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जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–14

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प्रेम से मुझे प्रेम है—प्रवचन—चौदहवां

प्रश्‍नसार:

1–परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को चौबीसवां तीर्थकर क्‍यों स्‍वीकार किया?

2—महावीर का स्‍वयं सदगुरू, तीर्थंकर बनना व शिष्‍यों को दीक्षा देना—क्‍या उनके ही सिद्धांत के विपरीत नहीं है?

3—वर्तमान शताब्‍दि में आप हमें कौन—सा शब्‍द देना पसंद करेंगे?

4—आपके सामने दिन खोलूं कि नहीं खोलूं—मुझे घबराहट होती है। और क्‍या मैं कुछ भी नहीं कर पाती? मेरी हिम्‍मत अब टूटी जा रही है।

पहला प्रश्न:

परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को प्राचीनतम जिन-परंपरा का चौबीसवां तीर्थंकर क्योंकर स्वीकार किया होगा? कृपया समझाएं!

परंपरा की तो परंपरा है ही, परंपरा-भंजन की भी परंपरा है। परंपरा तो प्राचीन है ही, क्रांति भी कुछ नवीन नहीं। क्रांति उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा।

इस पृथ्वी पर सब कुछ इतनी बार हो चुका है कि नया हो कैसे सकेगा? जिसको तुम नया कहते हो, वह भी बड़ा पुराना है; जिसे पुराना कहते हो, वह तो है ही। जब से परंपरावादी रहा है, तभी से क्रांतिवादी भी रहा है। जब से रूढ़िवादी रहा है, तभी से रूढ़ि को तोड़नेवाला भी रहा है। जब प्रतिमाएं बनानेवाले लोग पैदा हुए, तभी से प्रतिमाओं को तोड़नेवाले लोग भी पैदा हो गये। वे साथ-साथ हैं। वे अलग-अलग हो भी न सकेंगे। वे दिन और रात की तरह साथ-साथ हैं।

क्रांति और परंपरा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न परंपरा जी सकती है बिना क्रांति के, न क्रांति जी सकती है बिना परंपरा के। जिस दिन परंपरा मर जायेगी, उसी दिन क्रांति भी मर जायगी।

इसे थोड़ा समझना; क्योंकि साधारणतः हम जीवन में जहां भी विरोध देखते हैं–सोचते हैं, दोनों दुश्मन हैं। ऐसा देखना अधूरा है। जहां-जहां विरोध है, वहां गौर से खोजोगे तो गहराई में पाओगे, दोनों परिपूरक हैं। विरोध भी एक भांति कि मैत्री है और शत्रुता भी एक ढंग का प्रेम है। पुरुष हैं, स्त्रियां हैं उनमें प्रेम भी है, विरोध भी है। विरोध के कारण ही प्रेम है। क्योंकि विरोध से भिन्नता पैदा होती है। विरोध से दूसरे को खोजने की आकांक्षा पैदा होती है। स्त्री-पुरुष लड़ते रहते हैं और प्रेम करते रहते हैं। लड़ाई और प्रेम कुछ इतने विपरीत नहीं हैं।

जिस पति-पत्नी में लड़ाई बंद हो चुकी हो, समझना कि प्रेम भी मर चुका। जब तक प्रेम की चिंगार रहेगी, तब तक थोड़ा-बहुत झगड़ा, थोड़ी-बहुत कलह भी रहेगी। लड़ने से प्रेम नहीं मरता है। लड़ना प्रेम का ही अनिवार्य हिस्सा है।

जैनों की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी हिंदुओं की। जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभ का नाम वेदों में उपलब्ध है–बड़े सम्मान से उपलब्ध है। उस जमाने के लोग बड़े हिम्मतवर रहे होंगे। अपने विरोधी को भी सम्मान से याद किया है।

जिस दिन दुनिया समझदार होती है, उस दिन ऐसा ही होगा। तुम अपने विरोधी को भी सम्मान से याद करोगे, क्योंकि विरोधी के बिना तुम भी नहीं हो सकते हो। विरोधी तुम्हें परिभाषित करता है। उसकी मौजूदगी तुम्हें त्वरा देती है, तीव्रता देती है, गति देती है। उसका विरोध तुम्हें चुनौती देता है। उसके विरोध के ही आधार पर तुम अपने को निखारते हो, सम्हालते हो, मजबूत करते हो।

अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: जिस राष्ट्र को शक्तिशाली रहना हो, उसे शक्तिशाली दुश्मन खोज लेने चाहिए। अगर दुश्मन कमजोर होगा, तुम कमजोर हो जाओगे। जिससे लड़ोगे, वैसे ही हो जाओगे। अगर दुश्मन शक्तिशाली होगा तो उससे लड़ने में तुम शक्तिशाली होने लगोगे। मित्र तो कैसे भी चुन लेना, लेकिन शत्रु जरा सोच-समझकर चुनना। क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक है। वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता है। वह तुम्हें चुनौती देता है। वह तुम्हें बुलावा देता है, प्रतिस्पर्धा का अवसर देता है।

तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान से याद किया है। ऋषभ जैनों के पहले तीर्थंकर हैं।

जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी हिंदुओं की परंपरा। जैन वेद-विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्मा को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं मानते–मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब तो वे भी परंपरावादी हैं।

लेकिन जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं! तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही उठना है। तुम्हें कोई ले जा न सकेगा! महावीर यह भी नहीं कहते कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा–अपने ही पैरों से।

महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ। वे कहते हैं, आदेश में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और जाओ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं।

इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते हैं, आदेश नहीं। उपदेश का मतलब है: मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। न मानो तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है।

तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध का भाव पैदा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती पहुंचाए गए।

सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख तो स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा।

निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है।

इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी प्रगाढ़ है। और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है! राहत का कोई उपाय नहीं। महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं है। वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी बीमारी है; अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ।

तो महावीर उस मूर्ति-भंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा। इसलिए स्वभावतः उस परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित किया। वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन-धर्म का अध्ययन करने पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का। तेईस तो करीब-करीब पुराण-कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो गए, इतिहास न रहे। ऐसा कभी-कभी होता है, जब बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा होता है तो वह चाहे बीच में पैदा हो, चाहे पहले हो, चाहे अंत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता–सभी चीजें उसके आसपास वर्तुलाकार चक्कर काटने लगती हैं।

आज तुम जिस जैन-धर्म को जानते हो, पक्का नहीं है कि ऋषभ का वही रहा हो, पार्श्वनाथ का वही रहा हो, नेमीनाथ का वही रहा हो, जरूरी नहीं है। आज तो तुम जिस जैन-धर्म को जानते हो, उसकी सारी रूप-रेखा महावीर ने दी है। वह रूप-रेखा इतनी गहन हो गई कि अब तुम उसी बात को ऋषभ में भी पढ़ लोगे, क्योंकि महावीर को तुमने समझ लिया है।

समझो कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं महावीर के संबंध में, जरूरी नहीं कि महावीर उससे राजी हों। लेकिन अगर तुमने मुझे ठीक से समझा, तो फिर मैं तुम्हारा पीछा न छोड़ सकूंगा; फिर तुम जब भी महावीर को पढ़ोगे, तुम मुझे ही पढ़ोगे। जो मैं कह रहा हूं, वह तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा। अर्थ तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाये, तो बाहर के शब्दों में वही अर्थ दिखाई पड़ने लगता है।

महावीर इस क्रांतिकारी परंपरा में सबसे ज्यादा महिमावान, सबसे बड़े मेधावी व्यक्ति हुए। इसलिए उनके शब्द समझने जैसे हैं, विचार करने जैसे हैं, क्रांतिकारी तो अनूठे रहे होंगे; क्योंकि जैनों के दो संप्रदाय हैं–दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर तो मानते हैं, महावीर का कोई भी वचन बचा नहीं, कोई शास्त्र बचा नहीं। यह भी क्रांति का हिस्सा है। वे कहते हैं, कोई शास्त्र महावीर का वचन नहीं। ये जो वचन हैं, यह श्वेतांबरों के संग्रह से लिये गये हैं। दिगंबरों के पास कोई संग्रह नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि दिगंबरों ने बचाया क्यों नहीं! यह भी उसी गहरी क्रांति का हिस्सा है। क्योंकि अगर बचाओ शब्दों को, तो आज नहीं कल वे शास्त्र बन जाएंगे। बचाओ तो शास्त्र आज नहीं कल वेद बन जाएंगे। इसलिए दिगंबरों ने तो महावीर के वचन बचाए ही नहीं। यह शास्त्र के प्रति बगावत की बड़ी अनूठी कहानी है। मानते हैं महवीर को, लेकिन कुछ शास्त्र नहीं बचाया है। व्यक्तिगत, गुरु से शिष्य को कहकर जो बातें आयी हैं, बस वही; उनको लिखा नहीं है।

और इसलिए कोई भी शास्त्र महावीर के संबंध में दिगंबरों के हिसाब से प्रामाणिक नहीं है। न शास्त्र बचाया कि कहीं उसके साथ परिग्रह न हो जाए, न इस तरह के कोई आश्वासन दिये कि महावीर को पूजोगे तो मोक्ष मिल जायेगा। स्वयं को जानोगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की पूजा से नहीं। स्वयं को जगाओगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की अनुकंपा से नहीं। कोई गुरुप्रसाद की जगह जैनों के पास नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सत्य अगर किसी के प्रसाद से मिल जाये तो सस्ता हो गया। फिर तो सत्य भी वस्तु की तरह हो गया; किसी ने दे दिया; उधार हो गया। अपने जीवन को गलाओ। अपने जीवन को गला-गलाकर ही सत्य ढाला जायेगा। यह सत्य कहीं बाहर नहीं है कि कोई दे दे।

इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि महावीर को जब स्वीकार किया गया चौबीसवें तीर्थंकर की तरह, तो इसीलिए स्वीकार किया गया कि उनसे ज्यादा बगावती आदमी उस समय में कोई भी न था। और भी लोग थे। और भी दावेदार थे। क्योंकि क्रांति किसी की बपौती थोड़े ही है। जब महावीर जिंदा थे तो बड़े तूफान के दिन थे भारत में; बड़ी बौद्धिक जागृति का काल था; बड़े शिखर पर लोग, आकाश में परिभ्रमण कर रहे थे। जैसे आज अगर विज्ञान समझना हो तो कहीं पश्चिम में शरण लेनी पड़ेगी; उस दिन अगर धर्म का कोई भी रूप समझना था, तो भारत में शरण लेनी पड़ती। भारत के पास सभी धर्म की परंपराओं के बड़े जाग्रत पुरुष थे। और उन सभी के शिष्यों की आकांक्षा थी कि वे चौबीसवें तीर्थंकर की तरह घोषित हो जायें। प्रबुद्ध कात्यायन था, मक्खली गोशाल था, संजय विलेट्ठीपुत्त था, और भी लोग थे। अजित केशकंबली था। ये सभी बड़े महिमाशाली पुरुष थे। लेकिन इन सबके बीच से वह जो सर्वाधिक क्रांतिकारी था, महावीर, वह श्रमणों की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर बना। बुद्ध भी थे।

बुद्ध की तो अलग ही परंपरा बन गई; अलग ही धर्म का जन्म हुआ। लेकिन यह सोचने जैसा है कि बुद्ध की मौजूदगी में भी क्रांतिकारियों की धारा ने महावीर को चुना था। महावीर की क्रांति बुद्ध से ज्यादा गहरी है। बहुत जगह बुद्ध थोड़ा समझौता करते मालूम पड़ते हैं; ज्यादा व्यवहारिक हैं। महावीर बिलकुल अव्यवहारिक हैं। क्रांतिकारी सदा अव्यवहारिक रहा है। उसके पैर जमीन पर नहीं होते, आकाश में होते हैं। वह आकाश में उड़ता है।

कुछ उदाहरण के लिए समझना जरूरी है। बुद्ध के पास स्त्रियां आयीं, दीक्षा के लिए, तो बुद्ध ने इनकार कर दिया। यह समझौता था। यह थोड़ा भय था। यह इस बात का भय था कि ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ संन्यासी हों और साथ-साथ रहें। बुद्ध को भय लगा, इससे तो कहीं ऐसा न हो जाये कि धर्म नष्ट हो जाये! कहीं स्त्री-पुरुषों का साथ रहना कामवासना के ज्वार के पैदा होने का कारण न बन जाये! कहीं स्त्रियां पुरुषों को भ्रष्ट न कर दें। तो वह जो स्त्रियों के प्रति पुरुषों का पुराना भय है, कहीं न कहीं बुद्ध के मन में उसकी छाया थी। उन्होंने इनकार किया। वे वर्षों तक इनकार करते रहे कि स्त्री को मैं संन्यास न दूंगा; क्योंकि स्त्री को संन्यास देने से खतरा है।

महावीर के सामने भी सवाल उठा। वे तत्क्षण संन्यास दे दिये। उन्होंने एक बार भी यह सवाल न उठाया कि स्त्री को संन्यास देने से कोई खतरा तो न होगा! क्रांतिकारी खतरे को मानता ही नहीं; बल्कि जहां खतरा हो वहां जानकर जाता है। उन्होंने यह खतरा स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, जो होगा ठीक है। फिर बुद्ध ने मजबूरी में, बहुत दवाब डाले जाने पर, वर्षों के बाद जब स्त्रियों को दीक्षा भी दी तो उन्होंने तत्क्षण कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा न जीयेगा; यह मैंने अपने हाथ से ही बीज बो दिया अपने धर्म के नष्ट होने का। और बुद्ध का धर्म पांच सौ वर्ष के बीच नष्ट भी हो गया भारत से। और कारण वही सिद्ध हुआ जो बुद्ध ने माना था; जो भय था वह सही साबित हुआ। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष पास-पास रहे तो विराग तो दूर हो गया, वैराग्य तो दूर हो गया, राग-रंग शुरू हुआ। राग-रंग ने नये रास्ते खोज लिये, नयी तर्क की व्यवस्थाएं खोज लीं। तंत्र का जन्म हुआ। बुद्ध-धर्म समाप्त हो गया।

लेकिन महावीर का धर्म अब भी जीता है, अब भी जीता-जागता है। स्त्रियों को समाविष्ट कर लिया, धर्म नष्ट न हुआ। बड़ा क्रांतिकारी भाव रहा होगा। महावीर नग्न खड़े हो गए। कोई जैनों में भी परंपरा न थी नग्न होने की। आज तो तुम जाकर देखोगे दिगंबर जैन मंदिरों में तो चौबीस ही जैनों की प्रतिमाएं नग्न हैं। वह महावीर ने परिभाषा दे दी। वे तेईस नग्न थे नहीं, महावीर ही नग्न हुए थे। बाकी तेईस तो वस्त्रधारी ही थे। इसलिए अगर श्वेतांबरों और दिगंबरों के विवाद में निर्णय करना हो तो बहुमत श्वेतांबरों के पक्ष में होगा, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों में तेईस वस्त्रधारी थे, और एक ही निर्वस्त्र था। तो अगर निर्णय ही करना हो तो तेईस की तरफ ध्यान करके करना चाहिए, सीधा लोकतांत्रिक हिसाब है। लेकिन महावीर का प्रभाव इतना महिमाशाली हुआ कि जिनके वस्त्र थे उनकी प्रतिमाओं से भी वस्त्र उतर गए। क्योंकि फिर ऐसा लगने लगा, अगर महावीर नग्न हैं और पार्श्वनाथ वस्त्र पहने हुए हैं तो पार्श्वनाथ ओछे मालूम पड़ेंगे, छोटे मालूम पड़ेंगे: इतना भी त्याग न कर पाये! नग्नता कसौटी हो गई।

ऐसा सदा हुआ है। जो सर्वाधिक महिमाशाली है वह कसौटी बन जाता है। फिर उसके पीछे इतिहास भी बदल जाता है। अतीत भी बदल जाता है; क्योंकि अतीत के संबंध में हमारे दृष्टिकोण बदल जाते हैं। नग्न खड़े हो जाना बड़ा क्रांतिकारी मामला था, क्योंकि नग्नता सिर्फ नग्नता नहीं है। इसका तुम अर्थ समझो।

नग्न होने का अर्थ है: समाज का परिपूर्ण अस्वीकार; समाज की धारणाओं की परिपूर्ण उपेक्षा। तुम अगर चौरस्ते पर नग्न खड़े हो जाओ तो उसका अर्थ यह होता है कि तुम दो कौड़ी कीमत नहीं देते कि लोग क्या सोचते हैं, कि लोग अच्छा सोचते हैं कि बुरा सोचते हैं, कि लोग तुम्हारे संबंध में क्या कहेंगे! हमारे पास शब्द है भाषा में–किसी को गाली देनी हो तो हम कहते हैं “नंगा-लुच्चा’–वह महावीर से पैदा हुआ। नग्न वे थे और बाल लोंचते थे, इसलिए लुच्चा। पहली दफा महावीर को ही लोगों ने नंगा-लुच्चा कहा; क्योंकि वे नग्न खड़े होते थे और बाल भी काटते न थे। जब बाल बढ़ जाते थे तो हाथ से उनका लोंच करते थे।

तुमने कभी सोचा न होगा कि आखिर नंगे को लुच्चा क्यों कहते हैं! लुच्चे का क्या संबंध है? फिर तो धीरे-धीरे लुच्चा शब्द अलग भी उपयोग होता है। अब तुम कहते हो, फलां आदमी बड़ा लुच्चा है। लेकिन तुम यह नहीं पूछते कि उसने लोंचा क्या है! महावीर के साथ पैदा हुआ शब्द है–गाली की तरह पैदा हुआ, निश्चित ही समाज बहुत नाराज हुआ होगा, बहुत क्रुद्ध हुआ होगा। इस आदमी ने सारे हिसाब तोड़ दिये।

वस्त्र सिर्फ वस्त्र थोड़े ही हैं, समाज की सारी धारणा है। वस्त्रों में छिपे हुए समाज का सारा संस्कार, उपचार, शिष्टाचार, सभ्यता, सब है। नग्न को हम असभ्य कहते हैं। आदिवासी हैं, नग्न रहते हैं, उनको हम असभ्य कहते हैं, आदिम कहते हैं। क्यों? क्यों असभ्य? क्योंकि अभी उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि अपने शरीर को ढांकें, छिपाएं; जानवरों की तरह हैं; पशुओं की तरह हैं। आदमी और जानवर में जो बड़े-बड़े फर्क हैं, उनमें एक फर्क यह भी है कि आदमी कपड़े पहनता है। आदमी अकेला पशु है जो कपड़े पहनता है। बाकी सभी पशु नग्न हैं। तो महावीर जब नग्न हुए उन्होंने कहा कि संस्कृति नहीं, प्रकृति को चुनता हूं; सभ्यता को नहीं, आदिम-स्वभाव को चुनता हूं। और जो भी दांव पर लगती हो इज्जत, पद-प्रतिष्ठा, वह सब दांव पर लगा देता हूं। आज से पच्चीस सौ साल पहले वैसी हिम्मत बड़ी कठिन थी; आज भी कठिन है। आज भी नग्न खड़े होने पर अड़चनें खड़ी हो जायेंगी, तत्क्षण पुलिस ले जायेगी, अदालत में मुकदमा चलेगा।

दिगंबर जैन मुनि को किसी गांव से गुजरना हो तो पुलिस को खबर करनी पड़ती है। और जब दिगंबर जैन मुनि, नग्न मुनि गुजरता है, तो उसके शिष्यों को उसके चारों तरफ घेरा बनाकर चलना पड़ता है ताकि उसकी नग्नता कुछ तो ढंकी रहे।

दिगंबर जैन मुनि खोते चले गए हैं, एक दर्जन से ज्यादा नहीं हैं अब। क्योंकि बड़ा कठिन मामला है। वह नग्नता ही उपद्रव है। फिर सारे समाज की व्यवस्था को जड़-मूल से इनकार करना, तो समाज भी प्रतिरोध करता है, बदला लेता है, नाराज हो जाता है।

प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख तो ऋग्वेद में है; लेकिन महावीर का उल्लेख किसी हिंदू-ग्रंथ में नहीं है। निश्चित ही महावीर अति क्रांतिकारी रहे। इतने क्रांतिकारी रहे कि उनका उल्लेख करने तक की हिम्मत हिंदू-शास्त्रों ने नहीं की है। इस आदमी का नाम लेना भी खतरनाक मालूम हुआ है।

तो क्रांतिकारियों की जो परंपरा है, उस परंपरा ने अगर महावीर को चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार किया, स्वाभाविक था यह।

यह भी समझ लेना जरूरी है कि महावीर के पहले तक जैन-धर्म कोई अलग धर्म न था। वह चिंतकों की एक धारा थी, लेकिन कोई अलग धर्म न था। महावीर के साथ ही चिंतकों की धारा सघन हुई; उसने रूप लिया, संगठन बनी, संघ बनी और हिंदू परंपरा से अलग होकर चलने लगी।

पार्श्वनाथ या ऋषभदेव एक अर्थ में हिंदू ही थे–वैसे ही जैसे जीसस यहूदी थे। महावीर भी जब जिंदा थे तो करीब-करीब हिंदू थे। लेकिन महावीर ने जो प्रगाढ़ता से क्रांति को रूप दिया, वह इतना प्रबल हो गया, इतना साफ हो गया कि उसे फिर हिंदू-धारा में सम्मिलित रखना मुश्किल हो गया। वह अलग ही टूट गई धारा।

यहां तुम सोचो, बुद्ध महावीर के समकालीन थे। बुद्ध को श्रमणों की परंपरा ने अपना चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार नहीं किया; महावीर को किया। हिंदुओं ने बुद्ध को अपना दसवां अवतार स्वीकार किया; महावीर के नाम का उल्लेख भी नहीं किया। क्या मामला है? बुद्ध अभी भी स्वीकार किये जा सकते थे। थोड़े बगावती थे, लेकिन डोर बिलकुल न तोड़ दी थी; फिर भी बंधे थे। महावीर ने बिलकुल ही डोर तोड़ दी, खूंटी उखाड़ ली; बाहर खड़े हो गए खुले आकाश में।

महावीर सभी तरह से मनुष्य को विशाल करना चाहते हैं।

नजर को वुसअत नसीब होगी

हदों से निकलेगा जब तखैय्युल

हरम भी ऐ शेख! सतहे-बीं, सुन

मकान है, ला-मकां नहीं है।

तभी विशालता आत्मा को उपलब्ध होती है। जब कल्पना के ऊपर से भी सारी जंजीरें हट जाती हैं। जब तुम्हारा सोच-विचार मुक्त होता है तभी तुम्हारी आत्मा भी विशाल होती है।

नजर को वुसअत नसीब होगी–तभी तुम्हारी दृष्टि विशाल बनेगी, जब उसके ऊपर किसी तरह के बंधन न रह जाएं–न शास्त्र के, न अतीत के, न सदगुरुओं के।

हरम भी ए शेख! सतहे-बीं, सुन

मकान है, ला-मकां नहीं है।

ये मंदिर, ये मस्जिद, ये पूजागृह भी, सुन! ये भी संकीर्ण हैं! मकान हैं, ला-मकां नहीं हैं।

और हमें एक ऐसी जगह चाहिए जहां कोई सीमा न हो, ला-मकां; जहां कोई सीमा न रोकती हो। नजर को वुसअत नसीब होगी–और तब तेरी दृष्टि विशाल होगी।

तो महावीर ने अत्यंत विशाल दृष्टि दी है। लेकिन जब अत्यंत विशाल दृष्टि होगी, तो सभी की दृष्टियों के विपरीत पड़ जायेगी। संकीर्ण दृष्टि के साथी मिल जाएंगे; विशाल दृष्टि के साथी नहीं मिलते। अब अगर मैं कृष्ण की ही महिमा गाऊं तो हिंदू मेरे साथ हो जाएंगे; लेकिन उनकी शर्त है कि फिर महावीर की बात मत उठाना। अगर मैं महावीर के ही गीत गुनगुनाऊं, तो जैन मेरे साथ हो जाएंगे; लेकिन उनकी शर्त है, अब कृष्ण को बीच में मत लाना।

अगर तुम संकीर्ण हो तो तुम्हें किसी न किसी का साथ मिल जायेगा, क्योंकि संकीर्ण लोग चारों तरफ मौजूद हैं। मुझसे जैन भी नाराज हो जाता है, क्योंकि मैंने कृष्ण की बात की; मुझसे हिंदू भी नाराज हो जाता है, क्योंकि मैंने महावीर की बात की; मुझसे बौद्ध नाराज हो जाता है कि क्यों मैंने महावीर की चर्चा की; मुझसे जैन नाराज हो जाता है कि बुद्ध की बात क्यों उठाई!

मुझसे तो साथ-संग वही दे सकता है जिसकी नजर संकीर्ण न हो। और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि मैं परंपरा के भी पक्ष में हूं और क्रांति के भी पक्ष में हूं। तब और अड़चन हो जाती है। तब परंपरावादी मुझसे नाराज हो जाता है कि क्रांति की तुम बात करते हो; और क्रांतिवादी नाराज हो जायेगा कि तुम परंपरा की बात करते हो। लेकिन मैं असल में चाहता हूं कि तुम्हारी नजर पर कोई भी सीमा न रह जाये; तुम्हारी सब सीमाएं टूट जाएं; तुम विशाल हो जाओ; तुम खुले आकाश के नीचे खड़े हो जाओ; कोई घेरा न रहे! बड़े से बड़ा घेरा भी आखिर घेरा है। और आत्मा का तभी जन्म होता है जब तुम्हारी दृष्टि सभी दृष्टियों से मुक्त हो जाती है। उस अवस्था को महावीर ने सम्यक दृष्टि कहा है–जब कोई दृष्टि नहीं पकड़ती।

इसलिए महावीर ने अपने विचार-दर्शन को अनेकांत कहा है। अनेकांत का अर्थ होता है: जिसने कोई एकांतिक दृष्टि नहीं पकड़ी। महावीर ने जिस दर्शन को जन्म दिया, उसका नाम स्यातवाद है। तुम महावीर से कुछ पूछो तो वे सात भंगियों में उत्तर देते हैं। तुम उनसे पूछो, ईश्वर है? तो वे कहते हैं, है; और तत्क्षण कहते हैं, नहीं है। और वे कहते हैं, दोनों है, और कहते हैं दोनों नहीं है। और ऐसा उत्तर देते चले जाते हैं। सात दृष्टियां हो सकती हैं ईश्वर के बाबत, वे सातों दृष्टियों का एक साथ उपयोग करते हैं। वे तुम्हें कोई जगह नहीं देना चाहते। तुमने पूछा, ईश्वर है? महावीर कहते हैं, है। इसके पहले कि तुम उठो और सोचो कि बस फैसला हो गया, वे कहते हैं रुको, नहीं है। तुम सोचोगे, चलो यह भी ठीक है–नहीं है तो भी बात साफ हो गई। उठने लगे, वे कहते हैं, बैठो, दोनों है, है भी और नहीं भी। अब तुम जरा अड़चन में पड़े। लेकिन वे अभी भी नहीं रुकते, वे बढ़ते ही चले जाते हैं। कहते हैं, दोनों है। चौथा उनका उत्तर है, दोनों नहीं है। और ऐसा सात भंगियों में–सप्त-भंग!

कौन राजी होगा इस आदमी से? क्योंकि तुम चाहते हो, कुछ बंधी हुई लकीर मिल जाये। लेकिन महावीर कहते हैं, सभी बंधी लकीरें, सभी संकीर्णताएं उस परम सत्य को प्रगट नहीं कर पातीं। एक अर्थ में वह है और एक अर्थ में नहीं है।

जैसे कोई तुमसे पूछे, शून्य है? क्या कहोगे? एक अर्थ में है; अगर कहो कि नहीं है तो पूरा गणित गिर जायेगा। एक अर्थ में है। और एक अर्थ में नहीं है, क्योंकि शून्य का मतलब ही होता है कि जो नहीं है। और अगर दोनों बातें एक साथ सच हैं तो फिर तीसरी बात भी ठीक है कि दोनों है। लेकिन दोनों बातें एक साथ सच कैसे हो सकती हैं? कोई चीज या तो होती है या नहीं होती। तो महावीर कहते हैं, दोनों असत्य भी हैं। ऐसा वे बढ़ते चले जाते हैं। और प्रत्येक वक्तव्य के साथ वे स्यात लगाते हैं, परहैप्स। यह बड़ी अनूठी बात है। वे कहते हैं, स्यात।

तुम सुनने आते हो कोई मत। तुम अनिश्चित हो। तुम्हें पता नहीं, क्या है, क्या नहीं है। तुम चाहते हो, कोई आदमी जो टेबिल ठोककर कह दे कि हां, ईश्वर है। और इतने जोर से कहे कि तुम घबड़ा जाओ और मान लो। लेकिन महावीर कहते हैं, स्यात; वे तुम्हें सांत्वना नहीं देते। वे कहते हैं, हो भी सकता है, न भी हो। इसमें कोई झिझक नहीं है।

अनेकों को ऐसा लगेगा, शायद महावीर को पता नहीं है। कहते हैं “शायद’? लेकिन महावीर को पता है, इसलिए कहते हैं स्यात। क्योंकि जो पता है वह इतना बड़ा है कि उसके संबंध में कोई भी वक्तव्य एकंागी हो जाता है। उसके संबंध में सभी वक्तव्य एक साथ ही सार्थक हो सकते हैं। तब एक वक्तव्य दूसरे वक्तव्य को काटता जाता है। तुम्हारे पास कुछ सिद्धांत नहीं बचता, आखिर में तुम ही बचते हो। तुम्हारी बुद्धि के पास कोई दृष्टिकोण नहीं बचता, केवल देखने की क्षमता बचती है।

इससे बड़ी क्रांति कभी घटी नहीं। इसलिए क्रांतिकारियों ने अगर महावीर को अपना चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार किया तो कुछ आश्चर्य नहीं है। तुम्हें अड़चन होती है सोचने में कि क्रांति, मूर्ति-भंजन और उसमें भी फिर चौबीसवें तीर्थंकर! क्योंकि तुमने सोचा है और समझा है अब तक कि क्रांति कोई नई चीज है। क्रांति और परंपरा ऐसे हैं, जैसे तुम्हारे दो पैर। सभी क्रांतियां अंततः परंपरा बन जाती हैं और सभी परंपराएं प्रारंभ में क्रांतियां थीं। क्रांति परंपरा का पहला कदम है और परंपरा क्रांति की अंतिम दशा है।

कृष्णमूर्ति कुछ कहते हैं, वचन क्रांतिकारी हैं–परंपरा बनने लगे। कृष्णमूर्तिवादी आदमी पैदा हो गया है। कृष्णमूर्ति कहते हैं, कोई गुरु नहीं। उनका माननेवाला भी कहता है, कोई गुरु नहीं। लेकिन मेरे पास उनके माननेवाले आ जाते हैं। वे कहते हैं, कोई गुरु नहीं। मैंने कहा, तुमने यह सीखा कहां? वे कहते हैं, उनके चरणों में बैठकर सीखा है। तो वे तुम्हारे गुरु हो गए। तुम यह स्वयं के बोध से दोहरा रहे हो कि कोई गुरु नहीं? यह भी तुमने सीख लिया है। और जहां सीखना हो गया, वहां गुरु आ गया। कृष्णमूर्तिवादी भी अपने पक्ष की तर्कणा करता है, विचारणा करता है, सिद्ध करने के लिए प्रमाण देता है, वाद-विवाद करता है। बचना मुश्किल है।

क्रांति ऐसे ही है जैसे जन्म–और जब जन्म हो गया तो मौत भी होगी। अब तुम लाख उपाय करो बचने के; अगर बचना था तो जन्मना ही नहीं था। वहीं भूल हो गई। अब कुछ किया नहीं जा सकता। मरना तो पड़ेगा ही।

आगे खयाल रखना, जन्मना मत। इसलिए जिसको मौत से बचना हो उसे जन्म से बचना चाहिए।

कहते हैं, डायोज़नीज़ को किसी ने पूछा कि दुनिया में सबसे बेहतर बात कौन-सी है। उसने कहा, बेहतर बात तो है पैदा न होना। उस आदमी ने कहा, खैर अब यह तो हो ही नहीं सकता, हम हो ही गए पैदा–नंबर दो क्या? उसने कहा, नंबर दो–जितनी जल्दी मर सको मर जाना। पैदा न होते, कोई झंझट न होती; मर गए, फिर झंझट मिट गई।

क्रांति जन्म है। मगर जब क्रांति हो गई तो मौत भी होगी। क्रांति परंपरा बनेगी। यही तो तुम देख रहे हो। ये जो सारे धर्म तुम्हें पृथ्वी पर दिखाई पड़ते हैं, क्या तुम सोचते हो, ये पहले ही क्षण से परंपरा थे? पहले क्षण में तो ये क्रांति की तरह उठे थे। फिर सम्हल गए, संगठित हो गए, व्यवस्थित हो गए; अराजकता खो गई, ज्योति खो गई। फिर सब बात बंद हो जाती है। फिर धीरे-धीरे सब समाप्त हो जाता है।

जैन-धर्म अब एक परंपरा है। बुद्ध-धर्म एक परंपरा है। सिक्ख-धर्म अब एक परंपरा है। नानक के साथ क्रांति थी, बड़ी बगावत थी। फिर खो गई बात। फिर धीरे-धीरे राख जम गई। सभी चीजों पर राख जम जायेगी, क्योंकि यह जीवन का नियम है। इसलिए क्रांति को फिर-फिर करते रहना पड़ता है और धर्म को पुनः पुनः जन्म देना पड़ता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति धर्म को जन्म देते वक्त यह न सोचे कि उसका धर्म अपवाद होगा। असंभव है। अपवाद कोई भी नहीं हो सकता। जो पैदा हो रहा है, वह मरेगा। फिर नये धर्मों की जरूरत रहेगी।

अब यहां भी थोड़ा सोचने जैसा है। जब धर्म क्रांतिकारी होता है तब अलग तरह के लोगों को आकर्षित करता है–क्रांतिकारियों को, बगावतियों को, विद्रोहियों को। फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे धर्म स्थापित होने लगता है, ऐस्टेब्लिश होने लगता है, फिर वह क्रांतिकारियों को आकर्षित करना तो दूर, अगर वे पैदा हो जायें तो उन्हें निकाल बाहर करता है, क्योंकि वे खतरा करने लगते हैं।

अब यह एक बड़ा विरोधाभास है। अगर जैन-धर्म में फिर महावीर पैदा हो जायें तो जैनी उन्हें निकाल बाहर कर देंगे, बर्दाश्त न करेंगे। अगर जीसस फिर पैदा हो जायें ईसाई घर में तो अब की बार फिर सूली लगेगी–अब की बार ईसाई लगाएंगे। पिछली बार यहूदियों ने लगाई थी, क्योंकि उन्होंने यहूदी-घर में पैदा होने की गलती की थी। किसी और ने नहीं लगाई, यहूदियों ने लगाई थी।

और यहूदी बड़े क्रांतिकारी थे अपने प्रथम चरण में। मूसा बड़े क्रांतिकारी हैं। यहूदियों की मुक्ति, इजिप्त से उनका छुटकारा, नए जीवन और जगत की खोज, नए समाज की पूरी की पूरी अंतरचिंतना और उसकी नींव मूसा ने भरी।

लेकिन उसी घर में, उसी कुल में, उसी परंपरा में आता है जीसस, और जीसस वही करना चाहता है जो मूसा ने किया था; लेकिन मूसा के माननेवाले बरदाश्त न करेंगे, क्योंकि यह फिर उखाड़ डालेगा।

कहीं भी तुम पैदा हो जाओ, अगर तुमने नये धर्म की चिंतना की–और धर्म सदा ही नया है, क्रांति उसकी शुरुआत है–तो तुम निकाल बाहर किये जाओगे। हां, तुम्हारे आसपास एक नया धर्म निर्मित हो जायेगा। जल्दी ही तुम्हारे बच्चे वहां भी क्रांति न चलने देंगे। वहां भी जब कोई क्रांतिकारी पैदा होगा, उसे निकाल बाहर किया जायेगा। यह क्रांतिकारी का भाग्य है कि सूली पर लटके। और यह सभी धर्मों की नियति है कि क्रांति की तरह पैदा हों, परंपरा की तरह सड़ जाएं।

दूसरा प्रश्न:

कल आपने समझाया कि महावीर ने बड़ी कुशलता से, बड़ी अहिंसा के साथ ईश्वर, पूजा, प्रार्थना, प्रेम आदि शब्दों का इनकार किया। उसके पहले भी आपने बताया था कि उन्होंने शरण और भक्ति का भी इनकार किया। कृपया समझाएं कि तब उनका स्वयं एक सदगुरु, तीर्थंकर बनना व शिष्यों को दीक्षा व आशीर्वाद देना क्या उनके ही सिद्धांत के विपरीत नहीं है?

पहली बात–महावीर तीर्थंकर हैं, सदगुरु नहीं। सदगुरु भक्तों का शब्द है। इसलिए महावीर के लिए सदगुरु शब्द का उपयोग मत करना। और तीर्थंकर का बड़ा अलग अर्थ होता है। सदगुरु का बड़ा अलग अर्थ होता है।

सदगुरु का अर्थ होता है: जो तुम्हारा हाथ पकड़ ले; जैसे बाप बेटे का हाथ पकड़ लेता है और ले चलता है। और बेटा अपनी सारी श्रद्धा बाप को दे देता है; वह जानता है कि हम ठीक जा रहे हैं–चाहे बाप खतरे में भी जा रहा हो, भयंकर जंगल से गुजर रहा हो। बाप डरता हो तो डरता रहे, बेटा मस्ती से चलता है। बाप के हाथ में हाथ है, अब और क्या चाहिए! बेटा आनंदित होकर देखता है जंगल। वह हजार प्रश्न उठाता है। बाप कहता है, चुप रहो! बाप घबड़ा रहा है। बाप अकेला है। बेटे को क्या फिक्र है! जब बाप साथ है तो सब बात हो गई।

सदगुरु का अर्थ होता है: समर्पण किसी के प्रति; उसके हाथ में हाथ दे देना, बस। फिर भक्त कहता है, अब हम छोटे बच्चे की तरह हो गए; अब तुम्हें जहां ले चलना हो ले चलो; हम शिष्य हो गए।

तीर्थंकर का बड़ा अलग अर्थ है। तीर्थंकर तुम्हारे हाथ को अपने हाथ में नहीं लेता। तीर्थंकर तुम्हें सहारा नहीं देता। तीर्थंकर शब्द का अर्थ होता है: तीर्थ बनानेवाला, घाट बनानेवाला। नदी के किनारे घाट बना देता है, फिर जिसकी मौज हो उस घाट से उतर जाये। लेकिन वह तुम्हें इस नाव में बिठाकर ले नहीं जाता। वह माझी नहीं है। वह तुम्हें नाव में बिठाकर उस पार नहीं ले जाता, न वह तुम्हारा हाथ पकड़कर नदी में तैराता है। वह सिर्फ घाट बना देता है।

तीर्थ का अर्थ होता है: घाट। तीर्थंकर का अर्थ होता है: जिन्होंने घाट बनाये। तो सुगम कर देता है उतरना, लेकिन हाथ पकड़कर उतारता नहीं। ऊबड़-खाबड़ जंगल पहाड़ में उतरना मुश्किल होता है। वह घाट बना देता है। वह सब व्यवस्थित कर देता है। ठीक जगह–जहां से दूसरा किनारा करीब से करीब है, ऐसी जगह, जहां जलधार बहुत खतरनाक नहीं है; ऐसी जगह, जहां जलधार छिछली है, तुम चलकर भी पार हो सकोगे; ऐसी जगह, जहां कम से कम डूबने का भय है–वह घाट बना देता है। वह घाट के ऊपर सारे नक्शे रख देता है कि बाएं जाओ कि दाएं जाओ, कि कितने कदम चलने पर पानी गहरा होगा और कितने कदम चलने पर दूसरा किनारा करीब आ जायेगा। वह दूसरे किनारे का वर्णन कर देता है। वह सारी बात कर देता है, घाट निर्मित कर देता है, सारे उपकरण यात्रा के मौजूद कर देता है–बस, वहीं छोड़ देता है। फिर तुम जाओ, यात्रा तुम्हीं को करनी है।

तीर्थंकर सदगुरु नहीं है। तीर्थंकर से तुम्हारा कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं है। तीर्थंकर से तुम्हारा बड़ा अव्यक्तिगत संबंध है। महावीर के पास तुम जाओ तो तुम्हारा जो प्रेम महावीर के प्रति है वह एकतरफा है। तुम्हारा होगा। महावीर तो कहते हैं, उसे भी छोड़ो, क्योंकि वह भी बंधन बनेगा। महावीर का तो बिलकुल नहीं है। तुम भला अपनी कल्पना से सोचते होओ कि हम दीवाने हैं महावीर के, लेकिन महावीर तुम्हारे दीवाने नहीं हैं। तुम चले जाओगे तो वे बैठकर रोएंगे नहीं कि कहां खो गया।

भक्त और सदगुरु की बात अलग है। जीसस ने कहा है: सदगुरु ऐसा है…वह धारणा है पैगंबर की, सदगुरु की, कि जैसे गडरिये की कोई भेड़ भटक जाये। सांझ हो गई, सारी भेड़ें आ गईं, लेकिन एक भेड़ जंगल में भटक गई, तो सारी भेड़ों को खतरे में छोड़कर वह उस एक भेड़ की तलाश में जाता है। वह जंगल में उतरता है फिर अंधेरी रात में, चिल्लाता है, पुकारता है। जब भेड़ को खोज लेता है तो उसे कंधे पर रखकर लौटता है। भटकी भेड़ को कंधे पर रखकर लौटता है। और भटकी भेड़ के लिए जो भेड़ें साथ थीं, उनको खतरे में छोड़ जाता है। इस बीच जंगली जानवर हमला भी कर सकते हैं!

यह ईसाइयों की मसीहा की धारणा है, सदगुरु की। उसका संबंध वैयक्तिक है। वह तुम्हारी तरफ व्यक्तिगत ढंग से सोचता-विचारता है। तीर्थंकर निर्वैयक्तिक है। वह सिर्फ सिद्धांत बता देता है। वह कहता है, दो और दो चार होते हैं, तुम जोड़ लो। गणित बता दिया, नियम बता दिया, अब तुम कर लो हल। इससे ज्यादा उसका कोई संबंध नहीं है।

अगर तुम चले जाओ, खो जाओ, तो तुम्हारे लिए बैठकर रोता नहीं और न बीहड़ में तुम्हें चिल्लाता हुआ आता है। क्योंकि तीर्थंकरों की धारणा ऐसी है। वे कहते हैं, जिसे भटकना है वह भटकेगा। जब अपने ही भटकने से ऊब न जायेगा, तब तक भटकेगा। और अगर कोई भटकना ही चाहता है तो उसे न भटकने देना उचित नहीं है, उसकी स्वतंत्रता में बाधा है। अब इस बात का भी मूल्य है।

जीसस की बात भी समझ में आती है कि जो जाग गया है, वह उसको सहारा दे जो सोया है। महावीर की बात भी समझ में आती है। वे कहते हैं, सहारा देना एक बात है; लेकिन वह सहारा न चाहता हो तो उस पर सहारा थोपना बिलकुल दूसरी बात है। इसलिए वे उपदेश देते हैं, आदेश नहीं देते। वे मार्ग दिखा देते हैं, फिर यह भी नहीं कहते कि चलो, उठो। फिर तुम्हें झिझकारते नहीं हैं, तुम्हें सोए से उठाते नहीं, तुम्हारे सपने को तोड़ते नहीं। वे कहते हैं, अगर तुम्हारी यही मर्जी है तो तुम्हारी वैयक्तिक स्वतंत्रता है। वे तुम्हारी वैयक्तिक स्वतंत्रता को सम्मान देते हैं। अगर तुमने भटकना तय किया है तो यही तुम्हारी नियति है, अभी और भटको; जब तुम्हें समझ में आ जाये तब लौट आना। इसका मतलब यह हुआ: वे तुम्हें भेड़-बकरी नहीं मानते, तुम्हें मनुष्य मानते हैं। तब तुम्हें समझ में आयेगी बात कि उनकी बात का भी बल है। वे कहते हैं, तुम कोई भेड़ थोड़े ही हो कि हम तुम्हें उठाकर कंधे पर ले आएं। तुम मनुष्य हो! तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है। और अगर तुम्हारे परमात्मा ने यही अभी तय किया है कि अभी और थोड़ा झेलना है दुख, और थोड़ा जीना है नर्क, तो कौन तुम्हें रोक सकता है! तुम्हारे ऊपर कोई भी नहीं है, तुम अंतिम हो। मुझे कुछ मिला है, वह मैं कह देता हूं; उपयोग करना हो कर लेना, न करना हो न कर लेना। ऐसा निर्वैयक्तिक संबंध है।

इसलिए पहली बात–तीर्थंकर सदगुरु नहीं है। दूसरी बात–तीर्थंकर दीक्षा तो देता है, आशीर्वाद नहीं देता। आशीर्वाद सदगुरु देता है। आशीर्वाद का अर्थ है: मेरी शुभाकांक्षा तुम्हारे साथ है। न, महावीर बिलकुल निर्वैयक्तिक हैं। वे कहते हैं, मेरी शुभाकांक्षा क्या करेगी? नर्क का रास्ता शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है। तुम्हारा होश काम आएगा, मेरी शुभाकांक्षा थोड़े ही! और वे कहते हैं, कहीं तुम्हारे मन में ऐसा भरोसा आने लगे जैसा कि काहिलों और सुस्तों को आ जाता है–किसी के आशीर्वाद से सब हो जायेगा–तो वे वैसे ही मर रहे थे और मर जाते। वे वैसे ही डूब रहे थे, वे और हाथ-पैर तड़फड़ाना छोड़ देते हैं। वे कहते हैं, अब आशीर्वाद मिल गया, अब सब ठीक है।

महावीर कहते हैं, ऐसी झूठी बातों के लिए मेरे पास मत आना। दीक्षा देते हैं। दीक्षा का अर्थ है: इनिसिएशन। दीक्षा का अर्थ है: वे तुम्हें बता देते हैं, जो उन्हें हुआ है। वे कहते हैं, यह रहा रास्ता। ज्योति फेंक देते हैं रास्ते पर। दीक्षा का तो अर्थ है, उदघाटन कर देते हैं एक द्वार का। जिस द्वार से वे प्रवेश किए हैं, वह द्वार तुम्हें भी इंगित कर देते हैं, कि वो रहा। आशीर्वाद का अर्थ है कि वे तुम्हारे लिए प्रार्थना करते हैं। आशीर्वाद का अर्थ है कि वे मंगल कामना करते हैं। आशीर्वाद का अर्थ है कि तुम्हारी यात्रा में वह भी सम्मिलित हैं। नहीं, तीर्थंकर आशीर्वाद नहीं देते। ये अलग-अलग परंपराओं के शब्द हैं, इनका अलग-अलग अर्थ समझ लेना जरूरी है, अन्यथा बड़ी भ्रांति पैदा होती है।

पहली दफा मैं बंबई निमंत्रित हुआ, कई वर्ष पहले–एक महावीर जयंती पर। मेरे पहले, एक जैन मुनि बोले तो मैं तो बहुत चकित हुआ, क्योंकि उन्होंने जो बातें कहीं, वे बिलकुल अ-जैन थीं। उन्होंने कहा महावीर का जन्म हुआ जगत के कल्याण के लिए। ऐसा जैनी मुनि कहते हैं। जैनी भी कहते हैं। उनको पता नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। यह तो हिंदू-भाषा है। कृष्ण का जन्म हुआ जगत के कल्याण के लिए। यह समझ में आ जाता है। यदाऱ्यदा हि धर्मस्य…जब-जब होगी धर्म को अड़चन, तब तब आऊंगा…युगेऱ्युगे। यह ठीक है। अवतार की भाषा तो बिलकुल ठीक है कि जब जरूरत होगी मेरी, मैं आऊंगा, तुम फिक्र मत करना। जब अंधेरा होगा तब आऊंगा दीया लेकर। जब जाल फैलेगा घृणा का और हिंसा का, तब आऊंगा तुम्हें उठाने। और हमेशा-हमेशा, तुम भरोसा कर सकते हो।

लेकिन तीर्थंकर ऐसी भाषा नहीं बोलते। तीर्थंकर की भाषा ही अलग है। तीर्थंकर कहता है, कौन किसका कल्याण कर सकता है? महावीर पैदा हुए अपने पिछले जन्मों के कर्म-फल के कारण। पैदा होना मजबूरी है। महावीर की कोई स्वेच्छा नहीं है। पैदा हुए, क्योंकि पिछले जन्म में जो कर्म-जाल पैदा किया है, वह खींच लाया। और जो चेष्टा उन्होंने की, कोई जगत-कल्याण के लिए नहीं है। क्योंकि महावीर का मानना ही है कि कोई दूसरा किसी दूसरे का कल्याण नहीं कर सकता। कल्याण तो सदा आत्म-कल्याण है।

तो जब मैं बोला और मैंने यह कहा तो मुनि तो बहुत नाराज हुए। बड़ी घबड़ाहट फैल गई। “गुणा’ यहां मौजूद है, वह उस सभा में भी मौजूद थी। उसने बाद में मुझे बताया, कई साल बाद, कि उसने तो “ईश्वर भाई’ को कहा कि अब हम यहां से निकल चलें, यहां कुछ झगड़ा-फसाद होगा। यहां मारपीट होकर रहेगी अब। क्योंकि सभी जैन नाराज हो गए, क्योंकि मैंने कहा, महावीर किसी के कल्याण के लिए पैदा नहीं हुए। लेकिन नाराजगी से क्या होता है? तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारी पूरी दृष्टि अलग है। और उस दृष्टि का अपना मूल्य है। इसलिए उसकी शुद्धता को बचाया जाना चाहिए। ऐसे तो सब वर्णसंकर हो जाती हैं बातें।

महावीर कहते हैं, कल्याण आत्म-कल्याण है। इसलिए आशीर्वाद नहीं दे सकते। फिर उस दिन से जो जैन नाराज हुए तो नाराज ही हैं। क्योंकि उनको लगा कि मैंने उनके महावीर की कुछ प्रतिष्ठा छीन ली है। मैं उनके महावीर को ठीक-ठीक प्रतिष्ठा दिया। मैंने वही कहा जो महावीर कहते।

लेकिन साधारण आदमी साधारण आदमी है। वह खुद नहीं करना चाहता। वह चाहता है कि कोई के आशीर्वाद से हो जाये, मुफ्त मिल जाये। धन तो तुम खुद कमाते हो, धर्म तुम आशीर्वाद से चाहते हो। तुमने बेईमानी परखी? मकान बनाना हो, तुम खुद बनाते हो; मोक्ष आशीर्वाद से हो जाये! तुम जो करना नहीं चाहते, जो तुम कहते हो मुफ्त मिले तो ले लेंगे, उसमें भी सोचने का समय मांगोगे। अगर सच में ही कोई देने आ जाये कि यह रहा मोक्ष, लेते हो? तुम कहोगे, अभी इत्ती जल्दी तो मत करो, थोड़ा सोचने दो, घर जाने दो, पत्नी भी है, बच्चे भी हैं, थोड़ा पूछ तो लूं! जो तुम टालना चाहते हो, तुम बड़ी कुशलता से टालते हो। तुम कहते हो, जब होगी प्रभु की कृपा! मगर और चीजों के लिए तुम नहीं कहते। और के लिए तुम खूब आपा-धापी करते हो। तो साफ-साफ कहो न कि अभी चाहिए नहीं। यह बेईमानी तो मत करो। इतना ही कह दो कि हमें अभी कोई आकांक्षा नहीं पैदा हुई है। नहीं, लेकिन वह कहना जरा अभद्र मालूम पड़ता है। तुम शिष्टाचार को मानते हो, सभ्यता को मानते हो। तुम कहते हो, यह कहना जरा, साफ-साफ कहना ठीक नहीं। तुम जरा चोरी-छिपे, लुके-लुके कहते हो। तुम ढंग से, सजाकर कहते हो, शृंगार से कहते हो। तुम कहते हो, जब प्रभु की कृपा होगी, जब आशीर्वाद होगा सदगुरु का…।

मेरे पास लोग आते हैं। मैं उनसे पूछता हूं, कभी बहुत वर्ष से नहीं दिखाई पड़े। वे कहते हैं, आपने बुलाया ही नहीं। कितनी मजेदार बात कह रहे हैं वे! तो मैंने कहा, अब कैसे आ गये? मैंने तो अभी भी नहीं बुलाया था। वे कहते हैं, जरा पूने में कुछ धंधे का काम आ गया था। धंधा का जब काम होता है तब वे अपने से आते हैं। अब रहा यह कि मैं पूना में हूं तो मेरे पास भी चलो हो आओ। लेकिन मेरे पास आने के लिए जिम्मेवारी मुझ पर ही छोड़ते हैं कि आपने बुलाया ही नहीं। हालांकि वे सोचते होंगे, बड़ी प्रेमपूर्ण बात कह रहे हैं, लेकिन बड़ी बेईमानी की बात कह रहे हो। आना हो तो तुम आ जाते हो; न आना हो तो कहते हो, जब आप बुलायेंगे। कसूर जैसे मेरा है! तुम जब कहते हो, जब प्रभु की कृपा होगी…इसका अर्थ हुआ कि प्रभु की कृपा नहीं हो रही है। तुम सोचते हो, ऐसा भी हो सकता है कि प्रभु की कृपा न होती हो? क्या तुम सोचते हो, प्रभु कुछ अड़चन डाल रहा है कि दूसरों पर कृपा बरसा रहा है, तुम पर नहीं कर रहा है? अगर कोई कृपा जैसी चीज है तो वह सभी पर बरस रही है। लेकिन तुम जब लेना चाहोगे तभी ले सकोगे।

इसलिए महावीर कहते हैं, यह बात ही छोड़ दो आशीर्वाद की। इशारा मैं कर देता हूं, चलना तुम्हें है। और वे कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं बांधते। उनका जो सबसे बड़ा शिष्य था, गौतम, वह महावीर के जीते-जी समाधि का अनुभव न कर सका, “केवल ज्ञान’ उसे उपलब्ध न हो सका। जिस दिन महावीर की मृत्यु हुई, उस दिन वह गांव के बाहर उपदेश देने गया था, दूसरे गांव। जब वह लौटता था, रास्ते में उसे खबर मिली की महावीर ने शरीर छोड़ दिया, उनका महापरिनिर्वाण हो गया। तो वह रोने लगा। उसने राहगीरों से पूछा कि यह तो हद्द हो गई, जिनके साथ मैं जीवनभर रहा, आखिरी क्षण में किस दुर्भाग्य के कारण मैं दूसरे गांव चला गया! आखिरी क्षण तो उन्हें देख लेता! और अब मेरा क्या होगा? उनके रहते-रहते मैं मुक्त न हो सका, अब मेरा क्या होगा? अब तो गहन अंधकार है और दीया भी बुझ गया। क्या उन्होंने कुछ मेरे लिए संदेश छोड़ा है? तो राहगीरों ने कहा, हां। आखिरी समय में उन्होंने आंख खोली; उन्होंने कहा, गौतम यहां नहीं है; लौटे तो उसे इतनी बात कह देना कि तू पूरी नदी तो पार कर गया, अब किनारे को पकड़कर क्यों रुक गया है?

कहते हैं, उसी क्षण गौतम ज्ञान को उपलब्ध हुआ। क्या कहा महावीर ने उसके लिए? क्या संदेश छोड़ा कि तू पूरी नदी तो पार कर गया–संसार छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, पत्नी छोड़ दी, घर-द्वार छोड़ दिया, सब छोड़ दिया, सब तरफ से राग हटा लिया–अब तूने राग मुझ पर जमा लिया! किनारे को पकड़ लिया। अब तू कहता है, गुरु…। यह भी छोड़ दे, नहीं तो नदी तो पार कर आया, अब किनारे को पकड़कर अटका है, तो बाहर कैसे निकलेगा? अब यह भी छोड़। जब सब छोड़ा है तो सभी छोड़। अब इतना भी अपवाद मत रख।

उसी क्षण गौतम को बोध आया कि अरे, मैं महावीर को पकड़ने के कारण ही रुक गया हूं! यह मोह छूटता नहीं, इसलिए रुक गया हूं।

तो जैन भाषा अमोह की भाषा है। वहां आशीर्वाद नहीं है।

डूब जाये कि सलामत रहे किश्ती मेरी

न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ।

–चाहे डूब जाये, चाहे बचे नाव; लेकिन महावीर कहते हैं, किसी और की तरफ हाथ बढ़ाना मत। न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ। किसी सदगुरु की तरफ हाथ मत बढ़ाना। आशीर्वाद मत मांगना। डूब जाए तो भी ठीक है, पार हो जाये तो भी ठीक है, लेकिन भीख मत मांगना।

महावीर का पथ सम्राटों का पथ है, भिखारियों का नहीं।

मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं

तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से।

–स्वभाव मेरा तूफान का है।

मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं।

–और मैं प्रकृति की मुक्त निगाह, मुक्त दृष्टि हूं। तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से–साहिल की तो बात ही नहीं करता, किनारे की तो बात ही नहीं करता। बात तो दूर, अपनी कल्पना को भी मैं किनारे की बात से भ्रष्ट नहीं करता।

सहारे की बात ही गलत है। बे-सहारा! जब तक तुम इतने बे-सहारा न हो जाओ कि तुम्हें लगे अब अपने ही पैरों पर खड़ा होना होगा, और कोई पैर नहीं हैं; अब अपनी ही बुद्धि को जगाना होगा, और कोई सहारा नहीं है; और अपने ही प्राणों का उत्कर्ष करना होगा, कोई और आशीर्वाद, कोई और सांत्वना नहीं है…। तुमने कभी सोचा?

आस्कर वाइल्ड ने लिखा है कि जब नाव डूब जाती है किसी की और आदमी सागर में तड़फड़ाता है तो जैसी उसकी दशा होती है, जब तक तुम्हारी न हो जाये तब तक तुम कुछ करोगे न। नाव डूब गई। सागर की उत्तंग तरंगें, किनारे का कोई पता नहीं–तब क्या दशा होती है? तब तुम सोचते हो कि आयेगा किसी का आशीर्वाद या उसको बचाना होगा बचायेगा? नहीं, तब तुम प्राणपण से, अपनी समग्र ऊर्जा से बचने की चेष्टा में लग जाते हो; तुम सागर से लड़ने लगते हो। उस समय न तो विचार रह जाते हैं। कहां विचार की जगह है? सुविधा कहां है? फुर्सत किसे है उस समय विचार करने की? जीवन संकट में है। न विचार रह जाते हैं। कितनी बार ध्यान किया था और न लगा था; उस दिन लग जाता है। अब कोई विचार नहीं रह जाते। न कोई कामना उठती, न कोई वासना उठती, न धन, न स्त्री, न संसार, कुछ भी नहीं, सब खो जाता है। सिर्फ एक स्वयं को बचाने की–वह भी भाव की दशा होती है, विचार नहीं होता। और तुम जूझने लगते हो सागर से।

महावीर कहते हैं, ऐसी ही तुम्हारी स्थिति होनी चाहिए। ऐसी ही स्थिति है, लेकिन तुमने कल्पना की नावें बना रखी हैं और तुमने कल्पना के सहारे ले रखे हैं। उन सहारों के कारण तुम चेष्टा नहीं कर पाते जितनी कि कर सकते थे। इसलिए वे कहते हैं, हटा लो सारी सांत्वनाएं।

महावीर ने अपने साथ चलनेवालों के सब आश्रय छीन लिये। उनको बे-आसरा कर दिया, ताकि उनके भीतर जो सोए हुए प्राणों की ऊर्जा है वह इस चुनौती में उठ जाये, ज्योतिर्मय हो उठे।

मुकाबिल में तेरे लाखों खुदा इसने बनाए हैं

उन्हें पूजा है, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं।

आदमी ने असली परमात्मा की जगह न मालूम कितने परमात्मा बनाए हैं। उन्हें पूजा, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं। महावीर कहते हैं, असली परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। न तो बंदगी से कुछ होगा, न गीतों से कुछ होगा, न पूजा-अर्चा के थालों से कुछ होगा। तुम जीवन के तथ्य को समझो। इस सत्य को समझो कि भवसागर में पड़े हो और डूब रहे हो। स्थिति को ठीक से समझ लोगे तो तुम स्वयं को बचाने में लग जाओगे। और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई और बचा नहीं सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण-भावना से बचना, अशरण-भावना में ध्यान करना। किसी की शरण जाने की बात मत सोचना। समर्पण नहीं, संकल्प।

तीसरा प्रश्न:

आपने कहा कि लोक-व्यवहार में आकर प्रज्ञापुरुषों के शब्द अपना अर्थ खो बैठते हैं। और आपने बताया कि महावीर ने “अहिंसा’, जीसस ने “प्रेम’ और सूफियों ने “इश्क’ शब्द अपनाए। भगवान! वर्तमान शताब्दि में आप कौन-सा शब्द हमें देना पसंद करेंगे?

मैं तो प्रेम के प्रेम में हूं। उस शब्द से बहुमूल्य मुझे कोई और दूसरा शब्द मालूम नहीं होता। लाख विकृतियां हो गई हों, फिर भी उस शब्द में जादू है। अहिंसा मरा-मरा शब्द लगता है। उससे औषधि की बास आती है। अहिंसा–अस्पताल में जैसी बास आती है, वैसी बास आती है। कुछ नहीं करना है, कुछ रोकना है, कुछ निषेध–प्रेम जैसे फूल नहीं खिलते। प्रेम शब्द हृदय में कुछ और ही गूंज लाता है, कोई कमल खिल जाते हैं, कोई द्वार खुलते हैं। अहिंसा से ऐसा पता चलता है, कुछ मजबूरी, कुछ कर्तव्य–विधायकता नहीं है, पाजिटीविटी नहीं है। “नहीं’ में होती भी नहीं।

प्रेम में “हां’ है, स्वीकार है। प्रेम में एक अहोभाव है, गीत है, नृत्य है। तो लाखों विकृतियां हो गई हों प्रेम में, तो भी मैं प्रेम को चुनता हूं। क्योंकि प्रेम जिंदा है और उन विकृतियों को अलग करने की क्षमता है उसमें। अहिंसा शब्द में कोई प्राण नहीं हैं। तो भला उसमें महावीर ने जब प्रयोग किया तो कोई विकृतियां न रही हों, अब तो हजारों विकृतियां हो गई हैं। और तकलीफ यह है कि अहिंसा मुर्दा शब्द है। इसलिए उन विकृतियों को छिटकाकर फेंक नहीं सकता। प्रेम फेंक सकता है। प्रेम जीवंत है।

ऐसा ही समझो कि एक आदमी मरा हुआ पड़ा है, साफ-सुथरे वस्त्रों में पड़ा है; बिलकुल धुले-धुलाए वस्त्र हैं, शुभ्र वस्त्र हैं; धूल का कण भी नहीं है। और एक जिंदा आदमी बैठा है; पसीने से तरबतर है; धूल भी चिपक गई है; दिनभर मेहनत की है; स्नान की जरूरत है। और तुम अगर मुझसे पूछो कि किसको चुनोगे, तो मैं कहूंगा, मैं जिंदा को चुनता हूं। पसीना है, नहाने से छूट जायेगा। धूल जम गई है वस्त्रों पर, साबुन उपलब्ध है। मगर आदमी जिंदा है! यह मुर्दा आदमी, माना कि न इसमें पसीना निकलता है, न इस पर धूल जमी है, यह कांच के ताबूत में रखा रह सकता है, ऐसा ही साफ-सुथरा बना रहेगा–पर इसका करोगे क्या? इससे होगा क्या?

अहिंसा मुर्दा शब्द है। प्रेम जीवंत है। निश्चित ही प्रेम के साथ पसीना भी है। पसीने में कभी-कभी बदबू भी आती है। पसीने पर धूल भी जम जाती है। आदमी गंदा भी हो जाता है, लेकिन यह सब जिंदगी के लक्षण हैं। जहां गंदगी हो सकती है, वहां स्वच्छता लायी जा सकती है। ध्यान रखना, जहां गंदगी हो ही नहीं सकती, वहां स्वच्छता कैसे लाओगे? वहां तो मौत आ चुकी। तुम उस बच्चे को पसंद करोगे जो मुर्दे की तरह एक कोने में बैठा रहता है! मां-बाप पसंद करते हैं अकसर, क्योंकि उनके लिए कम उपद्रव का कारण होता है। गोबर-गणेश! बैठे हैं। कभी-कभी पूजा करनी हो तो गणपति जी की पूजा कर लो, बाकी वे बैठे रहते हैं। मां-बाप को ठीक लगते हैं, लेकिन बाद में पछताएंगे। वे ऐसे ही बैठे रहेंगे। फिर एक उपद्रवी, नटखटी बच्चा है, दौड़ता है, हाथ-पैर भी तोड़ लाता है, खून भी निकल आता है, कपड़े भी गंदे कर आता है, कीचड़ में सना हुआ घर आ जाता है। मैं तो इसी को चुनूंगा। यह जिंदा तो है! इससे कुछ होने की संभावना है।

अहिंसा में कुछ न हो, इसकी चेष्टा है। प्रेम में कुछ हो, इसकी चेष्टा है। मैं जीवन के पक्ष में हूं, मौत चाहे कितनी ही साफ-सुथरी हो। और मौत बड़ी साफ-सुथरी चीज है। झंझटें तो जीवन में हैं, मौत में क्या झंझट है? वह तो सब झंझटों का अंत है। तो भी मैं मौत को न चुनूंगा, मैं जीवन को ही चुनूंगा।

दयारे-रंगो-निकहत में गुजर क्या होशमंदों का

यह पैगामे-बाहर आया तो दीवानों के नाम आया।

–वे जो बहुत होशियार हैं, गणित से जीते हैं, समझदारी-समझदारी ही जिनके जीवन में है और दीवानगी बिलकुल नहीं, जिन्होंने पागल होने की सारी क्षमता को नष्ट कर दिया है–उनके जीवन में कभी वसंत का पैगाम नहीं आता।

दयारे-रंगो-निकहत में गुजर क्या होशमंदों का!

–इस रंग-रूप, फूलों से भरी दुनिया में समझदारों की कहां जरूरत है?

यह पैगामे-बहार आया तो दीवानों के नाम आया।

और जब भी वसंत की लहर आती है, संदेश आता है जीवन का, तो दीवानों के नाम आता है।

अहिंसा तुम्हें होशियारी दे देगी, लेकिन दीवानगी कहां से लाओगे? अहिंसा तुम्हें गलत करने से बचा लेगी; लेकिन सही करने का रंग-रूप कहां से लाओगे? अहिंसा तुम्हें गाली देने से रोक लेगी; लेकिन गीत कहां से जन्माओगे?

गाली देने से रुक जाना काफी है? तो जो आदमी गाली नहीं देता, बस पर्याप्त है?

यही तो जैन मुनियों की दशा हो गई है। वे गाली नहीं देते; गीत उनसे पैदा नहीं होता। बैठे हैं, गोबर-गणेश, उनकी पूजा कर लो! जैनी जाते हैं सेवा को। उनसे बुराई तो उन्होंने काट डाली, लेकिन कहीं कुछ भूल हो गई, कहीं कुछ बड़ी बुनियादी चूक हो गई। और वह चूक यह है कि उन्होंने गलत को छोड़ने की आकांक्षा की, गलत से बचने की चेष्टा की; लेकिन सही को जन्माने के लिए उन्होंने कोई प्रयास न किया। उनका खयाल है कि गलत हट जाए तो सही अपने से आ जायेगा। मेरा खयाल है कि सही आ जाये तो गलत अपने से हट जायेगा। और मैं तुमसे कहता हूं कि उनका खयाल गलत है। उनका खयाल ऐसे ही है जैसे कोई आदमी, अंधेरा भरा हो कमरे में, अंधेरे को धक्का दे देकर निकालने लगे। नहीं, अंधेरे को कोई धक्के देकर नहीं निकाल सकता–थकेगा, मरेगा, जिंदगी खराब हो जायेगी। दीया जलाओ! कुछ विधायक को जलाओ! अंधेरा अपने से चला जाता है।

तो मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोध छोड़ो। मैं कहता हूं, करुणा जन्माओ। मैं तुमसे नहीं कहता, संसार छोड़ो। मैं कहता हूं, आत्मा को जगाओ। मैं तुमसे नहीं कहता, धन-दौलत छोड़ो। मैं कहता हूं, भीतर एक धन-दौलत है, उस खोजो। मेरा रुख विधायक है। और यह मेरा जानना है कि जिस दिन तुम्हें भीतर की धन-दौलत मिल जायेगी, तुम बाहर की धन-दौलत को पकड़ोगे? न पकड़ोगे न छोड़ोगे, क्योंकि वह धन-दौलत ही न रही। छोड़ने लायक भी न रही, पकड़ने की तो बात दूर है। रखा ही क्या है वहां? जहां भीतर के हीरे दिखाई पड़ने लगें, वहां सब बाहर का कंकड़-पत्थर हो जाता है। जब भीतर के सौंदर्य में जीने लगे तो बाहर सौंदर्य दिखता ही नहीं। लेकिन अगर तुम बाहर के सौंदर्य को छोड़कर भागे और यही तुम्हारी जीवन की शैली हो गई, निषेध, इनकार, नेति-नेति, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। फांसी लगा लोगे अपने हाथ से गले में। और जिसको तुम छोड़कर भागे हो, उसकी बुरी तरह याद आएगी। आयेगी ही।

इसलिए जो छोड़कर भागते हैं–स्त्रियों के संबंध में चिंतन चलता रहता है, धन के संबंध में चिंतन चलता रहता है। छिड़कते हैं, झिटकते हैं उस चिंतन को, हटाते हैं। जब-जब स्त्री की याद आ जाती है, जोर-जोर से राम-राम-राम-राम जपने लगते हैं कि किसी तरह…। मगर तुम्हारे जपने से क्या होता है? राम-राम-राम ऊपर रह जाता है, काम-काम-काम-काम भीतर चलता जाता है। तुम्हारे हर दो राम के बीच में से काम की खबर आने लगती है।

भागो मत! घबड़ाओ मत। डरो मत! परमात्मा जीवन का निषेध नहीं है, जीवन का परिपूर्ण अनुभव है। और धर्म पलायन नहीं है, जीवन का परिपूर्ण भोग है।

महावीर ने प्रेम के लिए अहिंसा शब्द चुना; वहां भूल हो गई। पर भूल हो जाने के लिए कारण थे। क्योंकि प्रेम शब्द…उपनिषद और वेद प्रेम की चर्चा कर रहे थे। और प्रेम का सब तरफ जाल था। और प्रेम के नाम पर सब तरफ भ्रष्टाचार था। तो महावीर को लगा, अब प्रेम का शब्द उपयोग करना खतरे से खाली नहीं है। उन्होंने इसी आशा में अहिंसा का उपयोग किया कि वे समझा लेंगे तुम्हें कि अहिंसा का अर्थ प्रेम ही है। लेकिन वे न समझा पाए। कसूर उनका नहीं है। कसूर उनका है जिन्होंने सुना। उन्होंने तत्क्षण अहिंसा में से प्रेम तो न निकाला, नकारात्मकता निकाल ली। तो महावीर का धर्म धीरे-धीरे ऐसा धर्म हो गया कि इसमें क्या-क्या नहीं करना है, वही महत्वपूर्ण हो गया।

ज़ाहिद हद्देऱ्होशो-खिरद में रहा “असीर’

नादां ने जिंदगी ही को जिंदां बना दिया।

वह जो बुद्धि-बुद्धि से जी रहा है…

ज़ाहिद हद्देऱ्होशो-खिरद में रहा “असीर’

–जो सदा ही बुद्धि की सीमा में ही घिरा रहा, छोड़ने-त्यागने की सीमा में ही घिरा रहा…

नादां ने जिंदगी ही को जिंदां बना दिया।

–उस ना-समझ ने अपने जीवन को ही एक कारागृह बना लिया। छोड़ो-छोड़ो, सिकुड़ते जाओ–धीरे-धीरे तुम पाओगे, फांसी लग गई अपने ही हाथों। लेकिन, तुम समझ न पाओगे, क्योंकि जितनी तुम्हारी फांसी लगेगी उतने ही लोग तुम्हारे पैरों में फूल चढ़ायेंगे। वे कहेंगे, कैसे महात्यागी! तो तुम्हें फांसी में भी रस आने लगेगा। क्योंकि फांसी जितनी तुम कसते जाओगे, उतना ही तुम्हें सम्मान मिलेगा। जितने ज्यादा उपवास करोगे, जितना अपने को तोड़ते जाओगे, उतना सम्मान मिलेगा। जितना अपने को मिटाओगे, अपना घात करोगे, उतना सम्मान मिलेगा। तो उस मुनि को ज्यादा सम्मान मिलता है जो ज्यादा त्याग करता है। उसको वे लोग कहते हैं, महामुनि। लोग सिर रखते हैं उसके चरणों में। तो अहंकार मजा लेता है!

तो जिन्होंने भी निषेध की यात्रा की, उन्होंने सिर्फ अहंकार को भर लिया। उनके जीवन में आत्मा खुली नहीं, खिली नहीं।

तो मैं तो प्रेम को ही चुनता हूं। मैं प्रेम के प्रेम में हूं। मैं तो तुमसे कहूंगा, लाख खराबियां हो इस शब्द में–महावीर से कुछ सीख लो। महावीर ने इस शब्द की खराबियों को देखकर अहिंसा चुना, लेकिन जो परिणाम हुए वे और भी बदतर हुए। बीमारी तो बीमारी, औषधि भी बीमारी बन गई।

मैं तो तुमसे कहूंगा, प्रेम चुनो। और प्रेम इतना सबल है कि वह अपनी भूलों को पार करने की क्षमता रखता है। वह जिंदा है, तो गंदा भी हो जाये तो स्नान कर सकता है। अहिंसा लाश है, गंदी न होगी, लेकिन उसकी स्वच्छता का भी क्या मूल्य है? उसकी स्वच्छता में जीवन की सुवास नहीं है। उसकी स्वच्छता क्लिनिकल है।

मुझे तो प्रेम शब्द में रस है। क्योंकि मेरे देखे, यह सारा जगत प्रेम से आंदोलित है। यहां श्वास-श्वास प्रेम से चल रही है। यहां फूल-फूल प्रेम से खिल रहे हैं। और अभी तो वैज्ञानिक भी सोचने लगे हैं कि जब प्रेम से सारा जगत बंधा हुआ है–स्त्री पुरुषों से बंधी, पुरुष स्त्रियों से बंधे, मां-बाप बेटों-बच्चों से बंधे, बेटे-बच्चे मां-बाप से बंधे, मित्र मित्रों से बंधे–जहां सब कुछ बंधा है प्रेम से, वहां हमें यह मानकर चलना पड़ेगा कि हम एक प्रेम के सागर में जी रहे हैं।

जब अणु की पहली दफा खोज हुई और अणु का विस्फोट किया गया, तो रदरफोर्ड ने, जिसने पहली दफा अणु के संबंध में गहरी खोज की, उसको एक सवाल उठा कि अणु के जो परमाणु हैं–इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान–ये आपस में कैसे बंधे हैं? इनको कौन-सी शक्ति बांधे हुए है? ये बिखर क्यों नहीं जाते?

तुमने कभी खयाल किया–एक पत्थर पड़ा है, सदियों से पड़ा है, बिखरता क्यों नहीं? तुम इसे तोड़ दो हथौड़े से, बिखर गया, फिर तुम इसे जोड़ो, फिर रख दो टुकडों को पास-पास, मगर अब न जुड़ेगा। बात क्या हो गई? इतने दिन तक कौन-सी चीज इसे जोड़े थी? अगर वह चीज इतने दिन तक जोड़े थी, फिर तुमने टुकड़े पास रख दिये, अब क्यों नहीं जोड़ती? कोई चीज तोड़ दी तुमने। पत्थर नहीं तोड़ा तुमने; कोई और चीज जो सूक्ष्म थी, तोड़ दी। पत्थर तो अब भी वही का वही है, उसका वजन भी वही है, टुकड़े भी उतने के उतने हैं–लेकिन पहले जुड़े थे, अब टूट गए। अब तुम लाख उनको पास-पास बिठाओ, उनको लाख समझाओ कि अब फिर से जुड़ जाओ, पूजा-प्रार्थना करो, यज्ञ-हवन करो, वह सुनेगा नहीं। कोई चीज तुमने तोड़ दी, कोई बहुत सूक्ष्म चीज तोड़ दी।

रदरफोर्ड सोचने लगा, कौन-सी चीज जोड़े हुए है! बहुत-से सिद्धांत प्रतिपादित किये गये हैं। उनमें एक सिद्धांत प्रेम का भी है, यह आश्चर्य की बात है। वैज्ञानिक और प्रेम की बात करें! लेकिन आश्चर्यचकित होने की जरूरत नहीं है। अगर जीवन सब तरफ प्रेम से जुड़ा है, अगर वृक्ष फलों से प्रेम के कारण जुड़े हैं, अगर वृक्ष फूलों से प्रेम के कारण जुड़े हैं, अगर आदमी आदमी से प्रेम के कारण जुड़ा है तो फिर निश्चित ही जीवन की इकाइयां भी, ईंटें भी प्रेम से ही जुड़ी होंगी। चाहे तुम उसे मैग्नेटिज्म कहो, चाहे तुम उसे इलेक्ट्रिसिटी कहो–यह नाम का भेद है। लेकिन कोई चुंबकीय शक्ति सारे जीवन को जोड़े हुए है। उस चुंबकीय शक्ति को भक्तों ने भगवान कहा है, प्रेम कहा है, परमात्मा कहा है। महावीर उसे सत्य कहते हैं।

लेकिन फिर महावीर का “सत्य’ शब्द बड़ा तटस्थ है। उससे रसधार नहीं बहती। सत्य बड़ा रूखा-सूखा है, मरुस्थल जैसा है। प्रेम मरूद्यान है; बड़ी रसधार बहती है। उपनिषद कहते हैं, रसो वै सः। वह जो परमात्मा है, रस उसका स्वभाव है।

रस को मैं भी जीवन का सत्य मानता हूं। और तुम्हारे जीवन में रस तभी होता है जब प्रेम होता है। जहां-जहां प्रेम, वहां-वहां रस। जहां-जहां प्रेम खोया, वहां-वहां रस सूखा। रस में डूबो। तन डूबे, मन डूबे, सब डूबे। रस में डूबो! और तब तुम्हारी दृष्टि में एक अलग ही दृश्य दिखाई पड़ना शुरू हो जायेगा।

“जमील’ अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर

यह फख्र कम है कि सैय्याद ने पसंद किया!

“जमील’ अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर! जमील ने कहा है, क्यों न हम अभिमान करें इस बात का कि परमात्मा ने हमें कैद करने योग्य समझा, बांधने योग्य समझा! यह फख्र कम है कि सैय्याद ने पसंद किया!–कि उसने हमें पसंद किया, कि भेजा, कि बनाया!

भक्त तो अपने दुख में से भी सुख का गीत सुन लेता है। अपनी जंजीरों में भी रस पा लेता है। कहता है, परमात्मा ने ही बांधा है। छूटने की जल्दी भक्त को नहीं है। भक्त कहता है, तेरे बंधन हैं–राजी हैं! और ऐसे भक्त छूट जाता है। क्योंकि जिस बंधन को तुमने सौभाग्य समझ लिया, वह बंधन बांधेगा कैसे? बंधन तभी तक बांधता है जब तक तुम छूटना चाहते हो। तुम्हारे छूटने की वृत्ति के विपरीत होने के कारण बंधन मालूम होता है। जब तुम स्वीकार कर लिये, राजी हो गए, तुमने कहा कि ठीक…।

“जमील’ अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर

यह फख्र कम है कि सैय्याद ने पसंद किया!

यह कोई कम गौरव की बात है कि परमात्मा ने चुना! जो बनाया, जैसा बनाया…। वह हर जगह उसके प्रेम को खोज लेता है।

और तुम्हारा जीवन अगर हर जगह प्रेम को खोजने लगे–ऐसी जगह भी जहां खोजना बड़ा मुश्किल है–जिस दिन तुम सब जगह प्रेम के दर्शन करने लगो, उस दिन परमात्मा के दर्शन हो गए।

जीसस ने कहा है, परमात्मा प्रेम है। और मैं कहता हूं, प्रेम परमात्मा है।

पर ये रास्ते अलग-अलग हैं। महावीर का रास्ता भक्त का रास्ता नहीं है–होश का। भक्त का रास्ता है बेहोशी का। भक्त का रास्ता मधुशाला का है। वह कहता है, यह होश ही हमारी पीड़ा है।

तुझ पे कुर्बां मेरे दिल की हर एक बेखबरी

आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ।

हे प्रभु! भक्त कहता है, तुझ पे कुर्बां मेरे दिल की हर एक बेखबरी–और तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, बेहोशी है। यह मेरे दिल का पागलपन है, दीवानगी है। यह तुझ पर कुर्बान करता हूं। यह तुझ पर न्योछावर करता हूं। और तो मेरे पास कुछ भी नहीं है।

तुझ पे कुर्बां मेरे दिल की हर एक बेखबरी

आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ।

और मैं तुझे याद भी कर सकूं, यह भी मेरी सामर्थ्य नहीं। तू मेरे विस्मरण के द्वार से ही आ!

आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ। मेरी इस बेहोशी के रास्ते से ही तू आ!

भक्त का ढंग और। भक्त भी पहुंच जाते हैं। साधक भी पहुंच जाते हैं। महावीर का मार्ग साधक का है। नारद का मार्ग भक्त का है। लेकिन अगर तुम मुझसे पूछते हो, तो मेरे देखे भक्त के मार्ग से अधिक लोग पहुंच सकते हैं। हां, जिनको भक्ति असंभव ही मालूम पड़ती हो, उनको साधक का मार्ग है। वह मजबूरी है। तुम्हारा प्रेम अगर इतना मर गया है और जड़ हो गया है कि उसमें से तुम परमात्मा को प्रगट नहीं कर सकते, तो फिर छोड़ो। फिर तुम साधक के मार्ग से चलो।

लेकिन साधक का मार्ग दोयम है, नंबर दो है। वह उनके लिए है जिनके भीतर की आत्मा कुछ मुर्दा हो गई है और जिनके भीतर प्रेम के स्रोत सूख गए हैं, जिनके भीतर गीत-गान नहीं उठता, जिनके भीतर नृत्य-नाच नहीं उठता, जिनकी बांसुरी खो गई है–उनके लिए है। अगर तुम्हारी बांसुरी अभी भी तुम्हारे पास हो और तुम गुनगुना सको गीत, तो सौभाग्यशाली हो। अगर यह न हो; अगर कहीं सब खो चुके बांसुरी दूर जीवन की यात्रा में; कहीं प्रेम को कुठाराघात हो गया; कहीं सब जड़ हो गया तुम्हारा हृदय, अब उसमें कोई पुलक नहीं उठती–तो फिर साधक का मार्ग है। साधक का मार्ग उन थोड़े-से लोगों के लिए है, जिनके भीतर प्रेम की सब संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। लेकिन अगर प्रेम की जरा-सी भी संभावना हो और अंकुरण हो सकता हो, तो फिक्र छोड़ो। जब गीत गाकर और नाचकर उसके घर की तरफ जा सकते हैं, तो फिर लंबे चेहरे, उदास चेहरे लेकर जाने की कोई जरूरत नहीं। जब स्वस्थ, प्रफुल्लित उसकी तरफ जा सकते हैं, तो नाहक की उदासी, नाहक का वैराग्य थोपने की कोई जरूरत नहीं।

महावीर के मार्ग से लोग पहुंचे हैं, तुम भी पहुंच सकते हो। लेकिन महावीर का मार्ग बहुत संकीर्ण है; बहुत थोड़े-से लोग पहुंचते हैं; बहुत थोड़े-से लोग जा सकते हैं।

भक्ति का मार्ग बड़ा विस्तीर्ण है। उस पर जितने लोग जाना चाहें, जा सकते हैं। लेकिन कुछ लोगों को कठिनाई में रस होता है। कुछ लोगों को जो चीज सुलभता से मिलती हो, वह जंचती नहीं। कुछ लोगों को जितने ज्यादा उपद्रव और मुसीबतों में से गुजरना पड़े उतना ही उन्हें लगता है, कुछ कर रहे हैं। उनके लिए महावीर का मार्ग बिलकुल ठीक है।

आखिरी प्रश्न:

आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप नाराज हो जाते हैं। पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके पास दिल खोलूं कि नहीं खोलूं। और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती? कोशिश तो हर हाल करती हूं कि आपकी बात समझ में आए। भक्त को अहंकार का कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है। कृपया एक बार फिर समझाएं!

तरु का प्रश्न है।

“आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप नाराज हो जाते हैं।’ बहुत बार ऐसा लगेगा कि मैं नाराज हुआ हूं, पर मेरी नाराजगी में केवल इतनी ही अभिलाषा है कि शायद नाराज होकर कहूं तो तुम सुन लो; शायद नाराज होकर कहूं तो तुम्हारा सपना टूटे; शायद चोट देकर कहूं तो तुम थोड़े तिलमिलाओ और जागो।

झेन फकीर तो डंडा हाथ में रखते हैं तरु! और उन्होंने देखा कि जरा उनका कोई शिष्य झपकी खा रहा है कि उन्होंने सिर फोड़ा। लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि झेन सदगुरु का डंडा पड़ा है और उसी क्षण साधक समाधि को उपलब्ध हो गया है।

तुम्हारी नींद गहरी है; चोट करनी जरूरी है। तुम्हें धक्के देने जरूरी हैं। तुम्हें लोरी ही गाकर सुनाता रहूं तो तुम और भी सो जाओगे। हालांकि लोरी तुम्हें अच्छी लगती है। मगर तुम्हारे अच्छे लगने को देखूं? तो तुम्हें तो नींद ही अच्छी लगती है। तुम्हें जगाना होगा! तुम्हें झकझोरना होगा!

और धीरे-धीरे तुमने अपने रोगों को भी अपने जीवन का हिस्सा मान लिया है। तुम धीरे-धीरे अपने रोगों के भी प्रेम में पड़ गए हो।

एक छोटा बच्चा अपने नाना-नानी के घर आया था। रात जब नानी उसकी सुला गई उसे कमरे में और बिजली की बत्ती बुझाई, तो वह बैठ गया और रोने लगा। उसने पूछा कि क्या हुआ तुझे। नानी ने पूछा, क्या हुआ तुझे? उसने कहा कि मुझे अंधेरे का बहुत डर लगता है। पर उसने कहा, “अरे पागल! और तू अपने घर भी तो अंधेरे में ही सोता है और अलग ही कमरे में सोता है, तो फिर क्या डर है?’ तो उसने कहा, नानी, वह बात अलग है। वह मेरा अंधेरा है।

अपने-अपने अंधेरे से भी लगाव हो जाता है। मेरा अंधेरा, मेरी बीमारी, मेरा रोग, मेरी चिंता, मेरा संताप– “मेरा’ उससे भी जुड़ जाता है। तभी तो हम अपने दुख को भी पकड़े बैठे रहते हैं। दुख छोड़ने में भी डर लगता है, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि दुख भी छूट जाये और हाथ खाली हो जायें, और कुछ मिले न; कम से कम कुछ तो है, दुख ही सही, दर्द ही सही! होने का पता तो चलता है कि है।

तो कई बार तुमसे मुझे नाराज भी होना पड़ता है–सिर्फ इसीलिए कि तुम्हें प्रेम करता हूं, अन्यथा कोई कारण नहीं है।

“और पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके पास दिल खोलूं कि नहीं खोलूं!’

क्या तुम्हारे खोलने न खोलने से कुछ फर्क पड़ेगा? खुला ही हुआ है। जिस दिन अपने को जाना, उसी दिन से सभी का दिल खुल गया है। अपना दिल खुले तो सब का दिल खुल जाता है। अब मुझसे छिपाने का उपाय नहीं है। न बताओ, कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य मात्र की पीड़ा एक है। विस्तार के फर्क होंगे, थोड़े बहुत रंग-ढंग के फर्क होंगे; लेकिन मनुष्य मात्र की पीड़ा एक है–कि जिससे हम जन्मे हैं उससे हम बिछुड़ गए हैं; कि जो हमारा मूल स्रोत है उससे हम खो गये हैं। और इसलिए सब खोजते हैं, लेकिन तृप्ति नहीं होती। बहुत दौड़ते हैं, लेकिन पहुंचते नहीं; क्योंकि अपने घर का पता ही भूल गया है। विस्तार की बातें अलग हैं। वे हर एक व्यक्ति की अलग हैं। उसमें जाने से कोई सार भी नहीं है।

तुम अपना दिल खोलो या न खोलो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी आधारभूत पीड़ा का मुझे पता है।

वह पीड़ा यही है कि कैसे प्रभु से मिलन हो जाये! प्रभु नाम दो या न दो। कैसे उससे मिलन हो जाये, जिसे पाकर फिर कुछ और पाने को न बचे!

“और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूं?’

करती बहुत हो, लेकिन करने से वह मिलता नहीं। कर-करके हारने से मिलता है। जब तक करना जारी रहता है, तब तक तो थोड़ी न थोड़ी अस्मिता बनी ही रहती है। “मैं कर रहा हूं’, तो मैं बचा रहता हूं। कृत्य से तो अहंकार कभी मरता नहीं। हां, कृत्य से अहंकार सुंदर हो जाता है, सुरुचिकर हो जाता है। कृत्य से अहंकार में सजावट आ जाती है, शृंगार आ जाता है; मिटता नहीं। मिटता तो तभी है, जब तुम्हें पता चलता है, मेरे किए कुछ भी न होगा। आत्यंतिक रूप से ऐसा पता चलता है कि मेरे किए कुछ भी न होगा। अंतिम रूप से यह निर्णय आ जाता है कि मेरे किए कुछ भी न होगा। वहीं “मैं’ गिरता है, जहां उसके किए कुछ भी नहीं होता।

तो तुम करते तो बहुत हो; लेकिन मैं तुमसे कहे चला जाता हूं, कुछ भी नहीं, यह भी कुछ नहीं, और करो, और करो। और जो जितना ज्यादा कर रहा है उससे मैं और ज्यादा कहता हूं, यह कुछ भी नहीं, और करो। क्योंकि जो जितना ज्यादा कर रहा है, उससे उतनी ही आशा बंधती है कि करीब पहुंच रहा है उस सीमा के, जहां सब करना व्यर्थ हो जाएगा। तो और दौड़ाता हूं। जो पिछड़ गए हैं, उनको न भी कहूं, क्योंकि उनके दौड़ने से भी कुछ बहुत होनेवाला नहीं है। लेकिन जो दौड़ में बहुत आगे हैं और बड़ी शक्ति से दौड़ रहे हैं उनको तो जरा भी शिथिलता खतरनाक होगी और महंगी पड़ जायेगी।

ऐसा उल्लेख है, रवींद्रनाथ के चाचा थे अवनींद्रनाथ। बड़े चित्रकार थे। भारत में ऐसे चित्रकार इस सदी में एक-दो ही हुए। दूसरा जो बड़ा चित्रकार भारत में पैदा हुआ, नंदलाल, वह उनका शिष्य था। रवींद्रनाथ एक दिन बैठे थे अवनींद्रनाथ के साथ। और नंदलाल, जब वह युवक था और विद्यार्थी था, कृष्ण का एक चित्र बनाकर लाया। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि ऐसा सुंदर चित्र मैंने पहले कभी देखा न था; कृष्ण की ऐसी छवि कोई बना न पाया था। और मैं तो भावविभोर हो गया, विमुग्ध हो गया, नाच उठने का मन हो गया; लेकिन मैं चुप रहा। क्योंकि अवनींद्रनाथ मौजूद थे, और वे चित्र को बड़े गौर से देख रहे थे। बड़ी देर सन्नाटा रहा।

रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैं घबड़ा गया कि बात क्या है, वे कुछ कहें! तोड़ें इस खामोशी को, कुछ तो कहें। नंदलाल भी थरथर कांप रहा था। और आखिर उन्होंने आंखें ऊपर उठाईं और उस चित्र को उठाकर बाहर फेंक दिया अपनी बैठक से। और नंदलाल से कहा, “इसको तुम बड़ी कला मानते हो? यह तो बंगाल में जो पटिये हैं, जो कृष्ण का चित्र बनाते हैं, दो-दो पैसे में बेचते हैं, उनके लायक भी नहीं है। तुम जाओ पटियों से सीखो कि कृष्ण कैसे बनाये जाते हैं!’

नंदलाल सिर झुकाकर, चरण छूकर लौट गया। रवींद्रनाथ को तो बड़ा आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया। लेकिन गुरु-शिष्य के बीच क्या बोलना, तो वे चुप रहे। जब नंदलाल चला गया तब उन्होंने कहा कि यह मेरी समझ के बाहर है। आपके भी चित्र मैंने देखे, लेकिन मैं कह सकता हूं कि उन चित्रों में भी मुझे कोई इतना नहीं भाया जितना यह कृष्ण का चित्र भाया। और आपने इसको उठाकर फेंक दिया!

लेकिन अवनींद्रनाथ चुप! तो उन्होंने आंखें उठाकर देखा, आंख से आंसू बह रहे हैं। अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुम समझे नहीं; इससे मुझे बड़ा भरोसा है; इससे अभी और खींचा जा सकता है। अभी यह और ऊंचाइयां छू सकता है। मैं भी जानता हूं कि ऐसा चित्र मैंने भी नहीं बनाया। मगर इसकी अभी और संभावना है। अगर मैं कह दूं कि बस, बहुत हो गया। मेरी प्रशंसा का हाथ इसके सिर पर पड़ जाये, तो यही इसकी रुकावट हो जायेगी। मैं इसका दुश्मन नहीं हूं।

नंदलाल तीन साल तक पता न चला, कहां चला गया। वह गांव-गांव बंगाल में घूमता रहा और जहां-जहां पटियों की खबर मिली, गांव के ग्रामीण कलाकारों की, उनसे जाकर कृष्ण के चित्र बनाना सीखता रहा। तीन साल बाद लौटा। रवींद्रनाथ को नंदलाल ने आकर कहा कि उनकी बड़ी अनुकंपा है! ऐसा बहुत कुछ सीखकर लौटा हूं जो यहां बैठकर कभी सीख ही न पाता! उन ग्रामीण सरल हृदय लोगों में तकनीक तो नहीं है, तकनीक की उन्हें कोई शिक्षा नहीं मिली है; लेकिन भाव की बड़ी गहनता है। और असली चीज तो भाव है, तकनीक में क्या रखा है?

तो जो यहां मेरे पास तीव्रता से काम में लगे हैं, उनकी पीठ मैं नहीं थपथपाता। उनसे तो मैं कहता हूं, यह क्या है? बंगाल के पटिये भी इससे बेहतर कर लेते हैं। उनसे तो मैं यही कहे चला जाऊंगा, यह भी कुछ नहीं–और-और-और–उस घड़ी तक, जहां कि करने की पराकाष्ठा आ जाये। क्योंकि जहां करने की पराकाष्ठा आती है वहीं अहंकार की भी पराकाष्ठा आ जाती है। और जब करना-मात्र गिर जाता है, जब तुम्हें लगता है, अब आगे करने को कुछ भी नहीं बचा और तुम बैठ जाते हो, उस बैठने में ही पहली दफा परमात्मत्तत्व से संबंध होता है। तुम नहीं होते, उस बैठने में तुम नहीं होते; उस बैठने में तुम्हारे भीतर परमात्मा ही होता है।

“क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूं? कोशिश तो हर हाल करती हूं कि आपकी बात समझ में आये। भक्त को अहंकार का कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है।’

बड़े शुभ लक्षण हैं। किए जाओ।

हिम्मत को टूट ही जाना है। तुम्हारी हिम्मत ही बाधा है–भक्त के लिए। समर्पण के मार्ग पर तुम्हारी हिम्मत और तुम्हारा बल ही बाधा है। निर्बल के बल राम! वहां तो जब तुम बिलकुल निर्बल हो जाओगे, सब टूट जायेगा, उसी क्षण, उसी पल अनिर्वचनीय से मिलन हो जाता है।

मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर

हर एक रंजो-गम से रिहा हो गए हम।

उसके प्रेम को तुम्हारे चारों तरफ बंधने दो, उसके प्रेम को कसने दो। उसके प्रेम की फांसी में तुम्हारा अहंकार मर जायेगा।

मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर

हर एक रंजो-गम से रिहा हो गए हम।

अब तुम छोड़ो अपना रंज भी, अपना गम भी; जो तुम्हारे पास है उसके चरणों में चढ़ा दो! कुछ और तो है नहीं, कहां से लाओगे फूल? जो है…आंसू सही। उसके चरणों में रख दो! और उससे कहा दो कि–

मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर

हर एक रंजो-गम से रिहा हो गये हम।

अब तू जान!

कितने दीवाने मुहब्बत में मिटे हैं “सीमाब’

जमा की जाए जो खाक उनकी तो वीराना बने।

कितने प्रेमी उसके प्रेम में मिट गए हैं! जमा की जाये जो खाक उनकी तो वीराना बने। एक मरुस्थल बन जाये, अगर उनकी राख इकट्ठी करें। उसी राख के मरुस्थल में अपनी राख को भी मिला दो।

गर बाजी इश्क की बाजी है

जो चाहो लगा दो, डर कैसा?

गर जीत गए तो क्या कहना

हारे भी तो बाजी मात नहीं।

गर जीत गए तो क्या कहना!

तो महावीर हो जाता है आदमी, अगर जीत गया।

हारे भी तो बाजी मात नहीं! हार गए तो मीरा पैदा हो जाती है। अड़चन नहीं है, बाधा नहीं है।

गर बाजी इश्क की बाजी है

जो चाहो लगा दो डर कैसा?

गर जीत गए तो क्या कहना

हारे भी तो बाजी मात नहीं।

यह कुछ रास्ता ऐसा है प्रभु का कि जो पहुंचते हैं, वे तो पहुंच ही जाते हैं; जो भटकते हैं वे भी पहुंच जाते हैं। संसार के मार्ग पर उलटी ही कथा है: जो पहुंचते हैं, वे भी नहीं पहुंचते; जो भटकते हैं, उनका तो कहना ही क्या! परमात्मा के मार्ग पर जो पहुंचते हैं, वे तो पहुंच ही जाते हैं; जो भटकते हैं, वे भी पहुंच जाते हैं। इतना ही क्या कम है कि हम उसे खोजने में भटके? इतना कम है कि हमने उसे खोजना चाहा? इतना कम है कि अंधेरी रात में हमने उस दीये की आशाएं और सपने संजोए?

कैफियत उनके करम की कोई हमसे पूछे

जिससे खुश होते हैं दीवाना बना देते हैं।

परमात्मा का प्रेम जब तुम पर बरसेगा तो दीवानगी और बढ़ेगी, आंसू और बहेंगे, हृदय टूटेगा, बिखरेगा। राख हो जाओगे तुम उस बड़े मरुस्थल में–जहां मीरा भी खो गई है, चैतन्य भी खो गए हैं, जहां राबिया खो गई है, जहां कबीर, नानक, रैदास खो गए हैं। उस विराट मरुस्थल में तुम भी खो जाओगे। लेकिन खोने के पहले एक शर्त पूरी कर देनी जरूरी है कि तुम जो कर सकते हो वह कर लो; अन्यथा तुम्हें ऐसा लगा रहेगा कुछ न कुछ कर लेते। अटके रहोगे। अहंकार थोड़ी-सी जगह बनाए रखेगा।

प्रेम की आकांक्षा जिसने की है और भक्ति का मार्ग जिसने चुना है, उसने बड़े असंभव की आकांक्षा की है।

इसलिए महावीर गणित की तरह साफ हैं। वहां साफ-सुथरा विज्ञान है। इसलिए जैन-धर्म में विज्ञान की भाषा है। मीरा और चैतन्य, नारद और कबीर–उनकी भाषा अटपटी है, सधुक्कड़ी, उलटबांसी जैसी। वहां गंगा गंगोत्री की तरफ बहती है। बड़ी रहस्य से भरी, क्योंकि उन्होंने बड़े असंभव की आकांक्षा की है। महावीर की बात चाहे कितनी ही कठोर मालूम पड़ती हो, लेकिन गणित के समझ में आनेवाली है। और प्रेमियों की बात चाहे कितनी ही सरल मालूम पड़ती हो, बड़ी असाध्य मालूम होती है।

उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे

जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया।

–प्रेम का दर्द ऐसा है कि असाध्य है; इसका कोई इलाज नहीं है।

उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे

जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया।

–जिसका कोई इलाज नहीं, असाध्य है, जिसकी कोई औषधि नहीं।

प्रेम एक ऐसी पीड़ा है, जिसका कोई इलाज नहीं। लेकिन जिसने उस पीड़ा को स्वीकार कर लिया है, वह धीरे-धीरे पायेगा: पीड़ा मीठी होती जाती है; पीड़ा और मीठी होती जाती है। और एक दिन पता चलता है कि जिसे हमने पहले क्षण में दर्द जाना था, वह दर्द न था; वह उस प्रभु के आने की खबर थी, उसके पगों की ध्वनि थी, आहट थी। हम परिचित न थे, इसलिए दर्द जैसा मालूम हुआ था; या प्रभु इतनी तीव्रता से करीब आया था कि हम झेल न सके थे, हमारी पात्रता न थी; जैसे कि आंख में सूरज एकदम से पड़ गया हो और आंखें चौंधिया जायें और दर्द मालूम पड़े।

जब परमात्मा की तरफ कोई चल रहा है तो उसने एक ऐसी दीवानगी मांगी है, जो असंभव जैसी लगती है।

यहां संसार में धन नहीं मिलता; यहां संसार में प्रेमपात्र नहीं मिलता; यहां संसार में कुछ भी नहीं मिलता–ऐसे संसार में हमने परमात्मा को मांगा है। जहां कुछ भी नहीं मिलता; जहां जो दिखाई पड़नेवाली चीजें हैं, वे भी हाथ में पकड़ में नहीं आतीं–वहां हमने अदृश्य को पकड़ना मांगा है! दृश्य पकड़ में नहीं आता, सीमित पर हाथ नहीं बंधते–वहां हमने असीम की अभीप्सा की है!

उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे

जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया।

राह बड़ी पीड़ा से भरी है, पर पीड़ा बड़ी मधुर है। उसके मार्ग पर लगे कांटे भी अंततः फूल बन जाते हैं।

आज इतना ही।


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जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–15

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मनुष्‍यो सतत जाग्रत रहो—प्रवचन—पंद्रहवां

सूत्र:

सीतंति सुवंताणं, अत्‍था पुरिसाण लोगसारत्‍था।

तम्‍हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्‍मं।। 39।।

जागरिया धम्‍मीणं, अहंम्‍मीणं च सुत्‍तया संया।

वच्‍छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए।। 40।।

पमायं कम्‍ममाहंसु, अप्‍पमायं तहाउवरं।

तब्‍भावादेसओ वावि, बालं पंडितमेव वा।। 41।।

न कम्‍मुणा कम्‍म खवेंति वाला, अकम्‍मुणा कम्‍म खवेंति धीरा।

मेधाविणो लोभमया ववीता, संतोसिणो नौ पकरेंति पावं।। 42।।

जागरह नरा! णिच्‍चं, जागरमाणस्‍स बड्ढते बुद्धी।

जो सुवति ण सो धन्‍नो, जो जग्‍गति सो सया धन्‍नो।। 43।।

जह दीवा दीवसयं पइप्‍पए सो य दिप्‍पय दीवो।

दीवसमा आयरिया, दीप्‍पंति परं च दीवेति।। 44।।

जिन-सूत्रों का सार आज के सूत्रों में है–जिन साधना की मूल भित्ति; जिनत्व का अर्थ।

परमात्मा की खोज में दो उपाय हैं। एक उपाय है: उसमें ऐसे तल्लीन हो जाना कि तुम न बचो; उसमें ऐसे लीन हो जाना कि लीन होनेवाला बचे ही नहीं–जैसे सागर में नमक की डगली डाल दें, खो जाती है, स्वाद फैल जाता है, लेकिन कोई बचता नहीं। दूसरा मार्ग है: खोना जरा भी नहीं; जागना! इतने जागना कि जागरण ही शेष रह जाये, जागनेवाला न बचे।

पहला मार्ग बेहोशी का है, दूसरा मार्ग होश का है, लेकिन दोनों के भीतर सार बात एक है कि तुम न बचो। इसलिए तुम्हें रामकृष्ण जैसे उल्लेख महावीर और बुद्ध के जीवन में न मिलेंगे, कि रामकृष्ण परमात्मा का नाम लेते-लेते बेहोश हो गये, कि घंटों बेहोश पड़े रहे। कभी-कभी दिनों होश में न लौटते। और जब होश में आते तो फिर रोने लगते और कहते कि मां! यह कहां मुझे बेहोशी की दुनिया में भेज रही हो? वापिस बुला लो! उसी गहन बेहोशी में मुझे वापिस बुला लो! मुझे संसार का होश नहीं चाहिए! मुझे तुम्हारी बेहोशी चाहिए!

ऐसा उल्लेख महावीर के जीवन में असंभव है; कल्पना में भी नहीं लाया जा सकता; महावीर की जीवन-सरणी में बैठता नहीं। गिर पड़ना बेहोश होकर, यह तो दूर; महावीर एक पैर भी नहीं उठाते बेहोशी में; हाथ भी नहीं हिलाते बेहोशी में; आंख की पलक भी नहीं झपते बेहोशी में।

लेकिन इन दोनों विपरीत दिखाई पड़नेवाले मार्गों के बीच में कुछ सेतु हैं। वह सेतु स्मरण रखना। भक्त अपने को डुबा देता है–इतना डुबा देता है कि कोई बचता ही नहीं, पीछे लकीर भी नहीं छूट जाती है। साधक अपने को जगाता है–इतना जगाता है कि जागरण की ज्योति ही रह जाती है, कोई जागनेवाला नहीं बचता। हर हालत में अहंकार खो जाता है–चाहे परिपूर्ण रूप से तल्लीन होकर खो दो और चाहे परिपूर्ण रूप से जागकर खो दो। इन दो अतियों पर परिणाम एक ही होता है। इसलिए भक्त और ज्ञानी, प्रेमी और साधक सभी वहीं पहुंच जाते हैं। मार्ग का बड़ा फर्क है, मंजिल का जरा भी फर्क नहीं है।

राह जुदा, सफर जुदा, रहजनो-रहबर जुदा

मेरे जुनूने-शौक की मंजिले-बेनिशां है और।

महावीर से पूछो तो वे कहेंगे: राह जुदा, सफर जुदा, रहजनो-रहबर जुदा! यह मेरी राह अलग, इस राह की यात्रा अलग; इतना ही नहीं, मेरी राह पर लूटनेवाले और पथ-प्रदर्शक भी अलग! लुटेरे भी मेरी राह के अलग हैं। स्वभावतः होंगे। क्योंकि जहां होश साधना है, वहां लुटेरे अलग होंगे। वहां वही लुटेरे बन जायेंगे जो भक्ति के मार्ग पर पथ-प्रदर्शक होते हैं। जहां होश को गंवा देना है, मस्ती में डूब जाना है, जहां परमात्मा की शराब पी लेनी है–वहां जो सहयोगी है, वह महावीर के मार्ग पर लुटेरा हो जायेगा। महावीर के मार्ग पर जो सहयोगी है, वह महावीर के मार्ग पर लुटेरा हो जायेगा। महावीर के मार्ग पर जो सहयोगी है, पथ-प्रदर्शक है, राहबर है, वह भक्ति के मार्ग पर लुटेरा हो जायेगा।

ध्यान भक्ति के मार्ग पर लुटेरा हो जायेगा; वहां प्रार्थना पथ-प्रदर्शक है। महावीर के मार्ग पर प्रार्थना लुटेरा हो जायेगी; वहां ध्यान पथ-प्रदर्शक है। लेकिन मंजिल पर जाकर सब मिल जाते हैं। क्योंकि पहुंचना उस जगह है जहां तुम अशेष भाव से, कुछ भी बचे न, परिपूर्ण रूप से मुक्त हो जाओ।

इसे भी खयाल में ले लेना। साधारणतः हम सोचते हैं, मैं मुक्त हो जाऊंगा, तो ऐसा लगता है कि मैं तो बचूंगा–मुक्त होकर बचूंगा। लेकिन जो गहरे उतरने की कोशिश करेंगे या जिन्होंने सच में ही समझना चाहा है–मैं मुक्त हो जाऊंगा, इसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि “मैं’ से मुक्त हो जाऊंगा। “मैं’ भाव चला जायेगा। “मैं’ भाव जहां तक है वहां तक मुक्ति नहीं है। जहां “मैं’ भाव विसर्जित हो जाता है, वहीं मुक्ति है। “मैं’ भाव को विसर्जित करने के दो उपाय हैं: या तो डुबा दो, या जगा लो।

ऐसा समझो, पतंजलि ने योग-सूत्रों में मनुष्य के चित्त की तीन दशायें कहीं हैं। एक है सुषुप्ति। एक है जाग्रत। एक है स्वप्न। जिस दशा में हम साधारणतः हैं, वह स्वप्न की दशा है; कामना की, विचारणा की, ऊहापोह की, हजार-हजार वासनाओं की। स्वप्न की दशा है। इस स्वप्न की दशा के दोनों तरफ एक-एक दशायें हैं: एक सुषुप्ति की और एक जागृति की। इस स्वप्न की दशा से मुक्त होना है। इस स्वप्न की दशा में ही तुमने स्वप्न देख लिया है कि तुम हो। यह तुम्हारा स्वप्न है। या तो सुषुप्ति में खो जाओ, जहां स्वप्न न बचे; या जाग्रत हो जाओ, जहां स्वप्न के बाहर आ जाओ।

तो स्वप्न के बीच में हम खड़े हैं। स्वप्न यानी संसार। इसलिए तो शंकर उसे माया कहते हैं। वह स्वप्न की दशा है। वहां जो नहीं है, वह हम देख रहे हैं। और वहां जो है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। वहां हम जो देख रहे हैं, वह हमारा ही प्रक्षेपण है। वहां जिसमें हम जी रहे हैं, वह हमारी ही कामना, हमारी ही आशा, हमारी ही भावना है। सत्य से उसका कोई संबंध नहीं। वह हमारी निर्मिति है।

तुमने स्वप्न में देखा! स्वप्न देखते समय तो ऐसा ही लगता है कि सब सच है; ऐसा ही लगता है कि कुछ भी असत्य नहीं है। सुबह जागकर पता चलता है कि अरे, एक सपने में खो गये थे, इतना सत्य मालूम पड़ा था!

रोज-रोज तुम सपना देखे हो, रोज-रोज सुबह पाया है कि असत्य है; फिर भी जब रात घनी होती है, फिर नींद में डूब जाते हो, फिर सपना तरंगित होने लगता है, फिर भूल जाते हो, वह याद काम नहीं आती।

स्वप्न की दशा से बाहर होने के दो उपाय हैं। या तो सुषुप्ति में डूब जाओ। रामकृष्ण और भक्तों ने सुषुप्ति का उपयोग किया है स्वप्न से मुक्त होने के लिए। महावीर और बुद्ध और पतंजलि ने जागृति का उपयोग किया है स्वप्न से मुक्त होने के लिए। लेकिन असली बात स्वप्न से मुक्त होना है। या इस किनारे या उस किनारे, यह मंझधार में न रह जाओ!

महावीर के ये सूत्र जागरण के सूत्र हैं। इनका सार-भाव है: जागो!

मैंने सुना है, एक आदमी भर-दुपहर भागा हुआ शराबघर में आया। उसने कलारिन से कहा कि एक बात पूछने आया हूं। बड़ा बेचैन और परेशान था। जैसे कुछ गंवा बैठा हो, कुछ बहुत खो गया हो।

“एक बात पूछनी है: क्या रात मैं यहां आया था?’

“जरूर आये थे।’

“कई लोगों के साथ आया था?’

“कई लोगों के साथ आये थे।’

“सबको शराब पिलवाई थी, खुद भी पी थी?’

“जरूर पिलवाई थी और पी थी।’

वह आदमी बोला, “शुक्र खुदा का! सौ रुपये चुकाये थे?’

उसने कहा, “बिलकुल चुकाये थे।’

उसने कहा, “तब कोई हर्जा नहीं।’

वह बड़ा प्रसन्न हो गया। उस कलारिन ने पूछा कि मैं कुछ समझी नहीं, बात क्या है? उसने कहा, “मैं तो यही सोच रहा था कि सौ रुपये कहीं गंवा बैठा। इसलिए ही परेशान था।’

बेहोश आदमी भी सोचता है कि कहीं गंवा तो नहीं बैठा! लेकिन बेहोशी में कमाओगे कैसे, गंवाओगे ही! चाहे शराब पीने में गंवाये हों, चाहे किसी बगीचे की बैंच पर भूल आये होओ। शायद बगीचे की बैंच पर भूल आना ज्यादा बेहतर था; सौ रुपये ही गंवाते, कम से कम होश तो न गंवाया होता! लुट जाना बेहतर था, यह तो लुट जाने से बदतर दशा है। पर वह आदमी बोला, “शुक्र खुदा का! मैं तो डर रहा था कि कहीं रुपये गंवा तो नहीं बैठा।’

जिंदगी के अंत में अधिक लोग ऐसी ही दशा में पाते हैं। सोचते हैं, कहीं जिंदगी गंवा तो नहीं बैठे! लेकिन कितने ही बड़े मकान बनाकर छोड़ जाओ और कितने ही धन की राशियां लगा जाओ, इससे क्या फर्क पड़ता है?

जिंदगी तो गई और गई। जिंदगी तो राख हो गई। मकान बना आये, खंडहर बनेंगे। बड़ी दौड़-धूप की थी, बड़ी तिजोड़ियां छोड़ आये–कोई और उनकी मालकियत करेगा। तुम्हारे हाथ तो खाली हैं। इससे तो बेहतर होता कि तुम बैठे ही रहते और तुमने कुछ न किया होता, तो कम से कम तुम उतने पवित्र तो रहते जितने जन्म के समय थे। यह तो सारी आपाधापी तुम्हें और भी अपवित्र कर गई। यह तो तुम और भी शराब से भरकर विदा हो रहे हो। यह तो तुम और जहर ले आये।

जिंदगी से कमाया तो कुछ भी नहीं, एक नयी मौत और कमाई, फिर जन्मने की वासना कमाई। यह कोई कमाना हुआ? जिसे तुम जिंदगी कहते हो, महावीर उसे स्वप्न कहते हैं। और जिसे तुम जागरण कहते हो, वह जागरण नहीं है; वह सिर्फ खुली आंख देखा गया सपना है।

हम दो तरह के सपने देखते हैं: एक, रात जब हम आंख बंदकर लेते हैं; और एक तब जब सुबह हम आंख खोल लेते हैं। लेकिन हमारा सपना सतत चलता है। महावीर के हिसाब से सपने से तो तुम तभी मुक्त होते हो, जब तुम्हारा मन ऐसा निष्कलुष होता है कि उसमें एक भी विचार की तरंग नहीं उठती। जब तक तरंगें हैं, तब तक स्वप्न है। जब तक तुम्हारे भीतर कुछ चित्र घूम रहे हैं और तुम्हारे चित्त पर तरंगें उठ रही हैं–”यह हो जाऊं, यह पा लूं, यह कर लूं, यह बन जाऊं’–तब तक तुम स्वप्नों से दबे हो। फिर तुम्हारी आंख खुली है या बंद, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम बेहोश हो। महावीर के लिए तो होश तभी है, जब तुम्हारा चित्त निर्विचार हो।

तो जागरण का अर्थ समझ लेना। जागरण का अर्थ तुम्हारा जागरण नहीं है। तुम्हारा जागरण तो नींद का ही एक ढंग है। महावीर कहते हैं जागरण चित्त की उस दशा को, जब चैतन्य तो हो लेकिन विचार की कोई तरंग में छिपा न हो; कोई आवरण न रह जाये विचार का; शुद्ध चैतन्य हो; बस जागरण हो। तुम देख रहे हो और तुम्हारी आंख में एक भी बादल नहीं तैरता–किसी कामना का, किसी आकांक्षा का। तुम कुछ चाहते नहीं। तुम्हारा कोई असंतोष नहीं है। तुम जैसे हो, उससे तुम परम राजी हो। एक क्षण को भी तुम्हारा यह राजीपन, तुम्हारा यह स्वीकार जग जाये और तुम जगत को खुली आंख से देख लो–आंख जिस पर सपनों की पर्त न हो; आंख जिस पर सपनों की धूल न हो; ऐसे चैतन्य से दर्पण स्वच्छ हो और जो सत्य है वह झलक जाये–तो तुम्हारी जिंदगी में पहली दफा, वह यात्रा शुरू होगी जो जिनत्व की यात्रा है। तब तुम जीतने की तरफ चलने लगे। सपने में तो हार ही हार है।

जिन यानी जीतने की कला। जिनत्व यानी स्वयं के मालिक हो जाने की कला। हमने और सबके तो मालिक होना चाहा है–धन के, पत्नी के, पति के, बेटे के, राज्य के, साम्राज्य के–हमने और का तो मालिक होना चाहा है, एक बात हम भूल गये हैं, बुनियादी, कि हम अभी अपने मालिक नहीं हुए। और जो अपना मालिक नहीं है, वह किसका मालिक हो सकेगा! वह गुलामों का गुलाम हो जायेगा।

पहला सूत्र:

सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था।

“इस जगत में ज्ञान सारभूत अर्थ है।’

इस जगत में बोध सारभूत अर्थ है। अवेयरनेस!

सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था।

तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं।।

“अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो। जो पुरुष सोते हैं, उनका अर्थ नष्ट हो जाता है।’

जीवन में हमारे भी अर्थ है, कोई मीनिंग है। हम भी कुछ पाना चाहते हैं। हां, हमारे भी कुछ बहाने हैं। अगर आज मौत आ जाये तो तुम कहोगे, “ठहरो! कई काम अधूरे पड़े हैं। न मालूम कितनी यात्राएं शुरू की थीं, पूरी नहीं हुईं। ऐसे बीच में उठा लोगी तो अर्थ अधूरा रह जायेगा। अभी तो अर्थ भरा नहीं। अभी तो अभिप्राय पूरा नहीं हुआ। रुको।’

सिकंदर, नेपोलियन साम्राज्य बनाने में जीवन का अर्थ देख रहे हैं। कोई कुछ और करके जीवन का अर्थ देख रहा है। लेकिन महावीर कहते हैं: इस जगत में बोध सारभूत अर्थ है। और कुछ भी नहीं–न धन, न पद, न प्रतिष्ठा।

“जो पुरुष सोते हैं उनका यह अर्थ नष्ट हो जाता है।’

अर्थ तुम्हारे भीतर है और तुम्हीं सो रहे हो तो अर्थ का जागरण कैसे होगा? तुम्हारे जागने में ही तुम्हारे जीवन का अर्थ जागेगा।

मेरे पास अनेक लोग आते हैं। वे कहते हैं, जीवन का अर्थ क्या है? जैसे कि अर्थ कोई बाहर रखी चीज है, जो कोई बता दे कि यह रहा! जैसे तुम पूछो, सूरज कहां है, कोई बता दे कि वह रहा आकाश में!

लोग पूछते हैं, जीवन का अर्थ क्या है?

जैसे अर्थ कोई बनी-बनाई, रेडीमेड वस्तु है, जो कहीं रखी है और तुम्हें खोजनी है।

जीवन में अर्थ नहीं है। अर्थ तुममें है! और तुम जागोगे तो जीवन में अर्थ फैल जायेगा। और तुम सोये रहोगे तो जीवन निरर्थक हो जायेगा। फिर इस निरर्थकता के खालीपन से बड़ी घबड़ाहट होती है, तो आदमी झूठे-झूठे अर्थ कल्पित कर लेता है। वे सहारे हैं, सांत्वनाएं हैं। तो कोई कहता है, बच्चों को बड़े करना है। लगा रहता है, व्यस्त रहता है। क्योंकि जब भी कोई अर्थ नहीं मालूम पड़े बाहर, तो भीतर की निरर्थकता मालूम होती है। बच्चों को बड़े करना है। तुम्हारे पिता भी यही करते रहे, उनके पिता भी यही करते रहे। ये बच्चे बड़े किसलिए हो रहे हैं–ये भी यही करेंगे। ये भी बच्चे बड़े करेंगे।

इसका मतलब क्या है? प्रयोजन क्या है? अगर तुम्हारे पिता तुमको बड़ा करते रहे और तुम अपने बच्चों को बड़ा करते रहोगे, तुम्हारे बच्चे उनके बच्चों को बड़ा करते रहेंगे, तो इस बड़े करने का प्रयोजन क्या है? इस सतत सक्रियता का अर्थ क्या है? इसमें कुछ अर्थ तो नहीं है। यह तो तुम्हें भी कभी-कभी झलक जाता है।

धन ही इकट्ठा कर लोगे तो क्या होगा? अंततः आती है मौत! सब हाथ खाली हो जाते हैं! सब छिन जाता है। जो छिन ही जायेगा, उसे पकड़-पकड़कर क्या होगा? लेकिन कम से कम बीच में कुछ अर्थ है, प्रयोजन है–इस तरह की भ्रांति तो पैदा हो जाती है।

लोग अजीब-अजीब अर्थ पैदा कर लेते हैं।

एक युवक मेरे पास आया। अपनी प्रेयसी को लेकर आया और उसने कहा कि मुझे विवाह करना है। मैंने कहा कि अभी तेरी उम्र बीस साल से ज्यादा नहीं है, अभी इतनी जल्दी बोझ क्यों लेता है? अभी दो-चार-पांच साल और मुक्त रहकर गुजर सकते हैं। इतने उत्तरदायित्व लेने की अभी जरूरत कहां है? अभी तू स्कूल में पढ़ता है! थोड़ा रुक! पढ़ लिख ले।

उसने कहा, “उत्तरदायित्व लेने के लिये ही तो विवाह करना चाहता हूं; अन्यथा खाली-खाली मालूम पड़ रहा है। मेरे ऊपर कोई उत्तरदायित्व नहीं है।’ धनी घर का लड़का है। सब सुविधा है। “खाली-खाली मालूम हो रहा हूं। शादी कर लूंगा तो कुछ भरापन हो जायेगा।’

अभी अमरीका में एक आदमी पर मुकदमा चलता था, क्योंकि उसने सात आदमियों को गोली मार दी थी–अकारण, अपरिचित अजनबियों को! ऐसे लोगों को जिनका चेहरा भी उसने नहीं देखा था, पीछे से। सागरत्तट पर कोई बैठा था, उसने पीछे से आकर गोली मार दी। एक ही दिन में सात आदमी मार डाले। बामुश्किल पकड़ा जा सका। पकड़े जाने पर अदालत में जब पूछा गया कि तूने किया क्यों? क्योंकि इनसे तेरी कोई दुश्मनी न थी; दुश्मनी तो दूर, पहचान भी न थी।

तो उसने कहा कि मेरा जीवन बड़ा खाली-खाली है; मैं कुछ काम चाहता था; किसी चीज से अपने को भर लेना चाहता था। मैं चाहता हूं कि लोगों का ध्यान मेरी तरफ आकर्षित हो। और वह काम हो गया। अब मुझे फिक्र नहीं, तुम फांसी दे दो! लेकिन सब अखबारों में मेरा फोटो भी छप गया, सभी अखबारों में नाम भी छप गया। आज हजारों लोगों की जबान पर मेरा नाम है, यह तो देखो!

लोग कहते हैं, बदनाम हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा ही।

राजनीतिज्ञों में और अपराधियों में बहुत फर्क नहीं है। राजनीतिज्ञ समाज-सम्मत व्यवस्था के भीतर नाम को कमाने की चेष्टा करता है। अपराधी समाज-सम्मत व्यवस्था नहीं खोज पाता, समाज के विरोध में भी कुछ करके नाम पाने की आकांक्षा करता है। इसलिए अगर कोई रातनीतिज्ञ बहुत दिनों तक राजनीति को न पा सके तो उपद्रवी हो जाता है, क्रिमिनल हो जाता है, अपराधी हो जाता है। क्योंकि मूल आकांक्षा है: लोगों का ध्यान आकर्षित करना। मूल आकांक्षा है: लोगों को लगे कि मैं कुछ हूं; दुनिया कहे कि तुम कुछ हो, तुम्हारा कुछ अर्थ है। तुम ऐसे ही आये और चले नहीं गये; तुमने बड़ा शोर मचाया। तुम्हारा आना एक तूफान की तरह था। दुनिया को तुम्हारे ऊपर ध्यान देना पड़ा।

तुमने कभी खयाल किया? तुम वस्त्र भी इसीलिए पहनते हो ढंग-ढंग के कि ध्यान पड़े, कोई देखे। स्त्रियां देखीं, नयी साड़ियां पहनकर आ जाती हैं तो बड़ी बेचैन रहती हैं, जब तक कोई पूछ न ले, कहां खरीदी; जब तक कोई साड़ी का पोत न देखे और प्रशंसा न कर दे।

तुमने वह कहानी तो सुनी होगी। बड़ी पुरानी कहानी है कि एक औरत ने अपने घर में आग लगा ली थी और जब लोग आये तब वह हाथ ऊंचे-ऊंचे उठाकर चिल्लाने लगी कि हे परमात्मा! नष्ट हो गई, मर गई, लुट गई! तब किसी औरत ने पूछा, “अरे! ये कंगन तो हमने देखे ही नहीं, कब बनवाये?’ उसने कहा कि नासमझ, पहले ही पूछ लेती तो घर में आग क्यों लगानी पड़ती! यह गांव भर की राह देखती रही, कंगन बनाये हैं, कोई पूछेगा! किसी ने न पूछा।

जब झोपड़े में आग लगी और आग की रोशनी उठी और कंगन चमकने लगे और वह हाथ उठाने का मौका आया कि अब चिल्ला-चिल्लाकर, हाथ हिला-हिलाकर वह कह सकती है…!

तुम जरा अपने पर गौर करना। हम सभी कंगन दिखाने निकले हैं, चाहे घर में आग लगाकर भी दिखाना पड़े। लेकिन ऐसा न हो कि हम ऐसे ही विदा हो जायें, किसी को पता भी न चले कि कब आये, कब चले गये, कब उठे, कब बैठे, कब जन्मे। इस कंगन दिखाने को लोग कहते हैं, अरे! कुछ नाम कर जाओ। कहते हैं, कुछ नाम छोड़ जाओ इतिहास में। तो तैमूरलंग और चंगेज़ और नादिरशाह इतिहास में नाम छोड़ जाते हैं, हजारों लोगों को आग लगवाकर, हजारों लोगों को काटकर।

कहते हैं, एक वेश्या तैमूर के शिविर में नाचने आयी थी। जब वह रात जाने लगी तो वह डरती थी, क्योंकि रास्ता अंधेरा था। और कोई दस-बारह मील दूर उसका गांव था। तो तैमूर ने कहा, घबड़ा मत। उसने अपने सैनिकों से कहा कि इसके रास्ते में जितने गांव पड़ें, आग लगा दो! थोड़े सैनिक भी झिझके कि यह जरा अतिशय मालूम पड़ता है। एक मशाल से ही इसको पहुंचाया जा सकता है! लेकिन तैमूरलंग ने कहा, “इतिहास याद नहीं रखेगा मशाल से पहुंचाओगे तो। पता रहना चाहिए आने वाले हजारों सालों को कि तैमूरलंग की वेश्या थी, कोई साधारण वेश्या न थी। उसके द्वार में, दरबार में नाचने आयी थी।’ कोई आठ-दस छोटे-छोटे गांवों में, जो रास्ते में पड़ते थे, आग लगा दी गई। गांव में लोग सो रहे थे, उनको पता भी नहीं था, आधी रात–ताकि रास्ता रोशन हो जाये। वेश्या उन जलती हुई लाशों के बीच से अपने गांव पहुंच गई।

तुमने कभी खयाल किया है कि तुम कितने उपाय करते हो कि किसी तरह लोगों का ध्यान आकर्षित हो जाये। अर्थ नहीं है जीवन में तो तुम झूठे अर्थ पैदा करने की कोशिश करते हो–कोई कह दे कि “तुम बड़े सार्थक हो! तुम जो कर रहे हो वह मूल्यवान है! तुम बड़ा ऊंचा काम कर रहे हो!’ तुमसे कोई कुछ भी करवा ले सकता है, बस तुमसे यह कहलवा दिया जाये कि तुम कोई बड़ा काम कर रहे हो, बड़ा ऊंचा, बड़ा महत्वपूर्ण!

इस जगत में बोध के अतिरिक्त और कोई अर्थ नहीं है। और जितने अर्थ तुम खोजते हो, उन सब से तुम्हारी बेहोशी घनी होती है, बढ़ती है, जागरण नहीं आता।

“जो पुरुष सोते हैं उनके अर्थ नष्ट हो जाते हैं। अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो।’

पुरानी आदतें पड़ी हैं बहुत, उनको हिलाओ, डुलाओ, ताकि उनसे छुटकारा हो सके, वे ढीली हो जायें! बड़ा बहुमूल्य वचन है: “अतः सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो।’ हिलाओ–जैसे वृक्ष को कोई हिलाये और उसकी जड़ें उखड़ जायें। अब पानी मत सींचो और! ऐसे ही क्या कम दुख भोगा है। ऐसे ही क्या कम भटके हो। पानी मत सींचो! लेकिन जो हमें जगाता है, वह दुश्मन मालूम पड़ता है, क्योंकि वह हिलाता है।

आस्पेंस्की ने अपनी किताब “इन सर्च आफ द मिरेकुलस’ अपने गुरु गुरजिएफ को समर्पित की है, तो उसमें लिखा है: “गुरजिएफ के लिए–जिसने मेरी नींद को तोड़ दिया।’

लेकिन जब कोई तुम्हारी नींद तोड़ता है तो सुखद नहीं मालूम होता। जब कोई तुम्हारी नींद तोड़ता है तो तुम्हें लगता है दुश्मन। इसलिए जगत में नींद तोड़नेवाले सदा दुश्मन मालूम पड़े। सुकरात को हमने ऐसे ही जहर नहीं पिला दिया था, और न जीसस को हमने ऐसे ही सूली पर लटका दिया, न हमने महावीर को ऐसे ही पत्थर मारे और कान में खीलें ठोंके। यह अकारण नहीं था। ये लोग नींद तोड़ रहे थे। ये अलार्म की तरह थे। तुम जब मजे से सो रहे थे और सुबह का आखिरी सपना देख रहे थे, तब ये बीच में आ गये और उन्होंने उपद्रव मचा दिया कि जागो! तुम्हारा भाव तो इन दो पंक्तियों में प्रगट हुआ है।

न अजां हो, न सहर हो, न गजर हो शबे-वस्ल

क्या मजा हो जो किसी को न जगाए कोई।

न अजां हो–न तो मस्जिद में कोई अजान पड़े; न सहर हो–न सुबह हो, न सूरज ऊगे; न गजर हो–न कोई मंदिर में घंटियों को बजाये; मिलन की रात! क्या मजा हो जो किसी को न जगाये कोई!

सोने में हमारी बड़ी आतुरता है। जिसको हम सुख कहते हैं, अगर तुम गौर से पाओगे तो वह एक मधुर सपना देखने से ज्यादा नहीं है। जिसको हम सुखी जिंदगी कहते हैं, वह ऐसी जिंदगी है, जिसमें मधुर स्वप्नों का काफी जाल है। जिसको हम दुखद जिंदगी कहते हैं, वह भी सपनों की ही जिंदगी है; उसमें सपने दुख से भरे हैं, नाइटमेयर जैसे हैं।

लेकिन सपना तो सपना है। तुम सुखद सपने देखकर भी एक दिन मर जाओगे तो क्या होगा?

इसलिए महावीर कहते हैं, अर्थ बाहर नहीं है; अर्थ तो तुम्हारे भीतर की ज्योति के प्रज्वलित हो जाने में है। तुम्हारी रोशनी तुम्हारे जीवन को भर दे और सपनों को तितर-बितर कर दे। और तुमने अब तक पूर्व जन्मों में जो अर्जित कर्म किये हैं, जिनके कारण जड़ें मजबूत हो गई हैं सपनों की, जिनके कारण सपने सत्य मालूम होते हैं, जिनके कारण जो नहीं है वह बहुत वास्तविक मालूम हो रहा है–उनको हिलाओ, प्रकंपित करो! उन जड़ों को तोड़ो और उखाड़ो!

“धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है।’ बड़ा बहुमूल्य वचन है! महावीर कहते हैं, धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है।

नादिरशाह के जीवन में भी ऐसा उल्लेख हैं। उसने एक सूफी फकीर को पूछा, क्योंकि वह खुद बहुत आलसी था और सुबह दस बजे के पहले नहीं उठता था। रात देर तक नाच-गान चलता, शराब चलती, तो सुबह दस-बारह बजे उठता। उसने एक सूफी फकीर को पूछा कि मेरे दरबारी मुझ से कहते हैं कि इतना आलस्य ठीक नहीं है, तुम क्या कहते हो? उस सूफी फकीर ने महावीर का यह वचन दोहराया मालूम होता है; क्योंकि बिलकुल यही वचन उसने दोहराया। उसने कहा, आप तो अगर बिलकुल सोयें चौबीस घंटे तो अच्छा है। नादिरशाह थोड़ा चौंका। उसने कहा, “तुम्हारा मतलब?’ उसने कहा, “आप जैसे व्यक्ति जितनी देर सोयें, उतना ही उपद्रव कम! आप तो सोये ही रहें।’

महावीर कहते हैं, धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है; अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है। क्योंकि अगर अधार्मिक सक्रिय हो उठे, तो अधर्म ही करेगा। महावीर यह कह रहे हैं कि अधार्मिक का तो शक्तिहीन होना अच्छा है; धार्मिक का शक्तिशाली होना अच्छा है। महावीर यह कह रहे हैं, धार्मिक के पास बल हो तो धर्म घटेगा; अधार्मिक को पास बल होगा तो अधर्म घटेगा, वह कुछ न कुछ उपद्रव करेगा। राजनीतिज्ञ बीमार रहें तो अच्छा है; अस्पतालों में रहें तो अच्छा है। ठीक हुए कि वे कुछ उपद्रव करेंगे। बिना उपद्रव किये वे रह नहीं सकते हैं। उपद्रव के लिए अच्छे-अच्छे नाम देंगे। उपद्रव को सजायेंगे, शृंगारेंगे। उपद्रव को क्रांति, स्वतंत्रता, समानता, साम्यवाद, न मालूम क्या-क्या नाम देंगे। लेकिन बहुत गहरे में उपद्रव की आकांक्षा है। खाली वे बैठ नहीं सकते।

महावीर व्यंग्य कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, अधार्मिक सोये रहें तो ठीक; धार्मिक जागे।

इसलिए महावीर की पूरी प्रक्रिया यह है कि तुम जागो भी, साथ ही साथ तुम धार्मिक भी होते चलो; धार्मिक होते चलो और साथ ही साथ जागते भी चलो। अन्यथा शक्ति भी गलत हाथों में पड़कर खतरनाक सिद्ध होती है। ऐसा ही तो हुआ है, विज्ञान ने शक्ति सोये हुए आदमियों के हाथ में दे दी। ऐसा नहीं है कि पहली दफा वैज्ञानिकों को अणु की शक्ति का पता चला है। महावीर भी अणुवादी थे। जैन-दर्शन दुनिया का सबसे प्राचीन अणुवादी दर्शन है। आइंस्टीन और रदरफोर्ड ने जो इस सदी में पाया है, वह जैन कोई पांच हजार साल से कहते रहे हैं कि पदार्थ अणुओं का समूह है, पदार्थ अणुओं से बना है।

अणु का सिद्धांत जैनियों का प्राचीनतम सिद्धांत है। और जैसे-जैसे विज्ञान साफ होता जा रहा है, वैसे-वैसे पुराने शास्त्रों के अर्थ साफ होते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि अणु-शक्ति को खोज लिया गया था! संभवतः महाभारत का अंत अणुशक्ति से ही हुआ। लेकिन फिर एक बात समझ में पूरब को आ गई कि जब तक लोग सोये हुए हैं, इतनी शक्ति उनके हाथ में होना खतरनाक है; उसका दुरुपयोग होगा। शक्ति उसके हाथ में होनी चाहिए, जिसके भीतर सदभाव पहले आ गया हो तो फिर ठीक हैं। नहीं तो शक्ति का तुम करोगे क्या? तुमने लार्ड बेकन का प्रसिद्ध वचन सुना होगा–पावर करप्ट्स एंड करप्ट्स एब्सोल्यूटली–कि शक्ति जिनके हाथ में है वह लोगों को व्यभिचारित कर देती है और परिपूर्ण रूप से व्यभिचारित कर देती है। लेकिन वह वचन सत्य होते हुए भी पूर्ण सत्य नहीं है। शक्ति किसी को व्यभिचारित नहीं करती। शक्ति केवल तुम्हारे भीतर जो व्यभिचार पड़ा था, उसे प्रगट करती है।

तुम देखते हो, एक आदमी के पास कुछ भी नहीं है तो वह शराब नहीं पीता; वह शराब के खिलाफ है। फिर कल अचानक लाटरी हाथ लग जाती है, फिर वह शराब पीने लगता है। अब वह भूल जाता है सब शराब की खिलाफत। तो लोगों को ऐसा लगता है कि धन ने इसे भ्रष्ट किया। बात गलत है। धन न होने से यह अपने को समझाता था, अंगूर खट्टे हैं। पीना भी चाहता तो पीता कहां से? तो नीति के, धर्म के वचन दोहराता था। अब जब धन हाथ में आ गया, सब भूल गया।

इस देश में ऐसा हुआ। स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में जो लोग बड़े त्यागीत्तपस्वी मालूम पड़ते थे, वे कोई त्यागीत्तपस्वी थे नहीं। क्योंकि परीक्षा तो तब है जब शक्ति हाथ में आई। जब शक्ति हाथ में न थी तब तो कोई भी त्यागीत्तपस्वी होता है। जब शक्ति हाथ में आई, राज्य रूपांतरित हुआ और तथाकथित त्यागीत्तपस्वी सत्ताधारी बने, तत्क्षण त्यागत्तपश्चर्या सब समाप्त हो गई। लगेगा शायद सत्ता ने उन्हें भ्रष्ट किया। नहीं, सत्ता ने केवल अवसर दिया, तो जो भ्रष्ट होने के बीज भीतर पड़े थे उन पर वर्षा हुई। बीज तो थे ही। क्योंकि तुम्हारा धन तुम्हें कैसे भ्रष्ट कर सकता है, अगर तुम्हीं भ्रष्ट होने को पूर्व से तैयार न थे? तुम सिर्फ धन की प्रतीक्षा कर रहे थे। धन आ गया, संयोग मिल गया; अब रुकने की कोई जरूरत न रही। अब रुके, वह बिलकुल पागल है। अब तक रुके थे, वह तो कारण यह था कि अपनी पहुंच के बाहर थे अंगूर। इसलिए कहते थे, खट्टे हैं। अब नसेनी हाथ लग गई, अब कौन रुकेगा! अब रुकना असंभव है।

सत्ता हाथ में आते ही लोग भ्रष्ट हो जाते हैं–इसलिए नहीं कि सत्ता भ्रष्ट करती है, बल्कि इसलिए कि सत्ता अवसर देती है। तो जो तुम्हारे भीतर छिपा था वह प्रगट हो जाता है। अगर तुम्हारे भीतर काव्य छिपा था, हाथ में सत्ता आते ही काव्य प्रगट होगा। क्योंकि तुम कहोगे, अब सुविधा मिली, अब दौड़-धूप न रही, धन हाथ आ गया–अब घर बैठकर गीत गुनगुना लें! अब तक तो मजदूरी करनी पड़ती थी, गङ्ढा खोदना पड़ता था, समय व्यर्थ होता था, शक्ति व्यय होती थी–गीत गाने का अवसर कहां था! अब गीत गाने का अवसर मिला है।

तो धन अगर सम्यक हाथों में पड़े तो शुभ है; असम्यक हाथों में पड़ जाए तो अशुभ है। इसलिए तुम मेरी बात खयाल रखना। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि धन छोड़ो। धन में क्या रखा है? तुम्हारे हाथ बदलने चाहिए। तो जो धन को छोड़कर भाग जाते हैं–तथाकथित त्यागी–वे केवल अवसर को छोड़कर भाग रहे हैं; बीज का क्या होगा? बीज तो भीतर है। वह तो साथ ही चला जायेगा। फिर वे धन से डरने लगेंगे, क्योंकि उनको बात समझ में आ जायेगी, तर्क साफ हो जायेगा कि धन हाथ आया कि उपद्रव शुरू होता है। लेकिन धन कहीं उपद्रव ला सकता है? चांदी के ठीकरे उपद्रव ला सकते हैं? तब तो चांदी के ठीकरे आत्मा से भी ज्यादा बलवान हो गये। चांदी के ठीकरे उपद्रव नहीं ला सकते–उपद्रव तुम्हारे भीतर पड़ा है।

इसलिए मैं कहता हूं, वास्तविक त्यागी की परीक्षा संसार के भीतर है, बाहर नहीं। भगोड़े की बात और है, लेकिन वास्तविक त्यागी की परीक्षा संसार के भीतर है। वहीं पता चलेगा। जो महल में रहकर फकीर की तरह रह जाये–वहीं पता चलेगा। जो स्त्री-पुरुषों के बीच रहकर अकेला रह जाये–वहीं पता चलेगा। जहां सब साधन थे, लेकिन फिर भी जो अकंपित रहे–वहीं पता चलेगा।

इसलिए अगर कोई मुझसे पूछे कि त्याग की अगर परम प्रतिमा बतानी हो, तो मैं महावीर को न बताऊंगा, मैं कृष्ण को बताऊंगा। महावीर परम त्यागी हैं, लेकिन परीक्षा की सीमा के बाहर हैं। परीक्षा कभी भी नहीं हुई। जहां उपद्रव खड़ा होता है, वहां से दूर हैं। लेकिन कृष्ण परीक्षा से भी गुजर गये हैं। मैं जनक को बताऊंगा। साम्राज्य है। सारा साम्राज्य का जाल है। और उसके बीच बाहर हैं।

तो मैं तुमसे भागने को नहीं कहता। और महावीर का भी वचन तुम ठीक से समझो, तो वे भी जागने को कह रहे हैं, भागने को नहीं कह रहे हैं। हां, यह हो सकता है कि जागकर तुम्हें यहां रहना अर्थहीन मालूम पड़े, जैसा कि महावीर को मालूम पड़ा। और तुम्हारी स्वाभाविक नियति तुम्हें दूर वनों और उपवनों में ले जाये कि पहाड़ों में ले जाये, तो ठीक है। लेकिन, तुम संसार को छोड़कर नहीं जा रहे हो। तुम्हारे छोड़ने में कोई प्रयास नहीं है। तुम सहज अपने स्वभाव के अनुकूल, जो तुम्हें ठीक पड़ रहा है, उस तरफ जा रहे हो। इसमें फर्क है।

एक आदमी जो बाजार को छोड़कर भागता है, जो बाजार से डरकर भागता है, उसका अभी बाजार में अर्थ खोया नहीं है। अगर अर्थ खो जाये तो डर कैसा? और एक आदमी, जो बाजार में अर्थ पाता ही नहीं, इसलिए चला जाता है। ये दोनों जाते हुए मालूम पड़ेंगे, लेकिन दोनों के भीतर क्रांतिकारी फर्क है।

ऐसा समझो कि एक रस्सी पड़ी है। तुम गुजरे पास से, तुमने सांप समझ लिया और तुम भागे। तुम पूरब की तरफ जा रहे थे, तुम पूरब की तरफ ही भागे, लेकिन घबड़ाकर भागे। क्योंकि सांप में तुम्हें भय मालूम पड़ा। फिर एक और आदमी आ रहा है। उसने भी गौर से देखा और उसे सांप नहीं दिखाई पड़ा, रस्सी ही दिखाई पड़ी। उसको भी पूरब जाना है, वह भी पूरब जा रहा है। लेकिन जो घबड़ाकर भागा है उसमें और जो रस्सी को देखकर जा रहा है, बुनियादी फर्क है। दोनों एक ही दिशा में जा रहे हैं। लेकिन जो भाग गया है उसके भागने के पीछे अभी अंधकार है, अंधेरा है, अज्ञान है। और जो जागकर जा रहा है, उसके जाने में प्रकाश है, ज्योति है।

“इस जगत में ज्ञान आदि सारभूत अर्थ हैं। जो पुरुष सोते हैं उनका अर्थ खो जाता है। सतत जागते रहकर पूर्वार्जित कर्मों को प्रकंपित करो। धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर, अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है। ऐसा भगवान महावीर ने वत्स देश के राजा–शतानीक की बहन जयंति से कहा था।’

“प्रमाद को कर्म (आस्रव) और अप्रमाद को अकर्म (संवर) कहा है। प्रमाद, होने से मनुष्य अज्ञानी होता है; प्रमाद के न होने से ज्ञानी होता है।’

“प्रमाद को कर्म…’ प्रमाद यानी मूर्च्छा। प्रमाद यानी सोया-सोयापन। प्रमाद, जैसे कोई भीतरी नशे में तुम पड़े हो।

“प्रमाद को कर्म कहा है…।’

तुम जो भी कर रहे हो, उसका सवाल नहीं है–तुम क्यों कर रहे हो, उसका सवाल है।

यही करना और ढंग से भी किया जा सकता है, जागकर भी किया जा सकता है–तब कर्म नहीं होगा।

समझो। तुम अपने बच्चों में लिप्त हो, राग में डूबे हो। तुमने बड़ी महत्वाकांक्षाएं बच्चों के कंधों पर रख दी हैं। तुम जो नहीं कर पाये जिंदगी में, चाहते हो तुम्हारे बच्चे कर लेंगे। अगर मां-बाप बेपढ़े-लिखे हों तो बच्चों को बुरी तरह पढ़ाते-लिखाते हैं। क्योंकि उनकी एक कमी रह गई, वह खलती है। कम से कम अपने में न हो सकी, अपने बच्चों में पूरी हो जाये। जो मां-बाप जिंदगी भर तड़फते रहे, किसी बड़े पद पर न हो सके, वे अपने बच्चों को पहले से ही तैयार करते हैं कि हम तो चूक गये, तुम मत चूक जाना! अब तुम बच्चों को तैयार कर रहे हो जीवन के युद्ध के लिये। यह एक स्थिति है।

फिर एक दूसरा आदमी है। उसके भी बच्चे हैं। लेकिन जागा हुआ आदमी है। जागते ही “मेरे हैं’, यह तो खयाल समाप्त हो जाता है; “बच्चे हैं’, यह खयाल रह जाता है। “मेरे हैं’, यह तो प्रमाद का हिस्सा है, मूर्च्छा का हिस्सा है।

मेरा क्या है? खाली हाथ हम आते हैं, खाली हाथ हम जाते हैं। और बच्चे मेरे क्या हो सकते हैं? भला मेरे द्वारा आये हों, मैं मार्ग बना होऊं; लेकिन आये तो कहीं अज्ञात से हैं! मेरे चौराहे से गुजरे होंगे, इससे मेरे नहीं हो जाते। मेरे पास हैं, इससे मेरे नहीं हो जाते। मेरे शरीर का सहारा लेकर बड़े हो रहे हैं, इसलिए मेरे नहीं हो जाते। मेरे जीवाणु के माध्यम से प्रगट हुए हैं, इसलिए भी मेरे नहीं हो जाते।

चैतन्य की अपनी यात्रा है। ये जो बच्चे तुम्हारे पास हैं, ये भी अपनी-अपनी यात्रा से आये हैं। इस जीवन में संयोग…तुमसे गुजरे हैं, तुम्हारे नहीं हैं।

तुमने कभी खयाल किया! बाल तुम्हारे शरीर से जुड़े हैं, काट देते हो; फिर तो तुम्हारे नहीं रह जाते! नाखून काट देते हो, फिर तो तुम्हारे नहीं रह जाते! बच्चा जैसे ही पैदा हो गया, मां की देह के बाहर आ गया–तुम्हारा क्या रह गया? “मेरा’–भाव गिर जाये, ममत्व गिर जाये–फिर तुम बच्चों की फिक्र कर देते हो, उनकी साज-संवार कर देते हो; लेकिन इस साज-संवार में अब कोई राग नहीं है। और इस साज-संवार के द्वारा तुम अपनी महत्वाकांक्षाओं को, अपने अहंकार को, अपनी अतृप्त अभीप्साओं को पूरा नहीं करना चाहते। तुम बच्चों को साथ दे देते हो कि ठीक है, संयोग मिल गया, तुम असहाय हो; मुझसे बन सकता है, मैं कुछ कर देता हूं। लेकिन तुम कहते हो, तुम्हें जो होना हो तुम वही होना; मेरी मत सुनना। मैं तो असफल हुआ ही हुआ; अब मैं तुम्हें और खराब न कर जाऊंगा।

एक बात, अगर मां-बाप थोड़े भी जाग्रत हों, तो निश्चित करेंगे–वे बच्चों को सजग कर देंगे कि हमने तो जिंदगी गंवाई ही गंवाई, तुम मत गंवा देना! कृपा करके हम जैसे तो बनना ही मत और कुछ भी बन जाना; क्योंकि यह तो हमने होकर देख लिया। इस होने से तो कुछ भी न पाया।

सोया हुआ बाप उलटी कोशिश करता है। वह कहता है, मेरे जैसे! बच्चे उससे थोड़े भिन्न होने लगते हैं तो वह नाराज होता है। वे प्रतिकृति होने चाहिए। वे ठीक मेरी प्रतिमा होने चाहिए। “मेरे’ हैं, तो उनके माध्यम से किसी तरह का अमरत्व खोजा जाता है, कि मैं तो मिट जाऊंगा, लेकिन मेरी प्रतिमाएं छूट जायेंगी। कोई सिलसिला मेरा जारी रहेगा।

कर्म तो वही हैं। कबीर भी कपड़ा बुनते हैं, बाजार में बेचने जाते हैं। गोरा कुम्हार मटकियां बनाता है, बाजार में बेचता है। रैदास जिंदगी भर जूते बनाते रहे। लेकिन कुछ फर्क हो गया। कबीर अब भी कपड़ा बनाते हैं, लेकिन अब इसमें कोई व्यवसाय नहीं है। अब इससे कुछ धन कमा लेकर धन के ऊपर सांप बनकर बैठ जाने की आकांक्षा नहीं है। जरूरी है; रोटी के लिए, कपड़े के लिए कर लेते हैं। आवश्यक है, कर लेते हैं। इसमें अब कोई वासना नहीं है।

जरूरत और वासना के भेद को समझना। जरूरतें तो सभी की पूरी होनी चाहिए। जरूरतें तो जीवन का अंग हैं। वासनाएं विक्षिप्तताएं हैं। वे कभी पूरी नहीं होतीं। और उनका जीवन की किसी जरूरत से कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी सम्राट होना चाहता है, इसका जीवन की जरूरत से क्या संबंध है? हां, भूखा रोटी मांगता है, यह समझ में आता है। नंगा कपड़ा चाहता है, यह समझ में आता है। लेकिन कोई आदमी सम्राट होना चाहता है। अब यह सम्राट होने से किसी भी जरूरत का कोई संबंध नहीं है।

तुम्हें प्यास लगी है, पानी चाहिए। तुम धूप में खड़े हो, छप्पर चाहिए–समझ में आता है। लेकिन धन का एक ढेर लगा-लगाकर तुम उस धन के ढेर पर बैठे रहो, यह बात रुग्ण है, यह विक्षिप्त है। अरबों रुपये हो जाते हैं लोगों के पास, तब भी दौड़ नहीं रुकती! अब उन रुपयों का कुछ भी नहीं कर सकते। अब कुछ भी बचा नहीं है, जो उनसे खरीदा जा सके; जो भी खरीदा जा सकता था वह सब खरीद लिया, लेकिन फिर भी दौड़ जारी रहती है। यह कोई विक्षिप्त दौड़ है। यह कोई पागलपन है। इस पागलपन से जो मुक्त हो जाता है, उसके कर्म बांधते नहीं। उसके कर्म प्राकृतिक कर्म हो जाते हैं, नैसर्गिक कर्म हो जाते हैं।

प्रमाद को इसलिए महावीर कर्म कहते हैं। करने को कर्म नहीं कहते, करने में जो बेहोशी है उसको कर्म कहते हैं। यह थोड़ा सोचने जैसा है। यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। तुम क्या करते हो, यह सवाल नहीं है–तुम होश में रहकर करते हो कि बेहोश रहकर करते हो। यह तो कर्म की बड़ी अनूठी व्याख्या हुई। प्रमाद को कर्म, अप्रमाद को अकर्म!

“पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवंर।’

तो जाग जाओ, कर्म तो तब भी जारी रहेगा। आखिर महावीर भी जाग गये, फिर भी तो कोई चालीस साल जीवित रहे, कर्म तो किया ही; उठे भी, सोये भी, भोजन भी किया, उपवास भी किया, ध्यान भी किया, मौन भी किया, बोले भी, चुप भी रहे–सब कर्म चलता रहा। लेकिन यह कर्म अब बांधता नहीं है। अब इस कर्म में कोई तंद्रा नहीं है, अब कोई मूर्च्छा नहीं है। अब यह सोये-सोये नहीं हो रहा है, यह जागकर हो रहा है।

जैसे ही तुम जागते हो, जीवन शुद्ध जरूरतों पर आ जाता है। जो गैर-जरूरी है, उसकी पकड़ नहीं रह जाती। ऐसा समझो कि आज अचानक तुम्हें खबर मिले कि पूना में भूकंप होने को है और तुम्हें थोड़ी-सी ही चीजें बचाकर निकलने का मौका है, और तुम सारा घर का सामान इकट्ठा कर लो, और सोचो कि क्या बचायें और क्या छोड़ें। तुम चकित होओगे यह जानकर और यह विचार तुम्हारे मन में जरूर आयेगा कि यह इतना व्यर्थ का सामान इकट्ठा क्यों किया! इसमें बहुत थोड़ा ही काम का होगा जो तुम ले जा सकोगे। और जब तुम चुनने लगोगे, तुम्हें खुद ही समझ में आयेगा, दस में से नौ चीजें तुम खुद ही छोड़े दे रहे हो। लेकिन इनको इकट्ठा करने में बड़ा समय व्यतीत किया। इनको इकट्ठा करने में पागल की तरह दौड़े। इनको इकट्ठा करने में जीवन की बड़ी संपदा खोयी और कूड़ा-कर्कट इकट्ठा किया। इसको ले जाने के क्षण में, तुम खुद ही सोचोगे कि इसमें बहुत-सा तो ऐसा है जो ले जाने योग्य नहीं है।

ऐस्कीमों की जीवन-व्यवस्था में एक प्रक्रिया है, बड़ी बहुमूल्य है! काश, सारी दुनिया में कभी हो जाये तो बड़े काम की हो! ऐस्कीमों, जैसे यहां वर्ष में दीवाली आती है, ऐसा उनका एक दिन आता है–उत्सव का दिन। उस दिन उनके पास जो भी हो, जो व्यर्थ होता है, वह बांट देते हैं। इसका बड़ा परिणाम होता है। घर खाली, शुद्ध, साफ हो जाते हैं। और इसका दूसरा परिणाम यह होता है कि जब सालभर बाद व्यर्थ को बांट ही देना है तो वे व्यर्थ को इकट्ठा भी नहीं करते; क्योंकि वह फिजूल है, वह सालभर बाद बंट जाना है। उसके लिए दौड़-धूप कौन करे!

तो एस्कीमों का घर अत्यंत जरूरत, अत्यंत आवश्यक पर निर्भर है। और तुम ऐस्कीमों को जितना संतोषी पाओगे, किसी को न पाओगे। पर मौत के दिन तो सभी कुछ छूट जाना है; थोड़ा भी न ले जा सकोगे। अगर थोड़ा मौत का स्मरण बना रहे तो तुम व्यर्थ की दौड़-धूप छोड़ दोगे।

तुम अपने सौ कर्मों को जरा गौर से देखना; उसमें से नब्बे तो चुपचाप गिराये जा सकते हैं, जिनके लिए कोई कारण नहीं है।

दो छोटे बच्चे बात कर रहे थे। एक बच्चा कह रहा था कि मेरी मां अदभुत है! वह किसी भी विषय पर घंटों बोल सकती है। दूसरा बोला, यह कुछ भी नहीं है। मेरी मां बिना विषय के घंटों क्या, दिनों बोल सकती है। विषय के घंटों क्या, विषय की कोई जरूरत ही नहीं है।

तुम जरा खयाल रखना, तुम जितना बोल रहे हो, उसमें से कितना जरूरी था, कितना तुम छोड़ सकते थे! तुम जो कर रहे हो, उसमें से कितना जरूरी था, कितना छोड़ा जा सकता था!

धीरे-धीरे अपने जीवन को व्यवस्था दो! होश लाओ! जहां चलकर पहुंचा जा सकता है, वहां दौड़कर क्यों पहुंच रहे हो?

मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तो मैंने देखा कि परीक्षा में विद्यार्थी लिखते तो हाथ से हैं, लेकिन पूरा शरीर खिंचा है। तो मैं उनसे कहता कि जब तुम हाथ से लिख रहे हो तो दो अंगुलियों पर जोर पड़े, यह तो समझ में आता है; लेकिन यह पूरा शरीर अंगूठे से लेकर सिर तक तुम तने हुए क्यों हो? किन्हीं-किन्हीं विद्यार्थियों को बात समझ में आई और वे शरीर को शिथिल छोड़कर लिखे। और बाद में उन्होंने मुझे कहा, यह आश्चर्य की बात है! हम नाहक शक्ति खो रहे थे और उसकी वजह से हड़बड़ाहट पैदा होती थी।

तुम साइकिल चलाते हो, लेकिन शायद ही तुम किसी साइकिल चलानेवाले को ठीक चलाते देखो, क्योंकि अगर ठीक कोई चला रहा हो तो पैर के पंजे पर जोर देना काफी है। पूरे शरीर को तनाव देने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन साइकिल क्या चला रहे हैं, पूरा शरीर तना हुआ है। फिर थक जाते हैं। फिर ऊब जाते हैं।

जिंदगी में जरा गौर करो! जो काम जितने से हो सकता हो उतना तो जरूरी है; उससे रत्तीभर भी ज्यादा डालना मूर्च्छा के कारण हो रहा होगा। वह साइकिल सवार जानता ही नहीं कि क्या कर रहा है। उसे याद ही नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जो काम रत्तीभर से हो सकता था, जो सुई से हो सकता था, वहां तलवार लिए बैठे हो। खुद को लहूलुहान कर लिया है, दूसरों को लहूलुहान कर रहे हो। और सुई तो सी देती कपड़े को, तलवार और फाड़ देती है। जो काम सुई से होता है वह तलवार से हो नहीं सकता।

सम्यक जीवन चाहिए!

महावीर कहते हैं, “प्रमाद को कर्म, अप्रमाद को अकर्म कहा है। प्रमाद के होने से मनुष्य अज्ञानी होता है। और प्रमाद के न होने से मनुष्य ज्ञानी हो जाता है।’ सम्हालो थोड़ा! जीवन की गंध को व्यर्थ गंवाए दे रहे हो।

कहीं की रहेगी न आवारा हो कर

यह खुशबू जो फूलों ने कांटों पे तौली।

बड़ी मुश्किल से खुशबू आती है। बड़ी मुश्किल से! बड़ी जद्दोजहद से! जरा देखो तो बीज से लेकर फूल तक की यात्रा, कितनी कठिन है! करीब-करीब असंभव है।

कितनी अड़चनें हैं! कितने अवरोध हैं! पहले तो बीज टूटे न टूटे; टूट जाये तो ठीक भूमि मिले न मिले; ठीक भूमि भी मिल जाये तो कोई पानी दे न दे, कोई पानी भी दे, सूरज की रोशनी पड़े न पड़े; कोई बच्चा उखाड़ दे पौधे को; कोई जानवर खा जाये या कोई कुत्ता अपना पेशाब-घर बना ले! करोगे क्या? हजार बाधाएं हैं! तब कहीं वृक्ष खड़ा हो पाता। तब कहीं फूल आते। कांटों पर तौलत्तौलकर गंध पैदा करनी पड़ती है।

कहीं की रहेगी न आवारा हो कर

यह खुशबू जो फूलों ने कांटों पे तौली।

–और फिर होता क्या है परिणाम? सिर्फ आवारा होकर भटक जाती है।

मनुष्य होना बड़ी लंबी यात्रा है। इस देश में हम कहते रहे हैं, चौरासी करोड़ योनियां! अनंत-अनंत काल, यात्रा करते-करते, निखारते-निखारते यह फूल खिला है, जो मनुष्य है, जिसको हम मनुष्य कहते हैं। यह मनुष्यता का फूल खिला है। और अब तुम कर क्या रहे हो? यह गंध आवारा हुई जा रही है। यह ऐसे ही व्यर्थ भटकी जा रही है और खोई जा रही है। इतने श्रम से जिसे पाया है, उसे तुम ऐसे चुपचाप बेहोशी में गंवाए दे रहे हो।

“अज्ञानी साधक कर्म-प्रवृत्ति के द्वारा कर्म का क्षय होना मानते हैं; किंतु वे कर्म के द्वारा कर्म का क्षय नहीं कर सकते। धीर पुरुष अकर्म…(संवर या निवृत्ति) के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं। मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा संतोषी होकर पाप नहीं करते।’

“अज्ञानी साधक कर्मप्रवृत्ति के द्वारा ही कर्म का क्षय सोचते हैं…।’ वे सोचते हैं, कर्म को काटना है तो और कर्म करो। ज्ञानी साधक कर्म के द्वारा कर्म का क्षय नहीं मानते।

“अकर्म के द्वारा…’ अकर्म का क्या अर्थ है? पहला–जो व्यर्थ कर्म हैं उन्हें जाने दो। त्याग करने को नहीं कह रहा हूं–बोध से समझो कि व्यर्थ हैं, वे अपने से गिर जायेंगे, चले जायेंगे, विदा हो जायेंगे। तुम्हारा लगाव टूट जायेगा। थोड़ा जागकर अपने जीवन-चर्या को गौर से देखते रहो: सुबह से रात तक क्या कर रहे हो? उसमें क्या-क्या व्यर्थ है? तो पहले व्यर्थ को जाने दो। यह पहला कदम होगा कि धीरे-धीरे तुम व्यर्थ को हटा दो। और तुम नब्बे प्रतिशत व्यर्थ पाओगे। यह मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। निन्यानबे प्रतिशत पाओगे। नब्बे प्रतिशत कह रहा हूं, ताकि तुम एकदम से घबड़ा न जाओ।

एक मित्र को मैंने कहा कि तुम दिन में इस तरह बोलो, जैसे कि हर शब्द के लिए मूल्य चुकाना है; जैसे टेलीग्राम कर रहे हो; जैसे एक-एक शब्द के लिए मूल्य चुकाना पड़ेगा। उन्होंने कुछ दिन प्रयोग किया और मुझे आकर कहा, यह बड़ी हैरानी की बात है! तब तो दस-बीस शब्दों से ही दिन में काम हो जाता है। जहां “हां’ और “ना’ कहने से भी काम हो जाता है, वहां पहले मैं कितना बोले जा रहा था! और इसके बड़े लाभ हुए, उन्होंने कहा। क्योंकि कुछ गलत बोलकर, कुछ व्यर्थ बोलकर हजार झंझटें खड़ी हो जाती थीं।

तुम जरा सोचो! तुम्हारी जिंदगी की कितनी झंझटें तुम्हारे बोलने के कारण खड़ी हो गई हैं! घर आये, कुछ बोल दिए पत्नी से। तब खयाल में नहीं था कि यह बोलने का क्या परिणाम होगा। जब बोला था तो कोई भाव भी न था बुरा; लेकिन बोले, फंसे। तुम भी बेहोश हो। तुम बेहोशी में बोल गये। पत्नी ने बेहोशी में सुना। उसने कुछ का कुछ सुना। लड़ने-झगड़ने पर खड़ी हो गई। अब तुम लाख समझाते हो कि यह मेरा मतलब न था, इससे क्या होता है? अब मतलब न था, यह समझाने के लिए तुम कुछ बोल रहे हो, उसमें से भी पत्नी कुछ पकड़ेगी। अब यह सिलसिला कहां अंत होगा?

थोड़ा सोचो, तुम्हारी जिंदगी की कितनी विपदाएं कम न हो जायें, अगर तुम थोड़े चुप रहो! सोच के बोलो! अत्यंत जरूरी हो तो बोलो। जैसे एक-एक शब्द के लिए मूल्य चुकाना पड़ेगा, इस तरह बोलो। तुम न केवल यह पाओगे कि तुम्हारे बोलने में बल आ गया, तुम यह भी पाओगे कि तुम्हारे बोलने के कारण अड़चनें कम हो गईं; न तुम अपने लिए पैदा करते हो, न औरों के लिए अड़चनें पैदा करते हो। और तुम्हारे जीवन में एक प्रसाद अभिव्यक्त होना शुरू हो जायेगा। क्योंकि जो चुप रहता है, उसके पास ऊर्जा इकट्ठी होती है। बोल-बोलकर तुम उसे चुकता कर लेते हो।

अकर्म की तरफ पहला कदम है: व्यर्थ कर्म के प्रति जागो। फिर, जो सार्थक बच रहे–बचेगा, कुछ तो बचेगा; क्योंकि जब तक जीवन है, कुछ कर्म रहेगा, जीवन कर्म है–फिर जो सार्थक बचे, उसके प्रति साक्षी-भाव रखकर करो, कर्ता रहकर मत करो। ऐसे करो जैसे तुम करनेवाले नहीं हो। भूख लगी है शरीर को, तुम आयोजन कर देते हो; लेकिन तुम भूख से भी दूर हो, आयोजन से भी दूर हो। न तो भूख तुम्हें लगी है और न आयोजन तुम करते हो। तुम अकर्ता-भाव में डूबे रहते हो। तुम कहते हो, साक्षी हूं, देखता हूं। शरीर को भूख लगती है, रोटी जुटा देता हूं। प्यास लगती है, सरोवर के पास चला जाता हूं। लेकिन तुम अब कर्ता नहीं हो।

यह जो कर्ता-भाव का चला जाना है और साक्षी-भाव से, जागकर, अप्रमाद से कर्म को करना है–उसको महावीर अकर्म कहते हैं। अकर्म का मतलब तुम यह मत समझना कि कुछ न करना; जैसा कि जैन मुनियों ने समझ लिया है। अकर्म का अर्थ यह नहीं है कि तुम बस बैठ गये। क्योंकि तुम्हारे बैठने से भी क्या होगा?

एक संन्यासी मुझे मिलने आये। काश्मीर में एक शिविर मैंने लिया था। उसके पहले ही वे मुझसे मिलने आये थे, तो मैंने उनसे कहा कि अच्छा हो काश्मीर आ जायें। उन्होंने कहा, यह जरा मुश्किल है। चलो, मैंने कहा, जाने दो। बंबई में जहां मैं था, जहां वे मिलने आये थे, मैंने कहा, कल सुबह फलां-फलां जगह, कुछ मित्र ध्यान करने को इकट्ठे हो रहे हैं, वहां आ जाओ। उसने कहा, यह भी बड़ा मुश्किल है। मैंने कहा, मुश्किल क्या है? मैं समझूं। तो उन्होंने कहा, मुश्किल यह है–उनके साथ एक सज्जन और थे–कि मैं पैसा खुद नहीं रखता; पैसे को छूने का मैंने त्याग कर दिया है। तो टैक्सी में बैठना पड़े, तो पैसे की तो जरूरत पड़ेगी। ट्रेन में बैठना पड़े तो पैसे की जरूरत पड़ेगी। तो ये सज्जन को साथ रखना पड़ता है। जहां इनको सुविधा हो, वहीं मैं आ सकता हूं। और कल इनको सुविधा नहीं है। तो मैंने कहा, यह भी बड़ा मजा हुआ। पैसा तुम इनकी जेब में रखे हुए हो…। यह तो उलझाव और बढ़ गया। तुम समझ रहे हो, तुम पैसा नहीं छूते। तुम सोच रहे हो, तुम पैसे से मुक्त हो गये। तुम पैसे से मुक्त नहीं हुए, इस आदमी से और बंध गये। इससे तो पैसा ही ठीक था, अपने ही खीसे में रख लेते, अपने ही हाथ से निकाल लेते। इसके हाथ से निकलवाया। काम तो तुम्हारा ही होना है। बिना पैसे के भी नहीं होता, यह भी तुम्हें पता है। तो यह किसको धोखा दे रहे हो तुम? यह तुम्हारे हाथ में ऐसी कौन-सी खराबी है या तुम्हारे हाथ में ऐसा कौन-सा गुण है, जिसके कारण अपने हाथ को बचा रहे हो, इसका हाथ डलवा रहे हो? तुम अगर पाप कर रहे हो तो कम से कम अकेले ही कर रहे थे; अब तुम इससे भी करवा रहे हो। तुम पर दोहरा जुर्म होगा। तुम फंसोगे बुरी तरह। तुम यह मत सोचो कि तुम त्यागी हो।

अब जैन मुनि है। बैठ गया है दूर सिकुड़कर। वह कहता है, हम कुछ नहीं करते। लेकिन कोई उसके लिए रोटी कमायेगा। कोई उसके लिए वस्त्र कमायेगा।

जो बड़े जैन मुनि हैं, उनको लोग बुलाने में गांव में डरते हैं; क्योंकि उनका गांव में आने का मतलब है: सारे श्रावकों की मुसीबत। भारी खर्च का मामला है। तो बड़े मुनियों को छोटे गांव तो बुला ही नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। क्योंकि उतना खर्च कौन उठायेगा?

अब यह थोड़ा सोचना! अगर तुम खाली बैठ गये तो तुम्हारी जरूरतें कोई और पूरी करेगा। लेकिन जब तक जरूरतें हैं–और तब तक जरूरतें है जब तक जीवन है–तो कर्म तो जारी रहेगा। यह कर्म दूसरे के कंधे पर रख देने से, यह दूसरे के कंधे पर रखकर गोली चलाने से तुम बचोगे न। इसमें तुम पर दोहरा पाप लग रहा है। तुम जो कर रहे हो वह तो कर ही रहे हो और इस आदमी के कंधे पर रख रहे हो। इस आदमी को भी तुम साधन बना रहे हो। यह भी गलत है।

जो करना है जरूरी, वह करना। फिर साक्षी-भाव रखना। शरीर की जरूरत पूरी कर देनी है। जरूरत से ज्यादा की आकांक्षा नहीं करनी है। मूल जरूरत पर रुक जाना है। और जो भी हो रहा है, उसके प्रति साक्षी-भाव रखना है।

“धीर पुरुष अकर्म के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं। मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा संतोषी होकर पाप नहीं करते।’

मेधावी! महावीर उन्हीं को मेधावी कहते हैं, इंटेलीजेंट, जो साक्षी होने में समर्थ हैं। और मेधा मेधा नहीं। जिसको तुम मेधावी कहते हो, वह तुम जैसा ही है–मूर्च्छित। हो सकता है, किसी दिशा में कुशल है। कोई तकनीक उसने सीख लिया है। तुम कहते हो, कोई चित्रकार है बड़ा मेधावी; क्योंकि तुम जैसा चित्र बनाते हो, उससे बहुत अच्छा चित्र बनाता है। लेकिन जीवन का चित्र तो तुम जैसा बना रहे हो, वैसा ही वह भी बना रहा है। तुम कहते हो, कोई कवि है, बड़ा मेधावी। क्योंकि जो तुम नहीं कह सकते, जो तुम नहीं गा सकते, वह गा देता है। ठीक है। लेकिन जीवन का अंतिम चित्र तो तुम्हारे जैसा ही वह बना रहा है। उसमें कोई फर्क नहीं है। क्रोध तुम्हें है, उसे है। लोभ तुम्हें है, उसे है। मत्सर तुम्हें घेरता है, उसे घेरता है।

महावीर कहते हैं, जिसने जीवन के चित्र को और जीवन के गीत को सम्हाल लिया, जिसने वहां बुद्धिमत्ता का उपयोग कर लिया, वही मेधावी है; बाकी सब मेधा तो कहने की मेधा है।

लज्जते-दर्द के ऐवज दौलते-दो जहां न लूं

दिल का सकून और है, दौलते-दो जहां है और।

सारे संसार की संपत्ति भी मिलती हो उस आदमी को जिसने थोड़े मन की शांति जानी, तो वह लेने को राजी न होगा। दो लोकों की भी संपत्ति मिलती हो..।

लज्जते-दर्द के ऐवज दौलते-दो जहां न लूं।

यह जो सत्य की खोज में पीड़ा उठानी पड़ती है, इस पीड़ा के बदले भी अगर दुनिया की सारी संपत्ति मिलती हो, दोनों दुनिया की मिलती हो, तो भी न लूं।

दिल का सकून और है, दौलते-दो जहां है और। वह दिल की शांति कुछ बात और है। वह कुछ संपदा और है। एक बार जिसके मन में उसकी भनक पड़ गई, फिर सब फीका हो जाता है। मेधावी पुरुष लोभ के कारण धर्म नहीं करता। कोई स्वर्ग पाने के लिए धर्म नहीं करता, न भय के कारण, नर्क से बचने के लिए धर्म नहीं करता। मेधावी पुरुष तो पाता है कि जितना-जितना जागरण आता है, उतना-उतना आनंद आता है। जागरण में ही छिपा है आनंद। आनंद जागरण का फल नहीं है; आनंद जागरण का स्वभाव है। ऐसा नहीं है कि पहले जागरण मिलता है, फिर आनंद मिलता है–जागरण में ही मिल जाता है। इधर तुम जागते चले जाते हो, उधर आनंद की नई-नई पुलक, नई-नई किरण, नया-नया नृत्य भीतर होने लगता है।

इस अहद में कमयाबिए-इन्सां है कुछ ऐसी

लाखों में बामुश्किल कोई इन्सां नज़र आया।

लाखों लोग हैं, आदमी कहां! लाखों आदमियों में कभी एक-आध आदमी नजर आता है। क्योंकि आदमी का जो बुनियादी लक्षण है, जागरण, वह दिखाई नहीं पड़ता। पशु हैं, उन्हें भी भूख लगती है तो खोजते हैं; कामवासना जगती है तो कामवासना की तृप्ति करते हैं। पशुओं को भी लोभ दे दो तो राजी हो जाते हैं, भय दे दो तो राजी हो जाते हैं। कुत्ते को मारो-पीटो तो जैसा करतब करना हो, कर देगा। लोभ दो, रोटी के टुकड़े डालो, तो तुम्हारे पीछे जी-हजूरी करता फिरेगा। अगर मनुष्य भी ऐसे ही लोभ और भय के बीच ही आंदोलित हो रहा है, तो फिर मनुष्य और पशु में भेद क्या है?

मनुष्यता उसी दिन प्रारंभ होती है जिस दिन तुम्हारी वृत्तियों से पीछे एक जागरण का स्वर, एक जागरण का स्रोत पैदा होता है। जागते ही तुम मनुष्य बनते हो, उसके पहले नहीं। और ऐसा भी नहीं है कि कभी-कभी तुम न जागते होओ। ऐसा भी नहीं है कि जागने के क्षण कभी-कभी अचानक न आ जाते हों। क्योंकि जो तुम्हारा स्वरूप है, उसकी झलक कभी-कभी मिल ही जाती है। कितने ही आकाश में बादल घिरें, आकाश कभी न कभी दो बादलों के बीच से दिखाई पड़ ही जाता है।

तो खयाल रखना, तुम भी कभी-कभी जागते हो; हालांकि तुम उसका कोई हिसाब नहीं रखते, क्योंकि तुम प्रत्यभिज्ञा नहीं कर पाते कि यह क्या है। तुम उसे कुछ और-और नाम दे देते हो। कभी ऐसा होता है कि अचानक खड़े हो तुम, सुबह का सूरज ऊगा, पक्षियों ने गीत गाया–और एक बड़ी गहरी शांति और सुकून तुम्हें मिला! तुम सोचते हो शायद सुबह के सौंदर्य के कारण, सूरज के कारण, पक्षियों के गीत के कारण। नहीं। यद्यपि पक्षियों के गीत, सुबह के सूरज और खुले आकाश ने वातावरण दिया, उस वातावरण में क्षणभर को तुम अवाक रह गये, क्षणभर को विचारधारा बंद हो गई, क्षणभर को बादल यहां-वहां न हिले, बीच में से थोड़ा-सा आकाश, भीतर का आकाश दिखाई पड़ गया।

कभी किसी के प्रेम में मन शांत हो गया। कभी संगीत सुनते समय। कोई कुशल वीणा-वादक वीणा बजाता हो और उसके तार बाहर कंपते रहे और भीतर, तुम्हारे भीतर भी कुछ कंपा; वीणा बंद हुई, तुम्हारे भीतर भी कुछ क्षणभर को बंद हो गया। एक गहन शांति तुम्हें अनुभव हुई।

लेकिन तुम सोचोगे, शायद यह वीणा-वादक की कुशलता के कारण है। यद्यपि उसने निमित्त का काम किया, लेकिन वस्तुतः घटना तुम्हारे भीतर घटी।

ऐसे जीवन में तुम्हें कई बार क्षण मिलते हैं; लेकिन तुम उनके कारण गलत समझ लेते हो।

जब भी तुम्हें शांति मिलती है तो भीतर कुछ प्रकाश पैदा होता है, उसके कारण ही मिलती है। एक बार यह समझ में आ जाये तो फिर तुम बाहर के कारणों को नहीं जुटाते; फिर तुम भीतर की ही जागृति को सम्हालने में लग जाते हो।

ऐ काश हो यह जज्बएत्तामीर मुस्तकिल

चौंके तो हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां से हम।

काश! निर्माण का यह अवसर थोड़ा स्थायी हो जाये। गहरी नींद से चौंके तो हैं, लेकिन फिर कहीं हम नींद में न खो जायें।

ऐसा रोज होता है। तुम्हारी नींद भी टूटती है, लेकिन फिर तुम नींद में खो जाते हो।

ऐ काश हो यह जज्बएत्तामीर मुस्तकिल

चौंके तो हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां से हम।

हो सकती है। यह निर्माण की क्षणभर को आई हुई दशा स्थायी हो सकती है।

लेकिन तुम्हें स्थायी करनी पड़े। इसे दोहराना पड़े। इसे बार-बार आमंत्रित करना पड़े। जब भी समय मिले, अवसर मिले, फिर-फिर इस भाव-दशा को जगाना पड़े–ताकि इससे पहचान होने लगे; ताकि इससे संबंध जुड़ने लगे; ताकि धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर यह प्रकाश का स्तंभ खड़ा हो जाये।

“मनुष्यो सतत जागते रहो! जो जागता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है, वह धन्य नहीं है। धन्य वही है, जो सदा जागता है।’

जागरह नरा! णिच्चं जागरमाणस्स बङ्ढते बुद्धी।

जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो।।

जो जागता है वह धन्य है। मनुष्यो, सतत जागते रहो! जो जागेगा उसकी मेधा बढ़ती है। जो सोता है उसकी मेधा सो जाती है। जो जागता है उसका भाग्य भी जागता है। जो सोता है उसका भाग्य भी सो जाता है। जागरण की पराकाष्ठा ही भगवत्ता है। इसलिए मैंने कहा, भगवान का अर्थ है: जिसका भाग्य पूरा जाग गया; जिसने अपने भीतर कोई कोना-किनारा सोया हुआ न छोड़ा, जिसने अंधेरे की कोई जगह न छोड़ी।

उठ कि खुर्शीद का सामाने-सफर ताजा करें

नफसे-सोख्त-ए-शाम औ सहर ताजा करें!

उठ कि खुर्शीद का सामाने-सफर ताजा करें

उठो कि सूरज की यात्रा पर चलें! यह सूरज कोई बाहर का सूरज नहीं–यह भीतर के जागरण का सूरज है।

“जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं, और वह स्वयं भी दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं प्रकाशवान रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।’

“जह दीवा दीवसयं’–जैसे दीये से दीया जल जाता है, दीप से दीप जले, ऐसे किसी जाग्रत पुरुष को खोजो, जिसके पास तुम्हारे भीतर भी जागरण की आकांक्षा जगे; जिसके पास तुम्हारे भीतर भी जागने की परम वासना जगे; जिसके पास तुम्हारे भीतर भी संक्रामक हो जाये और तुम भी सोचने लगो, विचारने लगो, प्रयास करने लगो: “कैसे नींद को तोड़ें!’ किसी जागे हुए का साथ चाहिए। शास्त्र से यह न हो सकेगा। किसी जागे हुए का साथ चाहिए! तुम सोये हो तो कोई जागा हुआ ही तुम्हें जगा सकता है। शास्त्र को तुम रखे रहो, तुम उसका तकिया बना लोगे। शास्त्र क्या करेगा, अगर तुम तकिया बना लोगे? तुम उस पर ही सिर टेककर और आराम से सो जाओगे, शास्त्र क्या करेगा? कोई तीर्थंकर चाहिए!

महावीर कहते हैं: वही है आचार्य जो जागा हुआ है, जिसका आचरण जागृति से निष्पन्न है। जैसे एक दीये से और दीप जल जाते हैं, सैकड़ों दीप जल जाते हैं; फिर भी जो दीप जल रहा था, वह तो दीप्त ही रहता है, उसका कुछ खोता थोड़े ही है। यही तो आध्यात्मिक संपदा की महिमा है। बांटो, बंटती नहीं। दिए चले जाओ, चुकती नहीं। जीवन की और सभी संपदाएं बांटने से कम होती चली जाती हैं। इसलिए जीवन की और सभी संपदाएं आदमी को कंजूस बनाती हैं, कृपण बनाती हैं। सिर्फ आध्यात्मिक संपदा ऐसी संपदा है कि बांटो, बंटती नहीं। एक दीये से जलाये जाओ हजार दीये, कुछ ऐसा नहीं कि पहले दीये की जिससे ज्योति जलाई थी, अब ज्योति कम हो गई। ज्योति का दान तुम्हें कम नहीं करता। ज्योति का दान एक ज्योतिर्मय संघ का निर्माण करता है।

ऐसे महावीर ने हजारों दीये जलाये; जिन-संघ का निर्माण हुआ। ऐसे बुद्ध ने हजारों दीये जलाये; बुद्ध-संघ का निर्माण हुआ। लेकिन फिर धीरे-धीरे जब जीवित पुरुष खो जाता है, वचन शास्त्र में संगृहीत हो जाते हैं, लोग शास्त्रों का तकिया बना लेते हैं।

पड़ा था सूना सितार दिल का, हुई अचानक यह जाग तुमसे

जो जिंदगी रोग बन चुकी थी, बन गई है आज राग तुमसे।

हजारों लोगों ने महावीर के पास ऐसा अनुभव किया।

जो जिंदगी रोग बन चुकी थी, बन गई है आज राग तुमसे

पड़ा था सूना सितार दिल का, हुई अचानक यह जाग तुमसे।

ध्यान रखना, एक बड़ा गहरा सिद्धांत इस सदी में कार्ल गुस्ताव जुंग ने खोजा। उसे उसने सिनक्रानिसिटी कहा है। कठिन है उसका अनुवाद। अर्थ यह है कि अगर एक व्यक्ति के भीतर कोई घटना घटे, एक व्यक्ति की वीणा बजे, तो उसके पास जो भी आयेगा, उसकी वीणा पर भी वैसी ही झनक शुरू हो जायेगी। उसे भी याद आ जायेगी किसी सोये हुए राग की। उसे भी अपना स्मरण आना शुरू होगा। इसमें कार्य-कारण का सिद्धांत नहीं है। ऐसा नहीं है कि महावीर की मौजूदगी के कारण तुम जागते हो। जागरण तो तुम्हारा स्वभाव है; महावीर की मौजूदगी के कारण भूला हुआ, बिसरा हुआ याद आ जाता है। जो होता है, वह तो तुम्हारे भीतर ही होता है, वह महावीर के बिना भी हो सकता था; लेकिन महावीर की मौजूदगी में सरलता से हो जायेगा। जैसे एक दीया जला हो और दूसरा दीया जले हुए दीये को देखकर इस स्मरण से भर जाये कि मैं भी दीया हूं, मैं भी जल सकता हूं। जैसे एक बीज फूटा हो और दूसरे बीज के भीतर भी अकुलाहट पैदा हो जाये कि मैं भी फूट सकता हूं।

इसलिए सत्संग का पूरब में बड़ा मूल्य रहा है। सत्संग कीमिया है, रसायन, अल्केमी। सत्संग का अर्थ है: किसी ऐसे आदमी के पास होना, किसी ऐसे आदमी की उपस्थिति में होना, जो जागा है। तो धीरे-धीरे बिना कुछ किये तुम्हारे भीतर भी कोई नया राग उठने लगेगा। तुम अचानक पाओगे, कोई नींद टूटने लगी, कोई पर्तें हिलने लगीं।

मरहबा ऐ जज्बए-खुद ऐतबादी मरहबा

वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी।

किसी ऐसे व्यक्ति के पास तुम्हारे भीतर पड़ा हुआ आत्मविश्वास जिसे तुम भूल गये हो, जग आयेगा। शाबाश! आत्मविश्वास की दृढ़ता, शाबाश!

मरहबा ऐ जज्बए-खुद ऐतबादी मरहबा!

शाबाश! तुम अपने भीतर ही अनुभव करोगे, कुछ सोया जगने लगा। तुम अपनी ही पीठ थप थपाओगे।

वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी।

और जरा-सा तुम्हारे भीतर तूफान हिल जाये कि नाव जो पड़ी है जन्मों-जन्मों से किनारे वह रवाना हो जाये, किश्ती चल पड़े।

सत्संग में गुरु कुछ करता नहीं, सिर्फ उसकी मौजूदगी…। मौजूदगी भी कुछ करती नहीं–मौजूदगी से कुछ होता है। सूरज कुछ एक-एक फूल को पकड़कर खोलता थोड़े ही है; ऊगा इधर, फूल खिलने लगे।

वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी।

कुछ सूरज सुबह ऊगकर एक-एक पक्षी के द्वार पर दस्तक तो देता नहीं कि गाओ, प्रभात की बेला आ गई! गीत गुनगुनाओ! लेकिन सूरज ऊगा–वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी। कुछ पक्षियों के कंठों में कोई प्यास जग उठती है, कोई गीत अपने से फूटने लगता है!

सूरज की मौजूदगी…ऐसी तीर्थंकर की मौजूदगी; ऐसे अवतार की मौजूदगी, मसीहा की मौजूदगी, पैगंबर की मौजूदगी; ऐसे किसी व्यक्ति की मौजूदगी जिसका दीया जल रहा है अकंपित। ऐसा क्षण अगर कहीं मिलता हो तो उसे चूक मत जाना। तुम्हारा मन हजार तरकीबें खोजेगा चूकने की। इसी मन के कारण तो तुम महावीर को भी चूके, बुद्ध को भी चूके, कृष्ण को भी, क्राइस्ट को भी। तुम चूकते ही चले गये हो। चूकने की तुम्हारी आदत बन गई है। सब दांव पर लगा देना अगर कभी तुम्हें, कहीं भी किसी के सान्निध्य में ऐसा लगे की यहां दीया जला है, तब सब दांव पर लगा देना। यह जुआरियों का काम है। यह अंधेरे में उतरना है। साहस और श्रद्धा! लेकिन दांव पर लगा देना।

क्यों? क्योंकि अगर खोया तो क्या खोयेगा? तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं खोने को। अगर मिल गया तो सब मिल जायेगा। अगर खोया तो कुछ भी खोया नहीं। लेकिन तुम्हारे पास जो है, तुम उसे अभी बहुत कुछ समझते हो।

मैंने सुना है, शिवपुरी के पास एक विराट कवि सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। कुछ कवि एक कार में बैठकर वहां जा रहे थे। रास्ते में डाकुओं ने घेर लिया।

कवियों में से बोला एक, “भैया! तुम्हारे गांव जा रहे हैं, कवि सम्मेलन में भाग लेने। हमारे पास धरा क्या है? कुछ कविताएं ही सुना सकते हैं। तो सुन लो।’ डाकुओं ने उन्हें ग्यारह रुपये दिये और कहा, “महाराज! कविता आप गांव में ही सुनाना और जरा देर तक सुनाना तो ठीक रहेगा। हमें अभी दुनिया में और भी काम करने हैं।

महावीर अगर तुम्हारे द्वार पर आकर तुम्हें गीत भी सुनाने को राजी हो जायें तो भी तुम कहोगे, “महाराज! किसी और को खोज लो, अभी हमें दुनिया में बहुत और काम करने हैं। ये ग्यारह रुपये दक्षिणा ले लो हमें छोड़ने की। यह कविता कहीं और सुना देना।’

महावीर के चरणों में तुमने फूल चढ़ाये–वे ग्यारह रुपये हैं कि महाराज! आप शांत रहो। हमें बख्शो। अभी हमें दुनिया में और बहुत काम पड़े हैं।

लेकिन इस दुनिया में जरा गौर से देखना, क्या काम तुम कर रहे हो? और जिस दुनिया में तुम इतने उलझे हो, वहां तुम क्या खोज रहे हो? मेरे देखे तो सभी लोग परमात्मा को खोज रहे हैं। कुछ लोग गलत जगह खोज रहे हैं, कुछ लोग ठीक जगह खोज रहे हैं। कुछ लोग ऐसे दरवाजों पर खोज रहे हैं जहां दीवालें हैं, दरवाजे नहीं हैं, कुछ लोग ठीक दरवाजों पर दस्तक मार रहे हैं।

मैं तुमसे कहता हूं, वेश्या के घर पर भी जो आदमी दस्तक देता है वह भी परमात्मा की खोज में ही वहां गया है। क्योंकि वेश्या के द्वार पर भी वह आनंद की तलाश में गया है–और आनंद परमात्मा की तलाश है। जिसने शराबघर में शराब पीकर बेहोश…नालियों में गिर पड़ा है, वह भी परमात्मा की ही तलाश में गया था। क्योंकि आनंद की खोज परमात्मा की खोज है। लेकिन गलत जगह। कोई और मधुशाला खोजनी थी, जहां अदृश्य अंगूरों की सुरा ढाली जाती है! कहीं और पियक्कड़ होना था, पियक्कड़ ही होना था तो! कहीं किसी रामकृष्ण के पास डूबना था पीकर!

कहीं भी तुम खोज रहे हो, तुम्हारी खोज कुछ भी हो, तुम्हारा बहाना कुछ भी हो, अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, आनंद की तलाश में निकले हो। अगर इतना तुम्हें समझ में आ जाये तो बहुत कठिनाई न बचेगी। फिर तुम्हारे पास एक कसौटी हो गई कि “जहां मैं खोज रहा हूं, वहां आनंद मिल सकता है?’ कितनी बार तो वहां गया हूं, सदा खाली हाथ लौटा हूं। कुछ खोकर लौटा हूं, पाकर तो कुछ भी नहीं लौटा। कुछ और दीन होकर लौटा हूं। कुछ और दरिद्र होकर लौटा हूं। भिक्षा-पात्र बड़ा भला हो गया हो, हृदय का पात्र भरा तो नहीं।

आनंद खोज रहे हो, यह स्पष्ट हो, तो कसौटी हाथ में रहेगी। तो तुम जांच लेना। जैसे सोना जांचता है सुनार, पत्थर पर कस लेता है; आनंद पर कसते जाना, कसते जाना। तुम पाओगे, जिंदगी, जिसको तुम जिंदगी कहते हो, कोई भी उस आनंद के पत्थर पर सोना साबित नहीं होती। तभी तुम सुन सकोगे किसी जाग्रत पुरुष के वचन, किसी जिन-पुरुष के वचन।

लेकिन तुम अपने को धोखा दे रहे हो। तुम मांगते कुछ हो, मांगना कुछ और चाहा था, करते कुछ हो, बताते कुछ हो। दूसरों को ही धोखा देते हो, ऐसा नहीं है; खुद को भी धोखा दे लेते हो।

मैंने सुना है, एक यहूदी रबाई दूसरे दिन के सुबह के लिए अपना प्रवचन तैयार कर रहा था और बाहर कुछ आवारा बच्चे शोरगुल मचा रहे थे। तो वह उनसे परेशान था, बाधा पड़ रही थी। तो वह खिड़की पर गया। उसने कहा कि तुम यहां क्या कर रहे हो, पागलो! नदी की खबर है, एक बड़ा राक्षस आया है। बड़ा विकराल है। बड़ा भयंकर है! ऐसा कभी देखा नहीं गया। तुम यहां क्या कर रहे हो?

उसका इतना कहना था कि वे बच्चे तो भागे सरपट नदी की तरफ। रबाई ने सोचा कि ठीक, झंझट मिटी। वह अपना आकर फिर पढ़ाई-लिखाई में लग गया। लेकिन थोड़ी ही देर में उसने देखा, सारा गांव नदी की तरफ जा रहा है। उसने खिड़की पर खड़े होकर देखा, पूछा, “भाइयो! कहां जा रहे हो?’ लोगों ने कहा कि “अरे तुम्हें पता नहीं अभी तक? नदी के किनारे एक राक्षस आया हुआ है। बड़ा विकराल है! हरे रंग का है। बड़े-बड़े दांत हैं।’ जो रबाई ने बताया भी नहीं था, वह भी सब उन्होंने बताया। रबाई ने कहा, ठहरो! मैं भी आया। रबाई ने अपने मन में कहा कि अरे बात तो मैंने ही गढ़ी है। पर उसने कहा, कौन जाने, सच ही हो!

दूसरे को धोखा देते-देते आदमी खुद को भी धोखा दे लेता है। कौन जाने, सच ही हो! कुछ हर्जा भी क्या है जाने में! देख ही लेना चाहिए!

तुम कहते कुछ और हो, चाहते कुछ और हो, सोचते कुछ और हो। तुम्हारा जीवन तुम्हारे ही हाथ से पैदा की गई उलझनों में उलझ गया है।

एक भिखारी मुल्ला नसरुद्दीन को देखकर चिल्लाया, “बड़े मियां! भूखा हूं, कुछ पैसे दे दो तो खाना खा लूं।’ मुल्ला ने दयावश बगल के हलवाई की दुकान पर ले जाकर उसे खाना खिलवा दिया। खाना खाकर भिखारी बड़ा नाराज होता बाहर निकला और बड़बड़ाया, “अजीब मजाक है! पिक्चर देखने के लिए तो दो रुपये चाहिए, वे तो जुटते नहीं, खाना सुबह से पांच लोग खिला चुके।’

मगर तुम मांगते खाना हो, देखना पिक्चर है!

तुम जिंदगी में जरा गौर से देखना, तुम क्या मांग रहे हो? क्योंकि तुम जो मांग रहे हो, वह मिल जायेगा। तब तुम पछताओगे। न मिला तो पछताओगे। मिल गया तो पछताओगे। क्योंकि मांगा तुमने कुछ और था और चाहा कुछ और था। फिर उस भिखारी को तो पता भी था अपनी चाह का, तुम्हें अपनी चाह का भी कोई पता नहीं।

इस बेहोशी को तोड़ो। ठीक-ठीक साफ कर लो, क्या चाहना है, ठीक-ठीक दिशा खोज लो, कहां खोजना है? और दो ही दिशायें हैं, ज्यादा उलझन नहीं है। या तो आदमी बाहर की तरफ खोजता है या भीतर की तरफ खोजता है। बाहर की तरफ खोजकर तुमने देख भी लिया है। थोड़ा भीतर को भी मौका दो!

और ध्यान रखना, सांसारिक आदमी को तो एक ही अनुभव है–बाहर की तरफ का; धार्मिक आदमी को दोनों अनुभव हैं–बाहर का भी, भीतर का भी। इसलिए धार्मिक आदमी की बात जरा गौर से सुन लेना। इसलिए महावीर की, कृष्ण की, बुद्ध की बात को जरा गौर से सुन लेना। तुम जहां खोज रहे हो वहां तो उन्होंने भी खोजा था। नहीं पाया। फिर उन्होंने वहां खोजा जहां तुमने अभी नहीं खोजा है। और वहां पाया।

तो एक बार थोड़ा-थोड़ा समय, थोड़ी-थोड़ी शक्ति निकालो। तेईस घंटे संसार को दे दो, एक घंटा स्वयं के लिए बचा लो। जिस आदमी के पास अपने लिए एक घंटा भी नहीं है, उससे बड़ा दरिद्र कोई भी नहीं है। उसे ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, जो कहना हो कहो; लेकिन एक घंटा अपने लिए बचा लो। तुम आखिर में मरते वक्त पाओगे कि बाकी तेईस घंटे व्यर्थ गये, वही एक घंटा असली बचाया हुआ सिद्ध हुआ। और वह एक घंटा तुम्हारे तेईस घंटों को जीत लेगा, हरा देगा। क्योंकि जब तुम्हें रस आने लगेगा, रसधार बहेगी, तो फिर तुम कैसे धोखा दोगे अपने को? जब असली सिक्के दिखाई पड़ने लगेंगे तो नकली सिक्कों के धोखे में तुम आओगे कैसे?

तोड़ो इस बेहोशी को। और तुम्हारे बिना तोड़े कोई और तोड़ न सकेगा।

उठ कि खुर्शीद का सामाने-सफर ताजा करें।

–उठो! थोड़ा आत्मविश्वास जगाओ!

मरहबा ऐ जज्बए-खुद ऐतबादी मरहबा

वो हिला तूफां का दिल, किश्ती रवां होने लगी।

आज इतना ही।


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जिनसूत्र–(भाग–1 ) प्रवचन–16

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उठो, जागो—सुबह करीब है—प्रवचन सोलहवां

प्रश्‍नसार:

1—जैसे महावीर के ‘अहिंसा’ शब्‍द का गलत अर्थ लिया गया,

ऐसे ही क्‍या आपका ‘प्रेम’ शब्‍द खतरे से नहीं भरा है?

2—जो दीया तूफान से बुझ गया, उसे फिर जला के क्‍या करूं?

जो परमात्‍मा घर से ही भटक गया, उसे घर वापस बुला के क्‍या करूं?

3—तेरे गुस्‍से से भी प्‍यार, तेरी मार भी स्‍वीकार।

पहला प्रश्न:

कल आपने बताया कि महावीर ने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि लोग उसका गलत अर्थ लेते हैं–और यह कि आज लोग अहिंसा का गलत अर्थ लेते हैं, इसलिए आप प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं। पर जैसा लोग महावीर के समय में प्रेम शब्द का गलत अर्थ करते थे, क्या आज भी वही स्थिति नहीं है? और आपके द्वारा सर्वाधिक उपयुक्त शब्द, प्रेम, क्या आज भी खतरे से भरा नहीं है?

शब्द-मात्र खतरे से भरा है। क्योंकि जैसे ही बोला गया शब्द, बोलनेवाले की मालकियत उस पर समाप्त हो जाती है; सुननेवाला मालिक हो जाता है। कुछ मैंने कहा, कहते ही मैं मालिक नहीं रहा; सुनते ही तुम मालिक हो गये। अब तुम क्या अर्थ करोगे–तुम पर निर्भर है।

तो जो शब्दों से डरते हों, उन्हें तो बोलने का ही उपाय नहीं है। क्योंकि अर्थ मैं नहीं डाल सकता; अर्थ तो तुम डालोगे। मेरा अर्थ तो मेरे हृदय में रह जायेगा; शब्द की खाली खोल तुम तक जायेगी; आत्मा फिर तुम उसमें डालोगे। तो अर्थ तो सदा तुम्हारा होगा। और चूंकि तुम उपद्रव से ग्रस्त हो, तुम जो भी अर्थ डालोगे वह भी उपद्रव-ग्रस्त होगा। क्योंकि तुम बड़े भ्रांत हो, तुम्हारे अर्थ भ्रांत ही होंगे। तुम गलत ही निकाल लोगे।

तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि जिन्होंने जाना है, वे चुप रह जायें। लेकिन चुप रह जाने का भी तुम अर्थ करोगे कि क्यों चुप रह गये। बुद्ध ने बहुत-से प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये–सिर्फ इस कारण कि उन प्रश्नों के उत्तर लोगों को गलत अर्थों में ले जाते हैं। तो बुद्ध के मरने के बाद जो सबसे बड़ा विवाद बुद्ध के अनुयायियों में उठा, वह यह था कि बुद्ध इन प्रश्नों के संबंध में चुप क्यों रह गये! और बुद्ध-धर्म के जो खंड-खंड टुकड़े हुए, वह उनके चुप रह जाने की वजह से हुए। क्योंकि किसी ने कहा कि वे चुप रह गये, क्योंकि जो उन्होंने जाना वह शब्द में प्रगट करने योग्य न था। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि वहां जानने को ही कुछ नहीं है; प्रगट करने का सवाल ही नहीं है। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं चला, तो बोलते क्या?

चुप्पी का भी तो तुम अर्थ करोगे! तो अर्थ से तो बचा नहीं जा सकता। तो उपाय क्या है? उपाय यही है कि जिसे जो शब्द ठीक लगे, वह उसका उपयोग करे और सब तरह से, हर दिशा से, उस शब्द को परिभाषित करे। जितने दूर तक संभव हो तुम्हें मौका न दे कि तुम अपना अर्थ प्रवेश कर पाओ। इस तरह की परिभाषा करे, सब तरफ से इस तरह का पहरा बिठाये शब्द पर, फिर भी अगर तुम गलत अर्थ करना चाहो तो करोगे ही।

लेकिन सत्य का गलत उपयोग होगा, इस डर से सत्य बोलने से नहीं रुका जा सकता। सौ में निन्यानबे लोग गलत अर्थ कर लेंगे, कोई हर्ज नहीं; वह जो एक ठीक अर्थ कर लेगा, तो भी सार्थक है बोलना। क्योंकि वे जो निन्यानबे गलत अर्थ कर रहे हैं, न सुनते तो भी गलत होते, कुछ बिगड़ा नहीं है। वे गलत थे, इसलिए गलत अर्थ किया; गलत अर्थ के कारण गलत नहीं हो गये हैं। इसलिए अगर उन्होंने गलत अर्थ किया तो उनकी जिंदगी में कुछ और बिगाड़ नहीं आ जायेगा। वे बिगड़े थे, बिगड़े रहेंगे। लेकिन वह जो सौ में एक भी अगर सुन लेगा, राजी होगा, उठेगा, चलेगा, तो पर्याप्त है। सौ सुननेवालों में अगर एक भी जग जाये, तो सार्थक हो गया श्रम। निन्यानबे की फ्रिक करने की कोई जरूरत नहीं है।

महावीर ने अहिंसा शब्द चुना, वह उनकी पसंद थी। उनकी पसंद के बहुत कारण हैं। एक कारण है कि प्रेम और भक्ति के नाम पर चलनेवाला संप्रदाय बिलकुल विकृत हो गया था। अब अगर प्रेम की ही वे बात करते तो उस संप्रदाय से पृथक, अलग खड़े होने की कोई सुविधा न थी। वे जिस क्रांति की बात करना चाहते थे, वह क्रांति पैदा न होती। उन्हीं शब्दों के उन्हीं पारिभाषिक शब्दों का उपयोग करने का परिणाम यह होता, वे भी पंडितों और ब्राह्मणों के उसी समुदाय में खो जाते जिसकी बड़ी भीड़ थी। उन्होंने अहिंसा शब्द का उपयोग किया। इस तरह उन्होंने एक परिभाषा दी। इस तरह उन्होंने अपने को पृथक किया। इस तरह भीड़ में खोने से अपने को बचाया। उपयोगी था उनका उपयोग कर लेना अहिंसा का।

लेकिन इन पच्चीस सौ सालों में अहिंसा शब्द को बड़ा मूल्य मिल गया है। उस मूल्य से फिर वैसी की वैसी स्थिति खड़ी हो गई है। अब अहिंसा शब्द का उपयोग करने का अर्थ है: अहिंसा की कतार में खड़े हुए लोगों की भीड़ में खो जाना।

तो जिस कारण से महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया, उसी कारण से मैं अहिंसा शब्द का उपयोग नहीं कर सकता हूं। कारण वही है। मैं प्रेम शब्द का उपयोग करना चाहूंगा। इन पच्चीस सौ सालों में प्रेम शब्द खो गया, उपयोग में नहीं आया। जैसे किसी ने अपने खेत को कुछ वर्षों के लिए बंजर छोड़ दिया हो, खेती न की हो, तो जिस खेत पर बार-बार खेती की गई है, उसका उपजाऊपन नष्ट हो जाता है। वह जो खाली पड़ा रहा खेत है वर्षों तक, उसने फिर उपजाऊ शक्ति को अर्जित कर लिया है। तो प्रेम शब्द फिर उपयोगी हो गया है। उस शब्द में फिर प्राण डाले जा सकते हैं।

पच्चीस सौ साल के अंतराल ने, इस पच्चीस सौ साल में बुद्ध, महावीर और गांधी तक अहिंसा शब्द की बड़ी महिमा गायी गई है। अहिंसा शब्द पर काफी खेती हो चुकी; अब वहां कुछ भी पैदा नहीं होता। अब तो डर यह है कि जितने बीज तुम डालोगे, वे भी लौटेंगे…! इसलिए मैं उस खेत की ओर नजर करता हूं, उस खेत की तरफ, जिस पर इन पच्चीस सौ वर्षों में खेती नहीं हुई।

प्रेम शब्द का आध्यात्मिक अर्थ उपयोग नहीं किया गया है। उसका उपयोग कर लेना जरूरी है। मैं यह नहीं कहता हूं कि सदा यह सार्थक रहेगा; जल्दी ही इस खेत में से भी उपजाऊपन नष्ट हो जायेगा। तब नये-नये शब्द खोजने होंगे। वह आनेवाले लोग चिंता करें।

नये शब्द सदा जरूरी रहते हैं, क्योंकि नये शब्दों के साथ मनुष्य में नयी चेतना का संचार होता है। और कभी-कभी पुराने बहुत दिन तक उपयोग न किये गये शब्दों का पुनः उपयोग उपयोगी होता है, क्योंकि वे फिर नये हो गये होते हैं; इतने दिन तक पड़े रहे खाली, बिना फसल बोये, फिर क्षमता को अर्जित कर लेते हैं। तो प्रेम शब्द ने क्षमता अर्जित कर ली है।

फिर कुछ और बातें हैं। अहिंसा शब्द नकारात्मक है। उसमें “नहीं’ पर जोर है। महावीर का जोर “नहीं’ पर था। मेरा जोर “नहीं’ पर नहीं है। मेरे लिए आस्तिकता स्वीकार में है। “हां’ के भाव में है। “नहीं’ पर जीवन के स्तंभ नहीं रखे जा सकते। और जिसने “नहीं’ के घर में रहना शुरू किया वह सिकुड़ जाता है। और जैन धर्म अगर सिकुड़ गया तो उसका कोई और कारण नहीं है; “नहीं’ के घर ने मार डाला।

बुद्ध ने भी “नहीं’ शब्दों का उपयोग शुरू किया था। पांच सौ साल में बुद्ध का धर्म नष्ट हो गया और तब बौद्ध भिक्षुओं को एक बात समझ में आ गई कि “नहीं’ शब्दों ने जान ले ली। वे जो नकारात्मक शब्द हैं–निर्वाण–नहीं हो जाना–किसकी आकांक्षा है “नहीं’ होने की? शब्द सुनकर ही लोग चौंक जाते हैं। तो जब बौद्ध भिक्षु भारत के बाहर गये, बर्मा, लंका, चीन तो उन्होंने “नहीं’ शब्दों का त्याग कर दिया। एशिया में बुद्ध-धर्म फैला जब उसने “हां’ शब्दों का उपयोग किया–अकारात्मक, विधायक, जीवंत। बौद्ध धर्म विराट धर्म हो गया। बुद्ध के शब्द अगर पकड़े रहते तो जो दशा जैनों की हुई, वही दशा बुद्ध-धर्म की होती। बुद्ध की मजबूरी थी “नहीं’ शब्दों का उपयोग करने की; वही मजबूरी थी जो महावीर की थी। ब्राह्मण परंपरा “हां’ शब्दों से भरी है। आस्तिक शब्दों से भरी है। इस बड़ी परंपरा से अगर अलग खड़े न करो तो यह परंपरा लील जायेगी। इस परंपरा से अलग खड़ा होना जरूरी है। अलग खड़े होने के लिए “नहीं’ शब्दों का उपयोग करना पड़ा, ताकि सीमा-रेखा साफ हो जाये। और जब अल्पमत में कोई होता है तो उसे बड़ी स्पष्टता से अपनी सीमा-रेखा बनानी पड़ती है, क्योंकि बहुमत उसे लील जायेगा। हिंदुओं का विराट सागर था; जैनों, बौद्धों की नदी कहीं भी खो जाती इसमें, यह तालत्तलैया कहीं भी खो जाता, इसका कहीं पता भी न चलता। तो उस तालत्तलैया को बहुत सुरक्षित होकर अपनी व्यवस्था करनी पड़ी। उसने उन सारे शब्दों का उपयोग रोक दिया, जो हिंदू उपयोग करते थे। वे शब्द अपने-आप में बहुमूल्य थे; लेकिन मजबूरी थी, उन शब्दों के साथ संबंध हिंदुओं का था। अगर ब्रह्म शब्द का उपयोग करो–डूबे! अगर परमात्मा शब्द का उपयोग करो–डूबे! हिंदुओं के पास लंबी परंपरा थी। उस परंपरा के कारण सारे विधायक शब्द उपयोग कर लिये गये थे। हिंदुओं का वही तो बल है। हिंदू इतने आघातों के बाद जीते रहे हैं, उसका कारण कहां है? उसका कारण है उनकी विधायकता में, स्वीकार में, अंगीकार में।

अगर तुम वैदिक, उपनिषद के ऋषियों का स्मरण करो तो तुम्हें समझ में आयेगा कि अब तुम जिसे साधु और संन्यासी कहते हो, उस हिसाब से वे साधु-संन्यासी न थे। मैं जिस हिसाब से संन्यासी कहता हूं, उस हिसाब से संन्यासी थे। घर में थे, गृहस्थी में थे, उनकी पत्नियां थीं, बच्चे थे, धन-दौलत थी। बड़ा विधायक रूप था।

संन्यास हिंदुओं के लिए गृहस्थी के विपरीत नहीं था, गृहस्थी का ही आत्यंतिक फल था। ऐसा नहीं था कि घर को छोड़कर जो चला गया, वह संन्यासी है; नहीं, जिसने घर पूरा कर लिया, वह संन्यासी है। जो घर में पूरा-पूरा जी लिया और पार हो गया; जीवन के अनुभव एक-एक सोपान की तरह चढ़ गया–वह संन्यासी है। संन्यास हिंदुओं के लिए जीवन का अंतिम शिखर था। पहले ब्रह्मचर्य, फिर गार्हस्थ्य, फिर वानप्रस्थ, फिर संन्यास–ऐसी जीवन में एक क्रमबद्धता थी, एक विकास था। बहुत वैज्ञानिक बात थी। पहले संसार को ठीक से अनुभव तो कर लो, भोग की पीड़ा तो जानो, ताकि तुम त्यागी हो सको। धन की व्यर्थता तो जानो ताकि विराग का जन्म हो सके! इस देह की नश्वरता को तो पहचानो! शास्त्रों से नहीं–जीवन, अनुभव…! सभी को अनुभव हाथ आ जाता है।

तो हिंदुओं के हिसाब से संन्यास जीवन-विरोधी न था, जीवन का नवनीत था। जिन्होंने जीवन को जीया, वे उस नवनीत को उपलब्ध हुए। दूध है; उसे जमाओ, दही बनाओ, दही का मंथन करो, मक्खन निकालो, मक्खन को गरमाओ, घी बनाओ–ऐसा संन्यास था। घी की तरह! फिर घी का तुम कुछ भी नहीं कर सकते।

तुमने कभी खयाल किया, घी के बाद कोई गति नहीं है! घी को तुम कुछ और नहीं बना सकते। दूध दही हो सकता है; दही मक्खन बन जाता है; मक्खन घी बन जाता है–लेकिन अब तुम घी को कुछ भी नहीं बना सकते। पराकाष्ठा!

अब अगर तुम चाहो, कि घी को पीछे भी लौटायें तो वह भी नहीं कर सकते। तुम चाहो कि अब घी का मक्खन बना लें, कि मक्खन का अब दही बना लें, कि दही से अब दूध में उतर जायें–वह भी नहीं हो सकता।

तो हिंदुओं के लिए तो संन्यास घी की तरह था; वह आखिरी बात थी–जिससे पीछे लौटना नहीं होता, जिसके आगे जाना नहीं है। और उस तक जिसे पहुंचना है, उसे ये सारी सीढ़ियां पार करनी होंगी।

इस सनातन धर्म के बीच महावीर का आविर्भाव हुआ। यह परंपरा सड़ गई थी, गल गई थी। सभी परंपराएं एक दिन सड़ जाती हैं, गल जाती हैं। यह जीवन का स्वाभाविक धर्म है। जैसे हर जवान बूढ़ा हो जाता है, फिर हर बूढ़ा मर जाता है, फिर एक दिन अस्थि लेकर हम जाकर जला आते हैं–ठीक ऐसी ही संस्कृतियां पैदा होती हैं, धर्म पैदा होते हैं, जवान होते हैं, बूढ़े होते हैं, मरते हैं। लेकिन जिस बात को हम सामान्यतया जीवन में कर लेते हैं…मां मर गई तो बहुत प्रेम था, फिर भी क्या करोगे? रोते हो, धोते हो, रोते जाते हो, अर्थी बांधते जाते हो–करोगे क्या? रोते जाते हो, अर्थी लेकर चल पड़ते हो। रोते जाते हो, जला आते हो। इतनी हिम्मत हम धर्मों के साथ न कर पाये कि वे भी जवान होते हैं; जब जवान होते हैं तब उनका मजा और! जब हिंदू धर्म शिखर पर था तो उसने उपनिषद जैसे शास्त्रों को जन्म दिया, महाकाव्य पैदा हुआ! सब तरफ गीत गूंज उठा हिंदू धर्म का! प्राणों में पुलक थी, उत्साह था, जवानी थी! फिर हिंदू धर्म बूढ़ा हुआ। जब हिंदू धर्म बूढ़ा हुआ और मर गया या मरने के करीब था, मरणासन्न था, तब बुद्ध और महावीर का आविर्भाव हुआ। अब इस मरते आदमी के साथ उनको किसी भी तरह का संबंध जोड़ना खतरनाक था। यह तो मर ही रहा था। इसके साथ संबंध जोड़ने का अर्थ था, तुम पहले से ही मौत से जुड़ गये। स्वभावतः उन्होंने नये शब्द खोजे।

तुम देखो, जैनों ने संस्कृत भाषा तक का उपयोग न किया! शब्दों की तो बात अलग; उस भाषा में भी बोलने में खतरा था, क्योंकि भाषा के सब संबंध थे। अब अगर संस्कृत का महावीर उपयोग करते तो उपनिषदों से ऊंचा गीत और क्या गा पाते? पराकाष्ठा हो गई थी। संस्कृत ने अपनी आखिरी ऊंचाई पा ली थी। संस्कृत ने शिखर छू लिया था; अब इसके पार जाने का कोई उपाय न था। इस मंदिर पर कलश चढ़ चुका था। तो महावीर ने संस्कृत का उपयोग न किया। महावीर ने प्राकृत का उपयोग किया। संस्कृत पंडित की भाषा थी, सुसंस्कृत की, अभिजात्य की। महावीर ने दीन की, गरीब की, लोकजन की भाषा का उपयोग किया।

ध्यान रखना, जब भी नया धर्म आता है तो उनके द्वारा आता है, जो पुराने धर्म के कारण दलित थे, पीड़ित थे। जो पुराने धर्म के कारण प्रतिष्ठित थे वे तो नये धर्म को क्यों चुनेंगे? उनका तो पुराने धर्म के साथ बड़ा संबंध है। उनके तो बड़े स्वार्थ हैं। तो स्वभावतः ब्राह्मण आंदोलित होगा महावीर के विचारों से, यह तो संभव न था। क्षत्रिय आंदोलित हो सकता था, वैश्य आंदोलित हो सकता था, शूद्र आंदोलित हो सकता था। क्षत्रिय भी बहुत आंदोलित नहीं हुआ, क्योंकि उसके भी संबंध बहुत गहरे ब्राह्मण से जुड़े थे। ब्राह्मण सबके ऊपर था। लेकिन वस्तुतः तो क्षत्रिय ही ऊपर था, जिसके हाथ में तलवार है। क्षत्रिय के कारण और आज्ञा से ब्राह्मण ऊपर रह सकता था। नाममात्र को ब्राह्मण ऊपर था, वस्तुतः तो क्षत्रिय ऊपर था। तुम कितनी ही बात करो कि संतों की महिमा थी; महिमा थी, लेकिन उस महिमा को भी जब तक राजा आकर चरण न छूता, कौन महिमा थी? राजा आकर चरण छूता था तो संत की महिमा थी। तो संत दीवाने रहते थे कि कितने राजा किसके पास आते हैं। तो क्षत्रिय भी प्रतिष्ठित था। इसलिए जैन धर्म अगर बनियों का धर्म हो गया, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। वैश्य सर्वाधिक प्रभावित हुए। शूद्र बहुत कम प्रभावित हुए, क्योंकि प्रभावित होने की भी थोड़ी समझ तो चाहिए! क्षत्रिय के स्वार्थ थे, ब्राह्मण का तो कोई उपाय न था कि वह जैन बने; इस बनने में कोई सार न था। अभी भी तुम देखते हो, हिंदुस्तान में जो लोग ईसाई बनते हैं, कोई बिरला, सिंघानिया, साहू कोई ईसाई बनते हैं? ईसाई बनता है शूद्र, गांव का गरीब, आदिवासी। जिनका निहित स्वार्थ है, वे किसलिए ईसाई बनेगें? ईसाई तो वह बनता है जो हिंदू धर्म से पीड़ित है, परेशान है। जो हिंदू धर्म उसे नहीं दे सका है, उसका आश्वासन ईसाइयत देती है।

तो महावीर और बुद्ध दोनों ने कहा, कोई वर्ण नहीं है। लेकिन शूद्र तो इतना दलित था कि उसे ये शब्द भी समझ में न आ सकते थे; उसको तो शास्त्र पढ़ने की मनाही थी। उसको तो कोई शिक्षा भी न थी। इसलिए स्वभावतः ब्राह्मण आ नहीं सकता था, क्षत्रिय को आने का कोई कारण न था–उसके हाथ में तलवार और बल था। शूद्र समझ नहीं सकता था। और शुद्र को भीतर लाने में खतरा भी था, क्योंकि वह वैश्य नहीं घुसने देता था शूद्र को। क्योंकि वह छिड़कता था। उसकी भी धारणा तो हिंदू की थी। अगर क्षत्रिय आता तो वैश्य स्वीकार कर लेता; वह ऊपर का था; ब्राह्मण आता तो भी स्वीकार कर लेता। शूद्र से उसे भी अड़चन थी; वह उससे भी नीचे था। इसलिए वैश्य शूद्र को घुसने न देगा। इसलिए जैन धर्म वैश्यों का धर्म हो गया, दुकानदारों का धर्म हो गया। स्वभावतः महावीर को इनकी भाषा का उपयोग करना पड़ा–लोक-भाषा का।

बुद्ध ने भी वही किया। उन्होंने भी लोक-भाषा का उपयोग किया। उन्होंने पाली चुनी। क्योंकि वे प्राकृत चुनते तो महावीर के साथ बंध जाते।

इसे थोड़ा सोचना चाहिए। महावीर बुद्ध से कोई तीस साल उम्र में बड़े थे। महावीर पहले आ गये थे। तीस साल वे काम कर चुके थे।

ब्राह्मण संस्कृत बोलते थे, महावीर ने प्राकृत चुनी थी; बुद्ध को दोनों उपाय न रहे थे। एक ही क्षेत्र में थे दोनों, लेकिन बुद्ध ने पाली चुनी, ताकि साफ-साफ व्याख्या हो सके, भेद हो सके। भाषा से बड़ा भेद और किसी चीज से पैदा नहीं होता।

तुम जानते हो, जब कोई आदमी तुम्हारी भाषा नहीं समझता, तो तुम अजनबी हो गये, एकदम अजनबी हो गये। पास-पास बैठे हो और हजारों मील का फासला हो गया। क्योंकि आदमी जीता है भाषा से, जुड़ता है भाषा से।

संस्कृत का त्याग करने का परिणाम यह हुआ कि जैन हिंदू धर्म से बिलकुल साफ अलग टूट गये। पाली का प्रयोग करने के कारण बौद्ध जैनों से भी टूट गये, ब्राह्मणों से भी टूट गये।

दोनों ने वर्णों का विरोध किया, तो ही तो वे आकर्षित कर सके वैश्य को। यद्यपि वैश्य आकर्षित हो गया, लेकिन बड़े मजे की बातें हैं, दुनिया में संस्कार बड़ी मुश्किल से जाते हैं। अभी भी जैन मंदिर में शूद्र को प्रवेश नहीं है। और महावीर कहते हैं, न कोई शूद्र है, न कोई ब्राह्मण है, न कोई वैश्य है, न कोई क्षत्रिय है। उनकी सारी क्रांति वर्ण-विरोधी है। लेकिन फिर भी वर्ण जाता नहीं।

तुमने देखा, अगर कोई ब्राह्मण ईसाई हो जाये, तो वह ईसाई होकर भी ब्राह्मण रहता है। ईसाइयों को मैं जानता हूं। उनमें कोई अगर ब्राह्मण के वर्ग से ईसाई हुआ है और कोई अगर शूद्र के वर्ग से ईसाई हुआ है, तो वह जो ब्राह्मण ईसाई है, शूद्र ईसाई से ऊपर रहता है। ब्राह्मण ईसाई शूद्र ईसाई से विवाह नहीं करता। संस्कार बड़े गहरे बैठ जाते हैं!

तो जब महावीर ने वर्णों की व्यवस्था तोड़ दी, तो उन्होंने आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी; क्योंकि वह वर्णाश्रम एक ही प्रत्यय था–चार वर्ण, चार आश्रम। जब महावीर ने वर्ण की व्यवस्था तोड़ी तो उन्होंने आश्रम की भी व्यवस्था तोड़ दी। यह तोड़ना जरूरी था, नहीं तो हिंदू ढांचा पकड़े रहता; उससे छूटना मुश्किल था। जब तुम किसी एक सागर में पैदा होते हो तो तुम्हें अपना द्वीप बनाना पड़ता है। तो उन्होंने कहा कि न कोई ब्रह्मचर्य का सवाल है, न कोई गृहस्थ का सवाल है, न कोई वानप्रस्थ का, न कोई संन्यस्त का; और जब तुम संन्यस्त होना चाहते हो तभी हो सकते हो। इस तरह उन्होंने दोनों ही व्यवस्थाएं तोड़ दीं। फिर उन्होंने नये शब्द खोजे, नयी भाषा खोजी।

प्रेम शब्द बहुत खतरनाक है। क्यों? क्योंकि प्रेम के साथ ही तत्क्षण परमात्मा प्रवेश करता है। तुमने कभी देखा, एक साधारण स्त्री को भी तुम प्रेम करने लगो तो उसमें देवी का आविर्भाव हो जाता है। एक स्त्री एक साधारण-से पुरुष के प्रेम में पड़ जाये तो उसे परमात्मा मानने लगती है। जहां प्रेम आता है, वहां पीछे से परमात्मा आ जाता है। साधारण जीवन में, जहां कि तुम भलीभांति जानते हो कि यह आदमी परमात्मा नहीं है, लेकिन फिर भी उसकी प्रेयसी उसे परमात्मा मानने लगती है। तो अगर प्रेम शब्द का बहुत उपयोग करो तो परमात्मा को इनकार न कर सकोगे। क्योंकि प्रेम शब्द का इशारा ही और की तरफ है। प्रेम तीर है, निशाना कहीं और है: निकलेगा तुम्हारे हृदय से, लगेगा किसी और हृदय में।

तो प्रेम तो खतरनाक है–ध्यान। प्रेम तो खतरनाक है–अहिंसा। प्रेम तो खतरनाक है, क्योंकि प्रेम के साथ परमात्मा आता है और परमात्मा के साथ हिंदुओं की पूरी जीवन-चिंतना जुड़ी है। इसलिए महावीर को परमात्मा भी इनकार कर देना पड़ा, प्रेम भी इनकार कर देना पड़ा, प्रार्थना भी इनकार कर देनी पड़ी, पूजा, अर्चना, धूप-दीप सब इनकार कर देना पड़ा। सब भांति व्यक्ति अपने में भीतर चला जाये, बाहर जाये ही नहीं। परमात्मा भी बहिर्यात्रा है। इस कारण महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया।

लेकिन अहिंसा बहुत कमजोर शब्द है; प्रेम के सामने टिकता नहीं, बहुत लंगड़ा है। उनकी जरूरत थी। उनकी मजबूरी थी। लेकिन प्रेम के पास पैर हैं।

तुम जरा किसी स्त्री से कहो कि मेरा तुझसे अहिंसा का संबंध हो गया है, तब तुम्हें पता चलेगा! वह दुबारा तुम्हारी शकल न देखेगी। किसी स्त्री से अहिंसा का संबंध! उसका मतलब इतना हुआ कि हम तुम्हें मारेंगे भी नहीं, कष्ट भी न देंगे। खतम, संबंध पूरा हो गया! दोगे क्या? यह तो न देने की बात हुई। दुख न दोगे, समझ में आया। मारोगे नहीं, यह भी समझ में आया। लेकिन इतने पर कोई संबंध निर्भर होते हैं?

अहिंसा संबंध तोड़ने की व्यवस्था है, जोड़ने की नहीं। इसलिए महावीर का अनुयायी टूट जाता है, सबसे टूट जाता है। अहिंसा जोड़ ही नहीं सकती। अहिंसा में कोई सीमेंट नहीं है। अहिंसा में योग नहीं है।

अब तुम चकित होओगे, महावीर ने योग शब्द का उपयोग नहीं किया। और भी तुम हैरान होओगे कि महावीर ने “अयोग’ शब्द का उपयोग किया है। जुड़ना नहीं है, टूटना है, अयोग। तो जब महावीर का ज्ञानी परम अवस्था को उपलब्ध होता है तो उसको वे कहते हैं, “अयोगी, केवली’। जो सब तरह से सबसे टूटकर अकेला हो गया: अयोगी, केवली। योग पाप है, क्योंकि योग में तो बात ही जुड़ने की है। जुड़ना तो है ही नहीं, क्योंकि जुड़ना ही तो संसार है। संसार से टूट जाने में असली बात है।

तो अहिंसा से संबंध तोड़ा जा सकता है, जोड़ा तो नहीं जा सकता। अहिंसा सिकोड़ सकती है, फैला तो नहीं सकती। अहिंसा तुम्हें अपने में बंद कर देगी, खोलेगी तो नहीं। अहिंसा में कोई द्वार-दरवाजे नहीं हैं, दीवाल है। इसलिए जितने तुम अहिंसा जैसे शब्दों से भरोगे, उतने ही तुम पाते जाओगे कि तुम सूखने लगे, तुम्हारे पत्ते कुम्हलाने लगे, शाखाएं गिरने लगीं, तुम सिकुड़ने लगे, तुम लौटने लगे। तुम्हारा फैलाव खो गया। तुम्हारे जीवन का अभियान खो गया।

तो अगर जैन सिकुड़ गये तो कुछ आकस्मिक नहीं है। फैलने का उपाय न था।

नकार को कभी जीवन की व्यवस्था मत बनाना, क्योंकि जीवन का स्वभाव फैलाव है। यहां सब चीजें फैलती हैं। एक छोटे से बीज को डाल दो, एक बड़ा वृक्ष हो जाता है। उस वृक्ष में फिर करोड़ों बीज लग जाते हैं। एक बीज करोड़ बीज हो जाता है। करोड़ बीजों को फैला दो, पूरी पृथ्वी वृक्षों से भर जायेगी। एक बीज से यह पूरी पृथ्वी हरी हो सकती है।

तुम जरा देखो तो जीवन का ढंग। ईसाई कहते हैं, अदम और हव्वा, एक जोड़ा भगवान ने पैदा किया था, फिर उससे ये सारे चार अरब मनुष्य पैदा हुए। बस एक जोड़ा काफी था।

यहूदियों की कथा है कि परमात्मा बहुत नाराज हो गया था एक बार। लोग भ्रष्ट हो गये थे। तो उसने सारी पृथ्वी को महाप्रलय में डुबा दिया। लेकिन एक भक्त था उसका: नोह। उसने नोह से कहा कि तुझे हम बचा लेंगे। लेकिन नोह ने प्रार्थना की कि माना कि लोग बुरे हैं, गलत हो गये हैं; लेकिन इतने नाराज न हों, कुछ तो बचा लें, बीज तो बचा लें। तो परमात्मा ने कहा, “अच्छा! तू एक-एक पशुओं का एक-एक जोड़ा अपनी नाव में रख लेना। वह नाव भर बचेगी।’ बस एक जोड़ा काफी था। लेकिन बड़ी मधुर कहानी है। नोह और उसकी पत्नी दरवाजे पर खड़े हो गये और नाव में, उन्होंने कहा, आ जाओ एक-एक जोड़ा। तो हाथी आया, ऊंट आये, घोड़े आये, गधे आये–सब आये। फिर जब प्रलय समाप्त हो गया, सात दिन के बाद सारी पृथ्वी डूब गई, सिर्फ नोह की नाव बची। फिर पृथ्वी उभरी, फिर किनारे नाव लगी। फिर वे दोनों दरवाजे पर खड़े हो गये, फिर एक-एक को निकाला। लेकिन वे बड़े हैरान हुए, चूहे कोई दस-पच्चीस निकले! तो नोह ने अपनी पत्नी से पूछा, “यह मामला क्या है? मैंने पहले कहा था कि दो-दो लेना, एक-एक लेना।’ उसने कहा, “लिये तो इतने ही थे, मगर इतने हो गए सात दिन में।’

एक जोड़ा काफी है। उतने बचाने से सारी प्रकृति, सारी पृथ्वी बच गई।

जीवन का स्वभाव फैलाव है। प्रेम में फैलाव है; अहिंसा में सिकुड़ाव है। इसलिए मैं तो प्रेम शब्द को ही पसंद करता हूं। अहिंसा प्रेम का एक छोटा-सा अंग है। जिससे हम प्रेम करते हैं, उसे हम दुख नहीं देना चाहते–यह बात ही साफ है। जिससे हमारा प्रेम का संबंध है, उससे हमारा अहिंसा का संबंध तो हो ही गया। लेकिन जिससे हमारा अहिंसा का संबंध है, उससे प्रेम का संबंध हो गया–यह जरूरी नहीं है। प्रेम अहिंसा से बड़ी बात है। जिससे हम प्रेम करते हैं, उसे हम कैसे दुख पहुंचायेंगे? उसे दुख पहुंचाकर तो अपने को ही दुख पहुंच जाता है। भूल-चूक से अगर पहुंच भी जाता हो, तो भी हम क्षमाऱ्याची होते हैं, सुधार की कोशिश करते हैं। अहिंसा अपने से सध आती है; जहां प्रेम आया, अहिंसा पीछे से अपने आप आ जाती है।

तो मैं तो कहता हूं, प्रेम को बढ़ाओ। वह व्यक्तियों पर सीमित न रहे; फैलता जाये, वृक्षों, पशु-पक्षियों को भी घेर ले।

और जब मैं कहता हूं, परमात्मा को प्रेम करो, तो मेरा इतना ही अर्थ है कि यह जो दिखाई पड़ रहा है–दृश्य–इसको इतना प्रेम करो कि इस सभी में तुम्हें अदृश्य की प्रतीति होने लगे। पत्ते-पत्ते में वह दिखाई पड़ने लगे।

अहिंसा अपने से आ जायेगी। अहिंसा के लिए अलग से शास्त्र बनाने की कोई जरूरत नहीं है।

माना कि प्रेम शब्द के अब भी गलत अर्थ लिये जायेंगे, लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि प्रेम ज्यादा जीवंत शब्द है। गलत भी अर्थ लिये जायेंगे, तो भी चुनने योग्य है। गलत अर्थ तो अहिंसा के भी लिये गये। और शब्द नकारात्मक था, मुर्दा था–तो गलत अर्थ मुर्दे पर इकट्ठे हुए। बड़ी सड़ांध पैदा हो गई। जीवंत कोई शब्द हो तो थोड़ा-बहुत गलत अर्थ लेने में बाधा डालेगा, इनकार करेगा। एक पत्थर पड़ा हो, उसको तुम छैनी उठाकर काटने लगो, तो वह कुछ बाधा न डालेगा। एक जिंदा बच्चा हो तो उछलेगा-कूदेगा, चीखेगा-चिल्लायेगा। मोहल्ले-पड़ोस के लोगों को इकट्ठा कर लेगा अगर छैनी उठाओगे उसके ऊपर।

प्रेम जीवंत है। अगर तुम उसे बदलोगे तो इतनी आसानी से न बदल पाओगे; शोरगुल मचायेगा। अहिंसा बिलकुल मुर्दा है। तुम उसे बना लेना, अपने रंग-ढंग में रंग-लेप कर लेना। अहिंसा के शब्द से आवाज भी न निकलेगी। तुम जो भी बना लोगे, वही बन जायेगी।

नकार हमेशा ही सावधान होने योग्य है। अभाव है नकार। अभाव पर इतना जोर मत देना; क्योंकि अभाव से तुम धीरे-धीरे रसहीन हो जाओगे। अभाव को देखते-देखते तुम भी धीरे-धीरे बुझ जाओगे।

महावीर की मजबूरी थी, उन्होंने चुना; लेकिन उनकी मजबूरी से मैं बंधा हुआ नहीं हूं। उन्होंने ठीक माना होगा। उनकी परिस्थिति में जो उन्हें ठीक लगा होगा, किया होगा। लेकिन उनकी परिस्थिति मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है। यही तो मुझे सुविधा है। मेरे ऊपर किसी का बंधन नहीं है। अगर जैन महावीर पर बोलेगा तो उसको अड़चन होगी। वह हिम्मत नहीं जुटा पाता। उसको महावीर का बंधन मानकर चलना पड़ता है। जो महावीर ने कहा, वह हर हालत में ठीक होना ही चाहिए। उस दिन के लिए भी ठीक होना चाहिए, आज भी ठीक होना चाहिए। मैं कहता हूं, उस दिन जरूर ठीक रहा होगा; क्योंकि महावीर जैसा बुद्धिशाली व्यक्ति, जब इस शब्द को चुना था तो बहुत सोचकर चुना होगा। लेकिन महावीर कोई सदा के लिए आदमी को बांध नहीं गये। कौन बांध जाता है? कौन बांध सकता है? मेरे लिए कोई मजबूरी नहीं है। इसलिए मैं पतंजलि पर भी बोलता हूं, तो भी मेरी कोई मजबूरी नहीं है। कोई बंधन नहीं है। कोई ऐसा नहीं है कि पतंजलि ने जो कहा है, वह ठीक ही कहा है। आज के लिए तो मैं फिक्र नहीं करता। आज के लिए तो मैं जो कहूंगा, मैं मानता हूं, ज्यादा ठीक है। उन्होंने अपने समय के लिए कहा होगा। जैसे वे अपने समय के लिए कहने के हकदार थे, वैसे अपने समय के लिए कहने के लिए मैं हकदार हूं।

निश्चित ही, मैं यह नहीं कहता कि मैं जो कह रहा हूं, वह सदा-सदा सही रहेगा; कभी न कभी सड़ जायेगा, मरेगा। तब कोई न कोई उसे बदलेगा–बदलना ही चाहिए। इस जगत में कोई भी व्यक्ति सभी के लिए सदा के लिए निर्णायक नहीं हो सकता; नहीं तो मनुष्य की स्वतंत्रता, महिमा मर जायेगी।

गुनो, सुनो, समझो, लेकिन कभी भी अंधी लकीरें मत पीटो।

स्थिति तो करीब-करीब आज भी वही है। प्रेम शब्द गलत समझा जायेगा। लेकिन मेरे साथ भेद है। मैं कोई नया धर्म खड़ा करने में उत्सुक नहीं हूं। नयी भाषा खड़ी करने में उत्सुक नहीं हूं। नया शास्त्र निर्मित करने में उत्सुक नहीं हूं। शास्त्र तो बहुत हैं। धर्म भी बहुत हैं। भाषाएं भी बहुत हैं। अब तो हमें कुछ खोज करनी चाहिए कि सभी धर्मों के भीतर जो सार है, वह हमारी पकड़ में आ जाये। तो मैं यह नहीं…मेरी चेष्टा वही नहीं है जो महावीर की थी। तो महावीर हिंदू से डरे थे; मैं डरा हुआ नहीं हूं। बुद्ध, महावीर से भी डरे हुए थे; मैं डरा हुआ नहीं हूं। मैं न ईसाई से डरा हुआ हूं, न मुसलमान से डरा हुआ हूं, न हिंदू से, न जैन से, न बौद्ध से–किसी से डरे होने का कोई कारण नहीं है। हां, अगर मुझे कोई नया धर्म स्थापित करना हो तो भय आ जायेगा। क्योंकि फिर मुझे खयाल रखना पड़ेगा। सारे बाजार का खयाल रखना पड़ेगा। मेरी चीज कुछ नयी होनी चाहिए, पृथक होनी चाहिए; उसमें गंध, रंग अलग होना चाहिए, ट्रेडमार्का अलग होना चाहिए, तो ही टिक पायेगी बाजार में, अन्यथा खो जायेगी।

मेरी तो चेष्टा बड़ी भिन्न है। मेरी चेष्टा यह है कि जो अब तक जाना गया है–और काफी जान लिया गया है–अब उस जानने का सार-निचोड़ लोगों को मिलना शुरू हो जाये।

धर्मों का कोई भविष्य नहीं है। धर्म गये, अतीत की बात हो गये। जैसे विज्ञान एक है, ऐसा ही भविष्य में कभी धर्म भी एक होगा। हिंदू नहीं होगा, मुसलमान नहीं होगा, ईसाई नहीं होगा। इन सबने अपनी-अपनी धाराएं धर्म के सागर में डाल दीं। अब सागर को हम गंगा थोड़े ही कहते हैं, यमुना थोड़े ही कहते हैं–कोई जरूरत नहीं कहने की। सागर यमुना से भी बड़ा है, गंगा से भी बड़ा है, ब्रह्मपुत्र से भी बड़ा है–हजारों नदियों को लील जाता है; इंचभर ऊपर नहीं उठता। हजारों नदियां बादलों में उड़ जाती हैं; इंचभर नीचे नहीं गिरता। अब धर्म का सागर बनना चाहिए; ताल, सरोवर बहुत हो चुके। अब उन्होंने काफी बोध की सामग्री इकट्ठी कर दी है। अब कोई जरूरत नहीं है कि हिंदू मुसलमान से लड़े, कि जैन हिंदू से लड़े। अब तो जरूरत है कि जैन, हिंदू और मुसलमान और ईसाई और सिक्ख के बीच जो सारभूत है, वह प्रगट हो जाये; ताकि धर्म का विज्ञान बने।

अब विज्ञान विज्ञान है; न ईसाई है, न हिंदू है, न मुसलमान है। कोई ईसाई भी अगर वैज्ञानिक सत्य खोजता है तो उस सत्य को हम ईसाई तो नहीं कहते। आइंस्टीन ने रिलेटिविटी का सिद्धांत खोजा, सापेक्षता का सिद्धांत खोजा। इसको हम ईसाई तो नहीं कहते, यहूदी तो नहीं कहते, मुसलमान तो नहीं कहते। मुसलमान खोजे तो भी वह विज्ञान, हिंदू खोजे तो भी विज्ञान, यहूदी खोजे तो भी विज्ञान। तो धर्म के संबंध में भी, कोई भी खोजे, वह उस एक ही परम सत्य की तरफ इशारे हैं। अंगुलियों को छोड़ो अब, अब चांद को देखो!

मेरी चेष्टा है कि तुम्हें अंगुलियों से छुड़ाऊं और चांद को दिखाऊं, क्योंकि सभी अंगुलियां उसी चांद की तरफ बता रही हैं। हां, किसी अंगुली पर हीरे जड़ा हुआ शृंगार है; कोई अंगुली काली-कलूटी है; कोई दुर्बल है; कोई बड़ी सुंदर है, युवा है; कोई बूढ़ी है; कोई अति प्राचीन है; कोई अभी छोटे बच्चे की तरह है, नये-नये पल्लव की भांति–मगर ये सारी अंगुलियां जिस चांद की तरफ उठी हैं, वह एक है। हमने अंगुलियों पर अब तक बहुत ध्यान दिया, अब अंगुलियों को छोड़ें और चांद पर ध्यान दें। इशारा समझें।

तो मैं तो प्रेम शब्द का उपयोग जारी रखूंगा। खतरा तो है, लेकिन खतरे से क्या घबड़ाना? खतरे से घबड़ा-घबड़ाकर ही तो आदमी नपुंसक हो गया है। हर जगह खतरे से बच रहे हैं। धीरे-धीरे तुम पाओगे, जिंदगी से भी बच गये; क्योंकि जिंदगी स्वयं खतरा है। जो प्रेम से बचेगा, आज नहीं कल जिंदगी से भी बचेगा। जिंदगी में भी खतरा है। मौत तो जिंदगी में ही घटेगी।

कभी तुमने सोचा…?

मेरी बूढ़ी नानी थी। वह सदा डरती थी कि मैं हवाई जहाज में न जाऊं। जब भी मैं घर से निकलता, तब वह कहती, “एक बात खयाल रखना–हवाई जहाज में कभी नहीं।’

मैंने उसको कहा कि तू डरती क्यों है हवाई जहाज से? उसने कहा कि अखबार में खबर आती है कि गिर गया, लोग मर गये। मैंने कहा, “तुझे पता है, निन्यानबे प्रतिशत लोग तो खाट पर मरते हैं? तो क्या खाट पर सोना बंद कर दूं, बोल?’ उसने कहा, यह बात तो ठीक है। उसको भी जंची बात। उसने कहा, यह बात तो ठीक है। मरते तो खाट पर ही हैं निन्यानबे प्रतिशत लोग। तो अगर दुर्घटना कोई बचानी है तो खाट बचानी है। कभी-कभार कोई मरता है हवाई जहाज में। उसने कहा, फिर जाओ, फिर कोई बात नहीं। खाट से, अब खाट से बचोगे तब तो फिर जीना ही मुश्किल हो जायेगा।

ईरान में कहावत है, जमीन पर सोनेवाला खाट से कभी नहीं गिरता। बिलकुल ठीक है। जब जमीन पर ही सो रहे हैं तो खाट से गिरोगे कैसे? लेकिन ऐसे कहां तक बचते रहोगे? फिर जीओगे कैसे? फिर यह जीना तो एक पलायन हो जायेगा। यहां तो हर चीज में खतरा है। यहां प्रेम करो, खतरा है। यहां घर से बाहर निकलो, खतरा है। यहां सांस लो, खतरा है। इन्फैक्शन। यहां पानी पीयो, खतरा है। यहां भोजन करो, खतरा है। यहां खतरा ही खतरा है। यहां तो मरे हुए ही खतरे के बाहर हैं।

देखा तुमने, मरा हुआ आदमी बिलकुल खतरे के बाहर है। पहली तो बात, अब मर नहीं सकता। कोई बीमारी नहीं लग सकती, छूत की बीमारी नहीं लग सकती। दूसरे इससे बचते हैं, यह किसी से नहीं बचता। तो जिन लोगों ने भी खतरे, खतरे, खतरे को सोचा है, हिसाब रखा है, वे धीरे-धीरे मर गये। इस देश के मुर्दा हो जाने में बड़ा हाथ है–इस धारणा का, कि इसमें खतरा है, इसमें खतरा है। तो सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते जाओ–जाओगे कहां?

मैंने सुना है, पुराने गांव की एक कहानी है कि गांव का जो मालगुजार था, उससे मिलने एक ब्राह्मण आया। तो जब ब्राह्मण आये तो मालगुजार को नीचे बैठना चाहिए। मालगुजार अपने तखत पर बैठा था। ब्राह्मण आया तो मालगुजार, वह नीचे ब्राह्मण बैठने लगा। मालगुजार ने कहा, “यह ठीक नहीं है, नियम के विपरीत है। तुम ऊपर बैठो, मैं नीचे बैठता हूं।’ उस ब्राह्मण ने कहा, “लेकिन इसमें बड़ी झंझट आयेगी।’ जिद्दी था मालगुजार भी। उस ब्राह्मण ने कहा, “ऐसा कहां तक करोगे? क्योंकि अगर मैं नीचे बैठूंगा, तुम क्या करोगे फिर?’ उसने कहा, “मैं गङ्ढा खोदकर उसमें नीचे बैठ जाऊंगा।’ उसने कहा, “अगर मैं गङ्ढे में आ गया, फिर? उसने कहा, “मैं और गङ्ढा नीचे खोद लूंगा।’ उस ब्राह्मण ने कहा, “मैंने अगर और गङ्ढा खोद लिया तो?’ उस मालगुजार ने कहा, “फिर गङ्ढे को पूर के मैं घर चला जाऊंगा। फिर क्या करूंगा? तुम मेरे पीछे ही लगे रहोगे, तो तुमको गङ्ढे में पूर के, मैं घर चला जाऊंगा।’

ऐसे कहां तक भागते रहोगे? कहीं तो भय को गङ्ढे में दबाना पड़ेगा। कहीं तो उसको पूरना पड़ेगा।

यह मुझे पता है कि प्रेम खतरनाक शब्द है। सभी जीवंत शब्द खतरनाक होते हैं।

अहिंसा क्लीनिकल है। अहिंसा बिलकुल अस्पताल में धोया, पोंछा, साफ-सुथरा शब्द है। उसमें रोगाणु हैं ही नहीं। जीवाणु ही नहीं हैं तो रोगाणु कहां से होंगे? वह बड़ा डाक्टरी शब्द है। उसमें काफी औषधियां छिड़की गई हैं। पर वह पीने योग्य भी नहीं रहा, जैसा बहुत पोटेशियम डाल दिया हो पानी में।

प्रेम बड़ा जीवंत शब्द है–होना ही चाहिए; क्योंकि सारा जगत प्रेम से जीता है। तुम जन्मे हो प्रेम से। तुम जीओगे प्रेम में। और काश, तुम मर भी सको प्रेम में, तो धन्यभागी हो! जन्मते सभी हैं, जीते बहुत कम हैं; मरते तो कभी-कभी कोई हैं। जन्मते सभी प्रेम में हैं।

इसलिए प्रेम की प्रबल आकांक्षा जीवन में होती है–प्रेम मिले, प्रेम बंटे, प्रेम दिया जाये, प्रेम लिया जाये। जीवन का सारा आदान-प्रदान प्रेम के सिक्कों का है। प्रेम से मत भागना; क्योंकि जो प्रेम से भागा, वह जीवन से भागा, और जो जीवन से भागा वह परमात्मा के मंदिर को कभी भी खोज न पायेगा।

मछली की तरह तड़पायेगा अहसास तुझे पायाबी का

जीना है तो अपने दरिया में इमकानेत्तलातुम रहने दे।

–घबड़ा मत तूफानों से। अगर जीना है…

जीना है तो अपने दरिया में इमकानेत्तलातुम रहने दे

–रहने दे आंधियों, तूफानों की संभावना। अगर आंधी और तूफान की सारी संभावना काट दी, तो दरिया दरिया न रह जायेगा, छिछला हो जायेगा।

मछली की तरह तड़पायेगा अहसास तुझे पायाबी का–फिर उथला पानी तुझे मछली की तरह तड़पायेगा। तूफान रहने दो; क्योंकि तूफानों से टक्कर लेकर ही जीवन निखरता है। तूफानों में से गुजरकर ही जीवन का निखार आता है।

प्रेम को मैं धर्म कहता हूं। लेकिन कठिन है, क्योंकि तुमने प्रेम को केवल वासना की तरह जाना है। इसलिए तुम्हारे डर को मैं समझता हूं। तुम घबड़ाये हो! प्रेम? प्रेम से तो तुमने केवल वासना जानी है। प्रेम से तो तुमने अपने बहुत निम्नतम रूप का ही संबंध जोड़ा है। यह तुम्हारी भूल है, इसमें प्रेम का कोई कसूर नहीं। अब किसी आदमी के हाथ में हीरा हो और वह उसको किसी के सिर में मारकर सिर तोड़ डाले तो इसमें हीरे का कसूर है? कि तुम हीरे से बचोगे? हीरे का काम किसी का सिर तोड़ डालना नहीं है। यह तो छोटे-मोटे पत्थर से भी हो सकता था।

मनुष्य ने प्रेम का, प्रेम-ऊर्जा का बड़ा निम्नतम उपयोग किया है, क्षुद्रतम उपयोग किया है। वह उपयोग है–और संतति को पैदा करना। प्रेम का जो परम उपयोग है, वह स्वयं को जन्म देना है। प्रेम का जो साधारण उपयोग है, वह दूसरे को जन्म देना है। प्रेम की जो आखिरी पराकाष्ठा है, वह अपने को जन्म देना है–आत्म-जन्म। प्रेम की जो आखिरी पराकाष्ठा है, वह बाहर दिखाई पड़नेवाली देहें, शरीर, रूप, रंग, इन पर ही समाप्त नहीं हो जाती। रंग में जो छिपा है, रूप में जो छिपा है, दृश्य में जो छिपा है, जब वह दिखाई पड़ने लगे, तब तुम समझना कि तुमने प्रेम का पूरा उपयोग किया।

तुम्हारे पास रोशनी है, लेकिन रोशनी से अगर तुम जिंदगी की गंदगी ही देखते फिरो तो रोशनी का कोई कसूर नहीं है। यह रोशनी तुम्हें जिंदगी का परम रूप भी दिखा सकती थी।

है तेरा हुस्न जब से मेरा मरकजे-निगाह

हर शै है एतबारे-नजर से गिरी हुई।

और एक बार उसका रूप तुम्हें थोड़ा दिखाई पड़ने लगे, थोड़ी उसकी झलक आने लगे, उसके हुस्न की, उसके सौंदर्य की; फूलों में से कभी तुम्हें उसकी आंख भी झांकती दिखाई पड़ने लगे; सागर की लहरों में कभी तुम्हें उसकी भी लहर का अनुभव हो जाये…

है तेरा हुस्न जब से मेरा मरकजे-निगाह!

तुम्हारी आंख में जरा उसके सौंदर्य की छाया बनने लगे, प्रतिबिंब, परछाई पड़ने लगे…

हर शै है एतबारे-नजर से गिरी हुई!

उसी दिन से सब चीजें मूल्य खो देंगी। उसी दिन से तुम धन, पद, प्रतिष्ठा, देह, वस्तुएं, इन सब का मूल्य गिर जायेगा। महावीर कहते हैं, इन सब का मूल्य गिरा दो तो सत्य तुम्हें उपलब्ध हो जायेगा; मैं तुमसे कहता हूं कि तुम परमात्मा का थोड़ा इशारा खोजने लगो, थोड़ा उसका हुस्न तुम्हारी आंख में उतरने लगे, थोड़ा उसका नशा तुम्हें मदमस्त करने लगे तो चीजें अपने-आप छूट जायेंगी।

और ये दो ही रास्ते हैं: या तो चीजें छोड़ो, तो सत्य का दर्शन होता है; या सत्य का दर्शन शुरू करो, तो चीजें छूट जाती हैं। अब मैं तुमसे कहता हूं कि पहला मार्ग बड़ा खतरनाक है। चीजें छोड़ो, पक्का नहीं है कि चीजें छूटने से उसका दर्शन हो जायेगा; कहीं ऐसा न हो कि चीजें छूटने से तुम केवल सिकुड़कर रह जाओ और दर्शन की क्षमता भी खो जाये। ऐसा ही हुआ है। कभी कोई एक-आध महावीर अपवाद हो जाते हैं, बात अलग। नियम नहीं हैं वे। अधिक लोगों को तो मैं यही देखता हूं कि चीजें छोड़-छोड़कर उनको कुछ मिला नहीं है; कुछ छूटा जरूर, मिला कुछ भी नहीं है। मिलने से तो वे भयभीत हो गये हैं, डरते हैं। मैं तो तुमसे कहूंगा छोड़ना मत, जब तक कि श्रेष्ठ का अनुभव न हो जाये। श्रेष्ठ को पहले उतरने दो; आने दो रोशनी को, फिर अंधेरा जायेगा।

तुम खेल रहे थे कंकड़-पत्थर से, फिर कोई हीरे दे गया था; कंकड़-पत्थर छूट जायेंगे। हीरे जब सामने हों तो मुट्ठियां कौन कंकड़-पत्थरों से भरेगा!

लेकिन जरूरी नहीं है कि तुम कंकड़-पत्थर छोड़ दो तो कोई आकर हीरों से तुम्हारी मुट्ठियां भर दे।

अकसर तो मैं देखा हूं, जैन मुनि जब मेरे पास कभी आते हैं, तो उनकी बात सुनकर बड़ी व्यथा होती है।

तो वे यही कहते हैं कि हमने छोड़ तो सब दिया, लेकिन पाया तो कुछ भी नहीं। जिंदगी हो गई छोड़ने में, अब मौत करीब आने लगी। अब तो हाथ-पैर भी कंपने लगे। अब डर भी समाने लगा। अब लौटकर भी उस संसार में नहीं जा सकते जिसको छोड़ आये। अब थूककर चाटना ठीक भी नहीं मालूम होता। और समय भी न रहा, शक्ति भी न रही। लेकिन भीतर एक संदेह उठता है। न मालूम कितने जैन मुनियों ने मुझसे कहा है कि भीतर एक संदेह उठता है कि हमने छो॰?कर ठीक किया? कहीं हमसे कुछ भूल तो नहीं हो गई?

कहीं ऐसा तो नहीं था कि यही संसार सब कुछ है और हम इसको भी छोड़ बैठे? दूसरा तो मिला नहीं, यह छूट गया।

तुम्हें उनकी पीड़ा का अंदाज नहीं, क्योंकि तुम केवल उनका प्रवचन सुनते हो। प्रवचन में तो वे वही दोहराते हैं, जिसको सुनकर वे फंस गये हैं। प्रवचन में तो वे सत्य नहीं कहते।

अभी तक आदमी इस प्रामाणिकता को उपलब्ध नहीं हुआ कि प्रवचन में सत्य कहे। प्रवचन में तो वह वही कहता है जो तुम्हें रास आता है, भाता है। अब जैनों के बीच बोलते हैं तो जो जैनों को रास आता है, जो उनके शास्त्र के अनुकूल पड़ता है, वही बोलना पड़ता है। जब मेरे पास कभी आ जाते हैं, क्योंकि अब तो उनके अनुयायी भी आने नहीं देते; पहले आ जाते थे, तो वे मुझसे कहते थे, अकेले में बात करनी है। अपने अनुयायियों को बाहर कर देते। अकेले में क्यों करनी है? वे कहते कि आप इनको तो बाहर जाने दें, इनके सामने सच न कहा जा सकेगा। अकेले में उनके प्रश्न बुनियादी रूप से तीन मैंने पाये। एक, कि उन्होंने छोड़ दिया सब, लेकिन भीतर से रस नहीं गया है। दूसरा, जो-जो वासनायें उन्होंने दबा ली हैं, जैसे-जैसे देह कमजोर होती जाती है, वे वासनाएं प्रबल होकर उभर रही हैं। पैंतालीस साल के बाद पता चलना शुरू होता है, जो-जो दबा लिया, वह मुश्किल में डालता है। क्योंकि दबाने की ताकत कमजोर हो जाती है। दबानेवाला दीन होने लगता है, क्षीण होने लगता है। और जो वासना दबाई है, अंगार की तरह वह ताजी रहती है। और तीसरी बात, एक संदेह कि हमने जो किया है, वह ठीक किया? यह उचित हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो संसार में है वही ठीक हो?

अब यह बड़ी दयनीय दशा है। यह तुमसे ज्यादा दयनीय दशा है। यह तुमसे ज्यादा मुश्किल और उलझन की दशा है। तुम्हारे पास कुछ तो है–संसार ही सही; ये हाथ बिलकुल खाली हो गये। इन खाली हाथों की दीनता देखो!

मैं तुम्हें दीन नहीं बनाना चाहता। मैं कहता हूं, तुम परमात्मा को खोजो। वह जैसे-जैसे मिलता जायेगा, वैसे-वैसे संसार तिरोहित होता जायेगा। जैसे-जैसे तुम्हारे हाथ भरने लगेंगे उससे, वैसे-वैसे तुम पाओगे संसार से हाथ हटने लगे। हटाना न पड़ेंगे। हटाना पड़ें तो दमन होता है। हट जायें, अपने से हट जायें तो उसका सौंदर्य ही अनूठा है। फिर उसकी लकीर भी नहीं रह जाती भीतर, पीड़ा भी नहीं रह जाती।

जिस दिन से इश्क अपना हुआ मीरे-कारवां

आगे बढ़े हुए हैं हर इक कारवां से हम।

–और जिस दिन तुम अपनी बागडोर प्रेम के हाथ में दे दोगे…

जिस दिन से इश्क अपना हुआ मीरे-कारवां

–और जिस दिन से तुम्हारा पथ-प्रदर्शक, अगुआ प्रेम हो जायेगा…

आगे बढ़े हुए हैं हर इक कारवां से हम।

–उसी दिन तुम पाओगे, तुम सबसे ज्यादा आगे बढ़ गये हो। प्रेम के अतिरिक्त कोई आगे बढ़ा नहीं है। प्रेम पथ-प्रदर्शक है। प्रेम प्रकाश का दीया है।

खतरे मुझे मालूम हैं कि प्रेम के हैं, क्योंकि तुमने प्रेम का गलत रूप जाना है। लेकिन तुम्हारे गलत रूप जानने के कारण सत्य तुमसे न कहूं, तो वह और भी खतरनाक होगा। मैं वही कहूंगा जो ठीक है। तुम्हें उसमें से गलत निकालना हो, निकाल लेना। वह तुम्हारी जिम्मेवारी है। लेकिन जिम्मेवार तुम्हीं रहोगे। लेकिन इस कारण कि कहीं तुम कुछ गलती न कर लो, मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता। तुम्हारी जिंदगी तो पूरी-पूरी ऊरर्‌जा से भरी हुई होनी चाहिए। कोई हर्जा नहीं, आज गलत जाओगे; जिस ऊर्जा से गलत गये हो, उसी ऊर्जा से वापिस भी आ सकते हो।

लेकिन प्रेम को जरा कसना। रोज-रोज ऊपर उठाना। रोज-रोज देखना कि उसके और नये-नये सोपान हैं। मधुर-मधुर सोपान हैं! बड़े प्रीति-भरे!

तुम तो जिसे प्रेम कहते हो, वह बड़ी मिश्रित अवस्था है; जैसे सोने में बहुत कूड़ा-कर्कट मिला हो।

इसलिए तुम्हारे प्रेम में घृणा भी मिली है। तुम जिसको प्रेम करते हो उसी को घृणा भी करते हो।

तुमने कभी जांचा अपने मन को कि जरा पत्नी नाराज हो जाती है कि तुम सोचते हो कि मर ही जाये तो बेहतर। सोचने लगते हो कि हे भगवान, इसको उठाओ! कहां फंस गये इस चक्कर में! बेटा तुम्हारे अनुकूल नहीं चलता तो मां कहने लगती है कि तुम पैदा ही न हुए होते जो अच्छा था। तुम्हारे प्रेम से घृणा बहुत दूर नहीं है। तुम्हारे आशीर्वाद से तुम्हारा अभिशाप बहुत दूर नहीं है; पास ही पास बैठे हैं। तुम्हारी मुस्कुराहट तुम्हारे आंसुओं से बहुत ज्यादा दूर नहीं है।

थोड़ा जागो! इसे देखो। तुम्हारा प्रेम क्षण में क्रोध बन जाता है, क्षणभर में क्रोध बन जाता है। अभी जिसके लिए तुम जान देने को तैयार थे, क्षणभर में उसी की जान लेने को तैयार हो जाते हो। जरा सोचो, जरा जागो और देखो।

यह प्रेम बहुत गंदगियों से मिला हुआ है। इसमें क्रोध भी है। इसमें द्वेष भी है। इसमेंर् ईष्या भी है, मत्सर है, मोह है, राग है, घृणा है, हिंसा है।

तुम जिसे प्रेम करते हो उसी की गर्दन दबाने लगते हो, इतनी हिंसा है। प्रेमी अकसर एक-दूसरे को मार डालते हैं। विवाह की तिथि अकसर मरण की तिथि सिद्ध होती है।

एक आदमी का विवाह हो रहा था। राह पर एक मित्र मिल गया। कल विवाह होनेवाला था। उस मित्र ने कहा, “बड़ी बधाइयां!’ उस मित्र ने कहा, “शायद तुम्हें पता नहीं है, अभी मेरा विवाह हुआ नहीं, कल होनेवाला है।’ उसने कहा, इसीलिए तो बधाइयां दे रहे हैं, फिर बधाइयां देने का उपाय न रहेगा। एक दिन और बचा है, जी लो! चल लो मस्ती से, स्वतंत्रता से।’

अगर राह पर तुम स्त्री-पुरुष को चलते देखो तो तुम तत्क्षण कह सकते हो कि ये पति-पत्नी हैं या नहीं। पति डरा-डरा चल रहा है, नीचे नजर रखकर चल रहा है, इधर-उधर देखता नहीं; क्योंकि फिर झंझट खड़ी हो जाये!

यह प्रेम गर्दन को काट जाता है।

मैं एक ट्रेन में सफर कर रहा था। एक महिला मेरे साथ उस डब्बे में थी। उसका पति भी था, लेकिन वह किसी दूसरे डब्बे में था। पर वह हर स्टेशन पर आता। तो मैंने उससे पूछा कि मुझे शक होता है, ये पति हो नहीं सकते। उसने कहा, “क्यों?’ वह थोड़ी चौंकी।

“कितने दिन हुए शादी हुए?’

उसने कहा, “कोई सात-आठ साल हो गये।’

“यह बात उपन्यास में हो सकती है। सात-आठ साल हो गये, और पति हर स्टेशन पर उतरकर आते हैं इस भीड़-भड़क्का में…!’

वह कहने लगी, “आपने ठीक पहचाना। वे मेरे पति हैं नहीं, लगाव है।’

तब बात ठीक है। लगाव एक बात है। पत्नी तुम किसी और की होओगी। नहीं तो अपना पति हर स्टेशन पर उतरकर आये! एक दफे जो छूटा, तो वह आखिरी स्टेशन पर भी आ जाये तो काफी है।’

प्रेम में बड़ा और बहुत कुछ मिला हुआ है। एक-दूसरे की गर्दन दबा देते हैं। हां, बहाने हम अच्छे खोजते हैं। लेकिन जिसको प्रेम कहें, वह अभी बड़ी दूर है। लेकिन जिसे तुम प्रेम कह रहे हो, उसमें भी वह पड़ा है। इसलिए मैं यह न कहूंगा, इस सब को फेंक देना। इसको निखारना है। इस सोने में मिट्टी मिली है, माना; मिट्टी को काट डालना है, सोने को बचाना है। तो दुनिया में कुछ लोग हैं जो इसी को प्रेम समझ रहे हैं। वे गलत। और दुनिया में कुछ लोग हैं जो मिट्टी के कारण इस पूरे प्रेम को फेंक देने को कहते हैं। वे भी गलत; पहले से भी ज्यादा गलत। क्योंकि मिट्टी के बहाने कहीं सोने को मत फेंक देना!

अहिंसा की धारणा में वही हो गया है। फेंक ही दो इस प्रेम को; इसमें खतरा है, इसमें उपद्रव है, इसमें तनाव है, परेशानी है, अशांति है। फेंक ही दो। लेकिन साथ ही सोना भी चला जाता है।

मैं तुमसे कहता हूं, ये दोनों अतियां हैं, इनसे बचना। इसमें से मिट्टी तो काटनी है–घृणा काटनी है, क्रोध काटना है, मत्सर,र् ईष्या अलग करनी है–प्रेम को निखारना है।

जीवन एक प्रयोगशाला है प्रेम को निखार लेने की। और धन्यभागी हैं वे जो अपने प्रेम को पूरा निखार लेते हैं। उस प्रेम के निखरे रूप में ही जगत जैसा दिखाई पड़ता है उसका नाम परमात्मा है। उस प्रेम के निखरे रूप में ही तुम जिस नियति को उपलब्ध होते हो, उसका नाम आत्मा है।

दूसरा प्रश्न:

जो दीया तूफान से बुझ गया उसे फिर जलाकर क्या करूं? जो स्वभाव स्वप्न में खो गया, उसे वापस जगाकर क्या करूं? आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि मैं ही परमात्मा हूं, लेकिन जो परमात्मा घर से ही भटक गया, उसे घर वापिस बुलाकर क्या करूं?

ऐसा प्रश्न बहुतों के मन में उठता है, स्वाभाविक है। लेकिन तुम जीवन की जटिलता को नहीं समझ रहे हो। स्वभाव इसीलिए खो गया है, क्योंकि बिना खोये तुम उसे जान ही न सकोगे। वह जानने की प्रक्रिया है। जो तुम्हारे पास है, सदा से है, सदा से है, सदा से है, तुम उसके प्रति अंधे हो जाते हो। उसे खोना जरूरी है, ताकि तुम पा सको। पाने के लिए खोना अनिवार्य है। खोकर भी तुम वस्तुतः थोड़े ही खोते हो, क्योंकि स्वभाव तो वही है जो खोया न जा सके।

विस्मरण का नाम खोना है। तुम भूल गये हो। और यह भूलने की बात अत्यंत आवश्यक है समझ लेनी। भूलने का अर्थ यह नहीं है कि तुम कुछ और हो गये हो जो तुम नहीं हो। भूलने का इतना ही अर्थ है कि तुमने कुछ और समझ लिया है। हो तो तुम वही जो हो। जैसे आज रात तुम यहां सोओ और सपने में देखो, कलकत्ते में हो, तो कोई कलकत्ते पहुंच नहीं गये। कोई लौटने के लिए तुम्हें कोई हवाई जहाज नहीं पकड़ना पड?गा। कोई हिलाकर जगा देगा, तुम पूना में जगोगे, कलकत्ते में नहीं जगोगे। तुम यह न कहोगे कि यह क्या मुसीबत कर दी। तुम भागकर स्टेशन भी न जाओगे कि अब मैं पकड़ूं ट्रेन पूना जाने की, इस आदमी ने कलकत्ते में जगा दिया। सपने में कलकत्ते में थे। यह सिर्फ खयाल था। असलियत में तो तुम पूना में ही हो।

परमात्मा को खोया जा नहीं सकता। हो तो तुम परमात्मा में ही। सपने तुम कोई भी देख लो। और सपना तुम्हारी स्वतंत्रता है। और सपने बड़े मधुर हैं। और सपने एकदम बुरे भी नहीं हैं, क्योंकि इन्हीं सपनों के माध्यम से तुम अपने से अपने को दूर कर लेते हो, फासला कर लेते हो। फिर मिलन का मजा आ जाता है। जैसे मछली सागर में ही रहती है तो सागर को भूल ही जाती है, सागर का पता ही नहीं चलता। जरा फेंक दो मछली को किनारे पर, तड़फती है; तब उसे पहली दफा याद आती है कि सागर क्या है।

तुम अपने सपनों के तट पर तड़फ रहे हो। यह तड़फ तुम्हें फिर सागर में ले जायेगी। अब तुम पूछते हो कि “क्या फायदा जो दीया तूफान से बुझ गया…?’ बुझा नहीं है। कोई तूफान तुम्हारे दीये को बुझा नहीं सकता; अन्यथा तूफान तो इतने हैं…। कोई तूफान तुम्हारे दीये को नहीं बुझा सकता। किसको पता चल रहा है यह? यह कौन कह रहा है कि क्या करूं उस दीये को फिर से जलाकर जिसको तूफान ने बुझा दिया? यह जो कह रहा है वही तो तुम्हारा दीया है–यह तुम्हारा जो चैतन्य-भाव है। यह कौन कह रहा है कि क्या फायदा उस परमात्मा को खोजने से जो घर से ही दूर चला गया? मगर यह कौन है जो कह रहा है?

यही तुम्हारा परमात्म-भाव है। यह साक्षी-भाव, यह चैतन्य, यह ज्ञान, यह बोध, यह ज्योति। दीया बुझता नहीं। यह दीया बुझनेवाला दीया नहीं है। और बुझ जाता तो इसके जलाने के फिर कोई उपाय न थे। बुझ जाता तो तुम होते ही न। बुझ जाता तो सोचनेवाला भी न होता कि कैसे इसे जलाऊं। तुम हो। तुम परिपूर्ण हो। सिर्फ एक सपने ने तुम्हें घेर लिया है। एक बादल आ गया है। और सूरज को ढांक लिया है।

यह धूप-छांव का खेल बड़ा मधुर है। इसलिए हिंदुओं की परिभाषा बड़ी अनूठी है। वे कहते हैं, लीला है। तुम इसको बड़ा काम समझ रहे हो कि खो दिया, अब क्या फायदा! तुमने कभी बचपन में छिया-छी नहीं खेली? दो बच्चे छिया-छी खेलते हैं, दोनों आंख बंद करके खड़े हो जाते हैं, छिप जाते हैं। पता है कि यहीं छिपे हैं, इसी कमरे में छिपे हैं। कई बार चक्कर लगाते हैं, खोजते हैं कहां छिपा है, बड़ा शोरगुल मचाते हैं–और उन्हें पक्का पता है कहां छिपा है,क्योंकि घर ही कौन बड़ा है; वही कमरे में कहीं छिपा है, बिस्तर के नीचे चला गया है कि दीवाल की ओट में खड़ा हो गया है। सब पता है। लेकिन फिर खेल का मजा चला जाता है, जब सब पता ही है तो। तो थोड़ा दौड़ते हैं, धामते हैं, खोजते हैं, इधर-उधर झांकते हैं, फिर पकड़ लेते हैं।

हिंदू कहते हैं, यह जगत छिया-छी है, लीला है। तुम्हीं अपने को खोज रहे हो, तुम्हीं अपने को छिपा रहे हो। तुम पूछोगे, “क्यों? क्यों खेलें छिया-छी?’ मत खेलो। सारा धर्म वही तो कला सिखाता है तुम्हें कि जिनको छिया-छी नहीं खेलनी, वे ध्यान करें, वे छिया-छी के बाहर हो जाते हैं। ध्यान का मतलब कुल इतना ही है कि अगर थक गये, अब तुम्हें खेलना नहीं है, तो घोषणा कर दो कि अब हम खेल के बाहर होते हैं, अब हम जरा विश्राम करेंगे, या अब हमें भूख लगी है, अब हम घर जाते हैं। जिनको अभी खेलने में रस आ रहा है, वे खेलें। जिनको खेलने में अब थकान आने लगी है, वे घर लौट जायें।

परमात्मा की खोज का मतलब इतना ही है कि अब बहुत हो गई छिया-छी; अब थक गये। बस इतना ही स्मरण काफी है कि थक गये–विश्राम। जैसे दिनभर आदमी मेहनत करता है, रात सो जाता है। अब तुम यह तो नहीं कहते रात खड़े होकर कि अब क्यों सोयें, जब दिनभर मेहनत की! तुम्हारी मर्जी, न सोना हो तो न सोओ, खड़े रहो। रातभर सोये रहे, अब सुबह तुम्हें कोई उठाने लगे तो तुम यह तो नहीं कहते कि नहीं उठेंगे अब; रातभर सोये रहे, अब क्यों उठें? नहीं सोने, के बाद जागना है; जागने के बाद सोना है। दिन के बाद रात है, रात के बाद दिन है।

ध्यान, संसार, परमात्मा, अरूप और उसके रूप, इन दोनों के बीच यात्रा है। यह खेल बड़ा मधुर है। बस खेलने की कला आनी चाहिए। और खेल में “क्यों’ का तो सवाल मत उठाना। क्योंकि “क्यों’ दुकानदार का शब्द है, खिलाड़ी का नहीं। अब दो आदमी फुटबाल खेल रहे हैं, तो तुम पूछते हो, “यह क्या फायदा? इधर से गेंद उधर मारी, उधर से इधर मारी; अरे एक जगह रखो, बैठ जाओ शांति से।’ आदमी बालीबाल खेल रहे हैं, तुमने देखा कैसा पागलपन करते हैं! बीच में एक जाली बांध रखी है, इधर से फेंक रहे हैं उधर; उधर से फेंक रहे हैं इधर। और इनकी तो छोड़ो ही, कई भीड़ लगाकर खड़े हैं देखने के लिए। इतना-सा काम हो रहा है, गेंद इधर से उधर फेंकी जा रही–यह तो दो मशीनें लगाकर भी कर सकते हो। इसमें सार क्या है? अगर दुकानदार है तो पूछेगा, “क्यों? इससे मिलेगा क्या?’ लेकिन तब चूक गये बात। मिलने का सवाल नहीं है, खेल में ही रस है। यह जो खेल की उमंग है, इसमें ही रस है।

तिनके की तरह सैले-हवादिस लिये फिरा

तूफान लेकर आये थे हम जिंदगी के साथ।

तूफान हमारे साथ आया है। जिंदगी तूफान है। इसमें बड़ी लहरें उठती हैं, बड़ी आंधियां आती हैं। फिर सन्नाटा भी छा जाता है। सन्नाटे के लिए आंधी जरूरी है; आंधी के लिए सन्नाटा जरूरी है–दोनों परिपूरक हैं। यहां मिलना भी है, खोना भी है; पाना भी है, बिछुड़ना भी है; याद भी है, विस्मृति भी है। ये दोनों पहलू हैं, दो पंख हैं। इनसे ही जीवन के आकाश में उड़ने का उपाय है।

ये हादसे कि जो इक-इक कदम पे हाइल हैं

खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा लेंगे।

जमाना चीं-ब-जबीं है तो क्या बात है “रविश’

हम इस अताब पे कुछ और मुस्कुरा लेंगे।

ये हादसे, ये घटनायें जो हर कदम पर घट रही हैं, ये पत्थर जो हर कदम पर अड़े हुए हैं, खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा लेंगे। घबड़ाओ मत; ये पत्थर नहीं हैं, ये सीढ़ियां बन जानेवाली हैं। यह भटकाव ही उसके पहुंचने का रास्ता बन जाने वाला है। यह दूर हो जाना ही पास आने का उपाय है।

ये हादसे कि जो इक-इक कदम पे हाइल हैं

ये जो अड़े हैं पत्थर, और घटनाएं, और जीवन के उलझाव, और बाजार और दुकान और तृष्णा और मोह और हजार-हजार बातें हैं…खुद एक दिन तेरे कदमों का आसरा लेंगे। घबड़ाओ मत, खेले चले जाओ। अभी तुम ठीक से खेल समझे नहीं, अभी खेल का गणित नहीं आया। गणित आ जायेगा तो रस आने लगेगा। और तब इन पत्थरों पर चढ़ने में मजा आने लगेगा। तब तुम धन्यवाद दोगे इन पत्थरों को कि अच्छा किया कि तुम थे, अन्यथा कहां चढ़ते! अच्छा हुआ कि तुम थे, अन्यथा जीवन को जांचने की सुविधा कहां मिलती, अवसर कहां मिलता!

जमाना चीं-ब-जबीं है तो क्या बात है “रविश’

और अगर जमाना बहुत क्रोध से भरा है और चारों तरफ बड़ी अड़चन और मुसीबत है तो बात क्या है “रविश’…

हम इस अताब पे कुछ और मुस्कुरा लेंगे।

इस क्रोध पर थोड़ा और मुस्कुरा लेना।

यह जो जमाना इतने उपद्रव खड़ा करता है, इस पर थोड़ा मुस्कुराना सीखो।

परमात्मा का खोजी खेल मानकर चलता है। तुम बड़ी गंभीरता से चल रहे हो, यह अड़चन है। तुम्हारे तथाकथित धार्मिकों ने तुम्हें बड़े गंभीर चेहरे सिखा दिये हैं; जैसे कि प्रार्थना कोई काम है! प्रार्थना खेल है। प्रार्थना रस है, काम नहीं है। इसमें कुछ लाभ और लोभ थोड़े ही है। इसमें तो होने का मजा है। इन पक्षियों से पूछो! ये जो झींगुर गुनगुनाये जा रहे हैं, इनसे पूछो–किसलिए? वे तुम्हारी बात पर ही आश्चर्य करेंगे कि सवाल भी उठाने योग्य है? मजा आ रहा है।

तुम्हें जब तक संसार में मजा आ रहा है, दौड़े जाओ; जब तुम्हें परमात्मा में मजा आने लगे, रुक जाना। मजे-मजे की बात है।

मैं जो संसार में हैं, उनके विरोध में नहीं हूं। मैं कहता हूं, उन्हें मजा आ रहा है तो मजा लें। तकलीफ तो कब खड़ी होती है कि तुम्हें मजा संसार में आ रहा है और तुम किसी की बात में पड़ गये और उसने कहा कि संसार में क्या रखा है! तुम्हें मजा संसार में आ रहा है। अब तुम एक उलझन में पड़े, एक तनाव पैदा हुआ। किसी ने कह दिया, संसार में क्या रखा है, यह तो सब धूल है, यह तो सब पड़ा रह जाएगा–यह ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब बांध चलेगा बनजारा! उनका बनजारा बांधकर चल रहा हो, लेकिन तुम्हारा तो अभी बिलकुल खेल लग रहा था, तंबू लग रहा था, व्यवस्था तुम जुटा रहे थे। यह बात तुम्हारे कान में पड़ गई, अब तुम अड़चन में पड़े। अब तुम तंबू भी गाड़े जा रहे हो और सोच रहे हो, सब ठाठ पड़ा रह जायेगा। अब अड़चन आई। अब तुम इकहरे न रहे। तुम्हारा व्यक्तित्व खंडों में बंट गया। तुम्हारे तथाकथित धर्मों ने तुम्हें विक्षिप्त बना दिया है।

मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह यह नहीं कह रहा हूं कि तुम छोड़कर चल पड़ो। मैं तुमसे कह रहा हूं, ठीक से तंबू गड़ा लो। भगवान से भटकने का मौका मिला है, ठीक से भटक जाओ। दूर जाने का क्षण आया है, दूर चले जाओ। इसमें भी क्या कंजूसी करनी? क्योंकि मेरे देखे जो जितनी दूर जाता है, जब उसे याद पकड़ती है तो उतनी ही तीव्रता से पास आता है। पास आने और दूर आने में एक अनुपात है। खोने का तो कोई उपाय नहीं है, खेल है। रोकर खेलना हो रोकर खेल लो; हंस के खेलना हो हंसकर खेल लो। जो हंसकर खेलता है, उसको मैं धार्मिक कहता हूं। जो रो-रोकर खेलने लगे, वह कोई खिलाड़ी नहीं है।

है रात तो इसके बाद सहर, अनवार भी लेकर आएगी

है सुबह तो शब तारों के चमकते हार भी लेकर आएगी।

है रात तो इसके बाद सहर–रात है तो सुबह होने के करीब है, घबड़ाओ मत। रात का मजा ले लो, सुबह तो हो ही जायेगी। सुबह के लिए रोओ, चिल्लाओ-चीखो मत। यह रात सुबह के रास्ते पर ही है। यह रात होनेवाली सुबह ही है। यह रात सुबह का ही छिपा हुआ रूप है।

है रात तो इसके बाद सहर अनवार भी लेकर आएगी।

सुबह प्रकाश भी लेकर आनेवाली है। अंधेरे को ठीक से तो भोग लो! क्योंकि अगर आंखें अंधेरे को ठीक से न भोग पायें तो तुम प्रकाश को भोगने के योग्य न बन पाओगे।

तुमने कभी खयाल किया? जब अंधेरे के बाद तुम प्रकाश को देखते हो तो अंधेरा तुम्हारी आंखों को तैयार करता है; तुम प्रकाश को देखने में समर्थ हो जाते हो। आंख को विश्राम मिलता है अंधेरे में; आंख ताजी हो जाती है। फिर से तुम देखने में कुशल हो जाते हो। इसलिए तो आंख झपकती रहती है। तुमने कभी पूछा कि आंख झपकती क्यों रहती है? यह हर पल अंधेरे को पैदा करती रहती है, ताकि ताजी बनी रहे। इसलिए तुमने देखा फिल्म जाते हो देखने, तो तीन घंटे तुम आंख का झपकना भूल जाते हो। उसी लिए आंख थक जाती है। फिल्म के कारण नहीं, टेलीविजन देखने के कारण नहीं; तुम आंख का झपकना भूल जाते हो कि जो स्वाभाविक प्रक्रिया थी अंधेरे को बीच-बीच में लाने की, वह भूल जाते हो। तुम इतने ज्यादा तन जाते हो कि आंख फाड़े बैठे रहते हो। अब की बार जब सिनेमा जाओ या फिल्म देखने जाओ या टेलीविजन देखो, तो आंख को झपकाते रहना, तुम पाओगे कोई थकान न आई। आंख के झपकने में राज है। अंधेरा प्रकाश का खेल है। धूप छाया का खेल है।

है रात तो इसके बाद सहर अनवार भी लेकर आएगी।

विश्राम तो कर लो थोड़ा रात में।

संसार विश्राम है परमात्मा का। जल्दी ही सुबह होगी, परमात्मा भी आयेगा, प्रकाश भी लायेगा। भाग-दौड़ मत करो। व्यर्थ शीर्षासन इत्यादि लगाकर खड़े न हो जाओ। इससे रात के जाने का कोई संबंध नहीं। रात अपने से आती है, अपने से जाती है। तुम तो सिर्फ साक्षी रहो।

है सुबह तो शब तारों के चमकते हार भी लेकर आएगी।

और अगर सुबह है तो ध्यान रखना, रात भी आनेवाली है।

यह जीवन का चक्र है जो घूमता चला जाता है। इस चक्र में जो खेलना सीख जाये–खेलना पहली शर्त–गंभीरता से नहीं, खिलाड़ी के अहोभाव से, रस से–जो खेलना सीख जाये, यह पहली शर्त। और दूसरी बात धीरे-धीरे तुम्हारे खिलाड़ीपन से उठेगी, वह है साक्षी-भाव। जब तुम देखोगे, रात भी अपने से आती है; सुबह भी अपने से हो जाती है; फिर सांझ आ जाती है, फिर तारे जगमगा उठते हैं–यह सब अपने से हो रहा है तो मैं नाहक दौड़-धूप क्यों करूं; मैं सिर्फ साक्षी रहूं, देखूं, जो होता है उसका मजा लूं, रस लूं! परमात्मा इतने रूप धरता है, इतने-इतने नाच करता है, मैं द्रष्टा बनूं। तो पहले खिलाड़ी बनो, फिर द्रष्टा बन जाओ, बस। यह दो बातें जिसके जीवन में आ गईं, उसने पा ही लिया।

शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें?

है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने

बुलंद नग्मए-आदम है बज्मे-अंजुम में

कब इक सितारए-नौ हंस पड़े खुदा जाने

हयात अभी है फकत इक हयात का परतब

अभी हयात को समझा ही क्या है दुनिया ने।

शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें?

अगर तुम हार गये हो तो इसको जीवन की हार मत समझो। जीवन कभी नहीं हारता। तुम हार जाओगे तो विदा कर लिये जाओगे, बुला लिये जाओगे। जीवन चलता जाता है। एक लहर हार जाती है तो विलीन हो जाती है सागर में।

शिकस्ते-दिल को शिकस्ते-हयात क्यों समझें?

है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने।

और अगर एक पैमाना टूट गया तो घबड़ाते क्यों हो, मधुशाला साबित है, तो हजार पैमाने भरे तैयार हैं।

यहां छोटी-छोटी चीजों से लोग घबड़ा जाते हैं। किसी की पत्नी मर गई, वैराग्य का उदय हो गया। है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने! इतनी जल्दी क्यों करते हैं? किसी की दुकान में घाटा लग गया, दिवाला निकल गया–अरे, दीवाली बहुत मनाई, अब दिवाला भी मना लो! इतना घबड़ाना क्या?

है मैकदा तो सलामत हजार पैमाने।

हारकर धर्म की तरफ, पराजय के भाव से, विफलता से, विषाद से कहीं कोई गया है! उदासी से तो रुग्णता आती है, जीवन का स्वास्थ्य नहीं। धर्म की तरफ उदासी से नहीं, प्रसन्नता से, प्रफुल्लता से गये हुए ही पहुंचते हैं।

बुलंद नग्मए-आदम है बज्मे-अंजुम में

–नक्षत्र मंडल में आदमी का गीत गूंज रहा है।

कब इक सितारए-नौ हंस पड़े खुदा जाने

–कब वर्षा हो जायेगी परम आनंद की, पता नहीं कभी भी हो सकती है!

हयात अभी है फकत इक हयात का परतब

–जिसे तुमने अभी जिंदगी समझा है, वह तो केवल जिंदगी की छाया है।

हयात अभी है फकत इक हयात का परतब

अभी हयात को समझा ही क्या है दुनिया ने।

अभी तुमने जीवन का पूरा राज कहां सीखा? जल्दी मत करो। निर्णय मत लो कि “क्या फायदा जो दीया बुझ गया, अब इसको जलाने से क्या फायदा! और जो घर छूट गया, उसको खोजने से क्या फायदा!’ ऐसे तो तुम थककर गिर जाओगे। ऐसे तो तुम जीते-जी मुर्दा हो जाओगे।

उठो! जीवन की यात्रा प्रफुल्लता से करनी है।

और जब कुछ खोता हो, तब भी समझ रखना: यह भी कुछ पाने का उपाय होगा।

आखिरी प्रश्न:

तेरे गुस्से से भी प्यार, तेरी मार भी स्वीकार

चाहे खुशी दो कि दो गम, दे दो खुशी-खुशी करतार

तेरी धूप हो कि छांव, मुझको दोनों हैं स्वीकार

तेरा सब कुछ मुझे पसंद, तेरा न भी नहीं इनकार।

शुभ है, ऐसी ही भाव की दशा भक्त की दशा है। और जिसको ऐसे स्वीकार का भाव आ गया; अस्वीकार को भी स्वीकार करने की क्षमता आ गई; “नहीं’ में भी दंश न रहा; हार में भी कांटे न चुभे; सुख आये कि दुख, दोनों को जिसने परमात्मा का उपहार समझकर स्वीकार कर लिया, उसका प्रसाद मान कर स्वीकार कर लिया–उसकी मंजिल ज्यादा दूर नहीं है। उसके पैर मंजिल के करीब आने लगे। उसका रास्ता पूरा होने के करीब आने लगा।

इस भाव-दशा को सम्हालना। इस भाव-दशा को धीरे-धीरे गहराना। यह तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाये। यह तुम्हारी धड़कन-धड़कन में बस जाये।

जिनको हर हालत में खुश और शादमां पाता हूं मैं

उनके गुलशन में बहारे-बेखिजां पाता हूं मैं।

जो हर हाल में खुश हैं, उनके जीवन में वसंत आता है और पतझड़ कभी नहीं आती।

वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें

हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे।

अगर तुम्हारे पास ऐसी प्रेम की भाव-दशा उठ रही है, ऐसी पहली झलकें आनी शुरू हुई हैं कि सुख और दुख दोनों को तुम प्रभु की अनुकंपा मान लो, तो फिर जल्दी ही, तुम्हारे पास वैसे दिल का निर्माण हो जायेगा।

हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे!

वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें!

फिर तुम्हारी आंख परमात्मा को देख ही लेगी। यही तो अभिलाषी की आंख की परीक्षा है। सुख को तो सभी स्वीकार कर लेते हैं। उससे कुछ पता नहीं चलता। दुख को भी जो स्वीकार कर लेता है, उससे ही पता चलता है। फूल गिरें, सभी मान लेते हैं, और प्रसन्न हो लेते हैं। लेकिन जबे कांटे जीवन में आयें तब भी जो मुस्कुराता रहता है…

वाये वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक कहें।

आ गई वह आंख, वह अभिलाषी नेत्र, प्रभु के दर्शन करने की क्षमता वाले नेत्र…।

हाय वोह दिल जो गिरफ्तार मुहब्बत में रहे।

एक पागलपन आयेगा, घबड़ाना मत। यह पागलों की ही बात है। बुद्धिमान तो ठीक-ठीक को स्वीकार करते हैं। बुद्धिमान तो सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को इनकार करते हैं; फूल चुनते हैं, कांटे अलग करते हैं। यह तो दीवानों की बात है कि दोनों को स्वीकार कर लेते हैं।

और मैं तुमसे कहता हूं, दीवानगी से बड़ी कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। क्योंकि जो सुख को स्वीकार करते हैं, दुख को अस्वीकार, उनके जीवन में दुख ही दुख भर जाता है। तुम्हारे अस्वीकार करने से दुख थोड़े ही जाता है, दुगना हो जाता है। कांटा तो चुभा ही है, पीड़ा तो हो ही रही है–तुम अस्वीकार करते हो, उससे पीड़ा और सघन हो जाती है। कांटा चुभा है और तुम स्वीकार कर लेते हो, तुम कहते हो, “प्रभु की कोई मर्जी होगी! जरूर किसी कारण से चुभाया होगा।’

बायजीद निकलता था एक रास्ते से, पत्थर से चोट लग गई, वह गिर पड़ा, पैर से खून निकलने लगा! उसने हाथ उठाये आकाश की तरफ और प्रभु को धन्यवाद दिया कि “धन्यवाद, मेरे मालिक! तू भी खूब खयाल रखता है!’ उसके एक भक्त ने पूछा, “यह जरा जरूरत से ज्यादा हो गई बात। अतिशयोक्ति हुई जा रही है। खून निकल रहा है, पत्थर की चोट लगी है–धन्यवाद का कारण कहां है?’

बायजीद ने कहा, “पागलो, फांसी भी हो सकती थी! उसका खयाल तो देखो! अपने फकीरों का खयाल रखता है। जरा-सी चोट से बचा दिया। मैं जैसा आदमी हूं, उसकी तो फांसी भी हो जाये तो कम है। मेरे पाप, मेरे गुनाह तो देखो!’

तो पैर में लगी चोट और बहता लहू भी अहोभाग्य हो गया।

बायजीद तीन दिन से भूखा था। एक गांव में रुके। वह सांझ प्रार्थना जब करता था तो रोज कहता था, “प्रभु! जो भी मेरी जरूरत होती है, तू सदा पूरी कर देता है।’ उस दिन भक्त जरा नाराज थे, तीन दिन से भूखे थे। किसी गांव में ठहरने को जगह न मिली। लोगों ने रुकने न दिया। लोग विरोध में थे। फिर भी उस रात उन्होंने कहा, अब आज देखें, आज यह बायजीद क्या कहता है! उसने फिर वही कहा कि हे प्रभु! तू भी खूब है। जब जो मेरी जरूरत होती है, पूरी कर देता है।

एक भक्त ने कहा, “अब सुनो! तीन दिन से भूखे हैं। क्या खाक जरूरत पूरी कर देता है?’

बायजीद हंसने लगा। उसने कहा, “तुम समझे ही नहीं; तीन दिन से भूख मेरी जरूरत थी। तीन दिन उपवास मेरी जरूरत थी। उसने पूरी की।’

देखो, ऐसा आदमी दुख नहीं पा सकता। ऐसे आदमी को कैसे दुख दोगे? परमात्मा भी बड़ी उधेड़-बुन में पड़ जाता होगा ऐसे आदमी के साथ कि अब करो क्या! यह आदमी तो जीतने लगा! यह तो छिया-छी में हाथ आगे मारने लगा। इसको दुखी करने का उपाय न रहा।

और सुख तभी उत्पन्न होता है जब दुखी होने का उपाय नहीं रह जाता। अगर तुमने सुख पकड़ा और दुख छोड़ा, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे, तुम्हारा सुख भी दुख हो जाता है। पकड़नेवाले का सुख भी दुख हो जाता है; क्योंकि वह डरता है, कहीं छिन न जाये। छिनेगा तो ही। कौन सुख स्थायी होता है? आया है, जायेगा! पानी की लहर है। न दुख ठहरता, न सुख ठहरता। जिसने पकड़ा सुख को, वह दुखी होने लगा। पहले सुख की आकांक्षा में दुखी था; अब इस भय से दुखी होगा कि छूटता, अब गया, अब गया, अब जायेगा! और जिसने दुख को स्वीकार कर लिया, वह तो दुख को भी रूपांतरित कर लेता है। सुख तो सुख है ही, वह दुख को भी सुख बना लेता है। इस कीमिया को ही धर्म समझना।

जुनूं हर रंग में मशरूरो-शादां

खिरद! हर हाल में चींबर जबीं है।

प्रेमोन्माद, जुनूं हर रंग में मशरूरो-शादां…

–वह जो पागलों की मस्ती है, दीवानों की मस्ती है, वह तो हर हाल में खुश है।

खिरद! लेकिन अक्ल, बुद्धि, हर हाल में चींबर जंबी है। वह हर हाल में त्यौरी चढ़ाये हुए है। कुछ भी हो जाये, तृप्ति नहीं होती। कुछ भी मिल जाये, असंतोष बना रहता है।

सौभाग्य है, अगर इस तरह की भाव-दशा में रमते जाओ। यह सिर्फ तुम्हारी कविता न हो, तुम्हारा जीवन बने! यह तुमने सिर्फ होशियारी न की हो प्रश्न पूछकर, यह तुम्हारा भाव बने! सघन भाव! तो तुम पाओगे, सब तरफ से परमात्मा ने नये-नये द्वार खोल लिये; हर तरफ से उसकी हवाएं तुम्हें छूने लगीं।

हर एक जल्वा है मेरे लिए कशिश तेरी

हर एक सदा मुझे तेरा पयाम होती है।

फिर हर आवाज में उसका संदेश और हर रूप में उसका रंग, हर फूल में उसकी खुशबू…। तुम तैयार हो जाओ। और यही तैयारी का ढंग है। इसे तुम चौबीस घंटे स्मरण रखो। जल्दी ही दुख भी आयेंगे, स्मरण रखना। सुख भी आयेंगे, स्मरण रखना। तुम हर हालत में सभी कुछ उसी को समर्पण किये चले जाना। तुम कहना, सब तेरे हैं, सब तेरे भेजे हैं! और जल्दी ही तुम पाओगे, तुम्हारे जीवन में सुख-दुख की उधेड़-बुन खो गई और एक परम शांति विराजमान हो गई है–ऐसी शांति जो पृथ्वी की नहीं है; ऐसी शांति जो केवल स्वर्ग की है!

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–11

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स्वाध्याय-यज्ञ की कीमिया (अध्याय ४)—ग्यारहवां प्रवचन

प्रश्न:

भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक में स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च का अनुवाद दिया है, भगवान के नाम का जप तथा भगवतप्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञान-यज्ञ के करने वाले। कृपया स्वाध्याय-यज्ञ को समझाएं।

स्वाध्याय-यज्ञ गहरे से गहरे आत्म-रूपांतरण की एक प्रक्रिया है। और कृष्ण ने जब कहा था यह सूत्र, तब शायद इतनी प्रचलित प्रक्रिया नहीं थी स्वाध्याय-यज्ञ, जितनी आज है। आज पृथ्वी पर सर्वाधिक प्रचलित जो प्रक्रिया आत्म-रूपांतरण की है, वह स्वाध्याय-यज्ञ है। इसलिए इसे ठीक से, थोड़ा ज्यादा ही ठीक से समझ लेना उचित है।

आधुनिक मनुष्य के मन के निकटतम जो प्रक्रिया है, वह स्वाध्याय-यज्ञ है। कृष्ण ने तो उसे चलते में ही उल्लेख किया है। उस समय बहुत महत्वपूर्ण वह नहीं थी, बहुत प्रचलित भी नहीं थी। कभी कोई साधक उसका प्रयोग करता था। लेकिन सिगमंड फ्रायड, गुस्ताव जुंग, अल्फ्रेड एडलर, सलीवान, फ्रोम और पश्चिम के सारे मनोवैज्ञानिकों ने स्वाध्याय-यज्ञ को बड़ी कीमत दे दी है।

स्वाध्याय, इस शब्द में स्व और अध्ययन दो बातें हैं। स्वयं का अध्ययन स्वाध्याय का अर्थ है। स्वयं का अध्ययन सारे मनोविश्लेषण की आधार भूमि है, साइकोएनालिसिस की आधार भूमि है। स्वयं में क्या-क्या है, इसका गूढ़ परिचय–किसी और के द्वारा नहीं, स्वयं के ही द्वारा। किसी और के द्वारा इसलिए नहीं कि स्वयं की अतल गहराइयों में किसी दूसरे का कोई प्रवेश नहीं है।

हम दूसरे व्यक्ति को केवल उसकी परिधि से ही जान पाते हैं। उसकी गहराइयों में, उसके अंतस्तल में कहीं कोई द्वार प्रवेश का नहीं है। हम दूसरे के व्यवहार को, बिहेवियर को ही जान पाते हैं; उसके अंतस को नहीं। दूसरा क्या करता है, इसे तो हम अध्ययन कर सकते हैं; लेकिन दूसरा क्या है, इसका हम बाहर से अध्ययन नहीं कर सकते हैं।

और जितना ही ज्यादा मनुष्य सभ्य हो गया है, उतना ही धोखा गहरा हो गया है। अंतस कुछ होता, आचरण कुछ होता! इसलिए आचरण को देखकर अंतस की कोई भी खबर नहीं मिलती है। सुसंस्कृत और सुसभ्य आदमी हम कहते ही उसे हैं, जिसके आचरण का जाल इतना बड़ा है कि उसके अंतस का पता न लगाया जा सके। जिसका आचरण ऐसा है कि उससे हमें कोई क्लू, कोई कुंजी, कोई चाबी नहीं मिलती कि हम उसके अंतस के ताले को खोल लें। शायद शुद्ध आदिम आदमी, प्रिमिटिव, उसके आचरण को देखकर हमें उसके अंतस का थोड़ा अंदाज भी लग जाए; लेकिन जितना सुसभ्य, सुशिक्षित आदमी, उतना ही उसके व्यवहार को देखकर उसके स्वयं का कोई पता नहीं चलता।

व्यवहार प्रकट नहीं करता, छिपाता है। आचरण अंतस की अभिव्यक्ति नहीं, अंतस का छिपाव बन गया है। हम जो बोलते हैं, उससे वह पता नहीं चलता, जो हम सोचते हैं। हम जो बोलते हैं, वह उसे छिपाने को है, जो हम सोचते हैं। चेहरे पर जो दिखाई पड़ता है, वह वह नहीं होता, जो आत्मा में उठता है। चेहरा सौ में निन्यानबे मौके पर आत्मा में जो उठता है, वह दूसरे तक न पहुंच जाए, इसकी रुकावट का काम करता है।

स्वाध्याय का इसलिए पहना अर्थ है कि हम अपने अंतस से स्वयं ही परिचित हो सकते हैं। दूसरे हमारे आचरण को ही जान सकते हैं। और आचरण से जाना गया उनका अध्ययन ज्यादा से ज्यादा अनुमान, इनफरेंस हो सकता है। लेकिन साक्षात, सीधा ज्ञान, इमीजिएट, तो हम अपने भीतर स्वयं का ही कर सकते हैं।

हम स्वयं ही अपनी गहराइयों में हैं अकेले, वहां किसी दूसरे का प्रवेश नहीं है। इसलिए स्वाध्याय। लेकिन हम खुद भी वहां नहीं जाते। हम खुद भी अपने से बाहर ही जीते हैं। हम इस ढंग से जीते हैं कि हम भी अपने आचरण से ही परिचित होते हैं, अपनी आत्मा से परिचित नहीं होते। हम स्वयं को भी जानते हैं, तो दूसरों की दृष्टि से जानते हैं। अगर दूसरे हमें अच्छा आदमी कहते हैं, तो हम सोचते हैं, हम अच्छे आदमी हैं। और दूसरे अगर बुरा कहने लगते हैं, तो बड़ी पीड़ा पहुंचाते हैं।

स्वयं का सीधा, प्रत्यक्ष अनुभव हमारा अपना नहीं है। अन्यथा सारी दुनिया बुरा कहे, अगर मैं अपने भीतर जानता हूं कि मैं अच्छा हूं, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। उस सारी दुनिया के बुरे कहने से जरा-सा कांटा भी नहीं चुभता। कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन मुझे तो मेरा पता ही नहीं है कि मैं कौन हूं। मुझे तो वही पता है, जो लोगों ने मेरे बाबत कहा है।

लोग मेरे संबंध में जानें बाहर से, यह तो उचित है; लेकिन मैं भी अपने संबंध में जानूं बाहर से, यह एकदम ही, एकदम ही खतरनाक है। अनुचित ही नहीं, खतरनाक भी है।

स्वाध्याय का अर्थ है, स्वयं का साक्षात्कार, एनकाउंटर विद वनसेल्फ। स्वाध्याय का अर्थ है, अपने ही आमने-सामने खड़ा हो जाना। निश्चित ही, स्वाध्याय की प्रक्रिया को चरणों में बांटकर समझ लें।

पहली बात, जो व्यक्ति स्वाध्याय की साधना में या स्वाध्यायरूपी यज्ञ में उतरना चाहता है, पहली बात, दूसरों ने उसके संबंध में क्या कहा है, उसे तत्काल अलग कर देना चाहिए। दूसरे उसके संबंध में क्या सोचते हैं, इसे हटा देना चाहिए। दूसरों के वक्तव्य धोखे के सिद्ध होंगे। दूसरों की जानकारी अपने संबंध में सबसे पहला कचरा है, जो स्वाध्याय में अलग करना पड़ता है। तभी मैं निपट उसको जान पाऊंगा, जो मैं हूं।

और जो मैं हूं, इसे जानने के लिए दूसरा चरण जो…। यह बहुत कठिन है। दूसरों के ओपीनियन को अलग कर देना बहुत कठिन नहीं है। यह इतना ही सरल है, जैसे नदी के ऊपर पत्ते छा जाएं, उनको हम हटा दें और नीचे का जल-स्रोत प्रकट हो जाए। दूसरों के मंतव्य हमारे संबंध में बहुत गहरे नहीं होते, नदी की सतह पर होते हैं। घास-पात की तरह उन्हें अलग किया जा सकता है। उसमें बहुत अड़चन नहीं है। अड़चन दूसरे चरण में है।

हमने अपने को जानने के लिए अपने को पूरा मुक्त नहीं रखा है। हमने अपने बहुत-से हिस्से भयभीत होकर, घबड़ाकर इतने गहरे में दबा दिए हैं कि हम उनको अपने सामने लाने में डरेंगे। जैसे एक आदमी ब्रह्मचर्य की धारणा से भर गया हो, तो वह अपनी कामवासना को इतना दबा देगा कि वह उसका साक्षात्कार न कर पाएगा। वह खुद ही डरेगा कि मेरे भीतर और कामवासना! नहीं-नहीं; है ही नहीं! जिस आदमी ने अपने क्रोध को गहरे में दबा दिया है, वह अपने क्रोध को कभी भी नहीं जान पाएगा। और हमने अपने बहुत-से हिस्सों को भीतर दबाया हुआ है, सप्रेस किया हुआ है।

इसलिए स्वाध्याय का दूसरा चरण है, जो-जो दबाया हुआ है, उसे उभारना पड़ेगा। अन्यथा स्वयं का अध्ययन न हो पाएगा। जो-जो भीतर अतल में पड़ गया है, जो-जो हमने अंधेरे में सरका दिया है कि हमें खुद ही न मिल जाए! हम खुद ही अपने बड़े हिस्से को अंधेरे में किए हुए हैं, कि कहीं हमारी मुलाकात न हो जाए! और इसीलिए हम अकेलेपन से बहुत डरते हैं, लोनलीनेस से बहुत डरते हैं। क्योंकि अकेले में रहेंगे, तो खुद से मिलने का मौका है। इसलिए सदा किसी के साथ हैं। कभी पत्नी, कभी पति; कभी बेटा, कभी मित्र; कभी क्लब, कभी मंदिर; लेकिन कहीं न कहीं कोई न कोई साथ है। अकेले नहीं हैं! क्योंकि अकेले में, जब कोई भी साथ नहीं होगा, तो हम अपने साथ हो जाएंगे। वह डर है।

इसलिए सभ्य आदमी अकेले में बिलकुल नहीं है। अकेला हुआ, तो रेडियो खोलेगा, ताकि अकेलापन मिट जाए। अखबार उठा लेगा, अकेलापन मिट जाए। कुछ और नहीं सूझेगा, तो सिगरेट पीएगा, अकेलापन मिट जाए। कुछ भी नहीं बचेगा, तो सो जाएगा। लेकिन अकेला जागेगा नहीं।

यह बड़ा षडयंत्र है, जो हम अपने साथ कर रहे हैं, ए ग्रेट कांसपिरेसी। बड़े से बड़ा षडयंत्र जो हम अपने साथ कर रहे हैं, वह यह है कि हम अपने साथ अकेले कभी नहीं होते। कभी नहीं! कहीं मौका मिल जाए, तो बड़ी ऊब मालूम पड़ती है, बड़ी घबड़ाहट और बेचैनी होती है!

अभी अमेरिका में उन्होंने एक यूनिवर्सिटी में एक गहरा प्रयोग किया है, केलिफोर्निया में। और वह है सेंस डिप्राइवेशन का। कुछ युवकों को ऐसी कोठरियों में बंद किया, जहां कोई भी संवेदना उन तक न पहुंच सके। कोई भी संवेदना! घुप्प, गहन अंधकार। वैज्ञानिक साधनों से समस्त प्रकाश की संभावनाओं को रोक दिया है भीतर जाने से। गहन अंधकार। कोई आवाज भीतर नहीं पहुंच सकती, कोई ध्वनि नहीं पहुंच सकती। हाथ पर, शरीर पर इस तरह के दस्ताने पहनाए हैं कि उनके कारण अपने ही शरीर को भी नहीं छुआ जा सकता। सब तरफ से इंद्रियों को कुछ भी सूचना न मिले, ऐसी स्थिति में उस आदमी पर क्या घटित होता है? तो उसके सारे सिर पर यंत्र लगे हैं, जो बाहर खबर भेज रहे हैं कि उसके भीतर क्या हो रहा है।

पांच मिनट गुजारना मुश्किल हो जाता है। पांच मिनट बाद यंत्र खबर देने लगते हैं कि वह आदमी पागल हो जाएगा। उसे निकालो बाहर! उसके मस्तिष्क की सारी व्यवस्था अस्तव्यस्त हुई जा रही है। दस मिनट के बाद वह आदमी करीब-करीब बेहोशी की हालत में पहुंच जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर घंटेभर रोका जाए, तो वह कोमा में पड़ जाएगा। इतनी गहरी मूर्च्छा में पड़ जाएगा कि लौट सकेगा कि नहीं, यह डर हो जाएगा। क्या हो गया है इस आदमी को?

अकेलापन! भारी अकेलापन है।

अभी जिन अंतरिक्ष यात्रियों ने चांद तक यात्रा की है, चांद तक पहुंचने में जो सबसे बड़ी कठिनाई थी, वह कठिनाई यांत्रिक नहीं थी। यांत्रिक कठिनाई तो बहुत दिन पहले हल हो गई थी। सारे अनुमान सही सिद्ध हुए, जो पहले सोचा गया था। बड़ी कठिनाई थी, इतनी देर तक, पृथ्वी को छोड़ने के बाद जो गहन सन्नाटा है, उसको आदमी का मस्तिष्क झेल पाएगा कि नहीं झेल पाएगा? उसका मस्तिष्क फट तो नहीं जाएगा?

इसलिए जिन-जिन यात्रियों को भेजा गया है, उनको महीनों तक सन्नाटे में रखने का अभ्यास करवाना पड़ा है–सालों तक। और पहली दफा अमेरिका और रूस के वैज्ञानिक ध्यान में उत्सुक हुए हैं, अंतरिक्ष यात्री के कारण, कि अगर ध्यान सीखा जा सके, तो अंतरिक्ष यात्री घबड़ाएगा नहीं अकेलेपन से, भयभीत नहीं होगा। और वह जो अनंत सन्नाटा घेर लेगा पृथ्वी के वर्तुल को छोड़ने के बाद…।

पृथ्वी एक पागल ग्रह है, जहां शोरगुल ही शोरगुल है। पृथ्वी के वर्तुल को छोड़ा, दो सौ मील की परिधि के बाहर हुए कि सब शून्य हो जाता है। सन्नाटा ही बोलता है, और कुछ भी नहीं। सन्नाटे की भी वैसी आवाज नहीं होती, जैसे रात झींगुर बोलते हैं, तब होती है। क्योंकि झींगुर भी नहीं होते; सिर्फ सन्नाटा ही होता है, जो कि प्राणों को बेध जाता है और घबड़ाहट पैदा कर देता है। अकेला आदमी अपने आमने-सामने पड़ जाता है।

हम अपने को उलझाए रखते हैं। स्वाध्याय में आकुपाइड, सदा व्यस्त रहने की वृत्ति सबसे बड़ी बाधा है। तो दूसरे चरण में अव्यस्त, अनआकुपाइड, अकेला, और अपने ही दबाए हुए हिस्सों को बाहर लाना पड़ेगा।

फ्रायड ने, जुंग ने जो साइकोएनालिसिस का, मनोविश्लेषण का प्रयोग किया, वह इसी हिस्से को बाहर लाने के लिए है। लिटा देते हैं व्यक्ति को कोच पर और उससे कहते हैं, जो तुम्हारे मन में आए बोलो। सोचो मत, बोलते जाओ। जब वह अनर्गल बोलना शुरू कर देता है, कुछ भी जो भीतर आए, वही बोलने लगता है, तो बड़ी हैरानी होती है कि यह आदमी क्या बोल रहा है! असंगत, अनर्गल, विक्षिप्त बातें, स्वस्थ, सामान्य, अच्छे आदमी के भीतर से निकलने लगती हैं। भीतर की पर्तें उभरने लगती हैं। लेकिन फिर भी दूसरा मौजूद है। कोच के पीछे, पर्दे के पीछे छिपा हुआ साइकोएनालिस्ट, मनोवैज्ञानिक बैठा हुआ सुन रहा है। उसका भय तो है ही। इसलिए पूरा आदमी नहीं खुल पाता। इसलिए साइकोएनालिसिस कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती। दूसरे की मौजूदगी, भय बना ही रहता है।

योग के लिए स्वाध्याय नितांत एकांत का अनुभव है। दूसरे का कोई भय नहीं; मैं अपने को पूरा उघाड़ लूं नग्न, नैकेड–पूरा, जैसा हूं। क्रोध है तो क्रोध; काम है तो काम;र् ईष्या है तोर् ईष्या; भय है तो भय; हिंसा है तो हिंसा। जो भी मेरे भीतर है, जो भी है, बिना किसी चुनाव के, उस सबको उभार लूं। च्वाइसलेस, चुनावरहित अपने को देख लूं।

पहला चरण, दूसरों के मंतव्य अलग कर दूं। दूसरा चरण, दमन को बाहर ले आऊं–प्रकट में, प्रकाश में, रोशनी में। घाव को छिपाऊं न। सब मलहम-पट्टियां उखाड़ दूं और घाव का सीधा साक्षात करूं, जो भी मैं हूं।

बहुत भय मन में पैदा होता है। क्योंकि जब कोई इस सबको उभारता है, तो पाता है, मैं यह हूं! यह हिंसा, यह वासना, यहर् ईष्या, यह द्वेष, यह घृणा, यह मत्सर, यह लोभ–यह मैं हूं! मन डरता है, क्योंकि हम सबने अपनी इमेज, अपनी-अपनी प्रतिमाएं बना रखी हैं। इसलिए स्वाध्याय में तीसरा चरण अपनी बनाई हुई प्रतिमा के मोह को त्यागना है।

हम सबकी अपनी प्रतिमाएं हैं। एक आदमी कहता है कि मैं साधुचरित्र हूं। अब उसकी एक प्रतिमा है, एक इमेज है। एक आदमी कहता है कि मैं कभी क्रोध नहीं करता। एक आदमी कहता है, मैं निरहंकारी हूं; मुझमें कोई अहंकार नहीं है। एक आदमी कहता है, मुझमें कोई लोभ नहीं है। ये प्रतिमाएं हैं। हमने अपनी-अपनी सुंदर प्रतिमा बना रखी है। उस सुंदर प्रतिमा को छोड़ने की जिसमें हिम्मत न हो, वह स्वाध्याय में नहीं उतर सकता।

इसलिए स्वाध्याय को भी यज्ञ कहा। वह भी बड़ी आग है, जिसमें जलना पड़ेगा। और सबसे पहले जो चीज जल जाएगी, वह है आपकी सेल्फ इमेज, अपनी प्रतिमा, जो हर आदमी बनाए हुए है।

एक आदमी कहता है, मैं बिलकुल सदाचारी हूं; लेकिन चित्त बहुत असद आचरण करने की आकांक्षाओं से भरा है। उसको उसने दबा दिया है। वह कभी लौटकर नहीं देखता वहां, क्योंकि डर है कि प्रतिमा का क्या होगा! वह सब कुरूप हो जाएगी।

मैंने सुना है एक स्त्री के संबंध में कि वह बहुत कुरूप थी। इसलिए वह किसी आईने के सामने नहीं जाती थी। और अगर कभी भूल-चूक से कोई लोग उसे चिढ़ाने को आईना, किसी का आईना सामने कर देते, तो वह आईने को तत्काल फोड़ देती थी। और कहती थी कि आईना बिलकुल गलत है। इसमें दिखाई पड़ती हूं मैं तो कुरूप हो जाती हूं; जब कि मैं सुंदर हूं। आईना खराब है। सब दुनिया के आईने खराब थे, क्योंकि वह स्त्री सुंदर थी! अपने मन में उसका एक इमेज है।

हम कहेंगे, वह पागल थी। हम आईने नहीं फोड़ते, साधारण आईने हम नहीं फोड़ते। लेकिन बहुत गहरे में, असली जो आईना है स्वाध्याय का, वह हम कभी उठाकर नहीं देखते। क्योंकि वहां हमारा असली रूप प्रकट होगा, और जो बहुत अग्ली है, कुरूप, बहुत भयानक है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके भीतर मन ने वे सब पाप न किए हों, जो किसी भी आदमी ने कभी भी पृथ्वी पर किए हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके मन ने ऐसा कोई अपराध न किया हो, जो पृथ्वी पर कभी भी किया गया है।

हां, बाहर नहीं किया होगा। बाहर नहीं किया होगा। बाहर जो करते हैं, वे तो पकड़े जाते हैं। भीतर हम करते रहते हैं। वहां न कोई अदालत, न कोई कानून, न कोई व्यवस्था, कोई भी नहीं पहुंचती। लेकिन परमात्मा की आंख वहां भी पहुंचती है।

स्वाध्याय का मूल्य यही है कि हम अपने से तो अपने को छिपा सकते हैं, लेकिन परम सत्य से हम अपने को कैसे छिपाएंगे? परम सत्ता के सामने हम अपने को कैसे छिपाएंगे? ये प्रतिमाएं हमें छोड़ देनी पड़ेंगी, जब हम प्रभु के साक्षात में पहुंचेंगे। इसलिए स्वाध्याय से पहले ही इन्हें जानकर तोड़ देना उचित है।

और बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि जो व्यक्ति अपनी समस्त कुरूपता को जानने में समर्थ हो जाता है, वह उससे मुक्त होने में समर्थ हो जाता है। स्वाध्याय का जो सबसे गहरा सीक्रेट, राज है, वह मैं आपसे कहता हूं। वह यह है कि स्वाध्याय के यज्ञ में जानना ही मुक्ति है; नोइंग, जानना ही मुक्ति है।

स्वाध्याय की जो प्रक्रिया है, उसमें स्वाध्याय के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करना पड़ता। आप सिर्फ जान लें अपने रोग को और रोग के बाहर हो जाते हैं। और रोग को न जानें, तो रोग बढ़ता जाता है और गहन होता चला जाता है। स्वाध्याय की प्रक्रिया सिर्फ साक्षात्कार से, स्वयं के साक्षात्कार से ट्रांसफार्मेशन की प्रक्रिया है। आत्म-साक्षात से आत्मक्रांति, स्वयं को जानने से स्वयं की बदलाहट।

इसलिए स्वाध्याय को जो लोग मानते हैं, वे अक्सर हंसी उड़ाते हुए मिलेंगे इस बात की कि तप की क्या जरूरत है? तपश्चर्या की क्या जरूरत है? ध्यान की क्या जरूरत है? मेडिटेशन की क्या जरूरत है?

कृष्णमूर्ति निरंतर यही कहते हुए मिलेंगे। कृष्णमूर्ति की प्रक्रिया स्वाध्याय के यज्ञ की प्रक्रिया है। तो वे कहेंगे, बेकार है सब। बदलने के लिए कुछ भी करना नहीं है; सिर्फ जानना पर्याप्त है, टु नो इज़ इनफ। और जानने के अलावा कुछ भी करना जरूरी नहीं है।

हम कहेंगे, यह कैसे! अगर हम अपने पैर के घाव को जान लें, तो क्या घाव मिट जाएगा?

नहीं; पैर का घाव नहीं मिटेगा। जान लेंगे, तो भी नहीं मिटेगा। हां, जानने से जहां मिट सकता है, वहां जाने का खयाल आएगा। चिकित्सक के पास जा सकते हैं। इलाज, दवा कर सकते हैं। लेकिन सिर्फ जानने से पैर का घाव नहीं मिटेगा। जानने के बाद कुछ करना भी पड़ेगा, तब पैर का घाव मिटेगा। सिर में दर्द है, तो जानने से नहीं मिट जाएगा; कुछ करना भी पड़ेगा।

लेकिन मन के साथ एक बड़ी खूबी की बात है कि मन के घाव जानने से ही मिट जाते हैं। जानने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करना पड़ता है। स्वाध्याय का समस्त यज्ञ इसी रहस्य के ऊपर खड़ा है, इसी मिस्ट्री पर कि जान लो और बाहर हो जाओ।

इसे प्रयोग करें, तो ही खयाल में आ सकता है। ऐसा क्यों होता है, कहना कठिन है। ऐसा होता है, इतना ही कहना संभव है। करीब-करीब स्थिति ऐसी है, जैसे कि दीया लेकर हम घर के भीतर चले जाएं और अंधेरा समाप्त हो जाए। दीया ले जाने के बाद फिर अंधेरे को समाप्त करने के लिए और कुछ नहीं करना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि दीया ले गए, फिर अंधेरे को देख लिया कि यह रहा; फिर उसको समाप्त करने के लिए तलवार उठाई; काटकर बाहर किया; ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। दीया भीतर ले गए, अंधेरा नहीं है। ऐसे ही, जानने को जो व्यक्ति अपने गहन मन के तलों में ले जाता है, जानने के प्रकाश को, वह पाता है कि अज्ञान के कारण ही सब रोग थे।

और हम उलटा कर रहे हैं। जो-जो रोग होता है, उसके प्रति हम अज्ञानी हो जाते हैं। यह बहुत मजे की बात है। अगर कोई आदमी आपसे कहे कि आपके पैर में घाव है, तो आप उस पर नाराज नहीं होते। आप कहते हैं, धन्यवाद, आपने बताया! कोई आदमी कहे, आपको खयाल नहीं, शायद आपके पैर में कांटा गड़ गया है, खून बह रहा है। तो आप कहते हैं, आभारी हूं, बड़ी कृपा की कि बताया। मैं किसी दूसरी धुन में लगा था; मुझे पता नहीं चला। लेकिन कोई आदमी कहे कि आपके मन में क्रोध है, तो आप कभी फिर आभार प्रकट नहीं करते हैं उस आदमी का। आप कहते हैं, गलत बोलते हो। क्रोध और मुझे! कभी नहीं। भ्रांति हो गई तुम्हें। कोई आदमी कहे कि आपके मन में कामवासना है, तो आप कहते हैं, यह आदमी मित्र नहीं, दुश्मन मालूम पड़ता है। और इस तरह के आदमी से फिर आप बचते हैं कि यह कहीं मिल न जाए।

कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाय। जो निंदा करता हो, उससे भागिए मत; आंगन और कुटी छवाकर उसको पास में ही ठहरा लीजिए कि वह सुबह से सांझ तक आपकी निंदा करता रहे। स्वाध्याय! स्वाध्याय का सूत्र है वह।

जो निंदा करे, वह मित्र है। अगर वह गलत कहता है, तो कोई हर्ज नहीं; लेकिन अगर वह सही कहता है, तो वह आपके दबे हुए हिस्सों को आपके सामने लाता है। अगर गलत कहता है, तो मेहनत करता है, तो भी अनुगृहीत होने की जरूरत है। आपके लिए श्रम उठा रहा है। अगर सही कहता है, तब तो उसके चरण पकड़ लेने की जरूरत है। क्योंकि उसको कोई जरूरत न थी; आपके लिए मेहनत उठाई।

इसलिए कबीर कहते हैं, निंदक नियरे राखिए।

लेकिन निंदक को पास रखना मुश्किल है चौबीस घंटे। स्वाध्याय का सूत्र कहता है, आप खुद ही अपने घावों को उघाड़ने वाले बन जाइए। दूसरा कितना उघाड़ पाएगा? और दूसरा उघाड़ेगा भी तो ऊपरी घाव उघाड़ेगा, भीतरी घावों का उसे भी पता नहीं है। नासूर गहरे हैं, कैंसर गहरा है और क्रानिक है, कई जन्मों का है। एक-दो दिन की बीमारियां नहीं हैं भीतर। लेकिन स्वाध्याय का सूत्र कहता है, जानो और बाहर हो जाओ।

अब पश्चिम में मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण का जो इतना प्रभाव है, उसका कुल एक कारण है। छोटा-सा स्वाध्याय का हिस्सा है और वह यह कि वह व्यक्ति को उसकी बीमारियों का साक्षात्कार करा देते हैं। इसके लिए व्यक्ति को पैसे चुकाने पड़ते हैं। लंबे और महंगे! और गरीब आदमी नहीं चुका सकता है। सिर्फ अमीर आदमी मनोविश्लेषण से गुजर सकते हैं।

आज तो हालत ऐसी है अमेरिका में कि फैशनेबल स्त्रियां एक-दूसरे से पूछती हैं, कितनी बार साइकोएनालिसिस करवाई? कितनी बार मनोविश्लेषण करवाया? क्योंकि जिसने नहीं करवाया, वह आधुनिक नहीं है, आउट आफ डेट है। जो अभी मनोविश्लेषण से नहीं गुजरा, जिसने दोत्तीन साल किसी मनोचिकित्सक को हजारों डालर नहीं दिए, वह आदमी पुराने जमाने का है।

एक अर्थ में बात भी ठीक है। क्योंकि मनोचिकित्सक के पास होता कुल इतना ही है कि वह आपको आपकी स्थिति से परिचित करा देता है; ठीक-ठीक तथ्य का बोध करा देता है। और तथ्य के बोध के साथ ही आपमें रूपांतरण शुरू हो जाता है। तथ्य के बोध के साथ ही! हम तथ्य का बोध नहीं करते। उदाहरण एक-दो लें तो खयाल में आ जाए।

और यह स्वाध्याय का सूत्र भविष्य में महत्वपूर्ण होता चला जाएगा। और अगर आने वाली सदी में लोग गीता को पढ़ेंगे, तो शायद स्वाध्याय के सूत्र के कारण ही पढ़ेंगे। यद्यपि गीता में वह बहुत स्पष्ट और प्रखर नहीं है, क्योंकि उस क्षण उसका कोई बहुत उपयोग नहीं था। असल में लोग इतने सरल थे कि दमन बिलकुल कम था। और जब दमन कम होता है, तो स्वाध्याय का कोई मतलब नहीं होता। जब दमन बहुत ज्यादा हो जाता है, तब स्वाध्याय का मतलब होता है। लोग इतने सरल थे कि जो ऊपर थे, वही भीतर थे। इसलिए बहुत भीतर जाकर देखने की कोई जरूरत न थी।

अभी भी, आज से पचास साल पहले तक, अंग्रेज मजिस्ट्रेट्स ने बस्तर रियासत के अपने संस्मरणों में कहा है–पचास साल पहले के, उन्नीस सौ दस के संस्मरण में–कि बस्तर में अगर कोई आदमी किसी की हत्या कर दे, तो वह खुद अदालत में चला आता था, उन्नीस सौ दस तक! और आकर कह देता था कि मैंने हत्या कर दी है, मेरी क्या सजा है? मजिस्ट्रेट्स ने लिखा है कि हम मुश्किल में पड़ते थे कि इस आदमी को सजा दें तो कैसे दें! पुलिस भेजनी नहीं पड़ती थी। पुलिस भेजकर बहुत देर लगाती; वह खुद ही आ जाता था! कोई आदमी चोरी कर लेता, उन्नीस सौ दस तक भी बस्तर में, तो वह आकर अदालत में खड़ा हो जाता कि मैंने चोरी कर ली है; मेरी सजा क्या है?

एक मजिस्ट्रेट ने लिखा है कि मैंने एक चोर को कहा भी कि तुमको जब हमने पकड़ा नहीं, हमें पता नहीं चोरी का; चोरी की कोई रिपोर्ट नहीं की गई है, तो तुम किसलिए आए हो? उसने कहा, जिसकी चोरी की गई है, उसका इतना नुकसान नहीं हुआ है; कुछ पैसे ही चोरी गए हैं। मैंने चोरी की, मेरा बहुत नुकसान हो गया। और जब तक मुझे दंड न मिले, तब तक मैं बाहर कैसे होऊंगा उस नुकसान से!

अब ऐसे व्यक्ति अगर रहे हों, और थे, क्योंकि आज उन्नीस सौ दस में बस्तर जैसा था, कृष्ण के जमाने में पूरी पृथ्वी वैसी थी; तो उस दिन स्वाध्याय के सूत्र का सिर्फ उल्लेख किया है कृष्ण ने, चलते हुए। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं था। हां, कोई जटिल, कोई बहुत चालाक, कोई बेईमान, कोई बहुत धोखेबाज आदमी सदा थे। उन आदमियों को स्वाध्याय की जरूरत पड़ सकती थी। आज वैसे लोग ही अधिक हैं। आज स्वाध्याय सर्वाधिक निकटतम प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति आगे जाएगा।

जिस तथ्य को हम भीतर जान लेते हैं, जैसे उदाहरण के लिए मैं कहूं, यदि कोई व्यक्ति भीतर ठीक से जान ले कि मैं झूठ बोलने वाला हूं, मैं असत्यवादी हूं; इस तथ्य को पूरा पहचान ले कि मैं झूठ बोलता हूं, तो झूठ बोलना कठिन हो जाएगा। क्योंकि मैं झूठ बोलता हूं, इसका अनुभव करना बहुत बड़े सत्य का अनुभव है। और इतने बड़े सत्य के सामने फिर झूठ नहीं बोला जा सकता।

जिस आदमी को झूठ बोलना है, उसे सबसे बड़ा झूठ अपने भीतर बोलता पड़ता है कि मैं झूठ कभी नहीं बोलता हूं। इस झूठ के आधार पर वह दूसरों से झूठ बोल सकता है कि मैं झूठ कभी नहीं बोलता हूं। पहले वह अपने को झूठ में डालता है, तब वह दूसरों को झूठ में डालता है।

अपने हाथ गंदे किए बिना दूसरों को गंदगी में ढकेलना असंभव है। अपने साथ पाप किए बिना दूसरों के साथ पाप करना असंभव है। अपने को धोखा दिए बिना दूसरे को धोखा देना असंभव है। जिस आदमी को यह पता चल गया कि मैं धोखेबाज हूं, वह धोखा नहीं दे सकता। क्योंकि धोखे की बुनियादी आधारशिला टूट गई।

इसलिए झूठ बोलने वाला सदा कोशिश में लगा रहता है कि मैं सच बोलता हूं। जो सच बोलता है, वह कभी कोशिश में नहीं लगता।

क्वेकर्स हैं। दुनिया में कुछ थोड़े-से लोग, जो अभी भी धर्म की ज्योति को कहीं-कहीं दुनिया के कोने में जगाए रखे हैं, उनमें क्वेकर्स, ईसाइयों के एक छोटे-से संप्रदाय का भी बड़ा दान है। क्वेकर्स अदालतों में सजा काटे एक छोटी-सी बात के लिए कि उन्होंने अदालत में कसम खाने से इनकार कर दिया। आखिर क्वेकर्स के लिए अदालतों को झुक जाना पड़ा और निर्णय करना पड़ा कि क्वेकर्स से हम कसम नहीं खिलाएंगे। क्योंकि क्वेकर्स ने कहा कि तुम हमसे अदालत में कसम खिलवाते हो कि मैं झूठ नहीं बोलूंगा; लेकिन अगर हम झूठ बोलने वाले हैं, तो हम कसम भी झूठ खाएंगे।

ठीक बात है। अगर मैं झूठ बोलने वाला हूं, तो अदालत में कसम खाने में कौन-सी अड़चन है कि मैं झूठ नहीं बोलूंगा।

फिर क्वेकर्स ने यह कहा कि जब हम झूठ बोलते ही नहीं हैं, तो कसम कैसे खाएं! कसम वह खा सकता है, जो बोलता हो। तो हम कसम नहीं खाएंगे। इसके लिए सजाएं काटीं, कसम न खाने के लिए। और कोई दंड नहीं, और कोई अपराध नहीं; लेकिन कसम नहीं खाएंगे। क्योंकि कसम वही खाता है…।

और यह बड़े मजे की बात है, जो आदमी जितनी ज्यादा कसम खाता मिले कि मैं झूठ नहीं बोलता हूं; जानना कि वह झूठ बोलता है। उसकी कसम उसका डिफेंस मेजर है। उसकी कसम उसकी सुरक्षा का उपाय है। वह हजार दफे कह रहा है कि मैं झूठ नहीं बोलता; आपकी कसम खाता हूं। लेकिन जो आदमी झूठ नहीं बोलता, उसे खयाल ही नहीं आता कि मैं झूठ नहीं बोलता। खयाल का ही सवाल नहीं।

भीतर अगर किसी को अनुभव हुआ कि मैं झूठ बोलने वाला हूं, तो एक दूसरी घटना घटती है। और वह घटना यह है कि जब यह अनुभव होता है कि मैं झूठ बोलने वाला हूं, तो इस दुनिया में ऐसा एक भी आदमी नहीं है, जो झूठ बोलने वाला होना चाहता हो। होता है, दूसरी बात। होना चाहता हो! इसलिए झूठ बोलने वाला सिद्ध करने में लगा रहता है कि मैं झूठ नहीं बोलता। वह आपको ही सिद्ध नहीं कर रहा है, वह अपने लिए भी सिद्ध कर रहा है, अपने सामने भी सिद्ध कर रहा है कि मैं झूठ नहीं बोलता।

इस दुनिया में ऐसा एक भी आदमी खोजना मुश्किल है, जो यह जानने को तैयार हो भीतर से, कि मैं चोर हूं। नहीं, चोर भी कहता है कि कारण थे, इसलिए मैंने चोरी कर ली। वैसे मैं चोर नहीं हूं। मजबूरी थी, इसलिए मैंने चोरी कर ली। वैसे मैं चोर नहीं हूं। परिस्थिति थी, इसलिए मैंने चोरी कर ली। वैसे मैं चोर नहीं हूं। क्रोधी भी कहता है कि क्रोध तुमने दिलवा दिया, अन्यथा वैसे मैं क्रोधी नहीं हूं। तुमने गाली न दी होती, तो मैं कभी क्रोध न करता। वह तो लोगों ने मुझे उकसा दिया, भड़का दिया कि मैं क्रोध में आ गया। ऐसे मैं क्रोधी नहीं हूं। आदमी मैं अच्छा हूं। क्रोधी मैं आदमी नहीं हूं।

लेकिन जब भीतर कोई अनुभव करता है कि मैं क्रोधी हूं, तो क्रोधी होना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि क्रोधी मूलतः कोई भी नहीं होना चाहता।

बुरा होना आंतरिक आकांक्षा नहीं है; अच्छा होना आंतरिक आकांक्षा है। इसलिए बुरे आदमी को भी मानकर चलना पड़ता है कि मैं अच्छा हूं। और मानकर चलने का एक ही उपाय है कि दूसरे मानें कि मैं अच्छा हूं। क्योंकि दूसरों की आंखों की ओपीनियन को इकट्ठा करके मैं भी मान लूंगा कि अच्छा हूं।

स्वाध्याय कहता है कि जिसने जाना जिस तथ्य को, वह उसके बाहर हो जाता है।

लेकिन हम तथ्यों को जानते नहीं, झुठलाते हैं। हम अपनीर् ईष्या कोर् ईष्या नहीं कहते, कुछ और कहते हैं। हम अपनी घृणा को घृणा नहीं कहते, कुछ और कहते हैं। हम अपने क्रोध को क्रोध नहीं कहते, कुछ और कहते हैं। हम अपनी मालकियत को, पजेशन के भाव को, मालकियत नहीं कहते, कुछ और कहते हैं।

एक मां है–मैं एक किताब में पढ़ रहा था, उसमें मां अपने बेटे से कहती है कि बाहर जाओ और देखो कि पप्पू क्या कर रहा है। और जो भी कर रहा हो, कहो कि न करे। बाहर जाओ और देखो, पप्पू क्या कर रहा है। उसे पता नहीं कि पप्पू क्या कर रहा है। लेकिन जो भी कर रहा हो, कहो कि न करे।

किसलिए? पप्पू गलत कर रहा हो, तब समझ में आ सकता है। लेकिन मां को पता भी नहीं कि पप्पू बाहर क्या कर रहे हैं। लेकिन वह भेज रही है कि जाकर कहो कि पप्पू जो भी कर रहा हो, न करे।

अक्सर लगता है कि मां बच्चे के ठीक-ठीक हित के लिए सब कर रही है। लेकिन थोड़ा स्वाध्याय करे, तो पता चलेगा, डामिनेशन का मजा भी ले रही है, मालकियत का। इसलिए जब बच्चा पैदा हो जाता है किसी पति-पत्नी को, तो पति-पत्नी की कलह थोड़ी हलकी हो जाती है; क्योंकि डाइवर्शन हो जाता है। बच्चे पर निकलने लगता है मां का, तो पति थोड़ा माफ हो जाता है।

अगर बच्चा बीच में न हो…। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चा स्केप गोट का काम करता है। बाप भी अकड़ दिखा लेता है उसको, मां भी अकड़ दिखा लेती है उसको। वह किसी को अकड़ अभी दिखा नहीं सकता। दिखाएगा वक्त आने पर। लेकिन उसे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी अभी। पत्नी पति को नहीं मार सकती, बेटे को पीट देती है।

यहां विश्लेषण और स्वाध्याय की जरूरत है कि यह मैंने, बेटे ने कसूर किया था, इसलिए मैंने मारा है, कि किसी और का चांटा इस पर पड़ा जा रहा है? आमतौर से आप भलीभांति जानते हैं, सब जानते हैं, और बच्चे तो बिलकुल भलीभांति जानते हैं। बच्चे बहुत ही भलीभांति जानते हैं कि मां-बाप में कोई गड़बड़ हो, तो वहां से खिसक जाओ। क्योंकि पति तो नहीं पिटेगा; बेटा पिट जाएगा!

यह अगर स्वाध्याय से पता चल जाए कि यह क्या हो रहा है, तो होना मुश्किल है। अगर मां को यह पता चल जाए कि मारना तो पति को था, मारा है बेटे को, तो क्या बेटे को मारना संभव रह जाएगा? असंभव है। तथ्य का पता–विसर्जन हो जाता है। यह साफ दिख जाए कि यह मैंने क्या किया है, तो बेटे से भी माफी मांगी जा सकती है। माफी मांगने का भी मौका नहीं आएगा।

हम अपने आपको धोखा देने में बड़े कुशल हैं। कुछ होता है, कुछ हम उसको नाम देते हैं। कुछ और ही होता है भीतर, कुछ और ही नाम देते हैं!

औरंगजेब ने अपने बाप को बंद कर दिया था आखिरी दिनों में। तो उसके बाप ने खबर भेजी कि इतना इंतजाम कर दे कम से कम कि तीस बच्चे यहां भेज दे, तो मैं एक छोटी क्लास चलाता रहूं जेलखाने में। औरंगजेब ने अपनी आत्म-कथा में लिखाया है कि मेरे बाप को आज्ञा देने की इतनी खतरनाक आदत थी कि जब मैंने उसे जेलखाने में बंद कर दिया, तो उसने तीस बच्चे मांगे। और जब तीस बच्चे उसे दे दिए गए, तो वह छड़ी लेकर उनके बीच में पढ़ाने का काम करने लगा!

एक स्कूल मास्टर अपनी क्लास में किसी बादशाह से कम नहीं होता। बादशाह भी इतना ताकतवर नहीं होता, जितना छोटे-छोटे प्राइमरी स्कूल के बच्चों में स्कूल मास्टर होता है।

अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग भी शिक्षक होने के प्रति उत्सुक होते हैं, उनमें सौ में से पचहत्तर प्रतिशत डामिनेशन की आकांक्षा से प्रेरित होते हैं। पचहत्तर प्रतिशत! दबाना, आज्ञा देना, सताना, कोअर्शन, टार्चर! इसलिए शिक्षक अगर छोटी-छोटी चीज पर छड़ी चलाते रहे पुरानी दुनिया में, हाथ-पैर तोड़ते रहे बच्चों के, तो इसीलिए नहीं सिर्फ कि पढ़ाने के लिए बड़े आतुर थे। पढ़ाने की आतुरता से हाथ-पैर तोड़ने का कोई कारण नहीं है। मैं ऐसे आदमियों को जानता हूं, जिनकी शिक्षकों ने चोट से आंख फोड़ दी! क्या बात रही होगी?

काश, उन शिक्षकों को पता चल जाता कि यह जो छड़ी हम मार रहे हैं इस बच्चे को, यह छड़ी पढ़ाने के लिए नहीं मारी जा रही है। क्योंकि बिना छड़ी मारे पढ़ाया जा रहा है; कोई दिक्कत नहीं आ रही है। यह छड़ी मारने का मजा दूसरा है; इसका रस गहरा है। यह दूसरे को दबाने का और दूसरे पर हिंसा करने का रस है। काश, यह शिक्षक को दिख जाए, तो हाथ में से छड़ी छूट जाएगी। लेकिन नहीं छूटेगी, जब तक वह सोच रहा है कि मैं इसको शिक्षित करने के लिए मार रहा हूं, इसी के हित में इसी को मार रहा हूं, तब तक यह नहीं छूटेगी; तब तक वह धोखा जारी रहेगा।

तथ्य को जानना तथ्य से मुक्ति है। जो व्यक्ति अपने भीतर के समस्त रोगों को वैसा ही देख लेता है, जैसे वे हैं–इन देअर टोटल नैकेडनेस, उनकी पूरी नग्नता में–वह फिर वैसा ही नहीं रह सकता, जैसा था। उसमें रूपांतरण शुरू हो जाता है; उसमें बदलाहट शुरू हो जाती है। और वह जो बदलाहट है, वह स्वाध्याय का सहज परिणाम है।

स्वाध्याय में कठिनाई है, लेकिन स्वाध्याय करने में जो समर्थ है, बदलाहट में कठिनाई नहीं है। बदलाहट बिलकुल सहज है; छाया की तरह पीछे चली आती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, स्वाध्यायरूपी यज्ञ! इस यज्ञ से गुजरकर भी…।

इसके लिए वे दोत्तीन और सहारे बताते हैं। शास्त्र का अध्ययन स्वाध्याय के लिए सहारा बन सकता है। लेकिन किस शास्त्र का अध्ययन सभी शास्त्र स्वाध्याय के लिए सहारा नहीं बन सकते हैं। केवल वे ही शास्त्र स्वाध्याय के लिए सहारा बन सकते हैं, जो आत्म-स्वीकृतियां हैं, कन्फेशंस हैं। जैसे सेंट अगस्तीन की किताब कन्फेशंस या टाल्सटाय की जीवन-कथा, या रूसो की जीवन कहानी, या गांधी की आत्मकथा। इस तरह के वक्तव्य स्वाध्याय के लिए सहयोगी हो सकते हैं।

लेकिन लोग इनका स्वाध्याय नहीं करते। स्वाध्याय अगर वे करते हैं, तो गीता का करते हैं। गीता स्वाध्याय में सहयोगी उतनी नहीं हो सकती, क्योंकि गीता कन्फेशन नहीं, स्टेटमेंट है। गीता तो सत्य का वक्तव्य है, असत्य की स्वीकृति नहीं। गांधी की आत्मकथा काम की हो सकती है स्वाध्याय करने वाले को, क्योंकि उसमें असत्य की बहुत स्वीकृतियां हैं। उसमें भीतर के रोगों के बहुत स्वीकार हैं।

गांधी बता पाते हैं कि पिता मर रहे हैं, पैर दबा रहा हूं; चिकित्सकों ने कहा है, यह रात आखिरी होगी; लेकिन बारह बजे के करीब कामवासना भारी हो जाती है। कल भी भोगा था पत्नी को, परसों भी भोगा था, आज भी भोगने का मन है। बाप मर रहा है! बाप की मृत्यु भी वासना से नहीं छुड़ा पाती!

चकमा करके–कोई पूछता है कि बहुत थक गए होओगे, मैं हाथ-पैर दबा दूं? थके नहीं हैं, क्योंकि थका आदमी कामवासना के लिए आतुर नहीं होता। मौका पाकर कि किसी ने कहा कि मैं पैर दबा दूं, गांधी वहां से खिसक गए। एक ही दीवाल का फासला था। उस पार वह पत्नी के साथ संभोग में रत हो गए। और पत्नी गर्भिणी है, प्रेगनेंट है। चार ही दिन बाद उसको बच्चा हुआ, हालांकि मरा हुआ हुआ या होते ही मर गया। होने वाला था। यह मृत्यु भी, यह हिंसा भी कहीं न कहीं गांधी को जीवनभर पीड़ा देती रही।

जब वे संभोग में हैं, तभी पिता की मृत्यु हो गई। हाहाकार घर में मच गया, रोना-चिल्लाना। इसलिए जिंदगीभर फिर ब्रह्मचर्य की आकांक्षा रही।

काम के प्रति गांधी का जो इतना गहरा विरोध है, उसमें वह घटना भीतर बैठ गई मन में; वह गहरी उतर गई। बाप की हत्या जुड़ गई संभोग के साथ। और पिता फिर दुबारा नहीं मिल सके। मन पर अपराध का भाव, गिल्ट बैठ गई। गांधी उस गिल्ट से जिंदगीभर मुक्त नहीं हुए। गांधी जिंदगीभर अपराध-भाव से पीड़ित रहे। लेकिन आदमी ईमानदार थे; नीयत उनकी साफ थी; स्वीकार सब कर लिया।

यह स्वीकृति पढ़ेंगे, तो अपने भीतर भी स्वीकार करने में सुविधा बनेगी। इस तरह के शास्त्र, जो स्वीकृतियां हैं, कन्फेशंस हैं, वे स्वाध्याय में सहयोगी बन सकते हैं।

उपनिषद नहीं बन सकते स्वाध्याय में सहयोगी। लेकिन लोग उपनिषद का स्वाध्याय करते हैं! उपनिषद बेयर स्टेटमेंट्स हैं। उपनिषद का ऋषि कहता है, ब्रह्म है। खतरनाक है उसका स्वाध्याय करना। उपनिषद का ऋषि कहता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। ये सत्य को उपलब्ध लोगों के वक्तव्य हैं। आप भी बैठकर इनको पढ़-पढ़कर मन में सोचने लगते हैं, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं! खतरे में पड़ेंगे। आप ब्रह्म वगैरह बिलकुल नहीं हैं। कृपा करके जो हैं, वही अपने को जानें। चोर हो सकते हैं, बेईमान हो सकते हैं, ब्रह्म बिलकुल नहीं हो सकते।

लेकिन उपनिषद पढ़ने में खतरा है एक। और वह खतरा यह है कि उपनिषद जानने वालों के वक्तव्य हैं, और न जानने वाले उन वक्तव्यों को पकड़ लें, तो वे अपने को धोखा देने में समर्थ हो जाएंगे। स्वाध्याय तो नहीं कर पाएंगे, हत्या कर लेंगे अपनी।

नहीं; स्वाध्याय में ऐसे शास्त्र सहयोगी हैं, जो असत्य से गुजरने वाले लोगों की आत्म-स्वीकृतियां हैं। सत्य को पहुंचे हुए शिखर के उदघोषण नहीं; असत्य की घाटियों में सरकने वाले लोगों की पीड़ाओं की स्वीकृतियां। इसलिए मैं आपसे कहूंगा कि कई बार ऐसे लोगों के वक्तव्य, जिन्होंने सत्य को नहीं जाना है, लेकिन असत्य की पीड़ा को भोगा है और असत्य की पीड़ा को स्वीकार करने का साहस दिखलाया है–जैसे, न तो टाल्सटाय को सत्य का कोई अनुभव है, न गांधी को।

गांधी जीवनभर सत्य की खोज में रहे, प्रयोग में रहे, उपलब्धि में कभी भी नहीं आ पाए। पर आदमी ईमानदार हैं, क्योंकि बहुत-से लोग बिना उपलब्धि के उपलब्धि की घोषणा कर सकते हैं। गांधी ने वह कभी नहीं की। इसलिए एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ! आत्मकथा को नाम दिया, सत्य के प्रयोग; सत्य का अनुभव नहीं, सिर्फ प्रयोग; अंधेरे में टटोलना।

लेकिन गांधी की आत्मकथा स्वाध्याय में सहयोगी हो सकती है। क्योंकि वह असत्य की घाटियों में चलने वाले एक आदमी की साहसपूर्ण स्वीकृतियां हैं–कैसा है मन! कैसे धोखा दे जाता है! कैसे-कैसे भटकाता है!

और अगर गांधी का मन, इतने सिंसियर और प्रामाणिक आदमी का मन इतने धोखे देता है, तो आपको भी अपने धोखे देखने में सुविधा बनेगी। आपको ऐसा नहीं लगेगा कि मैं अपने को धोखा दे रहा हूं, तो कोई बहुत बुरा काम कर रहा हूं। गांधी तक दे रहे हैं, तो मैं भी अपने को दे रहा हूं, तो जरा देख सकता हूं आंख खोलकर। टाल्सटाय का अगर जीवन पढ़ेंगे, तो वह शास्त्र है। अगर अगस्टीन के कन्फेशंस पढ़ेंगे, तो अर्थपूर्ण है।

ईसाइयत ने स्वाध्याय के लिए पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त और कन्फेशन की प्रक्रिया विकसित की। हिंदुस्तान में ऐसी कोई प्रक्रिया विकसित नहीं हुई, इसलिए ईसाइयत के पास कन्फेशंस का बहुत बड़ा भंडार है। और गांधी भी कर सके कन्फेस, तो गीता पढ़कर कभी न कर सकते थे; ईसाइयत के प्रभाव में कर सके।

आज तक पृथ्वी पर अपराध की जो गहरी स्वीकृतियां हैं, वे ईसाइयत के प्रभाव में फलित हुई हैं। ईसाइयत ने आदमी को एक साहस दिया इस बात का कि जो भी है गलत, उसे कह पाओ। इतना साहस न तो हिंदू जुटा पाए, न मुसलमान जुटा पाए, न जैन जुटा पाए, न बौद्ध जुटा पाए। क्राइस्ट की सबसे बड़ी देन इस पृथ्वी पर प्रायश्चित्त है, जो किया उसके स्वीकार का भाव, उसे कन्फेस करने की सामर्थ्य।

तो ईसाई संतों के जीवन इसमें बड़े उपयोगी हो सकते हैं। सेंट थेरेसा या जेकब बोहमे या इकहार्ट, इनकी जो स्वीकृतियां हैं, वे बड़ी अर्थपूर्ण हो सकती हैं। भारत के पास ऐसा साहित्य न के बराबर है। भारत के पास दंभ का साहित्य बहुत है, लेकिन पाप के स्वीकार का साहित्य न के बराबर है। एक अर्थ में गांधी की किताब एक बहुत बड़ी शुरुआत है। लेकिन शुरुआत ही है, उसके बाद दूसरी किताब भी नहीं आ सकी। भारत का कोई साधु अपने पापों की स्वीकृति नहीं करेगा।

जरूरी नहीं है; कि न किए हों तो भी स्वीकृति करे। ऐसा नहीं है। क्योंकि दूसरी भूल भी सदा हो जाती है। ऐसी भी किताबें हैं ईसाइयत के पास, और ऐसे पापों की स्वीकृतियां हैं, जो उन लोगों ने कभी किए ही नहीं! लेकिन वही संत बड़ा हो सकता है, जिसने बहुत पाप किए, स्वीकार किया, और आगे गया। तो लोगों ने झूठे पाप तक अपनी किताबों में लिख दिए, जो उन्होंने कभी किए नहीं थे।

आदमी का मन कितने धोखे में जा सकता है! यानी पुण्य का दावा तो कर ही सकता है, पाप का दावा भी कर सकता है, जो उसने न किया हो! आदमी की बेईमानी की कोई सीमा नहीं है; आत्मवंचना का कोई अंत नहीं है।

स्वाध्याय में शास्त्र सहयोगी हो सकता है, लेकिन शास्त्र वैसा, जो स्वीकार देता हो, जो बताता हो कि भीतर आदमी के क्या-क्या घट सकता है। इसलिए कभी तो वास्तविक शास्त्रों से भी ज्यादा उपन्यास शास्त्र का काम कर सकते हैं। जैसे दोस्तोवस्की के उपन्यास, क्राइम एंड पनिशमेंट–अपराध और दंड, या ब्रदर्स कर्माजोव, बाइबिल और गीता से भी ज्यादा कीमती हो सकते हैं उस आदमी के लिए, जो स्वाध्याय के पथ से चल रहा है। टाल्सटाय के उपन्यास, वार एंड पीस–युद्ध और शांति, डेथ आफ इवान इलोविच–इलोविच की मृत्यु; या सार्त्र, कामू, काफ्का इनके उपन्यास।

भारत का कोई नाम नहीं ले रहा, जानकर; क्योंकि भारत के पास अब भी ऐसी उपन्यास की संपदा नहीं है। अब भी नहीं है।

उपन्यास भी, जो किसी व्यक्ति के गहरे प्राणों से निकले हों, जैसे दोस्तोवस्की के सभी उपन्यास, जिनमें ब्रदर्स कर्माजोव तो ऐसा है जिसकी कि इज्जत बाइबिल, गीता और कुरान की तरह होनी चाहिए, जिसमें आदमी के चित्त का सब अंधेरा खोलकर रख दिया गया है; जिसमें आदमी के भीतर के सब गह्वर, सब खाइयां उघाड़ दी हैं; जिसमें आदमी के भीतर के सब घाव की मलहम-पट्टी तोड़ दी है; जिसमें आदमी को पहली दफे पूरा नग्न, जैसा आदमी है–वे भी उपयोगी हो सकते हैं। पर उपयोगी, गौण, सेकेंडरी; प्राइमरी, प्राथमिक तो स्वयं का अध्ययन है। जो स्वयं का अध्ययन कर पाए, पर्याप्त है। लेकिन सहयोग इनसे मिल सकता है।

ईश्वर-जप भी कृष्ण ने एक सूत्र उसमें गिनाया है। ईश्वर-जप! इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

ईश्वर-जप का क्या अर्थ है स्वाध्याय के संदर्भ में? क्योंकि ईश्वर-जप के बहुत अर्थ हैं, अलग संदर्भ में। अलग रिफरेंस का सवाल है कि कहां? स्वाध्याय के संदर्भ में ईश्वर-जप का क्या अर्थ है?

आपसे मैंने एक पहलू की बात कही, आदमी अपने अंधेरे का साक्षात्कार करे–अपनी बुराई का, अपनी बीमारी का, अपनी रुग्णता का, भीतर के पाप, अपराध, उन सबका–कहें एक शब्द में, अपने भीतर छिपे नर्क का। यह आधी बात है। अगर आदमी सिर्फ अपने भीतर छिपे नर्क का ही अनुभव करे, तो यह भी हो सकता है कि सेल्फ कंडेमनेशन में पड़ जाए, आत्मनिंदा में पड़ जाए। यह भी हो सकता है कि इतना नर्क देखकर समझे कि जीवन व्यर्थ है, बेकार है; सब पाप है, सब नर्क है। यह खतरा है।

पश्चिम में यह खतरा हो गया। मनोविश्लेषण ने स्वाध्याय की प्रक्रिया लोगों को दे दी, लेकिन ईश्वर-जप का कोई खयाल नहीं दिया। इसलिए आज पश्चिम में जीवन अर्थहीन है। लोग कहते हैं, यही सब–पाप ही पाप है–घृणा और हिंसा और र्ा है, तो जीने का अर्थ क्या है? न कहीं कोई प्रेम है, न कहीं कोई क्षमा है; सब धोखा है। प्रेम के पीछे सेक्स दिखाई पड़ने लगा स्वाध्याय से। सब प्रेम की बातचीत फोर-प्ले हो गई। सब प्रेम की बातचीत सेक्स के लिए परसुएशन है। सब प्रेम की बातचीत के पीछे वह शरीर को भोगने की आकांक्षा है। प्रेम सिर्फ फसाड है, तैयारी है, इंतजाम है। कविताएं वगैरह सब इंतजाम हैं। प्रेम की सब बातचीत सब इंतजाम हैं। आखिर अंत में वह काम, वह शरीर का शरीर के साथ भोग, वही अंत में।

तो पश्चिम ने इधर पचास वर्षों में आत्म-विश्लेषण करके यह जाना कि प्रेम है ही नहीं, सिर्फ काम है। इससे खतरा हुआ। इसका मतलब हुआ कि प्रेम की कोई संभावना ही नहीं है। इसलिए भोगो काम को, और जो है, सो ठीक है! इससे रूपांतरण नहीं हुआ, बल्कि आदमी का पतन हुआ।

इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, ईश्वर-जप। ईश्वर-जप का मतलब है, दूसरा पहलू भी स्मरण रखना। प्रेम के पीछे वासना है, यह हमारा तथ्य है। लेकिन वासना में से भी प्रेम का जन्म हो सकता है, यह हमारी संभावना है।

ईश्वर-जप का अर्थ है, संभावना को याद रखना। आदमी के भीतर ईश्वर की संभावना है। संभावना को स्मरण रखना, तथ्य को सब मत समझ लेना। तथ्य के भीतर छिपा हुआ भी, अप्रकट भी कुछ है, विराट भी कुछ है, अर्थ भी कुछ है, अभिप्राय भी कुछ है।

ईश्वर-जप का अर्थ है, स्मरण रखना कि कितना ही हो गहरा पाप, पुण्य का अभाव नहीं है। कितना ही हो गहरा अपराध, क्षमा की असंभावना नहीं है। कितना ही हो अंधकार, न दिखाई पड़ती हो प्रकाश की कोई भी किरण, तो भी प्रकाश है।

ईश्वर-जप का अर्थ है, अंधकार के गहन निबिड़ भटकाव में भी प्रकाश का स्मरण। पाप के मध्य भी परमात्मा की स्मृति। अपराध के मध्य भी मुक्त होने की संभावना के द्वार का खयाल, रिमेंबरिंग।

ईश्वर-जप न हो, तो अकेला स्वाध्याय खतरनाक भी हो सकता है। होगा ही, ऐसा नहीं; हो सकता है। ईश्वर-जप आशा है। अकेला स्वाध्याय निराशा बन सकता है। ईश्वर-जप आशा है। और आशा अगर बिलकुल न हो खयाल में, तो निराशा आत्मघाती, स्युसाइडल हो जाती है।

इसलिए पश्चिम में आत्महत्या बढ़ी है। विगत पचास वर्षों में जैसे-जैसे मनोविश्लेषण बढ़ा, वैसे-वैसे आत्महत्या बढ़ी है। और जैसे-जैसे आत्मविश्लेषण आदमी ने किया, वैसे-वैसे हत्या की ओर उन्मुख हुआ। क्योंकि पाया कि सिवाय नर्क के कोई स्वर्ग नहीं है। नर्क ही बस सब है, कहीं कोई स्वर्ग नहीं है। फिर जीने की क्या जरूरत है?

बीज कुरूप सिद्ध हो और वृक्ष का हमें कोई पता न हो; बीज बेहूदा मालूम पड़े और भीतर छिपे अंकुर के सौंदर्य की हमें कोई स्मृति न हो; बीज फेंक देने जैसा मालूम पड़े और बीज में छिपे हुए अनंत फूल जो आकाश में खिल सकते हैं, सूरज की रोशनी में नाच सकते हैं, सुवास से भर सकते हैं दिगदिगंत को, उनका हमें कोई पता न हो–तो अकेला स्वाध्याय खतरनाक हो सकता है।

इसलिए कृष्ण ने तत्काल, जैसे ही कहा स्वाध्याय वैसे ही कहा ईश्वर-जप। ईश्वर-जप पुराने दिन की भाषा है। उसे समझने के लिए मैंने…ईश्वर-जप पुराने दिन की भाषा है। आज की भाषा में कहना हो, तो कहना होगा, मनुष्य की संभावनाओं का स्मरण।

आदमी ईश्वर हो सकता है, है नहीं। है तो आदमी बिलकुल ही राक्षस; हो सकता है ईश्वर। है तो आदमी बिलकुल दानव; हो सकता है देव। तो जो है, अगर वही दिखाई पड़े, तो खतरनाक हो सकता है। जो हो सकता है, उसकी स्मृति की किरण भी अंधकार में उतरती रहे–स्मृति की किरण। जप का अर्थ है, स्मरण।

जप का क्या अर्थ होता है? एक ही बात को बार-बार दोहराना। अंधेरा है बहुत, प्रकाश कहीं दिखाई नहीं पड़ता; बार-बार भूल जाता है कि प्रकाश हो सकता है। उसे बार-बार स्मरण रखना कि प्रकाश हो सकता है। नहीं तो अंधेरे में डूब जाने का डर है। और अगर अंधेरा ही है, तो पैरों के रुक जाने का भय है कि वे जवाब दे दें कि बढ़ने से फायदा क्या? कहीं भी जाओ, अंधेरा है। कहीं भी पहुंचो, अंधेरा है। कहीं कोई मंजिल नहीं प्रकाश की।

ईश्वर-जप का अर्थ है, रिमेंबरेंस। उसकी स्मृति, जो हो सकता है, जो छिपा है और प्रकट नहीं है, लेकिन प्रकट हो सकता है। लेकिन पुराने दिन में ईश्वर-जप कहना काफी था।

एक आदमी सुबह उठता, सुबह नींद टूटती और पहला शब्द होता, राम। आ रहा है दिन सामने, जहां राम से मिलने की कम संभावना है, रावण से ही मिलने की संभावना है। ऊग रहा है दिन, जहां अयोध्या नहीं होगी, लंका ही होगी। हो रही है सुबह, आदमी का जगत–जाल का, जंजाल का, प्रपंच का शुरू होगा। लेकिन आदमी सुबह उठकर पहली बात स्मरण करेगा, राम। वह यह कह रहा है, है सब बुरा, लेकिन शुरुआत मैं स्मरण से करता हूं शुभ की।

सांझ लौटा है थका-मांदा…दिन में भी, राह चलते भी हमने नमस्कार की जो विधि बनाई थी, उसे ईश्वर-जप से जोड़ दिया था। दुनिया में उतनी गहरी विधि कहीं भी नहीं है। अगर पश्चिम में दो आदमी मिलते हैं और कहते हैं, गुड माघनग, सुबह अच्छी है; यह साधारण लौकिक वक्तव्य है। उससे कहीं कोई संभावना का द्वार नहीं खुलता। इस मुल्क में, इस जमीन के टुकड़े पर, दो आदमी मिलते हैं, तो कहते हैं, राम-राम! जो आदमी सामने है, राम नहीं है; रावण होने की संभावना ज्यादा है। लेकिन स्मरण राम का है। स्मरण संभावना का ही है।

गुड माघनग बहुत सेकुलर है; उसमें कोई बहुत गहराई नहीं है। बहुत साधारण है, सुबह सुंदर है। लेकिन जब दो आदमी हाथ जोड़ते हैं एक-दूसरे को और कहते हैं, राम! तो वे दूसरे की संभावनाओं को हाथ जोड़ते हैं। वे दूसरे में राम को देखने की आकांक्षा प्रकट करते हैं। हाथ जोड़ते हैं, सामने खड़े आदमी के लिए नहीं, भीतर छिपे राम के लिए।

दिन में जब भी, तो अपरिचित को भी राम। अपरिचित को गुड माघनग कोई करता नहीं। अभी भी गांवों में, ग्रामीण हिस्से से गुजरें, तो जो नहीं जानते, वे भी राम-राम करते हुए गुजर जाएंगे। एक मौका मिला, एक चेतना पास आई, उसको क्यों न ईश्वर-जप बना लिया जाए! एक अवसर मिला, सामने छिपा हुआ राम आया, क्यों न उसे याद कर लिया जाए–खुद भी, और उसे भी याद दिला दी जाए!

सांझ थका-मांदा आदमी लौटा है दिनभर के उपद्रव से। रात सोता है, तब फिर, राम। माना कि दिनभर सब उपद्रव था, धूल थी, अंधेरा था, गंदगी थी, कुरूपता थी; माना कि यथार्थ यही है, लेकिन यथार्थ यह होना नहीं चाहिए। सुबह भी शुरुआत उससे, दिन भी स्मरण उसका, रात भी याद उसकी। आखिरी क्षण, सोते समय, नींद में उतरते समय भी–राम।

और ध्यान रहे, आखिरी क्षण नींद के द्वार पर जब आदमी खड़ा होता है, जागरण बंद होता और नींद शुरू होती, तब जो ईश्वर-जप है, वह बहुत गहरा है। क्योंकि उस समय चेतना गेयर बदलती है, उस समय कांशसनेस गेयर बदलती है, एक गेयर से बिलकुल दूसरे गेयर में जाती है, एक जगत से बिलकुल दूसरे जगत में प्रवेश करती है। बंद हुई वह दुनिया जो दुनिया थी; बंद हुए वे द्वार जो दूसरों से जुड़े थे। अब अपने से जुड़ने का द्वार खुलता है, गहन निद्रा का, जहां प्रकृति की गोद में हम वहीं पहुंच जाएंगे, जहां मूल स्रोत है। अब राम को स्मरण करते हुए कोई सो गया। सोते-सोते, सोते-सोते स्मृति है ईश्वर की। वह गहरी भीतर बैठती चली जाती है, अंतराल में उतरती चली जाती है। नींद के साथ ही, नींद की गहराई के साथ ही एसोसिएट हो जाती है। ला आफ एसोसिएशन का उपयोग है। संयोग जोड़ देते हैं हम।

पावलव ने बहुत से प्रयोग किए। एक प्रयोग पावलव का सारी दुनिया में प्रसिद्ध है बच्चे भी जानते हैं। एक कुत्ते को वह खाना खिलाता है, साथ में घंटी बजाता है। पंद्रह दिन तक रोटी दी जाती। रोटी सामने आती; कुत्ते की लार टपकती; पावलव घंटी बजाता। फिर सोलहवें दिन रोटी नहीं आती; पावलव घंटी बजाता; कुत्ते के मुंह से लार टपकती। अब घंटी से लार टपकने का कोई नैसर्गिक संबंध नहीं है। घंटी से कहीं लार टपकती है किसी की? और कुत्ते को तो धोखे में डालना मुश्किल है। घंटी से क्या लेना-देना?

लेकिन पंद्रह दिन तक जब भी रोटी सामने आई, घंटी बजी; घंटी और रोटी साथ-साथ जुड़ गईं। घंटी और रोटी दो चीजें न रहीं, एक चीज हो गईं। अब आज सिर्फ घंटी बजी, तो रोटी का स्मरण आ गया; लार टपकने लगी! कुत्ते का शरीर भी प्रभावित हो गया, एसोसिएशन से।

हम भी ऐसे ही जीते हैं। सोते समय राम का स्मरण नींद की गहराई से प्रभु के स्मरण को जोड़ने का प्रयोग है। नींद हमारे भीतर गहरी से गहरी चीज है। अगर उससे प्रभु का स्मरण जुड़ जाए, तो प्रभु भी हमारी गहरी से गहरी चीज हो जाता है।

दूसरी बात, रात आखिरी समय जो हमारा अंतिम विचार होता है सोने के पहले, वही हमारा सुबह नींद के टूटने के बाद पहला विचार होता है। रात का अंतिम विचार, सुबह का पहला विचार है। क्यों? क्योंकि नींद में जो विचार प्रवेश कर जाता है, उसकी तरंगें रातभर चेतना में डोलती रहती हैं। रातभर डोलती रहती हैं। जैसे फेंक दिया एक कंकड़ झील में; लहरें उठीं और चल पड़ीं। ऐसे ही नींद के पहले क्षण में जो विचार आपके अंतस्तल में उतर जाता है, वह रातभर डोलता रहता है।

अगर आप आठ घंटे सोए और राम का नाम आठ घंटे भीतर सूक्ष्म तरंगें लेता रहा, लेगा, तभी सुबह पहली तरंग बनेगा, नहीं तो नहीं बनेगा। और बन जाता है। सुबह पहला स्मरण श्वास के साथ, पहली श्वास के साथ, पहले होश के साथ, पहले जागरण के साथ राम वापस लौटा। रातभर जो प्रभु-स्मरण में डूबा रहा, संभावना बढ़ती है कि उसका दिन भी प्रभु-स्मरण का दिन बनेगा।

इसलिए कृष्ण ने कहा, ईश्वर-जप।

वैज्ञानिक है। लेकिन मेकेनिकल जिसने कर लिया ईश्वर-जप, उसका बेकार हो जाता है। एक आदमी जल्दी से स्नान किया है। घंटी बजा रहा है। राम-राम किया। भागा, दफ्तर गया। निपटाया एक काम। काम निपटाने से राम का कभी संबंध नहीं जुड़ता। काम नहीं, प्रेम; तो फिर गहरा उतर जाता है।

हम काम की तरह करते हैं, इसलिए जिंदगीभर जप करते रहते हैं, कुछ भी हाथ नहीं आता। आएगा भी नहीं। हजार जिंदगी करते रहो, कुछ न आएगा हाथ। नहीं; प्राणों की गहराई में भाव से बिठाने की बात है। बैठ जाए प्राणों की गहराई में, तो रोआं-रोआं उससे ही कंपित हो जाता है।

फिर स्वाध्याय, स्वयं के गलत को जानना; और ईश्वर-जप, स्वयं के शुभ को स्मरण रखना; दोनों के तालमेल से जो यज्ञ फलित होता है, उसका नाम स्वाध्याय-यज्ञ है।

अब तो शाम ही लेंगे। अभी सुबह दस मिनट के लिए हम ईश्वर-जप में लगें। रोएं-रोएं में उसको डोलने दें।

स्टेज पर कोई न आए देखने के लिए। आप वहीं खड़े रहें, और थोड़ा फासला ज्यादा रखें। जो लोग पहली कतार में हैं, वे हाथ बांध लें, ताकि पीछे के लोग आगे न आएं। और जिनको भी सम्मिलित होना हो, वे बीच में आ जाएं। संन्यासियों के साथ नाचें। हो सकता है, उनकी तरंग आपको भी पकड़ जाए।

आज इतना ही


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–12

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अंतर्वाणी-विद्या (अध्याय ४)—बारहवां प्रवचन

प्रश्न:

भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक में चार यज्ञों की बात कही गई है। दो यज्ञों पर चर्चा हो चुकी है, सेवारूपी यज्ञ और स्वाध्याय यज्ञ। तीसरे तप यज्ञ का क्या अर्थ है? उसे यहां स्वधर्म पालनरूपी यज्ञ क्यों कहा गया है? और चौथे योग यज्ञ का क्या अर्थ है? उसे यहां अष्टांग योगरूपी यज्ञ क्यों कहा गया है?

स्वधर्मरूपी यज्ञ। व्यक्ति यदि अपनी निजता को, अपनी इंडिविजुअलिटी को, उसके भीतर जो बीजरूप से छिपा है उसे, फूल की तरह खिला सके, तो भी वह खिला हुआ व्यक्तित्व का फूल परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाता है और स्वीकृत भी।

व्यक्ति की भी एक फ्लावरिंग है; व्यक्ति का भी फूल की भांति खिलना होता है। और जब भी कोई व्यक्ति पूरा खिल जाता है, तभी वह नैवेद्य बन जाता है। वह भी प्रभु के चरणों में समर्पित और स्वीकृत हो जाता है।

फूल की तरह व्यक्ति के साथ भी दुर्घटनाएं घट सकती हैं। यदि कोई गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो दुर्घटना सुनिश्चित है। दुर्घटना के दो पहलू होंगे। एक तो गुलाब का फूल कुछ भी चाहे, कमल का फूल नहीं हो सकता है। वह उसकी नियति, उसकी डेस्टिनी नहीं है। वह उसके भीतर छिपा हुआ बीज नहीं है। वह उसकी संभावना नहीं है।

इसलिए गुलाब का फूल विक्षिप्त हो सकता है कमल के फूल होने में, कमल का फूल नहीं हो सकता। कमल के फूल होने में पीड़ित, दुखी, परेशान हो सकता है; चिंतित, संतापग्रस्त हो सकता है; नींद खो सकता, चैन खो सकता; कमल का फूल हो नहीं सकता है। होने की दौड़ में मिटेगा, बर्बाद होगा; पहुंचेगा नहीं मंजिल तक। यात्रा कितनी ही करे, लौट-लौटकर गुलाब का फूल ही रहेगा। पहुंचेगा नहीं कमल होने तक। न पहुंचने से फ्रस्ट्रेशन, न पहुंचने से विषाद मन को पकड़ता है। और जिसके चित्त को विषाद पकड़ लेता, उसके चित्त में नास्तिकता का जन्म हो जाता है। इसे ठीक से खयाल में ले लें।

विषाद से भरा हुआ चित्त आस्तिक नहीं हो सकता है। पीड़ा से भरा हुआ चित्त, दुख से भरा हुआ चित्त, फ्रस्ट्रेटेड चित्त आस्तिक नहीं हो सकता, क्योंकि आस्तिकता आती है अनुग्रह के भाव से, ग्रेटिटयूड से। और विषाद में अनुग्रह का भाव कैसे पैदा होगा? अनुग्रह का भाव तो आनंद में पैदा होता है। जब कोई आनंद से भरता है, तो अनुगृहीत होता है, तो ग्रेटिटयूड पैदा होता है।

सिमन वेल ने एक किताब लिखी है, ग्रेस एंड ग्रेविटी–प्रसाद और गुरुत्वाकर्षण। बहुमूल्य है; इस सदी की बहुमूल्य किताबों में से एक है। सिमन वेल कहती है कि जैसे जमीन चीजों को अपनी तरफ खींचती है, ऐसे ही परमात्मा भी चीजों को अपनी तरफ खींचता है।

जमीन चीजों को अपनी तरफ खींचती है। उसकी एक छिपी हुई ऊर्जा, शक्ति का नाम ग्रेविटेशन, गुरुत्वाकर्षण है। दिखाई कहीं नहीं पड़ता, लेकिन पत्थर को फेंको ऊपर, वह नीचे आ जाता है। वृक्ष से फल गिरा, नीचे आ जाता है। दिखाई कहीं भी नहीं पड़ता।

हम सबको कहानी पता है कि न्यूटन एक बगीचे में बैठा है और सेव का फल गिरा है। और उसके मन में सवाल उठा कि फल गिरता है, तो नीचे ही क्यों आता है, ऊपर क्यों नहीं चला जाता? दाएं-बाएं क्यों नहीं चला जाता? ठीक नीचे ही क्यों चला आता है? चीजें गिरती हैं, तो नीचे क्यों आ जाती हैं? और तब उसे पहली दफा खयाल आया कि जमीन से कोई ऊर्जा, कोई शक्ति चीजों को अपनी तरफ खींचती है; कोई मैग्नेटिक, कोई चुंबकीय शक्ति चीजों को अपनी तरफ खींचती है। फिर ग्रेविटेशन सिद्ध हुआ। अभी भी दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन परिणाम दिखाई पड़ते हैं।

सिमन वेल कहती है, ठीक ऐसे ही परमात्मा भी चीजों को अपनी तरफ खींचता है। उसके खींचने का जो ग्रेविटेशन है, उसका नाम ग्रेस, उसका नाम प्रसाद; अनुकंपा, अनुग्रह, जो भी हम नाम देना चाहें।

यह बड़े मजे की बात है कि जब फूल खिलता है, तो आकाश की तरफ उठता है। और जब मुरझाता है, सूखता है, तो जमीन की तरफ गिर जाता है। आदमी जीवित होता है, तो आकाश की तरफ उठा हुआ होता है। मर जाता है, तो जमीन में दफना दिया जाता है, मिट्टी में गिर जाता है। वृक्ष उठते हैं, जीवित होते हैं, तो आकाश की तरफ उठते हैं। फिर जराजीर्ण होते हैं, गिरते और मिट्टी में सो जाते हैं। ऊपर और नीचे। कुछ ऊपर की तरफ खींच रहा है, कुछ नीचे की तरफ खींच रहा है।

विषाद जब चित्त में होता है, तो आदमी का हृदय पत्थर की तरह हो जाता है, नीचे की तरफ गिरने लगता है। जब भी आप दुख में रहे हैं, तब आपने अनुभव किया होगा कि हृदय पर हजारों मनों का बोझ हो जाता है। फिर जमीन तो नीचे की तरफ खींचती है, लेकिन परमात्मा फिर ऊपर की तरफ खींचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। इसलिए दुख में आदमी मरना चाहता है। मरना चाहता है मतलब, जमीन के ग्रेविटेशन में दफन हो जाना चाहता है। दुख में आत्महत्या कर लेना चाहता है; मतलब, डस्ट अनटु डस्ट, मिट्टी मिट्टी में लौट जाए, इसके लिए आतुर हो जाता है।

ठीक इससे उलटी घटना भी घटती है। जब कोई आनंद से भरता है, तो कांशसनेस अनटु कांशसनेस–मिट्टी में मिट्टी नहीं–परमात्मा में परमात्मा मिलने को आतुर हो जाता है। जब कोई फूल खिलता है आनंद का, तो ऊपर से अनुग्रह की वर्षा होने लगती है। वह खिली हुई फूल की पंखुड़ियों पर अमृत बरसने लगता है प्रभु के प्रसाद का। आनंद में मन खिल जाता है फूल की तरह।

इसलिए तो जिन्होंने भी अनुभव किया है परम आनंद का, वे कहेंगे कि मस्तिष्क में सहस्रदल कमल खिल जाता है। वह प्रतीक है, सिंबालिक है। वह केवल काव्य में प्रकट किया गया अनुभव है। मस्तिष्क के ऊपर खिल जाता है फूल हजारों पंखुड़ियों वाला; उस खिले हुए फूल में बरसा होने लगती है अनुग्रह की।

और जब कोई उतने आनंद से भरता है, तो परमात्मा को धन्यवाद दे पाता है। कहना चाहिए, धन्यवाद देने के लिए परमात्मा को स्वीकार कर पाता है। अनुग्रह फिर किसके प्रति प्रकट करे? जब भीतर आनंद की वर्षा होने लगे और हृदय का कोना-कोना नाच उठे और अंधकार विदा हो जाए और पंखुड़ी-पंखुड़ी खिल जाए, फिर धन्यवाद किसके प्रति प्रकट करे? उस धन्यवाद को प्रकट करने के लिए परमात्मा को खोजना पड़ता है।

आनंद से भरा चित्त आस्तिक हो जाता है; दुख से भरा चित्त नास्तिक हो जाता है। नास्तिकता ग्रेविटेशन है। जमीन की ताकत नीचे की तरफ खींचती है। आस्तिकता ग्रेस, प्रसाद है, अनुग्रह है; ऊपर की तरफ ले जाता है।

व्यक्ति जब भी अपने निज धर्म को भूलता है, तब ऐसी हालत हो जाती है, जैसे गुलाब का फूल कमल होना चाहे। जब व्यक्ति निज धर्म को भूलता है, तो उसका मतलब, वह कोई और होना चाहता है, जो नहीं है।

ब्राह्मण शूद्र होना चाहे, शूद्र क्षत्रिय होना चाहे, क्षत्रिय वैश्य होना चाहे। जन्म की बहुत फिक्र नहीं है–गुण-धर्म से, गुण-कर्म से। भीतर की जो क्षमता है, वह जब अपने से भिन्न कुछ होना चाहे, तो मुश्किल में पड़ जाती है। हो नहीं सकती। वह असंभव है। वह प्रकृति का नियम नहीं।

हम सब अपनी बिल्ट-इन योजना लेकर पैदा होते हैं। हम क्या हो सकते हैं, इसका ब्लू प्रिंट हमारे सेल-सेल में छिपा रहता है। हम क्या हो सकते हैं, इसकी तजवीज हम अपने जन्म के साथ लेकर पैदा होते हैं।

अगर दुर्घटना घट जाए, तो यह हो सकता है कि हम वह न हो पाएं, जो हम हो सकते थे। लेकिन ऐसी घटना कभी नहीं घट सकती कि हम वह हो जाएं, जो कि हम नहीं हो सकते थे।

इसे मैं फिर से दोहरा दूं, यह हो सकता है कि हम वह न हो पाएं, जो कि हम हो सकते थे। हम चूक सकते हैं अपनी नियति। लेकिन इससे उलटा नहीं होता कभी, नहीं हो सकता कभी, कि हम वह हो जाएं, जो कि हम नहीं हो सकते थे।

यह हो सकता है, गुलाब का फूल गुलाब का फूल भी न हो पाए। लेकिन यह नहीं हो सकता कि गुलाब का फूल, और कमल का फूल हो जाए। गुलाब का फूल अगर कमल होने की कोशिश में लगे, तो मैंने कहा, इसके दो पहलू हैं। एक पहलू कि वह कमल कभी न हो पाएगा। कमल होने की चेष्टा में विषाद को उपलब्ध होगा–दुख, पीड़ा, एंग्विश।

सोरेन कीर्कगार्ड ने इस विषाद का ठीक-ठीक चित्रण किया है। उसने जो शब्दों के प्रयोग किए हैं, वह खयाल में ले लेने जैसे हैं, ट्रेंबलिंग। वह कहता है कि जब आदमी विषाद में होता है, तो सारा हृदय एक कंपन हो जाता है, एक ट्रेंबलिंग। वह कहता है, जब आदमी विषाद में हो जाता है, तो ड्रेड पकड़ लेता है, जैसे मौत सामने खड़ी हो और हमारे भीतर भी सब मृत्यु के भय में, अंधकार में डूब जाए।

यह जो स्थिति है विषाद की–एंग्विश कहता है सोरेन कीर्कगार्ड–संताप की, जहां कुछ भी फिर प्रीतिकर नहीं लगता, कुछ भी अर्थपूर्ण नहीं लगता, अभिप्रायपूर्ण नहीं लगता; सब व्यर्थ, मीनिंगलेस, सांयोगिक लगता है। हैं, तो ठीक। न हों, तो कोई हर्ज नहीं मालूम पड़ता। बल्कि न हों, तो शांति मालूम पड़ती है। हों, तो अशांति मालूम पड़ती है।

गुलाब का फूल कमल होना चाहे, तो ऐसा होगा, एक पहलू। और दूसरा पहलू यह कि गुलाब की ताकत अगर कमल होने की कोशिश में लग जाए, तो गुलाब फिर गुलाब कभी नहीं हो पाएगा। क्योंकि ताकत सीमित है, क्षमता निश्चित है। ऊर्जा बंधी हुई मिली है प्रत्येक को, नपी हुई मिली है प्रत्येक को। अगर उसे इतर, यहां-वहां खर्च किया, तो अपनी नियति को पूरा नहीं किया जा सकता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, स्वधर्मरूपी यज्ञ में!

यह स्वधर्मरूपी यज्ञ बहुत ही गहरी मनोवैज्ञानिक धारणा है। मनुष्य ने अपने इतिहास में जो भी गहरे से गहरे मनोवैज्ञानिक सत्य खोजे हैं, उनमें स्वधर्म का सत्य सर्वाधिक गहरा है।

यह पृथ्वी आज इतने दुख से भरी दिखाई पड़ती है, उसका मौलिक कारण स्वधर्म से च्युत हो जाना है। कोई भी आदमी वही नहीं हो रहा है, जो वह होने को है। हर आदमी कुछ और होने में लगा है! हम सब कुछ और होने में लगे हैं, जो हम नहीं हो सकते हैं।

कृष्ण कहते हैं, यह भी बड़े से बड़ा यज्ञ है अर्जुन, अगर तू इतना भी पूरा कर ले, या कोई भी पूरा कर ले, तो भी प्रभु को उपलब्ध हो जाता है, परम अवस्था को उपलब्ध हो जाता है।

स्वधर्म; कैसे पहचानें, क्या है स्वधर्म? कैसे जानें, मैं क्या होने को पैदा हुआ हूं? कैसे जानें कि मैं कुछ और होने में तो नहीं लगा हूं? कैसे पहचानें कि मैंने किसी परधर्म को ही तो नहीं पकड़ लिया है?

पहचान हो सकती है। सूक्ष्म होंगे पहचान के सूत्र। लेकिन दोत्तीन सूत्र आपसे कहना चाहूंगा।

पहली बात, अगर आप दुखी हैं जीवन में, तो पक्का समझ लेना कि आप स्वधर्म से च्युत हुए हैं, स्वधर्म से च्युत हो रहे हैं। क्योंकि जहां भी स्वधर्म की यात्रा होती है, वहीं आनंद फलित होता है।

अशांत हों यदि, तो जान लेना कि परधर्म के पीछे चल रहे हैं। रुक जाना, पुनः सोच लेना। फिर से विचार कर लेना, रिकंसीडर कर लेना कि जो यात्रा चुनी, जो कर रहे हैं, उससे दुख और पीड़ा, अशांति बढ़ती है, तो निश्चित ही वह मार्ग मेरा नहीं है।

जैसे कोई बगीचे के पास जाता हो। बगीचा दिखाई नहीं पड़ता अभी, लेकिन जैसे-जैसे पास पहुंचता है, ठंडी हवाएं छूने लगती हैं, स्पर्श करने लगती हैं। जानता है कि ठीक रास्ते पर हूं। बगीचा दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन कहीं पास ही होगा। दिशा तो कम से कम ठीक होनी ही चाहिए। और अगर ठंडक हवाओं की बढ़ती जाए एक-एक कदम बढ़ने से, तो निश्चित हुआ जा सकता है कि मैं ठीक दिशा में बढ़ रहा हूं; बगीचा करीब ही आता होगा। फिर और करीब आकर ठंडक के साथ-साथ सुगंध भी मिलने लगती है, तब और भी निश्चय हो जाता है कि मैं और भी पास आ रहा हूं। अभी भी बगीचा दिखाई नहीं पड़ता; अभी भी दूर है; लेकिन दिशा ठीक है।

ऐसे ही टटोलना पड़ता है स्वधर्म को भी, जैसे कोई बगीचे को अंधेरे में खोजता हो। ठंडक, सुगंध…।

अगर ठंडक कम होती जाए, सुगंध क्षीण होती जाए, तो जानना चाहिए कि मैंने कोई विपरीत मार्ग पकड़ लिया। शांति बढ़े, तो स्वधर्म के निकट चल रहे हैं आप। अशांति बढ़े, तो स्वधर्म से च्युत हो रहे हैं आप। शांति मापदंड है।

फिर शांति घनी हो, तो सुवास की तरह आनंद की झलक भी मिलनी शुरू हो जाती है। तब समझना कि ठीक है मार्ग। अब दौड़ सकते हैं। अब निश्चिंत हो नाव को खे सकते हैं। अब बेफिक्र हो हवाओं के रुख में नाव को छोड़ सकते हैं। अब नदी ठीक, अब मार्ग ठीक। अब पहुंच जाएंगे वहां।

लेकिन हम जीवन में कभी इसका विचार ही नहीं करते। हम उलटा ही करते हैं। हम जो कर रहे होते हैं, अगर उसमें अशांति मिलती है, तो उसी को और जोर से करते हैं। सोचते हैं, शायद पूरी ताकत से नहीं कर रहे हैं; और ताकत से करेंगे, तो शांति मिल जाएगी। और अशांति मिलती है, तो और सारी ताकत जुटाकर लग जाते हैं। अंततः परिणाम यह होता है कि हम स्वधर्म को पहुंच नहीं पाते। परधर्म को पहुंच नहीं सकते। जीवन एक वर्तुलाकार चक्कर होकर खो जाता है। अवसर मिलता है और नष्ट हो जाता है।

तो एक तो शांति बढ़े, आनंद बढ़े।

दूसरा, यदि कोई स्वधर्म के साथ-साथ चल रहा हो, तो उसके जीवन में स्वीकार का भाव बढ़ता जाएगा, अस्वीकार का भाव कम होता जाएगा। उसकी एक्सेप्टिबिलिटी बढ़ती जाएगी। वह चीजों को स्वीकार करने लगेगा। क्योंकि जिसके भीतर भी जरा-सा आनंद आया, उसके बाहर स्वीकृति आने लगती है; वह चीजों को स्वीकार करने लगता है अर्थात संतुष्ट होने लगता है।

अगर स्वधर्म के अनुकूल न चलता हो, तो असंतुष्ट होता चला जाता है; अस्वीकार करने लगता है। हर चीज के प्रति दुश्मन की दृष्टि आ जाती है, दोस्त की नहीं। हर चीज के प्रति इनकार, नो; यस, हां का भाव नहीं। हर चीज के प्रति इनकार हो जाता है।

तो अगर आपकी जिंदगी में यस की जगह नो की संख्या ज्यादा हो; हां कम चीजों को कहते हों, न ज्यादा चीजों को कहते हों; स्वीकार कम को करते हों, अस्वीकार ज्यादा को करते हों; संतोष कम से मिलता हो, असंतोष ज्यादा से मिलता हो–तो ध्यान रखना कि स्वधर्म के अनुकूल नहीं जा रही है यात्रा।

इस मात्रा को बदलना पड़ेगा। स्वीकार बढ़ाना पड़ेगा, अस्वीकार कम करना पड़ेगा। जैसे-जैसे स्वीकार बढ़ेगा, वैसे-वैसे आस्तिकता बढ़ेगी। जैसे-जैसे अस्वीकार बढ़ेगा, वैसे-वैसे नास्तिकता बढ़ेगी। नास्तिकता का अर्थ है, समस्त अस्तित्व के प्रति नकार का भाव, नो एटीटयूड टुवर्ड्स दि टोटैलिटी, समस्त के प्रति नकार का भाव। कुछ भी नहीं है! आस्तिकता का अर्थ है, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी, समग्र स्वीकार। सब है; और सब से मैं राजी हूं। जो जैसा है, उससे मैं वैसे ही राजी हूं। यह राजीपन बढ़ता जाएगा, जैसे-जैसे भीतर स्वधर्म के अनुकूल यात्रा होगी।

तीसरी बात, स्वधर्म के अनुकूल अगर जाना हो, तो सिर्फ बाहर की चीजों में उलझा रहकर कोई व्यक्ति कभी नहीं जा सकता। दैनंदिन कामों में पता ही नहीं चलता कि स्वधर्म क्या है, परधर्म क्या है। दैनंदिन काम तो करीब-करीब एक जैसे हैं। ब्राह्मण का भी वही है, क्षत्रिय का भी वही है, शूद्र का भी वही है, वैश्य का भी वही है। जहां तक दैनंदिन काम का संबंध है, रोटी-रोजी कमाना ही तो सबके लिए है। कैसे कोई कमाता है, यह दूसरी बात है। उससे बहुत अंतर नहीं पड़ता। दैनंदिन कामों से पता नहीं चलेगा कि मेरा स्वधर्म क्या है।

जिसे स्वधर्म की खोज करनी हो, उसे बाहर की दुनिया से कम से कम चौबीस घंटे में घंटेभर के लिए बिलकुल छुट्टी ले लेनी चाहिए, और भीतर की दुनिया में डूब जाना चाहिए। कर देने चाहिए द्वार बंद बाहर के। कह देना चाहिए बाहर के जगत को बाहर, और अब मैं होता भीतर। सब इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर घंटेभर के लिए डूब जाना चाहिए। वहीं पता चलेगा उस रहस्य का जो स्व है, जो निजता है। वहीं से सूत्र मिलेंगे, ध्वनि सुनाई पड़ेगी, वहीं से इशारे मिलेंगे। और धीरे-धीरे इशारे गहरे होते चले जाते हैं। पहले आवाज बड़ी छोटी होती है। यह आखिरी सूत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, इसे ठीक से खयाल में ले लेंगे।

स्वधर्म का पता अंतर की वाणी के अतिरिक्त और कहीं से नहीं चलता है। पहले मैंने दो लक्षण की बात कहीं कि इससे आप पता लगा लेना कि जिंदगी ठीक मार्गों से जा रही है या नहीं। और तीसरे से मैं आपके स्वधर्म के केंद्र को ही छू लेने की सूचना देता हूं।

घंटेभर के लिए चौबीस घंटे में, बंद कर देना बाहर की दुनिया को, भूल जाना; छोड़ देना सब बाहर का बाहर; अपने भीतर डुबकी लगा जाना। उस डुबकी में धीरे-धीरे भीतर की अंतर्वाणी सुनाई पड़नी शुरू होगी। सबके भीतर छिपा है वह। दि स्टिल स्माल वॉइस, छोटी है आवाज–धीमी, नाजुक, सूक्ष्म। केवल वे ही सुन सकते हैं, जो उतनी सूक्ष्म आवाज को सुनने के लिए अपने को ट्रेन करते हैं, प्रशिक्षित करते हैं।

इसलिए आज आप आंख बंद करके बैठ जाएंगे, तो भीतर की आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी। आंख बंद करके भी बाहर की ही आवाज सुनाई पड़ती रहेगी। कल, परसों–बैठते रहें, बैठते रहें, जल्दी न करें, घबड़ाएं न। तेईस घंटे बाहर की दुनिया को दे दें, एक घंटा अपने को दे दें। बस, आंख बंद करें और सुनने की कोशिश करें भीतर। सुनने की कोशिश, जैसे भीतर कोई बोल रहा है, उसे सुन रहे हैं।

जैसे कि इतनी भीड़ है। यहां बहुत लोग बातचीत कर रहे हैं और आपको किसी की बात सुननी है, तो आप सबकी बातों को छोड़कर अपनी पूरी चेतना और एकाग्रता को उस आदमी के ओठों के पास लगा देते हैं। वह फुसफुसाकर भी बोलता हो, विस्पर भी करता हो, तो भी आप सुनने की कोशिश करते हैं–और सुन पाते हैं। चेतना सिकुड़कर सुनती है, तो सुन पाती है। एकाग्र हो जाती है, तो सुन पाती है।

जल्दी न करें। एक घंटा तय कर लें स्वधर्म की खोज के लिए। आपको पता नहीं, लेकिन आपकी अंतरात्मा को पता है कि क्या है आपका स्वधर्म। आंख बंद करें। मौन हो जाएं। चुप बैठकर सुनें। मौन, सिर्फ भीतर ध्यान को करके, सुनने की कोशिश करें कि भीतर कोई बोलता है! कोई आवाज!

बहुत-सी आवाजें सुनाई पड़ेंगी। पहचानने में कठिनाई न होगी कि ये बाहर की आवाजें हैं। मित्रों के शब्द याद आएंगे, शत्रुओं के शब्द; दुकान, बाजार, मंदिर, शास्त्र–सब शब्द याद आएंगे। पहचान सकेंगे भलीभांति, बाहर के सुने हुए हैं। छोड़ दें। उन पर ध्यान न दे। और भीतर! और प्रतीक्षा करते रहें।

अगर तीन महीने कोई सिर्फ एक घंटा चुप बैठकर प्रतीक्षा कर सके धैर्य से, तो उसे भीतर की आवाज का पता चलना शुरू हो जाएगा। और एक बार भीतर का स्वर पकड़ लिया जाए, तो आपको फिर जिंदगी में किसी से सलाह लेने की जरूरत न पड़ेगी।

जब भी जरूरत हो, आंख बंद करें और भीतर से सलाह ले लें; पूछ लें भीतर से कि क्या करना है। और स्वधर्म की यात्रा पर आप चल पड़ेंगे। क्योंकि भीतर से स्वधर्म की ही आवाज आती है। भीतर से कभी परधर्म की आवाज नहीं आती। परधर्म की आवाज सदा बाहर से आती है।

जो व्यक्ति अपने भीतर की इनर वॉइस, अंतर्वाणी को नहीं सुन पाता, वह व्यक्ति कभी स्वधर्म के तप को पूरा नहीं कर पाएगा। यह जो स्वधर्मरूपी यज्ञ की बात कृष्ण ने कही है, यह वही व्यक्ति पूरी कर पाता है, जो अपने भीतर की अंतर्वाणी को सुनने में सक्षम हो जाता है।

लेकिन सब हो सकते हैं, सबके पास वह अंतर्वाणी का स्रोत है। जन्म के साथ ही वह स्रोत है, जीवन के साथ ही वह स्रोत है। बस, हमें उसका कोई स्मरण नहीं। हमने कभी उसे टैप भी नहीं किया; हमने कभी उसे खटकाया भी नहीं; हमने कभी उसे जगाया भी नहीं। हमने कभी कानों को प्रशिक्षित भी नहीं किया कि वे सूक्ष्म आवाज को पकड़ लें।

जीसस या बुद्ध या महावीर भीतर की आवाज से जीते हैं। भीतर की आवाज जो कह देती है वही…।

इसमें एक बात और आपको खयाल दिला दूं कि भीतर की आवाज एक बार सुनाई पड़नी शुरू हो जाए, तो आपको अपना गुरु मिल गया। वह गुरु भीतर बैठा हुआ है। लेकिन हम सब बाहर गुरु को खोजते फिरते हैं। गुरु भीतर बैठा हुआ है।

परमात्मा ने प्रत्येक को वह विवेक, वह अंतःकरण, वह कांसिएंस, वह अंतर की वाणी दी है, जिससे अगर हम पूछना शुरू कर दें, तो उत्तर मिलने शुरू हो जाते हैं। और वे उत्तर कभी भी गलत नहीं होते। फिर वह रास्ता बनाने लगता है भीतर का ही स्वर, और तब हम स्वधर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं।

अंतर्वाणी को सुनने की क्षमता ही स्वधर्मरूपी यज्ञ का मूल आधार है।

इसलिए कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि मैंने इसके पहले दो यज्ञ कहे, अब यह तीसरा यज्ञ कि स्वधर्मरूपी यज्ञ को भी यदि कोई पूरा कर ले, तो प्रभु के मंदिर में उसकी पहुंच, सुनवाई हो जाती है; द्वार खुल जाते हैं; वह प्रवेश कर जाता है।

लेकिन लगेगा कि शायद यह सरल हो, यह स्वधर्मरूपी यज्ञ! कि ब्राह्मण अपनी पोथी पढ़ता रहे; चंदन, तिलक-टीका लगााता रहे; हवन-यज्ञ करवाता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है। कि शूद्र सड़क पर झाडू लगाता रहे, कि गंदगी ढोता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है। कि क्षत्रिय युद्ध में लड़ता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है।

नहीं; यह बहुत बाहरी और ऊपरी बात है। स्वधर्म की गहरी बात तो तभी पता चलेगी, जब भीतर की आवाज…।

इधर भारत में एक व्यक्ति थे, जो अभी चल बसे हैं। आप उनसे भलीभांति परिचित हैं, मेहर बाबा। उन्होंने पिछले जीवन के अपने तीस वर्ष अंतर की आवाज को सुनने में ही लगाए। और अंतर की आवाज को सुनने के लिए उन्होंने बाहर की सारी आवाज बंद कर दी। मौन हो रहे, बोलना बंद कर दिया। क्योंकि बोलें, तो बाहर की वाणी का लेन-देन जारी रहता है। तो सब बंद कर दिया।

जैसा मैंने सुबह आपसे कहा कि अगर स्वाध्यायरूपी यज्ञ को समझना हो, तो कृष्णमूर्ति के विगत चालीस वर्ष का समस्त वक्तव्य स्वाध्यायरूपी यज्ञ के इस छोटे-से शब्द स्वाध्याय में समा जाता है। कृष्णमूर्ति का चालीस साल का सब कहा हुआ, गीता के स्वाध्याय नामी यज्ञ की व्याख्या और भाष्य है, और कुछ भी नहीं। समस्त, चालीस वर्षों का कहा हुआ, इस स्वाध्याय यज्ञ का भाष्य है, कमेंट्री है।

वैसे ही मैं आपसे कहता हूं, इस तीसरी बात के लिए, अंतर्वाणी के सुनने के लिए मेहर बाबा ने इस सदी में जितना श्रम किया, उतना किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया है। और अंतर्वाणी को सुनने के लिए, स्वधर्म की आवाज को सुनने के लिए जो गहरे से गहरा तप किया जा सकता था, वह यह था कि वाणी ही उन्होंने छोड़ दी, शब्द ही छोड़ दिए; मौन हो रहे बाहर से, ताकि शब्द का लेन-देन बंद हो जाए। ताकि अंततः कभी जरा-सी भी भूल न हो, कि भीतर की आवाज और बाहर की आवाज में कहीं भी कोई संदेह और संभ्रम, कोई कनफ्यूजन पैदा न हो। बाहर की आवाज ही बंद कर दी, ताकि निपट भीतर की आवाज से जीया जा सके।

फिर बहुत-सी घटनाएं उनके जीवन में हैं, एक-दो मैं कहूं, जिससे खयाल आ सके कि अंतर की आवाज…।

हैदराबाद के पास उन्होंने एक छोटा-सा आश्रम बनाया था। बनकर तैयार हुआ। बड़ी प्रतीक्षा से बनाया था। फिर उसके द्वार तक गए–प्रवेश का दिन था–और ठीक दरवाजे पर खड़े होकर वापस लौट आए और इशारा कर दिया कि उस मकान में वे प्रवेश नहीं करेंगे। रात वह मकान गिर गया।

हिंदुस्तान से वे यूरोप जा रहे थे। हवाई जहाज से यात्रा। बीच में हवाई जहाज सिर्फ फ्यूल भरने के लिए किसी एअरपोर्ट पर उतरा। फिर हवाई जहाज उड़ने को हुआ। यात्रियों को खबर की गई। मेहर बाबा ने इनकार कर दिया कि वे उस पर सवार नहीं होंगे।

साथी उनके बड़ी परेशानी में पड़ते थे। शिष्य बड़ी मुश्किल में पड़ जाते थे। अब यह बड़ी बेहूदगी हो गई! चलती यात्रा में, बीच हवाई जहाज से उतर जाना, फिर कह देना कि नहीं जाएंगे! वह हवाई जहाज पंद्रह मिनट बाद उड़ा और गिर गया और सब यात्री समाप्त हो गए।

ऐसा बहुत बार हुआ। मेहर बाबा कब रुक जाएंगे किस काम को करने से ऐन बीच में, नहीं कहा जा सकता था; अनप्रेडिक्टेबल था। वे खुद भी नहीं कह सकते थे, क्योंकि उनको खुद भी पता नहीं था। कब अंतर की आवाज क्या कहेगी, उन्हें भी पता नहीं। जो कहेगी, वही वे करेंगे, जो भी हो। यह भी पता नहीं कि क्या परिणाम होगा। हवाई जहाज से क्यों रोक रहा है अंतर-मन? लेकिन अंतर-मन कहता है, नहीं, तो फिर नहीं। हां, तो हां।

मेहर बाबा की जिंदगी स्वधर्म की तलाश की जिंदगी है। भीतर के स्वर की खोज की जिंदगी है। वह भीतर का स्वर क्या कहता है, उससे ही चलेंगे।

कोई भी व्यक्ति अगर तेईस घंटे काम की दुनिया से हटाकर एक घंटा अपने लिए निकाल ले–ज्यादा निकाल सकें, और अच्छा। कभी वर्ष में पंद्रह दिन, तीन सप्ताह निकाल सकें इकट्ठे, तो और भी अच्छा। धीरे-धीरे भीतर की आवाज साफ होने लगे, तो आपकी जिंदगी में भूल-चूक बंद हो जाएगी। क्योंकि तब जिंदगी परमात्मा से चलने लगती है, आपसे नहीं चलती। फिर गुलाब का फूल गुलाब ही होता है, फिर कमल होने की कोई आकांक्षा नहीं होती। और जिस दिन भीतर की वाणी से चला हुआ जीवन पूरा खिलता है, उस दिन यज्ञ पूरा हो गया–स्वधर्मरूपी यज्ञ।

प्रश्न:

भगवान श्री, इस श्लोक का चौथा और आखिरी यज्ञ योग यज्ञ कहा गया है। गीता प्रेस के अनुवाद में इसे अष्टांग योग यज्ञ कहा गया है। कृपया इसे भी स्पष्ट करें।

योग यज्ञ। योग की अपनी साधना प्रक्रिया है। अष्टांग योग, योग के आठ अंगों की सूचना देता है। पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे हैं, आठ चरण, आठ हिस्से, जिनसे मिलकर योग बनता है, जिनसे योग पूरा होता है। यदि योग एक शरीर है, तो आठ उसके अंग हैं। इसलिए अष्टांग योग।

लेकिन अष्टांग योग के यदि एक-एक अंग पर मैं बात करूं, तो कठिनाई होगी। वह तो फिर कभी जब पतंजलि के शास्त्र पर पूरा बोलूं, तभी खयाल में आ सकता है। तो अभी तो सिर्फ योग यज्ञ, इतनी ही बात कर लेनी उचित होगी। मूल बात समझ में आ जाएगी।

मैंने कहा कि जैसे स्वाध्याय के लिए जे.कृष्णमूर्ति भाष्य हैं और जैसे स्वधर्म के लिए, स्वधर्म की खोज के लिए, अंतर्वाणी की खोज के लिए मेहर बाबा भाष्य हैं, वैसे ही योग के लिए जार्ज गुरजिएफ भाष्य है–इस जीवित जगत में, जो अभी हमारे आस-पास खड़ा है।

योग का अर्थ है, व्यक्ति जैसा है, वह बहुत ढीला-ढाला है, लूज एक्झिस्टेंस है। कहना चाहिए, आदमी कम है, होल्डाल ज्यादा है। होल्डाल, बिस्तर, उसमें सब चीजें लपेटी हैं! अंग्रेजी का शब्द अच्छा है, होल्डआल; सब चीजें भरी हुई हैं, एक बोरिया-बिस्तर की तरह है। सब कुछ भरा है; उल्टा-सीधा सब भरा है। साधारण व्यक्ति जैसा है, वह एक कास्मास नहीं है; उसके भीतर कोई संगीत नहीं है; उसके भीतर कोई हार्मनी, कोई लयबद्धता नहीं है। उसके भीतर, गुरजिएफ की भाषा में कहें, तो क्रिस्टलाइजेशन नहीं है। उसके भीतर कोई ठोस शक्ति नहीं है। उसके भीतर बहुत-सी शक्तियां हैं–आपस में विरोधी, एक-दूसरे से लड़ती, ढीली, अस्तव्यस्त।

ऐसा समझ लें फर्क, बाजार भरा है एक; हजार आदमी हैं बाजार में। शोरगुल बहुत है, लेकिन व्यक्तित्व कोई भी नहीं है। हजार आदमियों के बाजार में व्यक्तित्व कोई नहीं होता। हजार आदमी होते हैं, हजार आवाजें होती हैं। हजार हित होते हैं, हजार स्वार्थ होते हैं। एक-दूसरे से विपरीत होते हैं, एक-दूसरे के दुश्मन होते हैं, एक-दूसरे से लड़ते होते हैं। हजार आदमी हैं बाजार में, लेकिन बाजार के पास कोई क्रिस्टलाइज्ड इंडिविजुअलिटी नहीं है; बाजार के पास कोई व्यक्तित्व नहीं है, जिसमें एकस्वरता हो। फिर हजार आदमी मिलिट्री के जवान हैं। वे भी हजार हैं, लेकिन उनके पास एक व्यक्तित्व है। हजार आदमी के साथ पंक्तिबद्ध व्यक्तित्व है। एक से चलते हुए कदम हैं। एक आवाज, एक आज्ञा पर सारे प्राण आंदोलित होते हैं। एकस्वरता है।

तो गुरजिएफ कहेगा कि बाजार में तो क्रिस्टलाइजेशन नहीं है, मिलिट्री के हजार लोगों में एक क्रिस्टलाइजेशन है। वे इकट्ठे हैं, एक आर्गेनिक यूनिटी है। एक शरीर की भांति हैं वे। बाजार भीड़ है, एक शरीर नहीं।

हमारा व्यक्तित्व बाजार की भांति है। हजार चीजें हैं उसमें, हजार हित हैं। एक हिस्सा बाएं जाता है, दूसरा दाएं जाता है। एक ऊपर जाता है, तीसरा नीचे जाता है। एक कहता है, मत करो; एक कहता है, करो। तीसरा हिस्सा सोया रहता है; इस फिक्र में ही नहीं पड़ता कि करना है, कि नहीं करना है। ऐसे हजार हिस्से हैं हमारे भीतर।

गुरजिएफ कहा करता था, हम एक ऐसे मकान हैं, जिसका मालिक सोया हुआ है और जिसमें हजार नौकर हैं। और हर नौकर अपने को मालिक समझने लगा है, क्योंकि मालिक सोया ही रहता है। तो कभी-कभी ऐसा होता है कि दरवाजे से कोई निकलता है, दरवाजे पर जो नौकर मिल जाता है, कोई भी पूछता है, यह महल किसका है? बड़ा है महल। निश्चित ही, जिसमें हजार नौकर हों, तो महल बड़ा होगा।

दरवाजे पर जो नौकर मिल जाता है पूछने वाले को, वह कहता है, मैं हूं। आई दि मास्टर, मैं हूं मालिक। यात्री कभी फिर लौटता है, तो कोई दूसरा नौकर बाहर मिल जाता है। वह उससे पूछता है, यह मकान किसका है? वह कहता है, आई एम दि मास्टर, मैं हूं मालिक। सारे लोग चकित हैं कि मालिक कौन है? क्योंकि कभी कोई मालिक मालूम पड़ता है, कभी कोई मालिक मालूम पड़ता है! असली मालिक सोया हुआ है।

गुरजिएफ कहता था, आम आदमी की हालत इस मकान की तरह है। असली मालिक सोया हुआ है। और इंद्रियों में जो ऊपर होता है, वृत्तियों में जो ऊपर होता है, वासना में जो ऊपर होता है, वह कहता है, आई एम दि मास्टर।

जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपको पता है, क्रोध कहता है, मैं हूं मालिक। जब आप प्रेम में होते हैं, तो प्रेम कहता है, मैं हूं मालिक। सुबह किसी के प्रति प्रेम से भरे थे, तो कहा कि जान लगा दूंगा तेरे लिए। और सांझ उसी की जान ले ली! क्योंकि सुबह प्रेम मालिक था, सांझ घृणा मालिक हो गई! नौकर इधर-उधर हो गए।

सांझ को तय करता है आदमी, सुबह चार बजे उठ आऊंगा। सुबह चार बजे वही आदमी करवट बदलकर कहता है, आज रहने दो; फिर देखेंगे। सुबह आठ बजे उठकर फिर पछताता है वही आदमी, कि मैंने तो कसम खाई थी, उठा क्यों नहीं? अब पक्का उठूंगा। कल तो कसम है। फिर कल चार बजते हैं। वही आदमी दुलाई के भीतर करवट लेता है। कहता है, रहने भी दो; ऐसी क्या जल्दी है। फिर उठ जाएंगे; कल उठ आएंगे। सुबह आठ बजे वही आदमी फिर पछताता है। बात क्या है?

जिस आदमी ने सांझ तय किया कि सुबह चार बजे उठेंगे, वह दूसरा हिस्सा था मन का। सुबह चार बजे दूसरा हिस्सा सामने था मकान का। उसने कहा, आई एम दि मास्टर; सोए रहो, कोई जल्दी नहीं है। सुबह आठ बजे तीसरा नौकर सामने था, उसने कहा, बड़ा बुरा काम किया, यह ठीक नहीं है, तय करना और बदल जाना। फिर तय करो। मगर भीतर जो असली मालिक है, वह सोया हुआ है।

नौकर–इंद्रियां, वृत्तियां, वासनाएं मालिक हो जाती हैं। जो जब मौका पा जाता है, हमारी छाती पर बैठ जाता है। जब लोभ हमारे ऊपर बैठता है, तो ऐसा लगता है, लोभ ही हमारी आत्मा है। जब क्रोध हम पर सवार होता है, तो ऐसा लगता है कि क्रोध ही मैं हूं। जब प्रेम हम पर सवार होता है, तो लगता है, बस प्रेम ही सब कुछ है। जो हमें पकड़ लेता है भूत-प्रेत की भांति, जो वृत्ति हम पर हावी हो जाती है, बस हम उसके हाथ के खिलौने हो जाते हैं। असली मालिक का कोई भी पता नहीं है।

योग का अर्थ है, असली मालिक का जग आना; नौकरों के बीच मालिक को सिंहासन-आरूढ़ करना। योग का अर्थ है–शब्द का भी–इंटीग्रेशन। योग शब्द का अर्थ है, इंटीग्रेशन; योग शब्द का अर्थ है, जोड़। व्यक्ति जुड़ा हुआ हो; खंड-खंड नहीं, अखंड; एक हो। और जब कभी व्यक्ति एक होता है, तो सब नौकर तत्काल सिर झुकाकर मालिक के सामने खड़े हो जाते हैं। फिर कोई नौकर नहीं कहता कि मैं मालिक हूं।

योगस्थ चेतना तत्काल समस्त इंद्रियों की मालिक हो जाती है। फिर इंद्रियां नौकर की तरह पीछे चलती हैं। छाया की तरह। मालकियत उनकी खो जाती है।

तो कृष्ण इस चौथे चरण में कहते हैं कि योग यज्ञ भी है अर्जुन! यह चेतना कैसे जगे! यह सोया हुआ मालिक कैसे उठे! यह आदमी क्रिस्टलाइज्ड कैसे हो, एक कैसे हो, इकट्ठा कैसे हो!

तो योग की हजारों प्रक्रियाएं हैं, जिनके द्वारा सोए हुए मालिक को उठाया जाता है। मैं एक छोटा-सा गुरजिएफ का उदाहरण दूं, ताकि खयाल आ सके।

गुरजिएफ तिफलिस के गांव के पास ठहरा हुआ है कुछ मित्रों को लेकर। और उसने उनको कहा है कि मैं तुमसे एक प्रयोग करवा रहा हूं, स्टाप एक्सरसाइज। मैं जब कहूं, स्टाप, रुको, तो तुम रुक जाना जैसे भी होओ। अगर तुमने एक पैर ऊपर उठाया है चलने के लिए, तो वह पैर फिर वहीं रह जाए। फिर बेईमानी मत करना; क्योंकि बेईमानी तुम्हारे अपने साथ होगी। नीचे मत रखना, वहीं रुक जाना। गिर जाओ भला, लेकिन सचेतन, अपनी तरफ से पैर वहीं रखना। गिर जाओ, दूसरी बात। लेकिन तुम पैर नीचे मत टिकाना। मुंह खोला है बोलने को, तो फिर खुला ही रह जाए, जब कहा, स्टाप। हाथ उठाया काम के लिए, हाथ वहीं रह जाए। आंख खुली थी, तो खुली रह जाए, फिर पलक न झपे।

इसका वह महीनों से प्रयोग करवा रहा था। क्या मतलब है इसका? इसका मतलब इतना ही है कि यह प्रक्रिया तभी हो सकती है, जब मालिक जगे, अन्यथा नहीं हो सकती। और इस प्रक्रिया को किसी को करना है, तो उसके भीतर का मालिक जगना शुरू हो जाएगा।

हां, नौकर धोखा देंगे। आपने पैर उठाया और गुरजिएफ ने कहा, स्टाप। तो मन कहेगा, वह देख तो नहीं रहा है, उसकी पीठ उस तरफ है। यह पैर नीचे रख ले। नाहक परेशान हो जाएगा। अगर उसकी मान ली, मन की, और पैर नीचे रख लिया, तो मालिक सोया रहेगा। लेकिन अगर कह दिया कि नहीं; पैर अब ऐसा ही रहेगा; तो मन हारा। और जब मन हारता है, तभी मन के पीछे जो छिपी शक्ति है, वह जीतती है।

मन की हार स्वयं की जीत बन जाती है। नौकरों का हारना, मालिक का जगना हो जाता है। जब तक नौकर जीतते रहते हैं, मालिक को खबर ही नहीं लगती कि हारने की हालत पैदा हो गई है महल में। जब नौकर हार जाते हैं, तो मालिक को उठना पड़ता है।

तो गुरजिएफ यह प्रयोग करा रहा था। पास ही एक बड़ी नहर थी। सूखी थी, अभी पानी छूटा नहीं था। एक दिन सुबह वह अपने तंबू में था। तीन-चार लोग नहर पार कर रहे थे। कोई लकड़ी काटने जा रहा था, कोई जंगल गया था, कोई कुछ कर रहा था। जोर से तंबू के बाहर आवाज गूंजी, स्टाप! चार लोग नहर पार कर रहे थे। सूखी नहर थी। वे वहीं रुक गए। रुके नहीं कि दो क्षण बाद नहर में पानी छोड़ दिया गया। घबड़ाए!

एक ने लौटकर देखा कि गुरजिएफ तो तंबू के भीतर है, उसे पता भी नहीं है कि हम नहर में खड़े हैं। पानी छूट गया है। वह निकलकर बाहर आ गया। उसने कहा, स्टाप का मतलब कोई मरना तो नहीं है! तीन खड़े रहे। पानी और बढ़ा। कमर तक पानी हो गया, तब एक ने लौटकर देखा। उसने देखा कि अब तो जान जाने का खतरा है। यह पानी ऊपर बढ़ता जा रहा है। अब कोई अर्थ नहीं है। कपड़े भी भीगे जा रहे हैं। कोई सार नहीं है। वह बाहर निकल आया। दो फिर भी खड़े रहे। पानी और ऊपर बढ़ा, गर्दन, ओंठ–और तीसरा भी छलांग लगाकर बाहर हो गया। उसने कहा, अब तो सांस का खतरा है। लेकिन चौथा फिर भी खड़ा रहा। स्टाप यानी स्टाप। जब ठहर गए, तो ठहर गए।

मन ने जरूर कहा होगा, पागल है। मर जाएगा। जिंदगी गंवा देगा। बाहर निकल जा। तीन साथी बाहर निकल गए, उनमें भी बुद्धि है। वे भी साधना कर रहे हैं। तू ही कोई साधना नहीं कर रहा है। लेकिन नहीं; खड़ा ही रहा।

फिर पानी नाक को डुबा गया। फिर आंख को डुबा गया। फिर पानी की लहर सिर को डुबा गई। और गुरजिएफ भागा तंबू के बाहर। कूदा नहर में, उस युवक को बाहर निकालकर लाया। वह करीब-करीब बेहोश था। पानी भर गया था। पानी निकाला। वह युवक होश में आया और गुरजिएफ के चरणों पर गिर पड़ा। उसने कहा, मैंने तो कभी सोचा भी न था कि अगर मैं इतना बल दिखाऊंगा, तो मेरे भीतर का सोया मालिक जग जाएगा! मैंने मृत्यु के इस क्षण में अमृत को भी जान लिया है।

योग का अर्थ है, भीतर जो सोया है, उस पर चोट करनी है, उसे उठाने के लिए चोट करनी है। हजार रास्ते हैं उस पर चोट करने के। हठयोग के अपने रास्ते हैं, राजयोग के अपने रास्ते हैं, मंत्रयोग के अपने रास्ते हैं, तंत्र के अपने रास्ते हैं। हजार-हजार विधियां हैं, जिन विधियों से उस सोई हुई चेतना में जो भीतर केंद्र पर प्रसुप्त है, उसे जगाने की कोशिश की जाती है।

जैसे कोई आदमी सोया हो, उसे जगाने के बहुत रास्ते हो सकते हैं। कोई उसका नाम लेकर जोर से पुकार सकता है; तो उठ आए। कोई उसका नाम लेकर न पुकारे, सिर्फ चिल्लाए कि मकान में आग लग गई है, और वह आदमी उठ आए। कोई मकान में आग लगने की बात भी न करे, सिर्फ संगीत बजाए, और वह आदमी उठ आए। कोई संगीत भी न बजाए, सिर्फ तेज रोशनी उसकी बंद आंखों पर डाले, और वह आदमी उठ आए। ऐसे योग के हजार रास्ते हैं, जिनसे भीतर सोई हुई कांशसनेस को, चेतना को चोट की जाती है। और उस चोट से वह जग आता है। एक-दो उदाहरण के लिए आपसे कहूं, क्योंकि वह तो बहुत-बहुत लंबी बात है।

जैसे ओम शब्द से हम परिचित हैं। वह भीतर सोए हुए आदमी को जगाने के लिए मंत्रयोग की विधि है। अगर कोई व्यक्ति जोर से ओम का नाद करे भीतर, तो उसकी नाभि के पास जोर से चोट होने लगती है। नाभि जीवन-ऊर्जा का केंद्र है। नाभि से ही बच्चा मां से जुड़ा होता है। नाभि के द्वारा ही मां से जीवन पाता है। फिर नाभि कटती है अलग, तो बच्चा अलग होता है। नया जीवन शुरू होता है।

कभी आपने खयाल शायद किया हो, न किया हो; साइकिल चला रहे हों, कार चला रहे हों, अगर एकदम से एक्सिडेंट होने की हालत हो जाए, तो सबसे पहले चोट नाभि पर पड़ती है। साइकिल पर चले जा रहे हैं; एकदम से कोई सामने आ गया, ब्रेक मारा। तो आपके शरीर में जो चोट पड़ेगी, वह नाभि पर पड़ेगी। एकदम से नाभि पर चोट पड़ जाएगी। खतरा आ गया! खतरे की हालत में जीवन-ऊर्जा को जगने का मौका आ जाता है।

ओम ऐसी ध्वनि है, जिसके माध्यम से भीतर से नाभि पर चोट की जाती है। आप ओम की गूंज करें भीतर, तो नाभि पर चोट पड़ने लगती है। हलकी-हलकी पड़ती है पहले, फिर तेज होती जाती है। फिर और तेज होती जाती है। फिर ओंकार का शब्द जाकर नाभि पर हथौड़े की तरह पड़ने लगता है, और वह सोई हुई जो चेतना है, उसे जगाता है।

अब यह बड़े मजे की बात है। ओम में अ, उ और म हैं। म आप जोर से कहें, तो नाभि पर फौरन कंपन होगा। इस्लाम के पास शब्द है, अल्लाह। सूफी फकीर ओम की तरह अल्लाह शब्द का प्रयोग करते हैं। अल्लाह, तो ह की चोट वहीं पड़ती है, जहां म की पड़ती है। अल्लाहू, तो हू की चोट ठीक वहीं पड़ती है नाभि पर, जहां ओम की पड़ती है। अब अल्लाह और ओम बिलकुल अलग-अलग शब्द हैं। लेकिन प्रयोजन एक है, और परिणाम एक है। अर्थ भी एक है। सूफी फकीर अल्लाह से शुरू करता है। अल्लाह, फिर लाह, फिर लाहू। और फिर हू ही रह जाता है। और हू की चोट नाभि पर पड़ती है। और नाभि पर सोया हुआ मालिक जगना शुरू होता है।

हजार विधियों से योग सोए हुए मालिक को जगाता है। और उस सोए हुए मालिक के जगते ही व्यक्तित्व में इंटीग्रेशन, योग पैदा हो जाता है। खंड इकट्ठे हो जाते हैं। बाजार समाप्त हो जाता है। पंक्तिबद्ध सैनिक खड़े हो जाते हैं। फिर व्यक्तित्व आज्ञा मानता है। बाजार की भीड़ में कोई आज्ञा नहीं मानता। मानने का कोई सवाल भी नहीं है। न कोई आज्ञा देने वाला होता है, न कोई मानने वाला होता है।

योगस्थ व्यक्ति अंतर-अनुशासन से भर जाता है, इनर डिसिप्लिन से भर जाता है। एक भीतरी अनुशासन पैदा हो जाता है। फिर वह जो करना चाहता है, वही करता है। जो नहीं करना चाहता है, नहीं करता है। और जैसे ही भीतर का व्यक्ति जागा कि अब तक मैंने जो बातें कहीं, उनसे जो परिणाम होता है, वही इससे भी हो जाता है।

स्वाध्याय से जो होता है, स्वधर्म से जो होता है, अंतर्वाणी से जो होता है, अहिंसादिक प्रयोग करने से जो चेतना जगती है, वही योग की विधियों से, मेथडॉलाजी से भी परिणाम हो जाता है।

इस परिणाम को योग के मार्ग से लाने की बहुत अनंत विधियां हैं। और एक-एक व्यक्ति को देखकर कि उसके लिए कौन-सी विधि सार्थक होगी, प्रयोग किया जाता है।

अब जिस व्यक्ति का नाद कमजोर है या जिस व्यक्ति को नाद का कोई बोध ही नहीं है…।

सब व्यक्तियों का नाद-बोध अलग है। आप रास्ते से गुजरें, जिसका नाद-बोध तीव्र है, उसे छोटे-से पक्षी की चहचहाहट भी सुनाई पड़ती है। आपका नाद-बोध तीव्र नहीं है, तो आपको कभी नहीं सुनाई पड़ती कि पक्षी भी चहचहा रहे हैं।

जिसका नाद-बोध तीव्र है, उसे मंत्रयोग से जगाने की कोशिश की जाती है। जिसका दृष्टि-बोध तीव्र है, उसे त्राटक, एकाग्रता के। अनंत-अनंत प्रयोग हैं, उनसे जगाने की कोशिश की जाती है। यह व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि उसका बोध कौन-सा सर्वाधिक तीव्र है। उसके तीव्र बोध के ही मार्ग से उसे गहरे ले जाया जा सकता है। जिनका रंग-बोध तीव्र है, उन्हें रंग के द्वारा भी मार्ग मिल सकता है। लेकिन यह व्यक्ति पर निर्भर करेगा।

कृष्ण कहते हैं, योग के द्वारा भी अर्जुन, योग-यज्ञ के द्वारा भी व्यक्ति परमसत्ता को उपलब्ध हो जाता है।

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।। 29।।

और दूसरे योगीजन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य योगीजन प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणायाम के परायण होते हैं।

योग का एक और आयाम इस सूत्र में कृष्ण कहते हैं।

मनुष्य के पास अस्तित्व से जुड़े होने के बहुत द्वार हैं; एक द्वार नहीं, अनंत द्वार हैं। हम परमात्मा से बहुत-बहुत भांति से जुड़े हुए हैं। जैसे एक वृक्ष एक ही जड़ से नहीं जुड़ा होता पृथ्वी से, बहुत जड़ों से जुड़ा होता है। ऐसे हम भी अस्तित्व से बहुत जड़ों से जुड़े हुए हैं, एक ही जड़ से नहीं। और इसलिए अस्तित्व तक पहुंचने के लिए किसी भी एक जड़ के सहारे हम प्रवेश कर सकते हैं।

अभी मैंने कहा कि जीवन-ऊर्जा नाभि पर इकट्ठी है; यह एक द्वार है। जीवन-ऊर्जा प्राण पर भी संचालित है; श्वास पर भी। श्वास चलती है, तो हम कहते हैं, व्यक्ति जीवित है। श्वास गई, तो हम कहते हैं, व्यक्ति भी गया। श्वास पर सब खेल है। श्वास से ही शरीर और आत्मा जुड़ी है। श्वास सेतु है। इसलिए श्वास पर भी प्रयोग करके योगीजन उस परम अनुभूति को उपलब्ध हो पाते हैं।

श्वास या प्राण, उसका अपना प्राणयोग है। इसके भी बहुत-बहुत रूप हैं। संक्षिप्त में, थोड़ा-सा सारभूत प्राणयोग के संबंध में दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।

एक तो, श्वास की गति मनोदशा से बंधी है। जैसा होता मन, वैसी हो जाती श्वास की गति। जैसी होती अंतर-स्थिति, श्वास के आंदोलन और तरंगें, वाइब्रेशंस, फ्रीक्वेंसीज बदल जाती हैं। श्वास की फ्रीक्वेंसी, श्वास की तरंगों का आघात खबर देता है, मन की दशा कैसी है।

अभी तो मेडिकल साइंस उसकी फिक्र नहीं कर पाई, क्योंकि अभी मेडिकल साइंस शरीर के पार नहीं हो पाई है! इसलिए अभी प्राण पर उसकी पहचान नहीं हो पाई। लेकिन जैसे मेडिकल साइंस खून की गति को नापती है; रक्तचाप को, ब्लडप्रेशर को, खून के दबाव को नापती है। जब तक पता नहीं था, तब तक कोई खून के दबाव का सवाल नहीं था। रक्तचाप नई खोज है। रक्त का परिभ्रमण भी नई खोज है।

तीन सौ साल पहले किसी को पता नहीं था कि शरीर में खून चलता है। खयाल था कि भरा हुआ है। चलता है, ऐसा खयाल नहीं था, भरा हुआ है। जैसे बाल्टी में पानी भरा हुआ है, ऐसा आदमी में खून भरा हुआ है। उसमें परिभ्रमण हो रहा है, चल रहा है, इसका पता नहीं था। पता होता भी कैसे? क्योंकि हमें भीतर तो पता चलता नहीं कि खून चल रहा है।

खून के चलने का पता तीन सौ साल पहले ही लग पाया। और जब खून के चलने का पता लगा, तो यह भी पता लगा धीरे-धीरे कि खून का जो चाप है, जो प्रेशर है, वह व्यक्ति के स्वास्थ्य के गहरे अंगों से जुड़ा हुआ है। इसलिए ब्लडप्रेशर चिकित्सक के लिए नापने की खास चीज हो गई।

लेकिन अभी तक भी हम यह नहीं जान पाए कि जैसे ब्लडप्रेशर है, वैसा ब्रेथप्रेशर भी है, वैसा ही वायुचाप भी है। वैसे वायु का अधिक दबाव और कम दबाव, वायु की गति और तरंगों का आघात-भेद, व्यक्ति की अंतर मनोदशा को परिवर्तित करता है। वह उसकी जीवन-ऊर्जा से संबंधित है। थोड़ी-सी बातें आपको कहूं, तो खयाल में आ जाएगा।

जब आप क्रोध में होते हैं, तो आप खयाल करना, आपकी श्वास की गति बदल जाती है। वैसी ही नहीं रह जाती, जैसी साधारण होती है। क्यों? क्रोध में श्वास की गति बदलने की क्या जरूरत है? इसका मतलब यह भी कि अगर आप श्वास की गति पर काबू पा लें, तो आप फिर क्रोध पर काबू पा सकते हैं। अगर न बदलने दें श्वास की गति, तो क्रोध आना मुश्किल हो जाएगा।

इसलिए जापान में वे बच्चों को घरों में सिखाते हैं। वह प्राणयोग का ही एक सूत्र है। वे बच्चों को यह नहीं कहते कि तुम क्रोध मत करो। और मैं मानता हूं कि जापानी इस मामले में सर्वाधिक होशियार हैं और सबसे कम क्रोध करते हैं। सबसे ज्यादा मुस्कुराती कौम हैं। और राज प्राणयोग का एक सूत्र है।

मां-बाप बच्चों को परंपरा से घर में यह सिखाते हैं कि जब क्रोध आए, तब तुम श्वास को आहिस्ता लो, धीमे-धीमे लो। गहरी लो और धीमे लो। स्लोली एंड डीप, धीमे और गहरी। बच्चों को वे यह नहीं कहते कि क्रोध मत करो, जैसा कि हम कहते हैं।

सारी दुनिया कहती है, क्रोध मत करो। क्रोध न करना, हाथ की बात नहीं है इतनी कि आपने कह दिया और बच्चा न करे। और मजा तो यह है कि जो बाप बच्चे को कह रहा है, क्रोध मत करो, अगर बच्चा न माने तो बाप ही क्रोध करके बता देता है कि नहीं मानता! इतना कहा कि क्रोध मत कर! वह भूल ही जाता है कि अब हम खुद ही वही कर रहे हैं, जो हम उसको मना किए थे।

क्रोध इतना हाथ में नहीं है, जितना लोग समझते हैं कि क्रोध मत करो। क्रोध इतना वालंटरी नहीं है, नान वालंटरी है। इतना स्वेच्छा में नहीं है, जितना लोग समझते हैं। इसलिए शिक्षा चलती रहती है; कुछ अंतर नहीं पड़ता है!

जापान ज्यादा ठीक समझा। योग का पुराना सूत्र, बुद्ध के द्वारा जापान पहुंचा। बुद्ध ने श्वास पर बहुत जोर दिया। बुद्ध का सारा योग, कृष्ण जो इस सूत्र में कह रहे हैं, प्राणयोग है।

इसलिए बुद्ध के सूत्र की गहरी बात अनापानसती योग कही जाती है। आती-जाती श्वास को देखना ही योग है, बुद्ध ने कहा। अगर कोई आती-जाती श्वास के राज को पूरा समझ ले, तो फिर उसको दुनिया में और कुछ करने को नहीं रह जाता। इसलिए बुद्ध तो कहते हैं, अनापानसती योग सध गया कि सब सध गया। बात ठीक कहते हैं। उधर से भी सब सध जा सकता है।

क्रोध आता है, तब आप देखें कि श्वास बदल जाती है। जब आप शांत होते हैं, तब श्वास बदल जाती है, रिदमिक हो जाती है। आप आरामकुर्सी पर भी लेटे हैं, शांत हैं, मौज में हैं, चित्त प्रसन्न है, पक्षियों जैसा हलका है, हवाओं जैसा ताजा है, आलोकित है। तब देखें, श्वास ऐसी हो जाती है, जैसे हो ही नहीं। पता ही नहीं चलता। बहुत हलकी हो जाती है; न के बराबर हो जाती है।

देखें, जब कामवासना मन को पकड़ती है, सेक्स मन को पकड़ता है, तो श्वास कैसी हो जाती है? श्वास एकदम अस्तव्यस्त हो जाती है। रक्तचाप बढ़ जाता है, जब कामवासना मन में आंदोलित होती है। रक्तचाप बढ़ जाता है; शरीर पसीना छोड़ने लगता है, श्वास तेज हो जाती है और अस्तव्यस्त हो जाती है, टूट-फूट जाती है।

प्रत्येक समय भीतर की स्थिति के साथ श्वास जुड़ी है। अगर कोई श्वास में बदलाहट करे, तो भीतर की स्थिति में बदलाहट की सुविधा पैदा करता है, और भीतर की स्थिति पर नियंत्रण लाने का पहला पत्थर रखता है।

प्राणयोग का इतना ही अर्थ है कि श्वास बहुत गहरे तक प्रवेश किए हुए है, वह हमारी आत्मा को भी छूती है। एक तरफ शरीर को स्पर्श करती है, दूसरी तरफ आत्मा को स्पर्श करती है। एक तरफ जगत को छूती है बाहर, और दूसरी तरफ भीतर ब्रह्म को भी छूती है। श्वास दोनों के बीच आदान-प्रदान है–पूरे समय, सोते-जागते, उठते-बैठते। इस आदान-प्रदान में श्वास का रूपांतरण प्राणयोग है, ट्रांसफार्मेशन आफ दि ब्रीदिंग प्रोसेस। वह जो प्रक्रिया है हमारे श्वास की, उसको बदलना। और उसको बदलने के द्वारा भी व्यक्ति परमसत्ता को उपलब्ध हो सकता है।

जो लोग भी ध्यान का कभी थोड़ा अनुभव किए हैं, उनको पता है। मेरे पास निरंतर लोग ध्यान के प्रयोग के बाद आते हैं। जो गहरा प्रयोग करते हैं, वे कहते हैं कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि श्वास बंद हो गई, चलती ही नहीं! तो हम बहुत घबड़ा जाते हैं कि इससे कुछ खतरा तो न हो जाएगा।

घबड़ाने की जरा भी जरूरत नहीं है। घबड़ाएं तब, जब श्वास बहुत जोर से चले, अस्तव्यस्त, तब घबड़ाएं। जब बिलकुल लगे कि ठहर गई, जब लगे कि श्वास का कंपन ही नहीं है, तब आप उस बैलेंस को, उस संतुलन को उपलब्ध होते हैं, जिसकी कृष्ण चर्चा कर रहे हैं। तब ऊपर की श्वास ऊपर और नीच की नीचे रह जाती है। बाहर की बाहर और भीतर की भीतर रह जाती है। और एक क्षण के लिए ठहराव आ जाता है। सब ठहर जाता है। न तो बाहर की श्वास भीतर जाती, न भीतर की श्वास बाहर आती। न ऊपर की श्वास ऊपर जाती, न नीचे की श्वास नीचे जाती। सब ठहर जाता है।

श्वास के इस ठहराव के क्षण में परम अनुभव की किरण उत्पन्न होती है। श्वास के इस पूरे ठहर जाने में अस्तित्व पूरा संतुलित हो जाता है, संयम को उपलब्ध हो जाता है। फिर कोई मूवमेंट नहीं, आंदोलन नहीं। फिर कोई परिवर्तन नहीं। फिर कोई हेर-फेर नहीं, बदलाहट नहीं, कोई गति नहीं। उस क्षण में आदमी परमगति में उतर जाता है या शाश्वत में डूब जाता है या इटरनल, सनातन से संपर्क साध लेता है।

श्वास का आंदोलन हमारा परिवर्तनशील जगत से संबंध है। श्वास का आंदोलनरहित हो जाना, हमारा अपरिवर्तनशील नित्य जगत से संबंधित हो जाना है।

इसलिए श्वास का यह ठहर जाना बड़ी अदभुत अनुभूति है। कोशिश करके ठहराने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि कोशिश करके कभी नहीं ठहरा सकते। अगर आप कोशिश करके ठहराएंगे, तो भीतर की श्वास बाहर जाना चाहेगी, बाहर की श्वास भीतर जाना चाहेगी।

कोशिश करके कोई व्यक्ति श्वास को रोक नहीं सकता। हां, श्वास को आहिस्ता-आहिस्ता प्रशिक्षित किया जा सकता है, रिदमिक किया जा सकता है, तैयार किया जा सकता है लयबद्धता के लिए। और साथ में अगर कोई ध्यान में गहरा उतरता चला जाए, प्राणायाम के साथ-साथ ध्यान में गहरा उतरता चला जाए, तो एक क्षण ऐसा आ जाता है कि प्रशिक्षित श्वास और ध्यान की शांत स्थिति का कभी मेल, टयूनिंग हो जाती, तो श्वास ठहर जाती है।

और भी एक मजे की बात कि जब श्वास ठहरती है, तब तत्काल विचार ठहर जाते हैं। बिना श्वास के विचार नहीं चल सकते। इसे जरा देखें, कभी ऐसे ही एक सेकेंड को श्वास को ठहराकर। अभी यहीं एक सेकेंड श्वास ठहराएं। इधर श्वास ठहरी, भीतर विचार ठहरे, एकदम ब्रेक! श्वास बिलकुल ब्रेक का काम करती है विचार पर।

लेकिन जब आप ठहराते हैं, तब ज्यादा देर नहीं ठहर सकती। श्वास भी निकलना चाहेगी और विचार भी हमला करना चाहेंगे। क्षणभर को ही गैप आएगा। लेकिन जब श्वास, प्रशिक्षित श्वास ध्यान के संयोग से अपने आप ठहर जाती है, तो कभी-कभी घंटों ठहरी रहती है।

रामकृष्ण के जीवन में ऐसे बहुत मौके हैं। कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि वह छः-छः दिन तक ऐसे पड़े रहते कि जैसे मर गए! प्रियजन घबड़ा जाते, मित्र घबड़ा जाते, कि अब क्या होगा, क्या नहीं होगा! सब ठहर जाता। उस ठहरे हुए क्षण में, इन दैट स्टिल मोमेंट, उस ठहरे हुए क्षण में, चेतना समय के बाहर चली जाती, कालातीत हो जाती।

विचार के बाहर हुए, निर्विचार में गए, ब्रह्म के द्वार पर खड़े हैं। विचार में आए, विचार में पड़े, कि संसार के बीच आ गए हैं। संसार और मोक्ष के बीच पतली-सी विचार की पर्त के अतिरिक्त और कोई फासला नहीं है। पदार्थ और परमात्मा के बीच पतले, झीने विचार के पर्दे के अतिरिक्त और कोई पर्दा नहीं है। लेकिन यह विचार का पर्दा कैसे जाए?

दो तरह से जा सकता है। या तो कोई सीधा विचार पर प्रयोग करे ध्यान का, साक्षी-भाव का, तो विचार चला जाता है। जिस दिन विचार शून्य होता है, उसी दिन श्वास भी शांत होकर खड़ी रह जाती है। या फिर कोई प्राणयोग का प्रयोग करे, श्वास का। श्वास को गति दे, व्यवस्था दे, प्रशिक्षण दे; और ऐसी जगह ले आए, जहां श्वास अपने आप ठहर जाती है–बाहर की बाहर, भीतर की भीतर, ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे। और बीच में गैप, अंतराल आ जाता है; खाली, वैक्यूम हो जाता है, जहां श्वास नहीं होती। वहीं से छलांग, दि जंप। उसी अंतराल में छलांग लग जाती है परमसत्ता की ओर।

प्रश्न:

भगवान श्री, प्राण क्या है और अपान क्या है? अपान में प्राण का हवन क्या है और प्राण में अपान का हवन क्या है? इसे फिर से स्पष्ट करें।

जो हमारे भीतर है, वह भी बाहर का हिस्सा है। अभी मेरे भीतर एक श्वास है। थोड़ी देर पहले आपके पास थी, आपकी थी। और थोड़ी देर पहले किसी वृक्ष के पास थी, वृक्ष की थी। और थोड़ी देर पहले कहीं और थी। अभी मेरे भीतर है। मैं कह भी नहीं पाया कि मेरे भीतर है, कि गई बाहर।

जो हमारे भीतर है, उसको अगर हम बाहर के प्राण-जगत में समर्पित कर दें, जानें कि वह भी दे दी बाहर को, तो भीतर कुछ बच नहीं रह जाता। सब शून्य हो जाता है। एक समर्पण यह है। भीतर की श्वास को, वह जो बाहर विराट प्राण का जाल फैला है वायुमंडल में, उसमें समर्पित कर दें, उसमें होम दे दें, उसमें चढ़ा दें। या इससे उलटा भी कर सकते हैं। वह जो बाहर का सारा प्राण-जगत है, वह भी तो मेरे भीतर का ही हिस्सा है बाहर फैला हुआ। अगर हम उस बाहर के प्राण-जगत को इस भीतर के प्राण-जगत को समर्पित कर दें, तो भी एक ही घटना घट जाती है। बूंद सागर में गिर जाए, कि सागर बूंद में गिर जाए।

बूंद का सागर में गिरना तो हमारी समझ में आता है, क्योंकि हमने सागर में बूंद को गिरते देखा है। सागर का बूंद में गिरना हमारी समझ में नहीं आता। लेकिन अगर आइंस्टीन के संबंध में कुछ भी खयाल हो, तो समझ आ में सकता है।

जब एक बूंद सागर में गिरती है, तो यह बिलकुल रिलेटिव बात है, यह बिलकुल सापेक्ष बात है। आप चाहें तो कह सकते हैं कि बूंद सागर में गिरी; और आप चाहें तो कह सकते हैं कि सागर बूंद में गिरा। आप कहेंगे, कैसी बात है यह!

मैं पूना आया। तो मैं कहता हूं, मैं पूना आया, ट्रेन बंबई से मुझे पूना तक लाई। आइंस्टीन कहते हैं कि यह सापेक्ष है, यह कामचलाऊ बात है। इससे उलटा भी कह सकते हैं कि ट्रेन मेरे पास पूना को लाई। ऐसा भी कह सकते हैं कि ट्रेन मुझे पूना तक लाई; ऐसा भी कह सकते हैं कि ट्रेन पूना को मुझ तक लाई। इन दोनों में कोई बहुत फर्क नहीं है।

लेकिन हम छोटे-छोटे हैं, तो ऐसा कहना अजीब-सा लगेगा कि ट्रेन पूना को मुझ तक लाई; यही कहना ठीक मालूम पड़ता है कि मुझे ट्रेन पूना तक लाई। लेकिन दोनों बातें कही जा सकती हैं। कोई अंतर नहीं है। ट्रेन जो काम कर रही है, वे दोनों ही बातें कही जा सकती हैं।

तो या तो हम भीतर के प्राण को बहिप्र्राण पर समर्पित कर दें, बूंद को सागर में गिरा दें। या हम सागर को बूंद में गिरा लें, या हम बाहर के समस्त प्राण को भीतर गिरा लें। दोनों ही तरह हवन पूरा हो जाता है। दोनों ही तरह यज्ञ पूरा हो जाता है।

इसे कैसे गिराया जाए, वह मैंने जानकर छोड़ दिया। जानकर छोड़ा इसीलिए कि वह सब योग की बहुत सूक्ष्म प्रक्रियाएं हैं, जिनका सीधा कोई प्रयोजन नहीं है। वह तो पतंजलि के योग-शास्त्र पर बात हो, तभी विस्तार से उनकी बात हो सकती है।

एक आखिरी श्लोक और ले लें।

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।। 30।।

और दूसरे नियमित आहार करने वाले योगीजन प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं। इस प्रकार यज्ञों द्वारा नाश हो गया है पाप जिनका, ऐसे ये सब ही पुरुष यज्ञों को जानने वाले हैं।

इसमें भी योग की दूसरी और प्रक्रिया का उल्लेख कृष्ण ने किया। वे प्रत्येक प्रक्रिया का उल्लेख करते जा रहे हैं। अर्जुन को जो भा जाए, जो प्रीतिकर लगे, जो रुचिकर बने। अर्जुन के टाइप को जो अनुकूल पड़ जाए।

इसमें वे कहते हैं, नियमित, संयमित आहार करने वाले पुरुष प्राण को प्राण में ही होम करते हैं। नियमित, संयमित आहार!

अब यह आहार बड़ा शब्द है और बड़ी घटना है। साधारणतः हम सोचते हैं कि भोजन आहार है। साधारणतः ठीक सोचते हैं। लेकिन आहार के और व्यापक अर्थ हैं।

आहार का मूल अर्थ होता है, जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। आहार का अर्थ होता है, जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। भोजन एक आहार है; आहार ही नहीं, सिर्फ एक आहार। क्योंकि भोजन को हम बाहर से भीतर लेते हैं। लेकिन आंख से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है। कान से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है। स्पर्श से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है।

शरीर के भीतर जो भी हम बाहर से लेते हैं, वह सब आहार है। जो भी हम रिसीव करते हैं बाहर से, जिसके हम ग्राहक हैं, जिसे भी हम बाहर से भीतर ले जाते हैं, वह सब आहार है।

संयमित, नियमित आहार का मतलब हुआ, जो व्यक्ति अपने इंद्रियों के द्वार से उसे ही भीतर ले जाता–उसे ही भीतर ले जाता–जो प्राणों को प्राणों में समर्पित होने में सहयोगी है। हम इस तरह की चीजें भी भीतर ले जा सकते हैं, जो प्राणों को प्राणों में समाहित न होने दें, बल्कि प्राणों को उद्वेलित करें, उत्तेजित करें, विक्षिप्त करें।

दो तरह के आहार हो सकते हैं। ऐसा आहार, जो प्राणों को उत्तेजित करे–शांत नहीं, मौन नहीं, निस्पंद नहीं–आंदोलित करे, पागल बनाए, दौड़ाए। और जब प्राण दौड़ते हैं, तो फिर बाहर की तरफ, विषयों की तरफ दौड़ जाते हैं। और जब प्राण नहीं दौड़ते, ठहरते हैं, विश्राम करते हैं, विराम करते हैं, तो फिर प्राण महाप्राण में लीन हो जाते हैं। जैसे लहर जब दौड़ती है, तो सागर में लीन नहीं होती; वायुमंडल की तरफ छलांगें भरती है; आकाश की तरफ हवाओं में टक्कर लेती है, उछलती है, चट्टानों से किनारे की टकराती है, टूटती है। लेकिन जब लहर शांत होती है, तो लहर सागर में लीन हो जाती है।

आहार दो तरह के हो सकते हैं। प्राणों को उत्तेजित करें। हम ऐसे ही आहार लेते हैं, जो उत्तेजित करें। एक आदमी शराब पी लेता है, तो फिर प्राण प्राण में लीन नहीं हो पाएंगे। फिर तो प्राण पागल होकर पदार्थ के लिए दौड़ने लगेंगे–किसी और के लिए, बाहर, हवाओं में कूदने लगेंगे, तो किनारों की चट्टानों से टकराने लगेंगे।

शराब उत्तेजक है। लेकिन शराब अकेली उत्तेजक नहीं है। जब कोई आंख से गलत चीज देखता है, तो भी उतनी ही उत्तेजना आ जाती है।

अब एक आदमी बैठा हुआ है तीन घंटे तक, नाटक देख रहा है, फिल्म देख रहा है। और इस तरह का आहार कर रहा है जो उत्तेजना ले आएगा भीतर; जो चित्त को चंचल करेगा, भगाएगा, दौड़ाएगा; रातभर सो नहीं सकेगा; सपने में भी मन वहीं नाटय-गृह में घूमता रहेगा। आंख बंद करेगा और वे ही दृश्य दिखाई पड़ने लगेंगे, वे ही छवियां पकड़ लेंगी। अब वह दौड़ा। अब वह बेचैन हुआ। अब वह परेशान हुआ।

अभी अमेरिका के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब जब तक अमेरिका में फिल्म-टेलीविजन हैं, तब तक कोई पुरुष किसी स्त्री से तृप्त नहीं होगा और कोई स्त्री किसी पुरुष से तृप्त नहीं होगी। क्यों? क्योंकि टेलीविजन ने और सिनेमा के पर्दे ने स्त्रियों और पुरुषों की ऐसी प्रतिमाएं लोगों को दिखा दीं, जैसी प्रतिमाएं यथार्थ में कहीं भी मिल नहीं सकतीं; झूठी हैं, बनावटी हैं। फिर यथार्थ में जो पुरुष और स्त्री मिलेंगे, वे बहुत फीके-फीके मालूम पड़ते हैं। कहां तस्वीर फिल्म के पर्दे पर, कहां अभिनेत्री फिल्म के पर्दे पर और कहां पत्नी घर की! घर की पत्नी एकदम फीकी-फीकी, एकदम व्यर्थ-व्यर्थ, जिसमें नमक बिलकुल नहीं, बेरौनक, साल्टलेस मालूम पड़ने लगती है। स्वाद ही नहीं मालूम पड़ता। पुरुष में भी नहीं मालूम पड़ता।

फिर दौड़ शुरू होती है। अब उस स्त्री की तलाश शुरू होती है, जो पर्दे पर दिखाई पड़ी। वह कहीं नहीं है। वह पर्दे वाली स्त्री भी जिसकी पत्नी है, वह भी इसी परेशानी में पड़ा है। इसलिए वह कहीं नहीं है। क्योंकि घर पर वह स्त्री साधारण स्त्री है। पर्दे पर जो स्त्री दिखाई पड़ रही है, वह मैन्यूवर्ड है, वह तरकीब से प्रस्तुत की गई है, वह प्रेजेंटेड है ढंग से। सारी टेक्नीक, टेक्नोलाजी से, सारी आधुनिक व्यवस्था से–कैमरे, फोटोग्राफी, रंग, सज्जा, सजावट, मेकअप–सारी व्यवस्था से वह पेश की गई है। उस पेश स्त्री को कहीं भी खोजना मुश्किल है। वह कहीं भी नहीं है। वह धोखा है।

लेकिन वह धोखा मन को आंदोलित कर गया। आहार हो गया। उस स्त्री का आहार हो गया भीतर। अब उस स्त्री की तलाश शुरू हो गई; अब वह कहीं मिलती नहीं। और जो भी स्त्री मिलती है, वह सदा उसकी तुलना में फीकी और गलत साबित होती है। अब यह चित्त कहीं भी ठहरेगा नहीं। अब इस चित्त की कठिनाई हुई। यह सारी की सारी कठिनाई बहुत गहरे में गलत आहार से पैदा हो रही है।

रास्ते पर आप निकलते हैं, कुछ भी पढ़ते चले जाते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि आंखें भोजन ले रही हैं। कुछ भी पढ़ रहे हैं! रास्ते भर के पोस्टर लोग पढ़ते चले जाते हैं। किसने आपको इसके लिए पैसा दिया है! काहे मेहनत कर रहे हैं? रास्ते भर के दीवाल-दरवाजे रंगे-पुते हैं; सब पढ़ते चले जा रहे हैं। यह कचरा भीतर चला जा रहा है। अब यह कचरा भीतर से उपद्रव खड़े करेगा।

अखबार उठाया, तो एक कोने से लेकर ठीक आखिरी कोने तक, कि किसने संपादित किया और किसने प्रकाशित किया, वहां तक पढ़ते चले जाते हैं! और एक दफे में भी मन नहीं भरता। फिर दुबारा देख रहे हैं, बड़ी छानबीन कर रहे हैं। बड़ा शास्त्रीय अध्ययन कर रहे हैं अखबार का! कचरा दिमाग में भर रहे हैं। फिर वह कचरा भीतर बेचैनी करेगा। घास खाकर देखें, कंकड़-पत्थर खाकर देखें, तब पता चलेगा कि पेट में कैसी तकलीफ होती है। वैसी खोपड़ी में भी तकलीफ हो जाती है। लेकिन वह, हम सोचते हैं, आहार नहीं है; वह तो हम पढ़ रहे हैं; ऐसी ही, खाली बैठे हैं। खाली बैठे हैं, तब कंकड़-पत्थर नहीं खाते!

नहीं; हमें खयाल नहीं है कि वह भी आहार है। बहुत सूक्ष्म आहार है। कान कुछ भी सुन रहे हैं। बैठे हैं, तो रेडिओ खोला हुआ है! कुछ भी सुन रहे हैं! वह चला जा रहा है दिमाग के भीतर। दिमाग पूरे वक्त तरंगों को आत्मसात कर रहा है। वे तरंगें दिमाग के सेल्स में बैठती जा रही हैं। आहार हो रहा है।

और एक बार भोजन इतना नुकसान न पहुंचाए, क्योंकि भोजन के लिए परगेटिव्स उपलब्ध हैं। अभी तक मस्तिष्क के लिए परगेटिव्स उपलब्ध नहीं हैं। अभी तक मस्तिष्क में जब कब्ज पैदा हो जाए, और अधिक मस्तिष्क में कब्ज है–कांस्टिपेशन दिमागी–और उसके परगेटिव्स हैं नहीं कहीं। तो बस, खोपड़ी में कब्ज पकड़ता जाता है। सड़ जाता है सब भीतर। और किसी को होश नहीं है।

संयमी या नियमी आहार वाले व्यक्ति से कृष्ण का मतलब है, ऐसा व्यक्ति, जो अपने भीतर एक-एक चीज जांच-पड़ताल से ले जाता है; जिसने अपने हर इंद्रिय के द्वार पर पहरेदार बिठा रखा है विवेक का, कि क्या भीतर जाए। उसी को भीतर ले जाऊंगा, जो उत्तेजक नहीं है। उसी को भीतर ले जाऊंगा, जो शामक है। उसी को भीतर ले जाऊंगा, जो भीतर चित्त को मौन में, गहन सन्नाटे में, शांति में, विराम में, विश्राम में डुबाता है; जो भीतर चित्त को स्वस्थ करता है, जो भीतर चित्त को संगीतबद्ध करता है, जो भीतर चित्त को प्रफुल्लित करता है।

ऐसा व्यक्ति भी, अगर कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से संयमी हो आहार की दृष्टि से, समस्त आहार की दृष्टि से–छुए भी वही, क्योंकि छूना भी भीतर जा रहा है; देखे भी वही, सुने भी वही, चखे भी वही, गंध भी उसकी ले–सब इंद्रियों से उसे ही भीतर ले जाए, जो आत्मा के लिए शांति का मार्ग है, तो ऐसा व्यक्ति भी उस परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है। इस योग से भी, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन! वहां पहुंचा जा सकता है।

ऐसा वह एक-एक कदम, एक-एक विधि की अर्जुन से बात कर रहे हैं। मैं भी आपसे एक-एक विधि की बात कर रहा हूं। किसी को कोई विधि जम जाए, किसी को कोई विधि खयाल में आ जाए, कहीं चोट हो जाए, किसी को कुछ ठीक पड़ जाए, और उसकी जिंदगी में रूपांतरण हो जाए!

तो किसी भी विधि से, किसी भी बहाने से और किसी भी निमित्त से व्यक्ति परमात्मा तक पहुंच सकता है। सिर्फ वे ही नहीं पहुंचते, जो कभी पहुंचने की कोशिश ही नहीं करते किसी भी विधि से। गलत विधि से भी कोई चले उसकी तरफ, तो भी पहुंच सकता है; क्योंकि गलत विधि से चलने वाला थोड़ी देर में गलत को ठीक कर लेता है। गलत पर ज्यादा देर तक नहीं चला जा सकता।

लेकिन न चलने वाले के तो पहुंचने का कोई उपाय ही नहीं होता। वह गलत पर भी नहीं चलता। वह बैठा ही रह जाता है। वह बैठा देखता रहता है। जिंदगी सामने से बहती चली जाती है, वह बैठा देखता रहता है।

कबीर ने कहा है, मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ–मैं पागल खोजने गई और किनारे बैठ गई! जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ–खोजा तो उन्होंने, जो गहरे पानी में डूबे हैं।

किनारे क्यों बैठ जाता है कोई? यह कबीर ने मजाक की है हमारे बाबत। कबीर तो गहरे पानी डूबे। हमारे बाबत मजाक की है कि किनारे पर बैठे हैं!

किनारे पर कौन बैठ जाता है? किनारे पर वही बैठ जाता है, जो सोचता है, कोई भूल-चूक न हो जाए। पता नहीं, करेंगे तो परिणाम आएगा कि नहीं आएगा? पता नहीं, परिणाम होता भी है या नहीं होता? पता नहीं, जो कहा जा रहा है, वह कभी हुआ भी है? कभी होगा भी? ऐसा ही सोच-विचार करता जो बैठा रहता है किनारे पर…।

बड़ा मजा है कि वह यह कभी नहीं सोचता कि किनारे पर बैठे-बैठे क्या हो जाएगा! गहरे पानी पैठने वाले कहते हैं कि मिला उन्हें। एक अवसर उनको भी परीक्षा का देना चाहिए। और किसी भी विधि और किसी भी तट से कूदकर देखना चाहिए। बैठे-बैठे तो किसी ने भी नहीं कहा कि मिल गया–किनारे पर बैठे-बैठे। कुछ भी नहीं मिला। सिर्फ जीवन हाथ से खो जाता है।

कृष्ण एक-एक बात कर रहे हैं कि कोई बात मेल खा जाए अर्जुन को और वह छलांग के लिए तैयार हो जाए।

आपसे भी कहता हूं, कोई बात मेल खा जाए, तो किनारे मत बैठे रहें, छलांग लगाएं, खोज पर निकलें। जो खोज पर निकलता है, वह जरूर एक दिन पहुंच जाता है। गलत भी कूदे, तो भी पहुंच जाता है। क्योंकि गलत कूदने वाले की आकांक्षा तो कम से कम सही होती ही है, पहुंचने की। गलत विधि का उपयोग करे, तो भी पहुंच जाता है। क्योंकि गलत विधि वाले की भी प्यास तो होती है, पाने की ही।

और जो प्रभु को पाने को प्यासा है, वह गलत से भी पा लेता है। और जो प्रभु को पाने का प्यासा नहीं है, उसके सामने ठीक विधि भी पड़ी रहे, तो वह कुछ भी नहीं पाता है।

अब संन्यासी हमारे भजन-कीर्तन में लगेंगे। आप भी–जो मित्र हिम्मत करें–कूदें। किनारे मत खड़े रहें, सम्मिलित हों। और जो देखना चाहें, वे देखें। देखने से भी तरंग पकड़ती है। दस मिनट इस कीर्तन में सम्मिलित होकर फिर विदा हों। यहां थोड़ी जगह बना लेंगे, थोड़े पीछे हट जाएं।

आज इतना ही


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–4) प्रवचन–11

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आलसी शिरोमणि—प्रवचन—ग्‍यारहवां

6 दिसंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

बड़ी जहमतें उठायीं तेरी बंदगी के पीछे मेरी हर खुशी मिटी है तेरी हर खुशी के पीछे मैं कहा—कहा न भटका तेरी बकी के पीछे! अब आगे मैं क्या करूं, यह बताने की अनकंपा करें।

करने में भटकन है। फिर पूछते हो, आगे क्या करूं! तो मतलब हुआ : अभी भटकने से मन भरा नहीं। करना ही भटकाव है। साक्षी बनो, कर्ता न रहो।….. .तो फिर मेरे पास आ कर भी कहीं पहुंचे नहीं। फिर भटकोगे। किया कि भटके। करने में भटकन है। कर्ता होने में भटकन है। लेकिन मन बिना किये नहीं मानता। वह कहता है, अब कुछ बतायें, क्या करें?

न करो तो सब हो जाये। करने की जिद्द किये बैठे हो। कर—कर के हारे नहीं? कर—कर के क्या कर लिया है? इतना तो किया, जन्मों—जन्मों किया—परिणाम क्या है? लेकिन मन यही कहे चला जाता है कि शायद अभी तक ठीक से नहीं किया, अब ठीक से कर लें तो सब हो जाये। मन वहीं धोखा देता है।

मैंने सुना, जूतों की एक दूकान पर एक ग्राहक ने जूते की जोड़ी पसंद करके कीमत पूछी। तो मुल्ला नसरुद्दीन, जो वहा सेल्समैन का काम करता है, उसने दाम बतलाये—चालीस रुपया। ग्राहक ने कहा, मेरे पास दस रुपये कम हैं, बाद में दे जाऊंगा। तो नसरुद्दीन ने कहा, मालिक से कह दें, वे मान लें तो ठीक है। ग्राहक ने मालिक के पास जा कर निवेदन किया। मालिक ‘ना’ कहने जा ही रहा था कि नसरुद्दीन ने जूते की जोड़ी डब्बे में बाध कर ग्राहक को देते हुए कहा मालिक से : ‘दे दीजिये साहब, ये दस रुपया दे जायेंगे। भरोसा रखिये।’ जब ग्राहक जूता ले कर चला गया और मालिक ने पूछा, क्या तुम उसे जानते हो नसरुद्दीन? नसरुद्दीन ने कहा : ‘जानता तो नहीं, पहले कभी देखा भी नहीं। इस गाव में भी रहता है, इसका भी कुछ पक्का नहीं। लेकिन इतना जानता हूं कि वह वापिस आयेगा, दस रुपये लेकर जरूर वापिस आयेगा, आप घबड़ाये मत। क्योंकि मैंने दोनों जूते एक ही पैर के बांध दिये हैं।’

अब लाख उपाय करो, एक ही पैर के दो जूते बैठेंगे नहीं। परमात्मा ने तुम्हें जब इस संसार में भेजा है, तो एक ही पैर के दो जूते बांध दिये हैं, ताकि तुम संसार में भटक न जाओ और लौट आओ। संसार एक प्रशिक्षण है। यहां जागना सीखना है। कर—कर के इसीलिए तो कुछ परिणाम नहीं होता। कर—कर के हार ही हाथ लगती है। कर—कर के टूटते हो, पराजित होते हो। करने का फैलाव संसार है। और जो जागने लगा इस फैलाव में, उसका धर्म में प्रवेश हुआ। और जो जाग गया, वह परमात्मा के घर वापिस लौट गया।

तुम कहते हो : ‘बड़ी जहमतें उठायीं तेरी बंदगी के पीछे!’

इसमें थोड़ी भ्रांति है। तुमने बंदगी के पीछे जहमतें नहीं उठायीं। तुम जहमतें उठाना चाहते थे इसलिए उठायीं। जहमतें उठाने में अहंकार को तृप्ति है। तुमने कष्ट झेले—प्रार्थना के लिए नहीं। क्योंकि प्रार्थना के लिए तो जरा—सा भी कष्ट झेलने की जरूरत नहीं है। प्रार्थना में तो कांटा है ही नहीं, प्रार्थना तो फूल है। प्रार्थना तो कमल जैसी कोमल है। जहमतें! प्रार्थना में! तो फिर स्वर्ग कहां होगा? फिर सुख कहां होगा? फिर आनंद कहां होगा?

नहीं, ये बदगी के कष्ट नहीं हैं जो तुमने झेले। तुमने बंदगी के नाम से झेले हों, यह हो सकता है; लेकिन ये कष्ट अहंकार के ही हैं। तुमने परमात्मा को खोजने में तकलीफ पायी, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। परमात्मा को खोजने में कोई कैसे तकलीफ पायेगा! तुम खोजने में तकलीफ पाये। कोई धन खोजने में पा रहा है, कोई पद खोजने में पा रहा है, तुमने परमात्मा खोजने में पायी। तुम्हारे खोजने के अलग—अलग बहाने हैं, मगर खोजने का जो मजा है, जो अहंकार की तृप्ति है, उसके कारण तुमने जहमत उठायी।

‘मेरी हर खुशी मिटी है तेरी हर खुशी के पीछे।’

उसकी खुशी का तो तुम्हें पता नहीं और तुम्हारे पास कभी खुशी थी जो मिटा दोगे? खुशी ही होती तो कौन परेज्ञान होता परमात्मा को खोजने के लिए! तुमने सुखी आदमी को परमात्मा की याद भी करते देखा? मैं गवाह हूं मैं कभी याद नहीं करता। याद किसलिए करनी है? दुख….. दुख में ही तुम याद करते हो। खुशी तो थी ही नहीं। कविताएं बना कर अपने आपको धोखा मत दो।

कविताएं सुंदर हो सकती हैं, इससे सच नहीं हो जातीं। सत्य निश्चित सुंदर है, लेकिन जो—जो सुंदर है, सभी सत्य नहीं है। सत्य महासुंदर है। लेकिन कोई चीज सुंदर है, इसीलिए सत्य मत मान लेना। क्योंकि तुम तो न—मालूम क्या—क्या चीजों को सुंदर मानते हो! तुम तो हड्डी—मांस—मज्जा की देह को भी सुंदर मान लेते हो, जो कि बिलकुल असत है। तुम तो आकाश में उठ गये इंद्रधनुष को भी सुंदर मान लेते हो, जो कि है ही नहीं! तुम तो रात सपने को भी सुंदर मान लेते हो—और हजार बार जाग कर पाया है कि झूठ है! तुम्हारे सौंदर्य में कुछ बहुत सत्य नहीं है, हो नहीं सकता! सत्य तुममें हो, तो ही हो सकता है।

कविता तो सुंदर चुनी है तुमने। वह भी तुम्हारी नहीं है, वह भी उधार है।

‘मेरी हर खुशी मिटी है तेरी हर खुशी के पीछे।’

नहीं, परमात्मा तुमसे किसी तरह का बलिदान तो चाहता ही नहीं। और जिन्होंने तुम्हें सिखाया है कि परमात्मा बलिदान चाहता है, वे बेईमान हैं। उन्होंने परमात्मा के नाम से तुमसे किसी और वेदी पर बलिदान करवा लिया है। हजार लोग उत्सुक हैं तुम्हारा बलिदान हो जाये, तुम शहीद हो जाओ। कोई कहता है, राष्ट्र के नाम पर शहीद हो जाओ। कोई कहता है, धर्म के नाम पर शहीद हो जाओ, जेहाद में शहीद हो जाओ! अगर धर्म के युद्ध में मरे तो स्वर्ग मिलगा, बहिश्त मिलेगी! लेकिन धर्म का कोई युद्ध होता है? अगर धर्म का भी युद्ध होता है, तो फिर अधर्म का क्या होगा? धार्मिक व्यक्ति का भी कोई राष्ट्र होता है? अगर धार्मिक व्यक्ति भी राष्ट्रों में बंटा है, तो राजनीतिज्ञ है। धार्मिक व्यक्ति की कोई राष्ट्र — भक्ति होती है? जमीन के टुकड़ों के प्रति भक्ति? असंभव है! धार्मिक व्यक्ति का इतना नीचा बोध नहीं होता।

तुम्हारे बोध तो बड़े अजीब हैं! तुम तो झंडा कोई नीचा कर दे तो जान देने को तैयार हो। और उसने कुछ नहीं किया। डंडे में एक कपड़ा लटका रखा है, उसको तुम झंडा कहते हो। और झंडा ऊंचा रहे हमारा!

तुम कभी अपनी मूढ़ताओं का विश्लेषण किये हो? और इन पर तुम कुर्बान होने को तैयार हो, मरने को तैयार हो! असल में तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी नहीं है। तुम्हारी जिंदगी बिलकुल खाली है। तुम चले—चलाये कारतूस हो—कहीं भी लगा दो! चलो इसी में थोड़ा हो जाये!

लेकिन मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं परमात्मा तुमसे बलिदान नहीं मांगता। परमात्मा तुमसे उत्सव मांगता है। मुझे तुम अगर समझना चाहते हो, तो इस शब्द ‘उत्सव’ को ठीक से समझ लेना। परमात्मा नहीं चाहता कि तुम रोते हुए उसकी तरफ आओ—गिड़गिड़ाते, दावे करते हुए, कि मैंने कितना बलिदान किया! परमात्मा चाहता है कि तुम नाचते हुए आओ, गीत गाते, सुगंधित, संगीतपूर्ण, भरे—पूरे! तुम्हारा उत्सव ही उस तक पहुंचता है। उत्सव के क्षण में ही तुम उसके पास होते हो।

तो ये तो तुम बातें छोड़ दो कि तुमने अपनी खुशियां लुटा दीं! खुशियां थीं कहां? होतीं तो तुम लुटा देते? खुशियां तो कभी थीं ही नहीं! दुख ही दुख था। उसी दुख के कारण तो तुम खोजने निकले। लेकिन आदमी अपने को भी धोखा देने की कोशिश करता है।

तुमने देखा, जवान आदमी कहता है, बचपन में बड़ी खुशी थी! का कहता है, जवानी में बड़ी खुशी थी। मरता हुआ आदमी कहता है, जीवन में बड़ी खुशी थी। ऐसा लगता है कि जहां तुम होते हो वहां तो खुशी नहीं होती, जहां से तुम निकल गये वहां खुशी होती है। बच्चों से पूछो! बच्चे खुश इत्यादि जरा भी नहीं। यह को की बकवास है! ये बुढ़ापे में लिखी गयी कविताएं हैं कि बचपन में बड़ी खुशी थी। बच्चों से तो पूछो। बच्चे बड़े दुखी हो रहे हैं। क्योंकि बच्चों को सिवाय अपनी असहाय अवस्था के और कुछ समझ में नहीं आता। और हरेक डाट रहा है, डपट रहा है। इधर बाप है, इधर मां है; इधर बड़ा भाई है, उधर स्कूल में शिक्षक है, और सब तरह के डांटने—डपटने वाले— और बच्चे को लगता है, किसी तरह बड़ा हो जाऊं बस, तो इन सबको मजा चखा दूं!

एक छोटा बच्चा स्कूल में, शिक्षक उसे कह रहा था. शिक्षक ने उसे मारा। वह बच्चा रो रहा था। तो शिक्षक ने कहा. ‘रोओ मत, समझो। मैं तुम्हें प्रेम करता हूं इसीलिए तुम्हें मारता हूं—ताकि तुम सुधसे, तुम्हारे जीवन में कुछ हो जाये, कुछ आ जाये।’ बच्चे ने कहा: ‘प्रेम तो मैं भी आपको करता हूं, लेकिन प्रमाण नहीं दे सकता!’

प्रमाण बाद में देना पड़ता है। बच्चा कैसे प्रमाण दे अभी!

छोटे बच्चे को पूछो, छोटा बच्चा खुश नहीं है। हर बच्चा जल्दी से बड़ा हो जाना चाहता है। इसीलिए तो कभी बाप के पास भी कुर्सी पर खड़ा हो जाता है और कहता है, देखो मैं तुमसे बड़ा हूं! हर बच्चा चाहता है बताना कि मैं तुमसे बड़ा हूं! रस लेना चाहता है इसमें कि मैं भी बड़ा हूं मैं छोटा नहीं हूं! छोटे में निश्चित ही दुख है। कहां का सुख बता रहे हो तुम बच्चे को? हर चीज पर निर्भर

रहना पड़ता है—मिठाई मांगनी तो मांगनी, आइसक्रीम चाहिए तो मांगनी। और मांगे आइसक्रीम, मिलती कहां है? हजार उपदेश मिलते—कि दात खराब हो जायेंगे, कि पेट खराब हो जायेगा।

और बच्चों की कभी समझ में नहीं आता कि भगवान भी खूब है, बेस्वाद साग— भाजी में सब विटामिन रख दिये और आइसक्रीम में कुछ नहीं; सिर्फ बीमारियां ही बीमारियां! जो स्वादिष्ट लगता है उसमें बीमारी है और जो स्वादिष्ट नहीं लगता—पालक की भाजी—उसमें सब लोहा और विटामिन और सब ताकत की चीजें भरी हैं। परमात्मा भी पागल मालूम पड़ता है। यह तो सीधी—सी बात है कि विटामिन कहां होने चाहिए थे!

बच्चा कोई सुखी नहीं है। लेकिन जब तुम जवान हो जाओगे और जवानी के दुख आयेंगे, तब तुम अपने मन को समझाने लगोगे, बचपन कितना सुखपूर्ण था! यह झूठ है। यह तुम अपने को समझा रहे हो। आज तो सुख नहीं है, तो दो ही उपाय हैं अपने को समझाने के : पीछे सुख था और आगे सुख होगा। आगे का तो इतना पक्का नहीं है, क्योंकि आगे क्या होगा, क्या पता! लेकिन पीछे, पीछे का तो अब मामला खतम हो चुका, वहां से तो गुजर चुके। जिस राह से आदमी गुजर जाता है उस राह के सुखों की याद करने लगता है। वे सब कंकड़—पत्थर, कांटे, कंटकाकीर्ण यात्रा, सब भूल जाती है, धूल— धवांस, धूप, वह सब भूल जाती है। जब किसी वृक्ष की छाया में बैठ जाता है तो याद करने लगता है, कैसी सुंदर यात्रा थी!

मैं एक सज्जन के साथ पहाड़ पर था। वे जब तक पहाड़ पर रहे, गिड़गिड़ाते ही रहे, शिकायत ही करते रहे कि क्या रखा है, इतनी चढ़ाई और कुछ सार नहीं दिखाई पड़ता। और थक जाते और हांफते और कहते, अब कभी दुबारा न आऊंगा। मैं उनकी सुनता रहा। फिर हम पहाड़ से नीचे उतर आये। गाड़ी में बैठ कर वापिस घर लौटते थे कि ट्रेन में एक सज्जन ने पूछा कि क्या आप लोग पहाड़ से आ रहे हैं? उन्होंने कहा, ‘अरे बड़ा आनंद आया!’ मैंने कहा, ‘सोच समझ कर कहो, फिर तो तैयारी नहीं कर रहे आने की? किससे कह रहे हो? और मेरे सामने कह रहे हो कि बड़ा आनंद आया!’

वे थोड़ा झिझके! क्योंकि ऐसा तो सभी यात्री कहते हैं लौट कर कि बड़ा आनंद आया। हज—यात्री से पूछो, कहेगा, बड़ा आनंद आया! बातों में मत पड़ जाना। यह तो यात्री यह कह रहा है कि अब अपनी तो कट ही गयी, दूसरों की भी कटवा दो। अब यात्री यह कह रहा है कि कट तो गयी, अब और स्वीकार करना कि वहा दुख पाया और मूढ़ बने, अब यह और बदनामी क्यों करवानी? बड़ा आनंद आया! सभी यात्री लौट कर यही कहते हैं कि बड़ा आनंद, गजब का आनंद! कैसा सौंदर्य! स्वर्गीय सौंदर्य! ऐसी भ्रांति पलती है।

का आदमी जवानी के सौंदर्य और सुख की बातें करने लगता है। और जवान सिर्फ बेचैन है। जवान सिर्फ परेज्ञान है, ज्वरग्रस्त है, वासना से दग्ध है, अंगारे की तरह वासना हृदय को काटे जाती है, चुभती है धार की तरह। कहीं कोई सुख—चैन नहीं है। हजार चिंताएं हैं—व्यवसाय की, धंधे की, दौड़— धाप है। मरता हुआ आदमी सोचने लगता है, जीवन में कैसा सुख था!

मैं तुमसे इसलिए यह कह रहा हूं ताकि तुम्हें खयाल रहे। जहां सुख नहीं है वहा सुख मान मत लेना। दुख को दुख की तरह जानना। दुख को जो दुख की तरह जान लेता है, वह सुख को पाने में समर्थ हो जाता है। और जो अपने को मना लेता है, झूठी सांत्वनाओं में ढांक लेता है अपने को, ओढ़ लेता है चादरें असत्य की—वह भटक जाता है।

‘मैं कहां—कहां न भटका तेरी बंदगी के पीछे!’

अब बंदगी करनी हो तो कहीं भटकने की जरूरत है? कोई मक्का, मदीना, काशी, गिरनार, कि सारनाथ, कि बोधगया जाने की जरूरत है? बदगी करनी हो तो यहीं नमन हो जाये। बंदकी तो झुकने का नाम है, जहां झुक गये बंदगी हो गयी। तुम जहा झुके, वहीं परमात्मा मौजूद हो जाता है—तुम्हारे झुकने में मौजूद हो जाता है। उसको खोजने कहां जाओगे? कुछ पता—ठिकाना मालूम है? जाओगे कहां? जहां भी जाओगे, तुम तुम ही रहोगे। अगर झुकना था तो यहीं झुक जाते। काबा जाते हो झुकने? अगर पत्थरों के सामने ही झुकने में लगाव है तो यहां कोई पत्थरों की कमी है? कोई भी पत्थर रख कर झुक जाओ। काशी जाते हो? काशी में जो रह रहे हैं, तुम समझते हो उनको बंदगी उपलब्ध हो गयी है?

कबीर तो मरते दम तक काशी में थे। आखिरी घड़ी बीमार जब पड़ गये, अपने बेटे से कहा कि अब मुझे यहां से हटा; मुझे मगहर ले चल। अब मगहर! कहावत है काशी में, काशी के लोगों ने ही गढ़ी होगी कि मगहर में जो मरता है, वह नर्क जाता है या गधा होता है, और काशी में जो मरता है—काशीकरवट—वह तो सीधा स्वर्ग जाता है। कबीर उठ कर खड़े हो गये अपने बिस्तर से और कहा कि मुझे मगहर ले चल। लड़के ने कहा, बुढ़ापे में आपका दिमाग खराब हो रहा है? मगहर से तो लोग मरने काशी आते हैं। मगहर में मरें तो गधे हो जाते हैं। तो कबीर ने कहा, वह गधा हो जाना मुझे पसंद है, लेकिन काशी का ऋण नहीं लूंगा। यह अहसान नहीं लूंगा। अगर अपने कारण स्वर्ग पहुंचता हूं तो ठीक है। काशी के कारण स्वर्ग गया, यह भी कोई बात हुई त्र किस मुंह से भगवान के सामने खड़ा होऊंगा? वे कहेंगे, काशी में मरे कबीर, इसलिए स्वर्ग आ गये, मगहर में मरते तो गधा होते। मैं तो मगहर में ही मरूंगा। अगर मगहर में मर कर स्वर्ग पहुंचूं तो ज्ञान से प्रवेश तो होगा। यह कह तो सकूंगा, अपने कारण आया, काशी के कारण नहीं आया।

तुम कहां खोजते फिर रहे हो? तुम कारण खोज रहे हो कि किसी बहाने, किसी पीछे के दरवाजे से परमात्मा मिल जाये। मैं तुमसे यह कहता हूं तीर्थयात्रा पर तुम इसीलिए जाते हो कि तुम झुकना नहीं चाहते, तुम बदगी करना नहीं चाहते। तुम्हें बड़ी उल्टी बात लगेगी। क्योंकि तुम तो सोचते हो बंदगी के लिए तीर्थयात्रा कर रहे हैं। बंदगी के लिए कहीं जाने की भी जरूरत है? तुम जहा हो वहीं झुक जाओ। तुम्हें अब तक समझाया गया है कि वहां जाओ जहां परमात्मा है, वहा झुकोगे तो मोक्ष मिलेगा। मैं तुमसे कहता हूं : तुम जहां झुक जाओ वहां परमात्मा के चरण मौजूद हो जाते हैं। तुम्हारे झुकने में ही—वही कला है—तुम्हारे झुकने में ही परमात्मा के चरण मौजूद हो जाते हैं। तुम झुके नहीं कि परमात्मा मौजूद हुआ नहीं। तुम झुके नहीं कि परमात्मा तुम्हारे भीतर उंडला नहीं।

तुम भटकते रहे अपने कारण। नहीं, इसको परमात्मा के कारण मत कहो। परमात्मा के कारण कोई कभी भटका है?

और अब तुम फिर पूछते हो कि ‘अब आगे मैं क्या करूं, यह बताने की अनुकंपा करें।’

अनुकंपा! मैं तुम्हारा —दुश्मन नहीं हूं कि अब तुम्हें और कुछ बताऊं कि अब तुम यह करो! मैं तुमसे कहूंगा. बहुत हो गया करना, अब ‘न—करने’ में विराजो। अब न—करने के सिंहासन पर बैठो।

अब साक्षी बनो। अब देखो। कर्ता नहीं—द्रष्टा। अब तो सिर्फ बैठो, जो परमात्मा दिखाये, देखो; जो कराये, कर लो—लेकिन कर्ता मत बनो। भूख लगाये तो भोजन खोज लो। प्यास लगाये तो सरोवर की तलाश कर लो। नींद लगाये तो सो जाओ। नींद तोड़ दे तो उठ आओ। मगर साक्षी रहो। सारा कर्तापन उसी पर छोड़ दो।

अष्टावक्र का सार—सूत्र यही है कि तुम देखने में तल्लीन हो जाओ, द्रष्टा हो जाओ। भूख लगे तो देखो। ऐसा मत कहो, मुझे भूख लगी है। कहो, परमात्मा को भूख लगी। उसी को लगती है! नींद लगे तो कहो उसको नींद आने लगी, वह मेरे भीतर झपकने लगा, अब सो जाना चाहिए, मैं बाधा न दूं। प्यास लगे, पानी पी लो। जब तृप्ति हो तो पूछ लो उससे कि ‘तृप्त हुए न? तुम्हारा कंठ अब जल तो नहीं रहा प्यास से?’ मगर तुम देखने वाले ही रहो। बस, इतना सध जाये तो सब सध गया। इक साधे, सब सधै। तुम हजार—हजार काम करते रहो, कुछ भी न होगा। तुम एक छोटी—सी बात साध लो. साक्षी हो जाओ।

मैंने सुना, एक डाक्टर के क्लीनिक में कंपाउंडर एक छोटे—से बच्चे के पैर में पट्टी बांध रहा था। पर बच्चा उछलता—कूदता था, शोरगुल मचाता था, चीखता—चिल्लाता था। अंततः डाक्टर ने गुस्से में आ कर कहा, हटो, मैं बांधता हूं। और उस लड़के से कहा, सीधे खड़े रहना बच वरना इंजेक्यान लगा दूंगा। बीच में बच्चे ने कुछ कहना भी चाहा तो डाक्टर ने फिर कहा कि अगर जरा बोले तो इंजेक्यान लगा दूंगा बच शांत खड़े रहो। अब ऐसी हालत थी तो बच्चा बिलकुल योगासान साधे खड़ा रहा।’ड्रेसिंग’ हो जाने के बाद डाक्टर ने पूछा, बोलो बीच में क्या कह रहे थे? उसने कहा, यही कह रहा था डाक्टर साहब, कि चोट दायें पैर में है और आपने पट्टी बायें पैर में बांध दी।

कर्ता होने में चोट ही नहीं है, वहां तुम पट्टी बांध रहे हो। वह असली भ्रांति वहा नहीं है। बीमारी वहां नहीं है और पट्टी तुम वहां बांध रहे हो। बीमारी है तुम्हारी साक्षी— भाव में। तुम्हारा बोध खो गया है। तुम्हारा होश खो गया है। तुम्हारा ध्यान खंडित हो गया है। तुम्हारी जागृति धूमिल हो गयी है। प्रश्न वहां है, समस्या वहां है। तुम कहते हो, क्या करें? किया कि भटके। चले कि भटके। बैठ जाओ, करो मत! देखो और पहुंच गये।

पहुंचने का सूत्र—कहीं चल कर नहीं पहुंचना है। पहुंचे हुए तुम हो। यही तो अष्टावक्र की उदघोषणा है। यह महावाक्य है कि तुम वहीं हो जहां तुम्हें होना चाहिए। तुम जरा आंख खोलो।

मैं झेन फकीर रिंझाई का जीवन कल रात पढ़ रहा था। किसी ने पूछा आ कर रिंझाई को कि आप तो ज्ञान को उपलब्ध हो गये, आप मुझे समझायें कैसे उपलब्ध हुए और मैं क्या करूं? तो रिंझाई ने कहा, ‘करूं! तुम शात हो कर मुझे देखो मैं क्या करता हूं।’ और रिंझाई ने झट से आंख बंद कर ली थोड़ी देर आंख बंद किये बैठा रहा, फिर आंख खोली। और उस आदमी से कहा, समझे? उस आदमी ने कहा, ‘क्या खाक समझे—तुमने जरा आंख बंद कर ली, आंख खोल ली—इसमें कुछ समझना है?’ उन्होंने कहा, ‘तो फिर तुम न समझ पाओगे। बस बात इतनी है—आंख खोलने और बंद करने की है। इससे ज्यादा करने को कुछ भी नहीं है। पहले मैं बंद आंख किये था, अब मैंने आंख खोल ली। इतना ही फर्क पड़ा है। जो मैं पहले था, वही मैं अब हूं। पहले सोया—सोया था, अब जागा—जागा हूं। पहले होश का दीया न जलता था, अब होश का दीया जलता है। घर वही है, सब कुछ वही है। सिर्फ एक दीया भीतर जल गया है।

कुछ भी बदलता नहीं बुद्धपुरुष में। तुम्हारे जैसे ही हैं बुद्धपुरुष। जरा—सा भेद है। बड़ा छोटा—सा भेद है। तुम आंख बंद किये बैठे हो, उन्होंने आंख खोली ली। बस पलक का भेद है।

तो अब मत पूछो कि और क्या करें। करने से संसार बनता है, न करने से प्रभु मिलता है। अब तो तुम साक्षी हो जाओ। अब मेरे पास आ ही गये हो, तो अब तो बैठ जाओ—आलसी शिरोमणि! जैसा अष्टावक्र कहते हैं। यह शब्द मेरा नहीं है। मेरा होता तो तुम जरा हैरान होते। अष्टावक्र कहते हैं, आलसी शिरोमणि हो जाओ। करो ही मत।

और ध्यान रखना, फर्क क्या करते हैं साधारण आलसी और आलसी शिरोमणि में? साधारण आलसी करता तो नहीं, कर्म तो नहीं करता, पड़ा रहता है बिस्तर पर, लेकिन कर्म की योजनाएं बनाता है। आलसी शिरोमणि करता है बहुत कुछ जो परमात्मा करवाता है, लेकिन कर्ता का भाव नहीं है, न कोई कर्म की योजना है। जो करवा लिया क्षण में, कर देता है, फिर बैठ गया। जब आज्ञा आ गयी, कर देता है; जब आशा न आयी, तब विश्राम करता है। साधारण आलसी कर्म छोड़ देता है। और कर्ता छोड़ देता है जो, वही है आलसी शिरोमणि। तुम आलस्य के परम शिखर को छू लो। बस मेरी शिक्षा भी यही है।

दूसरा प्रश्न :

ऐसा लगता है कि मेरा सब कुछ झूठ है—हरेक बात, हरेक विचार, हरेक भाव, प्रेम, प्रार्थना और हंसना और रोना भी। मैं जीता—जागता झूठ हूं। ऐसे में अब क्या हो भगवान? अब खुद पर भरोसा नहीं आता। यह लिखना भी झूठ है शायद।

पूछा है ‘कृष्णप्रिया’ ने।

यह तो बड़ी सत्य की किरण उतरी। अगर ऐसा समझ में आ जाये कि मेरा सब झूठ है, तो आधा काम पूरा हो गया; निर्वाण दूर न रहा। आधा काम पूरा हो गया। ऐसा समझ में आ जाये कि मेरा सब झूठ है तो हम सच के करीब सरकने लगे। क्योंकि सच के करीब सरकते हैं, तभी यह समझ में आता है कि मेरा सब झूठ है। झूठे आदमी को थोड़े ही समझ में आता कि मेरा सब झूठ है। झूठा आदमी तो सब तरह के प्रमाण जुटाता है कि ‘मैं और झूठा! सारी दुनिया होगी झूठ, मैं सच्चा हूं!’ झूठा आदमी दूसरों को ही नहीं समझाता है, अपने को भी समझाता है कि मैं सच्चा हूं। असल में

झूठा आदमी दूसरे को इसीलिए समझाता है कि दूसरा समझ ले तो मुझे भी समझ में आ जाये कि मैं सच्चा हूं। दूसरों की आंखों में झांकता रहता है : ‘ अगर सब लोग मुझे सच्चा मानते हैं तो मैं सच्चा होऊंगा ही। अगर मेरी हंसी झूठ होती तो दूसरे लोग मेरे साथ कैसे हंसते? अगर मेरा रोना झूठ होता तो दूसरों की आंखें गीली कैसे होतीं। नहीं, मैं सच होऊंगा ही। देखो, दूसरों में परिणाम दिखाई पड़ रहा है।’ झूठा आदमी सारे उपाय करता है इस बात के ताकि उसे खुद भरोसा आ जाये कि मैं सच हूं। कृष्णप्रिया को अगर समझ में आने लगा कि मेरा सब कुछ झूठ है, तो बड़ी शुभ घड़ी करीब आ गयी।

‘हरेक बात, हरेक विचार, हरेक भाव, प्रेम, प्रार्थना, हंसना—रोना भी……।’

इस बात को भी खयाल में लेना कि जब झूठ होता है तो सभी झूठ होता है, और जब सच होता है तो सभी सच होता है, मिश्रण नहीं होता। वह भी भ्रांति है झूठे आदमी की। झूठा आदमी कहता है : माना कि कुछ बातें मुझमें झूठ हैं, लेकिन बाकी तो सच हैं। ऐसा होता नहीं। या तो झूठ या सच। ऐसा बीच—बीच में नहीं होता कि कुछ झूठ और कुछ सच। यह धोखा है। सच और झूठ साथ रह नहीं सकते। यह तो ऐसा हुआ कि आधे कमरे में अंधेरा और आधे कमरे में प्रकाश है। यह होता नहीं। अगर रोशनी है तो पूरे कमरे में हो जायेगी। अगर अंधेरा है तो पूरे कमरे में रहेगा। तुम ऐसा थोड़े ही कह सकते हो कि बीच में एक रेखा खींच दी, लक्ष्मण—रेखा खींच दी कि ‘ अब इसके पार मत होना अंधेरे! तू उसी तरफ रहना, इधर रोशनी जल रही है।’ रोशनी होती है तो कमरा पूरा रोशनी से भर जाता है। और अंधेरा होता है तो पूरा भर जाता है।

तुम जब झूठे होते हो तो पूरे ही झूठ होते हो। जब भी कोई आदमी मुझसे आ कर कहता है, कुछ—कुछ शात हूं? तो मैं कहता हूं ऐसी बातें मत करो। कुछ—कुछ शात! सुना नहीं कभी। अशांत लोग देखे हैं, शात लोग भी देखे हैं, लेकिन कुछ—कुछ शांत! यह तुम क्या बात कर रहे हो? यह तो ऐसा हुआ कि पानी हमने गरम किया और पचास डिग्री पर कुछ—कुछ पानी भाप होने लगा और कुछ—कुछ पानी पानी रहा! ऐसा नहीं होता। सौ डिग्री पर जब भाप बनना शुरू होता है—सौ डिग्री पर। ऐसा नहीं कि पचास डिग्री पर थोड़ा बना, फिर साठ डिग्री पर थोड़ा बना, फिर सत्तर डिग्री पर थोड़ा बना—ऐसा नहीं होता। छलांग है, विकास नहीं है। सीढ़ियां नहीं हैं—रूपांतरण है, क्रांति है।

जिस दिन यह समझ में आ जाये कि मैं बिलकुल अंधेरा, बिलकुल असत्य—शुभ घड़ी करीब आयी। यह साधक की तैयारी है। इससे घबड़ाना मत। इससे घबड़ाहट होती है स्वभावत:, क्योंकि यह बात मानने का मन नहीं होता कि सब झूठ—मेरा हंसना भी, रोना भी; मेरा कुछ भी सच नहीं है, मेरा प्रेम, मेरी प्रार्थना….।

यह प्रश्न लिखा है और यह भी भरोसा नहीं आता कि यह भी सच है। यह भी झूठ है!

ऐसा जब होता है तब स्वभावत: बड़ी बेचैनी पैदा होती है। उस बेचैनी से बचने के लिए आदमी किसी झूठ को सच बनाने में लग जाता है, तो सहारा बन जाता है। नहीं, तुम बनाना ही मत।

कृष्णप्रिया को मेरा संदेश झूठ है सब, ऐसा जान कर इस पीड़ा को झेलना। इसमें जल्दबाजी मत करना, लीपापोती मत करना। किसी झूठ को रंग—रोगन करके सच जैसा मत बना लेना। सब झूठ है तो सब झूठ है। सब झूठ का अर्थ हुआ कि पूरा व्यक्तित्व व्यर्थ है। अगर इस व्यर्थता के बोध को थोड़ा सम्हाले रखा तो व्यर्थ गिर जायेगा, क्योंकि व्यर्थ तुम्हारे बिना सहारे के नहीं जी सकता। झूठ तुम्हारे बिना सहारे के नहीं जी सकता। झूठ के पास अपने पैर नहीं हैं—तुम्हारे पैर चाहिए। इसीलिए तो झूठ सच होने का दावा करता है। झूठ जब सच होने का दावा करता है तभी चल पाता है, झूठ की तरह कहीं चलता है!

अगर तुम किसी से कहो कि यह जो मैं कह रहा हूं झूठ है, आप मान लो। तो वह कहेगा, ‘तुम पागल हो गये हो? तुम खुद ही कह रहे हो कि झूठ है तो मैं कैसे मान लूं? तो झूठे आदमी को सिद्ध करना पड़ता है कि यह सच है, यह झूठ नहीं है। क्योंकि लोग सच को मानते हैं, झूठ को नहीं मानते। सच को मानते हैं, इस कारण अगर झूठ भी, सच जैसा दावा किया जाये, तो मान लिया जाता है। मगर चलता सच है।

तुमने देखा, खोटे सिक्के चलते हैं, लेकिन चलते हैं असली सिक्के के नाम से! खोटा सिक्का खोटा मालूम पड़ जाये, फिर नहीं चलता, फिर उसी क्षण अटक गया। जहां खोटा सिद्ध हुआ, वहीं अटका। जब सच्चा मालूम पड़ता था, चलता था। खोटे सिक्के के पास अपनी कोई गति नहीं है। गति सच्चे से उधार मिली है।

अब थोड़ा सोचो, झूठ तक चल जाता है सच्चे से थोड़ी—सी आभा उधार ले कर! तो सच की तो क्या गति होगी! जब सच पूरा—पूरा सच होता है तो तुम्हारे जीवन में गत्यात्मकता होती है। तुम जीवंत होते हो। तुम्हारे जीवन में लपटें होती हैं, रोशनी होती है। तुम्हारे जीवन में प्राण होते हैं, परमात्मा होता है।

झूठ तो उधार है। उसमें जो थोड़ी—बहुत चमक दिखाई पड़ती है, वह भी किसी और की है— किसी सच से ले ली है। तो जब तुम्हें समझ में आ जाये कि मेरा सब झूठ है, अर्थात मैं झूठ हूं क्योंकि ‘मैं’ तुम्हारे सबका ही जोड़ है।

ये जितनी बातें कृष्णप्रिया ने लिखी हैं, इन सबका जोड़ ही अहंकार है। सब झूठों के जोड़ का नाम है अहंकार। अगर ऐसा दिखाई पड़ गया तो अहंकार बिखर जायेगा। ताश के पत्ते जैसे मकान बनाया हो, महल बनाया हो ताश के पत्तों का, हवा का झोंका लगे और गिर जाये। कागज की नाव चलायी हो और जरा—सा झोंका लगे, उलट जाये, डूब जाये। यह झूठ का घर अहंकार है। यह गिर जायेगा। अगर मेरा रोना झूठ है, तो मेरा ‘मैं’ का एक हिस्सा गिर गया। अगर मेरा हंसना भी झूठ है, ‘मैं’ का दूसरा हिस्सा गिर गया। अगर मेरी प्रार्थना भी झूठ है, तो परमात्मा और मेरे बीच में जो ‘मैं’ खड़ा था वह भी गिर गया। अगर मेरा प्रेम भी झूठ है, तो मेरे और मेरे प्रेमी के बीच जो खड़ा था अहंकार वह भी गिर गया। विचार भी झूठ हैं, भाव भी झूठ हैं। हरेक बात, हरेक ढंग, भाव— भंगिमा. तो अहंकार के सब आधार गिरने लगे, सब स्तंभ गिरने लगे। अचानक तुम पाओगे खंडहर रह गया। और उसी खंडहर से उठती है आत्मा। उसी अहंकार के खंडहर पर जन्म होता है तुम्हारे वास्तविक स्वरूप का।

सत्य पैदा होता है असत्य की राख पर। हो जाने दो। पीड़ा होगी। बड़ा संताप होगा। क्योंकि यह बात मानने का मन नहीं होता कि मेरा सब झूठ है। कुछ तो सच होगा! लेकिन स्मरण रखना कुछ सच नहीं होता। सच होता है तो पूरा होता है, या नहीं होता।

हम झूठ के सहारे जी रहे हैं, क्योंकि सच का हमें पता नहीं। और बिना किसी सहारे के जीना संभव नहीं है। सच का हमें कुछ पता नहीं है क्या है। और जीने के लिए कुछ तो सहारा चाहिए। जीने के लिए कुछ तो बहाना चाहिए। तो हम झूठ के साथ जी रहे हैं। हमने झूठ को सच मान लिया है। मैं एक कविता पढ़ रहा था

प्रेम के सघन कुंजों में

उदासी की गहरी छांव तले

आओ पल दो पल बैठ संतप्त मन को

थोड़ा—सा बांट लें

श्वासों के गांव में छाये हुए यादों के कोहरे को

आपसी मिलापों से आओ हम छांट लें

भूले अनुबंधों को, बिखरे संबंधों को

आंसू के धागों में फिर से हम गाठ लें

वीरानी पलकों में सपनों का दर्प कहां

उजड़े—से जीवन में मधुमासी पर्व कहा

पता नहीं फिर हम मिलें, या न मिलें

कम—से—कम अपने ही सायों में

आओ घड़ी दो घड़ी ही काट लें।

अपने ही सायों में! अपनी ही छाया में बैठ कर विश्राम करने तक की हालत आ जाती है। कुछ पता नहीं सत्य का। जीना तो है, तो चलो असत्य को ही सत्य मान कर जी लें!

एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना इस सदी में घटी है। नीत्शे ने घोषणा की सौ वर्ष पहले कि ईश्वर मर गया और मनुष्य स्वतंत्र है। लेकिन नीत्शे यह न समझ पाया कि आदमी को कोई न कोई बहाना चाहिए। अगर ईश्वर न हो तो आदमी ईश्वर गढेगा। आदमी झूठा ईश्वर बना लेगा अगर ईश्वर न हो, लेकिन बिना ईश्वर के कैसे रहेगा! बहुत कठिन हो जायेगा। खुद नीत्शे न रह सका। वह आखिर— आखिर में पागल हो गया। बात तो उसने कह दी किसी विचार के गहरे क्षण में कि ईश्वर मर चुका और आदमी स्वतंत्र है। लेकिन स्वतंत्र होने की क्षमता तो चाहिए। सत्य को झेलने की क्षमता तो चाहिए। नीत्शे बुद्ध न हो सका, पागल हो गया। प्रबुद्ध होना तो दूर, प्रक्षिप्त हुआ, विक्षुब्ध हुआ, पागल हुआ! क्या था उसके पागलपन का कारण? बिना सहारे! अपने पागलपन में उसने जो डायरी लिखी उसमें लिखा है कि मुझे ऐसा लगता है आदमी बिना झूठ के नहीं जी सकता। कोई—न—कोई झूठ चाहिए। मैंने सब झूठ छोड़ दिये, इसलिए लगता है कि मैं पागल हुआ जा रहा हूं।

अगर तुम सब झूठ छोड़ दो और तुम्हारी ऐसी धारणा हो कि सच तो है ही नहीं, तो तुम पागल हो ही जाओगे। यही फर्क है बुद्ध और नीत्शे में। बुद्ध ने भी सब झूठ छोड़ दिये, लेकिन बुद्ध को पता है. जहां झूठ होता है वहां सच भी होगा। सच के बिना तो झूठ हो ही नहीं सकते। झूठ कोई चीज होती ही इसीलिए है कि सच भी होता है, हो सकता है।

तुम जब कहते हो, मेरी हंसी झूठ, तो इसका अर्थ हुआ, तुम्हें भी कहीं—न—कहीं थोड़ा—सा

अहसास है कि सच हंसी भी हो सकती है। नहीं तो झूठ कहने का क्या प्रयोजन रह जायेगा? तुम कहते हो मेरा प्रेम झूठ—इसका अर्थ है, किसी अचेतन तल पर, किसी गहराई में तुम्हें भी अहसास तो होता है, साफ—साफ पकड़ न बैठती हो, धुंधला— धुंधला है सब, कुहासा छाया है बहुत, रोशनी नहीं है भीतर, अंधेरा है, अंधेरे में टटोलते हो, लेकिन लगता है कि सच प्रेम भी हो सकता है। नहीं तो इस प्रेम को झूठ कैसे कहोगे? अगर किसी समाज में सब सिक्के झूठ हों और असली सिक्का होता ही न हो, तो झूठे सिक्कों को झूठा कैसे कहोगे? झूठा कहने के लिए असली चाहिए। असली के बिना झूठा झूठा नहीं रह जाता।

नीत्शे ने कह दिया कि सच तो होता नहीं, और जो भी आदमी ने माना है, सब झूठ है।….. पागल हो गया। उसने सत्य की राह भी रोक दी, झूठ को गिरा दिया और सत्य को आने न दिया।’सत्य तो होता नहीं। सत्य तो हो ही नहीं सकता; जो होता झूठ ही है।’ आधी दूर तक ठीक गया। कहा कि संसार माया है, यहां तक तो ठीक था, यह तो सभी ज्ञानी कहते रहे; लेकिन संसार इसीलिए माया है कि इस माया के कुहासे के पीछे छिपा ब्रह्म भी बैठा है। संसार असत्य है, सपना है; क्योंकि इस सपने के पीछे एक जाग्रत द्रष्टा भी छिपा है। नीत्शे ने उसे स्वीकार न किया। तो झूठ तो छोड़ दिया, झूठ की बैसाखिया गिर गयीं और अपने पैरों का तो उसे भरोसा ही नहीं कि होते हैं। बैसाखी भी गिर गयी और पैर तो होते ही नहीं। नीत्शे गिर पड़ा, खंडहर हो गया। झूठ के साथ खुद ही खंडहर हो गया।

फिर सौ साल में नीत्शे के पीछे जो हुआ, वह सोचने जैसा है। जिन—जिन समाजों ने नीत्शे की बात मान ली, वहां—वहां उपद्रव हुआ। जैसे जर्मनी में नीत्शे की बात मान ली गयी कि कोई ईश्वर नहीं है, ईश्वर झूठ है, तो जर्मनी ने हिटलर पैदा किया। आदमी को कोई तो चाहिए भरोसे के लिए। जीसस झूठे हो गये, ईश्वर झूठा हो गया, तो अडोल्फ हिटलर में भरोसा किया। अब यह बड़ा महंगा सौदा था। इससे जीसस बेहतर थे, जीसस में भरोसा बेहतर था। लेकिन आदमी बिना भरोसे के नहीं रह सकता। तो जगह खाली हो गयी, ‘वैक्यूम’ हो गया, उसमें अडोल्फ हिटलर पैदा हो गया। और लोग तो चाहते थे, कोई किसी के चरण पकड़ लें। लोग तो चाहते थे, कोई सहारा मिल जाये —अडोल्फ हिटलर उनका मसीहा हो गया। वह उन्हें गहन विध्वंस में ले गया।

मार्क्स ने कह दिया कि कोई धर्म नहीं है, धर्म अफीम का नशा है। रूस में मार्क्स की बात मानी गयी, जो परिणाम हुआ वह यह कि राज्य, ‘स्टेट’ ईश्वर हो गयी। राज्य सब कुछ हो गया। अब सब नमन कर रहे हैं राज्य के सामने। स्टैलिन बैठ गया सिंहासन पर। ईश्वर तो हटा, ईश्वर की जगह स्टैलिंन आ गया। इससे तो ईश्वर बेहतर था, कम—से—कम धारणा में कुछ सौंदर्य तो था; कुछ लालित्य तो था। कम—से —कम धारणा में कुछ ऊंचाई तो थी, कुछ खुला आकाश तो था, कहीं जाने की संभावना तो थी, विकास का उपाय तो था! स्टैलिन! मगर आदमी खाली नहीं रह सकता। आदमी को कुछ चाहिए।

प्रिया से मैं कहना चाहता हूं. इस घडी में तुझे लगेगा कि कुछ सहारा पकड़ लो, कुछ भी सच मान लो। जल्दी मत करना। सच है! तुम झूठ को गिर जाने दो और प्रतीक्षा करो, सच उतरेगा। सच नहीं है—ऐसा नहीं। सच है। सच ही है, और सब तरफ मौजूद है। तुम जरा झूठ को हट जाने दो और तुम्हारे भीतर जो खाली रिक्त आकाश बनेगा, उसी में चारों तरफ से दौड़ पड़ेगी धारायें सच की। तुम

आपूरित हो सकोगी। तुम भरोगी। लेकिन कुछ देर खाली रहने की हिम्मत….। इस खाली रहने की हिम्मत का नाम ही ध्यान है। इस शून्य रहने की हिम्मत का नाम ही ध्यान है।

ध्यान का अर्थ है : असत्य को गिरा दिया, सत्य की प्रतीक्षा करते हैं। ध्यान का अर्थ है : विचार छोड़ दिये, निर्विचार की प्रतीक्षा करते हैं। ध्यान का अर्थ है. अहंकार को हटा दिया, अब उस निर्विकार, निरंजन की राह देखते हैं। द्वार खोल दिया है, अब जब मेहमान आयेगा, स्वागत की तैयारी है।

तीसरा प्रश्न :

आपने कहा, मैं तो संन्यास देते ही तुम्हें तत्काल मुक्त कर देता हूं। तो फिर ‘संचित’ का क्या भविष्य बनता है? क्या वह क्षीण हो जाता है। और अगर संन्यास लेने के तुरंत बाद ही मुक्ति नहीं होती तो क्या उसका अर्थ है कि संचित की चादर अभी मोटी है? फिर आपके तत्काल मक्त कर देने का क्या तात्पर्य है?

महत्वपूर्ण प्रश्न है। गौर से सुनना और समझना। मैं फिर दोहराता हूं कि मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है; मैं मुका कर देता हूं ऐसा थोड़े ही। मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है। तुमने याद कर ली, मुका हो गये। स्मरण भर की बात

है, सुरति। याददाश्त लौटानी है। मैं तुम्हें याददाश्त दिला सकता हूं मुका कैसे कर सकता हूं? तुम पर जंजीरें ही नहीं हैं। तुमने जंजीरें मान रखी हैं। मान्यता की जंजीरें हैं। मैं तुम्हें झकझोर देता हूं; कहता हूं जरा गौर से देखो, तुम्हारे हाथ पर जंजीर नहीं है; खयाल है जंजीर का। तुमने आंख खोल कर कभी गौर से देखा ही नहीं कि हाथ पर जंजीरें नहीं हैं, पैर में बेड़ियां नहीं हैं, तुम मुक्त हो। मुक्त होना तुम्हारा स्वभाव है, तुम्हारी संपदा है।

इसलिए मैं कहता हूं कि मैं तो संन्यास देते ही तुम्हें तत्काल मुक्त कर देता हूं। संन्यास का मतलब. तुमने मुझे मौका दिया कि आप मुझे झकझोरेंगे तो मैं नाराज न होऊंगा। इतना ही मतलब है। संन्यास का इतना ही मतलब कि मैं राजी हूं, अगर आप मुझे जगायेंगे तो नाराज न होऊंगा। संन्यास का मतलब कि मैं उपलब्ध हूं अगर आप कुछ चोट करना चाहें मेरे ऊपर, मेरे हृदय पर कुछ आघात करना चाहें तो मैं आपको दुश्मन न लेखूंगा। बस इतना ही मतलब संन्यास का।

और जब मैं कहता हूं, मैं तुम्हें संन्यास देते ही मुक्त कर देता हूं तो मेरा अर्थ यह है कि मुक्ति कोई वस्तु नहीं कि अर्जित करनी हो, कि जिसका अभ्यास करना हो—तुम्हारा स्वभाव है। मुका तुम

पैदा हुए हो। मुक्त ही तुम जी रहे हो। मुक्त ही तुम मरोगे। बीच में तुमने बंधन का एक स्वप्न देखा।

ऐसा समझो कि एक रात तुम सोये और तुमने सपना देखा कि तुम पकड़ लिये गये, तस्करी में पकड़ लिये गये, मीसा के अंतर्गत जेल में बंद कर दिये गये, हथकड़ियां डाल दी गयीं। अब तुम बड़े घबराने लगे रात नींद में कि अब क्या होगा, क्या नहीं होगा, कैसे बाहर निकलेंगे? और सुबह नींद खुली तो तुम हंसने लगे। क्या तुम सुबह यह कहोगे कि रात जब तुम जेलखाने में पड़े थे, हथकड़ियां लग गयी थीं, तब तुम सच में ही जेलखाने में पड़ गये थे? नहीं, सुबह तो तुम यह कहोगे सच में तो मैं अपने बिस्तर पर आराम कर रहा था, झूठ में जेलखाने हो गया था। लेकिन बिस्तर पर तुम आराम कर रहे थे, तुम्हें याद नहीं रह गयी इस बात की। सपना बहुत भारी, हावी हो गया। तुम्हारी आंखें सपने से बोझिल हो गयीं। तुम सपने के द्वारा ग्रसित हो गये। सपने ने तुम्हें सम्मोहित कर लिया। सपना ऐसा था कि तुम भूल ही गये कि यह सपना है। सपने में जकड़ गये। रात भर तकलीफ पायी। लेकिन सुबह उठ कर तुम यह तो मानोगे कि तकलीफ हुई नहीं थी वस्तुत:, मानी हुई थी।

मैं तुमसे कहता हूं : मुक्त तुम पैदा हुए हो, मुक्त तुम अभी हो, इस क्षण! मैं अमुक्तों से नहीं बोल रहा हूं मुक्तपुरुषों से बोल रहा हूं। क्योंकि अमुक्त कोई है ही नहीं। जिस दिन मैंने जाग कर देखा कि मैं मुक्त हूं उसी दिन मेरे लिए सारा संसार मुक्त हो गया। तुम सपना देख रहे हो—वह तुम्हारा सपना है, मेरा सपना नहीं है। तुम अगर सपने में खोये हों—तुम खोये हो, मैं नहीं खोया हूं। तुम्हारा सपना तुम्हें धोखा देता होगा, मुझे धोखा नहीं दे रहा है।

जब मैं तुम्हें संन्यास देता हूं तो मैं इतना ही कहता हूं कि जैसा मैं जागा हूं वैसे तुम जाग जाओ। अभी जाग जाओ, इसी क्षण जाग जाओ! तुम चाहते हो मैं तुम्हें कुछ उपाय बताऊं कि कैसे मुक्त हों। अगर मैं तुम्हें उपाय बताऊं तो उसका अर्थ हुआ कि मैं भी मुक्त नहीं हूं। अगर मैं तुम्हें उपाय बताऊं तो उसका अर्थ हुआ कि मुझे भी यह स्वीकार नहीं है कि तुम मुक्त हो। मैं भी मान रहा हूं कि तुम बंधन में पड़े हो, जंजीरें काटनी हैं, हथौडिया लानी हैं, बेड़ियां खोलनी हैं, बड़ी कठिन मेहनत करनी है, जेलखाने की दीवालें गिरानी हैं, बड़ी साधना करनी है, बड़ा अभ्यास करना है।

अष्टावक्र का वचन था कल कि जिसने यह जान लिया, वह फिर छोटे बच्चों की तरह अभ्यास नहीं करता है। अभ्यास नहीं करता है! और तुमने तो सारा योग ही अभ्यास बना रखा है. अभ्यास करो, साधन का अभ्यास करो!

अष्टावक्र कहते हैं : तुम सिद्ध हो! साधन की जरूरत उसे हो जो सिद्ध नहीं। यह तुम्हारा स्वभाव है। मैं जब कहता हूं कि मैं तुम्हें संन्यास देते ही तत्काल मुक्त कर देता हूं तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि मुक्ति की जरूरत ही नहीं है, तुम मुक्त हो। सिर्फ तुम्हें याद दिला देता हूं।

एक आदमी ने शराब पी ली। वह अपने घर आया, लेकिन शराब के नशे में समझ न पाया कि अपना घर है। उसने दरवाजा खटखटाया। उसकी मां ने दरवाजा खोला। उसने अपनी मां से पूछा कि हे की मां, क्या तू मुझे बता सकती है कि मैं कौन हूं और मेरा घर कहां है? क्योंकि मैं घर भूल गया हूं? मैंने नशा कर लिया है।

वह मां हंसने लगी। उसने कहा, ‘पागल, किससे तू पता पूछ रहा है? यह तेरा घर है।’ उस शराब में बेहोश आदमी ने आंखें मीड़ कर फिर से देखा और उसने कहा कि नहीं, यह घर मेरा नहीं है। मेरा घर है जरूर, कहीं आसपास ही है, ज्यादा दूर भी नहीं है। मुझे मेरे घर पहुंचा दो।

मुहल्ले के लोग इकट्ठे हो गये। लोग कहने लगे, ‘तू पागल हुआ है? यह तेरा घर है! यह तेरी मां खड़ी है!’ वह रोने लगा। वह कहने लगा कि मुझे इस तरह उलझाओ मत। मेरी मां राह देखती होगी। रात हुई जा रही है, देर हुई जा रही है। वह बड़ी तडूफती होगी। मुझे मेरे घर पहुंचा दो।

एक दूसरा शराबी शराब पी कर अपनी बैलगाड़ी लिये चला आता था। वह भी खड़ा हो कर सुन रहा था। उसने कहा, ‘सुन भाई, आ जा बैठ जा बैलगाड़ी में। मैं तुझे पहुंचा दूंगा।’ लोग चिल्लाये कि पागल हो गया है, वह भी पीये बैठा है। वह तुझे ले जा रहा है, और तुझे ले जा रहा है तेरे घर से दूर! मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं. तुम जहां हो, जैसे हो, ठीक वैसे ही होना है। तुम्हारा जो अंतरतम है, इस क्षण भी मोक्ष में है। तुम्हारे बाहर जो धूल—धवांस इकट्ठी हो गयी है, दर्पण पर जो धूल इकट्ठी हो गयी है, उसके कारण तुम पहचान नहीं पा रहे। दर्पण धुंधला हो गया है। लेकिन तुम्हें कहीं और कुछ और होना नहीं है। मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है।

इसलिए कहता हूं कि मैं संन्यास देते ही तुम्हें तत्काल मुक्त कर देता हूं—मेरी तरफ से कर देता हूं फिर तुम्हारी मर्जी। फिर तुम्हें सपना देखना हो तो तुम एक नया सपना देखोगे। तुम्हें अगर सपना ही देखना है तो तुम सपने का सिलसिला जारी रखोगे। मगर वह तुम्हारी भूल है, उसमें मेरी जिम्मेवारी नहीं है। तुम मुझे दोषी न ठहरा सकोगे। मैंने तो अपनी तरफ से घोषणा कर दी कि तुम मुक्त हो।

इस घोषणा को अंगीकार करो। इस घोषणा को स्वीकार करो। हालांकि तुम्हारा मन कहेगा. मैं और मुक्त! तुम्हें सदा निंदा सिखायी गई है—’तुम पापी, जन्म—जन्म के कर्मों से दबे, भ्रष्ट!’

‘मैं और मुक्त! नहीं, नहीं। मुक्त तो महावीर होते, बुद्ध होते, कृष्ण होते। यह तो अवतारी पुरुषों की बात है। मैं और मुक्त! मेरे तो पत्नी है, बच्चे हैं, दफ्तर है, दूकान है। मैं और मुक्त! नहीं, नहीं!’ यह दावा करने की तुम्हारी हिम्मत नहीं होती। तुम कहते हो. ‘मेरी तो पत्नी है, मेरे बच्चे हैं, मेरा घर—द्वार है।’

तुम सपने का हिसाब बता रहे हो, मैं तुम्हारा स्वभाव खोल रहा हूं। तुम अपने सपने का हिसाब बता रहे हो कि ये इतने पत्नी—बच्चे, यह सब कुछ मामला है, मैं कैसे मुक्त हो सकता हूं? मैं तुमसे कहता हूं यह सारा जो तुम्हारा सपना है, सपना है। कौन तुम्हारा है? किसके तुम हो? कौन तुम्हारा हो सकता है? किसके तुम हो सकते हो? तुम बस अपने हो। इसके अतिरिक्त सब मान्यता है, सब धारणा है।

तुमसे यह भी नहीं कह रहा कि भाग जाओ घर छोड़ कर, क्योंकि कौन पत्नी, कौन बेटा! वह जो भागता है, वह भी सपने में है। मैं तुमसे कह रहा हूं. जाग जाओ, भागना कहां है! होशपूर्वक देख लो। संसार जैसा चलता है, चलता रहने दो। कुछ अड़चन नहीं है। तुम्हारे जागने से संसार नहीं जाग जायेगा, लेकिन तुम जाग कर एक अनूठे अनुभव को उपलब्ध हो जाओगे। तुम हंसोगे भीतर ही भीतर कि जागे हुए लोग कैसे सोये—सोये चल रहे हैं! जिनका स्वभाव मुक्ति है, वे कैसे बंधन में पड़े हैं! तुम आश्चर्यचकित होओगे। बड़ी लीला चल रही है। परमात्मा बंधन में है! मुक्त स्वभाव जंजीरों में है! जो हो नहीं सकता, वैसा होता मालूम पड़ रहा है!

मैं तो तुम्हें मुक्त कर देता हूं, लेकिन तुम्हारा मन नहीं मानता। तुम कहते हो. ‘कुछ करना पड़ेगा, तब मुक्ति होगी। ऐसे कहीं मुक्ति होती है?’ तुम मुक्ति अर्जित करना चाहते हो। खयाल रखना, अर्जन करने की सब आकांक्षा अहंकार की है। अहंकार कहता है. ‘अर्जित करूंगा! जैसे धन कमाया, ऐसे ध्यान कमाऊंगा। जैसे मकान बनाया, ऐसे मंदिर बनाऊंगा! जैसे संसार रचाया, ऐसे मोक्ष भी रचाऊंगा!’

जो रचाया जाता है, वह संसार है। जो रचा ही हुआ है और केवल जाग कर देखा जाता है, वही मोक्ष है। तुम कहते हो, जैसे मैंने पद—पदविया पायीं, ऐसे ही परमात्मा को भी पाऊंगा। तुम कहते हो, परमात्मा परम पद है। तुमने अपनी भाषा में उसको भी पद बना रखा है; जैसे वह जरा राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से और जरा ऊपर।’वहां पहुंच कर रहूंगा।’ लेकिन पद है!

परमात्मा पद नहीं है—तुम्हारा स्वभाव है। तुम वहां हो। तुम वहां से रत्ती भर हट नहीं सकते। तुम लाख चाहो तो तुम वहां से गिर नहीं सकते। गिरने की कोई सुविधा नहीं है। तुम कहीं भी रहो, परमात्मा ही रहोगे। नर्क में रहो, स्वर्ग में रहो, तुम परमात्मा ही रहोगे। तुम्हारा भीतर का स्वभाव बदलता नहीं, बदला जा सकता नहीं। स्वभाव हम कहते ही उसी को हैं जो बदला न जा सके; जिसमें कोई बदलाहट न होती हो; जो शाश्वत है; जो सदा है और सदा एकरस है।

अब तुम पूछते हो : ‘तो फिर संचित का क्या भविष्य बनता है?’

तुम संचित का हिसाब लगा रहे हो। संचित क्या है? एक सपना अभी देखा, एक सपना कल देखा था, एक सपना परसों देखा था—कल और परसों के सपनों को तुम संचित कहते हो? जब यही जो तुम देख रहे हो, सपना है, तो जो कल देखा था वह भी सपना हो गया, जो परसों देखा था वह भी सपना हो गया। संचित यानी क्या? अगर तुम्हें यह सपना सपना समझ में आ गया, जो तुम अभी देख रह हो, तो सारे जन्मों —जन्मों के सपने सपने हो गये। बात खतम हो गयी। तुम सुबह उठ कर यह थोड़े ही कहोगे कि ‘सपने में एक आदमी से रुपये उधार ले लिये, वापिस तो करना पड़ेंगे न? आप तो कहते हो मुक्त हो गये, मान लिया, मगर अदालत पकड़ बैठेगी। वापिस तो करना पड़ेंगे न जिससे रुपये ले लिये हैं सपने में? ‘सपने में रुपये ले लिये वापिस करने पड़ेंगे! कि सपने में किसी को रुपये दे दिये, वापिस लेने पड़ेंगे! कि सपने में किसी को मार दिया, क्षमा मागनी पड़ेगी! कि सपने में किसी ने अपमान कर दिया तो बदला लेना पड़ेगा! संचित क्या पर

अब इसे समझना। संचित का अर्थ होता है कि तुम्हारी यह धारणा है कि तुमने कुछ किया। तुम कर्ता थे, तो कर्म बना।

ऐसा समझो, तुम साधारणत: सोचते हो कि कर्म हमें पकड़े हुए हैं। अष्टावक्र जैसों की उदघोषणा कुछ और है। वे कहते हैं, कर्ता का भाव तुम्हें पकड़े हुए है, कर्म नहीं। कर्ता के भाव के कारण फिर कर्म पकड़े हुए हैं। अगर कर्ता का भाव छूट गया तो मूल से बात कट गयी; कर्म का तो अर्थ ही न रहा। फिर परमात्मा ने जो किया, किया; जो करवाया, करवाया। जो उसकी मर्जी थी, हुआ।

इधर तो तुम कहते हो, उसकी बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता—और फिर भी संचित कर्म तुम करते हो! पुण्य—पाप तुम करते हो, उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता! तुम कौन हो? तुम बीच में क्यों आ गये हो? तुम कह दो. ‘जो हुआ उसके द्वारा हुआ। जो नहीं हुआ उसके द्वारा हुआ। अगर मैंने किसी को मारा तो उसने ही किया होगा। और अगर किसी ने मुझे मारा तो उसकी मर्जी रही होगी। न अब कोई नाराजगी है, न कोई लेन—देन है। दिया—लिया सब बराबर हो गया।’ ऐसी अनुभूति का नाम मुक्ति है।

मुक्ति में संचित का कोई हिसाब नहीं है। संचित में तो पुरानी धारणा तुम फिर खींच रहे हो। कर्म किया, तो उसका तो कुछ करना पड़ेगा न! पाप किये तो पुण्य करने पड़ेंगे। पुण्य से पाप को संतुलित करना पड़ेगा, तब कहीं मुक्ति होगी।

तुम बड़े हिसाबी—किताबी हो। तुम दूकानदार हो। तुम्हें परमात्मा समझ में नहीं आता। परमात्मा जुआरी है, दूकानदार नहीं। परमात्मा खिलाड़ी है, दूकानदार नहीं। तुम्हें यह बात ही समझ में नहीं आती कि यह बात तो बेबूझ है। तुम यह मान ही नहीं सकते कि पुण्यात्मा भी वैसा ही है जैसा पापी। दोनों ने सपना देखा। तुम कहते हो, ‘पुण्यात्मा ने भी सपना देखा, पापी ने भी। दोनों में कुछ फर्क तो होगा!’ कुछ फर्क नहीं है। रात तुम साधु बन गये सपने में कि चोर बन गये, क्या फर्क है! सुबह उठ कर क्या कुछ फर्क रह जायेगा? सुबह उठ कर दोनों सपने सपने हो गये—स्व से सपने हो गये। अच्छा भी, बुरा भी।

शुभ और अशुभ के जो पार हो गया, वही मुक्त है। पाप और पुण्य के जो पार हो गया, वही मुक्त है। और पार होने के लिए तुम क्या करोगे? क्योंकि करने से तुम बंधे हो। इसलिए पार होने के लिए एक ही उपाय है कि तुम करो मत, करने को देखो! जो हो रहा है होने दो। निमित्त तुम हो जरूर। सपना तुमसे बहा जरूर।

‘तो फिर संचित का क्या भविष्य बनता है?’

न संचित कभी था। अतीत भी नहीं है, भविष्य तो क्या खाक होगा! संचित का न कोई अतीत है, न कोई वर्तमान है, न कोई भविष्य है। सपने का कोई अतीत होता है? कोई भविष्य होता है? कोई वर्तमान होता है? सपना होता मालूम पड़ता है, होता नहीं—सिर्फ भास मात्र, आभास भर।

‘क्या वह क्षीण हो जाता है?’

तुम अपनी भाषा दोहराये चले जा रहे हो। सुबह जब तुम जागते हो तो सपना क्षीण होता है? समाप्त होता है। क्षीण का तो मतलब यह है कि अभी थोड़ा— थोड़ा जा रहा है। तुम जाग भी गये, सपना दस इंच चला गया, फिर बीस इंच गया, फिर गज भर गया, फिर दो गज, फिर मील भर, ऐसा धीरे — धीरे…… तुम जागे बैठे अपनी चाय पी रहे और सपना जो है वह रत्ती—रत्ती जा रहा है, क्षीण हो रहा है। एक कोई धक्का दे दे तुमको सोते में, तुम्हारी एकदम से आंख खुल जाये, तो भी सपना गया— पूरा—का—पूरा गया। सपना बच कैसे सकता है?

नहीं, तुम्हारा फुटकर में बहुत भरोसा है; यहा थोक की यह बात हो रही है। तुम फुटकर व्यापारी मालूम पड़ते हो। तुम कहते हो, क्षीण होगा धीरे— धीरे, धीरे — धीरे…..। एक—एक सीढ़ी चढ़ेंगे। तुम्हारी मर्जी! अगर तुम्हारा इतना ही लगाव है कि धीरे— धीरे सरकोगे, तुम सरको। मगर मैं तुमसे कहता हूं कि तुम धीरे— धीरे कितना ही सरको, तुम सपने के बाहर न आ पाओगे। क्योंकि सरकना भी सपने का हिस्सा है।’ धीरे — धीरे’ भी सपने का हिस्सा है। समय मात्र सपने का हिस्सा है।

तत्‍क्षण जागो! इसलिए कहता हूं : मैं तो संन्यास देते ही तुम्हें तत्काल मुक्त कर देता हूं। फिर अगर तुम कंजूस हो, तुम्हारी मर्जी।

बड़े कृपण लोग हैं! मुक्ति तक में कृपण हैं! देने की तो बात दूर, यहां मैं कह रहा हूं ले लो पूरा! वे कहते हैं कि इकट्ठा कैसे लें, धीरे— धीरे लेंगे! थोड़ा— थोड़ा दें, इतना ज्यादा मत दें।

तुम देने में तो कंजूस हो ही गये हो, लेने में भी कंजूस हो गये हो। तुमने हिम्मत ही खो दी। तुम्हारा साहस ही नहीं बचा।

‘और अगर संन्यास लेने के तुरंत बाद ही मुक्ति नहीं होती तो क्या उसका अर्थ है कि संचित की चादर अभी मोटी है?’

छोड़ो भी यह चादर! यह चादर कहीं है ही नहीं।

एक रात मुल्ला नसरुद्दीन सोया। बीच रात में उठ कर बैठ गया। किसी ग्राहक से बात करने लगा। कपड़े की दूकान है। और जल्दी से चादर उसने फाड़ी। पत्नी चिल्लायी कि यह क्या कर रहे हो? उसने कहा कि तू चुप रह, दूकान पर तो कम—से—कम आ कर बाधा न दिया कर।

तब उसकी नींद खुली—अपनी चादर फाड़ बैठा। न वहा कोई ग्राहक है, न कोई खरीदार है। कैसी चादर? मोटी, पतली—कैसी चादर? मुक्त होने में तुम इतने ज्यादा भयभीत क्यों हो? तुम किसी—न—किसी तरह से बंधन को बचा क्यों रखना चाहते हो? डर का कारण है। डर का कारण है क्योंकि मुक्ति तुम्हारी नहीं है। मुक्ति ‘तुम’ से मुक्ति है।

मुक्ति का अर्थ यह नहीं होता कि तुम मुक्त हो गये। तुम बचे तो मुक्ति कहां? मुक्ति का अर्थ होता है : तुम गये, मुक्ति रही। इसलिए घबड़ाहट है। इसलिए तुम कहते हो : ‘थोड़ा— थोड़ा, धीरे— धीरे करेंगे। नहीं तो एकदम से खो गये…..!’ खोने से तुम डरे हो।’मिट गये…..!’

नदी भी डरती होगी सागर में उतरने के पहले, झिझकती होगी, लौट कर पीछे देखती होगी। इतनी लंबी यात्रा हिमालय से सागर तक की! इतने—इतने लंबे संस्मरण, इतने सपने, इतने वृक्षों के नीचे से गुजरना, इतने सूरज, इतने चांद, इतने लोग, इतने घाट, इतने अनुभव! सागर में गिरने के पहले सोचती होगी. ‘मिट जाऊंगी। रोक लूं।’ ठिठकती होगी, झिझकती होगी। पीछे मुंह करके देखती होगी, जिस राह से गुजर आयी। ऐसी ही तुम्हारी गति है। तुम एकदम छोड़ नहीं देना चाहते। तुम बचा लेना चाहते हो कुछ। और तुम जब तक बचाना चाहोगे तब तक बचा रहेगा। तुम तुम्हारे मालिक हो। इधर मैं जगाता रहूंगा, तुम बचाते रहना।

मगर मैं अपनी तरफ से तुम्हें साफ कर दूं : कोई चादर नहीं है—न पतली, न मोटी। तुम बिलकुल उघाड़े बैठे हो। तुम बिलकुल नग्न हो, दिगंबर! कोई चादर वगैरह नहीं है। आत्मा पर कैसी चादर? कबीर ने कहा है. ‘ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया। खूब जतन कर ओढी रे चदरिया।’

मैं तुमसे कहता हूं कि ज्यों की त्यों इसीलिए धर दी, क्योंकि चादर है ही नहीं। होती तो ज्यों की त्यों कैसे धरते? थोड़ा सोचो। होती चादर तो ज्यों की त्यों धर सकते? कुछ—न—कुछ गड़बड़ हो ही जाती। जिदगी भर ओढ़ते तो गंदी भी होती, कूड़ा—कर्कट भी लगता। धोते तो कभी! तो अस्तव्यस्त भी होती, रंग भी उतरता। धूप— धाप भी पड़ती। जीर्ण —शीर्ण भी होती। और कबीर कहते हैं. ‘ज्यों की त्यों धरि दीन्ही चदरिया! खूब जतन कर ओढी रे।’

चादर है ही नहीं। इसलिए ज्यों की त्यों धर दी। और चादर होती तो तुम लाख जतन से ओढो गड़बड़ हो ही जायेगी। है ही नहीं।

तो फिर….. मैं तुमसे कहता हूं : चादर नहीं है। तुम हो चादर। और जब तक तुम बचना चाहते हो तब तक चादर बची है। जिस दिन तुम राजी हो मिटने को, फिर कुछ नहीं बचता, मुक्ति बचती है। मुक्ति तुम्हारी नहीं है, फिर दोहरा दूं। मुकि्त तुमसे बड़ी है, तुमसे विराट है। मुक्ति सागर जैसी

है,तुम नदी जैसे संकीर्ण हो।

पांचवां प्रश्न :

आप कहते हैं कि सिर्फ सुन कर प्रभु को उपलब्ध हो सकते हो। आपको सुनते समय मुझे ऐसा लगता है कि सब जान लिया और सुन कर आनंद में डूब जाता हूं। लेकिन कुछ काल के अंतर पर पहले ही जैसा हो रहता हूं। तब ऐसा लगता है कि जाने कैसी मुसीबत में फंस गया! पहले ही मजे में था। अब हालत है कि छोड़े छूटता नहीं और पकड़ में भी आने से रहा। इस तड़पन से बचाओ भगवान!

समझो।

पहली बात, तुम कहते हो. ‘आप कहते हैं कि सिर्फ सुन कर प्रभु को उपलब्ध हो सकते हो।’

निश्चित ही। क्योंकि खोया होता तो कुछ और करना पड़ता। सिर्फ सुन कर उपलब्ध हो सकते

हो। ऐसा ही मामला है, तुमने दो और दो पांच जोड़ रखे हैं और मैं आया और मैंने कहा कि पागल हुए हो, दो और दो पांच नहीं होते, दो और दो चार होते हैं। तो तुम क्या कहोगे कि ‘बस क्या सुन कर ही दो और दो चार हो जायें? अब मेहनत करनी पड़ेगी, शीर्षासन लगायेंगे, भजन—कीर्तन करेंगे तपश्चर्या करेंगे, उपवास करेंगे—तब दो और दो चार होंगे।’ दो और दो चार होते हैं! तुम्हारे उपवास इत्यादि से नहीं होंगे। दो और दो चार ही हैं। तुम जब दो और दो पांच लिख रहे हो, तब भी दो और दो चार ही हैं। पांच तुम्हारी ही गलती, तुम्हारी भ्रांति है।

संसार माया है—अर्थ. संसार तुम्हारी भांति है, है नहीं। तो सुनने से ही हो सकता है।

‘सुनने से ही तुम उपलब्ध हो सकते हो, ऐसा आप कहते हैं। आपको सुनते समय मुझे लगता है कि सब जान लिया।’

बस वहीं भूल हो गयी। तुम समझे कि सब जान लिया, तो तुम ज्ञाता बन गये, ज्ञानी बन गये, पंडित बन गये। जान लिया! तो चूक हो गयी। अहंकार ने फिर अपने को बचा लिया—जानने में बचा लिया।

अगर तुमने मुझे ठीक से समझा तो तुम जानोगे कि जानने को कुछ भी नहीं है। जानने को है क्या? अगर तुमने ठीक से मुझे सुना और समझा, तो तुम जानने से मुक्त हो जाओगे। जानने को क्या है? जीवन परम रहस्य है—गढु रहस्य है। जानने में नहीं आता। जाना नहीं जाता। जीया जाता है। कोई समस्या नहीं है कि समाधान हो जाये। जीवन कोई प्रश्न नहीं है कि उत्तर बन जाये।

मैं तुम्हें कोई उत्तर नहीं दे रहा हूं तुम्हें सिर्फ जगा रहा हूं। तुम उत्तर पकड़ रहे हो, मैं तुम्हें जगा रहा हूं। बस वहीं चूक हुई जा रही है। तुम सुन लेते हो मुझे, तुम थोड़ा—सा संग्रह कर लिये बातों का। तुमने कहा कि बिलकुल ठीक, बात तो जंच गयी। बस यहीं चूक गये। यह कोई बात थोड़े ही है जो मैं तुमसे कर रहा हूं। यह तो तुम्हें थोड़ा—सा धक्के दे रहा हूं कि तुम थोड़ी आंख खोलो। तुम ज्ञानी बन कर मत लौट जाना।

मैं चाह रहा हूं कि तुम समझ लो कि सब ज्ञान मिथ्या है। ज्ञान मात्र मिथ्या है। ज्ञान का अर्थ ही हुआ कि तुम अलग हो गये। जिसे तुमने जाना उससे जानने वाला अलग हो गया। भेद खड़ा हो गया। अभेद टूट गया। अद्वैत मिट गया, द्वैत हो गया। दुई आ गयी। परदा पड़ गया। बस उपद्रव शुरू हो गया।

मैं तुम्हें जगा रहा हूं—उसमें, जो एक है, अद्वैत है। तुम उस महासागर में जागो! ज्ञानी मत बनो। अन्यथा ज्ञानी बन कर जाओगे, दरवाजे से निकलते—निकलते ज्ञान हाथ से खिसक जायेगा। ज्ञान काम नही आयेगा।

मैं तुमसे कहता हूं. अपने अज्ञान की आत्यतिकता को स्वीकार कर लो। यह तुम्हें बड़ा कठिन लगता है। क्योंकि सब बातें अहंकार के विपरीत जाती हैं। अहंकार कहता है : कर्ता बनो। वह मैं कहता हूं, कर्ता मत बनो। अहंकार कहता है : ‘चलो अच्छा तो ज्ञानी बन जाओ, पंडित तो बन सकते हैं न! इसमें तो कुछ हर्जा नहीं।’ और मैं तुमसे कहता हूं. पंडित से ज्यादा मूढ़ कोई होता ही नहीं। पांडित्य मूढ़ता को बचाने का एक उपाय है। तुम तो सहज हो जाओ। तुम तो कह दो. ‘जानने को क्या है? क्या जान सकता हूं?’ आदमी ने कुछ जाना अब तक ? तुम क्या जानते हो, तुमने कभी इस पर सोचा? तुम कहते हो, यह स्त्री मेरे साथ तीस साल से रहती है, मेरी पत्नी है। तुम इसको जानते हो? क्या जानते हो? तीस साल के बाद भी क्या जानते हो? छोड़ो, यह तो तीस साल से रहती है; तुम कितने जन्मों से अपने साथ हो, स्वयं को जानते हो? क्या पता है तुम्हें? आईने में जो तस्वीर दिखाई पड़ती है, वही तुम अपने को समझे बैठे हो। कि बाप ने एक नाम दिया, वह तुम हो! कौन हो तुम?

वैज्ञानिक कहते हैं कि वे जानते हैं। गलत खयाल है। वैज्ञानिक से पूछो, पानी क्या है? वह कहता है, हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिल कर बना है। हाइड्रोजन और आक्सीजन क्या हैं? फिर अटक गये। एक तरफ से सरके थोड़े—बहुत, मगर वह कोई जानना हुआ? पानी पर अटके थे। पानी पूछा, क्या? कहा, हाइड्रोजन, आक्सीजन। हाइड्रोजन क्या? फिर अटक गये। फिर थोड़ा—बहुत धक्कम— धुक्की की तो कहा कि ये इलेक्ट्रॉन और च्छॉन और पॉजीट्रॉन। और ये क्या? तो वह कहता है, इनका कुछ पता नहीं चलता। तो साफ क्यों नहीं कहते कि पता नहीं चलता! ऐसा गोल—गोल जा कर, पता नहीं चलता! जब इलेक्ट्रॉन न्‍यूट्रॉन का पता नहीं चलता, तो हाइड्रोजन का पता नहीं चला, और हाइड्रोजन का पता नहीं चला तो पानी का पता नहीं चला। मामला तो सब गड़बड़ हो गया।

यह तो ऐसा ही हुआ कि मैं स्टेशन पर आऊं और तुमसे पूछूं कि श्री रजनीश आश्रम कहां है? और तुम कहो कि कोरेगाँव पार्क में। और मैं तुमसे पूछूं कि कोरेगाव पार्क कहां है? और तुम कहो कि ब्‍लू डायमंड के पास। मैं पूछूं क्यू डायमंड कहां है? तुम कहो, इसका कुछ पता नहीं। तो मामला क्या हुआ? जब ब्‍लू डायमंड का पता नहीं है तो कोरेगाव गड़बड़ हो गया। कोरेगाव गड़बड़ हो गया तो आश्रम.! —तो वहां पहुंचें कैसे? तुम कहोगे, अब यह आप समझो। बाकी यहां तक हमने बता दिया, ब्‍लू डायमंड तक। लेकिन ब्लू डायमंड क्या है, इसका किसी को कोई पता नहीं। तो यह कुछ जानना हुआ?

विज्ञान भी धोखा है। जानना तो होता ही नहीं। आज तक कोई बात जानी तो गयी ही नहीं। यह सारा विराट अनजान है, अपरिचित है, अज्ञात है, अज्ञेय है। यहां जानना भ्रम है।

ज्ञान के भ्रम से तुम मुक्त हो जाओ, यह मेरी चेष्टा है। और तुम कहते हो कि ‘आपको सुन कर मजा आ जाता है। जान लिया, ऐसा लगता है जान लिया। आयी मुट्ठी में बात।’ बस यहीं चूक गये तुम। धुआ पकड़ रहे हो। कुछ आयेगा नहीं हाथ में। बाहर जा कर जब मुट्ठी खोलोगे, तुम कहोगे यह तो मामला गड़बड़ हो गया। मुट्ठी में तो कुछ भी नहीं है। एकदम पकड़ लिया था उस वक्त और सब छिटक गया। तुम भ्रांति में पड़ रहे हो।

मैं तुम्हें ज्ञान नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें जाग दे रहा हूं। जाग का अर्थ है कि ज्ञान न तो कभी हुआ है, न हो सकता है, न होगा। जाग का अर्थ है. जीवन परम रहस्य है।

वेदों में एक बड़ी अनूठी बात है।’यह सब क्या है? ‘—ऋषि ने पूछा है।

‘शायद परमात्मा जिसने इसे बनाया वह जानता हो, या कौन जाने वह भी न जानता हो!’

यह बड़ी अदभुत बात है। परमात्मा! वेद का ऋषि कहता है. ‘यह सब क्या है?’

‘शायद! शायद, परमात्मा जानता हो जिसने यह सब बनाया, या कौन जाने वह भी न जानता हो!’ बड़े हिम्मतवर लोग रहे होंगे। इसका सार अर्थ हुआ कि परमात्मा को भी पता नहीं है।

असल में जिस चीज का पता हो जाये, वह व्यर्थ हो जाती है। पता ही हो गया तो फिर क्या बचा? पता चल गया तो परिभाषा हो गयी। इस अस्तित्व की अब तक कोई परिभाषा नहीं हो सकी। कोई कह सका, क्या है? इसलिए तो बुद्ध चुप रह गये। जब तुम उनसे पूछो ईश्वर है? वे चुप रह जाते हैं। आत्मा है? वे चुप रह जाते हैं। यह ठीक—ठीक उत्तर दिया बुद्ध ने! वे कहते हैं. यह बकवास बंद करो आत्मा, ईश्वर की! कौन जान पाया? जागो! जानने की चिंता छोड़ो।

तो एक तो कर्ता की दौड़ है, वह अहंकार की दौड़ है। फिर एक ज्ञान की दौड़ है, वह भी अहंकार की दौड़ है। कर्ता कहता है. अच्छा करो, बुरा मत करो। ज्ञानी कहता है : सत्य को जानो, असत्य को मत जानो। लेकिन दोनों भेद करते हैं। धार्मिक व्यक्ति तो कहता है. जाना ही नहीं जा सकता।

अगर मुझे सुन कर तुम्हें यह समझ में आ जाये कि जाना ही नहीं जा सकता, फिर तुम कैसे खो पाओगे, बताओ! फिर तुम यहां से चले जाओगे, क्या तुमने यह जो जाना कि नहीं जाना जा सकता इसे तुम कभी भी खो सकोगे? फिर यह तुम्हारी संपदा हो गयी। फिर तुम मुट्ठी खोलो कि बंद करो, तुम हिलाओ—डुलाओ हाथ, मुट्ठी खोल कर या बंद करके, यह गिरेगा नहीं। यह तुम्हारी संपदा हो गयी। फिर तुम इसे कैसे छोड़ पाओगे? कोई उपाय है छोड़ने का? जानना तो छूट सकता है, भूल सकता है; लेकिन यह अज्ञान का गहन भाव कि नहीं कुछ पता है…..।

उपनिषद कहते हैं. जो जानता है, जान लेना कि नहीं जानता। जो नहीं जानता, जानना कि वही जानता है।

और सुकरात ने कहा है : मुझे एक ही बात पता है कि मुझे कुछ भी पता नहीं।

ये परम ज्ञानियों की उदघोषणाएं हैं।

जानो कि जानने में जानना नहीं है। जानो कि न जानने में ही जानना है। तुम अगर मेरे पास से न जानने का यह अहोभाव लेकर विदा होओ, तो फिर तुमसे कोई भी इसे छीन न सकेगा। डाकू लूट न सकेंगे। जेबकतरे काट न सकेंगे। कोई तुम्हारे जीवन में संदेह पैदा न कर सकेगा। जहां ज्ञान है वहां संदेह की संभावना है। कोई दूसरा विपरीत ज्ञान ले आये, तो झंझट खड़ी कर देगा। तर्क ले आये, तो झंझट खड़ी कर देगा।

मैं तुम्हें ज्ञान नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें कुछ और बहुमूल्य दे रहा हूं? जो तुम्हारी समझ में नहीं पड़ रहा है। जिस दिन जिसको समझ में पड़ जायेगा, वह उसी क्षण मुक्त हो गया। और जो अज्ञान में मुक्त हो गया, उसकी मुक्ति महान है, गहन है! उसका निर्वाण फिर छीना नहीं जा सकता।

तुमने क्या जाना? इसे सोचो। अब तक कुछ भी जान पाये? कुछ भी तो नहीं जान पाये। कूड़ा—कर्कट इकट्ठा कर लेते हो, सूचनाएं इकट्ठी कर लेते हो—सोचते हो जान लिया? किसी ने पूछा, यह वृक्ष जानते हो? तुमने कहा : ही, अशोक का वृक्ष है। यह कोई जानना हुआ? अशोक का वृक्ष तुमने कह दिया। अशोक के वृक्ष को पता है कि उसका नाम अशोक है ? तुमने क्या खाक जान लिया! तुमने ही नाम दे दिया, अशोक। तुमने ही बता दिया कि अशोक का वृक्ष है। तुम्हीं ने तख्ती लगा दी, तुम्हीं ने पढ़ ली। वृक्ष को भी तुम अभी तक नहीं समझा पाये कि तुम अशोक हो। तुम जानते क्या हो? —कामचलाऊ बातें, ऊपरी—ऊपरी, ‘लेबिल’ चिपका दिये हैं।

ज्ञान यहां कहीं भी नहीं है। न तो शास्त्रों में ज्ञान है, न वैज्ञानिकों के पास ज्ञान है। किसी के पास ज्ञान नहीं है। ज्ञान होता ही नहीं।

ऐसा भाव जब तुम्हारे भीतर स्पष्ट हो जायेगा, तब तुमसे कौन छीन सकेगा तुम्हारे बोध को! कैसे छीन सकेगा! तब तुम एक शाश्वतता में जीओगे—कालातीत, क्षेत्रातीत। तुम्हारी शांति प्रगाढ़ होगी। उसी क्षण उसका उदय होता है, जिसके प्रति नमन हो सकता है। वह उदय रहस्यपूर्ण है—ज्ञानपूर्ण नहीं।

और आखिरी प्रश्न—

आखिरी में रखा है, क्योंकि प्रश्न नहीं है, उत्तर है। जैसे मैंने पूछा हो और कोई ज्ञानी आ गये हों, उन्होंने उत्तर दे दिया : ‘मैं—तू —वह ये वास्तविक भेद नहीं हैं, शाब्दिक हैं। रुचि या स्थिति—विशेष में इनके द्वारा परमात्मा को पुकारा जाता है।’

अब यह तो उत्तर है, यह कोई प्रश्न नहीं है। अगर यह उत्तर तुम्हें मिल गया है तो तुम यहां किसलिए आये हो? यहां क्या कर रहे हो? बात खतम हो गयी। और अगर यह उत्तर तुम्हें अभी मिला नहीं है, तो तुम किसको यह उत्तर दे रहे हो और किस कारण?

आदमी को अपना ज्ञान बताने की बड़ी आकांक्षा होती है। जितना कम हो, उतनी ज्यादा आकांक्षा होती है। इसलिए तो कहते हैं. थोड़ा ज्ञान बड़ा खतरनाक। यह भी तुमने जाना नहीं है कि तुम क्या कह रहे हो? क्यों कह रहे हो? मैंने तुमसे पूछा नहीं। तुम्हें यह उत्तर देने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन फिर भी बिना पूछे तुमने दिया तो धन्यवाद! ऐसे ही तुम मुझे देते रहे तो कभी—न—कभी मैं भी ज्ञानी हो जाऊंगा! ऐसी कृपा बनाये रखना!

एक व्यक्ति आधी रात को सड़क पर घूम रहा था। एक सिपाही ने उसे रोक कर पूछा, श्रीमान, आपके पास इतनी रात गये सड़क पर घूमने का कोई कारण है ? उस व्यक्ति ने सिर ठोंक कर कहा कि यदि मेरे पास कोई कारण ही होता तो मैं कभी का घर पहुंच कर अपनी बीबी के सामने पेश कर चुका होता; कारण नहीं है, इसीलिए तो घूम रहा हूं।

अगर तुम्हें पता ही चल गया है, जो तुमने कहा है अगर तुम्हें पता चल गया है, तो तुम परमात्मा के सामने उपस्थित हो जाते, तब तो मंदिर का द्वार खुल जाता। इन शाब्दिक समझदारियो में मत उलझी।

‘मैं, तू वह—ये वास्तविक भेद नहीं हैं।’

कहा किसने कि ये वास्तविक भेद हैं? तुम सोचते हो कोई भेद वास्तविक होते हैं? भेद मात्र अवास्तविक हैं। तुमको यह खयाल किसने दे दिया कि भेद वास्तविक भी होते हैं?

और तुम कहते हो कि ‘मैं, तू वह—सब शाब्दिक भेद हैं।’

ये शब्द ही हैं, स्वभावत: भेद शाब्दिक होंगे। तुम समझा किसको रहे हो? किसने कहा कि ये शब्द नहीं हैं? और अगर शब्द न होते तो मैं कैसे बोलता; तुम कैसे लिखते? सब शब्द हैं।

‘रुचि या स्थिति—विशेष में इनके द्वारा परमात्मा को पुकारा जाता है।’

तुम्हें परमात्मा का पता है? और जब तक स्थिति—विशेष रहे और रुचि—विशेष रहे तब तक परमात्मा से किसी का कभी संबंध हुआ है? अष्टावक्र कहते हैं. ‘दृष्टि—शून्य:।’ जब दृष्टि शून्य हो जाये, कोई दृष्टि न बचे! जब कोई स्थिति न बचे, कोई अवस्था न बचे, तुम स्थिति और अवस्थाओं के पार हो जाओ—तभी परमात्मा का प्रागट्य होता है।

तो अगर कोई रुचि है अभी शेष, तो तुम जिसको पुकार रहे हो वह परमात्मा नहीं है। वह तुम्हारी पुकार है, तुम्हारी रुचि की पुकार है। परमात्मा से उसका क्या लेना—देना? निश्चित ही अलग—अलग

रुचि के लोग परमात्मा को अलग— अलग नाम देते रहते हैं। लेकिन क्या इससे परमात्मा को नाम मिलते हैं? जैसे मैंने तुमसे कहा, अशोक के वृक्ष को भी पता नहीं है कि वह अशोक का वृक्ष है। और परमात्मा को भी पता नहीं है कि तुम किस—किस तरह के पागलपन उसके नाम से कर रहे हो।

सूफी पुकारते हैं परमात्मा को स्त्री मान कर, प्रेयसी मान कर। कोई हैं जो परमात्मा को पिता मान कर पुकारते हैं, जैसे ईसाई। कोई कुछ मान कर पुकारते हैं, कोई कुछ मान कर पुकारते। इससे तुम्हारी रुचि भर का पता चलता है, या तुम्हारी बीमारी का पता चलता है। इससे परमात्मा तक पुकार नहीं पहुंचती; क्योंकि परमात्मा न पिता है, न माता है, न भाई है, न बेटा है, न पत्नी है, न प्रेयसी है।

परमात्मा कोई संबंध थोड़े ही है तुम्हारे और किसी के बीच! परमात्मा तो ऐसी घड़ी है जहां तुम न बचे; जहां पुकारने वाला न बचा। तुम जब पुकार रहे हो तब तक परमात्मा तक पुकार न पहुंचेगी। जब पुकारने वाला ही मिट गया, जब पुकार न बची, जब कोई न बचा पुकारने को, जब गहन सन्नाटा घिर गया, जब शून्य उतरा, शन्यादृष्टि:, सब शून्य भाव हो गया—तभी।

हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराई! जब कबीर खो गया खोजते—खोजते, तब, तब हुआ मिलन। कबीर ने कहा है. जब तक मैं था तब तक तू नहीं, अब तू है मैं नाहिं।

तो तुम पुकारो विशेष—स्थिति में, रुचि में, परमात्मा को नाम दो, ये सब तुम्हारे संबंध में खबर देते हैं, इससे परमात्मा का कुछ पता नहीं चलता।

मगर यह उत्तर चाहा किसने था? तुम्हारे भीतर दिखता है ज्ञान खडुबडा रहा है, प्रगट होना चाहता है। तुम बड़ी खतरनाक स्थिति में हो। जब तुम मुझे तक नहीं बख्यो, तो दूसरों की क्या हालत कर रहे होओगे। तुम्हारे पंजे में जो पड़ जायेगा, तुम उसी के गले में घोंटने लगोगे ज्ञान। तुम जरूर अत्याचार कर रहे होओगे लोगों पर। जिन पर भी कर सकते होओगे, तुम मौका न छोड़ते होओगे।

ध्यान रखना, ऐसा ज्ञान किसी के भी काम नहीं आता। जब तक कोई तुम्हारे पास पूछने न आया हो, तब तक मत कहना। क्योंकि जो बिना पूछे कहा जाता है, उसे कोई स्वीकार नहीं करता। जब कोई प्यास से पूछने आता है, तब मुश्किल से लोग स्वीकार करते हैं; तब भी मुश्किल से स्वीकार करते हैं। खुद ही आये थे पूछने, तो भी बड़े झिझक से स्वीकार करते हैं, तब भी स्वीकार कर लें तो धन्यभाग! लेकिन जब तुम्हीं उनकी तलाश में घूमते हो ज्ञान ले कर कि कहीं कोई मिल जाये तो उंडेल दें ज्ञान उसके ऊपर, तब तो कोई स्वीकार करने वाला नहीं है। लोग सिर्फ नाराज होंगे। इसलिए ज्ञानियों से लोग बचते हैं कि चले आ रहे हैं पंडित जी! वे भागते हैं, कि पंडित चले आ रहे हैं, यहां से बचो नहीं तो वे सिर खायेंगे!

जो नहीं मांगा है वह देने की कोशिश कभी नहीं करना।

कहा जाता है कि दुनिया में जो चीज सबसे ज्यादा दी जाती है और सबसे कम ली जाती है, वह सलाह है। सलाह इतनी दी जाती है, इतनी दी जाती है—और लेता कोई भी नहीं! क्योंकि मुफ्त तुम देते हो—कौन लेगा? अकारण, बिना मांगे तुम देते हो—कौन लेगा?

नहीं, इस तरह के ज्ञान को उछालते मत फिरो। कोई तुम्हारे पास जिज्ञासा करने आये कभी, उसको बता देना। कोई तुमसे पूछता हो तो उसको बता देना। लेकिन कोई पूछे न, किसी ने जिज्ञासा न की हो, तो ऐसी आतुरता मत रखो। ऐसी आतुरता खतरनाक है, हिंसात्मक है। ऐसे ज्ञानियों ने लोगों के मन में ज्ञान के प्रति बड़ी अरुचि पैदा कर दी है। ऐसे ज्ञानियों के कारण जीवन की परम गुह्य बातें भी उबाने वाली हो गयी हैं। उनसे रस समाप्त हो गया।

चुप रहो! अगर किसी को पता चलेगा कि तुम्हें ज्ञान मिल गया, तुम्हें कुछ जागरण आ गया, लोग अपने—आप आने लगेंगे। कोई पूछे, तब कह देना।

यहां तो कोई भी तुमसे पूछ नहीं रहा था, कम—से—कम मैंने तो नहीं पूछा था।

लेकिन अहंकार रास्ते खोजता है, नये—नये रास्ते खोजता है। किसी भी तरह से अहंकार अपने को प्रतिस्थापित करना चाहता है कि मैं कुछ हूं विशिष्ट हूं। और वही विशिष्टता तुम्हारा कारागृह है।

(वह तो आखिरी प्रश्न नहीं था, क्योंकि उत्तर था।)

आखिरी प्रश्न :

आपने कहा कि कृष्ण भरोसे के नहीं थे; उनसे अधिक गैर— भरोसे का आदमी खोजना कठिन है। लेकिन मैं समझती हूं कि एक हैं जो उनसे भी अधिक गैर— भरोसे के हैं। क्या आप उन पर बोलना पसंद करेंगे, क्योंकि वे स्वयं भगवान श्री रजनीश हैं?

उन पर बोलने का खतरा तो मैं भी नहीं लूंगा। उनके संबंध में पूछो तो इतना ही कहूंगा:

हरि ओंम तत्सत्!


Filed under: अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--4) ओशो Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–17

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आत्‍मा परम आधार है—प्रवचन—सत्रहवां

सूत्र:

आरूहवि अंतरप्‍पा बहिरप्‍पो छंडिऊण तिविहेण।

झाइज्‍जइ परमप्‍पा, उवइट्ठं जिणवरिदेहिं।। 45।।

णिद्दण्‍डो णिद्दण्‍डो, णिम्‍ममो णिरालंबो।

णीरागो णिद्दोसो, णिम्‍मूढो णिब्‍भयो अप्‍पा।। 46।।

णिग्‍गंथो णीरागो, णिस्‍सल्‍लो सयलदोसणिम्‍मूक्‍को।

णिक्‍कामो णिस्‍कोहो, णिम्‍माणो अप्‍पा।। 47।।

अदम के तारीक रस्ते में

कोई मुसाफिर न राह भूले

मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी

चिरागेत्तुरबत जला रहा हूं।

जीवन के रास्ते पर जिन्होंने अपने को परिपूर्ण मिटा दिया है, वे ही केवल ऐसा प्रकाश बन सके हैं जिनसे भूले-भटकों को राह मिल जाये। जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है, वह दूसरों को भटकाने का कारण बना है। और जिसने अपने को मिटा लिया, वह स्वयं तो पहुंचा ही है; लेकिन सहज ही, साथ-साथ, उसके प्रकाश में बहुत और लोग भी पहुंच गये हैं।

महावीर किसी को पहुंचा नहीं सकते; लेकिन जो पहुंचने के लिए आतुर हो वह उनकी रोशनी में बड़ी दूर तक की यात्रा कर सकता है।

यात्री को स्वयं निर्णय लेना पड़े। जाना है, तो प्रकाश के साथ संबंध बनाने पड़े।

अभी हमने जीवन-जीवन, जन्मों-जन्मों अंधेरे के साथ संबंध बनाये हैं। धीरे-धीरे अंधेरे के साथ हमारे संबंध, संस्कार हो गये हैं, स्वभाव हो गए हैं। अंधेरा हमें सहज ही आकर्षित कर लेता है। एक तो रोशनी हमें दिखाई ही नहीं पड़ती, शायद अंधेरे में रहने के कारण हमारी आंखें रोशनी में तिलमिला जाती हैं; या अगर दिखाई भी पड़ जाये तो भीतर बड़ा भय पैदा होता है। अपरिचित का भय। नये का भय। अनजान का भय।

तो हम तो बंधी लकीर में जीते हैं–कोल्हू के बैल की तरह जीते हैं। कोल्हू का बैल चलता बहुत है, दिनभर चलता है; पहुंचता कहीं भी नहीं।

वर्तुलाकार जो घूमेगा, वह पहुंचेगा कैसे?

इसलिए हमने जीवन को चक्र कहा है। गाड़ी के चाक की भांति, घूमता है, घूमता रहता है; कभी एक आरा ऊपर आता है, कभी दूसरा आरा नीचे चला जाता है–लेकिन वस्तुतः कोई भेद नहीं पड़ता। कभी क्रोध ऊपर आया, कभी मोह ऊपर आया; कभी प्रेम झलका, कभी घृणा उठी; कभीर् ईष्या से भरे, कभी बड़ी करुणा छा गई; कभी बादल घिरे, कभी सूरज निकला–ऐसी धूप-छांव चलती रहती है। एक आरा ऊपर, दूसरा आरा नीचे होता रहता है, और हम चाक की भांति घूमते रहते हैं। लेकिन हम हैं वहीं, जहां हम थे। हमारे जीवन में यात्रा नहीं है। तीर्थयात्रा तो दूर, यात्रा ही नहीं है। बंद डबरे की भांति हैं, जो सागर की तरफ जाता नहीं।

डबरा डरता है। सागर में खो जाने का डर है। और डर सच है, क्योंकि डबरा खोयेगा सागर में। लेकिन उसे पता नहीं, उसके खोने में ही सागर का हो जाना भी उसे मिलनेवाला है।

अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले

आदमी का रास्ता बड़ा अंधेरा है!

अदम के तारीक रस्ते में कोई मुसाफिर न राह भूले

मैं शमए-हस्ती बुझाके अपनी चिरागेत्तुरबत जला रहा हूं।

–तो मैंने अपने जीवन को, अपने होने को तो बुझा दिया है और अपनी मजार का दीया जला लिया है। चिरागेत्तुरबत जला रहा हूं!

जिसे कवि ने चिरागेत्तुरबत कहा है, उसी को महावीर निर्वाण कहते हैं।

जीवन को तो बुझा दिया है, मौत का दीया जला लिया है।

यह जरा कठिन लगेगा, क्योंकि हम तो जीवन और जीवन की आकांक्षा से भरे हैं। जीवेषणा! किसी भी कीमत पर, मरते हों, सड़ते हों, गलते हों; लेकिन फिर भी जीना चाहते हैं। चाहे सब छीन लिया जाये, अंधे हो जायें, सड़क पर भिखमंगे की तरह घिसटते रहें, कुछ भी जीवन में अर्थ न दिखाई पड़े, फिर भी जीवन को पकड़े रहते हैं। ऐसा लगता है, जैसे जीवन का कोई अपने आप में ही अर्थ है।

दुख ही दुख मिलता हो, पीड़ा ही पीड़ा मिलती हो, तो भी आदमी जीवन को पकड़े रहता है। सारे स्वाभिमान को बेचना पड़े, आत्मा को बेचना पड़े, सब भांति अपने को काट-काटकर बाजार में रख देना पड़े, तो भी आदमी जीवन को पकड़े रहता है।

महावीर का सारा शिक्षण जीवेषणा को बुझाने का शिक्षण है। जब तक, जिसे तुमने जीवन कहा है, तुम उसे न बुझाओगे; जब तक तुमने जिसे अब तक मृत्यु कहा है, उसे तुम अंगीकार न कर लोगे–तब तक महाजीवन का द्वार न खुलेगा। क्योंकि तुम जिसे जीवन कहते हो, वह मृत्यु है। और जिसे महावीर मृत्यु कहते हैं, वह महाजीवन है।

श्री अरविंद ने कहा है: “जब खोजता था तो जिसे मैंने दिन समझा था, प्रकाश समझा था–वह खोजने के बाद अंधेरा साबित हुआ, रात साबित हुई। और जिसे मैंने जीवन जाना था, वह मृत्यु सिद्ध हुई। और जिसे मैंने अमृत समझकर पीया था, वह जहर था।’

जागने के बाद जीवन में बड़ी गहरी उथल-पुथल हो जाती है; सारे मूल्य बदल जाते हैं–जैसे कोई आदमी सिर के बल खड़ा होकर देख रहा हो संसार को, और सारा संसार उसे उलटा मालूम पड़ता हो; और फिर वह पैर के बल खड़ा हो जाये, और तब सारा संसार उसे सीधा मालूम पड़े।

अभी जिसे हमने जीवन समझा है, वह हमारे चित्त की बड़ी विपरीत दशा है। टटोल-टटोलकर, अनुमान लगा-लगाकर, हमने कुछ सोच रखा है कि यह रहा जीवन। रोशनी आने पर, आंख खुलने पर, जीवन कुछ और ही सिद्ध होता है।

आज के सूत्रों में महावीर उस परम जीवन की तरफ इशारे कर रहे हैं। व्याख्या नहीं है यह, न ही परिभाषा है; यह सिर्फ वर्णन है। इसे भी समझ लेना, फिर हम सूत्रों में प्रवेश करें।

व्याख्या तो परम सत्य की हो नहीं सकती; क्योंकि व्याख्या उसी की हो सकती है जिसका विश्लेषण हो सके, जिसे तोड़ा जा सके, जिसे खंड़ों में बांटा जा सके। जैसे कि मकान है, इसकी व्याख्या हो सकती है कि यह ईंटों का संग्रह है। ईंटों को एक के ऊपर एक जमाया गया है, एक खास तरतीब में बिठाया गया है, तो मकान बन गया है। एक-एक ईंट को अलग कर लो, मकान खो जायेगा। तो ईंटों की एक तरतीब से जमाई गई व्यवस्था का नाम मकान है। लेकिन आत्मा के टुकड़े नहीं होते, खंड नहीं होते। जैसे मकान ईंटों से जमा है, ऐसा आत्मा किन्हीं अंशों से मिलकर नहीं बनी है।

सत्य का खंड नहीं होता, टुकड़े नहीं होते। सत्य तो बस है। तो उसकी व्याख्या नहीं हो सकती।

अगर वैज्ञानिक से पूछो, पानी की क्या व्याख्या है, वह कहता है, हाइड्रोजन आक्सीजन के मिलने से जो बनता है वह पानी है। लेकिन दो चीजों से मिलकर बनता है, इसलिए व्याख्या हो गई। उससे पूछो कि हाइड्रोजन की क्या व्याख्या है, तो वह कहता है, इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान से मिलकर जो बनता है वह हाइड्रोजन है। लेकिन उससे पूछो, इलेक्ट्रान की क्या व्याख्या है, तब वह अटक जाता है; क्योंकि अब खंड समाप्त हो गये। वह कहता है, इलेक्ट्रान तो बस इलेक्ट्रान है। अब इसको समझाने का उपाय नहीं, क्योंकि दो से मिलकर बनता नहीं।

दो से जो मिलकर बनता है, उसकी व्याख्या हो सकती है। क्योंकि इन दो के सहारे पर हम इशारा कर सकते हैं।

लेकिन जहां एक ही स्वभाव हो, अखंड, वहां निर्वचन के बाहर हो जाता है।

इसलिए इन सूत्रों में महावीर आत्मा के संबंध में जो कहेंगे–पहली बात–वह व्याख्या नहीं है। व्याख्या तो हो नहीं सकती। इशारा है, इंगित है।

दूसरी बात–परिभाषा नहीं है। परिभाषा उस चीज की हो सकती है जिसकी सीमा हो। जिसकी सीमा न हो उसकी परिभाषा नहीं हो सकती। परिभाषा का अर्थ ही होता है: सीमा को खींचना।

तुमसे कोई पूछे, तुम्हारा मकान कहां है, तो परिभाषा हो सकती है; क्योंकि इस तरफ कोई पड़ोसी है, उस तरफ कोई पड़ोसी है; इधर भी सीमा है, उधर भी सीमा है; इधर रास्ता है, उधर नदी है। कुछ सीमा हो सकती है। जहां-जहां सीमा हो सकती है, वहां परिभाषा हो सकती है। हम कह सकते हैं, इन सीमाओं के भीतर जो है, वह मेरा मकान है।

लेकिन आत्मा की या सत्य की तो कोई सीमा नहीं है। आत्मा कहां है–यह कहना तो कठिन है; क्योंकि “कहां’ का तो मतलब होगा: स्थान-निर्देश। और आत्मा स्थान में नहीं है। आत्मा कब है–यह भी कहना संभव नहीं है; क्योंकि “कब’ का तो अर्थ होगा: समय में निर्देश। आत्मा समय में भी नहीं है। आत्मा कालातीत है, क्षेत्रातीत है। न वह समय के भीतर है न स्थान के भीतर है–और दो ही उपाय हैं जिसके द्वारा परिभाषा होती है।

जैसे अगर कोई पूछे कि तुम कब पैदा हुए, कहां पैदा हुए, तो परिभाषा हो जाती है। तुम कहते हो, फलां गांव में–स्थान बता दिया; फलां घर में, फलां परिवार में–स्थान बता दिया; फलां तारीख को, सुबह या सांझ या दुपहर, फलां घड़ी-मुहूर्त में–समय बता दिया। परिभाषा हो गई। समय और स्थान का ठीक-ठीक निर्देश कर दिया। तो जहां समय और स्थान एक-दूसरे को काटते हैं, दोनों की रेखायें जहां कटती हैं, वह बिंदु तुम्हारी परिभाषा हो गई।

लेकिन आत्मा का न तो कभी जन्म हुआ, न कभी अंत होता, न किसी स्थान में आत्मा को कभी पाया गया है, न वह स्थान में होती। टाइम-स्पेस, समय और स्थान दोनों के पार है, तो परिभाषा कैसे? आत्मा है–ऐसा कहा जा सकता है; लेकिन परिभाषा नहीं की जा सकती। वस्तुतः तो “आत्मा है’, ऐसा कहने में भी भूल हो जाती है; क्योंकि “है’ अलग से जोड़ना ठीक नहीं है। आत्मा के होने में ही सम्मिलित है “है’।

जैसे हम कहें कुर्सी है, तो ठीक है; क्योंकि एक दिन कुर्सी नहीं थी और एक दिन फिर नहीं हो जायेगी। दो “नहीं’ के बीच में “है’ की सुविधा है। “है’ के होने के लिए दो “नहीं’ दोनों तरफ चाहिए। एक दिन कुर्सी नहीं थी, अब कुर्सी है; फिर एक दिन कुर्सी “नहीं’ हो जायेगी–तो “है’ कहने में कुछ अर्थ है।

आत्मा को “है’ कहने में क्या अर्थ है? सदा थी, सदा है, सदा रहेगी। जो कभी “नहीं’ हुई ही नहीं, उसे “है’ भी क्या कहना? तो आत्मा है, इसमें भी पुनरुक्ति है।

आत्मा में ही “है’ पन छिपा है। वह उसका स्वभाव ही है। उसे बाहर से रखने की जरूरत नहीं। कुर्सी में “है’ पन नहीं छिपा है। वह उसका स्वभाव नहीं है। एक बार शून्य से आई है, एक बार फिर शून्य में चली जायेगी। आत्मा न आई है न गई है, तो परिभाषा नहीं हो सकती।

फिर आत्मा के संबंध में क्या हो सकता है? महावीर कहते हैं, वर्णन हो सकता है। वर्णन बड़ी अलग बात है। डिसक्रिप्शन; डेफिनीशन नहीं।

वर्णन का अर्थ होता है: हम सिर्फ इशारे कर सकते हैं कि ऐसा है, ऐसा है, ऐसा है। जिन्होंने जाना है, वे ही वर्णन कर सकते हैं। जिन्होंने नहीं जाना है, वे जानने की यात्रा पर जा सकते हैं; लेकिन वर्णन को सुनकर ही उनकी समझ में कुछ भी न आयेगा। वर्णन से प्यास पैदा हो सकती है।

तुम अंधेरे में हो, तो प्रकाश का मैं वर्णन कर सकता हूं: उससे तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा कि प्रकाश क्या है। इतना ही समझ में आयेगा–वह भी अगर तुम साहसी हो, दांव पर लगाने की हिम्मत रखते हो, जोखिम का बल है और अभियान पर निकलने की अभीप्सा है–तो इतना ही समझ में आयेगा कि कुछ है जो मैंने अब तक नहीं जाना; और यह आदमी जो इसे जान चुका है, बड़ा आनंदित मालूम होता है, प्रसन्न मालूम होता है; मैं भी जानूं। और निश्चित ही यह आदमी इस अंधेरे को भी जानता है, क्योंकि मेरे पास बैठा है; और इस आदमी ने कुछ और भी जाना है जो अंधेरे से ज्यादा है; भरोसा करूं।

इसलिए श्रद्धा का बड़ा मूल्य है। विज्ञान में श्रद्धा का कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि विज्ञान वर्णन नहीं करता, परिभाषा करता है, व्याख्या करता है। तो विज्ञान में कोई श्रद्धा की जरूरत नहीं है। संदेह करो खूब, तो भी विज्ञान तुम्हें समझा देगा कि यह रही व्याख्या, यह रही परिभाषा, यह प्रयोगशाला–कर डालो।

धर्म के साथ कठिनाई है; प्रयोगशाला तो है, लेकिन भीतर है, बाहर नहीं है। मेरी प्रयोगशाला में मैं तुम्हें ले जा नहीं सकता। लाख चाहूं, लाख पुकारूं, लेकिन मेरी प्रयोगशाला में तुम न आ सकोगे। तुम्हारी प्रयोगशाला में मैं नहीं आ सकता। यह प्रयोगशाला अत्यंत निजी है।

विज्ञान की प्रयोगशालाएं सामूहिक हैं। विज्ञान की टेबल पर रखकर कोई चीज जांची-परखी जाये तो सभी देख सकते हैं। धर्म के जगत में तो जो प्रयोग करता है, केवल वही देख पाता है। कह सकता है, गीत गुनगुना सकता है, उस आनंद की खबर ला सकता है, नाच सकता है, या मौन खड़ा हो जाता है। या उसके जीवन की प्रभा को तुम पहचानो, उसके पास आओ, उसकी पुलक को छुओ, उसके पास शांति को अनुभव करो, उसके आनंद की थोड़ी किरणें तुम पर भी पड़ने दो–तो शायद तुम्हें एक बात भर खयाल में आ जाये कि जो मेरे जीवन में अब तक हुआ है उससे शांति नहीं मिली, यह आदमी शांत है; जो मेरे जीवन में हुआ है उससे भय नहीं मिटा, इस आदमी का भय मिट गया है; जो मेरे जीवन में हुआ है उससे अभी तक मृत्यु पर मेरी कोई विजय नहीं हुई, इस आदमी की मृत्यु पर विजय हो गई है; जो मैंने जीवन में जाना है उससे चिंताएं बढ़ी हैं, इस आदमी की तिरोहित हो गई हैं; शायद इसे कुछ मिला है जो मैं चूक रहा हूं। थोड़ा चलूं, हिम्मत करूं। थोड़ा मैं भी खोजूं; अपनी सीमा, अपने घेरे के बाहर उठूं।

अपनी सीमा और घेरे के बाहर उठना ही संन्यास है।

संसार तुम्हारी सीमा है। वहां सब तुम्हारा जाना-माना, परिचित है। संन्यास इस सीमा के जरा बाहर सिर उठाना है।

ये सूत्र वर्णन के सूत्र हैं। एक-एक शब्द बहुमूल्य है–और साथ ही साथ अर्थहीन भी।

जब मैं कहता हूं अर्थहीन, तो मेरा अर्थ है कि अर्थ तो तभी पैदा होगा जब तुम अनुभव करोगे। शब्द बड़े प्यारे हैं, बड़े अनूठे हैं! महावीर ने जब इनको कहा है तो सार्थक हैं, इसीलिए कहा है। मैं जब तुमसे कह रहा हूं तो सार्थक हैं, इसीलिए कह रहा हूं। लेकिन मेरे कहने से ही अर्थ तुम्हारी पकड़ में न आयेगा। अर्थ तो तुम्हें अपने अनुभव से डालना होगा। शब्द तुम्हें दे दूंगा, जैसे शब्द की प्यालियां तुम्हें दे दीं; लेकिन जो मदिरा तुम्हें ढालनी है वह तो तुम्हें भीतर ढालनी पड़े और इन प्यालियों में भरनी पड़े।

ये शब्द कोरे हैं; इनमें तुम प्राण डालोगे तो ये जीवंत हो उठेंगे। इन शब्दों को ही तुम अर्थ मत समझ लेना, जैसा कि पंडितों ने समझ रखा है। तो फिर शब्द को ही लोग दोहराये चले जाते हैं। फिर वे आत्मा का वर्णन सीख लेते हैं, कंठस्थ कर लेते हैं–तोतों की तरह। फिर उसी को दोहराते-दोहराते भूल ही जाते हैं कि हमने अभी जाना नहीं; यह तो हमने सुना था; यह तो श्रवण था; यह तो श्रुति थी। ज्यादा से ज्यादा स्मृति बन गई, लेकिन वेद का अभी जन्म नहीं हुआ। क्योंकि वेद का जन्म तो तुम्हारे ही ध्यान की प्रक्रिया में होगा।

तो शब्द ये सब बहुमूल्य हैं, महा गहन अर्थ से भरे हैं; लेकिन तुम्हारे पास पहुंचते-पहुंचते ये खाली कारतूसें रह जायेंगे। तुम इन्हें अगर फिर से जीवंत करना चाहो तो बड़े साहस, अदम्य साहस से और जोखिम उठाने की हिम्मत से ही यह हो सकेगा।

समझने की हम कोशिश करें।

आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण।

झाइज्जइ परमप्पा, उवइट्ठं जिणवरिंदेहिं।।

“जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।’

“मन, वचन, काया से…’

महावीर की साधना-प्रक्रिया में ये तीन बाधाएं हैं–मन, वचन, काया।

काया तो हमें दिखाई पड़ती है। काया के पीछे छिपी हुई विचारों की पर्तें हैं, सघन पर्तें हैं–उनका नाम वचन। तुम चाहे बोलो या न बोलो, तो भीतर तो बोलते ही रहते हो। चुप भी जो आदमी बैठा है, वह भी भीतर बोल रहा है। वचन जारी है।

तो शरीर की एक पर्त है–स्थूल; उसके भीतर छिपी हुई सूक्ष्म पर्त है विचार की, संस्कार की, धारणाओं की–वह घूम रही है। वह चौबीस घंटे तुम्हें घेरे हुए है। रात सपने में भी चल रही है। उठो, बैठो, चलो, कुछ भी करो, भीतर विचार की एक परिधि अपना घेरा बांधे रखती है।

उस विचार से भी गहरा मन है। अगर आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो जिसको आधुनिक मनोविज्ञान “कांशस मांइड’ कहता है, उसी को महावीर वचन कहते हैं। और जिसको आधुनिक मनोविज्ञान “अनकांशस मांइड’ कहता है, उसको महावीर मन कहते हैं।

मन का जो हिस्सा तुम्हारी चेतना में प्रविष्ट हो गया है–वह है वचन। मन का जो हिस्सा विचार बन गया है और मन का जो हिस्सा अभी विचार नहीं बना है, विचार बनने की प्रक्रिया में है–वह है मन।

मन है बीज की भांति; विचार अंकुरित हो गये बीज हैं। और ये तीनों संयुक्त हैं। जो तुम्हारे मन में है, वह आज नहीं कल तुम्हारे विचार में होगा। और जो तुम्हारे विचार में है, वह आज नहीं कल तुम्हारे शरीर में होगा। जो तुम्हारे शरीर में है, वह आज नहीं कल तुम्हारे विचार में था। और जो तुम्हारे विचार में है, वह कल नहीं परसों तुम्हारे मन में था।

शरीर से ही जो छूटना चाहता है, वह छूट न पायेगा; क्योंकि शरीर के आधार तो विचार में पड़े हैं। विचार से ही जो छूटना चाहता है, वह भी न छूट पायेगा; क्योंकि विचार से भी गहरी एक पर्त है मन की।

बहुत-सी साधना-प्रक्रियाएं हैं जो सोचती हैं शरीर से ही छूटने से सब हो जायेगा। हठयोग है। हठयोग का सारा आग्रह शरीर पर है। शरीर को ही इस भांति जीत लेना है कि शरीर का हमारे ऊपर कोई बल न रह जाये। लेकिन महावीर कहते हैं: जो जीतने चला है, वह जो विचार का भीतर भाव उठा है, वह भी तो सूक्ष्म शरीर है। वह कोई शरीर से भिन्न नहीं है। उससे एक नये तरह का शरीर निर्मित हो जायेगा, लेकिन शरीर जारी रहेगा।

फिर मंत्रयोग है वह मानता है कि मन को ही बदल लेना, वाणी को, विचार को बदल लेना काफी है। मन के व्यक्त रूप को बदल लेना काफी है। तो मंत्रों का उच्चार करो। मंत्रों के गहन उच्चार से, मंत्र के छंद में बद्ध होकर विचार सो जाते हैं। जो अंकुरित हो गये थे वे भी गिरकर फिर बीज हो जाते हैं। लेकिन मन तो रहेगा। अभिव्यक्त मन समाप्त हो जायेगा; लेकिन छिपा हुआ गूढ़ मन, अनकांशस, अचेतन मन, वह तो बना रहेगा। वह फिर नये मन खड़े करेगा, फिर नये विचार उठायेगा। जब बीज बचा है तो कब तक उससे बचोगे? अंकुरित होगा। फिर वर्षा आयेगी, फिर जरा भूल-चूक हो जायेगी, फिर मंत्र याद न रहेगा–फिर अंकुरण हो जायेगा।

तो महावीर कहते हैं, जिसे आत्मा तक जाना हो, उसे तीनों–मन, वचन, काया–तीनों के पार उठना होता है।

इसे तुम थोड़ा समझो, क्योंकि यही हम सब हैं–इन तीन में हम खड़े हैं। आत्मा का तो हमें कोई पता नहीं है। आत्मा तो इन तीन के पार है। ऐसा श्रद्धा से हम स्वीकार करते हैं कि होगी। महावीर कहते, बुद्ध कहते, कृष्ण कहते, पतंजलि कहते–ठीक है, कहते हैं तो होगी। लेकिन हमने अब तक जो जाना है, वह ज्यादा से ज्यादा हमारी जानकारी शरीर तक है। तुम शरीर को ही मानते हो कि तुम हो। इसलिए शरीर को भूख लगती है तो तुम कहते हो, मुझे भूख लगी। और जब भी तुम दोहराते हो कि मुझे भूख लगी, तब तुम फिर शरीर-भाव को मजबूत करते हो, क्योंकि यह विचार शरीर-भाव को मजबूत करनेवाला है। शरीर में एक कामवासना की तरंग उठती है, तुम कहते हो, मेरे मन में कामोत्तेजना उठी। तुम शरीर से अपना तादात्म्य कर रहे हो। और जब तुम तादात्म्य करते हो, इसी तादात्म्य के कारण तो यह शरीर निर्मित हुआ है और इसी तादात्म्य के कारण तुम इसे सम्हाले हुए हो और इसी तादात्म्य के कारण तुम भविष्य में भी शरीर निर्मित करते रहोगे। जैसे ही तुमने शरीर को कहा, “मैं’, तुमने एक गहरा संबंध जोड़ लिया।

साधारणतः हम शरीर के तल पर ही जीते हैं। हम में से जो थोड़े जागरूक होते हैं, वे सोचना शुरू करते हैं कि शरीर मैं नहीं हो सकता। क्योंकि उनको साफ दिखाई पड़ने लगता है कि मैं जीता तो अंतर्विचारों में हूं। कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम भूखे बैठे हो और विचारों में तल्लीन हो तो भूख का पता नहीं चलता। कभी ऐसा हो जाता है कि शरीर थका हुआ है और तुम्हारा बेटा अचानक छत पर से गिर पड़ा; तुम विश्राम करने जा रहे थे, लेकिन अब शरीर में अचानक ऊर्जा आ जाती है। तुम भागे अस्पताल की तरफ, भूल ही गये विश्राम; भूल ही गये कि तुम थके थे, कि चार दिन से सोए नहीं थे, कि लंबी यात्रा से लौटे थे। विचार जब पकड़ लेता है तो शरीर दूर रह जाता है। खिलाड़ी है, मैदान पर खेलता है, फुटबाल या हाकी खेलता है, पैर में चोट लग जाती है खेलते वक्त, खून बहने लगता है; दर्शकों को दिखाई पड़ता है, उसे पता नहीं चलता। वह विचारों में तल्लीन है। वह खेलने की धुन में है। अभी फुरसत कहां! अभी ध्यान देने की सुविधा नहीं है उसे। अभी सारा ध्यान विचारों में जुड़ा है। अभी शरीर दूर पड़ गया, बड़ा दूर पड़ गया। खेल बंद हो जायेगा, अचानक वह शरीर में लौटेगा–खून बहता हुआ मालूम पड़ेगा। वह चकित होगा: इतनी देर तक मुझे पता कैसे न चला!

तुम्हें भी बहुत बार अनुभव हुआ होगा: जब तुम विचार में तल्लीन होते हो, शरीर से दूरी बढ़ जाती है। कभी-कभी विचार की तल्लीनता इतनी हो सकती है कि आपरेशन भी शरीर पर किया जाये और तुम्हें पता न चले।

काशी नरेश का ऐसा ही आपरेशन हुआ था। वे भक्त थे, गीता के प्रेमी थे और गीता को बड़ी तल्लीनता से गुनगुनाते थे। उन्होंने कहा कि मुझे कोई बेहोशी की दवा देने की जरूरत नहीं है। मुझे मेरी गीता गुनगुनाने दो, तुम आपरेशन कर लो। डाक्टर राजी न थे; क्योंकि क्या भरोसा? लेकिन यह आदमी कोई बेहोशी की दवा लेने को राजी न था और आपेरशन एकदम जरूरी था, अन्यथा यह मरेगा। ऐसी हालत देखकर कि यह लेने को राजी नहीं है, मौत तो होने ही वाली है, प्रयोग कर लेना उचित है। डाक्टरों ने आज्ञा दी कि तुम अपनी गीता गुनगुनाओ। घंटाभर आपरेशन में लगा। वे अपनी गीता गुनगुनाते रहे, आपरेशन हो गया और उन्हें पता भी न चला।

विचार में अगर तुम बहुत जोर से संयुक्त हो जाओ तो शरीर और तुम्हारे बीच संबंध दूर का हो जाता है।

तो जिन्होंने विचार के थोड़े-से प्रयोग किये हैं, वे इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि हम शरीर नहीं हैं, विचार हैं। लेकिन विचार भी एक पर्त है। शरीर से गहरी है, लेकिन शरीर की ही है। विचार भी पदार्थ हैं।

महावीर का सिद्धांत इस संबंध में बड़ा अजीब है। महावीर कहते हैं, विचार भी पदार्थ है, मैटिरियल है, पुदगल है। विचार के भी अणु होते हैं। शायद विज्ञान महावीर से जल्दी राजी हो जायेगा; क्योंकि महावीर का बोध बड़ा साफ है। वे कहते हैं, विचार के भी अणु हैं। वह भी कोई अपार्थिव चीज नहीं है, वह भी पार्थिव है। बड़ी सूक्ष्म है, लेकिन पार्थिव है।

विचार से भी कुछ लोग नीचे उतरते हैं। ध्यान में वैसी घड़ी आती है, जब तुम विचारों को शांत कर लेते हो; जब विचारों की तरंगें कम होतेऱ्होते होतेऱ्होते खो जाती हैं, झील बिलकुल शांत हो जाती है, कोई विचार की तरंग नहीं होती, वचन नहीं होता, भीतर शब्द नहीं उठते, शब्दों में फल-फूल नहीं लगते, शब्द बिलकुल शांत हो गये होते हैं।

उस निशब्द दशा में मन के साथ तादात्म्य हो जाता है। तब आदमी सोचता है, यही मैं हूं। यह बड़ा प्यारा क्षण है–बड़ा शांत, बड़ा मौन! और आदमी सोचता है, यही मैं हूं। लेकिन यह भी सूक्ष्मतम शरीर की दशा है।

आधुनिक मनोविज्ञान महावीर से राजी है। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, शरीर और मन दो चीजें नहीं हैं। शरीर और मन ऐसे दो शब्दों का प्रयोग भी आधुनिक मनोविज्ञान धीरे-धीरे बंद कर रहा है। उसने एक नया शब्द गढ़ा है: साइकोसोमेटिक, मनोशरीर। शरीर और मन, दो शब्द ठीक नहीं हैं; क्योंकि उससे भ्रांति होती है कि जैसे दो चीजें हैं–मन और शरीर।

मन और शरीर एक ही चीज है। शरीर स्थूलतम मन है; मन सूक्ष्मतम शरीर है। और दोनों के बीच में विचारों की तरंगों का जगत है। लेकिन यह इकट्ठा है। समाधि की दशा में आदमी मन के बाहर होता है। ध्यान की दशा में मन शांत हो जाता है; समाधि की दशा में मन के बाहर होता है। तब पहली दफे आत्मा का पता चलता है।

आरुहवि अंतरप्पा…।

“तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।’

बड़ा अनूठा सूत्र है। सारा योग इसमें आ गया।

गुरजिएफ के जीवन में एक उल्लेख है। वह अमरीका गया था। उसे अपनी ध्यान-विद्यापीठ को चलाने के लिए पैसों की जरूरत थी, तो उसने न्यूयार्क के सारे बड़े धनपतियों को निमंत्रित किया था। न्यूयार्क की जो सबसे ऊंची सोसाइटी, अभिजात वर्ग, उसके चुन्नदे प्रतिनिधि मौजूद थे। गुरजिएफ की खबर तो अमरीका में पहुंच गई थी। उस आदमी को देखने को लोग उत्सुक थे। कोई पचास-साठ मित्रों का समूह था; स्त्रियां थीं, पुरुष थे। जिस व्यक्ति ने गुरजिएफ के संस्मरण लिखे हैं, उसने लिखा है कि गुरजिएफ ने मुझे बुलाया इन लोगों से मिलने के पहले और मुझसे कहा कि तुम्हें जितने भी गंदे और अश्लील शब्द आते हों अंग्रेजी के, मुझे बता दो। वह आदमी थोड़ा चौंका। उसने कहा कि अश्लील शब्दों से क्या करना? क्योंकि गुरजिएफ अंग्रेजी ठीक से जानता नहीं था। उसने कहा, तुम फिक्र छोड़ो। तो जितने भी गंदे अश्लील शब्द उसे आते थे, उसने बता दिये। गुरजिएफ ने वे लिख लिये और याद कर लिये। फिर गुरजिएफ जब बोलने गया उन मित्रों के बीच, तो थोड़ी देर उसने बातें कीं, फिर इसके बाद उसने कामवासना की बात शुरू की। फिर धीरे-धीरे तो कामवासना की बात को ऐसा गहरा ले गया कि सिर्फ अश्लील और अभद्र शब्दों का ही उपयोग करने लगा। और घड़ीभर में–जिसने संस्मरण लिखे हैं उसने लिखा है–ऐसी हालत आ गई कि सारे लोग कामोत्तेजित हो गये। भूल ही गये। स्त्रियां पुरुषों के साथ खेल में लग गईं, पुरुष स्त्रियों के साथ खेल में लग गये; यह भूल ही गये कि गुरजिएफ को मिलने आये हैं। गुरजिएफ चुप होकर बैठ गया और वह सारी रासलीला चलने लगी। तब ठीक जब वे रासलीला में बड़े डूबने के ही करीब थे, वह खड़ा हुआ। उसने कहा, “सावधान! मेरी तरफ देखो! सिर्फ शब्दों के आधार पर मैंने तुम्हारी बेहोशी को प्रगट कर दिया है। सिर्फ कुछ शब्द बोलकर मैंने तुम्हारे मनों को तरंगित कर दिया है। यह स्थिति देखो अपनी। तुम शब्दों के इतने गुलाम हो! और मैंने सिर्फ तुम्हारी बेहोशी दिखाने के लिए ही यह प्रयोग किया है। और मैं एक संस्था बना रहा हूं, जहां मैं होश सिखाना चाहता हूं; उसके लिए रुपये चाहिए।’

उसने हजारों डालर इकट्ठे कर लिये उसी क्षण। यह बात तो इतनी साफ थी। लोग चौंककर बैठ गये एकदम घबड़ाकर कि वे यह क्या कर रहे थे! भूल ही गये थे–शिष्टाचार, समाज, नीति, धर्म। इस आदमी ने सिर्फ शब्दों के जाल पर…।

तुमने कभी खयाल किया? पर्दे पर फिल्म में कामोत्तेजना के चित्र आने शुरू होते हैं, तुम कामोत्तेजित हो जाते हो! तुमने कभी सोचा कि धूप-छाया का खेल है? लेकिन तुम इतने उद्विग्न हो जाते हो…!

शब्दों के आधार पर, वचनों के आधार पर हम जीते हैं। कोई तुमसे कह देता है, “बड़े प्यारे हैं आप’, फूल खिल जाते हैं! कोई जरा घृणा से देख देता है, नर्क प्रगट हो जाता है। कोई जरा सम्मान से नहीं पूछता, मन उदास हो जाता है। कोई नमस्कार कर लेता है, उदास थे, उदासी खो जाती है।

तुमने कभी देखा कि तुम कितने शब्दों के हाथ में हो?

शब्द तुम्हारी बेहोशी हैं। इसको महावीर कहते हैं वचन। इससे जागना जरूरी है। ऐसी घड़ी लानी जरूरी है कि कोई प्रशंसा करे कि निंदा, बराबर हो जाये। ऐसी घड़ी लानी जरूरी है कि शब्द इतने बलशाली न रह जायें कि तुम्हारे प्राणों को आंदोलित कर दें, अन्यथा तुम्हारी आत्मा का क्या होगा?

विज्ञापन की कला में कुशल जो विशेषज्ञ हैं वे इस बात को समझ गये हैं कि आदमी शब्दों से जीता है, तो शब्दों को दोहराये चले जाते हैं। तुम्हारे मन पर पर्तें बना देते हैं। बिनाका टुथपेस्ट, बिनाका टुथपेस्ट दोहराये चले जाते हैं। तुम शायद सोचते भी नहीं कि तुम्हारा कुछ बिगड़ रहा है; लेकिन तुम्हें पता नहीं है, यह शब्द बैठता जाता है, यह बैठता जाता है। यह तुम्हारा वचन बन जाता है। फिर कल तुम जब बाजार में खरीदने जाते हो और दुकानदार पूछता है, कौन-सा टुथपेस्ट, तो तुम्हें याद भी नहीं रहता कि तुम होश में कह रहे हो कि बेहोशी में। तुम कहते हो, बिनाका टुथपेस्ट। और तुम यही सोचते हो कि तुमने स्वयं ही सोचकर तय किया है। तुमने सोचकर तय नहीं किया है; यह विज्ञापित है। अखबारों में पढ़ा, दीवालों पर लिखा देखा, रेडियो पर सुना, टेलीविजन पर देखा, सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें देखीं, हंसते हुए मोतियों की तरह उनके चमकते हुए दांत देखे–और बिनाका टुथपेस्ट, और बिनाका टुथपेस्ट, और हर जगह सुंदर स्त्रियों की तस्वीरें देखें विज्ञापनों में। उन्होंने कहा कि मेरे पति को कौन-सी दो चीजें पसंद हैं?–”मैं और बिनाका टुथपेस्ट!’

सब तरफ से शब्द की एक पर्त तुम्हारे भीतर बनायी जाती है। राजनीतिज्ञ वही करते हैं, दुकानदार वही करते हैं। एक शब्द बिठाया जाता है। बहुत बार दोहराने से तुम्हारे भीतर लकीरें खिंच जाती हैं। समाजवाद, समाजवाद, समाजवाद! धीरे-धीरे धीरे-धीरे यह लकीर बैठ जाती है। जब लकीर मजबूत होकर बैठ जाती है तो वही लकीर तुम्हें आंदोलित करने लगती है, तुम्हें गतिमान करने लगती है।

तुम समाज से बंधे हो शब्दों के कारण। जरा शब्दों को हिला-डुलाकर देखो और तुम पाओगे, तुम समाज से मुक्त होने लगे। हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं–क्या हैं ये? ये सिर्फ शब्द हैं! जैन हूं, बौद्ध हूं–ये क्या हैं? सिर्फ शब्द हैं! लेकिन बचपन से दोहराया गया कि तुम जैन हो; इतनी बार दोहराया गया है कि अब तुम्हें याद भी नहीं आता कि कब शुरू किया गया था दोहराना। यह विज्ञापन, यह कंडीशनिंग, यह संस्कार ऐसा डाला गया है कि अब तुमसे कोई नींद में भी पूछे, तो भी तुम कहोगे, जैन हूं। शराब भी पीकर सड़क पर गिर पड़े होओ और कोई हिलाकर पूछे कि कौन हो, तुम कहोगे, जैन। इतना गहरा चला गया है!

मगर यही शब्द तुम्हें आंदोलित करता है। फिर अगर कोई कह देता है, “इस्लाम खतरे में है’, तो तुम मरने-मारने को उतारू हो जाते हो। “इस्लाम’ एक शब्द है। शब्द सत्य नहीं है। कोई शब्द सत्य नहीं है।

शब्द के साथ संबंध को शिथिल करो।

तो महावीर कहते हैं, शरीर के साथ संबंध को शिथिल करो, शब्द के साथ, वचन के साथ संबंध को शिथिल करो। और फिर धीरे-धीरे मन के साथ।

शरीर से शुरू करो, क्योंकि वह स्थूलतम है; उस पर प्रयोग करना आसान होगा। इसलिए महावीर की पूरी प्रक्रिया शरीर से शुरू होती है, मन पर पूरी होती है।

जब तुम शरीर से मुक्त होने लगोगे तब तुम्हें दिखाई पड़ेगा भीतर का बंधन–वचन का। जब तुम वचन से मुक्त होने लगोगे तब तुम्हारी आंखें इतनी साफ होंगी, पारदर्शी होंगी कि तुम्हें मन का बंधन दिखाई पड़ेगा। और इन तीनों के पार आत्मा है। और उस आत्मा में परमात्मा छिपा है।

“जिनेश्वर देव का यह कथन है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।’

बाहर से भीतर और भीतर से और भीतर…शरीर हमारा सेतु है बाहर से। वचन भी हमारा सेतु है बाहर से। मन भी हमारा सेतु है बाहर से। जुड़े हैं हम इस तरह।

इसलिए तुमने देखा, गूंगा आदमी जो बोल नहीं सकता, वह समाज का हिस्सा नहीं हो पाता! जड़बुद्धि; जिसके पास मन की बहुत क्षमता नहीं है, वह अकेला रह जाता है। तुमने यह खयाल किया, इस समाज में वे ही लोग सर्वाधिक मूल्यवान हो जाते हैं जो शब्दों का प्रयोग करने में सर्वाधिक कुशल होते हैं! नेता हों, धर्मगुरु हों, कवि हों, लेखक हों–जिन लोगों की भी क्षमता वचन पर गहरी है, वे इस जगत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जिनकी वचन पर पकड़ गहरी नहीं है, वे पिछड़ जाते हैं।

मनुष्य का असली समाज भाषा में है। इसलिए जो बच्चा देर तक नहीं बोलता, मां-बाप चिंतित हो जाते हैं, घबड़ा जाते हैं कि अब बड़ा मुश्किल हुआ। क्योंकि यह बच्चा कभी सभ्य न बन सकेगा। यह समाज का हिस्सा न बन सकेगा। यह अधूरा पड़ेगा, अकेला पड़ा रह जायेगा। इसकी कोई जीवन की यात्रा, गति न होगी।

ये सेतु हैं जो हमें बाहर से जोड़े हुए हैं। इन सेतुओं से मुक्त हम होना सीखें तो हम भीतर से जुड़ेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि महावीर कहते हैं, तुम बोलो मत। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि महावीर कहते हैं, शरीर की आत्महत्या कर डालो। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि महावीर कहते हैं, मन को मार डालो। न, महावीर कहते हैं, तुम अपने को शिथिल कर लो इनसे। जब इनकी जरूरत हो, उपयोग कर लो। लेकिन जब इनकी जरूरत न हो तो इनकी जकड़ न रहे। चलना है, कहीं जाना है, तो शरीर का उपयोग करना पड़ेगा। किसी से कुछ बोलना है, कहना है, तो वचन का उपयोग करना पड़ेगा। कुछ सोचना है, चिंतन करना है, तो मन का, मनन का उपयोग करना पड़ेगा। लेकिन यह उपयोग हो। ऐसा न हो कि तुम यह भूल ही जाओ कि तुम इनसे अलग हो। और जब इनका उपयोग नहीं करना है तो तुम इनको बांधकर एक कोने में रख सको। इतनी क्षमता बनी रहे।

तुमने देखा? लोग सिनेमा-घरों में बैठे हैं, होटलों में बैठे हैं और टांगें हिला रहे हैं! उनसे पूछो कि टांग किसलिए हिला रहे हो? चलते, तब सब ठीक था; चलने में टांग हिलनी चाहिए। मगर यहां कुर्सी पर बैठे-बैठे टांग क्यों हिला रहे हो? कहोगे तो वे चौंककर रोक लेंगे। वे कहेंगे, हमें कुछ याद न था। लेकिन इसका यह मतलब हुआ कि शरीर के साथ संबंध ऐसा हो गया है कि जब जरूरत नहीं होती तब भी टांगें हिलती जाती हैं।

नींद में लोग बड़बड़ाते हैं। पूछो, “किससे बात कर रहे हो? अब तो यहां कोई भी नहीं, अब तो चुप हो जाओ!’ तो वे नींद में बड़बड़ाते हैं। कोई न हो तो भी क्या हुआ; बोलने की आदत ऐसी पड़ गई है!

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर किसी आदमी को तीन महीने के लिए एकांत-गृह में छोड़ दिया जाये जहां सब सुविधा हो, उसे वक्त पर भोजन सरककर मिल जाये मशीन के द्वारा, कोई अड़चन न हो, लेकिन बोलने को कोई न हो–तो तीन सप्ताह के बाद उसके ओंठ हिलने लगेंगे। तीन सप्ताह तक वह भीतर-भीतर बात करेगा। तीन सप्ताह के बाद वह ओंठ हिलाकर बात करने लगेगा। छह सप्ताह के बाद वाणी बाहर आने लगेगी। नौ सप्ताह के बाद वह बड़े खुलकर बोलेगा। अकेले। और अब इस तरह बोलेगा कि जैसे किसी से बात कर रहा है और कोई मौजूद है। बारहवें सप्ताह होतेऱ्होते वह बिलकुल पागल हो जायेगा।

तुमने पागलखाने में लोग बैठे देखे हैं जो अपने से बातें कर रहे हैं? उनको हो क्या गया है? वाणी के साथ, वचन के साथ इतना ज्यादा तादात्म्य हो गया है कि अब दूसरे की मौजूदगी भी जरूरी नहीं है। तुम्हें तो दूसरे को खोजना पड़ता है, क्योंकि तुम्हें अभी थोड़ा-सा होश बाकी है कि बिना दूसरे के कैसे बात करो! उठे, चलो मित्र के घर जायें, होटल जायें, क्लब-घर जायें। क्योंकि अभी तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है कि अकेले ही बात करने लगो। हालांकि जब तुम दूसरे से भी बात करते हो, तो भी तुम अकेले ही बात कर रहे हो। वह दूसरा चाहे सुनने को राजी भी नहीं है। वह ऊबा हुआ है, जम्हाई लेता है, घड़ी देखता है। वह छिटकना चाहता है, लेकिन तुम उसको पकड़े हुए हो!

लोग हाथ तक पकड़कर बातें करते हैं कि कहीं निकल न जाओ! बिलकुल पास आ जाते हैं, बिलकुल चेहरे के पास चेहरा ले आते हैं कि कहीं छूटकर खिसक न जाओ! बामुश्किल तो मिले हो! वह तुम्हारी सुनना नहीं चाहता। वह हांऱ्हूं करता है। वह कहता है, ठीक है, सब ठीक है; मगर तुम अपना कहे चले जा रहे हो!

और तुमने कभी यह खयाल किया है कि दो लोग जब बातें करते हैं, तुम जरा चुप होकर शांति से बैठकर उन दोनों की बातें सुनो तो तुम हैरान होओगे: वे दोनों एक-दूसरे से बात नहीं करते! एक को अपनी कहनी है, दूसरे को अपनी कहनी है। दोनों अपनी-अपनी कहते हैं। पति-पत्नी की बात सुनो तो बहुत साफ हो जायेगा, दोनों अपनी-अपनी कहते हैं। हां, इतना अभी होश है कि थोड़ा-थोड़ा एक-दूसरे की बातचीत में तार जोड़ते जाते हैं, ताकि ऐसा न लगे कि ये बिलकुल पागल हैं।

दो प्रोफेसर पागल हो गये थे। वे एक पागलखाने में थे। मनोवैज्ञानिक जो उनका अध्ययन कर रहा था, बड़ा हैरान हुआ; क्योंकि वे दोनों बात करते, तो जब एक बात करता तो दूसरा चुप हो जाता। दोनों प्रोफेसर थे, सुशिक्षित थे। फिर जब दूसरा करता तो पहला चुप हो जाता। लेकिन दोनों की बातों में कोई तारत्तुक नहीं, कोई संगति नहीं। एक आकाश की हांक रहा है, दूसरा जमीन की हांक रहा है। उससे कोई लेना ही देना नहीं। कहीं तार जुड़ते ही नहीं; आसपास भी नहीं आते, जुड़ने की बात दूर। समानांतर चल रही हैं रेखाएं, कहीं मिलती नहीं। आखिर वह बड़ा हैरान हुआ कि इतने पागल हैं कि कुछ भी बकते हैं। लेकिन इतना खयाल रखते हैं, जब दूसरा बोलता है तो एक चुप हो जाता है। तो वह अंदर गया। उसने पूछा कि यह बड़े रहस्य की बात है! जब एक बोलता है, दूसरा चुप क्यों हो जाता है? उसने कहा, “क्या तुमने समझा है हम पागल हैं? हमको कैसे वार्तालाप करना, आता है। क्या तुमने समझा हम पागल हैं? जब एक बोलता है, दूसरे को चुप हो ही जाना चाहिए।’ लेकिन दूसरा जब चुप है, अपने भीतर गुनतारा बिठा रहा है; जब यह चुप हो जायेगा, तब वह अपना शुरू कर देगा। ये दोनों धाराएं अलग-अलग चल रही हैं, अपने-अपने भीतर चल रही हैं।

तुम थोड़ा वचन से जागो! वचन से जागे कि तुम समाज से छूटे–जंगल भागने से कोई समाज से मुक्त नहीं होता। भाषा से हट जाने से समाज से मुक्त होता है। इसलिए वास्तविक एकांत भाषा से मुक्ति है। हिमालय पर भी जाओगे तो भाषा से अगर मुक्त न हुए तो तुम पौधों से, वृक्षों से बात करने लगोगे, पक्षियों से बोलने लगोगे। बोलने के लिए कोई भी सहारा खोज लोगे। कुछ न होगा तो आकाश में बैठे भगवान से चर्चा शुरू कर दोगे। देवी-देवता और अप्सरायें प्रगट होने लगेंगी। वे सब तुम्हारे कल्पना के जाल हैं। लेकिन तुम कुछ पैदा कर लोगे जिसके सहारे तुम बात कर सको।

भाषा से जो मुक्त हुआ, वही संन्यासी है। इसीलिए महावीर ने अपने संन्यासी को “मुनि’ कहा। मुनि का अर्थ है: भाषा से जो मुक्त; मौन को जो उपलब्ध। सोचकर कहा।

मुनि का अर्थ नहीं है, संसार से भाग गया। मुनि का अर्थ नहीं है, घर से भाग गया। बड़ी गहरी बात कही: भाषा से जाग गया; वचन का पुराना पागलपन न रहा। जरूरत होती है तो उपयोग कर लेता है, अन्यथा सरकाकर बगल में रख देता है। जैसे तुम कार का उपयोग कर लेते हो; जब जाना है बैठ गये, कार चलाई, वापस गैरेज में बंद कर दी। ऐसे ही वह वाणी के यंत्र का उपयोग कर लेता है, जब जरूरत हुई; फिर वापस गैरेज में बंद कर दी। ऐसे ज्यादातर वह मौन रहता है, मौन में डूबता है; जरूरत के वक्त भाषा में उतरता है। लेकिन भाषा उपकरण हो जाती है। अब यह भाषा का मालिक है।

जिस दिन भाषा उपकरण हो गई, उस दिन तुम मुनि हुए। तुमने घर छोड़ा या न छोड़ा, मुझे फिक्र नहीं है। लेकिन जिस दिन भाषा से तुम छूटे, भाषा का कारागृह तुम्हारे ऊपर वजनी न रहा, भारी न रहा, तुम समर्थ हुए जब चाहो तो बोलो, लेकिन बोलने की चाह तुम्हें पागल की तरह आंदोलित नहीं करती–तो तुम मुनि हो गये।

“मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर, परमात्मा का ध्यान करो।’

ये बाहर जाने के मार्ग हैं। शरीर बाहर से जोड़ता है। स्वभावतः शरीर बाहर से आया है, मां से मिला, पिता से मिला। तुम इसे लेकर नहीं आये। यह बाहर के द्वारा दिया गया है, बाहर की भेट है। यह तुम्हारी मां का है, तुम्हारे पिता का है।

उनका भी है, कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उनके पास भी जो शरीर था वह उनके माता-पिता का था। उनका भी था, यह भी कहना ठीक नहीं।

इसलिए अगर इसकी पूरी गहराई में जाओगे तो शरीर प्रकृति का है; बाहर से आया है; मिट्टी का है; जल का है; वायु का है; आकाश का है; पंच महाभूतों का है; तुम्हारा नहीं है। जो बाहर से आया है वह बाहर की गुलामी में है। स्वभावतः तुम्हारे भीतर भी जो जल है वह बाहर के जल के ही नियमों का पालन करता है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करता। कैसे करेगा? तुमसे उसका कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे भीतर जो मिट्टी है, वह मिट्टी के नियमों का पालन करती है, तुम्हारे नियमों का पालन नहीं करती। उस पर गुरुत्वाकर्षण का काम होता है। तुम्हारे भीतर जहां से जो आया है, उसी नियम का पालन करता है। वायु वायु का पालन करती है। अग्नि अग्नि का पालन करती है। इसे तुम खयाल रखना।

इसलिए अगर तुमको चांद, पूर्णिमा के चांद को देखकर बड़ी उमंग उठती है, तो तुमने कभी सोचा न होगा, क्यों उठती है! यह वैसे ही उठती है उमंग, जैसे सागर में उमंग उठती है। क्योंकि सागर चांद से प्रभावित होता है, आंदोलित होता है, ज्वार उठता है, नाचने लगता है। बड़ी लहरें, उत्तंग लहरें उठती हैं, सागर पगला जाता है इसलिए चांद की रात में ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो थोड़ा पगला न जाता हो। जो बहुत संवेदनशील हैं, बहुत ज्यादा पगला जाते हैं। इसलिए पागलों के लिए अंग्रेजी में शब्द है: लूनाटिक। लूनाटिक का मतलब होता है चांदमारा; चांद ने मारा इसे। हिंदी में भी चांदमारा पागल के लिए उपयोग करते हैं।

आदमी के शरीर के भीतर कोई अस्सी प्रतिशत जल है, थोड़ा नहीं है। और यह जल ठीक वैसा ही जल है जैसा सागर का। उतने ही लवण इस शरीर के जल में भी हैं। हिंदू कहते हैं कि पहला अवतार मछली का। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य का पहला अवतरण मछली में। और मछली के भीतर जो जल का ढंग है, वही आदमी के शरीर के भीतर भी है। अभी भी है। इसलिए जब सागर उत्तंगित हो जाता है, तरंगित हो जाता है, तो तुम भी तरंगित हो जाते हो। चांद को देखकर कौन मोहित नहीं हो जाता! लेकिन यह तुम नहीं हो जो मोहित हो रहे हो; यह तुम्हारे भीतर का जल है, अस्सी प्रतिशत, जिसमें तरंग उठी है बड़ी सूक्ष्म। अगर इसे तुम समझोगे तो चांद हो कि अमावस हो, सब बराबर हो गये। फिर कोई फर्क न रहा।

तुम जब एक स्त्री को देखकर आंदोलित हो जाते हो, किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हो, कोई वासना का ज्वार तुम्हें घेर लेता है, तो तुम यह मत सोचना कि तुम प्रभावित हो गये हो; ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए स्त्रीऱ्हारमोन, ये तुम्हारे शरीर के भीतर पड़े हुए पुरुषऱ्हारमोन, यह तुम्हारे शरीर की केमिस्ट्री है, रसायन है जो प्रभावित हो रही है। क्योंकि तुम्हारा आधा शरीर स्त्री का है, आधा पुरुष का है। सभी अर्धनारीश्वर हैं। आधा मां से मिला है, आधा पिता से मिला है।

तो जब भी तुम किसी स्त्री को देखकर प्रभावित होते हो, तो तुम यह मत सोचना कि मैं प्रभावित हुआ। वहां तुम भ्रांति कर रहे हो। वहां शरीर के साथ तुमने तादात्म्य कर लिया। ये तो तुम्हारे शरीर के भीतर के द्रव्य हैं जो आंदोलित हुए; क्योंकि ये उसी नियम को मानकर चलते हैं जो पदार्थों का नियम है।

यह कर्षण, यह आकर्षण, यह चुंबक पौदगलिक है, शारीरिक है। यह पदार्थगत है। यह होना भी चाहिए पदार्थगत।

इसलिए जैसे-जैसे व्यक्ति अनुभव करता है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे-वैसे दूसरों के शरीर उसको कम प्रभावित करते हैं। जिस दिन व्यक्ति को यह पूरा अनुभव होने लगता है कि मैं शरीर हूं ही नहीं, उसी दिन स्त्री-पुरुष के शरीर के प्रभाव समाप्त हो जाते हैं। फिर कौन पास से निकल जाता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे भीतर कोई तरंग नहीं उठती। फिर पूर्णिमा की रात हो कि अमावस की रात, सब बराबर हो जाता है। शरीर में तंरगें उठती रहेंगी, इससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम दूर खड़े द्रष्टा हो जाते हो।

मन भी मन के ही नियमों को मानकर चलता है, तुम्हारे नियम मानकर नहीं चलता। इसलिए तुमने कई दफे देखा होगा कि अगर तुम दस आदमियों के पास गये मिलने और वे दसों प्रसन्न थे, आनंदित थे, तुम उदास थे; लेकिन क्षणभर में तुम भूल जाते हो कि तुम उदास हो। उन दस आदमियों की प्रसन्न-चित्तता में तुम भी प्रसन्न हो जाते हो। तुम भी हंसने लगते हो। घड़ीभर पहले आंखें आंसुओं से भरी थीं, क्या हो गया इतनी जल्दी? वह जो मन के सूक्ष्म परमाणु हैं…दस आदमियों के परमाणु निश्चित ही तुमसे ज्यादा मजबूत हैं। तुम्हारा मन अल्पमत में हो गया, बहुमत ने हावी कर दिया तुम्हें, इसलिए उदास आदमियों के पास जाओगे, उदास होने लगोगे।

तुम कभी गये हो अस्पताल किसी मरीज को देखने? जल्दी भागने का मन होता है। बीमार लोग हैं, अस्वस्थ लोग हैं, उदास लोग हैं, जराजीर्ण लोग हैं–उनके पास तुम भी जराजीर्ण होने लगते हो। घबड़ाहट होती है, अकुलाहट होती है, भाग जाने का मन होता है।

तुमने कभी खयाल किया कि डाक्टर कठोर हो जाता है! होना ही पड़े, नहीं तो वह मर जाये। अगर डाक्टर कठोर न हो तो जीए कैसे? चौबीस घंटे उदास, बीमार, रुग्ण…। उसे धीरे-धीरे इतनी कठोरता भीतर बना लेनी पड़ती है कि उसे पता ही नहीं चलता, कि कौन उदास है, कौन मर रहा है। ये सब घटनाएं साधारण हो जाती हैं। कोई मरीज मर गया तो वह यह नहीं कहता कि कोई आदमी मर गया–कौन-सा बिस्तर खाली हो गया! कौन-सा नंबर मर गया! आदमी की बात उठानी ठीक नहीं है, नंबर ही मरते हैं अस्पताल में। और डाक्टर को नंबर पर ही ध्यान रखना जरूरी होता है। उतनी कठोरता जरूरी है, नहीं तो वह मर जायेगा। वह जी न सकेगा। उसकी हंसी बिलकुल सूख जायेगी। उसके लिए जीने का कोई उपाय न रह जायेगा।

इसलिए अकसर जब कभी कोई युवक मेरे पास आ जाते हैं, वे कहते हैं कि मैं अपनी एक डाक्टर साथिन के साथ विवाह कर रहा हूं और युवक भी डाक्टर तो मैं कहता हूं, थोड़े सावधान! एक ही डाक्टर ठीक है। दोनों डाक्टर इतने कठोर होंगे कि तुम पिघल न पाओगे; तुम एक-दूसरे से मिल न पाओगे। तो यह विवाह व्यवसायिक तो उपयोगी होगा, आर्थिक रूप से उपयोगी होगा; लेकिन जीवन से इसका कोई संबंध न होगा।

ध्यान रखना, तुम्हारा मन प्रतिक्षण दूसरे के मनों से आंदोलित हो रहा है। हिंदुओं की भीड़ चली जा रही है मुसलमानों की मस्जिद जलाने, या मुसलमानों की भीड़ चली आ रही है हिंदुओं का मंदिर तोड़ने–तब एक भला-अच्छा आदमी भी जो नमाज पढ़ता है, सादा-सीधा है, कभी किसी की हिंसा करने की नहीं सोची, किसी का मकान जलाने की नहीं सोची–वह भी उस भीड़ में चल पड़ता है!

तुमने कभी भीड़ में देखा कि अचानक तुममें गति आ जाती है! भीड़ अगर उत्साह से है, तो तुम उत्साह से भर जाते हो! भीड़ अगर तेजी से चल रही है तो तुम तेजी से दौड़ने लगते हो। भीड़ अगर मकान में आग लगा रही है तो तुम उसमें भी रस लेने लगते हो। बाद में अगर कोई तुमसे पूछेगा, तो तुम कहोगे, “पता नहीं कैसे यह हो गया! मैंने क्यों साथ दिया!’ अगर तुमसे कोई यह पूछे कि क्या अकेले तुम यह कर सकते थे, तो तुम निश्चित कहोगे कि नहीं कर सकता था। अकेले तो मैंने कभी ऐसा नहीं किया। यह भीड़ में हो गया। भीड़ में तुम्हारा उत्तरदायित्व क्षीण हो जाता है। बहुमत हावी हो जाता है। मन की तरंगें चारों तरफ से तुम्हें घेर लेती हैं, आंदोलित कर देती हैं।

जो आदमी भीड़ से प्रभावित नहीं होता, वह मन के बाहर हो गया। जो आदमी भीड़ से प्रभावित होता है, वह मन के भीतर है। इसलिए तो राजनेता रैली निकालते हैं–अपना-अपना प्रभाव दिखाने के लिए, कि कितने लाख आदमी उनकी रैली में सम्मिलित थे। उससे लोग प्रभावित होते हैं, निश्चित ही प्रभावित होते हैं। जिसकी रैली में लाख थे और जिसकी रैली में पांच लाख थे, वह जो जनता खड़ी देख रही है चारों तरफ वह पांच लाखवाले से प्रभावित होती है। इसमें कोई गणित नहीं बिठाना पड़ता। यह अनजान है। वह पांच लाख की भीड़ प्रभावित कर देती है।

अगर किसी राजनेता के चुनाव में हारने की अफवाह भी फैल जाये तो वह हार जाता है; जीतने की अफवाह फैल जाये तो वह जीत जाता है।

अंग्रेजी में कहावत है: नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस। सफलता से ज्यादा कोई चीज सफल नहीं होती। बड़ी ठीक है। क्योंकि जब तुम सफल हो रहे होते हो तो तुम चारों तरफ परमाणु फेंकते हो अपनी सफलता के। जब तुम असफल हो रहे होते हो तो तुम चारों तरफ परमाणु फेंकते हो अपनी असफलता के। असफलता में कौन साथ देता है! जीते के साथ सभी हो लेते हैं, हारे के साथ कौन होता है! ऊगते सूरज के सभी साथी हैं, डूबते सूरज का कौन साथी है!

लेकिन भीड़ का राज क्या है? तुम भीड़ से इतने आंदोलित क्यों होते हो? सारे दुनिया के धर्म अपनी भीड़ को बढ़ाने के लिए इतने पागल क्यों रहते हैं? क्योंकि भीड़ है तो और भीड़ को आकर्षित करने का उपाय है। जितनी बड़ी भीड़ है उतनी भीड़ को आकर्षित करने का उपाय है। हिंदू अगर बीस करोड़ हैं, मुसलमान अगर साठ करोड़ हैं या ईसाई अगर एक अरब हैं, तो स्वभावतः यह भीड़ सारे जगत के मन को आंदोलित करती है। यह भीड़ परमाणु फेंकती है।

ध्यान रखना, भीड़ से सावधान रहना। क्योंकि जब तुम भीड़ से प्रभावित होते हो, तब तुम अपने ही मन से प्रभावित हो रहे हो–और तुम्हारा मन तुम्हें तरंगित कर रहा है।

शरीर, वचन, मन–तीनों से पार साक्षी-भाव में ठहरना है। और जो साक्षी-भाव में ठहरता है, वही परमात्मा का अनुभव कर पाता है।

इलाही! वह नज़र दे आशियां तक हो, कफस जिसको

न ऐसी कम निगाही, जो कफस को आशियां समझे।

हे प्रभु! ऐसी आंख दे कि घर भी जेलखाना मालूम पड़े। ऐसी ओछी आंख मत दे देना कि जेलखाना भी घर मालूम पड़ने लगे।

अभी तो जेलखाना घर मालूम पड़ता है। अभी तो तुम अपने शरीर को अपना जीवन समझे हो। यह तुम्हारा कारागृह है। अभी तो तुम अपनी भाषा की कुशलता को अपनी सामर्थ्य समझे हो। यह तुम्हारी गुलामी है। अभी तो तुमने मन को अपना बल समझा है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, मन की शक्ति कैसे बढ़े, यह बताएं! मन की शक्ति बढ़ानी है कि मन से मुक्त होना है? वे कहते हैं, संकल्प थोड़ा कम है। विल पावर चाहिए!

विल पावर, संकल्प की शक्ति तो मन को ही बढ़ायेगी।

मन से दूर होकर जो मिलता है वह आत्मबल है। मन से जो मिलता है वह कोई बल नहीं है; वह तो तुम्हारी निर्बलता है। वह तो धोखा है।

अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में

कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए।

आकाश से भी आगे जाना है!

अर्श से आगे निकल जाएं हवाए-शौक में

कम-से-कम यह रफअते-परवाज होनी चाहिए।

–उड़ान की ऐसी चाह, उड़ान की कम से कम ऐसी अभीप्सा, कि आकाश से भी पार हो जायें!

यह शरीर तो मिट्टी से बना है। इससे तो पार होना ही है। ये वचन, ये शब्द ये भी मिट्टी के ही सूक्ष्म अणु-परमाणु हैं, इनसे भी मुक्त होना है। यह मन, यह तो मन इस शरीर और वाणी का ही कोषागार है, संचित परमाणु हैं–इससे भी मुक्त होना है। वहीं अंतर्आकाश शुरू होता है। और आकाश से भी आगे निकल जायें, वहीं परमात्मा है–जहां यह भी पता नहीं रहता कि मैं आत्मा हूं, जहां सिर्फ आत्मा ही रह जाती है, मैं बिलकुल गिर जाता है…।

अब इसे थोड़ा समझना। हम कहते हैं, मेरा शरीर, मेरा मन, मेरे विचार–”मेरा’। पहले “मेरा’ को गिराना है। फिर हम कहेंगे, “मैं’, आत्मा। फिर “मैं’ को गिराना है। जब “मेरा’ गिरता है तो आत्मा प्रगट होती है। जब “मैं’ भी गिरता है तो परमात्मा प्रगट होता है।

“आत्मा; मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित, निर्द्वंद्व–अकेला, निर्मम–ममत्वरहित, निष्कल–शरीर रहित, निरालंब–परद्रव्यआलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोह-रहित तथा निर्भय है।’

वर्णन, यह कोई परिभाषा नहीं है। यह कोई व्याख्या नहीं है। ऐसा महावीर का अनुभव है। वे इसे कह देते हैं बड़े सूक्ष्म में।

“मन, वचन और कायारूप, त्रिदंड से रहित…।’

जहां न मन रह गया, न वचन रह गया, न काया रह गई। जहां शरीर बहुत दूर छूट गया, विचार की तरंगें बहुत दूर छूट गईं। जहां मन भी बहुत पीछे छूट गया। जहां इन सबसे तुम पार चले आये। जहां इन सबसे भीतर चले गये। जहां तुमने अंतरगृह में प्रवेश किया। मंदिर की दीवालें दूर छूट गईं। जिसमें तुम आवास बनाये हुए हो, वह सब दूर छूट गया। अब तुम वहां आ गये, जहां अंतर्तम है, जहां अंतर्तम का शून्य-गृह है, शून्याकाश है। तो निर्द्वंद्व। उस घड़ी में दो नहीं बचते, एक बचता है।

उपनिषदों में कथा है: एक जिज्ञासु ने याज्ञवल्क्य से पूछा, “कितने देवता हैं?’ याज्ञवल्क्य ने कहा, “शास्त्र कहते हैं तैंतीस हजार।’ उस जिज्ञासु ने कहा, “यह थोड़ा बहुत ज्यादा हो गया। किस-किसकी पूजा करेंगे? थोड़ी हमारी सामर्थ्य पर ध्यान दो। तो मैं फिर से पूछता हूं, कितने देवता हैं?’ तो याज्ञवल्क्य ने कहा कि ऐसा है कि मुख्य तो तीन सौ तीस ही। उस आदमी ने कहा, “मैं बहुत समर्थ नहीं हूं, तीन सौ तीस भी मुझे मुश्किल पड़ जायेंगे। तुम जरा और संक्षिप्त करो।’ याज्ञवल्क्य ने कहा, “तो फिर तीन।’ उस आदमी ने कहा, “तीन से भी बड़ी झंझट होगी। तीन तरफ खीचेंगे। किसकी सुनूंगा?’ तो याज्ञवल्क्य ने कहा, “अब तू बहुत गड़बड़ कर रहा है। डेढ़!’ उस आदमी ने कहा कि अब चलो, अब तो आ ही गये करीब-करीब। अब सच्ची बात ही कह दो। अब सत्य ही कह दो। तो याज्ञवल्क्य ने कहा, “सत्य तो एक है।’

सत्य तो एक, एक ही है सत्य। उसे एक कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि एक कहते से दो का खयाल पैदा होता है। एक अकेला तो हो ही नहीं सकता दो के बिना। इसलिए भारत में सभी परम ज्ञानियों ने उसे एक भी नहीं कहा, क्योंकि एक कहने से दो का तत्क्षण खयाल होता है। एक होगा कैसे अगर दो नहीं हैं? एक गणित की संख्या निर्मित ही तब होती है जब दो और तीन, और सारी संख्याएं हों।

इसलिए वेदांत कहता है: अद्वैत; दो नहीं। एक नहीं कहता। महावीर कहते हैं: निर्द्वंद्व; दो नहीं, द्वंद्व नहीं। और महावीर का निर्द्वंद्व अद्वैत से भी मधुर है।

क्योंकि अद्वैत का मतलब है: दो नहीं हैं। महावीर का मतलब है: द्वंद्व नहीं है। दो में तो ऐसा लगता है, चीजें ठहरी हैं; प्रक्रिया का बोध नहीं होता, थिरता का बोध होता है। निर्द्वंद्व में द्वंद्व नहीं है, संघर्षण नहीं है; गति का बोध है।

और महावीर का गति पर बड़ा जोर है। महावीर तो कहते हैं: जो गत्यात्मक है, वही सत्य है; जो निरंतर गतिमान है। महावीर कहते हैं: जहां गति नहीं है वहीं मृत्यु है। और जहां सतत गति है, ऊर्जा का सतत आरोहण है, वहीं जीवन है। इसलिए वे शब्द उपयोग करते हैं: निर्द्वंद्व, अकेला। अकेले से तुम खयाल रखना: तुमने जो अकेलापन जाना है, वह महावीर का अर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि महावीर ने जो अकेलापन जाना है उसका तो तुम्हें कोई पता ही नहीं है। तुमने भी बहुत बार अकेलापन जाना है। पत्नी मायके चली गई और तुम अकेले हो गये, कि बच्चे सब हास्टल चले गये और तुम अकेले हो गये।

तुम्हारा अकेलापन दूसरे की गैर-मौजूदगी है। इसलिए तुम्हारा अकेलापन वस्तुतः अकेलापन नहीं है। वहां तुम नहीं हो अकेलेपन में; दूसरा गैर-मौजूद है, इसकी प्रतीति है। पत्नी मायके चली गई, इसलिए अकेलापन लगता है। यह अकेलापन नकारात्मक है। यह पत्नी से जुड़ा है। इसमें पत्नी के वापिस लौट आने की आकांक्षा छिपी है। यह पीड़ा है। इसलिए अकेलेपन शब्द में ही उदासी हो गई है। क्योंकि महावीर जैसा अकेलापन तो कभी-कभार किसी को मिलता है। तुम्हारा अकेलापन बहुत है, बहुमत को है।

कोई आदमी कहता है, बड़ा अकेलापन लगता है, तो तुम ऐसा नहीं मानते कि बड़ा प्रसन्न होकर कह रहा है; तो तुम समझते हो कि दुखी है, परेशान है, उदास है।

महावीर का अकेलापन दूसरे की अनुपस्थिति से नहीं बनता–अपनी उपस्थिति से बनता है।

इस फर्क को खयाल में रखना।

अंग्रेजी में दो शब्द हैं। अलोननेस, लोनलीनेस। वे शब्द बड़े अच्छे हैं। महावीर का जो अकेलापन है, वह अलोननेस। तुम्हारा जो अकेलापन है वह लोनलीनेस है। महावीर का जो अकेलापन है, वह एकांत; अकेलापन नहीं। तुम्हारा जो अकेलापन है, वह एकाकीपन है; अकेलापन; उदासी; कुछ खोया-खोया; कुछ कम-कम; कुछ अभाव; कुछ होना चाहिए था, नहीं है। कमरे में जाते हैं, पत्नी दिखाई नहीं पड़ती, बच्चे दिखाई नहीं पड़ते। तुम्हारी नजरें किसी दूसरे को खोज रही हैं और दूसरा मिलता नहीं। तुम्हारा अकेलापन यानी तन्हाई।

महावीर का अकेलापन: जहां तक नजर जाती है, खुद ही को पाते हैं। सारा कमरा अपने से भरा है; सारा आकाश अपने से भरा है! अपने को ही छूते हैं, अपने को ही गुनगुनाते हैं! अपना होना इतना गहन हुआ है कि अब दूसरे की कोई जरूरत नहीं है! दूसरे की याद भी नहीं आती! दूसरा है भी, इसका पता नहीं चलता! निर्द्वंद्व!

महावीर का अकेलापन बड़ा विधायक है, पाजिटिव है।

“निर्मम–ममत्व-रहित…।’

तुम्हारा “निर्मम’ अलग है। तुम्हारे निर्मम का अर्थ होता है: कठोर। तुम उस आदमी को निर्मम कहते हो जो बड़ा कठोर है, दुष्ट है। महावीर–और दुष्ट! नहीं, हम अलग-अलग भाषाओं के लोक में जी रहे हैं। महावीर के लिए निर्मम वह है जिसे ममत्व नहीं; जिसके पास से “मेरा’ समाप्त हो गया; जिसके लिए अब कोई चीज “मेरी’ नहीं, बस। तुम्हें तो दोनों बातें एक लगती हैं; जैसे–

एक घर में आग लगी। मालिक छाती पीटकर रोने लगा। किसी ने कहा, “घबड़ाओ मत, चिल्लाओ मत, परेशान मत होओ। मैंने तुम्हारे बेटे को कल ही तो किसी से बात करते देखा था। मकान बेचने का सब तय हो गया है। पैसे भी दे दिये गये हैं। यह तो मकान बिक चुका, तुम्हारा नहीं है।’

उस आदमी के आंसू सूख गये। वह स्वस्थ हो गया। उसने कहा, “अरे! मुझे इसका पता ही नहीं था।’

मकान जल रहा है। मकान वही का वही है, लेकिन “मेरा’ नहीं है तो अब क्या फिक्र! तभी बेटा आया घबड़ाया हुआ। उसने कहा कि ऐसे खड़े हो, क्या कर रहे हो? यह मकान जला जा रहा है! बात हुई थी, लेकिन पैसे लिये-दिये नहीं गये थे। मकान अपना ही जल रहा है।

फिर बाप रोने लगा, फिर छाती पीटने लगा। मकान वही का वही है; “मेरे’ से जुड़ जाता है तो दुख ले आता है; “मेरे’ से छूट जाता है तो बात खत्म हो गई।

जिस-जिसको तुमने “मेरा’ माना है, वहीं-वहीं से दुख आता है। जिस-जिस से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है, वहां से कोई दुख नहीं आता। इसलिए जितना तुम्हारा “मेरे’ का जाल होगा, उतना ही तुम्हारा दुख होगा। जितना तुम्हारा मेरे का जाल टूट जायेगा, उतना ही तुम्हारा दुख समाप्त हो जायेगा।

जब महावीर कहते हैं “निर्मम’ तो वे कहते हैं, जिसका “मेरा’ भाव गिर गया। इसका यह अर्थ नहीं कि वह कठोर हो गया। सच तो यह है कि ऐसा आदमी ही करुणावान होता है। “मेरे’ के कारण तुम कठोर हो। क्योंकि “मेरे’ के कारण तुम्हारी करुणा मुक्त नहीं हो पाती। अगर तुम्हारा बेटा गिरता है तो उठा लेते हो; दूसरे का बेटा गिरता है तो आंख बचाकर निकल जाते हो।

“मेरे’ के कारण तुम कठोर हो। तुम्हारा बेटा भूखा मरता है तो तुम परेशान होते हो; दूसरे का बेटा भूखा मरता है, तुम्हें क्या लेना-देना! तुम “मेरे’ के कारण कठोर हो।

महावीर का “मेरा’ विसर्जित हो जाता है: करुणा मुक्त हो जाती है; अब मेरे की ही धाराओं में नहीं बहती; अब तो बाढ़ की तरह सब तरफ बहने लगती है; अब कोई कूल-किनारा नहीं रह जाता। तो महावीर की निर्ममता में करुणा है और हमारे ममत्व में भी कठोरता है।

“शरीर-रहित, निरालंब…।’

कोई आलंबन नहीं है आत्मा का। कोई आधार नहीं है आत्मा का। आत्मा परम आधार है। उसके आगे फिर कोई आधार नहीं है। होना अपने कारण है, स्वयंभू है।

तो जैसा उपनिषद ब्रह्म के लिए कहते हैं–परम आधार, निरालंब–वैसा ही महावीर आत्मा के लिए कहते हैं। जिसको उपनिषदों ने ब्रह्म कहा है, उसी को महावीर ने आत्मा कहा है। ब्रह्म या आत्मा कहने से फर्क नहीं होता।

एक हमें मानना पड़ेगा जो निरालंब है, जिसका कोई आधार नहीं; जो सबका आधार है, लेकिन जिसका कोई आधार नहीं। अन्यथा अस्तित्व बेबूझ हो जायेगा।

वैज्ञानिक कहता है: पानी बना है हाइड्रोजन-आक्सीजन से; आक्सीजन बनी है इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पोजिट्रान से; इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पोजिट्रान बने हैं विद्युत से, विद्युत-ऊर्जा से। विद्युत-ऊर्जा किससे बनी है? वे कहते हैं, बस विद्युत-ऊर्जा किसी से नहीं बनी है–तो विद्युत-ऊर्जा उनके लिए निरालंब हो गई। कहीं तो जाकर आधार खोज लेना होगा, जिसके पार कुछ भी नहीं है।

महावीर उस आधार को आत्मा में खोजते हैं। निश्चित ही विद्युत की बजाय आत्मा में खोजना ज्यादा गहरा है। क्योंकि विद्युत की खोज भी आत्मा ने की है। जब वैज्ञानिक कहता है, इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और पोजिट्रान, और ये सब विद्युत से बने हैं, तो उसकी चेतना इस गहराई तक पहुंच जाती है। तो जिस गहराई तक हम पहुंचते हैं, उस गहराई से ज्यादा गहराई हमारी होनी ही चाहिए, अन्यथा हम उस गहराई तक नहीं पहुंच सकते।

वैज्ञानिक अपने को छोड़ देता है, बाहर रख लेता है। लेकिन कुछ भी हम खोज लेंगे, खोजनेवाले से बड़ा वह नहीं होगा जो हम खोजेंगे। इसे थोड़ा खयाल में रखना। इसलिए महावीर परमात्मा से भी ज्यादा मूल्य आत्मा शब्द को देते हैं। वे कहते हैं, आत्मा ही तो खोजेगी न परमात्मा को! तो जो खोजनेवाला है वह जिसे खोज लेगा उससे बड़ा है। मैं जिसे पा लूं, उससे मैं बड़ा हो गया। तुम जिसे पा लो, तुम उससे बड़े हो गये। अगर तुम गौरीशंकर पर खड़े हो गये तो तुम गौरीशंकर से बड़े हो गये।

तो महावीर का विश्लेषण बड़ा महत्वपूर्ण है। महावीर कहते हैं, आत्मा से बड़ा कुछ भी नहीं है; क्योंकि सभी कुछ अंततः आत्मा ही पायेगी–मोक्ष, निर्वाण, ब्रह्म। तो जो पानेवाला है वही मालिक है, वही निरालंब, वही परम आधार है।

“परद्रव्य-आलंबन से रहित, वीतराग, निर्दोष, मोह-रहित तथा निर्भय है।’

और निर्भय समझनेवाला तत्व है। हम भयभीत हैं। हम कंप रहे हैं, चौबीस घंटे भयभीत हैं। यह भय क्या है? बहाने कुछ भी हों। और हम अपने को किसी भी तरह समझा लेते हों, कुछ तरकीबें खोज लेते हों–कभी भय है कि प्रियजन न खो जाये; कभी भय है बीमार न हो जायें; कभी भय है वृद्ध न हो जायें, बूढ़े न हो जायें; कभी भय है, धन न खो जाये; कभी भय है, पद न खो जाये, प्रतिष्ठा न खो जाये, नामऱ्यश न खो जाये, कुल-परंपरा न खो जाये–हजार भय हैं, लेकिन सबके गहरे में अगर खोजेंगे तो मृत्यु का भय है: कहीं मैं न खो जाऊं!

धन को भी हम इसीलिए पकड़ते हैं कि धन के सहारे स्वयं के होने में सहायता मिलती है; अन्यथा धन के लिए कौन धन को पकड़ता है? कौन इतना पागल है? लेकिन धन हो तो थोड़ा बल होता है–बीमारी होगी, बुढ़ापा होगा तो धन रक्षा करेगा। कोई शत्रु होगा तो धन रक्षा करेगा। हम पद-प्रतिष्ठा को पकड़ते हैं, क्योंकि उससे भी आत्म-रक्षा होती है। यश को पकड़ते हैं, कुल को पकड़ते हैं, समाज के अंग बनते हैं, धर्म के अंग बनते हैं, राजनीति के अंग बनते हैं–उस सबमें बहुत गहरे में आत्मरक्षा की भावना है। सब तरफ से मौत हमें पीड़ित किये है: मरना होगा!

रोज कोई मरता है: हमारे पैर और हिल जाते हैं! रोज कोई मरता है: जड़ें और उखड़ जाती हैं! रोज कोई धक्के दे जाता है। ये तूफान रोज आते ही हैं मौत के। आज कोई गया, कल कोई गया–परसों हमें भी जाना होगा, यह घबड़ाहट है!

तो आदमी इस अवस्था में कभी अभय को उपलब्ध हो ही नहीं सकता। जिनको तुम बहादुर कहते हो, वे भी अभय को उपलब्ध नहीं होते। कायर नहीं हैं वे। इससे तुम यह मत समझना कि भयभीत नहीं हैं। कायर और बहादुर दोनों के भीतर भय है। कायर भय की मानकर भाग खड़ा होता है; बहादुर नहीं मानता, खड़ा रहता है–लेकिन भय दोनों के भीतर है। बहादुर भय के बावजूद भी चला जाता है युद्ध में; कायर भय अनुभव होते ही भाग खड़ा होता है। एक आगे जाता है, एक पीछे जाता है; लेकिन भय दोनों में है। भय से कोई बाहर नहीं है। भय से तो–महावीर कहते हैं–वही बाहर होता है, जो आत्मा को उपलब्ध हुआ; क्योंकि आत्मा अमरत्व है। वहां फिर कोई मृत्यु नहीं। वहां पहुंचते ही पता चलता है कि न तो यह मर सकती है चेतना, न कभी मरी है, न जन्मी है–अजन्मी, अनादि, अमृत। तब सारा भय शून्य हो जाता है। तब सारे भय गिर जाते हैं।

आत्मा को जाने बिना भय के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। और भय के बाहर गये बिना कैसे दुख के बाहर जाओगे? कैसे भय के बाहर गये बिना चिंता के बाहर जाओगे, संताप के बाहर जाओगे? कंपते ही रहोगे।

आदमी का होना एक गहन कंपन है। आत्मा को जानते ही कंपन ठहर जाता है। स्थिति-प्रज्ञता पैदा होती है। ज्योति अकंप हो जाती है, निर्धूम जलती है; जैसे ऐसे किसी घर में हो जहां हवा के झोंके न आते हों–अकंप जलती है। तब पहली दफा जीवन में वसंत आता है। उसके पहले जो वसंत जाने वे तो पतझड़ के ही आगमन के आने के उपाय थे। उसके पहले तो जवानी जो जानी वह बुढ़ापे का ही चरण था। उसके पहले तो जो जन्म मिला, वह मौत की ही शुरुआत थी। आत्मा में आकर, स्वयं में आकर, पहली दफे वसंत आता है–ऐसा वसंत, जिसके पीछे कोई पतझार नहीं।

नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल

बहारे-नौ के कदमों की सदा है।

नहीं यह नग्मए-शोरे-सलासिल

बहारे-नौ के कदमों की सदा है।

अब बेड़ियों की झंकार नहीं मालूम होती है वसंत में। यह तो वसंत-आगमन की पगध्वनि है, बेड़ियों की झंकार नहीं। इसके पहले तो वसंत भी आया तो बांध गया था। इसके पहले तो प्रेम भी आया तो बंधन बन गया था। इसके पहले तो जो भी आया था, कारागृह ही सिद्ध हुआ था। अब पहली दफा वसंत आता है। ऐसे फूल खिलते हैं जो फिर कभी मुर्झाते नहीं। ऐसे फूल खिलते हैं जो मुर्झाने को नहीं खिलते।

“वह आत्मा निर्ग्रंथ है, निराग है, निशल्य है, सर्वदोषों से विमुक्त है, निष्काम है और निक्रोध, निर्मान और निर्मद है।’

“निराग, निर्ग्रंथ, निशल्य…।’

महावीर के अपने पारिभाषिक शब्द हैं। निर्ग्रंथ का अर्थ होता है: जहां अब कोई ग्रंथि न रही; कोई एढ़ा-टेढ़ापन न रहा; कोई गांठ न रही; जिसको मनोवैज्ञानिक काम्प्लेक्स कहते हैं–ग्रंथि। वैसी कोई ग्रंथि न रही; आदमी सरल हुआ; चेतना पर कोई बाधाएं, अवरोध न रहे; झरना बहने लगा, सब चट्टानें राह से हट गईं। अगर चट्टानें पूरी हट जायें तो झरने का शोर भी बंद हो जाता है। झरने के करण थोड़े ही शोर होता है; शोर तो चट्टानों के कारण होता है, बीच में पड़े पत्थरों के कारण होता है। सब चट्टानें हट जायें तो झरना एकदम शांत हो जाता है।

जीवन-ऊर्जा जब शांत बहने लगती है, कोई ग्रंथि नहीं होती…। अभी तो हमारे पास हजार-हजार ग्रंथियां हैं। अभी तो हम सीधे बह ही नहीं पाते। अभी तो हमारे सारे कदम ऐसे पड़ते हैं जैसे शराबी चलता है–लड़खड़ाते; हर घड़ी गिरने-गिरने को। एक पांव इधर पड़ता है, दूसरा कहीं और पड़ता है। कहीं रखना चाहते हैं, कहीं पड़ जाता है। अभी तो हम कहते कुछ हैं, मतलब कुछ होता है; करना कुछ चाहते थे, कर कुछ जाते हैं। अभी जीवन एक सरल घटना नहीं है। और अभी हम इस सरलता को पा भी न सकेंगे; क्योंकि हम तो अपनी जटिलता को ही सरलता समझे बैठे हैं। हम तो अपनी जटिलता के लिए बड़े तर्क खोजते हैं।

अगर तुम्हें क्रोध आ जाता है तो तुम सीधा-सीधा थोड़े ही कहते हो कि मैं क्रोधी आदमी हूं। तुम कहते हो, क्रोध की जरूरत थी; अगर क्रोध न करेंगे तो यह बेटा सुधरेगा कैसे? अब तुम ग्रंथि को तो स्वीकार कर ही नहीं रहे हो कि तुम क्रोधी हो। तुम यह कह रहे हो कि यह तो बेटे को सुधारने के लिए करना पड़ रहा है। तुम बहाने में टाले दे रहे हो, तो यह ग्रंथि तो मजबूत होती चली जायेगी। यह ग्रंथि तो घनी होती चली जायेगी।

दूसरा करता है, तो तुम कहते हो, अहंकारी; तुम करते हो तो कहते हो, स्वाभिमान है। अगर तुम्हें कोई नई सूझ आती है तो तुम कहते हो, मौलिक चिंतन; अगर दूसरे को आती है, तुम कहते हो, झक्की है, दिमाग थोड़ा ढीला है, इस तरह की बातें इसके दिमाग में उठती हैं।

तुम करते हो तो तुम कुछ और शब्द देते हो; दूसरा करता है…।

अगर एक ईसाई हिंदू हो जाये तो ईसाई कहते हैं, गद्दार। अगर एक हिंदू ईसाई हो जाये, तो वे कहते हैं, सुमार्ग पर आ गया। वह हिंदू की बात है। हिंदू अगर ईसाई हो जाये तो वो कहते हैं, गद्दार। अगर ईसाई हिंदू हो जाये तो वे कहते हैं, सदबुद्धि का जन्म हुआ।

ग्रंथियों को हम छिपाते हैं। तो फिर जिसको हम छिपाते हैं, वह बढ़ेगा। ग्रंथियों को उघाड़ना पड़ेगा।

इसलिए तो महावीर नग्न हुए। वह “नग्न’ बड़ा प्रतीकात्मक है। उन्होंने कहा, जैसा हूं, जो हूं, अब कोई वस्त्र न रखूंगा, आवरण न रखूंगा, अब सब उघाड़े देता हूं। अब कोई ग्रंथि जैसी भी है, बुरी है, भली है, लोग स्वीकार करें, न स्वीकार करें…।

लोगों ने किस-किस तरह का व्यवहार महावीर से किया, हैरानी होती है!

कल रात मैं देख रहा था एक जैन-ग्रंथ। लोगों ने पत्थर मारे, लकड़ियों से पीटा, जंगली जानवर छोड़े, कुत्ते, खूंखार कुत्ते छोड़े, इतने से भी लोगों को न लगा तो लोग उठा उठाकर उनके शरीर के ऊपर फेंकते थे, वे नीचे गिरते थे–चट्टानों पर। लोग बहुत नाराज थे। इस नाराजगी में कारण था। कारण यह था कि हम हैं जटिल लोग। जब भी कोई सरल आदमी पैदा होता है, उसे हम बर्दाश्त नहीं कर पाते। वह बड़े गहरे में हमें अपमानजनक मालूम पड़ता है। उसकी मौजूदगी हमें चुभती है, शूल की तरह चुभती है। बेईमान चाहते हैं, बाकी भी लोग बेईमान हों। अगर ईमानदार आदमी बेईमानों के बीच में हो तो बेईमान उसे बर्दाश्त न करेंगे। उनके लिए खतरा है वह ईमानदार आदमी; क्योंकि उसकी ईमानदारी के कारण उनकी बेईमानी साफ हुई जाती है, उघड़ी जाती है। चोर चोर को पसंद करते हैं। झूठ बोलनेवाले झूठ बोलनेवाले को पसंद करते हैं। जैसे लोग होते हैं, वैसों को पसंद करते हैं। महावीर जैसा निर्ग्रंथ आदमी, जिसकी कोई ग्रंथि नहीं, कोई उलझाव नहीं, जैसा है सीधा-सरल नग्न खड़ा हो गया–लोगों को बड़ी कठिनाई हो गई। लोग इसे बर्दाश्त न कर सके। लोग उनको एक गांव से दूसरे गांव में खदेड़ने लगे। लेकिन यह आदमी भी खूब था। इसने सब स्वीकार कर लिया। इसने कहा कि यह भी हो रहा है तो होने दो। इसने कुछ बदलने की कोशिश न की। जिस गांव से इसे भगाया गया, अगर लोग खदेड़कर बाहर कर गये तो ये बाहर हो गये। लेकिन ऐसा भी नहीं कि दुबारा उस गांव में न आए हों। फिर राह में पड़ गया गांव तो फिर आ गये। जो सहज होने लगा वह होने दिया। सहज-स्फूर्त जीवन महावीर का मूलभूत स्वर है। उसमें जरा भी सजावट नहीं है, शृंगार नहीं है। उसमें जरा भी अन्यथा दिखाई पड़ने का कोई आग्रह नहीं है–जैसे हैं, जो हैं।

कहते हैं, महावीर ने वर्षों तक स्नान नहीं किया; क्योंकि उन्होंने कहा कि अब शरीर है और यह तो दुर्गंध-भरा है ही, अब इसको धो-धोकर, पोंछ-पोंछकर भी क्या सार? किसको धोखा देना है? वर्षों तक उन्होंने दतौन नहीं की। क्योंकि उन्होंने कहा कि मुंह से तो बास आती ही है। अब किसको समझाना है कि बास नहीं आती?

तुमने कभी खयाल किया? तुम जो भी करते हो, दूसरों को दिखाने के लिए करते हो। अगर घर में बैठे हो तो कैसे ही उलटे-सीधे कपड़े पहने बैठे रहते हो। बाहर जाना है कि हुए तैयार! वैसे ही क्यों नहीं निकल आते? बाहर जा रहे हैं! बाहर जाने का मतलब है: अब लोगों की तरफ ध्यान रखना है; उनकी आंख को क्या ठीक लगेगा, क्या ठीक नहीं लगेगा–अपनी प्रतिष्ठा का सवाल है। कुछ दिखलाना है। जैसे तुम नहीं हो, वैसे दिखलाना है। व्यवसाय शुरू हो गया।

स्त्रियों को देखा, घर में कैसी बैठी रहती हैं! भैरवी के रूप में! इसलिए अगर उनके पति उनसे घबड़ा जाते हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं। बाहर निकलीं तो सब अप्सरायें हो जाती हैं। इसलिए अगर दूसरे उन पर आकर्षित हो जाते हैं तो भी कुछ आश्चर्य नहीं। पतियों को तो भरोसा ही नहीं आता कि उनकी पत्नी को भी कोई रास्ते में धक्का दे गया।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पहुंचा पागलखाने। जाकर दस्तक दी। अधिकारी ने पूछा, कैसे आये आधी रात? उसने कहा, मेरी पत्नी भाग गई है। उसने कहा, यहां आने का क्या कारण? उसने कहा, मैं यह पूछने आया हूं, कोई पागल तो नहीं निकल भागा यहां से? क्योंकि मेरी पत्नी को कोई और ले भागे इस गांव में, यह तो संभव नहीं है। कोई पागल तो नहीं छूटा है आज, यह मैं पूछने आया हूं।

एक हमारे होने के ढंग हैं, एक हमारे दिखाने के ढंग हैं। एक हैं दांत हमारे खाने के, एक हैं दिखाने के।

महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया! न दतौन, न स्नान। वर्षों तक पानी का उपयोग ही नहीं किया। वह तो भक्तों को दया आने लगी होगी। उनके प्रेमियों को दया आने लगी। इसलिए जैनियों में अभिषेक शुरू हुआ। साल में एक दिन वे बिठाकर महावीर को, उनके ऊपर पानी डाल देते हैं। अभी भी डालते हैं, मूर्ति पर डालते हैं अब वे। अभिषेक। भक्तों को भी घबड़ाहट होने लगी होगी कि इतना आदमी, इतना सरल हो जाना भी ठीक नहीं। इतना प्राकृतिक, जैसे पशु जीते हैं–निर्मल!

लेकिन तुमने खयाल किया? पशु गंदे मालूम होते हैं? एक आदमी ही कुछ अजीब है, इतनी व्यवस्था के बाद भी गंदा मालूम होता है! पशु सदा ताजे और स्वच्छ मालूम होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है, ताजे स्वच्छ होने की चेष्टा में ही हमने अपने को गंदा कर लिया है? कहीं यह अति आग्रह, आरोपण, यह झूठ, अप्राकृतिक होने की चेष्टा, यह कृत्रिम जीवन–कहीं यही तो हमारी गंदगी का कारण नहीं? क्योंकि इस पूरी प्रकृति में चारों तरफ जरा गौर से देखो, पक्षी हैं, पशु हैं–कौन गंदा मालूम पड़ता है? कौन स्नान कर रहा है? कौन दतौन कर रहा है? लेकिन सब साफ-सुथरे मालूम होते हैं; सारी प्रकृति नहाई हुई मालूम होती है–एक आदमी को छोड़कर।

महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया–प्राकृतिक होने का। रूसो ने जो बहुत बाद में कहा: बैक टू नेचर, चलो प्रकृति की ओर वापिस। वह तो रूसो ने सिर्फ कहा है–महावीर ने किया। बड़ी दुर्धर्ष साधना थी। क्योंकि सब भांति यह आकांक्षा छोड़ देनी कि दूसरे मेरे संबंध में क्या सोचते हैं, बड़ी कठिन है।

अभी जैन मुनि हैं, वे भी वैसा ही कुछ करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वह सच नहीं है। क्योंकि इस कोशिश में बुनियादी बात खो गई है। वह भी इस फिक्र में लगे हैं कि दूसरे क्या सोचते हैं। जैन मुनि है, वह देख रहा है कि जैन श्रमण की जो जीवन-धारा है, वह ऐसी होनी चाहिए, अनुशासन, यह व्यवस्था…। महावीर ने सारी व्यवस्था तोड़कर प्रकृति के हाथों में छोड़ दी; जैन मुनि ने महावीर ने जो किया उसको अपनी व्यवस्था बना लिया है। इन दोनों में बड़ा बुनियादी फर्क है। महावीर ने सारा अनुशासन छोड़ दिया; सारी संस्कृति, संस्कार, समाज, सभ्यता छोड़ दी; हो रहे प्रकृति के हाथ–जैसे पशु रहते हैं, ऐसे! जैन मुनि उसी में से अपनी व्यवस्था निकाल लिया।

महावीर दतौन नहीं करते तो जैन मुनि भी दतौन नहीं करता। कम से कम ऐसा पता तो नहीं चलने देता कि करता है। क्योंकि मैं जानता हूं, वे करते हैं। मैंने जैन साध्वियों के पास टुथपेस्ट भी छिपा हुआ देखा है।

एक जैन साध्वी मुझे मिलने आती थी। उसके मुंह से मुझे बड़ी बास आती थी। वह दतौन नहीं करती रही होगी। तो मैंने पूछा कि और साध्वियां भी आती हैं, उनके मुंह से बास नहीं आती। तो वह हंसने लगी। उसने कहा, आपसे क्या छिपाना! वे सब टुथपेस्ट छिपाये रहती हैं। वे सब टुथपेस्ट करती हैं। दुबारा जब वह खुद भी आई तो उसके मुंह से भी मुझे बास नहीं आ रही थी तो मैंने पूछा, मामला क्या है? तो उसने कहा कि जब आपने कहा तो मुझे भी लगा कि यह तो बात ठीक नहीं है, तो मैंने भी करना शुरू कर दिया; मगर किसी से आप कहना मत!

बाहर से तो यही दिखाना पड़ता है कि नहीं। बाहर से न भी दिखाओ, अगर तुम भीतर से भी पालन करो तो फर्क समझ में आया तुम्हें। महावीर ने सब चीजों का पालन छोड़ दिया। यह उनकी क्रांति थी। अब तुम महावीर को देख-देखकर पालन करने के लिए नियम बना रहे हो। यह कोई क्रांति न हुई, यह परंपरा हुई। और महावीर के संबंध में कहा जाता है कि धीरे-धीरे उनकी देह से पसीने की बदबू आनी बंद हो गई। जैन तो इसको और ढंग से समझाते हैं। वह ढंग मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। वे तो कहते हैं, तीर्थंकर के पसीने में बास नहीं आती। यह बात तो बेतुकी मालूम होती है। पसीना तो पसीना है। इसमें तीर्थंकर को बीच में लाने की कोई जरूरत नहीं है। वे कहते हैं, तीर्थंकर को पसीना ही नहीं आता। यह बात भी मेरी समझ में नहीं आती। लेकिन पशु हैं, पक्षी हैं, प्रकृति की सहज धारा में जीते हैं–कौन-सी बास आ रही है? जंगली पशु-पक्षियों में कौन-सी बास आ रही है? नहीं, मेरी तो दृष्टि यही है कि महावीर इतने सरल हो गये कि फिर पशुवत हो गये। “पशुवत’ को मैं उपयोग कर रहा हूं–बड़े बहुमूल्य अर्थों में। इतने नैसर्गिक हो गये! जब दिखावे की आकांक्षा छूट गई तो शरीर में एक क्रांति घटित हुई। क्योंकि वह दिखावे की जो आकांक्षा है, वह शरीर को एक स्थिति में रखती है; जब दिखावे की आकांक्षा छूट जाती है तो शरीर में एक क्रांति घटित होती है। किसी को प्रभावित करने का खयाल ही न रहा, पसीना आता रहा होगा, लेकिन पसीने का गुण-धर्म बदल गया।

इसे तुम ऐसा समझो–चित्त की दशायें बदलती हैं तो शरीर की दशायें भी बदलती हैं। जब कोई स्त्री कामातुर होती है तो उसके पसीने में एक अलग तरह की बास आने लगती है। इसलिए तो जानवर मादा को सूंघते हैं; इसके पहले कि वे संभोग करें, मादा को सूंघते हैं। क्योंकि पसीना मादा की खबर देता है, वह राजी है या नहीं।

आदमी के जीवन में भी ठीक वही नियम काम करते हैं; क्योंकि देह के नियम तो वही के वही हैं। जब कोई स्त्री कामातुर होती है, उसके पसीने में खास बदबू आनी शुरू होती है। और जब कोई व्यक्ति काम से परिपूर्ण मुक्त हो जाता है तब उसके पसीने की वह सारी बदबू जो कामातुरता से आती थी, विलीन हो जाती है। तब उसके पसीने में एक और ही तरह की बास आती है, एक और ही तरह की गंध होती है।

मुंह से हम बोलते हैं। बोलने की जो प्रक्रिया है, उससे मुंह में एक खास तरह की बास आनी शुरू होती है, क्योंकि घर्षण पैदा होता है। थूक में और मुंह के यंत्र में सतत घर्षण से एक तरह की बास आनी शुरू होती है।

अगर कोई मौन रह जाये, चुप रह जाये, बोले ही न, तो तुम पाओगे उसके मुंह से वह बास आनी बंद हो गई। क्योंकि वह तो केवल घर्षण की वजह से पैदा हो रही थी।

महावीर महीनों तक भोजन नहीं करते। जब तक उन्हें ऐसा नहीं हो जाता कि अब शरीर की बिलकुल अपरिहार्य जरूरत आ गई, तभी भोजन करते हैं। और बड़ा अल्प भोजन करते हैं। उतने भोजन से शरीर चलता है। बस वह पूरा का पूरा भोजन पचा जाते हैं।

अभी पश्चिम में चूंकि कारों के चलने से, कारों में जलनेवाले पेट्रोल के धुएं के कारण वैज्ञानिक बड़े चिंतित हो गये हैं।

तो इस तरह की कारें निर्मित की जा रही हैं कि पेट्रोल पूरा का पूरा जल जाये, जरा भी बचे न; क्योंकि जो बच जाता है, गैर-जला, उसकी वजह से ही गंध और वायु-दूषण पैदा होता है। अगर पूरा जल जाये तो फिर कोई गंध पैदा नहीं होती, वायु-दूषण पैदा नहीं होता।

तो महावीर कभी महीने में एक दफा भोजन करते, कभी दो दफा भोजन करते। शरीर की जरूरत इतनी होती और भोजन इतना कम होता कि वह पूरा का पूरा पचा जाते।

जैन कहते हैं, महावीर मल-मूत्र का त्याग नहीं करते; क्योंकि तीर्थंकरों को मल-मूत्र नहीं होता। मैं यह नहीं कहता। मैं यह कहता हूं कि अगर तुम भी महीने में एकाध बार भोजन करोगे तो मल-मूत्र की जरूरत न रह जायेगी। शरीर पूरा पचा जायेगा। शरीर के पचाने की जरूरत इतनी होगी कि तुमने जो लिया है उसमें से कुछ भी छोड़ने का उपाय न होगा। महावीर ने बारह वर्षों की साधना में कहते हैं, मुश्किल से तीन सौ साठ दिन भोजन किया। तो हर बारह दिन में एक दिन भोजन पड़ता है। वह भोजन इतना कम था, और वह भी एक बार और वह भी महावीर खड़े-खड़े करते, बैठते भी न थे। क्योंकि महावीर कहते, बैठो तो थोड़ा ज्यादा भोजन आदमी कर लेता है। छोटी-छोटी चीजों से फर्क पड़ते हैं।

तुमने कभी खयाल किया? खड़े-खड़े भोजन करके देखो एक दफा। “बफे’ महावीर ने शुरू किया। ज्यादा मेहमान हों, भोजन कम हो, तो बफे। बिठालना मत, बिठालो तो फिर ज्यादा खाते हैं। खड़े-खड़े शरीर का आसन ऐसा होता है कि पेट तना होता है; बैठने से पेट शिथिल हो जाता है, ज्यादा जगह हो जाती है। अब किसी को कहो दौड़ते-दौड़ते भोजन करो तो और कम हो जायेगा, स्वभावतः।

महावीर खड़े-खड़े भोजन करते। पात्र में भोजन नहीं करते थे–करपात्री थे–हाथ में ही भोजन करते थे। अब हाथ में जरा भोजन करके देखो! दो-चार ग्रास के बाद ही तुम सोचोगे, अब बहुत हो गया। वह प्रक्रिया कोई ऐसी नहीं कि बहुत देर जारी रखने का सुख मालूम पड़े। धूप में, सड़क पर खड़े हुए, हाथ में, नग्न, जो थोड़ा-बहुत मिल गया, वे ले लेते। बैठते भी न। एक बार! वह भी दस-बारह दिन में एक बार। यह पूरा का पूरा भोजन पच जाता। यह पूरा का पूरा भोजन शरीर में लीन हो जाता। तो संभव है, मलमूत्र पैदा होने की जरूरत न रह जाये।

ऐसे नैसर्गिक ढंग से जीना उन्होंने शुरू किया कि मन से कोई बाधा न हो।

हम तो ऐसा उपाय करते हैं…तुमने देखा, जब बहुत मित्रों को बुला लो घर पर, तो ज्यादा खाना हो जाता है। रेडियो चला दो, गीत-संगीत बजा दो, तो ज्यादा खाना हो जाता है। हम तो ऐसे उपाय करते हैं जिससे ज्यादा हो जाये। महावीर ने ऐसे उपाय किये कि उतना ही हो जितना प्रकृति की जरूरत है। मन से कुछ भी न जोड़ा जाये। तो स्वभावतः धीरे-धीरे उनकी सारी ग्रंथियां खुलती गईं। वह छोटे बच्चे की भांति या पशु की भांति हो गये। उनमें सरलता का आविर्भाव हुआ। निर्ग्रंथ होने का यही अर्थ है। वे ऐसे सरल हो गये कि उनमें एक भी तिरछी लकीर न बची।

दो बिंदुओं के बीच जो निकटतम दूरी है, उसको कहते हैं सरल रेखा। और दो बिंदुओं के बीच जो इरछी-तिरछी यात्रा करनी पड़े, गोल, घुमावदार, वह है ग्रंथि।

महावीर सीधी सरल रेखा की भांति हैं। हम बड़े इरछे-तिरछे हैं। हम कहते कुछ, करते कुछ। हम करते कुछ और अपने को समझाते कुछ। हम दूसरे को ही धोखा देते हों, ऐसा नहीं है; हम अपने को भी धोखा देते हैं।

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ लखनऊ में ठहरा हुआ था। गर्मी के दिन और भरी दुपहरी में बिजली चली गई, तो वह बहुत झल्लाया। उसे जो भी चुनी हुई गालियां आती थीं, उसने दीं। फिर वह भागा, नीचे गया, होटल के नीचे से एक पंखा खरीद लाया। पंखा उसने किया नहीं कि टूटा नहीं। दो टुकड़े हो गये। फिर तो जो वह बहुत ही नाराज हुआ। फिर तो वह गालियां विशेष रूप से सुरक्षित रखता है, वे भी उसने दीं। फिर वह भागा, नीचे गया। यह सोचकर कि कहीं कोई झगड़ा-फसाद न हो, मैं भी उसके पीछे गया कि अब यह कुछ…। पर नीचे जो देखा, वह…। अच्छा हुआ कि गया। पंखेवाले ने उससे कहा कि इसमें क्या आश्चर्य की बात है, इसमें क्यों बौखलाये जा रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा, एक ही बार किया और पंखा टूट गया, और तुम कहते हो आश्चर्य की बात नहीं! उस पंखेवाले ने लखनवी अंदाज में कहा, हुजूर! यह लखनऊ का नफासत, नजाकत का पंखा है। आपको करना नहीं आता। आपने लट्ठ की तरह घुमा दिया होगा। हुजूर! लखनऊ में तो पंखे को सामने रख लेते हैं और सिर को हिलाते हैं। फिर सिर भला टूट जाये, पंखा कभी नहीं टूटता। आप जरा लज्जत सीखिये। लखनऊ में आये हैं तो थोड़े लखनऊ का रिवाज भी सीखिये।

हम तरकीबें खोज लेते हैं। हम तर्क खोज लेते हैं। जीवन उलटा भी जा रहा हो तो भी हम उसे सीधा मानने के ढंग खोज लेते हैं।

तुम न जागो तो कोई तुम्हें जगा न सकेगा। तुम्हें ही देखना पड़ेगा कि तुमने कहां-कहां अपनी ग्रंथियों को मजबूत करने के लिए तर्क खोज रखे हैं। क्रोध करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। मोह करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। राग को तुम प्रेम कहते हो। अच्छा शब्द रख लेते हो, नीचे गंदगी छिप जाती है। भय के कारण किसी के साथ हो लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है। लोभ के कारण किसी के साथ हाथ में हाथ डाल लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है, मित्रता है। अहंकार के कारण त्याग करते हो; लेकिन कहते हो, दान है। ऐसे तो फिर तुम ग्रंथियों में उलझते चले जाओगे। फिर तो ग्रंथियों के जंगल में खो जाओगे।

महावीर कहते हैं, सरल हो रहो। जैसे हो वैसा ही अपने को जानो। धीरे-धीरे ग्रंथियां छूट जाती हैं और जीवन में एक अलग तरह की ऊर्जा का आविर्भाव होता है। एक सहजता! एक सरलता! एक भोलापन! एक बच्चे के जैसा भाव!

“निराग, निशल्य…।’

और निश्चित ही जिस आदमी के जीवन में कोई ग्रंथि नहीं है, उसके जीवन में कोई राग नहीं होता। उसके पास न बचाने को कुछ है, न छोड़ने को कुछ है। और जिस आदमी के जीवन में निर्ग्रंथि है, उसके जीवन में शल्य खो जाते हैं। शल्य यानी कांटे। जो चुभते हैं, वह खो जाते हैं।

किसी ने तुम्हें गाली दी। तुम कहते हो, इसकी गाली चुभी। गाली के कारण गाली नहीं चुभती–तुम्हारे अहंकार के कारण चुभती है। अहंकार को जाने दो, फिर कोई गाली देता रहे, कोई फर्क न पड़ेगा। फिर गाली में कोई शल्य न रह जायेगा।

“निशल्यता’ महावीर का बड़ा प्यारा शब्द है। वे कहते हैं, भीतर से तुम कांटों को पकड़ने को तैयार हो, वही असली शल्य है। तुमने मान चाहा, इसलिए अपमान का कांटा चुभा। तुम मान ही न चाहते तो अपमान का कांटा न चुभता। तुमने सफलता चाही, इसलिए विफलता का विषाद आया। तुम सफलता ही न मांगते, विफलता का विषाद कभी न आता। तुमने प्रथम खड़े होना चाहा था, इसलिए तुम रो रहे हो कि तुम प्रथम खड़े न हो पाये। तुमने अंतिम ही खड़े होने की आकांक्षा की होती, तो तुम्हें कौन हरा पाता? फिर तुम्हारा जीवन निशल्य हो जाता।

“सर्वदोषों से विमुक्त, निष्काम,

निक्रोध, निर्मान और निर्मद…।’

ये आत्मा की तरफ इशारे हैं। ये इशारे जो आत्मा को उपलब्ध हो जाता है, उसे उपलब्ध होते हैं। और जो आत्मा को उपलब्ध नहीं हुआ है, उसके लिए ये इशारे मार्ग के सूचक हैं। ये दो बातें हैं इसमें। यह आत्मा की दशा का वर्णन है और आत्मा की तरफ पहुंचने की व्यवस्था, उपाय भी। तो अगर तुम्हें उसे पाना है–उस आत्मा को, जहां कोई मद नहीं है, जहां कोई बेहोशी नहीं है, न मान का मद है, न पद का, न धन का, कोई मद नहीं है–अगर तुम्हें उस दशा को पाना है, तो मदों को छोड़ना शुरू कर दो। अकड़ो मत! तो अपने को हटाने लगो मद से। उस आत्मा की दशा में कोई ग्रंथि नहीं है। तो अगर तुम्हें उसे पाना है तो ग्रंथियों को धीरे-धीरे छोड़ो; जितना बन सके उतना छोड़ो; जिस मात्रा में बन सके उतना छोड़ो। कभी-कभी सच होना शुरू करो, सरल होना शुरू करो। कभी-कभी तो सचाई को करके भी देखो, जोखिम भी हो तो भी करके देखो। कभी सच भी बोलकर देखो; चाहे कुछ खोता हो तो भी बोलकर देखो। दांव लगाओ।

अगर आत्मा निशल्य है तो तुम अपने कांटे जहां-जहां तुम्हें चुभते हैं उनको पहचानो। दूसरे को दोष मत दो। अपने भीतर घाव हैं, उनको भरो। जब तक तुम दूसरे को दोष देते रहोगे, वे घाव न भरेंगे। और तब तक तुम बार-बार कांटों से चुभते रहोगे और घाव को संजोते रहोगे।

अब कौन चाहता है कि गाली कोई दे! लेकिन तुम कैसे रोकोगे इस सारे संसार को कि कोई तुम्हें गाली न दे? उपाय एक है कि तुम भीतर से गाली जहां अटकती है, खटकती है, उस जगह को हटा दो। तुम उस घाव को भर लो, फिर सारा संसार गाली देता रहे तो भी तुम इसके बीच से गुजर जाओगे–निशल्य।

यह जो वर्णन है आत्मा का, यही पथ भी है पहुंचने का।

दिल में जौके-वस्लोऱ्यादेऱ्यार तक बाकी नहीं

आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया।

ऐसी आग लगाओ इस घर को, इस बेहोशी को, कि जो भी है इसमें, जल जाये। ऐसी आग सुलगाओ कि ये सारी ग्रंथियां, ये सारे शल्य, ये सारे घाव, यह तादात्म्य–शरीर का, मन का, विचार का, यह अहंकार, यह मिट्टी के प्रति इतनी ज्यादा आकांक्षा, जल जाये!

दिल में जौके-वस्लोऱ्यादेऱ्यार तक बाकी नहीं!

–कि इनकी याद भी न रह जाये।

आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया।

ऐसी जलाओ! उस जलने के बाद ही तुम्हारा कुंदन-रूप, तुम्हारा स्वर्ण शुद्ध होकर बाहर आयेगा।

तलाशेऱ्यार में क्या ढूंढ़िए किसी का साथ

हमारा साया हमें नागबार राह में है।

और यह जो महावीर की अंतरर्‌यात्रा है, इसमें कोई संगी-साथी न मिलेगा। यहां तो अपनी छाया भी भारी पड़ती है। यह अकेले का रास्ता है। यह एकाकी का रास्ता है। यह एकांत!

तो धीरे-धीरे हटो भीड़ से! धीरे-धीरे हटो दूसरे से। धीरे-धीरे दूसरे का खयाल, दूसरे की धारणा छोड़ो। धीरे-धीरे द्वंद्वों को हटाओ।

तलाशेऱ्यार में क्या ढूंढ़िए किसी का साथ।

हमारा साया हमें नागबार राह में है।

एक ऐसी घड़ी आती है कि तुम्हारी छाया भी तुम्हारे साथ नहीं होती, क्योंकि छाया भी शरीर की बनती है, मन की बनती है, विचार की बनती है। छाया भी स्थूल की बनती है। आत्मा की कोई छाया नहीं बनती। अभी तो हालत ऐसी है कि आत्मा खो गई है, छाया ही रही है; फिर ऐसी हालत आती है, आत्मा बचती है, छाया तक खो जाती है।

महावीर को सुनकर, समझकर तुम कुछ कर पाओगे, ऐसा मैं नहीं सोचता। जब तक कि तुम अपने जीवन में भी महावीर जो कह रहे हैं, उसके आधार न खोज लोगे; जब तुम्हारे जीवन में भी तुम्हें ऐसा न दिखाई पड़ने लगेगा कि महावीर ठीक कहते हैं–तब तक तुमने अगर ऊपर-ऊपर से उनकी बातों का आरोपण भी कर लिया, जैसा कि जैन कर रहे हैं, तो कुछ लाभ न होगा। उससे तुम और उलझन में पड़ जाओगे। उससे जटिलता बढ़ेगी, ग्रंथियां और बढ़ जायेंगी। मेरे देखे कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि सामान्य गृहस्थ कहीं ज्यादा निर्ग्रंथ मालूम होता है बजाय मुनि के। उसकी और ज्यादा ग्रंथियां हो गई होती हैं। वह और तिरछा हो गया। उसने और नियमों के जाल खड़े कर लिये। नैसर्गिक तो नहीं हुआ है। उसने और छोटी-छोटी बातों की इतनी व्यवस्था कर ली कि अब वो व्यवस्था ही जुटाने में उसका समय नष्ट होता है। चौबीस घंटे इसी में व्यतीत होते हैं।

होती नहीं कबूल दुआ तर्के-इश्क की

दिल चाहता न हो तो जबां में असर कहां।

और ध्यान रखना, अगर तुम्हारी अंतरात्मा में ही चाह न उठी हो तो ऐसा कोई व्रत-नियम ऊपर से मत ले लेना। नहीं तो व्रत-नियम तुम्हें और झूठा बनायेगा। लोग व्रत और नियम ले लेते हैं भीड़ के लिए। मंदिर में जाते हैं, इतने लोग देख रहे हैं: लोग व्रत ले लेते हैं, कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं। यह ब्रह्मचर्य का व्रत उनके जीवन से नहीं आ रहा है। ये इतने लोग प्रशंसा करेंगे, ताली बजायेंगे और कहेंगे कि इस व्यक्ति ने ब्रह्मचर्य का व्रत धारण कर लिया है और हम अभागे, अभी तक ब्रह्मचर्य का व्रत धारण न कर पाये! इस कारण ब्रह्मचर्य का व्रत मत ले लेना, नहीं तो पछताओगे।

होती नहीं कबूल दुआ तर्के-इश्क की!

–अगर तुम प्रार्थना कर रहे हो कि हे प्रभु! मुझे राग से, मोह से ऊपर उठा…लेकिन यह कबूल न होगी, यह प्रार्थना स्वीकार न होगी।

दिल चाहता न हो तो जबां में असर कहां?

–और अगर तुम्हारा भीतर का दिल ही यह न चाहता हो तो कहने से क्या होगा? और अगर भीतर का दिल चाहता हो तो प्रार्थना की जरूरत ही नहीं। तुमने चाहा कि हुआ।

लोग ऐसे हैं कि दोनों संसार सम्हाले चले जाते हैं। इसी वजह से आदमी जटिल हो जाता है।

शब को मय खूब सी पी, सुबह को तौबा कर ली

रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई।

रात शराब पी लेते हैं, सुबह पश्चात्ताप कर लेते हैं!

शब को मय खूब सी पी, सुबह को तौबा कर ली

रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गयी।

स्वर्ग भी सम्हाल लिया, संसार भी सम्हाल लिया। ऐसी बेईमानी में मत पड़ना। जिसने दोनों सम्हाले, उसके दोनों गये। जिसने एक को सम्हाला, उसका सब सम्हल जाता है। और वह एक तुम्हारे भीतर छिपा है। वह एक तुम हो। उसे महावीर तुम्हारी अंतरात्मा कहते हैं, तुम्हारा परमात्मा कहते हैं।

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--1 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

गीतादर्शन–(भाग–2) प्रवचन–13

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मृत्यु का साक्षात (अध्याय ४)—तेरहवां प्रवचन

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।। 31।।

हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन, यज्ञों के परिणामरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञरहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, तो फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?

जीवन जिनका यज्ञरूप है, वासनारहित, अहंकारशून्य, ऐसे पुरुष परात्पर ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं, अमृत को उपलब्ध होते हैं, आनंद को उपलब्ध होते हैं। लेकिन जिनका जीवन यज्ञ नहीं है, ऐसे पुरुष तो इस पृथ्वी पर ही आनंद को उपलब्ध नहीं होते, परलोक की बात तो करनी व्यर्थ है। इस सूत्र में कृष्ण ने दोत्तीन बातें अर्जुन से कहीं।

एक, जिनका जीवन यज्ञ बन जाता!

जीवन के यज्ञ बन जाने का अर्थ क्या है? जब तक जीवन वासनाओं के आस-पास घूमता, तब तक यज्ञ नहीं होता है। जब तक जीवन स्वयं के अहंकार के ही आस-पास घूमता, तब तक जीवन यज्ञ नहीं होता। जैसे ही व्यक्ति वासनाओं को क्षीण करता और स्वयं के आस-पास नहीं, परमात्मा के आस-पास परिभ्रमण करने लगता है…।

मंदिर को हम जानते हैं। मंदिर की वेदी के चारों तरफ बनी हुई परिक्रमा को भी हम जानते हैं। लेकिन उसके अर्थ को हम नहीं जानते। हजारों बार मंदिर में गए होंगे और वेदी के आस-पास परिक्रमा लगाकर घर लौट आए होंगे। लेकिन मंदिर में परमात्मा की वेदी के आस-पास जो परिक्रमा है, वह प्रतीक है उस पुरुष का, जिसका अपना अहंकार नहीं रहा, जो अब परमात्मा के आस-पास ही जीवन में परिभ्रमण करता है, जो उसके चारों ओर ही घूमता है। अपना कोई केंद्र ही नहीं रहा, जिस पर घूम सके। परमात्मा का उपग्रह बन जाता है। वही हो जाता केंद्र में, हम हो जाते परिधि पर; उसके आस-पास ही घूमते हैं, परिभ्रमण करते हैं।

जैसे ही कोई व्यक्ति वासना और अहंकार से शून्य होता, उसका जीवन यज्ञ हो जाता है। इस यज्ञ के संबंध में काफी बातें मैंने पीछे कहीं हैं, वह खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।

दूसरी बात, कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष ज्ञानरूपी अमृत को उपलब्ध होता है। ज्ञानरूपी अमृत को!

इस जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान ही मृत्यु है; इग्नोरेंस इज़ डेथ। क्या अर्थ हुआ इसका कि अज्ञान ही मृत्यु है?

अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कहीं है ही नहीं। हम नहीं जानते हैं, इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असंभव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असंभव घटना है, जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं। लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है। यह मृत्यु हमें मालूम पड़ती है, क्योंकि हम जानते नहीं हैं। हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता, वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है। और जिस दिन हम जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है। कहीं थी ही नहीं कभी। अमृत ही, अमृतत्व ही शेष रह जाता है, इम्मारटेलिटी ही शेष रह जाती है।

कभी आपने खयाल किया, आपने किसी आदमी को मरते देखा? आप कहेंगे, बहुत लोगों को देखा। पर मैं कहता हूं, नहीं देखा। आज तक किसी व्यक्ति ने किसी को मरते नहीं देखा। मरने की प्रक्रिया आज तक देखी नहीं गई। जो हम देखते हैं, वह केवल जीवन के विदा हो जाने की प्रक्रिया है, मरने की नहीं।

बटन दबाई हमने, बिजली का बल्ब बुझ गया। जो नहीं जानता, वह कहेगा, बिजली मर गई। जो जानता है, वह कहेगा, बिजली अभिव्यक्त थी, अब अप्रकट हो गई। प्रकट थी, अप्रकट हो गई। मर नहीं गई। फिर बटन दबेगा, बिजली फिर वापस लौट आएगी। फिर बटन दबाएंगे, बिजली फिर भीतर तिरोहित हो जाएगी।

जीवन समाप्त नहीं होता, केवल शरीर से विदा होता है। लेकिन विदाई हमें मृत्यु मालूम पड़ती है। क्यों मालूम पड़ती है? क्योंकि हमने कभी अपने भीतर शरीर से अलग किसी अस्तित्व का अनुभव नहीं किया है। हमारा अनुभव यही है कि मैं शरीर हूं, इसलिए जब शरीर समाप्त होगा, जलाने के योग्य हो जाएगा, तब स्वभावतः निष्कर्ष होगा कि मर गए।

शरीर से अलग जिसने अपने भीतर किसी तत्व को नहीं जाना, वह अज्ञानी है। अज्ञानी का मतलब यह नहीं कि जिसे यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं है, विश्वविद्यालय का कोई सर्टिफिकेट नहीं है। सच तो यह है कि विश्वविद्यालय ने जितने सर्टिफिकेट दिए, अज्ञान उतना बढ़ा है, कम नहीं हुआ। कारण है। कारण यह है कि विश्वविद्यालय के सर्टिफिकेट को लोग ज्ञान समझने लगे। इसलिए असली ज्ञान की खोज की कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती। अज्ञानी आदमी के पास सर्टिफिकेट नहीं होता; वह ज्ञान की खोज करता है। तथाकथित ज्ञानी के पास सर्टिफिकेट होता है; वह मान लेता है कि मैं ज्ञानी हूं। मेरे पास यूनिवर्सिटी की डिग्री है। और क्या चाहिए?

ज्ञान तो सिर्फ एक है, स्वयं का ज्ञान। बाकी सब सूचनाएं हैं, इनफर्मेशनस हैं, नालेज नहीं। बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं।

बर्ट्रेंड रसेल ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं, नालेज और एक्वेनटेंस–ज्ञान और परिचय। ज्ञान तो सिर्फ एक ही चीज का हो सकता है, जो मैं हूं; बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं है। अपने से पृथक जिसे भी मैं जानता हूं, वह सिर्फ एक्वेनटेंस, परिचय है। जान तो सिर्फ अपने को सकता हूं; क्योंकि अपने से जो भिन्न है, उसके भीतर मेरा प्रवेश नहीं हो सकता, सिर्फ बाहर घूम सकता हूं। परिचय ही कर सकता हूं, ऊपर-ऊपर से जान सकता हूं, भीतर तो नहीं जा सकता। भीतर तो सिर्फ एक ही जगह जा सकता हूं, जहां मैं हूं।

यह बहुत मजे की बात है, अपना परिचय नहीं होता और दूसरे का ज्ञान नहीं होता। दूसरे का परिचय होता है, अपना ज्ञान होता है। अपना परिचय नहीं होता; क्योंकि अपने बाहर घूमने का उपाय नहीं है। दूसरे का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि दूसरे के भीतर प्रवेश नहीं है।

लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं! हम दूसरे का ज्ञान ले लेते हैं और अपना परिचय कर लेते हैं। हम अपना परिचय कर लेते हैं, जो कि हो नहीं सकता। और हम दूसरे के ज्ञान को ज्ञान समझ लेते हैं, जो कि हो नहीं सकता। यह अज्ञान की स्थिति है। अज्ञान में मृत्यु है।

जब आप एक व्यक्ति को बुझते देखते हैं–बुझते, मरते नहीं। इसलिए बुद्ध ने ठीक शब्द का उपयोग किया है। वह शब्द है, निर्वाण। निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझना। बस, दीया बुझ जाता है; कोई मरता नहीं। दिखाई पड़ती थी ज्योति, अब नहीं दिखाई पड़ती। देखने के क्षेत्र से विदा हो जाती है, अदृश्य में लीन हो जाती है। फिर प्रकट हो सकती है, फिर लीन हो सकती है। यह प्रकट-अप्रकट होने का क्रम अनंत चल सकता है। जब तक कि ज्योति पहचान न ले कि प्रकट में भी मैं वही हूं, अप्रकट में भी मैं वही हूं; न मैं प्रकट होती, न मैं अप्रकट होती, सिर्फ रूप प्रकट होता और अप्रकट होता। वह जो रूप के भीतर छिपा हुआ सत्व है, वह न प्रकट में प्रकट होता, न अप्रकट में अप्रकट होता; न जीवन में जीवित होता, न मृत्यु में मरता। तब अमृत का अनुभव है।

हम दूसरों को मरते देखकर, बुझते देखकर, हिसाब लगा लेते हैं कि सब मरते हैं, तो मैं भी मरूंगा। लेकिन कभी किसी मरने वाले से पूछा कि मर गए? लेकिन वह उत्तर नहीं देता। इसलिए मान लेते हैं कि हां में उत्तर देता होगा। मौन को सम्मति का लक्षण समझने की बात सभी जगह ठीक नहीं है। मरे हुए आदमी से पूछो, मर गए? अगर वह उत्तर दे, तो समझना मरा नहीं; और अगर मौन रह जाए, तो हम समझ लेते हैं कि मर गया!

लेकिन मौन सम्मति का लक्षण नहीं है। नहीं बोल पा रहा है, इसलिए मर गया, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है।

दक्षिण के ब्रह्मयोगी, एक साधु ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और कलकत्ता तथा रंगून यूनिवर्सिटी में मरने के प्रयोग करके दिखाए थे। वे दस मिनट के लिए मर जाते थे। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में दस डाक्टर मौजूद थे, जिन्होंने सर्टिफिकेट लिखा कि यह आदमी मर गया है; क्योंकि मृत्यु के जो भी लक्षण हैं चिकित्सा-शास्त्र के पास, पूरे हो गए। श्वास नहीं; बोल नहीं सकता; खून में गति नहीं रही; ताप गिर गया; नाड़ी बंद हो गई; हृदय की धड़कन नहीं है। सब सूक्ष्मतम यंत्रों ने कह दिया कि आदमी मर गया। उन दस ने लिखा, दस्तखत किए, क्योंकि ब्रह्मयोगी कहकर गए थे कि दस्तखत करके सर्टिफिकेट, डेथ सर्टिफिकेट दे देना कि मैं मर गया।

फिर दस मिनट बाद सब वापस लौट आया। श्वास फिर चली; धड़कन फिर हुई; खून फिर बहा; उस आदमी ने आंख भी खोलीं; वह बोलने भी लगा; उठकर बैठ गया। उसने कहा, अब आपके सर्टिफिकेट के संबंध में मैं क्या मानूं? आप बड़े जालसाज हैं। जिंदा आदमी को मरने का सर्टिफिकेट देते हैं! उन्होंने कहा, जहां तक हम जानते थे, मौत घट गई थी। उसके आगे हम नहीं जानते।

लेकिन उनमें से एक डाक्टर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस दिन से मैं फिर मृत्यु का सर्टिफिकेट नहीं दे सका, किसी को भी। क्योंकि उस दिन जो मैंने देखा, उससे साफ हो गया कि मृत्यु के लक्षण सिर्फ विदा होने के लक्षण हैं। और चूंकि आदमी लौटना नहीं जानता है, इसलिए हमारे सर्टिफिकेट सही हैं, वरना सब गलत हो जाएं। वह ब्रह्मयोगी लौटना जानता है।

तीन बार, लंदन, कलकत्ता और रंगून विश्वविद्यालय में उन्होंने मरकर दिखाया और तीनों जगह, पृथ्वी पर पहला आदमी है, जिसने तीन दफे मृत्यु का सर्टिफिकेट लिया!

क्या, हुआ क्या? जब ब्रह्मयोगी से चिकित्सक पूछते कि हुआ क्या, किया क्या? तो वह कहते, मैं सिर्फ सिकोड़ लेता हूं अपने जीवन को। जैसे कि सूरज अपनी किरणों को सिकोड़ ले; जैसे कि फूल अपनी पंखुड़ियों को बंद कर ले; जैसे पक्षी अपने पंखों को सिकोड़कर और अपने घोंसले में बैठ जाए–ऐसे मैं सिकोड़ लेता हूं जीवन को भीतर, भीतर, वहां जहां तुम्हारे यंत्र नहीं पकड़ पाते। होता तो मैं हूं ही, इसीलिए वापस लौट आता हूं। फिर खोल देता हूं पंखों को, फिर जीवन के आकाश में उड़ आता हूं–घोंसले के बाहर।

हम सबके भीतर वह गुह्य स्थान है, जहां आत्मा सिकुड़ जाए, तो फिर यंत्र पता नहीं लगा पाते, इंद्रियां पता नहीं लगा पातीं। असल में यंत्र इंद्रियों के एक्सटेंशन से ज्यादा नहीं हैं। यंत्र हमारी ही इंद्रियों का विस्तार हैं। आंख है; तो हमने दूरबीन और खुर्दबीन बनाई। वह आंख का विस्तार है, आंख को मैग्नीफाई कर देती है, बढ़ा देती है। कान है; तो हमने टेलीफोन बनाया। वह कान का विस्तार है। मेरा हाथ है; यहां से बैठकर मैं आपको छू नहीं सकता। मैं एक डंडा हाथ में पकड़ लूं और उससे आपको छुऊं, तो डंडा मेरे हाथ का विस्तार हो गया।

सारे यंत्र हमारी इंद्रियों के विस्तार हैं। अब तक एक भी यंत्र नहीं बना, जो हमारी इंद्रियों से अन्य हो, विस्तार न हो। सब एक्सटेंशंस हैं। इंद्रियां जिसे नहीं पकड़ पातीं, यंत्र कभी-कभी उसे पकड़ता, सूक्ष्म होता तो, लेकिन जो अतींद्रिय है, उसे यंत्र भी नहीं पकड़ पाता।

सूक्ष्म हो, इंद्रिय की पकड़ के बाहर हो, तो यंत्र पकड़ लेता है। लेकिन जो अतींद्रिय है, सूक्ष्म नहीं–अतींद्रिय, इंद्रियों के पार, पैरासाइकिक–उसको फिर यंत्र भी नहीं पकड़ पाता।

जीवन-ऊर्जा पैरासाइकिक है, अतींद्रिय है, इसलिए कोई यंत्र उसकी गवाही नहीं दे सकता। इस जीवन-ऊर्जा को जानने का एक ही उपाय है; वह इंद्रियों के द्वारा नहीं, इंद्रियों के पीछे सरककर; इंद्रियों के माध्यम से नहीं, इंद्रियों के माध्यम को छोड़कर। ज्ञानी इंद्रियों के माध्यम को छोड़कर स्वयं को जानता है। और एक क्षण भी यह झलक मिल जाए स्वयं की, तो वह अमृत उपलब्ध हो जाता है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं; वह सत्व दिखाई पड़ जाता है, जिसका कोई प्रारंभ नहीं, कोई अंत नहीं। ज्ञानी अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं।

इसलिए कृष्ण ने कहा, ज्ञानरूपी अमृत। कह सकते हैं, अज्ञानरूपी विष, अज्ञानरूपी मृत्यु; ज्ञानरूपी अमृत, ज्ञानरूपी अमृतत्व।

वह जो अल्केमिस्ट कहते हैं कि हम खोज रहे हैं वह तत्व, जिससे आदमी अमर हो जाए। वे कभी न खोज पाएंगे। आदमी अमर है ही; किसी चीज से अमर करने की जरूरत नहीं है। चेतना अमर है ही।

और ऐसा मत सोचना आप कि पदार्थ मरता है और चेतना अमर है। पदार्थ भी अमर है; चेतना भी अमर है। पदार्थ इसलिए अमर है कि वह जीवित ही नहीं है। जो जीवित हो, वह मर सकता है। पदार्थ कैसे मरेगा? वह जीवित ही नहीं है। पदार्थ इसलिए अमर है कि वह जीवित ही नहीं, उसकी मृत्यु का कोई उपाय नहीं। आत्मा इसलिए अमर है कि वह जीवित है, जो जीवित है, वह मर कैसे सकता है!

जीवन की कोई मृत्यु नहीं हो सकती, मृत्यु का कोई जीवन नहीं हो सकता। पदार्थ का सिर्फ अस्तित्व है, जीवन नहीं। आत्मा का जीवन भी है और अस्तित्व भी। इस बात को खयाल में रख लें, एक्झिस्टेंस एंड लाइफ बोथ–आत्मा का। पदार्थ का एक्झिस्टेंस ओनली, सिर्फ अस्तित्व है। पदार्थ सिर्फ है। लेकिन पदार्थ को अपने होने का पता नहीं है। आत्मा है भी और उसे अपने होने का भी पता है। बस यह होने का पता उसे जीवन बना देता है।

लेकिन हम आत्मा तो हैं, हमें अपने होने का भी पता है, हम जीवित भी हैं; लेकिन हम क्या हैं, इसका हमें कोई भी पता नहीं है। होने का पता है, लेकिन क्या हैं, इसका कोई पता नहीं है।

होने का पता हो और यह पता न हो कि क्या हैं, तो अज्ञान की स्थिति है। होने का पता हो और यह भी पता हो कि क्या हैं, तो ज्ञान की स्थिति है। अज्ञानी में उतनी ही आत्मा है, जितनी ज्ञानी में; रत्तीभर कम नहीं है। लेकिन अज्ञानी अपने प्रति बेहोश है। ज्ञानी अपने प्रति होश से भरा हुआ है।

ऐसे व्यक्ति जो ज्ञान-अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक में परम परात्पर ब्रह्म को पाते हैं।

परलोक का क्या अर्थ? क्या मरने के बाद? आमतौर से हमें यही खयाल है कि परलोक का अर्थ मरने के बाद है। लेकिन जब आत्मा मरती ही नहीं, तो मरने के बाद परलोक का अर्थ ठीक नहीं है। परलोक इस लोक के साथ, यहीं और अभी मौजूद है, जस्ट बाई दि कार्नर। परलोक कहीं मरने के बाद और नहीं है। परलोक यहीं और अभी मौजूद है। पर हमें उसका कोई पता नहीं है। जिसे अपना पता नहीं, उसे परलोक का पता नहीं हो सकता; क्योंकि परलोक में जाने का द्वार स्वयं का अस्तित्व है, स्वयं का ही होना है।

जिसे अपना पता है, वह एक ही साथ परलोक और लोक की देहली पर, बीच में खड़ा हो जाता है। इस तरफ झांकता है तो लोक, उस तरफ झांकता है तो परलोक। बाहर सिर करता है तो लोक, भीतर सिर करता है तो परलोक। परलोक अभी और यहीं है।

ब्रह्म कहीं दूर नहीं, आपके बिलकुल पड़ोस में, आपके पड़ोसी से भी ज्यादा पड़ोस में है। आपके बगल में जो बैठा है आदमी, उसमें और आपमें भी फासला है। लेकिन उससे भी पास ब्रह्म है। आपमें और उसमें फासला भी नहीं है।

जब जरा गर्दन झुकाई देख ली

दिल के आईने में है तस्वीरे-यार।

बस, इतना ही फासला है, गर्दन झुकाने का। यह भी कोई फासला हुआ!

बाहर लोक है, भीतर परलोक है।

तो ध्यान रखें, लोक और परलोक का विभाजन समय में नहीं है, स्थान में है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लें। लोक और परलोक का विभाजन टाइम डिवीजन नहीं है। कि मैं मरूंगा, मरने की घटना या विदा होने की घटना समय में घटेगी। आज से समझें कल मरूंगा, दस साल बाद मरूंगा, घंटेभर बाद मरूंगा–समय में। समय, घंटा बीत जाएगा, तब मैं मरूंगा। फिर उस मरने के बाद जो होगा, वह परलोक होगा।

हमने अब तक परलोक को टेंपोरल समझा है, टाइम में बांटा है। परलोक भी स्पेसिअल है, स्पेस में बंटा है, टाइम में नहीं। अभी-यहीं, लोक भी मौजूद है, परलोक भी मौजूद है। पदार्थ भी मौजूद है, परमात्मा भी मौजूद है। अभी-यहीं! फासला समय का नहीं, फासला सिर्फ स्थान का है।

और स्थान का भी फासला हमारी दृष्टि का फासला है, अटेंशन का फासला है। अगर हम बाहर की तरफ ध्यान दे रहे हैं, तो परलोक खो जाता है। अगर हम परलोक की तरफ ध्यान दें, तो लोक खो जाता है।

रात आप सो जाते हैं, तब लोक खो जाता है; परलोक शुरू नहीं होता, लोक खो जाता है। रात जब आप सोते हैं, तब आपको याद रहता है कि बाजार में आपकी एक दुकान है? कि आपका एक बेटा है? कि आपकी एक पत्नी है? कि आपका बैंक बैलेंस इतना है? कि आप कर्जदार हैं? कि लेनदार हैं? जब आप सोते हैं, तो लोक खो जाता है एकदम; परलोक शुरू नहीं होता! निद्रा, लोक और परलोक के बीच में है। निद्रा मूर्च्छा है। लोक भी खो जाता है। परलोक भी शुरू नहीं होता। ध्यान भी लोक और परलोक के बीच में है। लोक खोता है, परलोक शुरू हो जाता है।

जैसे एक आदमी अपने मकान के दरवाजे की देहली पर बैठ जाए आंख बंद करके, तो न घर दिखाई पड़े, न बाहर दिखाई पड़े। फिर एक आदमी बाहर की तरफ देखे, तो भीतर का दिखाई न पड़े। फिर एक आदमी मुड़कर खड़ा हो जाए, भीतर का दिखाई पड़े, तो बाहर का दिखाई न पड़े। ऐसी तीन स्थितियां हुईं।

लोक की, जब हम बाहर देख रहे हैं, कांशसनेस, चेतना बाहर की तरफ जाती हुई। परलोक, चेतना भीतर की तरफ जाती हुई। निद्रा, चेतना किसी तरफ जाती हुई नहीं, सो गई है। परलोक यहीं है, अभी है।

कृष्ण जब कहते हैं कि परलोक में ऐसा पुरुष आनंद को उपलब्ध होता है, तो क्या इसका यह मतलब है कि जिस व्यक्ति ने ब्रह्म को जाना, आत्मा की अमरता को जाना, वह मरने के बाद आनंद को उपलब्ध होगा? अभी नहीं होगा? नहीं, अभी हो जाएगा, यहीं हो जाएगा।

लेकिन जो व्यक्ति इस अमृत को नहीं जानता, वह उस परलोक में, उस भीतर के लोक में, उस पार के लोक में, कैसे आनंद को उपलब्ध होगा? वह तो बाहर के लोक में भी आनंद को उपलब्ध नहीं हो पाता। वह संसार में भी दुख पाता है। वह बाहर भी दुख पाता है और भीतर भी दुख पाता है। इसे ठीक से समझ लें।

बाहर इसलिए दुख पाता है कि जिसको यह खयाल है कि मृत्यु है, वह बाहर कभी सुख नहीं पा सकता। मृत्यु का खयाल बाहर के सब सुखों को विषाक्त कर जाता है, पायजनस कर जाता है। बाहर अगर सुख लेना है थोड़ा-बहुत, तो मृत्यु को बिलकुल भूलना पड़ता है। इसलिए हम मृत्यु को भुलाने की कोशिश करते हैं।

लेकिन ध्यान रहे, जिसे भी हम भुलाते हैं, उसकी और याद आती है। स्मृति का नियम है, भुलाएं, याद आएगी। करें कोशिश, जिसे भी भुलाने की, उसकी और भी याद आएगी। किसी को भूल जाना चाहते हैं। किसी को प्रेम किया और अब स्मृति दुख देती है; भूल जाना चाहते हैं। तो भुलाने की कोशिश करें, और याद आएगी। क्यों? क्योंकि भुलाने की कोशिश में भी तो याद करना पड़ता है। मैं चाहता हूं, किसी को भूल जाऊं। तो जब भी चाहता हूं भूल जाऊं, तब भी याद करना पड़ता है। और याद गहन होती चली जाती है।

मृत्यु को हम सब भुलाने की कोशिश किए हुए हैं, इसलिए मरघट हम गांव के बाहर बनाते हैं। बीच में बनाना चाहिए, नियमानुसार; क्योंकि मृत्यु जीवन का केंद्रीय तथ्य है। तथ्य, सत्य नहीं। ट्रुथ नहीं, फैक्ट। तथ्य है, केंद्र पर जीवन के।

मौत प्रतिक्षण घटित हो सकती है। जो घटना प्रतिक्षण घटित हो सकती है, उसको गांव के बाहर रखना ठीक नहीं है। अर्थी निकलती है द्वार से, तो लोग घर का दरवाजा बंद करके बच्चों को भीतर कर लेते हैं, भीतर आ जाओ!

मौत याद न आ जाए! क्योंकि जिसे मौत याद आ गई, उसके जीवन में संन्यास को ज्यादा देर नहीं है। जो मौत को भुला ले, वही संसार में हो सकता है। जिसको मौत स्मरण आ जाए, उसका संसार संन्यास बनने लगता है।

इसलिए मौत को छिपाते हैं, हजार ढंग से छिपाते हैं। गांव के बाहर बनाते हैं मरघट। मरा नहीं आदमी कि ले जाने की इतनी जल्दी पड़ती है, जिसका हिसाब नहीं! इतनी जल्दी? रहने दें थोड़ी देर! लोगों को देख लेने दें; स्मरण कर लेने दें कि यही घटना उनकी भी घटने वाली है।

नहीं; बड़ी जल्दी मचती है। घर के लोग रोने-धोने में, पास-पड़ोस के लोग विदा करने में एकदम तीव्रता करते हैं। क्या कारण है? इतनी जल्दी क्या है? जिस आदमी को वर्षों चाहा और प्रेम किया, उसको विदा करने की इतनी शीघ्रता क्या है?

शीघ्रता का आंतरिक कारण है, मनोवैज्ञानिक। मरे हुए की मौजूदगी हमें अपने मरे होने की खबर लाती है। जल्दी ले जाओ। जमीन में गड़ाओ कि आग लगाओ। मिटाओ, निशान हटाओ। मृत्यु का निशान न रह जाए जीवन के पर्दे पर कहीं; उसे अलग कर दो।

और मजे की बात यह है कि जन्म के बाद अगर कोई चीज की सरटेंटी है, कोई चीज निश्चित है, तो वह मृत्यु है। जन्म के बाद अगर कोई चीज प्रेडिक्टेबल है, किसी चीज की भविष्यवाणी की जा सकती है, तो वह मृत्यु है। बाकी किसी चीज की भी भविष्यवाणी की नहीं जा सकती। भविष्यवाणी का यह मतलब नहीं कि तारीख और दिन बताया जा सकता है। भविष्यवाणी का यह मतलब कि मृत्यु होगी, इतना तय है। बाकी सब चीजें हों भी, न भी हों। विवाह हो भी सकता है, न भी हो। स्वास्थ्य रहे भी, न भी रहे। बीमारी आए भी, न भी आए। धन मिले भी, न भी मिले। लेकिन मृत्यु के बाबत ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हो भी, न भी हो।

जो इतनी निश्चित है घटना, उसे हम बाहर रखते हैं और कई चीजों से भुलाते हैं। कैसे-कैसे भुलाने का उपाय करते हैं! अर्थी पर फूल ढांक देते हैं–ईसाई ढंग भुलाने का। फूलों से ढांक देते हैं अर्थी को। फूलों के नीचे सड़ा हुआ शरीर है, सड़ता हुआ, डिटेरिओरे होता हुआ शरीर है! फूल से ढांक देते हैं, ताकि फूल दिखाई पड़ें, मरता हुआ शरीर दिखाई न पड़े।

आदमी मरता, उसकी लाश ले जाते। जिस आदमी ने जिंदगीभर राम का नाम नहीं लिया, और जिन्होंने कभी राम का नाम नहीं लिया, वे भी उसकी अर्थी के साथ राम नाम सत्य है, कहते हुए जाते हैं! क्या बात है? अटेंशन हटा रहे हैं, मौत से हट जाए। अगर कुछ न कहते हुए चुपचाप लोग अर्थी के साथ जाएं, तो अर्थी को भूलना मुश्किल हो जाए। कुछ कहते हुए जाते हैं; अर्थी को भूलना आसान हो जाता है। अपने कहने में लग जाते हैं। राम की आड़ में मौत को छिपाने की कोशिश करते हैं। हालांकि राम उन्हीं को मिलता है, जो मौत को पार करते, आमना-सामना करते; उनको नहीं, जो राम की आड़ में मौत को छिपाने की कोशिश करते हैं!

मृत्यु भुलाते हैं हम, जानते नहीं। जो भुलाता है, उसे याद आती चली जाती है। जो जानता है, उसके लिए समाप्त हो जाती है, होती ही नहीं। यह जो हमारा भुलावा चल रहा है जिंदगी में, इससे हम कभी भूल नहीं पाते। हर जगह उसकी खबर मिल जाती है।

फूल सुबह खिलता और सांझ मुर्झा जाता, और कह जाता कि मौत। प्रेम घड़ीभर खिलता और सूख जाता, और खबर दे जाता, मौत है। जवानी आती और चली जाती, और खबर दे जाती, मौत है। हरे पत्ते लगते और पतझड़ में झड़ जाते, और खबर दे जाते, मौत है। सुबह सूरज उगता और सांझ डूबने लगता, और खबर दे जाता, मौत है।

जिसकी जिंदगी में अभी अमृत का पता नहीं चला, उसका सब विषाक्त हो जाता है, सब पायजंड हो जाता है। कोई सुख हो नहीं सकता। जब तक मृत्यु की कालिमा पीछे खड़ी है, सब सुख अंधेरे हो जाते हैं।

सच तो यह है कि सुख के क्षण में मृत्यु की कालिमा और गहन होकर दिखाई पड़ती है। दुख के क्षण में उतनी गहन नहीं होती; सुख के क्षण में बहुत गहन हो जाती है।

कीर्कगार्ड ने लिखा है कि प्रेम के क्षण में मृत्यु जितनी प्रगाढ़ मालूम होती है, उतनी कभी नहीं मालूम होती।

अगर कृष्णमूर्ति को सुनें, अगर वे डेथ पर बोलना शुरू करें, तो लव पर जरूर बोलेंगे। अगर लव पर बोलना शुरू करें, तो डेथ पर जरूरत बोलेंगे–उसी भाषण में, बाहर नहीं जा सकते वे। अगर वह प्रेम पर बोलना शुरू करेंगे, तो अनिवार्य मानना कि मृत्यु पर बोलकर रहेंगे। अगर मृत्यु पर बोलेंगे, तो प्रेम पर बोलकर रहेंगे। बात क्या है?

कृष्णमूर्ति जैसे आदमी को साफ पता है कि जहां भी प्रेम है; जहां प्रेम की, सुख की झलक आई, वहां तत्काल पता लगता है कि जिसे हम प्रेम कर रहे हैं, वह भी मरेगा; जो प्रेम कर रहा है, वह भी मर जाएगा; बीच में जो प्रेम बह रहा है, वह भी मर जाएगा।

प्रेम के सघन क्षण में मृत्यु बहुत प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ती है। प्रेम सुख लाता है, पीछे से मृत्यु का स्मरण ले आता है। जहां-जहां सुख है, वहां-वहां मौत पीछे खड़ी हो जाती है। इसलिए तो सुख क्षणभंगुर है। हम ले भी नहीं पाते, और मौत उसे हड़प जाती है।

जिसको भीतर के अमृत का पता नहीं, वह परलोक में तो आनंद पा ही नहीं सकता, इस लोक में भी सिर्फ दुख पाता है।

दूसरी बात भी कह देने जैसी है कि जो परलोक में आनंद पाता है, वह इस लोक में भी आनंद पाता है। ये जुड़े हुए हैं। जिसे भीतर आनंद मिला, उसे बाहर भी आनंद ही आनंद हो जाता है। ध्यान रखें, उसकी सारी दृष्टि बदल जाती है।

जिसे भीतर आनंद नहीं मिला, उसे वसंत में भी मृत्यु नजर आती है, पतझड़ दिखाई पड़ता है। उसे बच्चे में भी बुढ़ापे की दृष्टि, बच्चे के पीछे भी बूढ़े का जीर्ण-जर्जर शरीर दिखाई पड़ता है। उसे जवानी की तरंगों में भी मौत का गिर जाना और मिट जाना दिखाई पड़ता है। उसे सुख के क्षण में भी पीछे खड़े दुख की प्रतीति होती है। जिसे अभी पता है कि मृत्यु है, अज्ञान में सब सुख दुख हो जाते हैं।

ज्ञान में सब दुख भी सुख हो जाते हैं। फिर उस तरह के व्यक्ति को पतझड़ में भी आने वाले वसंत की पदचाप सुनाई पड़ती है। वृक्ष से सूखे गिरते पत्ते में भी नए पत्ते के अंकुरित होने की ध्वनि का बोध होता है। सांझ डूबते हुए सूरज में भी सुबह के उगने वाले सूरज की तैयारी का पता चलता है। विदा होते बूढ़े में भी पैदा होने वाले बच्चों के जन्म की खबर मिलती है। मृत्यु का द्वार भी उसे जन्म का द्वार बन जाता है। अंधेरा भी उसे प्रकाश की पूर्व भूमिका मालूम पड़ती है। सुबह अंधेरा जब गहन हो जाता है, तब भी वह जानता है, आने वाली भोर निकट है। अंधेरा उसे भोर का स्मरण; मृत्यु उसे जन्म का स्मरण; दुख भी उसे सुख को लाता हुआ मालूम पड़ता है। दृष्टि बदल जाती है; सब उलटा हो जाता है।

अज्ञान में सुख भी दुख बन जाता है। ज्ञान में दुख भी सुख बन जाता है। अज्ञान में जन्म भी मृत्यु की ही खबर है। ज्ञान में मृत्यु भी जन्म की ही सूचना है। अज्ञान में वरदान भी अभिशाप ही होंगे; वरदान नहीं हो सकते। ज्ञान में वरदान तो वरदान होते ही हैं, अभिशाप भी वरदान हो जाते हैं।

लेकिन अदभुत है मन! एक युवक ने कल संन्यास लिया। मां को, पिता को, वरदान मालूम पड़ना चाहिए। लेकिन मां मेरे पास आई। छाती पीटकर रोती है; कहती है, मैं जहर खाकर मर जाऊंगी; ये कपड़े उतरवा दो! वह मां कहती है, मेरे तीन बच्चे पहले मर चुके। मेरा मन उससे पूछने का होता है, लेकिन पूछता नहीं–कि तीन बच्चे मर गए, तब तूने जहर नहीं खाया! और इसने अभी कुछ भी नहीं किया, गेरुआ वस्त्र ऊपर डाले हैं, तू जहर खाकर मर जाएगी? यह तेरा लड़का चोर हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती? यह लड़का बेईमान हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती? यह लड़का पोलिटीशियन हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती?

नहीं, तब अभिशाप भी वरदान मालूम होते हैं। अभी वरदान उतरा है इस लड़के के ऊपर, मां को नाचना चाहिए; पिता को आनंद मनाना चाहिए। फिर यह कहीं जा नहीं रहा है छोड़कर; घर ही रहेगा। लेकिन नहीं; अज्ञान में वरदान भी अभिशाप मालूम पड़ते हैं। ज्ञान में अभिशाप भी वरदान हो जाते हैं। वह छाती पीटती है, रोती है। नहीं; कुछ आकस्मिक नहीं है। बड़ा स्वाभाविक है। अज्ञान बड़ा स्वाभाविक है, आकस्मिक नहीं है।

बुद्ध जैसे व्यक्ति ने भी संन्यास लिया और जब बारह वर्ष के बाद ज्ञान के सूर्य को जगाकर घर वापस लौटे, तब भी बाप को दिखाई नहीं पड़ा कि बेटे का जीवन रूपांतरित हुआ है। बाप बारह साल बाद आए बुद्ध को…उन्हें दिखाई न पड़ा कि लाखों लोगों की जिंदगी में बुद्ध से रोशनी पहुंची है। दस हजार भिक्षु बुद्ध के साथ पीछे खड़े हैं। उनके पीत वस्त्रों में उनके भीतर का प्रकाश झलकता है। लेकिन बाप ने गांव के दरवाजे पर यही कहा कि मैं तुझे अभी भी माफ कर सकता हूं; बाप हूं। वापस लौट आ। यह भूल छोड़। बहुत हो चुका। यह नासमझी बंद कर। मुझ बूढ़े को इस बुढ़ापे में, मृत्यु के निकट होने में दुख मत दे! बाप को नहीं दिखाई पड़ सका कि किससे वे कह रहे हैं।

बुद्ध हंसने लगे। बुद्ध ने कहा, गौर से तो देखें! बारह वर्ष पहले जो घर से गया था, वही वापस नहीं लौटा है। वह तो कभी का जा चुका। यह कोई और है। जरा गौर से तो देखें!

लेकिन बाप ने कहा, तू मुझे सिखाएगा? मैं तुझे जानता नहीं? मेरा खून बहता है तेरी नसों में। मैं तुझे जितना जानता हूं, उतना कौन तुझे जान सकता है?

बुद्ध ने कहा, आप अपने को ही जान लें तो काफी है। मुझे जानने के भ्रम में मत पड़ें। क्योंकि दूसरे को जानने के भ्रम में वही पड़ता है, जो स्वयं को नहीं जानता है।

बाप की तो आग भड़क गई। क्रोध भारी हो गया। और कहा, यह मैंने सोचा भी न था कि तू अपने ही बाप से इस तरह की बातें बोलेगा!

बुद्ध जैसा बेटा भी घर में हो, तो बाप के लिए अभिशाप मालूम पड़ता है! अज्ञान सब वरदानों को अभिशाप कर लेता है, सब फूलों को कांटा बना लेता है। ज्ञान कांटों को भी फूल बना लेता है। दृष्टि बदली कि सब बदल जाता है।

जिसे परलोक में आनंद है, अंतःलोक में आनंद है, उसे बाहर के जगत में दुख की कोई रेखा भी शेष नहीं रह जाती। और जिसे बाहर के लोक में दुख है, उसे भीतर के लोक का कोई पता ही नहीं होता है, आनंद की तो बात ही मुश्किल है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि ज्ञानरूपी अमृत को पाकर आनंद की वर्षा हो जाती है। अज्ञानरूपी विष में जीते हुए सिवाए दुखों के गहन सागर, अतल सागर के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगता है।

प्रश्न:

भगवान श्री, आपने अभी कहा कि ज्ञानी अपने प्रति जागा हुआ है और अज्ञानी अपने प्रति सोया हुआ है, बेहोश है। कृपया बताएं कि अज्ञानी की बेहोशी के क्या-क्या कारण हैं?

अज्ञानी की बेहोशी और निद्रा का कारण क्या है? ज्ञानी के होश और जागरण का भी कारण क्या है?

तीन बातें हैं। एक, अज्ञान अकारण है। पहली बात, कठिन पड़ेगी समझनी, अज्ञान अकारण है। अकारण क्यों? क्योंकि अज्ञान स्वाभाविक है, नेचुरल है। स्वाभाविक क्यों? जागने के पहले निद्रा स्वाभाविक है। होश के पहले बेहोशी स्वाभाविक है। जन्म के पहले गर्भ स्वाभाविक है। युवा होने के पहले बचपन स्वाभाविक है। बूढ़े होने के पहले जवानी स्वाभाविक है। अज्ञान, ज्ञान का विरोध ही नहीं है, ज्ञान की पूर्व अवस्था भी है।

जब हम अज्ञान को ज्ञान के विरोधी की तरह लेते हैं, तब कठिनाई शुरू होती है। अज्ञान ज्ञान का विरोध नहीं है। ज्ञान का विरोध, मिथ्या ज्ञान है। यह जरा कठिन पड़ेगा। फाल्स नालेज, मिथ्या ज्ञान, ज्ञान का विरोध है। अज्ञान ज्ञान का अभाव मात्र है।

एक आदमी सोया है। सोना जागने के विपरीत नहीं है; सिर्फ जागने की पूर्व अवस्था है। जो भी सोया है, वह जाग सकता है। सोने में से जागना निकलता है। सोना बीज है; जागना अंकुर है। बीज दुश्मन नहीं है अंकुर का; बीज अंकुर की भूमि है, वहीं से तो पैदा होगा।

लेकिन हम आमतौर से अज्ञान को ज्ञान के विपरीत मान लेते हैं। इसलिए कठिनाई में पड़ते हैं। हम मान लेते हैं, अज्ञान विरोध है। अगर अज्ञान बुरा है, उसे मिटाना है, तो फिर है ही क्यों? उसका कारण क्या है?

नहीं; अज्ञान विपरीत नहीं है ज्ञान के; अज्ञान ज्ञान का पहला चरण है। अज्ञान ज्ञान का बीज है। और परमात्मा भी सीधा ज्ञान नहीं ला सकता, अज्ञान से ही ला सकता है। वह भी सीधा वृक्ष नहीं ला सकता, बीज से ही ला सकता है। असल में बीज वृक्ष का बिल्ट-इन-प्रोग्रैम है। बीज जो है, वह होने वाले वृक्ष का ब्लूप्रिंट है।

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि बीज को अगर हम पूरा जान सकें, तो हम चित्र बनाकर बता सकते हैं कि वृक्ष की शाखा कितनी बाएं घूमेगी, कितनी शाखाएं होंगी, कितने पत्ते होंगे, कितने फल लगेंगे, कितने फूल, कितने बीज। अगर हम बीज का पूरा रहस्य जान सकें, तो हम वृक्ष की पूरी तस्वीर बनाकर रख देंगे कि ऐसा होगा। और वैसा ही होगा।

लेकिन बीज को तोड़ना पड़ता है वृक्ष होने के पहले। अगर बीज बीज ही रहने की जिद करे, तब खतरा है। बीज के होने में खतरा नहीं है। बीज तो सहयोगी है वृक्ष के लिए। अगर ठीक से समझें तो बीज छिपा हुआ वृक्ष है। अज्ञान छिपा हुआ ज्ञान है; दुश्मन नहीं, मित्र। लेकिन बीज अगर जिद करे कि मैं बीज ही रहूंगा, तब दुश्मन हुआ। बीज कह दे कि मैं अपनी खोल को तोडूंगा नहीं, मैं मिट्टी में मिलूंगा नहीं, मैं मिटूंगा नहीं, मैं तो रहूंगा, तब फिर बिल्ट-इन-प्रोग्रैम की दुश्मनी शुरू हो गई।

अज्ञान अपने में विरोध नहीं है। अज्ञान तो तब विरोध बनता है, जब अज्ञान कहता है कि मैं रहूंगा। और कब कहता है अज्ञान? जब मिथ्या ज्ञान से भरता है तब कहता है कि मैं रहूंगा। अज्ञान तब कहता है कि मैं मिटूंगा नहीं, क्योंकि मैं तो खुद ही ज्ञान हूं।

गीता पढ़ ली किसी ने। कृष्ण ने जो कहा, कंठस्थ कर लिया। पता नहीं कुछ। मालूम नहीं कुछ। जाना नहीं कुछ। कहने लगे, आत्मा अमर है। अब खतरा है। बीज कह रहा है कि मैं वृक्ष हूं। मैं हूं ही। अब होने की कोई जरूरत न रही। अब बीज जिद करेगा कि मैं हूं ही।

उधार ज्ञान मिथ्या ज्ञान है। अपना ज्ञान सम्यक ज्ञान है, राइट नालेज है। स्वयं जाना, तो वृक्ष हो जाएंगे। दूसरे के जाने को पकड़ा और कहा कि मेरा ही जानना है, तो फिर बीज ही रह जाएंगे।

तो यह मत पूछिए, अज्ञान का कारण क्या है? अज्ञान का कारण तो यही है कि ज्ञान होने के लिए अज्ञान से ही गुजरना अनिवार्य है। जागने के पहले नींद से गुजरना अनिवार्य है। सुबह के पहले रात से गुजरना अनिवार्य है।

सुबह होगी ही नहीं, अगर रात न हो। कैसे होगी सुबह? रात न हो, तो सुबह न होगी। इसलिए जो गहरा देखते हैं, वे मानते हैं, रात सुबह के आने की तैयारी है, जस्ट प्रिपरेशन; सुबह हो सके, इसकी पूर्व भूमिका है। सुबह के लिए ही रात है गर्भ, सुबह है जन्म। रात प्रेगनेंट है सुबह से; उसके गर्भ में छिपी है सुबह। रात मां है, सुबह बेटा है। अज्ञान मां है, ज्ञान बेटा है। उससे ही होगा।

नहीं कोई विरोध है। कारण की कोई बात नहीं। ऐसा नियम है, अगर विज्ञान की भाषा में कहें तो।

अगर वैज्ञानिक से पूछें कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी क्यों बनता है, क्या कारण है? तो वह कहेगा, बनता है; कारण नहीं है। इट इज़ सो, ऐसा है, ऐसी प्रकृति है। विज्ञान कहेगा, ऐसा है। ऐसा जीवन का नियमन है, दिस इज़ दि ला, अल्टिमेट ला, आखिरी नियम है। अंडे से मुर्गी पैदा होती है, ऐसा है।

एक वैज्ञानिक से कोई पूछ रहा था कि अंडे और मुर्गी में फर्क क्या है? तो उसने कहा कि अंडा मुर्गी के पैदा होने की राह है, मार्ग है, दि वे; मुर्गी के पैदा होने का ढंग।

ज्ञान अज्ञान से जगता है, अज्ञान से पैदा होता है। रुकावट पड़ती है मिथ्या ज्ञान से। इसलिए मैं बताना चाहूंगा कि मिथ्या ज्ञान का कारण क्या है? उसका कारण है, आलस्य, लिथार्जी।

दूसरे का ज्ञान मुफ्त में मिल जाए, तो अपने ज्ञान को खोजने की मेहनत कौन करे, क्यों करे! प्रमाद। मुफ्त मिल जाए, तो खरीदने कौन जाए! सड़क पर पड़ा हुआ मिल जाए!

लेकिन ज्ञान के साथ यह खराबी है कि सड़क पर पड़ा हुआ कभी नहीं मिलता। और मिलता हो, तो झूठा सिक्का होगा। ज्ञान मिलता ही स्वयं की चेष्टा से है, श्रम से है, तपश्चर्या से है। अन्यथा नहीं मिलता है।

आलस्य मिथ्या ज्ञान को पकड़ा देता है। कहता है, क्या जरूरत! जब कृष्ण को पता है, तो हम और नाहक क्यों खोजें? कृष्ण का ही वाक्य रट लें, न हन्यमाने–रट लें कृष्ण को ही, न हन्यते हन्यमाने शरीरे–नहीं मरता शरीर के मरने से कोई। कंठस्थ कर लें। नाहक ध्यान, तप, योग, इस उपद्रव में हम क्यों पड़ें? जब तुम्हें पता ही है, तुमने हमें बता दिया; हमने याद कर लिया। लेकिन यह होगी मेमोरी, ज्ञान नहीं। यह होगी स्मृति, याददाश्त, ज्ञान नहीं।

आलस्य कारण है मिथ्या ज्ञान का। और अहंकार कारण है मिथ्या ज्ञान का। और आलस्य और अहंकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां-जहां अहंकार, वहां-वहां आलस्य। जहां-जहां आलस्य, वहां-वहां अहंकार। सघन हो गया आलस्य ही तो अहंकार है। फैल गया अहंकार ही तो आलस्य है।

अहंकार क्यों? क्योंकि मैं अज्ञानी हूं, ऐसा मानना अहंकार के लिए कठिन पड़ता है। और जो यह नहीं मान पाता कि मैं अज्ञानी हूं, वह तो ज्ञान के अंडे को ही, बीज को ही इनकार कर रहा है। मुर्गी तो कभी फिर पैदा नहीं होगी।

इसलिए ज्ञान की पहली शर्त है, अज्ञान की स्वीकृति। और अज्ञान को बचाना हो, तो पहली शर्त है, अज्ञान का अस्वीकार। अज्ञान है ही नहीं; मैं जानता ही हूं; फिर बात ही समाप्त हो गई।

इसलिए उपनिषद कहते हैं, अज्ञानी तो भटकते ही हैं, ज्ञानी और भी बुरी तरह भटक जाते हैं। अज्ञानी तो अंधकार में पड़ते ही हैं, ज्ञानी महाअंधकार में पड़ जाते हैं। बड़ा अदभुत वचन है।

किन ज्ञानियों की बात हो रही है? उन ज्ञानियों की बात हो रही है, जो मिथ्या ज्ञानी हैं। मिथ्या ज्ञान का कारण है, आलस्य। मुफ्त मिले, हम क्यों श्रम करें! पचा-पचाया मिले, तो हम क्यों चबाएं! हम ऐसे ही लील जाएं। यह नहीं हो सकता।

कारण है अहंकार। मन मानने को राजी नहीं होता कि मैं अज्ञानी हूं। कहता है, मैं जानता ही हूं। जो हम नहीं जानते, उसको भी हम कहते हैं कि हम जानते हैं। हम स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते कि हम अज्ञानी हैं। हम अपने अज्ञान को भी सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि यही ज्ञान है।

सारी दुनिया में जितने विवाद हैं, वे अज्ञान को सिद्ध करने के विवाद हैं। इस दुनिया में जितने झगड़े हैं, वे सत्य के झगड़े नहीं हैं; वे अज्ञानियों के अपने अज्ञान को सिद्ध करने के झगड़े हैं। और अज्ञानी अपने अज्ञान को सिद्ध करने के लिए ज्ञानियों के कंधों तक पर बंदूक रख लेते हैं! उनके पीछे खड़े हो जाते हैं और उपद्रव मचाते हैं।

अज्ञान अज्ञान है, ऐसा जिसने जाना, उसके ज्ञान की पहली किरण फूट गई। अज्ञान अज्ञान है, ऐसा जिसने पहचाना–यह बहुत बड़ा ज्ञान है, यह छोटा ज्ञान नहीं है। अज्ञान को जानना कि अज्ञानी हूं मैं, बहुत बड़ी घटना है, शायद सबसे बड़ी घटना है। फिर जो भी घटेगा, इससे छोटा है।

जिस व्यक्ति को पता चल गया कि मैं सोया हूं, उसका जागरण शुरू हो गया। क्योंकि नींद में कभी पता नहीं चलता कि मैं सोया हूं। अगर आपको पता चल गया कि नींद में हूं, तो पता चल गया है कि जागा हूं। क्योंकि पता किसको चलेगा? आपने जाना कि अज्ञानी हूं, तो वह जानने वाला भीतर खड़ा हो गया, जो अज्ञान को जानता है। और जो अज्ञान को जानता है, वह ज्ञान है। टु बी अवेयर आफ वन्स इग्नोरेंस, अपने अज्ञान के प्रति होश से भर जाना पहला कदम है। पहला भी, शायद अंतिम भी। क्योंकि फिर सब इसी से निकलता है। अंकुर फूट गया। क्रांति घटित हो गई। बीज टूट गया, अंकुर फूट गया; अब वृक्ष बड़ा हो जाएगा। वह अंकुर का ही विस्तार है, कोई नई घटना नहीं है।

असली क्रांति तो उस वक्त है, जब बीज टूटता है और अंकुर मिट्टी की पर्तों को, अंधेरे को निकालकर, तोड़कर, बाहर फूटता है रोशनी में; सूरज को झांकता है और देखता है। असली क्रांति घट गई। अब तो फिर ठीक है। अब यही वृक्ष बड़ा हो जाएगा। इसमें फूल लगेंगे, फल लगेंगे; सब होगा। लेकिन अब रेवोल्यूशन नहीं है कोई। रेवोल्यूशन तो हो गई, क्रांति तो हो गई; जब बीज टूटा, उसी वक्त हो गई।

पहली क्रांति और आखिरी क्रांति अज्ञान का बोध है।

आलस्य और अहंकार के कारण यह बोध नहीं हो पाता।

आप पूछ सकते हैं कि आलस्य और अहंकार क्यों हैं? मैं कहूंगा, हैं। और जो भी क्यों का उत्तर दे, वह नासमझ है। नासमझ इसलिए कि जो भी उत्तर होगा, उसके लिए भी पूछा जा सकता है, क्यों? उसका जो उत्तर दे, वह और भी ज्यादा नासमझ है। क्योंकि फिर भी पूछा जा सकता है कि वह क्यों? इनफिनिट रिग्रेस! फिलासफी इसी मूढ़ता में पड़ी है। सारी दुनिया की फिलासफी, सारी दुनिया का दर्शनशास्त्र इसी उपद्रव में उलझा हुआ है। हर चीज पर हम पूछते चले जाते हैं, क्यों? क्यों? क्यों? और इसका कोई अंत नहीं हो सकता।

धर्म इस मूढ़ता में नहीं पड़ता। वह कहता है, ऐसा है। अब इसका हम क्या उपयोग कर सकते हैं, उसे करने में लगें। और आगे क्यों में न जाएं। क्योंकि क्यों का कोई अंत नहीं है, हमारा अंत है। हम क्यों पूछते-पूछते समाप्त हो जाएंगे।

इसलिए बुद्ध के पास जब भी कोई आता, तो वे कहते कि तुम क्रांति के लिए आए, अपने को बदलने के लिए आए, या कि सिर्फ जवाब चाहिए? अगर सिर्फ जवाब चाहिए, तो किताबों में काफी हैं, पंडितों के पास बहुत हैं; फिर मुझे परेशान मत करो। अगर जीवन में क्रांति चाहिए, तो फिर वही पूछो, जिससे क्रांति घटित हो सकती है। वह मत पूछो, जिसका कोई प्रयोजन नहीं, असंगत है, इररेलेवेंट है।

इसलिए बुद्ध तो जिस गांव में जाते, उस गांव में डुंडी पिटवा देते, ग्यारह प्रश्न कोई न पूछे। ये प्रश्न कोई पूछे ही न। क्योंकि इन प्रश्नों को पूछने वाला पूछता ही चला जाता है।

नहीं, असली सवाल यह नहीं है कि आलस्य और अहंकार क्यों हैं। असली सवाल यह है कि कैसे मिटेंगे? व्हाई दे आर, यह असली सवाल नहीं है। क्यों हैं? हैं।

लेकिन जिंदगी में हम कभी ऐसे सवाल नहीं पूछते। एक आदमी को मकान बनाना है, तो वह यह नहीं पूछता कि नींव में पत्थर क्यों हैं? निकालकर बाहर कर दें। एक आदमी को आग को बुझाना है, तो वह यह नहीं पूछता कि आग पानी डालने से क्यों बुझती है? पानी डालता है और बुझा देता है। एक आदमी को टी.बी. हो गया है, तो वह डाक्टर से यह नहीं पूछता कि इस इंजेक्शन के देने से टी.बी. क्यों मिटता है? वह इंजेक्शन लेता है और मिटा देता है।

लेकिन जहां हम परमात्मा की तरफ आते हैं, वहां हम क्यों पूछते हैं। कुछ कारण होना चाहिए। असल में क्यों हमारी पोस्टपोन करने की तरकीब है। क्यों हम पूछ सकते हैं अंतहीन। और अंतहीन हम स्थगन कर सकते हैं। क्योंकि जब तक पूरा पता न चल जाए, तब तक हम बदलें भी कैसे! जब तक पूरा पता न चल जाए, तब तक हम बदलें भी कैसे!

धर्म दर्शन नहीं है। धर्म बहुत प्रेक्टिकल है। धर्म बहुत ही व्यावहारिक है। धर्म इसीलिए साइंटिफिक है, वैज्ञानिक है। धर्म एक प्रयोगशाला है। मैं जो भी कह रहा हूं, वह स्पेकुलेटिव नहीं है; वह सिद्धांतवादी नहीं है। उसमें नजर इतनी ही है कि आपको वे मूल सूत्र खयाल में आ जाएं, जिनसे जिंदगी बदली जा सकती है।

आलस्य और अहंकार, मिथ्या ज्ञान का सहारा है। मिथ्या ज्ञान अज्ञान को बचाने का आधार है। अहंकार और आलस्य छोड़ें, मिथ्या ज्ञान गिर जाएगा। मिथ्या ज्ञान गिरा, अज्ञान का बोध होगा। अज्ञान का बोध हुआ, ज्ञान की यात्रा शुरू हो जाती है। और वे पुरुष, जो ज्ञान के अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक में आनंद को उपलब्ध होते ही हैं, इस लोक में भी आनंद से भर जाते हैं।

एक आखिरी श्लोक और।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।। 32।।

ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार किए गए हैं। उन सबको शरीर, मन और इंद्रियों की क्रिया द्वारा ही उत्पन्न होने वाले जान। इस प्रकार तत्व से जानकर निष्काम कर्मयोग द्वारा संसार-बंधन से मुक्त हो जाएगा।

इन सारे यज्ञों के द्वारा, इन सारे यज्ञों को करते हुए, निष्काम कर्म के भाव से दृष्टारूप हुआ व्यक्ति मुक्त हो जाता है।

यह सूत्र कनक्लूसिव है। वह जो भी कहा है इसके पहले, उसकी निष्पत्ति है। निष्पत्ति में, जीवन के समस्त कर्मों को कामना के कारण नहीं, निष्कामना के आधार पर करते हुए, यह आधार है निष्पत्ति का। दो बातें आपसे कहूं, तो खयाल में आ जाए।

एक, हम एक ही तरह के कर्म को जानते हैं अब तक। वह कर्म है, सकाम। बिना कामना के हमने कोई कर्म कभी जाना नहीं। इसीलिए तो हमने आनंद कभी जाना नहीं। सिवाय दुख के हमारा कोई परिचय नहीं है।

सकाम कर्म की एक खूबी है, जब तक नहीं पूरा होता, तब तक सुख की आशा रहती है। जब पूरा होता है, दुख के फल हाथ में आते हैं। निष्काम कर्म की एक खूबी है, जब तक करते हैं, तब तक कामना और आशा से शून्य होना पड़ता है; और जब कर्म पूरा हो जाता है, तो आनंद से भर जाते हैं, आपूरित हो जाते हैं।

सकाम कर्म को हम भलीभांति जानते हैं। हम सब ने सकाम कर्म किए हैं। हमने प्रेम किया, तो सकाम। हमने मित्रता की, तो सकाम। हमने दुकान चलाई, तो सकाम। हमने प्रार्थना भी की, तो सकाम। हम प्रभु के मंदिर में भी खड़े हुए, तो कामना को लेकर। हमने यज्ञ भी किया, तो कामना को लेकर। हमने भजन भी किया, तो भी कामना को लेकर। हमारा अनुभव कामना का अनुभव है। निष्पत्ति भी हमारी दुख की निष्पत्ति है। इतना हम भी जानते हैं।

कृष्ण जो कहते हैं, वह इससे उलटी बात कहते हैं।

हमारा अनुभव यह है कि हमने जहां-जहां कामना के फूल को तोड़ना चाहा, वहीं-वहीं दुख का कांटा हाथ में लगा। जहां-जहां कामना के फूल के लिए हाथ बढ़ाया, फूल दिखाई पड़ा जब तक, हाथ में न आया; जब हाथ में आया, तो सिर्फ लहू, खून; कांटा चुभा; फूल तिरोहित हो गया।

लेकिन मनुष्य अदभुत है। उसका सबसे अदभुत होना इस बात में है कि वह अनुभव से सीखता नहीं। शायद ऐसा कहना भी ठीक नहीं। कहना चाहिए, अनुभव से सदा गलत सीखता है। सीखता नहीं है, ऐसा कहना ठीक नहीं। सीखता है; गलत सीखता है।

अगर हाथ बढ़ाया और फूल हाथ में न आया और कांटा हाथ में आया, तो वह यही सीखता है कि मैंने गलत फूल की तरफ हाथ बढ़ा दिया; अब मैं ठीक फूल की तरफ हाथ बढ़ाऊं। यह नहीं सीखता कि फूल की तरफ हाथ बढ़ाना ही गलत है। यह नहीं सीखता।

और साधारण आदमियों का तो हम छोड़ दें। राम अपनी कुटिया के बाहर बैठे हैं। स्वर्णमृग दिखाई पड़ जाता है। स्वर्णमृग! सोने का हिरण! होता नहीं। पर जो नहीं होता, वह दिखाई पड़ सकता है। जिंदगी में बहुत कुछ दिखाई पड़ता है, जो है ही नहीं। और जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता है।

स्वर्णमृग दिखाई पड़ता है राम को। उठा लेते हैं धनुष-बाण। सीता कहती है, जाओ, ले आओ। निकल पड़ते हैं स्वर्णमृग को मारने। यह कथा बड़ी मीठी है! राम स्वर्णमृग को मारने निकल पड़ते हैं! सोने का मृग कहीं होता है?

लेकिन आपको भी दिखाई पड़ जाए, तो रुकना मुश्किल हो जाए। असली मृग हो, तो रुक भी जाएं; सोने का मृग दिखाई पड़ जाए, तो रुकना मुश्किल हो जाएगा।

हम सभी तो सोने के मृग के पीछे भटकते हैं। एक अर्थ में हम सबके भीतर का राम सोने के मृग के लिए ही तो भटकता है। और हम सबके भीतर की सीता उकसाती है, जाओ, सोने के मृग को ले आओ।

हम सबके भीतर की कामना, हम सबके भीतर की वासना, हम सबके भीतर की डिजायरिंग कहती है भीतर की शक्ति को, ऊर्जा को, राम को–कि जाओ। इच्छा है सीता; शक्ति है राम। कहती है, जाओ, स्वर्णमृग को ले आओ। दौड़ते फिरते हैं। स्वर्णमृग हाथ में न आए, तो लगता है कि अपनी कोशिश में कुछ कमी रह गई। और दौड़ो। स्वर्णमृग को तीर मारो; गिर जाए, न लगे, तो लगता है और विषधर तीर बनाओ। लेकिन यह खयाल में नहीं आता कि स्वर्ण का मृग होता ही नहीं है।

कामना के फूल आकाश-कुसुम हैं; होते नहीं हैं; आकाश के फूल हैं। जैसे धरती पर तारे नहीं होते, वैसे आकाश में फूल नहीं होते हैं। कामना के कुसुम या तो धरती के तारे हैं या आकाश के फूल।

सकाम हमारी दौड़ है। बार-बार थककर, गिर-गिरकर भी, बार-बार कांटे से उलझकर भी फूल की आकांक्षा नहीं जाती है। दुख हाथ लगता है। लेकिन कभी हम दूसरा प्रयोग करने का नहीं सोचते।

कृष्ण कहते हैं, निष्काम भाव से…।

बड़ा मजा है। निष्काम भाव से कांटा भी पकड़ा जाए, तो पकड़ने पर पता चलता है कि फूल हो गया! ऐसा ही पैराडाक्स है। ऐसा जिंदगी का नियम है। ऐसा होता है।

आपने एक अनुभव तो करके देख लिया। फूल को पकड़ा और कांटा हाथ में आया, यह आप देख चुके। और अगर ऐसा हो सकता है कि फूल पकड़ें और कांटा हाथ में आए, तो उलटा क्यों नहीं हो सकता है कि कांटा पकड़ें और फूल हाथ में आ जाए? क्यों नहीं हो सकता? अगर यह हो सकता है, तो इससे उलटा होने में कौन-सी कठिनाई है!

हां, जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, होता है।

तो एक प्रयोग करके देखें। चौबीस घंटे में एकाध काम निष्काम करके देखें। पूरा तो करना मुश्किल है, एकाध काम। चौबीस घंटे में एक काम सिर्फ, निष्काम करके देखें। छोटा-सा ही काम; ऐसा कि जिसका कोई बहुत अर्थ नहीं होता। रास्ते पर किसी को बिलकुल निष्काम नमस्कार करके देखें। इसमें तो कुछ खर्च नहीं होता! लेकिन लोग निष्काम नमस्कार तक नहीं कर सकते हैं!

नमस्कार तक में कामना होती है। मिनिस्टर है, तो नमस्कार हो जाती है! पता नहीं, कब काम पड़ जाए। मिनिस्टर नहीं रहा अब, एक्स हो गया, तो कोई उसकी तरफ देखता ही नहीं। वही नमस्कार करता है। वह इसलिए नमस्कार करता है कि अब फिर कभी न कभी काम पड़ सकता है।

कामना के बिना नमस्कार तक नहीं रही! कम से कम नमस्कार तो बिना कामना के करके देखें। और हैरान हो जाएंगे। अगर साधारण से जन को भी, राहगीर को भी, अपरिचित को भी, भिखारी को भी हाथ जोड़कर नमस्कार कर ली, बिना कामना के, तो भीतर तत्काल पाएंगे कि आनंद की एक झलक आ गई। सिर्फ नमस्कार भी–कोई बड़ा कृत्य नहीं, कोई बड़ी डीड नहीं, कुछ नहीं–सिर्फ हाथ जोड़े निष्काम, और भीतर पाएंगे कि एक लहर शांति की दौड़ गई। एक अनुग्रह, एक ईश्वर की कृपा भीतर दौड़ गई।

और अगर अनुभव आने लगे, तो फिर बड़े काम में भी निष्काम होने की भावना जगने लगेगी। जब इतने छोटे काम में इतनी आनंद की पुलक पैदा होती है, तो जितना बड़ा काम होगा, उतनी बड़ी आनंद की पुलक पैदा होगी। फिर तो धीरे-धीरे पूरा जीवन निष्काम होता चला जाता है।

इन सब यज्ञों को करते हुए जो व्यक्ति निष्काम भाव में जीता है…।

जीवन ही यज्ञ है। अगर कोई निष्काम भाव में जी सके, तो वह मुक्त हो जाता है। मुक्त–समस्त बंधनों से, दुखों से, पीड़ाओं से, संतापों से, चिंताओं से।

अभी हम यहां कीर्तन के लिए अंत में इकट्ठे होंगे, निष्काम कम से कम कीर्तन ही कर लें। निष्काम, कोई कामना नहीं। निष्काम दस मिनट डूब जाएं उस परमात्मा के लिए प्रार्थना में। कुछ पाना नहीं है उसके बाहर; मिलेगा बहुत। जो पाने आया है, पाएगा कुछ भी नहीं। जिसकी कामना है कि कुछ मिल जाए दस मिनट के भजन से, उसे कुछ न मिलेगा। जिसकी कोई कामना नहीं है, वह दस मिनट में ऐसा पाएगा, फुलफिल्ड हुआ! भीतर भर गया कोई संगीत! डूब गया कोई आनंद! खिल गए कोई फूल!

दस मिनट संन्यासियों के साथ सम्मिलित हों। अपनी जगह पर भी रहें, तो ताली बजाएं, उनके स्वर में स्वर मिलाएं। अपनी जगह पर भी, मौज आ जाए, तो नाचें। यहां न आएं; जरूरी नहीं है। और बैठे रहें जिनको बैठना है, वे बैठकर ताली बजाएं, बैठकर स्वर दोहराएं। सम्मिलित हों! क्योंकि कुछ आनंद हैं, जो सम्मिलित होने से ही मिलते हैं।

आज इतना ही।


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–4) प्रवचन–12

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तथाता का सूत्र—सेतु है—प्रवचन—बारहवां

दिनांक 7 दिसंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र उवाच:

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ व कल्पितौ।

निष्काम: किविजानाति किंब्रूते च करोति किम्।। 184।।

अयं सोउहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पना:।

सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्थ योगिनः।। 185।।

न विक्षेयो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।

न सुखं न च वा दुःखमुयशांतस्थ योगिनः।। 186।।

स्वराज्ये भैशवृत्तौ न लाभालाभे जने वने।

निर्विकल्यस्वभावस्थ न विशेषोउस्ति योगिनः।। 187।।

क्य धर्म: क्य न वा काम: क्य चार्थ क्य विवेकिता।

ड़दं कृतमिद नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्थ योगिनः।। 188।।

कृत्य किमयि नैवास्ति न कायि हृदि रंजना।

यथा जीवनमेवेह जीवनमुक्तस्थ योगिनः।। 189।।

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ व कल्पितौ।

निष्काम: किविजानाति किंब्रूते च करोति किम्।।

पहला सूत्र : ‘ आत्मा ब्रह्म है और भाव और अभाव कल्पित है। यह निश्चयपूर्वक जान कर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है?’

समझना : ‘आत्मा ब्रह्म है ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर……।’

जो भी किसी और के माध्यम से जाना वह कभी भी निश्चयपूर्वक नहीं होगा। भरोसा दूसरे पर किया तो भीतर गहरे में गैर— भरोसा बना ही रहेगा। विश्वास के अंतस्तल में संदेह सदा मौजूद रहता है। तुम लाख विश्वास करने की चेष्टा करो, संदेह से छुटकारा नहीं है। विश्वास का अर्थ ही होता है कि संदेह है और संदेह को दबाने की तुम चेष्टा में संलग्न हो। दबा सकते हो, मिटा नहीं सकते। भुला सकते हो, मिटा नहीं सकते।

और जितना संदेह दब जायेगा, एक बड़ी विपरीत स्थिति पैदा होती है. ऊपर—ऊपर विश्वास होता है, भीतर— भीतर संदेह होता है। शब्दों में विश्वास होता है, प्राणों में संदेह होता है। कहने की बात एक रह जाती है, होना बिलकुल ही विपरीत हो जाता है। इसी का नाम पाखंड है।

इसीलिए लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं, जीवन में एकरसता नहीं। और जहां एकरसता न हो वहां संगीत कैसा! जहां वीणा के सब तार अलग— अलग जा रहे हों वहां संगीत कैसा! वहां शोरगुल होगा, संगीत नहीं हो सकता। लयबद्धता नहीं होगी, शांति नहीं होगी। सुख कहां!

पहला सूत्र है. ‘जिसने निश्चित रूप से जाना कि आत्मा ब्रह्म है.।’

किसने निश्चित रूप से जाना? कौन निश्चित रूप से जान लेता है?

इति निश्चित्य……।

किसको हम कहेंगे कि इसे निश्चय हो गया? जिसे अनुभव हुआ। अनुभव में संदेह नहीं है। अनुभव ही संदेह से मुक्ति है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं : हमारा आपमें दृढ़ विश्वास है। मैं कहता हूं दृढ़? दृढ़ का अर्थ ही हुआ कि बड़ा सघन संदेह मौजूद है भीतर; नहीं तो दृढ़ता से किसको दबा रहे हो?

कोई जब कहता है कि मुझे तुमसे पूरा—पूरा प्रेम है तो जरा सावधान होना, क्योंकि पूरा प्रेम, तो पीछे क्या छिपा रहे हो? इस ‘पूरे’ में क्या छिपा है? इतना आग्रह करके क्यों कह रहे हो कि मुझे पूरा—पूरा प्रेम है, मुझे पूरा—पूरा विश्वास है, मुझे दृढ़ श्रद्धा है? इस आग्रह के पीछे, परदे के पीछे विपरीत मौजूद है। जितना बड़ा संदेह हो उतनी ही दृढ़ता चाहिए विश्वास की। मगर फिर भी संदेह मिटता नहीं।

इसलिए तो नास्तिक और आस्तिक में ऊपर से कितना ही फर्क हो, भीतर से फर्क नहीं होता। क्या भीतर से फर्क है? नास्तिक मंदिर नहीं जाता, नास्तिक परमात्मा को नमस्कार नहीं करता। तुम मंदिर जाते हो, पहुंचे कभी? तुमने नमस्कार किया, लेकिन नमस्कार उसके चरणों तक पहुंचा? तुम करते हो, नास्तिक नहीं करता है, लेकिन तुम्हारा करना भी कहां पहुंचता है? जीवन—व्यवहार में तो तुम बिलकुल एक जैसे हो। जीवन—व्यवहार में जरा भी भेद नहीं है। मुसलमान है, हिंदू है, ईसाई है, जैन है—जीवन—व्यवहार में जरा भी भेद नहीं है। ये सब श्रद्धाएं थोथी हैं, क्योंकि उधार हैं। निश्चित श्रद्धा किसकी होती है? जिसे अनुभव हुआ।

रामकृष्ण के पास केशवचंद्र मिलने गये। और केशवचंद्र ने कहा कि मेरा ईश्वर में भरोसा नहीं है! मैं विवाद करने आया हूं। मैं आपके भरोसे को खंडित कर दूंगा। आप मेरी चुनौती स्वीकार करें। रामकृष्ण ने कहा. बहुत मुश्किल है। तुम यह कर न पाओगे। तुम्हारी हार निश्चित है। नहीं कि मैं विवाद कर सकता हूं। नहीं कि मेरे पास कोई तर्क है। मेरे पास कोई तर्क नहीं, लेकिन मैंने प्रभु को जाना है। तुम लाख खंडन करो, क्या फर्क पड़ता है? मैं फिर भी जानता हूं कि परमात्मा है। यह मेरा अपना निजी अनुभव है, तुम इसे छीन न सकोगे। यह मेरी श्वास—श्वास में समाया है। यह मेरे हृदय की धड़कन— धड़कन में व्यापा है। यह मेरे रोएं—रोएं की पुकार है, इसे तुम छीन न सकोगे। तुम्हारे तर्क का उत्तर मैं न दे पाऊंगा, केशवचंद्र। तुम बुद्धिमान हो, शास्त्रज्ञ हो, ज्ञानी हो, पंडित हो; मैं अपढ़ गंवार हूं—रामकृष्ण ने कहा। लेकिन उलझोगे तो गंवार से जीतोगे नहीं, क्योंकि मेरे कोई सिद्धात थोड़े ही हैं, कोई विश्वास थोड़े ही हैं। ऐसा मेरा अनुभव है। तुम मेरे अनुभव को कैसे खंडित करोगे? जो मैंने जाना है उसे तुम कैसे अनजाना करवा दोगे? मैंने इन आंखों से देखा है। लाख दुनिया कहे सारी दुनिया एक तरफ हो जाये और कहे कि ईश्वर नहीं है, तो भी मैं कहता रहूंगा, है। क्योंकि मैंने तो जाना है!

केशव तो नहीं माने, उन्होंने तो बड़ा विवाद किया। और रामकृष्ण उनके विवाद को सुनते रहे एक भी तर्क का उत्तर न दिया। बीच—बीच में जब केशवचंद्र कोई बहुत गंभीर तर्क उठाते तो वे खड़े हो—हो कर केशवचंद्र को गले लगा लेते। केशवचंद्र बहुत बेचैन होने लगे, वह जो भीड़ इकट्ठी हो गयी थी देखने, केशवचंद्र के शिष्य आ गये थे कि बड़ा विवाद होगा, वे भी जरा बेचैन होने लगे। और केशवचंद्र को भी पसीना आने लगा। और केशवचंद्र ने कहा, यह मामला क्या है? आप होश में हैं? मैं आपके विपरीत बोल रहा हूं!

रामकृष्ण ने कहा कि तुम सोचते हो कि मेरे विपरीत बोल रहे हो। तुम्हें देख कर मुझे परमात्मा पर और भरोसा आने लगा है। जब ऐसी प्रतिभा हो सकती है संसार में तो बिना परमात्मा के कैसे होगी? तुम्हारी प्रतिभा अनूठी है। तुम्हारे तर्क बहुमूल्य हैं—बड़ी धार है तुम्हारे तर्कों में। यह प्रमाण है कि प्रभु है। यह तुम्हारा चैतन्य, यह तुम्हारा तर्क, ये तुम्हारे विचार, यह तुम्हारी प्रणाली—इस बात का सबूत है कि परमात्मा है। जब फूल लगते हैं तो सबूत है कि वृक्ष होगा। फूल लाख उपाय करें, वृक्ष को खंडित न कर पायेंगे। उनका होना ही वृक्ष का सबूत हो जाता है। फूल लाख गवाही दें अदालत में जा कर कि वृक्ष नहीं होते हैं, लेकिन फूलों की गवाही ही बता देगी कि वृक्ष होते हैं, अन्यथा फूल कहां से आयेंगे ?

रामकृष्ण ने कहा : मैं तो गंवार हूं मेरे पास तो कोई प्रतिभा का फूल नहीं है; तुम्हारे पास तो प्रतिभा का कमल है। मैं हजार—हजार धन्यवाद से भरा हूं। इसलिए उठ—उठ कर तुम्हें गले लगता हूं कि हे प्रभु, तूने खूब किया, केशवचंद्र को मेरे पास भेजा! तेरी एक झलक और मिली! तुझसे मेरी एक पहचान और हुई! एक नये द्वार से तुझे फिर देखा! अब तो कोई लाख उपाय करे केशव, तुम्हें देख लिया, अब तो कभी मान न सकूंगा कि ईश्वर नहीं है।

केशवचंद्र ने अपने स्मरणों में लिखा है कि जिस एक आदमी से मैं हार गया, वे रामकृष्ण हैं। इस आदमी से जीतने का उपाय न था। उस रात मैं सो न सका और बार—बार सोचने लगा, जरूर इस आदमी को कोई अनुभव हुआ है। कोई ऐसा प्रगाढ़ अनुभव हुआ है कि कोई तर्क उसे डगमगाते नहीं। इतना प्रगाढ़ अनुभव हुआ है कि तर्कों के माध्यम से भी, जो विपरीत तर्क हैं उनसे भी वही अनुभव सिद्ध होता है। नहीं, इस आदमी के चरणों में बैठना होगा। इस आदमी से सीखना होगा। इसे जो दिखाई पड़ा है वह मुझे भी देखना होगा। इसके पास आंख है, मेरे पास तर्क है। तर्क काफी नहीं। तर्क से कब किसी की भूख मिटी है! और तर्क से कब किसका कंठ तृप्त हुआ!

निश्चित जानने का अर्थ है रामकृष्ण की भांति जानना। निश्चित जानने का अर्थ है—विश्वास नहीं; अनुभव से आती है जो श्रद्धा, वही।

और जिसने विश्वास बना लिया, उसके भीतर श्रद्धा पैदा होने में बाधा पड़ जाती है। इसलिए उधार को तो काटो। बासे को तो हटाओ। पराये को तो त्यागो। कोई चिंता न करो। अगर सारे विश्वास हाथ से छूट जायें तो घबड़ाओ मत, क्योंकि उनके हाथ में होने से भी कुछ लाभ नहीं है। जाने दो। तुम उस शून्य में खड़े हो जाओ जहां कोई विश्वास नहीं होता, कोई विचार नहीं होता। और वहीं से बजेगी धुन। वहीं से उठेगा एक नया स्वर। उसी शून्य से व्याप्त होता है कुछ अनुभव जो तुम्हें घेर लेता है। उसी अनुभव में जाना जाता है।

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य…..।

आत्मा ब्रह्म है, ऐसा उस अनुभव में जाना जाता है जहां तुम्हारी सीमाएं गिर जाती हैं और असीम और तुम्हारे बीच कोई भेद—रेखा नहीं रह जाती। आत्मा ब्रह्म है, इसका अर्थ हुआ : बूंद सागर है। लेकिन यह कैसे बूंद जानेगी? बूंद गिरे नहीं तो जान सकेगी? बूंद सागर में गिरे तो ही जानेगी। बूंद कितनी ही पंडित हो जाये, महापंडित हो जाये; लेकिन जिस बूंद ने सागर में गिर कर नहीं देखा, उसे कुछ पता नहीं चलेगा कि बूंद सागर है। बूंद तो जब मिटती है तभी पता चलता है कि सागर है। तुम मिटते हो तभी ब्रह्म का पता चलता है। तुम तिरोहित हो जाते हो, तो ही ब्रह्म मौजूद होता है। तुम्हारी गैर—मौजूदगी उसकी मौजूदगी है। तुम्हारी मौजूदगी उसकी गैर—मौजूदगी है। तुम्हारे होने में ही ब्रह्म ‘नहीं’ हो गया है, तुम्हारे बिखरते ही पुन: हो जायेगा।

‘आत्मा ब्रह्म है, ऐसा निश्चित रूप से जिसने जान लिया।’

इस निश्चित रूप से जानने के लिए शास्त्र में मत जाओ, शन्य में जाओ। शब्द में मत जाओ निःशब्द में उतरो। विचारों के तर्कजाल में मत उलझो। मौन। मौन ही द्वार है। चुप्पी साधो। घड़ी दो घड़ी को रोज बिलकुल चुप हो जाओ। जब तुम्हारे मन में कोई भी बोलने वाला न बचेगा, तब जो बोलेगा वही ब्रह्म है। जब तुम अपने भीतर पाओगे सन्नाटा ही सन्नाटा है, कोई पारावार नहीं है सन्नाटे का, कहीं शुरू नहीं होता, कहीं अंत नहीं होता—सन्नाटा ही सन्नाटा है, उसी सन्नाटे में पहली दफे प्रभु की पगध्वनि तुम्हें सुनाई पड़ेगी, पहली दफा तुम उसका स्पर्श अनुभव करोगे। वह पास से भी पास है। तुम जब तक विचार से भरे हो, वह दूर से भी दूर।

उपनिषद कहते हैं : परमात्मा दूर से भी दूर और पास से भी पास। दूर से भी दूर, अगर तुम विचार से भरे हो। क्योंकि तुम्हारे विचार आंखों को ढांक लेते हैं। जैसे दर्पण पर धूल जम जाये और दर्पण पर कोई प्रतिबिंब न बने। या जैसे झील में बहुत लहरें हो जायें और चांद की झलक न बने। ऐसा जब तुम विचार से भरे हो तो तुम्हारे भीतर ‘जो है’ उसका प्रतिबिंब नहीं बनता।

निश्चित जानने का अर्थ है. तुम इतने शांत हो गये, दर्पण बन गये, झील मौन हो गयी, विचार सो गये, धूल हट गयी—तों जो है, उसका दर्पण में चित्र बनने लगा। वही है निश्चित जानना—जब तुम प्रतिबिंब बनाते हो और उस प्रतिबिंब में तुम जानते हो. बूंद सागर है।

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ

उस क्षण तुम्हें यह भी पता चलेगा कि भाव और अभाव मेरी कल्पनाएं थीं। कुछ मैंने सोचा था है, कुछ मैंने सोचा था नहीं है—दोनों झूठ थे। जो है उसका तो मुझे पता ही न था। मैं ही झूठ था, तो जो मैंने सोचा कि है, वह भी झूठ था; जो मैंने सोचा नहीं है, वह भी झूठ था।

ऐसा समझो कि एक रात तुमने सपना देखा। सपने में तुमने देखा कि सम्राट हो गये। बड़ा साम्राज्य है, बड़े महल हैं, स्वर्णों के अंबार हैं। और दूसरी रात तुमने सपना देखा कि तुम भिखारी हो गये, सब गंवा बैठे, राज्य खो गया, सब हार गये, जंगल—जंगल भटकने लगे, भूखे —प्यासे। एक रात तुमने सपना देखा राज्य है, एक रात तुमने सपना देखा राज्य नहीं है—क्या दोनों सपनों में कुछ भी भेद है ? दोनों तुम्हारी कल्पनाएं हैं। भाव भी तुम्हारी कल्पना है, अभाव भी तुम्हारी कल्पना है। और जो है वह तुम्हें दिखाई ही न पड़ा। जिस रात तुमने सपना देखा सम्राट होने का, सपना तो झूठा था; लेकिन जो देख रहा था सपना, वह सच है। दूसरी रात सपना देखा भिखारी होने का। सपना तो फिर भी झूठा था, जो दिखाई पड रहा था वह तो झूठा था, लेकिन जिसने देखा, वह अब भी सच है। साम्राज्य देखा कि भिखमंगापन, देखनेवाला दोनों हालत में सच है। जो दिखाई पड़ा— भाव और अभाव—वे दोनों तो कल्पित हैं। सिर्फ द्रष्टा सच है, सिर्फ साक्षी सच है। और सब सपना है।

जैसे ही तुम शांत होओगे, ये दोनों प्रतीतिया एक ही साथ घट जाती हैं कि मैं नहीं हूं ब्रह्म है। क्योंकि साक्षी एक ही है। मेरा साक्षी अलग और तुम्हारा साक्षी अलग, ऐसा नहीं। मेरा सपना अलग, तुम्हारा सपना अलग—निश्चित ही। लेकिन मेरा साक्षी और तुम्हारा साक्षी तो बिलकुल एकरूप हैं। साक्षी में कोई भेद नहीं।

ऐसा समझो, तुम यहां बैठे हो, अगर तुम सभी शांत और मौन हो कर बैठ गये हो कि किसी के भीतर विचार की कोई लहर नहीं उठती—तो यहां कितने आदमी बैठे हैं? यहां फिर आदमियों की गिनती नहीं की जा सकती। फिर तो यहां एक ही शून्य बैठा है। तुम एक शून्य में कितने ही शून्य जोड़ते जाओ, संख्या थोड़े ही बढ़ती है। दो शून्य भी मिल कर एक ही शून्य, तीन शून्य भी मिल कर एक ही शून्य, चार शून्य भी मिल कर एक ही शून्य। अनंत शून्य भी जोड़ते जाओ तो भी शून्य एक ही रहता है। शून्य में कहीं संख्या थोड़े ही बढ़ती है। लेकिन तुम बोले, दूसरा बोला, तो दो हो गये। बोले कि दो हुए, चुप हुए कि एक हुए। तुमने कुछ कहा कि तुम अलग हुए, किसी दूसरे ने कुछ कहा कि अलग हुआ। विचार आया कि भेद आया। शब्द आये कि शत्रुता आयी। तुमने कहा कि मैं हिंदू मैंने कहा कि मैं मुसलमान—फर्क हो गया। तुमने कहा मैं बाइबिल मानता, मैंने कहा मैं कुरान—फर्क हो गया, विवाद आ गया। जहां विवाद आ गया वहां हम अलग—अलग हो गये। जहां निर्विवाद हम बैठे हैं चुप, वहां हम अलग नहीं; वहां एक ही बैठा है। जब तुम दौड़ते हो तो अलग—अलग, जब तुम बैठते हो तो एक ही रह जाता है। जब तुम सपने में होते हो तो भिन्न—भिन्न.।

तुमने एक मजा देखा! सपने में तुम अपने मित्र को निमंत्रित नहीं कर सकते, इतने अकेले हो जाते हो। रात सपना देखते हो, खूब अच्छा सपना भी देखो तो भी तुम अपनी पत्नी को अपने सपने में नहीं ले जा सकते। यह नहीं कह सकते कि तू भी आ जा, बड़ा सुंदर सपना है। कोई उपाय नहीं है। सपने में साझेदारी नहीं की जा सकती। दो आदमी एक ही सपना नहीं देख सकते। सपना इतना भिन्न कर देता है हमें! दो आदमी एक ही सपना नहीं देख सकते। कितना ही प्रेम उनके भीतर हो और कितना ही एक—दूसरे के साथ उनकी आत्मीयता हो, तो भी सपने में अलग हो जाते हैं। जैसे दो आदमी एक साथ सपना नहीं देख सकते, ऐसे ही साक्षी में दो आदमी दो नहीं रह सकते, एक हो जाते हैं। उस एक का नाम ब्रह्म है।

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।

और जो तुमने मान रखा है ‘है’ और जो तुमने मान रखा है ‘नहीं है’—वे दोनों ही कल्पना—जाल हैं। वह तुम्हारी कल्पना है। तुम सच हो, तुम्हारा होना परम सत्य है, लेकिन शेष सब कल्पना का जाल है। अब इसे तुम अष्टावक्र को सुन कर मान लोगे तो यह निश्चित ज्ञान न होगा। इसको तुम प्रयोग कर के जानोगे तो निश्चित ज्ञान हो जायेगा।

धर्म उतना ही प्रयोगात्मक है जितना विज्ञान। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए।

वैज्ञानिक कहते हैं : विज्ञान बड़ा प्रयोगात्मक, एक्सपेरिमेंटल है। मैं तुमसे कहता हूं : धर्म भी उतना ही प्रयोगात्मक है। विज्ञान और धर्म में प्रयोग को ले कर विवाद नहीं है। जो विरोध है वह प्रयोगशाला को लेकर है। विज्ञान की प्रयोगशाला बाहर है; धर्म की प्रयोगशाला भीतर है। विज्ञान प्रयोग करता है अन्य पर, धर्म प्रयोग करता है स्वयं पर। वैज्ञानिक टेबिल पर बिछा देता है किसी चीज को, उसका परीक्षण, उसका विश्लेषण करता है। धार्मिक अपने ही भीतर जाता है, अपने को ही बिछा देता है टेबिल पर, अपना ही परीक्षण करता है। धर्म है स्व—परीक्षा, विज्ञान पर—परीक्षा। विज्ञान है दूसरे को जानना, धर्म है स्व—ज्ञान—लेकिन प्रयोगात्मक है, एकदम प्रयोगात्मक है।

और तुमने अगर बिना प्रयोग किये कुछ मान लिया है तो उस कूड़े—कर्कट को हटाओ। उससे कुछ सार नहीं है। उससे तुम बोझिल हो गये हो। उससे तुम्हारा सिर भारी हो गया है। उससे पांडित्य

तो मिल गया, मूढ़ता नहीं मिटी।

‘यह निश्चयपूर्वक जान कर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है?’ यह वचन बड़ा अनूठा है। सुनो —

निष्काम: किविजानाति किं बूते च करोति किम्।

जिस व्यक्ति ने ऐसा जान लिया कि ब्रह्म ही है, मैं नहीं हूं उसकी सब वासना चली जाती है। चली ही जायेगी, चली ही जानी चाहिए।

पहली बात : तुम्हें साधारणत: समझाया गया है कि जब तुम्हारी वासना चली जायेगी, तब ब्रह्म तुम्हें मिलेगा। नहीं, बात थोड़ी उल्टी हो गयी। जब ब्रह्म मिल जाता है, तो ही वासना जाती है। तुमने जरा बैलगाड़ी में बैल पीछे बांध दिये, गाड़ी के पीछे बैल बांध दिये। वासना तो तब तक रहेगी जब तक तुम हो। रूप बदल ले, नये रास्ते पकड़ ले, यहां तक भी हो सकता है कि ब्रह्म को जानने की वासना बन जाये कि मैं ब्रह्म को जानूं कि मैं मोक्ष को पाऊं—मगर यह भी वासना है। धन पाऊं—वासना। ध्यान पाऊं—वासना। संसार मिल जाये, मेरी मुट्ठी में हो—वासना। परमात्मा मिल जाये, मेरी मुट्ठी में हो—वासना। इस जीवन में सुख मिले —वासना। परलोक में सुख मिले, बहिश्त में, स्वर्ग में—वासना। वासना नये रूप ले सकती है, नये आयाम ले सकती है, नयी दिशाएं पकड़ सकती है, नये विषयों पर आधारित हो सकती है। मिटेगी नहीं। जब तक तुम हो, वासना रहेगी। क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी में वासना की तरंगें उठती हैं। तुम्हारी मौजूदगी वासनाओं की तरंगों के लिए स्रोत है। जब तुम ही खो जाते हो तभी वासना खोती है।

तुम तो एक ही उपाय से खो सकते हो और वह यह है कि तुम मौन हो कर, यह भीतर कौन तुम्हारे विराजमान है इसको आंख में आंख डाल कर देखने लगो। तो जिन्होंने तुमसे कहा है, वासना को पहले खोओ, उन्होंने तुम्हें झंझट में डाल दिया; उन्होंने तुम्हारे जीवन में नयी वासनाओं को जन्म दे दिया—धार्मिक वासनाएं। मैं तुमसे कहता हूं वासना तुम नहीं खो सकते, लेकिन विचार तुम खो सकते हो। और विचार को खो दिया तो तुम जानोगे कि मैं कहां, मैं कौन; वही है। जब वही है तो फिर वासना के लिए कोई कारण नहीं रह गया। जब मैं हूं ही नहीं तो बांस मिट गया, अब बांसुरी नहीं बज सकती। बांस ही न बचा तो बांसुरी कैसी!

वासना तो छाया है; जैसे तुम रास्ते पर चलते हो और छाया बनती है। तुम जा कर बैठ गये शांत, वृक्ष के नीचे, धूप में नहीं चलते, छाया बननी बंद हो गयी। जिस दिन अहंकार शांत हो कर बैठ जाता है, बैठते ही गिर जाता है, क्योंकि अहंकार दौड़ने में ही जीता है; बैठने में कभी जीता नहीं। अहंकार महत्वाकांक्षा में जीता है, भाग—दौड़, आपाधापी में जीता है, ज्वर में जीता है। अहंकार शांत बैठने में तो बिखर जाता है। तुम बैठ गये शांत छाया में, मौन हो गये, विचार न रहे, तुम न रहे, वासना भी गयी। इस घड़ी में अष्टावक्र का सूत्र कहता है : निष्काम हुआ पुरुष क्या जानता है?

तुम शायद सोचते होओगे : जब हम बिलकुल शांत हो जायेंगे तो कुछ जानेंगे। तो फिर जाननेवाला बना रहा। तो अभी तुम बिलकुल शांत नहीं हुए, पूरे शांत नहीं हुए, समग्र रूपेण शांत नहीं हुए। अब तुमने कुछ और बचा लिया; भोक्ता न रहे तो ज्ञाता बन गये।

अष्टावक्र कहते हैं, ऐसा पुरुष क्या जानेगा? जाननेवाला ही नहीं बचा तो अब जानने को क्या

है? भेद नहीं बचा तो किसको जानेगा? क्या कहता है? ऐसा पुरुष क्या बोलेगा? ऐसा थोड़े ही है कि परमात्मा तुम्हें मिल जायेगा तो तुम कुछ बोलोगे और परमात्मा तुमसे कुछ बोलेगा। बोल खो जायेगा। अबोल हो जाओगे।

तुलसीदास और दूसरे कवियों ने कहा है कि परमात्मा जो मूक हैं उन्हें वाचाल कर देता; जो पंगु हैं उन्हें दौड़ने की सामर्थ्य दे देता है। अष्टावक्र ने उल्टी बात कही है और ज्यादा सही बात कही है। अष्टावक्र ने कहा है : जो बोलते हैं उन्हें मूक कर देता है; जो दौड़ते हैं उन्हें पंगु कर देता है, जो कर्मठ थे वे आलसी शिरोमणि हो जाते हैं।

वचन है मूक करोति वाचालम्। मूक को वाचाल कर देता है। पर इसी वचन को उल्टी तरफ से पढ़ा जाता है, पढ़ा जा सकता है। हम कह सकते हैं. मूक को वाचाल कर देते; मूक करोति वाचाल। हम ऐसा भी पढ़ सकते हैं. मूक, करोति वाचाल। वह जो वाचाल है उसको मूक कर देता है। वही ज्यादा सही है। वह जो बोलता है चुप हो जाता है। वह जो चलता है, रुक जाता है। वह जो आता—जाता है, अब कहीं आता—जाता नहीं, बिलकुल पंगु हो जाता है। कर्ता खो जाता, कर्म खो जाता।

‘समस्त तरह की लहरें स्थूल या सूक्ष्म विसर्जित हो जातीं। ऐसा पुरुष न तो कुछ जानता, न कुछ कहता न कुछ करता।’

कि विजानाति किं बूते च किं करोति।

और यही परम ज्ञान की दशा है. जहां कुछ भी जाना नहीं जाता। क्योंकि न जानने वाला है, न कुछ जाना जाने वाला है। सुनते हैं यह विरोधाभासी वक्तव्य! यही परम ज्ञान की दशा है।

किं विजानाति किं बूते……।

न कुछ कहा जाता, न कुछ कहा जा सकता।

किं करोति…..।

करने को भी कुछ बचता नहीं। जो होता है होता है। जो हो रहा है होता रहता है।

कहते हैं, बुद्ध बयालीस साल तक लोगों को समझाते रहे। गांव—गांव जाते रहे। इतना बोले, सुबह से सांझ तक समझाते रहे। और एक दिन आनंद कुछ पूछता था तो आनंद से उन्होंने कहा कि आनंद तुझे पता है, बयालीस साल से मैं एक शब्द भी नहीं बोला हूं? आनंद ने कहा कि प्रभु किसी और को आप कहते तो शायद मान भी लेता। मैं बयालीस साल से आपके साथ फिरता हूं मैं आपकी छाया की तरह हूं मुझसे आप कह रहे हैं कि आप कुछ नहीं बोले! सुबह से सांझ तक आप लोगों को समझाते हैं।

बुद्ध ने कहा. आनंद, फिर भी मैं कहता हूं, तू स्मरण रखना, कि बयालीस साल से मैं एक शब्द नहीं बोला। आनंद ने कहा : गांव—गांव भटकते हैं, घर—घर, द्वार—द्वार पर दस्तक देते हैं। तो बुद्ध ने कहा : आनंद, मैं फिर तुझसे कहता हूं कि बयालीस साल से मैं कहीं आया—गया नहीं। आनंद ने कहा. आप शायद मजाक कर रहे हैं। मुझे छेड़े मत।

लेकिन आनंद समझ नहीं पाया। यह तो आनंद जब स्वयं बुद्ध के विसर्जन के बाद, बुद्ध के निर्वाण के बाद ज्ञान को उपलब्ध हुआ तब समझा, तब रोया। तब रोते समय उसने कहा कि हे प्रभु, तुमने कितना समझाया और मैं न समझा। आज मैं जानता हूं कि बयालीस साल तक न तुम कहीं गये, न आये। और आज मैं जानता हूं कि बयालीस साल तक तुमने एक शब्द नहीं बोला।

किं विजानाति किं बूते किं करोति।

तुमने कुछ भी नहीं किया।

जब अहंकार चला जाता है तो सब क्रियाएं चली जाती हैं। क्रिया मात्र अहंकार की है। जानना भी क्रिया है, बोलना भी क्रिया है, चलना भी क्रिया है, करना भी क्रिया है। सब चला जाता है।

तुम्हें भी अड़चन होगी, अगर मैं तुमसे कहूं कि मैं एक शब्द भी नहीं बोला। अभी बोल ही रहा हूं। और अगर कहूं कि एक शब्द भी नहीं बोल रहा हूं तो तुम्हें भी अड़चन होगी। तुम्हारी अड़चन भी मैं समझता हूं। क्योंकि तुमने अब तक जो भी किया है वह ‘किया’ है; तुमने जीवन में कुछ होने नहीं दिया। ये शब्द बोले जा रहे हैं; इन शब्दों को कोई बोल नहीं रहा है। जैसे वृक्षों पर पत्ते लगते हैं और वृक्षों पर फूल लगते हैं, ऐसे ये शब्द भी लग रहे हैं। इन्हें कोई लगा नहीं रहा। इनके पीछे कोई चेष्टा नहीं है, कोई प्रयास नहीं है, कोई आग्रह नहीं है। ये न लगें तो कुछ फर्क न पड़ेगा। ये लगते हैं तो कुछ फर्क नहीं पड़ता है। अचानक बोलते—बोलते अगर बीच में ही मैं रुक जाऊं तो कुछ फर्क न पड़ेगा। अगर शब्द न आया तो न आया।

कूलरिज मरा—अंग्रेजी का महाकवि—तो हजारों अधूरी कविताएं छोड़ कर मरा। मरने के पहले उसके एक मित्र ने पूछा कि इतनी कविताएं अधूरी छोड़े जा रहे हो! इन्हें पूरा क्यों न किया? तो कूलरिज ने कहा, मैं कौन था पूरा करने वाला! जितनी आयी उतनी आयी; उससे ज्यादा नहीं आयी तो नहीं आयी। तीन पंक्तियां उतरी तो मैंने तीन पंक्तियां लिख दीं। मैं तो उपकरण था। चौथी पंक्ति नहीं आयी। पूरी चौपाई भी न बनी तो मैं क्या कर सकता था ? जितना आया, आया।

केवल सात कविताएं पूरी करके कूलरिज ने जीवन भर में सात कविताएं। लेकिन सात कविताओं के आधार पर महाकवि है। सात—सात हजार कविताएं लिखने वाले लोग भी महाकवि नहीं हैं। कुछ बात है कूलरिज की कविता में, कुछ पार की बात है, कुछ बड़े दूर की ध्वनि है। कोई अज्ञात उतरा है। कूलरिज नहीं बोला; परमात्मा बोला है।

यही अर्थ है जब हम कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं, या हम कहते हैं कुरान उतरी। इसका मतलब समझ लेना। हिंदू—मुसलमान क्या दावे करते हैं, उससे मुझे मतलब नहीं है। उनके दावे का मैं समर्थन भी नहीं कर रहा हूं। लेकिन इसका अर्थ यही है। कुरान उतरी। मुहम्मद ने खुद बनायी नहीं; उतरता हुआ पाया। जब पहली दफा कुरान मुहम्मद पर उतरी तो वे बहुत घबरा गये। क्योंकि वे तो गैर—पढ़े—लिखे आदमी थे। उन्होंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा अपूर्व काव्य, और उतर आयेगा। इसकी कभी कल्पना भी न की थी, सपना भी न देखा था। यह तो उनके हिसाब—किताब के बाहर था। यह तो ऐसा ही समझो कि तुमने जिंदगी भर मूर्ति न बनायी हो और एक दिन अचानक तुम पाओ कि तुमने छैनी उठा ली है, हथौड़ी उठा ली है और तुम संगमरमर खराद रहे हो, संगमरमर को छैनी से काट रहे हो और तुम चौंको कि मैं यह क्या कर रहा हूं मैं कोई मूर्तिकार नहीं हूं मैंने कभी सोचा भी नहीं! मगर विवश, कोई अदम्य तुम्हें खींचे ले जाये और तुम न केवल इतना पाओ कि मूर्ति खोद रहे हो, तुम एक जगत की श्रेष्ठतम मूर्ति खोद दो, तो क्या तुम यह कह सकोगे कि मैंने खोदी ? तुमने न तो कभी सीखा न तुमने सपना देखा। तुम्हारे मन में मूर्तियां तैरती ही न थीं।

मुहम्मद तो साधारण व्यक्ति थे, गैर—पढ़े —लिखे थे, काम से काम था। यह तो कभी सोचा भी न था। जब पहली दफा मुहम्मद पर कुरान उतरी और किसी अंतरआकाश में उन्हें सुनाई पड़ा कि गुनगुना, गा! तो वे बहुत घबरा गये। लिख! तो वे बहुत घबरा गये। क्योंकि वे तो लिखना भी नहीं जानते थे। भीतर आवाज आयी : नहीं लिख सकता, पढ़! तो उन्होंने कहा, मैं पढ़ना भी नहीं जानता। वे तो दस्तखत भी नहीं कर सकते थे। वे इतने घबरा गये कि उन्हें बुखार आ गया। समझा कि कोई भूत—प्रेत है या क्या मामला है ? वे तो घर आ कर रजाई ओढ़ कर सो गये। पत्नी ने बोला, क्या हुआ? भले —चंगे गये थे, क्या हो गया? उन्होंने कहा, मत पूछ कुछ तू। वे तो दुबके पड़े रहे रजाई में, कंपते रहे और वह आवाज गूंजती रही, और वह आवाज रूप लेने लगी और कुरान की पहली आयत उतरने लगी। इसे मुहम्मद ने उतरते देखा। यह मुहम्मद से बिलकुल अलग है। इसका मुहम्मद से कुछ लेना—देना नहीं है। मुहम्मद तो जैसे बांस की पोगरी हैं; कोई इसमें से गीत गाने लगा, किसी के स्वर इसमें भरने लगे। मुहम्मद ने तो जगह दे दी और जगह भी आश्चर्यचकित भाव में दी, कुछ पता ही नहीं कि यह क्या हो रहा है। इसके लिए कोई तैयारी न थी। यह महान कुरान उतरी। यह महाकाव्य उतरा।

इस अर्थ में कुरान अपौरुषेय है, मनुष्य की बनायी हुई नहीं है। ऐसे ही वेद उतरे। ऐसे ही बाइबिल उतरी। ऐसे ही उपनिषद उतरे। ऐसे ही धम्मपद उतरा। ऐसे ही महावीर की वाणी उतरी। नहीं, किसी ने कहा नहीं है। अस्तित्व बोला। विराट बोला। अज्ञात बोला।

निष्काम: किं विजानाति किं बूते च करोति किम्।

ऐसी वासनामुक्त दशा में जहां जान लिया गया कि आत्मा ब्रह्म है, फिर न तो कुछ कोई बोलता, न कुछ कोई जानता, न कुछ कोई करता; यद्यपि सब होता है—बोला भी जाता, किया भी जाता, जाना भी जाता।

‘सब आत्मा है ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर शांत हुए योगी की ऐसी कल्पनाएं कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं क्षीण हो जाती हैं।’

अयं सोउहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पना:।

सर्वमात्येति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिन:।।

सर्वं आत्मा!

ब्रह्म का अर्थ है : एक ही है। और सबमें एक ही है। पत्थर से ले कर परमात्मा तक एक का ही विस्तार है, एक की ही तरंगें हैं। जड़ से ले कर चैतन्य तक एक ही प्रगट हुआ है। अनेक— अनेक रूप धरे हैं, अनेक—अनेक भाव— भंगिमाएं हैं—मगर जिसकी हैं वह एक है।

सर्वं आत्मा!

सब आत्मा है।

इति निश्चित्य……।

ऐसा जिसने निश्चयपूर्वक जाना, अनुभव किया, स्वाद लिया! सिर में ही न घूमी ये बातें, हृदय में उतर गयीं; ऊपर—ऊपर से न चिपकायी गयीं, भीतर से अंकुरण हुआ, उदभव हुआ!

तूष्णीभूतस्य योगिन:।

ऐसा व्यक्ति परम शांति को उपलब्ध हो जाता है, परम विश्राम को।

तुमने खयाल किया? मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि ‘बड़ी अशांति है, शांत कैसे हो जायें? कोई शांति का रास्ता बता दें।’ वे कोई सस्ता रास्ता चाहते हैं। वे कुछ ऐसा रास्ता चाहते हैं कि जैसे वे हैं वैसे बने भी रहें और शांत हो जायें। धन के पीछे दौड़ रहे हैं तो दौड़ते रहें। सच तो यह है शायद शांत इसीलिए होना चाहते हैं ताकि धन के पीछे और ठीक से दौड़ सकें। रात नींद नहीं आती तो सुबह से दूकान में दौड़— धूप उतनी नहीं हो पाती जितनी हो सकती थी; विश्राम ही नहीं हो पाया तो श्रम कैसे हो?

आदमी शांत भी होना चाहता है तो सिर्फ इसीलिए ताकि वह जो अशांति का व्यापार चला रहा है, व्यवसाय चला रहा है, उसको वह ठीक से चला सके।

अगर मैं उनसे कहता हूं कि शांत तो तुम तब तक न हो सकोगे जब तक तुम हो, तो वे कहते हैं कि फिर अपने वश के बाहर है! शांति वे चाहते हैं किसी वस्तु की तरह उनमें जुड़ जाये। वे जैसे हैं, वैसे के वैसे रहें; शांति और आ जाये और उनमें जुड़ जाये। जैसे हम एक वस्तु खरीद लाते हैं बाजार से। नयी टेबिल खरीद लाये कि टेलिविजन खरीद लाये। पुराना मकान है, पुराना घर, पुरानी पत्नी, पुराने बच्चे, सब पुराना, हम पुराने, सब पुराना, एक टेलिविजन खरीद लाये, उसको भी उसी कमरे में रख दिया। लोग चाहते हैं ऐसी शांति आ जाये, कि ऐसा ज्ञान आ जाये।

नहीं, सब पुराना जायेगा तो ही शांति आ सकती है। शांति तो तुम्हारे चले जाने की अवस्था है। जहां से तुम तिरोहित हो गये। जब तक तुम हो, तुम उपद्रव करते ही रहोगे। उपद्रव तुम्हारा स्वभाव है। उपद्रव अहंकार का स्वभाव है। अहंकार रोग है।

तूष्णीभूतस्य योगिन:।

जिसने जान लिया कि एक ही है, वही शांत हो पाता है; वही उस परम विश्रांति को उपलब्ध होता है जहां कोई तनाव नहीं रह जाता।

तनाव क्या है? तनाव यह है….. तनाव को समझें। दूसरा दुश्मन है—यह तो तनाव पहला। दूसरा है, यह मान लेने से ही उपद्रव शुरू हो गया। तो फिर दूसरा छीन—झपट करेगा, प्रतिस्पर्धा करेगा, संघर्ष करना होगा। दूसरा है तो युद्ध है और दूसरा है तो दुश्मनी है। दूसरा है तो तुम अकेले नहीं हो। तुम जिन वासनाओं के पीछे दौड़ रहे, दूसरे भी दौड़ रहे हैं। तुम्हीं थोड़े ही राष्ट्रपति होना चाहते हो, साठ करोड़ भारतवासी राष्ट्रपति होना चाहते हैं। पद एक है और साठ करोड़ उम्मीदवार हैं, तो हर एक आदमी के खिलाफ बाकी साठ करोड़ जो बचे हैं, वे इसके दुश्मन हैं। जहां दूसरा है वहा दुश्मनी है। और जब दूसरा है तो फिर अपनी आत्मरक्षा का उपाय भी करना होगा। तो भय है, घबड़ाहट है, सुरक्षा करनी है। तुम सुरक्षा करते हो तो दूसरा भी डर जाता है।

तुमने देखा, पाकिस्तान खरीद ले अमरीका से हवाई जहांज कि हिंदुस्तान घबड़ाया कि बस शोरगुल मचा। तो खरीदो रूस से जल्दी या कुछ इंतजाम करो। इधर हिंदुस्तान ने खरीदा कि उधर पाकिस्तान घबराया कि अरे, और इंतजाम करो! कोई इसकी फिक्र ही नहीं करता कि जब तुम दूसरे से घबड़ा कर इंतजाम करने लगते हो तो दूसरा भी तुमसे घबरा कर इंतजाम करने लगता है। दुष्ट चक्र पैदा होता है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से गुजर रहा था। सांझ का वक्त था, धुंधलका था। और उसने एक किताब पढ़ी थी और किताब में डाकुओं और हत्यारों की बात थी। कुछ होगी पुराने जासूसी ढंग की किताब, भूत—प्रेत, तिलिस्मी। वह घबड़ाया हुआ था, किताब की छाया उसके सिर पर थी। और उसने देखा कि लोग चले आ रहे हैं। उसने कहा, मालूम होता है दुश्मन। और बैंड—बाजे भी बजा रहे हैं हमला हो रहा है। घोड़े पर चढ़ा आ रहा है कोई आदमी और तलवार लटकाये हुए। वह तो एक बारात थी। मगर वह बहुत घबड़ा गया। उसने देखा, यहां तो कुछ उपाय भी नहीं है। पास ही एक कब्रिस्तान था, तो घबड़ा कर दीवाल छलांग कर कब्रिस्तान में पहुंच गया। वहां एक नयी—नयी कब खुदी थी। अभी मुर्दा लाने लोग गये होंगे कब खोदकर, तो वह उसी में लेट गया। उसने सोचा कि मुर्दे की कौन झंझट करता है।

लेकिन उसको ऐसा छलांग लगा कर देख कर, छाया को उतरते देख कर बाराती भी घबड़ा गये कि मामला क्या है! अचानक एक आदमी छलांग लगाया, भागा—वे भी देख रहे हैं। वे भी घबड़ा गये, उन्होंने भी बैड—बाजे बंद कर दिये। जब बैड—बाजे बंद कर दिये तो मुल्ला ने कहा मारे गये! देखे गये! वह बिलकुल सांस रोक कर पड़ा रहा। वे भी आहिस्ता से धीरे— धीरे दीवाल के ऊपर आ कर झांके। जब बारातियों ने दीवाल के ऊपर झांका, उसने कहा : हो गया खात्मा समझो! अब पत्नी—बच्चों का मुंह दुबारा देखने न मिलेगा। और जब उसको उन्होंने देखा कि वह आदमी, बिलकुल जिंदा आदमी अभी गया और नयी—नयी खुदी कब में बिलकुल मुर्दे की तरह लेटा। उन्होंने कहा, कोई जालसाजी है। यह आदमी हमला करेगा, बम फेंकेगा या क्या करेगा! तो वे सब आये लालटेनें ले कर, मशालें जला कर खड़े हो गये चारों तरफ।

अब मुल्ला कब तक सांस रोके रहे! आखिर सांस सांस ही है। थोड़ी देर रोके रहा, फिर उठ कर बैठा गया। उसने कहा, अच्छा भाई कर लो जो करना है। उन्होंने कहा, क्या करना, क्या मतलब? तुम क्या करना चाहते हो? तब उसकी समझ में आया। उन बारातियों ने पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? तुम इस कब में क्यों लेटे हुए हो? तो नसरुद्दीन ने कहा, हद हो गयी। मैं तुम्हारी वजह से यहां हूं और तुम मेरी वजह से यहां हो! और बेवजह सारा मामला है। जब उसने देखा लालटेन वगैरह ज्योति में कि यह तो बारात है, दूल्ला—बूल्हा सजाये है, कहीं कोई हमला करने नहीं जा रहे हैं। अपना वहम है।

तुमने देखा? पड़ोसी कुछ करने लगे तो तुम तैयारी करने लगते हो। तुम कुछ करने लगे तो पड़ोसी तैयारी करने लगता है। दुनिया में आधे संघर्ष तो इसीलिए हो रहे हैं कि भय है। तुम घर लौटतेऐसा कोई राष्ट्रों में हो रहा है, ऐसा नहीं है—तुम घर लौटते, तुम रास्ते में ही तैयारी करने लगते कि पत्नी क्या कहेगी, जवाब क्या देना है! तुम तैयारी करने लगे। पत्नी भी घर तैयारी कर रही है कि अच्छा पांच बज रहा है, पति लौटते होंगे; देखें क्या उत्तर ले कर आ रहे हैं! वह भी तैयारी करने लगी। दोनों तैयार हैं।

दूसरे से बचने का भय तुम्हें और सिकोड़ जाता है, तनाव से भर जाता है, असुरक्षित कर जाता है। सारा जीवन इस कलह में बीत जाता है। छोटी कलह, बड़ी कलह, जातियों की, धर्मों की, राष्ट्रों की—मगर कलह एक ही है।

‘सब आत्मा है ऐसा जिसने निश्चयपूर्वक जाना, वह हो गया शांत।’

तूष्णीभूतस्य योगिन:।

वही है योगी। जिसने यह जान लिया कि एक ही है, फिर क्या भय है! तुममें भी मैं ही हूं तो फिर क्या प्रश्न, फिर किससे संघर्ष?

डार्विन का सिद्धात है. संघर्ष। और पूरब के समस्त ज्ञानियों का सिद्धात है : समर्पण। और डार्विन कहता है : जो सबलतम हैं वे बचे रहते हैं। सरवाइवल ऑफ दि फिटेस्ट। और पूरब के ज्ञानी कुछ और कहते हैं। पूछो लाओत्सु से, पूछो अष्टावक्र से, पूछो बुद्ध से, महावीर से, वे कुछ और कहते हैं। वे कहते हैं. जो कोमल है वही बच रहता है। जो प्रेमपूर्ण है वही बच रहता है। स्त्रैण तो बच रहता है, कठोर तो हार जाता है।

लाओत्सु कहता है गिरती है जल की धार पहाड़ से कठोर चट्टान पर। ऊपर से तो देखने में यही लगेगा कि चट्टान जीतेगी, धार हारेगी। धार तो कोमल है, चट्टान तो मजबूत है। अगर डार्विन सच था तो धार हारनी थी, चट्टान जीतनी थी। लेकिन लाओत्सु सच मालूम होता है। धार जीत जाती है, चट्टान हार जाती है। कुछ वर्षों बाद तुम पाओगे चट्टान तो रेत हो कर बह गयी, धार अपनी जगह है।

कोमल जीतता है, कठोर हारता है। निरहकारी जीतता है, अहंकारी हारता है। अहंकारी चट्टान की तरह है, निरहंकारी जल की धार है।

इसे ऐसा कहें, जो लड़ता वह हारता। जो हारता वही जीतता। जो हारने को राजी है उसका अर्थ ही यह है कि वह कहता है तुम भी मैं ही हो।

कभी तुमने देखा, अपने छोटे बेटे से तुम कुश्ती लडते हो तो तुम जीतते थोड़े ही हो। बेटे से जीतोगे तो मुहल्ले के लोग भी हंसेंगे, यह क्या नासमझी की बात की तुमने! जरा—से बेटे से जीत कर उसकी छाती पर बैठ गये। नहीं, बाप जब बेटे से लड़ता है तो बस हारने के लिए लड़ता है। ऐसा थोड़ा. ऐसा भी नहीं कि एकदम से लेट जायें, नहीं तो बेटे को भी मजा नहीं आयेगा। वह कहेगा, यह क्या मामला है! क्या धोखा दे रहे? तो थोड़ा हाथ—पैर चलाता है, बल दिखलाता है, धमकाता है, लेकिन फिर लेट जाता है। बेटा छाती पर बैठ कर प्रसन्न होता है और कहता है जीत गये! बेटा अपना है तो हारने में डर क्या। अपने बेटे से कौन नहीं हारना चाहेगा!

उपनिषद के गुरुओं ने कहा है. गुरु तभी प्रसन्न होता है जब शिष्य से हार जाता है। अपने शिष्य से कौन नहीं हारना चाहेगा? कौन गुरु न चाहेगा कि शिष्य मुझसे आगे निकल जाये—वहां पहुंच जाये जहां मैं भी नहीं पहुंच पाया! जब अपना ही है तो हार का मजा है। पराये से हम जीतना चाहते हैं, अपने से थोड़े ही जीतना चाहते हैं। अगर यह मेरा ही विस्तार है, अगर मैं इस विस्तार का ही एक हिस्सा हूं अगर तुम और मेरे बीच कोई फासला नहीं है, एक ही चेतना का सागर है, तो फिर कैसी हार, कैसी जीत, फिर कैसा संघर्ष! और जहां संघर्ष न रहा वहां शांति है। शांति लायी नहीं जाती; संघर्ष के अभाव का नाम शांति है।

तूम्मीभूतस्य योगिन:।

और वही है योगी जो इस भांति शांत हुआ। ऐसे बैठ गये पालथी मार कर, आंख बंद करके, जबर्दस्ती अपने को किसी तरह संभाल कर शांत किये बैठे हैं—यह कोई शांति नहीं है। यह तो सिकुड़ जाना है। मुर्दे की तरह बैठ गये अकडू कर, किसी तरह अपने को समझा—बुझा कर, बांध—बूंध कर

शांत कर लिया—यह कोई शांति नहीं है। वास्तविक योगी तो विश्राम को उपलब्ध हो जाता है, विराम को उपलब्ध हो जाता है। वह तो अपने को छोड़ देता, निमज्जित कर देता, बूंद सागर में गिर जाती है। इति विकल्पना—अयं सः अहं अयं न क्षीण?:।

‘यह मैं हूं यह मैं नहीं हूं—ऐसी सब कल्पनाएं योगी की सदा के लिए क्षीण हो जाती हैं।’

यह कहना कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं भेद खड़ा करना है, जब कि एक ही है, तो किसी को कहना मैं और किसी को कहना तू भेद खड़ा करना है; विकल्पना है, तुम्हारी धारणा है। और देखना, भय से भूत खड़े हो जाते हैं। खयाल पैदा हो जाये तो बस…..।

मेरे गांव में मैं जब कभी—कभी जाता, तो एक सज्जन को मैं जानता था जो सदा बात करते कि मैं भूत—प्रेत से बिलकुल नहीं डरता। उनसे मैं इतनी दफे सुन चुका—स्कूल में शिक्षक है—कि मैंने उनसे कहा कि तुम जरूर डरते होओगे। तुम बार—बार कहते हो कि मैं भूत—प्रेत से नहीं डरता। कोई कारण भी नहीं होता तब भी तुम कहते हो कि भूत—प्रेत से नहीं डरता। तुम जरूर डरते होओगे। मैंने कहा कि मैं भूत—प्रेत जानता हूं एक जगह हैं। अगर तुम्हारी सच में हिम्मत हो तो तुम चले चलो। अब वे सदा कहते थे। तो घबड़ाये तो बहुत। उनके चेहरे से तो बहुत घबड़ाहट मालूम पड़ी। लेकिन अब अहंकार का मामला था। उन्होंने कहा, मैं डरता ही नहीं, कहां है ?

तो मेरे पड़ोस में ही एक गोडाउन, जहां एक कैरोसिन तेल बेचने वाले के टीन के डब्बे इकट्ठे रहते थे। खाली डब्बे गर्मी के दिन में सिकुड़ते और आवाज करते। और डब्बों की कतार लगी है उस घर में। तो मैंने उनसे कहा, बस तुम इसमें रात भर रह जाओ। घबड़ाये तो वे बहुत, क्योंकि उसमें वर्षों से कोई नहीं रहा है। उसमें डब्बे ही भरे रहते हैं वहां। कहने लगे, क्या आपको पक्का है कि यहां भूत—प्रेत हैं? मैंने कहा, पक्का है ही और तुम खुद अनुभव करोगे कि जब भूत—प्रेत एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगेंगे, तब तुम्हें पता चलेगा। घबडाना मत। और अगर कोई बहुत घबड़ाहट की बात हो जाये तो मैं एक घंटा टाग जाता हूं, इसको तुम बजा देना। तो मैं आ जाऊंगा और पास—पड़ोस के लोग आ जायेंगे, तुम्हें बचा लेंगे, तुम घबड़ाना मत।

उन्होंने कहा, घबड़ाता ही नहीं मैं। तो मैंने कहा, फिर घंटा ले जाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा, घंटा तो रख ही लेना चाहिए।

‘तुम घबडाते ही नहीं तो घंटे का क्या करोगे?’

‘अब वक्त—बेवक्त की कौन जानता है!’

मगर उनके हाथ—पैर कैपने लगे। मैं उन्हें छोड़ कर ही आया, कोई आधा ही घंटा नहीं हुआ होगा, शाम ही थी, साढ़े आठ—नौ बजे होंगे, कि उन्होंने जोर से घंटा बजाया। क्योंकि जैसे ही सांझ होती है और तापमान बदलता है तो दिन भर के तपे हुए डब्बे फैल जाते हैं और रात को सिकुड़ते हैं। जैसे ही सिकुड़ते कि आवाज होनी शुरू होती। अब उनको कल्पना तो पक्की थी और अकेले थे वहा, तो उन्होंने खूब कल्पना कर ली होगी अपने को संभालने के लिए, कि कोई कुछ नहीं कर सकता है यह……। और जब उन्होंने सुना निकलने लगे भूत, एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगे, घंटा बजाया। मैं पहुंचा। मुझे पता ही था कि घंटा बजेगा ही थोड़ी—बहुत देर में। ज्यादा देर नहीं लग सकती, क्योंकि वे भूत—प्रेत तो निकलेंगे ही। वे छज्जे पर खड़े हैं। उनको मैं कहूं कि आप अंदर से आ कर दरवाजा

खोलो, क्योंकि दरवाजा भीतर से तुम ही लगा गये हो। मगर उनकी इतनी हिम्मत नहीं कि वे उस कमरे में से गुजर सकें जहां से भूत—प्रेत निकल रहे हैं। और उनकी घिग्घी भी बंद हो गयी। वे बोल भी न सकें। सीढ़ी लगा कर उनको नीचे उतारना पड़ा।

मैंने उनसे पूछा, बोलते क्यों नहीं? उन्होंने कहा, क्या खाक बोलूं? किसी तरह आधा घंटा बर्दाश्त किया है। अब भूल कर कभी नहीं यह कहूंगा कि…..। भूत—प्रेत होते हैं। अपना प्रत्यक्ष अनुभव अब मुझे हुआ। मैंने उन्हें लाख समझाया कि कोई भूत—प्रेत नहीं हैं। चलो मैं तुम्हारे साथ चलता हू। तुम्हें सब राज समझाये देता हूं। उन्होंने कहा, छोड़ो, अब इस मकान में मैं दुबारा नहीं जा सकता हूं।

मैं फिर गांव जब भी जाता हूं उनसे पूछता हूं कि क्या खयाल है? उन्होंने कहा कि मैंने वह बात ही छोड़ दी।

तुम्हारी कल्पना तुम आरोपित कर ले सकते हो—किसी भी चीज पर आरोपित कर ले सकते हो। और विकल्पना का बड़ा बल है। तुम एक स्त्री को सुंदर मान लेते हो, बस वह सुंदर हो जाती है। तुम धन में कुछ देखने लगते हो, दिखाई पड़ने लगता है। तुम पद में कुछ लोलुप हो जाते हो, वासना वहा जुड़ जाती है, विकल्पना जाल फैलाने लगती है। तुम कितनी बार नहीं बैठे —बैठे कल्पना करने लगते हो कि सफल हो गये, चुनाव जीत गये, अब जुलूस निकल रहा है, अब लोग फूलमालाएं पहना रहे हैं! बैठे अपने — अपने घर में हैं, लेकिन यह कल्पना चल रही है। कितनी बार नहीं तुम शेखचिल्ली हो जाते हो! ज्ञानी कहते हैं कि हमारा सारा जीवन शेखचिल्लीपन है। हमने कुछ कल्पनाएं बना रखी हैं। उन कल्पनाओं को हमने इतना बल दे दिया है, अपने प्राण उनमें उंडेल दिये हैं, उन पर इतना भरोसा कर लिया है कि वे वास्तविक मालूम होती हैं। वास्तविक हैं नहीं।

बच्चा जब पैदा होता है तो शून्य की तरह पैदा होता है। उसे कुछ पता नहीं होता। हम उसे सिखाते हैं कि यह तेरा शरीर। मान्यता पैदा होती है। वह सीख लेता है कि यह मेरा शरीर। हम उसे सिखाते है चरित्र, हम उसे सिखाते हैं अहंकार कि ‘देख तू किस कुल में पैदा हुआ! देख, स्कूल में प्रथम आना। इसमें कुल की प्रतिष्ठा है। सबसे आगे रहना! चरित्र बनाना, अपने को विभूषित करना सुंदर गुणों से।’ धीरे — धीरे धीरे — धीरे यह निरंतर जो सम्मोहन चलता है, बच्चा भी मानने लगता है कि मैं कुछ विशिष्ट हूं? मैं कुछ हूं विशेष घर में पैदा हुआ, विशेष परिवार में पैदा हुआ, विशेष धर्म में पैदा हुआ, विशेष देश में पैदा हुआ, राष्ट्र का गौरव हूं और— और इस तरह की सब बातें—देह हूं मन हूं—ये सब बातें गहन होती चली जाती हैं।

निरंतर पुनरुक्ति से झूठ भी सच हो जाते हैं। बार—बार दोहराने से कोई भी बात सच मालूम होने लगती है। और एक बार तुम्हें सच मालूम होने लगे कि बस तुम उसके गिरफ्त में आ गये।

‘सब आत्मा है, ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर शांत हुए योगी की ऐसी कल्पनाएं कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं क्षीण हो जाती हैं।’

तुम न तो देह हो, न तो मन हो। तुम इन दोनों के पार हो। न तुम हिंदू न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न तुम स्त्री, न तुम पुरुष, न तुम भारतीय, न तुम चीनी, न तुम जर्मन। न तुम गोरे न तुम काले। न तुम जवान न तुम के। तुम इन सबके पार हो। वह जो इन सब के पार छिपा देख रहा है—वही हो तुम। उस साक्षी के सत्य को जितना ही तुम अनुभव कर लो, जितना निश्चयपूर्वक अनुभव कर लो, उतने ही शांत हो जाओगे।

‘उपशांत हुए योगी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता है, न अतिबोध है और न मूढ़ता है, न सुख है न दुख है।’

इस सूत्र को खयाल में लेना. ‘उपशांत’। इस तरह शांत हो गये योगी के लिए। जिसने अहंकार की विकल्पनाएं छोड़ दीं। जिसने अपने सब तरह के तादात्‍मय छोड़ दिये हैं। जो अब नहीं कहता कि यह मैं हूं और जो तू से अपने को अलग नहीं करता, ऐसे उपशांत हुए योगी के लिए न विक्षेप है, अब उसे कोई चीज ‘डिस्ट्रेक्ट’ नहीं करती। अब कैसे उसे कोई चीज विक्षेप बन सकती है त्र’

तुम बैठे। तुम कहते हो, मैं ध्यान करने बैठा और पत्नी ने बर्तन गिरा दिया चौके में और विक्षेप हो गया। ध्यान भंग हो गया। यह ध्यान नहीं था अगर यह भंग हो गया। कि बच्चा चिल्ला दिया, कि राह से कोई ट्रक निकल गया, कि हवाई जहाज गुजर गया ऊपर सें—इससे बड़ी विध्‍न—बाधा पड़ गयी। अगर विध्‍न—बाधा पड़ गयी तो यह ध्यान नहीं था। तुम किसी तरह अपने को संभाल कर बैठे थे जबर्दस्ती; जरा—सी चोट, कि तुम्हारी जबर्दस्ती टूट गयी। यह कोई ध्यान नहीं था।

ध्यान की अवस्था तो शून्य की अवस्था है; विक्षेप हो कैसे सकता है? शून्य में कहीं कोई विक्षेप होता है? कोई विध्‍न—बाधा पड़ती है? तुम अगर शांत बैठे थे, वस्तुत: उपशांत हो कर बैठे थे तो पत्नी गिरा देती बर्तन, बर्तन की आवाज गूंजती, तुम्हें सुनाई पड़ती, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। सुनाई पड़ती जरूर, क्योंकि कान तो हैं तुम्हारे, कान तो नहीं समाप्त हो गये। शायद और भी अच्छी तरह से सुनाई पड़ती, क्योंकि तुम बिलकुल शांत बैठे थे, सूई भी गिरती तो सुनाई पड़ती। लेकिन आवाज गूंजती। जैसे खाली मकान में आवाज गूंजती है, फिर विलीन हो जाती है—ऐसे तुम्हारे खालीपन में आवाज आती, गूंजती, विदा हो जाती; तुम जैसे थे वैसे ही बैठे रहते। तुम्हारा शून्य जरा भी न कंपता। शून्य कंपता ही नहीं; सिर्फ अहंकार कंपता है। सिर्फ अहंकार पर चोट लगती है। अहंकार तो एक तरह का घाव है, उस पर चोट लगती है। जरा कोई छू दे तो चोट लगती है। इसको खयाल में लेना।’न तो कोई विक्षेप है और न कोई एकाग्रता है।’

यह बड़ा अनूठा वचन है! साधारणत: तुम सोचते हो ध्यान का अर्थ. एकाग्रता। ध्यान का अर्थ एकाग्रता या कनसंट्रेशन नहीं है। क्योंकि अगर एकाग्रता करोगे तो विक्षेप होगा, बाधा पड़ेगी। तुम अगर बैठे थे अपना ध्यान लगाये राम जी की प्रतिमा पर और कोई कुत्ता भौंक गया, बस गड़बड़ हो गयी। क्योंकि वह कुत्ते का भौंकना तुम्हें सुनाई पड़ेगा न! जितनी देर कुत्ते का भौंकना सुनाई पड़ा, उतनी देर राम पर से ध्यान हट गया। एक क्षण को भूल गये। तुम अपनी माला फेर रहे थे और फोन की घंटी बजने लगी। एक सेकेंड को चित्त फोन की घंटी पर चला गया, माला हाथ से चूक गयी। चाहे हाथ फेरता भी रहे, लेकिन भीतर तो चूक गयी। तुम दुखी हो गये कि यह तो विक्षेप हो गया, बाधा पड़ गयी।

ध्यान एकाग्रता नहीं है। ध्यान तो जागरूकता है।

तुम बैठे थे, कुत्ता भौंका तो वह भी सुनाई पड़ा। घंटी बजी टेलीफोन की, वह भी सुनाई पड़ी। जब कुत्ता भौंका तो ऐसा विचार नहीं पैदा हुआ भीतर कि कुत्ते को नहीं भौंकना चाहिए। तुम कौन हो कुत्ते को रोकने वाले? तुम्हें कुत्ता नहीं रोक रहा ध्यान करने से! कुत्ता नहीं कहता कि तुम्हारे ध्यान करने से बड़ा विक्षेप पड़ता है, कि हमें भौंकने में बाधा आती है। बंद करो ध्यान इत्यादि, क्योंकि इससे हमें भौंकने में थोड़ा अपराध भाव मालूम पड़ता है कि भौंकते हैं तो विक्षेप पड़ेगा। तुम हमारी स्वतंत्रता पर बाधा डाल रहे हो यहां बैठ कर, आंख बंद करके, आसन लगा कर।

नहीं, कुत्ते को तुम्हारे ध्यान से कुछ मतलब नहीं है। तुम्हारे ध्यान को कुत्ते से क्या मतलब है? कुत्ता भौंका, भौंका। आवाज गंजी, गंजी। कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं हुई। तुम्हारे भीतर ऐसा नहीं हुआ कि नहीं, इस कुत्ते को नहीं भौंकना चाहिए था। कि यह पड़ोसी का कुत्ता और यह पड़ोसी, ये मेरे दुश्मन हैं, ये मेरी जान के पीछे पड़े हैं। कि देखो, मैं ध्यान करने बैठा हूं और यह पड़ोसी अपने कुत्ते को भुकवा रहा है! साजिश है। षड्यंत्र है। चल पड़ा मन कि इसका बदला चुका कर रहूंगा। कि खरीद कर लाऊंगा इससे भी मजबूत कुत्ता, अलसेशियन, और इसको बदला चुकवा कर रहूंगा। कि यह कारपोरेशन क्या कर रहा है, आवारा कुत्ते घूम रहे हैं, इनको गोली क्यों नहीं दे देता? चल पड़ा मन। प्रतिक्रिया शुरू हो गयी। तो विक्षेप.।

विक्षेप कुत्ते के भौंकने से नहीं होता, विक्षेप तुमने जो कुत्ते के भौंकने के साथ प्रतिक्रिया की, जो विचार करने लगे.। अब विचार तुम्हारा है। तुम विचार न करो। कुत्ता भौंका, भौंका। तुम शांत भाव से बैठे रहो। टेलीफोन की घंटी बजने लगी, तुम बेचैन हो जाते हो।

मैं कलकत्ते में एक सटोरिया के घर ठहरता था। वे बड़े सटोरिया थे। कमरा ही नहीं था कोई जहां उन्होंने टेलीफोन न लगा रखे हों। बाथरूम में भी दो —दो तीन—तीन टेलीफोन रखे हुए थे। बाथरूम की दीवाल पर भी सब वह गद डाला था उन्होंने। लिख देते थे वहीं। क्योंकि बाथरूम में नहा रहे हैं और कोई सौदा कर लिया, वहीं फोन उठा कर टब में बैठे—बैठे, कि टायलेट पर बैठे—बैठे, पता नहीं….. .तो वहीं लिख देते। जब मैं उनके बाथरूम में स्नान किया तब मैंने देखा कि सब दीवालों पर पेंसिल से लिखा हुआ है। एक पेंसिल भी रखी है। मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है। उन्होंने कहा, अब सट्टे का मामला ही ऐसा है कि इसमें क्षण भर की देर नहीं होनी चाहिए। तो मैंने कहा बाथरूम तो समझ में आ गया, तुम्हारा पूजा घर देखना चाहता हूं। वह भी उन्होंने बना कर रखा है। वहा भी फोन लगा है। मैंने कहा, यह मामला क्या है? तुम यहां तो.। उन्होंने कहा, यह सट्टे का मामला ही ऐसा है। भगवान रुक सकता है थोड़ी देर। यह सट्टे का मामला ही ऐसा है कि जरा सी देर हो गयी तो सब गड़बड़ हो जाये, लाखों यहां के वहॉ हो जायें। तो यहां तो उसी वक्त निपटाना पड़ता है। माला चलती रहती है। निपटा देता हूं जल्दी से। एक सेकेंड में निपटा दिया, फिर अपनी माला फेरने लगे।

पर मैंने कहा, यह तो विक्षेप हुआ।

घंटी बजी टेलीफोन की तो तुम सोचने लगे, कौन फोन कर रहा होगा! कहीं कोई सौदा तो नहीं है! विचार उठ गया। ख्याल करना, टेलीफोन की घंटी बाधा नहीं डाल रही है, तुम्हारे भीतर जो विचार पैदा हो गया उससे बाधा पड़ रही है।

अब मैं भी उनके बाथरूम में नहाता था। तो मैंने कहा, घंटी बजती रहती है हमें क्या लेना—देना! अपना कोई सौदा ही नहीं है। तो घंटी कोई बाधा नहीं डालती। घंटी बजती रहती है, हम उसका मधुर संगीत सुनते, कि अपने को कोई लेना—देना नहीं है।

मैं एक रेस्ट हाउस में मेहमान था। और एक मंत्री भी वहा रुके थे। और रात मंत्री सो न सके,

क्योंकि कुछ दस—बारह कुत्ते रेस्ट हाउस के कंपाउंड में भौंके। वे आये मेरे पास कमरे में, उन्होंने कहा कि आप तो बड़े मजे से सो रहे हैं। मुझे हिलाया। मैंने कहा, क्या मामला है? उन्होंने कहा, आपको देख कर ईर्ष्या होती है। आप मजे से सो रहे हैं, ये कुत्ते भौंक रहे हैं। ये मुझे सोने नहीं देते।

मैंने कहा कि आप देख ही रहे हैं कि मैं सो रहा हूं। अगर आप नहीं सो पा रहे हैं तो गड़बड़ कुछ आपमें होगी, कुत्तों में नहीं हो सकती। फिर कुत्तों को तो पता भी नहीं है कि नेता जी आये हैं। न अखबार पढ़ें, न रेडियो सुनें। ये कुत्ते हैं, इनको कुछ पता ही नहीं है कि आपका यहां आगमन हुआ है। ये कोई आदमी थोड़े ही हैं कि आपके स्वागत में कुछ शोरगुल कर रहे हैं, कि कोई आपके स्वागत में व्याख्यान कर रहे हैं। इनको कुछ लेना—देना नहीं है, अपने काम में लगे हैं।

पर उन्होंने कहा, मैं सोऊ कैसे यह बतायें। तो मैंने कहा, आप एक काम करें। कुत्ते नहीं भौंकना चाहिए, यह बात आपको बाधा डाल रही है। आप बिस्तर पर लेट जायें और कहें कि ‘ भौंको कुत्तो, तुम्हारा काम भौंकना है, मेरा काम सोना है। तुम भौंको, हम सोते हैं।’ और शांति से सुनें। कुत्तों के भौंकने में भी एक रस है।

उन्होंने कहा, क्या कह रहे हैं! मैंने कहा, आप कोशिश करके देख लें। आप अपनी कोशिश करके देख लिये, उससे कुछ हल नहीं हो रहा है, आधी रात हो गयी। कुत्तों के भौंकने में भी एक रस है। वहां भी परमात्मा ही भौंक रहा है। यह भी परमात्मा का एक रूप है। इसको स्वीकार कर लें। इसके साथ विरोध छोड़ दें। इसे अंगीकार कर लें कि ठीक है तुम भी भौंको और हम भी सोये। दुनिया बड़ी है। तुम्हारे लिए भी जगह है, मेरे लिए भी जगह है। परमात्मा बहुत बड़ा है, सबको संभाले है।

उन्होंने कहा, अच्छा चलो करके देख लेते हैं। राजी तो वे नहीं दिखाई पड़े। लेकिन कोई उपाय भी न था, तो करके देख लिया। कोई आधा घंटे बाद वे तो घुर्राने लगे। मैं गया। मैंने उनको हिलाया। मैंने कहा, क्या मामला है? बोले, हद हो गयी, अब आपने फिर जगा दिया। किसी तरह मेरी नींद लगी थी।

मैंने कहा, अब तो आपको तरकीब हाथ में लग गयी, अब कोई अड़चन नहीं है। मगर नींद लग गयी थी, यह मैं जान लेना चाहता हूं। क्योंकि आप घुर्रा रहे थे। उन्होंने कहा, काम तो की बात, क्योंकि जैसे ही मैं शिथिल हो कर पड़ गया हूं….. .मैंने कहा ठीक है। कुत्ते भौंकते हैं, भौंकते हैं।

ऐसी सहज स्वीकृत दशा है ध्यान। तुम जाग कर देखो : जो हो रहा है हो रहा है। हवाई जहांज भी चलेंगे, ट्रेन भी गुजरेगी, मालगाडिया शंटिंग भी करेंगी, ट्रक भी गुजरेंगे, बच्चे रोके भी, स्त्रियां बर्तन भी गिरायेंगी, पोस्टमैन दरवाजा भी खटखटाएगा—यह सब होगा।

एकाग्रता के कारण लोग जंगल भाग— भाग कर गये। उनको ध्यान का पता नहीं था; नहीं तो ध्यान तो यहीं हो जायेगा।

मैं एक अमरीकी मनोवैज्ञानिक का जीवन पढ़ रहा था। वह पूरब आना चाहता था विपस्सना ध्यान सीखने। तो बर्मा में सबसे बड़ा विपस्सना का स्कूल है—बौद्धों के ध्यान का। तो उसने तीन सप्ताह की छुट्टी निकाली। बड़ी तैयारियां करके रंगून पहुंचा। बड़ी कल्पनाएं ले कर पहुंचा था कि किसी पहाड़ की तलहटी में, कि घने वृक्षों की छाया में, कि झरने बहते होंगे, कि पक्षी कलरव करते होंगे, कि फूल खिले होंगे—स्वात में तीन सप्ताह आनंद से गुजारूंगा। यह न्यूयार्क का पागलपन.,! तीन सप्ताह

के लिए बड़ा प्रसन्न था। लेकिन जब उसकी टैक्सी जा कर आश्रम के सामने रुकी तो उसने सिर पीट लिया। वह रंगून के बीच बाजार में था, मछली बाजार में। बास ही बास और उपद्रव ही उपद्रव, सब तरफ शोरगुल और मक्खियां भिनभिना रही हैं और कुत्ते भौंक रहे और आदमी सौदा कर रहे हैं और स्त्रियां भागी जा रही हैं, और बच्चे चीख रहे हैं। यह आश्रम की जगह है? उसके मन में तो हुआ कि इसी वक्त सीधा वापिस लौट जाऊं। लेकिन तीन दिन तक कोई लौटने के लिए हवाई जहांज भी न था। तो उसने सोचा अब आ ही गया हूं तो कम से कम इन सदगुरु के दर्शन तो कर ही लूं! यह किन सदगुरु ने यह आश्रम खोल रखा है यहां? यह कोई जगह है आश्रम खोलने की?

भीतर गया तो बड़ा हैरान हुआ। सांझ का वक्त था और कोई दो सौ कौए आश्रम पर लौट रहे, क्योंकि सांझ को बौद्ध भिक्षु भोजन करके उनको कुछ फेंक देते होंगे चावल इत्यादि। तो वे सब वहां….. बड़ा शोरगुल। कौए, महाराजनीतिज्ञ, बड़े विवाद में लगे। शास्त्रार्थ चल रहा है। और कौए तो शिकायत ही करते रहते हैं। उनको कभी किसी चीज से शांति तो मिलती नहीं। भ्रष्ट योगी हैं। शिकायत उनका धंधा है। वे एक—दूसरे से शिकायत में लगे हुए, चीख—चीत्कार मच रहा है।

उसने कहा……। और वहीं भिक्षु ध्यान करते हैं। कोई टहल रहा, जैसा बौद्ध टहल कर ध्यान करते हैं। कोई वृक्ष के नीचे शांत बैठा ध्यान कर रहा है। खड़ा हो कर एक क्षण देखता रहा, बात कुछ समझ में नहीं आयी, बड़ी विरोधाभासी लगी। लेकिन भिक्षुओं के चेहरों पर बड़ी शांति भी है। जैसे यह सब कुछ हो ही नहीं रहा है, या जैसे ये कहीं और हैं, किसी और लोक में हैं जहां ये सब खबरें नहीं पहुचतीं या पहुंचती हैं तो कोई विक्षेप नहीं है। इन भिक्षुओं के चेहरों को देख कर उसने सोचा तीन दिन तो रुक ही जाऊं।

वह गुरु के पास गया तो गुरु से उसने यही कहा कि यह क्या मामला है? यह कहां जगह चुनी आपने? तो गुरु ने कहा : रुको, तीन सप्ताह बाद अगर तुम फिर यही प्रश्न पूछोगे तो उत्तर दूंगा। तीन सप्ताह रुक गया। पहले तो तीन दिन के लिए रुका, लेकिन तीन दिन में लगा कि बात में कुछ है। एक सप्ताह रुका। एक सप्ताह रुका तो पता चला कि धीरे— धीरे यह बात कुछ अर्थ नहीं रखती कि बाजार में शोरगुल हो रहा है, ट्रक जा रहे हैं, कारें दौड़ रहीं, कौए कांव—कांव कर रहे, कुत्ते भौंक रहे, मक्खियां भिनभिना रहीं, ये सब बातें कुछ अर्थ नहीं रखतीं। तुम कहीं दूर लोक में जाने लगे। तुम कहीं भीतर उतरने लगे, कोई चीज अटकांव नहीं बनती।

दूसरे सप्ताह होते —होते तो उसे याद ही नहीं रहा। तीसरे सप्ताह तो उसे ऐसे लगा कि अगर ये कौए यहां न होते, ये कुत्ते यहां न होते, यह बाजार न होता, तो शायद ध्यान हो ही नहीं सकता था। क्योंकि इसके कारण एक पृष्ठभूमि बन गयी। तब उसने गुरु को कहा कि मुझे क्षमा करें। मैंने जो शिकायत की थी वह ठीक न थी। वह मेरी जल्दबाजी थी।

गुरु ने कहा. बहुत सोच कर ही यह आश्रम यहां बनाया है। जान कर ही यहां बनाया है। क्योंकि विपस्सना का प्रयोग ही यही है कि जहां बाधा पड़ रही हो वहा बाधा के प्रति प्रतिक्रिया न करनी। प्रतिक्रिया—शून्य हो जाये चित्त, तो शांत हो जाता है।

‘उपशांत हुए योगी के लिये न विक्षेप है और न एकाग्रता है। न अतिबोध है और न मूढ़ता है।’ यह सुनो अदभुत वचन! कि जो सच में शांत हो गया है वह कोई महाज्ञानी नहीं हो जाता, क्योंकि

वह भी अतिशयोक्ति होगी। वह भी अतिशय हो जायेगा। जो शांत हो गया है वह तो संतुलित हो जाता है। वह तो मध्य में ठहर जाता है। न तो मूड रह जाता है और न ज्ञानी। तो न तो अतिबोध और न अति मूढ़ता; वह दोनों के मध्य में शांत चित्त खड़ा होता है। तुम उसे मूढ़ भी नहीं कह सकते, उसे पंडित भी नहीं कह सकते। वह तो बड़ा सरल, संतुलित होता है, मध्य में होता है। उसके जीवन में कोई अति नहीं रह जाती। कोई अति नहीं रह जाती! न तुम उसे हिंसक कह सकते न अहिंसक। ये दोनों अतियां हैं। न तुम उसे मित्र कह सकते न शत्रु। ये दोनों अतियां हैं। वह अति से मुक्त हो जाता है। और अति से मुक्त हो जाना ही मुक्त हो जाना है। उसे न सुख है न दुख है। वह द्वंद्व के पार हो जाता है।

साधारणत: लोग सोचते हैं. जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो हम महाशानी हो जायेंगे। नहीं, जब ज्ञान उत्पन्न होगा, तब न तो तुम ज्ञानी रह जाओगे और न मूढ़। जब ज्ञान उत्पन्न होगा तो तुम इतने शांत हो जाओगे कि ज्ञान का तनाव भी न रह जायेगा। तुम ऐसा भी न जानोगे कि मैं जानता हूं। यह बात भी चली जायेगी। तुम जानोगे भी और जानने का कोई अहंकार भी न रह जायेगा। तुम जानते हुए ऐसे हो जाओगे जैसे न जानते हुए हो। मूढ़ और ज्ञानी के मध्य हो जाओगे। कुछ—कुछ मूढ़ जैसे—जानते हुए न जानते हुए से। कुछ—कुछ ज्ञानी जैसे—न जानते हुए में जानते हुए से। ठीक बीच में खड़े हो जाओगे। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम संयम। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम सम्यकत्व। इस मध्य में खड़े हो जाने का नाम संगीत।

बुद्ध ने कहा है कि अगर वीणा के तार बहुत ढीले हों तो संगीत पैदा नहीं होता। और अगर वीणा के तार बहुत कसे हों तो वीणा टूट जाती है, तो भी संगीत पैदा नहीं होता। एक ऐसी भी दशा है वीणा के तारों की कि जब न तो तार कसे होते, न ढीले होते; ठीक मध्य में होते हैं। वहीं उठता है संगीत। जीवन की वीणा के संबंध में भी यही सच है।

‘निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिए राज्य और भिक्षावृत्ति में, लाभ और हानि में, समाज और वन में फर्क नहीं है।’

न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।

न सुखं न च वा दु:खमुपशांतस्य योगिन:

स्वराज्ये भैक्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने

निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोउस्ति योगिन:।

ऐसा जो शांत हो गया, मध्य में ठहर गया, संतुलित हो गया, ऐसे अंतरसंगीत को जो उपलब्ध हो गया—ऐसे निर्विकल्प स्वभाव वाले योगी के लिए फिर न राज्य में कुछ विशेषता है, न भिक्षावृत्ति में। ऐसा योगी अगर भिक्षा मांगते मिल जाये तो भी तुम सम्राट की ज्ञान उसमें पाओगे। और ऐसा व्यक्ति अगर सम्राट के सिंहासन पर बैठा मिल जाये तो भी तुम भिक्षु की स्वतंत्रता उसमें पाओगे।

ऐसा व्यक्ति कहीं भी मिल जाये, तुम अगर जरा गौर से देखोगे तो तुम उसमें दूसरा छोर भी संतुलित पाओगे। सम्राट होकर वह सिर्फ सम्राट नहीं हो जाता; वह किसी भी क्षण छोड़ कर चल सकता है। और भिक्षु हो कर वह भिक्षु नहीं हो जाता, दीन नहीं हो जाता। भिक्षु में भी उसका गौरव मौजूद होता है और सम्राट में भी उसका शांत चित्त मौजूद होता है। भिक्षु और सम्राट से कुछ फर्क नहीं पड़ता। ऐसे व्यक्ति को ‘विशेष न अस्ति’ कोई चीज विशेष नहीं है। फिर वह समाज में हो कि वन में, कोई भेद नहीं, तुम ऐसे व्यक्ति को भीड़ में भी अकेला पाओगे। और तुम ऐसे व्यक्ति को जंगल में बैठा हुआ पाओगे तो भीड़ से दूर न पाओगे, विपरीत न पाओगे। दुश्मन न पाओगे। ऐसा व्यक्ति भीड़ से डर कर नहीं चला गया है जंगल में। ऐसे व्यक्ति को तुम जंगल से भीड़ में ले आओ कि भीड़ से जंगल में ले जाओ, कोई फर्क न पड़ेगा। ऐसा व्यक्ति अब अपने भीतर ठहर गया है। कोई चीज कंपाती नहीं।

स्वराज्ये भैक्यवृत्ता…..!

चाहे राज्य हो चाहे भिक्षा।

लाभालाभे…..।

चाहे लाभ हो चाहे हानि।

जने वा वने……।

चाहे जंगल चाहे भीड़।

निर्विकल्पस्वभावस्य योगिन:

योगी तो निर्विकल्प बना रहता है।

उसका कोई चुनाव नहीं है। वह ऐसा भी नहीं कहता कि ऐसा ही हो। हो जाये तो ठीक, न हो जाये तो ठीक। ऐसा हो तो ठीक, अन्यथा हो तो ठीक। उसने सारी प्रतिक्रिया छोड़ दी। वह अब वक्तव्य ही नहीं देता। वह जो घटता है, उसे घट जाने देता है। उसकी अब कोई शिकायत नहीं है। सब उसे स्वीकार है। तथाता। सब उसे अंगीकार है।

‘यह किया है और यह अनकिया है, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म है, कहां काम है, कहां अर्थ, कहां विवेक?’

क्य धर्म: क्य च वा काम: क्य चार्थ क्य विवेकिता।

इदं कृतमिद नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिन:।

हम तो इसी में पड़े रहते हैं कि क्या किया और क्या नहीं किया; क्या कर पाये और क्या नहीं कर पाये—हिसाब लगाते रहते हैं। गणित बिठाते रहते हैं. इतना कमा लिया, इतना नहीं कमा पाये; यह—यह विजय कर ली, यह—यह बात में हार गये; यहां —यहां सफलता मिल गयी, यहां—यहां असफल हो गये। चौबीस घंटे चिंतन चल रहा है—क्या किया, क्या नहीं किया! मरते—मरते दम तक आदमी यही सोचता रहता है : क्या किया, क्या नहीं किया।

एंड्रू कारनेगी, अमरीका का बहुत बड़ा करोड़पति, मर रहा था तो मरते वक्त उसने आंख खोली और कहा कि मुझे ठीक—ठीक बता दो कि मैं कितनी संपत्ति छोड़ कर मर रहा हूं। उसके सेक्रेटरी ने, जल्दी से भागा, फाइलों में से हिसाब लगाया, और ऐसा लगता है एंड्रू कारनेगी अटका रहा, उसकी सांस अटकी रही। जब उसने आ कर कह दिया कि कोई दस अरब रुपये छोड़ कर आप मर रहे हैं तो एंड्रू कारनेगी मरा, और वह भी बहुत सुख से नहीं। क्योंकि उसने कहा : ‘मैंने तो सोचा था कम से कम सौ अरब रुपये कमा कर जाऊंगा। मैं एक हारा हुआ आदमी हूं।’

दस अरब रुपये छोड़ कर मरने वाला आदमी भी सोचता है हारा हुआ हूं! ठीक है, अगर सौ अरब कमाने थे तो नब्बे अरब से हार हो गयी। हार भारी है! ऐसा लगता है दस अरब रुपये जैसे दस

रुपये भी नहीं हैं। ऐसा विषाद से भर कर गया यह आदमी। और जीवन भर दौड़ता रहा।

उसके सेक्रेटरी ने लिखा है कि अगर मुझे भगवान कहे कि तुम्हें एंड्रू कारनेगी होना है कि एंड्रू कारनेगी का सेक्रेटरी, तो मैं सेक्रेटरी ही होना पसंद करूंगा। क्यों? क्योंकि मैंने इससे ज्यादा परेज्ञान व्यस्त आदमी नहीं देखा। चौबीस घंटे लगा है।

कहते हैं कि एंड्रू कारनेगी एक दफा अपने बेटे को न पहचान पाया। दफ्तर में बैठा था और एक युवा निकला तो उसने अपने सेक्रेटरी को पूछा कि यह कौन है?

‘आपने हद कर दी….. आपका बेटा!’

‘अरे, मुझे फुर्सत कहां?’

कभी अपने बेटों के पास बैठने की, बात करने की, चीत करने की, कभी उनके साथ खेलने की, छुट्टियों में किसी पहाड़ पर जाने की फुर्सत कहां। धन ही धन, एक ही दौड़। धन से आंख अंधी। अपना बेटा भी नहीं दिखाई पड़ता।

मुल्ला नसरुद्दीन अदालत में खड़ा था और मजिस्ट्रेट ने उससे कहा : नसरुद्दीन, यह अजीब बात है कि तुमने बॉक्स तो चुराया, मगर पास ही में जो नोट रखे हुए थे उनको नहीं लिया। इसका राज क्या है?

नसरुद्दीन ने कहा. खुदा के लिए इस बात का जिक्र न कीजिए। मेरी बीबी इसी गलती के लिए सप्ताह भर मुझसे लड़ती रही है। अब आप फिर वही उठाये दे रहे हैं।

बॉक्स तो चुरा लिया, उसके पास जो रुपये रखे थे, बीबी लड़ती रही सात दिन तक कि वह क्यों नहीं लाये? वह मजिस्ट्रेट से कह रहा है। खुदा के लिए यह बात फिर मत उठाइए। अब हो गयी भूल हो गयी। बॉक्स चुराया, यह कोई भूल नहीं; वे जो रुपये पास में रखे थे, वह नहीं चुराया। भूल हो गयी, क्षमा करिये, अब दोबारा यह बात मत उठाइये। सात दिन सुन—सुन कर सिर पक गया। पत्नी यही बार—बार कहती है, बार—बार उठाती है कि वे रुपये’ क्यों छोड़ कर आये?

तुम्हारी जिंदगी इसी तरह के हिसाब में लगी है. क्या कर लिया, क्या नहीं किया। पूरी जिंदगी तुम यही जोड़ते रहोगे? और जब जाओगे, खाली हाथ जाओगे। सब किया, सब अनकिया, सब पड़ा रह जायेगा। किया तो व्यर्थ हो जाता है, न किया तो व्यर्थ हो जाता है।

‘यह किया यह अनकिया, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म!’

उसके लिए तो धर्म तक का कोई अर्थ नहीं रह जाता। क्योंकि धर्म का तो अर्थ ही होता है : जो करना चाहिए, वही धर्म। अधर्म का अर्थ होता है. जो नहीं करना चाहिए!

सुनते हो इस क्रांतिकारी वचन को? ऐसे व्यक्ति के लिए धर्म का भी कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि अब करने, न करने से ही झंझट छुड़ा ली। अब तो साक्षीभाव में आ गये। ऐसे व्यक्ति के लिए कहां धर्म, कहां काम, कहां अर्थ, कहां विवेक! विवेक तक की कोई जरूरत नहीं है। अब ऐसा व्यक्ति डिसक्रिमिनेशन भी नहीं करता कि क्या अच्छा, क्या बुरा; क्या कर्तव्य, क्या अकर्तव्य; कौन—सी बात नीति, कौन—सी बात अनीति। ये सब बातें व्यर्थ हुईं। द्वंद्व गया और इस द्वंद्व के जाने पर जो पीछे शेष रह जाती है शांति, वही शांति है, वही संपदा है।

इर्द कृतं इदं न कृतं द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिन:।

यह किया, यह नहीं किया, ऐसे द्वंद्व से जो मुक्त हो गया वही योगी है। जो किया उसने किया और जो नहीं किया उसने किया—परमात्मा जाने! जो साक्षी हो गया वही योगी है।

कृत्य किमपि न एव न कापि हृदि रंजना।

यथा जीवनमेवेह जीवन्दुक्तस्य योगिन:।।

‘जीवनमुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है।’

देखते हैं आग्नेय वचन, जलते हुए अग्नि के अंगारों जैसे वचन! इनसे ज्यादा क्रांतिकारी उदघोष कभी नहीं हुए।

‘जीवनमुक्त योगी के लिए कर्तव्य कर्म कुछ भी नहीं है और न हृदय में कोई अनुराग है। वह इस संसार में यथाप्राप्त जीवन जीतो है।’

जैसा जीवन है, वैसा है। जो मिला, मिला। जो नहीं मिला, नहीं मिला। जो हुआ, हुआ; जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। वह हर हाल खुश है, हर हाल सुखी है।

यथा जीवनमेवेह……।

जैसा जीवन है उससे अन्यथा की जरा भी आकांक्षा नहीं है। जैसा जीवन है वैसा ही जीवन है। तुम अन्यथा की आकांक्षा किये चले जाते हो। तुम्हारे पास दस रुपये हैं तो चाहते हो बीस हो जायें। बीस रुपये हैं, तो चाहते हो चालीस हो जायें। कुछ फर्क नहीं पड़ता; चालीस होंगे, तुम चाहोगे अस्सी हो जायें। निन्यानबे का फेर तो तुम जानते ही हो। मगर यह धन के संबंध में ही लागू होता तो भी ठीक था।. .तुम्हारा चेहरा सुंदर नहीं है, सुंदर हो जाये। तुम्हारा चरित्र सुंदर हो जाये, सुशील हो जाये। तुम महात्मा हो जाओ। बात वही की वही है। तुम जैसे हो वैसे में राजी नहीं; महात्मा होना है। यह क्या क्षुद्रात्मा! यह क्या पड़े घर—गृहस्थी में। तुम्हें तो बुद्ध—महावीर होना है! कुछ होना है! कुछ हो कर रहना है! जो तुम हो उसमें तुम राजी नहीं।

और खयाल रखना, जो तुम हो उसमें अगर राजी हो जाओ, तो ही तुम बुद्ध होते हो, तो ही तुम महावीर होते हो। महात्मा कोई लक्ष्य नहीं है जिसे तुम पूरा कर लोगे। महात्मा का अर्थ है जो जैसा है वैसे में राजी हो गया। ऐसी परम तृप्ति, कि अब इससे अन्यथा कुछ भी नहीं होना है। जो उसने बनाया, जैसा उसने बनाया। जो वह दिखा दे, देख लेंगे। जो वह करा दे, कर लेंगे। जब उठा ले, उठ जायेंगे। जब तक रखे, रहे रहेंगे। जैसा खेल खिला दे, खेलेंगे। ऐसी जो भावदशा है वही महात्मा की, महाशय की दशा है।

यह सूत्र बहुत मनन करना। ध्यान करना।

कृत्य किमपि न एव।

नहीं कोई कृत्य है।

न कापि हृदि रंजना।

और न हृदय में कुछ आकांक्षा है कि ऐसा ही हो, ऐसा कोई राग नहीं, ऐसा कोई अनुराग नहीं, ऐसा कोई मोह नहीं, ऐसी कोई ममता नहीं, आकांक्षा नहीं।

यथा जीवनमेवेह।

जैसा जीवन है, है। बस, ऐसे ही जीवन से मैं राजी हूं। इस राजीपन का नाम : योग।

जीवन्दुक्तस्य योगिन:।

और ऐसा व्यक्ति ही जीवन के सारे जाल से मुक्त हो जाता है।

इस एक सूत्र से सारा जीवन रूपांतरित हो सकता है। इस एक सूत्र में सब समाया है—सब वेदों का सार, सब कुरानों का सार। इस एक छोटे से सूत्र में सारी प्रार्थनाएं, सारी साधनाएं, सारी अर्चनाएं समाहित हैं। इस एक छोटे—से सूत्र का विस्फोट तुम्हारे जीवन को आमूल बदल सकता है।

बस जैसे हो वैसे ही प्रभु को समर्पित हो जाओ। कह दो कि बस, जैसी तेरी मर्जी। जैसा रखेगा, रहेंगे। जो करायेगा, करेंगे। भटकायेगा, भटकेंगे। नर्क में डाल देगा, नर्क में रहेंगे। मगर शिकायत न करेंगे।

जैसे ही शिकायत से तुम मुक्त हो गये, प्रार्थना का जन्म होता है। और जैसे ही जो है उससे तुम राजी हो गये कि फिर तुम्हारे जीवन में सच्चिदानंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचता। फिर परमात्मा ही परमात्मा का स्वाद है। फिर उसी—उसी की रसधार बहती है। फिर परम मंगल का क्षण आ गया।

इस सूत्र पर ध्यान करना। इस सूत्र का थोड़ा— थोड़ा स्वाद लेने की कोशिश करना। चौबीस घंटे जब भी याद आ जाये, इस सूत्र का थोड़ा उपयोग करना। चौबीस घंटे में हजारों मौके आते हैं जब यह सूत्र कुंजी बन सकता है। जहां शिकायत उठे वहीं इस सूत्र को कुंजी बना लेना। सब शिकायत के ताले इस सूत्र से खुल जा सकते हैं। और शिकायत गिर जाये तो मंदिर के द्वार खुले हैं, प्रभु उपलब्ध है।

तुम अपनी आकांक्षाओं, शिकायतों, अभिरुचियों, अनुरागों के कारण देख नहीं पा रहे, अंधे बने हो। यथा जीवन एव—बस ऐसा है जीवन, ऐसा है; इससे रत्ती भर भिन्न नहीं चाहिए।

जीसस ने सूली पर मरते वक्त यही सूत्र उदघोष किया है। आखिरी वचन में जीसस ने कहा. दाई विल बी डन। तेरी मर्जी पूरी हो, प्रभु! सूली तो सूली, मारे तो मारे। तेरी मर्जी से अन्यथा मेरी कोई मर्जी नहीं है। तेरी मर्जी के साथ मैं राजी हूं।

इसी क्षण जीसस समाप्त हो गये और क्राइस्ट का जन्म हुआ। इसी क्षण जीसस का मनुष्य रूप विदा हो गया, प्रभु—रूप पैदा हुआ। पुनरुज्जीवन हुआ। जीसस द्विज बने। जीसस ब्रह्मज्ञानी हो गये। इसी क्षण!

मंसूर को सूली लगायी गयी, हाथ—पैर काटे गये, तब भी वह हंस रहा था। आकाश की तरफ देख कर हंस रहा था। और किसी ने भीड़ में से पूछा कि तुम क्यों हंसते हो मंसूर, तुम्हें इतनी पीड़ा दी जा रही है?

उसने कहा : मैं इसलिए हंस रहा हूं कि ईश्वर यह हालत पैदा करके भी मेरे भीतर शिकायत पैदा नहीं कर पाया। मैं हंस रहा हूं। मैं ईश्वर की तरफ देख कर हंस रहा हूं कि कर ले तू यह भी, मगर मैं राजी हूं। तू किसी भी रूप में आये, तू मुझे धोखा न दे पायेगा। मैं तुझे पहचान गया। तू मौत की तरह आया है, स्वीकार है। मैं हंस रहा हूं ईश्वर की तरफ देख कर कि तूने धोखा तो खूब दिया, डर था कि शायद इसमें मैं धोखा खा जाता; लेकिन नहीं, तू धोखा नहीं दे पाया। मैं राजी हूं! अहोभाग्य है यह भी मेरा : तू आया तो सही, मृत्यु की तरह सही! तूने मेरी परीक्षा तो ली!

अग्निपरीक्षा तो उन्हीं की ली जाती है जो वस्तुत: योग्य हैं। तो कठिनाई को परीक्षा समझना। संकट को संकट मत समझना, चुनौती समझना और इस सूत्र को याद रखना। इस सूत्र के सहारे तुम जहां हो वहां से परमात्मा तक सेतु बन सकता है।

देखा न लक्ष्मणझूला—रस्सियों का झूला!

ऐसा यह सूत्र बहुत पतला धागा है, लेकिन इस धागे के सहारे तुम अंतिम यात्रा कर ले सकते हो।

हरि ओंम तत्सत्!


Filed under: अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--4) ओशो Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–18

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धर्म आविष्‍कार है—स्‍वयं का—प्रवचन—अठारहवां

प्रश्‍नसार:

1—कृष्ण कहते हैं कि मारो और महावीर कहते हैं कि हिंसा का विचार-मात्र हिंसा है। कृपया बतायें कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है?

2—बहुत समय से मैं आपके पास हूं और में बहुत अज्ञानी और निर्बुद्धि हूं—यह आप भली भांति जानते है। आपकी कहीं अनेक बाते मेरे सर के ऊपर से गुजर जाती है। परमात्‍मा की प्‍यास का मुझे कुछ पता नहीं? फिर मैं क्‍यों यहां हूं और यह ध्‍यान—साधना वगैरह क्‍या कर रही हूं?

3—जीवन व अस्‍तित्‍व के परम सत्‍यों की क्‍या निरपेक्ष अभिव्‍यक्‍त्‍िा संभव नहीं है?

4—किसी प्‍यासे को जब मैं आपके पाल लाती हूं तो वह मुझसे दूर हो जाता है। मुझे एक तड़प सी होती है।

लेकिन ‘तेरी जो मर्जी’ कहकर गा पड़ती हूं: ‘राम श्री राम जय जय राम।’

पहला प्रश्न:

कृष्ण कहते हैं कि मारो और महावीर कहते हैं कि हिंसा का विचार-मात्र हिंसा है। कृपया बतायें कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है?

श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ के प्रश्न अत्यंत अज्ञान से भरे हुए हैं। उस ऊंचाई पर तुलना काम नहीं आती। और तुलना करने वाला मन न तो महावीर को समझ सकेगा और न कृष्ण को समझ सकेगा। क्योंकि तुलना करने वाला मन दुकानदार का मन है, समझदार का नहीं।

ऐसा ही समझो कि जैसे एक गिलास में आधा जल भरा हुआ रखा हो और कोई कहे कि आधा गिलास खाली है और कोई कहे कि आधा गिलास भरा है, और तुम मुझसे पूछो कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है, तो तुम बात समझे ही नहीं। जो आधा खाली है वह आधा भरा भी है। जो आधा भरा है वह आधा खाली भी है। दोनों ने कहने के अलग-अलग ढंग चुने हैं। एक ने विधेय पर जोर दिया, एक ने निषेध पर जोर दिया। एक ने भरे हिस्से को देखा, एक ने खाली हिस्से को देखा। लेकिन दोनों ने ही सत्य की तरफ इशारा किया।

कृष्ण कहते हैं, कर्तृत्व तेरा नहीं है, परमात्मा का है। इसलिए मैं करनेवाला हूं, यह भाव ही छोड़ दे। यह भाव ही हिंसा है। मैं निमित्त-मात्र हूं; वह जो करवायेगा, मैं करूंगा; मैं बीच में न खड़ा होऊंगा। मैं कोई बाधा न डालूंगा।

मैं बांस की पोंगरी की तरह हो जाऊंगा; वह जो गायेगा, जो गुनगुनायेगा, उसकी मर्जी!

अगर ठीक से समझो तो कृष्ण ने यह नहीं कहा है कि तू मार; कृष्ण ने तो इतना ही कहा है, वह तुझे निमित्त बनाये मारने में तो मार। कृष्ण की गीता को इस दृष्टि से कभी देखा नहीं गया। सोचो कि अर्जुन की जगह कोई दूसरा व्यक्ति होता तो अंततः यह निष्कर्ष भी ले सकता था कि मैं संन्यास लेता हूं क्योंकि उसकी मर्जी संन्यास की है। अपने को सब भांति छोड़ देता और फिर कृष्ण से कहता कि क्षमा करें, अपने को सब भांति छोड़ रहा हूं, तो एक ही भाव उठता है कि संन्यास ले लूं। तो जब उसकी मर्जी संन्यास की है तो मैं कैसे लडूं? जब एक ही भाव सब श्वासों में मेरे गूंज रहा है कि छोड़ दूं सब, चला जाऊं वन-प्रांत में, तो जाता हूं। तो कृष्ण इनकार न करते कि तूने गलत किया। कृष्ण कहते, जो वह करवाये वही कर।

अर्जुन युद्ध किया, क्योंकि अर्जुन का सारा व्यक्तित्व क्षत्रिय का था। अर्जुन जो संन्यास की बात कर रहा था, वह ऊपर-ऊपर थी, बौद्धिक थी; वह वास्तविक न थी। अगर वास्तविक होती तो कृष्ण की गीता से वह संन्यास का ही सार लेता।

कृष्ण की गीता में ठीक-ठीक निर्देश नहीं है कि क्या करो; कृष्ण की गीता में तो इतना ही निर्देश है कि तुम मत करो, उसे करने दो। फिर अगर उसने यही चुना है कि तुमसे हजारों लोगों को कटवा दे, तो उसकी मर्जी! तुम यह मत सोचना कि तुम कर रहे हो। तुम अपने को सब भांति समर्पित करो।

कृष्ण की भाषा समर्पण की भाषा है। तुम इस भांति शून्यवत खड़े हो जाओ कि जहां उसकी हवाएं ले जायें वहीं चले जाओ। तुम तैरो मत–बहो।

जब अर्जुन ने अपने को छोड़ा तो तत्क्षण उसका संन्यास का भाव विदा हो गया। वह युद्ध के लिए तत्पर हो गया। उसने गांडीव फिर उठा लिया। क्योंकि वह बांसुरी बनी ही उसके लिए थी। वही गीत अर्जुन गा सकता था। अर्जुन योद्धा था, क्षत्रिय था। वह परमात्मा का सैनिक ही हो सकता था, परमात्मा का संन्यासी नहीं हो सकता था। वह उसकी नियति थी।

इसलिए तुम…यह प्रश्न किसी जैन ने पूछा है, इसलिए वह कहता है, “कृष्ण कहते हैं कि मारो।’ कृष्ण कहते नहीं कि मारो। कृष्ण न कहते कि मत मारो। कृष्ण इतना ही कहते हैं, जो करवाये…! तुम निर्णय न लो, उसी को निर्णय दो। बागडोर उसके हाथ में दे दो। तुम शून्यवत खड़े हो जाओ। और जो अंतर्तम से उठे, जो उसकी आवाज आये उसी दिशा में चल पड़ो। कृष्ण का मार्ग समर्पण का है। अर्जुन युद्ध में गया, क्योंकि सब भांति अपने को शून्य करके उसने यही पाया कि यही आवाज आती है कि “कर्तव्य को पूरा कर! अब फिर मैं क्या कर सकता हूं?’

महावीर कहते हैं, हिंसा का भाव-मात्र हिंसा है। कृष्ण भी यही कहते हैं अगर तुम समझने की कोशिश करो। कृष्ण तो यह भी कहते हैं कि हिंसा का भाव तो हिंसा है ही, अहिंसा तक का भाव कि मैं अहिंसा करता हूं, हिंसा है। मैं करता हूं, इसमें हिंसा है। जोर कृत्य पर नहीं है, कर्ता पर है। मैं हूं, यही हिंसा है। “मैं’ को हटा लो, अहिंसा हो जाएगी।

अर्जुन युद्ध में लड़कर भी अहिंसक रहा, हिंसक नहीं है। क्योंकि जिसने अपना कर्तव्य ही हटा लिया, जिसने अपना कर्ता-भाव ही हटा लिया, उसको अब तुम कर्म के लिए दोषी न ठहरा सकोगे। दोनों एक ही बात कह रहे हैं। कृष्ण का जोर है कि कर्ता-भाव गिरा दो, और महावीर का जोर है कि कर्म को रूपांतरित कर दो।

अब थोड़ा समझना। अगर तुम हिंसक कर्मों को छोड़ते चले जाओ तो तुम्हारा “मैं’ गिरने लगेगा, क्योंकि “मैं’ बिना हिंसा के खड़ा नहीं रह सकता। “मैं’ के लिए हिंसा चाहिए–बड़ी सूक्ष्म हो, स्थूल हो, लेकिन हिंसा चाहिए।

पड़ोसी ने मकान बनाया, तुम बड़ा मकान बना लो–हिंसा हो गई। क्योंकि तुमने बड़ा मकान सिर्फ बनाया इसलिए कि अब पड़ोसी को नीचा दिखाना है। यह इसने इतनी हिम्मत कैसे की कि मेरे रहते इतना बड़ा मकान पड़ोस में खड़ा कर दिया। अब चाहे सारा जीवन दांव पर लग जाये, बड़ा मकान बनाकर दिखाना है। तो तुमने बड़ा मकान बनाया, “मैं’ को बड़ा किया–हिंसा हो गई।

तुम किसी आदमी के पास से अकड़कर निकल गये–हिंसा हो गई। हिंसा तुम्हारी जहां भी “मैं’ की धारा गहरी होती है, वहीं हो जाती है।

तो महावीर ने कहा, कर्मों को छोड़ो, जिनसे हिंसा होती है। जिनसे दूसरे को चोट लगती है, वह छोड़ो। जिनसे दूसरों को दुख होता है, वह छोड़ो। और तब तुम चकित होकर देखोगे कि जिससे दूसरे को चोट लगती है, उसी से तुम्हारा अहंकार मजबूत होता है, और कोई उपाय नहीं है। भोजन ही अहंकार का यही है कि दूसरे को चोट लगे। सांस्कृतिक, सभ्य ढंग से लगे कि असभ्य ढंग से लगे; तुम किसी को गाली दो कि किसी का व्यंग्य करो; तुम किसी को जिंदगी के युद्ध में पछाड़ दो, गिरा दो; या तुम त्याग के युद्ध में किसी को हरा दो कि तुम किसी को अपने से छोटा त्यागी करके सिद्ध कर दो–कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम कोई भी माध्यम चुनो, जिस माध्यम से भी दूसरे को दुख हो सकता है, वह माध्यम हिंसा है। और हिंसा से “मैं’ मजबूत होता है।

तो महावीर कहते हैं, हिंसा के सारे कृत्य छोड़ दो। हिंसा का भाव तक छोड़ दो, कृत्य की तो बात अलग। क्योंकि भाव भी काफी है; वह भी भोजन बन जायेगा, वह भी अहंकार को मजबूत करेगा। जब तुमने हिंसा के सब भाव, कृत्य छोड़ दिये, तुम अचानक पाओगे तुम्हारा “मैं’ धूल-धूसरित हो गया, गिर पड़ा, समाप्त हो गया।

यह महावीर की प्रक्रिया है: कर्म के विसर्जन से कर्ता का विसर्जन! निश्चित ही यह प्रक्रिया क्रमिक होगी। एक-एक कर्म को ध्यान रखकर, साधना साधनी होगी, एक-एक कर्म का हिसाब रखकर चलना होगा, क्योंकि बड़े सूक्ष्म हैं कर्म…जरा-सी आंख का इशारा और हिंसा हो जाती है। तो बड़ी लंबी प्रक्रिया है, संकल्प का मार्ग है। इंच-इंच लड़ना होगा, पहाड़ चढ़ना होगा।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा एक-एक कर्म को छोड़ोगे फुटकर-फुटकर, लंबा समय लग जायेगा। और फिर कृष्ण और अर्जुन के बीच समय था भी नहीं। कृष्ण की जो गीता है, वह एक विशेष परिस्थिति में कही गई है। महावीर अपने शिष्यों से बोल रहे थे चालीस साल तक। कृष्ण की गीता तो क्षणों में हो गई। ये कोई साधारण क्षण न थे, बड़े असाधारण क्षण थे। बड़ी संकट की स्थिति थी। यहां अगर एक-एक कर्म को छोड़ने के लिए कृष्ण कहें, समय ही न था। युद्ध द्वार पर खड़ा था। युद्ध सामने खड़ा था। शंख बज गये थे। युद्ध की घोषणा हो गई थी। योद्धा एक-दूसरे के सामने अड़े थे। अर्जुन ने भी कहा था, मेरे रथ को ले चलो बीच युद्ध में। और कृष्ण युद्ध के बीच में रथ को ले आये थे। ठीक उस क्षण में जब युद्ध सामने था, क्षणभर की देर न थी, शंख फूंके जा रहे थे, युद्ध शुरू होने के करीब था, जल्दी ही मार-धाड़ होगी–तभी अर्जुन को दिखाई पड़ा, रोमांचित हो आया, एक पुलक हुई। उसे लगा, यह तो व्यर्थ है। इतना युद्ध, इतनी हिंसा–क्या सार है? उसके हाथ ढीले पड़ गये, गात शिथिल हुए, गांडीव हाथ से छूट गया। वह थका-मांदा, डरा हुआ रथ में बैठ गया। उसने कृष्ण से कहा, मैं तो सोचता हूं कि सब छोड़कर चला जाऊं।

यह बड़े संकट का क्षण था। यहां कोई ऐसी प्रक्रिया जिसमें जन्मों-जन्मों लगते, साधना करनी पड़ती हो, काम की नहीं हो सकती थी। तो कृष्ण ने जो कहा, वह ऐसा था कि तत्क्षण हो सके, एक छलांग में हो सके।

संकल्प तो धीरे-धीरे होता है। संकल्प यात्रा है–सीढ़ी दर सीढ़ी, इंच-इंच, रत्ती-रत्ती। वह फुटकर काम है। समर्पण छलांग है–थोक, इकट्ठा। एक क्षण में भी हो सकता है।

महावीर जिन शिष्यों को बोल रहे थे, वे युद्ध के स्थल पर न थे। इस विशेष परिस्थिति को खयाल में रखना। तो कृष्ण यह तो कह नहीं सकते कि तू अपने कर्म बदल! कृष्ण यही कह सकते हैं कि अब ऐसी घड़ी में तू अपने कर्ता को ही रख दे। और कर्ता को रखने से भी वही हो जाता है। क्योंकि अंततः कर्मों को बदलने से कर्ता ही गिरेगा; तो जब कर्ता को ही गिराना है तो सीधा ही गिरा दो। कर्ता को ही छोड़ दो।

समर्पण भक्त का मार्ग है। वह कहता है, परमात्मा के चरणों में रख दो; कह दो कि मैं कुछ हूं नहीं, अब जो हो तेरी मर्जी! बुरा करवायेगा, बुरा करेंगे; अच्छा करवायेगा, अच्छा करेंगे। अब करना हमारा नहीं है।

लेकिन दोनों ही हालत में एक ही घटना घटती है। अंतिम परिणाम एक है। इसलिए जो ऐसा पूछता है कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है, वह गलत पूछता है। वह दोनों में से किसी को भी नहीं समझा। तुम अगर महावीर को समझ लो, कृष्ण समझ में आने ही चाहिए। अगर तुम कृष्ण को समझ लो और महावीर समझ में न आयें, तो कृष्ण समझ में नहीं आये। मेरे देखे जिसने एक अनुभवी को समझ लिया, उसने सब अनुभवियों को समझ लिया। फिर उसे भाषा, ढंग, अभिव्यक्ति, अभिव्यंजना के प्रकार, उलझाव में न डाल सकेंगे। फिर कोई चीज उसकी आंखों को धुंधला न कर सकेगी। लेकिन मैं देखता हूं कि जो महावीर के पक्ष में हैं, वे कृष्ण के विपक्ष में हैं। जो कृष्ण के पक्ष में हैं, वे महावीर के विपक्ष में हैं। जो महावीर के पक्ष में है, वह मुहम्मद के पक्ष में तो हो ही कैसे सकता है? जो मुहम्मद के पक्ष में है, वह कैसे महावीर की बात को बरदाश्त कर सकता है?

साफ है, इनमें से कोई भी समझा नहीं। इन्होंने शब्द पकड़ लिये हैं। ये लड़ रहे हैं एक-दूसरे से; क्योंकि एक कहता है गिलास आधा खाली है, और दूसरा कहता है गिलास आधा भरा है। ये सिर काटने-कटवाने को तैयार हैं। स्वभावतः भाषा में दोनों अलग-अलग मालूम पड़ते हैं। एक कहता है, आधा खाली है, तो जोर मालूम होता है खाली पर; एक कहता है आधा भरा है, तो जोर मालूम होता है भरे पर। अब खाली और भरा! विरोधाभासी हो गये। लेकिन जरा आधे का खयाल रखना। उस आधे में ही सारा सार है।

मेरे देखे दोनों की बातों में कोई गहरा अंतर नहीं है–हो नहीं सकता। तुम्हें न दिखाई पड़े तो अपनी आंखों पर थोड़े पानी के छींटे मारना। थोड़ा जागने की कोशिश करना।

जल्दी निर्णय मत लेना।

जब भी तुम्हें दो सत्पुरुषों में कोई विरोध दिखाई पड़े, तो पहली बात तो तुम यही सोचना कि मेरे देखने में कहीं भूल हुई जा रही है। इसे तुम गांठ में बांधकर रख लो। जब भी तुम्हें दो सत्पुरुषों में कोई विरोध दिखाई पड़े, तो पहली बात तो तुम यही सोचना कि मुझसे कहीं भूल हुई जा रही है; कहीं मेरे देखने, समझने में, कहीं मेरी चिंतना में, परिभाषा में, व्याख्या में, चूक हुई जा रही है। क्योंकि दो सत्पुरुष विपरीत बातें तो कह नहीं सकते–विपरीत कहें तो भी विपरीत कह नहीं सकते। उनकी विपरीतता में भी कहीं कोई तालमेल होगा। उनकी विपरीतता के बीच भी कोई सेतु होगा–होना ही चाहिए। इससे अन्यथा की कोई सुविधा नहीं है।

लेकिन तुम्हारा मन तो जैसे और संसार में चीजों के बाबत विचार करता है, तुलना करता है–कौन अच्छा, कौन बुरा, कौन सुंदर, कौन असुंदर, कौन ज्ञानी, कौन अज्ञानी–इन्हीं मूल्य-मापदंडों को लेकर तुम उस परम लोक में भी खड़े हो जाते हो। तो वहां भी कौन बड़ा, कौन छोटा, कौन आगे, कौन पीछे, किसने ज्यादा जाना, किसने कम जाना, किसका जानना ठीक, किसका गैर-ठीक–इस चिंतना में पड़ जाते हो। और इस सब चिंतना के भीतर एक बात तुम कभी सोचते ही नहीं कि मैंने अभी कुछ भी देखा नहीं है। तो जिन दो देखनेवालों ने कुछ कहा है, मैं न देखनेवाला, अंधा, कैसे तय करूं कि कौन ठीक कहता होगा? अगर तय ही करना हो तो देखकर ही तय करना–आंख खोलकर रोशनी से भरकर। तब तुम हंसोगे। ऐसा ही समझो कि इस बगीचे में एक कवि आ जाये और लौटकर तुम उससे पूछो, क्या देखा, और वह एक गीत गुनगुनाये। अब सभी तो गीत न गुनगुना सकेंगे। दूसरा भी कोई इस बगीचे में आये; उसको भी यही फूल मिलेंगे, यही वृक्ष होंगे, यही हवाएं होंगी, यही पक्षियों के गीत होंगे–लेकिन वह गीत गुनगुनाना नहीं जानता। वह भी जाकर कहेगा बाहर, क्या देखा। लेकिन स्वभावतः कवि के वक्तव्य में और उसके वक्तव्य में भेद हो जायेगा। कोई तीसरा आदमी, लकड़हारा आ जाये, तो वह यहां इस बगीचे में सिर्फ लकड़ियां देखेगा–कौन-कौन-सी लकड़ियां काटी जा सकती हैं। कौन आयेगा, कैसी भाषा लेकर आयेगा–इस पर निर्भर करेगा। फिर जब वह जाकर अपना वक्तव्य देगा तो तुम यह मत सोच लेना कि ये अलग-अलग वक्तव्य, अलग-अलग बगीचों के संबंध में हैं। ये वक्तव्य बिलकुल अलग-अलग होंगे, फिर भी ये एक ही बगीचे के संबंध में हैं।

सत्य एक है; जाननेवालों ने उसे बहुत ढंग से कहा है। क्योंकि जाननेवाला अपने ही ढंग से कहेगा। अब महावीर और मीरा के वक्तव्य में मेल नहीं हो सकता। मीरा है मदमस्त। मीरा है स्त्री, महावीर हैं पुरुष। मीरा कहेगी नाचकर, गुनगुनाकर। उसके पग के घूंघर बजेंगे। उस ढंग से कहेगी। महावीर न नाचेंगे, न पग में घूंघर होंगे, न गीत होगा। महावीर के वक्तव्य बिलकुल वैज्ञानिक होंगे, सूत्रबद्ध होंगे। जितना संक्षिप्त हो सकता है, उतना संक्षिप्त होगा। और इन दोनों के वक्तव्य की व्यवस्था अलग-अलग होगी, इससे तुम चिंता में पड़ जाओगे।

लेकिन तुमसे मैं एक बात कह देता हूं: तुम तब तक निर्णय मत लेना जब तक तुम न जान लो।

फिर तुम पूछोगे, “हम करें क्या? जानें कहां से?’

मैं कहता हूं, किसी को भी चुन लो। श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ का सवाल नहीं है। जो तुम्हें मौजू पड़ जाये, जो तुम्हें रास पड़ जाये, जिससे तुम्हारा मेल बैठ जाये–वही तुम्हारे लिए श्रेष्ठ है। नहीं तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। अगर तुम यह सोचने लगे कि तय ही नहीं करना है कि कौन श्रेष्ठ है, तो फिर हम चलें किसके साथ! जब तुम तय करना चाहते हो कौन श्रेष्ठ है, तो कौन श्रेष्ठ है, यह तय करने के लिए मत करना। तुम तो इतना ही तय करना, मेरे लिए कौन! “मेरे’ का खयाल रखना। वह वक्तव्य तुम्हारी सापेक्षता में है। नहीं अगर तुम तय न कर पाये तो तुम मुश्किल में पड़ोगे–

काबे से दैर, दैर से काबा

मार डालेगी राह की गर्दिश।

फिर मंदिर से मस्जिद, मस्जिद से मंदिर–राह की धूल ही मार डालेगी। कुछ तो तय करना ही पड़ेगा–मंदिर या मस्जिद। कहीं तो बैठकर प्रार्थना करनी है! कहीं तो पूजा करनी है!

तो अगर तुम ऐसे डावांडोल होने लगे तो मुश्किल हो जायेगा। अगर तुमने यह सवाल इसलिए पूछा है कि मेरे लिए कौन ठीक पड़ेगा, तब तो ठीक पूछा है। अगर महावीर और कृष्ण के बीच निर्णय करने को पूछा है, तो बिलकुल गलत पूछा है। हां, तुम्हारे लिए कोई एक ठीक पड़ेगा।

जिनको जीवन में संकल्प में रस है और जिनको समर्पण करना असंभव है, उनके लिए महावीर ठीक हैं। जिनके लिए समर्पण सुगम है और संकल्प कठिन है, उनके लिए कृष्ण ठीक हैं।

कृष्ण कहते हैं, मामेकं शरणं व्रजः। सब छोड़! सर्व धर्मान् परित्यज्य; छोड़-छाड़ सब धर्म! मेरी शरण आ जा! यही धर्म है, यही परम धर्म है।

महावीर कहते हैं, शरण भूलकर किसी की मत जाना। शरण गये कि उलझे। शरण गये कि दास बने। शरण से कहीं मोक्ष उपलब्ध होगा? यह शरण तो गुलामी है।

अशरण-भावना–महावीर का सूत्र है। अशरण-भावना। कोई शरण नहीं! कहीं कोई शरण नहीं है–अपने ही पैर पर खड़े होना है।

दोनों ठीक हैं। मगर दोनों एक साथ तुम्हारे लिए ठीक नहीं हो सकते। दोनों एक साथ मेरे लिए ठीक हैं। तुम्हें दो में से कोई एक चुनना पड़ेगा। अन्यथा–

काबे से दैर, दैर से काबा

मार डालेगी राह की गर्दिश।

धुआं, धूल, राह की आपाधापी में ही तुम नष्ट हो जाओगे: समय ही न बचेगा मंदिर में प्रवेश करने का कि मस्जिद में प्रवेश करने का। प्रार्थना करनी है तो कहीं तो चुनना ही होगा। लेकिन चुनाव का ध्यान रखना–”मेरे’ कारण चुन रहा हूं; उनमें कौन श्रेष्ठ है, इस कारण नहीं। सापेक्षता अपनी तरफ रखना। यह मैं दोनों को साथ नहीं चुन सकता। इतना बड़ा मेरे पास हृदय नहीं। इतनी विराट मेरी दृष्टि नहीं कि दोनों को साथ-साथ सम्हालूं! इतना मेरे घर में स्थान नहीं कि दोनों को साथ-साथ मेहमान बना लूं! यह मजबूरी मानकर चुनना कि घर छोटा है और एक को ही बुला सकता हूं।

जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन तो तुम पाओगे: दोनों एक ही सत्य के दो भिन्न चेहरे हैं। लेकिन तब तक तुम्हें निर्णय करना जरूरी है। और यह निर्णय बहुत जागरूक रहकर करना। यह निर्णय जन्म पर मत छोड़ देना कि तुम जैन घर में पैदा हुए तो महावीर तुम्हें श्रेष्ठ होने ही चाहिए। काश! चीजें इतनी आसान होतीं! कि तुम हिंदू घर में पैदा हुए, इसलिए कृष्ण तुम्हें श्रेष्ठ होने ही चाहिए। काश! जन्म ने इतना तय कर दिया होता तो मार्ग बड़ा सुगम हो जाता। लेकिन ऐसा कुछ भी तय नहीं होता। ऐसा कुछ भी तय होने का उपाय नहीं है।

जीसस यहूदी घर में पैदा हुए लेकिन यहूदियों का मार्ग न जमा। मुहम्मद मूर्ति-पूजक घर में पैदा हुए थे, लेकिन मूर्ति-पूजा का मार्ग न जमा। महावीर पैदा हुए थे तो राज-घर में, क्षत्रिय थे, युद्ध का ही शिक्षण मिला था; लेकिन युद्ध की भाषा, राजमहल, क्षत्रिय, राजनीति, न जमी। छोड़ सब, संन्यासी हो गये।

क्या तुम्हें जमेगा? जन्म से मत पूछना कि कहां हम पैदा हुए। वहां पूछा तो भटकाव का डर है। क्या तुम्हें जमेगा? थोड़ा सम्हलकर अपनी वृत्तियों का परीक्षण-निरीक्षण करना, विश्लेषण करना। अपने रस की धार को पहचानना। ज्यादा देर न लगेगी, थोड़े प्रयोग करने से साफ हो जायेगा कि कौन-सी बात जमती है। कौन-सा भोजन तुम्हें रास आता है, यह तुम्हें जल्दी ही पता चल जायेगा। जो भोजन रास आयेगा, उसे पाकर प्रफुल्लता मालूम होगी। जो भोजन रास न आयेगा, उसे ले लेने के बाद बोझ मालूम होगा; जैसे पेट पर पत्थर डाल दिये; मतली होगी। शरीर उसे बाहर फेंक देना चाहेगा। व्यवस्था उसे स्वीकार न करेगी।

ठीक ऐसा ही आत्मिक भोजन है। जब तुम्हें कोई मार्ग रास आ जाता है, तत्क्षण सब तरफ फूल खिलने लगते हैं। तुम प्रसन्न हो जाते हो। तुम प्रफुल्लित हो जाते हो। वह लक्षण है। अगर तुम सूख जाओ, उदास हो जाओ, दीन हो जाओ, तो बस बात खराब हो गई।

मैंने सुना है, एक पादरी, एक ईसाई धर्मगुरु, एक रास्ते से गुजर रहा था। अचानक बादल उठे, जोर की आंधी आई, बिजलियां चमकीं, वर्षा मूसलाधार होने लगी। तो वह भागकर पास के एक झाड़ के नीचे खड़ा हो गया। घनी छाया थी। झाड़ के नीचे एक बूढ़ा भी बैठा हुआ था। वह बूढ़ा प्रार्थना कर रहा था। उस धर्मगुरु ने खुद भी जिंदगीभर हजारों लोगों को प्रार्थना करवाई थी, खुद भी हजारों बार प्रार्थना की थी; लेकिन प्रार्थना में कभी रस न पाया था। करता था एक औपचारिक क्रिया-कांड। ईसाई घर में पैदा हुआ था, फिर ईसाई पादरी की तरह शिक्षित हो गया, तो दूसरों को भी करवाता था; लेकिन मन में कभी तरंग न उठी थी। इस बूढ़े को डोलते देखा। इस बूढ़े के टूटे-फूटे शब्द! लेकिन उसकी आंखों की मस्ती! उसके चेहरे पर एक आभामंडल! उसे पहली दफे लगा: अरे! तो प्रार्थना मैंने अब तक जानी नहीं! ऐसी शांत! ऐसी उपस्थिति! ऐसी पवित्र उपस्थिति उसने कभी अनुभव न की थी।

उस बूढ़े के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई थीं। बड़ा बूढ़ा था, काफी उम्र हो गई थी, नब्बे के करीब उम्र होगी। लकड़हारा था, लकड़ियों का ढेर बगल में रखा था। लौटता होगा शहर, वर्षा आ गई तो रुक गया। समय प्रार्थना का हो गया, तो प्रार्थना कर रहा था। जब प्रार्थना पूरी हो गई, तो पादरी ने बड़े अहोभाव से पूछा कि तुम्हारा ईश्वर से बड़ा प्रेम है! उस बूढ़े ने कहा, “हां, उसका भी मेरे प्रति बड़ा प्रेम है! सच कहूं तो वह मुझे काफी चाहता है।’

उस पादरी का जीवन मैं पढ़ रहा था। उसने लिखा है, प्रार्थना के संबंध में इससे अदभुत वचन मैंने अपने जीवन में कभी नहीं सुने थे। उस बूढ़े ने कहा कि अगर सच कहूं, तो वह मुझे काफी चाहता है।

प्रार्थना रास आ जाये, तुम्हारे रुझान में बैठ जाये, तो ऐसा ही नहीं कि तुम परमात्मा को चाहते हो, तत्क्षण तुम पाओगे: वह भी तुम्हें चाहता है। चाहत कोई एक तरफ थोड़े ही होती है! तुम उस तरफ से भी पाओगे: संवाद आने लगे, संदेश आने लगे। तुम उस तरफ से भी पाओगे: हजार-हजार रूपों में उसका प्रेम तुम पर बरसने लगा।

हां, अगर प्रार्थना जमे न, तो तुम्हीं करते रहोगे; दूसरी तरफ से कुछ भी न आयेगा। बोझ लगेगा। करना है, इसलिए कर लोगे। कर्तव्य है, इसलिए पूरा निपटा दोगे। सदा घर में होती रही इसलिए करना है, तो कर देते हैं। लेकिन पुलक न होगी। अहोभाव न होगा। आनंद न होगा।

और जिस प्रार्थना में अहोभाव न हो, उस प्रार्थना से कैसे तुम्हारी भूख मिटेगी।

तो ध्यान रखना, अपनी भीतर की दशा को पहचानना ज्यादा जरूरी है। महावीर ठीक हैं, श्रेष्ठ हैं, कि कृष्ण–यह बात तो फिजूल। तुम्हें महावीर जमते हैं? सिर्फ इसलिए नहीं कि तुम जैन घर में पैदा हुए हो। अगर सिर्फ इसलिए जमते हैं तो तुम भटकोगे। अगर सच में जमते हैं, ऐसे जमते हैं कि अगर तुम मुसलमान घर में भी पैदा होते तो भी तुम जैन मंदिर में ही प्रार्थना करने गये होते; ऐसे जमते हैं कि तुम चाहे हिंदू घर में पैदा होते, चाहे बचपन से गीता सुनी होती, लेकिन जिस दिन महावीर का शब्द तुम्हारे कान में पड़ता, सब गीता-वीता भूल जाते और तुम महावीर के पीछे दौड़ पड़ते–ऐसे जमते हैं तो फिर महावीर तुम्हारे लिए मार्ग हैं। नहीं ऐसे जमते हैं, इतने जोर की पुकार नहीं तुम्हारे भीतर पैदा होती उनके नाम को सुनकर, उनके नाम को सुनकर तुम्हारे हृदय में कोई घंटियां नहीं बजतीं, सुन लेते हो कि ठीक है, अपना धर्म है–तो फिर कुछ सार नहीं। फिर तुम कहीं और खोजो। फिर किसी और मंदिर के द्वार पर दस्तक दो।

धर्म हमेशा ही अपना चुना हुआ होता है, तो ही होता है। दुनिया अधार्मिक हो गई, क्योंकि धर्म को हम जन्म से तय करते हैं। धर्म कोई वसीयत थोड़े ही है। और धर्म का कोई खून, हड्डी, मांस-मज्जा से थोड़े ही संबंध है! धर्म कोई वांशिक “हेरिडिटरी’ थोड़े ही है कि तुम जैन घर में पैदा हुए तो तुम्हारा खून जैन का है। तो डाक्टर से जाकर जांच करवाकर देख लो कि जैन और हिंदू और मुसलमान के खून में…डाक्टर कुछ पता न बता सकेगा–कौन हिंदू का है, कौन जैन का है, कौन मुसलमान का है। हड्डी कोई हिंदू, जैन, मुसलमान नहीं होती। हिंदू, जैन, मुसलमान, तो तुम्हें निर्णय करना होगा।

लेकिन लोग कमजोर हैं, सुस्त हैं, काहिल हैं, कायर हैं। कौन झंझट में पड़े! इसलिए कोई भी बहाने से तय कर लेते हैं कि चलो ठीक है, जन्म से ही हो गया तय तो झंझट मिटी। खुद तो खोजने से बचे! खुद तो विवेक करने से बचे! कौन विश्लेषण करता, कौन खोजता, कहां जाते, किसको पूछते, मुफ्त तय हो गया–चलो ठीक है।

यह तो ऐसे ही है, जैसे रुपये को तुम फेंककर चित्त-पट्ट कर लो और सोचो कि इससे धर्म तय हो जायेगा। चित्त पड़े तो महावीर, पट्ट पड़ जाये तो कृष्ण। जैसा वो बेहूदा और अप्रासांगिक है, ऐसे ही जन्म भी बेहूदा और अप्रासांगिक है। कहां तुम पैदा हुए हो, इससे तुम्हारी जीवन-चिंतना और धारा का कोई संबंध नहीं है। तुम्हें अपना धर्म खोजना पड़े।

खोज से ही मिलता है धर्म। धर्म आविष्कार है। और जब कोई खुद खोजता है अपने धर्म को, तो उस खोज के कारण ही धर्म में एक रौनक होती है। जो व्यक्ति पहली दफा महावीर को खोजते हुए आये थे, उन्होंने जिस प्रकाश और महिमा का आनंद उठाया, वो जैन घर में पैदा हुए पच्चीस सौ साल बाद बच्चे थोड़े ही उठा रहे हैं!

जो महावीर को खोजते आये थे, जो दूर-दूर से प्यासे होकर आये थे, जिन्होंने तीर्थयात्रा की थी; जिन्होंने महावीर को चुना था सारे संकटों के बावजूद; जिन्हें महावीर की पुकार हृदय को छू गई थी, आंदोलित कर गई थी; जिन्होंने क्राइस्ट को चुना या मुहम्मद को चुना स्वेच्छा से, अंतरंग से…तो उतना खयाल रखना। और इतने ईमानदार रहना। क्योंकि अगर यहां बेईमानी हो गई, इस बुनियादी बात में बेईमानी हो गई, तो तुम सदा के लिए भटक जाओगे।

दूसरा प्रश्न भी इससे संबंधित है। “गुणा’ ने पूछा है:

बहुत समय से मैं आपके पास हूं और मैं बहुत अज्ञानी और निर्बुद्धि हूं, यह आप भलीभांति जानते हैं। आपकी कही अनेक बातें मेरे सिर पर से गुजर जाती हैं। आप परमात्मा से बिछुड़न की जिस पीड़ा की बात करते हैं, वह पीड़ा मुझे कभी हुई नहीं। परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं। फिर मैं क्यों यहां हूं और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हूं?

“गुणा’ की भी तकलीफ वही है जो मैंने अभी तुमसे कही। वह जैन घर में पैदा हुई है; इसलिए परमात्मा शब्द सार्थक नहीं है; प्यास शब्द भी सार्थक नहीं है। जैन घर की भाषा में परमात्मा और प्रार्थना के लिए कोई स्थान नहीं है। संस्कार जैन के हैं, प्राण जैन के नहीं हैं। ऊपर से सारी धारा बौद्धिकता से तो जैन की है, और भीतर के प्राण तो एक अत्यंत भावुक स्त्री के हैं।

कृष्ण से रंग बैठ सकता था। कृष्ण के साथ नाच हो सकता था। महावीर के साथ नाच बैठता नहीं। नाचो तो उपद्रव मालूम होगा महावीर के साथ। वहां नाच की कोई संगति नहीं है। वहां गीत, वाद्य की कोई संगति नहीं है। यही कठिनाई है।

इसलिए जब मैं कहता हूं, परमात्मा की प्यास, तो जैन सुन लेता है; लेकिन उसके भीतर कुछ होता नहीं। उसके सारे संस्कारों की पर्तें–कैसा परमात्मा! कैसी प्यास! मुझसे थोड़ा लगाव है तो सुन लेता है, बर्दाश्त कर लेता है। लेकिन ऐसे उसकी पर्तों के भीतर बात नहीं उतरती।

ठीक वैसा ही जब मैं कहता हूं–अशरण-भावना, संकल्प, स्वयं अपने पैरों पर खड़े हो जाना–जब मैं महावीर की बात करता हूं तो हिंदू सुन लेता है, मुझसे लगाव है। लेकिन वह सोचता है, कहीं न कहीं यह तो बड़ी अहंकार की ही बात हो रही है। अपने पैर पर खड़े होना–इसमें कुछ समर्पण तो है नहीं। सब परमात्मा पर छोड़ना है, और इसमें कोई समर्पण की बात नहीं है। मेल नहीं बैठता।

वही कठिनाई “गुणा’ की है। गुणा के पास एक भावुक हृदय है, जो नाच सकता है, गा सकता है, गुनगुना सकता है। उसको जरूरत थी किसी और भाषा की। जैन भाषा उसके काम की नहीं है। जैन भाषा में फंसी है। उस भाषा के बाहर आने की हिम्मत भी नहीं है।

कारागृह पत्थर की ईंटों के ही नहीं होते, शब्दों की ईंटों के भी होते हैं–और ज्यादा मजबूत होते हैं। बचपन से जो सुना है, बचपन से जो समझा है, जिसके संस्कार पड़े हैं, वह तुम्हारे चारों तरफ दीवाल बन जाती है। फिर बाद में उस दीवाल के बाहर निकलने में बड़ी घबड़ाहट होने लगती है। ऐसा लगता है, यह तो अधर्म हो जायेगा। इससे बाहर गये तो अधर्म हो जायेगा। इसके भीतर रहने में ही धर्म है। और भीतर रहने में प्राण अकुलाते हैं।

महावीर का ढंग बड़ा भिन्न है।

मुझे तलाश रही है

नहीं, तलाश नहीं–

तलाश में तो तलब

जुस्तजू-सी होती है

दबा-दबी ही सही

आरजू-सी होती है

न आरजू न तलब है

न जुस्तजू न तलाश

जरा-सी एक जराहत

जरा-सी एक खराश।

मुझे तलाश रही है

नहीं, तलाश नहीं।

खोज की भाषा ही ठीक नहीं है; क्योंकि खोज का अर्थ ही होता है, बाहर खोजना। खोज का अर्थ ही होता है कि कहीं परमात्मा छिपा है और खोजना है।

मुझे तलाश रही है

नहीं, तलाश नहीं–

तलाश में तो तलब…

और फिर तलाश में तो इच्छा पैदा हो जाती है, वासना आ जाती है। परमात्मा को खोजने की भी तो वासना है, आकांक्षा है, अभीप्सा है।

तलाश में तो तलब

जुस्तजू-सी होती है।

और फिर इच्छा जल्दी ही आकुल इच्छा बन जाती है, तीव्र हो जाती है, फिर जलाने लगती है।

महावीर के मार्ग पर तो समस्त इच्छाओं के त्याग से रास्ता खुलता है। समस्त इच्छाओं के त्याग में मोक्ष की इच्छा भी सम्मिलित है।

इसे थोड़ा समझना। वह जो मोक्षवादी है, वह कहता है, मोक्ष की भी इच्छा छोड़ देनी है, तब मोक्ष मिलेगा। परमात्मा की भी इच्छा छोड़ देनी है, तभी। इच्छा मात्र बाधा है।

भक्तों से पूछो!

भक्त कहते हैं, अगर मोक्ष छोड़ना पड़े, हम तैयार हैं; लेकिन तुम्हारी अभीप्सा बनी रहे! प्रभु को पाने की अकुलाहट बनी रहे! बैकुंठ पर लात मारने को तैयार हैं। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे विरह में जो मजा आ रहा है, वह खो जाये!

भक्त, परमात्मा के विरह को बचा लेना चाहता है। उसके मिलन की तो बात दूर, उसका विरह भी बड़ा प्यारा है। ज्ञानी, परमात्मा की आकांक्षा भी छोड़ देना चाहता है। विरह की तो बात दूर, उसके मिलन की भी आकांक्षा नहीं करता। क्योंकि आकांक्षा मात्र उसे मोक्ष में बाधा मालूम होती है।

ये अलग-अलग भाषाएं हैं।

तलाश में तो तलब

जुस्तजू-सी होती है

दबा-दबी ही सही

आरजू-सी होती है।

कितना ही दबाओ, कितना ही सम्हालो, संस्कारित करो, लेकिन आकांक्षा तो रहती है, आरजू तो रहती है।

इसलिए तो महावीर के मार्ग पर प्रार्थना शब्द गलत है। ध्यान! प्रार्थना की कोई जगह नहीं है। प्रार्थना में तो आरजू-सी रहती है।

दबा-दबी ही सही

आरजू-सी होती है

न आरजू न तलब है

–न पाने की इच्छा है, न पाने की कोई याचना है।

न जुस्तजू न तलाश

–न खोज है, न खोज में कोई पागलपन है। फिर है क्या?

भक्त बोलता है, परमात्मा की प्यास के कारण खोजने निकले हैं। ज्ञानी बोलता है, भीतर एक घाव है, पीड़ा है–उसको मिटाना है।

जरा-सी एक जराहत

–एक घाव है भीतर।

जरा-सी एक खराश

–और उस घाव में पीड़ा है।

इस बात को समझने की कोशिश करो।

भक्त की पीड़ा भी प्यास है। वह कहता है, प्रभु पीड़ा दो। प्यासा करो, जलाओ!

ज्ञानी के लिए परमात्मा नहीं है, न कोई प्यास है, न कोई और बात है। सिर्फ अज्ञान की एक पीड़ा है; यह पीड़ा प्यास नहीं है, यह दुख है। यह कांटे की तरह चुभ रही है। इसे निकालकर फेंकना है।

ये दोनों भाषाएं अलग हैं। और जब तक तुम्हें ठीक सम्यक भाषा न मिल जाये, जिससे तुम्हारे हृदय का तालमेल बैठे, तब तक ऐसी अड़चन होगी। मेरी बातें सिर पर से निकलती हुई मालूम होंगी। कोई-कोई बात जो तुम्हारे संस्कार से मेल खा जायेगी, वो समझ में आयेगी। लेकिन समझ में आने से क्या होगा? अगर तुम्हारे हृदय से मेल न खायेगी तो समझ में आ जायेगी, किसी काम में न आयेगी। और जो बात तुम्हारे हृदय से मेल खाती थी, वह तुम्हारे सिर पर से निकल जायेगी; क्योंकि संस्कार उसे भीतर प्रविष्ट न होने देगा। जो बात तुम समझ लोगे, वह तुम्हारे काम की न होगी। और जो तुम्हारे काम की थी, वह तुम्हारा मन तुम्हें समझने न देगा।

“गुणा’ की तकलीफ, भावुक स्त्रैण हृदय की तकलीफ है।

जैन मार्ग पुरुष का मार्ग है। और जब मैं कहता हूं, पुरुष का, तो मेरा मतलब यह नहीं कि स्त्रियां उस मार्ग से नहीं जा सकतीं। स्त्रियां भी जा सकती हैं, लेकिन पुरुष-धर्मा; जिनकी वृत्ति पुरुष की वृत्ति हो।

कृष्ण का मार्ग स्त्रैण मार्ग है। इसका यह मतलब नहीं कि पुरुष नहीं जा सकते; जा सकते हैं–लेकिन वे ही पुरुष, जिनकी भावदशा स्त्रैण हो। गोप भी जा सकते हैं; लेकिन गोप ऊपर-ऊपर से होंगे, भीतर से गोपी का ही भाव होगा।

इसलिए कृष्ण का भक्त तो अपने को मानने लगता है, वह स्त्री है; उसकी, कृष्ण की गोपी है। वह अपने पुरुष-भाव को छोड़ देता है।

जैन साध्वी अपने सारे स्त्रैण भाव को धीरे-धीरे काटकर गिरा देती है, पुरुषवत हो जाती है। सारा राग, सारा रस, सब समाप्त कर देना है। मरुस्थल की तरह हो जाना है।

गलत और सही की बात नहीं है–तुम्हें जो रास पड़ जाये। ऐसी तकलीफ बनी ही रहेगी, जब तक तुम संस्कारों और अपने हृदय के बीच जो विरोध है उसको ठीक से पहचानकर साफ-साफ रास्ता न बना लोगे।

“गुणा’ को अपने संस्कार छोड़ने पड़ेंगे। उसे अपने हृदय की भाषा को पहचानना पड़ेगा। नहीं तो वह तकलीफ में ही रहेगी।

जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी

तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है?

तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है?

तुम नहीं आए? न आओ, याद दे दो

फैसला छोड़ा, फकत फरियाद दे दो

मति नहीं कहती, चरण का स्वाद दे दो

बस प्रहारों का अनंत प्रसाद दे दो

देख ले जग, सिसककर आराधना सूली चढ़ी

जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी

तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है?

तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है?

अगर “गुणा’ जागती नहीं, समझती नहीं, तो व्यर्थ ही समाप्त होगी। किसी दिन जीवन के अंतिम पहर में उसे ऐसा ही कहना पड़ेगा–

जो न बन पायी तुम्हारे गीत की कोमल कड़ी

तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है?

–जीवन आया और गया! व्यर्थ ही गया!

गाओ, नाचो! ध्यान नहीं, प्रार्थना तुम्हारे लिए मार्ग होगा। मतवालापन! होश नहीं, बेहोशी तुम्हारी दवा है।

तुम नहीं आये? न आओ, याद दे दो

फैसला छोड़ा, फकत फरियाद दे दो

मति नहीं कहती…

–बुद्धि और ज्ञान की आकांक्षा नहीं है।

मति नहीं कहती, चरण का स्वाद दे दो!

बस प्रहारों का अनंत प्रसाद दे दो!

–तो तृप्ति होगी।

अपने को जिसने ठीक से पहचाना वह जल्दी ही अपनी तृप्ति का मार्ग खोज लेता है। मार्गों की फिक्र छोड़ो, अपनी फिक्र करो। मार्गों के लिए तुम नहीं बने हो, तुम्हारे लिए मार्ग हैं। शास्त्रों में मत उलझो। शास्त्रों के लिए तुम नहीं हो कि तुम्हारी कुर्बानी उनके लिए हो जाये, जैसा कि हो रहा है। शास्त्रों पर कुर्बान हैं करोड़ों लोग। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं। अगर शीत-सर्दी लगती हो, जला लो, ताप लो। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं; नींद आती हो, तकिया बना लो। शास्त्र तुम्हारे लिए हैं; ओढ़ लो, सर्दी लगती हो तो। शास्त्र साधन हैं, मनुष्य साध्य है। इसे ध्यान में रखो, तो जो अड़चन मालूम हो रही है, वह मिट जायेगी।

“बहुत समय से आपके पास हूं…’ लेकिन वह संस्कार कहां पास होने देते हैं? बिलकुल पास है…”गुणा’ काफी दिन से मेरे पास है। लेकिन संस्कार बीच में एक बड़ी सख्त दीवाल है। टटोलता हूं मैं। मेरे हाथ तुम तक नहीं पहुंच पाते। तुम्हारी दीवाल है। लगता है पास-पास खड़े हैं, क्योंकि यह दीवाल पारदर्शी है, शब्दों की है। पत्थर की होती तो मैं तुम्हें दिखाई भी न पड़ता। यही तो खूबी है शब्दों की दीवाल की: पारदर्शी है, कांच की है। आर-पार दिखाई पड़ता है, इसलिए लगता है बिलकुल पास खड़े हैं।

कभी तुमने खयाल किया? कांच की खिड़की के उस तरफ इस तरफ खड़े हो जाओ; जरा-सा कांच का फासला है, मगर उतना फासला काफी है। हम पास हैं, एक-दूसरे से बहुत दूर हैं। अनंत फासला है।

यह कांच की दीवाल तोड़ो। और अकसर ऐसा हो जाता है जो बहुत दिन से पास हैं, वह इस भ्रांति में पड़ जाते हैं कि पास हैं। कांच दिखाई ही नहीं पड़ता, धीरे-धीरे आर-पार दिखाई पड़ता है, बात भूल जाती है। पर कांच अभी है।

“और मैं बहुत अज्ञानी और निर्बुद्धि हूं, यह आप भलीभांति जानते हैं।’

बिलकुल भलीभांति जानता हूं। इसीलिए तो कह रहा हूं: अज्ञानी और निर्बुद्धि के लिए भक्ति मार्ग है, प्रेम मार्ग है।

मति नहीं, चरण का स्वाद दे दो

फैसला नहीं, फरियाद दे दो।

उतना काफी है।

“आपकी कही अनेक बातें मेरे सिर पर से गुजर जाती हैं।’

जो-जो तुम्हारे काम की हैं, वह सिर पर से गुजर रही हैं। मैं देखता हूं उन्हें गुजरते, क्योंकि तुम्हारा सिर उन्हें टिकने नहीं देता। जो बातें तुम्हारे काम की हैं और हृदय तक पहुंचनी चाहिए थीं, वह सिर उन्हें भीतर प्रवेश नहीं होने देता। वह द्वार से ही लौटा देता है, द्वारपाल ही उन्हें अलग कर देता है। और जिन्हें तुम्हारा सिर प्रवेश होने देता है वह तुम्हारे काम की नहीं। क्योंकि तुम्हारे सिर के पास अपने संस्कार हैं।

अगर जैन मुझे सुनने आता है तो वह उतनी बातों को भीतर जाने देता है, जितनी उसके जैन धर्म से मेल खाती हैं; बाकी को बाहर रोक देता है कि ठहरो, कहां जा रहे हो? जैन नहीं हो। हिंदू सुनने आता है, उतनी को भीतर जाने देता है जितनी हिंदू धर्म से मेल खाती हैं; बाकी को कह देता है, भीतर मत आना।

तो तुम सुनते वही हो, जो तुम्हारा सिर तुम्हें आज्ञा देता है। तुम मुझे थोड़े ही सुनते हो। जो मुझे सुनता है, उसमें रूपांतरण निश्चित है।

यह पहरेदार को विदा करो, इसे छुट्टी दे दो। तो जो अभी सिर के ऊपर से जा रही हैं, वह सिर की गहराई में भी उतरेंगी। और सिर में ही न उतरें तो हृदय में कैसे उतरेंगी? सिर तो द्वार है। जब सिर में कोई बात उतर जाती है तो धीरे-धीरे हृदय में डूबती है, तलहटी में बैठती है और वहां से क्रांति घटित होती है।

“आप परमात्मा से बिछड़न की जिस पीड़ा की बात कहते हैं, वह पीड़ा मुझे कभी हुई नहीं।’

परमात्मा का खयाल ही नहीं है! पीड़ा तो तब हो न जब हमें खयाल हो कि परमात्मा है! परमात्मा की धारणा का ही खंडन है। जब धारणा का ही खंडन है तो प्यास तो कैसे उठेगी? उठेगी भी, तो तुम कोई और चीज ही समझोगे–किसी और चीज की प्यास है। परमात्मा की तो हो ही नहीं सकती। कभी सोचोगे धन की प्यास है; कभी सोचोगे प्रेम की प्यास है; कभी सोचोगे पद की प्यास है–लेकिन “परमात्मा’ शब्द है ही नहीं तुम्हारे पास, तो प्यास को परमात्मा की तरफ उन्मुख होने का उपाय नहीं है। और आत्मा की तरफ जाने के लिए जैसा पुरुषार्थ चाहिए, जैसा पौरुषिक उद्दाम संकल्प चाहिए, वह तुम्हारे पास नहीं है। कुछ हर्जा नहीं है। कुछ दुर्गुण नहीं है।

दुनिया में आधे लोग संकल्प से ही पहुंचेंगे, आधे लोग समर्पण से ही पहुंचेंगे। लेकिन हमारी तकलीफ है: हम सभी को एक ही घेरे में बंद कर देते हैं।

स्त्रियों को थोड़े भक्ति के रास्ते पर खोजबीन करनी चाहिए। पुरुषों को थोड़े संकल्प के रास्ते पर खोजबीन करनी चाहिए। तो पति हिंदू हो, तो जरूरी नहीं है कि पत्नी भी हिंदू हो। जिस दिन भली दुनिया होगी, उस दिन पत्नी अपना धर्म चुनेगी, पति अपना धर्म चुनेगा। और बेटे-बेटियों के लिए खुला अवसर छोड़ा जायेगा कि जब वह बड़े हो जायें तो अपना धर्म चुनें। अच्छी दुनिया होगी तो एक-एक घर में करीब-करीब आठ-आठ दस-दस धर्म होंगे, एक-एक परिवार में। होने ही चाहिए; क्योंकि जिसको जो रास पड़ जायेगा। कपड़े मैं तुम जिद्द नहीं करते; किसी को सफेद पहनना है, सफेद पहनता है; किसी को हरा पहनना है, हरा पहनता है। भोजन में तुम जिद्द नहीं करते; किसी को चावल ठीक रास आते हैं, चावल खाता है; किसी को गेहूं रास आते हैं, गेहूं खाता है। धर्म के संबंध में क्यों जिद्द करते हो कि सभी पर एक ही धर्म थोपा जाये?

पत्नी को अगर भक्त होना हो, भक्त हो जाये; कृष्ण के मंदिर में पूजा चढ़ाये। पति को अगर जैन रहना है, जैन रहे; महावीर के प्रकाश को लेकर चले। बेटे को अगर ठीक लगे कि बुद्ध हो जाना है, तो किसी को रोकने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। क्योंकि असली सवाल धार्मिक होने का है। अगर बुद्ध होने से, बुद्ध के मार्ग पर चलने से कोई धार्मिक होता है तो शुभ है।

इस दुनिया में निन्यानबे प्रतिशत लोग अधार्मिक हैं, क्योंकि उनको ठीक धर्म चुनने का मौका नहीं मिला है। नास्तिकों के कारण दुनिया अधार्मिक नहीं है, तथाकथित धार्मिकों के कारण अधार्मिक है। जो मुझे रुचिकर है वह खाने न दिया जाये, तो जो मुझे खाने दिया जाता है उसे मैं जबर्दस्ती ढोता हूं, क्योंकि उसमें मेरी कोई रुचि नहीं है।

धर्म स्वतंत्रता है; स्वेच्छा का चुनाव है।

“परमात्मा की प्यास का मुझे कुछ पता नहीं है, फिर मैं क्यों यहां हूं? और यह ध्यान-साधना वगैरह क्या कर रही हूं?’

अड़चन अपने हृदय को ढांक लेने की है, दबा लेने की है। सिर को हटाओ, हृदय को प्रगट करो। तब यह प्रश्न साफ हो जायेगा। स्थिति बिलकुल साफ हो जायेगी। द्वार खुल जायेगा।

गणित नहीं है जीवन। और जीवन किसी लक्ष्य की तरफ प्रेरित नहीं है। कोई ऐसा नहीं है कि जीवन किसी लक्ष्य की तरफ चला जा रहा है। यहां प्रतिपल प्रफुल्लता से होना लक्ष्य है। यहां प्रतिपल आनंद-भाव से जीना लक्ष्य है। यहां पल-पल आनंद-निमग्न होना लक्ष्य है।

पूछो फूलों से, “क्यों खिले हो?’ क्या कहेंगे बेचारे! पूछो आकाश के तारों से, “क्यों ज्योतिर्मय हो?’ क्या कहेंगे! लेकिन सब तरफ एक अहोगीत चल रहा है! एक अहोभाव नाच रहा है! पल-पल, प्रतिपल!

धर्म इस ढंग से जीने का मार्ग है कि तुम प्रतिक्षण से आनंद को निचोड़ लो। प्रतिक्षण में छिपा है स्वर्ग। तुम उसे चूस लो, निचोड़ लो, पी लो। प्रतिक्षण में छिपी है रसधार।

अब यहां लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम ध्यान क्यों कर रहे हैं? वे यह पूछ रहे हैं कि इससे क्या मिलेगा? ध्यान से कभी कुछ मिला है! ध्यान ही मिलना है। ध्यान में आनंद है। ध्यान में प्रफुल्लता है, नृत्य है। ध्यान के क्षण में सब कुछ है, अंतर्निहित है। ध्यान के क्षण के बाहर कुछ भी नहीं है। लेकिन यह भक्त की भाषा है।

ज्ञानी की भाषा तो लक्ष्य की भाषा होती है। यह प्रेमी की भाषा है। प्रेमी कहता है, प्रेम में सब कुछ है, प्रेम के बाहर क्या है! प्रेम किसी और चीज के लिए साधन थोड़े ही है, साध्य है। ज्ञानी पूछता है साधन! यह साधन है, साध्य क्या है?

तो वह जो जैन बुद्धि मन में बैठी है, वह पूछती है, “क्या मिलेगा? उपवास करेंगे तो यह मिलेगा। इतने उपवास करेंगे तो यह मिलेगा। इतना त्याग करेंगे, इतना तप करेंगे, तो इतना पुण्य का अर्जन होगा। इससे स्वर्ग मिलेगा। यह ध्यान करके यहां क्या कर रहे हो? इससे क्या मिलेगा?’ मैंने कभी तुम्हें कहा भी नहीं कि इससे कुछ मिलेगा। मैं तो तुमसे कहता हूं, इसी में मिलता है, इसी में मिल रहा है। तुम इसके बाहर नजर ही मत ले जाओ। इसमें ही डूबो, डुबकी लगाओ। इसमें ही ऐसे पूर्ण भाव से डूब जाओ कि न कुछ खोज रह जाये, न कोई खोजनेवाला रह जाये। ऐसी तन्मयता, ऐसी तल्लीनता प्रगट हो, तो यही क्षण परमात्म-क्षण हो गया।

प्रतिक्षण परमात्मा तुम्हारे चारों तरफ बरस रहा है। परमात्मा एक उपस्थिति है आनंद की। तुम जरा भीतर अपने साज को ठीक से बिठा लो। धुन बजने लगेगी। तुम्हारे भीतर से वैसे ही झरने फूटने लगेंगे, जैसे पहाड़ों से फूटते हैं। और तुम्हारे भीतर वैसे ही फूल खिलने लगेंगे, जैसे वृक्षों पर खिलते हैं।

धर्म मनुष्य के भीतर फूल उगाने की कला है। और फूल अंतिम है, चरम है; इसके पार कुछ भी नहीं। प्रत्येक क्षण चरम है। जगत कहीं जा नहीं रहा है–जगत है। तुम भी इस “है’ में डूब जाओ। लेकिन तुम्हारे पास अगर गणित की भाषा है, जो पूछती है कि हम यह तो करेंगे, लेकिन किसलिए, तो चूक हो जायेगी।

मैं जो भाषा बोल रहा हूं, वह खेल की भाषा है, दुकान की नहीं। छोटे बच्चे खेल रहे हैं। तुम पहुंच जाते हो, डांटने-डपटने लगते हो: “क्यों फिजूल समय खराब कर रहे हो, इससे क्या मिलेगा?’ छोटे बच्चे हैरान होते हैं कि…मिलने की बात ही उनकी समझ में नहीं आती। मिलने का सवाल कहां है? कोई बैंक में बैलेंस बढ़ जायेगा? खाते-बही में ज्यादा पैसे इकट्ठे हो जायेंगे? यह उनकी समझ में ही नहीं आता। खेल रहे थे, मिल रहा था। नाच रहे थे, मिल रहा था। इसके पार थोड़े ही कुछ मिलना है!

इसलिए भक्त कहता है, जीवन एक लीला है।

ज्ञानी कहता है, जीवन हिसाब-किताब है। कर्म का जाल है। इसमें साधन जुटाने हैं, साध्य पाना है।

मुझे तो भक्त की भाषा प्रीतिकर है। ज्ञानी की भाषा उतनी महिमापूर्ण नहीं है। गणित हो भी नहीं सकता उतना महिमापूर्ण जैसा काव्य होता है। और जब काव्य बन सकता हो जीवन, तो गणित क्यों बनाना? हां, जब काव्य न बन सकता हो, मजबूरी है, तब गणित बना लेना। जब तर्क के बिना नृत्य हो सकता हो तो तर्क को बीच में क्यों लाना? हां, अगर नाच आता ही न हो, तर्क ही तर्क आता हो, तो फिर ठीक है, तर्क को ही जी लेना।

तीसरा प्रश्न:

जाग्रत पुरुषों ने देश-काल-परिस्थिति और लोगों की युगानुकूल मनोदशा का खयाल रखकर एक ही सत्य को बड़े भिन्न-भिन्न रूप से अभिव्यक्त किया है। यहां तक कि वे परस्पर बिलकुल विवादास्पद तथा विरोधाभासी तक बन गये हैं। जीवन व अस्तित्व के परम सत्यों की क्या निरपेक्ष अभिव्यक्ति संभव नहीं है? क्या सदा ही युग व लोक-दशा की सीमा सत्य पर आरोपित होती रहेगी?

अभिव्यक्ति तो सदा सीमित होगी। अभिव्यक्ति तो सदा सापेक्ष होगी। बोलनेवाला, सुननेवाला, दोनों ही अभिव्यक्ति की सीमा बनायेंगे।

मैं वही बोलूंगा जो बोला जा सकता है। तुम वही समझोगे जो समझा जा सकता है। सत्य तो विराट है।

अगर मैं सागर के दर्शन करने जाऊं और तुम मुझसे कहो कि लौटते में थोड़ा सागर लेते आना, तो पूरा सागर तो न ला पाऊंगा। हो सकता है, थोड़ा-सा जल सागर का ले आऊं। लेकिन उस जल में बहुत कुछ बातें नहीं होंगी। सागर का तूफान न होगा, सागर की लहरें न होंगी। वही तो असली सागर था। वह तुमुल नाद और घोर गर्जन! शिलाखंडों पर टकराती हुई लहरें! वह उठती दूर-दूर मीलों तक फैले हुए विस्तार से भरी लहरें! वह उफान! वह सब तो न होगा। भरकर ले आऊंगा एक बर्तन में थोड़ा-सा सागर का जल। फिर भी थोड़ा तो होगा कुछ! स्वाद लोगे तो खारा होगा। सागर जैसा उस बर्तन में क्या होगा? थोड़ा खारापन का स्वाद आ जायेगा, बस।

सत्य तो सागर से भी विराट है। जब हम उसे शब्दों की चुल्लुओं में भरकर लाते हैं किसी को देने, असली तो खो जाता है। थोड़ा-सा स्वाद भी पहुंच जाये, थोड़ा नमक भी तुम्हारी जीभ पर पड़ जाये, तो बहुत! इसलिए बोलनेवाला सीमा देगा, फिर सुननेवाला सीमा देगा। फिर युगऱ्युग की भाषा होगी। युगऱ्युग के भाषा की शैली होगी, प्रचलन होगा, मापदंड होंगे। वह सब सीमाएं देंगे। सत्य को जब भी जाना जाता है तब तो वह निरपेक्ष है, लेकिन जब कहा जाता है तब सापेक्ष हो जाता है। इसलिए सभी अभिव्यक्तियां सीमित होंगी।

इसलिए महावीर कहते हैं, सभी अभिव्यक्तियां–स्यात! कोई अभिव्यक्ति पूर्ण नहीं। और कोई अभिव्यक्ति पूर्ण निश्चय से नहीं कही जा सकती, क्योंकि पूर्ण निश्चय से कहने का तो अर्थ यह होगा कि इसके पार अब कहने को कुछ भी न बचा। प्रत्येक अभिव्यक्ति एक सीमा तक सच होगी और एक सीमा के आगे गलत हो जायेगी। इसलिए परम ज्ञानी बड़े झिझककर बोलते हैं। जानते हुए बोलते हैं कि जो कह रहे हैं, वह बहुत सीमित है; जो कहना था, वह बहुत असीम था। जो जाना, वह बड़ा था; जो जता रहे हैं, वह बड़ा छोटा है।

फिर स्वभावतः अलग-अलग ज्ञानी अलग-अलग ढंग से जतलायेंगे। और उनकी बातें विरोधाभासी भी मालूम पड़ेंगी, क्योंकि सत्य सभी विरोधों को अपने में समाये हुए है। वहां रात भी है और दिन भी है। वहां जन्म भी है, मृत्यु भी है। तो कोई आदमी शायद सत्य की खबर लाये और जन्म के द्वारा समझाने की कोशिश करे। कोई सत्य की खबर लाये और मृत्यु के द्वारा समझाने की कोशिश करे। कोई सत्य की खबर लाये, राग के द्वारा समझाये; जैसा कि नारद ने किया: परमात्मा का राग, परमात्मा का प्रेम, परमात्मा की भक्ति! कोई परमात्मा की खबर लाये, विराग के द्वारा समझाने की कोशिश करे; जैसा महावीर ने किया। दोनों उसमें हैं। बड़ा विराट आकाश है। उसमें सब समाया है।

तो जब भी कोई व्यक्ति अभिव्यक्त करेगा तो कुछ तो चुनेगा, कहां से अभिव्यक्त करे! तो अपनी-अपनी रुझान, अपनी-अपनी पसंद, अपना-अपना ढंग।

इसलिए सत्य की अभिव्यक्तियां विरोधाभासी भी होंगी। लेकिन विरोधाभासी उन्हीं को दिखाई पड़ती हैं, जिन्होंने समझा नहीं। विवादास्पद उन्हीं को मालूम पड़ती हैं, जिनकी अभी आंखें केवल शब्दों से भरी हैं, और अर्थों का आविर्भाव नहीं हुआ।

भक्त तो भगवान के समाने जाकर अवाक हो जाता है। वाणी ठहर जाती है। कुछ सूझता नहीं। जब लौट आता है भगवान के उस जगत से, तब सब सूझने लगता है; लेकिन तब तक भगवान जा चुका। वह परम महत्ता जिसने घेर लिया था, अब नहीं है। तो स्मृति से पकड़ने की कोशिश करता है। कई बार भक्त सोचकर जाता है, अब की बार पूछ लेंगे। उन्हीं से पूछ लेंगे, “कैसे तुम्हारी खबर दें?’

बात भी आपके आगे न जुबां से निकली

लीजिए आए थे हम सोच के क्या क्या दिल में।

और वहां जाकर ठिठककर खड़ा रह जाता है। साधारण प्रेम में तक भाषा लंगड़ाकर गिर जाती है, तो प्रार्थना की तो बात ही क्या! वहां कोरा अवाक, आश्चर्यचकित, सन्नाटा हो जाता है। हां, जब वह महिमा बीत जाती है, जब वह महाक्षण गुजर जाता है, धूल रह जाती है रथ की उड़ती हुई पीछे–तब होश आता है। तब बुद्धि लौटती है। तब थोड़ा सम्हालने की कोशिश करता है। लेकिन तब धूल पकड़ में आती है, रथ तो जा चुका। फिर उसी धूल की खबर देता है। तो फिर जानता भी है कि यह भी क्या खबर दे रहा हूं; यह तो धूल है जो रथ के पहियों से उड़ी थी। यह कोई रथ तो नहीं है। और रथ में विराजमान जो आया था, उसकी तो बात ही क्या करनी! उस क्षण तो मैं बिलकुल मिट गया था। बुद्धि न थी, मैं न था। तो एक चित्र भी तो न पकड़ पाया, एक छवि भी तो न खींच पाया कि लोगों को दिखा देता! फिर भी…उसके चरण की धूल भी सही! उसके चरणों ने छुआ है, या उसके रथ के पहियों ने छुआ है, तो इस धूल में भी कुछ स्वाद आ गया होगा। बस! उस धूल की बात है।

ज्ञानी है, वह जब ध्यान की परम दशा में पहुंचता है, सब विचार शांत हो जाते हैं। जब अनुभव होता है, तब विचार नहीं होते। जब विचार लौटते हैं, तब अनुभव जा चुका होता है। तो विचार हमेशा पीछे-पीछे आते हैं। और कुछ टूटा-फूटा, कुछ जूठा, कुछ रेखाएं पड़ी रह गईं समय पर, उनको इकट्ठा कर लेते हैं। उन्हीं को हम अभिव्यक्ति बनाते हैं।

जो जाना गया है, वह कभी कहा नहीं गया। जो कहा गया है, वह वस्तुतः वैसा कभी जाना नहीं गया था। इसलिए शब्दों को मत पकड़ना।

इसीलिए मैं निरंतर कहता हूं कि शास्त्र सहयोगी नहीं हो पाते। क्योंकि जब तुम किसी सदगुरु के पास होते हो, तब उसके शब्दों में भी उसके निशब्द की ध्वनि आती है। तब उसकी अभिव्यक्ति में भी तुम्हारे भीतर उसके फूल खिलने लगते हैं, जो अनभिव्यक्त रह गया है। तब उसके बोलने में भी तुम उसके अबोल को सुन पाते हो। उसकी मौजूदगी, उसकी उपस्थिति; तुम्हें छूती है, तुम्हें स्पर्श करती है, तुम्हें नहला जाती है। वह जो शब्दों से कहता है, वह तो ठीक ही है, वह तो शास्त्र भी कह देंगे; लेकिन जो उसकी मौजूदगी के स्पर्श में तुम्हें अनुभव होता है, वह शास्त्र न कह पायेंगे। इसलिए सदगुरु के सान्निध्य में तो क्षणभर को तुम्हें ऐसा लगता है कि उसकी अभिव्यक्ति ने छू लिया। बात जतला दी, बता दी, इशारा हो गया। खिड़की खुली थी, देख लिया। ऐसा तुम्हें लगता है कि जो मैं खुद भी कहना चाहता था और न कह पाता था, वह तुमने कह दिया।

देखना तकरीर की लज्ज्त कि जो उसने कहा

मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है।

बहुत बार तुम्हें लगेगा सदगुरु के पास कि ठीक, बिलकुल ठीक, यही तो मैं कहना चाहता था, लेकिन शब्द न जुटा पाता था, असमर्थ था। जो मैं कहना चाहता था, तुमने कह दिया। कई बार सदगुरु के सान्निध्य में तुम्हारा हृदय ठीक उस जगह आ जायेगा, जहां कुछ अनुभव होता है। लेकिन वह अनुभव होता है उपस्थिति से। वह है सत्संग। शास्त्र में तो राख रह जाती है। राख की भी राख। छाया की भी छाया।

तो अगर कोई जीवित व्यक्ति मिल सके, ऐसा सौभाग्य हो, तो हजार काम छोड़कर उसके चरणों में बैठने का अवसर मत छोड़ना। क्योंकि जो शास्त्र नहीं कह पाते हैं, यद्यपि कहने की चेष्टा की गई है, वह उसकी मौजूदगी कहेगी। इसलिए जो लोग महावीर के पास थे, उन्होंने जो जाना; जिन्होंने कृष्ण के पास होने का सौभाग्य पाया, उन्होंने जो जाना–वह तुम गीता पढ़कर थोड़े ही जान सकोगे; वह तुम जिन-सूत्र पढ़कर थोड़े ही जान सकोगे! उसका कोई उपाय नहीं। सांप तो जा चुका, केंचुली पड़ी रह गई–वही शास्त्र है। केंचुली जब सांप पर चढ़ी थी, तब भी केंचुली ही थी, लेकिन तब जीवंत थी। तब सांप चलता था तो केंचुली भी चलती थी। तब सांप फुफकारता था तो केंचुली भी फुफकारती थी। फिर सांप तो जा चुका, केंचुली पड़ी रह गई। अब हवा के झोंके में हिलती-डुलती है, लेकिन अब चलती नहीं; अब उसके पास अपने कोई प्राण नहीं हैं, जीवंत आत्मा नहीं है।

सभी धर्म जब पैदा होते हैं तो किसी सदगुरु की मौजूदगी में पैदा होते हैं। सदगुरु के विदा हो जाने पर सांप की केंचुलियां पड़ी रह जाती हैं अनंत सदियों तक, और लोग उनकी पूजा करते रहते हैं। हां, सदगुरु न मिले तो मजबूरी है। तो फिर तुम शास्त्र को ही पूज लेना। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि पृथ्वी पर सदगुरु न हों! सदा होते हैं। यद्यपि दुर्भाग्य यह है कि जब वह होते हैं, बहुत कम लोग पहचानते हैं। जब वह जा चुके होते हैं, तब मुर्दा केंचुली को बहुत लोग पूजते हैं। लोगों का मरे से कुछ लगाव है, जिंदा से कुछ घबड़ाहट है! जीवन से कुछ डर है, मृत्यु की बड़ी पूजा है!

आखिरी प्रश्न:

जब कोई प्यासा या प्यारा मिल जाता है, तब मेरी दशा पूर पर आई नदी जैसी हो जाती है। मैं आपको लेकर उस पर बरस पड़ती हूं। जाने किस नगरी की आवाज निकल पड़ती है। मैं दोनों सिरों पर जलती हुई मशाल जैसी हो जाती हूं। लेकिन आपके पास ला देने पर वह आदमी मुझसे दूर हो जाता है; जैसे बच्चा बड़ा होने पर मां से दूर निकल जाता है। और तब अपने घर वापिस होते समय मुझे एक तड़प-सी होती है। लेकिन “तेरी जो मर्जी’ कहके गा पड़ती हूं: राम श्री राम, जय जय राम।

“प्रतिभा’ ने पूछा है।

ऐसा होगा, स्वाभाविक है। जिन्होंने मुझे थोड़ा पीया है, उनके मन में यह भाव जगना स्वाभाविक है कि कोई और भी मुझे पीए। जिसे कोई सरोवर मिल गया है, राह पर किसी प्यासे को देखकर उसका हाथ पकड़ेगा, सरोवर तक ले आना चाहेगा। कभी-कभी तो जबर्दस्ती भी करता हुआ मालूम पड़ेगा। क्योंकि वह जानता है, अभी तुम भला नाराज हो जाओ, सरोवर पर पहुंचकर तुम भी कहोगे, अच्छा किया जबर्दस्ती की।

प्रेम बांटना चाहता है। जो भी मिलता है प्रेम को, बांटना चाहता है। कहीं अगर परमात्मा की खुशबू मिली है तो तुम बांटना चाहोगे। दोनों छोर से मशाल की तरह जलकर बांटना चाहोगे। इसलिए जहां भी कहीं कोई प्यासा मिल जायेगा, तुम्हारे जीवन में एक पूर आ जायेगा। तुम सब कुछ उसमें उंडेल देना चाहोगे। और स्वभावतः तुम जब उसे मेरे पास ले आओगे, तो एक थोड़ी-सी कमी भी मालूम होगी। वह थोड़ी-सी जो अस्मिता बची है, उसके कारण मालूम होती है। क्योंकि जब तुम उसे समझाकर मेरे पास ले आये, तब एक अर्थ में वह तुम्हारे पीछे चल रहा था, तुम्हारी मानकर चला था। जब तुम उसे मेरे पास ला रहे थे तब वह तुमसे आंदोलित और प्रभावित था। फिर जब तुम उसे मेरे पास ले आओगे, स्वभावतः इसलिए तुम उसे लाये भी हो मेरे पास कि वह मुझसे जुड़ जाये, अब वह तुम्हारे पीछे न चलेगा। उसका मुझसे सीधा संबंध हो जायेगा। यही तुमने चाहा भी था, यही तुम्हारी प्रार्थना भी थी। लेकिन फिर भी अस्मिता को थोड़ा-सा धक्का लगेगा कि अरे! इसको सरोवर मिल गया तो हमें भूल ही गया! इस अस्मिता को भी जाने देना और गीत बिलकुल ठीक है: “राम श्री राम, जय जय राम’। इसको गुनगुनाना! अस्मिता को इतना भी मत बचाना।

अच्छा अहंकार भी होता है। ध्यान रखना! बुरा अहंकार तो होता ही है, अच्छा अहंकार भी होता है। पवित्र अस्मिता भी होती है–”पायस इगो’। जब तुम कोई अच्छा काम करते हो तो एक बड़ा सदभाव उठता है कि कुछ किया, कुछ अच्छा किया! उसे भी छोड़ना है। अंततः उसे भी छोड़ना है। तो अभी जब किसी को ले आयी होगी “प्रतिभा’ और उसे लगा होगा कि वह तो सरोवर से जुड़ गया, अब उसकी कोई फिक्र नहीं करता, तो अभी जो “राम श्री राम, जय जय राम’ कहा है, वह थोड़ी मजबूरी में कहा है, कि ठीक है, अब जो तेरी मर्जी! नहीं, इसको आनंद-भाव से कहना। बड़ा फर्क पड़ जायेगा। अभी तो कहा है कि जो तेरी मर्जी! लेकिन जब हम कहते हैं “जो तेरी मर्जी’, तभी हम बता रहे हैं कि यह हमारी मर्जी न थी। जो तेरी मर्जी का मतलब ही यही होता है कि ठीक है! हमारी मर्जी तो न थी यह, लेकिन अब तुम्हारी है तो ठीक है। राम श्री राम, जय जय राम! मगर इसमें मजबूरी है।

नहीं, अब दुबारा जब किसी को लाओ, तो पहले से ही इस भाव से ही लाना है, जानकर ही लाना है, कि वह सरोवर में डूब जाये और तुम्हें भूल जाये। क्योंकि तुम्हें याद रखे तो सरोवर में डूबने में बाधा पड़ेगी। और जब वह सरोवर में डूब जाये, तुम्हें भूल जाये, तो धन्यवाद देना। ऐसा मत कहना कि जो तेरी मर्जी! कहना, “धन्यवाद! मेरी प्रार्थना पूरी हुई। इसीलिए तो लाई थी।’ और तब फिर गुनगुनाना: “राम श्री राम, जय जय राम!’ और तब उसका भाव बिलकुल अलग होगा। शब्द तो सभी वही होते हैं भाव बड़े बदल जाते हैं। तब यह अहोभाव होगा। तब यह परमात्मा को धन्यवाद है कि ठीक! तूने बड़ी कृपा की कि मुझे इतनी भी अस्मिता न दी कि मैं रुकावट बनूं।

मेरे पास तुम जब मित्रों को लाओगे तो सभी को ऐसा होगा। मगर पहले से ही यह होशपूर्वक लाना है कि ला ही इसलिए रहे हो कि वे तुम्हें भूलें।

और यह शिक्षण जरूरी है, क्योंकि यही मुझे भी करना पड़ता है। एक दिन मुझे भी कहना पड़ता है: राम श्री राम, जय जय राम! क्योंकि मैं जिसकी तरफ ले जा रहा हूं, एक दिन वह गये…तो यह प्रशिक्षण जरूरी है। यह जो “प्रतिभा’ ने कहा है, मेरा भी अनुभव है। मगर यही सारी चेष्टा है। यह सफल हो, यही सौभाग्य है।

इस कारण संकोच मत करना कि अब क्या लाना किसी को, जिसको ले जाओ वही दगा दे जाता है। इस कारण रोकना मत, इस कारण अपने पर नियंत्रण मत रखना। नहीं, जब पूर आये तो आने देना।

जब्त की काशिशें बजा लेकिन

क्या छुपे शौके-बेपनाह का राज

हर किसी को सुनाई देती है

मेरी आवाज में तेरी आवाज।

जिन्होंने मुझे चाहा है, प्रेम किया है, जो सच में मेरे पास आये हैं, सारे आवरण छोड़कर, वे अगर “जब्त’ भी करना चाहेंगे, रोकना भी चाहेंगे–

जब्त की कोशिशें बजा लेकिन

–वे अगर चाहेंगे भी कि किसी को कैसे बतायें, क्या बतायें, संकोच भी करेंगे तो भी कुछ फर्क न पड़ेगा।

क्या छुपे शौके-बेपनाह का राज!

–अथाह प्रेम प्रगट होने ही लगता है।

हर किसी को सुनाई देती है

मेरी आवाज में तेरी आवाज।

जिन्होंने मुझे चाहा है, उनकी आवाज में मेरी आवाज सुनाई पड़ने ही लगेगी।

और हर स्थिति में…क्योंकि यह तो एक स्थिति है जो “प्रतिभा’ ने पूछी है कि किसी को ले आती है, फिर वह डूब जाता है। मगर बहुत बार तो ऐसा होगा, तुम किसी को लाना चाहोगे और न ला पाओगे। तुम लाख कोशिश करोगे, तुम जितनी कोशिश करोगे उतना ही वह प्रतिरोध करेगा और न आयेगा। तब भी बेचैन मत होना। तब भी यह मत सोचना कि यह कुछ गलत हो रहा है। तब भी ठीक ही हो रहा है। अभी उसकी यही जरूरत होगी। उस पर नाराज मत होना और यह मत सोचना कि जिद्दी है, कि अहंकारी है, कि अज्ञानी है, कि पापी है। क्योंकि ऐसे जल्दी ही मन में भाव उठते हैं। तुम्हारी कोई न माने तो नाराज होने की इच्छा हो जाती है। नर्क भेजने के भाव उठने में देर नहीं लगती, कि तुम तो इतनी कोशिश कर रहे हो, इसके ही शुभ के लिए, और इस मूढ़ को देखो, मतांध! सुनता ही नहीं, बहरा है! नहीं, तब समझना कि परमात्मा अभी यही चाहता है कि वह न आये। उसके राज सभी जाहिर नहीं होते। होने भी नहीं चाहिए। कभी किसी को प्रतिरोध की ही जरूरत होती है। कभी कोई तुमसे लड़ता है, वही उसका ढंग है मेरे प्रेम में पड़ने का, उसे लड़ने देना। वह लड़-लड़कर ही पड़ेगा। अपने-अपने ढंग होते हैं, अपनी-अपनी शैली होती है।

चमक उसकी बिजली में, तारे में है

यह चांदी में, सोने में, पारे में है

उसी की बयाबां, उसी के बबूल

उसी के हैं कांटे, उसी के हैं फूल।

तो अगर कोई कांटा जैसा भी मालूम पड़े तो भी समझना, उसी का है; नाराज मत हो जाना। फूल पर बहुत प्रसन्न मत हो जाना, कांटे पर बहुत नाराज मत हो जाना। एक बात स्मरण रखना कि तुमने निवेदन कर दिया था, बात समाप्त हो गई। तुमने छिपाया नहीं, तुम्हें कुछ पता था, कह दिया। जो तुम कहो, उसमें आग्रह भी मत रखना कि उसे मानना ही चाहिए। क्योंकि आग्रह सत्य को नष्ट कर देता है; प्रेम को दूषित कर देता है, धूमिल कर देता है। तुम तो बिना किसी आग्रह के अनाग्रह भाव से कह देना कि कुछ हमें भी सुनाई पड़ी है आवाज, शायद तुम्हारे काम आ जाये, कहीं हम गये हैं, हमारी कुछ प्यास बुझी है–हो सकता है, यह जल तुम्हारी भी प्यास को तृप्त करने में काम आ जाये। मगर कहना, “हो सकता है, जरूरी नहीं। तुम्हारी प्यास अलग हो, तुम्हें किसी और जल की जरूरत हो। और शायद अभी तुम्हें प्यास ही न हो और जल की जरूरत ही न हो।’ तो निवेदन कर देना और भूल जाना।

अगर तुमने अनाग्रहपूर्वक निवेदन किया है, तो बहुत लोगों को तुम खबर पहुंचाने में सफल हो जाओगे। यह खबर कुछ ऐसी है कि अत्यंत विनम्रता में, अत्यंत प्रेम में, अत्यंत सरलता में ही पहुंचाई जा सकती है।

मेरे पास किसी को ले आना कोई मिशनरी काम नहीं है कि टूट पड़े उस पर और उसको तर्क देने लगे, और समझाने लगे, और सिद्ध करने लगे, और उसको गलत सिद्ध करने लगे। नहीं, यह कुछ काम इतना क्षुद्र नहीं है। धर्म मिशन तो बन ही नहीं सकता। मिशन तो सब राजनीति के होते हैं। तुम तो सिर्फ मेरी सुगंध थोड़ी-सी फैला सको, फैला देना। वही सुगंध अगर खींच सकेगी तो खींच लायेगी। और अगर उस आदमी के जीवन में जरूरत आ गई होगी तो खिंच आयेगा; या वह सुगंध उसकी स्मृति में पड़ी रह जायेगी, कभी जरूरत आयेगी तो उसे याद आ जायेगी। तुम्हारा काम पूरा हो गया।

तुम कंजूस मत रहना, बस इतना काफी है। मिशनरी भूलकर मत बनना और कंजूस मत होना। इन दोनों के बीच संतुलन! किसी को जबर्दस्ती समझाने-बुझाने की कोई भी जरूरत नहीं है। कोई जबर्दस्ती समझाये-बुझाये, समझा है, बूझा है?

यह बड़ा नाजुक काम है। ये धागे बड़े रेशम के धागे हैं। ये जंजीरें नहीं हैं लोहे की कि बांध दीं और घसीट लाये। ये रेशम के धागे हैं, बड़े कच्चे धागे! और कच्चे धागे से कोई खिंचा आये तो ही ठीक है। लोहे की जंजीरों से कोई खिंचा भी आ गया तो उसका आना न आना बराबर है। बिना धागे के ही ला सको तो ही कुशलता है।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–14

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चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा (अध्याय ४) प्रवचन—चौदहवां

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।। 33।।

हे अर्जुन, सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से ज्ञानरूप यज्ञ सब प्रकार श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ, संपूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं, अर्थात ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।

मन मांगता रहता है संसार को; वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ; शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए; आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए–ऐसे एक यज्ञ तो जीवन में चलता ही रहता है। यह यज्ञ चिता जैसा है। आग तो जलती है, लपटें तो वही होती हैं। जो हवन की वेदी से उठती हैं लपटें, वे वे ही होती हैं, जो लपटें चिता की अग्नि में उठती हैं। लपटों में भेद नहीं होता। लेकिन चिता और हवन में तो जमीन-आसमान का भेद है।

हमारा जीवन भी आग की लपट है। लेकिन वासनाएं जलती हैं उसमें; उन लपटों में आकांक्षाएं, इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं-धुआं हो जाता है। ऐसे आग में जलते हुए जीवन को भी यज्ञ कहा जा सकता है, लेकिन अज्ञान का, अज्ञान की लपटों में जलता हुआ।

इस अज्ञान की लपटों में जलते हुए, कभी-कभी मन थकता भी है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी। हताशा में, बेचैनी में कभी-कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते-दौड़ते इच्छाओं के साथ, कभी-कभी प्रार्थना करने का मन भी हो आता है। दौड़ते-दौड़ते वासनाओं के साथ, कभी-कभी प्रभु की सन्निधि में आंख बंद कर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है। बाजार की भीड़-भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के एकांत कोने में भी डूब जाने का खयाल उठता है।

लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठकर पुनः वासनाओं की मांग शुरू कर देता है। बाजार से थका आदमी मंदिर में बैठकर पुनः बाजार का विचार शुरू कर देता है। क्योंकि बाजार से वह थका है, जागा नहीं; वासना से थका है, जागा नहीं। इच्छाओं से मुक्त नहीं हुआ, रिक्त नहीं हुआ; केवल इच्छाओं से विश्राम के लिए मंदिर चला आया है। उस विश्राम में फिर इच्छाएं ताजी हो जाती हैं।

प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ भी संसार की ही मांग करते हैं! यज्ञ की वेदी के आस-पास घूमता हुआ साधक भी, याचक भी पत्नी मांगता है, पुत्र मांगता है, गौएं मांगता है, धन मांगता है; यश, राज्य, साम्राज्य मांगता है!

असल में जिसके चित्त में संसार है, उसकी प्रार्थना में संसार ही होगा। जिसके चित्त में वासनाओं का जाल है, उसके प्रार्थना के स्वर भी उन्हीं वासनाओं के धुएं को पकड़कर कुरूप हो जाते हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, असली यज्ञ तो ज्ञान यज्ञ है। श्रेष्ठतम तो ज्ञान यज्ञ है। और ज्ञान यज्ञ का अर्थ हुआ, जिसमें कोई सांसारिक मांग नहीं है, जिसमें कोई सांसारिक आकांक्षा नहीं है।

यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि जब कहते हैं, सांसारिक मांग नहीं, तो अनेक बार मन में खयाल उठता है, तो गैर-सांसारिक मांग तो हो सकती है न! जब कहते हैं, संसार की वस्तुओं की कोई चाह नहीं, तो खयाल उठ सकता है कि मोक्ष की वस्तुओं की चाह तो हो सकती है न! नहीं मांगते संसार को, नहीं मांगते धन को, नहीं मांगते वस्तुओं को; मांगते हैं शांति को, आनंद को। छोड़ें, इन्हें भी नहीं मांगते। मांगते हैं प्रभु के दर्शन को, मुक्ति को, ज्ञान को।

तो एक बात और समझ लेनी जरूरी है। सांसारिक मांग तो सांसारिक होती ही है; मांग ही सांसारिक होती है। वासनाएं सांसारिक हैं, यह तो ठीक है। लेकिन वासना मात्र सांसारिक है, यह भी स्मरण रख लें।

शांति की कोई मांग नहीं होती; अशांति से मुक्ति होती है और शांति परिणाम होती है। शांति के लिए मांगा नहीं जा सकता; सिर्फ अशांति को छोड़ा जा सकता है, और शांति मिलती है। और जो शांति को मांगता है, वह कभी शांत नहीं होता, क्योंकि उसकी शांति की मांग सिर्फ एक और अशांति का जन्म होती है।

इसलिए साधारणतया अशांत आदमी इतना अशांत नहीं होता, जितना शांति की चेष्टा में लगा हुआ आदमी अशांत हो जाता है! अशांत तो होता ही है और यह शांति की चेष्टा और अशांत करती है। यह भी मांग है। यह भी इच्छा है। यह भी वासना है।

मोक्ष मांगा नहीं जा सकता। क्योंकि जब तक मोक्ष की मांग है, जब तक मांग है, तब तक बंधन है। और बंधन और मोक्ष का मिलन कैसे! मोक्ष मांगा नहीं जा सकता; क्योंकि मांग ही बंधन है। हां, बंधन न रहे, तो जो रह जाता है, वह मोक्ष है।

हम परमात्मा को चाह नहीं सकते; क्योंकि चाह ही तो परमात्मा और हमारे बीच बाधा है। ऐसा नहीं कि धन की चाह बाधा है; चाह ही–डिजायर एज सच। ऐसा नहीं कि इस चीज की चाह बाधा है और उस चीज की चाह बाधा नहीं है; चाह ही बाधा है। क्योंकि चाह ही तनाव है, चाह ही असंतोष है। चाह ही, जो नहीं है, उसकी कामना है। जो है, उसमें तृप्ति नहीं। चाह मात्र बाधा है।

अगर ठीक से कहें, तो सांसारिक चाह कहना ठीक नहीं, चाह का नाम संसार है। वासना संसार है; सांसारिक वासना कहना ठीक नहीं।

लेकिन हम भाषा में भूलें करते हैं। सामान्य करते हैं, तब तो कठिनाई नहीं आती; चल जाता है। लेकिन जब इतने सूक्ष्म और नाजुक मसलों में भूलें होती हैं, तो कठिनाई हो जाती है। भूलें भाषा में हैं। भूलें भाषा में हैं, क्योंकि अज्ञानी भाषा निर्मित करता है। और ज्ञानी की अब तक कोई भाषा नहीं है। उसको भी अज्ञानी की भाषा का ही उपयोग करना पड़ता है।

ज्ञानी की भाषा हो भी नहीं सकती, क्योंकि ज्ञान मौन है; मुखर नहीं, मूक है। ज्ञान के पास जबान नहीं है; ज्ञान साइलेंस है, शून्य है। ज्ञान के पास शब्द नहीं हैं। शब्द उठने तक की भी तो अशांति ज्ञान में नहीं है। इसलिए अज्ञानी की भाषा ही ज्ञानी को उपयोग करनी पड़ती है। और फिर भूलें होती हैं।

अब जैसे यह भूल निरंतर हो जाती है। हम कहते हैं, संसार की चीजों को मत चाहो। कहना चाहिए, चाहो ही मत, क्योंकि चाह का नाम ही संसार है। हम कहते हैं, मन को शांत करो। ठीक नहीं है कहना। क्योंकि शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं। अशांति का नाम मन है। जब तक अशांति है, तब तक मन है; जब अशांति नहीं, तो मन भी नहीं।

शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं; साइलेंट माइंड जैसी कोई चीज होती नहीं। जहां शांति हुई, वहां मन तिरोहित हुआ। अशांत मन है, ऐसा कहना ठीक नहीं; अशांति का नाम मन है।

ऐसा समझें, तूफान आया है लहरों में सागर की। फिर हम कहते हैं, तूफान शांत हो गया। जब तूफान शांत हो जाता है, तो क्या सागर के तट पर खोजने से शांत तूफान मिल सकेगा? हम कहते हैं, तूफान शांत हो गया। तो पूछा जा सकता है, शांत तूफान कहां है? शांत तूफान होता ही नहीं। तूफान का नाम ही अशांति है। शांत तूफान! मतलब, तूफान मर गया; अब तूफान नहीं है। शांत मन का अर्थ, मन मर गया; अब मन नहीं है।

चाह के छूटने का अर्थ, संसार गया; अब नहीं है। जहां चाह नहीं, वहां परमात्मा है। जहां चाह है, वहां संसार है। इसलिए परमात्मा की चाह नहीं हो सकती। और अनचाहा संसार नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं हो सकतीं।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ…।

अज्ञान का यज्ञ चल रहा है। पूरा जीवन अज्ञान यज्ञ है। फिर इस अज्ञान से ऊबे, थके, घबड़ाए हुए लोग विश्राम के लिए, विराम के लिए, धर्म, पूजा, प्रार्थना, ध्यान, उपासना में आते हैं। लेकिन मांगें उनकी साथ चली आती हैं। चित्त उनका साथ चला आता है।

एक आदमी दूकान से उठा और मंदिर में गया। जूते बाहर छोड़ देता, मन को भीतर ले जाता। जूते भीतर ले जाए, तो बहुत हर्ज नहीं, मन को बाहर छोड़ जाए। जूते से मंदिर अपवित्र नहीं होगा। जूते में ऐसा कुछ भी अपवित्र नहीं है। मन? मगर जूते बाहर छोड़ जाता है और मन भीतर ले जाता है। घर से चलता है, तो स्नान कर लेता है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जूते आप ले जाना! घर से चलता है, स्नान कर लेता है, शरीर धो लेता है। मन? मन वैसे का वैसा बासा, पसीने की बदबू से भरा, दिनभर की वासनाओं की गंध से पूरी तरह लबालब, दिनभर के धूल कणों से बुरी तरह आच्छादित! उसी गंदे मन को लेकर मंदिर में प्रवेश कर जाता है।

फिर जब हाथ जोड़ता है, तो हाथ तो धुले होते हैं, लेकिन जुड़े हुए हाथों के पीछे मन गैर-धुला होता है। आंखें तो परमात्मा को देखने के लिए उठती हैं, लेकिन भीतर से मन परमात्मा को देखने के लिए नहीं उठता। वह फिर वस्तुओं की कामना और वासना लौट आती है। हाथ जुड़ते हैं परमात्मा से कुछ मांगने के लिए। और जब भी हाथ कुछ मांगने के लिए जुड़ते हैं, तभी प्रार्थना का अंत हो जाता है। मांग और प्रार्थना का कोई मेल नहीं है।

फिर प्रार्थना क्या है? प्रार्थना सिर्फ धन्यवाद है, मांग नहीं; डिमांड नहीं, थैंक्स गिविंग; सिर्फ धन्यवाद। जो मिला है, वह इतना काफी है; उसके लिए मंदिर धन्यवाद देने जाना चाहिए।

धार्मिक आदमी वही है, जो मंदिर धन्यवाद देने जाता है। अधार्मिक? अधार्मिक वह नहीं, जो मंदिर नहीं जाता; वह तो अधार्मिक है ही। अधार्मिक असली वह है, जो मंदिर मांगने जाता है।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठतम है, अर्जुन!

ज्ञान यज्ञ का अर्थ है, वासना के धुएं से मुक्त; जहां चेतना निर्धूम ज्योति की तरह जलती है। निर्धूम ज्योति। धुआं बिलकुल नहीं; सिर्फ चेतना की ज्योति रह जाती। ऐसी ज्ञान की ज्योति जब जलती है व्यक्ति में, तो वासना का कोई भी धुआं कहीं नहीं होता; कोई मांग नहीं होती। परम तृप्ति होती है, वही होने में, जो हैं। वही, जो है, उसके साथ पूरा तालमेल, सामंजस्य होता है। इस ज्ञान यज्ञ के लिए कृष्ण ने बहुत-सी विधियां कही हैं।

अंत में वे कहते हैं, यह सर्वश्रेष्ठ है अर्जुन! छोड़ वासनाओं को, छोड़ भविष्य को, छोड़ सपनों को, छोड़ अंततः अपने को। ऐसे जी, जैसे प्रभु तेरे भीतर से जीता। ऐसे जी, जैसे चारों ओर प्रभु ही जीता। ऐसे कर, जैसे प्रभु ही करवाता। ऐसे कर, जैसे प्रत्येक करने के पीछे प्रभु ही फल को लेने हाथ फैलाकर खड़ा है। तब ज्ञान यज्ञ घटित होता है। और ज्ञान यज्ञ परम मुक्ति है, दि अल्टिमेट फ्रीडम।

अज्ञान बंधन है, ज्ञान मुक्ति है। अज्ञान रुग्णता है, ज्ञान स्वास्थ्य है।

यह स्वास्थ्य शब्द बहुत अदभुत है। दुनिया की किसी भाषा में उसका ठीक-ठीक अनुवाद नहीं है। अंग्रेजी में हेल्थ है; और-और पश्चिम की सभी भाषाओं में हेल्थ से मिलते-जुलते शब्द हैं। हेल्थ का मतलब होता है, हीलिंग, घाव का भरना। शारीरिक शब्द है; गहरे नहीं जाता। स्वास्थ्य बहुत गहरा शब्द है। उसका अर्थ हेल्थ ही नहीं होता; हेल्थ तो होता ही है, घाव का भरना तो होता ही है। स्वास्थ्य का अर्थ है, स्वयं में स्थित हो जाना, टु बी इन वनसेल्फ। आध्यात्मिक बीमारी से संबंधित है स्वास्थ्य।

स्वास्थ्य का अर्थ है, स्वयं में ठहर जाना। इंचभर भी न हिलना, पलकभर भी न कंपना। जरा-सा भी कंपन न रह जाए भीतर। कंपन, वेवरिंग, जरा भी न रह जाए। बस, तब स्वास्थ्य फलित होता है! वेवरिंग क्यों है, कंपन क्यों है, कभी आपने खयाल किया?

जितनी तेज इच्छा होती है, उतना कंपन हो जाता है भीतर। इच्छा नहीं होती, कंपन खो जाता है। इच्छा ही कंपन है। आप कंपते कब हैं? दीया जलता है। कंपता कब है? जब हवा का झोंका लगता है। हवा का झोंका न लगे, तो दीया निष्कंप हो जाता, ठहर जाता, स्वस्थ हो जाता। अपनी जगह हो जाता। जहां होना चाहिए, वहां हो जाता। हवा के धक्के लगते हैं, तो ज्योति वहां हट जाती, जहां नहीं होना चाहिए। जगह से च्युत हो जाती; रुग्ण हो जाती; कंपित हो जाती। और जब कंपित होती है, तो बुझने का, मौत का डर पैदा हो जाता है। जोर की हवा आती, तो ज्योति बुझने-बुझने को, मरने-मरने को होने लगती है।

ठीक ऐसे ही इच्छाओं की तीव्र हवाओं में, वासना के तीव्र ज्वर में कंपती है चेतना, कंपित होती है। और जब वासना बहुत जोर से कंपाती है, तो मौत का डर पैदा होता है।

इसलिए यह भी खयाल में ले लें, जो वासना से मुक्त हुआ, वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जो दीए की लौ हवा के धक्कों से मुक्त हुई, उसे क्या मौत का डर? मौत का डर खो गया।

लेकिन जब तूफान की हवा बहती है, तो दीया कंपता और डरता है कि मरा, मरा। लौट-लौटकर आता है अपनी जगह पर; हवा धक्के दे-देकर अपनी जगह से च्युत कर देती है। ठीक ऐसा हमारी अज्ञान की अवस्था में चित्त होता है। दीए की ज्योति वासना की वायुओं में जोर से कंपती है। कंपती ही रहती है; कभी ठहर नहीं पाती। एक कंपन छूटता, तो दूसरा कंपन शुरू होता है। एक वासना हटती, तो दूसरा झोंका वासना का आता है। कहीं कोई विराम नहीं, कहीं कोई विश्राम नहीं। बस, यह दीए का कंपन, और पूरे वक्त मौत का डर।

जितना वासनाग्रस्त आदमी, उतना मौत से भयभीत। जितना वासनामुक्त आदमी, उतना मौत से निर्भय, अभय। वासना ही भय है मृत्यु में। जितनी वासना का कंपन, उतना आत्मिक रोग, उतना स्प्रिचुअल डिसीज, उतनी ही आध्यात्मिक रुग्णता। क्योंकि कंपन रोग है। कंपने का अर्थ ही है, स्थिति में नहीं है; कोई भी धका जाता।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ परम मुक्ति है; क्योंकि ज्ञान परम स्वास्थ्य है। कैसे होगा उपलब्ध? वासना से जो मुक्त जो जाता– मांग से, चाह से–वह ज्ञान की अग्नि में से गुजरकर खालिस सोना हो जाता है। यह परम यज्ञ कृष्ण ने अर्जुन को इस सूत्र में कहा।

प्रश्न:

भगवान श्री, बत्तीसवें श्लोक में कहा गया है कि बहुत प्रकार के यज्ञ ब्रह्मणो मुखे, ब्राह्मण मुख से विस्तार किए गए हैं। गीता प्रेस ने ब्रह्मणो मुखे का हिंदी अनुवाद किया है, वेद की वाणी में। कृपया बताएं कि ब्रह्मणो मुखे, ब्राह्मण मुख से यज्ञों के विस्तार होने का आप क्या अर्थ लेते हैं?

ब्रह्म के मुख से का बिलकुल ठीक-ठीक अनुवाद नहीं है, वेद के मुख से। या फिर वेद का अर्थ बहुत विस्तीर्ण करना पड़े।

ब्रह्म के मुख से बहुत-बहुत योगों का आविर्भाव हुआ है।

ब्रह्म का मुख कौन है? खुद ब्रह्म का मुख तो हो नहीं सकता। ब्रह्म को सदा ही किसी और के मुख का उपयोग करना पड़ता है। जिनके मुखों का ब्रह्म उपयोग करता है, वे वे ही लोग हैं, जो अपने को पूरी तरह ब्रह्म को समर्पित करते हैं, उपकरण बन जाते हैं, मीडियम। बांसुरी की तरह रख जाते हैं ब्रह्म के निराकार पर और निराकार उनकी बांसुरी से गूंजकर आकार की दुनिया में बसे हुए लोगों तक स्वर बनकर पहुंच जाता है।

जो व्यक्ति भी अपने को समग्ररूपेण प्रभु को समर्पित कर देता, वह ब्रह्म का मुख बन जाता है।

जैनों के तीर्थंकर ब्रह्म के मुख हैं। बुद्ध ब्रह्म के मुख हैं। जीसस, मोहम्मद ब्रह्म के मुख हैं। लाओत्से, जरथुस्त्र ब्रह्म के मुख हैं। मोजिज, इजेकिएल ब्रह्म के मुख हैं। सारी पृथ्वी पर अनंत-अनंत मुखों से ब्रह्म ने कहे हैं बहुत-बहुत मार्ग।

अगर वेद का अर्थ ऐसा हो कि इस हमारे मुल्क में पैदा हुआ जो शास्त्र वेद कहा जाता, उससे ही निकला हुआ जो है, वह ब्रह्म का कहा हुआ है। तो फिर जीसस के मुख से निकला हुआ ब्रह्म का कहा हुआ नहीं होगा। फिर महावीर के मुख से निकला हुआ ब्रह्म का कहा हुआ नहीं है। फिर लाओत्से के मुख से निकला हुआ ब्रह्म का कहा हुआ नहीं है।

वेद में जो कहा है, वह तो ब्रह्म के मुख से निकला ही है; लेकिन वेद का अर्थ अगर हम चार संहिताएं करें, तो हम ब्रह्म को बहुत सीमित करते हैं, अन्याय करते हैं।

वेद का ठीक-ठीक अर्थ करें, तो वेद का अर्थ होता है, नालेज, ज्ञान। वेद उसी शब्द से निर्मित होता है, जिससे विद्वान, विद्वता। वेद का अर्थ होता है, ज्ञान। विद का अर्थ होता है, टु नो, जानना। अगर ठीक-ठीक जो कि मौलिक अर्थ है, वेद का जो ठीक-ठीक अर्थ है, वह है, जानना। जहां भी जानने की घटना घटी है, वहीं वेद की संहिता निर्मित हो गई है।

अगर कोई मुझसे पूछे, तो मैं कहूंगा, बाइबिल वेद की एक संहिता है, कुरान वेद की एक संहिता है। पृथ्वी पर जहां-जहां ज्ञान उदघोषित हुआ है, ब्रह्म ने ही कहा है। किसी के मुख को माध्यम बनाया है। मुख अलग-अलग हैं, भाषाएं अलग-अलग हैं। मुख अलग-अलग हैं, परंपराएं अलग-अलग हैं। मुख अलग-अलग हैं, प्रतीक अलग-अलग हैं। लेकिन जो जानता है, वह सब भाषाओं, सब प्रतीकों के पार, उस एक वाणी को पहचानता है।

वेद की अनंत संहिताएं हैं। जो चार हमारे पास हैं, वे हमारे पास हैं। लेकिन पृथ्वी पर मनुष्य-जाति का कोई कोना ऐसा नहीं, जहां ब्रह्म ने किसी मुख का उपयोग न किया हो। अनंत मुखों से उसकी धारा बही है।

वेद का अर्थ है, जो भी जानने वाले लोगों के द्वारा कहा गया है–कहीं भी और कभी भी, किसी काल में और किसी समय में।

लेकिन सांप्रदायिक मन ऐसी बात मानने को तैयार नहीं होता है। गीता प्रेस, गोरखपुर के लोग ऐसी बात मानने को तैयार नहीं होंगे। वे कहेंगे, वेद तो हमारा है। उतने में सीमा है। हमारा भी इतना नहीं कि महावीर को भी समा सके। हमारा भी इतना नहीं कि बुद्ध को भी समा सके। हमारा भी इतना नहीं कि वह सतत प्रवाहमान और ग्रोइंग हो–कि जो भी आए, उसे समा सके। सभी जातियों को ऐसी भ्रांति पैदा होती है।

लेकिन शब्द देखने जैसे हैं। जैसे कि बाइबिल के लिए शब्द जो है, बाइबिल। बाइबिल का मतलब होता है, दि बुक; सिर्फ किताब। कोई नाम नहीं है। जिन्होंने जाना, उनका संग्रह कर दिया। सिक्खों की किताब का नाम है, गुरुग्रंथ। जिन्होंने जाना, जो इस योग्य हुए कि दूसरों को जना सकें, उनके शब्द इकट्ठे कर दिए; नाम दिया, गुरुग्रंथ। वेद, जिन्होंने जाना, उनकी वाणी संगृहीत कर दी; नाम दिया, वेद। ये सारी किताबें साधारण किताबें नहीं हैं। इनकी कोई सीमा का, इनका कोई संप्रदाय का आग्रह खतरनाक है, मनुष्य को तोड़ने वाला है।

तो कृष्ण जब कहते हैं, ब्रह्म के मुख से, तो उनका प्रयोजन साफ है। वे भी कह सकते थे, वेद के मुख से। वह उन्होंने नहीं कहा। नहीं कहा है, स्पष्ट जानकर ही। कहते हैं, ब्रह्म के मुख से। प्रयोजन यह है कि कहीं भी ब्रह्म का मुख खुल सकता है। जहां भी किसी व्यक्ति का अपना मुख बंद हो जाएगा, वहीं ब्रह्म का मुख खुल सकता है। जहां भी कोई व्यक्ति अपनी तरफ से बोलना बंद कर देगा, वहीं से प्रभु उससे बोलने लगता है। जहां भी कोई व्यक्ति अपने को पूरा सरेंडर कर देता है, वहीं से…। इसलिए वेद को हम कहते हैं, अपौरुषेय; मनुष्य के द्वारा निर्मित नहीं।

लेकिन सांप्रदायिक मन अजीब-अजीब अर्थ निकालता है। अज्ञान अर्थ निकालने में बहुत कुशल है; अज्ञान व्याख्या करने में भी बहुत कुशल है। अज्ञान अर्थ निकाल लेता है; वेद अपौरुषेय हैं, तो निकाल लेता है अर्थ कि वेद परमात्मा के द्वारा रचित हैं। फिर इतने से भी कोई खतरा नहीं है। फिर यह भी अर्थ संगृहीत होता चला जाता है कि सिर्फ वेद ही परमात्मा के द्वारा रचित हैं; फिर कोई और किताब परमात्मा के द्वारा रचित नहीं हो सकती। फिर उपद्रव शुरू होते हैं। फिर आदमी बीच में आ गया। जानने वालों की वाणी पर भी उसने कब्जा कर लिया।

वेद अपौरुषेय हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा के द्वारा रचित हैं; क्योंकि परमात्मा के द्वारा तो सभी कुछ रचित है। अलग से वेद को रचा हुआ कहने का कोई कारण नहीं। वेद अपौरुषेय हैं इस अर्थ में कि जिन्होंने उन्हें रचा, उनके भीतर अपना कोई अहंकार नहीं था, उनके भीतर अपना कोई भाव नहीं था कि मैं। पुरुष विदा हो गया था; अपुरुष भीतर आ गया था। पर्सन जा चुका था, नान-पर्सनल भीतर आ गया था। हट गए थे वे; और जगह दे दी थी प्रभु की अनंत सत्ता को। उसके द्वारा ही इनके हाथों ने रचे। रचे तो आदमी ने ही हैं। हाथ तो आदमी का ही उपयोग में आया है। कलम तो आदमी ने ही पकड़ी है। शब्द तो आदमी ने बनाए हैं। लेकिन उस आदमी ने, जिसने अपने हाथ को प्रभु के हाथ में दे दिया; जो एक मीडियम बन गया; और कहा कि लिख डालो। फिर उसने नहीं लिखा।

ऐसा एक बार हुआ। रवींद्रनाथ ने गीतांजलि लिखी, फिर अंग्रेजी में अनुवाद की। अनुवाद करके सी.एफ.एण्ड्रूज को दिखाई। सोचा, अंग्रेजी भाषा है, पराई, कोई भूल-चूक न हो जाए। एण्ड्रूज ने चार जगह भूलें निकालीं। कहा, यहां-यहां गलत है। ठीक-ठीक ग्रैमेटिकल, ठीक-ठीक व्याकरण के अनुकूल नहीं है। इन्हें ठीक कर लो। रवींद्रनाथ मान गए। एण्ड्रूज अंग्रेज, बुद्धिमान, विचारशील, ज्ञाता! बदलाहट कर ली। तत्काल काटकर, जो एण्ड्रूज ने कहा, वह लिख लिया।

फिर रवींद्रनाथ लंदन गए और वहां कवियों की एक छोटी-सी गोष्ठी में उन्होंने पहली दफा गीतांजलि सुनाई, जिस पर बाद में नोबल पुरस्कार मिलने को था। तब तक मिला नहीं था। छोटे-से, बीस कवियों के बीच में। एक कवि, अंग्रेज कवि यीट्स बीच में उठकर खड़ा हो गया और उसने कहा कि दो-चार जगह ऐसा लगता है कि शब्द किसी और के हैं! रवींद्रनाथ ने कहा, किस जगह? उस आदमी ने दो जगह तो बिलकुल पकड़कर बता दी–इस जगह शब्द किसी और के हैं।

रवींद्रनाथ ने कहा, लेकिन समझ में कैसे पड़ा तुम्हें? सच ही ये शब्द किसी और के हैं। मैंने इन्हें बदला है। तो यीट्स ने कहा कि जब तुम गा रहे थे, तब एक धारा थी, एक बहाव था, एक फ्लो था। अचानक लगा कि कोई पत्थर आ गया बीच में, धारा टूट गई। कोई और आ गया बीच में। हटाओ इन शब्दों को।

रवींद्रनाथ ने कहा, मैं अपने शब्द बताऊं, जो मैंने पहले रखे थे! यीट्स ने कहा कि ये शब्द भाषा की दृष्टि से गलत हैं, लेकिन भाव की दृष्टि से सही हैं। इन्हें जाने दो। भाषा की गलती चलेगी। अटका हुआ पत्थर तो सब नष्ट कर देता; वह नहीं चलेगा। ये चलेंगे; इन्हें चलने दो। ये सीधे आए हैं।

जब कोई व्यक्ति परमात्मा की वाणी से भरता है, तो उसे एक ही ध्यान रखना पड़ता है कि वह बीच में न आ जाए खुद। जैसे यहां एण्ड्रूज बीच में आए रवींद्रनाथ के; ऐसे अगर परमात्मा की वाणी भर जाए किसी में, तो उसे एक ही ध्यान रखना पड़ता है कि वह खुद बीच में न आ जाए।

इसलिए अगर धर्मशास्त्रों में कहीं भूलें हैं, तो वे भूलें उन आदमियों की वजह से हैं, जो कहीं बीच में आ गए हैं। आदमी को माध्यम बनाएंगे, तो कई डर हैं।

कूलरिज मरा, अंग्रेजी का एक बहुत बड़ा महाकवि जब मरा, तो उसके घर में चालीस हजार कविताएं अधूरी मिलीं। मरने के पहले कई बार मित्रों ने कहा कि तुम यह करते क्या हो! यह ढेर कब पूरा होगा? कहीं तीन पंक्तियां लिखीं, चौथी पंक्ति नहीं है। तो कूलरिज ने कहा, तीन ही आईं; चौथी मैं मिला सकता था, लेकिन फिर मैं बीच में आ जाता। तो मैंने रख दी। जब चौथी आएगी, तो जोड़ दूंगा; नहीं आएगी, तो बात खतम हो गई।

कूलरिज ने अपनी जिंदगी में केवल सात कविताएं पूरी की हैं। सात कविताएं लिखने वाला आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है, जो महाकवि कहा जा सके! कूलरिज महाकवि है। सात हजार लिखने वाले भी महाकवि नहीं हैं। कूलरिज सात लिखकर भी महाकवि है! क्या बात है?

बात है। बात यह है कि कूलरिज बिलकुल ही एब्सेंट है। जब भी वह लिखता है, तब अपने को बिलकुल ही हटा देता है। जो आता है अनंत से, उसी को उतर जाने देता है। चालीस हजार मौकों पर टेंपटेशन तो रहा ही होगा। होता ही है। एक कविता बन गई पूरी; एक पंक्ति अटक गई है; जोड़ दो, पूरी हो जाए। मन कहता है, जोड़ दो। लेकिन कूलरिज हिम्मत का आदमी है। नहीं जोड़ता। रख देता है एक तरफ। मर गया चालीस हजार कविताओं को अधूरा छोड़कर।

वेद जिन्होंने रचे हैं, उनकी भी कठिनाई वही है। उपनिषद जिन्होंने कहे हैं, उनकी भी कठिनाई वही है। महावीर के वचन, बुद्ध के वचन–कठिनाई वही है। कुरान, बाइबिल–कठिनाई वही है।

जब कोई व्यक्ति अपने को पूरा छोड़ता है, तब एक ही कठिनाई है कि वह कहीं भी, रत्तीभर भी बाकी न रह जाए। जब वह बाकी नहीं रहता, तो वाणी वेद हो जाती है।

वेद कोई ऐसी चीज नहीं कि समाप्त हो गई। वेद कभी समाप्त नहीं होगा। वेद सदा ग्रोइंग है, बढ़ता रहेगा। नए-नए लोग समर्पित होकर प्रभु को जब उसके माध्यम बनेंगे, तो फिर वेद, फिर वेद पैदा होता रहेगा। वेद निरंतर जन्म रहा है। वेद जन्मता ही रहेगा।

इस अर्थ में अगर वेद लें, तो फिर अनुवाद ठीक है; अन्यथा कृष्ण का शब्द ही ठीक है, ब्रह्म मुख से। उसमें झगड़ा नहीं है; उसमें उपद्रव नहीं है। प्रयोजन इतना ही है कि परमात्मा की निरंतर ही, निरंतर ही अस्तित्व के गहरे से, जगह-जगह अभिव्यक्तियां हुई हैं। फूट पड़ी है वाणी। जैसे कोई झरना दबा हो, पत्थर हट जाए और फूट पड़े फव्वारे की तरह। ऐसा जब भी कभी अहंकार का पत्थर किसी के हृदय से हटा है, तो झरने फूट पड़े हैं।

सबके भीतर छिपा है वेद; पत्थर अहंकार का रखा है ऊपर। हटा दें पत्थर, फूट पड़ेगा झरना। आपके भीतर ही वेद का जन्म हो जाएगा। आप जो कहेंगे, वही वेद हो जाएगा।

इस अर्थ में तो ठीक। लेकिन कोई कहता हो, ऋग्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, इन संहिताओं का नाम वेद है, तो वह भ्रांति की और अज्ञान की बात कह रहा है। ये वेद हैं जरूर, लेकिन और भी वेद हैं। और ब्रह्म मुख से सभी निकला है।

बहुत कुछ संगृहीत नहीं हुआ। बहुत कुछ संगृहीत नहीं हो सका। बहुत कुछ पहचाना नहीं गया। बहुत कुछ आया और खो गया। अनंत-अनंत ऋषियों की वाणी पृथ्वी पर रही और विलीन हो गई है। टूटा-फूटा संगृहीत है। जो संगृहीत है, वह भी पूरा नहीं है। उसमें भी संग्रह करने वालों के हाथों की छाप स्पष्ट है। जो संगृहीत है, उसमें भी जोड़त्तोड़ है। स्वभावतः, आदमी की सीमा है, कमजोरी है।

इसलिए किताबों को मैं वेद नहीं कहता। मैं तो वेद ज्ञान को कहता हूं। जहां भी ज्ञान है, वहीं वेद है, वहीं ब्रह्म बोल रहा है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।। 34।।

इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दंडवत प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा, उस ज्ञान को जान। वे मर्म को जानने वाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।

कीमती है यह सूत्र। कृष्ण कहते हैं, दंडवत कर प्रश्न पूछ, तो वे ज्ञानीजन जो जानते, उसे प्रकट कर देते हैं।

प्रश्न बहुत तरह से पूछे जा सकते हैं। इसलिए शर्त लगाते हैं, दंडवत कर। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि आज दंडवत कर प्रश्न पूछने वाला आदमी मुश्किल से कहीं मिलता है।

प्रश्न बहुत तरह से पूछे जाते हैं। सौ में से नब्बे प्रतिशत प्रश्न सिर्फ कुतूहल, क्यूरिआसिटी होते हैं। बच्चे पूछें, माफ किए जा सकते हैं। बूढ़े पूछें, माफ नहीं किए जा सकते। कुतूहल!

बच्चा चल रहा है बाप के साथ, कुछ भी पूछता चलता है। कुछ भी पूछता चलता है, कि घोड़े के दो कान क्यों हैं? और बाप बुद्धिमान हुआ, तो कुछ भी जवाब देता चलता है। नासमझ हुआ तो डांटता है; बुद्धिमान हुआ तो कुछ भी जवाब देता चलता है।

कुतूहल से जो प्रश्न पूछे गए होते हैं, वे किसी भी जवाब की फिक्र नहीं करते। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। क्योंकि तब तक कुतूहल आगे बढ़ गया होता है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म के संबंध में कुछ बताइए। मैं मिनट दो मिनट और कुछ बात करता हूं, जानकर ही। फिर वे घंटेभर बैठे रहते हैं, फिर दुबारा ब्रह्म की बात ही नहीं पूछते! कुतूहल था। घोड़े के कितने कान होते हैं, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल नहीं था। सवाल महत्वपूर्ण दिखता था, ब्रह्म-जिज्ञासा का था। लेकिन कुतूहल था; बस, पूछ लिया था।

एक गांव में मैं ठहरा था। दो बूढ़े मेरे पास आए। एक जैन थे, एक हिंदू ब्राह्मण थे। दोनों पड़ोसी थे, बचपन के साथी थे। और निरंतर का विवाद था दोनों के बीच। क्योंकि हिंदू ब्राह्मण कहता था, ईश्वर ने सृष्टि बनाई; क्योंकि बिना बनाए कोई चीज कैसे हो सकती है! जैन कहता था, कोई बनाने वाला नहीं है; क्योंकि अगर कोई बनाने वाला है, तो फिर तो बनाने वाले का भी बनाने वाला होना चाहिए! और अगर ईश्वर बिना बनाए हो सकता है, तो सृष्टि ही को बनाने वाले की क्या जरूरत है? वह भी बिना बनाए हो सकती है।

तो सृष्टि अनादि है, जैन कहता। और हिंदू कहता कि उसका भी प्रारंभ है परमात्मा से। विवाद उनका लंबा था। कोई साठ के करीब दोनों की उम्र थी। उन्होंने मुझसे आकर कहा, हमारा लंबा विवाद है। अब तक हल नहीं हो पाया। अब तो हम मरने के करीब आ गए, यह विवाद हल होता भी नहीं। न मैं इनकी मानता, न ये मेरी मानते। आपको हम निर्णायक बनाते हैं। हम दोनों का विवाद हल करें।

मैंने कहा कि निर्णायक मैं बन जाऊं, लेकिन पहले मेरे दोत्तीन सवालों का जवाब दे दें। उन्होंने कहा, क्या? मैंने कहा कि अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई, तो मैंने ब्राह्मण बूढ़े से पूछा कि फिर तुम क्या करोगे? उसने कहा, नहीं; करना क्या है! मैंने कहा कि अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई नहीं, वह है भी नहीं। और सृष्टि सदा से है, तो मैंने जैन बूढ़े से पूछा कि फिर तुम्हारे इरादे क्या हैं? उसने कहा, कोई और इरादे नहीं हैं, बस यह तय हो जाना चाहिए। मैंने कहा, तुम कितने दिन से इस पर विवाद करते हो? जिस विवाद के तय हो जाने का कोई जीवंत परिणाम होने वाला नहीं है, वह कुतूहल है। जिस विवाद के कनक्लूसिव हो जाने पर तुम कहते हो, कोई और बात नहीं है, बस यह तय हो जाना चाहिए। प्रयोजन क्या है? होगा क्या? करोगे क्या?

मैंने उस ब्राह्मण बूढ़े को कहा कि जितना तुमने इनसे विवाद करने में समय गंवाया, उतनी देर तुमने उस ईश्वर को खोजा जिसने सृष्टि बनाई है? उसने कहा कि नहीं; अभी तो इस दिशा में कुछ किया नहीं। मैंने कहा, जितने दिन तुम इनसे विवाद कर रहे थे, उतने दिन अगर खोजते, तो शायद वह मिल ही जाता। लेकिन शायद उसे खोजने का कोई सवाल नहीं है।

मैंने उस जैन बूढ़े को कहा कि तुम्हें पक्का हो गया है कि प्रभु ने प्रकृति नहीं बनाई; अनादि है सृष्टि; तो इस अनादि सृष्टि के रहस्य को जानने के लिए तुमने क्या किया है? या इस आदमी से विवाद कर रहे हो, इतना जानकर; बस इतना ही उपयोग है इस जानने का? कुतूहल!

इसलिए कृष्ण पहले ही कहते हैं, दंडवत करके; कुतूहल से नहीं। क्योंकि जो कुतूहल से पूछेगा, उसे कभी गहरे उत्तर नहीं मिल सकते हैं। आपकी आंखों में दिखा कुतूहल, और उत्तर देने वाला बचाव कर जाएगा। क्योंकि जो जानता है, वह हीरे उन्हीं के सामने रख सकता है, जो हीरों को पहचान सकते हों। हर किसी के सामने हीरे रख देना नासमझी है। अर्थ भी नहीं है, प्रयोजन भी नहीं है। तो जो जानता है, वह कुतूहल का उत्तर नहीं दे सकता है।

दूसरी बात, कुतूहल न हो, जिज्ञासा हो, इंक्वायरी हो; क्यूरिआसिटी न हो, जिज्ञासा हो। कुतूहल नहीं है; सच में ही जानना चाहता है एक आदमी। ऐसा नहीं कि ऐसे ही पूछ लिया, बाई दि वे! ऐसा नहीं, चलते थे रास्ते से, पूछ लिया, ऐसा नहीं। सच में ही जानना चाहता है; जानने को बड़ा आतुर है। लेकिन आतुर तो जानने को है, बहुत आतुर है, लेकिन जिससे जानना चाहता है, उसे इतना भी आदर नहीं देना चाहता कि मैं तुमसे जानना चाहता हूं; तो जानने की आतुरता भी सार्थक जिज्ञासा नहीं बन सकती है।

वह ऐसा ही है कि एक आदमी बहुत प्यासा है। हाथ चुल्लू बांधकर खड़ा है नदी के किनारे; लेकिन झुकना नहीं चाहता है कि झुके और पानी भर ले; तो नदी अपने नीचे बहती रहेगी। कोई नदी छलांग लगाकर और किन्हीं की चुल्लुओं में नहीं आती। चुल्लुओं को ही नदी तक झुकना पड़ता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके।

ज्ञान की भी एक नदी है, धारा है। उसे कोई अहंकार में अकड़कर खड़ा होकर चाहे कि ज्ञान पा ले, कि किसी प्रश्न का सार्थक उत्तर पा ले, तो असंभव है। क्योंकि वह अहंकार ही बताता है कि जो झुकने को राजी नहीं, उसका चुल्लू भरा नहीं जा सकता। झुके!

झुकने में राज क्या है? झुकने का इतना आग्रह क्या है?

दंडवत करके प्रतीकात्मक है। दंडवत का मतलब यह नहीं है कि सच में ही कोई आदमी सिर जमीन पर रख दे, तो कुछ हल हो जाए। नहीं; भाव चाहिए दंडवत का। अहंकार झुका हुआ चाहिए; क्योंकि जहां अहंकार झुकता है, वहां हृदय का द्वार खुलता है। उस खुले द्वार में ही रिसेप्टिविटी, ग्राहकता पैदा होती है।

जहां हृदय का द्वार बंद है, अहंकार अकड़कर खड़ा है, द्वार बंद है, वहां उत्तर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिए अहंकार से पूछी गई जिज्ञासा को ज्ञानीजन उत्तर नहीं देते हैं। वे कहते हैं, जाओ, अभी समय नहीं आया।

शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है, वह जैसा प्रचलित है, वैसा नहीं है। शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। तैयार है, सीखने को! शिष्य का बिगड़ा हुआ एक रूप आप देखते हैं, सुनते हैं, सिक्ख। सिक्ख का मतलब है, सीखने को जो तैयार है। हालांकि सिक्ख सीखने को तैयार मिलेगा नहीं। सिक्ख होना बहुत मुश्किल है। शिष्य होना बहुत मुश्किल है।

शिष्य होने का मतलब है, जो कि सीखने को, झुकने को, विनम्र होने को राजी है। क्योंकि ह्युमिलिटी में, विनम्रता में ही द्वार खुलता है। जब हम झुकते हैं, तभी द्वार खुलता है। अकड़कर खड़े हुए आदमी के द्वार बंद होते हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके जो प्रश्न पूछता है!

दंडवत करके कौन प्रश्न पूछता है? और दंडवत करके कौन प्रश्न नहीं पूछता है?

जो आदमी दंडवत करके प्रश्न नहीं पूछता है, वह वह आदमी है, जो भीतर तो यह मानकर ही चलता है कि मुझे तो खुद ही पता है। ऐसे ही पूछे ले रहे हैं एक विटनेस के बतौर कि अगर इनको भी पता हो, तो गवाही मिल जाए कि जो हम जानते थे, वह ठीक है। दंडवत करके वही पूछता है, जिसे बोध है अपने अज्ञान का।

मैंने सुबह आपसे कहा, अज्ञान का बोध ज्ञान यज्ञ का पहला चरण है। उसको कृष्ण फिर दोहराते हैं। अब वे एक नए रूप से कहते हैं कि दंडवत करके जो पूछता, झुककर जो पूछता!

एक बहुत मीठी कहानी है। मैंने सुना है, एक सम्राट ने अपने दरबार के बुद्धिमानों को कहा कि मैं जानना चाहता हूं कि ब्रह्म इस जगत में, कहते हैं लोग, इस भांति समाया है कि जैसे नमक सागर के जल में। दिखाओ मुझे, यह समाया हुआ ब्रह्म कहां है?

विद्वान थे दरबार में लोग। लेकिन दरबार में जैसे विद्वान हो सकते हैं, वैसे ही थे। दरबार में कोई ज्ञानी होगा, इसकी आशा तो मुश्किल है। दरबारी विद्वान थे। सब जगह मिलते हैं। अगर दिल्ली में जाइए तो बहुत हैं। तो दरबारी विद्वान! उनका काम दरबार की शोभा बढ़ाना। शृंगारिक उपयोग है उनका, डेकोरेटिव। तो सभी सम्राट अपने दरबार में विद्वान रखते थे, नहीं तो सम्राट मूढ़ समझा जाए। लेकिन मूढ़ के दरबार में जो विद्वान हों, वे कितने विद्वान होंगे, यह समझा जा सकता है।

विद्वान मुश्किल में पड़े। बहुत समझाने की कोशिश की। बड़े उद्धरण दिए। लेकिन सम्राट ने कहा, नहीं, मुझे दिखाओ निकालकर। जो सभी जगह छिपा हुआ है, थोड़ा-बहुत तो निकालकर कहीं से दिखाओ! हवा से निकाल दो, दीवाल से निकाल दो, मुझसे निकाल दो, खुद से निकाल दो! कहीं से तो निकालकर थोड़ी तो झलक दिखाओ! मुश्किल में पड़ गए। पर सम्राट ने कहा, नहीं बता सकोगे कल सुबह तक, तो छुट्टी! फिर लौटकर मत आना। बड़ी कठिनाई हो गई। बड़ी कठिनाई हो गई!

द्वारपाल भी खड़ा हुआ सुनता था। दूसरे दिन सुबह जब विद्वान नहीं आए, तो उस द्वारपाल ने कहा, महाराज! विद्वान तो आए नहीं; समय हो गया। और जहां तक मैं समझता हूं, वे अब आएंगे भी नहीं; क्योंकि उत्तर होता, तो कल सांझ को ही दे देते। रातभर में उत्तर खोजेंगे कैसे? कहीं उत्तर रखा हुआ थोड़े ही है कि वे उठाकर ले आएंगे, ढूंढ़ लेंगे, कि तैयार कर लेंगे। अगर अनुभव होता उन्हें, तो कल ही कह दिए होते। तो अगर हो इरादा, तो मैं उत्तर दूं।

राजा ने कहा, हद हो गई! तू द्वारपाल; सदा दरवाजे पर खड़ा रहा। विद्वान हार गए; तू उत्तर देगा! उसने कहा, मैं उत्तर दूंगा। राजा ने कहा, भीतर आ; उत्तर दे। उसने कहा, पहले नीचे उतरो सिंहासन से। मैं सिंहासन पर बैठता हूं। दंडवत करो नीचे। राजा ने कहा, पागल, किस तरह की बातें करता है! उसने कहा, तो फिर, फिर तुम्हें उत्तर कभी नहीं मिलेगा। जो तुम्हारे चरणों में बैठते हैं, उनसे तुम्हें उत्तर कभी भी नहीं मिलेगा। क्योंकि वे उत्तर देने योग्य होते, तो तुम्हें चरणों में बिठा लिया होता उन्होंने। उतरो नीचे, उस द्वारपाल ने कहा।

राजा एकदम घबड़ा गया! कोई था भी नहीं। दरबार में कोई था नहीं। कहा, उतर नीचे! जब प्रश्न पूछा है, तो उत्तर देकर रहेंगे। राजा घबड़ाकर नीचे बैठ गया। द्वारपाल सिंहासन पर बैठ गया। द्वारपाल ने कहा, दंडवत कर! सिर झुका! राजा ने सिर झुकाया। और जीवन में पहली बार उसे सिर झुकाने के आनंद का अनुभव हुआ–पहली बार!

सिर अकड़ाए रखने की बड़ी पीड़ा है। लेकिन जिंदगीभर अकड़ाए रखने से पैरालिसिस हो जाती है। अकड़ ही जाता है। फिर उसको झुकाना हो, तो बड़ी कठिनाई होती है।

बड़ी मुश्किल से तो झुकाया। लेकिन सिर झुकाकर जब उसके पैरों में पड़ रहा, तो उस द्वारपाल ने थोड़ी देर बाद कहा कि अब ऊपर भी उठा! पर सम्राट ने कहा, थोड़ी देर रुक। मैंने तो यह सुख कभी लिया नहीं। थोड़ा रुक। जल्दी नहीं है उत्तर की।

आधी घड़ी, घड़ी बीतने लगी। द्वारपाल ने कहा, अब सिर उठाओ। जवाब नहीं लेना है? उस सम्राट ने ऊपर देखा और उसने कहा, जवाब मुझे मिल गया। अकड़ा था, इसीलिए मुझे पता नहीं चला उस ब्रह्म का; आज झुका तो मुझे पता लगा कि कहां खोजता हूं बाहर! जब सब जगह है, तो भीतर भी तो होगा ही। झुके-झुके मैं उसी में खो गया। उत्तर मुझे मिल गया। तुम मेरे गुरु हो।

बिना कहे उत्तर मिल गया! बिना उत्तर दिए उत्तर मिल गया! हुआ क्या? हंबलनेस, ह्युमिलिटी, विनम्रता गहरे में उतार देती है और वहां से जो अंतर-ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं, वे उत्तर बन जाती हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके प्रश्न पूछना ऐसे पुरुष से।

लेकिन प्रश्न पूछने वाले आते हैं; मेरे पास ही आ जाते हैं, तो चारों तरफ देखते हैं कि कहां बैठें? प्रश्न क्या पूछना है! शायद प्रश्न के बहाने कुछ बताने ही चले आए हों।

आज पृथ्वी पर पूछने की कला ही खो गई है। हाउ टु बी ए डिसाइपल, कैसे सीखने वाले बनना, वह बात ही खो गई है। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, गुरु की कोई जरूरत नहीं। मूढ़जन बहुत प्रसन्न होते हैं। इसलिए नहीं कि वे समझ जाते हैं मेरा मतलब कि गुरु की जरूरत नहीं; वे समझ जाते हैं कि शिष्य होने की कोई जरूरत नहीं। बड़े प्रसन्न होते हैं! उनकी प्रसन्नता देखकर मैं हैरान होता हूं।

गुरु की कोई जरूरत नहीं, जब मैं यह कहता हूं, तो मेरा मतलब होता है कि गुरु को पता ही नहीं होता कि वह गुरु है। लेकिन शिष्य को पूरा पता होना चाहिए कि वह शिष्य है। क्योंकि शिष्य को अभी सीखना है; गुरु को अब सीखना नहीं है। गुरु वहां पहुंच गया है, जहां कुछ भी याद रखने की जरूरत नहीं है। शिष्य को अभी बहुत कुछ याद रखना है; क्योंकि अभी यात्रा पूरी नहीं हो गई है।

मुझसे लोग कहते हैं कि आप पहले तो कहते थे, गुरु की कोई जरूरत नहीं है। और अब आप कहने लगे कि जरूरत है!

तो मैंने कभी नहीं कहा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं, इस अर्थ में कि शिष्य की कोई जरूरत नहीं। लेकिन दंभी प्रकृति के व्यक्ति इस बात को सुनकर बड़े प्रसन्न होते हैं। गुरु की कोई जरूरत नहीं, उसका मतलब यह कि अब किसी से सीखने की कोई जरूरत नहीं। अब तो हम खुद ही गुरु हो गए! गुरु की कोई जरूरत नहीं, मतलब हम खुद ही गुरु हैं! तो उन्हें लगता है कि मैं कंट्राडिक्शन करता हूं। कह देता हूं कभी कि गुरु की जरूरत है!

जब मैं कहता हूं, गुरु की जरूरत है, तो मैं शिष्यों से कह रहा हूं। और जब मैं कहता हूं, गुरु की कोई जरूरत नहीं, तो गुरुडम चलाने वाले गुरुओं से कह रहा हूं। क्योंकि गुरुडम जो चलाता है, वह तो गुरु होता नहीं। जिसे गुरु होने की धारणा भी पकड़ जाती है, वह तो गुरु के योग्य नहीं रह जाता है।

ध्यान रहे, गुरु का जिसे खुद खयाल पकड़ जाए कि मैं गुरु हूं, वह गुरु नहीं रह जाता। और जिस शिष्य को यह खयाल न पकड़े कि मैं शिष्य हूं, वह शिष्य नहीं रह जाता। और ऐसा शिष्य चाहिए, जिसे पता हो कि वह शिष्य है। और ऐसा गुरु चाहिए, जिसे पता न हो कि वह गुरु है। तब गुरु-शिष्य का मिलन होता है।

तब सीखने वाला चाहिए झुका हुआ, खुला द्वार, वलनरेबल, ताकि कोई चीज उसमें प्रवेश कर सके। कुछ डाला जा सके, तो झेला जा सके। उलटा पात्र नहीं चाहिए शिष्य का, कि कुछ गिरे, तो सब बाहर गिर जाए। सीधा पात्र चाहिए।

बुद्ध कहा करते थे कि कई पात्र ठीक हैं बिलकुल, लेकिन उलटे रखे हैं। उन पर हम डालते हैं, बेकार चला जाता है। कई पात्र सीधे रखे हैं, लेकिन बिलकुल फूटे हैं। उन पर डालते हैं, बह जाता है। पात्र ऐसा चाहिए कि फूटा न हो। और पात्र ऐसा चाहिए कि फूटा न हो और सीधा हो।

जब कोई दंडवत करता, तो फूटा पात्र नहीं होता; क्योंकि झुकने के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। इसे जरा कठिन लगेगा सोचना कि झुकने के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। झुका तो कमजोर भी सकते हैं, झुकना सिर्फ महाशक्तिशालियों का काम है। झुका लेना तो किसी को बड़ा आसान है; झुक जाना बड़ा कठिन है। और तब झुक जाना तो आसान है, जब कोई झुकाता हो। तब झुक जाना महान कार्य है, जब कोई झुकाता न हो।

कोई गुरु कहे, झुक! डंडे से झुका दे; चार आदमी लगाकर झुका दे; तो झुक जाएंगे। लेकिन तब झुकना बहुत आसान है। लेकिन गर्दन ही झुकाई जा सकेगी, और कुछ भी नहीं झुकेगा। लेकिन जब कोई कहता ही नहीं झुकने की कोई बात; कोई आतुर ही नहीं; तब झुकना, तब सहज, स्पांटेनियस–दंडवत का वही अर्थ है, अपनी ओर से सब छोड़कर पड़ जाना, सरेंडर्ड, समर्पित।

उस क्षण में ही प्रश्न पूछा जा सकता है। उस क्षण में प्रश्न न तो कुतूहल होता, न जिज्ञासा होता; बल्कि उस क्षण में प्रश्न मुमुक्षा बन जाता है। उस क्षण में प्रश्न प्यास हो जाता है। उस क्षण में प्रश्न ऐसा नहीं है कि चलते हुए पूछ लिया; प्रश्न ऐसा नहीं है कि जानना चाहते थे, इसलिए पूछ लिया। प्रश्न ऐसा है कि रूपांतरित होना चाहते हैं, इसलिए पूछा। बदलना चाहते हैं, क्रांति से गुजरना चाहते हैं, म्यूटेशन से जाना चाहते हैं, और हो जाना चाहते हैं।

प्रश्न ऐसा नहीं था, जैसे बच्चे पूछ लेते। प्रश्न ऐसा नहीं था, जैसा वैज्ञानिक पूछता। प्रश्न ऐसा था, जैसा साधक पूछता है। ऐसा प्रश्न पूछा जाए, तो ही ज्ञान जिसके जीवन में घटित हुआ, उससे धारा बहनी शुरू होती है।

दंडवत का एक और अर्थ आपको स्पष्ट करना चाहूंगा। क्योंकि बड़ी भ्रांतियां हैं। मैं निरंतर कहता रहा हूं कि किसी के पैर मत छुओ। लोग मेरे पैर छू लेते हैं। तो लोग मेरे पास आ जाते हैं कि आपने कहा कि किसी के पैर मत छुओ और फलां आदमी आपका पैर छू रहा था! आपने रोका क्यों नहीं?

किसी के पैर मत छुओ का मतलब, औपचारिक मत छुओ, फार्मल मत छुओ, जानकर मत छुओ, कोशिश करके मत छुओ, चेष्टा करके मत छुओ, एफर्ट से मत छुओ, प्रयत्न-यत्न से मत छुओ; और दूसरे छू रहे हैं, इसलिए मत छुओ; कोई क्या कहेगा, इसलिए मत छुओ।

पैर छूना उस क्षण दंडवत बन जाता है, जिस क्षण आपको पता ही नहीं चलता कि आप पैर छू रहे हैं। एफर्टलेस! पता ही तब चलता है, जब पैर छूने की घटना घट गई होती है, जब कहीं सिर रख जाता है किसी चरण पर। तब ध्यान रहे, जब ऐसी मनोदशा में सिर रख जाता है किसी चरण पर, तो प्रार्थना घटित हो जाती है, ध्यान घटित हो जाता है। तो ऐसे क्षण में वह विनम्रता घटित हो जाती है, जो शिष्यत्व है, डिसाइपलशिप है।

और ये पैर एकदम ही व्यर्थ नहीं हैं, इनका आकल्ट उपयोग भी है। कभी आपने खयाल किया, किसी पर क्रोध आता है, तो उसका सिर खोल देना चाहते हैं। बहुत क्रोध आ जाता है किसी को…।

अभी मैं बड़ौदा में था। एक आदमी को बहुत क्रोध आ गया मुझ पर, तो उसने एक जूता फेंककर मेरी तरफ मार दिया। फिर भी मैंने उससे कहा कि तेरा क्रोध पूरा नहीं है; नहीं तो दूसरा जूता क्यों रोका है? उसको भी फेंक। और फिर एक जूते का मैं क्या करूंगा? दो जूते होंगे, तो कुछ उपयोग में आ सकते हैं!

क्रोध तेजी से आ जाए, तो जूता फेंकने का मन होता है। क्या बात है? सिंबालिक है। क्रोध जोर से आ जाए, तो दूसरे के सिर में पैर मारने की तबियत होती है। अब पैर तो मार नहीं सकते। इतनी छलांग लगाना, कुछ थोड़े से हाई जंप करने वालों को संभव हो! बाकी किसी के सिर में पैर मारने जाओ, तो हाथ-पैर अपने टूट जाएं! उतनी मेहनत मुश्किल मालूम पड़ती है। इसलिए जूते को सिंबालिक एक्ट की तरह, प्रतीक-चिह्न की तरह उसके सिर पर फेंक देते हैं, कि यह ले!

जब क्रोध में ऐसा घटित होता है, तो क्या इससे विपरीत घटित नहीं हो सकता कि किसी के चरणों में सिर रखने का क्षण आ जाए? जब क्रोध से पीड़ित, विक्षिप्त चित्त दूसरे के सिर पर पैर रखना चाहता है, तो मौन से, प्रेम से, प्रार्थना से, शांत हुआ चित्त, अगर दूसरे के पैरों में सिर रखना चाहे, तो आश्चर्य क्या है?

लेकिन जो लोग जूते मारने में कोई आश्चर्य न देखेंगे, वे लोग पैर पर सिर रखने देने से बड़े आश्चर्यचकित हो जाते हैं! असल में उन्हें रहस्य का कोई पता नहीं।

फिर यह भी ध्यान रहे कि दंडवत इस मुल्क में एक बहुत साइंटिफिक प्रोसेस का हिस्सा थी, एक वैज्ञानिक प्रक्रिया थी। प्रत्येक व्यक्ति का शरीर विद्युत-ऊर्जा से भरा है। और यह विद्युत-ऊर्जा कोणों से, कोनिकल जगह से बहती है–अंगुलियों से और पैर की अंगुलियों से, हाथ की अंगुलियों से और पैर की अंगुलियों से। जब भी कोई व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है, समर्पित परमात्मा पर, तो उसकी ऊर्जा परमात्मा से संबंधित हो जाती है। उसके पैरों पर अगर सिर रख दिया है, तो विद्युत-संचरण, तरंगों का प्रवाह भीतर तक दौड़ जाता है। उसके हाथों से भी यह होता है। इसलिए पैर पर सिर रखने का रिवाज था। और हाथ सिर पर रखकर आशीष देने का रिवाज था।

अगर किसी व्यक्ति के पैरों पर आपने सिर रखा और उसने भी आपके सिर पर हाथ रख दिया, तो आपके दोनों के शरीर इलेक्ट्रिक सर्किट बन जाते हैं और विद्युत-धारा दोनों तरफ से दौड़ जाती है। इस विद्युत-धारा के दौड़ जाने के गहरे परिणाम हैं।

लेकिन जीवन के बहुत-से सत्य समय की धूल से जमकर व्यर्थ हो जाते हैं। जीवन के बहुत-से सत्य गलत लोगों के हाथ में पड़कर खतरनाक भी हो जाते हैं।

दंडवत करके पूछना, प्रश्न करना, जिज्ञासा, तो जिसने जाना है, उससे ज्ञान का अमृत तेरी तरफ बह सकता है अर्जुन, ऐसा कृष्ण कहते हैं।

प्रश्न:

भगवान श्री, इस श्लोक में यह भी कहा गया है कि सेवा और निष्कपट भाव से किए गए प्रश्न पर ज्ञानीजन उपदेश करते हैं। कृपया सेवा और निष्कपट भाव से किए गए प्रश्न का अर्थ स्पष्ट करें।

अकेला प्रश्न, कुछ लेने की आकांक्षा है। लेकिन जिसने कुछ दिया नहीं, वह लेने का अधिकारी नहीं है। पूछने चल पड़े, तो मांगने तो चल पड़े, लेकिन प्रत्युत्तर देने की सामर्थ्य भी चाहिए। और सच तो यह है कि मांगने का हक मिलता है तब, जब देने का काम पूरा हो चुका हो।

इसलिए पुरानी भारतीय आध्यात्मिक धारणा थी कि जब कोई पूछने जाए, तो सीधा पूछने न चला जाए। क्योंकि कितने विराट की मांग कर रहे हो तुम! तुम कह रहे हो, सत्य की खबर दो मुझे! कह रहे हो, परमात्मा का इशारा बताओ मुझे! कह रहे हो कि आखिरी मंजिल का द्वार कहां? मार्ग कहां? विधि कहां? पूछते हो परम को–सीधा पूछते हो! बिना कुछ दिए पूछते हो! अशोभन है। सेवा से और निष्कपट भाव से की गई सेवा से पूछो।

इसलिए इस मुल्क की व्यवस्था थी। और इस मुल्क की व्यवस्था इस पृथ्वी पर की गई मनुष्य की व्यवस्थाओं में सर्वाधिक गहरी थी। हजार-हजार वर्षों में हजार-हजार प्रयोगों के बाद नियत की गई थी। हजारों-लाखों अनुभवों के बाद सार-निचोड़ था।

तो गुरु के पास शिष्य जाता, तो वर्षों तो सेवा करता। कभी पैर दबा देता। कभी उसका पानी भर लाता। कभी उसकी लकड़ी चीर देता। कभी उसकी आग जला देता। और प्रतीक्षा करता कि गुरु किसी दिन कहे, पूछो। अपनी तरफ से पूछता भी नहीं। क्योंकि अनधिकार होगा। पता नहीं, मैं पात्र भी हूं या नहीं। पता नहीं, मेरी योग्यता भी है या नहीं। पता नहीं, मैं इस जगह भी हूं या नहीं कि पूछूं। और अगर मैं पूछ लूं, अपात्र होऊं, तो गुरु को उत्तर देने के व्यर्थ के कष्ट में डालने वाला न बन जाऊं! रुकूं। जिस दिन गुरु कहेगा, पूछ! पूछ लूंगा। प्रतीक्षा करता। कभी-कभी वर्ष बीत जाते। धैर्य, अवेटिंग, धीरज से राह देखता। करता रहता काम।

फिर किसी दिन गुरु कहता, ठीक। अब तू आ। अब तू पूछ। तुझे देखा। तुझे जाना। तुझे परखा। तुझे निकट से समझा। पात्र है तू। उठा ला समिधा। प्रश्न जगा। पूछ ले।

जिस दिन गुरु कहता, पूछ ले, उस दिन गुरु उस प्रसन्नता में, उस पात्र को पहचान लेने की प्रसन्नता में, लबालब भरा होता। जैसे बादल भर जाते हैं वर्षा के पहले; आतुर धरती कहीं भी पुकारे, बरस पड़ते हैं। ऐसे ही भरा होता है उस प्रसन्नता में। उस क्षण प्रसाद बहने को तत्पर होता। उस क्षण दंडवत करके, उस दिन चरणों में सिर रखकर वह अपना प्रश्न उपस्थित करता।

अदभुत लोग रहे होंगे। एकाध प्रश्न पूछने के लिए दो-चार वर्ष प्रतीक्षा करना! अदभुत लोग रहे होंगे। जिज्ञासा नहीं रही होगी, कुतूहल नहीं रहा होगा, मुमुक्षा रही होगी प्राणों की; दांव रहा होगा सारी जिंदगी को लगाने का। सवाल सवाल नहीं था, जिंदगी का सवाल था। उसके तय होने पर सब कुछ निर्भर था। तो दो वर्ष प्रतीक्षा भी की थी।

आज तो हालतें बड़ी मजेदार हैं। मैं अभी बिहार में था कुछ समय पहले। रात दस बजे बोलकर लौटा। कलेक्टर उस गांव के आए। पढ़े-लिखे आदमी हैं। दस बजे आए। मैंने कहा, अब तो मेरे सोने का समय हुआ। आप सुबह आ जाएं, आठ बजे। उन्होंने कहा, आठ बजे तो मैं न आ पाऊंगा; क्योंकि आठ बजे तो मेरे नाश्ते का समय है।

लाए थे ब्रह्म-जिज्ञासा; कहने लगे, आठ बजे नाश्ते का समय है! मैंने कहा, तो फिर दस बजे आ जाएं, क्योंकि आठ से दस शिविरार्थियों के लिए दिया है। दस बजे आ जाएं।

दस बजे तो नहीं आ सकता। दफ्तर जाऊंगा।

ब्रह्म-जिज्ञासा! एक दिन की छुट्टी नहीं ली जा सकती! तो मैंने कहा, परसों आ जाएं। उन्होंने कहा, परसों! सुबह तो नहीं आ सकूंगा। कुछ मेहमान आते हैं। ब्रह्म-जिज्ञासा! मेहमान आ रहे हैं! मैंने कहा, सांझ आ जाएं। कहा कि थियेटर के टिकट ले रखे हैं! ब्रह्म-जिज्ञासा! थियेटर के टिकट ले रखे हैं!

तो फिर मैंने कहा कि हाथ जोड़कर दंडवत करूं आपके और पूछूं कि कब आज्ञा है कि आपके दरवाजे उपस्थित हो जाऊं! थोड़े घबड़ाए। विचलित हुए।

क्या, चाहते क्या हैं हम? चाहते भी हैं कुछ?

स्वभावतः, अगर ब्रह्म हमारे अनुभव से खो गया है, तो आश्चर्य नहीं है। पूछने वाले ही खो गए। सम्यकरूपेण जानने की आतुरता वाले ही खो गए। इतना-सा छोड़ने का मन नहीं है!

इसलिए कहते हैं कृष्ण, सेवापूर्वक, निष्कपट भाव से…।

निष्कपट भाव क्यों जोड़ दिया? क्योंकि सेवा में भी कपट हो सकता है। सेवा में भी सिर्फ इतना ही मतलब हो सकता है कि कर रहे हैं सेवा, ऐज ए बार्गेन, एक सौदे की तरह कि हम कर देंगे सेवा, तुम बता देना ब्रह्म!

जहां सौदा है, वहां सेवा नहीं रह गई, वहां कपट आ गया। निष्कपट! सेवा को और भी कठिन बना दिया। करना सेवा निष्कपट कि अगर चार साल सेवा करने के बाद गुरु कहे, जाओ। मत पूछो। तो यह न कह पाओ कि मैंने चार साल सेवा की! क्या इसलिए? यह भी न कह पाओ। गुरु कहे, नहीं; जाओ। तो चले जाना कि सेवा का अवसर दिया, यही धन्यभाग है। निष्कपट इसलिए है।

निष्कपट सेवा हो, झुका हुआ सिर हो, खुला हुआ मन हो, तो ज्ञान की गंगा कहीं भी, कहीं से भी उतर आने को सदा तत्पर है।

शेष कल सुबह।

अब संन्यासी कीर्तन करेंगे, डूबेंगे इस भाव में। आप अपनी जगह बैठे रहें। उठें न! कल जैसी भीड़ न कर लें, अपनी जगह बैठे रहें। बैठकर ही देखेंगे, ज्यादा आनंद आएगा। आगे न बढ़ें। जिनको कीर्तन करना है, वे आगे आ जाएंगे। बाकी अपनी जगह बैठे रहें। दस मिनट डूबें। ताली बजाएं साथ में। गाएं साथ में। भाव में एक साथ हों।


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जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–19

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धर्म की मूल भित्‍ति: अभय—प्रवचन—उन्‍नीसवां

सूत्र:

णवि होदि अप्‍पमत्‍तो, ण पमत्‍तो जाणओ दु जो भावो।

एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।। 48।।

णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसि।

कत्‍ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्‍तीणं।। 49।।

को णाम भणिज्‍ज बुहो णाउं णाउं सव्‍वे सव्‍वे पराइए भावे।

मज्‍झमिणं ति य वयणं, जाणंतो अप्‍पयं सुद्धं।। 50।।

अहमिक्‍को खलु सुद्धो, णिम्‍ममओ णाणदं सणसमग्‍गो।

तम्‍हि ठिओ तच्‍चित्‍तो, सव्‍वे एए खयं णेमि।। 51।।

जीवन थोड़ी देर को है। सुबह हो गई तो जल्दी सांझ भी होगी। जन्म हुआ तो मौत आने लगी ही तुम्हारे पास।

जन्म और मृत्यु के बीच में ज्यादा समय नहीं है–अत्यल्प काल है। उसे सोये-सोये मत बिता देना। क्योंकि जो उसे सोये-सोये बिता देता है, वह जान ही नहीं पाता कि कौन था, क्यों आया था; जीवन के सारे रहस्यों से अपरिचित रह जाता है। और प्राणों में सिवाय आंसुओं के, अतृप्त आकांक्षाओं के, असंतोष के, विषाद के, कुछ भी लेकर न जा सकोगे।

जागा हुआ ही भरता है; सोया हुआ खाली रह जाता है। और जीवन इतना छोटा है कि अगर उद्दाम वेग से, अगर महत संकल्प से, अगर सारे जीवन को दांव पर लगा देने की आकांक्षा के बिना, जागना चाहा तो जाग न पाओगे।

बहुत तो ऐसे भी हैं जो सोये-सोये ही जागने का सपना देख लेते हैं और समझा लेते हैं कि जाग गये। सौ में से निन्यानबे साधु-संन्यासी जागने का सपना देख रहे हैं, जागे नहीं। क्योंकि जागने की जो प्रक्रिया है और उस प्रक्रिया के लिए जितने जोर से जीवन को दांव पर लगा देने की जरूरत है, वैसा साहस उनमें दिखाई नहीं पड़ता। अकसर तो ऐसा होता है कि साधु और संन्यासी भयभीत लोग होते हैं। साहस के कारण संन्यासी नहीं होते हैं; संसार के भय के कारण संन्यासी हो जाते हैं। और संन्यास का भय से क्या संबंध हो सकता है?

इसके पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें, इस बात को खयाल में ले लेना: दुस्साहस चाहिए। ऐसा साहस–जो सब दांव पर लगा देने को तैयार हो! जोखिम उठाने की हिम्मत चाहिए। जुआरी का दिल चाहिए। होशियारी से न चल सकोगे इस रास्ते पर। होशियार भटक जाते हैं। ज्यादा समझदारी अंततः नासमझी सिद्ध होती है; क्योंकि समझदार रत्ती-रत्ती का हिसाब रखता है। रत्ती-रत्ती तो बचा लेता है; लेकिन जीवन का सारा खजाना खो जाता है। बूंद-बूंद बचा लेता है, सागर गंवा देता है। कंकड़-पत्थर जुटाने में ही समय व्यतीत हो जाता है और सांझ आने में देर नहीं लगती। सुबह हो गई तो सांझ होने लगी। सूरज ऊगा नहीं कि डूबना शुरू हो जाता है; पूरब से उठा नहीं कि पश्चिम की तरफ यात्रा शुरू हो गई।

इसके पहले कि सूरज डूब जाये, इसके पहले कि अंधेरा तुम्हें पकड़ ले और खुद को खोजना मुश्किल हो जाये–और ऐसा बहुत बार हो चुका है–इसलिए तुम्हें चेता देना जरूरी है। अनेक-अनेक बार तुमने सूरज देखा है, सुबह देखी है।

और तुम्हारे जीवन की कथा पूरी भी नहीं हो पाती। कब किसकी होती है?

जमाना बड़े शौक से सुन रहा था

हमीं सो गये दासतां कहते-कहते

कभी पूरी भी नहीं होती दासतां। सभी बीच में ही मर जाते हैं। क्योंकि आकांक्षाएं अनंत हैं और समय सीमित है। जीवन की प्याली में इतनी आकांक्षाएं भरी नहीं जा सकतीं।

तो अगर खाली हाथ जाना हो तो सांसारिक का जीवन है। अगर भरे हाथ जाना हो तो धार्मिक का जीवन है। लेकिन धर्म का प्रारंभ साहस से होता है।

दुनिया में दो तरह के धार्मिक व्यक्ति हैं। एक–जो भय के कारण धार्मिक हैं। चोरी नहीं कर सकते, भय के कारण; इसलिए अचोर हैं। बेईमानी नहीं कर सकते, पकड़े जाने के भय के कारण; इसलिए ईमानदार हैं। यह ईमानदारी कोई बहुत गहरी नहीं हो सकती। इस ईमानदारी में बेईमानी छिपी है। यह ईमानदारी ऊपर-ऊपर है; भीतर बेईमानी वास बनाए है। झूठ नहीं बोलते, क्योंकि पकड़े न जायें। अधर्म नहीं करते, क्योंकि पाप का भय है, नर्क का भय है। नर्क की लपटें दिखाई पड़ती हैं। और हाथ-पैर उनके शिथिल हो जाते हैं।

दुनिया में अधिक लोग धार्मिक हैं–भय के कारण; दंड के कारण। लेकिन जो भय के कारण धार्मिक हैं, वे तो धार्मिक हो ही नहीं सकते। उससे तो अधार्मिक बेहतर; कम से कम भयभीत तो नहीं है।

महावीर ने अभय को धर्म की मूल भित्ति कहा है। और है भी अभय धर्म कि मूल भित्ति। क्योंकि संसार को तो गंवाना है और कुछ ऐसी खोज करनी है जिसका हमें अभी पता भी नहीं। यह साहस के बिना कैसे होगा? जो सामने दिखाई पड़ता है उसे तो छोड़ना है और जो कभी दिखाई नहीं पड़ता, सदा अदृश्य है, अदृश्यों की गहरी पर्तों में छिपा है, रहस्यों की पर्तों में छिपा है–उसे खोजना है।

समझदार कहता है, हाथ की आधी भी भली। दूर की पूरी रोटी से हाथ की आधी रोटी भली! तो समझदार तो कहता है, जो है उसे भोग लो। चाहे उसमें कुछ भी न हो; लेकिन इसे दांव पर मत लगाओ, क्योंकि कौन जानता है, जिसके लिए तुम दांव पर लगा रहे हो वह है भी या नहीं! जिस सत्य की, जिस आत्मा की, जिस परमात्मा की खोज पर निकलते हो–किसने देखा? इसलिए चार्वाक कहते हैं, “ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।’ पी लो घी ऋण लेकर भी–सामने तो है! किस स्वर्ग के लिए छोड़ते हो? ऋण न भी चुके तो फिक्र मत करो। लेकिन जो सामने है, उसे भोग लो।

धर्म का पहला कदम तब उठता है, जब तुम देखते हो जो सामने है वह भोगने योग्य ही नहीं। भोगा तो, न भोगा तो–सब बराबर है। इसे भोग भी लिया तो क्या भोगा? इसे पाकर भी क्या मिलेगा? हां, इसे पाने में, इसे भोगने में जो समय गया वह जीवन की संपदा गई।

महावीर ने तो आत्मा को नाम “समय’ दिया है। बड़ी महत्वपूर्ण बात है। महावीर आत्मा को कहते हैं: “समय’। समय को गंवाते हो तो आत्मा को गंवाते हो। समय को सम्हाल लिया तो आत्मा को सम्हाल लिया। जैसे वस्तुएं स्थान घेरती हैं, वैसे आत्मा समय घेरती है। जैसे वस्तुएं बाहर घटती हैं–क्षेत्र में, वैसे आत्मा भीतर घटती है–समय में।

आइंस्टीन शायद महावीर से राजी होता; क्योंकि उसने भी पाया कि जीवन को बनानेवाले दो ही तत्व हैं: टाइम और स्पेस, समय और क्षेत्र।

क्षेत्र से वस्तुएं बनती हैं, यह साफ है। मनुष्य की चेतना कहां है? क्षेत्र में तो कहीं नहीं बता सकते। उंगली से इशारा हो सके, नहीं बता सकते। जहां भी हाथ रखोगे वहीं गलती हो जायेगी। आदमी की आत्मा कहीं समय में है। शरीर क्षेत्र में है, आत्मा समय में है। वस्तुएं क्षेत्र में हैं, घटनाएं समय में हैं। अगर तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाये और कोई पूछे कहां है प्रेम, तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे, प्रेम घटना है, वस्तु नहीं। जब तुम कहते हो, प्रेम घटना है, तो तुम यह कह रहे हो कि समय में है, स्थान में नहीं। इसलिए हम यह न बता सकेंगे, कहां है। हम इतना ही कह सकते हैं, कब घटा। “कहां’ से कोई संबंध भी नहीं है–कब, किस घड़ी में, किस मुहूर्त में!

समय को गंवा सकते हैं हम क्षुद्र को इकट्ठा करने में। क्षुद्र सामने है और जो विराट है वह छिपा है। इस क्षुद्र को इकट्ठा कर-करके भी तो कुछ पाया नहीं जाता। इसलिए महावीर कहते हैं, इसे दांव पर लगा दो। यह कचरा ही है; इसको दांव पर लगाने में कुछ खो नहीं रहे हो। और जो समय बच जायेगा, जो शुद्ध समय बच जायेगा, जिसको तुमने संसार में नहीं गंवाया, वही शुद्ध समय ध्यान बनता है।

संसार में न गंवाया गया समय ध्यान है। संसार की व्यस्तताओं में कलुषित न किया गया समय ध्यान है।

इसलिए महावीर के लिए ध्यान के लिए जो शब्द है वह है: “सामायिक’। वह “समय’ से बना है।

महावीर बड़े वैज्ञानिक हैं, उनकी शब्दावली में।

जो समय संसार में नहीं लगा है, वही “सामायिक’।

महावीर के पास परमात्मा तो है नहीं कि कह दें कि परमात्मा में जो समय लगा है, वह ध्यान। नहीं, जो संसार में नहीं लगा, जो संसार से अछूता बच गया है, जिसे संसार दूषित नहीं कर पाया, जिस समय को संसार की कोई छाया नहीं पड़ी, कुंआरा है–वही सामायिक।

जिसने समय को न बचाया और जिसने समय की शुद्धता न जानी, जो सामायिक में न जीया–वह आया भी वसंत में और पतझड़ में रहा। जीवन का प्रसाद बरसता था, लेकिन उसका पात्र उलटा पड़ा रहा। जीवन की अमृत-सरिता बहती थी, वह किनारे पर ही पीठ किए खड़ा रहा–कहीं और देखता रहा और प्यासा रहा, और कंठ जलता रहा।

जिसमें तुम आज अपने को लगाये हो, आज नहीं कल तुम पाओगे व्यर्थ है। जो जितनी जल्दी पा ले, उतना बोध, उतनी बुद्धि, उतनी समझ उसमें है। कुछ हैं जो मरते दम तक नहीं पाते–मरकर भी नहीं पाते! कुछ हैं जो बुढ़ापा आते-आते थोड़े चेतते हैं। इधर शरीर डगमगाने लगता है तो उधर आत्मा थोड़ी सम्हलती है। इधर रोग पकड़ने लगते हैं, बीमारियां घर करने लगती हैं, चोट पड़ती है। कुछ खयाल आता है: कैसे जिंदगी गंवा दी! लेकिन जो और समझदार हैं, वे भरी जवानी में जाग जाते हैं। जब कि सब तरफ लुभावना जगत था और सब तरफ आकर्षण थे, उनको भी वह गहरी आंख से देख लेते हैं और उनके पीछे भी पाते हैं: कुछ नहीं, सिवाय मन के भ्रमों के; अपनी ही कल्पनाओं, अपने ही सपनों का जाल है; अपने ही प्रक्षेपण हैं। भरी जवानी में भी जाग जाते हैं! जो और भी प्रगाढ़ हैं, वह बचपन में ही जाग जाते हैं।

कहते हैं, लाओत्सु पैदा ही हुआ जागा हुआ। हुआ होगा; क्योंकि उससे उलटा तो हम देखते ही हैं, लोग मर ही जाते हैं सोये-सोये। अगर जिंदगीभर लोग सोये-सोये मर सकते हैं, यह घटना घट सकती है, एक अति पर, तो दूसरी अति पर यह भी घट सकता है कि कोई पैदा होते से ही जाग जाये; किसी को सुबह के सूरज में ही सांझ दिख जाये; इधर दीया जला कि बुझने का खयाल आ जाये। जितनी तीव्र मेधा होती है, उतनी धार्मिक होती है।

आज वे मेरे गान कहां हैं?

टूट गई मरकत की प्याली

लुप्त हुई मदिरा की लाली

मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले

अब सामान कहां हैं?

अब वे मेरे गान कहां हैं?

जगती के नीरस मरुथल पर

हंसता था मैं जिनके बल पर

चिर वसंत-सेवित सपनों के

मेरे वे उद्यान कहां हैं?

अब वे मेरे गान कहां हैं?

ऐसा कहीं तब न पता चले जब करने को कोई शक्ति हाथ में न रह जाये! पता तो सभी को चलता है। एक न एक दिन वे सब गीत जो गुनगुना-गुनगुनाकर मन को समझाया था, वे सब व्यर्थ सिद्ध होते हैं। पानी पर खींची गई लकीरें, कि रेत पर किये गये हस्ताक्षर, कि तुम बना भी नहीं पाते कि पुंछ जाते हैं और मिट जाते हैं! कि कागज की नावें कि तुमने छोड़ी नहीं कि डूब जाती हैं! कि ताश के पत्तों के घर कि हवा का जरा-सा झोंका, और फिर उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिलती!

आज वे मेरे गान कहां हैं?

टूट गई मरकत की प्याली

लुप्त हुई मदिरा की लाली

मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले

अब सामान कहां हैं?

अब वे मेरे गान कहां हैं?

लेकिन यह उस दिन याद न आये, जब आंखों में देखने की शक्ति भी न बचे, प्राणों में जागने की ऊर्जा भी न बचे! यह उस दिन याद न आये जबकि पैर खड़े होने में असमर्थ हो जायें। यह अभी याद आ जाये तो कुछ हो सकता है।

महावीर कहते हैं, जगत का अनुभव तीन खंडों में तोड़ा जा सकता है। जो वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं, वे हैं ज्ञेय, “द नोन’। जिन्हें हम जानते हैं, वे हमसे सबसे ज्यादा दूर हैं। जो आदमी धन के पीछे पड़ा है वह ज्ञेय के पीछे पड़ा है, स्थूल के पीछे पड़ा है। आब्जेक्टिव, संसार उसके लिए सब कुछ है। धन इकट्ठा करेगा, पद इकट्ठा करेगा, मकान बनायेगा–लेकिन वस्तुओं पर उसका आग्रह होगा। उससे थोड़ा जो भीतर की तरफ आता है, वह ज्ञेय को नहीं पकड़ता, ज्ञान को पकड़ता है। वहां वृक्ष है। तुम वृक्षों को देख रहे हो। वृक्ष ज्ञान की आखिरी परिधि हैं–ज्ञेय। फिर थोड़ा इधर को चलो तो वृक्षों और तुम्हारे बीच एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना घट रही है–ज्ञान। वृक्ष दिखाई पड़ रहे हैं, हरे हैं, सुंदर हैं, प्रीतिकर हैं। उनकी सुगंध तुम्हारी नासापुटों को भर रही है। ताजीत्ताजी भूमि से सुवास आ रही है। फूल खिले हैं। पक्षियों के गीत हैं। तुम्हारे और उनके बीच एक सेतु फैला है, एक तंतु-जाल फैला है। उस तंतु-जाल को हम कहते हैं ज्ञान। आंख न होंगी तो तुम हरियाली न देख सकोगे। तो हरियाली सिर्फ वृक्षों में नहीं है–आंख के बिना हो ही नहीं सकती। तो हरियाली तो वृक्ष और आंख के बीच घटती है। वैज्ञानिक भी अब इस बात से राजी हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं होता तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे बगीचे के वृक्ष हरे रहते हैं। जब कोई देखनेवाला नहीं रहता तो हरे हो ही नहीं सकते। क्योंकि हरापन वृक्ष का गुण-धर्म नहीं है–हरापन वृक्ष और आंख के बीच का नाता है। बिना आंख के वृक्ष हरे नहीं होते–हो नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। जब आंख ही नहीं है तो हरापन प्रगट ही नहीं होगा। वृक्ष होंगे–रंगहीन। गुलाब का फूल गुलाबी न होगा। गुलाब का फूल और तुम जब मिलते हो, तब गुलाबी होता है। “गुलाबी’ तुम्हारे और गुलाब के फूल के बीच का संबंध है।

तो दूसरा जगत है: ज्ञान। कुछ लोग हैं जो वस्तुओं के पीछे पड़े हैं, फूलों के पीछे पड़े हैं। उनसे कुछ जो ज्यादा समझदार हैं, वे फिर ज्ञान की खोज में लगते हैं। वैज्ञानिक हैं, दार्शनिक हैं, कवि हैं, मनीषी हैं, विचारक हैं, चिंतक हैं–वे ज्ञान की पकड़ में लगे हैं। वे ज्ञान को बढ़ाते हैं।

महावीर कहते हैं, यह भी थोड़ा बाहर है। इसके भीतर छिपा है तुम्हारा ज्ञायक स्वरूप, ज्ञाता। ये तीन त्रिभंगियां हैं–ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान। जो परम रहस्य के खोजी हैं, वे ज्ञान की भी फिक्र नहीं करते, वे तो उसकी फिक्र करते हैं: “यह जाननेवाला कौन है!’ जो सबसे दूर हैं ज्ञान की यात्रा पर, वे फिक्र करते हैं: “यह जानी जानेवाली चीज क्या है!’ जो परम रहस्य के खोजी हैं, वह फिक्र करते हैं: यह जाननेवाला कौन है! यह मैं कौन हूं, जो जान रहा है, जिसके लिए वृक्ष हरे हैं, जिसके लिए गुलाबी फूल गुलाबी हैं; जिसके लिए चांदत्तारे सुंदर हैं! यह मैं कौन हूं!

इन दोनों के बीच में दार्शनिक है, वैज्ञानिक है, चिंतक है। महावीर की सारी खोज उस ज्ञाता-स्वरूप की खोज है; “यह जाननेवाला कौन है!’ क्योंकि महावीर कहते हैं, अगर जाननेवाले को ही न जाना तो और जानकर करोगे क्या? अपने को ही न पहचाना तो और पहचान किस काम में आयेगी? अपने से ही बिना परिचित हुए चल पड़े, तो कितनों से परिचय बनाया, उसका क्या सार होगा? दूसरों से परिचित होने में ही मत गंवा देना जीवन को। परिचय की प्रक्रिया को समझने में ही मत गंवा देना जीवन को। यह कौन है तुम्हारे भीतर, जिसके माध्यम से ज्ञान घटता है, जिसके माध्यम से ज्ञेय से संबंध बनता है? यह ज्ञाता-भाव! यह चैतन्य! यह होश! यह बोध! इसकी खोज ही धर्म है।

पहला सूत्र:

णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।

एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।।

“आत्मा ज्ञायक है। आत्मा जाननेवाला है। आत्मा ज्ञाता है, द्रष्टा है। जो ज्ञायक है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त। जो अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वही शुद्ध है। आत्मा ज्ञायक-रूप में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है।’

यह बड़ा बारीक सूक्ष्म सूत्र है! समझने की चेष्टा करना। क्योंकि महावीर के अंतस्तल के बहुत करीब है। यही उनकी भित्ति है, जिस पर सारी जैन-साधना का मंदिर खड़ा है।

आत्मा ज्ञायक है–यह तो पहली बात, यह पहली उदघोषणा, यह पहला वक्तव्य कि आत्मा ज्ञेय नहीं है, वस्तु नहीं है: जान सको, ऐसी नहीं है। क्योंकि जिसे भी हम जान लेते हैं, उसका ही रहस्य खो जाता है। इसलिए आत्मा कभी विज्ञान का विषय बन सकेगी, इसकी संभावना नहीं है। विज्ञान लाख उपाय करे, वह जो भी जानेगा वह आत्मा नहीं होगी। क्योंकि आत्मा तो आत्यंतिक रूप से जाननेवाली है; जानी नहीं जा सकती। उसे हम अपने सामने रख नहीं सकते। जिसके सामने हम सब रखते हैं, वही आत्मा है। तो आत्मा को स्वयं तो हम कभी अपने सामने न रख सकेंगे।

अगर महावीर की बात ठीक समझो तो महावीर यह कह रहे हैं: “आत्मज्ञान’ शब्द ठीक नहीं है। वस्तुओं का ज्ञान हो सकता है, पर का ज्ञान हो सकता है, आत्मज्ञान कैसे होगा? आत्मज्ञान का तो मतलब हुआ कि तुमने आत्मा को भी दो हिस्सों में तोड़ लिया–जाननेवाला और जाना जानेवाला। तो महावीर कहते हैं जो जाननेवाला है, वही आत्मा है; जो जाना जा रहा है वह तो आत्मा नहीं है।

हम अपने शरीर को जानते हैं। पैर में चोट लग गई, दर्द हुआ, तो महावीर कहते हैं, चूंकि तुम जानते हो कि पैर में दर्द हुआ, इसलिए एक बात तो निश्चित हो गई कि तुम यह दर्द नहीं, तुम यह पैर नहीं। क्योंकि जाननेवाला हमेशा पार है; अतिक्रमण कर जाता है; ट्रांसेंडेंटल है। भूख लगी तो महावीर कहते हैं, एक बात पक्की हो गई: तुम्हें पता चला भूख लगी; एक बात पक्की हो गई कि तुम भूख नहीं हो। तुम तो वह हो जिसे पता चला, जिसे प्रतीति हुई, जिसे अहसास हुआ कि भूख लगी, कि शरीर भूखा है कि रोटी की जरूरत है, कि प्यास लगी, पानी की जरूरत है; कि गर्मी हो रही है कि पसीने की धारें बही जा रही हैं, कोई शीतल स्थान खोजूं, कोई छाया खोजूं।

जो भी तुम जानते हो, जानने के कारण ही वह “पर’ हो गया। ज्ञान प्रत्येक वस्तु को “पर’ बना देता है। ज्ञान-मात्र “पर’ का है। तो आत्मज्ञान तो हो नहीं सकता। इस अर्थ में नहीं हो सकता, जिस अर्थ में हम और चीजों का ज्ञान करते हैं।

आत्मा ज्ञायक है, ज्ञेय नहीं। सदा जाननेवाला है। इसलिए जिन्हें आत्मा को खोजना है, उन्हें अपने भीतर निरंतर उस जगह पहुंचना चाहिए, जहां सिर्फ जाननेवाला ही शेष रह जाये और जानने को कुछ न बचे। उसे महावीर “समाधि’ कहते हैं–जहां शुद्ध जानना रह जाये और जानने के लिए कोई जगह न हो; दीया जलता हो, लेकिन प्रकाश उसका किसी पर पड़ता न हो। दीया जलता है अभी, दीवाल पर प्रकाश पड़ता है: तो दीया तो ज्ञाता हुआ, दीवाल ज्ञेय हो गई और दोनों के बीच जो संबंध जुड़ रहा है वह ज्ञान हो गया। ऐसी कल्पना करो कि दीया शून्य में जलता हो, कि दीये की ज्योति किसी पर न पड़ती हो–ऐसी चित्त की दशा का नाम, महावीर कहते हैं, समाधि है। जहां शुद्ध-बुद्ध, मात्र ज्ञायक-स्वरूप शेष रह गया; कोई जाननेवाली चीज व्याघात उत्पन्न नहीं करती; कोई जाननेवाली चीज अशुद्धि उत्पन्न नहीं करती–अबाध–अनवरुद्ध चैतन्य का प्रवाह है; शुद्ध चैतन्य-मात्र है!

“आत्मा ज्ञायक है।’ और ज्ञायक! “जो ज्ञायक है वह न अप्रमत्त होता है न प्रमत्त।’

यह भी बड़ी विचार की बात है। क्योंकि महावीर कहते हैं, तुम अभी सोये हो। जागो! लेकिन फिर वह कहते हैं कि जागना भी उस आत्मा का स्वभाव नहीं है। क्योंकि जब सोना उस आत्मा का स्वभाव नहीं है तो जागना कैसे उस आत्मा का स्वभाव होगा? जागना-सोना दोनों ही आत्मा के बाहर हैं। तो एक दिन ऐसा अनुभव आना शुरू होता है कि तुम जागने और सोने के भी पार हो। तुम तो वह हो जो जानता है कि जागे अब, अब सोये। सुबह जागकर तुम्हें पता चलता है कि अरे, जाग गये! तो तुम जागने से एक नहीं हो सकते। तुम्हें जागने का भी पता चलता है: जाग गये! रातभर सोये रहे तो सुबह तुम कहते हो बड़ी गहरी नींद आई! उसका भी तुम्हें पता है। नींद का भी पता है। कभी नींद ठीक नहीं आती तो सुबह कहते हो, बड़े व्याघात पड़े, उच्छृंखल थी रात, बड़े दुखस्वप्न चले, ऊबड़-खाबड़ रहा सब। शांति न मिली, चैन न मिला, थकाऱ्हारा उठा हूं, रात नींद ठीक से न आई! तो रात तुम नींद को भी जानते हो, सुबह उठकर तुम जागने को भी जानते हो। तो निश्चित ही न तुम जागरण हो, न तुम निद्रा हो। तुम तो जागने और निद्रा के पार ज्ञायक-स्वरूप, ज्ञाता-स्वरूप आत्मा हो।

“जो ज्ञायक है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त।’

लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से सोये हुए को हम कहते हैं, जागो अगर आत्मा को जानना हो। जब वह जाग जायेगा तो उससे कहेंगे, अब जागने से भी जागो! संसारी को कहते हैं, संन्यास ले लो! फिर संन्यासी को कहते हैं कि अब संन्यास भी छोड़ो! यह तो ऐसा ही है जैसे एक कांटा पैर में लगा, दूसरे कांटे से खींचकर उसे बाहर निकाल लिया; फिर दोनों ही कांटे फेंक देते हैं। बीमारी थी, औषधि ले ली; फिर बीमारी चली गई तो औषधि की बोतल को कचरे-घर में फेंक देते हैं। तो जागरण की जो इतनी चेष्टा है, वह भी औषधि से ज्यादा नहीं है। बीमारी है, नींद में पड़े हैं, सोये हैं–यह हमारी अवस्था है। इसे जगाने के लिए औषधि है ध्यान, जागरण, विवेक। लेकिन जब जाग गये तब तो यह भी पता चलता है कि हम तो जागने के भी पार हैं। यह सोना और जागना, यह भी शरीर और मन में ही हो रहा है।

इसलिए तो कृष्ण गीता में कहते हैं: या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागर्ति संयमी!

जब सारे लोग सोये हैं, तब भी संयमी जागता है। इसका क्या अर्थ हुआ? क्या संयमी सोता नहीं? संयमी सोता है, लेकिन जानता है कि यह जो सोया है, यह मैं नहीं हूं।

महावीर तो और भी गजब की बात कह रहे हैं। वह कह रहे हैं, संयमी जब जागता है तब भी जागरण के साथ अपना तादात्म्य नहीं करता–सोने के साथ तो वह करता ही नहीं; जैसा कृष्ण कहते हैं कि सब सोये रहते हैं, उनका तादात्म्य हो जाता है। वह कहते हैं, हम सोये हैं। संयमी कहता है, हम तो जागते रहे। महावीर कहते हैं कि इससे भी ऊपर उठना है। जागने में भी तादात्म्य न हो जाये, सोने में तो तोड़ना ही है तादात्म्य। मूर्च्छा तो तोड़नी ही है, अमूर्च्छा पकड़ नहीं लेनी है। राग तो तोड़ना ही है, विराग पकड़ नहीं लेना है।

इसलिए महावीर ने एक नये शब्द का उपयोग किया: वीतराग। महावीर ने अपने परम संन्यासियों को विरागी न कहा, क्योंकि “विरागी’ में ऐसा लगता है: राग के विपरीत। सोये थे, जाग गये। संसार में थे, संन्यासी हो गये। राग था, विराग साध लिया। महावीर कहते हैं, वीतराग।

“वीतराग’ शब्द बड़ा अदभुत है! वीतराग का अर्थ होता है: न राग रहा, न विराग रहा। वीत: पार हो गये, दोनों के पार हो गये! वह पूरी दुनिया ही गई! वह पूरा सिक्का ही छोड़ दिया। वह द्वंद्व का जगत अब साथ न रहा। सोना और जागना भी द्वंद्व है। राग और विराग भी द्वंद्व है! संसार और संन्यास भी द्वंद्व है। निर्द्वंद्व हुए! सबके पार हुए!

“जो अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता, वही शुद्ध है।’

यह शुद्धि की बड़ी अनूठी परिभाषा हुई। जो जागता नहीं, सोता नहीं; जो मूर्च्छित नहीं होता, अमूर्च्छित नहीं होता; जो न संसार में खोता है, न संन्यास में खोता है–जिसका कहीं तादात्म्य नहीं होता, वही शुद्ध है। जिसको गुरजिएफ कहता है: आईडेंटिफिकेशन, तादात्म्य। जो किसी चीज से अपने स्वभाव को नहीं जोड़ता। जो दूर-दूर, पार-पार बना रहता है! जो सदा जानता रहता है: मैं भिन्न हूं, मैं भिन्न हूं। किसी भी चीज के साथ जो ऐसा भाव नहीं करता कि यह मैं हूं! क्योंकि जहां ही यह भाव आया कि यह मैं हूं, वहीं अशुद्धि शुरू हो गई। क्योंकि जिससे हम जुड़ते हैं, वह हमें प्रभावित करने लगता है।

तुमने कभी खयाल किया? लोग जिन चीजों से अपना तादात्म्य बनाते हैं, धीरे-धीरे वैसा ही रंग-ढंग उनके जीवन में छा जाता है। अगर कोई कवि सौंदर्य की अनुभूतियों के साथ अपना तादात्म्य बनाता है, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे: वह सुंदर होने लगा। उसके जीवन में तुम्हें एक नये गुण का प्रादुर्भाव दिखायी पड़ेगा। वह सुंदर होने लगेगा। जो आदमी अपने को योद्धा समझता है, लड़ाका समझता है, उसके चारों तरफ धीरे-धीरे तुम पाओगे योद्धा के लक्षण प्रगट होने लगे।

जिससे हम तादात्म्य करते हैं, वही हम हो जाते हैं। क्योंकि धीरे-धीरे जिसे हमने अपने साथ जोड़ा वह हमें प्रभावित करता है, रूपांतरित करता है।

सम्मोहनविद जानते हैं कि अगर किसी पुरुष को सम्मोहित करके कहा जाये कि तू पुरुष नहीं स्त्री है, तो गहरे सम्मोहन में उसका तादात्म्य हो जाता है कि वह स्त्री है। फिर उससे कहा जाये, उठकर चलो, तो वह पुरुष जैसा नहीं चलता, स्त्री जैसा चलने लगता है–जो कि बड़ी कठिन बात है! क्योंकि पुरुष के पास अलग तरह की हड्डियां हैं। और खासकर स्त्री की चाल पुरुष से भिन्न है, क्योंकि स्त्री के शरीर में गर्भ का स्थान है। उसी गर्भ के स्थान के कारण उसकी चाल में एक गोलाई है, जो पुरुष की चाल में नहीं हो सकती। लेकिन अगर सम्मोहित किया जाये किसी व्यक्ति को और कहा जाये कि तुम स्त्री हो तो वह चलेगा स्त्री की तरह। उससे कहा जाये बोलो तो वह बोलेगा स्त्री की तरह। आवाज भी बदल जायेगी। यह सम्मोहन की प्रक्रिया इतनी गहरी हो सकती है। कि अगर सम्मोहित व्यक्ति को कहा जाये कि यह हाथ पर हम तुम्हारे अंगार रख रहे हैं और तुम सिर्फ एक साधारण कंकड़ रख रहे हो, तो उसका हाथ जल जायेगा, फफोला आ जायेगा। साधारण कंकड़ गर्म भी नहीं है, अंगार की तो बात ही नहीं है, ठंडा पत्थर हाथ पर रखते हो और कहते हो यह अंगार है, वह छिटककर फेंककर खड़ा हो जायेगा, चिल्लायेगा कि मार डाला, जला दिया। और उसके हाथ पर न केवल जलने का स्थान बनेगा, फफोला भी उठेगा।

अब क्या हुआ? अंगार तो रखा नहीं था, लेकिन अंगार रखा है, यह भाव से तादात्म्य हो गया। इसीलिए तो लोग अंगारों पर भी चल लेते हैं–वह भी भावत्तादात्म्य है। मुसलमान फकीर या हिंदू योगी अंगारों पर चल लेते हैं। वह तादात्म्य की बात है। इस बात का पक्का तादात्म्य होना चाहिए कि हम चल लेंगे, भगवान बचायेगा, कि कोई वली बचायेगा। बस इसका पक्का भरोसा होना चाहिए, फिर तुम न जलोगे। क्योंकि तुम्हारा भरोसा तुम्हारी सुरक्षा करेगा। वह तादात्म्य बन गया।

रामकृष्ण ने सभी धर्मों की साधना की। ऐसा प्रयोग उनके पहले कभी किसी ने किया न था। उस साधना के दौर में उन्होंने छह महीने तक बंगाल में प्रचलित कृष्ण-मार्गियों के एक संप्रदाय की साधना की–राधा संप्रदाय। उस संप्रदाय का साधक मानकर चलता है कि मैं कृष्ण की गोपी हूं, राधा हूं। वह स्त्रियों के कपड़े पहनता है, कृष्ण की मूर्ति को लेकर रात सोता है। छह महीने तक रामकृष्ण ऐसा साधना करते थे। बड़ी हैरानी की घटना घटी–और वह घटना यह थी, उनके स्तन बड़े हो गये, स्त्रैण हो गये। रामकृष्ण जैसा व्यक्ति जब तादात्म्य करेगा तो वह कोई छोटा-मोटा तादात्म्य नहीं है। उन्होंने पूरे प्राण इसमें उंडेल दिये। उनकी आवाज स्त्रैण हो गई। वह चलने स्त्रियों की तरह लगे, लेकिन यहीं तक मामला रुकता तो ठीक था; उन्हें मासिक धर्म शुरू हो गया, जो कि एक आश्चर्यजनक घटना है। इतना तादात्म्य! फिर साधना के बाहर भी आ गये तो भी छह-आठ महीने लगे उनका स्त्री-रूप विदा होने में।

सम्मोहन का शास्त्र बड़ी बातें खोलने के किनारे पहुंच रहा है और किसी न किसी दिन सम्मोहन-शास्त्र जब अपने पूरे अध्ययन प्रगट कर चुकेगा तो धर्म की बहुत-सी बातें बड़ी सुगमता से समझ में आ सकेंगी।

तुम जो भी हो, यह तुम्हारा ही भाव है। अगर तुम अपने को दुखी मान रहे हो तो तुम दुखी होते चले जाओगे। अगर तुम अपने को सुखी मान सकते हो, तुम सुखी होते चले जाओगे।

मुसलमान फकीर बायजीद से किसी ने पूछा कि तुम इतने प्रसन्न, सदा प्रसन्न–मामला क्या है? उसने कहा कि मैंने एक नियम बना लिया है कि सुबह जब मैं उठता हूं तो मेरे सामने दो विकल्प होते हैं कि आज दिन प्रसन्न होना कि नहीं प्रसन्न होना; आज दिन सुख में बिताना कि दुख में बिताना। और मैं अकसर हमेशा ही सुख का ही विकल्प चुनता हूं। क्यों चुनूं दुख का विकल्प? सार क्या है? इसलिए मैं प्रसन्न हूं।

तुम जरा करके देखना। सुबह उठकर पहला निर्णय यही करना कि आज दिन प्रसन्न ही रहना है। और तुम अचानक पाओगे प्रसन्नता की बहुत-सी घटनाएं घटने लगीं। वह वैसे भी घटतीं, लेकिन तुमने अगर दुखी होने का निर्णय किया था…जैसा निन्यानबे लोग किये बैठे हैं। निन्यानबे प्रतिशत लोग सोचते हैं कि सुखी तो तब होंगे जब सुख की कोई घटना घटेगी। और दुखी तो रहेंगे ही, क्योंकि जब तक सुख की घटना नहीं घटती तो क्या कर सकते हैं! कोई लाटरी कभी-कभी खुलेगी, तब सुखी हो लेंगे। और मैं मानता हूं कि वह तब भी सुखी न हो पायेंगे, क्योंकि दुख की आदत इतनी मजबूत हो जाती है, दुख इतना सघनीभूत हो जाता है कि अगर सुख की कोई घटना भी घटे तो तुम जानते ही नहीं कि अब सुखी कैसे हों! जो कभी नाचा ही नहीं है, नाचने का क्षण भी आ जाये तो कैसे नाचेगा? हाथ-पैर साथ न देंगे।

महावीर कहते हैं, शुद्धि का अर्थ है: जहां कोई तादात्म्य नहीं; न सुख का, न दुख का; न देह का, न मन का। जहां शुद्ध जाननेवाला बचा है और कोई चीज छाया नहीं डालती, उस छाया-शून्य जगत में आत्मा शुद्ध होती है।

“आत्मा ज्ञायक-रूप में ही ज्ञात है…’

आत्मा का ज्ञेय की तरह जानने का कोई उपाय नहीं है। जाननेवाले की तरह ही आत्मा जानी जाती है, जानी गई वस्तु की तरह नहीं।

“…और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है।’

इसे थोड़ा हम समझें। तुमने कभी खयाल किया? जब भी कोई आदमी तुम्हें गौर से देखता है तो तुम्हें थोड़ी-सी बेचैनी और अड़चन होती है। तो समाज में एक स्वीकृत नियम है: तीन क्षण से ज्यादा कोई आदमी किसी को गौर से नहीं देखता। देखे तो उसको हम लुच्चा कहते हैं। लुच्चे का अर्थ है: गौर से देखनेवाला। लुच्चा बनता है लोचन से। आंखें अड़ा दीं किसी पर तो लुच्चा। तीन सैकिंड तक ठीक है। उतना स्वीकृत है। राह चलते आदमी भी एक, एक क्षणभर को दूसरे को देख लेते हैं। तो ठीक है। लेकिन लौट-लौटकर देखने लगे, खड़ा ही हो जाये और देखने लगे, आंखें गड़ा ले…। तो तुमने कभी खयाल किया, कोई आदमी अगर तुम्हें आंखें गड़ाकर देखे तो तुम्हें बेचैनी होती है! यहां तक कि अगर कोई आदमी तुम्हारे पीछे खड़ा हो और पीछे से भी आंखें गड़ाकर तुम्हें देखे तो भी तुम्हें बेचैनी होगी; हालांकि तुम उसे देख नहीं रहे, लेकिन तुम्हें पता चल जायेगा कि वह आंखें गड़ाये है।

तुम इसका प्रयोग करके देखना! ट्रेन में, बस में किसी के पीछे खड़े हो, उसकी चेंथी पर आंखें गड़ाकर देखना जरा थोड़ी देर–एक दो तीन मिनट। वह फौरन लौटकर देखेगा और क्रोध से देखेगा। मनोवैज्ञानिक ने इस पर बहुत-से प्रयोग किये हैं।

क्या मामला है? आदमी किसी के गौर से देखने को, बेचैन क्यों हो जाता है, बर्दाश्त क्यों नहीं करता? क्योंकि जब भी कोई तुम्हें गौर से देखता है, बहुत गौर से देखता है, तो वह तुम्हें वस्तु में रूपांतरित कर देता है। वह तुम्हारे ज्ञायक-स्वभाव को नष्ट करता है। वह तुम्हें ज्ञेय बना देता है, आब्जेक्ट। जैसे कुर्सी को कोई देख रहा है, मकान को कोई देख रहा है, वृक्ष को कोई देख रहा है–ऐसे ही जब तुम्हें कोई देखता है, तब तुम्हारा ज्ञायक-स्वरूप नष्ट होता है। तुम्हें ऐसा लगता है कि मुझे वस्तु समझा जा रहा है; जैसे मैं कोई देखने की वस्तु हूं।

हां, कोई तुम्हें बहुत प्रेम से देखे तो बेचैनी नहीं होती। जिससे तुम्हारा लगाव हो, तो बेचैनी नहीं होती। क्योंकि तुम जानते हो, वह तुम्हारे शरीर को नहीं देख रहा। तुम जानते हो, वह तुम्हें वस्तु नहीं बना रहा। तुम जानते हो, उसकी आंखें तुम्हारे ज्ञायक-स्वभाव को खोज रही हैं; तुम्हारी अंतरात्मा को खोज रही हैं। उसकी आंखें तुम्हारे भीतर जाकर तुम्हारी खोज में हैं। तुम, जिसको कि विषय-वस्तु बनाया नहीं जा सकता, वह उसके साथ संग-साथ जोड़ने की आकांक्षा रखता है। इसलिए प्रेम के क्षण में ही आंख बेहूदी नहीं मालूम पड़ती। अन्यथा आंख, अगर गौर से कोई देखता चला जाये तो हिंसक हो जाती है; अभद्र मालूम होने लगती है; शिष्टाचार के बाहर हो जाती है।

जब भी किसी व्यक्ति को देखो तो उसे वस्तु बनाने की चेष्टा मत करना। अन्यथा तुम हिंसा से देख रहे हो। किसी व्यक्ति को साधन की तरह मत देखना, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, परम साध्य है। किसी व्यक्ति को ऐसा मत देखना कि इसका क्या उपयोग है, कि यह आदमी पद पर है, काम पड़ेगा, जय राम जी कर लो; कि यह आदमी पद पर है, थोड़ी खुशामद करो; कि इस आदमी के पास धन है, कभी जरूरत पड़ सकती है; कि यह आदमी शक्तिशाली है, दोस्ती बनाना काम की बात होगी।

किसी व्यक्ति को जब तुम साधन की तरह देखते हो, तब भी तुम हिंसा कर रहे हो। क्योंकि वह ज्ञायक-स्वरूप जो भीतर छिपा है, साध्य है–आत्यंतिक साध्य है। उसे साधन नहीं बनाया जा सकता।

“आत्मा ज्ञायक-रूप में ही ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है। उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है।’

यह बहुत मूलभूत बात है। इसको शाब्दिक जाल में खो मत देना। इसको ज्ञान के दांव-पेचों में मत खो देना। क्योंकि इस पर बड़े दांव-पेंच चलते रहे हैं। पंडितों ने बड़े अर्थ किये हैं, बड़ी व्याख्याएं की हैं–पक्ष-विपक्ष में। क्योंकि पंडितों का अपना हिसाब है। वे कहते हैं, ज्ञायक, बिना ज्ञेय के ज्ञायक अकेला हो कैसे सकता है? तर्कगत संदेह उठाते हैं, जब ज्ञेय नहीं है तो ज्ञायक कैसा? जब ज्ञान नहीं है तो ज्ञायक कैसे?

तो दार्शनिकों का एक समूह रहा है जो कहता है, जब ज्ञेय और ज्ञान खो जायेंगे, तो ज्ञायक भी खो जायेगा, अंधकार छा जायेगा। शायद तर्क से उनकी बात ठीक भी लगती हो। लेकिन जो अनुभव है, वह तर्क के थोड़े बाहर है। और महावीर को तर्क में कोई रस नहीं है। वह सिर्फ वक्तव्य दे रहे हैं, जो उन्होंने जाना है। मैं भी तुमसे कहता हूं, ज्ञायक बच रहता है। ज्ञान भी खो जाता है। ज्ञेय भी खो जाता है।

और इसलिए अगर खोजना हो तो तर्कजाल में मत पड़ना। थोड़ी साधना की दिशा में कदम उठाना।

अल्फाज के पेचों में उलझता नहीं दाना

गव्वास को मतलब है सदफ से कि गुहर से

शब्दों की उलझनों में समझदार नहीं उलझता।

अल्फाज के पेचों में उलझता नहीं दाना।

–वह जो बुद्धिमान है, वह शब्दों के दांव-पेंच में नहीं उलझता।

गव्वास को मतलब है सदफ से कि गुहर से।

–वह जो गहरा गोता लगानेवाला है, उसे मतलब मोतियों से है या सीपियों से? वह मोती तलाशता है। जैसे मोती सीपी में छिपे होते हैं, लेकिन सभी सीपियों में नहीं छिपे होते; कुछ सीपियां खाली होती हैं, कोई मोती नहीं होता–कुछ शब्द खाली होते हैं, उनमें कोई मोती नहीं होता। पंडितों के शब्द सीपियों की तरह हैं; उनमें कोई मोती नहीं होता। क्योंकि मोती तो अनुभव से ढालना होता है। मोती तो प्राणों से ढालना होता है। ये महावीर के वचन सीपियां नहीं हैं। मोती हैं, और तुम इन मोतियों का अर्थ तभी समझ पाओगे, जब तुम भी इन्हें ढालने में लगोगे।

मेरे देखे, जब तक तुम किसी अर्थ में महावीर जैसे न होने लगो तब तक तुम महावीर को न समझ पाओगे। समझने का एक ही उपाय है: जिसे तुम समझने चले हो, उस जैसे होने लगो।

“मैं आत्मा न शरीर हूं, न मन हूं, न वाणी हूं, और न उसका कारण हूं। मैं न कर्ता हूं, न करानेवाला हूं और न कर्ता का अनुमोदक ही हूं।’

णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं।

कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।

–न शरीर, न मन, न वाणी, न उनका कारण, न उनका कर्ता, न करानेवाला और न कर्ता का अनुमोदक ही हूं।

कल हम गीता की बात करते थे। कृष्ण कहते हैं, तुम केवल उपकरण हो जाओ। महावीर कहते हैं, उपकरण भी नहीं। अगर तुम उपकरण भी हुए तो तुम कुछ तो हुए! सहारा तो दिया! साधन तो बने! तो महावीर कहते हैं, न तो तुम कर्ता, न करानेवाला हो, न कर्ता का अनुमोदक। उपकरण की तो बात दूसरी, तुम अनुमोदन भी मत करना। तुम यह भी मत कहना कि हां, यह ठीक है। अगर कोई आदमी किसी की हत्या कर रहा है तो तुम यह भी मत कहना कि हां, यह ठीक है। अनुमोदन भी मत करना। कहने की बात नहीं है, मन में भी मत सोचना कि हां, यह ठीक है। मन में सोचने की बात भी नहीं है। तुम्हारे भीतर जरा-सा भी भाव उठे, जरा-सी भी लहर उठे कि नहीं, यह गलत तो नहीं है, यह जरूरी था–तो भी पाप हो गया।

कृष्ण कहते हैं, “अधर्म के विनाश के लिए, पाप के विनाश के लिए अर्जुन! तू उपकरण बन।’ लेकिन महावीर कहते हैं, उपकरण हिंसा का बनना किसी भी कारण से घातक है। खतरनाक है। और आदमी के मन का भरोसा क्या? क्योंकि अकसर तो यह होता है, तुम जो करना चाहते हो, उसको तुम परमात्मा के नाम से करने लगते हो।

आदमी बड़ा बेईमान है! इसलिए दुनिया में इतने युद्ध होते हैं! दोनों पक्ष कहते हैं कि परमात्मा का काम कर रहे हैं। दोनों पक्ष कहते हैं, हम धर्मऱ्युद्ध कर रहे हैं। अब यह तो हम चूंकि महाभारत हुआ और पांडव जीते, इसलिए जो इतिहास हमारे पास है वह एकतरफा है।

सोचो थोड़ा, कौरव जीते होते तो क्या यह इतिहास यही होता? कौरव जीते होते तो उन्होंने सिद्ध किया होता कि पांडव हारे क्यों, क्योंकि वे अधार्मिक थे। और कौरव अगर जीते होते तो कृष्ण की गीता न होती, शायद भीष्म पितामह की कोई गीता होती तो होती।

अगर रावण जीता होता तो रामायण नहीं होती–हो नहीं सकती थी। कौन लिखता? हारे हुए के लिए कौन लिखता! जीते के सब संगी-साथी हैं, हारे के कौन साथ है? तब रामायण के विपरीत, बिलकुल विपरीत रावण की कोई कथा होती, जिसमें रावण तो धार्मिक होता और राम अधार्मिक होते।

तुम थोड़ा सोचो। विभीषण ने धोखा दिया है, गद्दारी की है; लेकिन राम-भक्त कहता है, “भक्त विभीषण! राम का प्यारा विभीषण!’ लेकिन अगर रावण जीतता और कथा लिखी गई होती, तो विभीषण गद्दारों का गद्दार सिद्ध होता, धोखेबाज, बेईमान, मीरजाफर का आदिगुरु सिद्ध होता।

कौन लिखता है कहानी, इस पर निर्भर करता है। और जो भी कहानी लिखेगा, वह यह मानकर चलेगा कि मैंने जो किया वह परमात्मा चाहता था।

महावीर आदमी की बेईमानी को जानते हैं। आदमी बड़ा धोखेबाज है! वह जो खुद करना चाहता है परमात्मा के नाम पर थोप देता है। अगर हिटलर जीतता तो कथा बिलकुल और होती। चर्चिल जीता, कथा और हुई। कथा कौन लिखता है, इस पर निर्भर करती है।

महावीर कहते हैं, इन जालों में मत पड़ना। तुम्हें क्या पता परमात्मा की क्या मर्जी है? तुम कैसे निर्णय करोगे कि यही परमात्मा की मर्जी है? अर्जुन जीते, अर्जुन का पक्ष जीते–यह परमात्मा की मर्जी है, तुम कैसे निर्णय करोगे?

हर आदमी जीतना चाहता है। और हर आदमी अपने जीतने के लिए सब कुछ करना चाहता है। और मान लेगा कि यही परमात्मा की मर्जी है, मुझे जिताना चाहता है।

पिछले महायुद्ध में एक जर्मन और एक अंग्रेज जनरल की बात हुई। जर्मन हारने शुरू हो गये थे और उस जनरल ने अंग्रेज जनरल को पूछा कि तुम जीतना शुरू हो गये हो, कैसे जीते चले जा रहे हो, राज क्या है? उस जनरल ने कहा, “राज साफ है। हम रोज युद्ध करने के पहले परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। परमात्मा हमारे साथ है।’

उस जर्मन ने कहा, यह तो कोई बात जंचती नहीं, क्योंकि प्रार्थना तो हम भी करते हैं युद्ध के पहले, और हम भी मानते हैं कि परमात्मा हमारे साथ है।

वह अंग्रेज हंसने लगा। उसने कहा कि तुम्हें एक बात समझनी चाहिए: किसी ने कभी सुना कि परमात्मा जर्मन भाषा जानता है? किस भाषा में करते हो प्रार्थना?

अंग्रेज सोचता है, परमात्मा अंग्रेजी जानता है। संस्कृत के पंडित कहते हैं, संस्कृत देववाणी है।…वह प्रभु की भाषा है! और बाकी सब भाषाएं, वे देववाणियां नहीं हैं!

अपनी भाषा को देववाणी मान लेना बड़ा सुगम है। और अपनी आकांक्षा को परमात्मा की आकांक्षा मान लेना बहुत सुगम है। और अपने अहंकार को परमात्मा की आड़ में छिपा लेना बहुत सुगम है।

महावीर आदमी को कोई धोखे का उपाय नहीं देना चाहते। वे कहते हैं, तुम धोखेबाज हो, यह तो जाहिर है, क्योंकि जन्मों-जन्मों से भटक रहे हो, अनेक तरह से अपने को धोखा दे लेते हो।

“मैं न शरीर हूं, न मन हूं, न वाणी हूं और न उनका कारण हूं। मैं न कर्ता हूं, न करानेवाला हूं, न कर्ता का अनुमोदक हूं।’

जब तक इतनी प्रगाढ़ता से तुम अपने आत्यंतिक स्वरूप को सभी तादात्म्यों से बाहर न कर लोगे, तब तक तुम उस शुद्ध-बुद्ध अवस्था को न पहुंच सकोगे, जिसको महावीर “जिनत्व’ कहते हैं।

हमारी तो त्याग में भी भोग की वासना बनी रहती है। और हम तो वासना भी छोड़ते हैं तो भी किसी वासना को पूरा करने के लिए ही छोड़ते हैं। हम तो दान भी करते हैं तो लोभ के कारण करते हैं। गंगा के किनारे बैठे हुए पंडित-पुरोहित लोगों को समझाते हैं: “यहां एक दो, एक करोड़ पाओगे वहां।’ कोई हिसाब भी होता है! एक से एक करोड़ का कोई संबंध बनता है? लेकिन जब लोभ को ही जगाना है तो अतिशयोक्ति करने में हर्ज क्या है! एक पैसा यहां दान दो, एक करोड़ पाओगे! कुछ तो थोड़ा ब्याज का खयाल रखो! यह तो जरा अतिशयोक्ति हो गई। लेकिन मतलब एक करोड़ पाने से थोड़े ही है, तुमसे एक निकलवा लेने से है। और जानते हैं कि तुम लोभी हो, तुम तो दान भी लोभ के कारण करोगे। दान भी तुम करते हो तो पहले पूछ लेते हो, इससे मिलेगा क्या?

बोधिधर्म चीन पहुंचा, तो चीन के सम्राट ने पूछा कि मैंने हजारों बुद्ध-मंदिर बनवाये, इससे क्या लाभ होगा? और मैं लाखों बौद्ध भिक्षुओं को भिक्षा देता हूं, राज्य उनका पालन करना है–इससे मुझे कितना पुण्य हुआ है? दूसरों से भी उसने पूछा था, लेकिन दूसरे तो दुकानदार थे; उन्होंने कहां, महापुण्य हो रहा है, स्वर्ग में तुम्हारे लिए विशेष इंतजाम होगा। उन्होंने हजार तरह की बातें समझाई होंगी। सातवें स्वर्ग में जाओगे। पुण्य की राशि लगी जा रही है। इंद्र बनोगे! लेकिन यह बोधिधर्म थोड़ा उजड्ड, सीधा-साफ आदमी था।

उसने कहा, “लाभ! दिमाग दुरुस्त है? यह तुमने पूछा इसके कारण पाप लगा। तुम नर्क में पड़ोगे।’ सम्राट वू थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा कि नर्क में! तो बोधिधर्म ने कहा, कि लाभ की आकांक्षा से किया गया दान, दान नहीं है। लाभ की जरा-सी भी रेखा बच गई तो दान विकृत हो गया।

फिर भी सम्राट वू ने कहा कि मैंने जो किया है, क्या वह पवित्र नहीं है, धार्मिक नहीं है। बोधिधर्म ने कहा, धर्म का पवित्रता से क्या लेना-देना? धर्म तो पवित्रता से भी मुक्त है। वह अपवित्र और पवित्र, वह सब संसार की बातें हैं।

नाराज हुआ सम्राट, प्रसन्न न हुआ। क्योंकि ऐसे आदमी से कौन प्रसन्न होता है! हम तो लोभ को ऐसा पकड़े हैं कि अगर हमसे दान भी करवाना हो तो हमारे लोभ को फुसलाना पड़ता है। हम तो ऐसे भयभीत हैं कि हमें अगर निर्भय बनाना हो, तो भी हमारे भय को ही सुशिक्षित करना होता है। हमारा जीवन बड़ी उलटी दशा में है। जिंदगी तो जिंदगी, हम मर भी जाते हैं, तो भी हमारी आशाओं का ढांचा नहीं बदलता।

मेरी खाक पर साज़े-इकतार लेकर

उम्मीद अब भी एक गीत-सा गा रही है

मर जाते हैं, कब्रें बन जाती हैं, तो भी कब्र पर तुम बैठा हुआ पाओगे: वही पुरानी आशा इकतारा बजा रही है–वही कामना, वही वासना, वही लोभ, वही मोह!

“आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला तथा परकीय (आत्म-व्यतिरिक्त) भावों को जाननेवाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा जो यह कहेगा, यह मेरा है?’

महावीर कहते हैं, अज्ञान का आधार है यह कहना कि “यह मेरा है।’ ममत्व, “मैं’ को जोड़ लेना किसी भी चीज से, आत्मा का तादात्म्य बना लेना किसी चीज से–यही समस्त अधर्म का आधार है। तो वह कहते हैं, शुद्ध स्वरूप को जाननेवाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा, जो यह कहेगा “यह मेरा है?’ “मेरा’ अज्ञान है–घनीभूत अज्ञान! कहो, मेरा मकान। कहो, मेरी दुकान। या कहो, मेरा मंदिर। या कहो, मेरा धर्म। कहो, मेरा बेटा! या कहो, मेरा गुरु! लेकिन जहां भी “मेरा’ है और जोर “मेरे’ पर है, वहां-वहां अज्ञान है। “मेरे’ का दावा ही अज्ञान का है।

कुछ भी तुम्हारा नहीं है–सिवाय तुम्हारे।

महावीर इस संबंध में बड़े आत्यंतिक हैं और साफ हैं। सिवाय तुम्हारे और कोई भी तुम्हारा नहीं है। तुम्हारा होना ही बस तुम्हारा है। उसी को लेकर तुम आये, उसी को लेकर तुम जाओगे। बाकी तो खेल है। कोई पत्नी है, कोई पति है; कोई मित्र है, कोई शत्रु है; कोई अपना है, कोई पराया है–लेकिन बाकी सब खेल है। जहां तुम ठहरे हो, यहां “मेरा’ कुछ भी नहीं है।

धर्मशाला है; रात रुक गये, ठीक। सुबह चलना है, चल पड़ना है। तो महावीर कहते हैं, “मेरा’ जिसने छोड़ दिया उसका अज्ञान गिर जायेगा।

“मेरा’ का अर्थ हुआ कि आत्मा को हम किसी चीज से जोड़ते हैं। जब तुम कहते हो, “मेरा मकान’, तो कौन-सी घटना घटती है। मकान को तो कुछ परिवर्तन नहीं होता, यह तो जाहिर है। तुम मर जाओगे, मकान रोयेगा नहीं। मकान गिर जायेगा तो तुम रोओगे। एक बात पक्की है, जब तुम कहते हो, “मेरा मकान’, तो कोई परिवर्तन तुममें होता है, मकान में नहीं होता। मकान तो वैसा का वैसा बना रहता है।

एक सूफी फकीर अपने विद्यार्थियों को लेकर जा रहा था और राह पर उसने देखा कि एक आदमी गाय को रस्सी से बांधे खींचे लिये जा रहा है। तो उसने अपने विद्यार्थियों को कहा, घेर लो इस आदमी को, एक शिक्षा देनी है। वह आदमी भी थोड़ा चौंका, लेकिन अवाक खड़ा रह गया कि क्या मामला है, क्या शिक्षा है। वह सूफी फकीर ने अपने शिष्यों से कहा, “मैं तुमसे पूछता हूं कि इनमें गुलाम कौन किसका है? यह आदमी इस गाय का गुलाम है कि गाय इस आदमी की गुलाम?’ स्वभावतः शिष्यों ने कहा कि गाय इस आदमी की गुलाम है, क्योंकि इस आदमी के हाथ में गाय की रस्सी है और यह जहां चाहे वहां ले जा सकता है। सूफी फकीर ने कहा, तुमने बहुत ऊपर से देखा। अब ऐसा समझो कि हम यह रस्सी बीच से काट दें तो गाय इस आदमी के पीछे जायेगी कि यह आदमी इस गाय के पीछे जायेगा? उन्होंने कहा, अगर रस्सी काट दी तो गाय तो इस आदमी के पीछे जानेवाली नहीं; यह तो रस्सी में भी मुश्किल से जाती मालूम पड़ रही है। यह आदमी ही गाय के पीछे जायेगा।

तो उस फकीर ने कहा, रस्सी के धोखे में मत पड़ो! इस गाय को इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। इस गाय ने कोई तादात्म्य इस आदमी से नहीं बनाया है; इस आदमी ने तादात्म्य बनाया है गाय से। तो गुलाम यह आदमी है, गाय नहीं।

जब तुम कहते हो, “यह मेरा मकान’, तो तुम यह मत सोचना कि मकान भी कहता है कि “तुम मेरे मालिक।’ मकान ऐसी भूल-चूक नहीं करेगा। मकान इतने अज्ञानी नहीं हैं। मकान को मतलब ही नहीं है। अगर मकान को थोड़ा होश होता तो वह हंसता। वह मुस्कुराता तुम्हारी नासमझी पर। वह शायद तुम्हें क्षमा कर देता कि ठीक है, अज्ञानी हो, चलेगा। लेकिन मकान को तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। तुम नहीं थे, तब भी यह मकान बना रह सकता था। तुम नहीं रहोगे, तब भी बना रहेगा।

इब्राहीम सम्राट था बल्ख का। एक फकीर उसके द्वार पर आया और झंझट करने लगा कि मुझे इस महल में ठहरना है। लेकिन वह “महल’ नहीं कह रहा था। वह कहता था, यह “सराय’ में मुझे ठहरना है। बड़े जोर-जोर से लड़ रहा था वह पहरेदार से।

पहरेदार ने कहा, हजार दफे कह दिया यह धर्मशाला नहीं, सराय नहीं। सराय गांव में दूसरी है। यह राजा का महल है। यह राजा का खुद का निवास है। तुम होश में हो? तुम क्या बातें कर रहे हो? यह कोई ठहरने की जगह नहीं।

तो उसने कहा, फिर मैं राजा को देखना चाहता हूं। इब्राहीम भी भीतर से सुन रहा था–बड़े जोर से। और उस फकीर की आवाज में कुछ जादू था, कुछ चोट थी। वह जिस ढंग से कह रहा था, ऐसा नहीं लगता था कि सिर्फ जिद्दी, कोई पागल है। उसके कहने में कुछ रहस्य मालूम होता था। उसने कहा, उसे बुलाओ भीतर। वह फकीर भीतर आया और उसने कहा, “कौन राजा है? तुम!’ वह सिंहासन पर बैठा था, उसने कहा कि साफ है कि मैं राजा हूं। और यह मेरा निवास है और तुम व्यर्थ पहरेदार से झंझट कर रहे हो।

उसने कहा, बड़ी हैरानी की बात है! मैं पहले भी आया था, तब एक दूसरा आदमी इस सिंहासन पर बैठा था और वह भी यही कहता था।

उस राजा ने कहा, वे मेरे पिता थे, वे अब स्वर्गवासी हो गये।

उसने कहा, उनके पहले भी मैं आया था, तब एक तीसरा ही आदमी बैठा था। और हर बार पहरेदार भी बदल जाते हैं। आदमी भी बदल जाते हैं। यह मकान वही है। और हर बार जब मैं आता हूं, तब यही झंझट!

उसने कहा, वे हमारे पिता के पिता थे, वे भी स्वर्गवासी हो गये।

तो उसने इब्राहीम से पूछा, “जब मैं चौथी बार आऊंगा, तुम मुझे यहां मिलोगे, इस सिंहासन पर, कि फिर कोई और मिलेगा? जब इतने लोग यहां बदलते जाते हैं, इसलिए तो मैं कहता हूं यह सराय है, धर्मशाला है। तुम भी टिके हो थोड़ी देर; मेरे टिक जाने में क्या बिगड़ रहा है? सुबह हुई, तुम भी चल पड़ोगे, हम भी चल पड़ेंगे।

कहते हैं इब्राहीम को बोध हुआ। वह सिंहासन से नीचे उतर आया और उसने कहा कि तूने मुझे जगा दिया। अब तू रुक, मैं चला। अब यहां रुककर भी क्या करना है! जहां से सुबह जाना पड़ेगा, इतनी देर भी क्यों गंवानी!

इब्राहीम ने छोड़ दिया राजमहल। इब्राहीम सूफियों का एक बड़ा फकीर हो गया।

मेरा मकान! मेरा बेटा! मेरा धन! मेरा धर्म! जहां-जहां तुम “मेरे’ को फैलाते हो, वहां-वहां तुम्हारा “मैं’, झूठा “मैं’ खड़ा होता है। जो “मैं’ “मेरे’ के फैलाव से बनता है, उसीको महावीर अहंकार कहते हैं। और जो “मैं’ सब “मेरे’ के टूट जाने पर बचता है, उसको महावीर आत्मा कहते हैं। तो अभी तो तुमने जो अपना “मैं’ जाना है, वह “मैं’ नहीं है। वह तो तुम्हारी और गाय के बीच में बंधी हुई रस्सी है। वह तुम्हारी अंतरात्मा नहीं है। वह तो तुम्हारे मकान पर लगी हुई तुम्हारे अहंकार की छाप है।

इसलिए महावीर कहते हैं:

को णाम भणिज्ज बुहो, णाउं सव्वे पराइए भावे।

मज्झमिणं ति य वयणं, जाणंतो अप्पयं सुद्धं।।

“ऐसा कौन है जाननेवाला, जो कहेगा यह मेरा है?’

तो जिसने यह जान लिया कि मेरा कुछ नहीं है, वही जाननेवाला है। और जिसने यह जान लिया कि मेरा कुछ भी नहीं है, उसी को पता चलेगा मैं कौन हूं।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि कैसे पता चले कि मैं कौन हूं। सीधी प्रक्रिया है: “मेरे’ को शिथिल करते जाओ। जहां-जहां “मेरे’ को पाओ, वहां-वहां रस्सी को काटते जाओ। कुछ छोड़कर भाग जाने की भी जरूरत नहीं है कि तुम घर छोड़कर भागो। क्योंकि छोड़कर भागने में तो ऐसा लगता है कि काट न पाये, डरकर भाग गये। डर लगा कि रहे तो कहीं “मेरा’ हो ही न जाये यह मकान! कहीं लगने न लगे कि मेरा है! तो जंगल भाग गये, जंगल में क्या होगा? जिस झाड़ के नीचे बैठोगे, वही तुम्हारा हो जायेगा।

तुमने देखा, भिखारी भी जिस जगह पर बैठता है सड़क के, वह उसकी हो जाती है! अगर दूसरा भिखारी वहां आ जाये, झगड़ा हो जाता है, अब कुछ नहीं है। चलती सड़क है, किसी की नहीं है, सार्वजनिक है। मगर भिखारियों के भी अड्डे होते हैं। जो भिखारी जिस जगह बैठता है, वह उसकी दुकान है।

एक आदमी एक भिखारी के सामने से गुजर रहा था। वह भिखारी चिल्लाया, “बाबा! कुछ पैसे मिल जायें, सिनेमा देख आऊंगा।’ और सामने तख्ती लगा रखी थी कि मैं अंधा हूं। उस आदमी ने पूछा, तुम अंधे हो? तो उसने कहा कि नहीं, असल में यह दुकान दूसरे भिखारी की है। वह आज छुट्टी पर है। मैं अंधा नहीं हूं, मैं लंगड़ा हूं। यह दुकान दूसरे की है, मैं तो सिर्फ आज बैठा हूं, क्योंकि वह छुट्टी पर है। और मौके की दुकान है। तो जब वह छुट्टी पर होता है तो मुझे बिठा जाता है।

तुम अगर जाओ जंगलों में, हिमालय की गुफाओं में, जहां संसार छोड़कर बैठे हैं संन्यासी, उनकी भी गुफाएं हैं: दूसरा न बैठे। अगर दूसरा बैठ जाये, झगड़ा मच जाता है। तो क्या फर्क पड़ेगा? मकान छूटेगा, गुफा अपनी हो जायेगी। गुफा छूटेगी, सड़क के किनारे बैठ जाओगे तो वह टुकड़ा अपना हो जायेगा। तुम कहां अपने को लगाते हो, यह थोड़े ही सवाल है। कहीं भी तो चिपकाओगे उस “मैं’ को! बस जहां चिपका दोगे, वही झंझट हो जायेगी।

लोग धर्म से भी चिपका देते हैं। मेरा मंदिर! हिंदू कहते हैं, हमारा! मुसलमान की मस्जिद, वे कहते हैं, हमारी! हिंदू को रस आता है मुसलमान की मस्जिद गिर जाये तो।

एक हिंदू पंडित में और एक मुसलमान मौलवी में बड़ी दोस्ती थी। मौलवी नयी मस्जिद बनाने के लिये योजना कर रहा था और दान मांग रहा था। उसने मित्रों को भी पत्र लिखे। उसने उस पंडित को भी पत्र लिखा कि मस्जिद बनाने के लिए चेष्टा कर रहे हैं, कुछ दान! पंडित ने पत्र लिखा कि यह तो असंभव है; मैं हिंदू हूं और मस्जिद बनाने के लिए दान दूं, यह तो संभव नहीं है। हां, पुरानी को गिराने के निमित्त सौ रुपये भेज रहा हूं। पुरानी गिराओगे न, नयी बनाने के पहले! मेरा दान पुरानी को गिराने के लिये है। इसका उपयोग भर गिराने में कर लेना। बनाने के लिए तो मैं कैसे दे सकता हूं!

मस्जिद गिर जाये, हिंदू प्रसन्न है। मंदिर जल जाये, मुसलमान प्रसन्न है! किसी को परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है, अपना-अपना है। अगर तुम्हारे परमात्मा पिट रहे हों तो कोई बचाने भी न आयेगा। लोग खुश ही होंगे कि अच्छा है, तुम्हारे ही पिट रहे हैं।

जबलपुर में गणेश-उत्सव पर गणेशों का जुलूस निकलता है, शोभाऱ्यात्रा निकलती है। और हर मुहल्ले के गणेशों की जगह बंटी हुई है। तो पहले ब्राह्मणों के टोले का गणेश होता है, फिर दूसरे टोले। फिर ऐसे पीछे आखिर में हरिजन टोले।

एक बार ब्राह्मणों का टोला आने में थोड़ी देर हो गई और तेलियों के गणेश पहले आ गये। तो जब ब्राह्मणों के गणेश पहुंचे, ब्राह्मणों ने कहा, “हटाओ तेलियों के गणेश को! तेलियों का गणेश और आगे!’

हां, गणेश भी तेलियों के, ब्राह्मणों के अलग-अलग हैं! तेलियों का गणेश, हटाओ पीछे! यह तो बेइज्जती की बात हो गई। और तेलियों के गणेश को पीछे हटना पड़ा। हिंदू-मुसलमान के देवी-देवता तो छोड़ो, हिंदू के भी देवी-देवता! तेली और ब्राह्मण के अलग हो जाते हैं।

सब जगह आदमी अपने अहंकार की पताका लिये खड़ा रहता है। इस पताका को जो गिरा देता है वही आत्मा को जानने में समर्थ होता है।

छोड़ो इस मेरेत्तेरे को। सपनों में ज्यादा रस मत लो।

तर्क-ए-उमीद से ही मिलेगा सुकून-ए-दिल

दो दिन की जिंदगी पर भरोसा किया तो क्या!

इतना ही देखते रहो कि यहां जो है, दो दिन के लिये है, क्षणभर के लिये है। इसकी क्षणभंगुरता को गौर से देखते रहो, तो तुम इसे “मेरा’ न कहोगे।

तर्क-ए-उमीद से ही मिलेगा सुकून-ए-दिल!

और दिल की जो गहन शांति है, वह जो आत्म-शांति है, वासना के त्याग से ही मिलेगी; ममता के त्याग से ही मिलेगी।

दो दिन की जिंदगी पर भरोसा किया तो क्या!

“मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं तथा ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।’

अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदं सणसमग्गो।

तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं णेमि।।

“मैं एक हूं…।’

एक-एक शब्द समझना इस सूत्र का। महावीर कहते हैं, मैं एक हूं। तुम न कह सकोगे कि तुम एक हो। तुम तो अगर गौर करोगे, तो पाओगे तुम एक भीड़ हो। तुम अनेक हो। तुम तो एक बाजार हो। एक उपद्रव हो, जिसके भीतर कई स्वर हैं।

महावीर ने कहा, साधारणतः मनुष्य “बहुचित्तवान’ है। इस शब्द का प्रयोग अकेले महावीर ने किया है पच्चीस सौ साल पहले। अब आधुनिक मनोविज्ञान इस शब्द का उपयोग करता है। वह कहता है: मल्टीसाइकिक, बहुचित्तवान। एक-एक आदमी के पास एक-एक मन नहीं है; एक-एक आदमी के पास न मालूम कितने मन हैं!

तुम अकसर कहते हो कि यह मेरे मन को नहीं भाता। लेकिन तुमने कभी खयाल किया कि सुबह जो तुम्हारे मन को नहीं भाता। वही शाम को भाने लगता है! आज जो अच्छा लगता है, कल बुरा लगने लगता है। क्षणभर पहले जो प्रीतिकर था, अब शत्रु मालूम होने लगता है। तो तुम सोचते नहीं कि तुम्हारे भीतर बहुत मन हैं; एक मन नहीं है। अगर एक मन हो तो तुम्हारा प्रेम एकरस होगा। अगर एक मन हो तो तुम्हारा भाव थिर होगा। अगर एक मन हो तो बदलाहट न होगी। तुम्हारे भीतर शाश्वतता होगी, चिरंतनता होगी।

लेकिन तुम तो एक भीड़ हो। गुरजिएफ कहता था, तुम एक ऐसे घर हो जिसका मालिक तो सोया है और नौकर पाली बांध लिये हैं। क्योंकि सभी नौकर मालिक होना चाहते हैं। सभी एक साथ तो हो नहीं सकते। और मालिक सोया है, तो नौकरों ने पाली बांध ली है। आधा-आधा घड़ी को एक-एक नौकर मालिक हो जाता है। जब, जो नौकर मालिक होता है, उस वक्त उसकी चलाता है। फिर वह किसी की नहीं सुनता।

ठीक कहता है गुरजिएफ। ऐसी ही आदमी की दशा है।

जब तुम क्रोध में हो, तब क्रोध की चलती है। यह तुम्हारा एक नौकर है। और क्रोध में तुम ऐसी बातें कर जाते हो कि घड़ीभर बाद जब क्रोध का राज्य जा चुका होगा, तब तुम पछताओगे। क्योंकि तब दूसरा मालिक आ गया। वह मालिक कहेगा, “यह क्या गलती कर ली? बड़ी भूल हो गई।’ क्षमा मांगोगे। और इस दूसरे मालिक के प्रभाव में तुम किसी को कह आओगे कि अब कभी क्रोध न करूंगा।

फिर गलती कर रहे हो। क्योंकि वह जो क्रोध करनेवाला है, जब मालकियत में फिर आयेगा, तब यह पश्चात्ताप काम न आयेगा; यह आश्वासन काम न आयेगा। यह किसी और के द्वारा दिया गया आश्वासन क्रोध क्यों पूरा करेगा?

कामवासना उठती है तो तुम उसके प्रभाव में हो जाते हो। फिर सुबह उठकर मंदिर चले जाते हो, ब्रह्मचर्य की कसम खाने लगते हो। भूल गये सांझ। फिर आयेगी सांझ। फिर कामवासना सिंहासन पर बैठेगी। फिर तुम अड़चन में पड़ोगे।

समझने की कोशिश करो। इन मनों में से कोई भी मन तुम्हारा नहीं है। तुम तो अभी सोये हो। इन मनों में से किसी को चुनना नहीं है, क्योंकि इनमें से चुना हुआ तो ठीक वैसा ही रहेगा जैसा लोकतांत्रिक सरकार होती है–बहुमत की। लेकिन बहुमत का कोई भरोसा है? आज जो इस पार्टी में है, कल दूसरी पार्टी में हो जाता है। आज जो मित्र है, कल शत्रु हो जाता है। वहां तो रूप-रंग रोज बदलते रहते हैं। खेल चलता रहता है। जो सरकार बनी दिखाई पड़ती है, वह किसी भी क्षण गिर जाती है। जिनकी कभी आशा न थी, वे सरकार में पहुंच जाते हैं, मालिक बन जाते हैं। यह चलता रहता है। यह तो सागर में उठती लहरों जैसा खेल है।

तो अगर तुमने कोई कसम खाकर किसी तरह बहुमत बना लिया, तो तुम मुश्किल में रहोगे। वह अल्पमत सदा उपद्रव खड़ा करता रहेगा। वह आंदोलन चलायेगा। वह झंझट पैदा करेगा। वह बहुमत को खिसकायेगा। संयमी और ज्ञानी के जीवन में यही फर्क है। संयमी अपने भीतर एक लोकतांत्रिक सरकार निर्मित करने की कोशिश करता है।

की तर्के-मय तो मायले-पिंदार हो गया

मैं तौबा करके और गुनहगार हो गया।

और तुमने कभी किसी चीज को न करने की कसम खाई?

कसम खाते ही उसमें और रस आने लगता है। खाकर कसम देखो! चाहे इसके पहले कोई रस भी न रहा हो। कसम खाकर देखो…

की तर्के-मय तो मायले-पिंदार हो गया!

–जैसे ही कोई चीज त्यागी कि तुम्हारी कल्पना घोड़ों पर सवार हो जाती है। और वह सोचती है, “अरे भोग लो! पता नहीं कितना मजा है, नहीं तो दुनिया क्यों इसके खिलाफ है? कुछ न कुछ राज तो होगा ही। नहीं तो इतने लोग समझानेवाले हैं, कोई छोड़ता नहीं।’ कल्पना घोड़े पर सवार हो जायेगी।

मैं तौबा करके और गुनहगार हो गया।

पश्चात्ताप करो। तुम कहो, अब कभी न करेंगे। और तत्क्षण तुम्हारे भीतर गुनाह उठने लगेंगे। करने की आकांक्षा प्रबल होगी, जब भी तुम कहोगे अब न करेंगे।

उपवास करके देखो! उस दिन जैसा भोजन में रस लोगे, वैसा कभी न लिया था। उस दिन भोजन ही भोजन करोगे। रात-दिन सपने ही सपने आयेंगे। जिस चीज को छोड़ोगे उसी की तरफ कल्पना रसलीन होने लगती है।

संयमी बड़े अंतर्युद्ध में पड़ जाता है, गृहयुद्ध में पड़ जाता है। ज्ञानी और संयमी में फर्क है। महावीर का जोर ज्ञानी पर है।

महावीर कहते हैं, “मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं तथा ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।’

महावीर यह नहीं कहते कि मैं परकीय भावों का क्षय करके अपने स्वभाव में थिर होता हूं। महावीर कहते हैं, अपने स्वभाव में थिर होता हूं, इसलिए परकीय भावों का क्षय होता।

“मैं अपने स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर…।’

असली सवाल उस एक में तन्मय हो जाने का है; संसार के त्याग का कम, सत्य के अनुभव, सत्य के रस का ज्यादा है, सत्य के स्वाद का ज्यादा है।

“मैं एक हूं…।’

कौन है तुम्हारे भीतर एक? वासनाएं तो अनेक हैं? विचार अनेक हैं। देह भी एक नहीं है, क्योंकि देह भी रोज बदलती है। बचपन में एक थी, जवानी में और है, बुढ़ापे में और होगी। और ये तो मोटे विभाजन हैं, अगर गौर से देखो तो रोज बदलती है। सुबह कुछ है सांझ कुछ है। देह हजार बार बदलती है। मन तो करोड़ बार बदलता है। यह कोई भी एक नहीं है। इन सबके भीतर अगर तुम एक को खोज लो, वह एक ही साक्षी-भाव है–ज्ञायक-भाव जिसको महावीर कहते हैं ज्ञाता–वह एक है। बचपन में भी वही था, जवानी में भी वही, बुढ़ापे में भी वही। सुख में, दुख में, क्रोध में, प्रेम में, करुणा में–सब में वही। वह एक है।

उस एक को जिसने पकड़ लिया उसने जीवन का आधार खोज लिया। उस एक पर जो अपने भवन को खड़ा करेगा, उसके शिखर मोक्ष तक उठ जायेंगे।

“मैं एक, शुद्ध, ममता-रहित, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण…।’

उस अंतरात्मा का एक ही लक्षण है: ज्ञान-दर्शन; जानने की, देखने की क्षमता। बस इतना उसका स्वभाव है। आत्मा का इतना ही स्वभाव है: देखने-जानने की क्षमता। अगर जानो और देखो, इस क्षमता का उपयोग करो, तो संसार बन जाता है। अगर न जानो, न देखो, इस क्षमता को शुद्ध छोड़ दो, उपयोग मत करो, तो मुक्ति फलित हो जाती है।

“अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर, मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।’

प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली

नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली

नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गए

प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली।

–जैसी जिंदगी है, वहां सिर्फ प्यास है, तृप्ति नहीं है।

प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली!

जिसे तुम संसार कहते हो, वह प्यास और प्यास और प्यास, मरुस्थल! हां, दूर मरूद्यान दिखाई पड़ते हैं, पास पहुंचने पर मरूद्यान सिद्ध नहीं होते।

प्यास भटकी ही सदा, नीर की आशा न मिली।

दिखाई भी पड़े जल-स्रोत, तो भी सत्य सिद्ध न हुए। मन के ही स्वप्न थे!

नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली।

तरंगें तो बहुत उठीं, लहरें तो बहुत आईं; लेकिन तट! वह जगह न मिली, जहां सब लहरें शांत हो जाती हैं।

उफ! तूफान तो बहुत रहे, आंधियां तो बहुत रहीं; लेकिन ऐसी कोई शरण न मिली, जहां सुख-चैन हो जाता है।

नदी को लहर मिली, तट की दिलासा न मिली

नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये

और सदा अधूरा-अधूरा रहा; कुछ मिला तो कुछ कम हो गया।

नयन मिले तो अधर पंख थरथरा के रह गये

प्यार को जन्म मिला, प्यार को भाषा न मिली।

इस संसार में प्यास तो है, प्यार तो है; लेकिन न भाषा मिलती, न माध्यम मिलता, न द्वार मिलता। भटकती है रूह रेगिस्तानों में–प्यास के, अतृप्ति के, असंतोष के।

जो बाहर जायेगा तो ऐसा ही होगा। भीतर आते ही किनारा मिलता है। बाहर प्यास ही प्यास है, भीतर तृप्ति ही तृप्ति। मुझे ऐसा कहने दो कि बाहर प्यास ही प्यास है और तृप्ति बिलकुल नहीं; और भीतर तृप्ति ही तृप्ति है, प्यास बिलकुल नहीं। तो असली सवाल भीतर आने का है।

आनंद तुम्हारा स्वभाव है।

“मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित हूं, ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण हूं। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूं।’

वे सारी प्यासें, तड़फड़ाहटें, दौड़, आपाधापी, वह बाहर का सारा जाल, सूखे कंठ, रोती आंखें–उन सबका त्याग होता चला जाता है, क्षय होता चला जाता है।

उपनिषद ठीक महावीर की इस अंतर्दृष्टि को प्रगट करते हैं।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो।

मैं सदा रहनेवाला, सनातन, सदा सदैव स्थिर रहनेवाला आत्मा हूं।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो।

और जब तक कोई शाश्वत से न जुड़ जाये, क्षणभंगुर से कैसे सुख पाया जा सकता है? पानी के बबूलों को संपदा बनाने में लगे हो। हाथ में नहीं आते, तब तक तो इंद्रधनुष उन पर बनते हैं; हाथ में आते ही फूट जाते हैं।

उपनिषद कहते हैं: सतां हि सत्य। सत्पुरुषों का स्वभाव ही सत्यमय होता है।

सत्य कोई बाहर की बात नहीं–तुम्हारे स्वभाव की बात है।

सतां ही सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते।

और वे सदा उस भीतर के सत्य में रमते हैं।

वही महावीर कह रहे हैं तन्मय होकर, स्वभाव में स्थित, परकीय भावों का क्षय करता हूं।

इसे थोड़ा प्रयोग में लाना शुरू करो। उठते-बैठते एक धागा भीतर सम्हालते रहो, जीवन के सारे मनके इसी धागे में पिरो लो। उठो तो याद रखो कि मैं जाननेवाला हूं, उठनेवाला नहीं। उठ तो शरीर रहा है। उठ तो मन रहा है। मैं सिर्फ जाननेवाला हूं। चलो रास्ते पर, तो जानते रहो: चल तो शरीर रहा है, चल तो मन रहा है; मैं तो सिर्फ जान रहा हूं। जान रहा हूं कि शरीर चल रहा, मन चल रहा। भोजन करो तो स्मरण रखो कि भोजन तो शरीर में पड़ रहा है, कि शरीर तृप्त हो रहा है, कि मन तृप्त हो रहा है; लेकिन मैं तो जाननेवाला हूं।

इस जाननेवाले के सूत्र को तुम जीवन के सारे मनकों में पिरो दो। धीरे-धीरे यह तुम्हें स्वाभाविक होता जायेगा। तुम कुछ भी करोगे, भीतर एक अहर्निश नाद बजता रहेगा: “मैं ज्ञाता हूं।’ उस ज्ञाता में ही तुम एक हो जाओगे। उस ज्ञाता को जानते ही तुम संसार के पार हो जाओगे।

महावीर कहते हैं, जैसे कमल के पत्ते जल में रहते भी जल को छूते नहीं, ऐसे ही फिर जो साक्षी-भाव को उपलब्ध हुआ, जल में रहते हुए भी जल को छूता नहीं। तुम फिर कहीं भी हो, तुम संसार के बाहर हो। संसार के भीतर भी तुम बाहर हो। फिर तुम भीड़ में खड़े भी अकेले हो। अभी तो तुम अकेले भी खड़े भीड़ में ही होते हो।

और ये जो वचन हैं महावीर के, ये किसी दार्शनिक के वक्तव्य नहीं हैं। ये किसी तत्वचिंतक की धारणाएं नहीं हैं। ये तो एक महासाधक के अनुभव हैं। इन्हें तुम अनुभव बनाओ, तो ही इनका राज खुलेगा। इन्हें तुम प्रयोग बनाओ और इनके लिए तुम प्रयोगशाला बनो, तो ही ये सूत्र सत्य हो सकेंगे।

सतां हि सत्य। तस्मात्सत्ये रमन्ते।

रमो इन सत्यों में। इन सत्यों को तुम्हारा स्वभाव बनने दो। तब तुम्हारे जीवन में “उसकी’ वर्षा हो जायेगी:

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो।

उस शाश्वत की जो सदा से है और सदा रहेगा। और उस शाश्वत की वर्षा होते ही क्षणभंगुर से छुटकारा हो जाता है। क्षणभंगुर को छोड़ना नहीं पड़ता। पानी के बबूलों को कोई छोड़ता है? बोध आया–छूट गये! अज्ञान में पकड़ता है, ज्ञान में छूट जाता है। अज्ञान में हम संसार को पकड़ते हैं, ज्ञान में हम स्वयं को पकड़ लेते हैं। और जिसने स्वयं को पा लिया, उसने सब पा लिया। और जिसने स्वयं को खोया, वह कुछ भी पा ले, तो भी उसका पा लिया हुआ कुछ सिद्ध न होगा। एक न एक दिन वह रोयेगा। उसकी आंखें आंसुओं से भरी होंगी।

आज वे मेरे गान कहां हैं?

टूट गई मरकत की प्याली

लुप्त हुई मदिरा की लाली

मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले

अब सामान कहां हैं?

अब वे मेरे गान कहां हैं?

जगती के नीरव मरुथल पर

हंसता था मैं जिनके बल पर

चिर वसंत-सेवित सपनों के

मेरे वे उद्यान कहां हैं?

अब वे मेरे गान कहां हैं?

इसके पहले कि आंखें आंसुओं से भर जायें और हृदय केवल राख का एक ढेर रह जाये, जागो! इसके पहले कि जीवन हाथ से बह जाये, छिटक जाये, उठो! अवसर को मत खोओ!

जीवन अल्प है। उसे व्यर्थ में मत गंवा दो। मंदिर तुम्हारे भीतर है। अगर समय का तुम ठीक उपयोग करना सीख जाओ, सामायिक सीख जाओ–मंदिर में प्रवेश हो जाये।

समय को संसार में लगाना और समय को संसार से मुक्त कर लेना–बस दो आयाम हैं।

समय को संसार से मुक्त करो। समय को संसार की व्यस्तता से मुक्त करो! सामायिक फलित होगी! अपने में प्रवेश होगा! आत्मधन मिलेगा! आत्मगीत बजेगा! आत्मा का नर्तन! तन्मय होकर तुम डूबोगे!

आज इतना ही।


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जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–20

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पलकन पग पोंछूं आज पिया के—प्रवचन—बीसवां

प्रश्‍न सार:

1—आपको सुनने के बाद मुझे व्‍यवहारिक जीवन में शिथिलता आती है। लेकिन जब आप प्रेम और भक्‍ति पर बोलते है तो मन खिल जाता है। कृपा कर मुझे मार्ग दें।

2—मेरे भीतर स्‍तब्‍धता, सन्‍नाटा सा लग रहा है। और साथ ही अच्‍छे बुरे विचारों का आक्रमण भी। मैं अपने को बहुत असहाय पा रही हूं। भय लगता है।

3—आप महावीर की अहिंसा पर, बुद्ध के शून्‍य पर, या कुछ भी बोलते है तो उसमें अनिवार्यत: प्रेम जोड़ देते है। क्‍या हम संन्‍यासियों में प्रेम का अत्‍यंत अभाव देखकर ही प्रेम का पुन:–पुन: स्‍मरण कराते है?

4—मुझे समर्पण में बहुत आनंद आता है, ज्ञान से थोड़ा अहंकार जगता है। मैं कौन—सा ध्‍यान करूं—बताने की कृपा करें।

पहला प्रश्न:

आपको सुनने के बाद मुझे व्यवहारिक जीवन में शिथिलता और उदासी का अनुभव होता है। लेकिन जब प्रेम और भक्ति, आनंद और उत्सव पर आप बोलते हैं, तब मन खिल जाता है और आनंद से भर जाता है। कृपापूर्वक मुझे मेरा मार्ग दें।

आनंद कसौटी है। सत्य की चिंता छोड़ो। जहां आनंद है, उसी दिशा में चल पड़ो। सत्य मिलेगा ही। असत्य की दिशा में आनंद हो ही नहीं सकता। इसीलिए तो हमने आनंद को ब्रह्म की परिभाषा बनाया है। सच्चिदानंद!

आनंद कसौटी है। आनंद पर कभी संदेह मत करना। अगर आनंद न होगा तो जल्दी ही पता चल जायेगा। झूठा आनंद ज्यादा देर टिकेगा नहीं।

डूबो! जहां से आनंद की किरण आती है वहीं सूरज है सत्य का। तुम किरण को पकड़ लो और चल पड़ो। सत्य की चिंता ही छोड़ो। किरण पकड़ ली तो सूरज की दिशा पर चल पड़े। और आदमी के पास दूसरा कोई उपाय नहीं है। सत्य से ही पता चलेगा, क्या ठीक है। क्योंकि जो ठीक है, वही जीवन को संगीत और आनंद से भरता है।

और जब मैं कहता हूं, जो ठीक है, तो मेरा प्रयोजन व्यक्ति-व्यक्ति से है। जो तुम्हें ठीक है, जरूरी नहीं कि तुम्हारे पति को ठीक हो। जो तुम्हें ठीक है, जरूरी नहीं कि तुम्हारे बेटे को ठीक हो। जो तुम्हें ठीक है, जरूरी नहीं कि तुम्हारे भाई को ठीक हो, मित्र को ठीक हो, पड़ोसी को ठीक हो।

जो तुम्हारे लिए ठीक है, उसे भूलकर भी दूसरे पर आरोपित मत करना। वहीं हिंसा शुरू हो जाती है। जो तुम्हारे लिए ठीक है, उसे जीना। और किसी को भी इतना अधिकार मत देना कि वह तुम्हारे ऊपर अपने ठीक को थोप पाये। क्योंकि वहीं से गुलामी शुरू हो जाती है।

न किसी को गुलाम बनाना, न किसी के गुलाम बनना–तो ही तुम धार्मिक हो सकोगे।

और कसौटी एक ही है हाथ में कि जहां तुम्हें आनंद की पुलक मिले, वहां सरकते जाना। अगर झूठा होगा आनंद–उस झूठे आनंद को ही हम सुख कहते हैं।

सुख का अर्थ है: जिसने धोखा दिया आनंद का, लेकिन था नहीं। सुख का अर्थ है: जाकर पता चला आनंद नहीं है। दूर से ढोल सुहावना मालूम पड़ा था। मृगमरीचिका थी। दूर से कुछ और समझे थे, पास कुछ और सिद्ध हुआ। इसलिए मैं तुमसे सुख से भी भागने को नहीं कहता; क्योंकि अगर तुम भाग गये मृगमरीचिका को बिना देखे, तो सुख तुम्हारा सदा पीछा करेगा।

मैं तुमसे कहता हूं, सुख में भी जाओ, ताकि वह दुख हो जाये। अगर वह दुख है तो दुख हो जायेगा; और अगर दुख नहीं है तो वहीं से तुम्हारी परमात्मा की सीढ़ियां शुरू होंगी।

लेकिन, मनुष्य के मन को आनंद के लिए तैयार नहीं किया गया है। इसलिए प्रश्न उठता है। इसलिए तुम अपनी इस स्वाभाविक रुझान को भी समस्या बना लेते हो।

अगर वैराग्य की बातें तुम्हें रस नहीं देतीं–छोड़ो! तुम्हारे लिए न होंगी। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे बातें गलत हैं। वे किसी और के लिए होंगी। कोई महावीर उस रास्ते से चलकर पहुंचेगा। कुछ प्रयोजन नहीं तुम्हें उनसे।

तुम्हारा हृदय तुम्हें प्रतिपल बताता है कि कौन-सी भूमि तुम्हारे फूल को खिलायेगी।

फिर हर वृक्ष के लिए अलग भूमि होती है। कोई वृक्ष रेत में ही खड़ा होता है। कोई वृक्ष कंकड़-पत्थर चाहता है। कोई वृक्ष काली भूमि चाहता है कि जरा-भी कंकड़-पत्थर न हों। जो एक के लिए अमृत है, वह दूसरे के लिए जहर हो जाता है।

इसलिए सदा ध्यान रखना: कोई वक्तव्य सत्य के संबंध में सार्वभौम नहीं है–व्यक्ति-सापेक्ष है।

वैराग्य की बात किसी को खिलाती होगी। असली सवाल खिल जाना है। किसी को मरुस्थल की रेत में ही खिलने का सौभाग्य होता होगा। कैक्टस मरुस्थल में ही खिलते हैं। उनका भी अपना सौंदर्य है। गुलाब वहां न खिलेंगे। गुलाब का अपना सौंदर्य है।

तो अपने हृदय से कभी भी जबर्दस्ती मत करना। अगर व्यक्ति अपने हृदय की मानकर चलता रहे, और हृदय के अतिरिक्त, हृदय के विपरीत किसी की न माने, तो सत्य से तुम भटक न सकोगे, पहुंच ही जाओगे।

जहां आनंद न होगा और धोखा खाया, वहां धोखा कितनी देर चलेगा? प्यासे आदमी को कितनी देर झूठे पानी से समझाओगे, बुझाओगे? कितनी देर सांत्वना दोगे? जल्दी ही उसे समझ में आ जायेगा: यहां कोई जलधार नहीं है। हां, लेकिन यह हो सकता है, उसे तुम इस झूठी जलधार के पास ही न पहुंचने दो, तो कभी उसके अनुभव में ही न आ सके कि मृगमरीचिका थी, वहां कुछ था नहीं। तो शायद उसके मन में सपना अपने ताने-बाने बुनता रहे! शायद मन कहता रहे, वहां सुख था! वहां सुख था!

ऐसा ही मैं तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों में देखता हूं। संसार में सुख नहीं है, ऐसा उनका अनुभव नहीं है। ऐसा किसी अनुभवी की बात को उन्होंने मान लिया है। उनका स्वयं का हृदय तो कह रहा था, सुख है। उस हृदय को तो इनकारा, अस्वीकार किया; किसी और को आरोपित कर लिया। अपने प्राणों की आवाज तो न सुनी; किसी और की आवाज पर चल पड़े। फिर उनका जीवन बड़े दुख से भर जाता है। क्योंकि जहां उन्हें सुख दिखाई पड़ता था, वहां उन्हें अब भी दिखाई पड़ेगा।

आंखें उधार नहीं मिलतीं और न दर्शन उधार मिलता है, मेरी आंख से मैं देख सकता हूं। मेरी आंख से तुम न देख सकोगे। मेरे लिए मैं जी सकता हूं, मेरे लिए तुम न जी सकोगे। और मेरे लिए मैं ही मर सकता हूं, तुम न मर सकोगे।

एक की जगह दूसरे के खड़े होने का कोई भी उपाय नहीं है। मगर वहीं हम धोखा देते हैं।

महावीर ने कहा है तो ठीक कहा होगा। ठीक ही कहा है। लेकिन तुम्हारे लिए कहा है, ऐसा महावीर को तुम्हारे हिसाब से बोलने का कोई कारण भी न था; तुम महावीर के सामने भी न थे। महावीर को तुम्हारा कोई पता भी नहीं है। महावीर ने तो अपना सत्य कहा है। इसे खयाल रखना।

यहां जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह जरूरी नहीं है कि तुम्हारा सत्य हो। वह मेरा सत्य है, इतना जरूरी है। ऐसा मैंने जाना। ऐसा तुम भी जानोगे, इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है। जान भी सकते हो, न भी जानो!

मुझसे मेल खा जाओ, तुम्हारा व्यक्तित्व मुझसे मेल खाता हो, तो शायद जो मेरा सत्य है वह तुम्हारा भी अनुभव बन जाये। लेकिन अगर व्यक्तित्व मेल न खाता हो, तो मेरा सत्य तुम्हारे ऊपर-ऊपर रहेगा, भीतर-भीतर तो तुम्हारा ही सत्य रहेगा।

सभी दर्शन आत्म-कथाएं हैं, “आटो-बायोग्राफिकल’ हैं। वे व्यक्ति के संबंध में हैं।

जब महावीर कुछ कहते हैं, तो वह महावीर के संबंध में सूचनाएं हैं; जब बुद्ध कुछ कहते हैं तो बुद्ध के संबंध में। जब मीरा नाचती है और नाच से कुछ कहती है, तो अपने संबंध में कह रही है।

सत्य के संबंध में जिनती उदघोषणाएं हैं, वह उन व्यक्तियों की उदघोषणाएं हैं जिन्होंने सत्य को जाना। उनके माध्यम से सत्य आया। सत्य ने एक रूप लिया। जरूरी नहीं है वही रूप तुम्हारे लिए ठीक हो। तुम कैसे समझोगे?

कुछ लोग हैं, जो इसलिए मान लेते हैं किसी की बात को, क्योंकि और लोग उसकी बात को मानते हैं। अगर जीसस को एक अरब आदमी मानते हैं तो कुछ तो इसीलिए मान लेंगे कि जिसको एक अरब मानते हैं, वह गलत कैसे हो सकता है?

लेकिन ध्यान रखना, यह भी संभव है कि एक अरब जिसे मानते हों वह तुम्हारे लिए न हो। वह एक अरब के लिए भी सही हो और फिर भी तुम्हारे लिए सही न हो। क्योंकि परमात्मा एक-एक व्यक्ति को अनूठा रचता है, एक-एक व्यक्ति को अद्वितीय रचता है। यही तो मनुष्य की महिमा है।

मनुष्य की तो छोड़ दो फिक्र, एक पत्ते को इस बगीचे से तुम खोज लो, फिर वैसा पत्ता तुम सारी पृथ्वी पर खोजकर भी दूसरा न पा सकोगे।

एक कंकड़ उठा लो मार्ग से, फिर अनंत-अनंत चांदत्तारों पर भी खोजते रहो तो ठीक वैसा कंकड़ तुम्हें दुबारा न मिलेगा।

परमात्मा कोई फोर्ड-कार बनानेवाली असेंबली-लाइन नहीं है कि एक-सी कारें! परमात्मा कोई मैकेनिक नहीं है, तकनीशियन नहीं है–कलाकार है।

जितना बड़ा कवि होगा, उतना ही दुबारा किसी गीत को नहीं दोहराता। जितना बड़ा चित्रकार होगा, दुबारा फिर उसी चित्र को नहीं बनाता। दुबारा अगर बना भी ले वैसा चित्र तो आनंद अनुभव नहीं करता।

ऐसा हुआ कि एक आदमी ने पिकासो का एक चित्र खरीदा। कई लाख रुपये का चित्र था। तो स्वभावतः वह पता कर लेना चाहता था कि चित्र नकली तो नहीं है। तो वह पिकासो के पास ही उस चित्र को लेकर गया। और उसने पिकासो से कहा कि मैं यह खरीद रहा हूं, लाखों रुपये का मामला है, मैं इतना पूछने आया हूं कि यह असली है? तुम्हारा ही बनाया हुआ है, किसी की नकल तो नहीं?

पिकासो ने उस चित्र की तरफ बड़ी बेरुखी से देखा और कहा, नकली है, किसी और का बनाया है। पिकासो की प्रेयसी मौजूद थी और वह बड़ी चकित हुई, क्योंकि यह चित्र उस प्रेयसी के सामने ही बनाया गया था। और पिकासो ने ही बनाया था। उसने कहा कि शायद तुम भूल रहे हो, शायद तुम्हारी स्मृति तुम्हें धोखा दे रही है। यह चित्र तुमने मेरे सामने बनाया है। यह तुम्हारा ही बनाया हुआ है।

पिकासो ने कहा, मैंने बनाया है, लेकिन फिर भी नकली है। क्योंकि इसे मैं पहले भी बना चुका हूं। इसको असली कहना ठीक नहीं है, आथैंटिक नहीं है। एक दफा जो बना चुके, बात पुरानी हो गई। अब उसे कोई दूसरा नकल करे या मैं खुद ही उसकी नकल करूं, इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन यह चित्र मैं पहले भी बना चुका हूं। यह सिर्फ प्रतिध्वनि है, छाया है; असली नहीं है।

परमात्मा दोबारा कोई चीज बनाता नहीं। परम कलाकार है! ऐसा थोड़े ही है कि जगत चुक गया है, कि अब उसे कुछ सूझता नहीं, कि फिर महावीर को बना दे, फिर राम को बना दे, फिर कृष्ण को बना दे।

देखा तुमने, न महावीर दुबारा, न कृष्ण दुबारा, न राम दुबारा! जो एक बार आता है, फिर दोबारा पर्दे पर आता ही नहीं। इसे स्मरण रखना।

तुम भी नये हो। सीख सबसे लेना, मानना अपनी। सुनना सबकी, अंतिम निर्णय हृदय से लेना।

तो अगर वैराग्य की बातें सुनकर शिथिलता और उदासी आती है; हृदय का फूल खिलता नहीं, कुम्हलाता है; कली फूल नहीं बनती, उलटा फूल अपनी पंखुड़ियां बंद कर लेता है–जैसे सांझ सूरज के डूब जाने पर बहुत-से फूल अपनी पंखुड़ियां बंद कर लेते हैं–तो समझ लेना, यह सत्य तुम्हारा सूरज नहीं। यह होगा सत्य किसी और का, क्योंकि कुछ फूल हैं जो सूरज के डूबने पर ही खिलते हैं। रातरानी है: उसका होगा, तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हारा रास्ता फिर बिलकुल साफ है।

जहां तुम्हें आनंद की झलक मिले, साहस करके वहां जाना। जरूरी नहीं है कि हर बार तुम वहां आनंद पाओगे, यह मैं नहीं कह रहा हूं। बहुत बार तुम पाओगे वहां कुछ भी न था, राख का ढेर था। लेकिन तब भी अनुभव होगा। तब भी जीवन में प्रौढ़ता आयेगी। राख का ढेर देखकर समझ आयेगी। आगे राख के ढेर पहचानने की कला आयेगी। दुबारा धोखा मुश्किल होगा। तीसरी बार धोखा असंभव हो जायेगा। फिर एक ऐसी घड़ी आ जायेगी कि कितना ही लोभक दृश्य हो, तुम दूर से भी पहचान पाओगे कि कहां राख है, कहां अंगार है; कहां जीवन है, कहां सब बुझा-बुझा है।

भूल-भूल करके ही आदमी सीखता है। गलत को गलत जान लेना सही की तरफ जाने का उपाय है। भ्रांत को भ्रांत पहचान लेना, निर्भ्रांत होने की व्यवस्था है।

तो मैं तुमसे कहता नहीं कि तुम जल्दी भाग जाना, मेरी मानकर भाग जाना। तुम तो अपने ही अनुभव से जाना। होगा सुख, तो स्वर्ग का रास्ता बनेगा। नहीं होगा सुख, तो अनुभव जगेगा।

एडीसन एक प्रयोग कर रहा था। उसमें सात सौ बार हारा। उसके सारे साथी-सहयोगी रुष्ट हो गये, परेशान हो गये। उसके विद्यार्थी तो घबड़ा गये कि अब यह कब खतम होगा; क्या पूरा जीवन यह एक ही प्रयोग में करते रहना है; सात सौ बार! तीन साल खराब हो गये! एक दिन उसके सब सहयोगियों ने कहा, “आप सुनिये! आप तो रोज सुबह फिर प्रसन्नचित्त आ जाते हैं और फिर काम शुरू कर देते हैं; लेकिन हमारा भी सोचिये! यह जिंदगी इसी में गंवानी है? सात सौ दफे हार चुके; अब छोड़िये भी! कुछ और करिये!’

एडीसन ने कहा कि तुमसे किसने कहा कि मैं सात सौ बार हार चुका? मैं तो हर बार जीत के करीब आ रहा हूं। समझो कि सात सौ एक दरवाजे हैं उसके, तो सात सौ दरवाजे तो हम खटखटा चुके; वहां नहीं था द्वार, दीवाल थी। वह दरवाजे झूठे थे! अब हम रोज-रोज करीब असली दरवाजे के आ रहे हैं। कितनी देर यह चलेगा! तो सात सौ बार हम असफल हुए, यह तुमसे किसने कहा? हर कदम हमें सफलता के करीब लाया है। हर विफलता सफलता के करीब लाती है। सात सौ बार के अनुभव ने हमें काफी प्रौढ़ बना दिया है। हमारी परख पैनी हो गई है। अब हमें वो सात सौ मार्ग भटका नहीं सकते। और निश्चित ही ठीक मार्ग के हम करीब आ रहे हैं। कितनी देर होगा, यह तो कहना मुश्किल है।

और कहते हैं, उसके कोई पंद्रह दिन बाद ही एडीसन सफल हो गया। उसने बिजली का पहला बल्ब बना लिया। आज सारी दुनिया उसकी वजह से रोशन है।

जो बाहर के प्रकाश की खोज के संबंध में सही है, वही भीतर के प्रकाश की खोज के संबंध में भी सही है।

जहां सुख मिले–जाना!

मैं यहां तुम्हें डराने को नहीं हूं। डरकर कभी कोई जागा? मैं तुम्हें घबड़ाता नहीं हूं। मैं तुमसे कहता हूं, जाओ! साहस से, हिम्मत से! होगा सुख तो एक कदम और तुमने प्रभु की तरफ लिया। नहीं होगा सुख, तो भी एक कदम प्रभु की ओर लिया। एक द्वार बंद हुआ! इस तरफ जाने में कोई सार नहीं। एक रास्ता गलत हुआ। सही रास्ते के करीब आने लगे।

हृदय की सुनो। तो अगर भक्ति, प्रेम और उत्सव की बात सुनकर तुम्हारे हृदय में कोई धुन बजती है, तुम्हारे हृदय की वीणा कंपित होने लगती है, तो वही तुम्हारा मार्ग है। फिर वैराग्य की बातों को बीच-बीच में मत डालना। क्योंकि फिर तुम सब विकृत कर दोगे। एक बार साफ हो गया कि प्रेम की चर्चा तुम्हें उमंग से भर देती है तो फिर तुम विरागियों की चर्चा की बात ही छोड़ देना। फिर वह रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है। फिर उनकी बात तुम्हें झंझट में डाल देगी। प्रेमी की बात बड़ी अलग है।

इश्क हायल है तेरे मिलने में

हमसे ये पर्दा हटाया न गया।

विरागी कहता है कि प्रेम को हटा लो तो परमात्मा से मिल जाओ। प्रेमी कहता है: इश्क हायल है तेरे मिलने में! लोग कहते हैं कि प्रेम के कारण हम तुझसे नहीं मिल रहे हैं; होगा यही सही। हमसे यह पर्दा हटाया न गया! लेकिन हम यह पर्दा न हटा सकेंगे। हम तो, अगर प्रेम के कारण ही तू चूक रहा है तो चूके चले जायेंगे; लेकिन यह प्रेम हमसे न हटाया जायेगा।

भक्त के लिए तो प्रेम ही परमात्मा है। ज्ञानी के लिए प्रेम बाधा है। वह प्रेम को कहता है, राग! हटाओ! वैराग्य को जगाओ! तो ही सत्य मिलेगा।

प्रेमी और भक्त कहता है, पर्दे को नहीं हटाना, अपने को मिटा देना है। प्रेम ही प्रेम रह जाये, तुम न बचो!

इश्क हायल है तेरे मिलने में

हमसे यह पर्दा हटाया न गया।

तुझको देखा तो सेर चश्म हुए

तुझको चाहा तो और चाह न की।

–आंखों की सारी भूख मिट गई तुझे देखते ही! तेरी झलक पाते ही!

तुझको देखा तो सेर चश्म हुए

तुझको चाहा तो और चाह न की।

विरागी कहता है, सब चाह छोड़ो तो परमात्मा मिलेगा। प्रेमी कहता है, उसकी चाह आ गई तो सब चाह अपने से छूट जाती है; छोड़ने की झंझट प्रेमी को नहीं है। उसकी चाह काफी है।

तुझको देखा तो सेर चश्म हुए

तुझको चाहा तो और चाह न की।

फिर उसको चाहने के बाद कहीं कोई और चाह बचती है!

पर ये दोनों अलग-अलग मार्ग हैं। विरागी कहता है, सब चाह छोड़ो–इतना कि परमात्मा की चाह भी छूट जाये। वह भी एक रास्ता है। अचाह में झूब जाओ। परमात्मा तक की चाह न बचे–उतनी भी चाह की रेखा न रह जाये भीतर। परिपूर्ण अचाह में खड़े हो जाओ। जरा भी कंपन न रह जाये चाह का, वासना का। उसी घड़ी मिलन!

प्रेमी कहता है, उसकी चाह में ऐसे डूब जाओ कि तुम न बचो; तुम्हारी सारी जीवन-ऊर्जा बस उसकी चाहत, उसका प्रेम बन जाये। उसी घड़ी मिलन!

दोनों तरफ से मिलन हुआ है। दोनों में कौन ठीक और गलत, इस तरह कहने की बात ही नासमझी है। इतना ही देख लेना, तुम्हारा हृदय किसके साथ खिलता है!

तन से तो सब भांति विलग तुम

लेकिन मन से दूर नहीं हो

जुड़े न पंडित, सजी न वेदी

वचन हुए न मंत्र उचारे

जनम-जनम को किंतु वधू यह

हाथ बिकी बेमोल तुम्हारे

झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के

रिश्ते जितने दुनियाभर के

सबसे तुम मुक्त, प्रेम

के वृंदावन से दूर नहीं हो।

तन से तो सब भांति विलग तुम

लेकिन मन से दूर नहीं हो।

और सब नाते-रिश्ते होंगे संसार के, लेकिन भक्त कहता है, प्रेम का नाता संसार का नहीं है। प्रेम तो वृंदावन है। वह कोई नाता नहीं है। वह कोई बनने मिटनेवाली बात नहीं है। वह कोई संबंध नहीं है। वह तो एक आनंद की, अहोभाव की दशा है। वृंदावन है।

झूठे-सच्चे, कच्चे-पक्के

रिश्ते जितने दुनियाभर के

सबसे तुम मुक्त, प्रेम

के वृंदावन से दूर नहीं हो।

और सब होगा बाधा! प्रेम–और बाधा! भक्त को बाधा नहीं दिखाई पड़ती। भक्त तो प्रेम से ही उसके पास पहुंचता है। प्रेम में डूबकर ही उसमें डूबता है।

ये विरागी की और प्रेमी की अलग-अलग भाषाएं हैं। इनमें जो भाषा तुम्हारे हृदय में रम जाये; जिस भाषा की वर्षा में तुम्हारे भीतर के बीज फूटने लगें; जिस भाषा के संपर्क में तुम्हारा व्यक्तित्व निखार लेने लगे; रस जगे; गीत जगे; नृत्य उठे–तो फिर समझना कि हृदय साफ-साफ इशारा कर रहा है किस तरफ चलो। फिर और सारी चिंताएं छोड़ देना–किस घर में पैदा हुए, किस धर्म में पैदा हुए, कौन-सा सिखावन, कौन-सी शिक्षा दी गई, कौन-सा शास्त्र पकड़ाया गया, फिर सब गौण है। हृदय से परमात्मा ने बोल दिया कि तुम्हारे लिए जाने का रास्ता कौन है।

लेकिन ऐसा सभी को न होगा।

यहां कुछ हैं जिनको प्रेम की बात सुनकर बेचैनी शुरू हो जाती है, घबड़ाहट शुरू हो जाती है। विराग की बात सुनकर वह शांत बैठ जाते हैं, कि अब चलो ठीक बात हुई। वह भी गलत नहीं हैं। उनको जो रुचता है, उनको जो पचता है। वे शायद जीवन में काफी जले हैं। और जैसा दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगता है; प्रेम ने शायद उन्हें काफी जलाया है। यद्यपि जो प्रेम उन्होंने अब तक जाना था, वह बिलकुल ही क्षुद्र था, व्यर्थ था, नाममात्र को था। लेकिन उसने इतना जला दिया है कि अब तो वह परमात्मा की भक्ति की बात या प्रेम की बात सुनकर भी चौंक जाते हैं। वे छाछ को भी फूंक-फूंककर पीते हैं। मगर ठीक, अगर विराग से उनके हृदय का भाव खुलता है, शांति मिलती है और एक सुख की दशा पैदा होती है, तो वही ठीक। उसी से वे चलें।

और जिस बात पर मैं जोर देना चाहता हूं, वह यह कि कभी भूलकर भी किसी को तुम अपनी भांति चलाने की चेष्टा मत करना। यह चेष्टा हम सबके मन में पैदा होती है। यह हमारे अहंकार का बड़ा गहरा हिस्सा है। हम दूसरे को अपनी प्रतिछवि में बनाना चाहते हैं। बाप अपने बेटे को ढालना चाहता है ठीक अपने जैसा। मां अपनी बेटी को ढालना चाहती है ठीक अपने जैसी। मित्र मित्र को ढालने में लग जाता है। हम सब इस चेष्टा में होते हैं कि अगर हमारा बस चले तो सारी दुनिया को हम अपनी प्रतिछवि में ढाल दें। इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। इससे मैं तो हो जाता हूं आदर्श; और सभी हो जाते हैं मेरी छायाएं। इससे मैं तो हो जाता हूं सभी जीवन का मापदंड। इस भ्रांति से थोड़े सजग होना।

तुम्हें अपना सत्य खोजना है। और सभी सत्य निजी सत्य हैं। दूसरे पर थोपना नहीं है। तो न तो थोपना और न किसी को थोपने देना। अगर इन दो बातों से तुम बच गये–क्योंकि बड़ा खतरा यह है कि जो नहीं थोपते, वे दूसरों को थोप लेने देते हैं। जो दूसरे को नहीं थोपने देते, वे खुद दूसरों पर थोप देते हैं।

इस दुनिया में वस्तुतः समझपूर्वक जीना बड़ा कठिन है। समझ के दोनों तरफ नासमझी की अतियां हैं।

मैक्यावली ने कहा है, इसके पहले कि कोई तुम पर आक्रमण करे, तुम आक्रमण कर देना। क्योंकि यही सुरक्षा का सर्वोत्तम उपाय है। तो यहां प्रत्येक व्यक्ति यही कोशिश कर रहा है कि इसके पहले कि कोई तुम्हारी गर्दन पकड़े, तुम पकड़ लो। इसके पहले कि तुम्हें कोई बदले, तुम बदल दो। इसके पहले कि तुम्हारी कोई परिभाषा करे, तुम परिभाषा कर दो।

तुमने देखा, पूरे जीवन हम एक-दूसरे को परिभाषित कर रहे हैं, हम हजार-हजार तरकीबों से एक-दूसरे की परिभाषा करते हैं। पति खड़ा है, कार में हार्न बजा रहा है, पत्नी देर लगाती है–वह यह घोषणा कर रही है देर लगाकर कि खड़े रहो; मालिक कौन है, जाहिर हो जाना चाहिए! वह पति को परिभाषा दे रही है।

ध्यान रखना, जो जिसको प्रतीक्षा करवा सकता है, वह उसकी परिभाषा कर देता है। तुम दफ्तर में गये किसी से मिलने तो मैनेजर तुम्हें बिठा रखेगा थोड़ी देर, चाहे उसको कोई काम न हो। क्लर्क भी तुम्हें बड़ी देर बाद देखेगा, चाहे वह कुछ भी न कर रहा हो। वह वैसे ही अपने रजिस्टर उलटने लगेगा, क्योंकि वह तुम्हें परिभाषा देना चाहता है कि साफ हो जाना चाहिए कि यहां कौन मालिक है!

मैं तुमको प्रतीक्षा करवा सकता हूं, तो मैं मालिक हूं!

जो प्रतीक्षा करवा सकता है वह ऊपर है। तो पति भी सांझ को क्लब-घर में देर तक बैठा ताश खेलता रहता है, पत्नी को राह दिखवाता है कि घर बैठी रहो, करती रहो प्रतीक्षा खाने के लिए! जरा देर करके ही आयेगा। वह यह साफ बता देना चाहता है कि कौन मालिक है।

तुमने देखा, बड़े नेता सभा में आयें तो हमेशा देर से आयेंगे। बड़ा नेता, और वक्त पर आ जाये! यह बात हो ही नहीं सकती। जितना बड़ा नेता, उतनी देर करके आयेगा। उतनी लोगों को प्रतीक्षा करवा देगा। उनको जाहिर करवा देगा कि तुम कौन हो, तुम्हें साफ हो जाना चाहिए।

जीवनभर हम एक-दूसरे को दबाने की चेष्टा करते हैं–जाने-अनजाने उपायों से। बाप बेटे को बदलना चाहता है। बदलने की चेष्टा में सिर्फ वह यह कहना चाहता है कि मालिक मैं हूं। बेटा भी बड़ा होकर इस बूढ़े बाप को बदलने की चेष्टा करेगा, क्योंकि तब बाप कमजोर होने लगेगा। तब बेटा इसको समझाने लगेगा कि क्या करना उचित है और क्या करना उचित नहीं है, कि तुम सठिया गये हो, कि तुम्हारी बुद्धि तुमने खो दी, कि तुम्हें इस दुनिया का पता नहीं है जो आज है; तुम जिस दुनिया की बातें कर रहे हो, वह गई-गुजरी हो चुकी; अब तुम मेरी सुनो!

इस जगत में इन दोनों अतियों से बचना बड़ा कठिन है। मगर जो बच जाये वही साधक है। न तो तुम दूसरे को दबाने की कोशिश करना और न किसी को अवसर देना कि तुम्हें दबा दे। एक बात तुम साफ कर देना कि चाहे कोई भी कीमत हो, कितनी ही जोखिम हो, मैं अपने हृदय की मानकर चलूंगा। चाहे सब खोना पड़े! इसी को मैं संन्यास की भाव-दशा कहता हूं।

संन्यास कोई बाह्य कृत्य नहीं है–एक भीतरी अंतर्घोषणा है कि अब से मैं अपने हृदय की मानकर चलूंगा, चाहे इसके लिए मुझे सब गंवाना पड़े; चाहे इसके लिए मुझे दीन-दरिद्र हो जाना पड़े; चाहे राह का भिखारी हो जाना पड़े। राह के भिखारी होने की जरूरत नहीं है; लेकिन अगर यह भी होना पड़े तो मेरी तैयारी है; लेकिन अब एक बात मैंने तय कर ली कि अपने हृदय के अतिरिक्त और किसी की मानकर न चलूंगा। अब मेरा हृदय ही मेरा वेद होगा। और मेरा हृदय ही मेरी भगवदगीता होगी। हृदय ही मेरा कुरान और मेरी बाइबिल होगी।

और तुम चकित होओगे कि जिस दिन तुम हृदय की सुनने लगोगे, उस दिन तुम्हारे जीवन में गति आ जायेगी। कुछ अड़चनें आयेंगी समाज की तरफ से, दूसरों की तरफ से; क्योंकि कल तक जिनकी तुमने मानी थी, अचानक वे इतने जल्दी राजी न हो जायेंगे। वे इतनी जल्दी स्वीकार न कर लेंगे। लेकिन भीतर तुम पाओगे: उमंग आ गई! तरंग आ गई! एक ज्वार आ गया शक्ति का! भीतर तुम पाओगे कि अब तुम दीन-दरिद्र नहीं हो; तुम सम्राट हो गये।

तो जो तुम्हें रुचे। विराग तो विराग! उससे भी लोग परमात्मा तक पहुंचे हैं। भक्ति तो भक्ति!

दूसरा प्रश्न:

मेरे भीतर जैसे स्तब्धता, सन्नाटा-सा लग रहा है। खाली-खाली, शून्यता जैसे छा गई हो। और साथ ही अच्छे-बुरे विचारों का आक्रमण भी हावी होता रहता है। मैं क्या करूं? मैं बावरी-सी हो गई हूं। मैं अपने को बहुत असहाय, अकेली और असुरक्षित पा रही हूं। भय लगता है।

“सरोज’ का प्रश्न है।

ऐसा होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है। क्योंकि जैसे ही हम भीतर जाते हैं, हम अकेले हो जाते हैं। इसीलिए तो लोग भीतर जाने से डरते हैं।

बाहर हैं और लोग, भीतर तो कोई भी नहीं। भीतर तो तुम हो और बस तुम हो। बाहर अनंत लोग हैं, चहल-पहल है। भीतर तो सन्नाटा है। बाहर बहुत भरावट है, भीतर तो शून्य है। और जन्मों-जन्मों तक हम बाहर जीए, संबंधों में जीए, औरों के साथ जीए, भीड़-बाजार, घर-गृहस्थी–हजार व्यस्तताएं!

तो जब भीतर चलना शुरू करोगे तो अचानक अनुभव में आना शुरू हो गया, वह सब तो दूर छूट गया और इस भीतर तो तुम्हारा निकटतम प्रियजन भी नहीं आ सकता। यह तो तुम्हारा नितांत एकांत है। यह तो इतना निजी है, इतना प्राइवेट है कि तुम अपने प्रेमी को भी इसमें निमंत्रित न कर सकोगे। यहां तो बस तुम हो और तुम हो।

तो शुरू-शुरू में बड़ी निस्तब्धता, सन्नाटा, सूनापन नकारात्मक मालूम होगा।

राह देखी नहीं और दूर है मंजिल मेरी

कोई साकी नहीं, मैं हूं, मेरी तन्हाई है।

घबड़ाहट भी होगी; क्योंकि राह देखी नहीं, मंजिल का कोई पक्का पता नहीं कहां है, कहां जा रहे हैं, क्या हो रहा है। मील के पत्थर भी नहीं हैं भीतर। कौन लगायेगा मील का पत्थर? कोई नक्शा भी नहीं है भीतर का। कौन देगा नक्शा? वहां कोई हाथ लेकर चलानेवाला भी नहीं है। तो अचानक आदमी असहाय मालूम होता है।

इस असहाय अवस्था से अगर गुजर गये, अगर इस असहाय अवस्था को शांति से पार कर लिया, तो तुम्हारे जीवन में पहली दफा आत्मबल का जन्म होगा। लेकिन उसके पहले असहाय अवस्था से गुजर जाना जरूरी है। जब झूठी चीजें हाथ से छूटती हैं, तो हाथ खाली हो जाते हैं। हाथों का खाली हो जाना सत्य के उतरने के लिए अत्यंत जरूरी है। लेकिन व्यर्थ के जाने और सत्य के आने के बीच में थोड़ा अंतराल है। उस अंतराल में बड़ी पीड़ा होती है। उस अंतराल को जो पार नहीं कर पाता, वह घबड़ाकर फिर बाहर निकल आता है।

इसीलिए “सरोज’ ने पूछा है: “एक तरफ खाली-खालीपन और शून्यता छा गई है और दूसरी तरफ अच्छे-बुरे विचारों का आक्रमण भी होता रहता है।’

वह आक्रमण इसीलिए हो रहा है। वह आक्रमण हो रहा है, ऐसा नहीं; बल्कि तुम चेष्टा कर-करके अच्छे-बुरे विचारों को पकड़ रही हो, ताकि भीतर जो निस्तब्धता है वह एकदम भयावनी न हो जाये। कुछ तो सहारा रहे। विचार ही सही, कुछ तो तरंगें उठती रहें, तो कुछ व्यस्तता बनी रहे।

लोग खाली होने की बजाय दुखी होना भी पसंद करते हैं, क्योंकि कम से कम दुख तो है! कुछ तो है हाथ में! हाथ बिलकुल खाली तो नहीं। कंकड़-पत्थर सही, न हुए हीरे-जवाहरात! लेकिन कोई यह तो नहीं कह सकता कि कुछ भी नहीं है।

अधिक लोग दुख को भी नहीं छोड़ते, क्योंकि उनको डर लगता है–छोड़ दिया इतने दिनों का संग-साथ, तो अकेले हो जायेंगे।

तुमने कभी खयाल किया, बहुत दिन बीमार रहने के बाद अगर तुम बिस्तर से उठो तो बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है: अब कहां जायें! अब तो बिस्तर पर होना जीवन की शैली हो गयी थी। अगर दो-चार साल बिस्तर पर रह गये, तो जो आदमी दो-चार साल बिस्तर पर रह जाता है, फिर वह उठता ही नहीं; इसलिए नहीं कि बीमारी ठीक नहीं होती, बीमारी ठीक भी हो जाये तो अब वह बीमारी को पकड़ लेता है। चिकित्सक इस घटना से भलीभांति परिचित हैं कि अगर बीमारी ज्यादा दिन रह जाए तो बीमार को फिर ठीक करना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसकी बीमारी आदत का हिस्सा हो जाती है। अब बीमारी को वह अपने जीवन के ढंग में समा लेता है। अब इस ढंग को छोड़ने में अड़चन होगी।

अगर तुम एक दुख के आदी हो गये हो तो तुम उस दुख को सम्हाले रहोगे।

इसलिए अकसर मैं देखता हूं कि लोग दुख की सीमाएं और स्थितियों को भी छोड़ते नहीं। अगर किसी पत्नी से तुम्हारा जीवन सतत कलह में गुजर रहा है तो भी तुम अलग नहीं होते। या किसी पति के साथ जीवन एक नारकीय स्थिति बन गई है, तो भी अलग नहीं होते। क्यों? हजार बहाने तुम खोजते हो, लेकिन वह सब बहाने हैं। मौलिक बात यह है कि अब इस दुख की भी आदत हो गई है।

और एक बड़ा अनुभव पश्चिम में आना शुरू हुआ है, जहां कि लोग काफी पति-पत्नियां तीव्रता से बदलते हैं। एक अनुभव आना शुरू हुआ है कि जो आदमी एक पत्नी को छोड़कर दूसरी पत्नी को खोजता है, वह फिर करीब-करीब वैसी ही स्त्री को खोज लेता है जैसी उसने छोड़ी। उसी तरह की कर्कशा या उसी तरह की उपद्रवी! छोड़ा नहीं है अभी एक को, और वह दूसरी को फिर वैसा का वैसा खोज लेता है! क्या कारण होगा? अब तो उसको उसी तरह की स्त्री में रस आने लगा। तो अब वह फिर खोज लेता है। उसकी चाह का ढंग रुग्ण हो गया। अब वह गलत की तरफ उत्सुक हो जाता है। वह फिर वैसी ही व्यक्तित्ववाली स्त्री को खोज लायेगा, जो फिर कहानी को दोहरायेगी। फिर त्याग करेगा।

एक आदमी के बाबत मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन किया। उसने आठ तलाक किये और हर बार वैसी ही पत्नी खोज लाया।

आदमी तो वही है–खोजनेवाला वही है–तो फिर वही खोज लायेगा।

तुम जरा खयाल करना अपने जीवन में, तुमने बहुत-से दुख पकड़ तो नहीं रखे हैं जो कि जाना चाहते हैं, लेकिन तुम नहीं जाने दे रहे हो!

तो जब व्यक्ति को सन्नाटा होगा तो वह पुराने विचारों को आमंत्रित करेगा, बुलायेगा। वह आक्रमण नहीं है, तुम्हारा बुलावा है। क्योंकि उस भांति थोड़ी देर को भीतर की रिक्तता भर जाती है। उथल-पुथल मच जाती है।

विचार है, क्रोध है, झगड़ा है, कोई सपना है, कोई योजना है–उतनी देर को तुम अपने भीतर के आकाश को भर लेते हो। उतनी देर को शून्य भूल जाता है।

शून्य में रस लो, तो धीरे-धीरे ये विचार समाप्त हो जायेंगे। यह शून्य बड़ा महिमाशाली है। शून्य को ही तो ध्यान कहा है। सौभाग्य से मिलता है। अब मिल गया है तो इसे खराब मत करो। अब तो इस शून्य में डूबो। यद्यपि प्राथमिक चरण पर डूबना ऐसा ही लगेगा, जैसा मरे, मौत हुई।

और एक अर्थ में ठीक भी है, तुम तो मरोगे ही। तुम जैसे अब तक रहे हो, इस शून्य में डूबोगे, मिट जाओगे। नये का जन्म होगा, आविर्भाव होगा।

“क्या करूं? मैं बावरी-सी हो गई हूं।’

पागलपन जैसा ही लगेगा। भीतर जाओ तो शून्यता; बाहर आओ तो व्यर्थ के विचारों का ऊहापोह है। बाहर आओ तो कोई सार नहीं है और भीतर जाओ तो घबड़ाहट! एक अनंत शून्य मुंह-बाए खड़ा है। तो पागलपन मालूम पड़ेगा। यह पागलपन तभी तक मालूम होगा जब तक शून्य से रस नहीं बैठता।

शून्य में रस लो, पहचान बनाओ! शून्य को गुनगुनाओ। शून्य को नाचो! जब शून्य आ जाये तो अहोभाव अनुभव करो। परमात्मा को धन्यवाद दो। यह उसकी अनुकंपा है।

शून्य इस जगत में परमात्मा की सबसे बड़ी देन है, प्रसाद है। थोड़े-से सौभाग्यशाली लोगों को मिलता है। और जिनको मिलता है, वे भी सभी सम्हाल नहीं पाते। बहुत-से तो उसे नष्ट कर देते हैं। क्योंकि वह देन इतनी बड़ी है कि तुम्हारी पात्रता छोटी पड़ जाती है।

“मैं अपने को बहुत असहाय, अकेली, असुरक्षित पा रही हूं…।’

कोई हर्जा नहीं। मन कहेगा, कोई सुरक्षा खोज लो। मन कहेगा, किसी तरह किसी को अपने इस एकांत में ले आओ। वह अगर भूल की तो शून्य की शुद्धता नष्ट हो जायेगी। फिर संसार निर्मित हो जायेगा। ऐसे ही तो हम बहुत बार वापिस कोल्हू के बैल बन जाते हैं।

अब यह एक खिड़की खुली है, इसे बंद मत कर देना। असहाय मालूम होते हो, असहाय सही। स्वीकार करो! असुरक्षित मालूम होते हो, असुरक्षित सही। स्वीकार करो! यह जो तथ्य सामने प्रगट हो रहा है, इसे इनकार मत करो और बदलने की चेष्टा मत करो। इसे भरपूर नजर देखो, अहोभाव से दखो, कृतज्ञता से देखो। कहो कि प्रभु ने यही चाहा कि शून्य होना है, जरूर शून्य से ही जन्म होता होगा! यह मेरी राह शून्य के मंदिर से ही गुजरती है, तो इससे गुजर जाना है।

जल्दी ही इस शून्य का चेहरा बदलना शुरू हो जायेगा। अगर तुमने इसे स्वीकार किया तो इस शून्य में तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ने लगेगा। जिसे हम स्वीकार करते हैं, उसमें सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। इसलिए तो अपनी मां किसी को असुंदर नहीं मालूम होती। अपना बेटा किसी को असुंदर नहीं मालूम होता। जिसे हम स्वीकार करते हैं, वहां सौंदर्य का आविर्भाव हो जाता है। सौंदर्य हमारे स्वीकार से पैदा होता है।

सौंदर्य कहीं बाहर कोई गुण नहीं है–हमारे स्वीकार की छाया है। स्वीकार करो–और सौंदर्य पूर्ण बनने लगेगा। स्वीकार करो–और सौंदर्य में बड़ा आनंद आने लगेगा। स्वीकार करो–और शून्य शांति, और परम शांति का धाम बन जायेगा। अगर अस्वीकार किया तो दौड़कर बाहर जाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। और बाहर से ही तो थककर भीतर आ रहे थे! फिर बड़ी विक्षिप्तता पैदा होगी।

शून्य परमात्मा का पहला अनुभव है। पूर्ण परमात्मा का अंतिम अनुभव है। शून्य की तरह परमात्मा आता है; पूर्ण की तरह विराजमान होता है। शून्य की तरह आता है, क्योंकि हमारा मिटना जरूरी है। शून्य की तरह आता है, क्योंकि हम सिर्फ कूड़ा-कर्कट का ढेर हैं। हमें आग देना जरूरी है, ताकि हम जल जायें और वही बचे जो कुंदन है। सिर्फ शुद्ध स्वर्ण बचे और कचरा जल जाये।

तो जब सुनार सोने को आग में डालता है तो सोना भी घबड़ाता होगा, चिंतित होता होगा, बच जाना चाहता होगा, अंगीठी के बाहर आ जाना चाहता होगा। लेकिन उसे पता नहीं कि सुनार की आकांक्षा क्या है। सुनार सोने को नहीं जलाना चाहता। और सुनार भलीभांति जानता है कि सोना जलता नहीं। जो जल जाये वह सोना नहीं है। वह डाल ही रहा है आग में इसलिए कि जो सोना नहीं है, उससे सोना अलग हो जाये।

शून्य आग है। और परमात्मा उन्हीं को डालता है जिन पर उसकी अनुकंपा है।

पात्रता से ही शून्य उत्पन्न होता है। घबड़ाना मत! छलांग लगाकर अंगीठी के बाहर मत गिर जाना। नहीं तो पहले से भी ज्यादा कूड़ा-कर्कट संगृहीत हो जायेगा। स्वीकार करना।

भीतर की यात्रा पर शून्य मिला–यह पहली खबर मिली कि तुम पात्र होने लगे। कम से कम तुम इतने पात्र हुए कि परमात्मा तुम्हें आग में डाले। बड़ी जलन होगी, बड़ी पीड़ा होगी। उस पीड़ा के बिना कोई भी जन्मा नहीं है। उस पीड़ा के बिना किसी को नये जन्म का आविर्भाव नहीं हुआ है।

हुए होश गुम तेरे आने से पहले

हमीं खो गये तुझको पाने से पहले

हुए तुझ बिन बसर क्या बताऊं

किसे होश था तेरे आने से पहले।

हुए होश गुम तेरे आने से पहले।

उसके आने के पहले तुम्हारा होश भी खो जायेगा, तुम भी खो जाओगे। क्योंकि तुमने जिसे अब तक समझा है “मैं’, वह सिर्फ कूड़ा-कर्कट है। वही तो बाधा है।

हमीं खो गये तुमको पाने से पहले!

एक बड़ी महत्वपूर्ण बात याद रखना: आदमी कभी परमात्मा से मिलता नहीं। जब तक आदमी है तब तक परमात्मा नहीं। और जब परमात्मा प्रगट होता है, आदमी खो चुका होता है। आदमी तो बीमारी है। मिट जाने पर उस परम धन्यता का आविर्भाव होता है। तुम जब खाली कर देते हो सिंहासन, तभी परमात्मा उस पर विराज पाता है। तुम जब तक बैठे हो, तब तक विराज नहीं पाता।

ये पंक्तियां बड़ी मधुर हैं:

हुए होश गुम तेरे आने से पहले

हमीं खो गये तुझको पाने से पहले

हुए तुझ बिन बसर क्या बताऊं

–दिन तेरे आने के पहले कैसे बीते, यह भी कैसे बताऊं!

किसे होश था तेरे आने से पहले!

न तो तेरे आने के पहले होश था, क्योंकि हम बेहोश थे संसार में; न तेरे आने के बाद होश रहा, क्योंकि हम बेहोश हुए तुझमें।

तो यह जो इन दोनों बेहोशियों के बीच–संसार की बेहोशी और परमात्मा की बेहोशी; संसार की शराब और परमात्मा की शराब–इन दोनों मधुशालाओं के बीच जो थोड़ी-सी यात्रा है वहीं थोड़ा-सा होश रहता है। लोग या तो धन में खोये हैं, पद में खोये हैं, मद से भरे हैं; और या फिर लोग परमात्मा में खो जाते हैं। दोनों के बीच में, दो मधुशालाओं के बीच में जो थोड़ा-सा फासला है, वहीं थोड़ा-सा होश रहता है।

“सरोज’ अभी उसी यात्रा पर है–दो मधुशालाओं के बीच में। अगर भीतर गई तो भी होश खो जायेंगे। अगर घबड़ाकर बाहर आ गई तो फिर होश खो जायेंगे। और जब दो मधुशालाओं में ही चुनना हो, जब दो शराबों में ही चुनना हो तो फिर परमात्मा की ही शराब चुन लेना। संसार की तो बहुत चखी, बहुत स्वाद लिया–कुछ पाया नहीं। अब इस अपरिचित, अनजान का भी एक स्वाद ले लें। हिम्मत करना! बावलापन तो उठेगा।

बंगाल में संतों का एक संप्रदाय है, उसका नाम ही “बाउल’ है–बावरे, पागल! बड़े अदभुत संत हुए बाउल। नाचते हैं–आनंद-मग्न! उस भीतर की शराब में मस्त, मदहोश! धीरे-धीरे उनका नाम ही “बावरा’ हो गया। लेकिन जिसे तुम समझदारी कहते हो, उससे वह लाख गुना कीमती है।

तुम्हारी समझदारी भी हाथ में क्या लाती है? कुछ ठीकरे इकट्ठे हो जाते हैं, जो मौत छीन लेती है। कुछ नाम-धाम हो जाता है, जो तुम्हारे जाते ही पोंछ दिया जाता है, दूसरों के लिए जगह बनानी पड़ती है।

दुनिया का होश है न कुछ अपनी खबर मुझे

बेखुद बना दिया है यूं तेरे जमाल ने।

उसमें डूबो! बेखुदी खुदा को पाने का उपाय है। मिटना–होने की एकमात्र संभावना।

यह शून्य डरायेगा, घबड़ायेगा। जैसे कोई पक्षी अब तक घोंसले में रहा हो और आज अचानक खुले आकाश में: घबड़ायेगा! चिंतित होगा, बेचैन होगा! लौट-लौट पड़ेगा मन कि चल पड़ो अपने घोंसले की तरफ, कहां इन तूफानों में उलझने लगे? कहां ये हवाएं और आकाश और बादल, और कहां ये सूरज और ये चांदत्तारे! और यह कितना विराट है! भागो! अपने घोंसले में छिप जाओ। ठीक वैसी दशा है। मन बहुत करेगा घोंसले में उतर आने का।

लेकिन अब लौटना मत। अब उसको पुकारा है तो पुकारे ही चले जाना। और अब सुख आये कि दुख, पीड़ा हो कि जलन–अंगीकार कर लेना, क्योंकि हमें पता नहीं है शायद यही हमारे जीवन-निर्माण के लिए जरूरी है।

छैनी से जब कोई पत्थर को तोड़ने लगता है, तो पत्थर भी तो रोता होगा। लेकिन छैनी से टूट-टूटकर ही पत्थर प्रतिमा बनता है। जो राह के किनारे पड़ा था, वह मंदिर के अंतर्गर्भ में विराजमान हो जाता है। जिसको लोग सिर्फ पैर की ठोकरें मारकर निकल जाते थे, उसी के चरणों में लोग आकर सिर झुकाने लगते हैं, फूल चढ़ाने लगते हैं।

कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं

गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब, आ जाओ

करारे-खातिरे बेताब-थक गया हूं मैं।

कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं!

चाहे कितनी ही पीड़ा हो, जाना उसी की तरफ!

कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं!

कहना भी हो, शिकायत भी करनी हो, तो उसी से करना। बाहर मत लौटना। यह तो कसम खा लेना कि अब बाहर नहीं लौटना है। क्योंकि बाहर को देख तो चुके बहुत, पाया क्या? अब लौटकर भी क्या पायेंगे?

कसम तुम्हारी बहुत गम उठा चुका हूं मैं

गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब…

और मैंने जो धैर्य और सहनशक्ति के बहुत दावे किये थे, वह सब गलत थे। तुम उन पर ज्यादा अब भरोसा मत करो, आ जाओ!

आदमी ने अपने अहंकार में बहुत दफा सोचा है कि मैं सहनशक्ति रखता हूं, शांति रखता हूं, धैर्य रखता हूं, मेरा धैर्य अडिग है!

गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब…

–वे सब दावे जो मैंने किये थे–आत्मबल के, धैर्य के, सहनशक्ति के–सब गलत थे। क्षमा करो मुझे!

गलत था दावा-ए-सब्रो-शकेब, आ जाओ

करारे-खातिरे-बेताब थक गया हूं मैं।

और अब तो मैं थक गया हूं।

“सरोज’ पूछती है कि असहाय, बेसहारा…।

तो अब बाहर मत लौटना। अब उसी से कहना कि थक गई हूं बहुत और अब मुझसे नहीं सहा जाता। लेकिन भीतर की तरफ से आंख मत हटाना। कठिन होंगे ये क्षण। लेकिन जो गुजर जाता है इन क्षणों से, वह एक बिलकुल नये अभिनव जीवन को उपलब्ध हो जाता है। ये क्षण क्रांति के क्षण हैं।

सौ में से निन्यानबे लोग तो कभी इस दशा को पहुंचते नहीं। फिर जो सौ लोग पहुंचते हैं उनमें से निन्यानबे बाहर वापस लौट आते हैं। इसलिए शास्त्र कहते हैं, बड़ा दुर्गम है मार्ग। पहुंच-पहुंचकर छूट जाता है। हाथ में आते-आते मंजिल हजारों कोस के फासले पर हो जाती है।

तीसरा प्रश्न:

आप महावीर की अहिंसा पर बोलते हैं तो प्रेम जोड़ देते हैं; बुद्ध के शून्य पर बोलते हैं तो प्रेम जोड़ देते हैं। आप कुछ भी बोलते हैं तो प्रेम उसमें अनिवार्यतः जोड़ देते हैं। क्या हम संन्यासियों में प्रेम का अत्यंत अभाव देखकर ही आप प्रेम का पुनः पुनः स्मरण कराते हैं। कृपाकर कहें।

जोड़ता नहीं, उघाड़ता हूं। अहिंसा नाम की मंजूषा में प्रेम का ही धन छिपा है। खोलता हूं मंजूषा को। तुमसे कहता हूं, इसके भीतर तो देखो! यह मंजूषा बाहर से भी बड़ी सुंदर है! बड़ी नक्काशी है इस पर! बड़े कारीगरों ने मेहनत की है! लेकिन मंजूषा कितनी ही सुंदर हो, मंजूषा है; भीतर तो देखो!

अहिंसा तो शब्द है; सार तो प्रेम है! और अगर सार मर जाये तो फिर अहिंसा पर तुम कितनी ही नक्काशी करते रहो, फिर मंजूषा को तुम ढोते रहो सदियों-सदियों तक–उससे जीवन, उससे अमृत, उससे आनंद का आविर्भाव न होगा। फिर अहिंसा तार्किकों के हाथ में पड़ जायेगी। फिर वे शब्द की ही बाल की खाल निकालते रहेंगे।

महावीर ने अहिंसा शब्द का उपयोग किया प्रेम के लिए। मैं कहता हूं कि अहिंसा को हटाओ और भीतर झांककर देखो। खोलो इस मंजूषा को!

जोड़ता नहीं हूं, उघाड़ता हूं।

अहिंसा हो ही कैसे सकती है बिना प्रेम के? दूसरे को दुख न दो–यह हो ही कैसे सकता है जब तक कि दूसरे के प्रति प्रेम का आविर्भाव न हुआ हो? और अगर तुमने इसे नियम और औपचारिक व्यवस्था की तरह मान लिया कि दूसरे को दुख नहीं देना है, क्योंकि दूसरे को दुख देने से नर्क मिलता है–प्रेम के कारण नहीं, भय के कारण दूसरे को दुख नहीं देना है–तो तुम्हारी अहिंसा में बहुत अहिंसा न होगी। तुम्हारी अहिंसा में भी हिंसा प्रगट होगी। तुम्हारी अहिंसा में फिर प्रेम के फूल न खिलेंगे। तुम्हारी अहिंसा निर्जीव होगी।

ऐसा हुआ है, जैनों की अहिंसा निर्जीव हो गई है। उसमें से प्राण तो खो ही गये हैं, लाश रह गई है। हां, लाश को भी ठीक से रासायनिक द्रव्य लगाकर रखो तो सुंदर मालूम हो सकती है। लेकिन लाश लाश है। सुंदरतम व्यक्ति की भी लाश लाश है। प्राण ही खो गये! प्राण तो विधायक तत्व है।

प्रेम विधायक तत्व है। प्रेम का अर्थ है: कुछ तुम्हारे भीतर है।

अहिंसा का तो कुल इतना ही अर्थ है कि दूसरे के साथ बुरा मत करना।

और यह मैं तुमसे कहना चाहता हूं: जब तक तुम दूसरे के साथ भला करने में न लग जाओ, तुम बुरा करने से न बच सकोगे। तुम कुछ तो करोगे। जीवन कृत्य है, कर्म है। अगर मैं तुम्हारे रास्ते पर फूल न बिछाऊंगा तो मैं कांटे बिछाऊंगा। और ऐसा आदमी तुम न पाओगे जो कहे कि मैं सिर्फ कांटे नहीं बिछाता तुम्हारे रास्ते पर, फूल से मुझे क्या लेना-देना। तुम पाओगे कि यह आदमी या तो इतना सिकुड़ जायेगा, जैसे जैन मुनि सिकुड़ गये हैं कि फिर यह डरने लगेगा जीवन में उतरने से; क्योंकि उतरा कि कुछ कृत्य हुआ, कृत्य हुआ तो या तो कांटे बिछाओ या फूल बिछाओ। और इसकी सारी शिक्षण की व्यवस्था यह हो गई: कांटे मत बिछाना। फूल बिछाने की तो इसने हिम्मत खो दी। फूल बिछाने का तो खयाल ही छोड़ दिया। कांटे नहीं बिछाना है!

तुम अगर किसी व्यक्ति की बीमारियां भर अलग करना चाहते हो और उसके जीवन में स्वास्थ्य की आकांक्षा नहीं करते तो तुम उसे स्वास्थ्य न दे पाओगे और बीमारियां भी अलग न कर पाओगे। क्योंकि बीमारी का अलग होना और उसके भीतर स्वास्थ्य का जन्म होना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

दूसरे को दुख न दूं, यह गौण बात है। दूसरे को मेरे जीवन से सुख मिले–यह मूल बात है।

प्रेम का इतना ही अर्थ है कि तुम दूसरे की प्रसन्नता में प्रसन्न होने लगे। क्या है प्रेम का अर्थ? तुम कहते हो, मुझे अपनी पत्नी से प्रेम है या बेटे से प्रेम है या मित्र से प्रेम है–क्या मतलब है? इतना ही मतलब है कि जब तुम्हारा बेटा प्रसन्न होता है, तब तुम प्रसन्न होते हो। जब दूसरे की प्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने लगती है, तो प्रेम। और जब दूसरे की प्रसन्नता तुम्हें अप्रसन्न करने लगती है, तो घृणा। जब दूसरे की अप्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने लगती है तो क्रोध, घृणा, वैमनस्य, शत्रुता, हिंसा। और जब दूसरे की प्रफुल्लता तुम्हें छूने लगती है और प्रसन्न करने लगती है, तो प्रेम।

अहिंसा का मेरे लिए अर्थ है कि तुम्हें सबकी प्रसन्नता प्रसन्न करने लगे। तो तुम्हारे ऊपर कितनी विराट वर्षा न हो जायेगी! धर्म-मेघ-समाधि! तुम्हारे ऊपर धर्म के मेघ बरस उठेंगे। सब तरफ से किसी की भी प्रसन्नता तुम्हें प्रसन्न करने लगे! एक वृक्ष में फूल खिले और तुम प्रसन्न हो जाओ! सुबह सूरज ऊगे और तुम प्रसन्न हो जाओ! एक बच्चा मुस्कुराये और तुम प्रसन्न हो जाओ! यहां कहीं भी मुस्कुराहट हो और तुम्हारे भीतर भी आनंद प्रविष्ट हो जाये! तो सारा जगत तुम्हें प्रसन्न करने लगेगा। ऐसी प्रसन्न दशा का नाम ही संन्यास है।

और, अगर हर एक की प्रसन्नता तुम्हें दुखी करती है, जैसा कि संसार में होता है–उसी दुख का नाम संसार है। तुम किसी को हंसते नहीं देख सकते। हंसते देखते हीर् ईष्या पैदा होती है। तुम किसी का बड़ा मकान बनते नहीं देख सकते। बड़ा मकान बनते ही तुम्हारे भीतर अप्रसन्नता पैदा होती है–स्पर्धा, प्रतियोगिता, हिंसा,र् ईष्या! तुम अगर दूसरे की हंसी में हंसते भी हो तो थोथी हंसी हंसते हो, ऊपर-ऊपर हंसते हो, लोकचार, उपचार। सामाजिक शिष्टाचार है।

“अहिंसा’ शब्द ने बड़ा खतरा किया है। वह नकारात्मक है। मैं उसके भीतर छिपे हुए अकारात्मक विधायक प्रेम को उघाड़ना चाहता हूं। जोड़ता नहीं हूं, उघाड़ रहा हूं।

बुद्ध ने जिसे शून्य कहा है, निर्वाण कहा है; कहा है कि तुम मिट जाओ; जब तुम मिट जाते हो तो तुम्हारे भीतर जो बचता है, वही प्रेम है। जितना अहंकार होगा उतना ही प्रेम कम होगा। जब कोई अहंकार नहीं रह जाता तो प्रेम ही प्रेम, प्रेम का सागर है!

और, इसे भी स्मरण रखना कि जब मैं बुद्ध पर बोलता हूं तो अपने पर ही बोलूंगा। बुद्ध तो खूंटी हो सकते हैं ज्यादा से ज्यादा। महावीर पर बोलता हूं तो महावीर खूंटी हो सकते हैं; टांगूंगा तो मैं अपने को ही, और कोई उपाय नहीं है। और कोई उपाय हो भी नहीं सकता। तो जब मैं महावीर पर बोल रहा हूं तो तुम यह मत समझ लेना कि मैं सिर्फ महावीर पर बोल रहा हूं। मैं कोई यंत्र नहीं हूं। मेरी अपनी दृष्टि है। तो महावीर के शब्द हाथ में लूंगा, लेकिन रंग तो मेरा ही उन पर पड़ेगा। उनके शास्त्र को उलटूंगा-पलटूंगा, लेकिन अर्थ तो मेरा होगा।

इसे तुम कभी भूलना मत। मैं कोई उनकी व्याख्या नहीं कर रहा हूं। उनके शब्द प्यारे हैं, पुनरुज्जीवित करने जैसे हैं। उन पर धूल जम गई बहुत, उनकी धूल झाड़ देने जैसी है। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, महावीर तो उसमें बहाना हैं; कह तो मैं तुमसे वही रहा हूं जो मैं कह सकता हूं।

ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है कि अहिंसा का मूल प्राण प्रेम है। ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है कि जब व्यक्ति निर्वाण को उपलब्ध होता है, सब भांति अहंकार-शून्य हो जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही प्रेम का विराट आकाश है। लेकिन यह मेरी दृष्टि है। और अगर मुझे चुनना हो महावीर में और अपने में, तो मैं अपने को चुनता हूं, महावीर को नहीं चुनता। और मैं तुमसे भी यही कहता हूं, तुम्हें अगर चुनना हो मुझमें और अपने में तो अपने को चुनना, मेरी चिंता मत करना। क्योंकि आत्यंतिक चुनाव तो स्वयं का है।

प्रेम, मेरे लिए धर्म का सार है। और मेरे देखे धर्म नष्ट हुआ, सड़ गया…जहां-जहां से प्रेम अलग हो गया धर्म से, वहीं-वहीं धर्म लाश हो गया।

तुम भी थोड़ा सोचो, तुम्हारे जीवन में जब प्रेम न रह जाये, तो तुम जिंदा लाश होओगे! जब तक प्रेम है तभी तक धड़कन है। चाहे उस प्रेम का कोई भी रूप हो, चाहे वह कामवासना हो और चाहे प्रभु-वासना हो; चाहे धन का हो, चाहे धर्म का हो; चाहे देह का हो, चाहे आत्मा का हो; क्षुद्र से क्षुद्र प्रेम हो या विराट से विराट प्रेम हो–लेकिन प्रेम के बिना तुम एकदम खाली हो जाओगे। अचानक तुम पाओगे तुम जी रहे हो, लेकिन जीवन बचा नहीं। निकल गया! पक्षी उड़ चुका है, पिंजड़ा पड़ा रह गया है।

निराले हैं अंदाज दुनिया से अपने

कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं

कोई कैद समझे मगर हम तो ए दिल

मुहब्बत को आजादगी जानते हैं।

निराले हैं अदांज दुनिया से अपने

कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं।

दूसरे के पीछे जो अंधा होकर चल रहा है वह आत्मघात कर रहा है।

कि तकलीद को खुदकुशी जानते हैं

कोई कैद समझे मगर हम तो ऐ दिल

मुहब्बत को आजादगी जानते हैं।

कोई कहता हो कि कैद है…। अगर प्रेम कैद है तो वह प्रेम प्रेम ही नहीं। कहीं कुछ भूल हो रही है। तुमने कुछ को कुछ समझ रखा है। क्योंकि प्रेम ने तो सदा मुक्त किया। प्रेम ने तो इतना मुक्त किया कि तुम्हारा परमात्मा पूरा-पूरा निखार को उपलब्ध हो जाता है। जो प्रेम बांध ले वह प्रेम नहीं; जो मुक्त करे, वही प्रेम है। जो तुम्हारे स्वत्व को प्रगट करे, वही प्रेम है। जो तुम्हारे सत्व को निखारे, शुद्ध करे, वही प्रेम है।

प्रेम ने कभी किसी को बांधा नहीं।

तो जिन लोगों ने कहा है कि प्रेम बंधन है, उन्होंने प्रेम के कुछ गलत रूप जाने होंगे। और जिन्होंने सोचा कि प्रेम को छोड़कर हम मुक्त हुए, उन्होंने जिंदगी को गंवाने को जीवन समझ लिया होगा। वे सिकुड़नेवाले लोग रहे होंगे।

मेरे देखे, फैलो तो ही तुम परमात्मा तक पहुंचोगे। जितने फैलो, जितने विस्तीर्ण होने लगो, उतना शुभ है।

अलम-नसीबों, जिगर-फिगारों

अलम-नसीबों, जिगर-फिगारों

की सुबह अफलाक पर नहीं है।

–जो दुखी हैं, जो कारागृह में पड़े हैं, जिनके हृदय घायल हैं, उनकी सुबह कहीं दूर किसी आकाश पर नहीं है।

जहां पे हम तुम खड़े हैं दोनों

सहर का रौशन उफक यहीं है।

–और जहां हम दोनों खड़े हैं, ठीक इसी जगह सुबह का सूरज ऊगेगा। जहां हम हैं वहीं सूरज ऊगेगा।

यहीं पे गम के शरार मिलकर

शफक का गुलजार बन गये हैं।

यहीं पे कातिल दुखों के तेशे

कतार अंदर कतार किरनों

के आतिशीं हार बन गए हैं!

जहां हम हैं, जैसे हम हैं, वहीं ठीक हमारी ही मौजूदगी और हमारी आज की इस स्थिति में, द्वार खुल सकता है। वह द्वार प्रेम का है।

तुम परमात्मा को आकाश में मत खोजना, अन्यथा भटकोगे व्यर्थ। तुम तो परमात्मा को हृदय के प्रेम में खोजना, तो द्वार खुलेगा। और अगर प्रेम सध जाये तो सब सध जाता है। तो किरणों के भीतर किरणों के द्वार खुलते जाते हैं।

संत अगस्तीन से किसी ने पूछा कि मुझे एक शब्द में सारा शास्त्र समझा दें, ताकि मैं सदा याद रख सकूं। तो अगस्तीन ने बहुत सोचा और कहा कि फिर अगर ऐसा ही कोई शब्द चाहते हो, तो प्रेम। इस एक शब्द को याद रखना। इसके विपरीत मत जाना। और सदा इसके अनुकूल व्यवहार करना; शेष सब अपने से सुधर जायेगा।

तुम जरा सोचो। तुम्हारे जीवन में प्रेम आ जाये, मंदिर न भी गये तो तुम मंदिर पहुंच जाओगे। तुम्हारे जीवन में प्रेम आ जाये और तुमने शास्त्र न भी पढ़े तो तुम शास्त्र पढ़ लोगे। ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय! प्रेम सम्हल जाये तो कुछ बड़ी दार्शनिक चर्चाओं में पड़ने की जरूरत नहीं है।

प्रेम अस्तित्वगत धर्म है। “एक्ज़ीसटेंशियल’! बाकी सब बकवास है।

चौथा प्रश्न:

मुझे समर्पण में बहुत आनंद आता है। मेरी प्रार्थना शब्दों-शब्द परमात्मा या आपके लिए होती है। ज्ञान का शब्द अच्छा लगता है, मगर थोड़ा अहंकार जगता है। मेरा प्रतिपल ध्यान में जा रहा है, ऐसा भाव सदा रहता है। तो मैं कौन-सा ध्यान करूं–यह बताने की कृपा करें!

समर्पण जिसे सध रहा हो–ध्यान हो गया। और अन्यथा ध्यान करने की कोई भी जरूरत नहीं है। जिसे शरणागति में मजा आ रहो हो, बस इसी मजे के सहारे को पकड़कर और-और गहरे मजे में उतरते जाओ। रोओ, आंसू बहाओ–आनंद से, प्रफुल्लता से।

एक मित्र परसों आकर कह रहे थे कि थोड़ी घबड़ाहट होती है, क्योंकि जब भी ध्यान करने बैठता हूं, मस्ती आती है तो आंसू आने लगते हैं और शरीर कंपने लगता है और रोमांच हो जाता है। तो मैंने पूछा, क्या करते हो? तो उन्होंने कहा, मैं रोक लेता हूं जबर्दस्ती। सुशिक्षित व्यक्ति हैं–अब रोएं! और काफी उम्र हो गई है। वृद्ध हैं, कोई पैंसठ के करीब उम्र हो गई है। जिंदगीभर कभी रोए नहीं, आंख कभी गीली न की। रोमांच हो जाता है। शरीर कंपने लगता है। कोई समझेगा कि क्या पागलपन हो गया कि बीमारी हो गई कुछ, तो रोक लेते हैं।

मैंने उनको कहा कि अब यह खतरनाक कर रहे हो। एक तरफ तो पैदा कर रहे हो–प्रार्थना, पूजा, ध्यान से–और फिर रोक रहे हो। यह तो विरोधाभासी कृत्य हो जायेगा। यह तो तुम्हारी जीवन-ऊर्जा में विरोध, संकट पैदा हो जायेगा। यह तो खरतनाक है। प्रसन्न होओ, आंसुओं को आनंद से बहने दो!

आनंद के लक्षण हैं आंसू! लेकिन हमने एक ही ढंग के आंसू जाने हैं–वे दुख के आंसू हैं।

आदमी ने कई महत्वपूर्ण चीजों के अनुभव खो दिये; उनमें एक महत्वपूर्ण आंसू भी हैं। आंसू को सीमित कर लिया है; जब दुखी होते हैं, तभी रोते हैं। आंसू का दुख से कुछ लेना-देना नहीं है। आंसू का संबंध तो अतिरेक से है। दुख ज्यादा हो जाये तो आंसू की जरूरत आ जाती है। आनंद ज्यादा हो जाये तो आंसू की जरूरत आ जाती है। जो इतना ज्यादा हो जाये कि प्याली के ऊपर से बहने लगे, तो आंसू आते हैं। आंसू का कोई संबंध न दुख से है न सुख से है–अतिरेक से है।

तो तुम कभी आनंद में रोये या नहीं? अगर आनंद में नहीं रोये तो तुमने आंसुओं की जो सबसे ऊंची चरम अनुभूति थी वह चूक गये। तब तुमने बहुत साधारण-सी अनुभूति दुख की जानी। और दुख के कारण, लोग कहते हैं कि हिम्मत रखो, रोओ मत! और लोग कहते हैं, मर्द बनो, रोओ मत! यह क्या बच्चों के जैसे या स्त्रियों जैसे रोने लगे?

आंसू का जो एक और अनूठा रूप है–आनंद का, अहोभाव का–उससे मनुष्यता वंचित ही हो गई है।

नारद ने अपने सूत्रों में कहा है: भक्त रोमांचित होता! आंसुओं से भर जाता! गदगद हो जाता! कंपित होने लगती उसकी देह! रोआं-रोआं पुलकित हो जाता!

तो जिसको समर्पण में, शरणागति में, आनंद आ रहा है, वह ध्यान की फिक्र न करे। प्रार्थना! जलाये धूप-दीप! नाचे। रोये! पुलकित हो! थोड़े क्षणों को पागल होने की कला सीखे! थोड़े क्षणों को भूले समझदारी और संसार! थोड़ी देर को मीरा बने! लोक-लाज खोई!

ध्यान की कोई जरूरत नहीं है–प्रार्थना की जरूरत है। ध्यान है संकल्प के मार्ग पर। प्रार्थना है समर्पण के मार्ग पर। इसके पहले कि परमात्मा आये, प्रार्थना खूब कर लो, आंखों को खूब निखार लो, रो लो! कहीं ऐसा न हो कि वह आ जाये और तुम्हारी आंखें गीली न हों!

है खबर गर्म उनके आने की

आज ही घर में बोरिया न हुआ।

बिछाने को आसन घर में नहीं है और उनके आने की खबर आ गई है!

कोई फिक्र नहीं, बिना आसन के चल जायेगा। लेकिन और भी कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण जरूरी चीजें हैं।

पलकन पग पोंछूं आज पिया के

अंसुअन पूछूं हाल हिया के।

बोरिया न हुआ, चलेगा। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि पैर पोंछने के लिए पलकें न हों! कहीं ऐसा न हो कि हाल हिया के पूछने के लिए आंसू न हों!

पलकन पग पोंछूं आज पिया के

अंसुअन पूछूं हाल हिया के।

उसकी तैयारी करो! निमंत्रण भेज दिया, तो आता ही होगा। बुलाया है तो आयेगा ही। अब तुम उसके आने की चिंता न करके, अपनी तैयारी करो।

और बड़ी से बड़ी तैयारी है कि तुम हृदय भरकर रो सको, कि तुम परिपूर्ण डूबकर नाच सको, कि अवाक, आश्चर्यचकित घड़ियां बीत जायें और तुम ठगे-से रह सको!

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

भूलती सी जवानी नई हो उठी

जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी

बालपन की रवानी नई हो उठी

कि रसहीन सारे बरस रस भरे

हो गए, जब तुम्हारी छटा भा गई

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

भक्त तो यह मानकर ही चलता है कि तुम चल ही पड़े होओगे! खबर मिल ही गई होगी तुम्हें!

वह तैयारी में जुट जाता है।

साधक तो भगवान को खोजता है; भक्त तो भगवान को मानता है। साधक को तो अभी तय करना है कि भगवान है या नहीं। भक्त को उतना तो तय है कि भगवान है; अब इतना ही देखना है कि मेरी पात्रता है या नहीं। इस भेद को स्मरण रखना।

साधक सत्य को खोजने के लिए अपनी पात्रता इकट्ठी करता है। भक्त, सत्य तो है ही, प्रभु तो है ही, अब मैं उसके योग्य बनूं, इसके लिए अपनी पात्रता इकट्ठी करता है। दोनों की दिशाओं में बड़ा फर्क है।

सत्य का खोजी विचार-निर्विचार के पंखों से चलता है। भक्त–न विचार, न निर्विचार; भाव, भक्ति, पूजा, प्रार्थना! एक तो तय ही है बात कि परमात्मा है, इसलिए खोजने का उसके पास सवाल नहीं है। वह खोजने की झंझट में नहीं पड़ता। उसे तो अपने होने की वजह से इतना पर्याप्त प्रमाण मिल गया है कि जीवन है, जीवन का स्रोत भी है। अपनी किरण को देखकर ही समझ गया कि सूरज भी है, अन्यथा किरण कैसे होती? मैं हूं, इतना काफी है। तू भी है! अब कैसे मैं अपने को तैयार कर लूं?

तो अत्यंत प्रेम से भरकर प्रतीक्षा करो! उसकी पग-ध्वनि सुनो! आता ही होगा! द्वार पर कान लगाकर बैठ जाओ। उसके विरह में, जब तक नहीं आया है, उसकी अनुपस्थिति में, उसके अभाव में भी, उसके भाव को अनुभव करो। उसका अभाव भी प्यारा है! इसे समझना।

संसार की चीजें मिल भी जायें तो कुछ नहीं मिलता; और परमात्मा न भी मिले, सिर्फ उसकी याद भी मिल जाये तो सब मिल जाता है!

आखिरी प्रश्न:

आपको सुनने के पूर्व मैं कालेज की हंसती-खेलती छात्रा रही; सुनने के बाद न जाने क्या हुआ कि कहीं भी रुचि नहीं लगती–सुख-भोग में भी नहीं। सत्संग में आती भी हूं और आने से कतराती भी हूं। कृपापूर्वक मार्ग-दर्शन दें।

जो हंसना-खेलना इतनी सरलता से खो जाये, उसका कोई मूल्य नहीं। मैं तुम्हें ऐसा हंसना-खेलना सिखाऊंगा जो फिर खो न सके।

एक तो बचपन है, जिसमें बच्चे प्रसन्न होते हैं। उस प्रसन्नता का कोई बहुत मूल्य नहीं है–जिंदगी उसे नष्ट कर देगी। फिर एक और बचपन है, जो जीवन की चरम प्रौढ़ता से उपलब्ध होता है। संत फिर छोटे बच्चों जैसे हो जाते हैं। फिर एक हंसना और खेलना पैदा होता है; उसे फिर कोई भी न छीन सकेगा।

तो ऐसा हुआ होगा।

बहुत युवक मुझे सुनने आ जाते हैं, युवतियां सुनने आ जाती हैं। यह शुभ लक्षण है। क्योंकि बूढ़े धर्म की बात सुनने आयें, यह अशुभ लक्षण है। बूढ़े तो धर्म की बात सुनने तभी आते हैं जब जिंदगी में उनके सब उपाय व्यर्थ हो गये, मौत करीब आने लगी! मौत के भय से! और जब बूढ़े ही मंदिर, मस्जिदों में आने लगते हैं और जवान वहां से खो जाते हैं, तो वे मंदिर-मस्जिद भी कब्रों जैसे हो जाते हैं, मुर्दा हो जाते हैं। शुभ है कि युवा और युवतियां भी धर्म को समझने की कोशिश करें, क्योंकि उनके कारण धर्म भी युवा रहता है। जब भी धर्म जवान होता है, तब उसमें वृद्ध तो आते ही हैं, युवा भी आते हैं।

और यह फर्क समझ लेना। मुझे तो जो वृद्ध भी सुनने आते हैं, वे भी तभी आ सकते हैं जब वे किसी गहरे अर्थ में अभी भी युवा हों। और मंदिर-मस्जिदों में अगर कभी कोई जवान भी पहुंच जाता है तो तभी पहुंचता है जब वह किसी गहरे अर्थ में बूढ़ा हो चुका; वह जिंदा नहीं है अब, रुग्ण है। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं, वह जीवन-विरोधी नहीं है। मैं जो कह रहा हूं, वह महाजीवन की खोज है।

तो अनेक बार ऐसा हो जायेगा कि युवाऱ्युवती आ जायेंगे सुनने, सुनकर उनको कई रूपांतरण होंगे। जिसे उन्होंने कल तक हंसी-खुशी समझा था, वह हंसी-खुशी मालूम न होगी। अच्छा है, कुछ बोध जगना शुरू हुआ। क्योंकि अब तक जिसे हंसी-खुशी जाना था, वह केवल नासमझी थी, वह केवल बचपना था। अभी खिलौनों से खेलते रहे थे। मेरे पास आकर उनको दिखाई पड़ जायेगा, ये तो खिलौने हैं। रस खो जायेगा।

असली जीवन की शुरुआत के पहले खिलौनों में रस खो जाना जरूरी है।

फिर आने में डर भी लगेगा। आने का मन भी होगा। आने से बचना भी संभव नहीं है और डर भी लगेगा। डर लगेगा कि कहीं ऐसा न हो कि सारा जीवन का रस खो जाये! और आने से रुकना भी असंभव होगा, क्योंकि कोई रस पैदा होगा जो पुकारेगा और बुलायेगा। एक दुविधा पैदा होगी। यह भी शुभ लक्षण है। यह सोच-विचारशील व्यक्ति का लक्षण है।

सोच-विचारशील व्यक्ति को जीवन में हजार ऐसे मौके आते हैं, जहां उसे तय करना पड़ता है; जहां आधा मन कहता है मत जाओ, आधा कहता है जाओ। कायर आदमी उस आधे मन की मान लेता है, जो कहता है मत जाओ। साहसी व्यक्ति उस आधे मन की मानता है जो कहता है, करो अभियान! खोजो नये को! अपरिचित राह को चुनो!

पश्चिम के एक बहुत बड़े कवि से किसी ने पूछा कि तुम्हारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात जिसने तुम्हारे जीवन के अर्थ को निर्णीत किया, कौन-सी थी? तो उसने कहा कि जब मेरे पिता मर रहे थे तो उन्होंने मुझे पास बुलाया और कहा कि सुन, जीवन के हर कदम पर दो रास्ते खुलते हैं। एक रास्ता जाना-माना, जिस पर तुम चलते रहे हो; और एक रास्ता अपरिचित अनजाना, जिस पर तुम कभी नहीं चले हो। मन सदा कहेगा, जाने-माने को चुन लो, क्योंकि मन बहुत आर्थोडाक्स है। जाने-माने को कभी मत चुनना, क्योंकि जिस पर चलते ही रहे हो, अब और चलकर क्या होगा? अनजाने को चुन लेना।

और जिंदगी के हर रास्ते पर दो कदम खुलते हैं। दो रास्ते खुलते हैं। सदा अनजाने को चुनते रहना।

उस कवि ने कहा, मैंने पिता की बात मान ली। बड़ी कठिन थी। और कई बार भूला। कई बार चूका। लेकिन फिर भी उस सूत्र को सम्हाले रहा। इसी तरह मेरे जीवन में रोज-रोज सत्य की नयी-नयी सुबह हुई; सत्य का नया-नया सूरज निकला।

अपरिचित, अनजान, अज्ञात–उसे जो चुनता है, उसने परमात्मा को चुना।

तो डर लगेगा यहां आने में। क्योंकि मैं तुम्हें रोज अनजान की तरफ, अपरिचित की तरफ धक्के दूंगा। मन कहेगा, रुक जाओ, मत जाओ।

इलाहाबाद में मैं बोल रहा था कई वर्षों पहले। जिन मित्र ने मुझे बुलाया था, वे हिंदी के एक कवि और लेखक हैं। वे सामने ही बैठे थे। कोई दस-पंद्रह मिनट मैंने देखा कि उनकी आंखों से आंसू गिरते रहे; फिर वे एकदम से उठे और भवन के बाहर निकल गये। उन्होंने ही मुझे बुलाया था। फिर तीन दिन उनका कोई पता ही न चला। जब विदा का दिन आया तो वह मुझे स्टेशन छोड़ने आये। मैंने पूछा कि कहां चल दिये! उन्होंने कहा कि पंद्रह मिनट तो मैं सुनता रहा, फिर मैं डरा। फिर मुझे लगा कि यह आदमी खतरे में ले जायेगा। तो मैंने कहा कि इसके पहले कि कोई झंझट शुरू हो, यहां से निकल जाना चाहिए। तो मैं निकल गया।

यह स्थिति सभी के सामने आयेगी। मेरे साथ चलना है तो बहुत कुछ जो तुम्हारी जिंदगी में तुम्हें कल तक मूल्यवान मालूम होता रहा, मूल्यहीन हो जायेगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, अज्ञात के लिए सदा अपने द्वार खुले रखना। क्योंकि वही द्वार है, जिससे परमात्मा प्रवेश करता है।

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--1 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–21

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जिन—शासन अर्थात आध्‍यात्‍मिक ज्‍यामिति—प्रवचन—इक्‍कीसवां

सूत्र:

मग्‍गो मग्‍गफलं ति य, द्रविहं जिणसासणे समक्‍खादं।

मग्‍गो खलु सम्‍मतं मग्‍गफलं होई निव्‍वाणं।। 52।।

दंसणाणचरित्‍ताणि, मोक्‍खमग्‍गो त्‍ति सेविदव्‍वाणि।

साधूहि इदं भणिदं, तेहिं दु बंधो व मोक्‍खो वा।। 53।।

आण्‍ण्‍णाणादो पाणी, जदि मण्‍णादि सुद्धसंपओगादो।

हवदि त्‍ति दुक्‍खमोक्‍खं परसमयरदो हवदि जीवो।। 54।।

जिन-दर्शन गणित, विज्ञान जैसा दर्शन है। काव्य की उसमें कोई जगह नहीं है।

वही उसकी विशिष्टता है।

दो और दो जैसे चार होते हैं, ऐसे ही महावीर के वक्तव्य हैं। उन्हें समझने के लिए ठीक वैज्ञानिक की बुद्धि चाहिए। जैसे सौ डिग्री तक हम पानी को गर्म करें, तो वह भाप बन जाता है। सौ डिग्री तक पानी गर्म हुआ कि भाप बनेगा ही। इस भाप को बनाने के लिए न तो किसी की प्रार्थना करनी जरूरी है, न किसी का आशीर्वाद लेना जरूरी है। और अगर सौ डिग्री तक पानी गर्म न हुआ, तो लाख प्रार्थना करो, लाख आशीर्वाद लो, पानी पानी ही रहेगा, भाप न बनेगा।

जैसे विज्ञान कहता है, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, प्रकृति के नियम काफी हैं, पर्याप्त हैं; परमात्मा के होने से उन नियमों में कुछ जुड़ेगा नहीं। विज्ञान की एक मूलभूत धारणा है–और वह है न्यूनतम सिद्धांत। जितने कम सिद्धांतों से काम चल सके उतना उचित है। चेष्टा तो विज्ञान की यही है कि अंततः एक ही सिद्धांत मिल जाये जिससे जीवन की सारी पहेली सुलझ सके। इसलिए गैर-अनिवार्य को बिलकुल जगह नहीं देना है।

अगर सौ डिग्री गर्म करने से पानी भाप बन जाता है तो फिर पानी को भाप बनाने के लिए और किसी परमात्मा की जरूरत नहीं है। और किसी की प्रार्थना भी व्यर्थ है। इस नियम को जिसने जान लिया, वह अगर पानी को भाप बनाना चाहेगा तो बना लेगा।

विज्ञान के हिसाब से परमात्मा हमारे अज्ञान का हिस्सा है। क्योंकि हम जानते नहीं जीवन के नियम को, इसलिए हम परमात्मा का नाम लेते हैं। तुमने देखा भी होगा, जब भी तुम कहते हो “परमात्मा जाने’ तो तुम्हारा मतलब यह होता है कि कोई नहीं जानता। “परमात्मा जाने’ का यह अर्थ नहीं होता कि परमात्मा जानता है–इतना ही अर्थ होता है कि तुम भी नहीं जानते, कोई भी नहीं जानता। जहां तुम्हें अपने अज्ञान को प्रगट करना होता है वहां तुम परमात्मा को ले आते हो। लेकिन इस ढंग से प्रगट करते हो कि लगता है जैसे कोई जानता है। “परमात्मा जाने’, इसमें तुमने यह भी छिपा लिया कि मैं नहीं जानता। और दूसरे के सामने यह बात ढांक दी, अज्ञान को छिपा लिया, प्रगट न होने दिया।

विज्ञान कहता है: जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता है, परमात्मा हटता जाता है। जिस दिन ज्ञान पूरा हो जायेगा, परमात्मा शून्य हो जायेगा।

महावीर की भी ऐसी ही दृष्टि है। इसलिए महावीर ने परमात्मा को इनकार किया, प्रार्थना को इनकार किया–शुद्ध जीवन के गणित को समझने की कोशिश की।

आदमी बंधन में है, तो कारण होंगे। अगर आदमी को बंधन-मुक्त होना है तो उन कारणों को अलग करना होगा। बस, इतना सीधा-साफ। और सब आकांक्षाएं, अपेक्षाएं अपने-आपको भुलाने के उपाय हैं।

कोई तुम्हें बंधन में डाला नहीं है, कोई तुम्हें मुक्त करने न आयेगा। जीवन के सीधे नियम का तुम उपयोग नहीं किये, इसलिए बंधन में पड़ गये हो। उपयोग कर लोगे, बंधन के बाहर हो जाओगे।

जैसे कोई आदमी सम्हलकर चलता हो तो गिरता नहीं। जो आदमी गिर जाता है, उससे हम कहते हैं, सम्हलकर चलो!

सम्हलकर चलने का क्या अर्थ होता है? सम्हलकर चलने का अर्थ होता है: जमीन की गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है, उसका ध्यान रखकर चलो। अगर इरछे-तिरछे चले–गिरोगे। वही गुरुत्वाकर्षण का नियम जो तुम्हें चलाता है, सम्हालता है, जिसके बिना चल न सकोगे, अगर उसके विपरीत गये तो गिरोगे, हाथ-पैर तोड़ लोगे, फिर कभी चल न पाओगे। तो गुरुत्वाकर्षण के निमय को समझ लो और अपने और उस नियम के बीच एक संगीत का संबंध बना लो। इतना ही धर्म है।

महावीर धर्म की परिभाषा करते हैं: जीवन के स्वभाव सूत्र को समझ लेना धर्म है। जीवन के स्वभाव को पहचान लेना धर्म है। स्वभाव ही धर्म है।

ये सूत्र ऐसे ही सीधे-साफ हैं।

पहला सूत्र:

मग्गो मग्गफलं ति य, द्रविहं जिणसासणे समक्खादं।

मग्गो खलु सम्मतं मग्गफलं होइ निव्वाणं।।

“जिन-शासन में मार्ग तथा मार्ग-फल, इन दो प्रकारों से कथन किया गया है। मार्ग है मोक्ष का उपाय और फल है निर्वाण।’

मार्ग और मार्ग-फल! बस महावीर के सारे वचन इन दो हिस्सों में बांटे जा सकते हैं: कारण और कार्य। ऐसा करो तो ऐसा होगा। बस इतनी दो सरणियों में महावीर के पूरे कथन बांटे जा सकते हैं। कुछ कथन हैं जो बताते हैं क्या करो और कुछ कथन हैं जो बताते हैं कि फिर क्या होगा। अगर जहर पी लो तो मृत्यु होगी। अगर अमृत को खोज लो तो अमरत्व को उपलब्ध हो जाओगे।

परिणाम कारण के पीछे ऐसे ही चला आता है जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया चली आती है। तो करना क्या है? न प्रार्थना, न पूजा, न मंदिर, न पाठ; क्योंकि इनसे कुछ भी न होगा। इनसे कारण का कोई संबंध नहीं है।

यह तो ऐसे ही है जैसे वर्षा नहीं हो रही और कोई यज्ञ कर रहा है। इसका कुछ लेना-देना नहीं है। यज्ञ से कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है वर्षा से। कि कोई बीमार पड़ा है और तुम ताबीज बांध रहे हो; ताबीज से और बीमारी का कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है। इलाज करो। बीमारी के रोगाणु हैं, उनसे मुक्त होने की व्यवस्था करो। ताबीज से रोगाणु डरेंगे न और न मुक्त होंगे और न तुम उनसे मुक्त हो सकोगे।

महावीर कहते हैं, जीवन में दुख है तो तुम ठीक-ठीक कारण खोजो। दुख से तुम बचना चाहते हो, यह तो हमें मालूम है; लेकिन सिर्फ बचने की आकांक्षा से बच न सकोगे। और दुख से तुम बचना चाहते हो, इसलिए कोई भी कुछ बता देता है, वही करने लगते हो–इससे भी न बच सकोगे। हो सकता है बतानेवाले की भी आकांक्षा शुभ हो; खोजनेवाले की भी आकांक्षा शुभ हो; लेकिन आकांक्षाओं से थोड़े ही जीवन चलता है। जीवन चलता है सत्यों से, नियमों से। तो नियम को खोज लो। नियम के खोजते ही जीवन में क्रांति घटित होती है।

उस नियम की खोज को महावीर कहते हैं: मार्ग। वही मार्ग पकड़ में आ जाये तो फिर परिणाम के लिए प्रार्थना भी करनी जरूरी नहीं है, उतना भी समय खराब मत करना। क्योंकि जब तुमने आग जला दी और पानी गर्म होने लगा तो अब बैठकर प्रार्थना मत करना कि हे परमात्मा, इसको भाप बना! अब किसी परमात्मा को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। अब तो पानी भाप बनेगा। ईंधन पूरा है, आग जल उठी है–पानी भाप बनेगा। अब इसे कोई रोक भी न सकेगा। इस नियम के विपरीत कुछ घट न सकेगा।

महावीर चमत्कार में नहीं मानते। कोई वैज्ञानिक बुद्धि का व्यक्ति नहीं मानता। चमत्कार कहीं न कहीं धोखा होगा, क्योंकि नियमों का कोई अपवाद नहीं होता। अगर कोई आदमी हाथ से राख निकाल देता है तो कहीं न कहीं कोई मदारीगिरी होगी, क्योंकि जीवन के नियम किसी का अपवाद नहीं मानते। जीवन के नियम व्यक्तियों की चिंता नहीं करते–निर्वैयक्तिक हैं, सार्वभौम हैं। उनसे अन्यथा होने का उपाय नहीं।

अगर कोई आदमी साठ डिग्री पर पानी को भाप बना दे तो या तो थर्मामीटर से धोखा दे रहा है या किसी तरह का आयोजन कर रहा है, जिससे तुम्हें यह भ्रम पैदा होता है कि साठ डिग्री पर पानी भाप बन रहा है।

पानी तो सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। उसने किसी तरह का भ्रमजाल रचा है। लेकिन चमत्कार जगत में नहीं होते।

चमत्कार का तो अर्थ यह होता है कि जगत के नियम पक्षपात करते हैं। किसी एक आदमी की मानकर कुछ उलटा भी कर देते हैं। किसी दूसरे की मानकर नियम में शिथिलता कर देते हैं। किसी तीसरे पर नाराज हो जाते हैं। जिस पर प्रसन्न हैं, साठ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है; जिस पर नाराज हैं, उसके लिए डेढ़ सौ डिग्री पर भी भाप नहीं बनता।

मगर महावीर कहते हैं, पानी सौ डिग्री पर भाप बनता है। नियम न नाराज होते न प्रसन्न होते। नियम निर्वैयक्तिक है। इसको खयाल में लेना। परमात्मा व्यक्ति है।

तो जब भी हम परमात्मा की बात करते हैं, हमारे मन में संभावनाएं उठने लगती हैं कि अगर खूब प्रार्थना करें, खूब स्तुति करें, खूब समझा-बुझा लें, तो जो दूसरे के लिए नहीं हुआ है वह हमारे लिए हो जायेगा। क्योंकि व्यक्ति के आते ही लगता है फुसला लेंगे, राजी कर लेंगे, समझा लेंगे, रोयेंगे, गिड़गिड़ायेंगे, सहानुभूति पैदा कर लेंगे, करुणा मांगेंगे! आखिर परमात्मा दयालु है, तो खूब रोयेंगे तो दया उठेगी।

लेकिन महावीर कहते हैं, ऐसे तुम किसी और को धोखा नहीं दे रहे, अपने को ही धोखा दे रहे हो।

ऐसी चेष्टाएं व्यर्थ हैं और उनमें गंवाया गया समय तुमने व्यर्थ ही गंवाया। मार्ग को खोज लो!

महावीर का जोर मार्ग पर है; परमात्मा के सहारे पर नहीं; परमात्मा के आलंबन पर नहीं। यही तो सारे विज्ञान की दृष्टि है। विज्ञान कहता है, कहीं कुछ घट रहा है। हमें आज पता न हो क्यों घट रहा है; लेकिन जिस दिन पता चल जायेगा उस दिन फिर घटाने की शक्ति हमारे हाथ में आ जायेगी।

और जब तक हमें पता नहीं है तब तक बेहतर है कि हम कहें कि हमें मालूम नहीं।

तो महावीर के अधिक वचन तो मार्ग-सूचक हैं। और कुछ वचन फल-सूचक हैं। ऐसा पूरा जिन-शासन दो हिस्सों में विभाजित है।

आइंस्टीन भी इससे राजी होगा। प्लांक भी इससे राजी होगा। रसेल भी इसमें भूल-चूक न निकाल पायेगा। इसलिए महावीर के वचनों में या जैन शास्त्रों में तुम्हें कहीं काव्य न मिलेगा, काव्य का चमत्कार न मिलेगा। पढ़ोगे तो रूखे-सूखे लगेंगे। ठीक गणित की किताबें हैं–ज्यामिति, आध्यात्मिक ज्यामिति। अंतरात्मा के संबंध में ज्यामेट्री खड़ी की है।

तो उपनिषदों में जैसा सौंदर्य है, कृष्ण के वचनों में जैसा रस है वैसा महावीर के वचनों में नहीं है।

गणित को गाया नहीं जा सकता। गणित को गाओ तो गणित बिगड़ जाता है। क्योंकि गाने के लिए कुछ गैर-गणित भीतर लाना पड़ता है।

इसलिए तो हम कवि से कभी तार्किक होने की अपेक्षा नहीं करते। और कवि अगर सपनों की बात करे तो हम उसे क्षमा करते हैं। और कवि अगर मनगढंत बातों में घूमे तो हम कहते हैं, कवि है, कविता है।

लेकिन गणितज्ञ से हम दूसरी अपेक्षा करते हैं। गणितज्ञ से हम चाहते हैं सीधी-साफ रेखा हो, शुद्ध रेखा हो, जिसमें कुछ भी गणितज्ञ ने अपने भाव के कारण न डाला हो। केवल सत्य का प्रतिफलन हो। शुद्ध सत्य का प्रतिफलन हो। सजावट न हो, शृंगार न हो।

इसलिए महावीर के वचन, जैसे महावीर नग्न हैं वैसे ही महावीर के वचन भी नग्न हैं। उनमें कोई सजावट नहीं है। जैसा है वैसा कहा है। और जिनके पास वैज्ञानिक बुद्धि है उनको महावीर पर बड़ी श्रद्धा पैदा होगी। उनको महावीर के साथ बड़ा संबंध जुड़ जायेगा।

“मार्ग तथा मार्ग-फल, इन दो प्रकार से कथन किया है। मार्ग मोक्ष का उपाय है और उसका फल मोक्ष या निर्वाण…’

मोक्ष या निर्वाण शब्द को समझ लेना चाहिए।

“मोक्ष’ शब्द बड़ा अनूठा है। भारत के बाहर की किन्हीं भाषाओं में मोक्ष के पर्यायवाची कोई शब्द नहीं है। स्वर्ग है सभी भाषाओं में, लेकिन मोक्ष भारत के बाहर की किन्हीं भाषाओं में नहीं है। क्योंकि मोक्ष की धारणा ही किसी और देश में पैदा नहीं हुई। उतनी ऊंचाई तक, उतनी गहराई तक मनुष्य की चिंतना और ध्यान गया नहीं कहीं और।

मोक्ष का अर्थ होता है: जहां सुख भी नहीं, दुख भी नहीं।

स्वर्ग का अर्थ होता है: जहां सुख है, भरपूर सुख है। स्वर्ग का अर्थ होता है: जो हम चाहते हैं वही है; जैसा हम चाहते हैं वैसा है। हमारी चाह का परिपूरक है। हमारी चाह को भरता है। हमारी चाहत के अनुकूल जहां सब हो रहा है वहां स्वर्ग है। तो जहां हमारी चाह पूरी होती है वहां क्षणभर को हम भी स्वर्ग में हो जाते हैं।

नर्क का अर्थ है: जहां सब हमारी चाह के विपरीत हो रहा है; जो हम चाहते हैं ठीक उससे उलटा हो रहा है; जिस-जिससे हम बचना चाहते हैं वही-वही हो रहा है।

नर्क और स्वर्ग सारी दुनिया की भाषाओं में हैं।

“मोक्ष’ बड़ा अनूठा शब्द है। मोक्ष का अर्थ है: न तो हमारी अब कोई चाह है, न हमारी कोई पसंद है। क्योंकि महावीर कहते हैं, जब तक चाह है तब तक बंधन रहेगा। हां, यह भी हो सकता है कि तुम सोने के बंधन बना लो; लोहे की जंजीरें तोड़ डालो और सोने की जंजीरें ढाल लो। और यह भी हो सकता है उन जंजीरों पर हीरे-मोती जड़ दो। वे प्यारे लगने लगें। वे इतने प्यारे हो जायें कि आभूषण मालूम पड़ें।

बहुत-से आभूषण, जिन्हें तुम आभूषण समझते हो, जंजीरें सिद्ध होते हैं; और बहुत-सी जंजीरें जिनकी तुम्हें याद भी नहीं आती कि जंजीरें हैं, आभूषणों में छिप गई हैं।

तो महावीर कहते हैं, सुख की आकांक्षा या सुख का मिलना भी जंजीर है–सोने की जंजीर है। दुख का मिलना लोहे की जंजीर है। लेकिन दोनों बांधते हैं। तुमने खयाल किया? कभी तुम्हें एकाध क्षण को भी ऐसी चैतन्य की घड़ी आई, जब न सुख की आकांक्षा है न दुख की? तब तुमने देखा, कैसी मुक्ति अनुभव होती है! सब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। सब कारागृह विलुप्त हो जाते हैं! क्षणभर को तुम्हारे चेतना के आकाश में एक भी बादल नहीं रह जाता। निरभ्र आकाश! अनंत आकाश! जैसे ही उठी आकांक्षा, बादल घिरे, अंधेरा छाया! आकाश तो खो गया, बदलियां रह गईं! धुएं के बादल रह गये!

कभी क्षणभर को भी अगर तुम्हारे जीवन में ऐसा हो जाता हो, जब न सुख की इच्छा है, न दुख की, कोई इच्छा नहीं है, तुम अनिच्छा में बैठे हो–उसी घड़ी को महावीर “सामायिक’ कहते हैं। तुम संसार के बाहर हो। क्योंकि महावीर के हिसाब में संसार का अर्थ है: चाह के भीतर होना।

चाह से भरे होना संसार में होना है। फिर तुम चाह कोई भी करो। चाहे पृथ्वी के धन की हो, चाहे स्वर्ग के धन की हो; चाहे तुम पुण्य की आकांक्षा करो; लेकिन कोई भी आकांक्षा है, चाहत जारी है–और तुम संसार में हो।

ऐसी भी घड़ियां हैं चैतन्य की, जब कोई चाह नहीं, जब तुम हो–निपट अकेले! शुद्ध! कोई धुएं की रेखा भी भीतर नहीं। उस क्षण में तुम कहां होते हो? उस क्षण में तुम शरीर के भीतर होते हो? नहीं, उस क्षण में शरीर की स्मृति खो जाती है। तुम विदेह हो जाते हो। क्योंकि शरीर से हमारा संबंध चाह का संबंध है। उस क्षण में तुम शरीर में नहीं होते। उस क्षण में तुम पृथ्वी पर नहीं होते। उस क्षण में तुम स्थान में नहीं होते। उस क्षण में तुम समय में भी नहीं होते। उस क्षण में तुम अचानक किसी दूसरे ही लोक में प्रवेश कर गये–पार का लोक! जल्दी ही तुम लौट आओगे। क्योंकि उस पार के लोक में जीने की, उस ऊंचाई पर जीने की तुम्हारी क्षमता नहीं है। उस ऊंचाई पर श्वास लेने की तुम्हारी कुशलता नहीं है। उन ऊंचाइयों पर उड़ने की अभी तुमने आदत नहीं डाली, अभ्यास नहीं किया है।

इसलिए कभी-कभी क्षणभर को जब चाह छूट जाती है, तब तुम एकदम मुक्ति अनुभव करते हो।

ऐसे ही तो पहली दफा आदमी को मोक्ष का खयाल उठा होगा कि जो क्षणभर को हो सकता है वह सदा को क्यों न हो! जो एक क्षण को चेतना में कभी-कभी झलक जाता है, वह सदा के लिए चेतना का स्वभाव क्यों न बन जाये!

मोक्ष का अर्थ है: जहां चेतना की कोई चाह नहीं। जहां चाह नहीं वहां संसार में कोई राह नहीं।

चाह राह बनाती है; संसार में ले आती है। क्योंकि जहां चाह आई, वहां वस्तुओं का संसार आया। तुमने कुछ चाहा, तुम्हारी आंख दूर गई, “पर’ पर पड़ी–तुम बंधे! तुम उलझन में पड़े!

और जिसने सुख चाहा–उसे दुख मिला।

यह तो हमारा सबका अनुभव है। सभी ने सुख चाहा है–मिला कहां? चाहा तो सभी ने सुख है; पाया सभी ने दुख है। इसे तुम कब देखोगे? कब जागोगे कि चाह तो कुछ और होती है, मिलता कुछ और है।

तो महावीर कहते हैं, यह जीवन का आधारभूत नियम है कि जो सुख चाहेगा वह दुख पायेगा। सुख की चाह में ही दुख छिपा है। इसे समझो।

पहला, सुख वही चाहता है जो दुखी है–एक बात। क्योंकि तुम वही चाहते हो जो तुम्हारे पास नहीं है। जो तुम्हारे पास है, तुम क्यों चाहोगे? जो तुम्हारे पास है ही, उसकी तो चाह खो जाती है; जो नहीं है उसकी ही चाह पैदा होती है। अभाव चाह को जन्माता है। अभाव जन्मदाता है।

तो जिस आदमी ने सुख चाहा, एक बात तो उसने यह बतायी कि वह दुखी है। फिर जिस आदमी ने सुख चाहा, उसने दूसरी बात भी बतायी कि अगर यह न मिला तो मैं और दुखी हो जाऊंगा, विषाद घेरेगा, असफलता हाथ लगेगी। और जैसे ही उसे यह खयाल आया कि अगर यह न मिला तो मैं और दुखी हो जाऊंगा, विषाद होगा मेरे जीवन में, उद्विग्न हो जाऊंगा, हारा हुआ, थका हुआ, पराजित–भय समाया! भय आया! यह आदमी वैसे ही दुखी था, इसने सुख की चाह करके और दुख बुला लिया, और भयभीत हो गया। अब यह डगमगाते कदमों से सुख की तरफ चलता है।

और, सुख हम सदा बाहर मांगते हैं: किसी स्त्री से मिलेगा, किसी पुरुष से मिलेगा, धन से मिलेगा, पद से मिलेगा! लेकिन पद से सुख का क्या संबंध है? तुम कितनी ऊंची कुर्सी पर बैठते हो, इससे सुख का क्या संबंध? तुम कितने बड़े मकान में हो, इससे क्या सुख का संबंध है?

सुख का मकान के बड़े और छोटे होने से कहीं भी तो कोई संबंध नहीं है। क्योंकि सड़क पर खड़े भिखारी भी कभी सुखी देखे गये हैं। महावीर खुद ही ऐसे भिखारी थे। और कभी महलों में सम्राट भी दुखी देखे गये हैं।

तो दुख और सुख का संबंध स्थितियों से तो मालूम नहीं पड़ता, परिस्थितियों से तो मालूम नहीं पड़ता–कुछ भीतरी दशाओं से जुड़ा है। तो जब भी तुमने बाहर मांगा, गलत जगह मांगा। और मांग मात्र बाहर की होती है। भीतर तो मांगोगे किससे, मांगोगे क्या? वहां तो कुछ भी नहीं है–शून्य आकाश है। वहां तो कोरापन है। वहां तो तुम मुट्ठी बांधना चाहोगे तो बंधेगी नहीं; बंध भी जायेगी तो हाथ में कुछ न आयेगा। आकाश को कौन मुट्ठी में बांध सका है! आत्मा को भी कोई नहीं बांध सका है।

तो भीतर तो कुछ पकड़ में आता नहीं, बाहर पकड़ में चीजें आ जाती हैं, तो हम सोचते हैं बाहर होगा। ऐसे बाहर दौड़ते हैं जहां नहीं है। फिर एक न एक दिन स्वप्न टूटता है और पता चलता है यहां नहीं है; हम महादुखी हो जाते हैं। उस महादुख से और बड़े सुख की आकांक्षा पैदा होती है। क्योंकि जितने हम दुखी होते हैं उतनी ही तीव्र आकांक्षा होती है कि जल्दी करो, मौत करीब आयी जाती है, सुखी होना है। ऐसा एक दुष्टचक्र है। दुख में से सुख की आकांक्षा निकलती है; सुख की आकांक्षा में से और बड़ा दुख निकलता है।

तो महावीर कहते हैं, जिसने छोड़ा है, उसने सिर्फ दुख को ही नहीं छोड़ा, उसने सुख को भी छोड़ा है। उसने नर्क का ही त्याग नहीं किया…। वह तो सभी करते हैं; उसमें कौन-सी कुशलता है? उसमें कौन-सी मेधा है? दुख से कौन नहीं बचना चाहता–सभी बचते हैं। उसमें कौन-सी बुद्धिमानी है? उसमें कौन-सी विशेषता है। लेकिन जिसने गौर से देखा, समझा, जीवन की पर्तों को उघाड़ा, रहस्य को पहचाना, गणित का सूत्र समझ में आ गया उसे कि दुख की सारी चाल यही है कि वह तुम्हें सुख का आश्वासन देता है और भरमा लेता है। तुम सुख के आश्वासन में दुख के पीछे चले जाते हो, भटक जाते हो। मिलता दुख है, चाहते सदा सुख हो।

जो जागा इस अनुभव में, उसने सुख नहीं चाहा। और जिसने सुख नहीं चाहा, उसके जीवन से दुख विदा होने लगे। क्योंकि बिना सुख की चाह के दुख निर्मित नहीं हो सकता।

थोड़ा सोचो!

जिस आदमी ने सफलता नहीं चाही, उसे तुम विफल कैसे करोगे? और जिसने कभी जीतना नहीं चाहा, उसे तुम हराओगे कैसे? और जिसने कभी धनी होने के पागलपन में अपने को नहीं लगाया, उसे तुम निर्धन कैसे कर पाओगे? और जिसने तुमसे सम्मान नहीं मांगा, तुम उसका अपमान कैसे करोगे? करोगे कैसे? उपाय कहां है? उसने तुम्हें सुविधा कहां दी?

जिसने सम्मान चाहा, उसे तुम अपमानित कर सकते हो। जिसने धन चाहा, उसकी चाह में ही वह निर्धन हो गया। जिसने जीत चाही, उसने पराजय के ढेर लगा लिये।

इसलिए महावीर कहते हैं: मोक्ष का अर्थ है इस अनुभव को तुम्हारे जीवन की स्थिर दशा बना लेना कि न सुख की चाह न दुख की चाह, न नर्क न स्वर्ग, कोई चाह नहीं।

अचाह की दशा मोक्ष है।

तो यह तो परिणाम है मोक्ष। मोक्ष यहां घट सकता है। ऐसा मत सोचना जैसा कि साधारणतः लोग समझते हैं कि मोक्ष मरने के बाद घटता है। जिसको जीते-जी नहीं घटा उसे मरने के बाद भी नहीं घटेगा। पहले तो मोक्ष जीवन में उतरता है। इसलिए व्यक्ति पहले जीवन-मुक्त होता है–जीते-जी मुक्त होता है। फिर जो जीते-जी मुक्त हो गया, वह तो मरने के बाद भी मुक्त रहेगा। मुक्ति एकमात्र संपदा है जिसे मृत्यु नहीं छीन पाती। और सारी संपदाएं मृत्यु छीन लेती है।

इसलिए महावीर कहते हैं: अगर तुम थोड़े भी बुद्धिमान हो, थोड़ा हिसाब तो करो, गणित तो बिठाओ! तुम जो इकट्ठा कर रहे हो वह सब मौत छीन लेगी। पहले तो कर न पाओगे। कौन कब कर पाया? और अगर किसी तरह कर भी लिया तो जब तक तुम कर पाओगे, मौत द्वार पर आ जायेगी। करोगे तुम, छीन लेगी मौत। यह कैसी नासमझी कर रहे हो? उसे कमा लो, जिसे मौत न छीन सकती हो: मुक्त दशा! चैतन्य की अचाह की दशा! चैतन्य का निरभ्र आकाश, जिसमें कोई चाह के बादल नहीं! फिर मौत कुछ भी न कर पायेगी।

मौत एक जगह जाकर हारती है–वह मोक्ष है। और सभी चीजों पर जीत जाती है। अब इसे समझना।

हमारी जीवन की भी आकांक्षा है, इसलिए मौत जीत जाती है। जीवेषणा! हम जीना चाहते हैं–हर हाल जीना चाहते हैं! हर शर्त पूरी करने को राजी हैं, लेकिन जीना चाहते हैं। सड़ते हों, गलते हों, मरते हों, खाट पर पड़े हों, अस्पतालों में लटके हों, उलटे-सीधे हाथ-पैर बंधे हों–लेकिन जीना चाहते हैं। मरना नहीं चाहते। कैसी भी हालत में आदमी पड़ा हो और उससे पूछो, “मरना चाहते हो?’ वह इनकार करेगा। तुम चकित होओगे, बहुत-से लोग कहते हैं कि “अब तो भगवान उठा लो!’ वह भी मरना नहीं चाहते। वह भी कहने की बातें कर रहे हैं।

मेरा एक मित्र मरना चाहता था, आत्महत्या करना चाहता था। उसके पिता बहुत घबड़ा गये। इकलौता बेटा था और अकेले मुझसे ही उसकी दोस्ती थी, तो वे मुझे बुलाने आये। तो मैंने कहा, “घबड़ाओ मत! मैं उसे भलीभांति जानता हूं। चिंता न करो।’ पर वे बोले कि चिंता होती है, उसने दरवाजा बंद कर लिया है। और अगर दरवाजे पर खटका भी करो तो वह चिल्लाता है, कि “मैं मर जाऊंगा, दरवाजा नहीं खोलूंगा।’ वह कुछ कर न ले, सिर न तोड़ दे। कुछ छुरी वगैरह न छिपा रखी हो, कुछ जहर वगैरह न रखे हो, कोई गोलियां न ले आया हो! और पिता वैद्य हैं तो और भी डरे कि वह जहर तो हमारे घर में रहता ही है, गोलियां भी हैं, दवाइयां भी हैं, वह कुछ ले न गया हो उठाकर!

तो मैं गया। भीड? लगी थी, मुहल्ला इकट्ठा था। मैंने दरवाजे पर जाकर कहा कि सुनो, मरना है तो इतना शोरगुल क्यों कर रहे हो? शोरगुल जिसको जिंदा रहना है उसको शोभा देता है। अब जिसको मरना ही है तो यह इतना क्या विज्ञापन? दरवाजा खोलो और मेरे साथ चलो! तुम्हें मरने की कोई ढंग से व्यवस्था जुटा देंगे; यह कोई ढंग चुना? अब जब मरना ही है…।

तब वह मुझे तो धमकी दे नहीं सका कि मर जाऊंगा। अब उसे कुछ समझ में न आया तो उसने दरवाजा खोल दिया। मैंने कहा, “तुम मेरे साथ आओ–नर्मदा पर चलेंगे। “धुआंधार’ ले चलेंगे। वहां से तुम कूद जाना। चांद की रात है, जलप्रपात है, जब मर ही रहे हो–जिंदगी में तो कुछ नहीं मिला, कम से कम मौत को ही सुंदर बना लो!’

उसने मेरी तरफ बड़ी गौर से और हैरानी से देखा; क्योंकि जो भी आये थे, वह सब समझा रहे थे दरवाजे के बाहर से कि बेटा मरना मत! ऐसा मत करना, वैसा मत करना!

एक लड़की से उसका प्रेम था। उस लड़की ने विवाह करने से इनकार कर दिया था। तो लोग समझा रहे थे: “उससे अच्छी लड़कियां मिल जायेंगी, उसमें रखा क्या है? तू घबड़ाता क्यों हैं?’ मगर वह जिद्द पकड़े हुए था।

मैं उसे घर ले आया और मैंने कहा कि रात तुझे जो भी करना हो, क्योंकि यह आखिरी रात है–कोई फिल्म देखनी है? कोई मिठाई खानी है? कुछ आखिरी पत्र वगैरह लिखना? कुछ भी तुझे करना हो तो बोल, क्योंकि फिर मौका नहीं रहेगा। और दो बजे रात हम उठेंगे और चल पड़ेंगे। तू कूद जाना, हम विदा कर आयेंगे। मित्र का कर्तव्य है…कि जो असमय में काम आये वही मित्र है। अब इस वक्त तेरे कोई काम नहीं आ सकता।

वह सुनता था मेरी बात, बड़े क्रोध से देखता था। बोलता भी नहीं था कुछ। दो बजे रात का अलार्म भर दिया। दोनों हम सो गये। बीच में अलार्म-घड़ी रख ली। जैसे ही दो बजे अलार्म बजा, उसने जल्दी से अलार्म बंद किया। मैंने उसका हाथ घड़ी पर पकड़ा। मैंने कहा, अलार्म बंद नहीं कर सकते! वह एकदम बैठ गया और चिल्लाया कि तुम मेरे दुश्मन हो कि मेरे दोस्त? तुम मुझे क्यों मारने में लगे हो? क्या मुझे मरना ही पड़ेगा?

“…मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। तुम मरना चाहो तो मैं साथ देता हूं। तुम जीना चाहो तो मैं साथ देने को तैयार हूं–मेरा काम साथ देने का है–तुम अगर मरने में सुख पाते हो तो मैं क्यों बाधा दूं! तुम फिर सोच लो, सुबह कहीं तुम बदल मत जाना–सूरज ऊगा देखकर, फिर लोग, भीड़ देखकर–फिर तुम मौत की बात मत कर लेना। अब तुम तय कर लो। अगर मरना हो तो मर जाओ। अगर जिंदा रहना है तो जिंदा रहो, फिर मरने की बात मत करो।’

वह आदमी अभी भी जिंदा है। वह मुझ पर बहुत नाराज है! उसने शादी भी कर ली किसी दूसरी स्त्री से। अब तो बच्चे भी हैं उसके। और कभी मैं गया उस गांव दुबारा तो उसको बुलाता हूं तो वह बड़ी नाराजगी में आता है। वह प्रसन्न नहीं है। जैसे मैंने उसका कोई अहित किया। और मैं वही कर रहा था जो वह करना चाहता था।

लोग कहते हैं कि मर जायें अब तो! वे यह नहीं कह रहे हैं कि मरना चाहते हैं। भूल मत समझ लेना। वे तो सिर्फ यही कह रहे हैं कि जिंदगी थोड़ी बेहतर होनी चाहिए। यह कोई जिंदगी है।

इस मरने की चाह में ही जीवन की आकांक्षा है। इस मरने की चाह में भी और जीवन को चूस लेने का भाव है। वे यह कह रहे हैं कि अब जिंदगी में कुछ सार तो नहीं मालूम पड़ता, क्या फायदा जीने से! लेकिन फिर भी भीतर जीने की आकांक्षा है! अन्यथा कौन किसको मरने से रोक सका है? कौन कब रोक सकता है?

दुनिया के सरकारी कानूनों में अगर सबसे मूढ़तापूर्ण कोई है तो वह आत्महत्या के विपरीत कानून है। वह कुछ समझ के बाहर है। सरकारों को ऐसे कानून नहीं बनाने चाहिए जिनको वह पूरा न करवा सकती हों। आत्महत्या का कानून कोई सरकार पूरा नहीं करवा सकती। जिसको मरना है, उसे कोई कैसे रोक सकता है, थोड़ा सोचो तो! सौ में निन्यानबे लोग जो मरने की चेष्टा करते हैं, वे सिर्फ दिखावा करते हैं, मरना नहीं चाहते सौ में से निन्यानबे मरने की चेष्टा करके बच जाते हैं। वे बचने का पहले ही इंतजाम कर लेते हैं। आकांक्षा जीने की इतनी प्रगाढ़ है! और वह जो एक आदमी मर जाता है, वह भी मरना चाहता था, इसमें संदेह है। मर गया, यह दूसरी बात है। कुछ जरा जरूरत से ज्यादा इंतजाम कर गया। कुछ समझ न पाया। दस गोलियां लेनी थीं, बीस ले लीं। कुछ भूल-चूक गणित में हो गई। सोचती थी पत्नी कि पति सांझ घर आ जायेंगे, वे दो दिन तक नहीं आये और वह रात पड़ी-पड़ी मर गई।

जो सौ में से एक मर जाता है, वह भी ऐसा लगता है कि भूल-चूक से सफल हो गया। निन्यानबे तो सफल नहीं होते, क्योंकि वह असफलता का इंतजाम पहले से कर लेते हैं। मरने की चेष्टा, उनकी कुछ घोषणा है जीवन के बाबत। वे किसी और तरह का जीवन चाहते हैं लेकिन जीवन नहीं चाहते, ऐसा नहीं है। जीवन तो चाहते ही हैं–और तरह का जीवन चाहते हैं। इस जीवन से तृप्ति नहीं हो रही है। तो वे इस जीवन के प्रति शिकायत कर रहे हैं मरने की कोशिश में।

लेकिन कौन किसको रोक सकता है? मरना कोई चाहता नहीं, इसलिए कानून चलता है। अन्यथा मैं नहीं देखता कोई उपाय है कि तुम कैसे किसी आदमी को रोक सकोगे मरने से। जिसको मरना है वह राह खोज लेगा।

मौत तो व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको कोई राज्य छीन नहीं सकता।

लेकिन कोई मरना ही नहीं चाहता, छीनने का सवाल ही नहीं है। कभी-कभी कोई भूल-चूक से सफल हो जाता है। वह भी पछताता होगा मरकर कि “अरे, यह मैंने क्या कर लिया! यह जरा मैं अति कर गया। जरा दो कदम ज्यादा उठा लिये, जरा दो कदम कम उठाने थे।’ प्रेत होकर वह भी पछताता होगा।

महावीर कहते हैं: चूंकि जीवेषणा है, इसलिए मौत तुमसे कुछ छीन पाती है। जिस व्यक्ति की जीवन की आकांक्षा भी न रही…। इसका यह अर्थ नहीं है कि उसको मरने की आकांक्षा पैदा हो जाती है। क्योंकि जिसको जीवन की आकांक्षा न रही, उसे मरने की आकांक्षा कैसे पैदा होगी? वह तो जो है उसे स्वीकार कर लेता है। जीवन तो जीवन, मौत तो मौत। उसने अपनी आकांक्षाओं को आरोपित करना बंद कर दिया। जो तथ्य है, स्वीकार कर लेता है। अभी जी रहा है, तो जी रहा है; क्षणभर बाद सांस बंद हो गई तो वह चुपचाप बंद कर लेगा। वह एक दफा ज्यादा सांस लेने की चेष्टा न करेगा। हां! मरने के महले मरेगा भी नहीं; क्योंकि उसमें भी जीवेषणा, आकांक्षा, चाह का हिस्सा होता है

मुक्तपुरुष वही है जिसके भीतर से अब जीवन की भी आकांक्षा नहीं रही। फिर मौत कोई परिणाम नहीं ला पाती।

और जहां मौत व्यर्थ हो जाती है, वही कसौटी है कि तुमने परम जीवन को जाना। उस परम जीवन का नाम महावीर मोक्ष रखते हैं या निर्वाण।

लेकिन बुद्ध और महावीर दोनों ने निर्वाण शब्द का उपयोग अलग-अलग अर्थों में किया है। बुद्ध के निर्वाण का ठीक वही अर्थ होता है जो दीये के बुझने का होता है। दीये को फूंककर बुझा देते हैं, उसको हम कहते हैं दीये का निर्वाण हो गया। महावीर के निर्वाण शब्द का अर्थ अलग है, क्योंकि उनकी जीवन-दृष्टि अलग है। महावीर कहते हैं, दीया नहीं बुझता। दीया तो बुझेगा ही नहीं कभी; यह ज्योति तो सदा रहनेवाली है। सिर्फ दीये की ज्योति से धुआं नहीं उठता।

“वाण’ का अर्थ होता है वासना। “निब्बाण’ का अर्थ होता है: वासनारहित हो जाना। तुमने देखा, ईंधन जलाते हो: लपटें भी उठती हैं, धुआं भी उठता है। अगर ईंधन गीला हो तो धुआं बहुत उठता है; अगर ईंधन सूखा हो तो कम उठता है। अगर ईंधन बिलकुल सूखा हो तो धुआं उठ ही नहीं सकता; क्योंकि धुआं आग के कारण नहीं उठता, लकड़ी के गीलेपन के कारण उठता है; लकड?ी के कारण नहीं उठता, वह जो लकड़ी में पानी छिपा है, उसके कारण उठता है।

तो महावीर कहते हैं कि जब ऐसी सूखे ईंधन जैसी व्यक्ति की चेतना हो जाती है, जिसमें वासना का कोई गीलापन नहीं रहा, सूख गई पोर-पोर, वासना-मात्र सूख गई, हरी वासना जरा भी न रही–तब लपट तो उठती है, लेकिन धुआं नहीं उठता।

उस निर्धूम लपट का नाम निर्वाण है। वासना के गिर जाने का नाम निर्वाण।

बुद्ध के हिसाब से तो आत्मा के मिट जाने का नाम निर्वाण, महावीर के हिसाब से वासना के मिट जाने का नाम निर्वाण।

“मार्ग है उपाय, मोक्ष है फल।’ और इन दो बातों में, महावीर कहते हैं, सारी बात हो गई।

“दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य तथा तप को जिनेंद्रदेव ने मोक्ष का मार्ग कहा है। शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।’

फिर मार्ग क्या है?

“दंसणाणचरित्ताणि…’

दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप–ये शब्द बड़े बहुमूल्य हैं। महावीर का सारा नवनीत इन तीन शब्दों में, त्रिरत्न–दर्शन, ज्ञान, चरित्र–में समाया हुआ है।

“दर्शन’ का अर्थ है: देखने की क्षमता; द्रष्टा, साक्षी। “ज्ञान’ का अर्थ है: साक्षी को जो दिखाई पड़ता है; द्रष्टा के जो अनुभव में आता है। और “चारित्र्य’ का अर्थ है: जो जागा, जिसने देखा, जिसने जाना–उस जानने के कारण जो जीवन में उतर आता है।

तो पहली तो घटना घटती है साक्षी-भाव में दर्शन की। दूसरी घटना घटती है बोध की, ज्ञान की–समझ में आया। तीसरी घटना घटती है चारित्र्य की। क्योंकि जो समझ में आ गया, उससे विपरीत करोगे कैसे?

अगर तुम जैन मुनियों से पूछो तो वे अकसर उलटी व्याख्या कर रहे हैं। वे चरित्र को पहले रखते हैं जबकि किसी सूत्र में महावीर ने चरित्र को पहले नहीं रखा; चरित्र को अंतिम रखा है। पहला दर्शन, फिर ज्ञान, फिर चरित्र। अगर जैन मुनि से पूछो तो वह कहता है: “चरित्र! पहले चरित्र को सुधारो। जब चरित्र सुधरेगा तो ज्ञान होगा। चरित्रहीन को कहीं ज्ञान हुआ है? और जब ज्ञान होगा तब कहीं दर्शन उपलब्ध होगा।’ उसने सारी बात उलटी कर ली।

लेकिन महावीर के शब्दों में कहीं भी चरित्र पहले नहीं आता–आ नहीं सकता। पहले तो मूर्च्छा तोड़नी जरूरी है। दर्शन यानी मूर्च्छा का टूट जाना; देखने की क्षमता आ जाना; आंख का खुल जाना। आंख खुली कि अनुभव में आना शुरू होता है कि क्या है सत्य। वह जो “क्या है सत्य’, उसकी अनुभूति है, उसका नाम ज्ञान है।

तो ज्ञान शास्त्र से नहीं मिल सकता।

इसलिए महावीर ने ज्ञान को दर्शन के बाद रखा है। ज्ञान तो मिल सकता है केवल ध्यान से, शास्त्र से नहीं। और चारित्र्य कभी भी अभ्यास करने से नहीं पैदा हो सकता। अभ्यास से तो जो पैदा होता है, वह आदत है।

चारित्र्य तो तब पैदा होता है जब तुम्हारे भीतर दृष्टि इतनी सघन होती है कि तुम उसके विपरीत नहीं चल पाते।

मैंने सुना है, एक बिच्छू ने एक केंकड़े से कहा कि मुझे नदी के उस पार जाना है, मित्र! पार करवा दो! उस केंकड़े ने कहा, “तुमने मुझे नासमझ समझा है? बीच रास्ते में मेरी पीठ पर बैठे डंक मार दोगे, डूब जाऊंगा, मर जाऊंगा।’

बिच्छू ने कहा, “मालूम होता है तर्क में तुम बहुत कमजोर हो। तुमने ठीक तर्क-शास्त्र का शिक्षण नहीं लिया। अरे नासमझ! जब मैं पीठ पर तेरी बैठा हूं और डंक मारूंगा तो तू डूबेगा वह तो ठीक, मैं भी तो डूबूंगा! मैं भी तो मरूंगा! तो यह बात तर्क के विपरीत है। ऐसा मैं कैसे कर सकूंगा? तेरी ही मौत होती होती तो समझ में आ सकता था; तेरी मौत तो मेरी मौत भी बनेगी। इसलिए यह बात तर्क के अनुकूल नहीं है।’ केंकड़े ने कहा, “बात तो ठीक है। तर्क के बिलकुल अनुकूल नहीं है। आओ बैठ जाओ!’ बैठ गया पीठ पर बिच्छू, चल पड़े दोनों और बीच मझधार में जो होना था हुआ। बिच्छू ने डंक मारा। जब डंक मारा और दोनों डूबने लगे तो मरते-मरते केंकड़े ने पूछा कि महानुभाव, तर्क का क्या हुआ? उस बिच्छू ने कहा, “तर्क का इससे क्या संबंध है? यह मेरा चरित्र है।’

लोग जैसा जी रहे हैं वैसा जीने को मजबूर हैं। उनके पास दृष्टि ही वैसी जीने की है। तुम सोचते हो, कोई आदमी शराब पीता है, इसलिए मूर्च्छित है। असलियत और है। वह मूर्च्छित है, इसलिए शराब पीता है। तुम सोचते हो, एक आदमी मांसाहार करता है, इसलिए हिंसक है। तुम गलत सोचते हो। वह आदमी हिंसक है, इसलिए मांसाहार करता है। अगर तुमने ऐसा सोचा कि मांसाहार करने के कारण हिंसक है तो तुम्हारी चेष्टा यह होगी कि मांसाहार छुड़ा दो। मांसाहार तो छूट जायेगा, लेकिन अगर वह हिंसक होने के कारण मांसाहारी था, तो हिंसा नहीं छूटेगी। फिर हिंसा नये मार्ग खोज लेगी। किसी और तरफ से हिंसक हो जायेगा वह। किसी और बहाने से हिंसा करेगा।

ध्यान रखना, हम जैसे हैं वह हमारे भीतरी चित्त की अवस्था के कारण है।

बाहर से भीतर को नहीं बदला जा सकता। आचरण से अंतस नहीं बदला जा सकता। लेकिन अंतस बदल जाये तो आचरण तत्क्षण बदलना शुरू हो जाता है।

महावीर का सूत्र बिलकुल साफ है: दर्शन, ज्ञान, चरित्र। इन तीन को जैनों ने त्रिरत्न कहा है। ये उनकी तीन मणियां हैं, जिन पर मोक्ष का भवन निर्मित होता है। ये आधार हैं। और ये तीन रत्न जिसके पास हैं उसके पास सब आ गया–सारी संपदा सारे जगत की। त्रिलोक की सारी संपदा उसके पास आ गई।

दर्शन उपलब्ध होता है–जागरण से, अप्रमत्तता से, होश से। दर्शन का अर्थ तुम जैन दर्शन, हिंदू दर्शन, बौद्ध दर्शन, ऐसा मत समझ लेना। दर्शन का अर्थ फिलासफी नहीं है। दर्शन का अर्थ है: देखने की क्षमता; तुम्हारी आंखों का निष्कलुष हो जाना; तुम ऐसे देख सको कि देखने में तुम अपने भावों को मिश्रित न करो; तुम निर्भाव से देख सको; तटस्थ, निष्पक्ष, निर्विकार, तुम अपने को बीच में न डालो; तुम अपने को बिना डाले देख सको। तो फिर तुम्हारे जीवन में दर्शन उपलब्ध होगा।

क्रोध आये, क्रोध को गौर से देखना। क्रोध को रोककर चरित्र निर्मित करने की कोशिश मत करना। क्रोध को गौर से देखना। इतने गौर से देखना कि तुम्हें क्रोध का सारा अर्थ समझ में आ जाये। इतने गौर से देखना कि तुम क्रोध से पृथक और अलग साक्षी हो, यह तुम्हारी अनुभूति में आ जाये। इतने गौर से देखना कि क्रोध वहां पड़ा रह जाये वस्तु की तरह, तुम यहां द्रष्टा की तरह खड़े रह जाओ; तुम्हारे दोनों के बीच का सेतु टूट जाये।

दर्शन का अर्थ होता है सारे सेतुओं का टूट जाना। व्यक्ति अलिप्त खड़ा होकर देखता है–क्रोध है तो क्रोध को; काम है तो काम को; हिंसा है तो हिंसा को; प्रेम है तो प्रेम को; राग है तो राग को अलिप्त भाव से देखता है, सिर्फ देखता है। जिसको कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, होश; जिसको बुद्ध ने सम्यक स्मृति कहा है, ठीक-ठीक स्मृति, जिसको गुरजिएफ ने सेल्फ-रिमेंबरिंग कहा है, आत्म-बोध; उसी को महावीर दर्शन कहते हैं। इधर दर्शन की क्षमता घनी होगी कि दर्शन से जो-जो तुम्हें दिखाई पड़ेगा, वह जो दर्शन का सार इकट्ठा होने लगेगा वह है ज्ञान। तो एक तो ज्ञान है जो शास्त्र से मिलता है और एक ज्ञान है जो जीवन के साक्षी-भाव से मिलता है। उसको महावीर ज्ञान कहते हैं। पढ़ लोगे शास्त्र में, उससे क्या होगा? अकसर ऐसा हुआ है:

अहले-दानिश आम हैं, कमयाब हैं अहले-नजर

क्या तअज्जुब कि खाली रह गया तेरा अयाग।

अहले-दानिश आम हैं–शास्त्रों के जानकार बहुत हैं। तथाकथित बुद्धिमान बहुत हैं। तथाकथित बुद्धिशाली बहुत हैं।

कमयाब हैं अहले-नजर–लेकिन जिनके पास द्रष्टा की दृष्टि है, अहले-नजर, जिनके पास शुद्ध आंख है, देखने की क्षमता है, ऐसे बहुत-बहुत विरले हैं।

अहले-दानिश आम हैं, कमयाब हैं अहले-नजर

क्या तअज्जुब कि खाली रह गया तेरा अयाग।

अगर तुम्हारे जीवन की प्याली अमृत से बिना भरी रह गई तो कुछ आश्चर्य नहीं; क्योंकि तुमने शास्त्रों से ही जीवन की प्याली को भरना चाहा। शास्त्रों से ही तुमने सोचा कि तुम बुद्धिमान हो जाओगे। तो अहले-दानिश हो गये, तथाकथित बुद्धिमान हो गये। कंठस्थ हो गये सत्य। लेकिन कंठस्थ सत्य, सत्य नहीं है–मात्र थोथे सिद्धांत हैं। प्राण कौन डालेगा उनमें? प्राण तो व्यक्ति को स्वयं डालने होते हैं। इसे याद रखना।

जिसे तुम पाओ वही सत्य है। जिसे तुमने नहीं पाया वह सत्य नहीं हो सकता; वह सत्य के संबंध में कोई सिद्धांत होगा। ऐसा ही समझो कि पाक-शास्त्र पढ़ते रहो, पढ़ते रहो, इससे न तो भूख मिटेगी, न जीवन पुष्ट होगा। रोटी पकानी पड़ेगी। आटा गूंथना पड़ेगा। चूल्हा जलाना पड़ेगा। इतना ही नहीं, फिर रोटी पचानी पड़ेगी। रोटी भी बन जाये तो भी कुछ काम नहीं आती, जब तक कि पचाने की क्षमता न हो, जब तक रोटी पचे न और लहू में रूपांतरित न हो जाये, हड्डी, मांस-मज्जा न बने, तब तक किस काम की?

दर्शन की भट्टी में ज्ञान की रोटी पकती है। और ज्ञान की रोटी को जब तुम पचाते हो और ज्ञान की रोटी जब तुम्हारा खून, मांस-मज्जा बन जाती है, तो चारित्र्य। चरित्र आखिरी बात है। सबसे पहले तो शून्य आकाश में दर्शन घटता है। फिर दर्शन उतरता है तुम्हारी अंतरात्मा में, ज्ञान बनता है। फिर ज्ञान तुम्हारे जीवन में अनस्यूत हो जाता है। तब चारित्र्य बनता है। ये त्रिरत्न और तप।

“तप’ शब्द भी समझने जैसा है। तप का अर्थ अपने को दुख देना नहीं होता। तपस्वी का अर्थ अपने को सतानेवाला नहीं है, मेसोचिस्ट नहीं है। तप का अर्थ होता है: दुख आये तो उसे सहिष्णुता से स्वीकार करना। तप का अर्थ है: दुख आये तो उसे दुश्मन की तरह दुत्कारना नहीं; उसे भी मित्र की तरह स्वीकार कर लेना। साधारणतः हम सुख को तो बुलाते हैं, दुख को दुत्कारते हैं। तप का अर्थ होता है: सुख को तो बुलाना मत; आ गये दुख को स्वीकार कर लेना।

तप हमसे ठीक उलटी व्यवस्था है। अभी हम कहते हैं, सुख आये, चिट्ठियां लिखते हैं सुख को कि आओ, निमंत्रण भेजते हैं। और दुख को, बिना बुलाया भी आ जाये–बिना बुलाया ही आता है, क्योंकि कौन दुख को बुलाता है–उसे हम धक्का देते हैं, बाहर निकालते हैं।

तपश्चर्या का अर्थ है: इस जीवन-दृष्टि का ठीक उलटा हो जाना। सुख को बुलाना नहीं, कोई निमंत्रण नहीं लिखना और दुख आ जाये तो जो आ गया बिना बुलाये, अतिथि देव है, उसको स्वीकार कर लेना।

तो तप का अर्थ दुख पैदा करना नहीं है; लेकिन दुख जो तुमने जन्मों-जन्मों में अर्जित किया है, वह आयेगा। उसके साथ क्या रुख अपनाओगे? तप एक रुख है, दृष्टि है। तप यह कहता है, मैंने दुख के बीज बोये थे, अब फसल काटने का वक्त आ गया तो मैं काटूंगा। यह फसल कौन काटेगा? दुख के बीज मैंने बोये थे तो फसल भी मुझे ही काटनी है। तो अब रो-रोकर क्या काटनी! अब स्वीकार-भाव से काट लेनी है।

इसे खयाल रखना; नहीं तो भ्रांति क्या है कि जो लोग तपस्वी बनते हैं, वे सोचते हैं, अभी सुख को लिखते थे चिट्ठियां, अब दुख को लिखो! मगर चिट्ठियां लिखना जारी रहता है। बुलावा भेजते ही रहते हैं। पहले सुख को पकड़ते थे; अब वे सोचते हैं, दुख को पकड़ो। पहले सुख को न जाने देते थे; अब दुख जाने लगे तो वे कहते हैं, “मत जाओ! तुम्हारे बिना हम कैसे रहेंगे!’ लेकिन यह तो विकृति हो गई। यह तो रोग हो गया। यह तो पुराना रोग बदला तो नया रोग पकड़ गया।

तप का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि जो आये दुख तो निश्चित हमने कमाया होगा; बिना कमाये कुछ भी आता नहीं। तो हमने किसी न किसी रूप में उसे बुलाया होगा। बिना बुलाये कुछ भी आता नहीं। हमने सुख मानकर ही बुलाया होगा; लेकिन वह हमारी मान्यता भ्रांत थी। जिसको हमने सुख कहकर पुकारा था, वह दुख का नाम था। आ गया दुख, अब इसे स्वीकार कर लेना। इसे धक्के नहीं देना, इनकार नहीं करना। इसका भी साक्षी-भाव रखना है।

“दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप जिनेंद्रदेव ने मोक्ष के मार्ग कहे। शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं…।’

यह बड़ी क्रांतिकारी बात है: “शुभ और अशुभ भाव मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।’

अच्छा करूं, बुरा न करूं, पुण्य करूं, पाप न करूं–ये शुभ भाव हैं। किसी को दुख न दूं, सुख दूं–ये शुभ भाव हैं। मुझसे हिंसा न हो, अहिंसा हो; लोभ न हो, दान हो; क्रोध न हो, दया हो, करुणा हो–ये शुभ भाव हैं। लेकिन महावीर कहते हैं, मुझसे कुछ हो, इसमें ही बंधन है। बुरे का तो बंधन होता ही है, भले का भी बंधन हो जाता है। लोभी तो बंधता ही है, दानी भी बंध जाता है। और पापी तो बंधता ही है, पुण्यात्मा भी बंध जाता है, यद्यपि पुण्यात्मा की जंजीरें सोने की होती हैं।

इसलिए महावीर कहते हैं, शुभ और अशुभ भाव मोक्ष का मार्ग नहीं हैं। दोनों से मुक्त होना है। अशुभ को तो छोड़ना ही है, शुभ को भी छोड़ना है। असाधु को तो छोड़ना ही है, साधु के भी पार जाना है। एक ऐसी दशा चाहिए, जो सभी दशाओं का अतिक्रमण कर जाती हो। एक ऐसी दशा, जिसका लगाव, आग्रह किसी भी बात में न हो।

“इन भावों से तो नियमतः कर्म-बंध होता है।’

दोस्तों के इस कदर सदमे उठाए जान पर

दिल से दुश्मन की शिकायत का गिला जाता रहा।

अगर तुम गौर से देखो तो मित्रों ने इतने कष्ट दिये हैं कि अब दुश्मनों की क्या शिकायत करनी! महावीर कहते हैं, अगर गौर से देखो तो शुभ आकांक्षाओं से ही पटा पड़ा है नर्क का मार्ग। अशुभ आकांक्षाओं की तो बात ही छोड़ो; उनकी तो शिकायत क्या करनी! अगर कोई क्रोधी बंधन में पड़ा है तो यह तो स्वाभाविक है; लेकिन चेष्टा करके जो दया कर रहा है, वह भी बंधन में पड़ जाता है। वहां भी अहंकार निर्मित होता है

दोस्तों के इस कदर सदमे उठाए जान पर

दिल से दुश्मन की शिकायत का गिला जाता रहा।

शुभ ने ही इस बुरी तरह सताया है, अशुभ की तो शिकायत क्या करें! अपनों ने इस तरह सताया है कि परायों की तो बात ही क्या करें! उनकी शिकायत करने जैसी भी नहीं रही।

तुमने देखा, तुम्हारे शुभ भावों ने ही तुम्हें कितना सताया है! प्रेम ने कितना सताया है, यह तो देखो! फिर घृणा की सोचना। तुम किसी के लिए अच्छा करना चाहते थे, उसके कारण कितनी झंझट में पड़े हो। फिर तुम किसी के लिए बुरा करना चाहते थे, उसकी सोचो।

महावीर कहते हैं, तुम अच्छा-बुरा दोनों ही करनेवाले नहीं हो, ऐसे साक्षी बन जाओ। वहां से मोक्ष का द्वार खुलता है। अच्छा और बुरा तो कर्म का ही मार्ग है। और कर्म तो बांधता है। न शुभ न अशुभ–दोनों के मध्य में संतुलित!

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया।

छुरे की तीक्ष्ण धारा की भांति, जैसे कोई पतले छुरे की धार पर चलता हो, ऐसा मार्ग है। शुभ को भी एक तरफ छोड़ देना, अशुभ को भी दूसरी तरफ छोड़ देना। संयमी का अर्थ है: जो दोनों के मध्य चलने में कुशल हो गया; जो चुनाव नहीं करता, च्वायसलेस, विकल्परहित, निर्विकल्प चलता है; जो मध्य में सम्हलकर चलता है।

हिंदू शास्त्र कहते हैं: मध्यं अभयम्! जो मध्य में है उसे कोई भय नहीं। इधर-उधर हुए कि भय शुरू हुआ। जरा भी झुके बायें, जरा भी झुके दायें, तो भय शुरू हुआ। न तो वामपंथी और न दक्षिणपंथी, ठीक मध्य में, जो अपने को सम्हाल ले!

कठिन लगेगा, क्योंकि हमें आसान लगता है: अशुभ छोड़ना है, कोई हर्जा नहीं है; शुभ को पकड़ लेंगे! क्रोध छोड़ना है, छोड़ देंगे; करुणा को पकड़ लेंगे। लेकिन कुछ पकड़ने को तो होगा! पकड़ने की हमारी पुरानी आदत है।

महावीर कहते हैं, पकड़ ही संसार है। और सारी पकड़ का छूट जाना, मुट्ठी का खुल जाना ही मोक्ष है।

“अज्ञानवश यदि ज्ञानी भी ऐसा मानने लगे कि शुद्ध सम्प्रयोग अर्थात, भक्ति आदि शुभ भाव से दुख-मुक्ति होती है तो वह भी राग का अंश होने से पर-समयरत होता है।’

महावीर भक्ति को भी बंधन का कारण कह रहे हैं। यह भी अज्ञानवश तथाकथित बुद्धिमान आदमी भी ऐसा मानने लगे कि शुद्ध सम्प्रयोग, शुद्ध भक्ति, तो क्यों बांधेगी, तो वह भी गलत है। शुभ भक्ति से भी राग का ही अंश निर्मित होता है।

महावीर का मार्ग संकल्प का मार्ग है। वहां भक्ति के लिए भी जगह नहीं है।

भगवान के लिए जगह नहीं है; भक्ति के लिए तो जगह कैसे हो सकती है!

ऋग्वेद में ऋषि ने पूछा है:

कस्मै देवाय हविषा विधेम।

किस देवता को हम अपनी पूजा-अर्चना चढ़ायें, किस देवता की उपासना करें? लेकिन महावीर कहते हैं, जहां तक उपासना है वहां तक तो किसी दूसरे से बंधन हो जायेगा। पर-समयरत, दूसरे पर निर्भर हो जाओगे। परमात्मा होगा तो परतंत्रता होगी। और परतंत्रता होगी तो बंधन निर्मित रहेगा। तुम स्वतंत्र कैसे हो जाओगे? तुम परिपूर्ण मुक्त कैसे हो सकोगे?

महावीर के हिसाब में परमात्मा का होना मोक्ष के विपरीत है। या तो मोक्ष हो सकता है या परमात्मा हो सकता है। अगर परमात्मा है तो मोक्ष नहीं हो सकता; क्योंकि परमात्मा तो निरंकुश होगा। वह तो नियम के ऊपर होगा। महावीर कहते हैं, नियम के ऊपर किसी का भी होना खतरनाक है, क्योंकि फिर उसकी मर्जी! जैसा हिंदू कहते हैं, परमात्मा की लीला, इच्छा! उसने संसार बनाया! यह महावीर को बर्दाश्त के बाहर है।

महावीर कहते हैं, इसका तो अर्थ हुआ कि जो लोग मुक्त हो गये, अगर परमात्मा की लीला हो जाये, इच्छा हो जाये तो उनको वापस संसार में भेजा जा सकता है। तो ऐसे मोक्ष का तो कोई मूल्य न रहा। अगर परमात्मा की मर्जी से संसार निर्मित होता है तो मोक्ष लेकर भी हम क्या करेंगे? उसकी मर्जी जिस दिन बदल जाये, आज्ञा दे दे कि चलो मोक्ष खाली करो, संसार वापस लौटो! अगर खेल ही है और वह निरंकुश है और वह नियम के ऊपर है, तो फिर व्यर्थ बात हो गई।

महावीर पूछते हैं कि परमात्मा नियम के ऊपर है, या नियम परमात्मा के ऊपर है? अगर नियम परमात्मा के ऊपर है तो परमात्मा परमात्मा नहीं। फिर नियम ही परमात्मा है। और अगर परमात्मा नियम के ऊपर है तो नियम सब बकवास है। फिर नियम का क्या अर्थ? उसकी निरंकुश इच्छा है; जब वह जैसा चाहे कर दे।

इसलिए महावीर कहते हैं, अगर जगत में व्यवस्था चाहिए…अब तुम चकित होओगे कि दृष्टियां कितनी मौलिक रूप से भिन्न हो सकती हैं! हिंदू कहते हैं, अगर जगत में व्यवस्था चाहिए तो परमात्मा चाहिए। क्योंकि बिना परमात्मा के कौन व्यवस्था करेगा? अराजकता हो जायेगी। और महावीर कहते हैं, अगर परमात्मा हुआ तो अराजकता हो जायेगी। क्योंकि फिर व्यवस्था कैसे सम्हलेगी? अगर नियम के ऊपर कोई बैठा है जो नियम को भी तोड़-मरोड़ कर सकता है तो अव्यवस्था हो जायेगी। महावीर परमात्मा को उसी कारण से इनकार करते हैं जिस कारण से हिंदू स्वीकार करते हैं।

और मोक्ष का अर्थ ही है कि एक ऐसी चित्त की दशा, एक ऐसे चैतन्य की दशा जिसको फिर वापस न लौटाया जा सके। अन्यथा इतने श्रम, इतनी तपश्चर्या, इतनी चेष्टा से जो उपलब्ध हुआ है, वह किसी परमात्मा के खेल की बात बन जाये तो थोड़ी ज्यादती हो गई। जन्मों-जन्मों की चेष्टाओं के बाद जिसे पाया जाता है, उसे पाकर अगर जरा-सी उसकी मर्जी के बदलने से खोना पड़े, तो वह उपलब्धि उपलब्धि के योग्य न रही। फिर जगत एक पागलपन है।

“शुद्ध सम्प्रयोग अर्थात भक्ति आदि शुभ भाव से दुख मुक्ति होती है, ऐसा अगर कोई मानता हो तो वह गलत मानता है, क्योंकि वह भी राग का अंश है।’

अगर भक्तों की बात सुनें तो लगता भी है कि राग का अंश। शुद्ध राग है, बड़ा श्रेष्ठ राग है, जरा भी दूषित नहीं है संसार से–लेकिन फिर भी राग तो है ही!

उसके मजकूर के सिवा “बेदार’

और कुछ बात खुश नहीं आती।

भक्त कहता है, भगवान की याद के सिवाय और कुछ बात में मजा नहीं आता। लेकिन इसका अर्थ तो साफ हुआ कि मजा अभी अपना नहीं है–उसकी याद! तो कहीं निर्भर है, पर है, अपने से बाहर है।

शाम से आ रही है याद तेरी

जाम छलका रही है याद तेरी

झनझना-सा रहा है साजे-खयाल

गीत-से गा रही है याद तेरी।

लेकिन भक्त वैसे ही शब्दों का उपयोग करता है परमात्मा के लिए जो वह प्रेयसी के लिए करता है या प्रेमी के लिए करता है। फर्क नहीं मालूम पड़ता। ऐसा लगता है कि जो हमारा राग मनुष्यों के प्रति था, उसी राग को हम परमात्मा की तरफ आरोपित कर देते हैं।

शाम से आ रही है याद तेरी

जाम छलका रही है याद तेरी

झनझना-सा रहा है साजे-खयाल

गीत-से गा रही है याद तेरी।

यह हम प्रेयसी के लिए भी कह सकते हैं और परमात्मा के लिए भी कह सकते हैं।

इसलिए सूफियों के वचन दोहरे अर्थ किये जा सकते हैं। या तो तुम उनका अर्थ कर लो सांसारिक, तो प्रेयसी के लिए कहे गये हैं; या अर्थ कर लो आध्यात्मिक, तो परमात्मा के लिए कहे गये हैं। लेकिन शब्द वही के वही हैं। उमर खैयाम की रुबाइयां इसी तरह भ्रष्ट हुईं। जिस व्यक्ति ने पहली दफा अनुवाद किया फिटज़राल्ड ने, अंग्रेजी में, उसने समझा कि ये मधु-गीत हैं, शराब की प्रशंसा में गाये गए गीत हैं। लेकिन उमर खैयाम शराब कहता है परमात्मा की याद को, उसकी स्मृति को, जिक्र को। और जिन साकियों की वह बात करता है, वह वही परमात्मा है। और जिस मधु के ढालने की बात कर रहा है, वह जीवन-रस है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? फिटज़राल्ड ने अनुवाद दिया। उसने समझा कि यह सब प्रेयसी, साकी, मधुशाला–ये सब संसार की ही चीजें हैं।

दोनों के लिए उपयोग हो सकते हैं।

चलो छिया-छी हो अंतर में

तुम चंदा

मैं रात सुहागन

चमक-चमक उट्ठे आंगन में

चलो छिया-छी हो अंतर में

भक्त जो भाषा बोलते हैं–मीरा की भाषा, चैतन्य की भाषा या कबीर की–उसमें कठिनाई मालूम होगी।

कबीर कहते हैं, मैं राम की दुलहन हो गया! आखिर भाषा तो इसी जगत के रागात्मक शब्दों का उपयोग कर रही है। मीरा कहती है, “सेज को तैयार किया है, तुम कब आओगे?’ “सेज को तैयार किया है’–यह तो सुहागरात की ही बात हो गई।

तो महावीर के कहने में सार्थकता भी है कि कितना ही शुद्ध राग हो जाये, कितना ही शुद्ध सम्प्रयोग, कितनी ही शुद्ध भक्ति हो, लेकिन उसमें स्वर तो संसार का ही होगा।

सहर के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह

कि सिजदे के लिए दिल में जरा-सा सिद्क लाना है।

सूफी कहते हैं कि हमें प्रार्थना के वक्त पीने से मत रोको, क्योंकि प्रार्थना के लिए थोड़ी सचाई लानी है। और बिना पीए कहीं सचाई हुई? बिना पीए तो आदमी झूठ और धोखे दिये चला जाता है। इसलिए तो शराबी की बातें सुनो, वह ज्यादा ईमानदारी की होती है। वह सच बोलने लगता है। फिक्र ही न रही झूठ बोलने की। झूठ याद कौन रखे! फायदा, हानि, लाभ–कुछ भी न रहा।

सहर के वक्त मय पीने से मुझको रोक मत नासेह!

–हे धर्मगुरु! मुझे प्रार्थना के समय शराब पीने से मत रोक!

कि सिजदे के लिए दिल में जरा-सा सिद्क लाना है।

–थोड़ी-सी सचाई तो होनी चाहिए, नहीं तो प्रार्थना झूठी हो जायेगी।

अब या तो हम समझ लें कि यह बाहर की शराब है या हम समझ लें कि किसी भीतर की शराब है। लेकिन महावीर कहते हैं, शराब शराब है। तुम इसे कितना ही ऊंचा उठाओ, और कितने ही शुद्ध अंगूरों से निचोड़ो, शराब शराब है। और नशा नशा है। यह किसी की सुंदर सूरत को देखकर छा जाये या यह परमात्मा के फूल और पक्षियों के गीत सुनकर आ जाये, इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन तुम्हारा राग अभी भी बाहर है। सुंदर स्त्री बाहर है, सुंदर पुरुष बाहर है, सुंदर फूल भी बाहर हैं–और सुंदर परमात्मा का आकाश और चांद तारे भी बाहर हैं।

“राग का अंश होने से भक्ति भी पर-समयरत है।’

वह दूसरे में लगी। दूसरे में उत्सुक है। अपनी तरफ नहीं लौट रही है। दूसरे की तरफ बह रही है। और दूसरा बंधन है।

इसलिए महावीर भक्ति को भी जगह न देंगे। और अगर हम भक्तों की बातें सुनें तो महावीर की बात में सचाई भी मालूम पड़ती है, निश्चित सचाई मालूम पड़ती है। क्योंकि भक्त भगवान से ऐसी बातें करता है। जैसे प्रेमी एक-दूसरे से बातें करते हैं। मान-मनौवल भी चलती है। रूठना-मनाना भी चलता है। शिकवा-शिकायत भी चलती हैं।

मुझको इस तर्जेत्तगाफुल पे खफा होना था

उल्टे तुम मुझ पे खफा हो यह तमाशा क्या है?

भक्त भगवान से कहता है:

मुझको इस तर्जेत्तगाफुल पे खफा होना था–तुम्हारे उपेक्षा-भाव पर मुझे नाराज होना चाहिए; चिल्लाता रहता हूं, तुम्हारा कोई उत्तर भी नहीं पाता…

मुझको इस तर्जेत्तगाफुल पे खफा होना था

उल्टे तुम मुझ पे खफा हो यह तमाशा क्या है?

भक्त तो बात करता है, प्रार्थना करता है, बोलता है, रोता है कभी, कभी भगवान पर नाराज भी हो जाता है। खफा भी हो जाता है, दो-चार दिन प्रार्थना भी नहीं करता, बंद कर देता है द्वार-दरवाजे कि पड़े रहो। फिर मना भी लेता है।

लेकिन महावीर कहेंगे, यह सारा खेल तो कल्पना का है। यह तो राग का ही है। इसमें तो दूसरा अभी भी मौजूद है। माना कि शुद्ध हुआ, शुभ हुआ, किसी को हानि नहीं हो रही है इससे, लाभ ही हो रहा है–लेकिन फिर भी, जहां तक लाभ हो रहा है वहां तक हानि भी जुड़ी है। इसके भी पार जाना है।

महावीर के लिए भाव भी बंधन है। इसलिए महावीर का मार्ग शुद्ध निर्भाव का मार्ग है। जैन भी जैन मंदिरों में जो कर रहे हैं, महावीर लौटें तो नाराज होंगे। कहेंगे, “तुम यह क्या कर रहे हो? यही सब तो मैंने मना किया था।’ महावीर की ही मूर्ति के सामने बैठे हैं साज-शृंगार लगाकर, कि हे प्रभु! महावीर से ही बातें चल रही हैं। महावीर से बात चलाने का उपाय नहीं है। अगर महावीर की मानते हो, अगर महावीर के मार्ग को शुद्ध रखना है, तो महावीर से बातें चलाने का उपाय नहीं है। सच तो पूजा भी जैन धर्म में संभव नहीं हो सकती; प्रार्थना की कोई गुंजाइश नहीं है; भक्ति का कोई मार्ग नहीं है। लेकिन मंदिर बनते हैं, पूजा होती है, प्रतिमा खड़ी होती है।

बात असल ऐसी है कि जिन्हें भक्त होना चाहिए था, वह अगर जैन घरों में पैदा हो जाते हैं तो वह क्या करें! खुद तो भक्त होने का उपाय नहीं है, महावीर को ही भ्रष्ट कर लेते हैं।

दुनिया के सभी धर्म भ्रष्ट हो गये हैं, संकर हो गये हैं; क्योंकि लोग जन्मों के कारण धर्मों में हैं। और यह बड़ी खतरनाक बात है। मैं तो चाहूंगा, महावीर का धर्म शुद्ध हो। क्योंकि शुद्ध हो तो कुछ थोड़े-से लोग जो संकल्प से पहुंच सकते हैं, उनका रास्ता सीधा-साफ हो। लेकिन वह शुद्ध तभी हो सकता है, जब लोग उसे स्वयं चुनें, जन्म के कारण धर्म आरोपित न हो। तो कृष्ण के मार्ग पर ऐसे लोग मिल जायेंगे जिनको महावीर के मार्ग पर होना चाहिए था। वे वहां सब खराब कर रहे हैं। वे प्रार्थना भी करते हैं, लेकिन उनको आंसू नहीं बहते। वे कहते हैं, “कैसे प्रार्थना करें, हृदय में कोई रसधार आती ही नहीं!’ इधर महावीर के मार्ग पर ऐसे लोग हैं जो कृष्ण के मार्ग पर होते तो सुगमता से पहुंच जाते। उनकी आंखें लबालब भरी हैं। उनकी प्याली छलकी जा रही है। लेकिन महावीर के वचन हैं कि राग का अंश है भक्ति, तो रोके हुए हैं। आंसुओं को सुखाने की कोशिश कर रहे हैं।

अड़चन पैदा होती है अगर तुम अपने से विपरीत चले गये।

किसी ने पीछे पूछा था कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम समर्पण और संकल्प में समन्वय स्थापित कर लें? वही तो तुमने किया है। हो सकता है, यह सवाल ही नहीं है–वही हुआ है। लेकिन समन्वय हो नहीं सकता। सिर्फ समझौता हो जाता है। तो तुम दोनों बातों का तालमेल बिठा लेते हो। लेकिन उस तालमेल बिठालने में दोनों मार्ग भ्रष्ट हो जाते हैं।

ऐसा ही समझो, बैलगाड़ी से कोई यात्रा करता है, कोई कार से यात्रा करता है, कोई रेलगाड़ी से, कोई हवाई जहाज से–सब पहुंच जाते हैं। सबके मार्ग अलग हैं। रेलगाड़ी रेल की पटरियों पर दौड़ती है। बैलगाड़ी को पटरियों पर दौड़ने की कोई जरूरत नहीं है, ऊबड़-खाबड़ जंगली पथ से भी गुजर जाती है। कार वहां से न गुजर सकेगी। अब ये सब रास्ते और ये सब वाहन ठीक हैं। लेकिन तुमने अगर कहा, समन्वय स्थापित कर लें कि चलो बैलों को लेकर कार में जोत दें, कि कार का इंजिन बैलगाड़ी में रख दें, कि रेल के चक्के बैलगाड़ी में ठोक दें और बैलगाड़ी के चक्के रेल में ठोक दें–तो समन्वय स्थापित नहीं होगा सिर्फ इतना ही होगा कि कोई भी वाहन चलाने में, पहुंचाने में समर्थ न रह जायेगा। यह समन्वय नहीं हुआ। यह तुमने रास्ते ही खराब कर लिए, वाहन ही नष्ट कर दिए।

प्रत्येक मार्ग पर सुनिश्चित चिह्न हैं और प्रत्येक मार्ग की अपनी सुनिश्चित दिशा है। तो जब मैं महावीर के मार्ग पर बोल रहा हूं तो तुम खयाल रखना: मैं चाहता हूं कि शुद्ध महावीर की बात तुम्हारी समझ में आ जाये; फिर जिसको वह यात्रा सुगम मालूम पड़े वह चल सके। वहां भक्ति को भूल ही जाना। वहां सूफियों से कुछ लेना-देना नहीं। वहां तो तुम शुद्ध निर्भाव होने की चेष्टा करना, क्योंकि वही निर्भाव ही वहां गाड़ी का चाक है।

लेकिन अकसर लोग ऐसा करते हैं: महावीर के मार्ग पर भाव ले आयेंगे और जब नारद को पढ़ेंगे तब उनकी बुद्धि में निर्भाव उठने लगेगा। ये तरकीबें हैं न पहुंचने की। ये बहाने हैं ताकि तुम पहुंच न पाओ। ऐसे उलझाव खड़े करते हो।

अंततः समन्वय है, लेकिन वह है गंतव्य पर पहुंचकर। जहां से मैं खड़े होकर देख रहा हूं, वे सभी रास्ते यहीं आ जाते हैं। लेकिन हर रास्ते की व्यवस्था अलग है। कोई पहाड़ से गुजरता है, कोई रेगिस्तानों से गुजरता है, कोई हरियाली से भरे उपवन से गुजरता है। किसी रास्ते पर कोयल की कुहू-कुहू है और किसी रास्ते पर बिलकुल सन्नाटा है, पक्षी हैं ही नहीं।

रास्तों की अलग-अलग व्यवस्था है। और प्रत्येक ने चेष्टा की है कि उसका रास्ता शुद्ध रहे।

तो महावीर साफ किये दे रहे हैं:

अण्णाणादो णाणी जदि मण्णादि सुद्ध संपओगादो

हवदि त्ति दुक्खमोक्खं, परसमयरदो हवदि जीवो।।

भक्ति भी दुख-मुक्ति की तरफ नहीं ले जायेगी।

ध्यान रखना, जब महावीर कहते हैं, भक्ति दुख-मुक्ति की तरफ नहीं ले जायेगी, तो यह सार्थक है वचन महावीर के मार्ग पर। यह वचन आत्यंतिक नहीं है। इस वचन से नारद गलत नहीं होते। इस वचन से सिर्फ इतना ही साफ होता है कि महावीर के मार्ग पर भक्ति की कोयल की कुहू-कुहू नहीं है। और अगर महावीर के मार्ग पर भक्ति की कोयल की कुहू-कुहू सुनाई पड़े, तो तुम भटक गये हो, तुम मार्ग पर हो नहीं। वहां भाव बंधन है; क्योंकि वहां दूसरे की मौजूदगी परतंत्रता है।

धिगस्तु परवश्यताम्।

–धिक्कार है परवशता को, परतंत्रता को!

वहां परमात्मा प्रीतिकर नहीं है। उसकी मौजूदगी ही अपनी गुलामी का सबूत है।

महावीर अपने मार्ग की बात कर रहे हैं। अब यह तुम्हें बड़ा कठिन लगता है। तुम्हें लगता है, अगर महावीर सही हैं तो नारद गलत होने चाहिए। वहां तुम भूल कर रहे हो। तुम्हें लगता है, अगर नारद सही हैं तो महावीर गलत होने चाहिए। तुम बड़ी जल्दी कर रहे हो। तुम जीवन की विराटता को नहीं देख पाते। जीवन इतना विराट है कि सब विरोधी मार्गों को अपने में समाए हुए है। यहां महावीर भी सही हैं और नारद भी सही हैं। और नारद के मार्ग पर चलकर भी लोग पहुंच गये हैं और महावीर के मार्ग पर भी चलकर लोग पहुंच गये हैं।

लेकिन एक बात तय है: जो भी चले हैं वे पहुंचे हैं। कुछ लोग हैं जो मार्गों के किनारे बैठकर विचार कर रहे हैं कौन सही है! जीवन ऐसे ही बीता चला जाता है सोचने में, कौन सही है! सही का भी कैसे पता चलेगा जब तक चलोगे नहीं? चलने से ही पता चलेगा कौन सही है। क्योंकि जब करीब आने लगोगे जलस्रोत के, तो ठंडी हवाएं छूने लगेंगी। जब करीब आने लगोगे मंजिल के तो जीवन में आलोक आने लगेगा। जब करीब आने लगोगे तो दर्शन ज्ञान बनेगा, ज्ञान चरित्र बनेगा। जैसे-जैसे करीब-करीब आओगे, वैसे पाओगे तुम रूपांतरित हुए, बदले, नये हुए, नया जन्म हुआ।

एक-एक कदम पर जन्म है। एक-एक पल नये का आविर्भाव है। उस आविर्भाव से ही प्रमाण मिलता है कि मैं जो चल रहा हूं तो ठीक चल रहा हूं। लेकिन जो बैठे हैं उनके पास कोई उपाय नहीं है कि जानें कौन ठीक है। तर्क जुटायेंगे, चिंतन करेंगे, शास्त्रों का मेलत्ताल बिठायेंगे।

और तर्क वेश्या जैसा है। उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम जैसा उसका उपयोग करना चाहो वैसा कर ले सकते हो। अब महावीर कहते हैं, व्यवस्था के कारण परमात्मा को स्वीकार नहीं किया जा सकता। हिंदू कहते हैं, व्यवस्था के लिए परमात्मा की जरूरत है, अन्यथा व्यवस्था कौन करेगा? विपरीत तर्क, लेकिन दोनों ठीक मालूम होते हैं अपनी-अपनी जगह। तुम सोच-सोचकर बैठ-बैठकर, विचार कर-करके कभी न पहुंच पाओगे। उठो और चलो!

महावीर का मार्ग शुद्धतम मार्गों में से एक है। लेकिन उसे शुद्ध रखना। महावीर के मार्ग पर पूजा को मत ले आना, प्रार्थना को मत ले आना।

अगर पूजा-प्रार्थना में ही रस है तो पूजा-प्रार्थना के मार्ग हैं। बजाय इसके कि तुम मार्ग को खराब करो, तुम्हीं उतरकर दूसरे मार्ग पर चले जाना।

दुनिया बड़ी धार्मिक हो जायेगी उस दिन, जिस दिन लोग सुलभता से एक मार्ग से दूसरे मार्ग पर जा सकेंगे; न उन्हें कोई रोकेगा, न कोई बाधा डालेगा, न उन्हें कोई जबर्दस्ती अपने मार्ग पर खींचेगा, न कोई कन्वर्ट करने को उत्सुक होगा और न कोई रोक लेने को उत्सुक होगा। अगर किसी के मन में उमंग उठी है आनंद की, रस की, भाव की, तो वह मार्ग खोज लेगा भाव का। कोई बाधा नहीं डालेगा, न कोई उसे प्रभावित करेगा कि इस मार्ग पर आओ। क्योंकि कभी-कभी प्रभाव में तुम गलत मार्ग पर जा सकते हो। कभी-कभी रोकने की वजह से गलत मार्ग पर रुक सकते हो।

जीवन एक मुक्त हलन-चलन, रूपांतरण, बदलाहट की सुविधा होनी चाहिए।

महावीर का मार्ग अपने-आप में पूर्ण सही है। पर उससे कोई और गलत नहीं होता। उससे विपरीत दिखाई पड़नेवाले भी गलत नहीं होते। इतना तुम्हें स्मरण रहे तो तुम्हारे भीतर संप्रदाय का भाव पैदा नहीं होगा।

संप्रदाय का भाव इस तरह पैदा होता है। इन सूत्रों को जो पढ़ेगा…। जैन पढ़ते रहे हैं। तो जब वे देखते हैं किसी को मंदिर की तरफ जाते कृष्ण के, तब उनको लगता है, बेचारा भटका! उनको याद आता है महावीर का सूत्र कि राग का अंश है भक्ति! और यह आदमी राग में पड़ा है।

नहीं, यह तुम सोचना ही मत। तुमने अपने लिए सोच लिया, काफी है। तुम्हें दूसरे की अंतर्व्यवस्था का कुछ भी पता नहीं है। तुम बस अपने लिए निर्णय कर लो, उतना बहुत। और वह निर्णय भी चलने के लिए हो, बैठे-बैठे सोचने के लिए नहीं।

महावीर तुम्हें वहां ले जाना चाहते हैं जहां न कोई विचार रह जाता, न कोई भाव रह जाता, न कोई चाह रह जाती, न कोई परमात्मा रह जाता–जहां बस तुम एकांत अकेले अपनी परिपूर्णता शुद्धता में बच रहते हो!

निर्धूम जलती है तुम्हारी चेतना!

हर मंजर-ए-बुलंद भी अब पस्त हो चुका

ऐ अर्श किस फजा में उड़ा जा रहा हूं मैं।

ऊंचाइयां भी जहां नीचे छूट जाती हैं।

हर मंजर-ए-बुलंद भी अब पस्त हो चुका

ऊंचाइयां भी पीछे छूट गईं। ऊंचाइयां भी! नीचाइयां तो छूट ही गईं, ऊंचाइयां भी छूट गईं। अशुभ तो छूट ही गया, शुभ भी छूट गया। पाप तो छूटा, पुण्य भी छूटा।

हर मंजर-ए-बुलंद भी अब पस्त हो चुका

ऐ अर्श किस फजा में उड़ा जा रहा हूं मैं।

–और मैं किस आकाश में उड़ रहा हूं!

महावीर उस आकाश को आत्मा कहते हैं। अंतर्आकाश! परम आनंद है वहां! परम शांति!

महावीर उस परम दशा को ही परमात्म-दशा कहते हैं।

परमात्मा एक नहीं है महावीर के लिए, वरन प्रत्येक व्यक्ति की नियति है। हर व्यक्ति परमात्मा होने के मार्ग पर है। हर व्यक्ति परमात्मा हो रहा है; देर-अबेर होता चला जा रहा है।

परमात्मा सृष्टि के प्रथम क्षण में नहीं है–परमात्मा प्र्रत्येक व्यक्ति की अंतिम उपलब्धि में है। उतने ही परमात्मा हैं जितनी आत्माएं हैं। फिर ये आत्माएं बहिर्मुखी हों तो परमात्मा बाहर की तरफ देख रहा है; अंतर्मुखी हों तो अंदर की तरफ देख रहा है। बहिर्मुख, अंतर्मुख, दोनों से मुक्त हों तो परमात्मा स्थित हुआ, स्वस्थ हुआ, अपने में लौट आया। इस अवस्था को महावीर मोक्ष कहते हैं।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–15

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मोह का टूटना— (अध्याय 4) प्रवचन—प्रंदहवां

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।

येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।। 35।।

कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा; और हे अर्जुन, जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को देखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय ही देखेगा।

ज्ञान का पहला आघात मोह पर होता है। ज्ञान की पहली चोट ममत्व पर होती है। या उलटा कहें, तो ममत्व के विदा होते ही ज्ञान की किरण, पहली किरण, फूटती है। मोह के नाश होते ही ज्ञान के सूर्य का उदय होता है। ये दोनों घटनाएं युगपत हैं, साइमल्टेनियस हैं। इसलिए दोनों तरह से कहा जा सकता है, प्रकाश के फूटते ही अंधकार विलीन हो जाता, या ऐसा कहें कि जहां अंधकार विलीन हुआ, हम जानते हैं कि प्रकाश फूट गया है।

कृष्ण कहते हैं, सम्यक विनम्रता से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में ज्ञानीजन से जो उपलब्ध होता, उससे मोह-नाश होता है अर्जुन।

मोह-नाश का क्या अर्थ है? मोह क्या है?

पहला मोह तो यह है कि मैं रहूं। गहरा मोह यह है कि मैं रहूं। जीवन की अभीप्सा; जीता रहूं; कैसे भी सही, जीऊं जरूर, रहूं जरूर; मिट न जाऊं–लस्ट फार लाइफ; जिजीविषा।

जीने का मोह पहला और गहरा मोह है। शेष सब मोह उसके आस-पास निर्मित होते हैं। यदि कोई मकान को मोह करता, तो मकान को कोई मोह नहीं करता। मकान का मोह–मैं रह सकूं ठीक से, मैं बच सकूं ठीक से, सरवाइव कर सकूं–उसी मोह का विस्तार है। कोई धन को मोह करता। धन का मोह अपने में व्यर्थ है। अपने में उसकी कोई जड़ नहीं। उसकी रूट्स, उसकी जड़ उस मैं के बचाए रखने में ही है। धन न होगा, तो बचूंगा कैसे? धन होगा, तो बचने की चेष्टा कर सकता हूं।

अगर और संक्षिप्त में कहें, तो मोह मृत्यु के विरुद्ध संघर्ष है। पति पत्नी को मोह करता; पत्नी पति को मोह करती; बाप बेटे को मोह करता, बेटा बाप को मोह करता। वे सब सिक्योरिटी मेजर्स हैं, सरवाइवल मेजर्स हैं, बचने के उपाय हैं। मिट न जाऊं, बचूं सदा–जीने की ऐसी जो आकांक्षा है, वह मोह का गहरा रूप है। फिर बाकी सब आकांक्षाएं मोह की इसी आकांक्षा से पैदा होती हैं।

कभी-कभी हैरानी होती है। राह पर देखकर कभी अंधे, लंगड़े, लूले, भिखारी को, मन में सवाल उठा होगा, किसलिए जीना चाहता है? अंग-अंग गल गए हैं! किसलिए जीना चाहता है? कभी सवाल उठा होगा। उसी लिए, जिस लिए हम जीना चाहते हैं। अंग गल जाएं, लेकिन जीने का मोह नहीं गलता। आंखें चली जाएं, पैर टूट जाएं, आदमी सड़ता हो, फिर भी जीने का मोह नहीं पिघलता!

कई बार लगता है कि बूढ़े कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले। तो आप यह मत समझना कि वे सच ही उठ जाने को तैयार हैं। अगर आप सब मिलकर कोशिश करने लगें कि ठीक; उठवाए देते हैं! तब आपको पता चलेगा कि वे जब यह कह रहे हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले, तो वे सिर्फ एक शिकायत कर रहे हैं कि इस तरह जिंदा रखने में कोई मजा नहीं; और तरह जिंदा रखे। गहरे में मरने की आकांक्षा उनकी भी नहीं है।

मैंने सुनी है एक घटना; एक अरेबियन कहानी है। एक लकड़हारा रोज लकड़ी काटता है। गांव में बेचता है। बूढ़ा हो गया है। एक दिन लौट रहा है, सिर पर भारी बोझ है। सुबह दोपहर बन रही है। पसीने से लथपथ बूढ़ा आदमी है; लकड़ियां ढोता हुआ गांव की तरफ जा रहा है। कमर झुकी जाती है; बोझ सहा नहीं जाता। अचानक मन से निकला, हे परमात्मा! इससे तो अच्छा है कि अब मौत से ही मिला दे।

ऐसा होता नहीं, जैसा उस कहानी में हो गया। मौत कहीं पास से गुजरती थी और उसने सुन लिया। उसने सोचा, बेचारा, सच में तकलीफ में है। ले ही जाऊं। मौत आ गई। मौत सामने आकर खड़ी हुई। लकड़हारे से कहा, तुमने याद किया; मैं आ गई। बोलो, क्या करूं?

लकड़हारे ने कहा, नहीं, और कुछ नहीं, सिर्फ जरा सिर से बोझ उतार दो। और किसी लिए याद नहीं किया; बोझ जरा सिर पर ज्यादा है; राह पर कोई दिखाई नहीं पड़ता है, इसे नीचे उतार दो। घबड़ा गया मौत को देखकर। जब पुकारा था, तब सोचा भी नहीं था…।

यह खयाल रख लें, अगर परमात्मा हमारी सारी प्रार्थनाएं सुन ले, तो हम प्रार्थना करना सदा के लिए बंद कर दें। नहीं सुनता है, इसलिए किए चले जाते हैं। शायद इसीलिए नहीं सुनता है, क्योंकि हम अपने ही खिलाफ प्रार्थनाएं किए चले जाते हैं। क्योंकि पूरी कर दे, तो हम फिर भी शिकायत करेंगे कि तूने पूरी क्यों कर दी? हमारा यह मतलब थोड़े ही था! जब एक आदमी कहता है, हे प्रभु, अब तो उठा लो! तो उसका मतलब यह नहीं है कि उठा लो। उसका मतलब है, इस भांति जिंदा मत रखो, ढंग से जिंदा रखो! सांकेतिक भाषा में बोल रहा है।

कोई मरना नहीं चाहता।

आप कहेंगे, कुछ लोग आत्मघात कर लेते हैं। निश्चित कर लेते हैं। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि आत्मघात कौन लोग करते हैं! वे ही लोग, जिनका जीवन का मोह बहुत गहन होता है, डेंस। यह बहुत उलटी बात मालूम पड़ेगी।

एक आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है और वह स्त्री इनकार कर देती है, वह आत्महत्या कर लेता है। वह असल में यह कह रहा था कि जीऊंगा इस शर्त के साथ, यह स्त्री मिले; यह कंडीशन है मेरे जीने की। और अगर ऐसा जीना मुझे नहीं मिलता–उसका जीने का मोह इतना सघन है–कि अगर ऐसा जीवन मुझे नहीं मिलता, तो वह मर जाता है। वह मर रहा है सिर्फ जीवन के अतिमोह के कारण। कोई मरता नहीं है।

एक आदमी कहता है, महल रहेगा, धन रहेगा, इज्जत रहेगी, तो जीऊंगा; नहीं तो मर जाऊंगा। वह मरकर यह नहीं कह रहा है कि मृत्यु मुझे पसंद है। वह यह कह रहा है कि जैसा जीवन था, वह मुझे नापसंद था। जैसा जीना चाहता था, वैसे जीने की आकांक्षा मेरी पूरी नहीं हो पाती थी। वह मृत्यु को स्वीकार कर रहा है, ईश्वर के प्रति एक गहरी शिकायत की तरह। वह कह रहा है, सम्हालो अपना जीवन; मैं तो और गहन जीवन चाहता था। और भी, जैसी मेरी आकांक्षा थी, वैसा।

एक व्यक्ति किसी स्त्री को प्रेम करता है, वह मर जाती है। वह दूसरी स्त्री से विवाह करके जीने लगता है। इसका जीवन के प्रति ऐसी गहन शर्त नहीं है, जैसी उस आदमी की, जो मर जाता है।

जिनकी जीवन की गहन शर्तें हैं, वे कभी-कभी आत्महत्या करते हुए देखे जाते हैं। और कई बार आत्महत्या इसलिए भी आदमी करता देखा जाता है कि शायद मरने के बाद इससे बेहतर जीवन मिल जाए। वह भी जीवन की आकांक्षा है। वह भी बेहतर जीवन की खोज है। वह भी मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। वह इस आशा में की गई घटना है कि शायद इस जीवन से बेहतर जीवन मिल जाए। अगर बेहतर जीवन मिलता हो, तो आदमी मरने को भी तैयार है। मृत्यु के प्रति उन्मुखता नहीं है; हो नहीं सकती। जीवन का मोह है।

जीवन के इस मोह की फिर बहुत शाखाएं फैल जाती हैं। वे सभी चीजें, जो जीने में सहयोगी होती हैं, महत्वपूर्ण बन जाती हैं। इसलिए धन इतना महत्वपूर्ण है। लोग कहते हैं कि धन में कुछ भी नहीं रखा। गलत कहते हैं। मोह का प्राण है वहां। मोह की आत्मा धन में बसती है।

इतना धन क्यों महत्वपूर्ण हो गया है? क्या लोग पागल हैं? नहीं; लोग पागल नहीं हैं। धन के बिना जीना बहुत कठिन है। जीने की आकांक्षा जितनी प्रबल है, धन पर पकड़ भी उतनी ही प्रबल होती है। धन पर प्रबल पकड़ सिर्फ जीने की प्रबल पकड़ की सूचना देती है।

अगर महावीर या बुद्ध जैसे लोग सब धन छोड़कर चले जाते हैं, तो धन छोड़कर नहीं जाते हैं। अगर गहरे में देखें, तो जीवन का जो आग्रह है, वह छूटने की वजह से धन छूट जाता है। धन को करेंगे भी क्या बचाकर? कल हुआ जीवन, तो ठीक है; न हुआ, तो ठीक है। नहीं हुआ तो उतना ही ठीक है, जितना हुआ तो ठीक है।

मोहम्मद रात सोते, तो सांझ घर में जो भी होता, सब बांट देते। एक पैसा भी न बचाते। कहते, कल सुबह जीए, तो ठीक है; और परमात्मा जिलाना चाहेगा, तो कल सुबह भी इंतजाम करेगा। आज इंतजाम किया था, कल भी इंतजाम किया था। जीवनभर का अनुभव कहता है कि अब तक जिलाना था, तो उसने इंतजाम दिया है। कल भी भरोसा रखें।

मोहम्मद कहते कि जो आदमी तिजोड़ी सम्हालकर रखता है, वह नास्तिक है। है भी। कहेंगे, नास्तिक की बड़ी अजीब परिभाषा है! हम तो नास्तिक उसको कहते हैं, जो भगवान को नहीं मानता। मोहम्मद नास्तिक उसको कहते हैं, जो धन को मानता है।

और ध्यान रखें, जो धन को मानता है, वह भगवान को मान नहीं सकता। और जो भगवान को मानता है, वह धन को मानना उससे ऐसे ही तिरोहित हो जाता है, जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं। क्योंकि जो भगवान को मानता है, वह अपने जीने का मोह छोड़ देता है। परमात्मा का जीवन ही उसका अपना जीवन है अब।

तो मोहम्मद सांझ सब बांट देते। मोहम्मद से अपरिग्रही आदमी पृथ्वी पर बहुत कम हुए हैं। और यह अपरिग्रह कई अर्थों में महावीर और बुद्ध के अपरिग्रह से भी कठिन है। क्योंकि महावीर और बुद्ध एकबारगी छोड़ देते हैं। छोड़कर बाहर हो जाते हैं। अपरिग्रह उनका इकट्ठा है। बाहर हो गए; बात समाप्त हो गई। मोहम्मद इस तरह बाहर नहीं हो जाते। रोज सुबह से सांझ तक परिग्रह इकट्ठा होता, सांझ सब बांट देते। रात अपरिग्रही हो जाते। सुबह फिर कोई भेंट कर जाता, तो फिर आ जाता। सांझ फिर बांट देते।

इकट्ठे परिग्रह से छलांग लगानी सदा आसान है। रोज-रोज, रोज-रोज, रोज-रोज…। एक क्षण में सब छोड़ देना आसान है। क्षण-क्षण, जीवनभर छोड़ते रहना बहुत कठिन है। मगर दिखाई नहीं पड़ सकता ऊपर से। इसलिए मोहम्मद को बहुत लोग तो मानेंगे कि अपरिग्रही हैं ही नहीं। पर मैं कहता हूं कि उनका अपरिग्रह बहुत गहरा है।

मरने के दिन, बीमार थे, तो चिकित्सकों ने मोहम्मद की पत्नी को कहा कि आज रात शायद ही कटे। तो उसने पांच दीनार बचाकर रख लिए। दवा की जरूरत पड़ जाए; पांच रुपए बचाकर रख लिए। रात क्या भरोसा! दवा, चिकित्सक, कुछ इंतजाम करना पड़े।

बारह बजे रात मोहम्मद करवट बदलते रहे। लगे कि बहुत बेचैन हैं। लगे कि बहुत परेशान हैं। अंततः उन्होंने आंख खोली और अपनी पत्नी से कहा कि मुझे लगता है, आज मैं अपरिग्रही नहीं हूं। आज घर में कुछ पैसा है। मत करो ऐसा, क्योंकि परमात्मा अगर मुझसे पूछेगा कि मोहम्मद, मरते वक्त नास्तिक हो गया? जिसने जिंदगीभर दिया, वह एक रात और न देता? निकाल! पत्नी ने कहा, तुम्हें पता कैसे चला कि मैंने बचाया होगा? मोहम्मद ने कहा, तेरी आंखों की चोरी कहती है। तेरा डरापन कहता है। आज तू उतनी निर्भय नहीं है, जैसी सदा थी।

निर्भय सिर्फ अपरिग्रही ही हो सकता है; परिग्रही सदा भयभीत होता है। इसलिए परिग्रही के सामने बंदूक लिए हुए पहरेदार खड़ा रहता है। वह उसके भय का सबूत है।

परिग्रही भयभीत होगा। जहां मोह होगा, वहां भय होगा। भय मोहजन्य है। भय मोह का ही फूल है। कांटे जैसा है, लेकिन है मोह का ही फूल। खिलता मोह में ही है, निकलता मोह में ही है।

ध्यान रखें, भय भी तो यही है कि मिट न जाएं। मोह यह है कि बचाएं अपने को; भय यह है कि मिट न जाएं। इसलिए भय मोह के सिक्के का दूसरा हिस्सा है। जो आदमी निर्भय होना चाहता है, वह अमोही हुए बिना नहीं हो सकता। अभय अमोह के साथ ही आता है।

मोहम्मद ने कहा, तेरा डर कहता कि आज मोह से भरा हुआ है तेरा मन। तू आज मेरी आंखों के सामने नहीं देखती। कुछ तूने छिपाकर रखा है। निकाल ला और उसे बांट दे। बेचारी, पांच रुपए छिपा रखे थे बिस्तर के नीचे, उसने निकाल लिए। मोहम्मद ने कहा, जा सड़क पर, किसी को दे आ। पर उसने कहा, इतनी आधी रात सड़क पर मिलेगा भी कौन! मोहम्मद ने कहा, जिसने मुझे कहा है कि बांट दे, उसने उसको भी भेजा होगा, जो लेने को मौजूद होगा। वह बाहर गई और एक भिखारी खड़ा था! पैसे देकर वह भीतर आ गई। भरोसा गहरा हुआ; ट्रस्ट बढ़ा। मोहम्मद ने कहा, जिसने मुझे कहा कि पैसे बांट दे, उसने उसको भी भेजा होगा जो द्वार पर खड़ा है।

भीतर लौटकर आई। मोहम्मद ने आंखें बंद कीं। मुस्कुराए। चादर ओढ़ ली और श्वास छूट गई। जो जानते हैं, वे कहते हैं, मोहम्मद उतनी देर पांच रुपए बंटवाने को रुके। वह तड़फन यही थी कि कब वह पत्नी को राजी कर लें, छोड़ दे!

लेकिन पत्नी ने भी क्यों बचाए थे पांच रुपए? वही जीवन का मोह। हम भी बचाते हैं, तो जीवन का मोह। सब बचाव जीवन के मोह में है। सब भय, मिट न जाएं, इस डर में हैं।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा जब बहती, तो सबसे पहले मोह को नष्ट करती है अर्जुन। मोह को इसलिए नष्ट करती है कि मोह अज्ञान है।

अज्ञान को अगर हम समझें, तो कहें, अव्यक्त मोह है। और मोह को अगर ठीक समझें, तो कहें, व्यक्त अज्ञान है। जब अज्ञान व्यक्त होता, तब मोह की तरह फैलता है–व्यक्त अज्ञान, मैनीफेस्टेड इग्नोरेंस। जब तक भीतर छिपा रहता अज्ञान, तब तक ठीक; जब वह फूटता और फैलता हमारे चारों तरफ, तब मोह का वर्तुल बनता है। फिर मेरे मित्र, प्रियजन, पति, पत्नी, पिता, पुत्र, मकान, धन, दौलत–फैलता चला जाता है।

और मोह के फैलाव का कोई अंत नहीं है। इनफिनिट है उसका विस्तार। अनंत फैल सकता है। चांदत्तारे भी मिल जाएं, तो तृप्त नहीं होगा। और आगे भी चांदत्तारे हैं, वहां भी फैलना चाहेगा।

क्यों? इतना अनंत क्यों फैलना चाहता है मोह? इसलिए फैलना चाहता है कि जहां तक मोह नहीं फैल पाता, वहीं से भय की संभावना है। जो मेरा नहीं है, उसी से डर है। इसलिए सभी को मेरे बना लेना चाहता है। जो मकान मेरा नहीं है, वहीं से खतरा है। जो जमीन मेरी नहीं है, वहीं से शत्रुता है। जो चांदत्तारा मेरा नहीं है, वहीं से मौत आएगी। तो जहां तक मेरे का फैलाव है, वहां तक मैं सम्राट हो जाता हूं; उसके बाहर मैं फिर भी भिखारी हूं। इसलिए मेरे को फैलाता चला जाता है आदमी।

कहते हैं, सिकंदर से जब किसी ने कहा–एक बहुत अदभुत आदमी ने–महावीर जैसा एक अदभुत आदमी हुआ यूनान में, डायोजनीज। डायोजनीज नग्न खड़ा था। सिकंदर से उसने कहा, सिकंदर! तू एक दफे यह भी तो सोच कि तू सारी दुनिया जीत लेगा, तो फिर क्या करेगा? क्योंकि दूसरी दुनिया नहीं है! कहते हैं, सिकंदर उदास हो गया। डायोजनीज खूब हंसने लगा। सिकंदर और उदास हो गया। और सिकंदर ने कहा, मेरी मजबूरी पर हंसो मत। सच ही दूसरी दुनिया नहीं है। यह मुझे खयाल ही नहीं आया कि अगर मैं पूरी दुनिया जीत लूंगा, तो फिर क्या होगा? और दूसरी तो दुनिया नहीं है।

अभी जीती नहीं है दुनिया, लेकिन जीतने के खयाल से उदासी आ गई। क्योंकि फिर मोह को फैलाने की और कोई जगह नहीं है। फिर क्या करूंगा! सिकंदर पूछने लगा, लेकिन डायोजनीज, तुम हंसते क्यों हो?

डायोजनीज बोला कि मैं हंसता इसलिए हूं कि तुझे पूरी दुनिया भी मिल जाए, तो भी उदासी ही हाथ में लगेगी। और हमारे पास कुछ भी नहीं है, और हम उदासी को खोजते फिरते हैं और हमें कहीं मिलती नहीं। हमारे पास कुछ भी नहीं है और हम आनंद में हैं। तेरे पास बहुत कुछ है और सब कुछ भी हो जाए, तो भी तू दुख में ही जाएगा।

मोह दुख के अतिरिक्त और कहीं ले जाता नहीं। अब ऐसा समझें, अज्ञान छिपा हुआ मोह है। अज्ञान प्रकट होता है, तो मोह बनता है। मोह सफल होता है, तो दुख बनता है; असफल होता है, तो दुख बनता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की पहली धारा का जब आघात होता है, तो सबसे पहले मोह छूट जाता, टूट जाता, बिखर जाता। जैसे सूरज की किरणें आएं और बर्फ पिघलने लगे, ऐसे मोह का फ्रोजन बर्फ का पत्थर जो छाती पर रखा है, वह ज्ञान की पहली धारा से पिघलता शुरू होता है। और जब मोह पिघल जाता है, जब मोह मिट जाता है, तब व्यक्ति जानता है कि मैं जिसे बचा रहा था, वह तो था ही नहीं। जो नहीं था, उसको बचाने में लगा था, इसलिए परेशान था।

जो नहीं है, उसको बचाने में लगा हुआ आदमी परेशान होगा ही। जो है ही नहीं, उसे कोई बचाएगा कैसे? मैं हूं ही नहीं अलग और पृथक इस विश्व की सत्ता से। उसी को बचाने में लगा हूं। वही मेरी पीड़ा है।

एक लहर अपने को बचाने में लग जाए, फिर दिक्कत में पड़ेगी। क्योंकि लहर सागर से अलग कुछ है भी नहीं। उठी है, तो भी सागर के कारण; है, तो भी सागर के कारण; मिटेगी, तो भी सागर के कारण। नहीं थी, तब भी सागर में थी; है, तब भी सागर में है; नहीं हो जाएगी, तब भी सागर में होगी।

लेकिन एक लहर अगर सोचने लगे कि मैं अलग हूं; बस, लहर आदमी हो गई! अब लहर वही सब करेगी, जो आदमी करेगा। अब लहर सब तरफ से अपने को बचाने की कोशिश करेगी। भयभीत होगी मिट न जा, डरेगी। इस डर की कोशिश में लहर क्या कर सकती है? फ्रोजन हो जाए, बर्फ बन जाए, तो बच सकती है। सिकुड़ जाए, मर जाए। क्योंकि लहर तभी तक जिंदा है, जब तक बर्फ नहीं बनी। सब तरफ से सिकुड़ जाए, सख्त हो जाए।

अहंकार फ्रोजन हो जाता है। अहंकार सिकुड़कर पत्थर का बर्फ बन जाता है। पानी नहीं रह जाता, तरल नहीं रह जाता, लिक्विड नहीं रह जाता, बहाव नहीं रह जाता।

अहंकार में बिलकुल बहाव नहीं होता है। प्रेम में बहाव होता है। इसलिए जब तक अहंकार होता है, तब तक प्रेम पैदा नहीं होता।

यह भी खयाल रख लें कि प्रेम और मोह बड़ी अलग बातें हैं। अलग ही नहीं, विपरीत। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन में प्रेम पैदा नहीं होता। और जिनके जीवन में प्रेम है, वह तभी होता है, जब मोह नहीं होता। लेकिन हम प्रेम को मोह कहते रहते हैं।

असल में हम मोह को प्रेम कहकर बचाते रहते हैं। धोखा देने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है! हम मोह को प्रेम कहते हैं। बाप बेटे से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पत्नी पति से कहती है कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। मोह है।

इसलिए उपनिषद कहते हैं कि सब अपने को प्रेम करते हैं सिर्फ। अपने को जो सहारा देता है बचने में, उसको भी प्रेम करते हुए मालूम पड़ते हैं। वह सिर्फ मोह है। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब दूसरा भी अपना ही मालूम पड़े। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब प्रभु का अनुभव हो, अन्यथा नहीं हो सकता है। प्रेम केवल वे ही कर सकते हैं, जो नहीं रहे। बड़ी उलटी बातें हैं।

जो नहीं बचे, वे ही प्रेम कर सकते हैं। जो हैं, बचे हैं, वे सिर्फ मोह ही कर सकते हैं। क्योंकि बचने के लिए मोह ही रास्ता है। प्रेम तो मिटने का रास्ता है। प्रेम तो पिघलना है। इसलिए प्रेम वह नहीं कर सकता, जिसको अपने को बचाना है।

इसलिए देखें, जितना आदमी जीवन को बचाने की चेष्टा में रत होगा, उतना प्रेम शून्य हो जाएगा। तिजोड़ी बड़ी होती जाएगी, प्रेम रिक्त होता जाएगा। मकान बड़ा होता जाएगा, प्रेम समाप्त होता जाएगा।

दीन-दरिद्र के पास प्रेम दिखाई भी पड़ जाए; समृद्ध के पास प्रेम की खबर भी नहीं मिलेगी। क्यों? क्या हो गया? असल में समृद्ध होने की जो तीव्र चेष्टा है, वह भी मैं को बचाने की है, मोह को बचाने की है। मोह जहां है, वहां प्रेम पैदा नहीं हो पाता।

कृष्ण कहते हैं, जब मोह पिघल जाता है अर्जुन, तो व्यक्ति मेरे साथ एकाकार हो जाता है; सच्चिदानंद से एक हो जाता है। फिर भेद नहीं रह जाता। भेद ही मोह का है। भेद ही, मैं हूं, इस घोषणा का है। अभेद, मैं नहीं हूं, तू ही है, इस घोषणा का है।

लेकिन यह घोषणा प्राणों से उठनी चाहिए, कंठ से नहीं। तू ही है, यह घोषणा प्राणों से आनी चाहिए, कंठ से नहीं। यह घोषणा हृदय से आनी चाहिए, मस्तिष्क से नहीं। यह घोषणा रोएं-रोएं से आनी चाहिए, खंड अस्तित्व से नहीं। उस क्षण में एकात्म फलित होता, अद्वैत फलित होता, दुई गिर जाती। परम हर्षोन्माद का क्षण है वह–परम हर्षोन्माद का, अल्टिमेट एक्सटैसी का। नाच उठता है फिर रोआं-रोआं; गीत गा उठते हैं फिर श्वास के कण-कण। लेकिन गीत–अनगाए, आदमी के ओंठों से अस्पर्शित, जूठे नहीं। नृत्य–अनजाना, अपरिचित; ताल-सुर नहीं, व्यवस्था संयोजन नहीं।

एक बाउल फकीर गुजर रहा है बंगाल के किसी गांव से। लोग इकट्ठे हो गए हैं। बाउल नाच रहा है। तंबूरा बजा रहा है। हाथ ठीक पड़ते नहीं, व्यवस्था नहीं, सुर-संगीत नहीं, पैरों में ताल नहीं। कोई पूछता है, नाचना ठीक से आता नहीं, तो नाचते क्यों हो? बाउल फकीर कहता है, नाचता नहीं, नचाया जा रहा हूं। व्यवस्था, ताल-सुर की खबर कौन रखे? वह बचा ही नहीं, जो व्यवस्था कर सकता था। अब तो बहा जा रहा हूं। लोग पूछते हैं, ये जो गीत गा रहे, इनका अर्थ क्या? वह बाउल कहता है, मुझे पता नहीं। मैं जब तक था, तब तक ये गीत न थे। अब ये गीत हैं, तो मैं नहीं। अर्थ कौन बताए? अर्थ जान लोगे उस दिन, जब गीत तुम्हारे भीतर भी पैदा हों और तुम भी नाच सको। अनुभव ही अर्थ है।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा में टूटा मोह और व्यक्ति परम में निमज्जित हो जाता है। वही है परम अभिप्राय जीवन का, होने का।

मोह है, हमारी अहंकार की कुचेष्टा। मोह है, अपने ही हाथों अपने ही आस-पास परकोटा बनाना। बंद करना अपने को, सूर्य के प्रकाश से। तोड़ना अपने को, जगत के अस्तित्व से। बनाना अंधा अपने को, प्रभु के प्रसाद से।

इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, दंडवत करके, विनम्रता से, छोड़कर अपने को, जब कोई किसी ज्ञान की धारा के निकट झुकता है और धारा उसमें बह जाती है, तब उसके भीतर सब मोह हट जाता है, मोह का तम कट जाता है। उस प्रकाश के क्षण में वह अपने को मेरे साथ एक ही जान पाता है, अर्जुन!

प्रश्न:

भगवान श्री, श्लोक के अंतिम हिस्से में यह कहा गया है कि इस ज्ञान के द्वारा तू संपूर्ण भूतों को सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप देखेगा तथा मेरे में अर्थात सच्चिदानंद रूप में एकीभाव हुआ सब कुछ सच्चिदानंदमय ही देखेगा। इसका अर्थ और अधिक स्पष्ट करने की कृपा करें।

इस ज्ञान में डूबा हुआ, इस ज्ञान में मुक्त हुआ, तू सर्व भूतों को सच्चिदानंद रूप देखेगा।

सर्व भूतों को! भूत का अर्थ होता है, अस्तित्ववान, दि एक्झिस्टेंट, जो भी है। जो भी है, अस्तित्व जिसका है, उस सब में तू सच्चिदानंद को देखेगा। पत्थर में भी, पृथ्वी में भी, आकाश में भी; सब ओर, जो भी तू जानेगा, जानेगा सच्चिदानंद रूप है। क्यों? ऐसा क्यों होगा?

अभी हम क्या जानते हैं? अभी हमारा जानना क्या है? अभी हमारी प्रतीति क्या है? अभी हमारी प्रतीति है कि जो भी है, सब पदार्थ है। जो भी है, पदार्थ है, परमात्मा नहीं। पदार्थ दिखाई पड़ता है। अगर परमात्मा को कभी हम मान भी लेते हैं, तो वह सिर्फ मान्यता होती है, अनुभव नहीं होता। दिखता पदार्थ है।

एक मित्र को मेरे पास लाए थे। कहने लगे, पदार्थ में भी मुझे परमात्मा दिखता है; पत्थर में भी मुझे परमात्मा दिखता है। दो-चार दिन मेरे साथ थे। बगीचे में घूमते वक्त पत्थर उठाकर मैंने उनके पैर पर दे मारा। कहने लगे, पत्थर क्यों मारा? खून निकल आया! मैंने कहा, कहना था तुम्हें, परमात्मा क्यों मारा? कहते हो, पत्थर क्यों मारा? खून निकल आया; कहना था, परमात्मा निकल आया। पत्थर लगा तो चेहरा और हो जाता है; परमात्मा लगे तो और होना चाहिए था! कहने लगे, इसका यह मतलब थोड़े ही है कि कोई मुझे पत्थर मार दे! तब तो कोई मेरी हत्या ही कर दे। कल आप गर्दन पर मेरी छुरी ही चला दें और कहें कि छुरी भी परमात्मा है!

मान्यता थी विचारों की। मानते थे कि सब में है, दिखाई नहीं पड़ता था। दिखाई पड़ना बात और है। हमें तो पदार्थ दिखाई पड़ता है। सर्व भूत हमें पदार्थ हैं, मैटीरियल हैं।

पदार्थ का क्या मतलब होता है? पदार्थ का मतलब होता है, जिसमें आकार है, निराकार नहीं। पदार्थ का मतलब होता है, जिसमें वस्तु है, आत्मा नहीं। पदार्थ का मतलब होता है, जिसका अस्तित्व है, व्यक्तित्व नहीं। जो है, अस्तित्ववान, लेकिन जिसका जीवन नहीं है। हमें क्यों दिखाई पड़ता है ऐसा?

असल में, हमें वही दिखाई पड़ सकता है, जो हम हैं। हमें भीतर भी नहीं मालूम पड़ता कि कोई आत्मा है, कोई परमात्मा है। वह भी हमारी मान्यता है। वह भी सुनते हैं, पढ़ते हैं। कोई कहता है, तो समझ लेते हैं। गहरे में हम जानते हैं कि हम शरीर हैं। मैं शरीर हूं, यही गहरे में हम जानते हैं। जो हम अपने बाबत जानते हैं, उससे ज्यादा हम दूसरे के बाबत नहीं जान सकते। जितना हम अपने बाबत जानते हैं, उससे ज्यादा हम संसार के बाबत नहीं जान सकते। हमारे अपने स्वानुभव की सीढ़ी ही हमारे परानुभव की सीढ़ी है।

अगर ठीक से समझें, तो जगत दर्पण है, हम अपना ही चेहरा उसमें देखते हैं। जगत दर्पण है, हम अपना ही चेहरा उसमें देखते हैं। अगर पत्थर में सिर्फ पत्थर दिखाई पड़ता है, तो समझ लेना कि अपने भीतर भी शरीर से ज्यादा का कोई अनुभव नहीं है।

ठीक भी है। हम जो अपने भीतर नहीं जानते, उसे हम बाहर कैसे जान सकते हैं? जिस आदमी के सिर में दर्द नहीं हुआ, आप उससे कहिए कि मेरे सिर में दर्द हो रहा है; वह भौचक्का खड़ा रह जाता है। वह कहता है, कैसा दर्द? सिर में दर्द होता है कभी? कैसा होता है? उसे कुछ पता नहीं चलता। पता चले भी कैसे! वही पता चल सकता है, जो इसके पहले उसे पता चल चुका हो। हम अपने अनुभव से समझते हैं; उसके अतिरिक्त समझने का कोई उपाय नहीं है। मानते हैं अपने को शरीर, वही मोह का, अज्ञान का परिणाम है। देखते हैं, जगत को पदार्थ।

जिस दिन ज्ञान की घटना घटती है–टूटता है मोह का तमस, टूटता है भ्रम शरीर का; बोध होता है स्वयं की चेतना का, चैतन्य का, कांशसनेस का–उसी क्षण सारा जगत चैतन्य हो जाता है। उसी क्षण, युगपत! एक क्षण की भी फिर देरी नहीं लगती; एक सेकेंड की भी फिर देरी नहीं लगती। इधर भीतर जाना कि मैं चेतना हूं, आंख खोली कि दिखता है कि सब चेतना है। एक क्षण में सब बदल जाता है, एक क्षण में!

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जब ज्ञान की धारा भीतर बहती है और मोह का अंधकार टूटता है अर्जुन, तो सर्व भूतों में सच्चिदानंद दिखाई पड़ने लगता है। सर्व भूतों में, सर्व अस्तित्ववान में, जो भी है, फिर वही परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है।

कभी जब ऐसा घटता है, जब सब में परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है, तो स्वभावतः जीवन में फिर कहीं दुख नहीं रह जाता, शत्रु नहीं रह जाता। क्योंकि शत्रु में परमात्मा देखना, तो फिर परमात्मा में शत्रु देखना असंभव है। फिर मृत्यु नहीं रह जाती, क्योंकि परमात्मा की मृत्यु असंभव है। फिर कोई धोखा देने वाला नहीं रह जाता, क्योंकि परमात्मा धोखा दे, ऐसी धारणा असंभव है। फिर सब प्रीतिकर हो जाता है। सब प्रेमपूर्ण हो जाता है। शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। मृत्यु भी जीवन हो जाती है।

इस अनुभूति को तभी उपलब्ध किया जा सकता है, जब भीतर से मोह टूटे। क्यों? क्योंकि मोह की हिप्नोसिस, मोह का सम्मोहन हमें शरीर बनाए हुए है। शरीर हम हैं नहीं। शरीर भी शरीर नहीं है। लेकिन सम्मोहन हमें बनाए हुए है। मोह, सम्मोह, एक ही बात के दो नाम हैं। जिसको अंग्रेजी में हिप्नोसिस कहते हैं, उसी को सम्मोह कहते हैं, उसी को मोह कहते हैं।

सम्मोह को अगर खयाल में ले लें और सम्मोहन की प्रक्रिया को, तो आपको पता चलेगा कि जो हम नहीं हैं, उसकी धारणा बन जाती है।

अगर आपने कभी किसी सम्मोहन करने वाले कुशल व्यक्ति को देखा है, तो आप हैरान रह गए होंगे। एक आदमी को सम्मोहित कर दो। सम्मोहित कर दो अर्थात बेहोश कर दो। सुझाव दो, सजेस्ट करो, कि तू बेहोश हो रहा है। और अगर वह कोआपरेट करे, सहयोग दे, तो बहुत जल्दी बेहोश हो जाएगा। जब बेहोश हो जाए, तब उस आदमी से कहो कि तुम पुरुष नहीं हो, स्त्री हो। वह आदमी मान लेगा कि स्त्री है। फिर उससे कहो, उठो और चलो; तो वह स्त्री की चाल चलेगा, पुरुष की चाल नहीं चलेगा। वह स्त्रियों जैसे हाथ मटकाएगा, पुरुषों जैसे हाथ नहीं मटका सकेगा। उसका ढंग स्त्रैण हो जाएगा। क्या हो गया उसको?

मान लिया उसके मन ने कि मैं स्त्री हूं, वह स्त्री हो गया। मान लिया उसके मन ने कि वह स्त्री है, वह स्त्री हो गया! उससे आप पूछो सवाल, वह जवाब स्त्रैण देगा। वह स्त्रीलिंग का प्रयोग करेगा। वह कहेगा, मैं जाती हूं। वह नहीं कहेगा, मैं जाता हूं। क्या हो गया उसे? धारणा पकड़ गई कि मैं स्त्री हूं। मन है बेहोश, बेहोशी में जो कह दिया गया, वह उसने मान लिया।

बचपन में जैसे ही हम पैदा होते हैं, चारों तरफ की व्यवस्था हमें सम्मोहित करती है कि तुम शरीर हो। चारों तरफ अज्ञानियों का जाल है। मां है, बाप है, भाई है, बहन है, स्कूल है, शिक्षक है, सब तरफ जाल है अज्ञानियों का, वह सम्मोहित करता है कि तुम शरीर हो। सब इशारे शरीर की तरफ हैं।

इसलिए जिनके शरीर की तरफ ज्यादा इशारे हैं, वे ज्यादा शरीर हो जाते हैं। स्त्रियां ज्यादा शरीर हो जाती हैं पुरुषों की बजाय; क्योंकि उनके शरीर की तरफ ज्यादा इशारे होते हैं। वे ज्यादा सचेत हो जाती हैं, ज्यादा कांशस हो जाती हैं कि शरीर है। फिर शरीर के साथ ही उनकी जिंदगी बंध जाती है; फिर शरीर को भूलना उन्हें मुश्किल हो जाता है। गहरे सम्मोहन बैठ जाता है मन में कि मैं शरीर हूं।

यह सम्मोहन टूटे न, तो भीतर की आत्मा का अनुभव नहीं होता। यह सम्मोहन टूट जाए, तो भीतर की आत्मा का अनुभव होता है।

इस सम्मोहन के टूटने पर जब जाना जाता है कि मैं आत्मा हूं, उसी क्षण जाना जाता है कि सब आत्माएं हैं। सच तो यह है कि यह कहना कि सब आत्माएं हैं, ठीक नहीं। क्योंकि जिस क्षण जाना जाता है कि सब आत्माएं हैं, उस क्षण एक ही परमात्मा शेष रह जाता है। दो नहीं रह जाते। क्योंकि आकार हों, तो दो हो सकते हैं; निराकार हो, तो एक ही हो सकता है। निराकार दो नहीं हो सकते। अगर निराकार दो हों, तो फिर आकार उनमें आ जाएगा, क्योंकि दोनों एक-दूसरे की सीमा बनाएंगे। जहां सीमा बनी, वहीं आकार शुरू हो जाएगा।

निराकार एक है। शरीर अनेक हो सकते हैं, आत्मा एक ही हो सकती है। उसका कोई आकार नहीं है। तब बाहर और भीतर एक ही सच्चिदानंद ब्रह्म के दर्शन शुरू होते हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, मोह की निशा जब टूट जाती और जब ज्ञान की सुबह होती, तो अंधेरे में जिन्हें अलग-अलग जाना था, उजाले में वे सब एक मालूम पड़ते हैं। अंधेरे में जिन्हें पदार्थ जाना था, प्रकाश में वे परमात्मा मालूम पड़ते हैं।

प्रश्न:

भगवान श्री, ज्ञान के अनुभव को सत, चित, आनंद क्यों कहा जाता है? इसे संक्षिप्त में स्पष्ट करने की कृपा करें।

ज्ञान का अनुभव सच्चिदानंद का अनुभव क्यों कहा जाता है?

ज्ञान के अनुभव में तीन प्रतीतियां प्रगाढ़ होकर प्रकट होती हैं–सत की, चित की, आनंद की। सत का अर्थ है, हूं; मैं नहीं, सिर्फ हूं। मैं हूं, ऐसा हमारा अनुभव है। ज्ञान के अनुभव में मैं गिर जाता, हूं बच रहता। अज्ञान के अनुभव में मैं प्रगाढ़ होता, हूं सिर्फ पूंछ की तरह सरकता रहता। मैं होता हाथी, हूं होती पूंछ। न हो, तो भी चल जाता। पूंछ के बिना हाथी हो सकता। अक्सर होता है। मैं का हाथी पूंछ के बिना ही होता है। हूं सिर्फ उपयोग होता है भाषा का।

जिस दिन अज्ञान टूटता, मैं गिर जाता, हूं बचता। हूं हाथी हो जाता–पूंछ भी, सिर भी, सभी कुछ। हूं का अनुभव सत का अनुभव है, एक्सपीरिएंस आफ दि एक्झिस्टेंशियल, अस्तित्व का अनुभव।

खयाल रखें, जब हम कहते हैं, मैं हूं; तो लगता है, मैं अलग हूं और होना अलग है। जब हम कहते हैं, हूं; तो लगता है, होना और मैं एक ही चीज है।

इसीलिए अज्ञानी को मरने का डर लगता है। क्योंकि जो कहता है, मैं हूं, उसे डर लगता है कि नहीं हूं भी हो सकता हूं। हूं, तो नहीं हूं भी हो सकता हूं। रात है, नहीं भी हो जाती है। दिन है, नहीं भी हो जाता है। लेकिन है कभी नहीं नहीं होता। तो जिस चीज को हम कहते हैं, है; वह नहीं है भी हो सकती है। सिर्फ एक ही चीज है जगत में है, है पन, इज़नेस, वह कभी नहीं नहीं होती। हूं का मतलब है, इज़नेस, एमनेस, वह कभी नहीं नहीं होती।

सत का अर्थ है, अस्तित्व है, जो कभी नहीं नहीं होता; सनातन, शाश्वत, नित्य, सदा, सदैव, समय के बाहर। यह अनुभव पहला होता है, जैसे ही ज्ञान का विस्फोट होता है।

दूसरा अनुभव होता है कि अस्तित्व अकेला अस्तित्व ही नहीं है, सचेतन भी है। एक्झिस्टेंस एक्झिस्टेंस ही नहीं है, कांशस एक्झिस्टेंस है–चित, कांशसनेस, चेतन। अस्तित्व सिर्फ अस्तित्व ही हो, तो पदार्थ हो जाएगा। अस्तित्व सचेतन हो, तो परमात्मा हो जाएगा। हमें भी अस्तित्व का पता चलता है। जिनको खयाल है, मैं हूं, उनको भी पता चलता है कि अस्तित्व है। लेकिन अस्तित्व सचेतन पता नहीं चलता। जिनको पता चलता है, मैं तो नहीं, हूं ही, सिर्फ होना ही है, उनको तत्काल पता चलता है, अस्तित्व सचेतन है।

सब कुछ सचेतन है। निर्जीव, निश्चेतन, कुछ भी नहीं है। हां, चेतना के हजार-हजार तल हैं, जिन्हें हम पहचान नहीं पाते। हम कहते हैं, वृक्ष चेतन है, समझ नहीं पड़ता। क्योंकि हम बात नहीं कर पाते वृक्ष से, बोल नहीं पाते, चर्चा नहीं कर पाते। फिर कैसे मानें कि चेतन है? अचेतन लगता है। लेकिन वृक्ष की भी अपनी भाषा हो सकती है। और अगर वृक्ष की अपनी भाषा हो, तो आदमी अचेतन मालूम पड़ता होगा। क्योंकि आदमी की भाषा उसकी समझ में नहीं पड़ेगी।

पत्थर है। फिर वृक्ष तो थोड़ा चेतन मालूम पड़ता है–बढ़ता है, घटता है, खिलता है; तोड़ दो उसकी शाखा, तो मुर्झाता है। कुछ-कुछ आदमी की भाषा में पकड़ आता है। पत्थर! फोड़ दो, तो कुछ उदासी नहीं आती उसमें; तोड़ दो, तो कुछ पता नहीं चलता। शायद उसकी भाषा और भी फारेन है, और भी विजातीय है। जो जानते हैं, वे कहते हैं, पत्थर भी बोलता है, वृक्ष भी बोलता है; वृक्ष भी देखता है, पत्थर भी देखता है। उनकी चेतना का और डायमेंशन है, और तल है।

समझ लें, करीब-करीब हालत ऐसी है कि एक आदमी गूंगा है, बोलता नहीं, फिर भी हम उसको अचेतन नहीं कहते। क्योंकि हाथ के इशारे से कुछ बता देता है। हाथ के इशारे से बता देता है, इसलिए हम पहचान जाते हैं। क्योंकि गूंगे के पास हाथ हमारे जैसा है, और हाथ का इशारा भी हमारे जैसा है, गेस्चर की भाषा हमारी जैसी है, इसलिए हम पहचान जाते हैं।

एक आदमी बहरा है, उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ता, वज्र बहरा है, स्टोन डेफ है, तो हमारे ओंठ ही हिलते मालूम पड़ते हैं उसे। उसे शब्द सुनाई नहीं पड़ता। उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि शब्द होता है, कि लोग बोलते हैं। बोलने का उसके लिए मतलब होगा, ओंठ का चलाना। इसलिए बहरे हमारे ओंठ को समझने लगते हैं कि आप क्या बोल रहे हैं। ओंठ का चलाना उनके लिए भाषा होती है; ओंठ से निकला हुआ शब्द उनकी भाषा नहीं होती।

जगत हजार आयामी है, अनंत आयामी है। अनंत आयामों पर चेतना है। जिस दिन व्यक्ति जानता है अपनी चेतना की गहराई को, उसी दिन वह सारे जगत की चेतना को भी जान लेता है। इसलिए दूसरा अनुभव होता है चित का, चैतन्य का, सब चैतन्य है।

तीसरा अनुभव होता है आनंद का। तीसरा अनुभव पहले दो अनुभवों का अनिवार्य परिणाम है। जिसने जाना कि मैं नहीं है, उसका दुख गया, क्योंकि सब दुख मैं के साथ जुड़ा है। आप कोशिश करके देखें मैं के बिना दुखी होने की, तब आपको पता चलेगा। मैं के बिना आप दुखी नहीं हो सकते, इंपासिबल है।

और दुखी हों, तो मैं के बिना नहीं हो सकते। अगर दुखी हैं, तो मैं भीतर होगा ही किसी कोने पर; वही दुखी होता है। मैं को लगी चोट ही दुख है। मैं के घाव पर पड़ी चोट ही दुख है। और मैं एक वूंड है, घाव है। मैं चीज नहीं है, सिर्फ एक घाव है।

और खयाल किया कि अगर कहीं भी घाव हो, पैर में जरा चोट लगी हो, तो दिनभर उसी में चोट लगती है! कभी हैरानी होती है कि बात क्या है। आज सारी दुनिया की चीजें क्या मेरे पैर के खिलाफ हो गईं? कल भी इसी दरवाजे से निकला था, तब देहली पैर को नहीं लगी! कल भी इसी आदमी से मिला था, लेकिन तब इसका पैर पैर को नहीं लगा! कल भी भीड़ से गुजरा था, लेकिन पैर को भीड़ ने खयाल नहीं किया। आज जहां भी जाता हूं, पैर है, घाव है।

नहीं; चोट तो रोज लगती थी, लेकिन पता नहीं चलती थी। घाव की वजह से पता चलती है।

मैं एक घाव है, एक वूंड, उसमें पता लगता है पूरे वक्त। जिसका मैं खो गया, उसे चोट का पता नहीं लगता। उसे दर्द, दुख, पीड़ा–आहत अभिमान बड़ी पीड़ा है। सारी पीड़ा वहीं केंद्रित है। मैं गिर गया, दुख गिर गया। निषेधात्मक शर्त पूरी हो गई आनंद के आने की। एक शर्त पूरी हो गई आनंद के उतरने की कि दुख गिर गया। दूसरी शर्त, समस्त चैतन्य है जगत अगर, तो आनंद की पाजिटिव शर्त पूरी हो गई। क्योंकि आनंद हमें तभी मिलता है, जब चेतना चेतना से डायलाग में होती है, एक संवाद में होती है।

अच्छी से अच्छी कुर्सी पर बैठे रहें, अच्छे से अच्छे मकान में रहें अकेले, तो पता चलेगा कि आनंद एक शेयरिंग है, आनंद बांटना है। बंटता है, तो प्रतीत होता है; नहीं तो प्रतीत नहीं होता। फैलता है, तो प्रतीत होता है; नहीं तो प्रतीत नहीं होता।

इसलिए प्रियजन के पास बैठकर जो आनंद मिलता है, वह स्वर्ण-सिंहासन पर भी नहीं मिलता। क्योंकि स्वर्ण-सिंहासन से कोई डायलाग नहीं हो सकता। और अगर स्वर्ण-सिंहासन पर ही किसी को बैठने दिया जाए और शर्त रखी जाए कि स्वर्ण-सिंहासन पर बैठो, स्वर्ण की थालियों में भोजन करो, बहुमूल्य से बहुमूल्य भोजन होगा, लेकिन आदमी से भर बात नहीं कर सकोगे, तो आदमी कहेगा कि हम झोपड़े में रहने को तैयार हैं; स्वर्ण-सिंहासन नहीं चाहिए। बात क्या है?

स्वर्ण-सिंहासन से डायलाग नहीं हो सकता। स्वर्ण-सिंहासन से कहीं मेल नहीं हो सकता; कहीं दो हृदय नहीं मिल सकते, हार्ट टु हार्ट कोई चर्चा नहीं हो सकती; कुछ बांटा नहीं जा सकता। कुछ लिया-दिया नहीं जा सकता; कोई लेन-देन नहीं हो सकता। और जीवन सदा ही लेन-देन है। जीवन सदा ही, जैसे श्वास आती और जाती है, ऐसा ही है–आना और जाना, पूरे क्षण।

जब हम एक व्यक्ति को कभी अपने निकट पाते हैं और जब कभी कोई एक व्यक्ति के प्रति हम इतने प्रेम से भर जाते हैं कि उसका शरीर हमें भूल जाता है–और ध्यान रहे, जिसका शरीर न भूले, उससे हमारा प्रेम नहीं है। प्रेम के क्षण में अगर शरीर याद रहे, तो समझना कि काम है, सेक्स है, प्रेम नहीं है। अगर प्रेम के क्षण में शरीर भूल जाए दूसरे का और वह आत्मा ही प्रतीत होने लगे, तो समझना कि प्रेम है।

इसीलिए तो प्रेम में आनंद मिलता है। क्योंकि एक व्यक्ति सचेतन हो जाता है; वस्तु नहीं रह जाता, व्यक्ति हो जाता है। एक आत्मा साथ हो जाती है। दो आत्माएं निकट होकर अपूर्व आनंद को अनुभव करती हैं। दो आत्माओं की निकटता ही आनंद है।

लेकिन जब सारा ही जगत आत्मवान हो जाता है, तब तो आनंद का हम क्या हिसाब लगाएं! जब वृक्ष के पास से निकलते हैं, तो वह भी डायलाग होता है। जब वृक्ष के पास खड़े होते हैं, तो मौन उससे भी मिलन होता है। जब पत्थर के पास होते हैं, तब उससे भी स्पर्श होता है वही, प्रेम का। जब आकाश की तरफ देखते हैं, तो विराट आकाश भी एक बड़ी आत्मा की तरह हम पर झुक आता है और हमें सब तरफ से घेर लेता है। जब सागर की लहरों के पास खड़े होते हैं, तो सागर की आत्मा भी लहरों से हमारी तरफ आती है, उछलती और कूदती हुई दिखाई पड़ती है। जब तारों की तरफ देखते हैं, तो उनसे आती हुई रोशनी भी कुछ संदेश लाती है; पत्रवाहक, वे किरणें भी मैसेंजर्स हो जाती हैं।

जब चारों तरफ से संदेश मिलने लगते हैं जीवन के और आत्मा के, तो सब तरफ चैतन्य का ही अनुभव होता है। जब सब तरफ मिलन घटने लगता है–क्योंकि जहां शरीर हटा, मिलन ही मिलन है, महामिलन है–उस क्षण आनंद फलित होता है। इसलिए तीसरी बात, दो का परिणाम है। जो दो को उपलब्ध हो गया, तीसरा तत्काल खिल जाता है फूल की भांति–ब्लिस।

हमें आनंद का कोई पता नहीं है। हम कभी-कभी जिसको आनंद कहते हैं, वह आनंद नहीं होता, सिर्फ भ्रम होता है। क्योंकि आनंद तो घटित ही तब हो सकता है, जब मैं न रहे और जब पदार्थ न रहे। दो चीजें मिटें, तो आनंद घटित होता है। अहंकार मिटे और पदार्थ मिटे; भीतर मिटे अहंकार, बाहर मिटे पदार्थ; भीतर हो आत्मा, बाहर हो आत्मा, भीतर हो चैतन्य, बाहर हो चैतन्य–दोनों के बीच की सारी दीवाल गिर जाए, तब सारा अस्तित्व नाच उठता है।

आनंद! आनंद बहुत अनूठा शब्द है। अनूठा इसलिए कि आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख के विपरीत दुख है। प्रेम के विपरीत घृणा है। क्षमा के विपरीत क्रोध है। जन्म के विपरीत मृत्यु है। आनंद अद्वैतवाची है, उसके विपरीत कोई शब्द नहीं है। आनंद के विपरीत कोई स्थिति भी नहीं है।

सुख आता है, तो जानना कि दुख आएगा, क्योंकि विपरीत प्रतीक्षा कर रहा है। दुख आए, तो घबड़ाना मत; जानना कि सुख आएगा, क्योंकि विपरीत प्रतीक्षा कर रहा है। सुबह आए, तो डरना मत; सांझ आएगी। सांझ आए, तो डरना मत; सुबह आएगी। विपरीत का वर्तुल है, पोलेरेटीज, धु्रवीय, घूमता रहता है। घड़ी के कांटे की तरह है। फिर बारह बजते, फिर बिखर जाता। फिर बारह बजते, फिर बिखर जाता। घड़ी के कांटे बारह पर मिलते हैं एक सेकेंड को; एक हो जाते, अद्वैत हो जाता एक सेकेंड को। हो भी नहीं पाया, कि द्वैत शुरू हो जाता है।

आनंद द्वैत का अंत है; फिर द्वैत कभी शुरू नहीं होता। आनंद सुख नहीं है। सुख की कोई बहुत बड़ी मात्रा भी नहीं है आनंद। सुख का कोई बहुत गहन और घना, डेंस रूप भी नहीं है आनंद। आनंद का सुख से कोई संबंध नहीं है; उतना ही संबंध है, जितना दुख से है। आनंद न दुख है, न सुख। जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं, वहां जो घटित होता है, वह आनंद है।

दुख के लिए भी अहंकार चाहिए, सुख के लिए भी अहंकार चाहिए। आनंद के लिए अहंकार नहीं चाहिए। दुख के लिए भी पदार्थ चाहिए, सुख के लिए भी पदार्थ चाहिए। आनंद के लिए पदार्थ बिलकुल नहीं चाहिए।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जैसे ही ज्ञान की यह घटना घटती है, वैसे ही सच्चिदानंद रूप–सत, चित, आनंद रूप–में लीन हो जाता है व्यक्ति!

इसलिए परमात्मा के लिए जो निकटतम शब्द है आदमी के पास, वह सच्चिदानंद है। निकटतम, कम से कम गलत। गलत तो होगा ही; कम से कम गलत। गलत होगा ही; क्योंकि हमारा यह शब्द भी तीन की खबर लाता है, और वहां एक है। इससे लगता है कि तीन होंगे; वहां एक है। वह एक जब हम भाषा में बोलते हैं, तो तत्काल तीन हो जाता है। वहां सत का अनुभव, चित का अनुभव, आनंद का अनुभव, एक ही अनुभव है। लेकिन जब हम बोलते हैं, तो तत्काल प्रिज्म भाषा का तोड़ देता तीन में। फिर समझाने जाते हैं, तो हजार शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। फिर उनको भी समझाने जाएं, तो लाख शब्द हो जाते हैं। सब फैल जाता है।

वहां गहन एक है; फिर सब फैलाव होता चला जाता है। जितना समझाने की कोशिश करें, उतना शब्दों का ज्यादा उपयोग करना पड़ता है। कम से कम, दि मिनिमम, जो आदमी की भाषा कर सकती है, वह तीन है। तीन से पीछे भाषा नहीं जा सकती; एक तक भाषा नहीं जा सकती है। बस, तीन पर भाषा मर जाती है। तीन के पीछे एक है। वह एक है। इसलिए हमने त्रिमूर्ति भगवान की मूर्ति बनाई।

खयाल किया आपने, चेहरे तीन, और आदमी एक। चेहरे तीन, और मूर्ति एक। शक्लें तीन, और प्राण एक। देह एक, और चेहरे तीन। बाहर से देखो, तो तीन चेहरे। उस मूर्ति के भीतर खड़े हो जाओ, मूर्ति बन जाओ, तो फिर एक। समझाने के लिए तीन, जानने के लिए एक। व्याख्या के लिए तीन, अनुभव के लिए एक।

इसलिए कृष्ण ने दो बातें कहीं। उन्होंने कहा, वैसा व्यक्ति मुझको उपलब्ध हो जाता है। यह एक की तरफ इशारा करने को। फिर कहा, सच्चिदानंद रूप को, यह समझाने के लिए, तीन की तरफ इशारा करने को।

एक आखिरी श्लोक और।

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।। 36।।

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। 37।।

और यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी ज्ञानरूप नौका द्वारा निस्संदेह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा।

क्योंकि हे अर्जुन, जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्मसात कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्मसात कर देता है।

यह सूत्र बहुत अदभुत है और आपके बहुत काम का भी। यह प्रश्न सनातन है, सदा ही पूछा जाता है।

बहुत हैं पाप आदमी के, अनंत हैं, अनंत जन्मों के हैं। गहन, लंबी है शृंखला पाप की। इस लंबी पाप की शृंखला को क्या ज्ञान का एक अनुभव तोड़ पाएगा? इतने बड़े विराट पाप को क्या ज्ञान की एक किरण नष्ट कर पाएगी?

जो नीतिशास्त्री हैं–नीतिशास्त्री अर्थात जिन्हें धर्म का कोई भी पता नहीं, जिनका चिंतन पाप और पुण्य से ऊपर कभी गया नहीं–वे कहेंगे, जितना किया पाप, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा। जितना किया पाप, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा। एक-एक पाप को एक-एक पुण्य से काटना पड़ेगा, तब बैलेंस, तब ऋण-धन बराबर होगा; तब हानि-लाभ बराबर होगा और व्यक्ति मुक्त होगा।

जो नीतिशास्त्री हैं, मारलिस्ट हैं, जिन्हें आत्म-अनुभव का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें बीइंग का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें आत्मा का कुछ भी पता नहीं; जो सिर्फ डीड का, कर्म का हिसाब-किताब रखते हैं; वे कहेंगे, एक-एक पाप के लिए एक-एक पुण्य से साधना पड़ेगा। अगर अनंत पाप हैं, तो अनंत पुण्यों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं।

लेकिन तब मुक्ति असंभव है। दो कारणों से असंभव है। एक तो इसलिए असंभव है कि अनंत शृंखला है पाप की, अनंत पुण्यों की शृंखला करनी पड़ेगी। और इसलिए भी असंभव है कि कितने ही कोई पुण्य करे, पुण्य करने के लिए भी पाप करने पड़ते हैं।

एक आदमी धर्मशाला बनाए, तो पहले ब्लैक मार्केट करे! ब्लैक मार्केट के बिना धर्मशाला नहीं बन सकती। एक आदमी मंदिर बनाए, तो पहले लोगों की गर्दनें काटे। गर्दनें काटे बिना मंदिर की नींव का पत्थर नहीं पड़ता। एक आदमी पुण्य करने के लिए, कम से कम जीएगा तो! और जीने में ही हजार पाप हो जाते हैं। चलेगा तो; हिंसा होगी। उठेगा तो; हिंसा होगी। बैठेगा तो; हिंसा होगी। श्वास तो लेगा!

वैज्ञानिक कहते हैं, एक श्वास में कोई एक लाख छोटे जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। बोलेगा तो! एक बार ओंठ ओंठ से मिला और खुला तो करीब एक लाख सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। किसी का चुंबन आप लेते हैं, लाखों जीवाणुओं का आदान-प्रदान हो जाता है। कई मर जाते हैं बेचारे!

जीने में ही पाप हो जाएगा। पुण्य करने के लिए ही पाप हो जाएगा। कम से कम जीएंगे तो पुण्य करने के लिए! तब तो यह अनंत वर्तुल है, विसियस सर्किल है, दुष्टचक्र है; इसके बाहर आप जा नहीं सकते। अगर पुण्य से पाप को काटने की कोशिश की, तो पुण्य करने में पाप हो जाएगा। फिर उस पाप को काटने की पुण्य से कोशिश की, तो फिर उस पुण्य करने में पाप हो जाएगा। हर बार पाप को काटना पड़ेगा। हर बार पुण्य से काटेंगे। पुण्य नए पाप करवा जाएगा। यह वर्तुल कभी अंत नहीं होगा। यह सर्किल विसियस है।

इसलिए नैतिक व्यक्ति कभी मुक्त नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि कभी मुक्ति तक नहीं जा सकती। नैतिक दृष्टि तो चक्कर में ही पड़ी रह जाती है।

कृष्ण एक बहुत ही और दृष्टि की बात कर रहे हैं। और जो भी जानते हैं, वे वही बात करेंगे। कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू अगर सब पापियों में भी सबसे बड़ा पापी है, दि ग्रेटेस्ट सिनर; अस्तित्व में जितने पापी हैं, उनमें तू सबसे बड़ा पापी है, तो भी ज्ञान की एक घटना तेरे सब पापों को क्षीण कर देगी। क्या मतलब हुआ इसका?

इसका मतलब यही हुआ कि पाप की कोई सघनता नहीं होती, पाप की कोई डेंसिटी नहीं होती। पाप है अंधेरे की तरह। एक घर में अंधेरा है हजार साल से, दरवाजे बंद हैं और ताले बंद हैं। हजार साल पुराना अंधेरा है। तो क्या आप दीया जलाएंगे, तो अंधेरा कहेगा, इतने से काम नहीं चलता! आप हजार साल तक दीए जलाएं, तब मैं कटूंगा!

नहीं; आपने दीया जलाया कि हजार साल पुराना अंधेरा गया। वह यह नहीं कह सकता है कि मैं हजार साल पुराना हूं। वह यह भी नहीं कह सकता है कि हजार सालों में बहुत सघन, कनडेंस्ड हो गया हूं, इसलिए दीए की इतनी छोटी-सी ज्योति मुझे नहीं तोड़ सकती!

हजार साल पुराना अंधेरा और एक रात का पुराना अंधेरा एक ही बराबर डेंसिटी के होते हैं। या कहना चाहिए कि नो डेंसिटी के होते हैं; उनमें कोई सघनता नहीं होती। अंधेरे की पर्तें नहीं होतीं; क्योंकि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बस, आज आपने जलाई काड़ी, अंधेरा गया–अभी और यहीं।

हां, अगर कोई अंधेरे को पोटलियों में बांधकर फेंकना चाहे, तो फिर मारेलिस्ट का काम कर रहा है, नैतिकवादी का। वह कहता है, जितना अंधेरा है, उसको बांधो टोकरी में, बाहर फेंक कर आओ। फेंकते रहो टोकरी बाहर और भीतर, अंधेरा अपनी जगह रहेगा। आप चुक जाओगे, अंधेरा नहीं चुकेगा।

पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य भी सूक्ष्म पाप के बिना नहीं हो सकता। पाप को तो सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है।

ध्यान रखें, पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य बिना पाप के नहीं हो सकता है। पाप को सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है। ज्ञान कोई कृत्य नहीं है कि जिसमें पाप करना पड़े। ज्ञान अनुभव है। कर्म बाहर है, ज्ञान भीतर है। ज्ञान तो ज्योति के जलने जैसा है। जला, कि सब अंधेरा गया।

फिर तो ऐसा भी पता नहीं चलता कि मैंने कभी पाप किए थे। क्योंकि जब मैं ही चला जाए, तो सब खाते-बही भी उसी के साथ चले जाते हैं। फिर आदमी अपने अतीत से ऐसे ही मुक्त हो जाता है, जैसे सुबह सपने से मुक्त हो जाता है। क्या कभी आपने ऐसा सवाल नहीं उठाया, सुबह हम उठते हैं, रातभर सपना देखा, तो जरा-सा किसी ने हिलाकर उठा दिया, इतने से हिलाने से रातभर का सपना टूट सकता है?

नहीं, जरा-सा किसी ने हिलाया; पलक खुली; सपना गया। फिर आप यह नहीं कहते कि अब रातभर इतना सपना देखा, तो अब सपने के विरोध में इतना ही यथार्थ देखूंगा, तब सपना मिटेगा। सपना टूट जाता है।

पाप सपने की भांति है। ज्ञान की जो सर्वोच्च घोषणा है, वह है कि पाप स्वप्न की भांति है। फिर पुण्य भी स्वप्न की भांति है। और सपने सपने से नहीं काटे जाते हैं। सपने सपने से काटेंगे, तो भी सपना देखना जारी रखना पड़ेगा।

सपने सपने से नहीं कटते, क्योंकि सपनों को सपनों से काटने में सपने बढ़ते हैं। और सपने यथार्थ से भी नहीं काटे जा सकते; क्योंकि जो झूठ है, वह सच से काटा नहीं जा सकता। जो असत्य है, वह सत्य से काटा नहीं जा सकता। वह इतना भी तो नहीं है कि काटा जा सके। वह सत्य की मौजूदगी पर नहीं पाया जाता है; काटने को भी नहीं पाया जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते कि कितना ही बड़ा पापी हो तू, सबसे बड़ा पापी हो तू, तो भी मैं कहता हूं अर्जुन, कि ज्ञान की एक किरण तेरे सारे पापों को सपनों की भांति बहा ले जाती है। सुबह जैसे कोई जाग जाता–रात समाप्त, सपने समाप्त, सब समाप्त। जागे हुए आदमी को सपनों से कुछ लेना-देना नहीं रह जाता।

इसलिए जब पहली बार भारत के ग्रंथ पश्चिम में अनुवादित हुए, तो उन्होंने कहा, ये ग्रंथ तो इम्मारल मालूम होते हैं, अनैतिक मालूम होते हैं। खुद शॉपेनहार को चिंता हुई। मनीषी था गहरा। चिंतक था गहरा। उसको खुद चिंता हुई कि ये किस तरह की बातें हैं! ये कहते हैं कि एक क्षण में कट जाएंगे!

क्रिश्चियनिटी कभी भी नहीं समझ पाई इस बात को। ईसाइयत कभी नहीं समझ पाई इस बात को। एक क्षण में? क्योंकि ईसाइयत ने पाप को बहुत भारी मूल्य दे दिया, बहुत गंभीरता से ले लिया। सपने की तरह नहीं, असलियत की तरह। ईसाइयत के ऊपर पाप का भार बहुत गहरा है, बर्डन बहुत गहरा है। ओरिजिनल सिन! एक-एक आदमी का पाप तो है ही; वह पहले आदमी ने जो पाप किया था, वह भी सब आदमियों की छाती पर है। उसको काटना बहुत मुश्किल है।

इसलिए क्रिश्चियनिटी गिल्ट रिडेन हो गई; अपराध का भाव भारी हो गया। और पाप से कोई छुटकारा नहीं दिखाई पड़ता। कितने ही पुण्य से नहीं छुटकारा दिखाई पड़ता। इसलिए ईसाइयत गहरे में जाकर रुग्ण हो गई।

जीसस को नहीं था यह खयाल। लेकिन ईसाइयत जीसस को नहीं समझ पाई; जैसा कि सदा होता है। हिंदू कृष्ण को नहीं समझ पाए। जैन महावीर को नहीं समझ पाए। ईसाइयत जीसस को नहीं समझ पाई।

न समझने वाले समझने का जब दावा करते हैं, तो उपद्रव शुरू हो जाता है। जीसस ने कहा, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड एंड आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू। जीसस ने कहा कि सिर्फ प्रभु के राज्य को खोज लो और शेष सब तुम्हें मिल जाएगा। वही जो कृष्ण कह रहे हैं कि सिर्फ प्रकाश की किरण को खोज लो और शेष सब, जो तुम छोड़ना चाहते हो, छूट जाएगा; जो तुम पाना चाहते हो, मिल जाएगा।

भारतीय चिंतन इम्मारल नहीं है, एमारल है; अनैतिक नहीं है, अतिनैतिक है, सुपर मारल है, नीति के पार जाता है। यह वक्तव्य बहुत एमारल है, अतिनैतिक है। यह नीति-अनीति के पार चला जाता है, पुण्य-पाप के पार चला जाता है।

शेष फिर रात हम बात करेंगे।

अब कीर्तन में, धुन में संन्यासी डूबेंगे। जो मित्र सम्मिलित होना चाहें, वे सम्मिलित हो जाएं। अन्यथा बैठे रहें अपनी जगह। कम से कम ताली में साथ दें, धुन में साथ दें, बैठकर अपनी जगह। एक दस मिनट के लिए भूलें बुद्धि को, भूलें चिंतन को, भूलें विचार को।

शेष कल आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–16

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ज्ञान पवित्र करता है— (अध्याय 4) प्रवचन—सोलहवां

प्रश्न:

भगवान श्री, सुबह सैंतीसवें श्लोक में कहा गया है कि ज्ञानरूपी अग्नि सर्व कर्मों को भस्म कर देती है। कृपया बताएं कि कर्म ज्ञानाग्नि से किस भांति प्रभावित होते हैं?

ज्ञानाग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है। किस भांति कर्म ज्ञानाग्नि में भस्म होते हैं?

पहले तो यह समझ लेना पड़े कि कर्म किस भांति चेतना के निकट संगृहीत होते हैं! क्योंकि जो उनके संग्रह की प्रक्रिया है, वही विपरीत होकर उनके विनाश का उपक्रम भी है। यह भी समझ लेना जरूरी है कि कर्म क्या है। क्योंकि कर्म का जो स्वभाव है, वही उसकी मृत्यु का भी आधार बनता है।

कर्म कोई वस्तु नहीं है; कर्म है भाव। कर्म कोई पदार्थ नहीं है; कर्म है विचार। कर्म का जन्मदाता व्यक्ति नहीं है, कर्म का जन्मस्रोत आत्मा नहीं है; कर्म का जन्मदाता है अज्ञान। अज्ञान से उत्पन्न हुआ विचार; अज्ञान में उठी भाव की तरंग; अज्ञान में भाव और विचार के आधार पर हुआ कृत्य। सबके मूल में आधार है अज्ञान का।

ज्ञान वस्तुतः कर्मों का नाश नहीं करता; परोक्ष में करता है। वस्तुतः तो ज्ञान अज्ञान का नाश करता है। लेकिन अज्ञान के नाश होने से कर्मों की आधारशिला टूट जाती है। जहां वे संगृहीत हुए, वह आधार गिर जाता है। जहां से वे पैदा होते हैं, वह स्रोत नष्ट हो जाता है। जहां से वे पैदा हो सकते थे भविष्य में, वह बीज दग्ध हो जाता है।

ज्ञान वस्तुतः सीधे कर्मों को नष्ट नहीं करता; ज्ञान तो नष्ट करता है अज्ञान को। और अज्ञान है जन्मदाता कर्मों के बंधन का। अज्ञान नष्ट हुआ कि कर्म नष्ट हो जाते हैं।

ऐसा समझें, अंधेरा है भवन में। भय लगता है बहुत। जलाया दीया। कहते हैं हम, प्रकाश जल गया, भय नष्ट हो गया। लेकिन सच ही प्रकाश भय को सीधा कैसे नष्ट कर सकता है? प्रकाश तो नष्ट करता है अंधेरे को। अंधेरे के कारण लगता था भय; अंधेरा नहीं है, इसलिए भय भी नष्ट हो जाता है।

प्रकाश तो भय को छू भी नहीं सकता; प्रकाश तो अंधेरे को ही विसर्जित कर देता है। लेकिन अंधेरा था आधार, स्रोत। गया अंधेरा; भय भी गया। अगर उस भय से बचाव के लिए आपने हाथ में बंदूक पकड़ रखी थी, तो भय गया, तो बंदूक भी आपने टिका दी कोने में। प्रकाश बंदूक को हाथ से छुड़ा नहीं सकता। अंधेरा हटता है; अंधेरे से भय हटता है, भय हटने से बंदूक छूट जाती है। ये सब परोक्ष घटित होती घटनाएं हैं।

अज्ञान है हमारे समस्त कर्म-बंध का आधार। अनंत-अनंत जन्मों में जो भी हमने किया है, उस सबके पीछे अज्ञान है आधार। अगर अज्ञान न होता, तो हमें यह खयाल ही पैदा न होता कि मैंने किया है। अगर अज्ञान न होता, तो हम जानते, हमने कभी कुछ किया नहीं है। हमारा अपना होना भी नहीं है।

अज्ञान में ही पता चलता है कि मैं हूं। अज्ञान नहीं है, तो परमात्मा है। अज्ञान नहीं है, तो मेरा कृत्य जैसा कोई कृत्य नहीं है। सभी कृत्य परमात्मा के हैं। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, जो भी है, उसका है। सभी उसको समर्पित है, सभी उसको…।

अज्ञान के कारण लगता है कि मैं करता हूं। अज्ञान संगृहीत करता है कर्मों को कर्ता बनकर। फिर अज्ञान कल्पना करके योजना करता है कर्मों की भविष्य में; वासना बनता है। अतीत में अज्ञान बनता है कर्म की स्मृति, किया मैंने। भविष्य में बनता है स्वप्न, कर्म की वासना, करूंगा ऐसा। और इन दोनों के बीच में वर्तमान गुजरता। दो अज्ञानों के बीच में, अज्ञान की स्मृति और अज्ञान की कल्पना, इन दोनों के बीच में वर्तमान गुजरता।

ज्ञान की किरण के उतरते ही, ज्ञान की अग्नि के जलते ही, वह अंधेरा हट जाता है, जो वासना करता है; वह अंधेरा हट जाता है, जो कर्ता होने का भाव रखता है। सब कर्म तत्क्षण क्षीण हो जाते हैं। तत्क्षण! ज्ञान के समक्ष कर्म बचता नहीं, वैसे ही जैसे प्रकाश के समक्ष अंधकार बचता नहीं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञानाग्नि में भस्म हो जाते हैं सब कर्म।

यह सिंबालिक है, प्रतीकात्मक है। ज्ञान-अग्नि; कर्मों का भस्म हो जाना–सब प्रतीक है। सूचना इतनी है कि कर्ता ज्ञान में नहीं टिकता है; अहंकार ज्ञान में नहीं टिकता है। और अहंकार नहीं, तो अहंकार के द्वारा संजोई गई कर्म की सारी व्यवस्था टूट जाती और नष्ट हो जाती है।

ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति ऐसा जानता ही नहीं कि मैंने कभी कुछ किया है। ऐसा भी नहीं जानता कि मैं कभी कुछ करूंगा। ऐसा भी नहीं जानता कि मैं कुछ कर रहा हूं। ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति कर्ता के भाव से कहीं भी ग्रसित नहीं होता।

कर्म आते हैं, जाते हैं। ज्ञानी पर भी कर्म आते हैं, जाते हैं। वह भी उठता-बैठता, खाता-पीता, बोलता-सुनता। ज्ञानी भी कर्म तो करता है। लेकिन ज्ञानी पर कर्म ऐसे हो जाते हैं, जैसे पानी पर खींची गई लकीरें। पानी पकड़ता नहीं है; लकीरें खिंचती हैं, खिंच भी नहीं पातीं कि खो जाती हैं।

अज्ञानी पर कर्म ऐसे पकड़ते हैं, जैसे पत्थर पर खींची गई लकीरें। खिंच जाती हैं, तो मिटती मालूम नहीं पड़तीं। एक बार खिंच जाती हैं, तो और गहरी होती चली जाती हैं! फिर लकीर पर लकीर, और लकीर पर लकीर पड़कर पत्थरों पर घाव बना जाती हैं।

ज्ञानी पर कर्म ऐसे सरकता है, जैसे पानी पर खींची गई अंगुली, आप खींच भी नहीं पाए और पानी सपाट है–खाली और मुक्त, रेखा से शून्य। लौटकर देखते हैं, रेखा कहीं नहीं है; जल की धार वैसी ही स्वच्छ बही जाती है। कितनी ही खींचें लकीरें, और पानी सब लकीरों को बहाकर फिर वैसा का वैसा ही हो जाता है। ऐसा ही है ज्ञानी।

कर्ता का पत्थर भीतर न हो, कर्ता का अहंकार भीतर न हो, तो कर्म की लकीरें खिंचती नहीं। जल की तरह तरल हो जाता है ज्ञानी; खिंचती है पानी पर रेखा, और खो जाती है।

कहें कि दर्पण की भांति हो जाता है। कोई आता है सामने, तो दिखाई पड़ता; दर्पण झलकाता। फिर विदा हो जाता, दर्पण मुक्त और खाली और शून्य हो जाता। दर्पण पर कोई रूपरेखा छूट नहीं जाती।

अज्ञानी का मन होता है फोटो-प्लेट की तरह, कैमरे के भीतर सरकने वाली फिल्म की तरह। जो पकड़ लिया, पकड़ लिया; उसे फिर छोड़ता नहीं। फोटो के कैमरे में भी आदमी की शकल दिखाई पड़ती है, लेकिन पकड़ी जाती है। दर्पण में भी शकल दिखाई पड़ती है, लेकिन पकड़ी नहीं जाती। अज्ञानी का मन पकड़ने में बहुत कुशल है। अज्ञान की वजह से क्लिंगिंग गहरी है, पकड़ गहरी है। जल्दी से मुट्ठी बांध लेता और पकड़ लेता है। इकट्ठा करता चला जाता है।

ज्ञान की रोशनी आती है, मुट्ठी खुल जाती है। दर्पण हो जाता है आदमी का मन। फिर कुछ पकड़ता नहीं। पिछले अतीत में देखे गए चित्र भी नहीं पकड़ता, आज देखे जाने वाले चित्र भी नहीं पकड़ता, भविष्य में देखे जाने वाले चित्र भी नहीं पकड़ता। ऐसा हो जाता है ज्ञानी का मन, जैसे बगुलों की कतार सुबह उड़ी हो झील के ऊपर से।

एक झेन फकीर बांकेई ने कहा है, उड़ती देखी बगुलों की कतार सुबह झील पर से; सूरज की रोशनी में चमकते वे शुभ्र पंख, झलके क्षणभर को झील में, और खो गए। न तो बगुलों को पता चला कि झील में प्रतिबिंब पकड़ा गया है, और न झील को पता चला कि बगुलों का प्रतिबिंब मैंने पकड़ा है।

ऐसा हो जाता है ज्ञानी का मन। सब होता है चारों तरफ, फिर भी कुछ नहीं होता है। पूरे जीवन के बीत जाने के बाद भी ज्ञानी के पास उसके मन में झांको, कुछ भी इकट्ठा नहीं होता है; खाली का खाली; रिक्त का रिक्त; शून्य का शून्य। आया-गया सब; भीतर कुछ छूट नहीं जाता है।

ज्ञान की अग्नि कर्मों को जला डालती, इसका अर्थ इतना ही है कि ज्ञान की अग्नि में अज्ञान नहीं बचता है।

कर्म नहीं है असली सवाल; असली सवाल है कर्ता। कर्ता ही कर्म को पकड़ता और इकट्ठा करता है। हम सब कर्ता बन जाते हैं, चौबीस घंटे, ऐसी चीजों के भी, जिनके कर्ता बनना कतई उचित नहीं है।

हम तो यहां तक कहते हैं कि श्वास लेता हूं मैं, जैसे कि कभी आपने श्वास ली हो! श्वास आती है, जाती है; कोई लेता नहीं। अगर आप लेते होते, तो दूसरे दिन सुबह फिर कभी उठते ही नहीं। रात नींद में खो जाते; श्वास कौन लेता फिर? नहीं, श्वास हम नहीं लेते। श्वास आती है, जाती है।

श्वास जैसी जीवन की गहरी प्रक्रिया भी हम नहीं करते हैं। होती है। पर आदमी कहता है कि मैं श्वास लेता हूं। हद है! कभी किसी ने श्वास नहीं ली। न कोई कभी श्वास लेगा। श्वास बस आती और जाती है। आप ज्यादा से ज्यादा देख सकते हैं, जान सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा भूल सकते हैं, विस्मरण कर सकते हैं; स्मरण रख सकते हैं, होश रख सकते हैं, बेहोश हो सकते हैं–लेकिन श्वास ले नहीं सकते। ज्ञाता हो सकते, साक्षी हो सकते, द्रष्टा हो सकते–कर्ता नहीं हो सकते हैं।

लेकिन हम हर चीज में जोड़ लेते हैं। और गौर से देखते चले जाएं, तो फिर किसी चीज में नहीं जोड़ पाएंगे। खोजते चले जाएं, तो पाएंगे कि कर्ता भ्रम है, दि ग्रेटेस्ट इलूजन। जो बड़े से बड़ा भ्रम है, वह कर्ता का भ्रम है।

मां कहती है कि मैं बेटे को जन्म देती हूं। किसी मां ने कभी नहीं दिया। होता है। अगर पति और पत्नी सोचते हों कि हम मिलकर बेटे को जन्म देते हैं, तो प्रकृति उन पर बहुत हंसती है। क्योंकि उनसे भी प्रकृति जन्माने का काम लेती है, वे जन्म देते नहीं हैं।

इसीलिए तो कामवासना इतनी प्रगाढ़ है, आपके वश में नहीं है। इतनी प्रगाढ़ है, इतनी बायोलाजिकल फोर्स है, इतना जैविक भीतर से धक्का है कि आपके वश में नहीं है। इसीलिए तो ब्रह्मचर्य बड़ी से बड़ी चीज समझी गई है।

ब्रह्मचर्य के बड़े होने का और कोई मतलब नहीं है। इतना ही मतलब है कि ब्रह्मचर्य को केवल वही उपलब्ध हो सकता है, जो कर्ता के भाव से मुक्त हो गया हो। क्योंकि कर्ता से तो प्रकृति बाप बनने का, मां बनने का काम ले ही लेगी। वह अज्ञानी पक्का है। उसको तो भीतर से धक्का दे दिया जाएगा और उससे काम ले लिया जाएगा।

पशुओं की जिंदगी में अगर देखें, कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी में अगर देखें, पौधों की जिंदगी में अगर देखें, तो सभी पैदा कर रहे हैं; सभी बच्चे पैदा कर रहे हैं। लेकिन कम से कम उनको शायद पता नहीं है कि वे कर्ता हैं। आदमी को यह खयाल है कि वह कर्ता है।

बाप बेटे से कहता है, मैंने तुझे जन्म दिया। सारा जगत हंसता होगा अगर सुनता होगा कि पागल हुए हो! जन्म तुमने दिया? या कि जन्म की प्रक्रिया में तुम सिर्फ उपकरण बनाए गए, साधन बनाए गए? पैदा होना चाहता था कोई। जगत, अस्तित्व उसे पैदा करना चाहता था; आप सिर्फ उपकरण बने हैं, आप सिर्फ माध्यम बने हैं। लेकिन माध्यम अकड़कर कहता है, मैंने पैदा किया!

बुद्ध ने बारह वर्ष बाद घर लौटकर जब गांव के द्वार से प्रवेश किया, तो बुद्ध के पिता ने कहा, मैंने ही तुझे जन्म दिया। बुद्ध ने कहा, क्षमा करें। आप नहीं थे, तब भी मैं था। मेरी यात्रा बहुत पुरानी है। आपसे मेरा मिलन तो अभी-अभी हुआ, कुछ ही वर्ष पहले। मेरी यात्रा बहुत पुरानी है आपसे। आपकी भी यात्रा उतनी ही पुरानी है। आपने मुझे जन्म दिया, ऐसा मत कहें; ऐसा ही कहें कि आप एक चौराहे बने, जिससे मैं गुजरा और पैदा हुआ। लेकिन मैं गुजरा और पैदा हुआ, ऐसा भी कहना, बुद्ध ने कहा, ठीक नहीं; गुजारा गया और पैदा किया गया।

जैसे कोई चौराहे से गुजर जाए और चौराहा कहे कि मैंने ही तुम्हें पैदा किया; मेरे चौराहे से तुम गुजरे थे, अन्यथा हो न सकते थे! ऐसे ही मां-बाप एक चौराहे से ज्यादा नहीं हैं, जिनसे बच्चा पैदा होता है।

अनंत हैं शक्तियां, जिनके कारण यह घटना घटती है। छोटी से छोटी घटना अनंत चीजों पर निर्भर है। मूलतः तो अनंत परमात्मा पर निर्भर है। लेकिन हम कहते हैं कि मैं…।

यह मैं अज्ञान का गढ़ है। ज्ञान की किरण, होश का क्षण, जागरूकता की एक झलक इस पूरे गढ़ को गिरा देती है। यह ताश के पत्तों का गढ़ है। यह पत्थरों का नहीं है, नहीं तो ज्ञान की किरण इसे न गिरा पाए। यह ताश के पत्तों का घर है। जरा-सा झोंका हवा का, और सब बिखर जाता है।

यह अहंकार बिलकुल ताश के पत्तों का घर है। जरा-सा धक्का ज्ञान का, और सब गिरकर जमीन पर पड? जाता है। वर्षों की, जन्मों की मेहनत हो भला, लेकिन है ताश के घर का खेल।

ज्ञान क्या करता है? ज्ञान क्या है?

ज्ञान है स्मरण सत्य का, अज्ञान है विस्मरण सत्य का। अज्ञान है एक फार्गेटफुलनेस, एक विस्मृति। ज्ञान है एक स्मरण।

स्मरण सत्य का जैसे ही होता है, वैसे ही अंधेरे में, अज्ञान में पाली गई सारी धारणाएं गिर जाती हैं। गिर ही जाएंगी। जैसे रात के अंधेरे में हमने सपने देखे और सुबह के जागरण पर सब खो गए। ऐसे ही।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की अग्नि में समस्त कर्म जल जाते हैं अर्जुन! तू चिंता ही मत कर कर्मों की; तू चिंता कर कर्ता की।

पूरा जोर कृष्ण का इस बात का है, कर्म की छोड़ फिक्र, फिक्र कर कर्ता की। अगर कर्ता है तू, तो फिर कर्म तुझे बनते ही चले जाएंगे। और अगर कर्ता नहीं है तू, तो फिर चिंता छोड़। फिर झील पर उड़े हुए बगुलों की कतार की भांति कुछ भी तुझ पर बनेगा नहीं। यह महायुद्ध जो तेरे सामने खड़ा है, इससे भी गुजर; कर्ता भर मत हो। फिर ये गिरी हुई हजारों लाशें भी, तेरे ऊपर खून का एक दाग न छोड़ जाएंगी।

इससे बड़ी हिम्मत का वक्तव्य मनुष्य-जाति के इतिहास में दूसरा नहीं है। सच ए ग्रेट एंड बोल्ड स्टेटमेंट! कृष्ण कहते हैं, ये लाखों लोग, इनकी लाशें पट जाएं; अगर तू कर्ता नहीं है, तो छोड़ फिक्र, खून का एक दाग भी तेरे ऊपर नहीं पड़ेगा। और अगर तू कर्ता है, तो तू शून्य में से भी गुजर जा, तो भी तू कर्मों से भर जाएगा और लद जाएगा।

कर्ता अगर सोया भी रहे, तो भी कर्म अर्जित करता है; नींद में भी कर्म करता है। और अगर अकर्ता जागकर युद्धों में भी उतर जाए, तो भी कर्म फलित नहीं होता है। कर्ता की मृत्यु कर्म का समाप्त हो जाना है।

इस अर्थ में ज्ञान की अग्नि समस्त कर्मों का विनाश बन जाती है।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्धिः कालेनात्मनि विन्दति।। 38।।

इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निस्संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने काल से अपने आप समत्व बुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धांतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है।

ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। ज्ञान के सदृश कुछ भी नहीं है। ज्ञान से ज्यादा पवित्र करने वाला कोई स्रोत, कोई झरना नहीं है। ज्ञान है मुक्ति। ज्ञान है अमृत।

ज्ञान की यह जो पवित्र करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की स्वच्छ करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की ट्रांसफार्म करने की, रूपांतरित करने की शक्ति है, इसके संबंध में कृष्ण कह रहे हैं। तीन बातें कह रहे हैं। ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। ज्ञान के सदृश पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं। ज्ञान को उपलब्ध हुआ आत्मा में प्रवेश कर जाता है। इन तीनों को अलग-अलग समझें।

अपवित्रता क्या है? इंप्योरिटी क्या है? अपवित्र क्यों है मनुष्य? कौन-सी है गंदगी उसके प्राणों पर, जो भारी है। कौन-सा है अस्वच्छ कचरा, जो उसके चित्त पर बोझ है? कौन-सी अशुचि है? कौन है, क्या है, जो उसे रुग्ण और बीमार किए है?

मन में जैसे ही उठती है वासना, वैसे ही अशुचि प्रवेश कर जाती है। मन में जैसे ही उठती है कामना, वैसे ही मन गंदगी से भर जाता है। मन में जैसे ही उठी इच्छा कि ज्वर, फीवर प्रवेश कर जाता है। उत्तप्त हो जाता है सब। अस्वस्थ हो जाता है सब। कंपनशील हो जाता है सब। कामना ही–डिजायरिंग–कामना ही अशुचि है, अस्वच्छता है, अपवित्रता है।

देखें; जब भी मन में कुछ चाह उठती है, तब देखें। भीतर से सुगंध खो जाती और दुर्गंध शुरू हो जाती है। जब भी मन में कोई चाह उठती है, तब भीतर से शांति खो जाती और अशांति के वर्तुल खड़े हो जाते हैं, भंवर खड़े हो जाते हैं। जब भी मन में कोई चाह उठती है, तभी दीनता पकड़ लेती है। आदमी भिखारी की तरह भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो जाता है, भिक्षु हो जाता है।

जब भी मन में चाह उठती है, तभी दूसरे से तुलना शुरू हो जाती है;र् ईष्या निर्मित होती है, जेलेसी। और जेलेसी से ज्यादा गंदी और कोई चीज नहीं है चित्त में। जेलेसी, जलन से, प्रतिस्पर्धा से, तुलना से भरा हुआ मन ही कुरूप है, अग्ली है।

जैसे ही वासना उठती मन में, हिंसा उठती है। क्योंकि वासना को पूरा हिंसा के बिना किया नहीं जा सकता। फिर जो पाना है, वह किसी भी तरह पाना है। फिर चाहे कुछ भी हो, फिर उसे पा ही लेना है। फिर अंधा होता आदमी। जब वासना घनी होती है, तब ब्लाइंडनेस पैदा होती है। अंधा होता है। फिर आंख बंद करके दौड़ता पागल की तरह! क्योंकि अकेला ही नहीं दौड़ रहा है; और बहुत अंधे भी दौड़ रहे हैं। कोई और न छीन ले! संघर्ष होता। वैमनस्य होता। क्रोध होता। घृणा होती।

और मजा यह है कि सफल हो जाए वासना, तो भी फ्रस्ट्रेशन, तो भी विषाद हाथ में आता है। और असफल हो जाए वासना, तो भी विषाद हाथ में आता है। दोनों ही स्थिति में अंततः दुख के आंसू हाथ में पड़ते हैं।

इसे थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है। क्योंकि हमारा मन कहेगा, नहीं; अगर सफल हो जाए, फिर क्या? फिर तो सब ठीक है!

यही है राज कि सफल होकर भी वासना कहीं भी नहीं ठीक करती। असफल होकर तो करती ही नहीं; सफल होकर भी नहीं करती।

मैंने सुना है कि एक बड़े पागलखाने में एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए गया है। चिकित्सक ने पागलखाने के, उसे पागलों को दिखाया है। एक कोठरी में एक पागल बंद है, जो हाथ में एक तस्वीर लिए है। छाती से लगाता है; फिर देखता है; फिर आंसू टपकाता है। रोता है, चिल्लाता है। पूछा उस मनोवैज्ञानिक ने चिकित्सक को पागलखाने के कि क्या हो गया? क्या कारण है इसके पागलपन का? चिकित्सक ने कहा, हाथ में जो तस्वीर लिए है, वही कारण है। इस स्त्री को प्रेम करता था। यह इसे मिल नहीं पाई। इसलिए दुखी और पीड़ित है। दिन-रात छाती पीटता रहता है।

फिर वे आगे बढ़े और दूसरी कोठरी के सामने एक दूसरे आदमी को बाल नोचते, चेहरे को लहूलुहान करते देखा। पूछा मनोवैज्ञानिक ने, इस आदमी को क्या हुआ है? उस चिकित्सक ने कहा, इस आदमी को वह स्त्री मिल गई, जो उस आदमी को नहीं मिल पाई। यह उसकी वजह से पागल हो गया! एक पागल है इसलिए कि जो उसने चाहा था, वह नहीं मिला। एक पागल है इसलिए कि जो उसने चाहा, वह मिल गया है!

ऐसा ही होता है। चाहा हुआ मिल जाए, तो भी पता चलता है, कुछ भी नहीं मिला। चाहा हुआ न मिले, तब तो फिर चित्त दुखी और पीड़ित होता ही है। और दुख में उठे आंसू जितनी गंदगी और अपवित्रता लाते हैं, उतना और कुछ भी नहीं लाता।

ध्यान रखें, आंसू आनंद में भी उठ सकते हैं। लेकिन आनंद के आंसू बड़े पवित्र होते हैं, उनकी सुवास की कोई सीमा नहीं है। दुख में भी आंसू गिरते हैं, तब उनकी अपवित्रता, उनकी गंध का कोई हिसाब नहीं है। आंसू वही होते हैं; भीतर का चित्त बदला होता है।

वासना, कामना, इच्छा कीड़ा है, जो भीतर गंदगी को पैदा करता है। हम सब हजार इच्छाओं में जीते हैं, हजार तरह की गंदगियों में जीते हैं।

ज्ञान की स्वच्छ करने की शक्ति यही है कि ज्ञान के उतरते ही इच्छा तिरोहित होती है। इच्छा की जगह अस्तित्व शुरू होता है। डिजायरिंग की जगह, एक्झिस्टेंशियल होता है आदमी। फिर मांगता नहीं कि क्या मिले; जो मिला है, उसे परम प्रभु को धन्यवाद देकर चुपचाप स्वीकार करता है। दौड़ता नहीं है उसका चित्त कल के लिए; आज काफी है, पर्याप्त है। आज ही मिल गया है, यही क्या कम है। आज हूं, इतनी भी तो मेरी पात्रता नहीं है। जो मिला, वह मेरी योग्यता कहां है?

लेकिन कोई हममें से नहीं सोचता यह कि जो हमें मिला, उसकी हमारी योग्यता है? अगर मुझे आंखें न मिली होतीं, तो क्या मैं कह सकता था कि मेरी योग्यता है, मुझे आंखें दो! अगर मेरे पास हाथ न होते, तो क्या था प्रमाण मेरे पास कि मेरी योग्यता है, मुझे हाथ दो! अगर मैं जीवित ही न होता, तो क्या था उपाय कि मैं कहता कि मैं जीवन का अधिकारी हूं, मुझे जीवन दो! जो हमें मिला है, उसका हमें कोई हिसाब नहीं है, उसका कोई अनुग्रह नहीं है। क्योंकि वासना उसे दिखाई ही नहीं पड़ने देती, जो है। वासना कहती है वह, जो नहीं है।

वासना वैसी ही है, जैसे कभी दांत टूट जाए, तो जीभ वहीं-वहीं जाती है, जहां दांत नहीं है। सब दांतों को छोड़ देती है। दिनभर वहीं कुरेदती चली जाती है, जहां दांत नहीं है। उस जीभ से पूछो कि तू पागल हो गई! दांत इतने दिन था, तब कभी तूने छुआ भी नहीं। आज तुझे क्या हो गया है? खाली गङ्ढे को छूने में तुझे क्या हो रहा है? जो नहीं है, उसमें बड़ा रस है। जो है, उससे कोई प्रयोजन नहीं है।

वासना भी टूटे दांत को छूती रहती है दिन-रात, जो नहीं है। और बहुत कुछ है, जो नहीं है। अनंत है विस्तार जीवन का। सभी कुछ मेरे पास नहीं है। यद्यपि मेरे पास जो है, वह सभी कुछ से जरा भी कम नहीं है। लेकिन उसको देखे कौन? उसकी तरफ नजर कौन उठाए?

सुना है मैंने, एक आदमी रो रहा था रास्ते पर खड़ा हुआ। और एक फकीर से उसने कहा कि मुझे तो भगवान उठा ही ले, तो अच्छा। मेरे पास कुछ भी नहीं है। आज सुबह की चाय पीने के लिए पैसे भी नहीं हैं। उस फकीर ने कहा, घबड़ा मत। मैं समझता हूं, तेरे पास बहुत कुछ है; मैं बिक्री करवा देता हूं। उसने कहा, मेरे पास कुछ भी नहीं है इस चीथड़े के सिवा, जो मेरे शरीर पर अटका हुआ है। इसकी क्या बिक्री होगी, खाक! अगर होती हो, तो मैं बेचने को तैयार हूं। फकीर ने कहा, तू मेरे साथ आ।

वह उसे सम्राट के पास ले गया गांव के। दरवाजे पर उसने कहा कि मित्र, पहले तुझे बता दूं; ऐसा न हो कि बाद में तू बदल जाए। दाम अच्छे मिल जाएंगे। लेकिन बेचने की तैयारी है? उसने कहा, तू पागल तो नहीं है! मेरे पास कुछ है नहीं, जो बेचने योग्य हो। और इस महल में इन चीथड़ों को खरीदेगा कोई? चीथड़ों की वजह से मुझे भी निकालकर वे बाहर फेंक देंगे। भीतर प्रवेश भी मुश्किल है। है क्या मेरे पास? उस फकीर ने कहा कि देख, बाद में बदल मत जाना; दाम अच्छे मिल जाएंगे। वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा कि व्यर्थ मेरी सुबह खराब हुई तुम्हारे साथ आकर। तुम पागल मालूम पड़ते हो! फकीर ने कहा, तेरी मर्जी। अंदर चल!

सम्राट के पास जाकर कहा कि यह आदमी मैं ले आया। इस आदमी की दोनों आंखें आप खरीद लें। क्या दाम दे देंगे? आदमी घबड़ाया। उसने कहा, आंख! तुम बात क्या कर रहे हो? सम्राट ने कहा, लाख-लाख रुपया मैंने तय कर रखा है; जो भी आदमी आंख बेचे। वजीर को कहा, दो लाख रुपए ले आओ। और उस आदमी से कहा, सौदे में कोई तुम्हें एतराज तो नहीं है? कम तो नहीं हैं?

वह भिखारी एकदम भिखारी न रहा, एक क्षण में। क्योंकि भिखारी था वह टूटे हुए दांत पर जीभ मारने की वजह से। भिखारी न रहा। क्योंकि अब उसकी उन दांतों पर जीभ पड़ी, जो थे। उसने कहा, आप बात क्या करते हैं? आंखें मुझे बेचनी नहीं हैं। उस फकीर ने कहा, दो लाख मिलते हैं पागल! तू कहता था, कुछ भी मेरे पास नहीं है। भगवान को कोस रहा था। सुबह-सुबह दो लाख का सौदा करवाए देते हैं। तेरी ज्यादा मर्जी हो, तो ज्यादा बोल। कुछ ज्यादा भी मिल सकता है। उस आदमी ने कहा कि मुझे बाहर जाने का रास्ता बताओ। मुझे आंख बेचनी नहीं है। उस फकीर ने कहा, लेकिन लाखों की आंख तेरे पास हैं, कभी तूने भगवान को धन्यवाद दिया है?

लेकिन लाखों की आंख देखे कौन? आंखें तो कौड़ियों की इच्छाओं को देख रही हैं। आंखें तो कौड़ी भर इच्छा के पीछे दौड़ रही हैं। लाखों की आंख कौड़ियों की इच्छा करती है! करोड़ों का मन–हिसाब नहीं है दाम का मन के लिए–क्षुद्र घास-पात के लिए पीड़ित है और तड़फता है। अरबों की विवेक-शक्ति–दाम नहीं लगते, अरबों में भी नहीं हो सकते दाम–किसी काम नहीं पड़ती। कोई जरा-सी गाली दे जाता है और करोड़ों की विवेक-शक्ति हम जमीन पर लुढ़का देते हैं। असीम, अनंत, अमूल्य आत्मा क्षुद्रतम के लिए दांव पर लगा दी जाती है।

नहीं; वह भिखारी हमसे ज्यादा होशियार था। इनकार कर दिया, नहीं बेचता हूं आंख! हम तो आत्मा बेच देते हैं! आत्मा बेचने में भी देर नहीं करते। टुकड़ों पर बिक जाती है आत्मा! पैसों में बिक जाती है। तांबे के ठीकरों में बिक जाती है।

वासना हमें बुरी तरह भिखारी बना देती है।

ज्ञान स्वच्छ करता है वासना से; तृप्त करता है, जो है, उसमें। दौड़ाता नहीं उसके पीछे, जो नहीं है। हृदय से आलिंगन करा देता है उसका, जो है। अदभुत है तृप्ति, संतुष्टि फिर। उस संतुष्टि में वासना के सारे रोग और सारे विकार विदा हो जाते हैं; मन स्वच्छ हो जाता है। एकदम स्वच्छ और ताजा हो जाता है।

क्षण में जो जीता है, कल का जिसे हिसाब नहीं है, बीते कल का; आने वाले कल की जिसे अपेक्षा नहीं है; जो अभी और यहीं है, हियर एंड नाउ, उसकी स्वच्छता का कोई अंत नहीं है। वह पवित्रतम है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की तरह पवित्र करने वाला, ज्ञान के सदृश पवित्र करने वाली कोई कीमिया, कोई केमिस्ट्री नहीं है।

इसलिए अगर बुद्ध की आंखों में पवित्रता दिखाई पड़ती है ऐसी, कि जिससे झीलें भी झेंप जाएं। कि बुद्ध के चेहरे पर रेखाएं दिखाई पड़ती हैं ऐसी, कि छोटे बच्चे भी, नवजात शिशु भी शर्माएं। कि बुद्ध के चलने में चारों तरफ हवा बहती है स्वच्छता की, निर्मल, कि मलय पर्वत से उठी हुई सुगंधित हवाएं भी फिर से विचार करें कि वे मलय पर्वत से आती हैं या कहीं और से! अगर महावीर की नग्नता में भी पवित्रतम के दर्शन होते हैं, तो उसका कारण है। अगर जीसस सूली पर लटके हैं और मृत्यु के क्षण में भी उनके भीतर से जीवन की ऊर्जा ही झलकती और प्रकट होती है।

अगर मंसूर के हाथ-पैर काटे जा रहे हैं। हाथ से गिरते लहू में भी, पैर से टपकते लहू में भी मंसूर हाथ के पंजों को लहू में लगा लेता; फिर दोनों बाहुओं पर लगाता है। लोग भीड़ में खड़े हैं जो पत्थर फेंक रहे हैं; वे पूछते हैं कि मंसूर यह तुम क्या कर रहे हो? तो मंसूर कहता है, मैं वजू कर रहा हूं। नमाज के पहले जैसे मुसलमान हाथ धो डालता है। खून से वजू कर रहा है। अपने ही खून से! हंसता है और कहता है, यह खून भी परमात्मा की नसों में बहता हुआ पानी है। वह नदियों में बहता हुआ पानी भी परमात्मा की नसों में बहता हुआ खून है। यह भी उसकी ही धारा है; वह भी उसकी ही धारा है। सौभाग्य मेरा कि तुमने आज इतने निकट की धारा तोड़ दी और वजू करने मुझे दूर नहीं जाना पड़ रहा है। वहीं खून से वजू कर रहा है; हंस रहा है; मुस्कुरा रहा है।

लोग पत्थर फेंक रहे हैं और वह हंस रहा है। और मरते दम किसी ने उससे पूछा कि मंसूर, हम तुम्हें काट रहे हैं और तुम हम पर प्रेम बरसा रहे हो; मत झेंपाओ हमें, मत शर्माओ इतना। तो मंसूर ने कहा, इसलिए ताकि तुम याद रख सको कि प्रेम को पत्थरों से पीड़ित नहीं किया जा सकता है। और आत्माओं को छुरों से, तलवारों से भोंका नहीं जा सकता है। और प्रार्थना को दुनिया की कोई भी गाली अपवित्र नहीं कर सकती है। ताकि तुम स्मरण रखो।

यह जो इन व्यक्तियों के भीतर, और ऐसे हजार-हजार और व्यक्ति भी हुए हैं, इन सबके भीतर जो पवित्रता प्रकट होती है, वह कृष्ण के सूत्र का ही प्रमाण है। ज्ञान के सदृश और कुछ पवित्र करने वाला नहीं है।

ज्ञान ही एकमात्र पवित्रता है, नालेज इज़ प्योरिटी। साक्रेटीज ने कहा है, नालेज इज़ वर्च्यू, ज्ञान ही एकमात्र सदगुण है। वही कृष्ण कहते हैं।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान से ऊपर कुछ भी नहीं।

है भी नहीं। परम शिखर जीवन के अनुभव का, जान लेना है। निकृष्टतम खाई अज्ञान की, न जानने में पड़े रहना है। आत्म-अज्ञान गहनतम नर्क है; आत्म-ज्ञान श्रेष्ठतम स्वर्ग है। जो नहीं जानता अपने को, उससे नीचे और कुछ नहीं हो सकता। जो जान लेता अपने को, उसके ऊपर कुछ और नहीं है।

दो ही छोर हैं, अज्ञान और ज्ञान। इन दो के अतिरिक्त और कोई पोल्स नहीं हैं अस्तित्व के। एक तरफ अज्ञान का छोर है, जहां हम अपने को नहीं जानते। और जो अपने को नहीं जानता, वह और कुछ क्या जानेगा, खाक! कैसे जानेगा? उपाय क्या है? जो अपने को ही नहीं जानता, वह और क्या जानेगा? उसका सब जानना धोखा है। और जो अपने को जान लेता है, उसे और कुछ जानने को बचता नहीं। जिसने अपने को जान लिया, उसने सब जान लिया।

महावीर ने कहा है, जाना जिसने स्वयं को, जाना उसने सब। स्वयं को जाना, तो सर्वज्ञ हुआ। सभी कुछ जान लिया। क्यों? इतना बड़ा वक्तव्य! ऐसा कैटेगोरिकल, ऐसा निरपेक्ष वक्तव्य, कि जिसने अपने को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। निश्चय ही, क्योंकि जानने की पहली किरण स्वयं से अगर न टूटे, तो और कहीं से नहीं टूट सकती।

जो आदमी भीतर ही अंधेरा है, जिसके अपने ही घर का दीया बुझा है, जिसको अपना बुझा दीया ही जिंदगी बनी है, अपना दीया जलाने का स्मरण भी जिसे नहीं आया अब तक, उसे कहीं और प्रकाश कहां हो सकता है? उसके हाथ में भी प्रकाश दे दो, तो बेमानी है।

मैंने सुना है, एक रात एक अंधा एक घर में मेहमान था। लौटने लगा। अमावस की रात। घर से बाहर निकला। मित्र ने कहा, लालटेन साथ लेते चले जाएं। रास्ता बहुत अंधेरा है। अमावस की रात! अंधे ने कहा, मजाक करते हैं! भूल गए, मैं अंधा हूं। मुझे तो दिन भी अमावस ही है। क्या फर्क पड़ता है? पर मित्र भी साधारण न था। मजाक में बात न कही थी; अर्थ था, अभिप्राय था। कहा कि वह मैं जानता हूं। अंधे की मजाक करूं, इतना अंधा मैं नहीं। इतना कठोर मत समझो। नहीं, इसलिए नहीं कि तुम्हें प्रकाश में दिखाई पड़ने लगेगा, इसलिए नहीं कहता, लालटेन ले लो। इसलिए कहता हूं कि अंधेरे में कोई और तुमसे न टकरा जाए। हाथ में रहेगा प्रकाश, तो दूसरे को टकराने में थोड़ी असुविधा पड़ेगी। हालांकि प्रकाश रहते भी जिसको टकराना है, वह टकराता है; फिर भी थोड़ी सुविधा कम होगी। थोड़ी असुविधा, अड़चन आएगी। इसलिए लेते चले जाओ।

अंधे को भी कठिन हुआ। अब कोई उत्तर भी न था। ले ली लालटेन और चल पड़ा। और दस कदम भी नहीं चला होगा, सड़क के किनारे पर कोने पर पहुंचा ही था कि भड़ाम! कोई उससे आकर टकरा गया। पूछा अंधे ने, क्या कर रहे हैं? मैं नहीं गलत कर पाया अपने मित्र को, आप किए दे रहे हैं! दिखाई नहीं पड़ती रोशनी? हाथ में लालटेन है! दूसरे आदमी ने कहा, क्षमा करें! लालटेन बुझ गई है, आपको पता नहीं।

अंधे को पता भी कैसे चले कि लालटेन बुझ गई! अंधे के हाथ में लालटेन जैसा अर्थ रखती है, ऐसा ही स्वयं का जिसके प्रति अज्ञान है, उसके हाथ में जगत का सारा ज्ञान भी हो, तो बस ऐसा ही अर्थ रखता है। टक्कर होगी। थोड़ी-बहुत देर में लालटेन बुझेगी। अंधे को पता कैसे चले?

और मैं अगर उस मित्र की जगह होता, जिसने अंधे को लालटेन दी, तो अंधे को लालटेन कभी न देता। क्योंकि अंधे के हाथ में लालटेन अगर न होती, तो मैं मानता हूं कि वह उस दिन न टकराता। आप कहेंगे, कैसे? इसलिए न टकराता कि अंधे के हाथ में लालटेन न होती, तो वह टटोल-टटोलकर, सम्हाल-सम्हालकर, चिल्ला-चिल्लाकर, आवाज दे-देकर चलता। लालटेन की वजह से चला अकड़कर कि लालटेन है हाथ में; अब कौन टकराने वाला है! टक्कर हो गई।

अज्ञानी के हाथ में सारे जगत का ज्ञान दे दें, तो खतरा ही है। अज्ञानी के हाथ में ज्ञान न हो, वही बेहतर। आज यही तो हुआ है सारी दुनिया में। विज्ञान ने ज्ञान की राशि लगा दी अज्ञानी के हाथ में। परिणाम में हिरोशिमा, नागासाकी! परिणाम में तीसरा महायुद्ध किसी भी दिन! अज्ञानी के हाथ में ताकत है।

नादिरशाह ने एक दफा एक ज्योतिषी से पूछा कि मैंने एक किताब पढ़ी है–धर्मग्रंथ! उसमें लिखा है, ज्यादा देर सोना अच्छा नहीं। लेकिन मैं सुबह दस बजे सोकर उठता हूं। आपका क्या खयाल है? किताब ठीक कि मैं ठीक? ज्योतिषी ने कहा, किताब ठीक नहीं है; आप ही ठीक हैं। और मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप चौबीस घंटे सोए रहें, तो बहुत अच्छा है! नादिरशाह ने कहा, तुम्हारा मतलब? हिम्मत का आदमी रहा होगा वह ज्योतिषी। उसने कहा, मेरा मतलब यह कि किताब अच्छे आदमियों को ध्यान में रखकर लिखी गई है, बुरे आदमियों को ध्यान में रखकर नहीं। अच्छा आदमी जितना जागे, उतना अच्छा; बुरा आदमी जितना सोए, उतना अच्छा। क्योंकि वह जितनी देर सोए, उतनी देर दुनिया के लिए वरदान है। जितनी देर जागे, उतनी देर उपद्रव; होगा ही कुछ!

नादिरशाह जागे, उपद्रव न हो, ऐसा नहीं हो सकता। अज्ञानी के हाथ में अज्ञान ही अच्छा है; अज्ञानी के हाथ में ज्ञान खतरनाक है। ज्ञानी के हाथ में अज्ञान भी खतरनाक नहीं है, ज्ञान की तो बात ही क्या है!

यहां ज्ञान की जो बात कृष्ण कह रहे हैं, वह आत्मज्ञान है। स्वयं का ज्ञान प्राथमिक, फाउंडेशनल, मूलभूत ज्ञान है। उस ज्ञान को पा लेने से, कृष्ण कहते हैं, आत्मा में प्रवेश हो जाता है।

यह आखिरी बात भी समझ लेनी जैसी है।

आत्मा में प्रवेश हो जाता है। आत्मा से एकता हो जाती है। आत्मा में द्वार मिल जाता है। आत्मा ही हो जाता है, वैसा जानने वाला। तो क्या हम आत्मा नहीं हैं? हम सभी आत्मा हैं। सब किताबों में लिखा है! खुद कृष्ण ही कहते हैं कि सबके भीतर आत्मा है, वह मरती नहीं। जब हम सभी आत्मा हैं, तो अब ज्ञान की और क्या जरूरत है?

जार्ज गुरजिएफ कहा करता था कि जिन लोगों ने लोगों को समझाया कि सबके भीतर आत्मा है, उन्होंने जगत की बड़ी हानि की है। और जब उसने यह कहा, तो उसने बहुत सोच-विचारकर कहा है। गुरजिएफ ने उलटी बात कहनी शुरू की। इस बात को भलीभांति जानते हुए कि सभी के भीतर आत्मा है, गुरजिएफ ने कहना शुरू किया, सभी के भीतर आत्मा नहीं है। जो आत्मा को पैदा कर ले, उसी के भीतर है; बाकी तो बिना आत्मा के हैं।

गुरजिएफ का मतलब था। गुरजिएफ कहता था, सभी को यह खयाल हो गया है कि हमारे भीतर आत्मा है। जानें न जानें, है ही; पाएं न पाएं, है ही। फिर क्या फर्क पड़ता है? है तो। गुरजिएफ कहता था, तब तक है या नहीं बराबर है, जब तक जानी नहीं। जब तक जानी नहीं, तब तक न होने के बराबर है। उसके होने का क्या मतलब?

आपके घर में खजाना गड़ा है और आपको पता नहीं कि कहां गड़ा है। कुछ मतलब है? कोई बाजार में क्रेडिट मिलेगी उसकी? भिखमंगा हूं मैं और घर में खजाना गड़ा है। मेरा भिखमंगापन मिटेगा इससे? गड़ा रहे घर में खजाना; मुझे कुछ पता नहीं है, वह कहां है! जो खजाना पता न हो, वह न होने के बराबर है। जिसका पता हो, वही है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जान लेता, वही आत्मा को उपलब्ध होता है। ज्ञान ही आत्मा है। अज्ञान का क्या अर्थ है, कि आत्मा है? सुनी हुई बातों की, खबरों की कोई कीमत है!

हम सबने सुना है, आत्मा है, बड़े निश्चिंत हैं। सोचते हैं, है ही। फर्क क्या है हममें और ज्ञानी में? थोड़ा ही फर्क है कि वह जानता है और हम नहीं जानते। फर्क कुछ भी नहीं है, हम सोचते हैं। फर्क बहुत बड़ा है। क्योंकि यह न जानना, न होने के बराबर है, इक्वीवेलेंट, बिलकुल समतुल।

जब तक अज्ञान है, तब तक अनात्मा है। जब ज्ञान है, तभी आत्मा है। ज्ञान के पहले यह कहना कि मेरे भीतर आत्मा है, धोखा है बड़े से बड़ा। दूसरे के लिए नहीं, अपने लिए धोखा है। क्योंकि हो सकता है, दोहराते-दोहराते कि मैं आत्मा हूं, मैं यह भूल ही जाऊं कि मुझे पता नहीं है और मैं उधार शब्द दोहरा रहा हूं!

इस मुल्क में ऐसी दुर्घटना घटी है। कभी-कभी सौभाग्य भी दुर्भाग्य हो जाते हैं। इस मुल्क ने कृष्ण की वाणी सुनी; इस मुल्क ने बुद्ध के वचन सुने; इस मुल्क ने महावीर के शब्द सुने; इस मुल्क ने पतंजलि, शंकर, नागार्जुन, वसुबंधु, धर्मकीर्ति, दिग्नाग–न मालूम कितने जानने वाले लोगों की वाणी को पीया। सौभाग्य होना चाहिए था यह; लेकिन हो गया दुर्भाग्य। सुन-सुनकर हम भी दोहराने लगे, हम भी कहने लगे, आत्मा है; ब्रह्म है।

पान की दुकान पर भी ब्रह्मचर्चा चलती है, विवाद चलते हैं! पान भी चलता है, ब्रह्मचर्चा भी चलती है! ऐसी ब्रह्मचर्चा महंगी पड़ी। महंगी इसलिए पड़ी कि सुन-सुनकर, सुन-सुनकर ऐसा लगा कि हम जानते हैं। और अज्ञान में खयाल आ जाए कि जानते हैं, तो आत्मा में प्रवेश कभी नहीं हो पाता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जानता है, वही आत्मा को उपलब्ध होता है, वही प्रवेश कर पाता है, वही आत्मा हो पाता है।

आत्मा होना खेल नहीं है, बड़ी से बड़ी तपश्चर्या है। स्वयं को जानना लंबी यात्रा है। लेकिन दूसरे के उधार शब्दों को कंठस्थ कर लेना बड़ी सुगम बात है। स्कूल के बच्चे कर सकते हैं। बूढ़े भी वही करते रहते हैं।

मैं एक अनाथालय में गया था। बच्चे मुझे बताए गए। और शिक्षकों ने कहा कि हम इन्हें धर्म-शिक्षा देते हैं। मैंने कहा, मैं भी जानूं; क्योंकि मैंने अब तक सुना नहीं कि धर्म की शिक्षा हो सकती है। उन्होंने कहा, क्या बात करते हैं? सब बच्चे परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए हैं धर्म की! मैंने कहा, धर्म की कोई परीक्षा हो सकती है? फिर भी मैं देखूं।

पूछा एक बच्चे को खड़ा करके उन्होंने कि बोलो, आत्मा है? उसने कहा, है। परमात्मा है? उसने कहा, है। और बाकी बच्चे भी हाथ हिलाने लगे। फिर उन्होंने पूछा, आत्मा कहां है? सब बच्चों ने अपने हृदय पर हाथ रख दिए कि यहां।

मैंने एक छोटे बच्चे से पूछा कि हृदय कहां है? उसने कहा, यह तो कोर्स में ही नहीं है। हृदय कहां है, यह लिखा ही नहीं है। पढ़ाया ही नहीं गया!

मैंने उन शिक्षकों से कहा कि यह इनको तुमने कंठस्थ करवा दिया; इनका तुमने बड़ा अहित किया। अब ये याद कर-कर के जिंदगी में बाद में भूल ही जाएंगे कि हमको पता नहीं है। जब भी सवाल उठेगा, आत्मा है, बचपन में सीखा गया हाथ ऊपर हिलने लगेगा, है। कोई पूछेगा, आत्मा कहां है? यंत्र की तरह हाथ छाती पर चला जाएगा, यहां। इन्हें कुछ भी पता नहीं है कि ये कहां हाथ रख रहे हैं। वहां क्या है, उसका पता नहीं है। जो हाथ रख रहे हैं, उस हाथ में कौन है, उसका पता नहीं है। जो उत्तर दे रहा है, वह कौन है, उसका पता नहीं है। कुछ भी इन्हें पता नहीं है।

मैं निरंतर सोचता हूं कि इन बच्चों में और हमारे बूढ़ों में कोई बहुत फर्क है? उम्र का फर्क है। और उम्र के फर्क की वजह से याददाश्त धुंधली हो जाती है कि बचपन में हमने याद की थीं बातें। वह याद की थीं, जानी नहीं थीं। बुढ़ापे तक उनको दोहराते चले जाते हैं।

ऐसे नहीं होगा। इतना सुगम नहीं है। धर्म गणित की भांति नहीं है कि सीख लिया, दो और दो चार। धर्म फिजिक्स की भांति, भौतिकशास्त्र की भांति नहीं है कि सीख लिया, ग्रेविटेशन क्या है, गुरुत्वाकर्षण क्या है; कि न्यूटन के कानून क्या हैं; कि आइंस्टीन की रिलेटिविटी, सापेक्षता क्या है। सीख लिया, पढ़ लिया और सीख गए और जान गए। धर्म विज्ञान, साहित्य, काव्य, गणित, भाषा–इनमें से किसी की भांति नहीं है।

धर्म है प्रेम की भांति। वही जानता है, जो करता है। वही जानता है, जो धर्म हो जाता है। और कोई उपाय नहीं है। इसलिए धर्म के हम कोई विश्वविद्यालय खड़े नहीं कर सकते हैं। हिंदू विश्वविद्यालय खड़ा कर सकते हैं, मुस्लिम विश्वविद्यालय खड़ा कर सकते हैं। धर्म का विश्वविद्यालय खड़ा नहीं कर सकते। क्योंकि धर्म का विश्वविद्यालय तो जीवन ही है। और यही जीवन नहीं, जो बाहर दिखाई पड़ता है; इससे भी ज्यादा वह जीवन, जो भीतर डूबा है और दिखाई नहीं पड़ता। उसको ही जान लेना ज्ञान है। और उस ज्ञान के बाद जो फलित होता है अनुभव, वह आत्मा है।

एक और अंतिम बात, कि आत्मा का जब अनुभव होता है, तो ऐसा नहीं होता कि मेरी है। आत्मा शब्द थोड़ा-सा गलत है। उसमें अपने का खयाल पैदा होता है। आत्मा यानी मेरी, अपनी, स्वयं की! आत्मा शब्द थोड़ा-सा गलत है। शब्द तो सभी थोड़े-से गलत होंगे ही; क्योंकि सत्य किसी शब्द में बंधता नहीं, अटता नहीं।

इसलिए बुद्ध ने तो इस गलत शब्द की वजह से कहना शुरू किया, आत्मा नहीं, अनात्मा है। इसलिए बुद्ध को बिलकुल ही नहीं समझा जा सका। आत्मवादी भी नहीं समझ सके। वादी तो समझेगा क्या! वादी सदा अज्ञानी होता है। ज्ञानी वादी नहीं होता। आत्मवादी भी नहीं समझ सके। उन्होंने कहा, अरे बुद्ध कहते हैं कि आत्मा नहीं, अनात्मा, अनत्ता, नो सेल्फ! यह आदमी तो खतरनाक है; यह आत्मा को इनकार करता है!

बुद्ध कह रहे थे बड़ी गहरी बात। वे कह रहे थे कि जब आत्मा का अनुभव होता है, तो ऐसा नहीं लगता कि मेरी है; इसलिए आत्मा कहना ठीक नहीं। ऐसा नहीं लगता कि यह मैं हूं; इसलिए मैं का कोई भी शब्द जोड़ना ठीक नहीं। ऐसा ही लगता है, सब है; आकाश की भांति, आंगन की भांति नहीं। घर के आंगन की भांति नहीं, चहारदीवारी में बंद; आकाश की भांति, कोई दीवाल नहीं, कोई सीमा नहीं।

तो बुद्ध ने कहा, आत्मा क्या कहूं! कहता हूं, अनात्मा है, नो सेल्फ। है ही नहीं सेल्फ वहां। बड़ी अजीब बात है! बुद्ध कहते हैं, इन दि नोइंग आफ दि सेल्फ, देयर इज़ नो सेल्फ, आत्मा के अनुभव में आत्मा है ही नहीं।

ठीक कहते हैं। एकदम ठीक कहते हैं। वहां कोई मैं का भाव नहीं रह जाता है। आत्मा यानी परमात्मा। जैसे ही किसी ने जाना कि मैं क्या हूं, वैसे ही उसने जाना कि मैं सब हूं।

जैसे ही बूंद ने पहचाना कि मैं कौन हूं, कि बूंद ने समझा कि मैं सागर हूं। जब तक बूंद ने नहीं जाना कि मैं कौन हूं, तब तक वह बूंद है। जिस दिन जाना कि मैं कौन हूं, उस दिन वह सागर है। क्योंकि एक छोटी-सी बूंद में पूरा का पूरा सागर मौजूद है। एक छोटी-सी बूंद के गुणधर्म को हम समझ लें, पूरे सागर का गुणधर्म समझ में आ जाता है। छोटी-सी बूंद मिनिएचर ओशन है, छोटा-सा सागर। कहीं सागर छोटे हुए! सागर तो पूरा है। छोटा-सा दिखाई पड़ता है। है पूरा का पूरा।

आत्मा का जानना यानी परमात्मा का जानना है।

इसलिए ज्ञान सर्वोच्च है, क्योंकि उसी से हम सर्वोच्च शिखर परमात्मा को स्पर्श कर पाते हैं। अज्ञान निकृष्ट है, क्योंकि उसी के कारण हम सर्वोच्च के प्रति पीठ कर पाते हैं।

एक प्रश्न और ले लें।

प्रश्न:

भगवान श्री, इस श्लोक में कहा गया है कि योग संसिद्धि अर्थात समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्ध अंतःकरण का पुरुष ज्ञान को आत्मा में अनुभव करता है। कृपया योग संसिद्धि के अनुवाद, समत्वबुद्धिरूप योग का अर्थ स्पष्ट करें।

योग संसिद्धि, जहां योग सिद्ध हो जाता, उस घड़ी में। फिर सिर्फ सिद्ध नहीं, संसिद्ध, सम्यकरूप से सिद्ध हो जाता, उस घड़ी में। जहां योग सम्यकरूप से सिद्ध हो जाता; मिलन, जोड़, जहां बूंद और सागर जुड़ते, मिलते सम्यकरूप से, पूर्णरूप से, समग्ररूप से; जहां मिलन संसिद्ध होता, उस घड़ी में शुद्ध हुआ अंतःकरण। उसका रूपांतर ठीक है, समत्वबुद्धि को उपलब्ध। एक ही बात है।

बुद्धि सम तभी होती, जब योग सिद्ध होता। जब व्यक्ति का समष्टि से मिलन होता, तभी बुद्धि सम होती। उसके पहले बुद्धि डोलती ही रहती; विषम होती। यहां से वहां, इधर से उधर डोलती रहती।

हमारी बुद्धि सदा विषम है, डोलती रहती है। और ऐसा भी नहीं है कि एक ही तरफ डोलती है, सदा विपरीत तरफ डोलती रहती है, कंट्राडिक्टरी डोलती रहती है, घड़ी के पेंडुलम की तरह।

घड़ी का पेंडुलम देखते हैं आप? कभी-कभी गौर से देखना चाहिए। पुरानी घड़ियां अच्छी थीं, जिनमें पेंडुलम होता था; उससे आदमी की खोपड़ी का पता चलता था। नई घड़ियां बहुत चालाक हैं, उनसे कुछ पता नहीं चलता।

पुरानी घड़ी का पेंडुलम डोलता रहता था नीचे, टिक-टिक। एक कोने से दूसरे कोने, टिक-टिक। कभी देखा खयाल से? जब पेंडुलम बाईं तरफ जाता है, तब वह दाईं तरफ जाने का सामर्थ्य इकट्ठा करता है। जब वह बाईं तरफ जाता है, तब वह दाईं तरफ जाने का मोमेंटम पैदा करता है। असल में बाईं तरफ जाकर, वह दाईं तरफ जाने की शक्ति अर्जित करता है। बड़ी उलटी बात होती है। जब दाईं तरफ जाता है, तब बाईं तरफ जाने की तैयारी कर रहा है।

जब कोई आदमी आपकी प्रशंसा करता है, तब सम्हलना, अब वह थोड़ी देर में निंदा करेगा! पेंडुलम गया प्रशंसा की तरफ, वह तैयारी है निंदा की तरफ जाने की। हमेशा समझना कि अब यह बेचारा मुश्किल में पड़ता है थोड़ी-बहुत देर में। अब यह कहीं जाकर निंदा करेगा। तब लौटेगा पेंडुलम। नहीं तो वह लौटेगा कैसे? जो कोई आदमी प्रेम करता है, वह घृणा की तैयारी कर रहा है। जो घृणा करता है, वह प्रेम की तैयारी कर रहा है। बड़ी उलटी बात लगेगी। लेकिन ऐसा ही है।

कोई आदमी मुझे आदर दे जाता है, मैं समझ जाता हूं कि अब यह चौबीस घंटे के भीतर निपटारा करेगा। रात बारह बजे तक जागकर गाली देगा किसी तालाब के किनारे बैठकर। बहुत मुश्किल है। इसको कुछ करना ही पड़ेगा। इसको करना ही पड़ेगा। यह कमिटमेंट हुआ। यह बच नहीं सकता। यह प्रतिबद्ध है।

इसलिए जब मुझे कोई दूसरे दिन सुबह आकर खबर देता है कि फलां आदमी रात बारह बजे तक तालाब के किनारे बैठकर आपको गाली देता था, तो वह चकित होकर आकर बताता; मैं कहता, मैं भलीभांति जानता, क्योंकि वह कल शाम मेरी प्रशंसा कर गया था। नींद कैसे आती? रात हलका हो गया होगा। पेंडुलम वापस लौट गया। वह घर आकर सो गया होगा।

ऐसा ही है। मन पूरे समय ऐसा ही है। विषम में डोलता रहता है, विपरीत में डोलता रहता है। ऐसे मन को लेकर प्रभु-मिलन नहीं हो सकता। क्यों नहीं हो सकता? विषम बुद्धि वाला मन प्रभु-मिलन को क्यों उपलब्ध नहीं हो सकता? क्योंकि मंदिर में की गई प्रार्थना, दोपहर बाजार में इनकार की जाएगी; मंदिर में की गई प्रार्थना, बाजार की भीड़ में खंडित की जाएगी।

टाल्सटाय ने अपना एक संस्मरण लिखा है। एक दिन सुबह-सुबह जल्दी नींद खुल गई। और टाल्सटाय चल पड़ा चर्च की ओर। पहुंच गया। पांच बजे थे, कुहासा छाया था मास्को नगर में। चारों तरफ अंधेरा था। सूरज के उगने में घंटों की देर थी। चर्च के भीतर गया। आवाज सुनाई पड़ी। आवाज कुछ पहचानी मालूम पड़ी, तो चुपचाप धीरे-धीरे भीतर गया। कोई प्रायश्चित्त कर रहा है, कोई रिपेंटेंस कर रहा है। आवाज पहचानी हुई लगी कि कोई परिचित है।

टाल्सटाय शाही घराने का आदमी था; खुद काउंट था। कौन होगा? धीरे-धीरे सरककर पीछे पहुंचा। देखा, गांव का, मास्को का सबसे बड़ा धनपति खड़ा हुआ परमात्मा से कह रहा है अंधेरे में कि हे प्रभु, मैंने बहुत पाप किए। मैं चोर हूं, बेईमान हूं, बुरा हूं। मुझसे बुरा कोई भी नहीं है! टाल्सटाय ने कहा, अरे, यह आदमी इतना बुरा! क्योंकि इसको तो हम सोचते थे, बहुत अच्छा है। इसको तो गांव में लोग धर्मवीर कहते हैं। मंदिर बनाता, चर्च बनाता। यह चर्च भी उसका ही बनाया हुआ है। और यह आदमी पापी और सबसे बुरा।

स्वभावतः, टाल्सटाय को लगा, भागूं और जाकर बाजार में खबर करूं कि हम बड़ी भूल में पड़े हैं। पर कहा, थोड़ा रुक जाऊं, इससे मिलकर जाऊं।

उस आदमी की प्रार्थना पूरी हुई। सुबह की किरणें फूटने लगीं। उस आदमी ने पीछे लौटकर देखा; देखा, लिओ टाल्सटाय! घबड़ाया। और उसने कहा, देखो महाशय, जो कुछ सुना है, उसे तत्काल भूल जाओ। वह मैंने कहा ही नहीं। टाल्सटाय ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? अगर आपने नहीं कहा, तो किस चीज को भूलने के लिए कह रहे हैं! उसने कहा, ठीक से समझ लो। ये शब्द जो मैंने यहां कहे, भूल जाओ। समझो कि मैंने कहे ही नहीं। और अगर कहीं इन शब्दों को मैंने सुना कि तुमने किसी को बताया, तो अदालत में मानहानि का मुकदमा चलाऊंगा। टाल्सटाय ने कहा, गजब कर रहे हैं आप! अभी आप कह रहे थे कि मुझसे बड़ा पापी और कोई भी नहीं!

टाल्सटाय को पता नहीं, पेंडुलम घूम गया। गया! बात खतम हो गई। वह आदमी मुकदमा चलाने को उत्सुक है; अभी प्रायश्चित्त करने को उत्सुक था! क्या हो रहा है?

ऐसा विषम मन कभी भी आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकता। आत्मा के प्रवेश की जो पतली-सी द्वार-रेखा है–कहता हूं द्वार-रेखा, डोर लाइन; दरवाजा तो बहुत बड़ा होता है; रेखा मात्र है प्रवेश की–वह संतुलन है, वह बैलेंस है, समत्व है।

जहां चित्त न बाएं होता, न दाएं; मध्य में होता है; इतने मध्य में होता है कि न तो हम कह सकते दाएं है, न हम कह सकते बाएं है; न हम कह सकते पक्ष में, न विपक्ष में; न हम कह सकते घृणा में, न प्रेम में; न हम कह सकते क्षमा में, न क्रोध में; न हम कह सकते परिग्रह में, न अपरिग्रह में; न राग में, न विराग में। जहां व्यक्ति इतने बीच में खड़ा है कि न विरागी है, न रागी है, उस समत्व बुद्धि के क्षण में योग संसिद्धि होती है। या इस क्षण में बुद्धि समत्व को उपलब्ध होती है। बस, उसी क्षण में छलांग लग जाती है और व्यक्ति उस अपरिसीम में डूब जाता है।

ऐसी संसिद्धि से शुद्ध हुआ अंतःकरण!

समत्व में शुद्ध हो जाता है सब, क्योंकि अशुद्धि अति से आती है। अति अशुद्धि है, एक्सट्रीम इज़ दि इंप्योरिटी। एक अति एक तरह की अशुद्धि है, दूसरी अति दूसरी तरह की अशुद्धि है। अनति, एक्सट्रीम नहीं, मध्य, जिसको बुद्ध ने कहा, मज्झिम निकाय, दि मिडिल पाथ, बीच का मार्ग, न इस ओर, न उस ओर, जहां ठीक बीच में…। एक छोटी-सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूं।

बुद्ध के पास एक युवक दीक्षित हुआ। संगीत में कुशल था। अदभुत थी वीणा की उसकी सामर्थ्य। लेकिन आया। था सम्राट; भोग में पला; भोग में जीया। आया तो दूसरी अति पर चला गया। दूसरे भिखारी, दूसरे भिक्षु, दूसरे साधु-संन्यासी रास्ते पर चलते, तो वह कांटों में चलता। दूसरे एक ही वस्त्र पहनते, तो वह नंगा खड़ा होता। दूसरे एक बार भोजन करते, तो वह दो दिन में एक बार भोजन करता।

छः महीने में सूखकर हड्डी हो गया। पैर घाव से भर गए। चेहरा पहचानना मुश्किल हो गया। सुंदर थी काया उसकी, बड़ी स्वर्ण-काया थी। आया था, तो कोई भी मोहित हो जाए, ऐसा शरीर था। अब तो देखकर विरक्ति होती, विकर्षण होता। कोई पास आता, तो बदबू आती!

भिक्षुओं ने बुद्ध से कहा, क्या कर रहा है तुम्हारा वह साधक? वह अपने को मारे डाल रहा है! हम तो सोचते थे, इतने सुख में पला! कहते हैं, उसके घर में कभी वह गद्दियों से नीचे नहीं उतरा; मखमल के कालीनों से नीचे नहीं चला। कहते हैं, कभी उसने पैर पृथ्वी पर नहीं रखा; धूल नहीं छुई कभी उसके पैरों को। सुनते हैं, उसके घर में गुलाब के जल से स्नान करता था। सुनते हैं, उसके घर में वायु सदा सुवासित रहती थी दूर-दूर से आए इत्रों से। कहते हैं लोग, कथाएं हैं कि सीढ़ियां चढ़ता था, तो नग्न स्त्रियां सीढ़ी के किनारे खड़ी रहतीं रेलिंग की तरह; उन पर हाथ रखकर कंधे पर, ऊपर जाता था। ऐसा यह आदमी, इतना कष्ट झेलता है! असंभव घटित होता है!

बुद्ध ने कहा, नहीं भिक्षुओ! संभव घटित हो रहा है। जो आदमी एक अति पर रुग्ण होता, वह अक्सर दूसरी अति पर पुनः रुग्ण हो जाता है। मध्य में रुकना मुश्किल है–पेंडुलम की भांति।

पर उन्होंने कहा, अब वह मर जाएगा, जी न सकेगा। बिलकुल सूखकर कांटा हो गया है। पहचानना मुश्किल है। पास खड़े होने में बदबू आती है। स्नान नहीं करता है वह। कहता है, स्नान करूंगा, तो शरीर की सज्जा हो जाएगी। वह जो इत्रों से नहाता था, अब साधारण से गांव के गंदे डबरे में भी नहीं नहाता है। कहता है, शुद्धि हो जाएगी शरीर की। शरीर को सजाना क्या? शरीर के सौंदर्य का प्रयोजन क्या?

बुद्ध उसके पास गए सांझ और कहा, भिक्षु श्रोण! मैंने सुना कि तू जब सम्राट था, तो तू वीणा बजाने में बड़ा कुशल था। एक प्रश्न पूछने आया हूं। वीणा के तार अगर बहुत ढीले हों, तो संगीत पैदा होता है? भिक्षु श्रोण ने कहा, पागल हुए हैं आप! आप जैसा ज्ञानी और ऐसे सवाल पूछता! वीणा के तार ढीले हों, तो संगीत पैदा कैसे होगा? टंकार ही पैदा नहीं होती। तो बुद्ध ने कहा, तार बहुत कसे हों, तब भिक्षु श्रोण संगीत पैदा हो सकता है? उसने कहा, नहीं; अगर तार बहुत कसे हों, तो टूट जाएंगे। संगीत पैदा नहीं होगा। तार चाहिए सम, न बहुत कसे, न बहुत ढीले। तार चाहिए मध्य, न इस तरफ, न उस तरफ। तार चाहिए ऐसे कि न तो कहा जा सके कि ढीले हैं, न कहा जा सके कि कसे हैं।

तो बुद्ध ने कहा कि मैं जाता हूं भिक्षु श्रोण! तू बुद्धिमान है। तुझसे कुछ कहने की मुझे जरूरत नहीं है। कुछ कहने आया था, अब नहीं कहता हूं। इतना ही कहता हूं कि जो वीणा में संगीत पैदा होने का नियम है, वही प्राणों में भी संगीत पैदा होने का नियम है। तार बहुत कस मत, बहुत ढीले भी मत छोड़। समत्व को उपलब्ध हो। बीच में आ। मज्झिम निकाय। अति को छोड़।

कृष्ण कहते हैं, समत्व बुद्धि को उपलब्ध हुआ, योग संसिद्धि को उपलब्ध हुआ, शुद्ध अंतःकरण उस आत्मा से एक हो जाता है।

शेष सुबह हम बात करेंगे।

अभी संन्यासी धुन में प्रवेश करेंगे। तो आप थोड़े पीछे हट जाएं, जगह खाली छोड़ दें। और यहां मंच पर कोई न आए, पीछे हट जाएं। जिनको देखना है, वे देखें। बैठे रहेंगे, तो सबको देखना संभव हो जाएगा।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–2) प्रवचन–17

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इंद्रियजय और श्रद्धा— (अध्याय 4) प्रवचन—सत्रहवां

श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। 39।।

और हे अर्जुन, जितेंद्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है। ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत्प्राप्तिरूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।

जितेंद्रिय हुआ पुरुष, श्रद्धावान चित्त वाला ज्ञान को उपलब्ध होता है; ज्ञान से परम शांति को, परम प्रभु को उपलब्ध होता है।

पहली बात, जितेंद्रिय हुआ पुरुष–इंद्रियों को जिसने जीता, ऐसा पुरुष।

साधारणतः सोचते हैं हम कि जितेंद्रिय होगा वह, जो इंद्रियों से लड़ेगा, उन्हें हराएगा। यहीं भूल हो जाती है। जो इंद्रियों से लड़ेगा, वह हारेगा; जितेंद्रिय कभी भी नहीं हो सकेगा। इंद्रियों को जीतने का सूत्र इंद्रियों से लड़ना नहीं, इंद्रियों को जानना है। इंद्रियां जीती जाती हैं इंद्रियों के साक्षात्कार से। जो पुरुष इंद्रियों से लड़ने में लग जाता, वह इंद्रियों से निरंतर हारता है। जो लड़ेगा, वह हारेगा। जो जानेगा, वह जीतेगा।

ज्ञान विजय है। इंद्रियों का ज्ञान विजय है।

लड़ने से ज्यादा से ज्यादा दमन हो सकता है, सप्रेशन, रिप्रेशन हो सकता है। जिसे हम दबाते हैं, वह लौट-लौटकर उभरता है। जिसे हम दबाते हैं, उसे हम और शक्ति देते हैं। क्रोध को दबाया, तो और गहन हिंसा होकर प्रकट होगा। काम को दबाया, तो और विकृत, विषाक्त होकर प्रकट होगा। अहंकार को दबाया, तो एक कोने से दबाएंगे, दस कोनों से निकलना शुरू होगा।

इंद्रियों को दबाया नहीं जा सकता। क्यों? क्योंकि दबाता वही है, जो इंद्रियों को जानता नहीं है। जो जानता है, वह दबाता ही नहीं है। क्योंकि जो जान लेता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं।

बेकन ने कहा है, नालेज इज़ पावर, ज्ञान शक्ति है।

यह तो उसने विज्ञान की दृष्टि से कहा है, साइंस की दृष्टि से। यह तो उसने कहा है कि हम जितना जान लेंगे प्रकृति को, उतने ही हम शक्तिशाली हो जाएंगे। लेकिन उसका यह वचन अंतःप्रकृति के लिए भी सत्य है।

आकाश में चमकती है बिजली, सदा से चमकती रही है। जब तक नहीं जानते थे उसे, तब तक प्राण थरथराते थे और घबड़ाहट ही पैदा होती थी। जो नहीं जानते थे, वे सोचते थे कि इंद्र हमारे पापों के लिए, दंड देने के लिए टंकार कर रहा है। इंद्र हमें दंड देने के लिए शक्ति को फेंक रहा है। स्वाभाविक! गड़गड़ाहट बिजली की, चमकती हुई उसकी अग्नि, रात के अंधेरे में प्राणों को थर्रा जाती हो, आश्चर्य नहीं है।

क्या यह संभव था कि वे लोग, जो नहीं जानते थे कि विद्युत क्या है, अगर आकाश की बिजली से लड़ते, तो कभी जीत पाते? कभी भी नहीं जीत पाते। आकाश की बिजली से लड़ते, तो मरते, टूटते, नष्ट होते। लड़ भी न पाते; जीतने का तो उपाय नहीं था। लेकिन जिन्होंने आकाश की बिजली के राज को समझने की कोशिश की, रहस्य को जानने की, उसकी सीक्रेट-की, उसकी कुंजी को खोज लेने की, वे मालिक हो गए। आज बिजली, वही बिजली, जो आकाश में कंपती, गर्जन करती, प्राणों को घबड़ा जाती थी, वही बिजली अब घरों में प्रकाश बनकर, आपके हाथ में सेवक बनकर काम करती है। वही बिजली चाकर हो गई है! जो दंड देती मालूम पड़ती थी, वही सेवक हो गई है।

बेकन ने कहा था नालेज इज़ पावर, बहिर्प्रकृति के संबंध में। जो-जो हम जान लेते हैं, उसके हम मालिक हो जाते हैं। टु नो इज़ टु बी दि मास्टर, जाना कि मालिक हुए। नहीं जाना कि गुलामी भाग्य में होगी; गुलामी ही फिर नियति है। जान लिया हमने जिस-जिस बात को, उस-उस के हम मालिक होते चले गए। अंतःप्रकृति के संबंध में भी यही सत्य है।

इसलिए जब कृष्ण कहते हैं, जितेंद्रिय पुरुष, तो भूलकर यह मत समझ लेना, जैसा आमतौर से समझा जाता है कि वह पुरुष, जिसने अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया। नहीं, जितेंद्रिय पुरुष वह है, जिसने अपनी इंद्रियों के सब सीक्रेट, सब राज जान लिए। जानते ही मालिक हो गया है, जितेंद्रिय हो गया है।

इंद्रियां हार जाती हैं ज्ञान से; इंद्रियां प्रबल हो जाती हैं अज्ञान से। इंद्रियों से लड़ता है जो, वह इंद्रियों के ही चक्कर में पड़ता है। जितेंद्रिय होने का मार्ग, अंतःप्रकृति का ज्ञान है।

उदाहरण के लिए, आप जानते हैं, क्रोध क्या है? आकाश में गूंजती, आकाश में कंपती बिजली से कम रहस्यपूर्ण नहीं है। आपकी अंतःप्रकृति में बिजली कौंध गई है। जानते हैं, क्रोध क्या है? जानते नहीं हैं। किया होगा बहुत बार; क्योंकि आकाश में बिजली को बहुत बार चमकते देखा हो, तो भी हम जान नहीं लेते हैं। देख लेना, जान लेना नहीं है। पता हो जाना, जान लेना नहीं है।

क्रोध का पता है कि भीतर कौंधता है, लेकिन क्रोध क्या है? यह अंतःआकाश में कौंध गई बिजली क्या है, जानते हैं? नहीं जानते। और अगर लड़ने गए, तो हारेंगे क्रोध से, जीतेंगे नहीं। कैसे जीतेंगे? जिसे जानते नहीं, उसे जीतने का उपाय नहीं है।

लेकिन क्रोध से हम लड़ते हैं। लड़कर हम क्या कर सकते हैं? हम इतना ही कर सकते हैं कि जब क्रोध आए, तो हम दबाएं। दबेगा कहां? और भीतर! दमन सब भीतर ही चला जाता है। उठेगा, हम दबा देंगे; और अंतःपुरों में प्रविष्ट हो जाएगा; और गहरे प्रकोष्ठों में दब जाएगा। फिर वहां प्रतीक्षा करेगा। रोज-रोज दबाएंगे, इकट्ठा होता जाएगा।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग हत्याएं कर देते हैं, आमतौर से वे लोग होते हैं, जो रोज क्रोध नहीं करते हैं। जो लोग छोटी-छोटी बात में क्रोध कर लेते हैं, उनके बाबत एक भविष्यवाणी की जा सकती है कि हत्यारे वे नहीं हो सकते हैं। रोज-रोज निकल जाता है; इतना इकट्ठा नहीं हो पाता है कि हत्या कर पाएं। हत्या करने के लिए बहुत क्रोध इकट्ठा होना चाहिए। विस्फोट होता है फिर, एक्सप्लोजन होता है। रोज-रोज निकल जाता है, तो लीकेज, विस्फोट होने का मौका नहीं आ पाता। रोज-रोज भाप निकल जाती है।

इसलिए भले हैं वे लोग, जो रोज छोटा-मोटा क्रोध करके निपट लेते हैं। भले इस अर्थों में हैं कि उनसे बहुत बड़े खतरे की संभावना नहीं है। लेकिन खतरनाक हैं वे लोग, जो भले दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि वे इकट्ठा करते हैं। दस-पंद्रह दिन, महीना, दो महीना, वर्ष, दो वर्ष कोई इकट्ठा कर ले, तो फिर विस्फोट होता है। वह विस्फोट फिर इतना गहन हो जाता है, वह इतना इंटेंस हो जाता है कि वह आदमी खुद ही नहीं जानता कि क्या हो रहा है। हो जाता है।

दुनिया के बड़े से बड़े पाप, इकट्ठे पाप का विस्फोट हैं। छोटे-छोटे उपद्रव कर लेने वाले लोग महापाप नहीं कर पाते हैं। रोज-रोज बह जाता है सब; कभी गंगा नहीं बन पाती। उनका काम झरने का ही होता है, उससे कुछ बहता नहीं, कोई पूर, बाढ़ नहीं आती। इकट्ठा हो जाता है जब बहुत, तब बाढ़ आती है। और जब भीतर बहुत इकट्ठा हो जाता है, इतना कि जितने भी सेफ्टी वाल्व्स हैं–भीतर बहुत सेफ्टी वाल्व्स हैं–उन सबको तोड़कर जब विस्फोट होता है, तो व्यक्तित्व सदा के लिए खंड-खंड, कांच के टुकड़ों जैसा हो जाता है, जिसका फिर जोड़ना मुश्किल होता है। स्प्लिट, सीजोफ्रेनिक हो जाता है। सब टूट जाता है। नहीं भी टूटे, और धीरे-धीरे कोई रोज बहाता रहे क्रोध को, तो भी शक्ति क्षीण होती है। क्योंकि क्रोध हमारी ही शक्ति है, जिससे हम परिचित नहीं।

क्रोध वही शक्ति है, जो क्षमा बन जाती है। काम वही शक्ति है, जो ब्रह्मचर्य बनती है। लोभ वही शक्ति है, जो दान बनती है। घृणा वही शक्ति है, जो प्रेम में रूपांतरित होती है। तो जो रोज घृणा कर लेता है, माना कि कभी इतनी घृणा इकट्ठी नहीं कर पाता कि हत्या कर दे, कि छुरा भोंक दे, लेकिन जो रोज घृणा करता है, वह प्रेम करने के लायक शक्ति उसके पास बचती नहीं है। क्योंकि वही शक्ति प्रेम बनती है। जो रोज क्रोध कर लेता है, क्षमा करने योग्य उसके पास ऊर्जा, एनर्जी नहीं होती। बह जाती है सब। लीकेज से भी बह जाती है। विस्फोट से इकट्ठी बहती है, लीकेज से धीरे-धीरे बहती है; लेकिन आदमी रिक्त हो जाता है।

रोज क्रोध, रोज घृणा, रोज लोभ करने वाला आदमी ठीक वैसा है, जैसे किसी आदमी ने कुएं में बाल्टी डाली, जिसमें हजार छेद हैं। पानी तो भरता हुआ दिखाई पड़ता है; जब तक बाल्टी पानी में डूबी रहे, तब तक लगता है, भरा। पानी के ऊपर उठी बाल्टी कि लगा कि निकला। कुएं में शोरगुल बहुत होता है; आवाज बहुत होती है; वर्षा मच जाती है; हजार-हजार छेद से बाल्टी के पानी टपकने लगता है; लेकिन जब तक हाथ में आती है बाल्टी, तब तक रिक्त हो गई होती है।

जीवन में शोरगुल बहुत है हमारे, वैसा ही जैसे हजार छिद्रों वाली बाल्टी में पानी भरने पर कुएं में होता है। बड़ी वर्षा मालूम होती है। लेकिन जब मृत्यु के क्षण में हाथ लगती है बाल्टी जीवन की, तो उसमें बूंद भी नहीं बचती; सब रिक्त और खाली होता है।

दो खतरे हैं इंद्रियों के साथ। एक भोग का खतरा है। भोग का खतरा हजार छिद्रों वाली बाल्टी बन जाता है। दूसरा दमन का खतरा है। दमन का खतरा ऐसा है, जैसे चाय की केटली का मुंह किसी ने बंद कर दिया हो और ऊपर से पत्थर रख दिया हो और नीचे से आग भी दिए जा रहे हैं! तब फूटेगी केटली।

कृष्ण जब कहते हैं जितेंद्रिय, या महावीर जब कहते हैं जितेंद्रिय, या बुद्ध जब कहते हैं जितेंद्रिय, तो उनकी बात को समझना अत्यंत ही कठिन हुआ है। हम तत्काल जितेंद्रिय का अर्थ लेते हैं, दमन। क्योंकि हम भोग में खड़े हैं। हमारा मन दूसरी अति में अर्थ ले लेता है। भोग से हम परेशान हैं। जैसे ही हम सुनते हैं, जीतो इंद्रिय को; हम कहते हैं, दबाओ इंद्रिय को। जीत बन जाती है दमन, हमारे मन में। और तभी भूल हो जाती है।

जितेंद्रिय का अर्थ है, जानो इंद्रिय को। एक-एक इंद्रिय के रस को पहचानने से, परिचित होने से; एक-एक इंद्रिय की शक्ति के भीतर प्रवेश करने से, जीत फलित होती है। ज्ञान विजय बन जाता है। ज्ञान ही विजय है। कैसे जानेंगे?

कामवासना उठती है हजार बार। थोड़े अनुभव नहीं हैं। एक पुरुष अपने जीवन में, साधारण स्वस्थ पुरुष, चार हजार संभोग कर सकता है, करता है। चार हजार बार काम के अनुभव से गुजरता है एक पुरुष। स्त्री तो लाख बार गुजर सकती है। उसकी क्षमता गहन है। इसलिए पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके; स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं।

लाख बार भी काम के अनुभव से गुजरकर यह पता नहीं चलता कि यह काम-ऊर्जा, यह सेक्स-एनर्जी क्या है? क्योंकि हम कभी काम पर ध्यान नहीं करते। कभी हम सेक्स पर मेडिटेशन नहीं करते।

इस जगत में जो भी ज्ञान उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है–जो भी ज्ञान! चाहे विज्ञान की प्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो; और चाहे योग की अंतःप्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो। जो भी ज्ञान जगत में उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता है। ध्यान ज्ञान को पाने का इंस्ट्रूमेंट, उपाय, विधि, मेथड है।

कभी आपने ध्यान किया है सेक्स पर?

आप कहेंगे, बहुत बार किया है। चिंतन किया है, ध्यान नहीं किया। सोचते तो बहुत हैं; जितना करते नहीं, उतना सोचते हैं। काम के अनुभव से जितना गुजरते हैं, उससे लाख गुना ज्यादा काम के विचार से गुजरते हैं। चौबीस घंटे घूम-फिरकर काम मन में सरकता रहता है।

चिंतन तो किया है, ध्यान नहीं किया। चिंतन का अर्थ है, जो भीतर वासना घटती है, उसके साथ ही बह जाते हैं; दूर खड़े होकर देख नहीं पाते। मन में उठा काम का विचार, तो आप भी काम के विचार के साथ आइडेंटिफाइड हो जाते हैं; तादात्म्य हो जाता है। आप ही काम हो जाते हैं, यू बिकम दि सेक्स। फिर ऐसा नहीं होता कि काम की ऊर्जा उठी है, मैं दूर खड़ा देखता हूं, क्या है?

एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रवेश करता है, परीक्षण करता, खोज करता, प्रयोग करता, निरीक्षण करता, दूर खड़े होकर देखता, क्या हो रहा है? अगर वैज्ञानिक जो कर रहा है, उसके साथ आइडेंटिफाइड हो जाए…जैसे एक वैज्ञानिक एक केमिकल पर, एक रासायनिक द्रव्य पर खोज कर रहा है। वह खुद को ही समझ ले कि मैं ही रासायनिक द्रव्य हूं, तो हो गई खोज! फिर कभी नहीं होगी। वह आदमी ही खो गया, जो खोज कर सकता था। केमिकल द्रव्य खोज कर सकते होते, तो उन्होंने कभी की खोज कर ली होती। वैज्ञानिक की शर्त यह है कि वह आब्जर्व कर सके, निरीक्षण कर सके! आब्जर्वेशन विज्ञान का मूल आधार है।

जिसे विज्ञान आब्जर्वेशन कहता है, निरीक्षण कहता है, उसे ही योग, धर्म, ध्यान कहता है। वह धर्म की पारिभाषिक शब्दावली ध्यान है। ध्यान का मतलब है, जो भी देख रहे हैं, उससे दूर खड़े होकर देख सकें, टु बी ए विटनेस। एक गवाह की तरह देख सकें; सम्मिलित न हो जाएं।

जिस इंद्रिय के साथ आपका एकात्म हो जाता है, उसे आप कभी न जान पाएंगे। जिस इंद्रिय के रस के साथ आप इतने डूब जाते हैं कि भूल जाते हैं कि मैं देखने वाला हूं, बस, फिर ध्यान नहीं हो पाता। फिर कभी इंद्रियों के रस का ज्ञान नहीं हो पाता।

क्रोध उठे, तो क्रोध से जरा दूर खड़े होकर देखें, क्या है? लेकिन हम भगवान पर तो ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं। जिसका हमें पता नहीं, उस पर तो ध्यान होगा कैसे। ध्यान तो उस पर हो सकता है, जिसका हमें पता है। भगवान पर ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं है। क्रोध पर, काम पर कभी ध्यान नहीं करते, जिसका हमें पता है।

और मजा यह है कि जो काम, क्रोध और बाकी इंद्रियों के समस्त उपद्रव के प्रति, ऊर्जा के प्रति, विस्फोट के प्रति ध्यान करने में समर्थ हो जाता है; जैसे-जैसे उसका ध्यान बढ़ता है इंद्रियों पर, वैसे-वैसे इंद्रियां विजित होती चली जाती हैं, हारती चली जाती हैं। वह जीतता चला जाता है; उतना रिकवर करता चला जाता है; उतनी जमीन वापस लेता चला जाता है। उतनी-उतनी इंद्रिय अपनी ताकत छोड़ती चली जाती है, जहां-जहां ध्यान की किरण प्रवेश कर जाती है।

क्रोध को जिसने जान लिया, वह क्रोध नहीं कर सकता। काम को जिसने जान लिया, वह कामातुर नहीं हो सकता। लोभ को जिसने जान लिया, वह लोभ में नहीं पड़ सकता। अहंकार को जिसने पहचाना, वह अहंकार के बाहर है। करना क्या है?

लड़ना नहीं है, जानना है। रोज आता है क्रोध, परमात्मा की बड़ी कृपा है। आता है इसलिए, कि करो ध्यान। उठता है काम, बड़ी अनुकंपा है प्रभु की। उठता है इसलिए, कि करो ध्यान। जिंदगी में लाख मौके मिलते हैं। लेकिन हम चूकने में बड़े कुशल हैं! हम चूकते ही चले जाते हैं। हजार बार रखा जाता है हमारे सामने निशान लगाने के लिए, लेकिन हम धनुष-बाण ही नहीं उठाते। हम चूकते ही चले जाते हैं! पूरी जिंदगी–एक जिंदगी नहीं, अनंत जिंदगी चूकते चले जाते हैं। फिर तो हम चूकने के अभ्यस्त हो जाते हैं। अभ्यास इतना गहरा हो जाता है…।

मैंने सुना है, एक सर्कस में ऐसा हुआ। एक आदमी रोज ही अपनी पत्नी को तख्ते पर रखकर और तीर से निशाना लगाता था। तीस तीर मारता था। लेकिन तीर ऐसे कि हाथ को छूकर तख्ते में चुभ जाते; कान को छूते हुए गुजरते और तख्ते में चुभ जाते। सिर को छूते हुए निकलते और तख्ते में चुभ जाते। पूरी पत्नी को चारों तरफ से तीरों से भर देता; लेकिन जरा भी पत्नी को खरोंच न लगती। ऐसा उसका तीस साल का अभ्यास था। तीस साल से वह यही काम कर रहा था।

एक दिन–ऐसे दिन बहुत आए थे, जब पत्नी से दिन में कलह हो गई थी। कई बार उसके मन में भी होता था कि आज तीर मार ही दूं बीच में ही, छाती में ही चुभ जाए। लेकिन अपने को सम्हाल गया था। सांझ होते-होते क्रोध चला गया था। एक दिन सांझ को इतना झगड़ा हो गया कि जब वह आया मंच पर और पत्नी खड़ी हुई तख्ते पर, तो उसने कहा, अब बहुत हो गया। उठाया तीर, आंख बंद कर लीं; क्योंकि अभ्यास इतना गहरा था कि आंख खुली रही, तो संभावना यही है कि तीर तख्ते में लगेगा, पत्नी में नहीं लगेगा। तीस साल का अभ्यास! आंख बंद कर लीं, कि आंख बंद करके मारूंगा तीर, तब तो लगने ही वाला है। आंख बंद कीं। सांस रोक ली। मारा तीर। हाल में तालियां बजीं। घबड़ाकर आंख खोली। तीर पत्नी को छूता हुआ तख्ते में लग गया था। तीस तीर आंख बंद करके मारे उसने, लेकिन तीर अपनी जगह पहुंचते रहे! बंद आंख से भी तीर पत्नी में न लग सका। अभ्यास गहरा था; तीस साल का था। बंद आंख में भी काम कर गया।

हमारा तो जन्मों का, लाखों जन्मों का अभ्यास है चूकने का। उठा क्रोध–चूके, भूले कि ध्यान का मौका आया; अपरचुनिटी टु मेडिटेट।

इस सूत्र के साथ मैं आपसे कहना चाहता हूं, जब क्रोध उठे, तब उसकी फिक्र छोड़ दें, जिस पर क्रोध उठा; क्योंकि उसकी फिक्र की, तो चूके। उसकी फिक्र में ही चूकते हैं। किसी ने गाली दी; गाली की फिक्र छोड़ें; गाली देने वाले की फिक्र छोड़ें। इस वक्त तो उसको कहें कि अभी ठहरो जरा; मैं अपना काम करके आधा घंटे में लौटकर आता हूं। द्वार बंद करें, आंख बंद करें। बहुत मौका तो यही है कि आंख बंद करके भी वही होगा, जो उस सर्कस के आदमी का हुआ। जन्मों का अभ्यास है! आंख बंद करके भी क्रोध वही करेगा, जो सामने करता, आंख खोलकर करता।

नहीं; आंख बंद करें। भूलें बाहर को। धन्यवाद दें, जिसने क्रोध को उठाया, क्योंकि एक मौका दिया ध्यान का। आंख बंद करें और देखें कि क्रोध क्या है? कहां है? कैसे उठता? कैसे गहन होता? कैसे छा जाता है पूरे प्राणों पर धुएं की भांति? कैसे पकड़ लेता? कैसे खून-खून गरम हो जाता? कैसे रक्त का कण-कण विषाक्त हो जाता? कैसे सारा शरीर उत्तप्त और फीवरिश हो जाता? कैसे मन बेहोश हो जाता? देखें, और बहुत हैरान होंगे।

जैसे-जैसे देखने की क्षमता बढ़ेगी, जैसे-जैसे पहचानने की सामर्थ्य बढ़ेगी, जैसे-जैसे साक्षी जगेगा, वैसे-वैसे क्रोध तिरोहित होगा। किसी दिन जब पूरे क्रोध को आमने-सामने देख पाएंगे, इन इट्स टोटल नैकेडनेस, क्रोध को उसकी पूरी ही नग्नता में, रोएं-रोएं में जब क्रोध को पहचान पाएंगे, हृदय के कोने-कोने में, चेतन-अचेतन में सब तरफ जब क्रोध को देख पाएंगे कि यह रहा क्रोध, उसी दिन पाएंगे कि क्रोध रूपांतरित हो गया और क्षमा का जन्म हुआ है, उसी दिन क्षमा जन्म जाएगी। वही ऊर्जा जो ध्यान के अभाव में क्रोध है, वही ऊर्जा ध्यान के साथ क्षमा बन जाती है।

अगर मुझसे पूछें, तो गणित के सूत्र में ऐसा कहूं, क्रोध + ध्यान = क्षमा; काम + ध्यान = ब्रह्मचर्य; लोभ + ध्यान = दान। फिर गणित को आप फैला लें। जहां ध्यान जुड़ा, वहीं रूपांतरण है। क्योंकि ध्यान के साथ आता ज्ञान; ज्ञान विजय है।

जितेंद्रिय पुरुष वह है, जिसने अपनी इंद्रियों के सब कोने-कातर, जिसने अपनी इंद्रियों के सब छिपे प्रकट-अप्रकट रूप जाने, पहचाने; जिसने अपनी इंद्रियों की प्रयोगशाला में उतरकर साक्षी का अनुभव किया, वह विजेता हो जाता है। ऐसा जितेंद्रिय पुरुष उपलब्ध होता है शांति को।

लेकिन एक और शर्त कृष्ण कहते हैं, श्रद्धावान भी। यह शब्द भी थोड़ा कठिन है। जैसे जितेंद्रिय शब्द के साथ भ्रांतियां जुड़ी हैं, वैसे ही श्रद्धा के साथ और भी गहरी जुड़ी हैं। क्योंकि जितेंद्रिय होने की कोशिश कम ही लोग करते हैं, इसलिए भ्रांति कम है। श्रद्धावान होने की कोशिश सभी लोग करते हैं, इसलिए भ्रांति और भी ज्यादा है।

श्रद्धा शब्द अध्यात्म के पास बहुत गहराइयों से जुड़ा है। हम सब जीते हैं सतह पर, गहराइयों का हमें कोई पता नहीं है। इसलिए हम सतह पर श्रद्धा का अनुवाद करते हैं। और जो हमारा अनुवाद है, वह बड़ा खतरनाक है। श्रद्धा का हमारा जो अनुवाद है, वह विश्वास है, बिलीफ है।

जो आदमी विश्वास करता है, हम कहते हैं, श्रद्धावान है। विश्वास श्रद्धा नहीं है। विश्वास श्रद्धा तो है ही नहीं; श्रद्धा के ठीक विपरीत है। भाषाकोश में नहीं है। वहां तो लिखा है, श्रद्धा यानी विश्वास, विश्वास यानी श्रद्धा। विश्वास श्रद्धा के बिलकुल विपरीत है, जब मैं ऐसा कहता हूं, तो चौंकेंगे आप। लेकिन कहने का कारण है।

विश्वास वह आदमी करता है, जिसके भीतर अविश्वास है। और श्रद्धा उस आदमी में होती है, जिसके भीतर अविश्वास नहीं है। विश्वास हमारा कृत्य है, हमारे द्वारा किया गया काम है। श्रद्धा हमारी अनुपस्थिति में घटी घटना है। हैपनिंग है, डूइंग नहीं।

विश्वास हम करते हैं। क्यों करते हैं? क्योंकि संदेह के साथ जीना कठिन है। बहुत कठिन है। संदेह के साथ जीने से ज्यादा तपश्चर्या कोई और नहीं है। संदेह के साथ जीना बहुत आर्डुअस है। चौबीस घंटे संदेह में नहीं जी सकते हैं। कहां-कहां संदेह करेंगे? इंच-इंच पर संदेह खड़ा है। अगर संदेह करेंगे, तो पैर भी न उठा सकेंगे; श्वास भी न ले सकेंगे; भोजन भी न कर सकेंगे। संदेह करेंगे, तो जीना क्षणभर भी मुश्किल है।

संदेह कठिन है, बहुत कठिन है। संदेह करेंगे, तो पिता को मानना पिता मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि खुद तो कोई पता नहीं है कि वह पिता है। ऐसा लोग कहते हैं कि पिता है। खुद का तो कोई अनुभव नहीं है कि वह पिता है। मां को मां मानना मुश्किल हो जाएगा! संदेह करेंगे, तो मित्रता बनानी असंभव है। क्योंकि सब मित्रताएं अपरिचित, अनजान के प्रति भरोसे से पैदा होती हैं। संदेह करेंगे, तो सारा जगत शत्रु हो जाएगा। संदेह करेंगे, तो रात सो भी न सकेंगे। संदेह करेंगे, तो एक कौर भी मुंह में न डाल सकेंगे, क्योंकि जहर की संभावना सदा है। संदेह करेंगे, तो जी ही न सकेंगे; मर जाएंगे; जहां खड़े हैं, वहीं गिर जाएंगे।

संदेह के साथ बड़ी कठिनाई है। इसलिए विश्वास से हम संदेह को दबाते हैं। विश्वास के साथ जीया जा सकता है आसानी से। विश्वास कनवीनिएंट है, सुविधापूर्ण है। संदेह बहुत इनकनवीनिएंट है, बहुत असुविधापूर्ण है।

जिंदगी चलती है विश्वास के सहारे। मानना पड़ता है कि कोई पिता है। मानना पड़ता है कि कोई गुरु है। मानना पड़ता है कि कुछ ऐसा है, कुछ वैसा है। सब मानकर चलता है।

इस मानने के बीच में श्रद्धा का हम अर्थ कर लेते हैं, विश्वास। तब जैसे हम पिता को मानते हैं, जैसे हम मित्र को मान लेते हैं, वैसे ही हम परमात्मा को भी मान लेते हैं। संदेह का कीड़ा भीतर सरकता रहता, ऊपर विश्वास का पलस्तर बिछा देते हैं; ऊपर से विश्वास की पर्त फैला देते हैं। भीतर संदेह की आग जलती रहती, ऊपर से विश्वास का आवरण छा देते हैं।

इसलिए विश्वासी के भीतर जरा-सा छेद करो, जरा-सी सर्जरी और संदेह बाहर आ जाएगा। स्किन डीप, चमड़ी से ज्यादा गहरा नहीं होता विश्वास। और श्रद्धा? श्रद्धा गहराई का नाम है। विश्वास? विश्वास चमड़ी का नाम है। विश्वास ऊपर की चमड़ी है, जो काम चलाने के लिए पैदा की गई है।

ठीक है, मां को मान लेने में हर्जा भी नहीं है। न भी हो, तो कुछ हर्जा नहीं है। झूठ भी हो, और मां का काम कर दिया हो, तो बात हो गई। सच में पिता पिता न हो, कोई और ही पिता रहा हो, फर्क क्या पड़ता है? इट मेक्स नो डिफरेंस। और अभी तो थोड़ा-बहुत फर्क पड़ भी जाता होगा, भविष्य में बिलकुल नहीं पड़ेगा। क्योंकि आर्टिफीशियल इनसेमिनेशन हो सकता है।

मैं आज मर जाऊं, दस हजार साल बाद मेरा बेटा पैदा हो सकता है। वीर्यकण को संरक्षित किया जा सकता है, दस हजार साल बाद इंजेक्ट कर दोगे, बच्चा पैदा हो जाएगा। फिर जो इंजेक्शन लगाएगा, वही फादर हुआ! वैसे अभी भी पिता जो है, वह इंजेक्शन लगाने से ज्यादा काम नहीं कर रहा है। पर वह नेचरल इंजेक्शन है। वह आर्टिफीशियल होगा। इससे ज्यादा कुछ है नहीं मामला। तो चल जाता है; चल जाता है काम। इससे कोई बहुत दिक्कत नहीं आती है। इससे कोई जीवन की अतल गहराइयों का लेना-देना नहीं है। जो फादर्ली है, वह फादर है। जो पितृत्व दिखला रहा है, पिता है। जो मातृत्व दिखला रही है, वह मां है।

बहुत दिन तक जरूरी नहीं है; क्योंकि स्त्रियां बहुत दिन तक बच्चे रखने को राजी नहीं होंगी नौ महीने। जिस दिन स्त्री की इक्वालिटी पुरुष से पूरी हो जाएगी, उस दिन स्त्रियां नौ महीने बच्चे को पेट में रखने के लिए कांस्टीटयूशनली गलत कहेंगी। गलत है। क्योंकि पुरुष तो अलग हो जाता है। भागीदार दोनों बराबर हैं। नौ महीने स्त्री ढोती है बेटे को! कुछ आश्चर्य नहीं कि भविष्य की कोई क्रांतिकारी सरकार साढ़े चार-चार महीने का बंटाव करे! अब हो सकता है। अब कठिनाई नहीं है। और या फिर स्त्री को नौ महीने के लिए मुक्त करे और बच्चे इनक्यूबेटर में, मशीन के गर्भ में रखे जाएं और बड़े हों।

इस सदी के पूरे होते-होते बच्चे स्त्रियों के पेट में नहीं रहेंगे। कभी कोई सोच नहीं सकता था कि स्त्रियां बच्चों को दूध पिलाने से इनकार कर देंगी। अमेरिका में उन्होंने कर दिया है। क्योंकि दूध पिलाने से उनकी उम्र जल्दी ढल जाती है; शरीर दीन दिखाई पड़ने लगता है; शरीर की चुस्ती खो जाती है। नौ महीने बच्चे को पेट में रखने से और भारी नुकसान शरीर को होते हैं। व्यवस्था हुई जाती है, फिर इनक्यूबेटर ही मां होगा, इंजेक्टर पिता होगा!

कोई फर्क नहीं पड़ता है। अभी भी वही है। अभी भी जिसको हम मां कहते हैं, उसने इनक्यूबेटर का काम किया है। उसके पेट में प्राकृतिक इंतजाम हैं, जिसमें बच्चा नौ महीने रह लेता है। कल हम कृत्रिम इंतजाम कर लेंगे। शायद उससे भी बेहतर कर लेंगे।

यह कामचलाऊ जगत है। कठिनाई नहीं आती कि मित्र को मित्र मान लिया। बहुत से बहुत क्या करेगा! रात में सामान लेकर नदारद हो जाएगा। विश्वास से चलता है जगत। इसी विश्वास को हम परमात्मा में भी लगाते हैं, तब भूल शुरू होती है।

कृष्ण का अर्थ, जब वे कहते हैं श्रद्धावान, तो विश्वासी नहीं है। कृष्ण का क्या अर्थ होगा श्रद्धावान से? श्रद्धावान को समझने के लिए दोत्तीन बातें विश्वास के संबंध में और खयाल में रख लें।

विश्वास के पीछे सदा संदेह है, स्मरण रखें। संदेह को दबाने और मिटाने के लिए किया गया है विश्वास। संदेह के खिलाफ इंतजाम है विश्वास। संदेह भीतर सरक रहा है।

एक आदमी कहता है, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। उससे पूछें कि थोड़ा गहरे खोजो। सच विश्वास करते हो? अगर वह ईमानदार हो, आनेस्ट हो, नीयत उसकी साफ हो, तो पाएगा भीतर कि भीतर विश्वास नहीं है। विश्वासी से विश्वासी को पता चल जाता है कि भीतर कहीं संदेह का कण है; कहीं शक उठता है कि है ईश्वर या नहीं! है भी? आत्मा है? मृत्यु के बाद बचता है कुछ? प्रश्न उठते हैं भीतर। वहां संदेह है।

श्रद्धावान का अर्थ है, संशयहीन, संदेहहीन नहीं। संदेह का अर्थ है, डाउट; संशय का अर्थ है, इनडिसीजन। श्रद्धावान का अर्थ है, संशयहीन, संदेहहीन नहीं।

संदेह तो मनुष्य के साथ है। प्रश्न तो मनुष्य के साथ है, जिज्ञासा तो मनुष्य के साथ है। संदेह जिज्ञासा बने, शुभ है। संदेह विश्वास बने, खतरनाक है। संदेह अविश्वास बने, तो भी खतरनाक है। संदेह की सम्यक यात्रा इंक्वायरी है, जिज्ञासा है।

संदेह की असम्यक यात्रा दो तरह से हो सकती है। अगर राइटिस्ट हो, दक्षिणपंथी हो, पुराणपंथी हो, तो संदेह विश्वास बन जाता है। अगर लेफ्टिस्ट हो, वामपंथी हो, पुराण विरोधी हो, नवीनपंथी हो, तो संदेह अविश्वास बन जाता है। लेकिन अगर व्यक्ति न दक्षिणपंथी हो, न वामपंथी हो; संदेह का सम्यक उपयोग करना जानता हो, तो संदेह जिज्ञासा बनता है, प्रश्न बनता है, खोज बनता है, इंक्वायरी बनता है।

जिसने विश्वास से दबाया संदेह को, वह तथाकथित झूठा आस्तिक बन जाता है। जिसने अविश्वास से दबाया संदेह को…।

ध्यान रहे, अविश्वास भी संदेह को दबाने की तरकीब है। एक आदमी को विश्वास नहीं आता; संदेह उठता है कि ईश्वर है? एक आदमी कहता है, है! और पर्त बना लेता है ऊपर होने की, और भूल जाता है। झंझट के बाहर हो जाता है। जिज्ञासा को मिटा देता है। कहता है, है। दूसरा आदमी कहता है, नहीं है। वह भी एक पर्त बना लेता है, न होने की। वह भी झंझट को मिटा देता है; इंक्वायरी को समाप्त कर देता है, जिज्ञासा बंद हो जाती है। है, तो भी जिज्ञासा बंद हो जाती है। नहीं है, तो भी जिज्ञासा बंद हो जाती है। जो है, ऐसा मान लिया, उसकी खोज की जरूरत नहीं रहती। जो नहीं है, ऐसा मान लिया, उसकी भी खोज की जरूरत नहीं रह जाती।

नहीं; संदेह बननी चाहिए जिज्ञासा। हमें पता नहीं कि है; हमें यह भी पता नहीं कि नहीं है। झूठे आस्तिक व्यर्थ; झूठे नास्तिक व्यर्थ। नास्तिक और आस्तिक का एक गहरा तालमेल जिज्ञासा बनाता है। पूछता है आदमी, है? प्रश्नवाची होती है उसकी जिज्ञासा। न स्वीकार, न अस्वीकार। पूछता है।

संदेह गहरे में जाए, तो एग्नास्टिक बनाता है। अज्ञेय है, अननोन है, जो भी है। मुझे पता नहीं है। संदेह गहरा जाए, तो अहंकार को तोड़ता है; क्योंकि मुझे पता नहीं है; मैं अज्ञानी हूं।

आस्तिक भी ज्ञानी बन जाता, विश्वास पकड़कर; नास्तिक भी ज्ञानी बन जाता, अविश्वास पकड़कर। सिर्फ रहस्य में वह प्रवेश करता है, जो कहता है, मैं अज्ञानी हूं। मुझे पता नहीं कि है या नहीं है। सिर्फ प्रश्न का पता है; मुझे कुछ पता नहीं है।

यह तो संदेह का सम्यकरूप है, राइट डाउट। श्रद्धा का इससे कोई संबंध नहीं है। श्रद्धा का संबंध दूसरी बात से है।

एक और वृत्ति है मनुष्य के भीतर, संशय की, इनडिसीजन की, कि आदमी सदा डांवाडोल होता है। डांवाडोल होने का अर्थ है, कुछ भी, कुछ भी संकल्प नहीं बन पाता। क्षणभर बाएं चला जाता है, क्षणभर दाएं चला जाता है।

ध्यान रखें, मैंने कहा कि आस्तिक, झूठे विश्वास को पकड़कर जो बनता है, वह दक्षिणपंथी है। उसने एक एक्सट्रीम पकड़ ली; अब वह पकड़े रहेगा, वह छोड़ेगा नहीं। दूसरे ने दूसरी एक्सट्रीम, अति पकड़ ली–वामपंथी, अविश्वास की। वह कहता है, नहीं है। एक कम्युनिस्ट है; कहता है, नहीं है। उसने पकड़ ली एक अति। ये एक अर्थ में डिसीसिव हैं; इनमें संशय नहीं है। ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता; भीतर संदेह है; संशय नहीं दिखाई पड़ता।

आस्तिक कहता है, बिलकुल है; जान लगा दूंगा अपनी। और कई आस्तिकों ने, जिन्हें बिलकुल पता नहीं था, जान लगा दी। और अपनी तो कम लगाई, दूसरों की ज्यादा लगवा दी! कई नास्तिक जान लगा दिए हैं। अपनी कम, दूसरों की ज्यादा लगा दिए हैं।

और ध्यान रखें, जो आदमी भी कहता है, जान लगा दूंगा, वह खतरनाक है। क्योंकि जो जान लगा सकता है, वह जान ले सकता है। जो आदमी भी कहता है कि जिंदगी लगा दूंगा, शहीद हो जाऊंगा, उससे जरा सावधान रहना। क्योंकि शहीद होने के पहले, वह दस-पचास को शहीद करवाएगा, तभी शहीद हो सकता है। शहीद खतरनाक है। शहीदी का भाव खतरनाक है। क्योंकि जब वह अपनी जान लगा देता है, दो कौड़ी की समझता है अपनी जान, तो आपकी कितनी कौड़ी की समझेगा? किसी मूल्य की नहीं समझता है। आपको आदमी उतना ही मूल्य देता है, जितना अपने को देता है; उससे ज्यादा नहीं देता।

आस्तिक संशयहीन दिखाई पड़ता है, संदेह भीतर होता है। इसलिए उसका निःसंशय होना, सच्चा नहीं हो सकता; भीतर का कीड़ा धक्का देता रहता है। उसी को दबाने के लिए वह बिलकुल पक्का मजबूती से खड़ा रहता है कि मैं मानता हूं कि ईश्वर है। और अगर किसी ने कहा, नहीं है, तो ठीक नहीं होगा। जब कोई कहे कि किसी ने कहा कि नहीं है, तो ठीक नहीं होगा, तब समझ लेना कि उसके भीतर संशय का कीड़ा है।

शास्त्र हैं ऐसे, जो कहते हैं, विरोधी की बात मत सुनना। बड़े कमजोर शास्त्र हैं! क्योंकि विरोधी की बात के सुनने में डर क्या है? डर यही है कि भीतर का अपना संशय कहीं विरोधी की बात सुनकर ऊपर न आ जाए। और कोई डर नहीं है।

नास्तिक भी घबड़ाता है। वह भी अपने अविश्वास को जोर से पकड़ता है। नास्तिक और आस्तिक डागमेटिस्ट होते हैं, पक्के रूढ़ि को पकड़े होते हैं। ऊपर से दिखता है, संशय बिलकुल नहीं है; लेकिन भीतर संदेह का कीड़ा है। इसलिए वे निःसंशय हो नहीं सकते। निःसंशय कौन हो सकता है?

निःसंशय वही हो सकता है, जिसने संदेह को दबाया नहीं, संदेह को रूपांतरित किया, ट्रांसफार्म किया और जिज्ञासा बनाई। जिसने जिज्ञासा बनाई संदेह को, अब वह निःसंशय हो सकता है। संशय तो उसी को पैदा होता है, जिसका कोई विश्वास है। जिसका कोई भी विश्वास नहीं है, उसके संशय का कोई उपाय नहीं है। संदेह बन जाए जिज्ञासा, तो संशय बन जाता है श्रद्धा।

ध्यान रहे, अगर मैं कुछ मानता हूं, तो संशय हो सकता है। अगर मैं कुछ भी नहीं मानता, तो संशय नहीं होता। संशय मानने से पैदा होता है। अगर मैं कुछ भी नहीं मानता–यह भी नहीं, वह भी नहीं; हां भी नहीं, नहीं भी नहीं; स्वीकार भी नहीं, अस्वीकार भी नहीं–अगर मैं कुछ भी नहीं मानता, तब संशय पैदा नहीं होता।

संदेह बने जिज्ञासा, तो संशय बनता है श्रद्धा। श्रद्धा उसके ही पास होती है, जिसके पास जिज्ञासा होती है। कठिन लगेगी यह बात। पर जीवन में जटिलताएं हैं।

जिज्ञासावान श्रद्धावान होता है। और श्रद्धावान ही जिज्ञासा कर सकता है। तब श्रद्धा का क्या अर्थ हुआ?

श्रद्धा का सिर्फ इतनी ही अर्थ हुआ कि इस आदमी के पास कोई विश्वास नहीं, कोई अविश्वास नहीं; यह मुक्त मन है, ओपन माइंड। श्रद्धावान वलनरेबल है, खुला हुआ है।

विश्वास क्लोज करते हैं, श्रद्धा खोलती है। श्रद्धा एक ओपनिंग है। विश्वास को पकड़ा हुआ आदमी ऐसा है, जैसे फूल की बंद कली। श्रद्धा को उपलब्ध हुआ आदमी ऐसा है, जैसे खिला हुआ फूल–प्रकाश को सब तरफ से झेलता हुआ; निःसंशय; सूर्य के साक्षात्कार में तत्पर; खोज को निकला; सूर्य के सामने नग्न उघाड़ा। श्रद्धावान का अर्थ है, नग्न, उघाड़ा, दिगंबर, निर्वस्त्र। कोई क्लोजिंग नहीं है। कोई ढांक नहीं है मन के ऊपर। कोई आवरण नहीं है। कोई पर्त नहीं है। विश्वास की नहीं, अविश्वास की नहीं। सब तरफ से खुला हुआ है। सब दीवालें तोड़ दी हैं। खुले आकाश के नीचे खड़ा है।

कौन खड़ा हो सकता है खुले आकाश के नीचे? जरा-सा भी संदेह हो, तो खुले आकाश के नीचे खड़ा नहीं हो सकता; अपने घर के भीतर छिपकर बैठेगा। संदेह डराता है। संशय हो, तो हजार इंतजाम करके बाहर आएगा। निःसंशय हो, तो आ जाता है बाहर।

ऐसा निःसंशय चित्त, श्रद्धावान चित्त, ऐसा खुला मन फूल की तरह, सूर्य के समक्ष; ऐसा ही खुला मन, प्रभु के समक्ष, सत्य के समक्ष, अस्तित्व के समक्ष, श्रद्धावान है। जिसने अपनी अश्रद्धा को दबाने के लिए कोई विश्वास नहीं पकड़ा; जिसने अपने संदेह को दबाने के लिए विश्वास-अविश्वास के जाल में नहीं उलझा; जिसने कहा, मैं नहीं जानता, अज्ञानी हूं; अस्तित्व के सामने अज्ञानी की तरह जो खड़ा है, वह श्रद्धावान है।

अस्तित्व के समक्ष जो किसी भी तरह के ज्ञान को पकड़कर खड़ा होता है, वह श्रद्धावान नहीं है। अस्तित्व के समक्ष जो किसी तरह के सिद्धांत को पकड़कर खड़ा होता है कि सत्य मुझे मालूम है, वह अस्तित्व को जानने से डरता है, इसलिए सिद्धांत की आड़ में खड़ा होता है। और अस्तित्व को जानेगा नहीं कभी; सिद्धांत को ही अस्तित्व पर थोपेगा। कहेगा कि अस्तित्व ऐसा होना चाहिए, जैसा मेरा विश्वास है।

श्रद्धावान कहेगा, जैसा हो अस्तित्व, मैं वैसा ही उसे पी जाने को तत्पर और खुला हूं। मेरा कोई विश्वास नहीं, मेरा कोई सिद्धांत नहीं, मेरा कोई शास्त्र नहीं। मैं अज्ञानी हूं। मुझे कुछ पता नहीं। तो प्रभु मुझे जहां ले जाए। जिसे कुछ पता नहीं, वह जाने का आग्रह नहीं करता कि मैं यहां पहुंचूंगा, तो प्रभु मुझे वहां ले चलो। जिसका कोई विश्वास नहीं, वह अस्तित्व से कहता है, जहां ले जाओ, वही मंजिल है। जहां डूब जाए नाव, वही किनारा है। ऐसी, ऐसी चित्त दशा–जहां डूब जाए नाव, वही किनारा है। कोई किनारे का मुझे पता नहीं कि कहां ले चलो। नहीं; किसी लक्ष्य का मुझे पता नहीं कि कौन लक्ष्य है। किसी प्रयोजन का मुझे पता नहीं कि क्या प्रयोजन है। मुझे पता नहीं, मैं कौन हूं। मुझे पता नहीं, जगत क्या है। मुझे कुछ भी पता नहीं। इग्नोरेंस टोटल है, अज्ञान पूर्ण है। ऐसे पूर्ण अज्ञान में मैं कैसे कहूं कि मुझे कहां ले जाओ? मैं कैसे कहूं कि मुझे उस मंजिल पर पहुंचा दो? मैं कैसे हूं कि मैं वहां जाना चाहता हूं? मैं प्रभु को कैसे आदेश दूं?

अश्रद्धावान आदेश देता है अस्तित्व को। श्रद्धावान अपना हाथ पकड़ा देता अस्तित्व को, ऐसे ही जैसे छोटा बच्चा अपने बाप के हाथ में हाथ दे देता है। फिर वह यह भी नहीं पूछता, कहां जा रहे हैं? कहां ले चल रहे हैं? क्या है लक्ष्य? भटका तो न देंगे? नहीं; वह छोटा बच्चा हाथ दे देता है।

कभी अपने खयाल किया! छोटा बच्चा बाप के हाथ में हाथ देकर निश्चिंत चलता है। वह श्रद्धावान है, विश्वासी नहीं। क्योंकि विश्वास तो तभी होता है, जब संदेह आ जाए; उसके पहले नहीं होता। वह श्रद्धावान है। बाप उसे रास्ते से मोड़ता है, तो मुड़ जाता है; सीधा जाता है, तो सीधा जाता है। बाप उसे कंधे पर उठा लेता है, तो कंधे पर बैठ जाता है। वह यह नहीं पूछता कि कहां पहुंचेंगे? कहीं भटका तो न दोगे? रास्ते में कोई दुर्घटना तो न करवा दोगे? जरा हाथ सम्हलकर पकड़ना। वह सारी फिक्र छोड़ देता है। वह हाथ छोड़ देता है।

श्रद्धावान का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जिसे ज्ञान का दंभ नहीं। ज्ञान का दंभी कभी श्रद्धावान नहीं होता। दिखाई पड़ते हैं वही लोग श्रद्धावान। ज्ञान का दंभी कभी श्रद्धावान नहीं होता। तथाकथित पंडित कभी श्रद्धावान नहीं होते। अश्रद्धा के कारण ही पांडित्य का जाल बिछाए रहते हैं।

श्रद्धावान होता है बालक की भांति। कहता है, मुझे कुछ पता नहीं, इसलिए जहां पहुंच जाऊं, वही मंजिल है। न पहुंचूं, तो वही मंजिल है। जो मिल जाए, वही उपलब्धि है; जो न मिले, वह भी उपलब्धि है। वैसा श्रद्धावान चित्त कहता है, जहां डूब जाए नाव, जहां लग जाए, वही किनारा है। ऐसा असंशय, ऐसा मुक्त, ऐसा खुला हुआ व्यक्ति, ऐसा निरहंकारी, ऐसा विनम्र, ऐसा आग्रहशून्य, श्रद्धावान है।

कृष्ण कहते हैं, जितेंद्रिय पुरुष और श्रद्धावान…।

क्योंकि जितेंद्रिय हो जाए कोई और श्रद्धावान न हो, तो अहंकार को उपलब्ध हो सकता है। जितेंद्रिय हो जाए कोई, जीत ले अपनी इंद्रियों को और श्रद्धा न हो, तो इंद्रियों की जीत अहंकार को और प्रगाढ़ कर जाएगी, और अकड़ आ जाएगी भारी, कि मैंने क्रोध को जीत लिया; कि मैंने काम को जीत लिया; कि मैं ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हुआ हूं; कि मैं त्याग पा गया; कि मैं संन्यासी हूं; कि मैं साधु हूं; कि मैं तपस्वी हूं।

जिसको श्रद्धा न हो साथ, अगर वह इंद्रियों को जीत ले, तो वह वैसे ही भ्रम में पड़ जाएगा, जैसे बहिर्प्रकृति को जीतकर वैज्ञानिक भ्रम में पड़ जाता है कि मैं सब कुछ हूं; सुप्रीम हो गया! अंतःप्रकृति को जीतकर भी अहंकार आ सकता है, अगर श्रद्धा न हो। इंद्रियों की विजय भी अहंकार की विजय बन सकती है। हो सकता है। और अहंकार की विजय आत्मा की हार है।

इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ देते हैं, इतना ही कहकर छोड़ नहीं देते, जितेंद्रिय पुरुष; श्रद्धावान भी। वह कंडीशन गहरी है। वह पूरी न हो, तो जितेंद्रिय पुरुष अहंकारी हो सकता है।

अक्सर ऐसा होता है। जो आदमी थोड़ा-बहुत क्रोध करता है, वह उतना अहंकारी नहीं होता, जितना जो क्रोध नहीं करता, वह होता है। क्यों? क्योंकि जो क्रोध करता है, क्रोध उसे विनम्र भी कर जाता है; यह भी बता जाता है कि अपनी सामर्थ्य कितनी है! जरा-सी बात में तो अपनी केटली गरम हो जाती है; पतला है चद्दर, बहुत मोटा नहीं है। जो आदमी जरा-जरा सी बात में, क्षुद्र-क्षुद्र बात में होश खो देता है, उसे यह भी तो पता चलता है कि अपनी सीमा क्या है!

ध्यान रहे, जो आदमी क्रोध कर लेता, काम के वशीभूत हो जाता, लोभ कर लेता, वह जानता है–वह जानता है कि अपनी सीमा है। और ध्यान रहे, ऐसा आदमी बहुत अहंकारी नहीं हो सकता। क्योंकि अहंकार को खड़े होने के लिए उसके पास बहुत फाउंडेशंस नहीं होते। जरा-जरा सी बात में तो सब गड़बड़ हो जाता है! अपने पर ही तो भरोसा नहीं है। अहंकार क्या करें? और जो आदमी क्रोध करता, लोभ करता, बेईमानी भी कर लेता, वह दूसरों के प्रति भी दयावान होता है। क्योंकि वह जानता है, हम भी कमजोर हैं, दूसरे भी कमजोर हैं।

इसलिए साधु-संत अक्सर कठोर और क्रूर हो जाते हैं। क्योंकि वे क्रोध कभी नहीं करते; इसलिए दूसरा अगर क्रोध कर ले, तो उसकी गर्दन में फांसी लगाने की इच्छा पैदा हो जाती है। क्योंकि उन्होंने कभी वासना नहीं की; तो दूसरे के मन में वासना आ जाए, तो नर्क में डालने की इच्छा हो जाती है। साधु-संत, तथाकथित, श्रद्धावान नहीं, लेकिन जो किसी तरह इंद्रियों को जीतने की चेष्टा में लगे रहते हैं; खतरनाक हो जाता है उनका मामला बहुत बार। इसलिए साधु-संत को दयावान पाना जरा कठिन है।

साधु और दयावान पाना जरा कठिन है! इसका मतलब यह हुआ कि साधु पाना कठिन है। रास्ते पर चलते हुए जिस आदमी के मन में लोभ नहीं आया, क्रोध नहीं आया, वासना नहीं आई, काम नहीं आया, वह दूसरे के प्रति कभी भी दयावान हो नहीं पाता। क्योंकि वह कहता है, जो मुझे नहीं हुआ, वह तुम्हें हो रहा है! पापी हो।

लेकिन जिसके मन में सब हुआ, जो दूसरे को हो रहा है, वह अनिवार्य रूप से, अनिवार्य रूप से विनम्र हो जाता है। और जानता है कि मुझ पर मेरा ही वश नहीं; अगर दूसरे का वश नहीं, तो कुछ नर्क में जाने की बात नहीं हो गई है! यह स्वभाव है मनुष्य का, टु इर इज़ ह्यूमन। वह इस बात को समझ पाता है कि भूल आदमी से होती है।

जितेंद्रिय पुरुष अगर श्रद्धावान न हो, तो खतरे हैं। इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, जितेंद्रिय और श्रद्धावान। श्रद्धावान होगा, तो जितेंद्रिय होकर, उसकी जो जितेंद्रिय से उपलब्ध शक्ति है, वह अहंकार को नहीं, आत्मा को मिलेगी। जितेंद्रिय, श्रद्धावान, शांति को उपलब्ध हो जाता है, परम शांति को उपलब्ध होता है।

शांति क्या है? दि सुप्रीम साइलेंस, अल्टिमेट साइलेंस, यह परम शांति क्या है?

अशांति क्या है? अशांति है चित्त का कंपन, उत्तेजना। उत्तेजित चित्त-दशा अशांति है। जैसे झील–आंधियों के थपेड़ों में; तूफान में चट्टानों से टकराती हुई लहरें, हवा से जोर मारती लहरें; सब उद्विग्न, उदभ्रांत–ऐसा चित्त अशांत है। शांत चित्त–झील की तरह मौन; हवाओं के थपेड़े नहीं; लहरों का शोरगुल नहीं; कोई संघर्ष नहीं; मौन।

सुख में भी उत्तेजना है, दुख में भी उत्तेजना है। इसलिए शांति सुख और दुख के पार है। सुखी आदमी शांत नहीं होता; सुखी आदमी भी अशांत होता है। दुखी आदमी भी शांत नहीं होता; दुखी आदमी भी अशांत होता है। क्योंकि सुख की अपनी उत्तेजना है; प्रीतिकर लगती है, यह हमारी धारणा है। दुख की अपनी उत्तेजना है; अप्रीतिकर लगती है, यह हमारी धारणा है।

और इसलिए जो एक को दुख है, वह दूसरे को सुख भी हो सकता है। और इसलिए जो एक को सुख है, वह दूसरे को दुख भी हो सकता है। और इसलिए जो आज आपको सुख है, वह कल दुख हो सकता है। और इसलिए जो आज आपको दुख है, वह कल सुख हो सकता है। कनवर्टिबल है; सुख दुख में बदल सकते हैं। क्योंकि दोनों उत्तेजनाएं हैं। सिर्फ दृष्टिकोण से फर्क पड़ता है कि क्या सुख और क्या दुख।

सुख में भी हार्ट फेल हो जाते सुना जाता है। सुख में भी हृदय-गति बंद हो जाती है। निश्चित ही, सुख बड़ी तीव्र उत्तेजना होगी। मिलता नहीं है हम सबको सुख, इसलिए सबका नहीं होता। मिलता ही कम है। या मिलता है, तो इतना रत्ती-रत्ती मिलता है कि हम इम्यून हो जाते हैं; हम समर्थ हो जाते हैं झेलने में। इकट्ठा मिल जाए, लाटरी की तरह मिल जाए, कि दस लाख रुपए की लाटरी मिल गई किसी को, तो खतरा है। लाटरी तो मिलेगी, लाटरी पाने वाला नहीं बचेगा।

सुख इकट्ठा आ जाए, तो तोड़ जाता है, दुख से भी ज्यादा तोड़ जाता है। क्योंकि दुख परिचित है, उसके हम इम्यून हैं, वह रोज आता है। इसलिए कितना भी आ जाए, दुख में हार्ट फेल होते हुए नहीं सुने जाते। बड़े से बड़ा दुख आदमी झेल जाता है; हृदय-गति बंद नहीं होती। क्योंकि दुख इतने हैं जीवन में, हमारी दृष्टि ऐसी गलत है कि अधिक दुख हमने बना रखे हैं, तो हम झेल जाते हैं! लेकिन सुख? हमारी दृष्टि ऐसी है कि सुख हमने बनाए नहीं। कभी कोई सुख अगर हमारी दृष्टि के अनुकूल पड़कर हम पर छा जाता है, तो खतरा है। फिर सुख की उत्तेजना भी थोड़ी देर में अप्रीतिकर हो जाती है। सब उत्तेजनाएं अप्रीतिकर हो जाती हैं।

सुना है मैंने, नादिर एक स्त्री को प्रेम करता था। लेकिन उस स्त्री ने नादिर की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। नादिरशाह साधारण आदमी नहीं था, असाधारण आदमी था। हत्यारों में उस जैसा असाधारण दूसरा नहीं है। अभी-अभी हमने कुछ रिकार्ड तोड़े हैं–हिटलर, स्टैलिन के साथ। लेकिन हिटलर और स्टैलिन का जो हत्यारापन है, वह बड़ा परोक्ष है। उन्हें कभी ठीक पता नहीं चलता कि वे मार रहे हैं। नादिरशाह का हत्यारापन सीधा, प्रत्यक्ष था; वही मार रहा था सामने छाती में।

नादिरशाह को उस स्त्री ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब नादिरशाह को पता चला कि वह उसके ही एक पहरेदार को, साधारण सिपाही को प्रेम करती है, तो पागल हो गया। अपने बुद्धिमानों को उसने बुलाया और कहा कि सजा बताओ, क्या सजा दूं? बुद्धिमान हैरान हुए, क्योंकि नादिरशाह सजा इनवेंट करने में इतना कुशल था कि वह बुद्धिमानों से पूछे? बुद्धिमान थोड़े हैरान हुए! उन्होंने कहा, आपकी कुशलता हम न पा सकेंगे। आपसे ज्यादा कुशल और कौन है? सताने में आप ऐसी-ऐसी तरकीबें निकालते हैं! आपसे ज्यादा हम कुछ न बता सकेंगे। लेकिन नादिरशाह ने कहा कि नहीं; मैं जो भी सोच सका, सब कम पड़ता है। तुम कुछ ऐसा सोचकर आओ कि जैसा कभी किसी ने किसी को न सताया हो।

उसके विद्वानों में से एक मनसशास्त्री ने कहा कि अगर मेरी मानें, तो मैं आपको बताऊं। नादिरशाह मान गया, जो उसने बताया। और सजा दी गई। ऐसी सजा पहली दफा दी गई; और अगर बहुत दफे दी जाए, तो दुनिया में बड़ी मुसीबत हो जाए। सजा बड़ी अजीब थी। सोच भी नहीं सकते, ऐसी थी।

दोनों को नग्न करके, आलिंगन में बांधकर रस्सियों से, और एक खंभे में बांध दिया गया। न खाना, न पीना। दोनों के चेहरे एक-दूसरे की तरफ। क्षणभर को तो उन्हें लगा कि हमारे जीवन का स्वर्ग मिल गया। इसी के लिए आतुर थे कि एक-दूसरे की बांह में पहुंच जाएं! पहुंच गए! थोड़े हैरान हुए कि नादिर को यह क्या हुआ है! लेकिन उन्हें पता नहीं कि एक मनोवैज्ञानिक ने सलाह दी है। और राजनीतिज्ञों को जब भी मनोवैज्ञानिक सलाहकार मिल जाएंगे, तब दुनिया में जितनी दुर्घटनाएं होंगी, उतनी और कभी नहीं हो सकतीं।

मिनट, दो मिनट, फिर घबड़ाहट शुरू हुई। क्योंकि कोई किसी को आलिंगन में ले ले, तो क्षणभर में आलिंगन टूट जाए, तो सुख का खयाल रह जाता है। दस मिनट रह जाए, तो घबड़ाहट और बेचैनी शुरू हो जाती है। पंद्रह मिनट, आधा घंटा…। जिन ओंठों में समझा था कि गुलाब के फूल खिलते हैं, उनसे बदबू आने लगी। कहीं खिलते नहीं, किन्हीं ओंठों में गुलाब के फूल नहीं खिलते। सिर्फ उन कवियों की कविताओं में खिलते हैं, जिन्हें ओंठों का कोई पता नहीं है। जिनको भी ओंठों का थोड़ा अनुभव है, वे जानते हैं, फूल नहीं खिलते। सब तरह की बदबू मुंह से उठती है। उठने लगी।

दिन बीता, चौबीस घंटे हो गए। सोए नहीं। रातभर की तंद्रा आंखों में, शरीर में भर गई। ऐसा लगने लगा कि दोनों लाश हो गए हैं। आदमी जिंदा नहीं हैं। फिर मल-मूत्र भी बहने लगा; क्योंकि दो दिन बीत गए। फिर तो गंदगी भारी हो गई। फिर तो वे चीखने-चिल्लाने लगे कि हमें छुड़ा दो; माफ करो। लेकिन नादिर रोज आकर देख जाता कि प्रेमियों की क्या हालत है!

फिर तो ऐसा मन होने लगा कि अगर हाथ खुले हों, तो एक-दूसरे की गर्दन दबा दें। उस जगत में उन दोनों को उन क्षणों में जैसी शत्रुता अनुभव हुई होगी, ऐसी किन्हीं प्रेमियों को कभी नहीं हुई है।

प्रेमियों का सबसे बड़ा सौभाग्य यह है कि वे कभी मिल न पाएं। मिल जाएं, तो उपद्रव शुरू होते हैं। और इस भांति मिल जाएं, इस पूरी तरह मिल जाएं, तब तो बहुत कठिनाई है। पंद्रह दिन बाद सोच सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी! दो लाशों की तरह मुर्दा, पागल, विक्षिप्त!

कहते हैं कि जब पंद्रह दिन बाद मनोवैज्ञानिक ने सलाह दी कि अब छोड़ दो, अब दूसरा मजा देखो, उन दोनों को छोड़ दिया। वे दोनों एक-दूसरे की तरफ पीठ करके जो भागे, तो दोबारा जिंदगी में फिर कभी नहीं मिले। फिर कभी एक-दूसरे को देखा भी नहीं। बड़ी कठिन रही होगी सजा।

सब सुख दुख हो जाते हैं। और सब दुख भी अभ्यास से सुख हो जाते हैं। एक आदमी पहली दफा सिगरेट पीता है, तो सुख नहीं मिलता, सिर्फ तिक्तता पहुंच जाती है मुंह में। गंदा धुआं; खांसी, और बदबू; और घबड़ाहट; बेचैनी! पहली दफा आदमी शराब पीता है, तो कभी सुख नहीं मिलता। लेकिन शराब पिलाने वाले कहते हैं, टेस्ट पैदा करना पड़ता है, ट्रेन करना पड़ता है। वे कहते हैं कि ऐसे थोड़े ही है, यह कोई साधारण चीज थोड़े ही है। यह शास्त्रीय संगीत जैसी चीज है। अभ्यास से स्वाद का जन्म होता है। मुंह में कड़वाहट छूट जाती है, छाती तक जलन पहुंच जाती है, श्वास की पूरी नली विरोध और बगावत करती है, पहले दिन शराब पीने पर। लेकिन अभ्यास से शराब प्रीतिकर हो जाती है।

सुख भी उत्तेजना, दुख भी उत्तेजना, इसलिए उत्तेजनाएं एक-दूसरे में बदल सकती हैं, बदल जाती हैं।

शांति, परम शांति वह है, जहां कोई उत्तेजना नहीं है–न सुख की, न दुख की। जहां सुख भी नहीं, जहां दुख भी नहीं, ऐसा जहां परम शांत हुआ चित्त, वहीं आनंद फलित होता है, वहीं प्रभु का द्वार खुलता है, वहीं परम सत्य में प्रवेश होता है।

जितेंद्रिय हुआ, श्रद्धा से युक्त, शांत हुआ मन, परम सत्य, निगूढ़ सत्य में प्रविष्ट हो जाता है।

प्रश्न:

भगवान श्री, श्रद्धा ज्ञान का सहज परिणाम है, अथवा ज्ञान को उपलब्ध होने के पहले श्रद्धा का होना अनिवार्य है? कृपया इसे समझाएं।

श्रद्धा तो ज्ञान का अंतिम परिणाम है; लेकिन श्रद्धावान होना ज्ञान का पहला चरण है। श्रद्धा तो पूर्णता है। इसलिए कृष्ण यह नहीं कह रहे, श्रद्धा; वे कह रहे हैं, श्रद्धावान। श्रद्धावान तो एप्टिटयूड है, वह तो स्वभाव का एक लक्षण है, वह तो बीज है। श्रद्धा तो, पूर्ण श्रद्धा तो उपलब्ध होती है तब, जब सब जिज्ञासाओं का अंत हो जाता है, जब सब संदेह गिर जाते हैं। जब जानना घटित होता है, जब जान ही लिया जाता है, तब श्रद्धा उपलब्ध होती है।

लेकिन वह तो अंतिम है; उसकी बात करनी बेकार है। अर्जुन से तो बेकार है बात करनी। बुद्ध से बात कर रहे होते कृष्ण, तो करते। अर्जुन से तो श्रद्धावान होने की बात करनी अर्थपूर्ण है। यात्रा की मंजिल पर पहला चरण, श्रद्धावान। यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, श्रद्धा। वह श्रद्धावान होना ही अंततः श्रद्धा बनती है। वह पहला चरण ही आखिर में मंजिल बन जाती है। इसलिए श्रद्धा के दोनों अर्थ खयाल में रखें।

एक तो श्रद्धावान होने का मतलब है, अभिमुखता; श्रद्धा की तरफ यात्रा; श्रद्धा की तरफ आंखें; श्रद्धा की तरफ चलना, श्रद्धावान होने का अर्थ है। फिर जब पहुंच गए, जब श्रद्धा ही घटित हो जाती है, तब श्रद्धावान नहीं होता आदमी; आदमी ही श्रद्धा होता है। तब चित्त श्रद्धावान नहीं होता, तब चित्त श्रद्धा ही हो जाता है। तब श्रद्धा एक गुण नहीं होती; तब श्रद्धा समग्र अस्तित्व बन जाती है। तब श्रद्धा एक झुकाव नहीं होती–यात्रा नहीं, तीर की तरह कहीं जाती हुई नहीं–तब श्रद्धा मंजिल होती है। जाती हुई नहीं, ठहरी हुई, खड़ी हुई। नदी की तरह भागती हुई नहीं होती श्रद्धा, फिर सागर की तरह ठहरी हुई होती है।

श्रद्धावान, नदी की तरह भागती हुई श्रद्धा का नाम है। श्रद्धा, सागर की तरह ठहराव का नाम है। श्रद्धा, अर्थात पहुंच गए। श्रद्धावान, अर्थात पहुंच रहे हैं। दोनों अर्थ हैं।

पर कृष्ण ने अर्जुन को जो कहा, वह पहले अर्थ की दृष्टि से कहा। दूसरे की बात करनी बेकार है। वहां तो पहुंच जाएंगे। पहला होना चाहिए। यात्रा की बात ठीक है; मंजिल तो आ जाती है। रास्ते की बात ठीक है; मंजिल तो आ जाती है। मंजिल की चर्चा की भी नहीं जा सकती। मंजिल को कहने का भी उपाय नहीं है। प्रयोजन भी नहीं है।

इसलिए समस्त जानने वालों ने विधि की, मेथड की बात की है, मंजिल की नहीं। मंजिल की तरफ सिर्फ कभी-कभी इशारे हैं। कैसे पहुंचें, इसकी बात है। मंजिल की तरफ कभी-कभी इशारा है, सिर्फ इसी को समझाने के लिए कि कैसे पहुंचें।

कभी-कभी, जैसे कृष्णमूर्ति के मामले में, मंजिल की बात ही की जाती है और मार्ग की बात छोड़ दी जाती है। तब कृष्णमूर्ति जैसा व्यक्ति भूल जाता है कि सुनने वाले कृष्ण नहीं हैं, अर्जुन हैं। और सुनने वाले कृष्ण कभी भी नहीं होंगे; क्योंकि कृष्ण किसलिए सुनने आएंगे?

इसलिए इधर कृष्णमूर्ति को पीछे-पीछे बड़ा विषाद मालूम होता है, फ्रस्ट्रेशन भी मालूम होता है। भीतरी, आंतरिक नहीं, अपने लिए नहीं; लेकिन चालीस साल से जिनसे बोल रहे हैं उनके लिए। करुणापूर्ण है विषाद। विषाद मालूम होता है कि चालीस वर्ष से समझा रहा हूं इनको, ये वही के वही लोग! वही सामने हर बार आकर बैठ जाते हैं। फिर वही सुन लेते हैं; फिर सिर हिलाते हैं। फिर वही सवाल पूछते हैं। फिर वही उत्तर पाते हैं। फिर खाली हाथ लौट जाते हैं। फिर अगले वर्ष खाली हाथ वापस आ जाते हैं। वही के वही लोग! अगर मरघट पर बोलते होते कृष्णमूर्ति, तो कोई खास नुकसान न होता। अगर दीवाल से बोलते होते, तो कोई खास नुकसान न होता।

कृष्णमूर्ति के साथ पहली दफा एक दुर्घटना घट गई और वह दुर्घटना यह है कि वे मंजिल की बात कर रहे हैं, मार्ग की नहीं। वे मंजिल की इतनी बात कर रहे हैं, जितनी मार्ग की करनी चाहिए; और वे मार्ग की इतनी बात कर रहे हैं, जितनी मंजिल की करनी चाहिए। अगर कभी मार्ग के संबंध में कोई शब्द आ जाता है, तो घबड़ाहट से जल्दी वह उसको दूसरी पंक्ति में नष्ट कर देते हैं। मंजिल!

क्या, हो क्या गया? ऐसा अब तक नहीं हुआ था। पृथ्वी पर ऐसा अब तक नहीं हुआ था कि किसी आदमी को ज्ञान की किरण के फूटने के साथ, अंतिम को, मंजिल को, कहने का ऐसा भाव नहीं हुआ था। कृष्णमूर्ति को हुआ। होने का कुछ विशेष कारण है।

कृष्णमूर्ति को दूसरे लोगों ने साधना करवाई; खुद नहीं की। कृष्णमूर्ति को दूसरे लोगों ने, लीडबीटर ने, एनीबीसेंट ने साधना करवाई। कृष्णमूर्ति पर साधना जैसे बाहर से आई। भीतर सत्व था, भीतर पिछले जन्म तक आ गई संभावना थी। भीतर मौजूद था। क्योंकि अकेले बाहर से कुछ करवाया नहीं जा सकता, जब तक भीतर मौजूद न हो। सूखी लकड़ी थी भीतर, बाहर से पकड़ाई गई आग। पकड़ गई। लेकिन पकड़ाई गई बाहर से। और जब भी कोई चीज बाहर से पकड़ाई जाती है, तो मन उसका विरोध करता है। अच्छी से अच्छी चीज का भी विरोध करता है।

इसलिए कृष्णमूर्ति के मन में विधियों के प्रति, मेथड के प्रति एक अनिवार्य विरोध पैदा हो गया। वे बाहर से पकड़ाए गए उन्हें। गुरुओं के प्रति एक विरोध पैदा हो गया; क्योंकि गुरु उनको ऊपर से थोपे हुए मिले। चुने हुए नहीं थे, खोजे नहीं थे उन्होंने। अगर कोई आदमी खुद गुरु खोजता है, तो गुरु कभी दुश्मन नहीं मालूम पड़ता है। लेकिन अगर गुरु किसी को खोज ले, तो झंझट हो जाती है। हालांकि मजा यह है कि जब गुरु खोजता है, तो ठीक से खोजता है। और शिष्य जब खोजता है, तो गलत खोजता है। लेकिन अपनी गलत खोज भी ठीक मालूम पड़ती है, दूसरे की ठीक खोज भी गलत मालूम पड़ती है।

शिष्य कैसे खोजेगा गुरु को? अगर गुरु को खोजने की योग्यता हो, तो परमात्मा को खोजने में कोई बाधा नहीं है। जितनी योग्यता से गुरु खोजा जाता है, उतनी योग्यता से परमात्मा खोजा जा सकता है।

इसलिए शिष्य कभी गुरु को खोज नहीं सकता। हमेशा गुरु ही शिष्य को खोज सकता है। लेकिन गुरु को इतनी कुशलता बरतनी चाहिए कि शिष्य को ऐसा लगे कि उसने ही उसे खोजा है। नहीं तो कठिनाई हो जाती है। कृष्णमूर्ति के साथ यह दिक्कत हो गई।

कृष्णमूर्ति को कभी नहीं लगा कि उन्होंने इनको खोजा है; लीडबीटर और एनीबीसेंट ने ही उनको खोजा है। और वह सब मामला ऐसा हो गया कि गुरुओं के प्रति भी विरोध रह गया और विधि के प्रति भी विरोध रह गया। लीडबीटर को मरे लंबा वक्त हो गया। एनीबीसेंट को मरे लंबा वक्त हो गया। कृष्णमूर्ति के मन से वह बात अब तक जाती नहीं है। वे लड़े चले जाते हैं लीडबीटर से; लड़े चले जाते हैं विधियों से। और मंजिल की बात किए चले जाते हैं। जो सुनने वाले हैं, वे अगर कृष्ण की तरह हों, तब तो ठीक। वे समझ जाएं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं। लेकिन सुनने नहीं आता कृष्ण जैसा आदमी। सुनने तो अर्जुन जैसा आदमी आता है। इसलिए सब व्यर्थ हुआ जाता है।

वे श्रद्धा की बात कर रहे हैं, करनी चाहिए श्रद्धावान की। यह खयाल में लेंगे, तो समझ में आ जाएगा।

कृष्ण श्रद्धावान की बात कर रहे हैं, जितेंद्रिय, श्रद्धावान!

शेष रात में लेंगे।

अब जो श्रद्धावान हैं, वे थोड़ा कीर्तन में डूब जाएं। जो अश्रद्धावान हैं, वे बिलकुल चुपचाप चले जाएं। जो मध्य में हैं, वे बैठकर थोड़ी ताली बजाते रहें।

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--2 (ओशो) Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–22

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परमात्‍मा के मंदिर का द्वार: प्रेम—प्रवचन—बाईसवां

प्रश्‍न—सार:

1—इस जगत में न पकड़ने—योग्‍य कुछ है न छोड़ने—योग्‍य। लेकिन एक बात पकड़ने और छोड़ने के बीच बेचैन कर गयी: प्रेम—वासना—मेरे जीवन की एक मात्र समस्‍या।

2—आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक

कौन जीता है तेरे जुल्‍फ के सर होने तक

हमने माना के तगाफुल न करोगे, लेकिन

खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक।

3—आपने प्रवचन के समय बड़ी मीठी और गहरी नींद आती है। क्‍या कारण है?

4—सन्‍यास के शुरू के कुछ साल संन्‍यासिनी होने का भ्रम रहा। लेकिन संन्‍यास संन्‍यास के फूल की जो आप बात करते है, आपने को उसके योग्‍य नहीं पाती। जमीन से पैर उखड़ गए है, लेकिन पंख अभी तक नहीं उगे। यही कैसी अवस्‍था है?

पहला प्रश्न:

इस जगत में न पकड़नेऱ्योग्य कुछ है, न छोड़नेऱ्योग्य–ऐसा आपने कहा। और मैंने तटस्थता में शांति का अनुभव भी पाया। लेकिन एक बात पकड़ने और छोड़ने के बीच बेचैन कर गई–वह है प्रेम-वासना। मेरे जीवन का वही एक प्रश्न है, समस्या है।

प्रेम समस्या नहीं है–बनाना चाहो तो समस्या बन सकती है।

प्रेम है जीवन का समाधान। लेकिन तुम्हारे देखने में कहीं कोई भूल-चूक हो रही है। तुमने प्रेम को निष्पक्ष भाव से नहीं देखा। जिन्होंने प्रेम के विपरीत जीवन का ढांचा निर्मित किया है, या जो जीवन-विरोधी हैं, तुमने उनकी आंख से प्रेम को देखा है। तुम्हारी आंखें किन्हीं खयालों से भरी हैं, उन खयालों के कारण प्रेम समस्या बन जाता है। फिर तो कोई भी चीज समस्या बनाई जा सकती है। समस्या ही बनाना हो तो फिर इस जगत में ऐसी कोई बात नहीं, जो समस्या न बन जाये। कोई भोजन को समस्या बना लेता है। कोई शरीर को समस्या बना लेता है। कोई वस्त्रों को समस्या बना लेता है। प्रेम को भी समस्या बनाना चाहो तो बन सकता है। यह तुम पर निर्भर है। कहीं देखने में कुछ भूल हो रही है।

प्रेम को सदा ही तथाकथित धार्मिकों ने निंदित किया है। क्योंकि जीवन के विधायक को स्वीकार करनेवाले धर्म अब तक पैदा नहीं हुए; या पैदा भी हुए तो उनकी झलकें आईं और खो गईं। कभी किसी कृष्ण ने बांसुरी बजाई; लेकिन वे स्वर ज्यादा दिन तक गूंजते न रह सके–क्योंकि आदमी रुग्ण है, क्योंकि आदमी बीमार है; और आदमी से कृष्ण की बांसुरी के स्वरों का संबंध नहीं बैठता।

आदमी दुखी है और इसलिए दुख के कारण वह जीवन के सुख-रूप को नहीं देख पाता। वह अपने दुख को ही जीवन में देखता है। इसलिए जब भी कोई तुमसे कहेगा, जीवन व्यर्थ है, असार है, तुम्हें तत्क्षण बात समझ में आ जायेगी। क्योंकि तुम्हें भी ऐसा ही लग रहा है।

जिन्हें भी जीने का ढंग न आया, वे जीवन से नाराज हो जाते हैं। अपने से तो कोई यह देखने को राजी नहीं है कि मेरी शैली गलत, मेरे जीवन को पहचानने का रास्ता गलत, जीवन की तरफ पहुंचने की मेरी व्यवस्था गलत। ऐसा तो कोई नहीं देखता; क्योंकि उसमें तो फिर “मैं’ गलत हो जाऊंगा।

हम, अगर अहंकार और जीवन में चुनना हो, तो अहंकार को चुन लेते हैं, जीवन को नहीं। मैं तो गलत कैसे हो सकता हूं, जीवन ही गलत होना चाहिए! मैं तो गलत कैसे हो सकता हूं, प्रेम ही गलत होना चाहिए!

तो जब भी हमें चुनना होता है, हम “मैं’ को चुन लेते हैं कि मैं तो ठीक हूं ही! एक बात तो सुनिश्चित है कि मैं ठीक हूं। और फिर भी जीवन में दुख हैं तो कहीं न कहीं गलती का सूत्रपात होता होगा; कहीं न कहीं भूल के बीज होंगे। तो हम चारों तरफ देखते हैं भूल के बीज खोजने को। कोई धन में देखता है; धन छोड़कर भाग जाता है। लोभ में नहीं देखता; धन में देख लेता है, तो धन को छोड़कर भाग जाता है। अपने भीतर नहीं देखता, तृष्णा में नहीं देखता। लेकिन धन को छोड़कर कहां जाओगे? धन तो बाहर था, बाहर ही रहेगा। तुम कहीं भी भाग जाओ, तुम्हारे भीतर की लोभ-दशा कैसे बदलेगी? कोई देखता है, पद में उपद्रव है, अशांति है–पद छोड़कर हट जाता है।

न तो अशांति पद में है, न धन में है।

कोई देखता है, प्रेम में उलझाव है। प्रेम में उलझाव नहीं है। उलझाव तो तुम्हारी प्रेम न कर पाने की स्थिति में है। तुमने प्रेम के नाम पर कुछ और किया है, इसलिए उलझाव है।

थोड़ा समझो। इधर मैं देखता हूं, सैकड़ों लोग अपनी प्रेम की समस्या लेकर मेरे पास आते हैं। तो पहली बात तो यह है कि प्रेम तो उन्होंने किया ही नहीं है, समस्या है। प्रेम के नाम पर कुछ और किया है। प्रेम के नाम परर् ईष्या की है। प्रेम के नाम पर दूसरे पर मालकियत साधनी चाही है। प्रेम के नाम पर राजनीति की है। प्रेम के नाम पर किसी को दबाना चाहा है, सताना चाहा है। प्रेम के नाम पर किसी के सिर पर बैठ जाना चाहा है। यह नाम प्रेम का है, भीतर छिपा कुछ और है।

तुम जिस स्त्री से कहते हो, मैंने प्रेम किया, तुमने प्रेम किया? तुम जिस पुरुष को कहते हो, मैंने प्रेम किया, तुमने प्रेम किया? जिस बेटे को तुम कहते हो, मैंने प्रेम किया, प्रेम किया? बेटे में तुमने महत्वाकांक्षा की है कि तुम जो नहीं कर पाये, बेटा पूरा करेगा। तुम जो अधूरा छोड़ जाओगे, बेटा पूरा करेगा। बेटे के माध्यम से तुमने एक तरह का अमरत्व साधना चाहा। तुम तो मरोगे, तुम्हारा अंश तुम्हारे बेटे में जीयेगा। चलो इतना ही सही, पूरे न बचोगे, एक अंश बचेगा। वृक्ष न बचेगा, लेकिन बीज तो बचेगा। चलो यही सही। इतना तो इंतजाम कर लें।

कौन अपने बेटे को प्रेम करता है! बेटे के माध्यम से कुछ और चीजें हैं, कुछ अहंकार की एषणाएं हैं जिन्हें तुम पूरा करना चाहते हो। तुम नहीं बन पाये प्रधानमंत्री, बेटा बन जायेगा। तुम नहीं हो पाये बड़े धन कुबेर, बेटा हो जायेगा। नाम तो रहेगा। नाम तो तुम्हारा है, बेटा तो तुम्हारा है!

इसलिए दुनिया में इतने मां-बाप कहते हैं कि हम अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, लेकिन दुनिया में कहीं प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। सभी बच्चे तो मां-बाप से पैदा होते हैं। अगर सच में ही मां-बाप प्रेम करते हैं तो सभी बच्चे प्रेम से पैदा हों और उनके जीवन में प्रेम की सुगंध हो। लेकिन वह सुगंध तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। दिखाई तो पड़ती है घृणा की दुर्गंध। दिखाई तो पड़ता है युद्ध, वैमनस्य, हत्या, हिंसा, क्रोध, और सभी प्रेम के स्रोत से आते हैं। तो जरूर प्रेम के स्रोत में कहीं कोई जहर मिला है। क्योंकि अंतिम परिणाम बताते हैं। फल से पता चलता है वृक्ष का। तो तुम्हारे बेटे के जीवन में अगर प्रेम फले तो ही पता चलेगा कि तुमने प्रेम किया था, तुमने प्रेम की खाद डाली थी। लेकिन किसी बेटे के जीवन से पता नहीं चलता।

पत्नी है, पति है, एक-दूसरे को कहते हैं कि प्रेम करते हैं। लेकिन कभी तुमने देखा, गौर से समझा–यह प्रेम है या कुछ और? प्रेम के नाम से धोखा दे रहा है। फिर समस्याएं खड़ी होती हैं। तुम्हारी पत्नी किसी दूसरे की तरफ गौर से भी देख ले तो अड़चन शुरू हो जाती है। तुम्हारे अतिरिक्त भी सौंदर्य है जगत में। तुमने कुछ सौंदर्य की मोनोपाली, एकाधिकार नहीं कर लिया है। तुम्हारे अतिरिक्त भी सौंदर्य है जगत में। तुममें भी सौंदर्य है, क्योंकि जगत में सौंदर्य है, अन्यथा तुममें भी न होता। तो अगर पत्नी किसी की तरफ भरनजर देख लेती है, तुम घबड़ा क्यों गये हो? इतने परेशान क्यों हो गये हो? घबड़ाहट है।

प्रेम कहीं घबड़ाता है? अगर प्रेम हो तो तुम चुपचाप पूछोगे, “सुंदर लगा यह व्यक्ति? मुझे भी सुंदर लगा। सुंदर है।’ न तो पत्नी को यह छिपाना पड़ेगा कि यह व्यक्ति सुंदर लगा, न तुम्हें इसके लिए कोई संघर्ष करना पड़ेगा कि तुम पत्नी को दबाओ, कि पत्नी की आंख को हटाओ, कि पत्नी पर नियंत्रण करो। कहां क्या बुरा हुआ है?

पति अगर किसी और स्त्री से हंसकर बोल ले, मुस्कुराकर बोल ले तो पत्नी बेचैन है, परेशान है। यह कैसा प्रेम है? यह कैसा प्रेम है जो पति को मुस्कुराते नहीं देख सकता? पत्नी कहती है, मुस्कुराना तो बस मेरे पास। यह तो ऐसे हुआ, जैसे कि तुम कहो कि सांस लेना तो बस मेरे पास! बाकी चौबीस घंटे और कहीं श्वास मत लेना।

मुस्कुराहट भी श्वास है। प्रेम भी श्वास है। और जैसे बिना भोजन के आदमी मर जाता है–बिना प्रेम के आदमी मर जाता है। बिना भोजन के शरीर मरता है–बिना प्रेम के आत्मा मर जाती है। तो बिना भोजन के तो तुम जी भी लो–थोड़े दिन; बिना प्रेम के तो तुम क्षणभर नहीं जी सकते। क्योंकि प्रेम ही तुम्हारी आत्मा की श्वास है। जैसे शरीर को आक्सीजन चाहिए प्रतिपल, ऐसे ही प्राणों को प्रेम चाहिए प्रतिपल। लेकिन तुम घर के बाहर जाते हो तो भी डरे हो। किसी से प्रेम से बात भी करते हो तो भीतर एक भय खड़ा है कि कहीं पत्नी को पता न चल जाये। यह कैसा प्रेम हुआ, जो तुम्हारी प्रसन्नता के विपरीत आ रहा है? यह कैसा प्रेम हुआ, जो तुम्हें दुखी देखना चाहता है, प्रसन्न नहीं देखना चाहता? यह कैसा प्रेम हुआ जो तुम्हें बांधता है, मुक्त नहीं करता? नहीं, यह प्रेम का नाम है। इसके पीछे कुछ और है–मालकियत है, पजेसिवनेस है, एकाधिकार है। इसमें प्रेम कम, अर्थशास्त्र ज्यादा है।

पत्नी डरी है कि अगर कहीं तुम किसी दूसरे में उत्सुक हो गये तो मेरी व्यवस्था का, धन का, मेरे बच्चों का, घर का क्या होगा! तुममें कोई उत्सुकता नहीं है–आर्थिक व्यवस्था का सवाल है। अर्थ के नियोजन में गड़बड़ पड़ जायेगी। न तुम पत्नी में उत्सुक हो। कुछ और बातें हैं, जिनके कारण तुम उत्सुक हो। प्रतिष्ठा है। समाज में आदर-सम्मान है। लोग कहते हैं कि ऐसा एक पत्नी-व्रती कोई दूसरा देखा नहीं। राम के बाद बस तुम्हीं हुए हो। तो एक रिस्पेक्टेबिलिटी है, एक सम्मान है। अगर यहां-वहां नजर गई, सम्मान बिखर जायेगा। प्रतिष्ठा दांव पर लगेगी। बाजार में नाम नीचा गिरेगा। दुकान कम चलेगी। सब गड़बड़ हो जायेगी। हजार और बातें हैं।

फिर इन्हीं बातों के कारण अड़चन होती है। तो तुम कहते हो, प्रेम के कारण समस्या खड़ी हो रही है।

अब तक मैंने ऐसी कोई घटना नहीं देखी और हजारों लोगों के चित्त के निरीक्षण से तुमसे कहता हूं कि जब प्रेम ने समस्या खड़ी की हो, समस्या किसी और चीज ने खड़ी की है। लेकिन बुनियादी भूल तो तुम यह मानकर चलते हो कि वही प्रेम था। फिर जब समस्या खड़ी होती है तो प्रेम पर ही दोष थोप देते हो। प्रेम ने तो लोगों को मुक्त किया है। प्रेम ने तो जीवन में स्वाद दिया है परमात्मा का। प्रेम के माध्यम से ही लोग धीरे-धीरे प्रार्थना की तरफ सरके हैं, आकर्षित हुए हैं। प्रार्थना में स्वाद मिला है अनंत का, अज्ञात का। प्रेम ने बल दिया है। प्रेम ने अभियान दिया है, साहस दिया है। लेकिन प्रेम ने समस्या कभी भी नहीं दी।

अगर प्रेम समस्या देता होता तो जीसस कैसे कहते कि परमात्मा प्रेम है? तो तो फिर भक्ति-शास्त्र का सारा का सारा आधार गिर जाता। प्रेम से तो भक्तों ने भगवान को ही खोजा है। और तुम कहते हो, प्रेम में समस्या है! तो तुम जरा फिर से विचार करना। प्रेम में कुछ और मिश्रित होगा। उस मिश्रित के कारण समस्या खड़ी होगी। उस मिश्रित को गिरा दो।

ईर्ष्‍या मत करो प्रेम के माध्यम से और महत्वाकांक्षा मत करो। और प्रेम के माध्यम से किसी की मालकियत मत करो। और प्रेम के माध्यम से किसी तरह की गुलामी मत थोपो। प्रेम पर्याप्त है। प्रेम से कुछ और मत चाहो। प्रेम अपने में साध्य है; उसे साधन मत बनाओ। फिर तुम देखोगे कि जीवन बड़ी शांति से विकसित होने लगा। और शांति से ही नहीं, क्योंकि सिर्फ शांति भी थोड़ी मुर्दा मालूम होती है।

मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन को शांति-मात्र का लक्ष्य नहीं देता हूं; क्योंकि जिस शांति में आनंद की पुलक न हो, वह शांति पर्याप्त नहीं। जिसमें आनंद की लहरें भी उठती हों, वही शांति ठीक है। नहीं तो शांति का अर्थ केवल इतना होगा कि अशांति नहीं है। कुछ होगा नहीं; कुछ नहीं है, इस पर जोर होगा। फिर तुम्हारी शांति अहिंसा जैसी होगी। फिर तुम्हारी शांति उपद्रव का अभाव होगी; जैसे कि रास्ता न चलता हो, रेलगाड़ी न गुजरती हो, हवाई जहाज न निकलता हो। या तुम दूर हिमालय पर चले गये तो वहां एक तरह की शांति है, सन्नाटा है। लेकिन उस सन्नाटे में बहुत मूल्य नहीं है; क्योंकि वह सिर्फ अभाव है।

फिर एक और शांति है, जो संगीत की तरह है: तुम्हारे चारों तरफ वीणा बजने लगे; बाहर-भीतर एक नृत्य होने लगे; शांति गाये भी नाचे भी, उमंग से भरी हो, हर्र्षोन्माद हो तो ही, तो ही ठीक है।

तो इतना ही काफी नहीं कि तुम शांत हो जाओ। इसे समझना।

जो लोग प्रेम के जीवन को छोड़कर हट जायेंगे, इस खयाल से कि वहां समस्या थी, वे शांत तो हो जायेंगे, लेकिन आनंदित न हो पायेंगे। उनकी आंखों में चिंता के बादल तो न होंगे, लेकिन आनंद-अश्रुओं की वर्षा भी न होगी। उनकी आंखों में तनाव, बेचैनी, परेशानी, चिंता–इसकी धूल-धवांस तो न होगी; लेकिन उनकी आंखों में तुम किसी अनंत का नृत्य न देख पाओगे। उनकी आंखें झरोखे न बनेंगी परमात्मा की। उनकी आंखें रूखी-रूखी, सूखी-सूखी, मुर्दा-मुर्दा होंगी।

जीवन को शांति का लक्ष्य मत देना। शांति जरूरी है, काफी नहीं। जीवन और बड़े द्वार खोलता है आनंद के। आनंद के पीछे शांति तो अनिवार्य होती है, लेकिन शांति के साथ जरूरी रूप से आनंद नहीं होता। तुम ऐसा मत सोचना कि बीमार न हुए तो स्वस्थ हो गये। बीमार न होना स्वस्थ होने के लिए जरूरी है, लेकिन काफी नहीं। क्योंकि यह भी हो सकता है कि बीमार तुम नहीं हो, लेकिन स्वास्थ्य की कोई पुलक नहीं है। स्वास्थ्य बड़ी अलग बात है। जब कभी तुम स्वस्थ हुए हो, तो तुम्हें पता है कि वह बीमारी न होने का ही नाम नहीं है, कुछ विधायक ऊर्जा तुम्हारे भीतर तरंगें लेती है। यह जरूरी है कि बीमारी न हो तो स्वास्थ्य के उतरने में सहायता आती है। लेकिन जिसने यह समझ लिया कि बीमारियों का अभाव ही स्वास्थ्य है, उसने जीवन के संबंध में बड़ी भूल कर ली।

तो मैं तुमसे कहूंगा, प्रेम पर फिर से विचार करना, ध्यान करना। और प्रेम से भयभीत मत होना। भय है। उसी भय के कारण बहुत लोग भाग गये हैं। भय है।

और भय क्या है?

जब भी तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में उतरते हो, दूसरा व्यक्ति तुम्हारे लिए दर्पण बन जाता है और तुम्हारा चेहरा उसमें दिखाई पड़ने लगता है। दर्पण से लोग डरते हैं; क्योंकि दर्पण में वे बातें दिखाई पड़ने लगती हैं जो तुम नहीं देखना चाहते। अकेले थे तो क्रोध का पता न चलता था; किसी के प्रेम में पड़े तो क्रोध का पता चलेगा। दूसरा दर्पण बन गया। और दूसरा चुनौती बन गया। और चारों तरफ स्थितियां खड़ी होंगी, जिनमें तुम्हारा क्रोध प्रगट होने लगेगा, तुम्हारे धोखे जाहिर होने लगेंगे। तुम्हारे झूठे चेहरे कभी-कभी खिसक जायेंगे और गिर जायेंगे। कुछ ऐसी स्थितियां बनने लगेंगी जिसमें तुम निर्वस्त्र हो जाओगे। तुम्हारे भीतर की नग्नता झांकने लगेगी। डर लगता है!

अकेले में आदमी अपने को ढांककर बैठा रहता है। संबंध बड़े सूचक होते हैं। संबंधों में ही पता चलता है तुम कौन हो। क्योंकि दूसरे की आंख में तुम्हारी जो छवि बनती है, उसी को तो तुम देख पाते हो; खुद की तो कोई छवि देखने का सीधा उपाय नहीं है। तुम सीधे तो अपने को देख ही न सकोगे। देखने के लिए दर्पण चाहिए। और दर्पण तो मुर्दा है–संबंधों का दर्पण जीवंत है। जब दूसरे की आंख में तुम्हारी छवि बनती है, तब तुम्हारा सत्य प्रगट होने लगता है। इसे थोड़ा समझो।

जब तुम अकेले हो तो तुम बेईमान नहीं हो सकते, न ईमानदार हो सकते हो; क्योंकि अकेले में क्या बेईमानी और क्या ईमानदारी! दूसरा चाहिए। तो अकेले आदमी को ऐसा भ्रम हो सकता है कि मैं ईमानदार हूं। इसलिए तो लोग जंगलों में भाग गये, गुफाओं में छिप गये।

अकेले में बड़ी सुविधा है; क्योंकि न बेईमानी है, तो साफ हो गया कि ईमानदार हैं। लोगों ने अभाव को परिभाषा बना लिया। लेकिन तुम ईमानदार भी नहीं हो जब तुम अकेले में हो। क्योंकि अकेले में किसके साथ ईमानदारी, कैसी ईमानदारी?

आओ वापस संबंधों में करीब लोगों के। वहां तत्क्षण पता चलेगा, तुम ईमानदार हो कि बेईमान; तुम झूठ बोलते हो कि सच। यह अकेले में कैसे पता चलेगा? किससे बोलोगे? तुम करुणावान हो या कठोर, यह कैसे पता चलेगा? करीब आओ! किसी जीवन को निकट आने दो।

और तत्क्षण तुम्हारे भीतर कुछ घटने लगेगा, जिससे साफ होगा कि तुम में कठोरता है या करुणा है।

अब तुम देखो, जैन मुनि हैं! अहिंसा और करुणा उनके जीवन का मूल आधार होना चाहिए, लेकिन है नहीं। क्योंकि जब तुम अपने को जीवन से तोड़ लोगे तो करुणा का पता कैसे चलेगा? किस हिसाब से तुम्हारे भीतर करुणा प्रगट होगी? कोई उपाय नहीं है। जैन मुनि रास्ते से गुजरता हो तो अगर एक भिखमंगा उसके सामने हाथ फैला दे, तो उसके पास देने को भी कुछ नहीं है। तो तुम यह तो न कहोगे, यह कृपण है। तुम कहोगे, यह तो त्यागी है, इसके पास कुछ है ही नहीं; देने को ही कुछ नहीं है तो देने का सवाल नहीं उठता। लेकिन क्या जरूरी है कि इसके पास देने को कुछ नहीं है, लेकिन यह देना चाहता था? कैसे पता चलेगा कि देना चाहता था? कहीं ऐसा तो नहीं है इस त्याग में कृपणता ही छिपी हो?

अकसर मैंने देखा है, कृपण त्यागी हो जाते हैं। त्याग से बढ़िया उपाय नहीं है कृपणता को छिपाने का। क्योंकि जब कुछ है ही नहीं तो देने का सवाल ही समाप्त हो गया। जैन मुनि से तुम अपेक्षा तो न रखोगे कि गरीब को कुछ दे, भिखमंगे को कुछ दे, बीमार को कुछ दे। देने की छोड़ो, तुम यह भी अपेक्षा नहीं रखते कि बीमार का पैर दबा दे या बीमार को पानी भरकर ला दे। क्योंकि जैन मुनि कहता है, उसमें तो राग है।

जैनों का एक पंथ है–तेरापंथ–आचार्य तुलसी का पंथ। वे तो यहां तक कहते हैं कि अगर राह के किनारे कोई मर रहा हो तो तुम चुपचाप अपने राह से चले जाना। क्योंकि क्या पता, तुम उस प्यासे मरते आदमी को पानी पिला दो, और वह कल हत्यारा हो जाये, तो तुमने हत्या में भाग लिया। ठीक है, वह मर जाता अगर तुम पानी न पिलाते, मर जाता तो हत्या न कर पाता। तुमने पानी पिलाया तो वह जी गया। जी गया, उसने कल जाकर हत्या की, तो तुम यह मत समझना कि तुम बच गये। तुमने ही तो हाथ दिया। इसलिए तुम अपने रास्ते पर चुपचाप चले जाना।

अब यह लगेगा विराग, त्याग! और ऐसी कठोर अवस्था में आदमी अपने भीतर बंद हो जाता है खोल के भीतर। इसकी पहचान ही मुश्किल हो जाती है कि यह कौन है, क्योंकि दर्पण तोड़ देता है।

संबंधों से जो डरता है, वह दर्पण से डर रहा है। और प्रेम से बड़ा स्वच्छ कोई दर्पण नहीं है। जितने तुम्हारे जीवन में प्रेम के संबंध होंगे, उतनी ही तुम्हारी सचाई जगह-जगह प्रगट होगी–उठते, बैठते, चलते। मैं तुमसे कहता हूं, अपनी सचाई को जानना जरूरी है, तो ही अपनी आत्मा को रूपांतरित किया जा सकता है।

इसलिए घबड़ाओ मत। और प्रेम को समस्या मत बनाओ। इतना डर क्या है? इतनी घबड़ाहट क्या है? अनुभव से उतरो, गुजरो।

जीवन जैसा है, अगर हम उसे वैसा का वैसा जीने को राजी हो जायें और जीवन जो शिक्षाएं देता है उन शिक्षाओं को सीखने को तत्पर रहें, तो इस जीवन में कुछ भी छोड़ने जैसा नहीं है। जो छोड़ने जैसा है, छूट जायेगा; जो बचने जैसा है, बच जायेगा। न तुम्हें छोड़ना पड़ेगा, न तुम्हें बचाना पड़ेगा।

इसलिए मैं कहता हूं, न यहां कुछ छोड़ने योग्य है, न पकड़ने योग्य। मेरा मतलब समझ लेना। मेरा मतलब यह है कि यहां तो तुम गुजर जाओ जीवन की गहनता से: जो छूटने योग्य है छूट जायेगा; जो पकड़ने योग्य है बच जायेगा; तुम्हें न कुछ छोड़ना है, तुम्हें न कुछ पकड़ना है। तुम इस राह से गुजर जाओ। लेकिन राह से भागना मत, भगोड़े मत बनना।

दो तरह के लोग हैं। एक हैं: पकड़नेवाले, जिनको हम भोगी कहते हैं। दीवाने हैं। वे उसको भी पकड़ लेते हैं, जो पकड़ने योग्य न था। क्योंकि उनका कुल जोर पकड़ने पर है; जो भी मिले पकड़ लो, सम्हालकर रख लो! कूड़ा-कर्कट हो तो भी रख लो, कौन जाने कल कुछ काम आ जाये! छोड़ने की उनकी हिम्मत नहीं है। फिर इनके विपरीत दूसरे लोग हैं, जिनको हम त्यागी कहते हैं। वे भोगियों जैसे ही हैं, सिर्फ शीर्षासन कर रहे हैं, उलटे खड़े हो गये हैं। वे कहते हैं, सब छोड़ दो। सर्वस्व त्याग! पहला आदमी भूल कर रहा था: सब पकड़ लो; यह दूसरा आदमी कहता है: सब छोड़ दो। मैं तुमसे कहता हूं: जीवन में कुछ छोड़ने योग्य है, वह अपने से छूट जाता है; कुछ पकड़ने योग्य है, वह अपने से बच जाता है। और ये दोनों अतियां हैं। और दोनों अतियां खतरनाक हैं।

प्रेम के नाम से कुछ चल रहा है, जो छूटना चाहिए लेकिन वह प्रेम के अनुभव से ही छूटेगा। प्रेम की पीड़ा से गुजरोगे, समझोगे कहां-कहां कांटे हैं, तो उनको छोड़ दोगे। और प्रेम में कुछ है जो बचाने योग्य है; क्योंकि प्रेम में परमात्मा की झलक है। कहीं पूरा प्रेम मत छोड़ बैठना, नहीं तो तुमने टब के पानी के साथ बच्चे को भी फेंक दिया। तुमने कूड़ा-कर्कट के साथ सोना भी फेंक दिया। तुमने असार के साथ सार भी फेंक दिया। यह तो कुछ समझदारी न हुई। यह तो कुछ विवेक न हुआ।

दो तरह के अविवेकी हैं–भोगी और त्यागी। भोगी का अविवेक है कि वह कहता है, कि जो भी है पकड़ लो, असार को भी पकड़ लो। वह बच्चे को तो बचाता ही है, गंदे पानी को भी बचा लेता है, उसको भी सम्हालकर रख लेता है। फिर त्यागी का अविवेक है। वह गंदे पानी को तो फेंकता ही है, बच्चे को भी साथ फेंक देता है। यह दोनों असंयम हैं।

मेरे देखे, संयम तो ऐसी चित्त की दशा है, ऐसी जागरूक दशा, जिसमें जो बचने योग्य है बचना चाहिए, बचता है; जो न बचने योग्य है, छोड़ने योग्य है, छूटता है। इसको ही हमने परमहंस-दशा कहा है। हंस की भांति, कि दूध और पानी को अलग-अलग कर ले।

मैं तुमसे कहता हूं, यहां पानी बहुत है, यहां दूध भी बहुत है। इस संसार में पदार्थ भी है, परमात्मा भी है। यहां रोग भी हैं और स्वास्थ्य भी है। यहां समस्याएं भी हैं और समाधान भी हैं। तुम ये दो भूलों से बचना। सब पकड़ने में गलत भी बच रहता है, सब छोड़ने में सही भी छूट जाता है। हंसा तो मोती चुगे! कंकड़-कंकड़ छोड़ देना, मोती-मोती चुन लेना। प्रेम में बड़े मोती हैं!

इसलिए तुमसे फिर-फिर कहता हूं, उसे समस्या मत बनाना। हां, उसमें कुछ कंकड़ पड़े हैं, उन्हें निकालना जरूरी है।

जैसे-जैसे प्रेम का अनुभव गहन होता है–प्रेम का गुण बदलता है।

अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे

और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग।

जब कोई व्यक्ति पहली दफा प्रेम में उतरता है, तो प्रेम होता है एक स्वप्न जैसा; जैसे और सब व्यर्थ हो जाता है, प्रेम ही सार्थक हो जाता है।

लेकिन जैसे-जैसे प्रेम का अनुभव गहन होता है, प्रेम की पीड़ा साफ होती है, और भी दुख दिखाई पड़ने शुरू होते हैं।

और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग।

और प्रेम बहुत कुछ सिखाता है। प्रेम से बड़ी कोई पाठशाला नहीं है। क्योंकि प्रेम से ज्यादा तुम किसी मनुष्य के निकट और किसी ढंग से आते नहीं हो। जितने तुम निकट आते हो, उतने ही मनुष्य की अंतरात्मा प्रगट होने लगती है। तुम भी झलकते हो, दूसरा भी झलकता है। जितने तुम करीब आते हो, तुम भी उघड़ते हो, दूसरा भी उघड़ता है।

एक तो विज्ञान का ढंग है–दूर खड़े होकर देख लेने का ढंग; बाहर से देख लेने का ढंग। फिर एक कवि का ढंग है: भीतर गहरे उतरकर, प्रेम करके देखने का ढंग। अब अगर तुम्हें वृक्ष को देखना है, चट्टान को देखना है, तो शायद बाहर से भी देख लो। मैं कहता हूं शायद; क्योंकि जिन्होंने बहुत गहरा देखा है, वे तो कहते हैं, चट्टान को भी बाहर से देखना अधूरा देखना है। क्योंकि चट्टान का भी अंतस्तल है। तो बाहर-बाहर से तुम चट्टान की परिक्रमा कर आओगे, देख लोगे–उस देखने को तुम देखना मत मान लेना। बर्ट्रेंड रसेल ने कहा है, वह परिचय है–एक्वेंटेंस। उसे ज्ञान मत कहना।

फिर एक ज्ञान है कि तुम किसी व्यक्ति के अंतस्तल में उतरते हो; हृदय से हृदय की गांठ बांधते हो, एक-दूसरे के लिए अपना द्वार-दरवाजा खुला छोड़ते हो।

प्रेम का क्या अर्थ होता है? यही अर्थ होता है कि किसी व्यक्ति के लिए तुमने अब अपने जीवन के सब दरवाजे खुले छोड़ दिये; और किसी व्यक्ति ने तुम्हारे लिए अपने जीवन के सब दरवाजे खुले छोड़ दिये। प्रेम का यही अर्थ होता है कि दो व्यक्तियों के बीच अब छुपाने योग्य कोई राज न रहा। प्रेम का यही अर्थ होता है कि अब दो व्यक्तियों के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे छिपाया जाये; सब उघाड़ा; दो हृदय अपने आवरण के बाहर आये; दो हृदयों ने एक-दूसरे को नग्नता में देखा; और दो हृदय एक-दूसरे में प्रविष्ट हुए। और यह प्रेम के द्वारा ही संभव है।

अगर तुम बाहर खड़े रहो, जैसा कि वैज्ञानिक खड़ा रहता है, तटस्थ भाव से दर्शक की तरह देखते रहो, प्रेम में डूबो न, तो तुम कभी जान ही न पाओगे। आत्मा को तो न जान पाओगे। इसलिए विज्ञान आत्मा को नहीं जान पाता। विज्ञान कभी भी नहीं जान पायेगा कि आदमी में आत्मा है। क्योंकि आत्मा का पता तो प्रेम के अतिरिक्त और किसी ढंग से चलता ही नहीं। यह कोई चीर-फाड़ करके पता नहीं चलेगा। यह कोई डिसेक्शन, सर्जरी करके पता नहीं चलेगा। यह कोई औजारों को आदमी के भीतर ले जाकर पहचान नहीं हो सकती कि आत्मा है। तब तो कुछ भी न मिलेगा। हड्डी, मांस-मज्जा मिलेगी। जो बाहर-बाहर है, वही पकड़ में आयेगा। जो भीतर-भीतर है, वह छूट जायेगा।

तुमने खयाल किया कि जिसे तुम प्रेम करते हो, वह हड्डी, मांस-मज्जा नहीं रह जाता! जिसे तुम प्रेम नहीं करते, वह हड्डी, मांस-मज्जा रह जाता है। जिसे तुम प्रेम नहीं करते, वह मात्र शरीर है। जिसे तुम प्रेम करते हो, उसमें पहली दफा आत्मा का बोध होना शुरू होता है।

इसलिए जिन्होंने खूब प्रेम किया, अटूट प्रेम किया, उन्हें सब जगह आत्मा दिखाई पड़ गई। अगर महावीर को पत्थरों में भी दिखाई पड़ गई तो उसका कारण यह नहीं है कि वे दूर खड़े वैज्ञानिक की तरह देखते रहे, वे गहरे में अंतस्तल में संबंधित हुए, उतरे। तो वृक्ष में भी आत्मा दिख गई। तो महावीर वृक्ष का पत्ता तोड़ने में भी चिंता अनुभव करते हैं।

यह चिंता जैन मुनि की चिंता नहीं है। जैन मुनि चिंता करता है, वृक्ष का पत्ता नहीं तोड़ना है, क्योंकि उसे स्वर्ग जाना है। पशु को नहीं मारना है, क्योंकि नर्क से बचना है। यह दुकानदार का हिसाब है। महावीर वृक्ष को चोट नहीं पहुंचाते, क्योंकि उन्हें दिखाई पड़ा कि वृक्ष सिर्फ वृक्ष नहीं है, जीवंत आत्मा है। न केवल इतना दिखाई पड़ा कि वृक्ष जीवंत आत्मा है, यह भी दिखाई पड़ा कि ठीक मेरे जैसी ही आत्मा है–उसी राह पर जिस पर मैं हूं, थोड़े पीछे सही; आज नहीं कल मनुष्य हो जायेगा।

इसलिए महावीर ने सारे जीवन को पांच हिस्सों में बांट दिया। एकेंद्रिय जीव। पृथ्वी को उन्होंने कहा, एक-इंद्रिय जीव। पृथ्वी भी! महावीर जमीन पर भी चलते हैं तो बहुत क्षमा मांगते हुए चलते हैं। वह भी जीवन है। एक ही उसकी इंद्रिय है–केवल काया, केवल देह।

जिसको वैज्ञानिक अब कहते हैं, अमीबा–महावीर को उसकी पकड़ आ गई थी। वैज्ञानिक कहते हैं, अमीबा पहला प्राण-स्पंदन है; उसके पास केवल देह होती है, न हड्डी, न मस्तिष्क, न आंख, न कान, कुछ भी नहीं; कोई इंद्रिय नहीं, सिर्फ शरीर होता है। वह अपने शरीर को ही अपने भोजन के पास ले आता है। अपने भोजन के ऊपर बैठ जाता है और शरीर और उसका भोजन मिलकर विलीन हो जाते हैं, एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं। उसके पास कोई मुंह भी नहीं है। फिर उसका शरीर जब बड़ा होने लगता है–इतना बड़ा हो जाता है कि सम्हालना मुश्किल हो जाता है, तो शरीर दो हिस्सों में टूट जाता है और दो अमीबा हो जाते हैं। इसी तरह उसकी संतति होती है। लेकिन वह जीवन का पहला रूप है।

महावीर ने कहा, एक-इंद्रिय, सिर्फ शरीर जीवन का पहला रूप है। मनुष्य है पंचेंद्रिय। उसके पास पांच इंद्रियां हैं। वह सबसे विकसित रूप है। लेकिन वृक्ष, पशु-पौधे, सब उसी कतार में हैं; चले आ रहे हैं बढ़ते। हम भी कभी वृक्ष थे और वृक्ष कभी हम जैसे हो जायेंगे।

तो महावीर ने जीवन का एक सागर खोज लिया, जिसमें सभी जीवन की घटनाएं हैं। यह महा प्रेम में घटा है। यह कोई तार्किक विश्लेषण नहीं है। यह महावीर को अनुभव हुआ है। यह तेजस्विता जीवन की उनको प्रतीत हुई। यह बहुत प्रेम में ही हो सकती है।

इसलिए मैं कहता हूं, अहिंसा का मौलिक अर्थ प्रेम है।

तुम घबड़ाना मत! प्रेम तुम्हें बहुत कुछ सिखायेगा। प्रेम तुम्हें तुम्हारे अहंकार का नर्क बतायेगा; तुम उसे छोड़ देना। और प्रेम तुम्हें तुम्हारे हृदय का स्वर्ग भी दिखायेगा; तो उसे पकड़ लेना।

आजिजी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी

यासी हिरमान के दुख-दर्द के मानी सीखे

जेरदस्तों के मुशाइब को समझना सीखा

सर्द आहों के रुखे-जर्द के मानी सीखे।

प्रेम तुम्हें बहुत कुछ सिखायेगा। प्रेम के अतिरिक्त कोई और सिखा ही नहीं सकता। इसलिए अगर प्रेम में कुछ अड़चन मालूम होती है तो उसे प्रेम की अड़चन मत कहना। तुमने अभी प्रेम के पाठ पूरे नहीं सीखे, इसलिए अड़चन आ रही है। जैसे कोई आदमी नया-नया पानी में तैरना शुरू करता है तो हाथ-पैर तड़फड़ाता है, घबड़ाता है, बेचैनी होती है। यह कोई तैरना तैरने का स्वरूप नहीं है; यह तो न तैरने की वजह से हो रहा है।

तुम अगर मुझसे पूछो तो मैं ऐसा कहूंगा, कि प्रेम में जो समस्या है, वह अप्रेम की वजह से पैदा हो रही है। जब यह आदमी तैरना सीख जायेगा तो तैरने में एक प्रसाद आ जाता, तब कोई चेष्टा नहीं करनी होती। तब ठीक-ठीक तैराक तो नदी पर छोड़ देता है अपने को। हाथ-पैर भी नहीं चलाता। नदी ही सम्हाल लेती है। ऐसी कुशलता आ जाती है कि कुछ भी करना नहीं पड़ता; होना काफी रहता है और नदी सम्हाल लेती है।

प्रेम भी चैतन्य के सागर में तैरना है; दूसरे के सागर में डुबकी लगानी है। पहले-पहले हाथ-पैर तड़फड़ायेंगे; घबड़ाहट होगी; सांस रुंधेगी; लगेगा मरे, डूबे; चिल्लाहट होगी कि बचाओ! लेकिन जल्दी ही, इस बचाव की आवाज के कारण निकलकर भाग मत खड़े होना। यह तो तुम्हारी अकुशलता के कारण है। यह तो धीरे-धीरे चली जायेगी। रफ्ता-रफ्ता, आहिस्ता-आहिस्ता अभ्यास गहरा होता जायेगा।

तो प्रेम मत छोड़ो; प्रेम में जागरण को सम्मिलित करो। प्रेम मत छोड़ो; प्रेम के साथ धर्म को, ध्यान को जोड़ो। प्रेम + ध्यान, बस इतना करो और समस्या विदा हो जायेगी। और समस्या की जगह तुम पाओगे: प्रेम एक अदभुत रहस्य है–और पहला रहस्य जहां से परमात्मा की खबर मिलती है। शुरू-शुरू में घबड़ाहट स्वाभाविक है।

न घबरा जवानी की बेहररवी से

यह दरिया बना लेगा खुद ही किनारा

वहीं तक खुदी है, वहीं से खुदा है

जहां बेकसी ढूंढ़ती हो सहारा।

घबड़ाओ मत। यह आज जो जवानी का तूफान है, यह जो राग-मोह की उठी आंधी है, यह अपने से ही विदा हो जायेगी। तुम जरा पैर को सम्हालकर चलते रहो।

न घबड़ा जवानी की बेहररवी से

यह दरिया बना लेगा खुद ही किनारा।

हां, जल्दी अगर भाग खड़े हुए तो मुश्किल में पड़ जाओगे। तब न यहां के रहोगे न वहां के।

जो प्रेम से भाग गया उसके पास अहंकार के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। यद्यपि अगर तुम बहुत दूर भाग गये तो तुम्हें पता भी न चलेगा अहंकार का, क्योंकि उसका पता भी साथ-संग में चलता है, समूह में चलता है।

तुमने खयाल किया, आदमी का बच्चा पैदा होता है, अगर उसे संग-साथ न मिले, मां-पिता परिवार न मिले, समूह-समाज न मिले, तो बच नहीं सकता, मर जायेगा। तुम कोई कल्पना कर सकते हो कि आदमी का बच्चा बच जाये बिना समूह, संग-साथ के? हां कभी-कभी ऐसा हुआ है कि भेड़िये आदमी के बच्चे को ले गये; लेकिन वह भी समूह था, संग-साथ था। भेड़ियों ने बचा लिया। लेकिन अकेला तो आज तक कोई मनुष्य का बच्चा बचा नहीं है। जो मनुष्य के शरीर के संबंध में सच है, वही मैं तुमसे कहता हूं, आदमी की आत्मा के संबंध में भी सच है। उसका जन्म भी समूह में होता है–संग-साथ में, परिवार में। आदमी की आत्मा भी अकेले में नहीं जन्मती। हां, अकेले का तुम उपयोग कर सकते हो। कभी-कभी अकेले हो जाने में भी रस है। कभी-कभी दूसरे से दूर हट जाने में भी रस है। लेकिन वह फायदा भी दूसरे से दूर हटने के कारण होता है। खयाल करना, वह फायदा भी अकेले होने के कारण नहीं होता, दूसरे से दूर हटने के कारण होता है। उसका लाभ भी दूसरे में ही है।

ऐसा समझो कि एक हजार रुपये का ढेर लगा है और एक दस रुपये की ढेरी लगी है। जब हम हजार रुपये की ढेरी हटाते हैं, और दस रुपये की ढेरी हटाते हैं, तो दस रुपये का अभाव भी वैसा ही मालूम पड़ता है जैसे हजार रुपये का अभाव मालूम पड़ता है। अब तो न हजार रुपये हैं न दस रुपये हैं। हजार रुपये का जब ढेर था, तो हजार रुपये की कीमत थी उसकी। पांच रुपये का ढेर था, दस रुपये का ढेर था, तो दस रुपये की कीमत थी; लेकिन दोनों हटा लिये तो जो शून्य पीछे रह जाता है, वह तो लगता है एक ही मूल्य का है। दस रुपये का शून्य भी उतना ही बड़ा है, हजार रुपये का शून्य भी उतना ही बड़ा है। तो तुम गलती कर रहे हो। जीवन में ऐसा नहीं है। जो आदमी जितना गहरा जीया है, जब वह एकांत में जाता है तो उसके एकांत की गहराई भी उतनी ही गहरी होती है। जो आदमी समूह में जीया ही नहीं है, वह एकांत में चला जाता है, तो उसके एकांत की कोई गहराई ही नहीं होती। इसे तुम अनुभव कर सकते हो कि जो आदमी जंगल में ही जीया है, उसे जंगल में कोई सौंदर्य नहीं होता। जो भीड़ में, समूह में, बाजार में बैठा रहा है, जब कभी जंगल जाता है तो जो उसे जंगल में दिखाई पड़ता है, वह जंगल के आदमी को दिखाई नहीं पड़ता।

वानगाग के जीवन में ऐसा स्मरण है कि वानगाग एक समुद्र तट पर, फ्रांस के, अपने चित्र बना रहा था। वह सूरज के पीछे दीवाना था। सूर्योदय, सूर्यास्त–उन पर उसने बड़ी मेहनत की। समुद्र के किनारे वह एक दिन सूर्यास्त का चित्र बना रहा था। उसके चित्र को देख रही थी एक समुद्र के तट की मछुआ की औरत। वह गौर से देखती रही, गौर से देखती रही। वह फिर दूसरे दिन देखने आई, फिर तीसरे दिन देखने आई। और सातवें दिन धीरे-धीरे वानगाग से परिचय भी हो गया। तो जब सूरज डूबने के करीब आया तो उसने कहा कि आप रुकना, मैं जरा अपने पति को, अपने बच्चों को भी ले आऊं। तो वानगाग ने पूछा, किसलिए? तो उसने कहा कि वे भी सूर्यास्त देख लें। तो उसने कहा कि वे तो यहीं रहते ही हैं इस समुद्र तट पर, उन्होंने सूर्यास्त नहीं देखा? उस स्त्री ने कहा, नहीं मैंने भी नहीं देखा था, जब तक आप न आये थे। यह तो इतना स्वाभाविक था हमारे जीवन का हिस्सा कि इसका हमें कभी बोध न हुआ था। तुम्हारे आने से हमें पता चला सूर्यास्त का सौंदर्य।

अब यह वानगाग जहां से आ रहा है, वहां सूर्यास्त मुश्किल है देखना, सूर्योदय देखना मुश्किल; कुहासा घिरा रहता है। इसके लिए सूर्योदय और सूर्यास्त बड़े महिमापूर्ण हैं।

पश्चिम में संडे, सूर्य का दिन छुट्टी का दिन है। क्योंकि सूर्य ऐसा प्रगाढ़ होकर दिखाई नहीं देता जैसा पूरब में दिखाई पड़ता है; ऐसी महिमा नहीं है सूरज की; सूरज ढका-ढका है, छिपा-छिपा है।

तो सूरज का दिन छुट्टी का दिन होना ही चाहिए। लोग उत्सव मनायें: सूरज निकला है, सूरज का दिन है।

एकांत में उतनी ही गुणवत्ता होगी जितना गहरा तुम्हारे संबंधों का जगत था। जिस आदमी ने खूब भरपूर प्रेम किया है, वह जब हिमालय पर जाकर बैठ जाता है तो उसके हृदय की गहरई पूछो मत। लेकिन जिसने कभी प्रेम ही नहीं किया, वह भी हिमालय की पहाड़ी पर जाकर बैठ जाता है; उसका छिछलापन छिछलापन ही रहनेवाला है।

मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम्हारे एकांत का भी तभी मूल्य है जब तुम्हारे संबंधों की गहराई हो। अगर हजार रुपये की गहराई थी तो तुम्हारा एकांत हजार रुपये के मूल्य का होगा। अगर दस रुपये की गहराई थी तो दस रुपये के मूल्य का होगा।

जीवन का गणित मुर्दा गणित नहीं है। यहां तुमने कितनी तीव्रता से, त्वरा से जीवन को जीया है, उतनी ही अनूठी अनुभूतियां एकांत में उठेंगी। इसलिए मैं कहता हूं: जाओ प्रेम में, क्योंकि तुम्हारे ध्यान की गहराई भी तुम्हारे प्रेम की गहराई पर निर्भर होगी। दूसरे के साथ तो जीकर देख लो, ताकि तुम अपने साथ जीने का राज सीख जाओ।

दूसरे के माध्यम से हम अपने पास आते हैं। दूसरा सेतु है, जिसके द्वारा हम अपने पर वापस आते हैं।

दो व्यक्तियों के बीच निकटतम दूरी का नाम प्रेम है। जैसे दो बिंदुओं के बीच निकटतम दूरी का नाम रेखा, ऐसे दो व्यक्तियों के बीच निकटतम दूरी का नाम प्रेम है। अगर थोड़े इरछे-तिरछे चलकर जाते हो तो यह प्रेम नहीं है। सीधे-सीधे!

प्रेम सिखायेगा सरलता। प्रेम सिखायेगा विनम्रता। प्रेम सिखायेगा निरहंकार। प्रेम सिखायेगा त्याग।

इसे तुम खयाल रखना, जिसने कभी प्रेम नहीं किया उसका त्याग कृपण का त्याग होता है; वह त्याग नहीं है। वह कंजूस है। इसलिए मैं सुनता हूं साधुओं को समझाते कि छोड़ दो धन-दौलत, मौत सब छीन लेगी। अब यह जरा सोचने जैसी बात है कि मौत छीन लेगी, इसलिए छोड़ने को कह रहे हो। मतलब, यह डर छीने जाने का है। इसलिए बेहतर है, छोड़ ही दो। लेकिन प्रेमी कहता है, छोड़ो; क्योंकि जिसने छोड़ा है उसीने भोगा। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। जिसने दिया उसीने पाया। प्रेमी कहता है, दे दो; क्योंकि बिना दिये पा न सकोगे।

प्रेम की बड़ी अनूठी कीमिया है: तुम्हारे पास वही होता है जो तुम दे देते हो। जो तुम बचा लेते हो, वह तुम्हारे पास कभी नहीं होता। दिखता है तुम्हारे पास है, लेकिन तुम उसके मालिक नहीं होते। मालिक तुम उसी के हो जो तुम दे देते हो। जो बांट दिया, उसी के मालिक हो। मालकियत कब घटती है, तुमने सोचा? जब तुम्हारे हाथ से कोई चीज किसी दूसरे हाथ में जाती है, उस क्षण। जब तुम्हारे हाथ से हटती है चीज, तुम मालिक होते हो। अगर तुम्हारी मुट्ठी में बंद रहे, तुम मालिक नहीं होते, ज्यादा से ज्यादा पहरेदार। तिजोड़ी पर बैठे हैं लट्ठ लिये, बंदूक लिये–पर पहरेदार।

जिस क्षण तुम देते हो, देने से ही पता चलता है कि तुम्हारे पास था। देने से ही तुम्हें भी पता चलता है कि मैं दे सका–मेरा था! वही है तुम्हारा जो तुमने दिया। और उसी को तुमने भोगा, जो तुमने बांटा।

साझेदारी बढ़ाओ! प्रेम का अर्थ इतना ही होता है: साझेदारी करो! किसी को दो! किसी को बांटो! और धन्यवाद देना उसे, जो तुम्हारे जीवन में इस भांति आये कि तुम उससे कुछ बांट सको। धन्यवाद देना!

प्रेम की बड़ी कुशलता यह है कि यहां लेनेवाला भी कुछ देता है और देनेवाला भी कुछ देता है। जब तुम किसी को कुछ देते हो और वह स्वीकार कर लेता है तो उसने भी तुम्हें कुछ दिया–उसकी स्वीकृति से दिया। उसने तुम्हें मालिक बना दिया। उसने तुम्हें दाता बना दिया। अब और क्या चाहते हो? तुमने जो दिया वह कुछ नहीं था। उसने जो दिया वह बहुत ज्यादा है। इसलिए हिंदुस्तान में हमारी व्यवस्था है कि पहले दान दो, फिर दक्षिणा दो। दक्षिणा का अर्थ है: उसने दान स्वीकार किया, इसका धन्यवाद भी दो। अकेले दान से काम न चलेगा। पहले तो दो, लेकिन यह जरूरी थोड़े ही है कि वह ले ले। कोई इनकार कर दे, फिर? कोई कह दे नहीं चाहिए, फिर?

प्रेम का अर्थ है: ऐसा भरोसा कि तुम जिसे देने जा रहे हो, वह ले लेगा, इनकार न करेगा। बहुत-से लोग इनकार के कारण ही देने से डरते हैं कि हम देने गये और किसी ने कह दिया, नहीं; द्वार बंद कर लिया, फिर? रिजेक्शन, अस्वीकार पैदा हुआ? तो बड़ी घबड़ाहट लगती है!

अनेक लोग मुझसे आकर कहते हैं कि प्रेम में एक ही डर मालूम पड़ता है: हम तो निवेदन करें और इनकार हो जाये! हम तो अपने हृदय के द्वार खोलें, पलक-पांवड़े बिछायें और दूसरा पीठ किये चला जाये, न आये; हम तो स्वागतम द्वार पर बांधें, फूल-पत्तियां लटकायें और कोई बिना देखे गुजर जाये–तो फिर बड़ी पीड़ा होगी! इससे तो बेहतर, अपना द्वार-दरवाजा बंद ही रखना। क्योंकि जैसे ही तुम किसी को बुलाते हो, दूसरे को तुमने बल दिया, शक्ति दी, जीवन दिया। अब दूसरे के हाथ में उपाय है, वह स्वीकार कर ले, अस्वीकार कर दे।

प्रेम का पहला कदम ही जोखिम से भरा है। इसलिए स्त्रियां कभी प्रेम-निवेदन नहीं करतीं। इतनी जोखिम स्त्रियां नहीं उठातीं। वे राह देखती हैं–तुम्हीं प्रेम-निवेदन करो। वे प्रतीक्षा करती हैं। कि कितनी जोखिम पुरुष उठाता है। जोखिम बड़ी है, क्योंकि दूसरा कह सकता है, नहीं। दूसरा द्वार को बंद कर दे सकता है, तो फिर क्या होगा? फिर बड़ी पीड़ा और तड़फ होगी। तुम इस योग्य न समझे गये कि स्वीकार किये जाओ!

इसलिए बहुत-से लोग अपना प्रेम ऐसी चीजों से लगाते हैं जहां से अस्वीकार हो ही नहीं सकता। एक कार खरीद ली, उसी से प्रेम करने लगे। अमरीका में करीब-करीब स्त्री के बाद कार का नंबर दो है। कार में एक सुविधा है; इनकार नहीं कर सकती; खरीद लाये तो तुम्हारी। इसलिए हजारों साल तक आदमी स्त्री को भी खरीद के लाता रहा, प्रेम करके नहीं; क्योंकि प्रेम में खतरा था। इसलिए विवाह पैदा हुआ।

विवाह होशियारी है; जोखिम से बचने की व्यवस्था है। मां-बाप इंतजाम करते हैं, पंडित-पुरोहित कुंडली मिलाते हैं। तुम्हें सीधा निवेदन नहीं करना पड़ता। जैसे तुम किसी के भाई हो, किसी की बहन हो–ऐसे एक दिन किसी के पति या पत्नी हो जाते हो। अचानक तुम पाते हो–हो गये। उसके लिए तुम्हें खोज नहीं करनी पड़ती; तुम्हें पहली जोखिम नहीं उठानी पड़ती। लेकिन जब पहली जोखिम नहीं उठाई तो सारा जीवन गलत हो जाता है। वह दुस्साहस जरूरी है।

तो विवाह ईजाद हुआ, ताकि प्रेम से बचा जा सके। लोग सोचते हैं, प्रेम के लिए विवाह है; प्रेम वस्तुतः बचने का उपाय है। तो लोग पत्नियों को भी खरीदकर लाते रहे, दहेज दे-देकर लाते रहे। वह भी खरीद-फरोख्त थी।

अब यह मुश्किल होता जा रहा है, तो लोगों का ध्यान वस्तुओं की तरफ जा रहा है, या पशुओं की तरफ जा रहा है। एक कुत्ता रख लिया; जब भी घर आये, वह पूंछ हिलाता है। वह कभी भी ऐसा नहीं कह सकता कि नहीं हिलायेंगे पूंछ। तुम जब भी आये, तभी तुम्हें गौरव देता है।

कुत्ते बड़े राजनीतिज्ञ हैं। वे समझ गये एक राजनीति कि आदमी पूंछ हिलाने से बड़ा प्रसन्न होता है। उधर उसकी पूंछ मुस्कुराने लगी, इधर तुम मुस्कुराने लगे। उसने एक कला सीख ली। पर देखा तुमने, कुत्ते भी देखते हैं! अगर अजनबी आदमी आता है तो भौंकते भी हैं, पूंछ भी हिलाते हैं। यह, यह राजनीति न हुई, यह कूटनीति, डिप्लोमेसी है। वे यह देख रहे हैं कि जांच तो कर लो, आदमी अपनावाला है कि नहीं है, पराया है, मित्र है कि शत्रु है। तो भौंकते भी हैं कि अगर शत्रु हुआ तो पूंछ रोक लेंगे, भौंकते चले जायेंगे; अगर मित्र हुआ तो भौंकना बंद कर देंगे, पूंछ पर पूरी ताकत लगा देंगे–असंदिग्ध जब हो जायेंगे। अभी संदेह है। नया-नया आदमी आ रहा है, पता नहीं मालिक का मित्र हो कि दुश्मन हो।

पश्चिम में लोग जानवरों के पीछे–कुत्ते-बिल्लियां पालने में लगे हैं; या वस्तुओं के पीछे हैं–कार है, मकान है; और हजार तरह के उपकरण विज्ञान ने खोज दिये हैं, उनमें अपना प्रेम लगा रहे हैं।

यह वस्तुतः प्रेम से बचने का उपाय है, क्योंकि प्रेम की सबसे पहली जोखिम यह है कि जब तुम दूसरे को देने जाते हो अपना हृदय, तो इनकार भी हो सकता है। और अगर दूसरे ने स्वीकार किया तो तुमने ही कुछ नहीं दिया, दूसरे ने स्वीकार करके तुम्हें कुछ दे दिया। प्रेम में लेनेवाला भी देनेवाला है–देनेवाला तो देनेवाला है ही।

प्रेम की बड़ी अपूर्व महिमा है। वहां दोनों दाता हो जाते हैं। इससे बड़ा जादू और कहीं भी घटित नहीं होता। सब गणित के नियम टूट जाते हैं। क्योंकि दोनों दाता हो नहीं सकते गणित के नियम से; एक दाता होगा तो एक लेनेवाला होगा। एक का हाथ ऊपर होगा, दूसरे का हाथ नीचे होगा। लेकिन प्रेम दोनों हाथों को समान स्तर पर ला देता है; दोनों दाता बन जाते हैं। देनेवाला तो है ही, लेनेवाला भी दाता बन जाता है। और लेनेवाला जो देता है, वह देनेवाले से भी बड़ा है।

इसलिए प्रेम गणित की सीमा के बाहर पड़ता है, हिसाब के बाहर पड़ता है, अर्थशास्त्र के बाहर पड़ता है, रहस्यमय है।

घबड़ाना न! कृपण मत बनना! कायर मत बनना! प्रेम के द्वार पर दस्तक देना! क्योंकि वही द्वार एक दिन परमात्मा का मंदिर भी सिद्ध होता है।

दूसरा प्रश्न:

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक

कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने तक

हमने माना कि तगाफुल न करोगे, लेकिन

खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।

प्रेम का रास्ता ही मिटने का रास्ता है। वहां खाक हो जाना ही उपलब्धि है। वहां खो जाना ही पा लेना है। वहां बचाने की चेष्टा से ही बाधा होती है। वहां तो धीरे-धीरे अपने को गलाते जाना है और एक ऐसी घड़ी लानी है, जहां प्रेमी तो बचे ही न–बस प्रेम का ही सागर लहरें लेता रह जाये। उसी क्षण परमात्मा अवतरित होता है। जहां तुम मिटे वहीं परमात्मा का प्रवेश है।

इब्तिदा में ही मर गये सब यार

कौन इश्क की इंतिहा लाया।

प्रेम के प्रारंभ में ही लोग मर जाते हैं। अंत तक जाने की तो सुविधा कहां है, बचता कौन है? प्रेम की कोई आज तक गहराई नहीं छू सका।

रामकृष्ण कहते थे, एक मेला भरा था और लोग सागर के तट पर विचार करते थे कि सागर की गहराई कितनी है। एक नमक का पुतला भी आया था।

उसने कहा, “ठहरो! ऐसे विचार करने से क्या होगा? मैं डुबकी लगाता हूं। मैं अभी पता ला देता हूं।’ उसने डुबकी लगा ली, लेकिन लौटा नहीं, लौटा नहीं, लौटा नहीं। सांझ हो गयी, दूसरा दिन हो गया, मेला उजड़ने का वक्त भी आ गया, लोग राह देखते रहे, लेकिन वह कभी लौटा नहीं। वह लौटता कैसे? वह नमक का पुतला था; सागर में उतरा तो गलने लगा। जैसे-जैसे गहरा गया, वैसे-वैसे पिघलता गया। गहरे नहीं गया, ऐसा नहीं; खूब गहरे गया। और ऐसा भी नहीं कि उसने गहराई न छू ली; उसने पूर सागर का अंतस्तल छू लिया। लेकिन तब तक खुद खो चुका था, लौटनेवाला न बचा था।

नमक का पुतला जैसा ही आदमी है–प्रेम का पुतला। वह प्रेम से पैदा हुआ है, प्रेम से बना है। तुम्हारा रोआं-रोआं, तुम्हारी रत्ती-रत्ती प्रेम से बनी है। तो जब तुम परमात्मा के सागर में डुबकी लगाओगे…नहीं कि तुम पता न लगा लोगे, पता लगा लोगे; लेकिन पता लगाने में खो जाओगे।

इब्तिदा में ही मर गये सब यार

कौन इश्क की इंतिहा लाया।

इसलिए खाक होने की तैयारी रखो। और माना कि बहुत बार ऐसा लगेगा कि बड़ी देर हुई जा रही है और बहुत बार तड़फ होगी कि अब जल्दी हो, और बहुत बार ऐसी शिकायत उठेगी कि अब और पीड़ा क्यों; फिर भी–

क्या उसके बगैर जिंदगानी?

माना वह हजार दिलशिकन है।

–बहुत दिल को दुखानेवाला है, लेकिन उसके बिना जिंदगी का कोई अर्थ भी नहीं।

धन्यभागी हैं वे जो परमात्मा के रास्ते पर दुखी और पीड़ित होते हैं। अभागे हैं वे जो परमात्मा के विपरीत रास्ते पर सुखी और प्रसन्न हैं। क्योंकि परमात्मा के विपरीत रास्ते पर सुख और प्रसन्न भी राख हो जायेगा। और परमात्मा के रास्ते पर राख हो जाना भी स्वर्ण हो जाने का उपाय, व्यवस्था है।

एक तर्जेत्तगाफुल है सो वह उनको मुबारक

एक अर्जेत्तमन्ना है सो हम करते रहेंगे।

–एक उपेक्षा है सो परमात्मा को छोड़ दिया, वह करता रहे।

एक तर्जेत्तगाफुल है सो वह उनको मुबारक

एक अर्जेत्तमन्ना है सो हम करते रहेंगे।

–एक अभीप्सा है, प्रार्थना है, वह हम करते रहेंगे। एक उपेक्षा है, तू करते रहना!

भक्त कहता है, तू उपेक्षा करना, हम अभीप्सा करेंगे; देखें कौन जीतता है!

एक तर्जेत्तगाफुल है सो वह उनको मुबारक

एक अर्जेत्तमन्ना है सो हम करते रहेंगे।

परमात्मा दूर है, ऐसा तो सोचना ही नहीं। क्योंकि जो दूर हो सकता है, वह तो परमात्मा न होगा। परमात्मा तो वही है जिसने तुम्हें सब तरफ से घेरा है, बाहर और भीतर सब तरफ से भरा है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। परमात्मा सर्वस्व है। परमात्मा सब कुछ का नाम है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, परमात्मा समष्टि है। इसलिए उससे दूर तो हम नहीं हैं, लेकिन जरा हम बेहोश हैं।

अल्ला रे बेखुदी कि तेरे पास बैठकर

तेरा ही इंतजार किया है कभी-कभी।

हम बेहोश हैं, बस इतनी ही बात है। और हम बेहोश तब तक रहेंगे, जब तक हम हैं। हमारा होना हमारा बेहोश होना है। तो खाक तो होना पड़ेगा। जलना तो पड़ेगा। राख तो होना पड़ेगा। मगर यही वास्तविक होने का उपाय है।

अभी तो हम नाममात्र को हैं, कहने मात्र को हैं। अभी हमारे होने में क्या है? कोई सत्व नहीं, कोई सार नहीं।

तो घबड़ाओ मत। और यह भी माना कि–

“आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक

कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने तक

हमने माना कि तगाफुल न करोगे, लेकिन

खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।’

हो जाओ!

तमाम उम्र तेरा इंतजार कर लेंगे

मगर ये रंज रहेगा कि जिंदगी कम है।

करो! उम्र छोटी पड़ जाये, इंतजार बड़ा हो जाये। अनेक उम्रें समा जायें, इंतजार इतना बड़ा हो जाये। प्रतीक्षा ऐसी घनी हो जाये कि जन्म और जीवन पलक के झपने जैसे बीतने लगें। लेकिन इंतजार का सिलसिला जारी रहे। शरीर बदलें, जीवन बदलें, योनि बदले, रूप बदलें, रंग बदलें, नाम बदलें, सब बदलता जाये–लेकिन भीतर की प्रतीक्षा का एक सूत्र अनस्यूत रहे, एक धागा पिरोया रहे सारे मनकों में।

घटना तो इस क्षण भी घट सकती है, लेकिन प्रतीक्षा अनंत चाहिए। और घटना बहुत देर होगी घटने के लिए, अगर प्रतीक्षा में थोड़ी कमी रही। जल्दबाजी न करना।

नये युग ने बड़ी जल्दबाजी की है। इसलिए प्रतीक्षा के गहरे रूप खो गये हैं। कोई प्रतीक्षा करने को राजी नहीं है। पश्चिम से एक बड़ा बुखार सारे जगत में फैला है–तेजी, जल्दी, स्पीड! तो जैसे इंस्टेंट काफी, ऐसा सारा जीवन, सभी कुछ अभी हो जाये, इसी क्षण हो जाये, आज ही हो जाये! तो मनुष्य के जीवन की कुछ गहराइयां खो ही गयीं, क्योंकि कुछ चीजें धीरे-धीरे होती हैं। कुछ चीजें मौसमी फूलों की तरह होती हैं–आज लगायीं, तीन सप्ताह में पौधे हो जायेंगे, छह सप्ताह में फूल आ जायेंगे–लेकिन आये नहीं कि गये भी नहीं। लेकिन देवदार और चीड़ के वृक्ष वर्षों लेंगे, वर्षों लगेंगे, बड़े धीरे-धीरे बढ़ेंगे। और यह तो परमात्मा की खोज तो शाश्वत वृक्ष है; इसको रोपना अपने हृदय में, तो बड़ी अनंत प्रक्रिया है। अब यह अभी इसी क्षण नहीं हो सकता।

कल मैं एक किताब पढ़ रहा था। उसमें एक अमरीकी प्रार्थना करता है कि हे प्रभु! सुनते हैं धीरज की बड़ी जरूरत है, तो धीरज दे–लेकिन अभी और यहीं! धीरज की बड़ी जरूरत है! तो दे, धीरज दे–लेकिन अभी और यहीं!

जीवन में कुछ चीजें समय मांगती हैं–और जितनी महत्वपूर्ण हों उतना ज्यादा समय मांगती हैं। अगर किसी व्यक्ति से केवल वासना का संबंध बनाना हो तो अभी और यहीं बन सकता है, प्रेम का बनाना हो तो समय लगेगा। और प्रार्थना का बनाना हो तो अनंत काल लग जायेंगे। और परमात्मा का बनाना हो तो शाश्वतता चाहिए। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी शाश्वतता तक। क्योंकि शाश्वतता ने अभी और यहां भी तुम तक अपना हाथ पहुंचाया है। तुम शाश्वत के लिए तैयार हुए कि अभी और यहीं भी घट सकता है। इसमें जरा विरोधाभास लगेगा। इसे स्पष्ट करके कहूं।

अगर तुम शाश्वत प्रतीक्षा करने को राजी हो तो अभी और यहीं घट सकता है; क्योंकि शाश्वत प्रतीक्षा का अर्थ हुआ अब कोई जल्दी नहीं; तुम शांत हुए; शिथिल तुमने छोड़ा; तनाव हटा। अब तुम्हारी कोई मांग नहीं है–हो, जब हो। अब कोई जल्दी न रही। बस इस शिथिल और शांत मन में अभी और यहीं घट सकता है।

तुमने मांगा अभी और यहीं घट जाये तो तुम इतने तन गये, इतने परेशान हो गये कि कहीं न घटा और समय बीत गया तो कहीं समय फिजूल न चला जाये। तुम्हारे तनाव के कारण ही न घट पायेगा। मांग में तनाव है। यही अभीप्सा शब्द की खूबी है।

वासना का अर्थ है: मांग है, तनावपूर्ण। अभीप्सा का अर्थ है: मांग है, तनावशून्य। मांगते भी हैं, जल्दी भी नहीं है; देना, जब तुझे देना हो! तेरी मर्जी! न देना हो, उसके लिए भी राजी हैं!

तीसरा प्रश्न:

आपके प्रवचन के समय मैंने संन्यासियों के चेहरे का अवलोकन किया है। ऐसा लगता है कि वे गहरी नींद में पहुंच गये हैं। और मेरा अपना अनुभव भी यही है कि जैसी मीठी, गहरी और लुभावनी नींद प्रवचन के समय लगती है वैसी और कभी अनुभव में नहीं आती। क्या कारण है?

अलग-अलग लोगों के अलग-अलग कारण होंगे। एक कारण तो बताया नहीं जा सकता, क्योंकि यहां बहुत लोग हैं। लेकिन फिर भी प्रश्न विचारणीय है।

पहली बात, कुछ लोग तो निश्चित ही सभी धर्म-सभाओं में सो जाते हैं। यह बचने की एक तरकीब है। यह मन की एक बड़ी सूक्ष्म व्यवस्था है। जिससे तुम बचना चाहते हो तो बीच में एक नींद का पर्दा डाल लेते हो। सुना ही नहीं, तो अपने साथ ही कूटनीतिक खेल खेल गये। सुनने भी गये तो रस भी ले लिया कि धार्मिक व्यक्ति हैं और सो भी गये तो सुना भी नहीं। तो दुनिया को दिखाई भी पड़ा कि धार्मिक हैं और झंझट भी न हुई। धार्मिक होने की झंझट में भी न पड़े।

तो एक तो वर्ग ऐसे लोगों का है, जो धर्म की बात पड़ी नहीं उनके कान में कि उन्हें नींद आई नहीं। यह उनके भीतर करीब-करीब यांत्रिक हो गया है। मंदिरों में, चर्चों में तुम उन्हें सोता हुआ पाओगे।

एक पादरी पूछ रहा था अपने एक भक्त को; क्योंकि पादरी देखता था, जब भी वह आता है, सोया ही रहता है चर्च में। उसने उससे एक दिन पूछा कि क्या रात नींद ठीक से नहीं होती? उस आदमी ने कहा, रात तो नींद लगती ही नहीं। हजार चिंताएं हैं संसार की, मगर उसकी कोई चिंता नहीं। जब आपका प्रवचन सुनता हूं तो खूब गहरी नींद लग जाती है।

संसार की तो चिंता है, परमात्मा की तो कोई चिंता है नहीं। संसार के तो विचार हैं, परमात्मा का तो कोई विचार है नहीं। संसार की तो भाग-दौड़ है, तो नींद को खलल डालती है। परमात्मा की कोई भाग-दौड़ तो है नहीं। तो परमात्मा की बात सुनकर कोई महत्वाकांक्षा तो जगती नहीं कि पाना है, उठना है, जागना है। तो जब जहां कोई महत्वाकांक्षा नहीं उठती तो आदमी सो जाता है, करेंगे भी क्या और?

तुमने देखा, जब तुम्हारे पास कुछ भी करने को नहीं होता, तब तुम सो जाते हो। करोगे क्या और? जब तक कुछ करने को होता है, तब तक तुम करते रहते हो। और तुमने यह भी देखा होगा जब तुम्हारे पास करने को इतना कुछ होता है कि तुम बिस्तर पर भी पड़ जाते हो, लेकिन मन में काम जारी रहता है, तो नींद नहीं आती। तो जहां काम है वहां नींद में बाधा है। परमात्मा तुम्हारा कोई काम तो है नहीं। वहां कुछ करने को तो है नहीं। तुम्हारे भीतर कोई अभीप्सा तो है नहीं; उसे पाने की कोई आकांक्षा तो है नहीं। सुन लिया, नींद आ गयी।

तो एक तो ऐसे लोग हैं। दूसरे ऐसे लोग हैं जो वस्तुतः नींद में चले जाते हैं आकांक्षा के रहते भी। परमात्मा को पाने की प्यास भी है, किसी को धोखा देने नहीं आये हैं; लेकिन फिर भी नींद में चले जाते हैं। अपने को भी धोखा नहीं दे रहे हैं, लेकिन नींद बरबस पकड़ लेती है। उसका कारण है–जन्मों-जन्मों की मन की आदत। जिस दिशा में मन कभी गया नहीं है, उस दिशा में जाने से मन इनकार करता है, जिस दिशा में मन को कभी ले नहीं गये हो पहले, अनभ्यस्त है, रास्ता अपरिचित है, वह वहां जाने से बिलकुल इनकार कर देता है। वह जमीन पर ही बैठ जाता है। वह आंख ही बंद कर लेता है। वह कहता है, हम सो ही जायेंगे। यह मन का इनकार है।

तो दूसरा वर्ग है जो निष्ठापूर्वक समझना चाहता है; लेकिन उसका मन इनकार कर रहा है।

फिर एक तीसरा वर्ग है, जिसकी नींद बड़े और कारण से पैदा हो रही है। अगर तुम हृदयपूर्वक मेरी बातों को सुन रहे हो तो एक तरह की तंद्रा उतर ही आयेगी। पर वह नींद नहीं है। उसको योग अलग नाम देता है–तंद्रा। वह नींद जैसी है, निद्रा जैसी है, लेकिन निद्रा नहीं है। वह तंद्रा है। तंद्रा का अर्थ है: जब तुम कोई मधुर संगीत सुनते हो तो एक ताल बंध जाती है भीतर, एक सुर बंध जाता है, एक सन्नाटा खिंच जाता है, विचार शांत हो जाते हैं। एक बड़ी झपकी, जिसको तुम जागना भी नहीं कह सकते, सोना भी नहीं कह सकते; जो दोनों के मध्य है–तंद्रा–ऐसी घड़ी आ जाती है। न बाहर न भीतर, देहली पर खड़े हो जाते हो, मध्य में खड़े हो जाते हो। तुम यह भी नहीं कह सकते कि सो गये थे, क्योंकि तुम मेरी बात पूरी तरह सुनते रहोगे। और तुम यह भी नहीं कह सकते कि तुम जागे हुए थे; क्योंकि एक बड़ी राहत, जैसी कि नींद में भी नहीं मिलती, एक बड़ी विश्रांति, तुम्हें उस तंद्रा से मिल जाएगी।

तो तीसरा वर्ग है, जिसकी निद्रा तंद्रा के जैसी है।

इसमें पहले वर्ग में अगर तुम हो तो अच्छा हो, आना बंद कर देना। अगर दूसरे वर्ग में तुम हो तो संघर्ष करना; क्योंकि वह निद्रा तुम्हारे मन की पुरानी आदत है, उसे तोड़ना पड़ेगा। अगर तीसरे वर्ग में तुम हो तो सौभाग्यशाली समझना और इस तंद्रा से लड़ना मत; इस तंद्रा में चुपचाप अपने को छोड़ देना। क्योंकि जो भी मैं कह रहा हूं, तंद्रा में कुछ भी चूकेगा नहीं; वह तुम्हारे पास पहुंच ही जायेगा। यह हो सकता है कि शायद तुम बाद में याद न रख सको, क्योंकि याद बहुत ऊपर-ऊपर है; वह और भी गहरे पहुंच जायेगा। तंद्रा में अगर तुमने सुना तो वह सुनना बड़ा गहरा है। वह तुम्हारे प्राण-प्राण में उतर जायेगा। अगर तुम्हारी तंद्रा की स्थिति हो तो उसे तोड़ने की कोशिश मत करना। तब तो आंख बंद करके शांति से उसमें डूब जाना। क्योंकि मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह सिर्फ वचन ही नहीं हैं; मैं तुमसे जो कह रहा हूं, उन वचनों में कुछ तुम्हें दे भी रहा हूं। कुछ ऊर्जा का संचरण हो रहा है। कोई ऊर्जा का संवाद हो रहा है। अगर तुम जागे रहे तो तुम्हारे मन के विचार चलते रहेंगे। अगर तुम सो गये तो तुम सुन न सकोगे। अगर तंद्रा में रहे तो जागने के विचार भी न चलेंगे और नींद भी न होगी। बीच में खड़े देहली पर तुम मेरे बहुत करीब आ जाओगे। तुम्हारा हृदय मेरे हृदय के बहुत करीब धड़कने लगेगा।

तो सोच लेना, तुम्हारी जैसी दशा हो…। अगर तीसरी हो तो बड़ी सौभाग्य की। तंद्रा तो ध्यान की अवस्था है। इसी को तो सूफियों ने मस्ती कहा है। एक नशा चढ़ जाता है। एक नशे जैसा है। और लगता है, जिसने पूछा है, उसकी स्थिति तंद्रा की ही होगी; क्योंकि मेरा अपना अनुभव यही है, उसने कहा है, कि जैसी मीठी, गहरी और लुभावनी…।

तंद्रा की स्थिति मीठी है, गहरी है, लुभावनी है। लेकिन तुम्हारे लिए नयी होगी, इसलिए तुम उसे निद्रा समझ रहे हो। थोड़ी उसके साथ और पहचान बढ़ेगी तो तुम साफ-साफ देख लोगे कि जागरण अलग, निद्रा अलग, तंद्रा बिलकुल अलग है। तंद्रा तो एक मादक स्थिति है।

नमाजे-इश्क का आता भी है, जो होश कभी

तो बेखुदी मेरी बढ़कर इमाम होती है।

–कभी-कभी जब प्रार्थना में डूबने की इच्छा भी होती है तो तत्क्षण तल्लीनता मेरा नेतृत्व करने लगती है।

नमाजे-इश्क का आता भी है, जो होश कभी

तो बेखुदी मेरी बढ़कर इमाम होती है।

–तो तत्क्षण मेरी तल्लीनता आगे आ जाती है और मार्गदर्शक हो जाती है। यह तंद्रा वही तल्लीनता है जो मार्गदर्शक बन जाती है। फिर फिक्र मत करना। अगर तीसरी तरह की तंद्रा हो तो यह भी मत सोचना कि लोग क्या कहेंगे। यह भी मत सोचना कि यह कहीं कोई नियम का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है। यह भी मत सोचना कि यह कहीं बुरा तो नहीं है कि मैं बोल रहा हूं, और तुम सो रहे हो। नहीं, यह नींद है ही नहीं। यह तो प्रेम की एक बड़ी गहरी दशा है। मेरे शब्द तुम्हारे लिए एक गहरा संगीत लेकर आ रहे हैं। तुमने शब्दों को ही नहीं सुना है, संगीत को भी पीना शुरू कर दिया है।

मोहब्बत में नियाज़ और हुस्ने-महवे-नाज क्या मानी

मैं इस दस्तूर को तरमीम के काबिल समझता हूं।

और जहां प्रेम है, वहां नियम-उल्लंघन हो सकता है। क्योंकि प्रेम इतना परम नियम है कि फिर किसी और नियम की कोई जरूरत नहीं है। तो तुम केवल शिष्टाचार के कारण सम्हालकर और आंख खोलकर मत बैठे रहना। अगर तंद्रा तुम्हें अनुभव होती हो तो…

मोहब्बत में नियाज़ और हुस्ने-महवे-नाज क्या मानी?

तो फिर प्रेम में नम्रता और अहंकार तक का कोई मूल्य नहीं।

मैं इस दस्तूर को तरमीम के काबिल समझता हूं।

फिर तो सभी दस्तूर तरमीम के काबिल हैं। फिर तो शिष्टाचार की फिक्र छोड़ो। प्रेमी के लिए कोई नियम नहीं है। मगर बहुत गौर से देखना। कहीं ऐसा न हो कि नींद पहले तरह की हो! अगर पहले तरह की हो तो अपने को सम्हालना। या तो आना बंद करो…।

एक चर्च में ऐसा हुआ एक बूढ़ा आदमी, लेकिन करोड़पति, सामने ही बैठता था। और जब पादरी बोलता तो न केवल वह सोता, बल्कि घुर्राता भी। तो उससे और चर्च के लोगों को भी अड़चन होती। उससे कुछ कहा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि वह करोड़पति था और उसके दान पर चर्च चलता था। उसे यह भी नहीं बताया जा सकता कि तुम घुर्राते हो।

तो पादरी ने एक तरकीब खोज ली। उसके साथ एक छोटा बच्चा भी आता था, उसका वह नाती-पोता। उसने छोटे बच्चे को एक दिन बुलाया और कहा कि देख तू अपने दादा को जब वे घुर्राने लगें, हिला दिया कर। मैं तुझे चार आने दिया करूंगा रोज। उसने कहा, ठीक! तो वह बच्चा, जब भी उसका दादा घुर्राने लगता, उसको तो बच्चे को कोई मतलब भी नहीं था प्रवचन से, वह अपने दादा ही पर नजर रखता, उनको हिला देता। ऐसा दोत्तीन दिन तो चला, लेकिन चौथे दिन देखा कि बच्चे ने हिलाया नहीं। तो, पादरी ने उसे बुलाया कि क्यों, क्या हुआ? उसने कहा, मेरे दादा ने कहा कि देख, अगर तू मुझे नहीं हिलायेगा तो मैं एक रुपया…। अब आप सोच लो उसने कहा, रुपया मिल रहा है!

अगर पहली, ऐसी दशा हो तो कोई जरूरत नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं है। जाना क्यों ऐसी जगह जहां नींद आती हो? घर ही सोया जा सकता है, सुगमता से, सुविधा से। यहां बैठकर सख्त पत्थर पर, नींद भी मुश्किल होती होगी। तुम तो कष्ट दोगे, पाप मुझको भी लगेगा।

अगर दूसरी तरह की नींद हो तो फिर कोई फिक्र नहीं। फिर अपने को जगाने की कोशिश करना। अगर दूसरी तरह की नींद हो कि मन की पुरानी आदत के कारण आ जाती हो, तो मन की आदतें तो तोड़नी हैं, उनसे तो संघर्ष करना होगा। और जब पहली और दूसरी तरह की नींद विदा हो जायेगी तो तीसरी तरह की नींद की संभावना शुरू होती है। और जब तीसरी आ जाये तो डरना मत; फिर उसमें लीन होना, डूबना।

आखिरी प्रश्न:

संन्यास के शुरू के कुछ साल इस भ्रम में जीती रही कि मैं संन्यासिनी हूं। वे बड़े सुख और आनंद के दिन थे। किंतु अब जो आप संन्यास के फूल की बात करते हैं तो मैं अपने को बहुत अयोग्य पाती हूं। जमीन से पैर उखड़ गये, लेकिन पंख अभी तक नहीं उगे। यह कैसी अवस्था है कि एक ओर कीर्तन, नाच और भक्ति में लीन होती हूं, तो दूसरी ओर ध्यान और होश भी पकड़ता है। और यह संसार… उफ…कब तक चलेगा?

“संन्यास के शुरू के कुछ साल इस भ्रम में जीती रही कि मैं संन्यासिनी हूं। वे बड़े सुख और आनंद के दिन थे।’

भ्रम के दिन सदा ही सुख और आनंद के दिन होते हैं। लेकिन भ्रम के साथ एक ही खतरा है कि वह सदा नहीं चल सकता; वह एक दिन टूटता ही है। और जब टूटता है तो पीड़ा होती है। लेकिन उसका टूट जाना शुभ है। और अब जब मैं कह रहा हूं कि संन्यास केवल लेने की बात नहीं है…लेने से तो शुरुआत होती है, अंत नहीं। संन्यासी बनने का जब तुम निर्णय करते हो, संकल्प करते हो, समर्पण करते हो, तो वह तो यात्रा का पहला कदम है। वहीं बैठकर प्रसन्न मत होते रहना। नहीं तो मंजिल कभी घर न आयेगी; तुम कभी मंजिल तक न पहुंचोगे। उचित है कि पहला कदम भी उठाया। यह भी सौभाग्य था। इसके लिए गुनगुनाना, गीत गाना, नाच लेना, प्रसन्न होना; लेकिन यात्रा जारी रखनी है। आगे जाना है! रोज आगे जाना है! और जितने तुम आगे जाने लगोगे, उतने मैं तुम्हें और आगे की यात्रा के इशारे देने लगूंगा।

तो पहले तुमसे कहता हूं, संन्यास सिर्फ एक भाव-भंगिमा है। वह तो तुम्हें फुसलाने के लिए। वह तो तुम्हें राजी कर लेने के लिए। तुमसे कहता हूं, यहीं पास रहा, दो कदम जाना है। जब तुम दो कदम उठा लेते हो, तब मैं कहता हूं कि अब दो कदम और। ऐसे दो-दो कदम तुम्हें बढ़ाकर हजारों कदम उठवाये जा सकते हैं। अगर मैं तुमसे कहूं हजार कदम पहले से, तो शायद तुम पहला कदम भी न उठाओ।

तुमने हिम्मत इतनी खो दी है, आत्मविश्वास इतना खो दिया है। तुम बड़ी क्षुद्र बातों से प्रभावित होते हो। हजार कदम, तो शायद हजार कदम की बात रुकावट ही बन जाये। इसलिए मैंने संन्यास को इतना सरल बना दिया है जितना सरल हो सकता है। सिर्फ संन्यास लेने की आकांक्षा को मैं कहता हूं काफी है, बस, और कोई पात्रता नहीं। लेकिन एक बार तुम संन्यासी होने का पहला कदम उठाये, तो यात्रा शुरू हुई। फिर मैं पात्रता की बात भी करूंगा। फिर कैसे जीवन के फूल खिलें, उनकी दिशा में तुम्हें संलग्न भी करूंगा। और एक बार तुम मेरे साथ आ गये, चल पड़े, तो मैं जानता हूं वापस लौटना आसान नहीं। एक बार इतनी भी हिम्मत कर ली कि मेरे रंग में रंगे, कि गैरिक वस्त्रों में डूबे, कि फिर तुम भाग न सकोगे। अंगुली पकड़ ली तो फिर पहुंचा भी पकड़ लूंगा। एक बार अंगुली हाथ में लेता हूं, तुम सोचते हो, क्या हर्जा है, अंगुली ही तो है कोई; जब चाहेंगे तब छुड़ा लेंगे। तुमसे मैं कहता हूं, अंगुली काफी है; इतने से काम हो जायेगा। इतने से काम न होगा। इतने से काम शुरू होता है।

तो स्वभावतः देर-अबेर प्रत्येक को ऐसा लगेगा कि यह तो बड?ी मुश्किल हुई। हम तो सोचे थे सरल है; यह तो कठिन होने लगी बात। यह तो मार्ग ऊंचाइयों पर चढ़ने लगा। हम तो सोचे थे, समतल है। हम तो सोचे थे, राजपथ है; ये तो पगडंडियां फूटने लगीं, और जंगल में अकेले की यात्रा होने लगी।

लेकिन उस तक पहुंचने के लिए बहुत कुछ चुकाना पड़ता है। अपने पूरे जीवन की ही आहुति देनी पड़ती है। तो अड़चन से घबड़ाना मत।

और अयोग्यता का बोध पैदा हो रहा हो तो इसे शुभ मानना; क्योंकि अयोग्यता का बोध केवल उन्हीं को होता है, जिनके भीतर थोड़ी बुद्धिमत्ता है। मूढ़ तो अपने को योग्य ही समझते हैं। उन्हें अयोग्यता का तो पता ही नहीं चलता। अज्ञानी तो अपने को ज्ञानी ही मानते हैं। यह तो सिर्फ ज्ञानियों को पता चलता है कि हम अज्ञानी हैं। इसलिए अगर अयोग्यता का बोध हो रहा है तो दुखी मत होना। यह तो पहली सूरज की किरण फूटी। यह तो पहला दीया जला। अब इसी दीये से योग्यता पैदा होगी। अयोग्यता का पता चल गया तो अयोग्यता से मुक्त हो जाना बहुत आसान है। अयोग्यता का पता ही न चलता हो तो फिर कैसे मुक्त हो सकोगे?

“जमीन से पैर उखड़ गये हैं, लेकिन पंख अभी तक नहीं उगे हैं…।’

ठीक है। जहां तुम जा रहे थे वहां से तुम्हें खींच लिया है। वह दिशा समाप्त हुई। उस तरफ रस बंद हुआ। लेकिन जहां तुम्हें ले जाना है, उस दिशा में लगाने के लिए तुम्हारे भीतर पात्रता लानी होगी। पुराने रास्ते पर चलने की तुम्हारे पास कुशलता है। पुराना रास्ता तो हटा दिया, नये रास्ते पर तुम्हें लगा दिया; लेकिन नये रास्ते की कुशलता सीखनी होगी। जड़ें तो टूट गयीं, ठीक हुआ; जमीन से पैर उखड़ गये, ठीक हुआ। यह पहला कदम तो हुआ आकाश में उड़ने का; लेकिन पंख पैदा करने होंगे। या होंगे मौजूद तो जन्मों-जन्मों से उनका उपयोग नहीं किया; उनका उपयोग सीखना पड़ेगा। लेकिन शुभ है कि कम से कम आधा तो हुआ। जमीन से पैर तो उखड़ गये। अब जमीन पर खड़े होने की तो जगह न रही। अब तो पंख खोजने ही पड़ेंगे।

और ध्यान रखना, जब तक कि जीवन संकट में न पड़ जाये, जीवन नये की खोज नहीं करता। नये की खोज संकट में होती है। जब इतना संकट आ जाता है कि कुछ करना ही होगा, तभी नये की खोज होती है; अन्यथा मन बड़ा आलसी है।

तो अगर तुम्हारी जमीन मैंने छीन ली तो अब तुम तड़फड़ाओगे, फेंकोगे हाथ-पैर। उन्हीं हाथ-पैर के फेंकने से पंखों का जन्म होगा। पंख तो हैं, तुम भूल ही गये हो; तुम्हें याद ही न रही।

शुरू-शुरू में तड़फड़ाहट करोगे तो एकदम से उड़ना न आ जायेगा। उड़ने के लिए बड़ी कुशलता चाहिए। वह कुशलता धीरे-धीरे पैदा होगी। लेकिन तुम उड़ सकोगे। क्योंकि आकाश ही, अनंत आकाश ही–कहो उसे परमात्मा, मोक्ष, निर्वाण–तुम्हारी नियति है। और जो पक्षी उस आकाश में नहीं उड़ा, घोंसले में ही बैठा रह गया, उसके अभाग्य को क्या कहें! पैदा हुआ था कि उड़े आकाश में। लेकिन पैदा तो घोंसले में होना पड़ता है; आकाश में तो कोई भी पक्षी का अंडा रखा नहीं जा सकता। अंडा तो रखना पड़ता है घोंसले में। लेकिन अंडा फूट जाये और पक्षी वहीं बैठा रहे घोंसले में और डरे…और डर उसका स्वाभाविक है, कभी उड़ा नहीं पहले…।

तो मैंने तुमसे तुम्हारा घोंसला तो छीन लिया; अब बैठने की तो कोई जगह नहीं है। उड़ना ही पड़ेगा! और तुम उड़ोगे।

तुमने देखा, जो लोग तैरना सिखाते हैं, वे करते क्या हैं? वे नये व्यक्ति को पानी में फेंक देते हैं। और कुछ भी नहीं करते। लेकिन पानी में गिरकर कोई भी हाथ-पैर फेंकेगा ही, अपने को बचाने के लिए फेंकेगा। वही तैरने का पहला चरण है। फिर धीरे-धीरे कुशलता आ जाती है। फिर वह देखता है, कैसे ढंग से फेंकना; कैसे कम शक्ति लगे और फेंकना। फिर धीरे-धीरे तो बिना फेंके भी तैरने लगता है।

ऐसा ही आत्मिक जगत भी है। और इसमें ध्यान रखना, ऐसा एक बार होगा, ऐसा नहीं; बहुत बार होगा। क्योंकि फिर तुम एक ऊंचाई पर अपना घर बना लोगे, फिर मैं उसे उखाड़ दूंगा, ताकि नयी ऊंचाई पर तुम उठो।

गुरु का काम ही इतना है कि वह उस समय तक तुम्हें धक्का दिये चला जाये, जब तक तुम वहां न पहुंच जाओ, जिसके आगे फिर कोई ऊंचाई नहीं। परमात्मा तक जब तक तुम्हें न पहुंचा दे, तब तक तुम्हारे पीछे लगा ही रहे; तब तक तुम्हें परेशान करता ही रहे; तब तक जैसे भी हो–कभी तुम्हें सुख देकर, कभी तुम्हें दुख देकर; कभी तुम्हारी पीठ थपथपाकर और कभी तुम्हारी लानत-मनामत करके; कभी तुम पर क्रोध जाहिर करके और कभी तुम पर प्रेम जाहिर करके–लेकिन तुम्हें धकाता ही रहे। क्योंकि तुम्हारा मन तो कहेगा, बस यहीं रुक जायें। तुम तो हर जगह रुक जाने को तत्पर हो; क्योंकि रुक जाने में विश्राम है। चलने में श्रम है।

लेकिन मैं तुम्हें उस क्षण तक चलाता रहूंगा, जब तक कि परम विश्राम न आ जाये। परम विश्राम यानी परमात्मा। परम विश्राम यानी मोक्ष। जिससे फिर पीछे गिरना नहीं होता और जिसके पार फिर कुछ और शेष नहीं है–ऐसे परम सत्य को पाने के पहले बहुत बार तुम मुझसे नाराज भी होने लगोगे। क्योंकि तुम सस्ता चाहते हो। क्योंकि तुम सदा चाहते हो कि मुफ्त में मिल जाये। तुम सदा चाहते हो कि तुम्हारे बिना कुछ किये मिल जाये। तो तुम भाग ही न जाओ, इसलिए मैं कभी-कभी ऐसा भी कहता हूं; बिना किये कुछ मिल जायेगा। तो तुम रुके भी रहते हो कि शायद अब मिलता हो। लेकिन बिना किये कुछ भी नहीं मिलता। तो तुम्हें रोकने के लिए कह देता हूं, बिना किये भी मिल जायेगा, प्रभु के प्रसाद से भी मिल जायेगा। तो तुम रुके रहते हो आशा में। और यहां तुम्हारे साथ मैं चेष्टा में लगा रहता हूं कि तुम कुछ करने लगो। क्योंकि उसका प्रसाद भी उन्हीं को मिलता है जो कुछ करते हैं।

तो घबड़ाना मत, बेचैन मत होना। यह शुभ है कि अयोग्यता दिखाई पड़ी। यह शुभ है कि वह सस्ती प्रसन्नता जो संन्यास लेने से ही आ गयी थी, खो गयी। अब असली संन्यासी बनना!

थोड़ा सोचो! मात्र वस्त्र बदलने से प्रसन्न हो गये थे; जिस दिन आत्मा बदलेगी तो क्या होगा!

आज इतना ही।


Filed under: जिन सूत्र (महावीर) भाग--1 Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिनसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–23

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जीवन की भव्‍यता: अभी और यहीं—प्रवचन—तेईसवां

सूत्र:

सदहदि य पत्‍तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासोदि।

धम्‍मं भोगनिमित्‍तं, ण दु सो कम्‍मक्‍खयाणिमित्‍तं।। 55।।

सुहपरिणमो पुण्‍णं, असुहो पाव ति भणियमन्‍नेसु।

परिणामो णन्‍नगदो, दुक्‍खक्‍खयकारणरं समयं।। 56।।

पुण्‍णं पि जो समिच्‍छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि।

पुण्‍णं सुगईहेंदु, पुण्‍णखएणेव णिव्‍वाणं।। 57।।

कम्‍ममसुहं कुसीलं, सुहकम्‍मं चावि जाण व सुसीलं।

कह तं होदि सुसीलं, जं संसार पवेसेदि।। 58।।

सोवण्‍णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं।

बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्‍भं।। 59।।

तम्‍हा दु कुसीलेहिं य, रायं मा कुणह मा व संसग्‍गं।

साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण।। 60।।

वरं वयतवेहि सग्‍गो, मा दुक्‍खं णिरई इयरेहिं।

छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरूभेयं ।। 61।।

पहला सूत्र:

“अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका पालन भी करता है, किंतु यह सब वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं।’

संसार की आदत आसानी से नहीं जाती। जन्मों-जन्मों तक जिसे पाला है, संवारा है, वह आदत संसार को छोड़ने भी चलो तो भी साथ चलती है।

इसे समझें, क्योंकि इसे बिना समझे कोई कभी धार्मिक न हो पायेगा। बहुत हैं जिन्होंने संसार छोड़ दिया। बाहर दिखायी पड़नेवाला संसार छोड़ देना कठिन भी नहीं। आश्चर्य तो यही है कि बाहर दिखायी पड़नेवाले संसार को लोग कैसे पकड़े रहते हैं! इतना व्यर्थ है, इतना असार है कि किसी भी थोड़ी-सी प्रज्ञावान चेतना को छोड़ने का खयाल आ जाये तो कुछ आश्चर्यचकित होने की बात नहीं। कुछ भी मिलता हुआ दिखायी नहीं पड़ता, तो छोड़ने का मन आ जाता है।

लेकिन बाहर के संसार से भी ज्यादा भीतर एक संसार है। वह संसार है कि अगर हम छोड़ते भी हैं कुछ, तो कुछ पाने के लिए ही छोड़ते हैं। वह पाने की वृत्ति नहीं जाती। तो लोग संसार छोड़ देते हैं तो सोचते हैं, मोक्ष पाने के लिए; धन छोड़ देते हैं तो सोचते हैं, पुण्य पाने के लिए। लेकिन पाने की वासना भीतर खड़ी रहती है।

महावीर इन सूत्रों में यही बात साफ करना चाहते हैं कि असली संसार “पाने की वासना’ में है। पाने की वासना के कारण बाहर का संसार है। बाहर के संसार के कारण पाने की वासना नहीं है।

तो तुम संसार को छोड़ भी दो और तुम्हारे भीतर की वासना की आग सुलगती रह जाये तो कुछ अंतर न हुआ।

महावीर कहते हैं ऐसे धार्मिक व्यक्ति को–”अभव्य जीव।’ वह सिर्फ भव्य दिखायी पड़ता है, लेकिन उसकी भव्यता बाहर-बाहर है, भीतर उसके राग खड़ा है, भीतर लोभ खड़ा है।

तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा, जिसके भीतर लोभ न हो? तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा जो धार्मिक हो, धार्मिक होने के आनंद के कारण; जो यह नहीं कहता हो कि धार्मिक श्रम, पुरुषार्थ से मैं कुछ भविष्य में कमाने जा रहा हूं? तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा जिसके मन में भविष्य की कोई आकांक्षा न हो, फलाकांक्षा न हो?

तो तुम अगर अपने धार्मिक गुरुओं से, साधुओं से जाकर पूछो कि आप ये पुण्य, तपश्चर्या, साधना, ध्यान, सामायिक, उपवास, व्रत, नियम, इन सबका पालन कर रहे हैं–किसलिए? और अगर वे बता सकें कि किसलिए तो समझना कि वे अभव्य जीव हैं। अभी उनमें भव्यता का जन्म नहीं हुआ। और वे सभी बता सकेंगे कि पुण्य के लिए, स्वर्ग के लिए; भविष्य में उच्च योनियां मिलें, देवलोक मिले–इसलिए या उनमें जो बहुत ज्यादा तर्ककुशल हैं, वे कहेंगे, मोक्ष के लिए; सबसे छुटकारा हो जाये, इसलिए।

लेकिन जो आदमी छूटना चाहता है, उसका छुटकारा हो नहीं सकता; क्योंकि अभी कोई चाह बची–छूटने की चाह बची। तो सब चाहें निमज्जित हो जाएं छूटने की चाह में, तो छूटने की चाह एक मजबूत रस्से की तरह हो जायेगी। छोटी-छोटी चाहें तो थोड़े-थोड़े धागे हैं, उन सबको एक ही रस्से में इकट्ठा कर लिया–छूटने की चाह, मोक्ष की आकांक्षा। तो जैसा छोटी-छोटी वासनाओं ने बांधा था, उससे भी ज्यादा यह मोक्ष की रस्सी बांध लेगी।

महावीर कहते हैं, अगर तुमने कुछ पाने के लिए छोड़ा तो छोड़ा ही नहीं। धोखा किसको दिया? अपने को दे लिया।

उपनिषदों में एक बड़ा अदभुत सूत्र है: कृपणा फलहेतवः। जो व्यक्ति फल की आकांक्षा से कुछ काम करता है वह कृपण है, वह कंजूस है। उसे जीवन की कला ही न आयी। उसने जीवन का सत्य ही न जाना।

महावीर का यह सूत्र भी यही कह रहा है कि अगर तुमने कुछ पाने की आकांक्षा से–भला वह आकांक्षा मोक्ष की ही हो–धर्म किया तो धर्म किया ही नहीं, धर्म का धोखा किया। अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है लेकिन उसकी श्रद्धा में “यद्यपि’ जुड़ा हुआ है। उसकी प्रतीति भी करता है। उसमें रुचि भी रखता है, उसका यथाशक्य पालन भी करता है–फिर भी वह धर्म को निमित्त समझकर करता है, साध्य समझकर नहीं। धर्म का भी साधन बनाता है। धर्म से भी कुछ पाना है, इसलिए करता है। अगर धर्म के बिना जो वह पाना चाहता है मिल जाये तो वह धर्म को कूड़े-कर्कट में फेंक देगा। अगर तुम्हारे साधु-संन्यासियों और मुनि महाराजों को पता चल जाये कि स्वर्ग पहुंचने का कोई शार्टकट भी है तो वे सब अपने पीछी-कमंडल छोड़कर भाग खड़े होंगे, क्योंकि उसी के लिए तो वे इस लंबे रास्ते से जा रहे थे। अगर कोई पास का रास्ता मिल गया है, कोई सुगम रास्ता मिल गया है, तो कौन कष्ट उठायेगा!

पास का रास्ता मिल जाने पर भी जो धर्म के रास्ते पर खड़ा रहे, उसे ही जानना कि वह धार्मिक है। क्यों? क्योंकि उसके लिए धर्म साध्य है, साधन नहीं।

ये दो शब्द बड़े विचारणीय हैं। धर्म साधन नहीं, साध्य है। तो जल्दी क्या है? तो जाना कहां है?

वास्तविक धार्मिक व्यक्ति का प्रत्येक पल मोक्ष है। वह ध्यान करता है क्योंकि ध्यान में परम आनंद है। इसलिए नहीं कि आनंद मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए “इसलिए’ जैसी कोई बात ही नहीं। वह सामायिक में बैठता है। क्योंकि सामायिक आनंद है, सामायिक परम शांति है।

भेद समझ लेना, क्योंकि दोनों की बातें एक-सी लगती हैं। धार्मिक कहता है, शांति के लिए सामायिक में बैठता हूं। तो महावीर कहेंगे अभव्य है, अभी कृपण है, अभी वासना लगी है। अभी सामायिक को भी यह साधन बना रहा है। तो कभी इसने धन को साधन बनाया था–सोचा था, धन से सुख मिलेगा; कभी इसने पद को साधन बनाया था–सोचा था पद-प्रतिष्ठा से सुख मिलेगा; कभी यह सेनापति हो गया था, दुर्धर्ष युद्ध में उतरा था, हजारों की गर्दनें काट दी थीं–सोचा था इससे सुख मिलेगा। लेकिन एक बात अभी भी कायम है कि सुख को पाना होगा किसी साधन से। कभी धन साधन, कभी पद साधन, कभी तलवार साधन; अब व्रत, उपवास, नियम–साधन; योग, ध्यान, सामायिक–साधन। लेकिन मूल गणित वही है। जो भी कर रहा है, अधार्मिक व्यक्ति उसमें रस नहीं लेता। उसका रस हमेशा फल में है। गीता में कृष्ण जो कहते हैं: फलाकांक्षा! वह देख रहा है आगे: यह मिलेगा, यह मिलेगा, यह मिलेगा–इसलिए कर रहा है। अगर पता चल जाये नहीं मिलेगा तो उसका करना अभी रुक जाये। तो वह पूछेगा, फिर कैसे मिलेगा?

महावीर कहते हैं, जिस व्यक्ति को धर्म में साध्य दिखायी पड़ने लगा वही व्यक्ति भव्य है। तो तुम मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, कुरान पढ़ो, गीता पढ़ो, पूजा करो, प्रार्थना करो–एक बात भीतर खोजते रहना: ये तुम साधन की तरह कर रहे हो, निमित्त की तरह? तो महावीर की दृष्टि में अभव्य हो। अभी तुम्हारे भीतर उस पवित्र उन्मेष का जन्म नहीं हुआ जो तुम्हें दिव्य बना दे, भव्य बना दे।

“भव्य’ शब्द महावीर का अपना है। दिव्य शब्द का वे उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि दिव्य से तो देवता और अंततः परमात्मा का खयाल आ जाता है। इसलिए महावीर की भाषा में भव्य का वही अर्थ है जो समस्त अन्य धर्मों की भाषा में दिव्य का है। भव्य का अर्थ है: जिसका जीवन प्रतिपल साध्य हुआ। भव्य का अर्थ है: जो कृपण न रहा। कृपणा फलहेतवः! अब जिसके लिए फल का कोई सवाल ही नहीं है! अब जिसकी सारी कृपणता मिटी, कंजूसी मिटी! अब जो जिंदगी में चाह के ढंग से नहीं जीता–अचाह का मजा ले रहा है; अचाह में डूबता है, रस लेता है!

एक क्षण को भी तुम्हें पता चल जाये कि ऐसा भी जीने का ढंग है जिसमें भविष्य की कोई जरूरत नहीं, वहीं भव्यता उतरती है।

“भविष्य’ शब्द भी सोचने जैसा है, क्योंकि उसकी भी मूल धातु भव्य की ही है।

जिससे भव्य बना है, उसी से भविष्य बना है। दोनों शब्दों का मूलस्रोत एक ही है। यह बड़े सोचने जैसी बात है! हम भविष्य को भव्य क्यों कहते हैं? अतीत तो किसी तरह काट लिया, वर्तमान भी किसी तरह गुजार रहे हैं; सारी आशा भविष्य में लगी है। तो हम भविष्य को तो भव्य बनाते हैं! उटोपिया! जो नहीं हुआ है वह भविष्य में होगा। इसलिए भव्य भविष्य को हम मानते हैं कि भविष्य भव्य है। हमारी सारी आकांक्षाओं का सार-निचोड़ भविष्य में है। जो होना था और नहीं हो पाया, वह भविष्य में होगा, कल होगा। जो हमें बनना था और नहीं बन पाये वह हम कल बनेंगे। जो वर्षा हमारे जीवन में घटनी थी और नहीं घट पायी, सूखे रह गये, वह कल होगी।

इसलिए सभी लोगों के मन में भविष्य तो भव्य होता है। दीन से दीन, दुखी से दुखी, पीड़ित से पीड़ित व्यक्ति के मन में भी भविष्य भव्य होता है–इसीलिए उसे भविष्य कहते हैं।

लेकिन महावीर कहते हैं, भव्य वह है जिसका कोई भविष्य नहीं; जो “अभी और यहीं’ बिना किसी चाह के जीने लगे।

जब तक भविष्य है तब तक तुम अभव्य हो। भविष्य है ही तरकीब झुठलाने की, जीवन में प्रवंचना की। ऐसे कल्पनाओं का जाल बुन-बुनकर तुम अपने को समझा लेते हो, सांत्वना दे लेते हो। कभी धन के माध्यम से दी थी, अब धर्म के माध्यम से देते हो। महावीर कहते हैं, बहुत फर्क नहीं है। चाहे कितनी ही तुम श्रद्धा दिखाओ, कितनी ही प्रतीति जतलाओ, कितनी ही रुचि प्रगट करो, पालन भी कर लो–लेकिन तुम्हारे पालन करने में भी अभव्यता रहेगी, क्योंकि तुम्हारी नजर भविष्य पर लगी रहेगी। तुम करोगे, लेकिन व्यवसायी की तरह करोगे। धर्म तुम्हारा कृत्य ही रहेगा, तुम्हारे जीवन की लीला न हो पायेगी। और जब धर्म जीवन की लीला बन जाये…।

अगर तुम्हें कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाये जो कहे कि ध्यान में आनंद है, इसलिए ध्यान कर रहा हूं; ध्यान से आनंद मिलेगा, इसलिए नहीं–ध्यान ही आनंद है। दान कर रहा हूं, इसलिए नहीं कि दान से स्वर्ग मिलेगा–दान में स्वर्ग है। देता हूं, क्योंकि देने में ही फूल खिल रहे हैं। फूल कल नहीं हैं, भविष्य में नहीं हैं–अभी खिल रहे हैं, यहीं खिल रहे हैं। यहां देने का खयाल नहीं उठा कि वहां फूल खिलने लगे! यहां शांत बैठने का खयाल नहीं उठा कि शांति होने लगी! यहां आनंदित होने की उमंग उठी कि आनंद आ गया!

युगपत साधन और साध्य मिल जाते हैं–एक ही क्षण में, एक ही पल में।

गुरजिएफ के एक शिष्य बैनेट ने एक अनूठा संस्मरण लिखा है। बैनेट गुरजिएफ का सबसे लंबे समय तक शिष्य रहा। पश्चिम से जो व्यक्ति सबसे पहले गुरजिएफ के पास पहुंचा वह बैनेट था। और अंत तक जो गुरजिएफ के साथ लगा रहा वह भी बैनेट था। कोई पैंतालीस साल का संबंध था। बैनेट ने लिखा है कि गुरजिएफ के साथ काम करते हुए, एक दिन गुरजिएफ ने उसे कहा था वह गङ्ढे खोदता रहे, तो दिनभर गङ्ढे खोदता रहा। वह इतना थक गया था…! वह गुरजिएफ की एक प्रक्रिया थी थका देना, इतना थका देना कि हाथ हिलाने की भी स्थिति न रह जाये। क्योंकि गुरजिएफ कहता था कि जब तुम इतने थक जाते हो कि हाथ हिलाने की भी स्थिति नहीं रह जाती तभी तुम्हारा परम शक्ति से संबंध जुड़ता है। जब तक तुममें शक्ति होती है तब तक परम शक्ति तुममें प्रवाहित नहीं होती। तो उसे थका दिया था। वह दिनभर से थक गया था। तीन रात से सोया भी न था। वह गिरा-गिरा हो रहा था। खोद रहा था, लेकिन अब उसे समझ में नहीं आ रहा था कि अगली बार कुदाली उठा सकेगा कि नहीं। कुदाली उठाये-उठाये झपकी खा रहा था। तब गुरजिएफ आया और उसने कहा कि यह क्या कर रहे हो? इतने जल्दी नहीं, अभी तो जंगल जाना है और कुछ लकड़ियां काटकर लानी हैं।

तो गुरजिएफ की शर्तों में एक शर्त थी कि वह जो कहे, करना ही होगा। क्योंकि उसी माध्यम से वह सोयी हुई चेतना को जगा सकता है। तो बैनेट की बिलकुल इच्छा नहीं थी। जाने का जंगल तो सवाल ही नहीं था। अपने कमरे तक कैसे लौटेगा–यह चिंता थी। कहीं बीच में गिरकर सो तो नहीं जायेगा। लेकिन जब गुरजिएफ ने कहा तो गया। जंगल गया, लकड़ियां काटीं। जब वह लकड़ियां काट रहा था, तब अचानक घटना घटी। अचानक उसे लगा सारी सुस्ती खो गयी और एक बड़ी ऊर्जा का जैसे बांध टूट गया! यहां बिलकुल खाली हो गया था शक्ति से; जगह, स्थान निर्मित हो गया था। भीतर जहां ऊर्जा भरी है, वहां से टूट पड़ी। बही गङ्ढे की तरफ। गङ्ढा बन गया था थकान के कारण। ऊर्जा बही और सारा शरीर, रोआं-रोआं ऐसी शक्ति से भर गया जैसा कभी भी न हुआ था। उसने कभी ऐसी शक्ति जानी ही न थी। उस क्षण उसे लगा, इस समय मैं जो चाहूं वह हो सकता है। इतनी शक्ति थी! तो उसने सोचा, क्या चाहूं? जिंदगीभर सोचा था आनंदित…तो उसने कहा, मैं आनंदित होना चाहता हूं। ऐसा भाव करना था कि वह एकदम आनंदित हो गया। उसे भरोसा ही न आया कि आदमी के बस में है क्या आनंदित होना! चाहते तो सभी हैं–होता कौन है! उसने सोचा कि आनंदित हो जाऊं…यह तो सिर्फ खेल कर रहा था शक्ति को देखकर। इतनी शक्ति नाच रही थी चारों तरफ, रोआं-रोआं ऐसा भरा-पूरा था कि उसको लगा इस क्षण में तो अगर मैं जो भी चाहूंगा हो जायेगा तो क्या चाहूं! “आनंदित!’ ऐसा सोचना था, यह शब्द का उठना था–आनंद–कि उसकी पुलक-पुलक नाच उठी। उसे बस भरोसा न आया। उसने कहा कोई धोखा तो नहीं खा रहा हूं, कोई सपना तो नहीं देख रहा हूं, कोई मजाक तो नहीं की जा रही है मेरे साथ। तो उसने सोचा कि उलटा करके देख लूं: दुखी हो जाऊं! ऐसा सोचना था कि “दुखी हो जाऊं’ कि एकदम गिर पड़ा! चारों तरफ जैसे अंधेरा छा गया! जैसे अचानक सूरज डूब गया! जैसे सब तरफ दुख ही दुख और दुख की तरंगें उठने लगीं! वह घबराया कि यह तो मैं नर्क में गिरने लगा। यह हो क्या रहा है! उसने कहा, मैं शांत हो जाऊं, वह तत्क्षण शांत हो गया।

उसने सब मनोभाव उठाकर देखे। फिर तो एक-एक पर प्रयोग करके देखा–क्रोध, घृणा, प्रेम–और जो भाव उसने उठाया वही भाव परिपूर्ण रूप से प्रगट हुआ।

वह भागा हुआ आया। उसने गुरजिएफ को कहा कि चकित हो गया हूं। उसने कहा, अब चकित होने की जरूरत नहीं, चुपचाप सो जा! अब जो हुआ है इसे चुपचाप संभालकर रख और याद रखना, कभी भूलना मत कि अगर आदमी ठीक स्थिति में हो तो जो चाहता है, वही हो जाता है। गैर-ठीक स्थिति में तुम चाहते रहो, चाहते रहो, कुछ भी नहीं होता। ठीक स्थिति में जब भीतर के तार मिलते हैं तो साधन और साध्य की दूरी खो जाती है। इसको ही हिंदुओं ने कल्पवृक्ष की अवस्था कहा है।

कल्पवृक्ष स्वर्ग में लगा हुआ कोई वृक्ष नहीं है। कल्पवृक्ष तुम्हारे भीतर की एक चैतन्य अवस्था है।

बैनेट के उल्लेख से तुम समझ सकते हो कल्पवृक्ष का क्या अर्थ होगा। कल्पवृक्ष का अर्थ होगा कि जहां साधन और साध्य का फासला न रहा, जहां दोनों के बीच कोई दूरी न रही। यहां साधन हुआ नहीं कि साध्य आ ही गया। एक साथ, युगपत! क्षणभर का भी, क्षण के खंड का भी हिस्सा नहीं है–यही कल्पवृक्ष की धारणा है।

कल्पवृक्ष की धारणा है कि जिस वृक्ष के नीचे तुम बैठे, इधर तुमने मांगा उधर मिला। ऐसे कोई वृक्ष कहीं नहीं हैं, लेकिन ऐसे वृक्ष तुम बन सकते हो। और उस बनने की दिशा में जो पहला कदम है वह यह कि साधन और साध्य की दूरी कम करो। क्योंकि जहां साधन और साध्य मिलते हैं, वहीं वह घटना घटती है कल्पवृक्ष की।

और तुमने खूब दूरी बना रखी है। तुम तो सदा दूरी निर्मित करते चले जाते हो। तुम कहते हो, कल मिले। तुम्हें यह भरोसा ही नहीं आता कि आज मिल सकता है, अभी मिल सकता है, इसी क्षण मिल सकता है।

तुमने आत्मबल खो दिया है। तुमने जन्मों-जन्मों तक वासना के चक्कर में पड़कर…वासना का चक्कर ही यही है: साध्य और साधन की दूरी यानी वासना; साध्य और साधन का मिलन यानी आत्मा।…तो तुमने इतनी दूरी बना ली है कि इस जन्म में भी तुम्हें भरोसा नहीं आता कि मिलेगा, तो तुम कहते हो, अगले जन्म में! अगले जन्म पर भी भरोसा नहीं आता, क्योंकि तुम जानते हो अपने आपको भलीभांति कि कितने जन्मों से तो भटक रहे हो कुछ मिलता तो नहीं। तो तुम कहते हो, स्वर्ग में, परलोक में; इस लोक में नहीं तो परलोक में। तुम दूर हटाये जा रहे हो। तुम साध्य और साधन के बीच समय की बड़ी दूरी बनाये जा रहे हो। यह समय को हटा दो और गिरा दो।

कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा छोड़ दो। उपनिषद कहते हैं, कंजूस मत बनो। महावीर कहते हैं, भव्य हो जाओ। भविष्य के पीछे क्यों पड़े हो? तुम भव्य हो सकते हो। तुमने भविष्य को भव्यता दे रखी है।

भव्य का अर्थ हुआ: ऐसी घड़ी जहां तुम्हें पाने को कुछ भी नहीं; जहां सब मिला हुआ है। ऐसी परितृप्ति, ऐसा परितोष!

तो फिर भी तुम्हारे जीवन से धर्म होता है, लेकिन अब धर्म खेल की तरह है। जैसे कोई संगीतज्ञ अपनी वीणा पर धुन उठाता है–नहीं कि कुछ पाना है, बल्कि इसलिए कि इतना मिला है, इसे गुनगुनाए, इसे गाए, इसका स्वाद लेता है, कि कोई नर्तक नाचता है–नहीं कि कोई देखे; कोई देख ले, यह उसका सौभाग्य है, न देखे उसका दुर्भाग्य है।

वानगाग के चित्रों को देखने एक आदमी आया। उसे कुछ समझ में न आया कि इन चित्रों में क्या है। उसने इधर-उधर देखा और फिर वह जाने लगा तो उसने वानगाग को कहा कि मेरी कुछ समझ में नहीं आता। मैं तो यह भी तय नहीं कर सकता कि चित्र सीधे लटके हैं कि उलटे लटके हैं। इनमें है क्या?

वानगाग की आंख में, कहते हैं आंसू आ गये। उस आदमी ने कहा कि क्या मैंने आपको दुख पहुंचाया? वानगाग ने कहा, नहीं! लेकिन मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूं: काश, तुम्हारे पास मेरे जैसी देखनेवाली आंखें होतीं! तुम बिलकुल अंधे हो, इसलिए आंख में आंसू आ गये, और कोई कारण नहीं।

जो व्यक्ति धार्मिक है, उसके पास एक आंख है, जो अधार्मिक के पास नहीं है। उसके पास एक तीसरा नेत्र है। उसके पास दिव्य चक्षु है। और वह दिव्य चक्षु प्रत्येक चीज को भव्य कर देता है, सुंदर कर देता है। वह जहां भी आंख डालता है, वहीं मिट्टी सोना हो जाती है। वह जहां हाथ रखता है, वहीं मिट्टी सोने में बदल जाती है। वह जिस तरफ उठता है, बैठता है, उसी तरफ कल्पवृक्ष निर्मित होने लगता है।

यह तुम्हारे बस में है कि तुम भव्य हो जाओ। लेकिन भव्य होने का एक ही उपाय है कि भविष्य गिर जाए। भविष्य से ले लो वापस, तुमने जो भव्यता उसे दी है। और उस भविष्य से छीनी गयी भव्यता को अपने हृदय में आरोपित करो।

“अभव्य जीव धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है; कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं।’

वह तो धर्म से भी कर्म का जाल ही फैलाता है, कर्म का क्षय नहीं होता। वह तो धर्म के नाम पर ही इस संसार की ही वृत्तियों को फिर-फिर आरोपित कर लेता है।

हविश को आ गया है गुल खिलाना

जरा ए जिंदगी! दामन बचाना।

वह जो वासना है, उसको भी बड़े फूल खिलाना आता है। तुम अगर भागे संसार से तो वह धर्म के फूल खिलाने लगती है। तुम अगर भागे विचार से तो वह ध्यान के फूल खिलाने लगती है।

हविश को आ गया है गुल खिलाना

जरा ए जिंदगी! दामन बचाना।

जरा सावधान रहना! तुम्हारी तृष्णा बड़े-बड़े रूप रख लेती है। तृष्णा बड़ी बहुरूपिया है। तुम जैसा रूप चाहते हो वह वैसा ही रखकर नाचने लगती है। वह कहती है, चलो यही सही। लेकिन जब तक तुम उसको ठीक से पहचान न लोगे, उसके सब रूपों में, जब तुम एक बुनियादी बात न पहचान लोगे कि तृष्णा साधन और साध्य की दूरी है…फिर जहां भी साधन और साध्य की दूरी हो, समझना कि तृष्णा ने रूप धरा। सावधान हो जाना!

जरा ए जिंदगी! दामन बचाना!

…तब तुम सावधान हो जाना कि फिर आया भविष्य; कहीं से तृष्णा ने द्वार खटखटाया। फिर तुमने कहा, कल–तृष्णा आ गयी! फिर तुमने कहा, ऐसा हो जाये, ऐसा होता, और उसका तुम आयोजन करने लगे–बस तृष्णा आ गयी! जिस घड़ी तुम बैठे हो या चल रहे हो या उठे हो, खड़े हो, और उस घड़ी में कोई तृष्णा नहीं है–तुम बैठे हो तो बस बैठे हो आनंदित; खड़े हो तो खड़े हो आनंदित; चल रहे हो तो चल रहे आनंदित–जीवन के ये छोटे-छोटे कर्म भव्य हो जाते हैं।

झेन फकीर कहते हैं, जिसने साधारण में असाधारण को खोज लिया, उसी ने खोजा। जो असाधारण के चक्कर में लगा है, वह तो साधारण ही रह जायेगा। क्योंकि असाधारण का चक्कर तृष्णा का चक्कर है।

एक झेन फकीर से किसी ने पूछा कि जब तुम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए थे, तब तुम क्या करते थे? उसने कहा, लकड़ी काटता था, कुएं से पानी भरकर लाता था। और उसने पूछा, अब जब कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये हो, अब क्या करते हो? उसने कहा, अब भी लकड़ी काटता हूं, अब भी कुएं से पानी भरकर लाता हूं। तो उसने कहा, फिर फर्क क्या है? फर्क बहुत बड़ा है। पहले भी कुएं से पानी भरकर लाता था, लेकिन कुछ पाने की आकांक्षा थी उसके द्वारा; पहले भी लकड़ी काटता था, लेकिन वासना कहीं भविष्य में थी।

…अब भी लकड़ी काटता है, अब भी पानी भरकर लाता है–करोगे भी क्या? जीवन तो इन्हीं छोटी-छोटी चीजों से मिलकर बना है। लकड़ी भी काटोगे, पानी भी भरकर लाओगे, घर में बुहारी लगाओगे, खाना बनाओगे, कपड़े धोओगे, स्नान करोगे, भोजन करोगे, सोओगे, उठोगे, बैठोगे, चलोगे–जीवन इन्हीं छोटे-छोटे अणुओं से बना है।

लेकिन फर्क एक आ जायेगा।

कृत्य भव्य हो जाता है जब उसमें कोई तृष्णा नहीं होती। जैसे ही तृष्णा से छूटा कि कृत्य पवित्र हुआ।

लेकिन हम तो ऐसे उलझ गये हैं तृष्णा में कि कभी-कभी जहां उलझे हैं वहां से भाग भी खड़े होते हैं–तो और सब तो छोड़ जाते हैं लेकिन तृष्णा हमारे साथ चली जाती है।

ये न जाना था इस महफिल में दिल रह जायेगा

हम ये समझे थे चले आयेंगे दमभर देखकर।

लेकिन लगाव कुछ ऐसा बन जाता है कि दिल महफिल में रह जाता है और महफिल दिल में समा जाती है। फिर तुम भागते फिरते हो, लेकिन कुछ अंतर नहीं पड़ता। तुम जहां जाते हो फिर वहां एक संसार खड़ा हो जाता है, क्योंकि संसार का जो “ब्लू-प्रिंट’ है, उसका जो बुनियादी नक्शा है, वह तुम्हारी तृष्णा में है।

“वह अभव्य जीव नहीं जानता कि पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। धर्म अनन्यगत अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुःखों के क्षय का कारण होता है।’

“पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है।’ पुण्य की परिभाषा महावीर कर रहे हैं। दूसरे के साथ शुभ परिणाम का संबंध पुण्य है। अन्य के साथ शुभ परिणाम का संबंध पुण्य है।

तुमने किसी को दान दिया–एक संबंध निर्मित हुआ। लेकिन पुण्य का संबंध है–तुमने दिया! तुमने किसी से छीन लिया, चोरी की, तो फिर एक संबंध बना–तुमने किसी से छीना! दोनों अलग-अलग हैं। किसी को दिया–छीनने से बिलकुल उलटा है। छीनना देने से बिलकुल उलटा है। देना पुण्य है, तो छीनना पाप है।

लेकिन दोनों हालत में एक बात है समान–दूसरा मौजूद है। दिया तो दूसरे को, छीना तो दूसरे से। दूसरा तो है ही!

तो महावीर कहते हैं, पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। फिर धर्म क्या है? धर्म पाप और पुण्य से मुक्ति है–न दिया और न छीना। धर्म अनन्यगत, दूसरे से मुक्त हो जाना है।

“अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।’

ये महावीर के मूल आधार-सूत्र हैं, “स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम!’ ये उनके पारिभाषिक शब्द हैं।

जो अपने में ही रमण कर रहा है…….

तुम बैठे हो, कुछ भी नहीं कर रहे हो, सिर्फ बैठे हो: अपने में ही रमण हो रहा है! तुम अपने में ही डूबे हो, लीन हो, तल्लीन हो। मन कहीं जा ही नहीं रहा है। न भविष्य में जा रहा है, न दूसरे में जा रहा है। क्योंकि दूसरे में भी जाना भविष्य में जाना है। तुम दूसरे का कोई चिंतन ही नहीं कर रहे–सारा चिंतन रुक गया है। तुम विचार ही नहीं कर रहे हो, क्योंकि सभी विचार दूसरे के हैं। तुम सिर्फ हो!

यह स्व-द्रव्य में होना–तुम मात्र हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम कोई संबंध निर्मित नहीं कर रहे। तुम कोई सेतु नहीं बना रहे। दूसरे के पास जाने की कोई आकांक्षा नहीं। दूसरे से दूर जाने की भी कोई आकांक्षा नहीं। दूसरा तुम्हारी कल्पना के लोक में है ही नहीं। बस अकेले तुम अपने से भरे हो! अपने से भरपूर, लबालब, कहीं जाते हुए नहीं! तरंग भी नहीं, लहर भी नहीं। क्योंकि लहर भी कहीं जाती है। तुम बस यहीं हो। ऐसी घड़ी को महावीर कहते हैं धर्म।

लहर उठी–और अगर लहर दूसरे के हित में हुई तो पुण्य, अहित में हुई तो पाप। लहर ही न उठी, तुम स्व-द्रव्य में लीन बैठे रहे–तो धर्म। तो धर्म पुण्य और पाप के पार है।

जो पुण्य और पाप के पार है उसका भविष्य नहीं हो सकता। तुम अपने में तो बस अभी और यहीं हो सकते हो–यही वर्तमान के क्षण में। तुम अपनी आत्म-सत्ता का अनुभव कर सकते हो, क्योंकि सत्ता उपलब्ध ही है। उसके लिए कल तक रुकने की जरूरत नहीं; यह कहने की जरूरत नहीं कि कल अपने में प्रवेश करूंगा। हां, दूसरे में प्रवेश करना हो तो कल तक रुकना पड़ेगा; दूसरे को राजी करना होगा, समझाना-बुझाना पड़ेगा। लेकिन अपने में प्रवेश करना हो तो इसके लिए तो कल तक छोड़ने की जरूरत नहीं। इसके लिए तो कोई भी साधन जरूरी नहीं है। क्योंकि वहां तो तुम हो ही; सिर्फ थोड़ा विस्मरण हुआ है। स्मरण आते ही तुम अचानक पाते हो कि तुम सदा अपने घर में थे। यह अपने घर में होना धर्म है।

पाप तो बांधता ही है, पुण्य भी बांध लेता है। इसलिए महावीर कहते हैं, जिसने पुण्य को धर्म समझा, उसने अभी धर्म को नहीं समझा। उसने अपनी पाप की वृत्ति को ही सजा लिया, सुंदर बना लिया; लेकिन पाप को जाना नहीं कि पाप क्या था। पाप यही था कि अपने से बाहर चले गये थे। दूसरे की हत्या करने गये थे कि दूसरे को बचाने गये थे, दोनों बातें बराबर हैं। अपने से बाहर चले गये थे। वहीं मौलिक पाप हो गया।

सितम है ऐ रोशनी सितम है कि वह भी अब धूप की है जद में

जरा-सा साया जो रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में।

तुम बैठे हो छिपे, दरख्तों के नीचे, थोड़ी-सी छाया है, भरी दोपहरी में–लेकिन धीरे-धीरे धूप वहां भी पहुंच जाती है। धीरे-धीरे धूप उसे भी छीन लेती है।

सितम है ऐ रोशनी! सितम है कि वह भी है अब धूप की जद में–वह भी आ गया अब धूप के घेरे में–जरा-सा साया जो रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में।

तो पहले आदमी पाप से बचता है और पुण्य की छाया में बैठना चाहता है। लेकिन ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता है पुण्य भी पाप का ही विस्तार है। ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता है कि पुण्य भी सजायी हुई बेड़ी है, जंजीर है। जल्दी ही पता चलता है कि यह भी डूब गया पाप में।

जिस दिन पुण्य भी पाप जैसा दिखायी पड़ने लगता है, उस दिन व्यक्ति धर्म को उपलब्ध होता है।

महावीर की धर्म की परिभाषा बड़ी पराकाष्ठा की है, आत्यंतिक है; उससे ज्यादा शुद्ध परिभाषा खोजनी मुश्किल है।

“धर्म है अनन्यगत अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम और तब यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।’

वह तुम्हें सोचना नहीं है कि दुख क्षय हों या दुख के कारणों का क्षय हो। वह तो यथासमय हो जाता है। यह यथासमय की बात भी समझ लेनी चाहिए।

महावीर कहते हैं, हमने पाप किये जन्मों-जन्मों, बीज बोए, वृक्ष लगाए। यथासमय फल पकेंगे और गिर जायेंगे। उसमें जल्दी नहीं की जा सकती। इतना ही किया जा सकता है कि दुबारा बीज मत बोना। जो लग गए हैं फल वह तो पकेंगे और गिरेंगे–पककर ही गिरेंगे; परिपक्व होकर ही गिरेंगे।

उन्हें चुपचाप स्वीकार कर लेना। बड़ा दुख होगा, उसे स्वीकार कर लेना। उसी को महावीर तप कहते हैं। जो दुख हमने बोये थे और अब पक गए हैं, अब उन दुखों को हमें भोगना होगा। उन्हें चुपचाप भोग लेना। उनके प्रति कोई भी प्रतिक्रिया न करना। यह भी मत कहना कि यह बुरा है। उन्हें हटाने की कोशिश मत करना। उनसे बचने और भागने की कोशिश मत करना। क्योंकि तुम्हारी सब कोशिश विलंब करेगी।

तुम तो अहोभाव से स्वीकार कर लेना कि अहो, जो दुख बोये थे उनके फल पक गये और दुख भोगने का क्षण आ गया! धन्यभागी हूं, छुटकारा हुआ!

सद चाक हुआ गो जाम-एत्तन मजबूरी थी सीना ही पड़ा

मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा।

महावीर कहते हैं, जीना ऐसे जैसे कि मरने का वक्त तो तय है। तो क्या करें, जीना पड़ेगा! और जीवन के लिए व्यवस्था ऐसे ही जुटा लेना जैसे कि अब जीना है, फटे वस्त्र हैं तो सी लेता है आदमी। सद चाक हुआ गो जाम-एत्तन मजबूरी थी सीना ही पड़ा–हजार-हजार बार कपड़े फट गये; लेकिन मजबूरी थी, विवशता थी–सीना ही पड़ा। मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा।

चुपचाप, हर हाल उस समय तक प्रतीक्षा करनी होगी जब पाप के फल पक जाएं और गिर जाएं–यथासमय। महावीर कहते हैं, वह अपने-आप! जैसे फलों के पकने का समय है, मौसम है, ऐसे सारे जीवन के कर्मों के पकने का समय है। वह अपने-आप पक जाते हैं, तुम्हें उनकी चिंता नहीं करनी। तुम भविष्य की चिंता छोड़ो! तुम वर्तमान में, स्वयं में, स्व-परिणाम में लीन होना सीखो। धीरे-धीरे बाकी सब अपने से आप यथासमय हो जायेगा। उसका तुम्हें हिसाब भी नहीं रखना। जब पाप का फल आये और दुख हो, पीड़ा हो, तो उसे स्वीकार कर लेना। वही तप है।

“जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भी संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु अवश्य है। किंतु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।’

महावीर कहते हैं, शुभ है पुण्य की इच्छा करना; लेकिन है संसार की ही इच्छा। इसलिए पुण्य की इच्छा पर ही मत रुक जाना। पुण्य की इच्छा करना ताकि पाप से छुटकारा हो सके। एक कांटा लग जाए, दूसरे से निकाल लेते हैं–ऐसे ही पुण्य की इच्छा करना ताकि पाप निकल जाये। लेकिन जब एक कांटा निकल जाये तो दूसरे को घाव में मत रख लेना। दूसरा भी उतना ही कांटा है; माना कि पहले को निकालने में सहयोगी हुआ। धन्यवाद दे देना और दोनों को फेंक देना। पाप जब निकल जाये तो पुण्य को मत सम्हालने लगना; अन्यथा संसार ही सम्हाला जाता है।

“जो पुण्य की इच्छा करता है वह भी संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु है, किंतु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।’

इधर अंधेरे की लानते हैं, उधर उजाले की जहमतें हैं

तेरे मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में?

बड़ी कठिनाई है! इधर अंधेरे की लानते हैं–यहां अंधेरे की तकलीफें हैं। उधर उजाले की जहमतें हैं–उधर प्रकाश की भी झंझटें हैं। इधर पाप सताता है, उधर पुण्य भी सताता है। तेरे मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में? यह जो जिंदगी का मरुस्थल है, इस पर कहां विश्राम करें? इस जिंदगी के मरुस्थल में विश्राम की कोई जगह नहीं। विश्राम की जगह तो मुसाफिर के भीतर है। यहां बाहर बिस्तर लगाया तो भटके। यहां तो भीतर बिस्तर लगाना होगा। उस भीतर बिस्तर लगाने को महावीर कहते हैं, “अनन्यगत; स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम।’ लगा लिया भीतर बिस्तर!

देखा विष्णु को, सो रहे हैं क्षीर-सागर में! लगाया बिस्तर क्षीर-सागर में! कथा प्रीतिकर है!

क्षीर-सागर का अर्थ है: अमृत का सागर, जिसका कोई अंत नहीं आता। उस पर बिस्तर लगा है। और बिस्तर किसका है? शेषनाग का। उसने कुंडली मारी है।

नाग प्रतीक है तुम्हारी ऊर्जा का, कुंडलिनी का, तुम्हारे भीतर छिपी हुई ऊर्जा का। उसी ऊर्जा की कुंडली मारकर अनंत के सागर पर जो बिस्तर लगाकर लेट गया है…! लक्ष्मी उसके पैर दबाती है! सारे सुख उसके पैर दबाने लगते हैं। सब वैभव सहज ही उसे उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं कि वह उनकी चेष्टा करता है। जब तक चेष्टा है तब तक दुख ही पैर दबाता है। जब तक चेष्टा है, वासना है, तब तक पीड़ा ही हाथ आती है। जब तक मांगना है, तब तक परम संपदा नहीं मिलती।

यहां मांगने से भीख नहीं मिलती, परम संपदा कहां मिलेगी! परम संपदा मिलती है सम्राटों को, जिन्होंने भीतर के क्षीर-सागर पर अपनी ही ऊर्जा के शेषनाग की कुंडलिनियों पर विश्राम लगा दिया है, बिस्तर लगा दिया है।

नहीं, बाहर कोई जगह नहीं है इस जीवन के मरुस्थल में जहां विश्राम मिल सके। यहां तो दौड़ना ही दौड़ना होगा। यहां तो हर बिंदु जो विश्राम का मालूम पड़ता है, केवल नयी दौड़ का प्रारंभ सिद्ध होता है। सोचकर आते हैं कि अब, अब विश्राम का क्षण आया; पहुंचते-पहुंचते विश्राम का क्षितिज और आगे सरक जाता है।

वासना में कभी किसी ने विश्राम नहीं जाना। विश्राम वहां नहीं है। विराम वहां नहीं है, राम वहां नहीं है। विश्राम तो भीतर है जहां तृष्णा शून्य हो जाती है।

“अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो।’

इस वचन को गौर से सुनना।

“अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो। किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है, जो संसार में प्रविष्ट कराता है?’

पहले महावीर कहते हैं, अशुभ कर्म को कुशील, शुभ कर्म को सुशील जानो। तत्क्षण दूसरे वाक्य में खंडन करते हैं। कहते हैं, किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है? तर्क से भरी हुई बुद्धि को लगेगा, यह क्या मामला है! यह तो वक्तव्य तत्क्षण विपरीत हो गया। एक वाक्य पहले ही कहा कि अशुभ को कुशील, शुभ को सुशील जानो–और फिर कहते हैं कि सुशील कैसे जाना जा सकता है शुभ को, क्योंकि वह संसार में प्रवेश कराता है!

यह दो तलों के लोगों के लिए कहा गया वक्तव्य है। महावीर जैसे व्यक्तियों के वक्तव्यों में अगर असंगति मिले तो इतना ही समझना कि वह वक्तव्य कई तलों पर दिये गये हैं। पहले वे कह रहे हैं उससे, जो पाप में रत है। उससे वे कह रहे हैं कि अशुभ कर्म को कुशील जान, शुभ कर्म को सुशील। फिर जब वह पाप से मुक्त हो गया है, तो वे उससे कहते हैं, “लेकिन सुन! उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है? यह भी सुशील नहीं है। यह तो कामचलाऊ बात थी, व्यवहारिक थी।

महावीर ने कहा है, वक्तव्य उनके दो आधारों पर हैं–व्यवहारिक-नय और निश्चय-नय। एक वक्तव्य ऐसा है जो व्यवहारिक है। एक कांटे को दूसरे कांटे से निकालना है; इसलिए वे कहते हैं, यह कांटा बड़ा शुभ है, इससे तुम लगे हुए कांटे को निकाल लो। जब कांटा निकल जाता है तब वे निश्चय वक्तव्य देते हैं। वे कहते हैं, अब दोनों कांटों को फेंक दो क्योंकि कोई कांटा सुशील कैसे हो सकता है! कांटा तो दुशील ही है, कुशील ही है।

तो महावीर की सारी वाणी दो तलों पर है। एक तल है जहां तुम खड़े हो, तुमसे बोल रहे हैं। और दूसरा तल है जब तुम उनकी सुन लोगे, समझ लोगे, मान लोगे, तब तत्क्षण वे तुमसे कहेंगे, अब इस कांटे को पकड़कर पूजा मत करने लगना।

पुण्य अच्छा है कामचलाऊ दृष्टि से; क्योंकि पाप से छुटकारा दिलाने में सहयोगी है। लेकिन इसको पकड़कर मत बैठ जाना। पुण्य ही तुम्हारे जीवन की अंतिम दिशा न बन जाये। अन्यथा बीमारी से छूटे, औषधि से पकड़ गये। औषधि शुभ है, बीमारी से छुटा देने को; लेकिन औषधि की पूजा मत करना। पुण्य के गुणगान मत गाना।

लेकिन यही होता है। एक आदमी जरा-सा दान कर देता है तो उसकी चर्चा करता है। न केवल चर्चा करता है, आयोजन करता है कि लोग जानें कि इसने दान किया; अखबार में खबर छपे, फोटो छपे कि इसने दान किया!

महावीर कहते हैं, दान किया, यह तो ऐसा ही था कि पाप किया था, उसका प्रक्षालन किया; पाप किया था, उसका पश्चात्ताप किया–इसमें शोरगुल क्या मचा रहे हो? किसी आदमी को टी. बी. हो गयी थी, उसने दवा ली, ठीक हो गया–तो वह कोई अखबारों में खबर देने जाता है कि देखो, मैं कैसा महापुरुष, कि दवा ली और ठीक हो गया! तो हम उसे पागल कहेंगे।

महावीर कहते हैं, खूब पाप किया है, थोड़ा-थोड़ा पुण्य करके उसे छांटते हो, तो इसमें शोरगुल मचाने की कोई जरूरत नहीं। तो वास्तविक पुण्यात्मा व्यक्ति तो ऐसे करेगा पुण्य कि एक हाथ से करे और दूसरे हाथ को पता न चले। चुपचाप करेगा। पता ही नहीं चले किसी को; क्योंकि पुण्य तो पश्चात्ताप है, इसमें पता चलाने जैसा क्या है? वह तो मजबूरी से कर रहा है कि खूब पाप किए हैं, अब उनको धोना है; खूब गंदगी इकट्ठी कर ली है, अब स्नान करना है। तो तुम स्नान-घर अपना मकान के सामने थोड़े ही बनाते हो–कि खड़े हैं बीच सड़क पर और स्नान कर रहे हैं; कि सारा गांव देख ले कि कैसे स्वच्छ हो रहे हैं! स्नान-घर में तो तुम छिपकर चुपचाप स्नान कर लेते हो। तुम्हारा पुण्य का गृह भी ऐसा ही छुपा होना चाहिए। क्योंकि अगर तुमने इससे प्रशंसा पायी तो यह एक नया उपद्रव बन जायेगा। तो फिर तुम प्रशंसा पाने का जो मजा है उसके लिए पुण्य करने लगोगे। फिर भव्य न रहे, अभव्य हो गए।

तो पुण्य को जो चुपचाप करे वही भव्य है। पुण्य की जो घोषणा करके करे वह अभव्य है। लेकिन हम तो पुण्य करते ही इसलिए हैं ताकि घोषणा हो। हम तो पुण्य करने के लिए राजी ही इसीलिए होते हैं, पुण्य के लिए थोड़े ही, घोषणा के लिए।

जो लोग दान इकट्ठा करते हैं वे भलीभांति जानते हैं। वे गांव के दो-चार धनी-मानी व्यक्तियों से पहले लिस्ट पर नाम लिखवा लाते हैं। वे कहते हैं, न देना आप दस हजार, देना हजार; लेकिन लिख तो दो दस हजार, ताकि दूसरे लोगों को देखकर लगे कि फलां ने दस हजार दिये, जब ईष्या जगे, स्पर्धा पैदा हो: “अच्छा तो यह अपने को समझता क्या है! दस हजार दिये तो लिखो ग्यारह हजार!’

दान के लिए भी अहंकार को ही फुसलाना पड़ता है। पुण्य के लिए भी बीमारी को ही खुजलाना पड़ता है। फिर जब दान हो जाए तो दानी प्रतीक्षा करता है: अब प्रतिफल! शोभाऱ्यात्रा निकले। बैंड-बाजे बजें! सारे गांव में चर्चा हो! दूर-दूरदिगंत तक उसकी खबर पहुंचे!

एक सज्जन मुझे मिलने आये थे। पत्नी भी साथ थी। तो पत्नी ने मुझसे कहा कि शायद आपको मेरे पति का परिचय नहीं है। पत्नी मुझे एक-दो बार आकर मिल गयी थी। मैंने कहा कि ये पहली दफे आये हैं। उसने कहा, “ये बड़े दानी हैं। एक लाख रुपया अब तक दान कर चुके हैं।’

पति ने तत्क्षण पत्नी का पैर दबाया और कहा, “एक लाख नहीं एक लाख दस हजार!’ वह दस हजार भी कम बोल रही है तो पति को कष्ट हो गया; सुधार किया।

दानी दान से मान इकट्ठा नहीं कर सकता। दानी मानी नहीं हो सकता। क्योंकि जो मानी है वह दानी कैसे हो सकेगा?

तो महावीर कहते हैं, “अशुभ कर्म को कुशील और शुभ को सुशील जानो किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट करा दे?’ नहीं वह भी कुशील है अंततः। अगर पाप की दृष्टि से सोचो तो पुण्य सुशील है। अगर मोक्ष की दृष्टि से सोचो तो पुण्य कुशील है!

इसलिए महावीर के सभी वक्तव्य दृष्टि-वक्तव्य हैं। इसको महावीर की परिभाषा में “नय’ कहते हैं–देखने का एक ढंग। महावीर कहते हैं, कोई भी वक्तव्य निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है।

तुम कहते हो, फलां आदमी बहुत लंबा। इसका कोई मतलब नहीं होता, क्योंकि कोई ऊंट से लंबा नहीं होगा, पहाड़ से लंबा नहीं होगा, झाड़ से लंबा नहीं होगा। तुम जब कहते हो फलां आदमी लंबा, तो तुम मानकर चलते हो कि आदमी की एक सामान्य ऊंचाई है, छह फीट, वह सात फीट है। लेकिन पहाड़ के नीचे है।

कहते हैं, ऊंट पहाड़ के पास जाने से डरते हैं। डरते होंगे, क्योंकि जब रेगिस्तान में चलते रहते हैं तो वही पहाड़ है। जब पहाड़ करीब आने लगता है तो दीनता प्रगट होती है।

हमारे सभी वक्तव्य सापेक्ष हैं। एक दृष्टि से ठीक होंगे, तत्क्षण दूसरी दृष्टि से गलत हो जायेंगे।

आइंस्टीन ने तो बहुत बाद में, ढाई हजार साल बाद महावीर के, विज्ञान के जगत में सापेक्षता का नियम सिद्ध किया। पर महावीर ने ढाई हजार साल पहले धर्म के जगत में वही नियम सिद्ध किया था।

महावीर और आइंस्टीन बड़े एक साथ खड़े हैं। जो दान महावीर का धर्म के जगत में है, वही दान आइंस्टीन का विज्ञान के जगत में है। आइंस्टीन ने डांवांडोल कर दिया विज्ञान का सारा जगत। सारी चीजें सापेक्ष हो गयीं। निरपेक्ष कोई वक्तव्य न रहा। कोई ऐसा वक्तव्य नहीं है जो तुम बिना किसी शर्त के कह सको। सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है।

महावीर ने भी कहा, सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है। इसलिए इसमें तुम विरोध मत देखना और विसंगति मत देखना। यह दो दृष्टियों से कही गयी बात है।

कितनी ही चेष्टा करो, पुण्य के द्वारा तुम्हारा परम रूप प्रगट न हो सकेगा। पुण्य बीच की मंजिल हो सकती है। पाप से हटकर थोड़ी देर पुण्य में विश्राम कर लेना–लेकिन जाना है मोक्ष।

ये मय छलक के भी उस हुस्न को पहुंच न सकी

ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका।

पुण्य को कितना ही छलकाओ, पुण्य को कितना ही प्रदर्शित करो, इससे तुम्हारा भव्य रूप प्रगट न होगा। शुभ रूप प्रगट होगा, भव्य रूप नहीं क्योंकि भव्य तो शुभ से भी उतना ही दूर है जितना शुभ अशुभ से दूर है। भव्य तो बड़ा लोकतीत है।

ये मय छलक के भी उस हुस्न को पहुंच न सकी

ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका।

वह जो तुम्हारा परम सौंदर्य है, जो अंतसादर्य है, उसको पुण्य भी नहीं छू सकता। क्योंकि पुण्य भी कृत्य है। कृत्य कितना ही बड़ा हो, आत्मा से छोटा होता है। कृत्य कितना ही बड़ा हो, कर्ता से छोटा होता है। तुमने जो किया है वह तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। करनेवाला सदा ही बड़ा है।

यह बड़ा मूलभूत दृष्टिकोण है कि कर्ता कृत्य से बड़ा है। जिस जीवन की ऊर्जा से छोटी-छोटी लहरें पुण्य की उठती हैं, वे लहरें उस जीवन-ऊर्जा से बड़ी नहीं हो सकतीं। सागर में कितनी ही बड़ी लहर उठती हो, सागर से बड़ी नहीं हो सकती।

तुम सोच सकते हो सागर में ऐसी कोई लहर कभी उठ सकती है जो सागर से बड़ी हो? असंभव! कितनी ही बड़ी लहर उठे, एक बात तय रहेगी कि सागर से छोटी रहेगी। अब तुम कोई चाय की प्याली में थोड़े ही सागर की लहर उठा सकते हो। चाय की प्याली में चाय की प्याली की ही लहर उठेगी। वह चाय की प्याली से छोटी रहेगी।

महावीर कहते हैं कि जो हमारी अंतरात्मा है वह विराट है। कृत्य तो छोटी-छोटी तरंगें हैं। उन छोटी-छोटी तरंगों को तुम सब कुछ मत मान लेना। वे पुण्य की भी हों तरंगें तो भी तुम्हारे परम सौंदर्य को न छू पायेंगी। और कितने ही पुण्य के फूल खिलते जाएं तो भी तुम्हारे परम सौंदर्य के सामने चरणों में चढ़ाने के योग्य भी न हो पायेंगे।

इस संसार में तो हम जो भी करते हैं वह कृत्य है। पुण्य करें, पाप करें; अच्छा करें, बुरा करें–जो भी हम बाहर करते हैं वह कृत्य है। जो भीतर बैठा है, करने के पार, साक्षी–वह इस संसार का हिस्सा नहीं है।

वही है हमारा परम सौंदर्य। वही है मुक्ति, मोक्ष।

मेरी रंगतें न निखर सकीं, मेरी निहकतें न बिखर सकीं

मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा।

तुम कितनी ही लाख चेष्टाएं करो, तुम्हारे कृत्यों के कारण तुम्हारा रंग न निखरेगा। पाप से तो निखरेगा ही कैसे! और कालिख लग जायेगी। पुण्य से भी न निखरेगा। कितना ही सोना चढ़ा लो अपने ऊपर, तो भी न निखरेगा।

मेरी रंगतें न निखर सकीं, मेरी निहकतें न बिखर सकीं

और न तुम्हारी सुगंध बिखर सकेगी तुम्हारे कृत्यों से। क्योंकि तुम अपने कृत्यों से बहुत बड़े हो।

मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा।

तुम्हारी शिकायत बनी ही रहेगी–तुम कितने ही बुरे कर्म करो; तुम नादिर हो जाओ, चंगेज हो जाओ, तैमूर, हिटलर हो जाओ; या तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो। तुम सम्राट अशोक हो जाओ कि सम्राट वू हो जाओ; तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो तो भी तुम्हारा अंतिम निखार कृत्य से आनेवाला नहीं है।

तुम कृत्य से बड़े हो। ऐसे लहरों को निखार-निखारकर कहीं सागर निखरेगा?

सागर तो निखरेगा साक्षी-भाव में। सागर तो निखरेगा अनन्य भाव से स्व-द्रव्य में लीन हो जाने से।

उपनिषदों में बड़े बहुमूल्य वक्तव्य हैं: “यो वै भूमा तत्सुख’–विशाल में है सुख। विराट में है सुख। “नाल्पे सुखमस्ति’–लघु में सुख कहां! छोटे में सुख कहां! “भूमैव सुख’–निश्चय ही विराट में ही सुख है। “भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्यः।’ इसलिए उस एक विराट को ही जानने को आकांक्षा कर। विराट! जहां कोई सीमा नहीं, जिसकी कोई परिभाषा नहीं!

महावीर कहते हैं, वह विराट तुम्हारे भीतर छुपा है। तुम्हारे कृत्य तो छोटी-छोटी ऊर्मियां हैं–शुभ और अशुभ–लेकिन सभी ऊर्मियां हैं। दूसरे के किनारे की तरफ चल पड़ती हैं। जब सागर में कोई ऊर्मि नहीं होती तो सागर बे-किनारा होता है, क्योंकि किनारे की तरफ कुछ भी नहीं जा रहा है। जब सागर में कोई ऊर्मियां नहीं होतीं तो सागर किनारे से टूटा होता है–तटहीन। तब सागर विराट होता है।

“यो वै भूमा तत्सुख’–विराट में सुख है। “नाल्पे सुखमस्ति’–छोटे में कहां सुख! “भूमैव सुख’–विराट को खोज, विराट में ही सुख है।

“बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियां बांधती हैं। इस प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बांधते हैं…।’

महावीर कहते हैं, बेड़ी सोने की या लोहे की, दोनों बांध लेती हैं। तुम इससे प्रसन्न मत हो जाना कि तुम कारागृह में बड़े खास कैदी हो। तुम्हारे हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; दूसरे साधारण कैदी हैं, लोहे से बंधे हैं–इससे तुम बहुत ज्यादा प्रसन्न मत हो जाना। भिखारी बंधा होगा लोहे की जंजीरों में, सम्राट बंधा है सोने की जंजीरों में। लेकिन असली सवाल तो बंधे होने का है। तो जो बुरा कर्म करता है, वह भी बंधा हुआ है। पापी तो बंधा ही होता है, पुण्यात्मा भी बंधा होता है। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि पुण्यात्मा पापी से भी ज्यादा बंधा होता है। क्योंकि पापी तो लोहे की बेड़ियां छोड़ना चाहता है; पुण्यात्मा सोने की बेड़ियां बचाना चाहता है।

तो कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि अपराधी भी छूटने को उत्सुक होता है, लेकिन साधु छूटने को उत्सुक नहीं होता। क्योंकि उससे तुम कैसे छूटने को उत्सुक होओगे जिससे बड़ा सुख मिल रहा है और जिसके कारण बड़ा सम्मान मिल रहा है; जिसके कारण अहंकार भरता है, फलता-फूलता है!

तो कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि वे लोग अभागे हैं जिनके हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; वे उनको बचाने लगते हैं; वे उनको आभूषण समझने लगते हैं।

“अतः परमार्थतः दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग। क्योंकि कुशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है।’

और स्वाधीनता महावीर के लिए परम मूल्य है–अल्टीमेट वैल्यू! उसके पार कुछ भी नहीं। जब तुम परिपूर्ण स्वाधीन हो, जब तुम्हारी स्वाधीनता पर कोई सीमा नहीं, जब तुम्हारी स्वाधीनता पर कोई बाधा नहीं, अनवरुद्ध तुम्हारी स्वतंत्रता है–तभी तुम विराट हो, तभी तुम भूमा हो। तब तुम छोटे न रहे। और स्वतंत्रता तो दोनों से ही नष्ट हो जाती है। इसलिए न पाप को पकड़ना न पुण्य को; न संसार को पकड़ना, न त्याग को। संसार को मत पकड़ना, संन्यास को मत पकड़ना। संसार छोड़ने के लिए संन्यास का उपयोग कर लेना, बस। फिर उससे भी पार हो जाना।

यहां कारागृह से थक जाना तो जरूरी है; जिसको हम घर कहते हैं, अपना घर कहते हैं, आशियां कहते हैं–उससे भी थक जाना जरूरी है।

वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ

तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम।

अगर कोई गौर से देखे उथल-पुथल आंधियों की, तो तुम कारागृह से थोड़े ही थकोगे, घर से भी थक जाओगे।

वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ

तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम।

तब तुम जिंदगी के घर से भी थक जाओगे। जहां सुरक्षा मिलती है, शरण मिलती है, उससे भी थक जाओगे। जहां सहारा मिलता है, आसरा मिलता है, उससे भी थक जाओगे। शत्रु से तो थकोगे ही, मित्र से भी थक जाओगे। पराये से तो थकोगे ही अपने से भी थक जाओगे; क्योंकि वस्तुतः तो अपना भी पराया है।

तथापि, फिर महावीर कहते हैं, “परमार्थतः दोनों प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर उनसे राग न करना चाहिए। क्योंकि उनका संसर्ग…कुशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है।’

“तथापि, व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नर्कादि के दुख उठाना ठीक नहीं। क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं बेहतर, कहीं अच्छा है।’

महावीर जब कह रहे हैं कि छोड़ दो सब–पुण्य भी, पाप भी–तब तत्क्षण उन्हें खयाल आया होगा कि आदमी बड़ा बेईमान है। उससे कहो, छोड़ दो पुण्य भी, पाप भी, तो पाप तो शायद न छोड़ेगा, पुण्य छोड़ देगा। वह कहेगा, बिलकुल ठीक! अभी मैंने कहा कि छोड़ दो संसार, छोड़ दो संन्यास! तुम में से कई के मन में उठा होगा: अरे, यह तो बिलकुल बेहतर, तो छोड़ दो संन्यास!

हम अपने मतलब की सुन लेते हैं।

एक मित्र ने संन्यास लिया और मुझसे पूछा कि “अंततः तो सब छोड़ ही देना है?’ मैंने कहा, “अभी तुम लिये भी नहीं, अभी लेने को आये हो, अभी जल्दी मत करो।’ पर उन्होंने कहा, अगर अंततः छोड़ ही देना है तो लेने से सार क्या? माना कि औषधि अंततः छोड़ देनी होगी–लेकिन तब जब बीमारी जा चुकी हो। तुम यह तो नहीं कहते चिकित्सक को कि औषधि लेने से फायदा क्या, अंततः तो छोड़ ही देनी है! अगर न लोगे तो बीमारी में अटके रह जाओगे। औषधि तो लेनी होगी और छोड़नी भी होगी। सीढ़ियां चढ़नी भी होंगी और छोड़नी भी होंगी। तुमने कहा, जब छोड़ ही देनी है तो चढ़ना क्या, तो फिर तुम नीचे ही रह जाओगे।

महावीर को तत्क्षण खयाल उठा होगा, यह जो मैंने कहा कि पाप भी छोड़ दो, पुण्य भी छोड़ दो, क्योंकि दोनों बंधन हैं–तो शायद आदमी चोरी तो नहीं छोड़ेगा, दान करना छोड़ देगा: “क्या फायदा! इतना ही बंधन काफी है चोरी का ही, अब और दान का बंधन क्यों सिर पर लेना! संसार का बंधन ही काफी है, अब संन्यास का बंधन और क्यों सिर पर लेना! एक ही बंधन बहुत है–हाथ में लोहे की जंजीरें पड़ी हैं, अब सोने की और क्या डालना!’

तो महावीर को तत्क्षण कहना पड़ा, “व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नर्कादि के दुख उठाना ठीक नहीं…।’

औषधि कड़वी भी हो तो भी उसका कड़वापन झेल लेना उचित है। क्योंकि उसके बिना फिर बीमारी का नर्क है।

“…क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहने कहीं अच्छा है।’

संन्यास की एक छाया है। आत्यंतिक छाया नहीं, आखिरी छाया नहीं–आखिरी छाया तो आत्मा की है। संन्यास की एक सुरक्षा है; अंतिम सुरक्षा नहीं, बीच का पड़ाव है। लंबी यात्रा में बीच में पड़ी धर्मशाला है। वहां विश्राम करके सुबह चल पड़ना। लेकिन यह मत सोचना कि जब सुबह चल ही पड़ना है तो रात विश्राम क्या करना, चलते ही रहो! तो फिर तुम ज्यादा न चल पाओगे। तो फिर तुम बहुत दूर न पहुंच पाओगे।

महावीर जैसे व्यक्तियों को निरंतर एक अड़चन खड़ी रहती है: जब भी वे बोलते हैं तो एक तो वे बोलते हैं जो उन्हें लगता है ठीक है, और तत्क्षण उन्हें तुम्हारा भी ध्यान रखना पड़ता है, तब वे वह भी बोलते हैं जो तुम कहीं गलत न समझ लो। तो वे कहते हैं, “कोई फिक्र मत करना। कहा मैंने, माना कि सोने की जंजीर है पुण्य, लेकिन अभी जल्दी मत करना; पहले लोहे की जंजीर को सोने से बदल लेना। इतना तो करो! सोने की जंजीर थोड़ी हलकी होगी; लोहे की जंजीर जैसी भारी न होगी। सोने की जंजीर थोड़ी प्रीतिकर होगी। तुम उतने कुरूप न मालूम पड़ोगे जितने लोहे की जंजीर में मालूम पड़ते थे।’

संसार को थोड़ा बदलो संन्यास में। और जो दूसरा आत्यंतिक वक्तव्य है–पारमार्थिक चरम–वह तभी सार्थक है जब संन्यास फल जाए। जब पहला कांटा निकल जाए और दूसरा कांटा व्यर्थ हो जाए, तब उसे फेंक देना।

जीवन को ऐसे गुजारो जैसे पिछले किये हुए कर्मों का फल है। तटस्थता से, बड़ी दूरी के भाव से, उपेक्षा से, बिना प्रतिक्रिया किये, बिना छोटी-छोटी बातों में उलझे–ऐसे गुजर जाओ जैसे राह की धूल जब गुजरते हो तो पड़ती है। जब राह से चलते हो कुत्ते भी भौंकते हैं; जब राह से चलते हो, धूप भी पड़ती है–सबको तुम गुजार देते हो। जन्मों-जन्मों तक जो निर्मित किया है उसे धीरे-धीरे इसी तरह छोड़ने का उपाय–उपेक्षा! दुख आये तो उसे भी ठहर जाने देना। उसके साथ भी शत्रुता मत बांधना। न हो, ऐसा मत कहना।

है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम

रह-रहके पूछते हैं यह उम्रे-रवां से हम।

साधक यही पूछता रहता है अपने भीतर: “और, और कितनी यात्रा है?’ अपनी जाती हुई, उम्र से पूछता है: “और कितना, और कितना?’ लेकिन जो घटता है, उसे स्वीकार कर लेता है। जो घटता है, उसे स्वीकार करके बैठ नहीं जाता। जो घटता है, उसे स्वीकार कर लेता है और यात्रा जारी रखता है।

है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम–और भीतर खयाल रखता है कि तेरा अंतिम लक्ष्य और कितनी दूर है? रह-रहके पूछते हैं यह उम्रे-रवां से हम–जाती हुई उम्र से पूछता रहता है कि और कितनी दूर है? और अपने को सम्हाले रखता है। विषाद में नहीं गिरने देता।

ऐ शमा! सुबह होती है रोती है किसलिए

थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे।

जैसे सुबह होने के करीब है, रात गहरी अंधेरी हो जाती है। सुबह होने के करीब रात सर्वाधिक अंधेरी हो जाती है। वह सुबह होने की खबर है।

इसलिए जिस व्यक्ति का मोक्ष और निर्वाण करीब आ रहा है, उसके दुख बड़े सघन हो जाते हैं। सभी फल अनंत-अनंत जन्मों के इकट्ठे पकने लगते हैं। यथासमय! आ गई घड़ी।

महावीर बड़ी बुरी तरह बीमार हुए। बुद्ध का शरीर भी विषाक्त हो गया था। रामकृष्ण कैंसर से विदा हुए; रमण भी।

बहुतों के मन में सवाल उठता है कि क्यों ऐसे सदपुरुष, और क्यों ऐसा दुखद अंत?

हमें समझ में नहीं आता है। हमें जीवन के गणित का पता नहीं है। जिनकी आखिरी घड़ी करीब आ गयी है, तो जन्मों-जन्मों के, अनंत-अनंत फल शीघ्रता से पकने शुरू हो जाते हैं, क्योंकि वे विदा होंगे जब, पूरी तरह से विदा होंगे, फिर दुबारा उनका आना नहीं है–तो सारा निपटारा, सारा कर्मक्षय त्वरा से होता है, तीव्रता से होता है। सब तरह की पीड़ाएं जिनको अब तक दबाकर बैठे रहे थे, उभरकर सामने आती हैं। और आ जाना जरूरी है। वह न केवल पुराने कर्मों का फल है बल्कि भविष्य की तैयारी भी। उनको वे कितनी शांति से देख लेते हैं, कितने सहज भाव से उनको गुजर जाने देते हैं–उससे उनकी अंतिम तैयारी होती है; अंतिम पाथेय निर्मित होता है।

ऐ शमा! सुबह होती है रोती है किसलिए

थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे।

संसार को छोड़ना है, क्योंकि संसार में जो वसंत दिखायी पड़ता है वह झूठा है, इसलिए संसार को छोड़ते वक्त व्यक्ति के जीवन में सारे फूल गिर जायेंगे, पतझड़ हो जायेगी; पत्ते भी गिर जायेंगे; रूखे, नंगे वृक्ष खड़े रह जायेंगे। लेकिन यह कोई अंतिम अवस्था नहीं है। यह भी बीच का ही पड़ाव है। जिसने इस पतझड़ को भी पूरे भाव से स्वीकार कर लिया, उसके भीतर फिर एक और तरह का वसंत उठता है जिसकी कोई पतझड़ नहीं। जिसने इस पतझड़ को भी पूरे आत्मभाव से अंगीकार कर लिया, स्वागत से, और जरा भी ना-नुच न की, इनकार न किया–तप यही अर्थ रखता है–तो उसके जीवन में फिर फूल खिलते हैं। वे फूल विराट के हैं! वे फूल परम सागर के हैं, परम सत्य के हैं।

इन्हीं बजते हुए पत्तों से गुलशन फूट निकलेंगे

बहारों का यह मातम सिर्फ अंजामे-खिजां तक है।

तो तुम ऐसा मत देखना कि त्यागी दुखी है। ऊपर से शायद दिखायी भी पड़े। तुम ऐसा मत सोचना कि त्यागी दुखवादी है। ऊपर से शायद दिखायी भी पड़े। क्योंकि तुम जिसे सुख मानते हो उसे वह छोड़ रहा है, तो तुम्हें लगेगा दुखवादी है। लेकिन त्यागी दुखवादी नहीं है। त्यागी ही परम भोग की तरफ जा रहा है। क्योंकि जिसे तुम सुख कहते हो वह सुख नहीं है। जिसे तुम दुख कहते हो वह दुख नहीं है। जिसे तुम सुख कहते हो वह केवल तुम्हारी आकांक्षा है, आशा है, तृष्णा है।

हविश को आ गया है गुल खिलाना,

जरा ए जिंदगी! दामन बचाना।

जिसे तुम सुख कहते हो वह तो केवल हविश है; वह तो एक तृष्णा है, जो कभी भरती नहीं, दुष्पूर है। और जिसे तुम दुख कहते हो, वह तुम्हारे अतीत में चाहे गए सुखों के फल हैं।

तो त्यागी वह है जो तुम्हारे सुख को सुख नहीं देखता, सिर्फ तुम्हारा सपना मानता है; और तुम्हारे दुख को वास्तविक मानता है, क्योंकि वह अतीत जन्मों में किये गये कर्मों का फल है। तो तुम्हारे सुख को तो वह बिलकुल छोड़ देता है, क्योंकि कल्पना को छोड़ने में देर क्या लगती है! कल्पना ही है, छोड़ने को कुछ है भी नहीं। कल्पना ही छोड़नी है; थी ही नहीं, सिर्फ विचार था। तो तुम्हारे सुख को तो तत्क्षण छोड़ देता है।

जो तुम्हारे सुख को छोड़ देता है, वही संन्यासी है। लेकिन दुख को इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। क्योंकि दुख अब कल्पना नहीं है। तुम्हारी अनंत-अनंत कल्पनाओं ने जो घाव तुम पर छोड़ दिये हैं, दुख उनका नाम है। तो दुख को वह स्वीकार करता है।

कल्पना का त्याग संन्यास; दुख का स्वीकार संन्यास। सुख तो यूं छूट जाता है क्योंकि सुख है कहां? छोड़नेऱ्योग्य कुछ है ही नहीं, मुट्ठी खाली है।

दो पागल बात कर रहे थे–पागलखाने में बैठे। एक पागल ने मुट्ठी बांध ली तो उसने कहा कि अनुमान लगाओ, मेरी मुट्ठी में क्या है? तो पहले पागल ने कहा कि कुछ थोड़े संकेत तो दो। उसने कहा, कोई संकेत नहीं। तीन मौके तुम्हें। तो पहले पागल ने कहा कि हवाई जहाज। दूसरे पागल ने कहा कि नहीं। तो पहले पागल ने कहा, हाथी। तो दूसरे पागल ने कहा, नहीं। तो पहले पागल ने कहा, रेलगाड़ी। तो उसने कहा, ठहर भाई, जरा मुझे देख लेने दे। उसने धीरे-से अपनी मुट्ठी खोलकर देखा और कहा कि मालूम होता है तूने झांक लिया।

वहां कुछ है नहीं! न रेलगाड़ी है, न हवाई जहाज, न हाथी है। मुट्ठी खोलने पर मुट्ठी खाली है। अगर मुट्ठी में कुछ है तो वह सिर्फ पागलपन के कारण है। वह पागलपन की धारणा है।

तो तुम्हारे सुख को छोड़ने में तो क्षणभर की देर नहीं लगती। सुख है ही नहीं। मुट्ठी खाली है।

इसलिए तो लोग मुट्ठी खोलकर नहीं देखते कि कहीं पता न चल जाये कि कुछ भी नहीं है। मुट्ठी बांधे रहो! कहते हैं, बंधी लाख की! मैं भी मानता हूं: बंधी लाख की, खुली खाक की! क्योंकि है ही नहीं कुछ वहां। बंधी है, इसलिए लाख मालूम होते हैं। बांधे रखो मुट्ठी, तिजोड़ी पर ताले डाले रखो। खोलकर मत देखना, अन्यथा खाली हाथ पाओगे।

तो सुख तो यूं ही छोड़ा जा सकता है। तत्क्षण छोड़ा जा सकता है। जरा-सा साक्षी-भाव–सुख गया! लेकिन दुख? दुख थोड़ा समय लेगा। अनंत-अनंत जन्मों में वह जो गलत-गलत धारणाओं के घाव छूट गये हैं, लकीरें छूट गयी हैं…।

तो सुख का त्याग और दुख का स्वीकार–यही महावीर का संन्यास है। और इस संन्यास का जो परम फल है, वह अपने आप घटता है। वह परम फल निर्वाण है। वह परम फल सुख नहीं है, पुण्य नहीं है, स्वर्ग नहीं है। वह परम फल मोक्ष है, परम स्वतंत्रता है।

स्वतंत्रता का इतना बड़ा उपदेष्टा कभी नहीं हुआ। और भी स्वतंत्रता की बात करनेवाले लोग हुए हैं; लेकिन महावीर की स्वतंत्रता के साथ ऐसी पकड़ है, ऐसी गहरी पकड़ है कि स्वतंत्रता को बचाने के लिए वे परमात्मा तक को स्वतंत्रता की वेदी पर आहुति दे देते हैं। लेकिन स्वतंत्रता की आहुति परमात्मा की वेदी पर नहीं देते। वे कहते हैं, परमात्मा रहेगा तो स्वतंत्रता पूरी न रहेगी। इसलिए परमात्मा नहीं है। स्वतंत्रता परिपूर्ण है। और इस परम स्वतंत्रता को पा लेने की ही सारी दौड़, सारी यात्रा, सारा धर्म, जन्मों-जन्मों के भटकाव!

कैसे इसे हम पायें?

धीरे-धीरे तुम स्वतंत्रता के सूत्रों को अपने जीवन में जगह देने लगो। जो-जो बांधता हो, उस-उससे जागने लगो। पहले पाप से जागोगे, क्योंकि वह बांधता है, इस बीच के उपाय में पुण्य का सहारा ले लेना। कहीं तो हाथ रखने के लिए जगह चाहिए। पाप से हटोगे तो पुण्य की भूमि चाहिए। उस पर खड़े हो जाना। लेकिन उस पर इतनी ज्यादा देर खड़े मत रहना कि फिर वहां घर बना लो। जैसे ही पाप समाप्त हो जाएं, पुण्य से भी छलांग लगा जाना। तब सब किनारे खो जाते हैं।

“यो वै भूमा तत्सुख’–और तब है सुख विराट में। “नाल्पे सुखमस्ति’–लघु में सुख कहां! “भूमैव सुख’–उस भूमा में ही सुख है।

उस भूमा की ही हम जिज्ञासा करें, उस भूमा को ही हम खोजें! वह भूमा हममें छुपा है। वह स्वतंत्रता हमारा स्वभाव है।

आज इतना ही।


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जिन सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–24

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मांग नहीं—अहोभाव, अहोगीत—प्रवचन—चौबीसवां

प्रश्‍न सार:

1—बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है

हम नहीं आए यहां कोई हमें लाया है

किसने नन्हा-सा मुहब्बत का ये जला के दिया

दिले-वीरां के अंधेरे पे तरस खाया है।

पर दीया तो जलता नजर नहीं आता…?

2—भगवान, तुम्‍हारे चरणों में शत—शत प्रणाम !

3—कल जिस क्षण आपने कहा कि महावीर ने स्‍वाधीनता को आत्‍यंतिक मूल्‍य दिया, उस क्षण मैं आपको निहारता ही रहा। क्‍या कर दिया आपने?

4—मुझे इतना कुछ मिल रहा था कि अंतर में समाता नहीं—और प्‍यास भी इतनी ही है।…… प्रभु ! यह सब क्‍या हो रहा है?

पहला प्रश्न:

बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है

हम नहीं आए यहां कोई हमें लाया है

किसने नन्हा-सा मुहब्बत का ये जला के दिया

दिले-वीरां के अंधेरे पे तरस खाया है।

पर दीया तो जलता नजर नहीं आता…?

कविता उधार है। किसी और का दीया जला होगा, उसने गायी है। अपने काव्य को जन्माना होगा।

दीया तो सभी का जल सकता है। दीया है तो जलने के लिए है। दीया है तो जलने की संभावना है। लेकिन कोई दूसरा तुम्हारा दीया जला नहीं सकता। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है। तुम न जलाना चाहो तो दीया जलाया नहीं जा सकता और तुम जलाना चाहो तो कोई तुम्हें रोक न सकेगा। तुमने चाहा नहीं है कि दीया जले। अभी अंधेरे में तुम्हारे बड़े लगाव हैं।

अकसर मैं लोगों को देखता हूं। वे चाहते हैं, अंधेरा भी बना रहे और दीया भी जल जाये। ऐसी उलझन है। क्योंकि अंधेरे में बड़े स्वार्थ हैं।

जैसे एक आदमी चोरी करने गया हो, तो कई बार टकरा जाये, दीवाल-दरवाजे से ठोकर खा जाये, तो सोचने लगे मन में कि दीया होता तो ठीक था–लेकिन दीया हो और रोशनी हो जाये तो चोरी न कर सकेगा। तो अगर कोई कहे कि यह रहा दीया, ले लो तो वह कहेगा, पागल तो नहीं समझा है मुझे?

तो तुम्हारी दिक्कत यह है कि तुम्हारा जीवन दोहरा है। एक तरफ अंधेरा है, अंधेरे में लगा स्वार्थ है। दूसरी तरफ अंधेरे की तकलीफें हैं। दीये का खयाल पैदा होता है। जब तक तुम अंधेरे के स्वार्थ न तोड़ लोगे, तब तक तुम दीया जला न सकोगे। यह सीधा गणित है। तो दीये जलाने की तो फिक्र छोड़ो, पहले यह देख लो कि “अंधेरे में हमारा स्वार्थ है? हम अंधेरे को चाहते हैं कि बना रहे? अंधेरे से कुछ मिलने की आशा है? अंधेरे में मन को लगाया है? भविष्य को अंधेरे में छिपाया है, सपने देखे हैं?’ अगर अंधेरे से कुछ भी मिलने का, कहीं भी थोड़ा-सा खयाल है तो तुम दीया कैसे जलने दोगे? कोई जला भी दे तो उसे बुझा दोगे। जो दीया जलाये वह दुश्मन मालूम होगा।

अंधेरे में तुम्हारा बड़ा न्यस्त स्वार्थ है।

इसलिए दीया नहीं जल रहा है। तुम्हारे अंधेरे पर कोई कितना ही तरस खाये, तो भी अगर तुम अंधेरे में रहना चाहते हो तो इस तरस से कुछ भी न होगा।

महावीर आते हैं, बुद्ध आते हैं, कृष्ण आते हैं, क्राइस्ट आते हैं। तरस की कुछ कमी नहीं है। करुणा बड़ी है। महाकरुणा के स्रोत आते हैं। स्वयं सूर्य तुम्हारे द्वार पर आकर दस्तक देते हैं। लेकिन तुम अपने अंधेरे में छिपे बैठे हो। तुम सोचते हो कि प्रकाश भी जल जाये। लेकिन कभी तुमने भीतर का द्वंद्व देखा? कि प्रकाश के जलने के साथ ही अंधेरे के सभी स्वार्थ नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगे। तो अंधेरे से पाने की तुमने जो-जो आशाएं बांधी हैं, वह सभी धूल-धूसरित हो जायेंगी। उस अंधेरे से भरी आशाओं को ही तो हम संसार कहते हैं।

तो जब तक संसार में थोड़ा भी ऐसा लग रहा है कि कुछ मिल सकता है, मिलेगा–तब तक तुम स्थगित करोगे, दीये को जलने न दोगे। तब तक तुम रोशनी से डरोगे। अगर रोशनी आ जाये तो तुम पीठ कर लोगे। तुम हजार तर्क, विचार खोज लोगे रोशनी से बचने के। तुम कहोगे, यह तो रोशनी आंखों को तिलमिलाती है, कि यह रोशनी तो हमारी सारी व्यवस्था को डगमगाये देती है, कि यह रोशनी तो असुरक्षित कर देगी। हम भले, हमारा अंधेरा भला!

लेकिन बेईमानी ऐसी है कि तुम अगर इसे भी साफ देख लो तो भी रास्ता बन जाये। तुम साफ कह दो कि “हम अंधेरे में ही जीयेंगे! बंद करो प्रकाश की बातचीत! हमें कुछ लेना-देना नहीं है।’ लेकिन तुम उतने ईमानदार भी नहीं हो।

जब कोई प्रकाश की बात करता है तो तुम इतने स्पष्ट भी नहीं हो कि कह सको कि “बंद! यह बात से हमें कुछ लेना-देना नहीं है। हम अंधेरे में जीना चाहते हैं और अंधेरे में ही जीयेंगे। और अंधेरा हमारा सुख है।’

यह भी तुम नहीं कह पाते। तुम यह भी दिखलाना चाहते हो कि तुम प्रकाश के प्रेमी हो। तुम यह भी दिखलाना चाहते हो कि तुम शुभ के पक्षपाती हो।

एक बहरा आदमी रोज सुबह चर्च जाता था। रविवार को वह सबसे पहले पहुंच जाता था और पहली पंक्ति में बैठता था। वह बज्र बधिर था। उसे न तो प्रवचन में कुछ सुनायी पड़ता न समझ में आता। न संगीत चर्च में होता, वह उसको सुनायी पड़ता। एक दिन एक आदमी ने पूछा कि “तुम इतने जल्दी आते किसलिए हो? रोज तुम चर्च चले आते हो, मीलों चलकर। तुम्हें कुछ सुनायी तो पड़ता नहीं। न तुम संगीत सुन सकते हो, न तुम प्रवचन सुन सकते हो, तो तुम आते किसलिए हो?’

वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा कि मैं जतलाने आता हूं कि सारी दुनिया देख ले कि मैं किस पक्ष में हूं। और परमात्मा भी नोट कर ले कि मैं कोई सांसारिक आदमी नहीं हूं। धार्मिक हूं!

तो तुम यह मोह भी नहीं छोड़ पाते कि तुम धार्मिक हो। धर्म के साथ बड़ी प्रतिष्ठा जुड़ी है। धर्म के साथ बड़ा बल जुड़ा है, प्रभुत्व जुड़ा है। वस्तुतः तुम जितने बेईमान होते हो उतने ही धार्मिक दिखलाने की चेष्टा करते हो। क्योंकि बेईमानी को छिपाने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं। प्रकाश की आकांक्षा करके अंधेरे को ढांकते हो, छिपाते हो।

तुम्हारे प्रकाश की आकांक्षा अंधेरे के विपरीत नहीं है–अंधेरे को छिपाने का उपाय और व्यवस्था है।

तुम प्रकाश का खूब शोरगुल मचाते हो, आंसू बहाते हो, चिल्लाते हो, “प्रकाश चाहिए’, ताकि सारी दुनिया देख ले कि अगर अंधेरा है तो तुम जिम्मेवार नहीं हो। तुम तो प्रकाश का कितना गुणगान कर रहे हो।

बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है, जगत में बड़ी अजीब विडंबना है: यहां जो आदमी जितना अनैतिक होगा, उतनी ही नीति की चर्चा करेगा। क्योंकि नीति की चर्चा से वह एक हवा पैदा करता है, जिससे पता चल जाये कि और कोई हो अनैतिक, मैं तो कम से कम नहीं हूं।

यहां अभी किसी की जेब कट जाये तो जो आदमी जेब काटे, अगर उसमें थोड़ी भी अकल हो तो उसको बड़ा शोरगुल मचाना चाहिए कि जेब कट गयी, पकड़ो चोर को। दौड़-धूप करनी चाहिए। एक बात निश्चित है, उसको कोई भी न पकड़ेगा। क्योंकि उसने अगर चोरी की होती और जेब काटी होता तो वह तो भाग गया होता। वह तो यहां बीच में खड़ा रहेगा। वह तो चोरी के खिलाफ बोलने लगेगा।

दो आदमी मछली मार रहे थे। और तभी उस सरोवर का निरीक्षक आ गया। एक आदमी भाग खड़ा हुआ। तो वह उसके पीछे भागा। कोई दो मील जाकर हांफतेऱ्हांफते उसको पकड़ पाया। और जब पकड़ पाया तो उसने जल्दी से खीसे से निकालकर लाइसेंस बता दिया। उसको मछली मारने का हक था। तो उस आदमी ने कहा कि “अरे नासमझ! तो फिर भागा क्यों?’ तो उसने कहा कि इसीलिए कि दूसरे के पास लाइसेंस नहीं है।

लोग बड़ी होशियारी से चल रहे हैं।

तुम प्रकाश की खूब बातचीत करते हो ताकि एक बात तो निश्चित हो जाये कि तुम प्रकाश के आकांक्षी, अभीप्सु! तो तुम्हें कोई सोच भी न सकेगा कि तुम और अंधेरे का व्यवसाय करते होओगे। आसानी से लोग फंस जायेंगे तुम्हारे व्यवसाय में। तुम जेबें ज्यादा सुगमता से काट सकोगे। बेईमान होने के लिए धार्मिक होना जरूरी है। दुकान ठीक चलानी हो तो मंदिर जाना जरूरी है। मंदिर जाना दुकान के ठीक चलने का हिस्सा है। दुकानदार भी खाते-बही लिखता है तो ऊपर लिखता है, “श्री गणेशाय नमः’ “लाभ-शुभ।’ ईश्वर का स्मरण करके किताब बाजार की शुरू करता है। ईश्वर का स्मरण–उस किताब में सहयोगी होने को! वह यह कह रहा है, “बाधा मत डालना। हम तो तुम्हारे भक्त हैं!’

जैसा मैं देखता हूं, सैकड़ों लोग चाहते हैं ध्यान! लेकिन ध्यान जिन शर्तों से घट सकता है, वह शर्तें पूरी करने को राजी नहीं। कोई शर्त पूरी करने को राजी नहीं। सिर्फ बेशर्त, मुफ्त! और मैं तुमसे कहता हूं कि अगर यह संभव होता कि ध्यान मुफ्त दिया जा सकता–चूंकि संभव नहीं है, इसलिए तुम मजे से मांगते रहते हो। कोई खतरा नहीं है–अगर यह संभव होता कि ध्यान मैं तुम्हें उठाकर दे देता, तो मैं जानता हूं तुम मांगते भी नहीं। तुम भागते। तुम कहते, “अभी नहीं! अभी बच्चे बड़े हो रहे हैं। अभी थोड़ा और जीवन को सम्हाल लेने दो। अभी ध्यान! अभी नहीं!’ क्योंकि ध्यान कहीं सब अस्त-व्यस्त न कर दे! और ध्यान महाक्रांति है, अस्त-व्यस्त तो करेगा।

तुम जैसे हो, तुमने उसी ढंग की दुनिया अपने चारों तरफ बना ली है। तुम्हारे चारों तरफ तुम्हारी दुनिया है। तुम बदलोगे, तुम्हारी दुनिया गिर जायेगी। क्योंकि वह आदमी ही बीच से हट गया जिसकी दुनिया थी। वह केंद्र गिर गया जिसके सहारे चाक घूमता था। एक नयी दुनिया निर्मित होगी।

तो अगर तुम धन की दौड़ में लगे हो तो तुम ध्यान न कर सकोगे।

एक बड़े राजनीतिज्ञ मेरे पास आते थे। वह मुझसे कहते, कुछ शांति का उपाय बताइए। मैंने कहा, अशांति तुम करते हो, शांति का उपाय मुझसे पूछते हो? छोड़ो महत्वाकांक्षा! महत्वाकांक्षा से तो अशांति पैदा होगी। जहां भी रहोगे, पीड़ित और परेशान रहोगे। जहां भी रहोगे, असंतुष्ट रहोगे। शांति कैसे होगी?

उन्होंने कहा कि आप वह मत कहिये, मैं तो आपके पास इसीलिए आया कि थोड़ी शांति हो तो थोड़ा ढंग से प्रतिस्पर्धा कर सकूं। अशांति के कारण प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा हूं। रात नींद नहीं आती। बेचैनी रहती है। तो मुझसे पीछे आनेवाले लोग मुख्यमंत्री हो गये और मैं मंत्री-पद पर ही अटका हूं। जितनी दौड़-ध्ूप वे लोग कर लेते हैं, मैं नहीं कर पाता। इसीलिए तो आपके चरणों में आया हूं कि थोड़ी शांति दो, ताकि दौड़-धूप ठीक से कर सकूं।

अब मतलब समझे? वे शांति चाहते हैं ताकि ठीक से अशांत हो सकें। और अशांति को छोड़ने की तैयारी नहीं है। शांति की मांग भी अशांति को ही चलाये रखने के लिए है।

तो मैंने उनसे कहा कि फिर कहीं और जाओ, क्योंकि असंभव मैं न कर सकूंगा। शांत तुम्हें कोई भी नहीं कर सकता, जब तक तुम न समझ लो कि अशांत करने के उपाय बंद करने होंगे। जहां-जहां से अशांति आती है, वहां-वहां से हाथ खींच लेना होगा। शांति के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता–सिर्फ अशांति से हाथ खींच लेते ही शांति निर्मित हो जाती है। शांति तो अशांति का अभाव है। शांति के लिए सीधा कुछ भी नहीं करना है।

तुमने अंधेरे में अपनी बड़ी आकांक्षाएं जोड़ रखी हैं, उनको हटा लो! दीया तो जल जायेगा। दीया तो जलने को तत्पर है, प्रतिपल तत्पर है, क्योंकि दीया जलने के लिए है। दीया तो जलने की संभावना लेकर आया है और रो रहा है। तुम्हारे दीये से टपकते आंसू मैं देखता हूं कि कब जलाओगे, क्या मुझे ऐसे ही बुझा-बुझा ही विदा कर दोगे? क्योंकि ऐसे ही बहुत जन्मों में तुमने उसे विदा कर दिया। जन्म मिला, लेकिन जीवन न मिला।

जन्म के साथ ही जीवन थोड़े ही मिलता है! जन्म तो केवल संभावना है। जीवन अर्जित करना होता है। जरूरी नहीं है कि तुम जन्म गये तो तुमने जीवन पा लिया हो। जन्म के साथ तो बुझा दीया मिलता है। फिर उसे जलाना पड़ता है।

गहन संघर्ष से जीवन की ज्योति प्रगट होती है। जैसे दो लकड़ियों के घर्षण से आग पैदा हो जाती है, दो पत्थरों के घर्षण से आग पैदा हो जाती है–ऐसे तुम जब जीवन की सारी चुनौतियों से संघर्ष लेते हो, तब तुम्हारे भीतर का दीया जलता है। और कोई उपाय नहीं है। उधार जल नहीं सकता।

यह कविता किसी और की है। और जरूरी नहीं कि जिसने गायी हो उसका भी दीया जला हो। क्योंकि अकसर तो ऐसा होता है, लोग कविताएं गाकर सोच लेते हैं कि जल गया दीया। जिनके जीवन में प्रेम नहीं है, वे प्रेम के गीत गाकर सांत्वना कर लेते हैं।

मैं बहुत कवियों को जानता हूं। तुम्हारी और उनकी परेशानी में मैंने जरा भी भेद नहीं पाया। शायद तुमसे बदतर उनकी परेशानी है। फर्क है तो इतना कि वे सपने सजाने में कुशल हैं। तुम इतने कुशल नहीं हो सपनों को रंग देने में। वे इतने कुशल हैं कि बुझे दीये को भी जले दीये की तरह मानकर जी सकते हैं, गीत गुनगुना सकते हैं।

अकसर ऐसा होता है: जो तुम्हारे पास नहीं है उसकी सांत्वना तुम अनेक रूपों से अपने पास जुटा लेते हो। प्रेम जिसके पास नहीं है, वह प्रेम के बहुत गीत गाकर धीरे-धीरे भरोसा कर लेता है कि प्रेम हो गया। यह बड़ी विडंबना है। प्रेम के गीत जितने लोगों ने गाये हैं उनमें से निन्यानबे ने प्रेम को जाना ही न था। जो नहीं जान पाए जीवन में, जो यथार्थतः न घट पाया, उसे उन्होंने सपनों में घटा लिया। सपने परिपूरक हैं।

आधुनिक मनोविज्ञान इस सत्य को स्वीकार करता है कि सपने परिपूरक हैं। जो तुम जीवन में नहीं कर पाते हो वह तुम सपने में करके अपने को समझा लेते हो। दिन में उपवास करो, रात सपने में भोजन कर लोगे। दिन में ब्रह्मचर्य साधो, रात सपने में सुंदर स्त्रियां, सुंदर पुरुष तुम्हारे आसपास नाचने लगेंगे। तुम्हारे ऋषि-मुनियों के आसपास अप्सराएं यूं ही नहीं नाची थीं। कोई वस्तुतः अप्सराएं कहीं से आती नहीं। किस इंद्र को पड़ी है? कहां कौन इंद्र है? वह तो ऋषि-मुनि ने ही जो दबा लिया था, दमन कर लिया था; वह जिसको प्रगट नहीं किया था जीवन में–वह सन्नाटे में रात के, तंद्रा के क्षण में, निद्रा के क्षण में प्रगट होने लगा। और अगर बहुत दबाया तो आंख बंद करने की भी जरूरत नहीं, अप्सरा खुली आंख प्रगट हो जायेगी। यह निर्भर करता है कि तुमने दमन कितना गहरा किया। अगर दमन बहुत गहरा कर लिया। इतना गहरा कर लिया कि अब दमन को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। तो खुली आंख भी तुम सपने देखने लगोगे। खुली आंख और बंद आंख में दमन की गहराई का ही फर्क है। तुम बंद आंख से देखते हो। तुमने पागल आदमी देखे? वे खुली आंख से देख रहे हैं।

एक पागलखाने में एक आदमी दावा करता था कि वह ईश्वर का भेजा हुआ पैगंबर है। जिस मुसलमान खलीफा ने उसे कैदखाने में डलवा दिया था, वह उससे मिलने आया। कहा था कि तीन सप्ताह तू फिर से सोच ले। वह जब उससे मिलने आया तो वह एक खंभे से बंधा था। उसको कोड़े मारे गये थे, तीन सप्ताह भूखा रखा गया था। और जब उसने उस आदमी से पूछा कि क्या खयाल है, क्या अब भी तेरा खयाल है कि तुझे परमात्मा ने पैगंबर बनाकर भेजा है, इसके पहले कि वह बोले, एक दूसरा आदमी जो दूसरे खंभे से बंधा था, उसने कहा, “इसकी बातों में मत पड़ना, मैंने इसे कभी भेजा ही नहीं! यह सरासर झूठा है।’ लेकिन जो पैगंबर की तरह बंधा था, उसने क्या कहा? वह मुस्कुराया। उसने कहा, “यह तो लिखा ही है शास्त्रों में कि उसके पैगंबरों को सदा तकलीफें झेलनी पड़ेंगी। तुम्हारे कोड़ों से कुछ भी सिद्ध नहीं होता है–इतना ही सिद्ध होता है कि शास्त्र सही हैं।’

पागल आदमी का अर्थ क्या होता है? इतना ही कि जिसने अब खुली आंख सपने देखने शुरू कर दिये; जो अपने सपनों में भरोसा करने लगा है–इतना कि यथार्थ झूठा पड़ जाता है, सपने ज्यादा सच मालूम होते हैं।

तो तुम्हारे कवि और पागलों में कोई बहुत अंतर नहीं होता है। कवि थोड़े कुशल पागल हैं, जिनके पास कुछ प्रतिभा है; सुंदर गीत रच सकते हैं, कि सुंदर चित्र बना सकते हैं। अकसर तो तुम कवियों के पास मत जाना–उनके गीत का सौंदर्य देखकर, अन्यथा वहां एक कुरूप आदमी पाओगे। गीत को सुन लेना। गीत में बड़ा सौंदर्य हो सकता है। कभी-कभी तो बड़ी आकाश की ऊंचाई कवि छू लेते हैं।

सपनों को बाधा क्या है? सपनों को कोई सीमा नहीं है। जहां तक सपना देखना हो, देख सकते हो। न पहाड़ रोकते हैं, न आकाश रोकते हैं। लेकिन सपने तुम जो देखते हो वह खबर देते हैं कि जिस चीज की कमी रह गयी, उसको सपने में पूरा कर रहे हो। भिखमंगा सपने देखता है सम्राट होने के। और अकसर सम्राटों ने भिखमंगे होने के सपने देखे। देखे ही नहीं, पूरे किये। महावीर, बुद्ध सम्राट थे। लेकिन भिखारी होने का सपना पैदा हो गया। न केवल सपना देखा, उसे पूरा किया।

भिखारी सम्राट होने के सपने देखते हैं। जो नहीं हो रहा है, जो नहीं है पास उसको सपने में देखना पड़ता है।

तो जरूरी नहीं है कि जिसने ये पंक्तियां लिखी हों…ये पंक्तियां प्यारी हैं, सार्थक हैं।

बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है

हम नहीं आये यहां कोई हमें लाया है।

खयाल तो दुरुस्त है। लेकिन यह खयाल ही नहीं है, यह सत्य है। तुम यहां आये कहां? कोई लाया है। तुमने न तो आने का निर्णय किया था, न तुमने आने की आकांक्षा की थी। न तुमसे किसी ने पूछा था कि तुम संसार जाना चाहते, जीवन में उतरना चाहते? कोई तुम्हें उतार गया है। एक दिन अचानक तुमने जागकर पाया कि तुम यहां हो। हमने सदा अपने को जिंदगी के बीच में पाया है। जिंदगी के प्रारंभ में तो किसी ने नहीं पाया। जरूर कोई लाया है। कोई आंख पर पट्टियां बांधकर इस बगीचे में छोड़ गया है।

बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है।

हम नहीं आये यहां, कोई हमें लाया है।

और अगर यह खयाल ही रहा तो ज्यादा देर न टिकेगा, चला जायेगा। खयाल आते हैं, जाते हैं। खयाल बसते थोड़े ही हैं! खयाल का कोई बड़ा भरोसा थोड़े ही है! जब तक कि यह खयाल ध्यान न बन जाये, तब तक इस पर भरोसा मत करना। यह तो आयी है तरंग, चली जायेगी। अभी आयी है, अभी भूल जाओगे। क्षणभर में उतर जायेगा खयाल।

जिस दिन यह खयाल ध्यान बन जाये, यह तुम्हारी स्थिर चित्त की भाव-दशा बन जाये कि कोई लाया है–क्या परिणाम होंगे? परिणाम बड़े दूरगामी होंगे। अगर कोई लाया है तो तुम्हारे अहंकार के लिए कोई जगह न रह जायेगी। जन्म किसी ने दिया, जीवन किसी ने दिया। तुम क्यों अकड़े फिरते हो? तुम नाहक बोझ ढो रहे हो इस “मैं’ का। न तुम आये, न तुम हो, न तुम जाओगे। कोई लाया, कोई रखे है, कोई ले जायेगा।

हिंदू पुराण बड़ी मधुर कथा कहते हैं। जो लाया वह ब्रह्मा। जो सम्हाले वह विष्णु। जो ले जायेगा वह शिव। तुम पर कुछ छोड़ते नहीं। काम ही नहीं छोड़ते कुछ। ब्रह्मा ले आया है, विष्णु सम्हाले हैं, शिव ले जायेंगे। मतलब केवल इतना है कि विराट ने तुम में एक तरंग ली है।

वही विराट जब चाहेगा तो तरंग समा जायेगी।

तुम अपने को बीच में मत लाओ। जब इतनी विराट चीजें भी तुम्हारे बिना हो गयीं, तो तुम छोटी-छोटी बातों का हिसाब मत रखो कि मैंने मकान बनाया है। जब तुमने अपने को ही नहीं बनाया है तो तुम मकान भी क्या बनाओगे? यह तो जिसने तुम्हें बनाया है, उसी ने बनवा लिया होगा। उसी ने तुमसे यह मकान भी बनवा लिया होगा।

एक कहानी मैं पढ़ रहा था। एक नास्तिक बोल रहा था। ईश्वर के विपरीत प्रमाण दे रहा था। और अंततः उसने बड़े नाटकीय ढंग से घूंसा मारकर टेबल पर कहा कि अगर ईश्वर हो तो मैं चुनौती देता हूं, इसी वक्त अपने किसी देवदूत को भेजो ताकि मुझे एक चांटा मारे–चांटा सुना जा सके, देखा जा सके। ऐसे कोई देवदूत तो आते नहीं, ईश्वर ऐसी चुनौतियां लेता नहीं। ऐसा ले तो मुश्किल में पड़ जाये। इतने लोग हैं, इतनी चुनौतियां हैं! लेकिन एक आदमी बीच में से उठा, उसने आकर एक चांटा मारा। उसने कहा, यह क्या करते हो? उसने कहा कि ईश्वर ने मुझे भेजा है। ईश्वर ने कहा कि तुम इस योग्य नहीं कि देवदूत भेजे जायें, मैं ही काफी हूं।

मकान तुमसे बनवा लेता है। दुकान तुमसे चलवा लेता है। काम तुमसे हजार करवा लेता है। लेकिन तुमको ही जब उसने बनाया–और तुम्हारी नियति में, तुम्हारी प्रकृति में बीज डाले वासनाओं के, इच्छाओं के। उन्हीं इच्छाओं के बीजों का फिर रूपांतरण होता है, वृक्ष बनते हैं।

तुम जरा पक्षियों को देखो? उन्होंने तो कोई आर्किटेक्चर का कोई शिक्षण नहीं लिया। कैसे प्यारे घोंसले बना लेते हैं! ऐसे भी पक्षी हैं कि उनको जन्म देने के बाद माता और पिता तो उड़ जाते हैं। अंडा ही छोड़कर उड़ जाते हैं। अंडा बाद में फूटता है। तो पक्षियों को अपने मां-बाप से मिलने का मौका भी नहीं आता। इसलिए शिक्षण का कोई उपाय भी नहीं है, कोई स्कूल नहीं। लेकिन जब वे पक्षी बड़े होते हैं, फिर घोंसला बनाते हैं। और घोंसला ठीक वैसा ही होता है जैसा उनके मां-बाप ने बनाया था। वे भी उड़ जायेंगे अंडे को रखकर। अंडा फूटेगा तब मां-बाप पास न होंगे। पुनः सदियों-सदियों अनंत काल तक ऐसा सिलसिला चलता रहेगा।

वैज्ञानिक बड़े चकित थे कि यह घोंसला बन कैसे जाता है! और घोंसला कोई छोटी प्रक्रिया नहीं है। एक पक्षी का घोंसला उतारकर बनाने की कोशिश करो। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। तिनकों से, धागों से, पंखों से पक्षी ऐसे सुंदर घोंसले बनाते हैं। कभी-कभी तो बड़े जटिल घोंसले बनाते हैं।

कोई बनवा लेता है! जिसने पक्षियों को बनाया है, उसी ने शायद पक्षियों के द्वारा घोंसले बनाने की योजना भी उनके भीतर कर रखी है। बिना शिक्षण के करवा लेता है।

तुम कहते हो मैंने प्रेम किया, कि मैं एक स्त्री के प्रेम में गिर गया। यह तुमने किया? या कि जिसने तुम्हें जन्म दिया, उसने ही यह प्रेम भी तुम्हें दिया?

जीवन को थोड़ा परखो! फिर से छानो! फिर से विश्लेषण करो! तुम पाओगे: कोई करवा रहा है।

यह खयाल तो बड़ा अच्छा है अगर ध्यान बन जाये। और ध्यान से मेरा अर्थ है, अगर यह खयाल स्थिर भाव बन जाये, तुम्हारा बोध बन जाये।

बैठे-बैठे दिले-नादां ये खयाल आया है,

हम नहीं आये यहां, कोई हमें लाया है!

इतने पर ही सारा धर्म पूरा हो जाता है–अगर तुम्हें ये समझ में आ जाये कि कोई हमें लाया है; कोई हमें ले जायेगा; कोई हमारे भीतर श्वास ले रहा है; कोई हमारे भीतर जी रहा है। तो तुम अकर्ता भाव को उपलब्ध हो गये। फिर तुम कर्ता नहीं हो।

और जब तुम कर्ता नहीं हो तो तुम्हारी सारी जीवन-ऊर्जा साक्षी बन जायेगी। कर्ता में नियोजित है जीवन-ऊर्जा, करने में लगी है। अगर करने से तुम्हारा हाथ अलग हो जाये ऐसा नहीं कि कर्म बंद हो जायेगा; कर्म तो चलेगा–और सुडौल चलेगा; और शुभ चलेगा। भूल-चूक कम हो जायेगी, क्योंकि तुम्हारे कारण जो बाधा पड़ती थी वह भी मिट जायेगी। अबाध उसकी धारा तुमसे बहने लगेगी। कर्म तो चलता रहेगा। वह तो उस चलानेवाले पर है। वह तो पूर्ण पर है। लेकिन तुम, तुम्हारी ऊर्जा बचेगी। वही ऊर्जा संगृहीत होकर साक्षी-भाव बनती है। वही ऊर्जा समाधि बनती है।

किसने नन्हा-सा मुहब्बत का ये जलाकर दिया

दिले-वीरां के अंधेरे पे तरस खाया है।

और वही ऊर्जा, वही समाधि दीया बनेगी। वही जलेगी तो तुम प्रकाशित होओगे। जब तक ध्यान की ज्योति न जले भीतर, तुम प्रकाशित न हो सकोगे। और ध्यान की ज्योति बाहर से भीतर नहीं डाली जा सकती–अंतर्तम में ही खिलती है।

जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं तो वृक्ष में रसधार बहती है–उसी रसधार के आखिरी छोर पर रंगीन फूलों का जन्म होता है। ऐसे ही तुम्हारे जीवन के वृक्ष में रसधार बह रही है। वही रसधार जब ध्यान की तरह पकती है, समाधि के फूल खिलते हैं। तब तुम्हारे भीतर दीया जलेगा।

कविताओं को गुनगुनाकर भूल में मत पड़ जाना। कविताएं प्यारी हैं। लेकिन जब तुम्हारा जीवन का काव्य निर्मित होगा तब तुम पाओगे: सब कविताएं फीकी हैं।

जिस दिन तुम्हारा जीवन गीत गुनगुनाएगा, उस दिन तुम पाओगे: सब कविताएं कूड़ा-कर्कट हैं।

और घबड़ाना मत!

दीया अगर बुझा है तो इसे इस तरह देखना कि यह जलने के लिए प्रतीक्षा है। बुझे को निराशा मत बना लेना। ऐसा मत सोचना: “अब क्या करें? अंधेरा सघन है। दीया बुझा है।’ हाथ-पैर रोककर गिर मत पड़ना। थक मत जाना!

हम जिसको मौत समझते हैं पैगामे-हयाते-जदीद है वोह

ये फूल चमन में जितने हैं, फिर खिलने को मुर्झाते हैं।

जिसको हम मौत कहते हैं, वह भी मौत नहीं। वह भी नये जीवन का संदेश है।

हम जिसको मौत समझते हैं, पैगामे-हयाते-जदीद है वोह

ये फूल चमन में जितने हैं, फिर खिलने को मुर्झाते हैं।

जो फूल मुर्झा गया, उसमें तुम नये खिलनेवाले फूल की छवि देखना। यहां सब फिर से खिलने को मुर्झाता है। अगर दीया बुझा है तो जलने को ही प्रतीक्षा कर रहा है कि जले।

इसे निराश होने का कारण मत बना लेना। वस्तुतः यही तो आशा की किरण है, कि तुम्हारा दीया अभी बुझा है। जल सकता है। कुछ होने को बाकी है। यही तो आशा की किरण है कि सब हो नहीं गया है। जो हुआ है वह क्षुद्र है। जो नहीं हुआ है वह विराट है। वह विराट अभी प्रतीक्षा कर रहा है। वह होने को है। यही तो जीवन की संभावना, उत्फुल्लता है, प्रसाद है, कि कुछ होने को है।

तो पैर में तुम घूंघर बांध सकते हो और नाच सकते हो। और जो होने को है वह सबसे बड़ा है। जो हो चुका है, जो हुआ है जन्म, जो हुआ है देह का मिलना, जो हुआ है धन-संपत्ति, पद-प्रतिष्ठा–वह सब छोटा है। जो होने को है–ध्यान, समाधि, मोक्ष–वह विराट है। जो हुआ है वह ना-कुछ है। जो होने को है वह सब कुछ है। इसे आशा का संचार समझना। इसे समझना जीवन का संदेश।

और एक बार तुम्हारे भीतर आशा पैदा हो जाये और तुम निराश न रह जाओ, हताश न बैठ जाओ, तुम्हारी जीवन ऊर्जा उठ बैठे, आशा से भरपूर–तो रसधार बहने लगी! फूल खिलेंगे! दीये भी जलेंगे।

यह तेरा तसव्वुर है या तेरी तमन्नाएं

दिल में कोई रह-रहके दीपक-से जलाए है।

यह तेरा तसव्वुर है या तेरी तमन्नाएं

दिल में कोई रह रहके दीपके-से जलाए है।

जरा तुम्हारे भीतर आशा उठे तो उसका तसव्वुर, उसकी तमन्ना, उसकी खोज के लिए पैर आगे बढ़ने लगे। उसकी खोज करनी है जिसने तुम्हें भेजा है। उसकी खोज करनी है जहां से तुम आये हो। अगर हिंदुओं की भाषा का उपयोग करना हो तो कहो: उसकी खोज करनी है, जिसने तुम्हें भेजा है। अगर जैनों की भाषा का उपयोग करना है तो कहो: उसकी खोज करनी है, जहां से तुम आये हो। मूल-स्रोत की! जीवन के मूल-बिंदु की, जहां से सारा विस्तार हुआ है।

जरा-सा भी तुम्हारे भीतर उसकी खोज का अंकुर पड़ जाये–दिल में कोई रह-रहकर दीपक-से जलाए है। तो पल-पल दीये पर दीये, दीयों की पंक्तियां, दीप-मालाएं जल उठेंगी। तुम्हारा रास्ता ज्योतिर्मय हो जायेगा।

लेकिन इस ज्योतिर्मय के पहले जोखिम उठानी पड़ेगी। अगर जोखिम न उठायी तो कवि रह जाओगे; अगर जोखिम उठायी तो ऋषि हो जाओगे। जोखिम उठानी पड़ेगी। जोखिम है उस सब को खोने की, जो अंधेरे में ही मिलता है–और अंधेरे में ही मिल सकता है। अंधेरे के सारे के सारे व्यवसाय को खोने की जोखिम शर्त है–दीये के जलने की।

दीया जल सकता है। कीमत चुकाने को राजी हो जाओ। मुफ्त वह दीया नहीं जलेगा। और अच्छा है कि मुफ्त नहीं जलता। क्योंकि मुफ्त जल जाता तो कोई रस न होता। मुफ्त जल जाता तो तुम धन्यवाद भी अनुभव न करते। मुफ्त जल जाता तो तुम प्रौढ़ ही न हो पाते। मुफ्त जल जाता तो तुम जाग ही न पाते। तो दीया भी जलता रहता और तुम कमरे में अंधेरे में ही रहते। तुम आंख बंद किये सोये रहते।

दीये के जलने से ही थोड़े ही रोशनी हो जाती है–आंख भी तो खुली होनी चाहिए। सूरज भी निकल आये और तुम आंख बंद किये पड़े रहो तो तुम अंधेरे में रहोगे। छोटी-सी दो पलकें इतने बड़े सूरज को नकार देती हैं।

तो चुनौती स्वीकार करो! दीया जल सकता है–इस आशा से उद्वेलित होओ। उठो!

कठिन होगा। संघर्षण होगा। लेकिन उसी संघर्षण में तुम जागोगे, आंख खुलेगी।

और अच्छा है कि आंख खुलते-खुलते ही दीया भी जले। कोई दूसरा जला दे दीया तो तुम आंख न खोलोगे।

ऐसा मैंने सुना है, एक पुरानी चीनी कथा है, एक किसान ने परमात्मा से बड़े दिनों तक प्रार्थना की कि “हे प्रभु! तुझे खेती-बाड़ी का कुछ पता नहीं। जब पानी चाहिए तब पानी नहीं; जब पानी नहीं चाहिए, तब बेतहाशा पानी! बाढ़ भेज देता है! तुझे कुछ समझ नहीं। तूने कभी खेती-बाड़ी नहीं की। ओलों की क्या जरूरत है? जब धूप चाहिए तब धूप नहीं।’

आखिर परेशान हो गया परमात्मा भी सुन-सुनकर। उसने कहा, “आखिर तू चाहता क्या है?’ उस किसान ने कहा कि एक साल मुझे मौका दें। आखिर जिंदगी हो गयी खेती-बाड़ी करते हुए। मुझे पता है, तूने कभी खेती-बाड़ी की भी नहीं। एक साल जो मैं चाहूं, वैसा हो।’

परमात्मा ने कहा, “चल यही सही।’

एक साल ऐसा हुआ कि किसान जब धूप चाहता तब धूप; जब पानी चाहता तब पानी। बड़ी फसल उठी। ऐसी कभी न उठी थी। गेहूं की बालें इतनी बड़ी-बड़ी हुईं कि किसान ने कहा, “अब देखो! सालभर के बाद दिखलाऊंगा कि क्या तुम अब तक परेशान करते रहे संसार को!’ आदमियों के सिरों के ऊपर चली गयीं। फिर वक्त आया फसल काटने का। फसल काटी गयी। बालें तो बहुत बड़ी-बड़ी थीं, लेकिन गेहूं उनमें न थे। वह किसान बड़ा हैरान हुआ कि यह मामला क्या हुआ! उसने प्रभु को कहा, “हे प्रभु! समझे नहीं–धूप जब चाहिए तब धूप दी। वर्षा जब चाहिए तब वर्षा दी। वर्षभर ठीक मेरे हिसाब से सब चला। और बालें इतनी ऊंची गयीं, कभी न गयी थीं। किसी ने देखी न थीं इतनी ऊंची बालें। लेकिन मामला क्या है? अंदर कोई गेहूं नहीं है!’

तो परमात्मा हंसा और उसने कहा, “तूने सिर्फ धूप मांगी, पानी मांगा, ओले नहीं मांगे, तूफान नहीं मांगा, आंधी नहीं मांगी। आंधी और तूफान के बिना भीतर का सत्व संगृहीत नहीं होता। तो बालें बड़ी हो गयीं लेकिन भीतर प्राण संगृहीत न हुए।’

संघर्ष के बिना कहीं प्राण संगृहीत हुए हैं?

तो अगर तुम्हें मुफ्त मिल जाता होता भीतर का दीया भी तो तुम्हारे भीतर आत्मा पैदा न होती। तुम बाल हो जाते बड़ी लंबी, मगर भीतर गेहूं का दाना न होता।

इस जीवन में जैसा है, सब वैसा ही जरूरी है। जो चेष्टा से मिलना चाहिए, वह चेष्टा से ही मिलता है। क्योंकि बिना चेष्टा के वह मिल ही नहीं सकता; वह पैदा ही नहीं होता; तुम्हारी पात्रता ही निर्मित नहीं होती।

दूसरा प्रश्न:

भगवान, तुम्हारे चरणों में शत-शत प्रणाम!

“दर्शन’ ने पूछा है।

प्रश्न तो है ही नहीं। “दर्शन’ की वृत्ति भी प्रश्न पूछने की नहीं है। उसने सिर्फ अपना अहोभाव प्रगट किया है।

इसे समझना।

जो पूछते हैं, जरूरी नहीं कि समझ पायेंगे। पूछने के कारण ही बहुत बार तुम समझने से वंचित रह जाते हो। क्योंकि जब तुम पूछते हो तो प्रश्न को तुम इतना-इतना भारी समझ लेते हो, और तुम प्रश्न में इतने व्यस्त हो जाते हो कि उत्तर के लिए जगह ही नहीं मिलती तुम्हारे भीतर प्रवेश पाने की। तुम उत्तर के लिए दरवाजा नहीं छोड़ते।

समझ तो वे ही सकते हैं जो पूछते नहीं। न पूछना ठीक-ठीक उत्तर को समझ लेने का अनिवार्य चरण है।

तो “दर्शन’ ने न तो कभी कुछ पूछा है–सिर्फ एक बार को छोड़कर। पहली बार जब वह मुझे मिलने आयी थी, वर्षों पहले, तब विवाद करने आयी थी। कोई बात उसे जंची न थी तो तर्क करने आयी थी। मैंने उसी दिन देख लिया था कि वह उलझ गयी, अब लौट न सकेगी। आयी थी तर्क करने, रह गयी सदा को। उसके बाद उसने कभी कुछ पूछा नहीं। वर्षों बीत गये। और इन वर्षों में बहुत लोग आये-गये, वह फिर मेरे साथ रही। रास्ता ऊबड़-खाबड़ था तो भी; कंटकाकीर्ण था तो भी। अब तो मैं धीरे-धीरे आश्वस्त हो गया हूं कि लौटकर पीछे देखूंगा तो कोई भी न हो, तो भी “दर्शन’ होगी।

वह छाया की तरह पीछे रही है। पहले ही दिन विवाद उसने छोड़ दिया। संवाद शुरू होता है तभी, जब हम विवाद छोड़ते हैं। उत्तर पहुंचने लगता है तभी जब हम प्रश्न छोड़ देते हैं। उसने कुछ पूछा नहीं, इतना सिर्फ कहा है, तुम्हारे चरणों में शत-शत प्रणाम। यह भी पहली दफे कहा है।

नागुफ्तनी हदीसे-मुहब्बत नहीं मगर

जो दिल की बात वह कहें क्या जबां से हम?

–प्रेम कोई छिपाने की बात नहीं।

नागुफ्तनी हदीसे-मुहब्बत नहीं मगर

–प्रेम कोई न कहने की बात नहीं।

जो दिल की बात वह कहें क्या जबां से हम?

लेकिन जो दिल की बात है उसे कैसे जबान से कहा जाये! कहना भी चाहें तो भी कही नहीं जा सकती। जो भी कहा जा सकता है, वह बुद्धि का होता है। जो नहीं कहा जा सकता, वही हृदय का है।

तो उसे मैंने रोते देखा है, हंसते देखा है; प्रसन्न देखा है, उदास देखा है। लेकिन कभी उसने कुछ कहा नहीं। इस न कहने के कारण उसे बहुत कुछ मिला है, जो उनको नहीं मिल पाया जो बहुत कहने में लगे हैं।

लेकिन, फिर भी खामोश भी रहो, चुप भी रहो तो भी हृदय कुछ कहना चाहता है। नहीं कह सकता, असमर्थ पाता है–फिर भी कुछ कहना चाहता है। कहने में, अभिव्यक्त होने में संबंधित होना चाहता है।

मैं हजार जब्त करूं तो क्या, मैं हजार कुछ न कहूं तो क्या?

कि दयारे-नाजे-हबीब में, मेरी खामुशी भी सवाल है।

उस प्रेमी के दरबार में, उस प्रेमी की महफिल में, मैं हजार जब्त करूं तो क्या, मैं हजार कुछ न कहूं तो क्या–न कहो, सम्हालो तो भी: दयारे-नाजे-हबीब में, मेरी खामुशी भी सवाल है।

लेकिन चुप रहना भी तो अभिव्यक्ति हो जाती है। न कुछ कहकर भी तो कुछ कह दिया जाता है। मौन भी तो अपनी एक मुखरता रखता है।

तो यद्यपि “दर्शन’ ने कभी कुछ कहा नहीं, लेकिन बहुत कुछ वह कहती रही है–अपनी चुप्पी से, अपने शांत मौन से। अनेक बार मैंने उससे पूछा भी है, लेकिन फिर भी वह बचा गयी, उसने कुछ कहा नहीं है।

ऐसी भाव दशा जल्दी ही परम फूलों को उपलब्ध होती है। और आज उसने पहली दफा लिखा है। एक बार और उसने पत्र लिखा था–वह भी खाली कागज भेजा था; उसमें कुछ लिखा नहीं था। उत्तर मैं उसका भी दिया था। क्योंकि खाली कागज में भी तो कोई बड़ी अंतर्तम से उठी हुई प्रश्नावली है। कुछ जो नहीं कहा जा सकता, जिसे शायद वह खुद भी नहीं तय कर पाती कि कैसे कहें, उसको खाली कागज में लिखकर भेज दिया है। अपने शून्य को! आज उसने धन्यवाद दिया है! कुछ लिखा है। तुम्हारे चरणों में शत-शत प्रणाम। उसके भीतर कुछ हो रहा है, वह बड़ी पीड़ा से गुजर रही है। पुराना संसार टूट रहा है। नये का अभ्युदय हो रहा है! इन पीड़ा के क्षणों में अत्यंत जरूरी है कि वह जो होने जा रहा है, उसके प्रति अहोभाव से भरी रहे। अन्यथा, पुराना संसार काफी वजनी है! उसका जाल-जंजाल गहरा है। उसमें बार-बार उतर जाने की, उलझ जाने की संभावना है! लेकिन उसके सौभाग्य से वह जाल खुद ही टूटा जा रहा है। वह जाल खुद ही पीछे हटा जा रहा है।

सदा ही ऐसा होता है। जिस दिन तुम तैयार हो, उसी दिन संसार तुम्हें छोड़ने को तैयार हो जाता है। तुम लाख कहते हो कि क्या करें, कैसे छोड़ें, संसार नहीं छोड़ रहा है! गलत कहते हो। जिस दिन तुम छोड़ना चाहते हो, उस दिन संसार क्षणभर को नहीं पकड़ता है, क्योंकि संसार ने तुम्हें कभी पकड़ा ही न था। इधर तुम छोड़ने लगे, उधर संसार अपने आप छोड़ने लगता है।

ऐसी ही घड़ी से वह गुजर रही है। ऐसी घड़ी में प्रणाम करने का खयाल, सौभाग्य है क्योंकि ऐसे समय में तो शिकायत करने का मन होता है। अगर वह शिकायत लिख भेजती आज तो मैं समझता कि ठीक था, तर्कयुक्त था; क्योंकि पीड़ा से गुजर रही है, घनी पीड़ा से गुजर रही है। आज वह मुझ पर नाराज होती तो समझ में आनेवाली बात थी। क्योंकि यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जब पीड़ा से कोई गुजरे तो कहीं न कहीं, किसी न किसी को दोष दे। और मुझसे ज्यादा करीब उसके कोई भी नहीं। तो जो भी करीब हो, उसी को हम दोष देते हैं।

आज इस दुख की घड़ी में स्वाभाविक था कि वह कहती कि “तुम्हीं’ ने सब खराब कर दिया! सब उजड़ गया! सब धागे टूटे जा रहे हैं! लेकिन इस घड़ी में उसका चरणों में प्रणाम भेजना बहुत बहुमूल्य है। इस किरण के सहारे ही वह पार हो जायेगी।

हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बां,

कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए।

हजारों सूरज भी उसकी आंखों पर कुर्बान हैं; उसकी देखने की अभिलाषा पर कुर्बान हैं–जिसके जीवन का लक्ष्य ही उस परम प्रिय को देखना रह गया हो।

हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बां,

कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए।

उसे मैंने “दर्शन’ नाम दिया है। “दर्शन’ का अर्थ होता है: “हसरते-दीदार’; देखने की अभिलाषा। और उसकी देखने की अभिलाषा गहन होती चली गयी है। अब तो यहां बैठती भी है तो आंखें बंद करके ही बैठती है। जैसे-जैसे देखने की अभिलाषा गहन होती है, वैसे-वैसे आंख भी बंद होने लगती है। क्योंकि आंख से तो वही देखा जा सकता है जो रूप है, आकार है, नाम है। आंख बंद करके उसे देखा जा सकता है–जो अरूप है, निराकार है, अनाम है।

हजारों तूर उसी की हसरते-दीदार पर कुर्बां,

कि जिसकी जिंदगी ही हसरते-दीदार हो जाए।

और “दर्शन’ की जिंदगी अब उस दिशा में प्रवाहित हो रही है, उसकी नाव, जहां उस परम प्यारे के सिवाय कोई और न बचेगा।

कठिन होगी यात्रा! सब छूटेगा। लेकिन सब छूटने के मूल्य पर ही सब मिलता है। एक ही बात खयाल रखना–

हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल

जहां वह हुस्न-लामहदूद हो, ऐ दिल! वहीं ले चल।

–जहां वह परम सौंदर्य हो, अब वहीं चलेंगे!

हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल

–मंदिर हो, मस्जिद हो, काबा हो, काशी हो, कुछ भी हो।

हरम हो, बुतकदा हो, दैर हो, कुछ हो, कहीं ले चल

जहां वह हुस्न-लामहदूद हो, ऐ दिल! वहीं ले चल!

जहां वह असीम सौंदर्य हो! जहां उस परम प्रिय का दर्शन हो!

उसके लिए सब निछावर करने की तैयारी रखना। वह आखिरी दम तक परीक्षा लेता है। वह आखिरी-आखिरी घड़ी तक परीक्षा लेता है। आखिरी-आखिरी घड़ी तक पीड़ा देता है! लेकिन जो उस पीड़ा से गुजर जाता है, वह उस महापात्रता को उपलब्ध हो जाता है–जहां तुम्हें परमात्मा को खोजने नहीं जाना पड़ता, परमात्मा तुम्हें खोजता आता है!

और अगर, अहोभाव हो तो घड़ी दूर नहीं। शिकायत से लोग दूर होते हैं परमात्मा से; धन्यवाद से पास होते हैं। जितना धन्यवाद गहन होता जाता है उतनी दूरी कम होती जाती है। अगर अहोभाव परिपूर्ण हो जाये तो दूरी समाप्त हो जाती है। अहोभाव के क्षण में अचानक तुम पाते हो: वही है मौजूद! उसने ही तुम्हें सब तरफ से घेरा है। उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है!

गुल में, शफक में, दामने-अब्रे-बहार में

देखा जो मैंने आए नजर तुम जगह-जगह।

संध्या की लाली में देखा, कि वसंतों की वर्षा में देखा!

गुल में, शफक में, दामने-अब्रे-बहार में

देखा जो मैंने आए नजर तुम जगह-जगह।

वही दिखायी पड़ने लगेगा। ऐसा अहोभाव हो कि कहीं मन के कोने-कातर में भी सरकती कोई शिकायत न रह जाये, उसके दुख भी स्वीकार हों, उसकी पीड़ा भी स्वीकार हो। उसने दी पीड़ा, इस योग्य समझा। यही क्या कम है! ऐसे भाव में मंदिर निर्मित होता है। ऐसे भाव की दशा में भक्त निर्मित होता है।

और “दर्शन’ जल्दी ही उस दशा को उपलब्ध हो सकती है। लेकिन जितने हम करीब पहुंचते हैं, उतना ही खतरा भी बढ़ता है। जो जमीन पर चलते हैं, समतल जमीन पर, उनके गिरने का कोई भी डर नहीं। लेकिन जो पहाड़ की ऊंचाइयों पर चढ़ते हैं, गिरने का डर भी उसी के साथ-साथ बढ़ता जाता है। गिरे तो बुरी तरह गिरेंगे। इसलिए जितनी ऊंचाई आती है, उतने ही सम्हलकर और सावधान होकर चलने के क्षण आते हैं। जमीन पर गिरे भी तो क्या गिरे, फिर उठकर खड़े हो जायेंगे।

मैंने सुना है, बायजीद एक गांव के पास से गुजर रहा था। उसने एक शराबी को देखा, जो डगमगाता चल रहा था! बायजीद ने उसे पकड़ा और कहा कि, “सुन पागल! कितनी पी रखी है? कुछ होश सम्हाल! गिर पड़ेगा तो कीचड़ मची है, सब कपड़े खराब हो जायेंगे।’

उस शराबी ने आंख खोली और हंसने लगा। उसने कहा, “बायजीद! हम अगर गिरे तो कपड़े ही खराब होंगे; तुम अगर गिरे तो…?’

बायजीद बड़ा सूफी फकीर था, बड़ा संत था।

“तुम अगर गिरे तो?’

तो कहते हैं, बायजीद ने उसके चरण छुए और कहा कि ठीक समय पर तूने मुझे चेताया। अगर हम गिरे तो कपड़े तो दूर, आत्मा तक खराब हो जायेगी। तू गिरा तो सुबह नहा-धोकर ठीक हो जायेगा, यह भी सच है। अगर हम गिरे तो जन्म-जन्म लग जायेंगे।

“दर्शन’ वहां है जहां सम्हालकर चलना होगा प्रतिपल। और रोज-रोज सम्हालने को ज्यादा सम्हालना होगा। ज्यादा सावधानी, सावचेती।

इन पीड़ा के क्षणों को अगर ठीक से पार कर लिया तो मंदिर ज्यादा दूर नहीं है, पास ही है–कुहासे में ढंका है।

तीसरा प्रश्न:

कल जिस क्षण आपने कहा कि “महावीर ने स्वाधीनता को आत्यंतिक मूल्य दिया, वह मूल्य किसी और ने नहीं दिया’ उस क्षण मैं आपको निहारता ही रहा। क्या कर दिया आपने? मैं अपनी अभव्यता देखता रहूं, अल्पता देखता रहूं, और आपको निहारता रहूं, शीश नवाता रहूं!

सुना यदि शांत मन से तो कभी-कभी ऐसे झरोखे खुलेंगे।

महावीर ने तो कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन ले तो मात्र श्रवण से भी पार हो जाता है। इसलिए महावीर ने कहा कि मेरे चार तीर्थ हैं, चार घाट हैं जिनसे लोग उस पार जा सकते हैं: श्रावक, श्राविका, साध्वी, साधू।

श्रावक-श्राविका का अर्थ होता है: जिन्होंने ठीक से सुना, श्रवण किया। सिर्फ सुनकर कोई पार जा सकता है? निश्चित ही। लेकिन सिर्फ सुनने को कोई छोटी घटना मत समझना। सिर्फ सुनना बड़ी घटना है–करने से भी बड़ी घटना है। करना तो आसान है, सुनना कठिन है। क्योंकि ठीक सुनने का अर्थ है: जब तुम्हारे भीतर कोई विचार की तरंग न हो; तभी तुम वह सुन पाओगे जो कहा जा रहा है। अगर विचारों की तरंगें हैं तो तुम वही सुन लोगे जो तुम्हारी विचार की तरंगें व्याख्या करेंगी।

मैं यहां बोल रहा हूं। तुम वहां सोच भी रहे हो। तो मिश्रित होगा सुनना। मेरे कहे पर तुम्हारे विचारों की खोल चढ़ जायेगी। मेरे कहे पर तुम्हारे विचारों का रंग बिखर जायेगा। तुम वही समझ लोगे जो तुम समझ सकते थे; वह नहीं जो मैंने कहा था।

तो कभी-कभी ऐसी घड़ी घटेगी सुनते-सुनते कि तुम उस जगह पहुंच जाओगे जिसको महावीर श्रावक का तीर्थ कहते हैं। श्रवण के घाट पर पहुंच जाओगे! अचानक! तब क्या मैं कह रहा हूं, यह सवाल नहीं है–कोई भी शब्द, भाव-भंगिमा मात्र, तुम्हारे भीतर कोई झरोखा खोल देगी! कोई द्वार जो बंद पड़ा था जन्मों से, हवा के एक झोंके में खुल जायेगा! कोई दृश्य जो तुमने कभी न देखा था, दिखायी पड़ जायेगा। ऐसा ही कुछ हुआ है!

“कल जिस क्षण आपने कहा, महावीर ने स्वाधीनता को आत्यंतिक मूल्य दिया, वह किसी और ने नहीं दिया, उस क्षण मैं आपको निहारता ही रहा। क्या कर दिया आपने?’

मैंने कुछ भी नहीं किया। मेरे किये क्या हो सकता है? तुमने कुछ होने दिया। मैंने कुछ किया नहीं। तुमने कुछ होने दिया। इस फर्क को ठीक से समझ लेना।

अगर तुमने ऐसा सोचा कि मैंने कुछ कर दिया, तो यह तो परतंत्रता की नयी जंजीर शुरू हो जायेगी। तब तुम राह देखोगे कि मैं कुछ करूं तो हो।

इस भ्रांति में मत पड़ना। यह भ्रांति होती है।

तुम एक राह से गुजर रहे हो। एक सुंदर स्त्री दिखायी पड़ी। कुछ हो गया। अब तुम कहते हो, “इस स्त्री ने कुछ कर दिया।’ इस स्त्री ने कुछ भी नहीं किया। तुम्हारे भीतर ही कुछ हुआ। इसकी मौजूदगी ने सहारा दे दिया। इसने कोई जादू नहीं किया, कोई वशीकरण नहीं किया, जैसा लोग समझते हैं। शायद इसे तो खयाल भी न हो। तुम्हें कुछ हुआ, यह पक्का है। इसकी मौजूदगी ने कैटेलेटिक एजेंट का काम किया। शायद इसकी मौजूदगी में न हो पाता, देर-अबेर होता, लेकिन इसकी मौजूदगी में कोई चीज तुम्हारे भीतर झलक गयी; लेकिन जो झलकी है वह तुम्हारी ही अंतर-दशा है। इसकी मौजूदगी में तुमको झलक मिली प्रेम की, लेकिन प्रेम तुम्हारी भाव-दशा है। तुम्हारे भीतर पड़ा हुआ प्रेम फूट पड़ा। इसकी मौजूदगी अवसर बनी। इसने कुछ किया नहीं। इसकी मौजूदगी निष्क्रिय अवसर है।

ठीक वैसे ही बुद्धपुरुषों की मौजूदगी निष्क्रिय अवसर है। बुद्ध या महावीर तुम्हारे भीतर कुछ करते नहीं। नहीं, इतनी हिंसा भी वे न कर सकेंगे। यह भी हिंसा हो जायेगी। असमय में कुछ कर देना ऐसा ही होगा जैसे गर्भपात हो जाये समय के पहले। नहीं वे प्रतीक्षा करेंगे।

सुकरात कहता था: मेरा काम दाई का काम है, मिडवाइफ। दाई का काम यह है कि जब बच्चा पैदा होने के करीब हो तब वह जरा सहारा दे दे। बिना सहारे के भी पैदा हो जायेगा बच्चा। थोड़ा सहारा दे दे। थोड़ी ढाढ़स बंधा दे। थोड़ी हिम्मत बंधा दो। लेकिन समय के पहले बच्चे को बहार न निकाल दे, अन्यथा बच्चा मृत होगा या अर्ध-जीवित होगा।

तो जो भी यहां घटेगा मेरे निकट तुम्हारे भीतर, तुम उसे घटने दे रहे हो–इतना याद रखना। भूलकर भी यह मत सोचना कि मैंने कुछ किया। तुमने कुछ होने दिया। अगर यह तुम्हें खयाल रहे तो तुम मालिक रहोगे। तुम जब होने देना चाहोगे तभी हो जायेगा। अगर तुम सतत होने देना चाहोगे तो सतत होता रहेगा। लेकिन मालकियत मेरे हाथ में मत दे देना।

ऐसी भूल अकसर हो जाती है। अकसर, जीवन में हमारा सारा तर्क यही है: कोई तुम्हारे पास से गुजरा और तुम्हें नमस्कार न किया–क्रोध आ गया। अब तुम कहते हो, इस आदमी ने क्रोधित कर दिया। इस आदमी ने कुछ भी नहीं किया। यह उसकी मर्जी नमस्कार करे न करे। हां, एक मौजूदगी बनी, एक अवसर बना। उसने नमस्कार नहीं किया। क्रोध तो तुमने होने दिया। इसे दोष दूसरे पर मत देना।

तुम्हारे भीतर कोई दूसरा कुछ करता नहीं। ऐसा ही समझो कि एक सूखा कुआं हो और हम उसमें एक बालटी डालें, खूब खड़खड़ाएं, खूब डुबकी लगवाएं बालटी की, लेकिन कुछ भी न हो, क्योंकि कुआं सूखा है। बालटी खाली की खाली वापस आ जाए। फिर भरे कुएं में हम बालटी डालें, तो भरकर आ जाये।

तुम अगर प्रेम से भरे हो तो परिस्थितियां अनुकूल बन जायेंगी जिनमें तुम्हारा प्रेम उभरकर आ जायेगा। तुम अगर क्रोध से भरे हो तो परिस्थितियां अनुकूल बन जायेंगी, जिनमें क्रोध उभरकर आ जायेगा।

यह संसार सभी परिस्थितियों का समागम है। यहां सभी परिस्थितियां मौजूद हैं। तुम जिससे भरे हो वही प्रगट होने लगेगा। अगर तुम थोड़े शांत, मौन से भर जाओ, तो तुम्हारे भीतर बहुत कुछ घटेगा, बहुत-से वातायन खुलेंगे।

लेकिन भूलकर भी यह मत कहना कि मैंने कुछ किया। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कहना कि मेरी मौजूदगी में तुमने कुछ होने दिया। और फिर ये भी कोशिश करना कि मेरी मौजूदगी के बिना भी वह हो जाये, ताकि तुम उसके मालिक बन सको।

मुझे सुन रहे थे, कुछ हुआ–अचानक तुम चौंक गये, अवाक रह गए, चकित!

अब ऐसा ही सुबह बैठ जाना, सूरज ऊगते ही, सूरज को देखना! फिर वैसे ही शांत, मौन उसे देखते रहना। तुम अचानक पाओगे: किसी दिन सूरज के ऊगने से भी वैसा हो जायेगा।

फिर पक्षियों के कोलाहल को सुनना। उनके कलरव को सुनना। किसी दिन तुम पाओगे: सुनते-सुनते-सुनते फिर तार मिल गए! फिर हो गया! तब तो एक बात पक्की हो जायेगी कि तुम जहां भी होने देते हो वहीं हो जाता है।

फिर किसी दिन बीच बाजार में, जहां होने की कोई आशा नहीं दिखायी पड़ती, वहां तुम बाजार के शोरगुल को मौन भाव से सुनना और तुम चकित होओगे: वहां भी हो जाता है!

तब तुम मालिक होने लगे। तब तुम अपने पैरों पर खड़े होने लगे। तब मैं तुम्हारे लिए बैसाखी न बना, वरन मेरी मौजूदगी ने तुम्हारे पैरों को बल दिया।

ध्यान रखना, तुम्हारी आकांक्षा मुझे बैसाखी बना लेने की है। लेकिन बैसाखी मिल जाए तो भी तुम लंगड़े ही रहोगे।

किसी गुरु को बैसाखी मत बनाना। और जो गुरु स्वयं को तुम्हारी बैसाखी बनने दे वह तुम्हारा मित्र नहीं, शत्रु है; क्योंकि वह तुम्हारे लंगड़ेपन के लिए शाश्वतता दे रहा है। अब तुम सदा के लिए लंगड़े रह जाओगे।

यही बात अकसर घटती है। तुम किन्हीं लोगों के पास जाकर कहोगे, कि आपकी मौजूदगी ने, आपने ऐसा कुछ कर दिया।

सदगुरु और असदगुरु की पहचान यही है। असदगुरु कहेगा, “हां, मेरी शक्ति से ऐसा हुआ।’ सदगुरु कहेगा, “किसी की शक्ति का कोई सवाल नहीं। तुमने होने दिया’, और तुम अगर होने दो तो कोयल की कुहू-कुहू से भी हो जायेगा। पानी के झरने की आवाज से भी हो जायेगा। सागर के तुमुल नाद से भी हो जायेगा। फिर तो बीच बाजार में भी हो जायेगा। भीड़, कोलाहल, चलते हुए लोग, हजार तरह की बातें, शोरगुल–उससे भी हो जायेगा। क्योंकि असली बात बाहर से भीतर नहीं आ रही है–असली बात भीतर से बाहर जा रही है। असली बात है कि तुम शांत होकर सुनने में समर्थ हो गए; तुमने कोई प्रतिक्रिया न की।

निश्चित ही, पहली दफा उसी व्यक्ति के पास हो सकेगा। जिससे तुम्हारा बड़ा श्रद्धा का लगाव है। पहली दफा! वहां आसान होगा, जहां बड़ा प्रेम का लेन-देन है; जहां दो हृदय साथ-साथ धड़कते हैं।

जब तुमने मेरी यह बात सुनी तब किसी कारण से, संयोगवशात तुम चुप थे। मन में सन्नाटा था। सुनने को आतुर थे, इसलिए बोल नहीं रहे थे। उस आतुरता में भी कोई ऐसी घड़ी आयी होगी जहां मेरे श्वास के और तुम्हारे श्वास के बीच एक लयबद्धता आ गयी, एक तालमेल हो गया। तो जिस तरह, जिस जगत में मैं स्पंदित हो रहा हूं, क्षणभर को तुम मेरे साथ नाच लिये, स्पंदित हो गए। कुछ हुआ! कुछ–जिससे तुम चकित होओ! कुछ–जिस पर तुम भरोसा नहीं कर सकते! कुछ–जिसको तुम चाहोगे कि मैं कहूं कि मैंने किया! क्योंकि तुम्हें अपने पर आत्मविश्वास नहीं कि तुमसे ऐसा हो सकेगा।

फिर भी मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हीं से हुआ है। और बार-बार तुमसे यही कहूंगा कि जब भी हो, स्मरण रखना तुम्हीं से हो रहा है। मेरी परिस्थिति का उपयोग कर लो। मेरी मौजूदगी का उपयोग कर लो। मेरी मौजूदगी तुम्हें तुम्हारे भीतर की संपदा के प्रति थोड़ा जागरूक कर दे, फिर तुम मुझे भूलो! क्योंकि मैं बाहर हूं। फिर तुम अपनी तरफ चलो।

बुद्ध ने कहा: बुद्ध-पुरुष इशारा करते हैं, चलना तुम्हें पड़ता है। महावीर ने कहा है: मैं सिर्फ उपदेश करता हूं, आदेश नहीं। मैं वही बोल देता हूं, जो है। तुम अगर सुनने को राजी हो सुन लो। जीसस ने कहा है: अगर तुम्हारे पास आंखें हों तो देख लो, मैं मौजूद हूं! तुम्हारे पास कान हों तो सुन लो, मैं बोल रहा हूं! तुम्हारे पास हृदय हो तो धड़क लो मेरे साथ!

ऐसा ही समझो कि थोड़ी, क्षणभर को, तुम मेरे साथ धड़क लिये, श्वास से श्वास मेल खा गयी, धड़कन से धड़कन मेल खा गयी। एक क्षण को एक आरोह हुआ। तुम्हारे भीतर एक तरंग उठी, उसने आकाश छू लिया! लेकिन इसे मैं चाहता हूं कि तुम सदा स्मरण रखना कि वह तुम्हारे ही कारण हुआ। क्योंकि अगर मेरे कारण हुआ तो तुम मुझसे बंधे। फिर बाजार में न हो सकेगा। फिर पक्षियों के कलरव में न हो सकेगा। फिर सागर के तुमुल नाद में न हो सकेगा। फिर तुम बंधे मुझसे। फिर तो मैं तुम्हारा नशा हो गया। फिर तुम्हें मेरी तलफ लगेगी, कि जाएं वहां, सुनें वहीं, फिर सत्संग करें!

नहीं, सत्संग का अर्थ ही यह है कि तुम्हारी ऐसी घड़ी आ जाये कि सब जगह, जहां तुम हो वहीं सत्संग होने लगे। नहीं कहता कि यहां मत आना, लेकिन वह आना तुम्हारा रोग न बन जाए; वह शराबी की लत न बन जाए!

तुम आना और प्रसन्न होना। और तुम आना और खुलना। और तुम आना और प्रसाद को उपलब्ध होना। लेकिन स्मरण रखना कि सब तुम्हारे भीतर हो रहा है। और जब तुम यहां से जाओ, तो जो हुआ है उसे संभालकर अपने साथ ले जाना, उसे यहां मत छोड़ जाना। और धीरे-धीरे विपरीत परिस्थितियों में भी उसकी झलक को पाने की कोशिश करना। जहां कोई संभावना न दिखायी पड़ती हो, जहां दुख ही दुख, पीड़ा ही पीड़ा हो–फिर तुम आंख बंद करके उसी भावदशा को, उसी तरंग को अपने भीतर लाना। तुम चकित होओगे कि धीरे-धीरे वह तरंग उठने लगी, मालकियत हाथ में आने लगी!

तब कहीं भी, आंगन कितना ही तिरछा हो, तुम्हें नाच आ गया तो तुम नाच सकोगे। ज्यादा से ज्यादा यहां मैं इतना ही कर रहा हूं कि तुम्हें चौकोर आंगन दे रहा हूं। इससे ज्यादा नहीं। जो जगा है वह तुम्हारे भीतर ही सोया था।

फिर ये कैसी कसकसी है दिल में,

तुझको मुद्दत हुई कि भूल चुका।

वह जो कसकसी फिर से मालूम हुई, वह कुछ बाहर से नहीं आयी है। वह उसी की याददाश्त है जिसे तुम मुद्दत हुई भूल चुके। वह तुम्हारे मूलस्रोत का स्मरण है।

फिर ये कैसी कसकसी है दिल में

तुझको मुद्दत हुई कि भूल चुका।

इतने भूल चूके हो कि अब यह भी याद नहीं कि भूल चुके। भूल चुके हैं, यह भी याद रहे तो बिलकुल भूले नहीं, याद है। लेकिन हम इतने भूल गये हैं कि यह भी अब याद नहीं कि भूल चुके।

तुम मेरे करीब, वह मुद्दत हुई जिसे तुम भूल चुके, जनम-जनम का घेरा, बहुत दूर रह गयी वह बात जो तुम्हारा मूलस्रोत थी और जो तुम्हारी, अंतिम जीवन की नियति है; प्रथम जो थी और अंतिम जो है, वह बात भूल गयी है–यहां तुम्हें याद आ जाये, थोड़ी सुरति आ जाये! बस इतना काफी है!

और इस बात को तुम हर किसी से कहते मत फिरना। नहीं तो लोग हंसेंगे। यह बात तो दीवानों से ही करने की है।

अगर तुमने यह किसी और को कहा कि मैं यह बोल रहा था कि “महावीर ने स्वाधीनता को आत्यंतिक मूल्य दिया, वह मूल्य किसी और ने नहीं दिया’, उस क्षण में तुम्हारे भीतर कुछ अनहोना घट गया, तो लोग कहेंगे, इस बोलने में क्या रखा है? ये शब्द तो साधारण हैं।

“महावीर ने स्वाधीनता को आत्यंतिक मूल्य दिया, वह मूल्य किसी और ने नहीं दिया’–इन शब्दों से क्या घट सकता है?

तुम दूसरे को मत समझाना! ये बातें तो दीवानों की हैं। हां किसी और को हुआ हो तो उससे बात कर लेना। नहीं तो खतरा क्या है? खतरा यह है कि अगर तुम औरों से यह कहोगे तो वे समझेंगे, कि कुछ गड़बड़; तुम्हारा दिमाग खराब हो रहा है, किसी सम्मोहन में पड़ गये हो। और डर यह है कि वे कहीं तुम्हारा आत्म-अविश्वास न जगा दें। अगर आत्म-अविश्वास जग गया तो दुबारा यह न होगा।

तो ऐसी घटना कभी भी घटती हो, मुझे कह देना या गैरिक रंग के बहुत पागल यहां हैं, उनसे कह देना; मगर समझदारों से मत कहना, नहीं तो वे तुम्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। अंततः जब तुम्हारे जीवन में सब साफ हो जायेगा, फिर तो कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता। लेकिन अभी जब अंकुर बड़ा कोमल होता है, अभी जब बीज टूटा ही होता है, तब हर खतरा प्राणघाती हो सकता है।

जब दिल पे न हो काबू अपना, क्या जब्त करें क्या सब्र करें!

मुझ जैसे काश वह हो जाएं जो आ-आकर समझाते हैं।

कई लोग तुम्हें समझायेंगे कि “क्या पागलपन कर रहे हो? होश में आओ! बुद्धि सम्हालो। यह तुम किन बातों में पड़े जा रहे हो?’

जब दिल पे न हो काबू अपना, क्या जब्त करें क्या सब्र करें!

मुझ जैसे काश वह हो जाएं जो आ-आकर समझाते हैं।

लेकिन वह तुम्हारे जैसे न होंगे। और डर यह है कि वह तुम्हें अपने जैसा बना सकते हैं, क्योंकि वे ज्यादा हैं।

भीड़ है। और हम भीड़ पर बड़ा भरोसा करते हैं। हमारी धारणा ही यह है कि जिस बात को बहुत लोग मानते हैं, वह ठीक होनी चाहिए। अकसर तो उलटा होता है। जिसको बहुत लोग मानते हैं वह बात अकसर तो गलत होती है। क्योंकि बहुत लोग गलत हैं। अकसर तो ऐसा होता है, ठीक बात को कभी कोई एक-आध मानता है। भीड़ तो सदा गलत को ही मानती है। इसलिए सत्य के जगत में कोई लोकतंत्र नहीं है, कोई मत नहीं है, कि नब्बे प्रतिशत लोगों ने साथ दे दिया तो सत्य होना चाहिए। अकसर तो ऐसा हुआ है: जब महावीर ने कहा तो वे अकेले, जब बुद्ध ने कहा तो वे अकेले।

धर्म को छोड़ दें, विज्ञान को लें। गैलीलियो ने कहा, कोपरनिकस ने कहा तो अकेले। आइंस्टीन न कहा तो अकेले।

सारी दुनिया मानती थी सदियों से कि जमीन चपटी है। और जब गैलीलियो ने कहा कि जमीन गोल है तो वह अकेला था। सारी दुनिया मानती थी सदियों से कि सूरज ऊगता है, डूबता है। अब भी सभी भाषाएं यही कहती हैं: सूर्यास्त, सूर्योदय; सनराइज, सनसेट। गैलीलियो हो चुका, इससे भाषा में अभी फर्क नहीं पड़ा है। तीन सौ साल हो गये, लेकिन भाषा अब भी गलत बोली जा रही है।

गैलीलियो ने कहा, न सूरज ऊगता है न डूबता है–सूरज चलता ही नहीं। खयाल यह था कि सूरज पृथ्वी के चारों तरफ चक्कर लगाता है। दिखता है लगाता हुआ, इसमें कोई शक नहीं। अब भी खाली आंख से देखो तो लगता है कि चक्कर लगा रहा है।

असलियत बिलकुल उलटी है: पृथ्वी चक्कर लगा रही है। सूरज खड़ा है। लेकिन हम पृथ्वी पर बैठे हैं तो हमको पृथ्वी का चक्कर लगाना तो दिखायी पड़ नहीं सकता। इसलिए सूरज चक्कर लगाता हुआ दिखायी मालूम पड़ता है।

कभी तुमने खयाल किया? ट्रेन में तुम बैठे हो और दूसरी ट्रेन बगल में खड़ी है। तुम्हारी ट्रेन चलती है तो लगता है दूसरी ट्रेन चल पड़ी। चौंककर तुम्हें लगता है दूसरी ट्रेन चल रही है। चलती तुम्हारी है, लेकिन तुम तो अपनी ट्रेन में बैठे हो। तुम भी उसके साथ चल पड़े, इसलिए पता नहीं चलता। दोनों की गति बराबर है। लेकिन पास की ट्रेन खड़ी है। वह चलती हुई मालूम पड़ती है।

गैलीलियो ने कहा है कि सूरज खड़ा है, पृथ्वी चलती है। हजारों-हजारों साल से आदमी मानता था: पृथ्वी खड़ी है, सूरज चलता है। लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।

गैलीलियो को अदालत में ले जाया गया था। क्योंकि पोप खिलाफ था, क्योंकि बाइबिल में तो लिखा है कि पृथ्वी खड़ी है। और धर्मगुरु सदा डरते रहे हैं कि अगर शास्त्र की एक भी बात गलत हो जाये तो लोगों में शक पैदा होगा। लोग सोचेंगे जब एक गलत हो सकती है तो बाकी भी गलत हो सकती हैं।

तो पोप को समझ में भी आ रहा था, लेकिन फिर भी उसने गैलीलियो को कहा कि तुम क्षमा मांगो। अदालत में घुटने टेककर गैलीलियो ने क्षमा मांगी लेकिन वह आदमी भी बड़ा गजब का था। उसने कहा कि मैं क्षमा चाहता हूं। आप कहते हैं, शास्त्र कहते हैं तो सूरज ही चक्कर लगाता होगा, पृथ्वी खड़ी होगी। लेकिन एक बात मैं कहे देता हूं, मेरे कहने से कुछ भी नहीं होता। लगा तो पृथ्वी ही चक्कर रही है। मेरे कहने से क्या होगा? मैं क्षमा मांगता हूं। मेरा इसमें कुछ हाथ ही नहीं है। मैं थोड़े ही पृथ्वी को चलवा रहा हूं? तो मैं झंझट में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन एक बात मैं कहे देता हूं कि मैं क्षमा मांगूं या न मांगूं, मैं कहूं या न कहूं–इससे क्या फर्क पड़ता है? आदमियत माने या न माने, इससे क्या फर्क पड़ता है? सूरज खड़ा है पृथ्वी चक्कर लगा रही है।

दुनिया में सत्य को जाननेवाले तो कभी-कभी होते हैं। भीड़ तो असत्य को मानती है। लेकिन हमारे मन में एक धारणा है कि जिसको बहुत लोग मानते हैं वह ठीक होना चाहिए। इतने लोग मानते हैं! और हमारा कोई आत्मविश्वास तो है नहीं।

तो दूसरों से मत कहना। अन्यथा वे हंसेंगे। उनकी हंसी तुम्हारे जीवन में जहर हो सकती है। वे तुम्हें पागल समझेंगे। उनका समझना तुम्हें डगमगा सकता है।

इसलिए ये बातें तो ऐसी हैं कि जो तुम्हारे ही रास्ते पर चल रहे हैं और जिन्हें कुछ ऐसा होना शुरू हुआ हो, उनसे कर लेना; तो तुम एक दूसरे के लिए सहयोगी बनोगे, सहारा बनोगे, बल दोगे, आत्मबल विकसित होगा। और जितना आत्मबल बढ़ेगा उतनी और घटनाएं संभव हो जायेंगी।

आखिरी प्रश्न:

मुझे इतना कुछ मिल रहा था कि उसका आनंद अंतर में समाता नहीं था। इतना आनंद, इतनी खुशी कहां रखूं, कैसे सम्हालूं–समझ में नहीं आता। और प्यास भी उतनी ही है। जिनकी कृपा से जीवन की संध्या में मुझे यह सब मिल रहा है, उनसे पास होते हुए भी दूर हूं। इन दो बातों के लिए पागल-सी जी रही थी। कुछ दिनों से सब चुप होने लगा है। घंटों बैठी रहती हूं या लेटी रहती हूं। कुछ करने का मन नहीं होता। न कुछ बुरा लगता है और न अच्छा। प्रभु, यह सब क्या हो रहा है?

शुभ हो रहा है। प्यास थिर हो रही है। प्यास गहरी हो रही है।

नदी जब उथली होती है तो शोरगुल करती है। नदी जब गहरी होती है तो शांत हो जाती है। इतनी शांत हो जाती है कि पता ही नहीं चलता कि चलती भी है या नहीं।

गहरी नदी को देखा? थिर मालूम होती है। बस ऐसा ही हो रहा है। जो प्यास अब तक थोड़ी तरंगें भी पैदा करती थी, वह और गहराई पर जा रही है। अब सब चुप हो रहा है।

कुछ रोज ये भी रंग रहा इंतजार का,

आंख उठ गयी जिधर बस उधर देखते रहे।

आंख हटाना भी भूल जायेगा। विचार करना भी भूल जायेगा। ठगे-ठगे से! बैठे-बैठे!

कुछ रोज ये भी रंग रहा इंतजार का,

आंख उठ गयी जिधर बस उधर देखते रहे।

ऐसी दीवानगी आयेगी, आ रही है। स्वागत करना उसका! पलक पांवड़े बिछाना उसके लिए! घबड़ा मत जाना। क्योंकि पहले-पहले जब शांति उतरती है तो लगती है उदासी है। क्योंकि हम उदासी से परिचित हैं, शांति से परिचित नहीं हैं। दोनों के चेहरे में थोड़ा तालमेल है।

तो जब पहली दफे शांति आती है तो ऐसा लगता है कहीं ये तो नहीं कि हम उदास हुए जा रहे हैं! पहले-पहले आनंद भी बाजे बजाता है। फिर धीरे-धीरे बाजे शांत होने लगते हैं, क्योंकि बाजों का शोरगुल भी आनंद में बाधा है। फिर आनंद की एक ऐसी घड़ी आती है जब उत्सव भी शांत हो जाता है। भीतर-भीतर, भीतर-भीतर रग-रोएं में समा जाता है। नाच भी नहीं होगा–नाच इतना गहरा हो जाता है। कोई क्रिया ऊपर दिखायी न पड़ेगी।

पहले तो शौके-दीद में सब कुछ भुला दिया

अब मैं नजर को ढूंढ़ रहा हूं, नजर मुझे।

ऐसी घड़ी आती है कि अपना ही पता नहीं चलता।

पहले तो शौके-दीद में सब कुछ भुला दिया–पहले तो उस परमात्मा को देखने की आकांक्षा में सब भुला बैठे। लेकिन उस सब भुलाने में नजर भी खो जाती है। अब मैं नजर को ढूंढ़ रहा हूं, नजर मुझे। अब कुछ समझ में नहीं आता कौन कहां है, कौन कौन है?

आखिरी घड़ी में कुछ भी पता नहीं चलता भेद का: कौन भक्त है, कौन भगवान है!

रामकृष्ण अपने ऊपर ही फूल डाल लेते थे। भगवान को चढ़ाने जाते, खुद ही पर डाल लेते। भगवान को भोग लगाते, खुद ही के मुंह में डाल लेते। लोगों ने शिकायत की कि यह तो कोई पूजा न हुई। ये तो पूजा का उल्लंघन है।

रामकृष्ण ने कहा, “करूं क्या? भेद ही नहीं मालूम होता। यह मुंह भी अब उसी का! यह सिर भी उसी का। ये हाथ भी उसी के! ये फूल भी उसी के!’

कौन कौन है, पक्का पता नहीं चलता!

इक तेरी तमन्ना ने कुछ ऐसा नवाजा है,

मांगी ही नहीं जाती अब कोई दुआ हमसे।

अब यह जो घड़ी आ रही है, इस घड़ी में कुछ भी मांगना मत। अब तो सिर्फ धन्यवाद, सिर्फ अहोभाव। उसे धन्यवाद देना! जो भी वह दे, धन्यवाद देना। उदासी मालूम पड़े तो भी धन्यवाद देना; जल्दी उदासी शांति में परिणित हो जायेगी। ऐसा लगे, उत्सव खो रहा है तो भी धन्यवाद देना। एक नया उत्सव शुरू हो रहा है जो अभिव्यक्ति का नहीं है, जो अनभिव्यक्त है, जो शांत है और मौन है।

मैं तुमसे कहता हूं, महावीर भी नाचे हैं, मीरा ही नहीं नाची। लेकिन मीरा का नाच बाहर भी आया, महावीर का नाच भीतर ही भीतर रह गया। इतना गहन है।

जैसे देखा नील नदी है, इजिप्त में! कई मीलों तक जमीन के नीचे ही बहती है, दिखायी नहीं पड़ती। फिर प्रगट होती है। तो सदियां हो गयीं, लोगों को पता ही न था कि इसका जन्म-स्रोत कहां है, यह उदगम कहां है! क्योंकि कई मीलों तक तो वह जमीन के नीचे ही बहती है तो उदगम का पता कैसे चले?

मीरा ऐसी है जैसे नील नदी प्रगट हो गयी। और महावीर ऐसे हैं जैसे नील नदी अभी जमीन के नीचे बहती है। नाच तो है ही–लेकिन नाच बड़ा मौन है, चुप है, बड़ा गुरु-गंभीर है!

कठिनाई होगी। ये प्रतीक्षा के पल पीड़ा के पल भी होंगे। कभी-कभी तो ऐसा लगेगा, कुछ खो तो नहीं गया! पहले तो बड़े आनंदित मालूम हो रहे थे; वह आनंद भी चला गया। पहले तो बड़े नाचे-नाचे मालूम पड़ते थे; वह पुलक चली गयी। कहीं कुछ खो तो नहीं गया!

शबे-इंतजार की कशमकश न पूछ कैसे सहर हुई

कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया।

मिलन की रात की कशमकश न पूछ और यह मत पूछ कि कैसे सुबह हुई! बड़ी मुश्किल हुई। कभी एक चिराग जला लिया, फिर बुझा दिया, फिर जला लिया, फिर बुझा दिया! ऐसी उधेड़-बुन हुई।

शबे-इंतजार की कशमकश न पूछ कैसे सहर हुई

कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया।

ऐसी कशमकश आएगी। घबड़ाना मत। बस एक ही खयाल रखना कि जो भी हो रहा है, जो भी होता है–शुभ है। यही तुम्हारी प्रार्थना हो अब कि जो भी हो रहा है, शुभ है। और तब शुभ के नये-नये द्वार खुलते जायेंगे।

दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर,

सोचता हूं ये तेरी राहगुजर है कि नहीं।

इस चिंता में मत पड़ना क्योंकि अब जल्दी ही दिल के पास जो परमात्मा का रास्ता गुजरता है वह दिखायी पड़ेगा। सोच-विचार में मत पड़ना। जब सब सन्नाटा हो जाता है, उत्सव भी चला जाता है, आनंद भी चला जाता है और सब शांत हो जाता है और आदमी ठगा-ठगा रह जाता है–तभी हृदय के पास से जिसका रास्ता गुजरता है उसके दर्शन होते हैं! हम अपने करीब आये, असंग हुए, निसंग हुए! यही संन्यास की पराकाष्ठा है। संसार और बाहर का सब भूल गया! भीतर, भीतर, भीतर उतरते गये! अपने केंद्र पर आये! वहां से गुजरती है राह परमात्मा की! तब संदेह में मत पड़ जाना क्योंकि ये मन में विचार, आखिरी विचार यही आता है कि कहीं यह रास्ता सही है कि गलत।

दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर,

सोचता हूं ये तेरी राहगुजर है कि नहीं।

यह मत सोचना। यह विचार करना ही मत। अब तो विचार को पूरा का पूरा ही त्याग दो। अब तो निर्विचार हो रहो। और जो भी हो, उसको स्वीकार करते जाओ। धीरे-धीरे उसी रास्ते पर उसका रथ भी आयेगा। और जब वह रथ से उतरे और तुम्हारे सामने अपनी झोली फैला दे तो कंजूसी मत करना। सब डाल देना! स्वाहा! सब डाल देना!

रवींद्रनाथ का एक गीत है। एक भिखारी सुबह-सुबह उठा। अपनी झोली को कंधे पर टांगकर भीख मांगने निकला। जैसा कि भिखारी करते हैं, उसने भी किया। थोड़े-से चावल के दाने अपनी झोली में घर से डाल लिए। देनेवालों के लिए थोड़ी हिम्मत होती है कि चलो इसको औरों ने भी दिया है। तो भिखारी थोड़े-से पैसे अपनी थाली में डालकर बैठ जाता है। तो निकलनेवाले को थोड़ा साहस रहता है कि कोई हम ही नहीं फंस रहे हैं, और लोगों ने भी दिया है। तो थोड़ी लज्जत भी आती है, तो थोड़ी लज्जा भी लगती है, थोड़ा शर्म भी, संकोच भी लगता है कि अब और दे चुके हैं तो हम कोई इतने गये-बीते तो नहीं, चलो एक पैसा दे दो! तो थोड़े-से चावल के दाने डालकर झोली में भिखारी चला। राह पर आया, कभी सोचा भी न था। सपना भी न देखा था–राह पर आ रहा है उस महाराजा का रथ–स्वर्ण रथ, सूर्य की किरणों में चमकता हुआ! उसने सोचा, आज मेरे धन्यभाग, आज मेरे भाग्य खुल गये! आज तो झोली पसार दूंगा और मांग लूंगा। अब राजा ही सामने आ रहा है, द्वार से कभी भीतर जाने का मौका मिलता न था। द्वारपाल द्वार से ही भगा देते थे। अब आप तो रास्ते पर मिल गये।

तो वह बीच में खड़ा हो गया। रथ रुका। राजा न केवल उसे अपने पास बुलाया, खुद उतरकर नीचे आया। लेकिन राजा को पास देखकर वह घबड़ा गया। कभी राजा की सन्निधि नहीं की। याद ही न रही, अवाक ठगा रह गया। देखता रहा राजा के मुंह की तरफ। और इसके पहले कि वह अपनी झोली फैलाये, राजा ने अपनी झोली फैला दी। और उसने कहा, मना मत करना, इनकार मत करना, क्योंकि मेरे ज्योतिषियों ने कहा है कि आज मैं भीख मागूं तो राज्य बचेगा, अन्यथा राज्य पर खतरा है।

अब कठिनाई हम सोच सकते हैं: भिखारी जिसने कभी दिया नहीं, सदा मांगा! देने की कोई आदत ही नहीं। देने का कोई संस्कार ही नहीं। वह बहुत घबड़ाया, लेकिन अब इनकार भी न कर सका, क्योंकि राजा ने कहा, “इनकार मत करना, पूरे राज्य पर खतरा है। कुछ भी दे दो, उसने हाथ भीतर डाला झोली के। मुट्ठी बांधता है, खोलता है। कभी दिया तो है नहीं, देने की आदत ही नहीं। बामुश्किल एक चावल का दाना निकालकर उसने राजा की झोली में डाल दिया। रथ आया-गया हो गया, धूल उड़ती रह गयी! वह तो खड़ा रह गया। उसने कहा, “यह तो हद्द हो गयी। और गरीब कर गया! एक दाना और पास था, वह भी ले गया!’

फिर सांझ घर लौटा भीख मांगकर। उस दिन खूब भीख मिली। ऐसी कभी न मिली थी। जो देता है उसे मिलती भी है। उस दिन घर लौटा। प्रसन्न होना चाहिए था, लेकिन थोड़ा उदास था। वह एक दाना कम था। घर आकर पत्नी ने पूछा, “इतने उदास?’ तो उसने कहा, “क्या करूं? हद्द हो गयी। मिलने की आशा बांधी थी, वह तो दूर, और हमसे, हाथ से ले गया! भाग्य की विडंबना, मजाक तो देखो, व्यंग्य!’

उसने झोली बड़ी उदासी से उंड़ेली। देखकर चकित हुआ, एक दाना सोने का हो गया था। जो दिया था, वह सोने का हो गया था। छाती पीट-पीटकर रोने लगा। पत्नी तो कुछ समझी नहीं। उसने कहा, “हुआ क्या है? माजरा क्या है?’

“लुट गये’, उसने कहा, “लुट गये! सारे दाने दे दिये होते, तो सारे दाने सोने के हो जाते। लेकिन अवसर आया, गया!’

तो इतना ही कहता हूं, यह जो घड़ी पक रही है, इसको पकने देना। जल्दी ही हृदय के पास से उसकी राह मिलेगी। राह ही नहीं, उसका रथ भी आता है, स्वर्ण-रथ, सूर्य-किरणों में चमकता! उस वक्त मांगने का मन होगा, क्योंकि हम सदा भिखमंगे रहे हैं। मांगना मत!

और अगर वह झोली तुम्हारे सामने फैलाये, जैसी कि उसने सदा ही फैलायी है, तो दे देना! तब ऐसा मत करना कृपणता, कंजूसी कि एक दाना डाल देना; अन्यथा फिर रोओगे जन्मों-जन्मों तक! क्योंकि फिर कब दुबारा उसका रथ मिलेगा कहना मुश्किल है। सब दे डालना। झोली और तुम स्वयं भी छलांग लगा जाना, ताकि सब स्वर्णमय हो जाये।

सब स्वर्णमय हो सकता है। होना चाहिए। हम बाधा न दें तो हो जाये, अभी हो जाये। चिंता-विचार न करना।

शुभ हो रहा है! सब शांत होता जा रहा है। जल्दी ही रथ आने के करीब है। उस घड़ी की अहोभाव से प्रतीक्षा!

कठिन होगी प्रतीक्षा। दीया जलेगा, बुझेगा। जलाओगे, बुझाओगे। गुजार देना रात! घबड़ाना मत। जितनी प्रतीक्षा पीड़ादायी होगी, उतना ही मिलन आनंददायी है।

आज इतना ही।


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