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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–6

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रसादस्वरूपा है भक्तिछठवां प्रवचन

दिनांक 16 जनवरी,

1976, रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

*विराट का अनुभव किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त होता ही है। क्या ऐसा नहीं है?    

  *आये थे दर पर तेरे सिर झुकाने के लिए, उठता नहीं है सिर अब वापस जाने के लिए…! अ प्रवचन सुनते समय प्रेम-विभोर हो आसू बहने लगते हैं और अचेतन में अहंकार को रस आता है कि अहोभाव के आसू बहा रहा हूं। क्या इससे अद्वैत का रूखा-सूखा मार्ग अच्छा नहीं?

  *क्या विधिजिहत पूजा-प्रार्थना व्यर्थ है?  

  *एक हम हैं कि… प्यासे ही जाते हैं!

  *इश्क पर जोर नहीं ये तो आतिश “गालिब “ कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे। फिर देवर्षि नारद ने प्रेम पर यह शास्त्र क्यों लिखा ,  

 

 

पहला प्रश्‍न :

 

जब भी किसी को विराट को अनुभव होता है, वह किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त होता ही है। क्या आप बुद्धपुरुषों के देखे ऐसा नहीं है?    

 

नुभव तो वह ऐसा है कि छिपाए छिपेगा नहीं, प्रगट होगा ही। जहां तक अनुभोक्ता का संबंध है, प्रकट होगा ही। लेकिन जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम पर निर्भर है : प्रगट हो या अप्रगट रह जाए।

बुद्ध ने तो कह दिया है जो जाना, तुमने सुना या नहीं…, बुद्ध की तरफ से प्रगट हो गया, तुम्हारी तरफ से प्रगट हो भी सकता है, प्रगट न भी हो।

वर्षा तो होती है, झील, सरोवर, खाई, खड्डे भर जाते हैं, पहाड़ खाली के खाली रह जाते है।

तुम्हारा घड़ा उलटा रखा हो, मेघ कितने ही गरजे, कितने ही बरसें, तुम खाली रह जाओगे, तुम्हारे लिए वर्षा हुई ही नहीं। नहीं कि वर्षा नहीं हुई, वर्षा तो हुई, तुम्हारे लिए नहीं हुई। और जब तक तुम्हारे लिए न हो तब तक हुई या न हुई, क्या फर्क पड़ता है। बुद्धपुरुष चुप भी रह जाएं तो उनकी चुप्पी में भी वही प्रगट होता है। बोलना जरूरी नहीं है–बोलना मजबूरी है। बोला जाता है करुणा के कारण, क्योंकि मौन को तो तुम समझ ही न पाओगे। शब्द ही छूट जाते हैं तो मौन तो कैसे पकड़ में आएगा, कह-कहकर भी, तुम्हारी पकड़ नहीं बैठ पाती, अनकहे को तो तुम कैसे पकड़ पाओगे, बोलना जरूरी नहीं है, मजबूरी है। बुद्धों का बस चले तो चुप रह जाएं। लेकिन तुम्हें देखकर, तुम्हारे लड़खड़ाते पैरों को देखकर, अंधेरे में तुम्हें टटोलते देखकर, चिल्लाते हैं, जितने जोर से बोल सकते हैं उतने जोर से बोलने हैं–फिर भी तुम्हारे बहरेपन में आवाज पहुंचती है, यह संदिग्ध है।

करोड़ों सुनते हैं, तो कानों पर तरंगें पैदा होती हैं, लेकिन हृदय अछूता रह जाता है। मस्तिष्क के पास तो दो कान हैं, आवाज एक से जाती है, दूसरे से निकल जाती है। हृदय के पास एक ही कान है, आवाज जाती है तो फिर निकल नहीं पाती, बीज बन जाती है, गर्भस्थ हो जाता है हृदय। और जब तक सुनी हुई वाणी तुम्हारे गर्भ न बन जाए, जैसे सीप के भीतर मोती निर्मित होता है, ऐसे सुना हुआ शब्द जब तक तुम्हारे भीतर मोती न बनने लगे, तब तक तुमने सुना, फिर भी सुना नहीं; देखा, फिर भी देखा नहीं। जीसस बार-बार अपने शिष्यों को कहते हैं, “आंखें हों तो देख लो! कान हों तो सुन लो! हृदय हों तो समझो”।

ऐसा नहीं कि जीसस बहरे और अंधे लोगों से बोल रहे थे, तुम्हारे ही जैसे आंखवाले और कान वाले लोग थे। फिर भी बार-बार जीसस दोहराते हैं। कारण साफ है।

सत्य जब अनुभव में आता है किसी के तो बात कुछ ऐसी है कि छुपाए भी नहीं छुप सकती, बताने की तो बात ही अलग। साधारण प्रेम नहीं छिपता। किसी के जीवन में साधारण प्रेम आ जाए तो चाल बदल जाती है; चाल में एक नृत्य समा जाता है; व्यक्तित्व की गंध बदल जाती है; हजार-हजार कमल खिल जाते हैं; बोलता है तो एक माधुर्य आ जाता है; साधारण वाणी में मधु बरसने लगता है!

प्रेम की आंख देखो–

बिना शराब पीये शराबी हो गया होता है!

एक मस्ती घेर लेती है!

जैसे प्रकृति पर जब वसंत उतरता है

तो हृदय वसंत से भर जाता है!

सब तरफ फूल खिल जाते हैं!

सब तरफ पक्षियों की चहचहाहट शुरू हो जाती है!

भीतर कोई अवरुद्ध झरने मुक्त हो जाते हैं!

पंख लग जाते हैं–अनंत आकाश में उड़ने के!

साधारण प्रेम में ऐसा हो जाता है, तो जब परमात्मा का प्रेम बरसता है किसी पर, उस असाधारण प्रेम की घटना घटती है; जब बूंद में सागर उतरता है; आगन में आकाश आ जात है; कबीर ने कहा है, जब अंधेरे में हजार-हजार सूरज का प्रकाश आता है, हजारों सूर्य भी मात हो जाएं, ऐसे प्रकाश की वर्षा होती है; मृत्यु में अमृत का आनंद बरसता है–तो कैसे छिपाये छिपेगा?

मुर्दा जिंदा हो जाए, छिपाये छिपेगी यह बात, मृत्यु में अमृत उतर आए, छिपाये छिपेगी यह बात, कोई उपाय नहीं है छिपने का। छिपाये तो छिपती ही नहीं, मगर मजा यह है, दुर्भाग्य यह है, बताए भी प्रगट नहीं हो पाती। छिपाये छिपती नहीं और बताए प्रगट नहीं हो पाती। क्योंकि दो हैं। वसंत आ गया, इतना ही थोड़े काफी है, तुम्हारे भीतर भी तो वसंत हो समझने की कोई समझ होनी चाहिए।

एक बहुत बड़े चित्रकार टरनर के चित्रों की प्रदर्शनी हो रही थी। बड़ा शोरगुल था। सारा नगर इकट्ठा था चित्रों को देखने के लिए। टरनटर द्वार पर ही खड़ा था, लोगों की प्रतिक्रियाएं सुन रहा था।

एक महिला ने कहा, “बड़ा शोरगुल मचाया हुआ है, मुझे तो कुछ इसमें दिखाई नहीं पड़ता। कुछ सार नहीं मालूम होता इन चित्रों में। ये चित्र तो ऐसे लगते हैं जैसे बच्चों ने रंग भरे हों। मुझे इनमें कोई बड़ी कुशलता नहीं दिखाई पड़ती। इतना शोरगुल क्यों मचाया हुआ था?

उसके साथ जो महिला ने टरनर से कहा, कि तुम्हारा सूर्योदय का चित्र मुझे बहुत पसंद आया है, लेकिन ऐसा सूर्योदय मैंने कभी देखा नहीं। मतलब यह था कि “ऐसा सूर्योदय होता नहीं जैसा तुमने बनाया है। यह किसी कल्पना की बात है “।

टरनर ने कहा, “माना, लेकिन क्या तुम न चाहोगी कि मेरी आखें तुम्हें उपलब्ध हों और ऐसा सूर्योदय तुम्हें दिखाई दे सके?

सूर्योदय देखना हो तो सूर्योदय देखने वाली आंखें भी तो चाहिए।

कहते हैं, अगर कवियों ने प्रेम का कोई गीत न गाए होते तो लोगों को प्रेम का पता ही न चलता। यह बात मुझे कुछ समझ में आती है। तुम थोड़ा सोचो, अगर कभी तुमने प्रेम का कोई गीत न सुना होता और प्रेम की कोई कहानी न सुनी होती तो क्या तुम्हें तुम्हारी जिंदगी से पता चल सकता था कि प्रेम है, शादी पता चलती, विवाह पता चलता, बाल-बच्चे पैदा होते, लेकिन प्रेम… ?

प्रेम का पता चलने के लिए पारखी की आंख चाहिए।

बड़ी मुश्किल से पैदा होती है चमन में कोई आंखवाला, कोई कोई दीदावर, कोई द्रष्टा !

लेकिन कविताएं सुनकर भी, प्रेम के गीत और प्रेम की कहानियां सुनकर भी, तुम्हें प्रेम का शब्द ही याद हो जाता है, तुम दोहराने लगते हो, तुम वक्त-बेवक्त उसका उपयोग करने लगते हो। लेकिन क्या शब्द सुनकर ही तुम्हें प्रेम का अनुभव हो सकता है,     क्या यह अनुभव ऐसा है कि उधार हो जाए?

नहीं, उधार नहीं हो सकता। तो तुम्हारे जीवन में जब तक कोई अनुभव का सूत्र न हो, तब तक बुद्ध खड़े रहें, तुम्हें दिखाई न पड़ेंगे। तुम्हें वही दिखाई पड़ेगा जो तुम्हें दिखाई पड़ सकता है। मीरा नाचती रहे, तुम्हें वही दिखाई पड़ेगा जो तुम्हें दिखाई पड़ सकता है। तुम्हारी आखें ही तो तुम्हें खबर देंगी, और तुम्हारे कान ही तो व्याख्या करेंगे, और तुम्हारी समझ ही तो परिभाषा बनाएगी।

सत्य का अनुभव जब होता है तब तो वाह प्रगट हो ही जात है, लेकिन तुम नहीं बन समझ

पाते। बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं :

“या रब न वह समझे हैं न समझेंगे मेरी बात

दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जबां और। “

सभी बुद्धों के मन में ऐसा भाव रहा होगा कि हे, भगवान…

“या रब न वह समझे हैं न समझेंगे मेरी बात

दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जबां और “।

या तो मेरी जबान बदल, ताकि मैं उन्हें समझा सकूं, और या उन्हें दिल दे, ताकि वे समझ सकें।

हजारे ढंग से बुद्धों ने समझाने कि कोशिश की है, लेकिन तुम्‍हारे पास कोई समानंतर अनुभव चाहिए : न सही सूरज का, किरण का ही सही, मिट्टी के छोटे-से दीये का ही सही- पर कोई समानांतर अनुभव चाहिए।

दीया भी देखा हो तो सूरज का अनुमान किया जा सकता है। दीया भी न देखा हो तो सूरज शब्द कोरा शब्द रह जाता है–चली हुई कारतूस जैसा, खाली। उसे तुम याद कर ले सकते हो, वक्त-बेवक्त उपयोग भी कर सकते हो, लेकिन उसकी कोई जड़ें तुम्हारे भीतर न होंगी—उखड़ा हुआ पौधा होगा, सूखा हुआ पौधा होगा, गुलदस्ते में सजाकर रख सकते हो, उसमें कभी फूल न आएंगे, तुम धोखे में रह सकते हो, लेकिन तुम्हारे जीवन में उस धोखे के कारण बाधा ही पड़ेगी, क्रांति घटित न होगी।

ठीक पूछा है :जब भी किसी को विराट अनुभव में आता है तो अभिव्यक्ति तो होती ही है।

बहुत बुद्धपुरुष चुप भी रह गए हैं, पर उनकी चुप्पी भी बड़ी बोलती हुई थी। वह खामोशी भी गीत गाती हुई थी। जिनको थोड़ी भी समझ थी उन्होंने उन चुप रहनेवाले लोगों को भी खोल लिया है और उनकपदचिह्मों पर यात्रा कर ली है।

कोई नाचा है। किसी ने बांसुरी बजाकर कहा है। कोई बोला है। किसी ने तर्कनिष्ठ भाषा का उपयोग किया है। जीसस और बुद्धों ने छोटी-छोटी कथाएं कही हैं। जो जिससे बन सका…।

सत्य को पाने के पहले जिसकी जैसी तैयारी थी, फिर जब सत्य उतरा तो पहले जो-जो तैयारी थी उस सबका उपयोग किया है, हर तरह से उपयोग किया है। लेकिन जरूरी नहीं है कि तुम उन्हें पहचान पाए होओ।

बुद्ध जिन गांव से गुजरे उनमें हजारों-लाखों लोग थे, जिन्होंने उन्हें नहीं पहचाना, बुद्ध गांव से गुजरे, जो उनके दर्शन को भी न गए, जो उन्हें सुनने भी न गए, जो उन्हें सुनने भी गए तो खाली हाथ ही लौटे, सोचते लौटे कि सब बातें हवा की बातें हैं। उनके कहने में भी सचाई है।

जो तुम्हारी पकड़ में न आए, वह हवा की बात है, पानी का बबूल है!

सत्य तो सत्य तभी होता है जब तुम्हारे भीतर उसे आधार मिल जाए।

लेकिन बुद्धपुरुष कहते हैं, उनकी करुणा से हजारों उपाय खोजते हैं। कहने में उन्हें कुछ रस नहीं, तुम समझ लो। इसमें जरूर रस रस है। यही तो फर्क है।

एक दार्शनिक भी लिखता है, बोलता है, लेकिन तुमसे उसे प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन अपने अहंकार की सजावट ही है।

कवि भी गाता है, लेकिन गाने में मजा भी अपनी ही आवाज सुनने का है। यही तो कवि और ऋषि गाता है ताकि तुम सुन सको। ऋषि गात है ताकि तुम्हारे हृदय में कुछ हिलोरें पैदा हो सके, ताकि तुम्हारा सोया प्राण जग जाए। कवि गाता है, ताकि तुम्हारी तालियों की आवाज उसके अहंकार में नयी सजावट बने, नया श्तार हो, मगर तुम्हारी तालियों को सुनने के लिए ही गाता है।

संत भी बोलते हैं–इसलिए नहीं कि तुम्हारी तालियां सुनें। तुम्हारी प्रशंसा से कोई भी प्रयोजन नहीं है। वस्तुत : जब भी तुम उनकी प्रशंसा करते हो और ताली बजाते हो, तब वे थोड़ा चौंकते हैं। क्योंकि यह बात ताली सुनने के लिए या प्रशंसा सुनने के लिए नहीं कही गई थी—यह कही गई थी ताकि तुम बदलो, तुम्हारे जीवन में क्रांति का सूत्रपात हो।

“न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा

गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही “।

इसकी भी चिंता नहीं है संतों को कि वे जो कह रहे हैं, वह सार्थक भी हो, क्योंकि सार्थक बनने के लिए तो उसे तुम्हारे तल पर उतारना पड़ेगा। और जितना ही सत्य तुम्हारे तल पर उतर जाता है उतना ही मरता जाता है, जब वह ठीक तुम्हारे तल पर आ जाता है, व्यर्थ हो जाता है।

इसलिए अगर किसी को सार्थक वचन ही बोलने की आकांक्षा हो तो सत्य नहीं बोला जा सकता। सत्य तो विरोधाभासी है। सत्य को तो बोलने का एक ही ढंग है कि तुम सार्थक होने की चिंता मत करना।

तर्कातीत है सत्य, तो सार्थक कैसे होगा ,

विरोधाभासी है सत्य, तो सार्थक कैसे होगा ,

और जो तुम्हारे लिए सार्थक हो सके वह बिलकुल ही व्यर्थ हो गया। जो तुम्हारी बिलकुल ही समझ में आ जाए, वही सार्थक हो सकता है। और जो इतना सार्थक हो जाए कि तुम्हारी समझ में बिलकुल आ जाए, वह तुम्हें ऊपर न उठा सकेगा।

तो बुद्धपुरुषों की चेष्टा क्या है?

–कुछ समझ में आए, कुछ समझ के पार रह जाए।

जो समझ में आए, वह सहारा बने आस्था का, ताकि जो समझ में नहीं आया है, उसकी तरफ तुम कदम बढ़ाओ, जरा सा समझ में आए और बहुत सा समझ के पार रह जाए, वह जो थोड़ा सा समझ में आता है, धुंधला सा समझ में आता है, वह तुम्हारे लिए मार्ग बन जाए, उसके सहारे तुम और यात्रा करने के लिए उत्सुक हो जाओ।

संत तो प्रगट हो जाते हैं–अपनी तरह से, तुम्हारी तरफ से अप्रगट रह जाते हैं। इतने अप्रगट रह जाते हैं कि इतिहास में उनका कोई उल्लेख भी नहीं होता।

जीसस का कोई उल्लेख नहीं है, सिवाय बाइबिल के कहीं और। बाइबिल तो उनके ही शिष्यों की किताब है, इसलिए भरोसे की नहीं है। हजारों लोग हैं जो शक करते हैं कि जीसस कभी हुए भी! कृष्ण कभी हुए—शक की बात है। इतने विराट पुरुष हुए, इतिहास में इनकी कोई छाप नहीं छूट जाती, क्योंकि इतिहास तुम लिखते हो, जब तुम पर ही छाप नहीं छूटती तो तुम्हारे लिखे पर कहां से छाप छूटेगी! तुम्हारे लिखे पर छाप छूटती है चंगेज खां की, तैमूरलंग की, राजनेताओं की, उपद्रवियों की, हत्यारों की, डाकुओं की, इनकी तुम्हारे लिखे पर छाप छुटती है। इन पर कोई शक नहीं करता हक चंगेज खां कभी हुआ या नहीं, तैमूरलंग कभी हुआ कि नहीं। कोई शक का सवाल ही नहीं है। करोड़ों प्रमाण हैं उनके होने के।

कृष्ण, क्राइस्ट,…कोई प्रमाण नहीं मालूम पड़ता, मान लो, भरोसे की बात है, न मानो तो कोई मना नहीं सकता।

क्या कारण होगा, इतिहास इतना अछूता कैसे रह जाता है?

क्योंकि इतिहास तुम लिखते हो। तुम्हारा हृदय ही अछूता रह जाता है। तुम पर ही निशान नहीं बनते उनके, तो तुम्हारे लिखे पर कैसे बनेंगे, व्यर्थ की तो छाप बन जाती है, क्योंकि व्यर्थ तुम्हें सार्थक है। सार्थक की छाप ही नहीं बनती, क्योंकि सार्थक तुम्हें बिलकुल व्यर्थ है। बुद्ध का क्या करिएगा, युद्ध में काम आ नहीं सकते। तलवार बना नहीं सकते उनसे। बुद्ध की खोजों का क्या करिएगा, अणु-बम तो बन नहीं सकता उनसे। तुम्हारे किसी काम की नहीं है। खयाली बातें हैं, हवा की हैं।

स्वप्न द्रष्टा है इस तरह का व्यक्ति। तुम उसे माफ कर देते हो, इतना ही बहुत। तुम अपनी राह चले जाते हो। कभी फुर्सत हुई, उसकी दो बात भी सुन लेते हो, लेकिन उसकी बातों के कारण तुम अपने को बदलने की तैयारी नहीं करते। सुन लेते हो औपचारिकता से, शिष्टाचार से, लेकिन कहीं भी तुम पर कोई छाप नहीं पड़ती। किसी पर पड़ जाती है तो तुम उसको पागल समझते हो। किसी पर पड़ जाती है तो तुम समझते हो कि गया काम से, यह एक और आदमी खराब हुआ।

जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह तुम्हें सार्थक दिखाई ही नहीं पड़ता। तुम कितने ही ऊंचे आकाश में उडो, तुम्हारी नजर चील की तरह कचरा-घरों पर पड़े मरे चूहों में लगी रहती है। तुम बुद्धों के पास भी बैठो तो भी तुम्हारी नजर बुद्धों पर नहीं होती। एक सज्जन मेरे पास आए। मिल कर गए। महीने भर बाद वे फिर आए। बड़े प्रसन्न थे। कहने लगे, “आपकी बड़ी कृपा है! चमत्कार हो गया। मुकदमा कई सालों से उलझा था, आपके दर्शन किए, जीत गया”।

मेरे दर्शन से इनके मुकदमे का क्या संबंध, लेकिन जब आए होंगे तो वे इसलिए आए होंगे कि मुकदमा जीतना था।

बुद्धपुरुषों के पास भी तुम जाओ तो तुम्हारी नजर तो मरे चूहों पर ही लगी रहती है। कहीं मुकदमा हार जाते तो फिर कभी दोबारा मेरे पास न आते : “यह आदमी किसी काम का नहीं, उलटा उपद्रव है “।

तो मैंने उनसे कहा, “भूल हो गई। संयोग को चमत्कार मत समझ लेना। और अब दोबारा मुकदमा जीतना हो तो यहां मत आना “।

मुकदमे से मेरा क्या संबंध हो सकता है, तुम्हारी पूरी जिंदगी बेकार है, तुम सब मुकदमे हार जाओ तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी जिंदगी पूरी हारी हुई है। तुम जिसे जिंदगी कहते हो वही व्यर्थ है।

सार्थक तुम्हारी समझ के मापदंड पर कसा जाता है।

ध्यान रखना–

“न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा

गर नहीं है मेरे अशआर में मानी न सही “।

बुद्धपुरुष सार्थक की चिंता करें तो बोल ही नहीं सकते, क्योंकि तब मरे चूहों की चर्चा करनी पड़ेगी। सत्य की परवाह करते हैं, सार्थक की नहीं। और सत्य तुम्हें निरर्थक दिखाई पड़ेगा, यह पक्का है।

बड़ी हिम्मत चाहिए सत्य की खोज के लिए, क्योंकि वह अर्थ के पार जाने की चेष्टा है। जिन-जिन चीजों में तुम्हें उपयोगिता मालूम होती है—धन है, पद है, प्रतिष्ठा है—सत्य न तो पद बनेगा, न प्रतिष्ठा, न धन, सिंहासन तो बन ही नहीं सकता, सूली भला बन जाए, धेन तो बनेगा ही नहीं, पद तो बनेगा ही नहीं, विपरीत भला हो जाए। तो सत्य तुम्हें कैसे सार्थक मालूम हो सकता है ,

सत्य तो ऐसा है, जैसे वृक्षों पर फूल हैं, पक्षियों के गीत हैं, झरनों को कलरव है—कोई अर्थ तो नहीं है।

पश्‍चिम के एक बड़े महत्वपूर्ण कवि कंम्मिग्स से किसी ने पूछा कि तुम्हारी कविताओं का मायना ही क्या है, अर्थ ही क्या है; उसने कहा, “कोई अर्थ नहीं। फूलों से पूछो, क्या अर्थ है। पक्षियों से पूछो, क्या अर्थ है। आकाश से पूछो, क्या अर्थ है उसका। और अगर आकाश व्यर्थ होकर शान से है और फूल व्यर्थ होकर गौरव से खिलते हैं, शरमाते नहीं, छिपते नहीं, तो मेरी कविताओं का ही अर्थ बताने की क्या जरूरत है?

जितनी सत्य के करीब कोई बात पहुंचने लगेगी, उतनी ही तुम्हारी सार्थकता के घेरे के बाहर हो जाएगी। अर्थ है कोई, लेकिन उस अर्थ को जानने के लिए तुम्हारी आत्मा को पूरा रूपांतरित होना पड़ेगा, तुम्हारे अर्थ की परिभाषा की बदलनी पड़ेगी।

बुद्धपुरुष प्रगट होते हैं–तुम्हारे लिए प्रगट नहीं हो पाते।

तुम इसकी चिंता भी मत करो कि वे प्रगट होते हैं या नहीं–तुम इसकी ही चिंता करो कि तुम्हारे लिए प्रगट हो पाते हैं या नहीं! अपने हृदय को खोलो! बंद द्वार-दरवाजे ताडो!

घबड़ाओ मत, खुले में आओ! छिपो मत अंधकार में!

आदत अंधकार की छोड़ो!

थोड़ी रोशनी में आओ!

आंखें तिलमिलाए भी प्रारंभ में तो घबड़ाओ मत। पुराने अंधकार की आदत हो गई है, स्वाभाविक है कि थोड़ी तिलमिलाहट होगी, थोड़ी अड़चन होगी, थोड़ी कठिनाई होगी, थोड़ी तपश्वर्या होगी। मगर यह तपश्वर्या करने जैसी है, क्योंकि जो मिलेगा वह अनंत है, जो मिलेगा वह विराट है। और जब तक वह न मिल जाए तब तक तुम्हारा जीवन एक कोरा श्ल्य है, एक रिक्तता है, एक खालीपन है।

दूसरा प्रश्‍न :

 

आये थे दर पर तेरे सिर झुकाने के लिए,

उठता नहीं है सिर अब वापस जाने के लिए

दर्द दिया है तो दवा भी तू ही दे

ऐसा न हो कि कहानी बन जाए जमाने के लिए।

 

ठीक है। घबड़ाने की कोई बात नहीं है। दर्द ही दवा बन जाता है!

दर्द ही अधूरे होने में पीड़ा है, पूरे हो जाने में दवा है।।

इसे थोड़ा समझना थोड़ा कठिन होगा समझना, क्योंकि हमारे तर्क की कोई भी कोटियां काम में नहीं आएंगी।

लेकिन आतरिक जीवन के बहुमूल्य में एक सत्य है कि अगर तुम्हारा प्रश्र पूरा हो जाए तो प्रश्र में ही उत्तर निकल आता है।

और तुम्हारी प्यास अगर समय हो जाए तो प्यास में ही झरने फूट पड़ते हैं और तृप्ति आ जाती है। दर्द पूरा हो जाए, दर्द इतना हो जाए कि तुम दर्द के जाननेवाले अलग न रह जाओ, भेद न बचे, दर्द ही बचे, तुम न बचो तो दवा हो जाती है। इसी को तपश्वर्या कहते हैं। तपश्वर्या का अर्थ है: जीवन के खालीपन की पीड़ा को उसकी समग्रता में अनुभव करना; जीवन की अर्थहीनता को उसकी पूरी त्वरा में अनुभव करना। जीवन की ही यह जिसको भाग-दौड़ हम समझ रहे हैं अभी बड़ी उपयोगी मालूम होती है, एक ख्वाब से ज्यादा न रह जाए तो अचानक हम पाएंगे: हाथ खाली है। घबड़ाहट पकड़ेगी। रोआ-रोआ कैप जाएगा। लगेगा यह जो जीये अब तक नाहक ही जीये, यह जो समय गया व्यर्थ ही गया। पीड़ा उठेगी। गहन पीड़ा उठेगी। इस पीड़ा को झेलने का नाम ही तपश्चर्या है।

और जल्दी दवा मत मांगना, क्योंकि जल्दी दी गई दवाएं शामक होंगी, वे तुम्हारी पीड़ा को सुला देंगी, तुम फिर वापस दुनिया में लौट जाओगे वैसे के वैसे। दवा मांगना ही मत। दर्द को भोगने के लिए तैयार रहना। अगर तुम भोगने की पूरी तत्परता दिखा सको तो दर्द में ही दवा छिपी है।

“इश्क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया

दर्द की दवा पायी, दर्द बेदवा पाया “।

प्रेम से, भक्ति से–

“तबियत ने जीस्त का मजा पाया…”

पहली दफा जीवन का आनंद आना श्दुरू हुआ। लेकिन यह आनंद कोरा आनंद नहीं है, इस आनंद की बड़ी गहन पीड़ा भी है। अगर तुमने प्रेम में सिर्फ सुख ही खोजा तो तुम प्रेम से वंचित रह जाओगे, क्योंकि प्रेम का दुख भी है।

गुलाब की झाड़ी पर फूल ही नहीं हैं, कांटे भी हैं,। फूल ही फूल मांगे तो फिर तुम जाकर फूल बेचने वाले से फूल खरीद लेना, झाड़ी लगाने की झंझट में मत पड़ता। वहां तुम्हें फूल मिल जाएंगे बिना कांटे के, मगर वे मरे हुए फूल हैं। जिंदा फूल चाहिए तो कांटे भी होंगे।

और गुलाब का फूल कांटों में ही शोभा देता है।

रात के घने अंधेरे में जब चैतन्य का दीया जलता है तो उसी विपरीतता में उसकी प्रतीति की सघनता है।

“इश्‍क से तबियत ने जीस्त का मजा पाया दर्द की दवा पायी,… “।

अब तक जो दर्द थे जिंदगी के—हजार दर्द हैं जिंदगी के वे ही तुम्हें मेरे पास ले आए। हजार- हजार तकलीफें हैं, चिंताएं हैं, उलझने हैं। हजार दर्द हैं जिंदगी के।

अगर तुम भक्ति और प्रेम के रास्ते पर चले तो दर्द की दवा मिल जाएगी। इन सभी दर्दों की दवा मिल जाएगी। ये सब दर्द खो जाएंगे। “दर्द की दवा पायी “–और तब एक नया दर्द श्दुरू होगा—”दर्द बेदवा पाया “। और अब एक ऐसा दर्द शुरू होगा जिसकी कोई दवा नहीं है।

इन सभी दर्दों की तो दवा है। अगर चिंता है तो ध्यान से खो जाएगी। तनाव है, ध्यान से मिट जाएगा। क्रोध है, लोभ है, मोह है—इन सभी दर्दों की दवा है। सिर्फ एक परमात्मा का दर्द है, जिसकी कोई दवा नहीं। तो तुमसे मैं सारे दर्द छीन लूंगा और एक दर्द दूंगा, जिसकी फिर कोई दवा नहीं है। सौदा मंहगा है। मंहगा सौदा। जुआरी चाहिए। दुकानदार इस काम को नहीं कर सकते। वे कहेंगे, “यह क्या हुआ, छोटे- छोटे दर्द ले लिए और यह बड़ा दर्द दे दिया! छोटे- छोटे ले लिए, जिनकी तो दवा थी, और यह दर्द दे दिया, जिसकी कोई दवा नहीं है! “

लेकिन घबड़ाना मत!

“इश्‍कसे तबीयत ने जीस्‍त का मजा पाया

दर्द की दवा पाई, दर्द बेदवा पाया।

“इश्रते कतरा है दरिया में फना हो जाना”।

बूंद को गौरव यही है, ऐश्वर्य यही है कि वह सागर में खो जाए, मिट जाए। “इश्वते कतरा है दरिया में फना हो जाना

दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना”।

यह जो बेदाव-दर्द है, अगर यह हद से गुजर जाए–हद से गुजर जाने का अर्थ है, तुम इसमें मिट ही जाओ, तुम ही हद हो, तुम ही सीमा हो, ऐसा कोई भीतर रह ही ना जाए जिसको दर्द हो रहा है, दर्द ही बस रह जाए–

“दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना “।

परमात्मा की पीड़ा ऐसी है कि उसका कोई इलाज नहीं, पीड़ा में ही इलाज छिपा है। क्योंकि परमात्मा आखिरी पीड़ा है, उसके आगे इलाज हो भी नहीं सकता। वही पीड़ा है, वही इलाज है। वही रोग है, वही औषधि है। क्योंकि उसके पार फिर कोई भी नहीं।

तो घबड़ाओ मत! दर्द की तैयारी चाहिए।

जब परमात्मा के आनंद को मांगने चले हो तो यह सौदा करने जैसा है। जितना दर्द उठाने की तैयारी दिखाओगे, उतना ही परमात्मा का आनंद उपलब्ध होगा।

तुम्हारे दर्द को झेल लेने की तैयारी, तुम्हारी परीक्षा है, तुम्हारी कसौटी है, और तुम्हारी श्रमइका भी है।

दर्द निखारता है। दर्द साफ करता है।

दर्द ऐसा है जैसे कि कोई सोने को आग में धरता है, तो जो व्यर्थ है जल जाएगा, स्वर्ण बचा रहेगा खालिस! दर्द में वही जलेगा जो व्यर्थ है, जो जल ही जाना था, कुड़-करकट था। तुम्हारे भीतर जो भी सोना है वह बच जाएगा। यह अग्नि गुजरने जैसी है।

भक्ति अग्नि है।

यह भीतर की आग है।

तीसरा प्रश्‍न :

 

आपके प्रवचन सुनते हुए कभी-कभी प्रेम-विभोर होकर मेरी आखें आसू बहाने लगती हैं। लेकिन तभी अचेतन में अहंकार को रस भी आता लगता है कि मैं अहोभाव के आसू बहा रहा हूं। क्या इससे अद्वैत का रूखा-सूखा मार्ग अच्छा नहीं है, जहां अश्रु बहाने वाला बचता ही नहीं?

 

 

बारीक है सवाल, थोड़ा समझना पड़े। नाजुक है।

थोड़ा ध्यान करना: जब भक्ति तक में अहंकार बच जाता है तो अद्वैत में तो मिट ही न सकेगा। जब आसू भी उसे नहीं बहा सकते तो रूखे-सूखे मार्ग पर तो बड़ा अकड़कर खड़ा हो जाएगा। जब आंसू भी उसे पिघला नहीं सकते, और आंसुओ से भी वह अपने को भर लेता है, तो जहां आसू नहीं हैं वहां तो मिटने का उपाय ही न रह जाएगा। समझें।

अहंकार का आसुओ से विरोध है। इसलिए तो हम पुरुष से कहते हैं, “रो मत। क्या स्त्री जैसा व्यवहार कर रहे हो! “ पुरुष को हम अहंकारी बनाते हैं। छोटा बच्चा भी रोने लगता है तो कहते हैं, “चुप! लड़का है या लड़की? “पुरुषों की दुनिया है। अब तक पुरुष काबू करते रहे हैं दुनिया पर, तो उन्होंने अपने लिए अहंकार बचा लिया है। पुरुष होने का अर्थ है: “रोना मत “। यह अकड़ है। “स्त्रियां रोती हैं। कमजोर रोते हैं, शक्तिशाली कहीं रोते हैं! “

अहंकार का आंसुओ से कुछ विरोध है।

तुम अगर सिकंदर को रोते देखो तो तुम उसको बहादुर न कह सकोगे। नेपोलियन को अगर तुम रोते देख लो तो तुम कहोगे :”अरे, नेपोलियन, और रो रहे हो! यह तो कायरों की बात है, कमजोरों की बात है। यह तो स्त्रैण चित्त का लक्षण है”।

अहंकार का आंसुओ से विरोध है। तो जब आसू भी अहंकार को नहीं मिटा पाते तो ऐसा मार्ग जहां आंसुओ की कोई जगह नहीं है, वह तो मिटा ही न पाएगा। वहां तो अहंकार और अकड़ जाएगा।

भक्तों में तो कभी-कभी तुम्हें विनम्रता मिल जाएगी, अद्वैतवादियों में तुम्हें कभी विनम्रता नहीं मिलेगी। मुश्किल है, बहुत मुश्किल है। बड़ी अकड़ मिलेगी। आसू ही नहीं हैं।

थोड़ा सोचो : हरा वृक्ष होता है तो झुक सकता है, सूखा वृक्ष होता है तो झुक नहीं सकता। विनम्रता तो झुकने की कला है। अगर आंसुओ ने थोड़ी हरियाली रखी है, तो झुक सकोगे। अगर आंसू बिलकुल सूख गए और सूखे दरख्त हो गए तुम, तो झुकना असंभव है। टूट भला जाओ, झुक न सकोगे।

अहंकारी वही तो कहते हैं कि टूट जाएंगे, मगर झुकेंगे नहीं, मिट जाएंगे, मगर अकड़े रहेंगे।

अद्वैत रूखा-सूखा रास्ता है—तर्क का, बुद्धि का, विचार का। अगर भाव, प्रेम और भक्ति के रास्ते पर भी तुम पाते हो कि अहंकार इतना कुशल है कि अपने को भर लेता है, तो फिर अद्वैत के रास्ते पर तो बहुत भर लेगा। क्योंकि भक्ति की तो पहली शर्त ही यही है : समर्पण। भक्ति तो पहली ही चोट में अहंकार को मिटाने की चेष्टा करती है, अद्वैत तो अंतिम चोट में मिटाएगा। तुम पूरा रास्ता तय कर सकते हो अद्वैत का अहंकार के साथ। आखिर में अहंकार गिरेगा। भक्ति तो पहले ही चरण पर कहती है : अहंकार छोड़ो तो ही प्रवेश है।

वैष्णव भक्तों की एक कथा है कि एक भक्त वृंदावन की यात्रा को आया–रोता, गीत गाता, अश्रु-विभोर, लेकिन मंदिर पर ही उसे रोक दिया गया। द्वार पर पहरेदार ने कहा, “रुको। अकेले भीतर जा सकते हो। लेकिन यह गठरी जो साथ ले आए हो, इसे बाहर छोड़ दो। “

उसने चौंककर चारों तरफ देखा, कोई गठरी भी उसके पास नहीं है। वह कहने लगा, “कैसी गठरी, कौन सी गठरी, मैं तो बिलकुल खाली हाथ आया हूं। “ उस द्वारपाल ने कहा, “भीतर देखो, बाहर मत। गठरी भीतर है, गांठ भीतर है। जब तक तुम्हें यह खयाल है कि मैं हूं, तब तक, तब तक भक्ति के मंदिर में प्रवेश नहीं हो सकता।

भक्ति की तो पहली शर्त है: तू है, मैं नहीं हूं। भक्ति का प्रारंभ है: तू है, मैं नहीं। और भक्ति का अंत है कि न मैं हूं, न तू है। “

अद्वैत की तो बहुत गहरी खोज यही है कि मैं हूं, तू नहीं; और अंतिम अनुभव है: न मैं हूं, न तू। इसलिए तो अद्वैत कहता है: अहं बह्मास्मि। अनलहक! मैं हूं। मैं ब्रह्म हूं। मैं सत्य हूं। अद्वैत के रास्ते पर तो वे ही लोग सफल हो सकते हैं, जो अहंकार के प्रति बहुत सजग हो सकें। क्योंकि वहां आसू भी साथ देने को न होंगे, सिर्फ सजगता ही साथ देगी। वहां प्रेम भी झुकाने को न होगा, वहां तो बोधपूर्वक ही झुकोगे तो ही झुकोगे।

तो, अद्वैत तो बहुत ही समझपूर्वक चलने का मार्ग है। सौ चलेंगे, एक मुश्किल से पहुंच पाएगा। भक्ति में नासमझ भी चल सकता है, क्योंकि भक्ति कहती है, सिर्फ गठरी छोड़ दो। कोई तर्क का जाल नहीं है, कोई विचार का सवाल नहीं है। प्रेम में डूब जाओ!

अज्ञानी भी चल सकता है भक्ति के मार्ग पर।

तो जिस मित्र ने पूछा है कि “आंसू बहने लगते हैं तो एक अहंकार पकड़ता है भीतर कि अहो, धन्यभाग, कि मैं कैसे भक्ति के रस में डूब रहा हूं! “

ठीक पूछा है। ऐसा होगा, स्वाभाविक है। उससे घबड़ाओ मत। उस अहोभाव को भी परमात्मा के चरणों पर समर्पित कर दो। तत्क्षण कहो कि खूब, फिर उलझाया, इसे भी सम्हाल! अहोभाव मेरा क्या, तेरा प्रसाद है! अब मुझे और धोखा न दे! अब मुझे और खेल न खिला! जैसे भी यह अहंकार बने, उसे तत्क्षण जैसे ही याद आ जाए, तत्क्षण परमात्मा के चरणों में रख दो। जल्दी ही तुम पाओगे: अगर तुम रखते ही गए, अहंकार के बनने का कारण ही खतम हो गया।

अहंकार संगृहीत हो तो ही निर्मित होता है। पल-पल उसे चढ़ाते जाओ परमात्मा के चरणों में। और सब फूल चढ़ाए, बेकार; धूप-दीप बाली, बेकार; आरती उतारी, व्यर्थ–बस अहंकार प्रतिपल बनता है, उसे तुम चढ़ाते जाओ। वही तुम्हारे भीतर उगनेवाला फूल है, उसे चढ़ाते जाओ। जल्दी ही तुम पाओगे, उसका उगना बंद हो गया। क्यों? उसका संगहीत होना जरूरी है। और आंसू बड़े सहयोगी हैं। होश रखना पड़ेगा। थोड़ा जागरूक रहना पड़ेगा। नहीं तो अहंकार बड़ा सूक्ष्म है और बड़ा कुशल है, बड़ा चालाक है। सावधान रहना पड़ेगा।

सावधानी तो सभी मार्गी पर जरूरी है; भक्ति के मार्ग पर सबसे कम जरूरी है, लेकिन जरूरी तो है ही। अद्वैत के मार्ग पर बहुत ज्यादा जरूरी है। न्यूनतम सावधानी से भी काम चल सकता है भक्ति के मार्ग पर, लेकिन बिलकुल बिना सावधानी के काम नहीं चल सकता है। घबड़ाओ मत। जो हो रहा है, बिलकुल स्वाभाविक है, सभी को होता है। यात्रा के प्रारंभ में यह अड़चन सभी को आती है।

अहंकार की आदत है कि जो भी मिल जाए उसी का सहारा खोजकर अपने को भर लेता है। धन कमाओ तो कहता है, देखो कितना धन कमा लिया! ज्ञान इकट्ठा कर लो तो कहता है, कितना ज्ञान पा लिया! त्याग करो तो कहता है, देखो कितना त्याग कर दिया! ध्यान करो तो कहता है, देखो कितना ध्यान कर लिया! मेरे जैसा ध्यानी कोई भी नहीं है! आंसू बहाओ तो गिनती कर लेता है, मैंने कितने आंसू बहाए, दूसरों ने कितने बहाए। मेरा नंबर एक है, बाकी नंबर दो हैं!

इस अहंकार की तरकीब के प्रति होश रखना भर जरूरी है, कुछ और करने की जरूरत नहीं है। उसे भी चढ़ा दो परमात्मा को।

भक्त को एक सुविधा है, परमात्मा भी है, उसके चरणों में तुम चढ़ा सकते हो। भक्त को एक सुविधा है कि अहंकार के विपरीत वह परमात्मा का सहारा ले सकता है। अद्वैतवादी को वह सुविधा भी नहीं है। वह बिलकुल अकेला है, कोई संगी-साथी नहीं है। भक्त अकेला नहीं है। इसलिए अगर भक्ति के मार्ग पर भी तुम्हें अड़चन आ रही है तो यह मत सोचना कि अद्वैत का मार्ग तुम्हें आसान होगा, और भी कठिन होगा। इस भूल में मत पड़ना।

अहंकार की एक ही घबड़ाहट है, और वह घबड़ाहट यह है कि कहीं मर न जाऊं। अहंकार मरेगा ही। वह कोई शाश्वत सत्य नहीं है, वह क्षणभंगुर है। तुम कभी न मरोगे, तुम्हारा अहंकार तो मरेगा ही। जितनी जल्दी तुम यह बात समझ लो, उतना ही भला है।

उम्र फानी है तो फिर मौत से डरना कैसा

एक बात तो पक्की है कि मौत निश्वित है और जिंदगी आज है कल नहीं होगी–हवा की लहर है, आई और गई, सदा टिकनेवाली नहीं है।

उम्र फानी है तो फिर मौत से डरना कैसा

इक-न-इक रोज यह हंगामा हुआ रखा है

किसी भी दिन यह घटना घटनेवाली है। मौत होगी ही।

इक-न-इक रोज यह हंगामा हुआ रखा है

तो जो होने ही वाला है, उसे स्वीकार कर लो। अहो मत, बहो। यह लड़ाई छोड़ दो कि मैं बचूं। स्वीकार ही कर लो कि मैं नहीं हूं।

जो मौत करेगी, भक्त उसे आज ही कर लेता है। जो मौत में जबर्दस्ती किया जाएगा, भक्त उसे स्वेच्छा से कर लेता है। वह कहता है, “जो मिटना ही है वह मिट ही गया। आज मिटा, कल मिटा—क्या फर्क पड़ता है! मैं खुद ही उसे छोड़ देता हूं। “

अपनी मौत को स्वीकार कर लो तो तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे। इधर तुमने मौत को स्वीकार किया कि उधर तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर कोई छिपा है–तुमसे ज्यादा गहरा, तुमसे ज्यादा ऊंचा, तुमसे ज्यादा बड़ा। तुम मिटे कि उस ऊंचाई और गहराई और उस विराट का पता चलना शुरू हो जाता है।

तुमने तिनके का सहारा ले रखा है। तिनके के सहारे के कारण तुम भी छोटे हो गए हो। तुमने गलत संग पकड़ लिया है। गलत से तादात्म्य हो गया है।

मौत को स्वीकार कर लो। मौत को स्वीकार करते ही अहंकार नहीं बचता। जैसे ही तुमने सोचा, समझा कि मौत निश्वित है—होगी ही, आज हो, कल हो, परसों हो–होगी ही, इससे बचने का कोई उपाय नहीं है, कोई कभी बच नहीं पाया। भाग- भागकर कहां जाओगे?

भाग-भागकर सभी उसी में पहुंच जाते हैं, मौत के ही मुंह में पहुंच जाते हैं। अंगीकार कर लो। उस अंगीकार में ही अहंकार मर जाता है।

मुझे अहसास कम था वर्ना दौरे जिंदगानी में

मेरी हर सांस के हमराह मुझमें इंकिलाब आया

मुझे होश कम था, मुझे अहसास कम था। होश कम था, सावधानी नहीं थी, जागरूकता नहीं थी।

… वर्ना दौरे जिंदगानी में! वर्ना जिंदगी भर,

मेरी हर सांस के हम राह मुझमें इंकिलाब आया

मेरी हर सांस के साथ क्रांति की संभावना आती थी और मैं चूकता गया। हर सांस के साथ क्रांति घट सकती थी, अहंकार छूट सकता था और परमात्मा के जगत में प्रवेश हो सकता था–लेकिन होश कम था।

इस होश को थोड़ा जगाओ। वह इंकलाब, वह क्रांति तुम्हारी भी हर श्वास के साथ आती है, तुम चूकते चले जाते हो।

अहंकार को जब तक तुम पकड़े हो, चूकते ही चले जाओगे। जिस दिन छोड़ा अहंकार को, उसी क्षण क्रांति घट जाती है। उसी क्रांति की तलाश है। उस क्रांति के बिना कोई तृप्ति न होगी। उस क्रांति के बिना तुम थरथराते ही रहोगे भय में, घबड़ाते ही रहोगे चिंताओं में, डरते ही रहोगे।

मौत जब तक होने वाली है, तब तक कोई निश्वित हो भी कैसे सकता है! अगर तुमने स्वीकार कर लिया तो मौत हो ही गई, फिर चिंता का कोई कारण नहीं।

इसे थोड़ा करके देखो। यह बात करने की है। यह बात सोचने भर की नहीं है। इसे करोगे तो ही इसका स्वाद मिलेगा।

चौथा प्रश्‍न :

 

पृथ्वी पर अभी भी असंख्य मंदिर, मस्जिद, गिरजे और गुरुद्वारे हैं, जहां विधिविहित पूजा-प्रार्थना चलती है। क्या आपके देखे, वे सबके सब व्यर्थ ही हैं?

 

अगर व्यर्थ न होते तो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आया होता। अगर व्यर्थ न होते–इतनी पूजा, इतनी प्रार्थना, इतने मंदिर, इतने गिरजे, इतने मस्जिद–अगर वे सब सच होते, अगर ये प्रार्थनाएं वास्तविक होतीं, हृदय से आविर्भूत होतीं, तो पृथ्वी स्वर्ग बन गई होती। लेकिन पृथ्वी नरक है। जरूर कहीं न कहीं चूक हो रही है।

या तो परमात्मा नहीं है, इसलिए प्रार्थनाएं व्यर्थ जा रही हैं; या प्रार्थनाएं ठीक नहीं हो रही हैं, और परमात्मा से संबंध नहीं जुड पा रहा है। बस दो ही विकल्प हैं। अब इसमें तुम चुन लो, जो तुम्हें चुनना हो। एक विकल्प है कि परमात्मा नहीं है, इसलिए प्रार्थनाएं कितनी ही करो, क्या होनेवाला है! है ही नहीं कोई वहां सुनने को, आकाश खाली और कोरा है, चिल्लाओ-चीखो–तुम पागलपन कर रहे हो। यह समय व्यर्थ ही जा रहा है, इसका कुछ उपयोग कर लेते, कुछ काम में आ जाता। और या फिर, परमात्मा है, प्रार्थना करनेवाला प्रार्थना नहीं कर रहा है, धोखा दे रहा है।

मैं दूसरा ही विकल्प स्वीकार करता हूं। मेरे देखे परमात्मा है, प्रार्थना नहीं है—इसलिए संबंध टूट गए हैं, बीच का सेतु गिर गया है।

कुछ लोगों को तो प्रार्थना भी प्राक्सी से करनी शुरू कर दी है। पुजारी कर देता है। हिंदुओं ने वह तरकीब खोज ली है। वे खुद नहीं जाते। गरीब- गुरबे चले जाएं, पर जिनके पास थोड़ी सुविधा है, वे पुजारी रख लेते हैं। मंदिर में एक व्यवसायी पुजारी है, वह पूजा कर देता है। यह प्रार्थना प्राक्सी से है।

यह भी खूब धोखा हुआ! किसको धोखा दे रहे हो? उस पुजारी को प्रार्थना से कुछ लेना-देना नहीं है। उसको सौ रुपये महीने मिलते हैं तनख्वाह, उसको तनख्वाह से मतलब है। वह प्रार्थना करता है, क्योंकि सौ रुपये लेने है। वह व्यवसाय है। अगर उसे कोई डेढ़ सौ रुपये देनेवाला मिल जाए तो इसी भगवान के खिलाफ भी प्रार्थना कर सकता है, कोई अड़चन नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन एक सम्राट के घर नौकर था, रसोइये का काम करता था। भिंडी बनाई थीं उसने। सम्राट ने बड़ी प्रशंसा की। उसने कहा कि मालिक, भिंडी तो सम्राट है। जैसे आप सम्राट हैं, शहंशाह हैं, ऐसे ही भिंडी भी सभी शाक- सब्जियों में सम्राट है।

दूसरे दिन भी भिंडी बनाई। तीसरे दिन भी भिंडी बनाई। चौथे दिन सम्राट ने थाली फेंक दी। उसने कहा कि नालायक, रोज भिंडी। तो मुल्ला ने कहा, “मालिक! यह तो जहर है! यह तो गधों को भी खिलाओ, तो न खाएं “।

सम्राट ने कहा कि नसरुद्दीन, चार दिन पहले तूने कहा था, यह शाक- सब्जियों में सम्राट है। और आज जहर है!

उसने कहा, “मालिक! हम आपके नौकर हैं, भिंडी के नहीं। हम तो आपको देखकर कहते हैं। जो आप कहते हैं वही हम कहते हैं। हम आपके नौकर हैं। भिंडी से हमें कुछ लेना- देना नहीं “। तो उस पुजारी से तुम जो चाहो करवा लो। वह तुम्हारा नौकर है, परमात्मा से कुछ लेना- देना नहीं है।

आदमी बड़ी चालाकियां करता है।

तिब्बती लामा एक चाक बना लिए हैं—प्रेयर- व्हील। उसके आरों पर, स्पोक्स पर मंत्र लिखे हैं। उसको बैठ- बैठे घुमा देते हैं हाथ से। जैसे चरखे का चाक होता है, हाथ से घुमा दिया, वह कोई पचास- सौ चक्कर लगाकर रुक जाता है। वे सोचते हैं कि इतने मंत्रों का लाभ हो गया, इतनी बार मंत्र कहने का लाभ हो गया।

एक लामा मुझ से मिलने आया था। मैंने का कि तू बिलकुल पागल है! इसमें प्लग लगा दे और बिजली में जोड़ दे। यह चलता ही रहेगा, तू सो, बैठ, जो तुझे करना हो, कर। यह भी झंझट क्यों कि इसको बार-बार हाथ से घुमाना पड़ता है, तू काम दूसरा करता है। फिर घुमाया, फिर घुमाया। और जब धोखा ही देना है, तो तूने प्लग लगाया, इसलिए तुझी को लाभ मिलेगा, जैसे चक्कर लगाने से मिलता है। जो प्लग लगाएगा उसको मिलेगा।

हम किसको धोखा दे रहे हैं?

लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन प्रार्थनाओं को कोई संबंध परमात्मा से है?

कोई मांग रहा है कि बेटा नहीं है, मिल जाए। कोई मांग रहा है कि धन नहीं है, मिल जाए। कोई मांग रहा है, अदालत में मुकदमा है, जीत जाऊं।

तुम परमात्मा की सेवा लेने गए हो, परमात्मा की सेवा करने नहीं। तुम परमात्मा को भी अपना नौकर-चाकर बना लेना चाहते हो; तुम्हारा मुकदमा जिताए, तुम्हें बच्चा पैदा करे, तुम्हारे लड़के की शादी करवाए। लेकिन तुम परमात्मा को धन्यवाद देने नहीं गए हो कि तूने जो दिया है वह अपरंपार है। तुम मांगने गए हो।

जहां मांग है वहां प्रार्थना नहीं है।

इसे तुम कसौटी समझो कि जब भी तुम मांगोगे, तब प्रार्थना झूठी हो गई। क्योंकि जब तुम धन मांगते हो तो धन परमात्मा से बड़ा हो गया। तुम परमात्मा का उपयोग भी धन पाने के लिए करना चाहते हो।

विवेकानंद के पिता मरे। शाहीदिल आदमी थे। बड़ा कर्ज छोड्कर गए। घर में तो कुछ भी न था, खाने को भी कुछ छोड़ नहीं गए थे। तो रामकृष्ण ने विवेकानंद को कहा कि तू परेशान मत हो। तू मां से क्यों नहीं कहता; मंदिर में जा और कह दे, वे सब पूरा कर देगी।

वे द्वार पर बैठ गए, विवेकानंद को भीतर भेज दिया। घंटे भर बाद विवेकानंद लौटे, आंख से आंसू बह रहे हैं, बड़े अहोभाव में। रामकृष्ण ने कहा, “कहा; “ विवेकानंद ने कहा, “अरे। वह तो मैं भूल ही गया”।

फिर दूसरे दिन भेजा। फिर वही। फिर तीसरे दिन भेजा। विवेकानंद ने कहा, “यह मुझसे न हो सकेगा। मैं जाता हूं और जब खड़ा होता हूं प्रतिमा के समक्ष, तो मेरे दुख-सुख का कोई सवाल ही नहीं रह जाता। मैं ही नहीं रह जाता तो दुख-सुख का सवाल कहा। पेट होगा भूखा, लेकिन मेरा शरीर से ही संबंध टूट जाता है। और उस महिमा के सामने क्या छोटी-छोटी बातें करनी हैं। चार दिन की जिंदगी है, भूखे भी गुजार देंगे। यह शिकायत भी कोई परमात्मा से करने की है। आप मुझे, परमहंस देव, अब दोबारा न भेजें। क्षमा करें, मैं न जाऊंगा “।

रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, “यह तेरी परीक्षा थी। मैं देखता था कि तू मांगता है या नहीं। अगर मांगता तो मेरे लिए तू व्यर्थ हो गया था। क्योंकि प्रार्थना फिर हो ही नहीं सकती, जहां मांग है। तूने नहीं मांगा, बार-बार मैंने तुझे भेजा और तू हारकर लौट आया–यह खबर है इस बात की कि तेरे भीतर प्रार्थना का खुलेगा आकाश। तेरे भीतर प्रार्थना का बीज टूटेगा, प्रार्थना का वृक्ष बनेगा। तेरे नीचे हजारों लोग छाया में बैठेंगे “।

मांग रहे हैं लोग–मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, शिवालयों में–प्रार्थना नहीं हो रही है।

मंदिर-मस्जिद में जाता ही गलत आदमी है। जिसे प्रार्थना करनी हो तो वह कहीं भी कर लेगा। जिसे प्रार्थना करने का ढंग आ गया, सलीका आ गया, वह जहां है वहीं कर लेगा। यह सारा ही संसार उसका है, उसका ही मंदिर है, उसकी ही मस्जिद है।

हर चट्टान में उसी का द्वार है!

और हर वृक्ष में उसी की खबर है!

कहां जाना है और?

“तेरे कूचे में रहकर मुझको मर मिटना गवारा है

मगर दैरो-हरम की खाक अब छानी नहीं जाती”।

भक्त तो कहता है, अब क्या मंदिर और मस्जिद की खाक छानूं तेरी गली में रहकर मर जाएंगे, बस पर्याप्त है।

और सभी तो गलियां उसकी हैं।

मैं यह नहीं कहा रहा हूं, मंदिर मत जाना। क्योंकि मंदिर भी उसका है, चले गए तो कुछ हर्ज नहीं। लेकिन विशेष रूप से जाने की कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि जहां तुम बैठे हो, वह जगह भी उसी की है। उससे खाली तो कुछ भी नहीं।

यह स्मरण आ जाए तो जब आंख बंद कीं, तभी मंदिर खुल गया;

जब हाथ जोड़े तभी मंदिर खुल गया

जहां सिर झुकाया वहीं उसकी प्रतिमा स्थापित हो गई!

झेन फकीर इक्यू एक मंदिर में ठहरा था। रात सर्द थी, बड़ी सर्द थी! तो बुद्ध की तीन प्रतिमाएं थीं लकड़ी की, उसने एक उठाकर जला दी। रात में ताप रहा था आच, मंदिर का पुजारी जग गया आवाज सुनकर, और आग और धुआ देखकर। वह भागा हुआ आया। उसने कहा, “यह क्या किया? “ देखा तो मूर्ति जला डाली है। तो वह विश्वास ही न कर सका। यह बौद्ध भिक्षु है और इसी भरोसे इसको ठहर जाने दिया मंदिर में और यह तो बड़ा नासमझ निकला, नास्तिक मालूम होता है। तो बहुत गुस्से में आ गया। उसने कहा, “तूने बुद्ध की मूर्ति जला डाली है! “ भगवान की गतइr जला डाली है! “

तो इक्यू बैठा था, राख तो हो गई थी, मूर्ति तो अब राख थी। उसने बड़ी एक लकड़ी उठाकर कुरेदना शुरू किया राख को। उस पुजारी ने पूछा, “अब क्या कर रहे हो? “ तो उसने कहा कि मैं भगवान की अस्थियां खोजता हूं। वह पुजारी हंसने लगा। उसने कहा, “तुम बिलकुल ही पागल हो–लकडी की गतइr में कहें अस्थियां हैं”!

तो उसने कहा, “फिर ऐसा करो, अभी दो मूर्तियां और हैं, ले लाओ। रात बहुत बाकी है और रात बड़ी सर्द है, और भीतर का भगवान बड़ी सर्दी अनुभव कर रहा है”।

पुजारी ने तो उसे निकाल बाहर किया क्योंकि कहीं यह और न जला दे। लेकिन उस सुबह पुजारी ने देखा कि बाहर वह सड़क के किनारे बैठा है और मील का जो पत्थर लगा है, उस पर उसने दो फूल चढ़ा दिए हैं और प्रार्थना में लीन है! तो वह गया और उसने कहा कि पागल हमने बहुत देखे हैं, लेकिन तुम भी गजब के पागल हो! रात गतइr जला दी भगवान की, अब मील के पत्थर की पूजा कर रहे हो!

उसने कहा, “जहां सिर झुकाया वहीं गतइr स्थापित हो जाती है “।

मूर्ति, मूर्ति में तो नहीं है, तुम्हारे सिर झुकाने में है। और जिस दिन तुम्हें ठीक-ठीक प्रार्थना की कला आ जाएगी, उस दिन तुम मंदिर- मस्जिद न खोजोगे–उस दिन तुम जहां होओगे, वहीं मंदिर-मस्जिद होगा, तुम्हारा मंदिर, तुम्हारी मस्जिद तुम्हारे चारों तरफ चलेगी, वह तुम्हारा प्रभामंडल हो जाएगा।

जहां-जहां भक्त पैर रखता है, वहीं- वहीं एक काबा और निर्मित हो जाता है। जहां भक्त बैठता है, वहां तीर्थ बन जाते हैं। तीर्थों में थोड़े ही भगवान मिलता है, जिसको भगवान मिल गया है, उसके चरण जहां पड़ जाते हैं वहीं तीर्थ बन जाते हैं। ऐसे ही पुराने तीर्थ बने हैं।

काबा के कारण काबा महत्वपूर्ण नहीं है, वह मोहम्मद से सिजदा के कारण महत्वपूर्ण है, अन्यथा पत्थर था। लेकिन किसी को सिर झुकाना आ गया, इस कारण महत्वपूर्ण है।

सारे तीर्थ इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि कभी वहां कोई भक्त हुआ, कभी कोई वहां मिटा, कभी किसी ने अपने बूंद को वहां खोया और सौर को निमंत्रण दिया। वे याददाश्त हैं! वहां जाने से तुम्हें कुछ हो जाएगा, ऐसा नहीं—लेकिन, अगर तुम्हें कुछ हो जाए, तो तुम जहां हो वहीं तीर्थ बन जाएगा, ऐसा जरूर है।

पांचवां प्रश्‍न :

 

  लोग पीते हैं लड़खड़ाते हैं

  तेरी शरण में बहुत कुछ पाते हैं

  एक हम हैं कि तेरी महफिल में

  प्यासे आते हैं, प्यासे ही जाते हैं!

फिर प्यास ही न होगी। फिर अभी प्यास खयाल है, वास्तविक नहीं। अन्यथा कौन रोकता है तुम्हें पीने से?

अगर सरोवर के पास से तुम प्यासे ही लौट आओ, तो प्यास-प्यास ही न होगी।

जब प्यास पकड़ती है किसी को तो गंदे डबरे से भी आदमी पी लेता है। प्यास होनी चाहिए। और जब प्यास नहीं होती है तो स्वच्छ मानसरोवर भी सामने हो तो भी क्या करोगे ?

प्यास की तलाश करो। खोजो। प्यास झूठी होगी।

बहुत लोगों को झूठी प्यास लग आती है। प्यास की चर्चा सुन- सुनकर प्यास तो नहीं जगती, प्यास लगनी चाहिए, ऐसा लोभ भीतर समा जाता है।

तुमने परमात्मा की बहुत बातें सुनी तो लगता है, परमात्मा मिलना चाहिए। प्यास नहीं है भीतर, लोभ पैदा हुआ।

तुम लोभ के कारण आते होओगे, तो खाली लौट जाओगे, क्योंकि यहां मैं किसी का भी लोभ पूरा करने को नहीं हूं। यहां तो लोभ छोड़ना है, मिटना है, पूरा नहीं करना है।

तुम्हारी परमात्मा की धारणा झूठी और उधार होगी। तुम्हें जीवन की परिपक्वता से परमात्मा की धारणा पैदा न हुई होगी। तुम अभी कच्चे फल हो।

या तो आओ तो प्यास लेकर आओ, अन्यथा आओ ही मत। थोड़ी देर और रुको। कहीं ऐसा न हो कि मेरे शब्द तुम्हें और एक नया धोखा दे दें। प्यास का धोखा तो है ही, कहीं तृप्ति का धोखा और न पैदा हो जाए। वह बड़ा खतरा है। और जिसको प्यास का धोखा है, वह एक न एक दिन तृप्ति का धोखा भी कर लेता है।

जब तुम झूठी प्यास को मान लेते हो–किसको कहता हूं मैं झूठी प्यास?

मेरे पास लोग आते हैं, इतने लोग आते हैं, उनमें से सौ में से निन्यानबे झूठी प्यास के होते हैं।

किसी की पत्नी मर गई, परमात्मा की खोज पर निकल जाता है, जैसे पत्नी के मरने से परमात्मा की खोज का कोई संबंध हो! दूसरी पत्नी खोजता, समझ में आती थी बात। लेकिन संस्कार, समाज! दूसरी पत्नी नहीं खोजता। खोज रहा है दूसरी की पत्नी। झुठला रहा है। बिना खोजे नहीं रह सकता, एक खोज पैदा हो रही है भीतर। कामवासना प्रगाढ़ हो रही है, जग रही–लेकिन संस्कार, समाज, प्रतिष्ठा, बच्चे, परिवार, नाम…!       खोजना तो है पत्नी को, खोजता है परमात्मा को! अब वह कभी भी परमात्मा को तो पा ही ना सकेगा। बुनियाद में खोज ही गलत हो गई।

किसी का दिवाला निकल गया, परमात्मा की खोज पर चले! दिवाले से परमात्मा का क्या लेना-देना है, तुम परमात्मा को सांत्वना समझ रहे हो, दुख में हो तो परमात्मा को मलहम समझ रहे हो, तो गलत जा रहे हो।

परमात्मा की खोज तो सच्ची तभी होती है जब जीवन का अनुभव तुम्हें कह दे कि जीवन व्यर्थ है। जब पूरा जीवन व्यर्थ मालूम हो, जब इस जीवन की सारी सार्थकता खंडित हो जाए, तुम अचानक जागो जैसे कोई स्वप्न से जाग गया और पाओ कि अब तक जो किया था, वह सब व्यर्थ हुआ, नये से शरुआत करनी है, नया जन्म हो–तो प्यास पैदा हो होती है। ऐसा व्यक्ति जब भी आएगा तो तृप्त होकर जाएगा।

प्यास ही न लाए होओ तो कैसे तृप्त होकर जाओगे, तृप्ति की पहली शर्त तो पूरी करो। तुम प्यास पूरी बताओ, तुम प्यास पूरी जगाओ, दूसरा काम मैं कर दूंगा। वह करना ही नहीं पड़ता, इसलिए तो इतनी सुविधा से जिम्मेदारी ले रहा हूं। तुम बस पहला पूरा कर दो, वह दूसरा अपने से पूरा हो जाता है, उसे कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती। तुम्हारी प्यास में ही तुम्हारी तृप्ति का सागर छिपा है। इसलिए तो निश्वित भाव से कहता हूं कि दूसरा मैं कर दूंगा। इसकी गारंटी कर देता हूं, क्योंकि उसमें कुछ करना ही नहीं है। मैं रहूं न रहूं, कोई फर्क नहीं पड़ता, तुम जब भी प्यासे होओगे, तृप्ति हो जाएगी।

आखिरी प्रश्‍न :

 

  “इश्क पर जोर नहीं ये वो आतिश “गालिब “

  कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे!

  फिर देवर्षि नारद ने प्रेम पर यह शास्त्र क्यों लिखा?

 

निश्वित ही प्रेम ऐसी आग है जो न तो तुम लगा सकते हो, न तुम बुझा सकते हो। न लगाने का कोई उपाय नहीं है। लग जाए तो बुझाने का कोई उपाय नहीं है।

स्वाभाविक प्रश्र उठता है। अगर प्रेम ऐसी आग है, अगर एक ऐसी घटना है जो अपने से घटती है और तुम्हारे किए कुछ नहीं हो सकता–तो फिर शास्त्र का प्रयोजन क्या? फिर भी प्रयोजन है।

ऐसा समझो कि तुम खिड़की-द्वार-दरवाजे बंद करके अपने अंधेरे घर में बैठे हो, द्वार पर खड़ा है सूरज, किरणें थाप दे रही हैं, लेकिन तुम अपने दरवाजे बंद किए बैठे हो, तो सूरज भीतर नहीं आ पाएगा। द्वार-दरवाजे खोल दो, सूरज अपने से ही भीतर आता है, उसे लाना नहीं पड़ता। तुम कोई पोटलियों में बांधकर सूरज को भीतर नहीं लाओगे। तुम कोई हांक कर सूरज को भीतर नहीं लाओगे। बुलाने की भी जरूरत न पड़ेगी, आमंत्रण भी न देना पड़ेगा। इधर तुमने द्वार खोला कि सूरज भीतर आया। और अगर सूरज बाहर न हो तो सिर्फ तुम्हारे द्वार खुलने से भीतर न आ जाएगा, सूरज होगा तो भीतर आएगा। सूरज न होगा तो तुम कुछ भी न कर सकोगे कि सूरज भीतर आ जाए। तो एक बात तो पक्की है कि सूरज होगा तो ही भीतर आएगा, न होगा तो तुम द्वार-दरवाजे कितने ही खोलो, इससे कुछ न होगा। लेकिन एक बात है, सूरज बाहर खड़ा हो और तुम द्वार न खोलो तो भीतर न आ सकेगा।

शास्त्र का उपयोग है कि तुम्हें द्वार-दरवाजे खोलना सिखा दे।

प्रेम तो जब घटता है घटता है, तुम्हारे घटाए न घटेगा। और तुम्हारे घटाए घट जाए तो वह प्रेम दो कौड़ी का होगा, वह तुमसे नीचा होगा, तुमसे छोटा होगा। तुम्हारे ही कृत्य तुम से बड़ा नहीं हो सकता। कोई कृत्य कर्ता से बड़ा नहीं हो सकता। उस प्रेम ही कोई कीमत नहीं है। वह तो अभिनय होगा ज्यादा से ज्यादा। हैपनिंग। लेकिन अगर तुम द्वार-दरवाजे बंद किए बैठे हो तो वह द्वार पर ही खड़ा रहेगा, भीतर किरणें न आ सकेंगी।

शास्त्र का उपयोग है कि वह तुम्हें इतना ही बताए कि तुम बाधा न डालो। बाधा हटायी जा सकती है, बस फिर प्रेम तो मौजूद ही है।

भक्ति तो तुम्हें चारों तरफ से घेरे खड़ी है। झरना तो बहने को तत्पर है, एक पत्थर पड़ा है चट्टान की तरफ रुकावट डाल रहा है। चट्टान उठाने से झरना पैदा नहीं होता–झरना होगा तो चट्टान उठाने से वह उठेगा, जलधार आ जाएगी। लेकिन झरना भी हो और चट्टान पड़ी हो, तो जलधार उपलब्ध न होगी।

निषेधात्मक है शास्त्र का उपयोग, निगेटिव है। सभी शास्त्र निषेधात्मक हैं। वे इतना ही बताते हैं कि किस-किस तरह से इंतजाम करो, ताकि बाधा न पड़े। जो होना है, वह तो अपने से होगा।

इसलिए तो भक्त कहते हैं, जब परमात्मा मिलता है तो प्रसाद से मिलता है, हमारे कि नहीं मिलता, लेकिन जब नहीं मिलता तो हमने कुछ किया है जिसके कारण नहीं मिलता।

इसको समझ लेना।

परमात्मा को खोते तुम हो, जब वह मिलता है तो उसके कारण मिलता है। पाप तुम करते हो, पुण्य वह करता है। भूल तुमसे होती है, सुधार उससे होता है। गलत तुम जाते हो, और जब तुम ठीक जाने लगते हो तब वह जाता है, तब तुम नहीं जाते।

यही मतलब है–

“इश्क पर जोर नहीं ये वो आतिश “गालिब “

कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे। “

इश्क पर कोई जोर नहीं है, लेकिन चट्टानें-पत्थर इकट्ठा करना बड़ा आसान है। तुम अपने चारों तरफ अवरोध खड़े कर सकते हो कि प्रेम आ ही न सके।

यही तुमने किया है। तुमने परमात्मा के लिए रंध्र-रंध्र भी बंद कर दिए हैं, कहीं से उसकी एक किरण भी तुम्हारे भीतर प्रविष्ट न हो जाए! तुम सब तरफ से परमात्मा-एफ हो!

उतना ही शास्त्र का प्रयोजन है कि तुम अपने दीवाल-दरवाजे हटा दो।

परमात्मा तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार है, स्वरूप-सिद्ध अधिकार है। गंवाया है तो तुमने अपनी होशियारी से–पाओगे, इस होशियारी को छोड़ देने से।

इसलिए सारा सूत्र नकारात्मक है।

किसी चिकित्सक से पूछो, “चिकित्सा शास्त्र क्या है? “ तो वह कहेगा, “बीमारी का इलाज “। उससे तुम पूछो तो हजारों बीमारियों की व्याख्या कर देगा, लेकिन अगर स्वास्थ्य की व्याख्या पूछो तो न कर पाएगा।

स्वास्थ्य की कोई व्याख्या ही नहीं है। स्वास्थ्य तो जब होता है तब होता है, अव्याख्य है। फिर चिकित्सक क्या करता है? वह केवल बीमारी का अवरोध हटाता है।

तुम्हें टी. बी. पकड़ जाए तो चिकित्सक स्वास्थ्य थोड़े ही लाता है–उसकी किसी दवा की गोली में स्वास्थ्य नहीं छिपा है—सिर्फ टी. बी. को अलग करता है। टी. बी. अलग हो जाए तो स्वास्थ्य तो अपने से घटता है।

स्वास्थ्य तो तुम्हारा स्वभाव है। इसलिए तो उसे “स्वास्थ्य “ कहते हैं! वह “स्व “ का भाग है। वह तुम्हारी स्वयं की सत्ता है।

“स्व “ में स्थित हो जाना स्वास्थ्य की परिभाषा है।

बीमारी तुम्हें अपने से बाहर खींच रही है कहीं। चिकित्सक तुम्हें बीमारी से छुड़ा देता है, बस। स्वास्थ्य कोई चिकित्सक नहीं दे सकता–स्वास्थ्य तो तुम लेकर ही आए हो।

ठीक शास्त्र का यही उपयोग है कि बीमारी से छुड़ा दे। प्रेम तो अपने से घटता है।

भक्ति तो अपने से आती है

परमात्मा अपने से उतरता है।

लेकिन कोई अवरोध न रह जाए…।

तुम एक बीज बोते हो बगीचे में…बीज बोओ और उसके ऊपर एक पत्थर रख दो; बीज में संभावना थी, वह संभावना तुम नहीं ला सकते, वह संभावना थी ही; बीज फूटता अपने से; तुम जल दे सकते थे, सहारा बन सकते थे, तुम पत्थर हटा सकते थे, अवरोध अलग कर सकते थे: बीज वृक्ष बनता, फूल आते, फल लगते, छाया होती, सौंदर्य का जन्म होता–वह सब अपने से होता।

तुम कोई बीज से वृक्ष को खींच नहीं सकते। तुम कोई जबरदस्ती फूलों को खिला नहीं सकते। तुम जबरदस्ती वृक्ष से फलों को निकाल नहीं सकते। लेकिन तुम चाहो तो रोक सकते हो। मनुष्य की सामर्थ्य इतनी ही है कि वह जो हो सकता है, उसे रोक सकता है; जो होना चाहिए, उसे कर नहीं सकता।

मनुष्य भटक सकता है–यह उसकी सामर्थ्य है। गलत होने की सामर्थ्य मनुष्य में है। ठीक: बस वह गलत होने की सामर्थ्य को छोड़ दे कि ठीक अपने से हो जाता है।

ठीक होना प्रकृतिदत्त है, स्वाभाविक है; गलत होना चेष्टा से है।

प्रयत्न से हम पाप करते हैं; जो निष्प्रयत्न होता है, वह पुण्य है।

प्रयास से हम संसार बनाते हैं; जो बिना प्रयास के, प्रसाद से मिलता है, वही परमात्मा है।

आज इतना ही।


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–7

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योग और भोग का संगीत है भक्तिसातवां प्रवचन

दिनांक 17 जनवरी, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र :

सा तु कर्मज्ञानयोगेम्योध्प्यधिकतरा।

फलरूपत्वात्।

ईश्वरस्या: यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च।

तस्या ज्ञानमेव सा धनमित्येके।

अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये।

स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमारा:।

राजगह भोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात्।

न तेन राजपरितोष: क्षुधाशांतिर्वा।

तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभि:।

क्ति का सार सूत्र है: प्रसाद

ज्ञान, कर्म, योग, उन सबका सार-सूत्र है प्रयास।

ज्ञान, कर्म, योग मनुष्य की चेष्टा पर निर्भर हैं; भक्ति परमात्मा के प्रसाद पर। स्वभावत: भक्ति अतुलनीय है। न कर्म छू सकता है उस ऊंचाई को, न ज्ञान, न योग।

मनुष्य का प्रयास ऊंचा भी जाए तो कितना? मनुष्य करेगा भी तो कितना? मनुष्य का किया हुआ मनुष्य से बड़ा नहीं हो सकता। मनुष्य जो भी करेगा, उस पर मनुष्य की छाप रहेगी। मनुष्य जो भी करेगा उस पर मनुष्य की सीमा का बंधन रहेगा।

भक्ति मनुष्य में भरोसा नहीं करती; भक्ति परमात्मा में भरोसा करती है। एक बहुत अनूठा भक्त हुआ: बायजीद बिस्तामी। कहा है उसने, तीस साल तक निरंतर परमात्मा को खोजने के बाद, एक दिन सोचा तो दिखाई पड़ा: “मेरे खोजे वह कैसे मिलेगा, जब तक वही मुझे न खोजता हो? “तब खोज छोड़ दी, और खोज छोड्कर ही उसे पा लिया।

तीस साल या तीस जन्मों की खोज से भी उसे पाया नहीं जा सकता, क्योंकि खोजेंगे तो हम–अंधे, अंधकार में डूबे, पापग्रस्त, सीमा में बंधे! भूल-चूकों का ढेर हैं हम। हम ही तो खोजेंगे उसे! रोशनी कहां है हमारे पास उसे खोजने को? हमारे पास हाथ कहां जो उसे टटोलें? कहां से लाएं हम वह दिल जो उसे पहचाने?

खोजी एक दिन पाता है कि नहीं, मेरे खोजे तू न मिलेगा, जब तक कि तू ही मुझे न खोजता हो।

और बायजीद ने कहा है, जब उसे पा लिया तो जाना कि यह भी मेरी भांति थी कि मैं उसे खोज रहा था। वही मुझे खोज रहा था।

जब तक परमात्मा ने ही तुम्हें खोजना शुरू न कर दिया हो, तुम्हारे मन में उसे खोजने की बात ही न उठेगी। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगेगी, लेकिन बड़ा गहन सत्य है।

परमात्मा को केवल वे ही लोग खोजने निकलते हैं जिनको परमात्मा ने खोजना श्दुरू कर दिया। जो उसके द्वारा चुन ही लिए गए हैं, वे ही केवल उसे चुनते हैं। जो किसी भांति उनके हृदय में आ ही गया है, वे ही उसकी प्रार्थना में तत्पर होते हैं।

तुम्हारे भीतर से वही उसको खोजता है। सारा खेल उसका है। तुम जहां भी इस खेल में कर्ता बन जाते हो, वहीं बाधा खड़ी हो जाती है, वहीं दरवाजे बंद हो जाते हैं।

तुम खाली रहो, उसे ही खोजने दो तुम्हारे भीतर से, तो तत्क्षण इस क्षण भी उस महाक्रांति का आविर्भाव हो सकता है।

भक्ति को समझने में, इस बात को जितना गहराई से समझ लो, उतना उपयोगी होगा : भक्ति परमात्मा की खोज नहीं है, भक्ति परमात्मा के द्वारा मनुष्य की खोज है।

मनुष्य हारकर समर्पण कर देता है, थककर समर्पण कर देता है, पराजित होकर झुक जाता है—कहता है, “अब तू ही उठा तो उठा! अब तू ही सम्हाल तो सम्हाल! अब अपने से सम्हाला नहीं जाता! जो मैं कर सकता था, किया, जो मैं हो सकता था, हुआ–लेकिन मेरे किए कुछ भी नहीं हो पाता! मेरा किया सब अनकिया हो जाता है। जितना सम्हालता हूं उतना ही गिरता हूं। जितनी कोशिश करता हूं कि ठीक राह पर आ जाऊं, उतना ही भटकता हूं। अब तू ही चला! जन्म तेरा है, जीवन तेरा है, मौत तेरी है–प्रार्थना मेरी कैसे होगी ,

पहला सूत्र है आज : “वह भक्ति, वह प्रेमरूपा भक्ति, कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है। “

श्रेष्ठता यही है कि वह अनंत के द्वारा तुम्हारी खोज है।

गंगा सागर की तरफ जाती है, तो ज्ञान, तो योग, तो कर्म। जब सागर गंगा की तरफ आता है, तो भक्ति।

भक्ति ऐसे है जैसे छोटा बच्चा पुकारता है, रोता है, मां दौड़ी चली आती है।

भक्ति बस तुम्हारा रुदन है! तुम्हारे हृदय से उठी आह है!

भक्ति तुम्हारे जीवन की सारी खोज की व्यर्थता का निवेदन है। भक्ति तुम्हारे आसुओ की अभिव्यक्ति है। तुम कहीं जाते नहीं, तुम जहां हो वहीं ठिठककर रह जाते हो। एक सत्य तुम्हारी समझ में आ जाता है कि तुम ही बस गलत हो, तुम गलत करते हो, ऐसा नहीं। कर्मयोग कहता है : तुम गलत करते हो, ठीक करो तो पहुंच जाओगे।

ज्ञानयोग कहता है : तुम गलत जानते हो, ठीक जान लो, पहुंच जाओगे।

योगशास्त्र कहता है : तुम्हें विधियां पता नहीं हैं, मार्ग पता नहीं है। विधियां सीख लो, मार्ग सीख लो, तकनीक की बात है, पहुंच जाओगे।

भक्ति कहती है : तुम ही गलत हो। न ज्ञान से पहुंचोगे, न कर्म से पहुंचोगे, न योग से पहुंचोगे। तुम तुमसे छूट जाओ, तो पहुंचना हो जाएगा। तुम न बचो तो पहुंचना हो जाएगा। प्रयास से मिलता ही नहीं। प्रयास से मिल जाए, वह भी कोई परमात्मा है?     क्योंकि तुम्हारे प्रयास से जो मिलेगा, वह तुम्हारे प्रयास से छोटा होगा। प्रसाद से मिलता है!

इसलिए नारद अनूठी बात कहते हैं, बड़ी गहरी बात कहते हैं : “कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है वह प्रेमरूपा भक्ति। “

कोई भक्ति का मुकाबला नहीं है। भक्ति कोई करने की बात नहीं है। शब्द से भांति होती है, “भक्ति “ से भी लगता है कि कुछ करना पड़ेगा, भक्ति में क्रिया है, कुछ करना, जैसे योग में कुछ करना, कर्म में कुछ करना, ज्ञान में कुछ करना, भक्ति में भी कुछ करना पड़ेगा। वहीं भूल हो जाती है।

भक्ति तो इस बात का अनुभव है कि मेरे किए कुछ होता ही नहीं। भक्ति तो अपने कृत्य की व्यर्थता का बोध है, पश्वाताप है। उस पश्वाताप में ही तुम गिर जाते हो, झुक जाते हो। ध्यान रखना, मैं नहीं कहता हूं कि तुम झुकते हो–झुक जाते हो!

क्या करोगे, कैसे खड़े रहोगे, जब सब किया अनकिया सिद्ध होता है, जब अपने पैर जहां भी ले जाते हैं, वहीं संसार मिलता है, और जब अपनी आंख जो भी दिखाती है वही पदार्थ सिद्ध होता है, और जिसकी भी तुम प्रार्थना करते हो वही प्रार्थना आखिर में कामना सिद्ध होती है, वासना सिद्ध होती है, तो फिर क्या करोगे, ठहर जाते हो! खड़े होने की भी जगह नहीं रह जाती। खड़े होने का बल भी नहीं रह जाता। गिर जाते हो!

अगर अपनी तरफ से गिरे, तो यह भी योग हुआ। अगर पाया कि गिर रहे हो, जैसे गिरना घट रहा है, झुकना घट रहा है, तो भक्ति हुई।

भाषा के साथ अड़चन है, भक्ति भी कर्म बन जाती है।

भक्ति कर्म नहीं है। इसलिए भक्ति की परम श्रेष्ठता है।

“क्योंकि भक्ति फलरूपा है। “

इसे समझें। यह बड़ा वैज्ञानिक सूत्र है।

पानी को भाप बनाना हो तो आच पर रखो। कारण मौजूद कर दो, कार्य घटेगा। जब सौ डिग्री गरमी हो जाएगी, पानी भाप बनने लगेगा। पानी यह नहीं कह सकता कि आज भाप बनने की मंशा नहीं है, कि आज थोड़ी सर्दी ज्यादा है आज नहीं बनते, या आज मन उदास है या कुछ…। पानी कुछ कर नहीं सकता। कारण उपस्थित हो गया तो कार्य होगा।

बीज बो दो, अंकुर निकलेंगे।

ज्ञान, कर्म और योग की मान्यता यह है कि परमात्मा भी ऐसे ही मिलता है, कारण मौजूद कर दो, कार्य होकर रहेगा।

योगी कहता है, इतने नियम पालन कर लो, यह अष्टांग योग है, ये आठ अंग हैं, ये पूरे कर लो–परमात्मा को मिलना ही पड़ेगा, जैसे सौ डिग्री पर पानी गरम होता है, ऐसे अष्टांग योग पूरा होने पर परमात्मा मिलता है।

कर्मयोगी कहता है, इतने-इतने पुण्य कर लो, पांच महाव्रत हैं, इनका पालन कर लो : अहिंसा है अचौर्य है, अस्तेय है, अपरिग्रह है, सत्य है, इनका पालन कर लो! अगर पालन पूरा हो गया तो परमात्मा वैसे ही आ जाएगा जैसे बीज बोया, पानी डाला, धूप-रोशनी दी, अंकुर निकल आया। तो परमात्मा फल है और तुम्हारा कृत्य–ज्ञान, कर्म, योग–बीज है। तुम जो करते हो वह कारण है और परमात्मा कार्य है।

भक्त ऐसा नहीं देखते। भक्त कहते हैं, तुम कुछ भी करो, परमात्मा परम स्वतंत्रता है, तुम्हारे कृत्य से बंधा हुआ नहीं है। तुम्हारे अष्टांग योग के पूरे हो जाने से नहीं आ जाएगा। और अगर तुमने अष्टांग योग पर ही भरोसा किया तो तुम अकड़े बैठे रह जाओगे, परमात्मा से कोई संबंध न हो पाएगा।

परमात्मा कार्य-कारण जगत का हिस्सा नहीं है।

परमात्मा का अर्थ है : “समय “। और सब चीजों के कारण हैं, “समय “ का कोई कारण नहीं हो सकता। और सब चीजों के आधार हैं, समय का कोई आधार नहीं है, समय निराधार है। बीज से वृक्ष होता है। वृक्ष में फिर बीज लग जाते हैं। फिर बीजों में वृक्ष आ जाते हैं। सारा जगत शंखला है–कार्य-कारण, कारण-कार्य–बंधा हुआ चलता जाता है। इस सारी शंखला का कोई कारण नहीं है। इस सारी शंखला के समस्त रूप का नाम परमात्मा है।

तुम पृथ्वी पर टिके हो, पृथ्वी सूरज के आकर्षण पर टिकी है, सूरज किसी और महासूर्य के आकर्षण पर टिका होगा–लेकिन सारा अस्तित्व कहां टिका है? सारा अस्तित्व कहीं भी नहीं टिक सकता, क्योंकि इसके बाहर कुछ भी नहीं है जिस पर टिक जाए। तो सारा अस्तित्व तो निराधार है।

तुम एक मां और पिता के बीजों के मिलने से पैदा हुए। वे भी किन्हीं के बीजों के मिलने से पैदा हुए। और उनके माता-पिता भी इसी तरह…। लेकिन परमात्मा का कोई पिता नहीं है। “समय “ के बाहर कुछ भी नहीं है, सब कुछ उसके भीतर है।

तो भक्त कहते हैं, परमात्मा को पाने की यह बात ठीक नहीं। यह तुम संसार को पाने के ढंग का ही उपाय तुम परमात्मा को पाने के लिए कर रहे हो।

तो भक्ति बीजरूपा नहीं है, फलरूपा है। भक्ति कोई कारण नहीं है, कार्य है। भक्ति प्रारंभ नहीं है, अंत है—फलरूपा है। तुम्हें कुछ करना नहीं–फल तुम्हें मिलता है। तुम्हारे करने से फल पैदा नहीं होता–प्रसादरूप होता है। तुम जब तैयार होते हो, अभीप्सा से भरे होते हो, धैर्य से तुम्हारे प्राण आकाश की तरफ देखते होते हैं, और तुम्हारी असहाय अवस्था पूर्ण हो गई होती है, तुम बिलकुल खाली होते हो–तुम्हारे खालीपन में भक्ति उतरती है, भगवान उतरता है।

ध्यान रखना : भक्त यह कहता है कि यह तुम्हारे किसी कारण से नहीं उतरता है, वह अपनी अनुकंपा से उतरता है, वह अपने प्रसाद से उतरता है, वह उतरना चाहता था, इसलिए उतरता है। इसलिए भक्त शिकायत नहीं कर सकता। न उतरे तो भक्त यह नहीं कह सकता कि मैंने सारी व्यवस्था पूरी कर दी है, तुम आए क्यों नहीं–दावा नहीं कर सकता। कभी ऐसी घड़ी भक्त के जीवन में नहीं आती जब वह यह कह दे कि मेरी कोई शिकायत है। शिकायत का तो अर्थ यह हुआ कि मैंने सौ डिग्री पानी गरम कर दिया है, पानी भाप क्यों नहीं बन रहा है? मैंने अपनी तरफ से सब पूरा कर दिया, अब अन्याय हो रहा है!

इसे थोड़ा खयाल में लेना

जिन लोगों ने कर्म, ज्ञान और योग पर बहुत जोर दिया, धीरे-धीरे उन्होंने परमात्मा की बात ही छोड़ दी, क्योंकि कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। महावीर कर्म का भरोसा करते हैं, तो परमात्मा को इनकार कर दिया। कोई जरूरत नहीं है, क्या जरूरत है? सौ डिग्री पर जब पानी गरम होता है तो पानी भाप बनता है, इसमें किसी परमात्मा को बीच में लेने की जरूरत क्या है? प्रसाद का सवाल कहां है? तुम कार्य पूरा कर दो, परिणाम आ जाएगा। तुम बीज बो दो, फल लग जाएंगे। परमात्मा को बीच में लेने की जगह कहां है? किसी परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है।

पतंजलि ने परमात्मा को भी एक साधन बना लिया, साध्य नहीं।

ज्ञानियों ने, योगियों ने, पुण्यकर्ताओं ने परमात्मा को छोड़ ही दिया, जरूरत ही न मालूम पड़ी। वह परिकल्पना व्यर्थ है। उसके बिना ही हो जाता है। हम से ही हो जाता है, उसकी कोई जरूरत नहीं है।

भक्ति का शास्त्र कहता है : हम से कुछ भी नहीं होता, “हम “ ही बाधा हैं। जहां हम खो जाते हैं, वहीं होना श्दुरू होता है।

“वह भक्ति फलरूपा है। “

बीज नहीं है उसका कोई जो तुम बो दो। कोई कारण नहीं है जो तुम तैयार कर लो, प्रयास कर लो, प्रयत्न कर लो। नहीं, तुम्हारे हाथ में कोई उपाय नहीं है कि तुम उसे खींच लो। तुम्हारा निरुपाय हो जाना ही, तुम्हारा असहाय हो जाना ही, तुम्हारा पछताना, तुम्हारा छाती पीटकर रोना, तुम्हारा आंसुओ में जार-जार बह जाना, तुम्हें एक प्रतीति हो जाए कि मैं ही अब तक उपद्रव का कारण था, मेरे प्रयास ही अब तक उपद्रव के कारण थे–फिर फल, फल ही उपलब्ध होता है।

ज्ञान साधन है, भक्ति साध्य है।

ज्ञान मार्ग है, भक्ति मंजिल है।

जानी को चलना पड़ता है, योगी को चलना पड़ता है, भक्त सिर्फ पहुंचता है, चलता नहीं। भक्त सबसे बड़ा चमत्कार है।

इसलिए अगर महावीर को समझना हो, कोई अड़चन नहीं है। महावीर को समझना हो तो वैज्ञानिक व्यवस्था है। पतंजलि को समझना हो तो कोई दुर्बोध बात नहीं है, दुर्गम बात नहीं

है, सीधा-सीधा गणित है। लेकिन मीरा बेबूझ है। चैतन्य को पकड़ पाना संभव नहीं है। भक्त की कोई कथा साफ नहीं हो पाती।

तुम योगी से पूछ सकते हो, “तुमने क्या किया? कैसे परमात्मा पाया? “ तो वह अपनी कथा बता सकता है, “यह-यह मैंने किया। इतने उपवास किए। इतना प्राणायाम किया। इस तरह अष्टांग योग साधे। इस तरह समाधि तक पहुंचा। “ एक-एक कदम साफ है। सीढ़ी दर सीढ़ी उसकी यात्रा है। उसके रास्ते पर मील के पत्थर लगे हैं। रास्ता है। वह कुछ कह सकता है।

मीरा से पूछो, “कैसे पाया? “ मीरा ठिठकी खड़ी रह जाएगी। वह कहेगी, “मैंने पाया, यह बात ही ठीक नहीं है–मिला। “

पानेवाले की कोई कथा नहीं है। पानेवाला शून्‍य है। सारी कथा परमात्मा की है। सब कथा भगवतकथा है। भक्त की कोई कथा नहीं है।

भक्त बेबूझ है।

अगर मीरा और महावीर सामने खड़े हों तो महावीर से तो तुम राजी हो जाओगे–तुम कहोगे, “इन्होंने इतना किया, फिर पाया। समझ में आता है। मीरा ने क्या किया? कौन सी साधना की मीरा ने? कौन से साधन किए? कौन सा योग किया? कुछ भी तो नहीं किया। “

… अचानक पुच्छल तारे की तरह प्रकट होती है! अनायास! अकारण! फलरूपा है। एक दिन तक पता नहीं था, एक दिन अचानक उसका नृत्य शुरू हो जाता है, उसके पूंघर बज उठते हैं। एक क्षण पहले तक किसी को खबर न थी, घर के लोगों को भी खबर न थी, पति को भी खबर न थी।

इसलिए भक्त पागल लगता है, क्योंकि गणित में बैठता नहीं।

… अनायास है, अकारण है! एक दिन अचानक मीरा नाच उठी! किसी ने न जाना, कैसे यह नाच पैदा हुआ! इस नाच के पीछे कोई कार्य-कारण की शंखला नहीं है। यह पुच्छल तारे की तरह प्रकट होती है। इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती और अतीत में लौटकर इसका कोई निर्वचन नहीं हो सकता–समय की धारा में, समय के बाहर से कोई उतरता है! फलरूपा है!

तुम वृक्ष के नीचे विश्राम करते थे और फल गिर गया तुम्हारे ऊपर, न तुमने बीज बोए थे, न तुमने वृक्ष संभाला था, न तुम्हें पता है कि वृक्ष है–तुम्हें बस फल मिल गया! एक दिन मीरा नाच उठती है! इस नाच के आगे-पीछे कोई हिसाब नहीं है। इसलिए मीरा को समझना बिलकुल ही कठिन हो जाता है। समझ के लिए कार्य-कारण की शंखला का पता होना चाहिए।

महावीर ने बारह वर्ष तपश्वर्या की। बुद्ध ने छह वर्ष तपश्वर्या की और जन्मों-जन्मों तक खोज की। मीरा ने क्या किया?

नारद का यह सूत्र बड़ा अदभुत है: “भक्ति फलरूपा है। “

साधन नहीं है भक्ति, है।

साध्य है। यहां मार्ग है ही नहीं, बस मंजिल है। आंख खुलने की बात

“लाई हयात आए, कजा ले चली चले

अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले। “

जिसको यह समझ में आ गया कि लाया परमात्मा, आए; ले चला, चले; श्वास चलाईं, चलीं श्वास रोकी, रुक गईं।

“न अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले! “ जिसने ऐसा अनुभव कर लिया… और तुम जरा गौर से देखो तो अनुभव करने में देर न लगेगी। किसी ने पूछा था तुमसे जन्म के पहले कि जन्म लेना चाहते हो?

“लाई हयात आए…! “

किसी ने पूछा था, कहां जन्म लेना चाहते हो, स्त्री होना चाहते हो, कि पुरुष ,     गोरे होना चाहते हो, काले, हिंदू होना चाहते हो, ईसाई? किसी ने तो न पूछा था। अकारण हो तुम। तुम्हारे होने के पीछे तुम्हारी मंशा तो नहीं है, तुम्हारी आकांक्षा तो नहीं है। श्वास चलती है जब तक चलती है, जिस दिन नहीं चलेगी, क्या करोगे तुम? गई श्वास बाहर और न लौटी तो क्या करोगे तुम? गई तो गई!

“लाई हयात आए, कजा ले चली चले

अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले। “

ऐसा जिस दिन तुम्हें जीवन का सार दिखाई पड़ जाएगा, उस दिन भक्ति की शुरुआत हुई, उस दिन तुम करीब आने लगे प्रसाद के। और जिस दिन ऐसा अनुभव तुम्हें हो जाएगा कि तुम नहीं हो, कोई और हाथ तुम्हें लाया, कोई और हाथ ने तुम्हें चलाया, कोई और ही सारी कथा को सम्हाले हुए है—उस दिन क्या बोझ, कैसी चिंता!

“मुझे सहल हो गईं मंजिलें वो हवा के रुख भी बदल गए

तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गए। “

तुम जब तक हो तब तक अंधेरा है, तुम मिटे कि चिराग जले! तुमने जिस दिन यह भांति छोड़ी कि मैं चल रहा हूं, उसी दिन तुम पाओगे : उसका हाथ सदा से तुम्हें चला रहा है, उसका हाथ तुम्हारे हाथ में है।

परमात्मा को हमने कभी खोया थोड़े ही है, खो देते तो फिर मिलने का कोई उपाय नहीं था। जो खो जाए वह परमात्मा नहीं है। जिसे हम खो सकें वह हमारा स्वभाव नहीं है। उसे हमने कभी खोया नहीं है, विस्मरण किया है, भूल गए हैं घड़ी भर को, झपकी लग गई है, याद उतर गई है। हाथ तो अब भी उसका हमारे हाथ में है। कुछ करना नहीं है उस हाथ को पाने को, सिर्फ अपनी भांति छोड़नी है। भक्ति फलरूपा है।

ज्ञान कहता है : कुछ करना है, अज्ञान को मिटाना है, ज्ञान को लाना है। बड़ा उपक्रम है। इसलिए जानी में अकड़ होती है उसने किया इतना, अकड़ स्वाभाविक है। वह कहता : “तुमने क्या किया? हम वर्षों ज्ञान इकट्ठा किए। “

योगी वर्षों तक साधता है, इसलिए योगी की अकड़ स्वाभाविक है। पुण्यात्मा महात्मा हो जाता है। कितना करता है! कितनी सेवा! कितने पुण्यकर्म! अकड़ स्वाभाविक है। भक्त में अकड़ नहीं हो सकती, क्योंकि भक्त की बुनियाद ही यही है कि हमने किया ही नहीं कुछ, तूने जो करवाया वही हुआ!

भक्त की बड़ी अनूठी दुनिया है! अलग ही उसका लोक है—गणित का नहीं, विज्ञान का नहीं, तर्क का नहीं–प्रेम का, प्रार्थना का, परमात्मा का। वहां सभी कुछ उलटा है। वहां बीज के पहले फल है। वहां मार्ग के पहले मंजिल है। वहां तुम्हारे करने से कुछ भी नहीं होता–तुम्हारे न करने से सब हो जाता है।

इसलिए जिनको भी अकड़ना हो, भक्ति उनके लिए नहीं है, जिनको पिघलना हो, उनके लिए है। अकड़ना हो, योग खोजो, त्याग खोजो, व्रत-नियम खोजो। अकड़ना हो और दिखाना हो दुनिया को कि मैं कुछ हूं तो भक्ति की राह को भूल ही जाओ, वह तुम्हारे लिए नहीं है। अभी देर है तुम्हें उस पर आने को। लेकिन अगर यह समझ में आना शुरू हो गया हो कि अपने किए कुछ भी न हुआ, चले बहुत, पहुंचे कहीं न, दौड़े बहुत, जब आंख खोली तो पाया वहीं खड़े हैं—जब तुम्हें ऐसी अनुभूति होने लगे, तब तुम भक्ति के लिए परिपक्व हुए।

“क्योंकि ईश्वर को भी अभिमान से द्वेष है और दैन्य से प्रियभाव है। “

यह सूत्र बड़ा कठिन है। इसे तुम अपनी तरह सोचोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे, ईश्वर को भी अभिमान से द्वेषभाव है! अगर तुम महावीर से पूछोगे तो वे कहेंगे कि “ऐसा ईश्वर ही नहीं, यह ईश्वर कैसा जिसको द्वेषभाव है, यह तो हो ही नहीं सकता : ईश्वर और द्वेषभाव! “ महावीर की परिभाषा में तो जब द्वेष मिट जाता है, तभी कोई ईश्वरत्व को उपलब्ध होता है।

“और दैन्य से प्रियभाव है। “

तो इसका तो अर्थ हुआ कि उसके भी पक्षपात हैं।

नहीं, अगर ऐसा देखा तो सूत्र से तुम चूक गए। सूत्र का मतलब कुछ और है। सूत्र का संबंध ईश्वर से नहीं है—सूत्र का संबंध तुमसे है।

ऐसा समझो कि कोई कहे कि जब वर्षा होती है तो वर्षा को गश्ढों से लगाव है, पहाड़ों और शिखरों से द्वेषभाव है, तो मतलब क्या होगा, मतलब इतना ही होगा कि जब वर्षा होती है तो गड्ढों में भरती है, पहाड़ खाली रह जाते हैं, क्योंकि पहाड़ पहले से ही भरे हैं, वहां जगह ही नहीं है। और जगह चाहिए। गश्ढे भर जाते हैं, झीलें बन जाती हैं। गिरती है वर्षा पहाड़ों पर उतर आता है पानी गश्ढों में, झीलों में।

इस सूत्र का इतना ही अर्थ है कि अगर तुम अभिमान से भरे हो, तो परमात्मा तुम में न उतर सकेगा, चाहे लाख चेष्टा करे उतरने की। लाख चेष्टा कर रहा है, लेकिन तुम पहले से ही भरे हो, जगह नहीं है। रिक्त स्थान चाहिए थोड़ा। तुम्हारे अहंकार के कारण तुम्हारे सिंहासन पर जगह नहीं है, तुम ही बैठे हो। तुम उतरो, सिंहासन से, तो परमात्मा बैठ सके।

“और दैन्य से प्रियभाव है “–इसका कुल अर्थ इतना ही है कि तुम झील, गश्ढे की तरह हो जाओ, ताकि परमात्मा तुम्हें भर दे, तुम खाली हो जाओ ताकि तुम भर दिए जाओ।

“अब तू भी करम की इंतिहा कर देना

भक्त कहता है कि मैने भी पाप करने में कोई कमी न की थी, मैंने भी भूल करने में कोई कमी न की थी, “अब तू भी करम की इंतिहा कर देना “–अब तू भी करुणा करने में कुछ कंजूसी मत करना, जैसे मैंने पाप करने में कोई कंजूसी न की थी।

“अब तू भी करम की इंतिहा कर देना

मैंने भी खता की इंतिहा कर दी थी। “

वह यह कहता है कि मैंने पाप ही पाप किए हैं, और पूरी तरह किए हैं, कोई कंजूसी नहीं की, आखिरी तक किए हैं, इंतिहा कर दी थी, पूर्णता कर दी थी–अब ध्यान रखना, अब तू भी अपनी अनुकंपा की, अपने प्रसाद की पूर्णता कर देना! तेरी करुणा में अब तू कमी मत करना, जैसे हमने पाप में कमी न की थी, जैसे हमने अहंकार को भरने में सारी चेष्टाएं की थीं!

मगर जो यह कह रहा है, वह गश्ढा हो गया। क्योंकि पाप की घोषणा तुम्हें गश्ढा बना देगी। पुण्य की घोषणा तुम्हें अहंकार से भरती है। भक्त कहता है, “मैं पापी हूं! मैं पात्र नहीं हूं! “

ज्ञानी कहता है, “मैं पात्र हूं, तैयार हूं, देर क्यों हो रही है?

योगी कहता है, “मैं शद्ध हूं, बिलकुल तैयार हूं, अब तेरी तरफ से देर हो रही है। “

भक्त कहता है, “मैं बिलकुल तैयार नहीं हूं। इसलिए मेरी तरफ से तो कोई मांग हो नहीं सकती। इतना ही कह सकता हूं कि पाप करने में मैंने कोई कमी न की थी! मुझसे बुरा आदमी खोजे न मिलेगा। जैसे मैंने पाप करने में कमी न की–क्योंकि पाप ही मैं कर सकता था, और मैं कर क्या सकता था–अब तू करुणा में कमी मत करना, क्योंकि तू करुणा ही कर सकता है, और तू कर क्या सकेगा!”

भक्त अपने को अपात्र घोषित करता है–यही उसकी पात्रता है, असफल घोषित करता है–यही उसकी सफलता है, हारा हुआ घोषित करता है–यही उसकी विजय है।

भक्त कहे, ऐसा भी जरूरी नहीं है।

बायजीद प्रार्थना नहीं करता था जाकर मस्जिद में। जीवन तो उसका अनूठा था, परमात्मा के प्रेम में पगा था! किसी ने पूछा कि प्रार्थना करने मस्जिद क्यों नहीं जाते, तो वह रोने लगा। और उसने कहा, “एक बार मैं एक शहर से गुजरता था और एक सम्राट के द्वार पर मैंने एक भिखारी को खड़े देखा। सम्राट द्वार से बाहर आ रहा था, ठिठका, और उसने भिखारी से पूछा, “क्या चाहते हो, बोलते क्यों नहीं? उस भिखारी ने कहा, “अगर मुझे देखकर तुम्हें दया नहीं आती तो मेरी बात सुनकर भी क्या फर्क पड़ेगा!   “ उसके फटे-पुराने कपड़े हैं, चीथड़े की तरह लटके हैं। शरीर ढंका नहीं है उन कपड़ों से। उससे तो नंगा भी होता तो भी ज्यादा ढंका होता। पेट सिकुड़कर पीठ से लग गया है, हीइडयां निकल आई हैं। आखें धंस गई हैं।

तो बायजीद ने कहा, उसी दिन से मैंने प्रार्थना करनी बंद कर दी। क्या कहना है उससे ? उस फकीर ने कहा, उस भिखमंगे ने कहा, अगर मुझे देखकर तुझे दया नहीं आती तो बात खतम हो गई, अब कहना क्या है और! मेरी तरफ देख!

बायजीद ने कहा, “तब से मैंने प्रार्थना बंद कर दी। वह देख ही रहा है, अब कहना क्या है।

उससे? अब रोना क्या है?

“अबे-इजहार की जरूरत क्या

आप हूं अपने दर्द की फरियाद। “

जरूरी नहीं है कि भक्त प्रार्थना करे। भक्त की तो एक भावदशा है : “आप हूं अपनी फरियाद। “ उसके तो होने में ही उसकी दीनता समाई है।

नारद अनूठी बात कहते हैं :”ईश्वर को अभिमान से द्वेष और दैन्य से प्रियभाव है।

नहीं, ईश्वर को क्या द्वेष होगा और क्या प्रियभाव होगा! लेकिन भक्त की तरफ जब तक अहंकार है तब तक परमात्मा प्रवेश नहीं कर सकता। भक्त की तरफ जब दैन्यभाव आ जाता है—”आप हूं अपनी फरियाद “–जब सब तरफ हारा हुआ भक्त खड़ा हो जाता है, जब उसके पूरे जीवन की एक ही भावदशा रह जाती है कि मैं पराजित हूं, दीन हूं, पतित हूं, अपात्र हूं, पापी हूं, मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके कारण तेरी मांग करूं, मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके कारण तेरे लिए दावेदार बनूं, मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि तेरे लिए शिकायत करूं–उसी क्षण, इस दैन्यभाव में परमात्मा उतर आता है।

जीसस का वचन है कि जो आत्मा से दरिद्र हैं, “पुअर इन स्पिरिट “, उन्हीं को परमात्मा का मिलन होता है।

सोचें, ध्यान करें इस पर : आत्मा से दरिद्र, “पुअर इन स्पिरिट! “ शरीर से दरिद्र होना बहुत आसान है। तुम घर छोड़ दो, मकान छोड़ दो, परिवार छोड़ दो, वस्त्र त्याग दो, नग्न खड़े हो जाओ, लेकिन जितना तुम बाहर छोड़ते जाओगे, उतनी ही भीतर अकड़ बड़ी होती जाएगी। तो बाहर से तो तुम दरिद्र हो जाओगे, भीतर बड़ी अकड़ हो जाएगी।

जैन मुनियों को देखो! जैन मुनि किसी को हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं कर सकता, यह बात उसके नियम के विपरीत है। वह सिर्फ आशीर्वाद दे सकता है, नमस्कार नहीं कर सकता। क्यों? क्योंकि वह त्यागी है। त्यागी और नमस्कार करे, भोगियों को! असंभव है। तो यह आत्मा की दरिद्रता न हुई। ऊपर से भला इसने दरिद्र का भेष पहन लिया हो, दो जोड़ी कपड़े रखता हो, कुछ और इसके पास न हो, भिक्षा मांगकर जीता हो–लेकिन इसकी अकड़ तो देखो! यह भिखारी नहीं है। इसके भिखमंगेपन में बड़ा अहंकार है। मैंने इतना त्यागा है…! “

तो अगर तुम जैन मुनि को नमस्कार करो तो वह आशीर्वाद दे देता है, हाथ नहीं जोड़ सकता तुम्हें।

जीसस ने कहा : आत्मा की दरिद्रता!

… तो यह तो बाहर का धन छोड्कर भीतर का धन पकड़ लिया, यह तो बाहर का अहंकार छोड्कर भीतर का अहंकार पकड़ लिया, यह तो पाना न हुआ, खोना हो गया उलटा, यह तो पहुंचना न हुआ, मंजिल से और दूरी हो गई। ध्यान रखना, पहले तुम बाहर की दुनिया में धनी होने की कोशिश करते हो, जब वहां हार जाते हो तो तुम भीतर की दुनिया में धनी होने की कोशिश करने लगते हो। तुम्हारा योग, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा कर्म, फिर तुम्हें भीतर धनी बनाने लगते हैं। तो तुम चूकते ही चले जाते हो।

बाहर का धन इतना खतरनाक है तो भीतर का धन तो और भी खतरनाक होगा। बाहर की अकड़ इतनी बुरी है तो भीतर की अकड़ तो और भी बुरी होगी। परमात्मा तुम्हारे परम दैन्यभाव में उतरता है।

इस सूत्र को गलत मत समझ लेना। परमात्मा को तुम्हारे दैन्यभाव से प्रेम नहीं है, लेकिन तुम्हारे दैन्यभाव में ही उतरना हो सकता है। जब तुम भरे ही हुए हो तो उतरने का कोई सवाल नहीं है। जब तुम ही अकड़े हुए हो और तुम सोचते हो, तुम ही सम्हाले हुए हो सब, तुम ही कर रहे हो सब और तुमने उसे इनकार ही कर दिया–तुमने उसके लिए द्वार ही बंद कर लिए।

“जोश विसाते- शौक में मर्ग है अस्ल जिंदगी

बाजिए इश्क जीत ले बाजिए उम्र हारकर। “

एक ऐसा भी पड़ाव आता है, एक ऐसा दौर है, जहां मौत जिंदगी है और जहां हार जीतना है, जहां हमारे पुराने विचार के ढांचे बिलकुल ही उलटे हो जाते हैं!

“बाजिए इश्क जीत ले “–अगर प्रेम को जीतना हो, “बाजिए उम्र हारकर “–उम्र की, जीवन की, जिंदगी की बाजी को हार कर प्रेम की बाजी जीती जाती है।

“दिल है तो उसी का है, जिगर ई, तो उसी का

अपने को राह-ए-इश्क में बरबाद जो कर दे। “

वह जो प्रेम की राह है, वहां जो अपने को बरबाद कर दे, बस उसी के पास दिल है, उसी के पास जिगर है। उसी के पास आत्मा है, जो अपने को बरबाद कर दे।

तो तुम कहीं संन्यस्त मत हो जाना गणित के हिसाब से। तुम कहीं लोभ के ही हिसाब में त्याग मत कर देना। कहीं तुम्हारा संन्यास, तुम्हारा धर्म तुम्हारी होशियारी ही न हो, अगर होशियारी हुई तो तुम चूक जाओगे। क्योंकि तब तुम पात्र बनने लगोगे। और जिसके मन में यह खयाल उठा कि मैं पात्र हूं, वह दीन न रहा, उसने आत्मा की दरिद्रता खो दी।

दीन बनो!।

मिटा!

हारे हुए जीओ!

यह जीतने का वहम बहुत दिन पाल लिया–छोड़ो यह बीमारी!

इधर तुम मिटे उधर परमात्मा तुम्हारी तरफ चला! जैसे-जैसे तुम मिटे, वैसे-वैसे वह तुम्हारी तरफ आता है। जिस दिन तुम पूरे मिट जाते हो, अचानक पाते हो, वह सदा से वहां था; तुम्हारी मौजूदगी के कारण दिखाई नहीं पड़ता था।

तुम्हीं हो परदा तुम्हारी आंख पर। आंख तो देखने में समर्थ है; तुम्हारे कारण देख नहीं पाती।

दृष्टि धुंधली है–तुम्हारे कारण;

अंधी है–तुम्हारे कारण!

तुम जरा आंख से हट जाओ!

निर्मल होने दो आंख को!

खाली होने दो आंख को!

शून्‍य होने दो आंख को!

तब परमात्मा के सिवाय और कोई भी दिखाई नहीं पड़ता है।

“भक्ति का साधन ज्ञान है, ऐसा किन्हीं आचार्यों का मत है। “

गलत है मत। आचार्यों का होगा, जिन्होंने सोचा-विचारा है उनका होगा–जिन्होंने जाना है उनका नहीं है।

“भक्ति का साधन ज्ञान है…। “ नहीं, ज्ञान से कभी कोई भक्त हुआ? जितना जानोगे उतने अभक्त होते जाओगे। जानी तो धीरे- धीरे परमात्मा को इनकार करने लगता है, हजार ढंगों से इनकार करता है।

ज्ञान साधन नहीं है भक्ति का, बाधा है।

“और किन्हीं दूसरे आचार्यों का मत है कि भक्ति और ज्ञान परस्पर एक- दूसरे के आश्रित हैं। “ वह भी गलत है।

भक्ति बात ही और है! उसका जानने से कोई संबंध नहीं है, अनुभव से संबंध है।

“सनतकुमार और नारद के मत से भक्ति स्वयं फलरूपा है। “

लेकिन नारद कहते हैं, ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं। न तो ज्ञान भक्ति का साधन है, और न भक्ति और ज्ञान एक-दूसरे पर आश्रित हैं। भक्ति स्वयं फलरूपा है, ज्ञान की कोई भी जरूरत नहीं है।

“राजगृह और भोजनादि में भी ऐसा ही देखा जाता है। “

“न उससे (जान लेने मात्र से ) राजा की प्रसन्नता होगी, न क्षुधा मिटेगी। “

उदाहरण के लिए कहते हैं कि अगर कोई भोजन की चर्चा करे और भोजन के संबंध में बहुत जान ले, तो भी भूख तो न मिटेगी। पाकशास्त्र को जान लेने से कोई भूख तो नहीं मिटती। तुम पाकशास्त्र के ढेर लगा ले सकते हो। तुम पाकशास्त्रों का अध्ययन करते-करते उनमें लीन हो जा सकते हो। जितने प्रकार के भोजन दुनिया में बन सकते हैं, कभी बने हैं, या बनेंगे, उन सबकी जानकारी तुम्हें हो सकती है। लेकिन उससे तुम्हारे पेट की भूख न मिटेगी। पेट की भूख तो भोजन से मिटती है।

भक्ति भोजन है, ज्ञान नहीं।

भक्ति स्वाद है–जीवंत!

भक्ति परमात्मा के संबंध में कुछ जानना नहीं है–परमात्मा का भोजन है। बड़ा ठीक उदाहरण लिया है।

जीसस जब विदा होने लगे अपने शिष्यों से, मरने की घड़ी करीब आई, सूली लगने को हुई, तो उन्होंने रोटी के टुकड़े तोड़े और अपने शिष्यों को दिए, और कहा कि यह रोटी मैं हूं, तुम रोटी नहीं खा रहे हो, मेरा भोजन कर रहे हो!

भक्ति परमात्मा का भोजन है, परमात्मा का भोग है।

भूख तो भोग से मिटेगी। प्यास तो जल को पीओगे तो मिटेगी, जल के संबंध में कितना ही जान लो, उससे न मिटेगी।

परमात्मा के संबंध में जानना परमात्मा को जानना नहीं है। परमात्मा को तो वे ही जानते हैं जो उसका भोग कर लेते हैं, जो उसे पचा लेते हैं, जिनके खून और जिनकी हइडी में परमात्मा घूमने लगता है, जिनके रोएं-रोएं और श्वास में समा जाता है, जिनके होने में परमात्मा की गंध हो जाती है, जिनका होना और परमात्मा का होना भिन्न नहीं रह जाता। “उसके जान लेने मात्र से न तो प्रसन्नता होगी, न क्षुधा मिटेगी। “

इसलिए ज्ञान से तो भक्ति का कोई भी संबंध नहीं है। ज्ञान तो है परमात्मा के संबंध में जानना, और भक्ति है परमात्मा का सीधा साक्षात।

“अतएव संसार के बंधनों से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए। “

जो वस्तुत: “मुमुक्षु “ हैं…। इस शब्द को थोड़ा समझ लें। कुछ लोग हैं जो केवल कुतूहली हैं, जो परमात्मा के संबंध में ऐसे ही पूछते हैं जैसे छोटे बच्चे पूछते हैं कि दुनिया को किसने बनाया। तुम कह दो, परमात्मा ने, तुम कह दो, कुछ भी, अ ब स.. वे फिक्र नहीं करते, वे अपने भूल गए, बात खतम हुई, खेल में लग गए। उन्होंने वस्तुत: जानने के लिए पूछा ही न था–एक खुजलाहट थी, एक कुतूहल उठा था, “किसने बनाया!” न भी जवाब देते तो भी कुछ परेशान होनेवाले न थे वे। उन्हें जवाब से कुछ लेना-देना भी न था। एक क्‍यूरिआसिटी थी, एक कुतूहल था।

सौ में से नब्बे लोग तो जो ईश्वर की बात करते हैं, कुतूहली होते हैं। वे कुछ जीवन दांव पर लगाना नहीं चाहते–ऐसे ही अगर मुक्त में कुछ जानकारी मिल जाए तो ठीक, कुछ बदलना न पड़े, कुछ करना न पड़े, कुछ होना न पड़े–ऐसे ही कुछ जानकारी मिलती हो तो क्या हर्ज है।

कुतूहल से कोई धार्मिक नहीं होता।

कुतूहल के बाद एक दूसरा वर्ग है जिज्ञासु का, वह जानना चाहता है, वस्तुत: जानना चाहता है–लेकिन बस जानना चाहता है।

कुतूहली तो जानने में भी बहुत उत्सुक नहीं हैं, ऐसे ही पूछ लिया था; सतह की बात थी; एक खयाल आ गया था। खयाल की कोई जड़ें नहीं हैं उसके भीतर।

जिज्ञासु के भीतर खयाल की जड़ें हैं–ऐसे ही खयाल नहीं आ गया; खयाल कई बार आता है। ऐसे आया-गया नहीं है; स्थायी निवास तो हो गया है। पूछता है, प्रयोजन है, जानना चाहता है–लेकिन बस जानना चाहता है। उससे आगे नहीं जाना चाहता।

उसके आगे मुमुक्षु है। मुमुक्षु का अर्थ है जानना ही नहीं चाहता, जीना चाहता है। जानने से क्या होगा; अगर ईश्वर है तो अपने को बदलना चाहता है। अगर परलोक है तो अपने जीवन में क्रांति लाना चाहता है। अपने को दांव पर लगाने को तत्पर है।

नारद कहते हैं, “अतएव संसार के बंधनों से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए “–क्योंकि भक्ति भोजन है।

संस्कृत का सूत्र जब भी अनुवादित किया जाता है तो कुछ न कुछ चूक होती है। हिंदी में अनुवाद है “अतएव संसार के बंधनों से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को…। “ संस्कृत का सूत्र केवल इतना ही कहता है “बंधनों से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को…। “ संसार की कोई बात नहीं है–बंधनों से मुक्त होने की है। इसे थोड़ा समझें।

बंधन संसार है। स्मरण रखें बंधन-मात्र संसार है। मोक्ष का भी बंधन हो तो संसार हो गया। पुण्य का भी बंधन हो तो संसार हो गया। कोई भी आकांक्षा हो तो बंधन पैदा होगा। अगर परमात्मा को भी पाने की आकांक्षा हो तो बंधेन बनाएगी। क्योंकि जहां भी आकांक्षा होगी, वहीं स्वतंत्रता क्षीण हो जाएगी। जब कोई आकांक्षा नहीं रह जाती तो बंधेन समाप्त होते हैं। और ऐसी घड़ी तो तभी आती है जब परमात्मा से मिलन हो जाए। इसके पहले ऐसी कोई घड़ी नहीं आती।

तो जिन्हें सच में ही बंधइनों के पार जाना है; जो ऊब गए हैं जीवन की जंजीरों से; जो इस जीवन के कारागृह से पीड़ित हो गए हैं; जिनकी समझ में आ गया है कि, ये बड़ी दीवालें जीवन की घर की दीवालें नहीं हैं, ये कारागह हैं, और जिसको हम जिंदगी कहते हैं वह सिवाय बंधनों के और कुछ भी नहीं–उनके लिए भक्ति ही एकमात्र उपाय है।

“ऐ ताइरे-लाध्रतइ।ऊ उस रिज्क से मौत अच्छी

जिस रिज्क से आती हो परवाज में कोताही। “

उस जिंदगी से मौत अच्छी है…किस जिंदगी से?–जिस जिंदगी से उड़ान में बाधा पड़ती हो, आकाश छोटा होता हो, “जिस रिज्क से आती हो परवाज में कोताही “–उड़ने में रुकावट आती हो।

जहां-जहां रुकावट है, वहां-वहां गौर से देखना: तुम अपनी ही किसी वासना को खड़ा हुआ पाओगे। जहां भी तुम्हारे पंख अडुते हैं, अटकते हैं, गौर से देखना: वहीं-वहीं तुम पाओगे, कोई आकांक्षा, कोई अपेक्षा, कोई वासना, कोई मांग पंखों पर बंधन बन गई है।

तुम्हारी जंजीरें तुम्हारी ही वासनाओं की जंजीरें हैं, किसी और ने ढाली नहीं, किसी और ने तुम्हें पहनाई नहीं हैं। और जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए, उस दिन तुम्हारी जंजीरें ऐसे ही पिघल जाती हैं जैसे तेज धूप में बर्फ पिघल जाए, सुबह के सूरज में ओस की द्वे उड़ जाएं–ऐसे ही तुम्हारी जंजीरें उड़ जाती हैं। परमात्मा को, बिना कुछ और मांगे, बिना कुछ और चाहे अपने को समर्पित कर देना। यह मत कहना कि मैं परमात्मा को भी चाहता हूं। उतनी चाह भी तुम्हारे परवाज़ में कोताही ले आएगी। तुम इतना ही कहना कि मैं अपने को परमात्मा में छोड़ने को तत्पर हूं। मांग कुछ भी नहीं है। मिटाना है।

क्योंकि सब मांग अहंकार की मांग है, हर मांग अहंकार की मांग है। तुम यह भी मत कहना कि मैं परमात्मा को चाहता हूं। क्योंकि उतनी चाह में भी तुम अपने को परमात्मा से ऊपर रख रहे हो, तो परमात्मा विषय-वस्तु हो गया। कभी तुम धन चाहते थे अब परमात्मा को चाहते हो–लेकिन चाहनेवाला खड़ा रह जाएगा। तुम इतना ही कहना कि अब बहुत चाहत करके देख ली–अब अपने को छोड़ना है, मिटाना है। इस मिटाने में ही भक्त एक अपरिसीम आनंद से भर जाता है, क्योंकि उसके परवाज में फिर कोई कोताही नहीं रह जाती, उसका पूरा आकाश उपलब्ध हो जाता है; पंख परिपूर्ण स्वतंत्रता से उड़ने लगते हैं! और इस मिटाने में ही एक ऐसी बेहोशी उसे घेर लेती है, जिसे बेहोशी कहना भी ठीक नहीं–जिसमें बड़ा गहरा होश है और एक ऐसा होश उस पर आ जाता है, जिसे होश कहना भी ठीक नहीं– क्योंकि उसकी आखों में बड़ी गहरी बेहोशी है, जैसे वह शराब पीए हो, जैसे अभी-अभी मधुशाला से लौटा हो!

और जब तक तुम्हारे लिए मंदिर मधुशाला नहीं बन जाता और जब तक प्रार्थना तुम्हारे लिए इतना गहन आत्मविस्मरण नहीं बन जाती कि तुम उसमें डूब ही जाओ, तब तक तुम जो भी कर रहे हो, वह कुछ और होगा, भक्ति नहीं।

“मैं मयकदे की राह से हो कर निकल गया,

वर्ना सफर हयात का काफी तबील था। “

जिंदगी का रास्ता बहुत कठिन है! अगर मयकदे की राह से होकर निकल गए, तब बात और। अगर जीवन की मधुशाला से गुजर गए तो बात और! वही परमात्मा है। अगर उस मस्ती को थोड़ा चख लिया, अगर थोड़ा स्वाद पा लिया परमात्मा का, डगमगाने लगे पैर उसके आगन में, नाच छा गया–तो ही; अन्यथा जिंदगी का रास्ता बहुत कठिन है, कांटे ही कांटे हैं। फूल तो तभी खिलते हैं जब तुम मिटना शुरू होते हो; अन्यथा दुर्गंध ही दुर्गंध है। सुगंध तो तभी आती है जब तुम कपूर की तरह श्ल्य में खो जाते हो।

“मस्जिद में बुलाते हैं हमें जाहिदे-नाफह्म

होता अगर कुछ होश तो मयखाने न जाते। “

–विरक्त हमें मंदिर में बुला रहे हैं, मस्जिद में बुला रहे हैं, अगर कुछ थोड़ा होश होता तो मयखाने ही चले जाते।

भक्त को न कोई मंदिर बचता, न कोई मस्जिद बचती। वह जहां है वहीं उसकी मधुशाला है। वह जहां है, वहीं उसका परमात्मा है।

तुम्हारे मिट जाने में, तुम्हारी लीनता में, तुम्हारी तल्लीनता में—परमात्मा का आविर्भाव है। इसलिए भक्त में तुम एक बेहोशी भी पाओगे और एक होश भी।

जानी में तुम्हें होश मिलेगा, बेहोशी न मिलेगी।

शराबी में, पापी में, तुम्हें बेहोशी मिलेगी, होश न मिलेगा।

योगी में तुम्हें होश मिलेगा, भोगी में तुम्हें बेहोशी मिलेगी—भक्त में तुम्हें दोनों मिलेंगे। भोगी भी उससेr ईष्या करेगा और योगी भी उससेr ईष्या करेगा। क्योंकि योगी देखेगा, ऐसी अपरिसीम होश की संभावना उसके भीतर नहीं है। और भोगी देखेगा, इतना भोगकर भी ऐसी मस्ती उसके पास नहीं आई।

सब भोग तिक्त स्वाद छोड़ जाता है।

ठीक कहते हैं नारद कि ज्ञान, कर्म, योग, भक्ति की ऊंचाई को नहीं पहुंचते।

भक्ति में, परमात्मा उसकी समग्रता में स्वीकार है, उसका संसार भी समाहित है उस स्वीकार में। तो भक्त भागता नहीं संसार से, भोग से भी नहीं भागता–वह उसे भी परमात्मा का ही अनुग्रह मानकर स्वीकार कर लेता है।

त्याग भक्त की भाषा नहीं है, जो “उसने “ दिया है, उसे स्वीकार कर लेता है–अहोभाव से, धन्यभाग से!

तो भक्त के जीवन में एक अनूठा संवाद है : उसकी बेहोशी में होश है, उसके होश में बेहोशी है, उसके ध्यान में तल्लीनता है, उसकी तल्लीनता में ध्यान है।

भक्त आखिरी समन्वय है, आखिरी सिंथीसिस!

“मस्जिद में बुलाते हैं हमें जाहिदे-नाफह्म

होता अगर कुछ होश तो मयखाने न जाते। “

… डूबता जाता है–परमात्मा के रस में! खोता जाता है अपनी बूंद को उसके रस के सागर में! और जब बूंद सागर हो जाती है, तो उसकी मस्ती का क्या कहना! जब बूंद आकाश को छूती है तो उसकी मस्ती का क्या कहना!

भक्त में तुम रस पाओगे, योगी को सूखा पाओगे।

भोगी में रस मिलता है, लेकिन दुर्गंधयुक्त! भक्त में तुम रस पाओगे–और सुगंधयुक्त! भोगी संसार को परमात्मा समझ लेता है, और परमात्मा को त्याग देता है। योगी परमात्मा को संसार के विपरीत समझता है, इसलिए संसार को त्याग देता है। भक्त परमात्मा और संसार को एक ही मानता है, स्रष्टा और सृष्टि एक है–इसलिए न कुछ त्यागता, न कहीं भागता। इस परम बोध में कि स्रष्टा अपनी सृष्टि के रोएं-रोएं में समाया है, भक्त में योग और भोग का मिलन हो जाता है। वह परम संगीत है। उससे ऊपर कोई संगीत नहीं।

आज इतना ही।


Filed under: भक्‍ति सूत्र--(नारद)

भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–8

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अनंत के आगन में नृत्य है भक्तिआठवां प्रवचन

दिनांक 18 जनवरी,

1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

*प्रेम भक्ति का जनक है या भक्ति प्रेम की जननी? प्रेम कली है और भक्ति फूल? अथवा प्रेम आदि है और भक्ति अंत? या दोनों भिन्न हैं?

 *इस कथन में क्या सच्चाई है कि भक्ति है द्वैत और ज्ञान है अद्वैत?

 *संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र क्यों जरूरी हैं?

 *सुरक्षा के लिए मुझे जो नाटक करना पड़ता है, उसे करूं या छोड़ दूं? अगर ज्ञान भक्ति के लिए बाधा है, फिर महातार्किक और महापंडित चैतन्य एकदम से भक्त कैसे हो गए?

 *सैकड़ों बार भ्रम के टूटने पर भी भरोसा नहीं आता। क्या करूं?

 *भक्त कण-कण में भगवान को देखता है। लेकिन जिसे सिर्फ आपका पता है, कण में बसनेवाले भगवान का नहीं, उसके लिए क्या साधना होगी?

 

 

पहला प्रश्‍न:

 

प्रेम भक्ति का जनक है या भक्ति प्रेम की? प्रेम कली है या भक्ति फूल? अभवा प्रेम आदि है और भक्ति अंत? या दोनों भिन्न हैं?

 

ली और फूल एक भी हैं और भिन्न भी। आदि और अंत जुड़े भी हैं और अलग भी हैं। कली कली भी रह जा सकती है, फूल बनना संभव है, अनिवार्य नहीं।

बीज बीज भी रह जा सकता है, वृक्ष हो सकता था, जरूरी नहीं है कि हो। बीज अलग भी है–उसका अपना भी अस्तित्व है–और वृक्ष की संभावना भी है। लेकिन वृक्ष तभी हो सकेगा जब बीज हो–पहली बात। और वृक्ष तभी हो सकेगा जब बीज मिटे–दूसरी बात। पहले हो, और फिर मिटे भी तो ही वृक्ष हो सकेगा।

प्रेम न हो तो भक्ति की कोई संभावना नहीं। और अगर प्रेम ही रह जाए, आगे न जाए, तो भी भक्ति की कोई संभावना नहीं। प्रेम प्रेम पर ठहर जाए तो भक्ति कभी पैदा न होगी। और अगर प्रेम हो ही न तो भक्ति के पैदा होने का सवाल ही नहीं है।

इसलिए प्रश्र नाजुक है। और बड़ी भूलें मनुष्य के इतिहास में हुई हैं। किन्हीं ने सोचा कि प्रेम ही भक्ति है, तो भक्ति के नाम से प्रेम के ही गीत गाते रहे, और चूक हो गई। और किन्हीं ने समझा कि प्रेम भक्ति नहीं है, प्रेम के पार जाना है, तो प्रेम के दुश्मन हो गए; प्रेम से पलायन किया, भागे, तो भी चूक गए।

प्रेम से भागना नहीं है; प्रेम के पार जाना है। प्रेम को सीढ़ी बनाना है। प्रेम पर चढ़ना है, प्रेम का अतिक्रमण करना है। प्रेम का उपयोग करना है। प्रेम से दुश्मनी कर ली, तब तो फिर कभी भक्ति पैदा न होगी। यह तो बीज से दुश्मनी हो गई। और जो बीज से हर गया, बीज का शत्रु हो गया, वह आशा रखे वृक्ष की, तो नासमझी है। कल्पना कर सकता है वृक्ष की, सपने देख सकता है–लेकिन वृक्ष कभी वास्तविक न हो पाएगा।

प्रेम के बीज को सम्हालना है–मगर जरूरत से ज्यादा मत सम्हालना; ऐसा न हो कि बीज में बंद रह जाओ; ऐसा न हो कि बीज की संपदा हो जाए। बीज तो केवल संभावना है– उपयोग करना! आगे जाना! सीढ़ी बनाना! तो बीज खिलेगा, कली खिलेगी, फूल बनेगा।

कामवासना से जन्म होता है प्रेम का, लेकिन कामवासना पर कोई रुक जाए तो प्रेम का कभी जन्म न होगा। कीचड़ से जन्म होना है कमल का। लेकिन कीचड़ कीचड़ भी रह सकती है; कोई मजबूरी नहीं है कि कमल हो।

कामवासना से जन्म होना है प्रेम का। कामवासना है कीचड़। प्रेम का कमल खिलता है; जड़ें तो होनी हैं कीचड़ में, लेकिन कीचड़ के पार उठ गया होता है। कीचड़ से निकलता है और कीचड़ से कितना भिन्न होता है! कीचड़ से आता है लेकिन कीचड़ जैसा जो कमल में कुछ भी नहीं होता। अगर हमें पता ही न हो कि कमल कीचड़ से आया है, तो हम कभी कमल का संबंध कीचड़ से जोड़ ही न सकेंगे।

कहां कीचड़, कहां कमल! दो अलग लोक! दो अलग संसार! कमल को देखकर तुम्हें कीचड़ की याद भी आ सकती है? कीचड़ को देखकर कमल की याद आ सकती है? कोई संबंध नहीं जुडता। लेकिन कीचड़ से ही कमल आता है। कामवासना से ही प्रेम का आविर्भाव होता है।

फिर कमल से सुगंध उठती है; वैसे ही प्रेम से भक्ति की गंध उठती है। कमल तो दृश्य है, सुगंध अदृश्य है। प्रेम दृश्य है, भक्ति अदृश्य है। भक्ति तो गंधमात्र है। तुम भक्ति को मुट्ठी में बांध न पाओगे। प्रेम को भी बाधोगे तो प्रेम ही मर जाएगा, तो भक्ति की तो बात ही छोड़ दो। कमल को भी मुट्ठी में बाधोगे तो कमल मुरझा जाएगा। कमल को भोगना। कमल से आनंदित होना। कमल का उत्सव मनाना। कमल के आसपास नाचना। कमल के मालिक मत बनना, मुट्ठी मत बांधना; नहीं तो प्रेम भी कुम्हला जाएगा। अधिक लोगों के प्रेम मुट्ठी में बांधकर ही तो कुम्हला जाते हैं, मर जाते हैं। जहां तुमने प्रेमी पर कब्जा किया, वहीं प्रेम की मृत्यु शुरू हो जाती है। जहां मालकियत आती वहां प्रेम नहीं ठहर पाता। प्रेम कोई वस्तु नहीं है कि तुम मालिक हो सको। यह कोई सम्पदा नहीं है, जिसे तुम तिजोडी में रख सको। यह तो कमल का फूल है। इसे खुले आकाश में खिलने दो। डरो मत! ऐसा भय मत पालो कि कोई और इस फूल के आनंद को उपलब्ध ना हो जाए, कोई और इस फूल के सौंदर्य को न देख ले, किसी और की आखों में फूल का सौंदर्य न भर जाए। ठौको मत इस फूल को। क्योंकि ढका हुआ फूल मर जाता है। खुला आकाश चाहिए, सूरज की किरणें चाहिए, मुक्त हवाएं चाहिए, तो ही फूल जीवित रहेगा।

प्रेम मर गया है। पृथ्वी पर प्रेम ही लाशें हैं, कुम्हलाये हुए फूल हैं, मरे हुए फूल हैं। प्रेम को ही मुट्ठी में बांधना असंभव है। जिन्होंने बांधा, उन्होंने ही प्रेम ही हत्या कर दी।

कभी भी प्रेम पर मालकियत मत जताना। प्रेम को ही तुम्हारा मालिक होने दो; तुम प्रेम के मालिक मत बनना।

प्रेम नाजुक है, मालकियत को न सह पाएगा। तो फिर भक्ति की तो बात बहुत दूर। भक्ति तो सुगंध है, अदृश्य है; उस पर कोई मुट्ठी बांधी नहीं जा सकती। मुक्त उसका स्वभाव है; दूर आकाशों को छुएगी; दूर हवाओं पर यात्रा करेगी। जब प्रेम को पंख लग जाते हैं–तब भक्ति। जब प्रेम इतना सूक्ष्म हो जाता है कि दिखाई भी नहीं पड़ता, सिर्फ अहसास होता है–तब भक्ति।

प्रेम का नशा थोड़ा स्‍थूल है, भक्ति का नशा बड़ा सूक्ष्म है। प्रेम को तो तुम थोड़ा सुन पाओगे, उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ती है। भक्ति की पगध्चनि भी सुनाई नहीं पड़ती। उसे तो तुम पहचान तभी पाओगे जब तुमने भी उस अदृश्य का थोड़ा अनुभव किया हो। कामवासना से ऊपर उठो। ध्यान रखना, मैं कहता हूं, “ऊपर उठो “, दूर जाने की नहीं कर रहा हूं, पार जाने की कह रहा हूं। ऊपर उठने का अर्थ है: तुम्हारी बुनियाद में तो कामवासना बनी ही रहेगी, तुम ऊपर उठे, भवन उठा, बुनियाद से ऊपर चला, बुनियाद तो बनी ही रहेगी।

कामवासना से ऊपर उठो, तो प्रेम। प्रेम से भी ऊपर उठो, तो भक्ति।

कामवासना में क्षण-भर को दो शरीर करीब आते हैं–क्षण-भर को ही आ सकते हैं, शरीर बड़े स्‍थूल हैं। उनकी सीमाएं बड़ी स्पष्ट हैं। करीब ही आ सकते हैं, एक तो नहीं हो सकते।

प्रेम में दो मन करीब आते हैं, क्षण-भर को एक भी हो जाते हैं–क्योंकि मन की सीमाएं तरल हैं, ठोस नहीं। तब दो मन मिलते हैं तो दो मन नहीं रह जाते, क्षण-भर को एक ही मन रह जाता है।

भक्ति में दो आत्माएं करीब आती हैं, दो चैतन्य करीब आते हैं–व्यक्ति का और समष्टि का, बूंद का और सागर का, कण का और विराट का। और सदा के लिए एक हो जाते हैं।

कामवासना में शरीर करीब आते हैं और दूर फिक जाते हैं। इसलिए कामवासना में सदा ही विषाद है। मिलने का सुख तो बहुत थोड़ा है, दूर हट जाने की पीड़ा बहुत गहन है। इसलिए ऐसा व्यक्ति खोजना कठिन है जो कामवासना के बाद पछताया न हो। पछतावा कामवासना का नहीं है। कामवासना पास ले आती है, लेकिन तत्क्षण दूर फेंक जाती है। जितने हम दूर पहले थे, उससे भी ज्यादा दूर हो जाते हैं। यह क्षण- भर पास आना दूरी को और प्रगाढ़ कर देता है, दूरी अनंत हो जाती है।

इसलिए हर कामवासना के पीछे पछतावा है, एक पश्वाताप है, जैसे कुछ खोया। चाहे तुम्हें साफ न हो कि क्या खोया, चाहे तुम्हें स्पष्ट न हो कि क्या खोया—लेकिन कुछ खोया, कुछ गंवाया, पाया नहीं।

प्रेम में खोना और पाना बराबर है। कामवासना में खोना ज्यादा है, पाना नाकुछ है। प्रेम में एक संतुलन है, खोना- पाना बराबर है, तराजू के दोनों पलड़े बराबर हैं। तो तुम प्रेमी में एक तरह की तृप्ति पाओगे जो कामी में न मलेगी। कामी हमेS अतृप्त मिलेगा, विषाद से भरा मिलेगा, पश्वाताप से भरा मिलेगा : “कुद खो रहा है, कुछ खो रहा है! जीवन में कहीं कोई चूक हो रही है, भूल हो रही है “।

पश्चाताप कथा है कामवासना की।

प्रेमी में तुम एक तृप्ति पाओगे, एक संतुलन पाओगे, एक शांति पाओगे। खोना-पाना बराबर है, लेकिन इतना काफी नहीं है। खोना-पाना बराबर हो तो तृप्ति तो हो सकती है, महातृसि नहीं हो सकती। लगेगा—सब ठीक है। लेकिन उससे कोई उत्सव का क्षण करीब नहीं आता। इससे तुम अनंत के आगन में नाच न सकोगे। इससे कुछ अहोभाव पैदा नहीं होता। जितना दिया उतना लिया, सब बराबर हुआ, हानि कुछ मालूम नहीं होती, लेकिन लाभ भी कुछ मालूम नहीं होता।

तो प्रेमी को तुम उलझा हुआ पाओगे। कामी को पछताता हुआ पाओगे। प्रेमी को उलझा हुआ पाओगे कि यह क्या हुआ, पाया- खोया सब बराबर हुआ! हा थ तो कुछ न लगा। हिसाब तो पूरा हो गया, लेकिन जीवन यूं ही चला गया।

प्रेमी को तुम उलझा हुआ पाओगे। एक प्रश्र-चिह्न पाओगे प्रेमी की अन्तर्दशा में कि यह सब क्यों, प्रयोजन क्या?

फिर भक्त की दुनिया है—जहां पाना ही पाना है और खोना नहीं है। कामी की दुनिया है—जहां खोना ही खोना है, पाना नहीं है। और भक्त की दुनिया है—ठीक विपरीत, दूसरा छोर, जहां पाना ही पाना है, खोना नहीं है। तब अहोभाव पैदा होता है, तब मीरा पद घुंघरू बांधे नाचती है। तब नृत्य आता है। तब कोई उलझन नहीं है, जब कोई प्रश्र नहीं है। तब सब प्रश्र हल हुए। तब जीवन पहली बार अ र्थवता से भरा! और तब पहली बार धन्यवाद में सिर झुकता है।

पूछा है : प्रेम भक्ति का जनक है या भक्ति प्रेम की जननी?

प्रेम ही भक्ति का जनक है, भक्ति नहीं—क्योंकि भक्ति तो आखिरी शिखर है। भक्ति तो भगवान की जननी है, प्रेम की नहीं। जिसने भक्ति को पा लिया, उसने भगवान को जन्म दिया।

इसे भी थोड़ा समझ लेना। क्योंकि साधारणत : लोग सोचते हैं, भगवान कहीं बैठा है—खोजने की बात है। पता लगा लिया, पूछताछ कर ली, थोड़ी खोजबीन की, मिल जाएगा।

भगवान कहीं बैठा नहीं है—तुम्हें जन्म देना है। भगवान कोई वस्तु नहीं है—तुम्हारे भीतर का आविर्भाव है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही भगवान पर पहुंचना है। दूसरे का भगवान तुम्हारे काम न आएगा। भगवान के जगत में गोद लेने का काम न चलेगा।

इस संसार में तुम धोखा दे लेते हो। किसी को बच्चे पैदा नहीं होते, गोद ले लेते हैं। जो बहुत होशियार हैं…।

मुल्ला नसरुद्दीन को बच्चा पैदा नहीं हुए तो उसने विज्ञापन निकाला अखबारों में, मुझे किसी को गोद लेना है, लेकिन उम्र सत्तर-अस्सी साल के करीब होनी चाहिए। पूरा गांव चकित हुआ कि पहले बहुत गोद लेने वाले देखे…!

एक बूढा आया, लकड़ी टेकता हुआ, मुश्किल से चलता हुआ। उसने कहा कि मेरी अस्सी साल की उम्र हो गई है। मैं तैयार हूं, लेकिन मैं समझा नहीं। लोग बच्चों को गोद लेते हैं…। नसरुद्दीन ने कहा कि बच्चों को गोद लेने से क्या फायदा। हम तो ऐसे आदमी को लेंगे जिसके नाती- पोते भी हों, ताकि तीन-चार पीढ़ियों में हमारे परिवार में किसी को फिर गोद न लेना पड़े।

तो जो बहुत होशियार हैं वे लंबा इंतजाम कर लेते हैं। लेकिन गोद लिया हुआ बच्चा, और तुमने जिसे जन्म दिया, उसमें जमीन-आसमान का भेद है। मां ने जिसे गर्भ में रखा, नौ महीने जिसका बोझ झेला, जिसकी प्रतीक्षा की, जिसके आसपास सपने संजोये, हजार- हजार आशाएं बांधी, अपने खून से जिसे सींचा, अपने हृदय की धड़कन दी, अपने प्राणों को बांटा जिससे—उस बच्चे में, और फिर तुमने किसी को गोद ले लिया, कानूनी बच्चे में, बड़ा फर्क है।

तो इस संसार में तो तुम उधार भी ले लेते हो तो भी चल जाता है। यहां तो तुम अपने को धोखा दे लेते हो। बांझ भी उधार लेकर बच्चों को, जन्मदाता बन जाते हैं। लेकिन यह धोखा परमात्मा के जगत में न चलेगा। वहां तो तुम्हें मां बनना पड़ेगा।

भक्त यानी मां। भक्ति यानी तुम गर्भs थ हुए : तुम्हारा ही चैतन्य, तुम्हारी ही सारा जीवन- ऊर्जा को अपने में समाकर एक नयी धुन और एक नये गीत के साथ पैदा होता है, तुम्हारा ही चैतन्य एक नये आयाम में प्रवेश करता है—मृत्यु से अमृत के आयाम में, सीमा से असीम में। बूंद वहां सागर होती है।

तो भगवान कोई बैठा हुआ, कहीं कोई व्यक्ति नहीं है, जिसे तुम गए और परदा उठा लिया और खोज लिया। इन बचकानी बातों में मत पड़ता। न ही कोई भगवान वस्तु है कि कोई तुम्हें दे देगा। तुम्हें जन्म देना होगा। तुम्हें अहर्निश साधना होगा। तुम्हें जन्मों-जन्मों पुकारना होगा। तुम्हें उसके बोझ को ढोना होगा। प्रसव की पीड़ा झेलनी होगी। कभी तुम हसोगे आनंद से, कभी रोओगे भी। आसुओ में और मुस्कराहटों में उसे सींचना होगा, संवारना होगा। और जब वह पैदा होगा तो वह तभी पैदा होगा, उसी क्षण पैदा होगा, जहां तुम्हारी मौत घट जाएगी।

बौद्धों में एक बड़ी अनूठी कथा है। कथा ही है, लेकिन बड़ी प्रतिकात्मक है। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि जब किसी बुद्ध का जन्म होता है तो जन्म देने के साथ ही मां मर जाती है। बुद्ध की मां भी मर गई, जन्म देने के साथ ही। सदियों से लोग पूछते रहे, “ऐसा क्यों? कृष्ण की मां भी तो नहीं मरी। जीसस की मां नहीं मरी। महावीर की मां नहीं मरी। यह बौद्ध शास्त्रों में एक नयी धारणा क्यों पाल रखी है कि जब बुद्ध का जन्म होता है तो उनकी मां मर जाती है?

यह धारणा बड़ी महत्वपूर्ण है। बुद्ध की मां मरी हो, न मरी हो, लेकिन जब भी तुम्हारे भीतर बुद्धत्व का जन्म होता है, तुम मर जाते हो। इतना ही सार है उस कथा में। बीज तो मरेगा ही, तभी वृक्ष हो पाएगा। साधारण जीवन में जब मां जन्म देती है तो मां मर नहीं जाती, पीड़ा झेलती है, बच जाती है। मरने की घड़ी आ जाती है। चिल्लाती है, चीखती है बच्चे को जन्म देते वक्त। ऐसा लगता है, मरी, मरी। मरती नहीं, बच जाती है। लेकिन बीज नहीं बचता, टूट जाता है, तभी तो वृक्ष होता है।

जब तुम्हारे भीतर परमात्मा का जन्म होगा तो तुम न बचोगे, तुम तो मिट जाओगे। तुम्हारी मृत्यु ही उसका जन्म है। तुम्हारा मिट जाना ही उसका होना है।

इस मृत्यु से बचने के लिए लोगों ने परमात्मा की न मालूम कितनी धारणाएं कर ली हैं, जैसे वह कहीं बैठा है, और तुम्हें राह खोजनी है। वह कहीं बैठा नहीं है, उसे जन्म देना है। तुम्हें गर्भ खोजना है, राह नहीं।

काम से प्रेम पैदा होता है, प्रेम से भक्ति पैदा होती है, भक्ति से भगवान पैदा होता है। भक्ति भगवान की जननी है।

तो जब तक तुम्हारे भीतर भक्ति का आविर्भाव नहीं हुआ है, तुम भगवान को न देख पाओगे, न समझ पाओगे, न पहचान पाओगे। तुम्हारे पास आंख ही नहीं। तुम अंधे हो। और प्रकाश के संबंध में बातें सुन-सुनकर आंख न खुल जाएगी। आंख की चिकित्सा करनी होगी। अंधेपन को मिटा डालना होगा।

आंख खुलेगी तो तुम प्रकाश देखोगे, भक्ति खुलेगी तो तुम भगवान देखोगे। जब भक्ति की आंख खुलती है तो सब तरह परमात्मा के अतिरक्त और कुछ भी शेष नहीं रह जाता।

दूसरा प्रश्र :

 

  इस कथन में क्या सच्चाई है कि भक्ति है द्वैत और ज्ञान है अद्वैत?    

 

जरा भी सच्चाई नहीं है। और यह कथन ज्ञानियों का नहीं है। जानी ऐसा कहते रहे हैं कि भक्ति द्वैत है और ज्ञान अद्वैत। भक्तों से पूछो, भक्ति के संबंध में जानना हो तो। तो ज्ञानियों से पूछना गलत जगह पूछना है।

भक्त कहते हैं, भक्ति भी अद्वैत है, ज्ञान भी अद्वैत। लेकिन भक्ति रसपूर्ण अद्वैत है और ज्ञान सूखा अद्वैत है।

भक्ति है जैसे हरा-भरा उपवन। और ज्ञान है जैसे रेगिस्तान। रेगिस्तान में भी परमात्मा है—कोई इनकान नहीं करता। फिर कुछ हैं जिनको रेगिस्तान भी सुन्दर लगता है, उनको भी कोई इनकार नहीं करता। अपनी-अपनी मौज!

लेकिन हरियाली की बात ही कुछ और है! फूल खिलते हैं! वृक्षों की छाया है! झरनों को नाद है! पक्षियों के गीत हैं! हरियाली की कुछ बात ही और है।

मरुस्थल भी उसी का है! कांटे भी उसी के हैं! फूल भी उसी के हैं।

भक्ति रसपूर्ण अद्वैत है। दो तो मिट जाते हैं, लेकिन जो एक बचता है, वह रूखा-सूखा नहीं है। जो एक बचता है, वह प्रेम से भरपूर है, लबालब है। जो एक बचता है वह जानी की तरह, गणित की तरह रूखा-सूखा नहीं। काव्य की तरह है, मधुरता से भरा है।

जानी का परमात्मा तर्क की निष्पत्ति है। भक्त का परमात्मा प्रेम का आविर्भाव है। तर्क भी उसी का है, याद रखना। तर्क का कोई विरोध नहीं है, तर्क भी उसी का है। और किन्हीं को तर्क में ही स्वाद आता हो, तो वह मार्ग भी पहुंचा देता है।

लेकिन प्रेम की बात ही और है।

भक्तों ने अकसर इस संबंध में बहुत कुछ कहा नहीं, क्योंकि भक्त कहते कम, जीते ज्यादा हैं। ज्ञानियों ने वक्तव्य दिए हैं तो ज्ञानियों के वक्तव्य प्रचलित हो गए हैं। और भक्त सुन लेते हैं और मुस्कराते हैं। वे इतनी भी झंझट नहीं लेते–इनका खंडन करें, क्योंकि खंडन भी ज्ञानियों का ही धंधा है। खंडन-मण्डन दोनों ही उन्हीं के हैं। भक्त उस उलझाव में पड़ता नहीं है। बजाय तर्क के जाल में पड़ने के, भक्त नाच लेता है। जब ऊर्जा का आविर्भाव होता है तो गीत गा लेता है, गुनगुना लेता है। तुम उसकी आखों में उसके परमात्मा को पाओगे, उसके शब्दों में नहीं। शब्द के संबंध में भक्त थोड़ा गूंगा है। उसकी मधुशाला उसकी आखों में है।

जानी की आंख तुम बंद पाओगे। शंकराचार्य बैठे होंगे या बुद्ध बैठे होंगे, तो आंख बंद होगी। भक्त की आंख तुम परमात्मा की शराब से भरी हुई पाओगे। खुली हो या बंद, भक्त की आंख तुम्हें नशे में डुबा देगी। भक्त एक मस्ती में जीता है। उसने बेहोशी में ही होश

जाना है। उसने तल्लीनता में ही अपने होने को छुआ है। उसने मिटकर ही अपने अस्तित्व की पहचान की है।

लेकिन फर्क तुम देख सकते हो। भक्त भी अद्वैत को ही उपलब्ध होता है, लेकिन उसका अद्वैत जानी के अद्वैत से बड़ा भिन्न है। अद्वैत को उपलब्ध होकर भी भक्त द्वैत की ही भाषा का उपयोग करता है।

इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। इसलिए जानी का वक्तव्य ठीक भी मालूम पड़ता है कि भक्ति है द्वैत और ज्ञान है अद्वैत। क्योंकि भक्त यह कहता है, भाषा तो जहां भी होगी, द्वैत की ही होगी। भाषा का अर्थ ही दो है। बोलने का मतलब ही संवाद है, दो की मौजूदगी है।

अगर तुमने यह भी कहा कि अद्वैत है, तो किससे कह रहे हो? तो कहनेवाला और सुननेवाला तो दो हो गए। अगर तुमने यह भी सिद्ध करने की कोशिश की कि उसके सिवाय कुछ भी नहीं है, तो यह सिद्ध करने की कोशिश क्यों कर रहे हो? अगर उसके सिवाय कुछ भी नहीं है तो तुम बिलकुल पागल हो। जब है ही नहीं तो कोशिश क्या, प्रयास क्या है?

जो लोग सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि संसार माया है वे कम से कम इतना तो संसार को मानते ही हैं कि है, और माया सिद्ध करना है। अगर संसार माया ही है तो बात खत्म हो गई, सिद्ध क्या करना है! सुबह उठकर तुम यह तो सिद्ध नहीं करते कि जो सपने देखे रात वे झूठ थे। इतना जानते ही कि सपने थे, बात खत्म हो गई, कौन सिद्ध करता है! कौन झंझट में पड़ता है!

अगर सुबह उठकर कोई आदमी सिद्ध करने लगे कि रात मैंने जो सपना देखा, वह झूठ था, तो एक बात पक्की है कि इस आदमी को अभी भी सपने पर थोड़ा भरोसा है, अन्यथा किससे सिद्ध कर रहा है? और लोग हंसेंगे, जग- हंसाई होगी कि यह पागल देखो, कहता है सपना झूठ है! यह कहना ही व्य र्थ है। सपना इतना झूठ है कि उसे झूठ कहना भी उसे सच्चाई देना है। इसलिए तो कोई सुबह उठकर विवाद में नहीं पड़ता। कोई कहता ही नहीं किसी को कि सपना देखा, वह झूठ था।

भक्त की भाषा द्वैत की है, क्योंकि वह कहता है, सारी भाषा द्वैत की है। फिर प्रेम की भाषा तो द्वैत की होगी ही। तो भक्त भगवाना से बोलता है, बातें करना है। जानी को यही अखरता है। मीरा खड़ी है कृष्ण के मंदिर में, बातें कर रही है, शिकायतें भी करती हैं, रूठ भी जाती है। जानी को ये बातें नहीं जंचती। जानी को लगता है, यह पागलपन हुआ। एक ही है। मीरा भी जानती है। लेकिन वह जो एक है, वह कोई मुर्दा इकाई नहीं है। उस एक में बड़ा जीवन्त विरोधाभास है। वह जो एक है, वह ऐसा एक नहीं है कि जिसमें दो को उपाय न हो।

यह थोड़ा समझना पड़े।

वह ऐसा एक है जिसमें दो एक हो गए हैं। वह प्रेम की एकता है, गणित की एकता नहीं है। अगर तुमने कभी किसी को प्रेम किया तो तुम एक अनूठे अनुभव में आते हो, वह अनूठा अनुभव तर्कातीत है।

जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो एक अनूठी प्रतीति होती शुरू होती है कि तुम दो भी हो और एक भी। स्वभावत : दो हो, नहीं तो कौन किसको प्रेम करेगा?     कौन किसके लिए आंसू बहाएगा? कौन किसके लिए नाचेगा? निश्चित ही दो हो। लेकिन फिर भी दो नहीं हो। कहीं किसी भीतर के जगत में एक भी हो। ऊपर- ऊपर दो हो, भीतर- भीतर एक हो। शायद हर घड़ी ऐसा न भी हो पाता हो, कभी- कभी ऐसी घड़ी आती हो, जब एक हो जाते हो, बाकी घड़ी दो रहते हो—लेकिन आती है ऐसी घड़ी जब विरोधाभास घटता है, दो के बीच एकता सधती है।

भक्त का अद्वैत जीवंत है। जीवंत का अर्थ है : एकरस नहीं है। एक तो तुम वीणा बजाओ एक ही स्वर को गुजाते रहो—बेरस हो जाएगा। बहुत से स्वर उठाओ, लेकिन सारे स्वरों के बीच एक संवाद हो, एक संगीत हो–संगीत एक हो, स्वर बहुत हों, लयबद्धता एक हो, छंद एक हो–तब जीवंत, तब ऊब न आएगी।

भक्त परमात्मा को जीवंत–गणित की नहीं, संगीत की–एक लयबद्धता के रूप में देखता है। प्रेमी-प्रेयसी या प्रेयसी और प्रेमी दो भी बने रहते हैं और कहीं एक भी हो गए होते हैं। मीरा कृष्ण के सामने नाचती है, बोलती है, बात करती है। दो तो हैं और फिर भी एक हैं।

बोलने के लिए दो होना जरूरी है। और ध्यान रखो, अगर सच में ही बोलना हो तो एक होना भी जरूरी है।

इसलिए भक्त की बात बिलकुल तर्कातीत है। जो जिएगा वही जानेगा।

अद्वैतवादी की बात तो तुम शास्त्र से भी समझ सकते हो, भक्ति की बात केवल शास्त्र से समझ में न आएगी। अद्वैतवादी की बात तो तर्कनिष्ठ है, जिनके पास भी थोड़ी तर्क की क्षमता है, वे समझ लेंगे। लेकिन भक्त की बात अनुभव, अस्तित्वगत अनुभव से आती है। तो मैं तुमसे कहता हूं, भक्त भी अद्वैत की ही बात कर रहा है, लेकिन उसका अद्वैत की बात करने का ढंग प्रेम है। उसका लहजा अलग है। उसकी शैली अलग है।

और मैं तुमसे कहता हूं, भक्त का अद्वैत ज्यादा बहुमूल्य है। उसमें प्राण धड़कते हैं, श्वास चलती है। जानी का अद्वैत बिलकुल मुर्दा है, मरी लाश की तरह। जानी का अद्वैत ऐसा है जैसे कोई नहीं एक ही किनारे के सहारे बहने की चेष्टा करे। भक्त का अद्वैत ऐसा है जैसे सभी नदियां दो किनारे के सहारे बहती है।

लेकिन तुमने कभी गौर किया : नदी को दो किनारों के सहारे की जरूरत है, लेकिन दोनों किनारे नीचे नदी की गहराई में तो एक हो जाते हैं, ऊपर से दो दिखाई पड़ते हैं, अलग- अलग दिखाई पड़ते हैं। तुम्हें एक किनारे से दूसरे किनारे जाना हो तो नाव पर सवार होना पड़ता है। लेकिन नदी की गहराई में तो दानों किनारे मिले हैं, एक ही हैं। एक है और फिर भी दो हैं। दो हैं और फिर भी एक है।

भक्ति के संबंध में कुछ जानना हो तो ज्ञानियों के द्वारा मत जानना। फिर भक्ति का ही स्वाद लेना पड़ेगा। यह बात उधार जानी जा सके, ऐसी नहीं। और जानी से जानना तो बिलकुल गलत जगह से जानना है। जानी को इसका कोई स्वाद ही नहीं है। भक्त से ही पूछना। और भक्त से पूछने का ढंग भी अलग होगा। पूछने का एक ही ढंग हो सकता है कि तुम भी थोड़ा अपने को रंगना उसी रंग में भक्त की बात को तुम दूर खड़े रह रहकर न समझ पाओगे। उतरना। उसकी मस्ती में थोड़े डूबना। भक्त के साथ थोड़ा पागल होना पड़ेगा। भक्त के साथ थोड़ा भक्ति में डुबकी लगानी पड़ेगी।

भक्ति को समझना महंगा सौदा है। ज्ञान को समझने में कोई अड़चन नहीं है। शास्त्र से समझ सके तो, किनारे खड़े रहके समझ सकते हो। भक्त की चुनौती गहरी है।

एक मित्र ने पूछा है कि संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र क्यों जरूरी हैं।

उतरना हो तो थोड़ा पागल होना जरूरी है। ये पागल होने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं। ये तुम्हारी होशियारी को तोड़ने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं। ये तुम्हारी समझदारी को पोंछने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं।

गैरिक वस्त्र पहना दिए, बना दिया पागल! अब जहां जाओगे, वहीं हंसाई होगी। जहां जाओगे, लोग वहीं चैन से न खड़ा रहने देंगे। सब आखें तुम पर होंगी। हर कोई तुमसे पूछेगा : “क्या हो गया? हर आंख तुम्हें कहती मालूम पड़ेगी, “कुछ गड़बड़ हो गया। तो तुम भी इस उपद्रव में पड़ गए? सम्मोहित हो गए?

गैरिक वस्त्रों का अपने-आप में कोई मूल्य नहीं है। कोई गैरिक वस्त्रों से तुम मोक्ष को न पा जाओगे। गैरिक वस्त्रों का मूल्य इतना ही है कि तुमने एक घोषणा की कि तुम पागल होने को तैयार हो। तो फिर आगे और यात्रा हो सकती है। यहीं तुम हर गए तो आगे क्या यात्रा होगी? आज तुम्हें गैरिक वस्त्र पहना दिए, कल एकतारा भी पकड़ा देंगे। उंगली हाथ में आ गई तो पहुंचा भी पकड़ लेंगे। यह तो पहचान के लिए है कि आदमी हिम्मतवर है या नहीं। हिम्मतवर है तो धीरे-धीरे और भी हिम्मत बढ़ा देंगे। आशा तो यही है कि कभी तुम सड्कों पर मिरा और चैतन्य की तरह नाच सको।

आदमी ने हिम्मत ही खो दी है। भीड़ के पीछे कब तक चलोगे ,

ये गैरिक वस्त्र तुम्हें भीड़ से अलग करने का उपाय है, तुम्हें व्यक्तित्व देने की व्यवस्था है, ताकि तुम भीड़ से भयभीत होना छोड़ दो, ताकि तुम अपना स्वर उठा सको, अपने पैर उठा सको, पगडंडी को चुन सको।

राजमार्गों से कोई कभी परमात्मा तक न पहुंचा है, न पहुंचेगा, पगडंडियों से पहुंचता है। और हम धेरि-धीरे इतने आदी हो गए हैं भीड़ के पीछे चलने के कि जरा सा भी भीड़ से अलग होने में हर लगता है।

जिन मित्र ने पूछा है, किसी विश्वविद्यालाय में प्रोफेसर हैं, बुद्धिमान हैं, सुशिक्षित हैं–फिर विश्वविद्यालय में गैरिक वस्त्र पहनकर जाएंगे, तो अड़चन मैं समझता हूं। वैस ही अध्यापक मुसीबत में हैं, गैरिक वस्त्र की पूरी फजीहत हुई रखी है।

प्रश्र पूछा है तो जानता हूं कि मन में आकांक्षा भी जगी है, नहीं तो पूछते क्यों। अब सवाल है—हिम्मत से चुनेंगे कि फिर हिम्मत छोड़ देंगे, साहस खो देंगे? कठिन तो होगा। कहना हो, यही तो पूरी व्यवस्था है।

पूछा है कि माला वस्त्रों के ऊपर ही पहननी क्यों जरूरी है। इच्छा पहनने की साफ है, मगर कपड़ों के भीतर पहनने की इच्छा है। नहीं, भीतर पहनने से न चलेगा, वह तो ना पहनने के बराबर हो गया। वह बाहर पहनाने के लिए कारण है। कारण यही है कि तुम्हें किसी तरह भी भीड़ के भय से मुक्त करवाना है–किसी भी तरह। किसी भी भांति तुम्हारे जीवन से यह चिंता चली जाए कि दूसरे क्या कहते हैं, तो ही आगे कदम उठ सकते हैं। अगर परमात्मा का होना है तो समाज से थोड़ा दूर होना ही पड़ेगा। क्योंकि समाज तो बिलकुल ही परमात्मा का नहीं है। समाज के ढांचे से थोड़ा मुक्त होना पड़ेगा।

न तो माला का कोई मूल्य है, न गैरिक वस्त्रों का कोई मूल्य है, अपने-आप में कोई मूल्य नहीं है—मूल्य किसी और कारण से है। अगर यह सारा मुल्क ही गैरिक वस्त्र पहनता हो तो मैं तुम्हें गैरिक वस्त्र न पहनाऊंगा, तो मैं कुछ और चुन लूंगा : काले वस्त्र, नीले वस्त्र। अगर यह सारा मुल्क ही माला पहनता हो तो मैं तुम्हें माला न पहनाऊंगा, कुछ और उपाय चुन लेंगे। बहुत उपाय लोगों ने चुने। बुद्ध ने सिर घोंट दिया भिक्षुओं का, उपाय है। अलग कर दिया। महावीर ने नग्न खड़ा कर दिया लोगों को, उपाय है।

थोड़ा सोचो, जिन लोगों ने हिम्मत की होगी महावीर के साथ जाने की और नग्न खड़े हुए होंगे, जरा उनके साहस की खबर करो। जरा विचारो। उस साहस में ही सत्य ने उनके द्वार पर आकर दस्तक दे दी होगी।

बुद्ध ने राजपुत्रों को, सम्पतिशालियों को भिखारी बना दिया द्वार-द्वार का, भिक्षापात्र हाथ में दे दिए। जिनके पास कोई कमी न थी, उन्हें भिखारी बनाने का क्या प्रयोजन रहा होगा? अगर भिखारी होने से परमात्मा मिलता है तो भिखमंगों को कभी का मिल गया होता। नहीं, भिखारी होने का सवाल न था—उन्हें उतारकर लाना था वहां, जहां वे निपट पागल सिद्ध हो जाएं। उन्हें तर्क की दुनिया से बाहर खींच लाना था। उन्हें हिसाब- किताब की दुनिया के बाहर खींच लाना था। जो साहसी थे, उन्होंने चुनौती स्वीकार कर ली। जो कायर थे, उन्होंने अपने भीतर तर्क खोज लिए। उन्होंने कहा, “क्या होगा सिर घुटाने से? क्या होगा नग्न होने से? क्या होगा गैरिक वस्त्र पहनने से?

यह असली सवाल नहीं है। असली सवाल यह है, “तुम में हिम्मत है? पूछो यह बात कि क्या होगा हिम्मत से। हिम्मत से सब कुछ होता है। साहस के अतिरिक्त और कोई उपाय आदमी के पास नहीं है। दुस्साहस चाहिए!

लोग हंसेंगे। लोग मखौल उडालेंगे। और तुम निश्वित अपने मार्ग पर चलते जाना। तुम उनकी हंसी की फिक्र न करना। तुम उनकी हंसी से डांवाडोल न होना। तुम उनकी हंसी से व्यथित मत होना। और तुम पाओगे, उनकी हंसी भी सहारा हो गई, और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे ध्यान को व्यवस्थित किया, और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे भीतर से क्रोध को विसर्जित किया, और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे जीवन में करुणा लाई।

… समाज के दायरे से मुक्त करने की व्यवस्‍था है। जिसको मुक्त होना हो और जिसे थोडी हिम्मत हो अपने भीतर, भरोसा हो थोड़ा अपने पर, अगर तुम बिलकुल ही बिक नहीं गए हो समाज के हाथों, और अगर तुमने अपनी सारी आत्मा गिरवी नहीं रख दी है, तो चुनौती स्वीकार करने जैसी है।

सत्य कमजोरों के लिए नहीं है, साहसियों के लिए है।

तीसरा प्रश्र:

 

  सुरक्षा के लिए मुझे जो नाटक करना पड़ता है, उसे करूं या छोड़ दूं? और अब तो नाटक भी साथ छोड़ रहा है। मुझे सही मार्ग बताने की कृपा करें।

 

सारा जीवन ही एक नाटक है–संबंधों का, बाजार का, घर-गृहस्थी का। सारा जीवन ही अभिनय है। छोड्कर कहां जाओगे? भागकर कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहीं फिर कोई नाटक करना पड़ेगा।

इसलिए भगोडेपन के मैं पक्ष में नहीं हूं।

कुशल अभिनेता बनो। भागो मत। जानकर अभिनय करो, बेहोशी में मत करो, होशपूर्वक करो। होश सधना चाहिए। हजार काम करने पड़ेंगे। और शायद उनका करना जरूरी भी है। पर होशपूर्वक करना जरूरी है। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि यह जीवन जीवन न रहा, बिलकुल नाटक हो गया, तुम अभिनेता हो गए।

अभिनेता होने का अर्थ है कि तुम जो कर रहे हो, उससे तुम्हारी एक बड़ी दूरी हो गई। जैसे कि कोई राम का अभिनय करता है रामलीला में, तो अभिनय तो पूरा करता है, राम से बेहतर करता है; क्योंकि राम को कोई रिहर्सल का मौका न मिला होगा। पहली दफ करना पड़ा था, उसके पहले कोई किया न था कभी। तो जो कई दफे कर चुका है, और बहुत बार तैयारी कर चुका है, वह राम से बेहतर करेगा। रोएगा जब सीता चोरी जाएगी। वृक्षों से पूछेगा, “मेरी सीता कहां है? आंख से आंसुओ की धारें बहेंगी। और फिर भी भीतर पार रहेगा। भीतर जानता है कि कुछ लेना-देना नहीं है। मंच के पीछे उतर गए, खत्म हो गई बात। मंच के पीछे राम और रावण साथ बैठकर चाय पीते हैं, मंच के बाहर धनुष-बाण लेकर खड़े हो जाते हैं। मंच पर दुश्मनी है; मंच के पार कैसी दुश्मनी!

मैं तुमसे कहता हूं कि असली राम की भी यही अवस्था थी। इसलिए तो हम उनके जीवन को रामलीला कहते हैं–लीला! वह नाटक ही था। कृष्णलीला! वह नाटक ही था। असली राम के लिए भी नाटक ही था।

नाटक का अर्थ होता है: जो तुम कर रहे हो, उसके साथ तादात्म्य नहीं है; उसके साथ एक नहीं हो गए हो; दूर खड़े हो; हजारों मील का फासला है तुम्हारे कृत्य में और तुम में। तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो। नाटक का इतना ही अर्थ है: तुम देखने वाले हो। वे जो मंच के सामने बैठे हुए दर्शक हैं, उनमें कहीं तुम भी छिपे बैठे हो; मंच पर काम भी कर रहे हो और दर्शकों में छिपे भी बैठे हो, वहां से देख भी रहे हो। भीतर बैठकर तुम देख रहे हो जो हो रहा है, खो नहीं गए हो, भूल नहीं गए हो। यह भांति तुम्हें नहीं हो गई है कि मैं कर्ता हूं। तुम जानते हो: एक नाटक है, उसे तुम पूरा कर रहे हो।

तो मैं तुमसे न कहूंगा कि भागो। भागकर कहां जाओगे? मैं तुमसे यह कहुंगा कि भागना भी नाटक है। जहां तुम जाओगे, वहां भी नाटक है। तुम संन्यासी भी हो जाओ, तो भी मैं तुमसे कहूंगा: संन्यास भी नाटक है, अभिनय है। वस्त्र ऊपर ही ओढ़ना–आत्मा पर न पड़ जाए। यह रंग ऊपर ही ऊपर रहे, भीतर ना हो जाएं। भीतर तो तुम पार ही रहना। सफेद कपड़े पहनो कि गेरुआ पहनो कि काले पहनो, वस्त्र बाहर ही रहें, भीतर ना आ जाएं। तुम्हारी आत्मा निर्वस्त्र रहे, नग्न रहे। तुम्हारे चैतन्य पर कोई आवरण न हो। वहां तो तुम मुक्त ही रहो–सब वस्त्रों से, सब आकारों से।

तुम्हारा कोई नाम धाम है- उसे तुम छोड़ कर भाग आओगे मैं तुम तुम्हें एक नया नाम दे दूगा, उस नाम से भी दूरी रहे, उस नाम से भी तादात्म्य मत कर लेना। पुराना नाम भी तुम्हारा नहीं था, यह भी तुम्हारा नहीं है–तुम अनाम हो। पुराने से छुड़ाया, क्योंकि उससे तुम्हारे एक होने की आदत बन गई थी, नया दिया, इसलिए नहीं कि अब इसे तुम आदत बना लो, अन्यथा यह भी व्यर्थ हो जाएगा।

अपने को दूर रखने की कला संन्यास है।

अभिनेता होने की कला संन्यास है।

जहां तुम कर्ता हुए, वहीं गृहस्थ हो गए।

जहां तुम द्रष्टा रहे, वहीं संन्यस्त हो गए।

तो कहीं से भागना नहीं है।

कहीं जाना नहीं है।

जहां हो वहीं जागना है।

“आता है जज्ब; दिल को वह अन्दाजे मैकशी

रिन्दों में रिन्द भी रहें, दामन भी तर न हो। “

पीनेवालों में पीनेवाले भी बन गए, और दामन भी तर न हो। पियक्कड़ों में पियक्कड़ जैसे हो गए, लेकिन बेहोशी न पकड़े, दाग न लगे, जागरण बना रहे। तो संसार में जो चल रहा है–घर है, गृहस्थी है, बच्चे हैं, पत्नी है, पति है–ठीक है। भागकर भी क्या होगा? कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहीं संसार है। फिर तुम अगर बिना बदले वहां जाओगे, तो तुम वहीं संसार खड़ा कर लोगे।

संसार से भागने को एक ही रास्ता है, वह जागता है। तो जहां हो, वहीं जाग जाओ। और इस तरह करने लगो जैसे यह सब नाटक है। अगर कोई व्यक्ति इतनी ही याद रख सके कि सब नाटक है, तो और कुछ करने को न बचता। इतना ही करने जैसा है:

“आशियां में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ

सब बराबर है तबीयत अगर आजाद रहे “।

फिर कोई फर्क नहीं पड़ता, घर में कि बाहर, घर में कि कैद में। तबीयत अगर आजाद रहे। और तबीयत की आजादी क्या है?

साक्षी-भाव तबीयत की आजादी है। साक्षी पर कोई बंधन नहीं है।

साक्षी ही एकमात्र मुक्ति है। जहां तुम कर्ता बने कि तुमने जंजीरें ढाली। जहां तुमने कहा, मैं कर्ता हूं, बस वहीं तुम कैद में पड़े। अगर तुम देखते ही रहे, अगर तुमने देखने का सातत्य रखा, अविच्छिन्न धारा रही द्रष्टा की, फिर कोई तुम पर बंधन नहीं है। चैतन्य को न कोई बांधने का उपाय है, न कोई जंजीरें हैं, न कोई दीवाल है।

“सब बराबर है, तबीयत अगर आजाद रहे “।

चौथा प्रश्र :

 

  आपने कहा कि ज्ञान भक्ति के लिए बाधा है, फिर महातार्किक और महापंडित चैतन्य एकदम से भक्त कैसे हो गये?  

 

… क्योंकि वे महातार्किक थे और महापंडित थे। छोटे- मोटे पंडित होते तो न हो पाते। इतने बड़े तार्किक थे कि उनको अपने तर्क की व्यर्थता भी दिखाई पड़ गई। इतने बड़े मंडित थे कि अपना पांडित्य भी कचरा मालूम पड़ा। छोटे मंडित पांडित्य में अटके रह जाते हैं। छोटे तार्किक तर्क से ऊमर नहीं उठ पाते।

अगर तुम सच में ही विचार करने में कुछ हो तो आज नहीं कल तुम्‍हें विचार की व्यर्थता दिखाई पड़ जाएगी। वह विचार की आखिरी निष्पत्ति है। विचार के प्रति जाग जाना कि विचार व्यर्थ है—विचार का आखिरी निष्कर्ष है।

जैसे कांटे से हम कांटज़ निकाल लेते हैं, ऐसा महातर्क से तर्क निकल जाता है और महाविचार से विचार निकल जाता है।

चैतन्य महापंडित थे छोटे- मोटे पंडित होते तो डूब जाते। वे छोटे- मोटे पंडित नहीं थे, नहीं तो अकड़ जाते, भूल ही जाते अपने पांडित्य में। सच में ही पंडित थे।

पंडित शब्‍द बड़ा अर्थपूर्ण है। खो गया उसका अर्थ गलत हो गया उसका अर्थ। लेकिन शब्‍द बड़ा महत्वपूर्ण है। आता है प्रज्ञा से—प्रज्ञावान! जागा हुआ!

पांडित्य से पंडित का कोई संबंध नहीं है—प्रज्ञा से है। कितना तुम जानते हो। इससे संबंध नहीं है—कितने तुम जागे हुए हो…!

तो चैतन्य ने देखा : इतना जान लिया, कुछ भी तो हाथ न आया। सब शास्त्र देख डाले, भिखारी के भिखारी रहे। तर्क बहुत कर लिया, बहुतों को तर्क में पराजित किया, लेकिन भीतर कोई संपत्ति तो हाथ नहीं लगी, भीतर का अंधेरा तो अब भी वैसा का वैसा है। तर्कजाल से ज्योति न जली, भीतर का प्रकाश न मिला। महापंडित थे, बात समझ में आ गई। फेंक दी पोथी, र्फक दिए तर्कजाल। बात ही छोड़ दी विचार की। एक क्षण में यह क्रांति घटी।

अगर तुम अभी भी उलझे हो पांडित्य में, अगर तुम अभी भी बुद्धिमानी में उलझे हो, तो समझना कि बुद्धिमानी तुम्हारी बहुत बड़ी नहीं है, छोटी- मोटी है। अधकचरे पंडित ही पंडित रह जाते हैं। वास्तविक पंडित तो मुक्त हो जाते हैं।

तो मैं कहता हूं, अगर तुम तर्क में अभी भी रस लेते हो, थोड़ा और रस लेना। जल्दी नहीं है कोई, अनंत काल शेष है, कोई घबड़ाहट नहीं है। और थोड़ा रस लेना। तर्क में और थोड़ी प्रगाढ़ता पाओ। और थोड़े प्रवीण हो जाओ। और थोड़ी गहरी सूक्ष्मता में जाओ। एक दिन तुम अचानक पाओगे : तुम्हारा तर्क ही तुम्हें उस जगह ले आया, जहां दर्शन हो जाते हैं कि तर्क टर्यथ है। शास्‍त्र ही वहां ले आते हैं, जहां शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं। और इसके पहले भागना मत। इसके पहले भागोगे, तो तुम्हारा पांडित्य अटका ही रहेगा। तुम फिर चाहे गीत गाने लगो, भक्ति करने लगो, पूजा करने लगो–तब तुम पूजा के पंडित हो जाओगे; तब तुम भक्ति के पंडित हो जाओगे–लेकिन पंडित तुम रहोगे ही; तुम निर्विकार न हो पाओगे।

उस निर्विकार को पाना हो तो विचार को उसकी आखिरी घड़ी तक खींचकर ले जाना।

सब चीजें उम्र पाकर मर जाती हैं। हर बच्चा अगर बीच में ही न मर जाए तो बूढा होगी ही। हर जवानी बुढापे पर पहुंच जाती है। जैसे चीजें बढ़ती हैं, ढलती हैं। सुबह हुई, सांझ होने लगी! सुबह हुई, सांझ होने लगी। विचार किया, निर्विचार करीब आने लगा।

घबड़ाओ मत। थोड़े बढ़े चलो!

मैं तुमसे जल्दी करने को नहीं कहता। यह मेरी सतत अभिलाषा है, और सतत इस पर मेरा जोर है कि तुम जल्दी मत करना–पकना। परिपक्व हुए बिना कुछ भी नहीं होता। परिपक्वता सब कुछ है।

तो मेरी बात सुनकर तुम तर्क मत छोड़ देना। मैंने भी उसे पूरा करके ही छोड़ा। और मैं जानता हूं, जो जल्दी करके छोड़ देगा, अधूरे में छोड़ देगा, वह अधूरा रह जाएगा। चीजों को पहुंचने दो उनकी आखिरी ऊंचाई तक, वे अपने से ही ढल जाती हैं। तुम इतना ही कर सकते हो कि सहारा दो, पहुंचने दो उन्हें उनकी आखिरी ऊंचाई तक–वे अपने से ही गिर जाती हैं।

सुबह अपने-आप सांझ हो जाती है। तुम्हें भर दुपहरी में आंख बंद करके सांझ बनाने की कोई जरूरत नहीं। भर दुपहरी में सांझ को विश्वास कर लेने की कोई जरूरत नहीं है। और ऐसी सांझ झूठ होगी। झूठ से कहीं कोई परमात्मा तक पहुंचा है?

अधिक लोगों की आस्तिकता झूठ है। उनके भजन-कीर्तन झूठ हैं। अभी उन्होंने तर्क की कसौटी भी पूरी न की थी। अभी नास्तिक भी न हुए थे और आस्तिक हो गए। अभी इनकार भी न किया था और हां भर दी। अभी लड़े भी न थे और समर्पण कर दिया। टक्कर देनी थी ठीक, लड़ना था ठीक, जूझना था। जल्दी क्या है समर्पण की?

कच्चा समर्पण काम न आएगा।

मैं नास्तिकता सिखाता हूं, ताकि तुम किसी दिन आस्तिक हो सको। और मैं तुमसे कहता हूं, तर्क करना। मैं उन कमजोर लोगों में नहीं हूं जो तुमसे कहते हैं, तर्क छोड़ो, मैं तुमसे कहता हूं तर्क छूट जाएगा, तुम कर तो लो। मैंने करके देखा और छूट गया। और मैं उनको भी जानता हूं, जिन्होंने बिना किए छोड़ा और अब तक नहीं छूटा, कभी न छूटेगा। जीवन अनुभव से आता है।

तुम नास्तिक हो जाओ। घबड़ाओ मत। इतना डरा क्या है? परमात्मा है। नास्तिक होने में इतनी कोई घबड़ाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे नास्तिक होने से वह नाराज ना हो जाएगा। जीसस ने कहा है, एक बाप ने अपने बेटे को कहा कि तू जा, बगीचे में काम कर, फसल पक गई है। और बेटे ने कहा, “अभी जाता हूं। यह गया! “ लेकिन गया नहीं। दूसरे बेटे से कहा कि तू जा। उसने कहा कि नहीं, मैं न जाऊंगा, और हजार काम हैं। लेकिन बाद में पछताया और गया।

तो जीसस ने अपने शिष्यों से पूछा, “इन दोनों बेटों में कौन बाप का प्यारा होगा, जिसने हां कही और नहीं गया, या जिसने नहीं की और गया? “जिसने नहीं की और गया, वही प्यारा होगा।

तुम जरा गौर करना। अगर तुमने “नहीं “ ही नहीं की, तो तुम्हारी “हां “ नपुसक होगी। उसमें जान ही न होगी। तुमने औपचार से कह दिया। पिता कहते हैं, इसलिए कह दिया कि अच्छा जाते हैं। टालने को कह दिया।

घर के लोग मानते हैं कि ईश्वर है, तुमने मान लिया। परिवार, समाज मानता है, तुमने मान लिया। यह तुम्हारी मान्यता न हुई, यह सामाजिक शिष्टाचार हुआ। शिष्टाचार से तुम मस्जिद गए, मंदिर गए, गुरुद्वारे गए, झुके–यह तुम मंदिर-मस्जिद में न झुके, यह तुम समाज के सामने झुके, यह तुम भय से झुके कि लोग क्या कहेंगे! लेकिन तुमने इनकार किया। तुमने कहा कि जब तक मैं न समझ लूं कैसे मानूं, तो तुमने कम से कम प्रामाणिकता तो घोषित की, तुमने कम से कम यह तो कहा कि मैं बेइमानी यहां न करूंगा–बाजार में कर लेता हूं ठीक, चलती है- मंदिर में तो बेइमानी न करूंगा। यहां तो प्रामाणिक रहूंगा। यहां तो जब हां आएगी, तभी कहूंगा। और जब तक भीतर से न उठती हो, मेरे हृदय से न आती हो, तब तक रुकूंगा, तब तक यह गर्दन न झुकेगी।

और में तुमसे कहता हूं, परमात्मा तुमसे नारज न होगा। तुम्हारी “नहीं “ “हां “ की तरफ पहला कदम है। तुम चल पड़े। तुमने कम से कम प्रमाणिक होने का पहला कदम तो उठाया। और जिसने ठीक से “नहीं “ कही, वह एक न एक दिन “हां “ कहेगा, क्योंकि कौन “नहीं “ में जी सकता है, कब तक जी सकता है! नकार में जीने का कोई उपाय नहीं। “नहीं “ से किसी का भी पेट नहीं भरता और “नहीं “ से न खून बनता है, और न आत्मा में प्राण आते हैं, न श्वासें चलती हैं।

“हां “ चाहिए! परम आस्था चाहिए, तभी जीवन का फूल खिलता है। “नहीं “ तुम कहो, आज नहीं कल, तुम खुद ही अपनी “नहीं “ से घबड़ा जाओगे, आज नहीं कल, तुम्हारी “नहीं “ तुम्हें ही काटने लगेगी, सालने लगेगी। तभी ठीक क्षण आया उसे गिराने का।

चैतन्य महापंडित थे, महातार्किक थे–इसीलिए एक दिन भक्त हो सके।

भक्ति कोई सस्ती बात नहीं है। वह तर्क के आगे का कदम है। वह तर्क के आगे की मंजिल है। काव्य कोई छोटभ बात नहीं, वह गणित से पार की समझ है। वह आखिरी मंजिल है, फिर उसके आगे कोई मंजिल नहीं। और सब मंजिलें उसके पहले ही पूरी हो जाती हैं।

तो अगर तुम्हारा मन अभी भी तर्कजाल मग उलझा हो, पांडित्य मग उलझज्ञ हो, शास्त्र में उलझा हो, तो यही समझना कि पंडित तुम अधकचरे हो, ज्ञान बचकाना है। थोड़ा और बढ़ाओ इसे! प्रौढ़ होते ही ज्ञान वैसे ही गिर जाता है, जैसे पका हुआ फल वृक्ष से।

पांचवां प्रश्र :

 

  सैकड़ों बार भ्रम के टूटने पर भी भरोसा नहीं आता। क्या करूं ? कैसे भरोसा वापस लौटे?    

 

 

सैकड़ों बार भ्रम टूटा है—यह प्रतीति भ्रामक मालूम होती है। सच में न टूटा होगा। तुमने बिना टूटे मान लिया होगा कि टूटा। भ्रम न टूटा होगा। तुमने जल्दी कर ली होगी। कुछ और टूटा होगा और तुमने सोचा, भ्रम टूटा।

समझो : एक स्त्री के प्रेम में तुम पड़े और दुख पाया। तुम सोचते हो भ्रम टूटा?     गलत बात है। इस स्त्री से संबंध टूटा, भ्रम नहीं टूटा, क्योंकि भ्रम का इस स्त्री से कोई संबंध नहीं है। अब तुम्हारा मन किसी दूसरी स्त्री की तलाश कर रहा है। भ्रम जारी है। दूसरी सत्री से संबंध बन गया, फिर दुख पाया—तुम सोचते हो, भ्रम टूटा? गलती हुई है, भ्रम नहीं टूटा। मन अब तीसरी स्त्री की तलाश कर रहा है। मन कहे जाता है कि जब तक ठीक स्त्री न मिलेगी, तब तक खोजे चले जाओ। इस बड़ी पृथ्वी पर जरूर कहीं न कहीं कोई ठीक स्त्री होगी जो तुम्हें सुख देगी। भ्रम वह है। एक स्त्री, दो स्त्री, तीन नहींख लाखों स्त्रियों से तुम लाखों जन्मों में संबंध बना चुके और टूट चुके, लाखों पुरुषों से संबंध बन चुके, टूट चुके—भ्रम नहीं टूटा है। इस स्त्री से टूटा–स्त्री से नहीं टूटा है। इस पुरुष से टूटा–पुरुष से नहीं टूटा। और जब तक पुरुष से न टूटे, स्त्री से न टूटे, तब तक भ्रम कायम है, भ्रम जारी है।

तुमने दस हजार रुपये कमाने की आशा बांधी थी, कमा लिए, सोचा था, सब मिल जाएगा–कुछ भी न मिला। अब तुम सोचते हो, बीस हजार होने चाहिए।

तुम कहते हो, भ्रम टूटा? भ्रम नहीं टूटा। भ्रम कायम है। आगे सरक गया है। दस से बीस पर पहुंच गया। एक से दूसरे पर हट गया। एक आकांक्षा से दूसरी आकांक्षा पर सरक गया। लेकिन भ्रम जिंदा है।

ऐसा भी हो जाता है कि तुम्हारा सारी संसार की इच्छाओं से मन ऊब गया, तब तुम स्वर्ग की इच्छा करने लगते हो। अब भी भ्रम नहीं टूटा। अब तुमने स्वर्ग में प्रक्षेपण किया सारी आकांक्षाओं का। जो तुम्हें यहां नहीं मिला, अब तुम वहां मांगने लगे।

भ्रम टूट जाए तो सैकड़ों बार नहीं टूटता, एक ही बार टूट जाए तो बस समाप्त हो जाता है। जो सैकड़ों बार भी टूटकर और नहीं टूटता, समझना कि भूल हो रही है।

“रेगजारों में बग्लों से सिवा कुछ भी नहीं “।

रेगिस्तानों में आधी और बग्लों के सिवा कुछ भी नहीं है।

“रेगजारों में बग्लों के सिवा कुछ भी नहीं

साया-ए-अब्रे-गुरेजा से मुझे क्या लेना “!

और ज्यादा से ज्यादा जो छाया मिल सकती है रेगिस्तान में, वह आकाश में भागती हुई बदलियों की छाया है।

अगर यह समझ में आ गया कि आकाश में भागती बदलियों की छाया में कितनी देर टिकोगे, तो फिर तुम जागोगे।

यहां सभी छायाएं आकाश में भागती बदलियों की छायाएं हैं। और जहां तुमने मरूद्यान समझे हैं, वहां भी रेगिस्तान हैं। और जहां तुमने वसंत समझे हैं वहां भी पतझड़ छिपे हैं। जहां तुमने जीवन समझा है, वह केवल मौत का एक ढंग है।

“ऐ दिल तुझे रोना है तो जी खोल कर रो ले

दुनिया से बढ़ कर न कोई वीराना मिलेगा “।

पर भ्रम अभी टूटे नहीं है।

भ्रम के भी टूटने का भ्रम होता है। वही हुआ है।

तो क्या करो?

अब दुबारा इस भ्रम में मत आना कि भ्रम टूट गया। इतना तो करो, शेष अपने से होगा। जब तक भ्रम न टूटे, तब तक भ्रम मत पालना कि भ्रम टूट गया है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, “क्रोध करके देख लिया है, कोई सार न पाया। फिर भी क्रोध जाता नहीं “। तो मैं उनसे कहता हूं, “जरूर कुछ सार पाया होगा। झूठ कहते हो। नहीं तो चला जाता। यह जो तुम कहते हो कि कुछ सार न पाया, यह बुद्धिमानी बता रहे हो। लेकिन अगर कुछ सार न पाया हो तो रेत से कौन तेल निकालता रहता है? कोई भी नहीं निकालता। दीवाल से कौन निकलने की कोशिश करता है? कोई भी नहीं करता। एकाध बार करे भी तो सिर टकरा जाता है, रास्ते पर आ जाती है अक्ल, दरवाले से निकलने लगता है “।

लोग कहते हैं, कामवासना से कुछ भी न पाया, लेकिन फिर भी मन छूटता नहीं। जरूर पाया होगा। इस भ्रम को छोड़ो।

उधार बुद्धिमानी काम न आएगी। जीवन के अनुभव से जो मिले वही सच है। इस उधार बुद्धिमानी के कारण असली बुद्धिमानी पैदा नहीं हो पाती। तुमसे मैं कहता हूं, क्रोध ठीक से करो, पूरी तरह करो, होशपूर्वक करो, देखते हुए करो कि क्या मिल रहा है, मिल रहा है कुछ या नहीं। अगर कुछ न पाओगे तो क्रोध समाप्त हो जाएगा, तुम्हें समाप्त करना न पड़ेगा।

कामवासना में उतरो–पूरे होशपूर्वक! देखो–कुछ मिल रहा है? जागकर, स्मरणपूर्वक। शास्त्रों की मत सुनो। साधुओं कबिकवास में मत पड़ो। तुम्हारा अनुभव ही तुम्हारे काम आएगा। उधार ज्ञान बाधा बन जाता है। उससे वास्तविक ज्ञान के जन्म में असुविधा होती है। उधार ज्ञान हटा दो। कामवासना बुरी है–ऐसा भी मत सोचो। जब तक तुम्हारे लिए बुरी नहीं है, तब तक कैसे बुरी है; व्यर्थ है–ऐसा भी मत सोचो। जब तक तुम्हारे लिए व्यर्थ नहीं, तब तक कैसे व्यर्थ है; कौन जाने, ठीक ही हो।

निष्पक्ष मन से, कोरे और खाली मन से जाओ, धारणाएं लेकर नहीं। और तब तुम अचानक हैरान होओगे, जो शास्त्रों ने कहा है, वह जीवन तुमसे कह देता है। और जब जीवन का शास्त्र तुमसे कहता है, तभी क्रांति घटित होती है, उसके पहले नहीं।

आखिरी प्रश्‍न :

 

 

आपने कहा था कि भक्त कण-कण में भगवान को देखता है। लेकिन जिसे सिर्फ आपका पता है, कण में बसनेवाले भगवान का नहींख उसके लिए क्या साधना होगी?

 

“तलाशो-जुस्तजू की सरहदें अब खत्म होती हैं

खुदा मुझको नजर आने लगा इसाने-कामिल में “।

अगर तुम्हें एक आदमी की पूर्णता में भी परमात्मा नजर आने लगे तो खोज समाप्त हो गई। अगर तुम्हें मुझमग भभ नजर आने लगे तो बात समाप्त हो गई। फिर मैं खिड़की बन जाऊंगा। तुम फिर मेरे पार देखने में समर्थ हो जाओगे।

नहीं, मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हें मुझ में भी नजर न आया होगा। तुमने मान लिया होगा। तुमने स्वीकार कर लिया होगा। नजर न आया होगा। तुम्हारे भीतर अब भी कहीं संदेह खड़ा होगा। वहीं संदेह तुम्हारी आंख पर परदा बना रहेगा।

अगर तुम्हें एक मग लगेगा। नजर आ गया, तो बात खत्म हो गई, फिर सब में नजर आने यह तो ऐसे ही है, जिसने सागर का एक चुल्लू पानी चख लिया, उसे पता चल गया कि सारा सागर खारा है।

तुमने अगर मुझ में परमात्मा चख लिया तो तुमने सारे परमात्मा के सागर को चख लिया। फिर असंभव है। यह तो कसौटी है, अगर तुम्हें एक में नजर आया, वह भी तुमने मान लिया होगा, भीतर संदेह को दबा दिया होगा, लेकिन भीतर तुम्हारी बुद्धि कहे जा रही होगी- परमात्मा, भगवान, भरोसा नहीं आता!

तो फिर से गौर से देखो। मुझ में उतना देखने का सवाल नहीं है, असली परदा तुम्हारे भीतर है। तुम्हारी आंख पर संदेह का परदा है, तो वृक्षों में नहीं दिखाई पड़ता, चांदत्तारों में नहीं दिखाई पड़ता। सब तरफ वही मौजूद है, पत्ती-पत्ती में! उसके बिना जीवन हो नहीं सकता। जीवन उसका ही नाम है। या जीवन परमात्मा का नाम है। तुम “परमात्मा “ शब्द छोड़ दो तो भी हर्जा नहीं, “जीवन “ शब्द याद रखो। जहां जीवन दिखाई पड़े वहीं झुको।

जीवन को जरा देखो! एक बीज से फूटती हुई कोंपलों को देखो! बहते हुए झरने को देखो! रात के सन्नाटे में, चादतारों को देखो! किसी बच्चे की आंख में झांको! सब तरफ वही है! परदा तुम्हारे भीतर है। परदा तुम हो।

“तू-हीतू हो, जिस तरफ देखें उठा कर आंख हम

तेरे जल्वे के सिवा पेशे-नजर कुछ भी न हो “।

मगर यह परमात्मा के हाथ में नहीं है। अगर यह उसके हाथ मग होता तो परदा कभी का उठा दिया गया होता। यह तुम्हारे हाथ में है। यह परदा तुम हो। और तुम जब तक न उठाओ अपना परदा तब तक तुम्हें कहीं भी दिखाई न पड़ेगा।

और मैं तुमसे कहता हूं, एक जगह दिखाई पड़ जाए तो सब जगह दिखाई पड़ गया। जिसे मंदिर में दिखा उसको मस्जिद में भी दिख गया। देखने की आंख आ गई, बात समाप्त हो गई। जिसको एक दिये मग रोशनी दिख गई, क्या उसे सूरज की रोशनी न दिखेगी?

लेकिन अंधा आदमी! वह कहता है, दीये में तो दिखती है, लेकिन सूरज की नहीं दिखती। तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, तूने दीये की मान ली। तूने अपने को समझा- बुझा लिया। तू फिर से देख। इस धोखे में मत पड़।

तो मैं तुमसे कहता हूं, फिर से मेरी आखों में देखो, फिर से मेरे शून्‍य में झांको! अगर संदेह के बिना देखा, अगर भरोसे से देखा, तो एक झलक काफी है। फिर उस झलक के सहारे तुम सब जगह खोज लोगे। फिर तुम्हारे हाथ में कीमिया पड़ गई, तुम्हारे हाथ में कुंजी आ गई।

इतना ही अर्थ है गुरु का कि उससे तुम्हें पहली झलक मिल जो कि कुंजी हाथ आ जाए, फिर सब ताले उस कुंजी से खुज जाते हैं।

आज इतना ही।


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–9

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हृदय का आदोलन है भक्तिनौवां प्रवचन

दिनांक 19 जनवरी,

1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना

सुत्र:

तस्या : साधनानि गायन्त्याचार्य :

ततु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च

अव्यावृतभजनात्

लोकेपि भगवदुणश्रवणकर्तिनात्

मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेग़द्वा

महत्संगस्तु दुर्लभो गम्यो मोघश्व

लम्यतेपि तत्कृपयैव तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्

तदेव सा ध्यतां तदेव सा ध्याताम्

 

 

 

हला सूत्र : “तस्या साधनानि गायन्त्याचार्या: “।

जितने भी हिंदी में अनुवाद हैं, वे सभी कहते हैं : “आचार्यगण उस भक्ति के साधन बतलाते हैं। मूल सूत्र कहता है : आचार्यगण उस भक्ति के साधन गाते हैं। और भेद थोड़ा नहीं है।

बतलाना बतलाना ही है–गाना बात और! गाने में कुछ खूबी छिपी है। भक्ति बोलती नहीं–गाती है।

भक्ति बोलती नहीं–नाचती है।

नृत्य में और गीत में ही उसकी अभिव्यक्ति है।

वेदांत बोलता है, भक्ति गाती है।

गाने का अर्थ हुआ : भक्ति का संबंध तर्क से नहीं, विचार से नहीं—हृदय और प्रेम से है। भक्ति का संबंध कुछ कहने से कम, कहने के ढंग से ज्यादा है।

भक्ति कोई गणित की व्यवस्‍था नहीं है—हृदय का आदोलन है। गीत में प्रगट हो सकती है। भाषा तो वैसे ही कमजोर है। फिर भाषा में ही चुनना हो तो भक्ति गद्य को नहीं चुनती, पद्य को चुनती है। ऐसे तो पद्य से भी कहां कहा जा सकेगा, लेकिन शब्‍दों के बीच में लय को समाया जा सकता है। शब्‍द से न कहा जा सके, लेकिन शब्‍दों के बीच समाहित धुन से शायद कहा जा सके।

तो भक्त के जब शब्‍द सुनो तो शब्‍दों पर बहुत ध्यान मत देना। भक्त के शब्‍दों में उतना अर्थ नहीं है जितना शब्‍दों की धुन में है, शब्‍दों के संगीत में है। शब्‍दों अपने आप में तो अर्थहीन हैं। जिस रंग में और जिस रस में लपेटकर शब्दों के भक्त ने पेश किया है, उस रंग और रस का स्वाद लेना।

लेकिन अकसर अनुवाद में मूल खो जाता है, और कभी- कभी तो इतनी सरलता से खो जाता है कि खयाल में भी नहीं आता। क्योंकि हम सोचते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि आचार्यों ने गाया कि आचार्यों ने कहा, बात तो एक ही है।

बात जरा भी एक ही नहीं है—बात बड़ी भिन्न है। आचार्यों ने गया, भक्ति के आचार्यों ने गाया–कहा नहीं। और जोर धुन पर है, संगीत पर है। जोर शब्द पर नहीं, शब्द के अर्थ पर नहीं, शब्द की तर्कनिष्ठा पर नहीं।

पक्षियों के गीत जैसे हैं भक्तों के शब्द। तुम उन्हें सुनकर आनंदित होते हो। कोई अर्थ पूछे तो न बता सकोगे। लेकिन अर्थ की चिंता ही कौन करता है, जिसे आनंद मिलता हो! आनंद अर्थ है!

अंग्रेजी के महाकवि शैली से किसी ने पूछा कि तुम्हारे एक गीत को मैं पढ़ रहा हूं, समझ में नहीं आता, मुझे अर्थ समझा दो। शैली ने कंधे बिचकाये, कहा, “मुश्किल। जब लिखा था तब दो आदमी जानते थे, अब एक ही जानता है “।

उसने पूछा, “वे कौन दो आदमी थे ?… तो मैं दूसरे से पूछ लूं, अगर तुम भूल गए हो। लेकिन तुमने ही लिखा है तो तुम अर्थ कैसे भूल गए “। शैली ने कहा, “जब लिखा, तब मैं और परमात्मा जानते थे, अब सिर्फ परमात्मा ही जानता है। मैं तुम्हें न बता सकूंगा। मुझे ही याद नहीं। जैसे एक ख्वाब देखा था! भनक रह गई है कान में। रस भी रह गया है कहीं गूंजता, लेकिन अर्थ खो गए हैं “।

फिर शैली ने कहा, “अर्थ का करोगे भी क्या? गुनगुनाओ! “ गीत गाने के लिए है। जो गीत में अर्थ देखने लगा, वह वैसा ही नासमझ है, जो जाकर फूल से पूछे कि तेरा अर्थ क्या। फूल का रस देखो! रंग देखो! फूल की गंध देखो! अर्थ पूछते हो?

परमात्मा अर्थातीत है। इसलिए भक्तों ने कहा नहीं—गाया। क्योंकि कहने में अ र्थ जरा जरूरत से ज्यादा हो जाता है। गाने में अर्थ गौण हो जाता है, रस प्रमुख हो जाता है।

भक्ति है रस। भक्ति कोई ज्ञान नहीं, कहने- सुनने की बात नहीं—डूबने, मिटने की बात है।

इसलिए मैं अनुवाद करूंगा : “आचार्यगण उस भक्ति के साधन गाते हैं “। गाने में ही साधन को बतलाते हैं। अगर तुमने गाने को समझ लिया, अगर उनके गीत के रस को पकड़ लिया, तो उन्होंने सब बता दिया। क्योंकि फिर वे जो साधन बतलाते हैं, वे साधन भी क्या है? वे साधन हैं : भजन, कीर्तन, उसकी कथा में रस, श्रवण। वे सब उसी रस के विस्तार हैं।

“वह भक्ति विषय- त्याग और संग- त्याग से संपन्न होती है “।

इस सूत्र को बारीकी से समझना, क्योंकि योग भी यही कहता है। तो फिर योग और भक्ति में भेद कहां होगा ? योग भी कहता है : विषय-त्याग और संग- त्याग से। विषयों को छोड़ना है। विषयों की आसक्ति छोड़नी है। त्यागी भी यही कहता है और भक्त भी यही कहता है। दोनों के अर्थ तो एक नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों के आयाम अलग है। शब्द एक होंगे, अर्थ तो अलग हैं।

तो थोड़ा समझें।

त्याग दो तरह के हो सकते हैं। एक तो त्याग होता है : बिना भूमिका बदले भाग जाना। एक आदमी घर में है, गृहस्थ है। वह अपनी चेतना को तो नहीं बदलता, घर छोड़ देता है, पत्नी-बच्चे छोड़ देता है, जंगल की तरफ चला जाता है। भूमिका नहीं बदली, चेतना का तल नहीं बदला–स्थान बदल लिए। स्थिति नहीं बदली–स्थान बदल लिया। मन : स्थिति नहीं बदली–आसपास की जगह बदल ली। वह जाकर जंगल में बैठ जाए, जल्दी ही वहां फिर गृहस्थी खड़ी हो जाएगी। क्योंकि गृहस्थी का जो “ब्लू प्रिंट “ है, वह उसकी चैतन्य की दशा में है, वह उसे साथ ले आया। वहां भी गृहस्थी इसी ने बनाई थी। वह कुछ आकस्मिक आकाश से न उतर आई थी। किसी श्ल्य से उसका आविर्भाव न हुआ था। इसके ही चैतन्य में, इसकी ही चेतना के भीतर छिपे बीज थे–वे प्रगट हुए थे।

पत्नी आकाश से नहीं आती–पति के भीतर छिपे राग से खिंचती है। पति आकाश से नहीं आता–पत्नी के भीतर छिपे राग से आता है। तुम उसी को अपने पास बुला लेते हो जिसकी गहन आकांक्षा तुम्हारे भीतर छिपी है। वही तुम्हें मिल जाता है जो तुम चाहते हो। चाहे तुम्हें पता हो न हो, चेतन हो अचेतन हो, होश में मांगा हो बेहोशी में मांगा हो–तुम्हें वही मिलता है जो तुमने मांगा है। तुम्हारे पास वही सरककर चला आता है जो तुमने चाहा है।

तुम चुंबक हो। और तुम्हारा चुंबक तुम्हारी चेतना की स्थिति में है। अब अगर एक चुंबक लोहे के कणों को खींच लेता हो, फिर लोहे के कणों से परेशान हो जाए, भाग जाए जंगल– क्या फर्क पड़ेगा; चुंबक चुंबक रहेगा। वहां भी लोह-कणों को खींचेगा। यह भी हो सकता है कि लोह-कण पास हों, तो चुंबक कुछ भी न खींच पाए, लेकिन इससे क्या चुंबक चुंबक न हो जाएगा; चुंबक चुंबक ही रहेगा। लोह-कण होंगे तो खींच लेगा, न होंगे तो न खींचेगा; लेकिन इससे कोई चुंबक के जीवन में क्रांति न हो जाएगी।

तो एक तो त्याग है जो पलायनवादी है, भगोड़े का है। भक्त तो उस त्याग में कोई रस नहीं है। वह त्याग ही नहीं है। उसको त्याग ही कहना पहले तो गलत है। वह छोड़ना है, त्याग नहीं; भागना है, मुक्ति नहीं है।

फिर एक त्याग है चेतना के तल को बदलने से। तुम जैसे हो अभी उससे ऊपर उठते हो। जैसे ही ऊपर उठते हो, तुम्हारे आसपास का सारा संसार वैसा ही बना रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता–तुम वैसे ही नहीं रह गए। संसार में रहो तो भी संसार अब तुम में नहीं है। तुम चुंबक न रहे। तुमने चुंबकत्व छोड़ दिया। अब लोहे के टुकड़े पास ही पड़े रहें, पुराने समय में खींचे थे जब तुम चुंबक थे; अब भी पास पड़े रहेंगे, लेकिन अब तुम चुंबक नहीं हो–अब तुम में खींच न रही, आकर्षण न रहा। इसका नाम ही संग-त्याग है। पास तो है, लेकिन तुम बड़े दूर हो गए। घर में ही हो, लेकिन घर में न रहे। दुकान पर बैठे हो, दुकान में न रहे।

संसार से भागना एक बात है—वह त्याग नहीं है। संसार से उठना दूसरी बात है—वह त्याग है।

ऊपर उठो। भूमिका बदलो।

इसलिए भक्तों ने भागने का आग्रह नहीं किया।

जीवन को न तोड़ना है, न मिटाना है, न बदलना है—चैतन्य के रूप को नया करना है। तुम्हारे भीतर की ज्योति के थोड़ा बड़ा करना है, तुम थोड़े ऊपर खड़े होकर देख सको,

तुम्हारी दृष्टि का विस्तार थोड़ा बड़ा हो जाए।

तो चेतना के एक-एक तल से दूसरे तल पर जाना, चेतना के एक सोपान से दूसरे सोपान पर जाना, वही त्याग है।

“वह भक्ति विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती है”… तो तुम भक्त हो!

इसे हम ऐसा समझें कि तुम जहां खड़े हो, वहां संसार है। अगर तुम स्थान के बदल लो, तो तुम संसार में ही कहीं दूसरी जगह खड़े हो जाओगे। परमात्मा से तुम्हारी दूरी उतनी ही रहेगी जितनी पहले थी। हिमालय परमात्मा से उतना ही दूर है जितना तुम्हारी दुकान और बाजार की जगह। हिमालय परमात्मा से जरा भी पास नहीं।

लेकिन अगर तुम अपनी चेतना के तल को बदलो तो तुम संसार से दूर लगते हो और परमात्मा के पास होने लगते हो।

एक हिमालय तुम्हें चढ़ना है जरूर, लेकिन वह हिमालय तुम्हारे भीतर की शीतलता का है; वह तुम्हारे भीतर की शांति का है; वह तुम्हारे भीतर के मौन का है। एक गौरीशंकर की यात्रा करनी है जरूर, लेकिन वह गौरीशंकर बाहर नहीं है; वह तुम्हारी अंतरात्मा का शिखर है। भीतर ऊपर उठना है। बाहर तो जहां हो, ठीक हो। बाहर से कुछ भी भेद नहीं पड़ता।

“विषय-त्याग और संग-त्याग से भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति सधती है”।

भक्ति का अर्थ है: परमात्मा और तुम्हारे बीच की दूरी कम हो जाए। भक्ति तुम्हारे और परमात्मा के बीच की दूरी के कम होने का नाम है। दूरी कम होती जाए, तो भक्ति सघन होती जाती है। एक दिन पूरी मिट जाती है, अनन्यता हो जाती है, तो भक्त भगवान हो जाता है, भगवान भक्त हो जाता है। तब “दुई “ नहीं रह जाती। तब दोनों किनारे खो जाते हैं एक में ही।

इसलिए भक्त के त्याग की सूक्ष्मता को खयाल में रखना। साधारण त्यागी का त्याग सीधा- साफ है; भक्त का त्याग बड़ा सूक्ष्म है। साधारण त्यागी भागता है; भक्त रूपांतरित होता है। इसलिए भक्त को शायद तुम पहचान भी न पाओ–साधारण त्यागी को कोई भी पहचान लेगा। उसकी पहचान बड़ी ऊपरी है–घर-द्वार छोड़ दिया, काम-धंधा छोड़ा। जिसे तुम संसार कहते थे, उसे छोड़ दिया, जंगल में चला गया। इसे पहचानने में अड़चन न आएगी। भक्त जहां है वहीं है। चैतन्य बदलता है। रूपांतरण बड़ा सूक्ष्म है और भीतरी है। ऊपर से तो वैसा ही रहता है, कानों-कान किसी को खबर नहीं होती। लेकिन भीतर एक हीरे का जन्म होने लगता है।

भीतर एक निखार आता है। चेतना की लौ थमती है, अकंप जलती है। इसे देखने के लिए तुम्हें भी थोड़ा सा भीतर झांकना पड़े…।

और जब तक ऐसा न हो पाए तब तक तुम्हारी जिंदगी कहने को ही जिंदगी है, नाममात्र की जिंदगी है। जरा भी मूल्य नहीं उसका—दो कौड़ी भी मूल्य नहीं। चाहे तुम्हारी जिंदगी सिकंदर की जिंदगी ही क्यों न हो, फिर भी दो कौड़ी भी मूल्य नहीं। क्योंकि मूल्य तो अंतरात्मा का होता है। तुमने बाहर क्या किया, इससे कुछ मूल्य का संबंध नहीं–तुम भीतर क्या हुए…।

“भटक के रह गयीं नजरें खला की बुसअत में

हरीमे-शाहिदे-रअना का कुछ पता न मिला

तबिल राहगुजुर खत्म हो गई, लेकिन

हनोज अपनी मुसाफत का मुन्तहा न मिला ‘’।

जैसे शून्‍य की विशालता में आंखें भटक जाएं…।

“भटक के रह गई नजरें खला की मुसअल में!”

शून्‍य ने तुम्हें घेरा है। विराट है शून्‍य। रिक्तता है एक। उसमें आंखें खोकर रह गई हैं।

“हरीमे-शाहिदे-रअना का कुछ पता न मिला “।

प्रेमी के घर का, प्रेयसी के घर का कुछ भी पता नहीं चलता, कहां है। एक रेगिस्तान में रिक्तता के खो गए हो।

“तबील राहगुजुर खत्म हो गयी…!”

कठिन भी राह जिंदगी की, वह भी खत्म हो गयी…

“लेकिन, हनोज अपनी मुसाफत का मुन्तहा न मिला’’।

लेकिन आज तक यह ठीक से पता न चला कि हम यात्रा क्यों कर रहे थे। यात्रा खत्म भी हो गई, कठिन भी बहुत थी, लेकिन अब तक यह भी साफ न हो सका कि मुद्दा क्या था, मंजिल क्या थी, जाते कहां थे। प्रेयसी के या प्रेमी के घर की कोई झलक भी न मिली।

जब तक तुम्हारे चैतन्य की श्रमइका न बदले, तब तक यही कथा है सभी की : रिक्तता में खो जाते हैं, जैसे कोई भूली भटकी नदी है और रेगिस्तान में समा जाए, और सागर का कोई रास्ता न मिले, तपती धूप में, जलती आग में, बूंद-बूंद करके, तडुफतडुफकर उड़ जाए, भाप बन जाए :

“हरीमे-शाहिदे-रजना का कुछ पता न मिला!”

सागर में मिलने का, सागर के साथ मिलन का, सागर के साथ एक हो जाने का कोई पता न मिले-ऐसी ही साधारण जिंदगी है।

जिसे तुम भोगी की जिंदगी कहते हो, उसे भोगी की जिंदगी कहना ठीक नहीं, भोग जैसा वहां कुछ भी नहीं है। भक्त भोगता है, भोगी क्या भोगेगा? जिसको तुम भोगी कहते हो, वह तो भोग के नाम पर सिर्फ धक्के खाता है। भोग की सोचता है, माना, भोगना कभी नहीं। भोग तो उसी के लिए है जिसे भगवान के हाथ का सहारा मिला। भोग सिर्फ भगवान का है।

जिसने उस स्वाद को न जाना, वह के वल बिखरने और मिटने और रोज मरने को ही जिंदगी समझ रहा है।

नहीं, ऐसी जिंदगी में न तो किसी अर्थ का पता चलेगा। ऐसी जिंदगी में मंजिल की कोई खबर न मिलेगी। चले थे क्यों, जाते थे कहां, थे क्या—सब धुधला- धुंधला, सब अंधैरा- अंधेरा रहेगा। पर जिंदगी की राह बड़ी कठिन है और परिणाम कुछ भी हाथ न आएगा।

जिसे तुम भोगी कहते हो, उसे वस्तुत : त्यागी कहना चाहिए। किसी दिन अगर भाषा का फिर से संशोधन हो तो जिसको तुम भोगी कहते हो, उसको त्यागी कहना चाहिए, और जिसको त्यागी कहते हैं, उसको भोगी कहना चाहिए। क्योंकि त्यागी की जानता है कि भोग क्या है। और भोगी तो सिर्फ तडुफता है, सिर्फ सोचता है, सपने बनाता है, बड़े इंद्र धनुषी सपने बनाता है, बड़े रंगीन—मगर पकड़ो तो हाथ में राख भी हाथ नहीं आती, खाली हाथ खाली के खाली रह जाते हैं।

“अपने सीने से लगाये हुए उम्मीद की लाश

मुद्दतें जीस्त को नाशाद किया है मैंने “।

बस एक लाश लगाए हुए हैं उम्मीद की छाती से–वह भी लाश है आशा की कि मिलेगा कुछ, मिलेगा कुछ! “अपने सीने से लगाये हुए उम्मीद की लाश…!”

सब आशा मुर्दा हैं; कभी कुछ मिलता नहीं–बस मिलने का खयाल है, भरोसा है, आज नहीं मिला, कल! कल भी यही होगा। और तुम्हारी आशा फिर आगे कल के लिए स्थगित हो जाएगी। पीछे कल भी यही हुआ था। तब तुमने आज पर छोड़ दिया था; आज भी वही हो रहा है। ऐसे क्षण-क्षण करके जीवन रिक्त होता चला जाता है, और तुम उम्मीद की लाश को लिए ढोते फिरते हो।

तुमने कभी देखा, बंदरों में अकसर हो जाता है, छोटा बच्चा मर जाता है तो बंदरिया उसकी लाश को लिए सप्ताहों तक छाती से चिपटाये घूमती रहती है! तुम्हें देखकर उसे हंसी आएगी। और जिस दिन तुम अपनी तरफ देखोगे, उस दिन तो तम्हें भरोसा ही न आएगा कि उम्मीद की लाश तो तुम मुद्दतों से, जिदगीयों से…। वह बंदरिया का बच्चा तो कभी जिंदा भी था; उम्मीद कभी भी जिंदा न थी। वह सदा से ही लाश है। लाश होना उसका स्वभाव है।

अपने सीने से लगाये हुए उम्मीद की लाश

मुद्दतें जीस्त को नाशाद किया है मैंने।

और इस उम्मीद की लाश के कारण न मालूम कितने काल से जिंदगी को व्यर्थ ही खिन्न करता रहा हूं।

आशा बनाते हो, आशा फिर बिखरती है, टूटती है–दुख पाते हो। फिर आशा बनाते हो, फिर बनाते हो ताश के पत्तों के घर–फिर हवा जरा सी लहर, और नाव डूब जाती है। लाश को ढोते हो, उसका वजन भी, उसकी दुर्गंध भी, उसका बोझ भी–और फिर, उसके कारण जिंदगी रोज-रोज खिन्न होती है, उदास होती है।

तुम निराश क्यों होते हो बार- बार ,

—आशा के कारण।

धन्य भागी हैं वे जिन्होंने आशा छोड़ दी, फिर उन्हें कोई निराश न कर सकेगा! जिन्होंने आशा ही छोड़ दी, उनके निराश हाने की बात ही समाप्त हो गई।

भोगी आशा में जीता है। आशा मुर्दा है। उससे न कभी कुछ पैदा हुआ न कभी कुछ पैदा होगा। आशा बांझ है, उसकी कोई संतान नहीं।

तो क्या तुम सोचते हो, भक्त कहते हैं कि निराशा में जीयो? नहीं, भक्त कहते हैं कि आशा और निराशा तो एक ही सिक्के के पहलू हैं—तुम परमात्मा में जियो!

परमात्मा अभी और यहां है। आशा, कल और वहां कहीं और। अगर ठीक से समझो तो आशा का नाम ही संसार है। संसार सदा वहां, कहीं और, परमात्मा अभी और यहां, इस क्षण! इस क्षण उसने तुम्हें घेरा है। इस क्षण सब तरफ से उसने तुम्हें घेरा है। हवाओं के झोको में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के सायों में—उसने ही तुम्हें घेरा है।

तुम्हारे चारों तरफ जो लोग बैठे हैं, वे भी परमात्मा के रूप हैं, उन्होंने तुम्हें घेरा है। वही तुम्हें पुकार रहा है। वही तुम्हारे भीतर श्वास बनकर चल रहा है।

परमात्मा अभी है, परमात्मा कभी उधरि नहीं।

स्वामी राम कहते थे, परमात्मा नगद है। वह अभी और यहां है। संसार उधार है, वह कल और कहां है। कल और वहां को भोगोगे कैसे? भविष्य को कोई कैसे भोग सकता है, कहो? भविष्य को भोगने का उपाय कहां है? भविष्य है नहीं अभी, तुम उसे भोगोगे कैसे? केवल वर्तमान भोगा जा सकता है।

संसार के त्याग का अर्थ है : भविष्य का त्याग। संसार के त्याग का अर्थ है : भविष्य के नाम पर जिस भोग को हम स्‍थगित करते जाते थे, उसका त्याग। संसार के त्याग का अर्थ है : इस क्षण में—इस जीवंत क्षण में—जागना। वहीं से भोग शुरू होता है।

भक्त भगवान को भोगता है। संसारी केवल भोगने की सोचता है। तुम सोचने के भ्रम में मत आ जाना। वस्तुत : सोचता वही है जो भोग नहीं पाता है। विचार वही करता है जो भोग नहीं पाता है। योजना वही बनाता है जो भोग नहीं पाता है। कल की कल्पना वही संजोता है जो भोग नहीं पाता है। जो अभी भोग रहा हो, वह कल की बात ही क्यों करे ,

तुमने क भी देखा, तुम जि तने दुखी होते हो, उतनी भविष्य की ज्यादा विचारणा करते हो! जितने सुखी होते हो, उतना ही भविष्य छोटा हो जाता है, वर्तमान बड़ा हो जाता है। अगर कभी- कभी एक क्षण को तुम आनंदित हो जाते हो तो भविष्य खो जाता है, वर्तमान ही रह जाता है।

संसार दुख का फैलाव है, परमात्मा, आनंद की अनु भूति।

जो व्यक्ति दुख में जी रहा है, वह क हीं से भी सुख पाने की चेष्टा करता है, टटोलता है—विषयों में, वासनाओं में, धन में, संपदा में, आशा में। वह जगह- जगह टटोलता है। दुखी है! कहीं से भी सुख का झरना हाथ आ जाए! और जितनी देर लगती जाती है, उतना व्याकुल होता जाता है। जितना व्याकुल होता है, बेचैन होता है—उतना ही होश खोता चला जाता है, उतना और बेहोशी से टटोलता है। कभी यह पूछता ही नहीं अपने से कि “जहां मैं टटोल रहा हूं, वहीं मैंने खोया है, पहले यह तो पूछ लूं कि मैंने खोया कहां, पहले यह तो ठीक से पूछ लूं कि मेरा आनंद कहां भटक गया है “।

कोई धन में खोज रहा है, बिना पूछे। धन में खोया है आनंद को? अगर धन में खोया नहीं तो धन से पा कैसे सकोगे? कोई पद में खोज रहा है, बिना पूछे। पद में खोया है? अगर पद में खोया नहीं तो पा कैसे सकोगे?

और इसके पहले कि दुनिया की बड़ी यात्रा पर जाओ, अपने भीतर तो खोज लो। इसके पहले कि तुम पड़ोसियों के घर में खोजने लगो कोई चीज जो खो गई हो, अपने घर में तो खोज लो। बुद्धिमानी यही कहेगी, पहले अपने घर में खोज लो। यहां न मिले तो फिर पड़ोसियों के घर में खोजना, फिर चांद- सितारों पर खोजने जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम चांद- सितारों पर खोजते रहो और जिसे खोया था, वह घर में पड़ा रहे।

निकट से खोज शुरू करो। निकटतम से खोज शुरू करो। निकटतम तुम हो! और जिसने भी स्वयं पर हाथ रखा, उसका हा थ परमात्मा पर पड़ गया। जिसने गौर से अपनी धड़कन सुनी, उसने परमात्मा की धड़कन सुनी। जो भीतर गया, वह मंदिर में पहुंच गया। “वह भक्ति विषय-त्याग, संग-त्याग से संपन्न हाती है “।

क्या मतलब हुआ विषय-त्याग, संग-त्याग से? इतना ही मतलब हुआ कि विषय में मत खोजो, वासना में मत खोजो। पहले अपने में खोज लो। और जिसने भी अपने में खोजा, फिर कहीं और खोजने न गया—मिल गया! इससे अपवाद क भी हुआ नहीं। यह शाश्वत नियम है। “ऐस धम्मो सनंतनो “, कि जिसने अपने में खोजा, पा ही लिया। हां, अगर खोजने में रस हो तो भूलकर अपने में मत खोजना। अगर खोजी ही बने रहने में रस हो तो भूलकर अपने में मत खोजना, क्योंकि वहां खोज समाप्त हो जाती है। वहां मिल ही जाता है। अगर खोजने में ही रस हो तो बाहर भटकते ही रहना। अगर पाना हो तो बाहर जाना व्य र्थ है। जो खोज रहा है, जो चैतन्य यात्रा पर निकला है, उसी चैतन्य में मंजिल छिपी है।

… “विषय- त्याग और संग- त्याग से संपन्न होती है “—इसलिए कि वहां जब यात्रा बंद हो जाती है तो तुम अपने पर लौटने लगते हो। जो व्यक्ति बाहर नहीं खोजता, वहा कहां जाएगा? वह अपने घर आ जाएगा।

कोलम्बस अमरीका की खोज पर गया। तीन महीने का उसके पास सामान था, वह चुक गया। केवल तीन दिन का सामान बचा, और अभी तक कोई अमरीका की झलक नहीं, किनारों का कोई पता नहीं, जमीन कितनी दूर है, कुछ अनुमान भी नहीं बैठता। साथी घबड़ा गए। रोज सुबह पता लगाने के लिए वे कबूतर छोड़ते थे, क्योंकि अगर कबूतरों को कहीं भूमि मिल जाए तो वे वापस न लौटें। लेकिन वे कबूतर थोड़ी बहुत दूर चक्कर काटकर वापस जहाज पर लौट आते, कहीं भूमि न मिलती। पानी में तो ठहर नहीं सकते। उनका लौट आना इस बात की खबर होता कि उन्हें कोई जगह न मिली।

जिस दिन तीन दिन का भोजन रह गया, उस दिन कबूतर छोड़े—बड़ी उदासी में थे, डरते थे कि कहीं लौट न आएं, क्योंकि अब खात्मा है। अगर तीन दिन के भीतर जमीन नहीं मिलती तो गए। लौट भी नहीं सकते, क्योंकि तीन महीने का रास्ता पार कर आए। लौटकर भी तीन महीने लगेंगे पहुंचने में। तो पीछे जाने का तो कोई अर्थ नहीं है, आगे शून्‍य मालूम पड़ता है। लेकिन उस दिन कबूतर वापस नहीं लौटे। नाच उठे आनंद से! कबूतरों को भूमि मिल गई!

वासनाएं तुम्हारे भीतर से बाहर जाती है। विषय और संग-त्याग का इतना ही अर्थ है : वहां से भूमि हटा लो, ताकि उनको बाहर ठहरने की कोई जगह न मिले—तुम्हारा चैतन्य तुम्हीं पर वापस लौट आए। कहीं बाहर ठहरने की कोई जगह मत दो। अगर बाहर ठहरने की जगह दी… तो यही तो तुम करते रहे हो अब तक, यही भटकाव हो गया, यही संसार है।

विषय से कोई विरोध नहीं है। धन से क्या विरोध? पद से क्या विरोध? कोई निंदा नहीं है। सिर्फ इतनी ही बात है कि वहां अगर चेतना का पक्षी बैठ जाए तो फिर वह स्वयं पर नहीं लौटता। और तुम बाहर जितने उलझते जाते हो, उतना ही अपने पर आना कठिन होता जाता है।

इसलिए भक्ति की बड़ी ठीक से व्याख्या की है : “विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती है “। पक्षियों को बैठने की जगह नहीं रह जाती–चैतन्य के पक्षी अपने पर लौट आते हैं।

अगर वासना न हो तो विचार क्या करोगे ,

लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, “विचारों से बड़े पीड़ित हैं। विचारों को बंद करना है “। मैं उनसे पूछता हूं, “विचारों से पीड़ित हो, यह बात ठीक नहीं–वासना से पीड़ित होओगे “। किस बात के विचार आते हैं? तो कोई कहता है, धन के विचार आते हैं, कोई कहता है, काम वासना के विचार आते हैं। तो विचार थोड़े ही असली सवाल है। विचार तो वासना का अनुषगीं है, छाया की तरह है। जब तक तुम्हारी कामवासना में रस भरा हुआ है, जब तक तुम्हारी आशा की लाश छाती से लगी हुई है, जब तक तुम कहते हो कि कामवासना से सुख मिलनेवाला है—तब तक कामवासना के विचार आने बंद हो जाएंगे।

विचारों को थोड़े ही हटाना है। विचारों को तो हटा- हटाकर भी तुम न हटा पाओगे, क्योंकि अगर मूल मौजूद रहा, जड़ मौजूद रही, तो पते तुम काटते रहो, शाखाएं काटते रहो–नये निकल आएंगी।

वासना की जड़ कट जाए तो विचार के पते अपने-आप आने बंद हो जाते हैं।

“अखंड भजन से भी भक्ति संपन्न होती है “। विषय- त्याग, संग-त्याग से–फिर अखंड भजन से…।

अखंड भजन का अर्थ वैसा नहीं है जैसा तुमने समझ रखा है कि लोग लाउडस्पीकर लगाकर बैठ जाते हैं चौबीस घंटे, मोहल्लेभर के लोगों को परेशान कर देते हैं, अखंड भजन कर रहे हैं! अखंड उपद्रव है यह, अखंड भजन नहीं है। और पड़ोसियों ने क्या बिगाड़ा है? तुम्हें भजन करना हो करो, दूसरों को क्यों परेशान किए हो? सोना भी मुश्किल कर देते हो।

और यह तो धार्मिक देश है, इसमें अगर कोई अखंड भजन-कर्तिन करे और कोई पड़ोसी एतराज करे तो उसको लोग अधार्मिक समझते हैं। वे तो तुम पर कृपा करके माइक लगाए हुए हैं ताकि तुम्हारे कानों में भी भजन-कर्तिन का उच्चार पड़ जाए, तो शायद तुम्हारी भी मुक्ति हो जाए।

अखंड भजन का क्या अर्थ है?

अखंड भजन का अर्थ है : तुम्हारे भीतर परमात्मा की स्मृति अविच्छिन्न हो, विच्छिन्नता न आए। कोई राम-राम, राम-राम, राम-राम जपने का सवाल नहीं है। क्योंकि अगर तुम राम-राम भी जपो, कितने ही जोर से जपो, तो भी दो राम के बीच में खण्ड तो आ ही जाएगा। इसलिए वह अखंड तो नहीं होगा। वह तो कोई रस्ता न हुआ। तुम राम-राम कितनी ही तेजी से जपो, एक राम और दूसरे राम के बीच में जगह खाली छूट जाएगी, उतनी देर को परमात्मा का स्मरण न हुआ। इसलिए राम-राम जपने से अखंड भजन का कोई संबंध नहीं हो सकता।

अखंड भजन का अर्थ तो, अगर अखंड होना है भजन को, तो विचार से नहीं सध सकता यह काम, निर्विचार से सधेगा। अगर अखंड होना है तो विचार का काम न रहा, क्योंकि विचार तो खंडित है। एक विचार और दूसरे विचार के बीच में जगह है, अविच्छिन्न धारा नहीं है। अविच्छिन्न धारा तो स्मरण की हो सकती है। स्मरण का शब्द से कोई संबंध नहीं है। जैसे मां भोजन बनाती है, बच्चा आसपास खेलता रहता है, लेकिन उसे स्मरण बना रहता है : वह कहीं बाहर तो नहीं तिकल गया, आगन के बाहर तो नहीं उतर गया, सड़क पर तो नहीं चला गया! ऐसा वह बीच-बीच में देखती रहती है। अपना काम भी करती रहती है और भीतर एक सातत्य स्मृति का बना रहता है।

कबीर ने कहा है, जैसे कि पनघट से स्त्रियां पानी भरकर घर लौटती हैं, आपस में बात करती हैं, हंसती हैं, मजाक करती हैं–घड़े उनके सिर पर सम्हले रहते हैं, उनको हाथ भी नहीं लगातीं, स्मरण बना रहता है कि उन्हें सम्हाले हैं। बात चलती है, चर्चा होती है, हंसी-मजाक होती है–लेकिन भीतर एक सतत स्मृति बनी रहती है घड़े को सम्हालने की।

जनक के दरबार में एक संन्यासी आया और उसने जनक के कहा कि मैंने सुना है कि तुम परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए हो। लेकिन मुझे शक है, इस धन-दौलत में, इस सुख- सुविधा में, इन सुंदर स्त्रियों और नर्तकियों के बीच में, इस सब राजनीति के जाल में, तुम कैसे उसका अखंड स्मरण रखते होओगे।

जनक ने कहा, “आज सांझ उत्तर मिल जाएगा “।

सांझ एक बड़ा जलसा था और देश की सबसे बड़ी नर्तकी नाचने आई था। सम्राट ने संन्यासी को बुलाया। चार नंगी तलवारें लिए हुए सिपाही उसके चारों तरफ कर दिए। वह थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा, “क्या मतलब? यह क्या हो रहा है?”

जनक ने कहा, “घबड़ाओ मत। यह तुम्हारे प्रश्र का उत्तर है “।

और हाथ में उसको तेल से लबालब भरा हुआ पात्र दे दिया कि जरा हिल जाए तो तेल नीचे गिर जाए, एक बूंद और न जा सके, इतना भरा हुआ। और उसने कहा कि नर्तकी का नृत्य चलेगा, तुम्हें सात चक्कर उस पूरे स्थान के लगाने हैं। बड़ी भीड़ होगी। हजारों लोग इकट्ठे होंगे। अगर एक बूंद भी तेल नीचे गिरा तो ये चार तलवारें नंगी तुम्हारे चारों तरफ हैं, ये फौरन तुम्हें टुकड़े- टुकड़े कर देंगी।

उस संन्यासी ने कहा, “बाबा माफ करो! प्रश्र अपना वापस ले लेते हैं। हम तो सत्संग करने आए थे, जिज्ञासा लेकर आए थे, कोई जान नहीं गंवाने आए हैं। तुम जानो, तुम्हारा ज्ञान जाने। हो गए होओगे तुम उपलब्ध ज्ञान को, हमें कुछ संदेह भी नहीं है। पर हमें छोड़ो “।

पर जनक ने कहा, “अब यह न हो सकेगा। प्रश्र जब पूछ ही लिया तो उत्तर जरूरी है “।

सम्राट था, संन्यासी के भागने का कोई उपाया न था। सुन्दर नर्तकी नाचती थी। हजार बार संन्यासी के मन में भी हुआ कि एक तरफ आंख उठाकर देख लूं, लेकिन एक बूंद तेल गिर जाए तो वे चारों तलवारें उसे काटकर टुकड़े- टुकड़े कर देंगी। उसने सात चक्कर लगा लिए, एक बूंद तेल न गिरा। आखें उसकी तेल पर ही सधी रहीं।

पूछा जनक ने, “उत्तर मिला?”

उसने कहा, “उत्तर मिल गया। और ऐसा उत्तर मिला कि मेरा पूरा जीवन बदल गया। पहली दफा कोई चीज इतनी देर सतत रही, अखंड रही–एक समृति कि बूंद तेल न गिर जाए “।

सम्राट ने कहा, “तेरी तरफ चार तलवारें थी, मेरे पास कितनी तलवारें हैं, मेरे चारों तरफ—तुझे पता नहीं। तेरी जिंदगी तो थोड़े से ही खतरे में थी, मेरी जिंदगी बड़े खतरे में है। और फिर इससे भी क्या फर्क पड़ता है कि तलवार है या नहीं, मौत तो सबको घेरे हुए है। जिसको मौत का स्मरण आ गया, उसे सातत्य भी समझ में आ जाएगा।

अखंड भजन का अर्थ होता है : अविच्छिन्न धारा रहे, परमात्मा के स्मरण में एक क्षण को भी व्याघात न हो, तुम उससे विमुख न होओ, तुम्हारी आखें उस पर ही लग रहें, तुम्हारा हृदय उसकी ही तरफ दौड़ता रहे, तुम्हारे चैतन्य की धारा उसकी तरफ ही प्रवाहित रहे–जैसे गंगा सागर की तरफ अविच्छिन्न बह रही है–एक क्षण को भी व्याघात नहीं है, एक क्षण को भी बाधा नहीं है, अवरोध नहीं है।

“अव्यावृतभजनात् “।

कोई भी व्याघात न पड़े तो भजन! इसका अर्थ हुआ कि तुम्हारे जीवन के साधारण कृत्य ही जब तक परमात्मा के स्मरण की व्यवस्था न बन जाएं—उठो तो उसमें उठो! बैठो तो उसमें बैठो! सोओ तो उसमें सोओ!

जागो तो उसमें जागो!

–जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक तो व्याघात होतो ही रहेगा।

तो ध्यान रखना: परमात्मा का स्मरण तुम्हारे और कृत्यों में एक कृत्य न हो, नहीं तो व्याघात पड़ेगा।

जब तुम दूसरे कृत्यों में उलझोगे, तो परमात्मा भूल जाएगा। यह तुम्हारे जीवन का कोई एक हिस्सा न हो परमात्मा; यह तुम्हारे पूरे जीवन को घेर ले; यह तुम्हारे सारे जीवन पर छा जाए। मंदिर में जाओ तो परमात्मा की याद और दुकान पर जाओ तो परमात्मा की याद नहीं; तो फिर अखंड न हो सकेगा स्मरण। मंदिर में जाओ या दुकान पर, मित्र से मिलो कि शत्रु से, इससे उसकी याद में कोई फर्क न पड़े; उसकी याद तुम्हें घेरे रहे; उसकी याद तुम्हारे चारों तरफ एक माहौल बन जाए; तुम्हारी श्वास-श्वास में समा जाए।

“जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर

या वोह जगह बता जहां पर खुदा न हो”।

मस्‍जिद में बैठकर। फिर तुम्‍हारे सारे कृत्‍य उसी में लपेटे हुए हों। फिर तुम्हारा कोई कृत्य ऐसा न रह जाए जो उसके बाहर हो। क्योंकि जो कृत्य उसके बाहर हो। क्योंकि जो कृत्य उसके बाहर होगा, वही व्याघात बन जाएगा।

तो परमात्मा और स्मृतियों में एक स्मृति नहीं है–परमात्मा महास्मृति है। वह और चीजों में एक चीज नहीं है–परमात्मा आकाश की तरह सभी चीजों को घेरता है। शराब की बोतल रखो तो भी आकाश ने उसे घेरा। भगवान की गतइr रखो तो उसे आकाश ने घेरा। परमात्मा तुम्हारा सब कुछ घेर ले। बुरा-भला सब तुम उसी पर छोड़ दो। बुरा भी उसका, भला भी उसका–तुम बीच से हट जाओ। क्योंकि तुम जब तक बीच में रहोगे, व्याघात पड़ेगा। तुम ही व्याघात हो। तुम्हारी मौजूदगी अखंड न होने देगी।

तो अखंड भजन का अर्थ हुआ: तुम मिट जाओ और परमात्मा रहे। तो यह कोई शोरगुला मचाने की बात नहीं है। यह तो बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है। यह कोई बैंड-बाजे बजाने की बात नहीं है। यह कोई चौबीस घंटे का अखंड कीर्तन कर दिया, इतना सस्ता नहीं है मामला। क्योंकि चौबीस घंटा तो दूर, अगर चौबीस पल भी अखंड कीर्तन हो जाए तो तुम मुक्त हो गए। महावीर ने कहा है, अड़तालीस सैकंड अगर कोई व्यक्ति अविच्छिन्न ध्यान मग रह जाए तो मुक्त हो गया! अड़तालीस सैकंड अविच्छिन्न ध्यान में रह जाए तो मुक्त हो गया! अविच्छिन्न ध्यान का अर्थ है: इस समय में, न एक विचार उठे, न एक वासना जगे, कोरा रह जाए। तुम्हें परमात्मा ऐसा घेर ले जैसा आकाश ने तुम्हें घेरा है। चुनाव न रहे। तुम्हारे सारे कृत्य उसी के समर्पण बन जाएं।

नानक सो गए थे, मक्का के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके, पुजारी नाराज हुए थे। कहा, “हटाओ पैर यहां से। कहीं और पैर करो। इतनी भी समझ नहीं है साधु होकर?

तो नानक ने कहा, “तुम हमारे पैर वहां कर दो जहां परमात्मा न हो “।

कहानी कहती है कि पुजारियों ने उनके पैर सब दिशाओं में किए, जहां भी पैर किए, काबा का पत्थर वहीं हटकर पहुंच गया। कहानी सच हो न हो, पर कहानी में बड़ा सार है।

“जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर

या वोह जगह बता जहां पर खुदा न हो”।

सार इतना ही है कि पुजारी ऐसी कोई जगह न बता सके जहां परमात्मा न हो।

तुम्हारा जीवन ऐसा भर जाए उससे कि ऐसी कोई जगह न बचे जहां वह न हो! इसलिए बुरे- भले का हिसाब मत रखना। अच्छा-अच्छा उसे मत दिखाना, अपना बुरा भी उसके लिए खोल देना। तुम्हारे क्रोध में भी उसकी ही याद हो। और तुम्हारे प्रेम में भी उसकी ही याद हो। और तुम सब हैरान होओगे कि तुम्हारा क्रोध क्रोध न रहा, तुम्हारे क्रोध में भी उसकी सुगंध आ गई; और तुम्हारा प्रेम तुम्हारा प्रेम न रहा, तुम्हारे प्रेम में भी उसकी ही प्रार्थना बरसने लगी। तुम जिस चीज से परमात्मा को जोड़ दोगे, वही रूपांतरित हो जाती है। तुम अपना सब जोड़ दो, तुम्हारा सब रूपांतरित हो जाएगा।

“अखंड भजन से संपन्न होता है “।

“उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है

एक लम्हा जो तेरी रूह में वुसअत भर दे… “

–एक छोटा सा क्षण भी जो तेरे प्राणों में विशालता को भर दे, विराट को भर दे!

“उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है

एक लम्हा जो तेरी रूह में वुसअत भर दे

एक लम्हा जो तेरे गीत को शोखी दे दे

एक लम्हा तो तेरी लै में मसर्रत भर दे “।

एक क्षण भी काफी है परमात्मा के स्मरण का–”जो तेरी रूह में वुसअत भर दे “–जो विराट को तेरे आगन में बुला ले, तेरी बूंद में सागर को बुला ले। सीमाएं टूट जाएं, ऐसा एक क्षण पर्याप्त है जी लेने का।

“उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है “।

फिर अखंड कीर्तन की बात ही क्या, अगर एक लम्हा, अगर एक क्षण विशालता का इतना अदभुत है, तो अखंड कीर्तन की तो बात ही क्या! सतत भजन की तो बात ही क्या! ओंठ भी हिलते नहीं सतत भजन में! भीतर परमात्मा का नाम भी स्मरण नहीं किया जाता। जो किया जाता है, जो होता है, सभी में उसकी याद होती है। भोजन करो, स्नान करो, तो स्नान में भी जलधार उसी की है। जल गिरे तो परमात्मा ही गिरे तुम्हारे ऊपर!

मेरे गांव में बड़ी सुंदर नदी बहती है और गांव के लिए वही स्नान की जगह है। सर्दियों के दिन में लोग, जैसा सदा जाते हैं, सर्दियों के दिन में भी जाते हैं। मैं बचपन से ही चकित रहा कि गर्मियों में कोई भजन-कीर्तन करता नहीं दिखाई पड़ता। सर्दियों में लोग जब स्नान करते हैं नदी में तो जोर-जोर से भगवान का नाम लेते हैं, “भोलेशंकर! भोलेशंकर! “ तो मैंने पूछा कुछ लोगों से कि गरमी में कोई भोलेशंकर का नाम नहीं लेता, भूल जाते हैं लोग क्या? तो पता चला कि सर्दियों में इसलिए नाम लेते हैं कि वह नदी की ठंडक, और उनके बीच भोलेशंकर की आवाज परदे का काम करती है। वे “भोलेशंकर “ चिल्लाने में लग जाते हैं, उतनी देर डुबकी मार लेते हैं–ठंड भूल गई!

लोग नदी से बचने को भगवान का नाम ले रहे हैं। और तब मुझे लगा कि ऐसा पूरी जिंदगी में हो रहा है। भगवान सब तरफ से तुम्हें घेरे हुए हैं, तुम उससे घिरना नहीं चाहते। तुम्हारे भगवान का नाम भी तुम्हारा बचाव है। परमात्मा का स्मरण करना हो तो नदी को बहने दो, वही उसी की है। वही उसमें बहा है, बह रहा है। तुम डुबकी ले लो। इतना बोध भर रहे कि परमात्मा ने घेरा। ऊपर उठो तो परमात्मा के सूरज ने घेरा। डुबकी लो तो पानी ने, परमात्मा के जल ने घेरा। भूखे रहो तो परमात्मा की भूख ने घेरा और भोजन लो तो परमात्मा की तृप्ति ने घेरा।

और यह कोई शब्दों की बात नहीं है कि ऐसा तुम सोचो, क्योंकि तुम सोचोगे तो वही बाधा हो जाएगी। ऐसा तुम जानो। ऐसा तुम सोचो नहीं। ऐसा तुम दोहराओ नहीं। ऐसा तुम्हारा बोध हो। ऐसा तुम्हारा सतत स्मरण हो।

“लोकसमाज में भी भगवदगुण-श्रवण और कीर्तन से भक्ति संपन्न होती है “।

“भगवतगुण-श्रवण “…! भगवान के गुणों का श्रवण, और भगवान के गुणों का कीर्तन, उसके गुणों को सुनना और उसके गुणों को गाना। सुनने से… अगर तुमने ठीक-ठीक सुना, अगर तुमने हृदय के पट खोलकर सुना, अगर तुमने कान से ही न सुना, प्राणों से सुना, तो तुम्हारे भीतर भगवान के गुणों को सुनते- सुनते, उसके स्मरण का सातत्य बनने लगेगा। क्योंकि हम जो सुनते हैं, वही हमारा बोध हो जाता है। जो हम सुनते हैं, वह धीरे-धीरे हम में रमता जाता है। जो हम सुनते हैं, वह धीरे-धीरे हमारे रोएं-रोएं में व्यास हो जाता है। जो हम सुनते हैं सतत, वह धीरे- धीरे हमें घेर लेता ह, हम उसमें डूब जाते हैं।

तो उसका श्रवण भी करो और उसके गुणों का कीर्तन भी करो। सुनने से ही कुछ न होगा। क्योंकि सुनना तो निष्क्रिय है और कीर्तन सक्रिय है। निष्क्रियता में सुनो, सक्रियता में अभिव्यक्त करो। अगर बोलो तो उसके गुणों की ही बात बोलो।

तुम कितनी व्यर्थ की बातें बोल रहे हो! कितनी व्यर्थ की चर्चाएं कर रहे हो! अच्छा हो उसके सौंदर्य की बात करो। अच्छा हो उसके विराट अस्तित्व की थोड़ी चर्चा करो। उस चर्चा में तुम्हें भी याद आएगा, जिससे तुम चर्चा करोगे उसे भी याद आएगा। क्योंकि परमात्मा को हमने खोया नहीं है, केवल भूला है। इसलिए श्रवण का और कीर्तन का उपयोग है। अगर खो दिया हो तो क्या होने वाला है? जैसे कि तुम्हारे घर में खजाना हो और तुम भूल गए हो कि कहां दबाया था, तुम्हारे खीसे में हीरा रखा हो, और तुम भूल गए हो, तो अगर हीरे की कोई बात करे तो तुम्हें याद आ जाएगा।

तुमने कभी खयाल किया? घर से तुम चले थे, चिट्ठी डालनी थी, कोई मित्र मिल गया, तुम भूल ही गए थे दिन-भर, फिर उसने कुछ बात की और उसने कहा कि पत्नी का पत्र आया है–तत्क्षण तुम्हें याद आ गया कि तुम्हें पत्र डालना है। सुनकर भूली बात स्मरण हो आई। जो तुम्हारे भीतर पड़ा था, वह चैतन्य में उठ गया।

“भगवदगुण-श्रवण और कीर्तन से…!”

और फिर जो तुम सुनो, उसे सुन लेना ही काफी नहीं है, क्योंकि तुम फिर-फिर भूल जाओगे। तुम्हारी नींद का कोई अंत नहीं है। उसे गाओ भी, गुनगुनाओ भी। रात जब सोने जाओ तो उसके ही गीत को गुनगुनाते सो जाओ, ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हारे सपनों में घेरे रहे, ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हें ऊष्मा देती रहे, ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हारे चारों तरफ पहरा देती रहे, ताकि तुम्हारी नींद में भी, तुम्हारी गहरी नींद में भी उसकी याद का सातत्य बना रहे।

खयाल किया तुमने, तो बात तुम रात को आखिरी सोचते हुए सोते हो, वही बात तुम्हें सुबह पहली याद आती है। न खयाल किया हो तो कोशिश करना। जो बात तुम्हारे चित्त में आखिरी होती है रात सोते वक्त, वही पहली होती है सुबह उठते वक्त, क्योंकि रातभर वह बात तुम्हारी चेतना के द्वार पर खड़ी रहती है। अगर तुम परमात्मा का स्मरण करते ही सो जाओ तो सुबह तुम पाओगे, आंख खुलते ही उसके स्मरण के साथ उठे हो।

सारी दुनिया के धर्मों ने, रात और सुबह, सोते वक्त और जागते वक्त, परमात्मा के स्मरण पर बहुत जोर दिया है, क्योंकि उस समय चेतना कि श्रमइका बदलती है : जागने से नींद, तो चेतना का गेयर बदलता है, फिर सुबह नींद से जागना, फिर चेतना की भूमिका बदलती है। इन संध्या के क्षणों में, इन बदलाहट के, क्राति के क्षणों में, अगर परमात्मा का स्मरण तुम में व्यास होता जाए, तो तुम पाओगे : धीरे- धीरे तुम्हारे खून के कतरे-कतरे में परमात्मा की छाप लग गई। तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसे गुनगुनाने लगेगा।

“परंतु भक्ति-साधन मुख्यतया महापुरुषों की कृपा से अथवा भगवदकृपा के लेशमात्र से होता है “।

नारद कहते हैं, यह सब ठीक, यह साधन ठीक–लेकिन इतने से ही न हो जाएगा। वस्तुत : तो महापुरुष की कृपा या भगवत्कृपा से, उसके लेशमात्र से हो जाता है। ये तुम्हारे उपाय हैं जरूरी, पर इतने को ही काफी मत समझ लेना। यहीं भक्ति का अन्य साधनों से भेद है। अन्य सधिन कहते हैं : अगर ठीक से किया तो परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा, भक्ति कहती है : यह तो सिर्फ तैयार है, इससे नहीं हो जाएगा, अंतत : तो वह कृपा से ही उपलब्ध होगा-महापुरुषों की, और भगवत्कृपा से।

“परंतु महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है “।

सदगुरु को खोजना बड़ा कठिन है……

संग-दुर्लभ, अगम्य और अमोघ!

दुर्लभ है, क्योंकि पहले तो जिन्होंने पा लिया सत्य को, ऐसे लोग बहुत कम, फिर जिन्होंने पा लिया, उनको तुम पहचान सको, ऐसी पहचानने वाली आखें बहुत कम। फिर तुम पहचान भी लो, किसी को, तो अगम्य। फिर पहचान के बाद सदगुरु तुम्हें ऐसे जगत में ले चलता है जो तुम्हारा पहचाना हुआ नहीं है, अगम्य है, समझ में नहीं आता है। तुम्हारी समझ डगमगाती है, तुम्हारे पैर डगमगाते हैं, तुम घबड़ाते हो। यह अपरिचित लोक है, नाव ऐसी तरफ ले जाता है, जहां तुम कभी गए नहीं, नक्शे भी तैयार नहीं, खतरा ही खतरा है।

तो पहले तो मिलना कठिन, मिल जाए तो पहचानना कठिन, पहचान में भी आ जाए तो उसके साथ जाना कठिन–अगम्य है! लेकिन अगर तुम साथ चले जाओ तो अमोघ है, फिर वह रामबाण है, फिर उसकी जरा सी भी कृपा पर्याप्त है।

“यूं अचानक तेरी आवाज कहीं से आयी

जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे

या जमीनों की मुहब्बत में तड़प कर नागाह

आसमानों से कोई शोख सितारा टूटे।

शहद-सा पुल गया तल्खावा- एतन्हाई में

रंग-सा फैल गया दिल के सियाहखाने में

देर तक यूं तेरी मस्ताना सदाएं गूंजी

जिस तरह फूल चमकने लगें वीरानों में।

यूं अचानक तेरी आवाज कहीं से आयी…!

सदगुरु का मिलना अचानक है। खोजते रहो, खोजते-खोजते अचानक…। क्योंकि कोई बंधे हुए नक्शे नहीं हैं, कोई पता-ठिकाना नहीं है। इसलिए अचानक…। कहां मिलेगा, इसको बताया नहीं जा सकता।

सदगुरु कोई जड़ वस्तु नहीं है–चैतन्य का प्रवाह है, ठहरा हुआ नहीं है–गत्यात्मक है, गतिमान है।

एक सूफी फकीर एक वृक्ष के नीचे बैठा था, एक युवक ने आकर पूछा कि “मैं सदगुरु की तलाश में हूं, मुझे कुछ कसौटी बताएंगे कि मैं सदगुरु को कैसे पहचानूं ,     “ तो उस फकीर ने उसे कसौटी बतायी कि ऐस-ऐसे वृक्ष के नीचे अगर बैठा हुआ मिल जाए, तो समझना…।

वह युवक गया। उसने बहुत खोजा, कहते हैं, तीस साल…।

लेकिन वैसा वृक्ष कहीं न मिला, और न वृक्ष के नीचे बैठा हुआ कोई सदगुरु मिला। कसौटी पूरी न हुई। बहुत लोग मिले लेकिन कसौटी पूरी न हुई, वह वापस लौट आया। जब वह वापस आया तो वह हैरान हुआ कि यह तो बूढा उसी वृक्ष के नीचे बैठा था। इसने कहा कि महानुभाव, पहले ही क्यों न बता दिया कि यही वह वृक्ष है। उसने कहा, “मैंने तो बताया था, तुम्हारे पास आंख न थी। तुमने वृक्ष देखा ही नहीं। मैं तब व्याख्या ही कर रहा था वृक्ष की, तब तुम सुने और भागे। यही वृक्ष है, और मैं वही आदमी हूं। और तुम्हारी झंझट तो ठीक, मेरी झंझट सोचो कि तीस साल मुझे बैठा रहना पड़ा, कि तुम एक न एक दिन आओगे।

“यूं अचानक तेरी आवाज कहीं से आयी

जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे

या जमीनों की मुहब्बत में तड़प कर नागाह

आसमानों से कोई शोख सितारा टूटे “।

जमीन की मुहब्बत में तड़पकर… शिष्य तो जमीन जैसा है; गुरु आकाश जैसा है।

“या जमीनों की मुहब्बत में तड़प कर नागाह

आसमानों से कोई शोख सितारा टूटे।

शहर-सा पुल गया तल्खावा-एतन्हाई में “।

वह जो पीड़ा से भरी हुई तन्हाई थी, अकेलापन था.. शहद-सा पुल गया! “शहद-सा पुल गया तल्खावा-एतन्हाई में

रंग-सा फैल गया दिल के सियाहखाने में “।

अंधेरी रात थी जैसे दिल में, वहां एक नया रंग उगा, एक नशी सुबह हुई।

“देर तक यूं तेरी मस्ताना सदाएं गूंजी

जिस तरह फूल चमकने लगें वसनों में “।

जैसे अचानक मरुस्थलों में फूल खिल गए हों! इतना ही आश्चर्यजनक है सदगुरु का मिल जाना, जैसे मरुस्थल में अचानक फूल खिल जाएं, जैसे पत्थर से टूटकर अचानक झरना फूट पड़े, जैसे आसमान से कोई तारा जमीन की मुहब्बत में नीचे उतर आए!

संग दुर्लभ है। लेकिन जो खोजते हैं, उन्हें मिलता है। खोजनेवाला चाहिऐ। कितना ही दुर्लभ हो, खोजनेवालों को सदा मिला है। इसलिए तुम थक मत जाना और हार मत जाना। प्यास हो तो तुम्हें जला का झरना मिल ही जाएगा। असल में परमात्मा प्यास बनाने के पहले जल का झरना बनाता है, भूख देने के पहले भोजन तैयार करता है। प्यास तो बाद में बनाई जाती है, झरने पहले बनाए जाते हैं। आदमी जमीन पर बहुत बाद में आया, झील और झरने बहुत पहले आए। आदमी बहुत बाद में आया, वृक्षों में लगे फल बहुत पहले आए। ध्यान रखना, जिस बात की भी तुम्हारे भीतर खोज है, वह खजाना कहीं न कहीं तैयार ही होगा, अन्यथा खोज की आकांक्षा ही नहीं हो सकती थी। महापुरुषों का संग दुर्लभ है माना, मगर निराश मत होना। दुर्लभ इसलिए सूत्र कह रहा है ताकि खोजने में जल्दी मत करना, धीरज रखना। और कोई मतलब नहीं है दुर्लभ का। दुर्लभ का यह मतलब नहीं है कि मिलेगा ही नहीं। मिलेगा, धीरज रखना। धैर्य से खोजना।

अगम्य है। और जब सदगुरु तुम्हें अगम्य के मार्ग पर ले जाने लगे, जिसे तुम्हारी बुद्धि न समझ पाए–समझ ही न पाएगी, क्योंकि मार्ग प्रेम का है, अगम्य ही होगा, तर्कातीत होगा–तो घबड़ाना मत। इतनी हिम्मत रखना और साहस रखना। पागल होने का साहस रखना। दीवाने होने की हिम्मत रखना। भरोसा रखना।

इसी को श्रद्धा कहा है। श्रद्धा की जरूरत इसीलिए है, क्योंकि जहां अगम्य का द्वार खुलेगा, वहां तुम क्या करोगे, अगर श्रद्धा न हुई, वहां अगर तुमने कहा, पहले हम समझेंगे तब भीतर चलेंगे, तो रुकावट हो जाएगी, क्योंकि समझ तो तभी आ सकती है जब तुम भीतर पहुंच जाओ। और तुमने अगर यह शर्त रखी कि हम पहले समझेंगे, फिर भीतर चलेंगे…।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, “संन्यास तो लेना है, लेकिन पहले समझ लें कि संन्यास क्या है “। “मैं उनको कहता हूं, “स्वाद लिए बिना तुम कैसे समझोगे? हुए बिना कैसे समझोगे। हो जाओ, समझ लेना पीछे।

वे कहते हैं, “यह कैसी बात? पहले समझ लें, सोच लें, विचार लें, फिर हो जाएंगें”। वे कभी भी न हो पाएंगे। यह मार्ग अगम्य का है, अनजान का है, अज्ञेय का है।

लेकिन सूत्र बड़ी अमूल्य बात कह रहा है: “दुर्लभ है, अगम्य है, पर अमोघ है”। एक बार हाथ हाथ में आ गया तो चूक नहीं है, रामबाण है। फिर तीर लग ही जाएगा। फिर तीर छिद ही जाएगा, आर-पार।

“उस भगवान की कृपा से ही महापुरुषों का संग भी मिलता है”।

यह संग भी, नारद कहते हैं, परमात्मा की कृपा से ही मिलता है। क्योंकि भक्त की सारी धारणा ही कृपा पर खड़ी है, प्रसाद पर। तुम्हें सदगुरु भी मिलता है तो भी उसकी ही कृपा से मिलता है, तुम्हारी खोज से नहीं; जैसे सदगुरु के द्वारा वही तुम्हारे पास आता है; जैसे सदगुरु में वही तुम्हें मिलता है। तुम अभी इतने तैयार न थे कि सीधा-सीधा मिल सके, तो थोड़े परदे की ओट से मिलता है। हाथ तो उसी का है–दस्ताने में है। हाथ तो उसी का है। सदगुरु के भीतर भी आवाज उसी की है। लेकिन कोरे आकाश से अगर आवाज आए तो तुम समझ न पाओगे, घबड़ा जाओगे।

समझो कि यहां यह खाली कुर्सी हो और आवाज आए तो अभी तुम भाग खड़े हो जाते हो, फिर तो कहना ही क्या, फिर तो तुम लौटकर भी न देखोगे। आवाज अभी भी श्ल-य से ही आ रही है।

सदगुरु के द्वारा भी वही पुकारता है, वही बुलाता है, उसके ही हाथ तुम्हारी तरफ आते हैं–लेकिन हाथ तुम्हारे जैसे होते हैं, तुम भरोसा कर लेते हो; तुम हाथ हाथ में दे देते हो। देने पर पता चलेगा कि हाथ तुम्हारे जैसे नहीं थे; दिखाई पड़ते थे, धोखा हुआ।

सदगुरु परमात्मा ही है। इसलिए सूत्र कहता है “वह भी उसकी ही कृपा से मिलता है”।

“जो कुछ है वो, है अपनी ही रपतोर-अमल से

बुत है जो बुलाऊं, जो खुद आए तो खुद है “।

तुम्‍हारे बुलाने से भी आता है ऐसा भी नहीं- “जो खुद आए खुदा है। मूर्तियां हैं जिन्‍हें तुम बुलाते हो।

“बुत है जो बुलाऊं, जो खुद आए तो खुदा है “।

वह आता है अपने ही कारण। तुम जब भी तैयार हो जोते हो, तभी आ जाता है। ठीक से समझो तो ऐसा कहना चाहिए कि आता तो पहले भी रहा था, तुम पहचान न पाए। तुम जब सम्हले तो तुमने पहचाना, आता तो पहले भी रहा था, बुलाता तो पहले भी रहा था, तुमने न सुना, तुम्हारे कान तैयार न थे, तुम कुछ और सुनने में लगे थे।

“क्योंकि भगवान में उसके भक्त में भेद का अभाव है “।

इसलिए सदगुरु में भी वही आता है।

“क्योंकि भगवान में और उसके भक्त में भेद का अभाव है “।

“दिल हर कतरा है साजे अनलबहर

हम उसके हैं, हमारा पूछना क्या!”

हर बूंद का एक साज है और साज से निरंतर एक ध्वनि निकलती है कि मैं सागर हूं। हर बूंद का एक साज है, एक गीत है। और हर बूंद निरंतर गाती रहती है कि मैं एक सागर हूं।

“दिले हर कतरा है साजे अनलबहर

हम उसके हैं, हमारा पूछना क्या “!

अब हमारी तो बात ही क्या कहनी! हम उसके हैं!

तुम भी अगर अपने भीतर झाकोगे तो तुम एक ही आवाज पाओगे, तुम्हारे भी परमात्मा होने की आवाज पाओगे–जैसे हर बूंद में सागर होने की आवाज है। हर बूंद का साज है कि मैं सागर हूं और हर चैतन्य का साज है कि मैं परमात्मा हूं। जिसने पहचान लिया, वह सदगुरु। जिसने अपनी ही ध्वनि को पहचान लिया, वह सदगुरु। जिसने अभी नहीं पहचाना है, खोजना है–लेकिन फर्क कुछ भी नहीं है।

उस भगवान की कृपा से ही सत्पुरुषों का संग मिलता है, क्योंकि भगवान में और उसके भक्त में भेद का अभाव है।

“उस सत्संग की ही साधना करो “।

“तदेव साध्यता, तदेव साध्यताम्!”

उसकी ही साधन करो!

सत्संग की ही साधना करो!

“ सदगुरु की खोज करो!

किन्हीं हाथों पर भरोसा करो और हाथ हाथ में दे दो। ऐसे ही तुम परमात्मा के हाथ में अपने को सौंप पाओगे। और ऐसे ही परमात्मा तुम्हारे हाथ को अपने हाथ में ले पाएगा।

तो भक्ति की साधना क्या हुई? सत्संग की साधना हुई। सार क्या हुआ? … कि ऐसे किसी व्यक्ति के साथ हो जाना है जिसने पा लिया हो। क्योंकि है तो तुम्हारे भीतर भी, लेकिन तुम्हारा साज सोया हुआ है। किसी ऐसी वीणा के पास पहुंच जाना है, जिसका साज बज उठा हो, ताकि उसकी प्रति ध्वनि में तुम्हारे तार भी कैंपने लगे।

संगीतज्ञ कहते हैं कि अगर कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा पर बजाए और दूसरी वीणा कमरे में चुपचाप रखी हो तो धीरे-धीरे उसके तार भी झंकृत होने लगते हैं। तरंगें जागी वीणा की, सोयी वीणा को भी जगाने लगती हैं : ध्वनि की चोट सोयी वीणा को भी खबर देती है कि मैं भी वीणा हूं। उसके भीतर भी कोई जागने लगता है। उसके तार भी कैपने लगते हैं। रोमांच हो आता है उसे भी। दूर की खबर आती है! अपने अस्तित्व का बोध आता है। सत्संग भक्त की साधना है।

मीरा मिल जाए तो उसके साथ हो लो। चैतन्य मिल जाएं, उनके साथ हो लो। तुम्हें अपनी याद नहीं है, उन्हें अपनी याद आ गई है—उनके साथ तुम्हें भी धीरे- धीरे तुम्हें अपनी याद आ जाएगी। कुछ और करना नहीं है।

सदगुरु तो दर्पण है—उसमें तुम्हें अपना चेहरा धीरे-धीरे दिखाई पड़ने लगेगा, भूली- बिसरी याद आ जाएगी।

“उजाले अपनी यादों के हमारे पास रहने दो।

न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए “।

तो भक्त इतना ही कहता है अपने गुरु से

“उजाले अपनी यादों के हमारे पास रहने दो।

न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए”।

न मालूम किस दिन अंधकार घेर ले! बस तुम्हारा उजाला हमारे पास हो तो काफी। याद भी तुम्हारे उजाले की हमारे पास हो तो काफी, क्योंकि तब हम भी उजाले हो गए। फिर कितना ही घना अंधेरा हो, अमावस की रात हो, कितना ही घेर ले, फिर भी हम उजाले ही रहेंगे। बुद्धों के पास तुम्हें अपने उजाले की याद आई।

तो भक्त की साधना इतनी ही है कि वह सत्संग खोज ले।

भक्ति संक्रामक है।

“तदेव साध्टतां, तदेव साध्यामाम्!”

आज इतना ही।


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भक्‍ति सूत्र–(नारद)–प्रवचन–10

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परम मुक्ति है भक्तिदसवां प्रवचन

दिनांक 20 जनवरी,

1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

 *मुझे कभी लगता है कि मैंने आपसे बहुत-बहुत पाया है और कभी यह भी कि मैं आपसे बहुत चूक रहा हूं। ऐसा क्यों?

   *एक भक्त भगवान होना पसंद करे और दूसरा सिर्फ भक्त रहना चाहे, तो दोनों में श्रेष्ठ कौन है?

  *”भक्त्या अनुवृत्या “ ऐसा कहा है, तो भक्ति साकार ही होना चाहिए। सूर्य सूर्यलोक में साकार ही है, वैसे ही भगवान भी साकार क्यों नहीं?

  *आशीर्वाद क्या है? गुरु शिष्य के सिर पर क्या प्रेषित करता है? क्या आशिर्वाद लेने की क्षमता होती है?

  *कल के प्रवचन में अचानक कुछ घटा।…प्रणाम स्वीकार करें!

 *क्या भक्ति-सूत्र के रचयिता के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

 

पहला प्रश्र:

 

  मुझे कभी लगता है कि मैंने आपसे बहुत-बहुत पाया और कभी यह भी कि मैं आपसे बहुत चूक रहा हूं। ऐसा क्यों है

 

 

जितना ज्यादा पाओगे उतना ही लगेगा कि चूक रहे हो। जितनी होगी तृप्ति, उतनी ही और बड़ी तृप्ति की आकांक्षा जगेगी।

प्यासे को जब पहली घूंट जल की, गले से उतरती है तो पहली दफ प्यास का पूरा-पूरा पता चलता है। प्यास का पता चलने के लिए भी जल की थोड़ी जरूरत है।

और परमात्मा की खोज तो ऐसी है कि शुरू होती है, पूरी नहीं होती। पूरी हो जाए तपो परमात्मा सीमित हो गया, असीम न रहा। पूरी हो जाए तो परमात्मा का भी अंत आ गया, परिधि आ गई, सीमांत आ गया।

इसीलिए तो परमात्मा निराकार है, तुम उसे चुका न पाओगे। तुम चूक जाओगे, परमात्मा न चुकेगा। उतरोगे सागर में जरूर, दूसरा किनारा कभी न आएगा। दूसरा किनारा है ही नहीं। यही तो अर्थ है विराट का। अगर तुम दूसरा किनारा भी छू लो, फिर विराट कैसा विराट रहा! जो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए वह तो तुमसे भी छोटा हो जाएगा। जो तुम्हारे गले में तृप्ति बन जाए, उसकी सामर्थ्य तुम्हारे गले की सामर्थ्य से त्यादा न रह जाएगी।

तो ये दोनों घटनाएं साथ-साथ घटेंगी। तृप्ति भी मालूम होगी, गहन तृप्ति मालूम होगी और अतृप्ति मिटेगी नहीं। यही तो खोजी की व्याकुजता है: सरोवर के तट पर खड़ा है, डुबकियां लेता है, जलधार बरसती है, प्यास बुझती भी लगती है, बुझती भी नहीं, प्यास बुझती भी है और बढ़ती भी है। साथ-साथ ऐसा विरोधाभास घटता है।

तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। अगर प्यासे ही रहे और तुम्हें मुझसे कुछ भी न मिले तो भी तर्क को समझ में आ जाए, बात खत्म हो गई। यह मंदिर तुम्हारे लिए नहीं फिर, कहीं और खोजना होगा। यह द्वार तुम्हारे लिए नहीं फिर, कहीं और खोजना होगा। यह सरोवर तुम्हारे कंठ से मेल नहीं खाता, कहीं और खोजना होगा। तो बात साफ हो जाती है।

या, तृप्ति हो जाए, प्यास बिलकुल खो जाए, तो भी हल हो जाता है। हल इतना आसान नहीं है। और हल हो तो दुर्भाग्य है, सौभाग्य नहीं है। क्योंकि अगर तुम्हारी प्यास बिलकुल ही मिट जाए तो तुम्हारे जीवन का अर्थ भी खो गया। फिर जीवन में सार क्या होगा? फिर जीवन में गीत के अंकुरण कैसे होंगे? फिर नाचोगे कैसे?

ध्यान रखना, न तो अतृप्त नाच सकता है, क्योंकि नाचने का कोई कारण नहीं। अतृप्त रो सकता है, शिकायत कर सकता है, नाचेगा कैसे? तृप्त भी नहीं नाच सकता, क्योंकि फिर नाचने का कोई कारण न रहा। अतृप्ति और तृप्ति के बीच में एक पड़ाव है, वहां नृत्य है, वहां आनंद का आविर्भाव है।

और जब तुम समझोगे धीरे-धीरे, तो तुम जल के लिए ही परमात्मा को धन्यवाद न दोगे, प्यास के लिए भी धन्यवाद दोगे। तब तुम प्रार्थना करोगे कि जल भी बरसाते जाना और प्यास भी बढ़ाते जाना। इन दोनों के मध्य में जीवन है। इन दोनों के मध्य में जीवन का संतुलन है, जीवन की ऊंचाइयां हैं, गहराइयां हैं।

अगर जीवन में विरोधाभास न हो तो जीवन मुर्दा हो जाता है–इस किनारे या उस किनारे। धार तो जीवन की मध्य में है–न इस किनारे न उस किनारे। तो इस किनारे से तो तुम्हारी नाव छुड़ा लूंगा। इसलिए थोड़ी तृप्ति होती मालूम पड़ेगी। अतृप्ति का किनारा दूर हटता जाएगा और तृप्ति का किनारा पास नहीं आएगा। मंझधार में पड़ जाओगे। और जिसने मंझधार में जीना सीखा, उसी ने परमात्मा में जीने की कला जानी।

किनारे का मोह भय के कारण है। तृप्ति की आकांक्षा भी मुर्दादिली का हस्सा है। वह कोई जिंदादिलों की बात नहीं है। जिंदादिल आग चाहते हैं, वर्षा भी चाहते हैं–वर्षा ऐसी चाहते हैं कि कैसी भी आग हो तो मिट जाए, और आग ऐसी चाहते हैं कि कैसी भी वर्षा हो तो न बुझ पाए। इन दोनों के बीच में जिसने जीना सीखा, उसी ने जीना जाना।

ठीक पूछते हो। कभी लगेगा, बहुत कुछ पाया और कभी लगेगा, सब चूके जा रहे हो। और इन दोनों में विरोध मत देखना। ये दोनों बातें मैं एक साथ ही कर रहा हूं। ये दोनों बातें एक साथ ही होनी चाहिए।

तुम्हारी अड़चन भी मैं समझता हूं, क्योंकि तुम चाहते हो : निपटारा हो, इस पार कि उस पार। या तो सिद्ध हो जाए कि तृप्ति होती ही नहीं, अतृप्ति ही भाग्य है, अतृप्ति ही नियति है तो ठीक है, उससे ही राजी हो जाएं, सांत्वना कर लें, अपने घर बैठ जाएं, फिर किसी यात्रा पर जाना नहीं, जड़ हो जाएं, और या फिर पक्का हो जाए कि तृप्ति पूरी हो जाती–तो या तो अतृप्ति पर ठहर जाएं या तृप्ति पर ठहर जाएं!

ठहर जाने का तुम्हारा मन है। और परमात्मा चाहता है : तुम चलते ही रहो, चलते ही रहो, क्योंकि चलना जीवन है!

कब तुम्हें दिखाई पड़ेगा चलने का सौंदर्य–चलते जाने का सौंदर्य? रोज नये-नये अभियान उठें!

रोज नये शिखरों का दर्शन हो! हां, पैर में बल मिलता जाए! यात्रा से थकान न मिले!

पैर में बल मिलता जाए और नये शिखर उभरते चले आएं!

जिन्होंने भी परमात्मा को जाना, वे मुर्दा नहीं हो गए हैं। उनके जीवन में पहली दफा वास्तविक जीवन की ऊर्जा का आविर्भाव हुआ है।

पर तुम इसे न समझ पाओगे, क्योंकि तुम्हारे गणित में बड़ी छोटी-छोटी बातें हैं। तुम्हारा गणित ही बड़ा छोटा है। तुम हिसाब ही कौड़ियों का कर रहे हो और यहां हीरे बरस रहे हैं। तुम हिसाब कौड़ियों का कर रहे हो और तुम्हें कौड़िया दिखाई नहीं पड़ती, तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हो।

परमात्मा को क्या लेना-देना कौड़ियों से ,

सिक्के मत मांगो–तृप्ति के या अतृप्ति के!

जीवन की क्रांति मांगो!

जीवन की चुनौती मांगो!

जीवन का अभियान मांगो!

हां, शक्ति दे और नये शिखर दे!

पैरों में बल दे और कभी ऐसी घड़ी न आए कि चलने को कोई स्थान न रह जाए!       नये तल चैतन्य के छूते चलो!

आगे ही आगे जाना है!

तुम कहोगे, हम तो यही सोचते थे कि जल्दी ही पडावआ जाएगा, कहीं रुक जाएंगे।

तुम्हारी रुकने की इतनी आकांक्षा क्यों है ,

तुम्हारी रुकने की आकांक्षा में ही ईश्वर का विरोध छिपा है!

ईश्वर अब तक नहीं रुका, तुम रुकना चाहते हो!

ईश्वर अभी भी बीज में अंकुर तोड़ेगा,

वृक्ष में फूल लगाएगा।

अभी भी तारे बनाए चला जाता है नये!

अभी भी झरने बहाए चला जाता है!

अभी भी मेघ बनेंगे और बरसेंगे!

ईश्वर थका नहीं, चलता चला जाता है!

जो सदा चलता चला जाता है–सदा, सदैव–उसी को तो हम ईश्वर कहते हैं। जो थक जाता है, चुक जाता है, जिसकी सीमा आ जाती है–वही तो मन है; जो जल्दी ही बैठ जाना चाहता है; जो कहता है: बस, बहुत हो गया…! इस सीमा को तोड़ो!

परमात्मा के साथ चलना हो तो अनंत की यात्रा है। और जिस दिन तुम्हें यह समझ में आएगा, उस दिन तुम पाओगे: मंजिल नहीं है; यात्रा ही मंजिल है; हर कदम मंजिल है। तब तुम आनंद से नाचोगे भी, अहोभाव से गीत भी गाओगे लेकिन बैठकर मुर्दा चट्टान की तरह न हो जाओगे, चलते ही रहोगे।

और-और नये फूल लगने हैं तुम में अभी!

तुम्हें अपनी ही सम्भावनाओं का कुछ पता नहीं। तुम्हें अपने ही होने का कुछ पता नहीं कि तुम कितने हो सकते हो!

“एक मौज मचल जाए तो का बन जाए! “

एक छोटी-सी लहर भी, अगर मचल जाए…..

“एक छोटी-सी लहर भी, अगर मचल जाए”..

क्योंकि छोटी-सी लहर में सागर भी छिपा है।

“एक फूल अगर चाहे गुलिस्तां बन जाए!”

एक छोटा-सा फूल सारी पृथ्वी को फूलों से भर सकता है।

एक बीज सारी पृथ्वी को हरा कर सकता है, फैलता चला जाए… एक बीज में करोड़ बीज लगते हैं, करोड़ों बीजों में और करोड़ों बीज लगेंगे!

एक बीज मिल जाए पृथ्वी को तो सारी पृथ्वी हरी हो सकती है।

“एक मौज मचल जाए तो का बन जाए

एक फूल अगर चाहे तो गुलिस्तां बन जाए।

एक खून के कतरे में है तासीर इतनी

एक कौम की तारीख का उनमां बन जाए “!

एक छोटे से खून के कतरे में इतना छिपा है कि एक पूरी जाति के जीवन का शीर्षक बन जाए, इतिहास का शीर्षक बन जाए।

तुम्हें अपने होने का पता नहीं, तुम कौन हो! तुमने जहां अपने को पाया है, वह तुम्हारे भवन की सीढ़ियां हैं, तुम अपने भवन में अभी प्रविष्ट भी नहीं हुए। तुम जहां ठहर गए हो, वहां तो द्वार भी नहीं है, सीढ़ियां ही हैं, तुमने भवन में प्रवेश भी नहीं किया।

तुम इस किनारे पर बैठ गए हो, जिसको तुम संसार कहते हो। और अगर कभी तुम्हें कोई जगा देता है इस किनारे से–ऐसे तो तुम जागते नहीं आसानी से, ऐसे तो तुम बड़ी बाधाएं डालते हो, ऐसे तो तुम चेष्टा करते हो, हर उपाय करते हो कि तुम्हारी नींद न टूट जाए—जो तुम्हारी नींद तोड़ता है वह दुश्मन जैसा मालूम पड़ता है।

लेकिन बुद्ध और क्राइस्ट और कृष्ण जैसे लोग तुम्हारे पीदे पड़े ही रहें, तो तुम आंख खोलते हो। तो तत्क्षण तुम पूछते हो कि दूसरा किनारा कितनी दूर है, ताकि तुम उस किनारे सो जाओ। यहां से तुम हटाए जाओ तो जल्दी ही तुम दूसरे किनारे को यही किनारा बना लेना चाहते हो। जड़ होने की तुम्हारी आदत बड़ी गहरी है।

जड़ता का मोह मंजिल की तलाश है।

चैतन्य तो प्रवाह है, यात्रा है। चैतन्य की कोई मंजिल नहीं। पत्थर ठहर जाता है,

फूल कैसे ठहरे!

फूल को तो जाना है, और होना है!

फूल को तो करोड़ फूल होना है, अरब फूल होना है!

एक फूल को तो सारे विश्व पर फैल जाना है!

फूल रुके कैसे!

फूल एक यात्रा है, मंजिल नहीं।

पत्थर पड़ा है!

फूल खिलते हैं, मुरझा जाते हैं

आते हैं, जाते हैं,

रुकते हैं क्षण-भर पत्थर के पास, फिर यात्रा पर निकल जाते हैं!

पत्थर अपनी जगह पड़ा है!

यह जड़ता ही सांसारिक मन है।

तुमसे इस किनारे को छुड़ाने का सवाल नहीं है, तुमसे किनारा ही छुड़ाने का सवाल है। इसे मुझे दोहराने दो।

इस किनारे को छुड़ाने का सवाल नहीं है। तुमसे दुकान नहीं छुड़ानी है, क्योंकि तुम मकान छोड़ दोगे तो मंदिर पकड़ लोगे। तुम खाता-बही छोड़ दोगे तो तुम वेद-कुरान-गीता पकड़ लोगे। तुमसे यह नहीं छुड़ाना है, नहीं तो तुम वह पकड़ लोगे। तुमसे पकड़ छुड़ानी है। तुमसे किनारा नहीं छुड़ाना है, तुम्हारी जड़ता छुड़ानी है यह बैठ जाने का ढंग छुड़ाना है—ताकि तुम्हें प्रवाह होना आ जाए!

ताकि तुम गत्यात्मक हो जाओ!

ताकि बहने में ही तुम्हारी मंजिल हो! रुकना तुम भूल जाओ! तुम चलते ही रहो!

धीरे-धीरे अगर तुम ठीक से चलने की कला सीख जाओ तो तुम मिट जाओगे, चलना ही रह जाएगा। तुम भी इसीलिए हो, क्योंकि तुम बैठ जाते हो। इसे कभी तुमने खयाल किया? तुम कभी तेजी से दौड़े? अगर तुम तेजी से दौड़ो तो तुम मिट जाते हो, दौड़ना रह जाता है।

तुम कभी परिपूर्ण रूप से नाचे? अगर तुम समग्रता से नाच उठो तो तुम मिट जाते हो, नाच रह जाता है।

जब भी तुम गत्यात्मक होते हो, “डायनेमिक “ होते हो, तब तुम्हारा अहंकार मिट जाता है। जहां तुम बैठे कि अहंकार आया।

जहां तुम रुके कि अहंकार आया।

जहां तुमने किनारा पकड़ा कि अहंकार आया।

जहां तुमने कहा कि बस आ गए, कि अहंकार आया।

जीवन अगर तुम्हारा पूरा गत्यात्मक हो और तुम बैठने की आदत छोड़ जाओ… अगर तुम कभी बैठो भी इसीलिए कि चलने की तैयारी करते हो।

कभी-कभी बीज भी विश्राम करता है, बसंत की प्रतीक्षा करता है, महीनों पड़ा रहता है। जब बीज विश्राम करता है तो कंकड़-पत्थर में और बीज में फर्क करना मुश्किल होगा–लेकिन फर्क तो है।

कंकड़-पत्थर विश्राम ही करते हैं, कहीं जाते नहीं। बीज कहीं जाने के लिए तैयारी कर रहा है, साज-सामान जुटा रहा है, ठीक समय और अनुकूल अवसर की बाट जोह रहा है, जाने को तत्पर है।

जैसे कभी दौड़ की प्रतियोगिता में तुमने देखा हो, दौड़नेवाले लोग खड़े हाते हैं लकीर पर, लेकिन खड़े नहीं हाते, भागे-खड़े हाते हैं। घण्टी बजेगी या विसिल बजेगी, और वे दौड़ पड़ेंगे। बिलकुल तत्पर होते हैं! अगर तुम उन्हें देखो तो तुम यह न कह सकोगे कि वे खड़े हैं। तुम कहोगे, वे अब गए, अब गए! वे प्रतीक्षा में हैं, रोआ-रोआ तैयार है, क्योंकि एक क्षण भी चूकना खतरनाक है।

फूल और कंकड़ जब पास रखे हों तब भी फूल का जो बीज है वह ऐसे ही खड़ा है जैसे दौडाक, या तैराक तैरने के लिए तत्पर हों, सिर्फ प्रतीक्षा है ठीक मुहूर्त की, और दौड़ जाएंगे। कंकड़ वहीं पड़ा रह जाएगा, बीज यात्रा पर निकल जाएगा।

तुम अगर कभी रुको भी तो सिर्फ थकान मिटा लेने को। कोई पड़ाव तुम्हारी मंजिल न बने! रातभर रुके और सुबह चल पड़े। यह जीवंत धारा ही परमात्मा का अनुभव है।

तो अगर तुम्हें मुझे ठीक-ठीक समझना हो तो तुम तृप्ति और अतृप्ति के संयम में और संयोग में और संगीत में ही समझ पाओगे। मैं तुम्हें तृप्ति भी दूंगा… तुम्हारे पुराने दुख छिनेंगे, तुम्हें दुख दूगा। तुम्हारी पूरी पुरानी। तुम्हें दर्द दूगा ता नये भी “ पीड़ाएं गिर जाएंगी नये भी “, कि तुम उन नये दर्दों को मिटाने में और नये-नये कदम उठाओ।

परमात्मा प्राप्ति नहीं अकेली, पीड़ा भी है। जिसने ऐसा जाना, उसके लिए हर कदम मंजिल हो जाता है और तुम अगर गौर से देखोगे तो तुम परमात्मा को हर जगह गत्यात्मक पाओगे। लेकिन तुमने झूठे परमात्मा खड़े किए हैं। मंदिरों में पत्थरों की गतइrयां बना ली हैं, वे ठहरी हैं वहीं की वहीं। उनसे तो तुम्हीं थोड़े ज्यादा परमात्मा हो। चलते तो हो, उठते-डोलते तो हो, तुम्हारे जीवन में कुछ गीत तो है–सुबह कहीं, सांझ कहीं! मंदिर का तुम्हारा भगवान तो वहीं का वहीं पड़ा है।

अच्छा हो कि तुम फूलों को पूजो! लेकिन तुम उलटे आदमी हो। तुम जिंदा फूलों को तोड़कर मुर्दा परमात्माओं के चरणों में रख आते हो। इससे तो अच्छा होता कि अपने मुर्दा परमात्मा को उठा कर फूलों के चरणों में रख देते।

गति को पूजो, अगति को नहीं!

अगति जड़ता है।

प्रवाह को पूजो, पत्थरों को नहीं!

लेकिन पत्थर से तुम्हारा रास बैठ जाता है, क्योंकि तुम जड़ हो। तुमने अकारण ही पत्थर के भगवान नहीं बना लिए हैं, वे तुम्हारी जड़ता के सूचक हैं, सबूत हैं। तुमने अपनी ही छवि में उनको ढाल लिया है। तुमने अपनी ही प्रतिमाएं गढ़ जी हैं–तुमसे भी ज्यादा मुर्दा! थोड़ा पहचानो! थोड़ा जागो! गत्यात्मक को पूजो!

देखो! चांद चलता है, सूरज चलता है, तारे चलते हैं। कुछ ठहरा हुआ नहीं है!

इस जीवन को अगर तुम गौर से देखोगे तो कुछ ठहरी हुई कोई भी चीज न पाओगे। यहां सब चल रहा है।

तुम इतनी जल्दी में क्यों हो ठहर जाने की ,

यह ठहर जाने की आकांक्षा आत्मघाती है, सुसाइडज है। तुम मरना चाहते हो।

जियो! हिम्मत करो जीने की! और जितनी तुम्हारी हिम्मत बढ़ेगी जीने की उतना बड़ा जीवन तुम्हें उपलब्ध होगा–उसका अर्थ है, उतनी बड़ी चुनौती आएगी, उतनी पीड़ा उतरेगी, उतने बड़े पहाड़ों को चढ़ने का अवसर मिलेगा।

और यह अवसर कभी समाप्त नहीं होता। यह समाप्त हो जाता तो दुर्भाग्य था। क्योंकि अगर ऐसी घड़ी आ जाए जहां तुम उस किनारे को पा लो तो फिर क्या करोगे ,

बर्ट्रेंड रसेल ने मजाक में ही कहीं कहा है कि मैं हिंदुओ के मोक्ष से डरता हूं : “सब पा लिया!” फिर? फिर क्या करोगे?

रसेल गत्यात्मक व्यक्ति था, मुर्दा परमात्मा से, मुर्दा मोक्ष से हरे, स्वाभाविक है। मोक्ष लेकिन मुर्दा नहीं है। जिन्होंने मोक्ष को मुर्दा बना लिया वे खुद मुर्दा होंगे, तो उन्होंने अपनी प्रतिछवि आरोपित कर ली है।

सागर की लहरें टकराती ही रहती हैं–अनंत काल से, अनंत काल तक। ऐसे ही चैतन्य का सागर लहराता ही रहता है।

बुद्ध ने तो कहा, “है “ शब्द झूठा है। तुम कहते हो, नदी है। बुद्ध कहते हैं, नदी हो रही है, बह रही है, है नहीं। “है “ शब्द झूठा है। तुम कहते हो, वृक्ष है। जब तुमने कहा, वृक्ष है, तभी वृक्ष में कुछ नयी कोंपलें आ गईं; कुछ पुराने पते झड़ गए। तुम्हारे कहते-कहते ही तुम्हारा वक्तव्य झूठा हो गया; वृक्ष थोड़ा ऊपर छलांग लगा गया; नयी जड़ें फूट आईं।

“है” की अवस्था में ही तो कुछ भी नहीं है। ठहरा हुआ तो कुछ भी नहीं है।

तुम घड़ीभर मुझे सुनोगे, घड़ीभर बूढे हो गए। आए थे, तुम वैसे ही वापस न जा। चाहे तुम न समझ पाओ, लेकिन गंगा बहुत बह गई! सब बदल गया! तुम ही नहीं बदल रहे हो, सारा संसार बदल रहा है।

गति जीवन है। और परमात्मा महाजीवन है तो महागति है।

तो मैं तुम्हें भी तृप्ति दूंगा, इसीलिए ताकि तुम्हें और अतृप्ति दे सकूं। मैं तुमसे क्षुद्र की तृप्ति छीन लूंगा और विराट की अतृप्ति दूंगा। मैं तुमसे व्यर्थ की तृप्ति और व्यर्थ की अतृप्ति छीन लूंगा, और सार्थक की तृप्ति और सार्थक की अतृप्ति दूंगा। संसार के दुख तुमसे छीन लिए जाएंगे; तुम्हें परमात्मा की पीड़ा दूंगा।

पीड़ा भी ठीक और गलत होती है।

एक आदमी रो रहा है, उसका एक रुपया खो गया है, यह क्षुद्र की पीड़ा है। यह हो तो भी ठीक नहीं। इसका रुपया भी मिल जाए तो भी क्या तृप्ति मिलनेवाली है! क्षुद्र की ही पीड़ा थी, क्षुद्र की ही तृप्ति होगी। यह अभागा आदमी है। रुपया खो गया है, इसलिए रो रहा है। फिर किसी को समझ में आई कि मैं खुद ही खो गया हूं, मेरा ही कुछ पता नहीं चलता, कहां हूं। “कहां हूं “–अपने को खोजने लगा। बड़ी पीड़ा उठेगी। रुपये की पीड़ा बहुत बड़ी न थी, कोई भी हल कर देता; राह चलता कोई भी राहगीर एक रुपया दया करके दे देता। अब एक ऐसी पीड़ा उठी तुम्हे, जो कोई भी हल न कर पाएगा। अब एक ऐसी पीड़ा उठी जो तुम्हें ही हल करनी पड़ेगी। संसार का कोई सिक्का इसे हल न कर पाएगा। फिर किसी दिन इसकी भी झलक मिलनी शुरू हो जाती है कि मैं कौन हूं। तब एक और नयी पीड़ा उठती है कि यह विराट क्या है! अपने को जान लिया, इतने से क्या होगा–यह बड़ा सागर क्या है! बूंद की पहचान से क्या होगा! अभी बूंद को जान भी न पाए थे कि सागर की जिज्ञासा उठने लगी। अभी बूंद को पहचान भी न पाए थे कि सागर ने द्वार पर दस्तक दी कि बैठ मत जाना।

और मैं तुमसे कहता हूं: और भी बड़े सागर हैं। एक को चुकाओगे, दूसरा द्वार खुलेगा। एक द्वार निपटता नहीं कि नए द्वार खुल जाते हैं।

तो मेरे साथ तो केवल वे ही चल सकते हैं, तो तृप्ति और अतृप्ति दोनों को साथ-साथ लेने को तैयार हैं, जो मंझधार में जीने को तैयार है। और इसे ही मैं परमात्मा-जीवन कहता हूं। ऐसे जीवन के धारक को ही मैं संन्यस्त कहता हूं। तुम उसे तृप्ति पाओगे; और जहां तक उसे आत्यंतिक की, अंतिम की पुकार है, तुम उसे बड़ा अतृप्त पाओगे। एक दिव्य असंतोष उसमें तुम जलता हुआ पाओगे। संसार की तरफ से तुम उसमें पाओगे: बड़ी तृप्ति, सब मिला हुआ है! और परमात्मा की तरफ से पाओगे: बड़ी अतृप्ति, कुछ भी मिला हुआ नहीं है!

इसलिए तुम्हें दोनों बातें लगेंगी। कभी लगेगा, बहुत-बहुत पाया मेरे पास; और कभी लगेगा, बहुत-बहुत चूके। दोनों ही ठीक है। और तुम दोनों के साथ ही राजी रहना, तो ही मेरे साथ, मेरे हाथ में हाथ डालकर चल सकोगे।

दूसरा प्रश्‍न :

 

आपने कहा…तब पाओगे कि भक्त ही भगवान है। प्रश्र उठता है कि एक भक्त भगवान होना पसंद करे और दूसरा सिर्फ भक्त रहना चाहे, तो दोनों में श्रेष्ठ कौन है?

 

जो भगवान होना चाहेगा वह तो हो न पाएगा। और जो भक्त ही रहना चाहे वह भगवान हो जाएगा। श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ का सवाल नहीं उठता, क्योंकि एक ही हो पाएगा। जो नहीं होना चाहता वही हो पाएगा। जो होना चाहता है, वह तो वंचित रह जाएगा। वह तो चाह भी अहंकार की ही है। लेकिन मामला थोड़ा नाजुक है।

कभी-कभी ऐसा होता है कि विनम्रता भी अहंकार की ही होती है। कहीं तुम्हारी विनम्रता भी अहंकार की ही न हो। कहीं तुम इसलिए ही न कर रहे होओ कि मैं नहीं होना चाहता, क्योंकि तुम जानते हो कि जो इनकार करते हैं वही हो पाते हैं। तो तुम चालाक हो। तो तुम्हारी विनम्रता व्यभिचारी है। तो तुम्हारी विनम्रता शुद्ध नहीं, पवित्र नहीं, कुंआरी नहीं, वेश्या जैसी है।

जो भगवान होना चाहता है, जिसका यह अहंकार है कि मुझे भगवान होना है, वह तो पा नहीं सकेगा। लेकिन जो इसलिए विनम्र हो जाता है कि यही तरकीब है भगवान होने ही, वह भी न पा सकेगा।

और तब एक और जाल की बात है, वही भी समझ लेनी चाहिए। यह भी हो सकता है, जैसे कि विनम्र छिपाए हुए अहंकार हो सकता है। अहंकारी के भीतर छिपी हुई विनम्रता भी हो सकती है। कोई बड़ी सहजता से भी कह सकता है कि मैं भगवान होना चाहता हूं; इसमें “मैं “ की कोई बात ही न हो। यह जरा कठिन है समझना। इसमें “मैं “ का कोई भाव ही न हो; इसमें शद्ध पुकार हो अस्तित्व की; यह सीधी-सीधी बात हो; इसमें कहीं “मैं “ का कोई सवाल ही न हो; इसमें ऐसे ही हो कि मैं चाहता हूं कि मुझमें भगवान हो; यह इतना ही हो कि मैं इससे कम पर राजी नहीं हो सकता, “सब डुबाने को तैयार हूं, सब गंवाने को तैयार हूं, लेकिन जब तक भगवान की मेरे हृदय में वास न करे, जब तक वही मुझे भर न दे, तब तक चैन नहीं “।

यह बड़ी गहरी प्यास हो सकती है; यह अहंकार हो ही न…।

मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अहंकार न हो तो ही भक्त भगवान हो पाता है। प्रगट-अप्रगट का सवाल नहीं है–वास्तविक विनम्रता हो।

कभी-कभी ऊपर से शब्द तो अहंकार के दिखाई पड़ते हैं, भीतर बड़ी विनम्रता होती है। और कभी-कभी ऊपर से शब्द तो बड़ी विनम्रता के होते हैं, भीतर बड़ा अहंकार होता है।

इसे तुम भलीभांति खोज ले सकते हो अपने भीतर। दूसरे का कोई प्रयोजन भी नहीं है। अपने भीतर तो तुम जान सकते हो कि तुम्हारी विनम्रता अहंकार का ही आभूषण तो नहीं है, या तुम्हारा अहंकार केवल वक्तव्य की ही बात हो!

कृष्ण ने अर्जुन से कहा, “मामेकं शरणं वज! तू मेरी शरण आ “। उस क्षण में, कृष्ण में “मैं “ जैसा कुछ भी नहीं था—”मैं “ था ही नहीं। यह केवल वक्तव्य की बात थी, भाषा की बात थी। कृष्ण के भीतर से परमात्मा बोला, “मैं “ कुछ भी न था वहां।   कभी तुम कहते हो, “मैं तो कुछ भी नहीं, आपके पैरों की धूल हूं “। लेकिन जरा गौर करना। जिससे तुम कह रहे हो, वह अगर मान ले कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप, यह तो मैं पहले ही से जानता हूं कि आप कुछ भी नहीं, पैरों की धूल हैं, तब एक धक्का लगेगा छाती में कि अरे! चाट लगेगी। अहंकार पीड़ित हो उठेगा, फुफकार उठेगा। तुम इस आदमी को कभी माफ नहीं कर पाओगे। क्योंकि यह जो कह रहा था, वह इसका प्रयोजन न था। यह तो असल में यह कह रहा था कि तुम कहो कि “अरे आप, और पैर की धूल! आप तो सिर के ताज हैं! “ यह कहलवाने के लिए कह रहा था। यह चालाक है। यह होशियार है। यह गणित समझता है।

तो तुम अपने भीतर जानना। दूसरे से कोई प्रयोजन भी नहीं है। दूसरे को ठीक-ठीक समझ भी न पाओगे, क्योंकि दूसरे के शब्द ही सुनाई पड़ेंगे। उसके भीतर क्या घट रहा है, तुम कैसे जानोगे? लेकिन तुम अपने भीतर तो जांच कर ही ले सकते हो।

अगर तुम्हारी विनम्रता वास्तविक है, तो “मैं “ की उदघोषणा भी उसे मिटा न सकेगी। और अगर तुम्हारा अहंकार प्रगाढ़ है तो “मैं आपके पैरों की धूल हूं “, इस तरह का वक्तव्य उसे नष्ट न कर सकेगा।

लेकिन भगवान वही हो पाते हैं जो “नहीं “ हो जाते हैं।

और दोनों में कौन श्रेष्ठ है, यह तो पूछना ही मत। क्योंकि दोनों कभी पहुंच ही नहीं पाते। एक ही पहुंचता है। वही पहुंचता है जिसकी विनम्रता प्रामाणिक है। और प्रामाणिक विनम्रता का भाषा से कोई संबंध नहीं। प्रामाणिक विनम्रता का हृदय से संबंध है, तुम्हारी अंतरानुभूति से संबंध है,

“सूरते-नक्शे-रहगुजर आजिजी इख्तियार कर

अर्श की रफअतों पै गर तुझको मुकाम चाहिए “।

अगर आकाश की ऊंचाइयों पर अपना मुकाम बनाना हो तो पदचिह्नों की भांति विनम्र हो जा। लेकिन ध्यान रखना, इसीलिए मत पदचिह्नों की भांति विनम्र हो जाना कि आकाश पर मुकाम चाहिए, नहीं तो चूक जाओगे। आकाश पर मुकाम चाहने की तो बात ही न हो। पृथ्वी पर पदचिह्नों की भांति हो जाना, आकाश पर मुकाम अपने से हो जाता है।

जो मिट जाते हैं, वे हो जाते हैं। जो अपने को छोड़ देते हैं, वे बच जाते हैं। मृत्यु यहां जीवन का सूत्र है और मिट जाना पा लेने की कला है।

तीसरा प्रश्न :

 

  “भक्त्या अनुवृत्या “ ऐसा कहा है, तो भक्ति साकार ही सूर्यलोक में साकार ही है, वैसे ही भगवान भी साकार क्यों नहीं?

 

किसने कहा, भगवान साकार नहीं है?

सभी आकार उसी के हैं। भगवान का कोई आकार नहीं है। तुम भगवान का आकार खोज रहे हो, इसलिए सवाल उठता है कि भगवान साकार क्यों नहीं।

वृक्ष में भगवान वृक्ष है, पक्षी में पक्षी है, झरने में झरना है, आदमी में आदमी है, पत्थर में पत्थर है, फूल में फूल है। तुम भगवान का आकार खोज रहे हो, तो चूकते चले जाओगे। सभी आकार जिसके हैं, उसका अपना कोई आकार नहीं हो सकता। अब यह बड़े मजे की बात है। इसका अर्थ हुआ कि सभी आकार जिसके हैं, वह स्वयं निराकार ही हो सकता है। यह जरा उलटी लगती है बात, सभी आकार जिसके हैं वह निराकार!

सभी नाम जिसके हैं उसका अपना नाम कैसे होगा? जिसका अपना नाम है उसके सभी नाम नहीं हो सकते।

सभी रूपों से जो झलका है उसका अपना रूप नहीं हो सकता। जो सब जगह है उसे एक जगह खोजने की कोशिश करोगे तो चूक जाओगे। सब जगह होने का एक ही ढंग है कि वह कहीं भी न हो। अगर कहीं होगा तो सब जगह न हो सकेगा। कहीं होने का अर्थ है: सीमा होगी। सब जगह होने का अर्थ है: कोई सीमा न होगी।

तो परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा सभी के भीतर बहती जीवन की धार है। वृक्ष में हरे रंग की धार है जीवन की! वृक्ष आकाश की तरफ उठ रहा है–वह उठान परमात्मा है। वृक्ष छिपे हुए बीज से प्रगट हो रहा है–वह प्रगट होना परमात्मा है।

परमात्मा अस्तित्व का नाम है।

परमात्मा ऐसा नहीं है जैसे पत्थर है। परमात्मा ऐसे नहीं है जैसे तुम हो। परमात्मा ऐसा नहीं जैसे कि चांदतारे हैं। परमात्मा किसी जैसा नहीं, क्योंकि फिर सीमा हो जाएगी।

अगर परमात्मा तुम जैसा हो, पुरुष जैसा हो, तो फिर स्त्री में कौन होगा? स्त्री जैसा हो तो पुरुष वंचित रहा जाएगा। मनुष्य जैसा हो तो पशुओं में कौन होगा? और पशुओं जैसा हो तो पौधों में कौन होगा?

इसे समझने की कोशिश करो।

परमात्मा जीवन का विशाल सागर है। हम सब उसके रूप हैं, तंरगे हैं। हमारे हजार ढंग हैं। हमारे हजारों ढंगों में वह मौजूद है। और ध्यान रहे कि हमारे ढंग पर ही वह समाप्त नहीं है; वह और ढंग ले सकता है। वह कभी भी ढंगों पर समाप्त नहीं होगा। उसकी संभावना अनंत है। तुम ऐसी कोई स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते, जहां परमात्मा पूरा-पूरा प्रगट हो गया हो। कितना ही प्रगट होता चला जाए, अनंत रूप से प्रगट होने को शेष है।

इसलिए तो उपनिषद कहते हैं, उस पूर्ण से हम पूर्ण का भी निकल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। हम कितना ही निकलते चले जाएं, हमारे निकालने से कुछ कमी नहीं पड़ती। हमारे निकलने से वह कुछ छोटा नहीं होता जाता–पूर्ण का पूर्ण ही शेष रहता है।

पूछा है, “भक्ति साकार ही होनी चाहिए “।

भक्ति तो साकार है, लेकिन भगवान साकार नहीं है। क्योंकि भक्ति का संबंध भक्त से है, भगवान से नहीं है। भक्त साकार है, तो भक्ति साकार है। लेकिन भक्ति अंतिम परिणाम भगवान है। प्रथम तो यात्रा शुरू होती है भक्त से, अंतिम उपलब्धि होती है भगवान पर। श्दुरू तो भक्त करता है, पूर्णता भगवान करता है। प्रयत्न तो भक्त करता है, प्रसाद भगवान देता है। तुम शुरू करनेवाले हो, पूरे करनेवाले तुम नहीं हो–पूरा परमात्मा करेगा।

तो, भक्ति के दो अर्थ हो जाएंगे : जब भक्त शुरू करता है तो वह साकार होती है, फिर जैसे- जैसे भगवान भक्त में उतरने लगता है, निराकार होने लगती है। जब भक्त पूरा मिट जाता है, भक्ति शून्‍य हो जाती है, निराकार हो जाती है। फिर तुम भक्त को बैठकर मंदिर में घंटी बजाते न देखोगे। फिर अहर्निश उसके प्राणों की धक-धक ही उसकी घंटी है। फिर तुम भक्त को राम-राम चिल्लाते न देखोगे, क्योंकि अब भक्त जो भी सोचे, वही राम-राम है। अब तुम भक्त को तिलक-टीका लगाते न देखोगे, अब तो भक्त ही स्वयं तिलक-टीका हो गया, वह स्वयं लग गया। अब अपना कुछ बचा नहीं। अब तुम भक्त को मंदिर जाते न देखोगे। हां, अगर तुम्हारे पास आंखें हों तो मंदिर को भक्त के पास आते देखोगे। अब तुम भक्त को भगवान को पुकारते न देखोगे, अगर तुम्हारे पास सुननेवाले कान हों तो तुम भगवान को देखोगे कि पुकार रहा है भक्त को।

भक्त ने शुरू की थी यात्रा, भगवान ने पूरी की। तुम एक हाथ बढ़ाओ, दूसरा हाथ उस तरफ से आता है। इस तरह का हाथ साकार है, उस तरह का हाथ निराकार है। इसलिए तुम जिद्द मत करना कि उस तरफ का हाथ भी साकार हो, अन्यथा झूठा हाथ तुम्हारे हाथ में पड़ जाएगा। फिर तुम्हारे ही दोनों हाथ होंगे। इधर से भी तुम्हारा, उधर से भी तुम्हारा।

उधर से आनेवाला हाथ तो निराकार है, निर्गुण है। निर्गुण का यह मतलब नहीं है कि परमात्मा में कोई गुण नहीं है। निर्गुण का इतना ही मतलब है कि सभी गुण उसके हैं। इसलिए कोई विशेष गुण उसका नहीं हो सकता।

निराकार का यह अर्थ नहीं कि उसका कोई आकार नहीं है, सभी आकार जो कभी हुए, जो हैं, और जो कभी होंगे, उसी के हैं। तरज हैं! सभी आकारों में ढल जाता है। किसी आकार में कोई अड़चन नहीं पाता।

भक्त की तरफ से तो भक्ति साकार होगी, लेकिन जैसे-जैसे भक्त परमात्मा के करीब पहुंचेगा वैसे-वैसे निराकार होने लगेगी। और एक पड़ाव ऐसा आता है, जहां भक्त की तरफ से सब प्रयास समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि प्रयास भी अहंकार है। मैं कुछ करूंगा तो परमात्मा मिलेगा, इसका तो अर्थ हुआ कि मेरे करने पर उसका मिलना निर्भर है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि यह भी एक तरह की कमाई है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि अगर मैंने सिक्के मौजूद कर दिए तो मैं उसको वैसे ही खरीद कर ले आऊंगा जैसे बाजार से किसी और सामान को खरीदकर ले आता हूं–पुण्य के सिक्के सही, भक्ति- भाव के सिक्के सही।

नहीं, ऐसा नहीं है। मैं सब भी पूरा कर दूं तो भी उसके होने की अनिवार्यता नहीं है। मेरे सब करने पर भी वह नहीं मिलेगा, जब तक कि मेरा “करने वाला “ मौजूद है।

तो भक्त पहले करने से शुरू करता है। बहुत करता है, बहुत रोता है, बहुत नाचता है, बहुत याद करता है, बहुत तड़फता है, फिर धीरे-धीरे उसे समझ में आता है कि मेरी तड़फन में भी मेरी अस्मिता छिपी है, मेरी पुकार में भी मेरा अहंकार है, मेरे भजन में भी मैं हूं, मेरे कीर्तन में भी मेरी छाप है, कर्तृत्व मौजूद है!

जिस दिन यह समझ आती है उस दिन भक्त मिट जाता है, उस दिन जैसे किसी ने दर्पण गिरा दिया और कांच से टुकड़े- टुकड़े हो गए, उस दिन भक्त नहीं रह जाता।

जिस दिन भक्त नहीं रह जाता, भक्ति कौन करे! कौन मंदिर जाए! कौन मंत्रोच्चार करे! कौन विधि-विधान पूरा करे! एक गहन सन्नाटा घेर लेता है! उसी सन्नाटे में दूसरा हाथ उतरता है। तुम मिटे नहीं कि परमात्मा आया नहीं! तुमने सिंहासन खाली किया कि वह उतरा! तुम्हारी शुन्‍यता में ही उसके आगमन की संभावना है।

भक्ति तो साकार है, भगवान निराकार है। और भक्त के संबंध में हम क्या कहें ,     भक्त अपने को साकार समझता है, वह उसकी भांति है, जिस दिन जानेगा, अपने को भी निराकार पाएगा। भक्त अपने को भक्त समझता है, यह भी उसकी भांति है, जिस दिन जानेगा उस दिन अपने को भगवान पाएगा।

सब आकार स्वप्नवत हैं। निराकार सत्य है, आकार स्वप्न है। लेकिन हम जहां खड़े हैं, वहां आकारों का जगत है। हम अभी स्वप्न में ही पड़े हैं। हमें तो जागना भी होगा तो स्वप्न में ही थोड़ी यात्रा करनी पड़ेगी।

भक्ति साकार ही होनी चाहिए–होती ही है। निराकार भक्ति हो नहीं सकती, क्योंकि निराकार में करने को क्या रह जाता है, करनेवाला नहीं रह जाता!

भक्ति तो साकार ही होगी, लेकिन भगवान निराकार है। इसलिए एक न एक दिन भक्ति भी जानी चाहिए। भक्ति की पूर्णता पर भक्ति भी चली जाती है। प्रार्थना जब पूर्ण होती है तो प्रार्थना भी चली जाती है। ध्यान जब पूर्ण होता है तो ध्यान भी व्यर्थ हो जाता है—हो ही जाना चाहिए। जो चीज भी पूर्ण हो जाती है वह व्यर्थ हो जाती है। जब तक अधूरी है तब तक ठीक है—मंदिर जाना होगा, पूजा करनी होगी। करना, लेकिन याद रखना, कहीं यह न भूल जाए कि यह सिर्फ शरुआत है। यह जीवन की पाठशाला की शरुआत है, अंत नहीं है। यह बारहखड़ी है, क ख ग है।

छोटे बच्चों की किताबें देखी हैं। कुछ भी समझाना हो तो चित्र बनाने पड़ते हैं, क्योंकि छोटा बच्चा चित्र ही समझ सकता है। आम तो छोटे में लिखो, आम का बड़ा चित्र बनाओ। पूरा पन्ना आम के चित्र से भरो, कोने में आम लिखो। क्योंकि पहले यह चित्र देखेगा, तब वह शब्द को समझेगा।

ऐसा ही भक्त है। भगवान! “भगवान “ तो कोने में रखो, बड़ी मूर्ति बनाओ, खूब सजाओ। अभी भक्त बच्चा है। अभी उस खाली कोने में जो भगवान है वह उसे दिखाई न पड़ेगा।

तुमने कभी गौर किया? मंदिर गए हो? जहां मूर्ति है वहां तो भगवान हैं, लेकिन खाली जगह तो मूर्ति को घेरे हुए है, वहां भगवान दिखाई पड़ा? वहां भी भगवान हैं, तुम्हें नहीं दिखाई पड़ा, क्योंकि तुम्हें मूर्ति चाहिए। बचपना है अभी! मंदिर में भगवान दिखाई पड़ा, मंदिर के बाहर कौन है? मंदिर की दीवालों को कौन छू रहा है? सूरज की किरणों में किसने मंदिर की दीवालों पर थाप ही है? हवाओं में कौन मंदिर के आसपास लहरें ले रहा है? मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ाते हुए भक्तों के भीतर कौन सीढ़ियां चढ़ रहा है? वहां तुम्हें अभी नहीं दिखाई पड़ा। अभी बचकाना है मन। अभी चित्र चाहिए, मूर्ति चाहिए।

साकार से शरुआत करनी होती है, लेकिन साकार पर रुक मत जाना। मैं यह नहीं कहता हूं कि साकार की शरुआत ही मत करना। नहीं तो बच्चा भाषा कभी सीखेगा ही नहीं। वह सीखने का ढंग है, बिलकुल जरूरी है। अड़चन वहां शुरू होती है जहां तुम पहले पाठ को ही अंतिम पाठ समझ कर बैठ जाते हो।

सीख लेना और मुक्त हो जाना!

जो भी सीख लो, उससे मुक्ति हो जाती है।

आगे चलो!

मूर्ति में देख लिया–अब अमूर्त में देखो!

आकार में देख लिया–अब निराकार में देखो!

शब्द में सुन लिया–अब निशब्द में सुनो।

शास्त्र में पहचान लिया–अब मौन में, शून्‍य में चलो!

पर जल्दी भी मत करना। अगर मंदिर में ही न दिखा हो तो मंदिर के बाहर तो दिख ही न सकेगा। जल्दी भी मत करना।

आदमी का मन अति पर बड़ी आसानी से चला जाता है।

तो इस देश में तो बड़ी अतियां हुईं। इसमें एक तरफ लोग हैं जो कहते हैं, परमात्मा निराकार है। वे किसी तरह की मूर्ति को बरदाश्त न करेंगे, किसी तरह की पूजा को बरदाश्त न करेंगे।

मुसलमानों ने यही रुख पकड़ लिया, तो मूर्तियों को तोड़ने पर उतारू हो गए।

अब थोड़ा सोचो! पूजा के योग्य तो मूर्ति नहीं है, लेकिन तोड़ने के योग्य है! इतने में तो पूजा ही हो जाती। जब परमात्मा की कोई मूर्ति ही नहीं है तो तोड़ने का भी क्या प्रयोजन ,     तोड़ने में भी क्यों श्रम लगाते हो?

अति होती है : या तो पूजा करेंगे, या तोड़ेगे।

समझ नहीं है अति के पास कोई।

तो एक तरफ हैं तो जिद्द किए जाते हैं कि परमात्मा निराकार है। ठीक कहते हैं, बिलकुल ठीक ही कहते हैं, परमात्मा निराकार है। लेकिन आदमी उस जगह नहीं है अभी, जहां से निराकार से संबंध जुड़ सके। आदमी अभी निराकार के योग्य नहीं है। होगा बुद्ध के लिए, पर आदमी बुद्ध कहां? होगा महावीर के लिए, लेकिन किससे बातें कर रहे हो? जिससे बातें कर रहे हो, उसकी भी तो सोचो। दया करों उस पर। तुम परम स्वस्थ लोगों की बातें अस्पताल में पड़े बिमारों से कर रहे हो! बुद्ध को जरूरत नहीं है, लेकिन जिसको तुम समझा रहे हो, उसको ,     उस पर ध्यान करो, करुणा करो थोड़ी।

निराकार की बातें करनेवाले लोग बड़े दयाहीन हैं। करुणा उनके मन में जरा भी नहीं है। इसलिए उनकी निराकार की बातें सब थोथी, पांडित्य हैं, शास्त्रीय हैं।

फिर दूसरी तरफ साकार की बात करनेवाले लोग हैं, उनके मन में आदमी के प्रति दया तो है, लेकिन सत्य की निष्ठा नहीं। ठीक कहते हैं, इस आदमी को ले जाना है। जिसका सारा चित्त मूर्तियों से भरा है, जिसके चित्त में सब आकार ही आकार हैं, उससे निराकार की अभी पहचान नहीं हो सकती, आकारों से ही संबंध जोडाना होगा, फिर धीरे-धीरे छुड़ा लेंगे, सीढ़ी- सीढ़ी चढ़ा लेंगे। छलांग न हो सकेगी, सीढ़ी-सीढ़ी यात्रा हो जाएगी।

ठीक कहते हैं कि परमात्मा साकार है। लेकिन फिर जिद्द पैदा होती है। फिर जिद्द यह पैदा होती है कि परमात्मा साकार है, यह कोई अंतिम सत्य है। तो फिर लोग मूत्रियों से ही बंधे रह जाते हैं। कुछ मूर्ति- भंजक हैं, मूर्तियां तोड़ने में जीवन गंवाते हैं, कुछ मूर्ति-पूजक हैं, मूर्तियों को सजाने में जीवन गंवाते हैं।

ते हो तो मैं दोनों की बातों में और दोनों की बातों मेरी तुम पूछ तुमसे कहूंगा, मुझे सार है

में खतरा भी दिखाई पड़ता है। सार है दोनों की बातों में और खतरा भी दोनों की बातों में। तुम सार-सार चुन लेना और खतरे से बच जाना। मेरा कोई मजहब नहीं है, मेरा कोई सम्प्रदाय नहीं है। इसलिए मुझे कोई अड़चन भी नहीं है, किसी से भी सत्य, जहां भी सत्य हो, वहां देखने में मुझे कोई अड़चन नहीं है। मेरा कोई आग्रह नहीं है। मेरे पास कोई कसौटी नहीं है जिस पर मैं तौलूं। मैं सीधा देख पाता हूं। जो साकार की बात कहते हैं, ठीक कहते हैं, आधी मंजिल तक वे तुम्हारे साथ हो सकेंगे—बस आधी मंजिल तक! उसके बाद निराकार की बात तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण होने लगेगी। तब तुम घिरे मत रह जाना, गिरफ्त में मत रह जाना। तब तुम यह मत कहना कि हम तो साकार की पूजा करते रहे अब तक, हम आकार को भीतर न प्रवेश करने देंगे। आंख बंद मत कर लेना जब निराकार पुकारे। यह मत कहना कि यह मेरी धारणा में नहीं है, यह तो हमारा शास्त्र नहीं है, हम तो माननेवाले साकार के हैं! आंख बंद मत कर लेना। पीठ मत फेर लेना। क्योंकि तुम्हारा साकार ही वहां ले आया है, उसको तो तुम अपनी साकार की सफलता मानना कि तुम्हारी पूजा पूरी हुई, तुम्हारी प्रार्थना सुनी गई। तो तुमने फायदा भी ले लिया, तुम खतरे से भी बच गए।

साकार से तुम चलो, निराकार पर तुम पहुंचो! ऐसा अगर तुम्हारे जीवन में संतुलन हो तो कोई खतरा नहीं है।

तो, दूसरी तरफ लोग हैं, वे कहते हैं, “जब निराकार ही है आखिर में तो हम पहले से ही निराकार क्यों न मानें? वे चल ही नहीं पाते। वे उन लंगड़े लोगों की तरह हैं जो बैसाखियों का सहारा लेने को राजी नहीं।

तुमने देखा! पैर पर चोट लग गई हो, ऐक्सीडेंट हो गया हो, तो डाक्टर कहता है, बैसाखियों का सहारा ले लो। साल छह महीने बैसाखियों के सहारे चलो, फिर धीरे- धीरे शक्‍ति वापस लौट आएगी। फिर धीरे- धीरे बैसाखियों छोड़ देना, पैरों पर चलना।

तुम डाक्टर से यह नहीं कहते कि जब आखिर पैरों से ही चलना है तो अभी से हम बैसाखियों से क्यों चलें? नहीं, हम बैसाखियां छुएगे भी नहीं। तुम कहते हो, “ठीक है, बैसाखियों का उपयोग कर लेंगे “।

सब धर्म तुम्हारे उपयोग के लिए हैं। तुम उनका उपयोग कर लेना और तुम किसी के भी गुलाम मत बनना। कोई धारणा इतनी बड़ी न हो जाए कि सत्य को ओट कर ले।

आशीर्वाद क्या है? और गुरु जब शिष्य के सिर पर हाथ धरता है, तब क्या प्रेषित करता है? और क्या आशीर्वाद लेने की भी क्षमता होती है?    

आशीर्वाद गुरु तो अकारण देता है, बेशर्त देता है, लेकिन तुम ले पाओगे या न ले पाओगे, यह तुम पर निर्भर है। इतना ही काफी नहीं है कि कोई दे और तुम ले लो, तुम्हें उसमें कुछ दिखाई भी पड़ना चाहिए, तभी तुम लोगे। वर्षा हो और तुम छाते की ओट में छिपकर खड़े हो जाओ, तो तुम न भीगोगे। आशीर्वाद बरसे, और तुम अहंकार की ओट में, अहंकार के छाते में छिप जाओ, तो तुम न भीगोगे। वर्षा हो जाएगी, मेघ आएंगे, और चले जाएंगे तुम सूखे रह जाओगे।

तो, तुम्हारी तैयारी चाहिए। तुम्हारा स्वीकार का भाव चाहिए। ग्रहण करने की क्षमता चाहिए। चातक की भांति मुंह खोलकर आकाश की तरफ, प्रार्थना से भरा हुआ हृदय चाहिए। स्वाति बूंद तुम्हारे बंद मुंह न-मुंह खुला होना चाहिए, आकाश की तरफ उठा होना चाहिए, प्रतीक्षातुर होना चाहिए, तो ही…।

तो, जब तुम गुरु के पास झुको, तब वस्तुत : झुकना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सिर ही झुके और हृदय बिना झुका रह जाए, तो आशीर्वाद बरस जाएगा…।

समझने की बात यह है कि गुरु यह नहीं कह रहा है कि तुम्हारी कोई पात्रता होगी तो आशीर्वाद दूंगा, लेकिन तुम्हारी पात्रता न होगी तो दिया आशीर्वाद तुम तक न पहुंच पाएगा, व्यर्थ चला जाएगा।

गुरु आशीर्वाद देता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं, गुरु से आशीर्वाद बरसता है, ऐसा ही कहना ठीक है। जैसे दीए से रोशनी झरती है, फूल से गंध बहती है, ऐसा गुरु कुछ करता है, प्रेषित करता है, ऐसा नहीं, तुम्हें कुछ देता है वि शेष रूप से, ऐसा नहीं—झर ही रहा है। वह उसके होने का ढंग है। उसने कोई ऊंचाई पाई है, जिस ऊंचाई से झरने नीचे की तरफ बहते ही रहते हैं। अगर तुम तैयार हो तो तुम नहा लोगे। तुम अगर तैयार हो तो जन्मों- जन्मों की धूल बह जाएगी उस स्नान में। तुम अगर तैयार हो तो तुम्हारे मार्ग के कांटे हट जाएंगे और फूलों से भर जाएगा मार्ग।

लेकिन आशीर्वाद लेने की कला, झुकने की कला है। वह अहंकार को हटाने की कला है। वह स्वीकार-भाव है। आस्तिकता है। श्रद्धा है। आस्था है। प्रेम है।

तो पहली तो बात यह है कि गुरु देता है, ऐसा नहीं; गुरु आशीर्वाद का दान है, देता नहीं है। गुरु के होने में ही समाया है…।

ऐसा भी मत समझना कि वह तुम्हारे लिए कुछ विशेष रूप से कर रहा है। कोई भी न हो, एकांत में भी दीया जले, तो भी रोशनी जलती रहती है, तो भी प्रकाश पड़ता रहता है। वीरान में, निर्जन में फूल खिले, कोई राह से न निकले, कोई नासापुट पास न आए, किसी को कभी कानों कान खबर ही न होगी शायद, निर्जन में खिले फूल की किसको खबर होगी; लेकिन सुगंध तो झरती ही रहेगी; सुगंध तो भरती ही रहेगी हवाओं में; हवाओं पर पंख फैलाती रहेगी; सुगंध तो दूर-दूर की यात्रा पर निकलती ही रहेगी। फूल तो अपने को लुटा देगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई था या नहीं। किसी का होना न होना संयोग है। फूल खिल गया है तो सुगंध का बिखरना नियति है।

गुरु वही है जिससे आशीर्वाद ऐसे ही बिखरता है, जैसे खिल गए फूल से गंध बिखरती है। संयोग की बात है कि कोई ले ले, झेल ले। संयोग की बात है कि कोई अपने नासापुटों को भर ले। संयोग की बात है कि इन किरणों को कोई संभाल ले अपने हाथों में और अपने अंधेरे रास्ते पर चिराग जला ले। यह संयोग की बात है।

आशीर्वाद दिया नहीं जाता गुरु के होने का ढंग आशीर्वाद है; वह प्रसादरूप है।

आशीर्वाद क्या है;

आशीर्वाद जैसे मैंने कहा, फूल जब खिलता है तो गंध बिखरती है। गंध क्या है; बीज में छिपी थी, फूल में प्रकट हुई; बीज में बंद थी, फूल में खिली। लंबी यात्रा करनी पड़ी, बीज अंकुर बना; कितनी कठिनाइयां थीं; कितने पत्थर-रोड़े थे राह में बीज के, जमीन को फोड़कर ऊपर आया; कितना कोमल था और कितना संघर्ष था; हजार उपद्रवों को झेलकर बचा–वृक्ष बना, फूल खिले, गंध बिखरी।

गुरु तुम्हारे भीतर जो कल होने वाला है, तुम्हारा जो भविष्य है, वह गुरु का वर्तमान है। तुम अगर बीज हो तो वह गंध हो गया है। तुम अगर बंद झरने हो, राह नहीं खोज पा रहे हो, तो वह सागर से मिल गया है। वह तुम्हारा भविष्य है।

गुरु में तुम अपने होने की आखिरी संभावना का दर्शन पाते हो। आशीर्वाद का अर्थ है गुरु के सान्निध्य में तुम्हारे वर्तमान और तुम्हारे भविष्य का मिलन होता है; तुम्हारा भविष्य तुम्हारे वर्तमान पर झरता है।

गुरु माध्यम है–तुम जो नहीं हो अभी और हो सकते हो–उसकी खबर है। अगर तुम ठीक से झुक जाओ तो उसका आशीर्वाद तुम्हारे लिए एक ऊर्ध्ययात्रा बन जाएगी। वह तुम्हारे ऊपर उतरेगा, बरसेगा। जैसे आकाश से वर्षा होती है, जमीन में छिपे बीज तक पहुंचती है, ऐसा वह तुम तक पहुंचेगा। आकाश से वर्षा होती है, जमीन में छिपे बीज तक पहुंचती है और तत्क्षण बीज का अंकुरण फूट जाता है और बीज आकाश की तरफ उठने लगता है।

आशीर्वाद में गुरु तुम तक पहुंचेगा, उतरेगा, उसका अस्तित्व तुम्हारे अस्तित्व को छुएगा, तुम्हारी श्रमइ में, अंधेरे में दबे हुए बीज पर उसकी वर्षा होगी और तत्क्षण तुम ऊपर की यात्रा पर निकल जाओगे।

आशीर्वाद का अर्थ है : गुरु ने तुम्हारे श्ल्य में, तुम्हारी रिक्तता में अपने को भरा, ताकि तुम्हारे भीतर जो दबा पड़ा है, उसे पुकार मिल जाए, उसे आह्वान मिल जाए, चुनौती मिल जाए, सुगबुगाहट पैदा हो, तुम्हारे भीतर जो बीज है वह भी अंकुरित होने लगे, उसे खबर मिल जाए कि मैं क्या हो सकता हूं!

इसलिए भक्ति- शास्त्र सत्संग की महिमा गाता है।

तुम करीब आओ, तुम झुको, तो गुरु तुम्हारे करीब आ पाता है। तुम झुको तो वह तुम में उतर पाता है… अवतरण!

हर आशीर्वाद में परमात्मा अवतरित होता है। हर आशीर्वाद अवतार है।

हमने उन्हीं व्यक्तियों को अवतार कहा है जिनके कारण बहुत से व्यक्तियों के भीतर, अनेकों के भीतर सोई हुई संभावनाएं सजग हो गईं, वास्तविक बनीं। हमने उन्हीं व्यक्तियों को अवतार कहा है जो हमारे भीतर उस गहराई तक उतर सके जहां तक हम भी नहीं पहुंच पाए और जिन्होंने हमारी गहराइयों को छू दिया, तिलमिला दिया, जगा दिया, जिन्होंने हमारी नींद तोड़ दी।

तो आशीर्वाद अवतरण है–ऊंचाइयों का, तुम्हारी गहराइयों में, भविष्य का, तुम्हारे वर्तमान में, संभावना का, तुम्हारी वास्तविकता में, तुम्हारे तथ्यों के जीवन में सत्य की पुकार है। और आशीर्वाद अनूठी बात है, क्योंकि गुरु दिए जा रहा है। उसे कुछ करना नहीं पड़ रहा है। कोई श्रम नहीं है जो उसे करना पड़ रहा है। तुम न भी लोगे तो भी यह गंध हवाओं में लुटानी ही पड़ेगी। मेघ जब भर जाएंगे, तो बरसेंगे ही। बीज अंकुरित हों या न हों, मेघ जब भर जाएंगे तो बरसेंगे ही–बरसना ही पड़ेगा।

तो गुरु मेघ है, बरस रहा है।

बुद्ध ने तो उस अवस्था को मेघ- समाधि कहा है—जब समाधि बरसती है। वही गुरु की दशा है। जब समाधि बरसने लगती है—तब आशीर्वाद, तब प्रसाद!

पर तुम ले सको तो ही ले पाओगे।

झुकने की कला सीखो, मिटने की कला सीखो, तो तुम्हारे होने का सूत्रपात होता है।

 

पांचवां प्रश्‍न :

 

कल के प्रवचन में अचानक कुछ घटा! सुनते- सुनते ध्यान दो वाक्यों के बीच मौन पर केंद्रित हो गया और बड़ी गहरी और शीतल शांति का अनुभव हुआ! प्रणाम स्वीकार करें!

 

शुभ हुआ! उस तरफ ज्यादा से ज्यादा ध्यान को ले जाएं, ताकि यह घटना केवल एक स्मृति न रह जाए, ताकि यह घटना धीरे-धीरे तुम्हारे जीवन की शैली बन जाए!

जैसे दो शब्द के बीच में ध्यान रुका, ऐसे ही जीवन के हर पहलू में जहां-जहां अभिव्यक्ति है, वहां-वहां दो अभिव्यक्तियों के बीच में कहीं मोक्ष है।

रात और दिन अभिव्यक्तियां हैं। अगर तुम दिन से बंधे रहे तो रात से हरे रहोगे। अगर रात से बंधे रहे तो दिन से परेशान रहोगे। रात और दिन के बीच में संध्या का काल है। इसलिए तो हमने इस देश में संध्या को प्रार्थना का समय चुना है–बीच में, ठीक मध्य में।

दुकान से ही मत बंधे रहना और मंदिर से भी मत बंध जाना। मंदिर और दुकान के बीच में कहीं संन्यास है। हर दो अभिव्यक्तियों और विरोधों, अतियों के बीच में मध्य में खोजते रहना, तो तुम्हारे जीवन में संयम का फूल खिलेगा।

और यह घटना स्मृति न बन जाए, क्योंकि बहुत बार ऐसी घटना घटती है। हम ऐसे अभागे हैं कि घट भी जाती है, झलक भी मिल जाती है, तो भी झलक को गहराते नहीं। पकड़ में भी आ जाते हैं सूत्र तो आ-आकर खो जाते हैं। कई बार तुम्हारे हाथ में आचल आ गया है सत्य का और छिटक गया है; तुम फिर झपकी लेने लगते हो, फिर याद भूल जाती है, फिर होश खो जाता है।

शुभ हुआ! सौभाग्य हुआ! प्रसाद का क्षण मिला! उसे गहराना। उसे जितना ज्यादा जहां-जहां खोज सको, खोजना, ताकि धीरे-धीरे वह तुम्हें हर जगह दिखाई पड़ने लगे। उसी शून्‍य और शांति से तुम्हें परमात्मा के पहले दर्शन होंगे। उसी श्ल्य से निराकार का हाथ तुम तक आएगा। हाथ तैयार ही है आने को! तुम बस जरा एक कदम चलो, परमात्मा हजार कदम तुम्हारी तरफ चलता है।

आखिरी प्रश्‍न :

 

एक परम्परा कहती है कि दवर्षि नारद परम मुक्ति को उपलब्ध नहीं थे। दूसरी परम्परा उन्हें सप्तऋषि में एक मानती है, जिनका गुह्य और परोक्ष कार्य सदा चलता रहा है। क्या भक्ति-सूत्र के रचयिता के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

जानकर ही नारद की कोई बात मैंने नहीं की। सोचकर की छोड़ा। क्योंकि भक्त का कोई कर्तृत्व नहीं होता और न व्यक्तित्व होता है। भक्त तो एक मौन है, एक श्ल्य निवेदन है!

भक्त कुछ करता नहीं, इसलिए कोई कर्तृत्व नहीं होता।

भक्त तो एक आनंद है! एक गीत है! एक नृत्य है!

एक अहोभाव है”

बड़ा सूक्ष्म है भक्त का अस्तित्व!

न तो कोई कर्तृत्व है, न कोई व्यक्तित्व है, क्योंकि भक्त तो एक खाली बांस की पोंगरी है, व्यक्तित्व क्या! खाली जगह है, जहां से भगवान को जगह देता है, जहां से भगवान उससे बहने लगते हैं।

नारद पर इसलिए मैंने कुछ कहा नहीं। और इसीलिए नारद के संबंध में न मालूम कितनी कथाएं प्रचलित हैं। नारद के व्यक्तित्व को समझा ही नहीं जा सका। समझने के लिए जगह नहीं है। समझने के लिए आधोर नहीं है।

एक परम्परा कहती है कि वे परम मुक्ति को उपलब्ध नहीं हुए। क्यों?… क्योंकि नारद में बुद्ध जैसा व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ता, न महावीर जैसा व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है। नारद ऐसे सुलझे हुए मालूम नहीं होते जैसे बुद्ध सुलझे हुए मालूम होते हैं। नारद बड़े उच्च मालूम होते हैं। कथाएं कहे चली जाती हैं कि पृथ्वि और स्वर्ग के बीच में न केवल खुद उलझे हैं, दूसरों को भी उलझाते रहते हैं।

नारद का व्यक्तित्व साफ-साफ नहीं है। बुद्ध साफ-साफ उस पार हैं, समझ में आते हैं। नारद न इस पार न उस पार, कहीं बीच में डोलते हैं।

कितनी कथाएं हैं! नारद स्वर्ग जा रहे हैं, बैकुंठ जा रहे हैं, बैकुंठ से जमीन पर आ रहे हैं—दो लोकों के बीच में! मेरे लिए उतना ही इंगित है कि दो किनारों के बीच में…!

व्यक्तित्व बड़ा उलझा हुआ मालूम पड़ता है। एक ही किनारे पर इतनी उलझन है। दो संसारों के बीच में जो जिए–एक पैर यहां रखे, एक बैकुंठ में रखे–उसकी उलझन तुम समझ सकते हो। लेकिन वही मेरे लिए परम संन्यास का रूप है, जो दो अतियों के बीच अपने को संभाल ले।

एक किनारेपर बस गए, वह भी कोई सुलझाव, सुलझाव हुआ? या दूसरे किनारे पर हट गए, वह भी कोई सुलझाव, सुलझाव हुआ? सेतु बनना चाहिए, जिस पर दोनों किनारे जुड़ जाए। नारद सेतु हैं। इस तरफ से देखो तो बिलकुल संसारी हैं! और उस तरफ से तुम देख न सकोगे, उस तरफ से मैं देख रहा हूं। उस तरफ से देखो तो परम वीतराग हैं।

इसी तरफ से देखा गया है। इसी किनारे पर खड़े हुए लोग देखते हैं कि यह सेतु तो यहीं जुडा है, इसी किनारे पर जुडा है, दूसरा किनारा तो दिखाई नहीं पड़ता। तो नारद संसार से जुडे मालूम पड़ते हैं, सांसारिक मालूम पड़ते हैं। उनके आसपास रची गई कथाएं इस किनारे के लोगों ने रची हैं। मैं तुमसे उस किनारे से कह रहा हूं कि नारद सेतु हैं। नारद बड़े अनूठे रहस्यपूर्ण व्यक्ति हैं। उनका अनूठापन यही है, उनकी अद्वितीयता यही है कि वे एकतरफा नहीं हैं, एकांगी नहीं हैं। महान समन्वय उनमें सिद्ध हुआ है।

फिर सारी कथाएं कहती हैं कि वे कुछ उलझाव का ताना-बाना बुनते रहते हैं। लोकमानस में उनकी जो प्रतीति है वह कुछ चुगलखोर जैसी हैं। यह भी अकारण नहीं बन गई होगी, क्योंकि कोई भी बात बनती है तो उसके पीछे कुछ न कुछ कारण होगा। हजारों साल तक करोड़ों लोग जब ऐसी कहानियां गढ़ते रहते हैं, तो उसके पीछे कहीं न कहीं कोई सूत्रपात होगा, कहीं न कहीं कोई आधार होगा। आधार है।

जब भक्त अपने को परमात्मा के हाथ में सौंप देता है, तो “वह “ जो करवाये वह करता है। फिर वह यह भी नहीं कहता कि यह बात जंचती नहीं, यह करनी ठीक न होगा। फिर वह

असंगतियां भी करवाए तो असंगति भी करता है। छोड़ने का अर्थ ही होता है पूरा छोड़ना। फिर उसमें हिसाब नहीं रखता। वह झूठ भी बुलवाए तो भी भक्त यह नहीं कह सकता, “मैं न बोलूंगा “। क्योंकि भक्त है ही नहीं। वह कहता है, “तेरा झूठ, तो तेरा झूठ मेरे सच से भी ज्यादा बड़ा है “।

इसे थोड़ा समझना, “मेरा सच भी तेरे झूठ से छोटा होगा! तेरा झूठ भी मेरे सच से बड़ा होगा! फिर तू करवा रहा है तो जरूर कोई कारण होगा। फिर तू ही जान, यह हिसाब, कौन रखे!    “तो नारद के व्यक्तित्व में संगति नहीं है। यहां की बात वहां कह रहे हैं, बढ़ा-चढ़ाकर कह रहे हैं, कभी घटाकर कह रहे हैं, कभी जोड़का कह रहे हैं। इसलिए स्वभावत: लोगमानस को यह लगता है कि यह व्यक्ति और मुक्त! तो थोड़ी अड़चन मालूम होती है।

मुक्त के संबंध में हमारी धारणाएं हैं कुछ; नारद सब धारणाओं को तोड़ देते हैं, क्योंकि नारद अपने को सब भांति समर्पित कर देते हैं। परमात्मा की इस विराट लीली में, इस बड़े खेल में, इस बड़े नाटक में, वे अपना कोई व्यक्तित्व लेकर नहीं चलते, वे “वह “ जो करवाता है करते हैं। इतना ही इंगित है। “वह “ अगर झूठ भी बुलवाए तो झूठ भी बोल देते हैं। लेकिन नारद ने झूठ नहीं बोला है; परमात्मा की लीला के अंश हो गए हैं!

इस बात को लोकमानस न समझ पाए, यह भी स्वाभाविक है। लेकिन इतना बड़ा सूत्र, इतना बड़ा नाटक चलता हो तो उसमें नारद जैसे व्यक्तित्व की भी जरूरत है। वह भी कोई कमी पूरी करता है। नारद के बिना कथाएं अधूरी रह जाएंगी। नारद के बिना नाटक सूना-सूना होगा। नारद कुछ महत्वपूर्ण सूत्र का काम पूरा करते हैं।

पर नारद के व्यक्तित्व की बात इतनी ही है कि उन्होंने छोड़ दिया है, “वह “ जो करवाए!

उनका रूप जो लोकमानस में है वह यह है कि वे अपना एकतारा लिए इस लोक से स लोक के बीच डोलते रहते हैं। उनका वाद्य उनके साथ है। उनका संगीत उनके साथ है। उनके भीतर की संगीतपूर्ण दशा उनके साथ है।

ज्यादा कुछ उनके संबंध में कहा नहीं जा सकता; कहने की कोई जरूरत नहीं है। उनका एकतारा ही उनका प्रतीक है। भीतर उनके एक ही स्वर बज रहा है, वह भक्ति का है; एक ही स्वर बज रहा है, वह समर्पण का है; एक ही स्वर बज रहा है, वह श्रद्धा का है। फिर परमात्मा जो कराए, जो “उसकी “ मर्जी!

नारद की अपनी कोई मर्जी नहीं है। अपने व्यक्तित्व को बनाने में भी उनकी कोई आचरणगत धारणा नहीं है। महावीर की मर्जी है; वे पैर भी फूंक-फूंककर रखते हैं; उनके पास एक आचरण है। बुद्ध की मर्जी है; एक शील है; नारद के पास अपना उतना भी दावा नहीं है। इसलिए अगर तुम मुझसे पूछते हो तो मैं तुमसे कहता हूं कि यही परम मुक्ति है।

आज इतना ही।


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अंतर्यात्रा–(ध्‍यान शिविर)–प्रवचन–5

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ज्ञान के भ्रम से छुटकारा—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; दोपहर

ध्‍यान शिविर आजोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के मन की दशा— मधुमक्खियों के छेड़े गए छत्ते की भांति मनुष्य के मन की दशा है। विचार और विचार और विचार और विचारों की यह भिनभिनाहट मक्खियों की तरह मनुष्य के मन को घेरे रहती है। इन विचारों में घिरा हुआ मनुष्य अशांति में, तनाव में और चिंता में जीता है। जीवन को जानने और पहचानने के लिए मन चाहिए एक झील की भांति शांत, जिस पर कोई लहर न उठती हो। जीवन से परिचित होने के लिए मन चाहिए एक दर्पण की भांति निर्मल, जिस पर कोई धूल न जमी हो।

और हमारे पास मन है एक मधुमक्खियों के छत्ते की भांति। न तो वह दर्पण है, न वह एक शांत झील है। और ऐसे मन को लेकर अगर हम सोचते हों कि हम कुछ जान सकेंगे, हम कुछ पा सकेंगे या हम कुछ हो सकेंगे तो हम बड़ी भूल में हैं।

विचारों की इस अति तीव्र धारा से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है। विचार और विचार और विचार, स्वास्थ्य के लक्षण नहीं हैं, रुग्ण—चित्त की दशा है। जब किसी का मन परिपूर्ण रूप से शुद्ध और स्वच्छ होता है और स्वस्थ होता है तो विचार शून्य हो जाते हैं। विवेक शेष रह जाता है और विचार शून्य हो जाते हैं। और जब कोई मन अस्वस्थ और बीमार होता है तो विवेक शून्य हो जाता है और केवल विचारों की भीड़ रह जाती है। हम विचारों की भीड़ में ही जीते हैं। सुबह से सांझ, सांझ से सुबह, जन्म से लेकर मृत्यु तक हम विचारों की एक भीड़ में ही जीते हैं।

इस भीड़ से कैसे मुक्त हुआ जाए?

सुबह कुछ बातें हमने की हैं। कुछ उस संबंध में प्रश्न पूछे गए हैं, उन प्रश्नों के मैं अभी उत्तर दूंगा।

पहली बात, विचारों से मुक्त होना दूसरा कदम है। पहला कदम तो यह है कि हम विचारों का संग्रह न करें। क्योंकि एक आदमी एक तरफ विचारों का संग्रह करता चला जाए और दूसरी तरफ विचारों से मुक्त होना चाहे तो कैसे मुक्त हो सकेगा? एक आदमी वृक्ष के पत्तों से मुक्त होना चाहे और वृक्ष की जड़ों को पानी पिलाता चला जाए, तो कैसे वृक्ष के पत्तों से मुक्त हो सकेगा? लेकिन जड़ों को पानी पिलाते वक्त हमें यह खयाल में ही नहीं आता है कि जड़ों और पत्तों का कोई संबंध है—कोई गहरा संबंध है। जड़ें अलग मालूम होती हैं, पत्ते अलग मालूम होते हैं, लेकिन पत्ते जड़ों से अलग नहीं हैं और जड़ों को दिया गया पानी पत्तों को ही मिलता है।

तो विचार हम संगृहीत करते हैं और विचार की जड़ों को पानी देते हैं और फिर जब विचार मन को बहुत बेचैन और अशांत करते हैं तो हम उनको शांत करने का उपाय भी करना चाहते हैं। इसके पहले कि किसी वृक्ष में पत्ते आने बंद हो जाएं, हमें उसकी जड़ों को पानी देना बंद कर देना होगा।

हम विचारों की इस भीड़ को पानी देते हैं, वह हमें समझ लेना चाहिए कि हम किस भांति पानी देते हैं। और अगर वह समझ में आ जाए तो हम पानी देना बंद कर देंगे। फिर वृक्ष के कुम्हला जाने में बहुत देर नहीं है। किस तरह हम पानी देते हैं?

पहली बात, हजारों वर्ष से आदमी के मन में यह भ्रम पैदा किया गया है कि तुम दूसरों के विचारों को संग्रह करके ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हो। यह सरासर झूठी और एकदम गलत बात है। कोई मनुष्य किसी दूसरे के विचारों के संग्रह से कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता। ज्ञान आता है भीतर से और विचार आते हैं बाहर से। ज्ञान होता है अपना और विचार होते हैं हमेशा पराए, हमेशा बारोड, हमेशा उधार। ज्ञान है निज की स्फुरणा, वह जो स्वयं के भीतर छिपा है उसका प्रकट हो जाना और विचार हैं दूसरों की जूठन को इकट्ठा कर लेना—चाहे गीता से इकट्ठा कर लें, चाहे कुरान से, चाहे बाइबिल से, चाहे धर्मगुरुओं से इकट्ठा कर लें, चाहे शिक्षकों से।

जो भी हम दूसरे से इकट्ठा कर लेते हैं वह हमारा ज्ञान नहीं बनता, बल्कि वह हमारे अज्ञान को छिपाने का मार्ग और उपाय बन जाता है। और जिस आदमी का अज्ञान छिप जाता है वह आदमी जीवन में कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता। चूंकि हमें यह खयाल है कि यह हमारा ज्ञान है इसलिए इसे हम प्राणपन से पकड़े रहते हैं। विचारों को हम पकड़े हुए हैं। हम उन्हें छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। नीचे से हम उनको सम्हाले हुए हैं, क्योंकि हमें यह खयाल है यही हमारा ज्ञान है। अगर यह छूट गए, तो हम तो अज्ञानी हो जाएंगे; लेकिन स्मरण रखिए, विचारों को कोई कितना ही पकड़े रहे उससे ज्ञानी नहीं होता।

एक आदमी एक कुआं बनाता है—जमीन खोदता है, पत्थर निकालता है, मिट्टी निकालता है और फिर नीचे झरने फूटते हैं कुएं के और कुएं में पानी भर जाता है। कुएं में पानी मौजूद था, पानी कहीं से लाना नहीं पड़ा। केवल बीच में कुछ पत्थर और मिट्टी की पर्तें थीं उन्हें अलग कर देना पड़ा। कोई अवरोध थे, कोई बाधाएं थीं, उनको अलग कर दिया और पानी प्रकट हो गया। कुएं में पानी लाना नहीं पड़ता, पानी आता है, लेकिन जो चीज बीच में रुकावट थी उसको दूर कर देनी होती है।

ज्ञान भीतर मौजूद है, उसे कहीं से लाना नहीं है, उसके झरने भीतर छिपे हैं, केवल बीच की बाधाएं—पत्थर और मिट्टी अलग कर देनी है खोद कर और फिर ज्ञान के झरने प्रकट होने शुरू हो जाएंगे।

लेकिन कुआं भी बनता है और हौज भी बनती है। हौज के बनने का रास्ता अलग है। हौज बनाने में कहीं झरने नहीं खोजने पड़ते पानी के। हौज बनाने का रास्ता कुएं से बिलकुल विपरीत है। हौज बनाने के लिए, मिट्टी— पत्थर खोदने नहीं पड़ते, लाकर जोड्ने पड़ते हैं और मिट्टी—पत्थर की दीवाल उठानी पड़ती है। फिर दीवाल भी बन जाती है, लेकिन पानी नहीं आता है। फिर किन्हीं दूसरों के कुओं से पानी उधार लाकर उस हौज में भर लेना पड़ता है। ऊपर से देखने पर हौज कुएं का धोखा देने लगती है। ऐसा लगता है कि कुआं आ गया। हौज में पानी दिखाई पड़ता है, कुएं में भी पानी दिखाई पड़ता है। लेकिन हौज और कुएं के पानी में जमीन—आसमान का फर्क है।

पहला फर्क तो यह है कि हौज के पास अपना कोई पानी नहीं है। और जो पानी अपना नहीं, उससे दुनिया में कभी कोई प्यास नहीं बुझती। हौज के पास जो भी है, उधार है। और उधार बहुत जल्दी बासा हो जाता है और सड़ जाता है। क्योंकि जो उधार है वह जीवंत नहीं होता, वह मृत होता है। हौज अगर भरी रहेगी तो सड़ जाएगी, बहुत जल्दी बदबू फेंकने लगेगी।

लेकिन कुएं के पास अपने जल के स्रोत होते हैं, कुआं सड़ नहीं जाता। और कुएं के पास अपना पानी होता है। इसलिए हौज और कुएं के प्राणों में दो अलग प्रक्रियाएं चलती हैं। हौज चाहती है कि मेरे पानी को कोई छीन न ले, क्योंकि मेरा पानी गया कि मैं खाली हो जाऊंगी। और कुआं चाहता है कि कोई मेरे पानी को उलीच ले, कोई मेरे पानी को ले ले, ताकि मुझमें और नया पानी भर जाए— ताजा और ज्यादा जीवंत। कुआं पुकारता है कि मेरे पानी को ले लो और बांट लो! और हौज पुकारती है कि दूर रहना, मेरे पानी को मत छूना, मेरे पानी को मत ले लेना। हौज चाहती है कि किसी के पास पानी हो तो वह भी यहां लाकर डाल दो मुझमें, ताकि मेरी संपदा बढ़ जाए। और कुआं चाहता है कि किसी के पास पात्र हो तो पानी ले जाए, ताकि जो पानी बासा पड़ गया है, बहुत दिन का भरा हुआ हो गया है, उससे मैं मुक्त हो जाऊं और नया पानी मुझे उपलब्ध हो जाए।

कुआं बांटना चाहता है, हौज संग्रह करना चाहती है। कुएं के पास झरने हैं जो सागर से जुड़े हैं। कुआं छोटा सा दिखाई पड़ता है, लेकिन गहरे में अनंत से जुड़ा हुआ है। हौज कितनी ही बड़ी दिखाई पड़ती हो, उसका संबंध किसी से भी नहीं है, वह अपने में ही समाप्त है और बंद है। उसके पास कोई झरने नहीं है कोई। उसके पास कोई दूर से जोड्ने वाले कोई मार्ग नहीं हैं। इसलिए अगर कोई हौज से जाकर कहे कि सागर भी होता है। हौज हंसेगी, कहेगी, कहीं सागर होता है! सब हौजें होती हैं। कहीं कोई सागर नहीं होता। क्योंकि हौज को सागर का कोई पता नहीं है!

लेकिन अगर कोई कुएं से कहे कि कुआं तू बहुत अच्छा है, तो कुआं सोचेगा कि मेरा अपना क्या है—सब सागर का है, मैं हूं कहां? मेरे पास जो भी आता है वह दूर किसी और से जुड़ा है। कुएं का अपना कोई अहंकार नहीं हो सकता कि ‘मैं हूं।’ हौज का अपना अहंकार होता है कि ‘मैं हूं।’ और बड़े मजे की बात है, कुआं बहुत बड़ा है और हौज बहुत छोटी है। कुएं के पास अपनी संपदा है और हौज के पास अपनी कोई संपदा नहीं है।

आदमी का मन भी कुआं बन सकता है या हौज बन सकता है—ये दो ही रास्ते हैं आदमी की बुद्धि के बन जाने के लिए। और जिस आदमी की बुद्धि हौज बन जाती है वह आदमी धीरे—धीरे पागल हो जाता है।

और हम सबकी बुद्धि हौज बन गई है। हमने कुआं बनाया नहीं, हमने हौज बनाई है। हम दुनिया भर से बातों को इकट्ठा कर लेते हैं—किताबों से, शास्त्रों से, उपदेशों से और उन सबको इकट्ठा कर लेते हैं और सोचते हैं हम तानी हो गए हैं। हम हौज की गलती में पड़ गए। हौज समझ ली कि हम कुआं हो गए। भ्रम पैदा हो सकता है, क्योंकि दोनों में पानी दिखाई पड़ता है।

एक पंडित के पास भी ज्ञान दिखाई पड़ता है, एक ज्ञानी के पास भी ज्ञान दिखाई पड़ता है। लेकिन पंडित हौज है और ज्ञानी कुआं है। इन दोनों में फर्क है। और यह फर्क इतना गहरा और बुनियादी है जिसका कोई हिसाब नहीं। क्योंकि पंडित का ज्ञान उधार और बासा और सड़ा हुआ जान है। दुनिया में जितना उपद्रव हुआ है वह पंडित के ज्ञान से हुआ है। हिंदू और मुसलमान के बीच जो झगड़ा है वह किसका झगड़ा है? दो ज्ञानियों का झगड़ा है। जैन और हिंदू के बीच जो विरोध है, वह दो ज्ञानियों का विरोध है। वह पंडितों का विरोध है, वह उन मस्तिष्कों का विरोध है जो हौज हैं, सड़े हुए हैं, उधार और बासे हैं।

सारी दुनिया में जो इतना उपद्रव हुआ है, हौज बन गए मस्तिष्कों के कारण ही। नहीं तो आदमी हैं दुनिया में—न कोई ईसाई है, न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान है, न कोई जैन है; लेकिन हौजों के लेबल हैं। क्योंकि जिस हौज ने जिस—जिस कुएं से पानी उधार भरा है वह उसी……उसी कुएं का लेबल अपने ऊपर चिपकाए हुए हैं कि मैंने तो गीता से पानी लिया है तो मैं हिंदू हूं मैंने कुरान से पानी लिया है तो मैं मुसलमान हूं। लेकिन ज्ञानी तो किसी से पानी लेता नहीं है, पानी उसके भीतर से आता है, परमात्मा से आता है। इसलिए न वह हिंदू हो सकता है, न वह मुसलमान हो सकता है, न वह ईसाई हो सकता है।

जानी किसी संप्रदाय का नहीं हो सकता। लेकिन पंडित बिना संप्रदाय के होना असंभव है। पंडित जब भी होगा, संप्रदाय का ही होगा। हमने अपने मन को एक बासी, उधार चीज बना ली है। फिर इसको हम पकड़ते हैं। जैसा मैंने कहा, हौज चिल्लाती है मेरे पानी को मत छीन लेना! पानी गया तो मैं खाली और रिक्त और एंप्टी हो जाऊंगी, मेरे भीतर तो कुछ भी नहीं बचेगा। मेरी संपदा तो उधार इकट्ठी की हुई है, इसलिए कोई छीन न ले।

और स्मरण रहे, जो संपदा छीनने से कम हो जाती है, वह हमेशा उधार और झूठी होती है। जो संपदा छीनने से और बढ़ जाती हो, वही संपदा केवल सत्य होती है। जो संपत्ति बंट जाने से समाप्त हो जाती है वह संपत्ति ही नहीं, केवल संग्रह है। और जो संपत्ति बंटने से और बढ़ जाती हो, वही संपत्ति है। संपत्ति का लक्षण ही यह है कि वह बंटने से बढ़नी चाहिए। बंटने से घटती हो तो वह संपत्ति नहीं है और जिस संपत्ति में यह भय है कि यह बंटने से घट जाएगी, उसको सम्हालने में इतनी विपत्ति पैदा हो जाती है जिसका कोई हिसाब नहीं है।

तो सब उधार संपत्ति विपत्ति बन जाती है, संपत्ति कभी भी नहीं बन पाती। फिर डर पैदा होता है कि यह कहीं घट न जाए; तो उसे हम जोर से पकड़ते हैं। हम अपने विचारों को जोर से पकड़े हुए हैं। हम उनको प्राणों से भी ज्यादा सम्हाले हुए हैं। यह मन में जितना कचरा इकट्ठा हो गया है, यह आकस्मिक नहीं है। यह हमने योजना की है, इसको इकट्ठा किया है और इसको सम्हाले हुए हैं।

तो अगर हम यह सोचते हों कि विचारों के संग्रह से जान उत्पन्न हो सकता है तो हम विचारों से कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं। कैसे मुक्त हो सकेंगे? जड़ों को पानी देंगे और पत्ते काटेंगे, यह नहीं हो सकता। इसलिए पहली बुनियादी बात यह समझ लेनी जरूरी है कि जान बात ही अलग है और विचारों का संग्रह बिलकुल ही अलग बात है। संग्रह जान नहीं है, दूसरों से लिए गए विचार ज्ञान नहीं है। दूसरों से इकट्ठे किए गए विचार मनुष्य को सत्य के या स्वयं के निकट नहीं ले जाते हैं। यह ज्ञान झूठा है, यह सूडो नॉलेज है, यह मिथ्या ज्ञान है जो हम दूसरे से इकट्ठा कर लेते हैं। इससे भ्रम पैदा होता है कि ज्ञान मिल गया और ज्ञान मिलता भी नहीं, ज्ञान से हम वंचित ही रह जाते हैं।

यह ज्ञान वैसा ही है जैसे तैरने के संबंध में कोई शास्त्र पढ़ ले और तैरने के संबंध में इतना जान ले कि अगर उसे प्रवचन करना हो तो प्रवचन कर दे, अगर किताब लिखनी हो तो किताब लिख दे, लेकिन कोई आदमी उसे नदी में धक्का दे दे तो हमें पता चल जाए कि वह तैरना कितना जानता था। उसने किताबों से तैरने के संबंध में सब बातें पढ़ ली थीं। वह तैरने के बाबत शानी मालूम पड़ता था, लेकिन तैरने का उसे कोई भी पता नहीं।

एक मुसलमान फकीर हुआ, नसरुद्दीन। वह एक नदी पार कर रहा था एक नाव में बैठ कर। मल्लाह ने उससे……रास्ते में दोनों की कुछ बातचीत हुई। नसरुद्दीन बड़ा जानी आदमी समझा जाता था। ज्ञानियों को हमेशा यह कोशिश रहती है कि किसी को अज्ञानी सिद्ध करने का मौका मिल जाए तो वह छोड़ नहीं सकते हैं। तो उसने, मल्लाह अकेला था, मल्लाह से पूछा कि भाषा जानते हो? उस मल्लाह ने कहा भाषा! बस जितना बोलता हूं उतना ही जानता हूं। पढ़ना—लिखना मुझे कुछ पता नहीं है।

नसरुद्दीन ने कहा तेरा चार आना जीवन बेकार हो गया; क्योंकि जो पढ़ना नहीं जानता उसकी जिंदगी में क्या उसे ज्ञान मिल सकता है? बिना पढ़े, पागल! कहीं ज्ञान मिला है? लेकिन मल्लाह चुपचाप हंसने लगा। फिर आगे थोड़े चले और नसरुद्दीन ने पूछा कि तुझे गणित आता है? उस मल्लाह ने कहा. नहीं, गणित मुझे बिलकुल नहीं आता है, ऐसे ही दो और दो चार जोड़ लेता हूं यह बात दूसरी है।

नसरुद्दीन ने कहा : तेरा चार आना जीवन और बेकार चला गया; क्योंकि जिसे गणित ही नहीं आता, जिसे जोड़ ही नहीं आता है वह जिंदगी में क्या जोड़ सकेगा, क्या जोड़ पाएगा। अरे, जोड़ना तो जानना चाहिए, तो कुछ जोड़ भी सकता था। तू जोड़ेगा क्या? तेरा आठ आना जीवन बेकार हो गया।

फिर जोर का तूफान आया और आधी आई और नाव उलटने के करीब हो गई। उस मल्लाह ने पूछा आपको तैरना आता है?

नसरुद्दीन ने कहा मुझे तैरना नहीं आता।

उसने कहा आपकी सोलह आना जिंदगी बेकार जाती है। मैं तो चला। न मुझे गणित आता है और न मुझे भाषा आती है, लेकिन मुझे तैरना आता है। तो मैं तो जाता हूं— और आपकी सोलह आना जिंदगी बेकार हुई जाती है।

जिंदगी में कुछ जीवंत सत्य हैं जो स्वयं ही जाने जाते हैं, जो किताबों से नहीं जाने जा सकते हैं, जो शास्त्रों से नहीं जाने जा सकते हैं। आत्मा का सत्य या परमात्मा का; स्वयं ही जाना जा सकता है और कोई जानने का उपाय नहीं है।

लेकिन शास्त्रों में सब बातें लिखी हैं, उनको हम पढ़ लेते हैं, उनको हम समझ लेते हैं, वे हमें कंठस्थ हो जाती हैं, वे हमें याद हो जाती हैं। दूसरों को बताने के काम भी आ सकती हैं, लेकिन उससे कोई ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है।

विचार का संग्रह ज्ञान का लक्षण नहीं है अज्ञान का ही लक्षण है। क्योंकि जिस आदमी के पास अपने विवेक की शक्ति जाग्रत हो जाती है, वह विचार के संग्रह से मुक्ति पा लेता है। फिर उसे संग्रह करने का कोई सवाल नहीं रह जाता, वह स्वयं ही जानता है। और जो स्वयं जानना है, वह……वह मन को मधुमक्खियों का छत्ता नहीं रहने देता है—मन को एक दर्पण बना देता है, एक झील बना देता है।

हमारा मन मधुमक्खियों का भिनभिनाता छत्ता है। इसलिए कि इन मधुमक्खियों को हमने पाला है और हमने ज्ञान समझ कर इन विचारों को जगह दी है अपने घर में, इनको ठहराया है, इनको निवासी बनाया है। और हमने अपने मन को एक धर्मशाला बना दी है कि जो भी आए ठहर जाए। बस एक बात का खयाल लेकर आ जाए, वह ज्ञान के वस्त्र पहन कर आ जाए, फिर हमारी धर्मशाला में ठहरने का उसे हक है। यह धर्मशाला में भीड़ बढ़ती चली गई है। और यह भीड़ इतनी बढ़ गई है कि मालिक कौन है, तय करना मुश्किल हो गया है इस भीड़ के भीतर। और वे जो मेहमान बन गए हैं, वे इतना शोरगुल मचाते हैं—जों सबसे ज्यादा चिल्लाता है वही मालिक मालूम होता है। और मालिक कौन है इसका हमें कोई पता नहीं चलता है।

हर विचार जोर से चिल्लाता है कि मैं मालिक हूं और भीतर जो मालिक है इस धर्मशाला की भीड़ में, उसका हमें कोई पता चलना संभव नहीं रह गया। कोई विचार निकलने के लिए राजी नहीं है। जिसको हमने ठहरा लिया है वह कैसे निकले? जिसको हमने बुलाया है वह कैसे निकले? जिसको हमने निमंत्रण देकर बुलाया था आज वह कैसे निकल जाएगा? मेहमान को बुला लेना आसान है, निकालना उतना आसान नहीं है। और मेहमान आ गए हैं हजारों साल से। मेहमान आदमी के मन में इकट्ठे होते चले गए हैं। आज —इनको विदा करने को अगर मैं आपसे कहूं तो ये एकदम से विदा नहीं हो सकते, लेकिन अगर बुनियाद हम समझ लें तो ये विदा हो सकते हैं।

पहली बुनियाद, दूसरों का सीखा हुआ सारा विचार व्यर्थ है, अगर हमें यह स्पष्ट हो जाए तो हमने जड़ काट दी विचारों के इकट्ठे होने की। फिर हमने जड़ काट दी। फिर हमने जड़ में पानी देना बंद कर दिया। क्योंकि यह भ्रम कि यह ज्ञान है, इसीलिए हम पोसते हैं इसे!

एक संन्यासी, एक वृद्ध संन्यासी अपने एक युवा भिक्षु के साथ एक जंगल पार कर रहा था। रात उतर आई, अंधेरा घिरने लगा। तो उस के संन्यासी ने युवा संन्यासी को पूछा कि बेटे, रास्ते में कोई डर तो नहीं है, कोई भय तो नहीं है? रास्ता बड़ा जंगल का बीहड़.. अंधेरी रात उतर रही है, कोई भय तो नहीं है?

युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ, क्योंकि संन्यासी को… और भय का सवाल ही नहीं उठना चाहिए। संन्यासी को भय का कहां सवाल है! चाहे रात अंधेरी हो और चाहे उजाली हो, और चाहे जंगल हो और चाहे बाजार हो। संन्यासी को भय उठे, यही आश्चर्य की बात है! और इस बूढ़े को आज तक कभी भी नहीं उठा था। आज क्या गड़बड़ हो गई है, इसे भय क्यों उठता है? कुछ न कुछ मामला गड़बड़ है!

फिर और थोड़े आगे बढ़े। रात और गहरी होने लगी। उस के ने फिर पूछा कि कोई भय तो नहीं है? हम जल्दी दूसरे गांव तो पहुंच जाएंगे? रास्ता……कितना फासला है?

फिर वे एक कुएं पर हाथ—मुंह धोने को रुके। उस के ने अपने कंधे पर डाली हुई झोली उस युवक को दी और कहा सम्हाल कर रखना। उस युवक को खयाल हुआ कि झोली में कुछ न कुछ होना चाहिए, अन्यथा न भय का कारण है और न सम्हाल कर रखने का कारण है।

संन्यासी भी कोई चीज सम्हाल कर रखे तो गड़बड़ हो गई। फिर संन्यासी होने का कोई मतलब ही न रहा। सम्हाल कर जो रखता है, वही तो गृहस्थ है। सब सम्हाल—सम्हाल कर रखता है, इसीलिए गृहस्थ है। संन्यासी को क्या सम्हाल कर रखने की बात है?

का हाथ—मुंह धोने लगा। और उस युवक ने उस झोली में हाथ डाला और देखा सोने की एक ईंट झोली में है। वह समझ गया कि भय किस बात में है। उसने ईंट उठा कर जंगल में फेंक दी और एक पत्थर का टुकड़ा उतने ही वजन का झोली के भीतर रख दिया। का जल्दी से हाथ—मुंह धोकर आया और उसने जल्दी से झोली ली, टटोला, वजन देखा, झोली कंधे पर रखी और चल पड़ा।

और फिर कहने लगा थोड़ी दूर चल कर कि रात बड़ी हुई जाती है, रास्ता हम कहीं भटक तो नहीं गए हैं? कोई भय तो नहीं है?

उस युवक ने कहा अब आप निर्भय हो जाइए, भय को मैं पीछे फेंक आया।

वह तो घबड़ा गया। उसने जल्दी से झोली में हाथ डाला—देखा, वहां तो एक पत्थर का टुकड़ा रखा हुआ था। एक क्षण को तो वह ठगा सा खड़ा रह गया और फिर हंसने लगा और उसने कहा मैं भी खूब पागल था। इतनी देर पत्थर के टुकड़े को लिए था तब भी मैं भयभीत हो रहा था, क्योंकि मुझे यह खयाल था कि यह सोने की ईंट भीतर है। था पत्थर का वजन, लेकिन खयाल था कि सोने की ईंट भीतर है तो उसे सम्हाले हुए था। फिर जब पता चल गया कि पत्थर है, उठा कर उसने पत्थर फेंक दिया। झोली एक तरफ रख दी और युवक से कहा अब रात यहीं सो जाएं, अब कहां परेशान होंगे, कहां रास्ता खोजेंगे। फिर रात वे वहीं सो गए।

तो जिस विचार को आप सोने की ईंट समझे हुए हैं, अगर वह सोने की ईंट दिखाई पड़ता है तो आप उसको सम्हाले रहेंगे, सम्हाले रहेंगे, उससे आप मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं वह सोने की ईंट नहीं है। वहां बिलकुल पत्थर का वजन है। जिसको आप ज्ञान समझे हैं, वह जरा भी ज्ञान नहीं है, वह सोना नहीं है, वह बिलकुल पत्थर है।

दूसरों से मिला हुआ ज्ञान बिलकुल पत्थर है। खुद से आया हुआ ज्ञान ही सोना होता है। जिस दिन आपको यह दिखाई पड़ जाएगा कि झोली में ईंट सम्हाले हुए हैं, पत्थर सम्हाले हुए हैं, उसी दिन मामला खत्म हो गया। अब उस ईंट को उठा कर फेंकने में कठिनाई नहीं रह जाएगी।

कचरे को फेंकने में कठिनाई नहीं रह जाती, सोने को फेंकने में कठिनाई होती है। जब तक आपको लग रहा है कि यह विचार ज्ञान है, तब तक आप इसे नहीं फेंक सकते हैं। यह मन आपका एक उपद्रव का स्थल बना ही रहेगा, बना ही रहेगा, बना ही रहेगा। आप लाख उपाय करेंगे, कोई उपाय काम नहीं करेगा। क्योंकि आप बहुत गहरे में चाहते हैं कि यह बना रहे, क्योंकि आप समझते हैं यह ज्ञान है। जीवन में सबसे बड़ी कठिनाइयां इस बात से पैदा होती हैं कि जो चीज जो नहीं है उसको हम समझ लें, तो सारी कठिनाइयां पैदा होनी शुरू हो जाती हैं। पत्थर को कोई सोना समझ ले तो मुश्किल शुरू हो गई। पत्थर को कोई पत्थर समझ ले, मामला खत्म हो गया।

तो हमारे विचार की संपदा वास्तविक संपदा नहीं है—इस बात को समझ लेना जरूरी है। इसे कैसे समझें? क्या मेरे कहने से आप समझ लेंगे? अगर मेरे कहने से समझ लिए तो यह समझ उधार हो जाएगी, यह समझ बेकार हो जाएगी। क्योंकि यह मैं कह रहा हूं और आप समझ लेंगे। मेरे कहने से समझने का सवाल नहीं है, आपको देखना पड़े, खोजना पड़े, पहचानना पड़े।

वह युवक अगर उस बूढ़े से कहता कि चले चलिए, कोई फिकर नहीं है, आपके झोले में ईंट है, पत्थर है, कोई सोना नहीं है, तो इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, जब तक कि का देख न ले उस झोले में कि ईंट है, सोने की या पत्थर की! युवक कहता तो कोई बात खयाल में आने वाली नहीं थी। हंसता लड़के पर कि लड़का है, नासमझ है, कुछ पता नहीं। या हां भी भर देता तो वह हां झूठी होती, भीतर गहरे में वह ईंट को सम्हाले ही रहता। लेकिन खुद देखा तो फर्क पड़ गया।

तो अपने मन की झोली में देखना जरूरी है कि जिन्हें हम ज्ञान समझ रहे हैं वह विचार ज्ञान है? उनमें ज्ञान जैसा कुछ भी है या कि सब फिजूल कचरा हमने इकट्ठा कर रखा है? गीता के श्लोक इकट्ठे कर रखे हैं, वेदों के वचन इकट्ठे कर रखे हैं, महावीर, बुद्ध के शब्द इकट्ठे कर रखे हैं और उन्हीं को लिए बैठे हुए हैं और उन्हीं का हिसाब लगाते रहते हैं। उनका अर्थ निकालते रहते हैं, टीकाएं पढ़ते रहते हैं और टीकाएं लिखते रहते हैं और एक—दूसरे को समझाते रहते हैं और समझते रहते हैं।

यह बिलकुल पागलपन पैदा हो गया है। इससे कोई संबंध नहीं है ज्ञान का। इससे जीवन में कोई ज्योति नहीं फूटेगी, कोई किरण पैदा नहीं होगी। और इस कचरे को इकट्ठा करके आप इस भ्रम में पड़ जाएंगे कि हमने बहुत संपदा इकट्ठी कर ली है, हम बड़े मालिक हैं, हमारे पास बहुत—कुछ है, हमारी तिजोरी भरी हुई है और इसी के साथ आप जीवन को व्यतीत कर देंगे और नष्ट कर देंगे।

एक संन्यासी, एक युवा संन्यासी एक आश्रम में ठहरा था। एक बूढ़े संन्यासी के निकट सान्निध्य को आया था, लेकिन दो—चार दिन में ही उसे लगा कि इस बूढ़े को कुछ भी पता नहीं है। रोज वही बातें, रोज वही बातें सुन—सुन कर हैरान हो गया। सोचा छोड़ दूं इस आश्रम को, कहीं और खोजूं यह मेरे लिए जगह नहीं है। किसी और गुरु की तलाश करूं।

लेकिन जिस दिन छोड़ने को था, उसी दिन एक संन्यासी और उस आश्रम में मेहमान हुआ। और रात आश्रम के अंतेवासी इकट्ठे हुए और उनकी बातें हुईं। उस नये संन्यासी ने इतनी ज्ञान की बातें कीं, ऐसी सूक्ष्म और बारीक, ऐसी गहरी और प्रगाढ़ कि छोड़ने वाले युवा संन्यासी को लगा कि गुरु हो तो ऐसा हो। दो घंटे में उसने मंत्रमुग्ध कर दिया। उसके मन को यह भी खयाल हुआ कि हमारे के गुरु के मन को बड़ी पीड़ा होती होगी। आज बड़ी आत्म—ग्लानि लगती होगी कि मैं का हो गया और मैं कुछ भी नहीं जान पाया और यह आगंतुक इतना जानता है।

दो घंटे बाद जब बात बंद हुई तो उस आए हुए संन्यासी ने बूढ़े गुरु की तरफ देखा और उस वृद्ध से पूछा कि आपको मेरी बातें कैसी लगीं? उस बूढ़े ने कहा. मेरी बातें? बातें तुम करते थे, लेकिन तुम्हारी उसमें कोई भी बात नहीं थी। और मैं तो बहुत गौर से सुनता था कि तुम कुछ बोलो, लेकिन तुम कुछ बोलते ही नहीं हो! तो उस युवक ने कहा दो घंटे मैं नहीं तो और कौन बोलता था?

तो उस बूढ़े ने कहा : अगर मुझसे पूछते हो सचाई और ईमानदारी की बात, तो तुम्हारे भीतर से किताबें बोलती थीं, शास्त्र बोलते थे, लेकिन तुम जरा भी नहीं बोलते थे। तुमने एक शब्द भी नहीं बोला। जो तुमने इकट्ठा कर लिया है उसी का वमन करते थे, उसी को तुम उल्टी करते थे, उसी को तुम बाहर निकालते थे। और तुम्हारे वमन और उल्टी से मैं बहुत घबड़ा गया कि तुम बड़े बीमार आदमी हो। तुम दो घंटे तक उलटते ही रहे, जो तुम्हारे पेट में इकट्ठा था। और सारा कमरा तुमने गंदगी और बदबू से भर दिया। मुझे तो ज्ञान की सुगंध जरा भी नहीं आई, क्योंकि बाहर से जो भीतर ले जाया जाए और फिर बाहर फेंक दिया जाए, उसमें वमन की दुर्गंध हो जानी बिलकुल ही निश्चित है। तुम तो कुछ भी नहीं बोले, एक शब्द भी तुम्हारा अपना नहीं था।

वह जो युवा संन्यासी छोड़ना चाहता था आश्रम, उसी आश्रम में रुक गया। आज उसे पहली दफा पता चला कि जानने और जानने में बहुत फर्क है। एक जानना वह है जो हम बाहर से इकट्ठा कर लेते हैं। एक जानना वह है जिसका भीतर से जन्म होता है। बाहर से जो इकट्ठा कर लेते हैं वह हमारा बंधन हो जाता है, वह हमें मुक्त नहीं करता है और भीतर से जो आता है वह हमें मुक्त करता है।

तो पहली बात भीतर खोज कर लेने की है कि मैं जो जानता हूं वह मैं जानता हूं? यह अपने जानने के एक—एक विचार और एक—एक शब्द से पूछ लेना जरूरी है यह मैं जानता हूं? और अगर उत्तर आए कि यह मैं नहीं जानता हूं तो आपकी जिंदगी में सोने की ईंट धीरे— धीरे पत्थर की ईंट हो जाएगी। और उत्तर आएगा कि आप नहीं जानते, क्योंकि दुनिया में सबको धोखा देना संभव है, अपने को धोखा देना संभव नहीं है।

कोई आदमी खुद को धोखा नहीं दे सकता। जो आप नहीं जानते वह आप नहीं जानते। अगर मैं आपसे पूछूं, आप ईश्वर को जानते हैं? और अगर आप सिर हिलाएं कि हां मैं जानता हूं तो आप बेईमान हैं। अपने से पूछें भीतर कि मैं ईश्वर को जानता हूं या कि मैंने सुनी—सुनाई बातें मान ली हैं कि ईश्वर है? मैं जानता हूं! और अगर नहीं जानता, तो ऐसे ईश्वर का दो कोड़ी का भी मूल्य नहीं है। जिसको मैं नहीं जानता वह मेरी जिंदगी को थोड़े ही बदल सकता है। जिस ईश्वर को मैं जानता हूं वही ईश्वर मेरी जिंदगी की क्रांति बन सकता है।

जिस ईश्वर को मैं नहीं जानता वह दो कौड़ी का मूल्य नहीं रखता, वह ईश्वर झूठा है, वह ईश्वर है ही नहीं, क्योंकि वह सब उधार है, उससे मेरी जिंदगी में कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है। अगर मैं आपसे पूछूं, आप आत्मा को जानते हैं और आप कहें हां हम जानते हैं, क्योंकि हमने किताब में पढ़ा हुआ है, क्योंकि हमारे मंदिर में जो पंडित जी पढ़ाते हैं वे समझाते हैं कि हां, आत्मा होती है।

आदमी को जो भी सिखा दिया जाए वह तोतों की तरह याद कर लेता है। इस याद कर लेने से जानने का कोई संबंध नहीं है। अगर आप हिंदू घर में पैदा हुए हैं तो आप दूसरे तरह के तोते हो जाते हैं और जैन घर में पैदा हुए हैं तो दूसरी तरह के तोते हो जाते हैं। और मुसलमान घर में हुए हैं तो तीसरी तरह के तोते हो जाते हैं, लेकिन सब जगह आप तोते बन जाते हैं। जो—जो आपको सिखा दिया जाता है, उसी को आप जिंदगी भर दोहराए चले जाते हैं। और चूंकि आपके आस—पास भी आप ही जैसे तोते होते हैं, इसलिए कोई ऐतराज भी नहीं करता है, कोई इनकार भी नहीं करता है। तोते सिर हिलाते हैं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप, क्योंकि यही उन्होंने भी सीखा है जो आपने सीखा है।

धर्म सभाओं में जाइए, वहां धर्मगुरु समझा रहे हैं और बाकी लोग सिर हिलाते हैं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं। क्योंकि जो वे सीखे बैठे हैं, वही वे भी सीखे बैठे हैं। और दोनों सीखे बैठे हुए हैं और दोनों सिर हिला रहे हैं कि हां! बिलकुल ठीक बात कही जा रही है, हमारी किताब में भी यही लिखा हुआ है, हमने भी यही पढ़ा हुआ है।

सारी मनुष्य—जाति को ज्ञान का धोखा दिया गया है। एक साजिश, एक षडयंत्र है आदमी के साथ ज्ञान के धोखे का। इस सारे ज्ञान को झाडू—पोंछ कर बाहर फेंक देने की जरूरत है, तो कभी आपकी जिंदगी में वह ज्ञान भी आ सकता है जिसके आलोक में ईश्वर का अनुभव हो जाए और आत्मा की ज्योति दिखाई पड़ जाए। इस झूठे ज्ञान से वह संभावना नहीं है। यह रोशनी ही नहीं है, घर अंधेरा पड़ा है, दीया बुझा हुआ है और समझा— समझा कर लोग कह रहे हैं, दीया जला हुआ है। और बार—बार सुनने और समझने के कारण हम भी कहने लगे हैं कि दीया जला हुआ है, क्योंकि कहीं डर भी है! वे कहते हैं कि अगर दीया जला हुआ नहीं दिखा तो नरक चले जाओगे। तो दीया जला हुआ दिखता है, हमको भी दिखने लगता है धीरे— धीरे।

एक सम्राट था। एक अदभुत अजनबी आदमी ने एक दिन सुबह ही आकर उस सम्राट को कहा क्या आपने सारी पृथ्वी जीत ली है? आपको आदमियों जैसे वस्त्र शोभा नहीं देते। मैं आपके लिए देवताओं के वस्त्र ला दूंगा। सम्राट के मन को लोभ पकड़ा। बुद्धि तो कहती थी कि देवताओं के वस्त्र कहां होंगे? देवता भी कहीं होंगे, इस पर भी बुद्धि को शक होता है, लेकिन राजा को लोभ पकड़ा, कि हो सकता है देवता कहीं हों और वस्त्र आ जाएं तो मैं पृथ्वी पर पहला आदमी रहूंगा मनुष्य के इतिहास में जिसने देवताओं के वस्त्र पहने। और यह आदमी अगर धोखा भी देगा तो क्या धोखा देगा!

वह बड़ा सम्राट था। अरबों—खरबों रुपये उसके पास ऐसे ही पड़े थे। दस—पचास हजार रुपये ले भी जाएगा तो हर्ज क्या है। उसने उस आदमी को कहा अच्छा ठीक है। क्या खर्च होगा?

उस आदमी ने कहा कम से कम एक करोड़ रुपया लग जाएगा, क्योंकि देवी—देवताओं तक पहुंचने में बडी रिश्वत खिलानी पड़ती है। कोई आदमी ही थोड़े रिश्वत लेता है, देवी—देवता भी बड़े होशियार हैं, वे भी रिश्वत मांगते हैं। और आदमी थोड़े—बहुत पैसे से राजी हो जाता है, गरीब आदमी है! देवी—देवता थोड़े पैसे से राजी नहीं होते। भारी ढेर हो तभी उनकी नजर में पड़ता है, नहीं तो नजर में नहीं पड़ता। तो बड़ी मुश्किल है लेकिन एक करोड़ कम से कम खर्च होगा!

राजा ने कहा अच्छा कोई हर्ज नहीं, लेकिन ध्यान रहे, धोखा दोगे तो जिंदगी से हाथ धो बैठोगे। और तुम्हारे मकान पर आज से तलवारों का पहरा रहेगा। एक करोड़ रुपया उस आदमी को दे दिया गया और उसके मकान पर पहरा बिठा दिया गया। सारी बस्ती में लोग चकित थे और हैरान थे और विश्वास नहीं आता था— कहां देवी, कहां देवता, कहां देवताओं का स्वर्ग! और यह आदमी न कहीं जाता दिखता था, न कहीं आता दिखता था। मकान के भीतर था और उसने कहा छह महीने के भीतर मैं वस्त्र ले आऊंगा। शक तो सभी को था, लेकिन राजा निश्चित था, क्योंकि नंगी तलवारों का पहरा था। वह आदमी भाग नहीं सकता था, धोखा नहीं दे सकता था। लेकिन वह आदमी राजा से बहुत ज्यादा समझदार था।

छह महीने बाद ठीक दिन पर वह एक बहुत खूबसूरत पेटी लेकर बाहर निकला और उसने सैनिकों से कहा कि राजमहल चलें, दिन आ गया और वस्त्र आ गए हैं।

सारी राजधानी इकट्ठी हो गई। दूर—दूर के राजे—महाराजे देखने इकट्ठे हो गए। भारी जलसा मनाया गया। वह आदमी जब दरबार में ही पेटी लेकर आ गया तब तो शक का कोई कारण ही नहीं रहा। उसने लाकर पेटी रख दी। पेटी का ढक्कन खोला, हाथ भीतर डाला और खाली हाथ बाहर निकाला और राजा से कहा यह पगड़ी लें। राजा ने देखा, पगड़ी तो कुछ दिखाई नहीं पड़ती, हाथ खाली है।

और तभी उस आदमी ने कहा एक स्मरण आप को दिला दूं देवताओं ने कहा है कि जो अपने ही बाप से पैदा हुआ होगा उसी को पगड़ी और वस्त्र दिखाई पड़ेंगे। आपको पगड़ी दिखाई पड़ती है न?

राजा ने कहा बिलकुल दिखाई पड़ती है। वह पगड़ी वहां थी नहीं, हाथ खाली था और सारे दरबारी ताली बजाने लगे। उनको भी पगड़ी नहीं दिखाई पड़ती थी, लेकिन वे सभी कहने लगे आगे बढ़ कर, ऐसी सुंदर पगड़ी तो हमने कभी देखी नहीं। पगड़ी बहुत सुंदर है, बड़ी अदभुत है, आदमी ने कभी देखी नहीं यह पगड़ी तो! अब जब सभी दरबारी कहने लगे कि पगड़ी बहुत सुंदर है, राजा मुश्किल में पड़ गया। और उस आदमी ने कहा अच्छा अपनी पगड़ी निकालिए और यह पगड़ी पहन लीजिए।

वह पगड़ी उसने अलग कर दी और वह झूठी पगड़ी जो थी ही नहीं, वह राजा ने पहन ली। पगड़ी तक ही बात होती तो ठीक थी, लेकिन राजा दिक्कत में पड़ गया। धीरे— धीरे कोट भी उतर गया, फिर आखिरी वस्त्र भी उतरने का वक्त आ गया। राजा नंगा होने लगा, लेकिन सारे दरबारी चिल्ला रहे हैं कि बहुत सुंदर वस्त्र हैं! अदभुत! ऐसे वस्त्र कभी देखे नहीं। क्योंकि जो दरबारी जोर से नहीं कहेगा, लोग शक करेंगे कि पता नहीं अपने पिता से पैदा हुआ है या किसी और से पैदा हुआ है!

और जब सारी भीड़ चिल्लाती हो तो एक—एक आदमी को यह लगा कि मेरी आंखें गलत देखती होंगी। या मैं ही अपने पिता के बाबत गलती में रहा अब तक। बाकी सारे लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। इतने लोग गलत तो नहीं कह सकते। इतनी मैजॉरिटी, इतना बहुमत! जब सभी कहते हैं तो ठीक कहते होंगे। इतना लोकतांत्रिक है कि सभी ठीक कह रहे हैं। जब इतने लोग कह रहे हैं! सभी तो गलती में नहीं हो सकते। मैं अकेला गलती में हो सकता हूं इसलिए अगर चुपचाप रह जाऊं तो लोग समझेंगे कि मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा।

राजा डरा, अब अंतिम वस्त्र उतारे या न उतारे? एक तरफ यह था कि सारा दरबार नग्न देख लेगा और दूसरी तरफ यह डर था कि यह नग्नता तो फिर भी ठीक है, लेकिन अगर दुनिया को यह पता चल गया कि मैं अपने बाप से पैदा नहीं हुआ तो और मुश्किल हो जाएगी। अब बड़ी मुश्किल थी—इधर गिरे तो कुआं, उधर गिरे तो खाई। आखिर नग्नता को ही स्वीकार करना ठीक था। कम से कम पिता तो बचते थे, वंश तो बचता था। नंगा ही देख लेंगे लोग और क्या! जब सबको वस्त्र दिखाई पड़ रहे हैं तो हो सकता है दिखाई पड़ रहे हों। और मैं ही गलती में हूं और व्यर्थ की झंझट हो जाए। तो उसने अंतिम वस्त्र भी छोड़ दिया। वह नंगा खड़ा हो गया।

फिर उस आदमी ने कहा कि महानुभाव, देवताओं के वस्त्र पहली दफा पृथ्वी पर उतरे हैं। आपकी शोभायात्रा निकलनी चाहिए। रथ पर आपको गांव में घुमाया जाना चाहिए। राजा बहुत डरा, लेकिन अब कोई रास्ता न था।

जब आदमी पहली कड़ी पर गलती कर जाता है, तो फिर किसी भी कड़ी पर रुकना बहुत मुश्किल हो जाता है। फिर लौटना मुश्किल हो जाता है। ईमानदारी पहली कड़ी पर अगर नहीं की गई तो फिर आगे की कड़ियों पर आदमी और बेईमानी, और बेईमानी में गिरता चला जाता है, फिर उसे मुश्किल हो जाता है कहां से लौटे, क्योंकि हर कड़ी और कड़ी में बांधने का रास्ता बन जाती है।

अब वह मुश्किल में पड़ गया था, अब इनकार नहीं कर सकता था। रथ पर बैठ कर उसकी शोभायात्रा निकली है। हो सकता है आप भी उस नगर में रहे हों, क्योंकि बहुत लोग उस नगर में थे और सबने वह शोभायात्रा देखी और आप भी रहे होंगे तो आपने भी उन वस्त्रों की तारीफ की होगी, क्योंकि कौन चूकता है, कौन मौका छोड़े। सब लोग जोर से तारीफ करने लगे कि वस्त्र बहुत सुंदर हैं। सुनते हैं, सिर्फ एक बच्चे ने जो अपने बाप के कंधे पर बैठा हुआ भीड़ में आ गया था, उसने भर यह कहा था कि पिताजी, राजा तो नंगा मालूम होता है। उसके बाप ने कहा नासमझ चुप रह, अभी तेरी उम्र कम है, अभी तुझे अनुभव नहीं है। जब तुझे अनुभव होगा, तुझे भी वस्त्र दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे। मुझको वस्त्र दिखाई पड़ते हैं।

बच्चे कभी—कभी सत्य कह देते हैं, लेकिन के उनके सत्य को टिकने नहीं देते, क्योंकि को का अनुभव ज्यादा है। और अनुभव बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि अनुभव के कारण ही उस के ने कहा चुप रह! जब तुझे अनुभव होगा तुझे भी वस्त्र दिखाई पड़ेंगे। हम सबको दिखाई पड़ रहे हैं। हम पागल हैं? कभी—कभी बच्चे कह देते हैं, यह भगवान की मूर्ति में हमें भगवान नहीं दिखाई पड़ते हैं। तो के कहते हैं, चुप! हमको भगवान दिखाई पड़ रहे हैं। वह रामचंद्र जी खड़े हुए हैं। अनुभव होगा, तुझको भी दिखाई पड़ेंगे।

आदमी एक म्यूचुअल डिसेप्शन में, एक पारस्परिक धोखे में बंधा हुआ है। और जब सारे लोग एक ही धोखे में बंधे होते हैं, तो दिखाई पड़ना मुश्किल हो जाता है। आपको खोज लेना जरूरी है कि जिन ज्ञान के वस्त्रों को आप वस्त्र समझ रहे हैं, वे वस्त्र हैं या कि आप उन वस्त्रों में भी नग्न खड़े हुए हैं? यह कसौटी अपने एक— एक विचार पर कस कर देख लेने की है कि यह मैं जानता हूं? अगर नहीं जानते हैं तो नरक जाने को तैयार हो जाना, लेकिन इस झूठे ज्ञान को पकड़ने को तैयार मत होना।

क्योंकि यह ईमानदारी की पहली शर्त है कि जो आदमी नहीं जानता जिस बात को, कह दे कि मैं नहीं जानता हूं। यह बेईमानी की शुरुआत है। और बड़ी बेइमानियां दिखाई नहीं पड़ती, छोटी बेइमानियां दिखाई पड़ती हैं। एक आदमी दो पैसे की बेईमानी करता है, तो हमें दिखाई पड़ती है और एक आदमी पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर कहता है कि हे परमपिता! हे परमेश्वर! और पूरी तरह जानता है कि पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ रहा है, यहां कोई परमेश्वर, कोई परमपिता दिखाई नहीं पड़ रहा है, और यह आदमी ईमानदार और धार्मिक मालूम होता है, इससे ज्यादा बेईमान और धोखेबाज आदमी जमीन पर खोजना कठिन है! यह बिलकुल धोखे की बात कह रहा है, यह बिलकुल सरासर झूठी बात कह रहा है जिसका इसके भीतर कोई अहसास नहीं हो रहा है। लेकिन इतना साहस नहीं जुटा पाता है कि इस बात को समझ ले कि मैं यह क्या कह रहा हूं? यह मैं क्या कर रहा हूं?

धार्मिक आदमी वह है और धार्मिक आदमी की होने की शुरुआत इस बात में है कि वह ठीक से इस बात को पहचान ले कि क्या मैं जानता हूं और क्या मैं नहीं जानता हूं? वह आदमी धार्मिक नहीं है जो कहे कि मैं ईश्वर को जानता हूं और आत्मा को जानता हूं। मैंने स्वर्ग देख लिया और नरक देख लिया। वह आदमी धार्मिक है जो कहे कि मुझे तो कुछ भी पता नहीं है, मैं बिलकुल अज्ञानी हूं। मुझे कोई भी ज्ञान नहीं है, मुझे अपना ही पता नहीं है, मैं कैसे कहूं कि मैं ईश्वर को जानता हूं! सामने मकान के जो पत्थर पड़ा है, उसको भी मैं नहीं जानता हूं। मैं परमात्मा को जानता हूं कैसे कहूं?

जिंदगी बहुत रहस्यपूर्ण है, अज्ञात है। मुझे कुछ भी पता नहीं है, मैं तो बिलकुल अज्ञानी हूं। अगर आप अज्ञानी होने का साहस कर सकते हैं, इस स्वीकृति का कि मैं अज्ञानी हूं तो आपके विचारों के जाल से छुटकारे का रास्ता शुरू हो जाता है, अन्यथा शुरू नहीं होगा। तो यह बात एक समझ लेने की है कि हम अत्यंत अज्ञानी हैं, हमें कुछ भी पता नहीं है। और जो भी हमें पता मालूम पड़ता है कि पता है वह बिलकुल झूठा, उधार और बासा है। वह हौज की तरह है, वह कुएं की तरह नहीं है। और अगर जीवन में एक कुआं बनाना है तो हौज के भ्रम से मुक्त हो जाना अत्यंत जरूरी है।

(प्रश्न का ध्वनि— मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)

कोई अभिप्राय नहीं है। मैं तो कृष्णमूर्ति जी को जानता नहीं, एक बात।

दूसरी बात, जब मैं कुछ कह रहा हूं और अगर आप तौलते हैं कि वह किसके साथ समानता रखता है और किसके साथ असमानता रखता है, तो आप मुझे सुन ही नहीं पाएंगे। आप उस तौल में ही समय खराब कर देंगे। और यह बिलकुल असंभव है कि दो आदमियों की बात समान हो, क्योंकि दो आदमी समान नहीं हैं। दो पत्ते समान नहीं हैं, दो पत्थर समान नहीं हैं। कुछ शब्दों की समानता हो सकती है, कुछ ऊपरी समानता हो सकती है किसी बात में, लेकिन जगत में एक—एक आदमी इतना भिन्न और पृथक है कि ठीक—ठीक समान कुछ भी नहीं हो सकता है।

लेकिन उसे अगर तौलने बैठें कि किस चीज से मेरी बात समान है; गीता से मिलती है, कृष्णमूर्ति जी से मिलती है, कि रामकृष्ण से मिलती है, कि महावीर से मिलती है तो आप मेरी बात नहीं सुन पाएंगे, क्योंकि बीच में यह रामकृष्ण और कृष्णमूर्ति और महावीर बीच में इतना उपद्रव खड़ा कर देंगे कि मेरी बात आप तक नहीं पहुंच पाएगी। सीधा आपसे मेरा कोई संबंध नहीं पैदा हो पाएगा।

तो मुझे पता नहीं, लेकिन इतनी प्रार्थना है कि उसे तौलने की और समानता बिठाने की या असमानता देखने की कोई जरूरत ही नहीं है। वह बात ही फिजूल है, उसका कोई प्रयोजन ही नहीं है। उससे कुछ हित भी नहीं होता।

लेकिन हमारे जीवन में कुछ सामान्य आदतें बन गई हैं, उनमें एक तुलना की आदत है। हम बिना तौले आंक ही नहीं सकते। कोई भी बात हमें आंकनी है तो हम कंपेयर किए बिना, तौले बिना नहीं सोच सकते कि यह बात कैसे हो सकती है। और जब भी हम तुलना करते हैं, तभी भूल शुरू हो जाती है।

अगर हम एक चमेली के फूल को गुलाब के फूल से तौलें तो भूल शुरू हो जाती है। चमेली का फूल चमेली का फूल है, और गुलाब का फूल गुलाब का फूल है, और घास का फूल घास का फूल है। न तो घास के फूल से गुलाब का फूल आगे है, न पीछे है। घास का फूल अपनी निजता में जीता है, गुलाब का फूल अपनी निजता में जीता है। न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है, न कोई समान है, न कोई असमान है, प्रत्येक अपने ही जैसा है और कोई किसी जैसा नहीं है।

अगर चीजों की यह इडिविजुअलिटी, इनका व्यक्तित्व, उनका अनूठापन हमें दिखाई पड़ना शुरू हो जाए तो हम तौलना बंद कर देंगे।

लेकिन हमारी तौलने की आदत—एक छोटे से बच्चे को भी हम तौलते हैं। हम कहते हैं कि देखो, दूसरा बच्चा तुझसे आगे निकल गया, तू पीछे रह गया, हम बच्चे के साथ अन्याय कर रहे हैं। क्योंकि दूसरा बच्चा दूसरा बच्चा है, यह बच्चा है यह बच्चा है! इन दोनों के बीच तौल की कोई गुंजाइश नहीं है। ये दोनों बिलकुल भिन्न हैं अपने होने में। ये अपनी निजता में, अपनी ऑथेंटिसिटी में बिलकुल अलग हैं, इनका कोई संबंध नहीं है।

लेकिन हमारी तौल की आदतें— हमारी शिक्षा भी तौलना सिखाती है, हमारे विचार भी तौलना सिखाते हैं। बिना कंपेयर किए हम हिसाब ही नहीं लगा पाते। और इसका परिणाम यह होता है कि हम सीधे किसी व्यक्ति को नहीं समझ पाते, न सीधे किसी विचार को समझ पाते हैं, बीच में और बहुत सी बातें खड़ी हो जाती हैं।

तो मैं तो इतनी ही प्रार्थना करूंगा, मुझे तो पता नहीं कितनी समानता हो सकती है, कितनी असमानता हो सकती है, मैंने तौला नहीं। और आपसे प्रार्थना करूंगा आप भी मत तौलें। और मुझे और उनको ही नहीं किसी को भी कभी किसी से मत तौलें।

लेकिन ऐसे चलता है सिलसिला कि महावीर और बुद्ध में कितनी समानता है, और क्राइस्ट में और मोहम्मद में कितनी समानता है, और कृष्ण और राम में कितनी समानता है—सब पागलपन है! कोई समानता— असमानता का सवाल नहीं, क्योंकि प्रत्येक बस अपने ही जैसा है, दूसरे से उसका कोई वास्ता ही नहीं, दूसरे से उसका कोई संबंध ही नहीं। असमानता भी कहना फिजूल है, क्योंकि जब समानता ही नहीं है तो असमानता कहने का भी कोई कारण नहीं है।

प्रत्येक अपने जैसा अलग ही है। और इस जगत में दो व्यक्ति पुनरुक्त नहीं होते हैं, दो घटनाएं पुनरुक्त नहीं होती हैं। दो अनुभव पुनरुक्त नहीं होते, रिपीटीशन जैसी चीज होती ही नहीं जीवन में। जीवन बिलकुल ही सतत अनूठेपन को पैदा किए चला जाता है। इसलिए तौलने की कोई जरूरत नहीं है। न हिसाब लगाने की जरूरत है।

कृष्णमूर्ति जी को सुनते हो तो उन्हें सीधा समझने की जरूरत है, मुझे सुनते हो तो मुझे सीधा सुनने की जरूरत है। अपने पड़ोसी को सुनते हो तो उसे सीधा सुनने की जरूरत है। अपनी पत्नी की बात सुनते हो तो उसे भी सीधा सुनने की जरूरत है। दो के बीच में तीसरा खड़ा हुआ कि कठिनाई और विवाद होने शुरू हो जाते हैं। दो के बीच तीसरे की कोई भी जरूरत नहीं है। सीधा, इमीजिएट, सीधा हमारा संपर्क और संबंध होना चाहिए।

अगर मैं एक गुलाब के फूल के पास खड़ा हूं और मुझे वे फूल खयाल आ जाएं जो मैंने कल देखे थे, और सोचने लग कितनी समानता है इस फूल में और उन फूलों में, तो इस फूल को देखना बंद हो जाएगा। एक बात तय है क्योंकि वे फूल जो बीच में आ जाएंगे उनकी छाया इस फूल को नहीं देखने देगी। अगर इस फूल को देखने में जो मेरे सामने है, तो वे सारे फूल भूल जाने जरूरी हैं, जो मैंने कभी देखे हों। उनको बीच में लाना इस फूल के साथ अन्याय हो जाएगा। और इस फूल की याद भी साथ ले जाने की जरूरत नहीं है कि कल कहीं किसी दूसरे फूल को देखते वक्त यह फिर बीच में आ जाए। तो न कृष्‍णमूर्ति जी को यहां लाइए। मुझे सुनने से कहीं इस खयाल में मत पड़ जाइए कि कल किसी और को सुनते हुए मुझे बीच में खड़ा कर लें, तो फिर उस आदमी के साथ अन्याय होना शुरू हो जाएगा।

जिंदगी को सीधा देखिए, किसी को बीच में लेने की कोई भी जरूरत नहीं है। न कोई समान है, न कोई असमान है। प्रत्येक बस अपने जैसा है और प्रत्येक अपने जैसा हो, यही मेरी कामना है।

प्रत्येक अपने जैसा होना चाहिए, यही मुझे जीवन का बुनियादी सूत्र दिखाई पड़ता है। लेकिन अब तक हम इसके लिए राजी नहीं हो सके हैं। अब तक मनुष्य—जाति इस बात के लिए राजी नहीं हो सकी कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके जैसा वह है, उसको स्वीकार कर ले। हम कोशिश करते हैं वह किसी और जैसा हो जाए। महावीर जैसा हो जाए, बुद्ध जैसा हो जाए, गांधी जैसा हो जाए। यह एक—एक आदमी के व्यक्तित्व का सीधा अपमान है। जब हम किसी से कहते हैं, तुम गांधी जैसे हो जाओ, तो हमने इतना भारी अपमान किया उस व्यक्ति का जिसका कोई हिसाब नहीं। क्योंकि वह अगर गांधी होने को पैदा हुआ था तो गांधी हो चुके हैं, इसकी क्या जरूरत है! इस आदमी को यह कहना कि तुम गांधी जैसे हो जाओ, यह कहना है कि तुम्हें तुम्हारे जैसे होने का कोई हक नहीं है। तुम्हें किसी और की कॉपी होने का, किसी का अनुकरण होने का ही हक है। तुम केवल कार्बनकॉपी हो सकते हो, तुम मूल प्रति नहीं हो सकते। इस आदमी का अपमान है।

तो मैं तो नहीं कहता कि कोई किसी जैसा हो जाए। मैं तो यही कहता हूं हरेक अपने जैसा हो जाए। तो यह दुनिया एक अदभुत सुंदर दुनिया बन सकती है। अभी तक हमने यही कोशिश की है कि कोई किसी जैसा हो जाए, कोई किसी जैसा हो जाए। और इसीलिए हम तुलना करते हैं, इसीलिए हम विचार करते हैं, इसीलिए हम खोजते हैं। कोई भी आवश्यकता नहीं, अत्यंत अनावश्यक है ऐसा सोचना।

इस संबंध में कुछ और प्रश्न होंगे तो रात हम फिर उन पर बात करेंगे।

फिर मैं अंत में दोहरा दूं—एक ही बात मैंने कही है, जो बहुत बुनियादी है। अपने ज्ञान को कसें, खोजें कि वह आपका अपना है या किसी और का। और अगर आपको दिखाई पड जाए कि वह किसी और का है तो वह व्यर्थ हो जाएगा। और जिस दिन आपको दिखाई पड़ जाए कि मेरे पास अपना अभी कोई जान नहीं, उसी क्षण से आपके भीतर अपने ज्ञान के जन्म की किरण उतरनी शुरू होती है। उसी क्षण से एक क्रांति शुरू हो जाती है।

फिर कोई और प्रश्न होंगे तो रात उन पर हम बात करेंगे।

दोपहर की बैठक पूरी हुई।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3)–प्रवचन–36

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आत्‍म—स्‍मरण और विधायक दृष्‍टि—(प्रवचन—छत्‍तीसवां)

प्रश्‍न—सार:

1—आत्‍म–स्‍मरणमानव मन को कैसे रूपांतरित करता है?

2—विधायक पर जोर क्‍या समग्र स्‍वीकार के विपरीत नहीं है?

3—इस मायावी जगत में गुरु की क्‍या भूमिका और सार्थकता है?

 

पहला प्रश्न :

 

आत्म—सरण अल्प— स्मरण की साधना मनुष्य के मन को कैसे रूपांतरित कर सकती है?

नुष्‍य अपने में केंद्रित नहीं है, वह अपने केंद्र पर नहीं है। वह जन्म तो लेता है केंद्रित की तरह; लेकिन समाज, परिवार, संस्कृति, सब उसे केंद्र से च्युत कर देते हैं, बाहर कर देते हैं। वे यह काम जाने— अनजाने बहुत तरकीब से करते हैं। और इस तरह हरेक आदमी केंद्र से च्युत हो जाता है, भटक जाता है। इसके कारण हैं और वे कारण मनुष्य के जीवन—संघर्ष से संबंधित हैं। बच्चा जब जन्म लेता है तो उसे एक अनुशासन देना पड़ता है, उसे स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता। अगर उसे पूरी स्वतंत्रता दे दी जाए तो वह स्व—केंद्रित रहेगा, सहज स्वभाव से जीएगा, नैसर्गिक होकर जीएगा। तब वह मौलिक होगा, जैसा है वैसा ही होगा, प्रामाणिक होगा। और तब आत्म—स्मरण साधने की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि वह कभी केंद्र से च्‍युत नहीं होगा। वह केंद्रित होगा, आत्म—स्थित होगा।

लेकिन यह अब तक संभव नहीं हुआ है। इसलिए ध्यान की जरूरत होती है। ध्यान औषधि है। समाज रोग निर्मित करता है और फिर रोग का इलाज करना पड़ता है। धर्म औषधि है। अगर सचमुच एक ऐसा मानव—समाज विकसित हो जो स्वतंत्रता पर आधारित हो तो धर्म की कोई जरूरत न रहे। लेकिन क्योंकि हम बीमार हैं, हमें औषधि की जरूरत पड़ती है। और क्योंकि हम केंद्र से च्युत हैं, हमारे लिए केंद्रित होने के उपाय जरूरी हो जाते हैं। अगर किसी दिन धरती पर एक स्वस्थ समाज, आंतरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से स्वस्थ समाज बनाना संभव हो जाए तो धर्म नहीं रहेगा।

लेकिन ऐसा समाज बनाना कठिन मालूम पड़ता है। बच्चे को अनुशासन देना जरूरी है। लेकिन जब तुम बच्चे को अनुशासित करते हो तो क्या करते हो? तुम उस पर कुछ थोपते हो जो उसके अनुकूल नहीं है, जो उसके लिए स्वाभाविक नहीं है। तुम उससे कुछ ऐसी मल करते हो जिसे वह सहज भाव से कभी नहीं पूरा कर सकेगा। फिर तुम उसे दंडित करोगे, उसकी सराहना करोगे, उसे रिश्वत दोगे—तुम उसे सामाजिक बनाने के लिए सब कुछ करोगे, तुम उसे उसके प्राकृतिक जीवन से च्‍युत कर दोगे। तुम उसके चित्त में एक नया केंद्र निर्मित कर दोगे जो वहा कभी नहीं था। और यह केंद्र बढ़ेगा, बड़ा होगा और प्राकृतिक केंद्र विस्मृत हो जाएगा, अचेतन में दब जाएगा। तुम्‍हारा प्राकृतिक केंद्र अचेतन में, अंधकार में दब जाएगा और तुम्हारा अप्राकृतिक केंद्र तुम्हारा चेतन बन जाएगा।

वास्तव में अचेतन और चेतन के बीच कोई विभाजन नहीं है; विभाजन निर्मित किया गया है। तुम अखंड चेतना हो। यह विभाजन हो गया है, क्योंकि तुम्हारा अपना केंद्र किसी अंधेरे तलघर में दब गया है। तुम अभी अपने केंद्र के संपर्क में नहीं हो, तुम्हें भी उससे संपर्क करने की स्वीकृति नहीं है। तुम खुद भूल गए हो कि मेरा कोई केंद्र है। और तुम वैसे जीते हो जैसे समाज ने, संस्कृति ने, परिवार ने तुम्हें जीना सिखा दिया है। तुम एक झूठा जीवन जीते हो।

इस झूठे जीवन के लिए एक झूठे केंद्र की जरूरत है। तुम्हारा अहंकार वही झूठा केंद्र है, तुम्हारा चेतन मन वह झूठा केंद्र है। यही कारण है कि तुम कुछ भी करो, तुम आनंदित नहीं हो सकते हो। आनंदित होने के लिए सच्चा केंद्र चाहिए, सच्चा केंद्र ही विस्फोट को उपलब्ध हो सकता है। सच्चा केंद्र ही आनंद की परम संभावना को, उसके शिखर को उपलब्ध हो सकता है। झूठा केंद्र तो धूप—छाया का खेल है। तुम इससे मन को बहला सकते हो, तुम इससे आशा बांध सकते हो, लेकिन अंततः इससे निराशा के अतिरिक्‍त कुछ हाथ नहीं आता है। झूठे केंद्र के साथ यही हो सकता है।

एक ढंग से सब कुछ तुम्हें स्वयं न होने के लिए बाध्य कर रहा है। और सिर्फ इतना कहकर इसे नहीं बदला जा सकता कि यह गलत है, क्योंकि समाज की अपनी जरूरतें हैं।

एक बच्चा जब जन्म लेता है तो वह ठीक एक पशु की भांति होता है—सहज, केंद्रित, आधारित लेकिन बिलकुल स्वतंत्र। वह किसी संगठन का अंग नहीं बन सकता है। वह अभी उपद्रवी है। उसे दबाना— धमकाना होगा, उसे प्रशिक्षित करना होगा, उसे संस्कारित करना होगा, उसे बदलना होगा। और इस प्रयत्न में उसे उसके केंद्र से हटाना जरूरी होगा।

हम परिधि पर जीते हैं और हम उतना ही जीते हैं जितना जीने की समाज इजाजत देता है। हमारी स्वतंत्रता भी झूठी है। क्योंकि ये खेल के नियम, सामाजिक खेल के नियम तुममें इतनी गहरी जड़ जमाए हैं कि तुम्हें ऐसा लग सकता है कि तुम चुनाव कर रहे हो, लेकिन दरअसल तुम चुनाव नहीं कर रहे हो। यह चुनाव तुम्हारे संस्कारित मन से आता है; और यह बिलकुल यांत्रिक ढंग से चलता रहता है।

मुझे एक व्यक्ति का स्मरण आता है जिसने अपने जीवन में आठ स्त्रियों से विवाह किया। पहले उसने एक स्त्री से विवाह किया और उसे तलाक दे दिया। फिर उसने बहुत—बहुत सोच—समझकर, बहुत सजगता से देख—सुनकर दूसरी स्त्री से विवाह किया। उसने सब भांति हिसाब लगाया कि पुराने फंदे में फिर न पड़े। और वह सोचता था कि नयी स्त्री पहली स्त्री से बिलकुल भिन्न होगी। लेकिन कुछ ही दिनों के अंदर, अभी जब कि हनीमून के दिन भी नहीं बीते थे, नयी स्त्री पुरानी स्त्री, पहली स्त्री जैसा ही व्यवहार करने लगी। और छह महीनों के भीतर यह विवाह भी खतम हो गया। फिर उसने तीसरी स्त्री से विवाह किया और इस बार उसने और भी अधिक सावधानी बरती। लेकिन फिर वही बात हुई।

इस तरह उसने आठ विवाह किए और हर बार स्त्री वही की वही निकली जैसी पहली थी। क्या हुआ? चुनाव तो वह बहुत—बहुत सावधानी से, बहुत सोच—विचार कर करता था।

फिर क्या होता था? जो चुनाव करने वाला था वह मूर्च्छित था, बेहोश था। वह चुनाव करने वाले को नहीं बदल सका, चुनाव करने वाला सदा वही का वही रहा। इसलिए चुनाव भी वही का वही रहता था। और चुनाव करने वाला सदा बेहोशी में काम करता है।

दृष्टि तुम यह—वह किए जाते हो, तुम बाहरी वस्तुओं को बदलते रहते हो। लेकिन तुम खुद वही के वही बने रहते हो। तुम केंद्र से स्मृत रहते हो, विच्छिन्न रहते हो। फलत: तुम जो भी करते हो वह बाहर से भिन्न दिखाई पड़ने पर भी वही का वही रहता है। नतीजे सदा वही के वही आते हैं। परिणाम सदा वही के वही आते हैं। जब तुम्हें लगता है कि मैं स्वतंत्र हूं और मैं खुद चुनाव करता हूं तब भी तुम स्वतंत्र नहीं हो और चुनाव भी नहीं कर रहे हो।

चुनाव भी एक यांत्रिक चीज है। वैज्ञानिक, खासकर जीव—वैज्ञानिक, कहते हैं कि मनुष्य के मन पर छाप पड़ जाती है और बहुत कम उम्र में यह छाप पड़ जाती है। जीवन के आरंभिक दो—तीन वर्ष का समय ही वह समय है, जब चीजें मन में गहरे बैठ जाती हैं। फिर तुम वही की वही चीजें किए जाते हो, यांत्रिक ढंग से उन्हें दोहराए चले जाते हो। फिर तुम एक दुष्ट—चक्र में घूमते रहते हो।

बच्चे को केंद्र से च्युत होने के लिए मजबूर किया जाता है। उसे अनुशासित किया जाता है, उसे आज्ञाकारी बनाया जाता है। यही कारण है कि हम आज्ञापालन को इतना मूल्य देते हैं। और आज्ञापालन व्यक्ति को नष्ट कर देता है। क्योंकि आज्ञापालन का अर्थ है कि तुम केंद्र न रहे, दूसरा केंद्र है और तुम्हें उसका अनुसरण करना है। जीने के लिए शिक्षा जरूरी है, लेकिन हम इस जीने की जरूरत को सबको झुकाने का बहाना बना लेते हैं। हम सबको बाध्य करते हैं कि आज्ञा के अनुसार चलें। इसका क्या अर्थ है? किसकी आज्ञा के अनुसार चलें? सदा किसी दूसरे की—माता की, पिता की। सदा कोई दूसरा है जिसकी आज्ञा माननी है।

लेकिन आज्ञापालन पर इतना जोर क्यों दिया जाता है? क्योंकि तुम्हारे पिता को भी उनके बचपन में आज्ञापालन के लिए मजबूर किया गया था। वैसे ही तुम्हारी मां को भी, जब वह बच्ची थी, आज्ञापालन के लिए मजबूर किया गया था। उन्हें अपने—अपने केंद्रों से हटा दिया गया था। अब वे लोग वही कर रहे हैं, वे लोग वही अपने बच्चों के साथ कर रहे हैं। और ये बच्चे भी फिर वही दोहराएंगे। ऐसे यह दुष्ट—चक्र चलता रहता है।

स्वतंत्रता की हत्या हो जाती है। और स्वतंत्रता के साथ—साथ तुम अपना केंद्र भी खो देते हो। ऐसा नहीं कि केंद्र नष्ट हो जाता है, मिट जाता है; तुम जब तक जीवित हो, वह नष्ट नहीं हो सकता। अच्छा होता कि यह नष्ट हो जाता, तब तुम अपने साथ ज्यादा चैन में होते। अगर तुम समग्रत: झूठे हो जाते और तुम्हारे भीतर सच्चा केंद्र नहीं बचा रहता तो तुम बड़े चैन में होते। तब कोई द्वंद्व नहीं रहता, कोई चिंता नहीं रहती, कोई संघर्ष नहीं रहता। द्वंद्व तो इसीलिए पैदा होता है क्योंकि असली जीवित रहता है। केंद्र पर तो वही रहता है, लेकिन परिधि पर एक झूठा केंद्र खडा हो जाता है। और तब इन दो केंद्रों के बीच सतत संघर्ष, सतत चिंता, सतत तनाव निर्मित होता रहता है।

इसे बदलना होगा। और इसे बदलने का एक ही उपाय है कि झूठे केंद्र को विदा किया जाए और सच्चे केंद्र को उसकी जगह दी जाए। तुम्हें फिर से अपने केंद्र में, अपने होने में प्रतिष्ठित किया जाए। अन्यथा तुम सदा दुख में रहोगे।

झूठे केंद्र को विदा किया जा सकता है, लेकिन सच्चे केंद्र को तुम्हारे मरने के पहले नहीं विदा जा सकता। तुम जब तक जीवित हो, सच्‍चा केंद्र रहेगा। समाज एक ही काम कर सकता है, वह सच्चे केंद्र को नीचे दबा दे सकता है और एक ऐसा अवरोध निर्मित कर सकता है कि तुम्हें भी उस केंद्र का बोध न रहे। क्या तुम्हें अपने जीवन का ऐसा कोई भी क्षण स्मरण है जब तुम सहज और स्वाभाविक थे—जब तुम क्षण में जीते थे, जब तुम अपना जीवन जीते थे, जब तुम किसी का अनुगमन नहीं करते थे?

मैं एक कवि का संस्मरण पढ़ रहा था। उसके पिता की मृत्यु हो गई थी और शव को ताबूत में रख दिया गया था। वह कवि रो रहा था, शोक मना रहा था कि अचानक उसने उठकर अपने मृत पिता के सिर को चूमा और कहा : अब जब कि आप मृत हैं, मैं यह कर सकता हूं। मैं सदा ही आपको आपके सिर पर चूमना चाहता था, लेकिन आपके जीते जी यह असंभव था। मैं आपसे इतना डरता था।

तुम सिर्फ मृत पिता को चूम सकते हो। और यदि कोई जीवित पिता चूमने भी दे तो वह चुंबन झूठा होगा, वह सहज नहीं हो सकता। एक युवा बेटा अपनी मां को भी सहजता से नहीं चूम सकता, क्योंकि सदा कामवासना का भय है। तुम्हारे शरीर स्पर्श नहीं करने चाहिए—मां के साथ भी!

इस तरह सब कुछ झूठा हो जाता है। हर चीज में भय है और आडंबर है, कहीं स्वतंत्रता नहीं है, सहजता नहीं है। और जो सच्चा केंद्र है वह तभी सक्रिय हो सकता है जब तुम सहज और स्वतंत्र हो।

अब तुम इस प्रश्न के प्रति मेरी दृष्टि समझ सकते हो : ‘आत्म—स्मरण की साधना मनुष्य के मन को कैसे रूपांतरित कर सकती है?’

यह साधना तुम्हें फिर से अपने में प्रतिष्ठित कर देगी, यह तुम्हें तुम्हारे केंद्र में फिर से प्रतिष्ठित कर देगी। आत्म—स्मरण के द्वारा तुम अपने अतिरिक्‍त सब कुछ भूल जाते हो; जो तुम्हारे चारों ओर विक्षिप्त संसार है, जो तुम्हारा परिवार है, नाते—रिश्ते हैं, तुम सबको भूल जाते हो। तुम्हें सिर्फ यह स्मरण रहता है कि मैं हूं। यह स्मरण तुम्हें समाज से नहीं मिलता है। यह आत्म—स्मरण तुम्हें उस सबसे अलग कर देगा जो परिधिगत है। और अगर तुम यह स्मरण रख सके तो तुम स्वयं पर लौट आओगे, अपने केंद्र पर प्रतिष्ठित हो जाओगे। अब अहंकार मात्र परिधि पर रहेगा और तुम उसका भी निरीक्षण कर सकोगे। और जब तुम अपने अहंकार को, झूठे केंद्र को देख लोगे तो फिर तुम कभी झूठे नहीं होगे।

तुम्हें इस झूठे केंद्र की जरूरत पड़ सकती है, क्योंकि तुम्हें ऐसे समाज में रहना है जो झूठा है। अब तुम इसका उपयोग तो कर सकोगे, लेकिन तुम इससे तादात्म्य नहीं करोगे। अब यह केंद्र मात्र एक उपकरण होगा, तुम खुद अपने असली केंद्र पर जीओगे। तुम अब झूठे केंद्र का उपयोग सामाजिक सुविधा के लिए करोगे, लेकिन तुम उससे एकात्म नहीं होगे। अब तुम जानते हो कि मैं सहज और स्वतंत्र हो सकता हूं।

आत्म—स्मरण तुम्हें रूपांतरित करता है, क्योंकि वह तुम्हें फिर से स्वयं होने का अवसर देता है। और स्वयं होना आत्यंतिक है, परम है।

समस्त संभावनाओं का, समस्त अंतर्निहित क्षमताओं का शिखर परमात्मा है—या तुम उसे जो भी नाम देना चाहो। परमात्मा कहीं अतीत में नहीं है, वह तुम्हारा भविध्‍न है। तुमने बहुत बार लोगों को कहते सुना होगा कि परमात्मा पिता है। लेकिन ज्यादा अर्थपूर्ण यह कहना होगा कि परमात्मा तुम्हारा पिता नहीं, पुत्र है। क्योंकि वह तुमसे आने वाला है, वह तुम्हारा विकास होगा। मैं कहूंगा कि परमात्मा पुत्र है, क्योंकि पिता अतीत में है और पुत्र भविध्‍न में। तुम परमात्मा हो सकते हो, परमात्मा तुमसे जन्म ले सकता है। और अगर तुम प्रामाणिक रूप से स्वयं हो तो तुमने बुनियादी कदम उठा लिया। तुम भगवत्ता की तरफ बढ़ रहे हो, तुम समग्र स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ा रहे हो।

गुलाम की भांति तुम उधर गति नहीं कर सकते। गुलाम के लिए झूठे व्यक्तित्व के लिए परमात्मा की ओर, तुम्हारी परम संभावना की ओर, तुम्हारी परम आत्मोपलब्धि की ओर, परम खिलावट की ओर जाने का मार्ग ही नहीं है। पहले तुम्हें अपने अस्तित्व में केंद्रित होना होगा। आत्म—स्मरण इसमें सहयोगी है, केवल आत्म—स्मरण सहयोगी है। कोई दूसरी चीज तुम्हें रूपांतरित नहीं कर सकती है। झूठे केंद्र के साथ विकास संभव नहीं है, केवल संग्रह संभव है। विकास और संग्रह के इस भेद को स्मरण में रख लो।

झूठे केंद्र के द्वारा तुम चीजें इकट्ठी कर सकते हो, तुम धन इकट्ठा कर सकते हो, ज्ञान इकट्ठा कर सकते हो, कुछ भी इकट्ठा कर सकते हो। लेकिन इससे कोई विकास संभव नहीं है। विकास तो सच्चे केंद्र से ही घटित होता है। और विकास संग्रह नहीं है, विकास तुम्हें बोझिल नहीं करता है। संग्रह बोझ है।

तुम बिना कुछ जाने बहुत सी चीजों को जान सकते हो। तुम प्रेम को जाने बिना प्रेम के संबंध में बहुत कुछ जान सकते हो। तब वह संग्रह है। और अगर तुम प्रेम जानते हो तो वह विकास है। झूठे केंद्र से तुम प्रेम के संबंध में बहुत कुछ जान सकते हो, लेकिन प्रेम के लिए सच्चा केंद्र जरूरी है। तुम सच्चे केंद्र से ही प्रेम कर सकते हो। सच्चा केंद्र ही विकसित हो सकता है, झूठा केंद्र बिना किसी विकास के बस बड़ा होता जाता है। झूठा केंद्र कैंसर की तरह फैलता जाता है और रोग की तरह तुम्हें बोझिल बना देता है।

लेकिन तुम एक काम कर सकते हो, तुम समग्ररूपेण अपनी दृष्टि बदल ले सकते हो। तुम अपनी दृष्टि झूठे से हटाकर सच्चे केंद्र पर लगा सकते हो। आत्म—स्मरण का यही अर्थ है। तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसमें अपने को स्मरण रखो, स्मरण रखो कि मैं हूं। उसे भूलो मत। तुम जो भी करोगे उसे यह स्मरण एक प्रामाणिकता, एक यथार्थता प्रदान करेगा।

अगर तुम प्रेम कर रहे हो तो पहले स्मरण करो कि मैं हूं। अन्यथा तुम झूठे केंद्र से प्रेम करोगे और झूठे केंद्र से तुम सिर्फ प्रेम का अभिनय कर सकते हो, प्रेम नहीं। अगर तुम प्रार्थना कर रहे हो तो पहले स्मरण करो कि मैं हूं। अन्यथा तुम्हारी प्रार्थना महज मूढ़ता होगी, धोखा होगी। और तुम यह धोखा किसी दूसरे के प्रति नहीं, खुद अपने प्रति करोगे।

तो पहले स्मरण करो कि मैं हूं। और यह स्मरण इतना आधारभूत हो जाए कि तुम्हारी छाया की तरह तुम्हारे साथ रहे। तब यह स्मरण तुम्हारी नींद में भी प्रवेश कर जाएगा और नींद में भी तुम्हें स्मरण रहेगा।

अगर सारा दिन यह स्मरण बना रह सके तो धीरे—धीरे वह तुम्हारे स्‍वप्‍न में भी, तुम्हारी पै नींद में भी प्रविष्ट हो जाएगा और तुम वहां भी जानोगे कि मैं हूं। और जिस दिन तुम अपनी

नींद में भी जान लोगे कि मैं हूं उस दिन तुम अपने केंद्र में प्रतिष्ठित हो गए। अब झूठा केंद्र समाप्त गया, वह तुम पर बोझ नहीं रहा। और अब तुम झूठे केंद्र का उपयोग कर सकते हो, अब वह एक यंत्र भर है। अब तुम उसके गुलाम न रहे, मालिक हो गए।

कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब सब लोग सोते हैं तो योगी नहीं सोता, वह जागता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि योगी नींद के बिना रहता है, नींद तो एक जैविक जरूरत है। उसका अर्थ यह है कि उसे नींद में भी स्मरण रहता है कि मैं हूं। नींद सिर्फ परिधि पर है, केंद्र पर आत्म—स्मरण है।

योगी को नींद में भी अपना स्मरण रहता है और तुम्हें जागते हुए भी अपना स्मरण नहीं रहता। तुम रास्ते पर चल रहे हो और तुम्हें नहीं स्मरण है कि तुम हो।

प्रयोग करके देखो और तुम्हें तुम्हारी गुणवत्ता में बदलाहट महसूस होगी। यह स्मरण रखो कि मैं हूं और अचानक एक नया हलकापन तुम्हें घेर लेता है 1 भारीपन विलीन हो जाता है, तुम निर्भार हो जाते हो। तुम झूठे केंद्र से हटकर फिर सच्चे केंद्र पर प्रतिष्ठित हो जाते हो। लेकिन यह कठिन है, श्रमसाध्य है, क्योंकि हम झूठे केंद्र से इतने बंधे हैं, ग्रस्त हैं। आत्म—स्मरण समय लेगा। लेकिन जब तक वह तुम्हारे लिए सहज नहीं होता, बिना प्रयास के नहीं होता, तब तक रूपांतरण संभव नहीं है। तुम तो अपना स्मरण रखना शुरू करो; अन्यथा कोई रूपांतरण संभव नहीं है।

दूसरा प्रश्न :

कल रात आपने कहा कि जीवन को सदा उसके विधायक आयामों में देखना चाहिए और उसके नकारात्‍मक पक्ष जोर देना ठीक नहीं है। लेकिन क्या यह चुनाव नहीं है? और क्या यह समग्र सत्‍य के, जो है उसके साक्षात्‍कार के विरोध में नहीं जाता है?

ह चुनाव है। लेकिन जो व्यक्ति नकारात्मक है वह अचुनाव में छलांग नहीं ले सकता। यदि यह हो सकता होता तो अच्छा होता, लेकिन यह असंभव है। नकार से अचुनाव में गति असंभव है। क्योंकि नकारात्मक मन का अर्थ है कि तुम केवल कुरूप को देख सकते हो, केवल मृत्यु को देख सकते हो, केवल दुख को देख सकते हो, तुम जीवन के विधायक तत्वों को नहीं देख सकते। और स्मरण रहे, दुख को छोड़ना बड़ा कठिन है।

यह कहना अजीब मालूम पड़ता है, लेकिन मैं कहता हूं कि दुख से छलांग लेना कठिन है, सुख से छलांग लेना आसान है। जब तुम सुखी हो तो छलांग लगाना आसान है, क्योंकि सुख के साथ साहस आता है, सुख के साथ आनंद की बड़ी संभावना का द्वार खुलता है। सुख के साथ सारा जगत अपना घर मालूम पड़ता है। दुख में संसार नर्क मालूम पड़ता है। उसमें आशा नहीं, चारों तरफ निराशा ही निराशा नजर आती है। उस स्थिति में तुम छलांग नहीं ले सकते हो। दुख में आदमी कायर हो जाता है और वह दुख से चिपककर रहना चाहता है, क्योंकि यह दुख जाना—माना है।

दुख में तुम किसी साहसिक अभियान पर नहीं निकल सकते, उसके लिए एक सूक्ष्म सुख जरूरी है। तभी तुम ज्ञात को छोड़ सकते हो। तुम इतने सुखी हो कि अज्ञात से कोई डर न

रहा। और सुख ऐसा गहन है कि तुम जानते हो कि मैं जहां भी रहूंगा सुखी रहूंगा। विधायक चित्त के लिए कोई नर्क नहीं है, तुम जहां होगे वहीं स्वर्ग होगा। तुम अज्ञात में प्रवेश कर सकते हो, क्योंकि अब तुम जानते हो कि स्वर्ग मेरे साथ—साथ चलता है।

तुमने सुना है कि लोग स्वर्ग या नर्क जाते हैं। यह मूढ़ता—भरी बात है। कोई न स्वर्ग जाता है और न कोई नर्क जाता है। तुम अपना स्वर्ग—नर्क अपने साथ लिए चलते हो, तुम जहां जाते हो वहा अपने स्वर्ग—नर्क के साथ जाते हो। स्वर्ग और नर्क कोई द्वार नहीं हैं, वे तुम्हारे भार हैं जिन्हें तुम साथ लिए चलते हो।

केवल नृत्यमग्न हृदय के साथ ही तुम अज्ञात—अनजान के सागर में उतर सकते हो। यही वजह है कि मैं कहता हूं कि नकार से तुम चुनावरहित नहीं हो सकते। तुम अपने दुख से बंधे हो, वह जाना—माना है। तुम दुख से परिचित हो, तुम दुख से जुड़े हो। और अज्ञात की बजाय जाने—माने दुख में रहना बेहतर है। तुम कम से कम दुख से अभ्यस्त हो गए हो, तुम्हें उसके ढंग—ढांचे पता हैं। और तुमने अपने चारों ओर इस दुख से सुरक्षा की व्यवस्था कर रखी है, तुमने एक कवच लगा रखा है। अज्ञात दुख के लिए नयी सुरक्षा व्यवस्था चाहिए, इसलिए सदा अज्ञात दुख से ज्ञात दुख बेहतर है।

सुख के साथ बात बिलकुल बदल जाती है। सुखी आदमी ज्ञात सुख से अज्ञात सुख में जाना चाहता है, क्योंकि ज्ञात सुख उबाने वाला है। ज्ञात दुख से तुम कभी नहीं ऊबते, तुम उसमें रस लेते हो। लोग अपने दुखों का बखान कितना रस लेकर करते हैं। वे अपने दुखों को बढ़ा—चढ़ाकर कहते हैं, उससे उन्हें सूक्ष्म सुख मिलता है। सुख से तुम ऊब जाते हो, इसलिए उससे अज्ञात में गति आसान है।

अज्ञात में आकर्षण है। और अचुनाव अज्ञात का द्वार है। इसलिए नकार से विधायक की ओर और फिर विधायक से अचुनाव में यात्रा करनी है। पहले अपने चित्त को विधायक बनाओ, नर्क से स्वर्ग में गति करो। और तब स्वर्ग से मोक्ष में, परम में गति कर सकते हो। मोक्ष दोनों में से कुछ भी नहीं है; वह न सुख है न दुख है, वह दोनों के पार है। दुख से सुख में गति करो और तब तुम आत्यंतिक में गति कर सकते हो जो दोनों के पार है।

यही कारण है कि सूत्र में ‘कहा गया कि पहले अपने चित्त को नकार से विधायक में बदलों। और यह बदलाहट मात्र दृष्टि की बदलाहट है। जीवन दोनों है, या दोनों नहीं है। वह दोनों है, या दोनों में से कुछ भी नहीं है। यह तुम पर निर्भर है, तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर है। तुम उसे नकारात्मक मन से देख सकते हो और तब वह नर्क जैसा मालूम पड़ेगा। वह नर्क नहीं है, यह सिर्फ तुम्हारी व्याख्या है। तुम अपनी दृष्टि बदलों, विधायक दृष्टि से देखो।

इसे ही नास्तिक और आस्तिक की दृष्टि समझना चाहिए। मैं किसी व्यक्ति को नास्तिक या आस्तिक इसलिए नहीं कहता हूं कि वह ईश्वर में विश्वास करता है या नहीं करता है। मैं उसे आस्तिक कहता हूं जिसकी दृष्टि विधायक है। और जिसकी दृष्टि नकारात्मक है उसे मैं नास्तिक कहता हूं। ईश्वर को इनकार करना नास्तिकता नहीं है; जीवन को इनकार करना नास्तिकता है। आस्तिक वह है जो कि हा कहना जानता है और विधायक दृष्टि से जीवन को देखता है। तब सब कुछ बिलकुल बदल जाता है।

यदि नकारात्मक दृष्टि का व्यक्ति गुलाब के बगीचे में आए जहां अनेक गुलाब हो, तो वहा भी वह कांटे ही गिनेगा। नकारात्मक चित्त के लिए पहली चीज काटा है, वही उसके लिए महत्‍वपूर्ण है। फूल उसके लिए भ्रामक होंगे, कांटे यथार्थ होंगे। वह कांटे गिनेगा। और सच है कि फूल एक और कांटे हजार होते हैं। और जब वह हजार काटे गिन लेगा तो उसे उस एक फूल पर भरोसा भी नहीं होगा। वह कहेगा कि यह फूल भ्रम है। इन कुरूप, हिंसक कांटों के बीच ऐसा सुंदर फूल कैसे हो सकता है! यह असंभव है, यह अविश्वसनीय है। और अगर वह है भी तो उसका अब कोई मतलब नहीं है। एक हजार कांटे गिनने में फूल खो ही जाता है।

विधायक चित्त गुलाब से, फूल से आरंभ करेगा। और एक बार तुमने गुलाब के साथ अपना संवाद बना लिया, एक बार तुमने उसके सौंदर्य को, उसके जीवन को, उसकी अपार्थिव खिलावट को जान लिया तो फिर कांटे भूल जाते हैं। और जिसने गुलाब को उसके सौंदर्य के साथ, उसकी सर्वोच्च संभावना के साथ जान लिया, जिसने उसे उसकी गहराई में देख लिया, उसे अब काटे भी कांटे नहीं मालूम होंगे। गुलाब से भरी आंखें अब और ही हो जाएंगी, अब उसे काटे फूल की सुरक्षा की तरह दिखाई पड़ेंगे। वे अब शत्रु जैसे नहीं मालूम होंगे, वे फूल के हिस्से हो जाएंगे। अब यह चित्त जानेगा कि फूल के होने के लिए काटे जरूरी हैं, कांटे उसकी सुरक्षा करते हैं। वह जानेगा कि इन्हीं कीटों के कारण वह फूल हो सका है। यह विधायक चित्त काटो के प्रति भी अनुगृहीत अनुभव करेगा। और यह दृष्टि यदि और गहरे प्रवेश करती है तो एक क्षण आता है जब कांटे फूल बन जाते हैं। पहली दृष्टि में, नकारात्मक दृष्टि में फूल विदा हो जाते हैं, या फूल काटे बन जाते हैं।

केवल विधायक चित्त से ही तनाव—शून्य चित्त उपलब्ध होता है। नकारात्मक चित्त से तुम तनावग्रस्त बने रहोगे, तुम्हें चारों ओर से दुख ही दुख घेरे रहेंगे। ऐसा नकारात्मक चित्त, क्षिद्रान्वेषक चित्त, दुख ही दुख और नर्क ही नर्क का उदघाटन किए जाता है।

बुद्ध के समय में एक अति प्रसिद्ध गुरु था, जिसका नाम संजय वेलट्ठिपुत्त था। वह परिपूर्ण रूप से नकारात्मक चिंतक था। बुद्ध ने सात नर्कों की बात कही थी। कोई व्यक्ति संजय वेलट्ठिपुत्त के पास आया और उससे कहा कि बुद्ध कहते हैं कि सात नर्क हैं। वेलट्ठिपुत्त ने कहा कि जाकर अपने बुद्ध से कहो कि वे कुछ नहीं जानते हैं, दरअसल सात सौ नर्क हैं! बुद्ध कुछ नहीं जानते हैं। सात ही? सात सौ नर्क हैं और मैं उन्हें गिन चुका हूं।

अगर तुम्हारा चित्त नकारात्मक है तो सात सौ भी ज्यादा नहीं हैं। तुम और ज्यादा खोज लोगे, उनका कोई अंत नहीं है।

विधायक चित्त तनावमुक्‍त हो सकता है। सच तो यह है कि अगर तुम विधायक हो तो तनावग्रस्त नहीं हो सकते और अगर नकारात्मक हो तो तनावमुक्‍त नहीं हो सकते। नकारात्मक चित्त का संबंध ध्यान के साथ नहीं बन सकता, वैसा चित्त ध्यान—विरोधी होता है। वह ध्यान नहीं कर सकता, एक मच्छर भी उसके ध्यान को नष्ट करने के लिए काफी है। नकारात्मक चित्त के लिए शांति का, मौन का द्वार बंद हो जाता है। वह दुख के सृजन के द्वारा अपने को बनाए रखता है। वह अचुनाव की ओर कैसे गति कर सकता है?

कृष्णमूर्ति अचुनाव की बात किए जाते हैं और उनके जो श्रोता हैं वे सब नकारात्मक चित्त के लगि हैं। वे उन्हें सुनते हैं, लेकिन वे उन्हें समझते बिलकुल नहीं। और जब वे नहीं समझते हैं तो कृष्णमूर्ति सिर ठोंक लेते हैं कि वे समझते क्यों नहीं।

विधायक चित्त ही उसे समझ सकता है जो वे कहते हैं। लेकिन विधायक चित्त को कहीं जाने की जरूरत नहीं है—न कृष्णमूर्ति के पास और न रजनीश के पास। सिर्फ नकारात्मक चित्त गुरु की खोज करता है। और नकारात्मक चित्त से अचुनाव की, द्वैत के पार जाने की, नकारात्मक और विधायक दोनों को जीने की बात करना व्यर्थ है। ऐसा नहीं है कि यह सत्य नहीं है, यह सत्य है, लेकिन उसकी बात करना व्यर्थ है। जो सुन रहा है उसका खयाल करना जरूरी है, वह बोलने वाले से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

जैसा मैं देखता हूं तुम नकारात्मक हो। इसलिए पहले तुम्हें विधायक में रूपांतरित करने की जरूरत है। तुम्हें नहीं कहने वाले से ही कहने वाला बनाना है। तुम्हें जीवन को ही की दृष्टि से देखना चाहिए। और हा की दृष्टि के साथ ही यह धरती समग्रत रूपांतरित हो जाती है। और जब तुम्हें विधायक दृष्टि मिल जाए तभी तुम अचुनाव में छलांग लगा सकते हो। और तब वह आसान होगा, बहुत आसान होगा।

दुख का त्याग नहीं हो सकता, वह कठिन है। दुख से तुम्हारा लगाव है। सिर्फ सुख का त्याग हो सकता है। क्योंकि अब तुम जानते हो कि जब मैं नकार का त्याग करता हूं तो मुझे विधायक मिलता है, विधायक सुख प्राप्त होता है। तुम जानते हो कि नकार का त्याग करने से मुझे सुख मिलता है, इसलिए अगर मैं सुख का भी त्याग कर दूं विधायक मन का भी त्याग कर दूं तो मेरे लिए अनंत का द्वार खुल जाएगा। लेकिन सबसे पहले तुम्हें विधायक की प्रतीति जरूरी है। तभी, और केवल तभी, तुम छलांग ले सकते हो।

तीसरा प्रश्न :

अंतिम विधि के प्रसंग में कल आपने बताया कि माया के इस जगत में साधक का आंतरिक चैतन्‍य ही उसका एकमात्र केंद्र है। इस संदर्भ में कृपया समझाएं कि इस माया के जगत में गुरु का महत्व क्या है? उसका काम क्या है?

 

ह माया का जगत तुम्हारे लिए माया नहीं है, तुम्हारे लिए यह बहुत यथार्थ है, सच्चा है। और गुरु का काम तुम्हें यह बताना है कि यह सत्य नहीं है। अभी यह जगत तुम्हारे लिए सत्य है। तुम कैसे सोच सकते हो कि यह माया है? तुम मिथ्या को मिथ्या की तरह तभी जानोगे जब तुम्हें सत्य की झलक मिल जाए; तभी तुलना का उपाय है। तुम्हारे लिए यह जगत माया नहीं है। तुमने सुना है, तुमने पढ़ा है कि यह जगत माया है और तुमने तोते की तरह इसे रट लिया है; और इसलिए तुम भी कहते रहते हो कि जगत माया है।

हर रोज कोई न कोई मेरे पास आता है और कहता है कि जगत माया है। और फिर कहता है कि मेरा मन बहुत चिंताग्रस्त है, तनावग्रस्त है; शात होने का उपाय बताएं। और वह यह भी कहता है कि जगत माया है। अगर जगत माया है तो तुम्हारा मन तनावग्रस्त कैसे हो सकता है? अगर तुमने जान लिया कि जगत माया है तो जगत विदा हो जाएगा और जगत के साथ—साथ उसके सब दुख—संताप विदा हो जाएंगे।

लेकिन तुम्हारे लिए संसार है। तुम नहीं जानते कि संसार माया है। सुबह जब नींद विदा हो जाती है और उसके साथ ही स्‍वप्‍न भी तो क्या तुम स्वप्नों की चिंता लेते हो? क्या तुम परेशान होते हो कि सपने में मैं बीमार था या मर गया था? जब तक स्‍वप्‍न था, तुम परेशान थे कि बीमार हूं,कि मुझे दवा चाहिए, कि मेरे लिए डाक्‍टर को बुला दो। लेकिन सुबह जैसे ही तुम्हारी नींद खुली और सपने विदा हो गए तुम परेशान नहीं हो। अब तुम जानते हो कि यह सपना था और मैं बीमार नहीं हूं।

अगर कोई आकर मुझे कहे कि मैं जानता हूं कि यह सपना था कि मैं बीमार हूं लेकिन मुझे बताएं कि बीमारी से छुटकारे के लिए दवा कहा प्राप्त करूं, तो उसका क्या मतलब होगा? उसका मतलब होगा कि वह अभी भी सोया है, कि वह अभी भी सपने देख रहा है। इसका अर्थ है कि सपना अभी जारी है।

भारत में यह तोता—रटंत कि सारा संसार माया है, लोगों के मन में बहुत गहराई तक प्रवेश कर गई है। लेकिन यह प्रवेश झूठे केंद्र में हुआ है, यह विकास नहीं है। हमने सुना है; उपनिषद, वेद और ऋषि—मुनि सदियों से कहते आ रहे हैं कि संसार माया है। उन्होंने इस धारणा को इतने जोर से प्रसारित—प्रचारित किया है कि जो सोए हैं, जो सपने देख रहे हैं, उन्हें भी लगता है कि हम जागे हुए हैं। लेकिन सारा संसार सोया हुआ है और उनका दुख बताता है कि उनके लिए संसार यथार्थ है, उनका संताप कहता है कि संसार सत्य है।

गुरु का काम है कि तुम्हें सत्य की एक झलक दे। उसका काम तुम्हें सिखाना नहीं, जगाना है। गुरु शिक्षक नहीं है, जगाने वाला है। गुरु तुम्हें सिद्धांत नहीं देता है। अगर वह कोई सिद्धांत देता है तो वह दार्शनिक है। अगर वह संसार को माया कहता है और तर्क—वितर्क करता है, प्रमाणित करता है कि संसार माया है, अगर वह तुम्हें कोई बौद्धिक सिद्धांत देता है, तो वह गुरु नहीं है। वह शिक्षक हो सकता है, किसी विशेष विचारधारा का शिक्षक, लेकिन वह गुरु कतई नहीं है। गुरु सिद्धांत नहीं देता है, वह विधि देता है, उपाय देता है, ताकि तुम नींद से बाहर आ सको।

यही कारण है कि गुरु सदा तुम्हारे सपनों के लिए बाधा बन जाता है और गुरु के साथ रहना कठिन हो जाता है। शिक्षक के साथ रहना बहुत आसान है, वह कभी तुम्हारी नींद में बाधा नहीं डालता। सच तो यह है कि वह तुम्हारे ज्ञान—संग्रह को बढ़ाता है, वह तुम्हारे अहंकार को बढ़ाता है। शिक्षक तुम्हें पंडित बनने में सहायता देता है। उससे तुम्हारा अहंकार तृप्त होता है। अब तुम ज्यादा जानते हो, अब तुम ज्यादा तर्क—वितर्क कर सकते हो, तुम दूसरों को शिक्षा दे सकते हो। लेकिन गुरु सदा उपद्रवी होता है, वह तुम्हारी नींद में, तुम्हारी स्‍वप्‍न—तंद्रा में बाधा बन जाता है। हो सकता है, तुम बहुत सुंदर सपने देख रहे थे, तुम किसी यात्रा पर थे, सुंदर यात्रा पर। गुरु उसमें बाधा डालेगा और तुम नाराज होओगे।

इसलिए गुरु को सदा अपने शिष्यों से खतरा’ रहता है। शिष्य किसी भी क्षण उसकी हत्या कर सकते हैं, क्योंकि वह विध्‍न डालेगा ही। वही तो उसका काम है। वह तुम्हें वैसे ही नहीं रहने दे सकता जैसे तुम हो। क्योंकि तुम गलत हो, झूठे हो। वह तुम्हारे झूठे व्यक्तित्व को मिटाएगा। और यह काम पीड़ादायी है।

यही कारण है कि यदि गहन प्रेम न हो तो यह काम असंभव है। अति घनिष्ठत की, अंतरंगता की जरूरत है; अन्यथा घृणा बीच में आ जाएगी। गुरु तुम्हें अपने निकट नहीं आने देगा, यदि तुमने समर्पण नहीं किया है। अन्यथा तुम शत्रु बनने वाले हो। तुम्हारे पूरी तरह समर्पण करने पर ही गुरु काम कर सकता है। क्योंकि उसका काम आध्यात्मिक सर्जरी है। और शिष्य को बहुत पीड़ा से गुजरना होगा। तो अगर उसका गुरु के साथ गहन आत्मीयता का संबंध नहीं है तो यह काम असंभव है। वह इतनी पीड़ा झेलने को राजी नहीं होगा। वह आनंद की खोज में आया था और गुरु उसे पीड़ा में डालता है! वह सुख का अनुभव लेने आया था और गुरु उसके लिए नर्क निर्मित करता है!

शुरू में तो नर्क ही होगा, क्योंकि तुम्हारी अपनी इमेज चूर—चूर हो जाएगी, तुम्हारी अपेक्षाएं चूर—चूर हो जाएंगी। तुमने जो भी जाना है, उसे तुम्हें फेंक देना होगा। तुम जो भी हो, गुरु उसे मिटाएगा। सच ही तुम्हें मृत्यु से गुजरना है।

भारत में प्राचीन दिनों में हम कहते थे : आचार्यो मृत्यु:। गुरु मृत्यु है। वह है। और जब तक तुम्हारी श्रद्धा समग्र नहीं है, यह सर्जरी असंभव है। क्योंकि आरंभ में तो पीड़ा होगी, तुम्हारे दुख—दर्द उभरेंगे, तुम्हारे दमित नर्क ऊपर आएंगे। अगर गुरु में तुम्हें भरोसा है, गहन श्रद्धा है, तो ही तुम उसके साथ बने रह सकते हो। अन्यथा तुम भाग जाओगे, क्योंकि यह आदमी तुम्हें पूरी तरह अस्तव्यस्त कर रहा है, उपद्रव में डाल रहा है।

तो स्मरण रहे, गुरु का काम है तुम्हें तुम्हारे झूठे केंद्र का बोध कराना। तुम्हारे झूठे केंद्र के कारण तुम्हारा संसार ही झूठा हो गया है। संसार दरअसल माया नहीं है, वह तुम्हारी भ्रांत दृष्टि के कारण माया है। तुम्हारी आंखें सपनों से भरी हैं और तुम चारों ओर अपने सपनों को प्रक्षेपित कर रहे हो। और उससे ही सत्य असत्य हो जाता है। जब तुम्हारी आंखें शुद्ध होंगी, सत्य होंगी, तो यही संसार सत्य हो उठेगा। जब तुम्हारा झूठा केंद्र मिट जाएगा और तुम अपने सच्चे केंद्र पर, अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाओगे, तो यही संसार निर्वाण हो जाएगा।

झेन गुरु निरंतर कहते हैं कि यह संसार ही निर्वाण है, यह संसार ही मोक्ष है।

सब दृष्टि की बात है। झूठी आंखों से सब कुछ झूठा हो जाता है, सच्ची आंखों से सब कुछ सत्य हो जाता है। तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व तुम्हारे चारों ओर झूठा संसार निर्मित कर देता है। और यह मत सोचो कि सब लोग एक ही संसार में रहते हैं। ऐसा नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति अपने ही संसार में रहता है। उतने ही संसार हैं जितने मन हैं, क्योंकि प्रत्येक मन अपनी दुनिया बना लेता है। अगर तुम परिवार में भी रहते हो तो पति अपनी दुनिया में रहता है और पत्नी अपनी दुनिया में रहती है। और रोज—रोज इन दुनियाओं के बीच टकराहट होती रहती है। वे कभी मिलती नहीं, वे बस टकराती हैं। मिलन असंभव है। मनों का मिलन नहीं हो सकता, सिर्फ टकराहट, सिर्फ संघर्ष होता है। जब मन नहीं है तब मिलन हो सकता है।

पत्नी अपनी ही दुनिया में रहती है, अपनी ही अपेक्षाओं में जीती है। उसके लिए वह असली पति नहीं है जो वस्तुत: संसार में है, वह पति की अपनी ही एक इमेज रखती है। पति भी अपनी दुनिया में रहता है और असली पत्नी उसकी पत्नी नहीं है। उसके पास भी पत्नी की एक इमेज है और जब कभी यह पत्नी इस इमेज से कम पड़ती है, द्वंद्व और संघर्ष का, क्रोध और घृणा का दौर शुरू हो जाता है। पति पत्नी की अपनी इमेज को प्रेम करता है, पत्नी पति की अपनी इमेज को प्रेम करती है। और वे दोनों इमेज काल्पनिक हैं, झूठी हैं, वे कहीं भी नहीं हैं। असली पति भी मौजूद है, असली पत्नी भी मौजूद है, लेकिन उनका मिलना कहीं नहीं हो सकता। क्योंकि इन दो असली व्यक्तियों के बीच में कल्पना के पति—पत्नी आ जाते हैं। वे सदा हैं। और वे असली को, वास्तविक को नहीं मिलने देते हैं।

प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति अपने ही संसार में रहता है, वह अपने ही सपनों में, अपेक्षाओं में, प्रक्षेपणों में जीता है। तो जितने मन हैं उतने ही संसार हैं; और वे सब संसार माया हैं। जब तुम्हारा झूठा केंद्र विलीन होता है, पूरा जगत बदल जाता है। तब जो संसार है, वह सत्य है। तब तुम पहली दफा चीजों को वैसी देखते हो जैसी वे हैं। फिर कोई दुख नहीं रहता, क्योंकि माया के साथ अपेक्षाएं भी जाती रहती हैं। और सत्य में दुख नहीं होता है। तब व्यक्ति स्पष्ट देखता है कि ऐसा है, ऐसा तथ्य है। सिर्फ झूठ के साथ समस्याएं खडी होती हैं। और झूठ तुम्हें तथ्यों को कभी नहीं जानने देते हैं। मन के ये झूठ ही माया हैं।

गुरु का काम इतना है कि वह तुम्हारे झूठों को चकनाचूर कर दे, ताकि तथ्य तुम्हें उपलब्ध हो जाए और तुम तथ्य को उपलब्ध हो जाओ। यह तथ्यता ही, यह तथाता ही सत्य है। और जब तुम तथाता को जान लोगे तो गुरु भी वही नहीं रह जाएगा।

अभी यदि तुम गुरु के पास भी आते हो तो तुम गुरु की अपनी ही इमेज लेकर आते हो। कोई मेरे पास आता है तो वह मेरी एक इमेज लेकर आता है। और जब मैं उसकी अपेक्षा से मेल नहीं खाता तो वह कठिनाई में पड़ता है। लेकिन मैं उसकी अपेक्षाओं को कैसे पूरी कर सकता हूं? और अगर मैं सबकी अपेक्षाएं पूरी करने की चेष्टा करूं तो मैं उपद्रव में पडूंगा। हरेक शिष्य सोचता है कि मुझे ऐसा—होना चाहिए, वैसा होना चाहिए उसकी गुरु की अपनी ही धारणा है। अगर मैं उसकी धारणाओं की पूर्ति नहीं करता हूं तो वह निराश होता है। लेकिन ऐसा होना अनिवार्य है। शिष्य मन लेकर आता है; और यही समस्या है। मुझे उसके मन को बदलना है, पोंछ देना है। शिष्य मन लेकर आता है और उसी मन से मुझे देखता है।

मैं एक परिवार के साथ ठहरा हुआ था। जैन परिवार था, वे लोग रात में भोजन नहीं करते थे। उस परिवार के जो वयोवृद्ध थे, पितामह थे, वे मेरी पुस्तकों के प्रेमी थे। मुझे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था; और किताब से प्रेम करना आसान है, किताब मुर्दा चीज है। वे मुझे मिलने आए। वे इतने वृद्ध थे कि अपने कमरे से उठकर आना भी उनके लिए कठिन था। वे बानबे वर्ष के थे। और वे मुझे मिलने आए। मैंने उनसे कहा कि मैं ही आपके कमरे में आ जाऊंगा; लेकिन उन्होंने कहा कि नहीं, मैं आपका बहुत आदर करता हूं मैं ही आऊंगा।

वे आए और उन्होंने मेरी भूरि— भूरि प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आप बिलकुल तीर्थंकर जैसे हैं, जैनियों के सर्वोच्च तीर्थंकर महावीर जैसे हैं। जैनियों के सवोंच्च गुरु तीर्थंकर कहलाते हैं। तो उन्होंने कहा कि आप तीर्थंकर जैसे हैं। वे मेरी प्रशंसा ही प्रशंसा करते रहे।

इसी बीच सांझ उतर आयी और अंधेरा छाने लगा। घर के अंदर से कोई आया और मुझसे बोला कि देर हो रही है, आप जाकर भोजन कर लें। मैंने उससे कहा कि जरा रुको, इन वृद्ध सज्जन को अपनी बात पूरी कर लेने दो, फिर मैं भोजन कर लूंगा। उन वृद्ध ने कहा : आप क्या कह रहे हैं? क्या आप रात होने पर भोजन करेंगे? मैंने कहा कि मेरे लिए सब ठीक है। तो उन वृद्ध सज्जन ने कहा कि मैं अपने वचन वापस लेता हूं आप तीर्थंकर नहीं हैं। जो व्यक्ति इतना भी नहीं जानता कि रात में खाना महापाप है, वह और क्या जानेगा!

अब मेरे साथ इस व्यक्ति का मिलन नहीं हो सकता, वह असंभव है। यदि मैं रात में भोजन नहीं लेता तो मैं तीर्थंकर था। मैंने अभी भोजन लिया भी नहीं था, मैंने कहा भर था कि मैं रात में भोजन लूंगा और एकाएक मैं तीर्थंकर न रहा। उन वृद्ध सज्जन ने मुझे कहा कि मैं आपसे कुछ सीखने आया था, लेकिन अब वह असंभव है। अब मुझे लगता है कि मैं ही आपको कुछ सिखाऊं।

जब यह संसार माया हो जाता है तो तुम्हारा गुरु भी उसका एक हिस्सा होगा और वह दृष्टि भी विलीन होगा। इसलिए जब शिष्य जागता है तो गुरु नहीं रहता है। यह बात परस्पर विरोधी मालूम पड़ेगी। जब शिष्य सच में ही बोध को उपलब्ध होता है तो गुरु नहीं रहता।

बौद्ध संत सरहा के अनेक सुंदर गीत हैं, वह प्रत्येक गीत के अंत में कहता है : और सरहा विलीन हो गया। वह कुछ उपदेश करता है, कुछ समझता है। वह कहता है. न संसार है और न निर्वाण है, न शुभ है और न अशुभ है। पार जाओ, और सरहा विलीन होता है।

अब तक यह पहेली रही है कि सरहा क्यों बार—बार कहता है कि सरहा विलीन होता है। अगर तुम सच ही सरहा के इस गीत को, उसके इस उपदेश को उपलब्ध हो जाओ कि न शुभ है न अशुभ, न संसार है न निर्वाण, अगर शिष्य सचमुच इस सत्य के प्रति जाग जाए तो सरहा विलीन हो जाएगा। गुरु कहां रहेगा? गुरु तो शिष्य के संसार का हिस्सा था। अब न कोई गुरु होगा और न कोई शिष्य। वे एक हो जाएंगे। जब शिष्य जागता है तो वह गुरु हो जाता है और सरहा विलीन हो जाता है। तब गुरु कहां? गुरु भी तुम्हारे स्‍वप्‍न का, माया—जगत का हिस्सा है।

लेकिन इसके कारण अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। कृष्णमूर्ति कहे जाते हैं कि कोई गुरु नहीं है। और वे सही हैं। यह परम सत्य है। जब तुम बुद्ध हो गए तो तुम ही गुरु हो, कोई दूसरा गुरु नहीं है। लेकिन यह तो परम सत्य है और इस सत्य के घटित होने के पूर्व गुरु है क्योंकि शिष्य है। शिष्य ही गुरु को निर्मित करता है; वह शिष्य की जरूरत है।

तो स्मरण रहे, अगर तुम्हें मिथ्या गुरु मिलता है तो उसका अर्थ है कि तुम्हें मिथ्या गुरु की ही पात्रता थी। मिथ्या शिष्य सही गुरु को नहीं पा सकता है। तुम अपना गुरु आप निर्मित करते हो। गुरु छोटा है या बड़ा है, यह भी तुम पर निर्भर करता है। तुम्हें तुम्हारी पात्रता के मुताबिक ही गुरु मिलता है। अगर तुम्हें गलत व्यक्ति मिल जाता है तो उसका कारण तुम हो। उसके लिए वह गलत व्यक्ति नहीं, तुम ही जिम्मेवार हो।

गुरु भी तुम्हारे मन का हिस्सा है, वह तुम्हारे स्‍वप्‍न—जगत का अंग है। लेकिन जब तक तुम बुद्ध नहीं होते, तुम्हें कोई चाहिए जो तुम्हें हिलाए—डुलाए, जो तुम्हारी सहायता करे। गुरु वह है जो तुम्हें विधियां देता है, उपाय बताता है। और वह सिर्फ शिक्षक है जो तुम्हें सिद्धांत देता है, शिक्षा देता है। लेकिन हो सकता है, अभी वही तुम्हारी जरूरत हो।

इसे इस भांति सोचो। सपने में भी कुछ है जो तुम्हें सपने से बाहर आने में मदद कर सकता है। सपने में भी कुछ तुम्हें उससे बाहर निकलने में सहयोगी हो सकता है। तुम नींद में उतरते समय इसका प्रयोग कर सकते हो। अपने मन में यह बात बार—बार दोहराओ कि जब भी कोई स्वप्न आएगा, मेरी आंखें खुल जाएंगी। लगातार तीन सप्ताह तक नींद में उतरते समय यह बात दोहराते रहो : जब भी स्‍वप्‍न आएगा, मेरी आंखें खुल जाएंगी, अचानक मैं जाग जाऊंगा। और तुम जाग जाओगे।

स्वप्न से भी तुम किसी विधि के जरिए जाग सकते हो। ठीक नींद में उतरते हुए अपने

से कहो : राम—अगर तुम्हारा नाम राम है—मुझे पांच बजे सुबह जगा देना। .इसे दो बार कहो और फिर चुपचाप सो जाओ। ठीक पाँच बजे कोई तुम्‍हें जगा देगा। सपने में भी, नींद में भी जगाने के उपाय काम में लाए जा सकते हैं।

और वही बात आध्यात्मिक नींद के साथ भी लागू होती है। गुरु तुम्हें विधि दे सकता है जो इसमें सहयोगी हो सकती है। तब जब भी तुम स्‍वप्‍न में उतरने लगोगे तो वह विधि या तो उतरने नहीं देगी, या उतर जाने पर उससे अचानक जगा देगी। और जब यह जागरण तुम्हारे लिए स्वाभाविक हो जाता है तो फिर गुरु की जरूरत नहीं रही। जब तुम जाग गए तो गुरु विदा हो जाता है। लेकिन तुम तब भी गुरु के प्रति अनुगृहीत अनुभव करोगे, क्योंकि उसने सहायता की। सारिपुत्त बुद्ध के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में था। वह स्वयं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, वह स्वयं बुद्ध हो गया। तब बुद्ध ने सारिपुत्त से कहा : अब तुम परिभ्रमण पर निकल सकते हो, अब तुम्हें मेरी सन्निधि की जरूरत न रही। तुम खुद ही गुरु हो गए हो, इसलिए जाओ और दूसरों को नींद से बाहर आने में सहायता पहुंचाओ।

सारिपुत्त ने बुद्ध से विदा लेते हुए उनके चरण छुए। किसी ने उससे पूछा कि तुम तो खुद बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए, फिर बुद्ध के चरण क्यों छूते हो? सारिपुत्त ने कहा कि बुद्ध के चरण छूने की जरूरत तो अब नहीं है, लेकिन यह उपलब्धि उनके कारण ही घटित हुई। अब जरूरत तो नहीं रही, लेकिन यह स्थिति उनके कारण ही संभव हो सकी।

सारिपुत्त भ्रमण पर निकल गया, लेकिन वह जहां भी होता वहां रोज सुबह वह उस दिशा में साष्टांग लेटकर नमस्कार करता जिस दिशा में बुद्ध होते, संध्या भी वह बुद्ध को ऐसे ही साष्टांग नमस्कार करता। लोग सारिपुत्त से पूछते कि यह तुम क्या कर रहे हो? तुम किसे दंडवत करते हो? क्योंकि बुद्ध तो यहां से बहुत दूर हैं। सारिपुत्त कहता : मैं अपने उन गुरु को दंडवत कर रहा हूं जो विलीन हो गए हैं। अब मैं खुद गुरु हो गया हूं लेकिन उनके बिना यह संभव नहीं होता, यह उनके करण ही संभव हुआ है।

तो जब गुरु विलीन भी हो जाता है तब भी शिष्य उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव करता है—आत्यतिक कृतज्ञता जो संभव है। जब तुम सोए हुए हो तो कोई चाहिए जो तुम्हें हिलाए, तुम्हें जगाए। और अगर तुम ऐसा करने देते हो तो वही समर्पण है। अगर तुम कहते हो कि ठीक है, मैं तैयार हूं कि तुम मेरी नींद अस्तव्यस्त करो—तो यही समर्पण है, श्रद्धा है। श्रद्धा का अर्थ है कि अब यदि यह व्यक्ति गड्डे में भी ले जाएगा तो मैं जाने के लिए तैयार हूं। अब तुम उस पर कोई आपत्ति नहीं उठाओगे। वह तुम्हें जहां भी ले जाए, तुम उस पर भरोसा करोगे कि वह तुम्हारा कुछ नुकसान नहीं करेगा।

और अगर तुम्हें भरोसा नहीं है तो कोई यात्रा संभव नहीं है, क्योंकि तुम्हें डर है कि यह व्यक्ति नुकसान पहुंचा सकता है। तुम अपने ढंग से सोचते हो कि यह व्यक्ति कई तरह से मुझे नुकसान पहुंचा सकता है। और अगर तुम सोचते हो कि मुझे अपनी सुरक्षा करनी चाहिए तो कोई विकास संभव नहीं है। अगर तुम्हें अपने सर्जन पर भरोसा नहीं है तो तुम उसे अपने को बेहोश नहीं करने दोगे। तुम नहीं जानते कि वह क्या करने वाला है! और तुम कहोगे कि आप आपरेशन तो करें, लेकिन मुझे होश में रहने दें, ताकि मैं देखता रहूं कि आप क्या कर रहे हैं। मैं आप पर भरोसा नहीं कर सकता।

लेकिन तुम अपने सर्जन पर भरोसा करते हो। वह तुम्हें बेहोश कर देता है, क्योंकि बात ही ऐसी है कि होश में सर्जरी असंभव है, तुम्हारा होश उसमें बाधा डालेगा। इसीलिए कहते हैं, श्रद्धा अंधी है। उसका अर्थ है कि तुम बेहोश होने को भी, अंधे होने के भी राजी हो। गुरु तुम्हें जहां ले जाना चाहे, तुम वहां जाने को तैयार हो। तो ही गहरी, आंतरिक सर्जरी संभव होती है। और यह न केवल शारीरिक सर्जरी है, यह सर्जरी मानसिक है, मनोवैज्ञानिक है। बहुत पीडा होगी, बहुत संताप होगा, क्योंकि बहुत रेचन की जरूरत है। तुम्हें तुम्हारे उस केंद्र पर फिर से वापस लाना है, जिसे तुम बिलकुल भूल गए हो। तुम्हें तुम्हारी उन जड़ों से फिर से जोड़ना है जिनसे तुम मीलों दूर निकल आए हो। यह काम श्रमसाध्य है, यह काम कठिन है। इसमें वर्षों भी लग सकते हैं। लेकिन यदि शिष्य समर्पण करने को तैयार है तो यह क्षणों में भी घटित हो सकता है। यह समर्पण की गहराई पर निर्भर है।

बहुत समय व्यर्थ चला जाता है जो कि आवश्यक नहीं है। गुरु को धीरे— धीरे चलना पड़ता है, ताकि तुम्हें ज्यादा भरोसे के लिए तैयार किया जा सके। और उसे सिर्फ श्रद्धा निर्मित करने के लिए अनेक अनावश्यक काम करने पड़ते हैं। सर्जरी करने के लिए गुरु को अनेक गैर—जरूरी काम करने पड़ते हैं जिन्हें छोड़ा जा सकता है। उन पर समय और श्रम बेकार करने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन सिर्फ श्रद्धा पैदा करने के लिए वे जरूरी हो जाते हैं।

मैंने सरहा की बात की। सरहा बौद्ध परंपरा के चौरासी सिद्धों में से एक है। सरहा उन शिष्यों से बोल रहा है जो गुरु हो गए हैं। वह कहता है. इस ढंग से आचरण करो कि दूसरे तुम पर श्रद्धा कर सकें। मैं जानता हूं कि अब तुम्हें नीति—नियम की जरूरत नहीं रही, तुम उनके पार जा चुके हो। तुम अब जो चाहो कर सकते हो। तुम अब जो चाहो हो सकते हो। अब तुम्हारे लिए न किसी व्यवस्था की जरूरत है और न किसी नैतिकता की। लेकिन तो भी इस ढंग से व्यवहार करो कि लोग तुम पर भरोसा कर सकें।

इसीलिए महान गुरुओं ने समाज—स्वीकृत आचरण अपनाए हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें उसकी जरूरत थी; वह केवल एक अनावश्यक काम है जो श्रद्धा पैदा करने के लिए किया जाता है। तो अगर महावीर जैनों की बनायी व्यवस्था के अनुसार आचरण करते हैं तो वह इसलिए नहीं कि उसकी कोई आंतरिक जरूरत है। वे वैसा केवल इसलिए करते हैं ताकि जैन उनका अनुसरण कर सकें, उनके शिष्य बन सकें, उन पर श्रद्धा कर सकें।

इसीलिए जब कोई गुरु नए ढंग का आचरण करने लगता है तो समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। जीसस ने नए ढंग का आचरण किया जो कि यहूदी जाति के लिए अनजान था। उसमें कुछ गलत नहीं था, लेकिन वह समस्या बन गया, यहूदी उन पर भरोसा नहीं कर सके। उनके अतीत के गुरुओं का आचरण भिन्न था और जीसस का आचरण बिलकुल भिन्न था। उन्होंने खेल के नियमों का पालन नहीं किया, फलत: यहूदी उन पर श्रद्धा नहीं कर सके। उन्होंने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया।

लेकिन जीसस ने ऐसा व्यवहार क्यों किया? भारत इसका कारण था। जेरुसलम में प्रकट होने के पहले जीसस वर्षों भारत में रहे थे। उनकी शिक्षा—दीक्षा यहां एक बौद्ध मठ में हुई थी। और जहां बौद्ध समाज नहीं था, वहां भी उन्होंने बौद्ध आचार बरतने करने की चेष्टा की। यहूदी समाज में वे ऐसे व्यवहार करते थे जैसे किसी बौद्ध समाज में करते! और उससे सब

समस्या उठ खड़ी हुई। वे गलत समझे गए और उनकी हत्या कर दी गई। और कारण सिर्फ इतना था कि यहूदी उन पर भरोसा नहीं कर सके।

गुरु को नाहक ही अपने चारों ओर बहुत सी चीजें खड़ी करनी पड़ती हैं, बहुत से व्यर्थ के काम करने पड़ते हैं, सिर्फ इसलिए कि शिष्यों में भरोसा पैदा हो। उसके बावजूद समस्याएं खड़ी होती हैं, क्योंकि हरेक शिष्य अपनी अपेक्षाएं लेकर आता है कि गुरु को ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए।

समर्पण का अर्थ है कि तुम अपनी अपेक्षाएं छोड़ देते हो और गुरु को वह होने देते हो जो वह होना चाहता है, गुरु को वह करने देते हो जो वह करना चाहता है। अगर उससे पीड़ा होती है तो तुम उसके लिए राजी हो। अगर वह तुम्हें मार डाले तो तुम उसके लिए भी तैयार हो। क्योंकि अंततः वह तुम्हें गहन मृत्यु में ही ले जाने वाला है। इसके बाद ही तुम्हारा पुनर्जन्म संभव है, तुम द्विज हो सकते हो। पुराने व्यक्तित्व के सूली पर चढ़ने के बाद ही पुनर्जन्म संभव है, नवजीवन संभव है।

आज इतना ही।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–11)

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स्‍वस्‍थ हो जाना उपनिषद् है—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

प्‍यारे ओशो!

तैत्‍तरीयोपनिषद में एक कथा है कि गुरु ने शिष्‍य से नाराज होकर

उसे अपने द्वारा सिखाई गयी विद्या त्‍याग देने को कहा।

तो ‘एवमस्‍तु’ कहकर शिष्‍य ने विद्या को वमन कर दिया,

जिसे देवताओ ने तीतर का रूप धारण कर एकत्र कर लिया।

      वहीं तैत्‍तरीयोपनिषद् कहलाया।

प्‍यारे ओशो! इस उच्‍छिष्‍ट ज्ञान के संबंध में समझाने की कृपा करें।

जिनस्वरूप! इस संबंध में बहुत—सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात यह है कि गुरु नाराज नहीं होता। दिखाए भला, अभिनय भला करे, नाराज नहीं होता। जो अपने से राजी हो गया, अब किसी और से नाराज नहीं हो सकता है। वह असंभावना है। इसलिए गुरु नाराज हुआ हो तो गुरु नहीं था।

‘गुरु’ शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। गुरु का अर्थ अध्यापक नहीं। गुरु का अर्थ शिक्षक नहीं, आचार्य नहीं। गुरु बनता है दो शब्दों से—गु और रु। गु का अर्थ होता है अंधकार, रु का अर्थ होता है दूर करनेवाला। और क्रोध तो अंधकार है। यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई कहे कि दीए के पास अंधकार इकट्ठा हो गया। गुरु और नाराज हो जाए, क्रुद्ध हो जाए—यह स्वभाव के नियम के अंतर्गत आता नहीं। यह जीवन का आधारशिलाओं के विपरीत है।

लेकिन हम ऐसे गुरुओं के संबंध में सुनते रहे हैं, जो नाराज हो जाते हैं। दुर्वासा की कथाएं हैं। वे कथाएं केवल इतना ही कहती हैं कि हमने भूल से किसी शिक्षक को गुरु समझ लिया था। और यह भूल आसान है, क्योंकि शिक्षक वे ही शब्द बोलता है जो गुरु; शायद गुरु से भी ज्यादा सुसंबद्ध उसकी तर्कसरणी हो। गुरु तो थोड़ा अटपटा होगा। इसलिए अटपटा होगा कि जिसने सत्य को जाना है, उसके जीवन में सारे विरोधाभास एक ही ऊर्जा में लीन हो जाते हैं। उसके जीवन में जीवन और मृत्यु का मिलन हो जाता है। उसके अस्तित्व में पदार्थ और आत्मा का भेद नहीं रह जाता। उसकी चर्या में सार और असार में कोई चुनाव नहीं बचता। उसके लिए सोना—मिट्टी; और मिट्टी—सोना। उसके लिए संसार—मोक्ष; और मोक्ष—संसार।

झेन फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा : ‘मोक्ष के संबंध में कुछ कहें।’

बोकोजू ने कहा : ‘संसार मोक्ष है।’

यह केवल कोई गुरु ही बोल सकता है; कोई शिक्षक बोलने की इतनी छाती कहीं रखता—इतनी विराट छाती कि जिसमें मोक्ष को संसार कहा जा सके, आसान मामला नहीं है। विराट के मिलन पर ही संभव हो सकती है यह अभूतपूर्व घटना।

यह जो तैत्तरीय उपनिषद्में कथा है, इसमें गुरु नहीं हो सकता, शिक्षक रहा होगा। सुंदर शिक्षक रहा होगा। शिक्षा देने की कला में निष्णात रहा होगा। और सौ गुरुओं में निन्यान्नबे केवल शिक्षक होते हैं। कोई गीता में पारंगत होता है, कोई वेद में, कोई कुरान में, कोई बाइबिल में—मगर ये सब शिक्षक हैं। गुरु तो वह जो परमात्मा को पीकर बैठा है। गुरु तो वह जिसके पीछे परमात्मा छाया की तरह चले। कबीर ठीक कहते हैं : ‘हरि लागे पाछे फिरत कहत कबीर—कबीर!’ कबीर कहते हैं : ‘मैं तो फिक्र भी नहीं करता। क्या लेना—देना मुझे हरि से? मगर हरि मेरे पीछे लगे फिरते हैं। जहां जाता हूं वहीं लगे फिरते हैं—जाग तो, सोऊ तो। और दिन—रान धुन लगाए रखते हैं—कबीर—कबीर!

भक्तों ने तो परमात्मा को बहुत पुकारा है, लेकिन यह छाती कबीर की किसी गुरु की हो सकती है जो कहे—’हरि लागे पाछे

फिरत कहत कबीर—कबीर!’ तैत्तरीय उपनिषद् का गुरु पहली तो बात गुरु नहीं है। गुरु और कैसा क्रोध! न तो गुरु गुरु है और न शिष्य शिष्य।

शिष्य और विद्यार्थी का भेद वैसे ही समझना जरूरी है जैसे गुरु और शिक्षक का भेद। शिक्षक के पास विद्यार्थी इकट्ठे होते हैं; गुरु के पास शिष्य। गुरु के पास विद्यार्थी पहुंच जाए तो भी टिक नहीं सकता—ज्यादा देर नहीं टिक सकता; टिके भी तो कुछ पाएगा नहीं।

गुणा ने एक प्रश्न पूछा है कि ‘आपकी कुछ बातें तो बुद्धि को रुचती हैं, कुछ बातें नहीं रुचतीं। इसलिए समर्पण पूरा नहीं हो पाता।’

जैसे कि समर्पण भी पूरा और अधूरा हो सकता है! जैसे समर्पण के भी खंड हो सकते हैं! जैसे समर्पण का भी प्रतिशत हो सकता है—दस प्रतिशत, बीस प्रतिशत, पचास प्रतिशत, अस्सी प्रतिशत, निन्यान्नबे प्रतिशत! नहीं गुणा, समर्पण या तो होता है या नहीं होता। गुरु की बात शिष्य को जंचती ही है; दुनिया को न जंचे तो भी जंचती है। तर्क में न बैठे, बुद्धि की पकड़ में न आए, तो भी जंचती है। शिष्य वह है कि जिसके सामने अगर सवाल हो कि गुरु कि बात मानूं या अपने तर्क की, तो वह गुरु की मानता है, तर्क को कहता है, नमस्कार।

विद्यार्थी वह है जो वहा तक शिक्षक के साथ जाता है जहां तक उसका तर्क जाने देता है। विद्यार्थी कभी भी अपने तर्क से एक इंच दूर शिक्षक के साथ नहीं जाता। शिक्षक के साथ जाता ही नहीं, वह तो अपने तर्क का ही भरण—पोषण करता है। वह तो शिक्षक से कुछ ज्ञान, कुछ सूचना एकत्रित करके ले जाएगा। जीवन—रूपांतरण उसकी आकांक्षा नहीं, उसकी अभीप्सा नहीं।

गुणा तो बहुत बर्षों से मुझे जानती है। लेकिन दूरी वैसी की वैसी बनी है और लगता है वैसी की वैसी ही बनी रहेगी। मेरी तरफ से तो पूरी चेष्टा है कि तोड़ दूं दूरी, मगर अगर तेरी बुद्धि को अभी भी निर्णय करता है—कोन—सी बात जंचती है और कोन—सी नहीं जंचती—तो समर्पण अर्सभव है। जहां समर्पण नहीं वहां शिष्यत्व नहीं।

और यह खयाल रखना, गुरु जानकर बहुत—सी ऐसी बातें कहता है जो बुद्धि को जंचेगी नहीं। जानकर कहेगा, क्योंकि वही तो कसौटी है। वही तो परीक्षा है। उसको जो पार कर लेगा, वह शिष्य; जो पार नहीं कर पाएगा, वह विद्यार्थी। गुरु अगर वही—वही कहता रहे जो तुम्हारी बुद्धि को जंचता ही है तो शिष्य और विद्यार्थी में भेद करना ही असंभव हो जाएगा।

विद्यार्थी शिष्य की गरिमा को नहीं पा सकता। विद्यार्थी घिसटता है शिक्षक के प्रति। शिष्य गुरु के आगे नाचता है। गुरु तो इशारा करता है और शिष्य यह गया वह गया! वह यह भी नहीं पूछता—’नक्‍शा कहां है, किस मार्ग से जाऊं, राह में कोई खतरे तो नहीं हैं? सारी सुविधाएं—सुरक्षाए जुटा लूं फिर जाऊंगा। पहले मेरा पूरा तर्क राजी हो जाए, फिर जाऊंगा। थोड़ा और सोच लूं थोड़ा और विचार कर लूं।’

एक महानुभाव ने पूछा है : ‘मैं संन्यास लेना चाहता हूं लेकिन कुछ बातें अड़चन बन जाती हैं। जैसे कि आपने कहा था कि जब तक मैं रहना चाहूंगा? कोई छुरा भी मारे तो भी मुझे मिटा न सकेगा। और जिस दिन मैं न रहना चाहूंगा, उस दिन एक क्षण कोई लाख उपाय करे तो मुझे टिका न सकेगा।’

 

ह बात उनको जंची। संन्यास का भाव उठा होगा तब। फिर अब उनको अड़चन हो गयी, क्योंकि यहां वे देखते हैं कि संन्यासी

सुरक्षा का आयोजन किए हैं, द्वार पर प्रत्येक व्यक्ति का निरीक्षण किया जाता है, पहरेदार हैं। तो अब उनको अड़चन आयी। अब बुद्धि को चिंता शुरू हुई कि मगर छुरा मारने से भी हटाया नहीं जा सकता, तो सुरक्षा का आयोजन क्यों?

उन्होंने बात को अधूरा ही सुना। हम उतना ही सुनते हैं जितना हम सुनना चाहते हैं। मैंने कहा था : ‘छुरा’ मारकर मुझे उठाया नहीं जा सकता। सुरक्षा करके मुझे बचाया नहीं जा सकता। न तो मैं छुरा मारनेवालो को रोकने को कुछ कहूंगा और न सुरक्षा करनेवालों को रोकने को कुछ कहूंगा। जब छुरा मारनेवाले स्वतंत्र हैं तो सुरक्षा करनेवालों को क्यों बाधा देनी?

इतनी अकल उनमें न उठी। इतनी अकल अकल में होती ही नहीं। अकल तो बेअकल है!

महात्मा गांधी की मृत्यु के समय उनके पटशिष्य सरदार वल्लभ भाई पटेल के हाथ में सारी सुरक्षा का आयोजन था। वे गृहमंत्री थे, उपप्रधानमंत्री थे। और सरदार को खबर मिली थी सुनिश्चित स्रोतों से कि गांधी की हत्या का आयोजन किया जा रहा है। एक—दो प्रयास भी हो चुके थे, असफल गए थे। तो सरदार ने जाकर महात्मा गांधी को पूछा कि हम सुरक्षा का आयोजन करें? इस पूछने में ही बेईमानी है। क्योंकि जो बंदूक मारने आ रहे थे वे तो पूछकर आ नहीं रहे थे, जब दुश्मन नहीं पूछ रहा है, तो दोस्त क्यों पूछे? और इस पूछने में बेईमानी है इसलिए कि अगर महात्मा गांधी कहते कि ही सुरक्षा का आयोजन करो, तो सरदार वल्लभभाई पटेल की श्रद्धा ही महात्मा गांधी में खत्म हो जाती कि अरे, यह व्यक्ति कहता था कल तक कि राम जब उठाना चाहेगा तब उठाएगा और अब कहने लगा कि सुरक्षा का इंतजाम करो! सरदार की श्रद्धा ही खिसक गयी होती। सरदार अचेतन मन में तो यही आकांक्षा लेकर गए हतौ कि गांधी कहेंगे कि कोई सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। यह मैं सुनिश्चित रूप से कहता हूं कि वे यही आकांक्षा लेकर गए होंगे कि गांधी कहेंगे, ‘सुरक्षा की क्या आवश्यकता है? परमात्मा सुरक्षा है।’ और वही गांधी ने कहा और सरदार प्रसन्न लौटे। विद्यार्थी के अनुकूल हो गयी बात और सारे देश को अच्छी लगी, कि यह है श्रद्धा! ईश्वर पर कैसी श्रद्धा है! कोई सुरक्षा की जरूरत नहीं!

मगर, नाथूराम गोडसे में जो आया था वह भी ईश्वर है। और सरदार वल्लभ भाई पटेल में जो आया था वह भी ईश्वर है। तुम ईश्वर—ईश्वर में चुनाव कैसे करते हो? नाथूराम गोडसे का ईश्वर कुछ ज्यादा ईश्वर मालूम होता है? मैं इसे श्रद्धा नहीं कहता। मैं तो मानता हूं यह विनम्रता के रूप में छिपा हुआ अहंकार है। मैं तो कहूंगा गांधी में अगर सच में ही श्रद्धा थी तो वे कहते न ‘जो उसकी मरजी! अगर वह किसी को छुरा मारने भेजता है, किसी को गोली चलाने भेजता है और किसी से सुरक्षा करवाता है—जो उसकी मरजी! जो उसकी लीला! मैं तो द्रष्टा हूं देखूंगा। उठ जाऊं तो ठीक, न उठूं तो ठीक। रहा तो उसका काम करूंगा, उठा तो उसका काम करते हुए उठूंगा।’ मैं उसको श्रद्धा कहता।

गांधी श्रद्धालु नहीं हैं। गांधी हत्यारे में तो भरोसा करते हैं; लेकिन रक्षक में नहीं। और सरदार पटेल बिलकुल निश्चित हो गए कि बिलकुल ठीक बात है। सच पूछो तो नाथूराम गोडसे से ज्यादा मोरारजी देसाई और सरदार वल्लभ भाई पटेल, ये दो आदमी महात्मा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। क्योंकि मोरारजी देसाई महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और उनको भी खबर थी कि महाराष्ट्र से ही आयोजन चल रहा है हत्या का। और सरदार वल्लभ भाई पटेल केंद्र के गृहमंत्री थे और उनको भी पता था कि हत्या का आयोजन चल रहा है। लेकिन दोनों चुप बैठे रहे। और चुप बैठने के लिए एक सुंदर सुरक्षा का उपाय मिल गया कि गांधी कहते हैं : ‘क्या करना सुरक्षा का? जब तक उसको रखना है रखेगा, जब हटाना है हटा लेगा।’

मैं कुछ और ढंग से सोचता हूं। जिनसे उसे हटवाना है उनसे हटवाएगा, जिनसे उसे रुकवाना है उनसे रुकवाएगा। न मैं किसी को कहता हूं कि आकर मुझे गोली मारो, न मैं किसी को कहता हूं कि जो गोली आकर मारे उसे रोको। मैं कोन हूं? जिसकी मरजी हो गोली मारे, जिसकी मरजी हो गोली रोके! मेरे लिए दोनों खेल हैं।

मगर जिन महानुभाव ने पूछा है, उनकी संन्यास की धारणा, संन्यास लेने की इच्छा डगमगा गयी कि कैसे संन्यास लेना! संन्यास बुद्धि से नहीं लिए जाते। समर्पण बुद्धि से नहीं होते। संन्यास और समर्पण पर्यायवाची हैं। और शिष्य वही है जो समर्पित है, जो स्वस्थ हो जाना उपनिषद्है संन्यस्त है—जो गुरु के साथ अगम्य में जाने को राजी है। और अगम्य का तुम कैसे पार पाओगे, तर्क से कैसे नापोगे, बुद्धि के तराजू पर कैसे तौलोगे?

……..तो न तो यह गुरु था तैत्तरीय उपनिषद् का व्यक्ति और न उसके पास जो सीखने बैठा था वह शिष्य था। यह शिक्षक था, वह विद्यार्थी था। यह रटी हुई बातें दोहरा रहा था, वह उन बातों को रट रहा था, ताकि कल वह भी शिक्षक हो जाएगा और दूसरों को रटवाएगा। गुरु नाराज हो गया किसी बात से शिष्य पर।

गुरु नाराज नहीं होता शिष्य पर। यह तो असंभव है। शिष्य नाराज नहीं होता गुरु पर; वह भी असंभव है। गुरु की तो बात ही छोड़ दो कि वह नाराज होगा। अरे शिष्य भी नाराज नहीं होता! यह प्रेम की पराकाष्ठा है। यहां कहां नाराजगी का प्रवेश? यह तालमेल का आत्यंतिक रूप है। यहां स्वर टूटते नहीं, छूटते नहीं। यहां लयबद्धता समग्र है, सम्पूर्ण है।

लेकिन विद्यार्थी नाराज हो जाते हैं, जरा—जरा सी बात में नाराज हो जाते हैं। हजारों विद्यार्थी मेरे पास आए और गए—जरा सी बात में। उनको हटाने में देरी नहीं लगती। मुझे जिस दिन विद्यार्थियों को छांटना हो, एक क्षण में छांट देता हूं। अकसर छांटता रहता हूं क्योंकि कचरा—कूडा इकट्ठा होता है तो उसे छांटना ही पड़ता है। कंकड़—पत्थर आ जाते हैं, उनको छांटना ही पड़ता है। और छांटना इतना आसान है, जिसका हिसाब नहीं। एक बात कह दो, वे नाराज हो जाएंगे। फिर जो भागे वे लौटकर न देखेंगे। फिर जिंदगीभर गालियां देंगे। यूं यहां चरणों में गिरने को उत्सुक बैठे थे, एक क्षण में उनका चरणों में गिरना गाली बन सकता है—एक क्षण में! उसमें देर ही नहीं लगती।

यह कथा कहती है, गुरु शिष्य से नाराज हो गया। और नाराज हो, तो गुरु करे क्या? गुरु तो था ही नहीं, करेगा क्या नाराज हो तो? उसने कहा : ‘वापिस कर दे मेरी इस विद्या को, जो मैंने सिखायी है!’ यह केवल शिक्षक ही कह सकता है, क्योंकि गुरु जो .सिखाता है वह वापिस किया ही नहीं जा सकता, न वापिस मांगा जा सकता है। वह तो जीवन रूपांतरण है, उसको वापिस करने का कोई उपाय नहीं है। जिस भोजन को तुमने पचा लिया, जो तुम्हारा रक्त—मांस—मज्जा बन गया, जो तुम्हारी हड्डियों में प्रविष्ट हो गया, जो तुम्हारी आत्मा तक चला गया—उसका वमन कैसे करोगे? हां, जो अनपचा है, जो खून नहीं बना है, जो पत्थर की तरह पेट में पड़ा रह गया है, जो भार है—उसका वमन किया जा सकता है। उसका वमन करने से हल्कापन ही लगेगा। उसका वमन स्वास्थ्यप्रद है।

गुरु नाराज हुआ। उसने कहा ‘मेरी सिखाई विद्या वापिस कर दे।’ ये बातें बचकानी हैं। ये गुरु के मुंह से शोभा नहीं देती। —गुरु, पहली तो बात, कुछ सिखाता ही कहा है? गुरु तो तुम जो सीखे हो, उसको मिटाता है। गुरु शिक्षण नहीं देता। गुरु शिक्षण छीनता है। गुरु शान नहीं देता, गुरु ज्ञान छीनता है। गुरु तुम्हें ज्ञान से मुक्त करता है, निर्दोष करता है। शिक्षक ज्ञान देता है, तो शिक्षक छीन भी सकता है। जो दिया जा सकता है वह छीना भी जा सकता है। गुरु तो कुछ देता ही नहीं, छीनेगा क्या? गुरु तो साफ करता है, कूड़े —करकट से तुम्हें मुक्त करता है। वापिस लेने को तो कुछ है नहीं; दिया ही नहीं कभी।

जिनका मन लोभ से भरा है वे शिक्षकों के पास इकट्ठे होते हैं, क्योंकि वहां कुछ मिलेगा। सिर्फ निर्लोभी गुरु के पास बैठ सकते हैं, क्योंकि वहा कुछ खोना पड़ेगा। कुछ ही नहीं, अंततः स्वयं को खोना पड़ेगा। वहा शून्य होना पड़ेगा। जो शून्य हुआ वही शिष्य है। गुरु के पास से तुम रोज—रोज और—और खाली होकर लौटते हो। बुद्धि चली जाती, तर्क चला जाता, अहंकार चला जाता, इच्छाएं चली जाती हैं, महत्त्वाकांक्षाएं चली जाती हैं, अभीप्साएं चली जाती हैं। संसार ही नहीं, मोक्ष, निर्वाण, सब चला जाता है। कुछ बचता ही नहीं। गुरु कुछ छोडता ही नहीं। उठाता है तलवार और काटता चला जाता है। जब तुम्हारे भीतर सन्नाटा हो जाता है—न कोई शोर, न कोई आवाज—जब वैसी महाशांति तुम्हारे भीतर घनीभूत होती है, तब तुम योग्य हुए शिष्य कहलाने के। अब तुमसे छीनेगा क्या? जो छिनने का था वह तो छीन ही लिया गया।

और इस शून्य को कोई नहीं छीन सकता, क्योंकि शून्य तुम्हारा स्वभाव है। इसका वमन नहीं हो सकता। वमन तो उसका हो सकता है जो पर— भाव है। बाहर से डाला गया है, उसको तुम फेंक सकते हो। लेकिन जो भीतर ही है, जो तुम्हारा अंतर्तम है, उसका वमन नहीं हो सकता।

जिनस्वरूप, तुमने यह कथा उठाकर ठीक किया। यह कथा महत्त्वपूर्ण है। इसमें न तो गुरु गुरु है, न शिष्य शिष्य है। और ‘इसलिए शिक्षक नाराज हो गया विद्यार्थी से, उसने कहा कि लौटा दे मेरी विद्या। क्या बचकानी बातें हैं! क्या टुच्ची बातें हैं! क्या थोथे वक्तव्य हैं! ‘लौटा दे।’ जरा—जरा सी बात मैं —’मैंने दिया, वह लौटा दे।’ यह देना भी सशर्त है कि छीन लूंगा अगर जरा गड़बड़ की; अगर जरा मेरे: विपरीत गया, अनुकूल न हुआ तो छीन लूंगा, वापिस ले लूंगा! यह कैसी विद्या, जो वापिस दी जा सकती है!

इस जगत में जो तुमने ठीक—ठीक .जान लिया है, उसे तुम कैसे वापिस करोगे? जैसे अंधे आदमी की आंख खुल गयी, उसने रोशनी देख ली, अब वह लाख उपाय करे, कैसे वापिस करेगा? वह कितना ही कहे ‘कि मैंने नहीं देखी, मान लिया कि मैंने नहीं देरद्वा; मगर देख तो ली है।

जीवन के परम सत्यों में एक सत्य यह है : जौ जाना जाता है उसे फिर अनजाना नहीं किया जा सकता। और जिसे अनजाना किया जा सकता है उसे तुमने कभी जाना ही नहीं था। जो चीज तुम्हारे रग—रेशे में समा’ जाती है, उसका परित्याग असंभव है। कुछ चीजें तुम्हारे अनुभव में हैं, उनका मैं उल्लेख करूं तो समझ में आ जाए। क्योंकि जो तुम्‍हारे अनुभव में नहीं हैं, उसके’ उल्लेख करने सै कुछ सार नहीं है। तुमने अगर तैरना सीखा है तो का तुम उसे कभी भूल सकते हो? अब तक दुनिया में ऐसा कभी नही हुआ कि कोई तैरना भूल गया हो। चाहै पचास साल न तैरे, तैरना कोई भूलता ही नहीं। असंभव। क्यों? तैरना भूलना असंभव क्यों है? इस पर गहन शौध की जरूरत है कि तैरना भूलना असंभव क्यों है, इसकी विस्मृति क्यों नहीं हो सकती? गणित भूल जाता, भूगोल भूल जाता, इतिहास भूल जाता, विज्ञान भूल जाता, हर चीज भूल जाती हैं—लेकिन तैरना! तैरना नहीं भूलता। राज है। असल में तैरना हम सीखते नहीं, केवल पुनःस्मरण करते हैं। हम उसे जानते ही हैं स्वभाव से। मां के पेट में बच्चा नौ महीने पानी में ही तैरता है। मां के पेट में समुद्र के जल जैसा जल इकट्ठा हो जाता है। वह जो पेट मां का इतना बडा दिखाई पड़ता है, उसमें बच्चे का होना तो कारण होता ही है, ज्यादा कारण होता है बच्चे के तैरने के लिए जल का इकट्ठा होना। और उस जल का जो रासायनिक रूप है, वह वही है जो समुद्र के जल का है। और बच्चे की जो पहली अभिव्यक्ति है वह मछली जैसी है। इसी’ से वैज्ञानिकों ने यह खोज की है कि मनुष्य का जन्म सबसे पहले समुद्र में हुआ होगा। कराड़ों वर्ष हो गए इस बात को हुए, लेकिन मनुष्य सबसे पहले मछली की तरह प्रगट हुआ होगा।

संभवत: हिंदुओं की मत्‍स अवतार के पीछे यही धारणा है। ईश्वर ने पहला अवतार मछली की तरह लिया। यह कहने का एक और ढंग है, मगर बात वही है कि जीवन पहली दाव मछली की तरह उतरा। और हर बच्चे को नौ महीने में, करोड़ों वर्षो में जो मनुष्य—जाति ने यात्रा की है, वह नौ महीने में त्वरा से, तेजी सै पूरी करनी पड़ती है। बच्चे के नौ महीने के विकास के जो अलग—अलग अंग हैं, उनको समझकर हम मनुष्य—जाति के पूरे विकास को समझ सकते हैं। और तब चार्ल्स डारविन सत्य सिद्ध मालूम होता है, क्योंकि बच्चे के जीवन में एक घड़ी आती है मां के पेट में जब वह बंदर जैसा होता है, उसका पूंछ भी होती है। फिर पूंछ गिर जाती है। नौ महीने होते—होते वह मनुष्य की प्रतिकृति में आ पाता है। लेकिन शरुआत होती, है मछली से।

अगर करोड़ों वर्ष पहले आदमी का प्राथमिक जीवन मछली की तरह शुरू हुआ था तो उसके स्वभाव के अंतर्तम में तैरना है। हम भूल गए हैं भाषा, यह और बात है, लेकिन हमारा स्वभाव अर्भा भी उसे याद किए है।

और तैरने मैं हम करते भी क्या हैं! कोई तैरना सिखाता है! वस्तुत: किसी को भी पानी मैं फेंक दो, वह हाथ—पैर तड़फड़ाने लगेगा। वह जरा गैर—ढंग से हाथ—पैर तड़फड़ाता है क्योंकि उसे अभी सलीका नहीं है। थोड़ा इन्हीं हाथ—पैर को ढंग से फेंकने लगे कि तैरना आ गया। जो तैरना सिखाता है वह सत्य को जानता है कि कुल काम इतना ही है कि तैरना सीखनेवाले को यह भरोसा बना रहे कि कोई मेरी रक्षा के लिए मौजूद है, घबड़ाने की कोई जरुरत नहीं; उसका आत्मविश्वास बढ़ जाए। तैरना तो उसके भीतर छिपा है, वह प्रगट हो जाएगा।

जापान. के एक मनोवैज्ञानिक ने छह महीने के बच्चों को तैरना सिखाया है! और अब वह तीन महीने के बच्चों पर प्रयोग कर रहा है। छह महीने के बच्चे तैरने लगते हैं। कल्पनातीत मालूम होती है यह बात। छह महीने का बच्चा कैसे तेलो! लेकिन जब मां के पेट मैं नौ महीने बच्चा तैरता ही रहता है तो छह महीने का भी तैरेगा, तीन महीने का भी तैरेगा, तीन दिन का भी तैरेगा। तैरना हमारा स्वभाव है।

सच्ची विद्या वही है जो हमारे स्वभाव का आविष्कार है। गुरु के पास हमें कुछ सिखला नही जाता, वरन हम जो विस्मरण कर बैठे हैं, उसकी सुरति दिलायी जाती है, उसकी याद दिलायी जाती है। भूली भाषा को गुरु हमारे भीतर पुन: जगा देता है। जो स्वर हमारे सोए पड़े हैं, गुरु के स्वरों की झनकार में झनझना उठते हैं। गुरु गाता है, उसकी अनुगूंज हमारे भीतर भी गुनगुनाहट बन जाती है। गुरु नाचता है। उसके पैरों की झनकार हमारे भीतर के घुंघरुओं को हिला देती है। गुरु सितार बजाता है, उसका तार का छेड़ देना हमारी हृदय—तंत्री पर एक आघात हो जाता है।

विद्या साधारण शिक्षा नहीं है। विद्या से वह जाना जाता है, जिसे हम जानते ही थे और भूल गए हैं। और शिक्षा से वह जाना जाता है, जिसे हम कभी जानते ही नहीं थे, इसलिए कभी भी भूल सकते हैं।

तो इस शिक्षक ने—मैं कहूंगा शिक्षक ने—विद्यार्थी से नाराज होकर कहा कि लौटा दे, मेरी विद्या लौटा दे। क्या करता विद्यार्थी’ भी! उसने ‘एवमस्तु’ कहकर विद्या का वमन कर दिया। यह कहानी बड़ी प्रीतिकर है। उसने उल्टी कर दी कि ले रख, अब और क्या कर सकता हूं? अनपचा तो था ही। बोझ ही हो रहा होगा। उसने उतारकर बोझ रख दिया। उसने कहा. ‘सम्हाल अपना कचरा!’ उसने हल्कापन ही अनुभव किया होगा।

‘और देवताओं ने तीतर का रूप धारण कर उसे एकत्र कर लिया।’ ये देवता भी गजब के लते। हैं! देवताओं से हमने ऐसे—ऐसे काम करवाए हैं जो कोई न करे। अब किसी ने उल्टी की है, इन्होंने तीतर बनकर उसकी उल्टी को भी इकट्ठा कर लिया! इसलिए हम देवताओं को कोई परम अवस्था नहीं मानते।

इस देश के हजारों साल के आध्यात्मिक अनुभवों का यह नतीजा और निष्कर्ष है कि मनुष्य चौराहा है। और जिस व्यक्ति को भी मोक्ष’ की यात्रा पर जाना है, उसे मनुष्य से ही. मोक्ष की यात्रा पर जाना होगा। देवता को भी मनुष्य होना पड़ेगा, तभी वह मोक्ष की यात्रा पर जा सकता है। देवता मनुष्य से ऊपर नहीं है; भिन्न है, मगर ऊपर नहीं है। मनुष्य से ज्यादा सुखी होगा। नर्क में जो हैं, वे मनुष्य से ज्यादा दुखी .हैं। स्वर्ग में जो हैं, वे मनुष्य से ज्यादा सुखी हैं। स्वर्ग यूं समझो संपन्न है, समृद्ध है! नर्क यूं समझो, विपन्न है, दरिद्र है। लेकिन बहुत दरिद्रता का एक खतरा है कि आदमी दरिद्रता सै राजी हो जाता हैं। हम पूरब के देशों में यह देख सकते हैं—लोग दरिद्रता से राजी हो गए हैं! न केवल राजी हो गए हैं, बल्कि अगर तुम उनकी दरिद्रता पर चोट करो तो वे नाराज होते हैं। वे’ तुमसे सघर्ष लेंगे। वे तुमसे लड़ेंगे। वै अपनी दरिद्रता को बचाएंगे। सदियों पुरानी प्राचीन दरिद्रता, सनातन दरिद्रता, उनका सनातन धर्म—कैसे छोड दें! इतनी आसानी से छोड़ दें? दरिद्र—नारायण होने को यूं छोड़ दें, यूं गंवा दें? मुफ्त में नारायण होकर बैठे हैं! कैसे छोड़ दें? नहीं छोड़ा जाता उनसे…!

अब तुम देखते हो, हरिजनों पर इतने अत्याचार होते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं है।

एक मित्र ने पूछा है कि हरिजनों पर अत्याचार हो रहे हैं, उनकी बस्तियां जलायी जा रही हैं, उनके झोपडे जलाए जा रहे हैं। हरिजन मारे जा रहे हैं। उनके कुओं में जहर डाल दिया जाता है। उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार किया जाता है। गर्भवती स्त्रियों के साथ बलात्कार किया जाता है। बलात्कार में उनके बच्चे गिर जाते हैं। यह सब हो रहा है। आप इसे रोकने के लिए कुछ क्यों नहीं करते?

जिन पर हो रहा है, वे कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि हिंदू धर्म का त्याग कर दें। वे इतना नहीं करते तो मैं क्यों करूं कुछ? जिन मूढ़ताओं के कारण उनको सताया जा रहा है, उसी धर्म को वे पकड़े बैठे हुए हैं। मेरे करने से क्या होगा? जिन पंडित पुजारियों के द्वारा यह सारा का सारा उपद्रव आयोजित किया गया है सदियों—सदियों से, वे उन्हीं के चरण धोकर पी रहे हैं, वे उन्हीं की पूजा कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वे उन्हीं मंदिरों में प्रवेश का आग्रह रखते हैं जिन मंदिरों के बैठे देवता उनकी सारी की सारी कठिनाइयों का कारण हैं।

मैं एक गांव में था, उस गांव के हरिजनों ने मुझसे आकर कहा कि आप आए हैं, आपकी लोग बात मानते हैं यहां, हमें मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिला दो। मैंने कहा कि तुम अभी इनसे थके नहीं! इनके ही मंदिर में जाना चाहते हो? उसी मंदिर में जिस मंदिर में वे ही शास्त्र, वे ही देवता, वे ही पुजारी, वे ही पंडित हैं जिन्होंने तुम्हारे प्राणों का शोषण किया है सदियों—सदियों से, थुको इस मंदिर पर! अगर वे तुम से कहें भी कि मंदिर में आओ तो मत जाना। लात मारो इस मंदिर पर!

अरे—उन्होंने कहा—आप कैसी बातें रहे हैं! मंदिर पर और लात मारें, यूके मंदिर पर! आप कहते क्या हैं? क्या आप नास्तिक हैं?

मैं नास्तिक हूं और ये आस्तिक हैं! और तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इनके लिए कुछ क्यों नहीं करता? ये मूढ़ अपनी बीमारियों से, रोगों से चिपके हुए हैं? कोन इनको पकड़ रहा है? ये छोड़ते क्यों नहीं? हटते क्यों नहीं? कोन इन्हें रोक रहा है? और तुम देखते हो, फौरन अंतर हो जाता है वही हरिजन, जिसको तुम अपने साथ गद्दी पर न बिठालते, अगर ईसाई हो जाए और आए तो तुम उठकर खड़े होते हो। कहते हो : ‘ आइए साहब, बैठिए!’ वही सज्जन अब गद्दी पर बिठालने के योग्य हो गए। वही मुसलमान हो जाए तो आप कहते हैं. ‘आइए, मीर साहब ‘!’ नहीं तो सीढ़ियों के बाहर…।

मैं एक मित्र को जानता हूं लियोनर्ड थियोलाजिकल कालेज जबलपुर के वे प्रिंसिपल थे—मैक्‍वान—गुजराती थे। एक दिन मुझे अपने घर ले गए। कहा कि मैं कुछ चीजें दिखाना चाहता हूं। उन्होंने अपनी मां से मुझे मिलाया। उनकी मां काफी उम्र की थी, कोई नब्बे वर्ष की होगी। और उन्होंने अपने पिता की तस्वीर मुझे दिखायी। फिर अपनी लड़की को बुलाया—सरोज मैक्‍वान को। वह अमरीका से अभी—अभी पी. एच. डी. होकर लौटी थी और एक अमरीकन युवक से शादी करके आयी थी। और कहा कि देखें मेरी ये तीन पीढ़िया—यह मेरे पिता, यह मेरी मां, यह मैं, यह मेरी पत्नी, यह मेरी लडकी, यह मेरा दामाद। तीन पीढ़ियों में इतनी क्रांति हो गयी!

बाप उनका भिखमंगा था। वह एक टूटा—फूटा भिक्षापात्र लिए बैठा है—उसकी तस्वीर। वह भूखा ही रहा, भूखा ही जीया, भूखा ही मरा। उसने कभी जीवन में और कुछ न जाना। वह हरिजन था। उसे सिर्फ दुत्कारा गया। जब बाप मर गया तो मां परेशान हो गयी, भूख और परेशानी में ईसाई हो गयी। अभी भी उनकी मां के चेहरे पर दरिद्रता की सारी लकीरें हैं। अभी भी उनकी मां को पहचाना जा सकता है कि हिंदू सनातन धर्म की छाप गयी नहीं है।

मैंने उनसे. पूछा कि तुम्हारी मां ईसाई हो गयी, तो अब तो ये हिंदू धर्म में कोई रस नहीं रखती? वे बोले ‘यह मत पूछो आप, अभी भी हनुमान चलीसा पढ़ती हैं। अभी भी बजरंग बली को मानती हैं।’ खुद एक बड़े कालेज के प्रिंसिपल हैं। पत्नी भी प्रोफेसर है। जोड़ना मुश्किल पड़ता है, क्योंकि जब मां ईसाई हो गयी तो ईसाइयों ने मैक्‍वान को पढ़ने के लिए अमरीका भेज दिया। वहीं वे बड़े हुए, वहीं उन्होंने शादी की। और उनकी लड़की को देखकर तो भरोसा ही न आएगा। सुंदरतम युवतियों में से एक जो मैंने देखी हैं। और ये तीन पीढ़ियों में इतनी क्रांति हो गयी।

हरिजनों को कोन रोक रहा है कि तुम हिंदू घेरे में रहो? इस सड़े घेरे को छोडो। जहां तुमने सिवाय दुख और पीड़ा के कुछ भी नहीं पाया, जहां सिवाय अपमान के, दुत्कार के, लातें खाने के तुम्हें कुछ और मिला नहीं—वहां किस आशा पर रुके हुए हो? जिस राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया, तुम उसी राम की अभी स्तुति कर रहे हो, गुणगान कर रहे हो? संकोच भी नहीं, शर्म भी नहीं! जिस मनु ने तुम्हारी गिनती मनुष्यों में नहीं की है, तुम उसी मनु महाराज के द्वारा निर्मित समाज—व्यवस्था के अंग बने हुए हो? जिन तुलसीदास ने तुम्हें पशुओं के साथ गिना है—ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी—और कहा है कि तुम्हें ताड़ा ही जाना चाहिए, तुम इसके अधिकारी हो; तुम्हें सताया ही जाना चाहिए, यह तुम्हारा अधिकार है; सताया जाना तुम्हारा अधिकार है और हम तुम्हें सताए यह हमारा अधिकार है—तुम इन्हीं तुलसीदास की चौपाइयां रट रहे हो! और उन्हीं के माननेवाले लोग तुम्हारी पत्नियों के साथ व्यभिचार कर रहे हैं—गर्भपात कर रहे हैं, आग लगा रहे हैं, हत्याएं कर रहे हैं, गोलियां चला रहे हैं—और फिर भी तुम उन्हीं के घेरे में रुके रहना चाहते हो!

आदमी दुख से भी राजी हो जाता है, दुख को भी पकड़ लेता है। इसलिए नर्क से कोई छुटकारा नहीं। यह बड़े मजे की बात है कि आदमी सुख से ऊब जाता है, दुख से नहीं ऊबता, यह मनुष्य के मनोविज्ञान के संबंध में एक अपूर्व सत्य है कि मनुष्य दुख से नहीं ऊबता, सुख से ऊब जाता है। दुख में एक आशा रहती है कि शायद कल सुखी हो जाऊं; आज नहीं कल दुख कट ही जाएगा; आखिर कर्म—बंधन कभी तो क्षीण होंगे! लेकिन सुख में सब आशा खो जाती है।

स्वर्ग हमारी कल्पना है—सुखी लोगों की, जहां जिन्होंने खूब पुण्य—अर्जन कर लिया है वे लोग देवी—देवता हो जाते हैं। मगर वे ऊब जाते हैं। ऐसी कथाएं हैं, जिनमें देवता और देवियों ने प्रार्थना की है कि हम पृथ्वी पर वापिस जाना चाहते हैं। लेकिन मैंने ऐसी कोई अब तक कहानी नहीं सुनी न पढ़ी, जिसमें नरक में किसी ने कहा हो कि हम वापिस पृथ्वी पर जाना चाहते हैं। उर्वशी थक जाती है इंद्र के सामने नाचते—नाचते और प्रार्थना करती है कि कुछ दिन की छुट्टी मिल जाए। मैं पृथ्वी पर जाना चाहती हूं। मैं किसी मिट्टी के बेटे से प्रेम करना चाहती हूं। देवताओं से प्रेम बहुत सुखद हो भी नहीं सकता। हवा हवा होंगे। मिट्टी तो है नहीं, ठोस तो कुछ है नहीं। ऐसे हाथ घुमा दो देवता के भीतर से, तो कुछ अटकेगा ही नहीं। कोरे खयाल समझो, सपने समझो। कितने ही सुंदर ही सुंदर लगते हों, मगर इंद्रधनुषों जैसे।

स्वभावत: उर्वशी थक गयी होगी। स्त्रियां पार्थिव होती हैं। उन्हें कुछ ठोस चाहिए। नाचते—नाचते इंद्रधनुषों के पास उर्वशी थक गयी होगी, यहु मेरी समझ में आता है। उर्वशी ने कहा कि मुझे जाने दो। मुझे कुछ दिन पृथ्वी पर जाने दो। मैं पृथ्वी की सौंधी सुगंध लेना चाहती हूं। मैं पृथ्वी पर खिलनेवाले गुलाब और चंपा के फूलों को देखना चाहती हूं। फिर से एक बार मैं पृथ्वी के किसी बेटे को प्रेम करना चाहती हूं।

चोट तो इंद्र को बहुत लगी, क्योंकि अपमानजनक थी यह बात। लेकिन उसने कहा : ‘ अच्छा जा, लेकिन एक शर्त है। यह राज किसी को पता न चले कि तू अप्सरा है। और जिस दिन यह राज तूने बताया उसी दिन तुझे वापिस आ जाना पड़ेगा।’

उर्वशी उतरी और पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। बड़ी प्यारी कथा है उर्वशी और पुरुरवा की! पुरुरवा—पृथ्वी का बेटा; धूप आए तो पसीना निकले और सर्दी हो तो ठंड लगे। देवताओं को न ठंड लगे, न पसीना निकले। मुर्दा ही समझो। मुर्दों को पसीना नहीं आता, कितनी ही गर्मी होती रहे, और न ठंड लगती। तुमने मुर्दों के दांत किटकिटाते देखे? क्या खाक दांत किटकिटाके! और मुर्दा दांत किटकिटाए तो तुम ऐसे भागोगे कि फिर लौटकर नहीं देखोगे। पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। ऐसी सुंदर थी उर्वशी कि पुरुरवा को स्वभावत: जिज्ञासा होती थी—जिज्ञासा मनुष्य का गुण है—कि पुरुरवा उससे बार—बार पूछता था : ‘तू कोन है? हे अप्सरा जैसी दिखाई पड़नेवाली उर्वशी, तू कोन है? तू आयी कहां से? ऐसा सौंदर्य, ऐसा अलौकिक सौंदर्य, यहां पृथ्वी पर तो नहीं होता!’

और कुछ चीजों से वह चिंतित भी होता था। उर्वशी को धूप पड़े तो पसीना न आए। उर्वशी वायवीय थी, हल्की—फुल्की थी, ठोस नहीं थी। प्रीतिकर थी, मगर गुड़िया जैसी, खिलौने जैसी। न नाराज हो, न लड़े—झगड़े। जिज्ञासाएं उठनी शुरू हो गयीं पुरुरवा को।

आखिर एक दिन पुरुरवा जिद ही कर बैठा। रात दोनों बिस्तर पर सोए हैं, पुरुरवा ने कहा कि आज तो मैं जानकर ही रहूंगा कि तू है कोन? तू आयी कहा से? नहीं तू हमारे बीच से मालूम होती। अजनबी है, अपरिचित है। नहीं तू बताएगी तो यह प्रेम समाप्त हुआ। यह तो धमकी थी, मगर उर्वशी घबड़ा गशई और उसने कहा कि फिर एक बात समझ लो। मैं बता तो की, लेकिन बता देते ही मैं तिरोहित हो जाऊंगी। क्योंकि यह शर्त है।

पुरुरवा ने कहा : ‘कुछ भी शर्त हो…।’ उसने समझा कि यह सब चालबाजी है। औरतों की चालबाजिया! क्या—क्या बातें निकाल रही है! तिरोहित कहां हो जाएगी! तो उसने बता दिया कि मैं उर्वशी हूं _ थक गयी थी देवताओं से। पृथ्वी की सौंधी सुगंध बुलाने लगी थी। चाहती थी वर्षा की बूंदों की टपटप छप्पर पर, सूरज की किरणें, चांद का निकलना, रात तारों से भर जाना, किसी ठोस हड्डी—मांस—मज्जा के मनुष्य की छाती से लगकर आलिंगन। लेकिन अब रुक न सकूंगी।

पुरुरवा उस रात सोया, लेकिन उर्वशी की साड़ी को पकड़े रहा रात नींद में भी। सुबह जब उठा तो साड़ी ही हाथ में थी, उर्वशी जा चुकी थी। तब से कहते हैं _ पुरुरवा घूमता रहता है, भटकता रहता है, पूछता फिरता है : ‘उर्वशी कहां है?’ खोज रहा है।

शायद यह हम सब मनुष्यों की कथा है। प्रत्येक आदमी उर्वशी को खोज रहा है। कभी—कभी किसी स्त्री में धोखा होता है कि यह रही उर्वशी, फिर जल्दी र्हा? धोखा टूट जाता है। हनीमून पूरा होते—होते ही टूट जाता है। जो बहुत होशियार हैं, हनीमून पर जाते ही नहीं, कि न जाएंगे हनीमून पर, न टूटेगा।

चंदूलाल का विवाह हुआ। बड़ा शोरगुल मचा रहे थे कि हनीमून पर शिमला जा रहे हैं, शिमला जा रहे हैं, शिमला जा रहे हैं! मैंने पूछा : ‘कब जा रहे हो?’

उसने कहा कि बस एक—दो दिन में जाता हूं। दों—चार दिन बाद मुझे फिर मिल गए, मैंने पूछा. ‘चंदूलाल, शिमला नहीं गए?’ कहा कि पत्नी को भेज दिया है। मैंने कहा : ‘पली को तुमने भेज दिया, हनीमून पर, अकेले ही!’

बोले : ‘शिमला मैं तो पहले ही देख चुका हूं अब दोबारा जाने की क्या जरूरत है? अब पत्नी देख आएगी।’

ऐसा हनीमून टिकेगा। मारवाड़ी का हनीमून टिक सकता है। गए ही नहीं तो टूटेगा क्या खाक! इसलिए विवाह टिकते हैं इस दुनिया में, प्रेम नहीं टिकता, क्योंकि प्रेम में एक छलांग है आकाश की तरफ। गिरना पड़ेगा। विवाह में छलांग ही नहीं है, जमीन पर ही सरकते रहते हैं, गिरेंगे कैसे? विवाह तो यूं है जैसे मालगाड़ी पटरियों पर दौड़ती हुई। प्रेम यूं है जैसे नदियों का प्रवाह; कब किस दिशा में मुड़ जाएगा, कुछ कहना कठिन है।

प्रत्येक उर्वशी को खोज रहा है।’उर्वशी’ शब्द भी बड़ा प्यारा है—हृदय में बसी, उर्वशी। कहीं कोई हृदय में एक प्रतिमा छिपी हुई है, जिसकी तलाश चल रही है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं : ‘प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्त्री की एक प्रतिमा है, प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की एक प्रतिमा है, जिसको वह तलाश रहा है, तलाश रही है। मिलती नहीं है प्रतिमा कहीं। कभी—कभी झलक मिलती है कि हां यह स्त्री लगती है उस प्रतिमा जैसी; बस लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है कि बहुत फासला है। कभी कोई पुरुष लगता है उस जैसा; फिर जल्दी ही पता चल जाता है कि बहुत फासला है। और तभी दूरियां शुरू हो जाती हैं। पास आते, आते, आते, सब दूर हो जाता है।

स्वर्ग से तो कहानियां हैं देवताओं के उतरने की। तुमने बहुत—सी कहानियां सुनी होंगी कि देवता आते हैं, ऋषि—मुनियों की स्त्रियों को प्रेम कर जाते हैं। बेचारे ऋषि—मुनि, उनको समझा दिया है कि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने जाओ, सो वे चले ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने और देवी—देवता ब्रह्ममुहूर्त की प्रतीक्षा करते रहते कि जब गए ऋषि—मुनि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने, तब चंद्रमा, इंद्र इत्यादि—इत्यादि आकर दरवाजा खटखटाते हैं। ऋषि—पत्नी को क्या पता, वह सोचती है ऋषि महाराज लौट आए! और देवता हैं तो वे ऋषि का रूप धरकर लौट आते हैं, जटाजुटधारी बनकर। प्रेम—वेम करके नदारद हो जाते हैं। स्वर्ग से तो ऐसी कहानियां है पुराणों में कि देवता उतर आते हैं जमीन पर, अप्सराएं उतर आती हैं; मगर नरक से मैंने कोई कहानी नहीं सुनी। कारण साफ है। कारण बहुत मनोवैज्ञानिक है, गहरा है। दुख को आदमी छोड़ना नहीं चाहता, सुख को छोड़ दे। सुख से कब जाता है। सुख से धीरे— धीरे मन भर जाता है, ऊब पैदा हो जाती है। लेकिन दुख से मन नहीं भरता, क्योंकि आशा बनी रहती है। सुख में कोई आशा नहीं।

लेकिर चाहे नरक हो और चाहे स्वर्ग, हमारा सदियों का निरीक्षण यह है? मैं इस निरीक्षण से राजी हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य के चौराहे पर लौट आना पड़ता है। मनुष्य चौराहा है। वहां से सब तरफ रास्ते जाते हैं—पशु की तरफ, पक्षियों की तरफ, नरकों की तरफ, देवताओं की तरफ। और अंतिम मार्ग भी वहां है—निर्वाण की तरफ, मोक्ष की तरफ—जहां सब खो जाता है; जहां योनि मात्र खो जाती है; जहां न तुम मनुष्य रह जाते, न पशु, न पक्षी, न देवता; जहां तुम केवल निर्विचार, शून्य चेतना मात्र रह जाते हो। वहां से कोई कभी नहीं लौटना चाहता। वहां से लौटने का कोई सवाल नहीं, लौटने वाला ही नहीं बचता है।

विद्या तो वही है जो तुम्हें निर्वाण दे। विद्या तो वही है… ‘सा विद्या या विमुक्तये’! वही है विद्या जो तुम्हें मुक्त करे, मोक्ष दे। यह विद्या न रही होगी, तथाकथित ज्ञान रहा होगा। सूचना मात्र रही होगी। शिष्य ने उसका वमन कर दिया। और अभागे देवता, ये उस वमन को भी पचा गए। तीतर बनकर पचा गये! शायद सीधे—सीधे आना अच्छा न लगा होगा, छुपकर आए, आड़ में आए, तीतर बनकर आए। उस कूड़े—कचरे को, वमन किए हुए को, उस दुर्गंधयुक्त को ये फिर से लील गए। और उसी को इकट्ठा करके तैत्तरीय उपनिषद् बना।

तैत्तरीय उपनिषद् मत पढ़ना। अब यह देवताओं का वमन… वमन का वमन होगा। और सब कुछ करना, तैत्तरीय उपनिषद् मत पढ़ना।

मुझसे बहुत बार कहा गया है कि मैं तैत्तरीय उपनिषद् पर क्यों नहीं बोला? यही कहानी मुझे अटका देती है। इससे आगे ही बात नहीं बढ़ती। मैं तो तुम्हें उच्छिष्ट ज्ञान से मुक्त करना चाहता हूं और इसमें उच्छिष्ट शान का संग्रह है। मगर यह एक ही उपनिषद् की बात होती तो भी ठीक था; तुम्हारे अधिकतर उपनिषद् तुम्हारे अधिकतर वेद, तुम्हारे कुरान, तुम्हारी बाइबिल, तुम्हारे तालमुद, इसी तरह के उच्छिष्ट ज्ञान से भरे हैं।

यह कहानी किसी हिम्मतवर आदमी ने जोड़ी होगी। रहा होगा कोई उपद्रवी मेरे जैसा, जिसने उपनिषद् के ऊपर यह कहानी लगा दी। और भोंदू पंडित ऐसे हैं कि आज तक किसी ने इस कहानी को ठीक—ठीक समझने की कोशिश भी नहीं की। यह कहानी पर्याप्त है यह बताने को कि कूड़ा—कचरा से बचो।

सब ज्ञान उच्छिष्ट है, अगर तुम्हारे अनुभव से नहीं आए।

‘उपनिषद् शब्द प्यारा है। उपनिषद् का अर्थ होता है : गुरु के पास बैठना, सिर्फ गुरु के पास बैठना। उपनिषद् यानी बैठना। गुरु के पास बैठना जिसने जाना है, उसके पास बैठना। उसकी श्वासों की श्वास बन जाना। उसकी श्वासों के साथ डोलना। उसके हृदय की धड़कन बन जाना। उसकी और तुम्हारी धड़कन के बीच का फासला समाप्त हो जाए, एक साथ हृदय धड़कने लगे। उसकी श्वास भीतर जाये तो तुम्हारी श्वास भीतर जाये। उसकी श्वास बाहर आए तो तुम्हारी श्वास बाहर आए। यह है उपनिषद् तैत्तरीय उपनिषद् नहीं।

और यूं, ही जिन्होंने जाना है, उन्होंने ही केवल जाना है। फिर उसे कोई छीन नहीं सकता, उसे कोई तुमसे वापिस नहीं ले सकता क्योंकि वह तुम्हारा अपना स्वभाव है, तुम्हारे स्वभाव का आविष्कार है।

स्वस्थ हो जाना उपनिषद् है। वही वेद है। वेद यानी शान, बोध। वही कुरान है। कुरान यानी तुम्हारे प्राणों का गीत, तुम्हारे प्राणों की गुनगुनाहट। वही बाइबिल। बाइबिल यानी किताबों की किताब। किताब नहीं—सारी किताबों की किताब! सारे रहस्यों का रहस्य। तुम अपने हृदय में संजोए बैठे हो। तीतर वगैरह बनने की जरूरत नहीं। उच्छिष्ट इकट्ठा करने की आवश्यकता नहीं।

जिनस्वरूप, तुमने इस कहानी की याद दिलाकर ठीक किया। यही मेरा पूरा प्रयोग है यहां। तुम्हें मैं उच्छिष्ट कुछ भी नहीं देना मेरा स्वर्णिम भारत चाहता। हालांकि तुम उच्छिष्ट के लिए बहुत आतुर हो, क्योंकि वह सस्ता है, मुफ्त मिल जाता है। तीतर बनना पड़े तो भी कोई हर्जा नहीं, तीतर बन जाएंगे, मुर्गा बन जाएंगे—तुम कुछ भी बन सकते हो, मुफ्त कुछ मिलता हो। लेकिन जहां कुछ चुकाना पड़ता है, जहां जीवन को दाव पर लगाना पड़ता है, वहां तुम्हारे प्राण कंपते हैं। मगर जीवन का जो राज है, वह जीवन को दाव पर लगाए बिना मिलता नहीं है। वह व्यापारियों के लिए नहीं है, वह केवल जुआरियों के लिए है।

मेरे संन्यासी को जुआरी होना सीखना ही पड़ेगा। वह व्यवसायी रहा तो विद्यार्थी रह जाएगा। जुआरी हो जाए तो शिष्य होने का अभूतपूर्व लोक तत्‍क्षण अपने द्वार खोल देता है।

‘बहुरि न ऐसा दांव ‘प्रवचनमाला से

दिनांक 4 अगस्त 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना


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अंतर्यात्रा (ध्‍यान–शिविर)–(प्रवचन–6)

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विश्‍वास—मात्र से छुटकारा—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; रात्रि

ध्‍यान शिविर, आजोल।

विचार की श्रृंखलाओं में मनुष्य एक कैदी की भांति बंधा है। विचार के इस कारागृह में, इस कारागृह की नींव में कौन से पत्थर लगे हैं, उन पत्थरों में एक पत्थर के संबंध में दोपहर हमने बात की। दूसरे और उतने ही महत्वपूर्ण पत्थर के संबंध में अभी रात हमें बात करनी है। अगर बुनियाद के ये दो पत्थर हट जाएं—सीखे हुए ज्ञान को ज्ञान समझने की भूल समाप्त हो जाए और दूसरा और पत्थर जिसकी मैं अभी बात करूंगा, वह हट जाए तो मनुष्य विचारों के जाल से अत्यंत सरलता से ऊपर उठ सकता है।

दूसरा कौन सा पत्थर है? कौन से दूसरे आधार पर मनुष्य के मन में विचारों का भवन और विचारों का जाल गूंथा गया और खड़ा किया गया है, शायद आपको खयाल में भी न हो। यह खयाल भी न हो कि हम इतने अंतर—विरोधी, सेल्फ—कंट्राडिक्टरी विचारों से कैसे भर गए हैं!

हमारी दशा उस बैलगाड़ी की भांति है जिसमें चारों तरफ बैल जोत दिए गए हों और उन सभी बैलों को भगाने की कोशिश की जा रही हो, ताकि हम मंजिल तक पहुंच जाएं। और उस बैलगाड़ी के प्राण संकट में पड़ गए हैं, उसका अस्थि—पंजर ढीला हुआ जाता है। चारों तरफ बैल उसे खींच रहे हैं विरोधी दिशाओं में। वह बैलगाड़ी कहीं पहुंच सकती है? कोई मंजिल पर उसका पहुंचना हो सकता है? एक ही मंजिल हो सकती है उसकी। उस बैलगाड़ी की मौत हो सकती है, और कोई मंजिल नहीं हो सकती। वह बैलगाड़ी मर जाएगी। चारों तरफ बैल उसकी हड्डियां और अस्थि—पंजर खींच कर निकल जाएंगे और तो कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन वह बैलगाड़ी कहीं पहुंच नहीं सकती। क्योंकि चारों तरफ विरोधी दिशाओं में एक ही साथ बैल जुते हुए हैं।

हमारे मन के विचारों का अंतर्द्वंद्व हमारे प्राण लिए लेता है। हमारे सब विचार असंगत और स्व—विरोधी हैं —एक—दूसरे के विरोध में खड़े हुए हैं। और हमारे सब विचारों के बैल हमारे मन को खींच रहे हैं अलग—अलग दिशाओं में और हम उसके बीच पीड़ित और परेशान हैं। यह जो सेल्फ—कंट्राडिक्यान है, यह जो अंतर—विरोध है विचारों का, यह हमारे खयाल में भी नहीं है कि हमारे भीतर किस भांति बैठा हुआ है।

मैं एक बहुत बड़े डॉक्टर के घर में मेहमान था। सुबह ही कहीं जाने को मैं और वह डॉक्टर दोनों घर के बाहर निकलते थे कि डॉक्टर के छोटे बच्चे को छींक आ गई। और उस डॉक्टर ने कहा. थोड़ी देर रुक जाएं, दो मिनट रुक जाएं फिर हम चलेंगे। मैंने कहा कि तुम बड़े अजीब डॉक्टर मालूम होते हो, क्योंकि डॉक्टर को तो कम से कम पता होना चाहिए कि छींक आने का क्या कारण होता है। और छींक आने से किसी के कहीं जाने और रुक जाने का क्या संबंध है? डॉक्टर को भी यह पता न हो तो फिर आश्चर्य हो गया!

मैंने उन डॉक्टर को कहा कि अगर मैं बीमार पड़ जाऊं और मरने की भी हालत आ जाए तो भी आपसे इलाज करवाने को राजी नहीं हो सकता हूं। मेरी दृष्टि से तो आपका प्रमाण—पत्र छीन लिया जाना चाहिए कि आप डॉक्टर हो! यह बात गलत है। छींक आने से आप रुकते हो, बड़ी हैरानी की बात है। वे कहने लगे, बचपन से सुना हुआ खयाल काम करता है। बचपन से सुना हुआ खयाल भी काम कर रहा है। और वे डॉक्टर भी हो गए हैं। वे एफ. आर.सी.एस भी हो गए हैं लंदन से जाकर। और ये दोनों विचार एक साथ मौजूद हैं। छींक आती है तो पैर रुकते हैं और वे भलीभांति जानते हैं कि निपट बेवकूफी है! छींक से रुकने का कोई भी संबंध नहीं है। ये दोनों विचार एक साथ मन में किसी के बैठे काम कर रहे हैं।

हमारे भीतर इस तरह के हजारों विचार एक साथ बैठे हुए हैं और वे सब विचार हमें खींच रहे हैं अलग— अलग दिशाओं में। और तब हमारी यह अस्त—व्यस्त दशा हो गई है—जो हमें दिखाई पड़ती है। यह जो आदमी बिलकुल पागल मालूम होता है, यह इसीलिए मालूम होता है। यह पागल न होगा तो और क्या होगा?

विक्षिप्तता बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि हजारों—हजारों वर्षों से अनंत—अनंत अंतर—विरोधी विचार एक ही मनुष्य के मन में इकट्ठे हो गए हैं। हजारों पीढ़ियां एक साथ एक—एक आदमी के भीतर जी रही हैं। हजारों सेंचुरीज एक साथ एक आदमी के भीतर बैठी हुई हैं। पांच हजार साल पहले का खयाल भी बैठा है और अत्याधुनिक समय का खयाल भी उसके भीतर बैठा है। और इन दोनों विचारों में कोई तुक और कोई सामंजस्य नहीं हो सकता है।

हजारों दिशाओं से पैदा हुए खयाल उसके भीतर बैठे हैं, हजारों तीर्थंकरों और पैगंबरों, अवतारों और गुरुओं के खयाल उसके भीतर बैठे हैं, और इन सबने एक अदभुत बात की है। दुनिया के सारे धर्म, सारे शिक्षक, सारे उपदेशक एक बात पर राजी रहे हैं— और किसी बात पर राजी नहीं रहे— और वे इस बात पर राजी रहे हैं, आदमी को समझाने के लिए कि जो हम कहते हैं उस पर विश्वास करो। सभी यह कहते हैं कि जो हम कहते हैं उस पर विश्वास करो।

और सब बातों में विरोध हैं। हिंदू कुछ और कहता है, मुसलमान कुछ और कहता है, जैन कुछ और कहते हैं, ईसाई कुछ और कहते हैं। लेकिन एक मामले में वे सब सहमत हैं कि हम जो कहते हैं, उस पर विश्वास करो। और ये सब विरोधी बातें कहते हैं। और आदमी के प्राणों पर इन सारे लोगों की विरोधी बातें पड़ती हैं और वे सभी चिल्लाते हैं कि हम जो कहते हैं उस पर विश्वास करो। और आदमी बेचारा गरीब है और कमजोर है, इन सबकी बातों पर विश्वास कर लेता है। वे सब एक—दूसरे की बातों पर हंसते हैं, लेकिन खुद की बेवकूफियों पर कोई भी नहीं हंसता है।

अगर ईसाई कहते हैं कि जीसस क्राइस्ट कुंआरी कन्या से पैदा हुए हैं और जो इस बात को नहीं मानेगा वह नरक में पड़ेगा; इस बात को मानना बिलकुल जरूरी है, नहीं तो नरक जाना पड़ेगा। और गरीब, कमजोर आदमी डरता है कि नरक जाने से बचने के लिए कोई हर्जा भी क्या है! हुए होंगे जीसस क्राइस्ट कुंआरी कन्या से पैदा तो मान लेने में हर्ज क्या है। और नरक जाने की जरूरत क्या है इस बात के पीछे। वह मान लेता है कि ठीक कहते हैं—होंगे। सारी दुनिया के बाकी लोग हंसते हैं—मुसलमान हंसते हैं, जैन हंसते हैं, हिंदू हंसते हैं कि यह पागलपन की बात है। कुंआरी लड़की से बच्चा पैदा कैसे हो सकता है? निहायत नासमझी की बात है।

लेकिन मुसलमान कहते हैं कि मोहम्मद अपनी घोड़ी पर बैठे हुए सदेह मोक्ष चले गए। इस पर ईसाई हंसते हैं, इस पर हिंदू हंसते हैं, इस पर जैन हंसते हैं कि यह क्या पागलपन की बात है। पहली तो बात यह है कि घोड़ी तो मोक्ष जा ही नहीं सकती। घोड़ा होती तो जा भी सकती थी, क्योंकि स्त्रियों को मोक्ष जाने की कोई व्यवस्था नहीं है, पुरुष तो मोक्ष जा भी सकता है। एक तो घोड़ी जा ही नहीं सकती मोक्ष। घोड़ा होती तो बर्दाश्त भी कर लेती, यह बात चल भी सकती थी। और फिर सदेह कोई स्वर्ग, मोक्ष कैसे जा सकता है? देह तो यहीं छोड़ देनी पड़ती है, देह तो पृथ्वी की चीज है। कोई मोहम्मद पूरी देह को साथ लिए हुए मोक्ष नहीं जा सकते! इस पर सब हंसते हैं, ईसाई भी हंसते हैं, जैन भी, हिंदू भी। लेकिन मुसलमान कहते हैं कि यह मानो! अगर नहीं मानोगे तो नरक चले जाओगे। नरक में सडाए जाओगे, कष्ट भोगोगे। यह बात माननी ही पड़ेगी और नहीं मानोगे तो जानते हो, भलीभांति जान लेना, एक ही ईश्वर है जगत में और एक ही उसका पैगंबर है मोहम्मद। अगर नहीं उसकी बात मानी तो बड़े कष्ट में पड़ सकते हो।

तो आदमी को डरवाया जाता है कि मानो, तो आदमी मान लेता है कि शायद यह ठीक हो। जैन हंसते हैं मुसलमानों पर, ईसाइयों पर। लेकिन जैन कहते हैं कि महावीर का गर्भ एक ब्राह्मण स्त्री के पेट में आया। लेकिन जैन तीर्थंकर कहीं ब्राह्मणों के घर में पैदा हो सकते हैं? असली और ऊंची जाति तो क्षत्रिय है, तो तीर्थंकर हमेशा क्षत्रियों के घर में पैदा होते हैं। ब्राह्मणों के घर में पैदा नहीं होते। ब्राह्मण भिखमंगे के घर में कहीं तीर्थंकर पैदा हो सकते हैं? तो महावीर का जन्म तो एक ब्राह्मणी के गर्भ में आया था। लेकिन देवताओं ने देख कर कि यह तो बड़ी गलती हुई जा रही है; कहीं तीर्थंकर ब्राह्मण के घर में पैदा हो सकते हैं? उन्होंने रातों—रात उसका गर्भ निकाल कर एक क्षत्राणी के गर्भ में रख दिया और क्षत्राणी की लड़की निकाल कर उस ब्राह्मणी के गर्भ में रख दी।

सारी दुनिया के लोग हंसते हैं कि बड़े मजाक की बातें हैं ये। एक तो देवताओं को क्या मतलब कि किसी का गर्भ बदलें और यह बात हो कैसे सकती है? सारी दुनिया हंसती है, लेकिन जैन नाराज होते हैं कि अच्छा हंसते रहो, तुमको पता नहीं है कि हमारे तीर्थंकर ने जो कहा है और जो तीर्थंकर के बाबत कहा गया है, वह बिलकुल सत्य है। जो नहीं मानेगा, वह कष्ट भोगेगा नरक में, हमें कोई फिकर नहीं है, तुम भोगते रहो।

ये सारे लोग दुनिया के इकट्ठे होकर आदमी से विश्वास मांगते हैं। ये सब कहते हैं कि विश्वास करो। और इन सबकी बातें……एक जमाना था कि आदमी को सबकी बातें पता नहीं थीं। अपने—अपने घेरे थे, अपने— अपने घेरे की बातें पता थीं, तो इतनी उलझन न थी। अब दुनिया बहुत करीब आ गई है और सबको सबकी बातें पता चल गई हैं, तो आदमी की उलझन बिलकुल पागलपन पर पहुंच गई है। अब उसकी समझ के बाहर हो गया है कि यह सब शोरगुल किस बात के लिए मचाया जा रहा है। यह कौन सी बात मनवाना चाहते हैं, क्या मनवाना चाहते हैं?

लेकिन कोई बहुत अच्छी हालत पहले भी न थी। अगर हिंदू को मुसलमान की बातें पता नहीं थीं, अगर जैन को ईसाई की बातें पता नहीं थीं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता था। जैन भी जरूरी रूप से एक ही बात नहीं कहते। दिगंबर कुछ और कहते हैं, श्वेतांबर कुछ और कहते हैं। और ऐसी—ऐसी बातों पर मतभेद है कि जान कर हैरानी होगी। हम आंखें फाड़े रह जाएंगे कि ये भी कोई मतभेद की बातें हैं!

जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एक तीर्थंकर हुए, मल्लीनाथ। दिगंबर कहते हैं वे पुरुष थे और श्वेतांबर कहते हैं वे स्त्री थे। श्वेतांबर कहते हैं, वे मल्लीबाई थे, दिगंबर कहते हैं, वे मल्लीनाथ थे। और दोनों कहते हैं कि हमारी बात नहीं मानोगे तो नरक जाना पड़ेगा। दिगंबर कहते हैं, स्त्री तो कभी तीर्थंकर हो ही नहीं सकती, यह तो बात ही झूठी है, इसलिए वे पुरुष ही थे। वह मल्लीनाथ थे, मल्लीबाई नहीं थे। हद हो गई, एक आदमी के बाबत इस पर भी विवाद हो सकता है कि वह स्त्री है या पुरुष है! और जो नहीं मानेगा उसके लिए नरक का फल है और कष्ट भोगना पड़ते हैं। तो हम जो कहते हैं उसे मान लें।

और सारी दुनिया में आदमी के मन पर विश्वास दिलाने वाले इन लोगों की शिक्षाओं ने एक उत्पात खड़ा कर दिया है और आदमी का मन इन सारी बातों में घबड़ाया हुआ खड़ा रह गया है। वह सबकी सुन लेता है और इस सबके प्रभाव उसके भीतर छूट जाते हैं और फिर ये विरोधी दिशाओं में उसके प्राणों को खींचने लगते हैं।

फिर इन धर्मों के……सबके बाद में आया कम्युनिज्म। उसने कहा, सब धर्म अफीम का नशा है। इसमें कोई सार नहीं है, ईश्वर बिलकुल झूठ है, यह सब बकवास है। असली धर्म तो वह है जो मार्क्स कहते हैं। कम्युनिज्म असली धर्म है। इसको मानना चाहिए और कुछ भी नहीं मानना चाहिए। बाइबिल गलत, गीता गलत, कुरान गलत, वह दास कैपिटल जो है वही असली धर्मग्रंथ है, उसको ही मानना चाहिए। उन्होंने एक नया…।

फिर इसके पीछे विज्ञान आया, उसने कहा कि ये सब बातें फिजूल हैं। जो भी बातें धर्मग्रंथों में लिखी हैं, वे कोई भी ठीक नहीं। ठीक तो जो वितान कहता है वही है। और एक वैज्ञानिक मर भी नहीं पाता है कि दूसरा वैज्ञानिक कहता है कि वह गलत था, ठीक जो कहते हैं वह यह है। वह आदमी जिंदा ही रहता है और तीसरा वैज्ञानिक कहता है कि वह बात सब गड़बड़ थी, जो ठीक है वह मैं कहता हूं। और उसे भी पक्का भरोसा नहीं कि दो दिन नहीं बीत पाएंगे, कोई चौथा आदमी कहेगा कि यह सब गलत था। जो कहता हूं मैं, वह ठीक है।

आदमी के मन पर यह सत्य के दावेदारों ने उसके चित्त के भीतर विचारों का एक ऐसा जाल खड़ा कर दिया है जो बहुत विरोधी है और सब दिशाओं में खींचता है। और इस जाल को खड़ा करने में भय का, फियर का उपयोग किया गया है कि अगर आप नहीं मानते हैं तो नरक है।

भय का और प्रलोभन का उपयोग किया गया है इस जाल को खड़ा करने में। यह जो विश्वास का जाल जबरदस्ती आदमी पर थोपा गया है इसके पीछे भय और प्रलोभन के सीक्रेट, सूत्र काम में लाए गए हैं। अगर मान लोगे तो स्वर्ग है और नहीं मानोगे तो नरक है।

ये सारे धर्मगुरु वही करते रहे हैं जो आज के विज्ञापनदाता कर रहे हैं।

लेकिन विज्ञापनदाता इतने बोल्ड, इतने हिम्मतवर नहीं हैं। लक्स टायलेट को बेचने वाले कहते हैं कि फलां सुंदरी कहती है कि लक्स टायलेट लगाने से मैं सुंदरी हो गई हूं। जो लगाएगा वह सुंदर हो जाएगा, जो नहीं लगाएगा वह असुंदर हो जाएगा। भय पकड़ता है कि कहीं असुंदर न हो जाऊं। तो आदमी लक्स टायलेट साबुन खरीद लाता है। जैसे कि लक्स टायलेट जब नहीं थी तो लोग सुंदर नहीं थे। जैसे कि किल्योपेट्रा, मुमताज, और नूरजहां सुंदर न रही हों, क्योंकि लक्स टायलेट तो थी नहीं। अभी ज्यादा हिम्मत नहीं बढ़ी उनकी, नहीं तो आगे वे कहेंगे कि जो लक्स टायलेट नहीं लगाएगा, फलाने तीर्थंकर कहते हैं, फलाने पैगंबर कहते हैं, फलाने जगदगुरु कहते हैं कि वह नरक जाएगा, वह स्वर्ग नहीं जा सकता। स्वर्ग में तो केवल उनको ही प्रवेश मिलेगा जो लक्स टायलेट साबुन का उपयोग करते हैं।

आदमी को डरवाया जा सकता है। स्वर्ग वे ही लोग जाएंगे जो पनामा सिगरेट पीते हैं, क्योंकि सिगरेट पीना और पिलाना—पनामा सिगरेट पीना और पिलाना बहुत उम्दा बात है। और जिसने पनामा सिगरेट नहीं पी उसको नरक में रहना पड़ेगा। और हिंदुस्तानी बनी हुई बीड़ी पीना पड़ेगी, उसे वहां बहुत कष्ट झेलने पड़ेंगे। और अगर कोई विश्वास नहीं करता तो खुद फल भोगेगा। जो विश्वास करता है उसको शुभ फल मिलते हैं, जो विश्वास नहीं करता है उसको अशुभ फल मिलते हैं।

लेकिन अभी इतनी हिम्मत आधुनिक विज्ञापनदाताओं में नहीं आई है। वे पुराने विज्ञापनदाता बड़े हिम्मतवर लोग थे। उन्होंने सरासर झूठी बातें कह कर भी आदमी को डरवा दिया और भयभीत कर दिया और हम उन बातों को मानते रहे और चुपचाप सुनते रहे और चुपचाप स्वीकार करते रहे।

असल में कोई भी असत्य अगर बहुत बार दोहराया जाए, हजारों साल तक दोहराया जाए, तो उसके दोहराने से वह सत्य जैसा प्रतीत होने लगता है। झूठी से झूठी बात अगर कोई आदमी दोहराए ही चला जाए और दोहराए ही चला जाए, तो आपको धीरे— धीरे विश्वास पकड़ने लगता है कि शायद बात ठीक ही होगी, नहीं तो इतने दिन तक कैसे दोहराई जा सकती थी।

एक गांव में एक गरीब किसान शहर से जाकर एक बकरी का बच्चा खरीद लाया। वह बकरी के बच्चे को लेकर अपने गाव की तरफ चला और शहर के दो—चार बदमाश लोगों ने सोचा कि किसी भांति यह बकरी का बच्चा छीन लिया जाए तो अच्छा आज का भोजन का और एक उत्सव का आनंद आ जाएगा। कुछ मित्रों को बुला लेंगे और भोज हो जाएगा, लेकिन छीन कैसे लिया जाए?

वह गांव का गंवार बड़ा तगड़ा और मजबूत आदमी मालूम पड़ता था। वे शहर के शैतान जरा कमजोर थे। उससे छीनना झगड़े की बात थी, उपद्रव हो सकता था। तो फिर कोई होशियारी से काम लिया जाए। तो उन्होंने एक तरकीब तय की और जब वह गांव का आदमी शहर से बाहर निकलने को था, तो एक बड़े रास्ते पर उन पांच—छह लोगों में से एक आदमी उसे मिला और कहा कि नमस्कार! जयराम जी।

उस आदमी ने जयराम जी की। और उस आदमी ने ऊपर देखा और कहा कि अरे! यह आप कुत्ते का बच्चा सिर पर लिए चले जा रहे हैं? —वह बकरी के बच्चे को अपने कंधे पर रख कर जा रहा था। —यह कुत्ता कहां से खरीद लाए? बड़ा अच्छा कुत्ता ले आए! वह किसान आदमी हंसा। उसने कहा. पागल हो गए हैं आप? कुत्ता नहीं है, बकरी का खरीद कर लाया हूं बकरी का बच्चा है। उस आदमी ने कहा कि अरे, गांव में कुत्ते को लिए मत पहुंच जाना, नहीं तो लोग पागल समझेंगे। यह बकरी समझ रहे हो इसको?

और वह आदमी अपने रास्ते पर चला गया। और वह किसान हंसा कि बड़ी अजीब बात है। फिर भी उसने एक दफा पैर टटोल कर देखे कि कहीं कुत्ते के तो नहीं है, क्योंकि कोई आदमी को क्या प्रयोजन था। देखा कि बकरी ही है।

निश्चित होकर आगे बढ़ा था कि दूसरी गली पर दूसरा आदमी मिला। उसने कहा नमस्कार, बड़ा अच्छा कुत्ता ले आए हैं। मैं भी कुत्ता खरीदना चाहता हूं। कहां से खरीद लिया आपने? अब उतनी हिम्मत से वह किसान नहीं कह सका कि यह कुत्ता नहीं है। क्योंकि अब दूसरा आदमी कह रहा था और दो—दो आदमी धोखे में नहीं हो सकते थे। फिर भी वह हंसा। और उसने कहा कि कुत्ता नहीं है साहब, बकरी है। वह आदमी कहने लगा, किसने कहा बकरी है? किसी ने बेवकूफ बनाया मालूम होता है। यह बकरी है? वह अपने रास्ते पर चला गया। उस आदमी ने फिर जाकर बगल की गली में उस बकरी को उतार कर देखा कि देख लेना चाहिए कि क्या गड़बड़ है, लेकिन बकरी ही थी। ये दो आदमी धोखा खा गए। लेकिन डर उसके भीतर भी पैदा हो गया कि मैं किसी भ्रम में तो नहीं हूं।

अब की बार वह उसको लेकर डरा—डरा हुआ सा सड़क से जा रहा था कि तीसरा आदमी मिला। और उसने कहा नमस्कार! यह कुत्ता कहां से ले आए? अब की बार तो उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ी कि यह कह दे कि यह बकरी है। उसने कहा कि जी, यहीं से खरीद लाया हूं। अब हिम्मत बहुत मुश्किल थी जुटानी कि कह सके कि यह बकरी है। थोड़ी देर में सोचा कि इसको गांव लेकर जाना कि नहीं, जो दों—चार—पांच रुपये गए सो एक तरफ, गांव में बदनामी होगी, लोग पागल समझेंगे।

जब वह यह सोच ही रहा था तो पांचवां आदमी मिला। और उसने कहा कि वाह, गजब कर दिया! आज तक कुत्ते को कंधे पर लिए किसी को नहीं देखा। क्या बकरी समझ रहे हो इसको?

उस आदमी ने देखा कि एकांत है, कोई नहीं है। उस बकरी को छोड़ कर वह भागा अपने गांव की तरफ कि इसे यहीं छोड़ देना बेहतर है। जो पांच रुपये गए वे गए, पागलपन से तो बच जाना चाहिए। वे पांच आदमी उस बकरी को उठा कर ले गए।

पांच आदमियों ने बार—बार दोहराया और उस आदमी के लिए कठिनाई हो गई यह बात को मानने में कि जो पांच कहते हैं वे गलत कहते होंगे। और जब कहने वाले गेरुआ वस्त्र पहने हों, तब और मुश्किल हो जाती है। और जब कहने वाले सचाई और ईमानदारी के मूर्तिमंत रूप हों, तब तो और कठिन हो जाता है। और जब कहने वाले ईमानदार हों, जगत के त्याग करने वाले हों, तब तो और भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उनकी बात पर अविश्वास करने की कोई वजह ही नहीं रह जाती। और यह भी जरूरी नहीं है कि वे आपको धोखा दे रहे हों। सौ में से निन्यानबे मौके ये हैं कि वे भी धोखा खाए हुए लोग हैं और उनको भी धोखा दिया गया है। वे बेईमान हैं यह जरूरी नहीं है, लेकिन वे भी उसी चक्कर में हैं जिसमें आप हैं।

एक बात तय है कि जब तक आदमी को विश्वास करने के लिए कहा जाएगा, तब तक आदमी का शोषण जारी रहेगा, बिलीफ करने के लिए जब तक कहा जाएगा तब तक आदमी शोषण से मुक्त नहीं हो सकता। फिर चाहे वह विश्वास हिंदू का हो, चाहे जैन का, चाहे मुसलमान का, चाहे किसी का भी—कम्युनिस्ट का हो, गैर कम्युनिस्ट का हो, किसी का भी हो—जब तक आदमी से यह कहा जाएगा कि हम जो कहते हैं उस पर विश्वास कर लो और नहीं विश्वास करोगे तो दुख पाओगे और विश्वास करोगे तो सुख पाओगे; जब तक यह तरकीब काम लाई जाएगी तब तक आदमी के भीतर जो विचारों का जाल खड़ा होता है, उसे तोड्ने का साहस जुटा पाना बहुत कठिन है।

मैं आपसे क्या कहना चाहता हूं मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि अगर अपने भीतर जो जाल बन गया है, हजारों सदियों का हाथ है उसमें, सैकड़ों वर्षों के प्रभाव हैं उसके भीतर, अगर उससे छुटकारा पाना है तो एक बात निश्चित मान लेनी चाहिए कि विश्वास से ज्यादा आत्मघातक और कोई चीज नहीं है। एक बात निश्चित समझ लेनी चाहिए कि विश्वास करना, अंधा विश्वास, आंख बंद किए चुपचाप मान लेना यही हमारे जीवन की आज तक की पंगुता का बुनियादी कारण रहा है।

लेकिन सभी लोग कहते हैं, विश्वास करो। हां, वे यह जरूर कहते हैं, दूसरे पर मत करो मुझ पर करो। इतना वे जरूर कहते हैं कि दूसरों पर विश्वास मत करो, क्योंकि दूसरे गलत हैं, मैं सही हूं? मुझ पर विश्वास करो।

मैं आपसे कहना चाहता हूं किसी पर भी विश्वास करना घातक है और आपके जीवन को नुकसान पहुंचाएगा। विश्वास नहीं, विश्वास बिलकुल भी नहीं। विश्वास के आधार पर जो खड़ा होगा, वह अंधी दुनिया में प्रवेश कर रहा है और उसके जीवन में कभी आंखों वाली रोशनी नहीं उतर सकती। उसके जीवन में कभी प्रकाश उपलब्ध नहीं हो सकता। वह कभी स्वयं जानने में समर्थ नहीं हो पाएगा जिसने दूसरों पर विश्वास कर लिया है।

तो मैं क्या कह रहा हूं अविश्वास करें आप? नहीं! अविश्वास की भी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन हमें यह खयाल है कि जब हम विश्वास नहीं करते, तो हम अनिवार्य रूप से अविश्वास करते हैं। यह बिलकुल गलत खयाल है। इन दोनों से अलग चित्त की अवस्था भी है जो न विश्वास करती है, न अविश्वास करती है, क्योंकि अविश्वास भी विश्वास का ही रूप है। वह जो डिस—बिलीफ है, वह भी बिलीफ का ही रूप है। जब हम कहते हैं, मैं ईश्वर पर विश्वास नहीं करता, तो हम क्या कहते हैं? हम यह कहते हैं कि हम ईश्वर के न होने पर विश्वास करते हैं। जब हम कहते हैं, हम आत्मा पर विश्वास नहीं करते हैं; तो हम यह कह रहे हैं कि हम आत्मा के न होने पर विश्वास करते हैं।

विश्वास और अविश्वास दोनों एक ही तरह की चीजें हैं, उनमें कोई भेद नहीं है। विश्वास पाजिटिव बिलीफ है और अविश्वास निगेटिव बिलीफ है। विश्वास विधायक श्रद्धा है और अविश्वास निषेधात्मक श्रद्धा है, लेकिन दोनों श्रद्धा हैं। और वही आदमी भीतर के जाल से मुक्त हो सकता है जो श्रद्धा और विश्वास से ही मुक्त हो जाता है— जो समस्त दूसरे की तरफ देखने की दृष्टि और इच्छा से मुक्त हो जाता है, जो यह खयाल ही छोड़ देता है कि कोई और मुझे सत्य दे सकता है। जब तक मुझे यह खयाल है कि कोई और मुझे सत्य दे सकता है, तब तक मैं किसी न किसी रूप में बंध जाऊंगा। एक से छूटूगा तो दूसरे से बंध जाऊंगा, दूसरे से छूटूगा तो मैं तीसरे से बंध जाऊंगा, लेकिन मेरा बंधन से छुटकारा नहीं हो सकता है। और एक से छूट कर दूसरे से बंध जाना हमेशा राहतपूर्ण होता है।

एक आदमी मर जाता है, और चार आदमी उसकी अरथी को उठा कर मरघट ले जाते हैं। एक कंधा दुखने लगता है तो दूसरे कंधे पर अरथी के डंडे को रख लेते हैं। थोड़ी देर राहत मिलती है, थका हुआ कंधा!……फिर दूसरा कंधा थक जाता है। थोड़ी देर में दूसरा कंधा भी थक जाता है, फिर कंधा बदल लेते हैं। जो विश्वास बदलता है, वह केवल कंधे बदल रहा है, बोझ हमेशा मौजूद रहता है, कोई फर्क नहीं पड़ता। थोड़ी देर के लिए राहत मिल जाती है।

एक आदमी हिंदू से मुसलमान हो जाता है, मुसलमान से जैन हो जाता है, जैन से ईसाई हो जाता है, सब धर्मों को छोड़ कर कम्युनिस्ट हो जाता है या कुछ और हो जाता है। जब तक वह आदमी एक विश्वास को छोड़ कर दूसरे विश्वास को पकड़ता है तब तक उस आदमी के चित्त के बोझ में कोई अंतर नहीं आता, केवल कंधे बदल जाते हैं, लेकिन थोड़ी देर को राहत मिलती है। और राहत का और कोई भी अर्थ नहीं है।

मैंने सुना है, एक गांव में दो आदमी थे। एक आदमी आस्तिक था, परम आस्तिक था और एक आदमी नास्तिक था, परम नास्तिक था। उन दोनों लोगों की वजह से गांव बड़ा परेशान था। ऐसे लोगों की वजह से गांव हमेशा ही परेशानी में पड़ जाते हैं, क्योंकि आस्तिक दिन—रात गांव को समझाता था ईश्वर के होने की बात और नास्तिक दिन—रात खंडन करता था। गांव के लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे कि किसके साथ जाएं और किसके साथ न जाएं। आखिर गांव के लोगों ने यह तय किया कि हम बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं। इन दोनों आदमियों को कहा जाए कि तुम दोनों गांव के सामने विवाद करो। जो जीत जाएगा हम उसी के साथ हो जाएंगे। यह परेशानी हमारे सिर पर मत डालो। तुम दोनों विवाद कर लो। जो जीत जाएगा हम उसी के साथ हो जाएंगे।

एक रात, पूर्णिमा की रात, उस गांव में विवाद का आयोजन हुआ। सारे नगर के लोग इकट्ठे हुए। आस्तिक ने अपनी आस्तिकता की बातें समझाई, सब दलीलें दीं, नास्तिकता का खंडन किया। नास्तिक ने आस्तिकता का खंडन किया, नास्तिकता के पक्ष में सारी दलीलें दीं। रात भर विवाद चला और सुबह जो परिणाम हुआ वह यह हुआ कि आस्तिक रात भर में नास्तिक हो गया और नास्तिक आस्तिक हो गया। उन दोनों को एक—दूसरे की बातें जंच गईं। गांव की मुसीबत पुरानी की पुरानी बनी रही। वह कोई हल न हुआ। वे एक—दूसरे से कनविस हो गए, वे एक—दूसरे से राजी हो गए और गांव की परेशानी वही रही, क्योंकि फिर भी गांव में एक नास्तिक रहा और एक आस्तिक रहा, कुल जोड़ वही रहा।

हम भी जीवन में एक विश्वास को बदल कर दूसरे विश्वास पर चले जाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे प्राणों की परेशानी वही रहती है। इससे कोई भेद नहीं पड़ता। प्राणों की परेशानी न हिंदू के कारण है, न मुसलमान के, न जैन के कारण है, न ईसाई के, न कम्युनिस्ट के कारण है, न फैसिस्ट के।

प्राणों की परेशानी इस कारण है कि आप विश्वास करते हैं। जब तक आप विश्वास करते हैं तब तक आप बंधन को आमंत्रित करते हैं, तब तक आप कारागृह में जाने को खुद निमंत्रण देते हैं अपने को। और तब तक आप किसी न किसी रूप में, कहीं न कहीं बंधे हुए होंगे।

और बंधा हुआ आदमी, बंधा हुआ मन विचारों से कैसे मुक्त हो सकता है? जिन विचारों को वह प्राणपण से पकड़ता हो और विश्वास करता हो उनसे कैसे मुक्त हो सकता है? वह उनसे कैसे छुटकारा पा सकता है? उनसे छुटकारा कठिन है। छुटकारा उनसे हो सकता है, अगर हम बुनियाद के पत्थर को हटा दें। विश्वास, बिलीफ बुनियाद का पत्थर है सारे विचारों के जाल के नीचे। विश्वास के आधार पर मनुष्य को विचारों में दीक्षित किया गया है और जब विचार मन को जोर से पकड़ लेते हैं तो भय भी पकड़ता है कि अगर मैंने इनको छोड़ दिया तो फिर क्या होगा। तो आदमी पूछता है कि अगर इससे बेहतर कुछ मुझे पकड़ने को पहले बता दें तो मैं उसे छोडूं भी, लेकिन पकड़ना ही छोडूं, यह उसके खयाल में नहीं आ पाता।

और मन की फ्रीडम, मन की स्वतंत्रता और मन की मुक्ति विश्वासों के परिवर्तन में नहीं, विश्वास—मात्र से मुक्त हो जाने में है।

बुद्ध एक गांव में गए थे। एक अंधे आदमी को कुछ लोग उनके पास लाए और उन मित्रों ने कहा कि यह आदमी अंधा है और हम इसके परम मित्र हैं। और हम इसे सब भांति समझाने की कोशिश करते हैं कि प्रकाश है, लेकिन यह मानने को राजी नहीं होता और इसकी दलीलें ऐसी हैं कि हम हार जाते हैं। और हम जानते हैं कि प्रकाश है, हमें देखते हुए हारना पड़ता है। यह आदमी हमसे कहता है, मैं प्रकाश को छूकर देखना चाहता हूं। अब हम प्रकाश का स्पर्श कैसे करवाएं? यह आदमी कहता है छोड़ो, स्पर्श न हो सके तो मैं सुन कर देखना चाहता हूं मेरे पास कान हैं। तुम प्रकाश में आवाज करो, मैं सुन लूं। छोड़ो, यह भी न हो सके तो मैं स्वाद लेकर देख लूं या प्रकाश में कोई गंध हो तो गंध लेकर देख लूं।

कोई उपाय नहीं है। प्रकाश तो आंख से देखा जा सकता है और आंख इसके पास नहीं है। और यह आदमी यह कहता है कि तुम फिजूल ही मुझे अंधा सिद्ध करने को प्रकाश की बातें करते हो। तुम भी अंधे मालूम होते हो, प्रकाश की ईजाद तुमने मुझे अंधा बताने के लिए तय कर ली है। तो हमने सोचा, आप इस गांव में आए हैं, शायद आप इसको समझा सकें।

बुद्ध ने कहा कि मैं इसे समझाने के पागलपन में नहीं पडूगा। आदमी की आज तक मुसीबत ही उन लोगों ने की है जिन लोगों ने आदमी को ऐसी बातें समझाने की कोशिशें की हैं जो उनको दिखाई नहीं पड़ती। मनुष्य के ऊपर उपदेशक बड़ी महामारी सिद्ध हुआ है। वे ऐसी बातें समझाता है जो उसको दिखाई नहीं पड़ती।

तो बुद्ध ने कहा कि मैं यह गलती करने वाला नहीं हूं र मैं यह समझाने वाला नहीं हूं कि प्रकाश है। मैं तो इतना कह सकता हूं कि इस आदमी को तुम गलत जगह ले आए हो। मेरे पास लाने की जरूरत न थी। किसी वैद्य के पास ले जाओ जो इसकी आंख का इलाज कर सके। इसे उपदेश की नहीं, उपचार की जरूरत है। तुम्हारे समझाने का सवाल नहीं, तुम्हारी समझाई गई बात पर विश्वास करने का सवाल नहीं। इसकी आंख ठीक होनी चाहिए। और आंख ठीक हो जाए तो तुम्हें समझाने की जरूरत न पडेगी, यह खुद ही देख सकेगा, खुद ही जान सकेगा।

उनको बात ठीक जंची। बुद्ध ने कहा है कि मैं तो धर्म को उपदेश नहीं मानता हूं उपचार मानता हूं। तो इसे ले जाओ। वे उस अंधे को ले गए और भाग्य की बात थी कि वह अंधा कुछ महीनों के इलाज से ठीक हो गया। बुद्ध तो दूसरे गांव चले गए थे। वह अंधा आदमी ठीक हो गया था। वह बुद्ध के चरण छूने गया और उसने उन्हें प्रणाम किया और उसने कहा कि मैं गलती में था। प्रकाश तो था, लेकिन मेरे पास आंख नहीं थी। लेकिन बुद्ध ने कहा तू गलती में जरूर था, लेकिन तूने जिद्द की कि जब तक आंख न होगी तब तक मैं मानने को राजी न होऊंगा, तो तेरे आंख का इलाज भी हो सका। अगर तू मान लेता उन मित्रों की बात कि तुम कहते हो तो ठीक है, तो बात वहीं खत्म हो जाती। आंख के इलाज का सवाल भी नहीं उठता।

जो लोग विश्वास कर लेते हैं, वे विवेक तक नहीं पहुंच पाते। जो लोग चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं, वे स्वयं के अनुभव तक नहीं पहुंच पाते। जो अंधे हैं और पकड़ लेते हैं कि दूसरे कहते हैं प्रकाश है तो जरूर होगा, फिर उनकी यात्रा वहीं बंद हो जाती है। यात्रा तो तब होती है जब बेचैनी बनी रहे, बनी रहे, बनी रहे, बेचैनी छूटे नहीं। और बेचैनी तभी होती है जब मुझे लगता है कि कोई चीज है, लोग कहते हैं लेकिन मुझे दिखाई नहीं पड़ती तो मैं कैसे मान लूं? मैं ही देखूं तो मानूं! यह बेचैनी मन में हो कि मेरे पास आंख हो तो मैं स्वीकार करूं।

विश्वास दिलाने वाले लोगों ने यह कहा है कि तुम्हें अपने आंख की कोई फिकर नहीं है। महावीर के पास आंख थी वह काफी है, बुद्ध के पास आंख थी वह काफी है। हरेक को आंख की क्या जरूरत है? सबको आंख की क्या जरूरत है? गीता में तो आंख है फिर तुम्हें क्या जरूरत है। गीता पढ़ो और मजा करो। कृष्ण को दिखाई पड़ता था, उन्होंने कह दिया। अब सभी को देखने की क्या जरूरत है कि हरेक को देखना चाहिए। तुम तो विश्वास करो। बताने वाले और देखने वाले बता गए हैं, तुम्हारा काम विश्वास करना है। ज्ञान तो उपलब्ध हो गया है, अब तुम्हें जानने की क्या जरूरत है?

तो आदमी को अंधा रखने के लिए इस उपदेश ने काम किया। अधिकतम लोग पृथ्वी पर अंधे रह गए और अधिकतम लोग आज भी अंधे हैं। और जैसी स्थिति चल रही है शायद अधिकतम लोग आगे भी अंधे रहेंगे। क्योंकि अंधेपन को तोड्ने की जो बुनियादी कीमिया होती है, अंधेपन को तोड्ने की जो प्यास होती है उसकी हत्या कर दी गई है। विश्वास देकर उसको समाप्त कर दिया गया है।

कहा जाना चाहिए यह कि चाहे कृष्ण की आंख कितनी भी अच्छी हो और कितनी भी दूर देखती हो, और महावीर की आंख कितनी ही सुंदर हो, कमल जैसी हो और कितनी ही दूर तक दिखाई पड़ता हो, लेकिन महावीर की आंख महावीर की आंख है, मेरी आंख नहीं है। और मेरी छोटी—मोटी आंख सही, कमल जैसी न सही, घास के फूल जैसी सही, लेकिन मेरी ही आंख मेरे पास होगी तो ही मुझे दिखाई पड़ सकता है। तो मैं तो अपनी ही आंख की खोज करूंगा, दूसरों की आंखों की पूजा करने से मुझे कुछ उपलब्ध नहीं होना है।

लेकिन स्वयं की आंख की खोज शुरू तब होती है जब हम दूसरों की आंख का आसरा छोड़ देते हैं। जब तक कोई सब्‍स्‍टीटूयूट है आदमी के लिए, जब तक कोई चीज मूर्ति कर रही है उसकी, तब तक खोज—बीन पैदा नहीं होती।

जब कोई सहारा नहीं है, और कोई पूर्ति नहीं है और कोई मार्ग नहीं है दूसरे से मिलने वाला, तब आदमी के भीतर वह चुनौती जन्म लेती है कि वह अपने मार्ग की खोज में निकलता है, खुद की आंख की तलाश करता है।

आदमी बहुत आलसी है और अगर उसे बिना मेहनत किए जान मिल जाता हो तो वह काहे के लिए मेहनत करे, किसलिए उपाय करे। अगर बिना खोजें हुए विश्वास कर लेने से ही मोक्ष उपलब्ध हो जाता हो, तो फिर मोक्ष तक की यात्रा हम अपने पैरों से क्यों करें। और जब कोई यह कहता हो कि तुम हमको मान लो, हम तुम्हें मोक्ष पहुंचा देंगे तो फिर हम इतना श्रम क्यों लें कि उतनी दूर तक जाएं। जब कोई कहता है कि हमारी नाव में बैठ जाओ, हम पार लगा देंगे, तो बात खत्म हो गई, हम चुपचाप नाव में बैठ जाते हैं और सो जाते हैं।

लेकिन कोई आदमी किसी दूसरे की नाव में कहीं भी नहीं पहुंच सकता है। और किसी दूसरे की आंख से न देख सकता है, न कभी देखा है, न कभी देखेगा। अपने ही पैर से चलना होता है, अपनी ही आंख से देखना होता है, अपने ही हृदय की धड़कन में जीना होता है। खुद ही जीना होता है और खुद ही मरना होता है। न तो मेरी जगह कोई जी सकता है और न मेरी जगह कोई मर सकता है। मेरी कोई जगह नहीं ले सकता, न मैं आपकी जगह ले सकता हूं। दुनिया में अगर कुछ असंभव है तो यह एक बात असंभव है कि कोई किसी की जगह ले ले।

दो सैनिक दूसरे महायुद्ध में एक युद्ध—स्थल पर पड़े थे। एक सैनिक बिलकुल मरने के करीब था। उसे इतनी चोट पहुंची थी कि उसके बचने की कोई आशा नहीं थी। घड़ी, आधा घड़ी में उसके प्राण निकल जाएंगे। दूसरा सैनिक चोट तो खाया हुआ था, लेकिन जिंदा था और मरने की कोई बात न थी। दोनों मित्र थे।

मरते हुए सैनिक ने अपने मित्र को गले मिलाया और कहा कि अब मैं विदा लेता हूं और मेरे बचने की कोई संभावना नहीं है।

जो मित्र जिंदा रहने को था अभी, उसने कहा एक काम करो मरने के पहले। एक काम करो। मरते हुए मित्र ने उस जिंदा सैनिक को कहा कि एक काम करो— मेरी जो किताब है, मेरे नाम की जो किताब है, मेरा जो रिकॉर्ड है, वह तुम ले लो और तुम्हारी किताब का रिकॉर्ड मुझे दे दो। तुम्हारा रिकॉर्ड खराब है, तुम्हारे रिकॉर्ड में बहुत असम्मानजनक बातें हैं, लेकिन मेरा रिकॉर्ड बहुत अच्छा है, तो हम किताबें बदल लें अपनी। मैं तो मर ही रहा हूं। तुम्हारी किताब और तुम्हार नंबर मैं ले लेता हूं अधिकारी समझेंगे कि तुम मर गए, और अधिकारी समझेंगे कि मैं जिंदा हूं। और मेरी किताब का रिकॉर्ड अच्छा है, तुम्हें अच्छी गति मिल सकेगी और आगे अच्छा प्रमोशन मिल सकेगा, तुम्हारी इज्जत बढ़ जाएगी। तो जल्दी करो यह किताब और नंबर बदल लो।

मरते हुए मित्र की यह आकांक्षा बिलकुल ठीक थी, क्योंकि सैनिक के पास नंबर ही होता है, कोई नाम तो होता नहीं। सैनिक के पास तो रिकॉर्ड की किताब होती है, कोई आत्मा तो होती नहीं। सो ठीक था, बदलाहट कर ली जाए तो ठीक होगा, वह तो मर ही रहा है। तो एक बुरा आदमी मर जाएगा और अच्छा आदमी बच जाएगा।

लेकिन जो आदमी जिंदा रहने को था उसने कहा कि क्षमा करो। मैं तुम्हारी किताब तो ले सकता हूं तुम्हारा नंबर भी ले सकता हूं। लेकिन फिर भी मैं मैं ही रहूंगा और मैं आदमी बुरा हूं सो मैं आदमी बुरा रहूंगा। मैं शराब पीता हूं सो मैं शराब पीऊंगा, मैं वेश्यालय जाता हूं सो मैं वेश्यालय जाऊंगा। तो तुम्हारी अच्छी किताब कितनी देर तक अच्छी रह पाएगी, किताब कितनी देर तक किसको धोखा दे पाएगी। उलटे दो आदमी बुरे हो जाएंगे। तुम तो बुरे हो ही जाओगे कि मर गए, एक बुरा आदमी मर गया और एक बुरा आदमी जिंदा रहेगा ही। तो अभी कम से कम एक अच्छा आदमी मर गया यह लोग कहेंगे। तुम्हें फूल चढाएंगे, वह भी चढ़ाने नहीं आएंगे और बुरा आदमी तो जिंदा रहेगा। क्योंकि तुम मेरी जगह नहीं हो सकते, मैं तुम्हारी जगह नहीं हो सकता हूं। तुम्हारा प्रेम तो ठीक कहता है कि हम जगह बदल लें।

लेकिन जिंदगी के नियम के बाहर है यह बात। कोई जगह नहीं बदली जा सकती। न कोई किसी की जगह जी सकता है और न मर सकता है। न कोई किसी की जगह जान सकता है, न कोई किसी की जगह आंखों को उपलब्ध हो सकता है।

लेकिन विश्वास दिलाने वाले लोगों ने आज तक यही समझाया है कि तुम दूसरे की आंख से देखो— तीर्थंकर की आंख से देखो, अवतार की आंख से देखो और हम इस पर विश्वास करते चले आए हैं, इसलिए हम एक अंधे जाल में ग्रसित हो गए हैं। और यह हजारों शिक्षकों ने इतने जोर से शोरगुल मचाया है और हजारों शिक्षकों के अनुयायियों ने इतने जोर से आवाजें की हैं, इतने जोर से उन्होंने घबड़ाहट पैदा की है नरक की और स्वर्ग का प्रलोभन पैदा किया है कि हमने धीरे— धीरे सबकी ही बातें मान लीं। और उन सबकी बातों ने हमारे भीतर एक ऐसा विरोधाभास खड़ा कर दिया है कि हमारे जीवन की गाड़ी टूट सकती है, लेकिन कहीं पहुंच नहीं सकती।

इसलिए पहला समझदार व्यक्ति के लिए जो काम है करने जैसा वह यह है कि वह अपने सारे अंतर— विरोधी विश्वासों को एक साथ तिलांजलि दे दे और वह क्षमा मांग ले कि मैं विश्वास नहीं करूंगा, मैं जानना चाहता हूं। जिस दिन मुझे ज्ञान उपलब्ध होगा उस दिन मैं मान लूंगा, उसके पहले मेरे लिए मानना जैसी कोई चीज नहीं हो सकती है। यह धोखा है, यह आत्म—प्रवंचना है। मैं अपने को धोखा नहीं दे सकता कि मैं बिना जाने हुए कहूं कि मैं जानता हूं मैं बिना पहचाने हुए कहूं कि मैं पहचानता हूं। मैं झूठी स्वीकृति दूं यह मेरे लिए संभव नहीं है।

इसका मतलब यह नहीं है कि आप अस्वीकार कर रहे हैं। इसका कुल मतलब यह है कि आप स्वीकार— अस्वीकार दोनों से अपने को तटस्थ खड़ा कर रहे हैं। आप यह कह रहे हैं कि हम इन दोनों में राजी नहीं हैं। न हम कहते हैं कि महावीर गलत हैं, न हम कहते हैं कि सही हैं। हम इतना ही कहते हैं कि महावीर जो कहते हैं वह मैं नहीं जानता हूं इसलिए मुझे हां और न कहने का कोई भी हक नहीं है। जिस दिन मैं जानूंगा उस दिन हां कहूंगा, जानूंगा कि गलत कहते हैं तो न कहूंगा, लेकिन अभी मैं जानता नहीं, इसलिए मैं कैसे हां कहूं और कैसे न कहूं?

अगर यह हमारे चित्त की दशा हो कि हम ही और न कहने से बच जाएं, तो हमारे मन का जाल आज और अभी और यहीं टूट सकता है। उस जाल के टूटने में फिर कोई नीचे आधार नहीं रह जाता है, फिर वह पत्तों का एक महल रह जाता है जो जरा में गिर जाएगा। अभी वह पत्थरों का महल है, क्योंकि नीचे बहुत बुनियाद में सख्त पत्थर रखे हुए हैं और वे पत्थर हमें दिखाई नहीं पड़ते, बल्कि हमको तो यही कहा जाता है कि जो श्रद्धा करते हैं वे ही धार्मिक हैं, जो श्रद्धा नहीं करते वे अधार्मिक हैं।

और मैं आपसे कहता हूं जो श्रद्धा करता है वह भी धार्मिक नहीं है, जो अश्रद्धा करता है वह भी धार्मिक नहीं है। धार्मिक तो वह है जो सच्चा है। और सच्चे का मतलब यह है कि जो नहीं जानता उस पर श्रद्धा नहीं करता, जो नहीं जानता उस पर अश्रद्धा नहीं करता। वह निपट ईमानदारी से यह घोषणा कर देता है कि मैं नहीं जानता हूं मैं अज्ञानी हूं इसलिए मेरी स्वीकृति—अस्वीकृति का कोई भी सवाल नहीं है।

क्या इस मध्य—बिंदु पर आप अपने चित्त को ले जाने की सामर्थ्य और साहस जुटा सकते हैं? जुटा सकते हैं तो यह भवन विचारों का तत्‍क्षण गिर सकता है, इसके गिरने में कोई भी कठिनाई नहीं।

तीन सूत्र मैंने सुबह कहे थे। एक सूत्र मैंने दोपहर को कहा और एक आपसे अब कहा। इन पांचों सूत्रों पर ध्यान से विचार करना आप। मेरी बात मान कर ही इनको उपयोग में मत ले आना, अन्यथा मैं भी फिर एक उपदेशक ही आपके लिए हो जाता हूं। मैंने कहा इसलिए मत मान लेना। क्योंकि मेरी बात हो सकती है सभी गलत हों और आप दिक्कत में पड़ जाएं, मेरी बात सभी झूठी हों और व्यर्थ हों और आप दिक्कत में पड़ जाएं, इसलिए मेरी बात को मत मान लेना। सोचना, खोजना, देखना और अगर ऐसा लगे कि इसमें कोई सचाई है— अपने अनुभव में, अपने मन की खोज—बीन में, अपने मन की खिड़की से झांकने पर लगे कि इन बातों में कोई सचाई है, तो फिर वह सचाई आपकी अपनी हो जाएगी, फिर मेरी नहीं रह जाती। फिर वह मेरी आंख नहीं, वह आपकी अपनी आंख हो जाती है। और तब आप जो करते हैं वह आपके जीवन को विवेक, जागृति, जागरण की दिशा में ले जाने का मार्ग बन जाता है। और विश्वास करके आप जो करते हैं वह आपको और अंधकार में और मूर्च्छा में और बेहोशी में ले जाता है। इस सूत्र पर भी ध्यान से विचार करना उपयोगी है।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। तो थोड़ी सी बातें ध्यान के लिए समझ लें। कुछ प्रश्न ध्यान के लिए पूछे हैं, उनको मैं समझा दूं थोड़ा सा और फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे।

 

एक मित्र ने पूछा हुआ है ध्यान के संबंध में कि क्या नाम— जप कोई पवित्र मंत्र का जप सहयोगी नहीं हो सकता है?

बिलकुल भी सहयोगी नहीं हो सकता, बल्कि बाधक हो सकता है। क्योंकि जब आप कोई मंत्र जपते हैं, तब आप एक विचार को ही बार—बार पुनरुक्त करते हैं। मंत्र यानी एक विचार। जब आप कोई नाम जपते हैं, तो एक शब्द को ही बार—बार दोहराते हैं। शब्द यानी विचार का एक अंश, एक टुकड़ा, एक हिस्सा। तो विचार को ही दोहरा कर अगर आप विचार से मुक्त हो जाना चाहते हों तो आप गलती में हैं। जितनी देर आप एक ही विचार को दोहराते रहेंगे उतनी देर तक दूसरे विचार आपको आते हुए नहीं मालूम पड़ेंगे। क्योंकि मन का नियम जैसा मैंने आपसे कहा, एक चीज पर अटका रहेगा। लेकिन जिस विचार को आप दोहरा रहे हैं, यह भी उतना ही विचार है जितने दूसरे विचार हैं। इसके दोहराने से कोई हित नहीं है। बल्कि अहित यह है कि एक

ही शब्द को बार—बार दोहराने से मन में मूर्च्छा पैदा होती है, निद्रा पैदा होती है। तो कोई भी एक शब्द को ले लें और उसे बार—बार दोहराएं, तो आपके भीतर नींद पैदा होगी; जागरण पैदा नहीं होगा। रिपीटीशन जो है किसी भी शब्द का, निद्रा लाने का सूत्र है। तो अगर नींद न आती हो आपको रात में, तो राम—राम जपना, ओम—ओम जपना सहयोगी हो सकता है नींद लाने में, लेकिन आत्म—ज्ञान में नहीं। न सत्य के दर्शन में, न परमात्मा के पास ले जाने में।

यह सरल सा सूत्र सबको गांव—गांव में पता है, लेकिन हमें खयाल में नहीं है। एक मां को अपने बच्चे को सुलाना होता है, तो वह कहती है, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। वह मंत्र का उपयोग कर रही है। वह ये दो शब्दों का दोहरा रही है राजा बेटा, राजा बेटा, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। वह थोड़ी देर में राजा बेटा जरूर सो जाएगा। मां सोचेगी कि मेरे बहुत संगीतपूर्ण स्वर के कारण सो गया, तो गलती में है। बच्चा बोर्डम की वजह से सो जाता है, ऊब की वजह से सो जाता है।

अब किसी के सिर के पास बैठ कर कहो राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, तो घबड़ाहट पैदा होती है। ऊब पैदा होती है। अब छोटा बच्चा भाग कर कहीं जा नहीं सकता। तो भागने का फिर एक ही रास्ता रह जाता है कि वह नींद में चला जाए, तो यह बकवास सुनाई पड़नी बंद हो जाए। यह बकवास से छुटकारा, एस्केप एक ही है कि वह नींद में चला जाए। नहीं तो यह बकवास सुननी पड़ेगी राजा बेटा सो जा! मुन्ना बेटा सो जा! यह बकवास कितनी देर तक मुन्ना बेटा सुनने को राजी हो! कितना ही राजा बेटा हो, वह भी घबड़ा जाता है। और उस घबड़ाहट में, उस ऊब में, उस बोर्डम में उसके पास एक ही विकल्प है कि वह सो जाए जल्दी से तो यह बकवास बंद हो सकती है, नहीं तो यह बकवास जारी रहेगी। तो वह नींद में प्रवेश कर जाता है।

नींद में प्रवेश करना इस बकवास से बचाव का उपाय है। तो अगर आप बैठ कर एक शब्द पकड़ लें—यही राजा बेटा ही पकड़ लें— और राजा बेटा, राजा बेटा दोहराते रहें, या राम—राम दोहराते रहें। सब शब्द एक जैसे हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता है। तो आप, जो मां करती है छोटे बच्चे के साथ, वह अपने मन के साथ खुद ही कर रहे हैं। तो मन थोड़ी देर में घबड़ा जाएगा, ऊब जाएगा, परेशान हो जाएगा। फिर एक ही रास्ता है बचने का कि वह नींद में चला जाए। और नींद में चला जाए तो आपकी यह बकवास से छुटकारा हो सकता है।

इस नींद में जाने को अगर आप समझते हों कि आप ध्यान में चले गए, तो आप बड़ी भूल में हैं। यह नींद एक तंद्रा है। एक मूर्च्छा की अवस्था है। हां, इसके बाद अच्छा लगेगा। इस नींद के बाद अच्छा लगेगा। जैसा की सभी नींद के बाद अच्छा लगता है। इस नींद के बाद थोड़ी राहत मिलेगी, क्योंकि इतनी देर के लिए आप चिंताओं से, दुख से, जीवन से, सबसे दूर चले गए। जैसे शराब पीने वाले को राहत मिलती है। जैसे गांजा पीने वाले को, अफीम पीने वाले को राहत मिलती है। जितनी देर के लिए नशे में होता है उतनी देर तक दुनिया की चिंता से भूल जाता है। फिर जब होश में आता है, सब दुख वहीं के वहीं खड़े हैं। फिर वह कहता है और अफीम चाहिए। कल तक अगर एक थोड़े से अफीम के हिस्से से काम चलता था, कुछ दिनों बाद दुगुनी अफीम चाहिए। और दिनों के बाद और ज्यादा अफीम चाहिए।

ऐसे साधु हैं गांजा—अफीम खाने वाले कि फिर अफीम और गांजा असर नहीं करते, तो सांप पाल कर रखते हैं। उससे जीभ पर कटवा लेते हैं, तब कहीं नशा पैदा होता है, नहीं तो नशा पैदा नहीं होता। फिर और ज्यादा नशा चाहिए।

तो आज अगर पंद्रह मिनट राम—राम जप किया था, कल तीस मिनट चाहिए। साल भर बाद एक घंटा चाहिए। फिर दो घंटा चाहिए। फिर दस घंटा चाहिए। फिर दुकान नहीं चल सकती— राम—जप करो कि दुकान करो—तो फिर जंगल में जाना चाहिए। फिर सब छोड़ना चाहिए। क्योंकि अब वह राम—जप जो वह नशे की दौड़ की तरफ बढ़ता जा रहा है। अब उसको जितनी ज्यादा देर करो उतना जरूरी हो गया, नहीं तो उसके बाहर आओ तो दुख मालूम होता है। तो फिर आदमी कहता है हम तो अखंड ही जप करेंगे—चौबीस ही घंटे करेंगे।

यह पागलपन की सीमाओं को छूना है, इससे कुछ आदमी के जीवन में कोई जान उत्पन्न नहीं होता है। न कोई समझ पैदा होती है। और जो कौम, और जो देश इस तरह के पागलपन में पड़ जाते हैं वे सब—कुछ खोकर निस्तेज हो जाते हैं। हमारा देश एक सीधा—सादा जागता उदाहरण है। हमारा देश सारे प्राण, प्रतिभा, सारा तेज खोकर निस्तेज हो गया। वह इस तरह की गलत नासमझी की बातों को के कारण। क्योंकि प्रतिभा विकसित नहीं होती पुनरुक्ति से। पुनरुक्ति से मुर्च्छा विकसित होती है। तो जो कौमें भी पुनरुक्ति की तरकीब सीख लेती हैं कि कुछ दोहरा कर नींद में चले जाने की तरकीब खोज लेती हैं……घर में बच्चा बीमार है, आप बैठ कर राम—राम जप कर नींद में चले जाएंगे—बच्चा गया, दुनिया गई, कोई पता नहीं है अब। नौकरी नहीं मिल रही, आप राम—राम जप लेते हैं और छुटकारा पा जाते हैं। न नौकरी की फिकर, न खाने की फिकर।

दरिद्र कौमें, दीन—हीन मुल्क धीरे— धीरे इस तरह की तरकीबें खोजते चले जाते हैं। और इन तरकीबों के कारण और दीन—हीन होते चले जाते हैं। क्योंकि जीवन बदलता है लड़ने और जूझने से। जीवन बदलता है उसके सामने खड़े होने से और बदलने की चेष्टा से। जीवन ऐसा आंखें बंद करके और राम—राम जपने से नहीं बदलता है। ये सब अफीम सिद्ध होती हैं इस तरह की सारी बातें।

इसलिए कोई नाम—जप नहीं, कोई मंत्र नहीं, कोई शब्द की पुनरुक्ति नहीं।

ध्यान तो धीरे— धीरे भीतर जो चेतना है उसके जागरण का नाम है। उसे सुलाने का नाम नहीं है। भीतर मेरे जो छिपा बैठा है वह जागे, और जागे, और जागे, वह इतना जागरूक हो जाए कि मेरे भीतर सोया हुआ कोई हिस्सा न रह जाए, मेरे सारे प्राण जाग्रत हो जाएं। उस जागरण की, उस अवेयरनेस की अवस्था का नाम ध्यान है। सो जाने का……पड़े हैं और लोग कह रहे हैं कि समाधि आ गई है, और मुंह से फसूकर गिर रहा है, और चक्कर में, फिट में पड़े हुए हैं और लोग कह रहे हैं कि समाधि आ गई। हिस्टीरिया है और लोग समझ रहे हैं कि समाधि आ गई।

यह ध्यान नहीं है और न समाधि है। ये सिर्फ रोग हैं हिस्टेरिक। ये सिर्फ बीमारियां हैं मूर्च्छा की। लेकिन दुनिया ऐसी पागल है और ऐसी नासमझ कि हिस्टीरिया किसी को आ जाए और बीमार हो जाए तो यूरोप में और अमरीका में उसका इलाज करेंगे, हम चारों तरफ भजन—कीर्तन करेंगे उसके कि महाराज को समाधि उत्पन्न हो गई है।

दुनिया समझदार होगी तो इन सब महाराजों की सबका इलाज करवाने की व्यवस्था करनी पड़ेगी। ये सब बीमार हैं, ये स्वस्थ नहीं हैं। इनका मानसिक रोग है, मानसिक तनाव का यह अंतिम फल है। यह कोई समाधि नहीं है कि मुंह से फसूकर गिर रहा है और वे घंटों बेहोश पड़े हैं और भक्तगण आस—पास कीर्तन कर रहे हैं कि इनको समाधि हो गई है।

समाधि का मतलब है परिपूर्ण जागरण। समाधि का मतलब निद्रा और बेहोशी और मूर्च्छा नहीं है। समाधि का मतलब है प्राण इतने जागरूक हो गए हैं कि भीतर कोई अंधकारपूर्ण कोना नहीं रह गया है, सब प्रकाशित हो गया है, भीतर एक दीया जल उठा है चेतना का। समाधि का मतलब सो जाना और मूर्च्छा नहीं है।

समाधि का अर्थ है जागृति, होश, अलर्टनेस। वैसा व्यक्ति तो जीवन भर जागा हुआ जीता है, प्रतिपल, प्रतिक्षण, प्रति श्वास जागा हुआ जीता है।

यह सब समाधि नहीं है। लेकिन अगर किसी का दिमाग खराब है और किसी को हिस्टीरिया आता हो और आस—पास भक्तगण मिल जाएं, तो वह भी काहे को कहे कि यह गड़बड़ है। यह और ही अच्छा हुआ। यह और ही ठीक हुआ।

यह चल रहा है हजारों वर्षों से। और यह दुर्भाग्य है कि यह कब तक चलता रहेगा कुछ कहा नहीं जा सकता। हम इसको चला रहे हैं।

मैं किसी जप को, किसी पुनरुक्ति को ध्यान नहीं कहता हूं। ध्यान का मतलब है मेरे भीतर सोई हुई चेतना जितनी तेजी से जागने लगे। तो उसी जागने की कोशिश करना है।

भी रात भी हम जो ध्यान करेंगे, तो उसमें आपको सो नहीं जाना है। शरीर शिथिल कर देना है, श्वास शिथिल छोड़ देनी है, मन शांत कर लेना है, लेकिन सो नहीं जाना है, भीतर परिपूर्ण जागे रहना है। इसीलिए मैंने कहा कि बाहर का सब सुनते रहना आप, क्योंकि अगर आप सुन रहे हैं तो आप जागे रहेंगे और अगर आप नहीं सुन रहे हैं तो आपके सो जाने की संभावना है। नींद अच्छी बात है, नींद बुरी बात नहीं है, लेकिन नींद को ध्यान मत समझ लेना। नींद बहुत अच्छी बात है। नींद जरूर लेनी चाहिए, लेकिन नींद ध्यान नहीं है, यह ध्यान रखना चाहिए।

और नींद न आती हो, तो कोई जप वगैरह का उपयोग करके आप नींद ला सकते हैं। लेकिन उससे कोई साक्षातकार हो जाएगा इस भूल में नहीं पड़ जाना चाहिए। वह आप कर सकते हैं, उसकी कोई कठिनाई नहीं है। जैसे कोई आदमी नींद की दवा खा लेता है, वैसे नाम—जप ले लें, तो कोई हर्जा नहीं है। वह नींद की दवा का काम करेगा।

विवेकानंद पहली दफा अमरीका में जब ध्यान की बात कहे तो एक अखबार ने एक लेख लिखा और उस लेख में लिखा कि विवेकानंद जो कह रहे हैं वह तो बड़ी अच्छी चीज है, वह तो नॉन—मेडिसिनल टैंरक्येलाइजर जैसा मालूम होता है, कि बिना दवा के नींद की दवा मालूम होती है। नींद लाने की अच्छी तरकीब है।

तो नींद लाना हो तो बात दूसरी है, लेकिन ध्यान लाना हो तो बात बिलकुल दूसरी है।

तो यहां जो हम प्रयोग कर रहे हैं उसमें सब शिथिल हो जाएगा, सब शांत जाएगा, लेकिन भीतर पूरी तरह जागे रहना है। उस जागे रहने के सूत्र पर कल हम और बात करेंगे, तो वह स्पष्ट समझ में आ सकेगा। इस प्रयोग को करने के पहले दों—तीन बातें खयाल में ले लें। एक बात तो यह कि बड़ा सरल सा प्रयोग है। आप कोई बहुत कठिन काम कर रहे हैं, ऐसा भाव न ले लें मन में। क्योंकि जिस काम को हम कठिन समझ लेते हैं वह कठिन हो जाता हैं—कठिन होने के कारण नहीं, हमारे समझने के कारण। जिस काम को हम सरलता से लेते हैं वह सरल हो जाता है। कठिनता हमारी दृष्टि में होती है।

तो हमें समझाया गया है हजारों साल से कि ध्यान बड़ी कठिन चीज है। यह तो किन्हीं दुर्लभ लोगों को उपलब्ध होती है, यह तो तलवार की धार पर चलना है, और यह तो फलां है और ढिका है। इन सब बातों ने हमारे मन में ऐसा भाव पैदा कर दिया है कि यह तो कुछ लोगों का काम है, यह सबके लिए हो नहीं सकता। हमारे लिए तो यही हो सकता है कि भजन—कीर्तन करें, राम—राम जप करें, या कहीं अपना कोई अखंड पाठ बिठा दें और माइक लगा कर जोर—जोर से चिल्लाएं कि खुद का भी लाभ हो, पास—पड़ोस के लोगों का भी लाभ हो, हमसे यही हो सकता है। यह ध्यान वगैरह तो कुछ थोड़े से लोगों की बात है। यह झूठी बात है।

ध्यान प्रत्येक व्यक्ति के लिए संभव है। ध्यान इतनी सरल बात है कि ऐसा कोई आदमी खोजना ही कठिन है जिसके लिए ध्यान न हो सके। लेकिन उसकी तैयारी, उस सरलता के भीतर प्रवेश करने की उसकी भूमिका और पात्रता उसे इकट्ठी करनी होती है। बहुत सरल बात है, उतनी ही सरल बात, जितनी कि कोई सरल से सरल बात हो सकती है। कली जैसे फूल बनती है उतनी ही सरल बात है कि मनुष्य का चित्त ध्यान बन जाए, लेकिन कली फूल बने इसके लिए खाद चाहिए, पानी चाहिए, रोशनी चाहिए। यह ठीक है, उसकी जरूरतें हैं। ऐसे ही मन ध्यान बने इसके लिए कुछ जरूरतें हैं, उन्हीं जरूरतों की हम बात कर रहे हैं।

कल हमने शरीर की जरूरतों की बात की। आज हमने बुद्धि, मस्तिष्क से कैसे हम पात्रता ले आएं, मस्तिष्क के जाल से छूट सकें, उसकी बात की। और कल हम हृदय की तीसरे केंद्र की बात करेंगे। हृदय और मस्तिष्क दोनों सुलझ जाएं, तो तीसरे केंद्र पर हमारा प्रवेश, पहुंचना एकदम सरल हो जाता है।

शायद कुछ नये लोग होंगे तो उनको मैं कह दूं कि अभी हम ध्यान के लिए लेटेगे। यह रात्रि का ध्यान है, सोते समय करने का है, इसलिए लेट कर करने का है। तो सब लोग अपनी—अपनी जगह बना लें और कोई किसी को बिना छूए हुए लेट जाए। कुछ लोग यहां ऊपर आ जाएं, कुछ आगे फर्श पर आ जाएं।

हां, बातचीत नहीं करेंगे, क्योंकि बातचीत का ध्यान से कोई भी संबंध नहीं है। हां, अपनी जगह बना लें और बातचीत बिलकुल न करें। क्योंकि जिस काम के लिए हम जा रहे हैं उसका बातचीत का क्या नाता है। इधर आगे हट आएं वहां भीतर जगह न हो तो, यहां आगे दों—चार लोग हट आएंगे। लेकिन वहां भीतर ऐसे न पड़े रहें कि वहां मुसीबत में पड़े हैं और किसी तरह लेटे हुए हैं, तो क्या ध्यान हो पाएगा। फिर बहुत मुश्किल हो जाएगी। इसलिए अगर आपको ठीक जगह न मिली हो तो आगे हट आएं।

(ठहर जाइए एक मिनट। यह माइक चलने देना।)

हां, जल्दी आप कर लें इंतजाम, ताकि फिर प्रकाश बुझाया जा सके।

(ठहर जाइए, अभी जला रहने दें, सबको लेट जाने दें।)

आप लोग बैठे रहने का इरादा है, जगह नहीं है वहां, तो यहां आगे कुछ लोग हट कर आ सकते हैं जिनको जगह नहीं है।

जगह छोड़ना अपनी बड़ी मुश्किल बात होती है। जो जिस जगह है वहीं बैठा रहना चाहता है, ऐसा है न। ठीक है! और खयाल रखें कि आपके कारण किसी दूसरे व्यक्ति को जरा भी बाधा न हो। क्योंकि आपको यह तो हक है कि अपना ध्यान खराब कर लें, लेकिन यह हक नहीं है कि किसी दूसरे का ध्यान खराब हो। ठीक है! प्रकाश बुझा दें।

सबसे पहले आंख को धीरे से बंद कर लें। आंख बंद कर लें। बहुत धीरे से आंख बंद कर लें। फिर सारे शरीर को ढीला छोड़ दें। बिलकुल ढीला, जैसे शरीर में कोई प्राण नहीं हैं। बिलकुल ढीला छोड़ दें। शरीर को एकदम शिथिल और ढीला छोड़ दें। एकदम शांत और ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर में कोई प्राण ही नहीं हैं— शरीर बिलकुल ढीला छोड़ दिया गया। फिर मैं सुझाव दूंगा, मेरे साथ अनुभव करें।

शरीर शिथिल हो रहा है… अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर रिलैक्स हो रहा है……ढीला छूट रहा है… धीरे— धीरे शरीर विश्राम को उपलब्ध हो रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है. …..शरीर शिथिल हो रहा है… शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो गया है…।

श्वास शांत हो रही है… भाव करें, श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत होती जा रही है… श्वास शांत हो रही है……श्वास बिलकुल शांत हो गई है…।

भाव करें, मन शांत हो रहा है.. मन मौन हो रहा है……मन मौन हो रहा है……मन मौन होता जा रहा है……मन मौन होता जा रहा है……मन भी बिलकुल मौन हो गया है. .मन भी शांत हो गया है…।

अब दस मिनट के लिए बिलकुल शांत पड़े रह जाएं। लेकिन भीतर जागे रहें, होश से भरे रहें। बाहर की कोई भी ध्वनि हो शांति से सुनते रहें। ध्यान रखें, सो नहीं जाना है, जागे रहना है।

शरीर सो गया, मन सो गया, लेकिन हम जागे हुए हैं। चुपचाप सुनते रहें, कोई भी ध्वनि हो चुपचाप सुनते रहें। सुनते ही सुनते, सुनते ही सुनते मन एक बिलकुल गहरे शून्य में उतर जाएगा। सुनें……दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रहें…।

मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन बिलकुल शांत हो गया है……मन बिलकुल शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है.. मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन बिलकुल शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है…।

जागे रहें, भीतर होश से भरे रहें। एक गहरे सन्नाटे में प्रवेश हो रहा है। बिलकुल होश से भरे रहें। एक गहरी शांति में प्रवेश हो रहा है।

मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है… और गहरे डूब जाएं, और गहरे डूब जाएं……मन बिलकुल शांत हो गया है…। एक गहरा सन्नाटा पैदा हो गया, एक बिलकुल शून्य पैदा हो गया। और गहरे डूब जाएं, और गहरे डूब जाएं, बिलकुल शून्य में चले जाएं। मन शून्य हो गया है…।

अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें. .प्रत्येक श्वास के साथ और भी शांति मालूम होगी। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……फिर बहुत आहिस्ता से आंख खोलें……जैसी शांति भीतर है वैसी ही शांति बाहर भी मालूम होगी। धीरे— धीरे आंख खोलें, बहुत आहिस्ता से आंख खोलें। फिर उतने ही आहिस्ता से धीरे— धीरे उठ कर बैठ जाएं। गड़बड़ न हो, सब अपनी जगह चुपचाप बैठ जाएं। चुपचाप अपनी जगह बैठ जाएं।

यह तो हमने प्रयोग किया समझने के लिए। अभी रात सोते समय इस प्रयोग को करें और फिर प्रयोग करने के बाद चुपचाप सो जाएं। सोने के पहले अपने कमरे में जाकर इस प्रयोग को करें और प्रयोग को करके सो जाएं।

रात की बैठक समाप्त हुई।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–12)

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श्रद्धा और सत्‍य का मिथुन—(प्रवचन—बाहरवां)

प्यारे ओशो!

ऐतरेय ब्राह्मण में यह सूत्र आता है :

श्रद्धा पत्नी सत्यं यजमान:।

श्रद्धा सत्यं तदित्युत्तमं मिथुनम्।

श्रद्धया सत्येन मिमुने न स्वर्गाल्लोकार जयतीति।।

अर्थात् (जीवन—यज्ञ में) श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान। श्रद्धा और सत्य की उत्तम जोड़ी है।

श्रद्धा और सत्य की जोड़ी से मनुष्य दिव्य लोकों को प्राप्त करता है। प्यारे ओशो! इस सूत्र का आशय समझाने की अनुकंपा करें।

नंद मैत्रेय! यह सूत्र अत्यंत अर्थगर्भित है। संदेह से सत्य नहीं पाया जा सकता। संदेह से सत्य अकस्मात् मिल भी जाए तो भी तुम चूक जाओगे। संदेह की दृष्टि सत्य को भीतर प्रविष्ट ही न होने देगी। सत्य द्वार भी खटखटाका तो भी तुम द्वार न खोलोगे। संदेह कहेगा : ‘होगा हवा का झोंका।’ संदेह, परमात्मा भी सामने खड़ा हो, तो उस पर भी प्रश्नचिह्न लगा देगा। जहां समस्या नहीं हो तो वहां संदेह समस्या बना लेता है, निर्मित कर लेता है। संदेह को एक ही कुशलता है : समस्या निर्माण करना। समाधान उसके पास नहीं है। और किसी तरह खींचतान कर तुम कोई समाधान बना भी लो तो तुम्हारा संदेह पुन : नयी समस्याएं निर्मित करता जाएगा।

संदेह में समस्याएं ऐसे ही लगती हैं, जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। लाख काटो, फिर—फिर लग जाएंगे। वृक्ष पर और पत्ते बने हो जाएंगे।

संदेह का अर्थ होता है कि मैं स्वीकार करने को राजी नहीं हूं; मेरे भीतर स्वीकार— भाव नहीं है; अस्वीकार, इनकार, निषेध! संदेह अर्थात् नकार; नहीं! और जो व्यक्ति नहीं में जीता है वह बंद हो जाता है—द्वार—दरवाजे बंद, खिडकियां बंद। इतना ही नहीं, छोटे—छोटे रंध्र भी रह गये हों कहीं, छोटी—छोटी संधियां भी रह गयी हों, उनको भी संदेहशील व्यक्ति बंद कर देता है। वह जीते जी कब्र में समा जाता है। वह जीते जी मर जाता है। संदेह मृत्यु है। यूं चलोगे, उठोगे, काम— धाम करोगे, लेकिन एक अदृश्य कब तुम्हें घेरे रहेगी; सूरज से न जुड़ने देगी; हवाओं से न जूड़ने देगी; फूलों से न जुड्ने देगी; तारों से न जुड्ने देगी—जुड्ने ही न देगी। संदेह की प्रक्रिया है तुम्हें तोड़ लेने की।

संदेह एक दीवाल है, सेतु नहीं; जोड़ता नहीं, तोड़ता है। जहां संदेह आया, तत्‍क्षण संबंध विच्छिन्न हो जाता है, टूट जाता है। संदेह के गृह में तो सत्य अतिथि नहीं हो सकता, असंभव है। प्रवेश ही नहीं मिलेगा। संदेह आतिथेय नहीं बन सकता, मेजबान नहीं बन सकता। वह क्षमता तो श्रद्धा की है।

श्रद्धा का अर्थ विश्वास नहीं होता, खयाल रखना। वह पहली बात खयाल रखना, नहीं तो चूक हो जाएगी। विश्वास तो संदेह के विपरीत है और श्रद्धा विश्वास और संदेह दोनों के अतीत है। श्रद्धा बात ही और है। विश्वास तो सिर्फ संदेह को छिपाना है, ढांकना है। जैसे घाव तो है, .लेकिन सुंदर वस्त्रों से ढांक लिया है। औरों को दिखाई नहीं पड़ेगा, मगर तुम कैसे भूलोगे? तुम नग्न हो, तुमने वस्त्र ओढ़ लिए; औरों के लिए नग्न न रहे, मगर अपने लिए तो नग्न ही हो। हर व्यक्ति अपने वस्त्रों में नग्न है। कैसे तुम यह बात भुला सकते हो कि तुम वस्त्रों के भीतर नग्न नहीं हो? यह तो असंभव है। ही, औरों के लिए तुम नग्न नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे और औरों के बीच वस्त्र आ गए। मगर तुम्हारे स्वयं के लिए तो तुम नग्न ही हो। तुम्हारे लिए तो वस्त्र बाहर हैं। तुम्हारी नग्नता ज्यादा करीब है; वस्त्र नग्नता के बाहर हैं, दूर हैं।

विश्वास वस्त्रों जैसा है। तुम्हारे संदेहों को ढांक लेगा। औरों को लगेगा—तुम बड़े श्रद्धालु!

ये मंदिरों में घंटे बजाते हुए लोग, ये पूजा—पाठ करते हुए लोग, ये मसजिदों में नमाजें पढ़ते हुए लोग, ये गिरजाघरों में, गुरुद्वारों में जय—जयकार करते हुए लोग—ये सब विश्वासी हैं। काश, पृथ्वी पर इतनी श्रद्धा से भरे लोग होते तो ऐसी विक्षिप्त, ऐसी रुग्ण, ऐसी सड़ी—गली मनुष्यता पैदा होती? इतनी श्रद्धा होती तो इतने सत्य के फूल खिलते! अनंत फूल खिलते। फूलों से ही पृथ्वी भर जाती सुगंध ही सुगंध से भर जाती। पृथ्वी स्वर्ग हो जाती।

लेकिन देखते हो, नमाज पढ़ने आदमी मसजिद जाता है और कहावत तो तुमने सुनी है, उसको चरितार्थ करता है—मुंह में राम बगल में छुरी। मुरादाबाद की इस ईदगाह में जहां अभी—अभी हिन्दू मुसलिम दंगा हुआ और कोई डेढ़ सौ —लोग मारे गए, नमाज पढ़ने लोग गए थे ईदगाह में। छुरे और बंदूकें किसलिए ले गए थे? फिर यह नमाज कैसी जो छुरे—बंदूकों के साथ हो रही हो? यह दंगा—फसाद करने की तैयारी थी। नमाज का क्या मूल्य रह गया? ऊपर के वस्त्र बड़े झीने हैं, भीतर की असलियत बहुत गहरी है। हिन्दूलड़ते हैं, मसजिदें जलाते हैं। मुसलमान लड़ते हैं, मंदिर जलाते हैं, मूर्तियां तोड़ते हैं। कुरान जलती है, गीता जलती है, बाइबिल जलती है। सारी पृथ्वी तथाकथित धार्मिक लोगों के कारण इतनी पीड़ित है कि आश्चर्य होता है, हम कब जागेंगे, कब पुनर्विचार करें गे?

मनुष्य के इतिहास में जितना पाप धर्मों के नाम पर हुआ है, किसी और चीज के नाम पर नहीं हुआ। राजनीति भी पिछड़ जाती है; धर्म ने वहां भी बाजी मार ली है।

निश्चित ही ये विश्वासी लोग हैं, लेकिन श्रद्धालु नहीं! श्रद्धालु हिंदू और श्रद्धालु मुसलमान और श्रद्धालु ईसाई और श्रद्धालु जैन में कोई भेद नहीं हो सकता। श्रद्धा का रंग एक, रूप एक, स्वाद एक। श्रद्धा एक ही अमृत है—जिसने पीया, फिर वह कोन है —कोई फर्क नहीं पड़ता। उस एक परमात्मा से जोड़ देती है। उस एक सत्य से जोड़ देती है। विश्वास जोड़ते नहीं, तोड़ते हैं। मैंने कहा संदेह तोडता है—और विश्वास भी तोड़ते हैं। इसलिए विश्वास केवल संदेह को छिपानेवाले वस्त्र हैं। विश्वास धोखा है। विश्वास को श्रद्धा मत समझ लेना।

वही भूल हो गयी है। हमने विश्वास को श्रद्धा समझ लिया है। हम हर बच्चे को विश्वास सिखा रहे हैं। बच्चा पैदा नहीं हुआ कि बस धार्मिक संस्कार शुरू हो जाते हैं। धार्मिक संस्कारों को क्या अर्थ है तुम्हारे? यही कि थोपो इस पर विश्वास—बनाओ इसे हिन्दू बनाओ जैन, बनाओ बौद्ध। इसे कुछ बनाकर रहो। तुम जो हो वही इसको बनाकर रहो। और कैसा आश्चर्य है, तुमने कभी यह भी न सोचा कि तुम जिंदगीभर हिन्दू थे, जैन थे, बौद्ध थे, तुमने क्या खाक पा लिया है! तुम्हारे हाथों में क्या है? तुम्हारे प्राणों में क्या है? न ही, कोई दीयाजलता दिखाई पड़ता! न ही, तुम्हारे जीवन में कोई उत्सव है! कम से कम इस बच्चे को तो न बिगाड़ो, इसे तो सावधान करो। इसे तो कहो कि मैं जिंदगीभर एक विश्वासी की तरह जीया, कुछ भी पाया नहीं। तू विश्वासी की तरह मत जीना। तू श्रद्धा की तलाश कर। हम तो न पा सके। हमने तो जिंदगी गंवायी, मगर तू मत गंवा देना।

मगर उलटा मजा है, मां—बाप थोपते हैं अपने आग्रहों को बच्चों के ऊपर। धार्मिक शिक्षा के लिए बड़ी आतुरता रहती है कि जल्दी से धार्मिक शिक्षा हो जाए। मुसलमान बच्चा पैदा होता है, यहूदी बच्चा पैदा होता है—खतना करो इसका, जल्दी खतना करो! क्योंकि कहीं जवान यह हो जाए और इनकार करने लगे। और जवान होगा तो इनकार करेगा ही, कि अगर परमात्मा को खतना ही करके भेजना था तो उसने खतना कर ही दिया होता। तुम्हारे हाथ में खतना छोड़ा होता? जो भी जरूरी था शरीर के लिए, उसने करके भेजा है। जैसा उसने शरीर बनाया है, इसमें काट—पीट करने का तुम्हें क्या हक है? जवान हो जाएगा तो इनकार करेगा। जल्दी से खतना कर दो, देर न करो। जल्दी से जनेऊ पहना दो, यज्ञोपवीत संस्कार कर दो। क्योंकि बडा हो जाएगा तो संदेह उठाने लगेगा, प्रश्न खड़े करने लगेगा। फिर सुलझाना मुश्किल होगा। अभी ठूंस दो। अभी इसको कुछ होश नहीं है। अभी इसके सामने सवाल नहीं है। अभी यह असहाय है, तुम पर निर्भर है। अभी तुम जिलाओ तो जीएगा, तुम मारो तो मर जाएगा। अभी तुम्हारी मुट्ठी में है। कहीं अपने पैरों पर खडा हो गया और कहने लगे कि ‘क्यों बांधू यह रस्सी, नहीं बांधता, मुझे इसमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। क्यों तुम्हारे मंदिरों में जाकर सिर. झुकाऊं? मुझे पत्थर दिखाई पड़ते हैं।’ फिर मुश्किल हो जाएगी।

इसलिए सारे लोग बड़े आतुर होते हैं—जल्दी से धर्म की शिक्षा दो! और धर्म की शिक्षा पर क्या शिक्षा देते हैं? शिक्षा यही कि कुछ अंधविश्वास थोप दो —ऐसे थोप दो कि वे खून में मिल जाएं, मांस—मज्जा में सम्मिलित हो जाएं। बच्चा उनके साथ ही बड़ा हो, उसको याद भी न रहे कि कब किस घड़ी में ये विश्वास उसके भीतर डाल दिए गए। जब वह बड़ा .हो, तो पाए कि विश्वासों के साथ ही बडा हुआ है। जैसे ये विश्वास लेकर ही आया हो परमात्मा के यहां से।

अगर विश्वास और संदेह में चुनना हो तो मैं कहूंगा : संदेह चुनना। क्योंकि संदेह स्वाभाविक है, विश्वास अस्वाभाविक है। और मेरा यह भी अनुभव है कि अगर कोई व्यक्ति ईमानदारी से संदेह चुने तो आज नहीं कल श्रद्धा को खोजना ही पड़ेगा, क्योंकि संदेह के साथ जीना असंभव है। संदेह यू है जैसे छाती में तीर चुभा हो। उसे निकालना ही होगा। लेकिन विश्वास मलहम—पट्टी कर देता है। विश्वास खतरनाक है—संदेह से भी ज्यादा खतरनाक है। विश्वास से सावधान। विश्वास, तीर भी चुभा रहता है, मलहम—पट्टी भी कर देता है। क्लोरोफार्म की तरह है विश्वास। तुम सड़ते रहते हो और तुम्हें बेहोश रखता है। तुम्हें भरोसा दिलाए रखता है कि सब ठीक है, कुछ गलत नही है, सब ठीक है। इस सब ठीक होने की भ्रांति में। जो गलत है तुम उसके भी आदी हो जाते हो। धीरे— धीरे तुम घावों के भी आदी हो। तुम उन्हें जीवन का अनिवार्य अंग मान लेते हो।

मैं चाहता हूं : संदेह को चुनना, अगर विश्वास और संदेह में चुनना हो। क्योंकि संदेह कम से कम परमात्मा का दिया हुआ है। और परमात्मा जो भी देता है, तुम जो भी जन्म के साथ लेकर आए हो, उसकी जरूर कोई सार्थकता है। संदेह से सत्य तो कभी नहीं मिलेगा, लेकिन संदेह में कोई जो नहीं सकता। संदेह में फांसी लग जाती है। और फांसी का फंदा कोन नहीं तोड़ना चाहेगा? फांसी का फंदा तोड़ा तुमने और श्रद्धा का आविर्भाव हुआ। संदेह के नीचे दबी है श्रद्धा और तुम संदेह के ऊपर थोप रहे हो विश्वास। खयाल रखना, तुम श्रद्धा से और भी दूर हो गए। एक पर्त तो संदेह की थी, एक चट्टान तो संदेह की थी, तुमने एक चट्टान और रख ली—विश्वास की। अब श्रद्धा और भी दूर हो गयी। अब खुदाई और भी करनी पड़ेगी।

एक बहुत बड़े संगीतश वेजनर के पास जब भी कोई संगीत सीखने आता था, वह पहली बात यही पूछता था कि तुमने कहीं और तो संगीत नहीं सीखा? अगर सीखा हो तो मेरी फीस दुगनी होगी। अगर बिलकुल नहीं सीखा है कहीं, क ख ग से शुरू करना है, तो फिर कोई बात नहीं। फिर उतनी ही फीस लूंगा जितनी मैं सभी से लेता हूं। फिर दुगनी नहीं होगी। स्वभावत: किसी ने आठ साल, दस साल संगीत का अभ्यास किया था, तो वह कहता, ‘आप उलटी बातें कर रहे हैं। हम दस साल मेहनत करके आए हैं, संगीत सीखकर आए हैं। हमसे आपको कम फीस लेनी चाहिए। जो क् ख ग से शुरू करेंगे उनसे ज्यादा फीस लेनी चाहिए।

वेजनर कहता कि मेरा अनुभव कुछ और है। मेरा अनुभव यह है कि तुम जो सीखकर आए हो, पहले मुझे वह भुलाना पड़ेगा। तब काम शुरू होगा। काम तो क् ख ग से ही शुरू होगा। पहले तुम्हारी स्लेट की सफाई करनी पड़ेगी, फिर लिखावट हो सकेगी।

यह मेरा भी अनुभव है। मैं वेजनर से राजी हूँ। वह ठीक कहता था। वह पश्चिम के बहुत बडे संगीतज्ञों में से एक था। उसने बात पते की कही है, गहरी कही है। मेरा भी यह अनुभव है। जो विश्वासी मेरे पास आ जाते हैं उनके साथ ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। जो संदेहशील व्यक्ति आते हैं उनके साथ उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती, क्योंकि उनके पास एक ही चट्टान है जिसको तोड़ना है। विश्वासी के पास दोहरी चट्टानें हैं। पहले उसका विश्वास तोड़ो और विश्वास से वह चिपटता है, क्योंकि विश्वास में सांत्वना है। संदेह में तो कोई सांत्वना है ही नहीं। प्रत्येक व्यक्ति संदेह से मुक्त होना चाहता है। संदेह स्वाभाविक है, संदेह से मुक्त होने की आकांक्षा स्वाभाविक है। विश्वास अस्वाभाविक है, आरोपित है। और इसलिए विश्वास से मुक्त होने की कोई आकांक्षा भी नहीं है। क्योंकि कभी परमात्मा ने सोचा भी नहीं था कि तुम विश्वास में पड़ जाओगे। विश्वास पंडितों की, पुरोहितों की ईजाद है, बेईमानों की ईजाद है, शोषकों की ईजाद है, जो तुम्हारा लहू चूस रहे हैं उनकी ईजाद है।

विश्वास झूठा सिक्का है; श्रद्धा के नाम से चलता है, लेकिन झूठा सिक्का है। विश्वास का अर्थ होता है : उधार, बासा। और सत्य कभी बासा हो सकता है, उधार हो सकता है? विश्वास तो ऐसे है जैसे कभी—कभी किताबों में दबे हुए गुलाब के फूल मिल जाते हैं—सूखे मुर्दा। न उनमें गुलाब की गंध हौती है, न रंग होता है। विश्वास ऐसा है—किताबों में दबा हुआ फूल। और श्रद्धा ऐसी है—अभी झाड़ो पर खिला हुआ फूल। अभी रसधार बह रही है उसमें। अभी जीवंत है। अभी प्राण हैं उसमें। अभी सूरज की किरणें प्रवेश करती हैं। अभी हवाएं उसे दुलराती हैं। अभी वह सांस लेता है। अभी उसके हृदय में धड़कन है। अभी परमात्मा उसके भीतर विराजमान है।

श्रद्धा और विश्वास में वैसा ही फर्क है जैसे कागजी फूलों में और असली फूलों में; झूठे सिक्कों में और असली सिक्कों में। विश्वास में मत पड़ जाना। इसलिए मैं चाहता हूं : सौभाग्य का दिन होगा वह, जिस दिन हम अपने बच्चों को विश्वास देना बंद कर देंगे। हमें वस्तुत : अपने बच्चों को संदेह पर धार रखना सिखाना चाहिए। संदेह की तलवार पर धार रखी। संदेह का उपयोग करो, ताकि कोई विश्वास तुम्हें पकड़ न सके। संदेह को सजग रखो, ताकि किसी विश्वास के जाल में तुम उलझ न जाओ।

और संदेह की एक खूबी है। खूबी यह है कि संदेह तुम्हें बेचैनी में रखेगा, अशांत रखेगा, परेशान रखेगा। उसमें कोई सांत्वना नहीं है। उसमें कोई सुरक्षा नहीं है। काटे ही कांटे पर जैसे कोई सोया हो, करवट भी नहीं बदल सकते।

विश्वास तो बड़ी सुखद शैया दे देता है। जी भरकर सोओ। घोड़े बेचकर सीओ। जागने का कोई सवाल ही नहीं है। विश्वास मूर्च्छित करता है। संदेह सजग रखता है। लेकिन संदेह से सत्य नहीं मिलता, पर संदेह से एक काम होता है, वह. काम है कि संदेह तुम्हें अपने से मुक्त करने के लिए सदा उत्पेरित करता है। संदेह कहता है कि मेरे पार जाओ। संदेह के पार जाना ही होगा।

तुम जरा सोचो तो, तुम मानकर बैठ गए हो कि आत्मा अमर है; जाना नहीं। यह तुम्हारा मानना है कि आत्मा अमर है। बस आत्मा को अमर मान लिया तो अब आत्मा का अनुभव करने की क्या जरूरत रही! मान लिया सो बात खत्म हो गयी। जब मान ही लिया तो अब खोजना क्या है? हटा दो इस विश्वास को और तब प्राणों में एक तडूफ उठेगी, एक बेचैनी, एक तूफान, एक आधी, एक झंझावात। सब कैप जाएगा। मौत द्वार पर दस्तक दे रही है, हर पल आ सकती है, कभी भी आ सकती है। और आत्मा है भी या नहीं, यह भी पता नहीं, अमरता की तो बात दूर। मौत के बाद होगी या नहीं, यह तो सवाल नहीं; अभी भी है या नहीं, यह भी संदिग्ध है। कैसे तुम बैठे रहोगे इस अंगारे पर। इस ज्वालामुखी पर, धधकते ज्वालामुखी पर ज्यादा देर नहीं बैठ सकोगे। यह संदेह तुम्हें अन्वेषण मैं ले जाएगा। यह संदेह ही तुम्हें खोज में गतिमान करेगा। और उसी खोज का अंतिम फल श्रद्धा है।

श्रद्धा है जानना, मानना नहीं। श्रद्धा है अनुभव। श्रद्धा है ध्यान, ज्ञान नहीं। शान विश्वास पैदा कर देता है। संदेह है अज्ञान। विश्वास है ज्ञान—उधार, बासा, शास्त्रीय, तोतारटत। और श्रद्धा है स्वानुभव, साक्षात्कार, सत्य के साथ मिलन।

संदेह से श्रद्धा को खोजो। श्रद्धा तुम्हें सत्य से मिला देगी। यह सम्यक सूत्र है। संदेह को सीढ़ी बनाओ—श्रद्धा के मंदिर तक पहुंचने के लिए। तलवार की धार पर चलना है। मगर कोई और उपाय नहीं है, कोई और सस्ता मार्ग नहीं है। चलना ही होगा तलवार की धार पर। यूं ही निखार आता है। यूं ही जीवन में गत्‍यात्‍मकता आती है, प्रवाह आता है। यूं ही जीवन में ऊर्जा का आविर्भाव होता है। चुनौतियों में ही तो तुम जागते हो। संदेह चुनौतियां देता है।

संदेह का उपयोग करना सीखो। संदेह को दबाओ मत। मैं चाहता हूं कि तुम संदेह से जरूर मुक्त होओ, लेकिन दबाकर कोई कभी मुक्त नहीं हुआ है। जिसको तुम दबा लोगे, उसे बार—बार दबाना पड़ेगा। उससे कभी मुक्ति नहीं होगी। वह भीतर बैठा रहेगा, वह भीतर पड़ा रहेगा। लाख दबाओ, फिर अवसर पाकर निकल आएगा। जैसे कोई बीज को जमीन में दबा दे, वर्षा आएगी, फिर अंकुरण हो जाएगा। लाख दबाए चले जाओ, फिर—फिर अंकुर आएंगे। फिर—फिर अवसर आएंगे। संदेह फिर खडा हो जाएगा।

संदेह दबाया नहीं जा सकता। ही, संदेह मिटाया जा सकता है। और मिटाने का उपाय है : संदेह को जीओ। संदेह को उसकी समग्रता से जीओ। डरना क्या है? भय क्या है? संदेह की सीढ़ी से पूरी तरह चलो। और तुम चकित होओगे यह जानकर कि संदेह श्रद्धा तक ले आता है। लोगों ने तुमसे उलटी बात कही है। तुम्हें अब तक यही समझाया गया है कि संदेह से तुम कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंचोगे। यह बात गलत है। मैं पहुंचा हूं संदेह से ही श्रद्धा तक। इसलिए अपने अनुभव से कहता हूं कि यह बात बुनियादी रूप से गलत है। संदेह के अतिरिक्त कोई कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंचा है। ही, यह जरूर सच है कि संदेह से कोई सत्य तक नहीं पहुंचता है। संदेह श्रद्धा तक ले आता है, बस। और जो श्रद्धा पर आ गया उसकी भूमिका तैयार है। सत्य तक जाना ही नहीं होता, सत्य खुद आता है। तुम्हारा काम है संदेह से श्रद्धा तक आ जाओ, फिर प्रतीक्षा करो। फिर धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो। सत्य खुद आएगा।

कबीर ने कहा है : मैं खोज—खोज थक गया परमात्मा को, नहीं मिला, नहीं मिला। परमात्मा तुम्हारी खोज से नहीं मिलता। तुम खोजोगे भी कहा? किस दिशा में? काबा में कि काशी में कि कैलाश में, कहा खोजोगे? उसका कोई पता भी तो नहीं, उसका कोई ठिकाना भी तो नहीं। नाम— धाम भी तो नहीं। जाओगे कहां? कहां खोजोगे, क्या करोगे? शास्त्रों में भटकोगे और शास्त्रों में भटकना बीहडू जंगलों में भटकना है, जहां भटक गए तो निकलना मुश्किल हो जाता है। गीता में खोजोगे, कुरान में खोजोगे, बाइबिल में खोजोगे और भटक जाओगे, अटक जाओगे। सत्य को खोजा नहीं जा सकता।

कबीर ठीक कहते हैं कि मैंने बहुत खोजा, नहीं पाया। मगर खोजते—खोजते एक बात घट गयी : मैं खो गया। उसे तो नहीं पाया, लेकिन मैं खो गया। और जिस दिन मैं खो गया, एक अपूर्व घटना घटी। उसी दिन से परमात्मा मेरे पीछे लगा फिरता है। हारे लागे पाछे फिरत कहत कबीर कबीर! हरि लागे पाछे फिरत.. पीछे—पीछे हरि घूमते हैं मेरे और कहते हैं—कबीर, कबीर, कहां जाते! अरे सुनो भी, रुको भी! अब मुझे कुछ पड़ी नहीं—कबीर कहते हैं। अब मैं जानता हूं कि मैं मिट गया। भूमिका तैयार हो गयी।

जिस दिन संदेह मिटता है उस दिन मैं भी मिट जाता है। संदेह और मैं का संग—साथ है। श्रद्धा और मैं का कोई संग—साथ नहीं है। संदेह है अहंकार, श्रद्धा है निरअहंकारिता। जहां श्रद्धा आयी, भूमिका बन गयी। फिर परमात्मा स्वयं आता है, सत्य स्वयं आता है।

इसलिए यह ऐतरेय ब्राह्मण का सूत्र बड़ा प्यारा है : श्रद्धा पत्नी सत्यं यजमान :। श्रद्धा को स्त्री कहा। ठीक ही कहा। ये काव्यात्मक प्रतीक हैं। सत्य तो है पुरुष, श्रद्धा है स्त्री। इसलिए सत्य को यजमान कहा, अतिथि कहा। और मेजबान तो कोई स्त्री ही हो सकती है; पुरुष की वह क्षमता नहीं, क्योंकि पुरुष की वह प्रेम की पात्रता नहीं। श्रद्धा है प्रेम की पराकाष्ठा। श्रद्धा स्त्रैण है। इसलिए जब कभी पुरुष में भी घटती है तो उसके व्यक्तित्व में भी स्त्रैण कोमलता आ जाती है।

तुम देखते हो, बुद्ध, महावीर, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण, इनमें से किसी की हमने दाढ़ी—मूंछ नहीं बनायी है। तुमने कोई प्रतिमा देखी जिसमें राम और कृष्ण की दाढ़ी—मूंछ हों? या बुद्ध की, या महावीर की? और क्या तुम सोचते हो, सब मुखन्नस थे, कि किसी को दाढ़ी—मूंछ थी ही नहीं? एकाध हो भी सकता है कि मुखन्नस हो, मगर चौबीस के चौबीस जैनों के तीर्थंकर….. बुद्ध भी, राम भी, कृष्ण भी, सारे अवतार! इनकी दाढ़ी—मूंछ क्या हुई? और यूं भी नहीं कि सबके बचपन की तसवीरें हैं ये। बुद्ध बयासी वर्ष जीए, महावीर अस्सी वर्ष जीए। अस्सी वर्ष तक कम से कम दाढ़ी—मूंछ तो निकल ही आयी होगी। मगर क्या हुआ? हुआ यह कि हमने दाढ़ी—मूंछ अंकित नहीं की। हम इतिहास का उतना भरोसा नहीं करते। इतिहास दो कोड़ी की चीज है। हम समय का भरोसा नहीं करते, इतिहास का क्या भरोसा करें? हम कालातीत पर दृष्टि रखते हैं। हम, इतिहास से भी बड़ा कुछ सत्य है, उस पर हमारी नजर है। इतिहास में तथ्य होते हैं, सत्य नहीं होते। सत्य तो बड़ी और बात है। सत्य तो काव्य में होता है।

ये काव्यात्मक प्रतिमाएं हैं। यह दाढ़ी—मूंछ हमने हटा दी। दाढी—मूंछ तो रही, निश्चित रही, इसमें कोई शक—शुबहा का कारण नहीं है। लेकिन हमने मूर्तियों से हटा दी। हटा दी इसलिए कि जब ये व्यक्ति परम श्रद्धा को उपलब्ध हुए तो इनके व्यक्तित्व में एक तरह की स्त्रैणता आ गयी। उस स्त्रैणता को कैसे हम सांकेतिक करें, किस तरह संकेत दें? पत्थर की प्रतिमा में कैसे लिखें इस बात को कि इनके व्यक्तित्व में स्त्रैण कोमलता आ गयी थी, श्रद्धा पराकाष्ठा को पहुंच गयी थी? दाढ़ी—मूंछ हटाकर हमने वह काम किया है।

फ्रेड्रिक नीत्शे ने अपनी बहुत—सी महत्त्वपूर्ण बातों में एक बात यह भी कही है….. हालांकि उसने तो आलोचना के लिए कही है, खंडन के लिए कही है। वह कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं था, नास्तिक था। उसने ही यह प्रसिद्ध सूत्र दिया है इस सदी को कि ईश्वर मर चुका है। यद्यपि उसने आलोचना में यह बात कही है, लेकिन मैं मानता हूं इसमें थोड़ी सच्चाई है। मैं तो प्रशंसा में मानता हूं इस बात को। मेरी व्याख्या और है। उसने कहा है कि बुद्ध और जीसस स्त्रैण हैं और उन्होंने सारी मनुष्यता को स्त्रैण कर दिया। उसने तो निंदा के लिए कहा है। वह तो उसी तरह कहा है, जैसे तुम किसी को कह देते हो—नामर्द, स्त्रैण। तुम तो निंदा के लिए किसी को गाली देना चाहते हो, तब यह कहते हो। ऐसा ही उसने कहा है, क्योंकि उसके लिए पुरुष की जो पौरुषता है, जो कठोरता है, उसके प्रति बड़ा समादर है।

उसने लिखा है : मैंने अपने जीवन में जो सबसे सुंदरतम अनुभव किया है, जो सबसे सुंदर मैंने दृश्य देखा है, वह सूर्योदय का नहीं है, सूर्यास्त का नहीं है, चांद—तारों का नहीं है, किसी सुंदर स्त्री का नहीं है, गुलाब के फूलों का नहीं है, कमल के फूलों का नहीं है—वह सुंदर दृश्य क्या है? वह सुंदर दृश्य है—उसने कहा—स्व सुबह सैनिकों की एक टुकड़ी अपनी चमकती हुई संगीनें लेकर कवायद कर रही थी। सूरज की धूप में संगीनों की चमक, जूतों की खटाखट आवाज, लयबद्ध, सैनिकों का वह प्रखर रूप! वह मेरे मन को भा गया है। उससे ज्यादा सुंदर दृश्य मैंने कभी दूसरा नहीं देखा है।

अब किसी आदमी के लिए यह सौंदर्य है—संगीनो की धूप में चमक, सिपाहियों के बूटों की खनक, सिपाहियों के अकड़े हुए शरीर और उनकी कवायद में जिसको संगीत सुनाई पड़ रहा है, वीणा में नहीं, सितार में नहीं, पिआनो में नहीं, बांसुरी में नहीं—जूतों की आवाज में जिसे संगीत सुनाई पड़ रहा है, लयबद्धता जिसे पहली बार अनुभव हुई है—उस आदमी के लिए जीसस और बुद्ध को स्त्रैण कहने का मतलब साफ है। वह यह कह रहा है कि इन्होंने मनुष्य को बरबाद कर दिया। इन्होंने पुरुष—जाति को नपुंसक कर दिया। इन्होंने प्रेम की शिक्षा दे—देकर—अहिसा, प्रेम, क्षमा, अक्रोध, अपरिग्रह—आदमी को मार ही डाला। उसकी सारी जीवन—ऊर्जा नष्ट कर दी। उसका सारा अभियान खंडित कर दिया।

नीत्शे तो यह निंदा के लिए कह रहा है, लेकिन मैं इसमें सत्य का एक कण पाता हूं। वह कण यह है कि जरूर जीसस और बुद्ध के व्यक्तित्व में एक स्त्रैणता है, एक नाजुकता है, फूलों जैसी नाजुकता। वह अपरिहार्य है। जब श्रद्धा पूर्ण होती है तो पुरुष मिट जाता है, क्योंकि पौरुषता मिट जाती है, कठोरता मिट जाती है, आक्रामक भाव चला जाता है। ग्राहक भाव पैदा होता है, ग्रहणशीलता पैदा होती है। स्त्रैण भी एक प्रतीक है।

तुमने खयाल किया, कोई स्त्री किसी पुरुष के पीछे नहीं भागती। और अगर भागे तो पुरुष फिर बिलकुल ही भाग खड़ा होगा। उस स्त्री से कोई भी पुरुष बचेगा, जो उसका पीछा करे। स्त्री कभी किसी पुरुष से प्रेम का निवेदन भी नहीं करती। पूरी मनुष्य—जाति के इतिहास में किसी स्त्री ने कभी किसी पुरुष से प्रेम—निवेदन नहीं किया। ऐसा नहीं कि स्त्री को प्रेम अनुभव नहीं होता; पुरुष से ज्यादा अनुभव होता है। पुरुष का अनुभव प्रेम का बहुत छोटा है, आशिक है। स्त्री का अनुभव प्रेम का बहुत बड़ा है और बहुत समग्र है। मगर निवेदन नहीं करती, क्योंकि निवदेन में थोड़ा आक्रमण है।’मैं तुमसे प्रेम करता हूं —यह बात कहना भी आक्रमण है। यह एक तरह का आरोपण है। यह एक तरह की जबरदस्ती है। यह काम पुरुष ही कर सकता है। यह पुरुष को ही करना पड़ता है। यह पुरुष को ही करना पड़ता है।

इसलिए हर स्त्री अपने पति को कहती सुनी जाती है कि ‘कोई मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी, तुम ही मेरे पीछे पड़े थे। तुम्हीं लिखते थे प्रेम—पत्र।’ वह सम्हालकर रखती है प्रेम—पत्र, वक्त आने पर दिखा देती है कि ये देख लो, क्या—क्या तुमने लिखा था। और तुम ही मेरे बाप के चरण छूते थे आ—आकर। और तुमने ही चाहा था, कोई मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी।

ऐसे मुल्ला नसरुद्दीन से उसकी पत्नी एक सुबह—ही—सू_बह कह रही थी। बस चाय की टेबल पर शुरू हौ जाती है कथा। चाय क्या है—श्रीगणेशाय नम :! बस फिर कथा शुरू। वही से झगड़ा शुरू हो गया। और मुल्ला के मुंह से निकल गया कि तूने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी। बस स्त्री तुनक गयी। उसने कहा कि मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी। मैं तुम्हारे घर नहीं आयी थी। मैंने तुम्हारे बाप की खुशामद नहीं की थी। तुम्हीं मेरे बाप के पास आए थे। तुम्हीं हाथ जोड़े फिरते थे। तुम्ही चिट्ठियां लिखते थे। तुम्हीं संदेश भेजते थे। तुम्ही रास्ते में खड़े होकर सीटियां बजाते थे। किसने गाZd थे वे गीत मेरी खिड़की के पास?

मुल्ला ने कहा, ‘ठीक है। मैं भी स्वीकार करता हूं कि यह बात सच है। मगर यह उसी तरह सच है जैसे कि चूहे को पकडने कै लिए चूहेदानी तो बैठी रहती. है, कोई चूहों के पीछे नहीं दौड़ती। चूहे खुद ही मूरख उसमें फंस जाते हैं। मैं ही फंसा, यह सच है।’

मगर चूहेदानी बैठी रहती है, रस्ता देखती रहती है कि आओ ‘ इंतजाम सब कर देती है चूहादानी। रोटी के टुकडे पडे हैं, मक्खन पड़ा है, चीज पड़ा है, मिठाई रखी है। सब इंतजाम है। आओ। और तुमने देखा, चूहेदानी की एक खूबी होती है, उसमें भीतर आने का उपाय होता है, बाहर जाने का उपाय नहीं होता है। आ गए कि आ गए। आए तो आए ही क्यों? अब वह जो भीतर आ गया, इस खयाल में था कि बाहर जाने का रास्ता भी होगा। बाहर जाने का रास्ता ही नहीं होता।

मजाक एक तरफ, लेकिन पुरुष आक्रामक होता है, वह हमला करता है। प्रेम भी करे तो भी उस प्रेम में उसकी आक्रामकता होती है। यह पुरुष का स्वभाव है। इसमें कुछ कसूर नहीं है। स्त्री अनाक्रामक होती है र ग्रहणशील होती है, स्वागत करती है, अंगीकार करती है। लेकिन उसका बुलावा भी आवाज में नहीं दिया जाता है—चुपचाप, मौन में, इशारों में। सच तो यह है कि वह .नहीं—नहीं ही कहे चली जाती है।

सारी दुनिया के प्रेमियों का अनुभव है कि स्त्री के ‘नहीं’ पर भरोसा मत करना। उसकी ‘नहीं’ में ‘ही’ छिपी होती है। जरा गौर से खोदना, कुरेदना। तुम उसकी ‘नहीं’ में ‘हां’ पाओगे।

सेठ चंदूलाल मारवार्डा एक स्त्री के प्रेम में थे। एक दिन बहुत उदास बैठे थे। मुल्ला नसरुद्दीन उनके मित्र ने पूछा, ‘क्या हो गया, इतने क्यों विषाद में पड़े हो? क्या लुट गया…..!’

चंदूलाल ने कहा कि मैं जिस स्त्री के प्रति आशा लगाए बैठा था, वह सब खंडित हो गयी।

मुल्ला ने कहा, ‘अरे इतनी जल्दी निर्णय न लो। स्त्री लाख नहीं कहे, उसका मतलब ही होता है। तुम घबडाओ मत। तुम तो पूछे ही चले जाओ, कहे ही चले जाओ।’

चंदूलाल ने कहा, ‘नहीं कहती तो ठीक था। उसने ‘नहीं’ नहीं कहा।’

तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘उसने ऐसा क्या कह दिया फिर? या तो नहीं कहेगी या ही कहेगी।’

‘अरे’—उसने कहा—’न उसने नहीं कहा, न ही कहा। कहने लगी अरे मर्दुए, जाकर अपनी शक्ल आईने में देख! अब इसमें से मैं क्या समझूं? तुम तो कहते हो नहीं कहे तो ही समझो, नहीं कहती तो मैं भी ही समझता। ही कहती तो भी ही समझता। लेकिन न नहीं कहा न हां कहा। कहने लगी कि जा और अपनी शक्ल आईने में देख। अब इसमें से मैं क्या समझूं? नहीं कहती तब तो कुछ बात थी, तो उसमें से ही निकाल लेते।’

स्त्री नहीं कहती है तो वह भी स्वीकार है। अनाक्रामकता इतनी होती है कि वह ही भी भरे तो भी अशोभन मालूम होता है। उसकी लाज, उसकी लज्जा. उसका संकोच ही भी नहीं भरने देता। वह भी थोड़ा अभद्र मालूम होता है। वह नहीं ही कहती है, लेकिन इशारों से ही कहती है। स्वीकार है उसे। तुम उसके चेहरे पर, उसकी भावभंगिमा में पढ़ सकते हो कि ही। लेकिन ओठों सै नहीं कहेगी। हां कहना भी थोड़ा—सा आक्रामक है, जल्दी है।

सत्य के प्रति व्यक्ति को स्त्रैण होना होता है—ग्राहक, ग्रहणशील। द्वार खुले हैं। बंदनवार लगा है। स्वागतम् लिखा है। हार्दिक स्वागतम् लिखा है। हार्दिक स्वागतम् है। सत्य आए तो प्राणों में ले लेने की तैयारी है। न आए तो प्रतीक्षा की तैयारी है। धैर्य होता है, प्रतीक्षा होती है। और एक मौन निमत्रणहोता है।

इसलिए ठीक कहा ऐतरेय ब्राह्मण ने कि श्रद्धया पत्नी सत्यं यजमान: जीवन—यज्ञ में श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान।

और यह जीवन यज्ञ है। यह पूरा जीवन यज्ञ है। यह आग जलाकर और घी फेंकना और गेहूं फेंकना और चावल फेंकना, यह पागलपन है। यह जीवन—यज्ञ की जगह थोथे यज्ञ पैदा करना है। यह पूरा जीवन ही यज्ञ है। इसमें अगर कुछ आग में डालना है तो अहंकार डालना है। और अहंकार तुमने डाला कि तुम्हारे जीवन में तल्ला श्रद्धा पैदा हुई। तुम गए कि फिर संदेह करनेवाला ही न बचा, तो संदेह कैसे बचेगा? जड़ से ही बात कट गयी। न रहा बांस, न बजेगी बांसुरी। श्रद्धा को मैंने कहा : प्रेम की पराकाष्ठा। उस पराकाष्ठा पर व्यक्तित्व चाहे पुरुष का हो चाहे स्त्री का, स्त्रैण हो जाता है। एक नाजुकता आ जाती है, एक कोमलता आ जाती है—फूलों की कोमलता, तितलियों के पंखों की कोमलता, इंद्रधग्नुषों की कोमलता।

ओर सत्य है पुरुष। इसलिए पुराना प्रतीक है कि सिवाय परमात्मा के और कोई पुरुष नहीं।

मीरा के जीवन में यह कथा है कि मीरा मथुरा गयी, वृंदावन गयी। कृष्ण के प्रेम में दीवानी थी। सो जहां कृष्ण के चरण पड़े थे, जहां कृष्‍ण की बांसुरी बजी थी, जिन बंसीवटों में, जिस यमुना—तट पर, वह सब उसके लिए तीर्थ था, महातीर्थ था। उन—उन जगहों पर जाना चाहती थी, वहा की मिट्टी भी पवित्र हो गयी थी। वहा की मिट्टी सोना थी उसके लिए। लेकिन वृंदावन में एक मंदिर था कृष्ण का, बड़ा मंदिर, जिसका पुजारी स्त्रियों को नहीं देखता था।

यह पागलपन कुछ स्वामी नारायण संप्रदाय में ही नहीं है! यह पागलपन बड़ा पुराना है। स्वामी नारायण संप्रदाय के जो महंत हैं, प्रमुखजी महाराज, वे स्त्री को नहीं देखते। हवाई जहाज में भी यात्रा करते हैं तो उनकी सीट के चारों तरफ परदा बांध दिया जाता है—बुर्के के भीतर। वे अकेले ही आदमी हैं जमीन पर, जो बुर्के में चलते हैं। क्या मजा है! हाथी पर जुलूस निकलता है, मगर छाता ऐसा उनके ऊपर लगाया जाता है कि उनकी आंखें छाते की छाया में रहें, कोई स्त्री दिखाई न पड जाए। स्त्री से ऐसा भय है, ऐसी घबड़ाहट।

ऐसा ही वह पुजारी रहा होगा। या यही प्रमुखजी महाराज पिछले जन्म में रहे हों, क्योंकि ऐसे लोग तो भटकते रहते हैं। ऐसे लोगों की मुक्ति का —तो कोई उपाय है नहीं। ये तो यहीं—यहीं चक्कर मारते हैं। ये जाएंगे भी कहां! जो स्त्री से बचेगा, स्त्री की कोख से फिर पैदा होगा, क्योंकि उसके चौबीस घंटे स्त्री ही खोपड़ी में समायी रहेगी। इधर मरा नहीं कि उसने स्त्री खोजी नहीं, कि गया स्त्री के गर्भ में, फिर गिरा गर्त में!

मीरा जब उस मंदिर पर पहुंची तो मीरा के आने की खबर तो पहुंच गयी थी, उसके गीतों की, उसकी वीणा की लहर तो पहुंच गयी थी। पुजारी सावहगन था। तीस साल से उस मंदिर में कोई स्त्री प्रवेश नहीं कर सकी थी। उसने द्वार पर पहरेदार लगा रखे थे कि देखो, मीरा को भीतर मत घुसने देना। मगर मीरा जब आयी और द्वार पर नाचने लगी तो पहरेदार उसके नाच में खो गये। कोन नहीं खो जाएगा? मीरा नाचे! ‘पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे!’ कोन मीरा के नृत्य में न खो जाएगा! ‘मैं तो प्रेम दीवानी!’ वह किसको दीवाना न कर देगी! वह स्वयं तो दीवानी थी ही, लेकिन उसके आसपास भी दीवानेपन का एक माहौल चलता था। वह खुद तो मस्त थी, मस्ती लुटाती भी थी। वे भी झूमने लगे। पहरेदार भी झूमने लगे। भूल ही गये कि इसको रोकना है। पहले तो वह वहीं गीत गाती रही द्वार पर मस्त होकर, तो अभी सवाल ही न उठा था रोकने का। और जब वे बिलकुल डूब गये, मस्त हो गये और डोलने लगे, तो मीरा नाचती हुई मंदिर में प्रवेश कर गयी। रोकें—रोकें कि वह तो भीतर थी।

मीरा तो बिजली की चमक थी। कहां पकड़ पाओगे? जब तक उन्हें होश आया तब तक बात ही खतम हो चुकी थी, वह तो भीतर पहुंच गयी थी। और पुजारी प्रार्थना कर रहा था, आरती उतार रहा था। उसने स्त्री को देखा। उसके हाथ से आरती छूटकर गिर पडी। यह तीस साल की पूजा और तीस साल की आरती! और कृष्ण के सामने होते हुए मीरा दिखाई पड़ गयी और कृष्ण दिखाई क्या खाक पड़े होंगे इसको तीस साल में! यह नाहक ही मेहनत कर रहा था, नाहक कवायद कर रहा था। थाली गिर गयी, थाल गिर गया। और क्रोधित हो उठा। और कहा कि ‘ए स्त्री, क्या तुझे द्वारपालों ने नहीं रोका? क्या तुझे मालूम नहीं है? सारी दुनिया जानती है, वृंदावन का बच्चा—बच्चा जानता है कि इस मंदिर में स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है। द्वार पर बड़े—बड़े अक्षरों में लिखा है कि स्त्री—प्रवेश निषिद्ध है। तूने प्रवेश कैसे किया? मैं स्त्री को नहीं देखता हूं। तूने मेरी तीस साल की तपश्चर्या नष्ट कर दी।’

मीरा ने चुपचाप सुना और कहा कि मैं तो सोचती थी कि तुम कृष्ण के भक्त हो, लेकिन मैं गलती में थी। क्योंकि क्या का भक्त तो मानता है एक ही पुरुष है—वह परमात्मा, वह कृष्ण। बाकी तो हम सब गोपियां हैं। तो तुम सोचते हो दुनिया में दो पुरुष हैं—एक कृष्ण और एक तुम? और क्या खाक तुम पुरुष हो। कृष्ण तो स्त्रियों से नहीं डरे। स्त्रियां नाचती रहीं उनके चारों तरफ। राधा की कमर में हाथ डालकर वे बांसुरी बजाते रहे। उनके तुम भक्त हो, जरा मूर्ति तो देखो! वहां भी राधा खडी थी मूर्ति में कृष्ण के बगल में ही। बांसुरी बज रही है, राधा नाच रही है। कृष्ण के तुम भक्त हो और स्त्रियों से ऐसा भय! यह क्या खाक भक्ति हुई? चलो, अच्छा हुआ मैं आ गयी। यह तो पता चल गया’ कि दुनिया में दो पुरुष हैं—एक परमात्मा और एक तुम।

बड़ी चोट पहुंची पुजारी को। गिर पड़ा पैरों पर। माफी मांगी कि मुझे क्षमा कर दो। यह तो मुझे खयाल ही न रहा कि पुरुष तो एक ही है।

भक्ति के शास्त्र का यह सारसूत्र है कि परमात्मा पुरुष है। वह आएगा। हम सिर्फ द्वार खोलकर प्रतीक्षा करें। वह मेहमान होगा। हम मेजबान बनें। हम आतिथ्य के लिए तैयार हो जाएं। अतिथि जरूर आएगा। कभी ऐसा नहीं हुआ कि न आया हो। जब भी किसी का हृदय आतिथ्य के लिए तैयार हुआ है, वह जरूर आया है।

तो जैसा मैंने कहा, श्रद्धा प्रेम की पराकाष्ठा है, स्त्रैणता की पराकाष्ठा है—वैसे ही सत्य ध्यान की पराकाष्ठा है। श्रद्धा प्रेम की पराकाष्ठा है और सत्य ध्यान की पराकाष्ठा है। तुम श्रद्धा पैदा कर लो और तुम्हारे जीवन में तत्‍क्षण सत्य उतर आएगा, ध्यान उतर आएगा, समाधि उतर आएगी।

यह सूत्र भक्ति का है। इस सूत्र में सारी भक्ति का शास्त्र समा गया।

‘श्रद्धा और सत्य की उत्तम जोड़ी है।’ इससे उत्तम जोड़ी तो कुछ हो भी नहीं सकती। संस्कृत का सूत्र तो और भी अद्भुत है। हिंदी में अनुवाद में कुछ खो गया। जिसने अनुवाद किया होगा हिंदी में, भय के कारण कुछ बात छोड़ गया। संस्कृत का सूत्र है — ‘श्रद्धा सत्यं तदित्युत्तमं मिथुनम् ‘यह सिर्फ जोड़ी की ही बात नहीं है; इन दोनों के बीच जो संभोग होता है, जो मिथुन होता है, उसको छोड़ दिया है हिंदी सूत्र में। अकसर मैंने देखा है कि संस्कृत के बहुमूल्य सूत्र हिंदी मे अनुवादित होते—होते खराब हो जाते हैं क्योंकि हिंदी अब कमजोरों की भाषा है। संस्कृत बलशाली लोगों की भाषा थी। उन्होंने हिम्मत से सत्य कहे थे—जैसे के वैसे कहे थे। उन्हें कुछ कहने में कठिनाई न थी, कि इन दोनों के संभोग से…..। मिथुन का अर्थ : संभोग। इन दोनों का संभोग, परम संभोग है क्योंकि वही समाधि है। जहां श्रद्धा और सत्य का संभोग होता है, उस संभोग से ही मोक्ष का जन्म होता है, कैवल्य का जन्म होता है, निर्वाण का जन्म होता है।

लेकिन हिंदी में सूत्र जरा साधारण हो गया—’श्रद्धा और सत्यं की उत्तम जोड़ी है।’ जोड़ी में वह मजा न रहा। जोडी में बात खो गयी। जोड़ी बड़ी साधारण बात हो गयी। यह वैसी हो गयी जैसे राम मिलाई जोड़ी, कोई अंधा कोई कोढ़ी। राम भी क्या—क्या जोड़ियां मिलाता है! जब मिलाता है, गलत ही मिलाता है। असल में राम को तुम मिलाने ही नहीं देते, तुम तो ज्योतिषियों से मिलवा आते हो!

कहते हो—राम मिलाई जोड़ी! मिलाते ज्योतिषी हैं। राम को मिलाने दो तो एक जोड़ी गलत न हो। मगर ज्योतिषियों से मिलवाते हो, सब गलत हो जाता है। इनकी खुद की जोड़ी तो देखो। जरा इनकी देवीजी को तो देख लो। फिर तुम समझ जाना, फिर इनसे जोड़ी मिलवाना। अपनी मिला न पाए, तुम्हारी मिला रहे हैं। और चार—चार आठ—आठ आने में, रुपये दो रुपये में मिला रहे हैं। जोड़ी मिला रहे हैं। जीवनभर का निर्णय दो रुपये में करवा लेते हैं!

मैं जबलपुर में था तो मेरे पड़ोस में एक ज्योतिषी रहते थे। उनके पास बड़ी भीड़ लगी रहती थी, बहुत भीड़। साथ—साथ हम घूमने जाते थे सुबह, तो उनसे धीरे— धीरे पहचान हो गयी। मैंने पूछा, ‘आपके पास बड़ी भीड लगी रहती है। और भी ज्योतिषी हैं, मगर उनके पास इतनी भीड़ नहीं रहती।’ उन्होंने कहा, ‘इसका कारण है। अरे जिस की लग्न—कुंडली, जन्म कुंडली कोई न मिला सके उसकी मैं मिला देता हूं। अरे मिलाना अपने हाथ में है। सो जिनकी नहीं मिला पाता कोई, वे सब यहां आते हैं। और सस्ते में मिला देता हूं। एक रुपये में। दूसरे ज्योतिषी कोई दस मांगते हैं, कोई पंद्रह मांगते हैं, मैं तो एक रुपये में, मेरी तो निश्चित फीस है। मोल तोल करना ही नहीं। इधर एक रुपया रखो, इधर मिलाओ। और हमेशा मिलाता हूं आज तक मैंने कभी ऐसा कुछ किया ही नहीं कि न मिलाया हो। जो भी आ जाए उसकी मिला देता हूं। अरे अपने हाथ में है। इधर का खाना उधर बिठाया, इधर की बात उधर समझायी, मिला—मिलूकर निपटाया। एक रुपये में और चाहते भी क्या हो? और जो आदमी एक रुपया दे रहा है, उसको एक रुपये का फल भी मिलना चाहिए, सो मिलता है फल।’

रुपये दो रुपये में जोड़ी मिलवा रहे हो! फिर अंधे कोढ़ियों को मिलवा देते हैं वे। राम से जोड़ी तो प्रेम के द्वारा मिलती है, ज्योतिषी के द्वारा नहीं मिलती। मगर प्रेम को तो हम होने नहीं देते। सो हमें ईजाद करनी पड़ी हैं नकलें—ज्योतिषी से मिलवाओ, मां—बाप मिलाते हैं। प्रेम से तो हम मिलने नहीं देते। पता नहीं क्यों प्रेम से कैसी दुश्मनी है! प्रेम भर से सब दुश्मन हैं। और सब तरह से राजी हैं। धन पैसे का हिसाब करेंगे, कुलीनता का हिसाब करेंगे, धर्म का, जाति का, वर्ण का, सब विचार कर लेंगे। जनम के समय तारे कहां थे, क्या थे, इस सबका भी हिसाब लगालेगे। मगर दो हृदयों से नहीं पूछेंगे कि तुम्हें मिलना भी है भाई कि नहीं! सारी दुनिया मिला लेंगे, इन दो को भर छोड़ देंगे। इनसे नहीं पूछना है।

राम से मिलवाना हो तो इनसे पूछो। राम इनके भीतर से बोलेगा। और तो उसके पास बोलने का कोई उपाय नहीं है। इनके हृदय में धड़केगा।

इसलिए जब प्रेम होता है तो तुम किसी ज्योतिषी के कारण प्रेम में नहीं पड़ते, कि फलां ज्योतिषी ने कहा कि स्त्री के प्रेम में पड़ जाओ, तो पड़ गये। कि फलां ज्योतिषी ने कहा, क्या करें, प्रेम करना ही पड़ेगा! प्रेम जब होता है तो तुम्हें पता ही नहीं चलता कि क्यों। तुम जवाब भी नहीं दे पाते कि क्यों। तुम कहते हो, पता नहीं! कंधे बिचकाते हो—हो गया! यह है राम मिलाई जोड़ी!

सूत्र में तो है. इन दोनों का मिथुन, इन दोनों का संभोग—श्रद्धा का और सत्य का। सत्य है पुरुष, श्रद्धा है स्त्री। श्रद्धा है स्त्रैणता की पराकाष्ठा। सत्य है पुरुष की पराकाष्ठा। और जहां इन दोनों का मिथुन होता है, जहां इन दोनों का संयोग होता है, जहां इन दोनों का प्रेम होता है, जहां इन दोनों का ऐसा मिलन हो जाता है कि द्वैत समाप्त हो जाता है—मिथुन का वही अर्थ है जहां द्वैत समाप्त हो जाए अद्वैत रह जाए; जहां दोनों मिलकर एक हो जाते हैं, एक साथ हृदय धडूकता है जहां—बस वहीं निर्वाण है, महापरिनिर्वाण है।

‘ श्रद्धा और सत्य की जोड़ी से मनुष्य दिव्यलोकों को प्राप्त करता है।’ दिव्य लोक अर्थात् समाधि, समाधान—जहां कोई समस्या न रही; जहां जीवन एक उल्लास है।

संस्कृत का सूत्र फिर समझ लेने जैसा है :

‘श्रद्धया सत्येन मिथुने।’

दुबारा दोहराया है कि कहीं चूक न जाओ।’

श्रद्धय सत्येन मिधुने न स्वर्गाल्लोकार जयतीति

बिना इनके मिथुन के स्वर्ग का जो आलोक है, जो उल्लास है, स्वर्ग का जो आनंद है उसकी उपलब्धि नहीं।

श्रद्धा की तैयारी करो, सत्य आएगा। श्रद्धा के बीज बोओ, सत्य के फूल लगेंगे। श्रद्धा के द्वार खोलो, सत्य का सूरज तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाएगा। और जहां श्रद्धा और सत्य का मिथुन होगा, संभोग होगा?!

मेरी किताब ‘संभोग से समाधि की ओर’ को बहुत गालियां दी गयी हैं। शब्द से ही गालियां दी गयी हैं। किताब तो कोई पढ़ता ही नहीं। बस शीर्षक लोगों को खटक गया। शीर्षक ही पढ़कर लोग समझ जाते हैं कि बस रुक जाओ। इन सब बुद्धओं को मैं कहता हूं जरा अपने शास्त्रों को देखो। ये हिम्मतवर लोग थे। ये ऐतरेय ब्राह्मण का ऋषि हिम्मतवर व्यक्ति रहा होगा। सीधी—सीधी बात कह दी कि सत्य और श्रद्धा का संभोग हो तो समाधि पैदा होती है। तो स्वर्ग है। तो मुक्ति है, कैवल्य है।

वैद के ऋषि की एक प्रार्थना है:

यत्रानंदाश्चय मोदाश्च गुद: प्रमुदास्ते

कामस्य यत्राप्ता कामा: तत्र मामृतं कुरु।

‘हे प्रभु, मुझे वह अमृतत्व दे, जिसमें मोद—प्रमोद प्राप्त होता है, जहां कामनाएं स्वयं पूर्ण तृप्त हो जाती हैं।’

ये हिम्मतवर लोग थे। ये डरपोक कायर तुम्हारे तथाकथित साधु—संत और महात्माओं जैसें नहीं थे। सीधी प्रार्थना है कि हे प्रभु, मुझे वह अमृत दे, दे मुझे वह राज, वह कीमिया, कि जिसे पीकर मैं मोद—प्रमोद को प्राप्त हौ जाऊं। मोद—प्रमोद का क्या अर्थ होता है? तुम तो गाली देते हो। तुम तो मोद—प्रमोद करनेवाले लोगों को संसारी कहते हो। और यह ऋषि प्रार्थना कर रहा है—’मोद—प्रमोद को प्राप्त हो जाऊं।’

मेरे संन्यासियों को सारे जगत में गालियां पड़ती हैं। कहा जाता है कि ये तो अधर्म फैला रहे हैं। संन्यासी को तपस्वी होना चाहिए, त्यागी होना चाहिए, भूखा मरना चाहिए, उपवास करना चाहिए, शरीर को गलाना चाहिए, कीटों पर लेटना चाहिए, धूप—ताप में खड़ा होना चाहिए, शीर्षासन, सिर के बल खड़ा होना चाहिए। ऐसे कुछ उल्टे—सीधे उपद्रव करने चाहिए। मोद—प्रमोद!

मोद—प्रमोद तो वही हुआ, जिसके कारण हमने चार्वाकों को गाली दी है, कि चार्वाक मानते हैं : खाओ, पीओ, मौज करो। मोद—प्रमोद का अर्थ यही हुआ : खाओ, पीओ, मौज करो। तथाकथित धार्मिक आदमी इसको गाली देता है। और तब मैं चकित होता हूं कि जो वेदों की पूजा भी करते हैं, वे भी वेदों को उठाकर देखते हैं या नहीं देखते! नहीं तो मेरा सन्यासी उपनिषद् और वेदों की अंतर्दृष्टि के ज्यादा करीब है, बजाय तुम्हारे तथाकथित त्रिदंडी साधुओं के, शंकराचार्य के शिष्यों के, तुम्हारे जैन मुनियों के। क्योंकि मैं उत्सव सिखा रहा हूं। नाचो, गाओ! यह जीवन परमात्मा की इतनी बड़ी भेंट, इसे यूं न गंवाओ। इसे अहोभाव से स्वीकार करो। इसके ऊपर और भी आनंद हैं, पर इसे जो पाएगा वही इसके ऊपर के आनंद को पाने का हकदार होता है।

उमर खैयाम का एक वचन है। कुरान कहती है कि स्वर्ग में शराब के चश्मे हैं। उसी को आधार मानकर उमर खैयाम ने कहा है : अगर स्वर्ग में शराब के चश्मे हैं तो हमें यहां पीने दो, थोडा अभ्यास तो करने दो। नहीं तो वहां पीएंगे एकदम चश्मों में से, तो खतरा होगा, बिलकुल बहक जाएंगे। थोड़ा अभ्यास तो करने दो; थोड़ी तैयारी तो करने दो जन्नत में आने की। यहां तो कुल्हड़ से पी जाती है। यहां कोई नदियें तो नहीं बह रही हैं। और जिन्होंने जिंदगीभर अपने को दबाया और दमन किया, कभी पीया नहीं, वे एकदम जन्नत में पहुंचकर क्या करेंगे? जैसे मोरारजी देसाई क्या करेंगे? एकदम पीने में लग जाएंगे। जिंदगीभर तो खुद भी नहीं पीया, दूसरों को भी नहीं पीने दिया। और पीया भी तो क्या पीया—जीवन जल पीया! एक बात तो पक्की है स्वर्ग मैं इनको जीवन—जल नहीं पीने दिया जाएगा। कोन घुसने देगा इनको जीवन—जल पीने के लिए स्वर्ग में? लोग खदेड़कर बाहर कर देंगे कि अगर जीवन—जल पीना है तो वापिस भारत में जाओ, यह काम वहीं चल सकता है। वहां तो शराब के चश्मे हैं।

उमर खैयाम एक सूफी फकीर है। उमर खैयाम कोई शराबी नहीं, जैसा कि लोगों ने समझ लिया है। उमर खैयाम एक सूफी फकीर है, एक सिद्ध पुरुष है—उसी कोटि का जिसमें बुद्ध और महावीर; उसी कोटि का जिसमें उपनिषद के ऋषि। मगर उसके प्रतीकों के कारण गलती हो गयी। उसके प्रतीक सूफी प्रतीक हैं। सूफियों के लिए शराब का अर्थ है उल्लास, आनंद, मस्ती। वह सिर्फ प्रतीक है। वह यही नहीं कह रहा है कि शराब पीयो। वह यह कह रहा है : लेकिन आनंदित होना है, इसका थोड़ा अभ्यास तो करो। वे स्वर्ग में जो शराब के झरने बहते हैं, उसका भी मतलब यही है कि वहा आनंद के झरने बह रहे हैं।

और तुम्हारे साधु—संत, उनकी शकलें तो देखो—उदास, मुर्दा…..। ये अगर पहुंच भी गये वहां तो करेंगे क्या? आनंद उल्लास के उस जगत में, जहां अप्सराएं नाचती होंगी, श्री प्रमुखजी महाराज क्या करेंगे? एकदम बुर्का ओढ़कर बैठ रहेंगे। स्वर्ग भी गये और बुर्का ओढ़े रहे। क्या खाक दीदार होगा! और कहीं भूल—चूक से परमात्मा स्त्री हुआ तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। और इस बात का पूरा खतरा है कि हो। क्या पता! अरे परमात्मा का क्या भरोसा! अगर न भी हो तो कम से कम प्रमुखजी महाराज के सामने तो स्त्री—रूप में प्रगट होगा, यह मैं कहे देता हूं। इनके सामने तो वह स्त्री—रूप में ही प्रगट होगा। इतना व्यंग तो परमात्मा भी समझता होगा। इतना मजा तो वह भी लेगा! अब प्रमुखजी आ ही गये तो थोड़ा.. इतना खेल, इतनी लीला तो वह भी रचाएगा। लीलाधर है; इतनी लीला तो करेगा कि प्रमुख जी को थोड़ा नचाएगा। डमरू थोड़ा बजाएगा कि जमूरे नाच!

स्वर्ग में आनंद है। आनंद का नाम ही स्वर्ग है। मेरे संन्यासियों को कोई अड़चन न आएगी। वे यहीं अभ्यास कर रहे हैं स्वर्ग का। उनके लिए स्वर्ग में कुछ मौलिक भेद नहीं हो जाएगा। ही, गुणात्मक भेद होगा, परिमाणात्मक भेद होगा; मगर कुछ तो बूंदें उन पर यहां भी पड़ गयी हैं। बूंदाबांदी तो यहां हो गयी, चलो वहां मूसलाधार वर्षा होगी। मगर उनकी थोड़ी पहचान रहेगी। कुल्हड़ से उन्होंने यहां शराब पी ली वहां झरनों में तैर लेंगे और झरनों से पी लेंगे। यहां मस्त रहे, वहां भी मस्त रहने को उनको कला आएगी।

तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। उदासी उनका अभ्यास है। उदासीनता उनकी तपश्चर्या है। अपने को गलाना, सडाना, भूखा मारना…..। असल में यह सब अत्याचार है—इस निरीह शरीर पर, इस बे—जुबान शरीर पर, इस निहत्थे शरीर पर। ये आत्मघाती प्रवृत्तियां हैं। पहली तो बात : इनको स्वर्ग में जगह नहीं मिल सकती। भूल—चूक से ये घुस जाएं तो निकाल जाएंगे। न निकाले जाएं तो इनको स्वर्ग रास न आएगा। इनको लगेगा, ये तो सब भ्रष्ट! ये तो वही रजनीशी संन्यासी यहां जमे हुए हैं! वही नाच—गान चल रहा है! हम तो सोचते थे वे ही लोग भ्रष्ट हैं; उन्होंने तो पूरा स्वर्ग भ्रष्ट कर रखा है। इससे तो नर्क भला, कम से कम वहां उदासीनता तो बचा सकेंगे अपनी, सिर के बल खड़े हो तो सकेंगे। यहां तो सिर के बल खड़े होंगे, कोई अप्सरा ही धक्का मार देगी, कि यह क्या कर रहे हो? यह कोई ढंग है? स्वर्ग में खड़े होने का यह कोई ढंग है? तुम परमात्मा का अपमान कर रहे हो। वहा उदास बैठेंगे, मुश्किल हो जाएगा। गंधर्व इनके आसपास वीणा बजाएंगे, बांसुरी बजाएंगे। अप्सराएं इनको गुदगुदाएंगी कि भैया, हंसो, थोड़ा प्रसन्न होओ, थोड़ा अब तो आनंदित होओ!

यह ऋषि का वचन सुनो—’हे प्रभु, मुझे अमृत दे, जिसमें मोद—प्रमोद प्राप्त होता है।’ यह जिंदा कोम रही होगी तब। तब इसे मोद—प्रमोद की भाषा में कोई निंदा नहीं मालूम होती थी। तब इसे मोद—प्रमोद में कोई नास्तिकता नहीं मालूम होती थी। इसे जीवन का तब स्वीकार— भाव था। तब इसके लिए जीवन ही परमात्मा था।’जहां कामनाएं स्वयं पूर्ण तृप्त हो जाती हैं। दे मुझे वह अमृत, जहां सारी कामनाओं की तृप्ति है।’

मेरे अनुभव में, इन दो—ढाई हजार वर्षो में भारत की मनोदशा इतनी विकृत हो गयी है कि आज इसे अपने ही सूत्रों को समझना मुश्किल हो गया है। मैं जो कह रहा हूं वह सनातन धर्म है—एस धम्मो सनंतनो! मगर मेरी बात जहर की तरह लगती है उन लोगों को र जो सनातनधर्मी हैं। वे सोचते हैं—मैं धर्म को भ्रष्ट कर रहा हूं मैं सभ्यता को भ्रष्ट कर रहा हूं मैं संस्कृति को भ्रष्ट कर रहा हूं। उनको अपने वेद, अपने उपनिषद, अपने ब्राह्मणग्रंथ उठा कर देख लेने चाहिए। वे बहुत चौकेंगे। मेरे समर्थन में उन्हें बहुत सूत्र मिलेंगे, उनके समर्थन में उन्हें कोई सूत्र नहीं मिलेगा। लेकिन जाना होगा उन्हें कम से कम ढाई हजार साल के पहले, तब उन्हें मेरे समर्थन में सूत्र मिलने शुरू होंगे। तब उल्लास था एक। तब इस देश ने पहली पहली बार धर्म का आविष्कार किया था, अनुभव किया था। तब बात ताजी थी। फिर बासी पड़ती गयी। फिर उस पर राख जमती चली गयी, धूल जमती चली गयी। फिर इतनी धूल जम गयी व्याख्याओं की कि अब सूत्रों का पता ही चलना मुश्किल हो गया है। अब तो व्याख्याओं पर व्याख्याएं हैं और तुम व्याख्याओं में ही भटके रहते हो। और व्याख्याएं तो अपनी—अपनी मर्जी की हैं, जिसको जैसी करनी हों।

कृष्ण की एक गीता है। निश्चित ही कृष्ण का एक ही अर्थ रहा होगा। कृष्ण कोई पागल नहीं थे। लेकिन हजारों टीकाएं हैं। और सब टीकाओं में विरोध है। अगर कृष्ण ठीक हैं तो ज्यादा से ज्यादा एक टीका सही हो सकती है। ये हजारों टीकाएं सही नहीं हो सकतीं। लेकिन जिसको जो मतलब निकालना हो….. शंकराचार्य कृष्ण की गीता में से ज्ञानयोग निकाल लेते हैं। और रामानुजाचार्य गीता में से भक्तियोग निकाल लेते हैं। और बालगंगाधर तिलक गीता में से कर्मयोग निकाल लेते हैं। गीता न हुई, भानुमति का पिटारा हो गया। कहीं का ईट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा! और इसमें से तुम जो चाहो निकाल लो। यह तो कोई जादू की पिटारी हो गयी, कि रूमाल डालो, कबूतर निकालो; कबूतर डालो, रूमाल निकालो। जो मर्जी।

इतना असत्य इन ढाई हजार वर्षो में बोला गया है। इसलिए मेरी बात तुम्हें अड़चन की मालूम पड़ रही, क्योंकि ढाई हजार वर्षो की दीवालें बीच में खड़ी हैं। अन्यथा मैं जो कह रहा हूं वह शाश्वत धर्म है, वह ऋत् है। मैं जो सूत्रों का अर्थ कर रहा हूं वह सीधा—साफ है, वह किसी पंडित का अर्थ नहीं है। वह मेरा अनुभव है। मैं तुमसे कहता हूं कि यहां आनंदित होओ तो तुम स्वर्ग के अधिकारी बनोगे। यहां प्रफुल्लित होओ तो आगे भी प्रफुल्लता है। तुम यहां जो हो, वही तुम आगे भी होओगे। ही, बहुत बड़े पैमाने पर होओगे। लेकिन यहां कुछ होना पड़ेगा। आंगन आकाश हो जाएगा, मगर आंगन तो हो। आंगन ही न होगा तो क्या खाक आकाश होगा?

इसलिए मेरे इन सूत्रों के जो अर्थ हैं, बहुत ध्यानपूर्वक सुनना। काश, इन सूत्रों का ठीक—ठीक अर्थ तुम्हारे खयाल में आ जाए तो इस देश का पुनर्जन्म हो सकता है। और इस देश के पुनर्जन्म के साथ सारी मनुष्यता के लिए एक सौभाग्य का उदय हो सकता है सूर्योदय हो सकता है।

‘ज्‍यू मछली बिन नीर’ प्रवचनमाला से

दिनांक 27 सितम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना

 


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नाम सुमिर मन बावरे–(जगजीवन–प्रवचन–3

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पंडित, काह करै पंडिताई—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 3 अगस्‍त, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

हमारा देखि करै नहिं ‘।

जो कोई देखि हमारा करिहै, अंत फजहिति।।

जम हम चले चलै नहिं, करी सो करै न सोई।

मानै कहा कहे जो चलिहै! सिद्ध काज सब होई।।

हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।

हम आहन मतसंगो—बासी! सूरति रही समोई।।

कहा पूकारि विचारि लेह ग्रीन! बृथा सब्द नहिं सोई।

जगजीबनदास सहज मन सुमिरन, विरले यहि जग कोई।।

 

     कलि की रीति सनह रे भाई।

माया यह सब है भाई की, आपूनि सब केह गाई।।

भूले फूले फिरत आय! पर केहके हाथ न आई।

जो है जहां तहां ही है सो, अंतकाल चाले पछिताई।।

जहं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई।

लेखा —जोखा करहिं दाम का! पडे अघोर नरक महि।।

बूड़हिं आपु और कहं वोरहिं, करि झूठी बहुतक बताई।

जगजीबन मन न्यारे रहिए, सत्‍तनाम तें रह लय आई।।

 

     पंडित, कहा करै पंडिताई।

त्यागदे तहत पढूब पोथी का, नाम जपहूं चित लाई।।

यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई।

सुनि जो करै तरै पै छिन मह, जेहि प्रतीति मन आई।।

पढ़ब पढ़ाउब बेधत नाहीं, तकि दिनरैन गंबाई।

एहि तैं भक्ति होत है नाहीं, परगट कहौ सनाई।

सत्‍त कहत हौं बरा न मानौ, आजपा जपै जो जाई।

जगजीबन मत—मत तब पावैं, परमज्ञान अधिकाई।

 

तूमहीं सो चित्त लागू है, जीबन कछू नाहीं।

मात पिता मृत बंधबा, कोउ संग न जाहीं।।

सिद्ध साध मनि गंध्रबा मिलि माटी माहीं।

ब्रह्मा विस्नु महेश्वरा, गीन आबत नाहीं।।

नर केतानि को बापूरा! केहि लेखे माहीं।

जगजीबन विनती करै! रहै तूम्हरी छांहीं।।

 

     आनंद के सिंध में आनि बसे, लिनको न रहयो तन को तपनो।

जब आपु में आपू समाय गए, तब आपू में आपू लह्यो अपनो।।

जब आपु में आपु लह्यो अपुनो, तब अपनो हो जाय रह्यो जपनो।

जब ज्ञान को भान प्रकास भयो, जगजीबन होय रह्यो सपनो।।

संतों के वचन तो हीरों की खदान हैं। लेकिन हीरों की खदान में भी कभी—कभी—— और कभी—कभी ही——कोहिनूर भी मिल जाते हैं। ऐसे तो सभी वचन प्यारे है लेकिन कभी कोई वचन अपूर्व होता है।

आज का पहला सूत्र ऐसा ही अपूर्व है, कोहिनूर जैसा है। समझोगे तो बहुत रस पाओगे। जी सके तो जीवन K:पांतरित हो जायेगा। एक महत कुंजी जगजीवनदास इस सूत्र में दे रहे हैं।

हमारा देखि करै नहिं कोई

मनुष्य नकलची है। चार्ल्स डार्विन ठीक ही कहता है कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। और चाहे कारण ठीक हों या न हों, मगर एक मनोवैज्ञानिक कारण तो ठीक मालूम पड़ता ही है कि आदमी बंदरों जैसा ही नकलची है। शायद बंदर भी सीख लेते हों कुछ, आदमी नहीं सीखता। आदमी बस नकल ही करता है।

मैने सुना है, एक आदमी टोपियां बेचता था बाजार में। एक दिन टोपियां बेचकर वापिस लौटता था, एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे विश्राम करने को रुका। ठंडी— ठंडी हवा, दिन भर का थका। झपकी लग गई। जब आंख खुली तो देखा, टोकरी का ढक्कन खुला पड़ा है और टोकरी के भीतर जितनी टोपियां थीं, सब नदारद हैं। हैरान हुआ, कहां गई? चारों तरफ नजर डाली। ऊपर देखा, वृक्ष पर बहुत—से बदंर बैठे थे, सब टोपी लगाये बैठे थे। सब टोपियां ले गये थे। सब बिलकुल गांधीवादी हो गये थे। बड़ी जंच रही थीं टोपियां उन्हें; जैसे दिल्ली में लोगों को जंचती हैं!

घबड़ाया दुकानदार। अब क्या करे! एक ही टोपी बची थी सिर पर। उसे याद आयाS बंदर नकलची होते हैं। उसने अपनी टोपी निकालकर फेंक दी। सारे बंदरों ने अपनी टोपियां निकालकार फेंक दीं। उसने टोपियां इकट्ठी कर लीं, घर लौट गया। फिर बहुत वर्षों बाद उसका बेटा वही काम करने लगा। बाप ने उसे बताया था कि ख्याल रखना, कभी उस वृक्ष के नीचे——बरगद के वृक्ष के नीचे विश्राम करने मत करना। बंदरों का अड्डा है वहां। एक बार मेरी सारी टोपियां ले गये थे। फिर अगर कभी भूल—चूक से ऐसा तेरे जीवन में हो जाये तो सूत्र ख्याल रखना, अपनी टोपी निकालकर फेंक देना।

बेटा भी आया। और बरगद का झाड़ बड़ा प्यारा था। उसके नीचे बड़ी गहन छाया थी, शीतलता थी। थका—मादा था। फिर सूत्र भी उसे मालूम था तो फिक्र की कोई जरूरत भी न थी। टोकरी रखकर वह भी विश्राम करने लेट गया, नींद आ गई। और वही हुआ जो होना था। उठा तो टोकरी खाली थी। ऊपर देखा, मब बैठे थे——सब नेतागण टोपी लगाये हुए। हंसा। उसने कहा, मन में ही कहा कि पागलों, तुम्हें मालूम नहीं है कि मुझे सूत्र भी पता है। अपनी टोपी निकालकर फेंक दी। एक बंदर नीचे उतरा और वह टोपी भी उठाकर ले गया।

बंदरों की भी यह दूसरी पीढ़ी थी। उनके बापदादे भी समझा गये थे कि अब ऐसी ‘मूल मत करना। एक बार हम कर चुके सो चुके। बंदर भी सीख लेते हैं, पर आदमी शायद ही सीखता हो। आदमी नकल से जीता है। महावीर को लोगों ने देखा कि नग्न हैं, लोग नग्न हो गये बिना समझे, बिना बूझे कि महावीर की नग्नता कोई आचरण नहीं है, अंतस्तल में पैदा हुई निर्दोषता का परिणाम है। तुम परिणाम का आरोपण कर सकते हो, अंतस्तल कहां से लाओगे? नग्न खड़े होने से तुम निर्दोष हो जाओगे? हां, निर्दोष होने से कोई नग्न खड़ा हो जाये, वह बात दूसरी। क्रांति भीतर से बाहर की तरफ होती है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं होती।

ढाई हजार साल बीत गये महावीर को, अब भी कुछ लोग उसी नकल में नग्न हो जाते हैं। न तो उनमें महावीर की सुगंध मालूम होती है, न सौंदर्य मालूम होता है?, न महावीर की महिमा, न प्रसाद; कुछ भी नहीं। बस नंगे खड़े हैं। तो नंगे तो बहुत आदिवासी हैं। नग्न होने से अगर कोई तीर्थंकर होता हो, नग्न होने से अगर कोई परम ज्ञान को उपलब्‍ध होता हो तो सारे आदिवासी कभी के हो गये होते। यह नग्नता सिर्फ नकल है।

महावीर ने उपवास किये——किये कहना ठीक नहीं, हुए। ऐसे रस—विभोर हो जाते थे अंतर्लोक में कि भूल ही जाते भोजन की बात। दिन आते, चले जाते, सुबह होती, सांझ होती, उनकी डुबकी लगी रहती समाधि में। लोगों ने देखा, महावीर उपवास करते हैं। उपवास हो रहे थे, लोगों ने देखा, उपवास करते हैं। लोग तो यही देखेंगे जो बाहर से दिखाई पड़ेगा।

और बाहर से केवल लक्षण दिखाई पड़ते हैं। बाहर से भीतर का अंतस्तल दिखाई नहीं पड़ सकता। महावीर का अंतस्तल कोन देखेगा? जो महावीर जैसा हो जाये। बुद्ध का अतस्तल कोन देखेगा? जो बुद्ध जैसा हो जाये। बाहर से लक्षण दिखाई पड़ते है।

देखा कि महावीर भोजन नहीं करते, कई दिन बीत जाते हैं। लोगों ने भी उपवास शुरू कर दिया। ढाई हजार साल बीत गये, लोग उपवास कर रहे हैं। और कोई भी यह नहीं सोचता कि उपवास से फिर तुम एक बार भी तो महावीर पैदा नहीं कर सके। ढ़ाई हजार साल की कहानी तुम्हारे हार की, पराजय की कहानी है। फिर भी नकल जारी है। लोग सोचते हैं, शायद उपवास ठीक से नहीं कर पा रहे है इसलिए। जितना करना चाहिए उतना नहीं कर पा रहे हैं इसलिए चूक रहे हैं।

नहीं, इसलिए चूक रहे हो कि उपवास तो किसी और चीज की मौजूदगी का परिणाम है। दीया जले तो अंधकार दूर हो जाता है, लेकिन अंधकार दूर करने से दीया नहीं जलता, और न अंधकार दूर हो सकता है।

इसलिए यह आज का पहला सूत्र कोहिनूर जैसा है। इतनी साफ—साफ सीधी—सीधी बात इस तरह कभी नहीं कही गई थी।

हमारा देखि करै नहिं कोई

जगजीवन कहते हैं, जैसा हम करते हैं वैसा तुम मत करना। हमारा देखकर करोगे, मुश्किल में पड़ोगे।

जो कोई देख हमारा करिहै, अंत फजीहति होई

सिर्फ फजीहत होगी, और कुछ भी न पाओगे।

जस हम चले चले नहिं कोई, करी सो करै न सोई

जैसे हम चलते हैं वैसे मत चलना। जैसा हम करते हैं वैसा मत करना। क्योंकि जो हमें हो रहा है, जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है वह केवल बाह्य लक्षण है। जड़ें भीतर हैं, फूल बाहर आये— हैं। तुम फूलों को बिना जड़ों के न ला सकोगे। और अगर ले आये तो बाजार से खरीदे गये कागजी फूल होंगे। उपर से चिपका लेना, मगर कागजीl कागजी फूल हैं। इनसे न कोई महावीर बनेगा है न बुद्ध न मुंहम्मद, न कृष्ण न क्राइस्ट। इससे सिर्फ झूठे, थोथे, पाखंडी पैदा होते हैं।

पहले भीतर की जड़ें पैदा करो, पहले बीज बोओ। लेकिन लोग जल्दी में हैं। लोग कहते हैं, बीज बोए, फिर प्रतीक्षा करें, फिर वर्षा के बादल जब आयेंगे तब आयेंगे, फिर वर्षा होगी——इतनी लंबी कोन प्रतीक्षा करे? फूल बाजार में मिलते हैं, हम ऊपर से क्यों न चिपका लें?

आचरण से बचना। अंतःकरण से क्रांति होती शै। अंतःकरण में जड़ें हैं। आचरण ना केवल अंतःकरण में जो होता है, उसको बाहर तक लाता है। लेकिन लोग आचरण के पीछे ही चलते हैं। और जो स्वयं आचरण के पीछे चलते हैं वे दूसरों को भी समझाते हैं कि हम जैसा करते हैं वैसा करो। हमारे आचरण का अनुसरण करो।

तुम्हें जगजीवन के वचन बड़े’ हैरानी में डालेंगे। तुम्हारे तथाकथित साधु—संत यही कहते हैं हमारे जैसा करो। हम जैसा करते हैं वैसा तुम करो। इतना न बन सके तो थोड़ा सही, ज्यादा न बन सके तो थोड़ा सही। दो मील न चल सको तो भाता मील सही, दस कदम सही। हमारे जितने व्रत न कर सको तो एकाध. तो व्रत —न लो। हमारे जैसे लंबे उपवास न कर सको तो छोटे उपवास सही, मगर कुछ तो करो। हमारे जैसा करो। वे खुद भी नकल कर रहे हैं, वे तुम्हें भी नकल ही सिखा रहे है। नकलची नकल ही सिखा सकते हैं। बंदरों से और ज्यादा की आशा भी नहीं है।

जगजीवन का सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। ठीक इस ढंग से किसी ने कहा ही नहीं है। —तना सीधा—सीधा, साफ—साफ। गंवार आदमी थे, पढ़े—लिखे नहीं थे। बातों को उल्‍झाकर कहने कि आदत भी न थी। जैसा था वैसा कह दिया है। एक बात साफ दिखाई पड़ गई होगी कि लोग नकल करने लगे होंगे।

लोग नकल करने में बड़े कुशल हैं। और कभी—कभी इतनी कुशलता से नकल करते हैं कि मूत्र को भी मात दे दें, मूल भी हार जाये।

जो कोई देखि हमारा करिहै, अंत फजीहति होई

जस हम चले चले नहिं कोई, करी सो करै न सोई

मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई

जगजीवन कहते हैं, हम जो कहते हैं वह मानो। हम जो करते हैं, उसकी फिकर न करो अभी। क्योंकि हम जहां हैं वहां जो हो रहा है वहां तुम अभी नहीं हो। तुमने अभी वैसा किया तो तुम बुरी तरह गिरोगे; बड़ी फजीहत होगी।

मनुष्य के भीतर चेतना के कई तल हैं। जो व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हो गया हा उसे जीवन के छोटे—मोटे नियम, मर्यादाएं मानने की कोई जरूरत नहीं है। जो वृक्ष बादलों को छूने लगा है, अब उसे बचाने के लिए बागुड थोड़े ही लगानी पड़ती है। मगर जो पौधा अभी—अभी पैदा हुआ है, नये—नये पत्ते आये हैं, अगर इसको ऐसा री छोड़ दिया बिना बागुड़ के, जानवर चर जायेंगे। यह बच नहीं सकेगा।

जब आदमी जवान हो जाता है तो अपने पैरों से चलता है। जब छोटा बच्चा ताना है तब तो नहीं चल सकता। तब किसी के हाथ के सहारे की जरूरत होती है। तब तो घुटने के बल रेंगता है। हां, कोई हाथ का सहारा दे दे, एक—दो कदम चल पायेगा है। एक दिन चल पायेगा, अपने ही पैरों से चल पायेगा लेकिन अभी देर है।

अभी थोड़ी तैयारी होनी जरूरी है। अभी देह को इस योग्य बनना है।

जैसी देह की योग्यता निर्मित होती है ऐसी ही आत्मा की योग्यता भी क्रमश: निर्मित होती है। जो पहुंच गये हैं समाधि में उन्हें न नियम की कोई जरूरत है, न मर्यादा की कोई जरूरत है। लेकिन जो नहीं पहुंचे हैं, अगर सब नियम और मर्यादा छोड़ देगे तो कभी भी पहुंच नहीं पायेंगे। टूट ही जायेंगे। रास्ते में ही बिखर जायेंगे।

मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई

हम तो देह धरै जग नाचब, भेद न पाई कोई

जगजीवन कहते हैं कि हमारी तो तुम मत पूछो। क्योंकि हम तो अब ऐसी हालत में हैं कि जहां हम जानते हैं कि हम देह नहीं हैं।’हम तो देह धरै जग नाचब’। अब तो हम जानते हैं कि हम और हैं, देह और है। अब तो हम नाच रहे हैं देह में। अब देह से। हमारा कोई बंधन नहीं रह गया है। अब देह से हमारी कोई आसक्ति नहीं रह गई है। अब देह और हमारे बीच फासला पैदा हो गया है, तादात्म्य टूट गया है।

तो हम जो करें, वही तुम मत करने लगना। जब तक तुम्हारा देह से तादात्म्य है तब तक तुम वही मत करने लगना, अन्यथा तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। पहले तादात्म्य टूटने दो। और तादात्म्य टूटने की प्रक्रियाएं और अक्सर ऐसा हो जाता है कि तादात्म्य टूटने के बाद जो व्यक्ति करता है अगर वही तादात्म्य रहते हु ए करे तो तादात्म्य और मजबूत हो जाता है।

जनक के पास एक संन्यासी गया। पूछने गया था। उसके गुरु ने भेजा था कि जाकर ब्रह्मज्ञान ले आ। मन में बहुत सकूचाया भी, सोचा भी कि सम्राट के पास क्या ब्रह्मज्ञान होगा ‘लेकिन गुरु कहते हैं तो गया। देखा तो और भी चौंका। वहां तो महफिल जमी थी। शराब के दौर चल रहे थे, नर्तकियां नाच रही थीं। सम्राट मस्त बीच में बैठा था। संन्यासी के तो हाथ—पैर कंप गये। वह तो तत्क्षण भागना चाहता था लेकिन जनक ने कहा, जब आ ही गये तो रुको। कम से कम रात तो विश्राम करो। फिर तुम जो पूछने आये हो, वह बिना पूछे जाओ मत। सुबह उठकर पूछ लेना।

दूर जंगल से थका—मादा आया था तो सो गया। सुंदर बिस्तर——सुंदरतम, जीवन में देखा भी नहीं था ऐसा। दिन भर का थका—मादा भी था, खूब गहरी नींद आनी थी मगर नींद आयी ही नहीं। सुबह सम्राट ने पूछा कि कोई अड़चन तो नहीं हुई? नींद तो ठीक आयी? उसने कहा, नींद कैसे आये.? नींद आती कैसे? आपने भी खूब मजाक की। इतना सुंदर भवन, इतना सुंदर बिस्तर, इतना सुंदर भोजन। मैं थका—माँदा भी बहुत। गहरी नींद आनी ही थी। रोज आती है मगर आज नहीं आ सकी। यह आपने क्या मजाक किया? जब मैं सोया बिस्तर पर और मैंने ऊपर आंख की तो देखा एक नंगी तलवार कच्चे धागे से लटकी है। रात भर यही सोचता रहा कि पता नहीं यह तलवार कब गिर जाये, कब प्राण ले ले। डर के मारे नींद न लगी। सो नहीं पाया। पलक नहीं झपी।

सम्राट ने कहा, मेरी तरफ देखो। यह मेरा उत्तर है। मौत की तलवार मेरे उपर भी लटकी है। और मौत का मुझे प्रतिक्षण स्मरण है इसलिए नर्तकियां नाचे, शराब का दौर चले, स्वर्ण—महल हों, वैभव—विलास हो, सब ठीक लेकिन तलवार ऊपर लटकी है। वह तलवार मुझे भूलती नहीं। तुम जैसे सो नहीं पाये ऐसे ही मैं भी मूर्च्‍छित नहीं हो पाता हूं। मेरा होश जगा रहता है। ध्यान सधा रहता है।

तो देखकर मत लौट जाओ। बाहर से तुम देखकर लौट जाओगे, भूल हो जायेगी। मैं बैठा था वहां, फिर भी वहां था नहीं। दौर चलता था तो चलता था। मेरी मौजूदगी सिर्फ ऊपर—ऊपर थी। भीतर से मैं वहां मौजूद न था। भीतर से मैं कोसों दूर था। जैसे रात भर तुम बिस्तर पर थे और बिस्तर पर नहीं थे, सोने का सब आयोजन था और सो न पाये ऐसे ही भोग का सब आयोजन है और भोग नहीं है। मैं अलिप्त हूं। मैं दूर—दूर हूं। मैं जल में कमलवत हूं। पानी से घिरा हूं लेकिन पानी की बूंद मुझे छूती नहीं है

लेकिन क्या तुम सोचते हो यही स्थिति बाकी दरबारियों की भी थी? तो तुम गलती में पड़ जाओगे। हालांकि दरबारी भी वही कर रहे थे जो सम्राट कर रहा था। ऊपर—ऊपर दोनों एक जैसे थे, भीतर—भीतर बड़ा भेद था।

जगजीवन से मैं राजी हूं। इसे खूब गहरे बैठ जाने दो इस विचार को।

हम तो देह धरे जग नाचबू भेद न पाई कोई

हम तो नाच रहे हैं देह धरे। देह तो हमें वस्त्रों जैसी हो गई है। हम बसे हैं देह में। हम मालिक हैं देह के। हम देह नहीं हैं।

और अब हमें इस संसार में कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता, सब अभेद हो गया है। मिट्टी और सोना एक जैसा है।

महाराष्ट्र में राका—बांका की बड़ी प्यारी कहानी है। एक फकीर हुआ राका—— बड़। त्यागी। सब छोड़ दिया। संपत्ति थी बहुत, सब लात मार दी। पत्नी भी उसके साथ हो ली। पत्नियां इतनी आसानी से साथ नहीं हो जातीं क्योंकि स्त्री का मोह पृथ्वी पर बहुत है। स्त्री पृथ्वी का रूप है——घर, जायदाद, मकान। इसलिए देखते हो न! पुरूष कमाता है धन, खरीदता है मकान लेकिन स्त्री कहलाती है घरवाली। पुरुष को कोई घरवाला नहीं कहता। उनकी कोई गिनती ही नहीं। कमाये वह, खून—पसीना हो, मकान खरीदे, मगर खरीदते ही से स्त्री का हो जाता है——घरवाली। स्त्री की पकड़ स्थूल पर गहरी है।

तो राका थोड़ा चिंतित था कि पत्नी साथ जायेगी कि नहीं, लेकिन बड़ा हैरान हुआ।

पत्नी ने तो एक बार भी इन्कार नहीं किया। जब सब लूटा रहा था धन—दौलत तो पत्नी कड़ी देखती रही। जब चला तो वह भी पीछे हो ली। उसने पूछा, तू भी आती है?उसने कहा, मैं भी आती हूं। यह झंझट मिटी, अच्छा हुआ। उपद्रव ही था व्यर्थ का।

राका को तो भरोसा ही न आया। उसने तो कभी सोचा ही न था। कोई पति नहीं सोचता कि उसकी पत्नी और कभी इतनी ज्ञानवान होगी। दोनों फिर जगल से लकड़ी काटते, बेच देते, उसी से भोजन मिल जाता, काम चला लेते।

एक दिन बेमौसम तीन दिन तक पानी गिर गया तो लकड़ी काटने जा न पाये.। तीनों दिन भूखे रहना पड़ा। चौथे दिन थके—मांदे, भूखे—प्यासे लकड़ी काटने—गये। काटकर लौटते थे, राका आगे था। उसने देखा कि रास्ते के किनारे किसी राहगीर की सोने की अशर्फियों से भरी थैली गिर गई है। कोई घुड़सवार घोड़े के टाप के निशान है। अभी धूल भी हवा में है। अभी—अभी गुजरा होगा। उसकी स्वर्ण— अशर्फियों की थैली गिर गई है।

राका के मन में हुआ कि मैं तो त्यागी हूं। मैंने तो जान—बुझकर त्यागा है, सोच— समझकर त्यागा है। मेरी पत्नी तो सिर्फ मेरे पीछे चली आयी है शायद मोहवश। शायद पति को नहीं छोड़ सकी है। शायद मेरे कारण। शायद अब और कोई उपाय नहीं है। शायद अकेली नहीं रह सकी है। पता नहीं किस कारण मेरे साथ चली आयी है। कहीं उसका मन लोभ में न आ जाये। स्त्री स्त्री है। कहीं मन पकडने का न हो जाये। और इतनी अशर्फियां। फिर तीन दिन के हम भूखे भी हैं। सोचने लगे कि इनको बचाकर रख लो। कभी पानी गिरे, अड़चन हो, लकड़ियां न काटी जा सके, बीमारी आ जाये— तो काम पड़ेगी। तो इसे जल्दी से छिपा दू।

तो उसने पास के ही एक गड्ढे में सारी अशर्फियों को डालकर उस पर मिट्टी पूर रहा था। जब वह मिट्टी पूर ही रहा था कि पत्नी भी आ गई। पत्नी ने पूछा, क्या करते हैं आप?सच बोलने की कसम खाई थी इसलिए झुठ भी न बोल सका। कहा कि अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। तूने पूछा तो मुझे कहना पड़ेगा। बहुत—सी स्वर्ण—अशर्फियों से भरी हुई एक थैली पड़ी थी। किसी राहगीर की गिर गई है। कोई घुड़सवार अभी—अभी भूल गया है। यह सोचकर कि कहीं तेरे मन में मोह न आ जाये. मैं तो त्यागी हूं., सर्वत्यागी। मेरे लिए तो मिट्टी और सोना बराबर है। मगर तू. तेरा मुझे— अभी भी भरोसा नहीं है। तू आ गई है मेरे साथ, लेकिन पता नहीं किस हेतु से आ गई है। शायद यह भी मेरे प्रति आसक्ति हो कि सुख में साथ रहे, दुख मे भी साथ रहेंगे। जीवन—मरण का साथ है, इस कारण आ गई हो। डरकर कि कहीं तेरा मन डोल न जाये; फिर तीन दिन की भख। सोचकर कि रख लो उठाकर। तो मैं अशर्फियों के ऊपर मिट्टी डालकर छिपा रहा हूं।

उसकी पत्नी खिलखिलाकर हंसने लगी और उसने कहा, हद हो गई। तो तुम्हें अभी सोने और मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ता है?मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो, शर्म नहीं आती? उस दिन से उसकी स्त्री का नाम हो गया बांका। राका तो उसका नाम था पति का, उस दिन से उसका नाम हो गया बांका। बांकी औरत रही होगी। अद्भुत स्त्री रही होगी। कहा, मिट्टी पर मिट्टी डालते शर्म नहीं आती? कुछ तो शरमाओ! कुछ तो लज्जा खाओ। यह क्या बेशर्मी कर रहे हो?तो तुम्हें अभी सोने और मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ता है। तो तुम किस भ्रांति में पड़े हो कि तुमने सब छोड़ दिया?छोड़ने का मतलब ही होता है, जब भेद ही दिखाई न पड़े’।

अब तुम फर्क समझो। एक तो ऐसी समाधि की दशा है जहां भेद दिखाई नहीं पड़ता। सब बराबर है। और एक ऐसी दशा है जहां भेद तो साफ—साफ दिखाई पड़ता है, चेष्टा करके हम त्याग देते हैं। तो अड़चन आयेगी। तो तुम्हारे भीतर द्वंद्व आयेगा, पाखंड आयेगा। तुम मिथ्या हो जाओगे।

ऐसे मिथ्या न हो जाओ इसलिए जगजीवन का यह सूत्र है कि मै’ तुमसे जो कहूं वह करो, ताकि धीरे—धीरे सीढ़ी—सीढ़ी तुम्हें चढ़ाऊं, ताकि इंच—इंच तुम्हें रूपांतरित करू। एक दिन ऐसी घड़ी जरूर आ जायेगी कि जो मैं करता हूं— वहां तुम भी करोगे लेकिन नकल के कारण नहीं, तुम्हारे भीतर से बहाव होगा। तुम्हारा अपना फूल खिलेगा। तुम्हारी अपनी सुगंध उठेगी।

धर्म के जगत में नकल की बहुत सुविधा है क्योंकि नकल सस्ती है। ज्यादा अड़चन नहीं मालूम होती। बुद्ध जिस ढंग से चलते हैं, तुम भी चल सकते हो। क्या अड़चन है? थोड़ा अभ्यास करना पड़ेगा।

लाओत्सु ने कहा है, ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे प्रत्येक कदम पर खतरा है——इतना सावधान। ज्ञानी ऐसे चलता है सावधान, जैसे कोई ठंड के दिनों में, गहरी ठंड के दिनों में बर्फीली नदी से गुजरता हो। एकेक पांव सोच—सोचकर रखता है। ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे नारों तरफ दुश्मन तीर साधे बैटे हों——कब कहा से तीर लग जाये, इतना सावधान चलता म्:। जैसे शिकारियों के भय से कोई हिरन जंगल में सावधान चलता है।

मगर यह सावधानी भीतर से आ रही है, होश से आ रही है, सजगता से आ रही है। तुम यह सावधानी बाहर से भी सीख सकते हो। तुम बिलकुल पैर सम्हाल—सम्हाल—कर रख सकते हो। मगर क्या तुम्हारे पैर सम्हाल—सम्हालकर रखने से तुम्हारे भीतर जागरूकता पैदा हो जायेगी?पैर सम्हालकर रखना तुम्हारी आदत हो जायेगी, अभ्‍यास हो जायेगा। भीतर की नींद अछूती बनी रहेगी, जैसी थी वैसी ही बनी रहेगी। जो भीतर करना है, भीतर से बाहर की तरफ करना है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं करना है।

महावीर को भीतर अभेद का बोध हुआ, अहिंसा जन्मी। उनके पीछे चलने वाले अहिंसा को साधते हैं और सोचते हैं कि अभेद का जन्म हो जायेगा। पागल हुए हो? इतना सस्ता है जीवन के सत्य को पा लेना? महावीर ने जरूर फूंक—फूंककर कदम रखे कि कहीं कोई चींटी न मर जाये। महावीर के पीछे चलनेवाले भी फूंक—फूंककर कदम रखते हैं कि कहीं कोई चींटी न मर जाये। लेकिन दोनों में बड़ा भेद है। एक—से कृत्य और भेद जमीन—आसमान का है।

महावीर इसलिए पैर सम्हाल—सम्हालकर रखते हैं कि चींटी में भी मैं ही हूं। अपने पर ही कैसे पैर रखुं? अपने को ही कैसे कष्ट द? जैसे कोई अपने ही हाथ से अपने गाल पर चांटा मारे, ऐसा पागलपन है महावीर के लिए। क्योंकि एक का ही वास है। एक ही आत्मा सब में व्यापक है।

लेकिन जब जैन मुनि——तथाकथित जैन मुनि पैर सम्हालकर रखता है, चींटी न मर जाये, तुम सोचते हो उसका कारण वही है? नहीं, वह डर रहा है कहीं चींटी मर गई तो नरक जाना पड़े। वह नरक से बचने की कोशिश में लगा हुआ है। उसकी फिकर अपनी है। चींटी से क्या लेना—देना है? भाड़ में जाये चींटी। कल की मरती, आज मर जाये। मगर इतना ही भर उसे ख्याल रखना है कहीं मेरा नरक, कहीं मै झंझट में न पड़ जाऊं। मेरा नरक बच जाये, मेरा स्वर्ग निश्चित हो जाये।

यह तो अहंकार, लोभ——उसी की यात्रा चल रही है। यह तो महत्वाकांक्षा का ही खेल चल रहा है। यह तो राजनीति का ही विस्तार है। इस दुनिया से उस दुनिया तक फैल गई राजनीति। चींटी को बचाने में चींटी को बचाने से कोई प्रयोजन नहीं है। चींटी को बचाने में अभेद कोई भाव नहीं है। अपना नरक बचाना है। कप रहा है, डर रहा है। डर के मारे सम्हलकर कदम रख रहा है।

महावीर डर के मारे सम्हलकर कदम नहीं रख रहे हैं, प्रेम के कारण। और प्रेम और भय में कितना फर्क है थोड़ा सोचो तो! उल्टे हैं ए_क—दूसरे से। भय तो प्रेम से?बिलकुल उल्टा है। कृत्य एक—से मालूम पड़ते हैं, कारण बिलकुल विपरीत हैं। जिससे तुम भयभीत हो उसके कारण तुम्हारी आत्मा विस्तीर्ण नहीं होगी। सिकुड़ोगे तुम। इसलिए तथाकथित जैनमुनि सिकुड़ गये हैं, बिलकुल सिकुड़ गये हैं, विस्तार नहीं हुआ है। और धर्म तो विस्तार है। आत्मा फैलनी चाहिए। जितने डर जाओगे उतने सिकुड़ जाओगे। जितना प्रेम बढ़ेगा उतने फैलते जाओगे। एक दिन प्रेम इतना विराट हो जाता है कि सारे जगत को अपने भीतर समा लेता है, आकाश जैसा हो जाता है।

महावीर को ऐसा ही प्रेम उपलब्ध हुआ। उस प्रेम से अहिंसा जन्मी। अहिंसा से समाधि पैदा नहीं होती, समाधि से अहिंसा पैदा होती है। और यही सूत्र जीवन के सारे नियमों के संबंध में सच है।

हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई

हम आहन सतसंगी—बासी, सूरति रही समोई

तुम हमारी देख—देखकर मत करो, जगजीवन कहते हैं हमें तो सत्संग मिल गया, तुम्हें अभी कहां मिला?हमें तो गुरु मिल गया, तुम्हें अभी कहा मिला? हमारे ऊपर तो गुरु बरसा है, उसका प्रसाद आया है। हमने तो अपने को गुरु के चरणों में रख. दिया। हम सत्संग के वासी हो गये। हमारे भीतर अहंकार नहीं बचा, तभी तो प्रसाद मिला।

बुल्लेशाह के हाथ रखते ही जगजीवन के सिर पर, ज्योति जगमगा उठी। कोई रुकावट ही न पाई। द्वार—दरवाजे खुले थे। दीया बिलकुल पास सरक आया बुल्लेशाह के, तो बुझा दीया भी जल गया।

हम आहन सतसंगी—बासी——हम तो हैं सत्संग के बासी। हमें तो मिल गया सत्य का संग—साथ। उस संग—साथ के कारण हमारे जीवन में क्रांति हुई है——सूरति रही समोई। समाधि जग गई है, स्मरण पैदा हुआ है। परमात्मा का बोध जगा है, दीया जला है।

अब हमारे जीवन में जो हो रहा है ऐसा ही तुम मत करना, नहीं तो तुम झूठे हो जाओगे, तुम थोथे हो जाओगे। तुम प्रवचंक हो जाओगे।

जरा सोचो! जैसे किसी आदमी को लॉटरी मिल गई और वह नाच रहा है। और तुम भी उसकी देखादेखी नाचने लगे। तुम क्या सोचते हो, नाचने से तुम्हें लॉटरी मिल जायेगी? और तुम वैसे ही नाचो बिलकुल जैसा वह नाच रहा है, तो भी उसके मीतर कुछ है जो तुम्हारे भीतर नहीं है। उसके भीतर एक आनंदभाव है——लॉटरी मिल गई। तुम्हें तो कुछ मिला नहीं। तुम तो शायद इसलिए नाच रहे हो कि देखो, यह आदमी नाचने से कितना आनंदित हो रहा है! हम भी नाचे, हम भी आनंदित हों। बस वहीं चूक हो रही है। गणित वहीं भूल से भर रहा है। यह आदमी आनंदित रह इसलिए नाच पैदा हो रहा है।

लॉटरी का तो मैंने उदाहरण दिया। समाधि तो परम धन है। लॉटरी की तो तात कही ताकि तुम्हारी समझ में आ जाये। समाधि तो तुम्हारे लिए कोरा शब्द।। सुरति तो तुमने सुना है। क्या है क्या नहीं, पता नहीं।

—बस जगत की सारी संपदाएं व्यर्थ हैं सुरति के सामने। जिसे प्रभु का स्मरण आ गया उसको सब मिल गया। मिल गये सारे साम्राज्य। हो गया सम्राट। सूरति रही समोई।

कहा पुकारि बिचारि लेहु सुनि……

इसलिए पुकारकर कहते हैं, खूब विचारकर सुन लो।

बृथा शब्द नहिं होई

हम जो कह रहे हैं ये शब्द ऐसे ही नहीं हैं।

जगजीवनदास सहज मन सुमिरन, बिरले यहि जग कोई

बहुत मुश्किल से कभी किसी के जीवन में’ ऐसी विरल घटना घटती है——समाधि का उतरना। लेकिन जब यह घटना घटती है तो आचरण तत्—क्षण रूपांतरित हो जाता है। जीवन आभापूर्ण हो जाता है।

फिर ऐसे आदमी के लिए न कुछ बुरा है न कुछ भला है। वह मिट्टी भी छुए तो सोना हो जाती है। वह जो भी करे, शुभ है। उससे अशुभ होता ही नहीं। जिसके भीतर समाधि आ गई उससे अशुभ होता नहीं। उसके लिए कोई मर्यादा नहीं रह जाती। इसलिए हमने परम सन्यास की दशा को परमहंस कहा है। उसके लिए कोई मर्यादा नहीं है। लेकिन परमहंस का अनुसरण मत करना। उसका आचरण देखकर अनुसरण मत करना।

ऐसा समझो, तुम चिकित्सक के पास जाते हो तो तुम यह थोड़े ही देखते हो कि चिकित्सक क्या करता है, वही मैं करू। चिकित्सक जो तुम्हें प्रिस्क्रिप्शन देता है, चिकित्सक जो तुम्हें लिखकर दे देता है कि ये—ये दवाएं लो, इस—इस तरह से लो, यह भोजन करो——ऐसा उपचार की व्यवस्था बना देता है। तुम उसके अनुसार चलते हो। तुम यह नहीं देखते कि चिकित्सक को देखें, यह क्या करता है, कि हर रविवार को गोल्फ खेलने जाता है तो हम भी जायें। तो तुम मरोगे, मुश्किल में पड़ोगे। कि यह घुड़सवारी करता है तो हम भी करें। कि यह रात देर तक क्लब घर में बैठकर ताश खेलता है तो हम भी खेलें। देखो कैसा स्वस्थ है!

तुम चिकित्सक का अनुसरण मत करना, चिकित्सक की कही बात का अनुसरण करना। क्योंकि तुम्‍हारी बीमारी अलग, तुम्हारा रोग अलग।

गुरु का आचरण देखकर अगर तुम चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि प्रत्येक शिष्य जो गुरु के पास आता है, अलग—अलग बीमारी लेकर आता है। गुरु तो एक है, शिष्य अनेक हैं। प्रत्येक अलग—अलग बीमारी’ लाया है। गुरु जो कहे, वही मान कर चलना। और इसलिए कई बार तुम्हें बड़ी अड़चन होती है। मेरे पास रोज ऐसी घटना घटती है। कभी तो एक ही सांझ में ऐसा हो जाता है कि मुझे दो आदमियों को विपरीत सलाहें देनी पड़ती हैं। वे बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं क्योंकि लोग यह सोचते हैं कि एक सलाह सभी के काम आनी चाहिए। जिंदगी इतनी आसान नहीं। जिंदगी बड़ी जटिल है और बड़ी सूक्ष्म है। एक व्यक्ति को मुझे एक बात कहनी पड़ती है, दूसरे व्यक्ति को दूसरी बात कहती पड़ती है।

अभी कुछ दिन पहले एक भारतीय मित्र ने कहा कि कामवासना से परेशान हूं; बुरी तरह परेशान हूं। उम्र भी काफी हो गई है। पचास साल उम्र हो गई है। घबड़ाने भी लगे हैं कि अब कब इससे छुटकारा होगा?और जीवन भर छुटकारे की कोशिश की है। जन्म से जैन हैं। जैन मुनियों, साधु—संतों का सत्संग करते रहे हैं। उनकी ही बातचीत सुन—सुनकर शादी भी नहीं की। सब तरह से अपनी वासना को दबा रखा है। वह दबी हुई वासना रग—रग में समा गई है, रोएं—रोएं में बैठ गई है। अब घबड़ा रहे हैं। अब जरा उम्र भी ढलने लगी है।

जब आदमी में ताकत होती है जवानी की तब वासना को दबाना भी आसान होता है। जब ताकत कम होने लगती है, तो वासना को दबाना मुश्किल हो जाता है। लोग अक्सर सोचते है कि जवानी अगर एक दफे निकल गई तो फिर तो सब शांति हो जायेगी। गलती ख्याल में हो तुम। जिस दिन जवानी निकल जायेगी उस दिन तुम और मुश्किल में पड़ोगे क्योंकि फिर दबाने की ताकत भी नहीं रह जायेगी। और वासना प्रज्वलित बैठी होगी।

उन मिल को मुझे कहना पड़ा कि दबाने का दुष्परिणाम हुआ है। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, दबाओं मत। वे तो घबड़ा गये, पसीना—पसीना हो गये कि दबाऊं नहीं——अब? नहीं अब कैसे? और पचास साल की प्रतिष्ठा भी है कि बड़े त्यागी व्रती। आप कैसी बात कर रहे हैं।

फिर मैंने कहा, मर्जी तुम्हारी। यह जारी रहेगा मरते दम तक। मरते वक्त, तुम्हें जो आखिरी ख्याल रहेगा मरते वक्त, वह वासना का ही रहेगा। क्योंकि वही तुम्हारे भीतर सबसे प्रबल बात है। तुम लाख उपाय करो कि णमोकार की याद रह जाये मरते वक्त, नहीं रहेगी। स्त्रियां ही दिखाई पड़ेगी।

अक्सर ऐसा हो जाता है….. अब तक मेरे जीवन में ऐसा अनुभव नहीं आया, लाखों लोगों ने मु_झसे सवाल पूछे हैं, प्रश्न पूछे हैं, सलाहें ली हैं, एक भी भारतीय ने ऐसा सवाल नहीं पूछा जैसा पश्चिम से आये हुए लोग पूछते हैं। रोग अलग—अलग हो गये है—। भारतीयों का प्रश्न यही होता है कि वासना से कैसे छुटकारा हो? क्योंकि वासना को दमन करने की प्रक्रियाएं सिखाई गई हैं या लोगों ने सीख ली हैं। पश्चिम मे जरूर कभी—कभी कुछ लोग आ जाते हैं जो बिलकुल उलटा प्रश्न पूछते हैं, जिसको भारतीय सुनकर चौंकेगा।

उसी रात जिस दिन ये सज्जन पूछ रहे थे : वासना से कैसे छुटकारा हो, पचास माल की उम्र में, बत्तीस या तैतीस साल की युवती नै पूछा——फ्रांस से आयी है——कि मेरी वासना बिलकुल समाप्त हो गई है। यह कैसे जगे? क्योंकि पश्‍चिम में यह ख्याल है कि जिस दिन वासना खतम हो गई, जीवन खतम हो गया। और रखा क्या है जीवन में? फ्रायड की शिक्षा का यह म्लधार है कि जीवन यानी कामवासना। जिस दिन कामवासना चली गई उस दिन तुम्हारा जीवन थोथा है। चली कारतूस! किसी काम की नहीं है। फिर व्यर्थ है जीना।

तो स्वभावत: उस युवती के मन में बड़ी घबड़ाहट है। उतनी ही घबड़ाहट, जितनी भारतीय के मन में है कि वासना से कैसे छुटकारा हो? युवती पूछ रही है कि इस वासना को मैं कैसे प्रज्वलित करू? मुझे रस ही नहीं आता। मुझे पुरुषों में कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। मुझे सपना भी नहीं आता। मैं चाहती हूँ कोशिश करके किसी के प्रेम में पड़ जाऊं, मगर वह सब कोशिश ही कोशिश रहती है। उसमें कोई सार नहीं है। प्रेम करने की मुझे कोई वृत्ति ही नहीं पैदा होती। मुझे बचाओ! मैं इसीलिए फ्रांस से आयी हूं कि किसी तरह यह मेरी मरती हुई जीवन—ऊर्जा फिर से प्रज्वलित हो जाये। नहीं तो मैं करूंगी क्या? अभी मेरी उम्र केवल तैतीस वर्ष है। अभी कम से कम पचास साल मुझे और जीना है। ये पचास साल बस ऐसे ही जीने पड़ेंगे—— अर्थहीन?

मैंने उससे कहा कि जो तुझे हुआ है, यह फ्रांस में ही हो सकता था और कहां हो सकता है? जहां वासना को खुले रूप से स्वीकार कर लिया गया हो, जहां वासना के प्रति किसी तरह का दुर्भाव न हो वहां वासना समाप्त हो जाती है। ये उल्टी बातें हैं। जिस चीज को भी तुम जी लेते हो वह मिट जाती है और जिसको तुम अनजिया छोड़ देते हो वह जिंदा रहती है, वह पुकार करती है, मांग करती है। भारतीय की वासना मरते दम तक नहीं छुटती।

पश्चिम में ने युवतियों के सामने सवाल खडा हुआ है। तुम यह जानकर हैरान होओगे कि पश्चिम के मनोवैज्ञानिक के पास रोज लोग आते हैं जिनका प्रश्न यही है कि हमारी वासना मरी जा रही है। अब हमे रस नहीं है स्त्री—पुरुषों में कोई। हम क्या करें? और पश्चिम में नई—नई विधियां खोजी जाती हैं कि कैसे रस को फिर से जगाया जाये! कैसे पुनरुज्जीवित किया जाये। नई—नई दवाएं खोजी जाती है। ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता जिस वर्ष कोई नई दवा की घोषणा नहीं होती, कि इसको लेने से वासना फिर जीवित —हो जायेगी।

क्या कारण होगा? जो भी चीज समझ में आ जायेगी, देख. लोगे, भोग लोगे, जान लोगे उसका रस समाप्त हो जायेगा। जो भी चीज नहीं जानोगे ,नहीं भोगोगे, नहीं देखोगे उसका रस बना रहेगा, रुका रहेगा, अटका रहेगा। अनुभव मुक्ति है। और सच्चा त्याग भोग की प्रक्रियाओं का अंतिम परिणाम है।

मोक्ष संसार से गुजरकर ही उपलब्ध होता है। संसार राह है मोक्ष की। संसार मोक्ष के विपरीत नहीं है, मोक्ष का मार्ग है। इसी से चलकर आदमी मोक्ष तक पहुंचता है। पदार्थ की सीढ़ियों पर चढू—चढकर परमात्मा के मंदिर तक पहुंचना होता है।

अब जब दो तरह के लोग दो बातें पूछेंगे तो मुझे अलग—अलग सुझाव देने पड़ेंगे दोनों को। भिन्न—भिन्न सुझाव देने पड़ेंगे। मुझे उस फ्रेंच युवती से कहना पड़ा कि अच्छा ही हुआ कि तू झंझट के बाहर हो गई। अगर तू भारत में पैदा होती, तू अपने को सौभाग्यशाली समझती। तू धन्यभागी समझती, जन्मों—जन्मों के पुण्यों का फल समझती कि वासना समाप्त हो गई। तू नाचती, आनंदित होती कि चलो, एक उपद्रव समाप्त हुआ। अब मेरी सारी जीवन—ऊर्जा प्रभु की तलाश में लगू सकेगी, प्रार्थना बन सकेगी, पूजा बन सकेगी। अब मैं सारे जीवन को ध्यान में ढाल सकूंगी। तू आनंदित होती। यह तो बहुत अच्छा हुआ।

वे भारतीय मिल भी बैठे सुन रहे हैं। वे तो बड़े चौंके। क्योंकि उनसे मैंने कहा है कि किसी तरह…. अभी भी बिगड़ा नहीं है कुछ। अभी भी थोड़े—बहुत वासना के अनुभव से गुजर जाओ। और इस युवती से मैं कहा रहा हूं कि तू धन्यभागी है।

अब अगर उनको लगे दोनों को कि मैं विरोधाभासी बातें कह रहा हूं तो आश्चर्य तो नहीं। लेकिन जरा भी विरोधाभास नहीं है। दोनों का रोग अलग है। एक का रोग दमन है, उसे दमन के बाहर लाना है। एक का रोग भोग की आकांक्षा है, उसे भोग की आकांक्षा से बाहर लाना है।

यह मैंने तुम्हें उदाहरण के लिए कहा। प्रत्येक व्यक्ति के अलग—अलग रोग हैं, भिन्न—भिन्‍न रोग हैं। उनके भिन्न—भिन्न उपाय हैं, इलाज हैं।

इसलिए ठीक कहते हैं जगजीवन कि जो मैं कहूं, वह सुनना। मैं क्या करता हूं उसे करने की कोई जरूरत नहीं है। उसे किया तो बड़ी फजीहत होगी।

जगजीवनदास सहज मन सुमिरन, बिरले वहि जग होई

बहुत विरल है सहज स्मरण, सहज समाधि। लेकिन जब घट जाती है सहज समाधि किसी को तो तुम उसके आचरण का अनुसरण मत करने लगना। क्योंकि जो उसके लिए सहज है वह तुम्हारे लिए सहज नहीं होगा। उसके जीवन में तो एक रोशनी आ गई। उस रोशनी के अनुसार उसे दिखाई पड़ने लगा। उसके जीवन में तो तादात्म्य तट गया है देह से। अब वह देह नहीं है। अब वह संसार में है और संसार में नहीं है। वह संसार में है, संसार उसके भीतर नहीं है। उसकी दशा बड़ी अनुठी है। सम्मान करना। उसके चरणों में झुकना। उसके पास उठना—बैठना। उसकी सुनना। उसकी मानना। उसकी बात मानकर जीवन में प्रयोग करना। उसके आनंद—भाव से एक ले बात सीखना कि ऐसा आनंद—भाव एक दिन तुम्हें भी हो सके।

लेकिन यह हो सकेगा तभी, जब तुम उसकी मानकर चलोगे। यह मत सोचने लगना कि हम भी इसी तरह जीने लगें जैसे यह आदमी जी रहा है; नहीं तो तुम अभिनय में पड़ जाओगे। और इस जगत में धर्म के नाम पर बहुत अभिनय हो रहा है इसलिए सावधानी अत्यंत आवश्यक है।

इब्तिदा से आज तक ’नातिक’ की है यह सरगुजश्त

पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है

पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है——साधक के जीवन में बड़े पड़ाव आते हैं। पहले चुप हो जाना पड़ता है, बिलकुल चुप हो जाना पड़ता है। फिर हुआ दीवाना——फिर उस चुप्पी से एक शराब पैदा होती है, भीतर एक मस्ती पैदा होती है। बाहर से कोई नशा नहीं करना पड़ता, भीतर ही नशा सघन होने लगता है।

पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है

और फिर ऐसी घड़ी आ जाती है कि बेहोश हो जाता है। और बेहोशी भी कैसी? बेहोशी भी ऐसी कि जिसके भीतर होश का दीया जलता है। बाहर से दुनिया कहे बेहोश, और भीतर वह परम होश में होता है।

रामकृष्ण बेहोश होकर गिर पड़ते थे——घंटों। कभी—कभी तो दिनों बेहोशी में पड़े रहते थे। चिकित्सक तो कहते थे कि यह एक तरह का हिस्टेरिया है, एक तरह की मिर्गी। लेकिन रामकृष्ण हंसते थे। वे कहते थे कि बाहर से भला मेरा शरीर जड़ हो जाता हो, लेकिन भीतर तो मैं इतने होश से भरा होता हुं जितना और कभी नहीं भरा होता। जब वे होश में आते हमारे हिसाब से, बाहर के हिसाब से, जब उनकी बेहोशी टुटती, होश में आते तो वे जो पहली बात कहते वह यही कहते कि फिर बेहोशी में भेज दिया? वापिस बुला लो। होश में वापिस बुला लो। क्यों मुझे फिर धक्के देकर बेहोशी में भेज रहे हो? और इधर सारे लोग समझ रहे थे कि वे होश में आ रहे हैं। और वे कहते हैं, मुझे फिर क्यों बेहोशी में भेजा? क्यों मुझे संसार में फिर डाल रहे हो। मुझे भीतर आ जाने दो। चिकित्सक तो कहेगा कि हिस्टेरिया है। लेकिन जाननेवाले कहते हैं यह परमहंस की अवस्था है। लेकिन नकल मत करना।

एक झेन फकीर अपने शिष्य को ध्यान करने के लिए कहा था। झेन फकीर ध्यान के लिए कुछ पहेली देते हैं कि इस पहेली पर विचार करो, इसका उत्तर लेकर आओ। और जो भी उत्तर लेकर आता है शिष्य, वह कह देता है कि?नहीं, और खोजो; नहीं, और खोजो। दिन आये, महीने आये, वर्ष आये—गये——थक गया शिष्य। जो भी उत्तर ले जाये——नहीं!

उसने जरा दूसरे पुराने शिष्यों से पूछा कि भाई, यह मामला क्या है? उन्होंने कहा, यह होता है।’ फिर इससे छुटकारा क्या है? ‘एक शिष्य ने कहा कि मेरा तो इस तरह छुटकारा हुआ था सात साल के बाद, कि एक दिन जब उन्होंने मुझसे पूछा तो मैं बस एकदम बेहोश हो गया। गिर पड़ा। उन्होंने गले लगा लिया और मुझे कहा कि बस ठीक है, उत्तर मिल गया।

तो उसने कहा, भले मानस। मुझे बताया क्यों नहीं? पहले ही बता दिया होता! नाज जाता, अभी जाता। गया और गुरू के चरण छुए और गुरु ने जैसे ही पूछा, उत्तर? वह जल्दी चारों खाने चित होकर बेहोश हो गया। गुरु ने कहा, बिलकुल ठीक, लेकिन उत्तर का क्या हुआ? तो उसने एक आंख खोलकर कहा कि उत्तर? यह उत्तर नहीं है?

गुरु ने कहा, देखो, बेहोशी में कोई बोलता नहीं, और न हीबे होशी में कोई एक आंख खोलता है। उठो और भागों यहां से। उत्तर के खोजने में लगो। इस तरह दूसरों।।— द्बारा बताये गये उत्तरों से काम न चलेगा। यह कोई बेहोशी थोड़े ही है। और किसने तुझे यह कहा है, मुझे याद आ गया। मगर उसकी बेहोशी सच्ची थी। वह बेहोश हुआ नहीं था, बस मेरे देखते ही, आंख में आंख डालते ही घटना घट गई थी। वह डुबकी गार गया था। तूने तो मुझे खूब चौंकाया। मैंने पूछा, उत्तर क्या है? तू जल्दी से वत। और बड़ी व्यवस्था से लेटा कि चोट वगैरह भी न लग जाये। क्योंकि जब आदमी व्यवस्था से लेटता है तो देख लिया आगे—पीछे और जल्दी से लेट गया कि कोई अगर में चोट न लग जाये, कोई. और बिलकुल पड़ा रह गया शांत।

तुम्हारा धार्मिक आचरण करीब—करीब इस आदमी जैसा आचरण है। कुछ बातें है जो केवल अनुभव से जानी जाती हैं, किसी के कहने से नहीं जानी जातीं।

ये शबाब के फसाने जो मैं दिल में सुन रहा हूं

अगर और कोई कहता तो न ऐतबार होता

किसी छोटे बच्चे को कहो कि जवानी में जो रस, जो स्वप्न, जो प्रेम, प्रीति जगती है उसकी बात किसी बच्चे से कहो, उसे भरोसा नहीं आयेगा। वह कहेगा, क्या बातें कर रहे हो?

ये शबाब के फसाने जो मैं दिल से सुन रहा हूं

अगर और कोई कहता तो न ऐश्तबार होता

कभी भरोसा नहीं हो सकता था किसी और के कहने से। जब तक तुम अपने दिल से न सुनो। फिर चाहे वे जवानी के फसाने हों और चाहे परमात्मा की याद हो, भीतर से सुनी जाये तभी सार्थक होती है।

कलि की रीति सुनहु रे भाई

लेकिन कलियुग की अपनी रीति है। लोग सचाई तो भूल ही गये हैं सत्य तो भूल ही गये हैं। सतयुग तो उनके जीवन से जैसे तिरोहित हो गया है।

कलि की रीति सुनहु. रे भाई

माया यह सब है साईं की, आपुनि सब केहु गाई

यह सारा जगत परमात्मा का है, सब कुछ उसका है। और कलियुग की रीत देखो। हर आदमी कह रहा है, मेरा—मेरा। न जमीन तुम्हारी है; जमीन तुम ले न आये थे, और न ले जाओगे। न पति तुम्हारा है, न पत्नी तुम्हारी, न बेटे तुम्हारे।

शायद दुनिया में एक अकेली भाषा है एस्किमो की जिसमें एक सचाई प्रकट होती है। अगर तुम किसी एस्किमो के साथ उसके बेटे को जाते देखो और तुम उससे पूछो कि यह लड़का कोन है, तो सिर्फ अकेली एस्किमो की भाषा ऐसी है कि उसमें यह नहीं कहा जाता कि यह मेरा बेटा है, मैं इसका बाप हूं। उसमें कहा जाता है, यह लड़का हमारे घर रहता है, हमारे साथ रहता है। यह लड़का कहां से आया? तो कहा जाता है, परमात्मा के यहां से आया, परमात्मा ने भेजा। हम इसके रखवाले हैं। दीन—दरिद्र’ एस्किमो जरूर बड़ी गहरी बात कह रहे हैं। हम इसके रखवाले हैं। परमात्मा ने भेजा है। यह लड़का हमारे साथ रहता है, हमारे घर में रहता है। हम इसकी देखभाल करते हैं। मगर यह नहीं कहते वे कि यह हमारा बेटा है। हमारा क्या! न जमीन हमारी है, न धन हमारा है, न पद हमारा है। कुछ भी हमारा नहीं है। हम एक दिन खाली हाथ आये हैं, और एक दिन खाली हाथ चले जायेंगे। न हम कुछ लाते हैं, न हम कुछ ले जाते हैं, मगर बीच में हम कितना शोरगुल मचाते हैं। उसी शोरगुल का नाम संसार है।

माया यह सब है साईं की, आपुनि सब केहु गाई

भूले फूले फिरत आय, पर केहुके हाथ न आई

जो है जहां तहां ही है सो, अंतकाल चाले पछिताई

फिर पीछे पछताओगे। जो जहां है वहीं पड़ा रह जायेगा। जो जैसा है वैसा ही पड़ा रह जायेगा। अंतिम समय बहुत पछताओगे। इसके पहले जागो, समझो : मेरा कुछ भी नहीं है, सब उसका है। मैं भी उसका हूं। यह बोध उठने लगे तो तुम्हारे जीवन में धर्म की पहली किरण उतरी।

जहुं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई

और तुम तो ऐसे हो कि जहां राम की चर्चा चल रही हो, जहां नाम का रस बह रहा हो वहां भी जाकर और दूसरी बातें चलाना चाहते हो। लोग मंदिरों में जाकर न मालूम क्या—क्या बातें करते हैं!

एक बार एक सभा में मुझे जाने का मौका मिला, फिर उसके बाद मैं किसी सभा में नहीं गया। कृष्णाष्टमी थी और पंजाबी और सिंधियों की सभा थी। सब सज—धजकर आये थे। सिंधियों का तो कोई मुकाबला ही नहीं है इसमें। चाहे स्नान करें चाहे न करें, मगर कपड़े तो रेशमी…..। स्त्रियां तो बहुत सज—धजकर आयी थीं। ऐसे दिनों की प्रतीक्षा ही करती हैं स्त्रियां, नहीं तो दिखाओ कब——कपड़े—लत्ते, गहने? बड़ा रंगीन समां था।

मै— तो बड़ा चकित हुआ। मुझसे पहले जो बोल रहे थे सज्जन, वे एक पीठ के शंकराचार्य हैं। मैं तो बड़ा हैरान हुआ। ऐसा चमत्कार मैंने देखा ही नहीं था। सब लोग गपशप में लगे हैं वे बोल रहे हैं। सब लोग गपशप में लगे हैं। यहां तक, कि औरते पीठ किये बैठी हैं बोलने वाले की तरफ। क्योंकि बातचीत चल रही है दूसरों से, ”ने खंड—झुंड बनाये हुए हैं। और जमाने भर की चर्चा चल रही है। उसी दिन मुझे नह राज समझ में आया कि धार्मिक सभाओं में बीच—बीच में क्यों बोलना पड़ता है : बोल सियाबल रामचंद्र की जय? उस दिन मुझे रहस्य समझ में आया कि क्यों बीच—बीच में. कोई कारण समझ में नहीं आता। इसको अचानक…..! उतनी देर के लिए कम से कम लोग चुप हो जाते है। एकाध—दो मिनट चुप रहते हैं, उतनी ‘दर में जो कुछ भी बोलनेवाले को बोलना हो, बोल दे। वे फिर अपनी चर्चा शुरू कर देते है’।

मैंने तो हाथ जोड़ लिये। मैंने उनसे कहा कि मैं चला, इस सभा ही से नहीं चला, गब सभाओं से गया। अब कहीं बोलने नहीं जाऊंगा। कोई प्रयोजन किसी को नहीं है।

इसलिए मैं नये लोगों को सामने बैठने भी नहीं देना चाहता। उन्हें हैरानी भी होती है, दुख भी होता है मगर मजबूरी है। मैं सामने अपने उन लोगों को देखना चाहता हूं जो सच में पी रहे हैं। जो यहां यूं नहीं चले आये हैं किसी कुतूहलवश या किसी अखबार की प्रतिनिधि की तरह नहीं चले आये हैं। उनका कोई प्रयोजन नहीं है यहां। क्या हो रहा है, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। उन्हें कुछ व्यर्थ की बातें इकट्ठी ता लेनी हैं।

तबसे मैंने बोलने जाना बंद कर दिया क्योंकि क्या प्रयोजन है? किससे बोलना है? सून कोई रहा ही नहीं है। अब उनसे ही बोलता हूं, जो सुनने को राजी हैं। और सुनने को ही नहीं, उसके अनुसार अपने जीवन को रूपांतरित करने को राजी हैं।

लेकिन लोग ऐसे हैं, जगजीवनदास कहते हैं जैसी सभा में मैं गया, ऐसी किसी गम।. मे गये होंगे, तभी ऐसी अनुभव की बात लिखी है ——

जहुं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आहकै और चलाई

लेखा—जोखा करहिं दाम का, पड़े अघोर नरक मह जाई

और वहां भी बैठकर लेखा—जोखा करते हैं। बैठे हैं धार्मिक सभा में और स्त्रियां एक—दूसरे से पूछने लगती हैं: ‘साड़ी के दाम कितने हैं?’ यह मैंने सुना है अपने कानों से, इसलिए कहता हूं।’ कहां से खरीदी?’ पोत तक देख लेती हैं एक—दूसरे की साड़ी का बैठे—बैठे । जगजीवनदास बड़े अनुभवी आदमी हैं। देखा होगा, देवियां एक—दूसरे ना साड़ी का पोत देख रही हैं। ’कहां से खरीदी? कितने में मिली?’ एक—दूसरे के गहने देख लेती है। नजर ही व्यर्थ पर अटकी है।

लेखा—जोखा करहिं दाम का, पड़े अघोर नरक महं जाई

यह अघोर शब्द समझने जैसा है। जगजीवनदास पढ़े—लिखे आदमी नहीं हैं। कहना चाहते हैं घोर; कह गये हैं अघोर। कारण है उसके पीछे। घोर नरक में पड़ेंगे—— कहना चाहते हैं वे यह।

लेकिन शब्दों के भी इतिहास होते हैं। अघोर का मतलब होता है, सरल, सहज। तुम भी चौकोगे। तुम तो किसी गंदे आदमी को कहते हो, अघोरी। भूलकर मत कहना —— घोरी। तुम गलत शब्द का उपयोग कर रहे हो। लेकिन उसके पीछे कहानी जुड़ गई है। अघोर का अर्थ होता है सीधा—सादा, सरल, जिसके जीवन में जटिलता है ही नहीं। छोटे बच्चे जैसा —— अघोर का अर्थ होता है।

अघोर बड़ा कीमती शब्द है। जब पहले—पहल चला था अघोरपंथ, तो उसका मतलब यह था कि सरल जीवन, सहज जीवन। साधो सहज समाधि भली। मगर फिर लोग नकलची पैदा हुए। फिर लोगों ने कहा, साधो सहज समाधि भली? तो उन्होंने कहा, ठीक है तो जो हमें करना है वह भी करेंगे और दावा भी करेंगे कि यह तो सहज जीवन जी रहे हैं। तो शराब भी पीयेंगे, जुआ भी खेलेंगे और जब कोई कहेगा कुछ तो कहेंगे : साधो सहज समाधि भली। सभी कुछ करेंगे क्योंकि सहज जीवन में सभी आ गया, कुछ बचा नहीं। वेश्यालय भी जायेंगे और कहेंगे, साधो सहज समाधि भली।

तो वह जो अघोर जैसा प्यारा शब्द था, वह धीरे—धीरे विकृत हुआ। क्योंकि लोग जो अपने को अघोरी मानते थे, वे धीरे—धीरे सब तरह के विकृत काम करने लगे। नशा भी करेंगे, गांजा भी पीयेंगे, शराब भी पीयेंगे, गंदगी में पड़े रहेंगे। क्योंकि वे तो अघोरपंथी हैं। फिर धीरे—धीरे शब्द का अर्थ बदला। फिर अर्थ उल्टा ही हो गया। फिर अब जो आदमी गंदा रहता है, व्यर्थ का जीवन जीता है, उलझा जीवन जीता है —— न नहाता न धोता, जिससे बास उठती है, जिसके खाने—पीने का कोई हिसाब नहीं, कुछ भी खा—पी ले, मांस—मछली सब चले, पंच मकार जिसके जीवन की चर्या हो जाये उसको लोग कहने लगे अघोरी।

अघोरी शब्द विकृत हो गया। प्यारा शब्द था, बुरी तरह गिरा। शिखर पर था, गिरा और नीचे गड्ढे में गंदा हो गया। कीचड़ में पड़ गया। उसी अर्थ में जगजीवनदास ने प्रयोग कर दिया है लेकिन उनका प्रयोजन है : घोर।

ऐसा कुछ एक शब्द के साथ नहीं, बहुत शब्दों के साथ होता है। जैसे तुम्हारे समझाने के लिए मैं कहूं? बाबू। बाबू जगजीवनराम! अब उनको पता नही कि बाबू का मतलब क्या होता है। कि बाबू राजेंद्रप्रसाद। मालूम नहीं कि बाबू का मतलब होता क्या है। जब पहली दफा अंग्रेज भारत आये तो उनका पहला संपर्क बंगालियों से हुआ, इसलिए बंगाली बाबू। जितना बाबू बंगाली होता है उतना कोई दूसरा नहीं होता बाबू, समझे? वह पहली दफा अंग्रेजों ने बाb बंगाली को कहा। और कहा क्यों बाबू? क्योंकि उससे बदबु आती है। बू का मतलब होता है. बदबू। और बा का मतलब होता है. सहित —— जिससे बास आती हो। मछली खाओगे तो बास तो आयेगी ही। बंगालियों के मुंह से मछली की बास आती थी। अंग्रेज उनको कहने लगे, बाबू। बंगाली बाबू हो गये।

लेकिन फिर धीरे—धीरे क्या हुआ कि जो—जो अंग्रेजों के करीब थे….. बाb ही लोग उनके करीब थे। उनके क्लर्क, उनके नौकर—चाकर——वे ही उनके करीब थे। जो मालिक के जितना करीब था वह उतना ही महत्वपूर्ण हो गया। अंग्रेजों के बाद महत्वपूर्ण नंबर दो पर बाबू हो गये। बाबू जगजीवनराम! अब कोई सोचता ही नहीं कि बाबू गाली है। किसी से भूलकर बाबूजी मत कहना! लेकिन— लोग उसको सम्मान से उपयोग कर रहैं।

अघोर सम्मानजनक शब्द था, गाली हो गया। बाबू’ गाली है, सम्मानजनक हो गया। शब्दों की बड़ी कथाएं हैं। उनके भी दिन चढ़ाव के, उतार के होते हैं, दुर्दिन, सुदिन सब आते हैं।

बूडहिं आपु और कहं बोरहिं, करि झ्ठी बहुतक बकताई

कह रहे हैं ये जो अघोरी हैं —— ये बाबू लोग। —— ये खुद तो डूबेंगे ही, ये दूसरों को भी डुबायेंगे। क्योंकि ये बकवास करने में भी कुशल हो जाते हैं सुन—सुनकर। ये ज्ञानियों की बातें सुनकर करते नहीं हैं कि उन बातों को जीवन में करें। ज्ञानियों की बातें सुनकर ये ग्रामोफोन रेकॉर्ड हो जाते हैं। ये उनको दोहराने लगते हैं। ये खुद तो डूबेंगे ही, डूबे ही हैं ये दूसरों को भी ले डूबेंगे।’ आप डुबन्ते पाण्डे ले डूबे जजमान।’

जगजीवन मन न्यारे रहिये, सतनाम तें रहु लय लाई

जगजीवन कहते हैं मेरे शिष्यो अगर तुम्हें पहुंचना हो परमात्मा तक तो इस तरह की बातों से सावधान रहना। मन से अपने को न्यारा करना है। अगर मैंने तुमसे जो कहा, इन्हीं बातों को तुमने कहना सीख लिया तो तो तुम्हारा मन से और जोड़ हो गया। मन को तो शून्य करना है। शून्य होगा तो ही तुम न्यारे हो पाओगे। इस बात को ठीक से समझो।

शरीर, मन, आत्मा, इन तीन में शरीर तो सत्य है, आत्मा सत्य है, मन तो केवल सेतु है, दोनों को जोडनेवाला है। जितना मन भरा हुआ होगा विचारों से उतना ही ज्यादा जोड़ होगा आत्मा और शरीर में। जितना मन विचारों से खाली होगा, उतना ही जोड़ टूट गया। अगर मन बिलकुल निर्विचार हो जाये तो जोड़. समाप्त हो गया। रस्सी गिर गई। फिर शरीर अलग है, आत्मा अलग है। और वही न्यारे होने का अर्थ है।

और जिसने जान लिया कि शरीर अलग, आत्मा अलग —— फिर बात ही और है।’हम तो देह धरे जग नाचब।’ फिर तुम नाचो जग में। फिर तुम अछ्ते ही हो। फिर तुम्हें जगत की कोई चीज छू नहीं सकती। लेकिन उसके पहले यह क्रांति घट जानी चाहिए, मन की मृत्यु घट जानी चाहिए। मन की मृत्यु’ घटे इसलिए कहते हैं ——

पंडित, काह करै पंडिताई

कह रहे हैं, सुन—सुनकर पंडित मत हो जाओ। शास्त्र पढ़कर भी लोग पंडित हो जाते हैं शास्ता के पास बैठकर भी लोग पंडित हो जाते है।

पंडित, काह करै पंडिताई

त्यागदे बहुत पढ्ब पोथी का, नाम जपहु चित लाई

हो चुका बहुत पोथी के साथ सिर—फोडी! अब बंद करो। इस पोथी ने कहीं किसी को भेजा नहीं है, न यह पहुंचा सकती है। फिर पोथी क्या है —— वेद या कुरान या बाइबल, फर्क नहीं पड़ता। शब्दों से बहुत हो चुका संबंध। अब निःशब्द से संबंध जोड़ो। विचार में बहुत जी लिये और बहुत भटक भी लिये। विचार ही तो आवागमन है। यही तो बार—बार संसार में ले आया है। विचार के ही मार्ग से तो तुम बार—बार गर्भ में उतरे हो। और विचार के ही तो सब रूप हैं —— सारी वासनाएं, सारी कल्पनाए, सारी इच्छाएं, एषणाएं, तृष्णाएं, सब विचार की ही तरंगें हैं’।

त्यागदे बहुत पढ्ब पोथी का, नाम जपहु चित लाई

अब तो एक बात को ही चित्त में रख कि प्रभु का स्मरण जगे। अब पोथी को छोड़। अब भीतर की पोथी को पढ़। परमात्मा ने प्रत्येक के भीतर वेद रख छोड़ा है। तुम बाहर के वेद में उलझे. रहोगे, तुम्हारा वेद अनबोला रहेगा। तुम बाहर के वेद को छोड़ दोगे, तुम्हारा वेद गुंजारित हो उठेगा, गुंजायमान हो जायेगा। तुम्हारे भीतर से उठेगा नाद। और ऐसा नाद कि सब संगीत उसके सामने फीके हैं।

यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई

अब तक तुम जो करते रहे हो, यह तो बाहरी जगत का आचरण है। जगजीवन कहते हैं मैं तुम्हें बहुत जोर से कह देना चाहता हूं, चिल्लाकर कह देना चाहता हूं, गोहराकर कह देना चाहता हूं —— यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई। तुम्हारा आचरण भी बाहरी, तुम्हारे विचार भी बाहरी। तुमने आचरण नकल से सीख लिया, विचार भी तुमने दूसरों से उधार ले लिये, स्मृति में भर लिये। न तो विचार तुम्हारे अपने हैं, न आचरण तुम्हारा अपना है। तुम दरिद्र इसीलिए तो हो कि तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं है। निजता की कोई संपदा नहीं है। तुम कब अपनी समाधि खोजोगे? कब तुम अपने मौलिक स्वरूप को पहचानोगे? परमात्मा की याद लाओ अब।

शबे—फुर्क़त में याद उस बेखबर की बार—बार आयी

भुलाने हमने भी चाहा मगर बेइख्तियार आयी

ऐसी याद आनी चाहिए कि भुलाना भी चाहो तो भुला न सको। लेकिन पंडित तो सिर्फ तोतों की तरह दोहराता है।

बेदिलों की हस्ती क्या, जीते हैं न मरते है

ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है

पंडित तो केवल थोथे शब्दों में जीता है। न तो उसके शब्दों में होश, न उसके 9ााएं में बेहोशी। न उसके शब्दों में मस्ती, नाच, रंग। न उसके शब्दों में अर्थ, जीवन, मौलिकता। उसके शब्द तो सड़ी हुई लाशें हैं। सदियों—सदियों की सड़ी हुई लाशें। पंडित तो मुर्दा घर में रहता है। और मुर्दों के साथ ज्यादा रहोगे तो मुर्दा हो जाओगे। गंग—साथ महंगा पड़ता है। जिंदों की दोस्ती खोजो। सद्गुरुओं का सत्संग——जहां अभी जीवित झरना बह रहा हो। और वहां से भी चूक सकते हो, ख्याल रखना, अगर शब्द ही पकड़कर गये।

थी, मगर, इतनी रायगा भी न थी

आज कुछ जिंदगी से खो बैठे

तेरे दर तक पहुंचकर लौट आये

इश्क़ की आबरू डुबो बैठे

लोग तो ऐसे हैं कि जिंदा गुरु के पास जाकर भी खाली के खाली लौट आते हैं।

तेरे दर तक पहुंचकर लौट आये

इश्क़ की आबरू डुबो बैठे

ऐसा तुम मत करना; प्रेम की आबरू मत डुबो देना। जब कहीं कोई जीवंत धारा मिल जाये तो प्रेम में डूबना, डुबकी लगा देना। दरवाजे से लौट मत आना। बहुत लौट जाते हैं। क्योंकि कम ही लोगों की हिम्मत है प्रेम के जगत में उतरने की। और उतनी— सी ही बात है। वही प्रेम का छोटा—सा धागा अगर हो जरा—सी भी प्रेम की बूंद हो तो गागर हो जाती है बढ़ते—कहते। जरा—सा बीज हो तो बड़ा वृक्ष हो जाता है बढ़ते—बढ़ते।

जज्बा—ए—इश्क़ सलामत है तो ईशा—अल्ला

कच्चे धागे में चले आयेंगे सरकार बंधे

वह जो प्रेम का छोटा—सा कच्चा धागा है, जज्बा—ए—इश्क़ —— वह जो प्रेम की भावना है, बस उतनी—सी छोटी—सी भावना परमात्मा को भी खींच ले आती है। मगर पंडित उससे ही बच जाता है।

यहां भी पंडित आ जाते हैं और इश्क की आबरू डुबा जाते हैं। कभी—कभी कोई पंडित आता है कि इश्क की आबरू नहीं डुबाता। कल किसी ने मृझे पत्र लिखा है कि मैं स्वयं भी पंडित हूं, पंडिताई ही करता हूं—। आप पंडित के खिलाफ इतना बोलते हैं। पहले तो मुझे चोट लगती थी, अब मुझे’ समझ में भी आ रही है बात कि यह तो मेरे जीवन की भी बात है। क्योंकि मैं जिंदगी भर से तोतों की तरह शब्दों को दोहरा रहा हूं। मुझे भी कुछ नहीं हुआ। आप जो कहते हैं, ठीक ही कहते हैं। ऐसा व्यक्ति प्रेम की लाज बचा सकता है।

फ़कीहे—शहर से मै का जवाज़ क्या पूछो

कि चांदनी को भी हज़रत हराम कहते है

नवाए—मुर्रा को कहते हैं अब ज़ियाने—चमन

खिले न फृल इसे इंतजाम कहते हैं

पंडितों से तुम पूछोगे तो बड़ी झंझट में पड़ोगे।

फ़कीहे—शहर से मैं का जेवाज़ क्या पूछो —— पंडित से मत पूछना कि शराब., बेहोशी, मस्ती में डूबना उचित है या अनुचित?

कि चांदनी को भी हज़रत हराम कहते हैं—— शराब की तो बात ही छोड़ो, पियक्कड़ों की तो बात ही छोड़ो, यह तो चांद से गिरती चांदनी का जो रस है, जो सुधा बरसती है —— कि चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं। ये तो केवल शब्दों को मानते हैं। जहां जीवंत कुछ है —— नाच पैदा हो सके कि मस्ती पैदा हो सके कि कोई घूंघर पैरों में बांध सके कि कोई बांसुरी बजा सके, वहां तो ये घबड़ा जाते हैं।

चांदनी को भी हज़रत हराम कहते है

नवाए—मुर्ग को कहते हैं अब ज़ियाने—चमन

पक्षियों का कलरव है, उसको कहते हैं कि इससे बगीचे को नुकसान पहुंचता है। खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं —— फूल न खिले इसे इंतजाम कहते हैं। अगर महाराष्ट्र की भाषा में समझो तो बंदोबस्त। खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं। पुलिस का बंदोबस्त। एक फूल न खिल पाये कहीं।

फूलों से डरते हैं क्योंकि खुद भी खिले नहीं हैं। जो खुद नहीं खिला है वह फूलों को भी मुरझा डालेगा, काट डालेगा, गिरा देगा क्योंकि हर फूल से उसे ईर्ष्या होगी। और जिसके भीतर का चांद नहीं उगा है वह बाहर के चांद के सौंदर्य को भी न देख पायेगा। और जिसके भीतर, भीतर नाच पैदा नहीं हुआ है, रंग नहीं जन्मा है उसे बाहर के सब रंग, सब सौंदर्य., सब उत्सव निंदा योग्य मालूम पड़ेंगे।

एक तो ऐसे पंडित हैं। ये तो इश्क की आबरू डुबा देते हैं। लेकिन कभी कोई पंडित ऐसा भी होता है जो इश्क की आबरू बचा लेता है। कल जिसने मुझे पत्र लिखा है, ऐसा ही पंडित होगा। ऐसे पंडित को देखकर कहना होता है ——

दिल में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते हैं

जैसे बिछुड़े हुए काबे. में सनम आते हैं

रक्से—मै तेज करो साज की ले तेज करो

सूए—मैखाना सफ़ीराने—हरम आते है

——कि नाच की गति बढ़ाओ, कि साज की गति बढाओं कि आज काबे के नमाजी शराबघर में आ रहे हैं।

रक्से—मै तेज करो साज की ले तेज करो

सूए—मैखाना सफ़ीराने—हरम आते हैं

स्वागत है! पांडित्य को जो छोड़. सके उसका मंदिर में स्वागत है। उसका ही स्वागत है। और मंदिरों में पंडितों ने कब्जा कर लिया है, जो कि मंदिर के दुश्मन हैं, जानी दुश्मन हैं।

सुनि जो करै तरै पै छिन मह, जेहि प्रतीति मन आई

जगजीवन कहते है कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं, छोटी—सी ही बात है, कुछ बहुत बड़ी बात नहीं है। कुछ बहुत जाल नहीं फैला रहा हूं। जरा—सी बात कह रहा हूं, और वह है. जेहि प्रतीति मन आई। मन में’ प्रेम ले आओ——बस इतना ही कर लो। पढूब पढाउब बेधत नाहीं, बकि दिनरैन गंवाई

पढ़ने—पढ़ाने से यह प्रेम की पीड़ा पैदा नहीं होगी। इससे प्राण नहीं बिंधेंगे। ये पढ़ने—पढ़ाने के तीर तुम्हारे हृदय को नहीं छेद पायेंगे।

पढ्ब पढाउब बेधत नाहीं, बकि दिनरैन गवाई

एहि तैं भक्ति होत है नाहीं, परगट कहौ सुनाई

और तुमसे सीधी—सीधी बात कह देता हूं इस तरह भक्ति न कभी प्रकट हुई है न हो सकती है।

सत्त कहत हौं बुरा न मानौ आजपा जपै जो जाई

जगजीवन सत—मत तब पावै, परमज्ञान अधिकाई

जब तुम्हारे भीतर परमात्मा का नाद अपने आप उठने लगेगा, तुम्हें जपना न पड़ेगा, अजपा होगा तभी जानना कि कुछ हुआ। जब तक तुम तोते की तरह रटते रहो भीतर, तब तक समझना अभी कुछ भी नहीं हुआ।

सत्त कहत हौं बुरा न मानौ, आजपा जपै जो जाई

जगजीवन सत—मत तब पावै परमज्ञान अधिकाई

फिर तो रोज—रोज अधिक से अधिक ज्ञान बढ़ता चला जाता है। एक ज्ञान है जो किताबों से मिलता है, उसको जानकारी समझो। और एक ज्ञान है जो भीतर उतरने से उपजता है, उसे ही ज्ञान समझो। पंडिताई से बचो ताकि प्रज्ञावान हो सको।

तुमहीं सो चित लागु है, जीवन कछु नाहीं

मात पित सुत बंधवा, कोउ संग न जाहीं

सब छूट जायेंगे। कोई साथ जाने को नहीं है।

मंज़िले—इश्क पे तनहा पहुंचे कोई मंजिल साथ न थी

थक—थककर इस राह में आखिर ड्क—इक साथी छूट गया

सिद्ध साध मुनि गंधवा मिलि माटी माहीं

ब्रह्मा बिस्नु महेश्वरा, गनि आवत नाहीं

नर केतानि को बापुरा, केहि लेखे माहीं

जगजीवन कहते है, सिद्ध साध मूनि गंध्रवा—सिद्ध, बडे—बड़े सिद्ध, बड़े चमत्कारी लोग——कि हाथ से भभूत निकाल दें, कि स्वित्जरलेण्ड की बनी घड़ियां निकाल दें, बड़े—बड़े सिद्ध लोग, बड़े—बड़े साधु——उपवास, व्रत, त्याग; बड़े मुनि—— कि बिलकुल न बोले, हालांकि हाथ से इशारे करें; मुंह से बिलकुल न बोलें, लिख— लिखकर बतावें ऐसे बड़े—बड़े मुनि, गंधर्व. स्वर्ग के संगीतज्ञ, ये सब भी मिट्टी में मिल जाते हैं।

ब्रह्मा बिस्नु महेश्वरा, गनि आवत नाहीं

ब्रह्मा—विष्णु_—महेश की भी कोई गिनती नहीं है। वे भी मिट्टी में मिल जाते हैं। नर केतानि को बापुरा, केहि लेखे माहीं

——तो आदमी की तो कहां हम गिनती करें, कहां लेखा करें! सब मिट्टी में गिर जायेगा।

जगजीवन बिनती करै, रहे तुम्हरी छांही

और मजा यह है कि जिसको तुम तलाश रहे हो, तुम्हारी छाया की तरह तुम्हारे पीछे चल रहा है। जगजीवन कहते हैं, मैं बिनती करता हूं, जरा लौटकर तो देखो! जिसको तुम खोज रहे हो वह तुम्हारी छाया है। जिसे तुम खोज रहे हो वह तुम्हारे भीतर बैठा है।

लेकिन तुम बाहर खोज रहे हो और भटक रहे हो। भटकते रहो बाहर जन्मों— जन्मों तक। बार—बार मिट्टी में गिरोगे, बार—बार मिट्टी से उठोगे और गिरोगे। मिट्टी उठती रहेगी, गिरती रहेगी। ये मिट्टी की लहरे हैं जिनको तुम अपना जीवन कह रहे हो। जीवन तो सिर्फ एक है. मिट्टी के पार तुम्हारे भीतर जो है उसे पहचान लो। मृण्मय में चिन्मय की पहचान जीवन का प्रारंभ है।

आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनों

और एक बार जो तुम्हें छाया की तरह तुम्हारे पीछे चल रहा है, सदा तुम्हारे साथ है, सदा तुम्हारे भीतर मौजूद हे उससे पहचान हो जाये तो——आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो। वैसा व्यक्ति तत्क्षण आनंद के सागर में बस जाता है। फिर उसको तन की कोई पीड़ा नहीं रह जाती। देह से उसका संबंध ही छूट जाता है। देह रहे तो और देह जाये तो; लेकिन भीतर फासला हो जाता है।

सूफी फकीर फरीद के पास लोग आते थे। कोई कुछ चढ़ा जाता, कोई कुछ चढ़ा जाता। एक दिन एक आदमी आया, उसने दो नारियल चढ़ाये और फरीद से पूछा, तक प्रश्न है मेरे मन में। मैंने सुना कि मन्सूर को जब फांसी ‘दी गई….. तुम तो फकीर हो, तुम तो सूफी हो, तुम्हीं उत्तर दे सकोगे, तुम तो मन्सूर जैसे हो। जब मन्सूर को फांसी दी गई तो वह हंसता रहा। उसकी गर्दन काटी गई, उसकी हंसी फूटती ही रही। यह कैसे हो सकता है? जरा—सा कांटा चुभ जाता है तो आदमी रोता है। हाथ जल जाता है तो आदमी रोता है। उसके अंग—अंग काटे गये, यह कैसे हो सकता है?

फरीद ने एक नारियल उठाया और जमीन पर पटका। वह कच्चा नारियल था। तो नारियलटूट गया लेकिन भीतर की गरी भी टूट गई। फिर उसने दूसरा नारियल पटका। वह पक्का नारियल था, पका नारियल था। नारियल तो टूट गया मगर गरी भीतर की साबित रह गई। उसने कहा, देखो! यह रहे तुम, यह रहा मन्सूर। तुम कच्चे नारियल हो। गरी अभी जुड़ी हुई है खोल से। खोल टूटेगी, गरी भी टूट जायेगी। तुम्हारी आत्मा शरीर से ‘जुड़ी है। शरीर टूटेगा, आत्मा भी टूटने लगेगी इसलिए रोओगे, चिल्लाओगे, परेशान होओगे। यह रहा मन्सूर——यह सूखा नारियल। इसकी गरी खोल से अलग हो गई है। खोल टूट जायेगी, गरी का क्या बनेगा—बिगड़ता है! गरी जैसी है वैसी।

आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनों

अब आपु में आपु में समाय गये, तब आपु में आपु लह्यो अपनों

और जब तुम अपने भीतर जाओगे तभी तुम पाओगे, जिसकी तलाश करते थे, वह तुम्हीं हो। जिसकी खोज थी, खोजनेवाले में छिपा है। मंजिल दूर नहीं है, यात्री के प्राणों में मौजूद है; तुम्हारी श्वास—श्वास में बसी है। तुम्हारे ह्दय की धड़कन में ही मोक्ष का निवास है।

जब आपु में आपु समाय गये, तब आपु में आपु लह्यो अपनो

जब आपु में आपु लह्यो अपनों, तब अपनो हो जाय रह्यो जपनो

जब आपु में आपु लहधो अपुनो, तब अपनो हो जाय रहचो जपनो——तब तो फिर जाप करना नहीं पड़ता, होने लगता है; होता ही रहता है——सतंत, अहर्निश! स्मरण करना नहीं पड़ता। दूरी ही न रही। परत्मात्मा में और उसके प्रेमी में दूरी न रही। भक्त और भगवान एक हो गया। अब क्या स्मरण करना, किसका स्मरण करना? अब कोन स्मरण करे?

जब ज्ञान को भान प्रकास भयो, जगजीवन होय रह्यो सपनों

और जब भीतर यह रोशनी होती है, जब अपने से मिलन होता है और प्रकाश जन्मता है तब सारा जगत सपना हो जाता है। जगत माया है, यह कोई सिद्धांत नहीं, यह तो प्रकाश जिनका जग गया उनका अनुभव है। यह कोई दार्शनिक प्रत्यय नहीं है कि जगत माया है, यह अस्तित्वगत अनुभव है।

ये सूत्र बड़े प्यारे हैं। इन सूत्रों को सुनकर सिर्फ समझकर मत रह जाना। इन सूत्रों को समझकर दूसरों को मत समझाने लगना, अन्यथा तुम पंडित हो जाओगे; चूक जाओगे।

तेरे दर तक पहुंचकर लौट आये

इश्क की आबरू डुबो बैठे

ये सूत्र तुम्हारे श्वास—श्वास में रम जायें। ये तुम्हारा जीवन बन जायें तो तुम भी वहां पहुंच सकते हो, जहां बुद्ध पहुंचे, मीरा पहुंची, रामकृष्ण पहुंचे, रमण पहुंचे। जहां कोई भी कभी पहुंचा है, तुम भी पहुच सकते हो।

वह परम धन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, आओ। वह परम प्यारा तुम्हें पुकार रहा है, आओ!

आज इतना ही।


Filed under: नाम सुमिर मन बावरे--(जगजीवन दास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–3) प्रवचन–37

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स्‍वीकार रूपांतरण है—(प्रवचन—सैतीसवां)

सूत्र:

57—तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्‍न रहो।

      58—यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र—कृति

            जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।

      59—प्रिय, न सुख में और न दुःख में, बल्‍कि दोनों के

            मध्‍य में अवधान को स्‍थिर करो।

      60—विषय और वासना जैसे दूसरों में है वैसे ही मुझमें है।

इस भांति स्‍वीकार करके उन्‍हें रूपांतरित होने दो।

 

जो मूलभूत मन है वह दर्पण की भांति है; वह शुद्ध है। वह शुद्ध ही रहता है। उस पर धूल जमा हो सकती है, लेकिन उससे दर्पण की शुद्धता नष्ट नहीं होती। धूल शुद्धता को मिटा नहीं सकती, लेकिन वह शुद्धता को आच्छादित कर सकती है। सामान्य मन की यही अवस्था है—वह धूल से ढंका है। लेकिन धूल में दबा हुआ मौलिक मन भी शुद्ध ही रहता है। वह अशुद्ध नहीं हो सकता, यह असंभव है। और अगर उसका अशुद्ध होना संभव होता तो फिर उसकी शुद्धता को वापस पाने का उपाय नहीं रहता। अपने आप में मन शुद्ध ही रहता है—सिर्फ धूल से आच्छादित हो जाता है।

हमारा जो मन है वह मौलिक मन + धूल है, वह शुद्ध मन + धूल है, वह परमात्म—मन . धूल है; और जब तुम जान लोगे कि इस मन को कैसे उघाड़ा जाए कैसे धूल से मुक्‍त किया जाए, तो तुमने सब जान लिया जो जानने योग्य है और तुमने सब पा लिया जो पाने योग्य है।

ये सभी विधियां यही बताती हैं कि कैसे तुम्हारे मन को रोज—रोज की धूल से मुक्‍त किया जाए। धूल का जमा होना लाजिमी है; धूल स्वाभाविक है। जैसे अनेक रास्तों से यात्रा करते हुए यात्री पर धूल जमा हो जाती है वैसे ही तुम्हारे मन पर भी धूल जमा होती है। तुम भी अनेक जन्मों से यात्रा कर रहे हो; तुमने भी बड़ी दूरियां तय की हैं; और फलत: बहुत—बहुत धूल इकट्ठी हो गई है।

विधियों में प्रवेश करने के पहले अनेक बातें समझने जैसी हैं। एक कि आंतरिक रूपांतरण के प्रति पूरब की दृष्टि पश्चिम की दृष्टि से सर्वथा भिन्न है। ईसाइयत समझती है कि मनुष्य की आत्मा को कुछ हुआ है, जिसे वह पाप कहती है। पूरब ऐसा नहीं सोचता है। पूरब का खयाल है कि आत्मा को कुछ नहीं हुआ है; कुछ हो भी नहीं सकता। आत्मा अपनी परिपूर्ण शुद्धता में है; उससे कोई पाप नहीं हुआ है। इसलिए पूरब में मनुष्य निंदित नहीं है; वह पतित नहीं है। बल्कि इसके विपरीत मनुष्य ईश्वरीय बना रहता है—जो वह है, जो वह सदा रहा है।

और यह स्वाभाविक है कि धूल जमा हो। धूल का जमा होना अनिवार्य है। वह पाप

नहीं है; महज गलत तादात्म्य है। हम मन से, धूल से तादात्म्य कर लेते हैं। हमारे अनुभव, हमारे ज्ञान, हमारी स्‍मृतियां सब धूल है। तुमने जो भी जाना है, जो भी अनुभव किया है, जो भी तुम्हारा अतीत रहा है, सब धूल है। मूलभूत मन को पुन: प्राप्त करने का अर्थ है कि शुद्धता को पुन: प्राप्त किया जाए—अनुभव और ज्ञान से, स्मृति और अतीत से मुक्‍त शुद्धता को।

समूचा अतीत धूल है। और हमारा तादात्म्य अतीत से है, उस चैतन्य से नहीं जो सदा मौजूद है। इस पर इस भांति विचार करो। तुम जो कुछ जानते हो वह सदा अतीत का है; और तुम वर्तमान में हो, अभी और यहीं हो। जीना सदा वर्तमान में है। तुम्हारा सारा ज्ञान धूल है। जानना तो शुद्ध है, शुद्धता है; लेकिन ज्ञान धूल है। जानने की क्षमता, जानने की ऊर्जा, जानना तुम्हारा मूलभूत स्वभाव है। उस जानने के जरिए तुम ज्ञान इकट्ठा कर लेते हो; वह ज्ञान धूल जैसा है। अभी और यहां, इसी क्षण तुम बिलकुल शुद्ध हो, परम शुद्ध हो; लेकिन इस शुद्धता के साथ तुम्हारा तादात्म्य नहीं है। तुम्हारा तादात्म्य तुम्हारे अतीत के साथ है, सारे संगृहीत अतीत के साथ है।

तो ध्यान की सारी विधियां बुनियादी रूप से तुम्हें तुम्हारे अतीत से तोड़कर अभी और यहां से जोड्ने के उपाय हैं, तुम्हें तुम्हारे वर्तमान में प्रवेश देने के उपाय हैं।

बुद्ध खोज रहे थे कि कैसे चेतना की इस शुद्धता को फिर से प्राप्त किया जाए कैसे अतीत से मुक्‍त हुआ जाए। क्योंकि जब तक तुम अतीत से मुक्‍त नहीं होते, तुम बंधन में रहोगे, तुम गुलाम बने रहोगे। अतीत तुम पर बोझ की तरह है, और इस अतीत के कारण वर्तमान सदा अनजाना रह जाता है। अतीत ज्ञात है, और इस अतीत के चलते तुम वर्तमान को चूकते जाते हो, जो बहुत आणविक है, सूक्ष्म है। और अतीत के कारण ही तुम भविष्‍य का प्रक्षेपण करते हो, निर्माण करते हो। अतीत ही भविष्‍य में प्रक्षेपित हो जाता है; और दोनों ही झूठ हैं। अतीत बीत चुका और भविष्‍य होने को बाकी है, दोनों नहीं हैं। और जो है, वह वर्तमान, वह अस्तित्व इन दो अनस्तित्वों के बीच छिपा है, दबा है।

बुद्ध खोज में थे, वे एक गुरु से दूसरे गुरु के पास गए। वे खोज में थे और अनेक गुरुओं के पास गए जो सबके सब जाने—माने गुरु थे। उन्होंने उनकी बात सुनी; उन्होंने उनके अनुसार साधना की। गुरुओं ने जो कुछ करने को कहा, बुद्ध ने सब किया। उन्होंने अनेक ढंग से अपने को अनुशासित किया, साधा; लेकिन वे तृप्त न हुए। और कठिनाई यही थी कि गुरु भविष्‍य में उत्सुक थे, मृत्यु के बाद किसी मोक्ष में उत्सुक थे। वे किसी भविष्‍य में, किसी ईश्वर में, किसी निर्वाण में, किसी मोक्ष में उत्सुक थे। और बुद्ध अभी और यहां में उत्सुक थे। इसलिए दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं हो सका।

बुद्ध ने हरेक गुरु से कहा कि मैं अभी और यहां में उत्सुक हूं मैं अभी और यहां में समग्र होना चाहता हूं पूर्ण होना चाहता हूं। और गुरु कहते कि यह उपाय करो, वह उपाय करो; और अगर ठीक से उपाय करोगे तो भविष्‍य में किसी दिन, किसी भविष्‍य जीवन में, किसी भविष्‍य अवस्था में तुम पा लोगे। देर—अबेर बुद्ध ने एक—एक करके सभी गुरुओं को छोड़ दिया, और फिर उन्होंने स्वयं ही, अकेले ही प्रयोग किया। क्या किया उन्होंने?

बुद्ध ने बहुत सरल काम किया। तुम इसे एक बार जान लो तो यह बहुत सरल है, सीधा—साफ है। लेकिन नहीं जानने पर वह बहुत कठिन है, असंभव सा ही है। उन्होंने एक ही काम किया; वे वर्तमान क्षण में रहे। वे अपने अतीत को भूल गए, अपने भविष्‍य को भूल गए। उन्होंने कहा कि मैं अभी और यहीं होऊंगा, मैं सिर्फ होऊंगा।

और अगर तुम एक क्षण के लिए भी सिर्फ हो सके तो तुमने स्वाद जान लिया, अपनी शुद्ध चेतना का स्वाद। और एक बार ले लेने पर यह स्वाद भूलता नहीं है। वह स्वाद तुम्हारे साथ रहता है; और वही रूपांतरण बन जाता है।

अतीत से अपने को अनावृत करने के, धूल को हटाकर अपने मन के दर्पण में झांकने के अनेक उपाय हैं। ये सारी विधियां उसके ही भिन्न—भिन्न उपाय हैं। लेकिन स्मरण रहे, प्रत्येक विधि के प्रति एक गहरी समझ जरूरी है। ये विधियां यांत्रिक नहीं हैं; क्योंकि उन्हें चेतना को अनावृत करना है, उघाड़ना है। वे यांत्रिक नहीं हैं।

तुम इन विधियों का प्रयोग यांत्रिक ढंग से भी कर सकते हो। और अगर ऐसा करोगे तो तुम्हें मन की थोड़ी शांति भी प्राप्त हो जाएगी; लेकिन वह मूलभूत शुद्धता नहीं होगी। तुम्हें थोड़ा मौन उपलब्ध हो सकता है; लेकिन वह मौन अभ्यासजनित मौन होगा। वह भी मन की धूल का ही हिस्सा होगा। वह मूलभूत शुद्धता नहीं होगी।

तो इनका प्रयोग यांत्रिक ढंग से मत करो। एक गहरी समझ की जरूरत है। और समझ से ये विधियां तुम्हारी आत्मा को उघाड़ने में, आविष्कृत करने में बहुत सहयोगी होंगी।

साक्षीत्व की पहली विधि:

तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।

‘तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रही।’

ब तुम्हें कामना घेरती है, चाह पकड़ती है, तो तुम उत्तेजित हो जाते हो, उद्विग्न हो जाते हो। यह स्वाभाविक है। जब चाह पकड़ती है तो मन डोलने लगता है, उसकी सतह पर लहरें उठने लगती हैं। कामना तुम्हें खींचकर कहीं भविष्‍य में ले जाती है; अतीत तुम्हें कहीं भविष्‍य में धकाता है। तुम उद्विग्न हो जाते हो, बेचैन हो जाते हो। अब तुम चैन में न रहे। चाह बेचैनी है, रुग्णता है।

यह सूत्र कहता है : ‘तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।’

लेकिन अनुद्विग्न कैसे रहा जाए? कामना का अर्थ ही उद्वेग है, अशांति है; फिर अनुद्विग्न कैसे रहा जाए? शांत कैसे रहा जाए? और वह भी कामना के तीव्रतम क्षणों में!

तुम्हें कुछ प्रयोगों से गुजरना होगा तो ही तुम इस विधि का अभिप्राय समझ सकते हो। तुम क्रोध में हो; क्रोध ने तुम्हें पकड़ लिया है। तुम अस्थायी रूप से पागल हो, आविष्ट हो, अवश हो। तुम होश में नहीं हो। इस अवस्था में अचानक स्मरण करो कि अनुद्विग्न रहना है—मानो तुम कपड़े उतार रहे हो, नग्न हो रहे हो। भीतर नग्न हो जाओ, क्रोध से निर्वस्त्र हो जाओ। क्रोध तो रहेगा, लेकिन अब तुम्हारे भीतर एक बिंदु है जो अनुद्विग्न है, शांत है। तुम्हें पता होगा कि क्रोध परिधि पर है; बुखार की तरह वह वहा है। परिधि कांप रही है; परिधि अशांत है। लेकिन तुम उसके द्रष्टा हो सकते हो। और यदि तुम उसके द्रष्टा हो सके तो तुम अनुद्विग्न रहोगे। तुम उसके साक्षी हो जाओ, और तुम शांत हो जाओगे। यह शांत बिंदु ही तुम्हारा मूलभूत मन है।

मूलभूत मन अशांत नहीं हो सकता; वह कभी अशांत नहीं होता है। लेकिन तुमने उसे कभी देखा नहीं है। जब क्रोध होता है तो तुम्‍हारा उससे तादात्म्य जाता है। तुम भूल जाते हो कि क्रोध तुमसे भिन्न है, पृथक है। तुम उससे एक हो जाते हो; और तुम उसके द्वारा सक्रिय हो जाते हो, कुछ करने लगते हो। और तब दो चीजें संभव हैं।

तुम क्रोध में किसी के प्रति, क्रोध के विषय के प्रति हिंसात्मक हो सकते हो; लेकिन तब तुम दूसरे की ओर गति कर गए। क्रोध ने तुम्हारे और दूसरे के बीच जगह ले ली। यहां मैं हूं जिसे क्रोध हुआ है, फिर क्रोध है और वहां तुम हो, मेरे क्रोध का विषय। क्रोध से मैं दो आयामों में यात्रा कर सकता हूं। या तो मैं तुम्हारी तरफ जा सकता हूं अपने क्रोध के विषय की तरफ। तब तुम, जिसने मेरा अपमान किया, मेरी चेतना के केंद्र बन गए; तब मेरा मन तुम पर केंद्रित हो गया। यह एक ढंग है क्रोध से यात्रा करने का।

दूसरा ढंग है कि तुम अपनी ओर, स्वयं की ओर यात्रा करो। तुम उस व्यक्ति की ओर नहीं गति करते जिसने तुम्हें क्रोध करवाया, बल्कि उस व्यक्ति की तरफ जाते हो जो क्रोध अनुभव करता है। तुम विषय की ओर न जाकर विषयी की ओर गति करते हो।

साधारणत: हम विषय की ओर ही बढ़ते हैं। और विषय की ओर बढ़ने से मन का धूल— भरा हिस्सा उत्तेजित और अशांत हो जाता है; और तुम्हें अनुभव होता है कि मैं अशांत हूं। अगर तुम भीतर की ओर मुड़ो, अपने केंद्र की ओर मुड़ो, तो तुम धूल वाले हिस्से के साक्षी हो जाओगे। तब तुम देख सकोगे कि धूल वाला हिस्सा तो अशांत है, लेकिन मैं अशांत नहीं हूं। और तुम किसी भी इच्छा के साथ, किसी भी अशांति के साथ यह लेकर प्रयोग कर सकते हो।

तुम्हारे मन में कामवासना उठती है; तुम्हारा सारा शरीर उससे अभिभूत हो जाता है। अब तुम काम—विषय की ओर, अपनी वासना के विषय की ओर जा सकते हो। चाहे वह वास्तव में वहा हो या न हो। तुम कल्पना में भी उसकी तरफ यात्रा कर सकते हो। लेकिन तब तुम और ज्यादा अशांत होते जाओगे। तुम अपने केंद्र से जितनी दूर निकल जाओगे उतने ही अधिक अशांत होते जाओगे। सच तो यह है कि दूरी और अशांति सदा समान अनुपात में होती हैं। तुम अपने केंद्र से जितनी दूर होंगे उतने ज्यादा अशांत होंगे और केंद्र के जितने करीब होंगे उतने कम अशांत होगे। और अगर तुम ठीक केंद्र पर हो तो कोई अशांति नहीं है।

हर तूफान के बीचो—बीच एक केंद्र होता है जो बिलकुल शांत रहता है; वैसे ही क्रोध के तूफान के केंद्र पर, काम के तूफान के केंद्र पर, किसी भी वासना के तूफान के केंद्र—ठीक केंद्र पर कोई तूफान नहीं होता है। और कोई भी तूफान शांत केंद्र के बिना नहीं हो सकता; वैसे ही क्रोध भी तुम्हारे उस अंतरस्थ के बिना नहीं हो सकता जो क्रोध के पार है।

यह स्मरण रहे, कोई भी चीज अपने विपरीत तत्व के बिना नहीं हो सकती। विपरीत जरूरी है; उसके बिना किसी भी चीज के होने की संभावना नहीं है। यदि तुम्हारे भीतर कोई स्थिर केंद्र न हो तो गति असंभव है। यदि तुम्हारे भीतर शांत केंद्र न हो तो अशांति असंभव है।

इस बात का विश्लेषण करो, इसका निरीक्षण करो। अगर तुम्हारे भीतर परम शांति का कोई केंद्र न होता तो तुम कैसे जानते कि मैं अशांत हूं? तुम्हें तुलना चाहिए; तुलना के लिए दो बिंदु चाहिए।

मान लो कि कोई व्यक्ति बीमार है। वह व्यक्ति बीमारी अनुभव करता है; क्योंकि उसके भीतर कहीं कोई बिंदु है, केंद्र है, जहां परम स्वास्थ्य विराजमान है। इससे ही वह तुलना कर सकता। तुम कहते हो कि मुझे सिरदर्द है, लेकिन तुम कैसे जानते हो कि यह दर्द है, सिरदर्द है? अगर तुम ही सिरदर्द होते तो तुम इसे कभी न जान सकते। अवश्य ही तुम कुछ और हो, कोई और हो। तुम द्रष्टा हो, साक्षी हो, जो कहता है कि मुझे सिरदर्द है। इस दर्द को वही अनुभव कर सकता है जो खुद दर्द नहीं है। अगर तुम बीमार हो, ज्वरग्रस्त हो तो तुम उसे अनुभव कर सकते हो; क्योंकि तुम ज्वर नहीं हो। खुद ज्वर ज्वर को नहीं अनुभव कर सकता है; कोई चाहिए जो उसके पार हो। विपरीत जरूरी है।

जब तुम क्रोध में हो और अगर तुम महसूस करते हो कि मैं क्रोध में हूं तो उसका अर्थ है कि तुम्हारे भीतर कोई बिंदु है जो अब भी शांत है और जो साक्षी हो सकता है। यह बात दूसरी है कि तुम इस बिंदु को नहीं देखते हो। तुम इस बिंदु पर अपने को कभी नहीं देखते, यह बात अलग है। लेकिन वह सदा अपनी मौलिक शुद्धता में वहा मौजूद है।

यह सूत्र कहता है : ‘तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।’

तुम क्या कर सकते हो? यह विधि दमन के पक्ष में नहीं है। यह विधि यह नहीं कहती है कि जब क्रोध आए तो उसे दबा दो और शांत रहो। नहीं, अगर तुम दमन करोगे तो तुम ज्यादा अशांति निर्मित करोगे। अगर क्रोध हो और उसे दबाने का प्रयत्न भी साथ—साथ हो तो उससे अशांति दुगुनी हो जाएगी। नहीं, जब क्रोध आए तो द्वार—दरवाजे बंद कर लो और क्रोध पर ध्यान करो। क्रोध को होने दो, तुम अनुद्विग्न रहो और क्रोध का दमन मत करो।

दमन करना आसान है, प्रकट करना भी आसान है। और हम दोनों करते हैं। अगर स्थिति अनुकूल हो तो हम क्रोध को प्रकट कर देते हैं। अगर उसकी सुविधा हो, अगर तुम्हें खुद कोई खतरा नहीं हो, तो तुम क्रोध को अभिव्यक्‍त कर दोगे। अगर तुम दूसरे को चोट पहुंचा सकते हो और दूसरा बदले में तुम पर चोट न कर सकता हो तो तुम अपने क्रोध को खुली छूट दे दोगे। और अगर क्रोध को प्रकट करना खतरनाक हो, अगर दूसरा तुम्हें ज्यादा चोट कर सकने में समर्थ हो, अगर वह तुम्हारा मालिक हो या तुमसे ज्यादा बलवान हो, तो तुम क्रोध को दबा दोगे।

अभिव्यक्ति और दमन सरल हैं, साक्षी कठिन है। साक्षी न अभिव्यक्ति है और न दमन; वह दोनों में कोई नहीं है। वह अभिव्यक्ति नहीं है; क्योंकि तुम उसे दूसरे पर नहीं प्रकट कर रहे हो। तुम उसका दमन भी नहीं करते। तुम उसे शून्य में विसर्जित कर रहे हो। तुम उस पर ध्यान कर रहे हो।

किसी आईने के सामने खड़े हो जाओ और अपने क्रोध को प्रकट करो—और उसके साक्षी बने रहो। तुम अकेले हो, इसलिए तुम उस पर ध्यान कर सकते हो। तुम जो भी करना चाहो करो, लेकिन शून्य में करो। अगर तुम किसी को मारना—पीटना चाहते हो तो खाली आकाश के साथ मार—पीट करो। अगर क्रोध करना चाहते हो तो क्रोध करो, अगर चीखना चाहते हो तो चीखो। लेकिन सब अकेले में करो। और अपने को उस केंद्र—बिंदु की भांति स्मरण रखो जो यह सब नाटक देख रहा है। तब यह एक साइकोड्रामा बन जाएगा और तुम उस पर हंस सकते हो। वह तुम्हारे लिए गहरा रेचन बन जाएगा। और न केवल तुम्हारा क्रोध विसर्जित हो जाएगा, बल्कि तुम उससे कुछ फायदा उठा लोगे। तुम्हें एक प्रौढ़ता प्राप्त होगी; तुम एक विकास को उपलब्ध होओगे। और अब तुम्‍हें पता होगा कि जब तुम क्रोध में भी थे तो कोई केंद्र था जो शांत था। अब इस केंद्र को अधिकाधिक उघाडते जाओ। और वासना की अवस्था में इस केंद्र को उघाड़ना आसान है।

इसीलिए तंत्र वासना के विरोध में नहीं है। वह कहता है. वासना में उतरो, लेकिन उस केंद्र को स्मरण रखो जो शांत है। तंत्र कहता है कि इस प्रयोग के लिए कामवासना का भी उपयोग किया जा सकता है। काम—कृत्य में उतरो, लेकिन अनुद्विग्न रही, शांत रहो; और साक्षी रहो, गहरे में द्रष्टा बने रहो। जो भी हो रहा है वह परिधि पर हो रहा है और तुम केवल देखने वाले हो, दर्शक हो।

यह विधि बहुत उपयोगी हो सकती है और इससे तुम्हें बहुत लाभ हो सकता है। लेकिन यह कठिन होगा। क्योंकि जब तुम अशांत होते हो तो तुम सब कुछ भूल जाते हो। तुम यह भूल जा सकते हो कि मुझे ध्यान करना है। तो फिर इसे इस भांति प्रयोग करो। उस क्षण के लिए मत रुको जब तुम्हें क्रोध होता है। उस क्षण के लिए मत रुको। अपना कमरा बंद करो और क्रोध के किसी अतीत अनुभव को स्मरण करो जिसमें तुम पागल ही हो गए थे। उसे स्मरण करो और फिर से उसका अभिनय करो।

यह तुम्हारे लिए सरल होगा। उस अनुभव को फिर से अभिनीत करो, उसे फिर से जीओ। स्मरण ही मत करो, उसे जीओ। स्मरण करो कि किसी ने तुम्हारा अपमान किया था; स्मरण करो कि अपमान करते हुए उसने क्या कहा था और फिर तुमने क्या प्रतिक्रिया की थी। पूरी चीज को फिर से अभिनीत करो, फिर से पूरा नाटक दोहराओ।

शायद तुम्हें पता न हो कि मन टेप—रिकार्डिंग यंत्र जैसा ही है। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं, अब तो यह वैज्ञानिक तथ्य है कि अगर तुम्हारे स्मृति—केंद्रों को इलेक्ट्रोड से छुआ जाए तो वे केंद्र फिर से संगृहीत अनुभवों को दोहराने लगते हैं। उदाहरण के लिए, तुमने कभी क्रोध किया था और वह घटना तुम्हारे मन के टेप—रिकार्डर पर रिकार्ड है; ठीक उसी अनुक्रम में वह रिकार्ड है जिस अनुक्रम में वह घटित हुई थी। अगर उसे इलेक्ट्रोड से छुओगे तो वह घटना पुन: जीवंत होकर दोहरने लगेगी। तुम्हें वही—वही भाव फिर से होंगे जो क्रोध करते समय हुए थे। तुम्हारी आंखें लाल हो जाएंगी; तुम्हारा शरीर कांपने लगेगा, ज्वरग्रस्त हो जाएगा; पूरी कहानी फिर दोहरेगी। और ज्यों ही इलेक्ट्रोड को वहा से हटाओगे, नाटक बंद हो जाएगा। यदि तुम उसे फिर ऊर्जा देते हो, वह फिर बिलकुल शुरू से चालू हो जाता है।

अब वे कहते हैं कि मन एक रिकार्डिंग मशीन है और तुम किसी भी अनुभव को दोहरा सकते हो।

लेकिन स्मरण ही मत करो, उसे फिर से जीओ। अनुभव को फिर जीना शुरू करो और मन उसे पकड़ लेगा। वह घटना वापस लौट आएगी और तुम उसे फिर जीओगे। और इसे पुन: जीते हुए अनुद्विग्न रही, शांत रहो। अतीत से शुरू करो। और यह सरल है, क्योंकि अब यह नाटक है। यह यथार्थ स्थिति नहीं है। और अगर तुम यह करने में समर्थ हो गए तो जब सच ही क्रोध की स्थिति पैदा होगी, तुम उसे भी कर सकोगे। और यह प्रत्येक कामना के साथ किया जा सकता है; प्रत्येक कामना के साथ किया जाना चाहिए।

अतीत के अनुभवों को फिर से जीना बड़े काम का है। हम सब के मन में घाव हैं; ऐसे घाव हैं जो अभी भी हरे हैं। अगर तुम उन्हें फिर से. जी लोगे तो तुम निर्भार हो जाओगे। अगर तुम अपने अतीत में लोट सके और अधूरे अनुभवों को जी सके तो तुम अपने अतीत के बोझ से मुक्‍त हो जाओगे। तुम्हारा मन ताजा हो जाएगा; धूल झड़ जाएगी।

अपने अतीत में से कोई ऐसा अनुभव स्मरण करो जो तुम्हारे देखे अधूरा पड़ा है। तुम किसी की हत्या करना चाहते थे, तुम किसी को प्रेम करना चाहते थे; तुम यह या वह करना चाहते थे। लेकिन वे सारे काम अपूर्ण रह गए अधूरे रह गए। और वह अधूरी चीज तुम्हारे मन के आकाश पर बादल की भांति मंडराती रहती है। वह तुम्हें और तुम्हारे कृत्यों को सदा प्रभावित करती रहती है। उस बादल को विसर्जित करना होगा। तो उसके कालपथ को पकड़कर मन में पीछे लौटो और उन कामनाओं को फिर से जीओ जो अधूरी रह गई हैं, उन घावों को फिर से जीओ जो अभी भी हरे हैं। वे घाव भर जाएंगे; तुम स्वस्थ हो जाओगे। और इस प्रयोग के द्वारा तुम्हें एक झलक मिलेगी कि कैसे किसी अशांत स्थिति में शांत रहा जाए।

’तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।’

गुरजिएफ ने इस विधि का खूब प्रयोग किया। वह इसके लिए परिस्थितियां निर्मित करता था। लेकिन परिस्थितियां निर्मित करने के लिए समूह जरूरी है, आश्रम जरूरी है। तुम अकेले यह नहीं कर सकते। फाउंटेनब्लू में गुरजिएफ ने एक आश्रम बनाया था। और वह बड़ा कुशल गुरु था जो जानता था कि स्थिति कैसे निर्मित की जाती है।

तुम किसी कमरे में प्रवेश करते हो जहां एक समूह पहले से बैठा है। तुम कमरे में प्रवेश करते हो और तभी कुछ किया जाता है जिससे तुम क्रोधित हो जाते हो। और वह चीज इस स्वाभाविक ढंग से की जाती कि तुम्हें कभी कल्पना भी नहीं होती कि यह परिस्थिति तुम्हारे लिए निर्मित की जा रही है। यह एक उपाय था। कोई व्यक्ति कुछ कहकर तुम्हें अपमानित कर देता है और तुम अशांत हो जाते हो। और फिर हर कोई उस अशांति को बढ़ावा देता है और तुम पागल ही हो जाते हो। और जब तुम ठीक विस्फोट के बिंदु पर पहुंचते हो तो गुरजिएफ चिल्लाकर कहता है. स्मरण करो और अनुद्विग्न रहो!

ऐसी परिस्थिति निर्मित की जा सकती है, लेकिन केवल वहीं जहां अनेक लोग अपने ऊपर काम कर रहे हों। और जब गुरजिएफ चिल्लाकर कहता कि स्मरण करो और अनुद्विग्न रहो; तो तुम जान जाते कि यह परिस्थिति पहले से तैयार की गई थी। लेकिन अब तुम्हारा उद्वेग, तुम्हारी अशांति इतनी शीघ्रता से, इतनी जल्दी मिटने नहीं वाली है। इस अशांति की जड़ें तुम्हारे शरीर में हैं; तुम्हारी ग्रंथियों ने तुम्हारे शरीर में जहर छोड़ दिए हैं। तुम्हारा शरीर उससे प्रभावित है। क्रोध इतनी शीघ्रता से नहीं जाने वाला है। अब जबकि तुम्हें पता हो गया है कि मुझे धोखा दिया गया है, कि किसी ने सच ही मुझे अपमानित नहीं किया, तो भी तुम कुछ नहीं कर सकते। क्रोध जहां का तहां है, तुम्हारा शरीर क्रोध की स्थिति में है।

लेकिन एक बात होती है कि अचानक तुम्हारा ज्वर भीतर शांत होने लगता है। क्रोध अब सिर्फ शरीर पर, परिधि पर है, केंद्र पर तुम अचानक शीतल होने लगते हो। और अब तुम जानते हो कि मेरे भीतर एक बिंदु है जो अनुद्विग्न है, शांत है। और तुम हंसने लगते हो। अभी भी तुम्हारी आंखें क्रोध से लाल हैं, तुम्हारा चेहरा पशुवत हिंसक बना हुआ है; लेकिन तुम हंसने लगते हो। अब तुम्हें दो चीजें पता हैं. एक अनुद्विग्न केंद्र और दूसरी उद्विग्न परिधि।

तुम एक—दूसरे के लिए सहयोगी हो सकते हो। तुम्हारा परिवार ही आश्रम बन सकता है; तुम एक—दूसरे की मदद कर सकते हो। मित्र आश्रम बन सकते हैं और एक—दूसरे की सहायता कर सकते हैं। तुम अपने परिवार से बात करके तय कर सकते हो, पूरा परिवार तय कर सकता है कि पिता के लिए या मां के लिए एक परिस्थिति पैदा की जाए; और पूरा परिवार उस परिस्थिति के पैदा करने में हाथ बंटाता है। जब मां या पिता पूरी तरह विक्षिप्त हो जाते हैं तो सब हंसने लगते हैं और कहते हैं : बिलकुल अनुद्विग्न रहो!

तुम परस्पर एक—दूसरे की मदद कर सकते हो।

और यह अनुभव बहुत अदभुत है। जब तुम्हें किसी उत्तेजित परिस्थिति के भीतर एक शीतल केंद्र का पता चल जाए तो तुम उसे भूल नहीं सकते। और तब तुम किसी भी तरह की अशांत परिस्थिति में उसे स्मरण कर सकते हो, उसे पुन: उपलब्ध कर सकते हो।

पश्चिम में अब एक विधि का, चिकित्सा—विधि का प्रयोग हो रहा है, जिसे वे साइकोड्रामा कहते हैं। वह सहयोगी है और इसी तरह की विधियों पर आधारित है। इस साइकोड्रामा में तुम एक अभिनय करते हो, एक खेल खेलते हो। शुरू में तो वह खेल ही है, लेकिन देर—अबेर तुम उसके वशीभूत हो जाते हो। और जब तुम वशीभूत होते हो, आविष्ट होते हो तो तुम्हारा मन सक्रिय हो जाता है। क्योंकि तुम्हारे शरीर और मन स्वचालित ढंग से काम करते हैं; वे स्वचालित व्यवहार करते हैं।

तो साइकोड्रामा में व्यक्ति क्रोध की स्थिति में सचमुच क्रोधित हो जाता है। तुम सोच सकते हो कि वह अभिनय कर रहा है, लेकिन ऐसी बात नहीं है। संभव है कि वह सच में ही क्रोधित हो गया हो; केवल अभिनय ही न कर रहा हो। वह कामना के वश में है, उद्वेग के वश में है, भाव के वश में है। और जब वह सच में उनसे आविष्ट होता है तभी उसका अभिनय यथार्थ मालूम पड़ता है।

तुम्हारे शरीर को नहीं पता हो सकता कि तुम अभिनय कर रहे हो या सच में कर रहे हो। तुमने अपने ही जीवन में कभी देखा होगा कि तुम क्रोध का केवल अभिनय कर रहे थे और तुम्हारे अनजाने ही क्रोध सच बन गया। या कि तुम उत्तेजित नहीं थे, सिर्फ पत्नी या प्रेमिका के साथ खेल कर रहे थे कि अचानक और अनजाने सारा खेल सच हो गया। शरीर उसे पकड़ लेता है। और शरीर को धोखा दिया जा सकता है। शरीर नहीं जान सकता, विशेषकर कामवासना के प्रसंग में कि यह सच है या अभिनय। तुम कल्पना भी करते हो तो शरीर सोचता है कि वह सच है।

काम—केंद्र शरीर का सबसे अधिक कल्पनात्मक केंद्र है। सिर्फ कल्पना से तुम काम के शिखर— अनुभव को, आर्गाज्म को उपलब्ध हो सकते हो। तुम शरीर को धोखा दे सकते हो। स्वप्न में भी तुम संभोग को, आर्गाज्‍म को उपलब्ध हो सकते हो। स्‍वप्‍न में भी शरीर धोखा खा सकता है। तुम किसी के भी साथ सच में संभोग नहीं कर रहे हो, सिर्फ स्‍वप्‍न में, कल्पना में तुम संभोग कर रहे हो। लेकिन शरीर में काम—ऊर्जा का उद्रेक हो सकता है; शरीर गहन आर्गाज्म भी अनुभव कर सकता है। क्या होता है? शरीर कैसे धोखे में आ जाता है?

शरीर नहीं जान सकता कि क्या सच है और क्या झूठ है। जब तुम कुछ करने लगते हो

तो शरीर सोचता है कि यह सच है और वह वैसा ही व्यवहार करने लगता है। साइकोड्रामा ऐसी विधियों पर आधारित है। तुम क्रोधित नहीं हो, सिर्फ क्रोध का अभिनय कर रहे हो; और फिर तुम उससे आविष्‍ट हो जाते हो।

लेकिन साइकोड्रामा सुंदर है, क्योंकि तुम जानते हो कि मैं महज अभिनय कर रहा हूं। और तब परिधि पर क्रोध यथार्थ हो जाता है और ठीक उसके पीछे तुम छिपकर उसका निरीक्षण कर रहे होते हो। तुम जानते हो कि मैं उद्विग्न नहीं हूं; लेकिन क्रोध है, उद्वेग है, अशांति है। अशांति है और फिर भी अशांति नहीं है। यह दो ऊर्जाओं का युगपत काम करने का अनुभव तुम्हें उनके अतिक्रमण में ले जाता है। और फिर असली क्रोध में भी तुम उसे अनुभव कर सकते हो। जब तुमने जान लिया कि उसे कैसे अनुभव किया जाए, तुम वास्तविक स्थितियों में भी अनुभव कर सकते हो।

इस विधि का प्रयोग करो; यह तुम्हारे समग्र जीवन को बदल देगी। और जब तुमने अनुद्विग्न रहना सीख लिया तो संसार तुम्हारे लिए दुख न रहा। तब कुछ भी तुम्हें भ्रांत नहीं कर सकता; तब कुछ भी तुम्हें सच में पीड़ित नहीं कर सकता। अब तुम्हारे लिए कोई दुख न रहा।

और तब तुम एक और काम कर सकते हो। गुरजिएफ यह करता था। वह किसी भी क्षण अपना चेहरा, अपनी मुख—मुद्रा बदल सकता था। वह हंस रहा है, मुस्कुरा रहा है, तुम्हारे साथ बैठकर प्रसन्न है; और अचानक वह बिना किसी कारण के ही क्रोधित हो जाएगा। और कहते हैं कि वह इस कला में इतना निष्णात हो गया था कि वह एक साथ अपने आधे चेहरे से क्रोध और दूसरे आधे चेहरे से मुस्कुराहट प्रकट कर सकता था। अगर उसके दोनों ओर दो व्यक्ति बैठे हों तो वह साथ—साथ एक पर मुस्कुरा सकता है और दूसरे पर क्रोधित हो सकता है। एक व्यक्ति कहेगा कि गुरजिएफ कितना सुंदर आदमी है और दूसरा कहेगा कि वह बहुत खराब है। वह एक साथ एक को हंसकर देखता था और दूसरे को गुस्से से।

एक बार तुम अपने केंद्र को परिधि से पूरी तरह पृथक कर लो तो तुम यह कर सकते हो। अगर तुम क्रोध और कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रह सकते हो तो तुम क्रोध, कामना और उद्वेग के साथ खेल भी कर सकते हो।

यह विधि तुम्हारे भीतर दो अतियों को अनुभव करने की विधि है। दोनों अतियां वहां हैं—विपरीत अतियां। एक बार तुम्हें इन अतियों का बोध हो जाए तो पहली दफा तुम अपने मालिक हुए। अन्यथा दूसरे मालिक हैं; तुम खुद गुलाम हो। तुम्हारी पत्नी जानती है, तुम्हारा बाप जानता है, तुम्हारे बेटे, तुम्हारे दोस्त जानते हैं कि तुम्हें कैसे हिलाया जा सकता है, तुम्हें कैसे अशांत किया जा सकता है, तुम्हें कैसे खुश—नाखुश किया जा सकता है।

और जब दूसरा तुम्हें सुखी और दुखी कर सकता है तो तुम मालिक नहीं हो, गुलाम ही हो। कुंजी दूसरे के हाथ में है; बस उसकी एक भाव—भंगिमा तुम्हें दुखी बना सकती है; उसकी एक मुस्कुराहट तुम्हें सुख से भर सकती है। तो तुम दूसरे की मर्जी पर हो, दूसरा तुम्हारे साथ कुछ भी कर सकता है।

और अगर यही स्थिति है तो तुम्हारी सब प्रतिक्रियाएं बस प्रतिक्रियाएं ही हैं; उन्हें क्रियाएं नहीं कहा जा सकता। तुम सिर्फ प्रतिक्रिया करते हो, क्रिया नहीं। कोई तुम्हारा अपमान करता है और तुम क्रोधित हो जाते हो तो तुम्हारा यह क्रोध क्रिया नहीं, प्रतिक्रिया है। और जब कोई तुम्हारी प्रशंसा करता है और तुम मुस्कुराने लगते हो, फूलकर कुप्पा हो जाते हो, तो यह प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं।

बुद्ध एक गांव से गुजर रहे थे। कुछ लोग उनके पास इकट्ठे हो गए; वे सब उनके विरोध में थे। उन्होंने बुद्ध का अपमान किया, उन्हें गालियां दीं। बुद्ध ने सब सुना और फिर कहा : मुझे समय पर दूसरे गांव पहुंचना है; तो क्या मैं अब जा सकता हूं? अगर तुमने वह सब कह लिया हो जो कहने आए थे, अगर बात खतम हो गई तो मैं जाऊं और यदि कुछ कहने को शेष रह गया हो तो मैं लौटते हुए यहां रुकूंगा, तुम आ जाना और कह लेना।

वे लोग तो चकित रह गए; उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। वे तो उनका अपमान कर रहे थे, उन्हें गालियां दे रहे थे। तो उन्होंने कहा कि हमें कुछ कहना नहीं है; हम तो बस आपका अपमान कर रहे हैं, आपको गालियां दे रहे हैं।

बुद्ध ने कहा : तुम वह कर सकते हो; लेकिन यदि तुम्हें मेरी प्रतिक्रिया की अपेक्षा है तो तुम देरी करके आए। दस वर्ष पूर्व तुम अगर ये शब्द लेकर आए होते तो मैं प्रतिक्रिया करता। लेकिन अब मैं क्रिया करना सीख गया हूं मैं अब अपना मालिक हूं। अब तुम मुझे कुछ करने को मजबूर नहीं कर सकते। तुम लौट जाओ; तुम अब मुझे विचलित नहीं कर सकते हो। मुझे अब कुछ भी अशांत नहीं कर सकता है। मैंने अपने केंद्र को जान लिया है।

केंद्र का यह ज्ञान या केंद्र में प्रतिष्ठित होना तुम्हें अपना मालिक बना देता है। अन्यथा तुम गुलाम हो—एक ही मालिक के नहीं, अनेक मालिकों के गुलाम हो। तब हर कोई तुम्हारा मालिक है और तुम सारे जगत के गुलाम हो। निश्चित ही तुम पीड़ा में, दुख में रहोगे। इतने मालिक और वे इतनी दिशाओं में तुम्हें खींचेंगे कि तुम अखंड न रह सकोगे, एक न रह सकोगे। और इतने आयामों में खींचे जाने के कारण तुम संताप में रहोगे। वही व्यक्ति संताप का अतिक्रमण कर सकता है जो अपना स्वामी है।

साक्षीत्व की दूसरी विधि :

यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र— कृति जैसा भासता है सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।

ह सारा संसार ठीक एक नाटक के समान है, इसलिए इसे गंभीरता से मत लो। गंभीरता तुम्हें उपद्रव में डाल देगी, तुम मुसीबत में पड़ोगे। इसे गंभीरता से मत लो, कुछ गंभीर नहीं है। सारा संसार एक नाटक मात्र है।

अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको तो तुम अपनी मौलिक चेतना को पा लोगे। उस पर धूल जमा हो जाती है, क्योंकि तुम अति गंभीर हो। वह गंभीरता ही समस्या पैदा करती है। और हम इतने गंभीर हैं कि नाटक देखते हुए भी हम धूल जमा करते हैं। किसी सिनेमाघर में जाओ और दर्शकों को देखो। फिल्म को मत देखो, फिल्म को भूल जाओ; पर्दे की तरफ मत देखो, हाल में जो दर्शक हैं उन्हें देखो। कोई रो रहा होगा, कोई हंस रहा होगा, किसी की कामवासना उत्तेजित हो रही होगी। सिर्फ लोगों को देखो। वे क्या कर रहे हैं? उन्हें क्या हो रहा है? पर्दे पर छाया—चित्रों के सिवाय कुछ भी नहीं है—धूप—छांव का खेल है, पर्दा खाली है। लेकिन वे उत्तेजित क्यों हो रहे हैं?

वे हंस रहे हैं, रो रहे हैं, चीख रहे हैं। चित्र मात्र चित्र नहीं है, फिल्म मात्र फिल्म नहीं है। वे भूल गए हैं कि यह एक कहानी भर है। उन्होंने इसको गंभीरता से ले लिया है। चित्र जीवित हो उठा है, यथार्थ बन गया है।

और यही चीज सर्वत्र घट रही है। यह सिनेमाघरों तक ही सीमित नहीं है। अपने चारों ओर के जीवन को तो देखो; वह क्या है? इस धरती पर असंख्य लोग रह चुके हैं। जहां तुम बैठे हो, वहां कम से कम दस लाशें गड़ी हैं। और वे लोग भी तुम्हारे जैसे ही गंभीर थे। वे अब कहां हैं? उनका जीवन कहां चला गया? उनकी समस्याएं कहां गईं? वे लड़ते थे; एक—एक इंच जमीन के लिए लड़ते थे। वह जमीन पड़ी है और वे लोग कहीं नहीं हैं।

और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उनकी समस्याएं समस्याएं नहीं थीं। वे थीं, जैसे तुम्हारी समस्याएं समस्याएं हैं। वे गंभीर समस्याएं थीं, जीवन—मरण की समस्याएं थीं। लेकिन कहा गईं वे समस्याएं? और अगर किसी दिन पूरी मनुष्यता खो जाए तो भी धरती रहेगी, वृक्ष बड़े होंगे, नदियां बहेंगी और सूरज उगेगा; और पृथ्वी को मनुष्यता की गैर—मौजूदगी पर न कोई खेद होगा न आश्चर्य।

जरा इस विस्तार पर अपनी निगाह को दौड़ाओ। पीछे देखो, आगे देखो, सभी आयामों को देखो और देखो कि तुम क्या हो, तुम्हारा जीवन क्या है। सब कुछ एक बड़ा स्‍वप्‍न जैसा मालूम पड़ता है। और हर चीज जिसे तुम इस क्षण इतनी गंभीरता से ले रहे हो, अगले क्षण ही व्यर्थ हो जाती है। तुम्हें उसकी याद भी नहीं रहती।

अपने प्रथम प्रेम को स्मरण करो। कितनी गंभीर बात थी वह, जैसे कि जीवन ही उस पर निर्भर था। और अब वह तुम्हें स्मरण भी नहीं है, बिलकुल भूल गया है। वैसे ही वे चीजें भी भूल जाएंगी जिन पर तुम आज अपने जीवन को निर्भर समझते हो।

जीवन एक प्रवाह है, वहां कुछ भी नहीं टिकता है। जीवन भागती फिल्म की भांति है जिसमें हर चीज दूसरी चीज में बदल रही है। लेकिन इस क्षण वह तुम्हें बहुत गंभीर, बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है और तुम उद्विग्न हो जाते हो।

यह विधि कहती है : ‘यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र—कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।’

भारत में हम इस जगत को परमात्मा की सृष्टि नहीं कहते, हम उसे लीला कहते हैं। यह लीला की धारणा बहुत सुंदर है। सृष्टि की धारणा गंभीर मालूम पड़ती है। ईसाई और यहूदी ईश्वर बहुत गंभीर है। एक अवज्ञा के लिए आदम को अदन के बगीचे से निकाल दिया गया। और न सिर्फ आदम को, बल्कि उसके कारण पूरी मनुष्यता को निकाल बाहर किया गया। वह हमारा पिता था; और हम सब उसके कारण दुख में पड़े हैं! ईश्वर बहुत गंभीर मालूम पड़ता है। उसकी अवज्ञा नहीं होनी चाहिए। और अगर अवज्ञा होगी तो वह बदला लेगा। और उसका प्रतिशोध अभी तक चला आ रहा है! प्रतिशोध के मुकाबले में पाप इतना बड़ा नहीं लगता है।

सच तो यह है कि आदम ने परमात्मा की बेवकूफी के चलते यह पाप किया। परम पिता परमात्मा ने आदम से कहा कि ज्ञान के वृक्ष के पास मत जाना और उसका फल मत खाना। यह निषेध ही निमंत्रण बन गया। यह मनोवैज्ञानिक बात है। उसे बड़े बगीचे में केवल ज्ञान का वृक्ष आकर्षण हो गया, क्योंकि वह निषिद्ध था। कोई भी मनोवैज्ञानिक कहेगा कि भूल परमात्मा की थी। अगर उस वृक्ष के फल को नहीं खाने देना था तो उसकी चर्चा ही नहीं करनी थी। तब आदम उस वृक्ष तक कभी नहीं जाता और मनुष्यता अभी भी उसी बगीचे में रहती होती। लेकिन इस वचन ने, इस आज्ञा ने कि ‘मत खाना’, सारा उपद्रव खड़ा कर दिया। इस निषेध ने उपद्रव पैदा किया। क्योंकि आदम ने अवज्ञा की, वह स्वर्ग से निकाल बाहर किया गया। और प्रतिशोध कितना बड़ा है!

ईसाई कहते हैं कि जीसस हमें हमारे पाप से उद्धार दिलाने के लिए, हमें आदम के किए पाप से मुक्‍त करने के लिए सूली पर चढ़ गए। तो ईसाइयों की इतिहास की पूरी धारणा दो व्यक्तियों पर निर्भर है, आदम और जीसस पर। आदम ने पाप किया और जीसस उससे हमारा उद्धार करने के लिए सूली पर चढ़े। उन्होंने आदम को क्षमा दिलाने के लिए सब यंत्रणा झेली, पीड़ा झेली। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि ईश्वर ने अब भी क्षमादान दिया हो। जीसस को तो सूली लग गई, लेकिन मनुष्यता अब भी उसी भांति दुख में है।

पिता के रूप में ईश्वर की धारणा ही गंभीर है, कुरूप है। ईश्वर की भारतीय धारणा स्रष्टा की नहीं, लीलाधर की है। वह गंभीर नहीं है, वह खेल रहा है। नियम हैं, लेकिन वे खेल के नियम हैं। उनके संबंध में गंभीर होने की जरूरत नहीं है। कुछ पाप नहीं है, भूल भर है। और तुम भूल के कारण दुख सहते हो, इसलिए नहीं कि परमात्मा तुम्हें दंड देता है। तुम नियम न पालने के कारण कष्ट में पड़ते हो; परमात्मा तुम्हें दंडित नहीं कर रहा है। लीला की पूरी धारणा जीवन को एक नाटकीय रंग दे देती है। जीवन एक लंबा नाटक हो जाता है। और यह विधि इसी लीला की धारणा पर आधारित है।

‘यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र—कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।’

अगर तुम दुखी हो तो इसलिए कि तुमने जगत को बहुत गंभीरता से लिया है। और सुखी होने का कोई उपाय मत खोजो, सिर्फ अपनी दृष्टि को बदलो। गंभीर चित्त से तुम सुखी नहीं हो सकते, उत्सव मनाने वाला चित्त ही सुखी हो सकता है। इस पूरे जीवन को एक नाटक, एक कहानी की तरह लो। ऐसा ही है। और अगर तुम उसे इस भांति ले सके तो तुम दुखी नहीं होगे। दुख अति गंभीरता का परिणाम है।

सात दिन के लिए यह प्रयोग करो। सात दिन तक एक ही चीज स्मरण रखो कि सारा जगत नाटक मात्र है—और तुम वही नहीं रहोगे जो अभी हो। सिर्फ सात दिन के लिए प्रयोग करो। तुम्हारा कुछ खो नहीं जाएगा, क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए भी तो कुछ नहीं है। तुम प्रयोग कर सकते हो। सात दिन तक सब कुछ को नाटक समझो, तमाशा समझो।

इन सात दिनों में तुम्हें तुम्हारे बुद्ध—स्वभाव की, तुम्हारी आंतरिक पवित्रता की अनेक झलकें मिलेंगी। और इस झलक के मिलने के बाद तुम फिर वही नहीं रहोगे जो हो। तब तुम सुखी होगे। और तुम सोच भी नहीं सकते कि वह सुख किस तरह का होगा, क्योंकि तुमने कोई सुख नहीं जाना है। तुमने सिर्फ दुख की कम—अधिक मात्राएं भर जानी हैं; कभी तुम ज्यादा दुखी थे और कभी कम। तुम नहीं जानते हो कि सुख क्या है, तुम उसे नहीं जान सकते हो। जब तुम्हारी जगत की धारणा ऐसी है कि तुम उसे बहुत गंभीरता से लेते हो तो तुम नहीं

जान सकते कि सुख क्या है। सुख तो तभी घटित होता है जब तुम्हारी यह धारणा दृढ़ होती है कि यह जगत केवल एक लीला है।

इस विधि को प्रयोग में लाओ और हर चीज को उत्सव की तरह लो, हर चीज को उत्सव मनाने के भाव से करो। ऐसा समझो कि यह नाटक है, कोई असली चीज नहीं। अगर तुम पति हो तो नाटक के पति बन जाओ; अगर तुम पत्नी हो तो नाटक की पत्नी बन जाओ। अपने संबंधों को खेल बना लो। बेशक खेल के नियम हैं; खेल के लिए नियम जरूरी हैं। विवाह नियम है, तलाक नियम है। उनके बारे में गंभीर मत होओ। वे नियम हैं और एक नियम से दूसरा नियम निकलता है। तलाक बुरा है, क्योंकि विवाह बुरा है। एक नियम दूसरे नियम को जन्म देता है। लेकिन उन्हें गंभीरता से मत लो और फिर देखो कि कैसे तत्काल तुम्हारे जीवन का गुणधर्म बदल जाता है।

आज रात अपने घर जाओ और अपनी पत्नी या पति या बच्चों के साथ ऐसे व्यवहार करो जैसे कि तुम किसी नाटक में भूमिका निभा रहे हो। और फिर उसका सौंदर्य देखो। अगर तुम श्रइमका निभा रहे हो तो तुम उसमें कुशल होने की कोशिश करोगे, लेकिन उद्विग्न नहीं होगे। उसकी कोई जरूरत नहीं है। तुम अपनी भूमिका निभाकर सोने चले जाओगे। लेकिन स्मरण रहे कि यह अभिनय है। और सात दिन तक इसका सतत खयाल रखो। तब तुम्हें सुख उपलब्ध होगा। और जब तुम जान लोगे कि क्या सुख है तो फिर दुख में गिरने की जरूरत नहीं रही, क्योंकि यह तुम्हारा ही चुनाव है।

तुम दुखी हो, क्योंकि तुमने जीवन के प्रति गलत दृष्टि चुनी है। तुम सुखी हो सकते हो, अगर दृष्टि सम्यक हो जाए। बुद्ध सम्यक दृष्टि को बहुत महत्व देते हैं। वे सम्यक दृष्टि को ही आधार बनाते हैं, बुनियाद बनाते हैं। सम्यक दृष्टि क्या है? उसकी कसौटी क्या है?

मेरे देखे कसौटी यह है : जो दृष्टि तुम्हें सुखी करे वह सम्यक दृष्टि है। और जो दृष्टि तुम्हें दुखी—पीड़ित बनाए वह असम्यक दृष्टि है। और कसौटी बाह्य नहीं है, आंतरिक है। और कसौटी तुम्हारा सुख है।

साक्षीत्व की तीसरी विधि:

प्रिये न सुख में और न दुख में बल्कि दोनों के मध्य में अवधान को स्थिर करो।

प्रत्येक चीज ध्रुवीय है, अपने विपरीत के साथ है। और मन एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर डोलता रहता है, कभी मध्य में नहीं ठहरता।

क्या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न सुखी थे न दुखी? क्या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न स्वस्थ थे न बीमार? क्या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न यह थे न वह? जब तुम ठीक मध्य में थे, ठीक बीच में थे?

मन अविलंब एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। अगर तुम सुखी हो तो देर—अबेर तुम दुख की तरफ गति कर जाओगे और शीघ्र गति कर जाओगे। सुख विदा हो जाएगा और तुम दुख में हो जाओगे। अगर तुम्हें अभी अच्छा लग रहा है तो देर—अबेर तुम्हें बुरा लगने लगेगा। और तुम बीच में कहीं नहीं रुकते, इस छोर से सीधे उस छोर पर चले जाते हो। घड़ी के पेंडुलम की तरह तुम बाएं से दाएं और दाएं से बाएं डोलते रहते हो। और पेंडुलम डोलता ही रहता है।

एक गुह्य नियम है। जब पेंडुलम बायीं ओर जाता है तो लगता तो है कि बायीं ओर जा रहा है, लेकिन सच में तब वह दायीं ओर जाने के लिए शक्ति जुटा रहा है। और वैसे ही जब वह दायीं ओर जा रहा है तो बायीं ओर जाने के लिए शक्ति जुटा रहा है। तो जैसा दिखाई पड़ता है वैसा ही नहीं है। जब तुम सुखी हो रहे हो तो तुम दुखी होने के लिए शक्ति जुटा रहे हो। तो जब मैं तुम्हें हंसते देखता हूं तो जानता हूं कि रोने का क्षण दूर नहीं है।

भारत के गांवों में माताएं यह जानती हैं। जब कोई बच्चा बहुत हंसने लगता है तो वे कहती हैं कि उसका हंसना बंद करो, अन्यथा वह रोएगा। यह होने ही वाला है। अगर कोई बच्चा बेहद खुश हो तो उसका अगला कदम दुख में पड़ने ही वाला है। इसलिए माताएं उसे रोकती हैं, अन्यथा वह दुखी होगा।

लेकिन यही नियम विपरीत ढंग से भी लागू होता है; और लोग यह नहीं जानते हैं। जब कोई बच्चा रोता है और तुम उसे रोने से रोकते हो तो तुम उसका रोना ही नहीं रोकते हो, तुम उसका अगला कदम भी रोक रहे हो। अब वह सुखी भी नहीं हो पाएगा। बच्चा जब रोता है तो उसे रोने दो। बच्चा जब रोता है तो उसे मदद दो कि और रोए। जब तक उसका रोना समाप्त होगा, वह शक्ति जुटा लेगा, वह सुखी हो सकेगा।

अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब बच्चा रोता—चीखता हो तो उसे रोको मत, उसे मनाओ मत, उसे बहलाओ मत। उसके ध्यान को रोने से हटाकर कहीं अन्यत्र ले जाने की कोशिश मत करो, उसे रोना बंद करने के लिए रिश्वत मत दो। कुछ मत करो, बस उसके पास मौन बैठे रहो और उसे रोने दो, चिल्लाने दो, चीखने दो। तब वह आसानी से सुख की ओर गति कर पाएगा। अन्यथा न वह रो सकेगा और न सुखी हो सकेगा।

हमारी यही स्थिति हो गई है; हम कुछ नहीं कर पाते हैं। हम हंसते हैं तो आधे दिल से और रोते हैं तो आधे दिल से। लेकिन यही मन का प्राकृतिक नियम है, वह एक छोर से दूसरे छोर पर गति करता रहता है। यह विधि इस प्राकृतिक नियम को बदलने के लिए है।

‘प्रिये, न सुख में और न दुख में, बल्कि दोनों के मध्य में अवधान को स्थिर करो।’

किन्हीं भी ध्रुवों को, विपरीतताओ को चुनो और उनके मध्य में स्थिर होने की चेष्टा करो। इस मध्य में होने के लिए तुम क्या करोगे? मध्य में कैसे होओगे?

एक बात कि जब दुख में होते हो तो क्या करते हो? जब दुख आता है तो तुम उससे बचना चाहते हो, भागना चाहते हो। तुम दुख नहीं चाहते हो; तुम उससे भागना चाहते हो। तुम्हारी चेष्टा रहती है कि तुम उससे विपरीत को पा लो, सुख को पा लो, आनंद को पा लो। और जब सुख आता है तो तुम क्या करते हो? तुम चेष्टा करते हो कि सुख बना रहे, ताकि दुख न आ जाए; तुम उससे चिपके रहना चाहते हो। तुम सुख को पकड़कर रखना चाहते हो और दुख से बचना चाहते हो। यही स्वाभाविक दृष्टिकोण है, ढंग है।

अगर तुम इस प्राकृतिक नियम को बदलना चाहते हो, उसके पार जाना चाहते हो, तो जब दुख आए तो उससे भागने की चेष्टा मत करो, उसके साथ रहो, उसको भोगो। ऐसा करके तुम उसकी पूरी प्राकृतिक व्यवस्था को अस्तव्यस्त कर दोगे। तुम्हें सिरदर्द है, उसके साथ रहो। आंखें बंद कर लो और सिरदर्द पर ध्यान करो, उसके साथ रहो। कुछ भी मत करो,

बस साक्षी रहो। उससे भागने की चेष्टा मत करो। और जब सुख आए और तुम किसी क्षण विशेष रूप से आनंदित अनुभव करो तो उसे पकड़कर उससे चिपको मत। आंखें बंद कर लो और उसके साक्षी हो जाओ।

सुख को पकड़ना और दुख से भागना धूल— भरे चित्त के स्वाभाविक गुण हैं। और अगर तुम साक्षी रह सकी तो देर—अबेर तुम मध्य को उपलब्ध हो जाओगे। प्राकृतिक नियम तो यही है कि एक से दूसरी अति पर आते—जाते रहो। अगर तुम साक्षी रह सको तो तुम मध्य में होगे।

बुद्ध ने इसी विधि के कारण अपने पूरे दर्शन को मज्‍झिम निकाय—मध्य मार्ग कहा है। वे कहते हैं कि सदा मध्य में रहो, चाहे जो भी विपरीतताए हों, तुम सदा मध्य में रहो। और साक्षी होने से मध्य में हुआ जाता है। जिस क्षण तुम्हारा साक्षी खो जाता है, तुम या तो आसक्‍त हो जाते हो या विरक्‍त। अगर तुम विरक्‍त हुए तो दूसरी अति पर चले जाओगे और आसक्‍त हुए तो इस अति पर बने रहने की चेष्टा करोगे। लेकिन तब तुम कभी मध्य में नहीं होगे। सिर्फ साक्षी बनो, न आकर्षित होओ और न विकर्षित।

सिरदर्द है तो उसे स्वीकार करो। वह तथ्य है। जैसे वृक्ष हैं, मकान है, रात है, वैसे ही सिरदर्द है। आख बंद करो और उसे स्वीकार करो। उससे बचने की चेष्टा मत करो। वैसे ही तुम सुखी हो तो सुख के तथ्य को स्वीकार करो। उससे चिपके रहने की चेष्टा मत करो और दुखी होने का प्रयत्न भी मत करो; कोई भी प्रयत्न मत करो। सुख आता है तो आने दो; दुख आता है तो आने दो। तुम शिखर पर खड़े द्रष्टा बने रहो, जो सिर्फ चीजों को देखता है। सुबह आती है, शाम आती है, फिर सूरज उगता है और डूब जाता है, तारे हैं और अंधेरा है, फिर सूयोंदय—और तुम शिखर पर खड़े द्रष्टा हो।

तुम कुछ कर नहीं सकते; तुम सिर्फ देखते रहते हो। सुबह आती है, इस तथ्य को तुम भलीभांति देख लेते हो और तुम जानते हो कि अब सांझ आएगी, क्योंकि सांझ सुबह के पीछे—पीछे आती है। वैसे ही जब सांझ आती है तो तुम उसे भी भलीभांति देख लेते हो और तुम जानते हो कि अब सुबह आएगी, क्योंकि सुबह सांझ के पीछे—पीछे आती है। जब दुख है तो तुम उसके भी साक्षी हो। तुम जानते हो कि दुख आया है, देर—अबेर वह चला जाएगा और उसका विपरीत ध्रुव आ जाएगा। और जब सुख आता है तो तुम जानते हो कि वह सदा नहीं रहेगा, दुख कहीं पास ही छिपा होगा, आता ही होगा। तुम खुद द्रष्टा बने रहते हो।

अगर तुम आकर्षण और विकर्षण के बिना, लगाव और दुराव के बिना देखते रहे तो तुम मध्य में आ जाओगे। और जब पेंडुलम बीच में ठहर जाएगा तो तुम पहली दफा देख सकोगे कि संसार क्या है। जब तक तुम दौड़ रहे हो, तुम नहीं जान सकते कि संसार क्या है। तुम्हारी दौड़ सब कुछ को भ्रांत कर देती है, धूमिल कर देती है; और जब दौड़ बंद होगी तो तुम संसार को देख सकोगे। तब तुम्हें पहली बार सत्य के दर्शन होंगे। अकंप मन ही जानता है कि सत्य क्या है; कंपित मन सत्य को नहीं जान सकता।

तुम्हारा मन ठीक कैमरे की भांति है। अगर तुम चलते हुए फोटो लेते हो तो जो भी चित्र बनेगा वह धुंधला— धुंधला होगा, अस्पष्ट होगा, विकृत होगा। कैमरे को हिलना नहीं चाहिए; कैमरा हिलेगा तो चित्र बिगड़ेगा ही।

तुम्हारी चेतना एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर गति करती रहती है और इस भांति जो सत्य जानते हो वह भ्रांति है, दुःस्वप्न है। तुम नहीं जानते हो कि क्या क्या है; सब भ्रम है, सब धुआं— धुआं है। सत्य से तुम वंचित रह जाते हो। सत्य को तुम तब जानते हो जब तुम मध्य में ठहर जाते हो, जब पेंडुलम ठहर जाता है और तुम्हारी चेतना वर्तमान के क्षण में होती है, केंद्रित होती है। अचल और अकंप चित्त ही सत्य को जानता है।

‘प्रिये, न सुख में और न दुख में, बल्कि दोनों के मध्य में अवधान को स्थिर करो।’

साक्षीत्व की चौथी विधि:

विषय और वासना जैसे दूसरों में हैं वैसे ही मुझमें हैं। इस भांति स्वीकार करके उन्हें रूपांतरित होने दो।

ह विधि बहुत सहयोगी हो सकती है। जब तुम क्रोधित होते हो तो तुम सदा अपने क्रोध को उचित मानते हो, लेकिन जब कोई दूसरा क्रोधित होता है तो तुम उसकी सदा आलोचना करते हो। तुम्हारा पागलपन स्वाभाविक है, दूसरे का पागलपन विकृति है। तुम जो भी करते हो वह शुभ है—शुभ नहीं तो कम से कम उसे करना जरूरी था। तुम अपने कृत्य के लिए सदा कुछ औचित्य खोज लेते हो, उसे तर्कसम्मत बना लेते हो। और जब वही काम दूसरा करता है तो वही औचित्य, वही तर्क लागू नहीं होता है।

तुम क्रोध करते हो तो कहते हो कि दूसरे के हित के लिए यह जरूरी था; अगर मैं क्रोध न करता तो दूसरा बर्बाद ही हो जाता। वह किसी बुरी आदत का शिकार हो जाता, इसलिए उसे दंड देना जरूरी था, यह उसके भले के लिए था। लेकिन जब दूसरा तुम पर क्रोध करता है तो वही तर्कसरणी उस पर नहीं लागू की जाती। दूसरा पागल है, दूसरा दुष्ट है।

हमारे मापदंड सदा दोहरे हैं; अपने लिए एक मापदंड है और शेष सबके लिए दूसरा मापदंड है। यह दोहरे मापदंड वाला मन सदा दुख में रहेगा। यह मन ईमानदार नहीं है, सम्यक नहीं है। और जब तक तुम्हारा मन, ईमानदार नहीं होता, तुम्हें सत्य की झलक नहीं मिल सकती है। और एक ईमानदार, मन ही दोहरे मापदंड से मुक्‍त हो सकता है।

जीसस कहते हैं दूसरों के साथ वह व्यवहार मत करो जो व्यवहार तुम न चाहोगे कि तुम्हारे साथ किया जाए।

यह विधि एक मापदंड की धारणा पर आधारित है।

‘विषय और वासना जैसे दूसरों में हैं वैसे ही मुझमें हैं।’

तुम अपवाद नहीं हो; यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि मैं अपवाद हूं। अगर तुम सोचते हो कि मैं अपवाद हूं तो भलीभांति जान लो कि ऐसे ही हर सामान्य मन सोचता है। यह जानना कि मैं सामान्य हूं जगत में सबसे असामान्य घटना है।

किसी ने सुजुकी से पूछा कि तुम्हारे गुरु में असामान्य क्या था? सुजुकी स्वयं झेन गुरु था। सुजुकी ने कहा कि उनके संबंध में मैं एक चीज कभी न भूलूंगा कि मैंने कभी ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो अपने को इतना सामान्य समझता हो। वे बिलकुल सामान्य थे और वही उनकी सबसे बड़ी असामान्यता थी। अन्यथा साधारण से साधारण व्यक्ति भी सोचता है कि मैं असामान्य हूं अपवाद हूं।

लेकिन कोई व्यक्ति असामान्य नहीं है। और तुम अगर यह जान लो तो तुम असामान्य

हो जाते हो। हर आदमी ठीक दूसरे आदमी जैसा है। जो वासनाएं तुम्हारे भीतर चक्कर लगा रही हैं वे ही दूसरों के भीतर घूम रही हैं। लेकिन तुम अपनी कामवासना को प्रेम कहते हो और दूसरो के प्रेम को कामवासना कहते हो। तुम खुद जो भी कहते हो, उसका बचाव करते हो। तुम कहते हो कि वह शुभ काम है, इसलिए करता हूं। और वही काम जब दूसरे करते हैं तो वे वही नहीं रहते, वे शुभ नहीं रहते।

और यह बात व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है, जाति और राष्ट्र भी यही करते हैं। अगर भारत अपनी सेना बढ़ाता है तो वह सुरक्षा का प्रयत्न है और जब चीन अपनी सेना को मजबूत करता है तो वह आक्रमण की तैयारी है। दुनिया की हर सरकार अपने सैन्य संस्थान को सुरक्षा संस्थान कहती है। तो फिर आक्रमण कौन करता है? जब सभी सुरक्षा में लगे हैं तो आक्रामक कौन है? अगर तुम इतिहास देखोगे तो तुम्हें कोई आक्रामक नहीं मिलेगा। ही, जो हार जाते हैं वे आक्रामक करार दे दिए जाते हैं। पराजित लोग सदा आक्रामक माने गए हैं, क्योंकि वे इतिहास नहीं लिख सकते हैं। इतिहास तो विजेता लिखते हैं।

अगर हिटलर विजयी हुआ होता तो इतिहास दूसरा होता। तब वह आक्रामक नहीं, संसार का रक्षक माना जाता। तब चर्चिल, रूजवेल्ट और उनके मित्रगण आक्रामक माने जाते और कहा जाता कि उन्हें मिटा डालना अच्छा हुआ। लेकिन क्योंकि हिटलर नहीं जीत सका, वह आक्रामक हो गया और चर्चिल, रूजवेल्ट और स्टैलिन मनुष्य—जाति के रक्षक बन गए। तो न सिर्फ व्यक्ति, बल्कि जाति और राष्ट्र भी यही तर्क पेश करते हैं; अपने को औरों से भिन्न बताते हैं।

कोई भी भिन्न नहीं है! धार्मिक चित्त वह है जो जानता है कि प्रत्येक व्यक्ति समान है। इसलिए तुम जो तर्क अपने लिए खोज लेते हो वही दूसरों के लिए भी उपयोग करो। और अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उसी आलोचना को अपने पर भी लागू करो। दोहरे मापदंड मत गढ़ो। एक मापदंड रखने से तुम पूरी तरह रूपांतरित हो जाओगे। एक मापदंड तुम्हें ईमानदार बनाएगा और पहली दफा तुम सत्य को सीधा देखोगे जैसा वह है।

‘विषय और वासना जैसे दूसरों में हैं वैसे ही मुझमें हैं। इस भांति स्वीकार करके उन्हें रूपांतरित होने दो।’

तुम उन्हें स्वीकार कर लो और वे रूपांतरित हो जाएंगी। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम स्वीकार करते हैं कि विषय—वासना दूसरों में है। जो—जो गलत है वह दूसरों में है और जो—जो सही है वह तुम में है। तब तुम रूपांतरित कैसे होगे? तुम तो रूपांतरित ही हो। तुम सोचते हो कि मैं तो अच्छा ही हूं; दूसरे सब लोग बुरे हैं। रूपांतरण की जरूरत संसार को है, तुम्हें नहीं।

इसी दृष्टिकोण के कारण नेता, क्रांतियां और पैगंबर पैदा होते हैं। वे घर के मुंडेरों पर चढ़कर चिल्लाते हैं कि दुनिया को बदलना है, कि इंकलाब लाना है। हम क्रांति पर क्रांति किए जाते हैं और कुछ भी नहीं बदलता है। मनुष्य वही का वही रहता है, दुनिया पुराने दुखों से ही ग्रस्त रहती है। चेहरे और नाम बदल जाते हैं; पर दुख बना रहता है।

दुनिया को बदलने की बात नहीं है। तुम गलत — हो। प्रश्न है कि तुम कैसे बदलो। धार्मिक प्रश्न यह है कि मैं कैसे बदलू? दूसरों को बदलने की बात राजनीति है। राजनीतिज्ञ सोचता है कि मैं तो बिलकुल ठीक हूं; कि मैं तो आदर्श हूं जैसा कि सारी दुनिया को होना चाहिए। वह अपने को आदर्श मानता है। वह आदर्श—पुरूष है और उसका काम दुनियां को बदलना है।

धार्मिक व्यक्ति जो कुछ भी दूसरों में देखता है उसे अपने भीतर भी देखता है। अगर हिंसा है तो वह सोचने लगता है कि यह हिंसा मुझमें है या नहीं। अगर लोभ है, अगर उसे कहीं लोभ दिखाई पड़ता है, तो उसका पहला खयाल यह होता है कि यह लोभ मुझमें है या नहीं। और जितना ही खोजता है वह पाता है कि मैं ही सब बुराई का स्रोत हूं। तब फिर प्रश्न यह नहीं है कि संसार को कैसे बदला जाए; तब फिर प्रश्न यह है कि अपने को कैसे बदला जाए। और बदलाहट उसी क्षण होने लगती है जब तुम एक मापदंड अपनाते हो। उसे अपनाते ही तुम बदलने लगे।

दूसरों की निंदा मत करो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपनी निंदा करो। नहीं, बस दूसरों की निंदा मत करो। और अगर तुम दूसरों की निंदा नहीं करते हो तो तुम्हें उनके प्रति गहन करुणा का भाव होगा। क्योंकि सब की समस्याएं समान हैं। अगर कोई पाप करता है—समाज की नजर में जो पाप है—तो तुम उसकी निंदा करने लगते हो। तुम यह नहीं सोचते कि तुम्हारे भीतर भी उस पाप के बीज पड़े हैं। अगर कोई हत्या करता है तो तुम उसकी निंदा करते हो।

लेकिन क्या तुमने कभी किसी की हत्या करने का विचार नहीं किया है? क्या उसका बीज, उसकी संभावना तुम्हारे भीतर भी नहीं छिपी है? जिस आदमी ने हत्या की है वह एक क्षण पूर्व हत्यारा नहीं था, लेकिन उसका बीज उसमें था। वह बीज तुममें भी है। एक क्षण बाद कौन जानता है, तुम भी हत्यारे हो सकते हो! उसकी निंदा मत करो; बल्कि स्वीकार करो। तब तुम्हें उसके प्रति गहन करुणा होगी, क्योंकि उसने जो कुछ किया है वह कोई भी कर सकता है, तुम भी कर सकते हो।

निंदा से मुक्‍त चित्त में करुणा होती है। निंदा—रहित चित्त में गहन स्वीकार होता है। वह जानता है कि मनुष्यता ऐसी ही है, कि मैं भी ऐसा ही हूं। तब सारा जगत तुम्हारा प्रतिबिंब बन जाएगा; वह तुम्हारे लिए दर्पण का काम देगा। तब प्रत्येक चेहरा तुम्हारे लिए आईना होगा; तुम प्रत्येक चेहरे में अपने को ही देखोगे।

‘विषय और वासना जैसे दूसरों में हैं वैसे ही मुझमें हैं। इस भांति स्वीकार करके उन्हें रूपांतरित होने दो।’

स्वीकार ही रूपांतरण बन जाता है। यह समझना कठिन है, क्योंकि हम सदा इनकार करते हैं और उसके बावजूद हम बिलकुल नहीं बदल पाते हैं। तुममें— लोभ है, लेकिन तुम उसे अस्वीकार करते हो। कोई भी अपने को लोभी मानने को राजी नहीं है। तुम कामुक हो, लेकिन तुम उसे अस्वीकार करते हो। कोई भी अपने को कामुक मानने को राजी नहीं है। तुम क्रोधी हो, तुममें क्रोध है; लेकिन तुम उसे इनकार कर देते हो। तुम एक मुखौटा ओढ़ लेते हो और उसे उचित बताने की चेष्टा करते हो। तुम कभी नहीं सोचते कि मैं क्रोधी हूं या मैं क्रोध ही हूं।

लेकिन अस्वीकार से कभी कोई रूपांतरण नहीं होता है। उससे चीजें दमित हो जाती हैं। लेकिन जो चीज दमित होती है वह और भी शक्तिशाली हो जाती है। वह तुम्हारी जड़ों तक पहुंच जाती है, तुम्हारे अचेतन में गहराई तक उतर जाती है और वहां से काम करने लगती है।

और अचेतन के उस अंधेरे में वह वृत्ति और भी शक्तिशाली हो जाती है। और अब तुम उसे और भी नहीं स्वीकार कर सकते, क्योंकि तुम्हें उसका बोध भी नहीं है।

स्‍वीकार सबको ऊपर ले आती है। दमन करने की जरूरत नहीं है। तुम जानते हो कि मैं लोभी हूं तुम जानते हो कि मैं क्रोधी हूं कि मैं कामुक हूं और तुम उन वृत्तियों को बिना किसी निंदा के स्वाभाविक तथ्य की तरह स्वीकार कर लेते हो। उन्हें दमित करने की जरूरत नहीं है। वे वृत्तियां मन की सतह पर आ जाती ‘हैं और वहा से उन्हें बहुत आसानी से विसर्जित किया जा सकता है। गहरे अचेतन से उनका विसर्जन संभव नहीं है। और जब वे सतह पर होती हैं तो तुम उनके प्रति होशपूर्ण होते हो, जब वे अचेतन में होती हैं तो तुम उनके प्रति बेहोश बने रहते हो। और उस रोग से ही मुक्ति संभव है जिसके प्रति तुम होशपूर्ण हो; जिसके प्रति तुम बेहोश हो उस रोग से मुक्ति नहीं हो सकती।

प्रत्येक चीज को सतह पर ले आओ। अपनी मनुष्यता को स्वीकार करो, अपनी पशुता को स्वीकार करो। जो भी है उसे बिना किसी निंदा के स्वीकार करो। लोभ है, उसे अलोभ में बदलने की चेष्टा मत करो। तुम उसे नहीं बदल सकते हो। और अगर तुम उसे अलोभ बनाने की चेष्टा करोगे तो तुम उसका दमन करोगे। तुम्हारा अलोभ और कुछ नहीं, केवल दूसरे ढंग का लोभ ही होगा। अगर तुम लोभ को बदलने की कोशिश करोगे तो क्या करोगे? लोभी मन अलोभ के आदर्श के प्रति तभी आकर्षित होता है जब उसका कोई और लोभ उससे सधने वाला हो।

अगर कोई तुम्हें कहता है कि यदि तुम अपने सारे धन का त्याग कर दो तो तुम्हें परमात्मा के राज्य में प्रवेश मिल जाएगा तो तुम त्याग करने के लिए भी तैयार हो जाओगे। अब एक नया लोभ संभव हो गया। यह सौदा है। तो लोभ को अलोभ नहीं बनाना है, लोभ का अतिक्रमण करना है। तुम उसे बदल नहीं सकते। हिंसक मन कैसे अहिंसक हो सकता है? अगर तुम अहिंसक होने के लिए अपने को मजबूर करोगे तो यह अपने प्रति हिंसा होगी। तुम एक चीज को दूसरी चीज में नहीं बदल सकते; तुम सिर्फ सजग हो सकते हो; तुम सिर्फ स्वीकार कर सकते हो। लोभ को लोभ की तरह स्वीकार करो।

स्वीकार का यह अर्थ नहीं है कि उसे रूपांतरित करने की जरूरत नहीं है। स्वीकार का इतना ही. अर्थ है कि तुम तथ्य को, स्वाभाविक तथ्य को स्वीकार करते हो; जैसा वह है वैसा ही स्वीकार करते हो। तब जीवन में यह जानकर गति करो कि लोभ है। तुम जो भी करो यह स्मरण रखकर करो कि लोभ है। यह बोध तुम्हें रूपांतरित कर देगा। यह रूपांतरित करता है, क्योंकि बोधपूर्वक तुम लोभी नहीं हो सकते, बोधपूर्वक तुम क्रोधी नहीं हो सकते। क्रोध के लिए लोभ के लिए, हिंसा के लिए मूर्च्छा बुनियादी शर्त है।

यह वैसा ही है जैसे तुम जान—बूझकर जहर नहीं खा सकते, जान—बूझकर तुम अपना हाथ आग में नहीं डाल सकते; अनजाने ही ऐसा कर सकते हो। अगर तुम्हें नहीं पता है कि आग क्या है तो ही तुम उसमें हाथ डाल सकते हो। यदि जानते हो कि आग जलाती है तो तुम उसमें हाथ नहीं डाल सकते।

जैसे—जैसे तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा बोध बढ़ेगा, वैसे—वैसे लोभ तुम्हारे लिए आग बन जाएगा, क्रोध जहर बन जाएगा। तब वे बस असंभव हो जाते हैं। और दमन न हो तो वे विसर्जित हो जाते हैं। और जब लोभ अलोभ के आदर्श के बिना विसर्जित होता है तो उसका अपना ही सौंदर्य है। जब हिंसा अहिंसा के आदर्श के बिना विसर्जित होती है तो अपना ही सौंदर्य है।

अन्यथा जो व्यक्ति आदर्श के अनुसार अहिंसक बनता है वह गहरे में हिंसक, अति हिंसक बना रहता है। वह हिंसा उसमें छिपी रहती है और तुम्हें उसकी झलक उसकी अहिंसा में भी मिल सकती है। वह अपनी अहिंसा को अपने पर और दूसरों पर बहुत हिंसक ढंग से थोपेगा। उसकी हिंसा सूक्ष्म ढंग ले लेगी।

यह सूत्र कहता है कि स्वीकार रूपांतरण है, क्योंकि स्वीकार से बोध संभव होता है।

आज इतना ही।


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अंतयार्त्रा–(ध्‍यान शिविर)–प्रवचन–7

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ह्रदय—वीणा के सूत्र—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 5 फरवरी, 1968; सुबह।

ध्‍यान शिविर आजोल।

विचार का, थिंकिग का केंद्र मस्तिष्क है; और भाव का, फीलिंग का केंद्र हृदय है; और संकल्प का, विलिंग का केंद्र नाभि है। विचार, चिंतन, मनन मस्तिष्क से होता है। भावना, अनुभव, प्रेम, घृणा और क्रोध हृदय से होते हैं। संकल्प नाभि से होते हैं। विचार के केंद्र के संबंध में कल थोड़ी सी बातें हमने कीं।

पहले दिन मैंने आपको कहा था कि विचार के तंतु बहुत कसे हुए हैं, उन्हें शिथिल करना है। विचार पर अत्यधिक तनाव और बल है। मस्तिष्क अत्यंत तीव्रता से खिंचा हुआ है। विचार की वीणा के तार इतने खिंचे हुए हैं कि उनसे संगीत पैदा नहीं होता, तार ही टूट जाते हैं, मनुष्य विक्षिप्त हो जाता है और मनुष्य विक्षिप्त हो गया है। यह विचार की वीणा के तार थोड़े शिथिल करने अत्यंत जरूरी हो गए हैं, ताकि वे सम—स्थिति में आ सकें और संगीत उत्पन्न हो सके।

विचार से ठीक उलटी स्थिति हृदय की है। हृदय के तार बहुत ढीले हैं। उन्हें थोड़ा कसना जरूरी है, ताकि वे भी सम—स्थिति में आ सकें और संगीत पैदा हो सके। विचार के तनाव को कम करना है और हृदय के ढीले तारों को थोड़ा कसाव देना है।

विचार और हृदय के दोनों तार अगर सम अवस्था में आ जाएं, मध्य में आ जाएं, संतुलित हो जाएं, तो वह संगीत पैदा होगा जिस संगीत के मार्ग से नाभि के केंद्र तक की यात्रा की जा सकती है।

विचार कैसे शिथिल हों, वह हमने कल बात की है। भाव, हृदय के तार कैसे कसे जा सकें वह बात हमें आज सुबह करनी है।

इसके पहले कि हम ठीक से हृदय के संबंध में, भाव के संबंध में कुछ समझें, मनुष्य—जाति एक बहुत लंबे अभिशाप के नीचे जी रही है, उसे समझ लेना जरूरी है। उसी अभिशाप ने हृदय के तारों को बिलकुल ढीला कर दिया है। और वह अभिशाप यह है कि हमने हृदय के सारे गुणों की निंदा की है।

हृदय की जो भी क्षमताएं हैं, उन सबको हमने अभिशाप समझा है, वरदान नहीं समझा। और यह भूल इतनी संघातक है और इस भूल के पीछे इतनी नासमझी और इतना अज्ञान है जिसका कोई हिसाब नहीं है। क्रोध की हमने निंदा की है, अभिमान की हमने निंदा की है, घृणा की हमने निंदा की है, राग की हमने निंदा की है, हर चीज की हमने निंदा की है। और बिना यह समझे हुए कि हम जिन चीजों की प्रशंसा करते हैं वे इन्हीं चीजों के रूपांतरण हैं।

हमने क्षमा की प्रशंसा की है और क्रोध की निंदा की है, और बिना इस बात को समझे हुए कि क्षमा क्रोध की शक्ति का ही परिवर्तित रूप है। हमने घृणा की निंदा की है और प्रेम की प्रशंसा की है, और बिना यह समझे कि घृणा में जो ऊर्जा प्रकट होती है वही रूपांतरित होकर प्रेम में प्रकट होती है। उन दोनों के पीछे प्रकट होने वाली शक्ति भिन्न—भिन्न नहीं है। हमने अभिमान की निंदा की है और विनम्रता की प्रशंसा की है बिना यह समझे हुए कि अभिमान में जो ऊर्जा प्रकट होती है वही विनम्रता बन जाती है। उन दोनों चीजों में बुनियादी विरोध नहीं है, वे एक ही चीज के परिवर्तित बिंदु हैं।

जैसे वीणा के तार बहुत ढीले हैं या बहुत कसे हैं, उन्हें छूता है संगीतज्ञ तो उनसे बेसुरा संगीत पैदा होता है जो कानों को अखरता है और चित्त को घबड़ाता है। वह जो बेसुरापन पैदा हो रहा है, अगर उसके विरोध में आकर कोई तारों को तोड़ डाले और वीणा को पटक दे और कहे कि इस वीणा से बहुत बेसुरा संगीत पैदा होता है, यह तो तोड़ देने जैसी है, तो वीणा तो वह तोड़ सकता है, लेकिन वह भी याद रख ले कि संगीत भी उसी वीणा से पैदा हो सकता था जिससे बेसुरे स्वर पैदा हो रहे थे। बेसुरापन वीणा का कसूर न था, वीणा अव्यवस्थित थी, इस बात की भूल थी। वही वीणा सुव्यस्थित होती, तो जिन तारों से बेसुरापन पैदा होता था, उन्हीं से प्राणों को मुग्ध कर देने वाला संगीत पैदा हो सकता था।

स्वर और बेस्वर एक ही तार से पैदा होने वाली चीजें हैं, यद्यपि बिलकुल विरोधी मालूम होती हैं और दोनों के परिणाम विरोधी हैं। और दोनों में एक आनंद की तरफ ले जाती है, एक दुख की तरफ ले जाती है, लेकिन दोनों के बीच में एक ही तार है और एक ही वीणा है। वीणा अव्यवस्थित हो, अराजक हो, तो बेसुरापन पैदा होता है। मनुष्य के हृदय से क्रोध पैदा होता है; अगर मनुष्य का हृदय सुव्यवस्थित, संयोजित, संतुलित नहीं है। वही हृदय संतुलित हो जाए, तो जो शक्तियां क्रोध में प्रकट होती हैं, वे ही शक्तियां क्षमा में प्रकट होनी शुरू हो जाती हैं। क्षमा क्रोध का ही रूपांतरण है।

अगर कोई बच्चा बिना क्रोध के पैदा हो जाए तो एक बात निश्चित है, उस बच्चे के जीवन में क्षमा कभी भी प्रकट नहीं हो सकती। अगर किसी बच्चे के हृदय में घृणा की कोई संभावना न हो, तो उस बच्चे के हृदय में प्रेम की भी कोई संभावना नहीं रह जाएगी।

लेकिन हम इस भूल के नीचे जीए हैं अब तक कि ये दोनों विरोधी चीजे हैं और इसमें एक का विनाश करेंगे तो दूसरा विकसित होगा। यह बिलकुल ही भूल भरी बात है, इससे ज्यादा खतरनाक कोई शिक्षा नहीं हो सकती, अमनोवैज्ञानिक, अत्यंत अबुद्धिपूर्ण यह बात है। क्रोध के विनाश से क्षमा उत्पन्न नहीं होती, क्रोध के रूपांतरण से, क्रोध के ट्रांसफामेंशन से, क्रोध के परिवर्तन से क्षमा उपलब्ध होती है। क्षमा क्रोध का नष्ट हो जाना नहीं है, बल्कि क्रोध का संतुलित और संगीतपूर्ण हो जाना है।

इसलिए अगर हम क्रोध के विरोध में हैं और क्रोध को नष्ट करने का उपाय कर रहे हैं, तो हम वीणा को ही तोड्ने का उपाय कर रहे हैं। और एक ऐसा मनुष्य पैदा होगा जो अत्यंत दीन—हीन होगा, जिसके हृदय की कोई भी शक्तियां विकसित नहीं हो पाएंगी। यह वैसे ही है जैसे किसी आदमी ने अपने घर के पास खाद का ढेर लगा रखा हो, तो उसके घर के आस—पास गंदगी फैल रही हो, बदबू फैल रही हो, और वह आदमी परेशान हो कि माली तो कहता था कि खाद लाने से फूल पैदा होते हैं और फूलों से सुगंध आती है, और हमारे घर में हमने खाद लाकर रख ली है तो दुर्गंध फैल रही है, घर बदबू से भरा जा रहा है, जीना मुश्किल हुआ जा रहा है।

खाद लाने से जरूर फूल पैदा हो सकते हैं, लेकिन घर में खाद को भर लेने से नहीं। खाद का रूपांतरण होता है। बीजों के माध्यम से खाद फूलों में प्रवेश करती है और खाद की जो दुर्गंध थी वह एक दिन फूलों की सुगंध में परिवर्तित हो जाती है। लेकिन खाद को घर में भर लेने से तो कोई पागल हो जाएगा और खाद को फेंक देने से उसके फूल निर्जीव हो जाएंगे, निस्तेज हो जाएंगे। लेकिन खाद का रूपांतरण है, दुर्गंध सुगंध में परिवर्तित हो सकती है।

इसी कीमिया, इसी केमिस्ट्री का, इसी अल्केमी का नाम योग है। इसी अल्केमी का नाम धर्म है। जो जीवन में व्यर्थ है उसको सार्थक की दिशा में परिवर्तित करने की जो कला है वही धर्म है।

लेकिन धर्म के नाम पर हम आत्मघात कर रहे हैं, सुसाइड कर रहे हैं। धर्म के नाम पर हमारी चेतना परिवर्तित नहीं होती है। कोई बुनियादी भूलों के भीतर हम जी रहे हैं, कोई गहरी अभिशाप की छाया हमको पकड़े हुए है। हृदय इसलिए अविकसित रह गया कि हृदय के मौलिक गुणों के ही विरोध में हम खड़े हो गए। यह बात थोड़ी समझ लेनी जरूरी है।

मैं देख पाता हूं कि मनुष्य का अगर ठीक—ठीक विकास हो तो उसके जीवन में क्रोध का भी अपना अनिवार्य स्थल है, क्रोध की भी अपनी जगह है, उसके संपूर्ण जीवन के चित्र में क्रोध का भी अपना रंग है। और अगर उसे हम बिलकुल अलग कर दें तो उसके जीवन का चित्र किन्हीं न किन्हीं अर्थों में अधूरा रह जाएगा, उसमें कोई रंग की कमी रह जाएगी। लेकिन बचपन से ही हम सिखाना शुरू करते हैं कि इन सारी चीजों को अलग कर देना है, और अंधों की तरह हम बच्चों के पीछे पड़ जाते हैं इन सारी चीजों को अलग कर देने के लिए। अलग करने का कुल एक ही परिणाम हो सकता है कि जो—जो हम बुरा कहते हैं बच्चा उसे दबा कर बैठ जाए, अपने भीतर सप्रेस कर ले, दमन कर ले। दमित हृदय शिथिल हृदय होगा, उसके तार ठीक—ठीक खिंच नहीं पाएंगे, और फिर यह जो दमन होगा, यह होगा बुद्धि के द्वारा, क्योंकि सब शिक्षा बुद्धि से गहरे नहीं जाती।

आप किन्हीं भी बच्चे को सिखाएं कि क्रोध बुरा है, तो आपकी यह शिक्षा हृदय तक पहुंचने वाली नहीं है। हृदय के पास सुनने के लिए कोई कान नहीं है और हृदय के पास सोचने के लिए कोई शब्द नहीं है। यह सारी शिक्षा बुद्धि में जाएगी और बुद्धि हृदय को परिवर्तित नहीं कर सकती है, तो एक कठिनाई पैदा हो जाएगी। बुद्धि सोच लेती है कि क्रोध करना बुरा है।

आप रोज क्रोध करते हैं और पीछे पछताते हैं कि क्रोध करना बुरा है, आगे मैं क्रोध नहीं करूंगा। लेकिन यह बुद्धि का केंद्र सोच रहा है और हृदय के केंद्र को इस बात की कोई खबर नहीं कि क्रोध बुरा है और अब आगे क्रोध नहीं करूंगा। कल फिर सुबह आप उठते हैं और जरा सी बात से क्रोध फिर शुरू हो जाता है। आप बहुत हैरान होते हैं कि मैंने पच्चीसों दफे तय किया कि मैं अब क्रोध नहीं करूंगा, यह क्रोध फिर क्यों आ जाता है! मैं कितनी बार पश्चात्ताप कर चुका, फिर भी क्रोध क्यों आ जाता है?

आपको पता ही नहीं है कि क्रोध करने वाला केंद्र अलग और पश्चात्ताप और विचार करने वाला केंद्र बिलकुल अलग है। जो केंद्र निर्णय करता है कि मैं क्रोध नहीं करूंगा वह बिलकुल भिन्न है और जो केंद्र क्रोध करता है वह बिलकुल भिन्न है। ये बिलकुल दो अलग केंद्र हैं, इसलिए पश्चात्ताप और निर्णय का कोई परिणाम आपके क्रोध पर कभी भी नहीं पड़ता। आप क्रोध भी किए जाते हैं और पश्चात्ताप भी किए जाते हैं और दुखी भी हुए चले जाते हैं। जीवन भर आपको खयाल में भी नहीं आता कि कहीं ये दोनों केंद्र इतने पृथक तो नहीं हैं कि इनका एक का निर्णय दूसरे तक पहुंच ही नहीं पाता।

आदमी एक आंतरिक विघटन में, एक डिसइटीग्रेशन में पड़ जाता है। हृदय का केंद्र और ही तरह से काम करता है, उस केंद्र के विकास के लिए कुछ और ही रास्ते हैं। बुद्धि उस केंद्र में बाधा देगी तो वह केंद्र केवल शिथिल और अस्त—व्यस्त होगा, अनार्किक होगा। और हम सबका हृदय का केंद्र बिलकुल ही अराजक हो गया है, बिलकुल अव्यवस्थित हो गया है।

पहली बात, निश्चित ही क्रोध रूपांतरित होना चाहिए, लेकिन नष्ट नहीं।

यह पहला सूत्र हृदय के तारों को कसने के लिए यह है हृदय के गुणों का विकास, विध्वंस नहीं। यह पहला सूत्र ठीक से समझ लेने की जरूरी है। हृदय के सारे गुणों का विकास, विध्वंस नहीं। आप थोड़े मुश्किल में पड़ेंगे, थोड़ा सोच में पड़ेंगे कि क्रोध का भी विकास करना चाहिए? मैं आपको कहूंगा निश्चित ही विकास होना चाहिए, क्योंकि विकसित क्रोध ही फिर एक दिन रूपांतरित होकर क्षमा बन सकता है, अन्यथा कभी भी क्षमा जीवन में उत्पन्न नहीं हो सकती। क्रोध की अपनी गरिमा और अपना गौरव है। दुनिया में जो बड़े से बड़े क्षमाशाली लोग हुए हैं, अगर आप उनका जीवन पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि वे अपने प्राथमिक दिनों में बड़े से बड़े क्रोधी लोग थे।

दुनिया में जो बड़े से बड़े ब्रह्मचारी हुए हैं, अगर आप उनका जीवन पढ़ेंगे तो पाएंगे कि अपने प्राथमिक जीवन में उनसे ज्यादा कामुक, उनसे ज्यादा सेक्सुअल और कोई भी नहीं था। गांधी के जीवन में इतना ब्रह्मचर्य फलित हुआ, यह गांधी के प्राथमिक जीवन की अति कामुकता का फल है। गांधी अति कामुक थे।

जिस दिन गांधी के पिता की मृत्यु हुई, चिकित्सकों ने कह दिया था कि पिता आज रात बच नहीं सकेंगे, उस रात भी गांधी अपनी पत्नी से दूर नहीं रह सके। वह अंतिम रात थी। बाप के मरने की रात थी। उस रात पिता के पास बैठना सहज ही स्वाभाविक था, क्योंकि अंतिम विदा थी, इसके बाद पिता से फिर मिलना नहीं हो सकेगा। लेकिन आधी रात गए गांधी अपनी पत्नी के पास पहुंच गए। वहां पिता मरे, तब पत्नी के पास बिस्तर पर ही गांधी थे। इसकी एक बहुत तीव्र चोट गांधी के चित्त पर पहुंची। गांधी का बाद का सारा ब्रह्मचर्य इसी चोट से विकसित हुआ। यह जो अति कामुक चित्त था, यह ठीक, इसकी सारी ऊर्जा और सारी शक्ति ब्रह्मचर्य की तरफ फलित हो गई।

यह कैसे हो सका? यह इसलिए हो सका कि शक्तियां हमेशा तटस्थ होती हैं, सिर्फ दिशाओं का परिवर्तन होता है। जो शक्ति सेक्स की तरफ बहती थी, वह सारी शक्ति विपरीत दिशा की तरफ बहनी शुरू हो गई। लेकिन शक्ति थी तो विपरीत बह सकी और शक्ति ही न हो तो विपरीत क्या खाक बहेगी! शक्ति हो तो दूसरी दिशा में भी जा सकती है, लेकिन शक्ति ही न हो तो दूसरी दिशा में क्या जाएगा, कौन सी चीज जाएगी?

सारी शक्तियां ठीक—ठीक विकसित होनी चाहिए। मनुष्य को नैतिक शिक्षाओं के भ्रम ने अत्यंत दीन— हीन, इंपोटेंट, अत्यंत वीर्यहीन बना दिया है। पुराने लोग हमसे ज्यादा गहरे अर्थों में जीवन को अनुभव करते थे।

अकबर के दरबार में दो राजपूत युवक आए। दोनों भाई थे। और अकबर से जाकर उन्होंने कहा कि हम कोई नौकरी खोजने की तलाश में निकले हैं। अकबर ने कहा तुम करना क्या जानते हो? उन्होंने कहा हम और तो कुछ नहीं करना जानते, लेकिन हम बहादुर लोग हैं। हो सकता है हमारी आपको कोई जरूरत हो। अकबर ने कहा बहादुरी का प्रमाण—पत्र लाए हो कोई? क्या सबूत कि तुम बहादुर हो? वे दोनों हंसने लगे। और उन्होंने कहा बहादुरी का भी कोई प्रमाण—पत्र होता है? हम बहादुर हैं। अकबर ने कहा बिना प्रमाण—पत्र के नौकरी नहीं मिल सकती। वे दोनों हंसे, उन्होंने तलवारें निकालीं और एक—दूसरे की छाती में एक सेकेंड में वे तलवारें घुस गईं। अकबर तो देखता ही रह गया। वे दोनों जवान जमीन पर पड़े थे, लहू का फव्वारा बह रहा था, लेकिन वे हंस रहे थे। उन्होंने कहा कि अकबर, तुझे पता ही नहीं कि बहादुरी का एक ही प्रमाण—पत्र हो सकता है, और वह मौत है। और तो कोई प्रमाण—पत्र नहीं हो सकता। वे दोनों मर गए। अकबर की आंख में आंसू आ गए। उसकी कल्पना भी न थी कि यह ऐसी घटना घट जाएगी।

एक राजपूत सेनापति को उसने बुला कर कहा कि एक बड़ी दुर्घटना हो गई। दो राजपूत लड़ कर हत्या कर लिए। मैंने पूछ लिया प्रमाण—पत्र! उस राजपूत ने कहा आपने बात ही गलत पूछी। यह तो किसी भी राजपूत के खून को खौला देगी। बहादुरी का कोई और प्रमाण—पत्र हो सकता है, सिवाय मौत के! सिर्फ कायर और कमजोर सर्टिफिकेट ला सकते हैं कि हां यह बहादुरी का सर्टिफिकेट हमारे पास लिखा हुआ रखा है। हम फलां आदमी से लिखवा कर लाए हैं कि यह बहादुर है। क्योंकि कोई बहादुर किसी आदमी से लिखवा सकता है कि मैं बहादुर हूं! कोई कैरेक्टर सर्टिफिकेट ला सकता है! आपने बात ही गलत पूछी। आपको पता ही नहीं है कि राजपूत से कैसे पूछना चाहिए! ठीक किया, और यही हो सकता था, और कोई रास्ता ही नहीं था। यही सीधा विकल्प था।

यह जो, यह जो इतना तीव्र क्रोध है, जो इतनी तेजस्विता है, यह व्यक्तित्व की बड़ी महिमापूर्ण गरिमा है। इससे सारी मनुष्य—जाति हीन होती चली जाती है। आदमी की सारी तेजस्विता, सारा वीर्य नष्ट होता चला जाता है और हम समझते हैं कि हम बहुत अच्छी शिक्षाओं के अंतर्गत यह कर रहे हैं। यह बहुत अच्छी शिक्षाओं के अंतर्गत नहीं हो रहा है। बच्चों का सारा विकास गलत नियमों के अनुकूल हो रहा है, उनके भीतर पुरुष का कुछ भी विकसित नहीं हो पाता।

एक बहुत प्रसिद्ध लामा ने अपनी आत्म—कथा में लिखा है कि जब मैं पांच वर्ष का था, तो मुझे विद्यापीठ में पढ़ने के लिए भेजा गया। रात को मेरे पिता ने मुझसे कहा—तब मैं कुल पांच वर्ष का था— रात को मेरे पिता ने मुझसे कहा कि कल सुबह चार बजे तुझे विद्यापीठ भेजा जाएगा। और स्मरण रहे, सुबह तेरी विदाई के लिए न तो तेरी मां होगी और न मैं मौजूद रहूंगा। मां इसलिए मौजूद नहीं रखी जा सकती कि उसकी आंखों में आंसू आ जाएंगे। और रोती हुई मां को छोड़ कर तू जाएगा तो तेरा मन पीछे की तरफ, पीछे की तरफ होता रहेगा और हमारे घर में ऐसा आदमी कभी पैदा नहीं हुआ जो पीछे की तरफ देखता हो। मैं इसलिए मौजूद नहीं रहूंगा कि अगर तूने एक भी बार घोड़े पर बैठ कर पीछे की तरफ देख लिया, तो तू फिर मेरा लड़का नहीं रह जाएगा, फिर इस घर का दरवाजा तेरे लिए बंद हो जाएगा। नौकर तुझे विदा दे देंगे सुबह। और स्मरण रहे, घोड़े पर से पीछे लौट कर मत देखना। हमारे घर में कोई ऐसा आदमी नहीं हुआ जो पीछे की तरफ लौट कर देखता हो। और अगर तूने पीछे की तरफ लौट कर देखा, तो समझ लेना इस घर से फिर तेरा कोई नाता नहीं।

पांच वर्ष के बच्चे से ऐसी अपेक्षा? पांच वर्ष का बच्चा सुबह चार बजे उठा दिया गया और घोड़े पर बिठा दिया गया। नौकरों ने उसे विदा कर दिया। चलते वक्त नौकर ने भी कहा बेटे होशियारी से! मोड़ तक दिखाई पड़ता है, पिता ऊपर से देखते हैं। मोड़ तक पीछे लौट कर मत देखना। इस घर में सब बच्चे ऐसे ही विदा हुए, लेकिन किसी ने पीछे लौट कर नहीं देखा। और जाते वक्त नौकर ने कहा कि तुम जहां भेजे जा रहे हो वह विद्यापीठ साधारण नहीं है। वहां देश के जो श्रेष्ठतम पुरुष……उस विद्यापीठ से पैदा होते हैं। वहां बड़ी कठिन परीक्षा होगी प्रवेश की। तो चाहे कुछ भी हो जाए, हर कोशिश करना कि उस प्रवेश—परीक्षा में प्रविष्ट हो जाओ। क्योंकि वहां से असफल हो गए तो इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं रह जाएगी।

पांच वर्ष का लड़का, उसके साथ ऐसी कठोरता! वह घोड़े पर बैठ गया और उसने अपनी आत्म—कथा में लिखा है कि मेरी आंखों में आंसू भरने लगे, लेकिन पीछे लौट कर कैसे देख सकता हूं उस घर को, पिता को……जिस घर को छोड़ कर जाना पड़ रहा है मुझे अनजान में। इतना छोटा हूं। लेकिन लौट कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि मेरे घर में कभी किसी ने लौट कर नहीं देखा। और अगर पिता ने देख लिया तो फिर इस घर से हमेशा के लिए वंचित हो जाऊंगा, इसीलिए कड़ी हिम्मत रखी और आगे की तरफ देखता रहा, पीछे लौट कर नहीं देखा।

इस बच्चे के भीतर कोई चीज पैदा की जा रही है। इस बच्चे के भीतर कोई संकल्प जगाया जा रहा है, जो इसके नाभि—केंद्र को मजबूत करेगा। यह बाप कठोर नहीं है, यह बाप बहुत प्रेम से भरा हुआ है। और हमारे सब मां—बाप गलत हैं जो प्रेम से भरे हुए दिखाई पड़ रहे हैं, वे भीतर के सारे केंद्रों को शिथिल किए दे रहे हैं। भीतर कोई बल, कोई संबल खड़ा नहीं किया जा रहा है।

वह स्कूल में पहुंच गया। पांच वर्ष का छोटा सा बच्चा, उसकी क्या सामर्थ्य और क्या हैसियत! स्कूल के प्रधान ने, विद्यापीठ के प्रधान ने कहा कि यहां की प्रवेश—परीक्षा कठिन है। दरवाजे पर आंख बंद करके बैठ जाओ और जब तक मैं वापस न आऊं तब तक आंख मत खोलना, चाहे कुछ भी हो जाए। यही तुम्हारी प्रवेश— परीक्षा है। अगर तुमने आंख खोल ली तो हम वापस लौटा देंगे, क्योंकि जिसका अपने ऊपर इतना भी बल नहीं है कि कुछ देर तक आंख बंद किए बैठा रहे, वह और क्या सीख सकेगा? उसके सीखने का दरवाजा खत्म हो गया, बंद हो गया। फिर तुम उस काम के लायक नहीं हो, फिर तुम जाकर और कुछ करना। पांच वर्ष के छोटे से बच्चे को…!

वह बैठ गया दरवाजे पर आंख बंद करके। मक्खियां उसे सताने लगीं, लेकिन आंख खोल कर नहीं देखना है, क्योंकि आंख खोल कर देखा तो मामला खत्म हो जाएगा। छोटे—मोटे जो दूसरे बच्चे स्कूल में आ— जा रहे हैं, कोई उसे धक्का देने लगा है, कोई उसको परेशान करने लगा है, लेकिन आंख खोल कर नहीं देखना है, क्योंकि आंख खोल कर देखा तो मामला फिर खराब हो जाएगा। और नौकरों ने आते वक्त कहा है कि अगर प्रवेश—परीक्षा में असफल हो गए तो यह घर भी तुम्हारा नहीं।

एक घंटा बीत गया, दो घंटे बीत गए, वह आंख बंद किए बैठा है और डरा हुआ है कि कहीं भूल से भी आंख न खुल जाए और आंख खोलने के सब टेम्पटेशन मौजूद हैं वहां। रास्ता चल रहा है, बच्चे निकल रहे हैं, मक्खियां सता रही हैं, कोई बच्चे उसे धक्के देते जा रहे हैं, कोई बच्चा कंकड़ मार रहा है। और उसे आंख खोलने का सब मन होता है कि देखे……कि अब तक गुरु नहीं आया। एक घंटा, दो घंटा, तीन घंटा, चार घंटा—उसने लिखा है कि छह घंटे!

और छह घंटे बाद गुरु आया और उसने कहा बेटे, तेरी प्रवेश—परीक्षा पूरी हो गई। तू भीतर आ, तू संकल्पवान युवक बनेगा। तेरे भीतर संकल्प है, तेरे भीतर विल है, तू जो चाहे कर सकता है। पांच—छह घंटे इस उम्र में आंख बंद करके बैठना बड़ी बात है। उसने उसे छाती से लगा लिया और उसने उसे कहा तू हैरान मत होना, वे बच्चे तुझे सताने नहीं.. सता नहीं रहे थे, वे बच्चे भेजे गए थे। उन्हें कहा गया था कि तुझे थोड़ा परेशान करेंगे ताकि तेरा आंख खोलने का खयाल आ जाए।

उस लामा ने लिखा है. उस वक्त तो मैं सोचता था मेरे साथ बड़ी कठोरता बरती जा रही है, लेकिन अब जीवन के अंत में मैं धन्यवाद से भरा हूं उन लोगों के प्रति जो मेरे प्रति कठोर थे। उन्होंने मेरे भीतर कुछ सोई हुई चीजें पैदा कर दीं, कोई सोया हुआ बल जग गया।

लेकिन हम उलटा कर रहे हैं—बच्चे को डांटना भी मत, मारना भी मत! और अभी तो सारी दुनिया में कार्पोरल पनिशमेंट बिलकुल बंद कर दिया गया है। बच्चे को कोई चोट नहीं पहुंचाई जा सकती, कोई शारीरिक दंड नहीं दिया जा सकता। यह निहायत बेवकूफी से भरी बात है, क्योंकि जिन बच्चों को किसी तरह का दंड नहीं दिया जा सकता—दंड अत्यंत प्रेमपूर्ण था, वह शत्रुता नहीं थी बच्चों के प्रति—क्योंकि उनके भीतर सोए हुए कुछ सेंटर्स उसी के अंतर्गत जागते थे। उनके भीतर रीढ़ खड़ी होती थी, मजबूत होती थी। उनके भीतर कोई बल पैदा होता था। उनके भीतर क्रोध भी जगता था और अभिमान भी जगता था और उनके भीतर कोई रीढ़ खड़ी होती थी।

हम बेरीढ़ के आदमी पैदा कर रहे हैं, जो जमीन पर सरक सकते हैं, लेकिन बाज पक्षियों की तरह आकाश में नहीं उड़ सकते। एक सरकता हुआ, रेंगता हुआ आदमी हम पैदा कर रहे हैं जिसके पास कोई रीढ़ नहीं। और हम सोचते हैं कि हम दया और प्रेम और नीति के अंतर्गत यह कर रहे हैं। और उसको भी हम यही सिखाते हैं कि क्रोध मत करना, उसको भी हम यही सिखाते हैं कि तेरे भीतर कोई तेजस्विता प्रकट न हो, तू बिलकुल शांत और ढीला—ढाला आदमी बनना, शिथिल।

इस आदमी के जीवन की कोई आत्मा नहीं हो सकती, इस आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा के लिए जैसी तीव्र सारे हृदय की भावनाएं होनी चाहिए, वे उसके भीतर कोई भी नहीं होने वाली हैं।

एक मुसलमान खलीफा था, उमर। एक शत्रु से बारह वर्षों से उसका युद्ध चलता था। बामुश्किल आखिरी लड़ाई में उसने शत्रु के घोड़े को मार डाला और उसकी छाती पर सवार हो गया, शत्रु के। उसने भाला उठाया और वह छाती में छेदने को था, तभी उस शत्रु ने उमर के ऊपर यूक दिया। उमर ने भाला अलग फेंक दिया, उठ कर खड़ा हो गया। वह शत्रु हैरान हुआ। उसने कहा कि उमर, बारह वर्षों के बाद ऐसा अवसर तुम्हें मिला था, इसे क्यों चूकते हो? उमर ने कहा. मैं तो सोचता था कि तू मेरे मुकाबले का दुश्मन है, लेकिन यूक कर तूने मेरे मुंह पर ऐसी नीचता प्रकट की है कि अब तुझे मारने का कोई सवाल नहीं रहा। तूने ऐसी मीननेस जाहिर की है, जो एक बहादुर का लक्षण नहीं है। मैं तो सोचता था कि तू मेरे मुकाबले का आदमी है, इसलिए बारह साल से लड़ाई चलती थी।

लेकिन जब भाला उठा कर मैं तेरे ऊपर मारने लगा, तूने मेरे ऊपर यूक दिया, जो एक बहादुर का लक्षण नहीं है। तो तुझे मार कर मारने का पाप लेने वाला मैं नहीं हूं— दुनिया क्या कहेगी कि कमजोर आदमी को मारा, जो थूकने की ताकत रखता था और कोई ताकत नहीं। इसलिए बात खत्म हो गई, अब तुझे मारने का पाप मैं लेने वाला नहीं हूं।

ये जो लोग थे, अदभुत लोग थे। दुनिया में अस्त्र—शस्त्रों और मशीनों की ईजाद ने आदमी के भीतर जो भी महत्वपूर्ण था, उस सबको नष्ट कर दिया। सीधी लड़ाइयों का अपना मूल्य था। मनुष्य के भीतर छिपी हुई चीजों को वे प्रकट कर देती थीं। आज एक सैनिक कोई सीधी लड़ाई नहीं लड़ता। हवाई जहाज में उड़ कर बम पटक देता है, उससे बहादुरी का कोई संबंध नहीं। उससे भीतर के गुणों का कोई वास्ता नहीं। एक मशीनगन पर बैठ कर बटन दबाता रहता है, उससे कोई वास्ता नहीं।

तो आदमी की जिंदगी में जो भी छिपा हुआ था, उसके जगने की सारी संभावना क्षीण हो गई है और तब आदमी इतना दीन—हीन, इतना दुर्बल दिखाई पड़ता है तो कोई आश्चर्य नहीं है! उसका ऑथेंटिक बींइग पैदा ही नहीं हो पाता। उसके भीतर सारे तत्व जुड़ कर खड़े नहीं हो पाते।

और हमारी शिक्षाएं सब हैरानी से भरने वाली हैं। मेरी दृष्टि में मनुष्य के भीतर के सारे गुणों का तीव्रतम, चरम विकास होना चाहिए, पहली बात। और चरम विकास हो तो ही इस चरम बिंदु पर ट्रांसफामेंशन हो सकता है। सब परिवर्तन चरम बिंदुओं पर होते हैं, नीचे कोई परिवर्तन नहीं होते। पानी को हम गर्म करते हैं तो पानी कुनकुना होकर भाप नहीं बनता। कुनकुना पानी भी पानी ही होता है, लेकिन सौ डिग्री पर जब चरम, अपनी गर्मी को उपलब्ध होता है तो एक क्रांति होती है। पानी भाप बनना शुरू हो जाता है। पानी सौ डिग्री पर भाप बनता है, और उसके पहले भाप नहीं बनता; कुनकुना पानी भाप नहीं बनता है।

हम सब कुनकुने आदमी हैं, हमारी जिंदगी में भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकते। हमारी जिंदगी में भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकते, क्योंकि एक विशिष्ट डिग्री तक हमारे चित्त की, हमारे हृदय की सारी शक्तियां विकसित होनी चाहिए, तो उनमें क्रांति हो सकती है, तो उनमें परिवर्तन हो सकता है। क्रोध की एक ठीक—ठीक तेजस्विता उपलब्ध हो तो ही क्षमा में परिवर्तन हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता।

लेकिन हम तो क्रोध के शत्रु है, हम तो लोभ के शत्रु हैं, हम तो राग के शत्रु हैं, तो हम कुनकुने आदमी हो जाते हैं, ल्‍यूकवॉर्म आदमी हो जाते हैं। बस कुनकुना—कुनकुनी जिंदगी रहती है, उसमें कोई क्रांति कभी नहीं हो पाती। और इस कुनकुनेपन का इतना घातक मनुष्य के ऊपर असर हुआ है जिसका कोई हिसाब नहीं है।

मेरी दृष्टि में, इसलिए पहली बात ध्यान में लेने की है कि हमारे व्यक्तित्व के, हमारे हृदय के सारे गुण ठीक से विकसित हों और ठीक से विकसित क्रोध भी एक अपना सौंदर्य रखता है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। ठीक से विकसित क्रोध का भी अपना सौंदर्य है, ठीक से विकसित क्रोध का भी व्यक्तित्व में अपना तेज है, अपनी ऊर्जा है, अपना अर्थ है, अपना मीनिंग है। वह व्यक्तित्व को अपने ढंग का सहयोग देता है, अपना कंट्रीब्यूशन करता है, व्यक्तित्व को अपना दान देता है। हृदय की जितनी भावनाएं हैं, वे सब तीव्रतम रूप से विकसित होनी चाहिए।

और, पहली बात, विध्वंस नहीं, उनका विकास।

दूसरी क्या बात है! दूसरी बात है, दमन नहीं, दर्शन। क्योंकि जितना हम हृदय की भावनाओं का दमन करते हैं उतना ही हृदय हमारा अचेतन और अनकांशस होता चला जाता है।

जिस चीज को हम दबाते हैं वह हमारी आंख से ओझल और अंधेरे में सरक जाती है। हृदय की सारी शक्तियों का स्पष्ट दर्शन होना चाहिए। अगर आपको क्रोध आ जाए तो राम—राम जप कर उसको दबाने की कोशिश मत करिए। क्रोध आ जाए तो एकांत कमरे में बैठ कर द्वार बंद करके क्रोध पर ध्यान करिए। उस क्रोध को पूरी तरह देखिए कि यह क्रोध क्या है? यह क्रोध की शक्ति क्या है? मेरे भीतर यह क्रोध कहां से पैदा होता है, क्यों पैदा होता है, किस भांति मेरे चित्त को घेर लेता है और मुझे प्रभावित कर देता है?

एकांत में मेडिटेशन करिए क्रोध पर, ध्यान करिए क्रोध पर। क्रोध को पूरा देखिए, समझिए, पहचानिए— कहां से पैदा होता है? क्यों पैदा होता है? तो आप धीरे— धीरे क्रोध के मालिक हो जाएंगे। और जो आदमी अपने क्रोध का मालिक हो जाता है, उसके हाथ में एक बड़ी शक्ति आ गई, उसके हाथ में एक बड़ा बल आ गया। वह आदमी बलशाली हो गया, वह आदमी आत्मबली हो गया।

तो क्रोध से लड़ने का उतना सवाल नहीं है, जितना क्रोध को जानने का सवाल है। क्योंकि स्मरण रखें, ज्ञान से बड़ी कोई भी शक्ति नहीं है और अपनी ही शक्तियों से लड़ने से बड़ी कोई मूर्खता नहीं है। क्योंकि जो अपनी ही शक्तियों से लड़ता है वह इसी तरह की गलती कर रहा है, जैसे कोई आदमी अपने ही दोनों हाथों को लड़ाने लगे। तो दोनों हाथ लड़ेंगे, कोई हाथ जीत नहीं सकेगा कभी भी, क्योंकि दोनों हाथ मेरे ही हैं, दोनों हाथों के पीछे से मैं ही लड़ रहा हूं। दोनों हाथों में मेरी ही शक्ति प्रवाहित हो रही है, तो दोनों हाथों की लड़ाई में मेरी ही शक्ति नष्ट हो रही है। कोई जीत नहीं सकता। दोनों हाथों में न तो बायां जीतेगा, न तो दायां जीतेगा। एक बात तय है कि दोनों हाथों की लड़ाई में मैं हार जाऊंगा। मेरी सारी शक्ति व्यर्थ और अपव्यय हो जाएगी।

जब आप क्रोध से लड़ते हैं तो क्रोध में जो शक्ति है वह किसकी है? वह आपकी ही है। क्रोध में जो शक्ति प्रकट हो रही है वह आपकी है, जो लड़ रहा है वह आप हैं। आप अपने को ही तोड़ कर लड़ेंगे तो आप खंडित से खंडित होते चले जाएंगे, डिसइंटीग्रेशन इसका परिणाम होगा, आप अखंड व्यक्ति नहीं रह जाएंगे। और अपने ही भीतर जो व्यक्ति अपने से ही लड़ता है, पराजय के अतिरिक्त उसके जीवन में कोई उपलब्धि कभी नहीं होती है। हो ही नहीं सकती, वह असभंव है। लडिए मत, जानिए अपनी शक्तियों को, पहचानिए, उनसे परिचित हो जाइए। इसलिए दूसरा सूत्र है दमन नहीं, दर्शन। सप्रेस मत करिए। जब भी, जो भी शक्ति भीतर उठती है—हम एक अपरिचित शक्तियों का समूह हैं। हम बहुत अनजान शक्तियों का केंद्र हैं, जिन शक्तियों का हमें कोई परिचय नहीं, कोई बोध नहीं। हजारों साल पहले भी आकाश में बिजली चमकती थी, आदमी डरता था, भयभीत होता था, हाथ जोड़ कर बैठ जाता था, कि भगवान आप नाराज हो गए हैं, यह क्या हो गया है, घबड़ाता था! बिजली जो थी वह भय का कारण थी। लेकिन आज हम जानते हैं, बिजली हमने बांध ली है, आज बिजली भय का कारण न रही, सेवक बन गई। आज घर—घर में उससे प्रकाश होता है, बीमार का इलाज होता है, मशीन चलती है। आदमी की सारी जिंदगी आज उससे प्रभावित है, उससे संचालित है, उसकी मालिक हो गई। लेकिन हजारों साल तक आदमी सिर्फ डरता था, क्योंकि बिजली को जानता नहीं था कि बिजली क्या है। एक बार जान लिया कि क्या है, तो हम उसके मालिक हो गए।

ज्ञान मालिक बना देता है। हमारे भीतर भी बहुत बिजलियों से भी बड़ी ताकतें प्रज्वलित हैं, चमकती हैं। क्रोध चमकता है, घृणा चमकती है, प्रेम चमकता है, हम घबड़ा जाते हैं, डर जाते हैं कि यह क्या हो रहा है, क्योंकि इन सारी शक्तियों को हम जानते नहीं कि ये क्या हैं!

अपनी जिंदगी को एक प्रयोगशाला बनाइए और भीतर की उन सारी ताकतों को जानने, निरीक्षण करने, पहचानने के प्रयास में संलग्न हो जाइए। भूल कर भी दमन तो करिए मत, भूल कर भयभीत मत होइए, लेकिन जो भी भीतर है उसे जानने की फिकर करिए। क्रोध आ जाए तो सौभाग्य समझिए और जो आदमी क्रोध में आपको ला दे उसको धन्यवाद दीजिए कि उसने एक मौका दिया है। आपके भीतर एक ताकत जग गई है, अब आप उसको देख सकेंगे। और एकांत में उस ताकत को शांति से देखिए, पहचानिए, खोजिए—वह क्या है?

जितना आपका यह जानना बढ़ेगा, जितनी आपकी यह अंडरस्टैंडिंग गहरी होगी, उतने ही आप अपने क्रोध के मालिक हो जाएंगे, उतना ही आप पाएंगे, वह आपके हाथ में खेलने वाली एक ताकत हो गई है। और जिस दिन आप क्रोध के मालिक हैं उस दिन आप क्रोध को परिवर्तित कर सकते हैं, उसको बदल सकते हैं। जिसके हम मालिक हैं उसे हम बदल सकते हैं, जिसके हम मालिक नहीं उसे हम बदलेंगे कैसे? और जिससे आप लड़ते हैं, ध्यान रखें, उसके आप मालिक कभी भी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि शत्रु का मालिक होना असंभव है, केवल मित्र का ही मालिक हुआ जा सकता है, और अपने ही भीतर की ताकतो के अगर आप शत्रु हो गए, तो आप कभी उनके मालिक नहीं हो सकते हैं।

प्रेम के अतिरिक्त कोई विजय नहीं है। तो यह जो भीतर सारी शक्तियों का अनंत भंडार है— न तो घबडाइए इससे, न इसकी निंदा करिए, इसको पहचानने चलिए कि क्या—क्या छिपा है आदमी के भीतर?

आदमी के भीतर इतना छिपा है जिसका कोई हिसाब नहीं। हम अभी आदमी की शुरुआत भी नहीं हैं। दस—पच्चीस हजार साल में शायद जो आदमी होगा, हम उससे उतने ही फासले पर हो जाएंगे जैसे बंदर हमसे फासले पर हो गए हैं। वह बिलकुल नई जाति हो सकती है, क्योंकि आदमी के भीतर कितनी शक्तियां हैं उनका अभी हमें कोई बोध नहीं है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क का अभी कोई आधे से ज्यादा हिस्सा बिलकुल बेकार पड़ा हुआ है, उसका कोई उपयोग ही नहीं हो रहा है। मस्तिष्क का थोड़ा सा हिस्सा काम कर रहा है, बाकी सारा हिस्सा बंद पड़ा हुआ है। यह जो बाकी हिस्सा है, यह व्यर्थ तो नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति में कुछ भी व्यर्थ नहीं है। हो सकता है आदमी का अनुभव, आदमी का ज्ञान विकसित हो, तो यह बंद पड़ा हुआ हिस्सा भी सक्रिय हो जाए और काम करे। और तब मनुष्य और क्या जान सके, उसके लिए हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं।

एक आदमी अंधा है तो उसके लिए प्रकाश जैसी चीज दुनिया में नहीं रह जाती फिर। प्रकाश है ही नहीं उसके लिए। आंख नहीं है तो प्रकाश नहीं है। जिन प्राणियों के पास आंख नहीं है, उन्हें पता भी नहीं हो सकता है कि प्रकाश है भी जगत में। उन्हें कल्पना भी नहीं हो सकती, वे सपना भी नहीं देख सकते कि प्रकाश भी है जगत में। हमारे पास पांच इंद्रियां हैं। कौन कह सकता है कि छठवी इंद्रिय होती तो हम कुछ और चीजें जानते जो कि जगत में हों, कौन कह सकता है कि सात इंद्रियां होतीं तो हम और भी चीजें जानते जो कि जगत में हों! और कौन कह सकता है कि इंद्रियों की कितनी सीमा है, वे कितनी हो सकती हैं!

हम जो जानते हैं वह अत्यल्प है, और हम जो जीते हैं वह उससे भी अत्यल्प है। तो हमारे भीतर हम जितना जानेंगे, जितना भीतर प्रवेश करेंगे, जितने परिचित होंगे, उतना ही ज्यादा हमारी जीवन—शक्ति विकसित होती है और हमारी आत्मा सघन होती है।

दूसरा सूत्र ध्यान में लेने जैसा है कि हम अपनी किसी भी शक्ति का दमन न करें, बल्कि उसे जानें, पहचानें, खोजें, देखें। और इसी के साथ एक हैरानी का अनुभव आपको होगा कि अगर आप क्रोध को जानने गए, अगर आपने बैठ कर शांति से क्रोध को देखने और दर्शन का प्रयास किया, तो आप एक हैरानी से भर जाएंगे कि जैसा आप दर्शन करने को प्रवृत्त होंगे, वैसा ही क्रोध विलीन होगा। जैसे आप क्रोध को निरीक्षण करेंगे, वैसा ही क्रोध तिरोहित हो जाएगा। तब आपको एक बात दिखाई पड़ेगी कि क्रोध आपको पकड़ता है मूर्च्छा में। जब आप होश से भरते हैं तो क्रोध विलीन होता है। अगर आपके मन में कामुक भावना उठी है और आप उसका निरीक्षण करने चले गए हैं तो आप पाएंगे वह विसर्जित हो गई है। तब आप पाएंगे कि काम पैदा होता है मूर्च्छा में और निरीक्षण करने से विलीन हो जाता है।

तो आपके हाथ में एक अदभुत सूत्र उपलब्ध हो जाएगा। वह यह कि मूर्च्छा के अतिरिक्त क्रोध और काम और लोभ का मनुष्य के ऊपर कोई बल नहीं है। और जैसे ही वह निरीक्षण करता है, होश से भरता है, अवेअरनेस से भरता है, वैसे ही क्रोध विलीन हो जाता है।

एक मेरे मित्र थे, उनको बहुत क्रोध की बीमारी थी। वे मुझसे कहे कि मैं तो बहुत परेशान हो गया हूं और अब मेरे वश के बाहर है यह बात। आप ही कुछ रास्ता मुझे बता दें। मुझे कुछ भी न करना पड़े, क्योंकि मैं तो हैरान हो गया हूं। मुझे अब आशा नहीं रही कि मैं कुछ कर सकता हूं इस क्रोध के बाहर हो सकता हूं।

मैंने उन्हें एक कागज पर लिख कर दे दिया एक छोटा सा वचन कि ‘अब मुझे क्रोध आ रहा है।’ और मैंने कहा इस कागज को अपनी खीसे में रखें और जब भी आपको क्रोध आए, निकाल कर कृपा करके इसको पढ़ लें और फिर वापस रख दें। मैंने कहा इतना तो आप कर ही सकते हैं। इससे ज्यादा तो……यह तो इतना अत्यल्प है कि इससे कम और करने के लिए क्या आपसे प्रार्थना की जाए। इस कागज को पढ़ लिया करें और वापस रख लिया करें। उन्होंने कहा ही, यह मैं कोशिश करूंगा।

कोई दो—तीन महीने बाद मुझे मिले। मैंने कहा क्या हिसाब? उन्होंने कहा मैं तो हैरान हो गया। इस कागज ने तो मंत्र का काम किया। क्रोध आता और मैं इसको निकालता……निकालता हूं तभी मेरे हाथ—पैर ढीले हो जाते। हाथ खीसे में डाला और मुझे खयाल आया कि क्रोध आ रहा है। कुछ, कुछ बात ढीली हो जाती है, भीतर से वह पकड़ चली जाती है, वह जो ग्रिप है क्रोध की, वह जो प्राणों को पकड़ लेने की बात है पंजे में, वह बात एकदम ढीली पड़ जाती है। हाथ खीसे में गया और उधर हाथ ढीला पड़ा। और अब तो पढ़ने की भी जरूरत नहीं पड़ती, क्रोध आने का खयाल आता है कि वह भीतर खीसे में पड़ी चिट दिखाई पड़ने लगती है।

वह मुझसे पूछने लगे कि इस चिट का ऐसा कैसे परिणाम हुआ है, इसका क्या रहस्य है? मैंने कहा इसमें कोई भी रहस्य नहीं है, सीधी सी बात है। चित्त की जो भी विकृतियां हैं, चित्त की जो भी अराजकताएं हैं, चित्त का जो भी असंतुलन है वह मूर्च्छा में ही पकड़ता है, होश आया कि वह विलीन हो जाता है।

तो निरीक्षण के दो फल होंगे ज्ञान विकसित होगा इन सारी शक्तियों का, और जान मालिक बनाता है। और दूसरा परिणाम होगा कि ये शक्तियां जिस रूप में अभी पकड़ती हैं पागल की तरह, उस रूप में इनके पकड़ने की सामर्थ्य क्षीण हो जाएगी, शिथिल हो जाएगी। और धीरे— धीरे आप पाएंगे कि पहले तो क्रोध आ जाता है तब आप निरीक्षण करते हैं, फिर धीरे— धीरे आप पाएंगे, क्रोध आता है और साथ ही निरीक्षण आ जाता है। फिर धीरे— धीरे आप पाएंगे, क्रोध आने को होता है और निरीक्षण आ जाता है। और जिस दिन क्रोध के पहले निरीक्षण का बोध आ जाता है उस दिन क्रोध के पैदा होने की कोई संभावना नहीं रह जाती, कोई विकल्प नहीं रह जाता।

पश्चात्ताप मूल्य का नहीं है, पूर्व—बोध मूल्य का है। क्योंकि पश्चात्ताप होता है पीछे। पीछे कुछ भी नहीं किया जा सकता, पीछे रोना— धोना बिलकुल ही व्यर्थ है, क्योंकि जो हो चुका उसे अब न करना असंभव है, जो हो चुका उसे अन—डन करना असंभव है। क्योंकि अतीत की तरफ लौटने की कोई गुंजाइश नहीं, कोई मार्ग नहीं, कोई द्वार नहीं। लेकिन जो नहीं हुआ, उसे बदला जा सकता है। पश्चात्ताप का मतलब ही यह है कि पीछे जो जलन पकड़ लेती है। वह उसका कोई मतलब नहीं है, वह बिलकुल नासमझी से भरा हुआ है। क्रोध किया वह गलती हो गई और फिर पश्चात्ताप किया वह दोहरी गलती हो रही है। वह व्यर्थ ही आप परेशान हो रहे हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। पूर्व—बोध, पूर्व—बोध तब विकसित होगा जब हम निरीक्षण करें, धीरे— धीरे चित्त की सारी वृत्तियों का निरीक्षण करें।

दूसरा सूत्र है दर्शन, दमन नहीं।

र तीसरा सूत्र है रूपांतरण, ट्रांसफामेंशन। चित्त की प्रत्येक वृत्ति रूपांतरित होती है, हो सकती है। हर चीज के अनेक रूप हैं, हर चीज अपने से विपरीत रूपों में भी परिवर्तित हो सकती है। ऐसी कोई भी वृत्ति नहीं है, ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है जो शुभ की दिशा में, मंगल की दिशा में प्रवाहित न की जा सके। और स्मरण रखें कि जो चीज अशुभ बन सकती है, वह अनिवार्यरूपेण शुभ बन सकती है। जो चीज अमंगल बन सकती है, वह अनिवार्यरूपेण मंगल बन सकती है। मंगल और अमंगल, शुभ और अशुभ दिशाएं हैं। सिर्फ रूपांतरित, सिर्फ दिशा परिवर्तित हो और सारी चीज दूसरी हो जाती है।

एक आदमी दिल्ली के पास से भागा चला जा रहा था, और उसने किसी को पूछा कि दिल्ली कितनी दूर है? उस आदमी ने कहा अगर आप सीधे ही भागे चले जाते हैं तो सारी पृथ्वी का चक्कर लगाएंगे तब दिल्ली उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि दिल्ली की तरफ आपकी पीठ है। और अगर आप पीछे लौट पड़ते हैं तो दिल्ली से ज्यादा निकट और कोई भी गांव नहीं है। दिल्ली केवल लौटने, पीछे देखने की बात है और आप दिल्ली पहुंच जाते हैं। वह आदमी भागे जा रहा है जिस दिशा में, उस दिशा में पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करे तो ही पहुंच सकता है। और लौट पड़े तो पहुंचा ही हुआ है, अभी और यहीं पहुंच सकता है।

हम जिन दिशाओं में बहे जाते हैं उन दिशाओं में ही बहते रहें तो हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते, पृथ्वी की परिक्रमा लेकर भी नहीं पहुंच सकते। क्योंकि पृथ्वी छोटी है और चित्त बड़ा है। पृथ्वी की परिक्रमा एक आदमी पूरी भी कर ले, लेकिन चित्त की परिक्रमा असंभव है, वह बहुत बड़ा है, बहुत विराट है, बहुत अनंत है। पृथ्वी की परिक्रमा पूरी भी हो जाएगी एक दिन, वह आदमी वापस दिल्ली आ सकता है, लेकिन चित्त और भी बड़ा है पृथ्वी से, उसकी पूरी परिक्रमा बहुत लंबी है।

तो फिर लौटने का बोध, दिशा परिवर्तन का, वापस लौटने का, रूपांतरण का बोध—तीसरी बात ध्यान में रखने की है।

अभी हम जैसे भी बहे जा रहे हैं, हम गलत बहे जा रहे हैं। तो गलत का क्या सबूत है? गलत का सबूत है कि हम जितने बहते हैं उतने खाली होते हैं, जितने बहते हैं उतने दुखी होते हैं, जितने बहते हैं उतने अशांत होते हैं, जितने बहते हैं उतने अंधकार से भरते हैं, तो निश्चित ही हम गलत बहे जा रहे हैं।

आनंद एकमात्र कसौटी है जीवन की। जिस जीवन में आप बहे जा रहे हैं अगर वहां आनंद उपलब्ध नहीं होता है, तो जानना चाहिए आप गलत बहे जा रहे हैं। दुख गलत होने का प्रमाण है और आनंद ठीक होने का प्रमाण है, इसके अतिरिक्त कोई कसौटियां नहीं हैं। न किसी शास्त्र में खोजने की जरूरत है, न किसी गुरु से पूछने की जरूरत है। कसने की जरूरत है कि मैं जहां बहा जा रहा हूं वहां मुझे आनंद बढ़ता जा रहा है, गहरा होता जा रहा है, तो मैं ठीक जा रहा हूं। और अगर दुख बढ़ता जा रहा है, पीड़ा बढ़ती जा रही है, चिंता बढ़ती जा रही है, तो मैं गलत जा रहा हूं।

इसमें किसी को मान लेने का भी सवाल नहीं है। अपनी जिंदगी में खोज कर लेने का सवाल है कि हम रोज दुख की तरफ जाते हैं या रोज आनंद की तरफ जाते हैं। अगर आप अपने से पूछेंगे तो कठिनाई नहीं होगी। बूढ़े भी कहते हैं कि हमारा बचपन बहुत आनंदित था। इसका मतलब क्या हुआ कि वे गलत बह गए? क्योंकि बचपन तो शुरुआत थी जिंदगी की, और वे आनंदित थे और अब वे दुखी हैं। शुरुआत आनंद थी और अंत दुख ला रहा है तो जीवन गलत बहा। होना उलटा चाहिए था। होना यह चाहिए था कि बचपन में जितना आनंद था वह रोज—रोज बढ़ता चला जाता। बुढ़ापे में आदमी कहता कि बचपन सबसे दुख की स्थिति थी, क्योंकि वह तो जीवन का प्रारंभ था, वह तो जीवन की पहली कक्षा थी।

अगर एक विद्यार्थी विश्वविद्यालय में पढ़ने जाए और कहे कि पहली कक्षा में ज्यादा ज्ञान था और अब धीरे— धीरे ज्ञान कम होता जा रहा है तो हम कहेंगे कि तुम पढ़ रहे हो, तुम ज्ञान की तरफ बढ़ रहे हो? हद हैरानी की बात है! पहली कक्षा में अज्ञान ज्यादा था यह समझ में आने वाली बात थी, ज्ञान कम था यह समझ में आने वाली बात है, और अब ज्ञान बढ़ना था, अज्ञान कम होना था।

जीवन की पहली कक्षा में लोग कहते हैं कि बहुत सुख था। कवि गीत गाते हैं कि बचपन बड़ा आनंदपूर्ण था। पागल होंगे ये कवि। क्योंकि अगर बचपन आनंदपूर्ण था तो जिंदगी तुमने गवाई या जिंदगी उपलब्ध की! तो अच्छा था कि तुम बचपन में मर जाते तो तुम सुखी मर जाते। अब तुम व्यर्थ ही दुखी भरोगे। तो धन्यभागी हैं वे जो बचपन में मर गए।

जो आदमी जितना जिंदा रह रहा है उतना आनंद बढ़ना चाहिए, लेकिन हमारा आनंद घटता है। वे कवि गलती नहीं कहते, वे जीवन के अनुभव की बात कह रहे हैं बेचारे! ठीक ही कह रहे हैं। हमारा आनंद घटता ही चला जाता है। रोज—रोज हमारा सब घटता चला जाता है, रोज बढ़ना था। तो हम कुछ गलत जाते हैं। हमारी जीवन—दिशा कुछ भूल भरे मार्गों पर प्रवाहित होती है। हमारी ऊर्जा कुछ गलत प्रवाहित होती है। इसकी निरंतर खोज—बीन, इसका परीक्षण, इसकी कसौटी मन में साफ होनी चाहिए। और अगर आपको साफ हो जाए कसौटी और खोज स्पष्ट हो जाए कि मैं गलत बह रहा हूं र तो ठीक बहने के लिए दुनिया में कोई आपको बाधा नहीं दे रहा है सिवाय आपके। अतिरिक्त आपके इस जगत में आपको ठीक बहने के लिए कोई भी बाधा नहीं दे रहा है।

दो फकीर एक संध्या अपने झोपड़े पर पहुंचे। वे चार महीने से बाहर थे और अब वर्षा आ गई थी तो अपने झोपड़े पर वापस लौटे थे। लेकिन झोपड़े के करीब आकर, जो आगे युवा फकीर था, वह एकदम क्रोध से भर गया और दुखी हो गया। वर्षा की हवाओं ने आधे झोपड़े को उड़ा दिया था, आधा ही झोपड़ा बचा था। वे चार महीने भटक कर आए थे इस आशा में कि वर्षा में अपने झोपड़े में विश्राम कर सकेंगे, पानी से बच सकेंगे, यह तो मुश्किल हो गई। झोपड़ा आधा टूटा हुआ पड़ा था, आधा छप्पर उड़ा हुआ था।

उस युवा संन्यासी ने लौट कर अपने बूढ़े साथी को कहा कि यह तो हद हो गई। इन्हीं बातों से तो भगवान पर शक आ जाता है, संदेह हो जाता है। महल खड़े हैं पापियों के नगर में, उनका कुछ बाल बांका नहीं हुआ। हम गरीबों की झोपड़ी, जो दिन—रात उसी की प्रार्थना में समय बिताते हैं, वह आधी छप्पर टूट गई। इसीलिए मुझे शक हो जाता है कि भगवान है भी! यह प्रार्थना है भी! क्या हम सब गलती में पड़े हैं, हम पागलपन में पड़े हैं? हो सकता है पाप ही असली सचाई हो, क्योंकि पाप के महल खड़े रह जाते हैं और प्रार्थना करने वालों के झोपड़े उड़ जाते हैं।

वह क्रोध से भर गया और निंदा से भर गया और उसे अपनी सारी प्रार्थनाएं व्यर्थ मालूम पड़ी। लेकिन वह जो का साथी था, वह हाथ आकाश की तरफ जोड़ कर खड़ा हो गया और उसकी आंखों से आनंद के आंसू बहने लगे। वह युवक तो हैरान हुआ! उसने कहा क्या करते हैं आप? उस बूढ़े ने कहा मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूं क्योंकि जरूर ही… आंधियों का क्या भरोसा था, पूरा झोपड़ा भी उड़ा कर ले जा सकती थीं। भगवान ने ही बीच में कोई बाधा दी होगी, इसलिए आधा छप्पर बचा। नहीं तो आंधियों का क्या भरोसा था, पूरा छप्पर भी उड़ सकता था। हम गरीबों की भी उसे फिकर है और खयाल है, तो उसे धन्यवाद दे दूं। हमारी प्रार्थनाएं सुनी गई हैं, हमारी प्रार्थनाएं व्यर्थ नहीं गईं। नहीं तो आधा छप्पर बचना मुश्किल था।

फिर वे रात दोनों सोए। सोच ही सकते हैं आप, दोनों अलग—अलग ढंग से सोए। क्योंकि जो क्रोध और गुस्से से भरा था और जिसकी सारी प्रार्थनाएं व्यर्थ हो गई थीं, वह रात भर करवट बदलता रहा और रात भर उसके मन में न मालूम कैसे—कैसे दुखस्वप्न चलते रहे, चिंताएं चलती रहीं। वह चिंतित था। वर्षा ऊपर खड़ी थी, बादल आकाश में घिर गए थे, आधा छप्पर उड़ा हुआ था, आकाश दिखाई पड़ रहा था। कल वर्षा शुरू होगी, फिर क्या होगा?

दूसरा बहुत गहरी नींद सोया, क्योंकि जिसके प्राण धन्यवाद से भरे हैं और ग्रेटिटयूड़ से और कृतज्ञता से उसकी निद्रा जैसी सुखद निद्रा और किसकी हो सकती है! वह सुबह उठा और नाचने लगा और उसने एक गीत गाया और उस गीत में उसने कहा कि हे परमात्मा! हमें पता भी न था कि आधे झोपड़े का इतना आनंद हो सकता है। अगर हमें पहले से पता होता तो हम तेरी हवाओं को कष्ट भी न देते, हम खुद ही आधा छप्पर अलग कर देते। ऐसी आनंददायी नींद तो मैं कभी सोया ही नहीं। आधा छप्पर नहीं था, तो जब भी रात आंख खुली तो तेरे आकाश के तारे भी दिखाई पड़े, तेरे घिरते हुए बादल भी दिखाई पड़े। अब तो बड़ा आनंद होगा, वर्षा आने को है, कल से पानी पड़ेगा, हम आधे छप्पर में सोए भी रहेंगे और रात तेरी बूंदों की आवाज, तेरी बूंदों का संगीत भी हमारे पास ही पड़ता रहेगा। हम पागल रहे अब तक। हमने कई वर्षाएं ऐसे ही पूरे छप्पर के भीतर छिपे हुए बिता दीं। हमें पता भी न था कि आधे छप्पर का भी कोई आनंद हो सकता है। अगर हमें मालूम होता, हम तेरी आंधियों को तकलीफ भी न देते, हम खुद ही आधा छप्पर अलग कर देते।

उस दूसरे युवक ने पूछा कि मैं यह क्या सुन रहा हूं यह सब क्या बकवास है? यह क्या पागलपन है? यह तुम क्या कहते हो?

तो उस के ने कहा मैंने बहुत खोजा और मैंने यह अनुभव कर लिया कि जिस बात से दुख बढ़ता हो वह जीवन—दिशा गलत है और जिस बात से आनंद बढ़ता हो वह जीवन—दिशा सही है। मैंने भगवान को धन्यवाद दिया, मेरा आनंद बढ़ा। तुमने भगवान पर क्रोध किया तुम्हारा दुख बढ़ा। तुम रात बेचैन रहे, मैं रात शांति से सोया। अभी मैं गीत गा पा रहा हूं और तुम क्रोध से जले जा रहे हो। बहुत पहले मुझे समझ में आ गया कि जो आनंद बढ़ाता है वही जीवन—दिशा सही है। और मैंने अपनी सारी चेतना को उसी तरफ प्रवाहित किया है। मुझे पता नहीं भगवान है या नहीं, मुझे पता नहीं उसने हमारी प्रार्थनाएं सुनी या नहीं सुनीं। लेकिन सबूत है मेरे पास कि मैं आनंदित हूं और नाच रहा हूं और तुम रो रहे हो और क्रोधित हो और परेशान हो। मेरा आनंद, मैं जैसा जी रहा हूं र उसके सही होने का सबूत है। तुम्हारा दुख, तुम जैसे जी रहे हो, उसके गलत होने का सबूत है।

तीसरी बात है. निरंतर इस बात का परीक्षण कि किन दिशाओं से मेरा आनंद घनीभूत होता है। किसी से पूछने जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह रोज—रोज की जिंदगी में, रोज—रोज कसौटी हमारे पास है। आनंद की कसौटी है। जैसे पत्थर पर सोने को कसते हैं और जांच लेते हैं, क्या सही है और गलत है। और सुनार फेंक देता है जो गलत है उसे एक तरफ और जो सही है उसे तिजोरी में रख लेता है।

आनंद की कसौटी पर रोज—रोज कसते रहें, क्या है सही और क्या है गलत। जो गलत है वह फिक जाएगा, जो सही है उसकी संपदा धीरे— धीरे इकट्ठी हो जाती है।

ये तीन सूत्र सुबह के लिए। फिर रात्रि इस संबंध में कुछ और बात शेष होगी, तो वह आपसे बात की जा सकेगी।

अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।

थोड़े फासले पर एक—दूसरे से बैठ जाएंगे तो ठीक होगा। थोड़े फासले से, एक—दूसरे से कोई छूता हुआ न हो। दो बात समझ लें, शायद कुछ मित्र नये हों।

बहुत सीधी सी, सरल सी बात है जो करनी है। पर अक्सर ऐसा होता है कि जो सरल बातें होती हैं, वे ही करने में कठिन मालूम पड़ती हैं। क्योंकि हमें सरल बातें करने की कोई आदत ही नहीं है। कठिन बातें करने की तो हम सबको आदत है, लेकिन सरल बातें करने की कोई आदत नहीं है। यह बड़ी सरल सी और सीधी सी बात है कि हम थोड़ी देर के लिए शरीर को बिलकुल शिथिल और शांत छोड़ कर, आंखों को आहिस्ता से बंद करके बस बैठे रहेंगे, कुछ करेंगे नहीं। और फिर चुपचाप आस—पास जो आवाजें होंगी उनको सुनते रहेंगे—सिर्फ सुनते रहेंगे। और सिर्फ सुनना, जस्ट लिसनिंग, भीतर एक शांति को और गहराई को पैदा करना शुरू कर देती है।

जापान में तो ध्यान के लिए वे जो शब्द उपयोग करते हैं, वह शब्द भी बड़ा मजे का है। उस शब्द को वे कहते हैं झाझेन। और झाझेन का मतलब होता है जस्ट सिटिंग, डूइंग नथिंग। इतना ही मतलब होता है, कुछ नहीं करना और चुपचाप बैठे रहना। ध्यान के लिए जो शब्द है जापानी में वह है—झाझेन—कुछ नहीं करना, बस बैठे रहना। बड़ा अर्थपूर्ण है। कुछ भी नहीं करना है, चुपचाप बैठे रहना है।

आंखें बंद हैं, कान खुले हुए हैं तो कान सुनते रहेंगे, तो चुपचाप सुनते रहें। चुपचाप सुनते रहें, सुनते रहें और सुनते ही सुनते आप पाएंगे कि भीतर एक गहरी शांति और शून्य पैदा होना शुरू हो गया है। उसी शून्य में निरंतर गति करनी है— गहरे से गहरे, गहरे से गहरे। उसी शून्य के द्वार से किसी दिन उसके दर्शन हो जाते हैं जो पूर्ण है। शून्य के मार्ग से उसकी उपलब्धि हो जाती है जो पूर्ण है। और ऐसे शांत होते—होते, होते—होते, पक्षियों को सुनते—सुनते, बाहर की आवाजों को सुनते—सुनते एक दिन वह आवाज सुनाई पड़ने लगती है जो भीतर की आवाज है। तो चुपचाप बैठ कर हम सुनेंगे।

पहली बात, शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। आराम से, आंख आहिस्ता से बंद कर लें। आंख की पलक धीरे से छोड़ दें, कोई भार न पड़े आंख पर। आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ दें। बिलकुल शांत बैठे जाएं। सिर्फ बैठे हुए हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। फिर ये चारों तरफ पक्षी हैं और आवाजें हैं, इनको चुपचाप सुनते रहें। सुनें……चारों तरफ की आवाज को सुनते रहें। बस सुनते रहें और कुछ भी नहीं करना है। धीरे— धीरे भीतर कोई चीज शांत होती जाएगी, कोई चीज सेटल होती चली जाएगी। सुनते रहें, बस सुनते रहें, भीतर शांति उतरती आएगी। दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रहें। बिलकुल आराम से सुनते रहें……सुनते रहें……मन शांत होता जाता है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……सुनते रहें……मन शांत होता जाता है…।

सुनते रहें……मन शांत होता जा रहा है……मन बिलकुल शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है.. मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन एक गहरे सन्नाटे में उतर जाएगा।

एक—एक आवाज सुनते रहें… पक्षी बोल रहे हैं, सुनें……एक—एक आवाज सुनते रहें……चिड़िया गीत गा रही हैं, सुनें. मन शांत होता जा रहा है……।

आज सुबह कि बैठक समाप्‍त।


Filed under: साधना--पथ--(ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद, स्‍वामी कृष्‍ण प्रसाद

मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–13)

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वर्तमान क्षण की धन्‍यता—(प्रवचन—तैहरवां)

प्यारे ओशो!

भविष्यं नानुसन्धत्ते नातीत चिन्तयत्यसौ।

वर्तमान निमेष तु हसन्नेवानुनर्तते।।

‘भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिन्ता।

हंसते हुए वर्तमान में जीना।’ लगता है,

 योगवासिष्ठ का यह श्लोक आपकी देशना का संस्कृत अनुवाद है। इसे हमें फिर एक बार समझाने की कृपा करें।

हजानंद! मन या तो अतीत होता है—या भविष्य। वर्तमान में मन की कोई सत्ता नहीं। और मन ही संसार है? इसलिये वर्तमान में संसार की भी कोई सत्ता नहीं। और मन ही समय है; इसलिये वर्तमान में समय की भी कोई सत्ता नहीं।

अतीत का वस्तुत: कोई अस्तित्व तो नहीं है, सिर्फ स्मृतियां हैं। जैसे रेत पर छूटे हुए पग—चिह्न। सांप तो जा चुका—धूल पर पड़ी लकीर रह गई। ऐसे ही चित्त पर, जो बीत गया है, व्यतीत हो गया है उसकी छाप रह जाती है। उसी छाप में अधिकतर लोग जीते हैं। जो नहीं है उसमें जीयेंगे तो आनंद कैसे पायेंगे! प्यास तो है वास्तविक और पानी पीयेंगे स्मृतियों का! बुझेगी प्यास? धूप तो है वास्तविक और छाता लगायेंगे कल्पनाओं का! रुकेगी धूप उससे?

अतीत का कोई अस्तित्व नहीं है। अतीत जा चुका, मिट चुका—मगर हम जीते हैं अतीत में। और इसलिये हमारा जीवन व्यर्थ अर्थहीन, थोथा। इसलिये जीते तो हैं मगर जी नहीं पाते। जीते तो हैं मगर घिसटते हैं—नृत्य नहीं, संगीत नहीं, उत्सव नहीं।

और अतीत रोज बड़ा होता चला जाता है! चौबीस घन्टे फिर बीत गये—अतीत और बडा हो गया। चौबीस घन्टे और बीत गये अतीत और बडा हो गया। जैसे—जैसे अतीत बड़ा होता है, वैसे—वैसे हमारे सिर पर बोझ बड़ा होता है। इसलिये छोटे बच्चों की आंखों में जो निर्दोषता दिखाई पड़ती है, जो संतत्व दिखाई पड़ता है वह फिर बूढों की आंखों में खोजना मुश्किल हो जाता है। हजार तरह के झूठ इकट्ठे हो जाते हैं।

सारा अतीत ही झूठ है!

जीसस एक सुबह—सुबह झील पर रुके। सूरज अभी उगा नहीं। बस उगने को है। और एक मछुए ने जाल फेंका है। जीसस ने उस मछुए के कंधे पर हाथ रखा; मछुए ने लौटकर देखा। सूरज की पहली फूटती हुई किरणें पूरब से जीसस के चेहरे पर पडी। उस मछुए की आख जीसस की आख से मिली—और बात हो गई। बिना बात किये बात हो गयी, आख से आख की मुलाकात हो गयी। क्षणभर सन्नाटा रहा और जीसस ने कहा, ‘छोड़ यह जाल। पकड़ लीं तूने मछलियां बहुत। करेगा भी क्या मछलियां पकड़—पकड़कर? जीवन में कुछ और पकड़ना है या बस मछलियां ही पकड़ना है? इनकी दुर्गंध से अभी ऊबा नहीं? ‘छोड़ जाल। मेरे पीछे आ। मैं तुझे परम धन खोजने का सूत्र दूं। ऐसा जाल फेंकना सिखाऊं कि परमात्मा ही फंसे उस जाल में! उससे कम को क्या फांसना?’

मछुआ हिम्मतवर रहा होगा। पंडित होता, होशियार होता, बह्मण होता—हजार बातें निकालता—कि अभी कैसे चलूं! अभी तो अड़चनें हैं। पहले मां से तो जाकर आज्ञा ले आऊं! पहले पिता से तो पूछ लूं। पत्नी क्या कहेगी! बच्चों का क्या होगा? मगर जीसस की आंखों का जादू! जैसे सब भूल गयो! छोड़ दिया जाल उसने पानी में ही। खींचा भी नहीं पानी के बाहर! जीसस के पीछे हो लिया। वे दोनों गांव के बाहर निकलते ही थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उस मछुए को कहा, ‘पागल! तू कहां जा रहा है?

और इस पागल आदमी के साथ कहां जा रहा है? तेरे पिता की मृत्यु हो गयी! मैं तुझे खोजने झील पर गया, वहां इस घटना का पता चला कि एक पागल जो आसपास गांव के कई बार देखा गया है, उसने तेरे कंधे पर हाथ रखा और तू उसके पीछे चल पड़ा है! वापस चल। तेरे पिता का अंतिम संस्कार करना है या नहीं। उस युवक ने जीसस से कहा, ‘मुझे क्षमा करें। मैं जाकर अंतिम संस्कार कर आऊं। तीन दिन बाद लौट आऊंगा।’

जीसस ने उससे कुछ बातें कहीं, जो सोचना। पहली तो बात जीसस ने यह कही कि ‘एक पल का तो भरोसा नही है—कल का भरोसा कहां! और तू तीन दिन का वायदा करता है! आ सकेगा! तेरे पिता को पक्का पता था कि आज मर जायेंगे? तुझे ही पक्का पता होता, तो तू आज झील पर मछली पकड़ने न गया होता। तू कल भी जिंदा होगा? तीन दिन बाद भी तू आ सकेगा? यह भी मान लें कि तू जिंदा होगा, तो तीन दिन बाद यह साहस रह जायेगा, जो आज तुझमें जगा है?……….. यह जो किरण तुझमें आज फूटी है? और तीन दिन बाद तू आ भी जाये, यह भाव भी रह जाये, तो मैं बक्त? मैं भी बच जाऊं, यह भाव भी रह जाये, तीन दिन बाद तू आ भी जाये—तो हमारा फिर मिलन होगा? अनंत— अनंत काल में पहली बार हम मिले हैं! दुबारा का क्या भरोसा!’ उस युवक ने कहा, ‘बात तो आपकी ठीक है, जवाब तो मेरे पास नहीं। मगर मेरे पिता का अंतिम संस्कार भी तो करना है!’

जीसस ने कहा, ‘इसकी फिक्र छोड़। क्योंकि गांव में बहुत मुरदे हैं, वे मुरदे को दफना देंगे! गांव में कुछ मुरदों की कमी है? अब यही आदमी आया है, यह खुद ही मुरदा है। यह ही दफना देगा। मुरदे मुरदे को दफना देंगे। मुरदों को दफना लेने दे मुरदों को। फिर जो मर ही चुका, अब दफनाओ न दफनाओ; ऐसा दफनाओ वैसा दफनाओ, जमीन में गड़ाओ कि आग लगाओ—क्या फर्क पड़ता है! पंछी तो उड़ चुका। पींजडा पड़ा रह गया है। तू मेरे पीछे आ। यह अवसर खोने का नहीं है। पीछे की तरफ लौटकर मत देख, क्योंकि वही आदमी की बुनियादी भूल है।’

और हम सब पीछे लौटकर देखते हैं! हम पीछे से ही जीते हैं। हम हिसाब ही लगाते रहते हैं—यह हुआ, वह हुआ। काश, ऐसा ‘हो जाता, काश वैसा हो जाता!

फिर इस अतीत के उपद्रव से भविष्य का उपद्रव पैदा होता है। उपद्रव निस्संतान नहीं होते! उपद्रव संतति—नियमन नहीं मानते! उपद्रव भारतीय होते हैं। एक उपद्रव दस—पंद्रह बच्चे पैदा करता है; इससे कम नहीं।

मैंने सुना है, जनगणना करनेवाले अधिकारी ने एक द्वार पर दस्तक दी। और थोड़ा चौंका और थोड़ा हैरान हुआ। आख पर भरोसा भी न आया! गौर से पुन: देखा। लेकिन बात सच थी—भरोसा आये या न आये। जिस स्त्री ने दरवाजा खोला था, बिलकुल नग्न थी! चौंक गया। पूछा, ‘ आप नग्न क्यों हैं?’

उस स्त्री ने कहा, ‘चौंको मत। मैं न्धइडस्ट हूं! मैं दिगम्बरत्व में विश्वास करती हूं!’

वह आदमी समझदार था। सोचा—अपने को क्या लेना देना। इसकी यह जाने। जिस काम के लिये आया हूं वह मैं करूं और अपने रास्ते पर लग। उसे तो कुछ जानकारियां लेनी थीं जनगणना के लिये, सो उसने जरूरी प्रश्न पूछकर अपनी बही में लिखे। उन्हीं प्रश्नों में एक था : ‘ आपके कितने बच्चे हैं।’ सो उसने पूछा।

उस स्त्री ने कहा, ‘बाईस’!

फिर वह आदमी चौंका। उसने कहा, ‘बाई, क्या आप वाकई न्यूडिस्ट हैं या आपको कपडे पहनने की फुर्सत नहीं मिलती!’

ये जो उपद्रव हैं, इनकी बड़ी संतानें होती हैं। कहावत है कि मुसीबत अकेली नहीं आती; साथ में भीड़— भड़क्का लाती है! मुसीबत तो यूं समझो कि कुम्भ का मेला! एक क्या आयी—और आती होंगी। एक आयी तो यूं समझो कि बस खबर आयी।

कहते हैं : एक फूल खिल जाये, तो समझो कि बसंत आ गया। फूलों के संबंध में सच हो या न हो, मगर एक मुसीबत आ गयी, तो समझ लो कि अब मुसीबतों ही मुसीबतों के जाल फैल जानेवाले हैं।

सबसे बड़ी मुसीबत जो अतीत लाता है, वह है भविष्य। भविष्य तुम्हारे अतीत की ही छाया है। वह तुमने जो जीया है, उसमें से कुछ काट— छांटकर तुम भविष्य की कल्पना करते हो। जो प्रीतिकर नहीं था, उसे छांटते हो। जो प्रीतिकर था, उसे फैलाते हो, बढ़ाते हो, विस्तीर्ण करते हो।

भविष्य है क्या? भविष्य का तुम्हें पता तो नहीं है। जिसका पता हो, वह भविष्य नहीं। भविष्य तो अज्ञात है। लेकिन अतीत ज्ञात है। ज्ञात से अशात के संबंध में हम अनुमान लगाते हैं। और ज्ञात में से ही चुनाव करते हैं। सुखद को चुनते हैं, दुखद को छोड़ते हैं। ऐसे हम भविष्य के रंगीन सपने संजोते हैं। कांटे—कांटे अलग कर देते हैं; गुलाब—गुलाब बचा लेते हैं। हालांकि यह हमारी भाति है, क्योंकि कांटे और गुलाब साथ—साथ होते हैं। यह असंभव है कि तुम जो—जो गलत था, उसे छोड़ दो और जो—जो ठीक था, उसे बचा लो। गलत और ठीक संयुक्त था, जुड़ा था। आयेगा, तो साथ आयेगा। जायेगा तो साथ जायेगा। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू को बचा न सकोगे।

तो एक तो अतीत का बोझ; उसकी चट्टानें हमारी छाती पर रखी हैं। और फिर भविष्य का बोझ। अतीत का रोना, कि ऐसा क्यों न हुआ। और फिर जल्दी ही भविष्य के लिये रोओगे, क्योंकि वह भी नहीं होनेवाला है। न अतीत तुम्हारे मन के अनुकूल हुआ, न भविष्य तुम्हारे मन के अनुकूल होगा। इन दो पार्टी के बीच में आदमी पिसता है। और दोनों का ही कोई अस्तित्व नहीं है।

अतीत वह जो जा चुका—अब नहीं। और भविष्य वह, जो आया नहीं—अभी नहीं। दोनों के मध्य में छोटा सा बिंदु है अस्तित्व का। बस, बूंद की भांति है। अगर होश न रहा, तो चूक जाओगे।

यह सूत्र प्यारा है। यह संन्यास की परिभाषा है।

‘भविष्य नानुसन्धते—भविष्य का अनुसंधान न करो।’

जो नहीं है, उसके पीछे न दौड़ो। मगर साधारण आदमियों की तो बात छोड़ दो, जिनको तुम असाधारण कहते हो, जिनको तुम पूजते हो, वे भी जो नहीं हैं उसके पीछे दौड़ते हैं। राम भी स्वर्ण—मृगों के पीछे दौड़ते हैं! औरों की तो बात छोड़ दो। हाथ की सीता को गंवा बैठते हैं! इसमें कसूर रावण का कम है। रावण को नाहक दोष दिये जाते हो! अगर कहानी को गौर से देखो, तो रावण का कसूर ना के बराबर है। अगर कसूर है किसी का, तो राम का। स्वर्ण—मृग के पीछे जा रहे हैं! बुद्ध से बुद्ध आदमी को भी पता है कि मृग स्वर्ण के नहीं होते।

साधारण से साधारण आदमी कहता है कि सारा जग मृगमरीचिका है। देखते हो मजा! साधारण आदमी भी कहता है : जग मृगमरीचिका है। और राम सोने के मृग के पीछे चल पड़े! और क्या मृगमरीचिका होगी? इससे बड़ा और क्या भ्रमजाल होगा?

सीता को गंवा बैठे!

जब भी मैं राम, लक्ष्मण और सीता की तसवीर देखता हूं तो मुझे लगता है कि यह भविष्य, वर्तमान और अतीत की तसवीर है। राम हैं आगे, लक्ष्मण हैं पीछे, मध्य में हैं सीता। राम हैं अतीत—जो बीत गया, जो जा चुका, उसके पूजक। इसलिए तो दशरथ की मानकर चल पडे। न सोच किया, न विचार किया, न पूछा, न प्रश्न उठाया।

दशरथ की बात मानने योग्य थी ही नहीं। दशरथ की बात विद्रोह के योग्य थी। काश, राम ने विद्रोह किया होता, तो भारत की कथा और होती। तो भारत के जीवन का अर्थ और होता, इतिहास और होता। काश, राम ने विद्रोह किया होता, तो भारत इस तरह गुलामी में न जीता, इस तरह की पीड़ा में न जीता। लेकिन राम ने एक ऐसी बात को स्वीकृति दे दी, जो कि बुनियादी रूप से गलत थी। जिसमें कहीं भी कोई न्याय नहीं था। चौदह साल का वनवास अकारण!

दशरथ बूढ़े थे। बुढ़ापे में जो विवाह किया था, जो चौथी पत्नी थी, वह जवान! अकसर के पति जवान पत्नियों के चक्कर में होते हैं! के हैं—चक्कर में होना ही पडता है। अरे, जवानों को होना पड़ता है, तो को की तो बात ही क्या!

तो इस बुढ़ापे में जवान स्त्री ने जो कहा, वह मान लिया! यह भी अत्यंत मूर्च्छा की बात थी।

और राम हैं परंपरा के पूजक।’रघुकुल रीति सदा चलि आयी।’ वे तो रघुकुल की रीति—रीति और रिवाज, परंपरा——उसके पोषक हैं। तो अन्याय हो, तो भी चलेगा। अन्याय के संबंध में भी बगावत नहीं है, विद्रोह नहीं है। और जहां अन्याय को पूजनेवालों को पूजा जाता हो, फिर स्वभावत: उस देश का दुर्भाग्य सुनिश्चित है।

वे अतीत के प्रतीक हैं—राम।

लक्ष्मण भविष्य के लिये आतुर हैं। तुम्हें याद होगा : स्वयंवर जब सीता का रचा गया, तो लक्ष्मण उचक—उचक पड़ते हैं! उनको रोकना पड़ता है, बार—बार। वे धनुष तोड्ने को एकदम आतुर हो रहे हैं। वे इसकी फिक्र नहीं करते कि बडे भैया मौजूद्र हैं—इनका भी कुछ खयाल करें! ऋषिए—मुनि उनको रोकते है—कि रुको। इन ऋषि—मुनियों का काम भी खूब है! अरे, तोड लेने दो बेचारे को, तोड़ना है तो! मगर उनको रोकते हैं कि तू मत तोडना!

वे एकदम आगे के लिए आतुर हैं; भविष्योन्यूख हैं। जल्दबाजी में हैं।

राम हैं अतीत उन्‍मूख। और सीता है’ दोनों के मध्य में। और वह कोमल सी सीता—वहीं है वर्तमान।

इस सूत्र मै वर्तमान के लिए जो शब्द उपयोग हुआ है— वर्तमान निमेष—निमिष —मात्र! ‘निमिष’ शब्द कों समझना उपयोगी है। निमिष उस हिस्से को कहते हैं समय के, जिसको तोला —न जा सके र मापा न जा सके—सैकेंड नहीं, मिनट नहीं। निमिष का अर्थ होता है, जो —तुलना के बाहर है, इतना छोटा है! जैसे कि भौतिकशास्त्री कहते हैं कि परमाणु का जब विस्फोट करते हैं और इलेक्ट्रान हमारे हाथ लगते हैं, तो उनमें कोई वजन नहीं; वे तोले नहीं जा सकते। जो तोला नहीं जा सकता, उसको तो पदार्थ ही नहीं कहना चाहिये।

अंग्रेजी में शब्द है पदार्थ के लिए ‘मैटर’। मैटर शब्द बडा महत्वपूर्ण है। पदार्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण शब्द है। क्योंकि पदार्थ का तो अर्थ होता है—जिस पद में अर्थ हो।’मैटर’ बनता है ‘मीटर’ से। मीटर यानी जिससे तोला जाये, जो तुल जाये। मैटर का अर्थ होता है—जो तोला जा सकता है। लेकिन इलेक्ट्रान तो तोला नहीं जा सकता, मापा नहीं जा सकता—न तराजू पर, न इंच फिटों में; कोई उपाय नहीं है। इतना छोटा है, कि हमारे तोलने के साधन सब मोटे हो जाते हैं, सब स्थूल रह जाते हैं। वह हमारी तुलना के बाहर हो जाता है। ऐसे ही समय के उस अंतिम हिस्से को निमिष कहते हैं; जो तुलना के बाहर है, जो तोल के बाहर है; जिसकी कोई मात्रा नहीं होती; जो आया—और गया! जो आया नहीं, कि गया नहीं!

दो शिकारी, नये—नये, शिकार खेलने गये थे, दोनों बड़े तत्पर थे बिलकुल बंदूक लिये हुए और तभी एक खरगोश छलांग लगाया; एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में चला गया। दोनों बिलकुल तत्पर थे, लेकिन फिर भी चूक गये। एक ने दूसरे से पूछा कि ‘मामला क्या हुआ? मैं भी तैयार, तुम भी तैयार; बंदूक के घोड़ों पर हाथ रखे थे; हुआ क्या? बात क्या हुई?’

उस दूसरे शिकारी ने कहा, मैं कहूं का! जब खरगोश निकल गया, तब मुझे दिखाई पड़ा! इतनी तेजी से निकला कि जब निकल रहा था तब तो मैं चूक ही गया। जब निकल गया, तब मुझे याद आयी कि अरे! मगर तब तक तो देर हो चुकी थी! तब तो गोली चलाने का कोई अर्थ ही न था।

ऐसा निमिष है। तुम्हें जब दिखाई पड़ता है, तब तक जा ही चुका होता है। जैसे ही तुम्हें याद आती है—यह वर्तमान! गया। अतीत हो गया। पहचाना—कि अतीत हो गया। सिर्फ जीया जा सकता है—जाना नहीं जा सकता। या कि यूं कहो कि जीना ही जानने का एक मात्र उपाय है। क्योंकि तुमने अगर जानने की कोशिश की, तो अतीत हो जायेगा। या अगर जल्दबाजी की, तो भविष्य रहेगा। अगर जरा—सी देर की, तो अतीत हो जायेगा। और देर करनी ही पड़ेगी, क्योंकि मन में इतनी गति नहीं है।

यूं तो मैंने सुना है .बहुत कि मन की बहुत गति है, मगर वह जो वर्तमान का क्षण है—मन से भी बहुत तीव्र गति से जाता है। मन उसके सामने कुछ भी नहीं। बहुत पिछड़ जाता है।

यह सूत्र संन्यास की आध्गरशिला है।’ भविष्य नानुसन्धते………..।’ न तो भविष्य का अनुसंधान करना; दौड़ना मत भविष्य के पीछे। यह भविष्य बस, स्वर्ण—मृग है। मगर हम सब दौड़ रहे हैं भविष्य के पीछे। अलग—अलग स्वर्ण—मृग हैं। कोई धन के पीछे, कोई पद के पीछे, कोई मोक्ष के पीछे, कोई परमात्मा के पीछे—मगर भागे हुए हैं लोग! कोई ‘यहां’ नहीं है। सब की आख ‘वहां’ टिकी हैं। और होना है ‘यहां’ और आंखें हैं वहां! इसलिए तुम्हारे और तुम्हारी आख में ही तालमेल नहीं हो पाता; उन दोनों में ही टूट हो जाती है। चलते हो कहीं, देखते हो कहीं!

यूनान की बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक बहुत बड़ा ज्योतिषी रात तारों का अध्ययन करता हुआ एक कुंए में गिर पड़ा। कुंए पर कोई घाट न था, कोई पाट न था। और उसकी आंखें अटकी थीं दूर आकाश के तारों पर। तो गिर पड़ा कुंए में। जब गिर पडा, तब होश आया। चिल्लाया।

रात थी अंधेरी, रास्ता निर्जन, गांव पीछे छूट गया। वह तो खेत में एक झोपड़े में रात और कोई तो न था, एक बूढ़ी औरत सोयी थी। वह भी रखवाली के लिए थी। आवाज सुनी तो आयी। बामुश्किल उस वृद्धा ने रस्सी डालकर उस ज्योतिषी को बाहर निकाला।

ज्योतिषी ने उसे बहुत—बहुत धन्यवाद दिया, बहुत अनुग्रह किया और कहा कि ‘सुन, तुझे शायद पता भी न हो’ कि मैं यूनान का सब से बड़ा ज्योतिषी हूं। तारों के संबंध में और तारों के माध्यम से मनुष्य के भविष्य के संबंध में मेरी घोषणाएं कभी गलत नहीं हुईं। बड़े—बड़े सम्राट दूर—दूर से अपना भविष्य पूछने मेरे पास आते हैं। हजारों रुपया मेरी फीस है। लेकिन तेरा भविष्य मैं मुफ्त बता दूंगा, क्योंकि तूने मेरा जीवन बचाया।’

वह की स्त्री हंसने लगी। उसने कहा, ‘बेटा, तू फिक्र मत कर। मैं तुझे कष्ट न दूंगी।’

उसने कहा, ‘नहीं—नहीं। कष्ट की कोई बात नहीं। तू कल आ जाना। यह मेरा पता रहा। तो तू किसी से भी पूछ लेगी एथेंस में, तो कोई भी मेरे घर का पता बता देगा। बच्चा—बच्चा जानता है।’

‘पर’, उस बुढ़िया ने कहा, ‘मुझे आना नहीं बेटा। तुझसे क्या अपना भविष्य पूछूंगी! तुझे एक कदम आगे का कुंआ तो दिखाई पड़ता नहीं! तू मेरे संबंध में क्या बतायेगा! तुझे अपना भविष्य पता नहीं है कि आज कुंए में गिरना है; कि आज जरा सम्हलकर चलूं कि आज चलूं ही नहीं—कि घर में ही रहूं। तू मुझे क्या भविष्य बतायेगा!’

और कहानी अद्भुत है, क्योंकि उस ज्योतिषी को इससे इतनी चोट लगी और बात इतनी साफ हो गयी कि उसने ज्योतिषी का धंधा छोड़ दिया। बात तो सच थी।

ऐसा हुआ : जयपुर में मेरे पास एक ज्योतिषी को लोग ले आये। एक हजार एक रुपया उनकी फीस थी। उससे कम वे हाथ भी नहीं देखते थे। मुझसे बोले कि ‘ आपको मेरी फीस पता है?’

मैंने कहा, ‘जो भी फीस होगी………..।

उन्होंने कहा, ‘नहीं। मैं आपको बता दूं। एक हजार एक।’

मैंने कहा, ‘तुम फिक्र छोड़ो। मैं एक हजार दो दूंगा! अब तुम आ ही गये हो; इतना कष्ट किये, तो खाली हाथ जाना उचित नहीं। तुम मजे से मेरे हाथ का अध्ययन करो।’

कुछ बातें यहां—वहां की उन्होंने कीं, जो कि बंधी हुई बातें हैं, जो कि ज्योतिषी सभी को कहते हैं, जो कि सभी के संबंध में सही होती हैं। थोड़ा बहुत हेर फेर करना पड़ता है। और बातें इस ढंग से कहनी होती हैं कि उनमें हेर फेर करने की सुविधा होती है; गोलमाल करनी होती है।

फिर चलने का वक्त आया, तो वे राह देखें कि उनकी फीस मिले! मैंने कहा, ‘अब आप जाइये भी। मैं कुछ और काम करूं!’

उन्होंने कहा, ‘मैं तो जाऊं, लेकिन मेरी फीस!’

मैंने कहा, ‘यह तो आपको पहले ही सोच लेना था! अपना हाथ देखकर घर से निकलना चाहिये!’

उन्होंने कहा, ‘ आपका मतलब?’

मैंने कहा, ‘मेरा मतलब यह है कि मैं तो फीस देनेवाला नहीं हूं। तुम्हें मेरा हाथ देखते से समझ लेना था कि इस आदमी से फीस नहीं मिलनेवाली! सच तो यह है, कि तुमने मेरा इतना समय खराब किया, इसकी फीस तुम मुझे दो। और तुम निपट बुद्धहो, क्योंकि तुम्हें यह भी पता नहीं कि आज किसका हाथ देखने जा रहे हो; उससे फीस मिलनेवाली नहीं है!’

लेकिन यह ज्योतिषी एथेंस के उस ज्योतिषी जैसा बुद्धिमान नहीं था। मैंने सुना, वे अभी भी वहीं धंधा कर रहे हैं! उस एथेंस के ज्योतिषी ने तो धंधा छोड़ दिया। बात तो साफ हो गई कि मेरी आंखें तारों पर अटकी हैं; मुझे एक कदम आगे का तो पता नहीं चलता; कुंए में गिर जाता हूं क्या जानूंगा भविष्य!

भविष्य वह है जो जाना ही नहीं जाता और अतीत वह है जो जाना गया है। तो तुम भविष्य के संबंध में जो दौड़धूप करते हो, आपाधापी करते हो, वह अतीत के ही आधार पर करते हो। अतीत से ही सीढ़िया बनाते हो। और इन दोनों के बीच में वह निमिषमात्र छोटा—सा पल है, जो भागा जा रहा है—इतनी तेजी से कि अगर तुम अतीत और भविष्य में उलझे रहे, तो उससे चूकते ही जाओगे, चूकते ही जाओगे। और वही है सत्य।

भविष्य नानुसन्धते नातीत चिन्तयत्यसौ।………..

और न अतीत की चिन्ता। जो बीत गया—बीत गया। अब उधेड़बुन क्या! अब उसको अन्यथा तो किया नहीं जा सकता। अब तुम लाख उपाय करो, तो भी रत्तीभर उसे बदला नहीं जा सकता। जिसे बदला ही नहीं जा सकता, उसके संबंध में चिन्ता कैसी! क्यों समय खराब कर रहे हो उसके संबंध में? और जो आया नहीं है अभी—अभी कुछ किया नहीं जा सकता। और हम दोनों में ही उलझे हैं। इन दोनों का नाम संसार है।

संसार बाजार नहीं है—न दुकान है, न परिवार है। अतीत और भविष्य—इनका जो विस्तार है………..। अतीत अर्थात स्मृति; भविष्य अर्थात कल्पना। इन दोनों के बीच में तुम मरे जा रहे हो। यही तुम्हारा संसार है।

मैं भी अपने संन्यासियों से कहता हूं कि संसार छोड़ो, लेकिन उस संसार को छोडने को नहीं कहता, जिसको पुराने संन्यासी छोड्कर भागते रहे हैं। वे तो भगोड़े हैं। वे तो पलायनवादी हैं। वे तो कायर हैं। उन्होने तो पीठ दिखा दी। उन्होंने तो जीवन का अवसर खो दिया।

मैं कहता हूं : इस संसार को छोडो—मन संसार है। अतीत, भविष्य संसार है—इसको छोड़ दो; और वर्तमान में जीओ—अभी—यहीं।

थोड़ा सोचो, इस सौन्दर्य को, इस अपूर्व प्रसाद को—यहीं और अभी होने को। सब जैसे ठहर जाये। अतीत नहीं भविष्य नहीं, तो वह जो ठहराव है, वह जो थिरता है—वही ध्यान है, वही संन्यास है। उस थिरता में निर्मलता है, निर्दोशता है। उस थिरता में अहोभाव है, आश्चर्य है, रहस्य है। उस थिरता में परमात्मा का दर्शन है, मुक्ति है, निर्वाण है।

और योगवासिष्ठ का यह सूत्र इसलिये और भी महत्वपूर्ण है, इससे तुम्हें जाहिर होगा कि यह मेरे संन्यास की परिभाषा ही हो सकती है—पुराने संन्यास की परिभाषा नहीं। क्योंकि पुराना संन्यासी तो न केवल भविष्य की सोच रहा है………..। साधारण संसारी से तुम्हारा संन्यासी तो और भी बडे भविष्य की सोच रहा है! मृत्यु के बाद क्या होगा; स्वर्ग में क्या होगा! कितने स्वर्ग हैं? मोक्ष मिलेगा कि नहीं मिलेगा? किन पुण्यों के करने से स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा? परमात्मा की उपलब्धि कब होगी?

धन की दौड तो यहीं है; उसकी तो सीमा है—मौत। मगर यह जो मोक्ष की और परमात्मा की और ब्रह्म— अनुभव की खोज में दौड़ रहा है, इसकी तो कोई सीमा ही नहीं। इसका भविष्य तो बडा असीम है! यह तो और भी बड़ा संसारी है, मेरे हिसाब से; क्योंकि इसका तो मन और भी बड़ा है। और तुम्हें तो इसी जन्म की फिक्र है। मगर यह तुम्हारा जो संन्यासी है, इसको पिछले—पिछले जन्मों की भी

फिक्र पड़ी है, कि पिछले जन्मों में जो पाप किये थे, कर्म किये थे, उनका भी निपटारा करना है उनका भी हिसाब करना है।

तुम्हारा भविष्य भी सीमित है—और अतीत भी। अतीत तुम्हारा जन्म से अब तक; और भविष्य तुम्हारा अब से मृत्यु तक। कोई बहुत ज्‍यादा नहीं! सत्तर साल जियोगे, तो समझ लो कि आया भविष्य—आधा अतीत। अगर पैंतीस साल की उम्र है अभी, अगर अभी बीच में खड़े हो तो। मगर तुम्हारा जो संन्यासी है, जिसको तुम धार्मिक कहते हो, उसकी मुसीबत तो सोचो! वह तो कह रहा है : चौरासी करोड़ योनियों में होकर आया हूं! चौरासी करोड़ योनियों में उन्होंने क्या—क्या काम नहीं किये होंगे! उन सब का हिसाब, उन सब का निपटारा करना है! एक—एक रत्ती—रत्ती कृत्य का चुकतारा करना होगा। इसका अतीत तो बहुत बड़ा है! यह तो कभी सुलझ पायेगा, इसकी संभावना न समझो। इतने उलझाव को कैसे सुलझायेगा?

और उलझाव आदमी का ही नहीं है; सब तरह के जानवरों का है। यह मछली भी रहा; यह केंचुआ भी रहा। अब इसने क्या—क्या उपद्रव न किये होंगे!

मैंने सुना है : एक केंचुए ने एक दूसरे केंचुए को देखकर कहा, अहा! पहली नजर का प्रेम इसको कहते हैं! मुझे तो तुझसे प्रेम हो गया!

दूसरे केंचुए ने कहा : ‘अरे मूरख, मैं तेरा ही दूसरा हिस्सा हूं! ‘नाहक की बकवास न कर!’ क्योंकि केंचुए के दो मुंह होते हैं। वह उन्हीं का दूसरा हिस्सा था। उसने कहा, ‘मूरख, व्यर्थ की बकवास न कर!’

अब केंचुए भी रहे होओगे। न मालूम कैसी—कैसी नजरों के प्रेम हुए होंगे! कभी—कभी खुद से भी प्रेम हुआ होगा। खुद ही से प्रेम के वार्तालाप हो गये होंगे। जंगली जानवर भी रहे होओगे। क्या—क्या नहीं रहे होओगे! चौरासी करोड़ योनियों में सब तो आ गया होगा। पत्थर से लेकर आदमी तक की लंबी यात्रा—इस सब का हिसाब किताब करना है। इसलिए तो तुम्हारा साधु इतना उदास हो जाता है! इतना चिंतित हो जाता है; इतना व्यथित हो जाता है। न दिन चैन, न रात चैन। कहां विश्राम उसे! और मैं बात कर रहा हूं—अनहद में बिसराम की। उसको कहां विश्राम? उसको तो उधेड़बुन ही उधेड़बुन है।

और फिर उसका भविष्य यहीं खत्म नहीं होता; मौत पर कोई समाप्ति नहीं होती। फिर आगे चलते ही जाना है। इन दोनों अनंत यात्राओं के बीच में उसका निमिष—पल मन्त्र का जो वर्तमान है, वह तो यूं दबकर पिस जायेगा कि जैसे दो चट्टानों के बीच में किसी ने जुही के फूल को दबा दिया हो! पता भी न चलेगा.। कभी खबर भी न मिलेगी।

नहीं। यह सूत्र मेरे ही संन्यास की बात कर रहा है।

छोडो अतीत को; छोड़ो भविष्य को।

और दूसरी बात भी मेरे संन्यासियों पर ही लागू हो सकती है : ‘वर्तमान निमेषंतु हसन्नेवानुनर्तते ‘हंसो। आनंदित होओ। प्रफुल्लित होओ। मग्नचित्त होकर जीओ। यह तो पुराने संन्यासी पर लागू नहीं हो सकता।

‘हंसते हुए वर्तमान में जीना।’ पुराना संन्यासी तो कहेगा कि यह योगवासिष्ठ भी भ्रष्ट है। मैं तो भ्रष्ट हूं ही।

योगवासिष्ठ को लोग पढ़ते रहते हैं, लेकिन इसके अर्थ को नहीं समझते। न मालूम कितने शास्त्रों को पढ़ते रहते हैं, जिनके अर्थ नहीं समझते। अगर उनको अर्थ समझ में आ जाएं, तो बहुत चौंकें। बहुत हैरानी उन्हें हो। क्योंकि उनकी जीवन धारणाओं में, और उन शास्त्रों के मौलिक अर्थों में भेद होगा। होना ही चाहिये। क्योंकि शास्त्र तो उनसे जन्मे हैं, जिन्होंने जाना।

अब जिसने जाना है, उसने यह बात कही होगी। अज्ञानी तो नहीं कह सकता। वर्तमान के क्षण में जो मस्त होकर जी रहा है………..। अलमस्त, प्रमुदित, प्रफुल्लित। जिसका रोआं—रोआं नृत्य में लीग है, और जिसके कण—कण मैं गीत उठ रहा है—वैसा व्यक्ति ही संन्यासी है।

लेकिन तुम्हारे तथाकथित संन्यासियों को तुम देखो। उनकी शकलों पर बारह बज रहे हैं! हमेशा मातमी! हंसना तो जैसे सदियों से भूल गये हैं। और हंसे भी तो कैसे हंसे? चौरासी करोड़ योनियों का बोझ! कितना हिसाब—किताब निपटाना है! कर्मों के कितने जाल इकट्ठे हो गये हैं, और रोज होते जा रहे हैं। और रोज भूल पर भूल होती जा रही है। और अभी आगे भी बहुत यात्रा पड़ी है। धूल यूं ही बहुत जम गयी है और अभी यात्रा बहुत शेष है! और धूल जमेगी।

उनका संकट तो देखो! उनके प्राण कैसी विडम्बना में न पड़े होंगे! कहां हंसे, कैसे हंसे? हंस तो वही सकता है, जिसका कोई अतीत नहीं, कोई भविष्य नहीं—वर्तमान ही जिसके लिए सब कुछ है। उसके लिए क्या चिंता, क्या बोझ, क्या पीडा, कत मातम? उसके लिए जीवन उत्सव है।

निश्चित ही, सहजानंद! योगवासिष्ठ का यह श्लोक मैं जो कहता हूं उसकी तरफ ही इशारा है; और बहुत स्पष्ट इशारा है। जिसने भी कहा होगा, वह जाननेवाला रहा होगा, वह बुद्ध पुरुष रहा होगा।

शास्त्रों के संबंध में एक बात खयाल रखना, क्योंकि पुराने शास्त्र एक व्यक्ति के द्वारा लिखे हुए नहीं हैं; अनेक व्यक्तियों के द्वारा लिखे हुए हैं। उनमें चीजें जुड़ती चली गयीं। वे सब संहिताएं हैं। नये—नये लोग होते गये, नयी—नयी बातें जोड़ते चले गये। तो उनमें कभी—कभी अज्ञानियों ने भी जोड़ दिया है बहुत कुछ। ज्ञानियों के साथ—साथ अज्ञानियों के शब्द भी उनमें मिल गये हैं। इसलिए तुम्हें मेरी बातों में कई बार विरोधाभास मिलेगा।

योगवासिष्ठ के इस सूत्र का मैं समर्थन करूंगा। और तब तुम्हें अड़चन होती है, क्योंकि तुम्हें हैरानी यह होती है कि जब योगवासिष्ठ का एक सूत्र मैंने ठीक कहा, तो सब सूत्र ठीक होने चाहिए। सब सूत्र ठीक नहीं हो सकते, क्योंकि सब सूत्र एक ही ऊर्जा से पैदा नहीं हुए हैं।

वेद के एक सूत्र का मैं समर्थन कर दूंगा और दूसरे सूत्र का विरोध करूंगा। और उतने ही बलपूर्वक विरोध करूंगा, जितने .बलपूर्वक मैंने पहले का समर्थन किया था। और तुम विरोधाभास देखते हो, तो तुम्हारी भूल है। कहीं कोई विरोधाभास नहीं है।

संहिताएं हैं ये।……….. बुद्ध के नाम से इतने शास्त्र हैं कि असंभव है यह कि एक व्यक्ति ने इतने शास्त्र लिखें हों या कहे हों। व्यास के नाम से इतने शास्त्र हैं कि असंभव है यह कि एक व्यक्ति ने इतने शास्त्र लिखे हों या कहे हों। व्यास का नाम स्वीकृत नाम हो गया; साख हो गई नाम की, तो जिसको भी अपनी किताब चलानी हो, वह व्यास का नाम उस पर लिख देता था! छपती तो थी नहीं किताबें; लिखी जाती थीं हाथ से। कोई कापीराइट तो थे नहीं उन दिनों। कोई सरकारी नियंत्रण था नहीं। तुम भी किताब लिखकर अगर उसको लिख दो—’व्यास रचित’ तो कोई कुछ कर नहीं सकता था। तुमने चला दी व्यास की एक .और किताब! लेकिन व्यास के नाम की साख थी; साख का फायदा उठा लेना अच्छा था। तुम अपने नाम से लिखोगे, कोन पढ़ेगा! कोन सुनेगा? कोन मानेगा? लेकिन व्यास की है, तो फिर तो माननी ही होगी; गलत भी हो, तो भी माननी होगी।

कितनी रामायणें हैं! वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक कितने लोगों ने रामायणें लिखीं! इनमें बहुत भेद हैं। एक—दूसरे से बहुत ज्यादा अलग—अलग बातें हैं। मगर राम की कथा है; राम की कथा ही साख है, तो कोई भी लिख दे राम की कथा—चल पड़ेगी! लौग उसे सिर पर लेंगे। लोगों को फिक्र ही नहीं कि उसके भीतर क्या है!

इसलिए जब मैं किसी सूत्र का समर्थन करूं, तो खयाल रखना : उस सूत्र का समर्थन कर रहा हूं—कोई योगवासिष्ठ कै पूरे जीवन —दर्शन का समर्थन नहीं कर रहा हू,। बहुत से सूत्र हैं जिनमें मेरा कुल इतना ही विरोध है, जितना मेरा समर्थन इस सूत्र के लिए है। क्योंकि मेरे पास अपनी कसौटी है। मुझे किसी शास्त्र से न कुछ लेना है, न देना है। मेरी कसौटी पर जो ठीक उतरेगा, वह ठीक। जो ठीक नहीं उतरेगा—वह नहीं ठीक। सोने को सोना कहूंगा; मिट्टी को मिट्टी कहूंगा। फिर वह चाहे योगवासिष्ठ में ही रखी मिट्टी क्‍यों न हो। और सोना अगर कचरे में भी पड़ा हो, तो भी उसे सोना ही कहूंगा।

इसलिए तुम्हें मेरी बातों में बहुत बार विरोधाभास दिखाई पड़े तो जल्दी मत कर लेना; सोचना—कारण होगा कुछ। जैसे इस सूत्र में तो मैं कोई शर्त न लगाऊंगा; बेशर्त स्वीकार करूंगा। यह तो मेरी ही बात है; यही तो मैं रोज कह रहा हूं तुमसे : कि क्षण में जीना सीखो; पल में जीना सीखो। अगर चाहते हो कि तुम्हारे जीवन में आनंद के फूल खिले; सुवास उड़े महोत्सव की; और परमात्मा तुम्हें घेरकर तुम्हारे साथ मदमस्त हो उठे—तो इतना ही करना जरूरी है। यही ध्यान की पूरी प्रक्रिया है। अतीत से अपने को छुडा लो। और अतीत ने तुमको नहीं पकडा है। तुमने अतीत को पकड़ा है इसलिए जब चाहो छोड़ दे सकते हो। और वर्तमान मौजूद है, कहीं खोजने जाना नहीं है। और भविष्य है ही नहीं; छोड़ने में क्या अड़चन है!

लेकिन बड़े अजीब लोग हैं—जो नहीं है, उसको भी छोड़ने में मुश्किल होती है! मुट्ठी खाली है, मगर उसको खोलने में डर लगता है कि कहीं खाली दिखाई न पड जाए! बांधे रहो तो कम से कम भरोसा तो बना रहता है कि कुछ होगा, तभी तो बंधे हुए हैं!

लोग अपनी मुट्ठी भी खोलने में डरते हैं कि कहीं खाली दिखाई न पड़ जाए! मगर तुम्हारी मुट्ठी है, तुम्हें पता ही है कि खाली है; खोलो या न खोलो।

भविष्य है नहीं; छोड़ने का सवाल नहीं। अतीत जा चुका है; छोडने का सवाल नहीं; छूट ही चुका है। जो है, उसे तुम छोड़ना भी चाहो तो छोड़ नहीं सकते हो। मगर कैसा उपद्रव है कि ‘नहीं’ के साथ उलझे हो और ‘है’ से चूक रहे हो। और जो है, वह परमात्मा का ही दूसरा नाम है।

‘अनहद में बिसराम’ प्रवचनमाला से

दिनांक 14 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना


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अतंर्यात्रा–(ध्‍यान शिविर)–(प्रवचन–8)

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‘मैं’ से मुक्‍ति—(प्रवचन—आंठवां)

दिनांक 5 फरवरी, 1968; दोपहर

ध्‍यान शिविर, आजोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

ज शिविर की अंतिम बैठक है और विदा की इस बैठक में कुछ अंतिम सूत्रों पर मुझे आपसे बात करनी है।

मनुष्य के मस्तिष्क में, मनुष्य की बुद्धि में तीव्र तनाव है और यह तनाव विक्षिप्तता के करीब पहुंच गया है। इस तनाव को शिथिल कर लेना है। और ठीक इसके साथ ही मनुष्य के हृदय में बड़ी शिथिलता है, मनुष्य के हृदय के तार बहुत ढीले छूट गए हैं, उन्हें वापस कस लेना है। यह हृदय के तार कैसे कसे जाएंगे, इस संबंध में थोड़े से सूत्र मैंने सुबह कहे। और अंतिम सूत्र की बात अभी करनी है।

मनुष्य के हृदय के तार ही मनुष्य की जीवन—वीणा के सबसे बड़े संगीत के स्रोत हैं। और जिस समाज के पास हृदय खो जाता है और जिस मनुष्य के पास और जिस सदी के पास हृदय क्षीण हो जाता है, उस सदी और उस युग के पास जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है, जो भी सत्य है, वह सब भी विलीन हो जाता है। और हम चाहते हों कि सत्य, सुंदर और शिव जीवन में प्रविष्ट हो, तो बिना हृदय के तारों को वापस संयोजित किए कोई और रास्ता नहीं है।

हृदय के तार—संयोजन की, हृदय के तारों के ठीक—ठीक अवस्था में आ जाने की, जहां संगीत पैदा हो सके, जो दशा है, उस दशा का नाम ही प्रेम है। इसलिए मैं प्रेम को प्रार्थना भी कहता हूं प्रेम को प्रभु—प्राप्ति का मार्ग भी कहता हूं प्रेम को परमात्मा भी कहता हूं। प्रेम के अतिरिक्त जो प्रार्थना है वह झूठी और थोथी और व्यर्थ है। प्रेम के अतिरिक्त प्रार्थना के जो शब्द हैं उनका कोई भी मूल्य नहीं है। और प्रेम के अतिरिक्त जो परमात्मा की

तरफ यात्रा करने को उत्सुक हुआ हो, वह कभी भी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकेगा। प्रेम सूत्र है हृदय की वीणा को संगीतपूर्ण बनाने का। प्रेम के संबंध में ही कुछ समझ लेना जरूरी है।

पहला तो भ्रम यह है कि हम सोचते हैं, हम सभी प्रेम को जानते हैं। यह भ्रम इतना घातक है जिसका कोई हिसाब नहीं। क्योंकि जो चीज हमें जानी हुई प्रतीति होती है; उसकी साधना की तरफ, उसे जगाने की तरफ हम कोई प्रयास ही नहीं करते हैं।

मनुष्य—जाति को बड़े से बड़े इलूजन, बड़े से बड़े जो भ्रम हैं, उनमें एक भ्रम यह है कि हम प्रेम को जानते हैं। हर आदमी को यह भ्रम है कि हम प्रेम को जानते हैं। लेकिन हमें यह पता ही नहीं कि जो प्रेम को जान लेगा वह साथ ही परमात्मा को जानने की क्षमता को भी उपलब्ध हो जाता है। अगर हम प्रेम को जानते हैं तो जीवन में कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता है, लेकिन हमारे जीवन में तो सभी कुछ जानने को शेष है। तो जिस प्रेम को हम प्रेम समझते हैं वह प्रेम नहीं होगा, हमने किसी और ही बात को प्रेम समझ लिया होगा। हमने चित्त की किसी और ही दशा को प्रेम का नाम दे दिया होगा। और जब तक यह भ्रम न टूट जाए तब तक, जब हमें खयाल ही है कि प्रेम हमें उपलब्ध है, तो हम प्रेम की तलाश और खोज कैसे करेंगे? इसलिए पहली बात तो यह ध्यान में लेने की है कि हमें प्रेम का कोई भी पता नहीं है।

जीसस क्राइस्ट एक दोपहर, भरी दोपहरी में, तेज धूप में रास्ते के किनारे एक बगिया के वृक्ष के नीचे रुके। धूप थी तेज और वे थके—मांदे थे। वे वृक्ष की छाया के तले सोए रहे। उन्हें पता भी न था कि वह मकान किसका है, वह वृक्ष किसका है, वह बगीचा किसका है। उस जमाने की एक अत्यंत सुंदरी, वेश्या का वह बगीचा था, मेग्दलीन का।

मेग्दलीन ने अपनी खिड़की से झांक कर देखा, कोई एक अदभुत व्यक्ति उस वृक्ष के नीचे सोया है। ऐसा सुंदर व्यक्ति उसने कभी भी नहीं देखा था। क्योंकि एक सौंदर्य तो शरीर का है और एक सौंदर्य आत्मा का भी है। शरीर का सौंदर्य तो बहुत दिखाई पड़ता है, आत्मा का सौंदर्य कभी—कभी दिखाई पड़ता है। और जब आत्मा का सौंदर्य प्रकट होता है तो कुरूप से कुरूप शरीर भी सुंदर फूल बन जाता है। उसने बहुत सुंदर लोग देखे थे। उसके द्वार पर सुंदर लोगों की भीड़ लगी रहती थी। उसके द्वार पर सभी को प्रवेश मिलना मुश्किल था। लेकिन ऐसा सुंदर आदमी उसने कभी देखा ही नहीं था। वह मेग्दलीन जैसे किसी जादू से खिंची हुई वृक्ष के नीचे पहुंच गई।

जीसस क्राइस्ट उठ कर जाने को थे, उनका विश्राम पूरा हो गया था। मेग्दलीन ने कहा कि आप इतनी कृपा नहीं करेंगे कि मेरे घर में चल कर विश्राम करें। क्राइस्ट ने कहा मैंने विश्राम किया और यह तुम्हारा ही घर था, तुम्हारा ही वृक्ष था, अब तो मेरे चलने का समय आ गया है, मैं चलूं। लेकिन फिर कभी थका—मादा इस राह से गुजरा तो जरूर तुम्हारे मकान में विश्राम करूंगा।

मेग्दलीन के लिए यह बहुत अपमानजनक मालूम पड़ा। बड़े—बड़े राजकुमार उसके द्वार से खाली हाथ लौट जाते थे, द्वार नहीं खुलते थे। एक राह चलते भिखारी को उसने कहा था कि मेरे घर में विश्राम करें, और वह आदमी इनकार करता था। मेग्दलीन के लिए यह बहुत अपमानजनक था। उसने कहा कि नहीं, ऐसा मैं नहीं सुन सकूंगी, आपको भीतर चलना ही पड़ेगा। क्या आप मेरे प्रेम के लिए इतना भी नहीं कर सकेंगे कि मेरे घर में दो क्षण विश्राम करें?

क्राइस्ट ने कहा तुमने कहा तो मैं तुम्हारे घर में प्रवेश पा ही गया। क्योंकि कहने के अतिरिक्त और घर कहां है। तुमने चाहा तो मैं तुम्हारे घर में पहुंच गया। और तुम अगर यह कहती हो कि क्या मैं इतना प्रेम न दिखा सकूंगा! तो मैं तुमसे कहूंगा कि तुमने बहुत लोग देखे होंगे जिन्होंने तुमसे कहा होगा कि हम तुम्हें प्रेम करते हैं, उनमें से कोई भी तुम्हें प्रेम नहीं करता था। वे तुम्हें छोड़ कर किसी और ही चीज को प्रेम करते थे। और मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मैं ही उन अकेले थोड़े से लोगों में से एक हूं जो तुम्हें प्रेम करता हूं और प्रेम कर सकता हूं। क्योंकि प्रेम वही कर सकता है जिसके हृदय में प्रेम उत्पन्न हो गया हो।

हम सब प्रेम नहीं कर सकते हैं, क्योंकि हमारे भीतर प्रेम की कोई धारा ही नहीं है। और जब हम कहते हैं किसी को कि हम प्रेम करते हैं तो असल में हम प्रेम नहीं करते हैं, हम उससे प्रेम मांगते हैं। हम सभी प्रेम मांगते हैं। और जो खुद ही प्रेम मांग रहा है वह प्रेम कैसे दे सकेगा!

भिखमंगे सम्राट कैसे हो सकते हैं? मांगने वाले देने वाले कैसे हो सकते हैं?

हम सभी एक—दूसरे से प्रेम मांगते हैं। हमारे प्राण भिखारी हैं। हम मांगते हैं कि कोई हमें प्रेम दे दे। पत्नी पति से प्रेम मांगती है, पति पत्नी से प्रेम मांगता है। मां बेटों से प्रेम मांगती है, बेटे मां से प्रेम मांगते हैं। मित्र मित्र से प्रेम मांगते हैं। हम सब एक—दूसरे से प्रेम मांगते हैं, बिना यह जाने हुए कि हम जिससे प्रेम मांग रहे हैं वह भी हमसे प्रेम मांग रहा है। दो भिखारी एक—दूसरे के सामने झोली फैलाए हुए खड़े हैं।

जब तक कोई आदमी प्रेम मांगता है, तब तक वह प्रेम देने में समर्थ नहीं हो सकता है। प्रेम की मांग इस बात की खबर है कि उसके भीतर प्रेम का झरना नहीं है, अन्यथा वह बाहर से प्रेम क्यों मांगता। प्रेम वही दे सकता है जिसका प्रेम की मांग के ऊपर उठना हो गया है, जो देने में समर्थ हो गया है। प्रेम एक दान है, भिक्षा नहीं। प्रेम एक मांग नहीं है, प्रेम एक भेंट है। प्रेम भिखारी नहीं है, प्रेम सम्राट है। प्रेम सिर्फ देना ही जानता है, मांगना जानता ही नहीं।

हम प्रेम को जानते हैं? मांगने वाला प्रेम प्रेम नहीं हो सकता है। और स्मरण रहे कि जो प्रेम को मांगता है उसे इस जगत में कभी भी प्रेम नहीं मिल सकेगा। जीवन के कुछ अनिवार्य नियमों में से, शाश्वत नियमों में से एक नियम यह है कि जो प्रेम को मांगता है उसे प्रेम कभी नहीं मिलता है। जो प्रेम बांटता है उसे प्रेम मिलता है। लेकिन उसे प्रेम की कोई मांग नहीं होती। जो प्रेम मांगता है, उसे प्रेम मिलता ही नहीं।

प्रेम तो उसी द्वार पर आता है जिस द्वार पर प्रेम की मांग मिट जाती है। जो मांगना बंद कर देता है उसके घर पर वर्षा शुरू हो जाती है। और जो मांगता रहता है उसका घर बिना वर्षा के रह जाता है, क्योंकि मांगने वाले चित्त की यह पात्रता नहीं कि प्रेम उसकी तरफ बहे। मांगने वाले चित्त की यह ग्राहकता नहीं है, यह रिसेप्टिविटी नहीं है कि प्रेम उस द्वार पर आए। वह तो देने वाला और बांट देने वाला चित्त ही उस ग्राहकता को, उस पात्रता को उपलब्ध होता है, जिस द्वार पर आकर प्रेम दस्तक देता है और कहता है मैं आ गया हूं द्वार खोलो।

हमारे द्वारों पर प्रेम ने आकर कभी दस्तक दी है? नहीं दी है। क्योंकि हम अभी प्रेम को देने में ही समर्थ नहीं हो सके हैं। और यह भी स्मरण रहे कि हम जो देते हैं वही हम पर वापस लौट आता है। जीवन के दूसरे शाश्वत नियमों में से यह है कि हम जो देते हैं वही हम पर वापस लौट आता है।

सारा जगत एक प्रतिध्वनि से ज्यादा नहीं है। हम घृणा देते हैं, घृणा वापस लौट आती है; हम क्रोध देते हैं, क्रोध वापस लौट आता है, हम गालियां देते हैं, गालियां वापस लौट आती हैं; हम कांटे फेंकते हैं, कांटे वापस लौट आते हैं। हमें वही उपलब्ध हो जाता है जो हमने फेंका था, वह अनतगुना होकर हम पर ही वापस लौट आता है। और अगर हम प्रेम बांटते हैं तो प्रेम भी अनंतगुना होकर हम पर वापस लौट आता है।

हम पर प्रेम अनंतगुना होकर वापस लौटा है? अगर नहीं लौटा तो जान लेना कि प्रेम हमने बांटा नहीं। और प्रेम हम बांटते कैसे? प्रेम हमारे पास है ही नहीं। और प्रेम हमारे पास होता तो हम प्रेम को द्वार—द्वार मांगते हुए क्यों फिरते? हम जगह—जगह भिखारी क्यों बनते? हम क्यों मांगते कि हमें प्रेम चाहिए?

एक फकीर था, फरीद। उसके गांव के लोगों ने उससे कहा फरीद, अकबर तुझे बहुत आदर देता है। अकबर से प्रार्थना कर कि हमारे गांव में एक स्कूल, एक मदरसा खोल दे। फरीद ने कहा मैंने आज तक किसी से कुछ मांगा नहीं। मैं तो फकीर हूं मैं तो सिर्फ देना ही जानता हूं। तो गांव के लोग बड़े हैरान हुए! कि हम तो समझते हैं कि फकीर मांगता है, तुम कहते हो फकीर देना ही जानता है। फिर भी हम पर कृपा करो। हम यह सूक्ष्म और गंभीर बातें नहीं समझ सकते। तुम तो कृपा करो और एक मदरसा खुलवा दो।

गांव के लोग नहीं माने तो फरीद अकबर से मिलने गया। सुबह ही सुबह जल्दी पहुंच गया, ताकि घर ही मिलना हो जाए। अकबर उस समय अपनी मस्जिद में नमाज पढ़ता था। फरीद उसके पीछे जाकर खड़ा हो गया। अकबर की नमाज पूरी हो गई, प्रार्थना पूरी हो गई। तो उसने दोनों हाथ ऊपर उठाए और कहा हे परमात्मा! मेरे धन को बढ़ा, मेरी संपत्ति को बढ़ा, मेरे राज्य को बढ़ा कर। फरीद वापस लौट पड़ा।

अकबर उठा, लौट कर देखा, फरीद वापस लौटता है। भागा, रास्ते पर रोका और कहा कैसे आए और वापस लौट चले? फरीद ने कहा मैंने सोचा था कि तू एक सम्राट है। मैंने पाया कि तू भी एक भिखारी है। हमने सोचा था कि हम गांव के लिए मांग लेंगे एक मदरसा। हमें पता भी न था कि तू भी मांगता है अभी कि धन और बढ़ जाए, संपत्ति और बढ़ जाए। और एक भिखारी से मांगना तो शोभा योग्य नहीं है। हम सोचे थे तू एक सम्राट है और पाया कि तू भी एक भिखारी है, तो हम वापस लौट जाते हैं।

हम सभी भिखारी हैं और हम सभी भिखारियों से मांगे चले जा रहे हैं, वह जो उनके पास नहीं है। और जब हमें नहीं मिलता है तो हम रोते हैं, और चिल्लाते हैं, और दुखी होते हैं, और पाते हैं कि हमें प्रेम नहीं मिल रहा है।

प्रेम कहीं बाहर से मिलने वाली बात नहीं है। प्रेम तो भीतर के अंतस—जीवन का संगीत है। कोई प्रेम आपको दे नहीं सकता। प्रेम आपमें जन्म ले सकता है, लेकिन कोई बाहर से आपको मिल नहीं सकता है। न कहीं कोई दुकान है, न कहीं कोई बाजार है, न कहीं कोई बेचने वाला है कि जहां से आप प्रेम खरीद लें। किसी मूल्य पर प्रेम नहीं खरीदा जा सकता।

प्रेम तो अंतर्स्फुरण है। वह तो भीतर कोई सोई हुई शक्ति का जाग जाना है। और हम सब प्रेम को बाहर खोजते हैं। हम सब प्रेम को प्रेमी में खोजते हैं जो कि बिलकुल ही झूठी और फिजूल बात है।

प्रेम को खोजना है अपने में। और हमारी तो कल्पना में भी नहीं आ सकता है कि स्वयं के भीतर प्रेम कैसे होगा। क्योंकि प्रेम हमें हमेशा प्रेमी का खयाल दिलाता है, किसी और का खयाल दिलाता है। लेकिन हमारे भीतर कैसे प्रेम पैदा होगा यह हमें स्मरण में नहीं है, इसलिए हमारे भीतर कोई शक्ति प्रेम की पड़ी ही रह जाती है। क्योंकि हमें खयाल ही नहीं है हम बाहर मांगते रहते हैं उसे, जो कि हमारे भीतर था। और चूंकि हम बाहर मांगते रहते हैं इसलिए भीतर दृष्टि नहीं जाती, और भीतर जिसका जन्म हो सकता था उसका जन्म नहीं हो पाता है।

प्रेम प्रत्येक मनुष्य की अनिवार्य संपदा है जो जन्म के साथ ही लेकर हर आदमी पैदा होता है। धन आदमी साथ लेकर पैदा नहीं होता। धन सामाजिक संपदा है, लेकिन प्रेम आदमी साथ लेकर पैदा होता है। वह मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, वह उसकी निजी संपदा है, वह उसके साथ है, वह उसका पाथेय है; जो जन्म के साथ उसे मिला और जीवन भर उसका साथ दे सकता है। लेकिन बहुत कम सौभाग्यशाली हैं जो भीतर देखते हैं कि प्रेम कहां है और कैसे खोजा जाए और कैसे जन्मे?

तो हम तो जन्म जाते हैं और हमारी संपदा की गठरी बंधी ही रह जाती है, वह खुल ही नहीं पाती है। और हम दूसरों के द्वारों पर भीख मांगते फिरते हैं, हाथ फैलाए फिरते हैं कि हमें प्रेम चाहिए। सारी दुनिया में एक ही मांग है कि हमें प्रेम चाहिए और सारी दुनिया में एक ही शिकायत है कि हमें प्रेम नहीं मिलता। और जब प्रेम नहीं मिलता है तो हम दोष देते हैं दूसरों को कि ये लोग बुरे हैं, इसलिए प्रेम नहीं मिलता। पत्नी पति को कहती है कि तुम गड़बड़ हो, इसलिए प्रेम मुझे नहीं मिलता है। पति पत्नी को कहता है कि तुममें कुछ भूल है, इसलिए मुझे प्रेम नहीं मिल पाता। हरेक हरेक दूसरे को दोषी ठहराता है कि मुझे प्रेम नहीं मिल पाता। और इसका किसी को खयाल ही नहीं है कि प्रेम कभी किसी को बाहर से मिलता है?

प्रेम आंतरिक संपदा है और प्रेम ही हृदय—वीणा का संगीत है। आदमी की हृदय—वीणा बड़ी गड़बड़ हो गई है। उससे वह संगीत पैदा ही नहीं होता जिसके लिए वह बनी है। यह संगीत कैसे पैदा हो सकता है? और कौन सी बाधा इस संगीत के पैदा होने में खड़ी हो गई है? और कौन सी गांठ है जो इस गठरी को बांधे है और खुलने नहीं देती? कभी उस गांठ पर आपने खयाल किया? कभी आपने सोचा कि वह गांठ क्या हो सकती है?

एक अभिनेता मर गया था। वह एक बहुत कुशल अभिनेता था, कुशल कवि था, नाटककार था। उसकी मृत्यु हो गई थी। मरघट पर उसे विदा करने बहुत लोग इकट्ठे हुए थे। जिस फिल्म कंपनी में वह अभिनेता था, उसका डायरेक्टर, उसका मालिक भी आया था। उस मालिक ने उस अभिनेता के शोक में बोलते हुए, दुख में बोलते हुए कुछ बातें कहीं।

उस मालिक ने कहा इस अभिनेता को अभिनेता बनाने वाला मैं ही हूं। यह मैं ही था जिसने इसे अंधकारपूर्ण गलियों से निकाल कर प्रकाशित राजपथों पर पहुंचाया। यह मैं ही था जिसने सबसे पहले इसे पहले नाटक में जगह दी। मैं ही था जिसने इसकी पहली किताब प्रकाशित करवाई। मैं ही था जिसके कारण यह सारी दुनिया में ख्याति उपलब्ध कर पाया। वह उतना ही कह पाया था, मैं भी उस मरघट पर मौजूद था, हो सकता है आप में से भी कोई मौजूद रहा हो। इतना ही वह कह पाया था कि वह मुर्दा जो बंधा हुआ पड़ा था, एकदम उठ कर बैठ गया। और उसने कहा एक्सक्यूज मी सर! माफ करिए मुझे! हू इज टू बी बरीड हियर— यू आर आई? इधर कब में किसको गड़ाया जाने वाला है— आपको या मुझको? आप किसके संबंध में भाषण कर रहे हैं?

वह डायरेक्टर कहे चला जा रहा था कि मैं ही हूं जिसने इसे प्रकाश में लाया, मैं ही हूं जिसने इसकी किताब छपवाई, मैं ही हूं जिसने इसको नाटक में पहली जगह दी, मैं ही हूं…..!

मुर्दा भी बर्दाश्त नहीं कर सका इस ‘मैं’ के शोरगुल को। वह उठ आया और उसने कहा कि माफ करिए, एक बात बता दीजिए कि कब में किसको गड़ाया जाना है, मुझको या आपको? आप किसके संबंध में बोल रहे हैं? मुर्दे भी बर्दाश्त नहीं कर पाते इस ‘मैं’ के स्वर को और हम जिंदा आदमियों पर इस ‘मैं’ के स्वर को गुंजाए चले जाते हैं! जिंदा आदमी कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?

और आदमी के भीतर दो ही स्वर होते हैं। जिस आदमी के भीतर ‘मैं’ का स्वर होता है, उसके अंदर प्रेम का स्वर नहीं होता है। और जिसके भीतर प्रेम का स्वर होता है, उसके भीतर ‘मैं’ का स्वर नहीं होता है। ये दोनों एक साथ नहीं होते हैं। यह असंभावना है।

यह वैसी ही असंभावना है जैसा एक बार अंधकार ने जाकर भगवान को यह प्रार्थना की थी कि सूरज मेरे पीछे पड़ा हुआ है, मुझे बहुत परेशान कर रहा है। सुबह से मेरा पीछा करता है, सांझ तक मुझे थका डालता है। और रात मैं सोकर विश्राम भी नहीं कर पाता कि दूसरे दिन फिर सुबह से मेरे पीछे पड़ जाता है। मेरी समझ में नहीं आता कि मैंने कभी कोई कसूर किया हो, कोई भूल—चूक की हो, कोई इसे नाराज किया हो। पर क्यों मेरे पीछे यह चल रहा है, यह अनंत उपद्रव मेरे पीछे क्यों पड़ा हुआ है? मैंने क्या बिगाड़ा है?

तो भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम बेचारे अंधकार के पीछे क्यों पड़े हो? वह वैसे ही छिपता फिरता है, जगह—जगह शरण लेता फिरता है और तुम उसका पीछा क्यों करते हो चौबीस घंटे, तुम्हें जरूरत!

सूरज ने कहा कौन अंधकार? मेरा अब तक उससे मिलना भी नहीं हुआ। मैं उसे पहचानता भी नहीं हूं। कौन अंधकार? कैसा अंधकार? मैंने उसे अब तक देखा नहीं, मेरी कोई मुलाकात नहीं, लेकिन अगर भूल— चूक हो गई हो अनजाने तो आप उसे मेरे सामने बुला दें, मैं क्षमा मांग लूं। मैं क्षमा मांगने को बिलकुल तैयार हूं और पहचान लूं तो फिर दुबारा उसका पीछा भी न करूं।

सुनते हैं, इस बात को हुए भी हजारों—अरबों साल हो गए। वह भगवान की फाइल में बात वहीं पड़ी है। अभी तक भगवान अंधकार को सूरज के सामने ला नहीं सके। और आगे भी नहीं ला सकेंगे, यह मैं कहे देता हूं। वे कितने ही सर्वशक्तिशाली हों मगर अंधकार को सूरज के सामने लाने की शक्ति भी सर्वशक्तिशाली में नहीं है। क्योंकि अंधकार और सूरज एक साथ खड़े नहीं हो सकते।

नहीं खड़े हो सकते तो कुछ कारण हैं। कारण यह है कि अंधकार की अपनी कोई सत्ता नहीं है कि सूरज के सामने खड़ा हो जाए। अंधकार तो केवल सूरज की अनुपस्थिति है, एब्सेंस है। तो एक ही चीज की एब्‍सेंस और प्रेजेंस एक ही साथ कैसे हो सकती है? एक ही चीज मौजूद और गैर—मौजूद एक ही साथ कैसे हो सकती है? अंधकार तो केवल अनुपस्थिति है सूरज की, गैर—मौजूदगी है। अंधकार अपने आप में कुछ भी नहीं है। वह केवल सूरज का न होना है, वह केवल प्रकाश का न होना है। तो प्रकाश के सामने प्रकाश का न होना कैसे खड़ा हो सकता है? ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? इसलिए भगवान समर्थ नहीं हो सकेंगे।

और भी एक चीज, इसी भांति अहंकार और प्रेम भी एक साथ नहीं हो सकते। अहंकार भी अंधकार की भांति है। वह प्रेम की अनुपस्थिति है, वह प्रेम की एब्‍सेंस है। वह प्रेम की मौजूदगी नहीं है। हमारे भीतर प्रेम अनुपस्थित है इसलिए हमारे भीतर ‘मैं’ का स्वर, ‘मैं’ का स्वर बजता चला जाता है, बजता चला जाता है। और हम इस ‘मैं’ के स्वर को उठा कर कहते हैं कि ‘मैं’ प्रेम करना चाहता हूं मैं प्रेम देना चाहता हूं मैं प्रेम पाना चाहता हूं।’ आप पागल हो गए हैं! ‘मैं’ का और प्रेम का कोई संबंध न कभी हुआ है और न हो सकता है। और यही ‘मैं’ प्रेम की आवाज किए चला जाता है— ‘मैं’ प्रार्थना करना चाहता हूं ‘मैं’ परमात्मा को पाना चाहता हूं ‘मैं’ मोक्ष जाना चाहता हूं।

ये वैसी ही बातें हैं जैसे अंधकार कहे कि मैं सूरज से गले मिलना चाहता हूं मुझे सूरज का आलिंगन करना है। मुझे सूरज से प्रेम करना है। मुझे तो सूरज के घर में मेहमान बनना है। अंधकार जैसी ही ये बातें कहे वैसी ही ‘मैं’ की ये बातें हैं कि मुझे प्रेम करना है, मुझे प्रार्थना करनी है, मुझे परमात्मा से मिलना है।

‘मैं’ के लिए यह द्वार नहीं है, क्योंकि ‘मैं’ प्रेम की ही अनुपस्थिति है।’मैं’ प्रेम का ही अभाव है और जितना हमारा यह ‘मैं’ का स्वर हम मजबूत करते चले जाएंगे, उतना ही हमारे भीतर प्रेम की संभावना क्षीण होती चली जाएगी। अहंकार जितना होगा, उतना ही प्रेम नहीं होगा, अहंकार पूरा हो जाएगा, प्रेम की पूरी मृत्यु हो जाएगी।

हमारे भीतर कोई प्रेम नहीं हो सकता है, क्योंकि हम खोजेंगे तो हम पाएंगे कि हमारे भीतर ‘मैं’ का स्वर चौबीस घंटे बज रहा है। हम श्वास लेते हैं तो ‘मैं’ के साथ, हम पानी पीते हैं तो ‘मैं’ के साथ। हम रास्ते पर चलते हैं तो ‘मैं’ के साथ। हम मंदिर में प्रवेश करते हैं तो ‘मैं’ के साथ। मैं के अतिरिक्त हमारे जीवन में और क्या है?

हमारे वस्त्र, हमारे ‘मैं’ के वस्त्र हैं। हमारे पद, हमारे ‘मैं’ के पद हैं। हमारा ज्ञान, हमारे ‘मैं’ का ज्ञान है। हमारी तपश्चर्या, हमारी सेवा, हमारे ‘मैं’ की सेवा है। हमारा सब—कुछ; हमारा संन्यास भी हमारे ‘मैं’ का संन्यास है।’मैं’ संन्यासी हूं ऐसा स्वर भीतर तीव्रता से उठता रहता है।’मैं’ कोई गृहस्थ नहीं हूं ‘मैं’ कोई साधारणजन नहीं हूं; ‘मैं’ संन्यासी हूं ‘मैं’ सेवक हूं ‘मैं’ ज्ञानी हूं ‘मैं’ धनी हूं ‘मैं’ यह हूं ‘मैं’ वह हूं।

लेकिन यह जो ‘मैं’ के आस—पास खड़ा किया हुआ भवन है, यह प्रेम से अपरिचित रह जाएगा। और तब हृदय की वीणा पर वह संगीत पैदा नहीं हो सकेगा जो प्राणों को प्राणों के पास ले जाए, जो प्राण के केंद्र में ले जाए, जो जीवन के मध्य में ले जाए, जो जीवन के सत्य से परिचित करा दे, वह द्वार ही नहीं खुलेगा, वह द्वार ही बंद रह जाएगा।

यह बात केंद्रीय रूप से समझ लेने की है कि आपका ‘मैं’ कितना वजनी है, कितना गहरा है! और कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप उसको और वजन दिए जाते हैं? और गहरा किए जाते हैं, रोज—रोज उसको मजबूत किए जाते हैं? अगर आप उसको मजबूत किए चले जा रहे हैं अपने ही हाथों से, तो फिर आप यह आशा छोड़ दें कि आपके भीतर प्रेम—प्रेम का आविर्भाव हो सकता है! वह प्रेम की बंद गांठ खुल सकती है, वह प्रेम की संपदा उपलब्ध हो सकती है! फिर यह खयाल ही छोड़ दें। फिर इसमें कोई उपाय नहीं है।

इसलिए मैं आपसे यह नहीं कहता कि आप प्रेम करने को लग जाएं, क्योंकि अहंकार यह भी कह सकता है कि ‘मैं’ प्रेमी हूं और ‘मैं’ प्रेम करता हूं। और अहंकार के नीचे जो प्रेम है वह एकदम झूठा है, इसलिए मैंने कहा है कि हमारा सारा प्रेम झूठा है, क्योंकि वह अहंकार के नीचे है और अहंकार की छाया है। और स्मरण रहे, कि अहंकार के अंतर्गत जो प्रेम है वह घृणा से भी खतरनाक है, क्योंकि घृणा स्पष्ट और सीधी और साफ है। और प्रेम शक्ल बदल कर आया हुआ है, उसे पहचानना मुश्किल हो जाएगा।

अहंकार के नीचे जो प्रेम से आपको अपनी छाती से लगाता है, आप थोड़ी देर में ही पाएंगे कि वे हाथ नहीं थे, वे लोहे की जंजीरें थीं जिन्होंने आपके प्राणों को जकड़ लिया। अहंकार के नीचे जो प्रेम, आपको अच्छी— अच्छी बातें कहता है और मधुर वचन कहता है और गीत गाता है, थोड़ी देर में ही आपको पता चलेगा कि वे गीत केवल प्रारंभिक प्रलोभन थे, उन गीतों के भीतर बहुत जहर था। और जो प्रेम फूलों की शक्ल लेकर आता है अहंकार की छाया में, फूल को पकड़ते ही आपको पता चलेगा कि भीतर बड़े कांटे थे, जिन्होंने आपको छेद दिया है।

मछलियां पकड़ने लोग जाते हैं और कांटों के ऊपर आटा लगा कर मछलियां पकड़ लेते हैं। और अहंकार मालिक बनना चाहता है दूसरे लोगों का, पजेस करना चाहता है उनको और तब वह प्रेम का आटा लगा कर गहरे कांटों से लोगों को छेद लेता है। प्रेम के धोखे में जितने लोग दुख और पीड़ा पाते हैं उतने लोग किसी नरक में भी पीड़ा और दुख नहीं पाते। प्रेम के इस डिसइलूजन में सारी पृथ्वी और सारी मनुष्य की जाति नरक भोगती है। लेकिन फिर भी यह खयाल नहीं आता कि अहंकार के नीचे प्रेम झूठा है, इसलिए यह सारा नरक पैदा होता है।

अहंकार जिस प्रेम में जुड़ा है, वह प्रेम जेलेसी का, ईर्ष्या का एक रूप है। और इसलिए प्रेमी जितने जेलेस होते हैं, जितने ईर्ष्यालु होते हैं उतना कोई भी ईर्ष्यालु नहीं होता। अहंकार से जो प्रेम जुड़ा है वह घृणा का, दूसरे को पजेस करने का, दूसरे के मालिक बन जाने की एक तरकीब और साजिश है। वह एक कासपिरैसि है; इसलिए प्रेम करने की बातें करने वाले लोग जितने लोगों की गर्दन कस लेते हैं, उतना और कोई भी नहीं कसता। यह सारी स्थिति अहंकार के नीचे प्रेम के कारण पैदा होती है और अहंकार के साथ प्रेम का कभी भी कोई संबंध नहीं हो सकता।

जलालुद्दीन एक गीत गाता था। और बड़ा प्यारा गीत गाता था। और वह गांव—गांव जाता और उस गीत को जरूर दोहराता। और जब भी लोग कहते कि परमात्मा के संबंध में हमें कुछ बताओ, तो वह उसी गीत को गाने लगता। वह गीत बड़ा अदभुत था। उस गीत में एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया है और उसने जाकर द्वार की सांकल खटखटाई है। और भीतर प्रेयसी ने पूछा कि कौन हो तुम?

उस प्रेमी ने कहा—जैसे सभी प्रेमी कहते है—कि मैं हूं तेरा प्रेमी! भीतर फिर सन्नाटा हो गया। भीतर से फिर कोई उत्तर न आया। भीतर से फिर कोई आवाज न आई। वह प्रेमी जोर से दरवाजे फड़फड़ाने लगा, लेकिन भीतर जैसे कोई था ही नहीं। वह जोर से चिल्लाने लगा कि भीतर सन्नाटा क्यों हो गया? उत्तर दो, मैं तुम्हारा प्रेमी आया हुआ हूं। लेकिन जितनी जोर से वह कहने लगा, मैं तुम्हारा प्रेमी आया हूं वह घर उतना ही मरघट जैसे सन्नाटे से भर गया। वहां से कोई उत्तर आना बंद हो गया।

तब उसने सिर पीटा द्वार पर और उसने कहा. एक बार तो उत्तर दो। भीतर से एक ही उत्तर आया कि इस घर में दो के लिए जगह नहीं हो सकती। और तुम कहते हो, मैं आया हूं तुम्हारा प्रेमी। और एक मैं यहां पहले से ही मौजूद हूं। यहां दो के लिए जगह नहीं हो सकती। प्रेम का द्वार केवल उनके लिए ही खुलता है जो ‘मैं’ को छोड़ आए होते हैं। अभी तुम जाओ, आना फिर कभी।

वह प्रेमी वापस लौट गया। और वर्षों उसने तपश्चर्या की, और वर्षों उसने साधना की, और वर्षों उसने प्रार्थना की। और कितने ही चांद बड़े हुए और छोटे हुए, और कितने ही सूरज निकले और ढले, और कितने वर्ष बीते और फिर वह वापस लौट आया उस द्वार पर, और उसने आकर द्वार पर फिर दस्तक दी। फिर वही प्रश्न! फिर कोई किसी से पूछने लगा कौन हो तुम? इस बार उस प्रेमी ने कहा तू ही है, मैं नहीं हूं।

जलालुद्दीन कहते थे कि द्वार खुल गए, लेकिन मेरा मन अभी द्वार खुलवाने को राजी नहीं होता। जलालुद्दीन को मरे बहुत वर्ष हो गए, इसलिए अब उनको कहने का कोई रास्ता नहीं है कि द्वार अभी नहीं खुल सकते थे, द्वार जरा जल्दी खुलवा दिए! क्योंकि जो कहता है कि ‘तू ही है’ उसे अपने ‘मैं’ के होने का पूरा पता है। जो यह कहता है कि ‘तू ही है’ उसे अपने ‘मैं’ के होने का पूरा पता है, क्योंकि जिसे ‘मैं’ का पता नहीं रह जाता उसे ‘तू, का भी पता नहीं रह जाता।

तो गलत है यह बात कि प्रेम में एक ही समाता है। गलत है यह बात कि प्रेम में दो तो समाते ही नहीं; लेकिन गलत है यह बात कि प्रेम में एक ही समाता है। प्रेम में न तो दो रह जाते हैं और न एक रह जाता है। क्योंकि जहां एक है, जान लेना दूसरा भी मौजूद है। क्योंकि एक का बोध दूसरे को ही हो सकता है। जहां ‘तू’ मौजूद है वहां ‘मैं’ भी मौजूद है। तो मैं तो अभी वापस लौटा देता हूं।

उस प्रेमी ने कहा ‘तू ही है, मैं नहीं हूं।’ लेकिन जो यह कहता है कि मैं नहीं हूं तू ही है; वह है, वह पूरी तरह से है। वह केवल तरकीब सीख कर आ गया है। पहली दफा उसने सुन लिया था कि यह मैंने कहा कि ‘मैं हूं’ तो द्वार बंद रह गए। इतने वर्षों में वह सोच—विचार कर आ गया कि मुझे क्या कहना चाहिए। मुझे कहना

चाहिए कि भी ‘ मैं नहीं हूं तू ही है।’ लेकिन कौन कहेगा, किसलिए कहेगा? और जिसको ‘ तू, का पता है, उसे ‘मैं’ का भी पता है।

यह खयाल में रहे कि ‘ तू ‘ जो है वह ‘मैं’ की ही छाया है। जिसका ‘मैं’ मिट जाता है, उसके लिए ‘तू’ भी शेष नहीं रह जाता है।

तो मैं तो उसे वापस लौटा देता हूं। फिर उस प्रेयसी ने कह दिया कि यहां कोई जगह नहीं दो के लिए। पर वह चिल्लाने लगा और कहने लगा कि अब दो कहां? अब तो मैं हूं ही नहीं, तू ही है!

लेकिन वह प्रेयसी कहने लगी तुम वापस लौट जाओ, तुम तरकीब सीख कर आ गए हो, लेकिन अभी दो मौजूद हैं। अगर दो मौजूद न होते तो द्वार खुलवाने की तुम कोशिश भी न करते, क्योंकि कौन द्वार खुलवाता और किसके द्वार खुलवाता? तुम वापस लौट जाओ। प्रेम के घर में दो नहीं समा सकते।

और वह प्रेमी वापस लौट गया। और फिर वर्ष आए और गए, लेकिन फिर वह लौट कर नहीं आया, फिर वह कभी लौटा ही नहीं। फिर तो उसकी प्रेयसी ही उसे खोजती हुई उसके पास पहुंच गई।

तो मैं तो यही कहता हूं कि जिस दिन हमारे ‘मैं’ की छाया विलीन हो जाती है, और जिस दिन न तो ‘मैं’ बचता है और न तो ‘ तू बचता है, उस दिन आपको परमात्मा को खोजने नहीं जाना पड़ता, परमात्मा आपको खोजता चला आता है।

आज तक कोई मनुष्य परमात्मा को नहीं खोज सका है, क्योंकि मनुष्य की यह सामर्थ्य कहां कि परमात्मा को खोज ले? लेकिन जब कोई मनुष्य मिटने को राजी हो गया है, न हो जाने को राजी हो गया है, शून्य हो जाने को राजी हो गया है, तो परमात्मा उसे जरूर खोज लेता है।

परमात्मा ही खोजता है मनुष्य को, मनुष्य कभी परमात्मा को नहीं खोजता है। क्योंकि खोजने में भी, सीकिंग में भी अहंकार मौजूद रहता है कि ‘मैं’ खोज रहा हूं मुझे ईश्वर को पाना है।

मैंने धन पा लिया, मैंने पार्लियामेंट में जगह पा ली, मैंने बड़ा मकान बना लिया, अब आखिरी एक मंजिल और रह गई कि मुझे ईश्वर को भी पाना है। मैं कैसा ऐसा हो सकता हूं कि बिना ईश्वर को पाए और छोड़ दूं! यह मेरी आखिरी विजय का मामला है। यह विजय करनी ही है। मुझे ईश्वर को भी पाना है। यह अहंकार की ही घोषणा और आग्रह और खोज है।

इसलिए धार्मिक आदमी वह नहीं है जो ईश्वर को खोजने निकल पड़ता है। धार्मिक आदमी वह है जो अपने ‘मैं’ को खोजने निकलता है और जितना ही खोजने जाता है, पाता है ‘मैं’ तो है नहीं। और जिस दिन ‘मैं’ नहीं रह जाता है, उस दिन वह गांठ खुल जाती है जो प्रेम को सम्हाले हुए है।

तो अंतिम बात है, अपने ‘मैं’ को खोजने चले जाइए, आत्मा को खोजने नहीं; क्योंकि आत्मा का आपको कोई पता नहीं है। परमात्मा को खोजने नहीं, क्योंकि परमात्मा की आपको दूर की भी खबर नहीं है। जिसकी खबर ही नहीं है उसे खोजिएगा कैसे? जिसका कोई पता ही नहीं मालूम उसको ढूढिएगा कहां? जिसका कोई ओर—छोर नहीं, कोई कोर—ठिकाना नहीं, जिसका कोई पता—ठिकाना नहीं, जिसके निवास की कोई खबर नहीं, उसको खोजिएगा कहां? पागल हो जाइएगा, कहीं भी खोज नहीं पाइका।

लेकिन हां, एक बात का हमें पता है। अपने इस ‘मैं’ का पता है। तो सबसे पहले इस ‘मैं’ को ही खोज लेना चाहिए कि क्या है, और कहां है, और कौन है?

और जैसे ही इसे खोजने जाइएगा वैसे ही आप हैरान हो जाएंगे कि यह ‘मैं’ तो नहीं है। यह तो बिलकुल

ही झूठी खबर थी, यह तो मेरी ही कल्पना थी कि मैं सोचता था कि ‘मैं भी हूं,’ यह तो मेरा ही पाला—पोसा भ्रम था।

छोटे बच्चे पैदा होते हैं, काम चलाने के लिए हम उनका नाम रख लेते हैं। किसी को कहते हैं राम, किसी को कहते हैं कृष्ण, किसी को कुछ और कहते हैं। किसी का कोई नाम नहीं होता, कामचलाऊ नाम रख लेते हैं, लेकिन बाद में निरंतर सुनते—सुनते आदमी को यह भ्रम हो जाता है कि यह मेरा नाम है—मैं राम हूं मैं कृष्ण हूं। और अगर राम को गाली दे दें तो लड़ने को खड़ा हो जाएगा कि आपने मुझे गाली दे दी। और राम कहां से ले आया वह नाम!

कोई जन्म के साथ कोई नाम लेकर पैदा नहीं होता। हर आदमी अनाम पैदा होता है, लेकिन सोशल यूटलिटी है नाम की। एक सामाजिक उपादेयता है, उपयोगिता है। बिना नाम के चिट लगानी और लेबल लगानी मुश्किल है, इसलिए नाम रख लेते हैं। तो दूसरों को पुकारने के लिए नाम रख लेते हैं। वह एक सामाजिक उपयोगिता है और खुद को अगर बार—बार नाम लेकर पुकारें तो बड़ा भ्रम पैदा होगा कि हम खुद को पुकार रहे हैं कि किसी और को, इसलिए खुद को पुकारने के लिए ‘मैं’, ‘मैं’ खुद को पुकारने के लिए एक नाम, एक संज्ञा है। और नाम दूसरों को पुकारने के लिए एक सता है। दोनों ही सताए कल्पित, सामाजिक उपयोगिताएं हैं, सोशल यूटलिटी है। और इन्हीं दो संज्ञाओं के आस—पास हम सारे जीवन के भवन को खड़ा कर लेते हैं। जो केवल दो कोरे शब्द हैं और कुछ भी नहीं है। जिनके पीछे कोई सत्य नहीं, जिनके पीछे कोई सल्लेंस नहीं; जिनके पीछे कोई वस्तु नहीं, सिर्फ नाम, सिर्फ सताए हैं।

एक दफा ऐसी भूल हो गई। एक छोटी सी लड़की थी, एलिस। और एलिस भटकती— भटकती परियों के देश में पहुंच गई। जब वह परियों की रानी के पास पहुंची, तो रानी ने उस एलिस से पूछा, एक छोटा सा प्रश्न पूछा डिड यू मीट समबडी, ऑन दि वे टुवर्ड्स मी? कोई तुम्हें मिला रास्ते में मेरी तरफ आता हुआ? एलिस ने कहा नोबडी। एलिस ने कहा कोई भी नहीं।

लेकिन रानी समझी कि ‘नोबडी’ नाम का कोई आदमी इसको मिला। और भ्रम मजबूत हो गया, क्योंकि फिर रानी का डाकिया, चिट्ठी—पत्री लाने वाला मेसेंजर, वह आया और रानी ने उससे भी पूछा कि डिड यू मीट समबडी, टुवर्ड्स मी। उसने भी कहा नोबडी। उसने भी कहा. कोई नहीं मिला। कोई नहीं।

रानी ने कहा कि बड़ी अजीब बात है। क्योंकि रानी समझी कि ‘ नोबडी ‘ नाम का कोई आदमी एलिस को भी मिला, इसको भी मिला। तो उसने अपने मेसेंजर को कहा कि इट सीम्स नोबडी वाक्स स्लोअर देन यू। उसने कहा कि इसका मतलब है कि वह जो ‘नोबडी’ नाम का आदमी है, वह जो ‘कोई नहीं’ नाम का आदमी है, वह बहुत धीमा चलता है।

लेकिन उस वाक्य के दो अर्थ हो गए। उसका एक अर्थ हुआ कि इससे पता चलता है कि तुमसे धीमा कोई भी नहीं चलता। वह मेसेंजर डरा, क्योंकि मेसेंजर की यही खूबी होनी चाहिए कि वह तेज चलता है। तो उसने कहा कि नहीं—नहीं, नोबडी वाक्स फास्टर देन मी। मुझसे तेज कोई भी नहीं चलता है।

लेकिन रानी ने कहा बड़ी मुश्किल हो गई, तुम कहते हो कि ‘नोबडी’ तुमसे तेज चलता है। तो रानी ने कहा कि इफ नोबडी वाक्स फास्टर दैन यू दैन ही मस्ट हैव रीच्छ बिफोर यू। तो उसको अब तक आ जाना चाहिए था, अगर वह तुमसे तेज चलता है। तो वह बेचारा मेसेंजर… अब उसको खयाल आया कि कुछ गलती हो रही है। उसने कहा नोबडी इज नोबडी, कोई नहीं, कोई नहीं है।

लेकिन रानी बोली यह भी कोई समझाने की बात है। मैं जानती हूं कि नोबडी इज नोबडी। लेकिन ही मस्ट हैव रीच्छ। उसको अब तक आ जाना चाहिए था। वह है कहां?

आदमी के साथ ऐसी ही भाषा की भूल हो जाती है। सब नाम ‘नोबडी’ हैं। किसी नाम का इससे ज्यादा मतलब नहीं है। सब ‘मैं’ का खयाल नोबडी है, इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं है। लेकिन भाषा की भूल से ऐसा खयाल पैदा होता है कि ‘मैं कुछ हूं। मेरा नाम कुछ है।’

आदमी मर जाता है, पत्थरों पर लिख जाता है नाम कि शायद पत्थर बच जाएंगे पीछे, लेकिन पता नहीं हमें कि जितनी रेत बन गई है समुद्रों के किनारे, वह सभी कभी पत्थर थे। सब पत्थर रेत साबित होते हैं। रेत पर लिख दो नाम, या पत्थर पर लिख दो नाम, एक ही बात है। दुनिया की इस लंबी कथा में रेत और पत्थर में कोई फर्क नहीं। समुद्र के किनारे बच्चे लिख आते हैं रेत पर अपना नाम। सोचते होंगे कि कल लोग निकलेंगे और देखेंगे। लेकिन समुद्र की लहरें आती हैं, रेत को पोंछ जाती हैं। के हंसते हैं, अरे पागल हो! रेत पर लिखे नाम का कोई मतलब। लेकिन के पत्थरों पर लिखते हैं। और उनको पता नहीं कि सब रेत पत्थर से बनती है। बूढ़े और बच्चों में कोई फर्क नहीं। बेवकूफी में हम सब बराबर एक ही उम्र के हैं।

एक सम्राट चक्रवर्ती हो गया था। चक्रवर्ती का मतलब कि वह सारी पृथ्वी का मालिक हो गया था। ऐसा मुश्किल से ही कभी होता है। चक्रवर्तियों को एक, एक विशेषता उपलब्ध होती थी जो कि किसी को उपलब्ध नहीं होती थी। कथा है पुरानी। चक्रवर्तियों को एक सौभाग्य मिलता था जो किसी को नहीं मिलता था। और वह यह था कि सुमेरु पर्वत पर, स्वर्ग में जो पर्वत है, उस पर्वत पर उनको हस्ताक्षर करने का मौका मिलता था। यह मौका सबको नहीं मिलता था। कभी कोई चक्रवर्ती होता है अनंतकाल में, कि सारी पृथ्वी को जीत लेता है तब उसे सुमेरु पर्वत पर हस्ताक्षर करने का मौका मिलता है। वह जो सुमेरु पर्वत है, वह सबसे अडिग चट्टान है सारे जगत में।

एक व्यक्ति चक्रवर्ती हो गया, वह बहुत खुश हुआ। यह सौभाग्य उसको मिला कि अब वह सुमेरु पर्वत पर जाकर हस्ताक्षर करेगा। वह बड़े ठाट—बाट से, बड़े फौज—फांटे लेकर स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गया। द्वारपाल ने उससे कहा कि आप आ गए? लेकिन यह भीड़— भाड़ भीतर नहीं जा सकेगी। आपको अकेला ही जाना पड़ेगा। और साथ में आप कुछ हथौड़ी वगैरह नाम खोदने के लिए कोई सामान ले आए हैं? उसने कहा मैं सामान ले आया हूं।

तो उसने कहा कि पहले तो आपको यह करना पड़ेगा, सुमेरु पर्वत अनंत पर्वत है, लेकिन इतने चक्रवर्ती हो गए कि अब उस पर दस्तखत करने को जगह ही नहीं बची। तो आपको पहले तो किसी का नाम मिटाना पड़ेगा, फिर दस्तखत करने पड़ेंगे, क्योंकि जगह नहीं बची है, सारा पर्वत भर गया है।

अंदर गया। पर्वत था अनंत। कई हिमालय समा जाएं उसकी उप—चोटियों में, और उस पर इंच भर जगह न बची थी। उसने तो सोचा था अनंतकाल में एकाध चक्रवर्ती होता है, लेकिन उसे पता ही नहीं था कि कितना काल अनंत हो चुका है कि अनंतकाल में भी एक चक्रवर्ती हो तो भी पर्वत भर गया है; उधर कोई जगह नहीं है। वह बड़ा उदास और हैरान हो गया। पहरेदार कहने लगा आप उदास न हों। मेरे पिता भी यही काम करते थे, उनके पिता भी यही काम करते थे, उनके पिता भी यही काम करते थे। हम हमेशा पीढ़ी दर पीढ़ी यही सुनते आए हैं कि जब भी दस्तखत करने पड़ते हैं, जगह मिटा कर ही करने पड़ते हैं। कभी जगह खाली नहीं मिलती।

चक्रवर्ती वापस लौटने लगा। उसने कहा कि जब नाम मिटा कर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं तो पागलपन है। क्योंकि मैं करके गया और कल कोई दूसरा आकर मिटा कर कर देगा, और जहां पहाड़ इतना बड़ा है और इतने नाम हैं, पढ़ता कौन होगा? और मतलब क्या रहा? मुझे क्षमा कर दो, मैं भूल में पड़ गया हूं। बात व्यर्थ हो गई है।

लेकिन इतने समझदार लोग कम होते हैं। पत्थर पर नाम लिखवाते हैं, मंदिर पर नाम लिखवाते हैं, स्मारक बनवाते हैं, नाम लिखवाते हैं और भूल ही जाते हैं कि बिना नाम के पैदा हुए थे। नाम कोई अपना था नहीं। तो पत्थर खराब किया अलग, मेहनत करवाई सो अलग और विदा होते हैं तब अनाम विदा होते हैं। अपना कोई नाम नहीं था।

‘नाम’ है बाहर के जगत से दिखने वाला भ्रम और ‘मैं’ है भीतर की तरफ से दिखने वाला भ्रम।’मैं’ और ‘नाम’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।’नाम’ दिखता है बाहर की तरफ से, ‘मैं’ दिखता है भीतर की तरफ से। और जब तक यह नाम और मैं का भ्रम शेष रहता है तब तक वह गांठ नहीं खुलती है जिससे प्रेम उत्पन्न होता है।

तो अंतिम बात मुझे यह कहनी है कि थोड़ा खोजें, थोड़ा सुमेरु पर्वत पर जाएं और देखें कि कितने हस्ताक्षर हो गए हैं। आपको भी करने हैं जमीन मिटा कर? थोड़ा पहाड़ों के किनारे जाएं और उनको रेत बनते देखें। थोड़ा समुद्रों के किनारे बच्चों को दस्तखत करते देखें। चारों तरफ अपने को देखें कि हम क्या कर रहे हैं। हम कहीं रेत पर हस्ताक्षर करने में जीवन व्यय तो नहीं कर रहे हैं? और अगर ऐसा लगे तो थोड़ी खोज— बीन करें, इस ‘मैं’ के भीतर घुसे और खोजें और खोजें। एक दिन आप पाएंगे कि ‘मैं’ नोबडी है। वहां कोई भी नहीं है। वहां एक गहरा सन्नाटा और शांति है। वहां कोई भी ‘मैं’ नहीं है। और जिस दिन यह पता चल जाता है कि भीतर कोई ‘मैं’ नहीं है, उसी दिन सबका पता चल जाता है, जो है, जो वस्तुत: है—जो अस्तित्व है, जो आत्मा है, जो परमात्मा है।

इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम द्वार है परमात्मा का, और अहंकार द्वार है अज्ञान का। अहंकार द्वार है अंधकार का, और प्रेम द्वार है प्रकाश का। यह अंतिम बात विदा होते आपसे कह देनी थी। तो प्रेम पर इस दिशा से थोड़ी खोज करना, लेकिन वह खोज अहंकार की खोज से शुरू होगी और प्रेम की उपलब्धि पर पूरी होगी। तो इस तरफ से थोड़ा खोजना कि यह अहंकार की छाया सच में है, है यह कहीं, है कहीं अहंकार? कहीं हूं ‘मैं’? जो आदमी इस खोज में निकलता है, वह ‘मैं’ को तो नहीं पाता है, लेकिन परमात्मा को पा लेता है।’मैं’ की खूंटी से जो बंधे हैं, उनके जगत में, उनके सागर में, प्रभु के सागर में उनकी कोई यात्रा नहीं है। यह अंतिम बात आपसे कहनी है, वैसे यही प्रथम भी है, यही अंतिम भी है।

‘मैं’ —ही प्रथम है मनुष्य के जीवन का और ‘मैं’ ही अंतिम है।’मैं’ में ही बंधा हुआ आदमी दुख पाता है। और ‘मैं’ से मुक्त होकर आनंद को उपलब्ध हो जाता है।’मैं’ के अतिरिक्त और कोई कहानी नहीं और कोई कथा नहीं।’मैं’ के अतिरिक्त और कोई सपना नहीं, और ‘मैं’ के अतिरिक्त और कोई असत्य नहीं।

तो इस ‘मैं’ को खोल लें और प्रेम के द्वार खुल जाएंगे।’मैं’ की चट्टान टूट जाए और पीछे से प्रेम के झरने बहने शुरू हो जाते हैं। हृदय तो प्रेम के संगीत से भरता है और जहां हृदय प्रेम के संगीत से भरता है, वहां फिर एक और नई यात्रा शुरू होती है जिसे शब्दों में कहना कठिन है। वह फिर जीवन के केंद्र पर ले जाती है और पहुंचा देती है।

ये थोड़ी सी बातें अंतिम जाते समय आपसे मुझे कहनी थीं, वे मैंने कहीं।

ब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। दस मिनट के लिए हम रात्रि का ध्यान करेंगे। और फिर हम विदा हो जाएंगे। और मैं इस आशा में और परमात्मा से इस प्रार्थना में आपको विदा दूंगा कि परमात्मा सबको यह सौभाग्य दे कि वे प्रेम को उपलब्ध हो सकें। परमात्मा सबको यह सौभाग्य दे कि वह ‘मैं’ की बीमारी से छूट सकें। परमात्मा सबको यह सौभाग्य दे कि जो उसके पास ही है वह उसे मिल जाए।

एक भिखारी मर गया था एक बहुत बड़े नगर में। परमात्मा करे आप भी उस भिखारी जैसे न मर जाएं। और वह भिखारी चालीस वर्षों तक एक ही जगह बैठ कर भीख मांगते मर गया था। भीख मांगते—मांगते सोचा था कि भीख मांगते—मांगते सम्राट हो जाऊंगा। लेकिन भीख मांग कर कभी कोई सम्राट होता है? तो भीख तो आदमी जितनी मांगता है उतना ही बड़ा भिखारी हो जाता है।

तो जिस दिन उसने शुरू किया था, छोटा भिखारी था, जिस दिन मरा तो बड़ा भिखारी था। लेकिन सम्राट नहीं हुआ था, फिर मर गया। तो मरने वाले के साथ जो पास—पड़ोस के लोग व्यवहार करते हैं, वही उसके साथ भी किया। उसकी लाश को फिंकवा दिया, जलवा दिया। जिस जमीन पर वह बैठा था, वहां चिथड़े उसके पड़े थे, गंदगी पड़ी थी, उसमें आग लगवा दी। और फिर पड़ोस के लोगों को खयाल आया कि यह भिखारी चालीस वर्ष तक इसी जमीन को गंदा करता रहा, तो थोड़ी सी जमीन भी खुदवा कर फेंक दें। उन्होंने थोड़ी सी जमीन भी खुदवा कर फेंकी।

और देखते ही वे हैरान रह गए! काश, भिखारी जिंदा होता तो वह भी पागल हो उठता, जमीन खोदते ही पाया कि वहां तो बहुत बड़ा खजाना गड़ा हुआ है, जिस पर बैठा हुआ भिखारी भीख मांगता था। लेकिन उस भिखारी को पता भी नहीं था कि मैं जिस जमीन पर बैठ कर भीख मांगता हूं अगर वहां खोद लूं तो सम्राट हो जाऊंगा। भीख मांगने की कोई जरूरत न रह जाएगी।

लेकिन उस बेचारे को क्या पता, उसकी आंखें बाहर लगी थीं, हाथ बाहर फैले थे, भीख मांगते—मांगते मर गया था। वे सारे पड़ोस के लोग चकित खडे रह गए कि कैसा यह भिखारी था! इस पागल को यह भी पता न चला कि मैं किस जमीन पर बैठा हूं वहां खजाने हैं!

मैं भी उस मोहल्ले में गया और मैंने उन पड़ोस के लोगों को आश्चर्य से भरे हुए देखा, तो मैंने उनसे कहा कि पागलो! तुम भिखारी की फिकर मत करो। छोड़ दो भिखारी की फिकर। क्योंकि तुम भी अपनी— अपनी जमीन खोद कर देख लेना, कहीं ऐसा न हो कि तुम भी मर जाओ और दूसरे लोग तुम पर हंसे। जो मर जाते हैं, उन पर दूसरे लोग हंसते हैं कि बड़ा पागल था यह आदमी, कुछ भी न पा सका। और उन्हें पता नहीं कि उनके मरने की दूसरे लोग रास्ता देख रहे हैं ताकि वे भी हंसेंगे कि बड़ा पागल था यह आदमी, और कुछ भी न पा सका।

जो मर जाता है उस पर जिंदा लोग हंसते हैं, लेकिन जो जिंदा आदमी अपने पर हंसने का खयाल भी जिसे पैदा हो जाता है, उसकी जिंदगी बदल जाती है। वह दूसरा आदमी हो जाता है।

तो अगर इन तीन दिनों में आपको अपनी ही जिंदगी पर हंसने का खयाल आ जाए तो बात पूरी हो गई। और आपको खयाल आ जाए उस जगह खोदने का जहां आप खड़े हैं, तो बात पूरी हो गई। तो मैंने जो कहा उसका परिणाम फिर निश्चित आ सकता है।

अंत में यही प्रार्थना करता हूं कि आप भिखारी ही नहीं मर जाएंगे, सम्राट होकर ही मरेंगे। पड़ोस के लोगों को हंसने का मौका नहीं देंगे, इसकी प्रार्थना करता हूं।

तीन दिन तक मेरी बातों को इतनी शांति और इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत—बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

ब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। तो आप सब थोड़ी— थोड़ी जगह बना लें, ताकि आप लेट सकें। अंतिम ध्यान है, इसलिए उसका पूरा उपयोग कर लें। सब लोग थोड़े फासले पर हो जाएं।

हां, बातचीत न करें, कोई बातचीत न करें। और जो लोग बीच में बैठे हैं, वे हट आएं बाहर। कोई किसी को छूता हुआ न हो। वहां से हट आएं यहां बाहर, जहां जगह है वहां हट जाएं। बातचीत बिलकुल भी नहीं। क्योंकि बातचीत का कोई संबंध नहीं है। यहां आगे हट आएं कुछ लोग। और ध्यान रखें कि आपके कारण किसी के ध्यान में जरा भी बाधा न पड़े। किसी के भी कारण किसी दूसरे को जरा भी बाधा न पड़े। आप लेट जाएं, तो फिर प्रकाश बुझा दिया जाए। देखें, इसको ध्यान में लेंगे कि किसी के कारण किसी को जरा भी बाधा न हो।

(हां, प्रकाश बुझा दें।)

सबसे पहले शरीर को बिलकुल शिथिल छोड़ कर लेट जाएं। बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर में कोई प्राण नहीं हैं। शरीर बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर में कोई प्राण ही नहीं हैं। शरीर बिलकुल ढीला छोड़ दें। आंख धीरे से बंद कर लें। आंख बंद कर लें।

आंख बंद कर ली है। शरीर ढीला छोड़ दिया है। अब मैं सुझाव देता हूं मेरे साथ अनुभव करेंगे तो ठीक वैसा ही परिणाम शरीर और मन में होता जाएगा।

अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल होता जा रहा है…। अनुभव करें, शरीर शिथिल होता जा रहा है……शरीर शिथिल होता जा रहा है……शरीर शिथिल होता जा रहा है……शरीर शिथिल होता जा रहा है..। शरीर बिलकुल शिथिल छोड़ दें और भाव करें, शरीर शिथिल हो गया है……शरीर शिथिल हो गया है……शरीर शिथिल हो गया है……शरीर शिथिल हो गया है…।

श्वास शांत होती जा रही है… भाव करें, श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है…। भाव करें, श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो गई है……श्वास शांत हो गई है……श्वास शांत हो गई है……श्वास शांत हो गई है……श्वास शांत हो गई है…।

मन भी शून्य हो रहा है……मन भी शांत हो रहा है……मन भी शांत हो रहा है… भाव करें, मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है…।

अब दस मिनट के लिए भीतर जागे हुए बाहर की सब ध्वनियों को चुपचाप सुनते रहें। भीतर जागे रहें, सो नहीं जाना है। भीतर होश से भरे रहें। भीतर जागे रहें और चुपचाप सुनते रहें। सिर्फ सुनते रहें। रात के सन्नाटे को सुनते रहें। सुनते ही सुनते बहुत गहरा शून्य उत्पन्न होगा।

सुनें……दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रहें। शांत सुनते रहें, मन बिलकुल शून्य में उतर जाएगा। मन शून्य हो जाएगा। मौन सुनते रहें, मन शून्य हो रहा है.. मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है…।

और गहरे शून्य में डूबते जाएं। मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है……मन शून्य होता जा रहा है…। और गहरे डूबते जाएं। मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है……मन बिलकुल शून्य हो गया है…।

मन शून्य हो गया है……मन शून्य हो गया है… और गहरे डूब जाएं, बिलकुल गहरे डूब जाएं। मन शून्य हो गया है……मन शून्य हो गया है…।

धीरे— धीरे दों—चार गहरी श्वास लें……प्रत्येक श्वास के साथ बहुत शांति अनुभव होगी। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……प्रत्येक श्वास के साथ शांति अनुभव होगी। फिर धीरे— धीरे आंख खोलें……बाहर भी वैसी ही शांति प्रतीत होगी जैसी भीतर है। धीरे— धीरे आंख खोलें……फिर बहुत आहिस्ता से उठ कर बैठ जाएं। जरा भी गड़बड़ न हो, आस—पास किसी को परेशानी न हो। धीरे से उठ कर बैठ जाएं।

बातचीत नहीं करेंगे।

(प्रकाश जला दें।)

 

हमारी अंतिम बैठक पूरी हुई।

(ध्‍यान शिविर समाप्‍त)


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प्रभु की पगडंडियां–(प्रवचन–1)

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प्रभु की पगडंडियां

ओशो

(साधना—शिविर, नारगोल में हुए 7 अमृत प्रवचनों, प्रश्‍नोत्‍तरो एवं ध्‍यान—सूत्रों का अपूर्व संकलन।)

वर्तमान में जीएं: मौन, नासाग्र—दृष्‍टि—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 31 नवग्‍बर, 1968; रात्री

ध्‍यान—शिविर, नारगोल।

प्रिय!

इस निर्जन सागर—तट पर आपको, आपको बुलाया और आप आ गए हैं। शायद आपको ठीक खयाल भी न हो कि किसलिए बुलाया गया है। यदि आपने सोचा हो कि मैं यहां कुछ बोलूंगा और आप सुनेंगे, तो आपने ठीक नहीं सोचा। बोलने के लिए तो मैं गांव—गांव में खुद ही आ जाता हूं और आप मुझे सुन लेते हैं। यहां सिर्फ सुनने के लिए आने की कोई जरूरत नहीं है। यहां कुछ करने का खयाल हो तो ही आने की सार्थकता है। मेरी तरफ से मैंने कुछ करने को ही आपको यहां बुलाया। क्या करने को बुलाया?

इन तीन दिनों में, आने वाले तीन दिनों में उस करने की दिशा में ही कुछ बातें मैं आपसे कहूंगा, इस आशा में कि आप केवल उन्हें सुनेंगे नहीं, बल्कि इन तीन दिनों में कम से कम उनका प्रयोग करेंगे। और यह मेरी समझ है कि सत्य की दिशा में एक भी कदम उठा लिया जाए तो उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता है, यह असंभावना है। असत्य की तरफ उठाया गया कदम वापस उठाना ही पड़ता है और सत्य की तरफ उठाया गया कदम कभी भी वापस नहीं उठाया जा सकता है।

तो अगर तीन दिनों में जरा सा भी कदम उठाया तो आगे वह कदम उठता ही रहेगा, उस कदम से पीछे नहीं लौटा जा सकता है। मैं कुछ कहूंगा, मेरे कहने से कुछ होने वाला नहीं है। अगर उसके साथ आप प्रयोग करते हैं तो यह आश्वासन मेरी तरफ से है कि जितनी पाने की आपने कल्पना की हो जीवन में, उससे बहुत ज्यादा पाया जा सकता है।

बहुत थोड़े श्रम से हम कितनी आंतरिक संपदा पा सकते हैं, इसका हमें कुछ भी पता नहीं है। पता हो भी कैसे, जब हम पा लें तभी पता चल सकता है, दूसरा कोई रास्‍ता भी नहीं। लेकिन हजारों वर्षों से आदमी एक आश्‍चर्यजनक चक्‍कर में उलझ गया है। वह चक्‍कर सुनने, समझने और विचार करने का चक्‍कर है। कई बार ऐसा होता है कि बहुत सोचने—विचारते रहने वाले लोग कुछ भी नहीं कर पाते है।

दुनियां में जितना सोच—विचार बढ़ता चला गया है, उतनी ही सक्रिय होने की हमारी क्षमता क्षीण होती चली गई है। हमारी स्‍थिति तो उस मजाक जैसी हो गई है, जैसे मैने सुना है कि पहले महायुद्ध में एक अमरीकी विचारक भी युद्ध की सेना में भर्ती हो गया। विचारक का काम विचार करना है। बस वह एक ही काम जानता है—सोचना, सोचना।

मिलिटरी में भर्ती किया गया तो वह पूरी तरह स्‍वस्‍थ था, कोई रूकावट नहीं पड़ी। डॉक्‍टरों ने उसे इजाजत दी। सारे अंग, सारा शरीर ठीक था। आंखें ठीक थी। सब तरह से वह स्‍वास्‍थ था, योग्‍य था, लेकिन किसी डॉक्‍टर को यक कभी भी कल्‍पना नहीं हो सकती थी कि वह पूरी तरह स्‍वस्‍थ आदमी, कुछ भी करने में असमर्थ है सिवाय सोचने के। इसका पता भी कैसे चल सकता था। आपको देख कर भी यह पता नहीं चलता, किसीको देख कर यह पता नहीं चलता।

यह भर्ती भी हो गया और पहले ही दिन जब वह कवायद में खड़ा हुआ और उसको सिखानेवाले शिक्षक ने कहा: महाश्‍य, क्‍या आपका सुनाई नहीं पड़ता?

उसने कहा: सुनाई मुझे बिलकुल ठीक पड़ता है। लेकिन बिना सोचे—विचारे मैं कुछ भी कर नहीं सकता हूं। मैं सोच रहा हूं, कि बाएं घूमना या नहीं घूमना।

उसके शिक्षक ने कहा कि तब तो बड़ी कठिनाई है। इतना सोच—विचार करिएगा तो इस सैनिक की जिंदगी में चलना बहुत मुश्‍किल है। बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन कोई रास्‍ता न था। वह बिना सोचे—विचारे कुछ कर ही नहीं सकता था।

और सोच—विचार कर करता तो भी ठीक था, वह इतना सोच—विचार करता था कि समय ही निकल जाता था। और सोच—विचार में और नये सोच—विचार पैदा हो जाते थे। जिनकी शृंखला का कोई अंत नहीं है। पीछे पता चला कि उस व्‍यक्‍ति ने शादी करनी चाही थी, और किसी युवती ने उससे निवेदन किया था। वह तीन वर्ष तक सोचता रहा पक्ष में और विपक्ष में। तीन वर्ष के बार भी वह निर्णय नहीं कर पाया कि शादी करनी ठीक है या नहीं करना ठीक है। अपनी यह खबर देने वह उस युवती के घर तीन वर्ष बाद गया की क्षमा करना, मैं अभी निर्णय नहीं कर पाया हूं। लेकिन तब तक उस स्‍त्री के तीन बच्‍चे हो चुके थे। उसकी शादी हो चुकी थी।

उस आदमी को किसी काम का न जान कर……लेकिन चूंकि वह भर्ती हो गया था। और प्रसिद्ध विचारक था, किसी न किसी काम में रखना जरूरी था। तो उसे जो सैनिक का भोजनलय था वहां उसे भेज दिया गया। वहां छोटे—मोटे काम वह कर सकेगा। और पहले ही दिन उसे मटर के दाने चुनने के लिए दिए गये कि बड़े दानों को अलग कर दे और छोटे दानों को अलग करें। घंटे भर बाद जब उसका शिक्षक पहुंचा तो वह सिर पर हाथ लगाए हुए बैठा था। दाने वैसे के वैसे रखे थे।

उसने पूछा: महाशय, क्‍या यह भी नहीं कर सके आप?

उसने कहा: करूं जरूर,लेकिन पहले सोच लूं, यह तो साफ हो गया कि बड़े दाने भी है, छोटे दाने भी है, लेकिन कुछ बीच के दाने है उनको कहां करना है और जब तक उनका निर्णय न हो जाए, तब तक फिजूल की उलझन में पड़ने से कोई सार नहीं है। मैंने बहुत सोचा कि बीच के दाने किस तरफ, छोटे दानों की तरफ कि बड़े दानों की तरफ, क्योंकि बीच के दाने न तो छोटे हैं और न बड़े। या दोनों हैं।

पता नहीं, उस आदमी का पीछे क्या हुआ! जो हुआ होगा वह हम सोच सकते हैं। लेकिन हम सारे लोग भी जीवन के मसले में करीब—करीब वैसे ही आदमी हैं। यहां मैंने बुलाया है आपको सोच—विचार के लिए जरा भी नहीं। यहां बुलाया है कुछ कदम उठाने को। निश्चित ही सोच—विचार करना हो तो मैं अकेला काफी हूं लेकिन कदम उठाना हो तो आप मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। साधना शिविर में मैं गौण हूं महत्वपूर्ण आप हैं। मैं नहीं हूं महत्वपूर्ण, क्योंकि कदम आपको उठाना है।

तीन दिनों की मेरी चेष्टा यही होगी कि सिवाय उन बातों के आपसे कुछ भी न बात करूं, जो सहयोगी हों आपको आंतरिक जीवन में ले जाने के लिए। जो परमात्मा के मंदिर की यात्रा में सीढ़ियां बन सकें उनकी ही मैं बात करना चाहता हूं।

लेकिन प्रत्येक सीढ़ी चढ़ने से सीढ़ी बनती है, उसके पहले वह सिर्फ पत्थर होती है। जब तक कोई उस पर चढ़ता नहीं तब तक उसे सीढ़ी नहीं कहा जा सकता है, वह चढ़ने से ही सीढ़ी बनती है। अगर किसी मंदिर पर कोई भी न जाता हो तो उस मंदिर के सामने पत्थर पड़े हैं ऐसा कहना पड़ेगा, ऐसा नहीं कि उस मंदिर के सामने सीढ़ियां हैं। क्योंकि पत्थर सीढ़ी तभी बनता है जब कोई उस पर चढ़ता है। और यह भी ध्यान रहे, कुछ नासमझ सीढ़ियों को भी पत्थर बना लेते हैं और उनसे ही अटक जाते हैं और कुछ समझदार पत्थरों पर भी चढ़ते हैं और उनको सीढ़ियां बना लेते हैं। हम क्या करेंगे? क्या करने को मैंने आपको यहां बुला भेजा है? कौन सी यात्रा है?

एक यात्रा बाहर की है जो हम सब कर रहे हैं और उस यात्रा में चाहे हम सफल हों या असफल, चाहे हम उस यात्रा में कुछ पा लें या न पा लें—एक बात निश्चित है, पाने वाले और न पाने वाले बाहर की यात्रा के जगत में आखिर में एक जगह पहुंचते हैं जहां पाते हैं दोनों ही असफल हो गए हैं—वे भी जो सफल थे और वे भी जो असफल थे। मौत जब करीब आती है तो बाहर की हमारी सारी सफलता—असफलता पोंछ कर समाप्त कर देती है। हम खाली के खाली आदमी रह जाते हैं। लेकिन जो लोग भीतर की यात्रा भी करते हैं, उनकी तो मौत कभी आती नहीं, क्योंकि भीतर जाकर वे जानते हैं कि वहां जो है उसकी कोई मृत्यु नहीं है। वह सदा से है, था, होगा।

एक अनंत यात्रा है अंतस की, एक अनंत जीवन है, एक अमृत जीवन है। जो उस जीवन को जान लेते हैं फिर मृत्यु उनसे कुछ भी नहीं छीन पाती है। और जो सफलता मृत्यु छीन लेती हो उसे सिर्फ नासमझ सफलता कहते होंगे, क्योंकि जो छीनी जा सकती है उसे सफलता कैसे कहा जा सकता है? जो नहीं छीनी जा सकती, जो नहीं तोड़ी जा सकती, जो नहीं चुराई जा सकती, ऐसी कोई संपदा हम खोज लें तो ही वह संपदा है। ऐसी ही संपदा की खोज के लिए यह आमंत्रण था और आप आए दूर—दूर से।

लेकिन यह आना अभी बाहर का आना हुआ। नारगोल तक पहुंच जाना एक बात है। वह भी बाहर की यात्रा है। मेरे सामने आकर बैठ जाना एक बात है। वह भी बाहर की यात्रा है। मुझे सुनना भी एक बात है। वह भी बाहर की यात्रा है। अब इन तीन दिनों में उस भीतर की यात्रा करनी है जहां आप हैं, जहां प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा है, जहां चेतना का मंदिर है। अपने से ही हम अपरिचित हैं। नहीं जानते—क्या हूं कौन हूं कहां से हूं क्यों हूं? कुछ भी पता नहीं! अंधे की तरह जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं। क्या यही जीवन स्वीकार कर लेना है? क्या यही जीवन पर्याप्त है? निश्चित ही यह जीवन आपको पर्याप्त नहीं लगता होगा, इसीलिए आप आए हैं।

फिर और कौन सा जीवन हो सकता है और उस जीवन में हम कैसे प्रवेश कर सकते हैं? आज की रात तो कुछ बहुत प्राथमिक और प्रारंभिक बातों पर ही मैं आपसे बात करूंगा, फिर कल सुबह से गहरी यात्रा की बात करनी है। लेकिन जो प्राथमिक और प्रारंभिक बातें हैं वे गौण नहीं हैं। किसी भी यात्रा में पहला कदम अंतिम कदम से गौण नहीं होता। बल्कि सच तो यह है कि पहला कदम ही असली कदम होता है। जिन्होंने पहला उठा लिया, वे अंतिम उठा भी सकते हैं। लेकिन जिन्होंने पहला ही नहीं उठाया उनके अंतिम के उठाने का तो कोई सवाल नहीं है। तो प्राथमिक और छोटी—छोटी बातें ही पहली इस चर्चा में मैं कहूंगा।

एक, सबसे पहली जरूरत जो करने की है वह यह कि आप शरीर से तो यहां आ गए हैं साधना शिविर में, मन से भी आ जाना चाहिए। शरीर से आ जाना एकदम आसान है। मन सदा पीछे की तरफ दौड़ता रहता है। मन सदा अतीत की तरफ भागता रहता है। हम सदा वहां होते हैं जहां से हम आ गए हैं। हम सदा भूतपूर्व होते हैं, हम कभी भी वर्तमान में नहीं होते। जहां हम थे वहां हमारा मन होता है; जहां हम आ गए हैं वहां नहीं। जो क्षण हमारे पास से गुजर रहा है वहां हम नहीं होते, जो बीत गया, गुजर गया वहीं हमारा चित्त होता है।

और इसका कारण है। क्योंकि हमने आज तक चित्त को स्मृति के साथ जोड़ रखा है। हमने कांशसनेस को मेमोरी के साथ जोड़ रखा है। हमने यह मान रखा है कि मेरी स्मृति ही मेरी चेतना है, मेरी याददाश्त ही मेरी आत्मा है—यह भांति है, बुनियादी भ्रांति है। और साधक के लिए जानना चाहिए कि पीछे जो बीत गया है वह बिलकुल बीत चुका है। उसकी कोई रूप—रेखा, उसका कोई अस्तित्व कहीं नहीं रह गया है सिवाय हमारी स्मृति के। कृपा करें उसे स्मृति से भी बीत जाने दें। अतीत हो चुका, जा चुका, उसे चला जाने दें। यहां आ गए हैं तो पूरी तरह आ जाएं।

इन तीन दिनों में अगर यहीं रहे, इसी सागर—तट पर, इसी सागर के गर्जन को सुनते हुए, इन्हीं सरू वृक्षों की छाया में, इसी आकाश के, इन्हीं तारों के, इसी चांद की चांदनी में, तो कुछ काम हो सकता है। वर्तमान में होना साधक के लिए पहली शर्त है, टु बी इन दि प्रेजेंट—वह जो है, वहां। लेकिन हम मरते ही नहीं अतीत के प्रति, उसको ढोते चलते हैं, ढोते चलते हैं।

पतझड़ में जाकर देखें किसी जंगल में पत्ते गिर गए हैं, जिन पर कभी सूरज की रोशनी चमकती थी और हवाएं जिन्हें डुलाती थीं, झूले देती थीं, वे पत्ते अचानक गिर गए हैं, पतझड़ आ गया। वे फूल जिन पर भौरे गीत गाते थे, अब नहीं हैं, जा चुके। शाखाएं नंगी खड़ी हैं, वृक्ष ने अपनी खोल तक छोड़ दी है, छाल तक छोड़ दी है, वृक्ष बिलकुल मर गया है; न फूल हैं, न पत्ते, न कोई गीत गुनगुनाता है, न कहीं छाया है, न कहीं हरियाली है। वृक्ष बिलकुल सूख गया, वृक्ष बिलकुल मर गया है। लेकिन थोड़े ही दिन में देखेंगे, आ गए नये पत्ते। पुराने की जगह छा गया नया रंग। फिर फूल आ गए और भी ताजे, और भी नये। फिर गीत, फिर गुनगुन, फिर पक्षी बसने लगे, फिर यात्री ठहर कर छाया लेने लगे। यह वृक्ष फिर से नया हो गया, फिर से जवान। इस वृक्ष को कोई कीमिया, कोई राज मालूम है। यह मरने का राज जानता है। पतझड़ में मर गया है, सब छोड़ दिया था जो पुराना था। अब फिर नया हो गया—फिर जीवंत, फिर ताजा, फिर युवा।

लेकिन आदमी इस राज को भूल गया है। इसलिए आदमी बूढ़े से का ही होता चला जाता है। उसका बुढ़ापा बोझ की तरह बढ़ता चला जाता है। शरीर का होगा, लेकिन आत्मा के के होने की कोई भी जरूरत नहीं। शरीर का होगा, लेकिन चेतना हम की कर लेते हैं। जोड़ते चले जाते हैं बीते पत्तों को जो गिर चुके—उन फूलों को जो अब नहीं हैं, उन गीतों को जो फूलों पर गंजे थे, उन पक्षियों को जो कभी ठहरे थे, उन यात्रियों को जो छाया में विश्राम किए थे। उन सबको हम इकट्ठा किए चले जाते हैं। अतीत का बोझ बढ़ता चला जाता है, बढता चला जाता है, और आदमी की आत्मा उसी बोझ के नीचे जर्जर, दीन—हीन, की होती चली जाती है।

शरीर से कोई आदमी का हो जाए, लेकिन अगर उसकी आत्मा रोज ही युवा हो और यह राज जानती हो रोज अतीत के प्रति मर जाने का—जो हो चुका, हो चुका; जा चुका, जा चुका। नहीं, अब वह नहीं है कहीं भी। मैं भी वहां क्यों बंधा रहूं! जैसे सांप छोड़ देता है केंचुल अपनी, छोड़ दूं अतीत की केंचुल को, बढ़ जाऊं आगे।

तो आदमी का शरीर का हो जाएगा, लेकिन आंखें नहीं, आत्मा नहीं। और तब के आदमी के भीतर से भी सतत यौवन, वह सतत जीवन, वह जो सदा नया है, वह झांकना शुरू कर देता है। और इतना ही यौवन, इतनी ही ताजगी, इतनी ही सरलता, इतना ही ताजापन, नयापन चाहिए तब कोई व्यक्ति परमात्मा के मंदिर की तरफ यात्रा करने में सफल हो पाता है।

का आदमी परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचता है, नहीं पहुंच सकता। का आदमी सिर्फ कब तक पहुंचता है और कहीं नहीं। लेकिन ध्यान रहे, मैं बूढ़े आदमी को—शरीर से के आदमी को— का आदमी नहीं कह रहा हूं। शरीर से तो सभी बूढ़े होते हैं—बुद्ध भी, महावीर भी, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी, लेकिन कुछ लोग आत्मा से ताजे, नये और जवान रह जाते हैं।

वे जो लोग आत्मा में, चेतना में ताजे और नये हैं, वे प्रभु के मंदिर में प्रवेश करते हैं।

क्यों? क्योंकि प्रभु के मंदिर का अर्थ ही क्या है सिवाय इसके कि वह जीवन का मंदिर है। प्रभु के मंदिर का अर्थ क्या है और! एक ही अर्थ है कि वह जीवन है। और जीवन में तो वे ही प्रवेश कर सकते हैं जो सतत अतीत को, मुर्दा को छोड़ कर पुनरुज्जीवित होने की क्षमता जुटा लेते हैं। मरना पड़ता है साधक को रोज, ताकि वह रोज नया जन्म ले सके।

इन तीन दिनों के शिविर में, पहली बात, मर जाएं अतीत के प्रति, जहां से आ गए हैं वहां अब नहीं हैं। न कोई संबंधी है आपका अब, न कोई गांव, न कोई धंधा, न कोई नाम, न कोई जाति, न कोई धर्म— वह था! अब कहां है, भीतर कहां है वह? कहां हैं वे नाम, कहां हैं वे जातियां, कहां हैं वे संबंध। वहां कौन है धनी, कौन है निर्धन; कौन है हिंदू कौन है मुसलमान। जाने दें उसे। उसकी कोई रेखा मन पर न रह जाए।

आज रात जब सोए तो अतीत के प्रति पूरी तरह मर जाएं, ताकि सुबह नया आदमी, नई चेतना आपके भीतर जन्मे और प्रकट हो। वही चेतना जीवन के मंदिर में प्रवेश दिला सकती है। वही चेतना स्वयं को जानने में समर्थ बना सकती है। वही चेतना, उसी चेतना के दर्पण में सत्य का प्रतिबिंब बनता है। और तो कोई रास्ता नहीं। जिन लोगों के मनों पर अतीत की धूल की पर्त जमी है उनके मन के दर्पण कभी भी सत्य की परछाईं नहीं बना पाएं तो इसमें आश्चर्य क्या, दोष किसका है?

पहला सूत्र मरना सीखें, रोज—रोज मरना। पल—पल मरना सीखें, एक—एक क्षण मरने की कला जाननी चाहिए, अगर जीवन की कला सीखनी है। आए आप और मुझे गाली दे गए हैं। दिन बीत गया, कभी के आप जा चुके, कभी की गाली गूंजी और शून्य में खो गई और मैं हूं कि गाली सुने चला जा रहा हूं। मैं हूं कि आप मेरे सामने ही खड़े हैं। माह बीत गए, वर्ष बीत गए, कहीं उस गाली की कोई रूप—रेखा न रही, कहीं खोजने जाऊं तो धुआं भी जो कभी था शायद मिल जाए, लेकिन वह गाली तो अब कहीं भी नहीं मिलेगी। वह आदमी कहां, वह घड़ी कहां, वह क्षण कहां, लेकिन मैं हूं कि उसी में जीए चला जा रहा हूं। वर्ष बीत गया, लेकिन मैं वहीं ठहर गया जहां गाली दी गई थी।

एक दिन सुबह बुद्ध बैठे थे एक वृक्ष के पास। एक आदमी आया था क्रोध से और उनके ऊपर यूक दिया था और भरसक जितनी गाली दे सकता था, दी थी। बुद्ध ने उस यूक को अपनी चादर से पोंछ लिया था और कहा था कि मेरे मित्र! कुछ और कहना है? वह मित्र चौंका होगा, क्योंकि वह शत्रु होकर आया था और उसे आशा न थी कि जिसका वह शत्रु होकर गया है, वह भी मित्र उसे मान सकता है। वह चौंका, चौंका इसलिए भी कि उसने थूका था, कुछ कहा न था।

लेकिन बुद्ध पूछने लगे कुछ और कहना है? बुद्ध का भिक्षु था आनंद, वह क्रोध से भर आया। और उसने कहा कि भगवान कैसी बात करते हैं आप, यूका है उस अशिष्ट व्यक्ति ने और आप पूछते हैं और कुछ कहना है!

बुद्ध ने उसे छोड़ दिया और आनंद को समझाने लगे। कहने लगे आनंद, तू समझा नहीं। वह कुछ कहना चाहता है जरूर, लेकिन क्रोध है ज्यादा और शब्द पड़ जाते हैं छोटे। नहीं शब्दों में कह पाता है, इसलिए यूक कर कहता है। कोई प्रेम से भरा जाता है, नहीं कह पाता है शब्दों में, हृदय से लगा लेता है। कोई क्रोध से भर जाता है, नहीं कह पाता है शब्दों में, थूक कर कहता है। मैं समझ गया। समझा इस आदमी की मुसीबत। जब भी कोई बड़ा भाव होता है तो कहना मुश्किल होता है। शब्द छोटे पड़ जाते हैं। समझ गया इसकी कठिनाई, तो इसीलिए पूछता हूं मेरे मित्र! कुछ और कहना है?

वह आदमी क्या कहता, वह वापस चला गया। वह हारा हुआ वापस गया था, क्योंकि जो शत्रु होकर कहीं जाते हैं वे एक ही शर्त पर हारते हैं कि जहां वे शत्रु होकर गए हों वहां शत्रु न मिले, अन्यथा वे कभी नहीं हारते। वह हार कर लौट गया, रात भर सो नहीं सका होगा। क्योंकि रात भर उसे वही दोहरता रहा कि वह बुद्ध पर थूक रहा है और उन्होंने पोंछ लिया है। और वे पूछते हैं, और कुछ कहना है! वे आंखें बुद्ध की उसकी छाती में छिदी रहीं। रात भर सो नहीं सका।

सुबह भागा हुआ आया। बुद्ध तो उस गांव से आगे बढ़ गए हैं। जीवन कहीं ठहरता और रुकता है? बढ़ जाता है! किसी दूसरे वृक्ष के नीचे हैं आज। वह आदमी जाकर सामने खड़ा हो गया है और कहने लगा है क्षमा कर दें। भूल हो गई जो मैंने यूका।

बुद्ध ने कहा बात बहुत गई—गुजरी हो गई। गंगा का पानी तब से बहुत बह चुका, तू वहीं रुका है? कहां है वह वृक्ष जिसके नीचे तूने यूका था? कहां हैं वे तारे जो गवाही दे रहे होंगे? कहां हैं वे लोग? कहां की बात ले आया तू? जो हो गया हो गया, हम आगे बढ़ गए। तू वहीं रुका है! लेकिन रुक कैसे सकता है, सारा समय बदल गया, तू रुका कैसे है वहां? बात गई हो गई।

वह आदमी कहने लगा नहीं—नहीं, इस भांति न टालें, मुझे क्षमा कर दें। बुद्ध ने कहा फा था तूने कल, आज क्षमा कैसे करूं? फासला बहुत बड़ा हो गया। जो होना था कल हो चुका है। क्षमा कल ही तू कर दिया गया है, उसी क्षण। और अगर मैं क्षमा नहीं कर सका होता, तो वह क्षण बीतता भी नहीं, मुझे भी उसी में जीना होता जिस भांति तू उसमें जीआ है। बात खत्म हो गई है। तूने थूका था, हमने पोंछा था। और कुछ कहना है? और था क्या वहां? तू भूल गया। बहुत देर बाद करके आया है। अब तो कोई उपाय नहीं है। अब तो कल्प— कल्प में, युग—युग में भी अब तो कोई उपाय नहीं रहा। जो हो गया, हो गया। लेकिन उसे याद रखने की जरूरत कहां है?

और बुद्ध उससे कहने लगे तूने यूक कर कोई बड़ी भूल न की थी। आदमी बड़ा असमर्थ है। ऐसी घटनाएं घटती हैं, ऐसे भाव आ जाते हैं, शब्द नहीं कह पाते। उसके लिए मैं तुझ पर कुछ भी नहीं कहता, लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि तू वहीं रुक गया है, यह तू जरूर भूल कर रहा है। इसे जाने दे।

एक फकीर था चीन में, हुइ हाई। वह अपने गुरु के गांव, गुरु की खोज में गया हुआ था। वह जब गुरु के पास पहुंचा, तो उसका गुरु पूछने लगा कि तू कहां से आता है!

हुइ हाई ने कहा पेंकिग से आता हूं।

गुरु ने पूछा. वहां चावल के भाव कितने हैं? हुइ हाई ने कहा. आप बड़े पागल मालूम होते हैं। चावल के भाव? मैं जिस रास्ते से गुजर गया गुजर गया, जिस पुल पर से गुजर गया गुजर गया। पेकिंग में मैं था, हूं नहीं। चावल के भाव रहे होंगे कुछ, लेकिन मैं क्या पागल हूं कि पेकिंग के चावल के भाव लेकर यहां आऊं!

उसके गुरु ने कहा. बात खत्म हो गई। जिस आदमी की तलाश में था, तू आ गया। मैं सबसे यही पूछता हूं कहां से आते हो? कोई कहता है, पेकिंग से, कोई कहता है, कहीं और से, शंघाई से। और मैं पूछता हूं चावल के भाव और वे लोग चावल के भाव बताने लगते हैं। मैं कहता हूं जाओ, अभी चावल के भाव ही ठीक करो। अभी परमात्मा का रास्ता बहुत मुश्किल है। तू आदमी पहला है कि नाराज हुआ मुझ पर कि चावल के भाव पूछते हैं? होंगे पेकिंग में कुछ, लेकिन पेकिंग पीछे छूट गया। मैं कोई चावल के भाव ढोता फिरता हूं?

लेकिन हम सारे लोग चावल के भाव ढोते फिरते हैं। इस शिविर में जो चावल के भाव लेकर आए, वे खाली हाथ लौट जाएंगे, उन्हें कुछ भी नहीं मिल सकता है। नहीं, चावल के भाव छोड़ दें, चाहे वे बंबई के हों, चाहे पूना के हों, चाहे अहमदाबाद के हों, चाहे बड़ौदा के, चाहे पेकिंग के। चावल के भाव छोड़ दिए जाने चाहिए और चावल के भाव में सभी कुछ आ जाता है। सभी भाव चावल के ही भाव हैं। यह पहली बात कहना चाहता हूं।

तीन दिन के लिए पूरी तरह यहां आ जाएं। और बड़े मजे की बात यह है कि कुछ बहुत करना नहीं पड़ता। एक बोध, एक अंडरस्टैंडिंग, एक समझ कि सच, मैं अतीत में क्यों जीता हूं? जो बीत गया उसमें क्यों जीता हूं? इतना बोध काफी है। इतना बोध ही संकल्प पैदा कर देगा कि जाओ, छोड़ दिया! छोड़ने के लिए कोई रस्साकशी से आप बंधे हुए नहीं हो, कि कोई जंजीरें कहीं पकड़े हुए नहीं हैं, कोई आपको रोके हुए नहीं है अतीत, कि उसको छोड़ने के लिए तलवार चलानी पड़ेगी।

नहीं, एक बोध, एक समझ पर्याप्त है। समझें कि क्यों मैं पीछे से बंधा हुआ हूं। और पीछे से आप मुक्त हो सकते हैं। समझ को संकल्प बनाएं। समझ संकल्प बनती है। थोड़ी गहरी होगी, संकल्प बन जाएगी।

तो आज रात समझ कर, संकल्पपूर्वक सोए कि मैं छोड़ता हूं बीते को, छोड़ता हूं अतीत को, जाने देता हूं उसे। तीन दिन यहां रहूंगा अब। और तीन दिन स्मरण रखें इस बात का कि मन लौट कर पीछे तो नहीं जाता, और जब भी जाए तब सिर्फ स्मरण रखें कि फिर चला मन वहीं। क्या पागल हूं मैं? और मन लौट आएगा। थोड़ा सा बोध और मन वर्तमान में लौट सकता है। तब, तब कुछ हो सकता है—एक बात!

दूसरी बात मन भरा है अतीत से और हम निरंतर भरे हुए हैं शब्दों से, बातचीत से, विचारों से। घड़ी भर कोई चुप नहीं है, घड़ी भर कोई मौन नहीं है, घड़ी भर शब्दों से कोई मुक्त नहीं होता। और अगर मुक्त होने का मौका मिल जाए तो हम घबड़ाते हैं, बहुत डरते हैं, बहुत भयभीत होते हैं। मन की आदत है आकुपाइड, मन की आदत है उलझे रहने की। कुछ न कुछ चाहिए, कुछ न कुछ काम चाहिए। खाली मन नहीं होना चाहता है। क्यों नहीं होना चाहता है?

क्‍योंकि जैसे ही मन खाली हुआ कि मन की मृत्‍यु हो जाती है। वह जब तक उलझा रहे, लगा रहे, लगा रहे,लगा रहे तभी तक है। वह जो आकुपाइडनेस है, वह जो व्‍यस्‍तता है मन की; वही उसके प्राण है। और हम चौबीस घंटे व्‍यस्‍त है और फिजूल ही व्‍यस्‍त है। अगर कोई आदमी थोड़ा देखे कि वह क्‍या—क्‍या बातें कर रहा है, क्‍या विचार कर रहा है, किन बातों में उलझा है सुबह से सांझ तक, तो शायद बहुत हैरान हो जाएगा। जिन बातों को करने की कोई जरूरत न थी वे सारी बातें उसने की है।

और स्‍मरण रहे, जो आदमी उन बातों को करता है, जिनकी कोई जरूरत नहीं उसके जीवन में, वे बातें कभी भी नहीं हो पाएंगी जिनकी जरूरत है। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती। व्यर्थ बात और विचार सार्थक तत्‍व तक नहीं पंहुचने देते। लेकिन हम तो सुबह उठे—और उठने का अर्थ ही है बातचीत—फिर हम बातचीत करना शुरू कर दिए। नहीं, साधना शिविर में यह नहीं चलेगा। साधना शिविर में यह कैसे चल सकता है?

तो आत रात सोते है तो अत्‍यंत मौन में और सुबह से उठते है तो तीन दिन मौन का एक गहरा अभ्‍यास बनना चाहिए। जहां तक बन सके मत बोलें। देखें तीन दिन का प्रयोग कोई बहुत लंबा नहीं है। देखें, सिर्फ तीन दिन के लिए जहां तक बन सके न बोलें। जिसकी सामर्थ्‍य हो वे तीन दिन के लिए बिलकुल चुप हो जाएं, बोलें ही नहीं। थोड़ा बहुत काम हो, इशारे से चला लें, लिख कर चला ले। बहुत जरूरत पड़े तो एक—दो शब्‍द बोल कर चला लें। जिनकी सामर्थ्‍य हो वे तो बिलकुल चुप हो जाएं। जो थोड़े कमजोर हों वे इतना ध्‍यान रखें कि व्‍यर्थ न बोलें। लेकिन मैं इतना कमजोर किसी को मानता नहीं हूं।

कोई आदमी इतना कमजोर नहीं है कि तीन दिन चुप न हो सके। एक बार देखें कि क्‍या घटना घट सकती है चुप होने से। इतने छोटे से सूत्र से क्‍या घट सकता है? इतनी छोटी सी बात लगती है चुप हो जाना, लेकिन क्‍या हो सकता है, पता है आपको? आस—पास ही मौजूद है वह जिसकी हम तलाश है। भीतर ही खड़ा है वह जिसकी हमें खोज है। लेकिन हम चुप नहीं हम है व्‍यस्‍त, उसका हमें कोई पता नहीं चलता है।

स्‍वामी राम एक कहानी कहा करते थे, वे कहते थे, एक प्रेमी था, वह दूर देश चला गया था। उसकी प्रियसी राह देखती रही। वर्ष आए, गए। पत्र आते थे उसके, अब आता हूं। अब आता हूं, अब आता हूं। लेकिन प्रतीक्षा लंबी होती चली गई और वह नहीं आया। फिर वह प्रियसी घबड़ा गई और एक दिन ही चल कर उस जगह पहूंच गई जहां उसका प्रेमी था। वह उसके द्वार पर पहूंच गई, द्वार खुला था। वह भीतर पहूंच गई।

प्रेमी कुछ लिखता था, वह सामने ही बैठ कर देखने लगी,उसका लिखना पूरा हो जाए। प्रेमी उसी को पत्र लिख रहा था, प्रेयसी को पत्र लिख रहा था। और इतने दिन से उसने बार—बार वादा किया और टूट गया तो बहुत—बहुत क्षमाएं मांग रहा था। बहुत—बहुत प्रेम की बातें लिख रहा था, बड़े गीत और कविताएं लिख रहा था। जैसे कह अक्‍सर प्रेमी लिखते है। वह सब लिखे चला जा रहा था—एक पन्‍ना, दो पन्‍ना, तीन पन्‍ना। प्रेमियों के पत्र पूरे तो होते ही नहीं। वे लंबे से लंबे होते चले जाते है।

वह लिखते ही चला जा रहा है। उसे पता भी नहीं है कि सामने कौन बैठा है। आधी रात हो गई तब वह पत्र कहीं पूरा हुआ। उसने आँख ऊपर उठाई तो वह घबड़ा गया। समझा कि क्‍या कोई भूत—प्रेत, है। वह सामने कौन बैठा हुआ है? वह तो उसकी प्रेयसी है। नहीं—नहीं लेकिन यह कैसे हो सकता है। वह चिल्‍लाने लगा कि नहीं—नहीं, यह कैसे हो सकता है? तू यहां है, तू कैसे, कहां से आई?

उसकी प्रेयसी ने कहा: मैं घंटों से बैठी हूं और प्रतीक्षा कर रही हूं कि तुम्‍हारा लिखने काम बंद हो जाए तो शायद तुम्हारी आंख मेरे पास पहुंचे। और वह प्रेमी छाती पीट कर रोने लगा कि पागल हूं मैं। मैं तुझी को पत्र लिख रहा हूं और इस पत्र के लिखने के कारण तुझे नहीं देख पा रहा हूं और तू सामने मौजूद है। आधी रात बीत गई, तू यहां थी ही!

परमात्मा उससे भी ज्यादा निकट मौजूद है। हम न मालूम क्या—क्या बातें किए चले जा रहे हैं। न मालूम क्या—क्या पत्र लिख रहे हैं, शास्त्र पढ़ रहे हैं, न मालूम कौन—कौन से विचार कर रहे हैं। कोई गीता खोल कर बैठा हुआ है, कोई कुरान खोल कर बैठा हुआ है, कोई बाइबिल पढ़ रहा है, कोई नमो अरिहताणम् दोहरा रहा है, कोई नमो शिवाय कर रहा है। न मालूम क्या—क्या लोग कर रहे हैं; और जिसके लिए कर रहे हैं वह चारों तरफ हमेशा मौजूद है। लेकिन फुर्सत हो तब तो आंख उठे। काम बंद हो तो वह दिखाई पड़े, जो है।

तीन दिनों में विचार को जाने दें। और विचार के जाने के लिए पहली बात है बातचीत को जाने दें। मौन जितना बन सके, इस सरू वन में, सरू के पौधों को पता भी न चले कि यहां इतने लोग आ गए हैं। उनको पता भी न चले कि यहां इतने लोग हैं। आप भी सरू के पौधे ही हो जाएं तीन दिन के लिए। उनके पास बैठें तो मौन, जैसे कि पौधे मौन हैं। जैसे कि तारे मौन हैं। जैसे कि सारा जगत मौन है। एक घनघोर चुप्पी है। बातचीत के स्वर सिर्फ आदमी ने पैदा किए हैं और सारे जीवन और सारे संगीत को तोड़ डाला है।

तीन दिनों के लिए दूसरी बात निवेदन करना चाहता हूं—मौन! और आशा तो मेरी यह है कि सारे लोग बिलकुल मौन हो जाएं। बहुत जरूरी होगा— कभी दो—चार बात जरूरी हो सकती हैं, तो बने तो लिख कर कर लें, बने तो इशारे से कर लें, न बन सके तो बोल कर कर लें, लेकिन यह ध्यान रख कर कि वह बोलना टेलिग्राफिक हो, वह बोलना ऐसे ही हो जैसा तार करते वक्त आदमी तार करता है। देखता है कि एक आना और बढ़ा जा रहा है, एक शब्द और काटो, दूसरा शब्द काटो। आठ से ही काम चल जाए। सरकार पहले दस का दे देती थी हिसाब, अब वह आठ से भी लोग चलाने लगे हैं। वह छह से भी चल सकता है, वह पांच से भी चल सकता है। काटते चले जाना है। जितना जरूरी हो उतना शब्द और बाकी सब निःशब्द, बाकी सब मौन!

तो देखें कि तीन दिन में क्या नहीं हो सकता है। मैं नहीं चाहता हूं कि यहां से खाली हाथ आप वापस लौटें, लेकिन कुछ करना जरूरी है। मैं चाहता हूं कि जाते वक्त आप दूसरे आदमी होकर लौटें। और मुझे पक्का खयाल है कि जो मैं कह रहा हूं उस पर थोड़ा प्रयोग करेंगे तो निश्चित ही आप जो आदमी आए थे वही आपको वापस लौटने की जरूरत नहीं। आप बिलकुल दूसरे आदमी होकर वापस लौट सकते हैं, वह आपके हाथ में है।

लेकिन कुछ करना जरूरी है। और करने के लिए मैं सरल सी बातें बता रहा हूं। अगर मैं कहता कि तीन दिन एकदम बातचीत करना, कभी भी एक क्षण चुप मत रहना, तो जरा कठिन भी हो सकता था, लेकिन मैं कह रहा हूं कि चुप हो जाएं। लेकिन आपको यही कठिन लगेगा, क्योंकि वह बातचीत ने एक पागल शक्ल पकड़ ली है। हम उसे कर रहे हैं, हमें पता भी नहीं है कि हम क्यों कर रहे हैं, किसलिए बोल रहे हैं, क्या बोल रहे हैं, क्या प्रयोजन है उसका बोले जाने का? नहीं, कुछ भी पता नहीं है, क्योंकि खाली नहीं बैठ सकते, इसलिए कुछ कर रहे हैं।

एक आदमी सिगरेट पी रहा है, क्योंकि खाली नहीं बैठ सकता। दूसरा आदमी बातचीत कर रहा है, क्योंकि खाली नहीं बैठ सकता। लेकिन हमारे ओंठ चलते रहने चाहिए— चाहे सिगरेट पीने में, चाहे बातचीत करने में। जिन मुल्कों में स्त्रियां भी सिगरेट पीने लगी हैं वहां स्त्रियों ने बातचीत कम कर दी है, और जिन मुल्कों में वे सिगरेट नहीं पीती वे आदमियों. से ज्यादा बातचीत करती हैं। मामला कुल इतना है कि ओंठ चलते रहने चाहिए। चाहे सिगरेट पीओ, चाहे बातचीत करो; ओंठ चलते रहना चाहिए। क्यों? यह ओंठों का इतना ज्यादा चलना भीतर मन के अशांत होने का सबूत है।

मन वाणी से बहुत गहराई से संबंधित है, क्योंकि मन वाणी से ही प्रकट होता है। मन है आंतरिक वाणी, ओंठ हैं बहिर्मन। ओंठ से ही मन प्रकट होता है। मन चूंकि बहुत बेचैन और परेशान है इसलिए ओंठ दिन—रात कैप रहे हैं, बोलना चाहते हैं, कुछ कहना चाहते हैं।

जब परेशानी और बढ़ जाती है तो शरीर के दूसरे अंग भी हिलने लगते हैं। एक आदमी कुर्सी पर बैठा है, सिर्फ टांगें ही हिला रहा है। कोई उससे पूछे कि भाई साहब! क्या हो गया है आपको, ये टांगें क्यों हिल रही हैं? वे एकदम रुक जाएंगी टांगें और वह बहुत क्रोध से आपको देखेगा, और उसे खुद भी पता नहीं कि टांगें क्यों हिल रही हैं! अब ओंठ हिलाने से काम नहीं चलता। अब हाथ—पैर और शरीर के दूसरे अंग भी हिलाने की जरूरत है। मन इतना भीतर कंप रहा है।

बुद्ध की प्रतिमा देखें या महावीर की तो एक बात उस प्रतिमा में दिखाई पड़ेगी कि जैसे कोई निष्कंप, जैसे कहीं कोई हलन—चलन नहीं है। सब मौन, सब चुप, सब शांत हो गया।

एक आदमी बुद्ध के पास गया था, सामने ही बैठा था और जोर से अपने पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध आत्मा—परमात्मा की बातें कर रहे थे, बंद कर दी उन्होंने। उन्होंने कहा कि भई एक बड़ी गड़बड़ यहां एक आदमी कर रहा है। वह पैर का अंगूठा हिला रहा है। तो जब तक यह अंगूठा बंद नहीं करता, मैं बात नहीं करूंगा, क्योंकि जब तक इसका अंगूठा हिल रहा है तब तक मेरी बात करनी फिजूल है।

उस आदमी ने कहा. आप भी क्या बातें करते हैं, मेरे अंगूठे से आपका क्या बन रहा, बिगड़ रहा है? बुद्ध पूछने लगे. अगर तू बता दे कि अंगूठा क्यों हिल रहा है तो फिर मैं आगे बात बढाऊं। उस आदमी ने कहा मुझे कुछ पता नहीं, बस ऐसे ही हिल रहा था। बुद्ध ने कहा तेरा अनूठा है और ऐसे ही हिल रहा था, हद्द हो गई, अंगूठा तेरा है कि मेरा, अंगूठा किसका है यह? वह आदमी कहने लगा मेरा है। लेकिन बुद्ध ने कहा : फिर तू यह क्यों नहीं बताता कि यह हिलता क्यों था? अब क्यों बंद हो गया?

नहीं, हमें कुछ पता नहीं, भीतर कंपन है मन में। मन बहुत कैप रहा है। उसका कंपन सारे शरीर में फैलता चला जा रहा है। सबसे पहले वह ओंठ पर आता है, क्योंकि मन के निकटतम ओंठ हैं। उसके बाद वह सारे शरीर में फैलना शुरू हो जाता है। नहीं, ओंठ के कंपन के अति कंपन को रोकना जरूरी है।

तो इन तीन दिनों में ओंठ के कंपन पर जरा कृपा करें उसे विश्राम में जाने दें। और ध्यान रखें, कि बड़ा आश्चर्यजनक अनुभव हो सकता है। क्योंकि जैसे ही आप मौन होंगे आपको चारों तरफ जो प्रकृति और परमात्मा की ध्वनियां हैं, वे प्रगाढ़ होकर सुनाई पड़ने लगेंगी। यह समुद्र का गर्जन भी आपको पहली दफा सुनाई पड़ेगा जब आप मौन होंगे। और मैं जो कह रहा हूं वह भी आपको तभी सुनाई पडेगा जब आप मौन होंगे, अन्यथा आपके भीतर कंपन चल रहा है और मैं करीब—करीब दीवालों के सामने बोल रहा हूं।

एक फकीर था, बोधिधर्म। वह बहुत बढ़िया फकीर था। दुनिया में थोड़े ही बढ़िया फकीर हुए हैं उनमें एक वह भी था। वह हमेशा, अगर आप उससे मिलने जाते, तो वह आपकी तरफ पीठ करके बैठता। वह हमेशा दीवाल की तरफ मुंह करके बैठता था और आदमियों की तरफ पीठ। लोगों को बड़ा गुस्सा आता और लोग पूछते यह कैसा शिष्टाचार है। हम मिलने आए हैं और आप दीवाल की तरफ मुंह किए हुए हैं और हमारी तरफ पीठ?

बोधिधर्म कहता कम से कम दीवाल की तरफ मुंह करने से एक बात तो मन में रहती है कि कोई हर्ज नहीं, दीवाल है, नहीं सुनती तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन तुम्हारी तरफ मुंह करने से बड़ी मुश्किल हो जाती है। हम कहे चले जाते हैं, तुम सुनते नहीं। तुम भी दीवाल हो और कहीं गुस्सा न आ जाए मुझे, इसलिए मैं दीवाल की तरफ ही मुंह रखता हूं। और दीवाल पर गुस्सा करने की जरूरत भी नहीं। दीवाल यानी दीवाल है, नहीं सुनती कोई हर्ज नहीं है। लेकिन तुम हो आदमी, तुम भी नहीं सुनते, इसलिए मैं पीठ करता हूं तुम्हारी तरफ।

आप मौन होंगे, तभी सुन सकेंगे कि मैं क्या कह रहा हूं या यह जीवन क्या कह रहा है! तो दूसरी बहुत जरूरी बात यहां से लौटते ही एक परिपूर्ण सन्नाटा छा जाना चाहिए। तीन दिन के लिए हिम्मत करें, एक प्रयोग करें। तीन दिन में आपका कुछ बिगड़ नहीं जाएगा चुप होने से। क्या खो देंगे आप? देखें, और दूसरों को भी मौन बनाने में सहायक बनें। हम सब ऐसे लोग हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। अगर कोई एक व्यक्ति मौन हो जाएगा, तो चार लोग कहेंगे, अरे, हो गए क्या मौन, आ गए क्या बातों में? चार लोग उससे कहेंगे, अच्छा, आप आ गए, बड़े ध्यानी बन रहे हैं, मौन हो गए हैं?

हम हद्द के बेवकूफ हैं। हमारी मूढ़ता की कोई सीमा नहीं। हम किसी आदमी के ठीक दिशा में जाने में हमेशा बाधा बनते हैं।

नहीं, आपको मौन होना है और पड़ोसी मौन हो सके इसकी सुविधा देनी है। किसी का मौन आपसे न टूटे, इसकी फिकर करनी है। और इन तीन दिनों में यह प्रयोग करना है गहरे से गहरा कि आप इतने चुप हो जाएं कि आप चुप ही हैं, कुछ भी नहीं हैं। तब मैं जो कल सुबह से बातें आपसे करने को हूं वे सुनाई पड़ सकेंगी। और वे बातें आप तभी प्रयोग कर सकेंगे जब मौन साथ होगा, अन्यथा उनका प्रयोग नहीं हो सकेगा। यह दूसरी बात।

तीसरी बात कल से बल्कि आज से ही, अभी से, आंख को नासाग्र रखना है। पूरी आंख खोलने की जरूरत नहीं है। आंख इतनी खुली हो कि नाक का अगला हिस्सा दिखाई पड़ता रहे। अगर आप रास्ते पर चल रहे हैं, तो आपको चार कदम की जमीन दिखाई पड़े, बस इतनी आंख खुली हो, नाक का अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे इतनी आंख खुले हो। आप हैरान हो जाएंगे कि अग्रभाग नाक का दिखाई पड़ता रहे, इतनी आंख खुली होगी, तो मन एक अपरिसीम शांति में प्रवेश करता है। जैसे मैंने कहा, ओंठ से संबंध हैं मन के, वैसे ही आंख से गहरे संबंध हैं मन के। और आंख जब थिर हो जाती है और चारों तरफ के व्यर्थ के आघातों को स्वीकार नहीं करती, तब आंख के भीतर जो स्नायुओं का बड़ा जाल है, जिससे मन का संबंध है वे सारे स्नायु शांत हो जाते हैं।

पूरी आंख इस शिविर में नहीं खोलनी है। नाक दिखाई पड़े इतनी ही आंख खोलनी है, आधी खुली आंख। चलते, उठते, बैठते, खाना खाते हर वक्त ध्यान रखना है कि आंख इतनी ही खुली रहे कि नाक दिखाई पड़ती रहे, तीन दिन के लिए। और आप हैरान हो जाएंगे, आश्चर्य से भर जाएंगे कि क्या हो सकता है इतने से छोटे से प्रयोग से भीतर मन में क्या परिणाम हो सकते हैं!

आंख स्रोत है हमारे मानसिक जीवन का। जीवन के अधिकतम आघात हमारी आंख से प्रवेश करते हैं और चित्त के स्नायुओं को डांवाडोल करते हैं, तनाव से भरते हैं। अगर आंख आधी खुली हो तो रिलैक्सड होती है, उसमें कोई तनाव नहीं रह जाता। आप आधी आंख खोल कर देखेंगे और आपको पता चलेगा कि मन एकदम रिलैक्सड, शिथिल हो गया है। मन भीतर एकदम शांत हो गया है।

तो अभी यहां इस बैठक के बाद ही आधी आंख, थोड़ा ध्यान रखना पड़ेगा तो कल दोपहर पहुंचते—पहुंचते आंख स्मरण में रह जाएगी और आधी खुली रहेगी। चलें तो भी आधी खुली रहे, उठे तो भी, बैठें तो भी, खाना खाएं तो भी। वह आपके मौन में भी सहायक होगी। हर स्थिति में आंख आधी खुली रहे। आंख के पलक हमारे तनावों के अधिकतम कारण होते हैं और आंख के पलक जितने पूरे खुले हों उतना ही मन सबसे ज्यादा तनाव से भर जाता है। उस तनाव की हालत में कई तरह के नुकसान पहुंचते हैं।

अगर आपने देखा हो नेताओं की मंच तो आपने खयाल किया होगा, कि पंडित नेहरू की मंच कितनी ऊंची बनती थी। आपको पता है कि उतनी ऊंची मंच बनाने की क्या जरूरत है? शायद आपको पता नहीं होगा। आपकी आंख पूरी की पूरी खुली रहे और ऊपर देखती रहे और तनी रहे। हिटलर भी उतनी ही ऊंची मंच बनवाता था। दुनिया के सारे नेता उतनी ही ऊंची मंच बनवाते हैं। उसका मनोवैज्ञानिक कारण है।

उसका कारण है कि आंख जितनी खिंची होगी मन उतने तनाव से भर जाएगा। और आंख जितनी ऊपर की तरफ देखती होगी, थोड़ी देर में आपका सोच—विचार क्षीण हो जाएगा। आप हिप्‍नोटिक हालत में आ जाएंगे, आप सम्मोहित अवस्था में आ जाएंगे। अगर पांच मिनट तक आंख को पूरी तरह खोला जाए और ऊपर की तरफ देखा जाए, तो आंख के भीतर के स्नायु तनाव से भर जाते हैं, सोच—विचार बंद हो जाता है, समझ खत्म हो जाती है और आदमी एक तरह की हिम्‍पोटिक स्लीप, एक तरह की सम्मोहक निद्रा में प्रविष्ट हो जाता है। उस हालत में उससे जो भी कहा जाएगा, वह मान लेगा।

इसलिए दुनिया के राजनीतिज्ञ ऊंची मंच बनाते हैं, ताकि वे जो भी कहें वह आप मान लें। हिटलर तो मंच पर ही प्रकाश रखता था। बहुत हजारों कैंडिल के बल्व चारों तरफ से, और सारे थिएटर में अंधकार करवा देता था, ताकि किसी आदमी की आंख किसी दूसरे को न देखे— सिर्फ हिटलर दिखाई पड़े— और उसके चेहरे पर भारी प्रकाश, ताकि वही दिखाई पड़ता रहे घंटे भर, और ऊंचा मंच, आंखें तनी रहें और उस हालत में हिटलर जो भी कहेगा लोग मान लेंगे। वह सजेस्टिव हालत हो जाती है आंखों की।

आंख जितनी शिथिल होगी, शांत होगी, ढली होगी, आधी खुली होगी उतनी ही आप जाग्रत अवस्था में होंगे। और आंख जितनी खुली होगी, तेजी से खुली होगी उतने ही आपको मूर्च्छा में ले जाना आसान है। आपको बेहोश किया जा सकता है। अगर आपने हिप्‍नोटिक या मेस्मरिज्म करने वाले लोगों को देखा होगा तो आपको पता होगा कि वे कहेंगे कि पूरी आंख खोल कर हमारी आंखों में झांको, पांच मिनट बाद आप बेहोशी की हालत में हो जाएंगे, क्योंकि पूरी आंख खोलना मन पर इतना तनाव, इतना टेंशन डालना है कि उस टेंशन की हालत में मन सजग नहीं रहता। अति तनाव के कारण बेहोश हो जाता है, मूर्च्छित हो जाता है, सुप्त निद्रा में चला जाता है। इसीलिए त्राटक या दीया जला कर लोग ध्यान करते हैं, वह ध्यान नहीं है। वे खुद को सुलाने की तरकीबें हैं, वे सब नींद में जाने की दवाएं हैं।

नहीं, ध्यान तो हमेशा आधी खुली आंख से होगा, चूंकि आधी खुली आंख आंख की सर्वाधिक शांत, जागरूक, अवेयरनेस की अवस्था है। तो आप प्रयोग करेंगे तो आपको दिखाई पड़ेगा कि जैसे ही आंख आधी खुली हुई नासाग्र होगी, वैसे ही आप शांति का, भीतर एक झरने का— जैसे कुछ चीज मस्तिष्क पर शांत हो गई, कोई तनाव उतर गया, कोई बादल हट गया, कोई बोझ हट गया— और साथ ही एक नये प्रकार का होश, एक जागृति, एक अवेयरनेस, एक बोध, एक अलर्टनेस पैदा होगी और लगेगा कि मैं ज्यादा होश से भरा हुआ हूं।

इस प्रयोग को, आंख के आधे खुले होने के प्रयोग को ध्यान में तो हम करेंगे ही, अभी जब रात का ध्यान करेंगे तब भी करेंगे, सुबह के ध्यान में भी करेंगे, लेकिन आपको शेष समय में भी करना है। और सर्वाधिक

उपयोगी होगा इन तीन दिनों में, समुद्र के तट पर चले जाएं अकेले में, थोड़े तेजी से चलें, गहरी श्वास लें और आंख नासाग्र रखें तो आपको घंटे भर में ही एक अपूर्व जागरण की भीतर प्रतीति होगी। अकेले चले जाएं तट पर, जोर से चलें, गहरी श्वास लें और आंख को नासाग्र रखें। एक घंटे में ही आप पाएंगे कि ऐसी शांति आपने कभी नहीं पाई, ऐसा जागरण आपको कभी अनुभव नहीं हुआ। आपके भीतर एक नई चेतना ही द्वार तोड़ रही है, यह आपको प्रतीत होगा।

तो प्रत्येक साधक दिन में कम से कम दो घंटे समुद्र—तट पर जाकर तेजी से चलेगा, वह सक्रिय ध्यान होगा। निष्किय ध्यान हम यहां करेंगे। यहां दो बार हम ध्यान करेंगे, सुबह और रात। वह शिथिल, शांत अवस्था में करेंगे। वहां आप सुबह और दोपहर या जब भी आपको मौका मिले एक घंटे तेजी से चलें और सक्रिय ध्यान करें। इन तीन दिनों को मैं इंटेंस मेडिटेशन के, सघन ध्यान के दिन बनाना चाहता हूं कि चौबीस घंटे हम ध्यान की गहरी से गहरी पर्तों को तोड्ने में सफल हो सकें।

ये तीन बातें मैंने कहीं। ये प्राथमिक बातें हैं। आने वाले तीन दिनों में चार साधना के अंगों पर मैं बात करना चाहूंगा। कल सुबह करुणा, फिर मैत्री, फिर मुदिता, फिर उपेक्षा। ये चार तत्व ध्यान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं। इन चार तत्वों का जिसके भाव में जन्म हो जाता है वह इस भांति ध्यान में प्रविष्ट हो जाता है, जैसे कभी आपने आकाश से गिरते हुए तारों को देखा हो। किस तीव्रता से वे पृथ्वी की तरफ बढ़ते हैं, पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण उन्हें खींचता है। वे भागे चले आते हैं तीर की तरह। जैसे ही ये चार तत्व किसी व्यक्ति के जीवन में पूरे हो जाएं, सारे प्राण परमात्मा की तरफ उल्कापात की तरह, गिरते हुए तारे की तरह भागते हैं। परमात्मा का आकर्षण उसे खींचना शुरू हो जाता है।

एक ग्रेविटेशन हम जानते हैं पृथ्वी का, एक ग्रेविटेशन और है, वह है परमात्मा का। उसमें जाने के लिए वह चार तत्वों की बात मैं आने वाले दिनों में करने को हूं लेकिन वे बातें उन्हीं की समझ में आ सकेंगी जो मैंने तीन सूत्र कहे, जो उन पर प्रयोग करेंगे। और यहां मैंने बुलाया इसलिए है कि प्रयोग करना है।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। तो उसके पहले दो—चार सूचनाएं और मुझे देनी हैं, वे आपको दे दूं।

दोपहर को दो से तीन के बीच मुझसे मिलने का समय है। मुझसे मिलने का अर्थ समझ लेना चाहिए। वहां मुझसे प्रश्न पूछने नहीं आना है। प्रश्न तो जो भी पूछने हैं वह रात की बैठक में मैं उत्तर दूंगा, तो यहीं पूछ लेने हैं। जो भी प्रश्न पूछने हों वे यहीं पूछ लेने हैं, वहां तो मिलने मुझे दूसरे कारण से किसी को आना हो तो आ सकता है। उस एक घंटे में किसी को भी ऐसा लगता हो कि मेरे पास दो क्षण आकर बैठ जाना है तो उसी को आना है। न मालूम कितने मित्रों को लगता है कि दो क्षण आकर वे मेरे पास बैठ जाएं, लेकिन उन्हें यह खयाल होता है कि मेरे पास आना है तो कुछ पूछने के लिए आना है, नहीं तो किसलिए जाना है, तो वे कुछ भी पूछने पहुंच जाते हैं। उनके प्रश्न से मुझे पता लगता है कि उन्हें पूछना नहीं था। यह प्रश्न वे सिर्फ इसलिए पूछ रहे हैं कि उन्हें आना था। नहीं, कोई अनावश्यक पूछताछ की जरूरत नहीं है।

आपको आकर चुपचाप बैठना है, दो मिनट आकर बैठें। आपके पूछने से और मेरे बताने से वह ज्यादा महत्वपूर्ण और कीमती है। किसी को कई बार लगता है—रोज गांव—गांव में मित्र आते हैं, कोई आकर हाथ पकड़ कर दो क्षण बैठ कर रो लेगा। और मैं जानता हूं कि इसका आध्यात्मिक मूल्य है, उपयोग है, लेकिन उतनी हिम्मत भी लोगों ने खो दी है। न कोई हिम्मत से रो सकता है, न कोई हिम्मत से प्रेम कर सकता है, न हिम्मत से कोई किसी के गले मिल सकता है, न हिम्मत से कोई किसी का हाथ अपने हाथ में ले सकता है। उस घंटे में तो जिनको मेरे पास इंटिमेट रिलेशनशिप के लिए, एक निकटतम और एक आंतरिक संबंध के लिए आना है, उन्हीं को आना है। जिनको प्रश्न पूछना है वे लिखित प्रश्न दे देंगे तो सांझ की बैठक में उनके उत्तर हो सकेंगे।

दो से तीन वहां मैं मिलूंगा। फिर तीन से चार हम यहां सरू वन में एक घंटा मौन में बैठेंगे, सारे लोग साथ। आप दिन भर ही मौन में रहेंगे, लेकिन वह एक घंटा मेरे साथ मौन में रहेंगे। आपसे बात करता हूं रोज। एक बात है जो शब्दों से कही जा सकती है, कुछ बातें हैं जो सिर्फ मौन में कही जा सकती हैं।

एक घंटे वह मौन प्रवचन होगा। कुछ मैं आपसे कहूंगा जरूर। कुछ आप सुनेंगे, समझेंगे जरूर, लेकिन शब्दों का उपयोग नहीं होगा। तो आप जितने गहरे मौन में और जितनी प्रतीक्षा में होंगे उतना वह संबंध स्थापित हो सकेगा। पिछली बार एक घंटे मौन से हम बैठे थे तो किन्हीं लोगों को मेरे पास आने का लगा था तो वे मिलने आए थे, लेकिन अब चूंकि रोज एक घंटा मिलने के लिए है, इसलिए मौन के उस घंटे भर के प्रयोग में मुझसे मिलने कोई भी नहीं आएगा। जिसको भी मिलने जैसा लगेगा वह दूसरे दिन दो बजे मुझसे मिलने आएगा। वहां हम सिर्फ बैठेंगे। कोई मिलने नहीं आएगा, चुपचाप बैठेंगे। उस चुपचाप बैठने में जो भी हो, होने दें। किसी की आंख से आंसू बहने लगें तो बह जाने दें, जो होता हो होने दें। छोड़ दें अपने को बिलकुल—लेट—गों।

तो दिन भर आप मौन रखेंगे। फिर एक घंटे निकट मैं आपके रहूंगा और एक घंटे दोपहर मौन रखेंगे। रात को आपके प्रश्नों के उत्तर होंगे, लेकिन ध्यान रहे, आपके सभी प्रश्नों के उत्तर मैं नहीं दूंगा। मैं सिर्फ उन प्रश्नों के उत्तर दूंगा कि जिस संबंध में मैं बोल रहा हूं उस संबंध में ही वह प्रश्न हों, ताकि वह आपकी साधना के काम पड़ सके। आप व्यर्थ के मेटाफिजिक्स के और तत्व—दर्शन के प्रश्न नहीं लाएंगे। उनके लिए मैं गांव— गांव में आता हूं। जब आपके गांव आऊं तब आपको जो भी फिजूल बातें पूछनी हों, वह आप पूछना। यहां तो सिर्फ तीन दिन हम एक—एक क्षण भी साधना के लिए ही लगाना चाहते हैं। इसलिए केवल वे ही मित्र पूछेंगे, जिन्हें साधना की दृष्टि से पूछना है, करने की दृष्टि से पूछना है। और जो मैं कह रहा हूं उसे कैसे करें, क्या बाधा पड़ रही है, उस दृष्टि से पूछना है। जो मैं कह रहा हूं वह समझ में नहीं आ रहा है, उस दृष्टि से पूछना है।

लेकिन दूसरी फिजूल की बातें कि कितने स्वर्ग होते हैं और कितने नरक होते हैं, इन सब बातों की पूछने की यहां कोई जरूरत नहीं है। वह ध्यान रखेंगे। और पूछेंगे भी आप तो मैं उत्तर उनका देने वाला नहीं हूं। मैं सिर्फ उनका ही उत्तर दूंगा जो मुझे लगेंगे कि इस तीन दिन की साधना प्रक्रिया में सहयोगी प्रश्न हैं।

अब हम रात के ध्यान के लिए बैठेंगे। दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

जैसा मैंने अभी कहा……हम सारे लोग थोड़े— थोड़े फासले पर होकर बैठेंगे, ताकि कोई किसी को छूए नहीं। समझ लें, फिर हम हट जाएंगे। कोई किसी को छूता हुआ न हो, ताकि दूसरे का बोध छोड़ा जा सके कि दूसरा भी है, ताकि हम अकेले हो सकें कि हम अकेले हो गए हैं। फिर आंख आधी खुली रखनी है। आधी खुली रखने का मतलब आप समझ गए होंगे, नाक का अगला हिस्सा अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे इतनी पलक खुली रहे। ज्यादा आंख नहीं खोलनी है—न पूरी आंख बंद करनी है, न पूरी आंख खोलनी है— आधी आंख। फिर आधी आंख खोल कर अत्यंत शांति से, आराम से बैठ जाना है— आराम से, कोई तनाव शरीर को नहीं देना है।

फिर प्रकाश यहां बुझा दिया जाएगा, ताकि जो परमात्मा का प्रकाश ऊपर से गिर रहा है, वह निकट आ जाए। आदमी का प्रकाश है बहुत कमजोर, लेकिन परमात्मा के प्रकाश को रोकने में काफी समर्थ है। वह चांदनी दिखाई नहीं पड़ती, एक बिजली का बल्व जला हो, तो चांदनी दिखाई नहीं पड़ती। तो ये सारे बल्व बुझा दिए जाएंगे, ताकि चांदनी बरसने लगे और हम चंद्रमा के निकट हो जाएं और ये सरू के वृक्षों के निकट हो जाएं। जैसे ही आप आधी आंख खोल कर शांत बैठेंगे, मैं थोड़ी देर तक कुछ सुझाव दूंगा।

पहला सुझाव दूंगा कि आपका शरीर शिथिल हो रहा है, तो शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ देना है उस सुझाव के साथ, जैसे उसमें कोई प्राण नहीं हैं।

फिर मैं सुझाव दूंगा, आपकी श्वास शिथिल हो रही है, तो श्वास को बिलकुल धीमा छोड़ देना है, जितनी आए आए, न आए न आए, जाए जाए। अपनी तरफ से नहीं लेनी है, बल्कि धीमी छोड़ देनी है। वह धीरे— धीरे धीमी होती चली जाएगी।

फिर मैं तीसरा सुझाव दूंगा कि मन शांत हो रहा है, तब मन को भी शिथिल छोड़ देना है। वह धीरे— धीरे शांत होता चला जाएगा।

फिर मैं कहूंगा कि अब दस मिनट के लिए हम शांति से बैठे रहेंगे। क्या करेंगे उस शांति में, क्या होगा? जैसे ही मन शांत होगा वैसे ही चारों तरफ की आवाजें सुनाई पड़ने लगेंगी। दूर सागर का गर्जन, हवाएं आएंगी सरू के वृक्षों को हिलाएंगी, उनकी आवाजें। कोई पक्षी चिल्लाएगा, कोई बच्चा रो उठेगा, कोई कुत्ता भौंकेगा चारों तरफ परमात्मा न मालूम कितनी आवाजों में बोल रहा है, वह सब सुनाई पड़ने लगेगा। उसे चुपचाप सुनते जाना है। उस संगीत को चुपचाप सुनते जाना है। उसे सुनते ही सुनते और गहरा शून्य उत्पन्न हो जाएगा। और फिर यहां से उठ कर जब जाना है तो बातचीत जरा भी नहीं। चुपचाप जाकर सो जाना है बिस्तर पर। और ध्यान रखना है कि अब हम मौन में प्रविष्ट हो गए हैं। यह ध्यान—प्रारंभ है, और अंतिम ध्यान में मैं कहूंगा कि अब आप छोड़ दें उस बात को, लेकिन तब तक हम एक मौन की यात्रा में सम्मिलित हो गए हैं।

अब हम थोड़ा हट कर बैठ जाएं। कोई किसी को छूता हुआ न हो।

मान लूं कि आप ऐसे बैठ गए हैं कि कोई आपको छू नहीं रहा है।

शरीर को बिलकुल आराम में छोड़ दें। आंख आधी खुली हो, नासाग्र दिखाई पड़ता हो।

बैठ गए हैं आप। अब मैं सुझाव देता हूं उन सुझाओ में धीरे— धीरे तल्लीन होते जाएं।

शरीर शिथिल हो रहा है……छोड़ दें, शरीर के सारे अंगों को ढीला छोड़ दें, जैसे उनमें कोई प्राण न रहा हों। शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है… शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है… शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है… शरीर शिथिल हो गया है… शरीर शिथिल हो गया है……शरीर शिथिल हो गया है…।

श्वास शांत हो रही है… श्वास शांत हो रही है.. श्वास को भी धीमा छोड़ दें। श्वास को भी धीमा छोड़ दें। श्वास शिथिल हो रही है.. श्वास शिथिल हो रही है……बिलकुल धीमा छोड़ दें, अपने आप आए जाए। श्वास शिथिल हो रही है… श्वास शिथिल हो रही है… श्वास शिथिल हो रही है……श्वास भी शिथिल हो गई है…। मन शांत हो रहा है… भीतर भी छोड़ दें मन को बिलकुल। छोड़ दें। मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है… मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन बिलकुल शांत हो रहा है……मन शांत हो गया है, बिलकुल शांत हो गया है…। दस मिनट के लिए सब शांत हो गया है। सब शांत हो गया है।

सुनें……चुपचाप सुनते रहें रात्रि के सन्नाटे को, हवाओं के झोंकों को, सागर के गर्जन को, चुपचाप सुनते रहें। सुनते ही सुनते मन और शांत, शून्य होता जाएगा। धीरे— धीरे मन बिलकुल शून्य हो जाएगा। दस मिनट के लिए बिलकुल चुपचाप बैठे हुए सुनते रहें। हो गया मन शांत……मन शांत हो गया है……मन बिलकुल शांत हो गया

सुनें रात्रि के सन्नाटे को……सुनें रात्रि के सन्नाटे को, चुपचाप सुनते रहें। सुनते ही सुनते मन बिलकुल शून्य हो जाएगा। सुनते ही सुनते मिट जाएंगे आप। रह जाएगी चांदनी, रह जाएगा यह वन। शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है……मन बिलकुल शून्य हो गया है…।

मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो रहा है.. सुनते रहें रात की आवाजों को। आंख आधी खुली रहे। मन शून्य हो रहा है… धीरे— धीरे एक दूसरा ही जगत अनुभव होगा। सब शून्य हो गया है…। आंख आधी खुली रहे। मन शून्य होता जा रहा है……सुनते रहें, मन शांत होता जा रहा है…।

मन शून्य हो रहा है……मन बिलकुल शून्य होता जा रहा है……मन शून्य हो रहा है…। आंख आधी खुली रहे। देखें, भीतर सब शांत और शून्य होता जा रहा है……मन शून्य हो रहा है……मन शून्य हो गया है…।

आप मिट गए, रह गई रात, रह गई चांदनी। आप नहीं हैं। मन बिलकुल शून्य हो गया है…।

अब धीरे— धीरे आंख खोलें पूरी… धीरे— धीरे आंख खोलें……दो—चार गहरी श्वास लें… धीरे— धीरे दों—चार गहरी श्वास लें…।

रात्रि की बैठक हमारी पूरी हुई।

धीरे— धीरे उठ कर बिना बातचीत किए वापस लौट आएं।


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तंत्र–सूत्र–(भाग-3)–प्रवचन–38

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जीवन एक मनोनाट्य है—(प्रवचन—अडतीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—आधुनिक मन अतीत अनुभवों की धूल से कैसे तादात्‍म्‍य कर लेता है?

2—जीवन को साइकोड्रामा की तरह देखने पर व्‍यक्‍ति अकेलापन अनुभव

करता है। तब फिर जीवन के प्रति सम्‍यक दृष्‍टि क्‍या है?

      3—मौन और लीला—भाव में साथ—साथ कैसे विकास करें?

      4—आप कहते है स्‍वीकार रूपांतरण करता है, लेकिन तब वासनाओं

            के स्‍वीकार में मैं पशुवत क्‍यों अनुभव करता हूं?

पहला प्रश्न :

 

आधुनिक समय में मूलभूत मन किस प्रकार अतीत के ज्ञान और अनुभवों से तादात्‍मय कर लेता है?

न शुद्ध है और उसमें कोई अशुद्धि नहीं प्रवेश कर सकती। यह असंभव है। मन बुद्ध— भाव है, मन परम है। लेकिन जब मैं मन कहता हूं तो उसका मतलब तुम्हारे मन से नहीं है, मेरा मतलब उस मन से है जिसमें मैं—तू नहीं है। तुम अशुद्धि हो। और ठीक तुम्हारे पीछे मूलभूत मन है। तुम धूल हो। इसलिए पहले तो यह समझने की कोशिश करो कि तुम क्या हो और तभी तुम समझोगे कि मौलिक मन अतीत से, स्मृतियों से, धूल से तादात्म्य कैसे कर लेता है।

तुम क्या हो? अगर इसी वक्‍त मैं पूछूं कि तुम क्या हो तो तुम इस प्रश्न का उत्तर दो ढंग से दोगे। एक उत्तर शाब्दिक होगा जिसमें तुम अपने अतीत का वर्णन करोगे। तुम कहोगे कि मेरा अमुक नाम है, मैं अमुक परिवार का हूं मेरा अमुक धर्म है, मैं अमुक देश का रहने वाला हूं। तुम कहोगे कि मैं शिक्षित हूं या अशिक्षित हूं मैं धनी हूं या गरीब हूं। ये सब के सब अतीत के अनुभव हैं; और तुम ये सब नहीं हो। तुम उनसे होकर गुजरे हो, वे तुम्हारी राह में आए हैं, लेकिन तुम्हारा अतीत इकट्ठा होता जाता है। यह शाब्दिक उत्तर होगा, लेकिन यह सही उत्तर नहीं होगा। यह तुम्हारा मन बोल रहा है, तुम्हारा झूठा अहंकार तर्क दे रहा है।

अगर तुम अभी अपने पूरे अतीत को अलग हो जाने दो, अगर तुम अपने मां—बाप, अपने परिवार, अपने धर्म और देश को—जो कि सब के सब आकस्मिक हैं—भूल जाओ और सिर्फ अपने साथ रहो, तो तुम कौन हो? कोई नाम—रूप तुम्हारी चेतना में नहीं प्रकट होगा; सिर्फ यह बोध रहेगा कि तुम हो। तुम यह नहीं कह सकोगे कि तुम कौन हो; तुम इतना ही कहोगे कि मैं हूं। जिस क्षण तुम कौन का उत्तर दोगे, तुम अतीत में चले गए।

तुम मात्र चैतन्य हो, एक शुद्ध मन, एक निर्दोष दर्पण। अभी, इसी क्षण तुम हो। तुम क्या हो? मात्र एक बोध कि मैं हूं।’मैं’ भी जरूरी नहीं है, तुम जितने गहरे जाओगे उतने ही अधिक हूं—पन को, अस्तित्व को अनुभव करोगे। अस्तित्व शुद्ध मन है। लेकिन इस अस्तित्व का कोई आकार नहीं है, यह निराकार है। इस अस्तित्व का कोई नाम नहीं है, यह अनाम है।

लेकिन जो तुम वस्तुत: हो, उससे तुम्हारा परिचय देना कठिन होगा। समाज में दूसरों से संबंधित होने के लिए तुम्हें नाम—रूप की जरूरत पड़ेगी। तुम्हारा अतीत तुम्हें नाम—रूप देता है। नाम और रूप उपयोगी है; उनके बिना जीना कठिन होगा। वे जरूरी है; लेकिन तुम वे सब नहीं हो। वे सिर्फ लेबल हैं। लेकिन इस उपयोगिता के कारण मौलिक मन नाम और रूप के साथ तादात्म्य कर लेता है।

एक बच्चा जन्म लेता है, वह अभी शुद्ध चैतन्य है। लेकिन उसे पुकारने के लिए, उसकी पहचान के लिए तुम उसे एक नाम दे देते हो। आरंभ में बच्चा अपने लिए भी अपने नाम का ही उपयोग करेगा। वह यह नहीं कहेगा कि मुझे भूख लगी है, वह कहेगा कि राम को भूख लगी है—राम अगर उसका नाम है। वह कहेगा कि राम को बहुत भूख लगी है। बाद में वह सीखेगा कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, मैं अपने लिए राम का उपयोग नहीं कर सकता; इस नाम से तो दूसरे मुझे पुकारेंगे। और तब वह अपने लिए मैं का उपयोग सीखेगा। पहले वह नाम के साथ तादात्म्य करेगा; फिर मैं के साथ।

यह उपयोगी है, तुम्हें इसकी जरूरत है। इसके बिना जीना कठिन होगा। लेकिन इसी उपयोगिता के कारण व्यक्ति नाम के साथ तादात्म्य कर लेता है, अपने को नाम ही समझने लगता है।

तुम इस तादात्म्य के पार जा सकते हो। और जब तुम इसके पार जाने लगते हो, तब तुम अपने मूलभूत चैतन्य को पुन: प्राप्त होने लगते हो। तब तुम्हारा ध्यान आरंभ हो गया। लेकिन यह ध्यान तभी आरंभ होता है जब तुम अपने नाम—रूप से, नाम—रूप के जगत से निराश हो जाते हो, हताश हो जाते हो। धर्म का आरंभ ही तब होता है जब तुम नाम—रूप के जगत से निराश हो जाते हो, पूरी तरह निराश हो जाते हो, जब पूरी चीज ही अर्थहीन हो जाती है। और नाम—रूप के जगत की अर्थहीनता का अहसास तुम्हें बेचैन कर देता है। और वह बेचैनी ही धर्म की खोज का शुभारंभ है।

तुम बेचैन होते हो, क्योंकि नाम के साथ, लेबल के साथ पूरी तरह एकात्म होना असंभव है। नाम नाम रहता है और तुम वह रहते हो जो तुम हो। नाम तुम्हें ढंक थोड़े ही पाता है, वह तुम्हारी समग्रता नहीं बन सकता। और देर— अबेर तुम इस नाम से ऊब जाते हो, तुम जानना चाहते हो कि मैं सचमुच कौन हूं। और जिस क्षण तुम ईमानदारी से, निष्ठापूर्वक पूछते हो कि मैं कौन हूं तुम दूसरी ही यात्रा पर निकल गए; तुम नाम के पार जाने लगे।

यह तादात्म्य स्वाभाविक है। एक और कारण भी है जिसके कारण तादात्म्य इतना सरत्‍न है। यह कमरा है। अगर मैं तुमसे कहूं कि इस कमरे को देखो, तो तुम कहां देखोगे? तुम दीवारों को देखोगे। लेकिन दीवारें कमरा नहीं हैं; कमरा तो वह खाली स्थान है जो दीवारों से घिरा है। दीवारें तो उस स्थान की सीमाएं हैं जिसे हम कमरा कहते हैं। लेकिन अगर मैं कहूं कि कमरे को देखो तो तुम दीवारों को ही देखोगे। क्योंकि कमरे को, शून्य स्थान को नहीं देखा जा सकता। वैसे ही तुम भी आंतरिक आकाश हो, नाम और रूप तो दीवारें हैं। वे तुम्हें सीमा देते हैं, वे तुम्हें परिभाषा देते हैं, वे तुम्हें एक निश्चित स्थान देते हैं। तुम उस ‘निश्चित’ के साथ तादात्म्य कर सकते हो, अन्यथा तुम शून्य भर हो, ना—कुछ हो। वहां शून्य ही है, वहाँ आंतरिक आकाश ही है।

इसे इस तरह देखो। तुम श्वास लेते हो, श्वास छोड़ते हो। अगर तुम चुपचाप सिर्फ

श्वास लो और छोड़ो, अगर तुम्हारे मन में कोई विचार न हो और तुम किसी पेड़ के नीचे बैठकर सिर्फ श्वास लेते—छोड़ते रहो, तो तुम्हें कैसा लगेगा? तुम्हें लगेगा कि एक आकाश बाहर है और एक आकाश भीतर है और श्‍वास भीतर से बाहर, बाहर से भीतर आ—जा रही है। लेकिन तुम कहां हो? वहां सिर्फ दो आकाश हैं और तुम्हारा कंठ द्वार का, दोनों तरफ खुलने वाले द्वार का काम कर रहा है। भीतर आने वाली श्वास द्वार से भीतर आती है, बाहर जाने वाली श्वास फिर उसी द्वार से बाहर जाती है। तुम्हारा कंठ दोनों तरफ खुलने वाले द्वार का काम करता है और उसके दोनों ओर दो आकाश हैं—एक बाहरी और एक भीतरी। और अगर यह द्वार टूट जाए तो फिर दो आकाश कहां, एक ही आकाश होगा।

अगर तुम भीतर की इस शून्यता को अनुभव करोगे तो तुम भयभीत हो जाओगे। तुम कुछ सुनिश्चित, कुछ परिभाषित होना चाहते हो। लेकिन भीतर कुछ भी सीमित—परिभाषित नहीं है। जैसे बाहरी आकाश असीम है, वैसे ही भीतरी आकाश भी असीम है। यही कारण है कि बुद्ध जोर देकर कहते हैं कि आत्मा नहीं है, तुम आकाश मात्र हो—रिक्‍त और निस्सीम। अपने को इस असीम आकाश की भांति अनुभव करना कठिन है, उसके लिए कठिन साधना की जरूरत है। मनुष्य सीमाओं के साथ बंध जाता है। अपने को उस भांति समझना आसान है—सीमाओ के साथ समझना आसान है। तुम्हारा नाम एक सीमा है, तुम्हारा शरीर एक सीमा है, तुम्हारे विचार भी एक सीमा हैं। बाहरी उपयोग के लिए, अपनी सुविधा के लिए भी तुम तादात्म्य कर लेते हो। और एक बार तादात्म्य के होते ही यह संग्रह बढ़ता ही चला जाता है। और इस संग्रह से अहंकार संतुष्ट अनुभव करता है।

तुम धन के साथ तादात्‍मय करते हो और धन का संग्रह करने में लग जाते हो। और उससे तुम्हें लगता है कि मैं बढ़ रहा हूं। तुम एक बड़ा घर बनाते हो; फिर उससे बड़ा घर बनाते हो; फिर उससे भी बड़ा घर बनाते हो; और तुम्हें भाव होता है कि मैं बड़े से बड़ा हो रहा हूं। और इसी भांति लोभ का जन्म होता है। लोभ विस्तार है, अहंकार के विस्तार का उपाय है।

लेकिन तुम अपने अहंकार को कितना ही बढा लो, तुम कभी असीम नहीं हो सकते। और तुम अपने अंतस में असीम हो। अगर तुम उस शून्य में झांक सको तो तुम असीम हो। यही वजह है कि अहंकार कभी तृप्त नहीं होता, अंततः उसे हताशा ही हाथ आती है। क्योंकि अहंकार असीम नहीं हो सकता, वह सदा सीमित ही रहेगा।

इसीलिए मनुष्य में एक आध्यात्मिक असंतोष बना रहता है। तुम असीम हो, उससे कम से कभी काम नहीं चलेगा; उससे कम से तुम कभी तृप्त न हो सकोगे। लेकिन हर सीमा सीमित होगी। और उसकी जरूरत है। वह जरूरी है, उपयोगी भी है, लेकिन वह सच नहीं है। वह सत्य नहीं है।

यह जो आंतरिक दर्पण है, आंतरिक मन है, वह शुद्ध चैतन्य है—चैतन्य मात्र है।

प्रकाश को देखो। तुम कहते हो कि यह कमरा प्रकाश से भरा हुआ है। लेकिन तुम प्रकाश को कैसे देख सकते हो? तुमने खुद प्रकाश को कभी नहीं देखा है, तुम उसे देख नहीं सकते। तुम सदा कोई प्रकाशित वस्तु देखते हो। प्रकाश दीवार पर पड़ता है, किताबों पर पड़ता है, लोगों पर पड़ता है। और उन वस्तुओं पर प्रकाश प्रतिबिंबित होता है। क्योंकि तुम इन वस्तुओं को देख पाते हो, तुम कहते हो कि प्रकाश है। और जब तुम वस्तुओं को नहीं देख पाते तो कहते हो कि अंधेरा है। तुमने कभी शुद्ध प्रकाश को, स्वयं प्रकाश को नहीं देखा है। प्रकाश सदा दूसरों से प्रतिबिंबित होकर दिखाई देता है।

चैतन्य या बोध प्रकाश से भी ज्यादा शुद्ध है। वह अस्तित्व में शुद्धतम संभावना है। अगर तुम समग्रत: शांत हो जाओ तो सभी सीमाएं विलीन हो जाएंगी और तुम यह नहीं कह पाओगे कि मैं कौन हूं। तुम मात्र हो। क्योंकि तुलना के लिए कोई विषय नहीं है, तुम नहीं कह सकते कि मैं देखने वाला हूं या आत्मा हूं या चैतन्य हूं। चैतन्य की इस शुद्धता के कारण तुम सदा अपने को किसी अन्य वस्तु के द्वारा जानते हो, तुम अपने को सीधे—सीधे नहीं जान सकते।

इसलिए जब तुम सीमाएं बनाते हो तो तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम अपने को जानते हो। नाम के साथ तुम समझते हो कि मैं अपने को जानता हूं; धन के साथ तुम समझते हो कि मैं अपने को जानता हूं। तुम्हारे आस—पास कोई सीमा बनती है और शुद्ध चैतन्य प्रतिबिंबित हो उठता है।

जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो उन्होंने कहा कि मैं नहीं रहा। जब तुम भी उस अवस्था को उपलब्ध होओगे तो तुम भी कहोगे कि मैं नहीं रहा। क्योंकि सीमा के बिना तुम कैसे हो सकते हो? जब शंकर ज्ञान को उपलब्ध हुए तो उन्होंने कहा कि मैं पूर्ण हो गया, ब्रह्म हो गया।

दोनों एक ही अर्थ रखते हैं। अगर तुम पूर्ण हो तो भी तुम न रहे। पूर्ण या शून्य दो ही संभावनाएं हैं और दोनों में तुम नहीं रहते हो। अगर तुम पूर्ण हो, ब्रह्म हो, तो तुम नहीं हो। और जब तुम नहीं हो, समग्रत: शून्य हो, तब भी तुम नहीं हो।

यही कारण है कि तादात्म्य करना जीवन का आवश्यक अंग हो जाता है। और यह अच्छा है। क्योंकि जब तक तादात्म्य नहीं होगा तब तक अतादात्‍मय भी संभव नहीं हो सकता है। जब तक तुम तादात्म्य नहीं बनाते तब तक तुम तादात्म्य—मुक्ति को कैसे उपलब्ध होओगे? कम से कम एक बार तो तादात्‍मय करना जरूरी है।

इसे ऐसे समझो। अगर तुम स्वस्थ पैदा होते हो और कभी बीमार नहीं होते तो तुम कभी भी अपने स्वास्थ्य को नहीं जान सकते, उसके प्रति बोधपूर्ण नहीं हो सकते। तुम उसे नहीं जान सकते, क्योंकि स्वास्थ्य के बोध के लिए रोग की, बीमारी की पृष्ठभूमि आवश्यक है। यह जानने के लिए कि तुम स्वस्थ थे या कि स्वास्थ्य क्या है, तुम्हें बीमार पड़ना होगा। दूसरा ध्रुव, विपरीत छोर जरूरी हो जाता है।

पूर्वी गुह्य विद्या कहती है कि संसार इसीलिए है कि तुम्हें परमात्मा का अनुभव हो सके। संसार विपरीत पृष्ठभूमि निर्मित करता है। किसी स्कूल में जाकर देखो, शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है। वह सफेद दीवार पर भी लिख सकता है, लेकिन तब लिखना व्यर्थ होगा। वह दिखाई ही नहीं पड़ेगा, वह अदृश्य होगा। दिखाई देने के लिए काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखना जरूरी है। सफेद लिखावट के दृश्य होने के लिए काला ब्लैकबोर्ड जरूरी है।

संसार ब्लैकबोर्ड है और उसके कारण तुम दृश्य हो जाते हो। यह अंतर्निहित ध्रुवीयता है, विपरीतता है। और यह अच्छा है। यही कारण है कि हमने पूर्व में यह कभी नहीं कहा कि संसार बुरा है। हम संसार को एक विद्यापीठ की भांति, एक प्रशिक्षण—भूमि की भांति लेते हैं।

यह शुभ है, क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में ही तुम अपनी शुद्धता को जान सकते हो। जब तुम संसार में आते हो तो तुम तादात्म्य कर लेते हो। तादात्म्य के साथ तुम प्रवेश करते ते, संसार शुरू होता है। तुम्‍हें अपने आंतरिक स्‍वास्‍थ्‍य को जानने के लिए बीमार होना ही होगा।

सारे संसार में यह बुनियादी प्रश्न पूछा जाता रहा है कि यह संसार क्यों है? यह किसलिए है? अनेक उत्तर दिए गए हैं; लेकिन वे सभी उत्तर व्यर्थ हैं। केवल यह दृष्टि बहुत गहरी और अर्थपूर्ण मालूम होती है कि जगत एक पृष्ठभूमि भर है, इसके बिना तुम अपने अंतरस्थ चैतन्य के प्रति सजग नहीं हो सकते।

मैं तुम्हें एक कहानी कहूंगा। एक धनी आदमी—अपने देश का सर्वाधिक धनी व्यक्ति—अशांत हो गया। बहुत निराश हो गया। उसे लगा कि जीवन अर्थहीन है। उसके पास सब कुछ था जो धन से खरीदा जा सकता था, लेकिन सब कुछ व्यर्थ सिद्ध हुआ। सच्चा अर्थ तो सिर्फ उसमें होता है जो धन से नहीं खरीदा जा सकता। उसके पास सब कुछ था जो वह खरीद सकता था—वह दुनिया की हर चीज खरीद सकता था—लेकिन अब क्या किया जाए? वह निराशा से, गहन असंतोष से भरा था।

तो एक दिन उसने अपने सभी कीमती आभूषण, सोने के गहने, हीरे—जवाहरात इकट्ठे किए और उन्हें एक पोटली में बांधा और उस आदमी की खोज में निकल पड़ा जो उसे कुछ मूल्यवान दे सके, सुख की एक झलक दे सके। वह उस व्यक्ति को अपने जीवन की सारी कमाई भेंट कर देने को तैयार था। वह एक गुरु से दूसरे गुरु के पास गया; उसने दूर—दूर की यात्रा की; लेकिन कोई उसे सुख की एक झलक भी नहीं दे सका। और वह अपना सब कुछ, अपना पूरा राज्य देने को राजी था।

फिर वह एक गांव पहुंचा और मुल्ला नसरुद्दीन का पता पूछा। वह उस गांव का फकीर था। किसी गांव वाले ने उससे कहा कि मुल्ला गांव के बाहर झाडू के नीचे बैठकर ध्यान कर रहा है। तुम वहीं जाओ; और अगर इस फकीर से तुम्हें शांति की झलक न मिले तो तुम शांति को भूल ही जाना। तब पृथ्वी पर कहीं भी तुम्हें शांति नहीं मिलेगी। अगर यह आदमी उसकी झलक नहीं दे सकता तो उसकी संभावना ही नहीं है।

वह आदमी बहुत उत्सुक हो उठा और तुरंत नसरुद्दीन के पास पहुंच गया, जो झाडू के नीचे बैठा था। सूरज डूब रहा था। उस आदमी ने कहा कि यह रही मेरे जीवन भर की कमाई; मैं सब तुम्हें दे दूंगा अगर तुम मुझे सुख की एक झलक दे सको।

मुल्ला नसरुद्दीन ने सुना। सांझ उतर रही थी और अंधेरा घिर रहा था। उसे कोई उत्तर दिए बिना ही मुल्ला ने उस धनी का थैला छीन लिया और उसे लेकर जोर से भागा। स्वभावत:, धनी व्यक्ति भी उसके पीछे—पीछे चीखता—चिल्लाता हुआ भागा। मुल्ला को गांव की सड़कों का पता था, लेकिन अजनबी होने के कारण उस धनी आदमी को उनका कुछ पता नहीं था। वह मुल्ला को नहीं पकड़ सका। सारे गांव के लोग उस आदमी के पीछे हो लिए। वह आदमी तो पागल हो रहा था, चिल्ला रहा था. मैं लुट गया, मेरी जिंदगी भर की कमाई लुट गई। मैं भिखमंगा हो गया, दरिद्र हो गया। वह धाड़ मारकर रो रहा था।

फिर नसरुद्दीन उसी झाड़ के पास पहुंच गया जहां वह पहले बैठा था। उसने झाड़ के नीचे थैले को रख दिया और खुद झाड़ के पीछे जा छिपा। धनी आदमी भी पहुंचा; वह थैले पर गिर पड़ा और खुशी के मारे रोने लगा। नसरुद्दीन ने झाड़ के पीछे से देखा और कहा : क्या तुम सुखी आदमी हो? क्‍या तुम्‍हें थोड़ी झलक मिली? उस आदमी ने कहा: मैं उतना सुखी हूं जितना धरती पर कोई आदमी हो सकता है।

क्या हुआ? शिखर होने के लिए घाटी का होना जरूरी है। परमात्मा को जानने के लिए संसार जरूरी है। संसार घाटी भर है। आदमी वही था; थैला वही था। कुछ नयी बात नहीं हुई थी। लेकिन उस आदमी ने कहा कि अब मैं सुखी हूं—उतना सुखी जितना संसार का कोई आदमी हो सकता है। और कुछ मिनट पहले यह व्यक्ति दुखी था। कुछ नहीं बदला था—आदमी वही था, थैला वही था, झाडू वही था—कुछ नहीं बदला था; लेकिन वह आदमी अब नाच रहा था। बस विपरीतता घटित हुई थी, वैषम्य घटित हुआ था।

चेतना तादात्म्य बनाती है, क्योंकि तादात्म्य से ही संसार बनता है। और संसार के माध्यम से तुम स्वयं को पुन: उपलब्ध हो सकते हो।

जब बुद्ध निर्वाण को उपलब्ध हुए तो उनसे पूछा गया कि आपने क्या पाया। बुद्ध ने कहा कि मैंने पाया तो कुछ नहीं, उलटे बहुत कुछ गंवाया। मैंने कुछ नहीं पाया, क्योंकि अब मैं जानता हूं कि मैंने जो पाया वह सदा से था ही; वह मेरा स्वभाव था। बुद्ध ने कहा कि मेरा स्वभाव कभी मुझसे छिना नहीं था; इसलिए कुछ पाने का प्रश्न नहीं उठता। मैंने वह पाया है जो था ही, जो पाया हुआ ही था। हौ, मैंने अपना अज्ञान गंवाया।

तादात्म्य अज्ञान है। यह इस जागतिक लीला का, इस महाखेल का हिस्सा है कि तुम्हें अपने को खोना पड़ेगा, ताकि अपने को पुन: पा सको। यह अपने को खोना अपने को पाने का एक उपाय है, और एकमात्र उपाय है। अगर तुमने बहुत कुछ पहले ही खो दिया है तो तुम पुन: पा सकते हो। और अगर अभी बहुत नहीं खोया है तो और खोना होगा। उसके पहले कुछ नहीं किया जा सकता, उसके पहले कोई उपाय नहीं है। जब तक तुम घाटी में, अंधेरे में, संसार में पूरी तरह नहीं खो जाते, तब तक कुछ नहीं किया जा सकता है। खोओ, ताकि पा सको।

यह विरोधाभासी मालूम पड़ता है। लेकिन जगत ऐसा ही है, प्रक्रिया ऐसी ही है।

दूसरा प्रश्न:

 

यदि यह प्रतीति हो की जीवन एक साइाकोड्रामा है तो व्‍यक्‍ति विरक्‍त और अकेला अनुभव करने लगता है। इस भांति उसके जीवन की निष्‍ठा, तींव्रता और गहराई खो जाती है। कृपापूर्वक समझाएं कि इस स्‍थिति में क्‍या किया जाए। तब फिर जीवन के प्रति सम्‍यक दृष्‍टि क्‍या है?

 

दि यह प्रतीति हो कि जीवन एक साइकोड्रामा है तो व्यक्ति विरक्‍त और अकेला अनुभव करने लगता है।’

तो अनुभव करो! समस्या क्यों बनाते हो? अगर तुम विरक्‍त और अकेले अनुभव करते हो तो उसे अनुभव करो। लेकिन हम समस्या पैदा किए जाते हैं। जो भी होता है, हम तुरंत उससे समस्या निर्मित कर लेते हैं। अकेले और विरक्‍त अनुभव करो। और अगर तुम अपने अकेलेपन के साथ सहजता से रह सके तो वह विसर्जित हो जाएगा। और अगर तुम अकेलेपन के पार जाने के लिए उसके साथ कुछ कर रहे हो तो वह कभी विलीन न होगा; वह बना रहेगा।

अभी मनोविज्ञान में एक नयी दृष्‍टि पैदा हुई है जो कहती है कि अगर तुम किसी चीज के साथ, बिना उसे समस्या बनाए, रह सके तो वह मिट जाती है। और यह तंत्र की बहुत पुरानी सिखावन है। जापान में पिछले दस—बारह वर्षों से एक छोटी सी चिकित्सा—विधि प्रयोग की जा रही है। और पश्चिम के मनोविश्लेषक और मनोचिकित्सक इस विधि का अध्ययन कर रहे हैं। यह झेन चिकित्सा है और बहुत अदभुत है।

अगर कोई व्यक्ति विक्षिप्त या पागल हो जाता है तो उस पुरुष या स्त्री को एकांत कमरे में रख दिया जाता है और उससे कह दिया जाता है : अपने साथ रहो, तुम जैसे भी हो अपने साथ रहो। तुम विक्षिप्त हो तो ठीक है। तब विक्षिप्त ही हो जाओ और उसके साथ रहो। और डाक्टर कोई हस्तक्षेप नहीं करते हैं। उसे भोजन दे दिया जाता है, उसकी जरूरतें पूरी कर दी जाती हैं, उसका ध्यान रखा जाता है, लेकिन कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाता है। रोगी को स्वयं के साथ रहना है। और दस दिन के अंदर उसमें बदलाहट होने लगती है। पश्चिमी मनोविश्लेषण वर्षों श्रम करता है और बुनियादी रूप से कुछ भी नहीं बदलता है।

इस झेन रोगी को क्या होता है? बाहर से कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। बस इस तथ्य की स्वीकृति होती है कि ठीक है, तुम विक्षिप्त हो, उसमें कुछ नहीं किया जा सकता। झेन कहता है कि एक वृक्ष छोटा है और एक वृक्ष बहुत बड़ा है, तो ठीक है; एक छोटा है और दूसरा बड़ा; उसमें कुछ नहीं किया जा सकता। जैसे ही तुम किसी चीज को स्वीकार कर लेते हो, तुम उसका अतिक्रमण करने लगते हो।

इंग्लैंड के एक बड़े मौलिक मनोचिकित्सक आर डी लैग ने यह प्रस्तावित किया है कि अगर हम पागल आदमी को अपने आप पर छोड़ दें, ध्यान दें, प्रेम दें, उसकी जरूरतें पूरी कर दें, लेकिन उसके साथ हस्तक्षेप न करें, तो वह तीन—चार सप्ताह के भीतर पागलपन से मुक्‍त हो जाएगा। उनका कहना है कि अगर कोई हस्तक्षेप न किया जाए तो पागलपन दस दिनों से ज्यादा नहीं टिक सकता। अगर तुम हस्तक्षेप करोगे तो तुम प्रक्रिया को लंबा दोगे।

लेकिन जब तुम हस्तक्षेप नहीं करते हो तो क्या होता है? तुम अकेलापन अनुभव करते हो तो अकेलापन अनुभव करो—वही तुम्हारी स्थिति है। लेकिन जब तुम अकेलापन अनुभव करते हो तो तुम कुछ करने लगते हो; और तब तुम बंट गए। तब तुम्हारा एक हिस्सा अकेलापन अनुभव करता है और दूसरा हिस्सा उसे बदलने में लग जाता है। यह गलत है और बेतुका है। यह तो ऐसा ही है जैसे तुप अपने जूते के बंद पकड़कर अपने को ऊपर आकाश में उठाने की कोशिश करो। यह बात ही बेतुकी है। तुम अकेले हो, तो क्या कर सकते हो? कोई दूसरा भी कुछ करने को नहीं है। तुम अकेले हो तो अकेले रहो। यही तुम्हारी नियति है, तुम इसी भांति बने हो। और जब तुम इसे स्वीकार कर लेते हो तो क्या होता है? अगर तुम स्वीकार कर लो तो तुम्हारा विभाजन समाप्त हो जाएगा; तुम एक हो जाओगे, तुम अखंड हो जाओगे।

तो अगर तुम उदास और खिन्न हो तो उदास और खिन्न रहो, कुछ करो मत। और तुम कर भी क्या सकते हो? तुम जो भी करोगे वह तुम्हारी उदासी से ही तो आएगा। उससे तो उलझन और बढ़ेगी। तुम परमात्मा से प्रार्थना कर सकते हो, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना इतनी उदास होगी कि वह परमात्मा को भी उदास कर जाएगी। उतनी हिंसा मत करो। तुम्हारी प्रार्थना भी उदास होगी ही। तुम ध्यान कर सकते हो। लेकिन तब तुम क्‍या करोगे? उदासी वहां भी बनी रहेगी। क्योंकि तुम उदास हो, तुम जो भी करोगे, उदासी तुम्हारा पीछा करेगी। उससे उलझन बढ़ेगी, निराशा ही हाथ आएगी। सफलता संभव नहीं है। और असफल होने पर उदासी और सघन होगी। और यह दुष्टचक्र चलता रहेगा।

इससे तो अच्छा है कि पहली उदासी के साथ ही रहो। दूसरे और तीसरे चक्र गढ़ने से क्या फायदा? पहले के साथ ही रहो। जो मौलिक है वह सुंदर है। दूसरा झूठा होगा; तीसरा तो और दूर पड जाएगा। उन्हें मत रचो। पहला ही सुंदर है। तुम उदास हो, उसका मतलब है कि अस्तित्व अभी तुम्हारे साथ इसी रूप में घटित हो रहा है। तुम उदास हो तो उदास रहो। प्रतीक्षा करो और साक्षी रहो।

तुम बहुत देर तक उदास नहीं रह सकते, क्योंकि इस जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है। यह जगत एक प्रवाह है। जगत तुम्हारे लिए अपने मूलभूत नियम को नहीं बदल सकता, ताकि तुम सदा के लिए उदास रह सको। यहां कुछ भी स्थायी नहीं है, हर चीज प्रवाहमान है, हर चीज बदल रही है। अस्तित्व नदी की भांति है, वह तुम्हारे लिए—सिर्फ तुम्हारे लिए—नहीं रुक सकती कि तुम सदा—सदा उदास बने रहो। अस्तित्व की नदी बह रही है, वह आगे बढ़ चुकी। अगर तुम अपनी उदासी को देखोगे तो पाओगे कि तुम्हारी उदासी भी अगले क्षण वैसी ही नहीं रहेगी। वह भिन्न हो गई है, वह बदल गई है। बस उसे देखो, उसके साथ रहो। कुछ करो मत। बस इसी तरह कुछ न करने से रूपांतरण घटित होता है। और इसे ही प्रयत्‍नहीन प्रयत्न कहते हैं।

तो उदासी को अनुभव करो। उसका स्वाद लो, उसे जीओ। यह तुम्हारी नियति है। तब अचानक तुम्हें लगेगा कि उदासी विलीन हो गई। क्योंकि जो आदमी उदासी को भी स्वीकार करता है, वह उदास कैसे रह सकता है? जो चित्त उदासी को भी स्वीकार कर लेता है, वह उदास नहीं रह सकता। उदासी के होने के लिए अस्वीकार करने वाला चित्त जरूरी है। वह कहता है : यह अच्छा नहीं है, वह अच्छा नहीं है, यह नहीं होना चाहिए, वह नहीं होना चाहिए; ऐसा नहीं होना चाहिए वैसा नहीं होना चाहिए। वह सब कुछ को इनकार करता है, नामंजूर करता है, उसे कुछ भी स्वीकार नहीं है। उसके लिए ‘नहीं’ बुनियादी है। ऐसा चित्त सुख में भी कुछ इनकार योग्य खोज लेगा।

अभी कल ही एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा. ध्यान में गहराई आ रही है और मैं बहुत आनंदित अनुभव करता हूं लेकिन मुझे संदेह होता है कि कहीं यह आनंद भ्रम तो नहीं है! क्योंकि पहले कभी मैंने ऐसा आनंद नहीं जाना था; यह मेरी भांति हो सकती है। इससे मैं संदेह में पड़ गया हूं। कृपा करके मेरा संदेह दूर करें।

अगर इनकार करने वाले मन को सुख भी घटित हो तो वह उस पर भी संदेह करेगा। उसे लगेगा कि कुछ गड़बड़ हो गई है। मैं और सुखी? जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है। सिर्फ चंद दिनों के ध्यान से ऐसा नहीं हो सकता है।

अस्वीकार करने वाले चित्त के लिए सब कुछ अस्वीकार है। लेकिन अगर तुम अपने म् अकेलेपन को, अपनी उदासी को, अपने दुख को स्वीकार कर सको तो तुम उसके पार जाने लगे। स्वीकार ही अतिक्रमण है। स्वीकार करके तुमने उदासी के पाव के नीचे से जमीन हटा दी; उदासी अब खड़ी नहीं रह सकती।

इसे प्रयोग करो। जो भी तुम्‍हारी चित्‍त—दशा हो उसे स्‍वीकार करो और उस समय की प्रतीक्षा करो जब वह खुद बदले। तुम उसे नहीं बदल रहे हो। तब तुम उस सौंदर्य को अनुभव करोगे जो आता ही तब है जब चित्त—दशा अपने आप बदलती है। तुम पाओगे कि यह ऐसा ही है जैसे सूरज सुबह उगता है और सांझ डूबता है, और उसके उगने—डूबने का सिलसिला चलता रहता है और उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता।

अगर तुम अपनी चित्त—दशा को अपने आप बदलते देख लो तो तुम उसके प्रति तटस्थ रह सकते हो, तुम उससे दूर, मीलों दूर रह सकते हो जैसे कि कहीं दूर यह सब घट रहा है। जैसे सूरज उगता और डूबता है, वैसे ही उदासी आती—जाती है, सुख आता—जाता है, पर तुम उसमें नहीं हो। दुख—सुख अपने आप आते—जाते हैं, चित्त—दशाएं अपने आप आती—जाती हैं।’यदि यह प्रतीति हो कि जीवन एक साइकोड्रामा है तो व्यक्ति विरक्‍त और अकेला अनुभव करने लगता है।’

तो वैसा अनुभव करो!

‘इस भांति उसके जीवन की निष्ठा, तीव्रता और गहराई खो जाती है।’

तो उसे खो जाने दो। जो निष्ठा और गहराई खो सकती है, वह सच्ची नहीं है, वह नकली है, झूठ है। और यह अच्छा है कि गलत चीजें नष्ट हो जाएं। सच्ची गहराई कैसे नष्ट हो सकती है? सच्ची गहराई की परिभाषा ही यह है कि वह नष्ट नहीं हो सकती चाहे तुम कुछ भी करो। अगर तुम बुद्ध को अशांत कर सको तो वे बुद्ध नहीं हैं। तुम चाहे जो भी करो, वे अनुद्विग्न रहेंगे, शांत रहेंगे। बेशर्त अनुद्विग्नता ही बुद्ध—स्वभाव है।

सच्चा कभी नष्ट नहीं होता, सच्चा सदा बेशर्त है। मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और कहता हूं कि क्रोध मत करो, क्रोध करोगे तो मेरा प्रेम खो जाएगा। ऐसा प्रेम जितनी जल्दी खो जाए उतना अच्छा। अगर प्रेम सच्चा है तो तुम कुछ भी करो, उससे उसमें फर्क नहीं पड़ेगा; प्रेम रहेगा। और तभी उसका कोई मूल्य है।

अगर संसार को साइकोड्रामा की भांति, नाटक की भांति देखने से तुम्हारे जीवन की तीव्रता, तुम्हारी गहराई खो जाती है, तो वह तीव्रता, वह गहराई बचाने योग्य नहीं थी। वह झूठी थी। वह तीव्रता विदा हो जाती है, क्योंकि वह नाटक का एक खेल भर थी। और तुम सोचते थे कि वह सच्ची थी और उसमें गहराई थी। अब तुम जानते हो कि वह नाटक का हिस्सा थी। वैसे ही जो निष्ठा खो जाती है वह सच्ची नहीं थी। तुम सोचते थे कि वह सच्ची थी, लेकिन सच्ची नहीं थी। इसी कारण से जीवन को नाटक की तरह देखते ही वह निष्ठा विलीन हो गई।

यह ऐसा ही है, मानो एक अंधेरे कमरे में रस्सी पड़ी थी और तुम्हें लगा कि सांप है। लेकिन सांप है नहीं। अब तुम एक दीया लेकर कमरे में आते हो और सांप खो जाता है और सिर्फ रस्सी रह जाती है। दीए के आने पर जो सांप खो गया वह सांप कभी नहीं था।

अगर तुम जीवन को अभिनय की भांति देखोगे तो जो झूठ है वह विलीन हो जाएगा और जो सत्य है वह पहली दफा तुममें प्रकट होगा। रुको और असत्य को खो जाने दो। प्रतीक्षा करो। एक अंतराल होता है, जब असत्य बिदा होता है और सत्य प्रकट होता है, उसके पहले एक अंतराल होगा। जब झूठी छायाएं बिलकुल खो जाएंगी, जब तुम्हारी आंखें उनसे बिलकुल खाली हो जाएंगी,जब तुम्‍हारी आंखें झूठी छायाओं से मुक्‍त हो जाएंगी, तब तुम उस सत्य को देख सकोगे जो सदा था। लेकिन उसके लिए प्रतीक्षा चाहिए।

‘कृपापूर्वक समझाएं कि इस स्थिति में क्या किया जाए।’

कुछ भी नहीं। कृपा करके कुछ भी मत करो। तुमने बहुत कुछ क्र—करके ही तो सब गड्ड—मड्ड कर दिया है। तुम करने में इतने कुशल हो कि तुमने अपने चारों ओर इतनी उलझन, इतना उपद्रव पैदा कर लिया है—न केवल अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी। कुछ भी मत करो, वह तुम्हारी अपने ऊपर बड़ी करुणा होगी। थोड़ी करुणा करो। कुछ मत करो, क्योंकि झूठा मन, उलझा हुआ मन, सब कुछ को और भी उलझा देता है। उलझे हुए मन के साथ कुछ करने की बजाय प्रतीक्षा करना बेहतर है, ताकि उलझन विसर्जित हो जाए। वह विसर्जित होगी; क्योंकि इस जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है। सिर्फ गहन धैर्य की जरूरत है।

मैं तुम्हें एक कहानी कहूंगा। बुद्ध एक जंगल से गुजर रहे थे। दिन तप रहा था, ठीक दोपहरी थी। उन्हें प्यास लगी, तो उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा : वापस जाओ। अभी हमने एक छोटा सा झरना पार किया था, वहां जाओ और मेरे लिए पानी ले आओ। आनंद वापस गया। लेकिन वह झरना बहुत छोटा था और अभी—अभी कुछ बैलगाड़ियां उससे गुजरी थीं। पानी हिल गया था और गंदा हो गया था। सारा कीचड़ ऊपर आ गया था और पानी पीने योग्य नहीं रहा था।

आनंद ने सोचा कि मैं लौट चलूं और वह लौट गया। उसने बुद्ध से कहा कि वह पानी तो बिलकुल गंदा हो गया है और पीने योग्य नहीं है। आनंद ने कहा : मुझे आज्ञा दें कि मैं आगे जाऊं। यहां से कुछ मीलों पर ही एक नदी है, मैं जाकर उससे पानी ले आता हूं। लेकिन बुद्ध ने उससे कहा कि नहीं, उसी झरने पर वापस जाओ।

बुद्ध ने कहा तो आनंद को फिर वहीं वापस जाना पड़ा। लेकिन वह आधे मन से गया, क्योंकि वह जानता था कि मैं पानी नहीं ला पाऊंगा; सिर्फ समय गंवाना होगा। और उसे भी प्यास लग रही थी। लेकिन जब बुद्ध ने कहा तो उसे जाना पड़ा। वह फिर बुद्ध के पास लौटकर बोला आपने नाहक जिद्द की। वह पानी पीने योग्य नहीं है। लेकिन बुद्ध ने फिर कहा. तुम फिर वहीं जाओ। और बुद्ध के कहने पर आनंद को फिर वहीं जाना पड़ा।

आनंद जब तीसरी बार झरने पर पहुंचा तो पानी बिलकुल साफ था। कीचड़ बैठ गया था, सूखे पत्ते बह गए थे और पानी फिर शुद्ध का शुद्ध था। तब आनंद हंसा। वह पानी लेकर नाचता हुआ वापस आया। वह बुद्ध के चरणों पर गिर पड़ा और बोला. आपके सिखाने के ढंग अदभुत हैं। आपने आज मुझे एक महान पाठ दिया—कि सिर्फ धैर्य चाहिए और कुछ भी हमेशा नहीं रहता है।

और बुद्ध की मूलभूत देशना यही है कि कुछ भी स्थायी नहीं है, सब कुछ बहा जा रहा है। फिर चिंता क्यों? उसी झरने पर वापस जाओ, अब तक सब कुछ बदल गया होगा। कुछ भी बिना बदले नहीं रहता है। सिर्फ धैर्य चाहिए। फिर—फिर वहीं जाओ। क्षणों की बात है और पत्ते बह जाएंगे और कीचड़ बैठ जाएगा और फिर पानी स्वच्छ हो जाएगा।

और जब आनंद दूसरी बार झरने पर जा रहा था तो उसने बुद्ध से कहा कि आप जाने को कहते हैं तो मैं जाता हूं; लेकिन क्या मैं वहां पानी को स्वच्छ करने के लिए कुछ कर सकता हूं? बुद्ध ने कहा कि कुछ मत करना, अन्यथा तुम पानी को और गंदा कर दोगे। और झरने में उतरना भी मत; बाहर ही रहना। किनारे बैठकर प्रतीक्षा करना। तुम झरने में उतरकर उपद्रव ही पैदा करोगे। झरना अपने आप ही बहता है, उसे बहने देना।

कुछ भी स्थायी नहीं है। जीवन एक प्रवाह है। हेराक्लाइटस ने कहा है कि तुम एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते, एक ही नदी में दो बार उतरना असंभव है। क्योंकि नदी तो बह गई; उसका सब कुछ बदल गया। और यही नहीं कि नदी बह गई, तुम भी इस बीच बह गए हो, तुम भी बदल गए हो। तुम भी एक नदी हो।

हर चीज की क्षणभंगुरता को देखो। जल्दी मत करो। कुछ भी करने की चेष्टा मत करो। बस प्रतीक्षा करो। समग्रत: निष्‍क्रिय होकर प्रतीक्षा करो। और तुम अगर प्रतीक्षा कर सके तो रूपांतरण होगा। प्रतीक्षा ही रूपांतरण बन जाएगी।

तीसरा प्रश्न :

 

साक्षी की साधना मुझ मौन, स्थिर और शांत बना देती है, लेकिन मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैं गंभीर हो गया हूं। और वे जो कहते हैं उसमें कुछ सार भी मालूम देता है। कृपया समझाएं की कोई व्‍यक्‍ति कैसे मौन और लीला— भाव में साथ— साथ विकास करे।

दि तुम सचमुच मौन हो गए हो तो तुम्हें इसकी फिक्र न रहेगी कि दूसरे क्या कहते हैं। और यदि दूसरों की राय अभी तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है तो तुम मौन नहीं हुए हो। सच तो यह है कि तुम इंतजार में हो कि वे कुछ कहें, कि वे प्रशंसा करें कि तुम मौन हो गए हो। क्या तुम्हारे मौन को उनके समर्थन की जरूरत है? तुम्हें उनके प्रमाणपत्र की जरूरत है? तब तुम आश्वस्त नहीं हो कि तुम मौन हो गए हो।

दूसरों के मत अर्थपूर्ण हैं, क्योंकि तुम खुद कुछ नहीं जानते हो। मत कभी ज्ञान नहीं है। तुम दूसरों के मत इकट्ठे किए जाते हो, क्योंकि तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या हो, तुम कौन हो, तुम्हें क्या हो रहा है। तुम्हें दूसरों से पूछना पड़ता है कि मुझे क्या हो रहा है।

तुम्हें दूसरों से पूछना पड़ेगा? अगर तुम सच में मौन और शांत हो गए हो तो न कोई मित्र हैं और न कोई मत अर्थपूर्ण हैं। तब तुम हंस सकते हो। उन्हें कहने दो जो वे कहना चाहें। लेकिन नहीं, तुम प्रभावित होते हो। वे जो कुछ कहते हैं वह तुममें गहरे उतर जाता है, तुम उससे उत्तेजित हो जाते हो। तुम्हारा मौन झूठा है, आरोपित है, अभ्यासजन्य है। वह सहज रूप से तुममें नहीं खिला है। तुमने जबरदस्ती अपने को मौन कर लिया है, लेकिन भीतर अभी उबल रहे हो। यह मौन सतह पर ही है। अगर कोई कहता है कि तुम मौन नहीं हो, अगर कोई कहता है कि यह अच्छा नहीं है, या अगर कोई कहता है कि यह झूठा है, तो तुम अशांत हो जाते हो और तुम्हारा मौन खो जाता है। मौन खो गया है। इसीलिए तुम मुझसे यह पूछ रहे हो।

’और वे जो कहते हैं उसमें कुछ सार भी मालूम देता है।’

तुम गंभीर हो गए हो। पर गंभीर होने में गलत क्या है? अगर तुम गंभीर ही पैदा हुए हो, गंभीर होने को ही पैदा हुए हो, तो तुम गंभीर होओगे। तुम जबरदस्ती खेलपूर्ण नहीं हो सकते; अन्यथा तुम्हारा खेलपूर्ण होना ही गंभीर हो जाएगा और तुम उसको भी नष्ट कर दोगे। कई खिलाडी भी बड़े गंभीर होते है। वह अपने खेलों में इतने गंभीर हो जाते है कि खेल और ज्यादा चिंता और उपद्रव के कारण बन जाते हैं।

मैं किसी व्यक्ति के संस्मरण पढ़ रहा था जो कि एक बडा उद्योगपति था और रोज—रोज की समस्याओं से पीड़ित था। किसी ने उससे कहा कि तुम गोल्फ खेलो, उससे तुम्हारी चिंता कम हो जाएगी। उसने गोल्फ खेलना शुरू किया, लेकिन वह वही आदमी रहा। वह अपने गोल्फ के बारे में इतना उत्तेजित हो गया कि उसकी नींद खो गई। वह सारी रात गोल्फ खेला करता। पहले काम का बोझ था, अब गोल्फ दूसरा बोझ बन गया—पहले से भी बड़ा बोझ। वह गोल्फ खेलता था, लेकिन गंभीर मन से, पुराने मन से खेलता था।

अगर तुम गंभीर हो तो गंभीर हो, उसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। गंभीर होओ और गंभीर बने रहो। तब तुम खेलपूर्ण होने लगे। तब तुम अपनी गंभीरता के प्रति गैर—गंभीर होने लगे; तुम गंभीर न रहे। तब तुम अपनी गंभीरता को खेल की तरह लेने लगे। तुम कहते हो कि ठीक है, परमात्मा ने मुझे यही भूमिका अदा करने को दी है, सो मैं गंभीर आदमी होऊंगा और गंभीरता की भूमिका निभाऊंगा।

तो गहरे में गंभीरता विसर्जित होने लगी। मेरी बात समझे? तुम खेल में गंभीरता ला सकते हो और तुम गंभीरता को खेल बना सकते हो। अगर तुम उदास हो, गंभीर हो, तो सब से कह दो कि मैं जन्मजात गंभीर हूं और मैं गंभीर रहूंगा। लेकिन अपनी गंभीरता के संबंध में गंभीर मत बनो। बस गंभीर रहो। और जब तुम इसके बारे में हंस सकते हो तो गंभीरता विदा हो जाएगी। और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि वह कब चली गई।

और दूसरे क्या कहते हैं, उस पर ध्यान मत दो। यह एक बीमारी है। वे दूसरे तुम्हें विक्षिप्त कर देंगे। वे दूसरे कौन हैं? और तुम्हें उनमें इतनी रुचि क्यों है? वे तुम्हें पागल बनाते हैं और तुम उन्हें पागल बनाते हो, क्योंकि उनके लिए तुम दूसरे हो। दूसरे की राय को इतना महत्व क्यों देना? अपने स्वयं के अनुभवों पर ध्यान दो, अपने स्वयं के अनुभवों के प्रति प्रामाणिक रहो। अगर तुम्हें गंभीर रहना रास आता है तो वही ठीक है। अगर तुम समझते हो कि साक्षी की साधना से तुम मौन और शांत हो गए हो तो दूसरे की फिक्र क्या करनी! दूसरों के मत से उत्तेजित क्या होना!

लेकिन हम आश्वस्त नहीं हैं, इसलिए दूसरों के मत बटोरते रहते हैं। तुम्हें तो हस्ताक्षर— अभियान चलाना चाहिए। लोगों से कहो कि अगर आप सोचते हैं कि मैं बुद्ध हो गया हूं तो इस पर हस्ताक्षर कर दें। और जब हर कोई हस्ताक्षर कर दे, कम से कम जब बहुमत तुम्हारे साथ हो, तो तुम बुद्ध हो गए। लेकिन बुद्ध होने का मार्ग यह नहीं है।

‘और कृपापूर्वक समझाएं कि कोई व्यक्ति कैसे मौन और लीला— भाव में साथ—साथ विकास करे।’

विकास होता है। इससे अन्यथा कभी नहीं हुआ है। व्यक्ति मौन और लीला— भाव में साथ—साथ विकसित होता है। लेकिन अगर तुम्हारा मौन झूठा है तो समस्या खड़ी होती है। जिन्होंने भी मौन जाना है वे सदा लीलापूर्ण रहे हैं, सदा गैर—गंभीर रहे हैं। वे हंस सके; दूसरों पर ही नहीं, अपने ऊपर भी हंस सके।

आज से चौदह सौ साल पहले बोधिधर्म भारत से चीन गए थे। उन्होंने अपना एक जूता अपने सिर पर रखा हुआ था—एक जूता पांव में था और दूसरा सिर पर। चीन का सम्राट बू उसके स्वागत के लिए आया हुआ था। यह देखकर वह परेशान हो उठा। अफवाहें तो बहुत सुनी थीं कि यह आदमी अजीबोगरीब है, लेकिन वह बुद्धपुरुष था और सम्राट अपने राज्य में उसका स्वागत करना चाहता था। वह परेशान हो गया। उसके दरबारी भी परेशान हो गए। वे सोचने लगे कि यह किस तरह का व्यक्ति है! और बोधिधर्म हंस रहा था।

दूसरों के सामने कुछ कहना अशोभन होता, इसलिए सम्राट चुप रहा। जब सभी लोग चले गए और बोधिधर्म और सम्राट बोधिधर्म के कमरे में गए तो सम्राट ने पूछा कि आप अपने को इस तरह मूर्ख क्यों बना रहे हैं? आप अपना एक जूता सिर पर क्यों रखे हुए हैं?

बोधिधर्म हंसा और बोला : क्योंकि मैं अपने ऊपर हंस सकता हूं। और यह अच्छा है कि आप मेरी असलियत को जान लें कि मैं ऐसा व्यक्ति हूं। और मैं अपने सिर को पांव से ज्यादा मूल्य नहीं देता हूं मेरे लिए दोनों समान हैं। मेरे लिए ऊंच—नीच विलीन हो गए हैं। और दूसरी बात मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि मैं इस बात की जरा भी परवाह नहीं करता कि दूसरे मेरे बारे में क्या कहते हैं। और यह अच्छा है, जिस क्षण मैंने आपके राज्य में प्रवेश किया, मैंने चाहा कि आप जान लें कि मैं किस तरह का आदमी हूं।

यह बोधिधर्म एक दुर्लभ रत्‍न है। बहुत कम लोग हुए हैं जो उनकी तुलना में आ सकें। वे क्या बता रहे थे? वे यही बता रहे थे कि अध्यात्म के इस मार्ग पर तुम्हें व्यक्ति की तरह अकेले चलना है, समाज यहां अप्रासंगिक हो जाता है।

कोई व्यक्ति जार्ज गुरजिएफ के साक्षात्कार के लिए आया था। आने वाला एक बड़ा पत्रकार था। गुरजिएफ के शिष्य बहुत उत्सुक थे कि अब एक बड़े समाचारपत्र में उनके गुरु की कहानी, उसके चित्र और समाचार छपने जा रहे हैं। उन्होंने उस पत्रकार का बहुत खयाल रखा, उसकी अच्छी तरह देखभाल की। वे अपने गुरु को करीब—करीब भूल ही गए और पत्रकार के आस—पास मंडराते रहे।

और फिर साक्षात्कार शुरू हुआ, लेकिन दरअसल वह साक्षात्कार कभी शुरू ही नहीं हुआ। जब पत्रकार ने कोई प्रश्न पूछा तो गुरजिएफ ने कहा एक मिनट रुको। उसके बगल में ही एक स्त्री बैठी थी; गुरजिएफ ने उससे पूछा कि आज कौन सा दिन है? उस स्त्री ने कहा कि आज रविवार है। गुरजिएफ ने कहा. यह कैसे हो सकता है? कल तो शनिवार था, तो आज रविवार कैसे हो सकता है? कल तो तुमने कहा था कि आज शनिवार है, शनिवार के बाद रविवार कैसे आ सकता है?

पत्रकार उठ खड़ा हुआ और उसने कहा कि मैं जाता हूं यह आदमी तो पागल मालूम पड़ता है। सभी शिष्य हैरान थे, जो कुछ घटित हुआ, उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। जब पत्रकार चला गया तो गुरजिएफ हंस रहा था।

दूसरे क्या कहते हैं यह प्रासंगिक नहीं है। तुम स्वयं जो अनुभव करते हो, उसके प्रति प्रामाणिक बनो, लेकिन प्रामाणिक बनो। अगर तुम्हें सच्चा मौन घटित हुआ हो तो तुम हंस सकते हो।

डोजेन एक झेन गुरु था। उसके संबंध में कहा जाता है कि जब वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ तो अनेक लोगों ने पूछा कि उसके बाद आपने क्या किया? डोजेन ने कहा कि मैंने एक प्‍याली चाय बुलायी। अब और करने को क्‍या था; सब तो समाप्‍त हो चुका था। और डोजेन अपनी गैर—गंभीरता के प्रति गंभीर था और अपनी गंभीरता के प्रति गैर—गंभीर था। सच ही तब क्या बच रहता है?

ज्यादा मत ध्यान दो कि दूसरे क्या कहते हैं। और एक बात स्मरण में रख लो कि मौन को ऊपर से थोपो मत, उसका अभ्यास मत करो। अभ्यासजन्य मौन गंभीर होगा, रुग्ण होगा, तनावग्रस्त होगा। लेकिन सच्चा मौन कैसे आता है? इसे समझने की कोशिश करो।

तुम तनावग्रस्त हो, तुम दुखी हो, तुम उदास हो। तुम क्रोधी, लोभी, हिंसक हो। हजार रोग हैं। और तुम शांति का अभ्यास कर सकते हो। ये रोग तुम्हारे भीतर बने रह सकते हैं और तुम शांति की एक पर्त निर्मित कर सकते हो। तुम टी .एम या भावातीत ध्यान कर सकते हो, या किसी मंत्र का जाप कर सकते हो। मंत्र तुम्हारी हिंसा को नहीं बदलने वाला है, न वह तुम्हारे लोभ को बदलने वाला है। मंत्र गहरे में बसी किसी वृत्ति को नहीं बदल सकता है। मंत्र सिर्फ ट्रैंक्वेलाइजर का काम करता है, बस ऊपर—ऊपर तुम थोड़ा शांत अनुभव करोगे। यह केवल ट्रैंक्वेलाइजर है—ध्वनि निर्मित ट्रैंक्वेलाइजर।

और नींद अनेक—अनेक उपायों से लायी जा सकती है। जब तुम निरंतर किसी मंत्र को दोहराते हो तो तुम्हें नींद आने लगती है। किसी ध्वनि की सतत पुनरुक्ति ऊब और नींद पैदा करती है, तुम विश्राम अनुभव करते हो। लेकिन यह विश्राम सतह पर ही रहता है, भीतर तुम वही के वही बने रहते हो। किसी मंत्र का रोज—रोज जाप करते रहो और तुम्हें शांति अनुभव होगी। लेकिन वह असली शांति नहीं है। क्योंकि उससे तुम्हारे रोग नहीं मिटते हैं, क्योंकि तुम्हारे व्यक्तित्व का ढांचा वैसा ही बना रहता है। बस ऊपर से रंग—रोगन हो जाता है। मंत्र—जाप बंद करो, अभ्यास बंद करो और तुम्हारे सारे रोग फिर ऊपर आ जाएंगे।

यह रोज हो रहा है। साधक एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जाते रहते हैं; और वे न जाने क्या—क्या अभ्यास करते रहते हैं। लेकिन जब वे अभ्यास बंद करते हैं तो पाते हैं कि वे वही के वही हैं, उन्हें कुछ भी घटित नहीं हुआ।

इस तरह कुछ भी नहीं घटित होगा। यह साधा हुआ मौन है। तुम्हें उसे साधते ही रहना होगा। और अगर तुम उसे साधते रहोगे तो वह एक आदत की तरह तुम्हारे साथ रहेगा। और आदत के टूटते ही वह बिखर जाता है।

सच्चा मौन कोई सतही विधि के साधने से नहीं आता; वह बोध से आता है। तुम जो भी हो, उसके प्रति बोधपूर्ण ही नहीं होना है, बल्कि तुम जो हो उसकी तथ्यता के साथ रहना है। तथ्य के साथ रहो। यह बहुत कठिन है, क्योंकि मन बदलाहट चाहता है। वह चाहता है कि कैसे हिंसा को बदले, कैसे उदासी को बदले, कैसे दुख को बदले। मन भविष्‍य में किसी भांति अपनी छवि बेहतर करने के लिए बदलाहट की खोज करता है। यही कारण है कि व्यक्ति किसी न किसी विधि की खोज में लगा रहता है।

तुम तथ्य के साथ रहो, उसे बदलने की चेष्टा मत करो। एक वर्ष तक यह प्रयोग करो। एक तारीख तय कर लो और कह दो कि इस तारीख से एक वर्ष तक मैं बदलाहट की भाषा में नहीं सोचूंगा; मैं जो भी हूं उसके ही साथ रहूंगा, मैं बस सजग और बोधपूर्ण रहूंगा।

मैं यह नहीं कहता कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, लेकिन तुम्हें सजगता को अपनी साधना बना लेना है। तुम्हें सजग रहना है, बदलाहट की भाषा में नहीं सोचना है। जो भी तुम हो—भले, बुरे या दोनों के बीच में—उसके साथ तुम्‍हें एक वर्ष जीना है। और तब एक दिन तुम पाओगे कि तुम वही नहीं रहे जो थे। सजगता सब कुछ बदल देगी।

झेन साधना में इसे झाझेन कहा जाता है। झाझेन का अर्थ है. सिर्फ बैठना, कुछ किए बिना सिर्फ बैठना। जो होता है वह होता है, तुम बस बैठे हो। झाझेन का मतलब है बिलकुल निष्‍क्रिय होकर बैठना। झेन मंदिरों में साधक वर्षों बैठे रहते हैं और पूरे दिन बैठे रहते हैं। तुम्हें लगेगा कि वे ध्यान कर रहे हैं। नहीं, वे ध्यान नहीं कर रहे हैं, वे बस मौन बैठे हैं। और मौन बैठने का यह अर्थ नहीं है कि वे किसी मंत्र द्वारा मौन निर्मित कर रहे हैं, वे सिर्फ बैठे हैं।

अगर उनका कोई पांव सुन्न हो जाता है तो वे उसे अनुभव करते हैं, तो वे उसके प्रति सजग रहते हैं। अगर उनका शरीर थक जाता है तो वे सजग देखते हैं कि शरीर थक गया। शरीर को ऐसा ही होना है। अगर विचार चलते हैं तो वे उन्हें देखते हैं। वे उन्हें रोकने की चेष्टा नहीं करते हैं। वे कुछ भी नहीं करते हैं। विचार हैं, जैसे आकाश में बदलिया हैं। और वे जानते हैं कि बादल आकाश को नहीं नष्ट कर सकते, वे बस आते—जाते हैं। ऐसे ही चेतना के आकाश में विचार चलते हैं, आते—जाते हैं। वे उन्हें रोकते नहीं; वे उनके साथ जबरदस्ती नहीं करते। वे कुछ भी नहीं करते हैं; वे बस जागरूक हैं, देख रहे हैं कि विचार चल रहे हैं।

कभी उदासी की बदली आ जाती है और सब कुछ धुंधला— धुंधला हो जाता है; और कभी सुख की धूप फैल जाती है और सब कुछ नाचने लगता है—मानों चेतना पर सर्वत्र फूल ही फूल खिल गए हैं। लेकिन साधक किसी से भी विचलित नहीं होते—न बदली से और न धूप से। वे बस बैठे देखते रहते हैं कि चीजें चल रही हैं। वे मानों नदी के किनारे बैठे हैं और सब कुछ बहा जा रहा है, वे किसी भी चीज को बदलने की चेष्टा नहीं करते।

अगर कोई बुरा विचार आता है तो वे यह नहीं कहते कि यह बुरा विचार है। क्योंकि जैसे ही तुम कहते हो कि यह बुरा विचार है वैसे ही तुम्हें उसे बदलने का लोभ पकड़ता है। यह कहकर कि यह बुरा है तुमने उसे हटा दिया, उसे निंदित कर दिया और अब तुम उसे अच्छे विचार में बदलना चाहोगे। वे इतना ही कहते हैं कि यह यह है और वह वह है, उसमें कोई निंदा नहीं रहती, कोई मूल्यांकन नहीं रहता; कोई औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा भी नहीं रहती। वे सिर्फ जागरूक रहते हैं, साक्षी रहते हैं।

कभी—कभी वे साक्षी रहना भूल जाते हैं, लेकिन वे उससे भी विचलित नहीं होते। वे जानते हैं कि ऐसा होता है, वे जानते हैं कि मैं साक्षी रहना भूल गया, अब फिर स्मरण आ गया है और मैं फिर साक्षी रहूंगा। वे उसे समस्या नहीं बनाते हैं। वे सिर्फ उसे जीते हैं जो है। वर्ष आते हैं, वर्ष जाते हैं और वे बैठे रहते हैं और उसे देखते रहते हैं जो है। और फिर एक दिन सब कुछ विलीन हो जाता है। एक स्वप्न की तरह सब कुछ विलीन हो जाता है और तुम जाग जाते हो, जागरण को उपलब्ध हो जाते हो।

यह जागरण अभ्यास की चीज नहीं है, इसे साधा नहीं जाता है। यह बोध तुम्हारा स्वभाव है—मूलभूत स्वभाव। यह बोध का विस्फोट घटित हुआ, क्योंकि तुमने धीरज से प्रतीक्षा की, तुमने धीरज से निरीक्षण किया और तुमने कोई समस्या नहीं बनायी। यह एक बुनियादी बात स्मरण में रख लो. समस्या मत बनाओ, समस्या मत निर्मित करो।

अभी दो—तीन दिन पहले एक स्‍त्री यहां आयी थी। उसने पूछा कि मेरा मन बहुत कामुक है, मैं क्या करूं? एक दूसरा व्यक्ति आया और उसने कहा कि मैं बहुत हीन अनुभव करता हूं हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हूं मुझे कुछ सलाह दें। मैंने उस व्यक्ति से कहा कि तुम अगर हीन अनुभव करते हो तो हीन अनुभव करो! जानो कि मैं हीन अनुभव कर रहा हूं। इसमें करना क्या है? कुछ नहीं करना है। अगर कोई कामुक अनुभव करता है तो उसे कामुक अनुभव करना चाहिए। उसे जानना चाहिए कि मैं कामुक हूं। लेकिन जब मैं किसी को ऐसी बात कहता हूं तो वह बहुत हैरान हो जाता है। वह तो अपने को बदलने के लिए किसी विधि की खोज में आया था।

कोई भी अपने को स्वीकार नहीं करता है। तुम अपने ही दुश्मन हो। तुमने अपने आपको कभी प्रेम नहीं किया। तुम अपने साथ कभी सहज नहीं रहे। और यह हैरानी की बात है, तुम अपेक्षा करते हो कि दूसरे तुम्हें प्रेम करें और तुम स्वयं अपने को प्रेम नहीं कर सकते। तुम अपने ही विरोध में हो। तुम चाहोगे कि हर ढंग से अपने को मिटा दो और पुनर्निर्मित करो। अगर तुम्हारा बस चले तो तुम दूसरा व्यक्ति निर्मित कर लो। और तुम उससे भी संतुष्ट नहीं होओगे, क्योंकि उसके पीछे भी तो तुम्हीं रहोगे।

अपने को प्रेम दो, अपने को सम्मान दो और अनावश्यक समस्याएं मत खड़ी करो। सब समस्याएं अनावश्यक हैं, आवश्यक समस्याएं होती ही नहीं। मुझे तो अब तक नहीं मिली हैं। अपनी तथ्यता के साथ जीओ और रूपांतरण घटित होगा। लेकिन यह रूपांतरण परिणाम नहीं है, तुम उसे जबरदस्ती नहीं ला सकते। यह परिणाम नहीं, उप—उत्पत्ति है। अगर तुम अपने को स्वीकार करते हो और सजग रहते हो तो वह आता है। तुम उसे जबरदस्ती नहीं ला सकते, तुम यह नहीं कह सकते कि मैं इसे लाकर रहूंगा। और अगर तुम जबरदस्ती करोगे तो तुम्हें कोई झूठा अनुभव हो जाएगा और उसे कोई भी हिला दे सकता है।

अंतिम प्रश्न :

 

आय कहते हैं कि स्वीकार रूपांतरित करता है, लेकिन फिर ऐसा क्यों होता है कि जब मैं अपनी भावनाओं और वासनाओं को स्वीकार करता हूं तो मैं रूपांतरित अनुभव करने की बजाय अपने को पशुवत अनुभव करता हूं?

 

ही तुम्हारा रूपांतरण है, यही तुम्हारा सत्य है। और पशु होने में गलत क्या है? मैंने अब तक एक भी ऐसा मनुष्य नहीं देखा है जिसकी तुलना पशु से की जा सके। सुजुकी कहा करता था : मैं मनुष्य की तुलना में एक मेंढक को—एक मेंढक को भी—ज्यादा प्रेम करता हूं। सरोवर के किनारे बैठे मेंढक को तो देखो, वह कितना ध्यानमग्न बैठता है! उसे देखो, वह इतना ध्यानमग्न है कि सारा संसार भी उसे नहीं हिला सकता। वह बैठा है और बैठा है, सारे जगत के साथ एक होकर बैठा है। और सुजुकी कहा करता था कि जब मैं अज्ञानी था तो मनुष्य था और जब मैं बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ तो मैं बिल्ली हो गया।

बिल्ली को देखो। वह विश्राम में उतरने का राज जानती है और उसने विश्राम—कला पर एक भी किताब नहीं पढ़ी है। बिल्ली को देखो; कोई मनुष्य बिल्ली से बेहतर गुरु नहीं हो सकता। बिल्ली विश्रामपूर्ण है और सका है। तुम अगर विश्रामपूर्ण होगे तो तुरंत नींद में चले जाओगे। और बिल्‍ली अपनी नींद में भी सजग रहती है। प्रत्‍येक क्षण उसका शरीर तनावरहित और विश्रामपूर्ण रहता है।

पशु होने में बुरा क्या है? मनुष्य के अहंकार ने तुलना निर्मित की है; वह कहता है कि हम पशु नहीं हैं। लेकिन कोई पशु मनुष्य नहीं होना चाहेगा। पशु अस्तित्व के साथ बड़े नैसर्गिक ढंग से रहते हैं, लयबद्ध होकर जीते हैं। वे चिंताग्रस्त नहीं होते; वे तनावग्रस्त नहीं होते। निश्चित ही, वे कोई धर्म निर्मित नहीं करते, क्योंकि उन्हें धर्म की जरूरत नहीं है। उनके समाज में मनोविश्लेषक भी नहीं होते; इसलिए नहीं कि वे विकसित नहीं हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी जरूरत नहीं है। पशुओं में गलत क्या है? यह निंदा क्यों?

यह निंदा मनुष्य के अहंकार का हिस्सा है। मनुष्य सोचता है कि मैं सर्वश्रेष्ठ हूं। किसी पशु ने उसकी श्रेष्ठता की घोषणा की स्वीकृति नहीं दी है। डार्विन ने कहा कि आदमी बंदर का विकास है। लेकिन अगर तुम बंदरों से पूछोगे तो मुझे नहीं लगता कि वे मानेंगे कि आदमी विकास है; वे यही कहेंगे कि आदमी पतन है। मनुष्य अपने को केंद्र मानता है। इसकी कोई जरूरत नहीं है, यह अहंकार की बकवास है।

अगर तुम पशुवत महसूस करते हो तो इसमें कुछ गलत नहीं है। पशुवत हो जाओ; और समग्रता से हो जाओ, पूरे होश से हो जाओ। वह होश ही पहले तुम्हारे पशु को उघाड़ेगा, क्योंकि वही तुम्हारा यथार्थ है। तुम्हारी मनुष्यता झूठी है, चमड़ी से ज्यादा नीचे वह नहीं जाती। कोई तुम्हारा अपमान करता है और तुम्हारा मनुष्य नहीं, तुम्हारा पशु बाहर आ जाता है। कोई तुम्हारी निंदा करता है और तुम्हारा पशु बाहर आ जाता है, मनुष्य नहीं। पशु ही है, मनुष्य तो नहीं के बराबर है।

अगर तुम सब कुछ स्वीकार कर लेते हो तो यह नहीं के बराबर मनुष्य विदा हो जाएगा। यह झूठा है। और तुम अपने सच्चे पशु को जान सकते हो। और सच्चाई को जानना शुभ है। और अगर तुम सजगता साधते रहे तो तुम इसी पशु के भीतर परमात्मा को पा लोगे। और झूठे मनुष्य की बजाय सच्चा पशु होना बेहतर है—सदा बेहतर है। सच्चाई असली बात है।

तो मैं पशुओं के विरोध में नहीं हूं; मैं केवल खो के विरोध में हूं। झूठे मनुष्य मत बनो; सच्चे पशु बनो। उस सच्चाई से ही तुम प्रामाणिक हो जाओगे, प्राणवान हो जाओगे। तुम ज्यादा से ज्यादा होशपूर्ण होते जाओ और धीरे—धीरे तुम उस अंतर्तम केंद्र पर पहुंचोगे जो पशु से ज्यादा सच है—और यही परमात्मा है।

ध्यान रहे, परमात्मा तुममें ही नहीं है, वह सभी पशुओं में भी है। और वह पशुओं में ही नहीं है, वह वृक्षों में भी है, चट्टानों में भी है। परमात्मा सब कुछ का बुनियादी केंद्र है। और तुम झूठे होकर उसे खो देते हो, सच्चे होकर उसे पा लेते हो।

आज इतना ही।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–14)

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ध्‍यान विधि है—(प्रवचन—चौहदवां)

प्‍यारे ओशो,

क्‍या आप इस सूत्र पर कुछ कहना पसंद करेंगे?

नास्‍ति कामसमो व्‍याधि: नास्‍ति मोहसमो रिपु:।

नास्‍ति क्रोधसमो वह्रि: नास्‍ति ज्ञानात् परं सुखम।।

काम के समान कोई व्‍याधि नहीं है, मोह के समानकोई शत्रु नहीं है,

क्रोध के तुल्‍य कोई अग्‍नि नहीं है, और ज्ञान से उत्‍कृष्‍ट कोई सुख नहीं है।

चैतन्य कीर्ति! यह उन थोड़े—से सूत्रों में से एक है जिनकी सदा ही गलत व्याख्या होती रही है। अमृत भी जहर हो जाता है गलत हाथों में। सही हाथों में जहर भी औषधि हो जाता है। सवाल गलत और सही का कम, सवाल उन हाथों का होता है जिनमें सूत्र पड़ जाते हैं। सही हाथों में तलवार जीवन का रक्षण है और गलत हाथों में निश्चित ही हिंसा बनेगी।

सूत्र तो संकेत हैं। उन में विस्तार नहीं है, इसलिए उन्हें सूत्र कहते हैं। निचोड़ हैं। बहुत थोड़े में कहा है। और जब कोई चीज बहुत थोडे में कही जाती है तो एक खतरा है। समझने के लिए काफी अवकाश होता है। और तुम समझोगे अपनी समझ से।

इस सूत्र पर अज्ञानियों ने जो व्याख्या की है उससे भयंकर अहित हुआ है। तो पहले तो उनकी व्याख्या खयाल में ले लें, ताकि इसकी सम्यक् व्याख्या की तरफ तुम्हारी आंखें उठ सकें। जिन्होंने स्वयं नहीं जाना है, जिनका ज्ञान उधार है, बासा है, जिनके भीतर स्वयं के ध्यान का दीया नहीं जला है—उनसे इससे ज्यादा अपेक्षा भी नहीं हो सकती। वे भूल करने को आबद्ध हैं। उन्होंने इस सूत्र की यूं व्याख्या की है : ‘नास्ति कामसमो व्याधि:’….. काम का अर्थ उनके लिए रह गया. यौन। क्योंकि उनके जीवन में यौन से ज्यादा और कोई सूझ —बूझ नहीं है।

‘काम’ बहुत बड़ा शब्द है। व्यापक उसके अर्थ हैं। उसे यौन पर ही आबद्ध कर देना बड़ा भ्रांत है। फिर उसके दुष्परिणाम होंगे। दुष्परिणाम यह होंगे कि जब काम सिर्फ यौन बन जाए आकाश को जैसे कोई आंगन बना दे! और काम है व्याधि, तो उपाय हो जाता है दमन, दबाओ, मिटाओ, नष्ट करो। दुश्मन को तो मिटाना ही होगा। व्याधि को तो जड़मूल से उखाड़ फेंकना होगा। और इसका परिणाम यह हुआ कि करीब—करीब सारी मनुष्यता उसी व्याधि में और भी गहरी डूब गयी। दमन से कोई मुक्ति तो होती नहीं। दमन मुक्ति का उपाय नहीं है। रूपांतरण से मुक्ति होती है। जैसे कोई बीमारी को दबा ले, तो बीमारी और भीतर चली जाएगी, और अचेतन में उतर जाएगी। पहले परिधि पर थी, अब केंद्र पर पहुंच जाएगी। पहले देह में थी, अब मन में पहुंच जाएगी। मन से आत्मा तक उसकी मवाद उतर जाएगी।

इसलिए तथाकथित धार्मिक व्यक्तियों का जीवन मवाद सै भरा हुआ जीवन है। वे घाव हैं—सड़ते हुए घाव! हां, ऊपर से उन्होंने राम नाम की चदरिया ओढ़ रखी है, भीतर सिवाय बदबू के और कुछ भी नहीं है। पाखंड, गहन पाखंड! कहेंगे कुछ, करेंगे कुछ। करेंगे कुछ, बताएंगे कुछ। उन्होंने मुखौटे पर मुखौटे लगा रखे हैं। इस सूत्र की गलत व्याख्या बहुत बड़ा कारण है पाखंड का।

काम का अर्थ होता है : और—और की मांग। काम का अर्थ सिर्फ यौन नहीं होता। वह केवल एक शाखा है काम के बड़े वटवृक्ष की। धन भी काम है। और इसलिए तुम जरा गौर से देखना, कृपण आदमी धन को ऐसे देखता है जैसे कामी स्त्री को देखता हो, सुंदर देह को देखता हो। धन का दीवाना नोटों को ऐसे छूता है, जैसे उसने अपनी प्रेयसी के तन को छुआ हो। पद भी काम है। पदाकांक्षी उतना ही कामग्रस्त है जितना कि कोई और कामी। और तब एक बात और तुम्हें समझ में आ जाएगी : जो पद के लिए दीवाना है वह ध्यान विधि है चाहे तो कामवासना से, जिसको तुम साधारणत: कामवासना समझते हो, यौन, उससे मुक्त हो सकता है, बडी आसानी से। क्योंकि उसकी सारी ऊर्जा पद की दौड में लग जाती है। जो धन के पीछे दौड़ रहा है वह भी अपनी सारी ऊर्जा को धन के लिए नियोजित कर सकता है। उसकी सारी ऊर्जा लोभ बन जाती है, लिप्सा बन जाती है। ऐसा व्यक्ति बड़ी आसानी से काम को दबा ले सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि उसने काम को एक नया ढंग दे दिया, एक नयी यात्रा पकड़ा दी, एक नया मुखौटा उढा दिया।

राजनीतिज्ञ बहुत चिंतित नहीं होते यौन से। कोई जरूरत नहीं है। उल्टे राजनीतिज्ञ ब्रह्मचर्य की बातें करना शुरू कर सकते हैं। और तुम्हें उनकी बातें जंचेंगी भी, क्योंकि उनके जीवन में ब्रह्मचर्य से मिलती—जुलती चीज तुम्हें दिखाई पड़ने लगेगी। जैसे मोरारजी देसाई। पद के पीछे दीवाने हैं, पागल हैं। पचासी वर्ष की उम्र में भी पागल हैं। सारी कामवासना ने एक ही दिशा ले ली है। अब इसमें और शाखाएं पैदा होने का उपाय ही न रहा। यह कोई ब्रह्मचर्य नहीं है।

सैनिकों को हम उनके सामान्य स्वाभाविक यौन से अवरुद्ध करवा देते हैं—सिर्फ इसीलिए, क्योंकि अगर सैनिक सामान्य यौन का जीवन जीए तो उसकी लड़ने में कोई उत्सुकता नहीं होती। उसकी ऊर्जा तो यौन में ही प्रवाहित हो जाती है। तो सैनिकों को हम उनकी पत्नियों से दूर रखते हैं। सैनिकों को हम सब तरह से रुकावट डालते हैं कि उनकी काम—ऊर्जा किसी तरह से प्रवाहित न हो, कोई और आयाम न ले, ताकि वे उबलने लगें। और उस उबलने में ही हम उनको लड़ा सकते हैं। तब वे दीवाने की तरह एक—दूसरे की हत्या करते हैं। कामवासना हिंसा बन जाती है।

जो स्वर्ग के लिए लालायित हैं वे भी ब्रह्मचर्य साध सकते हैं—बडी आसानी से, क्योंकि उनकी सारी आकांक्षा एक ही दिशा में प्रवाहमान हो गयी है—स्वर्ग, मोक्ष। अब कहीं और दूसरी शाखाओं के निकलने के लिए उपाय न रहा।

तुम अगर बगीचे से प्रेम करते हो तो तुम्हें एक बात पता होगी। अगर तुमने फूलों की प्रतियोगिता में भाग लिया है तो तुम्हें यह बात पता होगी कि माली को अगर फूलों की प्रतियोगिता में भाग लेना होता है तो गुलाब के पौधे पर वह बहुत सारे फूल नहीं खिलने देता। वह कलियों को काट देता है। एक ही फूल को खिलने देता है। स्वभावत: जब सारी कलियां तोड़ दी जाती हैं तो जितनी भी उस गुलाब की क्षमता है फूलों को पैदा करने की, वह एक ही फूल में प्रवाहित होती है। वह फूल बहुत बड़ा हो जाता है। प्रतियोगिता में यह माली जीत जाएगा। हालांकि गुलाब को इसने बड़ा दीन हीन कर दिया; जिस पर बहुत फूल खिलते उन सबकी ऊर्जा को इसने एक ही बहाव दे दिया। फूल तो बडा हो गया, मगर बहुत फूलों की जगह बस एक ही फूल रह गया। यह आदमी के साथ किया जाता रहा है।

किसी भी तरह की वासना काम है। यह इसकी सम्यक् व्याख्या होगी। काम का अर्थ है : कामना। यौन भी एक कामना है, धन भी, पद भी, प्रतिष्ठा भी; स्वर्ग भी, मोक्ष भी, परमात्मा भी। तुम जब भी कुछ पाना चाहते हो तब यह सब काम है। यह इसकी सम्यक् व्याख्या होगी। और यह तुम्हें समझ में आ जाए तो जीवन में क्रांति हो जाए।’ नास्ति कामसमो व्याधि:’। तब तुम इस सूत्र का सम्यक् अर्थ खोल पाओगे। तब इसमें छिपा राज तुम्हारे हाथ लग जाएगा। जिसके जीवन में कामना है, वह व्याधिग्रस्त है। जो और कुछ की आकांक्षा कर रहा है, जो उससे तृप्त नहीं है जहां है और जैसा है, वैसा व्यक्ति.रुग्ण है, व्याधिग्रस्त है।

स्वस्थ कोन है? स्वस्थ वह है जो अभी और यहीं है, जैसा है वैसा हां, आह्लादित है। अगर इस क्षण मौत आ जाए तो वह यह भी न कहेगा कि घडीभर ठहर जा; मेरा कोई काम अधूरा रह गया है। उसका कोई काम कभी अधूरा नहीं है। वह जो कर रहा है इतनी समग्रता और परिपूर्णता से कर रहा है, इतने आह्लाद से, उत्सव से, उसके लिए साधन और साध्य का भेद नहीं है। स्वस्थ व्यक्ति वह है जिसके लिए साधन ही साध्य है; जिसके लिए साधन और साध्य में कोई भेद नहीं है; जिसके लिए कोई और साध्य नहीं है, बस साधन ही साध्य है; जिसके लिए मंजिल और मार्ग में कोई अंतर नहीं है। मंजिल मार्ग है। मार्ग का प्रत्येक कदम मंजिल है। वह हर कदम पर मंजिल पर है। रास्ता अभी टूटता हो, अभी टूट जाए। कल की उसे कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि आज काफी है।

जीसस अपने शिष्यों के साथ एक खेत से गुजर रहे हैं। खेत के किनारे पर लिली के फूल खिले हैं—सफेद फूल। जेरुसलम के आसपास लिली के फूल बहुत खिलते हैं। मौसम अनुकूल है। भूमि अनुकूल है लिली के फूलों के लिए। और इतने खिलते हैं कि उनकी कोई फिक्र भी नहीं करता। कीमत तो उसकी होती है, जो न्यून हो। जब चारों तरफ लिली के फूल खिलते हैं तो कोन फिक्र करता है! लिली के फूल गरीब फूल हैं, सर्वहारा। जब चाहो तब, जहां चाहो वहां उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन जीसस ठिठक गए और उन्होंने अपने शिष्यों को कहा : ‘देखते हो लिली के फूलों को! देखते हो इन गरीब फूलों को! मैं तुमसे कहता हूं कि सम्राट सोलोमन भी…..।’

यहूदियों में सम्राट सोलोमन सबसे बड़ा सम्राट है। उसकी यशगाथा का अंत नहीं है। उसके धन, उसके साम्राज्य की कोई सीमा नहीं है। अकूत उसके पास धन था। और सुंदरतम वह व्यक्ति था। दुनिया की श्रेष्ठतम स्त्रियों ने उससे निवेदन किया था विवाह का। दूर—दूर से राजकुमारिया उसके चरणों में आ गिर पड़ती थीं। तो यहूदियों में सोलोमन की बड़ी कहानियां हैं। सुंदर था, धनी था और बड़ा बुद्धिमान भी—जो कि बड़ी ही मुश्किल घटना है एक साथ सब होना—ऐसा धन, ऐसा सौदर्य, ऐसी प्रतिभा। जो यहूदी नहीं हैं वे भी, जिन्हें सोलोमन के संबंध में कुछ पता नहीं है वे भी इस कहावत से परिचित हैं। इस देश में भी यह कहावत है कि बड़े सुलेमान बने बैठे हो! सुलेमान सोलोमन का हिंदी—रूप है, कि क्या समझा है तुमने अपने को, सुलेमान समझा है? शायद उसको पता भी नहीं जो आदमी यह कह रहा है कि वह क्या कह रहा है। सुलेमान यानी कोन? मगर सुलेमान बुद्धिमत्ता का, सौंदर्य का, समृद्धि का प्रतीक हो गया है। वह सोलोमन का ही रूप है।

……तो जीसस ने अपने शिष्यों को कहा कि मैं तुमसे कहता हूं कि सोलोमन भी अपनी सारी साज—सज्जा के साथ, अपने परम सौंदर्य में इतना सुंदर नहीं था—जितने ये लिली के दरिद्र फूल। और तुम जानते हो कि इनके सौंदर्य का राज क्या है? इनके सौंदर्य का राज है कि ये अभी और यहीं जीते हैं। इनको कल की कोई चिंता नहीं। इन्हें कल का कोई पता नहीं।

और जीसस ने कहा ‘यही मैं तुमसे कहता हूं। अभी जीयो और यहीं! तुम भी ऐसे ही सुन्दर हो जाओगे। तुम्हारे जीवन में भी ऐसी ही सुगंध होगी। तुम भी इन्हीं फूलों जैसे खिल जाओगे। तुम्हारा जीवन भी एक उत्सव बन जाएगा, एक नृत्‍य, एक गीत।’

काम का अर्थ है : और की दौड़। निष्काम का अर्थ है : अदौड़। व्यू था न्यू ठहराया! जन रज्जब ऐसी विधि जानी ज्यूं था न्यूं ठहराया। रज्जब ठीक कह रहे हैं कि मुझे उस विधि का पता है, जिससे चीजें ठहर जाती हैं, जैसी हैं वैसी ही ठहर जाती हैं। दौड़ बंद हो जाती है। दौड़ है काम। दौड़ है व्याधि।

और तुम सब दौड़े हुए हो, भागे हुए हो। तुम जहां हो वहां कभी नहीं हो, हमेशा कहीं और….. जितना है उतना पर्याप्त नहीं, कुछ और चाहिए, और चाहिए! और यह ‘चाहिए’ का अंत नहीं आता, आ नहीं सकता। यह दौड़ ऐसी है जैसे कोई क्षितिज को छूने के लिए दौड़े। ऐसे तो दिखाई पड़ता है पास हां, कि यही कोई दस पांच मील की दूरी पर आकाश जमीन को छू रहा है; दौडूगा तो बहुत से बहुत घंटा, दो घंटा, पहुंच जाऊंगा। लेकिन तुम कितना ही दौड़ो, लाख दौड़ो, सारी जमीन का चक्कर लगा आओ तो भी तुम क्षितिज तक नहीं पहुंच पाओगे। क्षितिज और तुम्हारे बीच की दूरी हमेशा उतनी ही रहेगी जितनी जब तुमने दौड़ शुरू की थी तब थी। दौड़ अंत होगी तब भी दूरी उतनी ही रहेगी। क्षितिज और तुम्हारे बीच की दूरी मिटती नहीं, क्योंकि क्षितिज है ही नहीं, दूरी मिटे तो कैसे मिटे?

काम का अर्थ है : तुम्हारे सामने हमेशा एक भ्रामक क्षितिज है, जिसको पाने के लिए तुम दौड रहे हो। मगर तुम आगे बढ़ते हो, क्षितिज भी आगे बढ़ जाता है। तुम्हारे पास इतना है अभी, दुगुना हो जाए, अगर यह तुम्हारा क्षितिज है कि दुगना हो जाए, तो जब दुगना होगा तब भी यही क्षितिज तुम्हारे भीतर रहेगा कि अब फिर दुगना हो जाए। वह भी संभव है हो जाए, मगर बात वही की वही रहेगी, परेशानी वही की वही रहेगी—फिर दुगना हो जाए। यह दुगना होता चला जाए, यह तुम्हारा गणित कभी छूटेगा नहीं। और जितने तुम सफल होते जाओगे उतना ही यह गणित तुम्हें जोर से पकड़ेगा, क्योंकि लगेगा दुगना हो सकता है; हो गया है, तो और कर लो।

अगर हारे तो दुखी, अगर जीते तो दुखी। इस संसार की बड़ी अजीब कथा है, बड़ी अजीब व्यथा है। यहां हारनेवाले तो हारते ही हैं, यहां जीतनेवाले भी हारे जाते हैं। यहां असफल तो असफल होते ही हैं : सफल जो हैं वे भी असफल हो जाते हैं। यहां हर हालत में दुख हाथ लगता है। हारे तो दुख हाथ, विषाद कि हारे गया, टूट गया, खंडहर हो गया। जीतो तो विषाद। महल मिल जाता है तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि दुगने बड़े महल की योजना बन जाती है। तुम हमेशा ही दीन रहोगे।

व्याधि का अर्थ है : तुम हमेशा ही दीन और रुग्ण रहोगे। तो इसका संबंध सिर्फ यौन से नहीं हो सकता। यौन इसका एक अंग मात्र है, एक पहलू। और इसके अनंत पहलू हैं। यौन का मतलब होगा : इस स्त्री से तृप्ति नहीं मिलती, उस स्त्री से मिलेगी। उससे भी नहीं मिलेगी तो किसी और से मिलेगी। दौड़े जाओ, दौड़े जाओ। भागे जाओ। तृप्ति कभी नहीं मिलेगी, न किसी स्त्री से मिलेगी, न किसी पुरुष से मिली है। ऐसे तृप्ति मिलती ही नहीं। यह तो अतृप्ति की आग है, जिसमें तुम ईंधन डाल रहे हो। फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि इस मकान में तृप्ति मिलेगी या उस मकान में तृप्ति मिलेगी, इतने धन से मिलेगी या उतने धन से मिलेगी, इस पद से मिलेगी या उस पद से मिलेगी। ये सब उसी वृक्ष की शाखाएं हैं।

काम को यौन ही मत समझो। नहीं तो लोग बस यौन से ही लड़ते रह जाते हैं। और जीवन….. अगर यौन से तुम लड़े, तो उसका परिणाम यह होनेवाला है कि यौन का द्वार तो बंद हो जाएगा। लड़ोगे तो द्वार बंद कर सकते हो, मगर यौन की ऊर्जा नए द्वार खोज लेगी। जैसे कोई झरने को पत्थर से अटका दे तो झरना पास से बहकर निकलेगा। वहां से रोक दे तो कहीं और से निकलेगा। लेकिन झरना है तो झरना बहेगा। खंड—खंड हो जाएगा, लेकिन कहीं न कहीं से बहेगा, रिसेगा।

काम व्याधि है, क्योंकि और की दौड़ कभी स्वस्थ नहीं होने देती, अपने में नहीं ठहरने देती, अपने में नहीं रुकने देती। और वहा है आनंद। रुकने में है आनंद, दौड़ने में है दुख। फिर तुम किसलिए दौडते हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। काम है मूर्च्छा, क्योंकि जो मूर्च्‍छित है वही दौड सकता है। जो होश में आ गया वह दौड़नेवालों पर हंसेगा क्योंकि वे सब स्वर्ण—मृग की तलाश में चले हैं। और मजा यह है कि जाते ही स्वर्णमृग की तलाश में और अपनी सीता को गंवा बैठते हो। जो अपनी थी वह खो जाती है—उसको पाने के लिए जो कि जरा भी बुद्धि होती, जरा भी विचार होता, जरा भी होश होता, तो तुम पहले से ही समझ लेते कि स्वर्ण—मृग कहीं होते हैं! सभी का जीवन बस रामायण की कथा है। राम चले स्वर्ण—मृग की तलाश में और सीता को गंवा बैठे। जो अपनी थी उसे खो बैठे और जो अपना कभी हो नहीं सकता, उसकी तलाश में निकल गए। यह मूर्च्छा का सबूत है। यह बेहोशी का सबूत है।

काम का अर्थ है. मूर्च्छा। और जब तक मनुष्य मूर्च्‍छित है, मनुष्य नहीं है। तब तक वह पशु है। और पशु को तो माफ किया जा सकता है, क्योंकि उसकी बेचारे की क्षमता नहीं है जागरण की। लेकिन मनुष्य को कभी माफ नहीं किया जा सकता; उसकी क्षमता है जागरण की। और क्षमता हो और उपयोग न करो तो तुम्हारे अतिरिक्त और कोन जिम्मेवार होगा? इसलिए कोई पशु पापी नहीं होता। तुम किसी पशु को पापी नहीं कह सकते। मनुष्य ही को पापी कह सकते हो।

और पाप क्या है? तुम्हें जो अवसर मिला है उसका उपयोग न करना पाप है। और पुण्य क्या है? तुम्हें जो अवसर मिला है उसका समुचित उपयोग कर लेना पुण्य है। जीवन की क्षमता है : मनुष्य के भीतर आकर जागरण का दीया जल सकता है।

काम है मूर्च्छा। इस मूर्च्छा को तोडना है। यह मूर्च्छा ध्यान के बिना नहीं टूटती। ध्यान विधि है मूर्च्छा को तोड्ने की। काम है पशुत्व, वासना, और—और की दौड़। और ध्यान है ठहरना, रुकना, और से मुक्त हो जाना—जैसे हैं, जहां हैं, परितुष्ट। जो है उससे आनंदित, अनुगृहीत। जो है वही बहुत है। जो है उसकी भी हमारी पात्रता नहीं है। जो मिला है उसके लिए भी धन्यवाद हमारे भीतर नहीं उठता।

और मजा यह है कि जो है, अगर तुम्हारे लिए अनुग्रह का कारण बन जाए तो और—और वर्षा होगी तुम्हारे ऊपर, अमृत और झरेगा। वह सिर्फ अनुगृहीत लोगों पर ही झरता है। लेकिन तुम्हारे हृदय में तो शिकायतें हैं, शिकवे हैं, गिला है। न मालूम कितने —कितने कांटे तुम अपने हाथ से बोए चले जाते हो! शिकायतों के कांटे। तुम्हारी प्रार्थनाएं भी तुम्हारी शिकायतें हैं। तुम परमात्मा से यही कहने जाते हो हमेशा कि ऐसा क्यों नहीं हुआ, ऐसा होना चाहिए था। तुम कभी यह भी कहने गए हो कि धन्यवाद तेरा, जैसा होना चाहिए था वैसा ही हो रहा है? जिस दिन तुम दुख के क्षण में भी कह सकोगे कि जैसा होना चाहिए वैसा ही हो रहा है, दुर्घटना में भी कह सकोगे कि जैसा हो रहा है वैसा ही होना चाहिए था, जिस दिन तुम्हारा अनुग्रह का भाव बेशर्त होगा—उस दिन तुम जानोगे प्रार्थना क्या है।

मगर यह बिना जागरण के तो नहीं हो सकता। जहां और—और की दौड़ लगी है वहां तो शिकायत होगी ही। वहां यह भी शिकायत नहीं होती कि मुझे क्यों कम मिला है, वहां यह भी शिकायत होती है कि दूसरे को ज्यादा क्यों मिला है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ‘हम ईमानदार हैं, नैतिक हैं, सदाचरण से रहते हैं, और फिर भी बेईमान और बदमाश और लुच्चे और लफंगे धन कमा रहे हैं, पद पर पहुंच रहे हैं, प्रतिष्ठित हो रहे हैं और हमें कुछ भी नहीं मिल रहा है।’ न तो ये नैतिक हैं, न ये ईमानदार हैं, न ये सदाचरण को उपलब्ध हैं। क्योंकि जो नैतिक है उसको तो नैतिक होने में ही ऐसा परम सौभाग्य मिल गया कि क्या वह कोई पद चाहेगा? और जो ईमानदार है, उसको तो ईमानदार होने में ही ऐसे रस—खोत उपलब्ध हो गए कि क्या अब धन के पीछे दीजो? और जो सच में ही धार्मिक है, क्या अधार्मिकों से उसकी प्रतिस्पर्धा हो सकती है? वह दया करेगा कि ये बेचारे धन में ही मरे जा रहे हैं, ये पद में ही सड़े जा रहे हैं। उसे दया आएगी, करुणा आएगी। मगर इन्हें ईर्ष्या आ रही है। ईर्ष्या केवल इस बात की सूचना है कि ये भी उसी तरह के लोग हैं। शायद बेईमानी करने की हिम्मत नहीं है, इसलिए ईमानदार हैं। मगर बेईमान को जो मिल रहा है वही ये भी चाहते हैं। ये दोहरे बेईमान हैं। ये ईमानदारी से जो भी लाभ मिलना चाहिए परलोक में, वह भी लेना चाहते हैं और बेईमानी से जो लाभ यहां मिलता है, वह भी ईमानदारी से ले लेना चाहते हैं। ये दोनों दुनिया सम्हाल लेना चाहते हैं। ये दोनों लोक सम्हाल लेना चाहते हैं—यहां भी जीत जाएं, वहां भी जीत जाएं। ये बहुत चालबाज लोग हैं। न इन्हें नीति का पता है, न इन्हें धर्म का पता है। जाग्रत हुए बिना पता चल भी नहीं सकता।

‘नास्ति कामसमो व्याधि: —मैं स्वीकार करता हूं यह सूत्र बहुमूल्य है। मगर इसका अर्थ मेरे ढंग से समझना होगा। निश्चित ही और की दौड़ से बडी इस दुनिया में कोई बीमारी नहीं है। क्योंकि सब बीमारियों का दूसरे इलाज कर सकते हैं, इस बीमारी का इलाज सिर्फ तुम्हीं कर सकते हो, कोई दूसरा नहीं कर सकता। यहां बीमार और वैद्य एक ही व्यक्ति को होना है। यहां बीमार को ही अपनी चिकित्सा करनी है, इसमें कोई सहयोगी नहीं हो सकता। इसलिए यह बड़ी से बड़ी व्याधि है, महाव्याधि।

‘नास्ति मोहसमो रिपु:।’ और मोह के समान कोई शत्रु नहीं। मोह को भी समझने की कोशिश करना। उसको भी गलत समझा गया है। मोह से लोग मतलब लेते हैं—पत्नी, बच्चे, घर—द्वार, इनको छोड्कर भाग जाओ। इनको छोड़ दिया तो मोह से मुक्त हो गए। यह बड़ी जडबुद्धि की व्याख्या हुई। क्योंकि जिसने घर छोड़ा, पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए—यह कोई बहुत कठिन नहीं है। यह मामला बहुत कठिन नहीं है। सच तो यह है कि पति पत्नियों से परेशान हैं, पत्नियां पतियों से परेशान हैं। इससे ज्यादा आसान और क्या होगा कि वे भाग खड़े हों? आश्चर्य तो यह है कि अनंत—अनंत लोग भागते क्यों नहीं! इनको कभी का शंकराचार्य के शिष्य हो जाना चाहिए कि जगत माया है और जंगलों में बैठ जाना चाहिए। पता नहीं क्यों रुके हैं, किस कारण रुके हैं!

चंदूलाल का बेटा पूछ रहा था चंदूलाल से, ‘पापा, आपने मम्मी से शादी क्यों की?’

चंदूलाल ने गौर से अपने बेटे को देखा और कहा, ‘तो तुझे भी आश्चर्य होने लगा?’

चंदूलाल की पत्नी चंदूलाल से कह रही थी….. ‘मान लो हमारे घर में कोई चोर घुस आए तो आप क्या करेंगे?’ चंदूलाल ने कहा, ‘जो आप कहेंगी।’

पत्नी ने कहा, ‘मैं क्यों?’

चंदूलाल ने कहा, ‘क्योंकि अब तक इस घर में मुझे अपनी इच्छा से कुछ करना नसीब नहीं हुआ। तो जब चोर आएंगे, आपसे पूछ लूंगा। जो आप कहेंगी वही करूंगा।’

कोन पति नहीं भागना चाहेगा! ये तो बड़े हिम्मतवत बहादुर लोग हैं कि जमे हुए हैं। ये तो कहते हैं : सौ—सौ जूते खाएं तमाशा घुसकर देखें! कोई फिक्र नहीं, तमाशा देखेंगे।

‘मैं कहां हूं?’ चंदूलाल ने अस्पताल में एक नर्स को देखकर पूछा।’लगता है मैं स्वर्ग में आ गया हूं।’ नर्स बड़ी सुंदर थी और चंदूलाल अभी—अभी क्लोरोफार्म से बाहर आ रहे थे। सो कुछ थोड़ा— थोड़ा होश था, कुछ थोड़ी— थोड़ी बेहोशी थी, कुछ सपना—सपना सा था। उस तैरती सी सपने की अवस्था में यह सुंदरी एकदम प्रगट हुई, सोचा उर्वशी है कि मेनका है! पूछने लगे, ‘मैं कहां हूं? लगता है मैं स्वर्ग में आ गया हूं।’

पास खड़ी उनकी पत्नी बोली, ‘नहीं, पप्‍पू के पापा, अभी तो मैं तुम्हारे साथ हूं। कैसी बहकी—बहकी बातें कर रहे हो?’

कहां का स्वर्ग, जब पत्नी मौजूद है? तत्‍क्षण होश आ गया चंदूलाल को। सब क्लोरोफार्म नदारद हो गया, जैसे ही पत्नी की आवाज सुनी। पत्नी की आवाज अगर लोग स्वर्ग में भी सुन लेंगे, एकदम संसार में आ जाएंगे। सब चौकड़ी भूल जाएंगे।

चंदूलाल हाल में भोगी हुई मुसीबतों की कथा अपने मित्र को बड़े विस्तार से सुना रहे थे। मित्र ने कहा, ‘अरे यह तो कुछ भी नहीं है। कल मुझ पर जो गुजरी वह सुनो। कल रात मुझे सपना आया कि मुझे लेकर मेरी बीबी और हेमा मालिनी में हाथापाई हो गयी और मेरी बीबी जीत गयी।’

पत्नियों से कोन भागना न चाहेगा और पतियों से कोन बचना न चाहेगा! लाख ऊपर—ऊपर से लोग कुछ कहते हों, भीतर तो बात कुछ और ही है। इसलिए यह बात लोगों को जमी, यह अर्थ समझ में आ गया लोगों को कि पत्नी छोड़ दो, बच्चे छोड़ दो—यही मोह है।

मोह का इतना छोटा अर्थ मत करो। घर में है भी क्या तुम्हारे, जो तुम छोड्कर जा रहे हो? दुख ही दुख है, पीड़ा ही पीडा है। सुबह से सांझ तक कोल्‍हू के बैल की तरह जुते हुए हो। और कोई धन्यवाद देने को भी राजी नहीं है। बच्चे भी धन्यवाद देने को राजी नहीं हैं पत्नी भी राजी नहीं है, पति भी राजी नहीं है, पिता भी राजी नहीं है, मां भी राजी नहीं है, कोई राजी नहीं है किसी से। इससे भाग जाना तो सीधा गणित है। इसमें कुछ अड़चन नहीं है।

तुम्हारा जो पुराना संन्यास था, दो कोड़ी का था। वह इसी उपद्रव पर निर्भर था। मोह कुछ और बड़ी बात है। उसे समझने की कोशिश करो। मोह का अर्थ है : मेरे का भाव। मोह से मुक्ति का अर्थ होगा : मेरे से मुक्ति। तुमने घर छोड़ दिया; ‘मेरा’—यह भाव छूटा? यह नहीं छूटता। फिर मेरा मंदिर, मेरी मसजिद, मेरा धर्म, मेरा शास्त्र! एक व्यक्ति घर छोड्कर मुनि हो जाता है, समाज छोड़ देता है; लेकिन जिस समाज को छोड़ आया है उसी समाज का सिखाया हुआ धर्म नहीं छोड़ता। यह कैसा छोड़ना हुआ? अभी भी कहता है—मैं जैन हूं मैं हिंदू हूं मैं मुसलमान हूं। उसी समाज ने तो यह सब बकवास सिखायी है—उन्हीं मां बाप ने, जिनको तुम छोड़ आए हो; उनको तो छोड़ आए लेकिन उन्होंने जो कचरा तुम्हारे दिमाग में भर दिया था वह तो साथ ही ले आए। मेरा देश, मेरी जाति, मेरा कुल! यह अकड़ जाती नहीं। यह अहंकार हटता ही नहीं, और जोर से पकड़ लेता है। क्योंकि वहां तो बंटा हुआ था—मेरी पत्नी थी, मेरा बेटा था, बेटी थी, और रिश्तेदार थे, मां थी, बहन थी, सारा विस्तार था, धन था, मकान था; अब सब छूट गया तो इस मेरे को अब पकडने को जो बचा थोड़ा—बहुत—मेरी गीता, मेरी कुरान, मेरा मंदिर, मेरा धर्म—अब यह मेरे ने इस पर शिकंजा कसा। और यह ज्यादा गहरा शिकंजा है, क्योंकि धन तो दिखाई पड़ता है, छोड़ सकते हो। जो दिखाई पड़ता है उसे छोड़ने में कठिनाई नहीं है। अब यह ‘मेरा’ जो है, बड़ा सूक्ष्म हो गया, अब इसे छोड़ना मुश्किल हो जाएगा। अब यह ‘मेरे’ ने तो तुम्हें भीतर से पकडा। यह बड़ा नाजुक और बारीक हो गया। इसको देखने और पहचानने के लिए आंखें चाहिए।

जो मुनि अपने को जैन कहता है वह मुनि है ही नहीं। यह कैसा मौन? अभी पुरानी बकवास तो जारी है। जो संन्यासी अपने को अभी भी हिंदू कहता है, वह संन्यासी नहीं है। जब हिंदू जाति को ही छोड़ दिया…..। अभी भी संन्यासी होकर जो शूद्र को शूद्र मानता है, ब्राह्मण को ब्राह्मण मानता है—यह खाक संन्यासी है। समाज को छोड़ आया है, लेकिन समाज की व्यवस्था तो इसकी खोपड़ी में समायी हुई है। यह शूद्र के साथ भोजन करने को तैयार है?

दिगंबर जैन मुनि यात्रा करते हैं तो वे सिर्फ जैन के घर से ही भोजन ले सकते हैं। क्या गजब का त्याग किया है! छोड़ दिया समाज, मगर भोजन अभी जैन घर से ही लेंगे। तो अब जैन सारे गांव में तो होते भी नहीं। और तीर्थयात्रा पर जाता है मुनि, तीर्थयात्रा पर जाने की भी जैन मुनि को क्या जरूरत है? मेरा तीर्थ है! तो पैदा होता है केरल में और जाता है शिखरजी। लंबी यात्रा केरल से कलकत्ता तक, अब इसमें ऐसे बहुत—से ऐसे गांव पड़ेंगे जहां कोई जैन घर नहीं होता। तो एक उपद्रव चलता है, दिगंबर जैन मुनि के साथ—स्व उपद्रव चलता है! दस—पंद्रह चौके उसके साथ चलते हैं। तुम पूछोगे दस—पंद्रह क्यों? उसका भी राज है। एक चौका छोड़ा। एक ही चौका होता है एक घर में, अब दस—पंद्रह पीछे चलते हैं। क्योंकि महावीर ने यह सूत्र दिया है कि तुम सुबह से एक प्रतिज्ञा लेना और वह प्रतिज्ञा जिस मकान के सामने पूरी हो, वहीं से भोजन ग्रहण करना। अब अगर एक ही चौका हो तो मुश्किल हो जाए, पता नहीं प्रतिज्ञा क्या ले जैन मुनि। हालांकि अब जैन मुनि प्रतिज्ञाएं ऐसी लेते हैं जो सबको मालूम हैं। जैसे जिस घर के सामने दो केले लटके हों, इस तरह की दस—पंद्रह बंधी हुई प्रतिज्ञाएं हैं उनकी। सो पंद्रह चौके साथ चलते हैं, वे पंद्रह प्रतीक अपने—अपने चौके के सामने लटका लेते हैं। उनमें से कोई न कोई एक प्रतीक तो होने ही वाला है।

महावीर तो कुछ और ढंग के ही प्रतीक लेते थे। एक प्रतीक दुबारा नहीं लेते थे। और जो प्रतीक लेते थे, वे भी बड़े बेक थे। ऐसे कि कभी—कभी महावीर को छह महीने भोजन न मिला। और यह जैन मुनि को रोज भोजन मिलता है। जैसे महावीर ने एक बार सुबह से व्रत ले लिया—अपने ध्यान में वे व्रत लेते थे—कि आज जिस घर के सामने कोई राजकुमारी, पैरों में बेड़ियां पड़ी हों, एक पैर भीतर हो एक पैर बाहर हो दहलीज के, हाथों में हथकड़ियां पड़ी हों, हो राजकुमारी, भोजन का आग्रह करेगी, तो भोजन लूंगा। अब एक तो राजकुमारी, फिर उस पर ये शर्तें तुम देखो—पैरों में बेड़ियां पड़ी हों, राजकुमारी हो तो किसलिए पैरों में बेड़ियां पड़ी हों? हाथों में जंजीरें पड़ी हों। और फिर यह शर्त कि एक पैर भीतर हो देहली के, एक पैर बाहर हो। और जिसकी यह दशा होगी, जो इस तरह से बंधी होगी, वह क्या भोजन की प्रार्थना करेगी? वह कहां से भोजन लाएगी? वह तो खुद ही भोजन के लिए औरों पर निर्भर होगी। वह भोजन की प्रार्थना करे तो मैं भोजन स्वीकार करूंगा! छह महीने तक यह प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो सकी। वह रोज गांव में जाते, घूमकर वापिस आ जाते।

इसमें बड़ा अद्भुत राज था महावीर की इस व्यवस्था में। महावीर कहते थे. अगर अस्तित्व को मुझे जिलाना है तो वह शर्त पूरी करेगा। अगर नहीं जिलाना है तो मुझे कुछ जीना नहीं है, मेरी कुछ जीने की इच्छा नहीं है, मेरा काम पूरा हो गया। अगर अस्तित्व को कुछ काम लेना हो मुझसे, तो जिलाओ। मगर उस जीने में मेरी कुछ आकांक्षा नहीं है, मेरी कोई जीवेषणा नहीं है। यह अद्भुत सूत्र था कि मेरी कोई जीवेषणा नहीं है, मेरा काम तो पूरा हो चुका। मुझे तो जो पाना था पा लिया, जो होना था हो गया। अब मैं तो तैयार हूं जाने को। मैं तो इस देह से किसी भी क्षण मुक्त होने को तैयार हूं। अब अगर अस्तित्व की कोई इच्छा हो कि मेरे द्वारा कुछ काम हो ले, तो ठीक है। अब अगर अस्तित्व की अगर यह आकांक्षा हो तो अस्तित्व ही इसकी जिम्मेवारी ले, मैं क्यों जिम्मेवारी लूं? जिलाना हो जिलाओ, मिटाना हो मिटाओ। मेरी तरफ से सब बराबर है। जीवन और मृत्यु समान हैं।

इसलिए सुबह से शर्त ले लेते। शर्त पूरी हो जाती तो ठीक, नहीं पूरी होती तो बात खत्म। शिकायत नहीं थी। छह महीने तक शर्त पूरी नहीं हुई, शर्त ही ऐसी थी। छह महीने में भी पूरी हो गयी, यह आश्चर्य है। छह साल भी पूरी न होती, कभी पूरी न होती, यह भी हो सकता था। मगर रोज उसी प्रसन्नता से वापिस लौट आते, वही आनंद, वही अहोभाव। जो प्रकृति की इच्छा है, जो इस परम जगत का आग्रह है, वह पूरा होना चाहिए। जिलाना होगा जिलाका, मारना होगा मारेगा। अपने से सारी जीवेषणा छोड़ दी—यह मोह मुक्ति है। अब मैं बजूं यह भी इच्छा नहीं है।

महावीर जैन नहीं थे, यह मैं दोहरा देना चाहता हूं। न कृष्ण हिंदू थे। न मुहम्मद मुसलमान थे। न जीसस ईसाई थे। न बुद्ध बौद्ध थे। हो ही नहीं सकते। जहां मैं ही नहीं बचा वहां ‘मेरा’ कैसे बचेगा? मैं की मृत्यु से ही मोह समाप्त होता है। अभी मेरा तो भीतर घना बैठा है, खूब घना बैठा है और तुम मुक्त होना चाहो मोह से, तो थोथा होगा, पाखंड होगा। हौ, धन छोड़कर भाग सकते हो। मगर जो ‘मैं’ धन को पकड़े था वही ‘मैं’ त्याग को पकड लेगा। कल तक कहते थे मेरे पास लाखों हैं; अब कहोगे उसी अकड़ से, शायद ज्यादा अकड़ से कि मैंने लाखों को लात मार दी। मगर वही मैं, जो लाखों को पकड़कर अकड़कर चलता था, अब लातें मार दीं लाखों को, अब और भी अकड़कर चलता है। पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए अब इसकी तुम डुंडी पीटोगे कि मैंने क्या—क्या त्याग कर दिया।

जैन मुनि हिसाब रखते हैं डायरी रखते हैं कि इस साल में उन्होंने कितने उपवास किए। पूरे अपने मुनि—जीवन में उन्होंने कितने उपवास किए, इसकी डायरी रखते हैं। कहीं मिल जाए ईश्वर तो खोलकर रख देंगे डायरी कि देख ले, यह रहा खाता बही! खाते—बही करते रहे दुकान पर बैठे—बैठे, अभी भी खाता—बही गया नहीं। अभी भी खाता—बही है। हर साल घोषणा—पत्र निकलता है कि किस मुनि ने कितने व्रत किए, कितने उपवास किए। जिसने ज्यादा किए वह महात्यागी। जो उतने नहीं कर पाया बेचारा दीन—हीन रह जाता है, मन मसोसकर रह जाता है कि मेरी क्या हैसियत मैं कुछ भी नहीं! अगले साल देखूंगा। अगले साल सब लगा दूंगा दाव पर। आगे निकलना है। वहां भी प्रतिस्पर्धा चल रही है।

तो महावीर चूकि कई घरों के सामने खड़े होते थे, अगर शर्त पूरी होती तो ठीक, शर्त पूरी नहीं होती तो आगे बढ़ जाते। अब यह जैन मुनि क्या करे? यह भी अनुकरण कर रहा है। यह केवल नकलची है। इसकी बंधी हुई धारणाएं हैं, जो वे पंद्रह चौके वालों को पता हैं। बस इसके पंद्रह बंधे हुए मामले हैं, कि जो श्राविका द्वार पर हाथ में गुलाब का फूल लेकर भोजन का निमंत्रण दे, उसका स्वीकार कर लेंगे। जिस दरवाजे पर केले लटके हों, आम के पत्ते लटके हों…..। और आम के पत्ते, केले, ये सब बंधी हुई बातें हैं अब। यह हर मुनि वही कर रहा है। अगर वे पंद्रह चौके वाले जानते हैं कि अपना मुनि कोन से नियम लेता है। क्योंकि रोज भोजन मिल जाता है और पंद्रह ही चौके से काम चल जाता है। तो एक चौका छूटा, यह भारी उपद्रव हो गया, अब पंद्रह परिवार इसके पीछे चलते हैं। जगह—जगह तम्बू लगाकर बस्ती बसाते हैं, क्योंकि वहां जैन नहीं हैं उस बस्ती में, तो उन्हें बस्ती बसानी पड़ती है तम्बू लगाकर। क्या धोखा चल रहा है, क्या नाटक चल रहा है! और आकर मुनि महाराज एक—एक द्वार पर खडे होते हैं। उनका प्रतीक जाता है।

मैं तो यह भी सोचता हूं नहीं भी मिलता होगा तो किसी को पता नहीं, वे मिला ही लेते होंगे। क्योंकि बताना तो होता नहीं किसी को सुबह—सुबह, जब रोज ही मिल जाता है। महावीर से भी ज्यादा ये होशियार हैं। अस्तित्व इनको महावीर से भी ज्यादा कीमत दे रहा है, साफ है। क्योंकि महावीर को कभी छह महीने भोजन नहीं मिला, कभी तीन महीने भोजन नहीं मिला, कभी दो महीने भोजन नहीं मिला। बारह साल की तपश्चर्या—काल में उन्हें केवल एक साल भोजन मिला। मतलब हर बारहवें दिन पर एक दिन भोजन मिला। यह औसत अनुपात रहा उनका। और इनको तो रोज मिल जाता है। तो या तो ये कोई धोखा दे रहे हैं। महावीर से ज्यादा मूल्यवान तो ये न हीं हैं कि अस्तित्व इनको ज्यादा बचाने के लिए उत्सुक है। या तो ये व्रत बंधे हुए लेते हैं, तो पता है लोगों को। और या फिर न भी मलते हों तो मिला लेते होंगे, क्योंकि सुबह बताना तो होता नहीं किसी को। यह तो बाद में पता चलता है। जब वे भोजन ले लेते हैं तब पता चलता है कि दो केले लटकाने का व्रत लिया था आज।

और इन सबको खयाल है कि इन्होंने मोह छोड़ दिया है। इनको खयाल है इन्होंने जीवेषणा छोड़ दी है।

महावीर नग्न सोते थे। जैन मुनि भी नग्न सोता है—दिगंबर जैन मुनि। मगर सर्दी के दिनों में, सोता तो नग्न है, शिष्यगण पुआल बिछा देते हैं। पुआल काफी गर्म होती है। और अच्छी काफी मोटी गद्दी पुआल की बना देते हैं। उस पर वह लेट जाता है। और ऊपर से फिर पुआल उस पर ढांक देते हैं मोटी दुलाई की तरह, सो वह पुआल के भीतर बिलकुल दब जाता है। पुआल काफी गर्म होती है।

मैंने एक जैन मुनि को पूछा कि मैंने कहीं पढ़ा नहीं किसी शास्त्र में कि महावीर पुआल बिछाकर सोते थे और ऊपर से पुआल डाली जाती थी। वे बोले, ‘मैं क्या करूं? मैं तो जमीन पर ही सोता हूं लोग पुआल बिछा दें तो मैं क्या करूं? और मैं सो जाता हूं लोग मेरे ऊपर पुआल डाल देते हैं तो मैं क्या करूं? मैं तो किसी से कहता नहीं।’

मैंने उनसे कहा, ‘ और शिष्य अगर कांटे बिछा दें….. फिर आप कहेंगे कि नहीं?….. मैं बिछवा देता हूं आज!’

वे कहने लगे, ‘ आप कैसी बातें करते हैं?’

मैंने कहा, ‘मैं कैसी बातें नहीं करता। आप कैसी बातें करवा रहे हैं! शिष्य कांटे बिछा दें, फिर, लेटेंगे आप? और ले आयें एक बर्फ की चट्टान और रख दें छाती पर, फिर आप मना करेंगे कि नहीं करेंगे? एकदम उचककर खड़े हो जाओगे।’

मैंने कहा, ‘ये शिष्य भी तुम्हारे मूढ़ हैं जो पुआल बिछाते हैं।’

मगर यह सब चलता है। छोड़ तो देते हैं, मगर समझ नहीं है, तो कहीं से लौट आएगा, किसी तरह से लौट आएगा।

तुमने देखे, हिंदू साधु नग्न बैठे रहते हैं, मगर भभूत लगा लेते हैं। तुम जानते हो भभूत क्यों लगा लेते हैं? तुम सोचते हो शायद कोई तपश्चर्या कर रहे हैं। यह तपश्चर्या नहीं है। शरीर का रंध्र—रंध्र श्वास लेता है तो ठंड के दिनों में तुम ऊनी वस्त्र भी पहनते हो, उससे भी ज्यादा गर्मा देने वाली चीज है कि सारे शरीर पर राख मलकर बैठ जाओ, क्योंकि सारे शरीर के रंध्रों में राख समा जाती है। और जब रोज—रोज राख ही मलते रहते हैं तो रंध्र बंद हो जाते हैं। और जब रंध्र बंद हो जाते हैं तो उन से हवा अंदर जानी समाप्त हो गयी। मोटी से मोटी ऊन की चादर भी तुम, कीमती से कीमती पश्मीना भी ओढ़कर बैठो, उसमें से थोडी भी हवा भीतर आती है। लेकिन अगर तुम राख पूरे शरीर पर लपेटकर बैठ जाओ तो उससे कोई हवा आने की संभावना नहीं रह जाती।

तुम सोचते होओगे ये कोई त्याग कर रहे हैं। ये त्याग नहीं कर रहे हैं। इन्होंने तरकीब निकाल ली है। तरकीबें निकलेंगी हां, क्योंकि मौलिक रूप से व्याधि दूर नहीं हो रही है, सिर्फ ऊपरी—ऊपरी व्याख्याओं से काम चल रहा है।

मोह से मेरा अर्थ होता है : मैं का विस्तार। मैं— भाव का विस्तार। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे पास साम्राज्य है या नहीं। समझ हो तो साम्राज्य के भीतर भी कोई मैं से मुक्त होकर जी सकता है और नासमझी हो तो नग्न खड़ा होकर जंगल में वृक्ष के नीचे भी मैं भाव से भर सकता है।

मैं हिमालय की यात्रा पर था। मनाली में एक वृक्ष के नीचे, पता चला मुझे कि एक साधु कोई बीस वर्षो से बैठता है। वहीं रहता है। वही वृक्ष उसका आवास है। घना वृक्ष था, सुंदर वृक्ष था। अभी साधु भिक्षा मांगने गया था। तो मैं उस वृक्ष के नीचे बैठ रहा। जब वह लौटकर आया तो मैने आंखें बंद कर लीं। उसने मुझे देखा और कहा कि उठिए, यह वृक्ष मेरा है। यहां मैं बीस साल से बैठता हूं।’ मैंने कहा, ‘वृक्ष किसी का भी नहीं होता। और बीस साल से नहीं, तुम बीस हजार साल से बैठते होओ, इससे क्या फर्क पड़ता है? अभी तो मैं बैठा हूं। जब मैं हटूं तब तुम बैठ जाना। अब मैं हटनेवाला नहीं हूं।’

वे तो एकदम आगबबूला हो गए कि यह जगह मेरी है! हरेक को पता है। यहां और भी बहुत साधु—संन्यासी आते हैं, सबको मालूम है कि यह वृक्ष मेरा है।

मैंने उनको और भडकाया। तो उनका क्रोध बढ़ता चला गया। फिर मैंने उनसे कहा कि मैं सिर्फ यह जानने के लिए आपको भड्का रहा था, मुझे कुछ लेना—देना नहीं वृक्ष से, मुझे यहां रहना भी नहीं, मैं सिर्फ यह देख रहा था कि आप बीस साल पहले घर छोड़ दिए पत्नी बच्चे छोड दिए आपकी कथाएं मैंने सुनी हैं कि आप बड़े त्यागी हैं, मगर अब यह वृक्ष को पक्डकर बैठे हैं! यह आपका हो गया! यह जमीन आपकी हो गयी! इस पर अब कोई दूसरा बैठ नहीं सकता। तो यह नया घर बसा लिया।

यह स्वाभाविक है। अगर समझ न हो तो तुम जो भूल करते थे, फिर—फिर करोगे। नये—नए ढंग से करोगे। नयी—नयी दिशाओं में करोगे। मगर भूल से बचोगे कैसे?

निश्चित ही मोह के समान और कोई शत्रु नहीं है, क्योंकि अहंकार ही शत्रु है। और अहंकार का जो फैलाव है, जहां—जहां अहंकार जुड़ जाता है, वहां वहां मोह है। जहां तुमने कहा मेरा, वहां मोह है। इसलिए मैं कहता हूं मत कहना—मेरा धर्म; मत कहना—मेरा शास्त्र, मेरी कुरान, मेरी बाइबिल, मेरी गीता! मत कहना—मेरा देश, मेरी जाति, मेरा वर्ण, मेरा कुल! ये सब मोह ही हैं और बहुत सूक्ष्म मोह हैं।

काम है : और की आकांक्षा। वह भी अहंकार का विस्तार है। और मोह है. जो—जो काम के द्वारा मिल गया है, उसको अपना बनाए रखने की आकांक्षा। वह मेरा ही रहे। वह मेरे हाथ से छिटक न जाए। जो पाने की दौड़ है वह काम; और जो पकड़ लेने की आकांक्षा है, वह मोह। वह काम की ही शाखा है।

‘काम के समान कोई व्याधि नहीं, मोह के समान कोई शत्रु नहीं, क्रोध के तुल्य कोई अग्नि नहीं।’

यूं समझो कि काम है और की दौड़, मोह है जो मिल गया उसको अपना बनाए रखने की आकांक्षा और क्रोध है, जब तुम्हारी इस आकांक्षा में कोई बाधा डाले, कोई उपद्रव खड़ा करे। जैसे वह साधु क्रोधित हो गया, क्योंकि मैं उस के झाडू के नीचे बैठ गया—उसका झाडू! उसके मैं पर हमला हो गया। उसकी लक्ष्मण—रेखा थी वहां खिंची हुई, उसके भीतर मैं प्रवेश कर गया, तो क्रोध आ गया।

जहां तुम्हारे अहंकार को चोट पड़ती है वहां क्रोध आता है। और जहां तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है वहां मोह आता है। ये क्रोध और मोह अलग—अलग नहीं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन दोनों के मूल में काम है। जो तुम्हारी कामवासना में सहयोगी होता है उसको तुम मित्र कहते हो। और जो तुम्हारी कामवासना में विरोधी हो जाता है, अड़चनें डालता है, उसको तुम शत्रु कहते हो। कोन है तुम्हारा मित्र? लोग कहते हैं : मित्र वही जो वक्त पर काम आए। क्यों? वक्त पर काम आए, यह कसौटी है मित्र की! यह मित्रता हुई? वक्त पर काम आने का मतलब हुआ कि जो मेरे काम के आरोहण में सहयोगी हो; जो मेरी आकांक्षाओं अभीप्साओं में सीढ़ी बने; जो मेरे हाथ में शक्ति दे; जो मेरे साथ अभियान पर निकले, मेरा सहयोगी हो। और शत्रु कोन है? जो बाधा डाले। तुम चुनाव लड रहे हो, वह तुम्हारे खिलाफ खड़ा हो जाए तो शत्रु। और तुम्हारा जाकर प्रचार करे तो मित्र। तुम्हें वोट दे तो मित्र। तुम्हें वोट न दे तो शत्रु।

क्रोघ पैदा होता है, जब भी तुम्हारी किसी वासना में कोई भी अड़चन आ जाती है। कोई भी अड़चन खड़ी कर देता है, तभी क्रोध पैदा हो जाता है। मुझ पर इस देश के सारे साधु—संत, महंत—महात्मा क्रोधित हैं। क्यों? पूछना चाहिए, क्यों? जो किसी और बात में राजी नहीं होते, जो एक—दूसरे से हर हालत में दुश्मन होते हैं, वे सब भी एक साथ मेरे विपरीत खड़े हो जाते हैं। क्या कारण होगा? जरूर बड़े जादू की घटना घट रही है। सभी संप्रदायों के साधु, महंत, संत—महात्मा मेरे विपरीत इकट्ठे हो जाते हैं, क्योंकि उन सबको लग रहा है कि मैं उनके सारे व्यवसाय को चोट पहुंचा रहा हूं मैं शत्रु हूं। अगर मेरी बात लोगों की समझ में आ गयी तो मंदिर खाली पड़े होंगे, मसजिदें खाली पडी होंगी। अगर मेरी बात लोगों की समझ में आ गयी तो कोन जाएगा काशी और कोन जाएगा काबा! इसलिए सारे पंडित पुरोहितों को घबड़ाहट और बेचैनी है। इस बेचैनी के पीछे भारी क्रोध है, क्योंकि उनकी आकांक्षाओं में लग रहा है कि मैं सहयोगी नहीं हूं। मैं सहयोगी हो जाऊं इसकी बहुत कोशिश थी।

जैन मुनियों ने मुझसे कहा था कि हम सब तरफ से आपका साथ देंगे अगर आप हमेशा जैन धर्म का समर्थन करें। मैंने कहा, ‘मैं समर्थन सत्य का करूंगा। जैन धर्म उसके अनुकूल पड़ेगा तो जरूर समर्थन करूंगा और प्रतिकूल पड़ेगा तो मेरी मजबूरी है। मैं सिर्फ सत्य का समर्थन कर सकता हूं।’

मुझे हिंदू महात्माओं ने कहा था कि अगर आप विश्व में हिंदू धर्म का प्रचार करें तो हम आपके साथ हैं। मैंने उनसे कहा कि मैं तो सिर्फ सत्य का प्रचार कर सकता हूं। और अगर हिंदू धर्म में कोई भी सत्य होगा तो जरूर मैं उसके साथ हूं। लेकिन असत्य चाहे हिंदू हो चाहे जैन, मैं साथ नहीं दे सकता हूं।

तो धीरे— धीरे मैंने न मालूम कितने दुश्मन खड़े कर लिए! सत्य से दोस्ती जोड़ी तो असत्य से जो जी रहे हैं वे दुश्मन हो गए। परमात्मा से नाता जोडा तो परमात्मा के नाम से जो धंधे चला रहे हैं वे दुश्मन हो गए।

निश्चित ही क्रोध के समान कोई अग्नि नहीं है। क्यों? क्योंकि और अग्नियां तो सिर्फ वस्तुओं को नष्ट करती हैं, क्रोध आत्मा को नष्ट करता है। और अग्नियां तो स्थूल को जलाती हैं, क्रोध तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म को जला देता है। और अग्नियां तो पदार्थ पर शक्तिशाली होती हैं, लेकिन क्रोध की अग्नि तो चेतना पर भी आच्छादित हो जाती है।

मगर तुम्हारे शास्त्र दुर्वासा जैसे लोगों को भी ऋषि कहते हैं—जिनके मुंह पर ही क्रोध है, जिनकी जबान पर क्रोध है, जो अभिशाप देने को आतुर बैठे हैं, जो जरा सी भूल चूक से जनम—जनम बिगाड़ दें। ऋषि और अभिशाप दे! ऋषि तो वरदान ही दे सकता है। उससे तो आशीष की ही वर्षा हो सकती है।

मैं तो राबिया को ऋषि कहूंगा, दुर्वासा को नहीं। राबिया सूफी स्त्री थी। कुरान में एक जगह यह वचन आता है कि शैतान से घृणा करो। उसने काट दिया। और कुरान में कोई तरमीम नहीं कर सकता, कोई सुधार नहीं कर सकता। कुरान में सुधार करना! इसका मतलब हुआ कि पैगंबर गलत है, कि कुरान जो उतारी परमात्मा ने वह गलत है! ये ईश्वरीय वचन हैं। इनको कोई सुधार सकता है? यह कोई बच्चों की लिखी हुई किताब तो नहीं है कि तुम इस में सुधार कर दो।

लेकिन राबिया ने काट ही दिया वह वचन। हसन नाम का फकीर उसके घर मेहमान था। उसने राबिया की किताब देखी, कुरान देखी। उलट—पलट रहा था, देखा कि एक जगह वाक्य कटा हुआ है। वह तो बहुत हैरान हुआ। उसने राबिया से कहा, ‘किसी ने तेरी कुरान को अपवित्र कर दिया।’

राबिया ने कहा, ‘किसी ने नहीं। और अपवित्र नहीं किया है, पवित्र किया है। मैंने ही किया है। क्योंकि जब से मैंने परमात्मा को जाना तब से मुझे शैतान दिखाई नहीं पड़ रहा। मैं घृणा कैसे करूं? शैतान नहीं दिखाई पड़ता। शैतान भी मेरे सामने आकर खड़ा हो जाए तो परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। और घृणा कैसे करूं? जब से परमात्मा को जाना, सारा जीवन प्रेम में रूपांतरित हो गया है। घृणा मेरे भीतर नहीं बची। अब शैतान का मैं क्या करूं? घृणा पहले भीतर होनी चाहिए न, तभी तो मैं कर सकूंगी! अब भीतर ही जो चीज न बची। शैतान हो या परमात्मा हो, कोई भी हो, मेरे भीतर तो बस प्रेम ही बचा है। मेरे भीतर से तो प्रार्थना ही उठेगी। मेरे भीतर दुर्गंध नहीं है, सुगंध ही उठेगी।’

मैं राबिया को ऋषि कहूंगा। और मैं कहूंगा उसने ठीक किया जो कुरान में सुधार कर दिया। दुर्वासा को ऋषि नहीं कह सकता। जरा—सी बात में क्रुद्ध हो जाए। ऋषि तो वह परम अवस्था है दृष्टि की, द्रष्टा— भाव की, जहां न कोई काम बचता, न कोई मोह बचता, न कोई क्रोध बचता। और जहां ये तीनों समाप्त हो जाते है, वहीं ज्ञान का जन्म होता है।

इसलिए ठीक कहता है यह सूत्र : ‘ज्ञान से उत्कृष्ट कोई सुख नहीं।’ ज्ञान महासुख है। मगर ये तीन जायें, तो ज्ञान। यह जो त्रिमूर्ति है—काम, क्रोध, मोह की—यही बाधा है।

इस देश में हमने परमात्मा को त्रिमूर्ति कहा है; लेकिन जो हमने त्रिमूर्ति बनायी है वह परमात्मा के संबंध में पर्याप्त नहीं है। उससे कहीं ज्यादा गहरी दृष्टि तो पतंजलि की है, जो कहता है कि असली अवस्था तुरीय है, चौथी है। तीन के पार जाओ तो तुरीय। तुरीय का अर्थ होता है : चौथी। गुरजिएफ के शिष्य आस्पेंस्की ने अद्भुत किताब लिखी है द फोर्थ वे, चौथा रास्ता। क्या है वह चौथा रास्ता? तुरीय क्या है? काम, मोह, क्रोध—इन तीनों के पार जो चला जाए, वही चौथे को उपलब्ध होता है।

यूं समझो कि काम है ब्रह्मा, क्योंकि ब्रह्मा से ही जगत की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा का अगर तुम उल्लेख पढ़ो शास्त्रों में तो यह बात तुम्हें साफ हो जाएगी; हालांकि किसी ने कभी तुमसे यह बात कही नहीं। यह मैं तुमसे पहली बार कह रहा हूं क्योंकि कोन झंझट में पड़े! इस देश में झंझट में पड़नेवाले लोग ही नहीं रहे। नेता बचे हैं, ऋषि नहीं बचे। धार्मिक नेता हैं, जिनको तुम धर्मगुरु कहते हो, वे भी ऋषि नहीं हैं। गुरु होने के लिए हिम्मत चाहिए, छाती चाहिए।

ब्रह्मा को मैं काम का प्रतीक मानता हूं और तुम अपने पुराण उठाकर देख लो, तुम्हें मेरी बात के लिए गवाहियां मिल जाएंगी। कहानी कहती है कि ब्रह्मा ने पृथ्वी पैदा की। जिसने पैदा की वह पिता हो गया। लेकिन पृथ्वी को पैदा करके वे उस पर आसक्त हो गए। पिता पुत्री पर आसक्त हो गया। दौड़ने लगे वे पुत्री के पीछे, उसको पकडने के लिए दौड़ने लगे। उसको भोगने की आकांक्षा पैदा हो गयी ब्रह्मा में। स्वभावत:, स्त्री का स्वभाव है बचना, छिपना, लज्जा, घूंघट, तो स्त्री बचने लगी। ऐसे सारी सृष्टि पैदा हुई। क्योंकि स्त्री बचकर गाय हो गयी, वह छिप गयी और गाय बन गयी, ताकि किसी तरह ब्रह्मा के इस कामवासना के उपद्रव से छूट पाए, मगर ब्रह्मा कुछ ऐसे तो छोड़नेवाले नहीं थे, वे तत्‍क्षण सांड हो गए। ब्रह्मा ही थे, वे कोई ऐसे छोड़ देनेवाले थे! ऐसे सारी प्रकृति बनी। वह हरिणी हो गयी तो वे हरिण हो गए। वह हथिनी हो गयी तो वे हाथी हो गए। वह स्त्री हो गयी तो वे पुरुष हो गए। यूं भाग चलती रहा, चलती रहा, चलती रही। ऐसी ये चौरासी करोड़ योनियां जो पैदा हुईं, यह ब्रह्मा की कामवासना का विस्तार है।

ब्रह्मा काम के प्रतीक हैं। होना भी चाहिए, क्योंकि काम से ही उत्पत्ति है। और ब्रह्मा उत्पत्ति हैं। वे जगत के स्त्रोत हैं, जहां से सारा जगत पैदा हुआ। और काम से ही जगत की उत्पत्ति होती है। निश्चित ही ब्रह्मा काम के प्रतीक हैं।

विष्णु मोह के प्रतीक हैं। विष्णु के लिए जो व्याख्या की गयी है शास्त्रों में, वह है जगत को सम्हालनेवाले, बचानेवाले, व्यवस्था रखनेवाले। यह मोही का लक्षण है। मोह का अर्थ ही होता है. व्यवस्था, सम्हालना, बचाना। जो है उस को जोर से पकड़ना, कहीं खो न जाए, कहीं छिटक न जाए हाथ से। काम का अर्थ होता है : बनाना, और, और, और! और मोह का अर्थ होता है. बचाना। विष्णु बचानेवाले हैं।

तुमने एक मजा देखा! इस भारत में ब्रह्मा का सिर्फ एक मंदिर है, सिर्फ एक मंदिर समर्पित है ब्रह्मा को। क्योंकि लोगों को अब ब्रह्मा से क्या लेना—देना! दुनिया तो बन ही चुकी। जब बन ही चुकी तो अब ब्रह्मा से क्या लेना—देना! बात ही खत्म हो गयी। लेकिन विष्णु के बहुत मंदिर हैं, अनंत मंदिर हैं। सब अवतार विष्णु के हैं। राम और कृष्ण, सब अवतार विष्णु के हैं। इसलिए जितने मंदिर हैं, चाहे राम के हों, चाहे कृष्ण के हों, ये सब विष्णु के मंदिर हैं। निश्चित ही विष्णु से अभी लेना—देना है। अभी मामला विष्णु के हाथ में है। ब्रह्मा का तो काम खत्म हो गया। वे तो लिख गए कहानी और कहां गए पता नहीं। यहीं खो गए सांडों में, हाथियों में, कितने बंट गए। एक थे, चौरासी करोड़ हो गए। वे तो यहीं कट छटकर समाप्त हो गए। अब उनका कहां पता लगाते फिरोगे? अब तो खोजोगे भी तो मिलना मुश्किल हो जाएगा। थोड़ा— थोड़ा, अंश मिलेगा, थोड़ा सांड में मिलेगा, थोड़ा मुहम्मद अली में मिलेगा, थोड़ा दारासिह में मिलेगा, थोड़ा— थोड़ा, अंश—अंश…..। उनको तुम कहां खोजोगे? इसलिए एक मंदिर ठीक है प्रतीक के लिए कि भई चलो तुमने काम किया, ऐसा जगत बना दिया, बड़ी कृपा! एक मंदिर तुम्हें समर्पित कर देते हैं। मगर अब तुमसे लेना—देना क्या है!

इसलिए ब्रह्मा की कोई चिंता नहीं करता। न कोई स्तुति गाता, न कोई प्रार्थना करता, न किसी मंदिर में घटिया बजती ब्रह्मा के लिए। लेकिन विष्णु के लिए सारी स्तुतियां हैं, क्योंकि विष्णु के हाथ में ताकत है। जिसके हाथ में ताकत है, जिसके हाथ में लाठी है उसकी भैंस है। सब भैंसें एकदम डोलने लगती हैं लाठी देखकर। लाठी अभी विष्णु के हाथ में है। इसलिए सब अवतार उनके। और सारी प्रार्थनाएं उनके लिए हैं। विष्णु—सहस्रनाम, विष्णु के हजार नाम बतानेवाला शास्त्र है। एक नाम से काम नहीं चलता विष्णु का। हजार नाम, ताकि तरह—तरह से स्तुतियां करो। हजार ढंग से स्तुतियां करो। और सारे मंदिर विष्णु को समर्पित हैं। विष्णु मोह के मेरा स्वर्णिम भारत प्रतीक हैं—मेरा! हजार ढंग से स्तुतियां करो। मेरा है तो बचाओ।

और महेश अंत करेंगे अस्तित्व का। जैसे विष्णु बचाते हैं, और ब्रह्मा शुरू करते हैं, वैसे महेश अंत करेंगे। वे क्रोध के प्रतीक हैं। और तुम पुराणों में देख लो। कथाएं फैली पड़ी हैं। मैं कभी—कभी चौंकता हूं कि क्यों यह बात साफ नहीं हुई, क्यों किसी ने यह बात ठीक—ठीक न कही कि इन तीनों के ये तीन प्रतीक हैं?

अभी कल ही तुम से मैं शिवजी की कथा कह रहा था कि उन्होंने गर्दन ही काट दी गणेश की। अरे, जरा पूछताछ करते, इतनी जल्दी क्या पड़ी थी? गर्दन ही काटनी थी, थोड़ी देर से काटी जा सकती थी। मगर आव देखा न ताव, गर्दन काट दी। क्रुद्ध हो गए। तुमने उनके क्रोध की कथा सुनी ही है कि कामदेवता उनके सामने प्रगट हुआ तो उन्होंने अपनी तीसरी आख खोलकर उसको भस्म कर दिया। महाक्रोधी! तांडव नृत्य करनेवाले! निश्चित ही अंत वही कर सकता है इस जगत का जो क्रोध हो, हिंसा हो, विनाश हो।

ये तीन परमात्मा के रूप नहीं हैं। ये तीन परमात्मा की विकृतियां हैं, अगर ठीक से समझो। इन तीनों के जो पार जाता है वह परमात्मा को उपलब्ध होता है। तुरीय, चतुर्थ—और वही ज्ञान है। वही बोध है, समाधि है, संबोधि है, बुद्धत्व है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि बौद्धों ने यह कथा लिखी कि जब सिद्धार्थ गौतम बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो सारे देवता, ब्रह्मा भी उसमें सम्मिलित हैं, उनके चरणों में नमस्कार करने आए। आना ही चाहिए। आए हों या न आए हों, मगर जरूर आना चाहिए, क्योंकि बुद्धत्व देवत्व से बहुत ऊंची बात है—ब्रह्मा, विष्णु, महेश से बहुत ऊंची बात है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश में तो तुम अपने ही जैसी सारी बीमारियां पाओगे। ब्रह्मा में तुम अपनी ही कामवासना पाओगे। विष्णु में तुम अपने ही मोह का विस्तार पाओगे। महेश में तुम अपने ही क्रोध का सघनतम रूप पाओगे। लेकिन जो तीनों के पार है, जहां न काम बचा, न मोहबचा, न क्रोध बचा, वहां ज्ञान। वहां तुम्हारा निर्मल स्वभाव प्रगट होता है; तुम्हारा स्वरूप पहली दफा सहस्त्र—दल—कमल की भांति खुलता है; पहली बार तुम्हारे जीवन में संगीत होता है, काव्य होता है।

निश्चित ही महासुख है ज्ञान। लेकिन इस ज्ञान से तुम शास्त्रीय ज्ञान मत समझना। यह ज्ञान सिर्फ ध्यान से ही उपलब्ध होता है, क्योंकि ध्यान तीनों को मिटा देता है। वह त्रिमूर्ति को नष्ट कर देता है। जहां यह त्रिमूर्ति नष्ट हुई, फिर जो शेष रह जाता है, जिसको नष्ट किया ही नहीं जा सकता। ध्यान अग्नि है जिसमें ये तीनों जलकर राख हो जाते हैं—और उसके बाद जो शेष रह जाता है, खालिस सोना, सब कचरा जल गया, सोना कुंदन बनता है अग्नि से गुजरकर। ध्यान की अग्नि से गुजरकर तुम्हारे भीतर सिर्फ शुद्ध सोना बचता है। वही ज्ञान है। उसे जिसने पा लिया उसने सब पा लिया। उसे जिसने खोया उसने सब गंवाया। और हम सब उसे गंवाए बैठे हैं।

और कैसा पागलपन है कि तुम ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा कर रहे हो और तुम्हारे भीतर स्वयं परमात्मा विराजमान है, चतुर्थ विराजमान है! तुम्हारे भीतर स्वयं ब्रह्म विराजमान है और तुम दो कोड़ी के देवी—देवताओं की पूजा में लगे हुए हो। अचंभा होता है देखकर कि भीतर ब्रह्म बैठा है, तुम हनुमान—चालीसा पढ़ रहे हो! कुछ तो शर्म करो! कुछ तो शर्म खाओ! कुछ तो संकोच लाओ! अरे डूब मरो चुल्लभर पानी में! हनुमान—चालीसा पढ़ रहे हो! न लाज, न संकोच! ‘जय गणेश जय गणेश’ का शोरगुल मचा रहे हो! ब्रह्म होकर क्या खिलौनों से खेल रहे हो! लेकिन मूर्च्छा में यही संभव है।

जागो। ध्यान तुम्हें जगाएगा तो इस सूत्र का सही अर्थ प्रगट हो सकता है। यह सूत्र कीमती है—

‘नास्ति कामसमो व्याधि: नास्ति मोहसमो रिपु:

नास्ति क्रोधसमो वहिनास्ति शानात् परं सुखम्।।

‘न्यू मछली बिन नीर’ प्रवचन माला से

दिनांक 30 सितम्बर 1980 श्री रजनीश आश्रम पूना।

 



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प्रभु की पगड़ंडियां–(प्रवचन–2)

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प्रभु—मंदिर का पहला द्वार: करूणा—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 1 दिसम्‍बर, 1968; सुबह

ध्‍यान—शिविर, नारगोल।

प्रभु के मंदिर की सीढ़ियों की बात कल मैंने आपसे कही। जैसे सीढ़ियां हैं उस मंदिर की, वैसे द्वार भी हैं।

पहले द्वार पर आज चर्चा करेंगे। मैं जो कहूं उसे सुनने के साथ—साथ अनुभव भी कर सकें तो ही वह स्पष्ट हो सकेगा। और बाद में अनुभव करना जरूरी नहीं है। मैं जब बोल रहा हूं तब भी अनुभव किया जा सकता है। मेरे बोलने के साथ ही जिस संबंध में मैं कुछ कहूंगा वह आपका अनुभव भी बनाया जा सकता है।

प्रभु के मंदिर का पहला द्वार है करुणा, कंपेशन। लेकिन मनुष्य का करुणा से कोई भी संबंध नहीं रहा है। और वे लोग जिनका करुणा से कोई भी संबंध नहीं परमात्मा की खोज में चाहे हिमालय पर जाते हों, चाहे और दूर गुफाओं में खो जाते हों, प्रभु से उनका कोई संबंध कभी स्थापित नहीं हो सकेगा। उस तक पहुंचने के लिए तो करुणा की गहराइयों में उतरना जरूरी है। और हम सब कठोरता के सख्त पत्थर बन गए हैं। मनुष्य करीब—करीब एक पाषाण हो गया है, एक पत्थर। पत्थर भी इतने पत्थर नहीं हैं जितने हम पत्थर हो गए हैं। चारों तरफ देखेंगे समाज में तो मेरी इस बात के लिए कोई प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं होगी। अगर मनुष्य इतना कठोर न होता जितना कि वह है, तो इतने कुरूप, इतने गंदे, इतने दुखद और इतने हिंसात्मक समाज को जन्म नहीं दे सकता था।

जन्म से लेकर मृत्यु, सारा जीवन हिंसा का एक जीवन है— कठोरता का, दुख देने का, चारों ओर कांटे फैलाने का। लेकिन शायद कठोरता इतनी हमारे गहराई में प्रविष्ट हो गई है कि उसका हमें कोई पता भी नहीं चलता है। उसका हमें बोध भी नहीं होता है। हमारा सारा व्यक्तित्व ही कठोरता से भर गया है। हमारे जीवन के सारे चरण—हमारा उठना, बैठना, सोचना, देखना तक कठोर हो गया है और प्रभु के मंदिर का द्वार है करुणा। वे वहां पहुंचते हैं, सत्य तक, अमृत तक जो अपने जीवन की सारी कठोरता को तोड़ कर तरल बनने में समर्थ हो जाते हैं, करुणा में बह जाने में समर्थ हो जाते हैं।

करुणा से मेरा क्या अर्थ है? और कठोरता से क्या? जब मैं कह रहा हूं कि मनुष्य कठोर हो गया है तो आप ऐसा मत सोचना कि मैं दूसरे मनुष्यों के संबंध में कह रहा हूं तो आप भी मेरे साथ अनुभव से गुजर सकेंगे। सोचना अपने लिए कि क्या मैं कठोर हो गया हूं? अन्यथा यह बात बिलकुल ठीक मालूम पड़ती है कि लोग कठोर हो गए हैं। हम अपने को बाद देकर, अलग करके सोचते हैं तो बात ठीक मालूम पड़ती है कि लोग कठोर हो गए हैं, लेकिन तब इस बात का कोई अर्थ नहीं है।

साधक निरंतर जब भी सोचता है तो अपने से शुरू करता है सोचना। मनुष्य कठोर हो गया है यानी मैं कठोर हो गया हूं। और जरा सी भी दृष्टि अपने जीवन में और यह बताने में कोई कठिनाई नहीं रह जाएगी कि हम किस भांति कठोर हो गए हैं।

हेनरी थारो था अमरीका में एक अदभुत व्यक्ति। कोई उससे मिलने आया था। हेनरी थारो ने प्रेम से उसका हाथ अपने हाथ में लिया और फिर उदासी से हाथ छोड़ दिया और आंख बंद कर ली। वह आदमी तो बहुत हैरान हुआ। उसने कहा : आपको क्या हो गया है? आपने हाथ इतने प्रेम से लिया था, फिर छोड़ क्यों दिया, फिर आंख क्यों बंद कर ली, फिर आपकी आंखों से ये आंसू क्यों बह रहे हैं? आपको हो क्या गया है?

लेकिन हेनरी थारो है कि रोता ही चला जाता है। वह आदमी हिलाने लगा, थारो ने आंख खोली और कहा कि तुझे पता नहीं क्या हुआ? तेरे हाथ को मैंने हाथ में लिया और मुझे ऐसा नहीं मालूम पड़ा कि मैं किसी जीवित मनुष्य का हाथ अपने हाथ में ले रहा हूं। मुझे ऐसा लगा जैसे कोई लाश है जिसके हाथ को मैंने पकड़ लिया। मुझे ऐसा लगा जैसे वृक्ष की कोई सूखी शाखा है जिसे मैंने हाथ में ले लिया। वहां न प्रेम था, न करुणा थी, न सौहार्द था, न कोई सहानुलुत थी। न उस हाथ में कोई रस था, न कोई जीवंत प्रवाह था। वह हाथ एक मुर्दा हाथ था।

आपका हाथ भी तो इतना मुर्दा नहीं हो गया है कि उसमें कोई प्रवाह न हो, कोई रस न हो, कोई सहानुभूति न हो? कभी न हम खोजते हैं, न सोचते हैं कि हमारे हाथ कैसे हो गए, हमारी आंखें कैसी हो गईं? उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, लेकिन कोई करुणा का, कोई प्रेम का बहाव व्यक्तित्व से नहीं होता। कोई प्रेम की किरणें चारों तरफ बिखरती नहीं, हवाओं में कोई हमारी सुगंध नहीं जाती। अनेक—अनेक तलों पर वह कठोरता है। हम कैसे किसी को देखते हैं? कैसे हम किसी को देखते हैं, कैसे हम किसी से बोलते हैं, कैसे हम चुप होते हैं, कैसा है हमारा व्यवहार, कैसी है हमारी पूरी जीवनचर्या, उसमें करुणा का कोई संस्पर्श है, उसमें करुणा की कोई धारा है?

यह किसी और से नहीं कह रहा हूं मैं। यह मनुष्यता के लिए नहीं कह रहा हूं। एक—एक मनुष्य के लिए, मेरे और आपके लिए कह रहा हूं। लौट कर देखना जरूरी है जीवन की अपनी पूरी यात्रा को कि वहां कभी मेरे जीवन में करुणा आई थी, कभी प्रेम से मैं पिघल गया था और बह गया था? कभी ऐसा हुआ था कि मेरे अहंकार की कठोर चट्टान टूट गई हो? कभी ऐसा हुआ था कि मेरा भय विसर्जित हो गया हो? कभी ऐसा हुआ था किसी क्षण में कि मैं बह गया था पूरा, मेरे पीछे मैंने कुछ भी नहीं बचाया था, सब बंट गया था मेरा?

नहीं, ऐसा नहीं हुआ है, अन्यथा परमात्मा कभी का उपलब्ध हो गया होता। वह तो उसी क्षण में उपलब्ध हो जाता है, जब कोई पूरी तरह से करुणा में बहने को, तरल होने को, विगलित होने को तैयार हो जाता है।

करुणा यानी एक जीवंत प्रेम का प्रवाह। करुणा का अर्थ है. बहता हुआ प्रेम। जिसे हम प्रेम कहते हैं वह प्रेम बंधा हुआ प्रेम है, वह किसी एक पर बंध कर बैठ जाता है। और प्रेम जब बंध जाता है तब वह भी करुणापूर्ण नहीं रह जाता है, वह भी हिंसापूर्ण हो जाता है। जब मैं किसी एक को प्रेम करता हूं तो अनजाने ही मैं शेष सारे जगत के प्रति अप्रेम से भर जाता हूं। और यह कैसे संभव है कि इतने बड़े जगत को मैं अप्रेम करूं और किसी एक को प्रेम कर सकूं?

नहीं, वह एक के प्रति प्रेम भी मेरा झूठा ही होगा, क्योंकि इतने विराट जगत के प्रति जिसका कोई प्रेम नहीं उसका एक के प्रति प्रेम कैसे हो सकता है?

एक फूल खिलता है एक रास्ते पर और वह फूल कहने लगे कि मेरी सुगंध सिर्फ एक को मिलेगी और किसी को नहीं—कोई एक है, जो उस रास्ते से आएगा तो मेरी सुगंध मिलेगी उसे, मैं नाचूंगा हवाओं में उस क्षण, लेकिन सबके लिए नहीं। और जो फूल सबके प्रति इतना कठोर हो जाएगा, क्या आप आशा करते हैं, जब वह एक आएगा जिसकी प्रतीक्षा थी उसे; तो वह नाच सकेगा, गीत गा सकेगा, सुगंध फेंक सकेगा? इतने लोगों के प्रति कठोर होने में वह इतना कठोर हो गया होगा कि जब वह व्यक्ति भी आकर खड़ा हो जाएगा जिसके लिए उसने चाहा था कि दे दूंगा प्रेम, तब तक आदत कठोर होने की इतनी मजबूत हो चुकी होगी कि इस एक के प्रति भी प्रेम बहेगा नहीं।

करुणा का अर्थ है. समस्त के प्रति प्रेम। करुणा का अर्थ है. प्रेम कहीं बंधे नहीं, बहता रहे। प्रेम कहीं रुके नहीं, चलता रहे। जहां भी कुछ रुकता है वहीं गंदगी शुरू हो जाती है। और हमारा सारा प्रेम गंदा हो गया है, क्योंकि वह सब रुका हुआ प्रेम है। वह कहीं रुक जाता है। वह अजस्र धारा नहीं रहती, बंध जाता है। बंध कर गंदा होना शुरू हो जाता है, फिर कीचड़—पत्ते उसमें इकट्ठे हो जाते हैं और बदबू और वह सूखने लगता है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह बहता हुआ ही जीवित रहता है। जहां भी कुछ रुका और वहीं उसका अंत हो जाता है, वहीं मृत्यु आ जाती है।

प्रेम हम सबका रुक गया है। और स्मरण रहे, रुका हुआ प्रेम सिर्फ धोखा है, रुका हुआ प्रेम प्रेम ही नहीं है। इसलिए मां कहती है बेटे से कि हम प्रेम करते हैं, पति कहता है पत्नी से कि हम प्रेम करते हैं, कोई प्रेम नहीं कर रहा है। यह असंभव है प्रेम का बंध जाना, यह वैसे ही असंभव है जैसे कोई सूरज को अपने घर में लाकर बंद कर ले।

सूरज से भी ज्यादा बड़ी शक्ति है प्रेम की। उसे किसी छोटे घर में कैसे बंद किया जा सकता है? सूरज से भी ज्यादा ज्वलंत है प्रेम की घटना; उससे भी ज्यादा ऊर्जस्वी। उस प्रेम को किसी घर में कैसे बंद किया जा सकता है? नहीं, वह घर में भी आ सकता है इसी शर्त पर कि पूरी पृथ्वी पर जाता हो। सूरज आपके अपान में भी आता है, लेकिन इसी शर्त पर कि सब आंगनों में जाता है। किसी दिन जिस दिन कोई पागल मनुष्य यह चेष्टा करेगा कि बस मेरे ही आंगन तक सूरज बंध जाए, उस दिन पड़ोस के आंगनों में तो नहीं ही जाएगा, उसके आंगन में भी अंधकार ही रहेगा, उसके आंगन में भी नहीं आ सकता है।

प्रेम को हम सबने बांध लिया है, इस मोह में कि प्रेम को बांध लेंगे तो ज्यादा पा लेंगे; भूल है यह। प्रेम बंधा कि मरा। फिर बिलकुल भी नहीं पाया जा सकता है। प्रेम जितना बहता है, निर्बाध जाता है दूर और अनंत तक बहता हुआ, उतना ही गहरा होता है, उतना ही जीवित होता है। जितना मैं अनंत को प्रेम करने में समर्थ होता हूं उतना ही एक को भी प्रेम देने में समर्थ हो पाता हूं। जो मां कहती है, मेरे बेटे को प्रेम, बस प्रेम मर गया। मेरे से बंधा और मर गया। जहां मेरा आया और प्रेम की मौत आ गई।

नहीं, मेरे बेटे को भी प्रेम मिल सकता है इसी शर्त पर कि और जो सब बेटे हैं उन तक वह प्रेम जाता हो। और जितने मेरे प्रेम का विस्तार होगा उतना ही एक के भीतर मेरे प्रेम की गहराई होगी। प्रेम का विस्तार अनंत तक होगा और प्रेम की गहराई एक—एक के भीतर प्रविष्ट हो जाएगी।

प्रेम उतना ही गहरा होगा जितना विस्तीर्ण होगा। प्रेम की गहराई और विस्तार सदा समान है। एक वृक्ष, ये सरू के वृक्ष खड़े हैं, ये दूर आकाश तक उठते चले गए हैं। शायद हमें खयाल भी न हो इनका ऊपर जो इतना विस्तार हुआ है इससे ही जुड़ी हुई इनकी जड़ें नीचे गहरी चली गई हैं। यह बिलकुल समान है। जितनी गहरे जड़ें इनकी नीचे गहरी गई हैं उतने ही ये ऊपर उठ सके हैं। जितने ये ऊपर उठ सके हैं उतनी ही इनकी जड़ों को भीतर गहरे जाना पड़ा है। ऊपर इनका फैलाव इनके भीतर की गहराई के अनुपात से बंधा हुआ है।

प्रेम जितना विस्तीर्ण होता है और खुले आकाश में उठता चला जाता है अनंत के प्रति, उतना ही एक— एक के भीतर उसकी जड़ें गहरी होती चली जाती हैं।

करुणा का अर्थ है विस्तीर्ण प्रेम। इसलिए करुणा में मोह की संभावना नहीं है, करुणा में बंधने का सवाल नहीं है, करुणा में कोई मांग नहीं है। करुणा यह नहीं कहती कि मैं करुणापूर्ण हूं इसलिए तुम्हें कुछ देना पड़ेगा। जो करुणा मांगती है वह करुणा न रही। जो प्रेम मांगता है वह प्रेम न रहा।

लेकिन हमारा तथाकथित प्रेम मांगता पहले है, देता बाद में है। सुनिश्चित हो जाए कि इतना मिलेगा तो उसी अनुपात में देता है। देता भी इसीलिए है ताकि मिल सके और इसीलिए प्रेम एक दुखद घटना हो गई है। प्रेम से किसी को सुख मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता, सिर्फ सुख के सपने दिखाई पड़ते हैं। लेकिन सुख मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता।

कीर्कगार्ड ने एक अदभुत बात कही है। उसने कहा है कि धन्य हैं वे प्रेमी जिन्हें प्रेमिकाएं नहीं मिलीं, क्योंकि जीवन भर कम से कम सपना तो बना रहा कि प्रेम होता तो यह होता, यह होता, यह होता। अभागे हैं वे प्रेमी जिन्हें प्रेमिकाएं मिल जाती हैं, क्योंकि तब सपने टूट जाते हैं और जो मिलता है वह बहुत नारकीय है।

अजीब सी बात है, लेकिन सच है। प्रेम सिर्फ सपना बन कर रह गया है। इसलिए सपना बन कर रह गया है कि प्रेम हमारी करुणा से नहीं जन्मता। हमारे भीतर करुणा तो है ही नहीं। हम भीतर तो हैं कठोर, हम भीतर तो बिलकुल असमर्थ हैं बहने में बाहर की तरफ। और क्यों हैं असमर्थ?

जितना तीव्र अहंकार होगा उतनी ही असमर्थता होगी बहने में। क्योंकि अहंकार कहता है आओ बाहर से, लाओ भीतर। अहंकार भीतर से बाहर नहीं जाने देता। बाहर से जो भी आ सके उसे भीतर लाता है— धन आ सके, ज्ञान आ सके, प्रेम आ सके। अहंकार की मांग है कि जो भी बाहर से लाया जा सके भीतर उसे लाओ ताकि मैं मजबूत हो सकूं, ताकि मेरी शक्ति बढ़ सके। रुपये आएं, ज्ञान आए, प्रेम आए, सब आए। प्रेम चिल्लाता है लाओ, लाओ, लाओ। उसकी पुकार एक ही है, वह संग्रह पर जीता है।

जितना संग्रह होगा, उतना बड़ा हो जाएगा। दस रुपयों के ढेर पर आप बैठे हैं, आपका अहंकार बहुत बड़ा कैसे हो सकता है? दस करोड़ पर बैठे हैं तो ढेर बड़ा हो गया; आपका अहंकार बड़ा हो गया, अकड़ बड़ी हो गई। दो—चार किताबें आपने पढ़ी हैं तो बेचारा अहंकार कैसे मजबूत होगा? बहुत ज्ञानी हैं आप, बहुत शास्त्र आप जानते हैं तो फिर ज्ञान मजबूत हुआ। आपने दो—चार उपवास किए हैं तो उससे क्या होगा? अगर आपने सौ उपवास किए हैं तो फिर अहंकार को आया रस। मैं हूं उपवासी, मैं हूं त्यागी, मैं हूं तपस्वी, फिर वह मजबूत होगा।

तो अहंकार कहता है लाओ, चाहे उपवास लाओ, चाहे तप लाओ, चाहे शान, चाहे धन; लेकिन लाओ। मैं को मजबूत करो। यह ईगो, यह अहंकार मजबूत हो।

जो आदमी मांगने लगता है लाओ, लाओ, उसके भीतर से प्रवाह बंद हो जाता है, उसके भीतर से बाहर कुछ भी नहीं जाता। सिर्फ बाहर से भीतर लाने की चेष्टा चलती है। और जिस मनुष्य के भीतर से बाहर कुछ भी नहीं जाता हो वह मनुष्य जीवित नहीं है, क्योंकि जीवन सदा भीतर से बाहर की तरफ जाता है। एक बीज से अंकुर निकलता है, उठता है आकाश की तरफ। एक नदी निकलती है पहाड़ से और दौड़ती है सागर की तरफ। एक बच्चा मां से आता है गर्भ से, जाता है बाहर के विस्तीर्ण जगत में। जैसे बीज अंकुरित होकर जाता है ऐसा एक बच्चा मां को छोड़ देता है। उससे आता है भीतर से और जाता है बाहर की तरफ।

सारे जीवन की गति भीतर से बाहर की तरफ है और हमारे अहंकार की गति बिलकुल उलटी है। वह कहता है बाहर से भीतर की तरफ। बाहर से भीतर की तरफ कभी कुछ नहीं जाता। बाहर से भीतर की तरफ कोई यात्रा नहीं है। बाहर से भीतर की तरफ सिर्फ भ्रम है, इलूजन है। करोड़ रुपये के ऊपर बैठा हुआ आदमी सिर्फ इस भ्रम में है कि मैं कुछ हो गया हूं। वह क्या हो गया है? दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया आदमी इस भ्रम में है कि मैं कुछ हो गया हूं। वह क्या हो गया है?

च्चांगत्सु एक मरघट से गुजरता था और एक आदमी की खोपड़ी उसके पैर से लग गई। रात थी अंधेरी। उसने उस खोपड़ी को उठा लिया और बहुत क्षमा मांगने लगा। क्योंकि वह मरघट छोटे लोगों का मरघट न था वह बड़े लोगों का मरघट था। मरघट भी अलग—अलग हैं छोटे और बड़े लोगों के। जैसे मृत्यु के बाद भी कोई हिसाब रखा जा सकता है कि कौन था बड़ा, कौन था छोटा! लेकिन चूंकि जिंदा आदमी मरघट बनाते हैं, इसलिए अपनी जिंदगी की जो नासमझिया हैं वे मरघट तक भी ले जाते हैं।

वह मरघट था बड़े लोगों का, शाही खानदान के लोगों का, राजाओं का, सम्राटों का। च्चांगत्सु फकीर घबड़ा गया। उस खोपड़ी को घर ले आया, रख कर उसके हाथ—पैर जोड्ने लगा कि मुझे क्षमा कर दो! उसके मित्र इकट्ठे हो गए और कहने लगे, पागल हो गए हो! इस खोपड़ी से क्षमा क्यों मांगते हो?

च्चांगत्सु कहने लगा यह बड़े आदमी की खोपड़ी है। यह सिंहासन पर बैठ चुकी खोपड़ी है। और मैं क्षमा मांगता हूं अगर कहीं यह आदमी आज जिंदा होता और मेरा पैर इसके सिर में लग जाता तो मेरी बड़ी मुसीबत थी। यह तो सौभाग्य समझो कि यह आदमी जिंदा नहीं है। लेकिन क्षमा तो मांग लेनी चाहिए।

वे लोग कहने लगे तुम बड़े पागल हो। लेकिन वह च्चांगत्सु कहने लगा कि मैं पागल नहीं हूं। मैं इस मरे हुए आदमी से कहना चाहता हूं कि पागल! जिस खोपड़ी को तू सोचता था कि सिंहासन पर है, वह लोगों की ठोकरें खाएगी, एक फकीर की ठोकर भी खाएगी और उफ् भी नहीं कर सकेगी और यह भी नहीं कह सकेगी कि यह क्या किया? जानते नहीं, मैं कौन हूं? कहां गई वह तेरी अकड़ कि तू सिंहासनों पर था? कहां गए वे खयाल कि करोड़ों रुपये तेरे पैर के नीचे हैं? यही थी खोपड़ी, यही थी हड्डी, यही सब—कुछ था, लेकिन यह सब क्या हो गया!

अशोक के जीवन में मैंने पढ़ा है, गांव में एक भिक्षु आता था। अशोक गया और उस भिक्षु के चरणों में सिर रख दिया। अशोक के बड़े आमात्य, वह जो बड़ा वजीर था अशोक का, उसे यह अच्छा नहीं लगा। अशोक जैसा सम्राट गांव में भीख मांगते एक भिखारी के पैरों पर सिर रखे! बहुत……घर लौटते ही, महल लौटते ही उसने कहा कि नहीं सम्राट, यह मुझे ठीक नहीं लगा। आप जैसा सम्राट, जिसकी कीर्ति शायद जगत में कोई सम्राट नहीं छू सकेगा फिर, वह एक साधारण से भिखारी के चरणों पर सिर रखे!

अशोक हंसा और चुप रह गया। महीने भर, दो महीने बीत जाने पर उसने बड़े वजीर को बुलाया और कहा कि एक काम करना है। कुछ प्रयोग करना है, तुम यह सामान ले जाओ और गांव में बेच आओ। सामान बड़ा अजीब था। उसमें बकरी का सिर था, गाय का सिर था, आदमी का सिर था, कई जानवरों के सिर थे और कहा कि जाओ बेच आओ बाजार में।

वह वजीर बेचने गया। गाय का सिर भी बिक गया और घोड़े का सिर भी बिक गया, सब बिक गया, वह आदमी का सिर नहीं बिका। कोई लेने को तैयार नहीं था कि इस गंदगी को कौन लेकर क्या करेगा? इस खोपड़ी को कौन रखेगा? वह वापस लौट आया और कहने लगा कि महाराज! बड़े आश्चर्य की बात है, सब सिर बिक गए हैं, सिर्फ आदमी का सिर नहीं बिक सका। कोई नहीं लेता है।

सम्राट ने कहा कि मुफ्त में दे आओ। वह वजीर वापस गया और कई लोगों के घर गया कि मुफ्त में देते हैं इसे, इसे आप रख लें। उन्होंने कहा. पागल हो गए हो! और फिंकवाने की मेहनत कौन करेगा? आप ले जाइए। वह वजीर वापस लौट आया और सम्राट से कहने लगा कि नहीं, कोई मुफ्त में भी नहीं लेता।

अशोक ने कहा कि अब मैं तुमसे यह पूछता हूं कि अगर मैं मर जाऊं और तुम मेरे सिर को बाजार में बेचने जाओ तो कोई फर्क पड़ेगा? वह वजीर थोड़ा डरा और उसने कहा कि मैं कैसे कहूं क्षमा करें तो कहूं। नहीं, आपके सिर को भी कोई नहीं ले सकेगा। मुझे पहली दफा पता चला कि आदमी के सिर की कोई भी कीमत नहीं है।

उस सम्राट ने कहा, उस अशोक ने कि फिर इस बिना कीमत के सिर को अगर मैंने एक भिखारी के पैरों में रख दिया था तो क्यों इतने परेशान हो गए थे तुम।

आदमी के सिर की कीमत नहीं, अर्थात आदमी के अहंकार की कोई भी कीमत नहीं है। आदमी का सिर तो एक प्रतीक है आदमी के अहंकार का, ईगो का। और अहंकार की सारी चेष्टा है भीतर लाने की और भीतर कुछ भी नहीं जाता—न धन जाता है, न त्याग जाता है, न शान जाता है। कुछ भी भीतर नहीं जाता। बाहर से भीतर ले जाने का उपाय नहीं है। बाहर से भीतर ले जाने की सारी चेष्टा खुद की आत्महत्या से ज्यादा नहीं है, क्योंकि जीवन की धारा सदा भीतर से बाहर की ओर है।

करुणा भीतर से बाहर की तरफ बहेगी। प्रेम भीतर से बाहर की तरफ बहेगा। इसलिए जीवन का सूत्र सदा है बांटना, देना, लुटा देना, फैल जाना। और मृत्यु का सूत्र है सिकुड़ जाना, इकट्ठा कर लेना, बांध लेना। हमारा तो प्रेम भी कहता है कि आओ, हमारा तो प्रेम भी कहता है कि मिलो, दो मुझे प्रेम।

घर—घर में मैं ठहरता हूं। लाखों लोगों से मेरे निजी और व्यक्तिगत संबंध हैं और हर आदमी को मैं एक ही तकलीफ में पाता हूं। उसकी तकलीफ एक शब्द में कही जा सकती है। हर आदमी, हर स्त्री, हर पुरुष, हर पत्नी, पति, बाप, बेटा, मां एक ही बात मुझे घर—घर, गांव—गांव में कहता हुआ मालूम पड़ता है कि मुझे कोई प्रेम नहीं देता है। पत्नी कहती है मुझे पति प्रेम नहीं देता, पति कहता है पत्नी मुझे प्रेम नहीं देती, मां कहती है बेटा मुझे प्रेम नहीं देता, बेटा कहता है कि पिता मेरी कोई फिकर नहीं करता, कोई प्रेम नहीं दे रहा है। बड़े मजे की बात है हर आदमी यह कहता है, कोई मुझे प्रेम नहीं देता और कोई भी यह नहीं सोचता कि प्रेम दिया नहीं जाता। कोई देगा नहीं प्रेम, प्रेम तुम्हें देना पड़ेगा।

प्रेम बांटने की कला है। हम धन की तरह प्रेम भी मांगते हैं। और जो व्यक्ति जितना प्रेम बांटता है, उससे अनंतगुना उसे प्रेम उपलब्ध हो जाता है। प्रेम आता है, मांगा नहीं जाता। वह दिए गए प्रेम में सहज पुरस्कार की तरह लौट आता है। वह दिए गए प्रेम की सहज प्रतिध्वनि है।

करुणा का अर्थ है देना, दान। धन का नहीं, क्योंकि धन को देकर जो समझते हैं कि दानी हो गए, वे पागल हैं। जो आपका था ही नहीं, उसे देकर कोई कभी दानी नहीं हो सकता। वह आप न भी देते तो छूट जाता। सिर्फ उस बात को देकर आप दानी होते हैं जो आपका है। क्या है आपका? अपने को देकर ही कोई दानी होता है, उसके अतिरिक्त कोई कभी दानी नहीं होता।

प्रेम का अर्थ है अपने को दे देना। करुणा का अर्थ है अपने को दे देना। और यह जो दे देना है, यह जो अपने को बांट देना है, यह जो बहाव है भीतर की तरफ से बाहर, इसके क्या चरण होंगे? यह कैसे धीरे— धीरे टूटेगा और बहेगा?

थोड़े से कदम इसके बाबत उठाए जाएं तो धारा की संभावना टूट पड़ने की हो जाती है। बहुत सचेत होना पड़ेगा, क्योंकि हमारी मांग मांगने की और संग्रह की है, और करुणा कभी भी संग्रह से पैदा नहीं होती, वे विरोधी यात्राएं हैं। हमारी आदत सदा बाहर से भीतर ले जाने की है, इसलिए जो भीतर हमारे मौजूद है वह हम बाहर नहीं पहुंचा पाते। उसे थोड़ा सचेत होकर नई आदत को जन्म देना होगा।

यहां बैठे हैं हम, आप मुझे देख रहे हैं, सुन रहे हैं। यह सुनना दो तरह का हो सकता है। यह सुनना ऐसा हो सकता है कि मैं जो कह रहा हूं उसको आप संग्रह कर सकते हैं। तब वह अहंकार को ही मजबूत करेगा। आप इस शिविर से ज्यादा ज्ञानी, थोड़े ज्यादा ज्ञानी होकर वापस लौट जाएंगे, आप कुछ बातें सीख कर लौट जाएंगे। और वे सीखी हुई बातें आप दूसरों को बताने में रस और आनंद लेने लगेंगे। अगर इस भांति आप सुन रहे हैं तो वह सुनना भी आपके अहंकार को ही मजबूत करने की व्यवस्था है।

लेकिन नहीं, आप इस भांति भी सुन सकते हैं कि जब आप सुन रहे हैं तब मुझसे ही कुछ आपकी तरफ नहीं जा रहा है, आपकी तरफ से भी मेरी तरफ कुछ आ रहा है। आपका प्रेम, आपकी करुणा वहां से बहती हुई मेरे पास भी आ सकती है। एक करुणापूर्ण, एक प्रेमपूर्ण भाव—दशा में भी सुना जा सकता है।

एक वृक्ष को आप देख रहे हैं या सागर को, तो आप ऐसे भी देख सकते हैं कि सिर्फ देख रहे हैं और ऐसे भी कि आपकी आंखों से आपके प्राणों की कोई भावधारा भी उस वृक्ष तक जाए; उसे छुए, उसे नहला दे और तब यह देखना बिलकुल दूसरी तरह का देखना हो जाएगा। तब यह करुणापूर्ण हो जाएगा।

रास्ते पर आप चलते हैं। एक—एक पत्थर पर पैर रखते समय इतना प्रेमपूर्ण हुआ जा सकता है, इतना अनुगृहीत, इतनी ग्रेटिटयूड से भरा जा सकता है कि उस पत्थर तक भी आपके प्राणों का संदेश पहुंच जाए। एक वृक्ष को छूते समय, एक आदमी का हाथ हाथ में लेते समय, किसी को गले लगाते समय आप पूरे के पूरे बह सकते हैं। आप पूरी तरलता में, आपके सारे रग—रग, रेशे—रेशे से, कण—कण से कोई चीज बह सकती है और उस व्यक्ति को पूरा घेर सकती है।

इस पर तो थोड़े प्रयोग करेंगे तो ही यह हो सकेगा, क्योंकि बहने की हमारी कोई आदत नहीं है, बहने की हमें जन्मों से आदत नहीं है।

न मालूम कितने जन्मों से हमने सिर्फ रोकने का अभ्यास किया है, बहने का अभ्यास नहीं किया। बहाव हमारे भीतर नहीं है। हमारा व्यक्तित्व जड़ हो गया है, कठोर हो गया है, रुक गया है। हम पत्थर हो गए हैं। इस बहाव को तोड्ने के लिए कुछ चेष्टा करनी भी जरूरी है। क्या करेंगे इस चेष्टा में? कैसे यह बहाव हो सकता है?

अभी यहां आप बैठे हैं, अभी इसी क्षण शुरू हो सकती है बात। मेरे शब्द आप तक जा रहे हैं, आपका प्रेम मुझ तक लौटना चाहिए। आप सुन सकते हैं। आप जुड़ सकते हैं इस बोलने में भी। यह सुनसान जगह, यह आपके बहते हुए प्रेम से भर सकती है।

मैंने सुना है, एक कवि था, रिल्के। जिन लोगों ने रिल्के को कपड़े भी पहनते देखा है वे कहते थे कि हम हैरान हो जाते थे। जिन लोगों ने उसे खाना खाते देखा है वे कहते थे हम हैरान हो जाते हैं। जिन लोगों ने रिल्के को जूते पहनते देखा है वे कहते थे वह अदभुत थी घटना—यह देखना कि वह कैसे जूते पहन रहा है! वह तो ऐसे जूते पहनता था जैसे जूते भी जीवित हों, वह तो उनके साथ ऐसे व्यवहार करता था जैसे वे मित्र हों। वह कपड़े पहनता तो वह यह ही नहीं पूछता था कि कौन सी कमीज मुझे अच्छा लगेगा। वह कमीज से यह भी पूछता कि क्या इरादे हैं, मैं तुम्हें अच्छा लगूंगा? वह कोट भी ऊपर डालता तो कोट से भी पूछता, क्या खयाल है, चल सकूंगा मैं तुम्हारे साथ?

यह तो कभी हमने सोचा भी न होगा? हमने यह बात कई बार सोचा है दर्पण के सामने खड़े होकर कि यह कोट चल सकेगा मेरे साथ, क्योंकि कोट है मुर्दा, हम हैं जिंदा; कोट को हमारे साथ चलना है। लेकिन रिल्के को लोगों ने सुना है, आईने के सामने खड़ा है और पूछ रहा है कि दोस्त चल सकूंगा मैं तुम्हारे साथ? जूता उतार रहा है तो उसे पोंछ रहा है। उसे, जूते को रखा है तो उसे धन्यवाद दिया है कि तुम्हारी कृपा! दो मील तक तुम मेरे साथ थे। दो मील तक तुमने मेरी सेवा की है और उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं।

पागल आदमी मालूम होगा हमें। निश्चित ही पागल मालूम होगा, क्योंकि हम सब इतने कठोर हैं कि प्रेम की तरलता हमें पागलपन ही मालूम हो सकती है और कुछ हमें मालूम नहीं हो सकता है। लेकिन यह सवाल भी नहीं है कि इससे जूते को कुछ फायदा हो गया होगा कि नहीं हो गया होगा, कि कोट ने सुना होगा कि नहीं सुना होगा। यह इररिलेवेंट है, यह असंगत है।

लेकिन जो आदमी कोट और जूते और पत्थर और दरवाजे के प्रति भी इतना सदय, इतना करुणापूर्ण, इतना अनुग्रह से भरा हुआ है, यह आदमी दूसरा आदमी हो गया है। इस आदमी से किसी आदमी के प्रति कठोर होने की संभावना हो सकती है? यह असंगत है बात कि कोट ने सुना कि नहीं सुना। मैं तो यही मानता हूं कि कोट भी सुनता है, लेकिन मेरी बात मानने की कोई जरूरत नहीं है।

लेकिन यह आदमी, यह व्यक्ति, यह जो इतना प्रेमपूर्ण है, इतना करुणापूर्ण है, यह जो इतना धन्यवाद से भरा हुआ है जूते के प्रति भी, यह आदमी इस व्यवहार से रूपांतरित हो रहा है। यह आदमी बदल रहा है, यह आदमी दूसरी तरह का आदमी हो जाएगा।

यह आदमी कठोर हो सकता है? यह आदमी हिंसक हो सकता है? यह आदमी क्रोध से देख भी सकता है आंख उठा कर? यह असंभव है। और इस आदमी में बहाव होगा, इस आदमी की चेतना एक तरल सरिता बन जाएगी। निश्चित ही ऐसे आदमी को देखना भी एक अनुभव है। लेकिन हमें वह आदमी पागल ही मालूम होगा।

हम सब इतने बुद्धिमान हैं अपनी कठोरता में कि प्रेम सदा ही पागलपन मालूम पड़ेगा। लेकिन अगर तोड़ना है कभी तो थोडा पागल होना जरूरी है, प्रेम की दिशा में थोड़ा पागल होना जरूरी है, करुणा की दिशा में थोड़ा पागल होना जरूरी है।

एक जर्मन विचारक था, हेरिगेल। वह जापान गया हुआ था। एक फकीर से मिलने गया। जल्दी में था, जाकर जूते उतारे, दरवाजे को धक्का दिया, भीतर पहुंचा। उस फकीर को नमस्कार किया और कहा कि मैं जल्दी में हूं। कुछ पूछने आया हूं।

उस फकीर ने कहा बातचीत पीछे होगी। पहले दरवाजे के साथ दुर्व्यवहार किया है उससे क्षमा मांग कर आओ। वे जूते तुमने इतने क्रोध से उतारे हैं। नहीं—नहीं, यह नहीं हो सकता है। यह दुर्व्यवहार मैं पसंद नहीं कर सकता। पहले क्षमा मांग आओ, फिर भीतर आओ, फिर कुछ बात हो सकती है। तुम तो अभी जूते से भी व्यवहार करना नहीं जानते, तो तुम आदमी से व्यवहार कैसे करोगे?

वह हेरिगेल तो बहुत जल्दी में था। इस फकीर से दूर से मिलने आया था। यह क्या पागलपन की बात है। लेकिन मिलना जरूर था और यह आदमी अब बात भी नहीं करने को राजी है आगे।

तो मजबूरी में उसे दरवाजे पर जाकर क्षमा मांगनी पड़ी उस द्वार से, क्षमा मांगनी पड़ी उन जूतों से। लेकिन हेरिगेल ने लिखा है कि जब मैं क्षमा मांग रहा था तब मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसा जीवन में कभी भी नहीं हुआ था। जैसे अचानक कोई बोझ मेरे मन से उतर गया। जैसे एक हलकापन, एक शांति भीतर दौड़ गई। पहले तो पागलपन लगा, फिर पीछे मुझे खयाल आया कि ठीक ही है। इतने क्रोध में, इतने आवेश में; मैं हेरिगेल को समझता भी क्या, सुनता भी क्या?

फिर लौट कर आकर वह हंसने लगा और कहने लगा, क्षमा करना, पहले तो मुझे लगा कि यह निहायत पागलपन है कि मैं जूते और दरवाजे से क्षमा मांग। लेकिन फिर मुझे खयाल आया कि जब मैं जूते और दरवाजे पर नाराज हो सकता हूं क्रोध कर सकता हूं तो क्षमा क्यों नहीं मांग सकता हूं?

अगर करुणा की दिशा में बढ़ना है तो सबसे पहले हमारे आस—पास जिसे हम जड़ कहते हैं उसका जो जगत है, यद्यपि जड़ कुछ भी नहीं है, लेकिन हमारी समझ के भीतर अभी जो जड़ मालूम पड़ता है, उस जड़ से ही शुरू करना पड़ेगा। उस जड़ जगत के प्रति ही करुणापूर्ण होना पड़ेगा, तभी हमारी जड़ता टूटेगी। उससे कम में हमारी जड़ता नहीं टूट सकती।

हम हो गए हैं जड़। और जड़ के प्रति करुणापूर्ण होकर ही हम अपनी जड़ता को तोड़ सकेंगे। उसके बिना हम अपनी जड़ता को नहीं तोड़ सकेंगे। वह जो जड़ दिखाई पड़ता है—एक पत्थर पड़ा हुआ है, उस पर आप घंटे भर बैठे हैं, आपने खयाल भी किया था कि आप एक पत्थर पर घंटे भर बैठे हैं? नहीं, स्मरण भी नहीं है। आप इस रेत पर बैठे हैं, तीन दिन इन सरू के वृक्षों के पास होंगे, इस समुद्र के निकट, लौटते वक्त आप धन्यवाद दे जाएंगे इस जगह को कि भूल जाएंगे, चल पड़ेंगे बस! क्या सोचेंगे सरू के वृक्ष कि कैसे लोग थे! क्या कहेगा समुद्र कि कैसे थे लोग! तीन दिन तक पास थे, उनके लिए गर्जन किया, नाचा और लौटते वक्त वे धन्यवाद भी नहीं दे गए! क्या कहेगी यह पूरी पृथ्वी, जब आप जीवन से विदा होंगे! क्या कहेगा यह पूरा जीवन! क्या कहेगा सूरज, क्या कहेंगी हवाएं कि सत्तर वर्ष तक प्राण दिए और जाते वक्त इस आदमी ने धन्यवाद भी न दिया!

संत फ्रांसिस मर रहा था। मरते वक्त एक—एक चीज को धन्यवाद देने लगा। जिस गधे पर बैठ कर उसने यात्रा की थी अनेक बार, उस गधे के पास पहुंच गया। उठने में भी तकलीफ थी उसे। मित्रों ने कहा. यह क्या करते हो? उसने कहा कि नहीं—नहीं, यह ठीक न होगा कि जो गधा मुझे जीवन भर अनेक—अनेक यात्राओं पर ले गया, उसके लिए मरते वक्त चार कदम चल कर मैं धन्यवाद देने न जाऊं, मुझे जाना पड़ेगा।

वह गया है, लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई है। वह गधे को हृदय से लगाए हुए है और कह रहा है कि क्षमा कर देना, न मालूम कितनी बार कठोर हो गया था, न मालूम कितनी बार अपशब्द तुझसे कहे होंगे, न मालूम कितनी बार तुझे तब चलाया होगा जब तुझमें चलने की सामर्थ्य भी न थी। न मालूम कितनी—कितनी यात्राओं में कितनी—कितनी भूलें हो गई होंगी। उनका हिसाब रखना मुश्किल है। सबके लिए क्षमा मांगता हूं। और बड़े मित्रों में से एक तू मेरा मित्र था, मौन था, सदा साथ था। कभी इनकार नहीं किया, कभी झगड़ा नहीं किया और आज मैं विदा हो रहा हूं। तो आज तुझसे क्षमा मांगता हूं। मुझे क्षमा कर देना!

लोग कहने लगे कि मालूम होता है संत फ्रांसिस का दिमाग आखिर—आखिर में खराब हो गया। यह क्या कर रहे हैं! वह अपने डंडे को भी धन्यवाद देने लगा जिसे हाथ में लेकर चला था।

हमें पागल मालूम होगा। लेकिन मैं आपसे कहता हूं ऐसे पागल ही परमात्मा के निकट पहुंचने में समर्थ होते हैं और दूसरे नहीं। क्योंकि जिनकी इतनी करुणा है, इतना प्रेम है, जिनके हृदय में इतना अनुग्रह का भाव है उनके हृदय का पत्थर टूट जाएगा इस चोट से। पत्थर टूट जाएगा और धारा बह पड़ेगी। निश्चित ही करुणा बहुत सबल है। एक बार फूट पड़े पत्थर तो वह बह जाएगी सागर तक।

लेकिन हम तो पत्थर को ही मजबूत किए चले जाते हैं और नये सीमेंट—कांक्रीट ईजाद करते हैं और पत्थर को मजबूत किए जाते हैं। धीरे— धीरे करुणा का वह स्रोत भीतर ही बंद रह जाता है।

हमने क्यों इतने यह पत्थर और कांक्रीट और इर्ट लगा कर दीवाल बनाई है?

एक है कारण। आदमी बहुत भयभीत है, इसलिए अपने को बांटने में और बहाने में डरता है।

एक मित्र के घर में कुछ दिन तक मैं रहा था। मैं देख कर हैरान हुआ। वे अपने नौकरों से कभी सीधी आंख करके बात भी नहीं करते थे। कोई घर में मिलने आए तो वे नमस्कार का उत्तर भी सोच कर ही देते थे। मैंने उनसे पूछा कि बात क्या है? वे कहने लगे कि अगर ठीक से बोलो, प्रेमपूर्ण व्यवहार करो, तो झंझटें पैदा होनी शुरू होती हैं। रास्ते पर एक आदमी नमस्कार करता है, अगर प्रेम से नमस्कार कर लो, पंद्रह दिन बाद निश्चित है कि वह आदमी आएगा कि सौ रुपये की जरूरत है। वह झंझट की बात है। झंझट आगे बढ़ानी नहीं है। किसी से संबंधित होना, फिर आगे झंझटें आनी शुरू होती हैं। उन्होंने कहा मैंने तो जीवन का नियम बना रखा है कि सिर्फ उनसे बात करनी है जिनसे एकदम जरूरी हो, सिर्फ उनसे संबंध बनाना है जिनसे आगे कोई भय न हो।

मनुष्य भयभीत है संबंधित होने में। क्योंकि हर नया संबंध नई संभावनाएं लेकर आता है। एक वृक्ष से भी दोस्ती करनी बड़ी कठिन बात है, क्योंकि वृक्ष से भी दोस्ती करनी, एक वृक्ष से भी प्रेम बनाना एक नई केयर, एक नई हिफाजत को जन्म देना है।

एक मित्र से मैं ये बातें कर रहा था। वे कहने लगे, आप क्या कहते हैं, मैं ऐसी एक झंझट में पड़ गया हूं। एक वृक्ष था अमलतास का। वे मित्र एक बंगले को नया—नया लिए थे। वह वृक्ष बिलकुल सूख गया था। वह वर्षों से सूखा हुआ था। उसमें न फूल आते थे, न पत्ते आते थे। वह एक मुर्दा वृक्ष खड़ा हुआ था। उन मित्र ने कहीं किसी किताब में पढ़ा था कि अगर वृक्ष को, सूखे वृक्ष को व्यवस्था से नीचे से काटा जा सके तो उसमें नये अंकुर आ सकते हैं।

उन्होंने आरी उठा कर एक दिन सुबह उस वृक्ष को काट डाला। वृक्ष कट कर गिर गया। सिर्फ छोटा सा ठूंठ नीचे रह गया। रात उन्हें चिंता होने लगी कि मुझे काटने का, कहां से काटना चाहिए इसका तो कुछ पता नहीं। मैं कोई माली नहीं। मैं कुछ जानता नहीं। कहीं मैंने गलत जगह से तो नहीं काट दिया उस वृक्ष को? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसमें अंकुर अब नहीं आएगा? और तब रात भर वे सो नहीं सके। करवट बदलते रहे, सो नहीं सके।

सुबह वे मुझसे बोले कि मैं एक झंझट में पड़ गया हूं। एक वृक्ष से दोस्ती कर ली और मुश्किल आ गई। एक वृक्ष था मेरे द्वार पर, सूखा था। मैंने किसी किताब में पढ़ा कि वृक्ष को बिलकुल नीचे से काटा जाए ढंग से तो उसमें नया अंकुर आ सकता है। मैंने आरी उठा कर काट डाला। अब रात भर से मैं चिंतित हूं कि मुझे पता नहीं, कहां से काटना चाहिए था कि उसमें नया अंकुर आ सके। उसमें अंकुर आएगा कि नहीं आएगा? कम से कम वह था तो, सूखा ही सही।

वह सूखा भी बहुत शानदार था। और जब चांदनी आती थी तो उसकी सूखी शाखाएं भी आकाश में एक गीत बन जाती थीं। और जब सूरज नाचता था तो उसकी सूखी शाखाओं पर भी एक मोहिनी छा जाती थी। अब भी कभी कोई पक्षी उस सूखे वृक्ष पर आकर बैठता था और गीत गाता था। मैंने उसे काट डाला। पता नहीं उसमें अंकुर आएगा कि नहीं!

वे तीन महीने तक कितने बेचैन और परेशान थे। मैंने उन्हें कहा. बड़ा शुभ है। वृक्ष में अंकुर आएगा कि नहीं, उसकी मुझे उतनी फिकर नहीं, लेकिन तुम्हारे जीवन में एक नया अंकुर आया, उससे मैं बहुत खुश हूं। अच्छा हुआ तुमने वृक्ष काटा। यह तीन महीने वृक्ष के लिए चिंता का क्षण, यह तीन महीने वृक्ष के लिए संताप, यह तीन महीने वृक्ष के लिए पश्चात्ताप, यह तीन महीने वृक्ष के लिए इतना आतुर निवेदन, यह तीन महीने वृक्ष के लिए इतनी गहरी प्रार्थना—न आए वृक्ष में अंकुर, कोई फिकर नहीं! तुम्हारे भीतर एक अंकुर आ गया, एक कंपेशन, एक करुणा, एक प्रेम, और वह बड़ी बात है।

और ऐसा कैसे हो सकता था कि उस वृक्ष में इतने प्रेम से अंकुर न आते, उसमें अंकुर आ गए। अब वह वृक्ष हरा हो गया है। अब उस पर पत्ते आ गए। अब उस पर फूल खिलने लगे। लेकिन उस वृक्ष से भी बड़ा अनुभव, एक बड़ा एक्सपीरिएंस उन मित्र के जीवन में हो गया। उन्होंने एक वृक्ष से प्रेम किया है!

चारों तरफ जो विराट जगत है उसे हम तीन हिस्से में बांट सकते हैं। वह बंटा हुआ नहीं है। वह बांटना सिर्फ कामचलाऊ है। जिंदगी कहीं भी बंटी हुई नहीं है। जिंदगी एक अनंत इकट्ठी धारा है, लेकिन हम काम के लिए तीन हिस्सों में तोड़ सकते हैं।

एक जड़ जगत है। हमें जड़ मालूम होता है, क्योंकि चेतना इतनी प्रसुप्त है उसमें कि जब तक हम उतनी गहराई तक न उतरें, तब तक उसकी चेतना हमें दिखाई नहीं पड़ेगी। सबसे पहले जड़ जगत के प्रति अपने प्रेम, अपनी करुणा, अपने कंपेशन को विकसित करना जरूरी है।

फिर उसके बाद पौधों का, पशुओं का जगत है—जीवत— लेकिन सचेतन नहीं। फिर उस जगत के प्रति प्रेम और करुणा को विकसित करना जरूरी है।

फिर मनुष्यों का जगत है। फिर उस मनुष्यों के जगत के प्रति प्रेम को विकसित करना जरूरी है।

लेकिन यात्रा का प्रारंभ जड़ जगत से शुरू होना चाहिए, क्योंकि जो जड़ को प्रेम कर पाएगा वह अनिवार्यरूपेण पौधों को, पशुओं को प्रेम कर पाएगा। जो पौधों और पशुओं को प्रेम कर पाएगा वह मनुष्यों को प्रेम कर पाएगा। लेकिन यात्रा वहां से शुरू होनी चाहिए और एक—एक पल खोने की जरूरत नहीं है।

जीवन में जो भी पल मिल जाए और जितना हम करुणापूर्ण और जितने प्रेमपूर्ण हो सकें उसकी सतत चेष्टा चलनी चाहिए। बहुत श्रम की जरूरत है, क्योंकि धारा अनंत जन्मों से रुकी है, बहुत तोड्ने पड़ेंगे पत्थर तब वह बहेगी। लेकिन जरा सा भी प्रयास शुरू हो जाए और जरा सी भी झलक करुणा की बहनी शुरू हो जाए तो वह इतनी आंनदपूर्ण है, वह इतनी फलदायी है, वह इतना अनुभव है गहरा कि फिर उसको तोड्ने के लिए जो श्रम करना पडेगा वह श्रम जरा भी श्रम नहीं मालूम पड़ता है।

करुणा की यह धारा बाहर तक बहने लगे—उठते, बैठते, सोते, जागते, चलते। जीवन का प्रतिपल, जीवन का प्रतिक्षण करुणा की एक अबाध प्रतिध्वनि बन जाए, एक गज बन जाए, एक गीत बन जाए, तो ही कोई व्यक्ति परमात्मा के मंदिर के पहले द्वार पर प्रविष्ट होता है।

नहीं, अपने को बांध—बांध कर, रोक—रोक कर रखना ठीक नहीं है। तोड़ दें, सब द्वार तोड़ दें।

एक सम्राट था, उसने एक महल बना लिया था। और उस महल में एक ही दरवाजा रखा था, कोई चोर न घुस जाए, कोई डाकू न आ जाए, कोई हत्यारा न आ जाए। पड़ोस का एक सम्राट उसके महल को देखने आया था। देख कर बहुत खुश हुआ था और कहा था, मैं भी ऐसा ही महल बनाना चाहूंगा। तुमने मुझमें ईर्ष्या जगा दी। अदभुत बनाया है तुमने यह, इतना सुरक्षित! एक ही द्वार है, उस द्वार पर हजार पहरेदार हैं और सारे भवन में कोई दूसरा द्वार नहीं है।

सम्राट ने कहा अब कोई भय नहीं रहा, न कोई हत्यारा आ सकता है, न कोई चोर, न कोई डाकू, न कोई दुश्मन। मैं बिलकुल सुरक्षित हो गया हूं।

वे महल के द्वार पर खड़े होकर यह बात करते थे। एक भिखारी जो वहीं भीख मांगा करता था, वह बैठा— बैठा जोर से हंसने लगा। सम्राट नाराज हुआ, उसने कहा कि पागल! तू क्यों हंस रहा है, क्या बात है?

वह भिखारी कहने लगा महाराज! आपने पूछ ही लिया तो कहे देता हूं। जब से यह महल बनता है, मुझे लगता है, एक भूल इसमें रह गई। सम्राट ने कहा कौन सी भूल?

उसने कहा : एक ही भूल रह गई है। यह एक दरवाजा और आप बंद करवा लें तो फिर आप बिलकुल सुरक्षित हो जाएंगे, फिर कोई भय नहीं रहेगा, फिर सिक्योरिटी पूरी हो जाएगी, फिर तो मौत भी नहीं घुस सकेगी अंदर। अभी खतरा एक है, यह दरवाजा खतरनाक है। चोर नहीं घुसेंगे, हत्यारे नहीं घुसेंगे, दुश्मन नहीं घुसेंगे, लेकिन मौत का क्या होगा? मौत घुस जाएगी इससे, काफी जगह है इसमें और वह आपको ले जाएगी। आप कृपा करें, भीतर हो जाएं, यह दरवाजा भी बंद कर दें, फिर पहरेदारों की भी कोई जरूरत नहीं है। फिर कोई कभी नहीं घुस सकेगा, फिर आप बिलकुल निर्भय हो गए।

पर वह राजा कहने लगा. पागल! वह निर्भय होना होगा, वह तो मौत हो जाएगी, वह तो कब बन जाएगा महल।

वह फकीर कहने लगा : कब अभी भी बन गई है। एक दरवाजे से क्या फर्क पड़ता है? इतना तो आप मान गए कि अगर सब दरवाजे बंद हो जाएंगे तो यह कब हो जाएगी। एक दरवाजे से काफी कब हो गई है। यह भी आप मान गए कि अगर दरवाजे बिलकुल न हों, तो यह मकान पूरा जीवन होगा। अगर मकान बिलकुल ही न हो, तो परिपूर्ण जीवन होगा; क्योंकि मकान बिलकुल न हों, दरवाजे बिलकुल न हों, तो मौत हो जाती है। तो दरवाजे से जीवन और मौत का हिसाब है, वह फकीर कहने लगा।

तो वह फकीर कहने लगा वही तो कभी—कभी रात मैं सोचता हूं। अभी सुनी आपकी बात तो हंसने लगा। एक मैं भी हूं बैठा हूं इस द्वार पर। न कोई द्वार है, न कोई दरवाजा है—जीवत—लेकिन पूरा है। और आप भी मानते हैं। समझ गए आप कि एक और दरवाजा बंद हो तो मौत हो जाएगी।

जितनी सुरक्षा की हम कोशिश करते हैं उतने ही हम मर जाते हैं। जितने हम भयभीत होते हैं उतने ही हम बंद हो जाते हैं। नहीं, जीवन उनके लिए है जो भयभीत नहीं हैं, जीवन उनके लिए है जो असुरक्षा को वरण करने की तैयारी करते हैं, जो इनसिक्योरिटी में कूदने को राजी हैं।

धार्मिक मनुष्य मैं उसी को कहता हूं जो भय को छोड़ता है और असुरक्षा को वरण करता है। जो कहता है कि जीऊं—गा मैं, जो उसके भय होंगे स्वीकार करूंगा। जीऊं—गा मैं, जो होंगे खतरे उनका आलिंगन करूंगा। जीऊंगा मैं, होगा जो परिणाम होगा। मैं जीने को राजी हूं मैं मरने को नहीं। ऐसा आदमी ही करुणापूर्ण हो सकता है, क्योंकि करुणा एक ऐसे अज्ञात जगत में ले जाती है, ऐसे अंतर—संबंधों में जिनमें खतरे हो सकते हैं।

एक वृक्ष से दोस्ती तक करना खतरनाक है तो एक आदमी के प्रति करुणापूर्वक होना तो बहुत खतरा मोल लेना है, बड़ा कमिटमेंट है वह। वह बड़ी बात है। और उसी भय के कारण हम सब बंद हो गए हैं। उस भय के कारण कि पता नहीं क्या होगा। होने दें जो होगा। जीवन उन्हीं को मिलता है जो भयभीत नहीं हैं। जीवन उनको मिलता है जो असुरक्षा में कूदने को तत्पर हैं। जो पूर्ण असुरक्षा में कूद जाता है उसी को मैं संन्यासी कहता हूं।

ये थोड़ी सी बातें करुणा के संबंध में मैंने कहीं। इस संबंध में कुछ भी पूछना हो तो रात्रि की बैठक में आप पूछ सकेंगे।

अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे। उसके लिए दो बातें समझ लेना जरूरी हैं।

सुबह के ध्यान में, जैसे रात हम बैठे, नासाग्र—दृष्टि रखनी है। नाक का अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे, इतनी भर आंख खुली रहे। फिर शरीर को एकदम शिथिल और शांत करके बैठ जाना है। फिर मन में, सुबह के इस ध्यान में, एक तीव्र जिज्ञासा करनी है, एक जिज्ञासा करनी है—मैं कौन हूं? बहुत तीव्रता से, पूरी शक्ति से, पूरे संकल्प से अपने भीतर पूछना है कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछते ही चले जाना है। कोई उत्तर नहीं देना है अपनी तरफ से कि मैं आत्मा हूं। वे सब उत्तर झूठे हैं जो हमने सीख लिए। उत्तर को आने देना है। उत्तर अपने आप आएगा कभी। उसके पहले हमें सिर्फ पूछना है, पूछते चले जाना है, खोदते चले जाना है भीतर। मैं कौन हूं? इसको एक कुदाली बना लेनी है और खोदना है भीतर कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?

शांत पूछते चले जाना है कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? सारे प्राण में गंज पैदा हो जाए। भीतर की श्वास— श्वास पूछने लगे कि मैं कौन हूं? हृदय की धड़कन— धड़कन पूछने लगे कि मैं कौन हूं? सारा चित्त पूछने लगे कि मैं कौन हूं? पैर से लेकर सिर तक एक ही गंज कि मैं कौन हूं? यह इतनी तेज हो गज, यह इतनी शक्ति से भरी हो कि सारा प्राण कैंपने लगे कि मैं कौन हूं? बस एक ही पूछ रह जाए, एक ही प्रश्न, एक ही इंक्वायरी रह जाए, तो एक दिन भीतर से उत्तर आता है कि कौन है! तो एक दिन उत्तर आता है जो खोल देता है सारे द्वारों को, जो खोल देता है सारे पर्दों को और हम अपने समक्ष खड़े हो जाते हैं।

तो सुबह के इस ध्यान को जिज्ञासा का ध्यान बनाना है। तो हम बैठेंगे, फिर पूछेंगे, आंख आधी खुली होगी और भीतर पूछते चले जाएंगे। दस मिनट के लिए भीतर इस जिज्ञासा को तीव्रता से गुंजाना है। इतनी तीव्र हो यह जिज्ञासा कि जैसे पसीना आ जाए। सारा व्यक्तित्व पूरे प्राणों से जुट जाए।

जब पूरे प्राणों से हम जुटेंगे तभी जिज्ञासा गहरी होगी और भीतर तक उसकी चोट होगी। वह ऊपर ही गज बन कर न रह जाए, वह भीतर तक प्रविष्ट हो जाए। उसका पेनिट्रेशन चाहिए गहराई तक।

तो आप पर निर्भर है कि आप कितनी तीव्रता से यह जिज्ञासा करते हैं। जो जितनी तीव्रता से पूछेगा उतनी शीघ्रता से उत्तर के आने की संभावना है। उत्तर भीतर है। हमारी जिज्ञासा उस उत्तर तक नहीं पहुंच पाती है, इसलिए वह उत्तर हमें उपलब्ध नहीं होता है।

ब हम थोड़े— थोड़े फासले पर हो जाएंगे। कोई किसी को छूता हुआ न हो। और जमीन भी आप देख कर बैठें, वह ऐसी न हो कि उसमें आप परेशान हों। थोड़ी सी ठीक जगह पर बैठें जहां आपको तकलीफ न मालूम हो। हां, कोई बातचीत नहीं होगी, चुपचाप हट जाएं और बैठ जाएं।

मैं मान लूं कि आप बैठ गए हैं।

आधी आंख खुली हो, नाक का अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे इतने पलक खुले हों। फिर अपने को बिलकुल शांत और ढीला छोड़ दें। शांति से बैठ जाएं। शांत होते ही अपने भीतर तीव्रता से पूछना शुरू करें. मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछते ही चले जाएं। जैसे सागर की गर्जन है ऐसे ही भीतर एक गर्जन गूंजने लगे मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछते जाएं, पूछते जाएं तीव्रता से, पूरे प्राणों से। जरा भी शक्ति खाली न छोड़े, पूरी शक्ति लगा दें कि मैं कौन हूं? बस एक ही प्रश्न. मैं कौन हूं? एक ही जिज्ञासा मैं कौन हूं? एक ही आतुर प्यास कि मैं कौन हूं?

अब पूछें मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। अब आप पूछें. मैं कौन हूं?……पूछते चले जाएं……सारी शक्ति लगा दें……पूछें : मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…

पूछें, तीव्रता से पूछें मैं कौन हूं?……पूछते चले जाएं—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूरी शक्ति से, पूरे प्राणों से……मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछें मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछते—पूछते ही मन बिलकुल शांत हो जाएगा……पूछें, पूछते ही चले जाएं……पूछते—पूछते ही मन बिलकुल शांत हो जाएगा। प्रश्न ही रह जाएगा और सब मिट जाएगा। पूछें मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……एक गहरी शांति भीतर उतरने लगेगी……प्रश्न ही रह जाएगा और सब शांत हो जाएगा। एक गहरी शांति भीतर उतरने लगेगी……प्रश्न ही रह जाएगा और सब शांत हो जाएगा। जरा भी भय न करें, पूछें. मैं कौन हूं?… और जो होता है होने दें। आंसू बहे बह जाने दें, रोकें नहीं। रोना आए आ जाने दें, रोकें नहीं। पूछें तीव्रता से मैं कौन हूं?……सारे प्राण कंप जाएं……मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछें, आंसू आते हों आने दें, बह जाने दें। पूछें तीव्रता से मैं कौन हूं?… अपने को छोड़ दें……पूछते रहें— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……एक ही गूंज रह जाए भीतर—मैं कौन हूं?……मन शांत होता जाएगा……मन एक गहरी शांति में उतर जाएगा…।

पूछें, तीव्रता से पूछें—मैं कौन हूं?……सारी शक्ति लगा कर पूछें—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?.. छोड़ दें अपने को……पूछते चले जाएं—मैं कौन हूं?……गहरे से गहरे यह प्रश्न उतर जाए प्राणों में—मैं कौन हूं?… और मन शांत होता जाएगा……मन बिलकुल शांत हो जाएगा…।

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……मन शांत हो गया है……मन बिलकुल शांत हो गया है……मन बिलकुल हलका होकर बाहर आ जाएगा। अभी जब हम उठेंगे तो मन बिलकुल हलका हो जाएगा। बिलकुल दूसरा हो जाएगा।

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……बस यह एक ही लहर की तरह गूंजती हुई बाहर— भीतर टकराने लगे—मैं कौन हूं?……जैसे सागर की लहरें तट से टकराती हैं। एक ही प्रश्न टकराने लगे— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……एक दो मिनट और आखिरी जोर से अपने से पूछें मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…

अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें… धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें… धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……फिर बहुत आहिस्ता से आंख खोलें…।

सुबह की बैठक पूरी हुई।

दोपहर एक घंटे का जो मौन का प्रयोग होना है उसमें अच्छा होगा कि आप स्नान करके, नये कपड़े पहन कर, ताजे कपडे पहन कर, बिलकुल हलके और ताजे और पवित्र होकर यहां आएं। और आने के पहले से ही बिलकुल भूमिका मन की बना कर आएं चुप, मौन की। और यहां तो फिर कोई बात नहीं होगी। घंटे भर मेरे साथ चुपचाप बैठना है और प्रतीक्षा करनी है कि उस मौन में क्या हो सकता है।

 

सुबह की बैठक पूरी हुई।

 


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नाम सुमिरमन बावरे-(जगजीवन)–प्रवचन–4

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धर्म एक क्रांतिकारी उद्घोष है—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 4 अगस्त 1978,

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—आपका जादू मुझ पर छाया रहता है। रोता हूं, गाता हूं, नाचता हूं, मौन रहता हूं।

2—मैं दुनिया के दुख देखकर बहुत रोता हूं। क्या ये दुख रोके नहीं जा सकते?

3—आप कहते हैं कि प्रेम परमात्मा है लेकिन मैं तो प्रेम में ऐसा जला बैठा हूं कि मुझे प्रेम शब्द से ही चिढ़ हो गई है।

4—मैं बहुत—से प्रश्न पूछना चाहता हूं लेकिन सभी प्रश्न व्यर्थ मालूम होते हैं। आप जो अमृत पिला रहे हैं उसे पीने से मैं बहुत डरता हूं? क्या कारण होगा?

पहला प्रश्न:

 

मेरे ख्वाबों के सहारे मेरी जन्नत के सितारे

मेरी दुनिया, मेरे हमदम, ऐ मेरे दोस्त।

मूझे हुआ क्या है?रोता हूं, गाता हूं, नाचता हूं, मौन रहता हूं। इतनी दूर हूं फिर भी तुम्हारा जादू मुझ पर छाया रहता है। तुमसे क्या मांगूं? तुमसे क्या कह? बस तुम ही तुम हो, और नहीं भी। ऐसा क्यों है?

पुरुषोत्तम, होना और न होना, है और नहीं एक—दूसरे के विपरीत नहीं है, परिपूरक हैं। शून्‍य और पूर्ण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक ऐसा तुम्हारे अनुभव में न आयेगा तब तक तुम बंटे रहोगे; तब तक तुम जीवन को और मृत्यु को एक—दूसरे का शत्रु मानते रहोगे। और जिसने मृत्यु और जीवन को विपरीत देखा, स्वभावत: जीवन से जकड़ा रहेगा, मृत्यु से डरा रहेगा। जब तुम्हें जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दोपहलू दिखाई पड़ेंगे——एक ही लहर की तरंगें, उसी क्षण जीवन से मोह छूट जाता है, उसी क्षण वैराग्य का जन्म होता है।

शून्य और पूर्ण को एक करके जान लेना, देख लेना, पहचान लेना परम अनुभव है। तुमने पूछा है?बस तुम ही तुम हो और नहीं भी।’ऐसा ही होता है। ये दोनों बातें एक साथ ही घटती हैं। यदि तुम मेरी आसक्ति में पड जाओ…. और ध्यान रखना आसक्ति प्रेम नहीं है। आसक्ति है, जीवन का मोह। प्रेम है, जीवन और मृत्यु को एक ही जान लेने का बोध। तब तुम मेरी आसक्ति में पड़ जाओगे।

और सब आसक्तिया बांध लेती हैं; फिर गुरु की आसक्ति ही क्यों न हो, वह भी बांधेगी। सोने की जंजीर ही सही, लेकिन सोने की जंजीर भी उतना ही बांध लेगी, जितनी लोहे की जंजीर बांधती है। और शायद थोड़ी मजबूती से बांधेगी। क्योंकि लोहे की जंजीर को तो छोड़ने का मन भी होता है, सोने की जंजीर को तो लोग आभुषण समझ लेते हैं। कांटों के ताज तो उतार देने आसान हैं, फुलों के ताज कैसे उतारोगे?

जीवन का जो साधारण विस्तार है वह तो कण्टकाकीर्ण है। वहां तो दुख भरपूर है। वहां तो यह चमत्कार है कि तुम कैसे उलझे रहते हो। लेकिन किसी सद्गुरु के प्रेम में पड़ गये तो वहां तो फूलों की सुवास ही सुवास है। अगर वह प्रेम आसक्ति बन जाये तो मुक्तिदायी नहीं होगी। इसलिए सद्गुरू दोनों तरह से तुम्हारे भीतर प्रवेश करेगा——है की तरह और नहीं की तरह, पूर्ण की तरह और शून्‍य की तरह। कभी तुम पाओगे, तुम पूरे उससे भरे हो और कभी तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर कोई भी नहीं है, सिर्फ सन्नाटा है। ये दोनों बातें जब समतुल हो जाती हैं, एक वजन की हो जाती हैं ये पलड़े तराजू’ के जब एक तोल पर आ जाते हैं, उसी क्षण आसक्ति विलीन हो जाती है, प्रेम का अनुभव होता है।

प्रेम बड़ी और बात है। प्रेम मुक्तिदायी है। जहां आसक्ति बांधती है वहां प्रेम मुक्त करता है। प्रेम परम स्वतंत्रता है।

लेकिन इसके लिए बुद्धि के भेदों से ऊपर उठना होगा। यह बुद्धि प्रश्न उठा रही है। यह बुद्धि को अड़चन हो रही है कि मामला क्या है!?ऐसा भी लगता है कि आप हो, और ऐसा भी लगता है, आप नहीं हो।’तो बुद्धि कहती है, दो में से कोई एक ही बात सच होगी। बुद्धि दोनों को साथ एक नहीं मान सकती। बुद्धि की प्रक्रिया ही यही है कि वह विपरीत को समाविष्ट नहीं कर सकती। इतनी बड़ी उसकी छाती नहीं है बुद्धि बड़ी छोटी और ओछी है। बुद्धि कहती है, दिन है तो फिर रात नहीं हो सकती। और रात है तो दिन नहीं हो सकता। बुद्धि से थोड़ा ऊपर उठो तो दिन और रात साथ—साथ हैं। दिन और रात एक ही पक्षी के दो पंख हैं। बुद्धि से ऊपर उठो अर्थात थोड़े. दीवाने होओ, थोड़े. पागल होओ।

रहे खिज़ां में तलाशे—बहार करते रहे

शबे—सियह से तलब हुस्ने—यार करते रहे

खयाले—यार, कभी जिक्रे—यार करते रहे

इसी मताअ पै हम रोजगार करते रहे

नहीं शिकायते—हिला कि इस वसीले से

हम उनसे रिश्तए—दिल उस्तुवार करते रहे

वे दिन कि कोई भी जब वजहे—इंतज़ार न थी

हम उनमें तेरा, सिवा इंतज़ार करते रहे

उन्हीं के फैज से बाज़ारे—अक्ल रोशन है

जो गाह—गाह जुनुं इख्तियार करते रहे

 

इस संसार में जो थोड़ी—सी गरिमा है, गौरव है, सौंदर्य है यह उन पागलों के कारण है, जो गाह—गाह जुनुं इख्तियार करते रहे। जो कभी—कभी बुद्धि को छोड्कर दीवाने होते रहे।

उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ारे—अक्ल रोशन है

जो गाह—गाह जुनुं इख्तियार करते रहे

——उन्हीं की कृपा से, उन्हीं थोड़े दीवाने लोगों की कृपा से जीवन में रस बहता है और जीवन सत्य से बिलकुल उखड़ नहीं जाता। यहां बुद्धिमान तो बुद्धि की सीमाओं में घिर जाते हैं। यहां बुद्धि के ऊपर उठने का अर्थ होता है : सारी सीमाओं को तोड़ देना। बुद्धिमान कहता है, मै” आस्तिक हूं। बुद्धिमान कहता है, मैं नास्तिक हूं। धार्मिक कहता है, ईश्वर को कहो, है, तो भी है; ईश्वर को कहो, नहीं है, तो भी है। धार्मिक कहता है, कैसी आस्तिकता, कैसी नास्तिकता! होना भी उसका एक ढंग है, न होना भी उसका एक ढंग है। उपस्थिति भी उसकी है, अनुपस्थिति भी उसकी है। भाव भी उसका, अभाव भी उसका। हो, तो भी वही है; न हो, तो भी वही है।

रहे खिज़ां में तलाशें—बहार करते रहे

ऐसा दीवानापन चाहिए कि पतझड़ के दिनों में बहार को खोजने निकले कोई; अंधेरे में रोशनी की तलाश करे मौत में जिंदगी को खोदे।

रहे खिज़ां में तलाशे—बहार करते रहे——जब पतझड़ आ गया हो, पत्ते. झड़— गये हों, वृक्ष सूखे. खड़े हों अस्थिपंजर, तब जो बहार की खोज करता है, ऐसा दीवानःा ही परमात्मा को पा सकता है।

शबे—सियह से तलब हुस्ने—यार करते रहे——अंधेरे में जो प्यारे के चेहरे की खोज कर रहा है, गहन अंधकार में भी जो उसकी आभा को खोजता है।

खयाले—यार, कभी जिक्रे—यार करते रहे

——कभी सोचता है, कभी बात करता है; मगर बात भी उस प्यारे की, सोचना भी उसी प्यारे का।

इसी मताअ पै हम रोजगार करते रहे

——जिसकी सारी जिंदगी इसी एक ढंग में दल गई होती है : उसी की याद। फूल दिखे तो उसकी याद और फूल खो जायें तो उसकी याद।

नहीं शिकायते—हिला कि इस वसीले से

हम उनसे रिश्तए—दिल उस्तुवार करते रहे

ऐसे ही उस प्यारे से प्रेम का संबंध गहरा होता है। ऐसे ही स्थायी और दृढ़— संबंध निश्चित रूप से निर्मित होते है।

वे दिन कि कोई भी जब वजहे—इंतज़ार न थी——जब कोई भी कारण नहीं होता है प्रतीक्षा करने का, आने की कोई संभावना नहीं होती, कोई संकेत भी नहीं होता……

वे दिन कि कोई भी जब वजहे—इंतज़ार न थी

हम उनमें तेरा, स्विा इंतज़ार करते रहे

हम उनमें भी तेरी याद करते रहे और तेरा इंतज़ार करते रहे। कोई कारण न था। तूने कोई खबर भी न भेजी थी। तेरे पगों की कोई ध्वनि भी सुनाई न पड़ती थी। सच तो यह है कि तू आयेगा यह तो संभव ही नहीं था तू कभी नहीं आयेगा इसके सारे प्रमाण मौजद थे। न तू आया कभी, न तू कभी आयेगा इसके सब प्रमाण मौजूद थे; फिर भी——

वे दिन कि कोई भी जब वज़हे—इंतजार न थी

हम उनमें तेरा, सिवा इंतज़ार करते रहे

उन्हीं के फैज से बाज़ारे—अक्ल रोशन है

जो गाह—गाह जूनूं इख्तियार करते रहे

ऐसे थोड़े—सेपागलों के कारण जगत से धर्म विदा नहीं होता। ऐसे थोड़े—सेदुस्साह— सियों के कारण परमात्मा का संबंध पृथ्वी से नहीं टूटता। ये दीवाने ही परमात्मा और पृथ्वी के बीच सेतु हैं।

बुद्धि से तो छुटकारा लेना होगा पुरषोत्तम। छोड़ो यह फिक्र। बड़े—बड़े विचारक, बड़े दार्शनिक ——त्सी फिक्र में उलझे और समाप्त हो गये हैं। कितना विवाद चला है। बौद्ध दार्शनिक कहते हैं, परमात्मा शून्य है और वेदान्ती दार्शनिक कहते हैं, परमात्मा पूर्ण है। और विवाद चल रहा है सदियों से। दोनों को पता नहीं है। दार्शनिकों को कुछ पता नहीं है।

परमात्मा पूर्ण भी है और शून्‍य भी। उपनिषद ठीक कहते हैं। उपनिषद के वक्तव्य दार्शनिकों के वक्तव्य नहीं हैं दीवानों के वक्तव्य हैं। परमात्मा पास भी है, दूर भी। बुद्ध ठीक कहते हैं : है भी, नहीं भी।

दोनों को एक साथ स्वीकार कर लो। और दोनों की स्वीकृति में ही बुद्धि की श्वासें fऋट जाती हैं। और बुद्धि की श्वासें टूट जायें तो आत्मा श्वास ले। बुद्धि बिखरे तो तुम संगठित हो जाओ। बुद्धि जाये तो तुम्हारा आगमन हो, पदार्पण हो।

तुम पूछते हो :

मेरे ख्वाबों के सहारे, मेरी जन्नत के सितारे

मेरी दुनिया, मेरे हमदम, ऐं मेरे दोस्त!

मुझे हुआ क्या है?

बाहर मत पूछो। बाहर पूछे कि चुके। हो रहा है भीतर। आंखें बंद करो और डूबो; और स्वाद लो और पियो। और तुम पहचान जाओगे कि क्या हो रहा है। क्योंकि ये बातें सिर्फ स्वाद से ही पहचानी जाती हैं।

मने ही कुछ न समझा, मेरी ही थीं खताएं

वो दिल की धड़कनों से देते रहे सदाएं

वहां से आवाज उठी रही है हृदय में।? वहां कोई पुकार रहा है, वहां कोई खींच रहा है। तुम बाहर ‘प्रश्न खड़े करोगे, उलझ जाओगे। वहीं से पूछो। जहां प्रश्न उठ रहा है उसी प्रश्न में डुबकी मार जाओ; वहीं उत्तर छिपा है।

और तुम कहते हो कि रोता हूं, गाता हूं, नाचता हूं, मौन रहता हूं। इतनी दूर हं फिर भी तुम्हारा जादू मुझ पर छाया रहता है।

दूरी से जादू का क्या लेना—देना? जादू दूरी मापायेगा ही नहीं। प्रेम को दूरी का कोई पता ही नहीं है। प्रेम के लिए तो सभी कुछ पास ही है——पास से भी पास। प्रेम के लिए न कोई समय का अंतराल है, न कोई स्थान का अंतराल है। जहां प्रेमी बैठ जाता है, जब आंख बंद कर लेता है,तभी उसके भीतर की धारा गुनगुनाने लगती है।

रिंद जो जर्फ उठा लें वही कूजा बन जाये

जिस जगह बैठकर पी लें वहीं मैखाना बने

जहां बैठकर तुम परमात्मा की याद करोगे, वहीं मंदिर है; वहीं परमात्मा है; —रही काबा, वहीं कैलाश। दूरी से कुछ प्रयोजन नहीं है। पास बैठकर भी पास बैठना इतना आसान तो नहीं।

लोग बुद्ध के सामने बैठ रहे हैं और चूक गये हैं। बुद्ध के सामने बैठे रहे और ऐसी व्यर्थ की बातें पूछते रहे। ऐसी व्यर्थ की बातें??. समय अपना गंवाया, बुद्ध का गंवाया। बुद्ध के सामने थे, आंख में आंख डाल लेनी थी, हाथ में हाथ ले लेना था, चरणों पर सिर रख देना था। थोड़ी देर को विस्मरण करते सब सोच—विचार। थोड़ी देर को निर्विचार होते। उसी निर्विचार में बुद्ध से भी जुड़ते और अपने से भी जुड़ते। क्योंकि जो जाग गया वह वहीं है, जहां तुम भी जाग जाओगे तो पहुंच जाओ। जो जाग गया है वह वहीं है, जहां तुम्हारे भी अंतस्तल का केंद्र है। सोये—सोये हम अलग— अलग हैं जागकर हम सब एक हैं। नींद में भेद है, जागरण में अभेद है।

अच्छा हो रहा है। रोते हो, गाते हो, नाचते हो, कभी मौन। भयभीत न होना। भय लगता है क्योंकि साधारणत: इस तरह की बातें की नहीं जातीं।

हमने तो आदमी को बिलकुल झूठा बना दिया है। न रोने के योग्य रखा है, न गाने के योग्य रखा है। आदमी हंसे तो भी कामचलाऊ, रोये तो भी कामचलाऊ। हंसता है तो भी ऊपर—ऊपर, रोता है तो भी ऊपर—ऊपर। आंसू भी झूठे, मुस्कुराहटें भी झ्ठी। हमने तो आदमी को ऐसा नियंत्रण सिखाया है कि अपने को दबाकर रखो। अपना कोई भावावेश प्रकट न हो जाये। हमने तो भाव को मार ही डाला है। हमने हृदय की सड़कने बंद कर दी हैं।

इसलिए जब जीवन में पहली बार रोओगे, नाचोगे, गाओगे, भीतर भी भय लगेगा कि यह मैं क्या कर रहा हूं! लोग क्या समझेंगे! लेकिन जब तक लड़खडाना न आ जाये, उसके मंदिर की यात्रा नहीं होती।

मैं फ़िदा लगज़िश—ए—रपतार पे अपनी ऐ ‘शाद’

दूर से देखकर उसने मुझे पहचान लिया

जब कोई लड़खड़ाता हुआ आता है तभी परमात्मा पहचापायेगा है कि आया कोई?कि आता है कोई मेरी तरफ!

सम्हले हुए लोग उसके लोग नहीं हैं। सम्हले हुए लोग अपने अहंकार से जी रहे हैं। सम्हले हुए लोग अपने नियंत्रण में हैं अपने अनुशासन में हैं। उसके पास तो लड़खड़ाकर ही जाना होता है। और जब तुम पहचान लिये जाओगे तभी तुम धन्यवाद दोगे। मैं फ़िदा लगज़िश—ए—रपतार पे अपनी ऐ?शाद ‘

तब तुम कहोगे, धन्यभाग मेरा कि मैं लड़खड़ाया। धन्यभाग मेरा कि मेरे पैर डगमगाये। धन्यभाग मेरा कि मैं शराबी जैसा चला; नहीं तो पहचाना न जाता। दूर से देखकर उसने मुझे पहचान लिया

रोना आ रहा है, गाना आ रहा है नाचना आ रहा है,——आने दो। बांहें फैलाकर स्वागत करो, आलिंगन करो। भाव का उन्मेष हो रहा है। सहारा दो, सहयोग दो। किसी भी बाह्य कारण से रोकना मत।

और बाहर कारण ही कारण हैं रोकने के। क्योंकि हम मनुष्य की सरलता को स्वीकार नहीं करते हैं। हम तो मनुष्य को कपटी बनाते हैं। हम तो उसकी सहजता को अंगीकार नहीं करते। हम तो उसके आसपास एक ढांचा बिठाते हैं। उस ढांचे को हम चरित्र कहते हैं, आचरण कहते हैं।

और जितना ढांचे में बंधा आदमी हो उतना ही समाज में सम्मानित होता है, पुरस्कृत होता है। मगर समाज से पुरस्कार ले लिया तो ध्यान रखना, परमात्मा के पुरस्कार से वंचित रह जाओगे। मिल गया तुम्हें तुम्हारा पुरस्कार, दे दिया समाज ने सम्मान, फूलमालाये पहना दीं। ये हाथ झूठे हैं, इनके फूल झूठे हैं। ये फूल भी कुम्हला जायेंगे, ये हाथ भी बुम्हला जायेंगे। ये फूल भी मिट्टी हैं ये हाथ भी मिट्टी हैं, यह सम्मान भी मिट्टी है। जब तक अमृत के हाथ तुम्हारे गले में वरमाला न डालें तब तक सब व्यर्थ है।

अब तो डूबो। यह जो हलकी—हलकी हवा आनी शुरू हुई है, इसे तूफ’न बनने दो।

न गरज किसी से न वास्ता मुझे काम अपने ही काम से

तिरे जिक्र से, तिरी फिक्र से, तिरी याद से, तिरे नाम से

दूसरा प्रश्न : मैं दुनिया के दुख देखकर बहुत रोता हं। क्या ये दुख रोके नहीं जा सकते?

प्रश्न से तुम्हारे ऐसा लगता है कि कम से कम तुम दुखी नहीं हो। दुनिया के दुख देखकर रोने का हक उसको है जो दुखी न हो। नहीं तो तुम्हारे रोने से और दुख बढ़ेगा, घटेगा थोड़े ही। और तुम्हारे रोने से किसी का दुख कटनेवाला है? दुनिया सदा से दुखी है। इस सत्य को, चाहे यह सत्य कितना ही कडुवा क्यों न हो, स्वीकार करना दया होगा। दुनिया सदा दुखी रही है। दुनिया के दुख कभी समाप्त नहीं होंगे। व्यक्तियों के दुखसमाप्त हुए हैं। व्यक्तियों के ही दुख समाप्त हो सकते हैं। हां, तुम चाहो तो तुम्हारा दुख समाप्त हो सकता है। तुम दूसरे का दुख कैसे समाप्त करोगे?

और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लोगों को रोटी नहीं दी जा सकती, मकान नहीं दिये जा सकते। दिये जा सकते हैं, दिये जा रहे हैं दिये गये हैं। लेकिन दुख फिर भी मिटते नहीं। सच तो यह है, दुख और बढ़ गये हैं। जहां लोगों को मकान मिल गये हैं रोटी—रोजी मिल गई है, काम मिल गया है, धन मिल गया है वहां दुख और बढ़ गये हैं, घटे नहीं है।

आज अमरीका जितना दुखी है उतना इस पृथ्वी पर कोई देश दुखी नहीं है। हां, दुखी ने नया रूप ले लिया। शरीर के दुख नहीं रहे, अब मन के दुख हैं। और मन के दुख निश्चित ही शरीर के दुख से ज्यादा गहरे होते हैं। शरीर को गहराई ही क्या! गहराई तो मन की होती है। अमरीका में जितने लोग पागल होते हैं उतने दुनिया के किसी देश में नहीं होते। और अमरीका में जितने लोग आत्महत्या करते हैं उतनी आत्महत्या दुनिया में कहीं नहीं की जाती। अमरीका में जितने विवाह टूटते हैं उतने विवाह कहीं नहीं टूटते। अमरीका के मन पर जितना बोझ और चिंता है उतनी किसी के मन पर नहीं है। और अमरीका भौतिक अर्थों में सबसे ज्यादा सुखी है। पृथ्वी पर पहली बार पूरे अब तक के इतिहास में एक देश समृद्ध हुआ है। मगर समृद्धि के साथ—साथ दुख की भी बाढ़ आ गई।

मेरे लेखे जब तक आदमी जागृत न हो तब तक वह क़ुछ भी करे, दुखी रहेगा। भूखा हो तो भूख से दुखी रहेगा और भरा पेट हो तो भरे पेट के कारण दुखी रहेगा। जीसस के जीवन में एक कहानी है। ईसाइयों ने बाइबल में नहीं रखी है। कहानी जरा खतरनाक है लेकिन सूफी फकीरों ने बचा ली है। कहानी है कि जीसस एक गांव मे प्रवेश करते हैं और उन्हेंने देखा, एक आदमी शराब पिये नाली में पड़ा हुआ गंदी गालियां बक रहा है। समझाने वे झुके, उसके चेहरे से भयंकर बदबू उठ रही है। चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ा। याद उन्हें आयी। उन्होंने उस आदमो को हिलाया आर कहा, मेरे भाई! जरा आंख खोल और मुझे देख। क्या तू मुझे भूल गया? क्‍या तुझे बिलकुल याद नहीं है कि मैं कोन हूं?

उस आदमी ने गौर से देखा और कहा, हां याद है। और तुम्हारे ही कारण मैं दुःख भोग रहा हूं। क्योंकि मैं बीमार था, बिस्तर से लगा था, तुमने मुझे स्वस्थ किया। तुमने छुआ और मैं स्वस्थ हो गया। अब मैं तुमसे पूछता हूं इस स्वास्थ का क्या करू? शराब न पीऊं तो और क्या करूं? बीमार था तो बिस्तर पर लगा था। शराब का ख्याल ही नहीं उठता था। जबसे स्वस्थ हुआ हूं तबसे यह झंझटट्रै सिर पर पड़ी। तुम्हीं जिम्मेवार हो।

जीसस तो बहुत चौंके। ऐसा शायद उन्होंने पहले कभी सोचा भी न होगा। उदास थोड़े आगे बड़े बढ़े। उन्होंने एक और आदमी को एक वेश्या के पीछे भागते देखा। उसको रोका और कहा, मेरे भाई, परमात्मा ने आंखें इसलिए नहीं दी हैं। उस आदमी ने जीसस को देखा और कहा कि परमात्मा ने तो दी ही नहीं थीं। तुम्हीं हो जिम्मेवार। मैं अंधा था, तुमने मेरी आंखें छुई और मुझे आंखें मिल गई। अब मैं इन आंखों का क्या करूं, तुम्हीं बताओ। तुमने आंखें क्या दीं, तबसे मैं स्त्रियों के पीछे भाग रहा हूं। जीसस तो बहुत हैरान हो गये। वे तो फिर गांव में गये नहीं और आगे, उदास लौट आये। लौटते थे तो गांव के बाहर देखा, एक आदमी एक वृक्ष में रस्सी बांधकर फांसी लगाने का आयोजन कर रहा था। भागे, उसे रोका; कहा, यह तू क्या कर रहा है?इतना अमूल्‍य जीवन.! उस आदमी ने कहा, अब मेरे पास मत आना। मैं तो मर गया था, तुमने ही। मुझे जिंदा किया। अब इस जिंदगी का मैं क्या करूं? जिंदगी बड़ी बोझ है। मुझे मर जाने दो। कृपा करके और चमत्कार मत दिखाओ। तुम्हारे चमत्कार दिखाने की वजह से हम मुसीबत में पड़ रहे हैं। तुम्हें चमत्कार दिखाना हो तो कहीं और दिखाओ। तुम मुझे बक्शों, मुझे क्षमा कर दो।

इस कहानी की अर्थवत्ता देखो। तुम्हारे पास आंखें हैं, करोगे क्या? तुम्हारे पास स्वास्थ्य है, करोगे क्या? तुम्हारे पास जीवन है, करोगे क्या? जब तक जागरण न हो तब तक आंखें होते हुए भी अंधे होओगे। और आंखें तुम्हें गड्ढों की तरफ ले जायेंगी। और जब तक जागरण न हो, स्वस्थ हुए तो पाप के अतिरिक्त: कुछ करने को दिखाई नहीं पड़ेगा। स्वास्थ्य तुम्हें पाप में ले जायेगा। और जब तक जाग्रत न होओ तब तक जीवन भी व्यर्थ है; बोझ हो जायेगा। आत्मघात का तुम विचार करने लगोगे।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसने जिंदगी में दस—पांच बार आत्मघात का विचार न किया हो। तुम खुद ही अपने तरफ सोचना। दो—चार बार तुमने भी सोचा होगा कि क्या सार है, खतम, करो। फिजूल रोज उठना, फिर वही धंधा, फिर वही झगड़ा, फिर वही उपद्रव, इसमें सार क्या है? क्यों न हम मर जायें? क्या बिगड़ेगा मरजाने से? है भी तो नहीं हाथ में कुछ! खो भी क्या जायेगा? जीवन ऐसा रिक्‍त—रिक्‍त है कि मृत्यु और क्या छीन लेगी?

लोग, तो दुखी हैं, और लोग दुखी रहे हैं और लोग दुखी रहेंगे। क्योंकि सुख का अवतरण संपत्ति से नहीं होता। और मैं संपत्ति—विरोधी नहीं हूं, ख्याल रखना। संपत्ति से सुविधा मिल सकती है। तो एक आदमी जिसके पास संपत्ति नहीं है, असुविधा में दुखी होता है। और जो आदमी जिसके पास संपत्ति है, वह….. वह सुविधा में दुखी होता है। सुविधा दुख नहीं छीनती, सुविधा दुख के लिए और अच्छे अवसर दे देती है। वातानुकूलित भवन में, मगर रहोगे दुखी। महल में, संगमर्मर के महल में, पर रहोगे दुखी। मखमली सेजों पर, पर रहोगे दुखी।

और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि सुविधा बुरी चीज है। सुविधा अरनी तरफ अपने तईं ठीक है लेकिन उससे दुख नहीं मिटता। सच तो यह है, जितनी सुविधा हो उतना दुख प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ता है। दुखी आदमी, सुविधा से हीन आदमी को फुरसत ही नहीं मिलती दुख देखने की। जिनको हम सुखी कहते हैं, उनको ही फुरसत होती है दुख देखने की।

आदमी का दुख न सुविधा से मिटता है, न धन से मिटता, न पद से न प्रतिष्ठा से। आदमी का दुख आत्म—जागरण से मिटता है।

तुम कहते हो, मैं दुनिया के दुख देखकर बहुत रोता हूं। तुम्हें रोना हो तो मजे से रोओ, मगर रोने के लिए और अच्छे कारण खोज सकते तो। परमात्मा के लिए रोओ। और तुम्हारे रोने से क्या होगा? एक आदमी बीमार पडा है, मर रहा है, तुम उसके पास बैठे रो रहे हो, तुम सोचते हो इससे इलाज हो जायेगा? तुम्हारे रोने से वह और जल्दी मर जायेगा। और घबड़ा जायेगा। कोई पानी में डूब रहा है, तुम किनारे पर बैठे रो रहे हो। तुम क्या सोचते हो, तुम्हारे रोने से बच जायेगा? तुम्हें रोते देखकर और जल्दी आशा छोड़ देगा। तुम पर दया करके डूब ही जायेगा कि अब खत्म ही हो जाऊं, यह बेचारा नाहक रो रहा है। तुम्हारे रोने से क्या होना है?

तुम पूछते हो, क्या ये दुख रोके नहीं जा सकते? जरूर रोके जो सकते हैं। मगर किसी और के द्वारा नहीं। यहीं राजनीति और धर्म का भेद है। राजनीति सोचती है, दुख दूसरों के द्वारा रोके जा सकते हैं। इसलिए राजनीतिक सत्ता की तलाश करता हूं। कि सत्ता में पहुंच जाये, ताकत हाथ में हो तो लोगों के दुख रोक देगा। इसलिए राजनीतिक क्रांति की भाषा में सोचता है। क्रांति हो जाये, समाज का अर्थतंत्र बदले, समाजवाद आये, साम्यवाद आये, ऐसा हो, वैसा हो, लोगों के दुख मिट जायेंगे। समाजवाद भी आ चुका, साम्यवाद भी आ चुका, कोई दुख मिटते नहीं। कहीं दुःख मिटता नही।

धर्म की यहीं मूल भित्ति है, मुल भेद है कि दुख मिटता है आत्म—जागरण से। आत्म—जागरण कोन तुम्हें दे सकता है? तुम जागो। तुम ध्यान में उठो। तुम भक्ति में पगो तो दुख मिटेगा। तुम नाहक मत रोओ।

मत रोओ, कबीर

मत रोओ!

तुम ऐसा कवि—नबी

गिराता है जब आंसू

तब सदियों का दामन भीग उठा करता है

हर दाना नादान जिया जो करता है,

मरता है पाटों में पड़ना

रगड़ा खाना

हो जाना चूरा—धूरा

चलता आया

और सदा चलता आयेगा

और तुम्हारे आंसू से भी

कभी नहीं यह रुक पायेगा

मत रोओ, कबीर

मत रोओ!

किसी अजाने की मर्जी पर दो पाटों के बीच पड़ा था

मुझे न साबित बचकर घिस—पिस जाना ही था

कालबद्ध मिट्टी था

मेरे वर्तमान को

भूत, भविष्य सबका

यह कर्ज चुकाना ही था

हर्ष—विषाद विमुक्त

नियति अपनी यह मैंने स्वीकारी है

और बड़ी चक्कियां हैं

और बडी चक्कियां

कि जिनमें है यह चक्की बस दाने—सी

मुझे पीसने—घिसनेवाले

पाटों के भी

घिसने—पिसने की आनेवाली बारी है

आगे भी यह कम जारी है

पर घिसना—पिसना अपने में अंत नहीं है

व्यर्थ नहीं है

इसके ऊपर इसका कोई अर्थ कहीं है

और न भी हो तो

इससे क्या फर्क पड़ेगा?

दाना किस गिनती में।

जिसे झगड़ना होगा

अंतिम चक्की के दो पाटों से झगड़ेगा

मत रोओ, कबीर

मत रोओ!

संसार तो दो चक्कियों के, दो पाटों के बीच है, पिस रहा है। कबीर ने कहा है कि देख कबीरा रोया। दो पाटों के बीच में लोगों को पिसते देखकर कबीर रोया।

और जब कबीर ने घर आकर यह पद कहा तो कबीर के बेटे कमाल ने उसके उत्तर में एक पद लिखा, जिसमें उसने लिखा कि आप ठीक कहते हैं कि दो पाटों के बीच जो भी पड़ गया वह पिस गया। लेकिन आपने एक बात ध्यान नहीं दी कि दो पाटों के बीच में जो कील है, उस कील से जो दाना लग गया वह नहीं पिसा, वह बच गया।

वह बेटा कमाल का ही था इसीलिए तो कबीर ने उसको नाम कमाल दिया था। उस कमाल ने कहा कि इसलिए जिसने उस एक का सहारा पकड़ लिया, जिस पर सारी चक्कियां घूम रही हैं और जो बिना घूमा बीच में खड़ा है——चक्की के पाट भी कील के बिना थोड़े ही घुमेंगे। गाड़ी का चाक भी बिना कील के थोड़े ही घूमेगा। चाक घूमता है, कील खड़ी है। कील कभी नहीं घुमती। नहीं घूमती इसीलिए चाक घूम पाता है। कील भी घूम जाये तो गाड़ी गिर जाये। दो पाटों के बीच तो पिस गये दाने, लेकिन जिन्हेंने बीच की कील का सहारा पकड़ लिया वे बच गये।

संसार में तो पिसेने। संसार में दुख है। संसार दुख है। लेकिन अगर राम का सहारा पकड़ लिया, अगर राम के आसरे हो गये, अगर परिवर्तन में ही रहे तो पिसोगे। अगर शाश्वत का हाथ पकड़ लिया तो नहीं पिसोगे, बच जाओगे। दुख से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि उस एक को पकड़ लो, जो अनेक के बीच में’ मौज्द है। शाश्वत को पकड़ो, जो समय की धारा में छिपा है। नित्य को पकड़ो। अनित्य को पकड़ोगे तो दुख पाओगे।

दुख क्या है? कि अनित्य को हमने पकड़ा है। देह को मान लिया कि मैं हूं, यह दुख है। फिर देह तो जरा भी आयेगी, जीर्ण भी होगी, शीर्ण भी होगी। आज जवान है, पन्न बूढ़ी होगी, परसों मरेगी भी। देह तो हजार दुख लायेगी। किसी स्त्री से प्रेम किया, किसी पुरूष से प्रेम किया, यह दुख लायेगा। क्योंकि हम सब अजनबी हैं यहां। कोई किसी का भी नहीं। जिसने जितना अपना मोह का विस्तार किया उतना ही पीड़ा में पड़ेगा। जिसने अहंकार से अपने को एक समझ लिया और प्रतिष्ठा चाही, पद चाहा, सम्मान चाहा, वह भी दुखी होगा।

यह दुख स्वाभाविक है। यह चक्की के पाटों के बीच में पड़ जाने के कारण है। उस एक का सहारा पकड़ो। उसको पकड़ते ही से सारे दुख विदा हो जाते हैं। ऐसा समझो कि दुख को हम अपनी भ्रांति के कारण पैदा कर रहे हैं। और कोई किसी दूसरे की भ्रांति नहीं मिटा सकता। तुम्हारे हाथ में यह बात नहीं है कि तुम दुनिया के दूख मिटा दो, लेकिन तुम्हारे हाथ में एक बात जरूर है कि तुम अपना दुख मिटा लो।

और इससे बड़ी और कोई सेवा नहीं हो सकती। अगर तुम अपना दुख मिटा लो तो तुमने दुनिया के एक हिस्से का दुख तो मिटाया। तुम भी तो दुनिया के एक हिस्से हो। अगर दुनिया में तीन अरब आदमी हैं और तुमने अपना दुख मिटा लिया तो एक दुखी आदमी कम हुआ। और इतना ही नहीं है, जब एक दीया जलता है आनंद का, तो उसकी किरणें आसपास के लोगों को भी आंदोलित करती हैं। और जब एक फूल खिलता है सुवासित होकर तो इससे के नासापुटों तक भी गंध जाती है। और जब कोई एक वीणा बजती है तो दूसरों के भीतर ह्दय की सोयी पडी वीणा के भी तार झंकृत हो जाते हैं।

बस, इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। इसके अतिरिक्त तुम जो भी उपाय करोगे, वे उपाय तुम्हें राजनीति में ले जायेंगे। और उन उपायों से तुम दुनिया का दुख बढ़ाओगे, घटाओगे नहीं। क्योंकि राजनीति की सारी प्रक्रिया अहंकार की प्रक्रिया है।

इसलिए मैं तुमसे समाजसेवा की बात नहीं करता। मै तुमसे कहता हूं, समाजसेवा हो जायेगी अपने से। तुम पहले स्वयं की सेवा तो कर लो। इसके पहले कि दूसरों के जीवन में रोशनी देने चलो, तुम्हारे भीतर रोशनी तो होनी चाहिए। उतनी शर्त तो पूरी करो। इसके पहले कि तुम चाहो कि लोगों के दुख मिट जायें, तुम्हें अपना दुख तो मिटा लेना चाहिए। कम से कम तो इतना तो करो। तुम तो तुम्हारे बस में हो। तुम तो अपनी सुन सकते हो। दूसरों का क्या पता! सुनें न सूनें, मानें न मानें। कोई जोर—जबरदस्ती नहीं है। अगर उन्होंने दुखी ही रहने का तय किया है तो तुम क्या करोगे त्

लेकिन मेरे देखे ऐसा है कि जो लोग दूसरों के दुख मिटाने में उत्सुक हो जाते हैं, यह एक मनोवैज्ञानिक चालबाजी है। यह अपने दुख न देखने का उपाय है। यह अपना साक्षात्कार न हो जाये इसके लिए बड़ा सुगम आयोजन है। दूसरों का दुख देखने लगे। अपने से आंख फेर ली। कहा कि अपने दुख में क्या रक्खा है! यहां लोग इतने दुखी हैं पहले इनका दुख तो मिटाये। इस तरह अपने को व्यस्त कर लिया। समाज—सेवक सिर्फ अपने दुख की तरफ पीठ करने में लगे हैं, और कुछ भी नहीं।

मेरे पास आ जाते हैं समाज सेवक कभी—कभी। एक सज्जन हैं वे पचास साल से आदिवासियों की सेवा कर रहे हैं बस्तर में। मुझे मिलने आये थे। बूढ़े हैं अस्सी साल के करीब उनकी उम्र है। कहने लगे, जीवन में बड़ी अशांति है, बड़ी बेचैनी है। कहा, पचास साल की समाजसेवा, और अशांति और बेचैनी तुम्हारी गई नहीं? तो तुमने पचास साल में न मालुम अपनी अशांति और बेचैनी से कितने लोगों को अशांत और बेचैन कर दिया होगा। तुम क्यों लोगों के पीछे पड़े हो?

उन्होंने कहा, मैंने कोई गलत काम तो नहीं किया। मैं तो आदिवासियों को शिक्षा होनी चाहिए इसके काम में लगा है। मैंने कहा, तुम जरा अपने विश्वविद्यालयौ की हालत तो देख लो। जो शिक्षित हैं उनकी हालत तो देख लो। क्यों आदिवासियों के पीछे पड़े हो? शिक्षित कहां पहुंच गया है? तुम्हारे विश्वविद्यालय जितने उपद्रवों के अड्डे हैं, कहीं और उतने उपद्रवों के अड्डे— नहीं हैं। जो शिक्षित हो गया है उसके जीवन में कोन—सा आनंद है?

सच तो यह है कि शिक्षित महत्वाकांक्षी हो जाता है। महत्वाकांक्षी होने से दुख बड़े जाता है। क्योंकि जितनी महत्वाकांक्षा है, वह पूरी तो हो नहीं सकती। शिक्षित होकर सभी लोग तो प्रधानमंत्री होना चाहते हैं। सभी लोग प्रधानमंत्री हो नहीं सकते। और जब वे देखते हैं कि ऐरे—गैरे नत्‍थु खैरे प्रधानमंत्री बन रहे हैं तो उनको और बडा दुख होता है कि हम पढ़े—लिखे विद्धमान लोग बैठे हैं अंगूठा छाप लोग मंत्री बन रहे हैं मुख्यमंत्री बन रहे हैं, और हम पढ़े—लिखे लोग——! बड़ा अन्याय हो रहा है। उनके चित्त की पीड़ा और बढ़ जाती है, विषाद बहुत बढ़ जाता है।

दुनिया में जितने उपद्रव लोग करते हैं वे पढ़े—लिखे लोग हैं। क्यों? क्योंकि उनकी: महत्वाकांक्षा बड़ी है। और कोई भी चीज उसे तृप्त नहीं कर पाती। उन्हें कुछ भी मिल जाये, उन्हें सदा लगता है हमारी योग्यता से कम है। इसलिए उनके जीवन में कभी शांति हो नहीं सकती। असंतोष उनका स्वर रहेगा। असंतोष में भभकेंगै, धधकेंगे। असंतोष के अंगार ही उनके जीवन में रहेंगे, और कुछ भी न रहेगा। जहां फूल खिलने चाहिए थे संतोष के, वहां केवल असंतोष के अंगार ही होंगे।

तो मैंने उनसे पूछा कि तुम बेचारे आदिवासियों के पीछे क्यों पड़े हो? वे वैसे ही मस्त हैं। चाहे पेट पूरा न भरता हो लेकिन रात गीत तो गाते हैं। चाहे तन पर बहुत कपड़े न हों लेकिन बांसुरी तो बजाते हैं। और चाहे रहने के लिए सुंदर मकान न हों, घास—फूस के झोंपड़े हों, लेकिन रात जब मस्त होकर नाचते है तो समृद्ध से समृद्ध आदमी को भी ईर्ष्या हो।

तुम क्यों उनके पीछे पड़े हो? तुम उन्हें इसे दौड़ में लगा दोगे न जिसमें सारी दुनिया लगी है?और तुम उन्हें भी बेचैन कर दोगे। तुम तो पढ़े—लिखे हो, तुम्हें चैन कहां है? अस्सी साल की उम्र में तुम मुझसे पूछने आये हो कि मेरे जीवन में चैन नहीं है, शांति नहीं है। और पचास साल तुम सेवा करते रहे। तो शायद पचास साल तुम इसी अशांति को छिपाने के लिए दूसरों पर नजर गड़ाये रहे। यह सेवा आत्म—विस्मरण है। यह एक तरह का नशा है, यह शराब है। इससे बचना।

राजनीति की शराब होती है, सेवा की शराब होती है। और ये शराबें ऐसी हैं कि किसी को पकड लें तो पता भी नहीं चलता। और फिर ये शराबें ऐसी हैं कि समाज इनका सम्मान करता है। लोग कहेंगे, महान समाजसेवक! सत्कार करो, हीरक जयंती मनाओ, स्मारक बनवाओ, स्मृति—ग्रंथ प्रकाशित करवाओ। और तुम वैसे के वैसे? तुम्हारे पचास साल व्यर्थ गये।

उन सज्जन ने मुझे कहा कि आप कहते हैं तो सोच आता है, मैं जवान था, विश्व— विद्यालय से निकला ही था कि महात्मा गांधी के प्रभाव में आ गया। उन्होंने मुझसे कहा कि सेवा करो, सेवा ही धर्म है। तो मैं सेवा में लग गया।

‘पचास साल करके देख लिया, कुछ अकल आयी? सेवा धर्म नहीं है, यद्यपि धर्म जरूर सेवा है। और इन दोनों बातों में जमीन—आसमान का फर्क है।’

महात्मा गांधी ने कहा है, सेवा धर्म है। विनोबा भावे कहते हैं, सेवा धर्म है। मै तुमसे कहता हूं, सेवा धर्म नहीं है, धर्म सेवा है। पर तब यात्रा बिलकुल भिन्न हो गई। पहले स्वयं के जीवन में धर्म का जागरण हो, फिर सेवा अपने आप हो जाती है, फिर .तुम्हें करनी नहीं पड़ती। कोई चेष्टा नहीं, कोई आयोजन नहीं। तुम जहां बैठते हो, तुम जहां उठते हो, तुम जिनके साथ हो लेते हो उनके जीवन में तुम्हारी सुगंध व्यापने लगती है। तुम कोई उनकी गर्दन नहीं पकड़ लेते कि हम तुम्हें बदलकर रहेंगे।

ख्याल रखना, दूसरों को बदलने वाले मत बनना। ये अक्सर बुरे लोग होते हैं जो दूसरों को बदलने में उत्सुक हो जाते हैं। जो किसी के पीछे पड़ जाते हैं कि हम तुम्हारा चरित्र ठीक करके रहेंगे। तुम हो कोन?तुम्हें किसने जिम्मा दिया है? यह दूसरे का चरित्र ठीक करने का तुमने ठेका कहां से लिया है?तुम अपनी फिकर ले लो। तुम अपनी तो निबेर लो। तुम सुंदर हो जाओ, फिर तुम्हारे सौंदर्य के प्रभाव में अगर कुछ होना होगा, हो जायेगा। जरूर होता है। तुम्हारे सौंदर्य की छाप जरूर पड़ेगी। कई लोगों पर तुम्हारे जीवन की छाया आयेगी। लेकिन तब जोर—जबरदस्ती नहीं होगी।

अक्सर दूसरों को बदलने वाले लोग जोर—जबरदस्ती करते हैं। यह हिंसा का ही एक ढंग है। महात्माओं से सावधान रहना। महात्माओं से जरा बचना क्योंकि महात्मा अक्सर हिंसक होते हैं। अहिंसा की बातें करते हैं, मगर उनकी अहिंसा की बात में भी हिंसा होती है।

जिंदगी बड़ी जटिल है। ऊपर से कुछ होता है, भीतर कुछ होता है। अगर तुम महात्मा गांधी की बात न मानते, वे उपवास करेंगे। यह उपवास क्या है? यह हिंसा है, यह धमकी है। यह इस बात की धमकी है कि मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानी। मगर यह तो बड़े मजे की बात हो गई। अगर कोई आदमी छुरा लेकर बैठ जाये, मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानी तो तुम्हें साफ दिखाई पड़ेगा कि यह आदमी तो बड़ा हिंसक है। छुरा है उपवास भी——सूक्ष्म है। एकदम नहीं मर जायेंगे, मरते—मरते मरेंगे। और एकदम मर जायें तो ठीक भी है। तुम्हारी झंझट छूटे। ठीक है, रो—धोकर विदा कर आओ। मगर ये महीनों तुम्हारे पीछे रहेंगे। ये तुम्हें सोने न देंगे। रात तुम्हें नींद न आयेगी कि बेचारा मेरे पीछे मर रहा है।

कोई किसी के पीछे नहीं मर रहा है। लोग अपने अपने अहंकार के लिए मर रहे हैं। यह आदमी इसलिए मर रहा है, यह कहता है, मेरी मानो। जो मैं कहता हूं, वह ठीक है। कोई कहता है, मेरी मानो नहीं तो तुम्हारी गर्दन काट दूंगा। अडोल्फ हिटलर जैसे लोग——कि हम ठीक हैं, मानते हो कि नहीं?

मैंने सुना है, अडोल्फ हिटलर ने अपने मंत्रियों की एक सभा ली। उसके बीस मंत्री थे। उसने खड़े होकर कहा, एक प्रस्ताव रखा कि यह प्रस्ताव है। और जो लोग भी इससे असहमत हो, वे अपने इस्तीफे दे दें। जो लोग भी इससे असहमत हों, वे अपना इस्तीफा दे दें। मामला खतम करो।

कोन असहमत होगा? कैसे असहमत होगा? और इस्तीफे पर ही यह बात नहीं रूक जायेगी, जान का भी खतरा है फिर पीछे। यह खतरा कोन मोल ले? हिटलर कहता है, जो मेरे साथ हैं वे ठीक, जो मेरे साथ नहीं है वह मेरा दुश्मन है। उसे मिटाना मेरा कर्तव्य है। मेरी नहीं मानते तो गर्दन कटवाने को राजी हो जाओ। यह एक ढंग हुआ।

महात्मा गांधी कहते हैं कि अगर मेरी नहीं मानते तो मैं खुद मर जाऊंगा। और महीनों तक मरता रहूंगा, घिसता रहूंगा। और तुमको भी सताता रहूंगा। भृत की तरह तुम्हारे पीछे पड़ा रहूंगा। न तुम सो सकोगे, न बैठोगे। तुम खाना खाओगे तो भी विचार आयेगा कि एक आदमी मेरे पीछे है। यह कोई नई तरकीब भी नहीं है। स्त्रियां बस तरकीब का उपयोग सदियों से करती रही हैं। महात्मा गांधी की कोई खोज नहीं है इसमें। यह स्त्रियों का बहुत पुराना हथियार है. नहीं खाना खायेंगे। फिर ठीक: और सही का सवाल ही नहीं उठता। फिर जो नहीं खाना खा रहा है वही ठीक है। क्योंकि कौन झंझट बढ़ाये। उससे सार भी क्या है?

लेकिन इतना आग्रहपूर्ण होकर जब तुम दूसरे को बदलते हो तो तुम उसकी गर्दन पर शिकंजा कस रहे हो, तुम फांसी लगा रहे हो। यह सेवा नहीं है। और इसी तरह के सेवक काफी हैं। इस देश— में तो बहुत हैं। इस देश में तो सेवक ही सेवक हैं। थोड़े ही दिनों में इस देश में मुश्किल हो जायेगी कि एक—एक आदमी के पीछे कई—कई सेवक पड़े हुए हैं। क्योंकि सेवक ज्यादा हो जायेंगे, सेवा करवानेवाले कम रह जायेंगे। आखिर कहां इतने कोढ़ी खोजोगे? दबा रहे पैर! मालिश कर रहे हैं। कोढ़ी कह भी रहा है कि मेरी बहुत मालिश हो चुकी है दिन भर से। अब मुझे छोड़ो, मुझे कुछ और भी करने दो। मगर यह कैसे हो सकता है? सेवा करनी ही है।

सेवा का भाव ही एक भ्रांत धारणा पर खड़ा है। तुम इसके पहले सेवा की बात सोचो, सोच लेना कि मैं अभी कहां हूं, क्या हूं। मेरी अपनी अंतर्दशा कैसी है। पहले बुद्ध बनो। पहले जगो। पहले प्रीति का सागर बनो, फिर उस सागर से अपने आप तरंगें उठेंगी, लहरें उठेंगी न मालूम कितने लोग डूबेंगे। मगर तुम्हें डुबाना न पड़ेगा। तुम्हें एक—एक के पीछे दौड़ना नहीं पड़ेगा। लोग अपने से आकर डूबे, तब मजा है।

तुम लोगों को बदलना चाहो, तब मजा नहीं है; लोग बदलें, तब मजा है। तुम अनुशासन थोपो, उनको भयभीत करो कि नर्क में सडाये जाओगे अगर हमारी बात नहीं मानी; या स्वर्ग का पुरस्कार मिलेगा अगर हमारी बात मानी। ये सब धोखे— धडियां हैं। न कहीं कोई नर्क है, न कहीं कोई स्वर्ग है। यह सिर्फ चालबाजों की ईजाद है——उन चालबाजों की, जो आदमी की गर्दन से हाथ अलग नहीं करना चाहते। वे तुम्हें भयभीत करते है” और तुम्हें लोभी भी बनाते हैं।

सच्चा धार्मिक व्यक्ति न तो तुम्हें भय देता है, न तुम्हें लोभ देता है। सच्चा धार्मिक व्यक्ति अपने जीवन को तुम्हारे सामने खोल देता है। अगर उसमें से तुम्हें कुछ चुनना हो, चुन लो। चुन लो तो धन्यवाद, न चुनो तो धन्यवाद।

तुम चिंता न करो दूसरे लोगों के दुखों की। तुम अपना दुख मिटा लो। तुम रोओ मत। और रोना ही हो तो परमात्मा के लिए रोओ, विरह में रोओ। तो तुम्हारा रोना भी तुम्हें ऊपर की तरफ ले जायेगा, उड़ान देगा, ऊंचाई देगा। तुम्हारे आंसू तब बहुमूल्य हो जायेंगे। उन्हें परमात्मा के चरणों पर चढ़ाओ। और मैं तुमसे कहता हूं, एक दिन ऐसी घटना घटेगी कि तुम्हारे भीतर उतर आयेगा कुछ अज्ञात से। और तब तुम्हारे आसपास बहुत कुछ घटना शुरू हो जायेगा। वह अपने से घटता है। तुम उसकी चिंता ही नहीं लेना। तुम अकड़ना भी मत कि देखो, मेरे पास इतनी घटनाएं’ घट रही हैं; नहीं तो उसी वक्त रुक जायेगा। अहंकार आया कि परमात्मा गया। अहंकार गया कि परमात्मा आया।

यह भी अहंकार है कि मैं दूसरों के दुख मिटाऊंगा। मैं कोन हूं? अगर परमात्मा नहीं मिटा पा रहा है तो मैं कैसे मिटाऊंगा? कितने अवतार, कितने तीर्थंकर, कितने पैगंबर आये और गये; अगर नहीं मिटा पाये हैं आदमी का दुख तो मैं कैसे मिटाऊंगा? छोड़ो यह पागलपन। छोड़ो ये व्यर्थ की बातें।

कोई किसी का दुख नहीं मिटा सकता लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपना दुख जरूर मिटा सकता है। जो हो सकता है वही कर लो पहले, फिर जो नहीं हो सकता है वह भी होना शुरू हो जाता है। संभव को सम्हाल लो, असंभव भी सम्हलता है।

तीसरा प्रश्न: आप कहते हैं प्रेम परमात्मा है लेकिन मैं तो प्रेम से ऐसा जला बैठा हूं कि प्रेम शब्द से ही चिढ़ हो गई है। मुझे मार्गदर्शन दें।

 

प्रेम शब्द से न चिढो। यह हो सकता है कि तुमने जो प्रेम समझा था वह प्रेम ही नहीं था। उससे ही तुम जले बैठे हो। और यह भी मैं जापायेगा हूं कि दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंककर पीने लगता है।

तो तुम्हें प्रेम शब्द सुनकर पीड़ा उठ आती होगी, चोट लग जाती होगी। तुम्हारे घाव हरे हो जाते होंगे। फिर से तुम्हें अपनी पुरानी याददाश्तें उभर आती होंगी। लेकिन मैं उस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं।

मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं उस प्रेम का तो तुम्हें अभी पता ही नहीं है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह तो कभी असफल होता ही नहीं। और मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं— उसमें अगर कोई जल जाये तो निखरकर कुंदन बन जाता है, शुध्द स्वर्ण हो जाता है। मै जिस प्रेम की बात कर रहा हूं उसमें जलकर कोई जलता नहीं आर जीवंत हो जाता है। व्यर्थ जल जाता है, सार्थक निखर आता है।

लेकिन मैं तुम्हारी तकलीफ भी समझता हूं। बहुतों की तकलीफ यही है। इसलिए पा प्रेम जैसा प्यारा शब्द, बहुमूल्य शब्द अपना अर्थ खो दिया है——जैसे हीरा कीचड़ में गर गया हो।

लोग कहते हैं मुंहब्बत में असर होता है

कोन—से शहर में होता है कहां होता है

स्वभावत तुमने तो जिसको प्रेम करके जाना था उसमें सिवा दुख के और कुछ भी नहीं पाया, पीड़ा के सिवा कुछ हाथ न लगा। तुमने तो सोचा था कि प्रेम करेंगे तो जीवन में वसंत आयेगा। प्रेम ही पतझड़ लाया। प्रेम न करते तो ही भले थे। प्रेम ने सिर्फ नये—नये नर्क बनाये।

और ऐसा ही नहीं है कि जो प्रेम में हारते हैं उनके लिए ही नर्क और दुख होता है, जो जीतते हैं उनके लिए भी नर्क और दुख होता है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख है——तुम जो चाहो वह न मिले. एक, और दूसरा, तुम जो चाहो वह मिल जाये। और दूसरा दुख मैं कहता हूं, पहले से बड़ा है।

क्‍योंकि मजनू को लेला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में; कि करता सवारी बादलों की; कि चांद—तारों से बातें होतीं; कि खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूं। काश, लेला मिल जाती!

मजनूं को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लेला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे हैं कि मजनूं धन्यभाग था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।

जिनके प्रेम सफल हो गये हैं उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौज्द है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मरा—मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।

रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है, और जैसे ही पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।

बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जायें, समग्ररूपेण न हार जायें तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।

किस—दर्जा दिलशिकन थे मुंहब्बत के हादिसे

हम जिंदगी में फिर कोई अरमां न कर सके

एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।

दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है

यह नगर सौ मरतबा लूटा गया

और इतनी दफे लूट चुका है यह दिल। इतनी बार तुमने प्रेम किया है और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो।

मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।

तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अद्भुत कोम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया है, हरि। हरि का अर्थ होता है : लुटेरा——जो लूट ले, हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। हरण कर ले।

लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी—छोटी बातों में लुट गये। चुल्लू—चुल्लू पानी में डूबकर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे’ हो। अब तुमसे मैं कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी हैं।

मेरी माय्स मुंहब्बत की हक़ीक़त मत पूछ

दर्द की लहर है अहसास के पैमाने में

तुम्हारा प्रेम तो सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हसना न आया। आंसू ही आंसू हाथ. लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आयी।

इश्क का कोई नतीजा नहीं जुज दर्दो—अलम

लाख तदबीर किया कीजे हासिल है वही

लेकिन संसार के दुख का हासिल ही यही है कि दुख ही हाथ आता है।

इश्क़ का कोई नतीजा नहीं जुज दर्दो—अलम

दुख और दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।

लाख तदबीर किया कीजे हासिल है वही

यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़ो, राब तरफ से हासिल यही होगा। अतंत: तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त ओर कुछ भी नहीं है। राख के सिवा कुछ भी हाथ में नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं।

लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं होता ही नहीं। मैं तुमसे उन जगत की बात कर रहा हूं जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम तो बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं जो मन उपयोग करते हो। अगर मैं ऐसे शब्द उपयोग करूं जो तुम उपयोग नहीं करते तो रात ही न हो सकेगी। और अगर ऐसे शब्द उपयोग करता हूं जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।

जैसे ही तुमने सुना शब्द ‘प्रेम’, कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं उनका सब सार ना गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह कुछ और। मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम नही, नाटक नहीं। और जिनने यह प्रेम किया उन सबने यही कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है?। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाये तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।

दूर से आये थे साकी सुनकर मैखाने को हम

पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम

मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आये थे।

दूर से आये थे साकी सुनकर मैखाने को हम——मधुशाला की खबर सुनकर कहां से तुम्हारा आना हुआ जरा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आये हो।

पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम——यहां एक घूंट भी न मित्रा। चुल्लू भर भी प्यास बुझाने को मदिरा न मिली। एक पैमाना भी न मिला।

मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव होता है। तरसते हुए जाते है। हां, कभी—कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है।

मै किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोलकर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, वह अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।

तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री—पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति—पत्नी लड़ते ही रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक—दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाये इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।

मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जहां तुम परमात्मा से कुछ मांगते नहीं; कुछ भी नहीं। सिर्फ कहते हो, मुझे अंगीकार कर लो। मुझे स्वीकार कर लो। मुझे चरणों में पड़ा रहने दो। यह मेरा हृदय किसी कीमत का नहीं है, किसी का काम भी नहीं है, मगर चढ़ाता हूं तुम्हारे चरणों में। और कुछ मेरे पास है भी नहीं। और चढ़ा रहा हूं तो भी इसी भाव से चढ़ा रहा हूं: ‘त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्‍यमेव समर्पयेत्।’ तेरी ही चीज है। तुझी को वापिस लौटा रहा हूं। मेरा इसमें कुछ है भी नहीं। देने का सवाल भी नहीं है, देने की अकड़ भी नहीं है। मगर तुझे और तेरे चरणों में रखते ही इस हृदय को शांति मिलती है, आनंद मिलता है, रस मिलता है। जो खंड टूट गया था अपने मूल से, फिर जुड़ जाता है। जो वृक्ष उखड़ गया था जमीन से, उसको फिर जडें मिल जाती हैं, फिर हरा हो जाता है, फिर रसधार बहती है, फिर फूल खिलते हैं, फिर पक्षी गीत गाते हैं फिर चांद—तारों से मिलन होता है।

परमात्मा से प्रेम का अर्थ है कि मैं इस समग्र अस्तित्व के साथ अपने को जोडता हुं। मैं इससे अलग—अलग नहीं जियूंगा, अपने को भिन्न नहीं मानूंगा। अपने को पृथक मानकर नहीं अपनी जीवन—व्यवस्था बनाऊंगा। मैं इसके साथ एक हूं। इसकी जो नियति है वही मेरी नियति है। मेरा कोई अलग निजी लक्ष्य नहीं है। मैं इस धारा के साथ— बहुंगा, तैरूंगा भी नहीं। यह जहां ले जाये। यह डुबा दे तो डूब जाऊंगा। ऐसा समर्पण परमात्म—प्रेम का सूत्र है। खाली मत जाना।

मैकशों ने पीके तोड़े जाम—ए—मै

हाये वो सागर जो रक्खे रह गये

ऐसे ही रक्खे मत रह जाना। पी लो जीवन का रस। तोड़ चलो ये प्यालियां। और उसकी नजर एक बार तुम पर पड़ जाये, और तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जायेगा। लाखों में इन्तिखाब के क़ाबिल बना दिया

जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया

जरा रखो उसके चरणों में। जरा झुको। एक नजर उसकी पड़ जाये, एक किरण उसकी पड़ जाये और तुम रूपांतरित हुए। लोहा सोना हुआ। मिट्टी में अमृत के फूल खिल जाते है।

आखिरी जाम में क्या बात थी ऐसी साकी

हो गया पी के जो खामोश वो खामोश रहा

यहां तुमने बहुत तरह के जाम पिये। आखिरी जाम——उसकी मैं बात कर रहा हूं। आखिरी जाम में क्या बात थी ऐसी साकी

हो गया पी के जो खामोश वो खामोश रहा

उसको पी लोगे तो एक गहन सन्नाटा हो जायेगा। सब शांत, सब शुन्य, सब मौन भीतर कोई विचार की तरंग भी न उठेगी। उसी निस्तरंग चित्त को समाधि कहा है। उसी निस्तरंग चित्त में बोध होता है, मैं कोन हूं।

मे किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं, तुम किसी और ही प्रेम की बात सुन रहे हो। मै कुछ बोलता हूं, तुम कुछ सुनते हो। यह स्वाभाविक है शुरू—शुरू में। धीरे—धीरे बैठते—बैठते मेरे शब्द मेरे अर्थों में तुम्हें समझ में आने लगेंगे। सत्संग का यही प्रयोजन है। आज नहीं समझ में आया, कल समझ में आयेगा, कल नहीं तो परसों। सुनते— सुनते….। कब तक तुम जिद करोगे अपने ही अर्थ की? धीरे—धीरे एक नये अर्थ का आविर्भाव होने लगेगा।

मेरे पास बैठकर तुम्हें एक नई भाषा सीखनी है। एक नई अर्थव्यवस्था सीखनी है। एक नई भाव—भंगिमा, जीवन की एक नई मुद्रा! तुम्हारे ही शब्दों का उपयोग करूंगा लेकिन उन पर अर्थों की नई कलम लगाऊंगा। इसलिए जब भी तुम्हें मेरे किसी शब्द से अड़चन हो तो ख्याल रखना, अड़चन का कारण तुम्हारा अर्थ होगा, मेरा शब्द नहीं।

तुम यह भी कोशिश करना कि मेरा अर्थ क्या है। तुम अपने अर्थों को एक तरफ सरकाकर रख दो। तुम तत्परता दिखाओ मेरे अर्थ को पकड़ने की। और तत्परता दिखाई तो घटना निश्चित घटनेवाली है।

चौथा प्रश्न: मैं बहुत—से प्रश्न पूछना चाहता हूं किंतु फिर रुक जाता हूं क्योंकि वे सब व्यर्थ मालूम होते हैं। क्या सभी प्रश्न व्यर्थ हैं?

प्रश्न भी व्यर्थ हैं उत्तर भी व्यर्थ हैं। होना है निष्प्रश्न। पहुचना है ऐसी जगह, जहां न प्रश्न बचे न उत्तर बचे। क्योंकि प्रश्न भी विचार है और उत्तर भी विचार है। होना है शून्‍य। होना है निःशब्द। वहां न कोई प्रश्न उठेगा न कोई विचार उठेगा, न कोई उत्तर पर पकड़ रह जायेगी। ऐसी दशा में ही साक्षात्कार होता है।

इसलिए समाधि न तो हिंदू होती है, न तो मुसलमान होती है, न ईसाई होती है। विचार हिंदू होते हैं ईसाई होते हैं मुसलमान होते हैं, हजार ढंग के होते हैं। विचार सब ढंग—ढंग के होते हैं। समाधि का तो एक ही रग होता है——शून्यता। हिंदू भी चुप हो जायेगा तो वहीं पहुंच जायेगा जहां मुसलमान चुप होकर पहुंचेगा। स्त्री चुप होगी तो वहीं पहुंच जायेगी जहां पुरुष चुप होकर पहुंचेगा। लेकिन अगर बोलेंगे तो भेद पड़ जायेंगे, तो भिन्नता आ जायेगी।

अच्छा ही होता है कि तुम्हें दिखाई पड़ जाता है कि सारे प्रश्न व्यर्थ हैं। फिर भी उठते हैं। प्रश्न ऐसे ही मन में लगते हैं जैसे पत्ते वृक्षों में लगते हैं। मन का स्वभाव है प्रश्न करना। मन प्रश्नों के सहारे जिंदा रहता है। मन को उत्तर में उत्सुकता नहीं है, ख्याल रखना। ध्यान रखना, मन को उत्तर से कुछ लेना ही नहीं है। मन तो उत्तर से भी नये दस प्रश्न खड़े करने को उत्सुक है; इसलिए उत्तर भी मांगता है। एक प्रश्न पूछता है, उत्तर मिले, उत्तर में से दस नये प्रश्न खड़े कर देता है।

पूछेगा, परमात्मा ने बनाया जगत को? सच में परमात्मा ने जगत को बनाया? और ऐसा लगता है कि बड़ी श्रद्धा से, बड़ी निष्ठा से पूछ रहा है। कहो कि हां, परमात्मा ने जगत को बनाया। और दस प्रश्न खड़े हो जाते हैं. क्यों बनाया? फिर ऐसा ही क्यों बनाया? फिर इतना दुख क्यों बनाया? यह कैसा अन्याय हो रहा है? फिर कोई गरीब और अमीर क्यों बनाया? फिर कोई सुखी और दुखी, और कोई सोने की चम्मच मुंह में लेकर पैदा हो रहा है और कोई दाने—दाने को मोहताज है। फिर ऐसा क्यों किया? फिर पाप क्यों बनाया जगत में? फिर आदमी को ऐसा क्यों बनाया कि वह पाप कर सके? फिर उसे पुण्य ही करने की क्षमता क्यों न दी?

अब उठना शुरू हुआ। अब कोई अंत नहीं होगा। इसलिए बुद्ध जैसे ज्ञानी ने पहले ही प्रश्न पर रोक देना चाहा। पूछो बुद्ध से, ईश्वर है? बुद्ध कहते हैं, यह प्रश्न किसी काम का नहीं है। इससे न निर्वाण होगा, न समाधि लगेगी, न शांति मिलेगी। इससे तुम्हारे चित्त की चिकित्सा नहीं हो सकती। इसे हटाओ। यह किसी काम का नहीं है। बुद्ध जानते है कि इसका उत्तर दिया कि तुम दस प्रश्न ले आओगे। प्रश्नों की संतति बढ़ती ही चली जाती है।

प्रश्न मन में क्यों उठता है? यह असली प्रश्न से बचने की तरकीब है। असली प्रश्न तो एक है : मैं कोन हूं? मगर वह मन नहीं उठाता। वह कहता है, संसार क्या है? संसार से दुख क्यों है? संसार को किसने बनाया? क्यों बनाया? अत क्या है?लक्ष्य क्या है? हजार प्रश्न उठाता है। एक प्रश्न नहीं उठाता कि मैं कोन हूं।

महर्षि रमण के पास जब भी कोई जाता था, कोई भी प्रश्न लेकर जाये, वे कहते, छोड़ो यह, असली प्रश्न पूछो। लोगों की समझ में ही न आता कि असली प्रश्न क्या है। लोग पूछते आप ही बता दें, असली प्रश्न क्या है। तो वह तो एक ही प्रश्न था असली. मैं कोन हूं। तो वे कहते, मुझसे मत पूछो। असली प्रश्न दूसरे से नहीं पूछा जा सकता। आंखें बंद करो और दोहराओ भीतर कि मैं कोन हूं।

झूठे प्रश्न दूसरे से पूछे जा सकते हैं। झूठे ही हैं, किसी से भी पूछ लिये। असली प्रश्न तो अपने से ही पूछा जा सकता है। अपने ही अंतरतम में गुंजाना होता है। अपने ही भीतर, और भीतर, और भीतर, खोदते जाना होता है।

एक सवाल है कि क्या ख्याल है सच

और क्या झूठ है वास्तव

एक और सवाल है

कि क्या बवाल है बर्दाश्त करना

और क्या चोट पहुंचाना

खत्म करना है बवालों को

एक और सवाल है

कि पहले और दूसरे सवालों में से

कोन—सा है पहला

क्या ये दोनों ही सवाल

न पहले हैं न दूसरे हैं?

ये सवाल ही नहीं हैं

हमारी कमजोरी है

हमारी बेईमानी है

हमारी चोरी है

किस बात की चोरी? हम असली सवाल को छिपा रहे हैं धुआं उठाकर। हजार सवालों का जाल खड़ा करके हम असली सवाल को भुला रहे हैं। हम अपने को उलझा रखना चाहते हैं ताकि असली सवाल न पूछना पड़े। असली सवाल पीड़ादायी है। भाले की तरह चुभेगा छाती में, जब पूछोगे, मैं कोन हूं।

क्योंकि तुमने तो मान ही लिया है कि तुम्हें पता है। हरेक मानकर बैठा है कि मुझे पता है कि मैं कोन हूं। यह भी कोई पूछने की बात है?तुम तो जानते ही हो तुम्हारा नाम, पता, ठिकाना। और क्या चाहिए? तुम्हें पता है तुम गोरे हो कि काले हो; हिदू हो कि मुसलमान हो, हिंदुस्तानी कि पाकिस्तानी। तुम्हें सब पता है तुम्हारे पिता का नाम, पिता के पिता का नाम, तुम्हारा घर, सब तुम्हें पता है। तुम्हारा धंधा, तुम्हारी शिक्षा—दीक्षा, सब तुम्हें पता है; और क्या चाहिए?

और इसमें से कुछ भी तुम नहीं हो। न तो तुम्हारी शिक्षा तुम हो, न तुम्हारी दीक्षा तुम हो, न तुम्हारी संस्कृति न तुम्हारी सभ्यता, न तुम्हारा समाज। तुम इस सबसे अतीत हो, इस सबके पार हो। तुम शुद्ध चैतन्य हो। तुम सच्चिदानंद हो। उसे किसी विशेषण में बांधा नहीं जा सकता। तुम तो दर्पण हो। इस दर्पण में जो प्रतिबिंब बनते हैं वे प्रतिबिंब तुम नहीं हो। और जितनी चीजों को तुमने समझ रखा है कि यह मैं हूं, ये सब प्रतिबिंब है। अभी दर्पण की तुम्हें पहचान नहीं ही आयी। जब तुम दर्पण को जानोगे, पहचानोगे, चकित हो जाओगे, विमुग्ध हो जागोगे। ऐसे रस में डूबोगे कि फिर कभी उसके बाहर न आ सकोगे।

प्रश्न तो सब व्यर्थ हैं सिर्फ एक प्रश्न को छोड्कर। और उत्तर भी सभी हैं सिर्फ एक उत्तर को छोड्कर। लेकिन वह प्रश्न और वह उत्तर तुम्हारे भीतर घटना है। बाहर से कोई उत्तर नहीं मिल सकता। मैं कह रहा हूं कि सच्चिदानंद हो तुम, लेकिन इससे क्या होगा? तुमने सुन भी लिया, हुआ क्या?

परसों रात फ्रांस से आयी एक महिला को मैं कुछ कह रहा था। दुखी थी, उदास थी। कह रही थी कि कभी—कभी सुख भी होता है लेकिन अधिकतर तो मैं उदास ही रहती हूं। कभी—कभी ठीक लगता है, बस कभी—कभी। ज्यादातर तो सब ऐसा व्यर्थ लगता है। मैं क्या करूं? तो उसे मैंने कहा कि मैं तुझे एक सूफी कहानी कहता हूं। मैंने कहानी शुरू की थी, दो ही पंक्तियां कही थीं कि उसने कहा कि यह कहानी मुझे मालूम है। मैंने कहा, अगर यह कहानी तुझे मालूम है, सच में तुझे मालूम है तो फिर उदास क्यों है? वह थोड़ी चौंकी क्योंकि कहानी मालूम होने से उदास होने का क्या संबंध हो सकता है?

तो फिर मैंने कहा, तू फिर से सुन। तुझे कहानी मालूम नहीं है। तूने सुनी होगी, पड़ी होगी, लेकिन कहानी को जीना पड़ेगा। पढ़ने और सुनने से क्या होगा? कहानी तो छोटी—सी है, विख्यात है। तुममें से भी बहुतों को पता होगी। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, पता तभी होगी जब तुम जियोगे।

कहानी मैं उससे कह रहा था कि एक सम्राट ने अपने स्वर्णकार को बुलाया, सुनार को बुलाया और कहा, मेरे लिए एक सोने का छल्ला बना। और उसमें एक ऐसी पंक्ति लिख दे जो मुझे हर घड़ी में काम आये। दुख हो तो काम आये, सुख हो तो काम आये। सुनार ने छल्ला तो बनाया, सुंदर छल्ला बनाया हीरा—जड़ा, लेकिन बड़ी मुश्किल मे पड़ा था कि ऐसा वचन कैसे लिखूं उसमें जो हर वक्त काम आये? कुछ भी लिखूंगा, वह किसी समय काम आ सकता है, किसी खास घड़ी में, किसी संदर्भ में। लेकिन हर घड़ी में, जीवन के हर संदर्भ में काम आये ऐसा वचन कहां से लिखूं, कैसे लिखूं?

वह पागल हुआ जा रहा था। फिर उसे याद आया, एक फकीर गांव में आया है, उससे पूछ लें। फकीर के पास गया, फकीर ने कहा, इसमें कुछ खास बात नहीं है। तू जा और इतना लिख दे: ‘दिस टू विल पास। यह भी बीत जायेगा।’ और सम्राट को कह देना कि जब भी कोई भी घड़ी हो और तुम परेशान हो, खुश हो, दुखी हो, इस छल्ले में लिखे वचन को पढ़ लेना, वह काम पड़ेगा।

और वह काम पड़ा। सम्राट कुछ ही दिनों बाद एक युद्ध में हार गया और उसे भागना पड़ा। दुश्मन पीछे है, वह एक पहाड़ में जाकर छिप गया है, थर—थर कांप रहा है। घोड़ों की टाप सुनाई पड़ रही है। बड़ा दुखी है, जीवन मिट्टी हो गया। क्या सपने देखे थे, क्या से क्या हो गया। सोचता था, राज्य बड़ा होगा, इसलिए युद्ध में उतरा था। राज्य अपना था, वह भी गया। जो हाथ का था, वह भी गया उसको पाने में जो हाथ में नहीं था। बड़ा उदास था, बड़ा चिंतित था। कैसी भूल कर ली। तभी उसे याद आयी छल्ले की। वचन पड़ा। वचन था कि?यह भी बीत जायेगा।’ मन एकदम हलका हो गया। जैसे बंद कमरे के किवाड़ किसी ने खोल दिये। सूरज की रोशनी भीतर आ गई, ताजी हवा का झोंका भीतर आ गया। मंत्र की तरह! जैसे अमृत बरसा——’यह भी बीत जायेगा।’

वह शांत होकर बैठ गया। वह भूल ही गया थोड़ी देर में कि घोड़ों की टाप कब सुनाई पड़नी बंद हो गई, दुश्मन कब दूर निकल गये। बड़ी देर बाद उसे याद आयी कि अब तक पहुंचे नहीं। और तीन दिन बाद उसकी फौजें फिर इकट्ठी हो गई, उन्हों ने फिर हमला किया, वह जीत गया। वापिस अपनी राजधानी में विजेता की तरह लौटा। बड़ा अकड़ा था। फूल फेंके जा रहे थे, दुदुंभी बजाई जा रही थी। भारी शोभा— यात्रा थी। तभी अकड़ के उस क्षण में उसे अपना हीरा चमकता हुआ दिखाई पड़ा अंगूठी का। उसने फिर वह वचन पढ़ा : ‘यह भी बीत जायेगा।’ और चित्त फिर हलका हो गया। जैसे कोई द्वार खुला, रोशनी भर गई। वह जो अहंकार पकड़. रहा था कि देखो मैं! ऐसा विजेता था कभी पृथ्वी पर? इतिहास में लिखा जायेगा नाम स्वर्ण अक्ष—से में, उड़ गया। जैसे सुबह सूरज उगे और घास पर पड़ी ओस की बंद उड़ जाये, ऐसा वह अहंकार उड़ गया। हलका हो गया, फिर वही शांति आ गई।

मैं उस महिला को कह रहा था यह कहानी। मैंने आधी ही कही थी, उसने कहा कि मुझे यह कहानी मालूम है। मैंने कहा, नहीं मालूम। उसने कहा, मुझे मालूम है। मैंने कहा, नहीं मालूम है। अगर मालूम है तो जो तूने प्रश्न उठाया, वह उठाना नहीं था। दुख आता है, जानो कि बीत जायेगा। यहां सभी बीत जाता है। सुख आता है, बीत जाता है। न दुख में टूटो, न सुख में अकड़ो। न दुख में उदास हो जाओ, न सुख में फूल जाओ, कुप्पा हो जाओ। सब आता है, सब जाता है। पानी की धार है, गंगा बहती रहती है।

यहां कुछ थिर नहीं। यहां साक्षी के अतिरिक्त और कुछ भी थिर नqाईं है। यहां देखनेवाला भर बचता है, और सब बीत जाता है। सुख भी बीत जाता है, दुख भी बीत जाता है लेकिन जो दुख को जापायेगा है, सुख को जापायेगा है वह जाननेवाला कभी नहीं बीतता। वह अनबीता, सदा थिर। उसी की तलाश करनी है। उसको ही जिस दिन पहचान लोगे, जानना कि उत्तर मिला इस प्रश्न का कि मैं कोन हूं। और यही एकमात्र’ सार्थक प्रश्न है और यही एकमात्र सार्थक खोज है।

आखिरी प्रश्न : आप जो अमृत पिला रहे हैं उसे पीने से बहुत डरता हूं। क्या कारण होगा? क्यों डरता हूं? और मैं क्या करू?

मृत तुम कहते हो, तुम्हें अभी दिखाई नहीं पड़ा होगा, नहीं तो पी जाते। अमृत दिखाई पड़ जाये, अनुभव में आ जाये तो पीने से कोई रुकता नहीं, न भयभीत होता है। अमृत पीने से कोई भयभीत होगा?

नहीं, मैं कहता हूं कि अमृत है। तुम सुनते हो और मेरी मान लेते हो। मगर तुम्हें अमृत मालूम होता नहीं। और जब तक तुम्हें मालूम न होगा तब तक तुम कैसे पीयोगे? और तुम्हें मालूम हो जायेगा तो एक क्षण न लगेगा, तत्क्षण पी जाओगे। फिर कोन देरी करेगा? फिर एक क्षण न रुकोगे। क्योंकि एक क्षण का भी क्या भरोसा है?

तो पहली तो बात स्मरण कर लो. मेरे कहने के कारण कोई सत्य सत्य नहीं होता, तुम्‍हारी अनुभूति ही उसे सत्य का प्रमाण देगी। तुम्हें उसका गवाह होना पड़ेगा। तुम्हें कैसे पता चलेगा कि जो मैं कह रहा हूं, अमृत है? अभी तो तुम पीने में भी डर रहे हो। पियो तो ही पता चलेगा न? अभी तुम्हें स्वाद का भी पता कहां है? अभी तुमने शब्द सुने हैं। अभी शब्दों का अर्थ तुम्हारे प्राणों पर नहीं फैला। अभी तुमने दीये की बातें सुनी हैं। बातें सुन—सुनकर तुम मोहित भी हो गये, लेकिन तुम कहते हो, रोशनी क्‍यों नहीं होती? दीया जलाओगे तब रोशनी होगी। दीये की बात करने से रोशनी नहीं होती।

मैं जानता हूं कि अमृत है मगर मेरे जानने से क्या होगा? मेरे जानने से मैंने पिया। तुम्हारे जानने से तुम पीयोगे। कैसे तुम जान पाओगे? क्या उपाय करो जिससे तुम जान पाओ?

अगर ठीक यात्रा शुरू करनी हो तो यहां से शुरू करो. पहले तो तुम जो पी रहे हो वह देखो कि क्या है। वह जहर हे। सम्यक यात्रा शुरू होगी। पहले तो तुम जो पी रहे हो उसको गौर से देखो कि वह क्या है। तुम्हारे जीवन में दुख, पीड़ा, विषाद, संताप के और क्या है? तुम्हारे जीवन में विषाक्त धुएं के अतिरिक्त और क्या है? तुम्हारी दम घुटी जा रही है। तुम सूली पर चढ़े हुए हो। तुम अपने जीवन के जहर को ठीक से देख लो——तुम्हारा क्रोध, तुम्हारा मोह, तुम्हारा लोभ, तुम्हारा अहंकार, तुम्हारा द्वेष, तुम्हारा काम, तुम्हारी स्पर्धा, सब जहर है। तुमने जो अब तक पिया है वह जहर है।

ऐसी तुम्हारी प्रतीति पहले होनी चाहिए। और इसको करने में कोई कठिनाई नहीं है। तुम्हारा अनुभव कह रहा है कि जहर है। अगर तुम्हारा अनुभव न कहता तो तुम मेरे पास आते क्यों? तुम तलाश क्यों करते? तुम खोजते क्यों?

एक मित्र आये। बूढ़े संन्यासी हैं। हिमालय से आये थे। कहने लगे, आपका नाम सुनकर आया। संन्यास लिये तो तीस, पैतीस साल हो गये। मैंने उनसे पूछा, कुछ मिला? कहने लगे, हां मिला, मिला क्यों नहीं? लेकिन मैंने कहा, जिस ढंग से आप कहते हो कि?मिला, मिला क्यों नहीं’, उसमें मुझे शक मालूम होता है। थोड़े झिझके, तिलमिलाये। कहा कि नहीं, नहीं, मिला। पूरा न भी मिला हो, अभी पूर्ण समाधि. न भी मिली हो, निर्विकल्प समाधि न भी मिली हो लेकिन थोड़ी—थोड़ी सविकल्प समाधि का अनुभव तो होता है।

फिर मैंने कहा, यहां क्यों आये? क्योंकि अगर समाधि का थोड़ा भी अनुभव हो जाये तो सीढ़ी मिल गई। पहला सोपान मिल गया तो सीढ़ी मिल गई। अब उसके आगे दूसरा सोपान और तीसरा, और चढ़ते चले जाओ। मैं कुछ भी न कहूंगा आपसे क्योंकि आपको तो मिल ही गया है। मुझे उनसे बात करने दो जिनको अभी नहीं मिला है। वे कहने लगे कि नहीं, नहीं, मैं बड़े दूर से आया हूं। तो फिर मैंने कहा, सच्ची बात कहो कि मिला नहीं है। सोच लो थोड़ी देर। मगर तुम सच बोलोगे तो ही बात शुरू मैं करूंगा। नहीं तो बात शुरू करना व्यर्थ है। तुम्हें अगर मिल ही गया हो तो बात ही खतम हो गई। धन्यभागी हो। मैं खुश हूं कि तुम्हें मिल गया। अगर न मिला हो तो मैं कुछ सहारा दूं। तब वे कुछ झेंपे—से बोले कि नहीं, मिला तो नहीं है। कुछ भी नहीं मिला। फिर मैंने कहा, क्‍यों कह रहे थे कि मिल गया?

मैं समझता हूं अड़चन। तीस—पैतीस साल किसी ने गंवाये हो किसी काम में तो अहंकार जुड़ जाता है। फिर यह कहने में कि तीस—पैतीस साल मैं बुद्धू की तरह भटकता रहा हिमालय में, मूढ़ की तरह समय गवाता रहा, अच्छा नहीं लगता। आदमी अपने को बचाता है। कहता है, कुछ—कुछ मिला।

लेकिन ध्यान रखना, समाधि खंड—खंड में मिलती ही नहीं। ऐसा थोड़े ही कि मिल गई आधा सेर, फिर और आधा सेर, फिर मिलती रही, फिर पसेरी, फिर मन, फिर मन भर। ऐसी नहीं मिलती है समाधि। समाधि के टुकड़े होते ही नहीं। समाधि अखंड मिलती है। या तो मिलती है या नहीं मिलती। तो जो कहे, थोड़ी—थोड़ी मिल रही है, समझ लेना कि मिल नहीं रही है, थोड़ी—थोड़ी कहकर वह यह कह रहा है कि अब मुझे बिलकुल मूढ़ तो मत कहो। जो भी मैं कर रहा हूं उससे कुछ मुझे मिला है, मगर जितना चाहिए उतना नहीं मिला।

तुम जरा गौर से देखो कि तुम्हारे जीवन में जो तुमने पाया है वह जहर है या अमृत है? अगर अमृत है तो मेरे आशीर्वाद। फिर तुम यहां परेशान न होओ। अगर जहर है तो फिर यात्रा शुरू हो सकती है। क्योंकि जिसने जहर को जहर की तरह देख लिया, आधा काम पूरा हुआ। अमृत की तरफ आधी यात्रा हो गई। अंधेरे को अंधेरे की तरह देख लेना प्रकाश को प्रकाश की तरह देखने के लिए पहला कदम है। मैं अज्ञानी हूं यह दिखाई पड़ जाये तो ज्ञान की पहली किरण फूटी। मुझे पता नहीं है इतना पता चल जाये तो शुरूआत हो गई। तीर्थयात्रा शुरू हुई। पहला कदम उठा।

और पहला कदम ही कठिन है। फिर दूसरा कदम तो आसान है क्योंकि वह भी पहले ही जैसा होता है। फिर तीसरा भी आसान है, वह भी पहले ही जैसा होता है। फिर तो सब कदम आसान हैं।

तुम कहते हो,?आप जो पिला रहे हैं अमृत है। लेकिन मैं पीने में डरता हूं।’ तुम्हारे लिए अभी अमृत नहीं है। तुम तो जो पी रहे हो उसको समझते हो, कीमती है। और डर इसलिए रहे हो कि अगर मेरी बातें पीं तो तुम जो पी रहे हो, कहीं वह चूक न जाये। तुम दौड़ रहे हो पद की लालसा में। अब तुम्हें डर लगता है, अगर मेरी बातें सुनीं, और यह संन्यास कहीं छा गया तुम्हारे मन पर तो फिर क्या करोगे?

एक मिल बिहार से आये। और बिहारी तो जरा खास ही ढंग के लोग हैं दुनिया में। इस देश की सारी राजनीति वे ही चलाते हैं। सब उपद्रव वहीं से शुरू होते हैं। कोई भी उपद्रव शुरू करवाना हो——बिहार! कहीं और से शुरू हो ही नहीं सकता। कहने लगे, संन्यास तो लेना है मगर एक बात की आज्ञा चाहता हूं कि संन्यास के बाद भी मैं अपनी राजनीति बंद नहीं करूंगा। चुनाव तो लडूगा। इसकी आज्ञा चाहता हूं। मैंने उनसे कहा, तुम संन्यास का अर्थ भी नहीं समझे। अगर तुम यह आज्ञा चाहते हो तो तुम्हें संन्यास की कोई प्रतीति नहीं है कि तुम क्या मांग रहे हो। संन्यास का अर्थ ही यह है कि अब मैं महत्वाकांक्षा की दौड़ से हटता हूं। अब पद में मुझे रस नहीं है। अब परमात्मा में मुझे रस है। अब धन की मेरी आकांक्षा नहीं है, ध्यान की मेरी आकांक्षा लुँ। अब मैं दूसरों से आगे निकल जाऊं इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। अब मै’ अपने भीतर कैसे पहूंच जाऊं, यही मेरी चिंता है।

तुम कहते हो कि संन्यास भी ले लूं और आज्ञा भी दे दें कि मैं राजनीति में रहा। तो मैने कहा, तुम पहले राजनीति में रह आओ कुछ दिन और। और पियो। जब जहर का और अनुभव गहरा हो जाये तब लौट आना। अभी संन्यास की तैयारी नहीं है।

डर क्यों पैदा होता है? डर इसलिए पैदा होता है कि तुम्हारे न्यस्त स्वार्थ हैं उनमें चोट पड़ेगी। तुम अगर धन कमाने के पीछे दीवाने हो और मेरी बात तुमने ठीक से सुनी, समझी, उसमें डूबे, तुम्हारी पकड़ छूट जायेगी धन पर से। तुम्हारी प्रतिस्पर्धा, तुम्हारी हिंसा, सब छूट जायेगी। तुम थोड़े सरल हो जाओगे। अभी तुम दूसरों को लूटते थे, डर यही है कि कहीं दूसरे तुम्हें न लूट लें। इससे भय हो रहा है।

अमृत तो तुम पीना चाहते हो, मगर अपने को अछूता रखकर पीना चाहते हो। तुम चाहते हो, मैं जैसा हूं वैसा का वैसा रहूं और यह अमृत भी मिल जाये। यह असंभव है। फिर भी, यह प्रश्न तुमने तीसरी बार पूछा है। तो आते तो तुम हो। लगता है, बच भी अब सकते नहीं। शायद बचने की सीमा जो थी उसको तुम पार कर गये।

साक़ी मेरे ख़लूस की शिद्दत तो देखना

फिर आ गया हूं गर्दिशे—दौरा को टालकर

तुम आ जाते हो संसार का चक्कर छोड—छाड़कर फिर—फिर। जरूर कुछ न कुछ होना शुरू हुआ है——अंधेरे में सही, अचेतन में सही, मगर कहीं कोई चोट पड़ने लगी है। कहीं कोई नाद उठने लगा है। कोई तार छिड़ा है। अब तुम बच नहीं पाते। इसीलिए प्रश्न भी उठा है। किसी न किसी दिन पी ही जाओगे, घबड़ाओ मत। एकाध दिन जल्दी से घबड़ाहट में ही पी जाओगे।

मै—सी हसीन चीज को और वाक़ई हराम

मैं कसरते—शकूक से घबराके पी गया

ऐसे ही विचार करते—करते—करते एकाध दिन सोचोगे, कब तक….. कब तक? और एक भी बूंद तुम्हारे कंठ के गले उतर गई तो फिर तो पूरा सागर ही पीना होगा। फिर कम से काम में काम नहीं चलता।

मेरा तो निमंत्रण है, पी लो। भय को एक तरफ रखो। जिस चीज का भय लगता पते वह कर ही लो। वही भय से मिटने का उपाय होता है। अगर अंधेरे से भय लगता है, अंधेरे में चले ही जाओ। बैठ जाओ दूर जंगल में जाकर झाडू के नीचे। जो होना हो जाये। थोड़ी देर में तुम्हें मजा आने लगेगा अंधेरे में। बड़ा सन्नाटा, बड़ी शांति।

थोड़ी देर में भय भी बैठ जायेगा। थोड़ी देर में आकाश के तारे दिखाई पड़ने लगेंगे। झींगुरों की आवाज सुनाई पड़ने लगेगी। थोड़ी देर में रात का सन्नाटा और तुम्हारा प्राण साथ—साथ डोलने लगेंगे।

आरजू?जाम लो झिझक कैसी!

पी लो और दहशते—गुनाह गई

मगर पिये बिना जाती नहीं। दहशते—गुनाह——अपराध का भाव बना रहता है। वह भी है। मेरे पास तुम आते हो तो मैं किसी पिटे—पिटाये धर्म का पक्षपाती नहीं हूं। मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह एक क्रांतिकारी उद्घोष है। मेरे साथ जुड़ना और बहुत जगहों से टूट जाना हो जायेगा। मुझसे जुड़े तो जिस मंदिर तुम कल तक गये थे, उस मंदिर में जाना मुश्किल होने लगेगा। जिस मस्जिद में कल तक तुमने इबादत की थी, उस मस्जिद के लोग ही तुम्हारे लिए द्वार बंद कर देंगे।

पंजाब से मुझे कुछ पत्र आये हैं। कुछ सिक्ख संन्यासियों ने लिखा है कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गये हैं क्योंकि गुरुद्वारे में हमें आने नहीं दिया जाता। वे कहते हैं तुम चुनाव कर लो। अगर तुम्हें सिक्ख रहना है तो सिक्ख, और अगर तुम्हें ये गैरिक वस्त्र पहनने हैं और यह संन्यास स्वीकार करना है तो तुम जाओ जहां तुम्हें जाना है, मगर गुरुद्वारे मत आओ।

गुरुद्वारे में आने से जो रोक रहे हैं उन बेचारों को पता भी नहीं है कि सिक्ख शब्द का मतलब क्या होता है। उसका मतलब होता है, शिष्य। शिष्य का बिगड़ा हुआ रूप है सिक्ख। अब ये बेचारे शिष्य हो गये हैं वे उनको गुरुद्वारे में नहीं आने देते। इनको गुरु मिल गया है, इनको गुरुद्वारा छूटा जा रहा है। और गुरुद्वारे का मतलब ही केवल इतना होता है कि गुर? द्वार है; और कुछ मतलब नहीं होता।

बड़ी मुश्किल है। तुम्हें अड़चनें आयेंगी। जो धर्म मैं तुम्हें दे रहा हूं, यह एक विद्रोही पुकार है, एक चुनौती है। तुम जिस धर्म के अब तक आदी रहे हो——सत्यनारायण की कथा और हनुमान जी का चालीसा इत्यादि, उससे इसका कुछ लेना—देना नहीं है। वे सब तो सात्वनाएं हैं। उनसे तुम बदले नहीं जाते। वे तो तुम्हारे ही मन के बचाव के उपाय हैं। मैं तुम्हें जो दे रहा हूं वह तुम्हारे मन को नष्ट ही करेगा। और मन नष्ट हो तोही तुम्हारे भीतर आत्मा जगमगाये। यह मन का पर्दा हटे तो आत्मा प्रकट हो, अभिव्यक्त हो।

पी ही लो! भय छोड्कर पी लो।

एक जाम आखिरी तो पीना है और साकी

अब दस्ते—शौक कांपे‘ या पैर लडुखडायें

हाथ भी कंपते हों तो फिक्र छोड़ो। पैर भी लडखडाते होंतो फिक्र छोड़ो। एक दफा पीकर ही देख लो, फिर तय कर लेना कि और आगे पीना कि नहीं पीना। जिनने पी है उन्होंने फिर पीने के ही लिए तय किया है।

और पहली दफे तो हाथ कंपते हैं। डर लगता ही है। क्योंकि सारा अतीत एक, और एक नया काम करने चले। अतीत एक तरफ खींचता है——अतीत वजनी है। और फिर कल के लिए मत छोड़ो। मैं कहता हूं, आज ही पी लो।

साकिया यां चल रहा है चलचलाओ

जब तलक बस चले, सागर चले

कब कोन चल पड़ेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। आज हो, कल पता नहीं हो न हो। कल का क्या भरोसा!

साकिया यां चल रहा है चलचलाओ

जब तलक बस चले, सागर चले

इसलिए जब तक बन सके, पी लो। यह सागर मैं लिये तुम्हारे सामने खड़ा हूं, पी लो। भय को उतारकर पी लो। एक बार तो भय हटाकर पीना ही पड़ेगा। बिना पिये भय मिटेगा नहीं।

तुम्हारी हालत वही है जैसे कोई आदमी कहे कि मुझे तैरना सीखना है लेकिन पानी में मैं तभी उतरूंगा जब तैरना सीख लू। बिना तैरना सीखे मैं पानी में उतरता नहीं। मुझे डर लगता है। यह आदमी तैरना कैसे सीखेगा? यह कभी नहीं सीखेगा। अब कोई ऐसा थोड़े ही कि गद्दे—तकिये लगाकर और पड़े हैं कमरे में और तैरना सीख रहे हैं। पानी में उतरना पड़ेगा। उथले में उतरो, मत जाओ गहरे में एकदम। इसीलिए कहता हूं, एकाध घूंट पियो।

बहार जाम—ब—कफ झूमती हुई आयी

शिकस्त—ए—तोबा न करते तो और क्या करते

और इतने जोर से तुम्हें पुकार रहा हूं, चारों तरफ से घेरकर तुम्हें पुकार रहा हूं। बहार जाम—ब—कफ झूमती हुई आयी

शिकस्त—ए—तोबा न करते तो और क्या करते

ऐसी घड़ी में तो पुरानी कसमें छोड़ो, पुरानी आदतें छोड़ो।

भय सभी को पकड़ता है, तुम्हीं को नहीं। भय स्वाभाविक है। भय मन की आदत है। इसीलिए तो महावीर ने अभय को धर्म की पहली शर्त कहा है। अभय हो तो ही कोई नई दिशा में कदम उठा सकता है। और यह तो बड़ी नई दिशा है। धर्म सदा ही नई दिशा है। धर्म— कभी पुराना पड़ता ही नहीं। और जो पुराना पड़ जाता है वह ‘धर्म नहीं है, परंपरा है। धर्म तो रोज नये—नये अवतरण लेता है। रोज नये रूप में आकाश से उतरता है। नये गीत गाता है। धर्म पुराने गीत नहीं दोहराता। धर्म रोज नये गीत उठाता है और परंपरा पुराने गीत गाती है। और हम पुराने गीतों के आदी हो जाते हैं तो फिर नया गीत हमारे कंठ से नहीं उतरता।

मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि लगाव तुम्हारा बन गया है। भागने का उपाय नहीं है। लौट जाने की संभावना नहीं है। अब पी ही लो। और पीकर ही तुम जानोगे कि यह अमृत है। और इसे पीकर ही तुम जानोगे कि तुम जिन मंदिरों में गये थे और जिन मस्जिदों में गये थे वह सब ऊपर—ऊपर था। इसे पीकर तुम पहली दफे मंदिर में पहुंचोगे, मस्जिद में पहुंचोगे। —इसे पीकर तुम जहां बैठ जाते हो वहीं तीर्थ बन जाता है।

आज इतना ही।


Filed under: नाम सुमिर मन बावरे--(जगजीवन दास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आंनद प्रसाद
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