के प्रति उत्सुक हैं। क्योंकि वही मूल शक्ति है, जिसका उपयोग किया जाना चाहिए। अगर आप संतति के निर्माण में ही लगे रहें, तो जिस शक्ति से आपका पुनर्जन्म हो सकता था, नव-जन्म हो सकता था और जिससे आप उसका

अनुभव कर सकते थे, जो अमृत है, उससे आप वंचित हो जाएंगे। अनेक-अनेक जन्मों में आप भटकते रह सकते हैं। जिस दिन यह धारा भीतर मुड़ जाएगी, उसी दिन देह में भटकना बंद हो जाएगा। इसको हमने आवागमन से मुक्ति कहा है। और जब तक यह धारा बाहर चलती रहती है, तब तक आपको बाहर भटकना ही पड़ेगा।

अति कठिन है इस धारा को भीतर की तरफ मोड़ना, लेकिन असंभव नहीं है। और कठिनाई भी नासमझी की वजह से है। समझपूर्वक इस धारा को भीतर ले जाया जा सकता है। जीवन की सभी शक्तियां समझपूर्वक काम में आ जाती हैं।

आज से पहले, इस सदी के पूर्व भी आकाश में बिजली चमकती थी, लेकिन आदमी के लिए सिर्फ भय का कारण था, डर पैदा होता था। उसकी कड़क, उसकी चमक, गरमाहट, छाती को डांवांडोल कर जाती थी। आदमी सोचता था कि परमात्मा नाराज है, और हमसे कोई पाप, कोई भूल हुई है; इसलिए वह बिजली कड़का कर हमें डरा रहा है। इंद्र का व्रज, इंद्र का शस्त्र समझी जाती थी। फिर हम बिजली को समझ पाए कि वह क्या है। हमने उस शक्ति के राज को समझ लिया। आज उसी बिजली से कोई भय नहीं रहा। आज वही बिजली बंधी हुई घर घर में प्रकाश दे रही है; आज वही बिजली बंधी हुई हजारों यंत्र चला रही है। आज वही बिजली जीवन की सहयोगी हो गई है।

ज्ञान विजय है, अज्ञान पराजय है।

अज्ञान में शक्ति से डर लगता है; ज्ञान में वही शक्ति सहयोगी और सेवक हो जाती है। जैसे आकाश में कौंधती बिजली कभी हमें डराती थी, वैसे ही कौंधती काम-वासना की शक्ति भी हमें डराती है, भयभीत करती है। क्योंकि हम अभी भी उस संबंध में अज्ञानी हैं। उस भीतर की विद्युत के संबंध में हम अभी भी अज्ञानी हैं। ऐसा नहीं है कि उसके सूत्र नहीं जान लिए गए हैं, और ऐसा भी नहीं है कि लोगों ने उस भीतर की विद्युत को नहीं बांध लिया और ऐसा भी नहीं है कि उस विद्युत को बांध कर लोगों ने उस विद्युत से भीतर के जगत में सेवा नहीं ले ली। और जैसे बाहर की विद्युत बांधकर हमने बाहर प्रकाश कर लिया, वैसे ही उस भीतर की विद्युत को बांध कर भी भीतर प्रकाश कर लिया गया है।

लेकिन एक कठिनाई है। बाहर का विज्ञान सामूहिक संपत्ति बन जाता है; एक बार जान लिया गया कि बिजली को कैसे पैदा किया जाए, जान लिया गया कि बिजली से कैसे उपयोग लिया

जाए, तो फिर हर आदमी को खोजना नहीं पड़ता। सूत्र जाहिर हो गए; उनकी शिक्षा दी जा सकती है। तो हर आदमी को एडीसन होने की जरूरत नहीं है। फिर एक साधारण-सा इंजीनियर भी सभी काम कर देता है। वह कोई एडीसन नहीं है, उसने कुछ खोजा नहीं है, उसका कोई बड़ा ज्ञान भी नहीं है, लेकिन जानकारी है। फिर एक टेक्नीशियन जो कि इंजीनियर भी नहीं है, वह बिजली का काम कर देता है। उसे कुछ भी पता नहीं कि बिजली क्या है, पर उसे इतना पता है कि उसका कैसे उपयोग किया जाए।

लेकिन भीतर के विज्ञान के साथ एक कठिनाई है। नियम खोज लिए जाएं, तो भी सार्वजनिक नहीं हो पाते। हो नहीं सकते। उनका स्वभाव ऐसा है। बुद्ध को पता है, कृष्ण को पता है, महावीर को पता है कि भीतर की यह जो विद्युत-धारा है–काम-ऊर्जा, सेक्स-एनर्जी–वह कैसे बांधी जाए, कैसे इसकी धारा बदली जाए, कैसे इसे बहाया जाए अपने अनुकूल, कैसे इससे भीतर प्रकाश पैदा किया जाए; कैसे भीतर की शुद्धि में इसका उपयोग किया जाए, कैसे भीतर के जीवन को पाने के लिए यह मार्ग बन जाए। सब इन्हें पता है, और वे कहते हैं, लेकिन फिर भी आप इंजीनियर या टेक्नीशियन की तरह उसका उपयोग नहीं कर पाते।

भीतर के विज्ञान के संबंध में एक मौलिक बात है कि फिर उसमें आपको एडीसन बनना पड़ेगा, बुद्ध बनना पड़ेगा, क्राइस्ट बनना पड़ेगा। उसके पहले आप उसका उपयोग न कर सकेंगे, क्योंकि वह आपके भीतर की घटना है, मात्र सूचना और जानकारी से कुछ भी न होगा। अनुभव ही वहां मार्ग बनेगा।

संसार के संबंध में सूचना काफी है; अध्यात्म के संबंध में अनुभव जरूरी है।

संसार के संबंध में जो भी हम जानते हैं, उसकी प्रयोगशालाएं बाहर हो सकती हैं। अध्यात्म के संबंध में आप ही प्रयोगशाला हैं।

और भी जटिलता है–आप ही हैं प्रयोग करनेवाले, आप ही हैं प्रयोगशाला। आप ही हैं उपकरण प्रयोग के, आप ही हैं शक्ति जिस पर प्रयोग होना है। और आप ही हैं जो अंततः इस प्रयोग से रूपांतरित होंगे। वहां आपके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। इसलिए जटिलता बढ़ जाती है।

जैसे एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता हो, तो पत्थर अलग होता है, जिस पर मूर्ति बनानी है; छेनी अलग होती है, जिससे मूर्ति बनानी है; मूर्तिकार अलग होता है, जिसको मूर्ति बनानी है; खरीददार अलग होता है, जो मूर्ति खरीदेगा। अध्यात्म की इस मूर्तिकला में आप ही सब कुछ हैं। आप ही हैं पत्थर, जिसकी मूर्ति बननी है; आप ही हैं छेनी, जिससे मूर्ति बनाई जानी है; आप ही हैं कलाकार, जिसको मूर्ति बनानी है, और आप ही हैं ग्राहक, खरीददार। वहां सब कुछ आप हैं। इसलिए जटिलता बढ़ जाती है, उलझन गहरी हो जाती है।

लेकिन क्योंकि मूर्तियां बन गई हैं, तो ही हमने बुद्धों को देखा और जाना है। और जो एक में हो सकता है, वह सभी में हो सकता है। इस सूत्र को इस दृष्टि से समझने की कोशिश करें। और खयाल रखें कि काम-ऊर्जा की समझ ही उसकी विजय है, लड़ने से नहीं जीतेंगे, जानने से जीतेंगे। लड़ते नासमझ हैं, समझदार लड़ते नहीं हैं, वे समझने की कोशिश करते हैं। जितना जान लेते हैं वे, उतने ही मालिक हो जाते हैं।

बेकन ने कहा है, ज्ञान शक्ति है। विज्ञान के लिए उसने यह कहा था। लेकिन अध्यात्म के लिए भी यह सत्य है। ज्ञान शक्ति है। जिस शक्ति को आप जानते नहीं, उससे आप परेशान होंगे। और अनजान में जो भी करेंगे, उससे और जटिलताएं बढ़ जाएंगी। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो काम-ऊर्जा के संबंध में कुछ-न-कुछ न करता हो। बिलकुल मुश्किल है। बुरे से बुरा आदमी भी, अनैतिक आदमी भी, कामुक आदमी भी काम-वासना के संबंध में कुछ-न-कुछ करता रहता है। रोकने की कोशिश करता है, संभालने की कोशिश करता है। इस सारी कोशिश में वासना विकृत हो जाती है। सुधरती नहीं, बदलती नहीं, और कुरूप हो जाती है।

सारी दुनिया कुरूप काम-वासना से भरी है। हजारों रूपों में काम-वासना विकृत रोगों का रूप लेती है। यह नासमझों द्वारा किए गए काम हैं। ऐसा है, जैसा बिजली के संबंध में कुछ भी न जानता हो, वह बिजली के किसी उपकरण को सुधारने में लग जाए। उससे आशा है कि और बिगाड़ देगा। अच्छा हो छुओ ही मत, जब तक समझ न लो। ठीक समझ के ही भीतर चलना, अन्यथा जिस शक्ति से आत्मा का जन्म हो सकता था, उससे आत्मघात भी हो सकता है। और बहुत लोग आत्मघाती हो जाते हैं। अगर हम लोगों की मानसिक विकृतियों का अध्ययन करें, तो हम पाएंगे उनके मूल में काम-वासना के साथ किया गया अज्ञानपूर्ण कार्य है।

फ्रायड के गहरे अध्ययन ने यह बात जाहिर कर दी है कि आदमी की मन की बीमारियों में सौ बीमारियों में निन्यानबे बीमारियों के मामले में काम-वासना की विकृति है। उस ऊर्जा के साथ कभी भूल हो जाती है, और तब तक सब नष्ट हो जाता है। हजार तरह के पागलपन हैं, हजार तरह के मानसिक रोग हैं, हजार तरह की मानसिक चिंताएं हैं। उनके रूप कुछ भी हों, उनके गहरे में काम-वासना होगी। और काम-वासना इसलिए उनके गहरे में होती है कि आपने कुछ करने की कोशिश की है उस यंत्र के संबंध में, जिसका आपको कोई भी पता नहीं। और काम-वासना जीवन का आधार है, इसलिए बहुत गहरी होनी चाहिए उसकी जानकारी, उसकी समझ, उसका अनुभव।

तीन बातें स्मरण रखें, फिर हम इस सूत्र में प्रवेश करें।

पहली, स्वाभाविक काम-वासना को अस्वाभाविक मत होने देना। जो स्वाभाविक है, उसे स्वीकार करना। अस्वीकार करने से, वह अस्वाभाविक हो जाएगी। अस्वाभाविक करने से उसके विकृत परवर्टेड रूप पैदा हो जाएंगे। स्वाभाविक काम-वासना को बदलना आसान है, अस्वाभाविक को बदलना बहुत कठिन है।

समझें इसे ऐसा कि एक पुरुष एक स्त्री में आकर्षित होता है, यह स्वाभाविक है। इस काम-वासना को बदलना आसान है। लेकिन सारी दुनिया में होमो-सेक्सुअलिटी है कि एक पुरुष एक पुरुष में उत्सुक हो जाता है या एक स्त्री एक स्त्री में उत्सुक हो जाती है! इस काम-वासना को बदलना कठिन है। यह विकृत है, यह अस्वाभाविक है, इसकी बदलाहट बहुत मुश्किल है। हेट्रो-सेक्सुअलिटी को बदलना आसान है; क्योंकि स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। होमो-सेक्सुअलिटी को बदलना अति कठिन है; क्योंकि अप्राकृतिक है। इस तरह के हजार-हजार रूप आदमी को पकड़े हुए हैं।

एक आदमी जिसे प्रेम करता है, उसको पास लेना चाहता है, निकट लेना चाहता है; स्वाभाविक है। इस स्वाभाविक वासना को बदलना आसान है। लेकिन एक आदमी किसी को प्रेम नहीं करता, किसी को निकट नहीं लेना चाहता, लेकिन भीड़-भड़क्के में अगर स्त्री मिल जाए, तो धक्का मार कर नदारत हो जाता है; इस आदमी की काम-वासना को बदलना बहुत मुश्किल है। यह विकृत है, यह स्वाभाविक नहीं है। जिससे प्रेम है, उसे निकट लेना स्वाभाविक है। लेकिन जिससे प्रेम नहीं है, उसको धक्का मारकर भीड़ में चले जाना रोग है। इसकी बदलाहट जरा मुश्किल पड़ेगी। और इसकी बदलाहट के लिए अड़चनें हो जाएंगी। लेकिन एक आदमी क्यों किसी स्त्री को भीड़ में धक्का मारने में उत्सुक हो जाता है? शायद किसी स्त्री को पास लेने का जो मन था, वह उसने दबा लिया है, रोक लिया; वह दबा हुआ झरना कहीं से भी फूट कर बह रहा है। तो पहली बात तो यह खयाल रखना कि स्वाभाविक काम-वासना ठीक है, उससे आगे की यात्रा सीधी है; अस्वाभाविक काम-वासना खतरनाक है, उससे सावधान रहना, उससे बचना।

दूसरी बात खयाल रखना कि स्वाभाविक काम-वासना को सिर्फ भोगना ही मत, भोग के साथ-साथ उस पर ध्यान भी करना। क्योंकि वासना में दंश नहीं है; मूर्छित वासना में दंश है। अगर आपको लगता है कि मन को काम पकड़ता है, तो भोग में उतरना; लेकिन होशपूर्वक उतरना। ध्यान रखना

क्या हो रहा है, ध्यान रखना क्या मिल रहा है, ध्यान रखना कि कौन से सुख की, कौन से आनंद की, कौन सी शांति की उपलब्धि हो रही है। ध्यानपूर्वक भोग में उतरना, ताकि भोग के गहरे रहस्य आपके ध्यान में समाविष्ट हो जाएं। वही आपकी समझ बनेगी।

और तीसरी बात–इस बात की खोज जारी रखना जो सुख या शांति की झलक मिलती है, वह वस्तुतः काम-वासना के कारण मिलती है या कारण कोई और है?

स्वाभाविक वासना हो, ध्यानपूर्वक वासना हो, तो यह तीसरी बात भी समझने में आपको ज्यादा देर नहीं लगेगी, और पता चल जाएगी कि काम-वासना के कारण सुख और आनंद की प्रतीति नहीं होती। इसको जो जानते हैं, उन्होंने काकतालीय न्याय कहा है। काकतालीय न्याय का मतलब होता है कि आप एक वृक्ष के नीच बैठे हैं और एक कौवे ने आवाज दी, कौवे की आवाज के साथ संयोग की बात वृक्ष से एक फल टपक कर आपके पास गिर गया, तो आपने समझा कि कौवे की आवाज के कारण फल गिरा। यह काकतालीय न्याय है। कोई कौवे की आवाज से फल नहीं गिरा। कौवे की आवाज से फल के गिरने का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। लेकिन जटिलता और बढ़ जाएगी कि जब भी आप कौवे की आवाज सुनें, तभी अगर फल गिरे। तब बहुत मुश्किल हो जाएगी।

आपने सुनी होगी उस बुढ़िया औरत की कहानी, जिसके मुर्गे के बांग देने से रोज सुबह सूरज उगता था। एक दिन की बात हो, तो संयोग भी मान लें; वर्षों का अनुभव है कि जब भी मुर्गा बांग देता है, सूरज उगता है। स्वभावतः उस बूढ़ी औरत ने मान रखा था कि मेरा मुर्गा जिस दिन बांग न देगा, उस दिन सूरज न उगेगा। गांव से झगड़ा हो गया, तो उसने कहा कि अच्छा ठहरो, तुम्हें मैं मजा चखाती हूं। मैं अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली जाती हूं; तब तुम्हें पता चलेगा, जब अंधेरे में भटकोगे और तड़पोगे, और जब सूरज नहीं उगेगा। तो वह बूढ़ी औरत अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव में चली गई। और जब मुर्गे ने दूसरे गांव में बांग दी, सूरज उगा, तो उसने कहा अब समझेंगे नासमझ लोग। उस गांव की क्या हालत रही होगी? सूरज तो यहां उग गया। जहां मेरा मुर्गा, वहां सूरज का उगना होगा। यह काकतालीय न्याय है।

काम-वासना के संबंध में यह हो रहा है। काम-वासना से जो सुख मिलता है उससे इतना ही संबंध है, जितना मुर्गे की बांग में और सूरज के उगने में है। काम-वासना से सुख नहीं मिलता है, न मुर्गे की आवाज से सूरज उगता है। लेकिन कोई और गहरे कारण से सुख की प्रतीति होती है। उसका आपको पता हो जाए, तो फिर यह भ्रांति टूट जाएगी कि मुर्गे की आवाज से सूरज उग रहा है। और फिर सूरज उगाने के लिए मुर्गे की आवाज पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। फिर सूरज आपका मुर्गे की आवाज के बिना भी उग सकता है।

काम की तृप्ति में जो सुख मिलता है, उसका मौलिक कारण काम नहीं है; उसका मौलिक कारण ध्यान है, समाधि है। काम-वासना के शिखर पर एक क्षण को मन शून्य हो जाता है। इस शून्य होने के कारण आपको सुख की झलक मिलती है। शून्य हो जाता है? आप काम-वासना में इतने तल्लीन हो जाते हैं; काम-कृत्य में और क्रीड़ा में इतने तल्लीन हो जाते हैं, जितने आप किसी में तल्लीन नहीं होते। उस तल्लीनता के कारण मन शांत हो जाता है। मन के शांत होने के कारण सुख की झलक मिल जाती है। अगर आप किसी और काम में भी इतने ही तल्लीन हो जाएं, तो आप पर काम-वासना की पकड़ छूट जाएगी। इसलिए जो लोग स्रष्टा हैं जो कुछ सृजन कर सकते हैं, उनको काम-वासना ज्यादा नहीं पकड़ती। इसलिए स्रष्टा पुरुषों के साथ स्त्रियां कभी प्रसन्न नहीं होतीं।

सुकरात है, तो उसकी स्त्री सुकरात से प्रसन्न नहीं होती है। हो नहीं सकती क्योंकि सुकरात इतना लीन हो जाता है दर्शन के चिंतन में कि काम-वासना उसकी क्षीण हो गई है। उसी लीनता से उसे वह सुख मिल जाता है, जो काम-वासना से उसे मिलता है।

एक चित्रकार अपने चित्र बनाने में अगर लीन हो जाए, तो उसके मन को कामवासना नहीं पकड़ती। एक मूर्तिकार अपनी मूर्ति को बनाने में लीन हो जाए, तो उसकी काम-वासना क्षीण हो जाती है। इस क्षीण होने का कारण यह नहीं कि वह कोई ब्रह्मचर्य साध रहा है। इसका कारण यह है कि उसका सूरज पुराने मुर्गे की बांग के बिना उगने लगा। वह जो क्षण आता था मौन का, काम के द्वारा, अब वह मूर्ति में ही निर्माण करने में आने लगा।

अगर आप अपने गीत में डूब जाएं, अपने नृत्य में डूब जाएं, अपने ध्यान में डूब जाएं, तो आपको पता चल गया कि सूरज के उगने का मुर्गे की बांग से कोई संबंध नहीं है। यह सूरज और तरह से भी उग सकता है।

ये तीन बातें खयाल रखें–स्वाभाविक हो काम, ध्यानपूर्वक हो काम, और सतत यह खोज बनी रहे कि जो गहरे में शांति की प्रतीति होती है, वह काम-वासना के कारण होती है या कारण कोई और है, जिसका हमें पता नहीं? जिस दिन आपको वह कारण साफ हो जाएगा, उस कारण का सीधा ही उपयोग किया जा सकता है। ध्यान, समाधि, योग सब उसी कारण पर खड़े हैं। योग ने उस कारण को खोज लिया है सीधा।

इसलिए लोग कहते हैं कि जब तक आप ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होंगे, तब तक योगी न बन सकेंगे। और मैं कहता हूं कि जब तक आप योग को उपलब्ध न होंगे, ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं होगा। इसलिए मैं ब्रह्मचर्य को योग की शर्त नहीं बनाता; ब्रह्मचर्य को मैं योग का परिणाम कहता हूं। इसलिए मैं आपसे नहीं कहता हूं कि ध्यान अगर आपको करना है, तो पहले ब्रह्मचर्य साधो। जो कहते हैं, उन्हें पता नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। मैं आपसे कहता हूं कि आप ध्यान साधो, ब्रह्मचर्य की चिंता मत करो।

जिस दिन ध्यान में आपको काम-वासना से मिले सुख से गहन सुख का अनुभव होने लगेगा, उस दिन दुनिया की कोई भी ताकत आपको काम-वासना में ले जाने की सामर्थ्य नहीं रखेगी। दुनिया में महत्तर सुख के लिए छोटे सुख छोड़े जा सकते हैं, बड़े आनंद के लिए छोटे आनंद छोड़े जा सकते हैं। लेकिन बड़े आनंद का कोई अनुभव होना चाहिए। आपके हाथ में कंकड़-पत्थर हैं। मैं आपसे कहूं कि छोड़ दो। कुछ तो है हाथ में, कंकड़-पत्थर ही सही। हाथ भरा है, तो ही तो अच्छा लगता है, खाली हाथ में बेचैनी होगी। आप छोड़ने को राजी न होंगे, और कंकड़-पत्थर रंगीन हैं और हीरों का खयाल देते हैं। लेकिन अगर मैं एक हीरा आपके हाथ में रख दूं, तो आपको पता भी नहीं चलेगा कब आपके हाथ के कंकड़-पत्थर छूट गए, और कब आपने हीरे पर मुट्ठी बांध ली। और क्या फिर आप लोगों से कहते फिरेंगे कि मैं महात्यागी हूं, मैंने कंकड़-पत्थर छोड़ दिए? पता ही नहीं रहेगा आपको कि आपने कंकड़-पत्थर छोड़े, वे छूट गए। ध्यान आपको उस हीरे को शुद्धता में दे देता है, जो काम-वासना में–बड़ी मुश्किल से जिसकी झलक और बड़ी अशुद्ध झलक कभी-कभी मिलती है। वह शुद्धतम हीरा जब हाथ में हो जाता है, अशुद्धि की खोज बंद हो जाती है।

“अब तू उस खाई को पार कर चुका है, जो मानवीय वासनाओं के द्वार को घेर कर खड़ी है। अब तू “काम’ और उसकी दुर्दान्त सेना पर विजय पा चुका है। ‘

“तूने अपने हृदय से अशुद्धियों को निकाल दिया है और कलुषपूर्ण वासनाओं से अब वह मुक्त है। लेकिन ओ गौरवशाली योद्धा, तेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ है। ओ शिष्य, पवित्र-द्वीप को घेरनेवाली दीवाल को और ऊंचा उठा। यही वह बांध होगा, जो तेरे मन की उस मद और संतुष्टि से रक्षा करेगा, जो बड़ी उपलब्धि के विचार से उत्पन्न होती है। ‘

काम पर विजय पाना अति कठिन है। इसलिए जो विजय पा लेते हैं, वे बड़े मद से भर जाते हैं। ब्रह्मचर्य का एक मद है। काम-वासना का मद है। यह तो आपने सुना होगा कि काम-वासना

से भरा हुआ आदमी मूर्छित होता है, मदमस्त होता है। लेकिन क्या कभी आपने सुना कि ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है, तो काम-वासना से भी बड़ा मद आदमी के मस्तिष्क को घेर लेता है। स्वभावतः इतनी कठिन है यह विजय कि जब मिलती है, तो आदमी नाच उठता है, झूम उठता है। एक बड़ी गहन, सूम अहंकार की भावना जगती है कि मैंने ब्रह्मचर्य पा लिया, कि मैंने काम-वासना जीत ली, कि अब मैं विजेता हूं। और यह युद्ध सबसे बड़ा है।

महावीर ने कहा है, सारी पृथ्वी को जीत लेना आसान है, लेकिन इस भीतर की काम-वासना को जीतना कठिन है। तो सिकंदर अगर अकड़ जाता हो दुनिया को जीत कर, जो कि इतना कठिन नहीं, तो ब्रह्मचारी को अकड़ नहीं आती होगी, जो सिकंदर से भी ज्यादा कठिन काम कर चुका है? दुनिया को जीतना तो रूपों को जीतना है। काम-वासना को जीतना तो दुनिया के रूप जिस वासना से पैदा होते हैं, उस मूलस्रोत को जीत लेना है, दुनिया जिससे निर्मित होती है, उस शक्ति को जीत लेना है। निश्चित ही एक गहरा मद पकड़ लेता है।

और यह सूत्र कहता है कि काम-वासना को तूने जीत लिया, लेकिन ध्यान रखना तेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ। अब तू एक खतरे के द्वार पर फिर खड़ा हो गया है, जहां यह विजय तेरा मद बन सकती है। अब तू इस द्वीप के आसपास, यह जो महासागर में छोटा-सा एक द्वीप निर्मित हो गया

है तेरे ब्रह्मचर्य का–जगत तो काम-वासना का सागर है, इसमें तूने एक छोटा सा द्वीप कर लिया, आइलैंड। लेकिन यह चारों तरफ जो सागर है, वह तेरे द्वीप को किसी भी क्षण डुबा दे सकता है। अगर तू मद से भर गया, तो यह सागर तेरे द्वीप को डुबा दे सकता है वापिस। इस पवित्र द्वीप को घेरने वाली दीवाल को उठाने में लग। अभी काम बाकी है।

“यही वह बांध होगा, जो तेरे मन की उस मद और संतुष्टि से रक्षा करेगा, जो बड़ी उपलब्धि के विचार से उत्पन्न होती है। ‘

मद और संतुष्टि–दो खतरे हैं। एक तो इस बात का मद कि पा लिया, जो पाना अति कठिन था। वह मिल गया, जिसकी खोज थी जन्मों-जन्मों से। जिसको हजारों बार कोशिश करके भी नहीं पा सके थे, वह पा लिया गया है। यह एक मद, अहंकार, अस्मिता हुई। और उससे भी खतरनाक एक और बात है–एक गहरी संतुष्टि, एक कंटेन्टमेंट कि अब ठीक पहुंच गए, मंजिल आ गई, अब कुछ करने को न रहा। यह संतुष्टि भी खतरा है; क्योंकि तब विकास बंद हो जाता है। जहां संतोष है वहां विकास समाप्त है। इसलिए जहां आगे विकास हो ही न, वहीं संतुष्ट होना; उसके पहले संतुष्ट मत हो जाना।

परमात्मा हो जाने के पहले सब संतोष खतरनाक है; क्योंकि इसका मतलब है कि जहां आप संतुष्ट हुए,वहां बैठ गए। परमात्मा होकर ही संतुष्ट होना। क्योंकि फिर बैठने में कोई हर्जा नहीं; क्योंकि चलने को कोई जगह नहीं बची। लेकिन इसके पहले चलने को जगह बाकी है। जहां-जहां संतोष, वहां-वहां खतरा है। अ-संतोष को जगाए रखना है। यह ब्रह्मचर्य जब उपलब्ध होता है, तब बड़ी गहरी तृप्ति मिलती है। रोआं-रोआं जैसे तृप्त हो जाए। कुछ पाने को न बचा, ऐसा लगने लगता है। यह भ्रम है; अभी पाने को बचा है, अभी पाने को बहुत बचा है। यह तो जो पाया है, यह केवल शक्ति है, जिसका उपयोग करना है–अब जो असली पाने को है, उसके लिए।

यह तो ऐसे है कि एक आदमी ने धन कमा लिया और तृप्त होकर बैठ गया तिजोरी के पास। धन का मूल्य ही नहीं है कोई, अगर इसका उपयोग नहीं किया जा सके। धन का तो मूल्य ही यही है कि जो खरीदना था, वह खरीदा जा सकता है, शक्ति पास है। लेकिन आप देखते हैं, अधिक लोग धन कमाकर तिजोरी के रक्षक हो जाते हैं। यह मूढ़ता है, क्योंकि धन कमाया ही इसलिए था कि कुछ वासनाएं तृप्त करनी थीं, इस धन के बिना नहीं तृप्त हो सकती थीं। इस धन से अब तृप्त हो सकती हैं। लेकिन धन कमाते-कमाते भूल ही जाता है आदमी कि धन किसलिए कमाया है। आखिर में ऐसा लगने लगता है कि धन धन के लिए कमाया है। और तब धन की तिजोरी के पास संभलकर बैठ जाता है, फिर रक्षक हो जाता है! धनपति अक्सर पहरेदार से ज्यादा नहीं होते।

और यह बड़ी मूढ़ता है; यह तो सारा जीवन व्यर्थ गया। यह हम भूल ही गए कि किसलिए! यह तो साधन साध्य हो गया। तो आपकी तिजोरी में सोने की इट रखी है कि मिट्टी की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आपको पहरा देना है। अगर किसी धनपति की तिजोरी में से रातों-रात उसकी सब सोने की ईंटें निकालकर मिट्टी की रख दी जाएं, तो भी–कोई उसको पता भर नहीं चलना चाहिए–वह अपनी तिजोरी पर पहरा देता रहेगा और उतना ही आनंदित रहेगा। क्योंकि सोने और मिट्टी में फर्क तो तब है, जब उपयोग करना हो। अन्यथा क्या फर्क है?

यह जो ब्रह्मचर्य की अवस्था उपलब्ध होगी, तो धनपति जैसी कृपणता आ सकती है, अगर आप तृप्त हो जाएं।

ब्रह्मचर्य शक्ति है–साधन है; साध्य नहीं है।

साध्य तो ब्रह्म है।

इस ब्रह्मचर्य से मिली शक्ति का उपयोग हो सकता है अब। अब आपके पास वह ताकत है, वह गति है, वह यान है, वह नाव अब आपके पास है, जिसमें बैठकर दूसरे किनारे जा सकते हैं। इस नाव की पूजा मत करने लगना बैठकर इस किनारे पर। इस नाव को सजाकर और उत्सव मत मनाने लगना। तृप्त मत हो जाना कि नाव मिल गई। क्योंकि नाव मिलने से क्या होता है? नाव में यात्रा करने से कुछ होता है। ब्रह्मचर्य नाव है। इसलिए यह सूत्र कहता है कि मद और संतुष्टि से रक्षा करने की जरूरत है।

“अहंकार का भाव काम को बिगाड़ कर धर देगा, अतः मजबूत बांध बना, नहीं तो कहीं लड़ाकू लहरों की भयानक बाढ़ जो महा संसार के माया के समुद्र से आकर इसके किनारों पर चढ़ाई और चोट करती है, यात्री और उसके द्वीप को ही न निगल जाए। हां, यह तब भी घटित हो सकता है, जब विजय उपलब्ध हो गई हो। ‘

यह तब भी घटित हो सकता है, जब विजय उपलब्ध हो गई हो। जरा-सी गफलत और विजय भी पराजय में परिवर्तित हो सकती है। जरा सी चूक, जरा सी भूल और ठेठ आखिरी क्षण में भी वापिस लौटना हो सकता है। जब तक साध्य ही न मिल जाए, तब तक लौटना होता रह सकता है। जब तक साधन ही हाथ में है, तब तक साध्य खोया जा सकता है। और कई बार तो इसी खयाल से कि सब मिल गया, जो मिला था, वह खो जाता है।

तो एक खयाल तो साधक को निरंतर ही मन में बनाए रखना चाहिए कि कहीं भी तृप्त नहीं होना है। अतृप्ति की एक जलती लहर भीतर बनी ही रहे, एक लपट कि और, और, और रास्ता अभी बाकी है। एक दिन जरूर ऐसा आता है कि रास्ते सब समाप्त हो जाते हैं। उस दिन फिर अतृप्ति का कोई कारण नहीं रह जाता।

लेकिन ध्यान रखना कि इस जगह की पहचान क्या है? थोड़ी जटिल है बात। कैसे पहचानेंगे कि वह जगह आ गई, जहां अब अतृप्ति का कोई कारण नहीं?

जिस दिन तृप्ति का भी कोई कारण न रह जाए, उस दिन समझ लेना अब अतृप्ति का भी कोई कारण नहीं है। इसलिए जटिल है बात। जहां मन में न तृप्ति रह जाए, न अतृप्ति, समझना

कि मंजिल आ गई। अगर तृप्ति भी मालूम पड़ रही हो, तो समझना कि अभी मंजिल नहीं आई है।

कोई आता है मेरे पास और कहता है कि ध्यान में बड़ी शांति आ रही है, तो उससे मैं कहता हूं, अभी अशांति कायम है, नहीं तो शांति का अनुभव कैसे होगा? शांति का अनुभव तो अशांति की पृष्ठभूमि में ही होता है। जैसे कि काली लकीर खींचनी हो, तो सफेद कपड़े पर खींचो; सफेद लकीर खींचनी हो, तो काले ब्लैकबोर्ड पर खींचो। सफेद दीवाल पर सफेद लकीर दिखाई पड़ेगी? नहीं दिखाई पड़ेगी। सफेद लकीर काली दीवाल पर दिखाई पड़ सकती है।

अगर आपको लगता है कि बड़ी शांति आ रही है, तो भीतर अशांति की दीवाल अभी मौजूद है। नहीं तो शांति दिखाई नहीं पड़ सकती। उसका पता ही नहीं चलेगा। शांति का पता चलना भी, अशांत आदमी का ही हिस्सा है। यह थोड़ा जटिल है मामला। क्योंकि हमको लगता है अशांत आदमी को अशांति का पता चलता है। लेकिन यह भी उसे इसलिए चलता है कि उसे भी शांति का थोड़ा अनुभव है, नहीं तो उसको भी अशांति का पता नहीं चल सकता है। अगर आपको लगता है कि आप बहुत अशांत हैं, तो इसलिए लगता है कि कभी किन्हीं क्षणों में शांति भी आपको मिलती है; नहीं तो तोलेंगे कैसे?

आपको लगता है कि आप बीमार हैं; क्योंकि आपको स्वास्थ्य का अनुभव है, थोड़ा सा ही सही। और किसी आदमी को अगर पता चलने लगे कि मैं बिलकुल स्वस्थ हूं, मैं बिलकुल स्वस्थ हूं, तो समझना कि बीमारी कायम है। क्योंकि यह पता कैसे चलेगा? परम स्वास्थ्य तो उस दिन घटित होता है, जिस दिन बीमारी का तो पता चलता ही नहीं, स्वास्थ्य का भी नहीं चलता; क्योंकि स्वास्थ्य के पता चलने में भी दंश है।

पूर्ण शांति उस दिन घटित होती है, जिस दिन शांति का भी पता नहीं चलता है।

अगर आप बुद्ध से पूछेंगे, तो वे यह नहीं कहेंगे कि मैं शांत हूं। वे कहेंगे कि कुछ पता ही नहीं चलता कि शांत हूं कि अशांत हूं; कि शांति क्या अशांति क्या। यह भी पता नहीं चलता

कि मैं हूं, कि नहीं हूं। कि मेरा होना क्या और न-होना क्या, कुछ भी पता नहीं।

जब तक यह तृप्ति है, तब तक समझना कि अभी अतृप्ति कायम है। और अभी बैठ मत जाना, अभी यात्रा जारी रखना। जिस दिन तृप्ति भी मालूम न पड़े, उस दिन अतृप्ति को छोड़ा जा सकता है। छूट ही गई। उस दिन फिर कहीं जाने को न बचा। आप पहुंच गए वहां, जहां पहुंचना आपकी नियति थी। हो गया वह घटित। जो बीज आपमें छिपा था, वह फूल बन गया। खुल गए, फैल गए, विस्तीर्ण हो गए, ब्रह्म हो गए।

“तेरा द्वीप हिरण की भांति है और तेरे विचार कुत्ते हैं जो जीवन की नदी की ओर उसकी यात्रा का पीछा कर उसकी प्रगति को अवरुद्ध करते हैं। उस हिरण के लिए शोक है, जिसे भौंकते कुत्ते उसके ध्यान-मार्ग नाम की शरणस्थली पर पहुंचने के पहले ही पराजित कर देते हैं। ‘

जैसे कोई शिकारी या शिकारी कुत्ते एक हिरण का पीछा कर रहे हों, तो वे दौड़-दौड़ कर उसके मार्ग को अवरुद्ध करते हैं, चारों तरफ से घेर कर उसे नष्ट कर देने की तैयारी करते हैं। यह सूत्र उदाहरण के लिए कहता है कि तेरा ध्यान तो तेरा हिरण है, और तेरे विचार हैं शिकारी कुत्ते, जो तेरे ध्यान को सब तरफ से अवरुद्ध करते हैं। अगर ध्यान को उपलब्ध होना हो, तो इन शिकारी कुत्तों से छुटकारा चाहिए। लेकिन हम ध्यान की भी खोज करते हैं और इन विचारों को भी अपना मानते हैं। इसलिए यह बड़े उपद्रव की बात है। जिसे ध्यान चाहिए, उसे विचारों से तादात्मय तोड़ना है। उसे धीरे-धीरे कहना बंद करना चाहिए कि ये विचार मेरे हैं।

ध्यान के अतिरिक्त आपका कुछ भी नहीं है। एक भी विचार आपका अपना है नहीं। सब विचार उधार हैं, मिले हैं, किसी ने दिए हैं। शिक्षा से, संस्कार से, समाज से, शास्त्र से, कहीं से इकट्ठे हुए हैं। धूल की तरह आप पर जम गए हैं, जमाए गए हैं। कोई बच्चा विचार लेकर पैदा नहीं होता, लेकिन ध्यान लेकर पैदा होता है।

विचार तो हम उसे देते हैं, जरूरी है, उपयोगी है। विचार हम उसे देते हैं, उसके ध्यान की क्षमता तो भीतर होती है। विचार की पर्त चारों तरफ से जम जाती है। बड़ा होकर वह यह भूल ही जाता है कि उसके भीतर ध्यान का भी कोई केंद्र है। इस विचार की परिधि से ही वह अपने को एक कर लेता है। कहता है, मैं हिंदू हूं, मुसलमान हूं, जैन हूं, ईसाई हूं, सोशलिस्ट हूं, कम्युनिस्ट हूं। कुछ विचारों की पर्त से अपने को जोड़ लेता है कि यह मैं हूं! अड़चन खड़ी हो जाती है।

विचार की पर्त बाहर से आई है, इसे स्मरण रखे ध्यान का खोजी। कोई विचार आपका नहीं है। चेतना आपकी है, चैतन्य आपका है, ध्यान आपका है। लेकिन विचार पराए हैं, बारोड, उधार हैं। उनसे अपना संबंध मत जोड़ना। क्योंकि उनसे संबंध जोड़ लिया, तो फिर ध्यान से संबंध न जुड़ सकेगा। ध्यान की तरफ चलनेवाले व्यक्ति को विचार से अपना संबंध तोड़ लेना चाहिए। और उसे तो एक ही बात खयाल रखनी चाहिए कि जन्म के साथ मेरे भीतर था, वह था मात्र चैतन्य। क्योंकि अगर चेतना न होती, तो दूसरे विचार दे भी नहीं सकते थे आपको।

एक पत्थर को विचार देकर देखें, एक जानवर को विचार देकर देखें, तो जानवर थोड़े से विचार ले लेगा, जितनी उसमें चेतना है। पत्थर बिलकुल ही नहीं लेगा; क्योंकि उतनी भी चेतना उसमें नहीं है। आदमी विचार ले लेता है, क्योंकि चेतना उसके पास है। दर्पण लेकर पैदा होता है, इसलिए धूल दर्पण पर इकट्ठी हो जाती है। ये विचार इकट्ठे हो जाते हैं। लेकिन आपका ध्यान नष्ट नहीं होता है, वह आपमें छिपा है। जिस दिन भी इस पर्त से आप अपने को अलग तोड़ लेते हैं और प्रतीति कर लेते हैं कि विचार मेरे नहीं हैं।

आप में से बहुत से लोग सोचते हैं कि यह शरीर मेरा नहीं, यह शरीर मेरा नहीं, यह शरीर मेरा नहीं; मैं आत्मा हूं। उससे ज्यादा फायदा नहीं होगा। ज्यादा गहरा फायदा इससे होगा कि कोई विचार मेरा नहीं। यह विचार भी कि शरीर मेरा नहीं, यह भी आपका नहीं है; यह भी आपने सीखा है, सुना है। विचार मात्र से अपना संबंध विच्छिन्न कर लें, और सिर्फ उस चैतन्य में ठहरने लगें, जो विचार के पूर्व है और विचार के बाद है। तो आप हिरण हो रहे हैं, शिकारी कुत्तों से बच रहे हैं।

यह प्रतीति निरंतर भीतर बनी रहे कि कोई विचार मेरा नहीं, विचार मात्र पराए हैं और बाहर से आए हैं। जो मेरे भीतर से आ रहा है, वही मेरा है। जो मैं जन्म के पूर्व था, और मृत्यु के बाद भी रहूंगा, वही मेरा है। उस गहरे केंद्र के साथ अपने तादात्मय को स्थापित करते जाएं, तो आपके आसपास वह बांध खड़ा हो जाएगा, जिस बांध से भीतर के इस कोमल द्वीप की रक्षा हो सकेगी। अन्यथा सागर इसे कभी भी डुबा ले सकता है। और चारों तरफ विचार का सागर है।

इसलिए सदगुरु मैं उसे कहता हूं, जो आपके विचार छीन ले, आपको रिक्त कर दे, खाली कर दे। सदगुरु उसे नहीं कहता, जो आपको और नए विचार दे दे, उससे आपका बोझ और बढ़ जाएगा, वैसे ही आप काफी पीड़ित और परेशान हैं, ये विचार और आपको मुसीबत देंगे।

बुद्ध के पास एक युवक पहुंचा और उसने कहा कि मुझे कुछ सवाल पूछने हैं, तो बुद्ध ने कहा कि सवाल के जवाब अगर मैं दूंगा, तो तेरे बोझ को और बढ़ा दूंगा। अगर तू बोझ ही बढ़ाने आया हो, तो बात और है। अगर तू बोझ हल्का करना चाहता है, तो न तो पूछ और न उत्तर मांग। मेरे पास चुपचाप रह; साल भर रुक, साल भर मौन हो, साल भर ध्यान कर। साल भर सवाल-जवाब नहीं, साल भर वाणी का उपयोग नहीं, साल भर शब्द का संबंध ही तोड़ दे। फिर साल भर बाद मुझ से पूछना, फिर मैं तुझे उत्तर दूंगा।

जब यह बात बुद्ध ने कही इस युवक को, उसका नाथ था मौलुंकपुत्त। तो सारिपुत्त एक दूसरा संन्यासी बुद्ध का, एक वृक्ष के नीचे बैठा था पास में, वह खिलखिला कर हंसने लगा। और उसने मौलुंकपुत्त से कहा, सावधान! तो मौलुंकपुत्त बोला, समझ नहीं पड़ता मामला क्या है! हंसते क्यों हो? सारिपुत्त ने कहा, फंस मत जाना। अगर पूछना हो, तो अभी पूछ लेना! हम भी ऐसे फंस गए। आए थे पूछने, इस आदमी की बात माल ली; चुप होकर बैठ गए। साल बीत गया, प्रश्न भी खो गए; वे भी अशांति के हिस्से थे। फिर यह आदमी कहता है पूछो। पूछने को ही न बचा कुछ। पूछना हो, तो अभी पूछ लेना, साल भर का आश्वासन तो झूठा है। बुद्ध ने कहा, मैं आश्वासन देता हूं, मैं मजबूत रहूंगा आश्वासन पर। अब तुम्हीं न पूछो, बात और है।

साल बीता, मौलुंकपुत्त चुप रहा, ध्यान किया, मौन रहा, विचार से संबंध तोड़ा, चैतन्य से संबंध जोड़ा, जाना कि मैं वही हूं, सिर्फ होना मात्र हूं; बाकी सब जो खयाल हैं, शब्द हैं, प्रत्यय हैं, धारणाएं हैं, वह मेरे चारों तरफ धूल की तरह जम गई हैं। वह वस्त्र से ज्यादा नहीं हैं, जैसे वस्त्र के भीतर नग्न देह है, ऐसे विचारों के भीतर नग्न चेतना है। साल बीता, वह भूल ही गया कि पूछने का दिन करीब आ गया।

लेकिन बुद्ध न भूले। ठीक साल भर बीतने पर ठीक उसी दिन, उसी मुहूर्त में बुद्ध ने कहा, कि मौलुंकपुत्त साल बीत गया, अब तू खड़ा हो जा और पूछ ले क्या पूछना है। मौलुंकपुत्त हंसने लगा, उसने कहा, वह सारिपुत्त क्यों हंसा था, अब मैं भी जानता हूं। पूछने को कुछ भी नहीं बचा है। और उत्तरों की अब कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि उत्तर बाहर के हैं; और धूल जम जाएगी।

चैतन्य से संबंध, विचार से संबंध-विच्छेद–यही बांध बनेगा आपके चारों तरफ।

“हे सुख-दुख के विजेता, इसके पहले कि तू ध्यान-मार्ग में स्थित हो और उसे अपना कहे, तेरी आत्मा को पके आम जैसा होना है–दूसरे के दुखों के लिए उसके चमकदार व सुनहले गूदे की तरह और अपनी पीड़ा और शोक के लिए उसकी पथरीली गुठली की तरह। ‘

जीवन का एक सामान्य प्राकृतिक नियम और वृत्ति है कि हमें अपने दुख से पीड़ा होती है और दूसरे के सुख से दुख। सहज ऐसा है, आप कितने ही बताते हों दूसरों के सुख में सुख, झूठा होता है; गहरे में पीड़ा होती है। अगर यह सच है कि दूसरे के सुख में पीड़ा होती है–जब आपके पड़ोस में किसी का मकान बड़ा हो जाता है, तो भला आपका मित्र हो और आप कहते हों कि बड़ी खुशी हुई कि अच्छा

मकान बना लिया; लेकिन अपने भीतर खोजना, वहां कोई कांटा चुभता है, कहीं कोई दुख मन को पकड़ता है। दूसरे के सुख में दुख होता है। इसको ठीक से समझें, तो अच्छा है; इसे झुठलाने में कोई सार भी नहीं है। और अगर यह सच है, तो फिर दूसरे के दुख में आपको सुख होता होगा।

कभी देखें, किसी के मकान में आग लग गई, आप कहेंगे, यह बात जरा जंचती नहीं है, दूसरे के सुख में हो सकता हैर् ईष्या है, पीड़ा है, लेकिन दूसरे के दुख में सुख नहीं होता

है, मकान में आग लगने से हम भी दुखी होते हैं। लेकिन जब किसी के मकान में आग लगती है और आप सांत्वना प्रकट करने जाते हैं, तब थोड़ा अध्ययन करना अपना, सांत्वना में कितना मजा आता है। आएगा ही। लोग सहानुभूति प्रकट करने में बड़ा मजा लेते हैं। मजा कई तरह का है। एक तो हम सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं और तुम उस हालत में आ गए जिस पर सहानुभूति प्रकट की जा रही है; तुम नीचे, हम ऊपर हैं। आपने कभी खयाल किया है कि जब कोई बहुत सहानुभूति आपके प्रति प्रकट करने लगता है, तो आपको थोड़ी पीड़ा होती है कि ठीक कोई बात नहीं, कभी भगवान हमको भी मौका देगा; ठहरो थोड़े दिन जल्दी वह वक्त आएगा, जब हम भी सहानुभूति प्रकट करेंगे। ऐसा भी क्या है, इतने खुश मत हो जाओ।

अगर आप किसी के प्रति सहानुभूति प्रकट कर रहे हों, और वह कहे, क्यों फिजूल की बातें कर रहे हो, तो आपको बहुत पीड़ा होती है। एक अवसर छीन लिया। इसे थोड़ा गहरे में खोजना, क्योंकि अचेतन है। जब आप सहानुभूति प्रकट करते हैं, तो मन में रस आता है, अच्छा लगता है। चाहे चेतन रूप से आपको पता भी न हो, दूसरे के सुख में अगर पीड़ा होती है, तो दूसरे के दुख में पीड़ा नहीं हो सकती है। कैसे होगी? अपने दुख में पीड़ा होती है, अपने सुख में सुख होता है। यह सहज आदमी जैसा है।

यह सूत्र कहता है, इस आदमी को उल्टा कर लेना, तो ही आगे गति होगी। एक सीमा पर अगर आदमी अपनी इस वृत्ति को बदल न ले, तो संसार के बाहर नहीं जाता है। यह संसार का नियम है। इस नियम को बदलते ही आप संसार के बाहर होने शुरू हो जाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अपने को दुख झेलना सीखना। सिर्फ झेलना ही कहना ठीक नहीं, शुरू में झेलना सीखना, फिर जैसे-जैसे झेलने की क्षमता बढ़ जाए, तो अपने दुख में एक तरह का सुख भी लेना सीखना। वह जरा कठिन है। लेकिन हो सकता है। दूसरे के सुख में दुख लेना बंद करना। और जैसे-जैसे क्षमता बढ़ती जाए, दूसरे के सुख में सुख लेना शुरू करना। दूसरे के दुख में पीड़ित होना। दूसरे के दुख के लिए बहुत नाजुक हो जाना, संवेदनशील हो जाना, सेंसिटिव हो जाना और अपने दुख के लिए बहुत कठोर, मजबूत हो जाना।

यह सूत्र कहता है, दूसरे के दुखों के लिए ऐसे बन जाना, जैसे आम का पका हुआ फल, दूसरों के दुखों के लिए आम का रस, आम का गूदा और अपने दुखों और पीड़ा के लिए गुठली की तरह मजबूत बनना, आम की गुठली की तरह, अपनी पीड़ा को झेलना, और अपनी पीड़ा को धीरे-धीरे स्वीकार करना और अपनी पीड़ा को सुखद अनुभव करना।

कठिन है बहुत, और मन को समझ में नहीं आता। मन को समझ में आएगा भी नहीं। क्योंकि मन उस नियम को मानता है, जिसमें अपनी पीड़ा पीड़ा और दूसरे की पीड़ा पीड़ा नहीं है। जिसमें अपना सुख सुख और दूसरे का सुख सुख नहीं है। इसलिए मन की समझ में नहीं आएगा। लेकिन साधक अगर थोड़ी सी चेष्टाएं करे तो इसके अनुभव होने शुरू हो जाएंगे और बड़े अनूठे अनुभव होंगे।

अगर दूसरे के सुख में आप सुख अनुभव करने लगें, तो आपका दुख पहले तो हजार गुना एकदम कम हो जाएगा। क्योंकि हमारे ज्यादा दुख अपने दुख नहीं हैं, दूसरों के सुखों के कारण हैं। आपका झोपड़ा छोटा है, ऐसा झोपड़े के कारण नहीं है; पास में जो बड़े मकान खड़े हैं, उनके कारण है। और आपकी पत्नी सुंदर नहीं है, ऐसा आपकी पत्नी के साथ नहीं है, वह जो औरों की पत्नियां सुंदर हैं, उसके कारण है। तुलना। दूसरों का सुख चारों तरफ घेरे हुए है, और सब सुखी मालूम पड़ रहे हैं, सिर्फ आपको छोड़ कर। दूसरे भी यही मानते हैं। सभी की दृष्टि यही है कि मेरे सिवाय सारा जगत सुखी है। “हे परमात्मा, मुझ पर ही क्यों इतना नाराज है! मैंने ऐसा क्या बिगाड़ा है? सब सुखी दिखाई पड़ रहे हैं। ‘ यही सब कह रहे हैं।

दूसरों का सुख दिखाई पड़ता है, अपना दुख दिखाई पड़ता है।

अपना सुख दिखाई नहीं पड़ता, दूसरे का दुख दिखाई ही नहीं पड़ता! मन के जिस नियम में हम रहते हैं, वहां यही होगा। अपना सुख हम स्वीकार कर लेते हैं कि उसमें क्या सुख है? है ही क्या उसमें? अगर आपके पास दस हजार रुपए हैं, तो उसमें क्या सुख है? दस हजार भी कोई रुपए हैं? वह तो जिसके पास दस रुपए हों, उसको दिखाई पड़ रहा है कि मजा ले रहे हो दस हजार का। और आप दस हजार का दुख ले रहे हैं! क्योंकि आप दस वाले से कभी नहीं तौलते अपने को, आप दस लाख वाले से तौल रहे हैं।

जहां जाना है, वहीं से आदमी तौलता है। तो दस रुपए वाले की दुनिया

में तो जाना नहीं है, जाना है दस लाख की दुनिया में, तो तोल है! दस रुपए वाला दुखी है, दस हजार वाले के कारण; दस के कारण नहीं। दस हजार वाला दुखी है, दस लाख वाले के कारण। दस लाख वाला दुखी है, दस करोड़ वाले के कारण।

सब दुखी हैं–अपने दुख के कारण नहीं, दूसरे के सुख के कारण।

और जब तक आपकी यह वृत्ति है, तब तक आप कैसे सुखी हो सकते हैं? दस लाख हों, तो भी दुखी होंगे! दस करोड़ हों तो भी दुखी होंगे। कहीं भी हों, जिस मन को आप लेकर चल रहे हैं, वह दुख पैदा करेगा।

सुखी होने का उपाय कुछ और है। दूसरे का दुख अगर आपको दिखाई पड़ने लगे, तो आप सुखी होना शुरू हो गए। तब आपके चारों तरफ सुख का सागर दिखाई पड़ेगा।

मैंने सुना है, एक फकीर था जुन्नून। कोई भी आदमी उसके पास मिलने आता, तो वह हंसता खिलखिला कर और नाचने लगता। लोग उससे पूछते कि बात क्या है? वह कहता एक तरकीब मैंने सीख ली है सुखी होने की। मैं हर आदमी में से वह कारण खोज लेता हूं, जिससे मैं सुखी हो जाऊं। एक आदमी आया, उसके पास एक आंख थी, जुन्नून नाचने लगा। यह क्या मामला है? उसने कहा कि तुमने मुझे बड़ा सुखी कर दिया; मेरे पास दो आंखें हैं, हे प्रभु इसमें तेरा धन्यवाद! एक लंगड़े आदमी को देखकर वह सड़क पर ही नाचने लगा। उसने कहा कि गजब–अपनी कोई पात्रता न थी, दो पैर दिए हैं! एक मुद की लाश–मुद को लोग मरघट ले जा रहे थे। जुन्नून ने कहा, हम अभी जिंदा हैं, और पात्रता कोई भी नहीं है। और कोई कारण नहीं है, अगर हम मर गए होते इस आदमी की जगह, तो कोई शिकायत भी करने का उपाय नहीं था। उसकी बड़ी कृपा है।

जुन्नून दुखी नहीं था, कभी दुखी नहीं हो सका। क्योंकि उसने दूसरे का दुख देखना शुरू कर दिया। और जब कोई दूसरे का दुख देखता है, तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना सुख दिखाई पड़ता है। और जब कोई दूसरे का सुख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना दुख दिखाई पड़ता है।

सुना है मैंने कि एक यहूदी फकीर हुआ, हसीद फकीर बालसेन। एक ईसाई पादरी बालसेन के ज्ञान से प्रभावित था। यहूदी और ईसाईयों में तो बड़ी दुश्मनी थी; लेकिन बालसेन आदमी काम का था। तो कभी-कभी एकांत में उस यहूदी के पास ईसाई पादरी मिलने जाता था। एक दिन ईसाई पादरी ने पूछा कि तुम यहूदियों का तर्क कैसा है? तुम सोचते किस ढंग से हो? क्योंकि तुम्हारे सोचने के मुकाबले कोई तर्क नहीं दिखाई पड़ता। तुम जिस काम में लगते हो, सफल हो जाते हो, तुम जहां हाथ उठाते हो, वहीं सफलता पाते हो। मिट्टी छूते हो, सोना हो जाती है। तुम्हारा क्या तर्क है? व्यवस्था क्या है तुम्हारी सोचने की?

तो उस बालसेन ने कहा कि एक कहानी तुमसे कहता हूं।

दो आदमी एक मकान की चिमनी से भीतर प्रवेश किए। दोनों शुभ्र कपड़े पहने हुए थे। चिमनी धुएं से काली थी। एक आदमी बिलकुल साफ-सुथरा चिमनी के बाहर आया, जरा भी दाग नहीं। दूसरा आदमी कालिख से पुता हुआ बाहर निकला, एक भी जगह साफ न बची थी। तो मैं तुमसे पूछता हूं कि इन दोनों में से कौन स्नान करेगा? तो पादरी ने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है? क्या तुमने मुझे इतना मूढ़ समझ रखा है? जो काला हो गया, कालिख से भर गया है, वह स्नान करेगा। बालसेन ने कहा, यही यहूदी तर्क में फर्क है। जो आदमी सफेद कपड़े पहने हुए है, वह स्नान करेगा। उसने कहा, हद हो गई! क्या मतलब–समझाओ? तो बालसेन ने कहा, जो आदमी सफेद कपड़े पहने हुए है, वह अपने मित्र की हालत देखेगा। और जिसके कपड़े काले हो गए हैं, वह अपने मित्र की हालत देखेगा। क्योंकि दुनिया में हर आदमी दूसरे की हालत देख रहा है। इसलिए मैं कहता हूं, जिसके कपड़े सफेद हैं, वह स्नान करेगा; क्योंकि वह समझेगा कि कैसी गंदी हालत हो रही है, चिमनी से निकलने पर। क्योंकि लोग दूसरे को देख रहे हैं। और वह जो आदमी काले कपड़े पहने हुए है, वह मजे से घर चला जाएगा। क्योंकि वह देखेगा कि अरे, गजब की चिमनी है, इतनी कालिख, लेकिन निशान एक नहीं आया है! क्योंकि हर आदमी दूसरे को देख रहा है।

ठीक कहा बालसेन ने। हर आदमी दूसरे को देख रहा है, और उसी आधार पर निर्णय ले रहा है। आप देख रहे हैं दूसरे का सुख, दुखी हो रहे हैं; उसके आधार पर निर्णय ले रहे हैं। देखें दूसरे का सुख और आप सुखी होना शुरू हो जाएंगे, क्योंकि तब आपको अपना दुख नहीं दिखाई पड़ेगा। और न केवल देखें दूसरे का सुख, दूसरे के सुख में उत्सव मनाएं।

यह थोड़ा और आगे बढ़ना है। और जो आदमी दूसरे के सुख में उत्सव मना सकता है, उसके सुख के अवसर की कमी न रहेगी। उसे प्रतिपल सुख का अवसर मिल जाएगा। और उत्सव मनाया जा सकता है। क्योंकि तब हजार करोड़, अरब लोगों के सुख, तब आपकी संपत्ति, सभी के सुख आपकी संपत्ति हो गए। और ऐसी मनोदशा हो, तो अपने दुख को स्वीकार करने में अड़चन न आएगी। सच तो यह है, वह तिरोहित हो जाएगा। और कभी-कभी अगर आएगा भी, तो स्वाद परिवर्तन का काम करेगा, उसमें भी रस आएगा।

कभी-कभी दुख बुरा नहीं होता, उससे थोड़ा स्वाद बदलता है।

जैसे कोई मिठाई ही मिठाई खाए, तो तकलीफ हो जाती है। थोड़ा नमकीन अच्छा होता है। वैसे-वैसे सुख के बीच थोड़ा सा दुख एक नई ताजगी दे जाता है, और सुख को अनुभव करने को जीभ फिर तैयार हो जाती है।

“अपने दुख के प्रति कठोर, दूसरे के सुख के प्रति बहुत संवेदनशील, ऐसा जो साध लेता है, वह इस जगत के बाहर होना शुरू हो गया। यह जगत फिर आपको न पकड़ पाएगा। ‘

“अहंकार के नागपाश से बचने के लिए अपनी आत्मा को कठोर बना, उसे वज्र आत्मा नाम पाने के योग्य बना। ‘

“क्योंकि जिस प्रकार धरती के धड़कते हृदय की गहराई में गड़ा हीरा धरती के प्रकाशों को प्रतिबिंबित नहीं कर पाता है, उसी प्रकार तेरा

मन और आत्मा है। ध्यान-मार्ग में डूब कर उसे भी माया के जगत की भ्रांति-भरी शून्यता को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहिए।’

इस जगत के सभी नियम भ्रांति-भरे हैं। और जैसे कोई हीरा जमीन में गड़ा हो, उस जमीन में गड़े हुए हीरे में फिर सूरज का कोई प्रतिबिंब नहीं बनता है, ऐसे ही तू भी ध्यान में अपने को गड़ा ले, ताकि इस जगत के कोई प्रतिबिंब तुझमें न बनें और जगत की कोई छाया तुझे न पकड़े और जगत के नियम तुझे आंदोलित न करें। तू अपने ही ध्यान के नियमों में जी और उनमें ही डूब। और ध्यान के नियम जगत के नियम से बिलकुल विपरीत हैं।

जब तू विराग की उस अवस्था को प्राप्त कर चुकेगा, तब वे द्वार, जिन्हें तुझे मार्ग पर चल कर जीतना है, तुझे अपने भीतर लेने के लिए अपना हृदय पूरे-का-पूरा खोल देंगे। प्रकृति की बड़ी से बड़ी शक्तियां भी तब गति को नहीं रोक सकेंगी। तब तू सप्तवर्णी मार्ग का स्वामी हो जाएगा; लेकिन, ओ परीक्षा के प्रत्याशी! उसके पहले यह संभव नहीं है।

तब तक एक बहुत कठिन काम तुझे करना है: तुझे अपने को एक साथ सर्व-विचार भी अनुभव करना है और अपनी आत्मा से सर्व-विचारों को निष्कासित भी करना है।

तुझे मन की उस स्थिरता को उपलब्ध होना है, जिसमें तेज से तेज हवा भी किसी पार्थिव विचार को उसके भीतर प्रविष्ट न करा सके। इस तरह परिशुद्ध होकर मंदिर को सभी सांसारिक कर्म, शब्द व पार्थिव रोशनी से रिक्त हो जाना है। जिस प्रकार पाला की मारी तितली देहली पर ही गिर कर ढेर हो जाती है, उसी प्रकार सभी पार्थिव विचारों को मंदिर के सामने ढेर हो जाना चाहिए।

यह जो लिखित है, इसे पढ़:

“”इसके पहले कि स्वर्ण-ज्योतिशिखा स्थिर प्रकाश के साथ जले, दीप को वायुरहित स्थान में सुरक्षित रखना जरूरी है। बदलती हवाओं के सामने होकर प्रकाश की धारा हिलने लगेगी और उस हिलती शिखा से आत्मा के उज्जवल मंदिर पर भ्रामक काली और सदा बदलने वाली छाया पड़ जाएगी।”

आज इतना ही।


Filed under: समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की)--ओशो Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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