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प्रभु की पगडंडियां–(ध्‍यान–शिविर)–प्रवचन–3

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मौन, उपेक्षा, करूणा और ध्‍यान—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 1 दिसम्‍बर, 1968, रात्री।

ध्‍यान-शिविर, नारगोल।

बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि ओशो मौन का प्रयोग करते हैं तो आस— पास के वातावरण के प्रति एक तरह की उपेक्षा का भाव आ जाता है— और सुबह मैने कहा है कि करुणा का प्रयोग करना है— तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि मौन और करुणा दोनों प्रयोग एक साथ कैसे किए जा सकते हैं?

निरंतर बात करने की आदत से ऐसा लगता है कि जब हम मौन हो रहे हैं तो हम उन लोगों के प्रति कठोर हो रहे हैं जिनसे हम बात करते थे, लेकिन शायद ही आपको स्मरण आया होगा कि आपने अपने को छोड़ कर और कभी किसी से बात नहीं की है। जब आप दूसरे से बात करते हैं तो दूसरा सिर्फ बहाना है। जो बात आपको करनी है वही आप करते हैं और अगर आपको अकेले में छोड़ दिया जाए जहां कोई भी न हो तो आप दीवालों से वही बात शुरू कर देंगे। दूसरे लोग खूंटियों की तरह हैं जिन पर हम अपनी बातें टांग देते हैं। वे केवल बहाने हैं, उनसे कोई प्रयोजन नहीं है।

एक आदमी सुबह से अखबार पढ़ लेता है और फिर तलाश में घूमता है कि कोई खूंटी मिल जाए, उसने जो पढ़ लिया है वह उससे बोल कर बता सके। और दिन भर हर आदमी पर खूंटी का प्रयोग करता है और टांगता चला जाता है।

दूसरे आदमियों से बात करके हम उनके प्रति कोई करुणा और प्रेम जाहिर करते हों, तो यह गलत है खयाल। लेकिन मौन की गहराई में उतर कर जरूर ऐसा हो सकता है कि हमारे पास करने को कोई बात न रह जाए, टांगने को कोई बात न रह जाए। तब दूसरा व्यक्ति महत्वपूर्ण हो सकता है और हम उसके हित के लिए कुछ कह सकते हैं।

दूसरे के हित के लिए जगत में जो भी विचार पैदा हुए हैं वे सदा मौन से पैदा हुए हैं। विचारों और बातों से भरे हुए लोग दूसरे का सिर्फ साधन की तरह उपयोग करते हैं। दूसरे की मौजूदगी में वह जो कचरा उनके दिमाग में भरा हुआ है उसे उड़ेलने की कोशिश करते हैं। दूसरा केवल टोकरी का काम करता है, खूंटी का काम करता है। दूसरे का इससे ज्यादा उपयोग नहीं है।

नहीं, आप बात करके दूसरे के प्रति करुणा और प्रेम प्रकट नहीं करते हैं, लेकिन मौन की स्थिति में कभी यह हो सकता है कि आपको दूसरा दिखाई पड़े। उसका हित दिखाई पड़े, उसके लिए क्या जरूरी है यह दिखाई पड़े।

अभी तो आपको क्या कहना आवश्यक है, आप महत्वपूर्ण हैं कहते समय, दूसरा नहीं। कभी आपने बातचीत करते समय खयाल किया है, जब दूसरा बोल रहा होता है तब आप केवल बहाना करते हैं कि मैं सुन रहा हूं। भीतर आप तैयारी करते हैं कि यह कब बंद हो जाए और मैं बोलना शुरू करूं। आप सिर्फ तलाश में होते हैं कि कब वह मौका मिल जाए कि मैं इसे बंद करूं और बोलूं।

एक बड़े मनोवैज्ञानिक जुग के पास दो प्रोफेसर इलाज के लिए ठहरे हुए थे। दोनों का मस्तिष्क खराब हो गया था। दोनों बडे ज्ञानी थे। और ज्ञानियों के मस्तिष्क अक्सर खराब हो जाते हैं। दोनों को निरंतर बात करने की आदत थी। दोनों को साथ ही ठहराया गया था।

वह बड़ा मनोवैज्ञानिक खिड़की से छिप कर देखता था कि वे क्या करते हैं। तो वह बहुत हैरान हुआ। एक बात करता था, घंटे—डेढ़ घंटे तक बोलता था, दूसरा बिलकुल चुपचाप बैठ कर सुनता था। ऐसा लगता था कि वह सुन रहा है। फिर उसकी बात बंद होती और दूसरा शुरू करता। जब दूसरा शुरू करता तो पहले वाला चुपचाप बैठ कर सुनने लगता। लेकिन दूसरे की बात से पता चलता कि पहली वाली बात से इस बात का कोई भी संबंध नहीं है।

और वह बड़ा हैरान हुआ कि जिन बातों का कोई संबंध न था, वे भी एक—दूसरे को चुप होकर सुनते थे। ज्यादा आश्चर्य की बात यह थी। क्योंकि पागलों की बातचीत में संबंध हो इसकी तो कोई आशा नहीं की जा सकती। लेकिन दोनों पागल इतना शिष्ट व्यवहार करते थे कि जब एक बोलता तो दूसरा बिलकुल चुप रहता। उस मनोवैज्ञानिक ने उनसे पूछा कि दोस्तो! बड़े आश्चर्य में डाल दिया तुमने, एक बोलता है तब दूसरा चुप क्यों रहता है? उन्होंने कहा क्या तुम समझते हो कि हमें बातचीत करने का नियम मालूम नहीं, हमें कनवसेंशन का नियम नहीं मालूम? हमें मालूम है कि जब एक बोले तो दूसरे को चुप रहना चाहिए।

उस मनोवैज्ञानिक ने अपनी डायरी में लिखा है कि मुझे उस दिन पहली बार खयाल आया कि ये तो पागल हैं, लेकिन हमारा भी बातचीत करने का ढंग क्या है? हम भी दूसरे के चुप होने की प्रतीक्षा करते हैं कि हम बोलें। इसलिए जो आदमी आपको नहीं बोलने देगा, लगेगा कि यह बहुत बोर है। वह इसलिए बोर नहीं लगता उबाने वाला कि वह बोले चला जा रहा है, वह इसलिए उबाने वाला लगता है कि वह आपको मौका ही नहीं देता कि आप बोल सकें। वह बोलता ही चला जाता है और आपके भीतर गूंज पैदा होती है कि अब मैं बोलूं लेकिन वह मौका नहीं देता। अगर वह आपको भी बोर करने का मौका दे तो वह आदमी बड़ा अच्छा है। वे आदमी बहुत अच्छे लगते हैं जो आपकी बातें सुनते हैं।

एक सज्जन ने एक दिन मुझसे कहा कि मैं एक घंटे आपसे बातचीत करने आने को हूं। कई दिनों से प्रतीक्षा करता हूं सिर्फ एक घंटा मुझे चाहिए। मैंने उनसे कहा आज ही आ जाएं। वह आए और घंटे भर तक बोलते रहे और मैं हां—हूं करता रहा, बैठ कर सुनता रहा। जब वे जाने लगे, मुझसे कहने लगे कि आपकी बातचीत से बहुत आनंद आया। मैं बहुत चौंका!

मैंने उनसे कहा : मेरी बातचीत से? आनंद आया तो आपकी बातचीत से आया। मुझे तो अवसर कहां था कि मैं बोलता। आपने बोलने कहां दिया?

वे कहने लगे नहीं—नहीं, बहुत आनंद आया। कभी—कभी आऊंगा, और बहुत सी बातें आपसे मुझे पूछनी हैं। उन्होंने न मुझसे कुछ पूछा, न सुविधा थी उन्हें, न उन्हें जरूरत थी। लेकिन जाते समय उन्हें ऐसा जरूर लगा कि बहुत अच्छा आदमी है, इससे बातचीत में बहुत आनंद आया।

नहीं, इस भ्रांति में आप मत रहना कि जब आप बात कर रहे हैं तब आप दूसरे के प्रति प्रीतिपूर्ण हैं। सच तो यह है कि जिसको आप प्रेम करते हैं उसके पास जब आप बैठेंगे तो बातचीत खो जाएगी। जिसको भी आप प्रेम करते हैं उसके पास बातचीत खो जाएगी, उसके पास कुछ बात करने को नहीं मिलेगा। उसके पास लगेगा कि कितना सोचा था कि बात करेंगे, लेकिन जब प्रेमी पास आ जाता है तो सब शब्द खो जाते हैं, सब बात खो जाती है। प्रेमी के पास मौन पैदा हो जाता है।

जिन्होंने भी थोड़ा भी जीवन में प्रेम जाना है, वे जानते होंगे कि प्रेम के निकट शब्द खो जाते हैं और मौन आ जाता है। और उलटा भी सच है। अगर मौन आ जाए तो भी प्रेम आ जाता है। वे दोनों एक—दूसरे के छोर हैं। मौन आ जाए तो प्रेम आ जाता है, प्रेम आ जाए तो मौन आ जाता है। नहीं, ऐसा मत सोचें कि मौन से आप कठोर हो जाएंगे। बड़ी कृपा होगी आपकी, बड़ी करुणा होगी दूसरों पर कि आप मौन हैं, आप चुप हैं।

मौन में और करुणा में विरोध नहीं है। मौन से ही करुणा पैदा होती है। और करुणावान व्यक्ति धीरे— धीरे मौन होता चला जाता है। वह बोलता है तो इसलिए नहीं कि उसके भीतर बोलने की कोई जरूरत है। वह बोलता है तो इसलिए कि बाहर कोई जरूरत है, अन्यथा वह नहीं बोले। उसका बोलना रोग नहीं है, उसका बोलना बीमारी नहीं है, उसके भीतर कुछ घुमड़ नहीं रहा है जिसे उसे बरसा देना है। उसका बोलना जिससे वह बोल रहा है; उसकी जरूरत है, उसका इलाज है, उसका उपचार है।

दो तरह से लोग बोलते हैं, वे जो करुणावान हैं— इसलिए कि उनका बोला हुआ किसी के काम पड़ सकता है। और वे जो करुणावान नहीं हैं—इसलिए नहीं कि उनका बोला किसी के काम पड़ सकता है, बल्कि इसलिए कि वे इतने भरे हुए हैं शब्दों और विचारों से कि जब तक उसे उलीचने को कोई न मिल जाए, किसी पर फेंकने का अवसर न मिले तब तक वे दिन भर परेशानी, बोझिलता अनुभव करेंगे। वह कठोरता नहीं मालूम हुई होगी। वह मालूम हुआ होगा बोझिलपन, क्योंकि रोज—रोज जो निकाल देते हैं हम— आज निकालने का अवसर न रहा; वह इकट्ठा हो गया होगा, घना हो गया होगा, मस्तिष्क भारी हो गया होगा।

वह भार कठोरता के कारण नहीं है, वह गलत आदत के कारण है। प्रयोग करेंगे धीरे— धीरे तो वह आदत चली जाएगी और तब मौन से करुणा का जन्म होगा और करुणा से मौन पैदा होता है। उन दोनों में विरोध नहीं है।

एक मित्र ने पूछा है कि ओशो एक घंटे के मौन में आपके मन की अवस्था कैसी होती है? ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?

मौन जब पूर्ण होता है तो मन होता ही नहीं। मन की अवस्था का सवाल नहीं है। मौन का अर्थ है मन की मृत्यु। वहां मन नहीं है। वहा जो रह गया है उसी को आत्मा कहते हैं। तो मौन मन की अवस्था नहीं है। मौन है मन की मृत्यु, मौन है मन का समाप्त हो जाना, मौन है मन का विलीन हो जाना।

जैसे सागर में लहरें हैं, कोई हमसे आकर पूछे कि जब सागर शांत होता है तो लहरों की क्या अवस्था होती है, तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, जब सागर शांत होता है तो लहरें होती ही नहीं। लहरों की अवस्था का सवाल नहीं। सागर अशांत होता है तो लहरें होती हैं। असल में लहरें और अशांति एक ही चीज के दो नाम हैं। अशांति नहीं रही तो लहरें नहीं रहीं, रह गया सागर।

मन है अशांति, मन है लहर। जब सब मौन हो गया तो लहरें चली गईं, विचार चले गए, मन भी गया, रह गया सागर, रह गई आत्मा, रह गया परमात्मा। परमात्मा के सागर पर मन की जो लहरें हैं वे ही हम अलग— अलग व्यक्ति बन गए हैं। एक—एक लहर को अगर होश आ जाए तो वह कहेगी ‘मैं हूं।’ और उसे पता भी नहीं कि वह नहीं है, सागर है। यह जो हमें खयाल उठता है कि ‘मैं हूं’ यह हमारी एक—एक मन की अशांत लहरों का जोड़ है। ये लहरें विलीन हो जाएंगी तो आप नहीं रहेंगे, मन नहीं रहेगा। रह जाएगा परमात्मा, रह जाएगा एक चेतना का सागर।

परिपूर्ण मौन—मन की अवस्था नहीं, मन की मृत्यु है। जैसे—जैसे हम मौन होते हैं वैसे—वैसे हम मन के पार जाते हैं। जितना ज्यादा हम विचार से भरे होते हैं उतना हम मन के भीतर होते हैं, जितना विचार के बाहर होते हैं उतना मन के बाहर होते हैं। तो ऐसा मत पूछिए कि उस समय मन की अवस्था कैसी है।

अगर मन की कोई भी अवस्था है तो अभी मौन नहीं हुआ। जब मौन होगा तो मन नहीं होगा। जहां मन है वहां मौन नहीं, जहां मौन है वहां मन नहीं।

एक मित्र पूछते हैं ओशो एक भिखारी है— उसको हमेशा मांगने की आदत हो गई है क्या उसके प्रति ऐसे लोगों के प्रति भी हमारी करुणा होनी उचित है?

निश्चित ही ऐसे सवाल उठने चाहिए।

एक भिखारी है, भीख मांगता है और उसकी आदत हो गई है भीख मांगने की। लेकिन किसने इसे भिखारी बनाया? लेकिन किसने इसे आदत डालने को मजबूर किया? लेकिन किसने इसे आज तक भिक्षा दी? हमने, मैंने, आपने!

यह भिखारी है, क्योंकि यह समाज भिखारी पैदा करने की व्यवस्था से बना हुआ है। इस भिखारी को आदत पड़ गई, क्योंकि यह समाज भिक्षा की आदत डलवाता है। ऋषि—मुनि, साधु—संन्यासी समझाते हैं कि भिक्षा से, दान से मोक्ष मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा, परमात्मा मिलेगा। जिस समाज में इस तरह के समझाने वाले लोग हैं कि भिक्षा देने से, दान देने से, गरीब को रोटी देने से मोक्ष मिलेगा उस समाज में कुछ गरीब दूसरे लोगों को मोक्ष पहुंचाने की अगर आदत डाल लें तो कोई आश्चर्य नहीं है। और यह समाज कैसा है जिसमें कि गरीब आदमी पैदा हो जाता है!

जिस समाज में गरीब आदमी पैदा हो जाता है उस समाज के सारे सदस्य उस गरीब आदमी के लिए जिम्मेवार हैं। जिस समाज में भीख मांगने की स्थिति में किसी मनुष्य की आत्मा को खड़े होना पड़ता है वह समाज निंदा के योग्य है, वह पूरा समाज निंदा के योग्य है। और जो आदमी सोचता है कि भिखारी को रोटी देकर मैं करुणा कर रहा हूं वह आदमी भी गलत सोचता है। क्योंकि भिखारी को दी गई रोटी से भिखारी नहीं मिटता है सिर्फ भिखारी को दी गई रोटी से भिखारी अपने भिखमंगेपन में भी संतुष्ट हो जाता है।

नहीं, जिनके मन करुणा से भरे हैं वे इस पूरे समाज को बदल देंगे जिसमें भिखारी पैदा होते हैं। भिखारी पर दया और करुणा का अर्थ एक ही है कि ऐसा समाज हम बनाएं जहां भिखारी पैदा न हो सकता हो। भिखारी को दान दे देने से इस भूल में आप मत पड़ना कि आप भिखारी पर करुणा कर रहे हैं।

सच तो यह है कि करुणा की आडू में आप भिखारी को संतुष्ट होने की व्यवस्था कर रहे हैं कि वह भीख मांगता रहे और संतुष्ट बना रहे। और जिस समाज में भीख मांगने वाला आदमी संतुष्ट हो जाता है उस समाज में क्रांति असंभव हो जाती है। ये दान देने वाले लोग, ये भिक्षा देने वाले लोग! इन्हें भिखारी के भिखमंगेपन से इन्हें उसकी दरिद्रता से कोई भी प्रयोजन नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि ये सारे दान और यह भिक्षा और ये धर्मशालाएं और ये मदिर—ये सब इसलिए खड़े हैं कि भिखारी और गरीब यह भी अहसास करता रहे कि यह समाज बहुत अच्छा है, हमें रोटी देता है, धर्मशाला बनाता है, कपड़े देता है, दवाई देता है। यह समाज बहुत अच्छा है!

और यह समाज उसे भिखारी बनाता है। यह उसे पता न चल पाए। उसे यह पता न चल पाए कि यह समाज ही उसका खून पीता है, उसे भिखारी बनाता है, और यही समाज उसे दो कौड़ी फेंक कर यह भी संतोष दिलवाता है कि समाज दानियों का है, अच्छे लोगों का है। इसका एकमात्र परिणाम यह होता है कि दरिद्र जो क्रांति कर सकता था, उसकी क्रांति मर जाती है और समाज जिंदा बना रहता है। वह समाज जिंदा बना रहता है जो कि बुनियादी रूप से गलत है, जहां गरीब पैदा होता है।

नहीं, जिनके मन में करुणा है वे एक ऐसा समाज बनाने का विचार करेंगे जहां गरीब का पैदा होना असंभव हो। मैं उनको करुणावान नहीं कहता जो एक गरीब को रोटी दे देते हैं। सवाल गरीबी मिटाने का है, एक गरीब को रोटी देने से गरीबी नहीं मिटती है और न गरीब को दरिद्रनारायण कहने से गरीबी मिटती है और न गरीब की पूजा करने से गरीबी मिटती है। गरीबी एक रोग है, गरीबी एक पाप है और पूरे समाज के माथे पर कलंक है। वह पूरी की पूरी गरीबी जिस व्यवस्था से पैदा होती है वह सारी व्यवस्था जला देने योग्य है।

जिनके मन में करुणा है वे समाज में क्रांति लाएंगे। दान की बातें खतरनाक, थोथी और शरारत से भरी हैं। उनका एक ही मतलब है कि किसी तरह का कसोलेशन, किसी तरह की सांत्वना गरीब को देते रहो, ताकि गरीब गरीब भी बना रहे, अमीर अमीर बना रहे और गरीब कभी इतना असंतुष्ट भी न हो जाए कि वह क्रांति करने को राजी हो जाए।

इसलिए अमीर की जो समाज—व्यवस्था है, धन की जो समाज—व्यवस्था है, शोषण की जो समाज— व्यवस्था है—हर शोषण की समाज—व्यवस्था दान की व्यवस्था भी पैदा करती है। वह दान की व्यवस्था, शोषण की व्यवस्था की सुरक्षा है। वह आयोजन है कि वहां शोषण भी चलता रहे और दान भी। और कभी किसी को यह खयाल भी पैदा न हो कि यह सारी दरिद्रता, ये भिखारी, ये भूखे मरते हुए लोग, यह हमारे समाज का जो ढांचा है, उसके अनिवार्य परिणाम हैं। और जब तक समाज का ढांचा नहीं बदलता, तब तक यह गरीब गरीब रहेगा, भिखारी रहेगा। भिखारी भीख मांगने का भी आदी होगा और लोग भीख भी देते रहेंगे।

नहीं, जिसकी करुणा गहरी है वह आर—पार देखेगा पूरी बात को कि यह गरीब कैसे पैदा होता है? यह भिखमंगा कैसे पैदा होता है? यह समाज कैसा है जिसमें एक आदमी अपनी आत्मा को इतना पतित करने के लिए मजबूर हो जाता है कि वह भीख मांगने की आदत बना ले? और जो लोग इस दरिद्र भिखारी को दान देकर सुख लेते हैं, वे उस भिखारी से भी नीचे गिर रहे हैं कि इस गरीब आदमी को दो पैसे देकर एक आदमी कहता है कि मैंने स्वर्ग की व्यवस्था कर ली!

एक आदमी कहता है, मैं दानी हूं क्योंकि मैंने दस हजार भिखमंगों को खाना खिलाया। उन भिखमंगों से बदतर है इस आदमी की आत्मा, क्योंकि उनकी गरीबी का भी शोषण किया जा रहा है, उनकी गरीबी को भी रास्ता बनाया जा रहा है स्वर्ग तक पहुंचने का। उनकी दीनता का भी शोषण किया जा रहा है। उनका धन भी चूस लिया गया, उनकी दीनता भी शोषित की जा रही है। उनकी दीनता का भी एक उपयोग किया जा रहा है—कि स्वर्ग, मोक्ष, भगवान!

नहीं, करुणा—करुणा बहुत गहरी बात है, बहुत क्रांति की बात है। जगत में करुणा होगी तो ऐसा गंदा और कुरूप समाज एक दिन भी नहीं चल सकता है। यह पूरा समाज बदल देने जैसा है। एक—एक भिखारी का सवाल नहीं है, भिखारी पैदा करने वाली समाज की व्यवस्था का सवाल है। गरीब का सवाल नहीं है, गरीबी का सवाल है। गरीब आदमी का कोई सवाल नहीं है, सवाल है गरीबी का। गरीबी मिटानी है। भिखारी का सवाल नहीं है, सवाल है भिखमंगेपन का। भिखमंगापन क्यों पैदा होता है; उसे मिटा देना है। और वे लोग जो एक भिखारी को चार पैसे और एक रोटी देकर समझते हैं कि करुणा कर ली—करुणा बड़ी सस्ती समझ रहे हैं! बहुत सस्ते में खरीद लाए करुणा को एक रोटी देकर! करुणा इतनी सस्ती नहीं है।

अगर करुणा होती तो हम वह समाज ही मिटा देते। और जिस दिन करुणा होगी यह सारा समाज आमूल बदलना पड़ेगा। और इसलिए धर्मगुरु करुणा और अहिंसा की सब बातें करते हैं, लेकिन नहीं चाहते हैं कि जगत में करुणा सच में हो। क्योंकि करुणा बहुत क्रांतिकारी है, आग की तरह है, सारी जिंदगी को बदल देगी। इसलिए करुणा की बातें कही गई हैं और धोखा दिया गया है।

करुणा, अहिंसा, दया और प्रेम इन सब शब्दों के पीछे धोखा दिया गया। अहिंसा इसलिए नहीं कि किसी दूसरे आदमी को दुख पहुंचाना बुरा है। अहिंसा इसलिए कि दूसरे आदमी को दुख पहुंचाने से तुम्हें पाप लगेगा और तुम नरक के भागी हो जाओगे। अहिंसा के भी पीछे बुनियादी मतलब दूसरा है।

मतलब यह है कि मैं नरक न चला जाऊं, इसलिए अहिंसा। दूसरे के दुख से प्रयोजन नहीं है। अगर यह पता चल जाए कि दूसरे को दुख देने से नरक जाने की कोई जरूरत नहीं है, तो ये अहिंसा की बातें करने वाले लोग अहिंसा—वहिंसा की बातचीत बंद कर देंगे। अगर इनको पता चल जाए कि हिंसा से स्वर्ग पाया जा सकता है, तो ये बराबर हिंसा से स्वर्ग पा लेंगे। इन्हें स्वर्ग पाना है। चूंकि समझाया जाता है कि तुम्हारा स्वर्ग छिन जाएगा, इसलिए अहिंसा करनी जरूरी है।’ अहिंसा’ शब्द सूचना देता है अपने ही अहंकार की तृप्ति की।

नहीं, इस तरह की अहिंसा न प्रेम है, न करुणा।

इसी संबंध में एक मित्र ने और पूछा है कि ओशो अहिंसा करुणा दया प्रेम क्या ये शब्द समानार्थी नहीं हैं?

हीं, ये शब्द समानार्थी नहीं हैं। असल में कोई दो शब्द बिलकुल समानार्थी नहीं होते, न हो सकते हैं। अगर हों तो उनकी जरूरत ही खत्म हो गई। उनमें थोड़ा सा फासला और फर्क होता है, इसीलिए वे ईजाद होते हैं, नहीं तो उनकी कोई जरूरत न थी।

करुणा का अर्थ है एक ऐसा हृदय जो प्रेम से भरा हुआ है। एक ऐसा हृदय जिसकी धारा बिना शर्त सबके प्रति मंगल की कामना से भरी हुई है।

दया और करुणा में बहुत फर्क है। दया बहुत बुरी बात है। दया कोई शुभ बात नहीं, क्योंकि दया का अर्थ है दूसरे पर दया। और जिस पर हम दया करते हैं उसे हम दयनीय स्वीकार कर लेते हैं, और किसी को भी दयनीय स्वीकार करना उसका अपमान है।

इसलिए दया जिस पर भी आप करेंगे, वह आदमी आपकी दया का बदला लेगा; आज नहीं कल आप दया का बदला जरूर पाएंगे। इसीलिए तो लोग कहते हैं कि हमने तो इतनी दया की इस पर, इतनी नेकी की और यह बदी से बदला चुका रहा हैं—चुकाएगा, क्योंकि दया में बुनियादी रूप से घृणा छिपी है, दया में अपमान छिपा है। दया का मतलब है कि तुम नीचे हो और हम दया कर रहे हैं। तुम दया के योग्य हो।

नहीं, ‘दया’ कोई शुभ शब्द नहीं है। दया कोई पुण्य अर्थ नहीं रखता।

करुणा यह नहीं कहती कि तुम दया योग्य हो इसलिए हम दया कर रहे हैं।

करुणा यह कहती है कि मेरा हृदय करुणा से भरा है, इसलिए हम करुणा बांट रहे हैं। तुम क्या हो इससे कोई प्रयोजन नहीं है। सम्राट निकलेगा मेरे सामने से तो भी मेरा हृदय करुणा से भरा रहेगा और भिखारी निकलेगा मेरे सामने से तो भी मेरा हृदय करुणा से भरा रहेगा। लेकिन सम्राट पर दया नहीं की जा सकती, भिखारी पर दया की जा सकती है। सम्राट पर दया कर सकते हैं आप? कैसे करेंगे? सम्राट दयनीय नहीं है, भिखारी दयनीय है। लेकिन करुणा सब पर की जा सकती है, क्योंकि किसी दूसरे से करुणा का कोई संबंध नहीं है। करुणा मेरा स्वभाव है। फिर दया चौबीस घंटे नहीं की जा सकती। जब दयनीय आदमी मौजूद होगा तभी की जा सकती है। इसलिए दया करने वालों के लिए यह भी जरूरी है कि दयनीय आदमी दुनिया में रहें, नहीं तो दया खत्म हो जाएगी। दया किस पर करिएगा अगर दयनीय आदमी न रहे ?

एक संन्यासी को तो यहां तक मैंने कहते हुए सुना है कि वे लोगों को यह समझाते हैं कि समाजवाद नहीं आना चाहिए, क्योंकि समाजवाद अगर आ जाएगा तो दान और दया का क्या होगा? क्योंकि जहां दान और दया नहीं होंगे तो धर्मशास्त्र तो कहते हैं कि बिना दान और दया के मोक्ष नहीं हो सकता है। तो वे कहते हैं इसलिए समाजवाद नहीं आना चाहिए दुनिया में कि उससे तो कोई दयनीय नहीं रह जाएगा, कोई दया योग्य नहीं रह जाएगा, कोई भिखारी, दरिद्र नहीं होगा। और दान और दया नहीं होंगे तो दान और दया के बिना कहीं मोक्ष है? वह बात बिलकुल ठीक ही कहते हैं। अगर दान और दया से ही मोक्ष मिलता है तो जिस दिन दुनिया के सारे लोग सुखी और समान हो जाएंगे, उस दिन मोक्ष नहीं मिल सकेगा।

लेकिन दान और दया से कभी किसी को मोक्ष न मिला है और न मिलने का सवाल है।’ दान’ और ‘दया’ घृणा योग्य शब्द हैं। दया नहीं करनी है किसी पर, करुणापूर्ण होना है। और एक ऐसी दुनिया बनाएगी करुणा जहां कोई दया योग्य न रह जाए और किसी को दया करने की और दया देने की और मांगने की जरूरत न हो। करुणा होगी तो हम एक ऐसी दुनिया बनाएंगे जहां कोई दयनीय न हो, किसी पर दया न करनी पड़े।

करुणा और दया समानार्थी नहीं हैं, बल्कि उलटे अर्थ रखते हैं।

अहिंसा और प्रेम में भी ऐसा ही बुनियादी फर्क है। अहिंसा का मतलब है दूसरे को दुख मत पहुंचाओ और प्रेम का मतलब है दूसरे को सुख पहुंचाओ। अहिंसा का अर्थ है दूसरे को दुख मत पहुंचाओ। प्रेम का अर्थ है दूसरे को सुख पहुंचाओ। अहिंसा निगेटिव है, नकारात्मक, प्रेम पाजिटिव है, विधायक।

अहिंसा इतना ही कहती है कि नहीं, दूसरे को दुख मत पहुंचाना। क्यों? क्योंकि दूसरे को दुख पहुंचाने से पाप लगता है, इसलिए अहिंसा एक तरह की कठोरता पैदा करवा देती है। दूसरे को दुख मत पहुंचाओ, बस बात खत्म हो गई। दूसरे से संबंध समाप्त हो गया। दूसरे को सुख पहुंचाने का सवाल नहीं है। दूसरा आनंदित हो यह सवाल नहीं है, दूसरा मेरे कारण दुखी न हो जाए यह सवाल है। क्योंकि मेरे कारण अगर कोई दुखी होता है तो उसकी वजह से मुझे आगे आने वाले जन्मों में दुख भोगना पड़ेगा। अंततः केंद्रीय रूप से मेरे दुख और सुख का सवाल है, मैं अपने सुख की तलाश में हूं। दूसरे को दुख नहीं पहुंचाना है कि कहीं मेरे सुख की तलाश में बाधा न पड़ जाए। इसलिए अहिंसा बिलकुल ही नकारात्मक शब्द है।

प्रेम विधायक है। प्रेम कहता है दूसरे को सुख पहुंचाओ। क्यों? क्योंकि दूसरे को सुख पहुंचाने में ही तुम्हारा भी सुख है। दूसरे को सुख पहुंचाओ, क्योंकि दूसरे को सुख पहुंचाने में आने वाले जन्मों में तुम्हें सुख मिलेगा, ऐसा नहीं। दूसरे को सुख पहुंचाने की प्रक्रिया में तुम सुखी हो ही जाते हो। दूसरे को आनंदित कर देने में तुम आनंदित हो ही जाते हो।

अहिंसा अहंकार को मजबूत करेगी। और प्रेम अहंकार को विलीन कर देगा, विसर्जित कर देगा, क्योंकि प्रेम की अंतिम मंजिल उस दिन पूरी होती है जिस दिन दूसरा दूसरा न रह जाए। दूसरे को सुख पहुंचाओ ही नहीं, जिस दिन दूसरा दूसरा भी न रह जाए। अंतत: वह जगह आ जाती है प्रेम में जहां दूसरा समाप्त हो जाता है। लेकिन अहिंसा में दूसरा कभी समाप्त नहीं हो सकता। दूसरे से इतना ही प्रयोजन है कि उसको दुख नहीं पहुंचाना है। बात खत्म हो गई, इससे आगे कोई संबंध नहीं है।

ये सारे शब्द अलग अर्थ रखते हैं। मैं ‘अहिंसा’ शब्द से जैसी ध्वनि निकलती है उसके पक्ष में नहीं हूं और न ‘दया’ शब्द के पक्ष में हूं। मैं ‘प्रेम’ और ‘करुणा’ के जरूर पक्ष में हूं। प्रेम और करुणा में समानधर्मा अर्थ है, लेकिन वे पर्यायवाची वे भी नहीं हैं, वे भी एक ही अर्थ नहीं रखते। प्रेम जैसा कि प्रचलित है, जैसा कि हम उसे उपयोग करते हैं, हमेशा दो व्यक्तियों के बीच संबंध है। करुणा दो व्यक्तियों के बीच संबंध नहीं है, एक व्यक्ति की मानसिक दशा है, स्टेट ऑफ माइड है। करुणा में दूसरे का प्रश्न नहीं है, दूसरे का सवाल नहीं है। वह व्यक्ति करुणापूर्ण है। कोई दूसरा है, नहीं है, इसका कोई सवाल नहीं है।

एक निर्जन रास्ते पर फूल खिला है। रास्ते से कोई निकले या न निकले, फूल सुगंध बिखेरता रहेगा। फूल नहीं कहेगा कि अभी रास्ते पर आने वाले लोग नहीं हैं, दरवाजा बंद, अभी सुगंध नहीं फेंकते, अभी कोई निकल ही नहीं रहा है तो किसको! नहीं, फूल को फिकर नहीं है कि कौन निकला कि कौन नहीं निकला। फूल के तो प्राणों में सुवास भरी है वह बही चली जा रही है, बही चली जा रही है। उसका दूसरे से कोई भी लेना—देना नहीं है। दूसरे की कोई अपेक्षा नहीं है; दूसरे की कोई शर्त नहीं है। फूल अपने प्राणों में सुगंध से भरा है, वह बंटती चली जा रही है। करुणा इस तरह की बात है।

लेकिन प्रेम, जिसे हम प्रेम कहते हैं वह प्रेम सदा दूसरे की अपेक्षा में है। जैसे ही कोई कहे कि मैं प्रेम करता हूं हम फौरन पूछेंगे, किससे? किससे हो गया प्रेम आपका?

लेकिन करुणा में यह पूछने का सवाल नहीं है कि किस पर। यह सवाल नहीं है। करुणा एक रिलेशनशिप नहीं है। वह एक अंतर्संबंध नहीं है। करुणा एक भाव—दशा है। अकेला व्यक्ति करुणापूर्ण हो सकता है। लेकिन जैसा हम प्रेम का उपयोग करते हैं उस प्रेम में एक अंतर्संबंध है, दो व्यक्तियों के बीच एक नाता है।

अगर ठीक से समझें तो प्रेम ही जब विकसित होकर विराट हो जाता है और संबंधों के पार चला जाता है तो करुणा हो जाती है। करुणा जो है वह प्रेम की परिपूर्णता है। जब प्रेम दो व्यक्तियों के बीच का संबंध नहीं रह जाता, बल्कि प्रेम फैल कर एक और अनंत के बीच की अवस्था हो जाता है, तब वह करुणा बन जाती है। प्रेम का ही परिपूर्ण विकास करुणा है। प्रेम पहला चरण है, करुणा अंतिम मंजिल है। लेकिन उनमें फर्क है, उनमें बुनियादी फर्क है।

और करुणा इन चारों शब्दों में सबसे ज्यादा मूल्यवान है। ’करुणा’ जैसा प्यारा शब्द खोजना मुश्किल है। ’कंपेशन’ वह बात ही बहुत अदभुत है, वह शब्द ही बहुत अदभुत है। उस पर जितना सोचें, जितना उसका अनुभव करें उतने नये अर्थ और नई गहराइयां दिखाई पड़नी शुरू हो सकती हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि ओशो ध्यान में आंसू क्यों आने लगते है? रोना क्यों होने लगता है? क्या यह रुदन स्वाभाविक प्रक्रिया है ध्यान में?

ध्यान में एक ही घटना घटती है कि आप सरल हो जाते हैं और आपके सारे बंधन टूट जाते हैं। और आदमी इतना जटिल हो गया है कि उसने आंसुओ तक पर रोक लगा रखी है, उनको भी वह सप्रेस करता है और दमन करता है। आदमी ऐसा समझता है कि आंसू कमजोरी है। और आंसू से ज्यादा पवित्र कुछ भी नहीं है और आंसू से ज्यादा इनोसेंट और निर्दोष कुछ भी नहीं है। कोई हीरे, कोई मोती एक आंसू के बराबर भी मूल्य नहीं रखते।

लेकिन आदमी की बुनियादी भ्रांतियों में एक भ्रांति यह भी है कि आंसू कमजोरी के लक्षण हैं। इसलिए खासकर पुरुष ने जो कि अपने को शक्तिशाली समझता है, उसने तो आंसुओ को बिलकुल ही पी गया है। उसने तो आंसू बिलकुल रोक लिए हैं। वे उसके प्राणों में रुके हुए अटके पड़े हैं।

जैसे ही मन सरल होगा, आंसू बहने शुरू हो जाएंगे। वह बांध टूट जाएगा जो रोका था। आंसू नहीं बहते हैं उसका अर्थ यह है कि आप कठोर हो गए हैं, अन्यथा आंसू जीवन के अनिवार्य हिस्से हैं। और जिस आदमी की आंखों ने आंसू बहाना छोड़ दिया वह या तो पत्थर हो गया या परमात्मा हो गया। आदमी तो नहीं रह गया है। वह जो आदमी की सरलता है, वह जो आदमी का प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व है उस व्यक्तित्व में आंसू फूल की तरह हैं।

यह भी एक भ्रांति है कि आंसू सिर्फ दुख में आते हैं। नहीं, आंसुओ का दुख से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। आंसू आते हैं अतिरेक में। चाहे दुख अतिरेक हो जाए, चाहे सुख, चाहे आनंद, चाहे खुशी। जो भी चीज अतिरेक हो जाएगी, अतिशय हो जाएगी, इतनी हो जाएगी कि आपके भीतर समाएगी नहीं, ओवरफ्लो होने लगेगी, वही आंसू बन जाएगी।

अगर आनंद इतना भर जाएगा भीतर कि बहने लगे चारों तरफ तो कैसे बहेगा, वह आंसू बन जाएगा। अगर दुख ज्यादा हो जाएगा तो दुख आंसू बन जाएगा। जो भी चीज भीतर ज्यादा हो जाएगी—प्रेम ज्यादा हो जाएगा तो आंसू बन जाएगा, श्रद्धा ज्यादा हो जाएगी तो आंसू बन जाएगी। आंसू सिर्फ अतिरेक की अभिव्यक्ति का माध्यम है, वह ओवरफ्लोइंग है। आंसू का कोई संबंध दुख से नहीं है। दुख से संबंध मान लेने के कारण मनुष्य को ऐसा लगने लगा कि अपने पर नियंत्रण होना चाहिए।

और आंसू रोक कर मनुष्य जितनी कठिनाइयों में पड़ा है उतना और कम ही चीजों को रोक कर पड़ा है। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि आदमी को फिर से रोना सिखाना पड़ेगा। क्योंकि पाया यह गया है स्त्रियों की बजाय पुरुषों को मानसिक रूप से तनाव और विक्षिप्तता की मात्रा ज्यादा है। और उसके ज्यादा होने के कुछ थोड़े से बुनियादी कारणों में एक कारण यह है कि स्त्रियां अब भी रो लेती हैं, पुरुष ने रोना बिलकुल बंद कर दिया है। स्त्रियां इसलिए आज भी थोडी हलकी और सरल हैं— थोड़ी कम वजनी, कम गंभीर! और स्त्रियों के सौंदर्य के बहुत से हिस्सों में एक हिस्सा यह भी है कि आज भी उनके आंसू बिलकुल समाप्त नहीं हो गए हैं। हालांकि जैसे—जैसे सभ्यता विकसित होती है और जैसे—जैसे स्त्रियों को ठीक पुरुषों जैसा बनाने की चेष्टा चलती है वैसे— वैसे उनके आंसू भी क्षीण होते चले जा रहे हैं।

पश्चिम की स्त्री रोने में उतनी समर्थ नहीं रह गई, जितनी पूरब की स्त्री। उसको भी खयाल आ गया है कि मैं और रोऊं! रोना कमजोरी है! रोना कमजोरी नहीं है। असल में जो नहीं रो सकता वह इस बात का सबूत देता है कि उसके भीतर ऐसे कोई भी भाव नहीं उठते जो ओवरफ्लो हो जाते हों, जो ऊपर से बह जाते हों। जो नहीं रोता उसका मतलब है कि वह भावातिरेक के नीचे जीता है। वह कभी भावातिरेक के क्लाइमेक्सेस को, चरम अवस्थाओं को, पीक एक्सपीरिएंसेस को नहीं छू पाता। वह कभी जीवन की उन ऊंचाइयों को नहीं छूता जहां से चीजें बहती हैं। वह हमेशा नीचे जीता है।

नहीं, आंसू का न होना बहादुरी का लक्षण नहीं है और न शक्ति का लक्षण है। आंसू के संबंध में यह धारणा मनुष्य को एक दमन में ले गई है कि रोक लो, और जिस आदमी ने अपने आंसू रोक लिए हैं उसकी करुणा रुक जाएगी। उसका कंपेशन रुक जाएगा। और जिन—जिन देशों में, धर्मों ने अनासक्ति की और अमोह की अतिवादी धारणाएं प्रचलित की हैं उन—उन देशों में मनुष्य अत्यंत कठोर हो गया है। उसकी कठोरता को हम शक्ति समझते हैं।

नहीं, कठोरता मनुष्य की शक्ति नहीं है। शक्ति तो सदा सरलता है।

जापान में एक भिक्षु था, उसकी मृत्यु हो गई। उस भिक्षु की दूर तक ख्याति थी। लाखों उसके प्रेम करने वाले, पूजने वाले थे। उसका एक प्रमुख शिष्य भी था। उस शिष्य की ख्याति अपने गुरु से भी ज्यादा थी। लोग कहते थे, वह स्थितप्रज्ञ है। लोग कहते कि उसे तो बोध हो गया। उसने परमात्मा को अनुभव कर लिया है। फिर उसके गुरु की मृत्यु हुई तो लाखों लोग इकट्ठे हुए। वहां तो मेला भर गया। वे सारे लोग देख कर हैरान हुए कि वह प्रमुख शिष्य जिसको वे समझते थे, ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, छाती पीट—पीट कर रो रहा है। उसकी आंखों से आंसुओ की धाराएं बही जा रही हैं। वह गिर—गिर पड़ता है, वह बेहोश हो जाता है।

निकट के लोगों ने कहा : यह तुम क्या करते हो? तुम्हारी सारी इज्जत पानी में मिल जाएगी। लोग क्या कहेंगे कि इतना बड़ा ज्ञानी और यह भी रोता है।

वह रोता था, हंसने लगा। उसने कहा : तुमसे किसने कहा कि ज्ञानी नहीं रोते? तुमसे कहा किसने कि जानी नहीं रोते हैं?

वे लोग कहने लगे कि क्यों रोके जानी, क्योंकि ज्ञानी तो कहते हैं, आप ही तो समझाते हैं कि आत्मा अमर है। अगर आत्मा अमर है तो फिर रोते क्यों हैं?

वह आदमी कहने लगा कि मैं आत्मा के लिए रो कब रहा हूं? वह शरीर भी बहुत प्यारा था जो चला गया। वह शरीर भी बहुत प्यारा था, वह कहने लगा फकीर। वह शरीर अब कभी भी नहीं हो सकेगा, वह शरीर गया, गया—सदा—सदा के लिए! अनंतकाल बीत जाएगा, वह शरीर फिर दुबारा नहीं होगा। मैं उस शरीर के लिए ही रोता हूं। आत्मा के लिए कौन रोता है। और यह तुमसे किसने कहा कि ज्ञानी नहीं रोते हैं?

वह फकीर कहने लगा जानी भी रोते हैं, अज्ञानी भी रोते हैं। अज्ञानी अज्ञान के कारण रोते हैं, ज्ञानी ज्ञान के कारण रोते हैं। ज्ञानी के रोने के कारण दूसरे होते हैं, अज्ञानी के रोने के कारण दूसरे होते हैं। दोनों के आंसुओ में फर्क होता है। लेकिन आंसू समाप्त नहीं हो जाते।

यह जो ध्यान की अवस्था में आंसू बहने लगेंगे, यह बिलकुल ही एक अर्थों में स्वाभाविक है। बहुत दमन किया है मन का, उसे बह जाने दें। इधर ध्यान में भी मैं देखता हूं कि उन आंसुओ को भी रोकने की चेष्टा चलती है कि कहीं वे निकल न जाएं। कोई पड़ोस का क्या कहेगा। हमने कुछ ऐसी बेवकूफी की धारणाएं बना रखी हैं कि कोई रो रहा है, तो पड़ोस का क्या कहेगा? कोई क्या कहेगा?

कोई क्या कहेगा! क्या इतना भी हक नहीं है आदमी को कि अपनी आंखों से आंसू बहा सके? तो यह समाज फिर हद परतंत्रता का समाज है। जहां कोई आदमी रोने के लिए भी स्वतंत्र नहीं, फिर और किस चीज के लिए स्वतंत्र हो सकेगा?

नहीं, जरा भी न रोकें, बह जाने दें पूरे अपने हृदय को। उसके बह जाने पर पीछे एक अत्यंत गहरी शांति और साइलेंस छूट जाएगी। वे आंसू मन के बहुत से भार को ले जाएंगे, वे आंसू मन के बहुत से तनाव को ले जाएंगे, वे आंसू मन की बहुत सी बोझिलता को बहा देंगे। जैसे नदी में पूर आता है तो किनारे की सारी गंदगी बहा ले जाता है और पीछे किनारे साफ और ताजे और स्वच्छ हो जाते हैं। वैसे आंखें जब पूर से भर जाती हैं तो मन के बहुत से कचरे को, बहुत सी रुकावट को, बहुत सी गंदगी को बहा ले जाती हैं और पीछे मन हलका हो जाता है।

मैं तो कहता हूं जो आदमी भी रोने की कला सीख लेता है, वह आदमी रोज अपने मन को स्नान करने की कला सीख लेता है। प्रार्थना में रोना न आया, ध्यान में रोना न आया तो और कब रोना आएगा? लेकिन कोई बन कर रोने के लिए नहीं कह रहा हूं कि आप बन कर रोने लगें। क्योंकि हम ऐसे अजीब लोग हैं कि हम बन कर भी रोते हैं और बन कर भी रो सकते हैं। हमने सारी चीजें आर्टिफीशियल और कृत्रिम बना लीं। अनेक लोग रोते हुए दिखाई नहीं पड़ते हैं कभी, एक पागलपन यह है। एक पागलपन यह भी है कि लोग झूठे ही रोते दिखाई भी पड़ते हैं। कोई मर गया है और कोई भी जाकर रोने लगा है, और सारे आंसू बिलकुल झूठे हैं। क्योंकि वह आदमी अभी हंसता था। वह आदमी घर के बाहर आकर फिर सिगरेट जला ली और हंस रहा है, और अभी वह रो रहा था।

रोना कुछ इतनी आसान बात है कि आप गए भीतर और बाहर आ गए। तो आदमी रोता ही नहीं है। रोता है तो झूठा रोता है। हमने कुछ अजीब, एकर्डिटी, अपने व्यक्तित्व में कुछ अजीब बेबूझपन और बिलकुल ही दिवालियापन पैदा कर लिया है। हम सच्चे रो भी नहीं सकते हैं।

वह मैं नहीं कह रहा हूं कि आप रोएं। लेकिन अगर ध्यान के क्षणों में हृदय सरल हो और आंसू बह जाना चाहें, तो भूल कर भी उन्हें रोकना मत, उन्हें बह जाने देना। उन्हें कहना कि जाओ बह जाओ और उन्हें धन्यवाद देना, क्योंकि उसके पीछे मन हलका और शांत हो जाएगा। ध्यान की गहराई बढ़ेगी। ध्यान की निश्चित गहराई बढ़ेगी। करुणापूर्ण व्यक्तित्व को तो निरंतर आंखें भरी ही रहती हैं। जरूर बुद्ध और महावीर रोते हुए दिखाई नहीं पड़ते हैं। लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि उनकी करुणा मर गई है। इसका कारण कुल इतना है कि चौबीस घंटे ही उनका हृदय करुणा और आंसुओ से भरा हुआ है। हर घड़ी रोने की जरूरत नहीं रह गई। उसका कारण यह नहीं है।

एक आदमी किसी को प्रेम करता है तो कभी दिन में एकाध—दो बार कर लेता है। एक आदमी इतना भी प्रेम कर सकता है कि दिन भर ही याद बनी रहती हो कि याद करने का सवाल ही न रह जाए। वे जो लोग करुणा में गहरे चले गए हैं, जरूर उनकी आंखों में आंसू दिखाई नहीं पड़ेंगे, क्योंकि उनके आंसू तो उनकी सारी आत्मा पर फैल गए हैं। उनकी करुणा तो उनका पूरा व्यक्तित्व बन गई है। लेकिन उस दिशा में जो यात्रा है वह आंसुओ से होकर जाती है।

जीवन की कोई भी गहरी यात्रा आंसुओ के बिना नहीं है—चाहे हो प्रेम, चाहे हो प्रार्थना, चाहे हो सत्य, चाहे हो परमात्मा। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह आंसुओ के मार्ग से गुजरता है। और घबड़ाने की जरा भी जरूरत नहीं है। आंसू मित्र हैं। लेकिन हमें पता ही नहीं कि पीछे हम कितने हलके हो जाएंगे, क्या हो जाएगा। कोई आदमी जब बच्चे की तरह रो लेता है, आनंद में, प्रेम में, करुणा में, तो पीछे क्या हो जाता है? कैसी फ्रेशनेस, कैसी ताजगी, कैसे फूल जैसे वर्षा में नहा गए हों, या आकाश के तारे वर्षा के बाद जैसे दिखाई पड़ते हैं, सद्यस्नात, अभी नहाए—नहाए। वैसा ही मन भी अभी नहाया—नहाया हो जाता है।

ध्यान तो एक स्नान है अंतस का। अगर आंसू बहते हों तो बह जाने दें। जरा भी उन्हें रोकने की जरूरत नहीं है। पूरे हृदय में जो होना हो, हो जाने दें। कुछ भी रोकने की जरूरत नहीं है, ताकि पीछे ज्वार निकल जाए, ताकि पीछे से सारा ज्वर निकल जाए और भीतर एक वेटलेसनेस, एक शून्यता, एक भाररहितता पैदा हो सके। एक निर्भार भाव पैदा हो सके।

तो आंसू आते हों तो रोकें न, न आते हों तो कृपा नहीं, कोई जरूरत नहीं। लाने की कोई कोशिश न करें। कोई उनकी आवश्यकता नहीं है कि आप उन्हें लाएं। आ जाएं तो ठीक, आ जाएं तो बह जाने दें। न आएं तो ठीक। उस दिशा में कोई ध्यान देने की भी जरूरत नहीं है। सरल होने की जरूरत है। जैसा हो वैसा हो जाने दें। एक प्रश्न और, फिर बाकी प्रश्नों पर कल मैं बात करूंगा।

एक मित्र ने पूछा है कि ओशो कभी किसी के सुधार के लिए कठोर होना पड़ता है तो क्या वैसा कठोर होना बुरा है?

हुत सोचने जैसा है इसमें। सुधार के कई तरह के मजे हैं। सुधार का सौ में से निन्यानबे प्रतिशत मजा तो यह होता है कि मैं किसी को सुधार दूं। असल में किसी को बनाने और सुधारने में बड़ा रस आता है, क्योंकि हम उसके मालिक हो जाते हैं बनाने और सुधारने में। अधिकतम लोग सुधारने के लिए इसलिए आतुर नहीं होते कि सुधार से उस दूसरे का कुछ हित हो जाएगा, बल्कि सुधार का एक रस है और एक आनंद है। सुधार का मतलब है दूसरे को अपनी मुट्ठी में बंद कर देना और जैसा मैं चाहूं वैसा बनाऊं। क्या होगा उसका यह कुछ पता नहीं है। क्या किसी को मुट्ठी में बंद करके जबरदस्ती बनाना हितकर होगा, यह भी पता नहीं है।

लेकिन सुधार में एक तरह की हिंसा, एक तरह की वाइलेंस है। बाप कहता है अपने बेटे को मेरे जैसा बनाऊंगा तुझे। जैसे कि बाप सच में कुछ बन गया हो। क्या पा लिया है उस बाप ने जो बेटे को अपने जैसा बनाने की कोशिश कर रहा है? वह खुद दीन—हीन खडा है, हारा हुआ। लेकिन बेटे को अपने जैसा बनाना है। अपने जैसे बनाने में बेटे के हित का कोई सवाल नहीं है।

लेकिन अपने जैसा किसी को बना कर खड़ा करने में अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। यह जो अपनी शक्ल—सूरत का फैलाव करने वाली गुरुडम है, कि एक आदमी गेरुआ वस्त्र पहने हुए है तो पचास लोगों को गेरुआ वस्त्र पहनवा देगा, एक आदमी मुंह पर पट्टी बांधे हुए है तो न मालूम दस—पच्चीस बेवकूफ इकट्ठे कर लेगा, उनके मुंह पर पट्टी बंधवा देगा। इनका जो रस है, यह रस किसी के सुधार का रस नहीं है। यह अहंकार के विस्तार का रस है कि मैं— मैं पचास आदमियों का मालिक, गुरु, डिक्टेटर, तानाशाह। मैं—मैंने पचास आदमी बदल दिए और बना दिए।

नहीं, अगर इस तरह बनाने और सुधारने की कोशिश में लगे हैं, तो वह कठोरता कठोरता है, करुणा नहीं है।

लेकिन सच में ही किसी के प्रेम में, किसी के प्रति करुणा में, किसी के रास्ते का पत्थर उठाने में, किसी के मार्ग से एक कांटा हटाने में अगर कुछ करना पड़ता हो तो कोई फिकर नहीं है। दुनिया कहेगी उसे कठोर, लेकिन आप भलीभांति जानते हैं कि उस काम को करने में आपका हृदय कठोर नहीं हुआ है। बल्कि और भी करुणा से विगलित हो गया है।

दुनिया की क्या फिकर है! ये सवाल किसी दूसरे के नापने—जोखने के नहीं हैं। ये सवाल तो अपने भीतर नापने और जोखने के हैं। अगर एक आदमी आग में जलने जा रहा है और किसी ने उसका हाथ पकड़ कर जोर से खींच लिया है तो दुनिया कहेगी यह कैसा आदमी है। इसने इतने जोर से हाथ खींचा कि उसके हाथ को चोट लग गई है। लेकिन वह आदमी कहेगा कि लग जाए चोट, आग में इसे मैं नहीं जाने देना चाहता था। यह लग सकता है।

दुनिया का सवाल नहीं है, साधक के लिए सवाल है अपनी अंतर—परीक्षा का। क्या मेरे सुधार करने का असली मजा और रस कठोर होने में तो नहीं है कि कठोर होने का रस लेना चाहता हूं इसलिए सुधार कर रहा हूं? यह जरा जांचना चाहिए। यह तो बारीक सवाल है और बारीक जांच भीतर चलनी चाहिए। या कि मेरी करुणा कह रही है कि मैं बदलू बदलने का कुछ उपाय करूं। और स्मरण रहे, जितने आप कठोर हो जाएंगे उतना ही किसी को बदलना मुश्किल है, क्योंकि कठोरता के उत्तर में आती है कठोरता। कठोरता के उत्तर में जितनी आपकी चेष्टा होती है कि मैं बदलू दूसरे का अहंकार कहता है कि मुश्किल है मुझे बदलना। मैं भी कोई साधारण नहीं हूं। इसलिए अच्छे मां—बाप के बेटे बुरे हो जाते देखे जाते हैं।

गांधी जैसे अच्छे बाप के बेटे भी बिगड़ गए। और कारण था यह खयाल कि उनको बदलना है। तो उन लड़कों का भी अहंकार है अपना। वे कहते हैं, तो ठीक है, बदल लो। कैसे बदलना है देखें। एक लड़का शराब पीने लगा, धर्म परिवर्तन किया, कहीं गलत जगह शादी की; गांधी को खबर लगी तो दुख हुआ। उस लड़के को खबर मिली कि गांधी दुखी हुए हैं, तो वह हंसा और उसने कहा अच्छा, तो वे अभी दुखी होते हैं! वे तो कहते थे कि दुख—सुख के बाहर हो गए हैं। और मैं हिंदू धर्म छोड़ कर कोई दूसरा धर्म पकड़ लिया तो दुख की क्या बात है? वे तो कहते हैं, अल्लाह—ईश्वर तेरे नाम। तो दुख की क्या बात है? कोई भी धर्म हुआ, जैसा हिंदू वैसा मुसलमान, वैसा कोई और। फर्क क्या है?

अच्छे बाप बेटों को बिगाड़ने के कारण तो बनते हैं, सुधारने के नहीं। क्योंकि जितना अहंकार उनका कहता है कि बदल दूंगा, उतना ही बेटे का अहंकार कहता है कि देखें कौन बदल सकता है। नहीं, कठोरता से कोई कभी बदला नहीं गया। इसलिए जो बदलने की सच में किसी के प्रति प्रेमपूर्ण आतुरता से उत्सुक होता है, इसलिए नहीं कि मैं उसे अपने विचार का बना लूं बल्कि इसलिए कि उसके मार्ग पर जो पत्थर मुझे दिखाई पड़ता है, मैं उस मार्ग से गुजरा हूं व्यर्थ ही उस पत्थर से वह चोट न खाए, उस पत्थर को हटाने की कोशिश करूं। वह बहुत करुणापूर्ण होगा। उसकी कठोरता दुनिया को कठोरता दिखाई पड़े, उसकी कठोरता करुणा का ही हिस्सा होगी।

करुणा अगर महान है तो कठोर भी हो सकती है। करुणा अगर महान है तो कठोर भी हो सकती है, लेकिन वह कठोरता कहीं भी नहीं होगी, एक कोने में भी नहीं हृदय के उसके। दुनिया उसको कहेगी कठोर। दुनिया कहे उससे कोई सवाल नहीं है। परीक्षण भीतर है कि मैं कठोर होने का रस तो नहीं ले रहा हूं। कहीं यह विधि, नियम और निषेध जो मैं बना रहा हूं कि उठो चार बजे सुबह, यह सिर्फ यह मजा तो नहीं ले रहा हूं कि एक आदमी को सुबह चार बजे ठंड में उठवाने का एक मजा है, एक रस है। कहीं वह मजा तो नहीं ले रहा हूं। यह ध्यान में स्पष्ट हो तो करुणा बदलने की अदभुत शक्ति रखती है। लेकिन बदलने में मेरा रस नहीं है। और तब बदलने की उतनी आतुरता भी नहीं है, तब सिर्फ दूसरे के प्रति प्रेम प्रकट कर देना पर्याप्त है उसे बदलने को। अगर करुणा से भरी आंखें हों, तो दूसरा आदमी उन आंखों को देखते तक बदल सकता है। करुणा से भरा हुआ हाथ हो, तो हाथ का इशारा और स्पर्श भी बदल सकता है। और कठोरता की तलवारें भी कुछ नहीं कर पाती हैं। आदमी बड़ी से बड़ी तलवार से बड़ा है, लेकिन आदमी छोटी से छोटी करुणा के सामने एकदम कमजोर हो जाता है।

वह तो एक—एक व्यक्ति को भीतर नापने और जोखने की बात है कि हम जो कर रहे हैं वह कहीं धोखेबाजिया तो नहीं हैं? सौ में निन्यान्नबे मौके पर धोखेबाजिया हैं। इसलिए किसी को सुधारने के लिए बहुत उत्सुक मत होना। किसी को सुधारने के लिए आप कृपा ही करेंगे तो बहुत है। आप अपने को ही सुधारें तो काफी है। और आपका सुधर जाना और आपका करुणापूर्ण व्यक्तित्व जरूर आस—पास ऐसे बीज फेंकता है कि दूसरे लोग भी सुधरते हैं। लेकिन सुधारने में न आपकी आकांक्षा होती है, न प्रयास होता है। न सुधारने की हिंसा होती है।

नहीं, मैं किसी के सुधारने के पक्ष में नहीं हूं। अपने को हम सुधारें, बनाएं, निर्मित करें। अगर उसमें सुगंध होगी, उस दीये में रोशनी होगी, तो जिनके दीये बुझे हैं वे आ जाएंगे पास और पूछने लगेंगे कहां से लाए यह रोशनी, कैसे आया यह प्रकाश! हमारे घर में अंधेरा है, हम भी दीया जलाना चाहते हैं। तब वे आ जाएंगे अपने दीये लेकर आपकी ज्योति के पास और जला कर ले जाएंगे। तब वे आ जाएंगे आपके सुगंध के घेरे में और भर जाएंगे सुगंध से। तब वे आ जाएंगे आपके संगीत को सुनने और डूब जाएंगे उसमें और बदल जाएंगे।

लेकिन नहीं, आपको उन्हें बदलना नहीं है। किसी को बदलने की सचेष्ट चेष्टा, बहुत सजग चेष्टा खतरनाक बात है। और यह दुनिया जो इतनी बदतर हालत में पहुंची है, यह दुनिया को बदलने वाले लोगों की वजह से। दुनिया को बदलने वाले लोग इतने बड़े मिस्वीफ मांगर्स रहे हैं, इतने उपद्रवी रहे हैं जिसका हिसाब लगाना कठिन है। क्योंकि उन्होंने बदलने की जो अति चेष्टा की है, आदमी के अहंकार को उतना ही मुश्किल हो गया है बदलाहट को स्वीकार करना। वह सख्त हो गया है, वह कठोर हो गया है। उसने कहा कि नहीं बदलेंगे। अगर तुम्हें रस आता है हमें तोड़ देने में तो हम टूटेंगे नहीं, हम झुकेंगे नहीं। हम मिट जाएंगे, लेकिन हम ऐसे ही खड़े रहेंगे।

अहंकार सिर्फ अहंकार को चुनौती दे देता है और खडा कर देता है। अहंकार सिर्फ अहंकार से संघर्ष में पड़ जाता है। नहीं, करुणा के पास कोई अहंकार नहीं है, उसके पास बहुत नाजुक इशारे हैं। उसके पास आंखें हैं, उसके पास प्रेम के हाथ हैं। उसके पास प्रेम का एक व्यक्तित्व है। उसी व्यक्तित्व से जो कुछ हो जाएगा अपने आप, अपने से, वही ठीक। जो करना पड़े और चेष्टा करनी पड़े, वह गलत है। इसलिए भूल कर कठोर होने की जरूरत नहीं है।

लेकिन करुणा जानती है अपने रास्ते और जब करुणा हृदय में होती है तो उसे जो भी जरूरत होती है वह करती है। लेकिन उसका कोई पता भी नहीं चलता है कि पीछे करुणा है। और जब कोई प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व, कोई करुणा से भरा हुआ व्यक्ति किसी के प्रति कठोर दिखाई पड़ता है, तो सारी दुनिया को दिखाई पड़ता होगा, लेकिन जिसके प्रति वह कठोर हो गया है वह अगर उसके प्रेम से थोड़ा भी परिचित है तो सपने में भी उसे खयाल नहीं आता कि कोई मेरे प्रति कठोर हुआ है। बल्कि उसकी कठोरता के प्रति भी अनुग्रह का भाव होता है, ग्रेटिटयूड का भाव होता है कि कितना प्रेम था उसका मेरे प्रति कि वह कठोर भी हो सका।

प्रेम कठोर होता है। उसकी जैसी शाक्त और फौलाद किसी और चीज में नहीं है। लेकिन वह कठोरता वैसी कठोरता नहीं है जिसकी मैंने बात कही। वह कठोरता भी करुणा का ही रूप है। वह करुणा का ही सघन कंडेंस्ट रूप है।

और बहुत से प्रश्न रह गए, वह कल हम बात करेंगे।

 

अब हम रात के ध्यान के लिए बैठेंगे।

तो थोड़े— थोड़े फासले पर हो जाना है, ताकि कोई किसी को छूता हुआ न रह जाए।

बातचीत नहीं करनी है। जरा भी आवाज नहीं। थोड़े— थोड़े दूर हट जाएं। कोई किसी को छूता हुआ न बैठे। और यह प्रतीक्षा न करें कि दूसरा छू रहा है तो वह हटेगा, आप भी उसको छू रहे हैं।

इतनी बढ़िया रात है। इतनी बढ़िया रात में खाली हाथ लौट जाना बहुत नासमझी है। कौन जाने यह सागर— तट फिर मिले न मिले। यह चांद, यह चांदनी, यह सरू का वन फिर हो न हो। कोई पल लौट कर तो आता नहीं, कोई क्षण वापस तो आता नहीं। कल का कोई भरोसा नहीं। आज जो हाथ में है वही हाथ में है। उसका हम पूरा उपयोग कर लें। इसके अतिरिक्त साधना का और कोई अर्थ नहीं होता है।

ध्यान में हम बैठेंगे। सारे शरीर को शिथिल छोड देना है।

कुछ मित्रों ने पूछा है कि ओशो आधी आंखें खोले रखने से तनाव होता है।

जिनको भी आधी आंख खोले रखने से तनाव होता हो वे आंख बंद कर ले सकते हैं। सवाल हमेशा यही है कि सब तरह से चित्त शिथिल हो जाए। अगर आपकी आंख पर तनाव पड़ता है आधी खोलने से तो आप बंद कर लें। जिनकी आंख पर आधी खोलने से तनाव नहीं पड़ता हो वे आधी खोलें, अन्यथा बंद कर लें।

अब मैं सुझाव दूंगा थोड़ी देर तक कि आपका शरीर शिथिल हो रहा है, तो अनुभव करना है कि शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है।

फिर सुझाव दूंगा कि श्वास शांत हो रही है, तो धीरे— धीरे अनुभव करना है कि श्वास बिलकुल शांत हो गई है। उसे रोकना नहीं है, सिर्फ ढीला छोड़ देना है। अपने आप आए—जाए। न हमें गहरी लेनी है, न धीमी लेनी है, छोड़ देना है।

फिर मैं कहूंगा, मन शांत हो रहा है। और जब सब शांत हो जाएगा तो फिर यह सागर का गर्जन सुनाई पड़ेगा। जंगल की आवाजें सुनाई पड़ेगी। रात का सन्नाटा आपको घेर लेगा। फिर दस मिनट तक उसको ही सुनते चले जाना है। जस्ट लिसनिंग, सुनते ही चले जाना है, सुनते ही चले जाना है। ऐसा हो जाए कि जंगल ही रह जाए, चांदनी रह जाए, सागर रह जाए और हम बिलकुल मिट जाएं। और यह हो सकता है और यह हो जाएगा। तो अब बैठें, शरीर को शिथिल छोड़ दें। आंख चाहें तो बंद कर लें, चाहें तो आधी खुली रखें। जैसी सुविधा हो। बीच में भी लगे कि बंद होने जैसी है तो बंद कर लें। अब मैं सुझाव देता हूं मेरे साथ अनुभव करें। अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है… और ढीला छोड़ दें, जैसे कोई प्राण नहीं हैं, जैसे शरीर बिलकुल शांत हो गया है। शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……छोड़ दें बिलकुल ढीला, एकदम ढीला, जैसे शरीर है ही नहीं। शरीर शिथिल हो गया.. छोड़ दें……छोड़ दें बिलकुल……शरीर शिथिल हो गया…।

श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो गई है……श्वास को भी ढीला छोड़ दें…।

मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……बिलकुल ढीला छोड़ दें मस्तिष्क को……सब ढीला छोड़ दें भीतर तक……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो गया……बिलकुल सब शांत और शिथिल हो गया…।

अब दस मिनट के लिए सुनें सागर का गर्जन, रात का सन्नाटा……सुनते रहें……सुनते रहें……सुनते रहें……बस सारा शरीर जैसे कान हो गया है। बस सुन रहे हैं, सुन रहे हैं, सुन रहे हैं… और सुनते ही सुनते सब शून्य हो जाएगा। आप मिट जाएंगे और इस रात के साथ एक हो जाएंगे। दस मिनट के लिए सुनें, सुनें, बस सुनते रहें…। सुनें……शांत सुनते चले जाएं……रात आपके भीतर प्रविष्ट हो जाएगी। यह चांदनी आपके भीतर तक चली जाएगी। सुनें……शांत सुनते रहें……देखें, रात की आवाजें कितने जोर से बुलाती हैं। शांत सुनते रहें……मन शांत होता जाएगा…।

सुनें, रात की आवाजों को……सुनते रहें……बस सुनते रहें……सिर्फ सुनने का भाव रह जाए. .फिर धीरे— धीरे मन शांत होता जाता है…।

मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मिट गए आप, रह गई रात। मन शून्य हो रहा है……सुनते रहें……सुनते रहें……सुनते रहें……मन शून्य होता जा रहा है… मिट गए आप, रह गई रात, रह गया चांद, रह गया सागर का गर्जन। मन बिलकुल शून्य हो गया है…।

मन हो गया है शांत……मन बिलकुल शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन बिलकुल शांत हो गया है…।

अब धीरे— धीरे दों—चार गहरी श्वास लें… धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……प्रत्येक श्वास के साथ शांति और बढ़ती हुई मालूम होगी। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……प्रत्येक श्वास के साथ शांति और बढ़ती हुई मालूम होगी। फिर धीरे— धीरे आंख खोलें……देखें, चारों तरफ कितनी शांति है।

रात्रि की बैठक पूरी हुई।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3)–प्रवचन–39

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यहीं मन बुद्ध है–(प्रवचन—उन्‍नतालीसवां)

सूत्र:

61—जैसे जल से लहरें उठतीं है और अग्‍नि से लपटें,

      वैसेही सर्वव्‍यापक हम से लहराता है।

62—जहां कहीं तुम्‍हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर,

      उसी स्‍थान पर, यह।

63—जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो,

      उसी बोध में स्‍थित होओ।

 श्री अरविंद ने कहीं कहा है कि पूरा जीवन योग है। और यह बात सही है। हर चीज ध्यान बन सकती है। और जब तक हर चीज ध्यान न बने, समझना कि तुम्हें ध्यान नहीं घटित हुआ है। ध्यान खंड—खंड में नहीं होता है। या तो ध्यान होता है—और जब वह होता है तो तुम पूरे के पूरे उसमें होते हो—या वह नहीं होता है। तुम अपने जीवन के एक अंश को ध्यानपूर्ण नहीं बना सकते; वह असंभव है। लेकिन सब जगह वही कोशिश चलती है।

तुम पूरे—पूरे ही ध्यानपूर्ण हो सकते हो; तुम्हारा कोई अंश ध्यानपूर्ण नहीं हो सकता। वह असंभव है। क्योंकि ध्यान तुम्हारा स्वभाव है; वह श्वास लेने जैसा है। तुम चाहे जो भी करो, तुम श्वास लेते रहते हो। तुम्हारे करने से उसका कुछ लेना—देना नहीं है; तुम सतत श्वास लेते रहते हो। चलते हुए, बैठे हुए, लेटे हुए सोए हुए, तुम श्वास लेना जारी रखते हो। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि कभी श्वास लो और कभी न लो। यह एक सातत्य है।

ध्यान आंतरिक श्वास है। और जब मैं कहता हूं कि ध्यान अंतस की श्वास है तो मैं कोई प्रतीक के अर्थ में नहीं कहता हूं। ध्यान वस्तुत: आंतरिक श्वास है। जिस भांति तुम हवा की श्वास लेते हो, उसी भांति चेतना की श्वास भी ले सकते हो। और जब तुम चेतना की श्वास भीतर—बाहर लेना शुरू कर देते हो तो तुम मात्र शरीर नहीं रहे। इस उच्चतर श्वास—प्रश्वास के शुरू होने से, इस चेतना के, जीवन के श्वास—प्रश्वास के आरंभ होने से तुम एक नए लोक में, एक नए आयाम में प्रवेश कर जाते हो। वह आयाम ही अध्यात्म है। तुम्हारी श्वास शारीरिक है; ध्यान आध्यात्मिक है।

तो तुम अपने जीवन के एक खंड को ध्यानपूर्ण नहीं बना सकते हो। ऐसा नहीं है कि तुम सुबह ध्यान कर लो और फिर दिनभर के लिए उसे भूल जाओ। ऐसा नहीं है कि तुम मंदिर या चर्च गए, वहा ध्यान किया और ध्यान से वैसे ही बाहर निकल आए जैसे मंदिर से बाहर आ जाते हो। यह संभव नहीं है। और अगर तुम ऐसी चेष्टा करोगे तो वह चेष्टा झूठी होगी। तुम मंदिर में प्रवेश कर सकते हो और बाहर आ सकते हो; लेकिन वैसे ही तुम ध्यान में प्रवेश करके बाहर नहीं आ सकते। जब तुम ध्यान में प्रवेश करते हो तो प्रवेश कर ही गए। अब तुम जहां भी जाओगे, ध्यान तुम्‍हारे साथ होगा।

यह बहुत बुनियादी, प्राथमिक बात है, जिसे सतत स्मरण रखना चाहिए। दूसरी बात कि तुम ध्यान में कहीं से भी प्रवेश कर सकते हो; क्योंकि सारा जीवन गहन ध्यान में है। पर्वत ध्यान में हैं; तारे ध्यान में हैं; फूल, पेड़—पौधे, हवाएं ध्यान में हैं। और तुम कहीं से भी ध्यान में प्रवेश कर सकते हो। कुछ भी हो, कुछ भी प्रवेश—द्वार बन सकता है।

इसका प्रयोग हो चुका है। यही कारण है कि इतनी विधियां हैं। यही वजह है कि इतने धर्म हैं। और इसीलिए एक धर्म दूसरे को नहीं समझ सकता है, क्योंकि उनके प्रवेश—द्वार भिन्न—भिन्न हैं। और कोई—कोई धर्म तो ऐसे हैं जो धर्म के नाम से भी नहीं जाने जाते। कुछ लोगों को तो तुम धार्मिक की भांति पहचानोगे भी नहीं, क्योंकि उनका प्रवेश—द्वार इतना भिन्न है।

उदाहरण के लिए एक कवि है। किसी गुरु के पास गए बिना भी, धार्मिक, तथाकथित धार्मिक हुए बिना भी एक कवि ध्यान में उतर सकता है। उसकी कविता, उसकी सृजनात्मकता द्वार बन सकती है, वह उससे ही ध्यान में प्रवेश कर सकता है। या कोई कुम्हार, जो मिट्टी के बर्तन बनाता है, मिट्टी के बर्तन बनाते हुए ही ध्यान में जा सकता है। उसका शिल्प ही द्वार बन सकता है। या कोई धनुर्विद अपनी धनुर्विद्या के द्वारा ध्यान में उतर जा सकता है। वैसे ही कोई माली भी। कोई कहीं से भी प्रवेश कर सकता है।

तुम जो भी करते हो वही चीज विधि बन सकती है। अगर उसे करते हुए बोध की गुणवत्ता बदल जाए तो वही चीज विधि बन सकती है। तो तुम जितनी चाहो उतनी विधियां हो सकती हैं। कोई भी कृत्य द्वार बन सकता है। कृत्य या विधि या उपाय या मार्ग महत्वपूर्ण नहीं हैं; महत्वपूर्ण है चेतना की वह गुणवत्ता जिससे तुम उस कृत्य को करते हो।

भारत के एक महान संत, कबीर, जुलाहे थे और ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद भी जुलाहे ही बने रहे। उनके हजारों शिष्य थे। उनके शिष्य उनसे कहते थे कि अब आप कपड़ा बुनना बंद कीजिए; अब आपको यह सब करने की जरूरत नहीं है। हम हैं, हम आपकी हर तरह देखभाल करेंगे। कबीर हंसकर कहते : यह बुनना बुनना भर नहीं है। मेरा कपड़ा बुनना तो बाहरी कृत्य है, लेकिन इसके साथ—साथ मेरे भीतर कुछ होता है जिसे तुम नहीं देख सकते। यह मेरा ध्यान है।

कपड़ा बुनते—बुनते कोई जुलाहा ध्यानी कैसे हो जा सकता है? तुम जिस चित्त से कपडा बुनते हो, अगर वह चित्त ध्यानपूर्ण है तो फिर कृत्य प्रासंगिक नहीं है। कृत्य तो अप्रासंगिक है।

एक दूसरे संत हुए जो कुम्हार थे। उनका नाम गोरा था। वे मिट्टी के बर्तन बनाते थे। बर्तन बनाते हुए गोरा नाचते थे, गीत गाते थे। जब वे चाक पर बर्तन गढ़ते थे तो जैसे—जैसे बर्तन चाक पर केंद्रीभूत होता था, गोरा भी अपने भीतर केंद्रीभूत हो जाते थे। तुम्हें तो एक ही चीज दिखाई देती कि चाक घूम रहा है, मिट्टी का बर्तन आकार ले रहा है और गोरा उसे केंद्रीभूत कर रहे हैं। तुम्हें एक ही केंद्रीकरण दिखाई देता; लेकिन उसके साथ—साथ, युगपत, एक दूसरा केंद्रीकरण भी घटित हो रहा था—गोरा भी केंद्रिभूत हो रहे थे। बर्तन को गढ़ते हुए, बर्तन को रूप देते हुए, वे खुद भी आंतरिक चेतना के अदृश्य जगत में रूपायित हो रहे थे।

जब बर्तन निर्मित हो रहा था—वह उनका असली कृत्य नहीं था—तो वे साथ ही साथ अपना भी सृजन कर रहे थे।

कोई भी कृत्य ध्यानपूर्ण हो सकता है। और एक बार तुमने जान लिया कि कैसे कोई कृत्य ध्यानपूर्ण होता है तो फिर कठिनाई नहीं है। तब तुम अपने सभी कृत्यों को ध्यान में रूपांतरित कर सकते हो। और तब सारा जीवन योग बन जाता है। तब सड़क पर चलना, या दफ्तर में काम करना, या सिर्फ बैठना, कुछ भी न करना ध्यान बन सकता है। कुछ भी ध्यान बन सकता है। स्मरण रहे, ध्यान कृत्य में नहीं है, कृत्य की गुणवत्ता में है।

अब हम विधियों में प्रवेश करेंगे।

पहली विधि :

 

जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटें वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।

हले तो यह समझने की कोशिश करो कि लहर क्या है और तब तुम समझ सकते हो कि कैसे यह चेतना की लहर तुम्हें ध्यान में ले जाने में सहयोगी हो सकती है।

तुम सागर में उठती लहरों को देखते हो। वे प्रकट होती हैं; एक अर्थ में वे हैं और फिर भी किसी गहरे अर्थ में वे नहीं हैं। लहर के संबंध में समझने की यह पहली बात है। लहर प्रकट होतीं है; एक अर्थ में लहर है। लेकिन किसी गहरे अर्थ में लहर नहीं है, गहरे अर्थ में सिर्फ सागर है। सागर के बिना लहर नहीं हो सकती; और जब लहर है भी तो भी वह सागर ही है। लहर रूप भर है, सत्य नहीं है। सागर सत्य है, लहर केवल रूप है।

भाषा के कारण अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। क्योंकि हम कहते हैं लहर, इससे लगता है कि लहर कुछ है। बेहतर हो कि हम लहर न कहकर लहराना कहें; लहर नहीं, लहराना ही है। वह कोई वस्तु नहीं, एक क्रिया भर है। वह एक गति है, प्रक्रिया है, वह कोई पदार्थ नहीं है। वह कोई तत्व या सत्य नहीं है। पदार्थ या तत्व तो सागर है; लहर एक रूप भर है।

सागर शांत हो सकता है। तब लहरें विलीन हो जाएंगी, लेकिन सागर तो रहेगा। सागर शांत हो सकता है, या बहुत सक्रिय और क्षुब्ध हो सकता है, या सागर निष्‍क्रिय हो सकता है। लेकिन तुम्हें कोई शांत लहर देखने को नहीं मिलेगी। लहर सक्रियता है, सत्य नहीं। जब सक्रियता है तो लहर है; यह लहराना है, गति है, हलचल है—एक साधारण सी हलचल। लेकिन जब शांति आती है, जब निष्‍क्रियता आती है तो लहर नहीं रहती, लेकिन सागर रहता है। दोनों अवस्थाओं में सागर सत्य है। लहर उसका एक खेल है। लहर उठती है, खो जाती है; लेकिन सागर रहता है।

दूसरी बात, लहरें अलग— अलग दिखती हैं। प्रत्येक लहर का अपना व्यक्तित्व है, अनूठा, औरों से भिन्न। कोई दो लहरें समान नहीं होतीं; कोई लहर बड़ी होती है, कोई छोटी। उनके अपने — अपने विशिष्ट लक्षण होते हैं। प्रत्येक लहर का निजी ढंग होता है। और निश्चित ही प्रत्येक लहर दूसरे से भिन्न होती है। एक लहर उठ रही हो सकती है और दूसरी मिट रही हो सकती है। जब एक उठती है तो दूसरी गिरती है। दोनों एक नहीं हो सकतीं; क्योंकि एक जन्म ले रही होती है और दूसरी मिट रही होती है। फिर भी दोनों लहरों के पीछे जो सत्य वह एक ही है। वे भिन्‍न दिखती है, वे पृथक दिखती है, वे अलग—अलग दिखती है;

लेकिन यह दिखना भ्रांत है। गहराई में एक ही सागर है; और लहरें चाहे जितनी असंबद्ध दिखे, वे परस्पर संबद्ध हैं।

जब एक लहर उठ रही होती है और दूसरी गिर रही होती है तो तुम्हें उनमें संबंध नहीं दिखाई पड़ता है। संबंध प्रकट नहीं है। उठती हुई लहर मिटती हुई लहर से कैसे संबद्ध हो सकती है? एक बूढ़ा आदमी मर रहा है और एक बच्चा जन्म ले रहा है, उन दोनों के बीच क्या संबंध हो सकता है? अगर उनमें कोई संबंध है तो दोनों साथ—साथ मरेंगे या साथ—साथ जन्म लेंगे। बच्चा पैदा हो रहा है; का मर रहा है। एक लहर मिट रही है, दूसरी उठ रही है।

लेकिन संभव है कि उठती लहर मिटने वाली लहर से ऊर्जा ग्रहण कर रही हो। मिटने वाली लहर अपनी मृत्यु के द्वारा उसे उठने में मदद कर रही हो। बिखरने वाली लहर उस लहर के लिए कारण बन सकती है जो उठ रही है। बहुत गहरे में वे एक ही सागर से जुड़ी हैं, वे भिन्न नहीं हैं, वे पृथक नहीं हैं। उनका व्यक्तित्व झूठा है, भ्रामक है। वे जुड़ी हुई हैं। उनका द्वैत भासता तो है, लेकिन है नहीं। उनका अद्वैत सत्य है।

अब मैं सूत्र को फिर से पढ़ता हूं. ‘जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटें, वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।’

हम जागतिक सागर में लहर मात्र हैं। इस पर ध्यान करो; इस भाव को अपने भीतर खूब गहरे उतरने दो। अपनी श्वास को उठती हुई लहर की तरह महसूस करना शुरू करो। तुम श्वास लेते हो; तुम श्वास छोडते हो। जो श्वास अभी तुम्हारे अंदर जा रही है वह एक क्षण पहले किसी दूसरे की श्वास थी। और जो श्वास अभी तुमसे बाहर जा रही है वह अगले क्षण किसी दूसरे की श्वास हो जाएगी। श्वास लेना जीवन के सागर में लहरों के उठने—गिरने जैसा ही है। तुम पृथक नहीं हो, बस लहर हो। गहराई में तुम एक हो। हम सब इकट्ठे हैं, संयुक्‍त हैं। वैयक्तिकता झूठी है, भ्रामक है। इसलिए अहंकार एकमात्र बाधा है। वैयक्तिकता झूठी है। वह भासती तो है, लेकिन सत्य नहीं है। सत्य तो अखंड है, सागर है, अद्वैत है।

यही कारण है कि प्रत्येक धर्म अहंकार के विरोध में है। जो व्यक्ति कहता है कि ईश्वर नहीं है वह अधार्मिक न भी हो, लेकिन जो कहता है कि मैं हूं वह अवश्य अधार्मिक है।

गौतम बुद्ध नास्तिक थे; वे किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। महावीर वर्धमान नास्तिक थे, उन्हें भी किसी ईश्वर में विश्वास नहीं था। लेकिन वे पहुंच गए, उन्होंने पाया; वे समग्रता को, पूर्ण को उपलब्ध हुए। अगर तुम्हें किसी परमात्मा में विश्वास नहीं है तो तुम अधार्मिक नहीं हो, क्योंकि धर्म के लिए ईश्वर बुनियादी नहीं है। धर्म के लिए निरहंकार बुनियादी है। और अगर तुम ईश्वर में विश्वास भी करते हो, लेकिन अहंकार भरे मन से विश्वास करते हो तो तुम अधार्मिक हो। अहंकार—रहित मन के लिए ईश्वर में विश्वास की भी जरूरत नहीं है; निरहंकारी व्यक्ति अपने आप ही, सहज ही परमात्मा में लीन हो जाता है। निरहंकारी होकर तुम लहर से नहीं चिपके रह सकते हो; तुम्हें सागर में गिरना ही होगा। अहंकार लहर से चिपका रहता है। जीवन को सागर की भांति देखो और अपने को लहर मात्र समझो; और इस भाव को अपने भीतर उतरने दो।

इस विधि को तुम कई ढंग से उपयोग में ला सकते हो। श्वास लेते हो तो भाव करो कि सागर ही तुम्‍हारे भीतर श्वास ले रहा है; सागर ही तुम्‍हारे भीतर आता है बाहर जाता है, आता—जाता रहता है। प्रत्येक श्वास के साथ महसूस करो कि लहर उठ रही है, प्रत्येक श्वास के साथ महसूस करो कि लहर मिट रही है। और दोनों के बीच में तुम कौन हो? बस एक शून्य, खालीपन।

उस शून्यता के भाव के साथ तुम रूपांतरित हो जाओगे। उस खालीपन के भाव के साथ तुम्हारे सब दुख विलीन हो जाएंगे। क्योंकि दुख को होने के लिए किसी केंद्र की जरूरत है—वह भी झूठे केंद्र की। शून्य ही तुम्हारा असली केंद्र है। उस शून्य में दुख नहीं है; उस शून्य में तुम गहन विश्राम में होते हो। जब तुम ही नहीं हो तो तनावग्रस्त कौन होगा? तुम तब आनंद से भर जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम आनंदपूर्ण होते हो; सिर्फ आनंद होता है। तुम्हारे बिना क्या तुम दुख निर्मित कर सकते हो?

यही कारण है कि बुद्ध कभी नहीं कहते हैं कि उस अवस्था में, उस परम अवस्था में आनंद होगा। वे ऐसा नहीं कहते; वे यही कहते हैं कि दुख नहीं होगा, बस। आनंद की बात करने से तुम भटक सकते हो, इसलिए बुद्ध आनंद की बात नहीं करते। वे कहते हैं कि आनंद की बात ही मत पूछो, सिर्फ इतना जानो कि दुख से कैसे मुक्‍त हुआ जाए; उसका मतलब है कि अपने बिना, खुद के बिना कैसे हुआ जाए।

हमारी समस्या क्या है? समस्या यह है कि लहर अपने को सागर से पृथक मानती है। तब समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। अगर लहर अपने को सागर से पृथक मानती है तो उसे तुरंत मृत्यु का भय पकड़ेगा। लहर तो मिटेगी। लहर अपने चारों ओर अन्य लहरों को मिटते हुए देख सकती है। और तुम अपने को बहुत समय तक धोखा नहीं दे सकते। लहर देख रही है कि दूसरी लहरें मिट रही हैं। और लहर जानती है कि उसके उठने में ही कहीं मृत्यु छिपी है। क्योंकि दूसरी लहरें भी तो क्षणभर पहले उठ रही थीं और अब वे गिर रही हैं, बिखर रही हैं, मिट रही हैं। तुम्हें भी मिटना होगा।

अगर लहर अपने को सागर से पृथक मानती है तो देर—अबेर मृत्यु का भय उसे अवश्य घेरेगा। लेकिन अगर लहर जान ले कि मैं नहीं हूं सागर है, तो मृत्यु का कोई भय नहीं है। लहर ही मरती है, सागर नहीं मरता। मैं मर सकता हूं; लेकिन जीवन नहीं मरता। तुम मर सकते हो, तुम मरोगे; लेकिन जीवन नहीं मरेगा, अस्तित्व नहीं मरेगा। अस्तित्व तो लहराता ही जाता है। वह तुममें लहराया है; वह दूसरों में लहराएगा। और जब तुम्हारी लहर बिखर रही होगी, तो संभव है कि तुम्हारे बिखराव में से ही दूसरी लहरें उठे। सागर जारी रहता है।

जब तुम अपने को लहर के रूप से पृथक देख लेते हो और सागर के साथ, अरूप के साथ एक जान लेते हो, एकात्म अनुभव करते हो, तो फिर तुम्हारी मृत्यु नहीं है। अन्यथा मृत्यु का भय दुख निर्मित करेगा। प्रत्येक पीड़ा में, प्रत्येक संताप में, प्रत्येक चिंता में मृत्यु का भय मूलभूत है। तुम भयभीत हो, कांप रहे हो। चाहे तुम्हें इसका बोध न हो, लेकिन अगर तुम अपने अंतस में प्रवेश करोगे तो पाओगे कि प्रत्येक क्षण तुम कांप रहे हो, क्योंकि तुम मरने वाले हो। तुम अनेक सुरक्षा के उपाय कर सकते हो, तुम अपने चारों ओर किलाबंदी कर सकते हो; लेकिन कुछ भी काम न देगा। कुछ भी काम नहीं देगा, धूल धूल में जा मिलेगी। तुम धूल में मिलने ही वाले हो।

क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है, इस तथ्य पर ध्यान किया है कि अभी तुम रास्ते पर चल रहे हो तो जो धूल तुम्हारे जूते पर जमा हो रही है, हो सकता है वह धूल किसी नेपोलियन, किसी सिकंदर के शरीर की धूल हो! सिकंदर इस समय कहीं न कहीं धूल बना पड़ा है और हो सकता है कि तुम्हारे जूते से चिपकी धूल सिकंदर के शरीर की ही धूल हो। यही तुम्हारा भी हाल होने वाला है। इस क्षण तुम हो और अगले क्षण तुम नहीं होगे। यही तुम्हारा भी हाल होने वाला है। देर—अबेर धूल धूल में मिल जाएगी; लहर विदा हो जाएगी।

भय पकड़ता है। जरा कल्पना करो कि तुम किसी के जूते से चिपकी हुई धूल हो या कोई तुम्हारे शरीर से, तुम्हारी प्रेमिका के शरीर से चाक पर बर्तन गढ़ रहा है। या कल्पना करो कि तुम किसी कीड़े के शरीर में या वृक्ष के शरीर में प्रवेश कर रहे हो। लेकिन यही हो रहा है। प्रत्येक चीज रूप है और रूप को मिटना है। केवल अरूप शाश्वत है। अगर तुम रूप से बंधे हो, अगर रूप से तुम्हारा तादात्‍मय है, अगर तुम अपने को लहर मानते हो, तो तुम अपने ही हाथों उपद्रव में पड़ने जा रहे हो।

तुम सागर हो, लहर नहीं। यह ध्यान सहयोगी हो सकता है। यह तुम्हारा रूपांतरण बन सकता है, यह आमूल संपरिवर्तन बन सकता है। लेकिन इसे अपने पूरे जीवन पर फैलने दो। श्वास लेते हुए सोचो, भोजन करते हुए सोचो, चलते हुए सोचो। दो चीजें सोचो कि रूप सदा लहर है और अरूप सागर है, कि रूप मृण्मय है और अरूप अमृत है।

और ऐसा नहीं है कि तुम किसी दिन मरोगे; तुम प्रतिदिन मर रहे हो। बचपन मरता है और यौवन जन्म लेता है। फिर यौवन मरता है और बुढ़ापा जन्मता है। और फिर बुढापा भी मरता है और रूप विदा हो जाता है। प्रत्येक क्षण तुम मर रहे हो; प्रत्येक क्षण तुम जन्म रहे हो। तुम्हारे जन्म का पहला दिन तुम्हारे जीवन का पहला दिन नहीं है, वह तो आने वाले अनेक—अनेक जन्मों में से एक है। वैसे ही तुम्हारे इस जीवन की मृत्यु पहली मृत्यु नहीं है; वह तो सिर्फ इस जीवन की मृत्यु है। तुम पहले भी मरते रहे हो। प्रतिक्षण कुछ मर रहा है और कुछ जन्म ले रहा है। तुम्हारा एक अंश मरता है, दूसरा अंश जन्मता है।

शरीर शास्त्री कहते हैं कि सात वर्षों में तुम्हारे शरीर का कुछ भी पुराना नहीं बचता है, एक—एक चीज, एक—एक कोष्ठ बदल जाता है। अगर तुम सत्तर वर्ष जीने वाले हो तो इस बीच तुम्हारा शरीर दस बार बदलेगा, पूरे का पूरा बदलेगा। हर सात वर्षों में तुम्हें नया शरीर मिलता है। लेकिन यह परिवर्तन अचानक नहीं होता, प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ बदल रहा होता है।

तुम एक लहर हो और वह भी बहुत ठोस नहीं। प्रतिक्षण तुम बदल रहे हो। और लहर थिर नहीं हो सकती, गतिहीन नहीं हो सकती, लहर को सतत बदलते रहना है, सतत गतिमान रहना है। थिर लहर जैसी कोई चीज नहीं होती है। कैसे हो सकती है? थिर लहर का कोई अर्थ नहीं है। वह गति है, प्रक्रिया है। तुम गति हो, प्रक्रिया हो। अगर तुम इस गति से तादात्म कर बैठे और अपने को जन्म और मृत्यु के बीच सीमित मानने लगे तो तुम पीड़ा में, दुख में पड़ोगे। तब तुम आभास को सत्य मान रहे हो। इसको ही शंकर माया कहते हैं।

सागर ब्रह्म है; सागर सत्य है। अपने को लहर मानो, या उठती—गिरती लहरों का एक सातत्य मानो; और उसके साक्षी होओ। तुम कुछ कर नहीं सकते हो। ये लहरें विलीन होंगी। जो प्रकट हुआ है, वह विलीन होगा; उसके संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता। सब प्रयत्न बिलकुल व्यर्थ है। सिर्फ एक चीज की जा सकती है। वह है इस लहर—रूप का साक्षी होना। और एक बार तुम साक्षी हो गए तो तुम्हें अचानक उसका बोध हो जाएगा जो लहर के पार है, जो लहर के पीछे है, जो लहर में भी है और लहर के बाहर भी है, जिससे लहर बनती है और जो फिर भी लहर के पार है; जो सागर है।

‘जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटें, वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।’

सर्वव्यापक हमसे लहराता है। तुम नहीं हो; सर्वव्यापक है। वह तुम्हारे द्वारा लहरा रहा है। इसे महसूस करो, इसका मनन करो, इस पर ध्यान करो। और बहुत—बहुत ढंगों से इसे अपने पर घटित होने दो।

मैंने तुम्हें श्वास के संबंध में कहा। तुममें कामवासना उठती है; उसे महसूस करो, ऐसे नहीं जैसे वह तुम्हारी कामवासना है, बल्कि ऐसे कि सागर तुममें लहरा रहा है, जीवन तुममें धड़क रहा है, जीवन तुममें लहर ले रहा है। तुम संभोग में मिलते हो, ऐसा मत सोचो कि दो लहरें मिल रही हैं, ऐसा मत सोचो कि दो व्यक्ति मिल रहे हैं; बल्कि ऐसा सोचो कि दो व्यक्ति एक—दूसरे में विलीन हो रहे हैं। दो व्यक्ति अब नहीं बचे, लहरें विलीन हो गई हैं, केवल सागर बचा है। तब संभोग ध्यान बन जाता है।

जो भी तुम्हें घटित हो रहा है, ऐसा भाव करो कि वह ब्रह्मांड को घटित हो रहा है, कि मैं उसका अंश मात्र हूं कि मैं सतह पर एक लहर मात्र हूं। सब कुछ अस्तित्व पर छोड़ दो। झेन सदगुरु डोजेन कहा करता था—जब उसे भूख लगती थी तो वह कहता था—कि ऐसा लगता है कि अस्तित्व को मेरे द्वारा भूख लगी है। जब उसे प्यास लगती तो वह कहता था कि मेरे भीतर अस्तित्व प्यासा है।

यह ध्यान तुम्हें उसी स्थिति में पहुंचा देगा। तब तुम्हारा अहंकार बिखर जाता है, मिट जाता है और सब कुछ ब्रह्मांड का हिस्सा हो जाता है। तब जो भी होता है, अस्तित्व को होता है। तुम अब यहां नहीं हो। और तब कोई पाप नहीं है; तब कोई जिम्मेवारी नहीं है।

मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम उच्छृंखल हो जाओगे। मेरा मतलब यह भी नहीं है कि तुम पापी हो जाओगे। पाप असंभव हो जाएगा, क्योंकि पाप अहंकार के इर्द—गिर्द ही घटित होता है। जिम्मेवारी नहीं रहेगी, क्योंकि अब तुम गैर—जिम्मेवार नहीं हो सकते। अब तो केवल तुम हो; इसलिए किसके प्रति जिम्मेवार होगे?

अब अगर तुम किसी को मरते देखोगे तो तुम्हें लगेगा कि उसके साथ, उसके भीतर, मैं ही मर रहा हूं तब तुम्हें लगेगा कि पूरा जगत मर रहा है और मैं उस जगत का अंश हूं। और अगर किसी फूल को खिलते देखोगे तो तुम उसके साथ—साथ खिलोगे। अब सारा ब्रह्मांड तुममय है। और ऐसी घनिष्ठता में, ऐसी लयबद्धता में होना समाधि में होना है। ध्यान मार्ग है और यह एकता का भाव, सब के साथ जुड़े होने का भाव, मंजिल है।

इसे प्रयोग करो। सागर को स्मरण रखो और लहर को भूल जाओ। और ध्यान रहे, जब भी तुम लहर को स्मरण करोगे और लहर की भांति व्यवहार करने लगोगे तो तुम भूल करोगे और उसके कारण दुख में पड़ोगे। कहीं कोई ईश्वर नहीं है जो तुम्हें दंड दे रहा है। जब भी तुम किसी भ्रांति के शिकार होते हो, तुम अपने को दंड देते हो। जगत में एक नियम है, धर्म है, ताओ है। अगर तुम इसके साथ लयबद्ध चलते हो तो तुम आनंद में हो। यदि तुम उसके विपरीत चलोगे, तुम अपने को दुख में पाओगे। वहां आकाश में कोई नहीं बैठा है तुम्हें दंडित करने को। वहां तुम्हारे पापों का कोई बही—खाता नहीं है; न उसकी कोई जरूरत है।

यह ठीक गुरुत्वाकर्षण जैसा है। अगर तुम सही ढंग से चलते हो तो गुरुत्वाकर्षण सहयोगी होता है; गुरुत्वाकर्षण के बिना तुम चल नहीं सकते। लेकिन अगर तुम गलत ढंग से चलोगे तो गिरोगे; अपनी हड्डी भी तोड़ ले सकते हो। लेकिन कोई तुम्हें दंड नहीं दे रहा है; सिर्फ नियम है गुरुत्वाकर्षण का, निरपेक्ष नियम है। अगर तुम गलत चलोगे और गिरोगे तो तुम्हारी हड्डी टूट जाएगी। और ठीक से चलोगे तो उसका मतलब है कि तुम गुरुत्वाकर्षण का सही उपयोग कर रहे हो। ऊर्जा का सही और गलत दोनों तरह से उपयोग हो सकता है।

जब तुम अपने को लहर मानते हो तो तुम जागतिक नियम के विरोध में हो, तुम सत्य के विरोध में हो। तब तुम अपने लिए दुख निर्मित करोगे। कर्म के सिद्धांत का यही मतलब है। कोई कानून बनाने वाला नहीं है; परमात्मा कोई जज नहीं है। जज होना कुरूप बात है। और अगर ईश्वर कोई जज होता तो अब तक बिलकुल ही ऊब गया होता या पागल हो गया होता। वह कोई जज नहीं है; वह कोई कंट्रोलर नहीं है; वह कोई कानून बनाने वाला भी नहीं है। जगत के अपने ही नियम हैं। और बुनियादी नियम यह है कि सच्चा होना आनंद में होना है और झूठा होना दुख में होना है।

दूसरी विधि :

जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है भीतर या बाहर उसी स्थान पर यह।

ह मन द्वार है—यही मन। जहां कहीं यह मन भटकता है, जो कुछ यह सोचता है, मनन करता है, सपने देखता है—यही मन और यही क्षण द्वार है।

यह एक अति क्रांतिकारी विधि है; क्योंकि हम कभी नहीं सोचते कि साधारण मन द्वार है। हम सोचते हैं कि कोई महान मन, कोई बुद्ध या जीसस का मन प्रवेश कर सकता है। हम सोचते हैं कि बुद्ध या जीसस के पास कोई असाधारण मन है। और यह सूत्र कहता है कि तुम्हारा साधारण मन ही द्वार है—वही मन जो सपने देखता है, कल्पनाएं करता है, ऊलजलूल सोच—विचार करता है। यही मन द्वार है जो कुरूप कामनाओं और वासनाओं से, क्रोध और लोभ से खचाखच भरा है; जिसमें वह सब है जो निंदित है, जो तुम्हारे बस के बाहर है, जो तुम्हें यहां से वहां भटकाता रहता है; जो सतत एक पागलखाना है। यही मन द्वार है।

‘जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है…।’

इस जहां कहीं को स्मरण रखो। भटकने का विषय महत्वपूर्ण नहीं है।

‘जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर, उसी स्थान पर, यह।’

बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। एक कि साधारण मन उतना साधारण नहीं है जितना हम समझते हैं। साधारण मन जागतिक मन से असंबद्ध नहीं है; वह उसका ही अंश है। उसकी जड़ें अस्तित्व के केंद्र तक चली गई हैं; अन्यथा तुम अस्तित्व में नहीं हो सकते हो। एक पापी भी परमात्मा में आधारित है; अन्यथा वह अस्तित्व में नहीं हो सकता है। वह जो शैतान है वह भी: परमात्मा के सहारे के बिना नहीं हो सकता है। अस्तित्व ही इसलिए संभव है; क्योंकि वह परमात्मा में प्रतिष्‍ठित है।

तुम्हारा मन स्‍वप्‍न देखता है, कल्पना करता है, भटकता है; वह तनावग्रस्त है, दुख में है, संताप में है। वह जैसे भी गति करता है, जहां कहीं भी जाता है, वह समग्र से जुड़ा रहता है। अन्यथा संभव नहीं है। तुम अस्तित्व से भाग नहीं सकते; वह असंभव है। इसी क्षण तुम्हारी जड़ें अस्तित्व में गडी हैं। तब क्या किया जाए?

अगर इसी क्षण हमारी जड़ें अस्तित्व में गड़ी हैं तो अहंकारी मन को लगेगा कि फिर तो कुछ करना नहीं है। हम तो परमात्मा में ही हैं, फिर इतनी आपा— धापी की क्या जरूरत? तुम्हारी जड़ें तो परमात्मा में हैं, लेकिन तुम इस तथ्य के प्रति मूर्च्‍छित हो। जब मन भटकता है तो दो चीजें होती हैं. मन और भटकाव; मन के विषय और मन; आकाश में तिरते बादल और आकाश। वहां दो चीजें हैं : बादल और आकाश। कभी ऐसा भी हो सकता है कि बादल इतने हो जाते हैं कि आकाश छिप जाता है, तुम उसे देख नहीं पाते।

लेकिन जब तुम नहीं देख पाते हो तब भी आकाश विलीन नहीं हो जाता है। वह विलीन नहीं हो सकता है। आकाश के विलीन होने का कोई उपाय नहीं है। वह है; आच्छादित या प्रकट, दृश्य या अदृश्य, वह है। लेकिन बादल भी हैं। अगर तुम बादलों पर ही ध्यान देते हो तो आकाश भूल जाता है। और अगर तुम आकाश पर ध्यान देते हो तो बादल गौण हो जाते हैं; वे आते और जाते हैं। तुम्हें बादलों की बहुत चिंता लेने की जरूरत नहीं है। वे आते—जाते रहते हैं। वे आते—जाते रहे हैं, लेकिन उन्होंने आकाश को रत्तीभर भी नष्ट नहीं किया है। उन्होंने आकाश को गंदा भी नहीं किया है। उन्होंने उसको स्पर्श भी नहीं किया है। आकाश तो सदा कुंआरा है।

जब तुम्हारा मन भटकता है तो दो चीजें होती हैं। एक तो बादल हैं, विचार हैं, विषय हैं, बिंब हैं; और दूसरी चेतना है, खुद मन है। जब तुम बादलों पर, विचारों पर, बिंबों पर बहुत ध्यान देते हो तो तुम आकाश को भूल गए। तब तुम मेजबान को भूल गए और मेहमान में ही बुरी तरह उलझ गए। वे विचार, वे बिंब, जो भटक रहे हैं; केवल मेहमान हैं। अगर तुम मेहमानों पर सब ध्यान लगा देते हो तो तुम अपनी आत्मा ही भूल बैठे।

अपने ध्यान को मेहमानों से हटाकर मेजबान पर लगाओ; बादलों से हटाकर आकाश पर केंद्रित करो। और इसे व्यावहारिक ढंग से करो। कामवासना उठती है, यह बादल है। या बड़ा घर पाने का लोभ पैदा होता है; यह भी बादल है। तुम इससे इतने ग्रस्त हो जा सकते हो कि तुम भूल ही जाओ कि यह किस में उठ रहा है, यह किस को घटित हो रहा है, कौन इसके पीछे है, किस आकाश में यह बादल उठ रहा है। उस आकाश को स्मरण करो; और अचानक बादल विदा हो जाएगा। सिर्फ दृष्टि बदलने की जरूरत है; परिप्रेक्ष्य बदलने की जरूरत है। दृष्टि को विषय से विषयी पर, बाहर से भीतर पर, बादल से आकाश पर, अतिथि से आतिथेय पर ले जाने की जरूरत है। सिर्फ दृष्टि को बदलना है, फोकस बदलना है।

एक झेन सदगुरु लिंची प्रवचन कर रहा था। भीड में से किसी ने कहा : मेरे एक प्रश्न का उत्तर दें, मैं कौन हूं? लिंची ने बोलना बंद कर दिया। सब लोग चौकन्ने हो गए। लिंची क्या उत्तर देने जा रहा है, सब यही सोच रहे थे। लेकिन उसने कोई उत्तर नहीं दिया। वह कुर्सी से नीचे उतरा, आगे बढ़ा और उस आदमी के पास पहूंचा। पूरी भीड़ चकित और सजग हो उठी। लोगों की श्‍वासें तक रूक गई थी़ं। लिंची क्‍या करने जा रहा है? उसे कुर्सी पर बैठे—बैठे ही जवाब दे देना था; कुर्सी से उठने की क्‍या जरूरत थी। और प्रश्‍नकर्ता तो बहुत भयभीत हो उठा। लिंची अपनी बेधक दृष्‍टि उस व्‍यक्‍ति पर जमाए पास आया। उसने उस आदमी का गला पकड़ लिया,उसे झकझोरा और कहा: आंखें बंद करो और उसका स्‍मरण करो जा यह प्रश्‍न पूछ रहा है। कि मैं कौन हूं।

उस आदमी ने आंखें बंद की—हालांकि डरते—डरते बंद की। वह अपने भीतर खोजने गया कि किसने यह प्रश्‍न पूछा है। और वह वापस नहीं आया। भीड़ प्रतीक्षा करती रहीं,प्रतीक्षा करती रही,प्रतीक्षा करती रहीं। उस आदमी का चेहरा मौन और शांत हो गया। तब लिंची ने उसे फिर झकझोरा: अब बाहर आओ और सबको बताओ कि तुम कौन हो। वह आदमी हंसने लगा और उसने कहा: जवाब देने का आपका खूब अद्भुत ढंग है। लेकिन यदि कोई व्‍यक्‍ति अभी मुझसे यही पूछे तो मैं भी वही करूंगा; मैं उत्‍तर नहीं दे सकता।

यह दृष्‍टि की, परिप्रेक्ष्‍य की बदलाहट थी। तुम पूछते हो कि मैं कौन हूं। और तुम्‍हारा मन प्रश्‍न पर केंद्रित है, जब कि उत्‍तर के ठीक पीछे प्रश्‍नकर्ता में छिपा है। दृष्‍टि को बदलों; अपने पर लौट ओओ।

यह सूत्र कहता है: जहां कहीं तुम्‍हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर, उसी स्‍थान पर यह।

विषय से मन पर चले आओ और तुम फिर साधारण मन न रहे। तुम विषयों के कारण साधारण हो। दृष्‍टि के बदलते ही तुम स्‍वयं बुद्ध हो जाते हो। तुम बुद्ध ही हो; लेकिन अनेक बादलों के नीचेदबे हो। इतना ही नहीं कि तुम बादलों से दबे हो; तुम उनसे बंधे हो, तुम उन्‍हें जाने भी नहीं देते।

तुम सोचते हो कि बादल मेरी संपदा है। तुम सोचते हो कि जितने बादल होंगे; मैं उतना ही बेहतर, उतना ही ज्‍यादा समृद्ध हो जाऊंगा। और तुम्‍हारा सारा आकाश, सारा आंतरिक आकाश उनसे आच्‍छादित है, ढंका है, एक अर्थ में बादलों का जीवन ही संसार है।

यह बात एक क्षण में घट सकती है—यह दृष्‍टि की बदलाहट। यह सदा अचानक ही घटती है। मैं यह नहीं कहा रहा हूं कि तुम कुछ भी मत करो और यह अचानक घटेगी। तुम्‍हें बहुत कुछ करना होगा। लेकिन यह क्रमिक ढंग से नहीं घटता है। तुम्‍हें बहुत कुछ करना होगा। करना ही होगा। तब करते—करते एक दिन वह क्षण आता है जब तुम भाप बनने के सही तापमान पर पहुंच जाते हो। अचानक पानी—पानी नहीं रहता है। वह भाप बन गया। अचानक तुम विषय से बाहर हो गए; तुम्‍हारी आंखें अब बादलों पर नहीं अटकी है। अब अचानक तुम आंतरिक आकाश की तरफ भीतर मुड़ गए।

ऐसा कभी क्रमिक रूप से नहीं होता कि तुम्‍हारी आँख का एक अंश भीतर की और मुड़ जाता है। और उसका दूसरा अंश बाहर बादलों पर लगा रहता है। नहीं, यह अंशों में नहीं घटित होता कि तुम अब दस प्रतिशत भीतर हो और नब्‍बे प्रतिशत बाहर, कि बीस प्रतिशत भीतर हो और अस्‍सी प्रतिशत बाहर। नहीं, जब यह घटित होता है तो शत प्रतिशत होता है। क्योंकि तुम अपनी दृष्टि को खंड—खंड नहीं कर सकते हो। या तो तुम विषयों को देखते हो या अपने को, या संसार को या ब्रह्म को।

फिर तुम संसार में वापस आ सकते हो; तुम फिर अपनी दृष्टि बदल सकते हो। अब तुम मालिक हो। सच तो यह है कि तुम तभी मालिक होते हो जब स्वेच्छा से अपनी दृष्टि बदल सकते हो।

मुझे एक तिब्बती संत मारपा का स्मरण आता है। जब वह ज्ञान को उपलब्ध हुआ—जब वह बुद्ध हुआ, जब वह अंतस की ओर मुड़ गया, जब उसने अंतराकाश का, अनंत का साक्षात्कार किया—तो किसी ने उससे पूछा. मारपा, अब कैसे हो? तो मारपा ने जो उत्तर दिया वह अपूर्व है, अप्रत्याशित है। अब तक किसी बुद्ध ने वैसा उत्तर नहीं दिया था। मारपा ने कहा. पहले जैसा ही दुखी।

वह आदमी तो भौचक्का रह गया; उसने पूछा : पहले जैसा ही दुखी? लेकिन मारपा हंसा; उसने कहा : ही, लेकिन एक फर्क के साथ। और फर्क यह है कि अब मेरा दुख स्वैच्छिक है। अब मैं कभी—कभी बस संसार का स्वाद लेने के लिए अपने से बाहर चला जाता हूं लेकिन मैं मालिक हूं। मैं किसी भी क्षण भीतर लौट सकता हूं। और दोनों ध्रुवों के बीच गति करना अच्छा है। तभी कोई जीवंत रहता है। मारपा ने कहा : मैं अब दोनों जगत में गति कर सकता हूं। कभी मैं दुखों में लौट जाता हूं लेकिन अब दुख मुझे नहीं घटित होते हैं, मैं ही उन्हें घटित होता हूं। और मैं उनसे अछूता रहता हूं।

निश्चित ही, जब तुम स्वेच्छा से गति करते हो तो तुम अछूते रहते हो। एक बार तुमने जान लिया कि दृष्टि को अंतर्मुखी कैसे किया जाए, तुम संसार में वापस आ सकते हो। सभी बुद्धषुरुष संसार में वापस आए हैं। वे दृष्टि को फिर संसार पर ले जाते हैं। लेकिन अब आंतरिक मनुष्य की गुणवत्ता भिन्न है। वह जानता है कि यह उसकी स्वतंत्र दृष्टि है; वह बादलों को भी गति करने की इजाजत दे सकता है। अब बादल मालिक न रहे, वे तुम पर हावी नहीं हो सकते। वे अब तुम्हारी मर्जी से घूमते हैं।

और यह सुंदर है। कभी—कभी बादलों से भरा आकाश सुंदर होता है, बादलों की हलचल सुंदर होती है। अगर आकाश आकाश बना रहे तो बादलों को तिरने दिया जा सकता है। समस्या तो तब खड़ी होती है जब आकाश अपने को भूल जाता है और वहां बादल ही बादल रह जाते हैं। तब सब कुछ कुरूप हो जाता है, क्योंकि स्वतंत्रता खो गई।

यह सूत्र सुंदर है. ‘जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर, उसी स्थान पर, यह।’

झेन परंपरा में इस सूत्र का गहरा उपयोग हुआ है। झेन कहता है कि साधारण मन ही बुद्ध—मन है। भोजन करते हुए तुम बुद्ध हो; सोते हुए तुम बुद्ध हो, कुएं से पानी ले जाते हुए तुम बुद्ध हो। तुम हो! कुएं से पानी ले जाते हुए भोजन करते हुए, बिस्तर पर लेटे हुए तुम बुद्ध हो! यह बात सोच में भी नहीं आती; यह पहेली जैसी लगती है। लेकिन यह सत्य है। अगर पानी ढोते हुए तुम सिर्फ पानी ढोते हो, तुम उसे समस्या नहीं बनाते और सिर्फ पानी ढोते हो, अगर तुम्हारा मन बादलों से मुक्‍त है और आकाश खाली है, अगर तुम केवल पानी ढोते हो, तो तुम बुद्ध हो। तब भोजन करते हुए तुम सिर्फ भोजन करते हो और कुछ नहीं करते।

लेकिन हम जब भोजन करते हैं तो उसके साथ हजारों चीजें करते रहते हैं। हो सकता है कि तुम्‍हारा मन भोजन में बिलकुल न हो; तुम्‍हारा शरीर यंत्र की तरह भोजन कर रहा हो और तुम्हारा मन कहीं और हो।

किसी विश्वविद्यालय का एक छात्र यहां कुछ दिन पहले आया था। उसकी परीक्षा करीब थी, इसलिए वह कुछ पूछने आया था। उसने कहा : मैं बहुत उलझन में हूं। समस्या यह है कि मैं एक लड़की के प्रेम में पड़ गया हूं और परीक्षा निकट है। जब मैं लड़की के साथ होता हूं तो परीक्षा की सोचता रहता हूं और जब पढ़ता होता हूं तो लड़की की सोचता रहता हूं। मैं क्या करूं? पढ़ते समय मैं वहां नहीं होता, मैं कल्पना में अपनी प्रेमिका के साथ होता हूं। और प्रेमिका के साथ जब होता हूं तो कभी उसके साथ नहीं होता; मैं अपनी समस्याओं के बारे में, नजदीक आती परीक्षा के बारे में चिंता करता रहता हूं। नतीजा यह है कि सब कुछ गड्ड—मड्ड हो गया है।

यह लड़का ही नहीं ऐसे ही हर कोई गड्ड—मड्ड हो गया है। तुम जब दफ्तर में होते हो तो तुम्हारा मन घर में होता है; तुम जब घर में होते हो तो तुम्हारा मन दफ्तर में होता है। और तुम ऐसा जादुई करिश्मा कर नहीं सकते; घर में होकर तुम घर में ही हो सकते हो, दफ्तर में नहीं हो सकते; और अगर तुम दफ्तर में हो तो तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं है, तुम पागल हो। तब हर चीज दूसरी चीज में उलझ जाती है, गुत्थमगुत्था हो जाती है। तब कुछ भी स्पष्ट नहीं रहता है। और यही मन समस्या है।

कुएं से पानी खींचते हुए, कुएं से पानी ढोते हुए तुम अगर मात्र यही काम कर रहे हो तो तुम बुद्ध हो। अगर तुम झेन सदगुरुओं के पास जाओ और उनसे पूछो कि आप क्या करते हैं? आपकी साधना क्या है? ध्यान क्या है? तो वे कहेंगे : जब नींद आती है तो हम सो जाते हैं; जब भूख लगती है तो हम भोजन कर लेते हैं। बस यही हमारी साधना है और कोई साधना नहीं है।

लेकिन यह बहुत कठिन है, हालांकि आसान मालूम पड़ता है। अगर भोजन करते हुए तुम सिर्फ भोजन करो, अगर बैठे हुए तुम सिर्फ बैठो और कुछ न करो, अगर तुम वर्तमान क्षण के साथ रह सको, उससे हटो नहीं, अगर तुम वर्तमान क्षण में डूब सको, न कोई अतीत हो, न कोई भविष्‍य हो, अगर. वर्तमान क्षण ही एकमात्र अस्तित्व हो, तो तुम बुद्ध हो। तब यही मन बुद्ध—मन बन जाता है।

तो जब तुम्हारा मन भटकता हो तो उसे रोकने की चेष्टा मत करो, बल्कि आकाश को स्मरण करो। जब मन भटके तो उसे रोको मत। उसे किसी बिंदु पर लाने की, एकाग्र करने की चेष्टा मत करो। नहीं, उसे भटकने दो, लेकिन भटकाव पर बहुत अवधान मत दो—न पक्ष में, न विपक्ष में। क्योंकि तुम चाहे उसके पक्ष में रहो या विपक्ष में, तुम उससे बंधे रहते हो। आकाश को स्मरण करो। भटकन को चलने दो और इतना ही कहो : ठीक है, यह चलती हुई राह है; अनेक लोग इधर—उधर चल रहे हैं। मन एक चलती राह है। मैं आकाश हूं बादल नहीं।

इसे स्मरण रखो, इस भाव में उतरो; इसमें ही स्थित रहो। देर—अबेर तुम देखोगे कि बादलों की गति मंद पड़ रही बादलों के बीच बड़े अंतराल आने लगे हैं। वे अब उतने काले नहीं हैं, उतने घने नहीं हैं। उनकी गति मंद हो गई है,. उनके बीच अंतराल देखे जा सकते हैं, उनके पीछे का आकाश दिखाई पड़ने लगा है। अपने को आकाश की भांति अनुभव करते रहो, बादलों की भांति नहीं। देर—अबेर किसी दिन, किसी सम्यक क्षण में, जब तुम्हारी दृष्टि सचमुच भीतर लौट गई है, बादल विलीन हो जाएंगे; और तब तुम शुद्ध आकाश हो, सदा से शुद्र, सदा से अस्पर्शित आकाश हो।

और एक बार तुमने इस कुंआरेपन को जान लिया तो फिर बादलों में, बादलों के संसार में वापस आ सकते हो। तब संसार का अपना ही सौंदर्य है, तब तुम इसमें रह सकते हो, लेकिन अब तुम मालिक हो।

संसार बुरा नहीं है। मालिक की तरह संसार समस्या है; जब तुम ही मालिक हो तो तुम उसमें रह सकते हो। तब संसार का अपना ही सौंदर्य है, वह सुंदर है, प्यारा है। लेकिन तुम उस सौंदर्य को, उस माधुर्य को अपने भीतर मालिक होकर ही जान सकते हो।

तीसरी विधि:

 

जब किसी इंद्रिय— विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो उसी बोध में स्थित होओ।

तुम अपनी आख के द्वारा देखते हो। ध्यान रहे, तुम अपनी आख के द्वारा देखते हो। आंखें नहीं देख सकतीं; उनके द्वारा तुम देखते हो। द्रष्टा पीछे छिपा है, भीतर छिपा है, आंखें बस द्वार हैं, झरोखे हैं। लेकिन हम सदा सोचते हैं कि हम आख से देखते हैं; हम सोचते हैं कि हम कान से सुनते हैं। कभी किसी ने कान से नहीं सुना है। तुम कान के द्वारा सुनते हो, कान से नहीं। सुनने वाला पीछे छिपा है। कान तो रिसीवर भर है।

मैं तुम्हें छूता हूं; मैं बहुत प्रेमपूर्वक तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं। यह हाथ नहीं है जो तुम्हें छूता है, यह मैं हूं जो हाथ के द्वारा तुम्हें छू रहा हूं। हाथ यंत्र भर है। और स्पर्श भी दो भांति का है। एक, जब मैं सच ही तुम्हें स्पर्श करता हूं। और दूसरा, जब मैं स्पर्श से बचना चाहता हूं। मैं तुम्हें छूकर भी स्पर्श से बच सकता हूं; मैं अपने हाथ में न रहूं; मैं हाथ से अपने को अलग कर लूं।

इसे प्रयोग करके देखो, तुम्हें एक भिन्न अनुभव होगा, एक दूरी का अनुभव होगा। किसी पर अपना हाथ रखो और अपने को अलग रखो; वहां सिर्फ मुर्दा हाथ होगा, तुम नहीं। और अगर दूसरा व्यक्ति संवेदनशील है तो उसे मुर्दा हाथ का एहसास होगा; वह अपमानित अनुभव करेगा। क्योंकि तुम उसे धोखा दे रहे हो; तुम छूने का दिखावा कर रहे हो, छू नहीं रहे हो।

स्त्रियां इस मामले में बहुत संवेदनशील हैं, तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। स्पर्श के प्रति, शारीरिक स्पर्श के प्रति वे ज्यादा सजग हैं; वे जान जाती हैं। हो सकता है पति मीठी—मीठी बातें कर रहा हो, वह फूल ले आया हो और कह रहा हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं; लेकिन उसका स्पर्श कह देगा कि वह वहा नहीं है। और स्त्रियों को सहज—बोध हो जाता है कि कब तुम उनके साथ हो और कब नहीं। अगर तुम अपने मालिक नहीं हो तो तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। अगर तुम्हें अपने ऊपर मालकियत नहीं है तो तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। और जो अपना मालिक है वह पति होना नहीं चाहेगा, यह कठिनाई है। तुम जो भी कहोगे, तुम्हारा स्पर्श उसे झुठला देगा।

बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं, तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। तुम उनकी पीठ भला थपथपाते हो, लेकिन वे जान जाते है कि यह थपथपाना मुर्दा है। अगर तुम्‍हारे हाथ में प्रेम—ऊर्जा का प्रवाह नहीं है तो वे जान जाते हैं। एक मुर्दा हाथ उपयोग में लाया जा रहा है। और जब तुम समग्रता से अपने हाथ में मौजूद होते हो, जब तुम खुद हाथ के साथ आगे बढ़ते हो, जब तुम्हारे प्राण तुम्हारे हाथ में आ गए हैं, जब तुम्हारी आत्मा ही वहा मौजूद है, तब स्पर्श की गुणवत्ता ही भिन्न होती है।

यह सूत्र कहता है कि इंद्रियां द्वार भर हैं—एक माध्यम, एक यंत्र, एक रिसीविंग स्टेशन। और तुम उनके पीछे छिपे हो।

‘जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो, उसी बोध में स्थित होओ।’

संगीत सुनते हुए अपने को कान में मत खो दो, मत भुला दो; उस चैतन्य को स्मरण करो जो पीछे छिपा है। होश रखो। किसी को देखते हुए इस विधि का प्रयोग करो। तुम यह प्रयोग मुझे देखते हुए अभी और यहीं कर सकते हो। क्या हो रहा है?

तुम मुझे आख से देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आख से तो उसका मतलब है कि तुम्हें इसका बोध नहीं है कि तुम आख के पीछे छिपे हो। तुम मुझे आख के द्वारा देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आख के द्वारा तो उसका मतलब है कि आख बस तुम्हारे और मेरे बीच में एक यंत्र भर है, तुम आख के पीछे खड़े हो, आख के द्वारा देख रहे हो, जैसे कोई खिड़की या ऐनक के द्वारा देखता है।

तुमने बैंक में किसी क्लर्क को अपनी ऐनक के ऊपर से देखते हुए देखा होगा। ऐनक उसकी नाक पर उतर आयी है और वह देख रहा है। उसी ढंग से मुझे देखो, मेरी तरफ देखो, ऐसे देखो जैसे आख के ऊपर से देखते हो, मानो तुम्हारी आंखें सरककर नीचे नाक पर आ गई हों और तुम उनके पीछे से मुझे देख रहे हो। अचानक तुम्हें गुणवत्ता में फर्क मालूम पड़ेगा। तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदलता है, आंखें महज द्वार बन जाती हैं। और यह ध्यान बन जाता है।

सुनते समय कानों के द्वारा मात्र सुनो और अपने आंतरिक केंद्र के प्रति जागे रहो। स्पर्श करते हुए हाथ के द्वारा मात्र छुओ और आंतरिक केंद्र को स्मरण रखो जो पीछे छिपा है। किसी भी इंद्रिय से तुम्हें आंतरिक केंद्र की अनुभूति हो सकती है। और प्रत्येक इंद्रिय आंतरिक केंद्र तक जाती है, उसे सूचना देती है।

यही कारण है कि जब तुम मुझे देख और सुन रहे हो—जब तुम आख के द्वारा देख रहे हो और कान के द्वारा सुन रहे हो—तो तुम जानते हो कि तुम उसी व्यक्ति को देख रहे हो जिसे सुन भी रहे हो। अगर मेरे शरीर में कोई गंध है तो तुम्हारी नाक उसे भी ग्रहण करेगी। उस हालत में तीन—तीन इंद्रियां एक ही केंद्र को सूचना दे रही हैं। इसी से तुम संयोजन कर पाते हो, अन्यथा संयोजन कठिन होता।

अगर तुम्हारी आंखें ही देखती हैं और कान ही सुनते हैं तो यह जानना कठिन होता कि तुम उसी व्यक्ति को सुन रहे हो जिसे देख भी रहे हो, या दो भिन्न व्यक्तियों को देख और सुन रहे हो; क्योंकि दोनों इंद्रियां भिन्न हैं और वे आपस में नहीं मिलती हैं। तुम्हारी आंखों को तुम्हारे कानों का पता नहीं है और तुम्हारे कानों को तुम्हारी आंखों का पता नहीं है। वे एक—दूसरे को नहीं जानते हैं; वे आपस में कभी मिले नहीं हैं। उनका एक—दूसरे से परिचय भी नहीं कराया गया है। तो फिर सारा. समन्वय, सारा संयोजन कैसे घटित होता है?

कान सुनते है, आंखें देखती है, हाथ छूते है, नाक सूंघती है; और अचानक तुम्‍हारे भीतर कहीं कोई जान जाता है कि यह वही आदमी है जिसे मैं सुन रहा हूं देख रहा हूं छू रहा हूं और सूंघ रहा हूं। यह ज्ञाता इंद्रियों से पृथक और भिन्न है। सभी इंद्रियां इस ज्ञाता को ही सूचना देती हैं। और इस ज्ञाता में, इस केंद्र में सब कुछ सम्मिलित होकर, संयोजित होकर एक हो जाता है। यह चमत्कार है।

मैं एक हूं; तुमसे बाहर मैं एक हूं। मेरा शरीर, मेरे शरीर की उपस्थिति, उसकी गंध, मेरा बोलना, सब एक हैं। लेकिन तुम्हारी इंद्रियां मुझे विभाजित कर देंगी। तुम्हारे कान मेरे बोलने की खबर देंगे, तुम्हारी नाक मेरी गंध की खबर देगी और तुम्हारी आंखें मेरी उपस्थिति की खबर देंगी। वे इंद्रियां मुझे टुकड़ों में बांट देंगी। लेकिन फिर तुम्हारे भीतर कहीं पर मैं एक हो जाऊंगा। जहां तुम्हारे भीतर मैं एक होता हूं वह तुम्हारे होने का केंद्र है। वह तुम्हारा बोध है, चैतन्य है। तुम उसे बिलकुल भूल गए हो। यह विस्मरण ही अज्ञान है। और बोध या चैतन्य आत्म—ज्ञान का द्वार खोलता है। तुम और किसी उपाय से अपने को नहीं जान सकते हो।

‘जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो, उसी बोध में स्थित होओ।’

उसी बोध में रहो, उसी बोध में स्थिर रहो। होशपूर्ण होओ।

आरंभ में यह कठिन है। हम बार—बार सो जाते हैं, और आख के द्वारा देखना कठिन मालूम पड़ता है। आख से देखना आसान है। आरंभ में थोड़ा तनाव अनुभव होगा अगर तुम आख के द्वारा देखने की चेष्टा करोगे। और न केवल तुम तनाव अनुभव करोगे, वह व्यक्ति भी तनाव अनुभव करेगा जिसे तुम देखोगे।

अगर तुम किसी को आख के द्वारा देखोगे तो उसे लगेगा कि तुम अनुचित रूप से दखल दे रहे हो, कि तुम उसके साथ अभद्र व्यवहार कर रहे हो। तुम अगर आख के द्वारा देखोगे तो दूसरे को अचानक अनुभव होगा कि तुम उसके साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहे हो। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि बेधक बन जाएगी, तुम्हारी दृष्टि गहराई में उतर जाएगी। अगर यह दृष्टि तुम्हारी गहराई से आती है, वह उसकी गहराई में प्रवेश कर जाएगी।

यही कारण है कि समाज ने एक बिल्ट—इन सुरक्षा की व्यवस्था कर रखी है। समाज कहता है कि जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं हो, उसे बहुत घूरकर मत देखो। अगर तुम प्रेम में हो तो देख सकते हो। तब तुम उसके अंतर्तम तक प्रवेश कर सकते हो, क्योंकि वह तुमसे भयभीत नहीं है। तब दूसरा तुम्हारे प्रति नग्न हो सकता है, समग्रत: नग्न हो सकता है; वह तुम्हारे प्रति खुला हो सकता है। लेकिन साधारणत:, अगर तुम प्रेम में नहीं हो, तो किसी को घूरने की, बेधक दृष्टि से देखने की मनाही है।

भारत में हम ऐसे आदमी को, जो दूसरे को घूरता है, लुच्चा कहते हैं। लुच्चा का अर्थ है, देखने वाला। लुच्चा शब्द लोचन से आता है। लुच्चा का अर्थ हुआ कि जो आख ही बन गया है। इसलिए इस विधि का प्रयोग किसी अपरिचित पर मत करो। वह तुम्हें लुच्चा समझेगा। पहले इस विधि का प्रयोग ऐसे विषयों के साथ करो जैसे फूल हैं, पेड़ हैं, रात के तारे है। वे इसे अनुचित दखल नहीं मानेंगे; वे एतराज नहीं उठाएंगे। बल्कि वे इसे पसंद करेंगे, उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। वे इसका स्वागत करेंगे।

तो पहले उनके साथ प्रयोग करो और फिर अपनी पत्नी, अपने बच्चे, अपने प्रियजनों के साथ। कभी अपने बच्‍चे को गोद में उठा लो और उसको आँख के द्वारा देखो। बच्चा इसे समझेगा, सराहेगा। वह अन्य किसी से भी ज्यादा समझेगा, क्योंकि अभी समाज ने उसे पंगु नहीं बनाया है, विकृत नहीं किया है। वह अभी सहज है। तुम अगर उसे आख के द्वारा देखोगे तो उसे प्रगाढ़ प्रेम की अनुभूति होगी, उसे तुम्हारी उपस्थिति का एहसास होगा।

अपने प्रेमी या प्रेमिका को ऐसे देखो। और फिर जैसे—जैसे तुम्हें इस बात की पकड़ आएगी, जैसे—जैसे तुम इसमें कुशल होगे, वैसे—वैसे तुम धीरे— धीरे दूसरों को भी देखने में समर्थ हो जाओगे। क्योंकि तब किसी को पता नहीं चलेगा कि तुमने इस गहराई से उसे देखा। और जब अपनी इंद्रियों के पीछे सतत सजग होकर खड़े होने की कला तुम्हारे हाथ आ जाएगी तो इंद्रियां तुम्हें धोखा न दे पाएंगी। अन्यथा इंद्रियां धोखा देती हैं। ऐसे संसार में, जो सिर्फ भासता है, इंद्रियों ने तुम्हें उसे सच मानने का धोखा दिया है।

अगर तुम इंद्रियों के द्वारा देख सके और सजग रह सके तो धीरे— धीरे संसार माया मालूम पड़ने लगेगा, स्‍वप्‍नवत मालूम पड़ने लगेगा। और तब तुम उसके तत्व में, उसके मूल तत्व में प्रवेश कर सकोगे। वह मूल तत्व ही ब्रह्म है।

आज इतना ही।


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प्रभु की पगड़ंडियां–(प्रवचन–4)

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प्रभु—मंदिरका दूसरा द्वार: मैत्री—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 2 दिसम्‍बर, 1968;

ध्‍यान—शिविर, नारगोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

प्रभु के मंदिर के दूसरे द्वार पर आज बात करनी है। वह दूसरा द्वार है मैत्री, फ्रेंडलीनेस। करुणा है पहला द्वार, मैत्री है दूसरा द्वार। करुणा है वर्षा के दिनों में आकाश में छाए हुए बादलों की भांति जो पानी से भरे हैं। मैत्री है उस पानी की भांति जो जमीन पर बरस आता है। आकाश में बादल छाते हैं पानी से भरे हुए, लेकिन पृथ्वी की प्यास उनसे नहीं बुझती है। जब तक कि पानी आकाश से पृथ्वी तक उतर न आए तब तक उसकी प्यास नहीं बुझती है। करुणा है हृदय में भरा हुआ बादल। जब तक वह मैत्री बन कर जगत तक पहुंच न जाए, फैल न जाए तब तक पूरे अर्थों में सार्थक नहीं होती।

करुणा है आत्मा, मैत्री है अभिव्यक्ति। करुणा है आत्मा, मैत्री है शरीर। करुणा है निराकार, मैत्री है साकार। करुणा अप्रकट है, जब तक वह मैत्री न बन जाए तब तक प्रकट नहीं होती। करुणा है ऐसा गीत जो कवि के मन में गूंजा हो और मैत्री है ऐसा गीत जो उसके ओंठों से प्रकट हो गया हो और गा दिया गया हो और सब तक पहुंच गया हो।

इसलिए मैत्री करुणा के बाद, ठीक से कहें तो मैत्री का अर्थ है सक्रिय करुणा, एक्टिव कंपेशन। जब करुणा सक्रिय हो जाती है तो मैत्री बन जाती है। लेकिन मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है। मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है, फ्रेंडशिप नहीं है। मैत्री का अर्थ है. फ्रेंडलीनेस। मैत्री का अर्थ है मित्रत्व। और इन दोनों में सबसे पहले फर्क समझ लेना जरूरी है। और यह फर्क बहुत गहरा है। आमतौर से हम समझेंगे कि मैत्री का अर्थ है मित्रता। नहीं, मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं—मित्रत्व। इनमें फर्क क्या होगा

मित्रता जब तक रहेगी तब तक शत्रुता भी रहेगी। जिनके कोई मित्र होते हैं उनके शत्रु भी होते हैं। मैत्री का अर्थ है वैर— भाव समाप्त हो गया। अब कोई शत्रुता शेष न रही। मित्रता में शत्रुता की गंध बाकी रहेगी, मैत्री में शत्रुता तिरोहित हो गई। अब कोई शत्रुता का सवाल न रहा। जो मित्र बनाता है वह शत्रु भी बना लेता है, लेकिन जो मैत्री— भाव को जगाता है उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता। मित्रता में मित्र का गुण और योग्यता महत्वपूर्ण होते हैं। मैत्री— भाव में गुणों की, योग्यता की कोई अपेक्षा नहीं। मैं अगर आपसे मित्रता करूं तो आपकी योग्यता, आपके गुण महत्वपूर्ण होंगे, उनको देख कर मित्रता बनेगी। अगर वे गुण मिट जाएंगे तो शत्रुता आ जाएगी।

मित्रता आप पर निर्भर है, मित्रता दूसरे पर निर्भर है। मैत्री का भाव मुझ पर निर्भर है, दूसरे से उसका कोई संबंध नहीं। मैत्री मेरी अंतर्भाव—दशा है, इसलिए मैत्री को मैं कह रहा हूं मित्रत्व, फ्रेंडलीनेस—फ्रेंडशिप नहीं। यह मैत्री क्या है?

और मैंने कहा है कि मैत्री है सक्रिय करुणा। करुणा जब साकार हो उठती है, सगुण हो जाती है; करुणा जब सक्रिय हो उठती है और काम में संलग्न हो जाती है, तब वह मैत्री बनती है। पहले तो करुणा का जन्म होता है हृदय में, उतरती है वह। प्राण भर जाते हैं अनुकंपा से, कंपेशन से, करुणा से। जैसे बादल भर जाते हैं पानी से, फिर बादल बरसते हैं, फिर खाली करते हैं अपने को, उड़ेल देते हैं और तब पृथ्वी तक पहुंच पाते हैं, फिर बीज अंकुरित होते हैं, पृथ्वी की प्यास बुझती है। करुणा है हृदय में उठा हुआ बादल। फिर जब वह व्यक्तित्व के सब द्वारों से प्रकट होने लगता है, और व्यक्तित्व के सारे द्वारों से वे जल—स्रोत बहने लगते हैं और अनंत तक पहुंचने लगते हैं, तब वह मैत्री बन जाती है।

विवेकानंद अमरीका जाते थे। रामकृष्ण की तो मृत्यु हो गई थी। रामकृष्ण की पत्नी शारदा से वे आशा मांगने गए कि मैं जाता हूं परदेश, खबर ले जाना चाहता हूं— धर्म की, सत्य की। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं सफल होऊं।

शारदा तो ग्रामीण स्त्री थी। वे उससे आशीर्वाद लेने गए। उन्होंने सोचा भी न था कि शारदा आशीर्वाद देने में भी सोच—विचार करेगी। उसने विवेकानंद को नीचे से ऊपर तक देखा। वह अपने चौके में खाना बनाती थी। फिर बोली सोच कर बताऊंगी।

विवेकानंद ने कहा सिर्फ आशीर्वाद मांगने आया हूं शुभाशीष चाहता हूं तुम्हारी मंगलकामना कि मैं जाऊं और सफल होऊं।

उसने फिर उन्हें गौर से देखा और उसने कहा ठीक है। सोच कर कहूंगी।

विवेकानंद तो खड़े रह गए अवाक। कभी आशीर्वाद भी किसी ने सोच कर दिए हों और आशीर्वाद सिर्फ मांगते थे शिष्टाचारवश।

वह कुछ सोचती रही और फिर उसने कहा विवेकानंद को कि नरेन्द्र, वह जो सामने पड़ी हुई छुरी है, वह उठा लाओ।

सामने पड़ी हुई छुरी विवेकानंद उठा लाए और शारदा के हाथ में दी। हाथ में देते ही वह हंसी और उसकी हंसी से उन्हें आशीर्वाद बरस गए उनके ऊपर। उसने कहा कि जाओ। जाओ, तुमसे सबका मंगल ही होगा। विवेकानंद कहने लगे कि इस छुरी के उठाने में और तुम्हारे आशीर्वाद देने में कोई संबंध था क्या?

शारदा ने कहा संबंध था। मैं देखती थी कि छुरी उठा कर तुम किस भांति मुझे देते हो। मूठ तुम पकड़ते हो कि फलक तुम पकड़ते हो। मूठ मेरी तरफ करते हो कि फलक मेरी तरफ करते हो। और आश्चर्य कि विवेकानंद ने फलक अपने हाथ में पकड़ा था छुरी का और मूठ लकड़ी की शारदा की तरफ की थी।

आमतौर से शायद ही कोई फलक को पकड़ कर और मूठ दूसरे की तरफ करे। मूठ कोई पकड़ेगा सहज, खुद।

शारदा कहने लगी तुम्हारे मन में मैत्री का भाव है, तुम जाओ, तुमसे कल्याण होगा। तुमने फलक अपनी तरफ पकड़ा, मूठ मेरी तरफ। अपने को असुरक्षा में डाला। हाथ में चोट लग सकती है और मेरी सुरक्षा की फिकर की। तुम जाओ, आशीर्वाद मेरे तुम्हारे साथ हैं।

इतनी सी, छोटी सी घटना में मैत्री प्रकट होती है, साकार बनती है। बहुत छोटी सी घटना है! क्या है मूल्य इसका कि क्या पकड़ा आपने, फलक या मूठ? शायद हम सोचते भी नहीं। और सौ में निन्यानबे मौके पर कोई भी मूठ ही पकड़ता है। वह सहज मालूम होता है। अपनी रक्षा सहज मालूम होती है, आत्म—रक्षा सहज मालूम होती है।

मैत्री आत्म—रक्षा से भी ऊपर उठ जाती है। दूसरे की रक्षा, वह जो जीवन है हमारे चारों तरफ, उसकी रक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है। मैत्री का अर्थ है. मुझसे भी ज्यादा मूल्यवान है सब—कुछ जो है।

वैर का अर्थ है मैं सबसे ज्यादा मूल्यवान हूं। सारा जगत मिट जाए, लेकिन मेरी रक्षा जरूरी है। मैं हूं केंद्र जगत का। वैर— भाव का आधार है मैं हूं केंद्र जगत का। वैर— भाव ईगो—सेंट्रिक है। वह अहं—केंद्रित है। मैं हूं जगत का केंद्र। सारा जगत चलता है मेरे लिए, सारा जगत मिट जाए, लेकिन मैं बचूं।

मैत्री का केंद्र मैं नहीं हूं सर्व है। मैं मिट जाऊं, सब बचे। मैं खो जाऊं, सब रहे। मैत्री है मंगल की कामना, सर्व—मंगल की। कामना ही नहीं, सक्रिय जीवन भी। उठूं, बैठूं, चलूं— और मेरा उठना, बैठना, चलना, मेरा श्वास लेना भी सर्व—मंगल के लिए समर्पित हो जाए; तो मनुष्य परमात्मा के दूसरे द्वार में प्रवेश पाता है।

साधारणतया हम वैर— भाव में ही जीते हैं, मैत्री का हमें कोई पता नहीं। हम जिन्हें मित्र भी कहते हैं उन्हें भी इसी कारण कि वे हमारे आत्म—रक्षा में सहयोगी हैं, वे हमारी रक्षा में सहयोगी हैं। हम जिन्हें मित्र कहते हैं इसी कारण कि वे भी मेरे अहंकार के, मुझे बचाने में साथी हैं, संगी हैं, इसलिए।

हमारी परिभाषा ही क्या है मित्र की और शत्रु की? जो मुझे मिटाने को उत्सुक हो जाए उसे हम शत्रु कहते हैं और जो मुझे बचाने में आतुर है उसको हम मित्र कहते हैं। लेकिन केंद्र— मैं हूं। इसलिए एक क्षण पहले तक जो मित्र था, एक क्षण बाद शत्रु हो सकता है। अगर उसकी मुझे केंद्र मानने की इच्छा विलीन हो जाए तो वह शत्रु हो जाएगा। जो शत्रु था एक क्षण पहले, मित्र हो सकता है। अगर वह मेरे मैं को बचाने में सहयोगी हो जाए तो मित्र हो जाएगा। मित्र और शत्रु तत्‍क्षण बदले जा सकते हैं।

अमरीका और रूस मित्र थे हिटलर के खिलाफ, क्योंकि तब वे एक—दूसरे को बचाने में सहयोगी थे। अब वे शत्रु हैं, क्योंकि अब वे एक—दूसरे को बचाने में सहयोगी नहीं हैं। कल वे फिर मित्र हो सकते हैं चीन के खिलाफ, तब वे फिर एक—दूसरे को बचाने में सहयोगी हो जाएंगे। जो मुझे बचाता है वह मित्र है, जो मुझे मिटाना चाहता है वह शत्रु है। और हम सब इसी भाव में जीते हैं कि मैं बचूं मैं बचूं मैं बचूं। और स्वयं को बचाने में सारा जगत मुझे शत्रु जैसा मालूम पड़ता है, क्योंकि प्रत्येक चीज ऐसी लगती है कि डुबा देगी, मिटा देगी।

वैर— भाव में जीने वाला सदा भय में जीता है, फियर में जीता है। जो मैत्री को उपलब्ध होते हैं वे ही फियरलेसनेस को, अभय को उपलब्ध होते हैं, क्योंकि फिर मिटने—मिटाने का सवाल न रहा। वे खुद ही मिट गए, अब उन्हें कोई मिटाएगा कैसे?

लाओत्सु कहता था: ‘धन्य हैं वे लोग जो हारे ही हुए हैं, क्योंकि उन्हें कोई हरा नहीं सकता।’ मैं फिर दोहराता हूं अदभुत है यह पंक्ति। लाओत्सु कहता है धन्य हैं वे लोग जो हारे ही हुए हैं, क्योंकि उन्हें कोई हरा नहीं सकता। धन्य हैं वे लोग जो मिट ही गए, क्योंकि अब उन्हें कोई मिटा नहीं सकता। धन्य हैं वे लोग जो हैं ही नहीं, क्योंकि अब उनकी कोई मृत्यु संभव नहीं है।

हम जितना अपने को बचाते हैं, उतना हम अपने को मिटाए जाने के लिए आमंत्रण भेज देते हैं। तूफान आता है हवा का एक। छोटे—छोटे वृक्ष झुक जाते हैं, हवाएं निकल जाती हैं, वे फिर खड़े हो जाते हैं और हंसने लगते हैं। उनमें फूल फिर खिल आते हैं, वे फिर हवाओं में नाचने लगते हैं। बड़े वृक्ष— अहंकार से भरे वृक्ष, ऊंचे वृक्ष—नहीं, झुकने के लिए तैयार नहीं होते। वे टकराते हैं, वे प्रतिरोध करते हैं, वे रेसिस्ट करते हैं। वे तूफान के दुश्मन हो जाते हैं। तूफान के सामने वे अकड़ कर खड़े हो जाते हैं। जितनी उनकी तेज अकड़ होती है उतनी ही उनके टूटने की संभावना बढ़ जाती है। जितने वे कड़े होते हैं उतने ही टूटने के लिए मौके बढ़ जाते हैं। उनका कड़ापन, उनके खड़े रहने का भाव, उनकी जिद्द उनकी मौत बन जाती है। और वे छोटे—छोटे पौधे जो झुक गए हैं और लेट गए हैं और समर्पित हो गए हैं; जिन्होंने तूफान से शत्रुता नहीं साधी है, जो तूफान के खिलाफ खड़े नहीं हो गए हैं, जिन्होंने तूफान को भी अंगीकार कर लिया है और उसके साथ ही डूब गए हैं और कहा है, जो तेरी मर्जी! अगर पूरब बहना है तो हम पूरब बहे जाते हैं, अगर पश्चिम झुकना है तो हम पश्चिम झुके जाते हैं।

जिन्होंने तूफान के आते ही अपने को झुका लिया है, तूफान उनके ऊपर से निकल जाता है— एक मित्र के प्रेम की तरह—वें वापस खड़े हो जाते हैं। उनके झुकने की क्षमता ही उनके जीने की क्षमता बन जाती है। कड़े होने की, अकड़ के खड़े होने की क्षमता मौत की क्षमता है, जीवन की नहीं।

शत्रु— भाव मृत्यु का आमंत्रण है। मैत्री जीवन का बुलावा है।

मैत्री का अर्थ है. जिसने यह खयाल छोड़ दिया कि मुझे मिटाया जा सकता है। असल में जो यह कहता है कि ‘मैं हूं ही नहीं’ इसलिए मिटेगा क्या? मिटाएगा कौन? कौन है शत्रु? ‘मैं हूं नहीं’ तो शत्रु का प्रश्न न रहा। ’मैं’ जब तक हूं तब तक शत्रु है।’मैं’ जब तक हूं और जितना घनीभूत हूं उतना ही घनीभूत शत्रु होगा। मेरा कड़ा होना ही शत्रुता निर्मित करता है। इसलिए जितना अहंकारी व्यक्ति होता है, उतने ही शत्रु निर्माण कर लेता है। यह पृथ्वी उसे चारों तरफ से शत्रु मालूम पड़ने लगती है। कोई मित्र नहीं रह जाता।

मैंने सुना है, हिटलर को कोई भी ‘तू’ कह कर संबोधित नहीं कर सकता था। हिटलर का कोई भी मित्र नहीं था। हिटलर का नाम भी लेकर कोई संबोधित नहीं कर सकता था। फ्यूहरेर ही कहना पड़ता था। हिटलर ने कभी किसी से मित्रता नहीं साधी। कभी कोई आदमी को इसने करीब नहीं आने दिया कि उसके कंधे पर हाथ रख ले। इतना भयभीत था!

हिटलर ने विवाह नहीं किया। मरने के आखिरी दिन दो घंटे पहले विवाह किया। इसलिए विवाह नहीं किया कि विवाह करने का मतलब एक स्त्री इतने निकट आ जाएगी। और जिस आदमी का अहंकार जितना विक्षिप्त है वह किसी को निकट पाने में घबड़ाता है, क्योंकि खतरा हो सकता है। निकट का व्यक्ति नुकसान पहुंचा सकता है। पत्नी को भी इतने निकट नहीं आने देना है, किसी स्त्री को कि वह रात एक ही कमरे में सो जाए, खतरा है। वह रात को उठे और छुरे भोंक दे, जहर पिला दे।

तो एक स्त्री उसे बारह वर्षों से प्रेम करती थी और वह उसे टालता रहा। वह कहता रहा कि रुको, अभी समय नहीं आया है कि मैं विवाह करूं। जिस दिन बर्लिन पर बम गिरने लगे और हिटलर के मकान के सामने तोपें दुश्मन की आ गईं और हिटलर की खिड़कियों से आकर गोलियां टकराने लगीं, तब हिटलर ने खबर भेजी उस औरत को कि तू जल्दी आ जा, हम विवाह कर लें।

और आप हैरान होंगे, बिना किसी साक्षी के एक पादरी को जल्दी जबरदस्ती चर्च से नींद से उठवा कर बुलाया गया। दो—चार मित्रों के बीच एक नीचे के तलघर में जल्दी से शादी हो गई और एक घंटे बाद दोनों ने जहर खाकर गोली मार ली—पति—पत्नी दोनों ने। जब मौत बिलकुल करीब ही आ गई तब उसने सोचा कि अब कोई फिकर नहीं है, अब किसी को पास लिया जा सकता है। इतना भय! किसी के निकट आने में इतना डर! जितना अहंकार प्रबल होगा उतना ही सारा जगत शत्रु मालूम पड़ने लगता है। जितना व्यक्ति विनम्र होगा, उतना ही सारे जगत के प्रति मैत्री की धाराएं बहने लगती हैं। मैत्री का अर्थ है निर—अहंकारिता, ईगोलेसनेस। मैत्री तभी जन्मेगी और सक्रिय होगी जब भीतर यह ‘मैं’ का भ्रम टूट जाए। हम तो इस ‘मैं’ के भ्रम को ही मजबूत करते चले जाते हैं। जितना इस ‘मैं’ को मजबूत करते हैं, उतना ही डर लगता है कि कोई तोड़ न दे, कोई मिटा न दे। तो उतनी ही हम दीवाल खड़ी करते हैं, उतना ही दूसरे को दूर करते हैं, निकट नहीं आने देते हैं।

अहंकार से भरा हुआ आदमी प्रेम कर ही नहीं सकता, क्योंकि प्रेम में किसी को निकट, निकटता देनी पड़ती है। इतनी निकटता देनी पड़ती है कि वह जितने हम अपने निकट हैं उतने ही निकट वह भी हो जाता है। इसलिए अहंकारी प्रेम से भागता है और डरता है। क्योंकि प्रेम का मतलब है कि दूसरे को इतने निकट ले आना जहां कि खतरा हो सकता है, जहां कि कोई हमें मिटा सकता है।

इसलिए अहंकारी प्रेम से बचता है और अगर प्रेम जैसी घटना भी उसके जीवन में घटती है तो वह घटना ऐसी ही होती है जैसे एक आदमी लोहे के एक खोल में खड़ा हो जाए, और थोड़ा सा एक छेद बना ले, उसमें से हाथ निकाले और दूसरे से थोड़ा हाथ मिलाए और फिर भीतर कर ले। बस ऐसा ही प्रेम है हमारा। अपनी लौह— कवच को हम हमेशा तैयार रखते हैं कि हम उस खोल में… जैसे कछुआ जल्दी से अपनी खोल में सब सिकोड़ कर अंदर हो जाता है, थोड़ा सा बाहर निकलता है। जरा ही भय और अपनी खोल में वापस हो गया।

हम सब भी अपने आस—पास लोहे के खोल बनाए हुए हैं। थोड़ा सा निकलते हैं प्रेम के लिए, जरा सा झांकते हैं कि अच्छा, मेरा बेटा आ रहा है! अच्छा, मेरी पत्नी आ रही है! थोडा सा निकलते हैं डरे—डरे, और चौंके हुए हैं कि कोई हमला न हो जाए और जरा सा भय, जरा सी पत्नी की आंख में दूसरा भाव और हम कछुए की तरह भीतर सरक गए हैं और अपनी खोल मजबूत कर ली है और पूछने लगे क्या मतलब है, क्या बात है? यह जो एक लौह—कवच हम भय का बनाए हुए हैं, यह कैसे मैत्री— भाव को जन्म देने देगा? यह इतनी सुरक्षा की पागल प्यास, यह इतनी सिक्योरिटी की आकांक्षा कैसे मित्र बनाने देगी? यह कैसे फैलेगी भीतर छिपी हुई मैत्री की धारा?

नहीं, इस लौह—कवच को तोड़ देना जरूरी है। यह लौह—कवच हमने बनाया इसलिए है कि अपने को बचाना है। और मजा यह है कि हम हैं कहां जिसको बचाना हो! जिसे हम बचाने चले हैं, सपना है— और एक झूठ, एक सूडो रियलिटी, एक फिक्शन, एक सपना, एक झूठ, एक कल्पना, एक कविता! यह मैं हूं कहां, जिसको हम बचाने चले हैं? यह है कहां? इसकी सचाई क्या है? इसका अर्थ कितना है? हम सच में अलग हैं इस विराट जगत से? इस जीवन से हमारी कोई भिन्नता है?

एक क्षण को भी हम अलग नहीं हैं, विराट के हिस्से हैं। सागर में लहरें नाच रही हैं। हर लहर को खयाल हो सकता है कि मैं हूं लेकिन हम जो किनारे पर खड़े देख रहे हैं वे हंसेंगे और कहेंगे, पागल लहर! तू कहां है, सागर है, तू नहीं है। तू तो सिर्फ हवा के एक झोंके में उठ आई हुई एक रूपाकृति है, हवा के झोंके में उठ आया एक रूप, एक फॉर्म, हवा के झोंके में पैदा हो गया एक नाम—नाम—रूप, इससे ज्यादा तू क्या है?

लहर एक नाम है, हवा के झोंके में उठ गई एक आकृति है। झोंका निकल जाएगा, आकृति गिर जाएगी। सागर पहले भी था, बीच में भी था, पीछे भी होगा। कभी आपने सोचा, सागर बिना लहरों के हो सकता है, लेकिन कभी आपने लहर देखी बिना सागर के? लहर बिना सागर के नहीं हो सकती, सागर बिना लहर के हो सकता है। इसलिए सागर है सत्य, लहर है सपना। लहर का अपना कोई अस्तित्व नहीं है।

यह जीवन हमारे बिना था, यह जीवन हमारे बिना होगा, लेकिन हम इस जीवन के बिना हो सकते हैं? यह पूछ लेना जरूरी है, इसे बहुत गहराई में अपने से पूछ लेना जरूरी है। मैं नहीं था और जीवन था। और चांद निकलता था और चांदनी बरसती थी, और सूरज उगता था और पक्षी गीत गाते थे, और वृक्ष उगते थे और फूल लगते थे और आकाश में तारे आते थे और बादल आते थे। सब चलता था। जीवन था, जीवन अपने पूरे रंगों में था। मैं नहीं था, उससे जीवन रत्ती भर भी कम नहीं था। मैं नहीं रहूंगा कल, जीवन रत्ती भर भी कम नहीं हो जाएगा, जीवन रहेगा। लहर नहीं होगी, सागर फिर होगा।

लेकिन क्या मैं यह सोच सकता हूं कि सूरज न हो, चांद न हो, तारे न हों, वृक्ष न हों, पौधे न हों, पक्षी न हों, यह जो जीवन का विस्तीर्ण फैलाव है यह न हो और मैं हो जाऊं? क्या यह कसीवेबल है? क्या इसकी कल्पना भी की जा सकती है कि जीवन न हो और मैं हो जाऊं? लेकिन मेरे बिना तो जीवन था और कल फिर होगा। इससे क्या मतलब होता है?

इसका मतलब होता है कि मैं लहर से ज्यादा नहीं। जीवन है सागर। मैं उठता हूं एक रूप, एक आकृति और गिर जाता हूं और जीवन सदा है—सदा है, सदा था, सदा होगा। जीवन है सत्य, मैं हूं एक सपना। आया और गया, हवा की एक लहर। लेकिन इस लहर को हम सब—कुछ मान लेते हैं और जब सब मान लेते हैं तो इसे बचाने के लिए आतुर हो जाते हैं और भयभीत हो जाते हैं कि कोई मिटा न दे। जो है ही नहीं, उसको कोई मिटा कैसे सकेगा? जो होता तो मिटाया भी जा सकता था, लेकिन जो है ही नहीं उसे कोई कैसे मिटा सकेगा? मैं हूं ही नहीं, मिटाने का सवाल कहां है! मैं होता तो मिटाया भी जा सकता था, मैं हूं नहीं!

यह जिस दिन जितनी गहरी प्रतीति होती है कि मैं हूं नहीं, उतने ही जीवन से शत्रुता गिर जाती है, क्योंकि फिर कोई मिटाने वाला न रहा, कोई मिटाने की संभावना न रही, कुछ मिटाया नहीं जा सकता। और मैंने कहा कि मैं हूं नहीं तो मिटाया क्या जा सकेगा। और मैंने कहा कि अगर मैं होता तो मिटाया भी जा सकता था, लेकिन और थोड़ी गहराई समझ की बढ़ेगी तो पता चलेगा कि जो है उसे तो मिटाया कैसे जा सकता है। जो है वह है, उसे कैसे मिटाया जा सकेगा?

एक रेत के छोटे से कण को भी तो नहीं मिटाया जा सकता है। जो है, जो एक्सिस्टेंस है, जो अस्तित्व है उसे कैसे मिटाया जा सकता है। जो नहीं है उसे नहीं मिटाया जा सकता है, जो है उसे नहीं मिटाया जा सकता। जो दोनों के बीच में है, केवल सपना है, वही बनता है और मिटता है। जो न है और न नहीं है।

यह, यह बहुत गहरे में स्पष्ट होना चाहिए—यह प्रतीति, यह साक्षात, मैं हूं कहां, मेरा होना क्या है? और जिस दिन यह स्पष्ट हो जाएगा कि मैं नहीं हूं उस दिन कैसी शत्रुता, कैसा वैर? उस दिन कौन है जो शत्रु है, कौन है जो बुरा है, कौन है जिससे मैं भयभीत हो जाऊं, कौन है जिससे मैं डरूं, कौन है जिससे मैं बचूं। कौन सा है तूफान जिसके खिलाफ मुझे खड़े हो जाना है और लड़ना है।

नहीं—नहीं, मैं ही हूं। अगर मैं नहीं हूं तो फिर जो कुछ है वह सब मैं ही हूं। तूफान भी मैं ही हूं—वह जो मिटाने चला आ रहा है वह भी मैं ही हूं।

गदर के दिनों में अठारह सौ सत्तावन में एक संन्यासी को कुछ अंग्रेजों ने भाला भोंक कर मार डाला था। वह संन्यासी पंद्रह वर्षों से मौन था। पंद्रह वर्षों से मौन था, जब उसने मौन लिया था तो उसने कहा था कि कभी जरूरत होगी तो बोलूंगा। फिर पंद्रह वर्ष तक कोई जरूरत न पड़ी और वह नहीं बोला। अंग्रेजों की एक छावनी के पास से वह निकलता था। उन्होंने यह समझ कर कि कोई भेदिया, कोई जासूस, कोई सी. आई. डी. —रात अंधेरी थी और वह वहां से निकल रहा था। वह था अपनी मौज का आदमी। कहां रात थी उसे, कहां दिन था। जब आंख खुल जाती थी तो दिन था, जब आंख बंद हो जाती थी तो रात थी।

वह निकल रहा था छावनी के पास से। उसको पहरेदारों ने रोक लिया और पूछने लगे. कौन हो तुम? तो वह हंसने लगा। वह हंसने लगा। उसकी हंसी देख कर वे पहरेदार संदिग्ध हुए। पूछने लगे जोर से कि बोलो, कौन हो तुम? लेकिन वह तो था मौन। बोलता क्या? और अगर बोलता भी होता तो भी क्या बोलता? कौन हैं आप? तब भी तो सन्नाटा छा जाता।

तो वह हंसने लगा, लेकिन उसकी हंसी को तो गलत समझा गया। हंसी को हमेशा ही गलत समझा जाता है।

उन्होंने उसे घेर लिया और कहा बोलो, अन्यथा मार डालेंगे। तो वह और हंसने लगा। उसे और जोर से हंसी आई, क्योंकि वे मारने की धमकी दे रहे थे। लेकिन मारेंगे किसको! वहां कोई हो तो मर जाए!

वह और भी हंसने लगा तो उन्होंने भाले उसकी छाती में भोंक दिए। मरते क्षण में उसने सिर्फ एक शब्द बोला था। शायद जरूरत आ गई थी इसलिए। उसने उपनिषदों का एक शब्द बोला। उसने कहा ‘तत्वमसि।’ और मर गया। उसने कहा तुम वही हो, दैट आर्ट दाउ, तत्वमसि, तुम वही हो। वही जो है, और मर गया। तुम वही हो जो मैं हूं तुम वही हो जो है। जिस दिन पता चलता है कि मैं नहीं हूं उसी दिन पता चलता है कि सभी कुछ मैं हूं। जब तक मैं हूं तब तक सब और मेरे बीच एक फासला है। जिस दिन मैं नहीं हूं जिस दिन लहर नहीं है उस दिन पड़ोस की लहर और दूर की लहर सब वही हो गई। सारा सागर वही हो गया। जरूरत आ गई थी तो उसने कहा था, तुम भी वही हो। बड़ी अदभुत बात कही थी मरते क्षण में कि ‘ तुम भी वही हो।’

जो आदमी जीवन में ही यह कह देता है कि ‘ तुम भी वही हो ‘ वह मैत्री— भाव को उपलब्ध हो जाता है। मैत्री— भाव का अर्थ है कि कोई दूसरा नहीं है। और दूसरा तब तक रहेगा जब तक मैं हूं क्योंकि दूसरा सिर्फ मेरे ‘मैं’ की रिएक्‍शन है, उसकी प्रतिक्रिया है। जब तक ‘मैं हूं तब तक ‘ तू है।’ जिस दिन ‘मैं’ नहीं है उस दिन कोई ‘ तू ‘ न रहा। जिस दिन कोई ‘तू’ न रहा उस दिन जो भाव जन्मेगा उस भाव का नाम है मैत्री, उसका नाम है फ्रेंडलीनेस। और जब कोई पराया न रहा, जब कोई अन्य न रहा, दि अदर, वह दूसरा न रहा, तब मैं किस तरह जीऊंगा? तब मैं किस तरह जीऊंगा? तब किसी रोते हुए आदमी के आंसू क्या मेरे आंसू नहीं हो जाएंगे? तब किसी आदमी की हंसती हुई मुस्कुराहट क्या मेरी मुस्कुराहट नहीं हो जाएगी? तब खिला हुआ फूल क्या मेरी खिली हुई आत्मा नहीं हो जाएगी? तब सागर की गरजती हुई लहरें क्या मेरा गर्जन न बन जाएंगी?

जब मैं नहीं हूं और तू नहीं है तो फिर जो रह गया वह सब एक है। और तब सक्रिय होती है करुणा। जब एक ही शेष रह गया, तब जो सक्रियता जीवन में पैदा होती है, तब मैं जो करता हूं तब वह सभी कुछ मैत्रीपूर्ण है। तब जो भी मैं हूं— मेरा उठना—बैठना, मेरा श्वास, वह सभी मैत्रीपूर्ण है। तब जीवन के सारे दुख मेरे हैं और सारे सुख भी। तब जीवन के सारे आंसू मेरे हैं और सारी मुस्कुराहटें भी। तब जीवन और मैं एक हूं। वैसा जो तादात्म्य है, वैसा जो अद्वैत भाव है, उस अद्वैत भाव का नाम है मैत्री। इसलिए मैत्री दूसरा द्वार है।

कैसे पहुंचेंगे इस मैत्री के जगत तक? कैसे उठेंगे इस मित्रत्व में? कैसे उठेंगे इस एकता में? कैसे यह अद्वैत फलित होगा? कैसे तोड़ेंगे अपने को? तीन बातें ध्यान में रहें तो यह टूटना हो सकता है।

पहली बात इस बात की अथक खोज चाहिए कि मैं हूं। इस बात की अथक खोज चाहिए—मैं हूं मेरा कोई अलग होना है? मैं कोई अलग— थलग, कोई जीवन से टूटा हुआ, कोई खंड, कोई पृथकता है कहीं मेरे होने में, या कि एक अपृथक अस्तित्व है, एक इंटिग्रेटेड एक्सिस्टेंस है?

मैं श्वास ले रहा हूं लेकिन श्वास तो मेरी नहीं है। यह जो चारों तरफ भरा हुआ श्वास का सागर है, ये जो हवाएं हैं उनसे श्वास मुझ तक आती है और जाती है। अगर हवाएं बंद हो जाएं, इनकार कर दें कि बस बहुत हो गया, अब नहीं आदमियों से संबंध रखना है, तो मैं और आप तत्‍क्षण यहीं शून्य हो जाएंगे। जीवन विलीन हो जाएगा।

सूरज की किरणें आ रही हैं, बहुत लंबी यात्रा करके हम तक आती हैं, कोई आठ—नौ करोड़ मील दूर से। सूरज तय कर ले कि बस हो जाओ ठंडे, बहुत दिन हो गए! बहुत दिन हो गए और ठंडा हो जाए वहीं अभी; तो हमें पता भी नहीं चलेगा कि सूरज ठंडा हो गया है। क्योंकि उसके ठंडे होते ही हम भी ठंडे हो जाएंगे। वह जो यह दूर से आती हुई किरणें यहां गिर रही हैं आपके ऊपर, यह नौ करोड़ मील दूर से जीवन बरस रहा है। नौ करोड़ मील दूर से जीवन के सूत्र और धागे बंधे हैं। ये किरणें धागे हैं जीवन के। ये किरणें बंद और हम समाप्त! लेकिन हम कहे चले जाते हैं कि मैं हूं।

नहीं, मैं नहीं हूं। हवाएं हैं, सूरज है, पृथ्वी है, सब—कुछ है— मैं कहां हूं! इन सबका अदभुत जोड़ है, इन सबका एक क्रास पॉइंट है। इन सबसे मिल कर एक रूपाकृति है। उस रूपाकृति को यह भ्रम है कि मैं हूं। एक भिक्षु था, नागसेन। एक सम्राट मिलिंद ने उसे निमंत्रण भेजा था। निमंत्रण लेकर सम्राट का दूत गया और कहा कि भिक्षु नागसेन! सम्राट ने निमंत्रण भेजा है। आपके स्वागत के लिए हम तैयार हैं। आप राजधानी आएं। तो उस भिक्षु नागसेन ने कहा कि आऊंगा जरूर, निमंत्रण स्वीकार। लेकिन सम्राट को कह देना कि भिक्षु नागसेन जैसा कोई व्यक्ति है नहीं। ऐसा कोई व्यक्ति है नहीं। आऊंगा जरूर, निमंत्रण स्वीकार है। लेकिन कह देना सम्राट को कि भिक्षु नागसेन जैसा कोई व्यक्ति, कोई इंडिविजुअल है नहीं।

राजदूत तो चौंका, फिर आएगा कौन, फिर निमंत्रण किसको स्वीकार है? लेकिन कुछ कहना उसने उचित न समझा। जाकर निवेदन कर दिया सम्राट को। सम्राट भी हैरान हुआ। लेकिन प्रतीक्षा करें, आएगा भिक्षु तो पूछ लेंगे कि क्या था उसका अर्थ?

फिर भिक्षु को लेने रथ चला गया। फिर स्वर्ण—रथ पर बैठ कर वह भिक्षु चला आया। वह कमजोर भिक्षु न रहा होगा कि कहता कि नहीं, सोने को हम न छुएंगे। कमजोर भिक्षु होता तो कहता कि नहीं सोने को हम न छुएंगे, सोना तो मिट्टी है। लेकिन बड़ा मजा यह है कि सोने को मिट्टी भी कहता और छूने में डरता भी है!

नहीं, वह सचमुच भिक्षु रहा होगा अदभुत। उसको सोना मिट्टी ही रहा होगा। सो बैठ गया शान से वह उस सोने के रथ पर। लेने वालों ने सोचा भी था कि शायद भिक्षु कहेगा कि सोने का रथ! नहीं—नहीं, मैं नहीं बैठता। उन्हें पता न था कि यह सब कमजोर भिक्षुओं की आदतें हैं, कि सोने का रथ—मैं नहीं बैठता! सोने से जिनको बहुत डर है कि कहीं सोना पकड़ न ले, वे सोने से भागते हैं, भाग सकते हैं।

वह बैठ गया रथ पर, चल पड़ा रथ। आ गई राजधानी, सम्राट नगर के द्वार पर लेने आया था। सम्राट ने कहा कि भिक्षु नागसेन! स्वागत करते हैं नगर में। वह हंसने लगा भिक्षु। उसने कहा स्वागत करें, स्वागत स्वीकार, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं। सम्राट ने कहा फिर वही बात! हम तो सोचते थे महल तक ले चलें फिर पूछेंगे। आपने महल के द्वार पर ही बात उठा दी है तो हम पूछ लें कि क्या कहते हैं आप? भिक्षु नागसेन नहीं है तो फिर आप कौन हैं?

भिक्षु उतर आया रथ से और कहने लगा कि महाराज! यह रथ है? महाराज ने कहा रथ है। भिक्षु ने कहा. घोड़े छोड़ दिए जाएं रथ से। घोड़े छोड़ दिए गए और वह भिक्षु कहने लगा ये घोड़े रथ हैं? महाराज ने कहा नहीं, घोड़े रथ नहीं हैं। घोड़ों को विदा कर दो। चाक निकलवा लिए रथ के और कहने लगा भिक्षु कि ये रथ हैं? महाराज ने कहा नहीं, ये तो चक्के हैं, रथ कहां! कहा. चक्कों को अलग कर दो!

फिर एक—एक अंग—अंग निकलने लगा उस रथ का और वह पूछने लगा यह है रथ, यह है रथ, यह है रथ? और महाराज कहने लगे नहीं—नहीं, यह रथ नहीं है, यह रथ नहीं है! फिर तो सारा रथ ही निकल गया और वहां शून्य रह गया, वहां कुछ भी न बचा। और तब वह पूछने लगा फिर रथ कहां है? रथ था, और मैंने एक—एक चीज पूछ ली और आप कहने लगे नहीं, यह तो चाक है, नहीं, यह तो डंडा है, नहीं, यह तो यह है, नहीं, ये तो घोड़े हैं; और अब सब चीजें चली गईं जो रथ नहीं थीं! रथ कहां है? रथ बचना था पीछे? रथ कहां गया? वह मिलिंद भी मुश्किल में पड़ गया। वह भिक्षु कहने लगा रथ नहीं था। रथ था एक जोड़। रथ था एक संज्ञा, एक रूपाकृति।

वह भिक्षु नागसेन कहने लगा: मैं भी नहीं हूं हूं अनंत की शक्तियों का एक जोड़। एक रूपाकृति उठती है, लीन हो जाती है, उठती है, लीन हो जाती है। एक लहर बनती है, बिखर जाती है। नहीं हूं मैं, वैसा ही हूं जैसा रथ था, वैसा ही नहीं हूं जैसा अब रथ नहीं है। खींच लें सूरज की किरणें, खींच लें पृथ्वी का रस, खींच लें हवाओं की ऊर्जा, खींच लें चेतना के सागर से आई हुई आत्मा— फिर कहां हूं मैं? हूं एक जोड़, हूं एक रथ, है बहुत कुछ जो काट गया है एक किनारे पर आकर; एक बिंदु पर बहुत रेखाएं कट गई हैं और एक बिंदु मालूम पड़ने लगा है—जहां बिंदु नहीं है, सिर्फ रेखाओं की कटान है। एक रेखा खींची गई, दूसरी, तीसरी, चौथी, हजार रेखाएं खींची गईं तो बीच में एक बिंदु मालूम पड़ने लगा है। जहां—जहां रेखाएं कट गई हैं वहां बिंदु बन गया है। बिंदु वहां है नहीं, सिर्फ रेखाओं का क्रास पॉइंट। दो रेखाएं कट गई हैं और बिंदु मालूम हो रहा है, बिंदु वहां है नहीं। दो रेखाओं की कटान, एक चौरस्ता है, बहुत से रास्ते कट गए हैं और एक चौरस्ता बन गया है। चौरस्ता कहीं है? चार रस्ते कटते हैं, उस जगह को हम चौरस्ता कहते हैं। चौरस्ता कहीं भी नहीं है।

व्यक्ति कहीं भी नहीं है। अनंत जीवन की ऊर्जा और शक्तियां कटती हैं और व्यक्ति निर्मित होता है। यह जो व्यक्ति अहंकार है, यह जो ईगो सेंटर है, यह जो खयाल है कि मैं हूं र इसकी खोज करनी जरूरी है कि मैं हूं।

एक वृक्ष के पत्ते से हम पूछें, वह कहेगा कि मैं हूं जरूर मैं हूं। उससे हम पूछें कि तुम्हारे पास की शाखा पर लगे हुए दूसरे पत्ते? वह कहेगा कि दूसरे हैं, क्योंकि उस पत्ते को कैसे पता हो सकता है कि बगल की पड़ोस में लगी शाखा पर जो पत्ते आए हैं वे उसी रस—स्रोत से आए हैं जिससे मैं आया हूं। मेरे प्राणों के धागे उसी शाखा से जुड़े हैं जिससे उनके प्राणों के धागे भी जुड़े हैं। हमारे प्राण एक ही ऊर्जा से निष्पन्न हुए हैं, प्रकट हुए हैं। एक पत्ते को कैसे पता चल सकता है?

लेकिन हम चूंकि बाहर खड़े हैं, हमें दिखाई पड़ता है कि पागल है यह पत्ता बहुत, कहता है कि मैं हूं और वह पत्ता दूसरा है और दोनों एक ही वृक्ष के पत्ते हैं। हम वृक्ष की शाखा से पूछें कि यह पड़ोस की शाखा? वह कहेगी, होगी कोई। हमेशा इससे डर लगा रहता है, न मालूम कैसी शत्रुता कर दे, न मालूम क्या कर दे। होगी कोई, मैं और हूं। शाखाओं को क्या पता हो सकता है? एक ही पेडू से वे बंधी हैं। वृक्ष को हम पूछें कि यह जो पड़ोस में खड़ा हुआ वृक्ष है? वह कहेगा, है दूसरा, है शत्रु। लेकिन उस वृक्ष को क्या पता कि दोनों की जड़ें एक ही पृथ्वी से जुड़ी हैं और एक ही प्राण से संयुक्त हैं। और पृथ्वी को हम पूछें कि तुम? पृथ्वी भी कहेगी, मैं हूं और ये चांद—तारे, और ग्रह—नक्षत्र होंगे दूसरे, लेकिन पृथ्वी को भी कैसे पता हो कि सारे चांद—तारे और सारे ग्रह— नक्षत्र किसी एक ही जीवन—ऊर्जा से संयुक्त हैं।

सारा जीवन एक से संयुक्त है। उस एक का नाम ही प्रभु है। और उस एक की तरफ जाने के लिए मैत्री दूसरा द्वार है, क्योंकि वह एकता में प्रवेश है। उस एक का नाम परमात्मा है और उस एकता की तरफ जो सबसे बड़ा कदम है वह है फ्रेंडलीनेस, वह है मैत्री। लेकिन मैत्री घटित होगी जब हम ‘मैं’ को खोजने जाएंगे और पाएंगे कि ‘मैं’ नहीं है—एक बात।

दूसरी बात इसे केवल सोच लेना काफी नहीं है। आदमी अच्छी—अच्छी बातें सोच सकता है, सोच लेना पर्याप्त नहीं है, अनुभव से गुजरना भी जरूरी है। तो मैत्री सिर्फ एक फिलॉसफिक कांसेप्ट, एक दार्शनिक धारणा नहीं है। एक अनुभव, एक एक्सपीरिएंस, एक अनुभूति है।

तो जब यह लगे कि ‘मैं नहीं हूं’ तो इसके थोड़े प्रयोग करने जरूरी हैं।

किसी वृक्ष के पास टिक कर बैठ गए हैं और तब यह अनुभव करना जरूरी है कि मैं नहीं हूं। और मैं आपसे कहता हूं कि किसी घड़ी में आपको लगेगा कि आप और वृक्ष एक हैं। सागर के तट पर बैठ कर यह अनुभव करना कि ‘मैं नहीं हूं’ और एकदम से हैरानी की धारा आएगी एक और लगेगा कि मैं एक लहर हूं लहर का गर्जन। किसी फूल के पास बैठ कर यह अनुभव करना कि ‘मैं नहीं हूं ‘ और लगेगा कि भीतर तक फूल छा गया सारी आत्मा पर, रह गया फूल और ‘मैं नहीं हूं।’ किसी व्यक्ति का हाथ हाथ में लेकर अनुभव करना कि ‘मैं नहीं हूं’ और पता चलेगा कि दोनों हाथ दो नहीं रहे, जुड़ गए कहीं किसी तल पर और एक रह गया है।

विचार के तल पर जानना है कि ‘मैं नहीं हूं’ और अनुभव के तल पर अनुभव करना है कि ‘मैं नहीं हूं’ ताकि वह जोड़ एक जीवंत प्रतीति बन जाए। जीवन के चारों तरफ के विस्तार में जगह—जगह अनुभव करना है कि ‘ मैं नहीं हूं।’

रामकृष्ण दक्षिणेश्वर से एक दिन गंगा पार करते थे। नाव पर बैठ गए, नाव चलने लगी। एकदम जोर— जोर से चिल्लाने लगे, मत मारो मुझे। मत मारो मुझे। लोग तो घबड़ा गए जो पास बैठे थे। दों—चार मित्र साथ थे। वे पूछने लगे कि परमहंस क्या कहते हैं आप? कौन मारता है आपको, हम और आपको मारेंगे? और वे हैं कि उनकी आंख से आंसू की धारा बहने लगी और चिल्लाने लगे, नहीं—नहीं, मत मारो मुझे, मैंने क्या बिगाड़ा! आप भी होते तो घबड़ा गए होते और कहते कि पागल हो गए हैं। कोई मारता नहीं, कोई छूता नहीं, नाव पर चार—छह साथी हैं; और वे हैं कि चिल्लाने लगे, और आंख से आंसू की धारा बहने लगी। और बड़ा आश्चर्य तो यह था कि वे अपनी पीठ पकड़ लिए और कहा कि नहीं, मत मारो, मत मारो। पीठ को देखे तो कोड़े के निशान हैं। सारी चमड़ी उखड़ गई है। तब पागल कहना मुश्किल हो गया। आंखें उठा कर देखा उस पार जहां नाव जा रही है, एक आदमी को लोग कोड़े मार रहे हैं।

उस पार जाकर नाव लगी है। उस आदमी के पीठ के पास जाकर देखा है, रामकृष्ण और उसके पीठ पर एक सा निशान आ गया है। तब तो बहुत हैरान हुए। रामकृष्ण से पूछने लगे यह क्या हुआ? रामकृष्ण ने कहा कि जब उसे वे मारने लगे, मैं नाव पर चढ़ता था और उन्होंने उसे कोड़ा मारा। फिर मुझे पता नहीं क्या हुआ! बस मेरे भीतर से एकदम उठने लगा, मुझे मत मारो, मुझे मत मारो! इतनी एम्पैथी, इतना तादात्म्य! तो परिणाम यह हो जाएगा। यह परिणाम हो जाएगा।

यूरोप में हजारों ईसाई फकीर हुए हैं, आज भी हैं—जिस दिन जीसस को फांसी हुई और जिस दिन उनके हाथ में खीले ठोके गए उस दिन शुक्रवार को, सैकड़ों फकीर हुए हैं पश्चिम में, आज भी दो—चार लोग हैं कि उस दिन उनके पास हजारों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है। उनके दोनों हाथ लिए वे बैठे रहते हैं आंख बंद किए, और ठीक वक्त पर जब जीसस को सूली हुई थी और हाथ में खीले ठोके गए थे उनके हाथ से खून की धाराएं बहनी शुरू हो जाती हैं। बहुत मेडिकल परीक्षण हुआ है इसका। क्योंकि पश्चिम में कोई ऐसे नहीं मान लेता किसी बात को। बहुत चिकित्सकों ने जांच—पड़ताल की है कि कोई धोखाधड़ी तो नहीं है! यह हाथ से खून कैसे निकल रहा है? लेकिन कोई धोखाधड़ी नहीं है। हाथ से खून बहने लगता है। इतनी एम्पैथी, इतनी एकात्म अनुभूति हो सकती है कि उस क्षण में वे जीसस हो जाते हैं। वे, वे क्राइस्ट हो गए। उनको सूली लगा दी गई। उस क्षण में सूली लग गई है।

भाव इतनी तीव्र एकता में ले जा सकता है! सोच ही नहीं लेना है, उसके प्रयोग करने हैं जीवन में कि वह गहरे में प्रविष्ट हो जाए और वहां पता चले। तब, तब एक बार पता चलेगा कि यह जो जीवन में सब तरफ घट रहा है, यह हमसे जुड़ा है, सिर्फ हमने मैत्री का संबंध नहीं जोड़ा है, इसलिए धागे बीच में से कट गए हैं, एक दीवाल खड़ी हो गई है; अन्यथा जीवन बह रहा है, जा रहा है, आ रहा है! सारा जीवन एक है—मैत्री का दूसरा अनुभव!

और तीसरी बात न केवल विचार पर्याप्त हैं, न केवल अनुभव; बल्कि तीसरी बात मैत्री के अनुभव का सक्रिय प्रकाशन। मैत्री का सक्रिय जीवन। उठते—बैठते, चलते—फिरते मैत्री का सक्रिय जीवन।

क्या अर्थ है मैत्री के सक्रिय जीवन का? धार्मिक जीवन उसी का नाम है। वह जो रिलीजस, धार्मिक जीवन जिसे कहें, वह मैत्री का जीवन है। मेरे कृत्य, मेरे विचार में, मेरे अनुभव में और मेरे कृत्य में मैत्री प्रविष्ट हो। मैं जो करूं वह मैत्री—प्रेरित हो। मैं जो करूं उसका एक ही आधार और एक ही कारण हो कि वह मैत्री है पीछे—मैं जीऊं तो मैत्री के लिए, मरूं तो मैत्री के लिए। मेरी श्वास उसके लिए चले, मेरा हृदय उसके लिए धड़के—सक्रिय मैत्री का तीसरा चरण।

चारों तरफ जीवन में कितना दुख है, कितनी पीड़ा है, कितनी चिंता है। चारों तरफ जीवन कितना कुरूप है, चारों तरफ जीवन कितना विकलांग है, चारों तरफ जीवन कितना पक्षाघात से घिरा है, चारों तरफ कितने घाव हैं, चारों तरफ कितनी पीड़ा का विस्तार है। मेरी मैत्री सक्रिय होना चाहिए। एक छोटा सा घाव भी भर सकूं, एक छोटी सी पीड़ा दूर कर सकूं, एक छोटा सा कांटा किसी रास्ते से उठा सकूं, किसी मार्ग से एक पत्थर हटा सकूं, किसी के जीवन में एक सीडी बना सकूं— कुछ भी जो मैं कर सकूं चारों तरफ के जीवन के लिए। मैत्री मेरी सक्रिय होनी चाहिए, तो मुझे मैत्री का उन तीनों आयामों में पूरा का पूरा, उनके तीनों डाइमेन्यान में मैत्री की ऊंचाई में, गहराई में, चौड़ाई में मेरा अनुभव होगा। विचार में, अनुभव में, अभिव्यक्ति में।

तो जीवन की छोटी सी पीड़ा भी मैं दूर कर सकूं। नाम गिनाने की जरूरत नहीं है। हम सब जीवन की पीड़ाएं जानते हैं। चारों तरफ जीवन पीड़ा से भरा हुआ है। कोई बहुत बड़ा उपक्रम करने का भी सवाल नहीं है, क्योंकि एक छोटा सा गेस्वर, एक छोटा सा इशारा, आंख की एक मुस्कुराहट, किसी का हंस कर स्वागत भी किसी की गहरी से गहरी पीड़ा को उतार दे सकता है। किसी को हाथ का छोटा सा स्पर्श भी न मालूम कितनी घनी पीड़ा का भार उतार दे सकता है। लेकिन हम मुस्कुराना भूल गए हैं। हमारी आंखों ने प्रेम बरसाना छोड़ दिया है। हमारे हाथों में वह पुलक नहीं उठती, हमारे प्राणों में वह गीत पैदा नहीं होता। वह हमें खयाल ही भूल गया है। हम पत्थर की तरह जी रहे हैं।

इस जीवन को चौबीस घंटे निरंतर उठने से सोने तक, चारों तरफ की पीड़ा का दर्शन करना है और चारों तरफ की पीड़ा से संवेदित होना है, चारों तरफ की पीड़ा से पीड़ित होना है। चारों तरफ के दुख और कांटों को प्रतीत करना है और जो बन सके प्रत्येक व्यक्ति से उन कांटों और उन पीड़ाओं को दूर करने का उपाय करना है, तो मैत्री सक्रिय बनती है।

एक फकीर था जापान में, वह बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद करवा रहा था। पहली बार जापानी भाषा में पाली से बुद्ध के ग्रंथ जाने वाले थे। गरीब फकीर था, उसने दस साल तक भीख मांगी। दस हजार रुपये इकट्ठे कर पाया, लेकिन तभी अकाल आ गया, उस इलाके में अकाल आ गया।

उसके दूसरे मित्रों ने कहा कि नहीं—नहीं, ये रुपये अकाल में नहीं देने हैं, लोग तो मरते हैं, जीते हैं, चलता है यह सब। भगवान के वचन अनुवादित होने चाहिए, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।

लेकिन वह फकीर हंसने लगा। उसने वे दस हजार रुपये अकाल के काम में दे दिए। फिर का फकीर, साठ साल उसकी उम्र हो गई थी, फिर उसने भीख मांगनी शुरू की। दस साल में फिर दस हजार रुपये इकट्ठे कर पाया कि अनुवाद का कार्य करवाए, पंडितों को लाए। क्योंकि पंडित तो बिना पैसे के नहीं मिलते हैं। पंडित तो सब किराए के होते हैं। तो पंडित को तो रुपया चाहिए था, तो वह अनुवाद करे पाली से जापानी में। फिर दस हजार रुपये इकट्ठे किए, लेकिन दुर्भाग्य कि बाढ़ आ गई और वे दस हजार रुपये वह फिर देने लगा।

तो उसके भिक्षुओं ने कहा यह क्या कर रहे हो? यह जीवन भर का श्रम व्यर्थ हुआ जाता है। बाढ़े आती रहेंगी, अकाल पड़ते रहेंगे, यह सब होता रहेगा। अगर ऐसा बार—बार रुपये इकट्ठे करके इन कामों में लगा दिया तो वह अनुवाद कभी भी नहीं होगा।

लेकिन वह भिक्षु हंसने लगा। उसने वे दस हजार रुपये फिर दे दिए। फिर उम्र के आखिरी हिस्से में दस— बारह साल में फिर वह दस—पंद्रह हजार रुपये इकट्ठे कर पाया। फिर अनुवाद का काम शुरू हुआ और पहली किताब अनुवादित हुई। तो उसने पहली किताब में लिखा : थर्ड एडिशन, तीसरा संस्करण।

तो उसके मित्र कहने लगे? पहले दो संस्करण कहां हैं? निकले ही कहां? पागल हो गए हो? यह तो पहला संस्करण है।

लेकिन वह कहने लगा कि दो निकले, लेकिन वे निराकार संस्करण थे। उनका आकार न था। वे निकले, एक पहला निकला था जब अकाल पड़ गया था, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। फिर दूसरा निकला था जब बाढ़ आ गई थी, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। लेकिन उस वाणी को वे ही सुन और पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री का भाव है। यह तीसरा संस्करण सबसे सस्ता है, सबसे साधारण है, इसको कोई भी पढ़ सकता है, अंधे भी पढ़ सकते हैं, लेकिन वे दो संस्करण वे ही पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री की आंखें हैं।

जीवन है चारों तरफ बहुत दुख और पीड़ा से भरा हुआ। उसमें मैत्री के संस्करण, उसमें मैत्री की अभिव्यक्ति प्रकट होती रहनी चाहिए और वह प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए चुनना होता है कि उसकी मैत्री किन— किन मार्गों से प्रकट हो और बहे।

तो ये तीन बातें मैत्री के संबंध में स्मरण रखनी जरूरी हैं। फिर से मैं दोहरा दूं करुणा है निराकार। वह है आकाश में छा गया बादल जो पानी से भरा है। मैत्री है वर्षा, जो आ गई पृथ्वी तक और फैल गई पृथ्वी की जड़ों में। करुणा है भाव, मैत्री है क्रिया। करुणा है आत्मा, मैत्री है शरीर। करुणा भीतर जन्मती है, वह है केंद्र; मैत्री है अभिव्यक्ति, वह है परिधि। जिसकी करुणा मैत्री तक पहुंच जाती है वह भगवान के दूसरे द्वार में प्रविष्ट हो जाता है। शेष दो द्वारों की बात हम आगे करेंगे।

अब सुबह के ध्यान के लिए हमें बैठना है। तो थोडे— थोड़े हम एक—दूसरे से फासले पर हो जाएं।

बैठ जाने के बाद आंखें जो आधी खुली रख सकते हों नासाग्र, वे आधी खुली रखेंगे। जिन्हें उसमें जरा भी तकलीफ मालूम होती है, वे आंखें बंद रखेंगे।

शरीर को हम शिथिल छोड़ देंगे और फिर भीतर संकल्प करेंगे, पूछेंगे, मैं कौन हूं? इतनी तीव्रता से पूछना है इस जिज्ञासा को कि मैं कौन हूं कि प्राण का रोआं—रोआं कंप जाए। व्यक्तित्व के कोने—कोने तक यह आवाज गंज जाए, धड़कन— धड़कन में, श्वास—श्वास में एक ही भाव रह जाए कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछते ही चले जाना है सतत, जैसे कोई पत्थर तोड़ता हो और चोट करता ही चला जाता है सतत। चोट करते ही चले जाना है कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? धीरे— धीरे प्रश्न ही रह जाए और हम मिट जाएं। बस प्रश्न ही रह जाए, इंक्वायरी ही रह जाए कि मैं कौन हूं? एक प्रश्न बन जाए पूरा प्राण कि मैं कौन हूं?

भीतर जो है, जब हमारी पुकार और हमारा प्रश्न उस तक पहुंचेगा, तो वह बोलेगा कि कौन है? भीतर जो है, वह सबके भीतर एक ही है, उस तक हमें प्रश्न को पहुंचा देना है, निवेदन कर देना है। बस हमारा काम इतना काफी है कि हम प्रश्न पहुंचा दें प्राणों की गहराई तक, उत्तर वहां है। वह आएगा, वह अपने से आएगा।

एक कुएं में पानी भरा हुआ है। हम अपनी बाल्टी और रस्सी पहुंचा दें उस पानी तक, फिर वह भर जाएगी। प्रश्न की रस्सी और बाल्टी पहुंचा देनी है वहां तक जहां चेतना और ज्ञान भरा हुआ है। जहां है अस्तित्व वहां तक। तो इतनी तीव्रता से पूछना, इतनी इंटेंसिटी से है कि सारे पर्दे बीच के टूट जाएं और आवाज भीतर तक पहुंच जाए।

जब पूरी तीव्रता से आप पूछेंगे तो यह सारा समुद्र भी यही पूछते हुए मालूम पड़ेगा कि मैं कौन हूं? ये सरू के वृक्ष पूछते हुए मालूम पड़ेंगे कि मैं कौन हूं? ये सारी हवाएं पूछती मालूम पड़ेगी कि मैं कौन हूं? एक तूफान खड़ा हो जाएगा चारों तरफ कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और उस तूफान में आप कंप जाएंगे तो घबड़ाना नहीं है। आंसू बहने लगें तो घबड़ाना नहीं है। रोना आ जाए तो घबड़ाना नहीं है। गिर पड़े तो घबड़ाना नहीं है। पूछते ही चले जाना है तीव्रता से, जितना मैं पूछ सकता हूं पूछते चले जाना है।

निश्चित ही इस पूछने में ही एक अदभुत शांति फलित होने लगेगी। इस तीव्र जिज्ञासा में ही प्राण शांत होने लगेंगे। एक अनुभव में से गुजरना होगा, एक अदभुत अनुभव में से गुजरना हो सकता है। हम पर निर्भर है कि हम कितनी तीव्रता से पूछते हैं।

तो अब हम बैठ जाएं। आंख आधी खुली रखें या बंद रखें। शरीर को ढीला छोड दें। बिलकुल शांत बैठ जाएं। शरीर को ढीला छोड़ दें। और अब पूछें अपने भीतर—मैं कौन हूं? सारी शक्ति से पूछें—मैं कौन हूं? पूरे संकल्प से पूछें कि मैं कौन हूं? और पूछते चले जाएं अत्यंत तीव्रता से, सघनता से—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……प्राणों के कौने—कौने में पूछते चले जाएं—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछें पूरी शक्ति से, जरा भी शक्ति खाली न रह जाए, पूरी शक्ति को लगा दें और पूछें— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……कंप जाए पूरा व्यक्तित्व, कंप जाए पूरा प्राण, पहुंच जाए भीतर तक यह तीर—मैं कौन हूं?…

पूछें, शुरू करें—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……दस मिनट के लिए पूछें। एक आग जल जाए भीतर कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……शिथिलता से नहीं, धीरे— धीरे नहीं, पूरी शक्ति से कि मैं कौन हूं? पूरे प्राणों की आवाज से कि मैं कौन हूं? झनझना जाए सारा व्यक्तित्व कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……दस मिनट के लिए अब आप पूछें : मैं कौन हूं?…

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?… पूरी शक्ति, पूरा संकल्प एक ही बात कहे—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूरी शक्ति, पूरे प्राण कहें कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……जरा भी शक्ति का हिस्सा पीछे न बच जाए। पूरी शक्ति से कूद जाएं जिज्ञासा में कि मैं कौन हूं?…

पूछें, पूछें, पूछते चले जाएं मैं कौन हूं?……सारा भय छोड़ दें, पूछें. मैं कौन हूं? सारी चिंता छोड़ दें और पूछें मैं कौन हूं? बस प्रश्न ही रह जाए कि मैं कौन हूं? श्वास—श्वास में यही भर जाए कि मैं कौन हूं?… और गहरे… और गहरे… और तीव्रता से कि मैं कौन हूं?…

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?… और तीव्रता से, और गहराई से पूछें मैं कौन हूं? शक्ति का एक कण भी पीछे न रह जाए, पूरी आत्मा पूछे कि मैं कौन हूं? तोड़ दें सारे पर्दे भीतर मैं कौन हूं?… मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछें, पूछें, पूछें मैं कौन हूं?……एक पल का भरोसा नहीं है, कौन जाने यह आखिरी पल हो! पूरी शक्ति से पूछें कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं हूं कौन?……जरा भी चिंता न करें, आंसू बहे, रोना आ जाए, पर पूछते चले जाएं—मैं कौन हूं? कोई किसी दूसरे की तरफ ध्यान न दें, अपनी फिकर करें। पूछें : मैं कौन हूं?……मैं कौन हूं?……मैं कौन हूं?…

यह कहने को न रह जाए कि मैंने कम पूछा था। पूरी तरह पूछें कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं हूं कौन? मैं कौन हूं?……पूछते चले जाएं पूरी तीव्रता से। पूरे प्रश्न को जगा लें मैं कौन हूं? अपने आप एक शांति पीछे उतरने लगेगी। जितनी तीव्र होगी जिज्ञासा उतनी ही शांति।…

मैं कौन हूं?……मैं कौन हूं?……मैं कौन हूं?……मैं कौन हूं?……पूछते चले जाएं, पूछते चले जाएं।..

मन शांत होगा……मन बिलकुल शांत हो जाएगा……जैसे एक तूफान आए और पीछे सब शांति छा जाए। मैं कौन हूं? इसके तूफान को गुजर जाने दें। मैं कौन हूं? पूछें मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पीछे एक शांति, पीछे एक हलकापन, पीछे एक मौन। मैं कौन हूं? इस तूफान को पूरी तरह उठ आने दें। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…

अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें… धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……प्रत्येक श्वास के साथ एक अदभुत शांति अनुभव होगी। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……फिर बहुत आहिस्ता से आंख खोलें……फिर

धीरे से आंख खोलें…।

सुबह की बैठक समाप्त हुई।


Filed under: साधना--पथ--(ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आंनद प्रसाद, स्‍वामी कृष्‍ण प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–3)–प्रवचन–40

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ज्ञान क्रमिक नहीं, आकस्‍मिक घटता है—(प्रवचन—चालीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—अगर प्रामाणिक अनुभव आकस्‍मिक ही घटता है

तो फिर यह क्रमिक विकास और दृष्‍टि की

स्‍वच्‍छता क्‍या है, जो हमे अनुभव होती है।

2—जब कोई व्‍यक्‍ति साक्षी चैतन्‍य में स्‍थित हो जाता है,

तो ध्रुवीय विपरीतताओं का क्‍या होता है?

      3—विचार शून्‍य बोध में बुद्ध—मन कब उदघटित होता है?

      4—आपके ध्‍यानों में तीव्र रेचन न होने के क्‍या कारण है?

पहला प्रश्न:

 

आपने कहा कि की व्‍यक्‍ति या तो संसार को देखता है या ब्रह्म को और यह कि ब्रह्म का क्रमिक दर्शन संभव नहीं है। लेकिन अनुभव में यह आता है कि जैसे—जैसे हम मौन और शांत होते है हमें परमात्‍मा की उपस्‍थिति अधिक—अधिक स्‍पष्‍ट होती जाती है। अगर प्रामाणिक अनुभव कभी क्रमिक नहीं, सिर्फ आकस्‍मिक होता है, अचानक होता है, तो यह क्रमिक विकास और दृष्‍टि की सुस्‍पष्‍टता क्‍या है?

 

ह एक बहुत प्राचीन समस्या रही है : बुद्धत्व अचानक घटित होता है या क्रमिक? इस संबंध में बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। एक परंपरा है जो कहती है कि बुद्धत्व क्रमिक उपलब्धि है और जैसे कि प्रत्येक चीज अंशों में बांटी जा सकती है, चरणों में बांटी जा सकती है, ज्ञान को भी अंशों में विभाजित किया जा सकता है; तुम अधिक—अधिक ज्ञान को, और—और बुद्धत्व को क्रमश: उपलब्ध हो सकते हो। और इस बात को व्यापक स्वीकृति मिली है; क्योंकि मनुष्य का मन नहीं सोच सकता कि कोई चीज तुरंत और अचानक हो सकती है।

मन विभाजन करना चाहता है, विश्लेषण करना चाहता है। मन बड़ा विश्लेष है। मन क्रमिक को समझ सकता है, लेकिन अकस्मात को, अचानक को नहीं। आकस्मिकता बुद्धि के पार की चीज है, मन के पार की बात है। अगर मैं तुमसे कहूं कि तुम अज्ञानी हो और तुम क्रमश: ज्ञानी बन सकते हो तो यह बात समझ में आती है। तुम इसे समझ सकते हो।

लेकिन अगर मैं कहूं कि नहीं, ज्ञान में क्रमिक विकास नहीं होता; या तो तुम अज्ञानी हो या ज्ञान में अचानक छलांग लग जाती है तो प्रश्न उठता है कि ज्ञानोपलब्ध कैसे हुआ जाए। अगर क्रम नहीं होगा तो विकास नहीं होगा। अगर विकास की सीढ़ियां न हों तो तुम प्रगति नहीं कर सकते, तुम आगे नहीं बढ़ सकते। कहां से आरंभ किया जाए? आकस्मिक विस्फोट में आरंभ और अंत एक ही होते हैं; आरंभ और अंत के बीच अंतराल नहीं होता। तब आरंभ कहां से हो? आरंभ ही अंत है।

मन के लिए यह एक पहेली बन जाती है—एक कोआन। त्वरित ज्ञान असंभव मालूम पड़ता है। ऐसा नहीं है कि त्वरित ज्ञान असंभव है; लेकिन मन उसकी धारणा नहीं बना सकता। और स्मरण रहे, मन ज्ञान की धारणा कैसे बना सकता है! यह असंभव है। यह व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है कि आंतरिक विस्फोट भी क्रमिक विकास है। अनेक ज्ञानी पुरुषों ने भी तुम्हारी इस बात को हामी भर दी है और उन्होंने कहा है कि ही, क्रमिक विकास होता है।

ऐसा नहीं कि क्रमिक विकास होता है, लेकिन ज्ञानियों ने तुम्हारे रुझान को, तुम्हारे देखने के ढंग को हामी भरी है। ऐसा उन्‍होंने तुम्‍हारे प्रति प्रगाढ़ करूणा के कारण किया है। वे जानते हैं कि अगर तुम सोचते हो कि यह क्रमिक है तो आरंभ अच्छा हो सकता है। और क्रमिक विकास तो नहीं होगा, लेकिन अगर तुम आरंभ करते हो, तुम उसे खोजते ही चले जाते हो तो किसी दिन वह आकस्मिक घटना तुम्हें घट जाएगी। और अगर यह कहा जाए कि ज्ञान अचानक, अप्रत्याशित ही घटता है, उसका कोई क्रमिक विकास संभव नहीं है, तो तुम आरंभ ही नहीं करोगे और ज्ञान कभी घटित नहीं होगा। अनेक प्रज्ञा पुरुषों ने केवल तुम्हारे हित में, तुम्हें यात्रा पर निकलने को राजी करने के निमित्त कहा है कि शान क्रमिक प्रक्रिया है।

क्रमिक प्रक्रिया से ज्ञान की उपलब्धि संभव नहीं है, पर एक दूसरी चीज जरूर संभव है—बुद्धत्व नहीं, कोई अन्य चीज। लेकिन यह अन्य चीज सहयोगी हो जाती है। उदाहरण के लिए, अगर तुम भाप बनाने के लिए पानी को गरम करते हो तो भाप बनना क्रमश: नहीं, अचानक घटित होगा। एक विशेष तापमान पर, सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाएगा, अचानक भाप बन जाएगा। पानी और भाप के बीच क्रमिक विकास नहीं होगा। तुम नहीं कह सकते कि यह पानी थोड़ा भाप है और थोड़ा पानी है। या तो पानी है या भाप है। और पानी एकदम, अचानक भाप की अवस्था में छलांग लगा जाता है। वह छलांग है, क्रमिक विकास नहीं। लेकिन गरम करके तुम पानी को ताप दे रहे हो; तुम उसे सौ डिग्री के बिंदु पर, भाप बनने के बिंदु पर पहुंचने में मदद दे रहे हो। यह क्रमिक विकास है। भाप बनने के बिंदु तक पानी अधिक— अधिक गरम होने के अर्थ में विकास करेगा। और तब अकस्मात भाप बन जाएगा।

तो ऐसे सदगुरु हुए हैं जिन्होंने विवेक और करुणा के कारण मनुष्य के मन की भाषा का प्रयोग किया, क्योंकि तुम वही भाषा समझ सकते हो। उन्होंने कहा कि ही, क्रमिक विकास होता है। उससे तुम्हें साहस, विश्वास और आशा मिलती है; और यह संभावना, यह आश्वासन मिलता है कि मुझे भी यह हो सकता है। तुम्हें लगेगा कि अपनी सीमाओं के कारण, अपनी कमजोरियों के कारण मैं ज्ञान के आकस्मिक विस्फोट को नहीं उपलब्ध हो सकता; लेकिन मैं उसका क्रमिक, सीढ़ी दर सीढ़ी विकास कर सकता हूं धीरे— धीरे उस तक जा सकता हूं। इसमें अनेक जन्म लग सकते हैं; लेकिन तब भी आशा है। तुम्हारे प्रयत्न तुम्हें गरम करेंगे। दूसरी बात स्मरण रखने की यह है कि गरम पानी भी पानी ही है। तो यदि तुम्हारा मन ज्यादा शुद्ध भी हो जाए, तुम्हारी दृष्टि ज्यादा स्वच्छ भी हो जाए, तुम ज्यादा नैतिक, ज्यादा केंद्रित भी हो जाओ, तो भी तुम अभी मनुष्य ही हो, बुद्ध नहीं हुए हो, ज्ञानी नहीं हुए हो। तुम ज्यादा मौन और शांत हो जाते हो, तुम्हें प्रगाढ़ आनंद का भी अनुभव होता है; लेकिन तो भी तुम अभी मनुष्य ही हो और तुम्हारे भाव सापेक्ष ही हैं, विधायक नहीं।

तुम शांत अनुभव करते हो, क्योंकि अब तुम कम तनावग्रस्त हो। तुम आनंदित अनुभव करते हो, क्योंकि अब अपने दुखों से तुम्हारा लगाव कम हो गया है; अब तुम उनका सृजन नहीं करते। तुम्हारा बिखराव बहुत कम हो गया है; इसलिए नहीं कि तुम अद्वैत को उपलब्ध हो गए हो; सिर्फ इसलिए क्योंकि अब तुम कम खंडित हो, तुम्हारा बंटाव कम हो गया है। स्मरण रहे, तुम्हारा यह विकास सापेक्ष है। तुम अभी गरम पानी ही हो। लेकिन संभावना है कि किसी भी क्षण तुम उस बिंदु पर पहुंच जाओगे जहां वाष्पीकरण घटित होता है।

और जब यह ज्ञान घटित होगा तो तुम मौन और शांति और आनंद भी नहीं अनुभव करोगे; क्योंकि ये सापेक्ष गुण हैं और अपने विपरीत गुणों से बंधे हैं। जब तुम तनावग्रस्त हो तो तुम शांति अनुभव कर सकते हो; जब तुम शोरगुल से भरे हो तो तुम मौन अनुभव सकते हो; जब तुम खंडित हो, बंटे हो तो तुम एकता अनुभव कर सकते हो, और जब तुम दुख संताप में हो तो तुम आनंद अनुभव कर सकते हो।

यही कारण है कि बुद्ध मौन रह गए क्योंकि भाषा अब उसे अभिव्यक्‍त नहीं कर सकती जो विपरीतताओ के पार है। बुद्ध यह नहीं कह सकते कि अब मैं आनंदपूर्ण हूं; क्योंकि यह भाव भी कि मैं आनंदित हूं दुख और संताप की पृष्ठभुमि में ही संभव है। रोग और रुग्णता की पृष्ठभूमि में ही तुम्हें स्वास्थ्य का भाव हो सकता है। और मृत्यु की पृष्ठभूमि में ही जीवन का बोध होता है। बुद्ध यह भी नहीं कह सकते कि मैं अमृत हूं क्योंकि मृत्यु इस परिपूर्ण रूप से विदा हो गई है कि अमृत का बोध भी नहीं रहा।

अगर दुख परिपूर्ण रूप से विदा हो गया है तो तुम्हें आनंद का भाव भी नहीं हो सकता। अगर शोरगुल और संताप पूरी तरह मिट गए हैं तो तुम्हें मौन की प्रतीति भी नहीं हो सकती। ये सभी अनुभव, ये सारे भाव अपने विपरीत भावों से जुड़े हैं, विपरीत के बिना उनका अनुभव नहीं हो सकता। अगर अंधेरा पूरी तरह विदा हो जाए तो तुम्हें प्रकाश का अनुभव कैसे होगा? यह असंभव है।

बुद्ध नहीं कह सकते कि मैं प्रकाश हो गया हूं। वे नहीं कह सकते कि मैं प्रकाश से भर गया हूं। अगर वे ऐसी बातें करेंगे तो हम कहेंगे कि वे अभी बुद्ध नहीं हुए हैं। वे ऐसी बातें नहीं कह सकते हैं। प्रकाश के अनुभव के लिए अंधेरे का होना अनिवार्य है; अमृत के भाव के लिए मृत्यु का होना अत्यंत जरूरी है। तुम विपरीत से नहीं बच सकते, किसी भी अनुभव के लिए विपरीत का होना बुनियादी शर्त है। तब फिर बुद्ध का अनुभव क्या है?

हम जो भी जानते हैं, यह वह नहीं है। यह न नकारात्मक है और न विधायक; न यह है न वह। नेति—नेति! जो भी कहा जा सकता है, वह यह नहीं है। इसीलिए लाओत्सु जोर देकर कहता है कि सत्य कहा नहीं जा सकता; ज्यों ही तुम उसे शब्द देते हो वह झूठ हो जाता है। कहते ही सत्य असत्य हो गया।

सत्य नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसे ध्रुवीय विपरीतताओं में बांटना असंभव है। और भाषा ध्रुवीय विपरीतताओ के लिए सार्थक है, अन्यथा भाषा व्यर्थ हो जाती है। विपरीत के बिना भाषा, अपना अर्थ खो देती है।

तो एक परंपरा है जो कहती है कि जान क्रमिक है। लेकिन यह सत्य नहीं है, यह केवल अर्द्ध सत्य है जो मनुष्य—मन के लिए करुणावश कहा गया है। ज्ञान अकस्मात ही, अचानक ही घटित होता है; इससे अन्यथा नहीं हो सकता। यह एक छलांग है। यह अतीत से पूरी तरह संबंध—विच्छेद है।

इसे इस तरह समझने की कोशिश करो। अगर कोई चीज क्रमिक है तो उसमें उसका अतीत बना रहता है; अंतराल नहीं आता है। अगर अज्ञान से ज्ञान में क्रमिक विकास है तो अज्ञान पूरी तरह विदा नहीं हो सकता; वह बना रहता है, जारी रहता है। क्योंकि सातत्य नहीं टूटता है, अंतराल नहीं आता है। बस अज्ञान पर कुछ रंग—रोगन चढ़ जाता है; वह कुछ ज्यादा जानकार हो जाता है। अज्ञान ज्ञान जैसा भी दिख सकता है; लेकिन वह अज्ञान ही रहता है। और अज्ञान जितना सुसंस्कृत होता है, उतना खतरनाक हो जाता है और अपने को धोखा देने में उतना ही सक्षम हो जाता है।

ज्ञान और अज्ञान सर्वथा पृथक हैं, उनमें कोई तारतम्यता नहीं है। एक छलांग जरूरी है—ऐसी छलांग जिसमें अतीत बिलकुल विलीन हो जाता है। पुराना जा चुका; वह अब नहीं है। और नए का आविर्भाव हुआ है, जो पहले कभी नहीं था।

बुद्ध ने कहा है : मैं वही व्यक्ति नहीं हूं जो खोज रहा था। अभी जिसका आविर्भाव हुआ है वह पहले कभी नहीं था।

यह बात बेतुकी मालूम पड़ती है, तर्कशून्य मालूम पड़ती है। लेकिन यही सच है। बात ऐसी ही है। बुद्ध कहते हैं : मैं वही नहीं हूं जो ज्ञान खोजता था। मैं वही नहीं हूं जो ज्ञान की कामना करता था। मैं वही नहीं हूं जो अज्ञानी था। पुराना आदमी पूर्णरूपेण मर चुका; मैं नया आदमी हूं। उस पुराने आदमी के भीतर मैं कभी नहीं था; बीच में एक अंतराल है। पुराना मर गया है और नए का जन्म हुआ है।

इसकी धारणा बनाना मन के लिए कठिन है; मन इसे सोच भी नहीं सकता। तुम इसे कैसे सोच सकते हो? तुम अंतराल का विचार कैसे कर सकते हो? कुछ तो जारी रहना ही चाहिए। कैसे कोई चीज बिलकुल समाप्त हो जाएगी और कुछ सर्वथा नया प्रकट होगा?

अभी सिर्फ दो दशक पूर्व तक तार्किक चित्त के लिए वैज्ञानिक चित्त के लिए यह बात अनर्गल मालूम पड़ती थी। लेकिन अब विज्ञान के लिए भी यह अनर्गल नहीं है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि परमाणु की गहराई में इलेक्ट्रान प्रकट होते हैं और विलीन होते हैं, और वे छलांग लेते हैं। इलेक्ट्रान एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर छलांग लेता है; और इस छलांग के क्रम में जो अंतराल है, उसमें वह नहीं होता है। वह अ बिंदु पर प्रकट होता है, फिर विलीन हो जाता है और ब बिंदु पर प्रकट होता है और दोनों बिंदुओं के बीच में वह नहीं होता है। वह वहा नहीं है; वह बिलकुल अनस्तित्व में चला जाता है।

अगर ऐसी बात है तो उसका मतलब है कि अनस्तित्व भी एक तरह का अस्तित्व है। इसकी धारणा बनाना कठिन है; लेकिन यह तथ्य है। अनस्तित्व भी एक तरह का अस्तित्व है। यह ऐसा ही है जैसे कोई चीज दृश्य से अदृश्य में, रूप से अरूप में गति कर जाए।

जब पुराना व्यक्ति गौतम सिद्धार्थ—जो गौतम बुद्ध में मर गया—साधना कर रहा था तो वह एक दृश्य रूप था; जब बुद्धत्व घटित हुआ तो वह रूप पूर्णरूपेण अरूप में विलीन हो गया। क्षणभर के लिए एक अंतराल आया; वहां कोई नहीं था। फिर उस अरूप से एक नया रूप प्रकट हुआ। यह गौतम बुद्ध थे। क्योंकि शरीर उसी भांति जारी रहता है, इसलिए हम सोचते हैं कि सातत्य है, लेकिन आंतरिक सत्य सर्वथा बदल जाता है। चूंकि वही शरीर चलता रहता है, इसलिए हम कहते हैं कि गौतम सिद्धार्थ गौतम बुद्ध हो गया। लेकिन बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मैं वही नहीं हूं जो साधना कर रहा था; मैं अब समग्रत: भिन्न व्यक्ति हूं।

यह चीज मन के सोच—विचार के लिए कठिन है। मन के लिए बहुत चीजें कठिन हैं। लेकिन उन्हें सिर्फ इसीलिए इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वे मन के लिए कठिन हैं। मन को उन असंभावनाओं के सामने झुकना होगा, जो उसकी समझ के बाहर हैं। कामवासना मन

के सामने नहीं झुक सकती, मन को ही कामवासना के सामने झुकना पड़ता है। यह एक बुनियादी आंतरिक सच्चाई है कि ज्ञान या बुद्धत्व सर्वथा भिन्न, स्वतंत्र घटना है। पुराना बस विदा हो जाता है। और नया जन्‍म ले लेता है।

एक दूसरी परंपरा भी रही है, जो पीछे आई। यह परंपरा हमेशा से जोर देकर कहती रही है कि ज्ञान आकस्मिक है, क्रमिक नहीं। लेकिन इस परंपरा के लोग बहुत थोड़े हैं। वे लोग सत्य से हटने को राजी नहीं हैं। और यह स्वाभाविक है कि वे लोग बहुत थोडे हों; क्योंकि अगर ज्ञान आकस्मिक है तो कोई अनुगमन नहीं हो सकता। तुम जब उसे समझ ही नहीं सकते तो उसका अनुगमन कैसे करोगे? तर्क की व्यवस्था को इस बात से बड़ा आघात लगता है और यह अनर्गल, असंभव मालूम पड़ता है। लेकिन ध्यान रहे, तब तुम गहरे में प्रवेश कर रहे हो। चाहे पदार्थ का जगत हो या मन का, तुम्हें ऐसी बहुत सी चीजों का सामना करना होगा जो सतही मन की पकड़ में नहीं आ सकतीं।

तरतूलियन एक बडा ईसाई संत हुआ। उसने कहा है : मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं क्योंकि ईश्वर सबसे बड़ा बेतुकापन है। मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं क्योंकि मन ईश्वर में विश्वास नहीं कर सकता।

ईश्वर में विश्वास करना असंभव है; कोई सबूत, कोई दलील, कोई तर्क ईश्वर के विश्वास को सहारा नहीं देता है। हरेक चीज उसके विरोध में, उसके अस्तित्व के विरोध में जाती है। लेकिन तरतूलियन कहता है कि मैं इसी कारण ईश्वर में विश्वास करता हूं। क्योंकि असंगत में, असंभव में विश्वास करके ही मैं मन के बाहर जा सकता हूं।

यह बात सुंदर है। अगर तुम मन से निकलना चाहते हो तो तुम्हें कुछ ऐसा खोजना होगा जिसे तुम्हारा मन सोच न पाए। जिस चीज को तुम्हारा मन सोच सकता है, उसे वह अपनी व्यवस्था में पचा लेगा; और तब तुम मन के बाहर नहीं जा सकते हो। यही कारण है कि सभी धर्मों ने कुछ ऐसी बातो पर जोर दिया है जो बेतुकी हैं, असंगत हैं, फिजूल हैं। कोई भी धर्म नहीं चल सकता, अगर उसकी बुनियाद में कुछ बेतुकापन न हो। इस बेतुकेपन से या तो तुम लौट जाते हो और कहते हो कि मैं विश्वास नहीं करता, मैं यहां से जाता हूं; और या तुम छलांग ले लेते हो। पीछे लौट जाने पर तुम वही के वही रहते हो जो हो और छलांग लेने पर तुम मन के पार चले जाते हो। और जब तक मन की मृत्यु नहीं होती, बुद्धत्व असंभव है।

तुम्हारा मन समस्या है। तुम्हारा तर्क समस्या है। तुम्हारा विवाद समस्या है। वे सब ऊपरी सतह पर हैं। वे सच मालूम पड़ते हैं, लेकिन वे धोखा देते हैं। वे सच नहीं हैं। जरा देखो कि मन के काम करने का ढंग क्या है! मन प्रत्येक चीज को दो में तोड़ देता है; और कुछ भी बंटा हुआ नहीं है। अस्तित्व अविभाज्य है; तुम उसे टुकड़ों में बांट नहीं सकते। लेकिन मन सब कुछ को बांटकर देखता है। वह कहता है कि यह जीवन है और यह मृत्यु है। लेकिन तथ्य क्या है? तथ्य यह है कि दोनों एक हैं। तुम इसी क्षण जीवित भी हो और मर भी रहे हो, तुम दोनों काम कर रहे हो। ज्यादा सच यह है कि तुम दोनों हो, जीवन और मृत्यु दोनों हो।

लेकिन मन बांटता है। वह कहता है कि यह जीवन है और यह मृत्यु है। न केवल वह बांटता है, बल्कि वह कहता है कि जीवन और मृत्यु परस्पर विरोधी हैं, दुश्मन हैं। मन कहता है कि मृत्यु जीवन को मिटाने की चेष्टा में लगी है।

और यह बात सही भी मालूम पड़ती है कि मृत्यु जीवन को मिटाने की चेष्टा में लगी है। लेकिन अगर तुम गहरे में उतरो,मन से भी गहरे में जाओ, तो पाओगे कि मृत्‍यु जीवन को नष्ट करने की चेष्टा नहीं कर रही है। सच तो यह है कि तुम मृत्यु के बिना नहीं रह सकते; मृत्यु तुम्हें जीने में सहयोग दे रही है। मृत्यु प्रतिक्षण तुम्हें जीने में हाथ बंटा रही है। यदि एक क्षण के लिए भी मृत्यु काम करना बंद कर दे तो तुम मर जाओगे।

मृत्यु प्रतिक्षण तुम्हारे शरीर के उन अनेक हिस्सों को बाहर फेंक रही है जो बेकार हो गए हैं। प्रतिक्षण अनेक कोशिकाएं मर जाती हैं, मृत्यु उन्हें हटा देती है। और जब वे हटा दी जाती हैं तो उनके स्थान पर नयी कोशिकाएं जन्म लेती हैं। तुम बढ़ रहे हो, इस बढ़ने में निरंतर कुछ चीजें मर रही हैं और कुछ चीजें जन्म ले रही हैं। मृत्यु और जीवन प्रतिक्षण हैं और दोनों अपना— अपना काम कर रहे हैं। भाषा में हम उन्हें दो कहते हैं, दरअसल वे दो नहीं हैं, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन और मृत्यु एक हैं; जीवन—मृत्यु एक प्रक्रिया है।

लेकिन मन बांटता है। और हमें यह बांटना जंचता भी है, लेकिन वह गलत है। तुम कहते हो, यह प्रकाश है और वह अंधकार है। यह कहकर तुम बांटते हो। लेकिन अंधकार कहां आरंभ होता है और प्रकाश कहां समाप्त होता है? क्या तुम कोई रेखा खींच सकते हो? तुम कोई रेखा नहीं खींच सकते। असल में सफेद और काला रंग एक लंबे ग्रे रंग के ही दो छोर हैं; और यह ग्रे रंग ही जीवन है। एक छोर पर काला रंग प्रकट होता है और दूसरे पर सफेद; लेकिन यथार्थ ग्रे है, जिसमें दोनों समाहित हैं।

मन बांटता है और तब हर चीज साफ—सुथरी मालूम पड़ती है। लेकिन जीवन बहुत धुंधला— धुंधला है; और इसीलिए जीवन रहस्य है। और यही कारण है कि मन उसे समझने में असमर्थ है। साफ—सुथरी धारणाएं उपयोगी हैं; उनके द्वारा सोच—विचार सुविधाजनक हो जाता है, आसान हो जाता है। लेकिन तब तुम जीवन के सत्य से ही वंचित रह जाते हो। जीवन रहस्य है। और मन हर चीज की रहस्यमयता को नष्ट कर डालता है। और तब तुम्हारे हाथ में अखंड नहीं, मृत खंड रह जाते हैं।

मन से तुम नहीं सोच पाओगे कि कैसे बुद्धत्व अचानक घटित होता है और कैसे तुम विदा हो जाते हो और उसकी जगह कुछ सर्वथा नया होता है जिसे पहले कभी नहीं जाना था। लेकिन मन से समझने की कोशिश ही मत करो। बल्कि कुछ ऐसी साधना करो जिससे कि तुम ज्यादा से ज्यादा गर्म हो सको, कुछ ऐसी आग जलाओ जो तुम्हें ज्यादा से ज्यादा उत्तप्त बना दे। और तब किसी दिन तुम्हें अचानक पता चलेगा कि पुराना विदा हो गया है; पानी विलीन हो गया है। यह बिलकुल नयी घटना है। तुम भाप बन गए हो; सब कुछ समग्रत: बदल गया है। पानी सदा नीचे को बहता था, भाप ऊपर उठने लगी। सारा नियम बदल गया।

तुमने एक नियम के संबंध में, न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम के संबंध में सुना होगा। यह नियम कहता है कि पृथ्वी सब चीजों को नीचे की तरफ खींचती है। लेकिन एक गुरुत्वाकर्षण का नियम है; और एक दूसरा नियम भी है। तुमने उस नियम के संबंध में नहीं सुना होगा, क्योंकि विज्ञान को अभी उसका उदघाटन करना बाकी है। लेकिन योग और तंत्र उस नियम को सदियों से जानते हैं। वे उस नियम को लेविटेशन का, ऊर्ध्वगमन का नियम कहते हैं, प्रसाद कहते हैं। गुरुत्वाकर्षण निम्नगमन है; प्रसाद ऊर्ध्वगमन है।

गुरुत्वाकर्षण का नियम कैसे खोजा गया, यह कहानी सबको पता है। न्यूटन एक पेड़ के नीचे, एक सेव के पेड़ के नीचे बैठा था, और तभी एक सेव नीचे गिरा। यह देखकर न्यूटन सोचने लगा और उसे लगा कि कोई शक्ति सेव को नीचे खींच रही है।

तंत्र और योग पूछते हैं कि पहले तो यह साफ होना चाहिए कि सेव ऊपर कैसे पहुंचा। है वे कहते हैं कि पहले यह जानना जरूरी है कि सेव की ऊपर की ओर यात्रा कैसे हुई, कैसे वृक्ष ऊपर की ओर बढ़ता है। सेव वहां नहीं था, वह बीज में छिपा था, और फिर उसने पूरी यात्रा की और ऊपर पहुंचा। उसके बाद ही उसका नीचे गिरना संभव हुआ। इसलिए गुरुत्वाकर्षण प्राथमिक नहीं है; ऊर्ध्वाकर्षण प्राथमिक है। कोई शक्ति सेव को ऊपर खींच रही थी। वह शक्ति क्या है?

जीवन में हम गुरुत्वाकर्षण को आसानी से अनुभव कर लेते हैं; क्योंकि हम सभी नीचे की तरफ खिंचते हैं। पानी नीचे की तरफ बहता है, यह गुरुत्वाकर्षण के नियम के अधीन है। लेकिन जब पानी भाप बनता है तो गुरुत्वाकर्षण का नियम भी वाष्पीभूत हो जाता है। अब यह ऊर्ध्वाकर्षण के नियम के अधीन है; यह ऊपर उठने लगता है।

अज्ञान गुरुत्वाकर्षण के नियम के अधीन है; उसमें तुम सदा नीचे की ओर गति करते हो। अज्ञान में तुम क्या करते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है; तुम नीचे ही गिरते हो। हर ढंग से तुम्हें नीचे ही गिरना है। और संघर्ष करने से कोई लाभ नहीं होगा। जब तक तुम दूसरे नियम के, ऊर्ध्वाकर्षण के नियम के क्षेत्र में नहीं प्रवेश करते, नीचे जाना अनिवार्य है। उस दूसरे नियम को ही समाधि कहते हैं—ऊर्ध्वाकर्षण का नियम, प्रसाद का नियम। जैसे ही तुम पानी न रहे, जैसे ही तुम भाप बन गए, सब कुछ बदल जाता है।

ऐसा नहीं है कि अब तुम अपने पर नियंत्रण कर सकते हो, नियंत्रण की कोई जरूरत नहीं है। अब तुम नीचे गिर ही नहीं सकते, जैसे पहले ऊपर उठना असंभव था वैसे ही अब नीचे गिरना असंभव है। ऐसा नहीं है कि बुद्ध अहिंसक होने की चेष्टा करते हैं; वे अन्यथा हो ही नहीं सकते। ऐसा नहीं है कि वे प्रेमपूर्ण होने की चेष्टा करते हैं, वे अन्यथा नहीं हो सकते। उन्हें प्रेमपूर्ण होना ही है। प्रेम उनका चुनाव नहीं है, प्रयत्न नहीं है, अभ्यासगत गुण नहीं है, अब तो प्रेम उनका नियम है; वे ऊपर ही उठते हैं। घृणा गुरुत्वाकर्षण के नियमाधीन है और प्रेम ऊर्ध्वाकर्षण के, प्रसाद के।

लेकिन इस आकस्मिक रूपांतरण का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, सिर्फ रूपांतरण का इंतजार करना है। तब वह कभी घटित नहीं होगा। यही पहेली है। जब मैं कहता हूं—या कोई दूसरा कहता है—कि ज्ञान अचानक ही घटता है तो हम सोचते हैं कि तब तो कुछ भी नहीं किया जा सकता, हमें सिर्फ प्रतीक्षा करनी है; जब आएगा तो आएगा। हम कर क्या सकते हैं? और अगर वह क्रमिक है तो कुछ किया जा सकता है।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि ज्ञान क्रमिक नहीं है और फिर भी तुम कुछ कर सकते हो। और तुम्हें कुछ अवश्य करना है, हालांकि उस करने से ज्ञान नहीं आएगा। लेकिन वह करना तुम्हें ज्ञान की घटना के निकट जरूर ला देगा। वह तुम्हें ज्ञान की घटना के प्रति अभिमुख कर, खोल देगा।

तो ज्ञान को तुम्हारे प्रयत्नों का विषय नहीं बनाया जा सकता; वह तुम्हारे प्रयत्नों का परिणाम नहीं है। तुम्हारे प्रयत्नों से तुम सिर्फ ऊर्ध्वाकर्षण के परम नियम के प्रति उपलब्ध हो

जाते हो। प्रयत्न के द्वारा तुम्हारा उपलब्ध होना सधता है, ज्ञान नहीं। तुम उपलब्‍ध रहोगे, तुम प्रतिरोध नहीं करोगे; तुम महानियम के काम में सहयोगी बन जाओगे। और जब तुम प्रतिरोध नहीं, सहयोग करते हो तो महानियम काम करने लगता है। तुम्हारे प्रयत्न तुम्हें समर्पित होने में सहयोगी होंगे, तुम्हें अधिक ग्रहणशील बनाएंगे।

यह ऐसा ही है जैसे कि तुम अपने कमरे में द्वार—दरवाजे बंद करके बैठे हो। घर के बाहर धूप है, लेकिन तुम अंधेरे में हो। तुम धूप को भीतर लाने के लिए कुछ नहीं कर सकते, लेकिन अगर तुम द्वार—दरवाजे खोल दो तो तुम्हारा कमरा धूप के लिए उपलब्ध हो जाएगा। तुम धूप को भीतर नहीं ला सकते, लेकिन तुम उसको रोक जरूर सकते हो। तुम अगर द्वार खोल दोगे तो धूप कैमरे में आ जाएगी, प्रकाश अंदर आ जाएगा। दरअसल तुम प्रकाश को अंदर नहीं ला रहे हो, तुम सिर्फ अवरोध हटा रहे हो। प्रकाश अपने आप ही आ जाता है।

इस बात को ठीक से समझ लो। तुम बुद्धत्व को पाने के लिए कुछ नहीं कर सकते, लेकिन तुम बहुत कुछ कर रहे हो जिससे उसका आना रुक सकता है। तुम अनेक अवरोध निर्मित कर रहे हो। इसलिए तुम बस परोक्ष रूप से कुछ कर सकते हो; तुम अवरोध को हटा सकते हो; द्वार को खोल सकते हो। और जैसे ही द्वार खुलेगा, सूर्य की किरणें भीतर आ जाएंगी, प्रकाश तुम्हें स्पर्श करेगा और रूपांतरित कर देगा। इस अर्थ में सभी प्रयत्न अवरोध हटाने का काम करते हैं; वे ज्ञान को उपलब्ध नहीं कराते। सब प्रयत्न परोक्ष हैं।

यह औषधि जैसा है। औषधि तुम्हें स्वास्थ्य नहीं दे सकती, केवल तुम्हारे रोगों को मिटा सकती है। और जब रोग नहीं रहे तो स्वास्थ्य घटित होता है, तुम स्वास्थ्य के लिए उपलब्ध हो जाते हो। लेकिन रोगों के रहते स्वास्थ्य नहीं हो सकता है। यही कारण है कि चिकित्सा विज्ञान, चाहे पूर्वी हो चाहे पश्चिमी, अब तक स्वास्थ्य की परिभाषा नहीं कर सका है। वह एक—एक रोग की सही परिभाषा कर सकता है। उसने हजारों रोगों की खोज की है और उनकी परिभाषा की है; लेकिन वह यह नहीं बता सकता कि स्वास्थ्य क्या है। ज्यादा से ज्यादा चिकित्सा विज्ञान यही कह सकता है कि जब रोग नहीं होते हैं तब तुम स्वस्थ होते हो। लेकिन स्वास्थ्य क्या है?

स्वास्थ्य कुछ ऐसी बात है जो मन से परे है। यह कुछ ऐसा है जो होता तो है, उसे तुम अनुभव भी कर सकते हो; लेकिन तुम उसकी परिभाषा नहीं कर सकते। तुमने स्वास्थ्य जाना है, लेकिन क्या तुम परिभाषा कर सकते हो कि वह क्या है? जैसे ही तुम उसकी परिभाषा करने की चेष्टा करोगे, तुम्हें रोग को बीच में लाना पड़ेगा, तुम्हें रोग के संबंध में कुछ बताना पड़ेगा, कि रोग की अनुपस्थिति स्वास्थ्य है।

लेकिन यह तो बडे मजे की बात है कि स्वास्थ्य की परिभाषा के लिए तुम्हें रोग को बीच में लाने की जरूरत पड़ती है। और रोग के निश्चित गुण हैं।

स्वास्थ्य के भी अपने गुण हैं, लेकिन वे उतने निश्चित नहीं हैं, क्योंकि वे असीम हैं। तुम उन्हें अनुभव कर सकते हो; जब तुम स्वस्थ होते हो तो जानते भी हो कि मैं स्वस्थ हूं। लेकिन स्वास्थ्य क्या है? रोगों का इलाज हो सकता है, उन्हें मिटाया जा सकता है। और जब अवरोध हट जाते हैं, स्वास्थ्य का प्रकाश भीतर आ जाता है।

ज्ञान—की घटना भी ऐसी ही है। ज्ञान आध्यात्मिक स्वास्थ्य है। मन आध्यात्मिक रोग है और ध्‍यान एक औषधि है।

बुद्ध ने कहा है: मैं वैद्य हूं, चिकित्‍सक हूं, मैं शिक्षक नहीं है, मैं तुम्‍हें कोई सिद्धांत सिखाने नहीं आया हूं। मैं कुछ औषधि जानता हूं जो तुम्हारे रोगों का इलाज कर सकती है। औषधि लो, रोगों को मिटाओ; और तुम्हें स्वास्थ्य उपलब्ध हो जाएगा। स्वास्थ्य के संबंध में पूछो मत। बुद्ध कहते हैं. मैं दार्शनिक नहीं हूं; मैं सैद्धांतिक नहीं हूं। मेरी रुचि इसमें नहीं है कि ईश्वर क्या है; कैवल्य, मोक्ष और निर्वाण क्या है। मुझे जरा भी रुचि नहीं है। मैं तो सिर्फ इसमें उत्सुक हूं कि रोग क्या है और उसका उपचार क्या है। मैं वैद्य हूं।

बुद्ध की दृष्टि बिलकुल वैज्ञानिक है। उन्होंने मनुष्य की समस्या का, उसकी बीमारी का ठीक निदान किया। उनकी दृष्टि सर्वथा सम्यक है।

अवरोधों को मिटाओ। अवरोध क्या हैं? विचार बुनियादी अवरोध हैं। जब तुम विचार करते हो तो विचारों का एक अवरोध निर्मित हो जाता है। तब सत्य और तुम्हारे बीच विचारों की एक दीवार खड़ी हो जाती है। और विचारों की दीवार पत्थर की दीवार से भी ज्यादा ठोस और सख्त होती है। और फिर विचारों की अनेक पर्तें होती हैं और उनके भीतर प्रवेश करके सत्य को देखना मुश्किल है। तुम सोच—विचार करते रहते हो कि यथार्थ क्या है, तुम कल्पना करते रहते हो कि सत्य क्या है। और सत्य यहां और अभी मौजूद है और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। अगर तुम उसके प्रति उन्यूख हो जाओ तो सत्य तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा।

तुम सत्य के संबंध में विचार करते हो, लेकिन अगर तुम सत्य को जानते नहीं हो तो उसके संबंध में विचार कैसे कर सकते हो? तुम जिस चीज को नहीं जानते हो उस पर विचार नहीं कर सकते। तुम उस पर ही विचार कर सकते हो जिसे पहले से जानते हो। विचार पुनरुक्ति है। विचार जुगाली करना है। विचार किसी नयी और अज्ञात चीज को नहीं सोच सकता है। सोच—विचार के जरिए तुम अज्ञात को नहीं स्पर्श कर सकते, सिर्फ ज्ञात को ही सोचते रहते हो। और ज्ञात को सोचना व्यर्थ है, क्योंकि वह तो जाना ही हुआ है। तुम उसे बार—बार सोच सकते हो; तुम उसका मजा भी ले सकते हो, लेकिन उससे कुछ नए का आविर्भाव नहीं होता।

सोच—विचार बंद करो। सोच—विचार को विसर्जित करो, और अवरोध टूट जाएगा। तब तुम्हारे द्वार खुले हैं और प्रकाश प्रवेश कर सकता है। और जब प्रकाश प्रवेश करता है तो पुराना विदा हो जाता है। और फिर तुम जो हो वह सर्वथा नया है। वह पहले कभी नहीं था; तुमने उसे पहले कभी नहीं जाना था। अथवा तुम यह भी कह सकते हो कि यह सनातन है; यह सदा था, लेकिन मैं नहीं जानता था।

तुम दोनों वक्‍तव्यों का उपयोग कर सकते हो। तुम उसे सनातन कह सकते हो, ब्रह्म कह सकते हो, जो सदा से है; और तुम कह सकते हो कि मैं उसे निरंतर चूक रहा था। और तुम यह भी कह सकते हो कि सत्य परम नूतन है, नया है, अभी ही घटित हुआ है, पहले कभी नहीं था। यह वक्‍तव्य भी सही है, क्योंकि तुम्हारे लिए यह नया ही है।

अगर तुम सत्य के संबंध में कुछ कहना चाहते हो तो उलटबांसी का, विरोधाभासी भाषा का उपयोग करना होगा। उपनिषद कहते हैं : यह नया है और पुराना है। यह सनातन और परम नवीन है। यह दूर है और निकट है। लेकिन तब भाषा विरोधाभासी हो जाती है।

और तुम मुझसे पूछते हो : ‘अगर प्रामाणिक अनुभव कभी क्रमिक नहीं, सिर्फ आकास्‍मिक होता है, अचानक होता है, तो यह क्रमिक विकास ओर दृष्‍टि की सुस्‍पष्‍टता क्‍या है?

यह स्पष्टता मन की है। यह स्पष्टता रोग का क्षीण होना है। यह स्पष्टता अवरोधों का गिरना है। अगर एक अवरोध गिरता है तो तुम उतने ही कम बोझिल होते हो। अगर दूसरा अवरोध गिरता है तो तुम और भी हलके हो जाते हो, तुम्हारी आंखें और भी स्पष्ट देखने लगती हैं। लेकिन यह स्पष्टता ज्ञान की, बुद्धत्व की स्पष्टता नहीं है। यह स्पष्टता स्वास्थ्य की स्पष्टता नहीं है, सिर्फ रोगों के घटने का लक्षण है। जब सारे अवरोध विदा हो जाते हैं तो उनके साथ तुम्हारा मन भी विदा हो जाता है। तब तुम यह नहीं कह सकते कि अब मेरा मन स्वच्छ है, तब तुम सिर्फ यह कहते हो कि अब मन नहीं रहा।

और जब मन नहीं रहता है तब जो दृष्टि की स्पष्टता आती है वह ज्ञान की स्पष्टता है। वही स्पष्टता बुद्धत्व की स्पष्टता है। और वह बिलकुल ही भिन्न चीज है। तब दूसरा ही आयाम खुलता है। लेकिन उसके पहले तुम्हें मन की स्पष्टता से गुजरना होगा। यह सदा स्मरण रहे कि तुम्हारा मन चाहे जितना भी स्पष्ट हो जाए वह अवरोध ही बना रहता है। तुम्हारा मन चाहे जितना भी पारदर्शी हो जाए, चाहे वह पारदर्शी काच ही क्यों न हो जाए लेकिन वह अवरोध ही है। और तुम्हें उसे पूरी तरह मिटाना ही होगा।

कभी—कभी ऐसा होता है कि जब कोई ध्यान करता है तो वह ज्यादा स्पष्ट, ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा शांत हो जाता है। तब वह जोर से ध्यान को पकड़ लेता है और सोचता है कि सब कुछ उपलब्ध हो गया। इसीलिए महान सदगुरु सदा ही इस बात को जोर देकर कहते रहे हैं कि एक दिन आता है जब तुम्हें ध्यान को भी छोड़ देना होता है।

मैं तुम्हें एक कहानी कहता हूं —एक झेन कहानी। बोकोजू ध्यान में लगा था। वह प्राणपण से ध्यान करता था, ध्यान में गहरे उतर रहा था। उसका गुरु रोज—रोज आता था, हंस देता था और फिर लौट जाता था। बोकोजू को इससे बहुत परेशानी हुई कि गुरु कुछ भी नहीं बोलता है। वह बस आता था, उसे देखता था, हंस देता था और चला जाता था। और बोकोजू को ध्यान के अच्छे अनुभव हो रहे थे; उसका ध्यान गहरा रहा था। और वह चाहता था कि कोई उसकी प्रशंसा करे। उसे प्रतीक्षा थी कि गुरु उसकी पीठ थपथपाएगा और कहेगा : बहुत अच्छा बोकोजू तुम बहुत अच्छा कर रहे हो। लेकिन गुरु तो सिर्फ हंस देता था।

और उसकी यह हंसी बोकोजू के लिए अपमानजनक लगती थी; क्योंकि उसका मतलब था कि बोकोजू के ध्यान में गति नहीं हो रही थी। और बोकोजू ध्यान में सच में गति कर रहा था। लेकिन जैसे—जैसे उसकी ध्यान में गति होती जाती थी, गुरु की हंसी भी बढ़ती जाती थी। और बोकोजू के लिए वह हंसी उतनी ही ज्यादा अपमानजनक होती जाती थी। अब तो बात बर्दाश्त के बाहर होने लगी।

एक दिन गुरु आया। और बोकोजू मन में पूर्णत: शांत अनुभव कर रहा था। मन में कोई शोरगुल नहीं था, कोई विचार नहीं था। मन पूरी तरह पारदर्शी था, कोई भी अवरोध नहीं मालूम पड़ता था। बोकोजू एक सूक्ष्म और गहरे सुख से भरा था; प्रसन्नता से लबालब था। म् वह परम सुख में था। और तब उसने सोचा कि मेरे गुरु अब नहीं हंसेंगे, अब वह क्षण आ गया है जब गुरु कहेंगे : बोकोजू अब तुम शान को उपलब्ध हो गए।

उस रोज गुरु अपने हाथ में एक ईंट लिए आया। वह बैठ गया और जिस चट्टान पर बैठकर बोकोजू ध्यान करता था उसी पर वह ईंट को लड़ने लगा। बोकोजू इतना यह शांत था, लेकिन ईंट के घिसे जाने से आवाज होने लगी और वह परेशान हो उठा। आखिर उससे न रहा गया, उसने आख खोली और गुरु से पूछा. आप यह क्या कर रहे हैं? गुरु ने कहा : मैं इस ईंट को दर्पण बनाने की चेष्टा कर रहा हूं और मुझे आशा है कि सतत लड़ते रहने से किसी न किसी दिन यह ईंट दर्पण बन जाएगी। बोकोजू ने कहा. आप मूढ़ता भरा काम कर रहे हैं। यह ईंट कभी दर्पण नहीं बन सकेगी। चाहे आप जितनी घिसाई करें, यह कभी दर्पण नहीं बनेगी। गुरु ने हंसकर कहा : और तुम क्या कर रहे हो? यह मन कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता, चाहे तुम उसे कितना ही घिसते रहो। तुम उसे घिस—घिसकर चिकना कर रहे हो और तुम्हें इतना अच्छा लग रहा है कि जब मैं हंसता हूं तो तुम्हें चिढ़ लगती है।

और अचानक, जैसे ही गुरु ने ईंट को दूर फेंका, बोकोजू बोध को उपलब्ध हो गया। जैसे ही गुरु ने ईंट फेंकी, अचानक बोकोजू को अनुभव हुआ कि गुरु सही हैं; और इस बोध के साथ ही उसका मन खो गया। फिर उस दिन के बाद से न मन रहा और न ध्यान। बोकोजू ज्ञान को उपलब्ध हो गया।

तब गुरु ने बोकोजू से कहा : अब तुम कहीं भी जा सकते हो। जाओ और दूसरों को भी सिखाओ। पहले उन्हें ध्यान सिखाओ और फिर ध्यान को छोड़ना सिखाओ। पहले उन्हें सिखाओ कि कैसे मन को शुद्ध किया जाए; क्योंकि शुद्ध मन ही समझ सकता है कि शुद्ध मन भी बाधा है। केवल गहन ध्यान को उपलब्ध हुआ चित्त ही समझ सकता है कि अब ध्यान को भी छोड़ देना है।

तुम अभी ही यह नहीं समझ सकते हो। कृष्णमूर्ति निरंतर समझाए जाते हैं कि किसी ध्यान की कोई जरूरत नहीं है; और वे सही हैं, लेकिन वे गलत लोगों से बात कर रहे हैं। वे सही हैं; ध्यान की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन वे उन लोगों के लिए गलत हैं, जो उनको सुनते हैं। जो यह भी नहीं जानते कि ध्यान क्या है, वे यह कैसे समझ सकते हैं कि ध्यान की कोई जरूरत नहीं है! यह बात तो उनके लिए हानिकर सिद्ध होगी, क्योंकि वे इस बात को पकडकर बैठ जाएंगे। उन्हें लगेगा कि यह बात तो बहुत अच्छी है। ध्यान की क्या जरूरत है? हम तो पहले से ही ज्ञानी हैं।

कृष्णमूर्ति को सुनकर बहुतो को ऐसा लगता है कि ध्यान की कोई जरूरत नहीं है और जो लोग ध्यान करते हैं वे मूढ़ हैं। ऐसे लोग इस बात के कारण अपना पूरा जीवन गंवा दे सकते हैं। और यह बात सही है। एक जगह आती है जब ध्यान भी बाधा बन जाता है; एक क्षण आता है जब ध्यान को भी छोड़ देना पड़ता है। लेकिन उस जगह और उस क्षण के आने तक तो धीरज रखो। जो तुम्हारे पास नहीं है उसे तुम कैसे छोड़ सकते हो? कृष्णमूर्ति कहते हैं कि ध्यान जरूरी नहीं, कोई ध्यान मत करो। लेकिन तुमने तो कभी ध्यान नहीं किया, फिर तुम कैसे कह सकते हो कि ध्यान नहीं करना है?

धनी आदमी ही धन छोड़ सकता है, गरीब नहीं। छोड़ने के लिए पहले कुछ छोड़ने को भी तो होना चाहिए। अगर तुम ध्यान करते हो तो ही किसी दिन तुम ध्यान छोड़ भी सकते हो।

और ध्यान का त्याग अंतिम और परम त्याग है। धन छोड़ा जा सकता है, यह आसान है। परिवार छोड़ा जा सकता है। वह कठिन नहीं है। सारा संसार छोड़ा जा सकता है। क्‍योंकि वह बाहर ही बाहर है। ध्यान अंतिम बात है—अंतरस्थ संपदा। जब तुम ध्यान का त्याग करते हो तो तुमने स्वयं को त्याग दिया। तब कोई स्व नहीं रह जाता, ध्यान करने वाला स्व भी नहीं। तब महाध्यानी भी नहीं रहता है; वह प्रतिमा भी खंडित हो गई। तुम शून्य में’ गिर पडे। और इस शून्य में ही गैप है, अंतराल है। पुराना विदा हो गया और नए का आगमन हुआ है।

तुम ध्यान से ज्ञान के लिए तैयार होते हो। ध्यान में जो भी अनुभव हो, उसे ज्ञान मत समझो। ये तो रोगों के कम होने की, रोगों के बिखरने की खबरें हैं, झलकियां हैं। तुम्हें अच्छा लगता है। रोग घट रहे हैं, इसलिए तुम सापेक्षत: स्वस्थ अनुभव करते हो। सच्चा स्वास्थ्य अभी नहीं आया है, लेकिन तुम पहले से ज्यादा स्वस्थ हो, और पहले से ज्यादा स्वस्थ होना अच्छा है।

दूसरा प्रश्न :

 

आपने कहा है कि जीवन ध्रुवीय विपरीतताओं में घटित होता है; जैसे प्रेम और घृणा,

आकर्षण और विकर्षण पुण्य और पाय, इत्यादि। लेकिन इन ध्रुवीय विपरीतताओं का तब क्या होता है जब कोई व्‍यक्‍ति अपने साक्षी चैतन्‍य में हो जाता है?

 

ह पूछो मत। घटना की प्रतीक्षा करो, और फिर देखो कि क्या होता है। तुम पूछ सकते हो और कुछ उत्तर भी दिया जा सकता है, लेकिन वह उत्तर तुम्हारे लिए प्रामाणिक उत्तर नहीं बन सकता। और आगे—आगे मत कूदो। मत पूछो कि मरने पर क्या होता है। क्या होता है, इस बाबत जो भी कहा जाएगा वह व्यर्थ होगा, क्योंकि तुम अभी जिंदा हो। मरने पर क्या होता है, यह जानने के लिए तुम्हें मृत्यु से गुजरना होगा। जब तक तुम मरोगे नहीं, तुम नहीं जान सकते। जो भी कहा जाएगा, उस पर तुम श्रद्धापूर्वक भरोसा कर लोगे; लेकिन वह व्यर्थ है। इसकी जगह यह पूछो कि कैसे मरा जाए, ताकि मैं जान सकूं कि मरने पर क्या होता है। कोई दूसरा तुम्हारे लिए नहीं मर सकता है। और किसी दूसरे का अनुभव भी तुम्हारा अनुभव नहीं बन सकता है। तुम्हें ही मरना होगा। किसी दूसरे का मरने का अनुभव तुम्हारा अनुभव नहीं बन सकता है, तुम्हारा अपना अनुभव ही जरूरी है।

वही बात यहां भी लागू होती है। जब ध्रुवीयता मिट जाती है तो क्या घटता है? एक ढंग से कहा जाए तो कुछ नहीं घटता है। घटना मात्र विलीन हो जाती है; क्योंकि सब घटना ध्रुवीय है। जब प्रेम और घृणा दोनों मिट जाते हैं—और वे मिटते हैं—तब क्या घटता है?

जब तुम प्रेम करते हो तो साथ ही घृणा भी करते हो, और तुम उसी व्यक्ति को घृणा करते हो जिसे प्रेम करते हो। प्रेम ऊपर होता है और घृणा नीचे छिपी रहती है। और जब घृणा ऊपर आती है तो प्रेम नीचे छिपा रहता है। जीसस कहते हैं, अपने दुश्मन को प्रेम करो; और मैं कहता हूं कि तुम अन्यथा नहीं कर सकते। तुम अपने दुश्मन को प्रेम करते ही हो। तुम उससे इतनी घृणा करते हो कि वह घृणा प्रेम के बिना असंभव है। प्रेम सिक्के का दूसरा पहलू है। और वह सीमा रेखा कहां है जहां प्रेम समाप्त होता है और घृणा शुरू होती है? दोनों साथ—साथ हैं, मिले—जुले हैं। तुम कब किसी को प्रेम करते हो और कब घृणा करते हो? क्या तुम दोनों के बीच विभाजन—रेखा खींच सकते हो? तुम एक ही व्यक्ति को प्रेम और घृणा दोनों करते हो। किसी भी क्षण प्रेम घृणा बन सकता है। और घृणा प्रेम बन सकती है।

यह मन की ध्रुवीयता है, विपरीतता है; मन ऐसे ही काम करता है। इससे परेशान होने की जरूरत नहीं है। अगर तुम जानते हो तो तुम कभी परेशान न होगे। अगर तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम जानते हो कि वहीं घृणा भी होगी। अगर कोई तुम्हें प्रेम करता है तो तुम उससे प्रेम और घृणा दोनों पाने के लिए तैयार रहोगे। लेकिन बुद्ध जैसी चेतना को क्या घटता है जब प्रेम और घृणा दोनों विदा हो जाते हैं? क्या घटित होता है?

इस घटना को शब्द देना कठिन है; लेकिन बुद्ध के सान्निध्य में जो अनुभव होता है वह घृणा—रहित प्रेम का अनुभव है। यह बुद्ध का अनुभव नहीं है; बुद्ध के आस—पास औरों को ऐसा अनुभव होता है। स्वयं बुद्ध अब प्रेम नहीं अनुभव कर सकते; क्योंकि वे घृणा भी नहीं अनुभव करते हैं। वे खुद प्रेम नहीं अनुभव करते हैं, लेकिन उनके चारों ओर लोग प्रगाढ़ प्रेम बहता हुआ अनुभव करते हैं। हम इसे घृणा—रहित प्रेम कह सकते हैं, लेकिन तब उसकी पूरी गुणवत्ता भिन्न है।

हमारे प्रेम में घृणा अनिवार्यत: मौजूद रहती है। यह घृणा प्रेम को रंग देती है, उसकी गुणवत्ता बदल देती है। घृणा प्रेम को एक उत्तेजना देती है, ताप और त्वरा देती है, सघनता और एकाग्रता देती है। लेकिन बुद्ध का प्रेम एक शांत उपस्थिति है; उसमें ताप और त्वरा नहीं है। बुद्ध का प्रेम तुम्हें जला नहीं सकता है, वह तुम्हें सिर्फ थोड़ी ऊष्मा दे सकता है। वह आग नहीं है, वह आभा भर है। बुद्ध के प्रेम में लपट नहीं है; वह सुबह की आभा जैसा है, जब रात विदा हो चुकी है और सूर्य का उदय नहीं हुआ है। यह एक बीच का क्षण है, जिसमें अग्निरहित, ज्वालारहित प्रकाश होता है। उसे हमने प्रेम की भांति अनुभव किया है, शुद्धतम प्रेम की भांति, क्योंकि उसमें घृणा नहीं होती है।

इस भांति के प्रेम को महसूस करने के लिए भी तुम्हें गहन रूप से ध्यानपूर्ण चित्त की जरूरत है। तुम्हें ऐसे चित्त की जरूरत है जो ध्यान में उतर सके; अन्यथा ऐसी नाजुक और विरल घटना का अनुभव होना कठिन है। उसके लिए गहन संवेदनशीलता चाहिए। तुम केवल स्थूल प्रेम को अनुभव कर सकते हो, और वह स्थूलता घृणा से आती है। अगर कोई व्यक्ति तुम्हें घृणा—रहित प्रेम देता है तो उसके प्रेम को अनुभव करना तुम्हारे लिए कठिन होगा। उसके लिए तुम्हें विकास करने की जरूरत है, ताकि तुम ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा निर्मल, ज्यादा कोमल हो सको। तुम्हें एक बहुत ही संवेदनशील वाद्ययंत्र की भांति होना होगा; तो ही उस प्रेम की हवा कभी तुम्हारे पास पहुंच सकती है। और वह हवा अब इतनी अहिंसक है कि तुम पर आघात नहीं करेगी; वह केवल एक कोमल स्पर्श की भांति होगी। अगर तुम बहुत—बहुत बोधपूर्ण हो तो ही उसे महसूस करोगे; अन्यथा चूक जाओगे।

लेकिन यह हमारा भाव है जो हमें बुद्ध के चारों ओर अनुभव में आता है। यह बुद्ध का भाव नहीं है। बुद्ध को प्रेम या घृणा, कुछ भी नहीं होता है। सच तो यह है कि ध्रुवीय विरोध मिट जाते हैं और मात्र उपस्थिति रह जाती है। बुद्ध एक उपस्थिति हैं, भाव नहीं। तुम भाव हो, उपस्थिति नहीं। कभी तुम घृणा हो; यह एक भाव हुआ। और कभी तुम प्रेम हो; यह दूसरा

भाव हुआ। कभी तुम क्रोध हो; यह तीसरा भाव है। और कभी तुम लोभ हो, चौथा भाव। तुम भाव ही भाव हो। तुम कभी शुद्ध उपस्‍थिति नहीं हो। और तुम्‍हारी चेतना तुम्‍हारे भावों के अनुसार रंग लेती रहती है। प्रत्येक भाव मालिक बन जाता है। वह चेतना को प्रभावित करता है, उसे पंगु बनाता है, बदलता है, रंग देता है, विकृत करता है।

बुद्ध निर्भाव हैं। घृणा गई, प्रेम गया, क्रोध गया, लोभ गया; और उसके साथ ही साथ अलोभ भी गया, अक्रोध भी गया। सभी द्वंद्व समाप्त हो गए। बुद्ध एक उपस्थिति मात्र हैं। अगर तुम संवेदनशील हो तो तुम उनसे प्रेम और करुणा को प्रवाहित होता हुआ महसूस करोगे। और अगर तुम संवेदनशील नहीं हो, स्थूल हो, अगर तुम्हारा ध्यान गहरे नहीं गया है तो तुम्हें उनका जरा भी अनुभव नहीं होगा। बुद्ध तुम्हारे बीच से गुजरेंगे और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि कोई दुर्लभ घटना तुम्हारे पास से गुजर रही है जो सदियों—सदियों में कभी घटित होती है। तुम्हें इसका बोध भी नहीं होगा।

और अगर तुम बहुत ही स्थूल हो, ध्यान—विरोधी हो तो तुम बुद्ध की उपस्थिति से नाराज भी हो सकते हो। क्योंकि उनकी उपस्थिति बहुत सूक्ष्म है; तुम उससे हिंसक भी हो जा सकते हो। उनकी उपस्थिति तुम्हें अशांत कर सकती है, उद्विग्न कर सकती है। अगर तुम बहुत स्थूल हो, मंदबुद्धि हो, ध्यान—विरोधी हो तो तुम बुद्ध के दुश्मन भी बन जा सकते हो, हालांकि उन्होंने कुछ भी नहीं किया है। और अगर तुम खुले हो, संवेदनशील हो तो तुम उनके प्रेमी बन जाओगे, हालांकि उन्होंने कुछ भी नहीं किया है।

स्मरण रहे, जब तुम शत्रु बनते हो तो तुम ही हो जो शत्रु बनते हो और जब तुम मित्र बनते हो तो भी तुम ही हो जो मित्र बनते हो, बुद्ध तो महज एक उपस्थिति हैं, वे केवल उपलब्ध हैं। तुम अगर शत्रु बनते हो तो उनकी तरफ पीठ कर लेते हो। तब तुम कुछ ऐसी चीज चूक रहे हो जिसके लिए हो सकता है फिर जन्मों प्रतीक्षा करनी पड़े।

जिस दिन बुद्ध विदा हो रहे थे, आनंद रो रहा था। उस सुबह बुद्ध ने कहा : यह मेरा अंतिम दिन है; अब यह देह समाप्त होने जा रही है। आनंद उनके निकट था; वह पहला व्यक्ति था जिससे बुद्ध ने कहा. यह मेरा अंतिम दिन है। जाओ और सबको खबर कर दो कि उन्हें कुछ पूछना हो तो आकर पूछ सकते हैं।

आनंद तो रोने लगा। बुद्ध ने कहा : क्यों रोते हो? इस शरीर के लिए? मैंने सदा यही सिखाया कि यह शरीर झूठ है; वह मरा हुआ ही है। या तुम मेरी मृत्यु के लिए रोते हो? रोओ मत; मैं तो चालीस साल पूर्व ही मर चुका; मैं तो उसी दिन मर गया था जिस दिन ज्ञान को उपलब्ध हुआ। तो अब केवल यह शरीर खो रहा है। मत रोओ।

आनंद ने एक बहुत सुंदर बात कही। उसने कहा मैं आपके शरीर या आपके लिए नहीं रो रहा हूं मैं तो अपने लिए रो रहा हूं। मैं अभी अज्ञानी ही हूं और न जाने कितने जन्म लेने होंगे जब फिर कोई बुद्ध उपलब्ध होंगे। और हो सकता है, मैं आपको पहचान न पाऊं।

जब तक तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं होते, तुम्हारी मन की स्पष्टता किसी भी क्षण धूमिल हो जा सकती है। बुद्ध होने के पहले तुम बार—बार पिछड़ सकते हो। तब तक कुछ भी निश्चित नहीं है। इसलिए आनंद ने बुद्ध से कहा कि मैं अपने लिए रो रहा हूं; क्योंकि अभी तक मुझे मंजिल नहीं मिली और आप महानिर्वाण में प्रवेश कर रहे हैं।

अनेक लोगों ने, यहां तक कि बुद्ध के पिता ने भी नहीं पहचाना कि उनका बेटा अब उनका बेटा नहीं रहा, कि उस शरीर में कुछ घटित हुआ है जो बहुत दुर्लभ है; अंधेरा मिट गया गईं है और शाश्वत ज्योति जल रही है। लेकिन वे इसे नहीं पहचान सके। अनेक लोग बुद्ध के विरोध में थे; अनेक लोगों ने उनकी हत्‍या की कोशिश की थी।

तो यह तुम पर निर्भर है कि तुम उनके मित्र, प्रेमी, या शत्रु बनते हो। यह तुम पर निर्भर है, तुम्हारी संवेदनशीलता पर, तुम्हारी चित्त—दशा पर निर्भर है। लेकिन बुद्ध कुछ नहीं कर रहे हैं। वे एक उपस्थिति मात्र हैं। लेकिन उनकी उपस्थिति से ही उनके चारों ओर बहुत कुछ होता है। जिन्हें प्रेम की प्रतीति है, उन्हें प्रतीति होगी कि बुद्ध उनके साथ प्रगाढ़ प्रेम में हैं। और तुम्हारी यह अनुभूति जितनी गहरी होगी, उतना ही तुम्हारा यह भाव बढ़ेगा कि तुम्हारे प्रति उनका प्रेम प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर हो रहा है। अगर तुम सच्चे ब्रेक हो तो तुम्हें प्रतीत होगा कि बुद्ध तुम्हारे प्रेमी हैं। और अगर तुम शत्रु बन गए, उनसे घृणा करने लगे तो तुम्हें लगेगा कि बुद्ध शत्रु हैं और उन्हें समाप्त कर दिया जाना चाहिए। यह तुम पर निर्भर है। बुद्ध कुछ नहीं करते हैं; वे सिर्फ हैं, होना भर हैं।

तो यह कहना कठिन है कि क्या होता है; क्योंकि हम जो कुछ कहेंगे वह भाव होगा। अगर हम कहते हैं कि वे प्रेमपूर्ण हो गए हैं, प्रेम से भर गए हैं, तो यह गलत है। वह हमारा भाव होगा।

जीसस के अनुयायियों को लगा कि वे शुद्ध प्रेम हैं और उनके दुश्मनों को लगा कि उन्हें सूली पर लटका देना चाहिए। तो यह बिलकुल तुम पर निर्भर है, यह तुम पर निर्भर है कि तुम इसे किस भांति लेते हो, तुम्हारी लेने की क्षमता कैसी है, तुम कितने खुले हो। लेकिन प्रज्ञा—पुरुष की ओर से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। वे इतना ही कह सकते हैं कि अब मैं हूं; बिना कुछ किए मैं एक उपस्थिति हूं बीइंग हूं।

तीसरा प्रश्न :

 

आपने कहा कि जब कोई व्यक्ति यूरी तरह वर्तमान क्षण में होता है, निर्विचार होता है, तब यह बुद्ध—चित्त होता है। लेकिन जब मुझमें कोई विचार नहीं होता, जब मैं क्षण में होता हूं, तल्‍लीन होता हूं, जब अतीत और भविष्‍य खो जाते है, तो भी मुझे बुद्ध—स्वभाव की प्रतीति नहीं होती है। कृपया समझाएं कि इस निर्विचार बोध में कब बुद्ध—चित्त प्रकट होता है?

 

हली बात, यदि तुम जान रहे हो कि मन में कोई विचार नहीं है तो विचार है; यह भी विचार ही है कि अब मुझमें कोई विचार नहीं है। यह अंतिम विचार है। इसको भी विदा होने दो। और तुम क्यों प्रतीक्षा में हो कि कब मुझे बुद्ध—चित्त घटित होगा? वह भी एक विचार है। वह इस भांति नहीं घटित होगा, कभी नहीं घटित होगा।

मैं तुम्हें एक कहानी कहूंगा। एक सम्राट गौतम बुद्ध के दर्शन को आया। वह उनका बड़ा भक्‍त था और पहली दफा उनके दर्शन को आया था। उसके एक हाथ में, बाएं हाथ में एक सुंदर स्वर्ण—आभूषण था, बहुमूल्य आभूषण था, जिसमें हीरे—जवाहरात जड़े थे। सम्राट

के पास यह सबसे बहुमूल्य चीज थी, एक दुर्लभ कलाकृति थी। वह इसे बुद्ध को उनके प्रति अपनी भक्‍ति के रूप में भेंट करने लाया था। वह बुद्ध के निकट आया। उसके बाएं हाथ में वह बहुमूल्य रत्नजडित आभूषण था। जैसे ही उसने उसे बुद्ध को भेंट करने को आगे बढ़ाया, बुद्ध ने कहा : गिरा दो! सम्राट तो हैरान रह गया, उसे इसकी अपेक्षा नहीं थी। उसे बड़ा आघात लगा। लेकिन जब बुद्ध ने कहा कि गिरा दो तो उसने गिरा दिया।

सम्राट के दूसरे हाथ में, दाहिने हाथ में एक सुंदर गुलाब का फूल था। उसने सोचा था कि शायद बुद्ध को हीरे—जवाहरात न भाएं; शायद वे इसे लाना मेरा बचकानापन समझें। इसलिए वह एक दूसरी चीज भी ले आया था, वह गुलाब का सुंदर फूल ले आया था। गुलाब उतना स्थूल नहीं है, पार्थिव नहीं है, उसमें एक आध्यात्मिकता है, उसमें अज्ञात की कुछ झलक है। उसने सोचा था कि बुद्ध इसे पसंद करेंगे, क्योंकि वे कहते हैं कि जीवन प्रवाह है। यह फूल सुबह है और सांझ मुरझा जाता है। फूल संसार में सबसे प्रवाह मान घटना है। तो उसने वह भेंट करने के लिए अपना दाहिना हाथ बुद्ध की तरफ बढ़ाया। बुद्ध ने फिर कहा : गिरा दो! तब तो सम्राट और भी परेशान हो गया। अब उसके पास भेंट देने को और कुछ नहीं था। लेकिन जब बुद्ध ने कहा कि गिरा दो तो उसने फूल भी गिरा दिया।

तभी सम्राट को अचानक अपने मैं का स्मरण आया। उसने सोचा कि वस्तुएं भेंट करने से क्या; मैं स्वयं को ही क्यों न भेंट कर दूं! इस बोध के साथ खाली हाथों वह बुद्ध के सम्मुख झुक गया। लेकिन बुद्ध ने फिर कहा गिरा दो! अब तो गिराने को भी कुछ न था; और बुद्ध ने कहा, गिरा दो! महाकाश्यप, सारिपुत्त, आनंद तथा अन्य शिष्य, जो वहां मौजूद थे, हंसने लगे। और सम्राट को बोध हुआ कि यह कहना भी कि मैं अपने को भेंट करता हूं अहंकारपूर्ण है। यह कहना भी कि मैं अब अपने को समर्पित करता हूं समर्पण नहीं है। तब वह स्वयं ही गिर पड़ा। बुद्ध हंसे और बोले तुम्हारी समझ अच्छी है।

जब तक तुम समर्पण के खयाल को भी नहीं गिरा देते, जब तक तुम खाली हाथों के खयाल को भी नहीं विदा हो जाने देते, तब तक समर्पण नहीं घटित होता है। चीजों का छोड़ना तो आसानी से समझा जा सकता है; लेकिन खाली हाथों के लिए भी बुद्ध ने कहा कि इसे भी गिरा दो, इस खालीपन को भी मत पकड़ो।

जब तुम ध्यान करते हो तो तुम विचारों को छोड़ देते हो। जब विचार समाप्त हो जाते हैं तो भी एक विचार बना रहता है और वह विचार है कि मैं अब निर्विचार हो गया। एक सूक्ष्म भाव, एक सूक्ष्म विचार बना रहता है कि अब मैंने पा लिया और अब विचार न रहे, मन खाली हो गया, अब मैं शून्य हो गया। लेकिन यह शून्य इस विचार से भरा है। और इससे फर्क नहीं पड़ता कि मन में अनेक विचार हैं या एक ही विचार है। उस विचार को भी गिरा दो।

और तुम बुद्ध—स्वभाव की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हो?

तुम प्रतीक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि तुम तब नहीं रहोगे। बुद्धत्व से तुम्हारा मिलन कभी नहीं होगा। जब बुद्धत्व घटित होगा तो तुम नहीं होगे। इसलिए तुम्हारी आशाएं व्यर्थ हैं। तुम समय गंवा रहे हो; तब तुम नहीं रहोगे।

कबीर ने कहा है : जब मैं था तब हरि नहीं; अब हरि हैं मैं नाहिं। अब तुम हो तो कबीर कहा है? जब मैं तुम्हारी कामना करता था, जब मैं तुम्हें खोजता था, तब मैं तो था, लेकिन तुम

नहीं थे। अब तुम तो हो, लेकिन बताओ कि कबीर कहां गया? वह साधक कहां है जो तुम्हारे लिए भूख—प्यास से भरा था, जो तुम्हें खोजता था, जो तुम्हारे लिए रोता—धोता था? वह कबीर कहां गया?

जब बुद्धत्व घटित होगा तब तुम नहीं होगे। इसलिए प्रतीक्षा मत करो, चाह मत करो। क्योंकि यह चाह कि मैं कब बुद्धत्व को उपलब्ध होऊंगा, कब मुझे बुद्ध स्वभाव प्राप्त होगा, कब मैं ज्ञान को उपलब्ध होऊंगा, यह चाह ही बाधा बन जाएगी। यह अंतिम बाधा है। पूर्ण मुक्ति की प्राप्ति में मुक्ति की कामना अंतिम बाधा है। ज्ञानोपलब्ध होने के लिए ज्ञानोपलब्धि की कामना को भी छोड़ना होगा, गिरा देना होगा।

एक बडा झेन सदगुरु लिंची कहा करता था : अगर तुम्हें कहीं बुद्ध मिल जाएं तो उन्हें तुरंत मार डालना। अगर तुम्हारे ध्यान में कहीं बुद्ध मिल जाएं तो उन्हें तुरंत खतम कर देना। और लिंची कोई मजाक नहीं कर रहा था; वह बड़े महत्व की बात कह रहा था। उसका मतलब था कि अगर कहीं तुम्हारे भीतर बुद्ध होने की, ज्ञानी होने की चाह दिखाई पड़ जाए तो उस चाह को भी मिटा डालो। तो ही बुद्धत्व घटित होता है। परिपूर्ण अचाह, परिपूर्ण निर्वासना जरूरी है। और जब मैं परिपूर्ण अचाह कहता हूं तो उसका मतलब है कि अचाह की चाह को भी छोड़ना होगा। जब तुम्हें कोई चाह न रही, जब कोई विचार नहीं हैं, जब तुम्हें यह बोध भी न रहा कि विचार नहीं है, चाह नहीं है, तब बुद्धत्व घटित होता है।

अंतिम प्रश्न :

 

तीव्र रेचन के न होने के संभव कारण क्या हैं? मुझे सदा, आज के शक्‍तिपात ध्यान में भी, बहुत मंद रेचन ही होता है। क्या इसका यही अर्थ है कि मैं खुला नहीं हूं, पर्याप्त खुला नहीं हूं? या इसके दूसरे कारण भी संभव हैं? इस बात के बाबत मेरी चिंता ध्यान के समय, और ध्यान के बाद भी, मेरे लिए बाधा बन जाती है।

स संबंध में पहली चीज यह स्मरण रखने योग्य है कि रेचन तभी गहरा होगा जब तुम उसे होने दोगे, जब तुम उसके साथ सहयोग करोगे। मन इतना दमित है, तुमने चीजों को इतने गहरे तलघरों में धकेल रखा है कि उन तक पहुंचने के लिए तुम्हारा सहयोग जरूरी है। इसलिए जब तुम्हें हलका सा भी रेचन होने लगे तो उसे तीव्र बनने में सहयोग दो। केवल प्रतीक्षा ही मत करो। अगर तुम्हें लगे कि तुम्हारे हाथ कांप रहे हैं तो सिर्फ इंतजार में मत रहो, उन्हें ज्यादा कांपने में सहयोग दो। ऐसा मत सोचो कि तीव्र रेचन अपने आप ही होगा, सिर्फ प्रतीक्षा करनी है। उसके अपने आप होने के लिए तुम्हें वर्षों प्रतीक्षा करनी होगी, क्योंकि वर्षों तुमने दमन किया है। और वह दमन सहज नहीं था; तुमने किसी प्रयोजन से दमन किया था।

तो अब तुम्हें उलटा चलना होगा; तभी दमित तत्व उभरकर सतह पर आएंगे। तुम्हें रोने का मन होता है, तुम धीमे— धीमे रोना शुरू करते हो, फिर उसे बढ़ाते जाओ, जोर से चीखो—चिल्लाओ।

तुम्हें पता नहीं है कि आरंभ से ही तुम अपने रोने को दबाते आए हो। तुम कथा ठीक से नहीं रोए। शुरू से ही बच्चा रोना चाहता है, हंसना चाहता है। रोना उसकी एक गहरी

जरूरत है। रोकर वह रोज—रोज अपना रेचन कर लेता है। बच्चे की भी अपनी विफलताएं हैं, निराशाएं है। यह अनिवार्य है; और वह किसी जरूरत से है। बच्‍चा कुछ चाहता है, लेकिन वह बता नहीं सकता कि क्या चाहता है। वह अपनी जरूरत को व्यक्‍त नहीं कर पाता है। वह कुछ चाहता है, लेकिन हो सकता है उसके मां—बाप उसकी वह इच्छा पूरी करने की स्थिति में न हों। हो सकता है, मां वहां मौजूद न हो, वह किसी काम में व्यस्त हो। बच्चा उपेक्षित अनुभव करता है; क्योंकि कोई उस पर ध्यान नहीं दे रहा है। वह रोने लगता है।

तब मां उसे चुप कराने लगती है, सांत्वना देती है; क्योंकि उसके रोने से अड़चन होती है। पिता को भी अड़चन होती है। पूरा परिवार उपद्रव अनुभव करता है। कोई नहीं चाहता है कि बच्चा रोए; क्योंकि रोना एक उपद्रव है। हरेक व्यक्ति उसे बहलाता है, उसे चुप कराता है। हम उसे रिश्वत दे सकते हैं। मां उसे खिलौना दे सकती है, दूध दे सकती है, कुछ भी दे सकती है, जिससे बच्चे का बहलाव हो, उसे सांत्वना मिले—पर वह रोए नहीं।

लेकिन रोना एक गहन आवश्यकता है। अगर बच्चा रो ले, अगर उसे रोने दिया जाए तो वह फिर से ताजा हो जाएगा। रोने से कुंठा बह जाती है, उसका दंश निकल जाता है। अन्यथा दमित आंसुओ के साथ कुंठा भी दमित हो जाती है, दबी रह जाती है। अब बच्चा इकट्ठा करता जाएगा। और तुम दमित आंसुओ का एक ढेर हो जाते हो।

अब मनस्विद कहते हैं कि तुम्हें एक आदिम चीख, प्राइमल स्कीम की जरूरत है। अब तो पश्चिम में एक चिकित्सा पद्धति विकसित हो रही है जो तुम्हें इतनी समग्रता से चीखना सिखाती है कि उसमें तुम्हारे शरीर का रोआं—रोआं चीखने लगता है। अगर तुम इस पागलपन के साथ रो सको कि उसमें तुम्हारा सारा शरीर रो उठे तो तुम्हारा बहुत दुख, बहुत संताप मिट जाएगा, जो न मालूम कब से इकट्ठा था। और तब तुम फिर बच्चे की भांति ताजा और निर्दोष हो जाओगे।

लेकिन वह आदिम चीख अचानक नहीं आने को है, तुम्हें उसे सहयोग देना होगा। वह चीख इतनी गहराई में दब गई है, उसके ऊपर दमन की इतनी पर्तें पड़ी हैं कि केवल प्रतीक्षा करने से काम नहीं चलेगा। उसे सहयोग दो। जब तुम रोना चाहो तो दिल खोलकर रोओ। रोने में अपनी सारी ऊर्जा लगा दो और रोने का मजा लो, रोने का सुख लो। सहयोग दो; और दूसरी बात कि रोने का सुख लो।

अगर तुम अपने रोने का मजा नहीं ले सकते तो तुम उसमें गहरे नहीं उतर सकते हो। तब रोना सतह पर ही रह जाएगा। अगर तुम रो रहे हो तो ठीक से रोओ; रोने का मजा लो, उसे अच्छे से जीओ। अगर तुम्हारे मन में कहीं भी यह भाव है कि जो मैं कर रहा हूं वह अच्छा नहीं है, दूसरे लोग क्या कहेंगे, यह बिलकुल बचकाना काम है, ऐसा थोड़ा भी भाव दमन बन जाएगा। रोने का सुख लो और खेल की तरह लो। सुख लो और गैर—गंभीर रहो।

रोते समय इस बात पर ध्यान दो कि उसे कैसे ज्यादा से ज्यादा गहराया जाए, उसे तीव्र करने के लिए क्या किया जाए। अगर तुम बैठकर रो रहे हो तो हो सकता है कि उठकर उछलने—कूदने से रोना तीव्र और सघन हो जाए। या अगर तुम जमीन पर लेटकर हाथ—पाँव मारने लगो तो उससे भी रोना गहरा सकता है।

तो प्रयोग करो और सहयोग करो और सुख लो। और तब तुम्हें मालूम होगा कि उसके गहराने के अनेक रास्ते हैं। उसे गहराते हुए भी मजा लो, सुख अनुभव करो।

और एक बार जब रोना तुम्हें पूरी तरह पकड़ लेगा तो फिर तुम्हारी जरूरत न रहगी। जब वह उस सही स्‍त्रोत को पा लेगा, जहां ऊर्जा छिपी है, जब तुम सही स्‍त्रोत को छू लोगे और ऊर्जा मुक्‍त हो जाएगी तो फिर तुम्‍हारी जरूरत न रहेगी। तब तुम अपने ही आप और सहजता

से बहोगे। और जब यह बहाव सहजता से अपने आप बहता है तो तुम्हें पूरी तरह धो देता है, स्वच्छ कर जाता है। जैसे वर्षा में फूल धुल जाते हैं। वे फिर नए हो जाते हैं। उन पर पड़ी धूल का कण—कण बह जाता है; फूल अपने सौंदर्य में निखर जाते हैं।

जीवन में हम बहुत धूल जमा करते हैं। रेचन स्नान जैसा है। उसको सहयोग दो। उसका आनंद लो। और तब एक दिन वह आदिम चीख आ जाएगी। प्रयोग करते जाओ। इसकी भविष्‍यवाणी नहीं की जा सकती कि वह कब आएगी। वह आदिम चीख कब आएगी, नहीं कहा जा सकता; क्योंकि मनुष्य बहुत जटिल है। वह इसी क्षण भी घटित हो सकती है; और वर्षों भी लग सकते हैं। एक बात निश्चित है कि अगर तुम सहयोग करोगे, सुख लोगे और गैर—गंभीर रहोगे, तो वह अवश्य आएगी।

आज इतना ही।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–16)

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रसरूप भगवत्‍ता—(प्रवचन—सोहलवां)

प्यारे ओशो!

आपने उस दिन कहा कि ‘रसो वै सः’ —कि वह रस—रूप है।

परमात्मा की यह परिभाषा मुझे सब से बढ़कर भाती है।

तैत्तिरीय उपनिषद् का वह पूरा श्लोक इस प्रकार है :

रसों वै सः।

रसं ह्येवायं लथ्यानन्दी भवति। को ह्येवान्यात् व्य प्राण्यात्।

यदव आकाश आनन्दो न स्यात्। एव ह्येवानन्दयाति।

भगवान रस—रूप है। उसी रस को पाकर प्राणी—मात्र आनंद का अनुभव करता है। यदि वह आकाश की भांति सर्व—व्यापक आनंदमय तत्त्व न होता, तो कोन जीवित रहता और कोन प्राणों की चेष्टा करता?

वास्तव में वही तत्त्व सबके आनंद का मूलस्रोत है।

प्यारे ओशो! हमें इसका पूरा आशय समझाने की अनुकम्पा करें।

 

हजानंद! यह परिभाषा अपूर्व है। मनुष्य जाति के समग्र इतिहास में इसके जोड़ की कोई परिभाषा नहीं है। ऐसे तो परमात्मा की भाषा हो नहीं सकती, लेकिन करनी ही हो, करनी ही पड़े, तो इस परिभाषा से श्रेष्ठतर परिभाषा की कोई संभावना नहीं है। लेकिन इसे समझना आसान नहीं है। एक—एक शब्द को बहुत गौर से समझना पड़े।

पहले तो ‘ र स ‘। दुनिया की किसी भाषा में इसका ठीक—ठीक रूपांतरण नहीं किया जा सकता। रूपांतरण करते ही बात विकृत हो जाती है। क्योंकि जिन्होंने इस शब्द को जन्म दिया होगा, उन्होंने अनुभव का निचोड़ इसमें भरा है। यह सामान्य शब्द नहीं है; अनुभूतिजन्य है। इस छोटे से शब्द में अनुभव का सागर समाया हुआ है। इस बूंद में सिंधु है। इस बूंद को कोई समझ ले, तो सारे सागरों का रहस्य समझ में आ जाये।

इस शब्द के बहुत पहलू हैं। पहला पहलू तो है कि रस का अर्थ होता है—जो सदा प्रवाहमान है, जो बह रहा है। वह गति, गत्यात्मकता ‘रस’ शब्द से सूचित होती है।

जो चीज ठहरी, वह मरी। जो बहती रहा, वह जीवित रही। जल तो वही है, जो हौज में भरा होता है! और कुएं में भी। शायद उसी कुएं का जल हो। लेकिन हौज का जल मृत है, उसमें प्रवाह नहीं है। वह रस नहीं है।

कुएं का जल प्रवाहमान है। उसमें झरने हैं। उसमें स्रोत हैं। उसमें गति है। वह अनंत—अनंत सागर से जुड़ा है। परोक्ष में दूर—दूर झर—झरकर पानी उस तक पहुंच रहा है। वह तो सिर्फ झरोखा है। जिसमें से सागर झांका है। और सागर भी ऐसा होकर झांका है कि अब पीया जा सकता है। सागर से पानी न पी सकोगे। पीओगे तो मृत्यु हो जायेगी। सागर को पृथ्वी की बहुत सी तलों से गुजरना पड़ता है, तब कहीं पीने योग्य हो पाता है। तब कहीं हम उसे अपना जीवन बना सकते हैं। और पानी के बिना कोई जीवन नहीं है। आदमी के शरीर में अस्सी प्रतिशत तो पानी ही है।

—कुएं का पानी तुम पी सकोगे; वह तुम्हारे पचाने योग्य हो गया। पृथ्वी ने उसे शुद्ध किया, निर्मल किया। झर—झरकर निर्मल हुआ है। बह—बहकर निर्मल हुआ है। हौज में तो सड़ जायेगा; कुएं में नहीं सडता है। देखने में दोनों में एक जैसा लगता है।

जब कोई बुद्धपुरुष जीवित होता है, तो उसके भीतर धर्म रस—रूप होता है। जैसे कुएं में जल। जैसे सरिता का जल। और जब कोई बुद्धपुरुष विदा हो जाता है, तो पण्डितों के पास उसके शब्द छूट जाते हैं—जैसे हौज में भरा जल, जैसे डबरों में भरा जल। जिनके कोई झरने नहीं होते। जल तो वही। देखने में बिलकुल वहां, फिर भी वही नहीं। बुद्धपुरुष को तुम आत्मसात कर सकते हो, उसे पी सकते हो, उसे पचा सकते हो। इसलिए जीसस ने अनूठे वचन कहे हैं।

अंतिम विदाई में जीसस ने अपने शिष्यों के लिए भोज दिया। वह बड़ा प्रतीकात्मक है. ‘अंतिम— भोज’। उस भोज में जीसस ने अपने शिष्यों को कहा, ‘इस भोजन को तुम साधारण भोजन मत समझना। यह मेरा मास है, मेरी मज्जा है। इस शराब को तुम साधारण शराब मत समझना; यह मेरा खून है। मुझे खाओ, मुझे पीओ, मुझे पचाओ।’

बड़े अजीब से शब्द हैं, लेकिन बड़े गहरे। जीसस यह कह रहे हैं कि तुम सिर्फ मेरे अनुयायी बनकर मत रह जाना, नहीं तो चूक जाओगे। तुम मेरे शब्दों के धनी बनकर मत रह जाना, नहीं तो भटक जाओगे। तुम्हारे भीतर भी वही चैतन्य आविर्भूत होना चाहिए, जो मेरे भीतर हुआ। वही ज्योति जलनी चाहिए, जो मेरे भीतर जली। और ऐसा तो तब होगा, जब शिष्य अपने गुरु को पचाने को राजी हो जाता है।

विद्यार्थी पचाता नहीं; विद्यार्थी तो याद करता है। विद्यार्थी अंततः पण्डित बन जायेगा। शिष्य पचाता है, पचाता है—पीता है। लीन करता है अपने में। और जब भोजन पच जाता है, तो तुम्हारा हो जाता है। अब तुम कैसे पता लगाओगे कि तुम्हारा खून कहां से आया—दूध से आया, सब्जी से आया, फल से आया—कहां से आया! अब तो पता लगाना भी मुश्किल है। खून—तुम्हारा खून है। हड्डी—तुम्हारी हड्डी है। मज्जा—तुम्हारी मज्जा है। लेकिन जो अनपचा रह जाये, तो रुग्ण कर देगा।

पण्डित रुग्ण होता है। उसके भीतर अनपचा भोजन पड़ा है। बहुमूल्य भोजन—मगर अनपचा। लेकिन ठंडा हो गया भोजन! शास्त्रों में धर्म ठण्डा हो जाता है, पचाने ‘योग्य नहीं रह जाता। उसकी ऊर्जा भी खो जाती है, ऊष्मा भी खो जाती है। उसकी श्वासें भी कब की टूट चुकीं। मृत लाश है! वैसी ही लगती है, जैसे जीवित बुद्धपुरुष लगते थे। बस देखने में वैसी लगती है, लेकिन कुछ कमी है। और कुछ क्या—सभी कुछ कम है, आत्मा ही नहीं है। पिंजड़ा पड़ा है; आत्मा तो उड़ गयी।

धर्म रस है। लेकिन कोई झरोखा चाहिए, जिससे तुम झांक सको। कोई झरना चाहिए, जिससे तुम पी सको। शब्द काम नहीं देंगे। शास्त्र काम नहीं देंगे। जानकारी और ज्ञान काम नहीं देगा। ध्यान ही काम दे सकता है। क्योंकि ध्यान से स्वाद मिलता है।

रस का दूसरा पहलू : रस का अर्थ है, जिसका स्वाद लिया जा सके। तुम शब्द तो सुनते हो मगर उनका स्वाद कहां? जैसे ‘ईश्वर’ शब्द तुमने सुना। कोई स्वाद आता है तुम्हें! तुम्हें बिलकुल स्वाद नहीं आता।’ईश्वर’ शब्द कान में भनभनाता है; एक कान में गूंजता है, दूसरे से निकल जाता है। तुम्हारे भीतर कोई हलन—चलन नहीं होती। कोई गति नहीं होती। कोई रस नहीं बहता। तुम मस्त नहीं हो जाते। तुम डोलने नहीं लगते।

यूं ही जैसे कोई ‘शराब’ शब्द को सुने, तो क्या मस्त हो जायेगा? पिये —तो मस्त होगा। पिये—तों झूमेगा। पिये —तो गायेगा। पिये—तों नाचेगा। शराब उसके रग—रेशे में दौड़े, तो उसका रोआं—रोआं जाहिर करेगा कि कुछ भीतर घट रहा है, कोई क्रांति हो रही है।

धर्म रस है अर्थात् उसका स्वाद लेना होता है। खोपड़ी में भर लेने से स्वाद नहीं आता। स्वाद तो अनुभव से आता है। तुम लाख चर्चा सुनो मिठाई की, लेकिन कभी तुमने मीठा न चखा हो, तो चर्चा से क्या होगा! मीठा शब्द याद हो जायेगा, लेकिन शब्द में कुछ अर्थ नहीं होगा। तुम्हारे लिये नहीं होगा अर्थ, अर्थ उनके लिए ही होगा जिन्होंने चखा है।

शब्दों का एक खतरा है। शब्दों से यह भ्रांति पैदा हो सकती है कि मैं समझ गया। जब शब्द समझ में आ गया, तो हम सोचते हैं : बात समझ में आ गयी। मगर शब्द समझ में आने से कुछ समझ में नहीं आता।

‘प्रेम’ शब्द तुम जानते हो; खूब जानते हो। सुबह से शाम तक प्रेम की चर्चा करते हो। सारी पृथ्वी पर प्रेम ही प्रेम चल रहा है! पति पत्नी को प्रेम कर रहा है। पत्नी पति को प्रेम कर रही है। मां—बाप बच्चों को प्रेम कर रहे हैं। बच्चे मां—बाप को प्रेम कर रहे हैं—और फिर भी पृथ्वी पर इतना अप्रेम है, इतनी घृणा है; इतना वैमनस्य है, इतनी शत्रुता है कि सब एक दूसरे की जान के ग्राहक बने बैठे हैं! सब एक दूसरे की गर्दन पर तलवारें टिकाये हुए हैं। जिसको मौका मिल जाये, वही गर्दन काट देगा!

यह मामला क्या है! यह तमाशा क्या है? इतना प्रेम दिया जा रहा है, लिया जा रहा है और परिणाम में सिवाय युद्धों के कुछ नहीं लगता! तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध लड़े गये हैं! यह तुम्हारा अतीत है! ये तुम्हारे सतयुग, स्वर्णयुग, रामराज्य की कथाएं हैं!

इस अतीत को तुम गुणगान गाते थकते नहीं! ये तुम्हारे स्वर्णशिखर हैं! ये तुमने आकाश छुए हैं!

तीन हजार साल में पांच हजार युद्ध! जैसे आदमी लड़ता ही रहा—लड़ता ही रहा! और सारे प्रेम का क्या हुआ? क्योंकि एक व्यक्ति पति भी होता है, बेटा भी होता है, पिता भी होता है, भाई भी होता है, काका भी होता है, मौसा भी होता है, मामा भी होता है—कितना नहीं होता! रिश्ते ही रिश्ते हैं। उसको कितना प्रेम मिलता है? इतना सारा प्रेम जानने के बाद फल तो बड़े कड़वे लगते ??

और प्रेम की कविताएं, और प्रेम के गीत, और प्रेम के शास्त्र! ही तुम प्रेम पर बोलना चाहो तो खूब बोल सकते हो। मगर प्रेम का तुम्हें कुछ अनुभव नहीं। अनुभव नही—तो अर्थ भी नहीं।

ऐसा समझो कि अनुभव से अर्थ आता है; शब्दों की जानकारी से अर्थ नहीं आता। जिस दिन अंधे की आंख खुलती है, उस दिन वह जानता है : प्रकाश क्या है। इसके पहले लाख तुमने समझाया हो, और लाख उसने समझा हो…..। अंधों की अलग किताबें होती हैं, बेल—लिपि में लिखी हुई। उन पर उंगलियां फेर—फेरकर उसने पढ़ लिया हो; प्रकाश के संबंध में सारी जानकारी, सारे सिद्धांत, सारा भौतिक शास्त्र—जों—जों कहता है, अब तक विज्ञान ने जो खोजा है प्रकाश के संबंध में—कि प्रकाश की गति इतनी होती है. एक सैकेंड में एक लाख छियासी हजार मील! कि प्रकाश शुभ्र रंग का होता है! लेकिन अगर उसे स्पैक्ट्रम से गुजारा जाये, तो वह सात रंगों में टूट जाता है, उससे इंद्रधनुष बन जाते हैं। यह सब पढ़ सकता है अंधा बेल—लिपि में। और न पढ़ सकता हो, तो तुम समझा सकते हो, पढ़ —पढ़कर तुम बता सकते हो।

और ध्यान रखना अंधा सुनने में बहुत कुशल होता है—स्वभावत! उसके पास आंखें तो होती नहीं, तो आंखों से जो ऊर्जा व्यय होती थी, वह सब की सब कानों को मिल जाती है। इसलिए अंधे अच्छे संगीतज्ञ होते, अच्छे गायक होते हैं। उनकी ध्वनि पर पकड़ गहरी होती है।

आंख से आदमी की अस्सी प्रतिशत ऊर्जा व्यय होती है। अस्सी प्रतिशत! बाकी तुम्हारी चार इंद्रियों को केवल बीस प्रतिशत ऊर्जा मिलती है। इसलिए तो बहरे को देखकर दया नहीं आती; वैसी दया नहीं आती, जैसी दया अंधे को देखकर आती है। तुम्हारे पास बहरे के लिये कोई समादर —सूचक शब्द नहीं है। लेकिन अंधे को तुम कहते हो—’सूरदासजी!’ लंगड़े को लंगड़ा ही कहते हो; लंगड़ा जी भी नहीं कहते! बहरे को बहरा ही कहते हो; बहराजी भी नहीं कहते! लेकिन अंधे को सूरदासजी कहते हो। क्यों?

अंधे पर बड़ी दया आती है। दया आने जैसी बात है। क्योंकि उसका अस्सी प्रतिशत जीवन कट गया। वह केवल बीस प्रतिशत से जी रहा है। वह केवल अपने जीवन का पंचमांश जी रहा है। यूं समझो कि न जीने के बराबर जी रहा है। आंख ही नहीं तो क्या जीवन! न रंग है, न रूप है, न सौंदर्य है। तुम कल्पना नहीं कर सकते कि रंग, रूप और सौंदर्य के न हो जाने पर तुम्हारे जीवन पर परदा गिर जाता है। बचता ही क्या है! लेकिन इसका एक परिणाम होता है कि यह अस्सी प्रतिशत ऊर्जा जो बचती है, आंख की, वह कान को मिल जाती है। कान आंख के सबसे करीब है; नम्बर दो।

तो अंधा सुनता बहुत गहराई से है। उसकी स्मृति बहुत मजबूत होती है गहराई की; भूलता ही नहीं। एक दफा सुन लेता है, तो भूलता नहीं। उसकी सुनने के संबंध में संवेदनशीलता बड़ी गहन होती है। जैसे तुम आदमी को उसके चेहरे से पहचानते हो, अंधा तो चेहरे से नहीं पहचान सकता। वह उसकी पग— ध्वनि तक को पहचानने लगता है। अंधा जानता है—कोन आ रहा है। वह अपने मित्रों के पैरों की आवाज पहचानता है। तुमने कभी खयाल ही नहीं किया होगा कि आदमी आदमी के पैरों की आवाज में भी फर्क होता है। मगर अंधे को होता है फर्क। स्वभावत: क्योंकि उसको तो और कोई पहचान बची नहीं।

इसलिए अंधे को तुम समझाओ, तो वह समझने में कुशल होता है। शब्दों को तो वह कान से सुन लेता है, और स्मृति में समा जाते हैं। मगर प्रकाश का अनुभव कैसे होगा?

और प्रकाश का अर्थ अंधे के लिए क्या हो सकता है! कुछ भी नहीं हो सकता। प्रकाश तो दूर, अंधे ने अंधेरा भी नहीं देखा है। आमतोर से तुम सोचते हो कि अंधा बेचारा अंधेरे में रहता होगा। तुम इस गलती में मत पड़ना। अंधेरा देखने के लिए भी आंख चाहिए। आंख के बिना अंधेरा भी नहीं देखा जा सकता। जब प्रकाश नहीं देखा जा सकता, तो अंधेरा कैसे देखोगे?

तुम आंख बंद करते हो, तो अंधेरा दिखाई पड़ता है। लेकिन यह मत सोच लेना इससे, यह अनुमान मत लगा लेना कि बेचारा अंधा अंधेरे में रहता होगा। अंधे को अंधेरा भी कभी नहीं दिखाई पड़ा। आंख ही नहीं, दिखाई पड़ने का कोई सवाल ही नहीं उठता।

तो इसको तुम अंधेरा भी नहीं समझा सकते, प्रकाश तो क्या खाक समझाओगे! मगर शब्द इसे याद हो सकता है। और यह अंधा पण्डित हो सकता है शब्द के आधार पर। अंधों के सिवाय और कोई पण्डित होता ही नहीं। सभी पण्डित सूरदास होते हैं। पण्डित यानी अंधा।

गये थे समझने, गये थे हीरे लेने—बीन लाये कंकड़ पत्थर! गये थे अनुभव लेने—लें आये शब्द। और सोचा कि सम्पदा ले आये!

‘रस’ शब्द को खयाल में रखो। उसका अर्थ अनुभव, स्वाद।

सत्य तुम्हारे कंठ से उतरना चाहिए; तुम्हारी जीभ पर चखा जाना चहिए। सत्य की प्रतीति ऐद्रिक होनी चाहिए। यह रस का अर्थ है।

लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्मा तो इंद्रियों के विपरीत हैं। उनकी तो चेष्टा यह है कि सारी इंद्रियों को मार डालो। आंखें हों, तो फोड़ लो। यही तो उन्होंने सूरदास की कहानी में जोड दिया है। अगर यह कहानी सच है तो सूरदास मेरे लिए दो कोड़ी के हो गये। लेकिन मैं सोचता हूं कि यह कहानी सच नहीं हो सकती, क्योंकि सूरदास के पद इतने प्यारे हैं कि यह कहानी सच नहीं हो सकती, कि उन्होंने एक सुंदर स्त्री को देखकर आंखें फोड़ ली थीं, कि न रहेंगी आंखें और न बजेगी बांसुरी!

मगर आंखें बंद कर लेने से बांसुरी का बजना बंद नहीं होता; और जोर से बजती है! भनभनाकर बजती है! सुंदर स्त्री जा रही हो, आंख बंद कर लो, और भी सुंदर मालूम पड़ने लगेगी। इतनी सुंदर कोई स्त्री होती ही नहीं, जितनी आंख बंद कर लेने से सुंदर हो जाती है। वास्तविक स्त्री में तो क्या खाक सौंदर्य होता है! दो दिन में उड जायेगा! थोड़े से परिचय में तिरोहित हो जायेगा।

अब कितने ही लहराते बाल हों, नागिन से लहराते बाल हों तो भी क्या करोगे! कब तक सिर मारोगे! और नाक बिलकुल तोते जैसी हो, तो भी क्या करोगे! और रंग भी बहुत गोरा और चिट्टा हो, तो क्या करोगे! दो चार दिन में सब फीका हो जायेगा। दो—चार दिन में स्त्री के शरीर का पूरा भूगोल तुम पहचान लोगे, सब नाप—जोख कर लोगे, फिर बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे!

लेकिन अगर आंख बंद कर ली, तो न होगी कभी नाप—जोख, न कभी होगी पहचान—और गैर पहचान में मन कल्पना से भर जाता है। खूब कल्पना से भर जाता है। स्त्रियां इस सत्य को जानती हैं; सदियों से जानती हैं। इसलिये स्त्रियां उन—उन अंगों को छिपाकर रखती हैं, जिन अंगों के प्रति चाहती हैं कि तुम्हारे भीतर कल्पना जगे! जितनी छुपी स्त्री हो, उतनी ही तुम्हारी कल्पना को प्रज्जवलित करती है।

स्त्री की तो बात छोड दो, किसी खूसट बुढ्डे को भी तुम बुरके में उढाकर जरा रास्ते से निकाल दो! समझो—मोरारजी देसाई ही चले जा रहे हैं! बुरका ओढ़े हुए! तो लोगों की छातिया थम जायेंगी, हृदय की धड़कन बंद हो जायेंगी। दुकानें ठहर जायेंगी। लोग कहेंगे—जरा रुको! जरा देख तो लूं! लुच्चे—लफंगे पीछे लग जायेंगे! सीटियां बजने लगेंगी; फिल्मी गाने होने लगेंगे! देखो कैसी बांसुरिया बजती हैं। वह तो जब तक बुरका नहीं उघडेगा, तब तक उपद्रव बहुत फैल जायेगा। दंगा—फसाद हो सकता है! वह तो बुरका जब उघडेगा, तब

मैं गंगा के किनारे बैठा था अपने एक मित्र के साथ। एक व्यक्ति स्नान कर रहा था—सुंदर देह, लम्बे बाल। पीछे से यूं लगता था, जैसे कोई सुंदर स्त्री हो! वे मित्र बोले कि ‘मुझसे न रहा जायेगा। मैं देखकर आता हूं। जब देह में ऐसा सौष्ठव है, कोन जाने चेहरा भी सुंदर हो।’

मैंने कहा, ‘जाओ, जरूर देख आओ।’

वे गये। वहां से बिलकुल सिर पीटते लौटे। कहा, ‘हद्द हो गई, एक साधु महाराज नहा रहे हैं।’

उनके बड़े घुंघराले बाल थे। बाल पीछे उनके लटक रहे थे। और देह भी उनकी सुंदर थी। जब ये उनको देखकर लौटे—चेहरा, तब पता चला। अगर बैठे ही रहते, मुझसे उन्होंने ईमानदारी से न कहा होता, तो उस रात करवटें बदलते। विचार करते रहते। सपने में उतरते।’ और वह स्त्री कोन थी!’ और वहां कोई स्त्री थी ही नहीं। आंख बंद कर लोगे तो रूप नष्ट नहीं होता—और प्रगाढ़ हो जाता है। क्योंकि कल्पना को अवसर मिल जाता है। इसलिए स्त्रियां अपने को छिपाने की कला में निष्णात हो जाती हैं।

पश्चिम की स्त्रियां इतनी सुंदर नहीं मालूम होतीं, यद्यपि ज्यादा सुंदर हैं। इतनी सुंदर नहीं मालूम होतीं, जितनी पूरब की स्त्रियां मालूम होती हैं। उसका कुल राज इतना है कि पश्चिम की स्त्री ने एक पुराना हिसाब बंद कर दिया। उसने पुरानी चाल—बाजी बंद कर दी, जो संस्कृति और धर्म के नाम पर बडी होशियारी से थोपी गयी थी। उसने अपने शरीर को उघाड़ दिया है। वह सहज स्वाभाविक हो गई है। लाखों स्त्रियां नग्न स्नान कर रहीं हैं समुद्र तटों पर। कोई देखने के लिए भीड़ इकट्ठी नहीं होती। भीड़ इकट्ठी होती ही तब है, जब देखना मुश्किल हो।

भारत में जितने धक्के लगते हैं स्त्रियों को, दुनिया में कहीं नहीं लगते। धार्मिक देश है! पुण्य भूमि है! यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! वे भी इसलिए तरसते होंगे! कि थक गये उर्वशी और मेनका से। हेमा मालिनी को धक्का देना चाहते हैं। खबरें तो पहुंचती होंगी! कोई देवता भी ऐसा थोड़े ही कि अखबार न पढ़ते होंगे! थोड़ी देर से पहुंचते होंगे अखबार, पहुंचते तो होंगे ही। पढ़—पढ़कर उनके भी जी पर सांप लोट जाता होगा।

आंख बंद करने से नहीं कुछ होनेवाला है।

सूरदास ऐसी छूता नहीं कर सकते। लेकिन कहानी यही कहती है, और इसलिए कि सूरदास का सम्मान करती है। कि अद्भुत व्यक्ति थे, कि आंख फोड़ ली उन्होंने! इतने मूढ़ नहीं हो सकते। ऐसी मूढ़ता से ऐसे सुंदर पदों का जन्म नहीं हो सकता। ऐसे रसपूर्ण पद हैं कि रस का अनुभव हुआ ही होगा। नहीं तो यह रस कैसे बहेगा! यह रस कहीं न कहीं से आ रहा है। यह अंधे से नहीं आ सकता। यह तो बहुत संवेदनशील व्यक्ति से आ सकता है। और उन्होंने जैसा वर्णन किया है कृष्ण के सौंदर्य का, उससे प्रतीत होता है कि उनके सौंदर्य का बोध बडा प्रगाढ रहा होगा।

तुम्हारे धर्मों ने तुम्हारी इंद्रियों को मारने की कला सिखायी है। जिह्वा को मार डालो!

महात्मा गांधी अपने भोजन के साथ नीम की चटनी भी खाते थे। अब नीम की कोई चटनी होती है! तुमने कभी सुनी? मगर महात्मा जो न करें, सो थोडा! ऐसी ही चीजों से तो वे महात्मा होते हैं।

पश्चिम का एक विचारक लुई फिशर महात्मा गांधी पर एक किताब लिख रहा था, तो वह उनका निकट अध्ययन करने के लिए उनके आश्रम आया। महात्मा गांधी ने उसे अपने साथ भोजन के लिए बिठाया। और सब चीजें तो उसने देखीं, साथ में जब नीम की चटनी आयी’, उसने पूछा, ‘यह क्या है?’ तो महात्मा गांधी ने कहा, ‘जरा चखकर देखो!’ उसने चखी, तो जहर थी! उसने कहा, ‘हद्द हो गई। यह कोई भोजन है!’

महात्मा गांधी ने कहा कि ‘इसे करने से धीरे— धीरे स्वाद पर नियंत्रण आ जाता है। रोज—रोज इसको खाने से आदमी का स्वाद पर बल थिर हो जाता है। तुम स्वाद के गुलाम हो। आदमी को होना चाहिए स्वाद का मालिक। सात दिन तुम यहां रहोगे, अभ्यास करो।’ लुई फिशर तो बहुत घबड़ाया कि सात दिन यहां मैं टिक पाऊंगा इस नीम की चटनी के कारण! उसने यह सोचकर कि पूरा भोजन

खराब करने के बजाय यह बेहतर है कि इसको एक ही दफा पूरा का पूरा गोला गटककर पानी पी लूं फिर भोजन कर लूं ताकि झंझट एक ही दफे में खत्म हो जाये, नहीं तो पूरा भोजन खराब होगा!

उसने पूरा गोला गटक लिया। और महात्मा गांधी ने कहा कि ‘और लाओ। देखो कितनी पसंद पड़ी! अरे समझदार आदमी हो, तो उसको पसंद पड़ेगी ही!’

अब लुई फिशर यह भी न बोल सका कि पसंद नहीं पड़ी है। अब कैसे अपनी समझदारी को गंवाये! सो बैठा रहा मन मारे—और दूसरा गोला आ गया। उसने कहा, ‘अब आखिर में निपटाऊंगा इसको। पहले पूरा भोजन निपट लूं।’

एक गोले की जगह दो गोले मिलने लगे रोज उसको! वह अगर न खाये पहला गोला, तो गांधीजी कहें, ‘अरे भूले जा रहे हो! चटनी पहले।’ फिर दूसरा गोला आ जाये!

हर आश्रमवासी को नीम की चटनी अनिवार्य थी। ऐसे कहीं होगा, तो फिर कोई जाकर अस्पताल में….. जीभ कोई बड़ी भारी बात नहीं है। उसमें बहुत छोटे—छोटे संवेदनशील तंतु हैं, वे जल्दी से मर जाते हैं। नीम—वीम से कहां मार पाओगे! जिंदगीभर मारने में लग जायेगी। जाकर अपनी जीभ पर एसिड डलवा आओ। नहीं तो किसी प्लास्टिक सर्जन से कहना कि जरा ये छोटे—छोटे तंतु हैं, इनको साफ ही कर दो; काट ही डालो! फिर तुम्हें स्वाद ही न आयेगा—न मीठा न कडुवा! तुम हो गये जितेंद्रिय! फिर हुए तुम जैन! असली जैन! जिह्वा पर विजय हो गयी!

कहां के पुराने ढांचे—डरें में पड़े हुए हो; बैलगाड़ियों से सफर कर रहे हो! अस्पताल में चले जाओ, एक पांच मिनट का काम है; तुम्हारी जबान साफ कर दी जायेगी। तंतु ही बहुत थोड़े से हैं। और पूरी जीभ भी सारा अनुभव नहीं करती। जीभ पर भी तंतु बटे हुए हैं। किसी हिस्से पर कड़वे का अनुभव होता है, किसी हिस्से पर मीठे का। किसी हिस्से पर नमकीन का—अलग— अलग हिस्सों पर! जरा—सी तो जीभ है, लेकिन उसके बड़े संवेदनशील तंतु हैं। इनको मारने से तुम सोचते हो कि भोजन पर तुम्हारी विजय हो जायेगी! तो जीभ ही काट डालो! काटनेवाले लोग हुए हैं, जिन्होंने जीभ काट ली। वे योगी समझे गये!

कान फोड़ लो, क्योंकि संगीत है, कोयल की पुकार है। और ये सब खतरनाक चीजें हैं। कोयल की पुकार—तुम क्या सोचते हो, कोयल कोई भजन कर रही है! और हिंदी में भ्रांति होती है। क्योंकि हिंदी में ‘कोयल’ से ऐसा लगता है मादा पुकार रही है। मादा नहीं पुकारती। मादाएं तो सारी दुनियाभर की, चाहे किसी पशु—पक्षी की हों, आदमी की हों, जानवरों की हों, बहुत होशियार हैं। पुकार वगैरह नहीं देतीं! ‘कोयला’ —कोयल नहीं! यह कोयला पुकार रहा है। ये सज्जन पुकार रहे हैं! कोयल तो चुपचाप बैठी रहती है। ये ही पुकार मचाये रखते हैं; ये ही गुहारे मचाये रखते हैं। वह जो पपीहा पुकार रहा है, वह भी पुरुष है। वह जो ‘पी कहां…… कह रहा है. कहना चाहिए—’प्यारी कहां!’ मूरख है; भाषा का ज्ञान नहीं। अंट—शंट बोल रहा है।

मगर तुम सुन लेते हो। तुम्हें पता नहीं कि यह सब पुकार तो मची हुई है वही—महात्माओं के खिलाफ! यह प्रकृति—रस बह रहा है। तुम कान फोड़ लो अपने।

पक्षियों के गीत हैं, संगीत है—यह सब खतरनाक है। तुम्हारे महात्माओं की मानकर चलो, तो तुम अपनी इंद्रियों को धीरे— धीरे फोड़ते चले जाओ, तोड़ते चले जाओ।

अलग—अलग धर्मों ने अलग— अलग इंद्रियों को तोड्ने के उपाय खोजे हुए हैं। इस्लाम संगीत के खिलाफ है। क्योंकि संगीत कहीं न कहीं कामवासना से जुडा हुआ है। यह आकस्मिक नहीं है कि संगीत कामवासना से जुड़ा हुआ है, क्योंकि सारे पशु—पक्षियों की पुकारें और गीत कामवासना के ही अंग हैं। मनुष्य ने भी उनसे ही संगीत सीखा है।

वेश्यालयों में संगीत कोई अप्रासंगिक रूप से नहीं चलता है। दरबारों में राजाओं के जहां वैभव और विलास था, वहां संगीत की महफिलें जमी रहती थीं। जब से दरबार उखड गये, राजा न रहे, संगीत के प्राण भी निकल गये। संगीत में वह ऊंचाइयां न रहीं, क्योंकि खरीददार न रहे। अब फिल्मी संगीत बचा है, क्योंकि खरीददार भी तीसरी कोटि के हैं, इसलिए तीसरी कोटि का संगीत भी होगा। फिल्मी संगीत को तुम गाली मत दो। वह जनता का संगीत है! जनता पार्टी का! जनता की जितनी बुद्धि, सार्वजनिक जितनी अकल! वह जो शास्त्रीय संगीत था, वह दरबारी था। उसके लिए संस्कार चाहिए थे। उसके लिए वर्षों की साधना चाहिए थी। वर्षों की साधना के बाद भी मुश्किल से मिलता था।

भारत का अंतिम सम्राट बहादुर शाह कवि भी था। उसका कवि नाम था ‘जफर’ —बहादुर शाह जफर। मिर्जा गालिब से वह अपनी कविताओं में संशोधन करवाता था। गालिब उसके गुरु थे। और भी उसके गुरु थे। उर्दू शायरी में यह परंपरा है कि तुम क्या लिखोगे अपने आप! इतना लिखा जा चुका है! ऐसे—ऐसे बारीक और नाजुक खयाल बांधे जा चुके हैं कि किसी गुरु के पास बैठकर पहले समझो। और जरा से शब्दों के तालमेल से बहुत फर्क पड़ जाता है। तो वह सीख लिया करता था। उसने एक दिन मिर्जा गालिब को पूछा कि ‘ आप कितने गीत रोज लिख लेते हैं?’

मिर्जा गालिब ने कहा, ‘कितने गीत रोज! यह कोई मात्रा की बात है! अरे कभी तो महीनों बीत जाते हैं और एक गीत नहीं उतरता। और कभी बरसा भी हो जाती है। यह अपने हाथ में नहीं। यह तो किन्हीं क्षणों में झरोखा खुलता है। किसी अलौकिक जगत से किरण उतर आती है, तो उतर आती है। बंध जाती है, तो बंध जाती है। छूट जाती है—छूट जाती है। चूक जाती है—चूक जाती है! कभी तो आधा ही गीत बन पाता है, फिर आधा कभी पूरा नहीं होता—अपने हाथ में नहीं। प्रतीक्षा करनी होती है।’

जफर ने कहा, ‘अरे मैं तो जितने चाहूं उतने गीत लिख लूं। पाखाने में बैठे —बैठे मुझे गीत उतर आते हैं!’

गालिब तो हिम्मत के आदमी थे। गालिब ने कहा कि ‘महाराज, इसलिए आपके गीतों में से पाखाने की बदबू आती है!’

हिम्मतवर लोग थे। कोई अब बहादुर शाह सम्राट थे, इसलिए कोई गालिब छोड़ देंगे उनको, ऐसा नहीं था। कहा कि ‘ अब मैं समझा। अब मैं समझा राज! कभी— कभी मुझे भी बदबू आती थी आपके गीतों में. कि मामला क्या लिखते हो आप! कूड़ा—कर्कट! अब जो पाखाने में बैठकर लिखोगे, तो फिर ठीक ही है! कृपा करके ऐसा न करो।’

जफर को चोट भी लगी, और समझ में भी बात आयी। और इसके बाद ही जो जफर ने जो गीत लिखे— थोड़े से लिखे, मगर गजब के लिखे। वे फिर जैसे जफर ने नहीं लिखे, रस ही बहा।

रस का यह पहलू समझो। तुम्हारी इंद्रियां ज्यादा संवेदनशील होनी चाहिए। उनकी संवेदनशीलता पराकाष्ठा पर पहुंचनी चाहिए। आंख उतना देखे, जितना देख सकती है। रूप की तहों में उतर जाये; रूप की गहराईयों को छू ले। कान उतना सुने जितना सुन सकता है। संगीत की परतों और परतों में उतरता जाये; संगीत की तलहटी को खोज ले, ऐसी डुबकी मारे, क्योंकि मोती ऊपर नहीं फिरते—तिरते; गहरे में पड़े होते हैं।’जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ।’

और मैं तुम्हारे महात्माओं को मैं देखता हूं सब किनारे बैठे हैं! डर के मारे बैठे हैं कि कहीं डूब न जायें! धार गहरी न हो; कहीं बह न जायें— भयभीत, सिकुड़े हुए! किनारे पर, पकड़े बैठे हुए हैं अपने को। अपनी सारी इंद्रियों को तोड़ रहे हैं। क्योंकि भयभीत हैं कि कहीं इस इंद्रिय के जाल में न फंस जायें, उस इंद्रिय के जाल में न फंस जायें! इंद्रियों का जाल नहीं है। इंद्रियां तो तुम्हारी रस को ग्रहण करने की संभावनाएं हैं।

परमात्मा तो सब रूपों में छाया हुआ है। आंख अगर गहराई से देखेगी, तो हर रंग में उसका रंग है। कान अगर गहराई से सुनेंगे तो हर ध्वनि में उसकी ध्वनि है, उसका नाद है, ओंकार है—’इक ओंकार सतनाम!’ वह जगह—जगह सुनाई पड़ेगा। मगर बहुत गहरे सुनने की कला आनी चाहिए।

और तब स्वाद में भी वही मिलेगा। धन्य थे वे लोग, अद्भुत थे वे लोग, जिन उपनिषद् के ऋषियों ने कहा—’अन्न ब्रह्म!’ कि अन्न ब्रह्म है। ये लोग स्वाद के विपरीत नहीं हो सकते! जिन्होंने भोजन में भगवान को पा लिया हो, ये लोग स्वाद के विपरीत कैसे हो सकते हैं! जो अन्न को भी ब्रह्म कह सके, ये तुम्हारे तथाकथित महात्माओं से बड़े अलग लोग थे।

छूट गये सूत्र हमारे हाथ से कहीं। रास्ता कहीं भटक गया। कहीं बीच में हम और ही दिशाओं में निकल गये। हमने स्वास्थ्य का मार्ग छोड़ दिया; हमने रुग्ण होने की दिशा पकड़ ली। हम जीवन विरोधी हो गये। और जीवन परमात्मा है। अगर तुम स्पर्श की क्षमता में पूरे के पूरे प्रवीण हो जाओ, तो तुम जो छुओगे, उसी में परमात्मा का स्पर्श मिलेगा।

सारी इंद्रियां संवेदनशील होनी चाहिए। संवेदना पराकाष्ठा पर होनी चाहिए, तब तुम जानोगे कि वह रसरूप है।

तुम देखते हो, सहजानंद, तुमने जहां से भी इस सूत्र का हिंदी अनुवाद लिया होगा, वह अनुवाद किसी पण्डित ने किया है। वह अनुवाद किसी द्रष्टा का नहीं है। तुम फर्क देखो!

सूत्र है— ‘रसो वै सः।’सीधा—साधा अर्थ है : ‘वह रसरूप है।’ लेकिन अनुवाद में तुम देखते हो फर्क हो गया: ‘भगवान रसरूप है।’ ‘वह ‘तत्काल’ भगवान ‘ हो गया! ‘ वह! का मजा और।’ भगवान ‘ में बात बिगड़ गयी; वह न रही। क्योंकि भगवान का अर्थ हो गया—व्यक्ति।’वह’ तो निवैंयक्तिक सम्बोधन था।’ भगवान’ का अर्थ हो गया—राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर—व्यक्ति। व्यक्ति ही भगवान हो सकता है। जब भी हम ‘ भगवान’ शब्द का उपयोग करते हैं, तो वह व्यक्तिवाची हो जाता है।

कृष्ण को भगवान कहो—ठीक। बुद्ध को भगवान कहो—ठीक। ये व्यक्ति हैं। और इन व्यक्तियों ने रस पिया है। इन व्यक्तियों ने ‘वह’ पिया है, इसलिए इनको भगवान कह सकते हैं।’उसको’ जिसने पिया, वह भगवान। लेकिन उसको भगवान मत कहो। उसको भगवान कहने से आकार दे दिया, रूप दे दिया। और वह तो सभी आकारों में समाया हुआ है; निराकार है। वह तो निर्गुण .है, सगुण नहीं। वह तो सभी आकृतियों में है, इसलिए उसकी आकृति नहीं हो सकती।

‘भगवान’ कहा कि मुश्किल हो गयी शुरू। भगवान कहते ही तत्‍क्षण तुम्हारी धारणाएं जो भगवान की हैं—किसी के चतुर्भुजी भगवान हैं; किसी के त्रिमुखी भगवान हैं; किसी के भगवान के हजार हाथ हैं! किसी के भगवान का कोई रूप है; किसी के भगवान का कोई रूप है! किसी के भगवान गणेशजी हैं; हाथी की सूंड लगी हुई है! किसी के भगवान जी हनुमानजी हैं!

बंदर भी हंसते होंगे, कि हम ही भले, कि किसी आदमी की पूजा तो नहीं करते! ये आदमियों को क्या हो गया है! कि बंदरों की पूजा कर रहे हैं! हाथी भी चुपचाप मुस्कुराते होंगे कि ‘वाह’! हम ही भले, कि आदमी मिल जाये अकेले में, तो वे पटक ना दें उसको कि रास्ते पर लगा दें! हम किसी आदमी की पूजा नहीं करते! मगर यह हाथी रूपधारी गणेशजी की पूजा हो रही है! ‘जय गणेश, जय गणेश’ का गुंजार चल रहा है! गणेशोत्सव मनाये जा रहे हैं! आदमी अद्भुत है! वह कोई न कोई रूप देना चाहता है। कोई न कोई रंग भरना चाहता है।

तुम्हारा मन निराकार में जाने से डरता है।

जिसने यह भी अनुवाद किया होगा, वह निराकार से घबड़ाया हुआ है। और शायद उसे पता भी न हो कि उसने फर्क कर दिया।

’रसो वै सः ‘तो सीधा—साधा शब्द है। मैं तो संस्कृत जानता नहीं, मगर यह तो सीधी—सीधी बात है। इसके लिए कुछ संस्कृत जानने की जरूरत नहीं है। इसमें ‘ भगवान’ कहीं आता नहीं शब्द।’वह रसरूप है।’ यह सूत्र गजब का है। लेकिन जैसे ही तुमने कहा—’भगवान रस—रूप है’, बात बिगाड़ दी। भगवान कैसे रसरूप हो सकता है! भगवत्ता रसरूप हो सकती है। मगर ‘भगवत्ता’ फिर व्यक्ति से मुक्त हो गयी। इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं : भगवान तो हमने उन लोगों को कहा है, जिन्होंने भगवत्ता को चखा और अनुभव किया है। इसलिए बुद्ध को भगवान कहो—ठीक। महावीर को भगवान कहो—ठीक। जीसस को भगवान कहो—ठीक। कबीर को, नानक को भगवान कहो—ठीक। मगर उस विराट को मत सीमा में बाधो। उसमें तो सब बुद्ध खो जाते हैं, सब महावीर खो जाते हैं, सब कृष्ण और सब क्राइस्ट खो जाते हैं। वह तो अनंत है। ये तो सब उसकी किरणें हैं; एक—एक किरणें। तुम उसे किरणों में मत बांधो। उसकी कोई सीमा नहीं है।

इस समय पश्चिम में बहुत झगड़ा है कि परमात्मा को हम क्या मानें—स्त्री या पुरुष! क्योंकि स्त्रियों की बगावत चल रही है पश्चिम में। और ठीक बगावत चल रही है। अंग्रेजी में तो स्त्री और पुरुष के लिए अलग—अलग सर्वनाम हो जाता है। हिंदी में तो नहीं होता। इसलिए हिंदी में तो हमें सुविधा है।’वह रसरूप है ‘ —कोई अड़चन नहीं। लेकिन अंग्रेजी में ‘वह’ को क्या करोगे! अगर कहो— ‘ही’, तो वह पुरुष हो गया। अगर कहो— ‘शी’, तो वह स्त्री हो गया! अगर कहो— ‘इट’, तो वह वस्तु हो गया!

अब तक तो उसको ‘ही’ कहा जाता रहा है —पुरुषवाची।

मैंने सुना है .कि पिछला पोप जब मरा, तो उसके मरने के बाद एक अफवाह सारी दुनिया में उड़ गयी थी। पता नहीं तुम तक पहुंची या नहीं पहुंची! कि जब वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा, और उसने सेन्ट पीटर से कहा कि ‘जल्दी द्वार खोलो। जीवनभर की आकांक्षा तृप्त करनी है। परम पिता परमात्मा से मुझे मिला दो!’ पीटर ने सिर झुका लिया और कहा कि ‘सुनो, एक बात पहले खयाल में रखो। एक तो वह परम पिता नहीं है—परम माता है! और दूसरा गोरी नहीं है; काली है; नीग्रो है! इन दो की तैयारी रखो, फिर मिलवा देता हूं! नहीं तो एकदम तुम्हारी छाती टूट जायेगी देखकर!’

वहीं बैठ गये पोप महाराज दरवाजे पर। आंखें बंद कर लीं कि यह क्या हुआ! स्त्री—पहले ईश्वर, को मानना—और फिर वह भी नीग्रो! नीग्रो को तो घुसने न दें चर्च में।

प्रसिद्ध कहानी है कि एक नीग्रो चर्च में जाना चाहता था, तो उसने पादरी से प्रार्थना की। पादरी ने कहा कि ‘ भई, कुछ बुराई तो नहीं!’ क्योंकि पादरी को बोलना तो पड़ता है मीठी—मीठी बातें।’ अरे, उसके सामने तो सब बराबर हैं। क्या काला—क्या गोरा! मगर पहले पात्रता अर्जित करो—चर्च में आने से क्या होगा! पहले अपने को शुद्ध करो!’

पादरी ने सोचा, ‘कोन कब अपने को शुद्ध कर पाया! और ऐसी शर्तें बता दूंगा कि यह क्या, इसकी सात पीढ़ियां भी शुद्ध न हो पायें!’ तो कहा, ‘पहले कामवासना छोड़ो, लोभ छोड़ो, तृष्णा छोड़ो—सब छोड—छाड़कर—अहंकार विसर्जित करो—फिर आओ।

ये शर्तें किसी सफेद चमडीवाले के लिए नहीं लगायी थीं कभी उसने। यह पात्रता सफेद चमडीवाले से नहीं मांगी जाती थी। यह सफेद चमडीवालों का ही चर्च था। मगर पादरी सीधा नहीं कह सकता था। आखिर पादरी को तो अच्छी बातें कहनी चाहिए; मीठी—मीठी; सबसे! उसको सबके प्रति दयाभाव दिखलाना चाहिए। मगर पीछे तो राजनीति चलती है—वही की वही। काले और गोरे का भेद बना ही रहता है।

तो बेचारा नीग्रो सीधा—साधा आदमी था, वह जाकर प्रार्थना में लग गया, अपने को शुद्ध करने में लग गया। पंद्रहवें दिन वह आया। उसको आते देखकर….. दूर से देखा पादरी ने कि वह फिर आ रहा है! उसने कहा, ‘क्या इतने जल्दी से सारी शर्तें पूरी कर लीं!’ लेकिन जैसे—जैसे करीब आया, पादरी बहुत हैरान हुआ। उसे डर लगा कि अब बड़ी मुश्किल हो गयी! उसके चारों तरफ एक आभा—मण्डल था, जो कि परमपुरुषों के पास ही होता है। लगता है कि इस नीग्रो ने तो हाथ मार लिया! इसको किस बल पर रोकूंगा! घुसने तो नहीं देना है। यह लगता तो परम पवित्र होकर आ रहा है। इसकी सुगंध मालूम होती है, दूर से! इसकी रोशनी साफ है, इसके शरीर के चारों तरफ वर्तुलाकार प्रकाश का पुंज है। मारे गये! उसने दरवाजे पर ताला लगाकर बाहर ही खड़ा हो गया सड़क पर, कि कहीं यह घुसने ही लगे, तो मैं रोक भी न सकूंगा, इतना प्रभावशाली मालूम हो रहा है। इसके प्रभाव में न आ जाऊं!

मगर वह आया ही नहीं। चर्च के सामने थोड़ी दूर खड़ा ‘रहा। वहा से खिलखिलाकर हंसा और लौट गया! इससे और बड़ी मुश्किल हुई पादरी को। भागा; रोका कि ‘सुन भाई! चर्च में नहीं आना है?’

उसने कहा, ‘अब तुमसे क्या छिपाना। कल रात परमात्मा प्रगट हुए और कहने लगे— ‘भइया, तू नाहक मेहनत कर रहा है। वे मुझको नहीं घुसने देते! वे तुझको क्या घुसने देंगे! वे हरामजादे ऐसी—ऐसी शर्तें बताते हैं कि मैं पूरी नहीं कर पाता। तो तू कहां की झंझट में पड़ा है! और मैं खुद ही आ गया। अब तुझे वहां जाने की जरूरत नहीं है।’ तो मैं तो सिर्फ यह देखने आया था कि क्या गजब खेल चल रहा है! तुम परमात्मा को घुसने नहीं देते! और जब तुमने मुझे देखा, जल्दी से तुमने ताला मारा और चाबी लगाकर खडे हो गये! देखकर मैं हंसा, कि ‘अरे बुद्धओ, तुम्हारा मंदिर खाली है! किस पर ताला मार रहे हो! तुम उसको देखकर भी ताला मार लेते हो।’

तो अगर पोप बैठ गया हो, उसकी धक— धक बंद हो गयी हो, या झटका खाकर फिर से मर गया हो, दुबारा, तो कुछ आश्चर्य नहीं है।

ईश्वर को जैसे ही तुमने रूप दिया, आकार दिया—झंझटें खड़ी होंगी। फिर ईश्वर स्त्री है या पुरुष? फिर वह गोरा है या काला? फिर वह चीनियों जैसा दिखाई पड़ता है, कि भारतीयों जैसा या अंग्रेजों जैसा? बड़ी मुश्किल खड़ी हो जायेगी! दुबला—पतला है, मोटा—तगड़ा है; जवान है, का है? फिर हजार सवाल खड़े हो जाते हैं।

नहीं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं : परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। यद्यपि परमात्मा की परम ऊर्जा कभी—कभी व्यक्तियों में उतरी है।

और तुम्हारे जो अजीब तर्क हैं। तुम्हारा तर्क तो यह है कि तुम कहते हो, कोई व्यक्ति कैसे परमात्मा हो सकता है! और मैं तुमसे कहता हूं—व्यक्ति ही परमात्मा हो सकता है। इसलिए बुद्ध को तुम भगवान कहो, मुझे एतराज नहीं। तुम कृष्ण को भगवान कहो, मुझे एतराज नहीं। मगर भगवान को ‘भगवान’ मत कहो। उसमें मुझे एतराज है। क्योंकि फिर तुम उसके लिए सीमाएं बांध रहे हो। भगवान को तो सिर्फ भगवत्ता कहो। वह तो सिर्फ गुण— धर्म है। इसलिए बुद्ध ने उसे ‘ धर्म’ कहा, और लाओत्सु ने उसे ‘ताओ’ कहा। लाओत्सु ने कहा कि उसका कोई नाम नहीं, इसलिए मैं नाम गढ़ लेता हूं—ताओ। ताओ का कुछ अर्थ नहीं होता। अ, ब, स—कुछ भी कहो; मगर उसको कुछ ऐसा नाम दो, जिससे उसका रूप न बनता हो। यही तो हमने भी किया इस देश में; हमने उसे ‘ ओंकार’ कहा। अब तुमने कभी सोचा—ओंकार क्यों कहा? लोग ओंकार का पाठ करते रहते हैं; धुन मचाये रखते हैं—ओम्—ओम्। कभी सोचते ही नहीं कि हमने उसे ओम् क्यों कहा।

ओम् वैसा ही है, जैसा ताओ। ओम् का क्या रूप रंग! ओम् कोई व्यक्ति नहीं है। और इसलिए हमने तो एक और बात भी की जो ताओवादियो ने नहीं की। हम ओम् को साधारण भाषा के ‘अ उ म’ से नहीं लिखते। हमने उसके लिए अलग ही एक प्रतीक बना लिया ओंकार का, ताकि वह भाषा के शब्दों से अलग ही पड़ जाये। प्रतीक मात्र है हमारा ओम। हमारी बारह खड़ी में नहीं आता कहीं भी। हमारे वर्णाक्षरों में नहीं आता कहीं भी। अंग्रेजी में लिखने में बड़ी तकलीफ होती है। अंग्रेजी में अँ को कैसे लिखो! ‘ए यू एम’ करके लिखना पड़ता है। मगर वह गलत है। इसलिए मैक्समुलर ने, जिसकी कि गहरी पैठ थी भारतीय शास्त्रों में, ओम् को ओ के प्रतीक में ही लिखा; ए यू एम में नहीं लिखा, क्योंकि वह गलती हो जाएगी। उसको तो प्रतीक ही रखना पडेगा; उसका कोई अनुवाद नहीं हो सकता। जैसे ताओ का कोई अनुवाद नहीं हो सकता, वैसे ही ओम् का कोई अनुवाद नहीं हो सकता। ओं कोई शब्द ही नहीं है। जो शब्द में नहीं बंधता, उसकी तरफ इशारा है।

इसलिए मत कहो कि ‘ भगवान रस—रूप है।’ कहो — ‘भगवत्ता रस —रूप है।’ फिर बेहतर तो यही है कि ‘वह’ कहो। क्योंकि ‘वह’ में सब समा जायेगा—स्त्री भी, पुरुष भी, वस्तु भी।

हमारा ‘वह’ अंग्रेजी के वह से बहुत बड़ा है। हमारा ‘वह’ विराट है। उसमें कोई सीमा नहीं बंधती।

दूसरा, सूत्र का हिस्सा है

‘रसं ह्येवायं लम्मानन्दी भवति।’

अनुवादक ने कहा है—’उसी रस को पाकर प्राणी—मात्र आनन्द का अनुभव करता है।’ इतने ज्यादा शब्दों की जरूरत नहीं है। सूत्र का तो सिर्फ इतना ही अर्थ होता है. ‘उस रस को उपलब्ध करना ही आनंद है।’ र सं ह्येवायं लम्‍मानन्दी भवति। संस्कृत को जानने की जरूरत ही नहीं है। सीधी—सी बात है। रसं ह्येवायं लम्‍मा—उस रस को जिसने पा लिया, उपलब्ध कर लिया, लब्ध कर लिया; जो उस रस—रूप हो गया—उसे आनंद उपलब्ध हुआ। आनन्द की भी कुंजी दें दी।

दुख क्या है? उस रस से स्मृत हो जाना दुख है। जैसे वृक्ष को कोई जड़ों से उखाड़ ले, जमीन से उखाड़ ले, बस दुख शुरू हो गया वृक्ष के लिए, क्योंकि जमीन में ही उसका रस था। जमीन से ही वह रस पा रहा था। जमीन से उखाड़ लिया, कि सूखने लगा। पत्ते झरने लगे, पीले पड़ने लगे। दो—चार दिन हरा रह भी जाए, तो रह जाए, पुराने रस के आधार पर। जो रस के संग्रह उसके भीतर होंगे, कितनी देर चलेंगे! थोड़ी देर में चुक जाऐंगे; फिर सूख जाएगा। अब रस की धारा नहीं बहती; रोज—रोज रस नहीं आता। अब पुराने रस के बल पर उधार कितना चल सकता है!

आनंद का अर्थ है अपनी जड़ों को भगवत। में जमा लेना। उसमें जमा लेना; उसके साथ जुड़ जाना।

हमारा अहंकार हमें तोड़ता है।’मैं अलग हूं—बस, यही हमारी भ्रांति है। एक मात्र भांति, एकमात्र अज्ञान, कि मैं पृथक हूं अलग हूं। वही हमें तोड़े हुए है। जिस दिन इसको छोड़ दोगे, उस दिन तुम उस रस से जुड़ जाओगे।

‘रसं ह्मेवायं लथ्यानन्दी भवति।’और फिर क्या देर है! आनंद ही आनंद है। उसके साथ जुड़ गए कि पुन: रस के स्रोत से जुड़ गए। फिर तुम्हारी जड़ें जीवित हो उठेंगी, फिर नये पत्ते आ जाऐंगे। फिर नये पत्ते, नये फूल, नये फल। आया वसंत। आया मधुमास! फिर पक्षी नीड़ बनाएंगे। फिर कोयल कूकेगी। फिर पपीहा बोलेगा। फिर हवाओं में नाचोगे तुम। फिर सूरज की किरणों में, और चांद की किरणों में नहाओगे।

लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने तुम्हें प्रकृति से तोड़ा है—जोड़ा नहीं। उनकी सारी चेष्टा यह है कि तुम कितने अप्राकृतिक हो जाओ। उनका सारा उपाय यह है कि तुम्हारा अहंकार कैसे और मजबूत हो जाये। इसलिए तुम्हारे साधु—संन्यासियों का जैसा अहंकार होता है, वैसा अहंकार किसी और का नहीं होता! उनकी नाक पर जैसा अहंकार चढ़ा होता है, वैसा किसी के ऊपर नहीं चढा होता है। स्वाभाविकत भी चढेगा, क्योंकि जो उन्होंने किया है, किसने किया है! त्याग किया, तो अकड़ आयी। धन छोड़ा, तो अकड़ आयी। पत्नी छोड़ी तो अकडु आयी। तुम तो छोड़ो!

और इसलिए तुम चकित होओगे जानकर यह बात कि जो लोग इन महात्माओं को पूजते हैं, वे अकसर इनसे विपरीत होते हैं! जैसे जैन मुनि को जैन पूजते हैं। जैन मुनि की पूजा क्या है? क्योंकि उसने धन को लात मार दी। और जैनियों को यही सबसे बड़ा चमत्कार दिखायी पड़ता है दुनिया में! धन को—और लात मारना! धन को तो वे छाती से लगाते हैं।

सिर्फ भारत एकमात्र देश है जहां लक्ष्मी की पूजा होती है—नोटो की पूजा होती है! पहले कम से कम चांदी के, सोने के सिक्के रखते थे। अब वे भी न रहे। अब तो कागज के नोट रख लेते हैं लोग! लेकिन ताजे निकलवा लाते हैं बैंक से—बिलकुल चमचमाते! उनको रखकर पूजा होती है। मेरे घर में होती थी! मगर जैसे ही मुझे होश आया, मैंने अपने घर के लोगों को कहना शुरू किया, ‘यह क्या पागलपन है! कुछ तो होश की बात करो!’ रुपये—नोट! चांदी के सिक्के बचा रखे थे पुराने—पूजा के ही लिए खास करके। कि नोट की पूजा करते उतको भी थोड़ी शर्म लगती थी! और मैं हंसता था कि ‘यह क्या कर रहे हो!’ तो उन्होंने कुछ सिक्के बचा रखे थे। वे कहते, ‘चलो, नोट हटा दो, सिक्के रख लेते हैं। मगर हमारी पूजा में बाधा मत डालो!’ मैं उनसे कहता कि ‘नोट हुए कि सिक्के हुए, सब बराबर है, चांदी का हुआ नोट कि कागज का हुआ नोट—नोट का मतलब नोट! किससे बना है इससे क्या फर्क पड़ता है! धातु से बना है, कि कागज से बना है—दोनों ही एक से हैं! मगर तुम पूज रहे हो। लक्ष्मी की पूजा!’

दीपावली का अवसर ही लक्ष्मी—पूजा का अवसर है! और इस देश को हम धार्मिक देश कहते हैं! आध्यात्मिक देश! सारी दुनिया भौतिकवादी है, और हम अध्यात्मवादी हैं! और दुनिया में कहीं लक्ष्मी की पूजा नहीं होती। लोग लक्ष्मी को भोगते हैं। भोगो मजे से। पूजना क्या है! लक्ष्मी तुम्हारे पैर दबाये—ठीक! दबवा लो, कोई हर्जा नहीं। खुद विष्णु भगवान दबवा रहे हैं, तो तुम्हें क्या तकलीफ हो रही है! लेटे हैं, और लक्ष्मी पैर दबा रही है!

अब लक्ष्मी पैर दबाती हो, तो दबवा लिये, कि बाई! कोई हर्जा नहीं। मगर मूरख की तरह तुम पूजा कर रहे हो, तो हद्द हो गई! मगर तुम्हारी भी तरकीब हम समझ रहे हैं कि मतलब तुम्हारा क्या है! तुम भी समझ गये कि लक्ष्मी की पूजा करो, तो लक्ष्मीनारायण तक पहुंच हो जायेगी! जैसे कि किसी नेता तक पहुंचना हो, तो पत्नी की सेवा करो। साड़ी ले जाओ, मिठाई ले जाओ। आइसक्रीम पहुंचा दो। फल—फूल पहुंचाओ। डाली लगा दो! पत्नी की सेवा करो। क्योंकि तुम जानते हो कि पति चाहे कितना ही बहादुर हो मगर पत्नी के सामने बस दुम दबा लेते हैं! अगर पत्नी ने कह दिया कि इस आदमी का खयाल रखना, तो अब उनके बस के बाहर है। खयाल रखना ही पड़ेगा!

समझदार आदमी सीधे—सीधे कलेक्टर या कमिश्नर या गवर्नर या मिनिस्टर के पास नहीं जाते। पत्नी की सेवा करते हैं। पत्नी जल्दी प्रसन्न भी हो जाती है। साड़ी ले आये एक, और चित्त प्रसन्न हो गया उनका! एक गहना बनवा लाये, और चित्त प्रसन्न हो गया। और जब पत्नी प्रसन्न हो गई, तो पति की क्या हैसियत है!

तो तुम वही तरकीब लगा रहे हो लक्ष्मी के साथ। लक्ष्मीनारायण को प्रसन्न करना है! तुम जानते हो कि यह बाई पांव दबाती है लक्ष्मीनारायण के। पांव दबाते—दबाते कह देगी कि ‘जरा खयाल रखना. यह फलां—फलां आदमी है। यह अपना आदमी है; इसका ध्यान रहे!’ तो लक्ष्मीनारायण भी जानते हैं कि ठीक है। ध्यान रखना पड़ेगा नहीं तो कल ये च्‍यूंटियां लेगी; पांव—वांव नहीं दबायेगी! सोने नहीं देगी। खोपड़ी खायेगी! कि ‘हां बाई, करेंगे। जो कहेगी, वह करेंगे!’

लक्ष्मी की पूजा चल रही है! क्या बेहूदी बात है! सिक्के पूज रहे हो। और फिर भी तुम्हारी अकड़ नहीं जाती आध्यात्मिक होने की! और तुम्हारे भ्रम नहीं टूटते!

जैन धन का पागल है; परिग्रही है। और इसलिए जो धन को छोड़ देते हैं, कहता है कि ‘वाह! यह है करामात!’ क्यों करामात दिखाई पड़ती है? मुझे इसमें करामात दिखाई नहीं पड़ती। क्योंकि पहले तो मैं यह मानता हूं कि धन को पकड़ना ही मूर्खता है। वह पहली मूर्खता। फिर दूसरी मूर्खता—उसको छोड़ना! पकड़े ही नहीं कभी, तो छोड़ना क्या! अब जैसे मुझसे कोई कहे कि छोड़ो। छोडूं क्या खाक! कुछ कभी पकड़ा नहीं। जेब भी पास में नहीं है! एक पैसा बैंक में नहीं है! छोड़ना क्या है! जहां अपना कुछ है ही नहीं, वहां छोड़ना क्या है—पकड़ना क्या है!

लेकिन जो पकड़ने में दीवाने हैं, वे फिर छोड़ने का आग्रह रखते हैं। वे कहते हैं : जो छोड़े, वही त्यागी। यह भोगियों की भाषा है। यह भोगियों का तर्क है।

लेकिन जो पकड़ने में दीवाने हैं, वेश्यालय जिनकी वजह से आबाद हैं, ये उन मुनियों के चरणों में सिर रखेंगे कि ‘वाह! क्या करामात—स्त्री को छोड्कर चल दिये! अरे, हम अपनी स्त्री को क्या छोड़े, अपने पड़ोसियों की स्त्री तक को नहीं छोड़ पा रहे हैं, और तुम अपनी तक को छोड्कर चल दिये! है करामात, है चमत्कार! त्याग इसको कहते हैं! कि दूसरों की भी नहीं छोड़ सकते, जो अपनी है ही नहीं—पहली बात। मगर उनको भी नहीं छोड़ पा रहे हैं। उन पर भी नजर लगी रहती है! अपने को तो छोड़नी ही कैसे!’

मगर जिसने छोड़ दिया—उसकी पूजा!

तुम अकसर पाओगे कि जिस धर्म के माननेवाले जिस ढंग के होंगे, ठीक उससे विपरीत उनकी पूजा के आधार होंगे। ठीक उसके विपरीत! और इससे समझ लेना कि दोनों के दोनों एक—सी मूर्खता में पड़े हैं।

वे मुनि, वे महात्मा और उनके अनुयायी—इनमें कुछ फर्क नहीं है। इनका तर्क एक है, गणित एक है। ये दोनों एक दूसरे का गणित समझते हैं। वह मुनि भी जानता है कि ‘मुझे क्यों पूजा मिल रही है, क्योंकि मैंने धन छोड़ा, पत्नी छोड़ दी।’ पूजा करनेवाला भी जानता है कि ‘महाराज, ध्यान रखना! कहीं अगर पकड़े गये, तो मुश्किल हो जायेगी। धन छूना ही मत; देखना ही मत। स्त्री से सावधान!’

तेरापंथ जैनियों में एक शास्त्र है, जिसमें नौ बातें हैं। नौ बातों की आडू रखना। इन नौ बातों का ध्यान रखना। इनमें से कोई बात भीतर घुस गई कि तुम्हारा खातमा है! तो जैसे झाडू को बचाने के लिए बागुड़ लगाते हैं, ऐसे ही नौ बागुड़! एक बागुड़ से भी काम नहीं चलेगा; नौ बागुड़ लगाना है। और उसके भीतर जो पौधे होंगे, ये मुरदा तो होने ही वाले हैं। नौ बागुड़ जिस पर लगी हो, नौ परकोटों से जो घेरा गया हो, और जिसकी जिंदगी इस बात पर निर्भर हो कि अगर जरा—सा कहीं दरवाजा खुला और हवा या रोशनी आ गई या एक हवा की लहर आ गई या पानी की एक बूंद आ गई कि इनका सब नष्ट हो गया!

जिसकी चीजें इतनी कमजोरी पर खड़ी हों, इसका बल क्या! मगर इसका बल एक है : इसके अहंकार को प्रशंसा मिल रही है। गौरव मिल रहा है। इसकी अकड़ को पूजा जा रहा है।

जीवन—विरोधी लोग सिर्फ अहंकार का मजा ले रहे हैं—और कुछ भी नहीं। और कुछ भी नहीं। और अहंकार अधर्म है।

अहंकार का अर्थ है : उस रस से स्मृत हो जाना। इसलिए तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासियों में रस बिलकुल नहीं दिखाई पड़ता। वे तो विरस होने की बात सिखाते हैं तुम्हें! अब यह बडे मजे की बात है!

तुम्हारा सूत्र तो है— ‘रसो वै सः।’ तैत्तिरीय उपनिषद् क्या कहता है, और तुम्हारे महात्मा तुम्हें क्या समझाते हैं कि विरस हो जाओ, विरागी हो जाओ, उदासीन हो जाओ। रस ही न लो किसी चीज में। रस का त्याग करो। जितना बन सके, उतना करो!

जैनों में दो व्रत होते हैं—महाव्रत और अणुव्रत। तुमसे अगर पूरा महाव्रत न हो सके, रस पूरा त्याग करने का, तो अणुव्रत तो करो। कम से कम थोड़ा छोड़ो। तुमसे अगर नमक समझो कि पूरा नहीं छोड़ा जाता कि हमेशा बिना नमक का भोजन करो, तो सप्ताह में एक दिन तो छोड़ दो। तो अणुव्रत हुआ! नमक का क्या कसूर है! नमक की क्या खराबी है? एक दिन नमक छोड देते हैं लोग, फिर उनकी अकड़ देखो! चाल देखो! अकड़े हुए चल रहे हैं। नमक छोड दिया उन्होंने एक दिन के लिए! एक दिन शक्कर नहीं खाते, तो गजब कर दिया! एक दिन घी नहीं खाया तो क्या कहने हैं।

कैसा सस्ता महात्मापन तुमने पैदा किया है! और इन बेईमानों के लिए तरकीबें सुझा दी हैं कि चलो, तुमसे महाव्रत तो सधेगा नहीं अभी; अहंकार तुम उतना तृप्त कर न सकोगे। जितना बन सके, उतना कर लो। न सही पहाड़, तो चलो छोटी—मोटी टेकरी ही सही; मगर कुछ अहंकार तो बना लो अपना! तो वे व्रत कर रहे हैं। लेकिन इससे रस से टूट रहे हैं। इसलिए उनके चेहरों पर न तो आनंद का भाव है, न प्रसन्नता है, न प्रमुदिता है। न नृत्य है उनके जीवन में, न गीत है उनके जीवन में। न काव्य है, न संगीत है। कुछ भी नहीं!

और इन रूखे—सूखे डूंठे लोगों के पीछे बाकी लोग चल रहे हैं। सो वे सारे के सारे लोग अपने को अपराधी समझ रहे हैं। कि हम कब ठूंठ बन जायेंगे, तब हम भी महात्मा होंगे। जब तक हम सूंठ नहीं बने, तब तक हममें पत्ते लग रहे हैं। बडा अपराध कर रहे हैं हम। हममें अभी भी पत्ते लगते हैं; क्या करें! पिछले जन्मों के पापों के कारण पत्ते लग रहे हैं। फूल लग रहे हैं। लगते ही जाते हैं, रुकते ही नहीं! हमारे महात्मा देखो, क्या ठूंठ खड़े हुए हैं!

काष्ठवत्—परिभाषा की गई है, तुम्हारे महात्माओं की—सूखी लकडी की भांति! क्या बातें कर रहे हो! अरे, लकड़ी ही होनी है, तो कम से कम गीली तो रहो! थोड़ा रस तो बहने दो!

सूखी लकड़ी की भांति हो जाओ बिलकुल! बिलकुल ठूंठ! कि सिवाय अंगीठी में लगा देने के किसी काम के न रहो! किसी के चूल्हे में गिरना है, जो ठूंठ बनना है? फूल कैसे लगेंगे! और गंध कैसे उड़ेगी? और परमात्मा ने जो तुम्हारे भीतर छिपाया है, वह प्रगट कैसे होगा?

सूत्र बड़ा साफ है।’रसं ह्येवायं लम्मानन्दी भवति। उस रस को उपलब्ध कर लिया, बस यही आनन्द है।

मैं तुम्हें रस सिखाता हूं—विरस नहीं। मैं तुम्हें राग की कला सिखाता हूं—वैराग्य नहीं।

‘को ह्येवान्यात् क: प्राण्यात्।’

रस चला गया—तो फिर कहां जीवन! फिर प्राण कहां? प्यारा सूत्र है। ऐसा कि उतर जाने दो, रोयें—रोयें में समा जाने दो। उसके बिना न कोई जीवन, न कोई प्राण। और उसी से लड रहे हो तुम!

पश्चिम का इस सदी का सबसे बड़ा बुद्धपुरुष जार्ज गुरजिएफ कहा करता था अपने अनुयायियों से कि ‘एक बात तुम खयाल रखना कि तुम्हारे सब महात्मा, चाहे हिन्दू हों, चाहे ईसाई, चाहे यहूदी—परमात्मा के खिलाफ हैं।’

जब मैंने पहली दफे यह वचन पढ़ा, तो इतना ही मेरे लिए काफी था कि इस आदमी को कुछ दिखाई पड़ा है। ऐसा वचन मैंने कभी देखा ही नहीं था किसी और का! कि ‘तुम्हारे सब महात्मा परमात्मा के खिलाफ हैं।’ यह बात कोई जाननेवाला ही कह सकता है। यह कोई पण्डित नहीं कह सकता। पण्डित की तो क्या हैसियत होगी! सोच भी नहीं सकता।

ऊपर से तो बडी उलटी मालूम पड़ती है कि तुम्हारे महात्मा परमात्मा के खिलाफ हैं! यह कैसी बात! मगर मैं भी अपने अनुभव से कहता हूं कि यह बात सच है। गुरजिएफ अब तो जिंदा नहीं है, लेकिन जहां भी उसकी आत्मा होगी, उसको आनन्दित होना चाहिए। जितनी गालियां उसको पड़ी, उससे पचास गुनी ज्यादा मुझको पड़ रही हैं!

उसको जिंदगीभर गालियां पड़ी। मगर वह भी ईर्ष्या करता होगा मुझसे। इतनी उसको भी नहीं पड़ी। मुझे सारी दुनिया में पड़ रही हैं। व्यापक विस्तार से पड़ रही हैं। उसकी तो बड़ी सीमा थी बेचारे की! थोड़े से लोग ही उसको जान पाये। उसने बात ही कभी सार्वजनिक नहीं की। उसने थोड़े से लोगों से ही बात की। उसने ऐरे—गैरे नत्थूखैरों को भीतर नहीं आने दिया। मैं ऐरे—गैरे नत्थूखैरों से भी सिर फोड़ता हूं। स्वभावत: गाली ज्यादा खानी पड़ेगी।

वह तो सिर्फ अपने शिष्यों से बोलता था। शिष्य उसके इने—गिने थे। सारी दुनिया में मुश्किल से तीन सौ! उनसे—वह दूसरों सें बोलता नहीं था। किताब उसने अपनी जिंदगी में सिर्फ एक छपने दी। वह भी करीब—करीब जब मर रहा था, तब छपी! वह भी जब पहली दफे छपी, तो उसने सिर्फ एक हजार कापियां छापी। और वह भी हर किसी को नहीं बेच देता था। उसने दाम इतने ज्यादा रखे थे कि हर कोई खरीद नहीं सकता था। बामुश्किल कोई हिम्मत कर सकता था खरीदने की। और किताब इतनी बडी थी, एक हजार पृष्ठों की थी। और उसके ‘लिखने का ढंग ऐसा है कि तुम दस पन्ने पढ लो, तो समझना कि भव—सागर पार हो गये! एक—एक वाक्य एक—एक पन्ने में जाता है! वाक्य में वाक्य चलता जाता है! और वह इस—इस तरह से शब्द बनाता था—खुद गढ लेता था—कि जिनके अर्थ तुम्हें किसी शब्दकोश में मिल सकते नहीं। शब्दों को तोड़—मरोड़ देता था। जैसे कुंडलिनी लिखना हो, तो कुंडलिनी कभी नहीं लिखता था। कुंडा—बफर! अब तुम खोज—खोजकर मर जाओ—कुंडा बफर कहां है! यह कुंडा—बफर क्या है! वह उसकी गाली थी।

जैसे दो रेलगाड़ियों के डब्बों के बीच में बफर लगे रहते हैं, कि कभी धक्का लगे या गाड़ी को एकदम से रोकना पड़े, तो वे जो बफर रहते हैं, वे एकदम डब्बों को टकराने नहीं देते। या जैसे कार में स्टिंग लगे होते हैं; गड्डा आ जाये, तो स्टिंग गड्डे को पी जाते हैं। अंदर बैठे आदमी एकदम उछलकर छप्पर से नहीं लग जाते! खोपड़ी नहीं खुल जाती—वह बफर। वह कुंडलिनी नहीं कहता था—कुडा—बफर! वह कहता था—यह आदमी के भीतर ‘कुंडा—बफर’ नाम की एक शक्ति है, इसकी वजह से उसको धक्के नहीं लगते; स्थिंग है यह। जिंदगी में ठोकरों पर ठोकरें खाता है, मगर कुंडा—बफर सब झेल जाता है! यह एक तरह का स्टिंग है। कि गिरे, जल्दी से कपड़े वगैरह झाड़े। देखा चारों तरफ : कोई नहीं है। फिर चल पड़े!

रोज गिरते हो। और यूं भी नहीं कि नये—नये गड्डों में गिरते हो। उन्हीं—उन्हीं गड्डों में रोज गिरते हो! और कल ही कसम खायी थी की अब गड्ढ़े में नहीं गिरेंगे; कि भाड़ में जाए यह गड्डा, कितनी दफा इसमें गिर चुके! कोई सार नहीं है। और फिर आ गये। फिर ऐसे भी नहीं! क्योंकि उस गड्डे में और गिरनेवाले भी हैं; कोई तुम्हीं थोड़े अकेले हो। क्यू लगा हुआ है। अपने क्यू में खड़े हैं। भईया क्या कर रहे हो? —अब क्या करें! ऐसे तो कसम खायी थी!

कल ही मैं एक गीत पढ़ रहा था किसी कवि का। उसने लिखा है कि यूं तो हम रोज शाम को कसम खाते हैं, लेकिन सुबह फिर पी लेते हैं। तोबा रोज रात करते हैं और रोज सुबह तोड़ लेते हैं। इस तरह हम दुनिया भी सम्हालते हैं और जन्नत भी सम्हालते हैं! रात जन्नत सम्हाल लेते हैं; सुबह यह दुनिया सम्हाल लेते हैं! फिर करें भी क्या! फिर घटायें ही कुछ ऐसी घिर गयीं कि पीने का मन हो गया! और फिर यह बत्तमीज मन—लालच उठ आयी। और पियक्कड़ों को देखकर पीने का मन हो गया! फिर सोचा, अब एक दफा और। अरे, बस एक दफा और! कोई बार—बार थोड़े ही पीना है!

मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन तय किया कि अब नहीं पीना शराब, क्योंकि बहुत हो चुका। डाक्टर कहता है, मर जाओगे। पत्नी जान खाये जाती है। बेटा पीछे पड़ा रहता है लट्ठ लिए! कि तुम शराबघर गये कि टांग तोड़ दूंगा! यहां तक हालत आ गयी कि शराबघर का मालिक तक कभी—कभी मना करता कि ‘ अच्छा, उठो जी! अब दरवाजा बंद करें! कि अब नहीं पिलायेंगे तुम्हें! अब तुम ज्यादा पी गये! अब तुम गड़बड़ शुरू कर दिये। तुम अब बहकने लगे।’

एक दिन तो यह हालत हो गयी कि शराबघर के मालिक ने उसको धक्के देकर निकलवा दिया, क्योंकि वह दो—चार बोतलें पी चुका है, और अब ऐसी अंटशट बातें बक रहा है, और ऐसे अंटशट काम कर रहा है कि दूसरे ग्राहक देख—देखकर लौटे जा रहे हैं, कि यहां कोई झगड़ा होगा, मारपीट होगी। उपद्रव होने ही वाला है! यह आदमी किसी की हत्या कर देगा! उसको निकलवा बाहर कर दिया। वह दूसरे दरवाजे से फिर आ गया। उसने कहा, भाई, एक बोतल! उसने फिर उसे निकलवाकर बाहर कर दिया। वह तीसरे दरवाजे से भीतर आ गया। होटल के कई दरवाजे थे! उधर से भी निकलवा दिया। चौथे दरवाजे से आया। जब उसे फिर निकलवाने लगा, तो उसने कहा, ‘मामला क्या है! क्या बस्ती के सभी शराबखाने तेरे बाप के हैं? जहां जाता हूं वहीं हरामजादा, तू ही खड़ा रहता है! चार शराबघरों में हो आया! इतना होश मुझे भी है कि तेरी शकल मेरी पहचानी हुई है। यह देखकर चौंकता हूं कि यह फिर वही का वही आदमी! तो क्या बस्तीभर के शराबघर तूने ही खरीद लिए!’

जब यह मुसीबत आ गयी, तो उसने एक दिन कसम ही खा ली कि क्या बेइज्जती जगह—जगह करनी। नाली में गिरना, और सुबह रोज घर जाना; और घर पिटाई अलग होती है। और जो देखो वही लानत—मलामत करता है। जहां जाओ वहीं लोग उपदेश देते हैं। हर कोई उपदेश देने लगता है। उपदेश आदमी को जहर जैसा लगता है! कहा कि ‘अच्छा, आज नहीं पिऊंगा।’ मगर वह शराबघर रास्ते में पड़ता है! कहा, ‘कुछ भी हो जाये, आज छाती कड़ी कर लूंगा। अरे मैं भी मर्द बच्चा हूं!’ शराबघर पास आया, तो पैर उसके थरथराने लगे। कई दफा मन होने लगा, कि ‘ अरे एक दिन और! अरे आखिरी दिन है रे! आज तो पी ले। फिर कल से कर लेना। अब जब तय ही कर लिया है, तो फिर कल से कर लेना!’

रोज मन ऐसा ही हमारा होता है! कुछ नयी बात नहीं है! उसका हुआ तो….. मगर उसने कहा कि ‘नहीं, बहुत हो चुका जी! यह कई दफा हो चुका। आज जो कसम खायी, तो पूरी करनी है। नहीं जायेंगे!’

मगर एकदम पांव ठहरने ही लगे, आगे ही न बढ़े, जैसे हजारों मन बोझ लदा हो पैरों पर—कि मामला क्या है! मगर उसने कहा, ‘आज कुछ हो जाए; आज सिद्ध करना है—मर्द बच्चा हूं।’

चला ही गया। शराबघर की तरफ आंख भी नहीं उठाई। नीची आंख रखी, जैसे बौद्ध भिक्षु रखता है नीची आंख। चार कदम से आगे नहीं देखता, क्योंकि चार कदम से आगे देखो कि संसार में गिरे!

क्या मजा है! तो एक—एक चश्मा लगा लो, जिसमें चार कदम से आगे दिखाई न पड़ता हो। सब मुक्त हो जाओगे, निर्वाण को उपलब्ध हो जाओगे! चार कदम से आगे नहीं देखता, कि जरा ही आंख उठ गयी चार कदम से ज्यादा—पता नहीं क्या दिख जाये!

घबड़ाहट के मारे नीचे देखे, नजर गड़ाये चला गया—चला गया—चला गया! मगर तिरछी नजरों से तो देख ही रहा कि शराबघर निकला जा रहा है, निकला जा रहा है! जब सौ कदम आगे निकल गया, अपनी पीठ ठोंकी और कहा, ‘बेटा, नसरुद्दीन! गजब कर दिया तूने! अरे है तू भी कोई महात्मा! अब आ, इस खुशी में तुझे आज दुगुनी पिलाता हूं!’

और पहुंच गये वापस! उस खुशी में दुगुनी पी रहा हूं। उस दिन फिर दुगुनी ही पी रहे हैं! क्योंकि उस दिन उनको पता चला कि अरे, दुगुनी भी चल सकती है! और जब मरना ही है, तो फिर क्या! और उपदेश तो झेलना ही है, तो अब क्या थोड़ी पीना!

एक दिन पत्नी उसकी पहुंच गई, जब बरदाश्त के बाहर हो गया। जाकर उसने बुरका उतारकर फेंक दिया। नसरुद्दीन ने कहा, ‘अरे, यह क्या करती है! बुरका उतारती है! और शराबघर तू आयी क्यों?’

उसने कहा कि ‘तुम्हीं—तुम्हीं मजा लूट रहे हो!’

पत्नी गयी थी इसको शिक्षा देने, कि जब मैं पहुंच जाऊंगी, तो यह शरम खायेगा, संकोच खायेगा कि यह बदनामी! हद्द हो गयी! और बैठ गयी वह भी जमकर। उसने कहा कि ‘ला तेरी बोतल!’

अब कुछ कह भी न सका। कहे क्या! अगर कहे कि यह खराब चीज है, तो वह कहेगी कि फिर पीता क्यों है! सो बोतल देनी पड़ी।

उसने भी जल्दी से बोतल कुडेली। उसे क्या पता; कभी पिया हो उसने शराब! गटगट पी गई बिना सोडा मिलाये, पानी मिलाये। एक ही घूंट मुंह में गया था कि कडुवा जहर! वहीं बुलक दिया, कि ‘सत्यानाश हो तेरा! इसको पीता है तू!’

नसरुद्दीन मुस्कुराया और कहा, ‘तू क्या समझती थी री, कि मैं कोई यहां आनन्द मनाने आता हूं! अरे यह बड़ी तपश्चर्या है। बड़ी मुश्किल से सधती है। देख, यूं पी जाती है।’ गटगट पूरा बोतल पी गया जल्दी से, कि कहीं फिर न मांगने लगे!

‘तू यही समझती है जिंदगीभर से। अब मत कहना कि चले गुलछर्रे उड़ाने। यह कोई गुलछर्रे नहीं हैं। यह बड़ा कठिन मार्ग है।’

लोग गड्डों में गिरते हैं; कठिन मार्ग बताते हैं। उन्हीं गड्डों में गिरते हैं; रोज—रोज गिरते हैं। कारण क्या होगा?

एक ही कारण है कि तुम्हारे जीवन में अमृत का कोई स्वाद नहीं है। इसलिए तुम जहर पी रहे हो। एक ही कारण है कि तुमने जीवन से नाते तोड़ लिये हैं, इसलिए तुम मृत्यु के शिकंजे में पड़ गये हो। तुमने विराट से अपनी जड़ें अलग कर ली हैं, तो तुम क्षुद्र अहंकार में ग्रसित हो गये हो। वही नर्क है। अहंकार नर्क है। और अहंकार मृत्यु है। अहंकार के जो पार गया वह नर्क के भी पार गया और मृत्यु के भी पार गया। वह क्तका अमृत का अनुभव करता है।

‘को ह्येवान्यात् क: प्राण्यात्।’

अरे कोन उसको खोकर जीवित हो सका है! कोन इसको खोकर वस्तुत: जान सका है कि जीवन क्या है! इसका अर्थ तुम समझो।

इसका अर्थ हुआ कि वह रस और जीवन पर्यायवाची हैं। यही मैं तुमसे कह रहा हूं रोज—रोज कहे जा रहा हूं कि जीवन और ३परम।ात्मा पर्यायवाची हैं। इसलिए जो लोग जीवन का विरोध करते हैं, वे ईश्वर के दुश्मन हैं। और तुम्हारा सारा धर्म जीवन का विरोध सब तरह से जीवन को काटो! त्यागों! भागो! जैसे पाप हो गया है कोई जीवित होने से! जैसे परमात्मा ने कोई कसूर किया है तुम्हें जन्म देकर! तुम शिकायत कर रहे हो जीवन का त्याग करके। तुम क्या अनुग्रह का भाव प्रगट करोगे! तुम कैसे धन्यावाद दोगे उसे! तुम्हारे मन में सिर्फ शिकायतों ही शिकायतों का ढेर है। तुम्हें परमात्मा मिल जाये, तो तुम उसकी गर्दन पकड़ लोगे कि तू बता कि तूने मुझे क्यों पैदा किया? क्या जरूरत थी मुझे पैदा करने की! क्यों मुझे संसार के जंजाल में डाला?

यहां लोग आ जाते हैं! उनको पता नहीं मेरी जीवन—दृष्टि का। वे मुझसे पूछ लेते हैं प्रश्न। आज ही एक सज्जन ने पूछा हुआ है कि ‘हमें बताइये कि भव—सागर से कैसे मुक्त हो जायें?’

तुम्हें सिखाया ही यह जा रहा है कि भव—सागर से मुक्त होना है! अरे, भव—सागर में तैरना सीखो। मुक्त कहां होना है! जाओगे कहां? भव—सागर तो सभी जगह है! ‘भव’ का अर्थ समझते हो? —जो है। जो है, इसके बाहर कैसे जाओगे?

भव का अर्थ है अस्तित्व। इससे बाहर कहां जाओगे!

तुम जब पूछते हो—’भव—सागर से मुक्त होना है’—तो तुम यह कह रहे हो कि हमें मरना बता दो; आत्महत्या करनी है।

तुम जीवन से इतने उदास क्यों हो? कोन ने तुम्हारे जीवन को विषाक्त किया? और तुम उन्हीं के शिकंजे में हो अब भी। जो तुम्हारी गर्दन दबा रहे हैं, तुम सोचते हो; तुम्हारे प्राण—रक्षक हैं!

तुम जीवन को जान ही नहीं पाये। नहीं तो यह कभी भाषा न बोलते— भव—सागर से मुक्त होने की। तुम पूछते—भव—सागर में कैसे लीन हो जाऊं? तुम पूछते : कैसे तल्लीन हो जाऊं? जैसे बूंद सागर में उतर जाती है और एक हो जाती है, ऐसे मैं भी कैसे एक हो जाऊं। तब तुम्हारा प्रश्न सच में धार्मिक होता!

उसके बिना कोई जीवन नहीं, कोई प्राण नहीं।

‘यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।

यह है आकाश जैसा विराट।

‘यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।’और उसमें आनन्द हौ आनन्द का विस्तार है। आनन्द का कोई अन्त नहीं। अनंत आनन्द है। और तुम दुख के पूजक हो! जो आदमी अपने को दुख देता है सब तरह से, तुम उसको कहते हो—त्यागी—तपस्वी! मैं तुम्हें सुख कासम्मान सिखाना चाहता हूं; सुख का सत्कार सिखाना चाहता हूं। कहता हूं : खोलो अपने द्वार। बांधो बंदनवार। करो, स्वागत सुख का। क्योंकि परमात्मा महासुखरूप है। आनन्द ही आनन्द है।

‘एष ह्येवानन्दयाति।

और वह इसलिए तो आनन्द है, क्योंकि अनंत आकाश जैसा है; कभी चुकता नहीं। तुम छोटे—मोटे सुखों में सोचते हो—सुख पा लिया। तुम गलती में हो। इस बात को थोड़ा गौर से समझना।

तुम्हारे छोटे—छोटे सुख एक उपद्रव कर रहे हैं। ये तुम्हें पण्डितों, पुरोहितों, और साधु—महात्माओं के जाल में गिरा देते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, ‘तुम्हारे छोटे —छोटे सुख—कहां मिला सुख? बताओ—कहा मिला सुख?’ और तुम बता भी नहीं सकते। उनका तर्क ठीक लगता है। वे कहते हैं, ‘ये क्षण— भंगुर सुख हैं। छोड़ो इनको! चलो हमारे साथ। भजन—कीर्तन करो। त्याग तपश्चर्या करो। सिर के बल खड़े होओ। उपवास करो। भूखे रहो। शरीर को गलाओ। तब कहीं जन्मों —जन्मों में असली सुख मिलेगा!’

तुम उनसे तर्क नहीं कर सकते। क्योंकि तुम भी जानते हो किं तुम्हारे सुखों में तुम्हें सुख नहीं मिला। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं : वे तुमसे जो कह रहे हैं, गलत कह रहे हैं। तुम्हारे सुखों में सुख उतना ही मिला, जितना मिल सकता था। उससे ज्यादा तुम चाहते थे, वह नहीं मिला। और उसी का वे फायदा उठा रहे हैं।

अब तुम चाहते थे कि भोजन से शाश्वत् सुख मिल जाए! तो तुम मूरख हो। भोजन से कैसे शाश्वत सुख मिल सकता है? कल फिर भूख लगेगी। फिर तो एक दफे भोजन कर लिया, सो कर लिया फिर दुबारा भोजन न करना पड़े! यह तुम चाहते थे! तो तुम्हारे चाह की गलती थी। भोजन का कोई कसूर नहीं है। तुमने चाह ही असंभव बना ली थी।

अब तुम सोचते हो कि इस शरीर में रहने से शाश्वत जीवन मिल जाए! कैसे मिलेगा! यह शरीर ही बना है—तो मिटेगा। इसमें तो उतना ही मिल सकता है, जितना मिल सकता है। इससे ज्यादा मांगते हो, वह मिलता नहीं। नहीं मिलता—विषाद पैदा होता है! विषाद होता है—महात्मा का जाल पड़ा। उसने तुम्हारी गर्दन दबाई। उसने कहा कि मैं पहले ही कह रहा था कि यहां दुख ही दुख है। फिर भी मैं तुमसे कहता हूं : उसका तर्क गलत है। यहां उतना ही सुख है, जितना किसी वस्तु में हो सकता है। अब कोई रेत में से तेल निचोड़ना चाहे और न निचुड़े; तो इसमें रेत का कसूर है? इसमें तुम्हारी मूढ़ता है—और कुछ भी नहीं।

अब लोग चाहते हों कि धन से ध्यान मिल जाए तो गलती में हैं। धन से अच्छा मकान मिल सकता है। धन से सुंदर बगीचा बन सकता है—जरूर बनाओ। मगर धन से ध्यान नहीं मिल सकता। तुम धन से चाहते हो ध्यान मिल जाए! महात्मा तुम्हारी गर्दन पकड लेता है। वह कहता है —मिला ध्यान? —नहीं मिला। छोड़ो धन।

मैं तुमसे कहता हूं : धन से जो मिल सकता है, वह धन से लो। बुद्धिमानी इसमें है। और जो ध्यान है, वह न तो धन से मिलता है, न धन छोड़ने से मिलता है। जरा मेरी बात पर खयाल कर लेना। क्योंकि वह जड़ की बात है। मूल की बात है।

न धन से ध्यान मिलता है, न धन को छोड़ने से मिलता है।

तुम जरा अपने महात्माओं से तो पूछो कि धन छोड़ने से ध्यान मिला? मैंने पूछा है। और तुम्हारा एक महात्मा जवाब नहीं दे सका। मैंने महात्माओं पर वे सब तरकीबें अपनायी, जो तरकीबें वे तुम पर अपनाते हैं। और मैं बड़ा हैरान हुआ। पता नहीं तुमने क्यों नहीं ये तरकीबें उन पर अपनायी अब तक!

वे तुमसे कहते हैं, भोजन से शाश्वत सुख मिला? तुम उनसे पूछो, ‘तुमको उपवास से शाश्वत सुख मिला?’ तुम कम से कम भोजन पाकर स्वस्थ तो हो! कम से कम शरीर में बल तो है! उठ—बैठ तो सकते हो!

पश्चिम में भोजन की सुविधा है, तो लोग ज्यादा जी रहे हैं। आज रूस में डेढ़ सौ साल की उम्र के हजारों लोग हैं। थोड़े—बहुत नहीं, हजारों की संख्या में। कोई आदमी डेढ़ सौ साल का हो जाए, तो रूस में अखबार में खबर नहीं छपती। अभी एक खबर छपी, जब एक आदमी दो सौ वर्ष का हो गया। डेढ़ सौ वर्ष के तो बहुत लोग हैं।

और यहां तुम्हारे? अगर कोई सौ वर्ष का हो जाए, तो हम कहते हैं—है सतयुगी! क्या गजब का आदमी है! सौ वर्ष का हो गया!

महात्मा गांधी सोचते थे कि एक सौ पच्चीस वर्ष जीना है। यह तो पूना के लोगों की कृपा हो गयी उन पर, कि उनको नहीं जीने दिया! नाघूराम गोडसे ने उनको जल्दी खतम कर दिया, कि काहे को इतनी देर परेशान होते हो! छुटकारा दिला दिया जीवन से जल्दी! भव—सागर से मुक्ति करवा दी उनकी! पूना के लोग गजब के हैं! ये भव—सागर से मुक्ति करवाते हैं! एक सज्जन मुझे भव—सागर से मुक्ति करवा रहे थे! —अभी कुछ दिन पहले, छुरा फेंककर! क्या—क्या समाज सेवी पड़े हुए हैं! अब मुझे अभी भव—सागर से छूटना भी नहीं है, तो भी छुड़वा रहे हैं! गांधीजी को छुड़वाया, तो ठीक भी; उनको तो छूटना भी था। मैं तो भव—सागर में बिलकुल मजे से तैर रहा हूं! मगर इनके कष्ट देखो! बेचारे कितना कष्ट उठाते हैं! अब अगर इन पर झंझट पड़ेगी, अब मुकदमा चलेगा; सात साल, दस साल; सजा भुगतेंगे! आये थे सेवा करने!

यह दुनिया बड़ी बुरी है। करो नेकी—बदी हाथ लगती है! क्या गजब की दुनिया है! यहां भला करने जाओ, बुरा हो जाता है! आए तो थे बेचारे सेवा करने मेरी, अब दस साल उनको जेलखाने में कहीं सेवा न करनी पड़े! मुझे यही चिंता होती है कि इस आदमी को, बेचारे को दस साल खराब न हो जायें और!

एक सौ पच्चीस वर्ष जीने का जो इरादा महात्मा गांधी का था, वे सोचते थे, यह आखिरी कल्पना है। इससे ज्यादा कोन जी सकता है! और उनकी धारणा यह थी कि एक सौ पच्चीस वर्ष जियेंगे वे—अपने उपवास, अपने ब्रह्मचर्य के बल पर! वह तो अच्छा हुआ, भला हो नाथूराम का! रामजी के ही रूप समझो—नाथू—राम! तभी तो महात्मा गांधी ने, जब गोली लगी तो कहा, ‘हे राम!’ नाथूराम कहने लायक समय नहीं मिला, नहीं तो पूरा नाम लेते! तो अंग्रेजी—हिसाब से आखिरी हिस्सा बोल दिया, कि ‘हे राम!’ नाम पूरा था—नाथू —राम!

राम का ही रूप समझो इनको, कि आ गए, और छुटकारा करवा दिया!

लेकिन अगर गांधी को खुद मरना पड़ता—और मरना ही पड़ता…..। और एक सौ पच्चीस वर्ष….. मैं नहीं सोचता कि वे जी सकते थे। भारत की भोजन व्यवस्था इतनी स्वस्थ नहीं है कि यहां एक सौ पच्चीस वर्ष जीना आसान हो जाए।

अगर पहले मरना पड़ता, तो वे बडे दुखी मरते। उस दुख से नाथूराम ने बचा दिया। वे दुखी मरते कि मेरी तपश्चर्या में कमी रह गयी! वे तो हर छोटी—मोटी बात में समझ लेते थे कि मेरी तपश्चर्या में कमी रह गयी! जैसे तपश्चर्या से कोई उम्र का संबध है! तपश्चर्या से उम्र का कोई संबंध नहीं है।

शंकराचार्य तैंतीस साल की उम्र में मर गए। अगर तपश्चर्या से संबंध है, तो जाहिर है कि तपश्चर्या इनकी गडबड़ थी! और विवेकानंद चौंतीस साल में मर गए। अगर तपश्चर्या से संबंध है, तो जाहिर है कि तपश्चर्या गड़बड थी। तपश्चर्या से कोई संबंध नहीं है।

आज योरोप के देशों में अस्सी वर्ष, पच्चासी वर्ष, नब्बे वर्ष औसत उम्र हैं। स्वीडन की औसत उम्र नब्बे वर्ष है। अभी भारत की औसत उम्र छत्तीस वर्ष है! तो अगर स्वीडन में डेढ़ सौ साल का आदमी ?? जाए, तो क्या अड़चन है! भारत में भी नब्बे साल का आदमी मिल जाता है। छत्तीस वर्ष औसत उम्र है तब।

ये जो हमारी अकाक्षाएं हैं…..। शरीर तो मिटेगा ही—सौ साल में मिटे, डेढ सौ साल में मिटे। वैज्ञानिक कहते हैं कि तीन सौ साल जिंदा रह सकता है—कम से कम—अगर पूरी व्यवस्था दी जाए तो। समझो, तीन सौ साल भी जिंदा रह गया, तो भी मिटेगा तो हां, जायेगा तो ही। जो चीज पैदा हुई है, वह जायेगी। इससे तुम अगर शाश्वत की आकांक्षा कर रहे .हो, तो भूल तुम्हारी है। इससे उतना ही मांगो, जितना यह दे सकता है। उससे तुम ज्यादा मांगते हो, फिर वह मिलता नहीं, तो फिर तुम्हारे साधु—महात्मा कहते हैं कि ‘देखो, नहीं मिला न! कहा था न! छोड़ो —छोड़ा!’

मैं उनके तर्क को गलत मानता हूं। मैं तुमसे कहता हूं कि तुमने ज्यादा मांगा, वह तुम्हारी गलती थी। ज्यादा मत मांगो। जो मिल सकता है, वह मांगों। और जो नहीं मिल सकता, उसके लिए और रास्ते खोजो। इसको छोड़ने से वह नहीं मिल जाएगा।

न तो धन को पकड़ने से, धन को भोगने से ध्यान मिलता है, न छोड़ने से ध्यान मिलता है। मैं ऐसे मुनियों को जानता. हूं जिनको सत्तर साल घर छोड़े हो गए; नब्बे—नब्बे साल की उम्र के हो गए हैं; और उनसे मैंने पूछा कि ‘ ध्यान मिला कि नहीं?’ वे कहते कि अभी नहीं मिला! क्या करें? कैसे ध्यान करें? चित्त तो अभी भी काम करता है! मन तो अभी भी विचारों से भरा हुआ है!’

तो मैंने कहा, ‘एक बात तो साफ हुई तुम्हें कि नही—कि घर—द्वार छोड़ने देने से मन नहीं छूट जाता! मन का घर—द्वार छोड़ने से क्या संबंध है! मन को छोड़ने की प्रक्रिया अलग है। विधि अलग है, विज्ञान अलग है।’ इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं कि तुम विज्ञान समझो जीवन का।

शरीर को स्वस्थ रखना है—भोजन। लेकिन भोजन से कुक आत्मवान नहीं हो जाओगे। ही आत्मा को स्वस्थ रखना है तो तुम्हें दूसरा भोजन तलाशना होगा—ध्यान, प्रेम, मौन, शून्य—तों तुम्हारी आत्मा स्वस्थ होगी। और दोनों स्वस्थ होने चाहिए। इनमें कुछ विरोध नहीं है—कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा नहीं हो सकती! कि ठीक भोजन करते ध्यान नहीं हो सकता। मैं तो मानता हूं बिलकुल उलटी बात है।

ठीक भोजन करो, तो ही ध्यान कर पाओगे, नहीं तो ध्यान नहीं कर पाओगे।’ भूखे भजन न होहि गोपाला!’ तो जरा भूखे होकर भजन तो करों! ऊपर—ऊपर भजन निकलेगा— भीतर— भीतर भूख लगी रहेगी! भीतर— भीतर खयाल. चलता रहेगा कि कब भोजन मिले! यह भजन कब खत्म हो! भजन कर ही इसीलिए रहे हो, कि भोजन मिले!

लेकिन जब पेट भरा हो, तो स्वभावत: सरलता से, सहजता से भजन का आनंद हो सकता है; ध्यान का आनंद हो सकता है।

जीवन का एक क्रमिक क्रम है। शरीर की जरूरतें पहले पूरी होनी चाहिए। फिर मन की जरूरतें पूरी होनी चाहिए। फिर आत्मा की जरूरतें पूरी होनी चाहिए। जब तीनों की जरूरतों में एक तालमेल बन जाता है, तब— रसो वै सः! तब चौथी, तुरीय अवस्था पैदा होती है। तब तुम जान पाओगे, वह रस—रूप क्या है; वह आनंद क्या है! वह आकाश क्या है!

‘वह आकाश की भांति सर्व—व्यापक आनंदमय तत्व न होता, तो कोन जीवित रहता! और कोन प्राणों की चेष्टा करता? वास्तव में वही तत्व सबके आनंद का मूलस्रोत है।’

जीवन को चाहो; जीवन को जीयो—समग्रता से, सम्पूर्णता से। भगोड़ापन नहीं, भय नहीं; क्योंकि जीवन परमात्मा का पर्यायवाची है। जीवन ही वह रस है।

‘जो बोलैं तो हरिकथा’ प्रवचनमाला से

दिनाँक 24 जुलाई 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।


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प्रभु की पगडंडियां–(प्रवचन–5)

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हिंसा, अहंकार; प्रेम और ध्‍यान—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 2 दिसम्‍बर; 1968, रात्री

ध्‍यान—शिविर, नारगोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि हम उन लोगों के प्रति तो प्रेमपूर्ण हो सकते हैं जो हमारे प्रति प्रेमपूर्ण हो लेकिन उन लोगों के प्रति प्रेमपूर्ण कैसे हो सकते हैं जो हमारे प्रति प्रेमपूर्ण नहीं है? बल्कि हमें हर तरह की चोट पहुंचाने की भी कोशिश करते हैं?

 हीं, हम चूंकि प्रेमपूर्ण नहीं हैं, इसलिए हमें यह देखना पड़ता है कि कौन हमें प्रेम करता है और कौन हमें चोट पहुंचाता है। हम प्रेमपूर्ण हों तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन हमें प्रेम करता है और कौन हमें चोट पहुंचाता है। हमारा प्रेमपूर्ण होना हमारा स्वभाव हो तो इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता है कि कौन हमारे साथ क्या करता है!

लेकिन हम प्रेमपूर्ण नहीं हैं, हमें कोई प्रेम करता है तो हम प्रेमपूर्ण होने की व्यवस्था कर लेते हैं। और हमें कोई प्रेम नहीं करता है तो हम घृणा की व्यवस्था कर लेते हैं। हमारे प्राणों में कहीं ऐसा नहीं हो गया है कि प्रेम हमारी अवस्था हो।

प्रेम भी हमारा एक उत्तर है। जब कोई प्रेम करता है तो हम प्रेम का उत्तर देते हैं। वह हमारे बहुत ऊपर से आता है, हमारे गहरे से नहीं। हमारे गहरे से जब प्रेम आएगा तो इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता है कि कौन हमारे साथ क्या करता है, क्योंकि वह प्रेम यह नहीं मांगेगा कि तुम मेरे साथ प्रेम करो तो मैं प्रेम करूंगा। ऐसी कंडीशन ऐसी शर्त प्रेम के साथ नहीं हो सकती। अभी हमारा प्रेम कहता है कि प्रेम दोगे तो हम प्रेम देंगे। अभी हमें प्रेम मिलता है तो अच्छा लगता है और उत्तर में हम प्रेम देते हैं। अगर प्रेम नहीं मिलता तो बुरा लगता है और उत्तर में हम प्रेम नहीं देते हैं।

जिस प्रेम की मैं बात कर रहा हूं जब मन प्रेम की अवस्था में प्रवेश करता है तो हमें यह अच्छा नहीं लगता है कि दूसरे प्रेम दें, हमें यही अच्छा लगने लगता है कि हम प्रेम दे रहे हैं। यह फर्क समझ लेना जरूरी है। जिसका हृदय प्रेम में प्रतिष्ठित हुआ है, उसे प्रेम देना अच्छा लगता है। उसे प्रेम करना ही आनंद है। वह प्रेम दे पाता है, बस यही उसके भीतर एक खुशी और एक आनंद की घटना बन जाती है। प्रेम देने में ही वह आनंदित हो जाता है। जैसे बादल भर गए हैं और बरस जाते हैं, और फूल खिल गया है और सुंगध बिखर जाती है, और दीया जल गया और प्रकाश बंट जाता है, ऐसे ही जब प्राण प्रेम से भरते हैं तो प्रेम बंटना शुरू हो जाता है। जरूरत तब यह नहीं रह जाती कि कोई हमें प्रेम करे, तब हम प्रेम देंगे। नहीं, प्रेम देने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रह जाता है।

तो वह जो हमारे सामने दुश्मन की तरह आकर खड़ा हो जाएगा उसे दिखाई पड़ेगा कि वह दुश्मन है, लेकिन प्रेमपूर्ण हृदय को नहीं दिखाई पड़ सकता कि कोई दुश्मन है। प्रेमपूर्ण हृदय को ऐसा ही दिखाई पड़ेगा कि कोई पागल है, कोई बीमार है, कोई रुग्ण है, कोई विक्षिप्त है। इस बेचारे को क्या हो गया है!

मंसूर का नाम सुना होगा। मंसूर को सूली दी गई। एक लाख लोग इकट्ठे थे मंसूर को सूली पर लटकाते समय। लोग पत्थर फेंक रहे थे और गालियां दे रहे थे, और मंसूर हंस रहा था। और जब सूली पर उसे लटकाया गया तो उसने हाथ जोड़े और परमात्मा से कहा कि ‘देखते हो, इन प्यारों को? ये सोच रहे हैं कि मुझे मार कर, मेरी हत्या करके ये तेरे प्यारे बन जाएंगे, लेकिन इन पागलों को कुछ भी पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।’

लेकिन उसके शब्द जब वह कह रहा है, ‘ ये पागल!’ जब वह कह रहा है, ‘ ये बेचारे!’ तो इनके प्रति न तो क्रोध है, न दुश्मनी है, बल्कि इनके प्रति भी कितना प्रेम है कि वह कह रहा है कि इन प्यारों को पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं?

जीसस को सूली दी गई। सूली पर लटकाते वक्त उनसे कहा गया कि तुम्हें कुछ अंतिम बात कहनी है? तो जीसस ने कहा. ‘एक ही बात कहनी है कि हे परमात्मा! इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं।’ जीसस का प्रेम से भरा हुआ हृदय यह नहीं समझ पाया कि ये दुश्मनी कर रहे हैं, कि ये चोट पहुंचा रहे हैं, कि ये शत्रु हैं मेरे, कि इनके लिए मेरे मन में घृणा जगनी चाहिए। जिस मन में प्रेम जाग गया है उस मन में घृणा के जागने का उपाय भी नहीं है, चाहे कोई कुछ भी करे।

एक फकीर औरत थी, राबिया। धर्मग्रंथ में, उसके धर्मग्रंथ में कहीं एक पंक्ति आती थी कि शैतान से घृणा करो। उसने वह पंक्ति काट दी। अब धर्मग्रंथों में सुधार नहीं किया जा सकता! एक फकीर उसके घर मेहमान था। उसने धर्मग्रंथ पढ़ा सुबह, तो देख कर हैरान हो गया कि एक लकीर कटी हुई है। उसने राबिया से कहा कि किसने की है यह अशिष्टता। धर्मग्रंथ में सुधार? यह किसने पंक्ति काट दी है? राबिया ने कहा. और किसी ने नहीं, मैंने ही काटी है। लेकिन मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई तो मुझे काटना पड़ा।

वह फकीर पूछने लगा क्या जरूरत थी? यह तो ठीक ही लिखा है कि शैतान को घृणा करो।

राबिया कहने लगी वह तो ठीक लिखा है। जब तक मेरे भीतर प्रेम पैदा न हुआ था तब तक मुझे भी ठीक लगता था, लेकिन अब तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई। जब से प्रेम पैदा हुआ तो मैं घृणा करने में असमर्थ हो गई हूं। शैतान को घृणा करो, वह ठीक है; लेकिन मैं घृणा कैसे करूं? मेरे भीतर घृणा तो बची नहीं, मेरा तो कोना—कोना हृदय का प्रेम में भर गया है। मैं घृणा कहां से लाऊं? नहीं, अब तो मैं घृणा करने में असमर्थ हो गई हूं। अगर शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो जाएगा तो मैं प्रेम ही कर सकती हूं। क्योंकि प्रेम ही मेरे भीतर बचा है और शायद अब मैं पहचान भी न सकूंगी कि कौन शैतान है और कौन भगवान! क्योंकि प्रेम की आंख कैसे फर्क कर पाएगी कि कौन कौन है।

नहीं, हम प्रेम जानते नहीं हैं। हम जिसे प्रेम कहते हैं वह सब लेन—देन और सौदा है— वह सब बारगेनिंग है। हम कहते हैं कि तुम मुझे प्रेम करोगे तो मैं…..! हम पहले चाहते हैं फिर देते हैं। सब सौदा है। सब नाप— जोख है। प्रेम में भी कोई नाप—जोख हो सकती है? कोई सौदा हो सकता है? प्रेम भी कहेगा कि तुम मुझे प्रेम करोगे तो?

नहीं, प्रेम ने यह कभी नहीं कहा। यह सिर्फ वे ही लोग कह रहे हैं जो प्रेम से परिचित भी नहीं हैं, जो केवल प्रेम के शब्द बोलते हैं, प्रेम की बातें करते हैं, लेकिन जिनके हृदय में प्रेम का जादू पैदा नहीं हुआ, वह प्रेम की कीमिया पैदा नहीं हुई, वह प्रेम की रसधार नहीं जगी है।

प्रेम सदा बेशर्त है, अनकंडीशनल है। वह कोई शर्त नहीं बांधता कि इसलिए करूंगा प्रेम, इस कारण से करूंगा प्रेम। जहां कारण है और जहां शर्त है, वहां सौदा है, प्रेम कहां! प्रेम तो कहता है कि चूंकि मैं भरा हूं प्रेम से तो अब मैं क्या करूं, करूंगा प्रेम। क्योंकि प्रेम ही मेरे पास है, वही मैं दे सकता हूं वही मैं बांट सकता हूं। तो जिस प्रेम की मैं बात कर रहा हूं वह प्रेम— नहीं, उस प्रेम को नहीं दिखाई पड़ता है कि कौन चोट पहुंचा रहा है, बल्कि उलटी बात भी हो सकती है।

जीसस एक गांव से गुजरते थे। एक पागल कुत्ते ने एक बाजार की भीड़ में उनके पैर में काट लिया। भीड़ इकट्ठी हो गई। लोगों ने उस कुत्ते को पकड़ लिया और कहा कि इसकी हत्या कर दो। यह न मालूम और किनको काट लेगा। लेकिन जीसस उस कुत्ते के ऊपर हाथ फेर रहे हैं और लोग कहने लगे कि यह आदमी उस कुत्ते से भी ज्यादा पागल मालूम होता है। इसके पैर में काट लिया है, लहू बह रहा है और यह कुत्ते पर हाथ फेर रहा है।

और जीसस कहने लगे, दोस्तो! तुम सिर्फ यही देखोगे कि क्या उसने मेरे पैर में काट लिया। और उसके दांत नहीं देखते कि कितने चमकदार हैं, कितने ताजे, कितने प्यारे! तुममें से किसी के दांत भी इतने साफ नहीं हैं। तो एक आदमी भीड़ में से चिल्लाया कि जरूर यह आदमी जीसस होगा, क्योंकि सिर्फ वही आदमी एक ऐसा है कि कुत्ता उसे काटे तो भी उसे कुत्ते के चमकदार दांत दिखाई पड़े और काटा हुआ दिखाई न पड़े। जरूर यह आदमी जीसस होगा, लोगों से वह कहने लगा।

यह संभावना है। प्रेम अगर हृदय में पूरा हो, तो जिस कुत्ते ने काट लिया है उस कुत्ते में भी कुछ दिखाई पड़ सकता है जो सुंदर है और धन्यवाद देने योग्य है। वह प्रेम भीतर हो तो दिखाई पड़ सकता है। वह प्रेम भीतर न हो तब बहुत कठिनाई है, तब बहुत मुश्किल है, और वह प्रेम हमारे भीतर नहीं है।

इसी संबंध में एक मित्र ने और पूछा है कि ओशो यह तो ठीक है कि हम प्रेम करें करुणा से भरे हुए हो लेकिन अगर कोई देश हम पर हमला कर दे? कोई राष्ट्र हम पर हमला कर दे? तो फिर हम कैसे करुणा को बचाएने फिर कैसे हम प्रेमपूर्ण होने?

च तो यह है, अगर कोई भी देश, कोई भी समाज प्रेमपूर्ण हो जाए तो उसे कोई भी दूसरा देश दूसरा नहीं दिखाई पड़ेगा। वह दूसरा देश दूसरा दिखाई पड़ता है क्योंकि हमारे हृदय प्रेमपूर्ण नहीं हैं। दुनिया को बांटने वाली जितनी रेखाएं हैं, वे सारी रेखाएं घृणा ने खींची हैं। वे रेखाएं प्रेम के द्वारा नहीं खींची गई हैं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान को जो रेखा बांटती है, वह रेखा घृणा की रेखा है। हिंदुस्तान को और चीन को जो रेखा बांटती है, वह रेखा परमात्मा ने कहीं भी नहीं खींची हैं। पृथ्वी कहीं भी बंटी हुई नहीं है। चूंकि आदमी घृणा से भरा हुआ है, इसलिए उसने पृथ्वी बांट ली है। और ये जो घृणा के ठेकेदार हैं राजनीतिज्ञ, ये जो घृणा का धंधा करते हैं राजनीति के लोग, ये जो घृणा का व्यवसाय करते हैं और उसी पर जीते हैं उन्होंने सारी दुनिया को बांट कर तोड़ डाला है।

दुनिया में जिस दिन प्रेम होगा, उस दिन देश नहीं हो सकते। देश हैं, क्योंकि प्रेम नहीं है। लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि हम प्रेम से भर गए हों, फिर भी तो कोई दूसरा हम पर हमला कर सकता है। यह भय भी चूंकि हमारे भीतर प्रेम नहीं है इसलिए मालूम पड़ता है। जिसके भीतर प्रेम नहीं है वह सदा भयभीत है और जिसके भीतर प्रेम है वह अभय को, फियरलेसनेस को उपलब्ध हो जाता है।

नहीं, वह भयभीत नहीं होता कि कोई हमला कर देगा। और बड़े मजे की बात है यह, हिंदुस्तान डरता है कि पाकिस्तान हमला न कर दे और पाकिस्तान डरता है कि हिंदुस्तान हमला न कर दे। अमरीका डरता है कि रूस तैयारी कर रहा है, कहीं हमला न कर दे। रूस डरता है कि अमरीका तैयारी कर रहा है, कहीं हमला न कर दे।

सारी दुनिया में लोग एक—दूसरे से डरे हुए हैं। एक—दूसरे से डरने के कारण वे घृणा को संजोते चले जाते हैं। युद्ध की तैयारी करते चले जाते हैं और कोई भी यह नहीं कहता कि हम सारे लोग जब एक—दूसरे से डरे हुए हैं तो बड़े पागल हैं। एक बार बैठ कर निपटारा कर लें कि कोई किसी से न डरे। क्योंकि जब एक—दूसरे से डरना है तो उसका मतलब यह है, उसका सीधा मतलब यह है कि हम बिलकुल पागल हैं।

सारा रूस घबड़ाया हुआ है अमरीका से। सारा अमरीका घबड़ाया हुआ है रूस से। यह क्या पागलपन है? क्या इस बीसवीं सदी में भी यह संभव नहीं हो पाया कि हम समझ लें कि किसी को किसी से घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है?

नहीं, इतना प्रेम भी हमारे भीतर नहीं है कि हम एक—दूसरे को समझने को तैयार हो जाएं। दुनिया में राष्ट्र और देश हैं, क्योंकि दुनिया में प्रेम नहीं है। प्रेम होगा तो न कोई राष्ट्र होगा, न कोई देश होगा, न कोई जाति होगी। प्रेम तो मिटा डालेगा सब बीमारियों को। लेकिन आज एकदम से तो सारा देश प्रेम से नहीं भर सकता है!

पूछा जा सकता है कि ‘कुछ लोग अगर प्रेम से भी भर जाए और फिर भी कोई हमला हो तो वे क्या करेगे?’

तो मेरा कहना है कि प्रेम से भी लड़ा जा सकता है। एक छोटी सी घटना बताऊं तो समझ में आ सके। एक मुसलमान खलीफा था, उमर। एक पड़ोस के राजा से कोई सात वर्षों से युद्ध चलता था। न मालूम कितने लोग मरे, न मालूम कितनी लड़ाइयां हुईं, लेकिन कोई निपटारा न हो सका। साथ में युद्ध में निपटारे का क्षण आ गया। उमर ने दुश्मन को नीचे गिरा लिया। उसके घोड़े को मार डाला। दुश्मन की छाती पर चढ़ गया और भाला उठा लिया उसकी छाती में भोंकने को। एक क्षण और, और छाती में भाला भोंक दिया गया होता, लेकिन नीचे पड़े हुए दुश्मन ने उमर के मुंह पर यूक दिया। उमर ने थूक पोंछ लिया और कहा कि दोस्त! अब लड़ाई कल होगी। मैं उठ जाता हूं। वह नीचे पड़ा दुश्मन कहने लगा. पागल हो गए हो तुम। ऐसा अवसर सात वर्षों में पहली बार मिला है मुझे खत्म कर देने का। मुझे छोड़ कर क्या कर रहे हो यह? यह मौका क्यों खोते हो?

उमर कहने लगा कि नहीं—नहीं। एक खयाल था मेरे मन में कि लडूंगा प्रेम से और शांति से, लेकिन तुम्हारे थूकने से मुझे क्रोध आ गया। अब फिर कल लड़ाई शुरू करेंगे। अब भाला उठाना ठीक नहीं है। वह उमर उतर गया। उसने कहा कि अब क्रोध आ गया, अब तुम्हारी हत्या करना ठीक नहीं है। क्योंकि अब तक लड़ाई उसूल की थी, अब तक लड़ाई सिद्धांत की थी। अब तक मुझे लगता था कि मैं उसके लिए लड़ रहा हूं जो सत्य है। लेकिन सत्य की लड़ाई तो प्रेम से की जा सकती है, क्रोध से नहीं। तुम्हारे थूकने से मुझे क्रोध आ गया और मेरे मन को हुआ कि मार डालूं इसे। पहली दफा व्यक्तिगत दुश्मनी प्रकट हो गई। नहीं, व्यक्तिगत दुश्मनी मेरी नहीं है और व्यक्तिगत दुश्मनी सत्य के बीच में लानी उचित नहीं है। मैं हट जाता हूं। अगर कल तक शांत हो सका तो सुबह फिर लड़ाई शुरू होगी। और अगर नहीं हो सका तो यह लड़ाई खत्म हो गई।

वह दुश्मन तो हार ही गया। वह तो पैरों पर गिर पड़ा। उसने तो कल्पना भी न की थी कि एक आदमी सात वर्षों से शांति से लड़ रहा हो और एक आदमी सात वर्षों से सत्य के लिए लड़ रहा हो—न उसके मन में क्रोध है, न हिंसा है। यह संभावना है!

इस संभावना को इस भांति और भी आसानी से समझा जा सकता है। आप एक आदमी से दोस्ती रख सकते हैं और दोस्ती के भीतर भी घृणा पाल सकते हैं, क्रोध पाल सकते हैं। आप दोस्त दिखाई पड़ सकते हैं और भीतर से घृणा और क्रोध हो। ठीक इससे उलटा भी हो सकता है। आप दुश्मन की तरह लड़ भी सकते हैं और भीतर से करुणा और प्रेम हो। जिससे आप लड़ रहे हैं, उसके भी अहित की कोई कामना नहीं है, उसको भी हानि पहुंचाने का कोई विचार नहीं है—लड़ाई सत्य के तल पर हो सकती है।

इसी संबंध में एक मित्र ने और पूछा है कि ओशो कृष्ण ने तो इतना बड़ा युद्ध किया तो क्या वे प्रेमपूर्ण नहीं थे?

कृष्ण जैसा प्रेम करने वाला आदमी पृथ्वी पर मुश्किल से हुआ है। कृष्ण जैसा प्यारा आदमी मुश्किल से पृथ्वी पर हुआ है। करोड़ों वर्ष लग जाते हैं तब पृथ्वी उस तरह के एकाध आदमी को पैदा करने में सफल हो पाती है। लेकिन वह लड़ाई न क्रोध की थी, न घृणा की थी। वह लड़ाई सत्य की और सत्य के लिए थी। और अत्यंत प्रेम और अत्यंत शांति से लड़ी गई थी। दिन भर लड़ते थे युद्ध के मैदान में और सांझ को एक—दूसरे के शिविर में जाकर गपशप भी चलती थी। दिन भर लड़ते थे युद्ध के मैदान में और सांझ को एक—दूसरे के खेमे में बैठ कर बातचीत भी चलती थी। जिस भीष्म से लड़ाई चली, युद्ध समाप्त हो जाने पर भीष्म पड़े हैं मरणशय्या पर। उससे ही—पहुंच गए हैं—जो लड़े थे वे ही उपदेश लेने कि धर्म के संबंध में हमें कुछ उपदेश दे दें!

अदभुत लोग थे। बड़े गजब के लोग रहे होंगे। जिससे चला है युद्ध, जिससे जी—जान से लड़े हैं उससे भी अंतिम क्षणों में उसके चरणों में बैठ कर पूछने गए हैं कि हमें धर्म का अंतिम उपदेश दे दें!

नहीं, वह लड़ाई घृणा की लड़ाई नहीं थी।

जब तक दुनिया में बुराई है, जब तक दुनिया में पाप है, जब तक दुनिया में असत्य और अधर्म है; तब तक जो शांत हैं, जो प्रेमपूर्ण हैं उन्हें भी लड़ना पड़ेगा। लड़ना उनकी इच्छा नहीं है, हमेशा उनकी मजबूरी है। लेकिन उस लड़ाई में भी प्रेम को और करुणा को खो देने का कोई कारण नहीं है।

एक मेरे मित्र जापान से लौटे। वे वहां से एक मूर्ति खरीद लाए। वह मूर्ति उनकी समझ के बाहर उन्हें मालूम पड़ी। पर बहुत प्यारी लगी तो वे उस मूर्ति को ले आए। मेरे पास वे मूर्ति लाए और कहने लगे, मैं इसका अर्थ नहीं समझा हूं। यह बड़ी अजीब मूर्ति मालूम पड़ती है। मूर्ति सच में ही अजीब थी। मैं भी देख कर चौंका। और मैं देख कर खुशी और आनंद से भी भर गया। मूर्ति अदभुत थी।

वह मूर्ति थी एक सिपाही की मूर्ति, लेकिन साथ ही वह एक संत की मूर्ति भी थी। उस मूर्ति के एक हाथ में थी तलवार नंगी और उस तलवार की चमक उस मूर्ति के आधे चेहरे पर पड़ रही थी, और वह आधा चेहरा ऐसा मालूम पड़ता था जैसे अर्जुन का चेहरा रहा हो। जैसे तलवार की चमक थी वैसा ही वह आधा चेहरा जिस पर तलवार चमक रही थी, वह आधा चेहरा भी उतना ही चमक से भरा हुआ था। उतने ही शौर्य से, उतने ही ओज से, उतने ही वीर्य से। और दूसरे हाथ में उस मूर्ति के एक दीया था। और दीये की ज्योति की चमक चेहरे के दूसरे हिस्से पर पड़ती थी। और वह दूसरा हिस्सा बिलकुल ही दूसरा था। वह चेहरा ऐसा मालूम पड़ता था जैसे बुद्ध का रहा हो—इतना शांत, इतना मौन, इतना करुणा से भरा हुआ। और वह एक ही आदमी का चेहरा था। और एक हाथ में तलवार और एक हाथ में दीया।

वे मेरे मित्र पूछने लगे, मैं समझा नहीं, यह कैसा आदमी है?

मैंने कहा इसी आदमी की तलाश में दुनिया है हमेशा से। एक ऐसा आदमी चाहिए जो तलवार की तरह अडिग भी हो, जो तलवार की तरह ओज से भी भरा हो, समय पड़ने पर जो तलवार बन जाए। लेकिन उस आदमी के भीतर शांति का और करुणा का दीया भी हो। जिस आदमी के भीतर करुणा का और शांति का और प्रेम का दीया है, उसके हाथ में तलवार खतरनाक नहीं है। उसके हाथ में तलवार भी मंगल सिद्ध होगी। और जिस आदमी के भीतर क्रोध और घृणा का अंधकार है, उसके हाथ में तलवार भी न हो, एक छोटा सा कंकड़ भी खतरनाक सिद्ध होने वाला है। आदमी भीतर कैसा है? अगर अशांत है तो उसके हाथ की शक्ति शैतान बन जाएगी और अगर भीतर आदमी शांत है तो उसके हाथ की शक्ति सदा से भगवान के चरणों में समर्पित रही है।

नहीं, उससे घबड़ाने की जरूरत नहीं है कि आप शांत हो जाएंगे तो आप निर्वीय नहीं हो जाएंगे। शांत होने से वीर्य और ओजस्व बढ़ता है, कम नहीं होता। लेकिन एक फर्क पड़ जाता है। शांत आदमी का सारा ओज, सारी शक्ति सत्य के पक्ष में खड़ी होती है, असत्य के पक्ष में नहीं। शांत आदमी का सारा व्यक्तित्व धर्म के लिए समर्पित होता है, अधर्म के लिए नहीं। शांत आदमी का जो कुछ है, वह सब परमात्मा के लिए समर्पित है। वह युद्ध में भी जा सकता है तो भी वह प्रार्थनापूर्ण हृदय से ही जाएगा, और अशात आदमी मंदिर में भी जाता है तो प्रार्थनापूर्ण हृदय से नहीं। यह फर्क समझ लेना जरूरी है।

शांत आदमी युद्ध के मैदान पर भी प्रेयरफुल होगा, वह प्रार्थना से भरा होगा। वह जिनसे युद्ध में खड़ा होना पड़ा है, उसे मजबूरी में एक नेसेसरी ईविल की तरह, एक आवश्यक बुराई की तरह। वह उनके प्रति भी परमात्मा से, प्रार्थना से ही भरा हुआ होगा। वह उनकी सदबुद्धि और मंगल के लिए भी प्रार्थना करता होगा। उसके हाथ में तलवार होगी लेकिन हृदय में प्रार्थना होगी। और अशांत आदमी मंदिर में माला लेकर बैठा है तो भी उसके मन में सबके मंगल की कोई कामना नहीं है। वह माला लिए बैठा है लेकिन उसके भीतर—उसके भीतर जो चल रहा है, उसमें प्रार्थना जैसा कुछ भी नहीं है, प्रेम जैसा कुछ भी नहीं है।

नहीं, इससे बहुत भ्रांति में पड़ जाने की जरूरत नहीं है कि हाथ में क्या है? सवाल हमेशा यह है कि भीतर क्या है? शांत मनुष्य चाहिए और शांत मनुष्यों के हाथ में शक्ति का कभी भी दुरुपयोग नहीं हो सकता है।

शांत मनुष्यों के हाथ में शक्ति पहुंच जाए तो शायद बहुत जल्दी एक ऐसी दुनिया भी बन जाए जहां शक्ति के उपयोग की जरूरत भी न रह जाए। प्रेम और शांति हो तो राष्ट्र मिट जाएंगे, जातियां मिट जाएंगी, वर्ग मिट जाएंगे। प्रेम नहीं है, इसलिए सारी समस्या है।

एक मित्र पूछते हैं कि ओशो शुभ कार्य करने के लिए भी तो अहंकार की जरूरत होती है अगर अहंकार नहीं रह जाएगा तब तो शुभ कार्य भी कोई नहीं करेगा!

न्हें पता नहीं। उन्हें पता नहीं कि जब तक अहंकार है तब तक कोई शुभ कार्य करने का विचार ही कर सकता है, कर कभी नहीं पाता है। और जब तक अहंकार है तब तक शुभ कार्य किया भी जाए तो अंततः अशुभ ही सिद्ध होता है, शुभ सिद्ध नहीं होता। वह अहंकार इतना बड़ा जहर है कि उसके साथ शुभ कार्य हमेशा विकृत हो जाएगा। कभी भी अहंकार के साथ शुभ कार्य सफल नहीं हो सकता। यह ऐसे ही है जैसे मटकी भर दूध में एक छोटी सी बूंद भर जहर डाल दी जाए और कोई कहे कि इतने से जहर से क्या फर्क पड़ता है। नहीं, वह उतना सा जहर उस पूरी मटकी को जहर बना देगा।

अहंकार तो पायजन है, अहंकार तो जहर है। वह कितने ही बड़े शुभ कार्य में लगाया जाए, वह शुभ कार्य भी पूरा पायजनस और जहरीला हो जाएगा। दुनिया में बहुत शुभ कार्य किए गए हैं, लेकिन दुनिया शुभ नहीं हो पाई इसीलिए कि उन शुभ कार्यों के पीछे भी अहंकार खड़ा है। उन शुभ कार्यों के पीछे भी अशुभ की शक्ति खड़ी हुई है। अहंकार कभी भी शुभ कार्य नहीं कर सकता है। सच तो यह है कि जब अहंकार नहीं रह जाता, तब जो भी कार्य होते हैं वे सभी शुभ होते हैं।

लेकिन वे मित्र पूछते हैं कि ‘ अहंकार नहीं रह जाएगा तब तो कार्य ही बंद हो जाएंगे।’

नहीं, यह किसने कहा? अहंकार नहीं रह जाएगा तो कार्य होंगे, सिर्फ अशुभ कार्य बंद हो जाएंगे। अहंकार जब तक है तब तक अशुभ कार्य होंगे, शुभ कार्य नहीं हो सकेंगे। अहंकार के मिटते ही व्यक्ति के भीतर क्या घटना घटती है? जैसे ही अहंकार मिटता है उसका यह भाव चला जाता है कि मैं करने वाला हूं मैं कर्ता हूं। फिर एक नये भाव का उदय होता है कि मैं तो हूं ही नहीं, परमात्मा ही है; वही कर रहा है, वही करवा रहा है। फिर वह व्यक्ति काम करता है तो ऐसा नहीं कि मैं कर रहा हूं। ऐसे करता है कि वह करवा रहा है। फिर वह काम करता है तो ऐसे नहीं कि मैं हूं उस काम के पीछे। नहीं, वही है, परमात्मा है, सर्व है।

कबीर कहते थे, कि जब से मिट गया ‘मैं’ तब से मैं एक बांस की पोंगरी हो गया। गीत उसके हैं, सिर्फ मुझसे बहते हैं, लोग समझते हैं कि मैं गा रहा हूं। एक आदमी बांसुरी पर गीत गा रहा है, बांसुरी को भ्रम हो सकता है कि मैं गा रही हूं। बांसुरी सिर्फ बांस की पोंगरी है, नहीं है उसमें कुछ, सिर्फ एक पैसेज, एक मार्ग है जिससे गीत बहता है और प्रकट हो जाता है। कबीर कहते थे, जब से मिट गया ‘ मैं’ तब से मैं एक बांस की पोगरी हो गया। अब गीत तेरे हैं और लोग समझते हैं कि मैं गा रहा हूं।

अहंकार मिट जाता है तो हमारे जीवन के केंद्र पर परमात्मा बैठ जाता है, फिर वही करता है। और वह जो भी करता है, अशुभ कैसे हो सकता है? अशुभ करता हूं मैं, और जिस दिन ‘मैं’ मिट जाएगा उस दिन जो भी होता है वह सभी शुभ है। शुभ की परिभाषा ही ऐसी की जा सकती है और की जानी चाहिए, वह कार्य शुभ है जिसके पीछे अहंकार नहीं है। वह कार्य अशुभ है, जिसके पीछे अहंकार है।

एक आदमी मंदिर बनाता है। लगता है कि शुभ कार्य हो रहा है, मंदिर बनाया जा रहा है। फिर वह मंदिर की छाती पर अपना नाम खोद देता है, बनाने वाले का। फिर वह मंदिर जहर हो जाता है। इसीलिए तो दुनिया में इतने प्रकार के मंदिर हैं। अगर निर—अहंकारी लोगों ने मंदिर बनाए होते तो सभी मंदिर एक प्रकार के होते। मस्जिद, मंदिर, गिरजा, गुरुद्वारा कैसे हो सकते थे? परमात्मा के मंदिर बहुत प्रकार के हो सकते हैं? वे सब टेम्पल्स ऑफ गॉड होते। वे परमात्मा के मंदिर होते, चाहे उनकी शक्ल कोई भी होती और दीवालें कैसी ही बनाई गई होतीं और झरोखे कैसे ही निकाले गए होते और मीनारें लगाई गई होतीं या गुंबद उठाए गए होते या कलश चढ़ाए गए होते, वे सब मंदिर होते परमात्मा को समर्पित।

लेकिन नहीं, परमात्मा का मंदिर पृथ्वी पर आज तक नहीं बन सका। सब मंदिर आदमियों के हैं, इसलिए एक मंदिर हिंदुओं का है, एक मुसलमानों का है, एक ईसाइयों का है, एक जैनियों का है—परमात्मा का मंदिर एक भी नहीं है। क्योंकि परमात्मा के मंदिर के साथ कोई नाम, कोई विशेषण नहीं हो सकता। वह सिर्फ मंदिर होगा।

अब तक मंदिर नहीं बन पाया दुनिया में, क्योंकि मंदिर बनाने के पीछे अहंकार खड़ा है और तब मंदिर से शुभ फलित नहीं हुआ। मंदिर और मस्जिदों ने लड़ाया आदमी को। मंदिरों और मस्जिदों पर खून बहा। मंदिरों और मस्जिदों पर जितनी हत्याएं हुईं आज तक, उतनी शराबघरों पर भी नहीं हुई हैं। चोरी के, जुओं के अड्डों पर नहीं हुई हैं। अगर हिसाब ही लगाना हो तो चोरी, जुआ और शराबघर के अड्डे मंदिरों और मस्जिदों से ज्यादा पुण्यकारी साबित हुए हैं। उन पर आज तक न इतनी हत्या हुई है, न इतनी दुश्मनी हुई है, न इतनी गोलियां—बंदूकें चली हैं, न छुरे भोंके गए, न स्त्रियों की इज्जत लूटी गई है, न बच्चों के कल्ल किए गए हैं।

नहीं, आज तक अगर हिसाब लगाना हो कामों का तो सारे मंदिर हार जाएंगे जुआघरों के सामने भी। यह अजीब सी बात है। आदमी को मधुशाला ने भी, शराबघर ने भी नहीं लडाया इतना, जितना मंदिर और मस्जिदों ने लड़ाया है। शराब ने भी मनुष्य को इतना पागल नहीं किया, जितना मंदिर और मस्जिदों ने किया है। और बनाया था जिन्होंने इनको वे शुभ कार्य कर रहे थे और फलित अशुभ हुआ। पीछे अहंकार था।

अहंकार मंदिर के भी पीछे हो तो मंदिर शैतान का घर हो जाता है, भगवान का नहीं हो पाता। शुभ के नाम पर क्या—क्या नहीं हुआ है, लेकिन उसके परिणाम क्या हुए हैं? उससे निकला क्या है जगत में? अगर हम जीवन में चारों तरफ आंख फेर कर देखेंगे तो हमें दिखाई पड़ेगा कि अशुभ करने वाले लोगों की बजाय शुभ करने वाले लोगों ने हमें बहुत गड्डे में और खतरे में डाला। और कारण उसका है कि पीछे है— अहंकार। शुभ तो सिर्फ खोल है, शुभ तो सिर्फ आडू है। अच्छे काम की तो सिर्फ बातचीत है, पीछे तो वह अहंकार खड़ा हुआ है। जब एक आदमी कहता है कि हिंदू धर्म सबसे महान धर्म है, तो यह भूल कर भी मत समझना कि उसे हिंदू धर्म से कोई भी मतलब है। जब वह कह रहा है कि हिंदू धर्म सबसे महान धर्म है, तो वह घूम—फिर कर यह कह रहा है कि मैं सबसे महान मनुष्य हूं क्योंकि मैं हिंदू हूं।

मैंने सुना है, पेरिस के विश्वविद्यालय में एक अध्यापक था और उस अध्यापक ने एक दिन अपनी कक्षा में आकर कहा—वह दर्शनशास्त्र का अध्यापक, फिलॉसफी का प्रोफेसर—उसने कहा कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा आदमी हूं!

उसके विद्यार्थी हंसने लगे और उन्होंने कहा क्या आप पागल हो गए हैं? यह आप कैसे कह सकते हैं? उसने कहा न केवल मैं कहता हूं मैं सिद्ध कर सकता हूं। वह उठा और अपनी छड़ी को उठा कर उसने दुनिया के नक्‍शो पर रखा और कहा उन विद्यार्थियों से कि मैं पूछता हूं तुमसे, इस बड़ी दुनिया में सबसे श्रेष्ठ देश कौन सा है?

वे बच्चे सभी फ्रांसीसी थे। उन्होंने कहा फ्रांस।

उसने कहा चलो, एक बात तय हो गई। अब सारी दुनिया का सवाल खत्म। फ्रांस सर्वश्रेष्ठ है, यह तुम मानते हो?

उन्होंने कहा. हां, हम मानते हैं।

उसने पूछा अब मैं तुमसे पूछता हूं कि फ्रांस में सर्वश्रेष्ठ नगर कौन सा है?

वे सारे बच्चे पेरिस के बच्चे थे और पेरिस के विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। उन्होंने कहा पेरिस। इसमें क्या शक की बात है!

तो उस प्रोफेसर ने कहा कि तब सिद्ध हो गया है कि पेरिस दुनिया का सर्वश्रेठ नगर है, फ्रांस सर्वश्रेष्ठ देश है। सर्वश्रेष्ठ देश का जो सर्वश्रेष्ठ नगर है वह सारी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ नगर हो गया। उसने कहा : बात खत्म हो गई अब फ्रांस की, अब रह गया पेरिस। मैं तुमसे पूछता हूं कि पेरिस में सर्वश्रेष्ठ स्थान कौन सा है? सारे बच्चों ने कहा युनिवर्सिटी, विश्वविद्यालय, विद्या का केंद्र, विद्या का मंदिर—यही श्रेष्ठतम है! उस प्रोफेसर ने कहा तब पेरिस भी खत्म, रह गया विश्वविद्यालय। और मैं तुमसे पूछता हूं इस विश्वविद्यालय में सर्वश्रेष्ठ विषय कौन सा है, सब्जेक्ट कौन सा है?

उन बच्चों ने कहा फिलॉसफी। क्योंकि वे सभी दर्शनशास्त्र के बच्चे थे।

उसने कहा चलो, यह भी खत्म। अब मैं तुमसे पूछता हूं कि फिलॉसफी विभाग का अध्यक्ष कौन है? उन बच्चों ने कहा वह तो आप ही हैं।

उसने कहा तब यह सिद्ध होता है कि मैं दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मनुष्य हूं!

यह इतनी लांग रूट, इतना लंबा रास्ता आदमी अपने अहंकार को सिद्ध करने के लिए लेता है। कहता है भारत? भारत सबसे महान देश है। पीछे घूम—फिर कर पता लगाइएगा तो पता चलेगा, चूंकि ये सज्जन भूल से भारत में पैदा हो गए हैं। ये यह कहने के लिए कि मैं बहुत महान हूं भारत तक को महान बनाए दे रहे हैं। हिंदू धर्म महान है, मुसलमान धर्म महान है, इस्लाम महान है, ये सब अहंकार की घोषणाएं हैं। लेकिन ये घोषणाएं बड़ी शुभ शक्ल लेकर आती हैं। वे कहती हैं, मातृभूमि, मदरलैंड, और पीछे बैठा है सिर्फ अहंकार और कुछ भी नहीं। लेकिन ‘मातृभूमि’ शब्द धोखे खड़ा कर देता है। लगता है कि कितना अच्छा आदमी है, मातृभूमि की बात कर रहा है, मदरलैंड की बात कर रहा है। और आपको पता है, ये मदरलैंड और फादरलैंड की बात करने वाले लोग बड़े मिस्विवियस हैं, ये बहुत उपद्रवी हैं।

हिटलर भी कहता है, फादरलैंड। जर्मनी हमारी पितृभूमि है, यह हमारा पितृदेश है। स्टैलिन भी वही कहता है, मुसोलिनी भी वही कहता है, तोजो भी वही कहता है, दुनिया के सब पागल यही कहते हैं, मेरी मातृभूमि! और हमको लगता है कि बड़ी ऊंची और अच्छी बात कह रहे हैं। और खतरे में हमको उतार देते हैं, वे तत्‍क्षण खतरे में उतार देते हैं।

अहंकार जहां है वहां शुभ असंभव है, लेकिन शुभ के वस्त्र ओढ़े जा सकते हैं और वस्त्र धोखा दे देते हैं। और स्मरण रखना चाहिए कि दुनिया में जितनी बेईमानी है वह हमेशा ईमानदारी के वस्त्र पहन कर आती है। दुनिया में जितना असत्य है वह हमेशा सत्य के कपड़ों में छिपा रहता है, दुनिया में जितना अधर्म है वह हमेशा धर्म के टीका—तिलक लगा कर प्रकट होता है। दुनिया में जितना पाप है, वह हमेशा पुण्य की शब्दावली में अपने को छिपाता है और ढांकता है।

मैंने सुना है, दुनिया बनी और परमात्मा ने सौंदर्य की देवी और कुरूपता की देवी को बनाया। वे दोनों पृथ्वी पर उतरती थीं। वे एक सरोवर के किनारे उतरी होंगी, धूल भर गई होगी आकाश से पृथ्वी तक आने में। उन्होंने अपने वस्त्र सरोवर के किनारे रखे और वे सरोवर में स्नान करने उतर गईं।

जब सुंदरता की देवी नहाने लगी नग्न होकर और थोड़े गहरे पानी में चली गई तब उस कुरूपता की देवी ने बाहर निकल कर जल्दी से सुंदरता की देवी के वस्त्र पहने और दौड़ना शुरू कर दिया।

सुंदरता की देवी ने देखा, अरे! वह कुरूपता की देवी तो भाग गई है और उसके वस्त्र भी ले गई। वह बाहर निकली, लेकिन वह नग्न थी और सुबह होने लगी और लोग आने लगे। अब मजबूरी थी। वहां कुरूपता के वस्त्र पड़े थे और कुछ भी न था। उसने वह कुरूपता के वस्त्र ही पहने कि जब तक वह न मिल जाए कुरूपता की देवी, तब तक इन्हीं से काम चला लूं। वह उन वस्त्रों को पहन कर दौड़ी उसके पीछे—सुनते हैं वह अब तक दौड़ रही है—लेकिन वह वस्त्र बदल नहीं पाई। वह नहीं बदल पाएगी।

कुरूपता सदा सौंदर्य का वेश लिए रहती है। अधर्म सदा धर्म की बातें करता रहता है। शैतान सदा मंदिरों में पुजारी होकर भर्ती हो जाते हैं। शुभ का नाम होता है, पीछे अहंकार होता है तो कभी शुभ फलित नहीं होता है। लेकिन यह सच है कि चूंकि गलत चीजों के पास अपने पैर नहीं होते हैं इसलिए हमेशा पैर उन्हें उधार मांगने पड़ते हैं।

अहंकार को भी अगर अपनी घोषणा करनी हो तो उसे किसी शुभ कार्य के पीछे खड़े होकर घोषणा करनी पड़ती है। सीधे अहंकार की घोषणा को कौन सुनेगा, कौन मानेगा? तो वह अहंकार कहता है कि मैं एक मंदिर बनाऊंगा, भगवान का मंदिर! अहंकार कहता है कि मैं समाज की सेवा करूंगा! अहंकार कहता है कि मैं दरिद्रों को भगवान मानता हूं दरिद्रनारायण मानता हूं मैं उनके पैर धोऊंगा! अहंकार खोजता है अच्छे—अच्छे शब्द, अच्छा—अच्छा ढंग और पीछे स्वयं खड़ा हो जाता है और प्रतिष्ठित होता है।

सारा शुभ कार्य अहंकार के कारण पाखंड हो गया है।

नहीं, इस भूल में भूल कर भी मत पड़ जाना कि अहंकार के रहते शुभ कार्य हो सकता है। रह गई दूसरी बात, कि अहंकार के चले जाने पर हम कुछ करेंगे क्या? नहीं, आप कुछ भी नहीं करेंगे। क्योंकि आप तो गए, अहंकार ही तो आप थे। आप गए, आप कुछ नहीं करेंगे, लेकिन कुछ होगा और वह होना आपसे नहीं होगा, वह होना परमात्मा से होगा। सारा जगत चल रहा है और आदमी सोचता है कि सिर्फ अहंकार की वजह से मैं चल रहा हूं।

आप पैदा हुए तो आपके अहंकार ने आपके पैदा होने में कौन सा हाथ बंटाया? आप बच्चे थे जवान हो गए, आप खाना खाते हैं खाना पचता है, खून बन जाता है, रग—रेशे में पहुंच जाता है। वैशानिक कहते हैं कि अगर खाने को पचाने के लिए हम कोई मशीन बिठाएं तो इतना बड़ा कारखाना बनाना होगा, और इतनी मेहनत करनी पड़ेगी। और एक आदमी चुपचाप दिन—रात खाना पचाता है, खून बनाता है और कुछ पता भी नहीं चलता है, कहीं कोई शोरगुल भी नहीं, फैक्ट्री की कोई आवाज भी नहीं। उस आदमी को भी पता नहीं चलता कि रोटी कब खून बन गई, कैसे खून बन गई। आप बनाते हैं खून रोटी से? गले के नीचे क्या होता है, आपको कुछ भी पता नहीं। आदमी का चौका और आदमी का पाकशास्त्र गले के नीचे नहीं जाता, बस वहीं तक काम चलता है। फिर नीचे क्या होता है, उसका हमें कुछ भी पता नहीं!

जैसे वृक्ष की जड़ें जमीन के नीचे अंधकार में चुपचाप काम करती रहती हैं, वैसा ही मनुष्य का पूरा व्यक्तित्व चुपचाप काम कर रहा है। सब हो रहा है। लेकिन अहंकार बीच—बीच में कहता है कि मैं यह कर रहा हूं मैं यह कर रहा हूं। जहां—जहां वह जोड़ देता है कि मैं यह कर रहा हूं वहीं अशुभ की छाया पड़ जाती है। जहां अहंकार की छाया पड़ती है, वहीं जहर फैल जाता है।

नहीं, बुद्ध या महावीर जैसे लोग निष्क्रिय नहीं हो जाते हैं बल्कि साधारण लोगों से ज्यादा सक्रिय हो जाते हैं। लेकिन उन्हें ऐसा नहीं लगता कि हम कुछ कर रहे हैं, उन्हें लगता है कि हो रहा है! डूइंग का खयाल नहीं रह जाता है, हैपनिंग का खयाल आ जाता है। चीजें हो रही हैं; की नहीं जा रही हैं, कर नहीं रहे हैं हम। हवाएं चल रही हैं, समुद्र गर्जन कर रहा है। चांद आकाश से अमृत बरसा रहा है, यह सब हो रहा है। जब मनुष्य का अहंकार चला जाता है तब ऐसे ही सहज उससे भी सब होता है और ऐसा सहज जो होना है वही शुभ है, वही मंगलदायी है, वही कल्याण है।

एक मित्र ने पूछा है कि ओशो ध्यान में पूछते हैं हम : ‘मैं कौन हूं?’ तो उत्तर तो कोई नहीं आता लेकिन मन शांत हो जाता है?

न जब पूर्ण शांत हो जाएगा तब उत्तर आएगा और मन की शांति से जल्दी राजी मत हो जाना, पूछना मत छोड़ देना। होने दें मन को शांत और पूछते ही चले जाएं, पूछते ही चले जाएं। मन गहरे से गहरा शांत होता चला जाएगा और आप अपनी जिज्ञासा को और गहरा और तीव्र करते चले जाएं। जिज्ञासा इतनी तीव्र हो जाए कि उसके आगे और जिज्ञासा करने का कोई उपाय न हो। सारी शक्ति संलग्न हो जाए, तब एक विस्फोट की तरह मन परिपूर्ण शांत हो जाएगा। इतना शांत हो जाएगा कि आप पूछना भी चाहेंगे और फिर प्रश्न नहीं पूछा जा सकेगा, शब्द भी नहीं बनाया जा सकेगा, विचार भी नहीं उठाया जा सकेगा। इतनी शांति जब भीतर आ जाएगी कि आप पूछना चाहें कि मैं कौन हूं? असमर्थ हो जाएंगे, नहीं पूछ सकेंगे। यह शब्द भी उस शांति में नहीं उठ सकेगा तब उत्तर आएगा।

उत्तर भीतर है, उत्तर सदा भीतर है। यह कैसे हो सकता है कि हम हैं और हमें यह भी पता न हो कि ‘हम कौन हैं!’ हैं हम, और यह भी पता न हो कि ‘हम कौन हैं!’ यह कैसे हो सकता है? यह तो असंभव है। हम जानते होंगे किसी गहरे तल पर कि हम कौन हैं, और अगर हमीं न जानते होंगे गहरे तल पर तो फिर तो जानने का कोई उपाय नहीं! फिर कोई और कैसे जानता होगा, फिर और कोई कैसे जानेगा अगर मैं ही नहीं जान सकूंगा कि मैं कौन हूं?

लेकिन बहुत गहरे में, बहुत गहरे में छिपा है वह राज, वह सीक्रेट बहुत गहरे में है। समुद्रों की गहराइयां बहुत कम हैं—कहते हैं पैसिफिक कोई पांच मील गहरा है, वहां सूरज की किरण भी नहीं पहुंचती। यह हमारा सागर भी कोई कम गहरा नहीं है, वह भी कोई तीन, साढ़े तीन मील गहराई पर है, वहां भी सूरज की किरण नहीं पहुंचती। लेकिन ये गहराइयां कुछ भी नहीं हैं। इनसे भी गहरी जगह है हमारे भीतर, और वहां तक प्रश्न को पहुंचाना है।

सागर तो आखिर पानी है, कितना गहरा हो सकता है बेचारा! मनुष्य है चैतन्य, काशसनेस। चेतना का सागर है, वह कितना गहरा हो सकता है। अतल गहराई है वहां चेतना की। उस अतल गहराई तक ले जाना है प्रश्न को—गहरे, गहरे, गहरे। उतारते चले जाना है उस प्रश्न को गहरे खड्ड में। जब आखिरी जगह पहुंच जाएगा प्रश्न, तो तीर की तरह वह उस जगह को छेद देगा जहां छिपा है राज और वह राज बहना शुरू हो जाएगा ऊपर की तरफ।

निश्चित ही जाना जा सकता है कि कौन हूं मैं, लेकिन बहुत मजे हैं उस जानने के भी। पूछना तो हम यही शुरू करते हैं कि ‘ मैं कौन हूं?’ लेकिन जब आप जानेंगे तो आप पाएंगे, मैं तो हूं ही नहीं, कुछ और ही है। इस भूल में मत रहना कि पता चल जाएगा कि मैं राधा—कृष्ण हूं कि मैं फलां आदमी हूं कि मैं दुकानदार हूं कपड़े का, कि मैं किराने का दुकानदार हूं कि मैं फलां दफ्तर में क्लर्क हूं। यह उत्तर नहीं आने वाला है। उत्तर तो आएगा और पता चलेगा, मैं तो हूं ही नहीं, कुछ और ही है, जिसको ‘मैं’ के कारण मैं देख ही नहीं पाता था। है कुछ अस्तित्व, एक्सिस्टेंस। आत्मा—परमात्मा यह सब उसी के नाम हैं, ‘जो है।’ लेकिन वह जो है वह आएगा तभी जब मैं पूछता ही चला जाऊं, पूछता ही चला जाऊं। इतना पूछूं कि पूछना भी समाप्त हो जाए और शून्य खड़ा हो जाए। उसी शून्य में पता चलेगा कि कौन हूं मैं। पता चलेगा मैं तो हूं ही नहीं, वही है। परमात्मा है।

और उस उत्तर तक जाने के लिए गहरी खुदाई करनी जरूरी है। वह मैं कौन हूं तो कुदाली है, उससे खोदते चले जाना है, खोदते चले जाना है। गहरे से गहरे खोदते चले जाना है— अथक—जब तक कि खोदने को कुछ आगे बचे, तब तक खोदते ही चले जाना है। जिस दिन आ जाएगा जल—स्रोत, कुदाली गिर जाएगी अपने आप, प्रश्न गिर जाएगा।

लेकिन छोटी—मोटी शांति से तृप्त नहीं हो जाना है, यह ध्यान रहे। शांति के भी बहुत तल हैं। जो छोटी— मोटी शांति से तृप्त हो जाता है, वह परम शांति को अनुभव नहीं कर पाता। तो अगर आप थोड़े बहुत प्रयोग किए ध्यान के, तो जरूर शांति आएगी, एक तरह का साइलेंस आएगा, एक तरह की आनंद की झलक आएगी। लेकिन रुक मत जाना, रुकना नहीं है वहां। क्योंकि जब तक शांति का पता चलता है तब तक जानना आप कि भीतर अभी अशांति भी मौजूद है, क्योंकि शांति का बोध बिना अशांति के नहीं हो सकता।

जिस आदमी को प्रकाश दिखाई पड़ता है उसका मतलब है कि अभी उसे अंधेरा भी दिखाई पड़ रहा होगा। शांति का अनुभव तभी तक होता है जब तक अशांति भीतर मौजूद रहेगी। जब शांति परिपूर्ण हो जाएगी तो शांति का भी पता नहीं चलेगा कि मैं शांत हूं। आदमी को स्वास्थ्य का भी पता तभी तक चलता है जब तक बीमारी पीछे लगी हो, जब बीमारी बिलकुल न रह जाए तो स्वास्थ्य का भी पता नहीं चलता कि मैं स्वस्थ हूं!

आप हैरान होंगे, पता हमेशा बीमारी का चलता है, स्वास्थ्य का कोई पता चलता है? बीमारी होती है तो पता चलता है कि स्वास्थ्य गड़बड़ है। स्वास्थ्य अगर पूरा हो तो पता ही नहीं चलेगा कि मैं स्वस्थ हूं। यह भाव बीमार आदमी को पैदा होता है कि मैं स्वस्थ हूं। स्वस्थ आदमी को पता ही नहीं चलता कि मैं स्वस्थ हूं। पूर्ण शांति जब आएगी तो पता भी नहीं चलेगा कि मैं शांत हूं क्योंकि अशांति ही खत्म हो गई तो पता कैसे चलेगा। स्कूल में मास्टर लिखता है काले तख्ते पर, सफेद लकीरों से लिखता है, सफेद दीवाल पर नहीं लिखता। सफेद दीवाल पर लिखेगा तो पता ही नहीं चलेगा कि क्या लिखा। काले तख्ते पर लिखना पड़ता है सफेद लकीरों से तो सफेद लकीरें दिखाई पड़ती हैं।

जब तक भीतर अशांति का काला पर्दा है तब तक थोड़ी—बहुत शांति आएगी तो दिखाई पड़ेगी। अशांति के काले तख्ते पर शांति की सफेद रेखाएं दिखाई पड़ेगी। काले घनघोर बादलों में बिजली चमकती हुई दिखाई पड़ती है। लेकिन जब पीछे का तख्ता पूरा ही गिर जाएगा तो कहां दिखाई पड़ेगी शांति, कहां दिखाई पड़ेंगे सफेद अक्षर ?

नहीं, उस तल पर जहां पूरी शांति है, शांति का भी पता नहीं। इतनी अशांति भी वहां नहीं है कि पता चले कि मैं शांत हूं। यह पता चलना कि मैं शांत हूं अशांत चित्त का हिस्सा है। यह अशांत चित्त का ही अनुभव है। वहां तो यह अनुभव भी नहीं रह जाता। जहां पूर्ण विराम है, वहां कोई अनुभव भी नहीं है। वहां कोई एक्सपीरिएंस भी नहीं है। वहां तो कुछ है, जो बस है। उस तक पहुंचना है। इसलिए छोटी—मोटी शांति से तृप्त नहीं हो जाना है।

धार्मिक लोग जिन्हें हम कहते हैं, वह बड़ी छोटी—मोटी शांति से तृप्त हो जाते हैं। एक आदमी माला फेर लेता है, एक आदमी राम—राम जप लेता है, एक आदमी कुछ कर लेता है थोड़ा सा, थोड़ा सा मन हलका लगता है, शांत लगता है, फिर निश्चित हो जाता है कि चलो हो गई उपलब्धि, पहुंच गए परमात्मा तक। इतना सस्ता नहीं है परमात्मा तक पहुंच जाना। बड़ी अनंत यात्रा है, इटर्नल जर्नी है—बहुत अंतहीन यात्रा। वहां प्रारंभ है, अंत है ही नहीं। उस पर हर शांति के तल पर फिर खोज करनी है और उस क्षण तक खोज करते चले जाना है, जहां शांति का भी पता नहीं रह जाएगा।

रामकृष्ण कहते थे, एक सागर के किनारे—जैसे हम इकट्ठे हो गए— एक बार एक मेला लगा। सागर का तट और बहुत भीड़ और बड़ा मेला। दो नमक के पुतले एक गांव में निवास करते थे। गांव—गांव में नमक के पुतले निवास करते हैं। ऐसे तो हर आदमी नमक का पुतला ही है। वे दोनों नमक के पुतले भी उस मेले में चले गए। अब मेलों में कोई अच्छे आदमी जाते……नमक के पुतले ही जाते हैं। सो चले गए वे दोनों मेले में। वे भीड़— भाड़ में समुद्र के किनारे खड़े हो गए। कई लोग सोचते थे, पूछते थे, समुद्र कितना गहरा है? नमक के पुतलों को जोश चढ़ गया। जितना कच्चा पुतला होता है उतनी जल्दी जोश में आ जाता है।

वे नमक के पुतले बोले कि ठहरो! क्या बकवास करते हो? क्या खोज—बीन करते हो, हम कूद कर अभी जाते हैं और पता लगा आते हैं।

एक नमक का पुतला कूद गया। फिर भीड़ इकट्ठी हो गई वहां, वे राह देखने लगे कि लौटो, लौटो……लेकिन उसका कोई पता न चले। वह लौटे ही नहीं! अब नमक का पुतला सागर में जाए तो लौटे कैसे! वह तो गया, गया, गया और बिलकुल गया हो गया। नीचे तो पहुंच ही नहीं पाया, पिघला और खो गया। थाह तो मिली नहीं। थाह के पहले खुद ही मिट गया। वे बहुत प्रतीक्षा करते रहे, बहुत प्रतीक्षा की उन्होंने।

फिर मेला उजड़ गया, फिर लोग घर—घर चले गए और सोचते ही चले गए कि उस नमक के पुतले का क्या हुआ, वह लौटा नहीं। क्या मर गया, गया कहां? खो कहां गया? नमक का पुतला सागर में खोजने जाएगा तो लौटेगा बच कर?

आदमी परमात्मा में खोजने जाएगा तो लौटेगा बच कर? जैसे नमक से बना है सागर, उसका ही पुतला है, फिर सागर में गिरा, फिर नमक खो गया। आदमी बना है परमात्मा से। गया खोजने, खो गया। कहां शांति, कहां अशांति? गया, स्वयं भी गया।

कबीर कहते थे खोजत—खोजत रे सखी, रह्या कबीर हिराई।

खोजने गया था सखी, खोजने गया था परमात्मा को, लेकिन खोज—वोज तो कुछ न हुई, कबीर ही खो गया। गया था खोजने, खो गया खुद और फिर बड़ी मुश्किल हो गई।

बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।

और वह बूंद गिर गई समुद्र में, वह कबीर की बूंद गिर गई परमात्मा में, अब कहां खोजो उसे कि वह बूंद कहां गई! कबीर पहले यह गाते थे बार—बार, ये दो पंक्तियां कि ‘हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई, बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाई।’

फिर कुछ वर्षों के बाद उन्होंने थोड़ी बदलाहट कर दी, और बदलाहट बड़ी अदभुत थी। पहली पंक्ति तो वही रही। वे वही गाते रहे कि ‘ हेरत हेरत रे सखी, रह्या कबीर हिराई ‘.. दूसरी पंक्ति उन्होंने बदल दी। पहले वे कहते थे ‘ बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।’ फिर बाद में कहने लगे. ‘ समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।’

वह समुद्र ही बुंद में समा गया। अब तो और मुश्किल हो गई। बुंद समुद्र में गिर गई थी तो कभी कल्प— कल्प में खोज भी सकते थे, लेकिन यह तो और मुश्किल हो गई। पहले तो पता चला था कि कि बूंद समुंद में गिर गई। बाद में पता चला, यह तो बड़ी उलझन हो गई। बूंद में ही समुंद गिर गया। अब तो बहुत मुश्किल हो गई, अब कैसे खोजा जाए। खो गया कबीर खोजते—खोजते।

जो भी खोजने जाता है, खो जाता है। नहीं बचता ‘मैं’ वहां, नहीं बचती शांति, नहीं बचता आनंद, नहीं बचता कुछ। फिर जो बच रहता है वही है सत्य, वही है परमात्मा, वही है प्रभु।

और बहुत से प्रश्न हैं, अब उन पर बात संभव नहीं हो सकेगी। क्योंकि कल सुबह भी तीसरे द्वार पर बात करनी है और रात चौथे द्वार पर।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।

थोड़े—थोड़े हट जाएं। एक—दूसरे से थोड़े— थोड़े दूर हो जाएं।

नहीं, बातचीत जरा भी नहीं। कोई किसी को छूता हुआ न बैठे। इतनी बड़ी जगह है लेकिन हमारा छोटी— छोटी जगह में बैठने का मन ऐसा हो गया है हमेशा का बना हुआ कि फैलने का मन ही नहीं होता। फैलाव कि थोड़ा दूर हट जाएं, थोड़े दूर हो जाएं। कोई किसी को छूता न रहे, यह खयाल रहे।

इतनी प्यारी रात, इसमें जरूर बहुत गहरे जाना चाहिए। आप नहीं गहरे गए तो रात क्या कहेगी, समुद्र क्या कहेगा, सरू के वृक्ष क्या सोचेंगे कि कैसे थे लोग, ऐसी थी बढ़िया रात, ऐसा था चांद और जरा भी भीतर न गए?

सबसे पहले शरीर को आराम से बिठा लें। फिर आंख बंद करनी हो तो बंद कर लें, आधी खोलनी हो तो आधी खोलें, जैसा मन हो। फिर शांत बैठ जाएं। फिर मैं सुझाव देता हूं मेरे सुझाव के साथ अनुभव करें। अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है… और बिलकुल ढीला छोड़ते जाएं अनुभव के साथ ही शरीर को, जैसे शरीर में कोई प्राण ही नहीं हैं। छोड़ दें बिलकुल, छोड़ दें……शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है……छोड़ दें… अपने को पकड़े रखने की जरूरत क्या है? सम्हाल लेगा परमात्मा। शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है…।

इतनी शांत रात है, छोड़ दें……शरीर भी पिघल जाए और हो जाए चांदनी के साथ एक। शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है.. छोड़ दें……मिट जाने दें, चांदनी के साथ हो जाने दें एक। शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर बिलकुल शिथिल और शांत होता जा रहा है, जैसे है ही नहीं। कहां है शरीर, जैसे है ही नहीं। शरीर शिथिल हो गया……शरीर शिथिल हो गया…।

श्वास भी छोड़ दें….. आए अपने से, जाए अपने से, न लें, न छोड़े, हो जाएगी धीमी अपने आप। श्वास शांत और शिथिल हो रही है, श्वास शांत और शिथिल हो रही है, श्वास भी शांत होती जा रही है, श्वास शांत हो रही है, श्वास शांत हो रही है, श्वास शांत हो रही है……श्वास भी हो गई शांत, श्वास भी हो गई मौन।……

मन भी शांत हो रहा है….. छोड़ दें मन को भी……मन शांत हो रहा है, मन भी शांत हो रहा है, मन शांत हो रहा है, मन शांत हो रहा है, मन शांत हो रहा है.. गिर जाने दें बूंद मन की सागर में……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो गया है……सब शांत हो गया है……हम भी हो गए इस तट के एक हिस्से चांद की चांदनी के साथ एक, वृक्षों के साथ एक, सागर के गर्जन के साथ एक। मिट गए हम, रह गई शांति।

सब शांत हो गया। अब दस मिनट के लिए डूबते जाएं इस शांति में गहरे से गहरे। सुनाई पड़ेगा सागर का गर्जन, हवाएं वृक्षों को कपाएगी तो सुनाई पड़ेगा, सुनते रहें चुपचाप, जैसे निर्जन घर में कोई आवाज गूंजती हो, ऐसे हम भी हो गए खाली, गूंजेगी आवाज चली जाएगी, आएगी आवाज गूंजेगी भीतर चली जाएगी, हम तो हैं नहीं घर तो खाली है, एक खाली निर्जन मंदिर में आवाज गूंजती हो ऐसे दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रहे जाएं।…

सुनें, सागर चिल्लाता है……सुनें, सागर बुलाता है……सुनते रहें, सुनते रहें……सुनते ही सुनते मन शांत हो जाएगा। सुनें……सुनते—सुनते ही मन शून्य होता जाएगा। मन शून्य हो रहा है……सुनते रहें रात के सन्नाटे को, हवाओं के झोंकों को।

सुनें, सागर का गर्जन भीतर तक पहुंच जाएगा। उसकी लहरें भीतर तक टकराने लगेंगी। सुनें……सुनें, मन शांत हो रहा है, मन गहरे शून्य में उतर रहा है… सुनें……मन शांत होता जा रहा है, मन शून्य हो रहा है……गूंजती है आवाज, लौट जाती है। मन शून्य हो गया… सुनें……कैसी शांति, कैसा शून्य उतर रहा है, कैसी शांति उतर रही है।…

मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शून्य हो रहा है……सुनते ही सुनते मन मिट जाता है। मिट गए आप, रह गई रात, रह गया सागर, रह गया चांद।

मन हो रहा है शांत……शांत……शांत होता जा रहा है……मन शून्य हो रहा है……सुनें, सुनते रहें, सुनते जाएं, सुनते ही सुनते मन शांत होता जाता है.. मन शांत हो गया है……मन बिलकुल शांत हो गया है…।

अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……प्रत्येक श्वास के साथ और भी शांति आती मालूम होगी। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें……प्रत्येक श्वास और भी शांत करेगी।

फिर धीरे— धीरे आंख खोलें……बाहर भी सब शांत है, बाहर भी सब मौन है।

रात की बैठक समाप्त हुई।


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प्रभु की पगड़ंडियां–(प्रवचन–6)

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प्रभु—मंदिर का तीसरा द्वार: मुदिता—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 3 दिसम्‍बर; 1968, सुबह

ध्‍यान—शिविर—नारगोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

प्रभु के मंदिर पर तीसरे द्वार पर आज बात करनी है। वह तीसरा द्वार है— उन दो द्वारों को; करुणा को, मैत्री को जिन्होंने समझा, वे इस तीसरे द्वार को भी सहज ही समझ लेंगे। तीसरा द्वार है मुदिता। मुदिता का अर्थ है. प्रफुल्लता, आनंदभाव, अहोभाव, चियरफुलनेस। आषाढ़ में बादल घिरते हैं। उनमें भरा हुआ जल करुणा है। फिर वह जल बरस पड़ता है प्यासी पृथ्वी पर। वह बरसा हुआ जल मैत्री है। और फिर उस बरसे हुए जल से जो तृप्ति हो जाती है पृथ्वी के प्राणों में, और सारी पृथ्वी हरियाली से भर जाती है, खुशी से और आनंद से और नाच उठती है। वह हरियाली, वह प्रफुल्लता, वह खिल गए फूल, वह पहाड़—पहाड़, गांव—गांव, पृथ्वी का कोना— कोना जिस खुशी को जाहिर करने लगता है, वह मुदिता है, वह प्रफुल्लता है, वह चियरफुलनेस है।

जो करुणा और मैत्री से गुजरते हैं, वे अनिवार्यत: तीसरे द्वार के समक्ष खड़े हो जाते हैं। उनके जीवन की सारी उदासी तिरोहित हो जाती है। उनके जीवन की सारी पीड़ा, सारा दुख, सारा बोझ समाप्त हो जाता है। वे निर्भार, वे मुक्त, वे आनंद की एक नई ध्वनि से अनुप्रेरित हो उठते हैं। तीसरे द्वार पर खड़े हो जाना ही प्रफुल्ल हो जाना है, लेकिन उसमें प्रवेश तो अनंत आनंद में ले जाता है।

वह प्रवेश कैसे होगा? उस प्रवेश के क्या अर्थ हैं, उस सबको समझ लेना जरूरी है। और स्मरण रहे कि जो परमात्मा के द्वार पर हंसते हुए नहीं पहुंचते हैं वे कभी भी परमात्मा के द्वार पर नहीं पहुंचते हैं। उदास आत्माएं, थके और हारे हुए मन, दुख, पीड़ा और विषाद से घिरे हुए चित्त—नहीं, इतने अंधकार से भरी हुई आत्माओं के लिए परमात्मा का द्वार नहीं है।

लेकिन आज तक धर्म के नाम पर सिखाई गई है उदासी, सिखाई गई है एक बोझिल गंभीरता, सिखाया गया है एक तरह का संताप, सिखाई गई है एक तरह की चिंता। धार्मिक होने में और उदास होने में कोई गहरा संबंध पिछले पांच हजार वर्षों में स्थापित हो गया। इस संबंध ने, इस गलत संबंध ने परमात्मा का एक द्वार बंद ही कर दिया, जिस द्वार को पार किए बिना कोई प्रभु तक नहीं पहुंचता है।

आदमी को छोड़ कर शायद जगत में और कुछ भी उदास नहीं है। आदमी को छोड़ कर जगत में और कुछ भी बोझिल, गंभीर नहीं है। सारा जीवन गीत गाता हुआ जीवन है। सारा जीवन रंगों में, ध्वनियों में, कितने नृत्यों में प्रकट होता है! आदमी भर बोझिल है, उदास है। यह उदासी, यह बोझिलता, यह दुख— भाव, यह दबा— हुआ—पन, यह अपने आपको बंद कर लेना और कहीं से फूल प्रकट न हो जाएं, कहीं से मुस्कुराहट न प्रकट हो जाए, यह इतना भय— भाव कैसे पैदा हो गया है?

धर्मों ने, तथाकथित संतों और आधे महात्माओं ने क्यों यह उदासी की इतनी बात प्रचलित की है? सुख के प्रति, आनंद के प्रति, अहोभाव के प्रति इतना विरोध क्यों है? असल में त्त्वा चित्त, दुखी चित्त, परेशान चित्त, ऐसे लोग ही धर्म की खोज में जाते रहे हैं। जिनका चित्त दुखी है, पीडित है, परेशान है, संताप से घिरे हैं, वे ही अपने संताप, दुख और पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए धर्म की यात्रा करते रहे हैं। स्वभावत: धर्म के जगत की भी हवा वैसी ही हो गई है जैसी अस्पतालों की होती है। और वे लोग जो उदासी, चिंता और अशांति से बचने के लिए धर्म की तरफ गए थे वे अशांति, उदासी से बच गए—ऐसा नहीं; उन्होंने धर्म को भी अशांत और उदास कर दिया।

स्वस्थ चित्त व्यक्ति, आनंदित व्यक्ति, गीत गाते हुए लोग, नृत्य करते हुए लोग, धर्म की तरफ नहीं गए हैं। और जब तक वे लोग धर्म की तरफ नहीं जाएंगे, तब तक यह पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकती है। जिस दिन हंसते हुए लोग धर्म के मार्ग पर बढ़ेंगे, उस दिन वह मार्ग फूलों से भर जाएगा।

नहीं, रुग्ण, अशांत और उदास चित्त खोजता है मार्ग कि मैं कैसे मुक्त हो जाऊं अशांति से, उदासी से और वही धर्म की यात्रा करने लगता है। मेरी दृष्टि में यह कोण, यह दृष्टि, यह खोज का प्रारंभिक बिंदु, यह प्रस्थान ही गलत है। अशांति कैसे कम हो, दुख कैसे कम हो, इस भाव से जो धर्म के पास जाएगा वह धर्म को भी विकृत करता है, परवर्ट करता है। जाना चाहिए धर्म की खोज में कि शांति कैसे बढ़े, आनंद कैसे बढ़े, अहोभाव कैसे गहरा हो। अशांति कम हो इस दृष्टि से धर्म के पास यह नकारात्मक दृष्टि लेकर जाना गलत है। शांति कैसे बढ़े, कैसे गहरी हो, आनंद कैसे बढ़े—दुख कैसे कम हो, यह भाव नहीं! ऊपर से देखने में ये दोनों बातें एक जैसी लगती हैं। आप कहेंगे कि दुख कम हो या आनंद बढ़े एक ही बात है। नहीं, ये दोनों बातें भाषा में एक जैसी लगती हैं, ये एक ही नहीं हैं।

एक आदमी के घर में अंधकार घिरा है। वह दो तरह से सोच सकता है— अंधकार कैसे कम हो और प्रकाश कैसे बढ़े। अगर उसने यह सोचा कि अंधकार कैसे कम हो, तो अंधकार कैसे कम किया जाए इस दिशा में उसका चिंतन चलेगा। अंधकार को कैसे हटाया जाए, अंधकार को कैसे मिटाया जाए, अंधकार से कैसे लड़ा जाए।

और स्मरण रहे, अंधकार से न कोई लड़ सकता है और न अंधकार को कोई हरा सकता है, क्योंकि अंधकार है ही नहीं। अगर अंधकार होता तो हम लड़ सकते थे, तोड़ सकते थे, मिटा सकते थे। जिसने अंधकार कैसे दूर किया जाए इस दिशा में खोज—बीन शुरू की, वह अंधकार पर अटक जाएगा; उसे प्रकाश का खयाल भी आने को नहीं है; उसका चित्त अंधकार पर अपने आप केंद्रित हो जाएगा। वह सोचेगा अंधकार को कैसे मिटाऊं, कैसी तलवार ईजाद करूं, कितनी शक्ति इकट्ठी करूं कि अंधकार को निकाल कर घर के बाहर कर दूं। वह मर जाएगा, अंधकार नहीं मिटा पाएगा। उसने अंधकार को मिटाने के लिए जो सीधा चिंतन शुरू किया है वह गलत है, क्योंकि अंधकार की कोई सत्ता नहीं है। इसलिए अंधकार पर सीधे कुछ भी नहीं किया जा सकता है।

सत्ता है प्रकाश की। अंधकार सिर्फ प्रकाश का अभाव है, अनुपस्थिति है, स्सेंस है। एब्सेंस के साथ आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं। प्रकाश जला लिया जाए तो अंधकार मिट जाता है, अंधकार को मिटाना नहीं पड़ता। प्रकाश आ जाए तो अंधकार नहीं है। इसलिए अंधकार को मिटाने की भाषा में, निषेध की, निगेटिव की भाषा में जो लोग सोचते हैं, वे अंधकार से ही घिरे रह जाते हैं। अंधकार तो नहीं मिटता, वे खुद ही मिट जाते हैं और गल जाते हैं। जो सोचते हैं प्रकाश कैसे लाया जाए, प्रकाश कैसे बढ़ाया जाए, प्रकाश कैसे जलाया जाए; वे पाजिटिव, विधायक भाषा में सोचते हैं।

आज तक का धर्म नकारात्मक, निगेटिव माइंड्स की वजह से विकृत और गलत हो गया है। वे लोग जो कहते हैं अंधकार कैसे हटाया जाए, हिंसा कैसे छोड़ी जाए, बेईमानी कैसे छोड़ी जाए, असत्य कैसे छोड़ा जाए, वासना कैसे छोड़ी जाए, पाप कैसे छोड़ा जाए; इस भाषा में सोचने वाले जो, जो नकारात्मक बुद्धि के लोग हैं उन लोगों ने धर्म के सारे मंदिर को घेर लिया है। अंधकार उससे नष्ट नहीं हुआ, असत्य उससे नष्ट नहीं हुआ दुख उससे नष्ट नहीं हुआ, बल्कि अंधकार से लड़ते—लड़ते वे सारी आत्माएं भी अंधकार से भर गईं, उदास हो गईं, दुखी हो गईं, अंधेरी हो गईं और उन्हीं अंधेरी आत्माओं की छाया पूरी मनुष्य—जाति पर पड़ रही है।

अंधेरे को अलग करने की भाषा में सोचना विक्षिप्तता है। प्रकाश को जलाने और जगाने की भाषा में सोचना वैज्ञानिकता है।

प्रकाश जलाया जा सकता है। निश्चित ही प्रकाश के जलने पर अंधकार नहीं होता है। अशांति भी अभाव है, अनुपस्थिति है। दुख भी अभाव है, अनुपस्थिति है। घृणा भी अभाव है, अनुपस्थिति है। वे किनकी अनुपस्थितिया हैं?……उन्हें बढ़ाने का विचार—घृणा है प्रेम की अनुपस्थिति; प्रेम बढ़े, प्रेम जगे, प्रेम गहरा हो और घृणा विलीन हो जाएगी। असत्य किसकी अनुपस्थिति है? सत्य बढ़े, विकसित हो, असत्य क्षीण हो जाएगा। अशांति किस की अनुपस्थिति है? शांति की अनुपस्थिति है। शांति जगे, विकसित हो, अशांति नहीं पाई जाएगी। मुदिता का तीसरा द्वार कहता है विधायकता, पाजिटिवनेस, प्रफुल्लता। आनंद को खोजो, अशांति से बचने की फिकर छोड़ो। अशांति से मुक्त होने का भाव छोड़ो, शांति को बढ़ाओ और जगाओ। नकार और निषेध की तरफ आंख भी मत दो। विधेय को, विधायक को, जो है उसको पुकारो, उसको चुनौती दो, उसको जगाओ सोने से। मुदिता का अर्थ है पाजिटिविटी।

जीवन में एक विधायक प्रफुल्लता चाहिए। लेकिन हंसते हुए संत पैदा ही नहीं हुए, प्रफुल्लित लोग पैदा ही नहीं हुए, मुस्कुराते हुए लोग पैदा ही नहीं हुए। जितना रोता हुआ आदमी हो उतना ही ज्यादा संत मालूम पड़ता है। जितना उसके जीवन का सारा रस सूख गया हो उतना ही महान मालूम पड़ता है। कैसा है मनुष्य! कैसा है पागलपन! हंसते हुए लोग छोटे और बोझिल मालूम पड़ते हैं और उदास लोग ऊंचे और महान मालूम पड़ते हैं।

जिस दिन हम हंसते हुए लोगों को भी महानता की दिशा में अभिमुख कर सकेंगे; जिस दिन हम हंसने को, आनंद को, अहोभाव को भी ईश्वर का विरोधी मानने की मूढ़ता छोड़ देंगे उस दिन तीसरा द्वार खुलता है। ऐसे मंदिर चाहता हूं मैं—जो नृत्य के, संगीत के, हंसने के मंदिर हों।

ऐसा धर्म चाहता हूं मैं—जो मुस्कुराहटों का, प्रफुल्लता का, प्रमुदित होने का धर्म हो।

लेकिन रुग्ण लोगों ने घेर रखा है धर्म को। उनसे उसका छुटकारा चाहिए, त्त्वा लोगों से धर्म का छुटकारा चाहिए।

चीन में तीन फकीर हुए। उन्हें तो लोग कहते ही थे—लॉफिंग सेंट्स। वे हंसते हुए फकीर थे। वे बड़े अदभुत थे। क्योंकि हंसते हुए फकीर! ऐसा होता ही नहीं है, रोते हुए ही फकीर होते हैं।

वे गांव—गांव जाते। अजीब था उनका संदेश। वे चौराहों पर खड़े हो जाते और हंसना शुरू करते। एक हंसता, दूसरा हंसता, तीसरा हंसता और उनकी हंसी एक दूसरे की हंसी को बढ़ाती चली जाती। भीड़ इकट्ठी हो जाती और भीड़ भी हंसती और सारे गांव में हंसी की लहरें गज जातीं।

तो लोग उनसे पूछते, तुम्हारा संदेश, तो वे कहते कि तुम हंसो। इस भांति जीओ कि तुम हंस सको। इस भांति जीओ कि दूसरे हंस सकें। इस भांति जीओ कि तुम्हारा पूरा जीवन एक हंसी का फव्वारा हो जाए। इतना ही हमारा संदेश है, और वह हंस कर हमने कह दिया। अब हम दूसरे गांव जाते हैं।

हंसी कि तुम्हारा पूरा जीवन एक हंसी बन जाए। इस भांति जीओ कि पूरा जीवन एक मुस्कुराहट बन जाए। इस भांति जीओ कि आस—पास के लोगों की जिंदगी में भी मुस्कुराहट फैल जाए। इस भांति जीओ कि सारी जिंदगी एक हंसी के खिलते हुए फूलों की कतार हो जाए।

हंसते हुए आदमी ने कभी पाप किया है? बहुत मुश्किल है कि हंसते हुए आदमी ने किसी की हत्या की हो, कि हंसते हुए आदमी ने किसी को भद्दी गाली दी हो, कि हंसते हुए आदमी ने कोई अनाचार, कोई व्यभिचार किया हो। हंसते हुए आदमी और हंसते हुए क्षण में पाप असंभव है। सारे पाप के लिए पीछे उदासी, दुख, अंधेरा, बोझ, भारीपन, क्रोध, घृणा— यह सब चाहिए। अगर एक बार हम हंसती हुई मनुष्यता को पैदा कर सकें, तो दुनिया के नब्बे प्रतिशत पाप तत्सण गिर जाएंगे। जिन लोगों ने पृथ्वी को उदास किया है, उन लोगों ने पृथ्वी को पापों से भर दिया है।

वे तीनों फकीर गांव—गांव घूमते रहे, उनके पहुंचते से सारे गांव की हवा बदल जाती। वे जहां बैठ जाते वहां की हवा बदल जाती। फिर वे तीनों बूढ़े हो गए। फिर उनमें से एक मर गया फकीर। जिस गांव में उसकी मृत्यु हुई, गांव के लोगों ने सोचा कि आज तो वे जरूर दुखी हो गए होंगे, आज तो वे जरूर परेशान हो गए होंगे। सुबह से ही लोग उनके झोपड़े पर इकट्ठे हो गए। लेकिन वे देख कर हैरान हुए कि वह फकीर जो मर गया था, उसके मरे हुए ओंठ भी मुस्कुरा रहे थे। और वे दोनों उसके पास बैठ कर इतना हंस रहे थे, तो लोगों ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? वह मर गया और तुम हंस रहे हो?

वे कहने लगे, उसकी मृत्यु ने तो सारी जिंदगी को हंसी बना दिया, जस्ट ए जोक। आदमी मर जाता है, जिंदगी एक जोक हो गई है, एक मजाक हो गई है। हम समझते थे कि जीना है सदा, आज पता चला कि बात गड़बड़ है। यह एक तो हममें से खत्म हुआ, कल हम खत्म हो जाने वाले हैं। तो जिन्होंने सोचा है कि जीना है सदा, वे ही गंभीर हो सकते हैं। अब गंभीर रहने का कोई कारण न रहा। बात हो गई सपने की। एक सपना टूट गया। इस मित्र ने जाकर एक सपना तोड़ दिया।

अब हम हंस रहे हैं, पूरी जिंदगी पर हंस रहे हैं अपनी कि क्या—क्या सोचते थे जिंदगी के लिए और मामला आखिर में यह हो जाता है कि आदमी खत्म हो जाता है। एक बबूला टूट गया, एक फूल गिरा और बिखर गया।

और फिर अगर हम आज न हंसेंगे, तो कब हंसेंगे? जब कि सारी जिंदगी मौत बन गई और अगर हम न हंसेंगे तो वह जो मर गया साथी, वह क्या सोचेगा? कि अरे! जब जरूरत आई हंसने की तब धोखा दे गए। जिंदगी में हंसना तो आसान है, जो मौत में भी हंस सके—वे लोग कहने लगे—वही साधु है।

फिर वे उसकी लाश को लेकर और मरघट की तरफ चले। गांव के लोग तो उदास हैं, लेकिन वे दोनों हंसे चले जाते हैं। और रास्ते में उन्होंने कहा कि जो उदास हैं वे लौट जाएं, क्योंकि उसकी आत्मा तो बड़ी दुखी होगी कि जिंदगी भर जो आदमी हंसा, लोग इतना भी धन्यवाद नहीं देते कि उसकी कब पर कम से कम हंस कर विदा दे जाएं।

लेकिन लोग कैसे हंसते? हंसने की तो आदत न थी और फिर मौत के सामने कौन हंसेगा? मौत के सामने वही हंस सकता है जिसे मौत से ऊपर की किसी चीज का पता चल गया हो। मौत के सामने कौन हंस सकता है? मौत के सामने मरने वाला कैसे हंस सकता है! मौत के सामने वही हंस सकता है जिसे अमृत का बोध हो गया। वे गांव के लोग कैसे हंसते, मौत ने तो उदासी फैला दी। हम भी जब मौत में उदास हो जाते हैं तो इसलिए नहीं कि कोई मर गया है, बल्कि इसलिए कि अपने मरने की खबर आ गई। वह जो मौत की उदासी है वह हमारे प्राणों को डरा जाती है, भयभीत कर जाती है।

नहीं, पर वे दो फकीर हंसते ही चले गए। फिर लाश चढ़ा दी गई अरथी पर और लोग कहने लगे, जैसा रिवाज था, कि कपड़े बदलो, स्नान करवाओ। उन्होंने कहा कि नहीं, वह हमारा मित्र कह गया है कि कपड़े मेरे बदलना मत, स्नान मुझे करवाना मत। ऐसे ही जैसा मैं हूं चढ़ा देना, तो उसकी बात तो पूरी रखनी पड़ेगी। उसको चढ़ा दिया। और फिर थोड़ी ही देर में उस भीड़ में हंसी छूटने लगी, क्योंकि वह आदमी जो मर गया था अपने कपड़ों में फटाके, फुलझड़ी छिपा कर मर गया था। उसकी लाश चढ़ गई है अरथी पर और फटाके, फुलझड़ियां छूटनी शुरू हो गई हैं। कपड़ों में अंदर उसने सब छिपा रखा था। धीरे— धीरे वह भीड़ जो वहां इकट्ठी थी, वह हंसने लगी। और कहने लगी, कैसा आदमी था, जिंदगी भर हंसाता था और मर गया है अब, अब है भी नहीं, फिर भी इंतजाम कर गया है कि तुम अंतिम क्षण में भी हंसना।

एक हंसता हुआ धर्म चाहिए, एक धर्म जो हंस सके। अब तक जो धर्म रहा है वह उदास है।

मुदिता तीसरा द्वार है। हंसते हुए उस द्वार को पार करना है। निश्चित ही जो आदमी पूरे जीवन को एक खुशी और एक आनंद बनाना चाहता है वह आदमी भूल कर भी दूसरे को दुख नहीं दे सकता। क्योंकि दूसरे को दुख देना अपने लिए दुख को आमंत्रण भेजना है। जो आदमी फूलों में जीना चाहता है वह किसी के रास्ते पर कांटा नहीं रख सकता, क्योंकि दूसरे के रास्ते पर कांटा रखना दूसरे को चुनौती देना है कि मेरे रास्ते पर कांटे रखो। जो आदमी उदास रहना चाहता है वही दूसरे लोगों से दुर्व्यवहार कर सकता है, लेकिन जो आदमी प्रफुल्लित होना चाहता है उसे तो अपने चारों तरफ हंसी फैलानी पड़ेगी। जो आदमी खुश रहना चाहता है उसे चारों तरफ खुशी बांटनी पड़ेगी, क्योंकि कोई आदमी अकेला खुश नहीं रह सकता। यह जरा समझ लेना जरूरी है।

अकेला आदमी उदास रह सकता है। लेकिन खुशी, आनंद में, प्रसन्नता में अकेला आदमी नहीं रह सकता है। अगर आप अकेले बैठे हैं एक कोने में उदास, दुखी, पीड़ित, परेशान तो कोई भी आपसे यह नहीं पूछ सकता आकर कि अरे! तुम अकेले बैठे हो और उदास बैठे हो। लेकिन अगर अकेले में हंस रहे हैं आप जोर से खिलखिला कर तो कोई भी आकर पूछेगा कि दिमाग खराब हो गया है, अकेले और हंस रहे हो? लेकिन अकेले में उदास होने पर कोई नहीं पूछता कि इसमें कोई गड़बड़ है। अकेले में हंसते हुए आदमी पर शंका पैदा होती है।

इसका कारण है। क्योंकि खुशी… खुशी एक कम्युनिकेशन है, खुशी एक संवाद है, खुशी एक समष्टि की घटना है। आदमी उदास अकेला हो सकता है, लेकिन आनंदित होना एक शेयरिंग है, एक बंटवारा है। इसलिए जितना खुश आदमी होगा उतना विराट मित्रों का उसका समूह होगा, क्योंकि जितना बड़ा समूह होगा मित्रों का उतनी गहरी और बड़ी खुशी प्रकट हो सकती है। अगर उदास होना हो तो अकेले में जाना जरूरी है और अगर आनंदित होना है तो विराट से विराट होते जाना जरूरी है।

जो आदमी परम आनंद को उपलब्ध होते हैं उनके लिए इस जगत का कण—कण मित्र हो जाता है। तभी वे परम आनंद को उपलब्ध होते हैं, उसके पहले नहीं। आनंद एक शेयरिंग है, आनंद है मित्रों के बीच एक बंटवारा। दुख है अकेलापन। कभी आपने खयाल नहीं किया होगा जब आप दुखी होते हैं तो लोगों से कहते हैं मुझे छोड़ दें अकेला। मुझे अकेला छोड़ दें। जब दुखी होते हैं तो द्वार—दरवाजे बंद कर लेते हैं, खिड़की बंद करके एक कोने में पड़े रह जाते हैं, क्योंकि दुखी होने के लिए अकेले होने में सर्वाधिक सुविधा होती है। लेकिन जब आप आनंद से भर जाते हैं तो द्वार—दरवाजे तोड़ देते हैं, आ जाते हैं बाजार में, आ जाते हैं लोगों के बीच और पुकारने लगते हैं कि आओ मैं खुश हूं आओ मेरे करीब! खुशी बांटनी पड़ती है, दुख अकेला भोगना पड़ता है—कभी आपने शायद न सोचा होगा।

महावीर, बुद्ध, और क्राइस्ट, या मोहम्मद जिस दिन आनंद से भर गए, उस दिन अपने पहाड़ों और जंगलों को छोड़ कर भागे बस्तियों की ओर। जब तक दुखी थे तब तक गए जंगल में, पहाड़ पर। जब भर गए आनंद से तो भागे बस्तियों की ओर लोगों के बीच। शायद ही किसी ने कभी सोचा है कि यह क्यों हुआ? बुद्ध को, महावीर को, मोहम्मद को, क्राइस्ट को, सबको लोगों ने एकांत की तरफ जाते देखा है और फिर एकांत से आते भी देखा है। जो आदमी गया था एकांत की तरफ वह उदास था, दुखी था। जो आदमी लौट कर आया है वह एक और ही तरह का आदमी था, वह आनंद से भरा था, प्रफुल्लित था। जैसे ही आनंद आया, भागे वहां जहां बंट सके, जहां बांटा जा सके।

दुख सिकोड़ता है, आनंद फैलाता है। दुख अपने में बंद करता है, दुख अहंकार में केंद्रित कर देता है, आनंद अहंकार को तोड़ डालता है। बह जाती है गंगा प्राणों की चारों तरफ, सब तरफ। परमात्मा की तरफ जाना है तो अपने में सिकुड़ने से काम नहीं चल सकता है। जाना है तो फैलना पड़ेगा इतना, इतना कि अपने जैसा कुछ भी न रह जाए, फैलाव रह जाए, एक विस्तीर्ण हो जाए प्राण। और सहभागी बनना होगा इतना कि सारा जगत सहभागी बन जाए। सारा जगत, चांद, तारे, सूरज मित्र बन जाएं!

लेकिन इसकी जो, जो बुनियादी दृष्टि है, जो बेसिक फिलॉसफी है, वह क्या है? वह है एक हंसता हुआ व्यक्तित्व, एक प्रफुल्लित व्यक्तित्व, एक नाचता हुआ व्यक्तित्व, एक नृत्य करता हुआ व्यक्तित्व। और जैसा मैंने कहा जितने आनंदित आप होना चाहते हैं— स्मरण रखिए, उतना ही आनंद आपको चारों तरफ बांटना पड़ेगा तब आनंद आपकी तरफ बहना शुरू होता है। हम जो बांटते हैं वही लौट आता है, हम जो देते हैं वही गूंजता है वापस और हमारे प्राणों की तरफ बह आता है।

जीवन एक प्रतिध्वनि है। हम जो कहते हैं, हम जो करते हैं, हम जैसे होते हैं बस वैसा ही चारों तरफ से लौटना शुरू हो जाता है। यह संभव है क्या कि मैं आपकी आंख में प्रेम से झांकूं और हजार गुना प्रेम वहां से वापस न आ जाए? यह हो सकता है किसी दिन कि दो और दो चार न हों, यह कभी भी नहीं हो सकता कि मेरी आंख से प्रेम आपकी तरफ जाए और वापसी में घृणा लौट आए। यह कभी नहीं हो सकता।

दो और दो चार न हों यह हो सकता है, क्योंकि दो और दो का चार होना बिलकुल काल्पनिक है, बिलकुल इमैजिनरी है। वह कोई बड़ी सच्ची बात नहीं है। दो और दो पांच भी हो सकते हैं, छह भी हो सकते हैं, क्योंकि गणित का सारा खेल हमारा बनाया हुआ खेल है। चूंकि हम नौ तक गिनती करते हैं, नौ तक फिगर बना कर रखे हैं हमने एक से नौ तक। कोई मजबूरी नहीं है कि एक से नौ तक फिगर हों। एक से आठ तक भी हो सकते हैं और काम चल जाएगा। एक से तीन तक भी हो सकते हैं और काम चल जाएगा। नौ तक होना कोई मजबूरी नहीं है वितान की। कोई गणित बंधा हुआ नहीं है कि नौ तक हों। सिर्फ एक आदत है हमारी कि हमने नौ तक बना लिया और सारी दुनिया में वह बात फैल गई।

हिंदुस्तान से ही फैली वह बात। यह नौ तक के फिगर हिंदुस्तान ने ही बनाए। फिर वह फैल गई। लेकिन नौ कोई मजबूरी नहीं है। तीन से काम चल सकता है। एक दो तीन, फिर आ जाएगा दस। फिर ग्यारह बारह तेरह, फिर आ जाएगा बीस। काम चल जाएगा। अगर एक से तीन तक हम हिसाब रखें तो दो और दो कितने होंगे? दो और दो, दस हो जाएंगे। यह हमारी कल्पना की बात है। गणित हमारे हाथ का खेल है। गणित कहीं जगत में कोई सत्य नहीं है।

लेकिन प्रेम हमारे हाथ की बात नहीं है। वह बहुत गहरा गणित है और बुनियादी सत्यों से एक है। अगर मैं आपकी आंख में प्रेम से झांकूं तो यह असंभव है कि प्रेम के अतिरिक्त और कुछ लौट आए। अगर कुछ और लौटना हो तो उसका मतलब है कि मैंने प्रेम से झांका ही न होगा।

अगर मैं चाहता हूं कि मेरे ऊपर आनंद की वर्षा हो जाए तो प्रतिपल मुझे आनंद को बांटते हुए जीना होगा। चियरफुलनेस का, प्रमुदित होने का, मुदिता का यही अर्थ है कि मैं आंनद को बांटता हुआ जीऊं। क्या खर्च करना पड़ता है मुस्कुराने में? लेकिन लोग इतने कंजूस हो गए हैं कि मुस्कुराते भी नहीं। इतनी कृपणता है कि जिसे देने में कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता, उसे भी बहुत सोच—सोच कर, विचार—विचार करके मुस्कुराते हैं। आदमी की जांच—परख कर लेते हैं कि इसके साथ मुस्कुराना है कि नहीं, अपना वाला है कि नहीं, फिर मुस्कुराते हैं। अजनबी को देख कर सख्त हो जाते हैं, मुस्कुराते नहीं।

मुस्कुराहट भी इतनी मंहगी बात है क्या? क्या खर्च करना पड़ता है? अंग्रेजी में एक कहावत है इट कास्ट नथिंग टु बी काइंड, प्रेमपूर्ण होने में कुछ भी तो खर्च नहीं करना पड़ता है! क्या खर्च करना पड़ता है? और मजा यह है कि प्रेमपूर्ण होने से कितना मिल जाता है मुफ्त में उसका कोई हिसाब रखना मुश्किल है, कितना मिल जाता है! एक अपरिचित, रास्ते पर जरा सी मुस्कुराहट और कितनी मुस्कुराहटें वापस लौट आती हैं। और कैसी उनकी सुगंध भीतर प्रवेश कर जाती है, और कैसे उनका गीत प्राणों में बजने लगता है, और कैसे प्राणों की वीणा पर कोई तरंगित होने लगती है बात।

लेकिन नहीं, हम अत्यंत कृपण हैं। हमने उदास होने की कसम खा रखी है। हम आनंदित नहीं हो सकते हैं। हमने जिद्द बांध रखी है कि हम उदास ही होंगे। हम उदास ही रहेंगे और फिर इन उदास हाथों को लेकर हम जाएंगे प्रभु के पास। इन उदास हाथों में खिलते हुए फूल भी अगर हम ले जाएंगे तो वे भी कुम्हला जाएंगे और उदास हो जाएंगे। उनको भी प्रभु के मंदिर पर नहीं चढ़ाया जा सकता है। इन उदास प्राणों को लेकर हम प्रार्थनाएं और गीत लेकर जाएंगे, वे गीत भी उदास हो जाएंगे, क्योंकि गीत वही होता है जो गाने वाला होता है। और फूल नहीं चढ़ते हैं परमात्मा के मंदिर में, वे प्राण चढ़ते हैं जो फूलों को ले जाते हैं।

हम क्या करें, कैसे हम प्रफुल्लित हो जाएं? नहीं, यह मत पूछिए कि हम क्या करें और कैसे प्रफुल्लित हो जाएं। प्रफुल्लित होने के हर अवसर का उपयोग करें और प्रफुल्लित हो जाएं। हो जाएं प्रफुल्लित, उठते—बैठते ध्यान रखें कि जहां भी हंसा जा सकता है जरूर हंसना है, जहां खुश हुआ जा सकता है जरूर खुश होना है। फिर धीरे— धीरे जहां खुश नहीं हुआ जा सकता था वहां भी खुश होने की संभावना बढ़ती जाएगी। थोड़ी सी दिशा चाहिए व्यक्तित्व को, एक बोध चाहिए। यह बोध व्यक्तित्व के पास अगर उपलब्ध हो जाए कि जीवन का सत्य उन्हीं को उपलब्ध होगा जो जीवन के सत्य के प्रति आनंद से और खुशी से भरे हुए यात्रा करते हैं, जो गीत गाते हुए तीर्थ की यात्रा करते हैं, वे ही लोग……चौबीस घंटे तीर्थ की यात्रा चल रही है!

सुबह आप उठ आए हैं, कभी आपने सोचा कि सुबह उठते से ही आपने क्या किया है? कभी आपने फिकर की कि सुबह उठते से ही पहला काम जीवन के प्रति एक आनंद का और अहोभाव की दृष्टि है! क्या सुबह उठते ही आपने जीवन को, परमात्मा को धन्यवाद दिया है कि फिर एक दिन…! फिर एक दिन उपलब्ध हुआ है, फिर जीवन, फिर आंखें खुल गईं, फिर अंधेरे से प्रकाश, फिर निद्रा से जागरण! कभी इसके लिए कोई कृतज्ञता का भाव मन में जगा है? सुबह उठ कर कभी धन्यवाद दिया है हाथ जोड़ कर अनंत को, फिर एक दिन मुझको—जिसकी कोई पात्रता न थी, जो कल सोया था तो यह नहीं मान सकता था कि एक दिन और मिलेगा! जो नहीं मान सकता था, कोई अधिकार न था, जिसकी कोई योग्यता न थी, जिसकी कोई सामर्थ्य न थी कि एक दिन और मिलेगा, उसे फिर एक दिन मिल गया है, फिर जीवन!

लेकिन नहीं, जीवन के प्रति हमारी न कोई धन्यता है, न कोई भाव है, न कोई कृतज्ञता है, न कोई ग्रेटिटयूड है। जीवन मिलता है और हम सड़ी—सड़ी चीजों के प्रति कृतज्ञता शापन करते हैं। कोई एक व्यक्ति आकर मुझे चार आने का रूमाल भेंट कर जाता है तो मैं कहता हूं धन्यवाद। और जीवन बरसा रहा है पूरा जीवन और कभी धन्यवाद भी नहीं उठता, कभी खुशी भी नहीं उठती, कभी आनंद भी नहीं उठता।

जो चीज खो जाती है उसके लिए हम दुखी होते हैं और शिकायत करते हैं। और जो चीज है हमारे पास और मिली है, उसके लिए कोई धन्यवाद नहीं है! एक आदमी का पैर टूट जाता है और शिकायत शुरू हो जाती है और परमात्मा पर शक प्रारंभ हो जाता है कि है भी या नहीं! लेकिन दोनों पैर वर्षों तक चलते थे और एक क्षण के लिए भी कोई कृतज्ञता और कोई धन्यवाद न था। जो हमें मिला है उसकी कोई खुशी नहीं है, जो नहीं मिला है उसके लिए पीड़ा और शिकायत!

हम आदमी कैसे हैं, हमारा यह मन कैसा है! एक कांटा गड़ जाएगा तो शिकायत और वर्षों तक चले और कांटा नहीं गड़ा तो धन्यवाद एक भी नहीं। यह व्यक्ति कैसा है? यह इसने उदास होने का पक्का कर रखा है, इसके सोचने का ढंग इसे उदासी में ले जाने वाला है।

एक मुसलमान बादशाह था। उसके पास एक का नौकर था जो जीवन भर उसके पास था। उस बूढ़े नौकर से ऐसा प्रेम था उसका कि रात भी वह का नौकर उसके कमरे में ही सोता, उसके साथ ही यात्रा करता। युद्ध के मैदान पर भी साथ था, महलों में भी साथ था। सम्राटों के घर मेहमान बनता तो भी वह का साथ था। वे एक दिन शिकार खेलने गए हैं और रास्ता भटक गए हैं और एक जंगल में खो गए हैं। एक वृक्ष के नीचे थोड़ी देर उन्होंने विश्राम किया। उस वृक्ष में एक फल लगा हुआ है। सम्राट जब घोड़े पर बैठा तो उसने हाथ बढ़ा कर वह फल तोड़ लिया। उसने चाकू से उस फल की एक फांक निकाली और जैसी उसकी आदत थी वह पहले उस के की फिकर करता। उसने एक फांक निकाली, उस के को चखने दी।

उस बूढ़े ने कहा कि अदभुत! ऐसा फल तो कभी चखा नहीं। एक और देंगे महाराज? दूसरी फांक और उसने तीसरी भी मांगी और सम्राट देता चला गया और वह ऐसी कृतज्ञता का भाव था उसकी आंखों में कि सम्राट उसे रोक भी नहीं सका। फिर एक ही फांक बच गई और एक ही फल था उस वृक्ष पर। सम्राट से वह आखिरी फांक भी मांगने लगा।

सम्राट ने कहा तू तो बड़ा पागल है। एक फांक मुझे भी नहीं चखने देगा।

नहीं, वह कहने लगा— नहीं महाराज, बहुत ही स्वादिष्ट है, नहीं आपको चखने दूंगा।

हाथ से छीनने लगा तो सम्राट को क्रोध आया। उसने कहा. यह तो हद हो गई। पूरा फल तू खा गया और इतनी प्रसन्नता, और इतना सुस्वादु होने की चर्चा करता है तो एक फांक मुझे चखने नहीं देगा?

लेकिन उस नौकर ने तो हाथ से छीनना ही चाहा।

सम्राट ने कहा कि नहीं, यह अतिशय हो गई बात। इतनी फांकें तुझे दीं, यह भी अतिशय था, लेकिन मैं यह नहीं सोचता था कि एक फांक भी तू मेरे लिए नहीं छोड़ेगा।

लेकिन वह नौकर कहने लगा नहीं महाराज! उसकी आंख में आंसू आ गए। कहने लगा कि नहीं—नहीं, मुझे दे दें।

लेकिन सम्राट ने जबरदस्ती मुंह में वह फांक रख ली। वह तो कडुवा जहर थी। उसने कहा कि तू कैसा पागल है, यह तो जहर है बिलकुल। तू इसे क्यों खा गया?

उस बूढ़े ने कहा था जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले उनके एक कड़वे फल की शिकायत करूं? जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले—नहीं—नहीं, इतना अकृतज्ञ नहीं हूं कि एक कड़वे फल के लिए शिकायत करूं। फिर तुम्हारे हाथ से आता था वह फल, जीभ ने कहा होगा, कड़वा है, आत्मा ने नहीं कहा। तुम्हारे हाथ से आता था वह फल, जीभ ने कहा कि कडुवा होगा, लेकिन आत्मा ने नहीं कहा। जिन हाथों से इतने मीठे फल, उन हाथों के एक कड़वे फल की शिकायत! नहीं—नहीं, इतना अकृज्ञश मैं नहीं हूं वह का कहने लगा। लेकिन हम सब इतने ही अकृतज्ञ हैं। जीवन के अनंत—अनंत आनंदों की वर्षा में उसका हमें कोई बोध नहीं, लेकिन जरा सी गड़बड़ और हम बोध से भर जाते हैं। यह एप्रोच, जीवन को देखने का यह ढंग उदास और दुखी होने की तैयारी है।

मनुष्य उदास है, क्योंकि उसके जीवन के देखने का ढंग गलत है। अगर मुदिता को उपलब्ध होना है तो जो मिल रहा है उसके लिए धन्यवाद को गहरा करना होगा, जो पाया है उसके लिए कृतज्ञता का ज्ञापन करना होगा। जो मिला है, जो मिलता रहा है, जो बरस रहा है चौबीस घंटे, उस अनंत—अनंत आनंद की राशि के लिए भाव, प्रशंसा, अनुग्रह, ग्रेटिटयूड हो तो हम प्रमुदित हो सकते हैं, आनंदित हो सकते हैं।

एक आदमी यात्रा पर था। बहुत ज्ञानदार घोड़े को लेकर वह यात्रा पर गया था। एक रात एक गांव के बाहर वह ठहरा। उसके घोड़े पर तो जिसकी आंख पड़ जाती, वही ईर्ष्या से भर जाता। ऐसा ज्ञानदार घोड़ा देखा भी नहीं गया था। उस घोड़े की चमक, उसकी गति, उसकी तेजी, उसकी ज्ञान, उसके पैरों की टाप……वह घोड़ा ही और था। रात बांधा है उसने उस घोड़े को। जिस गांव से गुजरा है लोगों ने कहा है कि जो भी दाम लेना है ले लो, यह घोड़ा छोड़ जाओ।

पर उस आदमी ने कहा. इस घोड़े से मुझे प्रेम है और प्रेम को बेचा नहीं जा सकता, दाम कुछ भी हों यह सवाल नहीं है। तुम क्या दे सकोगे दाम! क्योंकि तुम कितना भी दो, प्रेम बेचा नहीं जा सकता। इस घोड़े से मुझे प्रेम है, इसलिए यह बात खत्म, इसका सौदा नहीं होता।

लेकिन लोगों की आंखें ईर्ष्या से भर गईं थी उस घोड़े के प्रति। लोग खयाल में थे कि कब मौका मिल जाए। वह रात उस दिन उसने घोड़े को गांव के बाहर एक वृक्ष से बांधा और सो गया। सुबह उठा तो घोड़ा वहां नहीं था। शायद घोड़ा चोरी चला गया। कोई उसे ले गया, या क्या हुआ! गांव के लोगों में खबर फैल गई कि वह ज्ञानदार घोड़ा चोरी चला गया। भीड़ वहां इकट्ठी हो गई और वे उस सवार को कहने लगे कि बड़े दुख की बात है।

लेकिन वह सवार भागा गांव की तरफ और मिठाइयां खरीद लाया और वह जो भीड़ इकट्ठी थी उसको बांटने लगा और कहने लगा, भगवान को धन्यवाद दो।

पर वे लोग कहने लगे, बात क्या हुई है। घोड़ा चोरी गया, भगवान को धन्यवाद किस बात का?

उसने कहा: यही क्या उसकी कम कृपा है कि मैं घोड़े के ऊपर नहीं था, मैं नीचे सो रहा था। उसकी अनुकंपा के लिए प्रसाद बांटता हूं।

ऐसा आदमी उदास हो सकता है? ऐसे आदमी को बोझिल, भारग्रस्त और दुखी बनाया जा सकता है? नहीं, उसके जीवन का दृष्टिकोण वह है जो प्रफुल्लता को जन्म देगा। घोड़ा गया था चोरी, वह कहने लगा, मैं भी घोड़े के ऊपर हो सकता था, भगवान को धन्यवाद न दूं? उसकी बड़ी कृपा, उसकी अनुकंपा कि रात जब मैं सोया था तब घोड़ा चोरी गया।

क्या यह जीवन को देखने का एक ढंग नहीं हो सकता है? धार्मिक आदमी का यही ढंग होगा। अधार्मिक आदमी देखेगा घोड़ा चोरी चला गया, धार्मिक आदमी देखेगा मैं बच गया यही कुछ कम है!

जीवन को हम कैसा देखते हैं इस पर निर्भर है कि हम प्रफुल्लित होंगे या उदास, हम आनंदित होंगे या दुखी, हमारे प्राण अंधकार से भर जाएंगे या आलोक से! हम कैसे देखते हैं जीवन को? आशा की तरफ से, उज्जवल पक्ष से, वहां से जहां सफेद फूल खिलते हैं या वहा से जहां कांटे पैदा होते हैं। हम कहां से देखते हैं जीवन को? हम चांद—तारों से नापते हैं जीवन को या गंदे डबरों से? हम कहां से जीवन का मापदंड इकट्ठा करते हैं?

मुदिता फलित होती है जब कोई व्यक्ति जीवन को आशावादी दृष्टि से देखना शुरू करता है। जिन लोगों ने निराशा से जीवन को देखा है वे उदास हो गए हैं। उन्हीं उदास लोगों से धर्म अपवित्र हो गया है। चाहिए इतनी खुशी, चाहिए इतनी मुस्कुराहट, चाहिए इतनी हंसी के फूल कि सारे मंदिर फिर से पवित्र हो सकें। नहीं तो मंदिर उदासियों के अड्डे हैं। वहां की सारी हवा मरघटी हो गई है। वहां जो लोग बैठे हैं वे मरे—मराए लोग हैं। वे करीब— करीब मर गए हैं और लाशें हैं। और उन्हीं लाशों के आस—पास हमारा सारा व्यक्तित्व निर्मित किया जा रहा है।

नहीं, इसे पूर्ण इनकार की जरूरत है। इसके पूर्ण निषेध की जरूरत है। जोर से सारे जगत में धर्म के इस उदास रूप को तोड़ देने की जरूरत है। चाहिए एक हंसता हुआ, सूरज की बरसती रोशनी की तरह, एक मुस्कुराता हुआ जीवित धर्म—जीवंत धर्म।

आपको मैं तीसरी सीढ़ी में कहना चाहता हूं. जीवन को बनाएं एक खुशी और प्रतिपल यह ध्यान रखें कि मैं कहीं ऐसा तो नहीं सोच रहा हूं, ऐसा तो नहीं जी रहा हूं जिससे उदासी फलित होगी, जिससे उदासी आ जाएगी।

रोम में एक सम्राट ने अपने बड़े वजीर को फांसी की आशा दे दी थी। उस दिन उसका जन्म—दिन था, वजीर का जन्म—दिन था। घर पर मित्र इकट्ठे हुए थे। संगीतज्ञ आए थे, नर्तक थे, नर्तकियां थीं। भोज का आयोजन था, जन्म—दिन था उसका। कोई ग्यारह बजे दोपहर के बाद सम्राट के आदमी आए। वजीर के महल को नंगी तलवारों ने घेरा डाल दिया। भीतर आकर दूत ने खबर दी कि आपको खबर भेजी है सम्राट ने कि आज शाम छह बजे आपको गोली मार दी जाएगी।

उदासी छा गई। छाती पीटी जाने लगीं। वह घर जो नाचता हुआ घर था एकदम से मुर्दा हो गया, सन्नाटा छा गया, नृत्य, गीत बंद हो गए, वाद्य शून्य हो गए। भोजन का पकना, बनना बंद हो गया। मित्र जो आए थे वे घबड़ा गए। घर में एकदम उदासी छा गई। सांझ छह बजे, बस सांझ छह बजे आज ही मौत! सोचा भी नहीं था कि जन्म—दिन मृत्यु का दिन बन जाएगा।

लेकिन वह वजीर, वह जिसकी मौत आने को थी, वह अब तक बैठा हुआ नृत्य देखता था। अब वह खुद उठ खड़ा हुआ और उसने कहा कि वाद्य बंद मत करो और अब नृत्य देखने से ही न चलेगा, अब मैं खुद भी नाचूंगा। क्योंकि आखिरी दिन है यह। फिर इसके बाद कोई दिन नहीं है। और सांझ को अभी बहुत देर है। और चूंकि यह आखिरी सांझ है, अब इसे उदासी में नहीं गंवाया जा सकता। अगर बहुत दिन हमारे पास होते तो हम उदास भी रह सकते थे। वह लक्जरी भी चल सकती थी। अब अवसर न रहा, अब उदास होने के लिए क्षण भर का अवसर नहीं है। बजने दो वाद्य, हो जाए नृत्य शुरू। आज हम नाच लें, आज हम गीत गा लें, आज हम गले मिल लें, क्योंकि यह दिन आखिरी है।

लेकिन वह घर तो हो गया था उदास। वे वाद्यकार हाथ उठाते भी तो वीणा न बजती। उनके हाथ तो हो गए थे शिथिल। वे चौंक कर देखने लगे। वह वजीर कहने लगा, बात क्या है? उदास क्यों हो गए हो?

वे कहने लगे कि कैसे, मौत सामने खड़ी है, हम कैसे खुशी मनाए?

तो उस वजीर ने कहा जो मौत को सामने देख कर खुशी नहीं मना सकता वह जिंदगी में कभी खुशी नहीं मना सकता। क्योंकि मौत रोज ही सामने खड़ी है। मौत तो रोज ही सामने खड़ी है। कहां था पक्का यह कि मैं सांझ नहीं मर जाऊंगा? हर सांझ मर सकता था। हर सुबह मर सकता था। जिस दिन पैदा हुआ उस दिन से ही किसी भी क्षण मर सकता था। पैदा होने के बाद अब एक ही क्षण था मरने का जो कभी भी आ सकता था। मौत तो हर दिन खड़ी है। मौत तो सामने है। अगर मौत को सामने देख कर कोई खुशी नहीं मना सकता तो वह कभी खुशी नहीं मना सकता। और वह वजीर कहने लगा, और शायद तुम्हें पता नहीं है, जो मौत के सामने खड़े होकर खुशी मना लेता है उसके लिए मौत समाप्त हो जाती है। उससे मौत हार जाती है, जो मौत के सामने खड़े होकर हंस सकता है।

मजबूरी थी। वह वजीर तो नाचने लगा तो वाद्य—गीत शुरू हुए थके और कमजोर हाथों से। नहीं, सुर— साज नहीं बैठता था। उदास थे वे लोग, लेकिन फिर भी जब वह नाचने लगा था…।

सम्राट को खबर मिली, वह देखने आया। इसकी तो कल्पना भी न थी। जान कर ही जन्म—दिन के दिन यह खबर भेजी गई थी कि कोई गहरा बदला चुकाने की इच्छा थी कि जब सब खुशी का वक्त होगा तभी दुख की यह खबर गहरा से गहरा आघात पहुंचा सकेगी। जब सारे मित्र इकट्ठे होंगे तभी यह खबर— यह बदले की इच्छा थी।

लेकिन जब दूतों ने खबर दी कि वह आदमी नाचता है और उसने कहा है कि चूंकि सांझ मौत आती है इसलिए अब यह दिन गंवाने के लायक न रहा, अब हम नाच लें, अब हम गीत गा लें, अब हम मिल लें। अब जितना प्रेम मैं कर सकता हूं कर लूं और जितना प्रेम तुम दे सकते हो दे लो, क्योंकि अब एक भी क्षण खोने जैसा नहीं है।

सम्राट देखने आया। वजीर नाचता था। धीरे— धीरे, धीरे— धीरे उस घर की सोई हुई आत्मा फिर जग गई थी। वाद्य बजने लगे थे, गीत चल रहे थे।

सम्राट देख कर हैरान हो गया! वह उस वजीर से पूछने लगा, तुम्हें पता चल गया है कि सांझ मौत है और तुम हंस रहे हो और गीत गा रहे हो?

तो उस वजीर ने कहा. आपको धन्यवाद! इतने आनंद से मैं कभी भी न भरा था जितना आज भर गया हूं और आपकी बड़ी कृपा कि आपने आज के दिन ही यह खबर भेजी। आज सब मित्र मेरे पास थे, आज सब वे मेरे निकट थे जो मुझे प्रेम करते हैं और जिन्हें मैं प्रेम करता हूं। इससे सुंदर अवसर मरने का और कोई नहीं हो सकता था। इतने निकट प्रेमियों के बीच मर जाने से बड़ा सौभाग्य और कोई नहीं हो सकता था। आपकी कृपा, आपका धन्यवाद! आपने बड़ा शुभ दिन चुना है, फिर मेरा यह जन्म—दिन भी है। और मुझे पता भी नहीं था—बहुत जन्म—दिन मैंने मनाए हैं, बहुत सी खुशियों से गुजरा हूं लेकिन इतने आनंद से भी मैं भर सकता हूं इसका मुझे पता नहीं था। यह आनंद की इतनी इंटेंसिटी, तीव्रता हो सकती है मुझे पता नहीं था। आपने सामने मौत खड़ी करके मेरे आनंद को बड़ी गहराई दे दी। चुनौती और आनंद एकदम गहरा हो गया। आज मैं पूरी खुशी से भरा हुआ हूं मैं कैसे धन्यवाद करूं?

वह सम्राट अवाक खड़ा रह गया। उसने कहा कि ऐसे आदमी को फांसी लगाना व्यर्थ है, क्योंकि मैंने तो सोचा था कि मैं तुम्हें दुखी कर सकूंगा। तुम दुखी नहीं हो सके, तुम्हें मौत दुखी नहीं कर सकती तो तुम्हें मौत पर ले जाना व्यर्थ है। तुम्हें जीने की कला मालूम है, मौत वापस लौट जाती है।

जिसे भी जीने की कला मालूम है वह कभी भी नहीं मरा है और न मरता है, न मर सकता है। और जिसे जीने की कला मालूम नहीं वह केवल भ्रम में होता है कि मैं जी रहा हूं वह कभी नहीं जीता, न कभी जीआ है, न जी सकता है। उदास आदमी जी ही नहीं रहा है, न जी सकता है। उसे जीवन की कला का ही पता नहीं। केवल वे जीते हैं जो हंसते हैं, जो खुश हैं, जो प्रफुल्लित हैं, जो जीवन के छोटे से छोटे कंकड़—पत्थर में भी खुशी के हीरे—मोती खोज लेते हैं, जो जीवन के छोटे—छोटे रस में भी परमात्मा की किरण को खोज लेते हैं, जो जीवन के छोटे—छोटे आशीषों में, जीवन के छोटे—छोटे आशीषों की वर्षा में भी प्रभु की कृपा का आनंद अनुभव कर लेते हैं। केवल वे ही जीते हैं। केवल वे ही जीते हैं! केवल वे ही सदा जीए हैं और कोई भी आदमी जिंदा होने का हकदार नहीं है—जिंदा नहीं है।

तो चाहिए एक फैली हुई प्रफुल्लता सुबह से सांझ तक, दिन में, रात में, सपनों में भी। चाहिए एक गीत जो सारे जीवन को घेर ले, उठते—बैठते—चलते सारा जीवन एक नृत्य बन जाए, एक खुशी का आंदोलन; तो हम प्रभु के निकट पहुंचना शुरू होते हैं। सिर्फ हंसते हुए लोग ही उसके पास बुलाए जाते हैं, सिर्फ मुस्कुराते हुए लोगों को ही वह आमंत्रण मिलता है।

 

यह तीसरी बात—इसका तो प्रयोग करेंगे तो ही संभव हो सकता है। यह कैसे संभव होगा?

कल रात एक मित्र ने पूछा था कि ‘ध्यान में आंसू बहते हैं। हंसना भी आ सकता है?’

बिलकुल आ सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। उसे भी रोकने की जरूरत नहीं है? अगर पूरे प्राण हंसने को, फूट पड़ने को तत्पर हों तो उसे भी रोकने की जरूरत नहीं है। ध्यान में वह भी संभावना घटित हो सकती है। ध्यान दमन नहीं है, आंसू हो या मुस्कुराहट जो भी प्रकट हो जाना चाहे, जो भी फैल जाना चाहे, उसे मुक्त छोड़ देना है। जरा भी भय नहीं लेना है। प्राण जैसा होना चाहें छोड देना है। एक बार तो हम कभी कुछ क्षणों के लिए छोड़ दें प्राणों को कि वह जैसा होना चाहें। और तब उस सरलता से, उस सरलता से प्राणों की वास्तविकता तक पहुंचना हो सकता है। इस तीसरे सूत्र को ध्यान में लेंगे और इसका प्रयोग जीवन में फैला देंगे।

अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।

रा भी बात नहीं। छोटी सी बात भी शांत वातावरण को एकदम पत्थर की तरह हिला देती है, जैसे झील पर कोई पत्थर फेंक दे। जरा बात नहीं, जरा आवाज नहीं। चुपचाप हट जाएं, जैसे कोई हटा भी नहीं। और चुपचाप बैठ जाएं।

आज तीसरा दिन है। सुबह का यह ध्यान आखिरी होगा। सुबह का ध्यान, पूरी शक्ति से इस प्रयोग को करना है। कुछ मित्र पूरी शक्ति से इस प्रयोग को कर रहे हैं और उसके परिणाम हैं। कुछ मित्र पूरी शक्ति नहीं लगा रहे हैं। न मालूम कितने—कितने तरह के भय हैं, वे रोक लेते हैं। आधी शक्ति लगाएंगे तो नहीं होगा। कुछ मित्र तो बिलकुल शक्ति नहीं लगाते। थोड़े ही लोग हैं वे, वे एक—दूसरे की तरफ देखते रहते हैं कि किसको क्या हो रहा है। किसको क्या हो जाएगा उससे आपको कुछ भी होने वाला नहीं है। किसके भीतर क्या हो रहा है इसे आप कभी भी नहीं जान सकेंगे। दूसरे की फिकर छोड़ दें। आपके भीतर कुछ हो उसकी चिंता लें। यह कुछ ऐसी बात नहीं है कि हम तमाशा देख सकें, यह कुछ ऐसी बात नहीं है कि हम बाहर से खड़े होकर देख सकें कि किसको क्या हो रहा है। किसको क्या हो रहा है यह बहुत मुश्किल है बाहर से देखना। यह तो आप अपने भीतर कुछ होगा तो ही जान पाएंगे कि क्या हो रहा है। इसलिए किसी की फिकर न करें कि कोई यहां दूसरा है। आपके भीतर कुछ हो तो भी फिकर मत करें कि कोई दूसरा यहां पड़ोस में मौजूद है। यहां सारे मित्र इकट्ठे हैं। कोई चिंता न लें उसकी। और न इसकी फिकर करें कि दूसरे को क्या हो रहा है तो मैं देखूं।

नहीं, आप अकेले हो जाएं। आप अकेले हैं यहां। कोई दूसरा नहीं है। और तब होने दें पूरी शक्ति से प्रयोग को, पूरे संकल्प से।

तो हम सबसे पहले शरीर को आराम से शिथिल छोड़ कर बैठें। जिन्हें आंख बंद करनी हो वे आंख बंद कर लें। जिन्हें आधी नासाग्र—दृष्टि रखने में कोई तकलीफ, कष्ट न होता हो, वे नासाग्र—दृष्टि रखें, नाक का अगला भाग भर दिखाई पड़ता रहे, इतनी आंख खुली रहे। अगर उसमें जरा भी तनाव मालूम पड़ता है तो आंख बंद रखें। फिर बिलकुल शांत अपने को छोड़ दें।

आज पूरी शक्ति लगानी है। जरा भी रुकावट नहीं डालनी है। कोई भय नहीं लेना है। क्योंकि कल सुबह फिर हम यहां बैठने को नहीं होंगे। छोड़ दें शांत, ढीला। फिर अपने मन में पूछें पूरे संकल्प के साथ, पूरी शक्ति पूरे प्राण—मैं कौन हूं? गंज जाए यह आवाज पूरे व्यक्तित्व में, पूरे रोएं—रोएं तक यह खबर पहुंच जाए कि मैं कौन हूं? एक—एक रोआं कंप जाए और खड़ा हो जाए और पूछने लगे कि मैं कौन हूं?.

मैं कौन हूं?… पूछें और पूछते चले जाएं अपने भीतर— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?… यह एक ही आवाज इस पूरे सरू वन को घेर ले, यह सागर का गर्जन छोटा मालूम पड़ने लगे। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछें, पूरी शक्ति से, पूरी ऊर्जा से, पूरे प्राणों से। जरा भी शक्ति पीछे न छोड़े। सारी शक्ति लगा दें। जैसे कोई पानी में कूद पड़ता है पूरे शरीर को लेकर, ऐसा कूद पड़े इस जिज्ञासा में कि मैं कौन हूं? पूरी शक्ति को लेकर।

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?… एक ही प्रश्न, एक ही प्रश्न। तीव्रता से, तेजी से— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछें, पूछें, पूछते चले जाएं, एक क्षण का विराम नहीं— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?… अकेले हैं आप, कोई नहीं यहां। प्रत्येक अकेला है। पूछें पूरी शक्ति से—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……दस मिनट के लिए अब पूछें सतत। जैसे समुद्र की लहरें चली आ रही हैं सतत और टकरा रही हैं किनारे से, वैसे आपका प्रश्न उठे सतत—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?. ….लहर के पीछे लहर और टकराए प्राणों सें—मैं कौन हूं? ताकि भीतर— भीतर खुदाइ होती चली जाए, कुआं खुदता चला जाए—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?… आखिर तक पूछना है प्राणों की बिलकुल गहराई तक—मैं कौन हूं? वहां है उत्तर, वह आएगा। लेकिन पूछें मैं कौन हूं?…

मैं कौन हूं? मैं हूं कौन? मैं कौन हूं?……पूरी शक्ति, पूरे प्राण—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?.. रोआं—रोआं पूछे, पूरे प्राण पूछे, श्वास—श्वास पूछे मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……कोई भय नहीं, कोई रोक नहीं। मैं कौन हूं?……न आंसू की फिकर, न रोने की फिकर, न हंसने की फिकर। मैं कौन हूं?……जो हो होने दें, पूछते चले जाएं—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं हूं कौन?……एक ही प्रश्न तीर की तरह, तीर की तरह भीतर प्रवेश करे—मैं कौन हूं?.. मन के भवन का कोई कोना अछूता न रह जाए—मैं कौन हूं? मैं हूं कौन?.. पूछें, पूछें, पूछें. मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूरा प्राण कंपने लगेगा, पूरा शरीर कंपने लगेगा। मैं कौन हूं?……एक आंदोलन आ जाएगा पूरे व्यक्तित्व में। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछें पूरी शक्ति से, पूरी तीव्रता से— मैं कौन हूं?……पूछते ही पूछते मन बिलकुल शांत हो जाएगा। उस शांति में और जोर से गंज उठेगी— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……दूसरा क्षण मिलेगा पूछने को या नहीं, नहीं कहा जा सकता। पूछें पूरी शक्ति से—मैं कौन हूं?……तोड़ दें आखिरी पर्दे, पूछ डालें भीतर, पहुंच जाए बात गहराई में, ताकि आ सके उत्तर।

मैं कौन हूं?……बस, एक ही प्रश्न, एक ही प्रश्न, एक ही प्रश्न—मैं कौन हूं?… आंसू आएं आ जाने दें, रोना आए आ जाने दें, कुछ फिकर न करें। पूछें. मैं कौन हूं?……मन हलका हो जाएगा। बह जाने दें आंसुओ को। पीछे गहरी शांति छूट जाएगी। एक् तूफान निकल जाने दें। पूछें : मैं कौन हूं?……पूछें, पूछें, पूछें, जरा भी शिथिल न हों, पूछते चले जाएं— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछें, पूछते—पूछते ही मन बिलकुल शांत और शन्य में प्रवेश कर जाएगा।

मैं कौन हूं? मैं हूं कौन?……पूछें पूरी शक्ति से कि थक जाएं, गिर जाएं, पूछें पूरी शक्ति से—मैं कौन हूं?……पूछें, ताकि परमात्मा उत्तर दे सके। मैं कौन हूं?……प्यास जब पूर्ण होती है तभी उत्तर आ जाता है। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूरी प्यास से, पूरी आतुरता से। मैं कौन हूं? मैं हूं कौन?……सागर भी यही पूछता है, सरू के वृक्ष भी यही पूछते हैं, सूरज भी यही पूख्ता है—मैं कौन हूं?……सारा जगत यही पूछने लगे—मैं कौन हूं?……पूछें, पूछें मैं कौन हूं?……मन को जरा भी विश्रांति न लेने दें, पूछें मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……पूछते ही पूल्ले मन शांत होता जाता है……मन शांत होता जाता है……पूछते ही पूछते मन बिलकुल शांत होता जाएगा…। मन शांत हो रहा है……मन शांत हो गया……जैसे तूफान के पीछे एक गहरी शांति छा जाए। आखिरी बार एक मिनट और जोर से पूछें मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……लगा दें पूरा दांव, पूरी शक्ति—मैं कौन हूं 7

अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें… धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें…। तूफान निकल गया। मन बिलकुल शांत हो जाएगा। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें…। शांत हो जाएं। पूछना छोड़ दें। दो—चार गहरी श्वास लें…। पूछना छोड़ दें। दों—चार गहरी श्वास लें……फिर धीरे— धीरे आंख खोलें…।

सुबह की बैठक समाप्त हुई।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन-17)

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तप, ब्रह्मचर्य और सम्‍यक् ज्ञान—(प्रवचन—सतहरवां)

प्यारे ओशो!

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्मेष आत्मा

सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।

अन्त: शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो।

यं पश्यंति यतय: क्षीणदोषा।

यह आत्‍मा सत्य, तप, सम्यक् ज्ञान, और ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त किया जा सकता है। जिसे दोषहीन यति देखते हैं, वह सुध आत्मा इस शरीर के अंदर वर्तमान है।

प्यारे ओशो! मुण्डकोपनिषद् के इस सूत्र को

हमारे लिए बोधगम्य बनाने की कृपा करें।

रणानद! यह सूत्र तो सरल है, पर हजारों वर्षों की व्याख्याओं ने इसे बहुत जटिल कर दिया है। नासमझ सुलझाने चलते हैं, तो और उलझा देते हैं! नीम—हकीम से सावधान रहना जरूरी है। बीमारी इतनी खतरनाक नहीं जितना नीम—हकीम खतरनाक सिद्ध हो सकता है। बीमारी का तो इलाज है, लेकिन नीम—हकीम के चक्कर में पड़ जाओ, तो इलाज नहीं है। और नीम—हकीमों से दुनिया भरी हुई है।

एक आदमी को सर्दी—जुकाम था, बहुत दिनों से था। और बार—बार लौट आता था। बड़े—बड़े चिकित्सकों के पास गया, कोई इलाज न कर पाया। फिर एक नीम—हकीम मिल गया। उसने कहा, ‘यह भी कोई बड़ी बात है! यह तो बायें हाथ का खेल है! चुटकी बजाते दूर कर दूंगा! इतना करो : सर्दी की रातें हैं, आधी रात में उठो। झील पर जाकर नग्न स्नान करो। झील के किनारे खड़े होकर ठंडी हवा का सेवन करो!’

वह आदमी बोला, ‘आप होश में हैं या पागल हैं! सर्द रातें हैं; बर्फीली हवाएं हैं। आधी रात को नंग— धडंग झील में स्नान करके खड़ा होऊंगा—हड्डी—हड्डी बज जायेगी! इससे मेरा सर्दी—जुकाम दूर होगा?

नीम हकीम ने कहा, ‘यह मैंने कब कहा कि इससे सर्दी—जुकाम दूर होगा! इससे तुम्हें डबल निमोनिया हो जायेगा! और डबल निमोनिया का इलाज मुझे मालूम है! फिर मैं निपट लूंगा!’

इस दुनिया में जीवन जटिल न होता, अगर जीवन के व्याख्याकार तुम्हें न मिल गये होते। उन्होंने सर्दी—जुकाम को डबल निमोनिया में बदल दिया है!

यह सूत्र बिलकुल सीधा—साफ है। लेकिन जब तुम इस सूत्र को पढोगे, तो तुम सूत्र नहीं पढ़ रहे हो। सूत्रों के सुंदर शब्द आच्छादित हो गये हैं —न मालूम कितनी व्याख्याओं से! जैसे जब तुम पढ़ोगे, ‘सत्य’—क्या समझोगे? पढ़ोगे, ‘तप’ —क्या समझोगे? पढ़ोगे, ‘सम्यक् ज्ञान’ —क्या समझोगे? पढ़ोगे, ‘ब्रह्मचर्य ‘—क्या समझोगे? शब्द तो बहुत दूर खो गये हैं—जंगलों में व्याख्याओं के। तुम्हारे हाथ में व्याख्याएं रह गई हैं।

‘सत्य’ शब्द तुम्हें याद दिलायेगा शास्त्रों की—और शास्त्रों में सत्य नहीं है। क्योंकि शब्दों में ही सत्य नहीं है। सत्य है शून्य में।

और तुमसे सदा कहा गया है कि सत्य बोलो। तुम्हारे भीतर ‘सत्य’ में और ‘बोलने’ में एक संयोग बन गया है। सत्य बोला नहीं जाता—जीया जाता है, अनुभव किया जाता है। यद्यपि जिसने सत्य का अनुभव किया, उसके आचरण में, उसके उठने—बैठने में, उसके हलन—चलन में, उसकी हर गतिविधि में सत्य की आभा होती है। उसके शब्दों में भी सत्य की प्रतिध्वनि होती है। सत्य नहीं—प्रतिध्वनि। और उस प्रतिध्वनि को वही समझ पायेगा, जिसने अपने भीतर का सत्य जाना हो।

गीता जिन्हें कंठस्थ है, कि रामायण की चौपाइयां याद किये बैठे हैं, कि बाइबिल या कुरान या धम्मपद सिर पर ढो रहे हैं—इनसे तो सत्य बहुत दूर हो गया।

सत्य तो तुम्हारे जीवन का सार है। सत्य बाहर नहीं है, भीतर है। वेदों में नहीं है, पुराणों में नहीं है; तुम्हारी चेतना की सुगंध है। सत्य ध्यान में है।

लेकिन जब भी तुम ‘सत्य’ शब्द को सुनते हो, तो तुम्हें लगता है—शास्त्र। याद आते हैं—वेद, कुरान, बाइबिल। याद आते हैं—बुद्ध, महावीर, क्या, क्राइस्ट, मोहमम्द!

‘सत्य’ शब्द सुनकर तुम्हें कभी अपनी याद आती है? आनी वही चाहिए। न बुद्ध से सत्य मिलेगा, न कृष्ण से। सत्य मिलेगा तो अपने स्मण से। मगर व्याख्याओं का घनघोर जंगल है!

इतनी सदियां बीत गई हैं तुम्हें संस्कारिता होते—होते कि अब सीधी—सादी बात भी बोध में नहीं आती—विकृत हो जाती है; खंडित हो जाती है; टूट—फूट जाती है; कुछ की कुछ हो जाती है!

सत्य है—ध्यान की, शून्य की, निर्विचार की अनुभूति। उस अनुभूति में न विचार होते, न कल्पना होती, न तुम होते हो। क्योंकि तुम स्वयं भी एक कल्पना हो, एक विचार हो। अहंकार विचार की एक तरंग—मात्र है—एक लहर। जहां सारी लहरें खो गईं, वहां अहंकार भी खो गया।

सल है निरअहंकारिता की प्रतीति, उसका साक्षात्कार।

लेकिन क्या ऐसा स्मरण आता है ‘सत्य’ शब्द को पढ़कर? जब पढ़ोगे— ‘सत्येन लभ्यस्तगसा ह्मोष आत्मा—यह आत्मा सत्य है, तप है, सम्यक् ज्ञान है, ब्रह्मचर्य है, तो क्या तुम्हारे मन में विचार उठते हैं? तप से विचार उठता है— सिर के बल खड़े हुए लोग! उपवास करते हुए लोग! सूरज से आग बरस रही है, और वे अपने चारों तरफ धूनी रमाये बैठे हुए हैं! ‘तप’ से तुम्हें क्या याद आता है? कीटों पर लेटे हुए लोग! सर्दियों में बर्फीली नदियों में नग्न खडे लोग! कि गर्मियों में जलती हुई रेत पर पालथी मारे हुए बैठे लोग! जटाजूटधारी—शरीर के दुश्मन—अपने को गलाने में लगे, सडाने में लगे— इस तरह के आत्महताओ की याद आती है।

‘तप’ शब्द को सुनकर ही याद आती है उन लोगों की जो अपने को कष्ट देने में कुशल हैं।

दुनिया में दो तरह के हिंसक हैं। एक वे जो दूसरों को सताते हैं। ये छोटे हिंसक हैं। क्योंकि दूसरे कों तुम सताओगे, तो दूसरा कम से कम आत्मरक्षा तो कर सकता है। प्रत्युत्तर तो दे सकता है। भाग तो सकता है! पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ा तो सकता है! कोई उपाय खोज सकता है। रिश्वत दे सकता है। चापलूसी कर सकता है। सेवा कर सकता है। गुलाम हो सकता है।

और दूसरे तरह के वे आत्म—हिंसक हैं, जो खुद को सताते हैं। वहां कोई बचाव नहीं है। वह हिंसा बड़ी है। अब तुम खुद ही अपने को सताओगे, तो कोन तुम्हें बचायेगा! कोन प्रतिकार करे? अपना ही हाथ अगर आग में जलाना हो; तुमने ही अगर तय किया हो आग में जल जाने का—तो फिर बचना मुश्किल है!

आत्महत्या करनेवाले व्यक्ति को कैसे बचाओगे? कानून नियम बनाता है, मगर बचा पाता है क्या? कानून बड़ा मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ता है। कानून कहता है : जो आदमी आत्महत्या करेगा, उसको सजा मिलेगी।’ अब यह बड़े मजे की बात है! उसने तो आत्महत्या कर ही ली, अब तुम क्या खाक सजा दोगे? सजा तुम उसको दे सकते हो, जो आत्महत्या कर रहा हो और कर न पाया हो। और जो आत्महत्या करना चाहता है, क्या इस दुनिया में उसे कुछ कमी है! इतने सरदार इतनी बसें चला रहे हैं, ट्रके चला रहे हैं। देशी ठर्रा पिये हुए—ट्रेनें चल रही हैं! मालगाडिया दौड़ रही हैं! झाडू हैं, पहाड़ हैं, नदी हैं, समुद्र हैं! जिसको आत्महत्या करनी है, इस बड़े जगत में, कोई उसे बचा सकता है! कैसे बचाओगे? कोई नहीं बचा सकता।

हां, पकड़ा जाता है वह व्यक्ति जो करना नहीं चाहता था, यूं ही करने का बहाना कर रहा था! करने की तरकीब कर रहा था, कि उसका कुछ प्रभाव पड़ जाये। धमका रहा था।

स्त्रियां आत्महत्या के बहुत उपाय करती हैं। दो—चार गोली खा लेंगी नींद की। मगर इतनी कभी नहीं खाती कि मर जायें! इतनी ही खाती हैं कि तुमको थोड़ी मुसीबत में डाल दें। कि अब डाक्टर को बुलाओ; कि अब पुलिस से छिपाओ! कि अब डरो उनसे! कि अब दुबारा तुमने जो भूल की थी—अब न करना! अब उनकी मानकर चलना! यह उनकी तरकीब है। यह गांधीवादी तरकीब है! अपने को सताकर तुम पर कब्जा पाने की।

‘तप’ से तुम्हारे मन में क्या खयाल उठता है? ‘तप’ शब्द तुम्हारे भीतर कोन —सी आकृतियां उभारता है?

—आत्म—दमन, आत्म—पीडन। लेकिन तप से इसका कोई संबंध नहीं है।

तप का ठीक—ठीक अर्थ इतना ही होता है कि जीवन में बहुत दुख हैं, इन दुखों को सहजता से, धैर्य से, संतोष से, अहोभाव से अंगीकार करना। और दुख पैदा करने की जरूरत नहीं है; दुख क्या कुछ कम है! पांव—पांव पर तो पटे पड़े हैं। दुख ही दुख ही तो हैं चारों तरफ। लेकिन इन दुखों को भी वरदान की तरह स्वीकार करने का नाम तप है।

सुख को तो कोई भी वरदान समझ लेता है। दुख को जो वरदान समझे, वह तपस्वी है। जब बीमारी आये, उसे भी प्रभु की अनुकम्पा समझे; उससे भी कुछ सीखे। जब दुर्दिन आयें, तो उनमें भी सुदिन की संभावना पाये। जब अंधेरी रात हो, तब भी सुबह को न भूले। अंधेरी से अंधेरी बदली में भी वह जो शुभ्र बिजली कौंध जाती है, उसका विस्मरण न हो।

कुछ दुख आरोपित करने की जरूरत नहीं है; दुख क्या कम हैं? इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि ‘संसार को छोड़ो; जंगल में जाओ; अपने को सताओ।’ संसार में कोई दुखों की कमी है, कि तुम्हें जंगल जाना पड़े! यहां तरह—तरह के दुख हैं। जीवन चारों तरफ संघर्ष, प्रतियोगिता, वैमनस्य, ईर्ष्या, जलन, द्वेष—इन सबसे भरा है। एक दुश्मन नहीं—हजार दुश्मन हैं। जिनको तुम दोस्त कहते हो, वे भी दुश्मन हैं। कब दुश्मन हो जायेंगे—कहना मुश्किल है।

मैक्यावली ने अपनी अद्भुत किताब ‘प्रिंस’ में लिखा है कि अपने दोस्तों से भी वह बात मत कहना, जो तुम अपने दुश्मनों से न कहना चाहो। क्यों? क्योंकि तुम्हारा जो आज दोस्त है, वह कल दुश्मन हो सकता है।

मैक्यावली पश्चिम का चाणक्य है। दोस्त से भी मत उघाड़ना अपने हृदय को, क्योंकि वह भी नाजायज लाभ उठायेगा किसी दिन। फिर तुम पछताओगे।

यहां तो सब तरफ कांटे ही काटे हैं, अब और काटो की शैया बनाने की जरूरत क्या है? तुम जिस शैया पर सोते हो रोज, वह कीटों की नहीं? उतने से मन नहीं भरता?

पत्नी और पति तुम्हें कम दुख दे रहे हैं?

मैंने सुना. पति पत्नी में पति के देर से घर लौटने पर झगड़ा हो रहा था। पत्नी बोली, ‘अगर आप आइंदा रात नौ बजे के बाद आयेंगे, तो मैं आपको छोड़कर किसी और से शादी कर लूंगी।’

पति ने कहा, ‘तब तो पड़ोसवाले गुप्ताजी से ही कर लेना!’

पत्नी ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा, ‘गुप्ताजी से ही क्यों?’

पति ने शांति से उत्तर दिया, ‘मैं उनसे बदला लेना चाहता हूं।’

यहां कुछ कमी है!

एक दोस्त अपने संगी—साथी से कह रहा था, ‘बारिश आनेवाली है, मुझे बड़ा डर लग रहा है; मेरी पत्नी बाजार गयी हुई है।

उसके मित्र ने कहा, ‘इसमें डरने की क्या बात है! अरे, बारिश उसे कुछ गला तो न देगी? कोई मिट्टी की तो बनी नहीं! बहुत बारिश आ जायेगी, तो किसी दुकान में घुसकर खड़ी हो जायेगी।’

मित्र ने कहा, ‘इसी का तो डर है। जिस दुकान में घुस जाती है, वहीं उधारी करके आ जाती है!’

इस जिंदगी में तुम दुख तो देखो—कुछ कमी है! तप करने कहां जा रहे हो!

डाक्टर चंदूलाल से कह रहे थे, ‘चंदूलाल, यह कोई पुरानी बीमारी है, जो आपका सुख—चैन नष्ट कर रही है।’

चंदूलाल मुंह पर हाथ रखकर अपनी पत्नी की तरफ इशारा करके डाक्टर से बोले, ‘जरा धीरे डाक्टर साहब! वह इधर ही खड़ी हुई है!’

एक पुरुष और एक स्त्री पार्क में बैठे बहुत जोर—जोर से बातें कर रहे थे। अचानक स्त्री उठी और पुरुष को एक चांटा मारकर गुस्से में वहां से चली गई। इतने में पास से गुजरनेवाले व्यक्ति ने वहां बैठे पुरुष से पूछा, ‘वह स्त्री क्या आपकी पत्नी थी?’

इस पर पुरुष ने बडे तैश में आकर जवाब देते हुए कहा, ‘ और नहीं तो क्या, तुम मुझे इतना बे—गैरत इनसान समझते हो कि मैं किसी ऐरी—गैरी स्त्री से चांटा खा लूंगा?’

कई’ वर्षों के बाद कालेज के दो साथियों की मुलाकात हो गई। और बातचीत का सिलसिला हुआ।’कैसे रहे इतने वर्षों तक?’ ‘कोई खास बात नहीं हुई। कालेज छोड़ने के फौरन बाद शादी कर ली थी।’

‘यह तो ब ड्रा अच्छा किया।’

‘नहीं। मेरी पत्नी बहुत लड़ाकू थी।’

‘ ओह! इससे जीवन जहर हो गया होगा?’

‘नहीं। इतना बुरा भी नहीं हुआ। दहेज में पांच हजार रुपये मिले थे।’

‘उससे तो बड़ा फायदा हुआ होगा।’

‘नहीं। उस रकम से मैंने दुकान कर ली। लेकिन बिक्री ही नहीं होती थी।’

‘तब तो बडी मुसीबत रही होगी?’

‘नहीं। बुरा भी नहीं हुआ। युद्धकाल में दुकान बड़े भाव में बेच दी। दस हजार का नगद फायदा हो गया।’

‘यह बहुत अच्छा किया तुमने!’

‘नहीं। इतना अच्छा भी नहीं हुआ। उस रकम से मैंने एक मकान खरीद लिया और मकान में आग लग गई!’

‘यह तो बड़ी बदकिस्मती रही।’

‘नहीं, इतनी बदकिस्मती भी नहीं रही। मेरी पत्नी भी उसमें जल गई!’

यहां जिन्दगी में क्या कमी है!

तप का मेरी दृष्टि में एक ही अर्थ है : जीवन में काटे भी हैं, फूल भी हैं; फूलों का स्वागत तो कोई भी कर लेता है; काटो का भी जो स्वागत कर ले, वह तपस्वी है। कुछ तुम्हें कांटे ईजाद करने की आवश्यकता नहीं है।

यहां दिन भी हैं और रातें भी हैं। कुछ दीये बुझाने की तुम्हें जरूरत नहीं है। दिन को तो स्वभावत: तुम प्रसन्न हो। रात का अंधेरा भी अंगीकार कर लो।

परितोष का नाम तप है। संतोष का नाम तप है।

तप आत्म—हिंसा नहीं है—अपने को सताना नहीं है। सताना तो हर हाल बुरा है—किसी को भी सताओ—तुम भी उसमें सम्मिलित हो। लेकिन जो भी जीवन में आ जाये—सुख हो कि दुख, सफलता हो कि विफलता, हारे मिले कि जीत—तुम्हारे भीतर कोई अन्तर ही न पड़े; तुम अडिग—अकंम्प बने रहो—यह तपश्चर्या है।

इसलिए तप के लिए किसी हिमालय की गुफा में बैठने की जरूरत नहीं; वह तो तप से भागना है। हिमालय की गुफा में क्या खाक तप होगा? जीवन चुनौती है—प्रतिपल। और हर चुनौती छिद जाती है कटार की तरह। उसे फूल की तरह स्वीकार कर लेना तपश्‍चर्या है।

इसलिए न तो सिर के बल खड़े होओ, न धूनी रमाओ, न भभूत लगाओ, न जटाजूट बढ़ाओ, न उपवासे मरो। इस सब की कोई जरूरत नहीं है। परमात्मा ने जीवन में सुख और दुख को बिलकुल समतुल बनाया एं। जीवन में हर चीज समतुल है। नहीं तो अस्तित्व बिखर जायेगा। इसमें समतुलता होनी ही चाहिए; जितना सुख—उतना दुख; जितनी रात—उतने दिन; जितनी सफलताएं—उतनी असफलताएं। तुम दोनों को सम— भाव से ले सको—तो तप।

लेकिन तुम्हारी व्याख्याओं ने बड़ी मुश्किल कर दी है! तुम्हारी व्याख्याओं ने तुम्हें न मालूम क्या—क्या सिखा रखा है।

मेरे हिंसाब से तप तो जीवन की सहज साधना है; असहज नहीं। प्रत्येक वस्तु को जिस दिन तुम आशीष की तरह स्वीकार करने को राजी हो जाओगे, अहोभाव से; जीवन के लिए भी धन्यवाद दोगे परमात्मा को—मृत्यु के लिए भी; बस, उस दिन जानना कि तुम्हारे भीतर तप का आविर्भाव हुआ है।

सत्य है अपने स्वयं की शून्यता का, मौन का, निर्विचार का, निर्बीज अवस्था का अनुभव। और तप है : बाहर जो जीवन फैला है, उसे सम— भाव से देखने की दृष्टि।

फिर तीसरा शब्द है—’सम्यक् ज्ञान’। यह शब्द यूं तो हिंदू शास्त्रों में पाया जाता है, मुण्डकोपनिषद् में है; बौद्ध शास्त्रों में पाया जाता है; जैन शास्त्रों में पाया जाता है—लेकिन जैनों ने इस शब्द पर अपनी आधारशिला रखी है; उन्होंने इसे बहुमूल्य माना है। लेकिन अगर जैन पण्डित से पूछोगे, तो सम्यक् शान का अर्थ होता है—जो गान जैन शास्त्र में है! वह सम्यक् ज्ञान! जो ज्ञान जैन शास्त्र में नहीं, किसी और शास्त्र में है—वह असम्यक् ज्ञान! जैन शास्त्र—शास्त्र; अजैन शास्त्र——कुशास्त्र! जैन गुरु—गुरु; अजैन गुरु—कुगुरु! जैन मंदिर में बैठी प्रतिमा—सुदेव; किसी और मंदिर में बैठी प्रतिमा—कुदेव!

इतने अद्भुत शब्द को, इतने प्यारे शब्द को ऐसा बिगाड़ा, ऐसा गंदा किया! सम्यक् ज्ञान का अर्थ होता है : ठीक—ठीक जानना।’सम्यक्’ शब्द का अर्थ होता है—ठीक; जैसा है वैसा जानना। एक ही शर्त पूरी करनी जरूरी है…..। जैन होना जरूरी नहीं है। हिंदू या मुसलमान होना जरूरी नहीं है। एक शर्त पूरी करनी जरूरी है। और उस शर्त में, तुम बड़े चकित होओगे, तुम्हें जैन होना, बौद्ध होना, हिदू होना, मुसलमान होना छोड़ना होगा। अगर सम्यक् ज्ञान को पाना है, तो तुम्हें वे सारी धारणाएं छोड़ देनी होंगी, जो तुम्हारे शान को सम्यक् नहीं होने देतीं।

जब तुम पहले से ही कोई धारणा लेकर चलते हो, तो तुम उसे कैसे देखोगे—जो है! तुम तो वही देखोगे, जो तुम देखना चाहते हो। तुम्हारी आंखों पर तो एक परदा है। तुम्हारी आंखों में तो एक चित्र रमा है, एक चित्र बसा है, उसी चित्र के आधार से तुम यथार्थ को देखोगे। ऐसा देखना—असम्यक् ज्ञान। अगर कुरान बीच में आ जाये, या गीता—महावीर या बुद्ध—तो तुम जो जानोगे—वह असम्यक् ज्ञान।

कोई बीच में न आये; तुम सीधा—सीधा जानो। जानने की क्षमता तुम्हारी निर्मल हो, स्वच्छ हो—किसी पूर्वाग्रह से आच्छादित नहीं, किसी पूर्व— धारणा से भरी नहीं; दर्पण की तरह हो; जो सामने आये, उसे झलका दे; जैसा है वैसा झलका दे। यूं न कहे कि इस शक्ल को मैं न दिखाऊंगा, क्योंकि यह शक्ल सुंदर नहीं!

कहते हैं, बाबा तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया, तो उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, ‘मैं नहीं झुकूंगा। मैं तो धनुर्धारी राम के सामने ही झुकता हूं।’ कहा उन्होंने कृष्ण से—तुलसी माथा तब नवै…..। शर्त लगा दी कि यह तुलसीदास का जो माथा है, तब झुकेगा—’ धनुष—बाण लेउ हाथ!’ जब हाथ में धनुष—बाण लोगे, तो यह माथा झुकेगा!

इसमें छुपे हुए अहंकार को देखते हैं! यह माथा भी सशर्त झुकेगा। पहले मेरी शर्त पूरी करो। तुम्हारे लिए नहीं झुकूंगा; मेरी शर्त पूरी होगी, तो झुकूंगा। और मेरी शर्त है कि धनुष—बाण हाथ लो।

कृष्ण में क्या खराबी थी! बांसुरी में क्या बुराई! धनुष—बाण से तो बेहतर है। धनुष—बाण से तो ज्यादा विकसित है! धनुष—बाण से तो बहुत प्यारी। मगर नहीं, अपनी धारणा है!

और यह तुलसीदास का ही रोग नहीं है। यह पीलिया सभी की आंखों पर छाया हुआ है।

मैं छोटा था। जैन घर में मैं पैदा हुआ। मेरे संगी—साथी तो हिंदू थे। उनके साथ मैं मंदिर जाता। तो मुझसे उम्र में जो बड़े जैन लड़के थे, वे मुझसे कहते—’माथा मत झुकाना! ये अपने भगवान नहीं हैं! यह हिंदू मंदिर है। यह कोई जैन मंदिर नहीं।’ और जब हिंदू बच्चों के साथ मैं कभी जैन मंदिर पहुंच जाता, तो वे कोई भी सिर न झुकाते! वे कहते, ‘ये नागा बाबा! नंग— धडूंग बैठे हैं। इनके सामने क्या सिर झुकाना!’ वे हंसी —मजाक उड़ाते।

यह छोटे बच्चों की ही बात होती, तो क्षम्य थी; बड़े बच्चों में भी कुछ फर्क नहीं। उम्र ही ज्यादा है; बच्चे वही के वही!

तुम किसी जैन मुनि को ले जाओ कृष्ण के मंदिर में—सिर नहीं झुकायेगा। कुदेव के सामने सिर झुके! तुम ले जाओ किसी हिंदू संन्यासी को वह महावीर के सामने सिर नहीं झुकायेगा। क्योंकि महावीर तो नास्तिक! बुद्ध के सामने सिर नहीं झुकायेगा। बुद्ध तो भ्रष्ट करनेवाले! इन्होंने ही तो देश को बरबाद कर दिया। इन्होंने ही तो भ्रष्टाचार के बीज बोये!

तुम मस्जिद के सामने से गुजरते हो, तुम्हारे मन में कभी भाव उठता है कि झुक जाओ, कि जाकर दो क्षण भीतर आराधना कर लो, प्रार्थना कर लो! सवाल ही नहीं उठता। और झाडू के नीचे किसी ने पत्थर पर लाल रंग पोत दिया है, दो फूल रख दिये हैं—एकदम घुटने टेककर हनुमानजी का चालीसा शुरू! मुसलमान को कुछ नहीं होता वहां।

तुम्हारी अपनी धारणाएं आंखों पर छायी रहती हैं, उन्हीं से तुम देखते हो; इसलिए कुछ का कुछ देखते हो; जो है वैसा ही नहीं देखते। दर्पण की तरह जो हो जाये, वह सम्यक् ज्ञान को उपलब्ध होता है। दर्पण का कोई आग्रह नहीं होता; निराग्रही होता है। दर्पण के सामने सुंदर चेहरे वाला व्यक्ति खड़ा हो तो, असुंदर खड़ा हो तो—धनुष— बाण लिए राग खड़े हों तो, औg बांसुरी बजाते कृष्ण खड़े हों तो—और नग्न महावीर खड़े हों तो—कोई भेद न पड़ेगा। दर्पण तीनों को झलकायेगा; समभाव से झलकायेगा।

सम्यक् ज्ञान का अर्थ होता है—ठीक—ठीक जानना। और ठीक—ठीक जानने के लिए जरूरी है—शास्त्रों से मुक्ति, सिद्धांतों से मुक्ति, धारणाओं से मुक्ति, पूर्वाग्रहों से मुक्ति। जब तुम यह सारा कचरा अलग कर दोगे—न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई, न जैन—तब तुम सम्यक् ज्ञान को उपलब्ध हो सकेंगे।

लेकिन सारी दुनिया अपने —अपने कचरे को पकडे हुए है—जोर से पकड़े हुए है। मेरा कचरा सोना; तुम्हारा सोना—कचरा! मेरा है —इसलिए सोना होना ही चाहिए!

‘सम्यक् ज्ञान’ जैसा प्यारा शब्द —अपनी सारी गरिमा खो दिया।

और ‘ब्रह्मचर्य’ से तुम क्या अर्थ लेते हो, जब यह शब्द तुम्हारे कान में पड़ता है? तो तुम्हारे भीतर क्या अर्थ उमगते हैं? तो ब्रह्मचर्य से तुम्हारी धारणाएं बड़ी अजीब हैं।

मेरे एक मित्र थे—लाला सुंदरलाल। उनके लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ था—लगोट के पक्के! वही अधिकतम लोगों का अर्थ है—लगोट के पक्के! कसकर लंगोट बांधा—तो ब्रह्मचर्य!

तुम कितने ही कसकर लंगोट बांध लो, इससे कुछ ब्रह्मचर्य नहीं हो जायेगा!

ब्रह्मचर्य सिर्फ कामवासना का दमन नहीं है। कामवासना का रूपांतरण है। और दोनों में जमीन—आसमान का भेद है। जो कामवासना को दबायेगा, वह तो रुग्ण हो जायेगा। ब्रह्मचर्य को तो क्या उपलब्ध होगा; वह तो सामान्य, नैसर्गिक वासना से भी नीचे गिर जायेगा। वह तो और भी विकृत हो जायेगा। उसके जीवन में तो हजार तरह की विकृतियां आ जायेंगी। ही यह भी हो सकता है कि तुम उन विकृतियों को भी पूजा देने लगो!

विकृतियां भी पूजी जा रही हैं!

दबाया अगर तुमने अपनी कामवासना को, तो वह उभरकर निकलेगी। हां, नये—नये ढंग से निकलेगी कि तुम पहचान न सकी। नई शक्लें लेगी, नये वस्त्र पहनेगी कि तुम पहचान न सको।

अभी मोरारजी देसाई ने चार—छह दिन पहले ही एक वक्तव्य में कहा कि जब मैं प्रधानमंत्री था और कैनेडा गया तो उनकी उम्र करीब तेरासी वर्ष थी तब। तेरासी वर्ष की उम्र में भी उनको कैनेडा में देखने योग्य चीज क्या अनुभव में आयी? वह था नाइट क्लब—जहां कैबरे नृत्य होता है। स्त्रियां अपने वस्त्र उघाड़—उघाड़कर फेंक देती हैं; धीरे— धीरे नग्न हो जाती हैं!

कारण क्या देते हैं वे—कि मैं जानना चाहता था कि नाइट क्लब में होता क्या है! मगर जानकर तुम्हें जरूरत क्या? तेरासी वर्ष की उम्र में तुम्हें यह उत्सुकता क्या? कि वहा क्या होता है! होने दो। इतनी बड़ी दुनिया है, इतनी चीजें हो रही हैं! कैनेडा में और कुछ नहीं हो रहा था! सिर्फ नाइट क्लब ही हो रहे थे! कैनेडा में और कुछ देखने योग्य न लगा? नाइट क्लब! और वह भी चोरी से गये! चोरी से भी जाने योग्य लगा! क्योंकि पता चल जाये कि नाइट क्लब में गए हैं, कैबरे नृत्य देखने गए हैं, तो बदनामी होगी। और मोरारजी देसाई—तो महात्मा समझो! ऋषि—मुनि हैं!

मगर उन्होंने यह बात अब क्यों कही? अब कहां, उसके पीछे और कारण है। गुजरात विद्यापीठ के विद्यार्थियों के सामने वे अपने ब्रह्मचर्य की घोषणा कर रहे थे, उसमें यह बात भी कह गये! कि मेरा ब्रह्मचर्य वहां भी डिगा—मगा नहीं! तेरासी वर्ष की उम्र में कैबरे नृत्य देखने गए—ब्रह्मचर्य डिगा नहीं उनका! यह तो यूं हुआ कि कब्र में कोई पड़ा हो, और चारों तरफ कैबरे नृत्य होता रहे! और कब्र में पड़ा हुआ महात्मा कहे, ‘अरे नाचते रहो। मैं अपने ब्रह्मचर्य में पक्का! लंगोट का पक्का, ऐसा कसकर लंगोट बांधा है कि क्या तुम मुझे हिलाओगे।’

तो उन्होंने बड़े रस लेकर वर्णन किया है! कि जैसे ही मैं अंदर गया, चार सुंदर स्त्रियां जो मुझे पहचान गयीं, क्योंकि अखबारों में उन्होंने मेरी तस्वीर देखी होगी—आकर मेरे पास नाचने लगीं; हाव— भाव प्रकट करने लगीं। मगर मैं भी बिलकुल संयम साधे, नियंत्रण किये अडिग खड़ा रहा!

अब यह संयम साधना, और यह अडिग खड़े होना और यह नियंत्रण को बनाये रखना—यह किस बात का सबूत है?

अभी भी वे ही सब रोग भीतर छाये हुए हैं—अभी भी! कहीं कुछ भेद नहीं पड़ा है! नहीं तो नियंत्रण की भी क्या जरूरत थी? यह इतना संयम बांधने की क्या जरूरत थी! अरे, नाचती थीं, तो नाचने देना था! बैठते, और प्रसन्न होते। अगर नाच अच्छा था, तो प्रशंसा करनी थी। या कम से कम कुछ न बनता तो थोडा नाचते! मगर बिलकुल खड़े रहे अपने को सम्हाले हुए! कि कहीं पैर फिसल न जायें!

पैर फिसलने का डर! ये विकृतियां हैं। फिर आदमी विकृतियों से निकलता है…..।

मुल्ला नसरुदीन ने अपने बेटे एक फजलू से कहा कि ‘देख, गांव में गंदी फिल्म लगी हुई है। अश्लील है। कभी देखने मत जाना। ऐसे गंदे स्थान में कभी जाना ही मत। जायेगा, तो बहुत पछतायेगा!’

फिर फजलू मुझसे कह रहा था कि ‘मैं गया और बहुत पछताया। पिताजी ने ठीक कहा था कि बहुत पछताएगा।’ मैंने कहा, ‘हुआ क्या?’

उसने कहा, ‘हुआ यह कि पिताजी ने जो कहा था, सब ठीक निकला। उन्होंने दो बातें कहीं थीं। एक तो : ऐसी चीजें देखने को मिलेंगी, जो नहीं देखनी चाहिए। और दूसरा कि बहुत पछतायेगा। दोनों बातें हुईं।’

मैंने कहा, ‘फिर भी मैं समझूं कि क्या—क्या हुआ!’

उसने कहा, ‘पहली बात तो यह हुई कि पिताजी वहा देखने को मिले! उन्होंने कहा था कि ऐसी चीजें देखने को मिलेंगी, जो नहीं देखनी चाहिए! और दूसरा—मुझे देखते ही उन्होंने पिटाई की! कि तू यहां क्यों आया! सो बहुत पछताया भी। हालांकि पिटते हुए मैंने इतना जरूर पिताजी से पूछा कि आप क्यों यहां आये? उन्होंने कहा, मैं तुझे देखने आया! कि कहीं फजलू गया तो नहीं है!’

क्या—क्या मजे दुनिया में चलते हैं! फजलू को देखने गये थे! ये फिल्म में बैठे हुए लोग फिर बहाने खोजेंगे। फिर क्या—क्या बहाने नहीं खोजते हैं!

जैसे ही व्यक्ति दमन करेगा, वैसे ही उसके भीतर जो दमित वेग हैं, वे पीछे के दरवाजों से रास्ते बनाने लगेंगे। उस व्यक्ति के जीवन में दोहरापन पैदा हो जायेगा; या अनेकता पैदा हो जायेगी। उसके बहुत चेहरे हो जायेंगे। वह खण्ड—खण्ड हो जायेगा। कहेगा कुछ—करेगा कुछ—सोचेगा कुछ—सपने कुछ देखेगा। उसके जीवन में विकृति हो जायेगी। उसके जीवन की एकता खंडित हो जायेगी।

ब्रह्मचर्य का यह अर्थ नहीं है।’ब्रह्मचर्य’ शब्द में ही अर्थ छिपा हुआ है। ब्रह्म जैसी चर्या; ईश्वरीय आचरण; दिव्य आचरण। दमित व्यक्ति का आचरण तो दिव्य हो ही नहीं सकता। अदिव्य हो जायेगा; पाश्विक हो जायेगा। पशु से भी नीचे गिर जाएगा। दिव्य आचरण तो एक ढंग से हो सकता है कि तुम्हारे भीतर जो काम की ऊर्जा है, वह ध्यान से जुड़ जाए। ध्यान और काम तुम्हारे भीतर जब जुड़ते हैं, तो ब्रह्मचर्य फलित होता है। ब्रह्मचर्य फूल है—ध्यान और काम की ऊर्जा के जुड़ जाने का। ध्यान अगर अकेला हो, उसमें काम की ऊर्जा न हो, तो फूल कुम्हलाया हुआ होगा; उसमें शक्ति न होगी। और अगर काम अकेला हो उसमें ध्यान न हो—तो वह तुम्हें पतन के गर्त में ले जाएगा।

काश! ये दोनों जुड जायें—ध्यान और काम! काम है शरीर की शक्ति और ध्यान है आत्मा की शक्ति। और जहां ध्यान और काम जुड़े, वहां आत्मा और शरीर की शक्ति जुड़ गई। फिर तुम इस महान ऊर्जा के आधार पर उस अंतिम यात्रा पर निकल सकते हो, जो ब्रह्म की यात्रा है। तब तुम्हारे जीवन में ब्रह्मचर्य होगा।

खंडित व्यक्ति की तो प्रतिभा भी नष्ट हो जाती है। इसलिए तो मोरारजी भाई देसाई जैसे लोगों के पास प्रतिभा नाम—मात्र को नहीं है! हो ही नहीं सकती। बुद्धि से तो इनकी दुश्मनी हो जाती है!

तुम्हारे तथाकथित महात्माओं को तुम देखो—इनके भीतर तुम बुद्धि न पाओगे! इनको तुम बिलकुल बुद्ध पाओगे! मगर ये तुम्हें बुद्ध दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि तुम्हारी धारणा यह है कि देखो, उपवास कर रहे हैं! अब उपवास से बुद्धि का क्या संबंध? बुद्धिमान आदमी उपवास करेगा ही क्यों? जितनी जरूरत होगी, उतना भोजन करेगा। न ज्यादा भोजन करेगा—न कम भोजन करेगा। बुद्धिमान आदमी तो हमेशा समता से जियेगा। शरीर की जरूरत है, उतना भोजन देगा। ज्यादा नहीं देगा, क्योंकि ज्यादा भोजन शरीर पर बोझ होता है। कम भी नहीं देगा, क्योंकि कम शरीर की हत्या करना है। बुद्धिमान व्यक्ति उतना देगा, जितना आवश्यक है। उतना सोयेगा, जितना आवश्यक है। उतना श्रम करेगा, जितना आवश्यक है। ये तो बुद्धओं के लक्षण हैं—या तो कम खायेंगे—या ज्यादा खायेंगे! या तो कम सोयेंगे—या ज्यादा सोयेंगे! या तो कम श्रम करेंगे—या ज्यादा श्रम करेंगे, कभी मध्य में न हो पायेंगे। गांव में एक प्रसिद्ध नेताजी का भाषण होनेवाला था। वे सभा—स्थल पर पहुंचे, तो देखा, वहां सिर्फ एक ही श्रोता बैठा था! नेताजी ने उससे पूछा, ‘ अब क्या करना चाहिए?’

‘जैसा आप ठीक समझें,’ उसने उत्तर दिया—’मैं एक मामूली किसान हूं और यह जानता हूं कि जब मैं बीस गायों का चारा डालने जाता हूं और यदि वहा सिर्फ एक गाय भी हो, तो मैं उसे बिना चारा दिये लौट नहीं आता!’

उसके उत्तर से प्रभावित हो नेताजी ने भाषण दिया। एक घंटे बाद जब उनका धुंआधार भाषण समाप्त हुआ, तो नेताजी ने ग्रामीण से पूछा, ‘कहो भाई, कैसा रहा?’

‘बहुत सुंदर’, किसान बोला, ‘लेकिन मैं तो एक मामूली किसान हूं और सिर्फ यह जानता हूं कि बीस गायों की जगह मुझे यदि एक गाय मिले तो मुझे उसको सब का चारा नहीं खिला देना चाहिए! और आपने यही किया कि गाय तो एक, और बीस गाय का चारा मुझ गरीब को खिला दिया! बस, भागी— भागी तबीयत रही कि कब भाग! मगर अकेला हूं भाग भी नहीं सकता! अब आपकी आंखें भी मुझ पर गडी हुई हैं! कई बहाने खोजे, मगर कोई बहाना हाथ न आये! अच्छा भी न लगे कि अब अकेला ही आदमी। मैं भी भाग जाऊं, तो फिर भाषण कैसे चलेगा! और नेताजी क्या सोचेंगे! बुरा इनके मन को न लग जाये। मगर इतना कहता हूं कि आगे जरा खयाल रखें। जब गाय एक हो, तो बीस गाय का घास उसके सामने न डालें!’

एक साधारण किसान में भी ज्यादा बुद्धि होती है—तुम्हारे नेताओं से। फिर चाहे वे नेता धार्मिक हों—और चाहे राजनैतिक, कुछ भेद नहीं है उनमें।

तुम उनको ‘नेता’ ही किसलिए कहते हो! तुम्हारे नेता कहने के भी कारण बड़े अजीब होते हैं! कोई चरखा चलाता ‘है, हाथ की बनाई हुई खादी पहनता है—नेता हो गया! कोई उपवास करता है; दों—तीन घंटे शीर्षासन करता है—महात्मा हो गया! इसमें बुद्धिमत्ता का कहीं भी कोई संबंध है?

चरखा चलाने में कोई बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत है? थोड़ी बहुत पहले रही भी हो, तो चरखा चलाते—चलाते नष्ट हो जायेगी। चरखा चलाओगे—चरखा ही हो जाओगे! बस, खोपड़ी में वही चरखा ही घूमता रहेगा! और कुछ तो और भी पहुंचे हुए—तकली चला रहे हैं! बैठे —बैठे तकली ही घुमाते रहते हैं!

तुम जिनको धार्मिक कहते हो, जिनको तुम महात्मा कहते हो, कभी सोचो भी—इनके भीतर कहीं भी कोई प्रतिभा का लक्षण दिखाई पड़ता है? कोई मेधा दिखाई पड़ती है? और अगर मेधा ही न हो? तो ब्रह्मचर्य नहीं है—यह समझ लेना। क्यौंकि ब्रह्मचर्य का और क्या सबूत हो सकता है! सबसे बड़ा सबूत होगा—प्रतिभा की अभिव्यक्ति; प्रतिभा कै हजार—हजार फूल खिल जाना; प्रतिभा के कमल खुल जाना; प्रतिभा की सुंगध का उड़ जाना। उनके कृत्य में भी प्रतिभा होगी—उनके उठने—बैठने में, चलने—फिरने में भी। इसलिए—’चर्या’। चलना—फिरना, उठना—बैठना—उनके जीवन. के हर कृत्य में तुम एक धार पाओगे, एक चमक पाओगे, एक ओज पाओगे।

लेकिन तुम्हारे धार्मिक नेताओं की जिंदगी में तुम एक जंग लगी पाओगे। और जितनी ज्यादा जंग चढ़ी हो उन पर, उतने ही वे तुमको जंचेंगे! क्योंकि तुम्हारी धारणाएं, तुम्हारी मान्यताएं.।

अब कोई आदमी खड़ा है दस साल से। खडेश्री बाबा हो गये वे! अब दस साल से खड़े हो, इससे क्या प्रतिभा. का लेना—देना है! दुनिया में कोन—सा सौंदर्य बढ़ रहा है तुम्हारे खड़े होने से? कोन—सी संपदा बढ़ रही है? कोन—सा सुख बढ़ रहा है? कोन—सी शाति बढ़ रही है? मगर भक्तगणों की भीड़ लगी हुई है! भजन—कीर्तन चल रहा है। क्योंकि खडेश्री बाबा दस साल से खड़े’ हैं! दस साल से नहीं, दस हजार साल से खड़े हों, इनके खड़े होने से क्या होता है! ये खड़े—खड़े ठूंठ हो गए हों, तो भी क्या होता है!

या कोई मौन हो गया!…..

मेरे एक मित्र हैं, मेरे साथ एक बार कलकत्ता यात्रा पर गये। रास्ते में यूं बात कर रहे थे। एक मौनी बाबा थे, उनके वे भक्त थे। मैंने उनसे पूछा कि ‘मौनी बाबा में तुम्हें क्या खास बात दिखाई पडती है?’

‘अरे,’ उन्होंने कहा, ‘खास बात! आज बीस साल से मौन हैं!’

मैंने कहा, ‘इसमें तो कुछ खास बात नहीं! मौन होने से क्या होना है? मौन होने से उनकी प्रतिभा में क्या निखार आ गया है? मौन होने से उनके जीवन में कोन—से दीये जल गए हैं? अगर वे बुद्ध थे बीस साल पहले, तो मौन होने से और बुद्ध हो गए होंगे!’ उन्होंने कहा, ‘अरे, आप भी कैसी बात करते हैं! अगर वे बुद्ध होते, तो इतने लोग उनको कैसे पूजते? कोई मैं अकेले ही पूजता हूं। कितने लोग पूजते हैं!’

‘अब’? मैंने कहा, ‘यह दूसरी बात तुम उठा रहे हो। उन दूसरों से मैं पूछूगा तो वे कहेंगे कि कितने लोग पूजते हैं। उसमें तुम्हारी गिनती करेंगे। तो तुम दूसरों को देखकर पूज रहे हो!’

मैंने कहा, ‘तुम एक काम करो। मेरे साथ तुम कलकत्ता चल ही रहे हो….. .तुम तीन दिन मौन रह जाओ। और मैं, देखो, तुम्हारी पूजा करवा दूंगा।’

उन्होंने कहा, ‘ आप क्या कहते हैं! मेरी कोन पूजा करेगा? मुझमें कुछ है ही नहीं!’

मैंने कहा, ”तुम चुप तो रहो। तीन दिन चुप रहना। और पूरा भी नहीं कहता, रात जब सब चलें जायें—दरवाजा बंद करके तुम्हें जो भी मुझसे कहना हो, कह लेना। क्योंकि दिनभर रुके रहोगे—घबड़ा जाओगे। दुकानदार आदमी हो, चौबीस घंटे बात करते हो। तो रात एकांत में तुम मुझसे बोलने की स्वतंत्रता रखना। मगर दिन में लाख कुछ हो जाए, अपने को बिलकुल बांधे ही रखना, बोलना ही मत। कुछ अगर बोलना ही होगा तुम्हारे लिए, तो मैं बोल दूंगा।’

कहा, ‘जैसी आपकी मरजी।’ उनको बात जंची, कि करके देख लेने जैसी है।

कलकत्ते में मैं ठहरता था सोहनलाल दूगड़ के घर पर। वे कलकत्ता के एक बड़े करोड़पति थे। जब मैं उनके घर पहुंचा, वे मुझे लेने आये, तो उन्होंने पूछा कि ‘आपके साथ कोन हैं?’

मैंने कहा, ‘ये मौनी बाबा हैं।’

‘मौनी बाबा! इनकी क्या खूबी है?’

मैंने कहा, ‘ये तीस साल से मौन हैं!’

वे एकदम उनके पैरों पर गिरे! वे बेचारे सज्जन जो दुकानदारी करते थे, कपड़ा बेचते थे, और कपड़ा भी कुछ खास नहीं—कटपीस की एक छोटी—सी दुकान थी। सोहनलाल दूगड़ जैसा करोड़पति उनके पैरों पर गिरे! सकुचाये भी। मैंने उनको इशारा किया कि ‘सकुचाना मत। अब जब मौनी बाबा बन गए, तो अब डरना मत। अभी बहुत कुछ होगा, यह तो शुरुआत है। जब सोहनलाल दूगड़ तुम्हारे पैर में गिरेंगे ‘ तो अभी तुम कलकत्ते के सब मारवाड़ियों को गिरते देखोगे। तुम घबड़ाते क्या हो; तुम रुको जरा।’

वे तो इतने घबड़ा गये कि वे मुझे हाथ से धक्का मारें कि भैया, यह बात ठीक नहीं!’

घर पहुंचे। सोहनलाल ने जल्दी से अपनी पत्नी को बुलाया कि मौनी बाबा…..! मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए कि ‘मौनी बाबा आये हैं! तीस साल से मौन हैं!’ और मौनी पर जो गुजर रही है, वह मै जानूं! कि वे रात का वक्त देख रहे हैं कि कब रात आये, कि अपने दिल की मुझसे कहें! जैसे ही रात आई, दरवाजा जल्दी से बन्द करके मेरे पैरों पर गिर पड़े और कहा कि ‘मुझे माफ करो। मुझे यह काम करना ही नहीं! मुझे जाने दो! मैं तो अभी भागे जाता हूं रात को ही चुपचाप निकल जाऊंगा! यह क्या झंझट मेरे पीछे लगा दी! इतने—इतने बड़े लोग, जिनके घर मुझे अगर मिलने भी जाना होता, तो कोई मिलने नहीं देता। चपरासी भीतर घुसने नहीं देता! और वे मेरे पैर पर गिरते हैं; तो मुझको बड़ा संकोच लगता है! और स्त्रियां, उनकी सुन्दर से सुन्दर स्त्रियां मेरे पैर छू रही हैं! यह क्या करवा रहे हो आप?’

मैंने कहा, ‘मैं कुछ नहीं करवा रहा हूं। यह मैं तुमको बता रहा हूं कि कैसी—कैसी बेवकूफिया इस देश में हैं। तुम भी बेवकूफों में हो जिसकी तुम बीस साल से पूजा कर रहे हो…..। और तुम तो अभी सिर्फ पाच— छह घंटे ही मौन रहे हो—तो यह चमत्कार! अभी तुम तीन दिन रुको तो! अभी तुम देखना : इलाज शुरू हो जायेंगे, बीमारिया ठीक होने लगेंगी।’

‘अरे,’ उन्होंने कहा, ‘आप क्या कह रहे हैं! मुझमें कुछ चमत्कार नहीं, कोई शक्ति नहीं!’

‘तुम’, मैंने कहा, ‘फिक्र ही मत करो। सब आ जायेगा। मौन भर रहो। और दिनभर रहो मौन। मगर दिन में बोलना मत। और मुझ पर धक्के वगैरह भी मत मारना। क्योंकि लोगों को शक पैदा हो जायेगा कि बात क्या है! तुम तो अपने आंखें बंद कर लिए। अगर बिलकुल सहने के बाहर हो जाए, आंख बंद कर लिए। अपने भीतर ही भीतर नमोकार मंत्र पढ़ने लगे कि होने दो, जो हो रहा है।’

तीन दिन में तो उनकी डुणडी पिट गई? अखबारों में फोटो आ गये! रात को वे मुझे फोटो दिखायें कि ‘यह क्या करवा रहे हो? अगर मेरे घर पता चल गया; अगर मेरे पत्नी—बच्चों को पता चल गया—तुम तो मेरा घर लौटना तक बंद कर दोगे! ये अखबार अगर वहां पहुंच गये, तो मेरी मुसीबत हो जायेगी। और फिर मेरी दुकान की भी तो सोचो! और इधर मैं कटपीस खरीदने आया हूं तुम नाहक रास्ते में मिल गये! अब मैं कटपीस कहां खरीदूंगा? यह तो कलकत्ते का बाजार तो खत्म! क्योंकि जिनके यहां से मैं कटपीस खरीदता था, वे लोग भी मेरे पैर छू रहे हैं! और कई तो मुझे गौर से देखते ही हैं कि यह शकल कुछ पहचानी हुई मालूम होती है! एक—दो आदमियों ने प्रश्न भी किया कि ये तीस साल से मौन हैं? यह शकल कुछ पहचानी मालूम होती है!’

मैंने कहा, ‘देखा होगा किसी पिछले जन्म में! अरे, यह जनम—जनम का नाता है।’

उन्होंने कहा, ‘यह बात ठीक!’

‘ये कोई साधारण साधक हैं! ये तो जन्मों से साधना कर रहे हैं। कई बार तुम मिले होओगे पिछले जन्मों में, इसलिए शकल पहचानी लगती है।’

उन्होंने कहा, ‘हा, लगती तो पहचानी सी है शकल, मतलब कहीं देखा है। और ऐसा भी नहीं लगता कि पिछले जन्म में देखा है; इसी जन्म .में देखा है!

मैंने कहा, ‘ये बड़े पहुंचे हुए पुरुष हैं। ये एक ही साथ कई नगरों में एक साथ प्रगट हो जाते हैं!’

वे मुझे हुद्दे मारें कि ‘मत ऐसी बातें कहो!’ मेरी कमीज खींचें! कि ‘मत कहो भैया; ऐसी बातें मत कहो! ये बिलकुल झूठ बातें

मगर लोग मान रहे हैं! मिठाइयां आने लगीं; फल आने लगे। वे रात मुझको कहें कि ‘क्या करवा रहे हो? इतनी मिठाइयां —फल मैं कहां ले जाऊंगा?’

मैंने कहा, ‘तुम ले जाना घर, बाल—बच्चों को, मोहल्ले में बंटवा देना।’

स्टेशन पर जब लोग उनको छोड़ने आये…..। कटपीस तो वे खरीद ही नहीं पाये। क्योंकि अब कहां कटपीस खरीदें! और कोई देख ले कटपीस खरीदता—कि मौनी बाबा कटपीस खरीद रहे हैं…..!

रास्ते भर मुझ पर नाराज रहे कि ‘और सब तो ठीक, मगर कलकत्ते का बाजार खराब करवा दिया! अब मैं कलकत्ता कभी न जा सकूं गा!

मैंने उनसे कहा, ‘तुम घबड़ाओ मत। तुम एक काम करो। दाढ़ी बढ़ा लो। अगली बार जब कलकत्ता जाओ—दाढी—मूंछ बढ़ाकर चले जाना।’

‘हां’, उन्होंने कहा, ‘यह बात जंचती है।’

मैंने कहा, ‘फिर वे लोग कहेंगे कि देखा है कहीं! तो कहना—अरे, देखना वगैरह तो चलता रहता है। कई लोगों की शकलें एक जैसी होती हैं। और न हो, तो मैं साथ आ जाऊं।’

उन्होंने कहा, ‘नहीं, आपको तो साथ आने की कोई जरूरत ही नहीं। आपके साथ तो मैं कभी जाऊंगा नहीं! अगर ट्रेन में मुझे पता भी चल गया कि आप सफर कर रहे हो, तो उस ट्रेन से उतर जाऊंगा।’

और मेरे पैर पकड़कर कहने लगे, ‘इतनी कृपा करो कि ट्रेन में किसी को खबर न हो! मतलब यह कि ट्रेन के लोग जबलपुर भी जायेंगे मेरे साथ ही। अगर वहां तक खबर पहुंच गई, तो चौपट ही समझो! मेरी पत्नी मुझे मुश्किल में डाल देगी कि तुमसे किसने कहा था कि तुम मौनी बाबा बनो? और तुम कहां से तीस साल मौनी बाबा रहे? तीन दिन के लिए घर से गये—और तीस साल से मौनी बाबा हो गये!’

फिर दुबारा जब मैं कलकत्ता जाता था, तो लोग उनकी जरूर पूछते थे कि ‘मौनी बाबा नहीं आये? कब आयेंगे?’ मैंने कहा, ‘आयेंगे—जरूर आयेंगे! उनको स्वागत—सत्कार ज्यादा पसंद नहीं है। वे बहुत नाराज हो गये हैं कलकत्ते से! इतना धूम— धड़ाका उनको बिलकुल पसंद नहीं। वे बहुत सीधे—सादे आदमी हैं; मौन, एकांतवास कुरते हैं।

तुम जिनकी पूजा करते हो, जिनको महात्मा कहते हो, उसमें तुम्हारी धारणाएं भर काम कर रही हैं। तुम आंख खोलकर देखते भी नहीं।

ब्रह्मचर्य घटित होगा, तो अपूर्व ज्योति प्रकट होगी। वही इस सूत्र का अर्थ है :

‘सत्येन लभ्यस्तपसा ह्मेष आत्मा

सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचयेंण नित्यम्।

यह आत्मा अभी मिल जाये—मिली ही हुई है। बस, इतना ही चाहिए कि तुम सत्य को जान लो शून्य में। जीवन के सुख—दुख में समभाव रखो। तप को पहचान लो। कूड़ा—कर्कट, उधार ज्ञान हटा दो, ताकि जो जैसा है, उसे वैसा ही देख सको। सम्यक् ज्ञान फलित हो। और तुम्हारे भीतर शरीर की जो ऊर्जा है, काम ऊर्जा और जो तुम्हारी आत्मा की ऊर्जा है—ध्यान ऊर्जा….. काम और ध्यान का मिलन हो जाये, काम और राम का तुम्हारे भीतर मिलना हो जाए तो बस, यह आत्मा अभी मिली, इस क्षण मिली।

‘अंत: शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभो।’

तन्धण तुम जान सकोगे कि इसी शरीर में, इसी शरीर के भीतर वह ज्योति छिपी है, जो परम शुभ है।

‘यं पश्यंति यतय:: क्षीणदोश’

ऐसा उन्होंने देखा है, जिन्होंने सारे दोषों से अपने को मुक्त कर लिया है। और ये ही वे दोष हैं : विचार दोष हैं; इसके कारण तुम शून्य नहीं हो पाते। चुनाव दोष है; उसके कारण तुम सम नहीं हो पाते। उधार ज्ञान दोष है, उसके कारण तुम्हारी दृष्टि ठीक—ठीक निर्मल नहीं हो पाती। और दमन दोष है। उसके कारण तुम शरीर में छिपी हुई ऊर्जा को आत्मा का वाहन नहीं बना पाते। नहीं तो शरीर की ऊर्जा अश्व की भांति है। तुम उस पर सवार हो जाओ। उसके मालिक हो जाओ और तुम जान लोगे अपने भीतर छिपे हुए उस परम आलोक को जिसका न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत; जो शाश्वत है। उसे जिसने जाना—सब जाना। उसे जिसने जीता, उसने सब जीता।

‘अनहद में बिसराम’ प्रवचनमाला से

दिनांक 13 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3) प्रवचन–41

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तंत्र : शुभाशुभ के पार, द्वैत के पार—(प्रवचन—इक्‍तालीसवां)

सूत्र:

64—छींक के आरंभ में, भय में, चिंता में, खाई—खड्ढ

के कगार पर, युद्ध से भागने पर, अत्‍यंत कुतूहल में,

भूख के आरंभ में और भूख के अंत में, सत्‍त बोध रखो।

65—अन्‍य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे

लिए अशुद्धता ही है। वस्‍तुत: किसी को भी शुद्ध या

अशुद्ध की तरह मत जानो।

जीवन एक विरोधाभास है। निकट आने के लिए तुम्हें दूर की यात्रा पर जाना पड़ता है, और जो पाया ही हुआ है उसे फिर पाना पड़ता है।

कुछ भी नष्ट नहीं होता है। मनुष्य सहज ही बना रहता है; मनुष्य शुद्ध ही बना रहता है, मनुष्य निर्दोष ही बना रहता है। इतनी सी बात है कि वह भूल गया है। न शुद्धता नष्ट होती है, न निर्दोषता नष्ट होती है। बस, प्रगाढ़ विस्मरण हो गया है। जो पाना है वह तुम हो ही; असल में कुछ नया नहीं खोजना है, केवल उसे उघाड़ना है, आविष्कृत करना है, जो है ही।

इससे ही आध्यात्मिक साधना दोनों है, कठिन भी है और सरल भी है। मैं दोनों कहता हूं। अगर तुम समझ सको तो यह बहुत सरल है, आसान है। लेकिन यह बहुत कठिन भी है, क्योंकि तुम्हें उसे समझना है जिसे तुम बिलकुल भूल गए हो और जो इतना स्पष्ट है कि तुम कभी उसके प्रति होशपूर्ण नहीं होते। यह ठीक तुम्हारी श्वास की भांति है—जो निरंतर, अबाध चलती रहती है। लेकिन चूकि श्वास निरंतर और अबाध चलती रहती है, इसलिए तुम्हें उसे जानना जरूरी नहीं है, उसके लिए तुम्हारा बोध जरूरी नहीं है, बोध उसकी बुनियादी जरूरत नहीं है। तुम चाहो तो उसके प्रति बोधपूर्ण हो सकते हो; यह चुनाव की बात है।

संसार और निर्वाण दो चीजें नहीं हैं; वे केवल दो दृष्टियां हैं, दो विकल्प हैं। तुम दोनों में से किसी को भी चुन सकते हो। एक दृष्टि के कारण तुम संसार में हो। और अगर दृष्टि बदल जाए तो वही संसार निर्वाण हो जाता है, वही संसार परमानंद बन जाता है। तुम वही रहते हो, संसार वही रहता है; सिर्फ दृष्टि और परिप्रेक्ष्य के बदलने की, चुनाव के बदलने की बात है। यह बिलकुल आसान है।

एक बार वह परम आनंद उपलब्ध हो जाए तो तुम हंसोगे। एक बार उसे जान लिया जाए तो तुम्हें आश्चर्य होगा कि मैं इसे चूक कैसे रहा था! वह तो सदा से था, सिर्फ देखे जाने की प्रतीक्षा में था; वह तुम्हारा ही था। बुद्ध हंसते हैं। कोई भी, जिसे भी बुद्धत्व उपलब्ध होता है, हंसता है; क्योंकि पूरी बात हास्यास्पद लगती है। तुम उसे खोज रहे थे जो कभी खोया नहीं था। सारा प्रयत्न बेतुका मालूम पड़ता है। लेकिन यह अनुभव तभी होता है जब तुम पहुंच जाते हो। इसलिए जो ज्ञानोपलब्‍ध हो जाते है वे कहते है कि यह बहुत सरल है। लेकिन जिन्‍होंने अभी नहीं पाया है वे कहते हैं कि यह बात सबसे कठिन ही नहीं, असंभव है।

स्मरण रहे, जिन विधियों की हम यहां चर्चा करेंगे वे उनके द्वारा कही गई हैं जिन्होंने पा लिया है। वे बहुत सरल मालूम पड़ेगी, और वे सरल ही हैं। लेकिन हमारे मन को इतनी सरल चीजें नहीं जंचती हैं। यदि विधियां इतनी सरल हैं और मंजिल इतनी निकट है कि तुम वहीं हो, यदि सच ही विधियां इतनी सरल हैं और घर पास ही है, तो तुम अपनी ही नजरों में हास्यास्पद मालूम पड़ोगे। तो प्रश्न उठेगा कि फिर तुम उसे चूक क्यों रहे हो? अपने अहंकार की मूढ़ता को समझने की बजाय तुम सोचोगे कि इतनी सरल विधियां किसी काम की नहीं हैं।

यही विडंबना है, धोखाधड़ी है। तुम्हारा मन कहेगा कि इतने सरल उपाय किसी काम के नहीं हो सकते; ये इतने सरल हैं कि इनसे कुछ नहीं हो सकता। परम सत्ता को और पूर्ण तत्व को प्राप्त करने के लिए इतने सरल उपाय कैसे किसी काम के हो सकते हैं? कैसे कारगर हो सकते हैं? तुम्हारा अहंकार कहेगा कि ये किसी काम के नहीं हैं।

दूसरी चीज याद रखने की यह है कि अहंकार सदा उस चीज में उत्सुक होता है जो कठिन हो। क्योंकि जो कठिन है उसमें चुनौती होती है, और अगर तुम कठिनाई को हरा सके तो उससे तुम्हारा अहंकार तृप्त होता है। अहंकार उसकी तरफ कभी आकर्षित नहीं होता जो सरल है। कभी नहीं! अगर तुम अपने अहंकार को चुनौती देना चाहते हो तो तुम्हें किसी कठिन चीज का आयोजन करना होगा। अगर कोई चीज सरल है तो उसमें आकर्षण नहीं रहता; तुम उसे जीत भी लो तो तुम्हारे अहंकार की तृप्ति नहीं होती है। पहली बात तो अहंकार कहेगा कि उसमें जीतने को कुछ था ही नहीं, मामला इतना सरल था। अहंकार कठिनाई खोजता है—कुछ बाधाएं जो पार की जा सकें, कोई शिखर जिस पर चढ़ा जा सके। और शिखर जितना कठिन होगा, तुम्हारा अहंकार उतना ही सुख अनुभव करेगा।

ये विधियां इतनी सरल हैं कि तुम्हारे मन को नहीं आकर्षित कर सकतीं। लेकिन खयाल रहे, जो चीज तुम्हारे अहंकार को आकर्षित करती है वह तुम्हारे आध्यात्मिक विकास में सहयोगी नहीं हो सकती। तुम्हारे रूपांतरण में तो वही चीज सहयोगी हो सकती है जो तुम्हारे अहंकार को न जंचे, न रास आए। लेकिन यही होता है; अगर कोई गुरु कहता है कि यह उपाय बहुत कठिन है, दुष्कर है, जन्मों—जन्मों करने के बाद थोड़ी झलक मिलने की संभावना है, तो उससे तुम्हारा अहंकार बहुत प्रसन्न होता है।

ये विधियां इतनी सरल हैं कि क्षण में, यहीं और अभी घटना घट सकती है। लेकिन इस बात से तुम्हारा अहंकार अप्रभावित, अछूता रह जाता है। अगर मैं कहूं कि अभी इसी क्षण तुम्हें वह सब प्राप्त हो सकता है जो किसी भी मनुष्य के लिए संभव है, कि तुम इसी क्षण, अभी और यहीं, तत्‍्क्षण बुद्ध या क्राइस्ट या कृष्ण हो सकते हो, तो यह बात तुम्हारे अहंकार को बिलकुल प्रभावित नहीं करेगी, तुम्हारे अहंकार के साथ उसका कोई तालमेल नहीं बैठेगा। तुम कहोगे : यह संभव नहीं है; मुझे इसकी खोज में कहीं और जाना होगा।

और ये विधियां इतनी सरल हैं कि तुम जिस क्षण चाहो उसी क्षण वह सब उपलब्ध कर सकते हो जो मनुष्य चेतना के लिए संभव है। और जब मैं कहता हूं कि ये विधियां सरल हैं तो मेरे कहने के कई अर्थ हैं। पहली बात कि आध्यात्मिक विस्फोट किसी कारण से नहीं होता; वह अकारण घटता है। अगर यह विस्फोट किसी कारण से होता तो उसके लिए समय की जरूरत पड़ती, क्योंकि कार्य—कारण को घटित. होने के लिए समय जरूरी है। और अगर समय कल के लिए या अगले जन्म के लिए इंतजार करना होगा। तब आने वाला क्षण आवश्यक हो जाएगा। अगर कोई चीज सकारण है तो पहले कारण को घटित होना होगा और तब कार्य घटित होगा। और तुम कारण के बिना कार्य को अभी ही घटित नहीं करा सकते; उसके लिए समय जरूरी होगा। लेकिन आध्यात्मिक घटना सकारण नहीं होती है। तुम तो उस अवस्था में हो ही; सिर्फ स्मरण करने की जरूरत है। यह अकारण घटना है।

यह ऐसा ही है जैसे सुबह किसी ने तुम्हें अकस्मात जगा दिया है, और तुम्हें पता नहीं चलता है कि तुम कहां हो। क्षण भर के लिए तुम्हें पता नहीं चलता है कि तुम कौन हो। गहरी नींद से अचानक जगाए जाने पर तुम्हें स्थान और समय की प्रत्यभिज्ञा नहीं रहती, लेकिन जरा देर में ही प्रत्यभिज्ञा हो जाएगी। तुम जैसे—जैसे सजग होंगे वैसे—वैसे तुम्हें साफ होगा कि तुम कौन हो, कि तुम कहां हो और तुम्हें क्या हुआ है। यह कारण—कार्य की बात नहीं है; यह सिर्फ सजगता की बात है। सजगता के बढ़ते ही तुम जान लोगे, पहचान लोगे।

ये सभी विधियां सजगता बढ़ाने की विधियां हैं। तुम वही हो जो तुम होना चाहते हो; तुम वहीं हो जहां पहुंचना चाहते हो। तुम अपने घर पहुंचे हुए ही हो। सच तो यह है कि तुमने उसे कभी छोड़ा ही नहीं, तुम सदा से वहीं हो, लेकिन सपने में खोए हो और सोए हुए हो।

तुम यहां सो जा सकते हो और सपना देख सकते हो, और सपने में तुम कहीं भी जा सकते हो। तुम अपने सपने में स्वर्ग—नर्क की यात्राएं कर सकते हो। क्या तुमने खयाल किया कि जब भी तुम सपना देखते हो तो सपने में तुम कभी उस कमरे में नहीं होते जिसमें सोए होते हो? यह बिलकुल निश्चित है। क्या तुमने कभी इस बात पर ध्यान दिया है? तुम और कहीं भी हो सकते हो, लेकिन सपने में तुम उसी कमरे में और उसी खाट पर नहीं हो सकते जहां वस्तुत: होते हो। क्योंकि तुम वहां हो ही; इसलिए उसके संबंध में स्वप्न देखने की जरूरत नहीं होती। स्‍वप्‍न का अर्थ है कि तुम यात्रा पर हो। तुम इस कमरे में सोए हो सकते हो; लेकिन तुम कभी इस कमरे के बारे में स्‍वप्‍न नहीं देख सकते। उसकी जरूरत क्या है? तुम वहीं हो। मन उसकी कामना करता है जो नहीं है; इसलिए मन यात्रा करता है। वह लंदन और न्यूयार्क जा सकता है, कलकत्ता जा सकता है, हिमालय और तिब्बत जा सकता है, कहीं भी जा सकता है; लेकिन वह कभी यहां नहीं होगा। वह कहीं भी होगा, लेकिन यहां नहीं।

और तुम यहां हो; यह हकीकत है। तुम सपने देख रहे हो और तुम्हारी दिव्य सत्ता यहां है। तुम वही हो, तत्वमसि! लेकिन तुम लंबी यात्रा पर निकल गए हो। और प्रत्येक सपना सपनों की एक नई श्रृंखला निर्मित करता है। हर सपना एक नया सपना पैदा करता है, और तुम सपनों में ही उलझते चले जाते हो।

ये सारी विधियां तुम्हें सजग बनाने की विधियां हैं, ताकि तुम अपने स्‍वप्‍नों से निकलकर वहा वापस आ जाओ जहां तुम सदा से हो, उस अवस्था में आओ जिसे तुमने कभी नहीं खोया है। और तुम इसे खो भी नहीं सकते, यह तुम्हारा स्वभाव है; यह तुम्हारा असली अस्तित्व है। तुम इसे खो कैसे सकते हो? ये विधियां तुम्हारी सजगता को बढ़ाने की, उसे त्‍वरा आरे तीव्रता देने की विधियां है। बोध की तीव्रता से पूरी बात बदल जाती है। बोध जितना तीव्र होता है, स्‍वप्‍न की संभावना उतनी ही कम होती है; तुम सत्य के संबंध में ज्यादा से ज्यादा सजग हो जाते हो। और बजे जितना कम होता है, तुम उतने ही ज्यादा स्‍वप्‍नों में भटकने लगते हो।

तो कुल बात इतनी है कि चित्त की सोयी दशा संसार है और चित्त की सजग दशा निर्वाण है। सोए हुए तुम वह हो जो तुम दिखाई पड़ते हो; जागकर तुम वह हो जो तुम हो। इसलिए एकमात्र सवाल यह है कि कैसे बेहोश चित्त—दशा को सजग चित्त—दशा में बदला जाए कैसे ज्यादा बोधपूर्ण हुआ जाए कैसे नींद और स्‍वप्‍न से बाहर आया जाए। इसी कारण से विधियां सहयोगी हो सकती हैं। एक अलार्म घड़ी भी सहयोगी हो सकती है। बिलकुल मामूली अलार्म घड़ी भी सहयोगी हो सकती है। अगर अलार्म घड़ी बजती ही रहे तो वह भी तुम्हें तुम्हारे स्वप्न से बाहर लाने में हाथ बंटा सकती है।

लेकिन तुम अलार्म घड़ी को भी धोखा दे सकते हो। तुम उसके बाबत भी सपना देख सकते हो, और तब सारी चीज व्यर्थ हो जाती है। जब अलार्म बजे तो तुम उसे भी अपने सपने का हिस्सा बना ले सकते हो। तुम स्‍वप्‍न देख सकते हो कि मैं एक मंदिर में गया हूं और मंदिर की घंटियां बज रही हैं। अब तुमने अलार्म घड़ी को भी धोखा दे दिया। वह तुम्हारी नींद तोड़ सकती थी; लेकिन तुम उसे भी स्‍वप्‍न में बदल ले सकते हो, तुम उसे भी अपने सपने का हिस्सा बना ले सकते हो।

और अगर तुमने ‘इसे अपने सपने का हिस्सा बना लिया, अगर यह तुम्हारी स्‍वप्‍न—प्रक्रिया का अंग बन ग,या, तो फिर यह किसी काम का न रहा। तब तुम कोई भी सपना देख सकते हो, और अलार्म घड़ी की आवाज अलार्म घड़ी की आवाज नहीं रहेगी। वह कुछ और चीज हो जाएगी।’ तुम मंदिर में हो और मंदिर की घंटियां बज रही हैं; अब जागने की जरूरत नहीं रही। तुमने अलार्म को भी, एक हकीकत को भी स्‍वप्‍न में बदल दिया। और एक सपने को दूसरे सपने से नहीं तोड़ा जा सकता; बल्कि सपना और मजबूत होता है।

ये सारी विधियां एक ढंग से कृत्रिम विधियां हैं। वे तुम्हें तुम्हारी नींद की अवस्था से बाहर लाने के उपाय मात्र हैं। लेकिन तुम उन्हें भी अपने स्वप्न का हिस्सा बना ले सकते हो। लेकिन तब तुम चूक गए। तब तुम पूरी बात ही चूक गए। इसे समझने की कोशिश करो, क्योंकि यह बहुत बुनियादी है। और इसे समझना बहुत सहयोगी होगा; अन्यथा तुम अपने को धोखा दिए जा सकते हो।

उदाहरण के लिए मैं तुम्हें कहता हूं कि संन्यास में छलांग लो। वह एक उपाय भर है। तुम्हारी पुरानी पहचान टूट जाती है; तुम्हारा पुराना नाम ऐसा हो जाता है मानो किसी दूसरे का हो। तुम अब अपने अतीत को ज्यादा अनासक्त भाव से देख सकते हो; तुम अब साक्षी हो सकते हो। तुम अब अलग हो; एक दूरी निर्मित हो जाती है। यह दूरी पैदा करने के लिए ही मैं तुम्हें नया नाम और नए वस्त्र देता हूं। लेकिन तुम इसे भी अपने सपने का हिस्सा बना ले सकते हो। तब तुम पूरी बात चूक गए। तुम पुराने को ही ढोते रह सकते हो; तम सोच सकते हो कि पुराने आदमी ने, अ ने, संन्यास लिया है। तुम समझ सकते हो कि मैने संन्‍यास लिया है; और यह ‘मैं’ पुराना ही है। तुम सोच सकते हो कि मैंने वस्त्र बदल लिए हैं, मैंने नाम बदल लिया है; लेकिन पुराना ‘मैं’ जारी रहता है।

अब यह संन्यास भी पुराने में जुड़ गया। यह नया नहीं है; अभी भी यह अतीत से जुड़ा है। और अगर यह जुड़ा है, अगर तुमने संन्यास पुराने ‘मैं’ से लिया है, अगर तुमने वस्त्र और नाम भर बदल लिए हैं, तो तुम चूक गए। तुम्हें मरना होगा; अब तुम पुराने ही नहीं बने रह सकते। तुम्हें समझना होगा कि पुराना मर गया और यह एक नया व्यक्ति है जिसे तुम कभी नहीं जानते थे, और संन्यास पुराने का विकास नहीं, उससे सर्वथा अलग बात है। तब उपाय कारगर हुआ, तब अलार्म घड़ी ने काम किया और विधि उपयोगी हुई। तब तुम समझे।

ये सारी विधियां ऐसी हैं कि तुम उन्हें उपयोगी बना सकते हो और तुम उन्हें चूक भी सकते हो। यह तुम पर निर्भर है। लेकिन यह बात ठीक से स्मरण रहे कि विधियां विधियां हैं। अगर तुम उनके सार को समझ लो तो तुम विधि के बिना भी सजग हो सकते हो। उदाहरण के लिए, यह भी संभव है कि अलार्म घड़ी की कोई जरूरत न पड़े।

इसमें जरा गहरे उतरी। तुम्हें अलार्म घड़ी की जरूरत क्यों पड़ती है? अगर तुम तीन बजे सुबह उठना चाहते हो तो तुम्हें अलार्म की क्यों जरूरत होती है?

क्योंकि गहरे में तुम जानते हो कि तुम अपने को धोखा दे सकते हो। गहरे में तुम जानते हो कि यदि तुम सचमुच तीन बजे उठना चाहते हो तो तीन बजे उठ जाओगे और तुम्हें अलार्म की जरूरत न पड़ेगी। लेकिन घड़ी से तुम्हारी जिम्मेवारी टल जाती है, अब तुम जिम्मेवार न रहे। अब यदि कुछ गड़बड़ होगी तो उसकी जिम्मेवारी घड़ी पर होगी। अब तुम आराम से सो सकते हो। अब घडी रखी है, तुम बिना किसी फिक्र के सो सकते हो।

लेकिन अगर तुम सचमुच तीन बजे सुबह जागना चाहते हो तो तुम उठ आओगे, किसी घड़ी की जरूरत नहीं है। जागने की त्वरा ही जागने की घटना बन जाएगी। तीन बजे उठ आने का यह संकल्प इतना तीव्र हो सकता है कि शायद तुम सो भी न पाओ। जागने की जरूरत न पड़े; तुम सारी रात जागते ही रहो। लेकिन ठीक से सोने के लिए घड़ी जरूरी है, तब तुम निश्चित सो सकते हो। लेकिन तुम अपने को धोखा भी दे सकते हो। जब अलार्म बजे तो तुम धोखा दे सकते हो, तुम उसको भी सपना बना ले सकते हो।

ये विधियां इसीलिए उपयोगी हैं क्योंकि तुम्हारी त्वरा कम है। अगर तुम त्वरा में हो, तो किसी विधि की जरूरत नहीं है। तब तुम स्वयं ही सजग हो सकते हो। लेकिन तुम्हारी त्वरा इतनी नहीं है। विधि के साथ भी तुम सपना देखने लग सकते हो। और इसकी अनेक संभावनाएं हैं। पहली संभावना तो यह है कि तुम विश्वास नहीं करोगे कि ऐसी विधियां सहयोगी हो सकती हैं। यह पहली बात है। और तब संपर्क ही नहीं होगा। दूसरी बात कि तुम सोच सकते हो कि बहुत लंबी प्रक्रिया की जरूरत है और यह सधते—सधते ही आएगी। लेकिन कुछ चीजें हैं जो अचानक ही घटित होती हैं; वे कभी क्रमिक ढंग से नहीं होतीं।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन को उसके एक पडोसी के बेटे के जन्म—दिन पर आशीर्वाद देने के लिए कहा गया। उसने कहा : ‘बेटे, मुझे आशा है कि तुम एक सौ बीस वर्ष और तीन महीने जीओगे।’ सब लोग इस ‘और तीन महीने’ पर आश्चर्यचकित थे। बेटे ने पूछा: ‘लेकिन क्यों? एक सौ बीस वर्ष तो ठीक है; यह और तीन महीने क्यों?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा : ‘मैं नहीं चाहूंगा कि तुम अचानक मर जाओ; बस एक सौ बीस वर्ष जीओ और मर जाओ। इतने अचानक मर जाओ, यह मैं नहीं चाहूंगा; इसलिए और तीन महीने हैं।’

लेकिन ‘और तीन महीने’ के बावजूद तुम अचानक ही मरोगे। तुम जब भी मरोगे, अचानक ही मरोगे। प्रत्येक मृत्यु आकस्मिक मृत्यु होती है; कोई मृत्यु क्रमिक नहीं होती। क्योंकि तुम या तो जीवित हो या मृत हो, कोई क्रमिक प्रक्रिया नहीं है। इस क्षण तुम जीवित हो और अगले क्षण मृत हो सकते हो। इसमें समय का क्रम नहीं है, मृत्यु आकस्मिक है।

समाधि भी आकस्मिक है। आध्यात्मिक विस्फोट भी आकस्मिक है। यह मृत्यु जैसा ही है। यह जीवन से ज्यादा मृत्यु जैसा है, यह आकस्मिक है। यह किसी भी क्षण घटित हो सकता है। और यदि तुम तैयार हो तो ये विधियां सहयोगी हो सकती हैं। वे बुद्धत्व को क्रमश: नहीं लाएंगी; लेकिन वे तुम्हें क्रमश: उस आकस्मिक घटना के लिए तैयार कर देंगी।

इस भेद को स्मरण रखो : वे तुम्हें तैयार कर रही हैं ताकि समाधि की वह आकस्मिक घटना घट सके। ये विधियां समाधि की विधियां नहीं हैं। ये तुम्हें तैयार करने की विधियां हैं, और तब समाधि घटती है।

तो यह तुम पर निर्भर है कि तुम कैसे इन विधियों का उपयोग करते हो। यह मत सोचो कि एक लंबी प्रक्रिया जरूरी है। ऐसा सोचना भी मन की एक चालबाजी भर हो सकता है। मन कहता है कि एक लंबी प्रक्रिया की जरूरत है; इससे तुम्हें स्थगित करने का उपाय मिल जाता है। तुम कह सकते हो कि कल करूंगा या परसों करूंगा; और इस भांति तुम सदा के लिए स्थगित करते रह सकते हो। स्थगित करने वाला चित्त सतत स्थगित किए जाता है। प्रश्न यह नहीं है कि तुम इसे कल करने वाले हो या नहीं; प्रश्न यह है कि तुम आज नहीं करने वाले हो। बात इतनी—सी है। और कल फिर आज होकर आएगा, और तब यही मन फिर कहेगा : ‘बहुत अच्छा, मैं इसे कल करूंगा।’

और स्मरण रहे, तुम कभी कोई काम वर्षों के लिए स्थगित नहीं करते, तुम बस एक दिन के लिए ही स्थगित करते हो। क्योंकि अगर तुम वर्षों के लिए स्थगित करोगे तो अपने को धोखा नहीं दे पाओगे। तुम कहते हो कि एक दिन की ही बात है, आज नहीं कल कर लूंगा। और यह अंतराल इतना छोटा है कि तुम्हें कभी अहसास नहीं होता कि तुम सदा के लिए स्थगित कर रहे हो।

कल कभी नहीं आता है। जब आता है, सदा आज आता है। आज सदा है। और जो मन कल की भाषा में सोचता है वह सदा ही कल की भाषा में सोचेगा। और कल कभी नहीं आता है, कभी नहीं आया है, कभी नहीं आएगा तुम्हारे हाथ में जो है वह बस वर्तमान क्षण है। इसलिए स्थगित मत करो।

अब हम विधियों में प्रवेश करेंगे।

पहली विधि :

छीकं के आरंभ में, भय में, चिंता में, खाई— खड्ड के कगार पर, युद्ध से भागने पर, अत्यंत कुतूहल में, भूख के आरंभ में और भूख के अंत में, सतत बोध रखो।

 

ह विधि देखने में बहुत सरल मालूम पड़ती है : छींक के आरंभ में, भय में, चिंता में, भूख के पहले या भूख के अंत में सतत बोध रखो।

बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। छींकने जैसे बहुत सरल कृत्य भी उपाय की तरह काम में लाए जा सकते हैं। क्योंकि वे कितने ही सरल दिखे, दरअसल वे बहुत जटिल हैं। और जो आंतरिक व्यवस्था है वह बहुत नाजुक चीज है।

जब भी तुम्हें लगे कि छींक आ रही है, सजग हो जाओ। संभव है कि सजग होने पर छींक न आए, चली जाए। कारण यह है कि छींक गैर—स्वैच्छिक चीज है—अचेतन, गैर—स्वैच्छिक। तुम स्वेच्छा से, चाह कर नहीं छींक सकते हो, तुम जबरदस्ती नहीं छींक सकते हो। चाह कर कैसे छींक सकते हो?

मनुष्य कितना असहाय है! तुम चाह कर एक छींक भी नहीं ला सकते। तुम कितनी ही चेष्टा करो, तुम छींक नहीं ला सकते। एक मामूली सी छींक भी तुम चाह कर नहीं पैदा कर सकते हो। यह गैर—स्वैच्छिक है, स्वेच्छा की जरूरत नहीं है। यह तुम्हारे मन के कारण नहीं घटित होती है; यह तुम्हारे समग्र संस्थान से, समग्र शरीर से घटित होती है।

और दूसरी बात कि जब तुम छींक के आने के पूर्व सजग हो जाते हो—तुम उसे ला नहीं सकते, लेकिन वह जब अपने आप ही आ रही हो और तुम सजग हो जाते हो—तो संभव है कि वह न आए। क्योंकि तुम उसकी प्रक्रिया में कुछ नयी चीज जोड रहे हो, सजगता जोड़ रहे हो। वह खो जा सकती है। लेकिन जब छींक खो जाती है और तुम सावचेत रहते हो, तो एक तीसरी बात घटित होती है।

पहली तो बात कि छींक गैर—स्वैच्छिक है। तुम उसमें एक नयी चीज जोड़ते हो, सजगता जोड़ते हो। और जब सजगता आती है तो संभव है कि छींक न आए। अगर तुम सचमुच सजग होगे, तो वह नहीं आएगी। शायद छींक एकदम खो जाए। तब तीसरी बात घटित होती है। जो ऊर्जा छींक की राह से निकलने वाली थी वह अब कहां जाएगी?

वह ऊर्जा तुम्हारी सजगता में जुड़ जाती है। अचानक बिजली सी कौंधती है, और तुम ज्यादा सावचेत हो जाते हो। जो ऊर्जा छींक बनकर बाहर निकलने जा रही थी वही ऊर्जा तुम्हारी सजगता में जुड़ जाती है और तुम अचानक अधिक सावचेत हो जाते हो। बिजली की उस कौंध में बुद्धत्व भी संभव है।

यही कारण है कि मैं कहता हूं कि ये चीजें इतनी सरल हैं कि व्यर्थ मालूम पड़ती हैं, उनके द्वारा होने वाली उपलब्धियों की चर्चा असंभव सी लगती है। सिर्फ छींक के जरिए कोई बुद्ध कैसे हो सकता है? लेकिन छींक सिर्फ छींक ही नहीं है, तुम भी उसमें पूरी तरह सम्मिलित हो। तुम जो भी करते हो या तुम्हें जो भी होता है, उसमें तुम भी पूरी तरह मौजूद होते हो। इसे फिर से देखो, इसका निरीक्षण करो। जब भी छींक आती है तो उसमें तुम समग्रत: होते हो—पूरे शरीर से होते हो, पूरे मन से होते हो। छींक सिर्फ तुम्हारी नाक में ही घटित नहीं होती, तुम्हारे शरीर का रोआं—रोआं उसमें सम्मिलित रहता है। एक सूक्ष्म कंपन, एक सूक्ष्म सिहरन पूरे शरीर पर फैल जाती है, और उसके साथ पूरा शरीर एकाग्र हो जाता है। और जब छींक आ जाती है तो सारा शरीर राहत अनुभव करता है, विश्राम अनुभव करता है।

लेकिन छींक के साथ सजगता रखनी कठिन है। और यदि तुम उसमें सजगता जोड़ दोगे तो छींक नहीं आएगी। और यदि छींक आए तो जानना कि तुम सजग नहीं थे।

तो तुम्हें सजग रहना पड़ेगा।

छींक के आरंभ में………..।

क्योंकि छींक यदि आ ही गयी तो कुछ नहीं किया जा सकता है। तीर यदि चल चुका तो तुम अब उसे बदल नहीं सकते; यंत्र चालू हो गया। ऊर्जा अब बाहर जाने के रास्ते पर है; उसे अब रोका नहीं जा सकता। क्या तुम छींक को बीच में रोक सकते हो? तुम कैसे छींक को बीच में रोक सकते हो! जब तक तुम तैयार होगे, वह आ चुकी होगी। तुम उसे बीच में नहीं रोक सकते हो।

आरंभ में ही सजग हो जाओ। जिस क्षण तुम्हें उत्तेजना अनुभव हो, लगे कि छींक आने वाली है, तभी सावचेत हो जाओ। अपनी आंखें बंद कर लो और ध्यानस्थ हो जाओ। अपनी समग्र चेतना को उस बिंदु पर ले जाओ जहां छींक की उत्तेजना अनुभव होती हो। ठीक आरंभ में ही सजग हो जाओ। छींक गायब हो जाएगी, और उसकी ऊर्जा अधिक सजगता में रूपांतरित हो जाएगी। और चूकि छींक में तुम्हारा सारा शरीर सम्मिलित है, पूरा संयंत्र सम्मिलित है—और तुम उसी क्षण में सजग हो—वहा मन नहीं होगा, विचार नहीं होगा, ध्यान नहीं होगा। छींक में विचार ठहर जाते हैं।

यही कारण है कि अनेक लोग सुंघनी सूंघना पसंद करते हैं। यह उन्हें निर्भार कर देता है; उनका मन ज्यादा विश्रामपूर्ण हो जाता है। क्यों? क्योंकि क्षणभर के लिए विचार ठहर जाते हैं। सुंघनी उन्हें निर्विचार की एक झलक देती है। सुंघनी सूंघने से जो छींक आती है उसमें वे मन नहीं रह जाते, शरीर ही हो जाते हैं। एक क्षण के लिए सिर विदा हो जाता है; और उन्हें बहुत अच्छा लगता है।

अगर तुम सुंघनी के आदी हो जाओ तो उसे छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। यह धूम्रपान से भी ज्यादा गहरा व्यसन है; धूम्रपान उसके सामने कुछ नहीं है। सुंघनी ज्यादा गहरे जाती है, क्योंकि धूम्रपान सचेतन है और छींक अचेतन है। इसलिए धूम्रपान छोड़ने से भी ज्यादा कठिन सुंघनी छोड़ना है। और धूम्रपान को बदलकर कोई दूसरा व्यसन ग्रहण किया जा सकता है, धूम्रपान के पर्याय हैं, लेकिन सुंघनी के पर्याय नहीं हैं। कारण यह है कि छींक सच में शरीर की एक अनूठी घटना है। इसके जैसी दूसरी चीज केवल काम—कृत्य है, संभोग है।

शरीर—शास्त्र की भाषा में जो लोग सोचते हैं वे कहते हैं कि संभोग कामेंद्रिय द्वारा छींकने जैसा है। और दोनों में समानता भी है; यद्यपि यह शत—प्रतिशत सही नहीं है। क्योंकि संभोग में और भी बहुत सी बातें सम्मिलित हैं। लेकिन आरंभ में, सिर्फ आरंभ में समानता भी है। तुम कुछ चीज नाक से बाहर निकालते हो और राहत अनुभव करते हो, वैसे ही कुछ चीज कामेंद्रिय से बाहर निकालते हो और राहत अनुभव करते हो। और दोनों ही कृत्य गैर—स्वैच्छिक हैं।

तुम संभोग में संकल्प के द्वारा नहीं उतर सकते; अगर कोशिश करोगे तो निष्फलता हाथ आएगी। विशेषकर पुरुष तो जरूर निष्फल होंगे, क्योंकि उनकी कमेंद्रिय को कुछ करना पड़ता है। पुरुष की कामेंद्रिय सक्रिय है; लेकिन तुम चाहकर उसे सक्रिय नहीं कर सकते। तुम जितनी चेष्टा करोगे, उतना ही असंभव होता जाएगा। यह अपने आप होता है, इसे तुम सचेत होकर नहीं कर सकते।

यही कारण है कि पश्चिम में संभोग एक समस्या बन गया है। पिछली आधी सदी के दौरान पश्चिम में काम—संबंधी ज्ञान बहुत विकसित हुआ है और हर एक आदमी इसके संबंध में इतना सचेत है कि संभोग अधिकाधिक असंभव हो रहा है।

अगर तुम सचेत हो तो संभोग असंभव हो जाएगा। अगर कोई व्यक्ति संभोग के, समय सचेत रहे, तो वह जितना सचेत होगा उतना ही उसके लिए संभोग कठिन होगा। उसकी जननेंद्रिय में उत्तेजना ही नहीं होगी। उसे प्रयास से नहीं किया जा सकता, और तुम जितना अधिक प्रयास करोगे उतनी ही मुश्किल हो जाएगी।

इस विधि का उपयोग काम—संभोग में भी किया जा सकता है। आरंभ में ही, जब तुम्हें उत्तेजना आती मालूम हो, लेकिन वह अभी आयी न हो, सिर्फ उसकी तरंगें मालूम पड़ती हों, तभी तुम सावचेत हो जाओ। तरंगें खो जाएंगी, और वही ऊर्जा सजगता में गति कर जाएगी। तंत्र ने इसका उपयोग किया है। तंत्र ने इसका कई ढंग से उपयोग किया है। एक सुंदर नग्न स्त्री ध्यान के विषय के रूप में बैठी होगी, और साधक उस नग्न स्त्री के सामने बैठकर उसके शरीर, उसके रूप और अंग—सौष्ठव पर ध्यान करेगा, और अपने काम—केंद्र पर उत्तेजना उठने की प्रतीक्षा करेगा। और ज्यों ही जरा सी उत्तेजना महसूस होगी, वह अपनी आंखें बंद कर लेगा और उस स्त्री को भूल जाएगा। वह साधक आंखें बंद कर लेगा और उत्तेजना के प्रति सजग हो जाएगा। तब काम—ऊर्जा सजगता में रूपांतरित हो जाती है। उसे नग्न स्त्री पर तभी तक ध्यान करना है जहां उत्तेजना महसूस होती है। उसके बाद उसे आंख बंद कर अपनी उत्तेजना पर आ जाना है और वहीं सजग रहना है—ठीक वैसे ही जैसे छींक में किया जाता है। और यह कौंध सी क्यों घटित होती है? कारण यह है कि मन वहां नहीं है। बुनियादी बात यह है कि अगर मन नहीं है और तुम सजग हो, तो सतोरी घटित होगी; तुम्हें समाधि की पहली झलक मिलेगी।

विचार ही बाधा है। किसी भी ढंग से यदि विचार विलीन हो जाए तो बात बन जाती है। लेकिन सजगता के लिए विचार का विदा होना जरूरी है। विचार नींद में भी विलीन हो जाता है। तुम्हारे मूर्च्‍छित होने पर भी विचार ठहर जाता है। और जब तुम कोई नशीले द्रव्य लेते हो तो भी विचार बंद हो जाता है। इन हालतों में भी विचार विदा हो जाता है, लेकिन तब विचार के पीछे जो तत्व छिपा है उसके प्रति सजगता नहीं रहती है।

इसलिए मैं ध्यान को निर्विचार चेतना कहता हूं। तुम निर्विचार और मूर्च्‍छित एक साथ हो सकते हो; लेकिन उसका कोई मूल्य नहीं है। और तुम विचार के साथ सचेतन भी रह सकते हो; वह तुम हो ही। इन दो चीजों को, चेतना और निर्विचार को इकट्ठा करो; जब वे मिलते हैं तो ध्यान घटित होता है, ध्यान का जन्म होता है।

और तुम इसका प्रयोग छोटी—छोटी चीजों के साथ भी कर सकते हो। सच तो यह है कि कोई भी चीज छोटी नहीं है। एक छींक भी अस्तित्वगत घटना है। अस्तित्व में कुछ भी बड़ा नहीं है, कुछ भी छोटा नहीं है। एक नन्हा सा परमाणु भी पूरे जगत को मिटा सकता है। और वैसे ही एक छींक भी, जो कि अत्यंत छोटी चीज है, तुम्हें रूपांतरित कर सकती है।

तो चीजों को छोटी—बड़ी की तरह मत देखो। न कुछ बड़ा है और न कुछ छोटा। अगर तुम्हारे पास गहरे देखने की दृष्टि है तो बहुत छोटी चीजें भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं। परमाणुओं के बीच में ब्रह्मांड छिपे हैं। और तुम नहीं कह सकते कि परमाणु और ब्रह्मांड में कौन बड़ा है और कौन छोटा। एक अकेला परमाणु अपने आप में ब्रह्मांड है, और बड़े से बड़ा ब्रह्मांड भी परमाणु के अतिरिक्‍त कुछ नहीं है। तो बड़े और छोटे की भाषा में मत सोचो। प्रयोग करो। और यह मत कहो कि छींक से क्या होगा, मैं तो जीवनभर छींकता रहा हूं और कुछ नहीं हुआ! इस विधि का प्रयोग करो।

‘छींक के आरंभ में, भय में…..।’

जब तुम भयभीत अनुभव करते हो और भय प्रवेश करता है, जब तुम भय को प्रवेश करते देखो, ठीक उसी क्षण सजग हो जाओ, और भय विलीन हो जाएगा। बोध के साथ भय नहीं रह सकता है। जब तुम सावचेत हो तो भयभीत कैसे हो सकते हो? तुम तभी भयभीत होते हो जब होश खो देते हो। सच में कायर वह नहीं है जो डरा हुआ है, कायर वह है जो सोया हुआ है। और बहादुर वह है जो भय के क्षणों में बोध को जगा लेता है। और तब भय विदा हो जाता है।

जापान में वे योद्धाओं को सजगता का प्रशिक्षण देते हैं। उनका बुनियादी प्रशिक्षण सजगता के लिए है; शेष सब चीजें गौण हैं। तलवार चलाना, तीर—धनुष चलाना, सब गौण हैं। झेन सदगुरु रिंझाई के संबंध में कहा जाता है कि वे कभी भी तीर चलाने में, तीर को ठीक निशाने पर मारने में सफल नहीं हुए। उनका तीर सदा ही चूकता रहा, वह कभी ठीक निशाने पर नहीं लगा। और वे सबसे महान धनुर्विद माने जाते हैं।

तो पूछा जाता है कि रिंझाई सबसे महान धनुर्विद कैसे कहलाए, जब कि वे कभी लक्ष्य पर नहीं पहुंचे और सदा निशाना चूकते रहे? उनका तीर कभी सही निशाने पर नहीं लगा, फिर भी वे महान धनुर्विद कैसे माने गए?

रिंझाई को मानने वाले कहते हैं : ‘अंत नहीं, आरंभ महत्वपूर्ण है। हम इसमें उत्सुक नहीं हैं कि तीर लक्ष्य पर पहुंच जाए, हम उसमें उत्सुक हैं जहां से तीर अपनी यात्रा शुरू करता है। हम रिंझाई में उत्सुक हैं। जब तीर धनुष से निकलता है तो वे सजग हैं; बस पर्याप्त है। परिणाम से कोई लेना—देना नहीं है।’

एक आदमी रिंझाई का शिष्य था। वह खुद भी बड़ा धनुर्विद था; उसका निशाना कभी नहीं चूकता था। फिर वह रिंझाई के पास सीखने के लिए आया। तो किसी ने उससे कहा, ‘तुम किससे सीखने आए हो? वह कोई गुरु नहीं है; वह तो शिष्य भी नहीं है। वह एक असफल व्यक्ति है। और तुम तो स्वयं बड़े गुरु हो, और रिंझाई से सीखने जा रहे हो?’

तो उस धनुर्विद ने कहा, ‘हां’ क्योंकि मैं तकनीकी तल पर सफल हूं; लेकिन जहां तक चेतना का सवाल है मैं असफल हूं। वे तकनीकी तल पर असफल हैं, लेकिन जहां तक चेतना का सवाल है वे धनुविद हैं और गुरु हैं। क्योंकि जब तीर धनुष को छोडता है, वे उस समय सजग होते हैं—और वही असली बात है।’

इस धनुर्विद को, जो तकनीकी रूप से कुशल था, रिंझाई के पास रहकर वर्षों धनुर्विद्या सीखनी पड़ी। और रोज उसके निशाने शत—प्रतिशत अचूक लगते। और रिंझाई उससे कहते, ‘नहीं, तुम असफल हो। तकनीकी तौर से तो तीर ठीक चलता है, लेकिन तुम वहां नहीं होते हो, तुम सजग नहीं होते हो। तुम सोए—सोए तीर छोड़ते हो।’

जापान में वे अपने योद्धाओं को पहले सजग होने का प्रशिक्षण देते हैं। बाकी बातें गौण होती हैं। योद्धा साहसी व्यक्ति है, यदि वह सजग हो सके। और दूसरे महायुद्ध में पता चला कि जापानी योद्धाओं का मुकाबला नहीं है। उनकी शूरता अतुलनीय है। वह शूरता कहां से आती है? शरीर से वे उतने मजबूत नहीं हैं, लेकिन वे भयभीत नहीं हैं; क्योंकि जागरूकता में, सजगता में भय नहीं प्रवेश कर सकता। और जब भी उन्हें भय पकड़ता है, वे झेन विधियों का प्रयोग करते हैं।

यह सूत्र कहता है : ‘भय में, चिंता में…..।’

जब तुम चिंता अनुभव करो, बहुत चिंताग्रस्त होओ, तब इस विधि का प्रयोग करो। इसके लिए क्या करना होगा? जब साधारणत: तुम्हें चिंता घेरती है तब तुम क्या करते हो? सामान्यत: क्या करते हो? तुम उसका हल ढूंढते हो; तुम उसके उपाय ढूंढते हो। लेकिन ऐसा करके तुम और भी चिंताग्रस्त हो जाते हो, तुम उपद्रव को बढ़ा लेते हो। क्योंकि विचार से चिंता का समाधान नहीं हो सकता है, विचार के द्वारा उसका विसर्जन नहीं हो सकता है। कारण यह है कि विचार खुद एक तरह की चिंता है। विचार करके तुम चिंता को बढ़ाते हो। विचार के द्वारा तुम उससे बाहर नहीं आ सकते, बल्कि तुम उसके दलदल में और भी धंसते जाओगे। यह विधि कहती है कि चिंता के साथ कुछ मत करो; सिर्फ सजग होओ, बस सावचेत रहो।

मैं तुम्हें एक दूसरे झेन सदगुरु बोकोजू के संबंध में एक पुरानी कहानी सुनाता हूं। वह एक गुफा में अकेला रहता था, बिलकुल अकेला। लेकिन दिन में या कभी—कभी रात में भी, वह जोरों से कहता था, ‘बोकोजू।’ यह उसका अपना नाम था। और फिर वह खुद कहता, ‘ही महोदय, मैं मौजूद हूं।’ और वहा कोई दूसरा नहीं होता था। उसके शिष्य उससे पूछते थे, ‘क्यों आप अपना ही नाम पुकारते हैं, और फिर खुद कहते हैं, हौ महोदय, मैं मौजूद हूं?’

बोकोजू ने कहा, ‘जब भी मैं विचार में डूबने लगता हूं तो मुझे सजग होना पड़ता है, और इसीलिए मैं अपना नाम पुकारता हूं बोकोजू! जिस क्षण मैं बोकोजू कहता हूं और कहता हूं कि ही महाशय, मैं मौजूद हूं उसी क्षण विचारणा, चिंता विलीन हो जाती है।’

फिर अपने अंतिम दिनों में, आखिरी दो—तीन वर्षों में उसने कभी अपना नाम नहीं पुकारा, और न ही यह कहा कि हौ, मैं मौजूद हूं। तो शिष्यों ने पूछा, ‘गुरुदेव, अब आप ऐसा क्यों नहीं करते?’ बोकोजू ने कहा, ‘अब बोकोजू सदा मौजूद रहता है। वह सदा ही मौजूद है, इसलिए पुकारने की जरूरत न रही। पहले मैं खो जाया करता था, और चिंता मुझे दबा लेती थी, आच्छादित कर लेती थी, बोकोजू वहां नहीं होता था, तो मुझे उसे स्मरण करना पड़ता था। और स्मरण करते ही चिंता विदा हो जाती थी।’

इसे प्रयोग करो। बहुत सुंदर विधि है यह। अपने नाम का ही प्रयोग करो। जब भी तुम्हें गहन चिंता पकड़े तो अपना ही नाम पुकारो—बोकोजू या और कुछ, लेकिन अपना ही नाम हो—और फिर खुद ही कहो कि ही महोदय, मैं मौजूद हूं। और तब देखो कि क्या फर्क पड़ता है। चिंता नहीं रहेगी; कम से कम एक क्षण के लिए तुम्हें बादलों के पार की एक झलक मिलेगी। और फिर वह झलक गहराई जा सकती है। तुम एक बार जान गए कि सजग होने पर चिंता नहीं रहती, विलीन हो जाती है, तो तुम स्वयं के संबंध में, अपनी आंतरिक व्यवस्था के संबंध में गहन बोध को उपलब्ध हो गए।

‘खाई—खड्ड के कगार पर, युद्ध से भागने पर, अत्यंत कुतूहल में, भूख के आरंभ में और भूख के अंत में, सतत बोध रखो।’

किसी भी चीज का उपयोग कर सकते हो। भूख लगी है, सजग हो जाओ। जब तुम्‍हें भूख महसूस होती है तो तुम क्या करते हो? तुम्हें क्या होता है? जब तुम्हें भूख लगती है तो तुम उसे कभी ऐसे नहीं देखते कि तुम्हें कुछ हो रहा है; तुम भूख ही हो जाते हो। तब तुम समझते हो कि मैं भूखा हूं। ऐसा ही लगता है कि मैं भूख हूं। लेकिन तुम भूख नहीं हो, तुम्हें सिर्फ भूख का बोध होता है। भूख कहीं परिधि पर घटित हो रही है, और तुम तो केंद्र हो, तुम्हें भूख का बोध हो रहा है। भूख विषय है; तुम जानने वाले हो, तुम साक्षी हो। तुम भूख नहीं हो; भूख तुम्हें घटित हो रही है। तुम तब भी थे जब भूख नहीं थी, और तुम तब भी रहोगे जब भूख नहीं रहेगी। भूख एक घटना है; वह तुम्हें घटित होती है।

उसके प्रति सजग होओ। तब तुम भूख से तादात्म्य नहीं करोगे। अगर तुम्हें भूख लगे तो उसके प्रति सजग होओ कि भूख है। उसे देखो, उसका साक्षात्कार करो, उसे जानो। क्या होगा? तुम जितने ही सजग होंगे, भूख उतनी ही तुमसे दूर मालूम पड़ेगी। और जितनी सजगता कम होगी, भूख उतनी ही निकट मालूम पड़ेगी। और अगर तुम बिलकुल सजग नहीं हो, तो तुम ठीक केंद्र पर अनुभव करोगे कि मैं भूख ही हूं। सजग होते ही भूख तुम से दूर हट जाती है, भूख वहा है और तुम यहां हो। भूख विषय है, तुम साक्षी हो।

इसी विधि के लिए उपवास का उपयोग किया जाता रहा है। वैसे अपने आप में उपवास किसी काम का नहीं है। अगर तुम भूख के साथ इस विधि का प्रयोग नहीं कर रहे हो तो उपवास निपट मूढ़ता है, व्यर्थ है।

महावीर ने इसी विधि के लिए उपवास का प्रयोग किया था, और अब जैन सिर्फ उपवास कर रहे हैं, इस विधि के बिना ही उपवास कर रहे हैं। तब यह मूढ़ता है; तब तुम सिर्फ भूखे मर रहे हो और इससे कोई लाभ नहीं मिल सकता है। तुम महीनों भूखे रह सकते हो, और भूख से जुड़े रह सकते हो कि मैं भूख हूं। तब वह व्यर्थ है, हानिकर है।

उपवास करने की कोई जरूरत नहीं है; तुम रोज ही भूख को अनुभव कर सकते हो। लेकिन कठिनाइयां हैं। और इसीलिए उपवास उपयोगी हो सकता है। सामान्यत: हम भूख लगने के पहले ही अपने को भोजन से भर लेते हैं। आधुनिक संसार में भूख लगने की जरूरत ही नहीं पड़ती; तुम्हारे भोजन के समय निश्चित हैं, और तुम भोजन कर लेते हो। तुम कभी नहीं पूछते कि शरीर को भूख लगी है या नहीं; निश्चित समय पर तुम भोजन कर लेते हो। भूख तुम्हें नहीं लगती है। तुम कहोगे कि नहीं, जब एक बजता है तो मुझे भूख लगती है। वह झूठी भूख हो सकती है; वह इसलिए लगती है क्योंकि यह तुम्हारे खाने का समय है, एक बजा है।

किसी दिन एक खेल करो; अपनी पत्नी या अपने पति को कहो कि घड़ी का समय बदल दे, अभी बारह बजा है और घड़ी एक का समय बता दे। तुम्हें तुरंत भूख मालूम होगी। या घड़ी एक घंटा पीछे कर दी जाए; दो बजा है और घड़ी एक का समय बताए। तब तुम्हें उसी समय भूख लगेगी। तुम्हें घड़ी देखकर भूख लगती है। यह कृत्रिम भूख है, झूठी भूख है; यह भूख सच्ची नहीं है।

इसीलिए उपवास सहयोगी हो सकता है। अगर तुम उपवास करोगे तो दो—तीन दिन तक झूठी भूख मालूम होगी। तीसरे या चौथे दिन के बाद ही सच्ची भूख का पता चलेगा। तब वह मांग तुम्हारे शरीर की होगी, मन की नहीं। जब मन मांग करता है तो वह झूठी मांग है, शरीर की मांग ही सच्ची होती है। और जब तुम सच्ची भूख के प्रति सजग होते हो तो अपने शरीर से सर्वथा भिन्न हो जाते हो। भूख एक शारीरिक घटना है। और जब एक बार तुम जान लेते हो कि भूख मुझसे भिन्न है, मैं उसका साक्षी हूं तो तुम शरीर के पार चले गए।

लेकिन तुम किसी भी चीज का उपयोग कर सकते हो। ये तो उदाहरण मात्र हैं। यह विधि अनेक ढंगों से प्रयोग में लाई जा सकती है। तुम अपना अलग ढंग भी निर्मित कर सकते हो। लेकिन किसी एक ही चीज पर सतत प्रयोग करते रहो। अगर तुम भूख के साथ प्रयोग कर रहे हो तो कम से कम तीन महीनों तक भूख के साथ प्रयोग करो। तो ही तुम किसी दिन शरीर से तादात्म्य तोड़ सकोगे। रोज—रोज विधि मत बदलों, क्योंकि विधि का गहरे जाना जरूरी है। तीन महीने के लिए किसी. विधि को चुन लो और उसमें लगन से लगे रहो; विधि का प्रयोग करो, और प्रयोग जारी रखो।

और सदा स्मरण रखो कि आरंभ में बोधपूर्ण होना है। बीच में बौधपूर्ण होना बहुत कठिन होगा, क्योंकि इस तादात्म्य के स्थापित होते ही कि मैं भूख हूं तुम उसे फिर बदल नहीं सकोगे। मन के तल पर तुम बदलाहट कर सकते हो, तुम कह सकते हो कि नहीं, मैं भूख नहीं हूं साक्षी हूं; लेकिन वह झूठ होगा। यह मन ही बोल रहा है; यह तुम्हारे प्राणों का अनुभव नहीं है। तो आरंभ में ही बोधपूर्ण होने की कोशिश करो। और यह भी स्मरण रहे कि तुम्हें यह कहना नहीं है कि मैं भूख नहीं हूं। यह भी मन का धोखा देने का एक ढंग है। तुम कह सकते हो ‘ भूख है, लेकिन मैं भूख नहीं हूं। मैं शरीर नहीं हूं; मैं ब्रह्म हूं।’

तुम्हें कुछ भी कहना नहीं है। तुम जो भी कहोगे गलत होगा, क्योंकि तुम गलत हो। यह दोहराना कि मैं शरीर नहीं हूं किसी काम का नहीं होगा। तुम कहते रहते हो कि मैं शरीर नहीं हूं क्योंकि तुम जानते हो कि मैं शरीर हूं। अगर तुम सच ही जानते हो कि मैं शरीर नहीं हूं तो यह कहने की क्या जरूरत है? कोई जरूरत नहीं है; यह मूढ़ता मालूम होगी।

बोधपूर्ण होओ, और तब उस बोध में यह भाव प्रगाढ़ होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। यह विचार नहीं होगा, भाव होगा। यह तुम्हारे सिर की नहीं, तुम्हारे पूरे प्राणों की अनुभूति होगी। तुम दूरी महसूस करोगे कि शरीर बहुत दूर है और मैं उससे बिलकुल भिन्न हूं और दोनों के मिश्रण की संभावना भी नहीं है। तुम दोनों को मिला नहीं सकते हो। शरीर शरीर है, पदार्थ है, और तुम चैतन्य हो। वे दोनों साथ रह सकते हैं, लेकिन एक—दूसरे में घुलमिल नहीं सकते। उनका मिश्रण नहीं हो सकता है।

दूसरी विधि :

अन्य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है। वस्तुत: किसी को भी शुद्ध या अशुद्ध की तरह मत जानो।

 

ह तंत्र का एक बुनियादी संदेश है। तुम्हारे लिए यह बड़ी कठिन धारणा होगी, क्योंकि यह बिलकुल ही गैर—नैतिक धारणा है। मैं इसे अनैतिक नहीं कहूंगा, क्योंकि तंत्र को नीति—अनीति से कुछ लेना—देना नहीं है। तंत्र कहता है कि शुद्धि—अशुद्धि से कोई मतलब नहीं है। इसकी देशना तुम्हें शुद्धि—अशुद्धि के ऊपर उठने में, दरअसल विभाजन के, द्वंद्व और द्वैत के पार जाने में सहयोग देने के लिए है।

तंत्र कहता है कि अस्‍तित्‍व अखंड है, अस्तित्व एक है। और जो द्वंद्व हैं वे सब—स्मरण रहे, सब के सब—मनुष्य के बनाए हुए हैं। द्वंद्व मात्र मनुष्य—निर्मित हैं; शुभ—अशुभ, शुद्ध—अशुद्ध, नैतिक—अनैतिक, पुण्य—पाप, ये सारी धारणाएं मनुष्य ने निर्मित की हैं। ये मनुष्य की मान्यताएं हैं, ये यथार्थ नहीं हैं। क्या अशुद्ध है और क्या शुद्ध, यह तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर है। वैसे ही क्या अनैतिक है और क्या नैतिक, यह भी तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर है।

नीत्से ने कहीं कहा है कि सब नैतिकता व्याख्या है।

तो कोई चीज इस देश में नैतिक हो सकती है और वही चीज पड़ोसी देश में अनैतिक हो सकती है। एक ही चीज मुसलमान के लिए नैतिक हो सकती है और हिंदू के लिए अनैतिक हो सकती है। एक ही चीज ईसाई के लिए नैतिक और जैन के लिए अनैतिक हो सकती है। या जो चीज पुरानी पीढ़ी के लिए नैतिक थी, नयी पीढ़ी के लिए अनैतिक हो सकती है। यह दृष्टिकोण पर निर्भर करता है; यह रुझान की बात है। बुनियादी रूप से यह एक मान्यता है, झूठ है। तथ्य बस तथ्य होता है। नग्न तथ्य बस तथ्य होता है; वह न नैतिक होता है न अनैतिक, न शुद्ध न अशुद्ध।

सोचो, पृथ्वी पर यदि मनुष्य न हो तो क्या शुद्ध है और क्या अशुद्ध? तब चीजें होंगी, सिर्फ होंगी। न कुछ शुद्ध होगा और न कुछ अशुद्ध होगा; न कुछ शुभ होगा और न कुछ अशुभ होगा। मनुष्य के साथ मन आता है। और मन विभाजन करता है; मन कहता है कि यह भला है और वह बुरा है।

और यह विभाजन संसार को ही नहीं बांटता है, विभाजन करने वाले को भी बांट देता है। अगर तुम बांटते हो तो उसमें तुम खुद भी बंट जाते हो। और जब तक तुम बाह्य विभाजनों को नहीं भूलते, तब तक तुम अपने आंतरिक विभाजनों का अतिक्रमण नहीं कर सकते हो। जो कुछ तुम संसार के साथ करते हो, तुम उसे अपने साथ पहले ही कर लेते हो।

सिद्ध योग के महान सदगुरु नरोपा ने कहा है : ‘इंच भर का विभाजन, और स्वर्ग और नरक अलग—अलग हो जाते हैं।’ इंच भर का विभाजन! लेकिन हम बांटते हैं, नाम देते हैं, निंदा करते हैं, औचित्य सिद्ध करते हैं। अस्तित्व के शुद्ध तथ्य को देखो, और कोई नाम मत दो, कोई लेबल मत लगाओ। केवल तभी तंत्र की देशना को समझा जा सकता है। तथ्य को भला या बुरा मत कहो; तथ्य पर अपने चित्त को मत उतारो। ज्यों ही तुम तथ्य पर अपनी धारणा आरोपित करते हो, तुम झूठ का निर्माण कर लेते हो। अब यह तथ्य न रहा, सत्य न रहा; यह तुम्हारा प्रक्षेपण हो गया।

यह सूत्र कहता है : ‘अन्य देशनाओ के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है। वस्तुत: किसी को भी शुद्ध या अशुद्ध की तरह मत जानो।’

‘अन्य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है।’

तंत्र कहता है कि जो चीज अन्य देशनाओ के लिए बहुत शुद्ध मानी जाती है, पुण्य मानी जाती है, वह हमारे लिए पाप है। क्योंकि उनकी शुद्धता की धारणा बाटती है; उनके लिए कुछ अशुद्ध है।

अगर तुम किसी को संत कहते हो तो तुमने किसी को पापी बना दिया। अब तुम्हें कहीं न कहीं किसी न किसी को निंदित करना होगा, क्योंकि संत पापी के बिना नहीं हो सकता। अब हमारे प्रयत्नों की व्यर्थता देखो। हम पापियों को मिटाने में लगे हैं, और हम एक ऐसी दुनिया की आशा करते हैं जहां पापी नहीं होंगे, सिर्फ संत होंगे। यह अर्थहीन है, क्योंकि संत पापी के बिना नहीं हो सकते, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम सिक्के के एक पहलू को नहीं मिटा परि सकते; दोनों साथ ही रहेंगे। पापी और पुण्यात्मा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर तुम पापियों को मिटा दोगे तो पुण्यात्मा भी संसार से विदा हो जाएंगे। लेकिन घबराओ मत, उन्हें विदा होने दो। वे किसी मूल्य के नहीं सिद्ध हुए हैं।

पापी और संत एक ही व्याख्या के, जगत के प्रति एक ही दृष्टिकोण के अंग हैं। यह दृष्टिकोण कहता है कि यह शुभ है और वह अशुभ है। और तुम यह नहीं कह सकते कि यह अच्छा है अगर तुम यह न कहो कि वह बुरा है। शुभ की परिभाषा के लिए अशुभ जरूरी है। शुभ अशुभ पर निर्भर है; पुण्य पाप पर निर्भर है। तुम्हारे महात्मा असंभव हैं, वे पापियों के बिना नहीं हो सकते। उन्हें तो पापियों का अहसान मानना चाहिए; वे उनके बिना जी नहीं सकते। वे चाहे पापियों की जितनी भी निंदा करें, वे और पापी एक ही घटना के अंग हैं। पापी संसार से तभी विदा होंगे जब महात्मा विदा होंगे, उसके पहले नहीं। और पुण्य की धारणा के बिना पाप नहीं टिक सकता है।

तंत्र कहता है कि तथ्य असली बात है, और व्याख्या झूठ है। व्याख्या मत करो!

‘वस्तुत: किसी को भी शुद्ध या अशुद्ध की तरह मत जानो।’

क्यों? क्योंकि शुद्धि और अशुद्धि सत्य पर थोपी गई हमारी व्याख्याएं हैं, हमारे दृष्टिकोण हैं। इसे प्रयोग करो। यह विधि कठिन है, सरल नहीं है। कारण यह है कि हम द्वैतमूलक विचारणा से इतने ग्रस्त हैं, उसमें इतने डूबे हैं कि हमें इसका भी पता नहीं रहता कि हम किसकी निंदा कर रहे हैं और किसको उचित कह रहे हैं। अगर कोई व्यक्ति यहां धूम्रपान करने लगे तो तुम सचेतन रूप से कुछ जाने बिना ही उसे निंदित कर दोगे; तुम अपने अंतस में उसकी निंदा कर डालोगे। तुम्हारी दृष्टि में निंदा हो चाहे न हो, तुमने उस व्यक्ति पर नजर भी नहीं डाली हो, लेकिन तुमने निंदा कर दी।

यह विधि कठिन होगी, क्योंकि हमारी आदत इतनी गहन है, प्रगाढ़ है। तुम महज अपनी भाव— भंगिमा से, अपने बैठने—उठने से किसी को निंदित कर देते हो, किसी को सही बताते हो, और तुम्हें इसका होश भी नहीं रहता कि तुम क्या कर रहे हो। तुम जब किसी आदमी को देखकर मुस्कुराते हो या नहीं मुस्कुराते हो, जब तुम किसी को देखते हो या नहीं देखते हो, तुम उसकी उपेक्षा करते हो, तो तुम क्या कर रहे हो? तुम अपनी पसंद—नापसंद आरोपित कर रहे हो। जब तुम कहते हो कि कोई चीज सुंदर है तो तुम्हें किसी चीज को कुरूप कहना ही होगा। और यह बांटने वाली दृष्टि साथ ही साथ तुम्हें भी बांट रही है। तुम्हारे भीतर दो व्यक्ति हो जाएंगे।

अगर तुम कहते हो कि कोई व्यक्ति क्रोध में है और क्रोध बुरा है तो तुम तब क्या करोगे जब तुम्हें क्रोध होगा? तुम कहोगे कि क्रोध बुरा है। तब समस्याएं खड़ी होंगी, क्योंकि तुम कहते हो कि यह बुरा है, मुझमें जो क्रोध है वह बुरा है। तब तुम अपने को दो व्यक्तियों में बांटने लगे, एक बुरा व्यक्ति होगा, पापी होगा, और दूसरा भला व्यक्ति होगा, महात्मा होगा।

निश्चित ही, तुम अपने को भीतर का महात्मा मानोगे और भीतर के पापी की निंदा करोगे। तुम दो में विभाजित हो गए। अब निरंतर लड़ाई चलेगी, संघर्ष होगा। अब तुम व्‍यक्‍ति न रहे, अब

तुम भीड़ हो, तुम्हारे भीतर गृह—युद्ध चलेगा। अब मौन गया, शाति गई; तुम तनाव और संताप से भर जाओगे। यही तुम्हारी हालत है, लेकिन तुम्हें पता नहीं है कि ऐसा क्यों है।

विभाजित व्यक्ति शात नहीं हो सकता; कैसे हो सकता है? तुम अपने शैतान को कहां रखोगे? तुम्हें उसे मिटाना होगा। लेकिन वह तुम ही हो; तुम उसे नहीं मिटा सकते। तुम दो नहीं हो, सच्चाई एक है, यथार्थ एक है। लेकिन अपनी बांटने वाली दृष्टि के कारण तुमने बाह्य यथार्थ को बांट दिया, और उसके अनुसार भीतरी यथार्थ भी बंट गया। इसलिए हर एक आदमी स्वयं से ही लड़ रहा है।

यह ऐसा ही है जैसे कि हम अपने ही दोनों हाथों को लड़ाए, बायां हाथ दाएं हाथ से लड़े, दायां हाथ बाएं हाथ से लड़े। और ऊर्जा एक ही है, मेरे दाएं और बाएं हाथों में एक ही ऊर्जा बह रही है, मैं ही दोनों हाथों में बह रहा हूं। लेकिन मैं दोनों को लड़ा सकता हूं अपने एक हाथ को दूसरे हाथ से लड़ा सकता हूं। और मैं एक संघर्ष, एक झूठा संघर्ष खड़ा कर सकता हूं। कभी—कभी मैं अपने को यह धोखा भी दे सकता हूं कि मेरा दाहिना हाथ जीत रहा है और बायां हाथ हार रहा है। लेकिन यह धोखा है, क्योंकि मैं जानता हूं कि दोनों में मैं ही हूं और किसी भी क्षण मैं अपने बाएं हाथ को ऊपर कर सकता हूं और दाएं को नीचे कर सकता हूं। मैं ही दोनों में हूं दोनों हाथ मेरे हैं।

तो तुम कितना ही सोचो कि मेरे भीतर का संत जीत गया और शैतान हार गया, स्मरण रहे कि तुम किसी भी क्षण जगहें बदल सकते हो, और तब संत नीचे होगा और शैतान ऊपर होगा। इससे ही भय पैदा होता है, असुरक्षा का भाव पैदा होता है, क्योंकि तुम जानते हो कि कुछ भी निश्चित नहीं है। तुम जानते हो कि इस समय मैं प्रेमपूर्ण हूं और अपनी घृणा को दबा दिया है; लेकिन तुम भयभीत भी हो, क्योंकि किसी भी क्षण घृणा ऊपर आ सकती है और प्रेम नीचे दब सकता है। और यह किसी भी क्षण हो सकता है, क्योंकि भीतर तुम दोनों हो।

तंत्र कहता है कि खंड मत करो, अखंड रहो, और केवल तभी तुम जीत सकते हो।

अखंड कैसे हुआ जाए? निंदा मत करो; मत कहो कि यह अच्छा है और वह बुरा है। शुद्धता और अशुद्धता की सभी धारणाओं को विदा कर दो। संसार को देखो, लेकिन मत कहो कि यह क्या है। अज्ञानी रहो; बहुत बुद्धिमानी मत दिखलाओ। कुछ धारणा मत बनाओ, चुप रहो; न निंदा करो और न प्रशंसा। अगर तुम संसार के संबंध में मौन रह सके तो धीरे— धीरे यह मौन तुम्हारे भीतर भी प्रवेश कर जाएगा। और अगर बाहर का विभाजन समाप्त हो जाए तो भीतर का विभाजन भी समाप्त हो जाएगा, क्योंकि दोनों साथ ही हो सकते हैं।

लेकिन यह बात समाज के लिए खतरनाक है। यही कारण है कि तंत्र का दमन हुआ, उसे दबाया गया। समाज के लिए यह दृष्टि खतरनाक है कि कुछ भी अनैतिक नहीं है, कुछ भी नैतिक नहीं है; कुछ भी शुद्ध नहीं है, कुछ भी अशुद्ध नहीं है; चीजें जैसी हैं वैसी हैं।

एक सच्चा तांत्रिक यह नहीं कहेगा कि चोर बुरा है, वह इतना ही कहेगा कि वह चोर है; बस। और उसे चोर कहने में उसके मन में कोई निंदा नहीं है। अगर कोई कहता है कि यह आदमी महान संत है तो तांत्रिक कहेगा. हा, वह संत है। लेकिन उसे संत कहने में कोई मूल्यांकन नहीं है; वह यह नहीं कहेगा कि वह अच्छा है। वह कहेगा: ठीक है, यह संत है और वह चोर है। यह कहना ऐसा ही है जैसे यह कहना कि यह गुलाब है और वह गुलाब नहीं है, यह वृक्ष बड़ा है और वह वृक्ष छोटा है, कि रात काली है और दिन उजला है। इसमें कोई तुलना नहीं है।

लेकिन यह खतरनाक है। समाज एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता है। समाज नहीं रह सकता, क्योंकि समाज द्वैत पर खड़ा है। इसीलिए तंत्र का दमन किया गया, उसे समाज—विरोधी समझा गया। तंत्र समाज—विरोधी नहीं है, बिलकुल नहीं है। लेकिन अद्वैत कि दृष्टि सामाजिक धारणाओं का अतिक्रमण कर जाती है। वह समाज—विरोधी नहीं है; वह समाज का अतिक्रमण है, समाज के पार उठ जाना है।

इसे प्रयोग करो। किसी मूल्यांकन के बिना, केवल स्वाभाविक तथ्यों के साथ, कि अमुक यह है और अमुक वह है, संसार में चलो। और धीरे— धीरे तुम्हें अपने भीतर एक अखंडता अनुभव होगी। तुम्हारे विपरीत स्वर, तुम्हारे विरोध, तुम्हारे अच्छे—बुरे सब इकट्ठे हो जाएंगे, वे एक में मिल जाएंगे। और तुम एक इकाई बन जाओगे। तब न कुछ शुद्ध होगा और न कुछ अशुद्ध। तुम यथार्थ को सीधे जानते हो।

‘अन्य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है।’

तंत्र कहता है कि जो दूसरों के लिए बुनियादी बात है वह हमारे लिए जहर है। उदाहरण के लिए, अहिंसा पर आधारित देशनाएं हैं, जो कहती हैं कि हिंसा अशुभ है और अहिंसा शुभ है। तंत्र कहता है कि हिंसा हिंसा है और अहिंसा अहिंसा, न कुछ बुरा है, न कुछ भला। कुछ देशनाएं ब्रह्मचर्य पर आधारित हैं; वे कहती हैं कि ब्रह्मचर्य शुभ है और कामवासना पाप है। तंत्र कहता है, कामवासना कामवासना है, ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य है। एक ब्रह्मचारी है और दूसरा नहीं है। लेकिन ये तथ्य मात्र हैं, इनका मूल्यों से कुछ लेना—देना नहीं है। तंत्र यह कभी नहीं कहेगा कि ब्रह्मचारी अच्छा है और जो कामवासना में डूबा है वह बुरा है। तंत्र यह कभी नहीं कहेगा। चीजें जैसी हैं तंत्र उन्हें वैसे ही स्वीकार करता है। और क्यों? सिर्फ तुम्हारे भीतर अखंडता निर्मित करने के लिए।

यह विधि तुम्हारे भीतर एक अखंडता निर्मित करने के लिए, तुम्हारे भीतर एक समग्र, अखंड, द्वंद्वरहित और विरोधरहित सत्ता पैदा करने के लिए है। केवल तब ही मौन संभव है। जो व्यक्ति किसी वृत्ति से भागता है वह कभी शात नहीं हो सकता है। कैसे हो सकता है? और जो अपने भीतर खंडित है, स्वयं से ही लड़ रहा है, वह जीत कैसे सकता है? यह असंभव है। तुम ही दोनों हो, फिर जीत किसकी होगी? किसी की भी जीत नहीं होगी; तुम्हारी ही हार होगी, क्योंकि लड़ने में तुम्हारी ऊर्जा नाहक नष्ट होगी।

यह विधि तुम में एक अखंडता निर्मित करेगी। मूल्यों को जाने दो; निर्णय मत लो।

जीसस ने कहीं कहा है. ‘दूसरे के संबंध में कोई निर्णय मत लो, ताकि तुम्हारे संबंध में भी निर्णय न लिया जाए।’ लेकिन यहूदियों के लिए इसे समझना असंभव हो गया, क्योंकि यहूदियों का सारा चिंतन नैतिकता पर निर्भर है. यह शुभ है और वह अशुभ है। जीसस इस उपदेश में—कोई निर्णय मत लो—तंत्र की भाषा बोल रहे हैं। यदि उनकी हत्या कर दी गई, उन्हें सूली पर लटकाया गया, तो उसका कारण यह उपदेश था। उनकी दृष्टि तंत्र की दृष्टि थी : ‘कोई निर्णय मत लो।’

तो मत कहो कि वेश्या बुरी है। कौन जानता है? और मत कहो कि महात्मा अच्छा है। कौन जानता है? और अंततः तो दोनों एक ही खेल के अंग हैं। वे एक—दूसरे पर निर्भर हैं, परस्पर जुड़े हैं। इसलिए जीसस कहते हैं. ‘कोई निर्णय मत लो।’ और यही शिक्षा इस सूत्र में है : ‘दूसरे के संबंध में कोई निर्णय मत लो, ताकि तुम्हारे संबंध में भी निर्णय न लिया जाए।’

अगर तुम कोई निर्णय नहीं लेते हो, कोई नैतिक दृष्टिकोण नहीं अपनाते हो, तथ्यों को वैसे ही देखते हो जैसे वे हैं, अपने हिसाब से उनकी व्याख्या नहीं करते हो, तो तुम्हारे संबंध में भी निर्णय नहीं लिया जाएगा।

तुम पूरी तरह रूपांतरित हो गए हो। अब कोई दिव्य सत्ता तुम्हारे संबंध में निर्णय नहीं लेगी; उसकी जरूरत न रही। तुम स्वयं दिव्य हो गए; तुम स्वयं परमात्मा हो गए।

तो साक्षी बनो, न्यायाधीश नहीं।

आज इतना ही।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–18)

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संन्‍यास : बोध की अवस्‍था—(प्रवचन—अट्ठहरवां)

प्‍यारे ओशो,

यह श्‍लोक भी मंडकोपनिषद् में है:

 वेदान्‍त विज्ञानसुनिश्‍चितार्था:सन्‍यास योगाद् यतय:शुद्ध—सत्‍वा:।

ते ब्रह्मलोकेषु परन्‍तकाले परामृता: परिमुच्‍यन्‍ति सर्वे।।

      अर्थात्‍ वेदांत और विज्ञान (प्रकृति का ज्ञान) इनके द्वारा जिन्‍होंने अच्‍छी तरह अर्थ का निश्‍चय कर लिया है और साथ ही संन्‍यास और योग के द्वारा जो शुद्ध स्‍वत्‍व वाले हो गये है, वे प्रयत्‍नवान ब्रह्मपरायण लोग मरने पर ब्रह्मलोक में पहुंचकर मुक्‍त हो जाते है।

      प्‍यारे ओशो! हमें इस सूत्र को समझाने की अनुकंपा करें।

हजानंद! यह सूत्र तो मूल्यवान है, लेकिन इसकी जो व्याख्याएं की गयी हैं अब तक, बड़ी मूल्यहीन हैं। तुमने भी हिन्दी में इसका जो अर्थ किया है, वह उन्हीं व्याख्याओं पर आधारित है जो गलत हैं। और गलत व्याख्या बहुत दिनों तक चलती रहे तो ठीक मालूम होने लगती है। पुनरुक्ति का एक सम्मोहन है, जादू है। एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मेनकेंप्‍फ’ में लिखा है कि झूठ को अगर बार—बार दोहराया जाए तो वह सत्य हो जाता है। और उसने ऐसा लिखा ही नहीं, उसने बड़े से बड़े झुठे को सत्य करके दिखा भी दिया, सिर्फ पुनरुक्ति के बल पर। दोहराए गया, दोहराए गया, पहले लोग हंसे, फिर लोग सोचने लगे, फिर धीरे— धीरे लोग स्वीकार करने लगे।

विज्ञापन की सारी कला ही इस बात पर आधारित है : दोहराए जाओ। फिर चाहे हेमा मालिनी का सौन्दर्य हो, चाहे परवीन बाबी का, सबका राजू लक्स टायलेट साबुन में है। दोहराए जाओ—अखबारों में, फिल्मों में, रेडियो पर, टेलीविजन पर—और धीरे—धीरे लोग मानने लगेंगे। और एक अचेतन छाप पड़ जाती है। और फिर तुम जब बाजार में साबुन खरीदने जाओगे और दुकानदार पूछेगा, कोन—सा साबुन? तो तुम सोचते हो कि तुम लक्स टायलेट खरीद रहे हो! तुमसे खरीदवाया जा रहा है। वह जो तुमने पढ़ा है बार—बार! तुम कहते हो, लक्स टायलेट दे दो। तुम यही सोचते हो, यही मानते हो कि तुमने खरीदा, मगर तुम भांति में हो। पुनरुक्ति ने तुम्हें सम्मोहित कर दिया।

नये—नये जब पहली दफा विद्युत के विज्ञापन बने तो वे थिर होते थे। फिर वैज्ञानिकों ने कहा कि थिर का यह परिणाम नहीं होता। जैसे लक्स टायलेट लिखा हो बिजली के अक्षरों में और थिर रहें अक्षर, तो आदमी एक ही बार पढ़ेगा। लेकिन अक्षर जलें, बुझे, जलें, बुझे, तो जितनी बार जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार पढ़ने को मजबूर होना पड़ेगा। तुम चाहे कार में ही क्यों न बैठकर गुजर रहे होओ, जितनी देर तुम्हें बोर्ड के पास से गुजरने में लगेगी, उतनी देर में कम—से—कम दस—पंद्रह दफा अक्षर जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार पुनरुक्ति हो गयी। उतनी पुनरुक्ति तुम्‍हारे भीतर बैठ गयी।

इस तरह के बहुमूल्य सूत्र भी कूड़ा—कचरा हो गये हैं, क्योंकि उनके जो अर्थ किये गये! एक—दो दिन की पुनरुक्ति नहीं है, हजारों वर्षों की पुनरुक्ति है। इसलिए तुम्हें मेरे साथ एक—एक शब्द को पुन: समझना होगा।

‘वेदांत’। इसका अर्थ किया गया है सदा से : वेदों की पराकाष्ठा, जो कि नितांत झूठ है। क्योंकि उपनिषद वेदों की पराकाष्ठा नहीं हैं, वेदों से बगावत हैं, विद्रोह हैं। उपनिषद यानी वेदांत। लेकिन इस झूठ को इतना दोहराया गया है कि उपनिषद में वेदों की पराकाष्ठा है; जैसे फूलों की गंध होती है ऐसे वेदों के वृक्षों पर उपनिषद के फूल लगे हैं, इन फूलों में जो गंध उठ रही है, उसकी जड़ें वेदों में हैं। यह बात सच नहीं है। वेदांत का अर्थ होता है : जहां वेद समाप्त हो गये, जहां वेदों का अंत हो गया। इसके बाद जो यात्रा है, उसके बाद जो आयाम है, शास्त्रों के पार, वेदों के पार, शब्दों के पार, सिद्धांतों के पार, वह वेदांत है।

वेद बहुत लौकिक हैं। कहीं भूले—चूके कोई सूत्र आ जाता है जो प्यारा है, निन्यान्नबे प्रतिशत तो कचरा है। उपनिषद उस कचरे की पराकाष्ठा नहीं हैं। उपनिषद में वेदों का स्पष्ट विरोध है। कृष्ण ने भी गीता में वेदों का स्पष्ट विरोध किया है। लेकिन विरोध करने का ढंग और फिर उस ढंग पर की गयी लीपा—पोती, सदियों—सदियों में पंडितों के चढ़ाए गये रंग, तुम्हें झूठ को मानने को मजबूर कर दिये हैं। तुम्हारे अचेतन में झूठ बैठ गया है। कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है कि वेद लौकिक हैं, सांसारिक हैं। जो सांसारिक बुद्धि के लोग हैं, उनके लिए हैं। और जिन्हें अध्यात्म की खोज करनी है, उन्हें वेदों के पार जाना होगा।

यही बात महावीर ने कही। लेकिन बहुत साफ ढंग से कही। क्या की बात को लीपा—पोता गया था। महावीर के समय तक आते—आते, बुद्ध के समय तक आते—आते समाधिस्थ व्यक्ति सजग हो गये थे कि पंडितों ने क्या दुर्व्यवहार किया है। अब दुबारा वैसा दुर्व्यवहार न हो सके, इसलिए महावीर और बुद्ध ने वेदों का स्पष्ट विरोध किया, सतत विरोध किया। परिणाम यह हुआ कि बुद्ध और महावीर को हिन्दू समाज स्वीकार न कर सका, पचा न सका, इनकार कर दिया। उनको भी पचा लिया होता, अगर उन्होंने भी जरा—सा अवसर दिया होता अपने शब्दों को तोड़े—मरोड़े जाने का, तो उनको भी पचा लिया होता। लेकिन वे सजग थे कि जो कृष्ण के साथ हुआ, जो उपनिषद के ऋषियों के साथ हुआ, उनके साथ न हो जाए। उनकी सजगता का यह परिणाम था कि उन पर वेद नहीं थोपे जा सके। नहीं थोपे जा सके तो हिन्दुओं के पास एक ही उपाय था कि बुद्ध और महावीर की निंदा करें, उनको उखाड़ फेके।

बुद्ध को तो बिलकुल उखाड़ फेंका भारत से। भारत में उनकी कोई रूपरेखा न बची, कोई नामलेवा न बचा। महावीर को इस बुरी तरह से नहीं उखाड़ा और उसका भी कारण था, क्योंकि महावीर की बात बहुत लोगों तक पहुंच नहीं सकती थी। महावीर की बात इतनी दार्शनिक थी कि बहुत थोड़े—से लोगों तक पहुंच सकती थी—उनसे कुछ डर न था। पहुंच—पहुंचकर भी क्या होगा? बहुत थोड़े—से लोग ही उसको समझ पायेंगे। बुद्ध की बात बड़ी सीधी थी, साफ थी। वह करोड़ों लोगों तक पहुंच सकती थी। उसमें खतरा था।

वेदांत का अर्थ तुम समझ लो, वेदों की पराकाष्ठा नहीं, वेदांत का अर्थ सीधा है : जहां वेदों का अंत हो जाता है। वेदों की जहां मृत्यु हो जाती है। वेदों की राख से जो उठता है वह वेदांत है। वेदों की परकाष्ठा नहीं है, वेदों से बगावत, विद्रोह!

और होगी भी यह बगावत, क्योंकि वेद हैं क्या? अगर तुम वेदों के पन्ने उलटाओ—कही से भी खोल लो वेद को—तो तुम चकित होओगे कि क्यों इन शब्दों को, इन सूत्रों को धर्म का नाम दिया गया है। साधारण आकांक्षाएं हैं। कोई मांग रहा है फसल ज्यादा हो जाए; कोई माग रहा है इन्द्र से कि वर्षा ज्यादा हो जाए; कोई मल रहा है धन— धान्य; कोई माग रहा है—उसके गउओं के थनों में दूध ही दूध भर जाए। और इतना ही नहीं, उसके दुश्मन की गउओं के थन बिलकुल सूख जायें। मेरे खेत में वर्षा हो इतना ही नहीं, पड़ोसी के खेत में वर्षा हो ही न। यह, इसको भी अध्यात्म कहोगे? यह तो बड़ी निम्न वृत्तियां हुईं। मेरे शत्रुओं को नष्ट कर दे, हे इन्द्र देवता, उन पर बिजली गिरा दे, उनको राख कर दे। इसको अध्यात्म और धर्म कहोगे? यह तो मनुष्य की सामान्य ईर्ष्याएं, शत्रुताएं, हिंसाएं, वैमनस्य, उसके ही प्रतीक हैं। जरूर कहीं—कहीं वेद में कोई सूत्र आ जाता है जो बड़ा प्यारा है, लेकिन सौ में एक बार। निन्यान्नबे बार तो कचरा ही हाथ लगेगा। और उस कचरे में वे हीरे भी खो गये।

उपनिषद हीरे ही हीरे हैं। वहां कचरा नहीं है।

उपनिषद शब्द भी बड़ा प्यारा है। उसे समझो तो वेदांत भी समझ में आ जाएगा। उपनिषद का अर्थ होता है : गुरु के पास बैठना है—उप—निषद्—पास बैठना। बस, इतना ही अर्थ है उपनिषद का। गुरु के पास मौन होकर बैठना; जिसने जाना है, उसके पास शून्य होकर बैठना। और उस बैठने में ही हृदय से हृदय आंदोलित हो जाते हैं। उस बैठने में ही सत्संग फल जाता है। जो नहीं कहा जा सकता, वह कहा जाता है। जो नहीं सुना जा सकता, वह सुना जाता है। हृदय की वीणा बज उठती है। जिसने जाना है, उसकी वीणा बज रही है। जिसने नहीं जाना है, वह अगर पास सरक आए तो उसके तारों में भी टंकार हो जाती है।

संगीतज्ञों का यह अनुभव है, अगर एक ही कमरे में—खाली कमरे में—सिर्फ दो वीणाएं रखी जाएं द्वार—दरवाजे बंद हों और एक वीणा पर वीणावादक तार छेड़ दे, संगीत उठा दे, तो दूसरी वीणा जो कोने में रखी है, जिसको उसने छुआ भी नहीं, उस वीणा के तार भी झंकृत होने लगते हैं। एक वीणा बजती है तो हवाओं में आंदोलन हो जाता है, हवाओं में संगीत—लहरी फैल जाती है, स्पंदन हो जाता है। वह स्पंदन जिस वीणा को छुआ भी नहीं है, उसके भीतर भी सोए संगीत में हलचल मचा देता है। उसके तार भी जैसे नींद से जाग आते हैं, जैसे सुबह हो गयी।

आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले एक वैज्ञानिक ने पहली दफा इस सिद्धांत को खोजा। वह इसे कोई नाम न दे सका। फिर अभी कुछ वर्षों पहले, कोई चालीस वर्ष पहले कार्ल गुस्ताव कै नाम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने इसे नाम दिया. ‘सिक्रानिसिटी’। जिस वैज्ञानिक ने पहली दफा यह खोज की थी, वह एक पुराने किले में मेहमान था, एक राजा के घर मेहमान था। और जिस कमरे में वह था, दो घडियां उस कमरे में एक ही दीवाल पर लटकी हुई थीं। पुराने ढब की घड़ियां। मगर वह हैरान हुआ यह बात जानकर कि उनका पेंडुलम एक साथ घूमता है। मिनिट और सेकंड भी भिन्न नहीं। सेकंड सेकंड वे एक साथ चलतीं। इन दो घड़ियों के बीच उसे कुछ ऐसा तालमेल दिखायी पड़ा—वैज्ञानिक था, सोच में पड़ गया! कि इस तरह की दो घड़ियां उसने देखी नहीं जिनमें सेकंड का भी फर्क न हो। तो उसने एक काम किया, कि यह संयोग हो सकता है, उसने एक घड़ी बंद कर दी रात को। और दूसरे दिन सुबह शुरू की और दोनों के बीच कोई तीन—चार मिनिट का फासला रखा। चौबीस घंटे पूरे होते—होते दोनों घड़ियां फिर साथ—साथ डोल रही’ थीं। बराबर, सेकंड—सेकंड करीब आ गये थे, पेंडुलम फिर साथ—साथ लयबद्ध हो गये थे। तब तो वह चमत्कृत हो गया। राजू क्या है? आया था दिन—दो दिन के लिए, लेकिन सप्ताहों रुका—जब तक राजू न खोज लिया।

राजू यह था कि वह जिस दीवाल पर लटकी थीं, उस पर कान लगा—लगाकर वह सुनता रहा कि क्या हो रहा है, तब उसे समझ में आया कि एक घड़ी की टिक्—टिक् जो बड़ी घड़ी थी उसकी टिक्—टिक् दीवाल के द्वारा दूसरी घड़ी के पेंडुलम को भी संचालित कर रही है, उसमें एक लयबद्धता पैदा कर रही है। और बड़ी घड़ी इतनी बलशाली है कि छोटी घड़ी करें भी तो क्या करे! वह छोटी घड़ी सहज ही उसके साथ लयबद्ध हो जाती है।

उसने इसको सिर्फ लयबद्धता कहा था। लेकिन दा ने इसे पूरा वैज्ञानिक आधार दिया और ‘सिंक्रानिसिटी’ कहा; और सिर्फ घड़ियों के लिए नहीं, जीवन के समस्त आयामों में इस लयबद्धता के सिद्धांत को स्वीकार किया।

रहस्यवादी तो इस सिद्धांत से हजारों वर्षों से परिचित हैं। सत्संग का यही राज है, ‘सिंक्रानिसिटी’। सद्गुरु यूं समझो कि बड़ी घड़ी, कि बड़ा सितार। शिष्य यूं समझो कि छोटी घड़ी, छोटा सितार। और शिष्य अगर राजी हो, श्रद्धा से भरा हो और बड़े सितार के पास सिर्फ बैठ रहे—कुछ न करे, तो भी उसके तार झंकृत हो जाएंगे।

उपनिषद का अर्थ है : लयबद्धता। उप का अर्थ होता है : पास, निषद् का अर्थ होता है : बैठना। यही उपासना का अर्थ है। उप आसन। पास बैठना। यही उपवास का अर्थ है : पास बैठना। मगर कैसे अर्थ विकृत हो गये! उपवास का अर्थ हो गया—अनशन, भूखे मरना। उपवास का अर्थ होता है पास वास करना—इतने निकट हो जाना गुरु के! हां, कभी—कभी यह होगा कि गुरु की निकटता में ऐसा पेट भर जाएगा कि शायद भूख की याद भी न आए। इसी कारण अनशन की विकृति पैदा हुई। गुरु के आनंद में डूबकर अगर भोजन की याद न आए, तो उपवास; और जबरदस्ती भोजन न किया जाए, तो अनशन। अनशन हिंसा है, उपवास प्रेम है। उनमें जमीन—आसमान का भेद है।

इधर सोहन बैठी है, उससे पूछो। मैं उससे पूछता था जब उसके घर मेहमान होता था, पूना आता था, कि तू मुझे खिलाती है—और मेरे कारण न—मालूम कितने मेहमान दिनभर उसके घर आते, उन सबको खिलाती है, और तू कुछ खाती—पीती दिखायी नहीं पड़ती! तो वह मुझसे कहने लगी, जब आप यहां होते हैं, मुझे भूख ही नहीं लगती। मैं खुद चकित हूं कि भूख कहां खो जाती है? मैं इतनी भरी— भरी हो जाती हूं कि भीतर जगह ही नहीं रहती।

प्रेम भोजन से भी बड़ा भोजन है। और जरूर भरता है, बहुत भर देता है। शायद भोजन की याद भी न आए। इस कारण एक गलत अर्थ हो गया उपवास का. अनशन।

उपासना का अर्थ है. पास बैठना। उसका भी गलत अर्थ हो गया। अब तुम मूर्ति की आराधना कर रहे हो। थाली सजायी हुई है, आरती बनायी हुई है, दीये जलाए हुए हैं, धूप जलायी हुई है और इसको तुम उपासना कह रहे हो। नहीं, उपासना तो केवल सद्गुरु के पास बैठना होता है। और उसके पास बैठना ही आरती है, आराधना है। उसके पास बैठना ही तुम्हारे भीतर के दीये का जलना है। उसके पास बैठते ही तुम्हारे भीतर धूप जल उठती है, सुगंध उठने लगती है।

वेदांत पैदा हुआ उपनिषद में; गुरु—शिष्यों के अंतरंग सान्निध्य में।

वेदांत का अर्थ है : जहां शब्द नहीं हैं, जहां शास्त्र नहीं, जहां सिद्धांत नहीं, जहां वेदों का तो अंत हो गया, जहां सब शास्त्र बहुत पीछे छोड़ दिये गये—मन ही पीछे छोड दिया गया! मन में ही शास्त्र हो सकते हैं; मन के पार तो शास्त्र नहीं हो सकते। वेदांत है : मन के पार उड़ान, अ—मनी दशा। वेदांत है : ध्यान, समाधि।

तो पहले तो वेदांत का अर्थ ठीक से समझ लो, नहीं तो भूल हो जाएगी। फिर मेरा अर्थ पकड़ में नहीं आएगा।

दूसरा शब्द है : ‘विज्ञान’। तुमने, सहजानंद, विज्ञान का अर्थ किया : प्रकृति का शान। क्योंकि अब हम साइंस के अर्थों में विज्ञान शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह हमारी नयी बात है। हमारे पास साइंस के लिए कोई शब्द न था, हमने विज्ञान शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया। मगर तुम उपनिषद पर इस अर्थ को मत थोपो! उपनिषद में तो विज्ञान का बहुत सीधा अर्थ है, वह है विशेष ज्ञान। विज्ञान यानी विशेष ज्ञान। ज्ञान वह है जो दूसरों से मिलता है और विशेष ज्ञान वह है जो अपने भीतर ही आविर्भूत होता है। उसका कोई साइंस से लेना—देना नहीं है। विज्ञान का अर्थ प्रकृति का ज्ञान नहीं है। विज्ञान का अर्थ है : विशेष; उधार नहीं, निज का। वही उसकी विशिष्टता है, उसकी अद्वितीयता है।

वेदांत और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हुए। वेदांत है. शास्त्र के पार जाना—वह है मार्ग—और विज्ञान है उपलब्धि; विशेष ज्ञान की प्रतीति, अनुभूति, साक्षात्कार—विश्वास नहीं, अपना अनुभव। और तभी जीवन का सुनिश्चित अर्थ पता चलता है। अब इस वचन को तुम’ समझो

‘वेदान्त विज्ञान सुनिश्चितार्था’

जिसने वेदांत के साधन से विज्ञान को उपलब्ध किया है, उसे जीवन का अर्थ और अभिप्राय पता चलता है। उसके बिना जीवन का अर्थ पता नहीं चलता है। मगर इस पर कितना कचरा थोपा गया है! ऐसी ही घटना और शब्दों के साथ भी हुई।

‘संन्यास योगाद् यतय: शुद्ध— सत्वा:’

संन्यास का अर्थ पकड़ गया, जड हो गया; संसार को छोड़ दे जो, वह संन्यासी। तो फिर जनक संन्यासी नहीं हैं। लेकिन जनक से ज्यादा किसने जाना? और अगर जनक संसार में रहकर जान सकते हैं, तो संन्यास फिर अपरिहार्य न रहा। और संन्यास निश्चित ही अपरिहार्य है, अनिवार्य है। संन्यास के बिना कोई भी नहीं जान सकता। तो हमें संन्यास को कुछ पुन: आविष्कार करना होगा, इसके छिप गये अर्थ को।

संन्यास का अर्थ संसार को छोड़ देना नहीं है। संन्यास का अर्थ है : असार, व्यर्थ जो हम पकड़े हुए हैं, उसका छूट जाना—छोड़ना नहीं, छूट जाना। भेद स्पष्ट कर लेना। वहीं भूल हो गयी है। जैसे महावीर से तो साम्राज्य छूटा, लेकिन देखनेवालों ने समझा कि छोड़ा। देखनेवालों का भी कसूर नहीं, देखनेवालों की अपनी मुसीबत है। देखनेवालों की यह तकलीफ है कि वे तो पकड़े हुए हैं धन को, वे कैसे मानें कि धन अपने से छूट जाता है। उनका अपने जीवन का—एक जीवन का नहीं, अनंत जीवन का—अनुभव यह है कि वे तो और—और पकड़ना चाहते हैं। तो जब वे देखते हैं कि कोई व्यक्ति छोड्कर चला गया, तो स्वभावत: वे सोचते हैं, धन्य है, कैसा त्याग किया! कैसा महात्यागी! छोड दिया! हमसे तो छूटती नहीं एक कोड़ी और इसने हीरे—जवाहरात छोड़ दिये! हमसे नहीं छूटता कुछ भी और इसने सब छोड़ दिया! साम्राज्य छोड़ दिया, लेकिन यह दर्शकों की दृष्टि है, यह महावीर की अंतरंग दृष्टि नहीं है। महावीर से पूछो। महावीर ने छोड़ा नहीं है, छूटा है।

और भेद तो बहुत बड़ा है।

छोड़ने का मतलब ही यह होता है : अभी लगाव कायम था, अभी आसक्ति बनी थी, जबरदस्ती करनी पड़ी है, जैसे कोई कच्चे फल को तोड़ता है। कच्चे फल को तोड़ना पड़ता है, पका फल अपने से गिर जाता है। और जब पककर कोई फल गिरता है, तो न तो वृक्ष को कोई घाव लगता, न कोई पीड़ा होती, सिर्फ वृक्ष निर्भार होता है। और जब पका फल गिरता है तो पके फल को भी कोई पीड़ा नहीं होती। क्योंकि पक गया, अब पीडा का कोई सवाल नहीं था। अब यह गिरना बिलकुल नैसर्गिक है, स्वाभाविक है, आवश्यक है, प्रकृति के अनुकूल है। एस धम्मो सनंतनो। यही धर्म है। लेकिन जब कोई कच्चे फल को तोड़ता है, तो तोड़ना पड़ता है। फल को भी चोट लगती है, क्योंकि फल अभी कच्चा है, अभी पका ही नहीं, तुमने उसके पूरे जीवन को विकसित होने का अवसर न दिया; जैसे किसी ने कली को तोड़ लिया, फूल भी न होने दिया। तो निश्चित ही तुमने हिंसा की। और कच्चे फल को तुम जब तोड़ते हो, वृक्ष को भी पीड़ा होती है।

एक ज्योतिषी के जीवन में उल्लेख है, अकबर ने उसे बुलाया था, बड़ी उसकी ख्याति सुनी थी। बहुत दिन से ख्याति सुन रहा था, लेकिन बुलाने में डरता भी था। यूं अकबर ने देश के सारे के सारे रत्न इकट्ठे कर लिये थे! तानसेन था वहां, इस देश का बडे से बड़ा संगीतज्ञ, उन दिनों का ही नहीं, सारे—सारे दिनों का; बीरबल था वहा; और तरह—तरह के रत्न थे, नौ रत्न थे—इस ज्योतिषी के लिए भी बहुत खबरें आयी थीं कि इसे भी अपने दरबार में बुला लो। लेकिन एक खतरा था कि ज्योतिषी बहुत मुंहफट है। दो .और दो चार, तो दो और दो चार ही कहता है। मगर बात इतनी आती रहा, आती रही कि अकबर उत्सुक होता गया, आखिर उसने कहा कि क्या कहेगा आखिर, बुला ही लो! एक दफा तो देखें कि वह क्या, किस तरह का आदमी है!

ज्योतिषी आया। अकबर ने पूछा कि कुछ मेरे संबंध में कहें। ज्योतिषी ने हाथ देखा और कहा कि पहले तुम मरोगे, फिर तुम्हारे बेटे मरेगे, फिर उनके बेटे मरेगे। अकबर ने कहा, यह भी कोई बात हुई! तो लोग ठीक ही कहते थे। कुछ और तुम्हें नहीं सूझता? मैं मरूंगा, मेरे बेटे मरेगे, उनके बेटे मरेगे—यही कहने तुम इतनी दूर आए! और मेरे दरबार में और भी ज्योतिषी हैं, किसी ने कभी यह नहीं कहा। उसने कहा, वे ज्योतिषी भी यही कह रहे होंगे, सिर्फ लीप—पोतकर कहते होंगे। लेकिन मैं सच कह रहा हूं। और न केवल मैं यह कह रहा हूं यह भविष्यवाणी है, यह मेरा आशीर्वाद भी कि पहले तुम मरो, फिर बेटे मरे, फिर उनके बेटे मरे। क्योंकि यही प्रकृति का नियम है। बेटे तुम्हारे बाद मरे, तुमसे पहले न मर जाएं। नहीं तो कच्चे होंगे। तुम पहले मरो। बेटे पहले मर जायें तो दुर्घटना। बाप पहले मरे तो कोई दुर्घटना नहीं है। मैं इतना ही कह रहा हूं : बाप का मरना पहले बेटों से बिलकुल ही स्वाभाविक है; तब तक बेटे बाप हो जाएंगे, फिर वे मरेगे, फिर उनके बेटे मरेगे—ऐसा मरते ही रहेंगे। मैं तो सीधी—सीधी बात कह रहा हूं।

अकबर को चोट तो लगी क्योंकि कोई ज्योतिषी को हाथ नहीं दिखाता कि सिर्फ वह मृत्यु की ही बात करे, मगर ज्योतिषी ने कहा, यही एकमात्र सुनिश्चित चीज है। बाकी तो सब चीजें अनिश्चित हैं। हो भी सकती हैं, न भी हों, मगर यह पक्का ही होगा। और मैं पक्के की ही बात करने का आदी हूं। कच्चे की मैं बात नहीं करता। जो होना ही है, वही मैं कहता हूं।

पका फल जब गिरता है तो दुर्घटना नहीं है। लेकिन कच्चे फल जो वृक्ष से लटके हुए हैं, पके फल को गिरते देखकर सोचते होंगे, अहा, कैसा अद्भुत फल है! हम तो छोड़ना नहीं चाहते, पकड़ना चाहते हैं—और रस पी लें, और रस पी लें; और दो दिन जी लें, अभी—अभी तो आए हैं, अभी क्या टूटना; और क्या अद्भुत त्यागी है यह फल भी कि चल दिया, मार दी लात वृक्ष को! यह कच्चे फलों की प्रतीति है।

और कच्चे फल क्या खाक कहेंगे पके फलों के संबंध में!

रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। बहुत से रुपये लाया था एक थैली में भरकर। रामकृष्ण के चरणों पर चढ़ाने लगा। रामकृष्ण ने कहा कि क्यों, किसलिए? तो उसने कहा, आप महात्यागी हैं; और हम किसी तरह तो आपका सम्मान करें! रामकृष्ण ने कहा, शब्द वापिस ले लो! मैं महाभोगी। महात्यागी तुम हो! कैसी उलटी बातें करते हो, रामकृष्ण ने कहा, मुझ भोगी को त्यागी कहते, और तुम हो त्यागी और अपने को भोगी कहते; क्या विनम्रता है तुम्हारी भी! वह आदमी तो बहुत चौंका। उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं? परमहंसदेव, आप होश में हैं? आप और भोगी! और मैं और त्यागी! रामकृष्ण ने कहा, मैं बिलकुल ठीक कह रहा हूं। क्योंकि मैंने व्यर्थ को छोड़ दिया और सार्थक को भोग रहा हूं। और तुम व्यर्थ को पकड़े हो और सार्थक को त्यागा हुआ है। किसको भोगी कहें? किसको त्यागी कहें?

रामकृष्ण जैसे लोग शब्दों को आत्मा देते हैं, अर्थ देते हैं, क्योंकि ये कोई पंडित नहीं हैं।

मैं भी मानता हूं कि संन्यास परम भोग है। और जिनको तुम भोगी कहते हो वे सच में समझो तो तुम्हारे अर्थों में संन्यासी हैं। कंकड़—पत्थर तो उन्होंने छाती से लगा रखे हैं, हीरे—जवाहरात छोड़ दिये हैं। हीरे और जवाहरात छोड़ने की उनकी तैयारी है, लेकिन कंकड़—पत्थर छोड़ने की नहीं। कागज के नोटों पर बैठे हुए हैं, फन मारकर। लोग कहते हैं, मर जाते हैं इस तरह के लोग तो सांप हो जाते हैं; क्या खाक मरकर होंगे, वे अभी ही सांप हैं। जरा उनके नोट पर नजर तो करो, ऐसा फुफकारेंगे! कागज के नोटों पर मरे जा रहे हैं! और जीवन की परम निधि भीतर पडी है, उस तरफ आंख भी नहीं उठाते। दौड़ रहे हैं बाहर, पद और प्रतिष्ठा में।

तो इन सारे पागलों के बीच जब कोई महावीर या बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है, तो उसके संबंध में गलत धारणा बनेगी ही। महावीर और बुद्ध को ये कहेंगे. कैसा महान त्याग किया! लेकिन महावीर और बुद्ध से पूछो। महावीर—बुद्ध रामकृष्ण से राजी होंगे, मुझसे राजी होंगे।

संन्यास का अर्थ है : जो व्यर्थ है, जो असार है, उसका छूट जाना। संसार का छूट जाना नहीं, क्योंकि संसार न तो व्यर्थ है, न असार है। संसार तो दोनों है। संन्यासी इस ढंग से रहता है, इस कला से रहता है कि सार को भोगता है, असार को छोड़ देता है। और भोगी इस मूढ़ता से रहता है कि असार को तो पकड़ लेता है, सार से चूक जाता है। संन्यास संसार के छोड़ने का नाम नहीं, सार और असार के विवेक का नाम है। सार सार की तरह दिखायी पड़े, असार असार की तरह।

यह फिर एक पहलू हुआ।

संन्यास योगाद् यतय: शुद्ध— सत्वा:।

और इसका दूसरा पहलू है : योग। संन्यास का अर्थ हुआ असार का छूट जाना; योग का अर्थ हुआ सार से जुड़ जाना। योग का अर्थ होता है जुड़ना। असार’ से छूटना और सार से जुड़ना, यह दो पहलू हुए। संन्यास नकारात्मक है। कचरे को छोड़ दिया, खाली कर लिया अपने को कचरे सें—विचारों से, वासनाओं से, इच्छाओं से—और जैसे ही तुम खाली हुए कि परमात्मा से जुड़े। जैसे ही तुम खाली हुए कि तुम मिटे और परमात्मा ही बचा। उस परम मिलन का नाम योग है। योग का मतलब शीर्षासन नहीं है। योग का मतलब पदासन नहीं है। योग का मतलब कोई शारीरिक सर्कस नहीं है—कि शरीर को तोड़ रहे हो, मरोड़ रहे हो, उल्टा—सीधा कर रहे हो। योग का अर्थ है. जोड़, मिलन, परम मिलन। योग परम घटना है जीवन की, जहां बूंद सागर से मिल जाती है और मिलकर सागर हो जाती है।

संन्यास पहलू का एक हिस्सा और योग पहलू का दूसरा हिस्सा। संन्यास नकारात्मक, योग विधायक। जैसे वेदांत नकारात्मक—शब्द को छोड़ो, शास्त्र को छोड़ो, सिद्धांत को छोड़ो और विज्ञान विधायक—ताकि तुम उस विशेष अनुभूति, उस विशेष ज्ञान को उपलब्ध हो जाओ जो जीवन को धन्य कर देती है। ऐसे व्यक्ति शुद्ध होता है, शुद्ध सत्व को उपलब्ध होता है।

‘ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले’

मगर हम तो जब पंडित की व्याख्या में पड़ जाते हैं तो पंडित तो जो भी व्याख्या करेगा वह गलत होगी। क्योंकि उसे तो अनुभव नहीं है। वह क्या व्याख्या करेगा?

‘ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले’

मृत्यु के बाद ऐसा व्यक्ति ब्रह्मलोक में प्रवेश करता है।

‘परामृता: परिमुच्चन्ति सर्वे’

और वहां पहुंचकर, ब्रह्मलोक में पहुंचकर—मरने के बाद—वह सर्वरूपेण मुक्त हो जाता है।

यह व्याख्या एकदम ही भ्रांत है। अगर तुम्हें मेरे पहले दो वचनों की व्याख्या समझ में आयी हो, तो फिर अर्थ बदलना होगा।

‘ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले’

ब्रह्मलोक कोई भौगोलिक स्थान नहीं है कहीं। ब्रह्मलोक है तुम्हारे भीतर उस अनुभूति का नाम जब बूंद सागर में मिलकर सागर हो जाती है, वेदांत से विज्ञान, संन्यास से योग, और इन सब को एक शब्द में कहा जा सकता है : ब्रह्मसाक्षात्कार, ब्रह्मानुभूति, ब्रह्मलोक में प्रवेश। इसको तुम भूगोल मत समझना कि कहीं ऊपर सात आकाशों के पार कोई ब्रह्मलोक है। तुम्हारे भीतर ब्रह्मलोक है। तुम्हारा अन्तर्तम अभी भी ब्रह्मलोक में ही स्थापित है। तुम बाहर कितने ही भागो—दौडो, लेकिन तुम अभी भी उसी कील पर ठहरे हुए हो। तुमने गाड़ी को चलते देखा है। चाक चलता है, कील ठहरी रहती है। कील है ब्रह्मलोक। और चाक है तुम्हारा मन। चाक तो चलता चला जाता है, लेकिन कील सदा ठहरी रहती है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर एक कील है जो सदा ठहरी हुई है, जो कभी नहीं चलती। जो शाश्वत है, नित्य है। और मन का चाक घूमता रहता है, घूमता रहता है। जिस दिन मन का चाक भी रुक जाता है उस क्षण, तत्‍क्षण तुम उस कील को देखने में समर्थ हो जाते हो जो कभी हिली नहीं, डुली नहीं, कभी बदली नहीं, बदल सकती नहीं।

और मृत्यु के बाद यह घटना नहीं घटती, जीवन में ही घटती है। लेकिन जीवन में भी मरने की एक कला है। जहां अहंकार मिट गया, वहां मृत्यु घट गयी। अहंकार की मृत्यु पर घटती है यह बात। शरीर की मृत्यु से इसका कोई संबंध नहीं है। क्योंकि शरीर मर भी जाए और अहंकार बना रहे तो तुम फिर दूसरा शरीर ग्रहण करोगे। और अहंकार मिट जाए, शरीर बना रहे, शरीर से क्या लेना—देना है। जब अहंकार मिट गया तो तुम शरीर से मुक्त हो गये—शरीर में रहते हुए भी मुक्त हो गये। इसलिए हमनें जनक को विदेह कहा है। देह में रहते हुए, संसार में रहते हुए विमुक्त कहा है।

यह मृत्यु की धारणा कि मरने के बाद ब्रह्ममिलन होगा, बड़ी खतरनाक है। क्योंकि इससे हमें उस परम क्रांति को स्थगित करने के लिए सुविधा मिल जाती है कि अब जो होना है वह तो मृत्यु के बाद होना है, तो जल्दी क्या। बुढ़ापे में साध लेंगे। मरते वक्त साध लेंगे। मरणशैथ्या पर साध लेंगे। और कोई मौत खबर देकर तो आती नहीं, पूर्व सूचना तो देती नहीं कि अब मैं आ रही हूं अचानक आ जाती है, सो साधने का अवसर ही नहीं आता। जिंदगीभर सोचते रहे कि स्मरण करना है प्रभु का। खुद तो नहीं कर पाये, फिर लोग अर्थी बांधकर उठाते हैं और ‘राम—नाम सत्य’ बोलते हैं। जो इनको बोलना था, वह दूसरे बोल रहे हैं। दूसरे भी इनके लिए बोल रहे हैं, अपने लिए नहीं बोल रहे हैं। अपने लिए तो वे प्रतीक्षा करेंगे दूसरों की कि भैया, हम तुम्हारे लिए बोल दिये, अब कोई हमारे लिए बोल देना!

मैं जबलपुर बहुत वर्षों तक रहा। मेरे पड़ोस में एक सज्जन थे, जो हर एक ही अर्थी में सम्मिलित होते थे। मैंने उनसे पूछा कि बात क्या है कोई भी मरे…..! इतने तुम्हारे दोस्त और प्रियजन मुझे दिखाई नहीं पड़ते। कभी मैं देखता नहीं कि तुम्हारे घर कोई भोजन करने आया हो, कि तुम किसी के घर भोजन करने गये हो, लेकिन हर अर्थी में तुम जरूर सम्मिलित होते हो। शादी—विवाह का निमंत्रण तुम्हें मिले न मिले, मगर अर्थी में तुम जरूर सम्मिलित होते हो। तो उन्होंने कहा, ऐसा है कि मरना तो मुझको भी पड़ेगा, तो सबकी अर्थियों में सम्मिलित होता रहूंगा तो मेरी अर्थी में भी लोग सम्मिलित होंगे। क्या तुम मुझे चाहते हो कुत्‍ते की मौत मरूं, कि मैं मरूं और कोई सम्मिलित भी न हो। उनके कोई बच्चे नहीं थे, शादी उन्होंने की नहीं थी, सो वे बड़े भयभीत थे इस बात से कि मर जाऊं तो कम—से—कम मरघट तो पहुचानेवाले लोग होने चाहिए। मैंने कहा, तुम मर ही गये तो अब मरघट पहुंचे कि नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है! और चार आदमी गये मरघट पहुंचाने, कि चार हजार आदमी गये, इससे भी क्या फर्क पड़ता है! तुम तो गये ही। मगर वे बोले कि नहीं, फर्क पड़ता है। कोई तो राम—नाम दोहरानेवाला हो। अरे, कोई तो मरते वक्त कान में कम—से—कम गायत्री मंत्र पढ़ दे।

जिंदगीभर टालते रहते हैं, मरते वक्त लोग मुंह में गंगाजल डालते हैं, कान में गीता सुनाते हैं। वह आदमी मर रहा है, कुछ तो शर्म खाओ, कुछ तो संकोच करो! इस मरते आदमी का अपमान तो न करो! अरे, जिसने जिंदगी भर यह काम नहीं किया, मरते वक्त तो न करवाओ! जो जिंदगीभर बचा, उसको अब तो भ्रष्ट न करो! और यह क्या खाक सुनेगा; जो जब जिंदा था तब नहीं सुना, अब यह मरते समय सुनेगा! अब यह होश में है! इसको कुछ सुनायी नहीं पड रहा है, यह तो डूब रहा है। यूं समझो जैसे कोई पानी में डूब रहा हो और तुम घाट पर खड़े हुए ‘राम—नाम सत्य’ की हुंकार मचा रहे हो। गायत्री मंत्र पढ़ रहे हो, कि भैया डूब जा, सुन ले, आखिरी वक्त सुन ले—काम पड़ेगा!

इस तरह की सूत्रों की व्याख्या ने यह परिणाम हाथ में ला दिया कि मरने के लिए हम टालने लगे। संन्यास यानी बुढापे में पचहत्तर साल के बाद! अब आम तोर से पचहत्तर साल के बाद कितने लोग जिंदा रहते हैं। सत्तर स्वाभाविक उम्र है। पचहत्तर साल के बाद जिंदा कोन रहता है! दो—चार—दस आदमी जिंदा रह जाते होंगे। मगर जो पचहत्तर साल तक संन्यास न लेने का अभ्यास जिसने किया है, वह क्या पचहत्तर साल की आदत को इतनी आसानी से छोड़ देगा!

हर चीज का अभ्यास मजबूत होता चला जाता है।

एक मित्र मेरे शराब पीते हैं। उनकी पत्नी तीस साल से उनके पीछे पड़ी है कि शराब छोड़ो! वह मेरे पास भी बार—बार आकर कहती है कि आपकी ये मानते हैं, आप अगर एक दफा कह दो, ये जरूर छोड़ेंगे। मगर आप चुप बैठे हो, आप कहते ही नहीं! मैंने कहा, तू तीस साल से कह रही है, कुछ परिणाम न हुआ, तू मेरे शब्द भी खराब क्यों करवाना चाहती है; व्यर्थ जाएंगे। उसने कहा कि नहीं जाएंगे, वे भी कहते हैं कि अगर भगवान कह दें तो मैं छोड़ दूंगा; क्योंकि उनको पक्का भरोसा है कि आप कहेंगे ही नहीं। आप एक दफा कह दो, देख तो लें, एक यह भी प्रयोग हो ले!

मैंने उससे कहा, तो एक काम कर, तू तीस साल से कह रही है कि शराब छोड़ दो। उसने कहा, ही। तो मैंने कहा, पहले तू यह कर कि तू यह कहना छोड़ दे—सात दिन के लिए सिर्फ। अगर सात दिन तूने यह बात नहीं उठायी अपने पति से, तो आठवें दिन मैं तेरे पति से कहूंगा। उसने कहा, राजी। अरे, यह कोई बड़ी कठिन बात है! सात ही दिन की बात है न, आठवें दिन आप कहोगे? आठवें दिन बिलकुल पक्का है; सात दिन तू कहना ही मत, बात ही मत उठाना।

और पति को बुलाकर मैंने कहा कि यह वायदा हुआ है। यह सात दिन का सौदा हुआ है। सात दिन में अगर यह एक बार भी वचन तोड़ दे, तुम फौरन मुझे खबर करना। और नोट करते जाना कितनी दफे वचन तोड़ा। उनकी पत्नी बोली कि अरे, सात दिन का सवाल है, सम्हाल लूंगी। मगर जिस ढंग से वह कह रही थी, ‘सम्हाल लूंगी’ और उसके चेहरे पर पसीना दिखायी पड़ रहा था, मैंने कहा कि तू देख, सोच—समझ की बात कर! अरे, उसने कहा, मेरा क्या बिगड़ता है, नहीं कहूंगी! फायदा भी क्या है—तीस साल तो कहकर देख लिया, चलो सात दिन का ही तो सवाल है! कुल सात दिन की ही तो बात है।

मगर वह तीसरे दिन मेरे पास आ गयी। उसने कहा कि न मैं सो सकती, न मैं खाना खा सकती, मेरा सब गड़बड़ हो गया है, बिना कहे मैं नहीं रह सकती! मैं तो कहूंगी! मैंने कहा, अब तू जरा सोच; जो आदमी तीस साल से शराब पी रहा है, उसको तू छुड़वाने की कोशिश कर रही है और तूने तो शराब पी ही नहीं, सिर्फ शराब छुड़वाने का अभ्यास तुझे हो गया है—हालाकि फायदा भी कुछ नहीं हुआ तीस साल में। उस अनुभव से भी तुझे कुछ सीख नहीं आयी। और मैंने कुछ ज्यादा मांग न की थी, सिर्फ सात दिन की—और तू चाहती है कि तेरा पति जिंदगीभर के लिए शराब छोड़ दे! अब जरा होश की बात कर। तेरा तो कुल इतना हां, तेरा क्या जाता है, तू कोई शराब तो पीती नहीं! तेरे कोई शरीर में तो शराब घुस नहीं गयी है! तेरे कोई शरीर की जरूरत तो हो नहीं गयी है! तू तो सिर्फ कहती है, बकवास ही करती है—और तीस साल का अनुभव यह है कि उससे कुछ फायदा भी नहीं है। फिर भी तू सात दिन चुप नहीं रहती। तू कहती है कि मैं सो भी नहीं सकती। बस मुझे एक ही धुन सवार रहती है। और मैं डरी रहती हूं कि कहीं निकल न जाए मुंह से। खाना खाने बैठते हैं ये तो मैं अपने को सम्हाल लेती हूं। इतना तनाव मुझसे नहीं सहा जाता। मैं तो कहूंगी! मैंने कहा, तू कहेगी तो तूकह! लेकिन फिर इतना पक्का समझ, लेकिन जब तू कहना नहीं छोड़ सकती तो यह बेचारा शराब कैसे छोडेगा! और इसलिए तो मैं नहीं कह रहा हूं।

आदमी हर चीज का अभ्यासी हो जाता है। पचहत्तर साल तक जिसने टाला है, पचहत्तर साल तक जिसने टालने का अभ्यास किया है, तुम सोचते हो पचहत्तर साल के बाद एकदम से वह संन्यस्त हो जाएगा। वह पचहत्तर जन्मों तक टालेगा। मगर इन सूत्रों ने भांति दे दी—इनके अर्थों ने, व्याख्याओं ने—कि मरने के बाद ब्रह्मलोक उपलब्ध होता है। जिंदगी में तो कुछ होनेवाला नहीं है। जब जिन्दगी में कुछ होनेवाला नहीं है, तो क्यों व्यर्थ परेशान होओ! अरे, अभी तो खा लो, पी लो, मजा कर लो, यह चार दिन की चांदनी है, फिर देखेंगे, निपट लेंगे बाद में! और कोई हम अकेले थोड़े ही हैं, इतने लोग हैं, जो सब पर गुजरेगी वह हम पर भी गुजरेगी। और हम से भी बड़े—बड़े पापी पड़े हैं। अगर कतार भी लगेगी, ‘क्यू भी लगेगा कयामत के दिन निर्णय का, तो हमारा नम्बर तो न—मालूम कब आएगा!

मुल्ला नसरुद्दीन अपने मौलवी से पूछ रहा था कि बिलकुल सच बताओ, कयामत के दिन में निर्णय हो जाएगा! उसने कहा, बिलकुल हो जाएगा! नसरुद्दीन से पूछा, कयामत के दिन में घंटे कितने होंगे? मौलवी ने कहा, चौबीस घंटे होते हैं दिन में तो! चौबीस घंटे में निर्णय हो जाएगा—मुल्ला ने कहा। वह बड़ा प्रफुल्लित हुआ जा रहा था। मौलवी ने पूछा, तुम इतने प्रफुल्लित किसलिए हो रहे हो? अरे निर्णय होगा! और मुल्ला ने कहा कि जितने लोग जमीन पर पैदा हुए हैं अब तक, वे सब मोजूद होंगे? क्योंकि सभी को—मुसलमानो में तो यही हिसाब है : कयामत के दिन एक दफा निर्णय होनेवाला है—चौबीस घंटे में सबका, अरबों—खरबों लोग….. और मुल्ला ने कहा, एक बात और, स्त्रियां भी मौजूद रहेंगी? और वह प्रसन्न होता जा रहा! मौलवी पूछने लगा कि तुम इतने क्यों प्रसन्न हो? उसने कहा कि मैं इसलिए प्रसन्न हो रहा हूं कि अगर इतनी स्त्रियां मौजूद रहेंगी तो इतना शोरगुल मचनेवाला है कि क्या खाक निर्णय होगा! कोन निर्णय करेगा! कोन सुनेगा! अरे, कोन किसकी सुनेगा! इतनी स्त्रियां अरबों—खरबों, क्या चर्चा छिड़ेगी!! और जन्मों—जन्मों के बाद मिली हुई सहेलियां और क्या—क्या घट चुका होगा इस बीच! कितने फैशन बदल गये होंगे, कितनी साड़ियां….. उसने कहा, फिर मुझे फिकर ही नहीं है! यही मुझे डर था। और इतने आदमी, और मुझ गरीब की कोन पूछ होगी वहा! वहां बड़े—बड़े पापी होंगे, अपना नम्बर तो शायद ही लगे! और भीड़— भाड़ में अपन कहीं भी छिपकर खड़े रहेंगे। चौबीस ही घंटे का मामला है।

ये भ्रांतियां आदमी को स्थगित करने के लिए सुविधा बना देती हैं।

मैं तुमसे कहना चाहता हूं इस सूत्र का मृत्यु से कोई संबंध नहीं है। इस सूत्र का अहंकार की मृत्यु से संबंध है—और वही असली मृत्यु हैं। शरीर की मृत्यु तो कोई मृत्यु नहीं, फिर आ जाओगे। हां, अहंकार मरा, तो मर गये। फिर लौटना नहीं है। वही निर्वाण है।

’ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले

परामृता परिमुच्चन्ति सर्वे

और जो अहंकार में मर गया, जिसने अहंकार को मर जाने दिया, वह सब भांति मुक्त हो गया, क्योंकि सारी बीमारियां अहंकार की हैं, सारे बंधन अहंकार के हैं। यह कारागृह तुम्हारे अहंकार का है, जिसमें तुम बंद हो। कोई तुम्हें रोक नहीं रहा है, अभी तुम चाहो तो इसी क्षण कारागृह के बाहर आ सकते हो। न कोई पहरे पर है, न कोई जेलर है, न कोई चौकीदार है, न दरवाजे पर कोई ताला है। यह कारागृह तुम्हारा निर्माण किया हुआ है। और तुम जिस क्षण चाहो, इससे छलांग लगाकर बाहर आ सकते हो।

एक छोटा बच्चा, मकान बन रहा था किसी का तो ईंटों का ढेर लगा था, रेत का ढेर लगा था, वह उसी रेत के ढेर में खेल रहा था। खेलते—खेलते उसने अपने चारों तरफ ईंटे जमानी शुरू कर दीं—ईंट के ऊपर ईंट रखता गया। जब ईंटें उसके गले तक आ गयीं तब उसको समझ में आया कि अब निकलूंगा कैसे? एकदम घबड़ाहट में चिल्लाया कि बचाओ मुझे, मैं तो बिलकुल बंद हो गया! मैं तो कैदी हो गया, बचाओ मुझे! घबड़ाहट उसकी स्वाभाविक थी। ईंटे गले तक आ गयीं, अब निकलूंगा कैसे? मगर एक बात भूल गया कि ईंटें मैंने ही जमायी हैं, जिस तरह जमायी हैं, उससे उलटा चल पडूं अलग कर दूं। एक—एक ईंट को हटा दूं।

बुद्ध एक दिन सुबह—सुबह प्रवचन देने आए और हाथ में एक रूमाल लेकर आए। लोग बहुत चकित थे, क्योंकि वे कभी कुछ लेकर आते न थे, हाथ में रूमाल आज क्यों था? रेशमी रूमाल था, और बैठकर इसके पहले कि प्रवचन दें, उन्होंने रूमाल पर एक गांठ के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, चौथी, पांचवीं—पांच गांठें लगायीं। लोग बिलकुल देखते रहे टकटकी बांधकर कि क्या हो रहा है? क्या कर रहे हैं वे? क्या आज कोई जादू का खेल दिखानेवाले हैं? और पांचों गांठें लगाने के बाद बुद्ध ने पूछा कि भिक्षुओ, मैं एक प्रश्न पूछता हूं। अभी— अभी तुमने देखा था, यह रूमाल बिना गांठों के था, अब गांठों से भर गया। क्या यह रूमाल वही है जो बिना गांठों का था या दूसरा है? उनके शिष्य आनंद ने कहा कि भगवान, आप हमें व्यर्थ की झंझट में डाल रहे हैं। क्योंकि अगर हम कहें यह रूमाल वही है, तो आप कहेंगे, उसमें गांठें नहीं थीं, इसमें गांठें हैं। अगर हम कहें यह रूमाल दूसरा है, तो आप कहेंगे, यह वही है। अरे, गांठों से क्या फर्क पड़ता है, रूमाल तो बिलकुल वही का वही है। यह रूमाल एक अर्थ में वही है जो आप लाए थे, क्योंकि कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ा है और दूसरे अर्थ में वही नहीं है, क्योंकि सांयोगिक फर्क पड़ गया है, इसमें पांच गांठें लग गयी हैं।

बुद्ध ने कहा, तुम में और मुझमें बस, इतना ही फर्क है—सायोगिक। मैं गांठरहित रूमाल हूं और तुममें गांठें लग गयी हैं—और लगानेवाले तुम हो। फिर बुद्ध ने कहा, दूसरा प्रश्न मुझे यह पूछना है कि मैं यह गांठें खोलना चाहता हूं जैसे कि तुम सब अपनी—अपनी गांठें खोलना चाहते हो।….. गांठ शब्द प्यारा है। बुद्ध ने तो जो शब्द प्रयोग किया, वह ग्रंथि था। वह और भी प्यारा शब्द है। इसलिए हमने बुद्ध को, महावीर को निर्ग्रंथ कहा है। जिनकी ग्रंथियां टूट गयीं, जिनकी गांठें खुल गयीं। और है ही क्या? सबसे बड़ी गांठ यह अहंकार की है। यह सबसे बड़ी ग्रंथि है। तो बुद्ध ने कहा, मुझे यह गांठें खोलनी हैं, जैसा कि तुम सब मेरे पास इकट्ठे हुए हो गांठें खोलने के लिए, तो मैं कैसे खोलूं? और बुद्ध ने उस रूमाल के दोनों छोर पकड़कर खींचना शुरू किया।

आनंद ने कहा कि भगवान, आप क्या कर रहे हैं? इस तरह तो गांठें और बंध जाएंगी। आप रूमाल खींच रहे हैं, गांठें छोटी होती जा रही हैं, खोलना मुश्किल हो जाएगा। खींचने से नहीं खुल सकती हैं गांठें। रूमाल को ढीला छोड़िए, खींचिए मत।

बुद्ध ने कहा, यह दूसरी बात भी तुम समझ लो कि जो भी खींचेगा, उसकी गांठें और बंध जाएंगी। ढीला छोड़ना होगा। विराम चाहिए, विश्राम चाहिए, तनाव नहीं। और तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोग बड़े तनावग्रस्त हो जाते हैं।।गाठें खोलने के लिए ऐसे दीवाने हो जाते हैं कि ये खींचते ही चले जाते हैं रूमाल। कोई उपवास कर रहा है, कोई सिर के बल खड़ा है, कोई धूनी रमाए हुए है, यह क्या है? ये गांठें खींच रहे हैं। ये खींचते ही चले जा रहे हैं। इनका अहंकार और मजबूत होता जा रहा है—सूक्ष्म जरूर हो रहा है, पहले मोटा दिखायी पड़ता था, क्योंकि गांठ पोली थी, अब खिंच गयी है तो छोटा हो गया है, दिखायी भी नहीं पड़ता—गांठ इतनी छोटी हो सकती है कि दिखायी भी न पड़े। और वही खतरा है, कि जब गांठ दिखायी न पड़े तो बहुत मुश्किल हो जाती है। उसका खोलना मुश्किल हो जाता है। खोलोगे भी कैसे?

तो बुद्ध ने कहा, मैं क्या करूं, आनंद, तुम्हीं कहो! तो आनंद ने कहा, पहली तो बात यह है कि आप रूमाल को ढीला छोड़ दें, इसी वक्त ढीला छोड़ दें। जितना आप खींचेंगे उतना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी बात, इसके पहले कि हम सोचें कैसे गाठें खोली जाएं, मैं आपसे पूछना चाहता हूं : आपने कैसे गांठें बांधी? क्योंकि जब तक हम यह न जानें कि कैसे गाठें बांधी, तब तक कैसे खुलेंगी, यह नहीं जाना जा सकता।

कैसे गांठें बांधी, बस इतना ही तो सारा सार है। तुमने कैसे गांठ बांध ली है, इसको समझ लो, तो खोलने में कुछ देर नहीं। तुमने कैसे ईंटें रखकर अपने चारों तरफ कारागृह बना लिया है? पैदा होते से ही जो पहली गांठ समाज, परिवार, शिक्षा, धर्म, राज्य व्यक्ति पर बांधना शुरू कर देते हैं, वह अहंकार की गांठ है। हम बच्चे को कहने लगते हैं : प्रथम आना स्कूल में, गोल्ड मेडल लाना, प्रतियोगिता में जीतना, हारेना कभी नहीं, टूट जाना मगर झुकना नहीं, कुल—मर्यादा की प्रतिष्ठा! हम अहंकार थोप रहे हैं। हम उसको गांठ बांध रहे हैं। फिर हम उससे कहते हैं, आगे बढ़ो! महत्वाकांक्षी बनो! धन कमाओ! यश कमाओ! पद —प्रतिष्ठा लाओ! तुम जैसा चमकता हुआ कोई भी न हो! तुम सबको मात कर दो, सबको फीका कर दो! और सब भी यही करने में लगे हैं। ऐसे राजनीति पैदा होती है।

राजनीति अहंकार के संघर्ष का नाम है। और धर्म अहंकार का विसर्जन है।

किस तरह तुम पर गांठ बंधी है, जरा उसे ठीक से देख लो, खोलने में कोई कठिनाई न होगी। महत्त्वाकांक्षा ने गांठ बांधी है। और महत्त्वाकांक्षा में क्या रखा है! धन भी पा लिया, पद भी पा लिया, तो क्या होगा! सब पड़ा रह जग़रगा—जब बांध चलेगा बंजारा, सब ठाठ पड़ा रह जाएगा। तुम बड़े पद पर भी पहुंच गये तो क्या होगा? होना क्या है? क्या पा लोगे? पाकर भी क्या पा लोगे? सिकंदर ने क्या पा लिया? तुम क्या पा लोगे? लेकिन हमें होश ही नहीं, दौडे जा रहे हैं। और भी बेहोश लोग दौड़ रहे हैं, हम भी उन्हीं के साथ दौड़े जा रहे हैं। रुको, थोड़ा विश्राम, थोड़ा बैठ जाओ किनारे पर, थोड़े हलके हो लो, थोड़े शात होकर देखो—यह गांठ कैसे बंध रही है? प्रतिस्पर्धा कि कोई दूसरा आगे न निकल जाए। ईर्ष्या, जलन से सब गांठ को बांध रहे हैं। बस, यह अहंकार की गांठ न बंधे, यह अहंकार की गांठ तुम खोल लो कि मृत्यु हो गयी। और ऐसे जो मरता है, वह द्विज हो जाता है। उसका दूसरा जन्म हो गया। शरीर तो वही रहा, लेकिन मौत भी हौ गयी, जन्म भी हो गया। इसी मृत्यु की चर्चा है इस सूत्र में।

और जिसने अहंकार को मर जाने दिया, वह ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाता है। अहंकार के अतिरिक्त और कोई बाधा ही नहीं है। यह मैं अलग हूं अस्तित्व से, यही मुझे रोक रहा है। मैं एक हूं अस्तित्व के साथ, बस इतना बोध, फिर न कोई संधर्ष है, न कोई तनाव है, न कोई विषाद है, न कोई हारे है, न कोई असफलता है; फिर बूंद सागर में एक हो गयी, उसकी अलग कोई यात्रा ही न रही। और जहां सागर के साथ मिलन है, वहीं ब्रह्मलोक है। और वह सागर तुम्हारे भीतर लहरा रहा है। मगर तुम गांठ बांधे बाहर खड़े हो। तुम अपने भीतर नहीं जाते हो।

यह सूत्र प्यारा है। मगर अर्थ मेरी दृष्टि से समझना। अब तक जो इसकी व्याख्याएं की गयी हैं, बुनियादी रूप से गलत हैं।

‘दीपक बारा नाम का’ प्रवचनमाला से

दिनांक 4 अक्ट्रबर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना


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नाम सुमिर मन बावरा–(जगजीवन राम)–प्रवचन–5

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बौरे, जामा पहिरि न जाना—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 5 अगस्‍त, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

 बौरे, जामा पहिरि न जाना।

को तैं आसि कहां ते आइसि, समुझि न देखसि ज्ञाना।।

घर वह कौन जहां रह बासा, तहां से किहेउ पयाना।

इहां तो रहिहौ दुई—चार दिन, अंत कहां कहं जाना।।

पाप—पुन्न की यह बजार है, सौदा करु मन माना।

होइहि कूच ऊंच नहिं जानसि, भूलसि नाहिं हैवाना।।

जो जो आवा रहेउ न कोई, सबका भयो चलाना।

कोऊ फूटि टूटि गारत मा, कोउ पहुंचा अस्थाना।।

अब कि संवारि संभारि बिचारि ले, चूका सो पछिताना।

जगजीवन दृढ़ डोरिलाइ रहु, गहि मन चरन अडाना।।

पैयां पकरि मैं लेहुं मनाय।।

कहौं कि तुम्हहीं कहं मैं जानौं, अब हौं तुम्हरी सरनहिं आय।

जोरी प्रीत न तोरी कबहूं, यह छबि सुरति बिसरि नहिं जाय।।

निरखत रहौं निहारत निसु—दिन, नैन दरस—रस पियौं अघाय।

जगजीवन के समरथ तुमहीं, तजि सतसंग अनत नहिं जाय।।

 

झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया री।

ए सखी पूछों सांई केहिं अनुहरिया री।।

सो मैं चहौं रहौं तेहिं संगहि निरखि जाऊं बलिहरिया री।

निरखत रहौं पलक नहिं लाओं, सूतों सत्त—सेजरिया री।।

रहौं तेहि संग रंग—रसमाती, डारौं सकल बिसरिया री।

जगजीवन सखि पायन परिके, मांगि लेऊं तिन सनिया री।।

 

साधो नाम तें रहु लौ लाय, प्रगट न काहू कहहु सुनाय।

झूठै परगट कहत पुकारिं, तातें सुमिरन जात बिगारि।

भजन बेलि जात कुम्हलाय, कौन जुक्ति कै भक्ति दृढ़ाय।

सिखि पढ़ि जोरि कहै बहु ज्ञान, सो तौ नाहिं अहै परमान।।

प्रीति—रीति रसना रहै गाय, सो तौ नाहिं अहै परमान।।

प्रीति रीति रसना रहै गाय, सो तौ राम कों बहुत हिताय।

सो तौ मोर कहावत दास, सदा बसत हौं तिनके पास।।

मैं मरि मन तें रहे हैं हारि, दिप्त जोति तिनकै उजियारि।

जगजीवनदास भक्त भै सोइ, तिनका आवागमन न होइ।।

 

स्वामी आनंद मैत्रेय ने एक प्रश्न पूछा है : “जगजीवन तो चरवाहे थे, अपढ़, फिर ऐसे प्यारे शब्द कहां से खोज पाए? फिर ऐसी बहुमूल्य अभिव्यक्ति कैसे हो सकी?

पूछना अर्थपूर्ण है। और अनेक बार यह प्रश्न पूछा गया है अतीत में भी; आज ही नहीं, सदियों—सदियों में। जीसस भी चरवाहे थे——गड़रिए। और जैसे शब्द जीसस ने बोले वैसे शब्द पृथ्वी पर किसी और ने बोले नहीं थे। जैसा उनका बोलने का ढंग था, वह बस उनका ही था। उसकी कोई तुलना नहीं है। उनकी तुलना बस उनसे ही दी जा सकती है। बहुत महाकाव्य लिखे गए हैं लेकिन जीसस के छोटे—छोटे वचनों में जैसा काव्य है वैसा काव्य शेक्सपियर और कालिदास और भवभूति में भी नहीं है।

कबीर जुलाहे थे, लेकिन ऐसी वाणी फूटी, ऐसी गंगा बही कि बड़े—बड़े मात हो गए। पंडित फीके पड़ गए। शास्त्रों के जाननेवाले अंधकारपूर्ण मालूम होने लगे तुलना में कबीर की, जुलाहे की तुलना में। और कबीर ने कहा है, “मसि कागद छुओ नहीं।’ कभी स्याही छुई नहीं, कभी कागज छुआ नहीं। लेकिन कुछ और जान लिया : “ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।’ वह जो ढाई अक्षर है प्रेम का, पढ़ लिया, उससे सब हो गया। सारे वेद आ गए उसमें। सारे उपनिषद् आ गए उसमें। कुरान, बाइबल, सब समाविष्ट हो गया।

यह प्रश्न जगजीवन के संबंध में ही सच नहीं है, यह प्रश्न अनंत संतों के संबंध में सच है। यह कैसे होता होगा? यह चमत्कार कैसे घटता है? इसके पीछे एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। समझ में आ जाए तो समस्या सुलझ जाएगी। जब कहने को कुछ होता है, जब प्राण कहने से भरे होते हैं, जब प्राण बहने को आतुर होते हैं, जब रस की गागर पूरी भर जाती है तो शब्द अपने आप खोज लिए जाते हैं।

तुमने देखा, जब तुम क्रोध में होते हो तब तुम किस तेजी से बोलने लगते हो! अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो लोग हकलाते हैं वे भी क्रोध में नहीं हकलाते। भूल ही जाते हैं हकलाना। क्रोध का एक ताप होता है। विस्मरण ही हो जाता है, हकलाने की फुरसत कहां? सुविधा कहां? और गालियां ऐसे बहने लगती हैं जैसे सदा—सदा उनको सोचकर सम्हाला हो। मैं क्रोध से उदाहरण दे रहा हूं क्योंकि क्रोध से तुम्हारी पहचान है। क्रोध में मूक भी वाचाल हो जाते हैं।

मैं तुम्हें प्रेम का उदाहरण नहीं दे रहा हूं क्योंकि उससे तुम्हारी पहचान नहीं है। क्रोध से जैसे अंधेरे शब्द निकलने लगते हैं——गंदे और दुर्गंधयुक्त, सरलता से गालियां प्रवाहित होने लगती हैं, ऐसे ही प्रेम की घड़ी में गीत भी प्रवाहित होते हैं। शब्द अपने आप जुड़ने लगते हैं। जब फूल खिलता है तो हवाएं मिल ही जाती हैं जिन पर चढ़कर अपनी सुगंध भेज दे दिग—दिगंत तक। जब गीत इतना घना हो जाता है कि सम्हालना मुश्किल हो जाता है तो द्वार मिल ही जाते हैं।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं बोलनेवाले। एक : जिनके पास बोलने को कुछ नहीं है। वे कितने ही सुंदर शब्द जानते हों, उनके शब्द निष्प्राण होते हैं; उनके शब्दों में श्वास नहीं होती। उनके पास शब्द सुंदर होते हैं, जैसे कि लाश पड़ी हो किसी सुंदर स्त्री की। जैसे क्लिओपात्रा मर गई है और उसकी लाश पड़ी है। उनके शब्द ऐसे ही होते हैं। असली बात तो उड़ गई। पिंजड़ा पड़ा रह गया है। पक्षी तो जा चुका; या पक्षी कभी था ही नहीं।

पंडित सुंदर—सुंदर शब्द बोलता है। उसके शब्दों में श्रृंगार होता है, कुशलता होती है, भाषा होती है, सब होता है, प्राण नहीं होते। बस एक ढांचा होता है, आत्मा नहीं होती।

संत भी बोलते हैं, शायद शब्द ठीक—ठाक होते भी नहीं, व्याकरण का शायद पता भी नहीं होता। व्याकरण छूट जाती है, भाषा बिखर जाती है लेकिन जो मधु बहता है जो मदिरा बहती है वह किसी को भी डुबा दे; सदा को डुबा दे। शब्द तो बोतलों जैसे हैं। बोतल सुंदर भी हो और भीतर शराब न हो तो क्या करोगे? और बोतल कुरूप भी हुई और भीतर शराब हुई तो डुबा देगी। तो तुम्हारे भीतर भी गीत पैदा होगा और नाच पैदा होगा। आत्मापूर्ण हों शब्द तो तुम्हारे भीतर भी आत्मा को झंकृत करते हैं।

जगजीवन जैसे बेपढ़े—लिखे संतों की वाणी में जो बल है वह बल शब्दों का नहीं है, वह उनके शून्य का बल है। शब्दों की संपदा उनके पास बड़ी नहीं है, कामचलाऊ है; बोल—चाल की भाषा है। लेकिन बोल—चाल की भाषा में भी अमृत ढाला है। पंडितों के शब्द मूल्यवान होते हैं लेकिन शब्दों को उघाड़ोगे तो भीतर कुछ भी नहीं, चली हुई कारतूस जैसे। ऋषियों के शब्द मूल्यवान हों न हों, शब्दों को उघाड़ोगे तो भीतर परम संपदा को पाओगे; एक प्रगाढ़ता पाओगे; एक घनीभूत प्रार्थना पाओगे; एक रस—विमुग्ध चैतन्य पाओगे।

सीधे—सादे शब्द हैं, जगजीवन जो बोल रहे हैं। कुछ जटिल नहीं हैं। लोकभाषा है——जैसा सभी लोग बोल रहे होंगे। इनमें एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो पारिभाषिक हो; कि जिसे देखने के लिए तुम्हें शब्दकोष उलटना पड़े। अगर तुम्हें कुछ कठिन मालूम पड़ते हों तो उसका कारण यह नहीं है कि वे शब्द कठिन हैं, उसका कुल कारण इतना है कि वे लोकव्यवहार के बाहर हो गए हैं। उस दिन की लोकभाषा के हैं। आज उनका उपयोग नहीं होता। अन्यथा बिल्कुल कामचलाऊ हैं। गाड़ीवान बोलता था, दुकानदार बोलता था, चरवाहा बोलता था, लकड़हारा बोलता था, जुलाहा बोलता था, कुम्हार बोलता था। उन्हीं के शब्द हैं लेकिन शब्द ज्योतिर्मय हैं।

पंडित के शब्द ऐसे होते हैं——कोरे पंडित के शब्द——जैसे दीया तेल—भरा, बाती लगा, मगर ज्योति नहीं। संतों के शब्द ऐसे होते हैं——दीया मिट्टी का, टेढ़ा—मेढ़ा, किसी ने गढ़ दिया होगा; तेल भी गरीब का; शायद शुद्ध भी न हो; बाती भी बस ऐसीत्तैसी बनी लेकिन ज्योतिर्मय। और मूल्य तो ज्योति का है, दीये का तो नहीं। दीया सोने का हो, हीरे—जवाहरात जड़ा हो, क्या करोगे? दीया मिट्टी का हो, ज्योतिर्मय हो, काम आ जाएगा।

इसलिए यह चमत्कार जैसा मालूम पड़ता है मगर चमत्कार है नहीं, जीवन का एक सामान्य नियम है। प्रेम में तुम कभी अगर किसी के पड़े हो तो तुम्हारे से भी काव्य प्रवाहित होने लगता है। तुम खुद भी चौंकोगे। ऐसे रसभरे शब्द तुमने कभी बोले न थे। वही शब्द हैं जो तुम रोज बोलते थे, पर उन्हीं शब्दों में आज कुछ नया भरा है। आज उन्हीं शब्दों पर सवार होकर कुछ नया चला है।

पैर तो वही हैं जिनसे कि दफ्तर से लेकर घर तक आए—गए, लेकिन जब नाचते हैं वही पैर तो वही पैर नहीं हैं। दफ्तर से आना घर, घर से जाना दफ्तर एक बात है; और जब धुन मस्ती की छा जाती है, जब प्रेमी से मिलन होता है, वे ही पैर जब नाचने लगते हैं तो क्या तुम कहोगे ये वे ही पैर हैं, जो दफ्तर जाते थे? सब बदल गया। इन पैरों की रौनक और, रंग और। इन पैरों में बहता हुआ रक्त और। इन पैरों में बहती हुई ऊर्जा और। इन पैरों के पास आज एक आभा—मंडल है। आज ये मस्ती में नाचे हैं। कहां दफ्तर जाना! घसीटते थे। नाच कहां था? चलना तक नहीं था। जाते थे क्योंकि जाना पड़ता था। मजबूरी थी, विवशता थी। और आज जब मृदंग बजी है प्रेम की और पैरों में आनंद के घुंघरू बांधे हैं और नाच उठे हो…..नहीं, ये पैर वही मालूम होते हैं मगर वही नहीं हैं। आज इन्हीं पैरों पर कोई और चढ़ आया है। आज आत्मा और है। वस्त्र वही होंगे, प्राण और हैं। भीतर का सब बदल गया है।

ये शब्द जगजीवन के साधारण ही हैं लेकिन इन शब्दों में असाधारण समाया है। उस असाधारण के कारण साधारण शब्द भी बहुमूल्य मालूम होते हैं। जैसे बुद्ध के हाथ में कोई साधारण—सा गुलाब का फूल। क्या तुम सोचते हो किसी और हाथ में यही फूल इसी मूल्य का होगा? नहीं होगा। संदर्भ बदल गया। बुद्ध के हाथ में बात और है। हाथ—हाथ की बात और है। बुद्ध के हाथ में यही साधारण—सा फूल असाधारण हो गया है। इसकी गरिमा और है। इसकी महिमा और है। जैसे सारे अस्तित्व का सौंदर्य इससे प्रकट हो उठा है।

बुद्ध जिस वृक्ष के नीचे बैठे हों वह सूखा भी हो तो कहानियां कहती हैं, हरा हो जाता है। वे कहानियां सार्थक हैं, ऐतिहासिक नहीं हैं। इस बात को खयाल रखना। बौद्ध कथाएं कहती हैं कि बुद्ध जिस वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं वह अगर सूखा भी हो, तत्क्षण हरा हो जाता है। घनी उसके नीचे छाया हो जाती है। करनी ही पड़ेगी छाया बुद्ध आकर बैठे हों तो। फूल खिल आते हैं।

इस्लाम में कथाएं हैं कि मुहम्मद जहां भी चलते हैं…..रेगिस्तान, मरुस्थल की दुनिया! आकाश की बदलियां उनके ऊपर छाता बन जाती हैं। इतिहास नहीं है यह। इतिहास समझा तो चूक हो जाएगी। इतिहास से बहुत ज्यादा मूल्यवान हैं ये बातें। इतिहास तो सिर्फ तथ्यों का जोड़ होता है। अखबारों की कटिंग से बनता है इतिहास। यह इतिहास से बहुत ज्यादा है। तथ्य ही नहीं है, सत्य है इसमें।

इतिहास तो क्षणभंगुर होता है। अभी है, अभी अतीत हो जाता है। और जैसे ही इतिहास अतीत हो जाता है, फिर उसे सत्य सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं बचता। फिर तुम लाख सिर मारो, ज्यादा से ज्यादा इतना ही तय हो सकता है कि संभवतः ऐसा हुआ हो। बस, संभावना तय हो सकती है। फिर दृढ़तापूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि ऐसा हुआ हो।

राम हुए थे? दृढ़तापूर्वक इतिहास के पास कोई प्रमाण नहीं है। कृष्ण हुए थे? दृढ़तापूर्वक इतिहास के पास कोई निश्चयता नहीं है। बुद्ध चले थे? महावीर घटे थे? संभावना मात्र है। ऐसा हुआ भी हो, न भी हुआ हो। जीसस के संबंध में भी वही बात है।

ये तो दूर की बातें हो गईं, इंग्लैंड का एक बहुत बड़ा इतिहासज्ञ एडमंड बर्क विश्व—इतिहास लिख रहा था। उसने उस पर कोई तीस साल मेहनत की थी। सारा जीवन उस पर लगाया था। और एक दिन ऐसा हुआ कि उसने पूरी की पूरी जीवनभर की मेहनत आग में डाल दी एक छोटी—सी घटना के कारण। उसके घर के पीछे, घर के ठीक पीछे हत्या हो गई। वह तो अपना इतिहास लिखने में लगा था। शोरगुल सुना, भीड़—भाड़ इकट्ठी हुई तो वह भी बाहर निकलकर पहुंचा। भीड़ लग गई थी, लाश पड़ी थी। जिस आदमी ने हत्या की थी, रंगे हाथों पकड़ा गया था। उसको भी लोग पकड़े हुए थे। उसके हाथ में छुरा था, उसके कपड़ों पर खून की धार थी।

अभी—अभी घटना घटी थी, ताजी थी। खून अभी गरम था। और कोई दो सौ आदमियों की भीड़ लग गई थी। सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया था। और बर्क ने अलग—अलग लोगों से पूछा कि हुआ क्या? एक ने कुछ कहा, दूसरे ने कुछ कहा, तीसरे ने कुछ कहा। अभी खून भी गरम था। अभी लाश भी गरम थी। अभी हत्यारा रंगे हाथ पकड़ा सामने खड़ा था, लेकिन लोगों के वक्तव्य अलग—अलग थे, विपरीत थे, विरोधी थे; एक—दूसरे का खंडन करनेवाले थे। और वे सब चश्मदीद गवाह थे।

बर्क गया अंदर, उसने अपनी तीस साल की मेहनत आग में डाल दी। उसने कहा, अगर मेरे घर के पीछे एक घटना घटती है, आंखों देखे लोग मौजूद हैं, अभी—अभी घटी है, खून भी सूखा नहीं है, ठंडा भी नहीं हुआ है, लाश अभी गरम है, आदमी पकड़ा गया है और उनसे भी मैं यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाता कि वस्तुतः हुआ क्या है! और मैं दुनिया का इतिहास लिखने बैठा हूं कि पांच हजार साल पहले वेद किसने लिखा था! उसे बात ही फिजूल मालूम पड़ी। उसने कहा, मेरे तीस साल व्यर्थ गए।

इतिहास तो क्षुद्र घटनाओं से बनता है। उन घटनाओं के लिए प्रामाणिकता नहीं है। और जैसे—जैसे अतीत होता जाता है वैसे—वैसे मुश्किल होता जाता है तय करना कि ऐसा हुआ था कि नहीं हुआ था?

ये घटनाएं ऐतिहासिक नहीं हैं, ये घटनाएं पौराणिक हैं। पुराण बड़ी और बात है इतिहास क्षणभंगुर तथ्यों पर निर्भर होता है, पुराण शाश्वत सार है। बुद्ध के बैठने से वृक्ष हरा हुआ या नहीं, यह सवाल नहीं है, वृक्ष को हरा होना चाहिए। इससे अन्यथा हो तो यह जगत् अर्थहीन है। बुद्ध भी हुए या नहीं, यह भी सवाल नहीं है। यह प्रश्न संगत ही नहीं है पुराण में। पुराण की संगति तो और है। पुराण की संगति तो यह है कि बुद्ध जैसे व्यक्ति के ओठों पर सूखे शब्द भी हरे हो जाएंगे। बुद्ध जैसे व्यक्ति के हाथों में मरा हुआ पक्षी भी पंख फड़फड़ाने लगेगा। और तुम्हारे हाथों में जिंदा पक्षी मर जाते हैं।

और तुम जानते हो। और रोज तुमने देखा है। रोज तुम अनुभव करते हो, तुम्हारे हाथों में जीवित से जीवित शब्द जाकर दो कौड़ी के हो जाते हैं। सुंदर से सुंदर शब्द! परमात्मा जैसा प्यारा शब्द भी तुम्हारे ओठों पर क्या अर्थ रखता है? कोई भी तो अर्थ नहीं। कोरा, खाली, व्यर्थ! तुम्हारे ही परमात्मा के लिए तो नीत्शे ने कहा है कि मर गया। मुझे नीत्शे कहीं मिल जाए तो उनसे मैं कहूं कि मर गया कहना ठीक नहीं, जिंदा ही कभी न था। मरते तो वे हैं जो जिंदा रहे हों। जिन लोगों के परमात्मा की तुम बात कर रहे हो वह मर भी नहीं सकता; वह सदा से मरा हुआ है, प्लास्टिक का है। और जिनका परमात्मा जिंदा है उनके परमात्मा के मरने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि वह सारे जीवन का प्रतीक है।

बुद्ध अगर बैठें, वृक्ष को हरा होना ही चाहिए। और मुहम्मद अगर चलें तो बदली को छाया करनी ही चाहिए। और महावीर अगर चलें तो कांटा सीधा पड़ा हो तो उसे उल्टा हो ही जाना चाहिए। यह पुराण है, इतिहास नहीं है। ये संकेत हैं, कि अस्तित्व उसका सम्मान करता है जिसने अस्तित्व का सम्मान किया है; कि अस्तित्व प्रत्युत्तर देता है; कि प्रेम के उत्तर में प्रेम बरसता है; कि गीत के उत्तर में गीत प्रतिध्वनित होता है; कि एक फूल खिले तुम्हारे जीवन में तो हजारों फूल उसके साथ—साथ, समवेत खिल जाते हैं।

ये शब्द तो साधारण हैं। चरवाहे के शब्द हैं, पर असाधारण हो गए क्योंकि चरवाहा बुद्ध हो गया। फिर बुद्ध राजा का बेटा हो जाए तो, और चरवाहे का बेटा हो जाए तो। बुद्धत्व की महिमा है। बुद्धत्व का मूल्य है।

फिर एकेक शब्द में रस बहने लगता है।

बौरे, जामा पहिरि न जाना

जगजीवन कहते हैं, रे पागल, एक बात खयाल कर ले, मैं शरीर हूं ऐसा ही मानते—मानते मत मर जाना। शरीर तो जामा है, वस्त्रमात्र है, परिधान है। शरीर ही मैं हूं ऐसा ही सोचते—सोचते मर गया तो फिर शरीर में आ जाना पड़ेगा। क्योंकि हम जो सोचते हैं वही हमारा भविष्य बन जाता है।

विचार के बीज भविष्य के वृक्ष हैं। मरते क्षण अगर तुम यही सोचते मरे कि मैं शरीर हूं तो मर भी न पाओगे और नए गर्भ में प्रवेश कर जाओगे। क्योंकि तुम्हारा विचार ही तुम्हें दिशा देता है।

बौरे, जामा पहिरि न जाना

जाते समय तक इतनी तैयारी कर लेना कि तू यह जानता हुआ जा सके कि मैं देह नहीं हूं, देह तो वस्त्रमात्र है। कि मैं घर का मालिक हूं। जब देह टूटने लगे तो ऐसा मत समझना कि तू टूट रहा है। जब देह मरने लगे तो ऐसा मत सोचना कि मैं मर रहा हूं। तेरी कोई मृत्यु नहीं, तू अमृत है। अमृतस्य पुत्रः। मृत्यु तो बस आवरण की है। यही देह जन्मती है, यही देह मरती है। न तो तू कभी जन्मता है, न कभी तू मरता है।

जो ऐसा जानकर विदा होता है, फिर दुबारा नहीं आता। फिर इस दुबारा पीड़ा और नरक में उसे नहीं उतरना पड़ता। वह मुक्त हो जाता है उसकी सारी सीमाएं गिर जाती हैं। देह सीमा है। वह असीम हो जाता है। उसकी बूंद सागर हो जाती है। वह इस अनंत आकाश का अंग हो जाता है।

बौरे, जामा पहिरि न जाना

को तैं आसि कहां ते आइसि

तू आया कहां से है? तू कौन?

समुझि न देखसि ज्ञाना

न तो तूने देखा, न समझा, न जागा और फिर भी तू सोचता है कि तुझे ज्ञान है? तेरा ज्ञान दो कौड़ी का है। कर लिया होगा कंठस्थ वेद; इससे कुछ सार नहीं। मृत्यु के क्षण में कंठस्थ किए हुए वचन चाहे वे वेद के हों और चाहे कुरान के, काम नहीं आएंगे। कंठ ही साथ नहीं जाएगा तो कंठस्थ कैसे साथ जाएगा? सिर यहीं पड़ा रह जाएगा तो सिर में जो भरा है वह भी यही पड़ा रह जाएगा। सिर के भरे में बहुत भरोसा मत करना। सिर में तो जो भी भरा है, भूसा है।

तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा अनुभव होना चाहिए जो बुद्धि से अतीत अनुभव है। जो बाहर से नहीं आया है। बुद्धि में तो जो भी आया है बाहर से आया है। किताब पढ़ी, किसी को सुना, किसी से बात की, स्कूल—विश्वविद्यालय सीखा, वही सब तुम्हारी बुद्धि में भरा है। बुद्धि तो एक कंप्यूटर है जिसमें बाहर से सूचनाएं डाली जाती हैं। बुद्धि तो एक टेपरिकॉर्ड है, एक ग्रामोफोन रेकॉर्ड है, जिसमें बाहर से सूचनाएं भर दी जाती हैं फिर बुद्धि उसे दोहराती रहती है।

और बड़ा मजा है। हम इसी को बड़ा मूल्य देते हैं। जो जितना अच्छा ग्रामोफोन रेकॉर्ड है उसको हम कहते हैं उतना ही बुद्धिमान। विश्वविद्यालय उसे स्वर्णपदक देते हैं। और उसने प्रमाण क्या दिया है बुद्धि का? एक ही प्रमाण दिया है कि जो भी साल—भर शिक्षकों ने उसकी खोपड़ी में भरा था, उसने परीक्षा की कॉपी पर उसका वमन कर दिया, उल्टी कर दी। परीक्षा की कॉपी पर ठीक उसने वैसा ही का वैसा, बिना पचा——। पच जाता तो वमन कैसे करता? सम्हाले रहा, सम्हाले रहा, सम्हाले रहा, फिर सारी परीक्षा की कॉपी गंदी कर दी। स्वर्णपदक मिल गया उसको। उसका बड़ा सम्मान है।

उसने कौन—सी कुशलता दिखाई? यह कोई बुद्धि की कुशलता है? हां, इतना कहा जा सकता है, उसके पास अच्छी स्मृति है। मगर स्मृति और बुद्धि बड़ी भिन्न बातें हैं। मनोवैज्ञानिक जिसको बुद्धि का माप कहते हैं, इंटेलिजंस कोशिएंट कहते हैं, वह वस्तुतः बुद्धि का माप नहीं है, केवल स्मृति का माप है। और याददाश्त का अच्छा होना और बुद्धि का अच्छा होना पर्यायवाची नहीं हैं। अक्सर ऐसा होता है कि जिनकी याददाश्त बहुत अच्छी होती है उनके पास बुद्धि जैसी चीज नहीं होती। और जिनके पास बुद्धि जैसी चीज होती है उनकी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं होती।

तुमने बहुत कहानियां सुनी होंगी कि बड़े—बड़े बुद्धिमान और याददाश्त उनकी बड़ी कमजोर। इमेन्युअल कांट की याददाश्त इतनी कमजोर कि एक सांझ अपने घर आया, द्वार पर दस्तक दिया। सांझ है, सूरज ढल गया है, घूमकर लौटा है अपने ही घर। नौकर ने छज्जे से झांका, समझा कि कोई आया होगा मालिक को मिलने। तो उसने कहा, मालिक घूमने गए हैं, थोड़ी देर बाद आना तो वह वापिस लौट आया। कोई मील—भर चलने के बाद उसे याद आया कि हद हो गई! मालिक तो मैं ही हूं।

और भी मैंने एक कहानी सुनी है जो इससे भी ज्यादा अद्भुत है। एक रात लौटा घूमने के बाद, बूढ़ा हो गया था कांट। जो छड़ी लेकर घूमने गया था उसको तो बिस्तर पर सुला दिया और खुद, जहां छड़ी को खड़ा करता था कोने में, वहां जाकर खड़ा रहा। जब नौकर ने देखा कि प्रकाश बुझा नहीं मालिक का, जो कि नियम से दस बजे बुझ जाता है, साढ़े दस बज गए, ग्यारह बज गए, तो नौकर ने आकर झांका, देखकर हैरान हुआ। छड़ी सो रही है कंबल ओढ़े और कांट खड़ा है कोने में आंख बंद किए। चूक हो गई। भूल हो गई कौन—कौन है! और इमेन्युअल कांट उन थोड़े—से बुद्धिमान लोगों में से एक है, जिनके पास प्रतिभा थी।

स्मृति से कुछ सिद्ध नहीं होता। लॉर्ड कर्जन ने अपने संस्मरणों में राजस्थान में एक आदमी के संबंध में उल्लेख किया है जिसके पास अद्भुत स्मृति थी मगर वह महामूढ़ था। उसकी स्मृति ऐसी थी कि शायद पहले भी किसी के पास नहीं हुई। उसके बाद भी बहुत लोगों के पास स्मृतियां हुईं लेकिन वैसी नहीं हुई। उसकी स्मृति अद्भुत थी, जैसे पत्थर पर कोई खींचे। एक बार जो सुन ले वह भूलता ही नहीं था।

अब तुम सोच ही सकते हो कि वह आदमी बुद्धिमान कैसे हो पाएगा? जो बात एक बार तुम सुन लो, भूल ही न सको तो इतना कचरा इकट्ठा हो जाएगा। विस्मरण वरदान है। जरा सोचो तो, सुबह से लेकर सांझ तक कितना बकवास सुनते हो, कितना उपद्रव सुनते हो, ट्रैफिक की आवाजें, और कोई हॉर्न बजा रहा है और इंजन की भकभक हो रही है और सब सुन रहे हो तुम। और यह सब याद ही रहे तो तुम सोचोगे क्या खाक! विचार क्या करोगे? तुम्हारे पास अवकाश कहां रह जाएगा?

वह आदमी इतना अद्भुत था स्मृति की दृष्टि से, पर महामूढ़ था। उसे कर्जन के दरबार में बुलाया था वाइसराय ने देखने के लिए। उसकी स्मृति की खबरें पहुंची थीं। और फिर एक प्रयोग किया गया। कर्जन के दरबार में जितनी भाषाओं को जाननेवाले अलग—अलग लोग थे, तीस लोग खोजे गए और उन तीस लोगों को बिठाया गया। और उन तीसों ने अपने—अपने मन में अपनी—अपनी भाषा का एकेक वचन खयाल में रखा। और यह आदमी, यह राजस्थानी आदमी पहले नंबर एक के पास जाएगा, वह अपनी भाषा के, जो वचन को उसने अपने भीतर सोच रखा है, उसके पहले शब्द को कहेगा। तब एक जोर का घंटा बजाया जाएगा। फिर यह आदमी दूसरे के पास जाएगा, वह अपनी भाषा का पहला शब्द कहेगा। ऐसा यह तीस आदमियों के पास चक्कर लगाएगा और हर बार घंटा बजेगा। फिर यह नंबर एक के पास आएगा, अब वह अपने वचन का दूसरा शब्द इससे कहेगा। ऐसा यह घूमता रहेगा।

और उसने सबके वाक्य अलग—अलग बता दिए कि किसने उससे क्या कहा है! और उनमें से एक भी भाषा उसकी भाषा नहीं। एक भी भाषा वह जानता नहीं। मारवाड़ी के सिवा वह दूसरी भाषा कोई जानता नहीं था। बस, जो उसके सर में आ जाता, बैठ ही जाता; फिर उसे भूलता ही नहीं था। मगर था बिल्कुल बुद्धू आदमी। जिंदगी में उसके कोई प्रतिभा नहीं थी। उसकी आंखों में कोई चमक भी न थी। उसके चेहरे पर कोई ओज भी न था।

अगर स्मृति ही बुद्धि हो तो यह आदमी बुद्ध हो जाता। और क्या चाहिए? मगर स्मृति बुद्धि नहीं है। और मैं जो तुमसे कह रहा हूं, अभी कुछ चार—छह दिन पहले, जिन व्यक्तियों ने पश्चिम में बुद्धि—अंक : इंटेलिजंस कोशिएंट की खोज की थी उनमें से एक अभी जिंदा है, उसने चार या पांच दिन पहले ही यह घोषणा की है कि वह हमारी धारणा गलत थी। वह जो हमने अब तक खोजा था बुद्धि के संबंध में, वह बुद्धि के संबंध में नहीं है, केवल स्मृति के संबंध में है।

कहां से आए हो? कौन हो? न इसे देखा, न इसे पहचाना और सोचते हो कि ज्ञानी हो क्योंकि वेद याद है, कुरान याद है, गीता रोज पढ़ते हो। यह ज्ञान दो कौड़ी का है। ग्रामोफोन रेकॉर्ड बनने से तुम मुक्त न हो जाओगे। तुम्हें उस ज्ञान की तलाश करनी होगी जिसका झरना तुम्हारे भीतर से ही बहे, बाहर से नहीं। तुम्हें स्वस्फूर्त ज्ञान को खोजना होगा। और जब तक तुम स्वस्फूर्त चैतन्य को न खोज लोगे, तब तक तुम्हें शरीर की तरह जीना पड़ेगा और शरीर की तरह मरना पड़ेगा।

चुन लिए औरों ने गुलहा—ए—मुराद

रह गए दामन ही फैलाने में हम

ऐसा न हो कि मरते वक्त तुम्हें लगे कि दूसरे तो फूल चुन लिए और हम दामन हीफैलाते रहे। अधिक लोग ऐसे ही मरते हैं दामन फैलाते—फैलाते ही। फूल तो मुश्किल से थोड़े—से लोग चुन पाते हैं। जब कि सच्चाई यह है कि सभी का हक था, सभी चुन लेते फूल।

तुम बुद्ध होने को पैदा हुए हो। उससे कम पर राजी मत होना। तुम्हारे दामन में भी फूल भर सकते हैं, मगर जरा होश से चलना होगा, जरा सम्हलकर चलना होगा। जरा जिंदगी से व्यर्थ की दौड़—धूप को कम करना होगा। जिंदगी की ऊर्जा को निरर्थक आपाधापी से थोड़ा मुक्त करना होगा। थोड़ी घड़ियां अंतर्खोज के लिए देनी होंगी।

बौरे, जामा पहिरि न जाना

क्या ही शरमिंदा चले हैं इस दिल—ए—मजबूर से हम

आए थे उनकी ज़ियारत को बहुत दूर से हम

बड़े दूर से तुम आए हो। और जो खरीदने आए हो, बिना खरीदे लौट जाओगे? बड़े दूर से तुम आए हो। जिसकी तलाश में आए हो उसको बिना तलाशे लौट जाओगे? और सम्हलो! यहां कोई दूसरा तुम्हें नहीं सम्हालेगा।

मैकदा है यह समझ बूझ के पीना ऐ रिंद

कोई गिरते हुए पकड़ेगा न बाज़ू तेरा

यहां तो सब पिए बैठे हैं——कोई मद, कोई पद, कोई धन। यहां तो लोगों की आंखों में नशा चढ़ा हुआ है। और वह नशा नहीं, जिसकी मैं बात करता हूं या जगजीवन बात करते हैं। धन का और पद का नशा चढ़ा हुआ है।

तुमने देखा, जब कोई आदमी पद पर पहुंच जाता है तो उसकी अकड़, उसका अहंकार। तुमने देखा, जब किसी आदमी के पास धन इकट्ठा हो जाता है तो उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। ये सब नशे हैं। और शराब से कहीं ज्यादा बदतर नशे हैं। क्योंकि शराब तो तुम्हारी देह को ही नुकसान पहुंचाती है, ये तुम्हारी आत्मा को भी सड़ा देते हैं।

इसलिए तुम्हारा शराबी तुम्हारे राजनीतिक से लाख गुना बेहतर होता है। क्योंकि शराबी हो सकता है एकाध साल जल्दी मर जाएगा, और क्या होगा? शरीर थोड़ा कमजोर होगा, और क्या होगा? लेकिन राजनीतिक खोखला हो जाता है, अपनी आत्मा को बेच देता है। बेचनी ही पड़ती है उसे; नहीं तो पद की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता। उसे सारी चालबाजियां, बेईमानियां, सारे पाखंड करने ही पड़ते हैं। झूठे आश्वासन देने ही पड़ते हैं। उसे धोखे देने ही पड़ते हैं। जो जितना धोखा देने में कुशल है उतना ही सफल हो जाएगा। और जिसको नशा लग जाता है पद का, जिंदगी—भर नहीं उतरता; लगा ही रहता है। वह जो भी करता है, बस उसी नशे के लिए करता है। एक धुन सवार हो जाती है।

मैकदा है यह समझ—बूझ के पीना ऐ रिंद

कोई गिरते हुए पकड़ेगा न बाज़ू तेरा

तुम अपने को सम्हालों तो सम्हाल सकते हो, कोई और तुम्हें सम्हालनेवाला नहीं है। इसलिए कहते हैं, ऐ पागल, ऐ बौरे, जामा पहिरि न जाना।

घर वह कौन जहां रह बासा, तहां ते किहेउ पयाना

कहां से तू आ रहा है? किन—किन घरों में रहा है? यह घर, जिसमें तुम अभी हो——यह देह तुम्हारा पहला घर नहीं है। तुम न मालूम कितनी देहों में रहे हो, न मालूम कितनी योनियों में भटके हो। यात्रा लंबी है तुम्हारी। तुम्हारी आत्मा पर बड़ी धूल है, लंबी यात्रा की धूल है। और स्नान को तो तुम भूल ही गए हो। शरीर को तो धो भी लेते हो, आत्मा को तो कभी निखारते नहीं, धोते नहीं।

आत्मा को निखारने की कला का नाम ही ध्यान है। आत्मा को सुवासित करने की कला का नाम ही प्रेम है। आत्मा के दर्पण से धूल को बिल्कुल पोंछ देने का नाम ही भक्तिभाव है, प्रभु—स्मरण है।

इहां तो रहिहौ दुई—चार दिन——इस घर में भी दो—चार दिन रहोगे। ऐसे ही और बहुत घरों में भी रहे हो।

अंत कहां कहं जाना——और फिर जाना पड़ेगा। और—और घरों में भटकते ही रहोगे, भटकते ही रहोगे। कब अपने को पहचानोगे? कब झांककर देखोगे इस मालिक को? और जिस दिन तुम देख लोगे मालिक को उस दिन तुम चकित हो जाओगे। इस सारे जगत का स्वामी तुम्हारे भीतर बैठा है। कुछ कमी नहीं है तुम्हारे भीतर । सब भरा—पूरा है। सब परिपूर्ण है। घट भरा है और तुम भिखारी बने घूम रहे हो। तुमने अपनी बड़ी दुर्दशा कर रखी है सिर्फ इसी खयाल से कि तुम भिखारी हो। और यह भिखारीपन जारी रहेगा जब तक तुम देह से अपना तादात्म्य नहीं तोड़ लेते हो।

सुनी हिकायते—हस्ती तो दर्मियां से सुनी

न इब्तिदा की खबर है है न इंतिहा मालूम

न तो पता प्रारंभ का और न अंत का। जिंदगी की कहानी तो बस बीच से शुरू हो गई है। जैसे कोई उपन्यास बीच से खोल दे और शुरू कर दे; या पहुंच जाओ फिल्म में और इंटरवल से देखने लगो। न तो कुछ प्रारंभ का पता है, न अंत का कुछ पता है। बस, बीच में आंख खुलती है और जिंदगी शुरू हो जाती है।

इसीलिए तो जिंदगी में अर्थ नहीं मालूम होता। बिना प्रारंभ जाने अर्थ मालूम कैसे हो? बिना अंत जाने अर्थ कैसे मालूम हो? प्रथम और अंत का पता चल जाए तो मध्य का भी रहस्य खुल जाए। और इन मध्य की बातों में तुम इतने उलझ गए हो! इनको तुमने जरूरत से ज्यादा तूल दे दिया है। छोटी—छोटी चीजों को बड़ा बना लिया है। राई के पर्वत खड़े कर लिए हैं।

तुझे ऐ बज्मे—हस्ती कौन काफिर याद रक्खेगा?

मुसाफिर राह की बातों को अक्सर भूल जाते हैं

और अंत में सब भूल जाएगा। कुछ काम न आएगा। मौत आएगी और तुम्हारा सब बसाया हुआ उजाड़ जाएगी। तब तुम अचानक देखोगे कि रेत में घर बनाते रहे। कागज की नावें चलाते रहे। कैसे पागल थे! और कितने लड़े—झगड़े कि मेरी नाव आगे; कि तुम्हारी नाव पीछे; कि यह रेत का जो मकान मैं बना रहा हूं, मेरा तुमसे ऊंचा बनकर रहेगा। और रेत के मकान हैं। और हवा का झोंका आएगा और गिर जाएंगे। ताश के पत्तों के महल खड़े कर रहे हो और दूसरे से ऊंचा कर लेना है, दूसरे को पीछे छोड़ देना है। इसकी तुम्हें फिक्र ही नहीं है, हवा का झोंका आता होगा; सब गिरा जाएगा——छोटे महल, बड़े महल।

पाप—पुन्न की यह बजार है, सौदा करु मनमाना

और यहां दोनों चीजें बिक रही हैं——पाप भी बिक रहा है, पुण्य भी बिक रहा है। इस बाजार में सब कुछ मिल रहा है। सोच—समझकर सौदा कर लो। दूसरे को दोष मत देना। तुम्हें पूरी स्वतंत्रता है, मनमाना सौदा कर लो। यहां से कुछ लोग परमात्मा को खरीदकर लौट गए हैं और यहां से कुछ लोग अपने को भी गंवाकर लौट गए हैं। यही दुनिया, यही बाजार। कुछ लोग हीरे खरीद लेते हैं, कुछ कंकड़—पत्थर बीनते रहते हैं। कुछ फूलों से भर लेते हैं झोली और कुछ तय ही नहीं कर पाते, बिबूचन में ही पड़े रहते हैं क्या करें, क्या न करें! ऐसे ही समय बीत जाता है।

एक मित्र यहां मेरे पास आते हैं। आज भी मौजूद हैं। आज तीन साल से निरंतर सोच रहे हैं संन्यास लूं कि न लूं। बार—बार मुझे पत्र लिखते हैं कि आप कहें कि लूं या न लूं। यह भी खूब रही! मुझसे पूछते हो, आप कहें। लेना तुम्हें है। जिंदगी का तुम्हारा है सवाल। और मेरे कहने से तुम लेते होते तो तीन साल से मुझे सुनते हो, मैं और कह क्या रहा हूं? निरंतर यही तो कह रहा हूं कि लगा लो डुबकी। रंग जाओ। हो लो रंगीन जीवन के रंग में, चैतन्य के रंग में। अब तुमसे अलग से कहूं कि ले लो? उससे भी क्या फर्क पड़ेगा? फिर तुम सोचोगे कि इनकी मानना कि नहीं मानना!

फिर किसी और से पूछोगे, भई इनकी मानना कि नहीं मानना? क्या करना?

पाप—पुन्न की यह बजार है, सौदा करु मनमाना

होइहि कूच ऊंच नहिं जानसिभूलसि नाहिं हैवाना

यहां से तो जाना पड़ेगा। जाना सुनिश्चित है। यहां रुकना होनेवाला नहीं है। एक ही बात तय है जीवन में कि यहां से जाना पड़ेगा। और तब न कोई ऊंचा होगा, न कोई नीचा होगा। न कोई आगे होगा, न कोई पीछे होगा।

दिखावे के हैं सब ये दुनिया के मेले

भरी बज्म में हम रहे हैं अकेले

कितना ही तुम सोचो कि संगी हैं, साथी हैं…..

भरी बज्म में हम रहे हैं अकेले

दिखावे के हैं सब ये दुनिया के मेले

यह भीड़भाड़ सब दिखावे की है। हो तो तुम अकेले। भीड़ में भी बिल्कुल अकेले। अकेले ही आए हो, अकेले ही जाना पड़ेगा।

भरी महफिल में दम घुटता है उफ़ रे दर्द—एत्तनहाई

सब अपने हैं मगर सच है किसी का कौन होता है!

बस, कहने की बातें; सपने की बातें।

जो जो आवा रहेउ न कोई, सबका भयो चलाना

जो आया है, गया है। जो जन्मा है, मरेगा। तुम अपवाद नहीं हो, स्मरण रखना। एक भ्रांति रहती है प्रत्येक व्यक्ति के मन में कि दूसरे मरते हैं, मैं थोड़े ही मरता हूं। और इस भ्रांति के लिए कारण भी मालूम होते हैं। जब भी तुम देखते हो किसी की अर्थी, दूसरे ही की अर्थी देखते हो, अपनी अर्थी तो देखते नहीं। अपनी अर्थी तो दूसरे देखेंगे, तुम कैसे देखोगे? तुम्हें तो सदा दूसरा ही मरता मालूम पड़ता है। आज अ मरा, कल ब मरा, परसों स मरा। और तुम निश्चिंत होते जाते हो।

मुल्ला नसरुद्दीन बीमा दफ्तर में गया। सौ साल का हो गया है! दफ्तर के लोगों ने कहा, बड़े मियां, अब बीमा नहीं करेंगे। सौ साल….. अब कौन बीमा तुम्हारा करेगा! कौन बीमा कंपनी इतनी हिम्मत करेगी? नसरुद्दीन ने कहा कि आप नासमझ हैं। आंकड़े उठाकर देखो, सौ साल के बाद कभी कोई मरता है? जिनको मरना होता है पहले ही मर जाते हैं। सौ साल के बाद तो मुश्किल से कोई मरता है। तुम फिक्र न करो। और मैं तुमसे यह कहता हूं, मेरे सौ साल का अनुभव है कि सदा दूसरे लोग मरते हैं, मैं कभी नहीं मरता। सौ साल में न मालूम कितनों को मरघट पहुंचा आया हूं। और हर बार यही सोचते लौटा हूं, गजब! सब मरते हैं, एक मैं नहीं मरता।

प्रत्येक के मन में कहीं यह भ्रांति है कि मृत्यु सदा दूसरे की होती है, मेरी नहीं होती। जागो! दूसरे की मृत्यु तुम्हारी मृत्यु का इशारा है, इंगित है। हर मृत्यु तुम्हारी ही मृत्यु है क्योंकि हर मृत्यु तुम्हारी मृत्यु को करीब ला रही है। क्यू छोटा होता जाता है। एक आदमी मरा, क्यू आगे सरका। तुम और मृत्यु के दरवाजे के करीब पहुंचे।

जो जो आवा रहेउ न कोई, सबका भयो चलाना

कोऊ टूटि फूटि गारत मा, कोउ पहुंचा अस्थाना

लेकिन मरने में भी कला है, जैसे जीने की कला है। कुछ लोग जीने की कला जानते हैं और उनका जीवन महोत्सव हो जाता है, स्वर्ग हो जाता है। स्वर्ग कहीं और नहीं है, जो लोग जीने की कला जानते हैं उनके लिए यहीं है। और नरक भी कहीं और नहीं है, जो लोग जीने की कला नहीं जानते उनके लिए यहीं है। नरक है जीवन को बिना समझे बूझे जीने का परिणाम। स्वर्ग है जीवन को समझ—बूझकर जीने का परिणाम।

तुम्हारे हाथ में कोई वीणा दे दे तुम्हें बजाना न आता हो तो वीणा का कोई कसूर नहीं है। और तुम तार छेड़ोगे तो मोहल्ले के लोग पुलिस में फोन कर देंगे कि यह आदमी हमको पागल किए दे रहा है। और तुम्हारे तार छेड़ने से सिर्फ शोरगुल पैदा होगा, संगीत पैदा नहीं होगा। बस, ऐसा ही जीवन में तुम कर रहे हो। वीणा तो मिली है मगर बजाना नहीं आता। नरक पैदा हो रहा है। इसी वीणा पर कुशल हाथ पड़ जाएं, अपूर्व संगीत पैदा हो। वही संगीत निर्वाण है, समाधि है, ईश्वर है।

और फिर जैसे जीने की कला होती है वैसे मरने की कला होती है। और जिसने ठीक से जिया है वही मरने की कला सीख पाता है। क्योंकि मरना जीवन की पूर्णाहुति है। वह जीवन का अंतिम शिखर है, गौरीशंकर है।

किन व्यक्तियों को जगजीवन कहते हैं मरने की कला जाननेवाले लोग? कोउ फूटि टूटि गारत मा….. कुछ लोग तो बस टूट—फूटकर मिट्टी हो जाते हैं। कोउ पहुंचा अस्थाना। लेकिन कुछ लोग उस परम स्थान पर पहुंच जाते हैं। कुछ तो यही मिट्टी थे, मिट्टी में ही गिर जाते हैं, फिर मिट्टी में ही बंध जाते हैं; फिर मिट्टी में ही सन जाते हैं। इधर एक देह छूटी, उधर दूसरी देह मिली। इधर एक शरीर हटा, उधर दूसरे गर्भ में प्रवेश हुआ। इधर एक मिट्टी से छुटकारा हुआ, दूसरी मिट्टी मिली। पुराना घड़ा टूटा, नया घड़ा बना। बस, यहीं मिट्टी में ही भटक जाते हैं।

लेकिन कुछ लोग हैं जिनका घड़ा तो टूटता है लेकिन फिर वे किसी और घड़े में अपने को आबद्ध नहीं करते, आकाश के साथ एक हो जाते हैं। घड़े के भीतर भी आकाश है। घड़े के टूटते ही दीवाल हट जाती है। घटाकाश, घड़े के भीतर का आकाश घड़े के बाहर के आकाश से एक हो जाता है। उस परम मिलन की वेला को ही मोक्ष कहा है।

अब कि संवारि संभारि बिचारि ले, चूका सो पछिताना

जगजीवन दृढ़ डोरि लाइ रहु, गहि मन चरन अडाना

जगजीवन कहते हैं, अब सम्हाल लो। बहुत दिन हो गए बिना सम्हाले। अब कि संवारि संभारि बिचारि ले——अब तो सम्हलो! अब तो जागो! अब होश से भरो! चूके तो बहुत पछताओगे।

लोग सुन भी लेते हैं मगर समझ नहीं पाते। जिंदा तो गलत रहते ही हैं, मरकर भी गलत। लोग जिंदगी में भी दूसरों से आगे रहने की कोशिश में रहते हैं, मरने के बाद भी इंतजाम कर देते हैं कि मेरी कब्र ऐसी बनाना, संगमरमर की हो, कि स्वर्णाक्षरों में नाम लिख देना। अपने मरने के बाद कब्र पर जो पत्थर लगेगा वह भी लोग तैयार करवाकर रख जाते हैं। तुम ही मिट गए, कब्र बचेगी? कितने दिन बचेगी? तुम न बच सके, कब्र बचेगी?

अज़ीजो सादा ही रहने दो लौह—एत्तुरबत को

हमीं नहीं तो यह नक्श—ओ—निगार क्या होगा

सजाने से क्या प्रयोजन है? हमीं नहीं तो यह नक्श—ओ—निगार क्या होगा! फिर फूल—बूटी चढ़ाओ, फूल—पत्तियां चढ़ाओ, संगमरमर पर सुंदर—सुंदर नाम खोदो, मूर्तियां खड़ी करो। मगर असली चला गया, अब प्रतिकृतियों से क्या होगा? मगर आदमी का मोह! आदमी गलत जिंदा रहता है, गलत मरता है।

हुए मरके हम जो रुसबा हुए क्यूं न गर्क़—ए—दरिया

न कहीं जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता

समझदार तो कहते हैं, अगर नदी में डूब मरे होते, जहाज डूब गया होता सागर में तो अच्छा होता। न कहीं जनाजा उठता न कहीं मजार होता। चिह्न भी मिट जाते। क्योंकि सब चिह्न हमारे जीवन के हमारे अज्ञान के ही चिह्न हैं। हमारे सब पगचिह्न हमारी भ्रांतियों के ही प्रमाण हैं।

जगजीवन दृढ़ डोरी लाइ रहु——अब तो ऐसे प्रेम का धागा बांधो ईश्वर से, ऐसी डोरी बांधो….. गहि मन चरन अडाना——कि उस ठिकाने पर पहुंचना सुनिश्चित ही हो जाए। अब तो डोर परमात्मा से जोड़ो। कौन—सी डोर? ध्यान की डोर, होश की डोर, जागरण की डोर, प्रीति की डोर। इसे मजबूत करो।

कोई आदमी कुएं में गिर जाए, तुम डोर फेंकते हो बाहर निकाल लेने को। अगर दार्शनिक किस्म का आदमी हो तो पूछेगा, डोर किसने बनाई? हिंदू ने कि मुसलमान ने, ब्राह्मण ने कि शूद्र ने? हर किसी की डोर नहीं पकड़ूंगा। डोर क्यों बनाई? बनाने का कारण क्या है? डोर क्यों कुएं में डाली? मुझे बचाने का हेतु क्या है? इतनी सारी बातों का उत्तर जब पा जाए, तब अगर कोई डोर पकड़ने को राजी हो तो शायद मरेगा ही; डोर पकड़ ही नहीं पाएगा। इन सारी बातों का क्या उत्तर है?

लेकिन कुएं में डूबता आदमी ये बातें पूछता ही नहीं, डोर पकड़ लेता है। मरते को तो तिनके का सहारा बहुत हो जाता है, डोर आ गई है। तो तुम भी यह मत पूछो कि डोर किसकी है? जहां से डोर पकड़ में आ जाए! मस्जिद से तो मस्जिद, मंदिर से तो मंदिर, गुरुद्वारे से तो गुरुद्वारा। जहां से डोर पकड़ में आ जाए——बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर, नानक, जहां से डोर पकड़ में आ जाए। बस डोर पकड़ लो। इस व्यर्थ ऊहापोह में मत पड़े रहो।

मैं अमृतसर जाता था तो एक ज्ञानी सिक्ख सदा मुझे मिलने आते थे। उनका काम एक ही था कि मैं जो कहूं, वे तत्क्षण गुरुग्रंथ साहब से उसके प्रमाण में कोई वक्तव्य दे दें कि हां, ऐसा ही गुरुग्रंथ साहब में भी कहा है। मैंने उनसे कहा कि गुरुग्रंथ साहब में कहा है या नहीं कहा है यह सवाल नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह तुम्हारी समझ में आया कि नहीं? गुरुग्रंथ साहब में भी कहा है और कुरान में भी कहा है और वेद में भी कहा है——क्या होगा? नहीं, उन्होंने कहा कि आप जो कहते हैं, जब मुझे गुरुग्रंथ साहब में उसका सहारा मिल जाता है तो मुझे मानना आसान हो जाता है।

लोगों को इसकी फिक्र है कि किसने डोर बनाई। अगर नानक के हाथ की सील लगी हो तो डोर पर तो मान लेंगे। डूबने में इतनी फिक्र नहीं लग रही है उन्हें। डूब रहे हैं इसका शायद पता भी नहीं है। और अगर नानक की सील न लगी हो तो? तो वे इंकार कर देंगे। और नानक ने क्या कहा है इसे क्या खाक समझोगे तुम! इसे तो वे ही समझ सकते हैं जो जागे और बचे। जो उबरे वे ही समझ सकते हैं।

लोग तालमेल बिठाते रहते हैं। मैं यहां बोलता हूं, वे तालमेल बिठाते रहते हैं अपनी किताब से कि हां, ठीक है। अगर किताब से मेल खाया तो ठीक है। अगर किताब से मेल नहीं खाया तो ठीक नहीं है। तुम्हें बचना है कि तुम्हें किताबों के मेल बिठालने हैं? मैं तुम्हारी तरफ डोर फेंक रहा हूं। तुम फिक्र छोड़ो, डोर का कोई मूल्य नहीं है। एक दफा कुएं के बाहर निकल आओ फिर भूल जाना डोर को। कोई डोर को लेकर सिर पर थोड़े ही घूमता है। नाव से नदी पार हो गए, फिर नाव को सिर पर लेकर थोड़े ही बाजार में घूमना पड़ता है। फिर नाव किसने बनाई थी, इसकी फिक्र छोड़ो। नाव है इतनी—भर बात समझ में आ जाए।

पैयां पकरि मैं लेहुं मनाय

बस, उसके चरण तुम्हें जहां भी दिखाई पड़ने लगें, जहां भी उसका इशारा मालूम होने लगे, जिनकी आंखों में भी तुम्हें थोड़ी—सी उसकी आभा दिखाई पड़ने लगे, जिनके हाथों में थोड़ी तुम्हें उसके हाथों की पहचान मालूम होने लगे, जिसकी वाणी पर तुम्हें भरोसा आ जाए। और बात भरोसे की है, बात श्रद्धा की है। क्योंकि तुम्हें पता नहीं है उस लोक का। इतना ही हो सकता कि जो उस लोक से आया हो, जो उस लोक में जी रहा हो, जो उस लोक से जुड़ा हो, जरूर उसकी आंखों में उस लोक की कुछ छाया होगी।

बगीचे से कोई गुजरता है तो फूलों की गंध कपड़ों में बस जाती है। जरूर उसमें कुछ सुवास होगी। बस उसी से परोक्ष तुम्हें प्रमाण मिल सकता है। उतना जहां प्रमाण मिल जाए वहां पैर पकड़ लेना। जगजीवन को बुल्लेशाह में ऐसा प्रमाण मिल गया। ये वचन बुल्लेशाह के लिए कहे हैं, अपने गुरु के लिए कहे हैं।

पैयां पकरि मैं लेहुं मनाय

बस मुझे झलक मिल गई, अब मैं छोड़ूंगा नहीं। अब तो मैं मानाकर ही रहूंगा। अब तो जब तक मुझे न पहुंचा दो तब तक छाया की तरह पीछा करूंगा।

पैयां पकरि मैं लेहुं मनाय

ऐसे भी बहुत देर हो गई है। यह जीवन भी खो न जाए। यह जीवन भी चूक न जाए।

अब के भी तुम दूर रहे

अब के भी बरसात चली!

यह सावन भी खो न जाए। मिलन होना चाहिए। एक—एक पल मूल्यवान है।

इसका रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बरबाद

इसका ग़म है कि बहुत देर में बरबाद किया

कहौं कि तुम्हहीं कहं मैं जानौं, अब हौं तुम्हरी सरनहिं आय

——कि अब तो मैं तुमसे कहता हूं, गुरु को कह रहे हैं कि तुम्हारे अतिरिक्त मैं किसी को नहीं जानता। कहीं मुझे जाना नहीं है। अब हौं तुम्हारी सरनहिं आय——अब मैं तुम्हारी शरण आ गया हूं। अब तुम मुझे ठुकराओ, तुम मुझे भगाओ, भगा न सकोगे।

दिल की मजबूरी क्या शै है कि दर से अपने

उसने सौ बार उठाया तो मैं सौ बार आया

गुरु भगाए भी, हटाए भी, भागना मत। गुरु भगाएगा, हटाएगा भी। क्योंकि इन्हीं कसौटियों से गुजरकर डोर मजबूत होती है। इन्हीं चुनौतियों को पार करनेवाला समर्थ होता है, पात्र बनता है।

कहौं कि तुम्हहीं कहं मैं जानौं, अब हौं तुम्हरी सरनहिं आय

जोरी प्रीत न तोरी कबहूं, यह छबि सुरति बिसरि नहिं जाय

मैंने तो जो प्रीति जोड़ ली, अब तोड़ूंगा नहीं और यह छबि को बिसरने नहीं दूंगा। अब तो यही मेरी संपदा है। तुम चाहे कितनी ही नजरें चुराओ और तुम चाहे कितनी ही नजरें बचाओ, मैं यह भिक्षापात्र लिए तुम्हारे सामने बैठा हूं। ये मेरे आंसू गिरते रहेंगे तुम्हारे चरणों पर। मैं तुम्हें पुकारूंगा।

बस एक लतीफ तबस्सुम, बस एक हसीन नजर

मरीज़—ए—गम की यह हालत सम्हल तो सकती है

जरा एक बार देखो तो यह मरीज भी ठीक हो सकता है। यह दुःख, यह पीड़ा जा सकती है। यहां भी फूल खिल सकते हैं।

जोरी प्रीत न तोरी कबहूं, यह छबि सुरति बिसरि नहिं जाय

परदे से इक झलक जो वो दिखलाके रह गए

मुश्ताक—ऐ—दीद और भी ललचाके रह गए

और फिर जब थोड़ी—थोड़ी झलक मिलने लगती है, थोड़ा—थोड़ा रस मिलने लगता है, बूंदाबांदी होने लगती है तो फिर और भी प्रगाढ़ प्यास जगती है, ज्वलंत अग्नि जगती है।

निरखत रहौं निहारत निसु दिन…..

फिर तो चौबीस घंटे देखता ही रहूं।

निरखत रहौं निहारत निसु दिन, नैन दरस—रस पियौं अघाय

फिर तो जितना बन सके, पूरी तरह तृप्त होकर वह जो तुम्हारी आंखों से दरस—रस, दर्शन का रस झलक रहा है उसे पी लूं।

गुरु ने देखा है परमात्मा को, उसकी आंखों में उसके दर्शन का रस है। उसकी आंखों में मस्ती है। शिष्य में नहीं देखा है लेकिन गुरु की आंखों में तो शिष्य देख सकता है। गुरु की आंखों में तो शिष्य झलक पा सकता है। जैसे चांद को तुम झील में देख सकते हो ऐसे ही परमात्मा को गुरु की आंख में देख सकते हो।

जगजीवन के समरथ तुमहीं, तजि सतसंग अनत नहिं जाय

अब यह सत्संग नहीं छोड़ूंगा। जान ली है तुम्हारी सामर्थ्य। जान लिया है कि तुम उससे जुड़ गए। इतनी बात पहचान ली है, अब कहीं और जाने का कोई कारण नहीं रह गया है। गुरु से आंख मिलती है तो एक अपूर्व घटना घटती है; एक ऐसा प्रेम जो फिर कभी टूटता नहीं। टूट जाए तो समझना कि था ही नहीं।

हमने पाला मुद्दतों पहलू में और हम कुछ भी नहीं

तुमने देखा एक नजर और दिल तुम्हारा हो गया

तुम्हारा ग़म, तुम्हारी याद जब तक साथ देती है

कठिन हो कितनी ही मंजिल, कदम बोझिल नहीं होते

और गुरु की याद के सहारे यात्रा शुरू हो जाती है। दूर है मजिंल। अपनी आंखों से देखना उस परम को पता नहीं कब होगा, पर उन आंखों से तो हम जुड़ ही सकते हैं जिनको घटना घटी हो। हमारा दीया जब जलेगा, जलेगा, लेकिन किसी जले के दीये के पास तो हम सरक सकते हैं——और पास….. और पास। और पास—और पास आ जाने का नाम सत्संग है।

ऐ दर्द ये चुटकियां कहां तक?

उठ और जिगर के पार हो जा

और पास! पीड़ा बढ़ती जाए, प्यास जगती जाए, प्रार्थना सघन होती जाए।

झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया री

कैसा अद्भुत वचन है! जगजीवन कहते हैं कि और जब बिल्कुल पास आना हो जाता है तो क्या होता है मालूम है? झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया री। जैसे बस एक ही छलांग में चढ़ जाऊं अटरिया। सारी सीढ़ियां एक ही छलांग में चढ़ जाऊं।

झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया री

ए सखि पूंछों सांई केहिं अनुहरिया री

बस यही पूछता हूं कि यह कैसे घट सके कि एक ही छलांग में बात हो जाए, ऐसी कोई सूरत बताओ, ऐसा कोई मार्ग बताओ। ए सखि पूंछों सांई केहि अनुहरिया री। कैसे, किस सूरत से, किस ढंग से, किस विधि से झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया री। तुम जिस शिखर पर बैठे हो वहां कैसे आ जाऊं? तुम्हें देख लिया है गौरीशंकर पर बैठे। वहां मैं कैसे आ जाऊं? मैं इस अंधेरी झील में पड़ा हूं। मैं इस अंधेरी घाटी में भटका हूं।

सो मैं चहौं रहौं तेहिं संगहिं निरखि जाऊं बलिहरिया री

कुछ ऐसा मार्ग बता दो कि सो मैं चहौं रहौं तेहिं संगहिं। चाहे कुछ भी हो जाए, तेरा साथ बना रहे ऐसा कुछ मार्ग बता दो। कुछ भी हो जाए, वहां पहुंच जाऊं जहां तू है। झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया री।

देखते हो? सीधे—सादे सरल गांव के ग्रामीण आदमी के वचन, पर बुद्ध को भी ईष्या न हो जाए? झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया——कोई कठिन शब्द तो नहीं हैं। कोई व्याख्या की जरूरत नहीं है। कुछ समझाने की बात नहीं है, सीधी—सीधी है, साफ—साफ है।

मैं समझता हूं तिरि इशवागरी को साकी

काम करती है नजर, नाम है पैमाने का

गुरु के पास जो मदिरा पी जाती है वह मदिरा तो आंख से बहती मदिरा है। गुरु से जुड़ने का ढंग उसकी आंख से जुड़ने का ढंग है, उसकी दृष्टि से जुड़ने का ढंग है, उसके दर्शन से जुड़ने का ढंग है।

कभी जो दिल को उठाया कदम उठा न सका

गरज—मैं कूच—ए—जानां से उठके जा न सका

और एक बार सत्संग हो जाए, एक बार. . .सुनते हो इस कोयल को? ऐसी एक बार किसी के हृदय से उठती हुई आवाज सुनाई पड़ जाए, फिर कहां जाना है? फिर कैसा जाना है?

निरखत रहौं पलक नहिं लाओं, सूतों सत्त—सेजरिया री

फिर तो देखता रहूं, पलक भी न झपे। सत्य की सेज बनाऊं। तुममें डूब जाऊं, एक हो जाऊं।

रहौं तेहिं संग रंग—रसमाती, डारौं सकल बिसरिया री

तेरे रस में डूबूं, तेरे संग में डूबूं। सब और भूल जाए, बस तू एक याद रहे।

जगजीवन सखि पायन परिके, मांगि लेऊं तिन सनिया री

और तो मैं कुछ जानता नहीं, तेरे पैर पकड़ता हूं। तेरे पैर पकड़कर मांगता हूं कि ही राह बता दे, तू ही मार्ग बता दे।

और जिसने गुरु के भीतर झांक लिया पूरा—पूरा, उसने परमात्मा के भीतर झांकना शुरू कर दिया। गुरु तो खिड़की है। उस खिड़की से जिसने झांका उसे आकाश दिखाई पड़ा। खिड़की के पास आओ तो आकाश दिखाई पड़े, यही सत्संग का अर्थ है।

वो मैगुसार थी साक़ी निगाह—ए—मस्त तिरी

तमाम बज्म में जाम—ए—शराब होके फिरी

और जब किसी गुरु का सत्संग जम जाता है, जब पीनेवाले उसके पास इकट्ठे हो जाते हैं तो कुछ ऐसा थोड़े ही है कि एक के पीने से गुरु चूक जाता है! चूकता ही नहीं क्योंकि गुरु तो है नहीं, अब तो अनंत स्रोत उससे बह रहा है।

वो मैगुसार थी साक़ी निगाह—ए—मस्त तिरी

तमाम बज्म में जाम—ए—शराब होके फिरी

सारी महफिल पिए। सारा संसार एक गुरु से पी सकता है, पीनेवाले चाहिए।

मैकशो, मै की कमी बेशी प’ नाहक़ जोश है

यह तो साक़ी जानता है किसको कितना होश है

और फिर जिसको जितनी जरूरत है उतनी उसे मिल जाती है। यह तो साक़ी जानता है किसको कितना होश है।

साधो नाम तें रहु लौ लाय, प्रगट न काहू कहहु सुनाय

यह जो प्रभु—स्मरण है, इसे चुपचाप करना। यह जो संबंध बने, अनंत से तुम्हारी जो भांवर पड़े, इसे चुपचाप डाल लेना।

साधो नाम तें रहु लौ लाय

गुरु से पूछा कि मार्ग बता दो। तुम्हारे पैर पड़ता हूं, तुम्हारे पैर गिरता हूं, मुझे मार्ग बता दो। और मर्ग तो एक ही है कि प्रभु का स्मरण करो। तो गुरु ने कहा, नाम का स्मरण करो।

जगजीवन कहते हैं कि नाम से लौ को लगा दो। लेकिन खयाल रखना, प्रकट न काहू कहहु सुनाय। लोगों को बताते मत फिरना, उछलते मत फिरना कि देखो मैं कितना भजन कर रहा हूं, कितना कीर्तन कर रहा हूं, कितना ध्यान कर रहा हूं। चुपचुप हो यह बात। गुपचुप हो यह बात। जितनी गुपचुप हो उतनी गहरी होगी। छुपाकर रखना। हीरा जितना बहुमूल्य हो, हम उतना ही गहरा गड़ा देते हैं।

झूठे परगट कहत पुकारिं——वे जो झूठे हैं, जिन्हें न प्रार्थना आती है, न कीर्तन न भजन, वे विज्ञापन करते फिरते रहते हैं।

झूठै परगट कहत पुकारिं, तातैं सुमिरन जात बिगारि

थोड़ा—बहुत सुमिरन बनता भी हो तो मिट जाता है। कहना मत, इसे सम्हालकर रखना।

एक बात तुम जानते हो? इस दुनिया में कुछ कठिन बातों में एक बात यह है कि अगर कोई चीज तुमसे कही जाए कि गुप्त रखना, तो रखना बहुत मुश्किल हो जाता है। तुमसे किसी ने कहा, इस बात को गुप्त रखना, किसी को कहना मत। बस, बड़ी मुश्किल हुई। अब सम्हलती नहीं, बार—बार जबान पर आती है। कह देने का मन हो—हो जाता है। और आखिर में तुम कहोगे ही।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी को कुछ कहा और कहा, किसी से कहना मत। देख, याद रख। सम्हालकर रखना। यह गुप्त ही रहनी चाहिए बात। लेकिन दूसरे दिन गांव—भर में फैल गई। मुल्ला बहुत नाराज आया और पत्नी से बोला कि तूने जरूर किसी को कहा होगा। बात गांव—भर में फैल गई। उससे कहा, मैंने कहा था लेकिन साथ में कहा था, किसी से कहना मत। और फिर जब तुम खुद ही न रख सके अपने भीतर और मुझसे कह दिए तो तुम क्या आशा रखते हो कि मैं रख सकूंगी अपने भीतर?

किसी भी चीज को भीतर रखना कठिन होता है। लेकिन अगर भीतर रख लो तो अपने आप गहराई में उतरने लगती है। जितना भीतर रखो उतनी गहराई में उतरती है। इसलिए जो लोग किसी बात को गुप्त रख सकते हैं उनमें एक गहराई होती है, जो उन लोगों में नहीं होती जो किसी बात को गुप्त नहीं रख सकते।

इसलिए सदियों से यह प्रक्रिया रही है कि गुरु जब मंत्र देता है तो वह कहता है, गुप्त रखना। मंत्र में कुछ खास नहीं होता। हो सकता है उसने तुमसे यही कहा हो, राम—राम जपो। अब मंत्र क्या सारी दुनिया को पता है राम—राम जपो। लेकिन गुरु कान में कहता है और कहता है, गुप्त रखना। अब तुम बहुत हैरान होओगे, तुम बड़े चौंकोगे कि यह मामला क्या है?

कल ही मैं एक लेख पढ़ रहा था। कोई अमरीकन हिमालय आया और किसी गुरु से दीक्षा लेकर गया और उसने मंत्र दिया और कहा कि देखो, इसे गुप्त रखना। और वह अमरीकन हैरान है कि इसको गुप्त क्या रखना? “हरे कृष्ण हरे राम’——सारी दुनिया जानती है। सड़क—सड़क पर लोग गा रहे हैं, इसको गुप्त क्या रखना? तो उसने लेख लिखा है कि यह बात फिजूल बकवास है। इसमें गुप्त रखने—योग्य कुछ है ही नहीं। हरे कृष्ण हरे राम कौन नहीं जानता?

चूक गया। उसे पता नहीं कि बात क्या है? सवाल यह नहीं है कि मंत्र में कुछ गुप्त रखने को है, सवाल गुप्त रखने में कुछ महत्त्व की बात है। जब तुम किसी चीज को गुप्त रखते हो, आती है जबान पर और नहीं आने देते, लौटा—लौटा देते हो तो बाहर जाने की बजाय भीतर जाने लगती है। जाएगी तो कहीं। अगर बाहर जाने दी तो बाहर चली जाएगी। अगर बाहर न जाने दी तो भीतर जाएगी। अगर सब तरफ से द्वार—दरवाजे बंद कर दिए तो तुम्हारे प्राणों में गहरे से गहरे उतरने लगेगी। गति तो होने ही वाली है। दो ही द्वार हैं——या तो बाहर या भीतर। या तो ऊपर की तरफ उठे या गहराई में जाए।

तो ध्यान रखना, मंत्र का मतलब यह नहीं होता कि उसमें कुछ छिपाने—जैसा है। मंत्र में क्या छिपाने जैसा है? बंधे—बंधाए मंत्र हैं। कोई कहता है ओम्, कोई कहता है नमोकार, कोई कुछ और। बस सब बंधे—बंधाए मंत्र हैं, सब किताबों में लिखे हैं। गुप्त कुछ भी नहीं है। लेकिन गुप्त रखने की कला में कुछ बात है। रसायन वहां है।

वह बेचारा अमरीकन, जब मैं कल उसका लेख पढ़ रहा था, चूक ही गया बात से। वह समझ रहा है कि उसको बुद्धू बनाया गया। और अक्सर ऊपर से दिखाई पड़ेगा कि हां, बात तो यही है। जब ऐसा साधारण—सा मंत्र है, इसको छिपाना क्या? धर्म के जगत् में जल्दबाजी मत करना निर्णय लेने की; नहीं तो चूकोगे।

साधो नाम तें रहु लौ लाय, प्रगट न काहू कहहु सुनाय।

झूठै परगट कहत पुकारिं, तातें सुमिरन जात बिगारि

भजन बेलि जात कुम्हलाय, कौनि जुक्ति कै भक्ति दृढ़ाय

सिखि पढ़ि जोरि कहै बहु ज्ञान, सो तौ नाहिं अहै परमान

सम्हालकर रखना। भीतर गड़ते जाना। गहरे में खोदते जाना, खोदते जाना। एक दिन मंत्र वहां पहुंच जाएगा जहां तुम्हारे प्राणों का स्रोत है। और जिस दिन प्राणों के स्रोत पर पहुंच जाती है चिंगारी मंत्र की, आग भभककर उठती है। सब व्यर्थ राख हो जाता है और सार्थक प्रकट होता है।

सिखिपढ़िजोरि कहै बहु ज्ञान——कुछ लोग हैं जो सीख लेते हैं, पढ़ लेते हैं, ज्ञान को जोड़ते रहते हैं और सोचते हैं, ज्ञानी हो गए। ऐसे कोई ज्ञानी नहीं होता। जब तक चिंगारी बोध की तुम्हारे भीतर जाकर तुम्हारी ज्योति को न जगा दे तब तक कोई ज्ञानी नहीं होता।

सो तो नाहिं अहै परमान——खयाल रखना, यह पढ़ा—लिखा, सुना हुआ, गुना हुआ, दूसरों से सीखा हुआ उधार ज्ञान परमात्मा का प्रमाण न है, न हो सकता है। उसका तो सिर्फ एक ही प्रमाण है और वह है स्वयं का साक्षात्कार।

प्रीति—रीति रसना रहे गाय, सो तौं राम कों बहुत हिताय

सुनते हो? कैसा रसभरा वचन है!

सिखि पढ़ि जोरि कहै बहु ज्ञान, सो तो नाहिं अहै परमान

प्रीति—रीति रसना रहै गाय,…..

लेकिन प्रेम से, भीतर—भीतर रस उमगे, रस में डूबे। ऐसा डूबे कि भीतर का रस एक दिन बाहर गीत बनकर प्रकट होने लगे।

प्रीति—रीति रसना रहै गाय, सो तौ राम कों बहुत हिताय

ऐसा व्यक्ति परमात्मा को बहुत प्यारा हो जाता है। तुम्हारे पढ़े—लिखे ज्ञान से तुम परमात्मा के प्यारे नहीं होते। पांडित्य तुम्हें दूर रखता है, निकट नहीं लाता। प्रेम पास लाता है। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।

सो तौ मोर कहावत दास——जिसने प्रीति की रीति सीख ली, वह तो उसका दास हो जाता है।

सो तौ मोर कहावत दास, सदा बसत हौं तिनके पास

परमात्मा उनके पास बसने लगता है। फिर भक्त को परमात्मा को खोजने नहीं जाना पड़ता, परमात्मा ही भक्त को खोजता आने लगता है।

मैं—मरि मन तें रहे हैं हारि——जो मर गया अपने मैं—भाव में, जिसने अपनी मन की हार मान ली, स्वीकार कर ली, दिप्त ज्योति तिनकै उजियारि——उसके भीतर ही ज्योति जलती है और उजियारा होता है।

जगजीवनदास भक्त भै सोइ, तिनका आवागमन न होइ

ऐसा व्यक्ति ही भक्त है। और ऐसे भक्त का फिर आवागमन नहीं होता। उसकी ज्योति महाज्योति में लीन हो जाती है। उसे मरने की कला भी आ गई। उसने जिया भी उत्सव से, वह मरा भी उत्सव से। जीवन भी जब उत्सव हो और मृत्यु भी जब उत्सव हो जाए, जब जीवन भी प्रभु का गुणगान हो और मृत्यु भी प्रभु का गुणगान बने, तभी जानना, तुम व्यर्थ नहीं गए; तुम सार्थक हुए।

बौरे, जामा पहिरि न जाना

बहुत बार इन्हीं कपड़ों में डूबे—डूबे चले गए हो, इस बार जगकर चैतन्य को पहचान कर जाना।

चुन लिए औरों ने गुलहा—ए—मुराद

रह गए दामन ही फैलाने में हम

देर न करो। और कल की प्रतीक्षा मत करो। कल का कोई भरोसा नहीं। कल कभी आता नहीं।

सूत्र सीधे—साफ हैं। ज्ञान से नहीं मिलता है परमात्मा, प्रेम से मिलता है। ज्ञान तो अकड़ा देता है, अहंकार से भर देता है। प्रेम उसके चरणों में झुका देता है। पैयां पकरि मैं लेहु मनाय। प्रेम ही मना सकता है पैयां पकड़कर। ज्ञान तो दावेदार होता है। कहता है, मैं इतना जानता हूं इसका मुझे पुरस्कार चाहिए। प्रेम दावेदार नहीं होता, प्रेम विनम्र होता है। प्रेम कहता है, मेरी क्या योग्यता? मैं अपात्र हूं। तेरी करुणा का भरोसा है, अपनी पात्रता का भरोसा नहीं है।

और एक बार तुम उसके चरणों में अपने को छोड़ो, तुम हैरान हो जाओगे। उसका हाथ तुम्हारे सिर पर आ जाता है। उसका हाथ तुम्हारे हाथ में आ जाता है।

सबा के हाथ में नमी है उनके हाथों की

ठहर—ठहरकर यह होता है आज दिल को गुमां

वह हाथ ढूंढ़ रहे हैं बिसाते—महफिल में

कि दिल के दाग कहां हैं, नशिस्ते—दर्द कहां

तेरा जमाल निगाहों में ले—लेके उट्ठा हूं

निखर गई है फिज़ा तेरे पैरहन की—सी

नसीम तेरे शबिस्तां से होके आयी है

मेरे सहर में महक है तेरे बदन की—सी

फिर तो सब तरफ उसी का अनुभव होने लगता है। सब के हाथों में नमी है उनके हाथों की। हवा आती है, हल्के से एक झोंका दे जाती है और लगता है, उसके हाथों का स्पर्श हुआ। लगता ही नहीं, होता है। हवा उसके ही हाथ हैं। नहीं पहचाना तो हवा है, पहचाना तो उसके हाथ हैं।

सबा के हाथ में नमी है उनके हाथों की

ठहर—ठहरके यह होता है आज दिल को गुमां

अब तो धीरे—धीरे विश्वास होने लगा। ठहर—ठहरकर विश्वास आ रहा है, श्रद्धा आ रही है।

वह हाथ ढूंढ रहे है बिसाते—महफिल में

इतनी बड़ी महफिल में, लेकिन वे हाथ भक्त को ढूंढने लगते हैं, अपने प्यारे को ढूंढने लगते हैं कि दिल के दाग कहां हैं, नशिस्ते—दर्द कहां है। कि कहां—कहां दाग हैं, कहां—कहां घाव हैं ताकि मलहम—पट्टी हो सके। नशिस्ते—दर्द कहां! कहां—कहां दर्द के स्थान हैं, ताकि वे हाथ आएं और घावों को भर दें। कहां—कहां रोग है, ताकि उपचार हो सके।

वह हाथ ढूंढ रहे है बिसाते—महफिल में

कि दिल के दाग़ कहां हैं, नशिस्ते—दर्द कहां

तेरा जमाल निगाहों में ले—लेके उट्ठा हूं

फिर तो उसी का रूप दिखाई पड़ता है। वृक्षों की हरियाली में उसकी हरियाली और फूलों के रंग में उसका रंग। इंद्रधनुषों में वही तना है। सूरज की किरणों में वही फैला है। सागर की लहरों में वही गूंजा है। उसी की गुंजार! पहाड़ों में वही सिर उठाए खड़ा है। सब तरफ उसका रूप।

तेरा जमाल निगाहों में ले—लेके उट्ठा हूं

निखर गई है फिज़ा तेरे पैरहन की—सी

सब कुछ नहा गया है। तुझे नहाया हुआ देखता हूं चारों तरफ। क्योंकि सारे रंग तेरे, सारे रूप तेरे।

नसीम तेरे शबिस्तां से होके आयी है

और मुझे अब पक्का भरोसा है कि यह हवा, जो सुवास लेकर आ रही है, यह तेरे निवासस्थान से आ रही है, यह तेरे मंदिर से आ रही है।

नसीम तेरे शबिस्तां से होके आयी है

मेरे सहर में महक है तेरे बदन की—सी

और मेरी सुबह में जो महक मुझे मिल रही है, वह तेरे देह की महक है; वह तेरी महक है। फिर तो वर्षा होती है और जमीन से सोंधी गंध उठती है, उसी की गंध है। फिर तो सब उसका है। एक बार पहचान। और पहचान की रीति——प्रीति, ज्ञान नहीं। जो ज्ञान में भटके, अज्ञानी रह गए। और जिन्होंने अपने अज्ञान को पहचाना, उसके चरणों में झुके और कहा,

पैयां पकरि मैं लेहु मनाय

कहौं कि तुम्हहीं कहं मैं जानौं, अब हौं तुम्हरी सरनहिं आय

जोरी प्रीत न तोरी कबहूं, यह छबि सुरति बिसरि नहिं जाय

पैयां पकरि मैं लेहु मनाय

जो ऐसा कह सकता है, ऊपर—ऊपर नहीं, प्राणों से; अपनी समग्रता से, उसे देर नहीं लगती। चढ़ जाता है अटरिया उसकी। झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया री।

रास्ता साफ है। तुम जरा सरल होओ। तुम जरा सम्हलो। रास्ता साफ है, तुम जरा होश से भरो। तुम भी चढ़ सकोगे उसकी अटरिया। और उसकी अटरिया जो चढ़ गया, अमृत को पा गया। सच्चिदानंद उसकी अटरिया का दूसरा नाम है।

झमकि चढ़ि जाऊं अटरिया री

उठने दो इस भाव को गहरे तुम्हारे भीतर। रोएं—रोएं में समाने दो। कहते मत फिरना, गुप्त रखना।

साधो नाम तें रहु लौ लाय, प्रगट न काहू कहहु सुनाय

झूठै परगट कहत पुकारिं, तातें सुमिरन जात बिगारि

भजन बेली जात कुम्हलाय…..

कहना मत। भजन की बेल कुम्हला जाएगी। जैसे कोई जमीन से बेल को उखाड़ ले देखने जड़ों को और लोगों को दिखाने को कि देखो, मेरी बेल की जड़ें कितनी मजबूत हैं। उसकी बेल कुम्हला जाएगी। जड़ें तो अंधेरे में छिपी रहनी चाहिए। ऐसे ही तुम्हारे अंतस्तल में, तुम्हारे गहरे प्राणों में तुम्हारे भजन की जड़ें समायी रहनी चाहिए।

सिखि पढ़ि जोरि कहै बहु ज्ञान, सो तो नाहिं अहै परमान

उसका प्रमाण उससे मिलता है जिसने उसे प्रेम किया। उससे नहीं, जिसने शास्त्रों से उसके संबंध में जानकारी इकट्ठी की। रामकृष्ण से किसी ने पूछा, ईश्वर का प्रमाण क्या है? रामकृष्ण ने कहा, मैं प्रमाण हूं। मेरी तरफ देखो। मेरी आंखों में झांको। मेरे हाथ को अपने हाथ में लो। मैं प्रमाण हूं।

उस दिन को दिन कहना जिस दिन तुम भी कह सको, मैं प्रमाण हूं। जब तक वैसा दिन न आ जाए तब तक समझना, सब रात है। और रात भी रात—सी रात——अमावस की रात है।

आज इतना ही।


Filed under: नाम सुमिर मन बावरे--(जगजीवन दास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, मां बोधि उनमनी, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–19)

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अहिंसा नहीं,कोमलता—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

प्यारे ओशो!

आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि)। सत्वशुद्धौ हवा स्मृति:।

स्मृतिलाभै सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्ष।।

आहार की शुद्धि होने पर सत्व की शुद्धि होती है,

सत्य की शुद्धि होने पर ध्रुव स्मृति की प्राप्ति होती है।

और स्मृति की प्राप्ति से समस्त ग्रंथियां खुल जाती हैं।

प्यारे ओशो!

छादोग्योपनिषद् के इस सूत्र की व्याख्या करने की अनुकंपा करें।

 त्यानंद! आहार की शुद्धि होने पर सत्व की शुद्धि होती है। आहार का अर्थ है : जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। जो भीतर है, वह सत्य। जो स्वरूप है, वह सत्व। और जो उस पर आच्छादित होता है, वह आहार। इसलिए आहार से भोजन मात्र न समझना। भोजन तो आहार का एक छोटा—सा अंग है—और वह बहुत महत्वपूर्ण भी नहीं, बहुत गौण अंग है।

जो भी हम बाहर से भीतर लेते हैं—कान से ध्वनि, शब्द, आंख से रूप, नाक से गंध, हाथ से स्पर्श—हमारी पांचों इंद्रियां पांच द्वार हैं, जिनसे हम बाहर के जगत को भीतर आमंत्रित करते हैं। प्रत्येक इंद्रिय का आहार है। अस्सी प्रतिशत आहार तो हम आंख से लेते हैं, बीस प्रतिशत शेष चार इंद्रियों से। इसमें जो हम जिह्वा से लेते हैं—भोजन, स्वाद—वह तो अति गौण है। मगर नासमझों के कारण गौण प्रमुख हो गया है। कुछ पागल अपना पूरा जीवन इसी चिंता में व्यतीत करते हैं—क्या खाएं, क्या न खाएं; क्या पीए, क्या न पीए; कितनी देर रखा हुआ दूध पी सकते हैं या नहीं; कितनी देर का घी ले सकते हैं कि नहीं।

कल मुझे पत्र मिला है, ऊंझा फार्मेसी के मालिक का। जैन हैं वे। और दो जैन मुनियों ने उन्हें कहा कि तुम कुछ ऐसी औषधियां तैयार करते हो जिनमें थोड़े न थोड़े अंश में अलकोहल होती है और यह तो जैन शास्त्रों के बहुत विपरीत बात है। तुम शराब ही बेच रहे हो। पांच प्रतिशत ही सहां, मगर है तो शराब। तो बंद करो इस तरह की औषधियों का निर्माण।

ऊंझा फार्मेसी के मालिक चिंता में पड़ गये होंगे कि अब क्या करना। अगर उन औषधियों का उत्पादन बंद कर दें तो सारा धंधा जाए। और मुनि जो कहते हैं सो बात ही सच है, शास्त्र की है, जंचती है। मुझे कभी उन्होंने पत्र लिखा न था। ऐसे समय में उन्हें मेरी याद आयी कि अगर कोई बचा सकता है….. तो मुझे लिखा है, ‘अब आप जैसा आदेश करें। क्या मैं इन औषधियों को बंद कर दूं क्योंकि इनमें पाच प्रतिशत या तीन प्रतिशत शराब होती है, या इनका उत्पादन जारी रखूं? आप जैसा कहें?’

उन्होंने भी ठीक आदमी से पूछा! भरोसे से पूछा है कि मैं तो कहूंगा नहीं कि बंद करो। क्योंकि शराब पांच प्रतिशत क्या, सौ प्रतिशत भी शुद्ध शाकाहार है। इसमें इतनी चिंता की क्या बात है? और औषधि में जा रही है, लोगों की चिकित्सा के काम आ रही है, यह तो सेवा ही हो गयी। तुम्हारे लिए धंधा हुआ, पर साथ—साथ सेवा भी हो गयी। मगर जैन मुनियों की न पूछो। उनकी चिंता बस यही है। उनका मन ही यहां अटका हुआ है।

ऐसे—ऐसे पागल हैं जिनका हिसाब लगाना मुश्किल है।

मैं एक महात्मा के साथ यात्रा कर रहा था—हिंदू हैं। सिर्फ गऊ का दूध ही पीते हैं। और सब चीजों को अशुद्ध मानते हैं; दुग्ध— आहार ही केवल शुद्ध है। मैंने उनसे पूछा कि तुम यह भी तो सोचो कि गऊ तो घास खाती है, और भी न मालूम क्या—क्या खाती है, और उसी से यह दूध बनता है। अंततः तो यह घास—पात से ही बन रहा है। दूध शुद्ध हो गया, और घास—पात? मैंने कहा, अगर तुम समझदार हो तो गऊ को क्यों कष्ट देना, घास—पात खाओ! सीधा दूध पैदा करो। इतना लंबा रास्ता क्यों लेना? और गऊ को कष्ट दे रहे हो, उससे काम ले रहे हो और उसको गऊमाता भी कहते हो।

जब उनके साथ यात्रा की तब तो मैं और भी मुश्किल में पड़ा। क्योंकि वे केवल सफेद गऊ का ही दूध पीये! मैंने उनसे पूछा, ‘भलेमानस, कोई काली गाय का दूध क्या काला हो जाता है? दूध तो सफेद ही होगा। तुम सफेद दूध पीओ, यह समझ में आता है, मगर काली और सफेद गाय का क्या हिंसाब रखना?’

वे कहने लगे, ‘रंग का बड़ा महत्व है : सफेद रंग—दैवी! और काला रंग—आसुरी!’

मैंने कहा, ‘होगा, गऊ का काला रंग आसुरी, मगर तुमसे कह कोन रहा है कि तुम काला रंग पीओ? दूध में तो रंग आता नहीं, चमड़ी पर रंग है, चमड़ी से तुम्हें क्या लेना—देना!

फिर तो जब मैंने पूरी जानकारी की कि उनका हिंसाब—किताब यों बहुत जालसाजी का था। हिंसाब—किताब यूं था कि कोई स्त्री नहाए और गीले वस्त्र पहने ही गऊ का दूध लगाये, तब वे दूध पीते थे—शुद्ध! सर्दी के दिन, ठिठुरती स्त्रियां गीले वस्त्र पहने हुए उनके लिए दूध लगायें। मैंने कहा, ‘तुम नरक के भागी होओगे। पी लो दूध तुम सोचकर कि शुद्ध है, मगर तुम यह जो करवा रहे हो कार्य, यह तो सीधा सताना है।

लेकिन करीब—करीब भारत का सारा धर्म आहार पर ठहर गया है। बस भोजन ही हमारो चितना का कारण बन गया है। हमारी चितना, हमारी साधना, हमारी सत्वशुद्धि, सब भोजन पर अटक गयी है। और इस सूत्र के कारण ही यह उपद्रव हुआ है। सूत्र नासमझों के हाथ में पड़ जायें तो यही परिणाम होनेवाला है।

मैंने सुना है कि अहमदाबाद में डोंगरे महाराज का भागवत—सप्ताह चल रहा था। संयोजक के यहां डोंगरे महाराज अन्य पंडित—पुरोहितों के साथ भोजन कर रहे थे। एक कटोरी में बैंगन की सब्जी परोसी गयी, तो डोंगरे महाराज ने उस कटोरी को उठाकर भोजन की थाली में से अलग कर दिया। पास ही बैठे पंडित पोपटलाल ने पूछा, ‘क्यों महाराज जी, बैगन की सब्जी आपने भोजन की थाली से निकालकर अलग क्यों रख दी?’

डोंगरे महाराज ने धीर—गंभीर मुद्रा में उत्तर दिया, ‘कमाल है, पंडित जी, आपको इतना भी पता नहीं है कि सावन में बैंगन खाने से अगले जन्म में मनुष्य मूर्खों जैसी बातें करता है!’

पंडित पोपटलाल ने डोंगरे महाराज को थोड़ी देर गौर से घूरकर देखा और कहा, ‘महाराज यह बात आपको पिछले जन्म में पता नहीं थी।’

पिछले जन्म में खाए बैगन, तभी ऐसी बातें सूझ रही हैं! गरीब बैंगन, सावन का प्यारा महीना, क्या उपद्रव मचाया हुआ है! लेकिन अच्छे से अच्छे, सुंदर से सुंदर स्वर्णसूत्र भी बुद्धओं के हाथ में पड़ जाएं तो उनकी दुर्गति हो जाती है। सोने को छू दे, मिट्टी हो जाए।

चिलम फूंकते हुए उस्ताद ने शागिर्द से कहा, ‘जब भी किसी से बात करो, निहायत साफ—सुथरी एवं विद्वतापूर्ण भाषा में हां, ताकि उसे आभास हो जाए कि तुम किसी अच्छे उस्ताद के शागिर्द हो।’

संयोग से एक चिंगारी चिलम से निकलकर उस्ताद के साफे पर पड़ गयी। शागिर्द मन ही मन पांच मिनट तक शब्दों का संयोजन करते हुए बोला, ‘हुजूर, फैजगंजूर, मौलाना—ओ—मुख्तदाना, किब्ला—ओ—कवाम, हुजूर के दस्तारे अजमत असार पर ( अर्थात् साफे पर)….. एक अखगेर नाहंजार शरवार आतिशकदये चिलम से परवाज करके शोला अफगन है।’ अर्थात् एक चिंगारी आपके साफे पर बैठी हुई है। लेकिन तब तक साफे के साथ—साथ उस्ताद की चांद भी ली देने लगी थी।

यह सूत्र तो प्यारा है— ‘आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि’ लेकिन आहार का बड़ा व्यापक अर्थ है। साफ है आहार का अर्थ, जिसे बाहर से भीतर लिया जाए—आहार। निश्चित ही तुम जो बाहर से भीतर ले जाओगे, वह तुम्हारे स्वरूप पर आच्छादित होगा। भीतर जो है वह तुम्हारा स्वरूप है। धूल ले जाओगे तो धूल आच्छादित होगा जायेगी। स्वर्ण ले जाओगे तो स्वर्ण आच्छादित हो जायेगा। जो भी तुम बाहर से भीतर ले जाओगे वही तुम्हारे चित्त के दर्पण पर जमेगा और उससे ही तुम्हारा जीवन निर्धारित होगा।

कैसे इसकी शुद्धि हो? आहार तो करना ही होगा। आंखें देखेंगी ही; कम देखें ज्यादा देखें, लेकिन देखेंगी ही। तो वही देखना जो देखने योग्य है, सुंदर है, प्रीतिकर है, आह्लादित करता है।

लेकिन लोग गलत चीजें देखते हैं। अगर रास्ते पर दो व्यक्ति कुश्तम—कुश्ती कर रहे हों, दंगा—फसाद कर रहे हों, वाह गुरुजी की फतह बोल रहे हों, तो देखो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। मुफ्त तमाशा कोन न देखे। सर्कस हो रहा है। लाख काम छोड्कर लोग वहीं खडे हो जाते हैं। पहले यह मजा देख लें, फिर काम कर लेंगे। कोई यह नहीं सोचता कि जब तुम दो आदमियों को लडते हुए देखोगे तो तुम हिंसा का आहार कर रहे हो। तुम अपने भीतर गाली—गलौज ले जा रहे हो। वे दोनों आदमी गालियां बक रहे हैं, अभद्र व्यवहार कर रहे हैं, अशोभन शब्द बोल रहे हैं।

और जब भी दो पुरुष लड़ते हैं तो हैरानी की बात है. लड़ते पुरुष हैं मगर गालियां स्त्रियों को देते हैं। वह उसकी मां को ठीक कर रहा है, वह उसकी बहन को ठीक कर रहा है, वह उसकी बेटी को ठीक कर रहा है। यह भी थोड़ी सोचने जैसी बात है यह कि समाज बातें तो करता है स्त्री समादर की, मगर यह समादर है! बातें तो यूं की जाती हैं कि जहां—जहां नारी की पूजा होती है वहां—वहां देवता रमण करते हैं। और स्त्री की पूजा के नाम पर हो क्या रहा है? सदियों से क्या हो रहा है? सिवाय अपमान और अनादर के कुछ भी नहीं। अगर दो आदमी लड़ रहे हैं तो एक—दूसरे से निपटो, इसमें स्त्रियों को बीच में लाने की क्या जरूरत है? इसमें किसी की मां ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा; किसी की पत्नी ने, किसी की बेटी ने, तुम्हारा क्या बिगाडा? लेकिन गाली तो स्त्रियों को ही दी जाएगी। लड़े कोई—अपमान तो स्त्री का ही होगा, लड़े कोई। और तुम खड़े होकर यूं पीते हो; जैसे अमृत मिल गया हो! जहां झगड़ा हो रहा हो वहां क्या तुम सोचते हो कोई आदमी झपकी ले ले, नींद में चला जाए? कभी नहीं! धर्म—सभा में लोग नींद में जाते हैं। शास्त्र सुनते हैं तो नींद आती है। माला फेरते हैं तो झपकी खाते हैं। लेकिन दो आदमी गालियां दे रहे हों, तो सोए हुओं की तो बात छोड़ दो, मुर्दों को भी अगर पता चल जाए तो उठकर खड़े हो जायें! कि जरा देख लें फिर सो जायेंगे कब में, ऐसी जल्दी क्या है? यह मजा तो और देख लें जाते—जाते!

लेकिन तुम आहार कर रहे हो और वे गालियां तुम्हारे दर्पण पर आच्छादित हो रही हैं।

तुम सुनते क्या हो? लोग फिल्मी गाने सुन रहे हैं, व्यर्थ की बातें सुन रहे हैं। एक—दूसरे की निंदा सुन रहे हैं—झूठी। और कोई संदेह नहीं उठाता। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिससे तुम किसी की निंदा करो और वह संदेह उठाए। ही प्रशंसा करो तो हरएक संदेह उठाएगा। कहो किसी से कि फला व्यक्ति बड़ा साधु चरित्र। और दूसरा आदमी तत्‍क्षण बोलेगा, ‘छोड़ो भी किन बातों में पड़े हो! अरे, यह कलियुग है! हो गये साधु सतयुग में, अब नहीं होते! सब पांखडी हैं! सब धोखेबाज हैं। सब लूट—खसोट में लगे हैं। अरे, हर ढोल में पोल है।’ हजार बातें कहेगा वह आदमी। तुमने सिर्फ इतना ही कहने की भूल की थी कि फलां आदमी साधु है। एक से एक बातें वह निकालेगा, बात में से बातें निकालता जाएगा। और अगर तुम किसी आदमी की निंदा करो तो कोई इनकार न करेगा। यूं पी जाएगा जैसे प्यासा आदमी धूप से थका—मादा ठंडा जल पी जाए! यूं पी जाएगा, इनकार ही न करेगा। कभी न कहेगा कि भाई ऐसी निंदा पर मुझे भरोसा नहीं आता, वह आदमी इतना बुरा नहीं हो सकता।

किसी की प्रशंसा करो और तुम तत्‍क्षण पाओगे कि कोई तुम्हारी बात को मानने को राजी नहीं है। लोग प्रमाण मांगेंगे। और किसी की निंदा करो और तत्‍क्षण लोग अंगीकार करने को राजी हैं : न प्रमाण कोई मांगता, न इनकार कोई करता। ये हमारे आहार के ढंग हैं। अशुद्ध को तो हम आहार कर लेते हैं और शुद्ध को हम इनकार करते हैं। सदियों—सदियों तक संदेह जारी रहते हैं। आज भी लोगों को भरोसा नहीं है कि महावीर या बुद्ध जैसे लोग सच में हुए। इतिहासज्ञ खोज में लगे रहते हैं, सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि ऐसे आदमी हो कैसे सकते हैं? कल्पनाएं हैं, पुराणकथाएं हैं, किवदंतिया हैं। लेकिन कोई शक नहीं करता सिंकदर पर, कोई शक नहीं करता नादिरशाह पर, चंगेजखान पर, तैमूरलंग पर। हत्यारों पर कोई शक नहीं। जीसस पर शक है, जुदास पर कोई शक नहीं। राम पर तुम्हें शायद शक हो, लेकिन रावण पर कोई शक नहीं। यह तो रावण को मानने के लिए तुम्हें राम को मानना पड़ता है, मानते तो तुम रावण को ही हो। लेकिन रावण को अकेला कैसे मानें? बिना राम की पृष्ठ— भूमि के रावण को मानना मुश्किल होगा। इसलिए निमित्त मात्र राम को भी स्वीकार कर लेते हो।

अच्छे पर हमें संदेह है। फूलों पर हमें भरोसा नहीं, कीटों पर हमारी श्रद्धा है। नकार हमारी जीवन दृष्टि है—विधेय नहीं। हम ऐसे ही हैं, जिनको नरक पर कभी भी कोई संदेह नहीं उठता। मैंने आज तक ऐसी किताब नहीं देखी जिसने नरक पर संदेह उठाया हो कि नरक नहीं है। लेकिन स्वर्ग पर संदेह उठानेवाली बहुत किताबें है। शैतान के खिलाफ लिखी मैंने एक किताब नहीं देखी, ईश्वर के खिलाफ लिखी हजारों किताबें देखी हैं। यह कैसा आदमी है! हम क्या कर रहे हैं?

और ध्यान रहे, अगर काटे चुनोगे तो कांटे ही तुम पर इकट्ठे हो जाएंगे—फिर चुभेंगे भी। इतने चुभेंगे, इतनी पीड़ा देंगे, इतने घाव से भर देंगे, इतनी मवाद फैल जाएगी, इतने नासूर हो जाएंगे कि फिर फूल मिल भी जायें तो भरोसा न आएगा।

फूलों पर भरोसा करो। फूलों को भीतर ले जाओ। फूलों से अपने प्राणों को आच्छादित करो—इतना कि अगर कांटे मिल भी जायें तो भी फूलों से आच्छादित आत्मा उनसे अप्रभावित रहे। लेकिन लोग अजीब हैं!

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर बैठा हुआ था। उसका बेटा फजल आया और मुल्ला ने आव देखा न ताव और लगा उसकी पिटाई करने। चार—छह झपाटे जोर से लगा दिए। वह बेचारा बच्चा रोने लगा! मैंने पूछा कि मैं देख रहा हूं उसने कोई कसूर किया नहीं, एक शब्द बोला नहीं, तुम उसे मार क्यों रहे हो—? मुल्ला नसरुद्दीन कहने लगा, ‘इसके कसूर के लिए मार ही कोन रहा है। अरे दो दिन बाद इसका परीक्षा—फल निकलनेवाला है और मैं आज ही बाहर जा रहा हूं।’

अभी से इंतजाम किए दे रहा है वह। अजीब लोग हैं! मगर ऐसे ही लोगों से यह दुनिया भरी है। तुम भी अपने भीतर अगर खोजोगे तो ऐसे ही आदमी को पाओगे छिपा हुआ। क्योंकि सीधा—सीधा देख लोगे तब तो फिर उसका जीना मुश्किल हो जाएगा।

आहार शुद्धि का अर्थ है. अपने भीतर वही ले जाना, जो प्रीतिकर हो, स्वादिष्ट हो, सुमधुर हो, सुंदर हो, सत्य हो, ताकि तुम्हारे भीतर के स्वरूप पर शृंगार आए; जवानी आए—ताकि तुम्हारे भीतर स्वरूप निखरे, प्रगट हो; उस पर उभार आए, गर्द गुबार न जम जाए।

‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि’।

और उसी आहार में एक छोटा—सा हिस्सा भोजन है। जरूर उसका भी विचार करना, लेकिन वही सब कुछ नहीं है। इतना ही काफी विचार है कि अपने भोजन के लिए किसी को कष्ट मत देना, दुख मत देना। इतना ही विचार काफी है। जब भोजन बिना किसी को दुख दिये हो सकता हो तो पशुओं को काटना और मारना अनुचित है। जब फल और सब्जियां और अनाज तुम्हारे लिए परिपूर्ण पौष्टिक हो जाते हों तो क्या जरूरत है कि पशुओं को मारो? क्या जरूरत है इतना दुख देने की? और अगर इतना दुख तुम दोगे तो स्वभावत: तुम कठोर होते चले जाओगे। मांसाहारी कठोर होगा ही नहीं तो मांसाहारे कैसे करेगा? और जब कठोर होगा तो मनुष्यों के साथ भी कठोर होगा। अब कठोरता कोई नियम थोड़े ही मानती है कि इसके साथ कठोर होंगे, उसके साथ कठोर नहीं होंगे। और जब कठोर होगा तो अपनों के साथ भी कठोर होगा, परायों के साथ ही थोड़े कठोर होगा। और जब कठोर होगा तो अपनों के ही साथ नहीं, अपने साथ भी कठोर होगा। कठोरता तो एक भीतर बैठ गयी चट्टान की तरह है। सबसे पहले तो खुद के प्रति कठोर हो जाएगा, दुष्ट हो जाएगा।

इसी मुल्ला नसरुद्दीन को मैंने एक दिन देखा साइकिल पर बैठा चला जा रहा है, फजलू को आगे बिठाए है। बीच—बीच में उसको चपतें लगा रहा है। मैंने रोका। मैंने कहा कि नसरुद्दीन, खैर उस दिन तुम बोले थे कि इसका दो दिन बाद परीक्षा—फल निकलनेवाला है, अब कोन—सी मुसीबत आ गयी है? और तुम रह—रहकर इसे मार रहे हो।

नसरुद्दीन ने कहा, ‘क्या करूं, साइकिल में घंटी ही नहीं है।’

बेटे से घंटी का काम ले रहे हैं। सो बेटा रो रहा है, वे उसको चपतें लगा रहे हैं। जैसे ही उनको भीड़ हटानी होती, चपत लगा देते हैं एक, बेटा रोने लगता है।

तुम कठोर होओगे ही। तुम क्या भोजन कर रहे हो उसमें इतना ही विचार पर्याप्त है कि हिंसा न हो, अकारण हिंसा न हो। कम से कम हिंसा हो, न्यूनतम हिंसा हो। जितना हिंसा से बचा जा सके, शुभ है, ताकि तुम्हारी कोमलता नष्ट न हो जाए। सवाल अहिंसा का नहीं है, सवाल तुम्हारी कोमलता का है। इसको भी खयाल रखना, नहीं तो कुछ बुद्ध इसी फिक्र में लगे रहते हैं कि कहीं चींटी न दब जाए, कहीं मच्छर न दब जाए। मगर उनको असली बात भूल गयी, दृष्टि गलत चीज पर टिक गयी। असली बात इतनी है कि तुम्हारी कोमलता न मर जाए। क्योंकि तुम्हारी कोमलता के द्वार से ही सत्य का पदार्पण होगा। तुम जितने कोमल होओगे उतनी ही संभावना है कि तुम्हारे भीतर बांसुरी, आनंद का गीत उठे, उत्सव जगे, परमात्मा तुम्हारे भीतर बजाए। उसके लिए तुम्हारी कोमलता जरूरी है। यह कोई मच्छर—मक्खी मारने का सवाल नहीं है, सवाल तुम्हारी कोमलता का है। और तुम अगर मच्छर, मक्खी, चींटियां मारने से बच भी गये, लेकिन इस बचने में ही कठोर हो गये, तो सब व्यर्थ हो गया, किया—कराया सब व्यर्थ हो गया। क्योंकि असली बात थी कि भीतर की कोमलता…..!

और ऐसा हुआ। जैनों में आचार्य तुलसी का पंथ है—तेरापंथ। महावीर ने तो अहिंसा की बात कही थी कि तुम्हारी कोमलता प्रगाढ़ हो। लेकिन महावीर की ही परंपरा में पैदा हुआ तेरापंथ कहता है, अगर तुम रास्ते से जा रहे हो और कोई प्यासा मर रहा हो तो उसे पानी मत पिलाना। क्योंकि तुमने अगर उसे पानी पिलाया तो तुम उसके कर्म में बाधा डाल रहे हो। कर्म फल भोग रहा है वह। पिछले जन्मों में सावन के महीने में बैंगन खायी होगी! वह अपना कर्मफल भोग रहा है, न खाता बैंगन, न इस तरह के फल भोगता! वह अपना कर्मफल भोग रहा है और तुम बाधा डाल रहे हो—पानी पिलाकर! तो तुम उसके कर्मफल को आगे सरका रहे हो। फिर कल भोगेगा, फिर परसों भोगेगा। तुम उसके जीवन में उलझन खड़ी कर रहे हो। तो तुम कोई अच्छा काम नहीं कर रहे। यह मत सोचना कि तुम सेवा कर रहे हो। यह तो भूलकर मत सोचना।

तेरापंथ में सेवा का निषेध है। क्योंकि सेवा का अर्थ है : हिंसा। तुमने बाधा डाल दी, यह हिंसा हो गयी।

और फिर, और भी झंझटें हैं। हिंसाब—किताब लगानेवाले लोग कैसे—कैसे हिंसाब—किताब लगा लिये! कहां से कहां निकल गये! कितने दूर निकल गये! अगर तुमने इस आदमी को पानी पिला दिया और यह बच गया—अभी मर रहा था—और बचकर अगर समझो कि कल इसने चोरी की—कल का क्या भरोसा? चोरी करे, किसी की स्त्री ले भागे, जुआ खेले, किसी की हत्या कर दे—फिर उस सब पाप के भागीदार तुम भी होओगे। क्योंकि न तुम इसे बचाते, न किसी की स्त्री यह भगाता। न तुम इसे बचाते, न यह चोरी करता। न तुम इसे बचाते, न यह हत्या करता। तुम्हारे बचाने ने ही तो सारी चीज के लिए शुरुआत करवा दी, बीज बी दिये। तुम ही बीज बोनेवाले हो। फसल में तुमको भी हिस्सा बांटना पड़ेगा। इसलिए सावधान! तेरापंथ कहता है कि चुपचाप अपने रास्ते पर चलते चले जाना। वह लाख चिल्लाए पानी—पानी; तुम सुनना ही मत। ऐसी झंझट में पड़ना मत। उसको भी कोई लाभ नहीं है तुम्हारे पानी पिलाने सें—उसको प्यासा मरना ही पड़ेगा। जितना कर्म किया है बुरा उतना फल भोगना ही पड़ेगा। और तुम नाहक अपने जीवन को बिगाड़ लोगे आगे के लिए। पता नहीं अब यह क्या करे बच जाने के बाद, क्या न करे! इसलिए चुपचाप अपनी राह पर चले जाना।

कल्पना भी महावीर ने न की होगी कभी कि मेरी अहिंसा की दृष्टि का ऐसा अर्थ भी हो सकता है! अर्थ नहीं कहेंगे इसे, अनर्थ कहेंगे। मगर उधार जिनके जीवन हैं, उधार जिनकी जीवन—दृष्टि है, उनसे अनर्थ ही हो सकता है।

चंदूलाल ढब्यूजी से कह रहे थे, ‘ढब्यू जी, कल जो तुम मुझसे छाता ले गये थे वह वापिस दे दो, भाई।’

ढब्यूजी ने कहा, ‘क्या तुम्हें वह अभी चाहिए, बिलकुल अभी चाहिए? उसे तो मेरा मित्र मुल्ला नसरुद्दीन ले गया है।’

चंदूलाल ने कहा, ‘छाता मुझे तो नहीं चाहिए ढब्यू जी, पर जिससे मैं लाया था, वह कह रहा है कि उसने जिससे छाता लिया था वह लेने के लिए उसके घर पर आकर खड़ा हुआ है।’

यूं उधारी चल रही है।

महावीर कुछ कहते हैं, लेकिन उधार—उधार होते—होते, आचार्य तुलसी तक पहुंचते—पहुंचते कैसी दुर्गति हो जाती है! और यही आचार्य तुलसी जैसे लोग महावीर की परंपरा को बचानेवाले लोग हैं! यहां, जो वस्तुत: नष्ट करनेवाले लोग हैं, बचानेवाले बन बैठे हैं। भक्षक रक्षक बने बैठे हैं।

आहार की जरूर विचारणा होनी चाहिए, क्योंकि तुम मनुष्य हो, तुम चुनाव कर सकते हो—क्या खाना, क्या नहीं खाना; क्या पीना, क्या नहीं पीना। बस, इतना ही सूत्र ध्यान रहे कि किसी को अकारण कष्ट न हो। क्योंकि कष्ट दोगे तो कठोर हो जाओगे। कठोर हो जाओगे तो बंद हो जाओगे। बंद हो जाओगे तो परमात्मा को पाना असंभव है। फूल जैसी कोमलता चाहिए, ताकि परमात्मा तुम पर यूं उतरे जैसे शबनम की बूंदें सुबह फूल पर जम जाती हैं; जैसे ओस के मोती फूल की कोमल पंखुड़ियों पर चमकते हैं! ऐसा तुम पर, वह जो दिव्य अवतरण है, संभव हो सके! मगर फूल की पंखुड़ी चाहिए। फूल जैसे रहना!

और भोजन को ही सब मत समझ लेना। आहार बड़ी चीज है, बहुत बड़ी चीज है।

बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा : आंखों को नीची करके चलो। चार फीट देखो, बस इतना काफी है। चलने के लिए इतना काफी है। चार फीट आगे देख रहे हो, इतना बहुत है। लेकिन तुम तो सारे पोस्टर पढ़ रहे हो, सड़क के किनारे लगे। उन्हीं पोस्टरों को रोज पढ़ रहे हो, क्योंकि उसी रास्ते से रोज निकलते हो। वही ‘हमाम साबुन’ है। वही ‘पहलवान छाप बीड़ी’, वही ‘चारमीनार सिगरेट’, कितनी बार नहीं पढ़ चुके हो! क्या सार है आंखें खराब करने से? लेकिन पढ़ोगे उसी को तुम! अखबारों में लोग वही पढ़ रहे हैं, फिल्मों में लोग वही देख रहे हैं। वही फिल्म तुम देख रहे हो जन्मों—जन्मों से, वही त्रिकोण—दो आदमी, एक औरत। फिर चाहे वे दो आदमी राम और रावण हों और औरत सीता हो या कोई हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, वही कहानी है—दो आदमी, एक औरत। या दो औरतें, एक आदमी। त्रिकोण होना चाहिए, कहानी बनने लगी। और कहानी में होगा क्या? तुम्हें भलीभांति पता है, क्या होना है। तुम खुद ही लिख सकते हो कहानी। इतनी फिल्में देख चुके हो। दो फिल्में देखो, तीसरी कहानी लिख दो। पांच उपन्यास पढ़ो, छठवां लिख डालो। यूं ही तो किताबें लिखी जाती हैं, यूं ही फिल्में बनती हैं।

वही गीत तुम सुन चुके हो बहुत बार—वही ‘लारे —लप्पा’! कब तक लारे —लप्पा करते रहोगे? जरा कानों को कुछ सम्हालो। आंखों को जरा संयम दो। क्या बोलते हो, क्या सुनते हो, क्या गुनते हो—इसके पीछे विवेक तो होना ही चाहिए। महावीर ने कहा. विवेक से उठे, विवेक से बैठे, विवेक से चले, विवेक से देखे, विवेक से सुने, क्योंकि मनुष्य को पशुओं से अलग करनेवाला तत्व विवेक है।

‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि।’

और तुम जो भीतर ले जा रहे हो, अगर यह शुद्ध है तो तुम्हारे भीतर जो छिपा हुआ स्वरूप है; वह ढंकेगा नहीं; उघडेगा, निखरेगा, ताजा होगा, नहाएगा—सद्य:स्नात्!

‘सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:।’

और जिसने अपने भीतर के सत्व को शुद्धता में जान लिया है; उसकी स्मृति ध्रुव हो जाती है।

‘स्मृति’ शब्द को खयाल में रखना। स्मृति उस अर्थों में प्रयोग नहीं हो रहा, जिस अर्थों में तुम करते हों—याददाश्त के अर्थों में नहीं, ‘मेमोरी’ के अर्थों में नहीं। क्योंकि वैसी स्मृति तो कंप्यूटर में भी होती है, उसके लिए आदमी होना जरूरी नहीं है। कंप्यूटर तुमसे ज्यादा याददाश्त वाला होता है और उसकी याददाश्त में कम भूलें होती हैं, तुमसे तो भूलें हो सकती हैं। अब तो मशीनें बन गयी हैं जो सब याद रख लें। अब तो तुम्हें कुछ याद रखने की जरूरत नहीं है। जो काम मशीन कर देती है, उस काम में कोई गुणवत्ता नहीं है।

फिर स्मृति से क्या अर्थ है? हवा स्मृति:.! उसे ऐसी स्मृति उपलब्ध हो जाती है—अडिग, अचल, चंचलता से शून्य, थिर। यह बड़ा अलग अर्थ है स्मृति का। बुद्ध ने इसके लिए उपयोग किया है : ‘सम्मासति’। महावीर ने इसको कहा है : ‘सम्यक् स्मृति’। दोनों का एक ही अर्थ है. सम्मासति पाली है, सम्यक् स्मृति प्राकृत। ठीक—ठीक बोध। स्मृति से याददाश्त का सवाल नहीं है, स्मरण का सवाल है—अपना स्मरण, आत्म—स्मरण। तुम भूल गये हो कि तुम कोन हो। तुम्हें याद ही न रही कि तुम कोन हो, किसलिये हो, कहां से आए हो, कहां जा रहे हो? तुम्हें कुछ भी पता नहीं।

मैंने सुना है, एडीसन, अमरीका का एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक, या चाहो तो कहो कि दुनिया का एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक, क्योंकि उसने एक हजार आविष्कार किये। एक आदमी ने इतने आविष्कार कभी नहीं किये। मगर बहुत भुलक्कड़, अतिशय भुलक्कड़! एक बार खुद अपना नाम ही: भूल गया। औरों का नाम भूल जाना तो तुमने सुना होगा, अपना नाम भूल जाना बड़ी कठिन बात है, बड़ी मुश्किल बात है। लोग नींद में भी नहीं भूलते। तुम सब यहां सो जाओ….. जैसे मैं छांदोग्य उपनिषद पर बोलता ही रहूं बोलता ही रहूं बोलता ही रहूं तो फिर तुम क्या करोगे? तुमकी सोना ही पड़ेगा। आखिर बचने के लिए आदमी को कुछ तो ढाल चाहिए। छांदोग्य उपनिषद पर बोलते—बोलते तुम देखोगे, यह तो खतरा हुआ जा रहा है। जल्दी से तुम अपनी ढाल सम्हाल लोगे और सो जाओगे।….. तुम सब सो जाओ और मैं पुकार दूं : सत्यानंद! तो कोई नहीं सुनेगा, लेकिन सत्यानंद कहेगा कि भई कोन नींद खराब करने आ गया! क्यों परेशान कर रहे हो!

नींद में भी अपना नाम नहीं भूलता। गहरी नींद में भी, अतिशय गहरी नींद में, सुषुप्ति में भी अपना नाम याद रहता है। लेकिन एडीसन को एक बार अपना नाम भूल गया। पहले महायुद्ध में राशन शुरू हुआ अमरीका में, वह कतार में खड़ा था और जब उसकी पुकार आयी—थामस अल्वा एडीसन—तो वह इधर—उधर देखने लगा। जो आदमी पुकार रहा था, उसको भी पता था कि यही आदमी ग्लीसन है, क्योंकि इसके अखबारों में फोटो देखे थे, जाना—माना आदमी था, जग—जाहिर था। उसने फिर बुलाया— थामस अल्वा एडीसन! और एडीसन इधर—उधर देखने लगा। उसने कहा, मामला क्या है! और ग्लीसन के पीछे जो खड़ा था उस आदमी ने भी कहा कि बात क्या है! वह आपको बुला रहा है, आप सुन नहीं रहे! ग्लीसन ने कहा, ठीक याद दिलाया। वही मैं सोच रहा था कि नाम कुछ पहचाना—सा मालूम पड़ता है। कहीं न कहीं सुना है। धन्यवाद! तुमने अच्छी याद दिला दी।

एक दिन सुबह—सुबह एडीसन बैठा था। उसकी पत्नी आयी….. उसने कह रखा था कि जब मैं सोच—विचार में हूं तो मुझे कभी बाधा मत डालना….. नाश्ता लेकर आयी थी, तो नाश्ता उसने बगल में रख दिया और चुपचाप चली गयी कि जब वह सोच—विचार पूरा कर लेंगे तो नाश्ता कर लेंगे। तभी एक मित्र आ गया। उसने नाश्ता देखा रखा हुआ बगल में, ग्लीसन को विचारमग्न देखा, उसने सोचा इनको विचार करने दो, तब तक मैं नाश्ता कर लूं। उसने नाश्ता कर लिया। खाली प्लेटें सरकाकर एक तरफ रख दीं। तब तक एडीसन अपने सोच—विचार के जगत से वापिस लौटे। खाली प्लेटें देखीं, मित्र को देखा, कहा, भाई जरा तुम देर से आए। मैं नाश्ता कर चुका। जरा ही पहले आ गये होते तो साथ—साथ नाश्ता कर लेते।

मित्र ने कहा, कोई चिंता न करें। मित्र बहुत हैरान हुआ। उसे भरोसा ही नहीं आया कि हद हो गयी, नाश्ता मैं कर गया हूं और यह आदमी खाली प्लेटें देखकर कह रहा है कि मैं नाश्ता कर चुका!

एक बार एडीसन ट्रेन में सफर कर रहा था, टिकिट कलेक्टर आया, उसनें टिकिट पूछी। ग्लीसन ने इस खीसे में देखा, उस खीसे में देखा, सब खीसे टटोल डाले, सूटकेस खोलकर सामान फैला दिया, जब बिस्तर खोलने लगा तो टिकिट कलेक्टर ने कहा कि आप चिंता न करें, मैं आपका विद्यार्थी रह चुका हूं और मैं आपको जानता हूं कि आप बिना टिकिट नहीं चलेंगे, टिकिट होगा, जरूर होगा। ग्लीसन ने कहा कि चुप, टिकिट की कोन चिंता कर रहा है! अरे, सवाल यह है कि मुझे जाना कहां है? बिना टिकिट के यह पता कैसे चलेगा? तू बतायेगा! कोन बतायेगा अब मुझे, अब मैं झझट में पड़ा! तू भी खोज। मेरे बिस्तर में देख, मेरे सूटकेस में देख। विद्यार्थी रहा है, चल साथ दे! बिना टिकिट के पता कैसे चलेगा कि मुझे जाना कहां है, मैं निकला कहां के लिए था?

हमारी हालत यूं ही है। तुम्हें भी पक्का पता नहीं कि तुम कोन हो। और जो नाम तुम सोचते हो तुम्हारा है, वह तो तुम्हारा है नहीं, वह तो दे दिया है। वह तो लेबिल लगा दिया औरों ने। वे कुछ और लगा देते। सत्यानंद न कहकर मैं इन्हें नित्यानंद नाम दे देता, फिर? यह नित्यानंद सत्यानंद ही हो जाते। अखंडानंद हो जाते, मुक्तानंद हो जाते, कुछ भी….. .इनके भाग्य में कुछ न कुछ होना बदा था।…..कोई न कोई नाम जरूरी है, मगर नाम तुम्हारा अस्तित्व तो नहीं है।

स्मृति का अर्थ है—उनकी स्मृति, जो मैं हूं जो मैं लेकर आया हूं इस जगत में, जो मेरे भीतर चैतन्य का स्रोत है; वह क्या है? कहां से मैं आ रहा हूं और किस दिशा में मेरी गति हो रही है? मैं क्या कर रहा हूं इस क्षण? उससे कोई संबंध है मेरे आने—जाने का या नहीं या व्यर्थ की बातों में उलझ गया हूं? जाना कहीं और था, चल पड़ा हूं कहीं और; पहुंचना कहीं और है, दिशा पकड़ ली है कोई और।

यही तो दुख है हमारा। सारी पृथ्वी दुखी लोगों से भरी है। क्या है दुख? इतना ही दुख है कि हम वह कर रहे हैं जिसका हमारे स्वरूप से कोई तालमेल नहीं है। सुख का अर्थ होता है ऐसी चर्या, जिससे हमारे स्वरूप का कोई तालमेल न हो। और आनंद का अर्थ होता है : ऐसा जीवन, जो हमारे भीतर के छंद के साथ बिलकुल एकरूप हो; तालमेल ही न हो, एक ही हो जाए। जिस क्षण हम इस जगत के धर्म को अपने भीतर के धर्म के साथ निमज्जित कर लेते हैं, इसमें डूब जाते हैं और इसे अपने में डुबा लेते हैं, जिस दिन बूंद सागर में डूब जाती है और सागर बूंद हो जाता है, उस दिन जीवन में आनंद है; उस दिन जीवन में छंद है। वही छांदोग्य उपनिषद का सार है। उस दिन जीवन में गीत, बांसुरी। उस दिन पायल बजती है, अर बजते हैं। उस दिन ढोल पर थाप पड़ती है। उस दिन जीवन में पहली बार पता चलता है कि कितना बड़ा अहोभाग्य है—एक श्वांस लेना भी!

‘सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:’।

आत्म—स्मरण का नाम स्मृति है। इसी सम्मासति, सम्यक् स्मृति को मध्ययुग के संतों ने—कबीर ने, दादू ने, रैदास ने, फरीद ने—’सुरति’ कहा है। सुरति सम्मासति का ही रूप है, लोकभाषा में—और भी प्यारा हो गया! ‘सम्यक् स्मृति’ थोड़ा कठिन, ‘सुरति’ सीधा—साफ हो गया।

लेकिन सुरति के नाम से बड़ा धोखा चल रहा है—खासकर पंजाब में। क्योंकि पंजाब में नानक ने सुरति की दुंदुभी बजा दी और नानक के पास जो आए वे भीगकर लौटे, अमृत से भीगकर लौटे। लेकिन सदा होता है यह। नानक ने लोगों को सुरति दी अर्थात् स्मृति दी अपनी। उन्हें याद दिलायी खुद की और अब पंजाब में क्या चल रहा है? सुरति—शब्द—योग! उसका उससे कोई नाता नहीं।’शब्द—योग’! वह केवल मंत्रोच्चार का ही दूसरा नाम है। बैठे —बैठे राम—राम, राम—राम कह रहे हैं तोतों की तरह; या जो भी तुम्हें प्यारा शब्द हो, वही….. ओंकार का नाद करो, कि नमोकार मंत्र पढ़ो, कि जपुजी पढ़ो। लेकिन शब्दों को दोहराने से, मंत्रों को दोहराने से केवल .आत्म—सम्मोहन पैदा होता है, सुरति पैदा नहीं होती। वस्तुत: उल्टी ही बात होती है, विस्मृति पैदा होती है, सुरति पैदा नहीं होती। अपना स्मरण क्या खाक आएगा शब्दों से! अपना स्मरण तो निःशब्द में आता है। सुरति—निःशब्द—योग कहो तो समझ में आए। सुरति—शब्द—योग! शब्द तो ढांक लेता है। शब्द ही तो उपद्रव है। शब्द ही तो हमारा मन है। सारे शब्दों से मुक्त होना है, ताकि निस्तब्धता छा जाए, ताकि मौन उतर आए, ताकि भीतर सन्नाटा हो। उसी सन्नाटे में अपनी स्मृति आएगी। जब कुछ भी न बचेगा याद करने को, तभी अपनी याद आएगी। जब तक कुछ और बचेगा तब तक याद उसी में उलझी रहेगी।

‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि। सत्वशुद्धौ हवा स्मृति:।

स्मृतिलाभै सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्ष।

और जिसको अपनी सुरति आ गयी, जिसको अपना स्मरण आ गया, उसकी सारी ग्रंथिया टूट जाती हैं। यह शब्द बड़ा प्यारा है। ये सूत्र छोटे—छोटे शब्दों पर खड़े हैं। सूत्र का अर्थ ही होता है : बीज। इनमें विस्तार नहीं होता है। इनमें बात थोड़े में कही जाती है। सूत्र का अर्थ होता है. टेलीग्राम। और ध्यान रखना, टेलीग्राम का ज्यादा परिणाम होता है। तुम पूरा का पूरा शास्त्र लिख भेजो, टेलीग्राम का ज्यादा परिणाम होता है। तुम पूरा का पूरा शास्त्र लिख भेजो किसी को कि ‘जोग लिखा महा शुभस्थाने और सब जने राजी खुशी हैं। और आगे हाल यह है’….. और चलते जाओ तो भी उसका वह परिणाम नहीं होता। और इसलिए जो समझदार हैं, वे लंबी चिट्ठी लिखने के बाद क्या लिखते हैं—’ थोड़ा लिखा और ज्यादा समझना! अरे, चिट्ठी लिखी है और तार समझना!’ गजब कर दिया, तो तार ही भेज देते न! ‘चिट्ठी लिखी और तार समझना!’ मगर लिखने में राज है। तार समझने का मतलब है कि जब तार आ जाता है तो ज्यादा अर्थ लाता है; शब्द कम होते हैं, अर्थ ज्यादा होता है। चिट्ठी में शब्द ज्यादा होते हैं, अर्थ कम होता है। इसलिए कहते हैं कि चिट्ठी लिखी और तार समझना।

ये तार हैं। सूत्र का अर्थ होता है : संक्षिप्त, बिलकुल सार। जरा भी असार को नहीं रखा है, सब हटा दिया है। सिर्फ सार को ही बचाया है। इनमें एक—एक शब्द महत्वपूर्ण है।

‘सर्वग्र थीनां’

—सारी ग्रंथियां। ग्रंथि का अर्थ होता है : गांठ। और हममें गांठें ही गाठें हैं। उन्हीं गांठों के कारण तो हम सब अष्टावक्र हो गये हैं, जगह—जगह से टेढ़े हो गये हैं। आदमी तो कहा मिलते हैं—ऊंट चले जा रहे हैं, ऊंट! कतारबद्ध ऊंट! जगह—जगह गांठें हैं—ऊंट की खूबी यही है। सब जगह से तिरछा है।

यहूदियों की कथा है कि जब भगवान सबको बना चुका तब उसने ऊंट बनाया—बचा खुचा जो सामान था। मतलब : कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा! ऊंट को उसने बनाने का इरादा नहीं रखा था। बना चुका हाथी, घोड़े, गधे—सब बना चुका—आदमी, औरतें, पशु—पक्षी। बच रहा होगा सामान। हमेशा जब तुम मकान बनाते हो, तो कुछ सीमेंट बच गयी, कुछ चूना बच गया, कुछ ईंट बच गयीं, कोई लक्कड़—पत्थर बच गये, अब इन सबको मिलाकर कुछ बना दिया। ऐसे ऊंट बना। इसलिए ऊंट दिखता भी है अजीब। क्या उनकी चाल, क्या उनके पैर, क्या उनकी देह की संरचना!

यहूदियों में दूसरी कहानी है कि ऊंट को भगवान ने आखिरी समय में बनाया, जब वह बिलकुल थक चुका था और झपकी खाने लगा था। ऐसा थोप— थापकर किसी तरह खतम किया। आखिरी मामला था, निपटें, सुलझें, झंझट मिटाएं। छठवें दिन आखिरी चीज ऊंट बनायी। और फिर सोया तो तब से सोया ही है। क्योंकि यहूइदयों में तो छह दिन में सृष्टि बन गयी और सातवें दिन के बाद फुरसत। सांतवा दिन—इसीलिए, रविवार छुट्टी का दिन है। मगर तुम्हारा तो सोमवार होता है, परमात्मा का फिर सोमवार नहीं हुआ। फिर दफ्तर नहीं गये वे। फिर तो जो उन्होंने टांग पसारी! अरे, घोड़े क्या ऊंट भी बेचकर सो गये!

ग्रंथि का अर्थ होता है. गांठ। और जितनी ग्रंथियां होती हैं उतना ही आदमी इरछा—तिरछा होता है। कहेगा कुछ, मतलब उसका कुछ और होगा। करना कुछ और चाहेगा, करेगा कुछ और। जाएगा उत्तर और जाना चाहेगा दक्षिण। उसकी बात का भरोसा करना मुश्किल होता है। तुम्हें सोचना पड़ता है कि इसका मतलब क्या, इसके इशारे का मतलब क्या!

मैंने सुना है, दो व्यापारी….. फलीभाई पहचानते होंगे उनको! वही शेयर बाजार….. बंबई के आदमी थे दोनों….. बोरीबंदर पर मिले। एक ने दूसरे से पूछा कि भाई, कहां जा रहे हो? उसने कहा, ‘कहीं नहीं, यहीं दादर तक जा रहा हूं।’ दूसरे ने कहा, ‘अरे, तू किसी और को बुद्ध बनाना, मुझे पक्का पता है कि तू दादर ही जा रहा है।’

देखते हो मजा! उसने कहा, ‘मुझे पक्का पता है कि तू दादर ही जा रहा है! तू किसी और को बुद्ध बनाना!’ क्योंकि जाएगा कहीं, व मुझे मालूम है। तू सोचता होगा कि दादर को बताएगा तो मैं समझूंगा थाना जा रहा है। मगर मैं पक्का पता लगाकर आया हूं कि तू दादर ही जा रहा है।

अब बेचारा सच बोल रहा है कि दादर ही जा रहा हूं मगर माने कोन!

इस जगत में इतने तिरछे लोग हैं। यहां सभी राजनीति में पड गये हैं। छोटे—छोटे बच्चे तक राजनीति में पड़ जाते हैं। पड़ना ही पड़ता है। क्योंकि मां कहती है कि हंसो, अरे मैं तुम्हारी मां हूं मुस्कुराओ, क्या पड़े हो! छोटा—सा बच्चा! मनोवैज्ञानिक ने खोज की है कि छह सप्ताह का बच्चा राजनीति सीखना शुरू कर देता है। जैसे ही माताराम को आते देखता है, मुस्कुराने लगता है। कोई मतलब नहीं है उनको मुस्कुराने का। इन माताराम को आते देखता है, मुस्कुराने लगता है। कोई मतलब नहीं है उनको मुस्कुराने का। इन माताराम को देखकर उनको कोई प्रसन्नता नहीं हो रही है। मगर झंझट से बचना है तो मुस्कुराहट ठीक है। पोपला मुंह खोल देता है। न कुछ दात है, न हृदय में कोई मुस्कुराहट का अभी सवाल है, मगर होंठ फाड़ देता है। माताराम प्रसन्न हो जाती हैं। स्वागत हो गया। बाप आते हैं, वे भी झूले पर खडे होकर बेटे को देखते हैं। बेटे को मुस्कुराना पड़ता है।

मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी, बेटा फजलू और छोटे बच्चे को लेकर—अभी नया—नया, दो ही साल का बच्चा—किसी के घर निमंत्रित थे, भोजन करने गये थे। सबने छोटे बच्चे को अभी पहली दफा देखा था, इसलिए सभी छोटे बच्चे की बात कर रहे थे। गृहपति ने कहा कि बाल तो बिलकुल नसरुद्दीन, तुमसे मिलते हैं। अरे, तुम्हारे बाल देख लो कि इसके बाल देख लो। गृहपत्नी ने कहा, नसरुद्दीन की पत्नी से कि गुलजान, आंखें तो बस बिलकुल तुमसे मिलती हैं। ऐसा लगता है, बिलकुल तुम्हारी आंखों की ही प्रतिध्वनि!

फजलू चुपचाप खड़ा रहा कि देखें मेरे बाबत भी कुछ बोला जाता है कि नहीं। जब देखा कि कुछ कोई नहीं बोल रहा और उसने कहा, ‘पाजामा मेरा है! मिलता ही नहीं, बिलकुल मेरा है!’

क्या करोगे! जहां सब अपनी—अपनी चला रहे हैं, अपनी—अपनी धाक जमा रहे हैं—कोई के बाल, किसी की आंखें! आखिर लड़का यह भी तो सोचे कि आखिर मेरी भी कोई इज्जत है, मेरी भी कोई प्रतिष्ठा है! इनके मिलते होंगे, मगर मेरा पाजामा बिलकुल मेरा है! कसम खाकर कहता हूं। मुहल्ले—पड़ोस के लड़कों को लाकर गवाही में खड़ा कर सकता हूं। सालों मैंने पहना है और अब यह पहन रहा है।

छोटे—छोटे बच्चों को भी अहंकार पकड़ना शुरू होता है। और वहीं से गांठ पड़नी शुरू होती है। और मां—बाप भी अहंकार को पकड़ाते हैं, जहर पिलाते हैं।’कुछ करके दिखाना! अरे, दुनिया में आए हो तो कुछ करके दिखाओ! कुछ नाम ही कर जाओ!’….. जैसे जो नाम कर गये पहले, कुछ बहुत कर गये! क्या हो गया उनके नाम के कर जाने से?….. मगर हर बच्चे को हम कहते हैं. कुछ होकर दिखाओ, कुछ बनकर दिखाओ। यह बन जाओ, वह बन जाओ। स्कूल भेजते हैं, स्कूल में भी वही दौड़ महत्वाकांक्षा की—प्रथम आओ! स्वर्णपदक जीतो! कुछ न कुछ दुनिया के सामने अपने अहंकार की घोषणा देनी है। इससे ग्रंथियां पैदा होती हैं।

महत्वाकांक्षा ग्रंथियां लाती है। और महत्वाकांक्षा हीनता पैदा करवाती है कि मैं अभी कुछ भी नहीं। न सिकंदर बन पाया, न अशोक बन पाया, न अकबर बन पाया, न बुद्ध बन पाया, न महावीर बन पाया, कुछ भी नहीं। जिंदगी यूं ही चली जा रही है! अभी तक कोई अपनी छाप नहीं छोड़ पाया दुनिया पर। हस्ताक्षर नहीं कर पाया। तो हीनता पैदा होती है। महत्वाकांक्षा का जहर हीनता पैदा कर देता है। और हीनता बड़ी गांठ है। फिर आदमी धन से, पद से, प्रतिष्ठा से, किसी भी तरह से—अगर अच्छी तरह से न मिले तो गलत तरह से; चोरी से, बेईमानी से, गुंडागर्दी से—फिर साध्यों की फिक्र नहीं रह जाती कि वह शुभ साधन से ही मिलने चाहिए। मिलने चाहिए—साधन फिर शुभ हों कि अशुभ।

केलिफोर्निया में दो वर्ष पहले एक आदमी ने सात हत्याएं की—दो घंटे के भीतर। जो मिला उसको सूट कर दिया। यह भी नहीं देखा, किसको शट कर रहा है। पीछे से भी मार दी गोली लोगों को। उनका चेहरा भी नहीं देखा था पहले कभी। उस पर जब अदालत में मुकदमा चला तो मजिस्ट्रेट भी हैरान था। उसने पूछा कि तुमने यह किया क्यों? अरे, लोगों की कोई दुश्मनी होती है तो कोई किसी को मारता है, समझ में आता है, कोई तर्क है। तुमने तो ऐसे आदमियों को मारा, जिनको तुमने जिंदगी में पहले देखा भी नहीं था। इसमें एक आदमी तो पहले दफा ही केलिफोर्निया आया था। और उसका तुमने चेहरा भी नहीं देखा था, पीछे से गोली मार दी! उस आदमी ने कहा, ‘मुझे इसकी कोई फिक्र नहीं। मैं अपनी तस्वीर अखबारों में देखना चाहता हूं! अरे, जिंदगी यूं ही चली जा रही है! कोई चर्चा ही नहीं! आज हर जबान पर मेरा नाम है। गांव की चर्चा मैं हूं। जो देखो मेरी बात कर रहा है। जिंदगी सफल हो गयी। अब फांसी लगे, कोई फिक्र नहीं। उसकी भी चर्चा होगी। मर जाऊंगा, मगर याद छोड जाऊंगा।’

जार्ज बर्नार्ड शा को जब नोबल प्राइज मिली तो उसने इनकार कर दिया लेने से। वह पहला आदमी था इनकार करनेवाला। एक तो नोबल प्राइज का मिलना, सारी दुनिया में चर्चा हुई। प्रथम, अखबारों की सुर्खियों में नाम आया और दूसरे दिन उसने इनकार कर दिया लेने से। फिर अखबार छपी। यह पहला मौका था कि कोई नोबल प्राइज लेने से इनकार कर दे। नोबल प्राइज के लिए तो लोग मर जाते हैं। हजार कोशिश करते हैं, सिफारिशें करवाते हैं, चेष्टाएं करते हैं, क्या नहीं करते आदमी! और इसने नोबल प्राइज को इनकार कर दिया। मिलने से भी बड़ी खबरें छपी कि यह इतिहास में पहली घटना है, इतना बड़ा पुरस्कार—कोई बीस लाख रुपये मिलने हैं—और सारे जगत में सम्मान, ऐसा कोई पुरस्कार नहीं और बर्नार्ड शा ने इनकार कर दिया! बहुत चर्चा हुई, बहुत शोरगुल मचा। दो—तीन दिन बर्नार्ड शा को बहुत खोजा गया, उसका पता ही न चले कि वह कहां है। तीन दिन बाद पता चला। वह अपने गांव चला गया था। उस पर बड़ा दबाव डाला गया। इंग्लैंड की सरकार ने दबाव डाला, दुनिया के बड़े—बड़े प्रसिद्ध लोगों ने पत्र लिखे, तार किए कि भई ऐसा मत करो, इसमें अपमान है नोबल प्राइज बांटनेवाली कमेटी का। तुम स्वीकार करना और उस हाथ से दान कर देना, मगर स्वीकार कर लो।

मगर वह भी टिका रहा, सात दिन तक अखबारों में रोज चर्चा चलती रही कि आज इस महाराजा ने प्रार्थना की, आज उस राजा ने प्रार्थना की, आज इस लेखक ने, कल उस कवि ने। सात दिन तक उसने धूम— धड़ाका मचा दिया। सारी दुनिया की सब खबरें गौण हो गयीं। सातवें दिन उसने घोषणा की कि जब इतने लोग आग्रह कर रहे हैं तो मैं कैसे इनकार कर सकता हूं मैं स्वीकार करता हूं।

उसने नोबल प्राइज स्वीकार की। फिर अखबार में खबर छपी।

और उसने एक हाथ से दस्तखत किए स्वीकार करने के और दूसरे हाथ से उसको दान कर दिया एक संस्था को….. फेबियन सोसायटी को दान कर दिया।….. फिर अखबारों में खबर छपी कि उसरे स्वीकार किया, मगर अद्भुत दानी कि बीस लाख रुपये यूं दान कर दिए कि दो पैसे भी आदमी देने में सोचता है, बीस लाख रुपये देने में….. और आज के बीस लाख नहीं, उस दिन के बीस लाख बहुत थे। आज का तो एक करोड़ रुपया भी उससे कम है उस दिन के बीस लाख रुपए आज के करोडों रुपए से भी ज्यादा थे। कुछ चीजों के दाम तो सात सौ गुने ज्यादा हो गए हैं उस दिन से अब तक। रुपये की तो कीमत ही गिरती चली गयी है रुपये का तो कोई मूल्य ही नहीं रहा। भिखमंगे को भी तुम रुपया दो तो वह धन्यवाद नहीं देता; उल्टे उसको देखता है कि असली है कि नकली। मतलब तुम पर अहसान कर रहा है स्वीकार करके।

अखबार में खबरें छपीं, बहुत खबरें छपीं। और फिर पता चला कि वह फेबियन सोसायटी जो थी वह जार्ज बर्नार्ड शा की ही बनायी हुई एक छोटी—सी समिति थी, जिसके वही अध्यक्ष थे और वही सदस्य थे, एकमात्र—और कोई भी नहीं। फिर तो बहुत शोरगुल मचा, कि यह तो हद हो गयी, यह तो बेईमानी हो गयी। यूं पंद्रह दिन तक उस आदमी ने सारी दुनिया को उलझाए रखा। और सोलहवें दिन उसने घोषणा कर दी कि इसमें क्या संकोच की बात है। सच बात तो यह है कि मैंने जानकर यह सब किया, क्योंकि नोबल प्राइज मिली, एक दिन छप गयी खबर, खतम हो गयी बात, यह भी कोई बात है! अरे, नोबल प्राइज मिली तो इसको जितना खींचा जा सके लंबा, जितने दिन तक अखबारों में टिका जा सके—टिकना चाहिए इसलिए तो मैंने इतना पूरा नाटक किया।

फिर खबर छपी कि यह नाटक था पूरा का पूरा। यह नाटककार नाटक ही कर रहा था। यह इसने किसी को दान वगैरह किए नहीं, इस हाथ से अपने को ही दान कर लिए वापिस। यह धोखाधड़ी थी। यह आदमी बेईमान है। जगह—जगह असम्मान और व्यंगचित्र छपे। मगर उसने कहा कि इसमें क्या बात है! मैंने पूरा लाभ लेना चाहा जितना लाभ लिया जा सकता है। क्या यूं ही नोबल प्राइज मिली और बस ले ली, किसी को पता भी न चला, कानों—कान खबर न हुई! एक—एक बच्चे को पता चल गया।

ऐसी ग्रंथियां मन में पैदा हो जाती हैं—अहंकार की, विशिष्टता की, खास होने की।

‘स्मृ तिलाभै’

लेकिन जिसको अपना स्मरण आ गया, उसकी ये सारी ग्रंथियां मिट जाती हैं। फिर उससे ऊपर कुछ भी नहीं है—न धन है, न पद है, न प्रतिष्ठा है। जिसको अपना स्मरण आ गया, उसे तो परमपद मिल गया, परमधन मिल गया। उस परमपद और परमधन का नाम मोक्ष ही है।

’स्मृतिलाभै सर्वग्रंथीना विप्रमोक्ष’।

उसका सभी ग्रंथियों से मोक्ष हो जाता है, मुक्ति हो जाती है। सारी ग्रंथिया टूटकर गिर जाती हैं, जैसे जंजीरें टूटकर गिर गयी हों किसी कैदी की।

इस सूत्र को बहुत सावधानी पूर्वक समझना। आहार अर्थात् जो बाहर से भीतर आता है। स्मृति अर्थात् आत्म—स्मृति। ग्रंथियां अर्थात् वे सब आकांक्षाएं जो तुम्हें बांधे हुए हैं; वासनाएं जो तुम्हें बांधे हुए हैं; गांठें जिनमें तुम उलझ गए हो। जैसे मछली जाल में फंसी हो और तडूफती हो। जिसकी सारी ग्रंथियां टूट जाती हैं, उसका ही मोक्ष है।

‘लगन महूरत झूठ सब’ प्रवचनमाला से

दिनांक 28 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना


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नाम सुमिर मन बावरे–(प्रवचन–6)

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जीवन सृजन का अवसर है—(प्रवचन—छट्ठवां)

दिनांक 6 अगस्‍त 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्नसार:

1—क्या भक्ति में डूबने के पूर्व जीवन की बहुत—सी समस्याएं सुलझाना आवश्यक नहीं है?

2—मनुष्य—जीवन का संघर्ष क्या है?

3—वासना क्या है और प्रार्थना क्या है?

4—क्या अंतसमय में रामनाम लेने से मुक्ति हो जाती है?

पहला प्रश्न :

 

जीवन में बहुत दुःख हैं और बहुत—सी समस्याएं हैं। क्या प्रेम और भक्ति में डूबने के पूर्व उन्हें सुलझाना आवश्यक नहीं है?

 

भाई मेरे, उन्हें सुलझाओगे कैसे? उलझाव ही यही है कि प्रेम का अभाव है। जीवन की समस्याएं ही इसलिए हैं कि प्रेम के रसस्रोत से हमारे संबंध छूट गए हैं। भक्ति का प्रवाह नहीं है इसलिए जीवन में समस्याओं के डबरे भर गए हैं।

तुम तो यह कह रहे हो, अभी लोग बहुत बीमार हैं, अभी औषधि की बात करने से क्या फायदा? पहले लोग तो ठीक हो लें, पहले लोग स्वस्थ हो लें फिर औषधि की चिंता करेंगे। तुम्हारा प्रश्न ऐसा है।

भक्ति औषधि है। भक्ति का अर्थ क्या है? भगवान से जुड़ने का उपाय। उससे नहीं जुड़े हैं यही तो दुःख है। उससे टूट गए हैं यही तो पीड़ा है। उसे भूल गए हैं, विस्मरण कर बैठे हैं यही तो अंधकार है। उसकी तरफ पीठ कर ली है और कचरे की तरफ उन्मुख हो गए हैं। धन से जुड़ गए हैं, ध्यान से टूट गए हैं। पद से जुड़ गए हैं, परमात्मा से टूट गए हैं। देह से जुड़ गए हैं, आत्मा से टूट गए हैं। इससे ही जीवन में इतना दुःख है।

और यह दुःख बिना प्रेम और भक्ति में डूबे मिटेगा नहीं। और ये समस्याएं उलझी ही रहेंगी। तुम जितना सुलझाओगे उतनी उलझती जाएंगी क्योंकि तुम ही उलझे हुए हो। तुम तो सुलझो! सुलझानेवाला तो सुलझे! तुम जो भी करोगे, गलत हो जाएगा।

ऐसा ही समझो कि एक पागल आदमी भवन बनाए। यह भवन बनेगा नहीं। बनेगा भी तो गिरेगा। इससे तो बिना भवन के रह लेना बेहतर है। इस पागल आदमी ने बहुत भवन बनाए हैं, सब गिर गए । यह पागल आदमी जो भी करेगा उसमें इसके पागलपन की छाप होगी।

आदमी ने कुछ कम उपाय किए हैं समस्याएं हल करने के लिए? समस्याएं कम हुईं? पांच हजार साल में एक भी समस्या नहीं मिटी। हां, पांच हजार साल के लंबे चेष्टा के इतिहास में नई—नई समस्याएं जरूर खड़ी हो गईं। पुरानी अपनी जगह हैं और नई समस्याओं की कतारें बंध गई हैं। पुरानी समस्या तो जाती ही नहीं, उसको सुलझाने में नई समस्याएं और आ जाती हैं।

लेकिन कुछ लोग इस पृथ्वी पर हुए हैं जिनके जीवन में समस्या नहीं थी, जिनके जीवन में समाधान था। लेकिन समाधान आता कहां से है? समाधान आता है समाधि से। ये दोनों शब्द एक ही धातु से बने हैं। जिसका चित्त भीतर मौन हो जाता है, शून्य हो जाता है, उस शून्य चित्त में पूर्ण का अवतरण होता है।

और तुम्हारे भीतर परमात्मा का प्रकाश आ जाए तो सारी समस्याएं ऐसे ही तिरोहित हो जाती हैं, जैसे दीये के जल जाने पर अंधेरा तिरोहित हो जाता है; या सूरज के निकल आने पर रात विदा हो जाती है। अंधेरी रात में तुम पक्षियों से कितनी ही प्रार्थनाएं करो कि गाओ गीत, कि खोलो कंठ; कि कोयल, तुझे हुआ क्या? क्यों चुप हो? तुम्हारी सब चेष्टाएं व्यर्थ जाएंगी। सूरज को उगने दो, पक्षियों के कंठों से गीतों के झरने फूटने लगेंगे। अनायास हो जाता है।

परमात्मा के जैसे ही कोई व्यक्ति करीब पहुंचना शुरू होता है, उसके जीवन से झरने फूटने शुरू हो जाते हैं। उसके जीवन की छाया में जो भी आ बैठता है वह भी भर जाता है। उसका प्यासा कंठ भी पहली बार अमृत का स्वाद लेता है।

तुमने जो प्रश्न पूछा, कुछ नया नहीं। बार—बार पूछा गया है, सदियों में पूछा गया है। कवियों ने गीत लिखे हैं कि अभी प्रेम कैसे करें?

भटक रहे हैं अभी कारवां गरीबी के

लरज रही है जबीं आस्मानों—अंजुम की

तरस रहे हैं खुशी के लिए हजारों दिल

अभी लबों को इजाजत नहीं तबस्सुम की

अभी हंसें कैसे? अभी ओंठों को हंसने की इजाजत नहीं है। अभी बहुत गरीबी है; गरीबी के काफिले के काफिले चल रहे हैं।

तुम सोचते हो, तुम्हारे हंसने को रोक लेने से गरीबी के काफिले रुक जाएंगे? तुम हंसो तो गरीबी मिटे। तुम्हारे रोने से गरीबी मिटनेवाली नहीं है। तुम्हारे हंसने से फूल झरें…..। और ऐसा अक्सर हो गया है कि जिसके पास कुछ भी नहीं था और अगर हंस पाया है दिल खोलकर तो अमीर हो गया है। और जिनके पास सब कुछ है, अगर हंस भी नहीं पाते हैं दिल खोलकर, तो उनकी अमीरी दो कौड़ी की है। उनसे ज्यादा भिखमंगे और तुम कहां खोजोगे?

मैं तुझको भूल गया हूं इसका ऐतबार न कर

मगर खुदा के लिए मेरा इंतजार न कर

अजब घड़ी है मैं इस वक्त आ नहीं सकता

सरूरे—इश्क की दुनिया बसा नहीं सकता

कवि सदा कहते रहे हैं, अभी कैसे हम प्रेम की दुनिया बसाएं? पहले ठीक तो हो ले सारा इंतजाम। पहले अर्थ—व्यवस्था बदले, क्रांति हो, फिर हम प्रेम करेंगे। हम तो तब प्रेम करेंगे जब——

सनमखानों के दरवाजों पै ताले पड़ चुके होंगे

मजाहब गल चुके होंगे, अकाइद सड़ चुके होंगे

नई रूहें, नए कालिब, नया मकसद, नया मंशा

जनूने—सरफरोशी बाइसेत्तामीरे—नौ होगा

जब नई सुबह होगी, नए मनुष्य का जन्म होगा——तब! उसके पहले नहीं। तब तो तुम कभी प्रेम न कर पाओगे। और प्रेम ही न किया तो भक्ति तो फिर बहुत दूर का पड़ाव है। प्रेम का अंकुर ही न फूटा तो भक्ति का पौधा कभी बड़ा न होगा। प्रेम के ही पौधों में भक्ति की संभावना है। प्रेम का पौधा ही बढ़ते—बढ़ते एक दिन भक्ति के फूलों में रूपांतरित होता है।

जाग उठो वक्फएत्तब्दीर मिले या न मिले

ख्वाब फिर ख्वाब है, ताबीर मिले या न मिले

हम तो खून अपना चिरागों में जलाते जाएं

इससे क्या, सुबह की तनवीर मिले या न मिले

फिर लोगों ने देखा भी कि हजारों तो साल हो गए, क्रांति आती नहीं, कुछ बदलता नहीं। बाहर की दुनिया तो वैसी की वैसी, नरक की नरक बनी रहती है। नाम बदल जाते हैं, लेबल बदल जाते हैं; और कुछ भी नहीं बदलता। तो फिर…..।

तो भी चलते रहो। तो भी क्रांतिकारी कहता है, जाग उठो वक्फएत्तब्दीर मिले या न मिले। कोई फिक्र न करो, मंजिल हाथ आएगी कि नहीं।

ख्वाब फिर ख्वाब है, ताबीर मिले या न मिले——यह सपना देखने जैसा है कि दुनिया अच्छी बनाएंगे। फिर दुनिया अच्छी बने या न बने।

हम तो खून अपना चिरागों में जलाते जाएं

इससे क्या, सुबह की तनवीर मिले या न मिले

सुबह हो या न हो, मगर हम अपना खून चढ़ाते जाएं, हम अपनी कुर्बानी देते जाएं। आदमी ने बहुत कुर्बानी दी और सब व्यर्थ गईं। आदमी ने बहुत—सी वेदियों पर अपने को चढ़ाया, और सब वेदियां झूठी सिद्ध हुई हैं। कोई तारा नहीं उगा, कोई प्रकाश नहीं जन्मा। हां, लेकिन कुछ लोगों के जीवन में तारे उगे हैं——कोई बुद्ध, कोई मीरा, कोई जगजीवन, कोई कबीर, कोई नाचा!

तुम क्या सोचते हो, कबीर नाचे तब दुनिया की सारी समस्याएं हल हो गई थीं? समस्याएं अपनी जगह थीं फिर भी कबीर नाचे। और कबीर के नाचने से समस्याओं के हल होने की तरफ इशारा हुआ। अगर कबीर नाच सकते हैं समस्याओं के रहते हुए तो तुम क्यों नहीं नाच सकते? और अगर सारी दुनिया यह तय कर ले कि समस्याओं को रहने दो, हम नाचेंगे, हम गाएंगे, हम प्रेम भी करेंगे, हम कल की प्रतीक्षा न करेंगे, हम आज जिएंगे, तो मैं तुमसे कहता हूं, समस्याएं मिट जाएं। इतने लोग नाचे, इतने लोग गीत गाएं, समस्याएं टिकेंगी कहां? किस हृदय में जगह बना सकेंगी? जहां नाच भर जाएगा वहां से समस्याओं को विदा हो जाना होगा। और जहां प्रेम उमगेगा वहां से उलझनें अपने आप गिर जाएंगी। प्रेम सुलझाता है।

और भक्ति तो परम समाधान है। भक्ति का अर्थ यही है कि मेरी कोई समस्या न रही। जो पाना था, पा लिया। जिसे पाना था, पा लिया। और जिसे पाना था उसे अपने भीतर पा लिया; उसे स्वयं में पा लिया। वही मेरा स्वरूप है।

ऐसे सच्चिदानंद में जो भर गया, डूब गया, रसलीन हो गया, यह व्यक्ति दूसरों के बुझे दीये भी जला सकता है। इसके पास, इसके सत्संग में नई किरणें उतर सकती हैं। इसके सिवा दुनिया की समस्याओं को मिटाने का और कोई उपाय नहीं है।

तुम कहते हो, जीवन में बहुत दुःख हैं। मैं भी यही कहता हूं कि जीवन में बहुत दुःख हैं। लेकिन तुम्हारे कारण और मेरे कारण भिन्न हैं। तुम सोचते हो, जीवन में दुःख हैं क्योंकि धन नहीं है, धन बढ़ जाए तो दुःख कम हो जाएं। अमरीका में धन बढ़ गया, दुःख कम नहीं हुए, बढ़ गए; धन के साथ बढ़ गए। गरीब आदमी कितने दुःख खरीदेगा? उसकी हैसियत भी कम होती है। दुःख खरीदने की भी हैसियत होनी चाहिए न! अमीर आदमी बड़े—बड़े दुःख खरीदता है; खरीद सकता है। न खरीदेगा तो धन का मतलब क्या है?

मैंने सुना है, एक दर्जी हर महीने लॉटरी की टिकट खरीद लेता था। सालों से, वर्षों से चल रहा था। यह उसकी आदत ही हो गई थी, एक टिकट खरीद लेना हर महीने। इससे ज्यादा की हैसियत भी न थी। एक रुपए की एक टिकट खरीद लेता। कोई बीस साल तक यही करता रहा। और एक दिन द्वार पर एक बहुमूल्य कार आकर रुकी, लोग नीचे उतरे, थैलियों में भरे हुए नोट लाए और कहा कि तुम्हें पुरस्कार मिल गया है।

उसे तो भरोसा ही नहीं आया अपनी आंखों पर। उसने तो बात ही छोड़ दी थी। वह तो खरीदता जाता था, आदत हो गई थी। हर महीने खरीदनी है एक तो खरीद लेता था। यह सोचा नहीं था कि मिलेगी। लाखों रुपए मिल गए लॉटरी में।

उसने तो ताला बंद कर दिया। अब काहे के लिए वह दर्जीगीरी करे? सामने ही कुआं था, चाबी कुएं में फेंक दी। अब क्या प्रयोजन रहा? साल भर में पैसा तो फुंक गया। शराब पी, वेश्याओं को भोगा, दुनिया भर की यात्रा कर आया। जितने भी खर्च के उपाय हो सकते थे, सब कर डाले। साल भर में रुपया खत्म हो गया। रुपया ही खत्म नहीं हुआ, दर्जी भी आधा खत्म हो गया। नींद भी चली गई, चैन भी चला गया। बड़ा पछताने लगा। परमात्मा से प्रार्थना करने लगा कि तूने किस पाप का मुझे यह दंड दिया कि लॉटरी मेरे नाम खोली? तुझे और कोई पापी न मिला? जिंदगी चैन से चलती थी। अपने दो पैसे कमा लेता था, खाता था, पीता था। रात शांति से सोता तो था! यह तो बड़ा उपद्रव हो गया। आज टोकियो, कल कलकत्ता, परसों दिल्ली…..जाना ही पड़े। अब करे भी क्या? रुपया जो पास आ गया! आज यह स्त्री, कल वह स्त्री….. जाना ही पड़े। करे क्या? महंगे से महंगे भोजन, जो पचे भी न। मगर करो क्या? अब गरीब की तरह रूखी—सूखी रोटी खाओ तो दुनिया मूढ़ कहे न! अब गरीब की तरह के दुःख भोगो तो अच्छा लगे? अब तो अमीर के दुःख भोगना पड़ेंगे। अमीर के अपने दुःख हैं। उसे रात नींद नहीं आती।

साल भर में सब फुंक गया। जब साल भर बाद लौटा तो उसके पड़ोसी उसे पहचान भी न सके। बिल्कुल पिचक गया था। डालडा का खाली डब्बा! बिल्कुल पिचक गया था। लोग पहचाने भी नहीं। आंखें भीतर घुस गई थीं, चश्मा चढ़ गया था। लोगों ने कहा, अरे क्या तुम वही हो जो यहां दर्जी का काम किया करता था? मगर तुम तो बड़े मस्त हुआ करते थे। यह तुम्हारी क्या हालत हुई? हम तो सोचते थे, तुम मजा लूट रहे हो। उसने कहा, मजे में ही यह हालत हुई। अब कुएं में उतरना, चाबी खोजना——!

कुएं में उतरा, बामुश्किल चाबी खोज पाया। फिर अपनी दुकान शुरू कर दी। मगर पुरानी आदत! फिर उसने वह एक रुपए की टिकट खरीदनी शुरू कर दी। यह बिल्कुल संयोग की बात है लेकिन एक साल बीता कि उसको लॉटरी फिर मिल गई। जब उसको लॉटरी मिली, उसने अपना सिर पीट लिया। उसने कहा, मारे गए! हे भगवान, तू क्यों यह कष्ट दे रहा है? अब फिर उसी झंझट में से गुजरना पड़ेगा?

मगर गुजरना पड़ा। क्योंकि जब हाथ पैसा आ जाए, करो भी क्या? आदमी का अज्ञान ऐसा, मूर्च्छा ऐसी। मगर इस बार लौट नहीं पाया। आधा तो पहले ही खत्म हो गया था, आधा इस बार खत्म हो गया।

तुम यह मत सोचना कि धन के बढ़ने से लोगों के दुःख कम हो जाते हैं। नहीं तो अमरीका में दुःख कम हो जाते। तुम यह भी मत सोचना कि सबके पास समान धन का वितरण हो जाए तो दुःख कम हो जाते हैं। नहीं तो रूस में दुःख कम हो जाते हैं। समान धन का वितरण करने में रूस में आदमी की आजादी भी चली गई, आत्मा भी चली गई। समान धन का वितरण हो गया! साम्यवाद आ गया, आदमी की आत्मा सूख गई।

सब तरह के उपाय हो चुके हैं। सब उपाय असफल भी हो चुके हैं। सिर्फ एक उपाय असफल नहीं हुआ है क्योंकि उसका वृहत पैमाने पर प्रयोग ही नहीं हुआ है। उसको असफल होने का भी मौका नहीं मिला, सफल होने की तो बात अलग। बुद्धों ने जो कहा है, वह इक्के—दुक्के लोगों ने प्रयोग किए हैं। और जिन्होंने भी प्रयोग किए हैं उनके जीवन में अपूर्व महिमा प्रकट हुई है। बड़े पैमाने पर उसका प्रयोग नहीं हुआ। अधिक लोग उस रंग में डूबे नहीं।

मैं तुमसे जो भक्ति की बात कह रहा हूं, इसीलिए कह रहा हूं। क्योंकि मनुष्य जाति के पूरे इतिहास का निष्कर्ष यही है कि अगर राम मिले तो सब मिले। राम चूका तो सब चूका। फिर राम जैसे भी मिले, खोजो। ध्यान से मिले, ध्यान से खोजो; प्रेम से मिले, प्रेम से खोजो। जिस द्वार से मिलता हो उसी द्वार से प्रवेश कर जाओ। द्वारों की फिक्र मत करो। कुरान से मिले तो ठीक, और गीता से मिले तो ठीक; जहां से मिले, जैसे मिले! इसकी फिक्र मत करना किस नाव में बैठकर उस तरफ पहुंचे। उस तरफ पहुंचो, नाव कोई भी हो——बड़ी हो कि छोटी हो। एक ही ध्यान अगर रहे कि परमात्मा से अपनी जड़ों को जोड़ लेना है तो तुम पाओगे, तुम्हारे दुःख मिटे।

और जिस ढंग से तुम्हारे दुःख मिटते हैं उसी ढंग से सारी दुनिया के दुःख मिट सकते हैं। क्योंकि दुनिया में व्यक्ति ही हैं, समाज कहां है? तुम्हें कभी समाज मिला——कि चले जा रहे हैं रास्ते पर, समाज मिल गया! चले जा रहे हैं रास्ते पर, देश मिल गया! देश और समाज कोरे शब्द हैं। जो मिलता है वह तो व्यक्ति है। अगर एक बुद्ध के जीवन में हो सकती है बात, अगर मेरे जीवन में हो सकती है तो तुम्हारे जीवन में हो सकती है। क्योंकि हम सब एक हड्डी—मांस—मज्जा के बने हैं और एक—सी क्षमताएं हैं हमारी।

इसलिए मैं हिंदुओं की अवतारवाली धारणा में बहुत रस नहीं लेता; उसमें थोड़ी भूल है। मुझे जैनों और बौद्धों की धारणा ज्यादा सार्थक मालूम होती है। हिंदू कहते हैं, परमात्मा अवतरित होता है ऊपर से। उससे आदमी की आशा नहीं जगती। तो ठीक है, कृष्ण भगवान के घर से आए थे, पूर्ण अवतार थे, ठीक है, मस्त रहे। हम जैसे थे ही नहीं। विशिष्ट थे, अवतार थे। हम क्या करें? हम तो अवतार नहीं हैं।

अवतार की धारणा में आदमी को परमात्मा से तोड़ ही दिया गया। तो जो ऊपर से उतरेंगे, ठीक है, मस्त होंगे, आनंदित होंगे, रसपूर्ण होंगे——कोई राम, कृष्ण! हम तो हड्डी—मांस—मज्जा के बने आदमी हैं, हम तो इसी मिट्टी से उठे हैं, इसी मिट्टी में जिएंगे, इसी मिट्टी में सरकेंगे। हम कैसे आकाश में उड़े? हमारे पास पंख कहां हैं? वे दिव्य पुरुष थे, उनके पास देह दिव्य थी। वे अमृत पुरुष थे। वे अमृत के घर से आए थे। वे विशेष थे, संदेशवाहक थे।

इस बात में मुझे बहुत ज्यादा रस नहीं है क्योंकि यह बात मनुष्य को आशा नहीं देती, मनुष्य की आशा को क्षीण करती है।

जैनों—बौद्धों की धारणा ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, ज्यादा गौरवपूर्ण है। जैन और बौद्ध कहते हैं, परमात्मा ऊपर से नहीं उतरता, तुम्हारे भीतर से ऊपर की तरफ जाता है; उठता है। जैसे बीज से अंकुर उठता है, जैसे दीये से ज्योति ऊपर की तरफ उठती है, जैसे धूप से धुआं ऊपर की तरफ उठता है। परमात्मा तुम्हारी सुवास है जो आकाश की तरफ उठने लगती है।

महावीर मनुष्य हैं, बुद्ध भी मनुष्य हैं। और मनुष्य होते हुए परम सत्ता को पाया है। उसमें आश्वासन है। इसमें तुम्हारे लिए आशा है। इसका अर्थ हुआ : तुमसे जरा भी भिन्न नहीं हैं बुद्ध।

बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों से, एक दिन मैं तुम जैसा था। और मैं तुमसे कहता हूं, एक दिन तुम मेरे जैसे हो जाओगे क्योंकि हम एक ही जैसे हैं। जैसे आज तुम अंधेरे में भटकते हो, मैं भी भटकता था। और जैसे आज तुम्हें चिंताएं घेरती हैं, मुझे भी घेरती थीं। और जैसे आज विचारों की भीड़ तुम्हें दबाए रखती है, तुम्हारी छाती पर बैठी रहती है, मेरी छाती पर भी बैठी थी। आज मैं उसके बाहर हुआ हूं, कल तुम भी हो सकते हो। मैं तुम्हारा भविष्य हूं। मुझे देखकर तुम्हें अपने पर श्रद्धा आनी चाहिए।

बुद्ध ने बड़ी अनूठी बात कही : मुझे देखकर तुम्हें अपने पर श्रद्धा आनी चाहिए। हड्डी—मांस—मज्जा के मुझ मनुष्य में यह हो गया। तुम भी हड्डी—मांस—मज्जा के हो, तुममें भी यह हो सकता है। जब बीज देख ले किसी वृक्ष को अपने पास आकाश में उठा हुआ, तो भरोसा आ जाता है कि अगर किसी और बीज से वृक्ष पैदा होते हैं और फिर तारों से बातें करते हैं और बदलियों के साथ अठखेलियां करते हैं और हवाओं में नाचते हैं तो मेरे भीतर भी सोया हुआ है कोई। उसे जगाऊं, उसे पुकारूं।

जब मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा से जुड़ना है तो तुम यह मत सोचना कि आकाश में बैठे किसी परमात्मा से जुड़ने की मैं बात कर रहा हूं। मैं यही कह रहा हूं, तुम्हारे भीतर छिपी हुई संभावना को वास्तविक करना है। तुम भक्त बनो ताकि भगवान बन सको। इससे कम पर राजी मत होना। इससे कम पर जो राजी हो गया उसने परमात्मा ने जो भेंट दी थी उसे अंगीकार नहीं किया।

तुम्हारे भीतर कुंजी छिपी है; सारे रहस्य खुल जाएंगे उससे। और तुम्हारी समस्या मिटे तो तुम्हारे आसपास की समस्याएं मिटनी शुरू हो जाती हैं।

तुमने देखा नहीं, अगर तुम क्रोधित हो तो तुम आसपास पच्चीस तरह की समस्याएं खड़ी कर देते हो। क्रोधी आदमी अकेला ही थोड़े समस्या में रहता है। उसके क्रोध के कारण और लोगों के जीवन में समस्याएं खड़ी कर देता है। किसी को गाली देगा, किसी को मार देगा, किसी का अपमान करेगा। समस्याओं का जाल फैलना शुरू हो गया।

एक जरा—सा कंकड़ झील में फेंको, लहरें उठनी शुरू हो जाती हैं। और फिर वे लहरें दूर—दूर किनारों तक जाएंगी, अनंत हो जाएंगी। एक आदमी गाली देता है तो उसने एक कंकड़ फेंका चैतन्य के सागर में। अब इसकी तरंगें उठेंगी और तुम चकित होओगे यह जानकर कि ये तरंगें सदियों तक चलेंगी।

छोटी—सी घटनाएं दूर—दूर तक, दिग—दिगंत तक परिणाम लाती हैं क्योंकि यहां सब जुड़ा हुआ है। यह संसार ऐसा है जैसे मकड़ी का जाला। कभी मकड़ी के जाले के एक धागे को पकड़कर हिलाया है? और तुम चकित हो जाओगे, पूरा जाला हिल जाता है। जरा—सा एक धागा हिलाओ, सारे धागे, पूरा जाल कंपने लगता है।

पश्चिम के कवि टनिसन ने कहा है, घास के एक पत्ते को छुओ, और तुमने दूर—दूर के चांदत्तारे छू लिए। सारा अस्तित्व जुड़ा है, संयुक्त है, अंतर्निर्भर है।

तुम जानकर यह हैरान होओगे, एक छोटी—सी घटना के कारण सारी दुनिया का इतिहास कुछ से कुछ हो जाता है। नेपोलियन जिस युद्ध में हारा उसमें हारने का कारण बड़ा अद्भुत था। नेलसन उसका विपरीत सेनापति सत्तर बिल्लियां अपनी फौज के सामने बांधकर लाया था क्योंकि उसे यह खबर लग गई थी कि नेपोलियन बिल्लियों से डरता है।

और डरता इसलिए था कि जब नेपोलियन छह महीने का छोटा बच्चा था तो उसको रखवाली करनेवाली औरत जरा बाहर चली गई और एक बड़ा बिलाव उसकी छाती पर चढ़कर बैठ गया। वह जो घबड़ा गया छह महीने का बच्चा तो फिर वह बड़ा हो गया, महायोद्धा हो गया, सिंहों से जूझ जाए मगर बिल्ली देखी कि उसकी दम टूटने लगे। बस बिल्ली देखी कि वह छह महीने के बच्चे जैसा व्यवहार करने लगे; फिर उसका होश—हवास खो जाए।

नेपोलियन हारा उस बिल्ली के द्वारा। अगर नेपोलियन जीतता तो दुनिया का इतिहास दूसरा होता। शायद हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कभी न होता। दुनिया की सारी कहानी और होती। जरा सोचो, एक बिल्ली एक छह महीने के बच्चे की छाती पर बैठ गई, उसने सारी दुनिया का इतिहास बदल दिया। मगर जिंदगी ऐसे ही जुड़ी है।

क्रोधी आदमी अपने आसपास तरंगें पैदा करता है। हो सकता है दुर्वासा ऋषि ने जो तरंगें पैदा की थीं, अब तक तुम्हारी खोपड़ी में काम करती हों। जा तो सकती नहीं, यहीं कहीं होंगी। दुर्वासा महाराज चले गए, मगर उनकी तरंगें तो यहीं कहीं होंगी। भटक रही होंगी अनंत आकाश में। न मालूम किसके मस्तिष्क को पकड़ लेंगी। न मालूम किसके मस्तिष्क के तंतु कंप जाएंगे। न मालूम कौन उनसे जुड़ जाएगा।

जैसा क्रोध के साथ होता है वैसा ही प्रेम के साथ भी होता है। जब कोई प्रेम से भरता है तो उसके पास प्रेम की धार बहती है, प्रेम की तरंगें उठती हैं, संगीत उठता है। वह संगीत भी छूता है अनंत—अनंत काल तक। उसकी भी ध्वनि सुनी जाती है शाश्वत रूप से।

बुद्ध समाप्त नहीं हो गए और न जीसस समाप्त हुए। यहां कुछ भी कभी समाप्त नहीं होता। यहां सभी शाश्वत होकर जीता रहता है। बुद्ध ने जो स्पर्श किए थे धागे चैतन्य के, वे आज भी कंपित हो रहे हैं। आज भी कोई चाहे तो बुद्ध से जुड़ जाए और आज भी कोई चाहे तो जीसस से जुड़ जाए। आज भी कोई खोज ले सकता है मार्ग।

तुम जगत की समस्याएं मिटाना अगर चाहते हो, सच में चाहते हो तो अपनी समस्याएं मिटा लो। तुमने एक बड़ा कदम उठाया जगत् की समस्याएं मिटाने के लिए।

लेकिन मेरे देखे अक्सर ऐसा है, जो लोग जगत् की समस्याएं मिटाने में उत्सुक होते हैं ये वे लोग हैं जो अपनी समस्याओं को मिटाने में असमर्थ हैं, नपुंसक हैं। ये इतने नपुंसक हैं अपनी समस्याएं मिटाने में कि ये दूसरों की समस्या मिटाने में लग जाते हैं ताकि दिखाई न पड़े कि अपनी भी झंझटें हैं।

इसी तरह के लोग समाजसेवक हो जाते हैं, राजनीतिज्ञ हो जाते हैं, सारी दुनिया को ठीक करने चल पड़ते हैं। इनसे सावधान रहना। ये उपद्रवी लोग हैं। ये खुद अपना हल नहीं कर पाए हैं लेकिन दूसरे का हल करने चल पड़े हैं।

एक डॉक्टर के घर एक आदमी गया और उसने कहा कि मैं क्षय रोग से पीड़ित हूं। सब इलाज करवा चुका हूं। इस गांव के सब डॉक्टरों के चरण दबा चुका हूं, अब आप ही बचे हैं। और लोगों ने कहा है कि आप इस बीमारी में बड़े अनुभवी हैं। डॉक्टर ने कहा, बहुत अनुभवी हूं, मेरा तीस साल का अनुभव है। तुम निश्चित ठीक हो जाओगे। दवाएं शुरू हो गईं। छह महीने तक दवाएं चलीं। हालत और बिगड़ती चली गई। पैसा भी जा रहा है, हालत भी बिगड़ रही है, आखिर उस आदमी ने पूछा, आप कहते थे तीस साल का अनुभव है, कुछ परिणाम नहीं दिखाई पड़ता। उसने कहा, तीस साल का अनुभव है। तीस साल से मैं खुद ही इसी बीमारी से परेशान हूं।

इस तरह के अनुभवी लोग हैं। इस तरह के अनुभवी लोगों से सावधान रहना। इस तरह का अनुभवी आदमी अगर तुम्हारे पैर दबाने लगे तो बचना। अक्सर जब कोई पैर दबाता है तो बचने का मन नहीं होता, और तुम पैर फैलाकर लेट जाते हो कि चलो कोई समाजसेवा कर रहा है, इसको भी पुण्य हो रहा है, अपने को भी लाभ हो रहा है। मगर ध्यान रखना, जो लोग पैर से शुरू करते हैं, गर्दन दबाने पर अंत करते हैं। जिसने पैर दबाया वह गर्दन दबाएगा। आज नहीं कल वह कहेगा, दिल्ली जाऊंगा। दिल्ली जाना है। अब मुझे दिल्ली भेजो। अब मैंने इतनी सेवा की, उसका पुरस्कार चाहिए। इतने दिन ऐसे ही थोड़े तुम्हारे पैर दबाए! अब थोड़ा गर्दन दबाने का भी अवसर दो।

एक राजनेता चुनाव में खड़ा था और लोगों को समझा रहा था कि जिस पार्टी को आपने अब तक चुनाव में जिताया और तीस साल से जिताते आए, उसने तुम्हें चूस लिया, लूट लिया, तुम्हें बरबाद कर दिया। भाइयो, अब एक अवसर हमें भी दो।

कृपा करके अपने को ही बदलो। दूसरों की चिंता न करो। तुम बदले तो तुम्हारी बदलाहट से दूसरों को भी लाभ निश्चित होता है। और दूसरा कोई उपाय नहीं है।

दूसरा प्रश्न :

 

मनुष्य—जीवन का संघर्ष क्या है? इस संघर्ष का लक्ष्य क्या है?

नुष्य जीवन का संघर्ष है मनुष्य होने के लिए। मनुष्य मनुष्य की तरह पैदा नहीं होता। मनुष्य केवल संभावना लेकर पैदा होता है। जन्म के साथ कोई मनुष्य नहीं होता। कुत्ते जरूर कुत्ते होते हैं, बिल्लियां बिल्लियां होती हैं। कबूतर कबूतर होते हैं, कौवे कौवे होते हैं। मगर कोई मनुष्य जन्म के साथ मनुष्य नहीं होता। मनुष्यता अर्जित करनी होती है। यही मनुष्य का भेद है इस सारी पृथ्वी पर। यही मनुष्य की गरिमा है, गौरव है। और यही मनुष्य का संताप और पीड़ा ।

तुम कुत्ते से यह नहीं कह सकते कि तुम पूरे कुत्ते नहीं हो। कहो, तुम्हीं को खुद भद्दा लगेगा कि यह बात ही क्या कह रहा है। सब कुत्ते पूरे कुत्ते हैं। लेकिन तुम किसी आदमी से कह सकते हो कि भाई, तुम पूरे आदमी नहीं हो। और इसमें कुछ असंगति नहीं होगी, कुछ गलती नहीं होगी।

अक्सर तो अधिक लोगों के संबंध में यही सत्य है कि वे पूरे आदमी नहीं हैं । कुत्ता तो पूरा का पूरा पैदा होता है। तुमने देखा? मनुष्य का बच्चा इस जगत् में सबसे असहाय बच्चा है। हिरन का बच्चा पैदा हुआ और चला अपने काम पर। गाय का बच्चा पैदा हुआ और खड़ा हुआ। मनुष्य के बच्चे को अपने पैरों पर खड़े होने में पचास साल लगते हैं । पचहत्तर साल की उम्र में पच्चीस साल : एक तिहाई अपने पैर पर खड़े होने में लग जाते हैं। जब तक बेटा विश्वविद्यालय से न लौटे, नौकरी न करे, तब तक अपने पैर पर खड़ा नहीं होता। पच्चीस साल पैर पर खड़े होने में लग जाते हैं।

मनुष्य का बच्चा सबसे ज्यादा असहाय है। मनुष्य के बच्चे को छोड़ दो बिना मां—बाप के, एक बच्चा नहीं बचेगा। पशु—पक्षियों के बच्चे बच जाएंगे। वे पूरे के पूरे पैदा होते हैं। कुछ फिर और अर्जित नहीं करना है। आदमी के बच्चे को सब कुछ अर्जित करना है। उसे सब सीखना है, विकसित होना है, निखरना है, बनना है। आदमी का जीवन एक सृजनात्मक प्रक्रिया है।

तभी तो कोई कुत्ता कुत्ते से ऊपर नहीं उठ पाता। कुत्ते से नीचे भी नहीं गिरता, खयाल रखना; ऊपर भी नहीं उठता। आदमी आदमी से नीचे भी गिर सकता है और आदमी से ऊपर उठ जाए तो गौतम बुद्ध। और आदमी भी हो जाए तो भी बड़ी सुगंध पैदा होती है।

मनुष्य का संघर्ष है मनुष्य होने के लिए। और जो मनुष्य हो जाता है उसे पता चलता है कि मैं परमात्मा हो सकता हूं अब। मनुष्य के जन्म पर जन्म होते हैं। सारे पशु एक बार जन्मते हैं, मनुष्य दो बार जन्मता है। इसलिए हमारे पास एक कीमती शब्द हैः द्विज——दुबारा जन्मा। ब्राह्मण को द्विज कहते हैं। सभी ब्राह्मण द्विज होते नहीं, प्रतीक मात्र है। मेरे लेखे जो द्विज हो उसको ब्राह्मण कहना चाहिए। सभी ब्राह्मणों को द्विज नहीं कहना चाहिए। जो द्विज हो उसको ब्राह्मण कहना चाहिए, फिर चाहे वह चमार ही क्यों न हो।

द्विज का अर्थ है : जो दुबारा जन्मा। एक तो जन्म हुआ मां—बाप से। एक संभावना लेकर हम आए हैं कि मनुष्य हो सकते हैं। फिर मनुष्य हो गए, फिर दूसरा जन्म होता है स्वयं के भीतर, स्वयं के अंतस्तल में, स्वयं की अंतरात्मा में। उस दूसरे जन्म से कोई बुद्ध होता है, महावीर होता है, कृष्ण होता है। वह दूसरा जन्म मनुष्य को ब्राह्मण बनाता है। क्यों ब्राह्मण बनाता है? क्योंकि उस दूसरे जन्म से व्यक्ति ब्रह्मा को अनुभव करता है इसलिए ब्राह्मण हो जाता है। सभी ब्राह्मण द्विज नहीं होते, सभी द्विज ब्राह्मण होते हैं। मगर द्विज होना तो बड़ी दूर की बात है, हम तो पहले जन्म को ही पूरा नहीं कर पाते। हमारा पहला जन्म ही अधूरा रह जाता है। हम आदमी ही नहीं हो पाते।

डायोजनीज जिंदगी भर एक लालटेन लिए घूमता रहा। दिन हो कि रात, भरी सूरज की दुपहरी में भी लालटेन लिए रहता था जलती। और कोई भी मिलता तो गौर से उसका चेहरा देखता लालटेन उठाकर। लोग पूछते, होश में हो? क्या कर रहे हो? वह कहता, मैं आदमी की तलाश कर रहा हूं।

और जब मर रहा था लोगों ने पूछा कि भई, जिंदगी हो गई——लालटेन रखे था अपने बगल में, जब मर रहा था——तुम्हें जिंदगी हो गई आदमी की तलाश करते, भरी दुपहरी में लालटेन लेकर खोजते थे, आदमी मिला? उसने कहा, आदमी तो नहीं मिला पर परमात्मा का धन्यवाद, है मेरी लालटेन चोरी नहीं गई, यही क्या कम है? मेरी लालटेन बच गई। ऐसे—ऐसे लोग मिले, कि मुझे लालटेन बचने का डर हो गया था। एक से एक पहुंचे हुए पुरुष मिले। मेरी लालटेन बच गई यही क्या कम है? आदमी तो नहीं मिला।

आदमी ही आदमी नहीं हो पाता। और आदमी हो जाए तो फिर दूसरा द्वार खुलता है।

एक समय था,

मुझे किसी की खोज नहीं थी

खो भी जाऊं,

तो अंदर विश्वास कहीं था

मुझे खोज लेगा ही कोई

एक समय था,

जब मेरा कुछ खोया—सा था

और खोजता था मैं उसको

ले अंदर विश्वास कहीं पर

पा ही जाऊंगा तारों में, फूलों में

दुनिया की अनगिन चलती—फिरती छायाओं में

एक समय था,

अपना खोया पाने का संतोष मुझे था

पर मानव की छाती में

संतोष नहीं ज्यादा दिन टिकता

असंतोष अधिकारप्राप्त वासी जो उसमें

वही जन्म लेने,

पलने, बढ़ने के कारण

उसे नहीं रहने देता है

सच पूछो तो मानव का संघर्ष नहीं है

खोए—चाहे को उपलब्ध प्राप्त करने में

है उस उद्धत अधिवासी को ही निकालकर

अपना घर खाली रखने में

कांटा आए या गुलाब की कलिका आए,

स्वागत पाए

एक तो प्रक्रिया है कि हम मनुष्य बनें। मनुष्य बनने की प्रक्रिया अस्मिता की प्रक्रिया है, अहंकार की प्रक्रिया है। फिर एक दूसरी प्रक्रिया है कि हम अहंकार से मुक्त हों, अहंकार के पार जाएं। और जो अहंकार के पार जाता है——

सच पूछो तो मानव का संघर्ष नहीं है

खोए—चाहे को उपलब्ध प्राप्त करने में

है उस उद्धत अधिवासी को ही निकालकर

अपना घर खाली रखने में

कांटा आए या गुलाब की कलिका आए,

स्वागत पाए

फिर एक घड़ी आती है जब तुम्हारे भीतर अहंकार छाप जमाकर बैठ जाता है, उस अहंकार से मुक्त होना पड़ता है। यह बहुत उल्टी प्रक्रिया मालूम होगी। ऐसे ही जैसे तुम सीढ़ी से चढ़कर छत की तरफ जाते हो तो पहले सीढ़ी लगाते हो, सीढ़ी बनाते हो, फिर सीढ़ी पर चढ़ते हो। लेकिन फिर सीढ़ी पर ही बैठे नहीं रह जाते; नहीं तो छत पर कभी नहीं पहुंच पाओगे। छत पर पहुंचते हो तभी, जब तुम सीढ़ी को छोड़ देते हो। सीढ़ी को पीछे छोड़ देते हो। और समझदारों ने तो कहा है कि सीढ़ी को गिरा देना ताकि लौटने का कोई उपाय ही न रह जाए; ताकि यात्रा आगे ही आगे हो।

अहंकार एक सीढ़ी है। हम बच्चे को गरिमा सिखाते हैं उसकी अस्मिता की। हम उसे कहते हैं तू है; तू विशिष्ट है। अपने को सम्हाल, अपने को निखार, अपने गौरव—गरिमा को बढ़ा। अपने को सिद्ध कर। फिर एक घड़ी आती है, हमें उससे कहना पड़ता है, अब यह अहंकार खूब हो गया, यह महत्वाकांक्षा खूब हो गई। अब इसे छोड़। अब यह सीढ़ी गिरा दे। अब अपने को खाली कर। अब यह जो उद्धत अधिवासी भीतर बैठ गया है, यह जो अहंकार, इसको भी जाने दे। अब इसको विदा कर दे। अब शून्य हो जा।

विरोधाभासी लगता है मार्ग, कि पहले अहंकार को बनाना पड़ता है, फिर उसको विदा करना पड़ता है। मगर यही मार्ग है। राह पर चलना होता है मंजिल पर पहुंचने के लिए। फिर मंजिल पर पहुंचने के लिए राह को छोड़ देना होता है।

ऐसे ही आधी यात्रा मनुष्य बनने की और फिर आधी यात्रा मनुष्य से मुक्त होने की। जिस दिन तुम मनुष्य हो जाओगे, धन्यभागी हो क्योंकि आधी यात्रा पूरी हुई। अब मंदिर बहुत दूर नहीं। तुम मंदिर के योग्य हो गए। अब दूसरी और भी कठिनतर चढ़ाई शुरू होगी——शिखर पर पहुंचने का अंतिम संघर्ष। अब मनुष्य को भी विदा कर देना होगा। अब तुम्हें सीखना होगा शून्य होनाः कि मैं ना—कुछ हूं। इसी को तो ध्यान कहते हैं, समाधि कहते हैं। अब तुम्हें निर्विचार होना होगा, निर्अहंकार होना होगा, निर्विकार होना होगा। अब तुम्हें बिल्कुल मिट जाना होगा कि तुम बचो ही न। और जिस घड़ी तुम बिल्कुल मिट जाओगे, उसी घड़ी तुम पाओगे, परमात्मा हो गए हो। इधर मिटे, उधर हुए। यह अंतिम आहुति है जो मनुष्य को देनी पड़ती है।

यही मनुष्य का संघर्ष हैः पहले मनुष्य बनो, फिर मनुष्य से मुक्त हो जाओ। मनुष्य के ऊपर बड़ा दायित्व है क्योंकि मनुष्य पर परमात्मा ने बड़ा भरोसा किया है। सारे पशुओं को पूरा—पूरा पैदा कर दिया है क्योंकि भरोसा नहीं है कि वे अपने से ऊपर बढ़ पाएंगे। आदमी को खाली छोड़ दिया, स्वतंत्रता दी है। अवसर दिया है कि तू अपने को बना, निर्मित कर। इस अर्थ में मनुष्य को परमात्मा ने स्रष्टा बनाया है कि तू अपना सृजन कर। और सृजन में आनंद है। और जो अपने को बना लेगा उसके आनंद की कोई सीमा नहीं है।

थोड़ा सोचो तो! जब एक मां एक बच्चे को जन्म देती है तो कैसी महिमा—मंडित हो जाती है! कैसी आभा झलकने लगती है! जब तक स्त्री मां नहीं बनती तब तक उसमें एक आभा की कमी होती है; तब तक स्त्री कल जैसी होती है, फूल नहीं होती। जब एक बच्चे को जन्म देती है तब पंखुड़ियां खुल जाती हैं, तब फूल हो जाती है।

तुमने गर्भवती स्त्री को देखा? उसके चेहरे पर एक दीप्ति आ जाती है। उसके भीतर एक नया जीवन उमग रहा है, एक नया प्राण, एक नया प्रारंभ। परमात्मा ने उसे एक धरोहर दी है।

और जब कोई स्त्री मां बन जाती है तो सिर्फ बच्चे का ही जन्म नहीं होता; वह एक पहलू है सिक्के का। दूसरा पहलू यह है कि एक मां का भी जन्म होता है। स्त्री स्त्री है, लेकिन मां बात ही और है। मातृत्व का जन्म होता है, प्रेम का जन्म होता है।

तुमने एक कवि की कविता को पूरा होते देखा? तब वह नाच उठता है। उसने कुछ बनाया। तुमने एक चित्रकार को अपने चित्र को पूरा करते देखा है? उसकी आंखें देखीं? कैसा विस्मय—विमुग्ध! भरोसा नहीं कर पाता कि मुझसे और यह हो सकता है? संगीतज्ञ जब सफल हो जाता है संगीत को जन्माने में तो उसके प्राण आनंद की बाढ़ से भर जाते हैं।

मगर ये सब छोटे सुख हैं। जब कोई व्यक्ति अपने भीतर बुद्धत्व को जन्माने में सफल होता है, उसके सामने ये सब छोटे सुख हैं। सारे संगीतज्ञ, सारे कवि, सारे चित्रकार, सारे मूर्तिकार भी इकट्ठे हो जाएं तो उसे एक आनंद का…..कोई तुलना नहीं हो सकती। सब इकट्ठे हो जाएं तो भी उस आनंद के सामने बूंद की तरह हैं, वह आनंद सागर की तरह है।

अपने को सृजन करने का आनंद , अपने भीतर छिपी हुई संभावना को वास्तविक बना लेने का आनंद…..। सृजन का अर्थ क्या है? सृजन का अर्थ है : जो अदृश्य है। उसे दृश्य में लाना। अभी तक कविता नहीं थी जगत् में और तुमने एक कविता बनाई अदृश्य में थी, उसे खींचकर दृश्य में लाए। शून्य में थी, उसे शब्द का परिधान दिया। अव्यक्त थी, उसे व्यक्त किया।

एक मूर्तिकार ने मूर्ति बनाई। अभी पत्थर अनगढ़ पड़ा था। किसी ने सोचा भी न था कि इस पत्थर में कुछ हो सकता है। उसने छेनी उठाई और पत्थर में मूल्य आ गया और पत्थर में जीवन मालूम होने लगा। पत्थर में बुद्ध उठे कि मीरा उठी कि कृष्ण उठे, कि पत्थर में बांसुरी बजी, कि पत्थर में फूल खिले। जो अदृश्य था वह दृश्य हुआ।

सबसे बड़ा अदृश्य कौन है? परमात्मा सबसे बड़ा अदृश्य है; और जब तुम्हारे भीतर दृश्य हो जाता है तो सबसे बड़े सृजन की घटना घटती है। मनुष्य का संघर्ष यही सृजन है। परमात्मा को जन्म देना है।

तीसरा प्रश्न :

 

वासना क्या है और प्रार्थना क्या है?

मेरे देखे, एक ही सीढ़ी के दो छोर——जैसे बीज और वृक्ष; जैसे अंडा और मुर्गी। वासना ही एक दिन पंख पा लेती है और प्रार्थना बन जाती है। वासना प्रार्थना है जन्म की प्रक्रिया में। वासना अंधेरे में टटोल रही है मार्ग प्रार्थना होने का। वासना भटकना है, मार्ग की खोज है, द्वार की तलाश है। इसलिए मेरे मन में वासना की कोई निंदा नहीं है।

मेरे मन में निंदा है ही नहीं; किसी भी बात की निंदा नहीं है। मेरे मन में सर्व स्वीकार है क्योंकि मैं देखता हूं, जब सब परमात्मा को स्वीकार है तो उसमें से कुछ भी अस्वीकार करना परमात्मा को अस्वीकार करना है।

मैंने सुना है, सूफी फकीर बायजीद एक पड़ोसी से बहुत परेशान था। सालभर से उसके पड़ोस में था। वह बड़ा उपद्रवी था पड़ोसी। जब बायजीद ध्यान करने बैठता तब वह ढोल बजाने लगता; या बायजीद नमाज पढ़ता तो वह गालियां बकने लगता। बायजीद शिष्यों को समझाता तो वह कुछ उपद्रव मचा देता। कूड़ा—करकट इकट्ठा करके बायजीद के झोंपड़े में फेंक देता।

एक रात बायजीद प्रार्थना करा, प्रार्थना करके उठ रहा था, परमात्मा की झलक से भरा था। झलक इतनी स्पष्ट थी कि उसने कहा, हे प्रभु! इतनी कृपा की है कि मुझे आज झलक दी है, इतना और कर दो कि इस पड़ोसी से छुटकारा करो। और पता है परमात्मा की क्या आवाज बायजीद को सुनाई पड़ी? उसने कहा, बायजीद, इस आदमी को मैं पचास साल से बर्दाश्त कर रहा हूं और तू तो अभी साल ही भर हुआ…..! और पचास साल तो इस जिंदगी के! पिछली जिंदगियों का तो हिसाब ही मत रख। अगर मैं इसे बर्दाश्त कर रहा हूं और मैंने आशा नहीं छोड़ी और मैं आशा बांधे हूं कि यह भी बदलेगा। तू भी आशा न छोड़।

परमात्मा अगर वासना के विपरीत होता तो वासना होती ही नहीं। महात्मा विपरीत है इसलिए मैं कहता हूं, महात्मा गलत है। परमात्मा विपरीत नहीं है वासना के। हर बच्चे को वासना से सजाकर भेजता है, वासना भरकर भेजता है।

वासना ऊर्जा है, शुद्ध ऊर्जा है, संपदा है। कहां लगाओगे इस पर सब कुछ निर्भर करेगा। यही वासना धन में लग जाएगी तो धन—कुबेर हो जाओगे। यही वासना पद के पीछे पड़ जाएगी तो किसी देश के राष्ट्रपति हो जाओगे। यही वासना परमात्मा की दिशा में लग जाएगी तो प्रार्थना हो जाएगी।

वासना शुद्ध ऊर्जा है। वासना तटस्थ है। वासना अपने आप में कोई लक्ष्य लेकर नहीं आयी है, लक्ष्य तुम्हें तय करना है। फिर तुम्हारी ऊर्जा उसी दिशा में बहनी शुरू हो जाती है। स्त्री को प्रेम करोगे तो वासना घर बसाएगी। परमात्मा को प्रेम करोगे, मंदिर बनेगा। परिवार को प्रेम करोगे तो छोटा—सा परिवार होगा सारे संसार के विरोध में। सारे संसार को प्रेम करोगे तो कोई विरोध में न होगा। सारा संसार तुम्हारा घर होगा। तुम पर निर्भर है।

वासना प्रार्थना का बीज है। और जब तक वासना प्रार्थना नहीं बन जाती है तब तक तुम्हें संसार में लौट—लौटकर आना पड़ेगा क्योंकि तुमने पाठ सीखा नहीं। फिर भेज दिए जाओगे कि और जाओ, फिर उसी कक्षा में भर्ती हो जाओ। जब तक तुम उत्तीर्ण न हो जाओ…..। और उत्तीर्ण होने की कसौटी क्या है? जिस दिन तुम्हारी सारी वासना रूपांतरित हो जाए प्रार्थना में, जिस दिन परमात्मा के अतिरिक्त तुम्हें कुछ और दिखाई न पड़े। तुम चाहो तो परमात्मा को। फिर चाहे तुम किसी से भी संबंध जोड़ो, किसी को भी चाहो लेकिन हर चाहत में परमात्मा की ही चाहत हो। तुम्हारी पत्नी में परमात्मा दिखाई पड़े, तुम्हारे बेटे में परमात्मा दिखाई पड़े, तुम्हारे मित्र में परमात्मा दिखाई पड़े, तुम्हारे शत्रु में परमात्मा दिखाई पड़े।

इसलिए जीसस ने कहा है, शत्रु को भी प्रेम करना अपने जैसा। यह मत भूल जाना कि उसमें भी परमात्मा छिपा है। एक क्षण को भी यह बात विस्मरण मत करना, नहीं तो उतनी प्रार्थना चूक जाएगी; उतने तुम प्रार्थना से नीचे गिर जाओगे।

बिहिश्ते—रंगों—बू को दिल में मेहमां कर दिया तुमने

गमें—इम्रोज को ख्वाबे—परीशां कर दिया तुमने

जहाने—कैफो—कम के मरहलों में इक तबस्सुम से

खिरद को बे—नियाजे—सूदो—नुक्सां कर दिया तुमने

मुहब्बत की निगाहों ने उगाया रेत में सब्ज

हमारा दिल बयाबां था, खयाबां कर दिया तुमने

मिट्टी में वासना के कारण ही प्राण पड़ गए हैं, रेगिस्तान में मरुद्यान उगा है। इस जीवन में तुम्हें जितनी हरियाली दिखाई पड़ती है, सब वासना की है। पक्षी गीत गाते हैं, वे वासना के गीत हैं। कोयल अपने प्रेमी को पुकार रही है। मोर अपने प्रेमी के लिए नाच रहा है। वे जो उसने सुंदर पंख फैलाए हैं वे वासना के पंख हैं। वह मोर—पंखों का जो सौंदर्य है वह वासना का ही सौंदर्य है। फूल खिले हैं, पूछो वैज्ञानिक से; वे सब वासना के ही फूल हैं। उन फूलों में वृक्षों के रजकण हैं, वीर्यकण हैं। तितलियां अपने पैरों में लगाकर उन्हें पहुंचा देगी उनकी मंजिल तक।

अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम चकित हो जाओगे। तुम जब गुलाब के फूल तोड़कर परमात्मा के चरणों पर चढ़ाते हो तो तुमने गुलाब की वासना परमात्मा के पैरों पर चढ़ायी——चढ़ानी थी अपनी वासना।

मुहब्बत की निगाहों ने उगाया रेत में सब्ज

हमारा दिल बयाबां था, खयाबां कर दिया तुमने

किनारे—आरजू में फूल बरसा कर तबस्सुम के

मेरे जौके—सुखन को गुल—बदामां कर दिया तुमने

नशीली मदभरी आंखों की वे छलकी हुई बूंदें

मिजाजे—आबो—गिल में जिन्सेत्तूफां कर दिया तुमने

परमात्मा ने मिट्टी में जीवन पैदा कैसे किया? कैसे फूंके प्राण? किस सूत्र पर फूंके प्राण? वासना के सूत्र पर ही।

जवानी की हविस को बेकली बख्शी मुहब्बत की

मुहब्बत को तरक्की देकर ईमां कर दिया तुमने

पहले जवानी को, हविस को बेकली बख्शी मुहब्बत की। बेचैनी दी जवानी को वासना की।

जवानी की हविस को बकली बेक्शी मुहब्बत की

मुहब्बत को तरक्की देकर ईमां कर दिया तुमने

और फिर एक दिन मुहब्बत को ही बढ़ाया, बढ़ाया, चढ़ाया, चढ़ाया——ईमां कर दिया तुमने। उसी को धर्म बना दिया, उसी को प्रार्थना बना दिया।

अदाहो शुक्रिया क्या इस नजर की दिलनवाजी का

कि जिसको मजहरी के दिल में पैकां कर दिया तुमने

रबाबे—दिल में मेरे फाकाकश दुनिया के शेवन के

उसे अपनी मुहब्बत में गजलख्वां कर दिया तुमने

वे तुम्हारे भीतर जो अभी गीत उठ रहे हैं, शुरू में तो वासना के होंगे लेकिन वे ही गीत, जरा उनकी दिशा बदले, वे ही गीत तीर बन जाएं परमात्मा की तरफ तो प्रार्थना के हो जाएंगे।

इसलिए अक्सर प्रार्थना की गहराइयों में वासना के प्रतीक पाए जाते हैं। सिग्मंड फ्रायड यह नहीं समझ सका; उसे प्रार्थना का कुछ पता नहीं था। उसने समझा कि मीरा जैसे भक्तों ने जो बातें की हैं वे दबी हुई वासना की हैं। उसके समझने का भी कारण है।

तुमने भी भक्तों के वचन सुने हैं। कितने भक्तों की तो मैंने तुमसे बात की है। तुम्हें बार—बार कुछ बातें समझ में आती होंगी। मीरा कहती है कि सेज सजायी है, फूलों से सजायी है। प्यारे, तुम्हारी प्रतीक्षा करती हूं, कब आओगे? यह तो वासना का प्रतीक है। सेज फूलों से सजाना, प्रेमी की प्रतीक्षा! कि सेज सजाकर बैठी हूं और तुम नहीं आए। और रात बीत चली और सुबह होने के करीब है। क्या आज भी न आओगे?

मीरा की चर्चा नहीं की है फ्रायड ने क्योंकि मीरा का फ्रायड को पता नहीं था। लेकिन ईसाई फकीर——उनकी चर्चा की है। थेरेसा की चर्चा की है जो कि मीरा का ईसाई पर्यायवाची है, कि थेरेसा के मन में वासना है। कि वह कहती है कि मुझे गले लगा लो। वह कहती है कि मैं तो जीसस, तुम्हारे ही विवाह में बंध गई हूं। मैंने तो तुमसे ही गांठ जोड़ ली है। तुम मेरे दुल्हा।

वह तो भला हो कि उसको कबीर का पता नहीं था, नहीं तो वह और झंझट खड़ी करता। क्योंकि स्त्री कहे जीसस को कि तुम मेरे दूल्हा, चलो, चलेगा। स्त्री है, क्षमा की जा सकती है। मगर कबीर, वे कहते हैं, “मैं तो राम की दुल्हनिया।’ पुरुष होकर राम की दुल्हनिया! फ्रायड तो न मालूम क्या—क्या पढ़ लेता इसमें। कबीर की खूब फजीहत करवाता। बच गए कबीर हलाकान होने से। नहीं तो वह कहता, इसमें होमोसेक्सुआलिटी के लक्षण हैं। क्योंकि फ्रायड को हर चीज में वासना दिखाई पड़ती है।

और उसकी गलती भी नहीं है। हर चीज में वासना है। लेकिन उसे यह पता नहीं है कि ऐसी भी घड़ियां आती हैं, जब वासना अपने से ऊपर उठती है, नए रंग लेती है, नए निखार लेती है, नए पंख खोलती है।

प्रतीक तो वही रहते हैं क्योंकि आदमी की भाषा कहां ? और कहां से हम प्रतीक लाएं? अब कितना प्यारा प्रतीक है, कबीर जब कहते हैं कि मैं तेरी दुल्हनिया। कुछ कह रहे हैं जो और किसी ढंग से कहा नहीं जा सकता। इस जगत् में प्रेम के संबंध से और कोई गहरा संबंध नहीं है। अब कैसे जतलाएं कि परमात्मा से हमारा क्या संबंध हो गया है! कैसे जतलाएं इस दुनिया को?

क्या कहें कि दुकानदार और ग्राहक का जो संबंध है वही परमात्मा का और हमारा संबंध है? जंचेगा नहीं। कि पार्टी और पार्टी के सदस्य का जो संबंध है वही परमात्मा का और हमारा संबंध है? वह भी जंचेगा नहीं क्योंकि पार्टी बदलने में देर कितनी लगती है? आयाराम, गयाराम ! रामजी कभी इधर, रामजी कभी उधर। कुछ पता चलता नहीं। सांझ कहीं थे, सुबह कहीं। झंडा बदलने में देर कितनी लगती है! डंडे पर कोई भी झंडा लगा लिया। होशियार आदमी अपनी सूटकेस में सभी झंडे रखता है। जब जैसी जरूरत होगी!

कैसे कहें कि परमात्मा से जो हमारा संबंध हुआ वह किस तरह का संबंध है! नहीं, कबीर ठीक ही कह रहे हैं, कि वह संबंध सिर्फ प्रेम से ही कहा जा सकता है। उसकी ताजगी ऐसी है। उसे पति—पत्नी का संबंध भी नहीं कह सकते। क्योंकि पति—पत्नी का संबंध तो बासा हो जाता है और परमात्मा का संबंध सदा ताजा रहता है। सुहागरात चुकती ही नहीं।

अब फ्रायड अगर सुहागरात शब्द सुन ले तो एकदम कहेगा कि बस ठहरो, पहले इसका विश्लेषण होना चाहिए। सुहागरात! सुहागरात उससे कभी चुकती ही नहीं। मनुष्यों के संबंध में जो सुहागरातें आती हैं, आती हैं, चली जाती हैं। यहां तो सब चीज पुरानी हो जाती है। परमात्मा के साथ कोई चीज कभी पुरानी नहीं होती, सब सदा नई, ताजी। सुबह की ओस की तरह ताजी और स्वच्छ और कुंआरी!

इसलिए कबीर यह नहीं कहते कि मैं तेरी पत्नी। जंचती नहीं बात। दुल्हनिया! अभी—अभी, ताजीत्ताजी! अभी शायद घूंघट भी नहीं उठा। अभी गांठ बांधी ही गई है। शायद शहनाई अभी बज रही है। इतनी ताजी! अभी शायद मंत्रोच्चार चल ही रहा है। शायद वेदी की अग्नि भी अभी बुझी नहीं है। अभी मेहमान भी विदा हुए नहीं हैं। वह पुलक, ताजी पुलक! अभी—अभी खिली हुई कली, उससे ही तुलना दी जा सकती है। दुल्हन के हृदय से ही तुलना दी जा सकती है। उसकी छाती धड़क रही है। आनंद—विभोर है। रोआं—रोआं रोमांचित है। प्यारे का मिलन हो गया है। कितने दिनों की प्रतीक्षा है! कितने रातों का इंतजार! कितने आंसू! आज सब सफल हो गए हैं। वह घड़ी आ गई, परम घड़ी आ गई।

प्रेम से ही प्रार्थना समझायी जा सकती है। क्योंकि हमारे पास इस जगत् में प्रेम से और गहरा कोई संबंध नहीं है।

तुम वासना के विपरीत मत हो जाना। वासना के पार जाना है लेकिन जो वासना के विपरीत हो जाता है वह वासना के पार नहीं जा पाता। वासना में उलझ जाता है, संघर्ष में पड़ जाता है, द्वंद्व में पड़ जाता है। तुम तो वासना से मैत्री रखना। वासना का साथ ले लेना। जहां तक वासना ले जा सके वहां तक उसका उपयोग कर लेना। वासना की तरंग पर चढ़ जाना; जितनी दूर तक ले जा सके तुम्हारी नाव को, ले चलना।

और जब वासना आगे न ले जा सकेगी तब तुम पाओगे, एक और बड़ी तरंग आयी प्रार्थना की। लेकिन वासना की यात्रा पहले पूरी हो जानी चाहिए, तभी प्रार्थना की तरंग आती है। वासना तुम्हारे पास है, प्रार्थना तुम्हारा भविष्य है। वासना की सीमा तुम्हें पूरी करनी ही होगी। जो कच्चे भाग जाते हैं उनके जीवन में प्रार्थना कभी नहीं आती।

इसलिए मैं कहता हूं अपने संन्यासी को, संसार से भागना मत, संसार को पूरा जी लेना। परमात्मा ने भेजा है तो जीने के लिए भेजा है, भागने के लिए नहीं भेजा। परमात्मा भगोड़ों में भरोसा ही नहीं करता। और हम तो भगोड़ों में इतना भरोसा करते हैं कि जिसका हिसाब नहीं। हम तो भगोड़ों को बड़ा सम्मान देते हैं।

जरा सोचो, तुम्हारे तर्क की भ्रांति तो देखो! युद्ध से कोई भाग जाता है तो तुम उसको कायर कहते हो और जीवन के युद्ध से जो भाग जाते हैं, उनको तुम महात्मा कहते हो। चले गए हिमालय, बैठ गए एक गुफा में, तुम उनके चरण छूने चले जाते हो। ये भगोड़े हैं। ये कमजोर हैं। ये इतने बलशाली नहीं थे कि जगत् की चुनौती को झेल सकते।

लेकिन हम भगोड़ों का इतना आदर करते हैं कि हमने कृष्ण को नाम ही दे रखा हैः रणछोड़दासजी। रणछोड़दासजी के मंदिर भी हैं। रणछोड़दास का मतलब समझते हो? रण छोड़ भागे जो। भगोड़ेजी! मगर तुम्हारे सभी महात्मा रणछोड़दासजी हैं।

तुम छोड़कर मत भागना। जीना है, इस संघर्ष से गुजरना है। इस आग से गुजरकर ही निखरोगे, कुंदन बनोगे।

वासना ही धीरे—धीरे उस अनुभव में ले जाएगी जहां तुम पाओगे कि वासना अंधेरे में टटोलना था, प्रार्थना रोशनी है। वासना टटोलने जैसा था, प्रार्थना रोशन जगत् है। मगर वासना में जो भी महत्त्वपूर्ण था वह प्रार्थना में बच जाता है; जो भी कचरा था वही जल जाता है। इसलिए कबीर कहते हैं, मैं तेरी दुल्हनिया। मीरा कहती है, मैंने सेज सजायी है, तुम आओ। प्यारे, तुम आओ। प्रीतम को पुकारती है।

यह सुराही, यह फरोग—ए—मै—ए—गुल रंग, यह जाम

चश्म—ए—साकी की इनायत के सिवा कुछ भी नहीं

तुम एक दफा वासना की कठिनाइयों से गुजर जाओ, अछूते निकल जाओ, फिर उसका प्रसाद बरसता है।

यह सुराही, यह फरोग—ए—मै—ए—गुल रंग, यह जाम

चश्म—ए—साकी की इनायत के सिवा कुछ भी नहीं

फिर उसका प्रसाद है। उनको मिलती है यह भेंट, जो वासना से पककर आते हैं; जो वासना के जगत् से इतना जीकर आते हैं कि अब वासना की उन पर कोई पकड़ नहीं रह जाती। अगर दबायी वासना, पकड़ जारी रहेगी। वासना भीतर से पकड़े रहेगी, पुकारती रहेगी। तुम बच न सकोगे। अगर वासना को निकल जाने दिया सहज, स्वाभाविक सरलता से, तुम एक दिन हलके हो जाओगे।

मेरे निरीक्षण में यह बात है और मनोवैज्ञानिक इस बात से राजी हैं कि अगर कोई व्यक्ति ठीक से, सम्यक्क—रूपेण जीवन को जिए तो बयालीस साल की उम्र होते—होते वासना अपने आप प्रार्थना में रूपांतरित होने लगेगी। जैसे चौदह साल की उम्र में अचानक वासना जगती है वैसे ही अट्ठाईस साल की उम्र में वासना अपने पूरे शिखर को पहुंच जाती है। चौदह साल और——और बयालीस साल की उम्र में शिखर से नीचे उतर जाती है।

पश्चिम की शोधें भी इस बात के करीब आ रही हैं कि बयालीस साल के बाद मनुष्य की असली समस्या जीवन की नहीं होती, धर्म की होती है। बयालीस साल के बाद जो उलझनें आती हैं वे इस बात की हैं कि हम कैसे जीवन को धार्मिक अर्थ दें, कैसे जीवन को धार्मिक रंग दें! और अगर बयालीस साल तक धर्म का कोई रंग जीवन में न रहा हो तो आदमी विक्षिप्त होने लगता है।

कार्ल गुस्ताफ जुंग ने लिखा है कि मेरे पास जितने मरीज आए हैं उनमें मैंने सदा यह पाया है कि बयालीस साल या उसके बाद के मरीजों का असली सवाल मनोवैज्ञानिक नहीं है, आध्यात्मिक है।

जीवन को सहज जियो। तुम्हारे प्रश्न में इसी की गंध है। शायद तुम सोचते हो वासना अलग है, प्रार्थना अलग है। नहीं, प्रार्थना की ही प्राथमिकता है वासना; भूमिका है। यद्यपि भूमिका ही ग्रंथ नहीं है। भूमिका के पार जाना होगा।

वासना क—ख—ग है, बाराखड़ी है, वर्णमाला है। वर्णमाला पर ही नहीं रुक जाना है। कोई कालिदास की कविताएं सिर्फ वर्णमाला ही नहीं हैं, वर्णमाला से बहुत ज्यादा हैं। पिकासो के चित्र कोई रंग और कैनवास का जोड़ ही नहीं हैं, रंग अर केनवॉस से बहुत ज्यादा हैं। जब कोई संगीतज्ञ वीणा बजाता है तो सिर्फ हाथ और तारों का ही जोड़ नहीं है, हाथ और तारों के बीच में कुछ अनहोना घट रहा है। नहीं घटना चाहिए ऐसा घट रहा है। कुछ असंभव हो रहा है।

वासना तो वर्णमाला है। प्रार्थना उस वर्णमाला से बनायी गई कविता है। वासना तो ईंटों जैसी है। उन्हीं ईंटों से मकान भी बनता है तुम्हारा, वेश्या का घर भी बनता है उन्हीं ईंटों से और उन्हीं ईंटों से मंदिर भी बनता है, यह खयाल रखना। ईंटें वही हैं, बनानेवाले पर सब निर्भर है।

उसकी कृपा होती है उस पर ही जो जीवन से गुजरता है बिना भागे। कहता है, जहां मुझे ले जाना है, जिन अंधेरों में मुझे ले जाना है, मैं जाऊंगा। जिन गङ्ढों में मुझे गिरना है, मैं गिरूंगा। क्योंकि गङ्ढों में अगर तू गिराता है तो इसीलिए गिराता होगा, ताकि मैं चलना सीख सकूं। बिना गङ्ढे में गिरा कोई चलना सीखा है?

जरा सोचो कि कोई मां अपने बच्चे को गिरने ही न दे। फिर बच्चा चलना नहीं सीख पाएगा। गिरने देना होगा। उसके घुटने भी टूटेंगे, चमड़ी भी छिलेगी, कभी खून भी गिरेगा। उसे गिरने देना होगा। ऐसे ही वह एक दिन खड़ा होगा। गिर—गिरकर खड़ा होगा। खड़े होने के पीछे हजार बार गिरना जुड़ा है। घुटने के बल सरकेगा पहले। तुम यह मत कहना उससे कि यह ठीक नहीं, यह मनुष्य की गरिमा से नीचे है। घुटने के बल सरकता है मर्द बच्चा होकर? खड़ा हो! पहले दिन से तुम खड़ा करना चाहोगे, वह कभी खड़ा ही नहीं हो पाएगा। उसे घुटने के बल भी सरकने देना।

वासना ऐसी ही है जैसे प्रार्थना घुटने के बल सरक रही है। प्रार्थना ऐसी ही है जैसे बच्चा खड़ा हो गया। अब सरकना नहीं पड़ता जमीन पर। अब योग्य हो गए पैर। अब मजबूत हो गए पैर।

परमात्मा जिन अंधेरों में ले जाए, जाना। श्रद्धावान वही है। उसी को मैं श्रद्धालु कहता हूं, जो भागता ही नहीं; जो कहता है, जो दिखाओगे, देखेंगे; जहां ले जाओगे, जाएंगे, जहां गिराओगे, गिरेंगे; जो भूल करवाओगे, करेंगे। तुम जो करोगे, जो तुम्हारी मर्जी है, होने देंगे। हम सब तुम्हारी मर्जी पर छोड़ते हैं। ऐसा आदमी एक दिन पककर आता है। उसी पकान में वह माधुर्य है जिसका नाम प्रार्थना है। प्रार्थना ऊपर से उतरती है।

वासना नीचे से ऊपर की यात्रा है। प्रार्थना ऊपर से नीचे की यात्रा है। आधी यात्रा तुम्हें करनी है वासना की, आधी यात्रा परमात्मा करेगा। एक कदम तुम चलो तो तालमुद कहती है कि परमात्मा हजार कदम चलता है।

और पहली बार जब तुम्हें परमात्मा की झलकें दिखाई पड़नी शुरू होंगी, तब तुम भी चौंकोगे। तुम्हें भी वही भ्रांति होगी जो फ्रॉयड को होती है। तुम भी कहोगे, यह क्या हो रहा है? यह क्या है? क्योंकि वे पहली झलकें भी तुम्हारे प्रेम के इशारों से भरी होंगी। वे पहली झलकें भी तुम्हारे प्रेम की अनुभूतियों से सिक्त होंगी।

मुझे धोखा न देती हों कहीं तरसी हुई नजरें।

तुम्हीं हो सामने या फिर वही तस्वीर—ए—ख्वाब आयी?

बहुत बार लगेगा कि परमात्मा को अनुभव कर रहा हूं कि यह मेरी कोई वासना उठ रही है? शुरू—शुरू में स्वाभाविक है यह भ्रांति। जल्दी ही भ्रांति मिट जाती है क्योंकि वासना के बाद तुम हमेशा अतृप्त छूटते हो। प्रार्थना के पहले भी तृप्ति है, मध्य में भी तृप्ति है, अंत में भी तृप्ति है। बुद्ध ने कहा है, मैं तुम्हें जो फल दे रहा हूं वह पहले भी मीठा है, मध्य में भी मीठा है, अंत में भी मीठा है।

वासना जो फल देती है, पहले बहुत मीठे, पीछे बहुत कड़ुवे हो जाते हैं। वासना के सब फल आज नहीं कल जहर हो जाते हैं। आश्वासन तो होता है अमृत का, मिलता है जहर। प्रार्थना मीठी ही मीठी है; मिठास है, मदिरा है।

और तुम फिक्र न करो, उसकी अनुकंपा अपार है। तुम एक बार उसके साथ चलो तो।

हमने तो ऐसियों से किनारा न किया

लेकिन तूने दिल आजुर्दा न किया

हमने तो की है जहन्नुम की तदबीर

मगर तेरी रहमत ने गवारा न किया

हमने तो ऐसियों से किनारा न किया——हमने तो बुरी बातें न छोड़ीं, न बुरे लोग छोड़े, न बुरी आदतें छोड़ीं। हम तो भोग—विलास में उतरे, गए।

हमने तो ऐसियों से किनारा न किया

लेकिन तूने दिल आजुर्दा न किया

लेकिन तू भी खूब छाती रखता है! तू कभी हारा नहीं। तूने कभी आशा न छोड़ी। हम कितने ही बड़े गङ्ढे में गिरे, तूने सदा आशा रखी कि हम गौरीशंकर पर कभी प्रतिष्ठित होंगे। तूने दिल दुःखी न किया। तू निराश न हुआ। तू हताश न हुआ।

हमने तो ऐसियों से किनारा न किया

लेकिन तूने दिल आजुर्दा न किया

हमने तो की है जहन्नुम की तदबीर

और हमने तो जो भी किया उससे नरक जाएं यह सीधी तार्किक निष्पत्ति है।

हमने तो की है जहन्नुम की तदबीर

मगर तेरी रहमत ने गवारा न किया

लेकिन तेरी करुणा कैसे बर्दाश्त करती? तेरी करुणा कैसे हमें नरक में गिरने देती?

वासना अगर श्रद्धापूर्ण हो तो एक दिन प्रार्थना तुम्हारे भीतर उतरेगी। उसकी अनुकंपा तुम पर बरसेगी। प्रार्थना आती है, लायी नहीं जाती। जो लोग थोप—थोपकर प्रार्थना ले आते हैं उनकी प्रार्थना का कोई भी मूल्य नहीं है। जो जबरदस्ती प्रार्थना करते रहते हैं क्योंकि करनी चाहिए——भय के कारण, लोभ के कारण, वे जानते ही नहीं कि प्रार्थना का अर्थ क्या है। उन्हें प्रेम का भी कुछ पता नहीं है।

इश्क है कैफे—बेखुदी, इसको खुदी से क्या गरज

जिसकी फिजा हो वस्लो—हिज्र, इश्क वो इश्क ही नहीं

जिसको लाभ और हानि, मिलन और विरह, नरक और स्वर्ग की चिंता बनी है उसे अभी प्रेम का पता ही नहीं है। प्रेम न तो लाभ की फिक्र करता है, न हानि की फिक्र करता है। न तो प्रेम भयभीत होता है स्वर्ग से, न लिप्सा से भरता है स्वर्ग की।

इश्क है कैफे—बेखुदी——इश्क में तो आदमी अहंकार को भूल ही जाता है; तभी तो आनंद उमगता है। जहां अहंकार गया वहीं आनंद के झरने फूटते हैं। इश्क है कैफे— बेखुदी——यह तो आत्मत्तल्लीनता का नाम है। इसको खुदी से क्या गरज? लोभ और भय तो सब अहंकार के हैं।

…..इसको खुदी से क्या गरज

जिसकी फिजा हो वस्लो—हिज्र

और जिसको एक ही खयाल बना है——यह कैसे पा लूं, वह कैसे पा लूं, ईश्वर कैसे मिल जाए, मोक्ष कैसे मिल जाए, वैकुंठ कैसे मिल जाए!

जिसकी फिजा हो वस्लो—हिज्र, इश्क वो इश्क ही नहीं

——उसे अभी पता ही नहीं कि प्रेम क्या है। प्रेम मांगता ही नहीं।

वासना मांग है, प्रेम दान है। प्रार्थना दान है। जब तुम प्रार्थना में भी कुछ मांगते हो परमात्मा से, तुम भूल गए। तुमने वासना को ही प्रार्थना का नाम दे दिया फिर। जब तक मांग है तब तक वासना है। और जब तक मांग है, तुम भिखारी हो। और ध्यान रखना, भिखारियों को परमात्मा नहीं मिलता, सम्राटों को मिलता है। मालिकों को मिलता है। मालिक है तो मालिकों को मिलता है। उस जैसे होओगे तो ही मिलेगा न! जैसे तो तैसा मिलेगा न!

वासना को जियो, अनुभव करो। जागरूक होकर वासना की पूरी प्रतीति लो। उसकी क्षणभंगुर सुख की झलक भी देखो और क्षण के पीछे आनेवाली लंबी अंधेरी रात, विषाद, दुःख और पीड़ा को भी भोगो। वासना में कभी—कभी खिले हुए फूल को भी सूंघो और वासना के सारे कांटों को भी छिद जाने दो तुम्हारे हृदय की गहराई तक, ताकि तुम्हें वासना का पूरा रूप प्रकट हो जाए। इन्हीं थपेड़ों में तुम पक जाओगे। इसी पकान से एक दिन तुम पाओगे, आ गए बाहर।

वासना छोड़नी नहीं पड़ती, वासना के अनुभव से एक दिन वासना छूट जाती है। और जिस दिन वासना छूट जाती है उसी दिन वही ऊर्जा जो वासना में संलग्न थी, मुक्त होती है; धूप के धुएं की भांति आकाश की तरफ उठती है। और जिस दिन तुम्हारे भीतर आकाश की तरफ उठना शुरू होता है उस दिन आकाश भी तुम्हारे ऊपर झुकना शुरू हो जाता है। उस मिलन का नाम ही स्वर्ग, मोक्ष, वैकुंठ, या जो तुम और नाम देना चाहो।

चौथा प्रश्न :

 

क्या यह सत्य नहीं है कि अंत समय “रामनाम‘ के स्मरण से निश्चय ही मुक्ति हो जाती है?

 

र्म इतना सस्ता नहीं है। काश धर्म इतना सस्ता होता तो फिर कोई जरूरत ही न थी। फिर बुद्ध नाहक छह साल ध्यान की चेष्टा में रत रहे। नासमझ थे! तुम ज्यादा समझदार हो। फिर महावीर बारह वर्ष मौन रहे, पागल थे। तुम ज्यादा हुशियार! अंत समय में एक बार नाम ले लेंगे राम का।

पहली बात : जिन्होंने यह कहा है, तुम उनका अर्थ भी नहीं समझे। तुम कुछ का कुछ समझ गए। तुम अर्थ का अनर्थ कर लिए हो। जरूर शास्त्रों में ऐसे वचन हैं लेकिन उनका अर्थ बड़ा और है।

ज्ञानियों ने कहा है कि अंत समय निर्णायक है। क्योंकि अंतिम समय में तुम्हारी नई जीवनयात्रा का पहला बीज पड़ेगा। जब तुम मर रहे हो, जब तुम्हारी मृत्यु आ रही है तो नए जीवन का प्रारंभ हो रहा है। एक तरफ दरवाजा बंद हो रहा है, दूसरी तरफ दरवाजा खुल रहा है। तो अंतिम घड़ी बड़ी निश्चयात्मक घड़ी है। उस घड़ी तुम जो भी याद करोगे उसका परिणाम होने वाला है। अगर अंत घड़ी तुम हरिनाम को स्मरण कर लो तो निश्चय ही तुम्हारी यात्रा प्रभावित होगी।

ऐसा समझो, एक छोटा प्रयोग करो तो तुमको समझ में आ जाएगा। रात सोते वक्त जैसे—जैसे नींद उतरने लगे, हलकी—हलकी खुमारी आ गई है नींद की। अभी एकदम सो भी नहीं गए हो, एकदम जागे भी नहीं हो, मध्य में अटके हो; तब कोई भी एक विचार दोहराते रहना मन में। कोई भी एक विचार! “दो और दो चार, दो और दो चार, दो और दो चार’——और इसी को दोहराते—दोहराते सो जाना। तुम बड़े चौंकोगे, जब तुम सुबह उठोगे तो जो पहला विचार तुम्हें याद आएगा वह होगा, “दो और दो चार; दो और दो चार।’ जो अंतिम था रात वही सुबह प्रथम हो जाएगा।

ठीक ऐसा ही मृत्यु और जन्म के बीच घटता है क्योंकि मृत्यु भी एक गहरी नींद है। मरते समय जो अंतिम विचार होगा वह जन्म के साथ पहला विचार हो जाएगा। और अगर हरि—स्मरण से अंत हो तो हरि—स्मरण से प्रारंभ होगा। और जिसका जीवन गर्भ में भी हरि—स्मरण से प्रारंभ हो जाए उसके जीवन में क्रांति तो हो ही जाएगी इसमें कोई शक नहीं।

मगर तुम कुछ और मतलब समझ गए हो। हरि—स्मरण अंत में कौन कर सकेगा? वही कर सकेगा जिसने जीवनभर किया हो। जिसने जीवनभर दूसरी चीजों का स्मरण किया है वह मरते वक्त हरि—स्मरण कर सकेगा तुम सोचते हो? असंभव! जिसने सदा धन को ही सोचा, जिसको जीवन में बस एक ही संगीत संगीत मालूम पड़ा——रुपए की खनखनाहट; और जिसने सौंदर्य जाना तो एक——हरे नोट का सौंदर्य; उस आदमी को तुम सोचते हो मरते वक्त हरि—स्मरण आएगा? नोटों की गड्डियां दिखाई पड़ेंगी।

और दिखाई पड़नी बिल्कुल स्वाभाविक है, तर्कयुक्त हैं क्योंकि यही वह जिंदगी भर इकट्ठा किया, अब सब छूटा जा रहा हैं। इसी को इकट्ठा करने में मारे गए। गड्डियों पर गड्डियां दिखाई पड़ेंगी। वह धन जो इकट्ठा कर लिया है वह उसे दिखाई पड़ेगा। यह तिजोड़ी जो छूटी जा रही है, यह उसे दिखाई पड़ेगी। इस अंत घड़ी में हरि नाम का वह स्मरण करेगा कैसे?

अंत समय में हरि नाम का स्मरण तो तभी संभव है जब जीवन भर इसकी तैयारी की गई हो। तुम क्या सोचते हो अचानक वृक्ष में फल लग जाएगा? बीज बोया हो, खाद डाली हो, पानी सींचा हो, वृक्ष पर बागुड़ लगाई हो, वृक्ष को बचाया हो हजार उपद्रवों से——जानवर हैं, बच्चे हैं, फिर तूफान हैं, आंधी हैं, तुषार है, पाला है, ओले हैं, इन सबसे बचाया हो तब कहीं एक दिन वृक्ष में फल लगते हैं।

जीवन भी एक वृक्ष है। अंत में हरि—नाम का फल तभी लग सकता है जब जीवन भर उसकी तैयारी की हो; जब सब भांति उसका आयोजन किया हो। तुम क्या सोचते हो ऊपर से कोई चिपका देगा हरिनाम? कि तुम मर रहे हो, कोई तुम्हारी खोपड़ी पर लिख देगा हरिनाम।

ऐसा ही हो रहा है। कोई तो मरता है, कोई दूसरा उसके कान में कह रहा है, “राम जपो राम’। दूसरा कह रहा है राम जपो राम। और उस आदमी को कुछ भी सुनाई भी नहीं पड़ेगा। सुनाई पड़ भी नहीं सकता है। लेकिन मतलब लोगों ने यही समझ लिया है।

शास्त्र जब कहते हैं तो ठीक ही कहते हैं कि अंत समय जो परमात्मा का स्मरण करेगा वह मुक्त हो जाएगा। लेकिन अंत समय कौन परमात्मा का स्मरण करेगा? वही करेगा अंत समय परमात्मा का स्मरण, जिसने जीवनभर स्मरण को साधा हो, सम्हाला हो। लेकिन लोग अपने मतलब की बात निकाल लेते हैं। तुम शास्त्र थोड़े ही पढ़ते हो, तुम खुद को शास्त्र में पढ़ते हो।

मैंने सुना, एक सर्कस कंपनी ने विज्ञापन छपवाया कि आज दिखाए जानेवाले सर्कस के शो में एक बिल्कुल नया खेल दिखाया जाएगा। यह विज्ञापन पढ़कर सर्कस देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी। सर्कस शुरू होने पर दर्शकों ने देखा कि एक सुंदर लड़की ने ओंठों पर लिपिस्टक लगाकर सिंह के पिंजरे में प्रवेश किया और सिंह ने अपनी जुबान से लड़की के ओठों की लिपिस्टक पोंछ डाली।

यह खेल देखते वक्त सारे दर्शक स्तंभित हो गए। खेल खत्म होते ही तालियों की गड़गड़ाहट से शामियाना गूंज उठा। तभी लाउडस्पीकर से आवाज आयी, अगर इसी प्रकार का खेल करने की किसी दर्शक की हिम्मत हो तो वह सामने आ जाए। उसे पांच हजार रुपया पुरस्कार—स्वरूप दिया जाएगा। कुछ समय तो सन्नाटा छाया रहा, फिर एक दुबला—पतला नौजवान सामने आया और उसने चुनौती स्वीकार कर ली। उसे जब लिपिस्टक दी गई तो वह बोला कि मैं यह चुनौती स्वीकार करने के लिए तैयार हूं। मेरी शर्त यही है कि मैं सिंह की भूमिका निभाऊंगा। वैसे मेरा नाम भी सरदार भूटासिंह है।

ऐसी ही समझ होती है। कुछ पढ़ते हो, कुछ समझते हो। अपने मतलब की निकाल लेते हो। सरदार भूटासिंह ने कहा, पहले इस सिंह को निकाल पिंजड़े के बाहर करो, फिर मैं भीतर जाऊंगा और सिंह की भूमिका निभाऊंगा। नाम भी मेरा सरदार भूटासिंह है।

तुम शास्त्र तो पढ़ लेते हो, लेकिन शास्त्र कैसे पढ़ोगे? तुम्हारे पास ध्यान कहां जो शास्त्र का अर्थ दे सके? तुम्हारे पास भक्ति कहां जो शास्त्र तुम्हारे हृदय में गूंज पैदा कर सके? चालाकी है, बेईमानी है, पाखंड है, उसी में से तुम हिसाब निकाल लोगे। तुम पूछते हो, “क्या यह सत्य नहीं है कि अंत समय राम—राम के स्मरण से निश्चय ही मुक्ति हो जाती है?’

अंत समय स्मरण वही आएगा जिसका स्मरण जीवनभर रहा है।

मैंने सुना है, श्री 1008 महर्षि भूतनाथ मरे। मरणशय्या पर महर्षि पड़े थे। शिष्य इकट्ठे हो गए थे, सोचते थे कि कुछ गहरी बात कहेंगे। ऐसे जिंदगीभर ज्यादा बोले नहीं थे। क्योंकि भूतनाथ के गुरु उनको कह गए थे कि बोलना भर मत, नहीं तो भद्द हो जाएगी। चुप रहना! तेरे चुप रहने में ही लोग तुझे बुद्धिमान समझेंगे। तू बोला कि फंसा।

सो भूतनाथ चुप ही रहे थे। मगर उनकी चुप्पी का बड़ा प्रभाव पड़ा था लोगों पर। खोपड़ी में तो उनके बहुत कुछ चलता था। खोपड़ी पर किसका बस! गुरु भी कहे तो भी क्या होनेवाला है! लेकिन ओंठ वे बंद रखे थे। उनकी ख्याति खूब हो गई थी। कई उनके शिष्य थे कि गुरु हो तो ऐसा! देखो कैसा मौन बैठा है! बोलता ही नहीं। मौनी ही तो मुनि कहलाते हैं। तो उन्होंने सोचा, मरते वक्त प्रार्थना की कि गुरुदेव, कुछ तो बोल जाओ! कोई संदेश दे जाओ।

डोल रहे थे भूतनाथ आधे जिंदा, आधे मुर्दा। धुंधला—धुंधला—सा सब था। सब शिष्य पास आकर, कान लगाकर तत्पर हो गए। सन्नाटा छा गया। मालूम है भूतनाथ क्या बोले? बोले, अब हम तो जा रहे हैं, मुन्नीबाई का ध्यान रखना। हमारी बड़ी प्रेमी थी। और मुन्नीबाई थी गांव की वेश्या। यही घूमता रहा होगा खोपड़ी में। उस वक्त भी यही घूम रहा होगा कि मुन्नीबाई का क्या होगा! मुन्नालाल तो चले, मुन्नीबाई का क्या होगा?

कहां का हरिनाम! जिंदगीभर मौन रहे, मरते वक्त मुन्नीबाई याद आयी। लेकिन याद वही आएगा जो भीतर चलता रहा है। मरते क्षण तुम धोखा न दे पाओगे। जिंदगी में भला धोखा दे लो, मौत तुम्हारी असलियत खोल देगी।

ऐसा ही हुआ सेठ चूहड़मल फूहड़मल के साथ। पढ़ लिया शास्त्र में कि अंत समय हरिनाम ले लो, प्रभुनाम ले लो; सो बेटे का नाम ही उन्होंने भगवानदास रख दिया। इतना तो पक्का था कि मरते वक्त बेटे को बुलाना पड़ेगा क्योंकि चाबी भी देनी पड़ेगी, तिजोड़ी भी संहलवानी पड़ेगी, आने के लिए इशारे भी देने पड़ेंगे आगे के लिए। तो इसी बहाने नाम परमात्मा का ले लेंगे।

इसीलिए तो लोग अपने बेटों का नाम भगवान के नाम पर रखते हैं। हिंदुओं में, मुसलमानों में सारे नाम सदियों से भगवान के नाम पर रख गए हैं। पीछे एक चालबाजी है। वह चालबाजी यह है कि चलो इसी बहाने जब भी बुलाया, “भगवानदास!’ ऊपरवाले भगवान समझेंगे कि हमको बुला रहा है। ऐसे वहां भी खाते में लिखापढ़ी होती रहेगी। न बुलाना पड़ेगा, न कोई भजन—कीर्तन करना पड़ेगा। दिन में दो—चार—दस दफे तो बेटे को बुलाना ही पड़ेगा।

मगर पहले ही से बात बिगड़ गई। भगवानदास इसके पहले कि भगवानदास की तरह जाने जाते, भग्गू हो गए। भगवान ऊपर नाराज होने लगा। क्योंकि जब भी वह बुलाए बाप, “भग्गू!’ बहुत गुस्सा आए भगवान को कि हद्द हो गई! यह सोचते थे कि खाताबही में पुण्य लिखा जाएगा, नरक की तैयारी होने लगी।

फिर मरने का वक्त आया, चूहड़मल फूहड़मल ने भग्गू को बुलाया, भग्गू आए भी। अब जैसे भग्गू होते हैं वैसे थे वे। पैंट पहना था संकरी मोहरीदार। छपी छींट की बुशशर्ट पहने थे। दिलीप कट बाल कटवाए हुए थे। चूहड़मल फूहड़मल को आग लग गई। कहा, अरे भग्गू, नालायक, उल्लू के पट्ठे! बाप तो मर रहा है और तू हीरो बना घूम रहा है!

चूहड़मल फूहड़मल अब तक नरक में पड़े हैं। क्योंकि तुम भगवान को कहोगे नालायक, उल्लू के पट्ठे तो फल पाओगे। ऐसी बातों में मत उलझना। ऐसी झंझटों से दूर रहना। ऐसे तो बिना ही पुकारे चले गए होते तो भी ठीक था।

और तीसरी घटना : एक थे बाबा मुर्दानंद। “सीताराम—सीताराम’ की रट लगाए रखते। बस, कुछ भी कहो वे सीताराम—सीताराम ही कहते। कोई कुछ भी कहे, वे सीताराम—सीताराम! उन्होंने एक तोता भी पाल रखा था। वह तोता भी दोहराता, सीताराम—सीताराम।’ दोनों में कभी—कभी तो बिल्कुल छिड़ जाती प्रतियोगिता—— “सीताराम—सीताराम।’ तोता भी कहता, “सीताराम—सीताराम।’ बाबा मुर्दानंद का गुण ही यह था कि वे एक टांग पर वर्षों खड़े रहे थे। वही उनकी खूबी थी, और उनमें कुछ था नहीं।

ऐसी खूबियों से तो लोग महात्मा हो जाते हैं। एक टांग पर खड़े रहे, गजब कर दिया! ऐसे सब बगुले एक टांग पर खड़े हैं। और सब बगुले खादी पहनते हैं——शुभ्र सफेद! सब बगुले गांधीवादी हैं।

ऐसे बाबा मुर्दानंद एक ही पैर पर खड़े—खड़े बड़े प्रसिद्ध हो गए थे। उनकी देखा—देखी तोता भी एक टांग पर खड़ा रहता था। आखिर बाबा मुर्दानंद का तोता था, कोई साधारण तोता नहीं था। और फिर जोश में आ जाता था। जब बाबा मुर्दानंद एक टांग पर खड़े होकर कहते, “सीताराम—सीताराम’, तो वह भी एक टांग पर खड़ा होकर कहता, “सीताराम—सीताराम।’ इसकी बड़ी महिमा थी। लोग आते, इसका दर्शन करने आते थे कि बाबा तो हैं ही पहुंचे हुए, तोता भी बड़ा पहुंचा हुआ है। तोते बड़े धार्मिक होते हैं। और धार्मिक लोग बिल्कुल तोते होते हैं।

फिर बाबा मुर्दानंद के मरने का वक्त आया। ऐसे तो वे मरे—मराए थे ही। मगर मरे—मराए हो तो भी मौत आती है। मौत छोड़ती ही नहीं पीछा। जिंदों को भी मारती है, मुर्दों को भी मारती है। मौत आ गई। शिष्य भी इकट्ठे हो गए, बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गईं पूरी गोबरपुरी भर गई बाबा मुर्दानंद के शिष्यों से। सब आखिरी संदेश पाने की इच्छा में आतुर हैं संदेश बाबा कुछ दे जाएं। जिंदगी भर एक टांग पर खड़े रहे। ऐसी तपश्चर्या न देखी न सुनी। और बाबा मुर्दानंद ने क्या कहा, पता है? उन्होंने कहा, हाय, मेरे तोते को चिउड़ा कौन खिलाएगा? मियां मिट्ठु बोल उठा “सीताराम—सीताराम!’ और कहते हैं कि बाबा तो नरक गए, मियां मिट्ठु वैकुंठ चला गया, क्योंकि उसने मरते वक्त “सीताराम—सीताराम!’

बाबा मुर्दानंद अभी भी नरक में पड़े सोच रहे होंगे, मेरे तोते को चिउड़ा कौन खिलाएगा? नरक में करोगे भी क्या? जो यहां सोचा है उसी की जुगाली करनी पड़ती है। खयाल करना, नरक में जुगाली होती है। जैसे भैंसें करती हैं न जुगाली! पहले घास चर लिया, फिर बैठी, फिर जुगाली कर रही हैं। संसार में चरना हो जो भी चरना हो, फिर नरक में जुगाली करनी पड़ती है। फिर उसी—उसी को चरो, बार—बार चरो। तोता तो चला गया मोक्ष।

मगर मुझे शक है इस कहानी पर। तोता भी कैसे मोक्ष जा सकता है? तोते को भी क्या मतलब सीताराम से? क्या प्रयोजन? अर्थ भी तो पता नहीं है तोते को। निरर्थक इस उच्चार से क्या होता है? यंत्रवत तोता दोहराता है, “सीताराम—सीताराम’।

तो तुम यह भी मत सोचना कि मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अगर जीवनभर अभ्यास करोगे “सीताराम—सीताराम—सीताराम’, तो मरते वक्त सीताराम निकल जाएगा। वह तोते जैसा होगा। अभ्यास का मतलब यह नहीं है कि तुम सीताराम की रटंत लगाए रखो। अभ्यास का अर्थ है, तुम परमात्मा की प्रतीति को अनुभव करना शुरू करो। तुम उसको धीरे—धीरे अपने से जोड़ो, अपने को उससे जोड़ो।

आकाश में तारे हों तो कभी लेटकर घास पर आकाश के तारों को देखो——शांत, मौन! तुम्हें उसकी छबि थोड़ी—थोड़ी झलकेगी। जब बसंत आए और सुगंधित हवाएं बहें तो कभी वृक्षों के तले जाकर बैठो, तुम्हें वहां परमात्मा की मौजूदगी थोड़ी अनुभव होगी। बसंत उसी की खबर लाता है। उसी से गुजरने के कारण तो कलियां फूल बन जाती हैं। वही पास से गुजरता है इसलिए तो मधुमास होता है।

सूरज उगे सुबह तो “सीताराम—सीताराम’ करके चूक मत जाना। नहीं तो लोग बस “सीताराम—सीताराम’ कर रहे हैं, सूरज उग रहा है उसको देख ही नहीं रहे। परमात्मा द्वार पर उग रहा है और वे सीताराम—सीताराम में लगे हैं। सूरज उगे तो भर आंख देखना। यह उसका ही रंग, उसका ही ढंग, यह उसकी लाली, यह उसका प्रकाश!

ऐसा ही भीतर भी एक दिन सूरज उगता है। बाहर के सूरज को देखते—देखते भीतर की भी स्मृति जगेगी, सुधि जगेगी। रात आकाश में चांद हो तो चांद से थोड़ी गुफ्तगू करना, थोड़ा वार्तालाप करना। संगीत कहीं हो, सुनना; डुबकी मारना।

संगीत निकटतम ले जाता है परमात्मा के क्योंकि संगीत में भाषा नहीं होती, शब्द नहीं होते इसलिए गलत समझने का उपाय नहीं होता। न संगीत सच होता है न झूठ होता है, संगीत बस होता है। ऐसा ही परमात्मा भी है। तुम वीणा सुनकर डुबकी मार लेना। सुनते रहना; सुनते—सुनते सन्नाटा छा जाएगा। सुनते—सुनते तुम्हारे भीतर की वीणा भी झंकृत होने लगेगी। जब तुम्हारी भीतर की वीणा बाहर की वीणा के साथ झंकृत होने लगे, तब तुम्हें अहसास होगा, क्या अर्थ है परमात्मा का।

मैं तुमसे सीताराम—सीताराम जपने को नहीं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं कि तुम जीवन में जितने उपाय से हो सके, जितने ढंग से हो सके, परमात्मा को याद करने के बहाने खोजो। हर बहाना उसकी याद का बना लो। हर बहाने से उसे पुकार लो। हर बहाने से अपने और उसके बीच धीरे—धीरे सेतु बनाते जाओ तो एक दिन मृत्यु की घड़ी में उसके अतिरिक्त और कोई भी न बचेगा। सब छूट जाएगा। वही संगी है, वही साथी है।

फिर तुम तोते की तरह, मियां मिट्ठु की तरह सीताराम—सीताराम नहीं कहोगे। कहना ही नहीं पड़ेगा। कहने की बात है क्या? कुछ दोहराने की बात है क्या? लेकिन तुम्हारा अंतस्तल भावाभिभूत होगा, उसकी सुवास से भरा होगा। तुम उसके संगीत में डूबे—डूबे विदा हो जाओगे। और जो उसके संगीत में डूबकर विदा हो गया उसके लिए मृत्यु अमृत बन जाती है। उसके लिए देह से छूटना दुःख का कारण नहीं होता, आनंद का कारण होता है। उसे देह से छूटने का अर्थ मुक्ति होती है, स्वातंत्र्य होता है, परम स्वतंत्रता होती है। पूरा आकाश अपना हुआ। एक छोटे—से घड़े में बंद थे, उससे मुक्त हो गए। सारा विराट अपना हुआ। एक छोटे आंगन से छूटे और सारा आकाश अपना। खोया कुछ भी नहीं, पाया सब। और वह आंगन भी इस सारे आकाश में सम्मिलित है ही; इसलिए वह कहीं गया नहीं।

ऐसे आनंद—भाव से नाचते हुए, मस्त, मगन, तृप्त, संतुष्ट, एक गहरे परितोष में अगर डूबते—डूबते तुम विदा हो जाओ तो इसका नाम है प्रभु—स्मरण।

मगर तुम तो शास्त्रों को अपने हिसाब से समझ लेते हो। तुम शास्त्रों पर थोड़ी दया करो। शास्त्रों का अर्थ भी समझना हो तो शास्ताओं से पूछो, खुद अर्थ मत लगाओ। तुम्हारी चालबाजी, तुम्हारा पाखंड, तुम्हारी बेईमानियां, तुम्हारी होशियारियां शास्त्र के शब्दों को भी इरछा—तिरछा कर देंगी। उन पर ऐसी व्याख्या आरोपित कर देंगी कि अगर कृष्ण की किताब होगी तो कृष्ण सिर पीट लेंगे और बुद्ध की किताब होगी तो बुद्ध सिर पीट लेंगे।

लोगों ने ऐसे—ऐसे अर्थ लगा लिए हैं कि कृष्ण जरूर सोचते होंगे कि अगर मैं चुप ही रहा होता तो अच्छा था। कम से कम अनर्थ तो न होता। अब गीता की एक हजार टीकाएं हैं। जिसको जो मन हो वैसा अर्थ लगाओ। जिसको जो अर्थ डालना हो डाल दो। और कैसा मजा है, विपरीत अर्थ लोग निकालते हैं। कोई कहता है अद्वैतवाद है गीता में, कोई कहता है द्वैतवाद है; और दोनों अपना अर्थ निकाल लेते हैं। शंकराचार्य अपना अर्थ निकाल लेते हैं, रामानुज अपना अर्थ निकाल लेते हैं, निंबार्क अपना, वल्लभ अपना। सब अपना अर्थ निकाल लेते हैं।

यह तो खूब मजा हुआ! या तो गीता में कोई अर्थ है ही नहीं, इसलिए जिसकी जो मर्जी हो निकाल लो। या फिर गीता इतना काव्यपूर्ण वक्तव्य है कि उसमें अर्थ तरल हैं, बहते हुए हैं। तुम जब तक तरल न हो जाओगे, बह न जाओगे उसके साथ तब तक तुम जो भी निकालोगे, गलत होगा। गीता तुम्हारे चित्त की शून्यता में प्रकट हो तो ही अर्थ का अनुभव होगा। अगर तुमने विचारपूर्वक अपनी बुद्धि लगाकर गीता के अर्थ निकाले तो तुमने गीता के साथ अनाचार किया, बलात्कार किया।

मैंने बहुत गीता की टीकाएं देखी हैं उनमें से अधिकतम बलात्कार हैं, जबरदस्ती है, तोड़—मरोड़ है। अर्थ पहले से ही तय किए बैठा है आदमी, अब गीता का भी सहारा लेना है। तो जिसको निकालना हो वही निकाल लो। शंकराचार्य ने संन्यास निकाल लिया गीता में से, कि सब छोड़ा——अकर्म। लोकमान्य तिलक को कर्म निकालना था, कर्म निकाल लिया——कि जूझो! छोड़ना नहीं है, कर्म से ही मुक्ति है।

तुम जरा देखो तो, जिसकी जो मर्जी! जीसस के वचनों के साथ यही हुआ है, मुहम्मद के वचनों के साथ यही हुआ है। यह सभी के वचनों के साथ हुआ है क्योंकि आदमी सब तरफ एक—सा बेईमान है। वह हिंदू हो कि मुसलमान कि जैन कि बौद्ध, कुछ फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि बेईमान है। बुद्धि से अर्थ मत निकालो।

हृदय ईमानदार है। हृदय को ही ईमान का पता है। हृदय श्रद्धालु है। मगर तुम्हारा हृदय तो सोया पड़ा है; उसे जगाओ। जब हृदय जगेगा तो तुमसे कभी भूल न होगी। तब तुम चकित हो जाओगे, जिंदगी की किताब में से तुम्हें अर्थ मिलने लगेंगे। एक पत्ता सूखकर गिरेगा और तुम्हारे सामने शास्त्रों के सार खुल जाएंगे। एक कली चटकेगी और फूल बनेगी और तुम्हारे सामने उपनिषद् नाच उठेंगे। एक पक्षी आकाश में उड़ेगा और वेदों की सारी सुवास बिखेर जाएगा।

रामकृष्ण को पहली समाधि अनुभव हुई थी, काली घिरी थी घटा। आषाढ़ के दिन! बादल नए—नए आए थे। घुमड़कर घिरी थी घटा। और रामकृष्ण चले आ रहे थे, खेत से लौट रहे थे। और बगुलों की एक कतार सरोवर के किनारे…..रामकृष्ण के आने की वजह से, बगुले बैठे होंगे, उड़े। बगुलों की एक शुभ्र कतार…..होंगे दस—पंद्रह बगुले। पीछे काली घटा, उसमें से गुजर गई बगुलों की कतार, जैसे बिजली कौंध जाए। रामकृष्ण वहीं गिर पड़े जमीन पर आनंद—मग्न हो, विभोर हो। समाधि लग गई।

यह पहली समाधि है। वेद पढ़ते हुए नहीं लगी थी, गीता सुनते हुए नहीं लगी थी। “सीताराम—सीताराम’ जपते हुए नहीं लगी थी । अजीब समाधि लगी!

घर उठाकर लाए गए। तरंगित हो रहे थे। रोआं—रोआं नाच रहा था। घंटों बाद आंख खुली। पूछा, क्या हुआ? रामकृष्ण ने कहा, मैं वही नहीं हूं जो था। पुराना गया! मैं कुछ और ही हो गया हूं। कैसे हुआ, नहीं जानता। बस इतना ही कह सकता हूं कि बगुलों कि कतार उड़ी। लोगों ने कहा, पागल! बगुलों की कतार तो हम भी उड़ते देखते हैं, हम को नहीं हुआ! काली घटाएं हमने भी देखी हैं, तू कोई नया है? तेरी उम्र भी क्या! हमारी तो जिंदगी हो गई।

रामकृष्ण की उम्र कुल तेरह वर्ष थी। तब। फिर हुआ कैसे यह? दूसरों ने भी बगुले देखे थे उड़ते, काली घटाएं भी देखी थीं, मगर नहीं हुआ था। बुद्धि बीच में पर्दा थी। रामकृष्ण भोलेभाले थे, बहुत सरल—चित्त थे; एकदम सीधे—सादे थे। हृदय से देखा गया। हृदय की आंख, और बगुलों का उड़ना, और यह सफेद चांदी की कतार! यह बिजली का कौंध जाना! यह सौंदर्य! अभिभूत हो गए। गिर पड़े भूमि पर। आंखों से आनंद के आंसू बहने लगे। लोटने लगे आनंद में। नृत्य शुरू हो गया।

यही नृत्य बढ़ते—बढ़ते उन्हें परमहंस के पद तक ले गया। बेपढ़े—लिखे थे। दूसरी कक्षा तक पढ़े, लेकिन बड़े—बड़े ज्ञानी फीके पड़ गए। बड़े—बड़े पंडित दो कौड़ी के हो गए। रामकृष्ण की महिमा हृदय की महिमा है। सभी संतों की महिमा हृदय की महिमा है।

तुमसे मैं इतना ही कहूंगा, शास्त्र में क्या लिखा है इसको बुद्धि से व्याख्या मत करना, अन्यथा चूकोगे। पहले बुद्धि को विदा करो, पहले बुद्धि को नमस्कार करो, पहले बुद्धि को हटाओ और फिर शास्त्र हो कि जीवन हो, कहीं से भी परमात्मा पुकारेगा, आवाज सुनाई पड़ेगी।

परमात्मा पुकार ही रहा है, प्रतिपल पुकार रहा है। हर घड़ी उसकी पुकार तुम्हारे द्वार पर आती है। उसके हाथ तुम्हारे हृदय पर हर बार दस्तक देते हैं मगर तुम वहां नहीं हो। तुम कहीं और हो। तुम सिर में भटक गए हो। तुम विचारों के जंगल में खोए हो। तुम अपने घर पाए ही नहीं जाते। और परमात्मा को तुम्हारा एक ही पता याद है——तुम्हारा हृदय। वह वहीं आता है। वह बेचारा वहीं खोजे चला जाता है। और मिलन हो नहीं पाता। तुम अपने हृदय में उपस्थित हो जाओ, मिलन होगा। मिलन सुनिश्चित है।

 

आज इतना ही।


Filed under: नाम सुमिर मन बावरे--(जगजीवन दास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, मां बोधि उनमनी, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–20)

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सतां हि सत्‍यम्—(प्रवचन—बीसवां)

प्‍यारे ओशो।

सत्‍येनन स्‍वर्गाल्‍लोकात् च्‍यवन्‍ते कदाचन।

सतां हि सत्‍यम्। तस्‍मात्‍सत्‍ये रमन्‍ते।

 अर्थात सत्‍य परम है, सर्वोत्‍कृत है, और जो परम है वह सत्‍य है।

जो सत्‍य का आश्रय लेते है वे स्‍वर्ग में, आत्‍मोत्‍कर्ष की स्‍थिति से

च्‍युत नहीं होते। सत्‍पुरूषों का स्‍वरूप ही सत्‍यमय है।

इसलिए वे सदा सत्‍य में ही रमण करते है।

प्‍यारे ओशो! श्‍वेताश्‍वतर उपनिषद् के इस सूत्र को

हमारे लिए विशुद्ध रूप से खोलने की अनुकंपा करे।

चैतन्य कीर्ति!

‘सत्यं परं परं सत्यम्।’

परम का अर्थ सर्वोत्कृष्ट नहीं होता। वैसा भाषान्तर भूल भरा है। सर्वोत्कृष्ट तो उसी शृंखला का हिस्सा है। सीढ़ी का आखिरी हिस्सा कहो, मगर सीडी वही है। पहला पायदान भी सीढ़ी का है और सबसे ऊंचा पायदान भी सीढ़ी का है। सर्वोत्कृष्ट में गुणात्मक भेद नहीं होता, केवल परिमाणात्मक भेद होता है। परम का अर्थ सर्वोत्कृष्ट नहीं है।

परम का अर्थ है : जो शृंखलाओं और श्रेणियों का अतिक्रमण कर जाए। जिसे किसी श्रेणी में और किसी कोटि में रखने की सम्भावना न हो। जो स्वरूपत: अनिर्वचनीय है। जिसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जिसके संबंध में कुछ भी कहो तो भूल हो जाएगी।

लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है : सत्य को बोला कि बोलते ही सत्य असत्य हो जाता है—बोलते ही। क्योंकि सत्य है विराट आकाश जैसा और शब्द बहुत छोटे हैं, आंगन से भी बहुत् छोटे हैं, शब्दों में सत्य का आकाश कैसे समाए?

और हमारी कोटियां हमारे मन के ही विभाजन हैं। इसे कहते पदार्थ, इसे कहते चेतना, लेकिन कोन करता है निर्णय? कोन करता है भेद? भेद करने की प्रक्रिया तो मन की है। और सत्य है मनातीत, मन के पार। इसलिए सत्य को मन की किसी कोटि में नहीं रखा जा सकता। सर्वोत्कृष्ट कहने की भूल में मत पड जाना। सबसे ऊंचा भी हो तो भी नीचे से ही जुड़ा होगा—वृक्ष कितना ही आकाश में ऊपर उठ जाए तो भी उन्हीं जडों से जुड़ा होगा जो गहरी जमीन में चली गयी हैं।

फ्रेड्रिक नीत्शे का प्रसिद्ध वचन है कि अगर किसी वृक्ष को आकाश के तारे छूने हों, तो उसे अपनी जड़ें पाताल तक भेजनी होंगी। और वृक्ष एक है। पाताल तक गयी जड़ें, स्वर्ग को छूती हुई शाखाएं अलग—अलग नहीं हैं; एक ही जीवनधारा दोनों को जोड़े है। तुम्हारे पैर और तुम्हारा सिर अलग— अलग नहीं हैं। यह अलग—अलग होने की भ्रांति ने बड़ा पागलपन पैदा कर दिया।

मनुस्मृति कहती है : ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए। क्यों? क्योंकि मुख सर्वोत्कृष्ट। और शूद्र ब्रह्मा के पैरों से पैदा हुए। क्योंकि पैर अत्यन्त निकृष्ट। वैश्य जंघाओं से पैदा हुए। शूद्रों से जरा ऊपर! मगर फिर भी निम्न का ही अंग। क्योंकि आदमी को दो हिस्सों में बांट दिया। कमर के ऊपर जो है, वह श्रेष्ठ और कमर के नीचे जो है, अश्रेष्ठ। कैसा मजा है! एक ही रक्त की धार बहती है, कहीं कोई विभाजन नहीं है, हड्डियां वही हैं, मांस वही है, रक्त वही है, सब जुडा हुआ है, सब संयुक्त है, लेकिन इसमें भी विभाजन कर दिया। फिर क्षत्रिय हैं, वे बाहुओं से पैदा हुए। और थोड़ा ऊपर। और फिर ब्राह्मण है, वह मुख से पैदा हुआ।

लेकिन शूद्र हो या ब्राह्मण, अगर पैर और मुंह से ही जुड़े हैं, तो उनमें कुछ गुणात्मक भेद नहीं है। गुणात्मक भेद हो नहीं सकता। क्योंकि वे एक ही शरीर के अंग हैं।

मेरी परिभाषा में तो सभी व्यक्ति शूद्र की तरह पैदा होते हैं। और जो व्यक्ति मन की सारी शृंखलाओं के पार चला जाता है, जो उस अज्ञात और अज्ञेय में प्रवेश कर जाता है जिसे कहने के लिए न कोई शब्द है, न कोई सिद्धांत, जिसे कहने का कोई उपाय नहीं, जिसे जाननेवाला गूंगा हो जाता है, गूंगे का गूड है जो, वही ब्राह्मण है। ब्राह्मण वह है : जिसने ब्रह्म को जाना। जिसने जीवन के परम सत्य को जाना, वह ब्राह्मण है। पैदा सभी शूद्र होते हैं। फिर कोई ध्यान की प्रक्रिया से समाधि तक पहुंचकर, मन के पार होकर ब्राह्मण हो जाता है। ब्राह्मण होना उपलब्धि है। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता है।

यह सूत्र प्यारा है :

‘सत्यं परं….. ‘

सत्य परम है। मगर फिर याद दिला दूं तुमने परम का अर्थ किया है : सर्वोत्कृष्ट। नहीं, वह तो अहंकार की ही भाषा है। सर्वोत्कृष्ट! सबसे ऊपर। तो जो सबसे ऊपर है, वह किसी को नीचे दबाएगा, वह किसी की छाती पर चढ़ेगा।

मैं कल ही श्री मोरारजी देसाई का एक वक्तव्य देख रहा था। किसी ने उनसे पूछा एक पत्रकार सम्मेलन में कि यदि लोग आपसे कहें पुन: प्रधानमंत्री हो जाने के लिए, तो आप राजी होंगे? उन्होंने कहा, निश्चय ही! प्रधानमंत्री तो क्या, अगर लोग मुझसे गधे पर बैठने को कहें तो भी मैं राजी हो जाऊंगा। मैं थोड़े सोच—विचार में पड़ गया। लोग कोन हैं? पहले गधे से भी तो पूछो! गधा भी इनको बिठालने को राजी होगा!

और तब मुझे याद आया

सेठ चंदूलाल का बेटा उनसे पूछ रहा था, पापा, दुल्हा को लोग घोडे पर क्यों बिठालते हैं, गधे पर क्यों नहीं बिठालते? तो चंदूलाल ने कहा, बेटा, घोडे पर इसलिए बिठालते हैं ताकि पता चलता रहे कोन दुल्हा है और कोन घोड़ा है। गधे पर बिठाल दें तो कैसे पता चलेगा कोन दुल्हा है, कोन गधा है? वरमाला किसके गले में पहनाएगी। वधू बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएगी। एक गधे पर दूसरा गधा चढ़ा बैठा है! इसलिए घोड़े पर बिठालते हैं।

ये मोरारजी देसाई गधे पर बैठने को राजी हैं। मगर कोई गधा इनको बिठालने को राजी है? और लोग कोन हैं, जो इनको कहें कि तुम गधे पर बैठ जाओ। गधे का हक सिर्फ गधे को है। मगर कोई गधा इतना गधा नहीं है कि इनको बिठालने को राजी हो जाए। मगर क्या आतुरता है किसी के ऊपर बैठने की! चलो, गधा ही सही, मगर ऊपर बैठ जाएं!

ऊपर बैठने की जो आकांक्षा है, वह अहंकार है। सत्य और अहंकार का कोई संबंध नहीं। जहां अहंकार गिर जाता है, वहां सत्य है। जब तक तुम हो, तब तक सत्य नहीं। जब तुम नहीं हो, तब सत्य है। तुम्हारी शून्यता की सुगंध सत्य है। तुम्हारी राख पर खिलता है फूल सत्य का। तुम खाद बन जाते हो, तब, केवल तब ही सत्य की अनुभूति शुरू होती है। जब तक तुम हो, तब तक सत्य के संबंध में विचार कर सकते हो, लेकिन सत्य को न जान पाओगे। और सत्य के संबंध में कितना ही जानो, वह सत्य को जानना नहीं है। कोई लाख जान ले प्रेम के संबंध में, अगर प्रेम का नाद उसके प्राणों में न छिड़ा हो, तो सारे शास्त्र पढ़ डाले प्रेम के संबंध में, फिर भी प्रेम से वंचित ही रह जाएगा। कोई प्रकाश के संबंध में सब पढ़ ले, सब गुन ले, मगर अगर आंखें न हों उसके पास, या आंखें भी हों और बंद हों, तो प्रकाश को न जान सकेगा।

इस भेद को खयाल में रखना, प्रकाश को जानना और प्रकाश के संबंध में जानना दो अलग बातें हैं। प्रकाश के संबंध में जानना दर्शनशास्त्र है और प्रकाश को जानना : धर्म।

सत्य के संबंध में जाना जा सकता है। बहुत जाना जा सकता है। सारे विश्व के पुस्तकालय भरे पड़े हैं, पटे पड़े हैं। मगर वह सत्य को जानने की व्यवस्था नहीं है। सत्य को जानने की प्रक्रिया तो ठीक उलटी है। सब कोटिया तोड देनी होंगी, सब शृखलाएं विसर्जित कर देनी होंगी, सारी धारणाओं को नमस्कार कर लेना होगा— आखिरी नमस्कार! हिंदू की धारणा, मुसलमान की, ईसाई की, जैन की, बौद्ध की, सिक्‍ख की, पारसी की, सारी धारणाओं को विदा कर देना होगा। क्योंकि जब तक तुम्हारी धारणाए हैं, जब तक तुम्हारे पक्षपात हैं, जब तक तुम कुछ मानकर चल रहे हो, तब तक तुम उसे न जान सकोगे जो है, तुम्हारी मान्यता उस पर आरोपित हो जाएगी। तुम्हारी आंखों पर चश्मा लगा है तो उसका रंग तुम्हें भ्रांति देगा क्योंकि उसका रंग तुम्हारे चारों तरफ हावी हो जाएगा। और क्या है हिंदू होना और मुसलमान होना और जैन होना? चश्मे हैं, अलग—अलग रंग के। और जिस रंग से तुम देखोगे, वही रंग सारे अस्तित्व का दिखाई पड़ने लगेगा।

अस्तित्व को देखना हो तो चश्मे उतार देना जरूरी है। शास्त्रों के बोझ से मुक्त हो जाना जरूरी है। और जब तुम्हारे भीतर कोई भी ज्ञान नहीं रह जाता तब निर्दोषता का जन्म होता है। तब तुम्हारे भीतर वही हृदय होता है, जो तुम बच्चे की तरह लेकर आए थे। वही सरलता, वही उत्सुकता, वही जिज्ञासा, वही जानने की आतुरता।

पंडित में जानने की आतुरता नहीं होती। वह तो जाने ही बैठा है!

एक मित्र ने प्रश्न पूछा है. प्रमोद पंडित उनका नाम है….. कि आपको समझना इतना कठिन क्यों है?

मुझे समझना कठिन नहीं है, मैं तो बहुत सीधी—सादी भाषा बोल रहा हूं लेकिन वह जो प्रमोद के साथ ‘पंडित’ शब्द जुडा है उस ‘पंडित’ ने उपद्रव कर दिया है। वह ‘पंडित’ नहीं समझने देगा। पांडित्य ने कभी किसी को नहीं समझने दिया। जीसस को किसने सूली पर चढाया? पंडितों ने—यहूदी धर्म के पंडित थे वे—पुरोहित थे। किसने मंसूर के हाथ—पैर काटे, गर्दन काटी? मुसलमान पंडितों ने, मौलवियों ने, इमामों ने, अयातुल्लाओं ने। वे उनके पंडित थे। मंसूर से चूक गये, जीसस से चूक गये। बुद्ध को किसने इनकार किया इस देश में? इस देश से कैसे बुद्ध की अद्भुत सुगंध तिरोहित हो गयी? पंडितों का जाल! उनके बर्दाश्त से बाहर हो गया।

और कारण हैं उनके बर्दाश्त के बाहर होने का। पंडित का एक स्वार्थ है, बहुत गहरा स्वार्थ है। उसका शान खतरे में है। अगर वह बुद्धों की सुने, तो उसे पहली तो बात यह करनी होगी कि ज्ञान को छोड़ने का साहस जुटाना होगा। और ज्ञान को छोड़ना यूं है जैसे कि कोई उससे प्राण छोडने को कह रहा हो। वही तो उसकी सम्पदा है। वही उसकी धरोहर है। उसी के बल पर तो उसके अहंकार में सजावट है, शृंगार है। वही तो उसका आभूषण है। वही तो है उसके पास, और तो कुछ भी नहीं है। वह शास्त्रों का बोझ ही तो उसे भ्रम दे रहा है—जानने का।

लेकिन जानना बड़ी और बात है, जानने का भ्रम और।

अज्ञान से आदमी कम—से—कम इतना तो अनुभव करता है कि तुझे पता नहीं। इतनी तो उसमें प्रामाणिकता होती है कि मुझे पता नहीं। लेकिन पंडित में यह प्रामाणिकता भी नहीं होती। पता तो नहीं है, मगर उसे खयाल होता है, मुझे पता है। उसने बिना जाने मान लिया है कि जान लिया। अब कैसे जानेगा? उसके जानने की दीवार बीच में खड़ी हो गयी। ज्ञान से नहीं जाना जाता सत्य, सत्य ध्यान से जाना जाता है। और ध्यान का अर्थ होता है : मन का अतिक्रमण—मनातीत हो जाना।

नानक ने उसे अ—मनी दशा कहा है—मन से मुक्त हो जाना। नीचा और ऊंचा, ऐसा और वैसा, ये सब मन के ही खेल हैं। जहां मन बिलकुल चुप हो गया, जहां एकदम सन्नाटा छा गया, वहां सत्य का अवतरण होता है। सत्यं परं परं सत्यम्। और तब तुम जानते हो पहली बार विराट को। तब तुम जानते हो पहली बार उसको, जो है। वह निश्चित ही परम है।

परम का अर्थ : उसे जाननेवाला, सब जान लिया जो जानने योग्य है। परम का अर्थ : उसे जिसने पी लिया, अमृत पी लिया। परम का अर्थ उसने परमात्मा को जान लिया, उसने आत्मा की आत्यन्तिक सुगन्ध पहचान ली। उस सुगन्ध के जीवन में आ जाते ही क्रांति हो जाती है। उस क्रांति को ही स्वर्ग कहते हैं।

स्वर्ग कोई भौगोलिक अवस्था नहीं है।

जिसने सत्य को जाना, जिसने सत्य को जीआ, वह स्वर्ग में प्रविष्ट हो गया। और ऐसे स्वर्ग में, जहां से कोई पतन नहीं होता। जहां से कभी कोई गिरता नहीं।

तुम जिस स्वर्ग की बातें करते हो, वहां से तो लोग गिरते हैं। वहां तो वही भय है; वहा तो वही राजनीति है। तुम्हारे पुराण कथाओं से भरे पड़े हुए हैं। वे सब कथाएं झूठ हैं। झूठ इसलिए हैं कि जिस स्वर्ग की बात की गयी है, वह भौगोलिक है। और जिस स्वर्ग की बात की गयी है, वह वह स्वर्ग नहीं है जिसकी यह उपनिषद चर्चा कर रहा है। नहीं तो इन्द्र को क्यो भय हो सकता है? कोई ऋषि, कोई मुनि ध्यान करे, समाधि के निकट पहुंचने लगे, तो इन्द्र का आसन क्यों डावाडोल हो जाता है? इन्द्र को क्या भय होने लगता है? क्या घबड़ाहट होने लगती है? घबड़ाहट होती है, पुराण कहते हैं, कि कहीं मेरा सिंहासन न छिन जाए। सत्य कहीं छिना है! और जो छिन जाए, वह सत्य नहीं है। जो छिन सकता है, वह छिन ही गया। उसका कोई मूल्य नहीं है, वह दो कोड़ी का है। तुमने तिनके का सहारा पकड़ा है। तुम सोच रहे हो कि तुम बच जाओगे। तुम भी डूबोगे और तुम्हारे साथ तिनका भी डूबेगा। तिनके को पकड़कर कोई बचा है? मगर कहावत है : डूबते को तिनके का सहारा। आशा लगा रखता है। तिनके ही से आशा लगा लेता है। तिनके को ही पकड़ लेता है। आंख बंद कर लेता है कि दिखाई न पड़े कि तिनका है।

ये तुम्हारे इन्द्र तुम्हारी कल्पनाएं हैं। ये तुम्हारे देवी—देवता तुम्हारी कल्पनाएं हैं। यह तुम्हारा स्वर्ग तुम्हारी अधूरी आकांक्षाओं का प्रक्षेपण है। जो तुम वहां नहीं पूरा कर पाए हो—चाहा तो था कर लेना पूरा, मगर नहीं पूरा कर पाए। क्योंकि जिंदगी में सभी इच्छाएं कैसे पूरी हों? इच्छाएं अनंत हैं और जीवन छोटा—सा। यह सत्तर साल की छोटी—सी जिंदगी और इच्छाओं का तो कोई अंत ही नहीं। और एक एक इच्छा भी दुष्‍पूर है। और अनंत इच्छाएं! बहुत कुछ अधूरा रह जाता है। सभी कुछ अधूरा रह जाता है। हर आदमी अधूरा ही मर जाता है। तो अब इस अधूरी इच्छाओं के लिए कुछ तो आशा चाहिए, कि आगे कहीं पूरी हो जाएंगी। स्वर्ग तुम्हारी इन्हीं अधूरी इच्छाओं की आधारशिला पर खड़ा है।

यहां तुमने सुंदर स्त्रियां चाही थीं, नहीं मिलीं। यहां तुमने सुंदर पुरुष चाहे थे, नहीं मिले। यहां सौन्दर्य मृगमरीचिका है। दूर से देखो तो स्त्री सुन्दर मालूम होती है, पुरुष सुन्दर मालूम होता है, पास आओ और फूल काटो में बदल जाते हैं, यह समझ में भी नहीं आता। प्यारे—प्यारे ओंठ और कैसे—कैसे कठोर शब्द बोलने लगते हैं! प्यारी—प्यारी आंखें और कैसे दग्ध अंगारे बन जाती हैं! सुन्दर—सुन्दर देहें, किस तरह जंजीरें बन जाती हैं! यह तुम सबका अनुभव है। और तब आदमी आशा के फूलों की मालाएं पिरोने लगता है। स्वर्ग में अप्सराएं होंगी—उर्वशी होगी, मेनका होगी—स्वर्ण उनकी काया होगी, कंठ उनके कोकिलकंठ होंगे, उनके जीवन में सुवास—ही—सुवास होगी….. पसीना भी नहीं बहता स्वर्ग में अप्सराओं को! अप्सराएं बूढ़ी भी नहीं होतीं!

मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था और कहता था कि सदा तुझे प्रेम करूंगा। स्त्रियों को ऐसी बातों पर भरोसा नहीं आता। सुन लेती हैं, इनकार भी नहीं करतीं—क्योंकि इनकार करने का मन नहीं होता—मगर भरोसा नहीं आता। बहुत बार सुन चुकी तो एक दिन उसने पूछा कि तुमसे सच पूछती हूं ईमान से कहो, खाओ परमात्मा की कसम, छाती पर हाथ रखकर कहो, सदा मुझे प्रेम करोगे? जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी, जीर्ण—जर्जर हो जाऊंगी, तब भी तुम मुझे प्रेम करोगे? जब मैं बीमार हो जाऊंगी, रुग्ण हो जाऊंगी, हड्डी—मांस सूखने लगेगा, तब भी तुम मुझे प्रेम करोगे? मुल्ला नसरुद्दीन थोड़ा झिझका। उसने नहीं सोचा था कि बात यहां तक पहुंचेगी। उसने कहा, हां—हा, जरूर प्रेम करूंगा! और फिर कुछ सोचकर कहा, लेकिन एक बात बताओ, तुम अपनी मां जैसी तो नहीं मालूम होने लगोगी?

मां जैसी तो मालूम होने ही लगेगी। इतनी शर्त उसने बचा ली, कि इतना भर खयाल रखना कि मां जैसी मालूम मत होने लगना!

लोग प्रेम में जो बातें कह देते हैं, फिर पीछे पछताते हैं। इस जगत में धन इकट्ठा हो जाता है, निर्धनता नहीं मिटती। महल बन जाते हैं, मगर मौन सब छीन लेता है। तो स्वर्ग की कल्पना की है। वह स्वर्ग और उपनिषद के ऋषियों का, द्रष्टाओं का स्वर्ग बड़े भिन्न हैं। तुम्हारे पुराण कपोल-कल्पनाएं हैं। कचरा हैं। लेकिन उपनिषद मणि-माणिक्य हैं।

यह सूत्र कोहिनूर जैसा है। यह सूत्र कह रहा है: सत्य में जीना स्वर्ग है। यह बात और हो गयी। इसका भूगोल से नाता न रहा। यह बात आध्यात्मिक हो गयी। इसका बाहर से कोई संबंध न रहा, बात भीतर की ही हो गयी। सत्य में जीना स्वर्ग है। समाधि मैं जीना स्वर्ग है। मन के पार होना स्वर्ग है। और तुम्हारा स्वर्ग तो मन की ही आकांक्षाएं है, मन की ही एषणाएं है। वह तो हारे-थके मन की ही आखिरी आशा है कि चलो, यह नहीं तो मौत के बाद। चलो, यहां नहीं तो आगे। कहीं न कहीं मिलेगा। और आदमी आशा के बल जीए चला जाता है। हजार तरह के दुख, झेले चला जाता है। पहाड़ जैसे बोझ ढोए चला जाता है। आशा बनी रहती है कि आगे।

तुमने कहावत सुनी है कि आशावादी व्यक्ति जब रेलगाड़ी के पहाड़ों के बीच में खुदे हुए बोगदों में से देखता है, तो उसे दूर उस पर किनारे पर रोशनी दिखाई पड़ती है। और वह चल पड़ता है, मीलों लंबे अंधेरे बोगदे में, इस आशा में कि वह दूर जो रोशनी दिखाई पड़ रही है, अभी नहीं कल, कल नहीं परसों, नहीं तो नरसों…! और इसी आशा में तो हमने अनेक जन्मों की कथा गढ़ ली है। क्योंकि एक जन्म में तो भरोसा नहीं लगता कि यह बोगदा पार होगा, यह अंधेरा पार होगा। तो चौरासी करोड़ योनियों की हमने कल्पना की है। सोचो तुम जरा, चौरासी करोड़ योनियां! इसका मतलब यह है कि कभी न कभी तो यह अंधेरा पार होगा! कभी न कभी तो यह रात कटेगी, सहर होगी, सुबह होगी!

मगर अक्सर यह होता है कि अंधेरा तो कटता नहीं और वह जो प्रकाश बोगदे के उस किनारे पर दिखाई पड़ता है, वह किसी ट्रेन के आने का प्रकाश सिद्ध होता है। आ तो जाता है, मगर तुमको कुचलता हुआ निकल जाता है। तुम्हारी हड्डी-पसली तोड़ता हुआ निकल जाता है।

तुम्हारी सब आशाएं दुराशाएं सिद्ध होती हैं। तुम्हारी हर आशा हताशा में परिणित हो जाती है। मगर आदमी फिर नयी-नयी आशाएं संजो लेता है, फिर सोचने लगता है, फिर सपने देखने लगता है।

पुराणों में जिन स्वर्गों की चर्चाएं हैं, वे चाहे हिंदुओं के हों, चाहे मुसलमानों के, चाहे ईसाइयों के, यह सिर्फ मनुष्य की एषणाओं की ही विस्तार है। लेकिन उपनिषद जिस स्वर्ग की बात कह रहा है, वह बात ही और। सत्य में जीना स्वर्ग है। और निश्चित ही जिसने सत्य में जीना जान लिया, वहां से कोई कैसे च्युत हो सकता है? उस आलोक से, उस आनंद से, छंद से कोई कैसे नीचे गिर सकता है? वह संगीत मिला एक बार, तो मिला सदा को।

बुद्ध ने कहा है: दुख का प्रारंभ नहीं है, अंत है, और आनंद का प्रारंभ है, अंत नहीं। बहुत गहरी बात कहीं! तुम्हारे दुख का कोई प्रारंभ नहीं है, अनंत काल से तुम दुख भोग रहे हो। प्रारंभ खोजने निकलोगे, मिलेगा नहीं। जैसा खोदते जाओगे, उतना और आगे, और आगे, पता चलेगा कि जड़ें और भी पीछे चली गयी हैं, और भी पीछे चली गयी हैं। दुख का कोई प्रारंभ नहीं है, बुद्ध कहते हैं, लेकिन अंत है। चाहो तो अभी अंत हो जाए। चाहो तो यही अंत हो जाए। इसी क्षण अंत हो जाए। दुख का अंत है, क्योंकि मन के पार होने का उपाय है।

बुद्ध ने चार सत्य कहे हैं। पहला सत्य दुख है। अधिकतर लोग तो इसको अंगीकार ही नहीं करते। इसको झुठलाते हैं, छिपाते हैं, दबाते हैं। तुम किसी से पूछो, कैसे हो? वह कहता है: बड़े मजे में हैं। और इसकी आंखों में देखो, इसके चेहरे पर देखो, कहीं कुछ मजा दिखाई पड़ता है! जो देखो वही मुसकरा कर कहता है: प्रभु की बड़ी कृपा है! सब ठीक-ठाक चल रहा है। तुम भी यही कहते हो। कहीं कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है! सारी पृथ्वी उदासी से भरी हुई है, दुख से भरी हुई है, नर्क बनी हुई है–और हर आदमी कह रहा है: सब ठीक-ठाक चल रहा है! प्रभु की बड़ी कृपा है! आनंद ही आनंद है! झूठ ही लोग बोल रहे हैं। एक दिखावा है। और दिखावे का भी कारण है। क्या सारे है अपने घाव दूसरों के सामने प्रकट करने से? अपनी मवाद किसी के सामने उघाड़ने से सार क्या है? कौन बंटा लेगा? तो छुपाए ही रखो! मवाद है, घाव हैं, फूल ले जाओ बाजार से खरीद कर, उनके ऊपर फूल सजा दो। लोगों को तो फूल दिखने दो।

तुम भी लोगों को देख कर मुस्कुराते हो, वह भी मुस्कुराते हैं, न तुम्हारे भीतर मुस्कुराहट है, न उनके भीतर मुस्कुराहट है। तुम्हारे भीतर भी आंसू भरे हैं और उनके भीतर भी आंसू भरे हैं। मगर एक चेहरा बना कर रखना पड़ता है। इसको लोग कहते हैं: शिष्टाचार, सभ्यता , संस्कृति। एक पाखंड बना कर रखना पड़ता है।

बुद्ध कहते हैं: पहले तो स्वीकार करो कि दुख है। क्योंकि अगर तुम दुख को स्वीकार ही न करोगे, तो फिर आगे तो यात्रा चलेगी ही नहीं।

फिर दूसरी बात बुद्ध कहते हैं: समझने की कोशिश करो कि दुख के कारण हैं। अकारण तो कोई नहीं होता। मत टालो भाग्य पर! भाग्य तो बहाना है। कारण से बचने का बहाना है। मत कहो विधाता ने लिख दिया है! मत कहो कि किसी और की जिम्मेवारी है। कारण हो तो तुम हो। कारण हैं तो तुम्हारे भीतर हैं, तुम्हारी मूर्च्छा में हैं। अब क्रोध करोगे तो दुख न होगा तो क्या होगा? और लोभ करोगे तो दुख न होगा तो और क्या होगा? दूसरों को दुख दोगे, सताओगे, तो क्या तुम सोचते हो तुम्हारे जीवन में सुख की वीणा बजेगी? तुम जो दूसरों को दोगे, वही तुम पर लौट आएगा। यह जगत तो प्रतिफल करता है। यह जगत तो यूं हैं कि तुम जो इसे देते हो, उसी को हजार गुना करके लौटा देता है। सब तुम पर ही आ जाता है वापिस। जो गङ्ढे तुम औरों के लिए खोदते हो, एक दिन सिद्ध होता है कि तुम्हारे लिए ही, तुम्हारी ही कब्र बन जाती हैं।

तो कारण हैं। लेकिन हम कारणों को भी बचाते हैं। पहले तो हम दुख है, यह मानने को राजी नहीं होते। आने से भी छिपाते हैं, औरों से भी छिपाते हैं। यूं भ्रांति बनाए रखते हैं, ऐसा भरम बनाए रखते हैं कि सब ठीक है। भीतर आग लगती रहती है, ज्वालामुखी उबलता है और बाहर एक मुखौटा ओढ़े रखते हैं। फिर दूसरे अगर यह स्वीकार भी कर लें कि दुख है, तो हम सदा कारण दूसरों पर थोपते हैं। पति अगर दुखी है तो पत्नी के कारण। पत्नी अगर दुखी है तो पति के कारण। बाप अगर दुखी है तो बेटे के कारण। बेटा अगर दुखी है तो बाप के कारण।

मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा फजलू परीक्षा में असफल हो गया सो घर से भाग गया। अखबारों में विज्ञापन निकलवाएं: तुम्हारी मां दुखी हैं, तुम्हारे पिता दुखी हैं, बेटा घर लौट आओ! तुम्हारे बिना मर जाएंगे। मगर फजलू न लौटा सौ न लौटा। आखिर फजलू की मां की मां ने एक रामबाण विज्ञापन छपाया। कि बेटा अब एकदम आ जाओ! तुम इसी डर से भाग गये हो कि परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुए। अब घबड़ाओ मत; तुम्हें डर था कि तुम्हारे पापा मारेंगे-पीटेंगे, तुम्हारे पापा भी अपने डिपार्टमेंट की परीक्षा में असफल हो गये हैं–अब तुम घर आ जाओ! और फजलू उसी दिन घर आ गया।

एक-दूसरे से घबड़ाहट है! एक-दूसरे पर टाले हुए हैं! एक-दूसरे पर हटा रहे हैं!

और जो व्यक्ति कारण दूसरों पर छोड़ देता है, उसने फिर बचाव का उपाय खोज लिया। वह कहने लगा कि मैं करूं तो करूं क्या! समाज बुरा, समाज की व्यवस्था बुरी, यह परिवार का ढांचा बुरा, यह अर्थनीति बुरी, यह राजनीति बुरी। मैं अकेला आदमी इस भवसागर में फंसा हूं! कैसे हो छुटकारा? कूल दिखाई पड़ता नहीं, किनारे का कुछ पता नहीं। और हरेक जान लेने को तत्पर है।

यूं तुम बच जाते हो, मगर यह कुछ बचना न हुआ। यह अपने हाथ से फांसी लगा लेना हुआ। कारण तुम्हारे भीतर हैं।

इसलिए बुद्ध ने दूसरा आर्य-सत्य कहा–पहला: दुख है, और दूसरा कि दुख के कारण हैं, कारण तुम्हारे भीतर हैं। और तीसरा कारणों को काटने के उपाय हैं। हताश मत हो जाना! विधियां हैं, जिनसे कारण उखाड़े जा सकते हैं। एक बार पता चल जाए कि जड़ कहां है, तो गङ्ढे खोदे जा सकते हैं, घास-पात उखाड़ी जा सकती है, काटी जा सकती है। उसी विधि का नाम धर्म है, ध्यान है, योग है, तंत्र हैं। अलग-अलग नाम हैं, मगर प्रक्रिया एक ही है। प्रक्रिया है: किसी भी तरह अपने को मन का साक्षी बना लेना। जैसी ही साक्षी तुम्हारे भीतर हुआ, अतिक्रमण हो जात है। तुम परम अवस्था को उपलब्ध हो गये। और बुद्ध ने कहा: चौथा आर्य सत्य है कि कारण व्यर्थ नहीं हैं और उपाय भी व्यर्थ नहीं जाते, वह अवस्था भी है जहां दुख बिलकुल समाप्त हो जाता है, शून्य हो जाता है। वह परम आनंद की अवस्था भी है। उसका मैं गवाह हूं। बुद्ध ने कहा: उसका में गवाह हूं। मैंने जाना है, इसलिए तुमसे कहता हूं।

सत्य में जो जीएगा, उस जीवन से फिर गिरना असंभव है। सत्य में जो जीएगा, वह कैसे असत्य में गिर सकता है?

‘सतां हि सत्यम्’।

और फिर सत्य क्या है? सत्युरुषों का स्वरूप ही सत्य है। सतां हि सत्यम्। उनकी जो सत्ता है, वही सत्य है। सत्य कोई सिद्धांत नहीं, कोई निष्कर्ष नहीं, प्रबुद्ध—पुरुषों के भीतर जो आभा है, जो उनका अस्तित्व है, जो उनका स्वरूप है, उनके भीतर जो कलकल नाद हो रहा है, उनके चारों तरफ जो किरणें विकीर्ण हो रही हैं, जो गंध उड़ चली है, वही सत्य है। तो सत्य कुछ ऐसा नहीं है जैसे विज्ञान के सत्य होते हैं, जिनको प्रयोगशालाओं में प्रयोग करके पाया जाता है। सत्य तुम्हारे जीवन की आत्यंतिक अनुभूति है। तुम क्या हो, इसकी अनुभूति सत्य है। तुम्हारा स्वरूप क्या है, तुम्हारा वास्तविक होना क्या है, इस सत्य को न वेदों से पाया जा सकता है, न कुरानों से, न बाइबिलों से। इसे पाना हो तो अपने भीतर ही उस आखिरी गहराई में डुबकी लगानी जरूरी है। जिन खोजा तिन पाइया। जिन्होंने खोजा, जरूर पाया है।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ। कबीर ठीक कहते हैं। मगर बड़ी गहराई में पैठना होता है, ताकि तुम अपनी आधारभूमि को खोज लो, अपने स्वरूप को खोज लो। और तुम्हारे स्वरूप पर बहुत—सा कचरा लाद दिया है दूसरों ने, उस सबको काटना पड़ेगा, हटाना पड़ेगा। न—मालूम कितने पत्थर तुम्हारे ऊपर रख दिये हैं! तुम्हारा स्वरूप तो न—मालूम कहा खो गया है, पत्थर पर पत्थर रख दिये हैं। कि तुम हिन्दू हो! बच्चा पैदा हुआ नहीं कि जल्दी से इसका यज्ञोपवीत करो! बच्चा पैदा हुआ नहीं कि इसका खतना करो, इसको मुसलमान बनाओ! बच्चा पैदा हुआ नहीं कि इसका बपतिस्मा करो, इसको ईसाई बनाओ। रखने लगे लोग पत्थर! चढ़ाने लगे चट्टानें तुम्हारे ऊपर। तुमसे कहने लगे, तुम ईसाई हो।

जब भी कोई बच्चा पैदा होता है, न तो ईसाई होता है, न हिन्दू होता है, न जैन होता है। बच्चा तो सिर्फ एक शुद्ध चेतना, एक कोरी किताब की तरह पैदा होता है। मगर लोग बैठे हैं स्याही में अपनी—अपनी कलमें डुबोए हुए कि इधर बच्चा पैदा हो कि वे उसकी कोरी किताब पर लिखावट शुरू करें! कोई लिख देगा गीता को, कोई लिख देगा कुरान को, कोई लिख देगा बाइबिल को। कर दी खराब उसकी कोरी किताब! उसे मौका ही न दिया कि वह अपने को पहचान लेता। इसके पहले कि वह अपने को पहचानता, तुमने उसके ऊपर धारणाएं थोप दीं। कि तुम भारतीय हो, कि तुम चीनी हो, कि तुम जर्मन हो। तुम लादने लगे, कि तुम ब्राह्मण हो, कि तुम क्षत्रिय हो, कि तुम वैश्य हो, कि शूद्र हो। और फिर वर्गों में बंटे हुए हैं। शूद्र भी सभी अपने को समान नहीं मानते। शूद्रों में भी नीचे शूद्र हैं और ऊंचे शूद्र हैं।

मैं एक चमारों की सभा में बोलने गया। रैदास की वह जयन्ती मनाते थे, तो उन्होंने मुझसे कहा कि आप आएं, रैदास पर कुछ कहें। तो मैं गया। वहां देखा कि बस थोड़े —से चमार इकट्ठे हैं। मैंने कहा कि इस गांव में इतने शूद्र हैं— भंगी हैं, कुम्हार हैं—वे सब कहां हैं? चमारों ने कहा, क्या आप कहते हैं! हम भंगियों के साथ बैठें! मैंने कहा, फिर मैंने गलती की जो मैं तुम्हारे साथ बैठा। मुझे यह पता नहीं था कि तुम्हारे भीतर भी वर्ग हैं, श्रेणियां हैं। चमार अपने को ऊंचा मानता है भंगी से। भंगी के साथ कैसे बैठ सकता है! उन्होंने ब्राह्मणों को निमंत्रण दिया था, मगर ब्राह्मण कैसे आएं? मैंने उनसे पूछा कि तुमने मुझे किसलिए बुलाया? उन्होंने कहा, हमने आपको इसलिए बुलाया कि आपको सुननेवाले इतने लोग हैं, वे सब कम—से—कम आएंगे मगर वे कोई नहीं आए। मैंने कहा, वे तुम्हारे साथ कैसे बैठें? जब तुम भंगियों के साथ बैठने को राजी नहीं हो, तो हद हो गयी, यह मुझे पता नहीं था अब तक कि शूद्रों में भी श्रेणियां हैं! उसमें भी ऊंचे शूद्र हैं, नीचे शूद्र हैं।

आदमी सिर्फ आदमी है। क्यों उस पर भूगोल लादते हो? क्यों इतिहास लादते हो? क्यों उस पर जमानेभर की गदगिया लादते हो? मगर ये लाद दी गयी हैं। और जिस व्यक्ति को खोजना हो अपने स्वरूप को, उसे इस सारी गंदगी को काटना होगा। इस कूड़े करकट को अलग करना होगा—इसको आग लगा देनी होगी! इतना साहस न हो, तो कोई सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता है।

‘सतां हि सत्यम्।’तुम्हारा स्वरूप सत्य है। और स्वरूप के ऊपर बहुत पर्तें जम गई हैं, बहुत धूल जम गयी है। दर्पण पर इतनी धूल जम गयी है कि दर्पण का पता ही नहीं चलता। यह सारी….. धूल—दर्पण साफ करना है।

कष्टपूर्ण है।

क्योंकि किसी से भी कहो कि तुम्हारा हिन्दू होना बाधा है स्वरूप को जानने में, या मुसलमान होना, या जैन होना, वह झाड़ा करने को तैयार है। वह मरने—मारने को तैयार है। क्योंकि वह यह नहीं सोचता कि ये थोपी गयी चीजें हैं, यह उसका स्वरूप नहीं है, ये विकृतियां हैं, यह धार्मिकता नहीं है। धार्मिक व्यक्ति सिर्फ धार्मिक होता है। इसमें कोई विशेषण नहीं होते। धार्मिक व्यक्ति की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती। धार्मिक व्यक्ति न गोरा मानता अपने को, न काला मानता। क्योंकि वह अपने को शरीर ही नहीं मानता। वह अपने को चेतना मानता है। धार्मिक व्यक्ति न अपने को पुरुष समझता, न स्त्री। क्योंकि चेतना कहीं स्त्री और पुरुष होती है! आत्मा भी कहीं स्त्री और पुरुष होती है! मगर क्या—क्या पागलपन हैं! जैनों की धारणा है कि स्त्री की देह से मोक्ष नहीं। मोक्ष क्या देह का होता है? देह तो यहीं पड़ी रह जाती है—पुरुष की हो कि स्त्री की हो। मोक्ष अगर होगा तो आत्मा का होगा। और मोक्ष अगर होगा तो साक्षीभाव में होगा। तो पुरुष की आत्मा देखेगी कि मेरे चारों तरफ पुरुष का शरीर है और स्त्री की आत्मा देखेगी कि मेरे चारों तरफ स्त्री का शरीर है। मगर आत्मा थोड़े ही स्त्री है! आत्मा तो साक्षी है—दोनों की। एक—सी साक्षी है। हां, गोरे आदमी की आत्मा देखेगी कि मेरे चारों तरफ गोरी चमड़ी है और काले आदमी की देखेगी कि मेरे चारों तरफ काली चमड़ी है, लेकिन आत्मा चमड़ी नहीं है। लेकिन हम बस न—मालूम किन—किन बातों में आत्मा को गंवा बैठे हैं! धन गंवा दिया है, कंकड़—पत्थर इकट्ठे कर लिये हैं। स्वरूप को खो बैठे हैं, शास्त्रों से लद गये हैं। सत्य का तो कोई बोध नहीं है, लेकिन सिद्धांतों में बडे हम प्रवीण हो गये हैं।

‘सतां हि सत्यम्’

और सत्य है तुम्हारा स्वरूप।

‘तस्मात्सत्ये रमन्ते।’

इसलिए रमो सत्य में। इसलिए जीओ सत्य में। और सत्य में जो जीता है, वही संत है। इसलिए मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अगर संत कहे कि मैं हिन्दू हूं तो समझ लेना कि संत नहीं है। अगर संत कहे कि मैं जैन हूं तो समझ लेना कि संत नहीं है। संत तो वही है जो सत्य में जीता है। और सत्य न हिन्दू है, न मुसलमान है; न जैन है, न ईसाई है। सत्य न तो मंदिरों में है, न गिरजों में, न गुरुद्वारों में। सत्य तुम्हारे भीतर है। सत्य आत्मान्वेषण है।

यह सूत्र प्यारा है! यह सूत्र जीने योग्य है!

‘दीपक बारा नाम का’ प्रवचनमाला से

दिनांक 9 अक्टूबर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना


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नाम सुमिर मन बावरे-(जगजीवन)–प्रवचन–7

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नाम बिनु नहिं कोउकै निस्तारा—(प्रवचन—सातवां)

 दिनांक 7 अगस्‍त, 1978;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

नाम सुमिर मन बावरे, कहा फिरत भुलाना हो।।

मट्टी का बना पूतला, पानी संग साना हो।

इक दिन हंसा चलि बसै, घर बार बिराना हो।।

निसि अंधियारी कोठरी, दूजे दिया न बाती हो।

बांह पकरि जम लै चलै, कोउ संग न साथी हो।।

गज रथ घोड़ा पालकी, अरु सकल समाजा हो।

इक दिन तजि जल जाएंगे रानी औ राजा हो।।

सेमर पर बैठा सुवना, लाल फर देख भुलाना हो।

भारत टोंट मुआ उधिराना, फिरि पाछे पछिताना हो।।

गूलर कै तू भुनगा, तू का आव समाना हो।

जगजीवनदास बिचारि कहत, सबको वहं जाना हो।।

 

 

नाम बिनु नहिं कोउकै निस्तारा।

जान परतु है ज्ञान तत्त तें, मैं मन समुझि बिचारा।      

कहा भए जल प्रात अन्हाए, का भए किए अचारा।।

कहा भए माला पहिरे तें, का दिए तिलक लिलारा।

कहा भए व्रत अन्नहिं त्यागे, का किए दूध-अहारा।।

कहा भए पंचअगिन के तापे, कहा लगाए छारा।

कहा उर्धमुख धूमहिं घोंटें, कहा लोन किए न्यारा।।

कह भए बैठै ठाढ़ें तें, का मौंनी किहे अमारा।

का पंडिताई का बकताई, का बहु ज्ञान पुकारा।।

गृहिनी त्यागि कहा बनबासा, का भए तन मन मारा।

प्रीतिविहूनि हीन है सब कछु, भूला सब संसारा।

मंदिल रहै कहूं नहिं धावै, अजपा जपै अधारा।

गगन-मंडल मनि बरै देखि छवि, सोहै सबतें न्यारा।।

जेहि विस्वास तहां लौ लागिय, तेहि तस काम संवारा।

जगजीवन गुरु चरन सीस धरि, छूटि भरम कै जारा।।

 

द चाक हुआ गो जाम-एत्तन, मजबूरी थी, सीना ही पड़ा

मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा

मैं उसकी नशीली आंखों की तल्ख़ाब सही ज़हराब सही

लेकिन फितरत खुद चाहती थी दिल प्यासा था पीना ही पड़ा

कहती थी जुनूं जिसको दुनिया बिगड़ी हुई सूरत अक्ल की थी

फाड़ा था गरेबां तेरे लिए जब तू न मिला, सीना ही पड़ा

कुछ तुर्शी थी कुछ तल्ख़ी थी लेकिन जब खुद ही मांगी थी

तो मांगकर वापिस करने का मौका ही न था, पीना ही पड़ा

सद चाक हुआ गो जाम-एत्तन, मजबूरी थी, सीना ही पड़ा

मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा।

मनुष्यों में अधिक मनुष्य ऐसे ही जी रहे हैं; मरने के लिए ही जी रहे हैं। जैसे जीवन में कुछ और न हुआ है, न हो सकता है। जैसे जीवन में कुछ और न हुआ है, न हो सकता है। जैसे जीवन एक लंबी निराश यात्रा है। जैसे जीवन एक मजबूरी है, एक असहाय अवस्था है; किसी तरह गुजारना है, बोझ की तरह ढोना है। उदास, भारी मन लोग अपनी-अपनी कब्र की तरफ बढ़े जा रहे हैं–जैसे बंदी हों; जैसे जंजीरों में–बेड़ियों में बंधे हों; जैसे कोई उपाय ही न हो मृत्यु से मुक्त होने का; जैसे उस परम जीवन को जानने की कोई सुविधा ही न हो, जिसका अंत नहीं आता।

यह भ्रांति है। जीवन एक अवसर है परम जीवन को पाने के लिए। मृत्यु पर जीवन का अंत नहीं है। और अगर मृत्यु पर जीवन का अंत हो तो समझ लेना कि तुम ठीक से जिए ही नहीं। वही मरता है जो ठीक से जीता नहीं। जो ठीक से जीता है उसके लिए मृत्यु तो और बड़े जीवन का द्वार बन जाती है। और जो ठीक से नहीं जीता, ठीक से मरता भी नहीं उसे फिर-फिर जन्मना पड़ता है और फिर-फिर जन्मना पड़ता है और फिर-फिर मरना पड़ता है। इस पाठ को सीखना ही पड़ेगा। इसे बिना सीखे काम न चलेगा।

जीवन को लोगों ने मान रखा है, जैसे मिल ही गया है। मिला नहीं, मिल सकता है। खोजना पड़े, तलाश करनी पड़े। जो मिला है बीज की तरह, इसके लिए भूमि खोजो, इसके लिए खाद दो, इस पर श्रम करो, इस पर अपनी साधना बरसाओ तो यह बीज टूटे, अंकुरित हो, वृक्ष बने, इसमें फल आएं। तब तुम जानोगे कि जीवन कितनी बड़ी भेंट थी परमात्मा की।

लेकिन तुम ऐसे जी रहे हो इस महाअवसर को जैसे कोई दंड दिया हो; जैसे मजबूरी है। मरने की बात तय ही है तो अब क्या करें! किसी तरह जी लेंगे, राह देख लेंगे। आएगी, मौत, मर जाएंगे। जैसे मौत के अतिरिक्त और इस जीवन में कुछ भी न घटेगा। जन्म और मृत्यु के बीच अगर परमात्मा न घटे तो समझ लेना कि व्यर्थ ही जिए; अकारथ जिए। जिए ही नहीं। नाम ही था जीने का। कहने भर की बात थी।

दिल-ए-बरबाद को भी कहनेवाले दिल ही कहते हैं

खिज़ां-दीदा चमन को भी चमन कहना है पड़ता ही

पतझड़ आ जाती है बगीचे में, एक पत्ता नहीं बचता, एक फूल नहीं बचता। उसको भी लोग चमन कहते हैं।

दिल-ए-बरबाद को भी कहनेवाले दिल ही कहते हैं

और जो दिल बिल्कुल बरबाद हो गया, जिसमें दिल है ही नहीं, जहां दिल का कोई राग नहीं उठता, जहां दिल का कोई उत्सव नहीं है उसको भी दिल तो कहते ही हैं। शब्दों की ही बात है।

और जो दिल बिल्कुल बरबाद हो गया, जिसमें दिल है ही नहीं, जहां दिल का कोई राग नहीं उठता, जहां दिल का कोई उत्सव नहीं है उसको भी दिल तो कहते ही हैं। शब्दों की ही बात है।

जिसको हम जीवन कहते हैं वह कहना भर है। जीवन तो किसी बुद्ध का होता है, किसी जगजीवन का होता है, किसी नानक का, किसी जीसस का। जीवन तो थोड़े-से लोग जीते हैं। अधिकतर लोग जो जन्मते हैं और मरते हैं। और जन्मते और मरने के बीच में जो विराट अवसर मिलता है उसको ऐसे गंवा देते हैं जैसे मिला ही न हो। खोज सकते थे खजाना। ऐसी संपदा पा सकते थे जो फिर कभी छीनी न जाए, लेकिन गंवा देते हैं ऐसी संपदा को इकट्ठी करने में जिसका छिन जाना सुनिश्चित है; जिसको कोई भी बचा नहीं पाया; जिसे कोई अभी अपने साथ नहीं ले जा पाया। मौत आती है और तुम भिखारी के भिखारी जाते हो। बड़े से बड़ा सम्राट् भी भिखारी की तरह जाता है।

बुद्ध ने जिस दिन घर छोड़ा, अपने सारथि से कहा था–क्योंकि सारथि दुःखी था। बूढ़ा आदमी था। बुद्ध को बचपन से बढ़ते देखा था। पिता की उम्र का था। वह रोने लगा, उसने कहा, मत छोड़ो। कहां जाते हो? जंगल में अकेले हो जाओगे। कौन संगी, कौन साथी?

तो बुद्ध ने कहा, महल में भी कौन संगी था, कौन साथी था? धोखा था। महल में भी जंगल था। आज नहीं कल जंगल जाना ही होगा। और किन्हीं और कंधों पर चढ़कर जाऊं, इससे बेहतर है अपने ही पैरों से चला जाऊं। मरकर जाऊं, इससे बेहतर है जिंदा चला जाऊं तो शायद कुछ कर पाऊं।

सारथि ने बहुत समझाया : इतनी संपदा, इतना साम्राज्य छोड़कर कहां जाते हो? बुद्ध ने कहा, मौत आएगी। तू भी जानता है मौत आएगी। सभी जानते हैं मौत आएगी। और यह सब छिन ही जाएगा। जो छिन ही जाना है, उसे नासमझ पकड़ते हैं। जो छिन ही जाता, छिन ही गया। उसको पकड़ने का कोई सवाल नहीं है।

इस जिंदगी से समझदार लोग तो ऐसे गुजरते हैं जैसे कोई सराय से गुजरता है; इस जिंदगी में ऐसे ठहरते हैं जैसे कोई धर्मशाला में ठहरता है। सांझ आयी, रुक रहे, सुबह हुई, चल पड़े। मुसाफिरखाना है।

और जिसको यह जिंदगी मुसाफिरखाना दिखाई पड़ती है उसकी ही आंखें मोक्ष की तरफ उठती हैं। क्योंकि अगर यह मुसाफिरखाना है तो फिर घर कहां है? तभी सवाल उठता है। अगर इस दुनिया की संपदा झूठी है तो फिर सच्ची संपदा कहां है? क्योंकि हृदय में तलाश तो है। संपदा की तलाश है। किसके मन में नहीं है तलाश?

अगर इस जिंदगी की संपदा झूठी है तो फिर यह तलाश क्यों है? और फिर यह एकाध दिल में ही नहीं है, यह हर दिल में है। यह हर प्राण में छिपी है। यह हर प्राण के भीतर दबी है। यह अंगारा सबके भीतर है। तो कहीं न कहीं होगी असली संपदा भी। अगर इस जगत् के पद व्यर्थ हैं तो फिर असली पद कहां है?

कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं कि जो असार की भांति देख लेता है, उसकी सार की खोज शुरू हो जाती है। जो असार को ही सार समझता रहता है उसकी तो सार की खोज कैसे शुरू होगी? जिसने नकली सिक्कों को असली समझ लिया वह असली की तलाश करेगा क्यों? वह तो मानता है, असली उसे मिल ही गए।

सारे सद्गुरुओं का संदेश अगर बहुत संक्षिप्त करना हो तो इतना-सा है कि जिसे तुमने जिंदगी समझा है वह असली जिंदगी नहीं है क्योंकि मौत उसे पोंछ जाएगी। असली को तलाशो। उसको खोजो, जो एक बार मिल जाए तो फिर कभी छीनी नहीं जा सकती। वही संपदा है; शेष सब तो विपदा है। वही संपत्ति है; शेष सब तो विपत्ति है। मेहनत बहुत उठानी पड़ती है और अंत में सब व्यर्थ जाता है।

बहुत बार संतों के शब्द ऐसे लगते हैं कि अगर इन शब्दों को हम सुनते रहेंगे तो हमारी जिंदगी में जो थोड़ा और रस है, वह भी सूख जाएगा। हमारी जिंदगी में जो थोड़ी-बहुत खुशी है, वह भी कुम्हला जाएगी। कभी-कभी हम जो हंस लेते हैं, ये संत उसे भी छीन लेंगे।

अगर ऐसा तुमने समझा तो तुम संतों को समझे नहीं। वे तुमसे वही छीनना चाहते हैं जो है ही नहीं। तुम्हारी हंसी झूठी है; आंसुओं को छिपाने का उपाय है। तुम मस्ती का ढोंग कर रहे हो। तुम मस्त हो कैसे सकते हो? बिना परमात्मा को पिए कोई कभी मस्त हुआ ही नहीं। तुम्हारी मस्ती झूठी होगी।

एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर मेहमान हुए। झूठी ही उन्हें ठंडाई पिलाई और पिलाने के बाद कह दिया कि भंग थी उसमें। वे तो मस्त होने लगे। सारा परिवार हंसने लगा। जैसे-जैसे लोग हंसे ….. इस बात पर हंसे कि उन्हें तो कोई भंग पिलाई गई नहीं है, मगर वे मस्त होने लगे। जैसे-जैसे लोग हंसे, उनकी मस्ती भी बढ़ी। उन पर नशा छाने लगा। उनकी आंखें तक लाल हो गईं। कोई घड़ी-दो घड़ी के बाद तो वे बोले कि मुझे चक्कर आते हैं। सब घूमता हुआ मालूम पड़ता है। मैंने उनको कहा, महाराज, भंग तुम्हें किसी ने पिलाई नहीं, सिर्फ बात ही की है। यहां भंग है कहां? सिर्फ ठंडाई थी। सुनते ही नशा उतर गया। आंखें फिर ठीक हो गईं। वह जो घूमने लगा था मकान, वह फिर थिर हो गया।

तुम कभी अपने बाबत सोचना। उस दिन मैंने उनसे कहा था, ऐसी तुम्हारी जिंदगी की हंसी है, ऐसी तुम्हारी जिंदगी की खुशी है। मान बैठे हो। जरा लोग हंसते हैं, उनकी हंसी का खोखलापन तो देखो! हंसने योग्य तुम्हारे पास है क्या? रोने योग्य बहुत कुछ है, हंसने योग्य क्या है?

संत जरूर तुमसे खोखली हंसी छीन लेंगे; लेकिन सिर्फ इसलिए, ताकि असली फूलों की वर्षा हो जाए; कि तुम हंसो तो फूल झरें; कि तुम हंसो तो तुम्हारी हंसी में प्राण हों; कि तुम हंसो तो हंसी प्रवंचना न हो। तुमसे झूठी मस्ती छीन लेंगे ताकि तुम्हें सच्ची मस्ती दी जा सके। ऐसी मस्ती, जिसको फिर कोई छीन नहीं सकता।

यहां तो तुमने जो भी अभी इंतजाम कर रखा है, बड़ा धोखे का है। और तुम भली-भांति जानते हो। मगर मैं तुम्हारी मजबूरी भी समझता हूं, कि अब क्या करें! किसी तरह जीना तो है ही।

सद चाक हुआ गो जाम-एत्तन मजबूरी थी सीना ही पड़ा

चीथड़े-चीथड़े हो गई है जिंदगी, मगर मजबूरी है, सीनी पड़ती है। चार लोगों को दिखाने योग्य तो बाहर का इंतजाम करना ही पड़ता है। चाहे घर कैसा ही हो, बैठकखाना तो सजाना ही पड़ता है। चाहे स्नान न किया हो, चाहे देह कितनी अपवित्र हो और चाहे मन कितने ही पापों से भरा हो तो भी ऊपर से पाउडर और सुगंध तो छिड़कनी ही पड़ती है।

सद चाक हुआ गो जाम-एत्तन, मजबूरी थी, सीना ही पड़ा

मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा

–मगर यह भी कोई जीवन होगा?

संत तुमसे जो व्यर्थ है, जो झूठा है वह छीन लेना चाहते हैं। और अगर संतों के सत्संग में तुम उदास हो जाओ तो समझना कि तुम समझे नहीं; तो समझना कि तुम चूक गए। और अगर तुम्हारे संत उदास हों तो समझना कि संत नहीं हैं। संत का जीवन तो उल्लास होना चाहिए। वहां तो आनंद का राज होना चाहिए।

कोई किस तरह राज-ए-उल्फत छिपाए।

निगाहें मिलीं और कदम डगमगाए

जिसकी आंख परमात्मा से मिलने लगी हो उसके पैर न डगमगाएं? और जिसका प्रेम उससे लग गया हो वह अपने राज को छुपाना भी चाहे तो छुपा नहीं सकता। उसके रोएं-रोएं से प्रकट होगा। उसके शब्द-शब्द से झलकेगा। उसके ओंठ से जो शब्द भी बाहर आएगा, मधुसिक्त होकर आएगा। तो उसके शब्दों को पी लेंगे उनको भी नशा आने लगेगा।

चाल है मस्त, नज़र मस्त, अदा में मस्ती

जैसे आते हैं वे लोटे हुए मैखाने से

जो मंदिर गया, सच में मंदिर पहुंचा वह ऐसे ही लौटेगा जैसे मधुशाला से लौटता हो। मंदिर असली मधुशाला है। अगर वहां से मस्त होकर नहीं लौटे तो फिर कहां से मस्त होकर लौटोगे? अगर वहां से तुम्हारी चाल में नृत्य न आया तो फिर नृत्य कहां सीखोगे? अगर मंदिर ने तुम्हारे भीतर नाद न जगाया, तुम्हारे सोए तार न छेड़े, तुम्हारी वीणा न बजायी तो फिर कहां, फिर कैसे तुम जागोगे? कौन तुम्हें जगाएगा? कौन तुम्हें आनंद से भरेगा?

हमने यूं ही तो परमात्मा की परिभाषा सच्चिदानंद नहीं की है! ये तीन चीजें तो मिलनी ही चाहिए, वहीं सत्संग है। सत्य मिले, चैतन्य मिले, आनंद मिले, वहीं सत्संग है। जहां सच्चिदानंद मिले वहीं सत्संग है।

लेकिन तुम्हारे मंदिरों में बैठे हुए तुम्हारे साधु-संत भी उदास हैं। स्वभावतः ऐसे उदास और रुग्ण-चित्त लोगों के पास तुम बैठोगे, तुम भी उदास हो जाओगे। और तुम समझोगे कि शायद धार्मिक हो रहे हो।

हां, धर्म निश्चित ही झूठी हंसी छीन लेता है लेकिन इसीलिए, ताकि सच्ची हंसी पैदा की जा सके। धर्म निश्चित ही घास-पात को उखाड़ता है, ताकि गुलाबों की खेती हो सके। सिर्फ घास-पात को उखाड़कर बैठ गए इससे कुछ बगीचे नहीं बन जाते। और अगर तुम घास-पात उखाड़कर बैठ गए और कभी तुमने गुलाब बोए ही न, तो गुलाब आकाश से नहीं उतर आएंगे। और घास-पात फिर उग आएगा। कोई एक बार उखाड़ देने से घास-पात सदा के लिए समाप्त नहीं हो जाता। अगर घास-पात को सच ही समाप्त करना है तो पृथ्वी की जो ऊर्जा घास-पात बनती है उसे गुलाब बनाने में लगाना पड़ेगा।

हां, धर्म निश्चित ही झूठी हंसी छीन लेता है लेकिन इसीलिए, ताकि सच्ची हंसी पैदा की जा सके। धर्म निश्चित ही घास-पात को उखाड़ता है, ताकि गुलाबों की खेती हो सके। सिर्फ घास-पात को उखाड़कर बैठ गए इससे कुछ बगीचे नहीं बन जाते। और अगर तुम घास-पात उखाड़कर बैठ गए और कभी तुमने गुलाब बोए ही न, तो गुलाब आकाश से नहीं उतर आएंगे। और घास-पात फिर उग आएगा। कोई एक बार उखाड़ देने से घास-पात सदा के लिए समाप्त नहीं हो जाता। अगर घास-पात को सच ही समाप्त करना है तो पृथ्वी की जो ऊर्जा घास-पात बनती है उसे गुलाब बनाने में लगाना पड़ेगा।

मैं यह कह रहा हूं कि तुम्हारी हंसी झूठ है क्योंकि तुम भीतर उदास हो, ऊपर से उधार हंसी को लेकर चिपका लेते हो। और बाजार में हर चीज बिकती है। हर चीज बिकती है, जिमी कार्टरवाली हंसी भी बिकती है। अभ्यास कर ले सकते हो, मुखौटे लगा ले सकते हो।

तुम जरा लोगों को हंसते हुए तो देखो! उनकी आंखों में कोई आनंद नहीं होता और ओंठ एकदम फैल जाते हैं। इसको हंसी नहीं कह सकते, खींसे निपोरना! इस तरह की हंसी तुम्हें अक्सर मिलेगी ….. तुमने कभी आदमी की खोपड़ी देखी, मरे हुए आदमी की खोपड़ी? सिर्फ खोपड़ी! सब खोपड़ियां हंसती हुई मालूम पड़ती हैं। इसीलिए डर भी लगता है। अपने कमरे में एक खोपड़ी रखकर देखो दो-चार दिन। और सबसे ज्यादा भयावनी चीज लगती है खोपड़ी की हंसी। कि हंस किस बात पर रही है खोपड़ी? क्योंकि वे दांतें ….. ओंठ तो चले गए, चमड़ी तो सब समाप्त हो गई, हड्डी-हड्डी बची है। दांत ही दांत दिखाई पड़ते हैं। सभी मुर्दे जिमी कार्टर हो जाते हैं।

तुम हंसोगे, लेकिन प्राणों में आनंद हो तो ही उसमें कुछ अर्थ होगा। तुम गाओगे, लेकिन यह ऊपर-ऊपर से सीखा गया गीत न हो। इसकी जड़ें तुम्हारी आत्मा में होनी चाहिए, तो इसमें रस बहेगा।

निश्चित ही संत तुमसे जो भी झूठा है, छीन लेना चाहते हैं। मगर यह आधा काम है। झूठा छीन लिया और सच्चा दिया नहीं, सच्चा मिला नहीं तो तुम और मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम्हारी दशा त्रिशंकु की हो जाएगी–न यहां के रहे न वहां के; न घर के न घाट के। तुम बड़ी दुविधा में पड़ जाओगे। दुविधा में दोइ गए, माया मिली न राम। ऐसी दशा तुम्हारे तथाकथित धार्मिकों की हो गई है।

और धर्म के नाम पर जो संत-महात्मा तुम्हारी छाती पर बैठ गए हैं वे केवल रुग्णचित्त लोग हैं; मानसिक रूप से विकृत लोग हैं, स्वस्थ नहीं। धर्म विकृत हाथों में पड़ गया है–हमेशा पड़ जाता है क्योंकि एक बड़ी शक्तिशाली, बड़ी क्षमताशाली दिशा है। रुग्ण-चित्त लोग उस पर कब्जा करने को उत्सुक होते हैं।

रुग्ण-चित्त हर चीज पर कब्जा करना चाहते हैं। जहां भी उन्हें लगता है कि शक्ति का स्रोत है, दौड़ पड़ते हैं। रुग्ण-चित्त महत्त्वाकांक्षी होते हैं। धन की तरफ दौड़ते हैं, पद की तरफ दौड़ते हैं, अगर उन्हें लगे कि धर्म में भी शक्ति है वहां भी दौड़ते हैं और कब्जा कर लेते हैं।

पंडित हैं, पुरोहित हैं, इन्हें धर्म का कोई पता नहीं है। लेकिन धर्म के माध्यम से लोगों के जीवन पर इनका कब्जा जम जाता है। शोषण करने की क्षनता हाथ में आ जाती है। ये खुद भी उदास हैं। ये बुरी तरह उदास हैं। इन्होंने अपनी उदासी को भी अच्छी व्याख्या दे ली है। ये कहते हैं, उदासी का मतलब वैराग्य।

मैं भी जानता हूं कि उदासी का अर्थ वैराग्य। लेकिन उदासी का गहरा अर्थ है, राग। संसार से विराग और परमात्मा से राग। उदासी का अर्थ अनासक्ति, ठीक; संसार से अनासक्ति, परमात्मा से आसक्ति। दूसरी बात क्यों नहीं कहते जो कि ज्यादा मूल्यवान है? व्यर्थ से विराग, यह तो ठीक ही है, लेकिन सार्थक से राग जगना चाहिए, नहीं तो सार क्या हुआ? पहले भी असार थे, घर में भी असार थे। वहां भी जिंदगी बोझिल थी, मंजिल में भी जिंदगी बोझिल है। और बोझिल हो गई। घर में थे तो कम से कम कुछ भ्रम भी थे, अब भ्रम भी न रहे। घर में थे तो कभी-कभी सपना भी देख लेते थे सौंदर्य का, सत्य का, अब वे भी सपने गए। अब सपनों का भी त्याग कर दिया। अब तुम बिल्कुल मरुस्थल होकर रह गए। अब तुम्हारी जिंदगी में कोई हरियाली नहीं होगी।

ठीक सत्संग में हरियाली घटनी ही चाहिए। ठीक सत्संग में मरुस्थल मरुद्यान बनना ही चाहिए।

तो ख्याल रखना, ये वचन एक स्वस्थ महात्मा के वचन हैं। और तुम समझोगे कि ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं। वचन ही तुम्हारे सामने सिद्ध कर देंगे कि अस्वस्थ महात्माओं के विपरीत हैं। ये वचन तुम्हें उदास करने को नहीं हैं। ये वचन तुम्हें आनंद से भरने को हैं।

नाम सुमिर मन बावरे

–ऐ पागल मन! प्रभु का स्मरण कर।

कहा फिरत भुलाना हो

–कहां इन व्यर्थ की चीजों में भूल रहा है? यहां किसी ने कभी कुछ पाया नहीं। यहां तू भी जिंदगी गंवा देगा।

संसार में लोग गंवाकर जाते हैं, कमाकर नहीं। अक्सर लेकिन हम समझते हैं कि लोग कमा रहे हैं। बाजारों में लोग कमाने में लगे हैं। पूछो तो जरा गौर से! क्या कमाकर ले जाओगे? क्या कमा रहे हो? गंवाकर जाओगे। एक संपदा थी भीतर, जिसको लुटाकर जाआगे। आत्मा बेच दोगे, ठीकरे खरीद लोगे। जीवन का परम अवसर जो परमात्मा का मिलन बन सकता था, उसमें कुछ कागज के नोट इकट्ठे कर लोगे।

और नोट यहीं पड़े रह जाएंगे। उन्हें तुम साथ न ले जा सकोगे। उन्हें कोई कभी साथ नहीं ले जा सका है। संसार की कोई भी वस्तु साथ नहीं जा सकती। धन की, असली धन की परिभाषा क्या है? जो साथ जा सके। ध्यान ही साथ जा सकता है इसलिए ध्यान धन है।

बुद्ध बारह वर्ष बाद घर लौटे, उनकी पत्नी नाराज थी। उसने अपने बेटे को उनके सामने खड़ा कर दिया। कहा, राहुल, ये तेरे पिता हैं। ये घर छोड़कर भाग गए थे। अब मिल गए हैं। अब दुबारा कभी मिलना हो या न मिलना हो, इनसे अपनी वसीयत मांग ले।

यह मजाक था, व्यंग्य था। बुद्ध के पास अब क्या था वसीयत देने को? भिखारी थे। हाथ में सिर्फ एक भिक्षापात्र था। मां मजाक कर रही थी। मां व्यंग्य कर रही थी। अपने बेटे से कह रही थी, देख ले, ये हैं तेरे पिता। तू बार-बार पूछता था कि मेरे पिता कौन, मेरे पिता कौन हैं? यह जो भिखमंगा तुम्हारे सामने खड़ा है, यह तुम्हारा पिता है। इसने तुम्हें जन्म दिया और उत्तरदायित्व नहीं समझा और घर से भाग गया। अब इससे अपनी वसीयत मांग लो, अब दुबारा मिलना हो कि न मिलना हो। फिर यह आए, न आए।

लेकिन यशोधरा को पता नहीं था कि बुद्धों के साथ मजाक में भी जुड़ जाओ तो मजाक महंगी पड़ जाती है। राहुल ने हाथ फैला दिए। मां कहती थी कि वसीयत मांग लो। मां यह दिखाना चाहती थी कि बुद्ध को समझ में आए कि तुम सिर्फ भिखमंगे हो गए हो, और क्या हुआ? पाया क्या? खोया बहुत। सम्राट् थे, भिखमंगे हो गए। आज बेटा हाथ फैलाए खड़ा है तुम्हारे पास देने को एक पैसा भी नहीं है। यह क्या पाना हुआ? क्या कमाकर लौटे हो, मां यह कह रही थी।

लेकिन बुद्ध ने राहुल के फैले हुए हाथों में अपना भिक्षापात्र दे दिया और कहा, तेरी दीक्षा हो गई, तू भी भिक्षु हुआ। मेरे पास यही धन है देने को। मैं ध्यान लेकर लौटा हूं, ध्यान तुझे दूंगा।

और यशोधरा को कहा कि तुझे भी मेरा निमंत्रण है। मैं परम संपदा लेकर लौटा हूं, तू भी उसमें भागीदार बन। मैं गंवाकर नहीं लौटा हूं, कमाकर लौटा हूं। मेरी आंखों में फिर से देख। यह वही आदमी नहीं है जो तुझे छोड़कर गया था। मेरे हाथ के भिक्षापात्र को देखती है, मेरी आत्मा को देख। मेरी चारों तरफ झरती हुई आभा को देख। यह संगीत जो मेरे हृदय में बज रहा है, इसको सुन।

क्रोध में थी यशोधरा। और क्रोध बिल्कुल स्वाभाविक था। लेकिन बुद्ध की यह सिंहगर्जना! उसने अपने आंसू पोंछे, गौर से बुद्ध को देखा। यह प्रमाद! यह सौंदर्य! यह निश्चित ही दूसरा व्यक्ति है। देह वही है, आत्मा बदल गई है। यह गरिमा, यह गौरव-मंडित रूप, यह इस पृथ्वी का नहीं है। यह परलोक से उतरा है। यह दिव्य है।

पश्चिम के बहुत बड़े विचारक, इतिहासज्ञ एच० जी० वेल्स ने लिखा है कि इस पृथ्वी पर बुद्ध से ज्यादा ईश्वर-विहीन और ईश्वर-जैसा व्यक्ति दूसरा नहीं है। बुद्ध ईश्वर को मानते नहीं थे इसलिए ऐसा लिखा है। “सो गॉडलेस एंड सो गॉडलाइक’ : इतना ईश्वरशून्य और इतना ईश्वर-जैसा!

झुकी यशोधरा, भिक्षुणी हो गई।

ध्यान धन है। ध्यान को ही भक्त कहते हैं, नाम-स्मरण। वह भक्ति का नाम है।

नाम सुमिर मन बावरे

नाम इशारा है, प्रतीक है। इसलिए किसी खास नाम को भी नहीं कहते हैं। यह नहीं कहते हैं कि राम को सुमिरो। क्योंकि राम को सुमिरो तो कृष्ण को स्मरण करनेवाला सोचता है कि पता नहीं, मैं भूल कर रहा हूं। अल्ला को स्मरण करनेवाला सोचेगा, पता नहीं, मुझे अल्लाह का स्मरण करना चाहिए कि राम का स्मरण करना चाहिए!

इसलिए संतों ने किसी नाम का उपायोग नहीं किया, सिर्फ कहा, नाम स्मरण करो, सब नाम उसी के हैं। इसलिए अल्लाह कहो तो, राम कहो तो, कृष्ण कहो तो। जो हृदय में बैठा हो गहरा, जिस शब्द से तुम्हारा राग लग जाए, जिस शब्द से तुम्हारी ज्योति जुड़ जाए, जिस शब्द से तुम्हारे तार संयुक्त हो जाएं वही कहो; उसी से राह मिलेगी।

और खयाल रखना, हरेक को अपना शब्द खोज लेना पड़ता है। सभी शब्द एक जैसे हैं।

अंग्रेज कवि टेनिसन ने तो लिखा है कि मैं अपना ही नाम दोहराता हूं और मुझे इतनी परम शांति और ध्यान की अवस्था घनीभूत हो जाती है, जो मुझे किसी और से नहीं होती। मैं किसी को बताता भी नहीं हू क्योंकि लोग क्या कहेंगे कि पागल हो! बस, जब भी मुझे ध्यान करना होता है, मैं बैठ जाता हूं, पुकारने लगता हूं : “टेनिसन, टेनिसन, टेनिसन’। अपने को ही अपना नाम पुकारते देखकर एक सन्नाटा छा जाता है। पुकारनेवाला कोई और हो जाता है, टेनिसन कोई और हो जाता है। मैं साक्षी मात्र रह जाता हूं।

सभी नाम उसके हैं तो टेनिसन भी उसी का नाम है; अल्लाह ही क्यों और रहमान ही क्यों और राम ही क्यों? मगर जिससे राग लग जाए! राग, राग की बात है। किसी को कृष्ण का रूप प्यारा लगता है, बिल्कुल ठीक। क्योंकि सभी रूप उसी के हैं। कृष्ण का मोर-मुकुट बांधा हुआ रूप, ओंठों पर रखी बांसुरी, नृत्य की मुद्रा किसी को प्यारी लगती है। किसी को महावीर का रूप प्यारा लगता है।

एक जैन ने कुछ दिन पहले संन्यास लिया। संन्यास लेते वक्त उन्होंने कहा, बस एक आज्ञा चाहता हूं कि मुझे जिन-प्रतिमा से बड़ा आनंद मिलता है, तो मैं जिन मंदिर जाता रहूं?

मैंने कहा, सब मंदिर उसके हैं। मेरे संन्यासी के तो सारे मंदिर हैं। मैं तुम्हे किसी मंदिर से नहीं तोड़ने को हूं, जोड़ने को हूं। जरूर जाते रहो। अगर तुम्हें महावीर की नग्न प्रतिमा में रस है–उसका अपना सौंदर्य है।

खयाल करना, कृष्ण की सजी हुई प्रतिमा का अपना सौंदर्य है। सजावट का अपना सौंदर्य होता है। सादगी का भी अपना सौंदर्य होता है। महावीर की प्रतिमा बिल्कुल सादी है, उसमें कुछ भी नहीं सजा हुआ है। नग्न खड़े हैं। एक वस्त्र भी नहीं है। किसी को वह रूप मन भाता है। जो भा जाए।

मैंने उनको कहा कि जरूर तुम जाओ। अब उनका पत्र आया है, लेकिन जैनी नहीं आने देते। वे कहते हैं, पहले यह संन्यास छोड़ो। कहा, अब यह तुम समझो। मेरी तरफ से बाधा नहीं है। अब यह जैनों की नासमझी है कि वे किसी महावीर के प्यारे को महावीर की प्रतिमा तक न आने दें। अब यह उनकी मूढ़ता है। उनकी मूढ़ता के कारण महावीर भी अपने एक प्यारे से वंचित हो जाएंगे। लेकिन मेरी तरफ से कोई विरोध नहीं है।

जहां झुक सको वहां झुको। झुकना, समर्पण! संत नाम नहीं लेते। वे कहते हैं, यह नहीं बताते कि कौन-सा नाम, वे सिर्फ कहते हैं नाम-स्मरण करो। बड़ी अर्थपूर्ण है यह बात। जो भी तुम्हें प्यारा लगता हो वही स्मरण करो। स्मरण करो। जोर स्मरण पर है।

नाम सुमिर मन बावरे

ऐ पागल मन! और मन निश्चित पागल है क्योंकि इसने क्या-क्या स्मरण किया है!

थोड़ा सोचो तो, तुम्हारा मन क्या-क्या सोचता है, क्या-क्या स्मरण करता है! इसे विक्षिप्त न कहोगे तो और क्या कहोगे? सार्थक को छोड़कर निरर्थक पर ही भटकता फिरता है। एक घूरे से दूसरे घूरे पर घूमता रहता है।

रामकृष्ण कहते थे, मन चील की तरह है। उड़ती आकाश में है लेकिन नजर नीचे लगी रहती है कि किस कचरे के घूरे पर कौन-सा चूहा मरा पड़ा है।

उड़ता आकाश में है। मन कितनी ही ऊंचाइया ले, नजर उसकी नीचे लगी रहती है। मन से बहुत सावधान होना जरूरी है। मन विक्षिप्तता है। मन पागलपन है।

और इस पागलपन से सिर्फ एक ही छुटकारा है कि किसी तरह तुम इस सारे पागलपन को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दो। उसके संस्पर्श से ही, उस समर्पण से ही, उसके पारस-स्पर्श से लोहा एकदम सोना हो जाता है और पागल मन एकदम बुद्धत्व। इसी ऊर्जा से, इसी विक्षिप्तता से विमुक्तता पैदा हो जाती है।

नाम सुमिर मन बावरे कहा फिरत भुलाना हो

नाम-स्मरण का दीया जल जाए तो फिर भूल-भटकन बंद हो जाती है। अभी तो हम अंधेरे में चले रहे हैं।

किसी की याद इस तरह से आयी है आज मेरे अंधेरे दिल में

–कि जैसे उजड़ी सरा में आकर दिया मुसाफिर जला रहा हो

जैसे बहुत दिन की उजड़ी पड़ी हुई सराय हो, और कोई मुसाफिर आ जाए, रात ठहर जाए और दीया जलाए, ऐसी ही घटना घटती है पहली दफा जब परमात्मा का स्मरण तुम्हारे भीतर उतरता है। जन्मों-जन्मों से उजड़ी पड़ी हुई सराय है। खंडहर हो गए तुम। रोशनी से संबंध ही भूल गया है। रोशनी की पहचान ही भूल गई है।

जब पहली दफा स्मरण का दीया जलता है, सुरति का दीया जलता है, जब पहली दफा कोई ध्यान या भक्ति या प्रार्थना में लीन होने लगता है तो एक ज्योति उमगती है–ज्योति जो तुम्हारी ही ज्योति है; ज्योति जो तुम्हारे ही प्राणों में छिपी पड़ी है; ज्योति जिसे जगाना है।

जैसे चकमक के दो पत्थरों को टकरा दो, और ज्योति पैदा हो जाती है। पड़ी थी, पत्थरों में ही छिपी पड़ी थी। ऐसे ही व्यक्ति जब परमात्मा के नाम का स्मरण करता है तो यह छोटी-सी चकमक का पत्थर उस बड़े विराट चकमक के पत्थर से टकरा जाता है। ज्योति उमग आती है। उस ज्योति में चलना आनंद है, उल्लास है। उस ज्योति में चलना नृत्य है। उस ज्योति में चलना संगीत है। उस ज्योति में चलना जीवन है, महाजीवन, जिसका फिर कोई अंत नहीं आता।

अंधेरे में चलना मृत्यु में चलना है। इसीलिए तो मृत्यु को हम काला चित्रित करते हैं; वह सिर्फ प्रतीक है अंधेरे का। ऐसा मत सोचना कि यमदूत काले ही होते हैं; सब तरह के होते हैं, रंग-रंग के होते हैं। और ऐसा मत सोचना कि भैंसे पर ही बैठकर आते हैं, जमाने बदल गए। आज-कल मोटर-साइकिल पर आते हैं। फटफटी पर बैठकर आते हैं। अब क्या भैंस वगैरह पर बैठना! या रेल के इंजिन पर सवार होकर आते हैं। मगर रंग काला।

काला रंग प्रतीक है अंधकार का। मौत अंधकार में घटती है। मौत अंधकार की घटना है, बस इतना अर्थ लेना। दीया जल जाए तो फिर मौत नहीं। प्रकाश अमृत है।

इसलिए ऋषियों ने उपनिषद् में गाया हैः “तमसो मा ज्योतिर्गमय :”तमसो मा ज्योतिर्गमय : ‘मुझे तमस से ज्योति की ओर ले चलो। “मृत्योर्मा मृतं गमय :’ मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो। “असतो मा सद्गमय : मुझे असत से सत की ओर ले चलो। ये तीनों पर्यायवाची हैं–असत, मृत्यु, अंधकार पर्यायवाची हैं। ऐसे ही सत, प्रकाश, अमृत पर्यायवाची हैं।

अंधेरे को प्रकाश बना लो, और तुम्हारा जीवन व्यर्थ नहीं गया। तुमने अपने जीवन का उपयोग कर लिया।

नाम सुमिर मन बावरे कहा फिरत भुलाना हो

–अगर नहीं किया नाम का स्मरण तो तुम मिट्टी के पुतले हो और मिट्टी में ही गिर जाओगे।

मट्टी का बना पूतला पानी संग साना हो

–और तुम कुछ भी नहीं हो। परमात्मा का संस्पर्श हो जाए तो तुम अमृत ज्योति हो। परमात्मा का संस्पर्श न हो तो, “मट्टी का बना पूतला पानी संग साना हो।’ फिर इससे ज्यादा तुम कुछ भी नहीं हो।

जॉर्ज गुरजिएफ एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात कहता था। वह कहता था, सभी आदमियों में आत्माएं नहीं होतीं। आत्मा तो तभी पैदा होती है आदमी में जब परमात्मा का संग-साथ होता है। नहीं तो दबी पड़ी रहती है संभावना मात्र, वास्तविकता नहीं। जैसे आग पड़ी चकमक में, जैसे वृक्ष पड़ा बीज में, बस ऐसे आत्मा सोयी पड़ी रहती है। जैसे ही परमात्मा का तुम स्मरण करते हो कि आत्मा जगने लगती है। स्मरण जागने की प्रक्रिया है।

मट्टी का बना पूतला पानी संग साना हो

इक दिन हंसा चलि बसै घर बार बिराना हो

और यह जो पक्षी तुम्हारे भीतर बसा है जीवन का अपरिचित, जिससे तुमने पहचान भी नहीं की, जिससे तुम्हारा परिचय भी नहीं हुआ, जिसको तुम जानते भी नहीं कौन है। यह हंस किस मानसरोवर से आता है और फिर किस मानसरोवर को लौट जाता है, तुम्हें कुछ पता भी नहीं है। मगर थोड़ी देर को एक वृक्ष पर आ बैठे हो, विश्राम किया हो, सराय में ठहर गए हो, इसी को घर मान लिया है, इसी देह को सब कुछ समझ लिया है, इससे तादात्म्य कर लिया है तो चूक जाओगे; तो मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी। अवसर व्यर्थ गया।

इक दिन हंसा चलि बसै घर बार बिराना हो

और एक दिन यह घर उजड़ा पड़ा रह जाएगा। और वह दिन कभी भी आ सकता है; आज भी आ सकता है, कल भी आ सकता है। किसी न किसी दिन तो आना है, जिस दिन हंसा उड़ चलेगा। उसके पहले कुछ तैयारी कर लो। उसके पहले इस हंस से पहचान कर लो।

जो इस हंस से पहचान कर लेते हैं उनको हम परमहंस कहते हैं। जो ठीक से जान लेते हैं, मैं कौन हूं, वे परमहंस हो गए। फिर इसी देह में रहते हैं लेकिन फिर देह धर्मशाला है, घर नहीं। लेकिन व्यर्थ की चीजों में बड़ा आकर्षण है। छोटे-छोटे खिलौनों में बड़ा रस है।

ऐ हमनफ़स न पूछ जवानी का माजरा

मौज-ए-नसीम थी इधर आयी, उधर गई

जवानी आ जाती है, नए-नए खिलौने! बचपन के अलग खिलौने, जवानी के अलग खिलौने, बुढ़ापे के अलग खिलौने। तुम चकित होओगे जानकर, जैसे बच्चे गुड्डा-गुड्डियों का विवाह रचाते हैं, उन खिलौनों से खेलते हैं। जवान महत्त्वाकांक्षा के खिलौनों में खेलते हैं : बड़े मकान बनाने हैं, बड़ी तिजोड़ी भरनी है। बूढ़े भी खेल खेलते हैं। कोई माला फेर रहा है, कोई तिलक लगाए बैठा है, कोई पूजा कर रहा है–ये बुढ़ापे के खेल हैं। इन खेलों से धर्म का कोई संबंध नहीं है। जैसे बचपन के खेल व्यर्थ, वैसे जवानी के खेल व्यर्थ, वैसे बुढ़ापे के खेल व्यर्थ। धर्म का खेल से कोई संबंध नहीं है। खेल से जागो! सब खेल आते हैं, चले जाते हैं।

तुम देखते हो, बच्चों को बूढ़ों के खेल व्यर्थ मालूम होते हैं। बच्चे सोच भी नहीं पाते कि यह क्या बुङ्ढा करता रहता है! आरती उतार रहे हैं। हंसते हैं बच्चे; स्वभावतः हंसते हैं। बूढ़े बच्चों पर हंसते हैं। बूढ़े सोचते हैं बच्चों के खेल व्यर्थ। क्या तुम गुड्डा-गुड्डी का विवाह रचा रहे हो! जवान दोनों पर हंसते हैं। बूढ़े जवानों पर हंसते हैं, जवान बूढ़ों पर हंसते हैं।

सब दूसरे के खेल को पहचान लेते हैं कि यह खेल है, अपना खेल भर दिखाई नहीं पड़ता। जिसको अपना खेल दिखाई पड़ जाता है वही जाग गया। फिर वह दूसरे पर नहीं हंसता, वह अपने पर ही हंसता है।

चंद्रकांत ने प्रश्न पूछा है कल कि दोनों बातें साथ-साथ घट रही हैं। रोना भी होता है और हंसी भी आती है। यह कैसा द्वंद्व हो रहा है!

ये दोनों साथ घट सकते हैं। चिंता न लेना चंद्रकांत! घबड़ाना मत कि कहीं विक्षिप्त तो नहीं हो रहा हूं? एक ही साथ दोनों बातें हो सकती हैं। रोना आ सकता है क्योंकि जिंदगी फिजूल जा रही है और हंसना भी आ सकता है कि कैसी फिजूल की चीजों में फिजूल जा रही है!

रोना-हंसना साथ-साथ आ सकते हैं, मगर अपने पर जिसको हंसना आने लगे और अपने पर जिसको रोना आने लगे वह करीब आने लगा घर के। दूसरों पर सभी हंसते हैं। जो अपने पर हंस लेता है उसके जीवन में धर्म की शुरुआत हुई। हंसना हो तो अपने पर हंसना। देखना हो तो अपनी मूढ़ता देखना। दूसरे की मूढ़ता देखने में कोई कठिनाई नहीं है। जहां नहीं होती वहां भी लोग देख लेते हैं। क्योंकि दूसरे को मूढ़ सिद्ध करने में बड़ा रस है, अहंकार की बड़ी तृप्ति है।

और अहंकार सबसे बड़ी मूढ़ता है क्योंकि सबसे बड़ा झूठ है। तुम नहीं हो, परमात्मा है। मैं नहीं हूं, परमात्मा है। मेरा होना सिर्फ एक भ्रांति है, एक सपना है, एक ख्वाब है जो अंधेरे में और नींद में देखा गया। और सुबह होते, सूरज के निकलते ही ऐसे खो जाएगा कि खोजे से नहीं मिलेगा। तुम तलाशते फिरोगे और पता भी नहीं चलेगा। एक न एक दिन हंसा तो जाएगा। और तब सारा जग वीरान पड़ा नजर आएगा।

कब्रों के मनाज़िर ने करबट न कभी बदली

अंदर वही आबादी, बाहर वही वीराना

कब्र में जो बस जाते हैं वे करवट भी नहीं लेते फिर, खयाल रखना। फिर करवट लेने की भी सुविधा नहीं रह जाती। अभी तो बहुत कुछ करने की सुविधा है, कर लो तो कर लो। कब्र में गए तो करबट भी न ले सकोगे।

कब्रों के मनाज़िर ने करवट न कभी बदली

अंदर वही आबादी, बाहर वही वीराना

अंदर बसे रहते हैं, मरे पड़े रहते हैं तो अंदर वही आबादी और बाहर वही वीराना।

एक गांव में गांव की म्युनिसिपल कमिटी विचार करती थी कि मरघट के चारों तरफ दीवाल उठाकर घेरा बना दिया जाए। मुल्ला नसरुद्दीन भी सदस्य था म्युनिसिपल कमिटी का। वह बीच में खड़ा हो गया, उसने कहा, यह बिल्कुल फिजूल है। मरघट पर दीवाल! क्यों पैसे खराब करना? इसमें कोई भी सार नहीं है। क्योंकि जो मरघट के भीतर हो गए हैं वे बाहर आना भी चाहें तो आ नहीं सकते। और जो बाहर हैं, जब तक जबरदस्ती न लाए जाएं, वे भीतर आएंगे नहीं। तो दीवाल बनाने की क्या जरूरत है? बाहरवाले तो बाहर भागे रहते हैं, वे तो मरघट से बचते हैं। और भीतर जो बसे हैं वे बस ही गए हैं। अब उनका कोई उपाय नहीं है बाहर आने का। तो दीवाल की जरूरत क्या है?

दीवाल के दो ही काम हो सकते हैं : या तो बाहर जो हैं उनको भीतर न आने दिया जाए, भीतर जो हैं उनको बाहर न आने दिया जाए। मरघट से कौन बाहर आता है? भीतर वही आबादी, बाहर वही वीराना! लेकिन मरघट में जाकर पता चलता है कि बाहर वीराना है। जहां कल तक जिंदगी समझी थी और जिंदगी के खूब सपने संजाए थे और जिंदगी के खूब रूप उठाए थे और बड़ी दौड़ें की थीं, बड़ी आपाधापी की थी। मरघट में गिरकर पता चलता है, अरे! वहां कुछ भी न था, सब वीराना था। जैसे सुबह जागकर रात का सपना वीरान हो जाता है। मगर तब तक तो बहुत देर हो चुकी। फिर पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत। जिनको जीते-जी मरघट दिखाई पड़ने लगता है उन्हें कुछ न कुछ करना पड़ता है।

बुद्ध अपने भिक्षुओं को मरघट भेज देते थे। जब पहले दीक्षा देते थे तो दीक्षा के बाद पहला काम यह था कि जाकर तीन महीने मरघट में रह आओ। यह भी अजीब बात थी। क्यों? क्योंकि तीन महीने ठीक से देख लो कि यह जिंदगी का सार क्या है। सुबह से सांझ तक मुर्दे आते हैं, रात भी मुर्दे आते हैं। दिन भी मुर्दे जलते हैं, रात भी मुर्दे जलते हैं। भिक्षु बैठा है, देख रहा है। दिन आते हैं, जाते हैं, मुर्दे आते रहते हैं, जलते रहते हैं।

कल इसी आदमी को बाजार में हंसते देखा था, परसों इसी आदमी के घर भीख मांगी थी, नरसों यह आदमी गाली दे रहा था किसी को। चले आ रहे हैं लोग। जब इसने परसों किसी को गाली दी थी तो इसे खयाल भी नहीं हो सकता था कि बस दो दिन और। कल इसके घर के सामने भिक्षा मांगी थी, इसने कहा था, कल आना; और आज यह खत्म हो गया। अब इसके घर जाने पर यह मिलेगा भी नहीं।

ऐसे भिक्षु बैठा है, जलती हुई लाशें देखता है। इसी देह की इतनी चिंता की थी, इतनी साज-संवार की थी, इतने सम्हाल-सम्हालकर चले थे कि कांटा न लग जाए। जरा-सा अंगारा छू जाता था, कितनी पीड़ा होती थी! और आज यही देह जलने लगी। और जो इसे ले आए हैं कंधे पर ये अपने प्रियजन हैं, भाई हैं, बंधु हैं, मित्र हैं। ये कहते थे कि हम जिंदगी-मरण में साथ देंगे। ये जल्दी से बांधकर ले आए हैं, आग पर चढ़ाकर वापिस भी लौट गए हैं। इनको और भी काम हैं दुनिया में, हजार काम पड़े हैं अभी। ये निपटारा कर गए हैं जल्दी।

तुमने देखा! किसी के घर में कोई मरता है तो घर के लोग तो रोने-धोने में लग जाते हैं, मोहल्ले के लोग जल्दी से अर्थी बांधने लगते हैं। जल्दी करो! जितने जल्दी हो सके, छुटकारा, इस आदमी से छुटकारा करो। कल तक इसे पकड़कर बैठे थे, आज इससे इतनी जल्दी हो गई है छुटकारे की; इतनी तेजी मची है कि जल्दी से पहुंचाओ। जितनी जल्दी खत्म हो उतना अच्छा। मुर्दे को कौन घर में रखे? रहेगा तो बदबू देगा। और रहेगा तो भय पैदा करेगा।

मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी से बात कर रहा था। उसकी बड़ी उत्सुकता थी कि क्या होता है मरने के बाद! वह अपनी पत्नी से कह रहा था, हम दो में से जो कोई भी मरे पहले, वह इतना वादा कर दे कि अकर कम से कम दरवाजा खटखटा देगा और आवाज देकर कह देगा कि हां मैं हूं। जिंदगी जारी रहती है।

दोनों राजी हो गए। फिर थोड़ी देर बाद सोचकर मुल्ला बोला कि एक बात लेकिन खयाल रखना, दिन में खटपटाना, रात में नहीं। पत्नी ने कहा, क्यों? मुल्ला ने कहा, रात में वैसे ही डर लगेगा। घर अकेला, और कोई भूत-प्रेत आकर दरवाजा खटखटाए! पर पत्नी ने कहा, मैं तुम्हारी पत्नी हूं, भूत-प्रेत नहीं। उसने कहा, अरे अभी है वह बात ठीक, मगर मरने के बाद कौन किसका पति, कौन किसकी पत्नी!

तुम जरा सोचो, तुम्हारी पत्नी ही तुम्हें मिल जाए मरने के बाद प्रेत होकर तो तुम ऐसे भागोगे कि लौटकर भी नहीं देखोगे पीछे। और यही पत्नी थी जिससे तुमने कहा था कि मरेंगे तो साथ, जिएंगे तो साथ। दुःख-सुख सब साथ-साथ उठाएंगे।

हम यहां जो बातें एक-दूसरे से कर लेते हैं, जो संबंध बना लेते हैं, कैसे झूठे हैं! मौत आ जाती है और हमारे सारे झूठों को उघाड़कर रख देती है।

एक दिन हंसा चलि बसै घर-बार बिराना हो

मैं क्या कहूं कि क्या थी उज़रा तेरी मुहब्बत

इक नख्ल मिल गया था सहराए-जिंदगी में

कूकी न इक कोयल, बोला न इक पपीहा

कोई हुआ न साथी राधा का बेकसी में

कुछ ढेर राख के हैं, कुछ अधजली-सी लकड़ी

आया था इक मुसाफिर सहराए-जिंदगी में

बस इतनी ही खबर छूट जाती है पीछे–कुछ ढेर राख के हैं, कुछ अधजली-सी लकड़ी। जरा मरघट पर जाकर तो देखो! यही छूट जाता है पीछे।

कुछ ढेर राख के हैं, कुछ अधजली-सी लकड़ी

आया था इक मुसाफिर सहराए-जिंदगी में

कोई मुसाफिर आया था जिंदगी में, बस इतना सब पीछे छूट गया है। जैसे किसी वृक्ष के नीचे कोई मुसाफिर ठहर जाता है, खाना बना लेता है, फिर चल पड़ता है। एक टूटी-फूटी हंडी पड़ी है, दो-चार ईंटें पड़ी हैं जिनका उसने चूल्हा बना लिया था, कुछ जली-अधजली लकड़ियां पड़ी हैं। बस, इतना चिह्न छूट जाता है पीछे। इससे पता चलता है कि कोई मुसाफिर आया था, वृक्ष के नीचे ठहरा था, बस।

जिंदगीभर में भी तो इतना ही चिह्न छूटता है, इससे ज्यादा क्या! इसको जिंदगी कहते हो? इसको जिंदगी कहना चाहिए? क्या यह उचित है, जिंदगी जैसा प्यारा शब्द इस व्यर्थ की श्रृंखला को देना? नहीं, ज्ञानी कहते हैं, नहीं।

निसि अंधियारी कोठरी दूजे दीया न बाती हो

इसको क्या खाक जिंदगी कहते हो! रात-दिन अंधेरा है।

निसि अंधियारी कोठरी दूजे दीया न बाती हो

न तो दीया है न बाती है, अंधेरा ही अंधेरा है।

बांह पकरि जम लै चलै, कोउ संग न साथी हो

और आज नहीं कल पकड़ लेंगे यमदूत और ले चलेंगे। न कोई संगी होगा, न कोई साथी होगा। सब पीछे छूट जाएंगे। सब दूर कभी देखे थे सपने, ऐसे मालूम होने लगेंगे। भरोसा भी आएगा कि कभी थे, कभी अपने थे; कभी संगी-साथी होने की बातें की थीं, एक-दूसरे को आश्वासन दिलाए थे। ऐसा लगेगा जैसे किसी सपने में देखी बातें हों, कि उपन्यास में पढ़ी कहानी हो कि कहीं कोई फिल्म देखी हो।

और हम कितना भरोसा दिलाते हैं एक-दूसरे को! यह भरोसा भी हम इसीलिए दिलाते हैं, नहीं तो जिंदगी एकदम खाली है। इन्हीं भरोसों से भरे रखते हैं। इन्हीं झूठे आश्वासनों से अपने को किसी तरह सम्हाले रखते हैं। क्या करे आदमी! किसी तरह जीना तो है! थेगड़े लगाते रहते हैं। झूठे आश्वासन, झूठे भरोसे, झूठे विश्वास एक-दूसरे को दिलाते रहते हैं, कि घबड़ाओ मत। तुम भी घबड़ा रहे हो, दूसरा भी घबड़ा रहा है लेकिन तुम कहते हो, घबड़ाओ मत, मैं तो हूं! मैं तुम्हारे साथ हूं।

ऐसा कहकर हम एक-दूसरे के घावों की मलहम-पट्टी करते रहते हैं। घावों को ढांकते रहते हैं। इससे घाव मिटते नहीं, यही घाव नासूर हो जाते हैं, यही घाव कैंसर बन जाते हैं। इन्हीं घावों में एक दिन आदमी डूब जाता है। इन्हीं मवादों में एक दिन आदमी डूब जाता है। जितने जल्दी तुम देख सको कि ये आश्वासन झूठे हैं उतना ही शुभ है।

बांह पकरि जम लै चलै कोउ संग न साथी हो

सदा से कहानियां यही कहती हैं कि बांह पकड़कर यमदूत ले जाते हैं। बांह पकड़कर क्यों? क्योंकि तुम जाना नहीं चाहते। मरते वक्त भी कोई जाना थोड़े ही चाहता है!

जबरदस्ती होती है, खींचातान करनी पड़ती है। यमदूत भी बिल्कुल छांट-छांटकर रखे जाते हैं, पहलवान किस्म के लोग–दारासिंग इत्यादि सब! उनका काम यही कि खींच-खींचकर ले जाएं। जाना कोई चाहता नहीं। मरते दम तक आदमी जोर से किनारा पकड़ता है; आखिरी क्षण तक किनारा पकड़े रहता है।

यह जो यमदूत खींचने की बात है, इसका यमदूतों से कोई संबंध नहीं है। न कहीं कोई यमदूत हैं, न कोई खींचनेवाला है। ये सिर्फ इस बात की खबर दे रहे हैं कि तुम इतने जोर से पकड़ते हो कि जब तक तुम खींचे न जाओ, तुम इस देह को छोड़ोगे ही नहीं। तुम मर भी जाओगे तो भी इसी देह में बने रहोगे।

इसलिए सारी दुनिया में देह को जल्दी दफना देने, आग लगा देने का उपाय है ताकि तुम, तुम्हारा मोह उससे लगा न रह जाए। नहीं तो तुम देह के आसपास चक्कर काटोगे। तुम्हारा मन उसमें फिर भी लिप्त रहेगा। इतने दिन का साथ एकदम से कैसे भूल जाओगे? आखिरी दम तक चेष्टा करोगे कि लौट आऊं।

कभी-कभी कुछ लोग लौट भी आते हैं; मरकर भी लौट आते हैं। मोह भयंकर होता होगा। यमदूतों को भी हरा देते हैं; बचकर निकल आते हैं; फिर से आ जाते हैं। कभी-कभी ऐसी घटना घट जाती है। इन लोगों का शरीर से लगाव भारी होता होगा; इतना भारी कि टूटते-टूटते भी नहीं टूट पाता। एकाध धागा जुड़ा रह जाता है तो फिर लौट आते हैं।

लोग बूढ़े हो जाते हैं, सब तरह से जिंदगी व्यर्थ हो जाती है, फिर भी जिए चले जाते हैं। अस्पतालों में देखते हो, लोग लटके हैं, ग्लुकोज दिया जा रहा है, होश में भी नहीं हैं, एक टांग ऊपर लटकी है, एक नीचे लटकी है, हाथ कहीं बंधा है, पैर कहीं बंधा है, होश में भी नहीं हैं, खाना भी इंजेक्शन से दिया जा रहा है, लेकिन फिर भी आशा लगी है : और जी जाएं।

एक बड़ी महत्त्वपूर्ण एतिहासिक घटना है, तिब्बत में घटी। भरोसा न आए ऐसी घटना है, मगर घटी। आदमी के मोह के संबंध में खबर देती है। लामाओं का एक आश्रम तिब्बत में है, उस आश्रम का यही नियम था कि जो भी मरे, आश्रम के नीचे ही पहाड़ की गहराइयों में बड़ी खंदकें थीं। उन खंदकों में मरघट था, वहां लाश को डाल देते थे अंदर। गुफाएं थीं, खोह थी। चट्टान हटाकर लाश को नीचे डाल देते थे, चट्टान फिर लगा देते थे।

एक आदमी मरा, वह पूरा मरा नहीं था, अधमरा था। अभी होश कुछ-कुछ चला गया था, लेकिन लोगों ने जल्दी की होगी। मरे आदमी को जल्दी विदा करने की फिक्र थी। उन्होंने उठा दिया पत्थर और लामा को डाल दिया नीचे। कोई घंटे-दो घंटे वह होश में आ गया। अब उस चट्टान के नीच से कितना ही चिल्लाए, आवाज बाहर न जाए। और आवाज अगर जाए भी बाहर तो क्या तुम सोचते हो, कोई चट्टान हटाएगा? घबड़ाएंगे लोग कि पता नहीं भूत हो गया, प्रेत हो गया, क्या हो गया! और चट्टानें रख देंगे ऊपर कि किसी तरह अंदर ही दबा रहे, अब बाहर न निकल आए।

अब यह आदमी बिल्कुल बूढ़ा था। और बड़ी मुश्किल में पड़ गया। भयंकर अंधकार! और वहां सैकड़ों लाशें सड़ चुकी थीं, उनकी भयंकर बदबू! भूख भी लगने लगी। चिल्लाता भी रहा तो और भूख लगने लगी। प्यास भी लगने लगी। तुम चकित होओगे जानकर, वह सड़ी हुई लाशों का मांस खाता रहा। और गुफा की दीवालों से जो आश्रम का नाली इत्यादि का गंदा पानी उतर आता था, उसको चाट-चाटकर पीता रहा। लाशों में जो कीड़े-मकोड़े पड़ गए थे वे भी खाने लगा। करेगा क्या? जिंदगी का मोह ऐसा है।

और बड़े आश्चर्य की बात है ….. और प्रार्थना करने लगा। बौद्ध भिक्षु! परमात्मा को कभी माना नहीं था, लेकिन अब प्रार्थना करने लग गया। ऐसी कठिनाइयों में लोग परमात्मा को मान लेते हैं। परमात्मा के सिवा अब कोई सहारा नहीं दिखाई पड़ता था उसे। और प्रार्थना क्या करता था? प्रार्थना ऐसी, जो कि बुद्ध-धर्म के बिल्कुल खिलाफ। जिंदगी भर बौद्ध भिक्षु रहा! प्रार्थना यह थी कि अब कोई आश्रम में मर जाए। क्योंकि जब कोई मरे तभी चट्टान हटे। न कोई मरे तो चट्टान हटनेवाली नहीं है। कोई मर जाए आश्रम में। सोचता था कौन मरे। और एक ही प्रार्थना चौबीस घंटे। काम भी दूसरा नहीं था कि कोई मरे। हे भगवान, किसी को मार। किसी को भी मार, मगर जल्दी कर। ज्यादा देर हो गई तो मैं मर जाऊंगा।

आदमी को खुद जिंदा रहना हो तो वह किसी को भी मारने को तैयार हो जाए। यही तो सारे जिंदगी की गलाघोंट प्रतियोगिता है। सब एक-दूसरे का गलाघोंट रहे हैं। उस आदमी पर दया करना। उसने कुछ गलत प्रार्थना नहीं की। कितनी ही गलत मालूम पड़े, कितनी ही हिंसात्मक मालूम पड़े।

पांच साल बाद कोई मरा। कहते हैं न, देर है अंधेर नहीं। परमात्मा ने भी खूब देर से सुनी, पांच साल लग गए! सरकारी कामकाज! फाइल पहुंचते-पहुंचते भी तो समय लगता है। पहुंची होगी जब तक प्रार्थना, पांच साल बाद कोई मरा। चट्टान हटी। लोग तो दंग रह गए। जब उन्होंने चट्टान हटाई तो वह बाहर निकला आदमी। उसे देखकर एकदम घबड़ा गए। पहचान भी नहीं आया। सारे बाल शुभ्र हो गए थे। और बाल इतने बड़े हो गए थे कि जमीन छू रहे थे। दाढ़ी के बाल जमीन छू रहे थे। आंखें उसकी खराब हो गई थीं बिल्कुल क्योंकि पांच साल अंधकार में रहा। भयंकर बदबू उसकी देह से आ रही थी क्योंकि मांस सड़ा-सड़ाया, कीड़े-मकोड़े, गंदा पानी, यही उसका आहार था।

हो सकता है जब साधना करता था ऊपर तो सिर्फ दुग्धाहार करता रहा हो, उपवास करता रहा हो, शुद्ध फलाहार करता रहा हो। ऐसी ऊंची-ऊंची बातें सूझती हैं जब सुविधा होती है। लेकिन जहां सुविधा न हो वहां कोई उपवास करे! भरे पेट लोग उपवास करते हैं, भूखे पेट लोग उपवास करते। गरीब आदमी का धार्मिक दिन आता है तो उस दिन हलुआ-पूड़ी बनाता है। अमीर आदमी का धार्मिक दिन आता है तो उपवास करता है। जैनी अकारण उपवास नहीं करते, धन है तो उपवास करना पड़ता है। धार्मिक दिन–उपवास करना पड़ता है।

अब यह आदमी तो भूखा मर रहा था और उपवास का सोचा ही नहीं पांच साल इसने। और इतना ही नहीं, जब वह बाहर निकला तो वह बहुत-से कपड़े साथ लेकर निकला। क्योंकि तिब्बत में रिवाज है कि जब कोई मर जाता है तो उसके साथ दो जोड़ी कपड़े भी रख देते हैं। तो उसने सब मुर्दों के कपड़े इकट्ठे कर लिए थे कि जब निकलूंगा…..आदमी का मन! और तिब्बत में यह भी रिवाज है, जब कोई मरता है तो उसके साथ दस-पांच रुपए भी रख देते हैं। उसने सब रुपए भी इकट्ठे कर लिए थे। एक पोटली में रुपए बांधे हुए था और एक पोटली में सारे कपड़े बांधे हुए था।

जब वे दोनों पोटलियां उसने बाहर खींची, लोगों ने कहा, यह क्या कर रहे हो? तुम अभी जिंदा हो? उसने कहा, मैं जिंदा हूं और भला-चंगा हूं। और यह पांच साल की मेरी कमाई है। एक पैसा नहीं छोड़ा है कहीं। सब ढूंढ डाला। काम भी नहीं था कोई दूसरा।

मर भी जाए आदमी, मुर्दाघर में भी पड़ा हो तो पैसा इकट्ठा करेगा। जिंदगीभर की आदतें ऐसी ही चली नहीं जातीं। फिर आदतों का सवाल परिस्थितियों से नहीं है, आदतों का सवाल मनःस्थितियों से है।

बांह पकरि जम लै चलै कोउ संग न साथी हो

गज रथ घोड़ा पालकी अरु सकल समाजा हो

इक दिन तजि चल जाएंगे रानी औ राजा हा

–सब छूट जाएगा। राजा भी जाएंगे, रानियां भी जाएंगी, हाथी, घोड़े, धन-दौलत, सब पड़ी रह जाएगी।

सेमर पर बैठा सुवना–जैसे तोता सेमर के झाड़ पर बैठा हो ….. लाल फर देख भुलाना हो–सेमर के लाल फूल को देखकर समझता हो कि यह फल है। लाल है, सुर्ख है, रसभरा है।

सेमर पर बैठा सुवना लाल फर देख भुलाना हो

मारत टोंट मुआ उघिराना फिरि पाछे पछिताना हो

–लेकिन सेमर का फूल, उस पर चोंच मारी, फल के लिए मारी थी लेकिन सिर्फ कपास उड़ गई, कुछ हाथ न लगा।

ऐसी यह जिंदगी है। जहां तुम फल देख रहे हो, सेमर का फूल है।चोंच मारोगे, फूल उघड़ जाएगा, कपास उड़ जाएगी, हाथ कुछ भी न लगेगा। पीछे बहुत पछताओगे। अभी से देख लो इस सेमर के फूल को। अभी से पहचान लो।

गुलर के तु मुनगा तू का आव समाना हो

और अपने को कुछ विशिष्ट मत समझो। इस जगत् में इतनी-इतनी योनियां हैं, इतने-इतने प्राणी हैं। इनमें कुछ अकड़ो मत कि मैं मनुष्य हूं, कुछ खास हूं। खास तो तुम तभी हो सकते हो जब तुम परम जीवन के सूत्र को पकड़ लो। उसके पहले तो तुम भी गूलर के भुनगे हो। तुम्हारी स्थिति भी कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं है।

अपने को विशिष्ट समझने की आदत छोड़ दो। वह अहंकार बाधा ही डालता है। उस अहंकार से कोई सहारा नहीं मिलता, अड़चन पड़ती है। अपने को भी तब तक कीड़ा-मकोड़ा ही समझो जब तक परमात्मा से मिलन न हो जाए। उसका मिलन ही तुम्हें वैशिष्टय देगा। और उसका मिलन तभी हो सकता है जब तुम विसर्जित हो गए हो, तुम जा चुके। तभी वह आता है।

जगजीवनदास बिचारि कहत सबको वहं जाना हो

–और सबको वहां जाना है, तैयारी कर लो। बिना तैयारी मत जाओ। धर्म वहां जाने की तैयारी है।

हम शिक्षा देते हैं लोगों को जीवन की। पच्चीस साल तक युवकों को पढ़ाते हैं विश्वविद्यालय में, किसलिए? ताकि वे ठीक से जी सकें। रोटी-रोजी कमा सकें, पद-प्रतिष्ठा पा सकें, सम्मानपूर्वक जी सकें। यह आधी है। मृत्यु के संबंध में क्या? उसकी शिक्षा कौन देगा?

पूरब ने दूसरी शिक्षा भी खोजी। अब तो पश्चिम के मनोवैज्ञानिक भी इसका विचार करने लगे हैं कि मृत्यु का भी शिक्षण होना चाहिए। आदमी को मरने की कला भी आनी चाहिए। जीने की कला आधी कला है। और आधी कला से आदमी आधा-आधा रह जाता है, द्वंद्व में रह जाता है। आधी कला और भी आनी चाहिए। उसी आधी कला को हम संन्यास कहते हैं कि मरने की कला भी सीख लो। जीने की कला भी सीखो और मरने की कला भी सीखो। जब दोनों कलाएं तुम्हें आ जाएंगी तब तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक पूर्णता का जन्म हुआ, तुम समग्र हुए, तुम सधे। तुम्हारे भीतर संतुलन आया, सम्यक्त्व पैदा हुआ। उसी सम्यक्त्व का नाम बोध है, समाधि है, संबोधि है।

जगजीवनदास बिचारि कहत सबको वहं जाना हो

जब जाना ही है तो तैयारी कर लो। जब उस यात्रा पर निकलना ही है तो ऐसे बिना तैयारी किए मत निकल जाना, कुछ कलेवे का इंतजाम कर लो, कुछ पाथेय जुटा लो।

क्या होगा पाथेय, जो मृत्यु के बाद साथ आएगा? जब देह जल जाएगी चिता पर, तुम्हारे साथ कौन जा सकेगा? नाम सुमिर मन बावरे! प्रभु का स्मरण तब भी साथ रह सकता है। उस स्मरण को आग नहीं जलाती। उस स्मरण को पानी नहीं डुबाता। उस स्मरण को नष्ट करने का उपाय ही नहीं है। वह अविनाशी है, अविनश्वर है। वही तुम्हारा स्वरूप है।

नाम बिनु नहिं कोउकै निस्तारा

–इसलिए खयाल रखो, परमात्मा के बिना किसी का भी निस्तार नहीं है। इसके पहले कि सब सूख जाए, तुम अपने जीवन-रस से परमात्मा की स्मृति को गहन कर लो।

कोई धड़कन है न आंसू न उमंग

वक्त के साथ ये तूफान गए

ये सब चले जाएंगे, इसके पहले इनका उपायोग कर लो। इसके पहले कि तूफान जाए, अपनी पताका उड़ा लो। इसके पहले कि यह हवा समाप्त हो जाए, अपनी नाव छोड़ दो। इसका उपयोग कर लो।

तलब के सहरा में चप्पे-चप्पे पै हैं मेरे नक्शे-पाके-मुह रें

अगर्चे मैं इस हविसकदे से गुज़र गया था मुसाफिराना

इतना ही खयाल रखो कि यह जो तृष्णा का मरुस्थल है इसमें तुम्हारे पैर के चिह्न तो छूटेंगे ही। बुद्ध के भी छूटते हैं, बुद्धुओं के भी छूट हैं। लेकिन बुद्ध के ऐसे छूटते हैं जैसे कोई मुसाफिराना ढंग से गुजर गया हो। पीछे लौटकर बुद्ध नहीं देखते; चिह्नों में जकड़े नहीं जाते। तुम तो एकेक पैर को ऐसे उठाते हो मजबूरी में! हर पैर को यमदूतों को आकर उठवाना पड़ता है। तुम तो कुछ छोड़ना ही नहीं चाहते, सब पकड़ रखना चाहते हो।

जवान आदमी जवान ही रह जाना चाहता है, बूढ़ा नहीं होना चाहता। बूढ़ा मरना नहीं चाहता। जो जहां है वहीं अकड़ जाना चाहता है, वहीं रह जाना चाहता है थिर होकर। और जगत् अथिर है। बदलना तो पड़ेगा। जो जन्मा है उसे मरना पड़ेगा। जो जवान है, बूढ़ा होगा।

इसकी तैयारी कर लो। तैयारी क्या है इसकी? इसकी तैयारी है, धीरे-धीरे अपने भीतर उतरो। धीरे-धीरे अपने भीतर शांत बैठो। धीरे-धीरे अंतरतम से परिचय बनाओ, वहां तुम साक्षी को पाओगे। वही साक्षी बचता है। फिर तो तुम्हारी लाश भी जब चढ़ायी जाएगी चिता पर, तो भी तुम साक्षी रहोगे।

मंसूर का जब सिर काटा गया तो वह हंस रहा था। किसी ने भीड़ में से पूछा कि मंसूर, हंसते क्यों हो? तो उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि तुम भी देख रहे हो मेरा सिर काटा जा रहा है और मैं भी देख रहा हूं कि मेरा सिर काटा जा रहा है। मेरी हंसी तुम्हारी हंसी से ज्यादा गहरी है क्योंकि तुम उसको मार रहे हो जो मैं हूं ही। तुम उसको मार रहे हो जो अपने आप ही मर जाता है; जिसको मारने की कोई जरूरत ही नहीं थी। इतनी मेहनत करने की आवश्यकता नहीं थी। तुम उसको मार रहे हो जिसको बहुत समय हुआ, मैं छोड़ ही चुका। तुम उस घर को गिरा रहे हो जिसका अब मैं वासी नहीं हूं, इसलिए मैं हंस रहा हूं। तुम मुझे तो छू भी न पाओगे।

कृष्ण ने कहा न! “नैनं छिंदतिं शस्त्राणि!’ उस भीतर छिपे हुए प्राण को शस्त्र छेद नहीं पाते। “नैनं दहति पावकः’। उस भीतर छिपी हुई आत्मा को, उस मुझको आग भी नहीं जला पाती। मगर कैसे उसकी पहचान हो?

कौन हमारा दर्द बंटाए कौन हमारा थामे हाथ

उनके नगर में जगमग, अपने देश में रात ही रात

कैसे? वहां तो सब जगमग है। वहां सब प्रकाश ही प्रकाश है। परमात्मा यानी प्रकाश और हम यानी अंधकार। अहंकार अंधकार है, प्रार्थना प्रकाश है। कौन हमारा हाथ थामे?

हम पुकारें। हम प्रार्थना की तरफ धीरे-धीरे-धीरे-धीरे झुकें। गुनगुनाते-गुनगुनाते आ जाएगी। आते-आते आ जाएगी। नाम सुमिर मन बावरे!

नाम बिनु नहिं कोउकै निस्तारा

और ध्यान रखना, किसी का निस्तार नहीं है।

जान परतु है ज्ञान तत्त तें मैं मन समुझि बिचारा

उसका स्मरण करने से ही आत्मदर्शन होता है, ज्ञान होता है; तत्त्व की प्रतीति होती है कि क्या है और क्या नहीं है। उसके नाम के उठने के साथ ही तुम्हारे भीतर मशाल जल जाती है।

मआल-ए-सोज़-ग़महा-ए-निहानी देखते जाओ

भड़क उट्ठी है शम्म-ए-ज़िंदगानी देखते जाओ

और जब उसके प्रेम में, उसकी प्रार्थना में, उसकी अभीप्सा में, उसकी वासना में भीतर की लौ भड़कती है–भड़क उट्ठी है शम्म-ए-ज़िंदगानी देखते जाओ। तो तुम्हारे भीतर से एक पुकार भी उठेगी। दूसरों को भी तुम बुला लोगे कि जाओ और देख लो; जो मेरे भीतर हुआ है वही तुम्हारे भीतर भी हो सकता है।

तुम हो आए हो तो शक्ल-ए-दर-ओ-दीवार है और

कितनी रंगीन मिरी शाम हुई जाती है

दिन की तो बात ही क्या कहो, रात भी बड़ी रंगीन हो जाती है। अंधेरा भी बड़ा ज्योतिर्मय हो जाता है।

तुम जो आए हो तो शक्ल-ए-दर-ओ-दीवार है और–तो सब बदल गया। दुनिया बदल गई। कारागृह मंदिर हो गया। कितनी रंगीन मिरी शाम हुई जाती है।

तब सब रंगीन हो जाता है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, धार्मिक व्यक्ति का सारा जीवन उत्सव के रंग से भरा होता है। धार्मिक जीवन का स्वाद ही उत्सव है, महोत्सव है। अगर ऐसा न हो तो समझना कि कहीं चूक हो गई है। उदास होने लगो तो समझना कि कहीं भटक गए। परमात्मा के साथ तो नृत्य है।

कहा भए जल प्रात्त अन्हाए …..

कुछ न होगा कि रोज-रोज सुबह उठे, ब्रह्ममुहूर्त में नहाए, इससे कुछ भी न होगा। ऊपर-ऊपर की बातों से कुछ भी न होगा, भीतर स्नान होना चाहिए। नाम सुमिर मन बावरे! यही तो भीतर के स्नान की कला है। ध्यान यानी भीतर का स्नान। उससे आत्मा नहाती है, स्वच्छ होती है।

कहा भए जल प्रात अन्हाए का भए किए अचारा

और कितने तरह के क्रियाकांडों में लोग लगे हैं। आचरण साध रहे हैं; ऐसा करना, वैसा करना, यह खाना, वह खाना, यह छोड़ना। कोई नमक छोड़े बैठा है, कोई घी छोड़े बैठा है। किसी ने कुछ, किसी ने कुछ। इतनी छोटी-छोटी बातें तुम जो कर रहे हो, इनसे क्या सार है? यह देह जिसमें घी जाता है, जल जाएगी; फिर चाहे घी डालो और चाहे न डालो। यह देह जिसमें नमक जाता है, मिट्टी में मिल जाएगी; फिर नमक डालो कि न डालो।

तुम्हारे आचरण देह से भीतर जाते नहीं। और जाना है देह के भीतर। पाना है देह के भीतर। खोजना है उसे जो देहातीत है। आचरण तो देह का ही होता है।

स्नान कर लिया, रामनाम चदरिया ओढ़ ली। बैठ गए, उपवास कर लिया एक दिन। कभी घी छोड़ दिया, कभी नमक छोड़ दिया।

कहा भए माला पहिरे तें का दिए तिलक लिलारा

माला भी डाल ली तो कुछ होगा नहीं; जब तक कि तुम उसकी माला के मनके न बन जाओ। और क्या हुआ अगर तिलक भी लगा लिया! ये सब बाहर के प्रतीक हैं, इन पर रुक मत जाना।

और यह मत सोचना कि जगजीवनदास कह रहे हैं कि नहाना बंद करो। क्योंकि ऐसे मूढ़ भी हैं। वे यही सोच लेते हैं कि अरे, बिल्कुल ठीक, कहा भए जल प्रात अन्हाए! तो छोड़ो-छाड़ो झंझट। ब्रह्ममुहूर्त में उठने की भी झंझट मिटी, नहाने की भी झंझट मिटी।

जगजीवनदास यह नहीं कह रहे हैं कि नहाना मत; इतना ही कह रहे हैं कि नहाना देह का नहाना है। और देह की स्वच्छता सुंदर है, अपने आप में ठीक है, मगर यह मत सोच लेना कि इतने से ही भीतर का स्नान हो गया। गले में माला डाली, ठीक है। स्मरण रखना, ऐसे उसके गले की माला तुम्हें बन जाना है। जैसे धागे में पिरो दिए हैं ये मनके, ऐसे ही उसके धागे में तुम पिरो जाना। वह सूत्रधार है, तुम मनका बन जाना। यह तुम्हें स्मरण दिलाती रहे माला। इतना मत सोच लेना कि माला पहन ली तो सब हो गया।

का दिए तिलक लिलारा–और तिलक लगा लिया उससे क्या होगा? लेकिन यह नहीं कह रहे हैं कि तिलक मत लगाना। तिलक तो प्रतीक है, प्यारा प्रतीक है। तिलक तो खबर देता है छठवें चक्र की, आज्ञाचक्र की।

तिलक तुम्हें याद दिलाता रहता है आज्ञाचक्र की, कि इस जगह पहुंचना है। काम-ऊर्जा को इस जगह लाना है। उसके नीचे पांच और चक्र हैं। तुम्हारी वासना की सारी शक्ति उठते-उठते-उठते-उठते दोनों भ्रूवों के मध्य में आ जाए, भ्रूमध्य में आ जाए। तिलक उसका प्रतीक है कि याद भ्रुदिलाता रहे। रोज तिलक लगाओगे, याद रहेगी। तिलक दिनभर लगा रहेगा, स्मरण दिलाता रहेगा। उसकी सुगंध, उसकी ठंडक तुम्हें याद दिलाती रहेगी कि ऊर्जा यहां आनी है, ऊर्जा यहां लानी है, सुमिरन यहां लाना है।

इसलिए उसको आज्ञाचक्र कहते हैं। क्योंकि जो भी चीज वहां पहुंच जाती है वह पूरी हो जाती है। वहां से जो आज्ञा निकलती है वह पूरी हो जाती है। जब तक तुमने परमात्मा को आज्ञाचक्र से याद नहीं किया तब तक याद बेकार है। वहां याद होनी चाहिए। जब वहां ध्यान पहुंचता है, ध्यान पूरा हो जाता है। वहां पहुंचते ही तुम साधारण नहीं रह जाते, तुम भाग्यविधाता हो जाते हो। तब तुम जो कहते हो वही हो जाता है। तुम जो बोलोगे वही हो जाएगा।

कहा भए व्रत अन्नहिं त्यागे का किए दूध-अहारा

कुछ होगा नहीं सिर्फ इतने से कि अन्न त्याग दिया, उपवास कर लिया, कि दूध का आहार कर लिया। और खयाल रखना, कि वे यह नहीं कह रहे हैं कि दूध कुछ बुरा है, मत लेना; कि उपवास बुरा है, मत करना। मगर उतने पर रुकना मत। आगे जाना है, और आगे जाना है। प्रतीक के आगे जाना है।

जैसे रास्ते के किनारे लगे मील के पत्थर होते हैं, जिन पर लिखा रहता है : “दिल्ली–पचास मील दूर।’ इनका उपयोग है। ये व्यर्थ नहीं हैं। मगर कोई यहीं बैठ जाए कि आ गई दिल्ली, लगा लिया छाती से पत्थर को, तो पागल है।

नक्शे का उपयोग है लेकिन नक्शा असलियत नहीं है। और इसका मतलब यह नहीं है कि नक्शे जला दो। नक्शे काम के हैं, मगर इसका यह भी मतलब नहीं है कि नक्शे ही बैठकर ….. बैठे हैं और मजा ले रहे हैं। नक्शे में कुछ मजा नहीं है, इस बात को खयाल रखना।

बाहर का सारा आचरण जब तक तुम्हें पार ले जाने में सहयोगी न हो रहा हो, तब तक व्यर्थ है। अगर पार ले जाने में सीढ़ी बन रहा हो तो बड़ा सार्थक है।

कहा भये पंचअगिन के तापे कहा लगाए छारा

भस्म लगाने से क्या होगा? अग्नि तापने से क्या होगा? लेकिन भस्म लगाने का अर्थ समझते हो? उसका अर्थ है : मिट्टी हूं, यह याद बनी रहे। मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी। इसके पहले कि मिट्टी मिट्टी में गिर जाए, मैं मिट्टी में कुछ खोज लूं जो मिट्टी नहीं है। मृण्मय में चिन्मय को खोज लूं।

इसलिए राख लगाता है साधु। वह यह कह रहा है कि बाकी सब राख है। मगर कुछ लोग हैं कि वे राख ही लगाकर मस्त हो गए हैं। बस, वे बैठे हैं राख लगाए। वे कहते हैं, जो करना था कर लिया। राख लगा दी। तुमने कभी देखा है, राख लगानेवाले साधु भी दर्पण रखते हैं। राख लगा रहे हैं और दर्पण? और श्रृंगार भी कर रहे होते तो समझ में आता था कि दर्पण सार्थक मालूम होता है। लेकिन राख लगा रहे हैं दर्पण रखकर! हद हो गई मूढ़ता की।

मैं एक दफा ट्रेन में यात्रा कर रहा था। एक साधु मेरे साथ डब्बे में थे। फट्टी लपेट रखी थी उन्होंने। काफी लोग उन्हें छोड़ने आए थे स्टेशन पर। बस, उनके पास एक टोकरी थी, उसमें दो फट्टियां और थीं। फट्टीबाबा ही वे कहलाते थे। उनकी बड़ी प्रसिद्धि! मेरे साथ वे ही थे और मैं था। मैं आंख बंद करके लेट रहा। उन्होंने अपनी टोकरी, जिसमें दो फट्टियां थीं, जल्दी से उठाई फट्टियां अपनी देखीं कि सब ठीक-ठाक! अब दो फट्टियां ही हैं, मगर सब ठीक-ठाक है? मतलब कोई चूक-चाक तो नहीं गया, कोई चोरी इत्यादि तो नहीं ले गया! फिर फट्टियों के नीचे कुछ नोट रखे होंगे। वे भी उन्होंने गिनती करके वापिस रख दिए।

और बार-बार मेरी तरफ देखते भी रहे कि मैं आंख बंद किए हूं, सो भी रहा हूं, मैंने उनसे कहा, आप बिल्कुल बेफिक्र रहो, मैं आंख बंद किए हूं। मैं देख ही नहीं रहा। आप चाहे नोट गिनो, चाहे फट्टियां गिनो, मैं देख ही नहीं रहा। आपको जो करना है आप करो। आपकी फट्टी, आपके नोट। मुझे क्या लेना-देना?

मैं तो बिल्कुल आंख बंद किए पड़ा हूं। न मैंने देखा न मैं देख रहा हूं।

तो बड़े हैरान हुए; थोड़े बेचैन भी हो गए। हर स्टेशन पर पूछते वे, भोपाल कब आएगा। मैंने उनसे कहा कि यह बोगी भोपाल ही कटनी है। इसलिए आप लाख उपाय करो, यह बोगी भोपाल के आगे नहीं जा सकती। आप घबड़ाओ मत, सुबह छह बजे भोपाल आएगा। आप बार-बार पूछो मत। मगर उनकी बेचैनी! तीन बजे रात मैंने उनको फिर देखा कि फिर उठकर वे पूछ रहे हैं। तब मैंने कहा, हद हो गई! भोपाल में ऐसा रखा भी क्या है? सोइएगा नहीं? न सोओगे, न सोने दोगे।

और पांच बजे ही से वे तैयार होने लगे। अब तैयारी करने को भी कुछ नहीं था। और जब मैंने उनको देखा कि जाकर वे आईने के सामने खड़े होकर फट्टी बांध रहे हैं, तब निश्चित मन में बड़ी दया उठी। यह तो दया योग्य स्थिति हो गई। ऐसा बांधा, फिर नहीं जंची तो फिर वैसा बांधा। तैयारी कर रहे हैं। वे लेनेवाले लोग आएंगे भोपाल पर तो वे अपनी तैयारी में लगे हुए हैं। और पीछे लौट-लौटकर मेरी तरफ भी देखते जाते हैं कि कहीं मैं देख तो नहीं रहा।

मैंने कहा, भाई, मैं तुमसे कह चुका, मैं देखता ही नहीं। आंख ही बंद रखता हूं। तुम्हें जो करना हो, करो। फट्टी तुम्हारी, देह तुम्हारी, दर्पण सरकारी, मैं बीच में कौन बोलनेवाला? तुम बांधो मजे से। जितनी बार खोलना है खोलो और बांधो। और जिस तरह तुम्हें बांधना है वैसा बांधो।

आदमी अद्भुत है। और आदमी का मन इतना मूढ़ है, इतना पागल है कि बाहर की व्यर्थ की बातों में बहुत ज्यादा रस ले सकता है। राख भी लगा सकता है और राख श्रृंगार बन सकती है। बस, चूक गए। राख का प्रतीक था, कि शरीर राख से ज्यादा नहीं है यह याद रहे, यह पहचान रहे!

वह जो आग जलाकर बैठ जाता है फकीर, वह इस बात का प्रतीक है कि आज नहीं कल आग में गिरना है, मौत करीब आ रही है। यह चिता है। अगर यह चिता की याद दिलाए तुम्हारे सामने लगी धूनी, तो सार्थक है। और अगर यह तुम्हारी नक्शे की ही पूजा बन जाए, कि हम तो धूनी लगाकर बैठेंगे; कि बिना धूनी के नहीं बैठ सकते…..। धूनी तुम्हारी पूजा बन जाए, आचरण बन जाए तो चूक हो गई; तो तुमने प्रतीक को सब कुछ समझ लिया।

कहा ऊर्धमुख धूमहिं घोंटें कहा लोन किए न्यारा

कहा ऊर्धमुख धूमहिं घोंटें कहा लोन किए न्यारा

–नहीं होगा कुछ लाभ–नमक छोड़ो, यह करो, वह करो।

कहा भए बैठै ठाढ़ें तें का मौनी किहे अमारा

कुछ नहीं होगा, खड़े रहो कि बैठे रहो। कि एक टांग पर खड़े रहो, कि सदा के लिए खड़े हो जाओ, कि सदा के लिए बैठ जाओ, कि लेटो ही मत कि सोओ ही मत, इन सबसे कुछ भी न होगा। ये सब प्रतीक हैं। वह जो आदमी खड़ा रहता है वह सिर्फ यह कह रहा है कि मैं होश सम्हालूं। ऐसा होश सम्हालूं, जैसे शरीर खड़ा है, ऐसा मेरा होश खड़ा हो जाए। कि मैं मूर्च्छित न रहूं। वह जो रीढ़ सीधे करने पद्यासन में बैठा है, वह यह कह रहा है, ऐसे मेरा भीतर चैतन्य बैठ जाए, पद्यासन जैसा स्थिर हो जाए। मगर भीतर तो चल रहा है सब पागलपन है बाहर पद्यासन लगा है तो कुछ सार नहीं है।

का पंडिताई का बकताई का बहु ज्ञान पुकारा

–कितना ही सीख लो शास्त्रों से, सब बकवास है।

गृहिनी त्यागि कहा बनबासा का भए तन-मन मारा

घर छोड़कर भाग जाओ जंगल में, कुछ सार न होगा। तन को मारो, मन को मारो, कुछ सार न होगा। यह वचन बड़ा क्रांतिकारी है। का भए तन-मन मारा–तन और मन को मारने से कुछ भी न होगा। ये रोग के लक्षण हैं। ये आत्मघाती आदमी के लक्षण हैं। ये विक्षिप्त आदमी के लक्षण हैं। तन और मन को मारना नहीं है, तन और मन के पार जाना है। इनको सीढ़ी बनाना है। यह तन मंदिर है परमात्मा का। इसमें परमात्मा छिपा है, उसे खोज लेना है। इस देह का कोई कसूर नहीं है। इस देह ने तुम्हारा कुछ बुरा नहीं किया है, इसको सताने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह देह तो तुम्हारी मित्र है।

प्रीतिविहूनि हीन है सब कछु भूला सब संसारा

यह वचन याद रखना, खूब रससिक्त है। हृदय में खुद जाए।

प्रीतिविहूनि हीन है सब कछु–यह सब तुम करते रहो लेकिन जब तक परमात्मा से प्रीति नहीं लग गई है, तब तक सब व्यर्थ है। और प्रीति लग गई तो सब सार्थक है। असली चीज प्रीति है। नाम सुमिर मन बावरे।

प्रीतिविहूनि हीन है सब कछु भूला सब संसारा

तेरी आंखों को ऐ दीवानी राधा, कौन समझाए!

झड़ी बांधे न सावन की, कि फागुन का महीना है

जो कोयल कूक उठती है तो दिल में हूक उठती है

धुआं होने नहीं पाता, कोई यूं भी सुलगता है

प्रीति जब सुलगे ऐसी कि जैसे कूक उठती है ऐसी हूक उठे; कि जैसे सावन की झड़ी लगती है ऐसे आंसुओं की झड़ी लगे। परमात्मा के लिए कोई रोए, पुकारे तो फिर सब सार्थक है। फिर मिट्टी भी छू दे ऐसा आदमी तो सोना हो जाती है। और जिसके जीवन में परमात्मा की प्रीति नहीं है वह सोना भी छू दे तो मिट्टी हो जाती है।

प्रीतिविहूनि हीन है सब कछु भूला सब संसारा

और इतनी ही बात भूल गई है, प्रीति भूल गई है, और सब याद है। बिना प्रीति के सब किए जा रहे हैं। कर्तव्य की तरह किए जा रहे हैं। पूजा भी कर आते हैं, आरती भी उतार लेते हैं, मूर्ति के सामने सिर भी पटक आते हैं और प्रीति का कुछ भी पता नहीं है।

और प्रीति ही असली चीज है। न जाओ कभी मंदिर, अगर हृदय में प्रीति है, मंदिर तुम्हारे पास आएगा। तुम जहां हो वहां मंदिर है। मत करो पूजा, तुम जो करोगे वही पूजा है। कबीर ने कहा है, उठूं-बैठूं सो परिक्रमा। अब कहां जाऊं मंदिर-वंदिर? यहीं उठता-बैठता हूं, वहीं परिक्रमा हो जाती है क्योंकि वही तो है। उसके सिवा कोई भी नहीं है। खाऊं-पिऊं सो सेवा। अब क्या भगवान को भोग लगाना! भीतर भी वही बैठा है। तो जो खाता-पीता हूं, उसी को भोग लग जाता है। कबीर ठीक कह रहे हैं। यही जाननेवालो की अनुभूति है।

मंदिल रहै कहूं नहिं धावै अजपा जपै अधारा

वह तुम्हारे भीतर बैठा है, तुम्हारे घर में बैठा है, तुम्हारे मंदिर में बैठा है। मंदिल रहै कहूं नहिं धावै। वह जाता ही नहीं तुमसे बाहर कहीं। तुम कहां जा रहे हो उसे खोजने? काबा, काशी, कैलास–तुम कहां जा रहे हो? वह तुम्हारे बाहर कभी गया नहीं, जाता नहीं। तुम्हारे भीतर ही विराजमान है। भीतर चलो।

अजपा जपै अधारा–और इसके जाप के लिए तुम्हें कुछ मंत्रों इत्यादि की जरूरत नहीं है, प्रीति काफी है। जस पनिहार धरे सिर गागर! कुछ याद करने के लिए दोहराने की जरूरत नहीं है कि बैठे हैं; राम-राम-राम-राम-राम जप रहे हैं। इतने लोग राम-राम जपेंगे तो कुछ राम की भी तो खयाल करो! उसका सिर भी घूमने लगेगा। उसका सिर फटा जा रहा होगा। भक्त उसकी जान ले रहे होंगे।

एक आदमी मरा, जो राम-राम खूब जपता था। जब मरा तो परमात्मा के सामने ले जाया गया। उसी दिन गांव की वेश्या भी मरी जिसने कभी राम का नाम जाप किया ही नहीं था। वेश्या को तो परमात्मा ने कहा, ले जाओ स्वर्ग और इन सज्जन को पहुंचाओ नरक। वह आदमी तो बहुत नाराज हुआ। उसने कहा, कुछ गलती हो रही है। यह क्या अन्याय है? मैं चौबीस घंटे राम-राम जपता था, माला फेरता था, और मुझे नरक भेजा जा रहा है? परमात्मा ने कहा, इसीलिए। तूने मुझे जिंदगी में एक मिनिट चैन न लेने दी। राम-राम, राम-राम! तू मेरी छाती खा गया। इस वेश्या ने मुझे कभी नहीं सताया।

तुम जरा खयाल करो, प्रीति …..! तुम क्या कहते हो ओंठों से, यह सवाल नहीं है, तुम्हारे हृदय की भाव दशा क्या है।

मंदिल रहै कहूं नहिं धावै अजपा जपै अधारा

गगन-मंडल मनि बरै देखि छवि, सोहै सबतें न्यारा

और तुम अगर शांत होकर, मौन होकर भाव ही भाव में स्मरण करोगे तो जल्दी ही तुम पाओगे, गगन-मंडल में, तुम्हारे भीतर के आकाश में उसकी ज्योति प्रकट होती है; उसकी छवि प्रकट होती है। सोहै सबतें न्याराऔर वह जो सबसे अद्वितीय है उसका दर्शन होता है। अदृश्य दृश्य होता है।

जेहि विस्वास तहां लौ लागिय तेहि तस काम संवारा

और उतने दूर तक ही तुम्हारी यात्रा होगी जितने दूर तक तुम्हारी श्रद्धा है। इसलिए श्रद्धा को ही खयाल में लेना। और बाकी सब बातें गौण हैं। नमक खाओ कि घी खाओ कि न खाओ, ये सब बातें गौण हैं। उतने दूर तक यात्रा होगी जितने दूर तक श्रद्धा है।

जेहिं विस्वास तहां लौ लागिय–बस, जहां तक श्रद्धा है वहां तक तुम जा सकोगे। अगर श्रद्धा पूर्ण है तो एक क्षण में यात्रा पूरी हो जाती है। पहले कदम पर ही मंजिल आ जाती है।

……तेहि तस काम संवारा

जगजीवन गुरु चरन सीस धरि छूटि भरम कै जारा

श्रद्धा कहां सीखोगे?

–जगजीवन कहते हैं, मैंने तो गुरु चरणों में सिर रखकर सीखी। मैंने तो अपने को वहां समर्पित करके सीखी।

श्रद्धा कैसे भीतर तुम्हारे उमगेगी? कोई जला हुआ दीया दिखाई पड़े। कोई खिला हुआ फूल दिखाई पड़े तो तुम्हें भरोसा आए कि मेरा फूल भी खिल सकता है, मेरा दीया भी जल सकता है। श्रद्धा तर्क की बात नहीं है, सत्संग का परिणाम है।

सत्संग करो। खोजो किसी ऐसे आदमी का साथ, जिसकी मौजूदगी में तुम्हें लगता हो कि कुछ ऐसा है, जो जानने योग्य है; कुछ ऐसा है जो पाने योग्य है। जिसकी मौजूदगी निमंत्रण बन जाती हो अज्ञात का। जो तुम्हारी आंखों में देखे तो तुम चल पड़ो किसी यात्रा पर। क्योंकि तुम्हें परमात्मा का कोई पता नहीं है, लेकिन जिसको पता हो उसकी आंखों में भी उस परमात्मा की झलक होती है। जिसने उसे देखा हो उसके पास बैठने में भी उसकी तरंगें तुम्हें तरंगायित करेंगी।

सत्संग एक अनूठा प्रयोग है जहां श्रद्धा जनमती है। श्रद्धा सत्संग का फल है।

जगजीवन गुरु चरन सीस धरि छूटि भरम कै जारा

सारे भरम से मैं छूट गया। सारे भ्रम से छूट गया। अपनी बुद्धि, अपना सिर, अपना सोच-विचार, अपना तर्क, सब गुरु के चरणों में रख दिया। वहां से श्रद्धा उमगी। और श्रद्धा के पंखों पर जो सवार हो गया वह चल पड़ता है; वह पहुंच जाता है।

नाम सुमिर मन बावरे कहा फिरत भुलाना हो

आज इतना ही।

 


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–21)

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गुरु तीर्थ है—(प्रवचन—इक्‍कीसवां)

प्यारे ओशो!

‘बलं वाव विज्ञानाद् भूय:; अपि ह शतं विज्ञानवतां एको बलवान

आकम्पयते। स यदा बली भवति, अथोत्थाता भवति,

उत्तिष्ठर परिचारिता भवति, परिचरर उपसत्ता भवति,

उपसीदर द्रष्टा भवति, श्रोता भवति मन्ता,

भवति बोद्धा भवति कर्त्ता भवति विज्ञाता भवति।

विज्ञान से बल श्रेष्ठ है, क्योंकि एक बलवान मनुष्य सौ विद्वानों को डराता है। बलवान होने पर ही मनुष्य उठकर खडा होता है; उठने पर वह गुरु की सेवा करता है; सेवा करने से वह गुरु के पास बैठने लायक बनता है;

पास बैठने से द्रष्टा बनता है, श्रोता बनता है, मनन करनेवाला बनता है, बुद्ध बनता है, कर्त्ता बनता है, विज्ञानी बनता है।

प्यारे ओशो! छांदोग्य उपनिषद के इस अजीब—से सूत्र का

आशय क्या है, यह हमें विशद् रूप से समझाने की अनुकंपा करें।

हजानंद! यह सूत्र निश्चय ही अजीब—सा मालूम होता है, अजीब है नहीं। है तो बहुत प्यारा; है तो बहुत अनूठा, अद्वितीय। छांदोग्य उपनिषद का जैसे सारा छंद इसमें समा गया है। जैसे सारा, हजार—हजार फूलों से निचोड़कर कोई इत्र इकट्ठा करे, ऐसा यह सूत्र है। पर अजीब—सा लगेगा, क्योंकि सत्य भाषा में आते—आते अजीब—सा ही हो जाता है। और हमारे पास कोई सत्य का अनुभव नहीं हो, तो शब्द ही हमारे हाथ लगते हैं। और शब्दों में बड़ा खतरा है। शब्द से ज्यादा खतरनाक कोई और चीज नहीं। समझे तो पहुंचे; चूके तो गिरे। खड़ग की धार पर चलने जैसा है।

तुम्हारी बात मैं समझा सहजानंद! क्योंकि सूत्र शुरू होता है: ‘बलं वाव विशानाद् भूय—विज्ञान से बल श्रेष्ठ है; और सूत्र अंत होता है— ‘विज्ञाता भवति —विज्ञानी बनता है। विज्ञान से बल श्रेष्ठ है—ऐसा प्रारंभ; फिर बल की महिमा और चर्चा। और अंततः बल लाता कहां है; —विज्ञाता बनाता है।

सो तुम उलझे होओगे। सोचा होगा यह कैसी बात है! फिर और भी बहुत बातें हैं, जो चिंता पैदा करें। क्योंकि एक बलवान मनुष्य सौ विद्वानों को डराता है। विद्वान तो हम उसे कहते हैं, जो जानता है। और बलवान—वह तो कोई बड़ी महत्ता की बात नहीं। कोई गामा पहलवान को बुद्ध के साथ तुलना करने बैठ जाये! तो यूं ठीक है कि एक गामा पहलवान सौ बुद्धों को हरा दे। मगर वह हराना ऐसे ही होगा, जैसे एक चट्टान गुलाब के फूल को दबा दे। इससे चट्टान कुछ गुलाब का फूल नहीं हो जाती, और न ही गुलाब के फूल पर जीत जाती है।

फिर बल की महिमा छांदोग्य उपनिषद गाता चलता है।’बलवान होने पर मनुष्य उठ खड़ा होता है। उठने पर गुरु की सेवा। सेवा से गुरु के पास बैठने की योग्यता। पास बैठने से द्रष्टा बनता है।’ तब एक मोड़ आया।

चले थे विज्ञान के विपरीत बल की प्रशंसा में, और बात कुछ और होने लगी! ‘द्रष्टा बनता, श्रोता बनता, मनन करनेवाला बनता, बुद्ध बनता, कर्ता बनता।’ और तब वर्तुल पूरा होता है कि ‘बलवान विज्ञानी बनता है।’ तो स्वभावत: लगेगा कि बात बेबूझ है। तर्क से बेबूझ लगेगी। तर्क भी सुलझाता नहीं, उलझाता है। तर्क को थोड़ा हटाकर सहानुभूति से इस सूत्र को समझने की कोशिश करो। एक—एक शब्द को बहुत ध्यानपूर्वक लेना, क्योंकि बारीक भेद हैं, जो ऊपर से दिखाई नहीं पड़ते। और इसलिए सदियों—सदियों तक भूलें चलती रहती हैं।

‘वितान’ और ‘विज्ञाता’ एक—सा अर्थ देते मालूम होते हैं। मगर उनमें एक—सा अर्थ नहीं है, विपरीत अर्थ है। विज्ञान है बहिर्यात्रा, और विज्ञाता होना है अंतर्यात्रा। विज्ञान का अर्थ है—वस्तु को जानना, और विज्ञाता होना है अंतर्यात्रा। विज्ञान का अर्थ है—वस्तु को जानना, और विज्ञाता का अर्थ है—जाननेवाले को जानना!

विज्ञान तो पदार्थ का होता है; और विज्ञाता होना—आत्मबोध है, परमात्म अनुभव है, सत्य साक्षात है। इसलिए ‘विज्ञान’ और ‘विज्ञाता’ शब्द को सबसे पहले स्पष्ट अलग—अलग कर लो। एक ही धातु से बनते हैं दोनों। भाषाकोष में एक ही अर्थ है दोनों का। इसलिए भूल हो सकती है। लेकिन यह सूत्र जिन्होंने कहा होगा, वे कुछ भाषा के जानकार ही नहीं; अनुभव—रससिक्त—उस परम विज्ञान की, विज्ञाता की अवस्था में रहे हुए व्यक्ति रहे होंगे।

तो पहला भेद : विज्ञान अर्थात साइंस, और विज्ञाता अर्थात धर्म। विज्ञान विचार पर निर्भर होता है, और विज्ञाता निर्विचार पर। विज्ञान में सोचना होता है; विज्ञाता होने में सोचने का अतिक्रमण करना होता है।

जब तक सोच—विचार है, तब तक मन में उपद्रव है, तब तक झंझावत, आधियां, तूफान; नाव डांवांडोल! किनारा मिलेगा कि नहीं मिलेगा! कि मझधार में ही डूब जाना होगा! यूं ही चिंता में क्षण बीतते। ऐसे ही संताप में समय गुजरता। अब डूबे, तब डूबे की हालत होती।

विज्ञाता का अर्थ है : किनारा मिल गया। आंधियां समाप्त हुईं। आंधियां ही नहीं—अब तो झील पर लहरें भी नहीं उठती। अब तो झील दर्पण बनी। ऐसी शाति, ऐसा मौन—कि सारा आकाश वैसा ही प्रतिफलित होता है, जैसा है।

विज्ञाता पंडित नहीं हैं, प्रबुद्ध है। विज्ञानी पंडित है—प्रबुद्ध नहीं। अल्वर्ट आइंस्टीन और गौतम बुद्ध का जो भेद है…..। यूं तो अल्वर्ट आइंस्टीन पदार्थ के संबंध में जितना जानता है, गौतम बुद्ध नहीं जानते। अगर पदार्थ के ज्ञान के संबंध में ही परीक्षण होना हो, तो आइंस्टीन ही जीतेगा। लेकिन अगर स्वयं के बोध के संबंध में कोई तुलना करनी हो, तो आइंस्टीन कहीं भी तराजू पर नहीं बैठेगा। और अंततः वही निर्णायक है।

मरते समय, आइंस्टीन ने दो दिन पूर्व ही कहा कि ‘मेरा जीवन अकारथ गया। मैं व्यर्थ में उलझा रहा। मैंने उसे नहीं जाना, जिसे जानना था।’ क्या जानना था! जाननेवाले को पहले जानना था।

अपने को ही न जाना और सब जानते रहे! घर में ही अंधेरा रहा, और सारी दुनिया में दीवाली मनाते फिरे! घर में ही उत्सव न हुआ और बाहर गुलाल उड़ायी, रंग उड़ाये! सब थोथा हो गया।

जब तक भीतर उत्सव न हो, तब तक बाहर के वसंत का क्या मूल्य है! और जब तक भीतर के फूल न खिले, तब तक आये मधुमास कि जाये—सब बराबर है। फूल खिले कि झरे—क्या करोगे! भीतर ही प्रकाश न हो, तो सूरज उगे कि डूबे, तुम तो अंधेरे में ही हो। उगता है सूरज तब भी, डूबता है तब भी! अंधेरी रात—तो भी अमावस। पूर्णिमा की रात—तो भी अमावस। तुम्हारे भीतर तो अमावस ही बनी रहती!

और मृत्यु के क्षण में अल्वर्ट आइंस्टीन को यह दिखाई पड़ना शुरू हुआ कि काश, मैंने इतनी ही ऊर्जा अपने को जानने में लगायी होती, तो आज मृत्यु के पार भी मेरे भीतर कुछ है, शायद उसे पहचान लिया होता। आज मृत्यु का भय न पकड़ता। आज मृत्यु का अतिक्रमण करने की मेरी क्षमता होती!

मरते समय एक ही भाव अल्वर्ट आइंस्टीन को था कि अगर फिर कभी जीवन मिले, तो उस सारे जीवन को अब धर्म की, रहस्य की खोज में लगा दूंगा। और सबसे बड़ा रहस्यों का रहस्य स्वयं के भीतर है—होगा भी; होना भी चाहिए। जाननेवाले को जानने में ही परम रहस्य है। इस भेद को तुम ठीक से समझ लो, तो सूत्र साफ होना शुरू हो जायेगा।

‘बलं वाव विज्ञानाद् भूय: —,ठीक कहता है छांदोग्य उपनिषद का ऋषि—’विज्ञान से बल श्रेष्ठ है।’ विज्ञान पदार्थ की जानकारी।’बल’ किसे कह रहा है वह! बल से भी तुम किसी पहलवान के बल को मत समझ लेना। बल से भी उपनिषद के ऋषि का अर्थ होता है—अंतऊर्जा।

साधारण आदमी ऐसा है, जैसे छेदवाला घड़ा। कितना ही भरो—भरता नहीं। भरो—और खाली हो जाता है। कुछ रुकता नहीं, कुछ टिकता नहीं।

एक सूफी फकीर के पास एक युवक ने आकर —कहा कि ‘बहुत—बहुत संतों के पास गया हूं लेकिन जिसकी तलाश है वह नहीं मिलता। अब आखिरी आपके द्वार पर द:सष्क दी है। बस हताश हो गया हूं बहुत लोगों ने आपकी तरफ इशारा किया। बड़ी लंबी यात्रा करके, बड़े दूर देश से आता हूं। निराश न भेज देना। और यह मेरा अंतिम प्रयास है। कुछ होना हो तो हो जाये। न होना हो, तो न हो। बस, मैं हारे गया हूं।’

उस फकीर ने कहा, ‘जरूर होगा। को नही होगा! लेकिन एक छोटी—सी शर्त पूरी करनी पड़ेगी। शर्त बहुत छोटी है।’

उस युवक ने कहा, ‘मैंने बडी—बड़ी शर्तें पूरी की। किसी ने योग सिखाया, सिर के बल खड़ा किया, तो’ खडा रहा। किसी ने मंत्र पढूवाए, तो वर्षों मंत्र दोहराता रहा। किसी ने उपवास करवाए, तो उपवास किये; भूखा मरा। जिसने, जो कहा, वही किया। ऐसी कोन—सी शर्त होगी, जो मैंने मूर्त नहीं की! तुम भी अपनी छोटी शर्त कह दो। जरूर पूरी करूंगा।’

उस फकीर ने कहा, ‘ये सब बड़ी—बड़ी बातें हैं। ये मुझे नहीं करनी हैं। बहुत छोटी शर्त है। अभी मैं कुंए पर रहनी भरने जा रहा हूं। बस, तू इतना करना कि जब मैं पानी भरूं, .तो बीच में बोलना मत। चुपचाप खड़े रहना। इतना अगर संयम तूने रख लिया, तो बस बहुत है। फिर आगे का काम मैं सम्हाल लूंगा। इतना तू कर ले।’

उस युवक ने सोचा कि मैं भी किस आदमी के पास आ गया हू! बडे तत्र साधे, मंत्र साधे, यत्र साधे। और यह पागल मालूम होता है। यह कुंए पर पानी भला, तो भर मजे से! मेरा क्‍या बनता—बिगड़ता है! मैं क्यों बोलूंगा?

लेकिन उसे पता न था। कुंए पर पानी भरना तो दूर, जब फकीर ने अपनी बालटी उठायी और रस्सी उठायी., तभी उसके भीतर झंझावात उठने लगे। लेकिन अपने को सम्हाला। याद रखा कि उसने कहा है कि बोलना ही मत।’मगर न रहा जाये! फिर भी अपने पर संयम रखा। पुराना संयमी था। —लंबा अभ्यासी था। .अपनी जबान को कसकर पकड़े रहा। होठों को बंद रखा। इधर—उधर देखा कि देखो ही मत। न देखोगे, न प्रश्न उठेगा। और थोडी ही दैर की बात ‘है।

कुंए पर फकीर पहुंचा। उसने बालटी में रस्सी बांधी। युवक यहां—वहां देखे। फकीर ने कहा, ‘यहां—वहा देखने की जरूरत नहीं। जो मैं कर रहा हूं उसको देख और चुपचाप खड़ा रह, बोलना मत। प्रश्न उठाना मत। इतनी शर्त तू पूरी कर देना, बाकी मैं सब पूरी कर लूंगा।’

युवक को देखना पड़ा। मगर उसकी बेचैनी तुम नहीं समझ सकते। उसकी मुसीबत तुम नहीं समझ सकते। जो देख रहा था, उसे देखकर बिना बोले रहा न जाता था।

फकीर ने रस्सी बांधी। बालटी कुंए में डाली। बड़ा हिलाया—डुलाया बालटी को। बडा शोरगुल मचाया कुंए में। पानी मैं डूबो रही बालटी, तो भरी हुई मालूम’ पड़ी। फिर खींची, तो खाली की खाली आयी! फिर दुबारा डाली’! संयम टूटने लगा युवक का। जब तीसरी बार बालटी डाली, युवक ने कहा, ‘ठहरो! संयम टूटने लगा युवक का। जब तीसरी बार बालटी डाली, ‘युवक ने कहा ठहरो! भाड़ में गया ब्रह्मज्ञान! इस बालटी में पेंदी ही नहीं है, और तुम पानी भरने चले हो! आखिर संयम की भी एक हद्द होती है! कब तक साधू? और यह संयम तो ऐसा है कि जन्म —कम बीत जायेंगे, पानी भरनेवाला नहीं। यह बालटी खाली रहनेवाली है। और तुमने मुझसे वचन लिया है कि जब तक पाना न भर लूँ बोलना मत। मैं तो बोलूंगा। और तुमसे कहे देता हूं कि तुमसे क्‍या खाक मुझे मिलेगा। अभी तुम्हें खुद ही यह पता नहीं है कि बिना पेंदी की बाल्टी में पानी भरने चले हो! तुम क्या मुझे ब्रह्मज्ञान दोगे!’

फकीर ने कहा, ‘बात खतम हो गयी। नाता—रिश्ता टूट गया। शर्त ही खतम हो गयी। जब तू छोटा—सा भी’ काम पुरा न कर सका। अरे बस, यह आखिरी बार था। तीन बार का मैंने तय किया था। मगर तू चूक गया। तीन ही बार पूरे न हो पाये और तुने संयम छोड़ दिया! रास्ते पर लग अपने। ऐसे आदमी से क्या होगा—जिसमें इतना धीरज नहीं! भाग। यह तो मुझे भी पता है कि बालटी में पेंदी नहीं है। मैं कोई अंधा हूं! बालटी में पानी नहीं भरेगा, यह भी मुझे पता है। यह तो तेरी धीरज की परोक्षा थी। मगर तू असफल हो गया। अब मैं जानता हूं कि क्यों तू अब तक हताश है। तू सदा हताश रहेगा। एक छोटा—सा काम न कर सका! भाग जा। अब यह शकल मुझे मत दिखा।’

युवक चला तो, लेकिन अब बड़ी बेचैनी में पड़ गया। बात तो ठीक थी। फकीर पागल नहीं था। कुछ बेबूझ था। सो फकीर सदा हुए हैं। फकीर, और बेबूझ न हो, तो क्या खाक फकीर! फकीर और कुछ रहस्यपूर्ण न हो, तो क्या खाक फकीर; पंडित होते हैं तर्क —शुद्ध; फकीर तो तर्क —शुद्ध नहीं होते; रहस्यमय होते हैं; पहेली की तरह होते हैं।

‘मैंने भी क्या चूक कर दी! जरा—सी देर और रुक जाता, जरा—सी देर की बात थी और पता नहीं यह आदमी क्या खाक जानता हो! जानता जरूर होगा। क्योंकि ऐसी परीक्षा मेरी कभी किसी ने कभी ली न थी।’ रातभर सो न सका। सुबह ही उठकर पहुंच गया। अंधेरे— अंधेरे पहुंच गया। फकीर के द्वार पर सिर पटककर पड़ रहा और कहा कि ‘मैं हटूंगा नहीं यहां से। मुझसे भूल हो गयी, मुझे क्षमा कर दो। एक अवसर और दो।’

फकीर ने कहा, ‘क्या भूल हो गयी?’ उसने कहा, ‘यही कि मुझे क्या लेना था! दिखता था मुझे कि बिना पेंदी की बालटी में पानी भरेगा नहीं। मुझे बोलना नहीं था। चुप खड़े रहता। वायदा किया था, पूरा करना था। मैं वायदे से स्मृत हुआ।’

फकीर ने कहा, ‘अगर इतना तुझे दिखाई पड़ गया कि बिना पेंदी की बालटी में पानी नहीं भरता, तो मैं तुझसे कहना चाहता हूं कि तेरे भीतर भी पेंदी नहीं है, इसलिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं होती। ऊर्जा इकट्ठी न हो, तो तू कैसे ब्रह्म को जानेगा? ब्रह्म को जानने के लिए ऊर्जा चाहिए—ऐसी ऊर्जा कि ऊपर से बह उठे, अतिरेक चाहिए।’

ऊर्जा के अतिरेक को बल कहा है छांदोग्य उपनिषद ने। ऐसी ऊर्जा चाहिए कि तुम सम्हाल न सको, कि तुम्हारे ऊपर से बहने लगे। इतनी ही ऊर्जा हो, तो ही सत्य को जाना जा सकता है। निर्वीर्य सत्य को नहीं जान सकते। तुमने कभी सुना न होगा कि कोई नपुंसक—और ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हुआ हो! वीर्यवान, ऊर्जा से भरे हुए लोग।

वृक्ष पर फूल कब खिलते हैं? जब वृक्ष के पास इतनी ऊर्जा होती है कि अब उमंग में लुटा सकता है, तब फूल खिलते हैं। अगर वृक्ष को ठीक खाद न मिले, ठीक जल न मिले, रोशनी न मिले—फूल न आयेंगे। फूल तो विलास है, वैभव है, ऐश्वर्य है। और इसलिए मुझे ‘ईश्वर’ शब्द प्यारा है।

‘ईश्वर’ शब्द ऐश्वर्य से ही बना है। ईश्वर को वे ही लोग जान पाते हैं, जिनके भीतर इतनी ऊर्जा होती है कि जैसे वृक्षों की ऊर्जा फूल बन जाती है। ऊर्जा जब न्यूनतम होगी, तो फूल तो दूर, पत्ते भी मुश्किल से पैदा होंगे। फूल तो बहुत दूर, पत्ते भी कुम्हलाए—कुम्हलाए होंगे। ऊर्जा अतिरेक होनी चाहिए।

पश्चिम के बहुत बड़े रहस्यवादी कवि विलियम ब्लेक का वचन महत्वपूर्ण है; उपनिषद के सूत्रों जैसा है। विलियम ब्लेक आदमी था भी कि उसे कवि नहीं, ऋषि ही कहना चाहिए। उसका सूत्र है. ‘एनर्जी इज डिलाइट—ऊर्जा ही आनंद है।’ पते की बात कही। ऊर्जा ही आनंद है। ऊर्जा की कमी ही दुख है। ऊर्जा की दीनता और क्षीणता ही पीड़ा है, नर्क है। क्योंकि फूल खिलते नहीं; सुगंध बिखरती नहीं। जैसे दीये में तेल चुक जाये, तो बाती बुझ जाये।

दीये में तेल चाहिए, बाती चाहिए, तो ज्योति जले। और जितना तेल हो, उतनी ही प्रगाढ़ता से ज्योति जले। और तुमने एक खूबी की बात देखी : हवा आती, अंधड़ आता—छोटे—मोटे दीये बुझ जाते हैं, जंगल में लगी आग और भी धू — धू करके जल उठती है। छोटे दीये बुझ जाते हैं; हवा का झोंका आया कि गये! लेकिन बड़ी आग और बड़ी हो जाती है!

तुम्हारे भीतर ऊर्जा हो, तो परमात्मा की ऊर्जा भी तुम्हारी ऊर्जा में संयुक्त हो जाती है। तुम्हारे जीवन में यूं आग लग जाती है, जैसे जंगल में आग लगी हो। छोटा—मोटा दीया हो, तो जरा—सा हवा का झोंका और उसे बुझा जाता है। इसे स्मरण रखना।

क्षुद्र ऊर्जा से नहीं चलेगा, विराट ऊर्जा चाहिए। आकाश की यात्रा पर निकले हो, ईधन तो चाहिए ही चाहिए। पंखों में बल चाहिए। इसलिए छांदोग्य ठीक कहता है. ‘बलं वा विज्ञानाद् भूय: —विज्ञान से बल श्रेष्ठ है।

क्या करोगे जानकर—गणित, भूगोल, इतिहास? क्या करोगे जानकर— भौतिकी, रसायन? इससे ज्यादा श्रेष्ठ है—अपनी जीवन ऊर्जा को संगृहीत करना; जीवन ऊर्जा को ऐसे संगृहीत करना कि तुम सरोवर हो जाओ—लबालब भरे हुए। तुममें कोई छिद्र हो न; जिससे ऊर्जा बहे न। तुम्हारा घड़ा जब पूरा भरा हो, ऐश्वर्य से भरा हो तो ईश्वर को जानने की क्षमता है।

मेरी बात लोगों को अखरती है, क्योंकि लोग समझते नहीं। लेकिन मैं तुमसे फिर दोहराकर कहना चाहता हूं कि ईश्वर को जानना इस जगत में सबसे बड़ा विलास है। यह धन का विलास कुछ भी नहीं। यह पद का विलास कुछ भी नहीं। ईश्वर को जानना सबसे बड़ा विलास है, क्योंकि वह परम ऐश्वर्य की अनुभूति है। और उस परम ऐश्वर्य की अनुभूति के लिये पहले तुम्हें ऊर्जा को बचाना होगा, संगृहीत करना होगा। और तुम व्यर्थ गंवा रहे हो!

तुम्हारी निन्यान्नबे प्रतिशत ऊर्जा कचरे घर में जा रही है। फूल उगें तो कैसे उगें। ज्योति जगे तो कैसे जगे? नृत्य हो तो कहां से हो? थके—मांदे तुम क्या नाचोगे? टूटे—फूटे तुम क्या नाचोगे? और जब नाच नहीं पाते, तो बहाने खोजते हो। कहते हो : आंगन टेढ़ा! ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा!’

अब आंगन के टेढ़े होने से कुछ नाचने में बाधा पड़ सकती है? अरे, जिसको नाचना है, अपान टेढ़ा हो कि सीधा हो, नाचेगा। अगर नाच है, तो आंगन….. आंगन को ही सीधा होना पड़ेगा। नाचनेवाले की ऊर्जा आंगन को सीधा कर देगी। आंगन का तिरछा होना कहीं नाचने वाले को रोक सकता है! लेकिन क्या—क्या बहाने हम खोजते हैं!

ऊर्जा की कमी है; पूछते फिरते हैं कि जीवन में दुख क्यों है! दुख का कारण सिर्फ इतना है कि सुख होता है ऊर्जा के अतिरेक से, महाअतिरेक से आनंद होता है। और तुम्हारे जीवन में बूंद—बूंदकर सब चुका जा रहा है और खयाल रखना बूंद—बूंद गिरता है, लेकिन गागर ही नहीं, सागर भी खाली हो जाती है। बूंद—बूंद गिरता रहे, तुमसे अलग होता रहे, बूंद—बूंद टपकती रहे, तो गागर तो खाली होगी ही—सागर भी खाली हो जाता है।

और तुम किस—किस तरह से अपनी ऊर्जा को व्यर्थ कर रहे हो! तुम्हारे पास जितनी इंद्रियां हैं, उन सबसे तुम दो तरह के काम ले सकते हो। एक तो ऊर्जा को भीतर ले जाने का; और दूसरा—ऊर्जा को बाहर फेंकने का। यही अंतर्मुखी और बहिर्मुखी का भेद है। बहिर्मुखी मूढ़ है।

दरवाजा तो एक ही होता है। उसी दरवाजे पर एक तरफ लिखा होता है—’प्रवेश’, ‘एंट्रेंस’, उसी दरवाजे पर दूसरी तरफ लिखा होता है—’एग्जिट’। उसी से तुम भीतर आते, उसी से तुम बाहर जाते। कोई दो दरवाजों की जरूरत नहीं होती। एक ही दरवाजा काफी होता है। तुम्हारी आंख से तुम्हारे देखने की ऊर्जा बाहर भी जाती है और भीतर भी आती है। जो समझदार हैं, वह आंख से ऊर्जा को इकट्ठा करता है। और जो नासमझ है, वह गवाता है। जो नासमझ है, आंख उसके लिए छेद हो जाती है। और जो समझदार है, आंख उसके लिए संग्राहक हो जाती है।

बुद्ध ने कहा है. ‘राह पर चलो तो चार कदम से ज्यादा मत देखना।’ क्यों? क्योंकि ज्यादा की क्या जरूरत है! चलना है, तो चार कदम देखना पर्याप्त है। जब चार कदम चल लोगे, तो चार कदम आगे दिखाई पड़ने लगेगा। चार कदम देखते—देखते तो हजारों मील की यात्रा पूरी हो जायेगी।

लेकिन तुम? —चार कदम छोड्कर सब देखते हो! वे चार कदम भर नहीं दिखते, जो चलते हैं। दीवाल पर लिखा है—’डोंगरे का बालामृत!’ पढ़ो। इधर फिल्म का पोस्टर लगा है—पढो! इधर कोई खोमचेवाला खड़ा है। उधर कोई स्त्री गुजर गयी। इधर किसी छैल—छबीले ने कोई फिल्मी धुन छेड़ दी, क्या—क्या हो रहा है चारों तरफ! तुम करो भी क्या! आंखें भागी फिर रही हैं; सब तरफ ऊर्जा भटक रही है। वैज्ञानिक कहते हैं कि आंख से मनुष्य की अस्सी प्रतिशत ऊर्जा बाहर जाती है।

फिर कान भी वही कर रहे हैं। तुम क्या सुनते हो? गलत हो, तो जल्दी सुनते हो! ठीक हो, तो सुनते नहीं। अरे, ठीक में कोई समाचार होता है? गलत में समाचार होता है। किसकी स्त्री किसके साथ भाग गयी इसमें कुछ समाचार होता है। मजा आ जाता है! पास सरक आते हैं लोग, जब ऐसी बातें होने लगती हैं! गुफ्तगू होने लगती है। फुसफुसाकर बातें करने लगते हैं। और जब दो आदमी फुसफुसाकर बातें करें तो जितने आदमी हैं सब सुनने लगते हैं। क्योंकि जब बात फुसफुसाकर हो रही तो जरा गहरी हो रही है। कोई बात गहरी हो रही है!

जिस बात को सबको सुनाना हो—फुसफुसाकर कहना; किसी के कान में कह देना। और उससे यह भी कह देना कि भैया किसी को बताना मत। कि कसम है तुम्हें मेरी, अगर किसी को बताया।’ बस, वह बात पूरे गांव में पहुंच जायेगी। वह हरेक के कान में पहुंच जायेगी!

कचरा सुन रहे हो! कचरा देख रहे हो! कचरा पढ़ रहे हो! और फिर कहते हो, ‘दुख क्यों है!’ कचरा खा रहे हो! कचरा पी रहे हो! तुमसे शुद्ध जल न पीया जायेगा। कोकाकोला चाहिए! अब यह कभी सोचोगे ही नहीं—यह कोकाकोला है क्या? इसमें है क्या? मगर सारी दुनिया पी रही है। और अखबारों में बड़े—बड़े पोस्टर छपे हुए हैं। अखबार पढ़ रहे हो; लोग कोकाकोला पी रहे हैं और लोग अखबार पढ़ रहे हैं, फिल्में देख रहे हैं, रेडिओ पर सुन रहे हैं! और सब जगह एक ही चर्चा है कि अगर जिंदगी का मजा लेना है तो कोकाकोला के बिना नहीं! ‘लिब्बा लिटिल हाट सिप्पा गोल्ड स्पॉट!’ नहीं तो जिंदगी बेकार गयी! किसी काम न आयी।

लोग क्या खाते हैं, क्या पीते हैं? क्या सुनते हैं? क्या देखते हैं? —अगर तुम जरा हिंसाब रखो, तो तुम्हें साफ दिखायी पड़ेगा. तुम क्यों दुखी हो।

जो सुनने योग्य हो, अगर वही सुना जाये; और जो देखने योग्य हो, अगर वही देखा जाये, तो तुम्हारे जीवन की नब्बे प्रतिशत ऊर्जा तो अपने—आप सुरक्षित हो जायेगी—अपने आप! तुम्हारे घर में कोई कचरा डाले, तो तुम इनकार करोगे लेकिन तुम्हारी खोपड़ी में कोई कचरा डाले तुम कहते हो—’ आइये, विराजिए, पधारिए! बड़ी कृपा की। ऐसे ही आया करते रहिए। कैसी—कैसी प्यारी खबरें ले आये हैं! धन्यवाद कि आप पधारे। कृत्यकृत्य हो गये, कृतार्थ हुए!’

फिल्में देखने जा रहे हो, जिनमें सिवाय हंगामे के और कुछ भी नहीं! पैसे भी खर्च करोगे; टिकिट खरीदने में धक्के—मुक्के भी खाओगे; पिटोगे—कुटोगे भी। मगर लोगों ने तय ही कर रखा है—सौ—सौ जूते खायें, तमाशा घुसकर देखें! और मजा यह है कि जब तुम सौ—सौ जूते खा रहे हो, तब तमाशा दूसरे देख रहे हैं! और तमाशा ही क्या है? जब तुम पर जूते पड़ रहे, वे तमाशा देख रहे हैं! जब उन पर जूते पड़ रहे हैं, तब तुम तमाशा देख रहे हो! और तमाशा ही क्या है!

छांदोग्य जिस बल की बात कर रहा है, वह वही ऊर्जा है, जिसको ब्लेक ने कहा, ‘अतिरेक ऊर्जा का आनंद है।’ जिसको बुद्ध ने कहा, ‘ऊर्जावान बनो।’ शक्ति को भीतर सरोवर बनने दो। यह खाली घड़ा शोभा नहीं देता। इस खाली घड़े को लेकर तुम परमात्मा के द्वार पर भी जाओगे, तो क्या मुंह दिखाओगे! कम से कम घड़ा तो भरा हो। इसलिए हमारे देश मे ‘पूर्ण—कलश’ स्वागत का प्रतीक बना। भरा हुआ कलश स्वागत का प्रतीक हो गया। लेकिन यह भीतर के भरे कलश की सूचना है।

‘बलं वाव विज्ञानाद् भूय:

—विज्ञान से बल श्रेष्ठ है।

अपि ह शतं विज्ञानवता एको बलवान आकम्पयते

—क्योंकि एक बलवान मनुष्य, एक ऊर्जावान व्यक्ति सौ विद्वानों को डराता है।’ यह कोई पहलवान के लिए नहीं कहा गया है। एक ऊर्जावान व्यक्ति सौ पंडितों को डराता है। विद्वान यानी पंडित; जिन्होंने उधार ज्ञान इकट्ठा कर रखा है। इसलिए तो पंडित सदा ज्ञानी के दुश्मन होते हैं—होंगे ही। क्योंकि ज्ञानी उनके धंधे को जड़ से ही काटे डालता है।

पण्डितों का धंधा क्या है? पण्डितों का सिक्का चलता है अंधों में। और ज्ञानी लोगों को आंखें देने लगता है। अब जिनका धंधा ही अंधों में चलता हो, वे कैसे बर्दाश्त करें कि कोई लोगों की आंखों की चिकित्सा करने लगे! आंखों की चिकित्सा हो गयी, तो उनका धंधा कैसे चलेगा? ये झूठे सिक्के कैसे चलेंगे?

इसलिए जीसस को पण्डितों ने सूली लगायी—वे रबाई थे, यहूदी पण्डित थे, जिन्होंने जीसस को सूली लगायी। लगानी पड़ी, क्योंकि उस एक व्यक्ति ने सारे यहूदियों के पण्डितों को कंपा दिया। सुकरात को एथेन्स के पण्डितों ने सूली लगायी, क्योंकि उस एक व्यक्ति ने पूरे एथेन्स के सारे तथाकथित थोथे ज्ञानियों के प्राण संकट में डाल दिये। बुद्ध को तुमने पत्थर मारे। महावीर के कानों में तुमने सींकचे ठोके।

तुम्हारा पण्डित सदा से ही प्रबुद्ध जनों का दुश्मन रहा है—रहेगा, सदा रहेगा। क्योंकि उन दोनों का धंधा साथ चल नहीं सकता। सुकरात को अदालत ने कहा था, ‘अगर तुम सत्य बोलना बंद कर दो, तुम चुप हो जाओ—तो हमें कोई एतराज नहीं। तुम जीओ—मजे से जीओ।’ लेकिन सुकरात ने कहा कि ‘ अगर मैं चुप हो जाऊं, तो फिर जीकर भी क्या करूंगा! सत्य बोलना ही तो मेरा धंधा है।’

अब यह ‘धंधा’ बड़ा खतरनाक है। ठीक ‘धंधे’ शब्द का ही उपयोग किया है सुकरात ने।’यह सत्य बोलना ही मेरा धंधा है।’ अगर सत्य बोलना ही सुकरात का धंधा है, तो जो असत्य पर जी रहे हैं—और असत्य पर बहुत जी रहे हैं—वे स्वभावत: सुकरात को जिंदा न रहने देंगे। जब उनके जीवन पर बन आएगी, उनकी आजीविका पर बन आएगी, तो इस आदमी को हटाना ही होगा। यह रास्ते का रोड़ा है। यह खतरनाक है। यह तो लोगों को बिगाड़ रहा है।

सुकरात पर जुर्म क्या थे? वे ही जुर्म जो मुझ रार हैं! वही के वही जुर्म हैं सदा। क्योंकि बात वहीं के वहीं है, आदमी बदलता ही नहीं। आदमी सीखता ही नहीं। आदमी हर बार घूमकर वहीं आ जाता है।

सुकरात पर जो जुर्म थे….. पहला जुर्म यह था कि सुकरात ऐसे सत्य बोलता है, जो परम्परा के विपरीत है। अब सत्य ने कोई कसम खायी है परम्परा के अनुकूल होने की। परम्परा दो कोड़ी की चीज है। सत्य को क्या पड़ी है कि परम्परा के अनुकूल हो। अगर परम्परा को कुछ पड़ी हो, तो सत्य के अनुकूल हो जाए। लेकिन सत्य किसी के अनुकूल नहीं हो सकता। सत्य तो सिर्फ अपने अनुकूल होता है। सत्य का तो अपना छंद होता है। सत्य स्वच्छंद होता है।

यह ‘छांदोग्य उपनिषद शब्द प्यारा है। जिन्होंने अपने छंद को पा लिया है, उनके वचन इसमें संग्रहीत हैं। सत्य तो स्वतंत्र होता है। उसका अपना ही तंत्र होता है। उस पर किसी और का शासन नहीं। वह अनुशासित नहीं होता किसी से; आत्मानुशासित होता है। तो पहला जुर्म था सुकरात पर कि तुम सत्य बोलते हो जो परम्परा के विपरीत है। सुकरात ने कहा, ‘लेकिन सत्य सदा परम्परा के विपरीत रहेगा। इसमें मेरा कसूर नहीं है। कसूर परम्परा का है।’

परम्परा होती है सड़ी—गली; परम्परा होती है अतीत की, मुर्दा। परम्परा होती है पण्डितों के हाथ में, पुराहितों के हाथ में। और सत्य होता है प्रबुद्धजनों के हाथ में। प्रबुद्ध तो कभी कोई एकाध होता है। पण्डितों का तो व्यवसाय है—परम्परागत, वंशानुगत।

दूसरा जुर्म था सुकरात पर कि ‘तुम युवको को बिगाड़ते हो’। निश्चित ही सुकरात जैसे व्यक्तियों की बातें युवको को ही जम सकती हैं, क्योंकि युवको में ही थोड़ी अभी ऊर्जा होती है, थोड़ी शक्ति होती है, थोड़ा कुछ कर गुजरने का अभी साहस होता है। थोड़ा अभियान, थोड़े अज्ञात की यात्रा अभी उनके लिए पुकारती है, चुनौती देती है। जैसे—जैसे आदमी बूढ़ा होने लगता है, शक्ति क्षीण होने लगती है, दीन होने लगता है, मृत्यु करीब आने लगती है—तो परम्परा के अनुकूल होने लगता है।

अकसर नास्तिक मरते—मरते आस्तिक हो जाते हैं। इससे तुम यह मत समझना कि जीवन के अनुभव ने उन्हें आस्तिक बना दिया। मरते—मरते आस्तिक होने लगते हैं, क्योंकि मरते—मरते पैर डगमगाने लगते हैं। जवानी में नास्तिकता बड़ी सहज है, क्योंकि अभी पैरों में बल होता है।

बुढ़ापे में मौत दरवाजे पर दस्तक देने लगती है। भय पकड़ने लगता है। लगता है. हो न हो, परमात्मा हो! कोन जाने परमात्मा हो! मैं इनकार करता रहा, पोछे किसी मुसीबत में न पडूं। अभी भी कुछ देर नहीं हुई। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाये, तो भूला नहीं। अभी भी याद कर लूं। माफी मांग लूं। क्षमा मांग l। मरते— मरते गंगा स्नान कर आऊं, काशी हो आऊं कि काबा हो आऊं! हाजी हो जाऊं—मरते—मरते हाजी हो जाऊं! कुछ कर लूं। अगर परमात्मा होगा, तो ठीक। न हुआ, तो कोई हर्जा नहीं; काा बिगड़ जायेगा। समझेंगे कि चलो, एक यात्रा कर आये, काशी की, कि कैलाश ‘की, कि काबा की। क्या बुरा—क्या बिगड़ गया! थोड़ा भौगोलिक ज्ञान .ही बढ़ जायेगा। नये —नये देश देखने को मिल जायेंगे। नये—नये लोग से मिलने को है। जायेगा। कुछ हानि तो होनेवाली नहीं है। और पकार परमात्मा हुआ, तो पास मे अपने एक प्रमाणपत्र भी हो जायेगा।

मरते—मरते आदमी आस्तिक होने लगते हैं।

सुकरात जैसे व्यक्तियों से तो युवा व्यक्ति, ही आकर्षित होते हैं। हां, जरूर कुछ वृद्ध लोग भी आकर्षित होते हैं। लेकिन वे वृद्ध वे ही होते हैं, जिनका शरीर बूढ़ा हो गया —होगा, लेकिन जिसकी आत्‍मा में अभी भी कवक होने की क्षमता है। जिनमें अभी भी दुस्साहस है। जो अभी भी अज्ञात की यात्रा पर निकल सकते हैं। जो अपनी छोटी—सो डोगी को लेकर अभी भी उस सागर में उतर जा सकते हैं, जिसका —दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता।

सत्य तो थोड़े दुस्साहर्सा लोगों की ही बात है। भीड़ तो असला में जीयैगी, क्योंकि भीड़ संत्त्वना चाहती है—सत्य नहीं चाहती। इसलिए एक भी सत्य को जाननेवाला व्यक्ति हजारों गिण्डतो के लिए संकट बन जाता है। और कैसा मजा है!

हिन्दू पण्डित मुसलमान पण्डित के खिलाफ। मुसलमान पण्डित ईसाई पण्डित के खिलाफ। ईसाई पण्डित यहूदी पण्डित के खिलाफ। यहूदी .पण्डित पारसी पण्डित के खिलाफ। लेकिन सुकरात जैसे व्यक्ति कै संबंध में ये सारे पण्‍डित एक साथ राजी हो जाते हैं। यह राजू भरी बात है!

मेरा विरोध करने में हिन्दू पण्डित। मुसलमान पण्डित, जैन पण्डित, बौद्ध पण्डित, सिक्‍ख पण्डित—सब राजी। एक बात पर कम से कम राजी हैं। मैं इससे ही खुश हूं। चलो, मेरे द्वारा कम से कम इतना भाईचारा तो बढ़ रहा है! चलो, मेरे एक मुद्दे पर इनकी दुश्मनी तो मिटी! चलो, इतनी बात पर तो कम से कम इन्होंने हत्या बढ़ाए; एक दूसरे की तरफ इकट्ठे हो हुए।

क्‍या राज है? इनकी एक दूसरे से जो दुश्मनी है, वह केवल ओपचारिक है। वह दो दुकानदारों की दुश्मनी है। वह प्रतिस्पर्धा है दुकानदारों की। लेकिन मेरे जैसा व्यक्ति तो उनकी दोनों की ही दुकान की कड़ी को काट रहा है; एक साथ काट रहा है। मेरे खिलाफ तो वे दोनो इक्कठे हो जायेंगे।

—यह छांदोग्य उपनिषद ठीक करता है : ‘क्योंकि एक ऊर्जावान व्यक्ति सौ विद्वानों को डराता है, आकंम्पित कर देता है ….।’ ‘आकंम्पित’ शब्द डराने से भी महत्वपूर्ण है। उनके प्राण थरथरा जाते हैं। भूकंप आ जाता है। उनका भवन गिरने लगता है। भवन ही उनका क्‍या है! ताश के पत्तों का है उनकी नाव डूबने लगती है। नाव ही कागज की है। खिलौने से खेल रहे हैं, और दूसरों को भी खिलौनों में भरमा रहे हैं।

क्या— क्या मजा चल रहा है धर्म के नाम पर! कैसे—कैसे खेल’ चल रहे हैं? और कितनी गंभीरता से चल रहे हैं।

रामलीला होती है : हर साल —होती रहती है! वही रामलीला— वही देखनेवाले लोग! हजारों बार देख चुके हैं; हजारों बार देख रहे हैं! एक—एक शब्द याद है। वह रामलीला मैं जो अभिनय कर रहे हैं, उनको भी शायद भल जाये। फार देखनेवालों को एक—एक शब्द याद है। पक्का पता है कि अब दशरथ जी क्या कहेंगे, कि अब राम जी क्या बोलेंगे, कि अब सीता मैया पर क्या गुजरेगी! सब पता है, फिर भी देख रहे हैं। और जानते है भलीभांति कि यह छोकरा जो राम बना है, कोन है। गांव का ही छोकरा है। मगर उसके पैर पड़ेंगे, फूल—मालाएं पहनाके। शोभायात्रा निकलेगी! रामचंद्र जी की बारात निकलेगी, और फूल—माला चढ़ायी जायेंगी और पैर छुए जायेंगे, और पैर धो— धोकर लोग पानी पीयेंगे। और सबको मालूम है—यह छोकरा कोन है। यही गांव का लफंगा है। यही इनकी छोकरियों को सताता है। मगर इस समय वे बातें छेड़ने की जरूरत नहीं। अभी मुकुट बांधे हुए राम बना बैठा है। अभी बात और है।

क्या अभिनय में पड़े हो? क्या खेल खेल रहे हो? बच्चों जैसे काम! जैसे बच्चे गुड्डा—गुड्डी का विवाह करते हैं, ऐसे तुम राम और सीता का विवाह करवा रहे हो।

मंदिरों में क्या हो रहा है? कृष्ण जी को झूला झुलाया जा रहा है! अब बेचारे कृष्ण जी कुछ कर भी नहीं सकते। अगर उनको न भी झूलना हो…..।

जैसे मुझे झूलना पंसद नहीं—बिलकुल पंसद नहीं! मुझे बचपन से ही झूले से नफरत है। अब पता नहीं कृष्ण जी को पसंद था कि नहीं। उनको चक्कर भी आ रहा हो, तो कोई बात नहीं! भक्त लोग झूला झुला रहे हैं, तो झूलना पड़ रहा है।

और भक्तों के हाथ में सब है। जब लिटा दें, तो लेट जाओ। जब उठा दें, तो उठ जाओ। जब पट खोलें मंदिर के, तो खुल जायें; जब बंदकर दें, तो बंद हो जायें! क्या खेलकर रहे हो!

मूर्तियां बना ली हैं। अपनी ही कल्पना के जाल हैं सब। कोई राम को पूज रहा है, कोई कृष्ण को पूज रहा है; कोई बुद्ध को, कोई महावीर को! पत्थर की मूर्तियां यूं पूजी जा रही हैं, जैसे इनकी पूजा से तुम्हें सत्य मिल जायेगा।

क्योंकि कोई पूछता है नहीं कि महावीर ने किसी की मूर्ति पूजी थी! यह पूछना शायद शिष्टाचार नहीं।

जैनियों की एक सभा में मैंने एक बार पूछ लिया। वे बहुत नाराज हो गये। मैंने उनसे पूछा कि ‘तुम महावीर की मूर्ति पूजते हो। तुम कम से कम यह तो पता लगाओ कि महावीर ने कभी किसी की मूर्ति पूजी थी? और जब महावीर ने ही नहीं पूजी; तो तुम महावीर की मूर्ति पूजकर महावीर के अनुयायी नहीं हो—दुश्मन हो। अगर महावीर के सच्चे अनुयायी हो, तो पूजो मत।’

महावीर ने तो शिक्षा दी है—अशरण— भावना…..। बड़ी अद्भुत शिक्षा! किसी की शरण ही न जाना। पूजने का तो सवाल ही नहीं उठता। क्योंकि तुम्हारे भीतर ही बैठा है परमात्मा, तुम किसको पूज रहे हो? खोजो—पूजो मत। आविष्कार करो अपने भीतर। जिसे तुम बाहर पूज रहे हो, वह बाहर नहीं है। वह तुम्हारे भीतर है। वह पूजा करनेवाले में छिपा है। खोजनेवाले में ही खोज का गंतव्य है। तुम्हारे जाननेवाले में ही वह छिपा है, जिसे जानना है।

तो महावीर ने कहा—अशरण— भावना। मगर बड़ा मजा है! महावीर की गइrतयां ही शतइrयां हैं सारे देश में!

बुद्ध ने कहा कि ‘मुझ पर मत अटक जाना। मुझसे इशारे ले लो। चलना तो तुम्हें होगा। बुद्ध तो केवल इशारे करते हैं।’ लेकिन बस, बुद्ध की जितनी मूर्तियां बनीं, किसी की भी नहीं! इतनी मूर्तियां बनीं कि अरबी में, उर्दू में ‘मूर्ति’ शब्द के लिए जो पर्यायवाची शब्द है, वह है ‘बुत’! बुत ‘बुद्ध’ का ही अपभ्रंश है, इतनी शतइrयां बनी कि बुद्ध शब्द ही बुत का पर्यायवाची हो गया, मूर्ति का पर्यायवाची हो गया।

सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियां बनीं। और बुद्ध ने इनकार किया था कि ‘मेरी बात को इसलिए मत मानना कि मैंने कहा है। मेरी बात को तब मानना, जब तुम जान ‘लो।’

और बुद्ध ने किसकी मूर्ति पूजी थी? किसी की भी मूर्ति नहीं पूजी थी। बुद्ध का कसूर ही यही था। अगर वे किसी की मूर्ति पूजे होते, तो आज भारत में हिंदू उनको अपने सिर पर धारण करते। उनकी भी पालकी निकलती! लेकिन हिंदुस्तान से बुद्ध को हिंदुओं ने उखाड़ फेंका। कारण क्या था? —क्योंकि बुद्ध ने न राम को पूजा, न कृष्ण को पूजा। बुद्ध ने किसी को पूजा ही नहीं। बुद्ध ने परंपरा को कोई सहारा न दिया। बुद्ध ने तो भीतर के सत्य को, नग्न सत्य को वैसा का वैसा रख दिया, जैसा था। लगे किसी को चोट, तो लगे। प्रीतिकर लगे तो ठीक, अप्रीतिकर लगे तो ठीक। सत्य को तो कहना ही होगा। स्वभावत: पंडित थरथराते हैं।

‘बलवान होने पर ही मनुष्य उठकर खड़ा होता है।’ ‘बलवान’ शब्द की जगह हमेशा तुम पढ़ना ‘ऊर्जावान’, तब तुम्हारे लिए इस सूत्र का अर्थ बिलकुल स्पष्ट हो जायेगा।’ऊर्जावान होने पर ही मनुष्य उठकर खड़ा होता है।’ तुम कहोगे, ‘यह भी क्या बात हुई! हम सब तो उठकर खड़े होते!’ यह कोई उठकर खड़ा होना नहीं। तुम्हारी चेतना तो सोयी हुई है; तुम भला खड़े हो गये हो, मगर तुम्हारी चेतना तो बिलकुल सोयी हुई है।

जब ऋषि उठकर खड़े होने की बात करते हैं, तो तुम्हारी चेतना के खड़े होने की बात करते हैं।

वैज्ञानिक कहते हैं—चार्ल्स डार्विन और उनके अनुयायी—कि बंदर से आदमी बना। और बनने में सबसे बड़ा कारण क्या था? सबसे बडा राजू क्या था? क्योंकि बंदर तो चारों हाथ —पैर से चलता है। आदमी दो पैर पर खडा हो गया। आदमी का खड़ा हो जाना दो पैर पर, विकास में सबसे बड़ा चरण सिद्ध हुआ। दो पैर पर खड़े हो जाने के कारण ही आदमी और बंदर में जमीन आसमान का अंतर हो गया। कहां बंदर और कहा आदमी!

आज तो कोई कहता भी है कि बंदर से आदमी पैदा हुआ, तो तुम्हें अपमानजनक मालूम होता है। लेकिन क्रांति घटी सिर्फ छोटी—सी बात से कि आदमी का शरीर साधा खड़ा हो गया।

सीधा खड़े होने से बहुत—से फर्क पड़ गये। सबसे बड़ा फर्क तो यह पड़ा कि जब जानवर, कोई भी जानवर, चारों हाथ पैर से चलता है, तो उसके मस्तिष्क में खून की मात्रा ज्यादा पहुंचती है। इसलिए खून की अधिक मात्रा पहुंचने के कारण सूक्ष्म तंतु विकसित नहीं हो पाते। खून के बहाव के कारण’ टूट—टूट जाते हैं। बनते भी है, तो टूट जाते हैं।

और तंतु बहुत सूक्ष्म हैं मस्तिष्क के। तुम्हारे इस छोटे—से सिर में सात करोड़ तंतु हैं। बड़े बारीक हैं, इतने बारीक हैं कि तुम्हारा बाल भी इतना बारीक नहीं। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर मस्तिष्क के तंतुओं को एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक रखा जाये, तो एक हजार तंतुओं को रखने से तुम्हारे बाल की मोटाई के बराबर तंतु बनेगा।

इतने सूक्ष्म तंतुओं को जरा ही खून की गति ज्यादा हुई कि वै टूट जाते हैं। उनके टूट जाने से मस्तिष्क विकसित नहीं हो पाया जानवरों का। आदमी खड़ा हो गया दो पैर से, इसका परिणाम सबसे बड़ा तो यह हुआ कि गुरुत्वाकर्षण के विपरीत होने के कारण उसके सिर तक खून कम पहुंचने लगा। स्वभावत:, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण नीचे की तरफ खींचता है वस्तुओं को, खून को भी नीचे की तरफ खींचता हें—मस्तिष्क की तरफ खून कम जाने लगा।

इसलिए तो तुम बिना तकिए के रात में सो नहीं सकते। अगर बिना तकिए के सोओगे, तो जागे ही रहोगे। क्योंकि खून इतना पहुंचता रहेगा मस्तिष्क में कि वह तुम्हें सोने नहीं देगा; जगाये रखेगा; तंतुओं में हड़बड़ी मचाये रखेगा। इसलिए तकिया चाहिए। तकिया तुम्हारे सिर को ऊंचा कर देता है, शरीर को सिर से नीचा कर देता है, खून कम पहुंचता है। खून कम पहुंचता हैं—तुम आराम से सौ पाते हो।

इसलिए मैं शीर्षासन के पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि शीर्षासन मस्तिष्क को निश्चित नुकसान पहुंचाता है। और मैंने अभी तक एक ऐसा शीर्षासन करनेवाला व्यक्ति नहीं देखा, जिसमें कोई प्रतिभा हो! बुद्ध बहुत तरह के देखे। खोपड़ी के बल खड़े हुए लोग बुद्ध ही हो सकते हैं। पहले तो बुद्ध होना ही चाहिए, तब वे खोपड़ी के बल खड़े होंगे। दूसरा : फिर खोपड़ी के बल खड़े होने से और बुद्धपन पैदा होगा! और जितनी ज्यादा देर खड़े होंगे, उतने बुद्ध होंगे।

हां, यह. बात जरूर है कि उनमें पशुओं जैसा बल आ सकता है। क्योंकि मस्तिष्क के प्रतिभा के तंतु तो टूट जायेंगे, तो लट्ठ ही लट्ठ बचेगा। बुद्धि तो गयी! तो हो सकता है शरीर के लिए तो स्वास्थ्यप्रद हो, लेकिन मस्तिष्क के लिए तो हानिप्रद है।

और यह तो पक्की बात है। बंदर से जूझकर देख लो, तो पता चल जायेगा। एक बंदर पर्याप्त है तुम्हारे बड़े से बड़े पहलवान को भी ठंडा कर देने के लिए।

विवेकानंद के पीछे एक बंदर पड गया था। बंदर भी अजीब होते हैं। कुछ जानवरों में खूबी होती है। बंदर और कुत्तों में खासकर—कि वर्दीधारियों के खिलाफ होते हैं। पुलिसवाला हो, पोस्टमेन हो, संन्यासी हो—वर्दी वाला दिखा कि कुत्ते भौंके, कि बंदर नाराज हुआ!

विवेकानंद चले जा रहे होंगे अपना लट्ठ लिए—वर्दीधारी! एक बंदर उनके पीछे हो लिया। उन्हें डरवाने लगा। विवेकानंद घबड़ाये। यूं तो बहादुर आदमी थे। पूरे —पूरे ‘क्षत्रिय’ तो नहीं, मगर ‘खत्री’ तो थे ही! अब तुम पूछोगे — ‘क्षत्रिय’ और ‘खत्री’ में क्या भेद होता है?

भेद भारी है। सच तो यह है ‘क्षत्रिय’ अब दुनिया में कोई नहीं; खत्री ही खत्री हैं। क्योंकि क्षत्रिय तो परशुराम ही खतम कर गये!

तुमने कहानी तो पढ़ी है कि परशुराम ने अठारह बार पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया। सारे क्षत्रिय मार डाले—अठारह बार, एक बार भी नहीं! मगर फिर भी क्षत्रिय तो हैं। तो ये क्षत्रिय कहां से आये? ये ‘खत्री’ हैं! खत्री का मतलब यह होता है कि ये पूरे —पूरे क्षत्रिय नहीं हैं।

उन पुराने दिनों में ऋषि—मुनियों से यह काम लिया जाता था। इसलिए तो तुमको लोग कहते हैं—’ऋषि—मुनियों की संतान!’ क्योंकि जब परशुराम ने सारे क्षत्रिय मार डाले तो अब क्या करना? स्त्रियों को तो मार नहीं सकते थे परशुराम। वह जरा उनको ‘हेटा’ काम मालूम पड़ा होगा—कि क्या स्त्रियों को मारना! तो ब्राह्मणियां तो बच गयीं। विधवाएं बच गयीं।

उस समय का यह नियम था कि अगर कोई विधवा या कोई भी स्त्री जिसको बच्चे पैदा न होते हों, किसी कारण से, वह ऋषि—मुनियों से जाकर प्रार्थना करे तो वे दयावश बाल—बच्चे पैदा करवा देते थे। उनका काम वही था, जो कि हम शिवजी के नंदी से लेते हैं! ऋषि—मुनि थे, समाज की सेवा ही उनका कार्य था। परोपकार के लिए ही जीते थे!

सो खत्री यानी ऋषि—मुनियों की संतान!

विवेकानंद खत्री थे; पक्के खत्री थे। डंडा लिए और अकड़कर चले जा रहे! वह डंडा—और अकड़ आदमियों को प्रभावित करे भला, बंदरों को नाराज कर देती है। एक बंदर पीछे हो लिया। वह डरवाने लगा। विवेकानंद को घबड़ाहट लगी! एकांत था। यूं तो ब्रह्मज्ञानी थे कि सब संसार माया है। मगर यह बंदर! बहुत मन में दोहराया. ‘ब्रह्म सत्य, जगत माया’, मगर यह बंदर —वह एकदम पीछे ही पड़ा हुआ था। वह करीब ही आता जा रहा था। सो वे भागने लगे। वहां कोई था भी नहीं देखनेवाला।

भागे, तो बंदर को और मजा आ गया! तो बंदर भी भागने लगा। दो—चार बंदर और झाड़ों से उतर आये। उन्होंने कहा, ‘अच्छा, अरे तमाशा जब हो रहा हो…..। विवेकानंद के तो छक्के छूट गये। रास्ता लंबा, पहाड़ी का रास्ता—हिमालय की यात्रा पर गये थे। यह नहीं सोचा था कि यह झंझट होगी। गये थे ब्रह्म—दर्शन को, और ये मिल गया बंदर!

एकदम से खयाल आया कि ऐसे भागने में तो झंझट है। और बंदर उतरते आ रहे हैं झाडों से! ऐसे अगर भागते रहे, तो थोड़ी देर में ये लोग मुसीबत कर देंगे। अब तो कुछ करना पड़ेगा। तो रुककर खड़े हो गये। लौटकर खड़े हो गये डंडा टेककर, कि अब जो कुछ होगा—होगा। कड़ी कर ली हिम्मत। संयम साधा। मंतर—तंतर पढ़ा होगा! स्मरण किया होगा कि हे परमहंस रामकृष्ण देव! अरे, अब तो काम आओ! ये दुष्ट बंदर, और अपने वाले—लाल मुंह वाले! काले मुंह बंदर होते, तो भी ठीक था—कि रावण के भक्त हैं, चलो, कोई बात नहीं! मगर अपने वाले, रामजी के सेवक, हनुमान जी के वंशज—ये इस तरह की हरकत कर रहे हैं! कलियुग बिलकुल निश्चित आ गया है!

मगर वे खड़े हुए डंडा टेककर, तो बंदर भी रुक गये, बंदर होते हैं नकलची, उन्होंने देखा—ये आदमी रुक गया, वे भी रुक गये। तब जरा विवेकानंद की हिम्मत बढ़ी। विवेकानंद जरा दो कदम उनकी तरफ बढ़े, तो बंदर जरा पीछे हटे। विवेकानंद जरा डंडा बजाकर उनके पीछे भागे, तो बंदर भागे।

तो विवेकानंद ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस दिन मुझे समझ में आया कि भागने से कोई सार नहीं। मुसीबत आये तो टिककर सामना ही कर लेना ठीक है, मुसीबत की चुनौती स्वीकार कर लेना ठीक है।

चार्ल्स डार्विन और उनके अनुयायी कहते हैं कि मनुष्य विकसित हुआ, क्योंकि खड़ा हुआ—शरीर की दृष्टि से। एक तो मस्तिष्क को खून कम मिला; उससे सूक्ष्म तंतु विकसित हुए।

दूसरा. उसके दो हाथ मुक्त हो गये—चलने के काम से। उन्हीं दो हाथों से सारी संस्कृति विकसित हुई है। फिर आदमी के दो हाथ मुक्त हो गये, तो कुछ भी करने की सुविधा हो गयी—चित्र बनाये, झूइrत बनाये, मकान बनाये, जयराम जी करे, हाथ मिलाये, गले मिले।

सारी संस्कृति, सारी सभ्यता उन दो हाथों का खेल है। अब वे चलने में ही उलझे रहते, तो यह विकास नहीं हो सकता था। फिर विकास होते—होते बात बढ़ती चली गयी—विज्ञान खोजा, यंत्र बने। आदमी के हाथ खाली थे, उनके लिए काम चाहिए था।

तो मनुष्य का सारा विकास शरीर के सीधे खड़े होने से है। लेकिन उपनिषद के ऋषि कहते हैं. अगर शरीर के सीधे खड़े होने से इतना विकास हुआ, तो जिस दिन तुम्हारी चेतना भी सीधी खड़ी हो जायेगी, उस दिन कितना विकास न होगा!

यह सूत्र बड़ा प्यारा है:

‘स यदा बली भवति अथोत्थाता भवति’

—बलवान होने पर मनुष्य उठकर खडा हो जाता है। चेतना उसकी खड़ी हो जाती है, जैसे ज्योति आकाश की तरफ उठने लगे, ऐसी उसकी चेतना ऊर्ध्वगामी हो जाती है। और जिसकी चेतना ऊर्ध्वगामी है—अथोत्थाता भवति—जो ज्योति की तरह ऊपर की तरफ बढ़ा जा रहा है, उसी के जीवन में ये सारी अद्भुत घटनाएं घटती हैं।

‘उत्तिष्ठन परिचारिता भवति।’

ऐसी जिसकी चेतना ऊपर की तरफ उठने लगी, वही गुरु के सान्निध्य को उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि गुरु वह है, जो ऊपर जा चुका। उससे संबंध उन्हीं का हो सकता है, जो स्वयं भी ऊपर की तरफ जाने लगें, कुछ तो समानता होनी चाहिए। कम से कम दिशा की समानता होनी चाहिए।

तुम नीचे की तरफ जा रहे हो तो फिर कैसे गुरु से मिलन होगा?

उठने पर वह गुरु की सेवा करता है। यह ‘सेवा’ शब्द तुम्हें किसी भांति में न डाल दे। यह जरा खयाल रखना।

‘उत्तिष्ठर परिचारिता भवति।’

इस देश में हमने ‘सेवा’ के बड़े और अर्थ लिए थे। जब से ईसाइयत देश में आयी, तब से सेवा का अर्थ बिलकुल विकृत हो गया। सेवा का जो सौंदर्य था, वही नष्ट हो गया। सेवा बड़ी और चीज हो गयी। इसलिए अच्छा हो कि दो शब्दों का प्रयोग अलग — अलग करो — ‘परिचर्या’ और ‘सेवा’।

‘परिचारिता भवति।’

वह गुरु की सेवा में संलग्न हो सकता है—जिसकी चेतना उठकर खड़ी हो गयी।

हम इस देश में सेवा उनकी करते थे, जो हमसे ऊपर हैं। ईसाइयत ने सेवा का एक नया रूप इस देश में प्रवेश करवाया. सेवा उनकी करनी, जो हम से नीचे हैं। सेवा करनी है दरिद्र की, दीन की, बीमार की, दुखी की। सेवा करनी है कोढ़ी की, केंसर के मरीज की, सेवा करनी है—अनाथों की, विधवाओं की, वृद्धों की। कुछ बुराई नहीं इस सेवा में। लेकिन यह सेवा सामाजिक घटना है। यह सेवा धार्मिक घटना नहीं है।

इसलिए मैं कलकत्ता की मदर टेरेसा को कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं मानता। धर्म से क्या लेना—देना है! सामाजिक सेवा है। अच्छा काम है। ठीक है किसी अनाथ बच्चे को पाल लेना। बुरा काम तो निश्चित ही नहीं है। अच्छा काम है। लेकिन इससे कुछ धर्म नहीं होनेवाला है।

धर्म तो तब घटता है, जब तुम उसके चरण पकडते हो, जो तुमसे ऊपर है। जो तुमसे नीचे है, उसके चरण पकड़ोगे, इससे तो अहंकार ही बढ़ेगा। जब तुमसे जो ऊपर है, उसके चरण पकड़ोगे, तो अहंकार गिरेगा।

जो तुमसे ऊपर है, वही तुम्हें ऊपर की तरफ ले जा सकता है। इसको परिचर्या कहें हम। छांदोग्य कहता है :

‘क्ष—त्ति ष्ठन् परिचारिता भवति—

जिसकी चेतना उठकर खड़ी हो गयी, वह गुरु की सेवा करता है। गुरु की!

सेवा तो हम इस देश में सिर्फ गुरु की करते थे, और किसी की नहीं। सेवा गुरु की ही हो सकती है।’गुरु’ शब्द का अर्थ होता है, अंधकार को मिटानेवाला। सेवा उसकी ही करनी है, जिसका अंधकार मिट गया हो, ताकि हमारा अँधकार मिट सकै। अरे, उस दीये के करीब आओ, जो जल चुका है, ताकि तुम्हारी बुझी ज्योति, तुम्हारा बुझा दिया, तुम्हारी बुझी बाती भी सुलग उठे।

‘सेवा करने से वह गुरु के पास बैठने योग्य बनता है।’ क्या लाभ होगा गुरु की सेवा का? —उसके पास बैठने की योग्यता आयेगी। समर्पण से योग्यता आती है। गुरु के पास बैठना इस जगत का अभूततम अनुभव है, अपूर्व अनुभव है।

‘परिचरन् उपसत्ता भवति।’

उपसत्ता—सिर्फ पास बैठना ही नहीं। जब तुम गुरु के पास बैठते हो, तो किसी अर्थों में गुरु की सत्ता से आच्छादित हो जाते हो; उसकी आभा से मंडित हो जाते हो। उसकी तरंगों में डूब जाते हो। जैसे कोई नदी में स्नान करता है, शीतल जल में, तो शीतल हो जाता है। ऐसे ही गुरु के पास भी एक शीतल उर्जा है। वह स्वयं शीतल हुआ है। वह स्वयं शांत हुआ है, मौन हुआ है—कि उसके पास एक सरोवर है। तुम उसमें डुबकी लगाओ। यही गंगा—स्नान है। यही वस्तुत: तीर्थ—स्नान है।

गुरु के पास होना ही तीर्थ में होना है। और गुरु को जिसने पा लिया उसने तीर्थंकर को पा लिया।

उसकी सत्ता आच्छादित करने लगती है तुम्हें। जैसे कि तुम निकलोगे—रात रानी के फूल खिले हों, उनके पास से—सिर्फ पास से गुजर जाओगे या थोड़ी देर खडे हो जाओगे, तो तुम चकित होओगे। दूर भी निकल आये, फिर भी तुम्हारे वस्त्रों के साथ लिपटी हुई रातरानी की गंध चली आयी है। घर भी पहुंच गये, लेकिन गंध की कोई स्मृति तुमको अब भी आच्छादित किये हुए हैं, .अब भी तुम्हारे नासापुटों को भरे हुए है।

ऐसे गुरु के पास जो बैठेगा, वह गुरु की सत्ता से आच्छादित होता है।

‘उपसीदर द्रष्टा भवति—,

और पास बैठने से द्रष्टा बनता है।’ उपसीदन् ‘शब्द से ही उपनिषद बना है। उपसीदन् यानी पास बैठना।

यह जानकर तुम हैरान होओगे कि उपसीदन् शब्द से उपनिषद निर्मित हुआ। उपनिषद का अर्थ है : गुरु के पास बैठकर जो पाया, पास बैठ—बैठकर जो मिला। कभी बोलने से मिला। कभी न बोलने से मिला। कभी गुरु को देखने से मिला; कभी गुरु के पास आंख बंद करने से मिला। कभी गुरु के उठने से मिला। कहना कठिन है।

मगर गुरु के पास होने पर अनेक—अनेक रूपों में मिलता है। अनेक—अनेक तरह से सँग बैठता है, संगीत बैठता है। तार छिड़ने लगते हैं वीणा के।

कुछ शब्द इसी के जैसे हैं।’उपासना’ —उपासना का भी वही अर्थ होता है—पास बैठना; उप— आसन। तुम अगर सोचते हो कि तुम जाकर मंदिर में और परमात्मा की उपासना कर रहे हो, तो तुम गलती में हो। जब तक तुम जीवित गुरु के पास न बैठोगे—उपासना का अर्थ ही न जानोगे। वहा तो पत्थर की मूर्ति है। उसके पास बैठ—बैठकर तुम भी पत्थर हो जाओगे। पत्थर हो ही गये हो।

इस देश में जितने पाषाण हैं, शायद कहीं और न होंगे। क्योंकि पत्थरों के पास बैठकर और होगा क्या! तुम भी पत्थर जैसे ही कठोर हो जाओगे। तुम्हारे भीतर से भी करुणा खो जायेगी, प्रेम खो जायेगा। रस सूख जायेगा। जरा सोच समझकर बैठना—किसके पास बैठते हो। क्योंकि जिसके पास बैठोगे, वैसे ही हो जाओगे।

सदा अपने से ऊपर को खोजना। और खयाल रहे : मन चाहता है—सदा अपने से नीचे को खोजना। क्योंकि जब तुम अपने से नीचे आदमी के पास बैठते हो, तो तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है कि ‘अहा, मैं कितना बड़ा!’ इसलिए राजनेता चमचों से घिरे रहते हैं, ‘चमचों’ का अर्थ है : जिनके पास बैठकर उनको लगता है कि मैं कितना महान! छोटे—छोटे आदमी, कीड़े—मकोड़ों की तरह उनके आसपास घूम रहे हैं; खुशामद कर रहे हैं। तो उनको रस आता है।

अहंकार की इच्छा यही होती है कि सदा अपने से छोटे को खोजो। क्योंकि छोटे के सामने तुलना में तुम बडे मालूम होते हो।

और गुरु के पास बैठना यूं है, जैसे. ऊंट पहली दफे हिमालय के पास. आये! इसलिए अकसर ऊंट पहाड़ों के पास नहीं पाये जाते; मरुस्थलों में पाये जाते हैं! उन्होंने भी खूब चुना है. मरुस्थलों में रहते हैं, तो वहां पहाड़ मालूम होते हैं! स्वभावत: मरुस्थल में ऊंट ही सबसे ऊंची चीज है। उससे ऊंचा और क्या!

जब ऊंट पहाड़ के पास आता है, तब उसको बेचैनी होती है, अड़चन होती है। पहले तो वह कहता है——पहाड—वहाड़ कुछ नहीं; सब कल्पना है; सब झूठ है। पहले तो इनकार करता है, खंडन करता है, विरोध करता है। क्योंकि उसके अहंकार को चोट लग रही है।

गुरु के पास आकर भी अड़चन खड़ी होती है। आकर भी लोग चूक जाते हैं। एक सज्जन ने मुझे लिखा है कि ‘मैं आपको अपने मित्र की तरह मानने को राजी हूं!’

बड़ी कृपा! मुझे कोई अड़चन नहीं। यह भी मेरा सौभाग्य! मैं तो इसको भी सौभाग्य मानता हूं कि जब कोई मुझे अपना शत्रु भी मान लेता है। यह भी क्या कम! कुछ तो माना। उपेक्षा तो न की।

चलो बड़ी कृपा कि मित्र की तरह मुझे मानने को तैयार हो। लेकिन चूक जाओगे। मुझे कुछ हर्ज न होगा, मगर तुम्हें हर्ज हो जायेगा। उपासना न हो पायेगी।

और मित्र ही मानना है, तो कहीं भी मिल जायेंगे मित्र। इतनी दूर आने की क्‍या जरूरत? मित्रों की कोई कमी है! यार—दोस्तों की कोई कमी है! एक खोजो हजार मिलते हैं। मत खोजो, तो तुम्हें खोजते हुए चले आते हैं!

इतने दूर—वें सज्जन कलकत्ता से यहां आये हैं। बड़ा कष्ट किया। कलकत्ते में कोई मित्रों की कमी है? लेकिन उन्होंने ऐसा लिखा है, जैसे मुझ पर बड़ी कृपा कर रहे हैं; अनुकंपा कर रहे हैं!

बड़ा दयाभाव प्रकट किया है कि ‘आपको मित्र— भाव में स्वीकार कर सकता हूं!’ लेकिन उनको शायद खयाल भी न हो, शायद चेतना में उनके बात भी न हो कि यह उपासना को इनकार करना है।

मैं तो राजी हूं—जिस भाव में स्वीकार करो। मेरा क्या बनता—बिगड़ता है! मित्र तो मित्र! शत्रु तो शत्रु! कुछ नहीं, तो कुछ —नहीं! न मेरा कुछ खोता है, न मुझे कुछ मिलता है। न मुझे कुछ लेना, न मुझे कुछ देना। जो कुछ होना है, तुम्हारा है।

उपासना शब्द का अर्थ मंदिर की पूजा नहीं है। वह भी गुरु के पास बैठना है। और वही उपवास शब्द का भी अर्थ है। उपवास का भी अर्थ होता है, पास निवास करना, पास वास करना। वह भी गुरु के पास ही हो सकता है।

‘अनशन’ उपवास, नहीं है। भूखे मरना उपवास नहीं है। हां, गुरु के पास ऐसी तल्लीनता से बैठना कि न भूख याद रहे, न प्यास याद रहे’। भूख भूल जाये, प्यास भूल जाये। कुछ भी याद न रहे। शरीर भी भूल जाये, यूं बैठने का नाम उपवास है। गुरु के पास यूं बैठने का नाम उपवास है। और ऐसी उपासना में, ऐसे उपवास में जो सुन पड़ेगा, जो समझ आ जाएगा, जो किरण तुम्हारे प्राणों में उतर जायेगी, वही उपनिषद बन जाती है। उपनिषद का अर्थ है, पास बैठकर जो पाया।

‘उत्तिष्ठर परिचारिता भवति परिचरर उपसत्ता भवति उपसीदर द्रष्टा भवति।’

और जो पास बैठेगा, उसे आंख मिलती है; वह द्रष्टा हो जाता है। उसे नजर मिलती है देखने की—अपने को देखने की। और सब देखने की नजर तो तुम्हारे पास है। बस, अपने को देखने की नजर नहीं है। और सब तो तुम देख लेते हो, अपने से चूक जाते हो!

‘गुरु के पास बैठने से द्रष्टा बनता है, श्रोता बनता है।’ ये बहुमूल्य शब्द हैं।’ श्रोता’ का अर्थ इतना ही नहीं होता है कि तुमने सुन लिया। सुनते तो सभी हैं, मगर सभी श्रोता नहीं होते। सुनते सभी हैं, सभी ‘श्रावक’ नहीं होते।

सुन तो कोई भी लेता है, जिसके पास कान हैं। लेकिन एक कान से गयी बात, और दूसरे कान से निकल जाती है! अगर तुम पुरुष हो तो, एक कान से जाती है, दूसरे कान से निकल जाती है! अगर स्त्री हो, तो दोनों कान से जाती—और मुंह से निकल जाती है! मगर निकल जाती है! रुकती नहीं, अटकती नहीं, ठहरती नहीं।

ठहर जाये—हृदय में उतर जाये। और हृदय में तभी उतर सकती है, जब तर्क से न सुनी जाये, वितर्क से न सुनी जाये, विवाद से न सुनी जाये, जब संवाद घटित हो, जब संगीत बजे, तब शिष्य और गुरु के हृदय एक साथ धडकते हैं; जब उनके बीच कोई भेद नहीं रह जाता, जब अभेद सधता है—तब व्यक्ति श्रोता बनता है, सुनता है, देखता है; पहली बार देखता है। और हिंदी में अनुवाद ठीक नहीं किया तुमने। तुमने लिखा सहजानंद, ‘मनन करनेवाला बनता है।’ नहीं, ‘मता’ शब्द ठीक है। वह तुम देखो। खयाल करो मूल में।

‘उपासीदर द्रष्टा भवति श्रोता भवति मता भवति।’ सुननेवाला नहीं बनता, श्रोता बनता है। देखनेवाला नहीं बनता, द्रष्टा बनता है। मनन करनेवाला नहीं बनता, मता बनता है। फर्क क्या है?

मनन तो सभी करते हैं, लेकिन मनन हमेशा किसी और चीज का किया जाता है—किसी विषय का किया जाता है। दर्शन तो सभी को होता है, लेकिन किसी और चीज का होता है। श्रवण तो सभी करते हैं। कान हैं तो सुन लेते हैं, आंख हैं, तो देख लेते हैं। मन है, तो मनन कर लेते हैं। लेकिन यह कुछ और बात है।

द्रष्टा—श्रोता—मता—बाहर से इसका संबंध नहीं है। आंख भीतर मुड़ जाये—तो द्रष्टा। श्रवण भीतर मुड़ जाये—तो श्रोता। और मनन भीतर मुड़ जाये—तो मंता यह अंतर यात्रा है।

और जब यह तीन घटनाएं घटती हैं, तो इन तीन घटनाओं का इकट्ठा जो अर्थ है, वह है—बुद्ध।’बुद्ध बनता है— बोद्धा भवति।

और जो बुद्ध बन गया, उसके जीवन में पहली दफा कर्त्तव्य पैदा होता है— ‘कर्ता भवति।’ बड़ा अनूठा सूत्र है। पूरा विज्ञान आ गया—जीवन क्रांति का। जीवन रूपांतरण की सारी सीढ़ियां आ गयीं और बड़े क्रम से आयीं, बड़ी व्यवस्था से आयीं।

तुम भी कर्म करते हो, लेकिन तुम कर्ता नहीं हो। तुम्हारा कर्म असल में कर्म नहीं कहना चाहिए—उपकर्म कहना चाहिए; एक्शन नहीं —रिएक्शन।

किसी ने गाली दी, तो तुमने गाली दी। इसको कर्म नहीं कहना चाहिए। यह प्रतिकर्म है। न वह गाली देता, न तुम गाली देते। उसने गाली दी, तो उसकी प्रतिक्रिया हुई तुम्हारे भीतर। तुमने भी गाली दी। और उसने प्रशंसा की—तुम्हारे भीतर प्रतिक्रिया हुई; तुमने भी प्रशंसा की। मालिक वह है। उसने चाबी चलायी। उसने बटन दबायी, तुम्हारा पंखा बन्द हो गया। तुम मालिक नहीं हो। इसलिए तुम कर्ता नहीं हो। हां, क्रिया हो रही है, मगर क्रिया तो बिजली के पंखे से भी होती है। तुम बिजली के पंखे को कर्त्ता नहीं कह सकते।

तुम बटन दबाओ, और बिजली का पंखा कहे कि ‘आज नहीं! आज तो छुट्टी का दिन है। कि आज तो जवाहरलाल का जन्मदिन है। झूला झूले जवाहरलाल! आज हम काम— धाम करेंगे नहीं। नहीं, तुम बटन दबाते हो, पंखे को चलना ही पड़ता है।

कोई तुम्हें गाली दे और तुम कहो कि ‘आज नहीं भाई। आज छुट्टी पर हैं। कल आना।’ तो कुछ मालकियत पता चलेगी। उसने गाली दी, तुम भनभना गये। भूल ही गये छुट्टी—वुट्टी। उठा लिया डंडा। याद ही नहीं रही कि आज छुट्टी का दिन है, कि आज विश्राम करने की तय की थी, कि आज सोचा था—अनहद में विश्राम करेंगे! और यह उपद्रवी आ गया।

तुम कर्त्ता नहीं हो, प्रतिकर्त्ता हो।

बुद्ध को किसी ने गाली दी। बुद्ध ने सुना और कहा कि ‘अगर बात पूरी हो गयी हो तो मैं जाऊं! क्योंकि मुझे दूसरे गांव पहुंचना है। लोग प्रतीक्षा करते होंगे।’

गाली देनेवालों ने कहा कि ‘ हमने गालियां दी हैं। यह कोई बात नहीं!’

बुद्ध ने कहा, ‘तुम्हारी तरफ से गालियां होंगी। मेरी तरफ से तो बात ही है। तुमने कहीं, मैंने सुनी। लेकिन मुझे इसमें कुछ रस नहीं है।

लोगों ने कहा, ‘यह क्या बात कह रहे हैं आप! हमने ऐसी कठोर गालियां दीं। आपको कुछ रस नहीं!’

बुद्ध ने कहा, ‘अगर रस का मजा लेना था, तो दस साल पहले आना था। तब मेरी तलवार खिंच जाती। तब तुम्हारी गर्दन जमीन पर पड़ी होती। तब यहां लहू बह जाता। मगर बड़ी देर करके तुम आये। अब मैं अपना मालिक हूं। अब तुम्हारी गाली देने से मैं परिचालित नहीं होता।

‘अभी पिछले ही गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आये थे। और मैंने उनसे कहा, मेरा पेट भरा है। मैं तुमसे पूछता हूं : उन्होंने मिठाइयों का क्या किया होगा?’

एक आदमी ने भीड़ में से कहा, ‘क्या किया होगा! घर ले गये होंगे। बच्चों को बांट दी होंगी।’

बुद्ध ने कहा, ‘वही तो मुझे तकलीफ हो रही है, कि अब तुम क्या करोगे! तुम गालियां लाये, मैं कहता हूं मैं लेता नहीं। मेरा पेट भर चुका। अब तुम क्या करोगे? ले जाओ भाई! बच्चों को बांट देना। पत्नी को दे देना। भाई बन्धुओं को बांट देना! मैं तो नहीं लेता। तुम देते हो, यह तुम्हारी मस्ती। धन्यवाद! मगर मैं लेता नहीं। और जब तक मैं न लूं तुम मुझे कैसे दे सकते हो! मालिक हूं मैं अपना।

यह सूत्र कहता है. पहले व्यक्ति द्रष्टा बनता—गुरु के पास बैठकर। श्रोता बनता, मन्ता बनता, फिर बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता। यह त्रिकोण पूरा हो गया कि बुद्धत्व घटित हो जाता है। और तब कर्त्ता बनता है। सिर्फ बुद्ध ही कर्त्ता होते हैं।

और जो कर्त्ता बन गया, वही विज्ञानी है। उसने ही जानने योग्य जो है, उसे जाना। उसने अपने को जाना। अपने को जाना, तो सब जाना।

सहजानंद, मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम्हें यह सूत्र अजीब लगा। क्योंकि विज्ञान के विरोध से शुरू होता है—और विज्ञानी की प्रशंसा पर पूर्ण होता है!

मगर विज्ञान है—पर को जानना। और विज्ञाता होना है, स्व को जानना। विज्ञान है, साइंस; विज्ञाता है धर्म। और यह बीच की सारी सीढ़ियां समझने योग्य हैं—बहुमूल्य हैं।

मगर हम अपने ही ढंग से समझते हैं तो हमें कीमती से कीमती बातें भी अजीब सी लगने लगती हैं। हमारी भी मुसीबत है।

सेठ चंदूलाल ने अपने मित्र ढब्यू जी से कहा, ‘मेरे दात में बहुत दर्द है। ढब्यू जी क्या करूं?’

ढब्यू जी ने कहा, ‘कुछ करने की जरूरत नहीं। मेरे भी दात में एक बार ऐसा दर्द हुआ था। मैं अपने घर गया और मेरी पत्नी के एक चुम्बन मात्र से ही सारा दर्द खतम हो गया। इसलिए मेरी मानो और जैसा मैंने किया, वैसा करो!’

सेठ चंदूलाल बोले, ‘बात तो बिलकुल ठीक है। लेकिन क्या तुम्हारी पत्नी इस बात के लिए राजी हो जाएगी!’

 

मुल्ला नसरुद्दीन बेटा फजलू से कह रहा था, ‘पापा, मैं पढ़ी —लिखी, बुद्धिमान, कुशल, सुशील और सुंदर लड़की से शादी करूंगा।

नसरुद्दीन ने कहा, ‘मतलब! फजलू पांच लड़कियों से एक साथ शादी करना चाहते हो!’

एक स्त्री ने किसी फोटोग्राफर से मेले में पूछा, बच्चों की फोटो किस रेट से उतारते हो!’ फोटोग्राफर ने कहा, ‘दस रुपये में बारह!’

‘तब तो मैं बाद में आऊंगी।’

फोटोग्राफर ने कहा।’ क्यों? ‘

उसने कहा, ‘ अभी तो मेरे दो बच्चे हैं!’

समझने के ढंग! अपनी — अपनी समझ!

एक युवती जैसे ही नदी में कूदने को थी कि चौकीदार ने उसे टोक दिया, रोक दिया। बोला कि, ‘नदी में नहाने की मनाही है।’ युवती ने गुस्से में कहा, ‘जब मैं कपड़े उतार रही थी, तभी तुमने यह बात क्यों न बतायी?’

चौकीदार बोला, ‘सिर्फ नहाने की मनाही है, कपड़े उतारने की नहीं!’

 

एक डाकखाने के पोस्टमास्टर छुट्टी लेकर अपने घर आराम कर रहे थे। बाहर से पोस्टमैन ने आवाज दी, ‘बाबूजी, रजिस्ट्री ले पोस्टमास्टर साहब कमरे के अंदर से ही आंखें मूंदे चिल्लाकर बोले, ‘अरे कमबखत! आज तो मुझे चैन से रहने दे। मैं छुट्टी पर हूं।

वे बेचारे अपने दफ्तर में ही अपने को समझ रहे थे!

समझ तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती। वह हमेशा खड़ी है वहा—और प्रत्येक चीज की व्याख्या करती रहती है। एक अत्यंत सुंदर नवयुवती ने एक नवजवान भिखारी को पेटभर खाना खिलाकर कहा, ‘और कुछ?’ भिखारी ने कहा, ‘जीसस का वचन याद करो : मनुष्य केवल रोटी के लिए ही नहीं जीना चाहता है!’

किसी गुफा में तीन साधु ध्यानमग्न बैठे थे। एक दिन उधर से शेर गुजरा। छह महीने बाद एक साधु बोला, ‘कितना सुंदर शेर थ।’

एक साल बाद एक साधु बोला, ‘वह शेर नहीं चीता था!’

दो साल बाद तीसरा साधु बोला, ‘यदि तुम दोनो इसी प्रकार लड़ते—झगड़ते रहे तो मैं किसी दूसरे स्थान पर चला जाऊंगा!’

 

‘अनहद में बिसराम’ प्रवचनमाला से

दिनांक 17 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–22)

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दर्शन : एक आत्‍मिक संस्‍पर्श—(प्रवचन—बाईसवां)

प्यारे ओशो!

छांदोग्य उपनिषद् में एक सूत्र इस प्रकार है :

न पश्यो मृत्यु पश्यति न रोग नोत दुखताम्।

सर्वं ह पश्य: पश्यति सर्वमाभोति सर्वश इति।।

अर्थात् ज्ञानी न मृत्यु को देखता है, न रोग को और न दुख को;

वह सबको आत्मरूप देखता है। और सब कुछ प्राप्त कर लेता है।

प्यारे ओशो! आप तो गवाह हैं,

क्या सच ही बुद्धपुरुष को मृत्यु, रोग और दुख में भी

आत्मरूप ही दिखाई पड़ता है?

इस सूत्र पर हमें दिशाबोध देने की कृपा करें।

हजानंद! संबोधि का अर्थ है अहंकार का मिट जाना—मैं— भाव की समाप्ति, अस्मिता का अंत। और जहां मैं नहीं है, वहां सवाल नही उठता मृत्यु का। मैं की ही मृत्यु होती है। अहंकार ही मरता है। क्योंकि अहंकार ऐसे है जैसे ताशों से बनाया घर। जरा—सा हवा का झोंका आया और गिरा। झूठा है; अब गिरा, तब गिरा; गिरकर ही रहेगा—काल्पनिक है, स्‍वप्‍नवत् है—टूटेगा ही। कितनी देर खींचोगे? कितनी देर अपने को समझाओगे, भुलाओगे? जरा—सी चोट में बिखर जाएगा। अहंकार चूंकि असत्य है, इसलिए मृत्यु भी असत्य है। अगर मैं नहीं हूं तो कौन मरेगा? कैसे मरेगा? मरने के लिए होना जरूरी है। इसलिए बुद्ध ने समाधि की परमदशा को निर्वाण कहा है।

निर्वाण शब्द का अर्थ बड़ा प्यारा है—अनूठा भी, अकल्पनीय भी। निर्वाण का अर्थ है : दीये का बुझ जाना। साधारणत: तो सूझ—बूझ में नहीं आएगा कि दीये का बुझ जाना या दीये का जल जाना? क्योंकि साधारणत: हम सोचते हैं कि उस परमदशा में दीया जल जाएगा। और बुद्ध कहते हैं : उस परमदशा में दीया बुझ जाएगा! निर्वाण का शाब्दिक अर्थ होता है : दीये का बुझ जाना; दीये का अंत। यहां दीये से अर्थ है : तुम्हारे अहंकार की टिमटिमाती ली और धुआं। तेल चुक जाएगा, दीया बुझ जाएगा। जब तक तेल है, तब तक जलता रहेगा। जब तक बाती है, तब तक धोखा बना रहेगा। मगर क्षणभंगुर है। क्योंकि तेल चुकेगा ही, उसकी सीमा है। और बाती जलेगी, उसकी भी सीमा है। और बाती और तेल पर जो निर्भर है, वह कितनी देर टिकनेवाला है? जो क्षणभंगुर पर निर्भर है, वह स्वयं भी क्षणभंगुर ही होगा इसलिए बुद्ध कहते हैं : दीये का बुझ जाना।

लेकिन यह एक हिस्सा है। यह पहला पहलू है। यह यात्रा का आधा अंग है। जिस दिन तुम्हारे मैं का दीया बुझ जाता है, तो ऐसा नहीं कि अंधकार हो जाता है। उल्टी ही घटना घटती है। उस घटना को समझने के लिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जीवन में उल्लिखित यह संस्मरण उपयोगी होगा

वे अकसर ही पजा नदी पर अपने बजरे में रहने चले जाते थे। छोटा—सा बजरा था। और पचा की शात, किसी एकांत स्थली पर वे बजरे को टिका रखते थे। उनका श्रेष्ठतम काव्य है, उस बजरे पर ही पैदा हुआ है। एक रात ऐसा हुआ—पूर्णिमा की रात थी, आकाश पूरे चांद की रोशनी से भरा था, पृथ्वी भी जगमगाती थी, पत्ते—पत्ते पर रौनक थी, पचा की लहर—लहर पर चांदी थी, और वे अपने बजरे के छोटे—से झोपड़े में द्वार—दरवाजे बंद किये एक मिट्टी का दीया जलाए हुए पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक सौन्दर्यशास्त्री क्रोशे की किताब पढ़ रहे थे सौन्दर्य के ऊपर, कि सौन्दर्य क्या है? सौन्दर्य झर रहा था बाहर, बरस रहा था, कण—कण पर नाच रहा था; आकाश में था, पृथ्वी में था, झील में था, वृक्षों पर था, दूर कोई कोयल कूकती थी अमराई में, लेकिन वे इस सबसे बेखबर अपनी किताब में आंखें गड़ाए—क्योंकि दीये की रोशनी बहुत ज्यादा न थी; और रवीन्द्रनाथ के भी हो गये थे, आखों को बहुत सूझता भी न था— किसी तरह पढ़ने की कोशिश कर रहे थे क्रोशे को। और क्रोशे विचार कर रहा था कि सौन्दर्य क्या है।…… जैसे कि सौन्दर्य पर विचार किया जा सकता है! सौन्दर्य अनुभूति है, विचार क्या खाक करोगे! विचार करके तो तुम सौन्दर्य को पाओगे नहीं। जितना विश्लेषण करोगे, उतना ही खो जाएगा। जितना मुट्ठी बाधोगे, उतना ही पाओगे हाथ खाली हैं।

विश्लेषण करके किसने कब सौन्दर्य को जाना है? प्रश्न उठाया तुमने कि सौन्दर्य क्या है, कि समझ लेना कि तुम्हें सौन्दर्य का कभी भी पता न चलेगा। सौन्दर्य जीआ जाता है, अनुभव किया जाता है। ही, गाओ, नाचो; वीणा बजाओ; फूल के साथ एकात्म हो जाओ, या चांद—तारों के लोक में खो जाओ; इस विस्मृति में शायद थीड़ी बूंदा—बांदी हो जाए थीड़े भीग जाओ, आर्द्र हो जाओ! शायद तुम्हारे भीतर सौन्दर्य की थीड़ी—सी झलक, थीड़ी—सी पुलक उठे! शायद तुम्हारे रोओं में थीड़ा—सा कंपन हो, हलन—चलन हो! शायद तुम्हारा हृदय बजे, निनादित हो! कोई झरना शायद भीतर फूटे! मगर विचार से नहीं, निर्विचार से। मन से नहीं, मौन से।……

क्रोशे की किताब पढ़ते—पढ़ते आधी रात हो गयी। सौन्दर्य क्या है, यह तो कुछ समझ आया नहीं—रवीन्द्रनाथ जैसे व्यक्ति को, जिसे कि सौन्दर्य की बहुत—सी अनुभूतियां थीं, उसे भी समझ में न आया। वरन उल्टी बात हुई। जितना क्रोशे को पढ़ा उतना ही जो पहले भी समझ में आता था कि सौन्दर्य क्या है, वह भी अस्तत्व्यस्त हो गया; उस पर भी संदेह उठ खड़े हुए। विचार संदहों को जन्म देता है—निर्विचार अनुभूति को। समाधि में समाधान है। विचार में तो समस्याएं ही समस्याएं हैं।……. थककर—आंखें भी थक गयी हैं—उन्होंने दीये को फूंककर बुझा दिया और किताब बंद की। और तब, उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है—थीड़े—से शब्द, लेकिन अति महत्त्वपूर्ण; हीरे—जवाहरातों से भी तोलो तो वजनी—लिखा है कि जैसे ही मैंने दीया बुझाया और किताब बंद की, मैं चकित हो गया, क्षणभर को भरोसा न आया, अवाक रह गया, ठिठक गया, रंध्र—रंध्र से, दरवाजे की संध से, खिड़की की संध से चांद का प्रकाश भीतर चला आया। चांद भीतर नाचने लगा। यह मेरा छोटा—सा दीया, इसकी टिमटिमाती यह धुंधली—सी रोशनी, यह धुंए से भरी रोशनी—जों बहुत रोशनी न थी—यह पीली—सी रुग्ण, बीमार, ज्वरग्रस्त रोशनी चांद की, उज्ज्वल चांद की अपूर्व छटा को बाहर अटकाए हुए थी, भीतर न आने देती थी! इधर दीया बुझा, उधर चांद भीतर आया। दीये का बुझना आधा हिस्सा और चांद का भीतर आ जाना दूसरा हिस्सा।

फिर उन्होंने द्वार खोल दिये। जब रंध्र—रंध्र से इतना आ रहा है, तो द्वार खोल दिये, खिड़कियां खोल दीं। क्षण में जैसे क्रांति हो गयी। एक जादू! वे बाहर निकल आए। जब भीतर इतना है तो बाहर कितना न होगा! और बाहर अपूर्व का थी। ऐसी सुंदर रात, ऐसी प्यारी रात, ऐसे सन्नाटे से भरी रात; दूर कोयल की कुहू—कुहू और पद्या की लहरों पर तैरती हुई चांद की चांदी, मन ठहर गया। मन को गति न रही। जैसे समाधि लग गयी। कितना समय बीता, कुछ याद ही न रहा। जैसे समय मिट गया। जैसे घड़ी ठहर गयी। और तब उन्होंने लिखा है कि जो मैं शास्त्र में खोज रहा था, वह बाहर बरस रहा था। मैं शास्त्र में अटका था, सो उसे नहीं देख पा रहा था जो मौजूद था। मैं शब्दों में उलझा था और सत्य द्वार पर दस्तक दे रहा था। लेकिन मुझे फुर्सत कहां थी? मैं होश में कहा था? मैं तो ऊहापोह में पड़ा था। उस धीमी—सी दस्तक को सुने तो कौन सुने? उस चांद की गुफ्तगू को सुने तो कौन सुने? वह चांद तो पुकार रहा था, निमंत्रण दे रहा था, कि खोलो द्वार, खोलो खिडकियां, कि मैं आया हूं अतिथि की तरह, लो मुझे भीतर। मगर भीतर तो हजार—हजार विचार दौड़ रहे थे। उस शोरगुल में कहां कोयल; उस शोरगुल में कहां चांद, कहां नदी! और फिर वह दीये की टिमटिमाती, पीली—सी, ज्वरग्रस्त रोशनी अटकाए थी चांद को। दीया बुझा—दीया निर्वाण को उपलब्ध हुआ—और चांद भीतर चला आया। और चांद भीतर आया तो रवीन्द्रनाथ बाहर आ गये।

ठीक बुद्ध ने इसी अर्थों में निर्वाण कहा है। अहंकार का टिमटिमाता दिया बुझ जाए, तो यह सारा आकाश तुम्हारा है। ये सारे चांद—तारे तुम्हारे हैं। तुम नहीं हो तो सब तुम्हारा है।

इस विरोधाभास को ठीक से समझ लेना, क्योंकि इसमें ही सारे धर्म का राज, सारी अनुभूतियों का निचोड़ है। जैसे कोई हजार—हजार गुलाब के फूलों को निचोड़कर इत्र बनाए, ऐसा इसमें सारा निचोड़ है रहस्यवादियों का, ऋषियों का।

छांदोग्य का यह सूत्र गहरा है, बहुत गहरा है। अहंकार मिट जाए, तुम न रहो, तो सब तुम्हारा है। तुम न रहे, तो कुछ पराया न रहा। यह मैं ही है जो तू को खड़ा कर देता है। यह मैं ही है जो विभाजित कर देता है। यह मैं का विभाजन गिर गया, यह रेखा हट गयी, तो आंगन मिटकर आकाश हो जाता है। आंगन के चारों तरफ तुमने जो दीवाल खींच रखी है, उसे गिरा दो, तो तुम्हारा आंगन आकाश है।

न पश्यो मृत्यु……

ज्ञानी को मृत्यु दिखाई ही नहीं पड़ती। ज्ञानी मृत्यु को जानता ही नहीं। ज्ञानी मरता ही नहीं। क्योंकि जो चीज मर सकती थी, उसे ज्ञानी ने पहले ही मर जाने दिया। अहंकार मर सकता था। जो नहीं था, वही मर सकता था, जो है, वह तो सदा है। जो है, वह ‘नहीं’ नहीं होता, और जो नहीं है, तुम लाख उपाय करो, वह ‘है’ नहीं होता। ही, थीड़ी—बहुत देर को अपने को भरमा सकते हो, धोखे में डाल दे सकते हो, आत्मवचना कर सकते हो, मगर कितनी देर करोगे? आज नहीं कल, कल नहीं परसों, इस जनम में नहीं अगले जनम में, कभी—न—कभी इस सत्य को जानना ही होगा कि अहंकार ही है जो मृत्यु को लाता है। झूठ ही मरता है। सत्य तो अमृत है। झूठ ही हारता है। सत्य तो सदा जीतता है। सत्यमेव जयते। झूठ ही डरता है। सत्य तो हर चुनौती को स्वीकार कर लेता है। सत्य को भय क्या?

सुकरात मर रहा था। उसे जहर देकर मारा जा रहा था। कसूर क्या था? कसूर यह था उसका कि वह सत्य की बातें करने लगा था। और सत्य की बातें छो के सौदागर पसंद नहीं करते। और यहां झूठों के सौदागर बहुत हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजे खो के सौदागरों से भरे पड़े हैं। मगर उनकी झूठे पुरानी हैं। इतनी पुरानी हैं कि उनकी बड़ी साख हो गयी है। यहां तो पुराने का बड़ा मूल्य है! जितना सड़ा—गला हो, उतना मूल्यवान समझा जाता है! जितना मुर्दा हो, अस्थि—पंजर रह गया हो, उतना ही बहुमूल्य है! और सुकरात सत्य की बातें करने लगा। पंडित, पुरोहित, राजनेता, सभी खिन्न हो उठे।

सुकरात को सजा दी गयी जहर से मार डालने की। सुकरात के एक शिष्य क्रेटो ने उससे मरने के पहले पूछा……. वह वार्तालाप अनूठा है!…… क्रेटो ने पूछा, आप हमें यह तो बता दें कि मरने के बाद हम आपका अंतिम—संस्कार कैसे करें? इस संबंध में आपने कभी कोई संकेत नहीं दिया। आप चाहेंगे कि हम आपको गड़ाएं, जलाए, नदी में बहाए? पारसियों की तरह आपकी देह को पशु—पक्षियों के खाने के लिए छोड़ दें? कि पूर्वी लोगों की तरह अग्नि—संस्कार करें? या पश्चिम की प्रचलित धारा के अनुसार आपको मिट्टी में दबाएं? या कुछ जातियों के रिवाज के अनुसार आपको सागर मैं विसर्जित कर दें? हम क्या करें?

सुकरात हंसने लगा। और उसने कहा, पागलो, वे सोचते हैं कि मुझे मार रहे हैं और तुम सोचते हो कि तुम मुझे गड़ाओगे, कि तुम मुझे जलाओगे! दुश्मन सोचता है मुझे मार रहा है और दोस्त विचार कर रहे हैं कि मर जाने के बाद गड़ाना है कि जलाना है, मगर तुम दोनों का भरोसा मौत में है। तुम दोनों मौत को मानते हो, और मैं मौत को नहीं मानता। मुझे मौत दिखाई नहीं पड़ती। और, क्रेटो, मैं तुझसे कहता हूं कि मुझे मारनेवाले और मुझे गड़ानेवाले, तुम दोनों के बाद भी मैं जिंदा रहूंगा। तुम्हारी याद ही सिर्फ इसलिए की जाएगी कि किसी तरह तुम एक जिंदा आदमी से संबंधित थे।

और बात सच है। केटो को किसने याद रखा होता? यह नाम सिर्फ इसलिए याद है, आज पच्चीस सौ साल बाद इस नाम को मैं तुम्हारे सामने उल्लिखित कर रहा हूं सिर्फ इस कारण कि क्रेटो सुकरात से संयुक्त हो गया था; तो क्रेटो का नाम तक पच्चीस सौ साल जी गया। जब तक सुकरात का जीएगा, केटो का भी जीएगा। और सुकरात ने यह कहा था उससे कि तुम सब मरोगे, फिर भी मैं रहूंगा। क्योंकि जो मेरे भीतर मर सकता था, कभी का मर चुका है। इसीलिए तो मृत्यु को मैं इतने आनंद से अंगीकार कर रहा हूं।

अदालत ने पूछा भी था—अदालत को दया भी आयी थी; न्यायाधीश थीड़ा अपराध भी अनुभव किया होगा, चूंकि सुकरात जैसे प्यारे आदमी को जहर देकर मार डालना अन्याय तो था! मगर न्यायाधाशि भी क्या करे, जूरियों का बड़ा वर्ग मारने के पक्ष में था। एथेंस

मारने के पक्ष में था। धनपति, राजनेता, धर्मगुरु, सब मारने के पक्ष में थे। और न्यायाधीश उनके विपरीत नहीं जा सकता था। जाता तो उसकी खुद की मौत होती, वह खुद मुश्किल में पड़ता। फिर भी उसने बचाने का उपाय किया था। उसने सुकरात से कहा था, तुम अगर एथेंस का नगर छोड्कर चले जाओ और फिर वचन दो कि कभी एथेंस नहीं आओगे, तो—बडी दुनिया है, तुम्हें जहां रहना हो रहो—मैं तुम्हें मरने की सजा से बचा सकता हूं।

सुकरात ने कहा : क्या तुम सोचते हो तुम मुझे मरने से बचा सकोगे? आज नहीं मरूंगा, कल नहीं मरूंगा तो परसों मरूंगा, एथेंस में नहीं मरूंगा तो कहीं और मरूंगा; जब मरना ही है तो क्या आपाधापी! फिर क्यों छोड्कर एथेंस जाऊं? एथेंस छोड़कर जाने का मतलब तो यह होगा कि मैं अभी भी भरोसा करता था अपने अहंकार में : जितनी देर बचा लूं! क्या फर्क पड़ता है! मौत निश्चित है; कब आएगी, कुछ भेद नहीं पडता। तुम चिंता न करो। और तुम अपराध भाव अनुभव न करो। तुम सजा दो। मैं कहीं जानेवाला नहीं हूं। मरने के बाद भी कहीं जानेवाला नहीं हूं। .मरने के बाद भी यहीं रहूंगा।

यही रमण महर्षि ने कहा था। मरते समय एक शिष्य ने पूछा कि क्या आपसे पूछूं कि मरने कै बाद आप कहां होंगे? रमण ने कहा, यहीं होऊंगा। और कहां होऊंगा? मरने के पहले यहां हूं जन्म के पहले यहां था, मरने के बाद भी यहीं होऊंगा। जाना कहां है? आना कहां है? ……. इसको कहते हैं आवागमन से छुटकारा! इस बोध का नाम है आवागमन से छुटकारा! कि न कुछ मरता है, न कुछ जन्मता है, तुम्हारा जो वास्तविक स्वरूप है वह शाश्वत है—नित्य है, समयातीत है। सदा से हैं और सदा रहेगा। और जैसा है वैसा. ही है। हां, तुमने कुछ झूठे घर—पूले रेत के अपने आसपास बना लिये होंगे, तो वे जरूर गिरेंगे। वे ही मरते हैं’।

न्यायाधीश ने फिर भी चेष्टा की कि ठीक, तुम्हें एथेंस में रहना है तो एथेंस में रही, लेकिन इतना वचन दें दो कि अब तुम सत्य की जो बातें करते रहे? न करोगे। तो भी मैं तुम्हें छोड़ दे सकता हूं। क्‍योंकि लोगों को तुमसे एतराज नहीं है, तुम्हारी बातों से एतराज है। अगर तुम भरोसा दिला दो, तो हमें तुम्हारे भरोसे पर भरोसा है। हम मान सकते है कि तुम कहोगे तो अपने वचन को पूरा करोगे। तुम वचनबद्ध व्‍यक्‍ति हो। तुम्हारे दुश्मन भी यह मानते हैं। तुम इतना कह दो कि अब तुम जिन बातों को सत्य कहते हो, उनको नहीं कहोगे। तुम चुप रहो। तुम शिक्षण देना बंद कर दो।

—सुकरात ने कहा. फिर जीने का सार क्या? मैं तो जी ही इसलिए रहा हूं —मेरा काम तो पूरा हो चुका; मेरा काम तो कभी का पूरा हो चुका; जिस दिन मैंने जान लिया है अपने को उसी दिन मेरा काम पूरा हो चुका; अब तो मैं इसलिए जो रहा हूं कि कुछ और लोगों को जगा सकूं। मैं तो जाग गया, जो लोग अभी सोए हैं और सपनों मैं खोए हैं, उनको झकझोर सकू, और जगा सकूं। और मैं जानता हूं कि किसी की नींद तुम तोड़ोगे तो वह नाराज होता है! वह प्यारा सपना देख रहा है। हो सकता है, सुंदर सपना देख रहा हो—और तुम उसे झकझोरकर जगा देते हो! पीड़ा होती है। वह नहीं चाहता जागना। इसलिए मैं कुछ एतराज नहीं करता हूं लोगों पर कि क्यों मुझे मार डालना चाहते हैं। वे भी ठीक हैं। मगर मैं अपने काम को बंद नहीं करूंगा। सत्य तो मेरा जीयन है। मै बोलूंगा तो सत्य, चुप रहूंगा तो सत्य, उठूंगा तो सत्य, बैठूंगा तो सत्य। यह वचन मैं नहीं दे सकता हूं। अगर सत्य ही बोलना बंद करना है तो जहर पी लेने में हर्ज क्या

न्यायाधीश ने दो विकल्प दिये थे, दोनों सुकरात ने छोड़ दिये। छोड़ सका सुकरात यह विकल्प इसीलिए कि भीतर अमृत को जान लिया है। जिसने अहंकार छोड़ा, उसने अमृत को जाना।

यह सूत्र ठीक कहता है : न पश्यो मृत्युं। ज्ञानी को मृत्यु है ही नहीं, दिखाई ही नहीं पड़ती, अनुभव में ही नहीं आती। मरते क्षण मैं भी ज्ञानी को मृत्यु नहीं दिखाईं पड़ती। उसे तो स्वयं का शाश्वत जीवन ही दिखाई पड़ता रहता है। उसे तो भीतर का चैतन्य ही दिखाई पड़ सकता है। देखता है कि देह जा रही है, मगर देह मेरी थी कब? देखता है कि मन जा रहा है, लेकिन मन मेरा था कब? देखता है कि सांस बंद हुई जा रही है, लेकिन मैं सांस था कब? देखता है जल्दी ही यह घर उजड़ जाएगा, मगर मै घर तो था ही नहीं। मैं तो मेहमान था, अतिथि था। और घर तो घर भी न था, सराय थी।

बहुत अद्भुत सूफी फकीर हुआ इब्राहिम। वह सम्राट था बल्क और बुखारा का। एक रात अपने बिस्तर पर सोया था। और जैसे कि सम्राटों की रात होती है, उसकी भी रात थी, करवट बदलनेवाली रात। सो नहीं पा रहा था। परेशान हो रहा था। करवट बदल रहा था। नींद का कोई पता न था, दूर—दूर तक कोई पता न था। कोई संभावना भी न थी। पैरों की कोई आहट भी न थी। और तभी उसने देखा, उसके छप्पर पर कोई चल रहा है। सोचा, निश्चित कोई चोर है। या कोई हत्यारा है। चिल्लाया. कौन है? ऊपर से आवाज आयी : परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। न मैं कोई चोर हूं न मैं कोई हत्यारा हूं। और आवाज कुछ ऐसी बुलंद थी, आवाज में कुछ ऐसी बुलंद थी, कुछ ऐसा बल था, इब्राहिम ठिठक रहा! तो पूछा, फिर तू कौन है? तो आवाज आयी कि मेरा ऊंट खो गया है, मैं उसे खोज रहा हूं। इब्राहिम ने कहा, तू पागल है! ऊंट कहीं छप्परों पर खोजें जाते हैं? और वह आदमी खिलखिलाकर हंसा, उसने कहा, ही मैं पागल हूं और तू समझदार है! तू आनंद खोज रहा है राजसिंहासनों पर; तो क्या कसूर है मेरा अगर मैं ऊंट खोजूं छप्परों पर? नींद तक मिल नहीं रही है तुझे और आनंद की तलाश कर रहा है! पागल मैं या पागल तू? बात ऐसी साफ थी, बात ऐसी धारवाली थी, कि इब्राहिम उठकर बैठ गया। पहरेदारों को बुलाया और कहा कि इस आदमी को खोजो! यह आदमी कोई साधारण आदमी नहीं है। असल में जिस आदमी की मैं तलाश में था, उस तरह का आदमी है। जो मुझे जगा सकता है, उस तरह का आदमी है। जो मुझे होश दे सकता है। क्या बात इसने कही है!

मगर वह आदमी दही पकड़ा जा सका। उसका कुछ पता ही न चला।

दूसरे दिन इब्राहिम जब अपने दरबार में बैठा था और दरबार भरा था तो फिर उसे वही आवाज सुनायी पड़ी—इस बार दरवाजे पर। द्वारपाल के साथ वहीं आदमी विवाद कर रहा था। विवाद का वही ढंग था, जो रात इब्राहिम के साथ था। वही बुलंदगी, वही बल, वही कटार की धार—शब्द नहीं, अंगारे; और फिर भी फूलों से प्यारे। वह आदमी कह रहा था पहरेदार से कि मुझे ठहरने दो इस सराय में, इस धर्मशाला में। और पहरेदार कह रहा था कि अपने शब्द वापिस ले लो, यह कोई सराय नहीं, यह कोई धर्मशाला नहीं, यह सम्राट का निजी महल है, निजी निवास है। वह आदमी खिलखिलाकर हंसा। वह हंसी वही थी, रात की। इब्राहिम उसे भूल नहीं सकता था। जिंदगीभर नहीं भूल सकता था और अभी तो बात बड़ी ताजा थी। अभी तो रात ही यह हंसी सुनी थी। और वह आदमी फिर खिलखिलाया और उसने कहा कि मैं तुझसे कहता हूं कि यह सराय है, मुझे भीतर जाने दे। मैं सराय के उस आदमी से मिलना चाहता हूं जिसको यह भ्रांति है कि यह उसका मकान है, निवास है। यह कौन है, इब्राहिम? इब्राहिम ने फौरन आदमी भेजा और पहरेदार से कहा, रोको मत, उसे भीतर आने दो।

वह आदमी भीतर आया।

इब्राहिम ने कहा, मालूम होता है तुम्हारा दिमाग खराब है, यह मेरा निजी घर है और तुम उसे सराय कह रहे हो, धर्मशाला कह रहे हो! तुम्हें डर भी नहीं कि सम्राट के महल को धर्मशाला कहोगे तो सजा पाओगे! वह आदमी कहने लगा, धर्मशाला है इसलिए धर्मशाला कह रहा हूं। कैसा सम्राट? किसका निवास? मैं पहले भी आया था, तब मैंने इस सिंहासन पर एक दूसरे आदमी को देखा था; तुम इस पर कब बैठ गये? इब्राहिम ने कहा, वह मेरे पिता थे। और उसने कहा कि मैं उसके भी पहले आया था और तब मैंने एक तीसरे आदमी को बैठे देखा था। वह कौन था? इब्राहिम ने कहा, वे मेरे पिता के पिता थे। और वह आदमी कहने लगा, फिर भी तुम इसे अपना मकान कह रहे हो! मैं फिर आऊंगा और तुम्हें नहीं पाऊंगा। मैं कहता हूं यह धर्मशाला है, यहां कई लोग ठहरे और आये और गये। यह सराय है, मुझे भी ठहर जाने दो! तुम भी ठहरे हो, मुझे भी ठहर जाने दो!

इब्राहिम उसके चरणों में गिर पड़ा, और उसने कहा कि तुम इस सराय में ठहरो, मैं चला! मगर तुमने मेरा जीवन धन्य कर दिया! नहीं तो मैं इसी सराय में बर्बाद हो जाता।

फिर इब्राहिम बड़ा प्रसिद्ध सूफी फकीर हो गया। वह बल्क के बाहर ही, अपनी राजधानी के बाहर ही झोपड़ा बनाकर रहता था। और अकसर उसके झोपड़े पर उपद्रव हो जाता था। क्योंकि उसका झोपडा एक चौराहे पर था, और वहां से राहगीर आते तो वे पूछते कि बस्ती का रास्ता कौन—सा? तो वह बता देता कि बायें जाना; खयाल रखना, बायें जाना; दायें मत जाना, अगर दायें गये तो मरघट पहुंच जाओगे; बायें गये तो बस्ती। वे बेचारे बायें जाते, और दों—चार मील चलने के बाद मरघट पहुंच जाते। वे लौटकर गुस्से में आते, कि तुम आदमी पागल हो या क्या हो? इतना जोर देकर तुमने कहा बायें जाना, बस्ती बायें है, और दायें मत जाना, दायें मरघट है—और हमने पाया कि बायें मरघट है! इब्राहिम कहता, तो फिर हमारी—तुम्हारी भाषा में भेद है। क्योंकि मरघट में जो लोग बस गये हैं वे उखड़ते नहीं वहा से, इसलिए उसको मैं बस्ती कहता हूं। और जिसको तुम बस्ती कहते हो, उसको मरघट कहता हूं क्योंकि वहां जो भी बसे हैं, वे आज मरे, कल मरे, परसों मरे। वहां मौत आने ही वाली है। वहां सब कतार बांधे खड़े हैं मरने को। क्यू, लगा है। जिसका नंबर आ जाए, वह मरता जाता है। उसको मैं मरघट कहता हूं। और जिसको तुम मरघट कहतो हो, उसको मैं बस्ती कहता हूं क्योंकि वहां जो बस गया, उसको तुमने कभी उजडूते देखा! फिर उसे तुमने कभी घर बदलते देखा!

यह शरीर एक सराय है, यह मन एक सराय है, जिसने ‘ऐसा जान लिया, जिसने ध्यान में ऐसा अनुभव कर लिया, जिसकी यह प्रतीति गहरी हो गयी कि मैं शरीर नहीं हूं मैं मन नहीं हूं उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है। मैं गवाह हूं। तुम ठीक कहते, सहजानंद, कि भगवान आप तो गवाह हैं, क्या सच ही बुद्धपुरुष को मृत्यु, रोग और दुख में भी आत्मरूप ही दिखाई पड़ता है? और कोई उपाय ही नहीं है। बुद्धपुरुष का अर्थ होता है : ‘मैं ‘ मिट गया, ‘मैं’ के साथ मिट गया सारा अंधकार, ‘मैं’ के साथ मिट गयी सारी विक्षिप्तता, ‘मैं’ के साथ मिट गयी सारी मूर्च्छा, निद्रा, तंद्रा, होश आया! और होश में क्या पाया कि मैं साक्षी हूं—सिर्फ साक्षी, सिर्फ द्रष्टा। शरीर को देख रहा हूं जीवन को देख रहा हूं मृत्यु को भी देखूंगा, लेकिन मेरा न तो जीवन है, न मृत्यु है। मैं दोनों के पार हूं। इस अतिक्रमण का नाम ही बुद्धत्व है।

जहां और भी हैं चांद—तारों के पार

आस्मां और भी हैं…….

अभी इश्क के इप्तहां और भी हैं

ये आखिरी इप्तहां है। इसके पार फिर कोई इप्तहा नहीं है। शरीर के साथ जुड़े हो, तो अभी संसार में हो। मन के साथ जुड़े हो, तो अभी विक्षिप्त हो। शरीर और मन से अपने को पृथक जाना, पृथक जानते ही अहंकार टूट जाता है। अहंकार है तादात्म्य, शरीर और मन के साथ। निरअहंकारिता है तादात्म्य का टूट जाना। टूटने की प्रक्रिया बड़ी सीघी है—साक्षीभाव, सिर्फ देखो! बीमारी आए तो बीमारी देखो। और स्वास्थ्य आए तो स्वास्थ्य देखो। जब भूख लगे तो भूख देखो। और जब पेट भर जाए तो तृप्ति देखो। जब प्यास लगे तो प्यास देखो। और जब कंठ प्यास से मुक्त हो जाए तो उस मुक्ति को देखो। मगर तुम दोनों हालत में देखनेवाले हो। न तुम प्यास हो, न तुम प्यास की तृप्ति हो। न तुम भूख हो, न तुम भोजन के बाद हुई तृप्ति हो। तुम हर हाल में सिर्फ साक्षी हो। क्रोध आए तो क्रोध को देखो, और करुणा आए तो करुणा को देखो। काम उठे तो काम को देखो, और ब्रह्मचर्य जगे तो ब्रह्मचर्य को देखो। ब्रह्मचारी मत हो जाना! कामी ब्रह्मचारी हो जाते हैं। मतलब एक तादात्म्य छूटा, दूसरा पकड़ा। भोगी योगी हो जाते हैं। एक तादात्‍मय छूटा, दूसरा पकड़ा। एक जेल से निकले नहीं कि वे दूसरे में तत्‍क्षण प्रविष्ट हो जाते हैं।

मैं अपने संन्यासी को कहता हूं : न तुम योगी, न तुम भोगी, तुम सिर्फ साक्षी।

‘न पश्यो मृत्युं’ फिर मृत्यु दिखाई नहीं पडती।…… ‘पश्यति न रोग नोत दु:खतान्।’ फिर न रोग दिखाई पड़ते हैं, न दुःख दिखाई पड़ते हैं। नहीं, ऐसा नहीं है कि रोग नही, आते। इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि रोग नहीं आते। रामकृष्ण कैंसर से मरे। रमण महर्षि भी कैंसर से मरें। महावीर की मृत्यु छह महीने कीं लम्बी पेचिश की बामारी से हुई। बुद्ध, विषाक्त भोजन के कारण मरे। विषाक्त भोजन ने उनके सारे शरीर को रुग्ण कर दिया। लेकिन इन को को न समझ पाने के कारण—और कैसे समझोगे जब .तक ध्यान में .न उतरोगे? —जैनों ने कहानियां गढ़ी कि महावीर को बीमारी नहीं हुई; कहीं तीर्थंकर को बीमारी होती है!

तीर्थंकर को भी बीमारी होती है। दिखाई नहीं पड़ती बीमारी; मैं बीमार ‘हूं ऐसी प्रतीति नहीं होती, बीमारी तो होती है। अगर बीमारी न होती तो तीर्थंकर मरते कैसे? तीर्थंकर भी बूढ़े होते है,। तुम लाख छिपाने की कोशिश करो! तुमने किसी तीर्थंकर की की प्रतिमा नहीं देखी होगी। सब प्रतिमाएं जवान है। महावीर अस्सी साल के होकर मरे। अस्सी साल के हुए तो के तो हो गये थे। लेकिन मंदिरों में जाकर तुम देखोगे तो यूं लगता है कि वे हमेशा जवान हैं। चौबीस ही तीर्थकर जवान हैं। इनमें से कुछ की उम्र तो बहुत लम्बी है। अगर शास्त्रों की मानकर चलो, तो —हजारों वर्ष की है। ये तो ऐसे जराजीर्ण हो गये होंगे जिसका हिसाब नहीं! सत्तर वर्ष में तो आदमी कीं गति हो जाती है. दुर्गति हो जाती है, हजारों साल में तो सभी कुछ सूख गया होगा, अस्थि—पंजर रह गये होगे। लेकिन हम खो के आदी हैं। हम. करते हैं : तीर्थंकर को बीमारी नहीं होती। कहना चाहिए कि तीर्थंकर जानता है कि बीमारी मुझे नहीं है। यह और बात। यही छांदोग्य का सुत्र कह रहा है

न पश्यो मृत्यु पर्श्याते न रोग नोत दुखताम्।

ध्यान रखना, सवाल है : उसे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यह बामारो में हूं या मैं बीमार हूं। बीमारी तो आती है; जैसे तुम्हें आती है, उसे भी आती है। अरे, जब भूख आती है प्यास आती है.; जवानी आती है, बुढ़ापा आता है, तो बीमारी न आएगी? बीमारी भी आएगी, बुढ़ापा भी आएगा और मृत्यु भी आएगी। मगर तीर्थंकर को जरा भी प्रभावित नहीं करती। ‘तीर्थंकर अछूता रह जाता है, अस्पर्शित रह जाता है। यह तो बात समझ में आने की है। लोकेन यह बात मूढ़तापूर्ण हो जाती है जब तुम कहने लगते हो : बीमारी ही नहीं आती है। फिर: तुम्हें न—मालूम क्या—क्या कहानियां गढनी पड़ती हैं—झूठी कहानियां! एक झूठ कौ बचाने के लिए हजार झूठ गढ़ने पड़ते हैं।

तो यह कहानी गढनी पड़ी है जैनों को। क्योंकि यह बात को झुठलाएं कैसे कि छह महीने महावीर पेचिश की बीमारी सै परेशान रहे? अब इस बात को छिपाये कैसे? छह महीने उनको दस्त ही लगते रहे। इसी में उनकी मृत्यु हुई। तो कहानी गढनी पड़ी।

कहानी यह गढी कि गोशालक ने उनके ऊपर तेजोलेश्या छोड़ी। गोशालक ने जादू किया—काला जादू। जैन —शास्त्रों में उसका नाम. तेजोलेश्या। उसने अपना सारा क्रोध, अपनी’ क्रोधाग्नि उनके ऊपर फेंक दी। और करुणावश वह उस क्रोधाग्नि को पचा गये। क्योंकि अगर वापिस भेजे, तो गोशालक मर जाएगा। गोशालक न मरे, !इसलिए वे पी गये उस तेजोलेश्या को, उस काले जादू को। स्वभावत: जब काला जादू पीआ, तो पेट खराब हो गया।,

अब क्या कहानी गढनी पड़ी! सीधी —सादी बात है ‘कि पेट को बीमारी थी। इसमें बिचारे गोशालक को फंसाते हो, इसमें तेजोलेश्या की कहानी गढ़ते हो, इसमें करुणा दिखलाते हो—और तुम कहते हो’ तीर्थंकर सर्वशक्तिशाली होता है न् तो तेजोलेश्या को पचा —गता तो पूरा ही पचा जाना था, फिर क्या पैट खराब करना था! पचा ही जाता पूरा! फिर पेट कैसे खराब हुआ? पचा नहीं पाया। नहीं तो पेट खराब नहीं होना था। पची नहीं तेजोलेश्या।

झूठो से झूठ दबाए नहीं जा सकते।

बुद्ध के सबंध में यही उपद्रव खड़ा हुआ। उनको जो भोजन दिया गया……. एक गरीब नै उनको निमंत्रित किया और भोजन दिया, भोजन विषाक्त था…… — अब बुद्ध विषाक्त भोजन किसे, तो कहानी गढनी पड़ी। क्यौंकि बौद्धों की धारणा कि बुद्ध तो त्रिकालज्ञ होते हैं, वे तीनों काल जानते हैं, उनको इतना ही नहीं दिखाई पड़ा कि यह भोजन जो है विषाक्त है, इसको मैं न लूं! अब कैसे इसको छिपाएं?

तो छिपाना पड़ता है। छिपाने के लिए बड़ी तरकीबें खोज ली जाती हैं। कि कहीं इसको दुख न हो, अगर मैं कहूं कि यह भोजन विषाक्त है तो इस बेचारे ने मुझे निमंत्रित किया, इसको कहीं दुख न हो, इस कारण बिना कहे विषाक्त भोजन ले लिया। लेकिन कहो या न कहो, आखिर विषाक्त भोजन का परिणाम तो हुआ ही! और परिणाम हुआ तो उस आदमी को भी पता चला ही!

क्या मतलब इसका?

मगर वह त्रिकालज्ञ होते हैं, इस धारणा को बचाए रखने के लिए यह झूठी कहानी गढूनी पड़ी—कि दयावश! कि कहीं इसे दुख न हो, इसलिए चुपचाप भोजन कर लिया—जहर पी गये। और सर्वशक्तिमान होते है—तो फिर जब जहर पी गये थे तो विषाक्त नहीं होना था शरीर। लेकिन शरीर तो शरीर के नियम से चलता है। फिर चाहे बुद्धों का शरीर हो और चाहे बुद्धओं का शरीर हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। शरीर के अपने नियम हैं। शरीर का अपना गणित है। शरीर प्रकृति का हिस्सा है। और प्रकृति कोई अपवाद नहीं करती। तो जो परिणाम होना था, वह हुआ। मृत्यु उससे फलित हुई।

मृत्यु भी होती है, बीमारी भी होती है, बुढ़ापा भी होता है। फिर जो भी साक्षीभाव को उपलब्ध हो गया है, वह सिर्फ देखता रहता है, उसका कहीं भी ऐसा तालमेल नहीं बैठ जाता कि मैं बीमार हूं। यह बात उठती नहीं, यह बात जुड़ती नहीं उसके भीतर। इसलिए बीमारी के बीच भी वह परम स्वस्थ होता है। बीमारी परिधि पर होती है, केन्द्र पर स्वास्थ्य होता है। और वही स्वस्थ शब्द का अर्थ भी है. स्वयं में स्थित। बीमारी चारों तरफ रही आए, मगर वह अपने स्वयं में स्थित होता है; वह अपने स्वयं के केंद्र पर थिर होता है; वहां कुछ हिलता नहीं, डुलता नहीं; ज्यू था त्युं ठहराया, वह वहीं ठहरा होता है। मौत भी आती है, वह भी परिधि पर आती है। और केंद्र पर तो वही चिन्मय ज्योति, वही अमृत झरता रहता है।

मैं इसका गवाह हूं।

इसलिए जो मैं सूत्र की व्याख्या कर रहा हूं वह कोई शाब्दिक व्याख्या नहीं है। मुझे किसी शास्त्र में कोई रस नहीं है। किसी शास्त्र का समर्थन करना चाहिए, ऐसा आग्रह नहीं है। जब तक मेरी बात से, मेरे अनुभव से किसी चीज का तालमेल न हो, मैं समर्थन नहीं करता हूं। इस सूत्र का मैं पूर्ण समर्थन करता हूं। बुद्धत्व में मृत्यु का कोई अनुभव नहीं है—न रोग का, न दुख का। सब घटता है, बाहर से सब दिखाई पड़ता है

रामकृष्ण के गले का कैंसर था। आखिरी—आखिरी दिनों में कुछ सप्ताह तक तो भोजन भी नहीं ले सकते थे। पानी भी पीना अंतिम दिनों में बंद हो गया था। गला बिलकुल अवरुद्ध हो गया था। गला क्या था, घाव हो गया था सिर्फ। उसमें से पानी पीना भी महापीड़ादायी था। और बिना पानी के जीना भी महापीड़ादायी था। विवेकानंद ने रामकृष्ण से कहा कि अगर आप एक बार भी मां काली को कह दें, तो सब अभी ठीक हो जाए। आप कह क्यों नहीं देते? आप क्यों व्यर्थ का दुख झेल रहे हैं? और रामकृष्ण मुस्कुराते। क्योंकि बाहर से तो यही दिखाई पड़ रहा है कि महादुख है, मगर विवेकानंद को भीतर का कुछ भी पता नहीं है। रामकृष्ण को भीतर कोई दुख नहीं है। दुख विवेकानंद और रामकृष्ण के बीच में है। विवेकानंद तो बाहर हैं दुख के, रामकृष्ण भी बाहर हैं— रामकृष्ण भीतर की तरफ बाहर हैं—और विवेकानंद बाहर की तरफ बाहर हैं—दोनों को दुख दिखायी पड़ रहा है, दोनों साक्षी हैं। मगर विवेकानंद को स्वभावत: अनुभव होता है कि इतनी पीड़ा है, पानी भी नहीं पी सकते, गर्मी के दिन हैं, प्यास से लोग मरे जा रहे हैं और इनको एक घूंट भी पानी पिलाना मुश्किल है—यह कैसा महाकष्ट! ऐसे परमहंस को यह कैसा महाकष्ट!!

इससे विवेकानंद केवल इतनी खबर देते हैं कि अभी उनको साक्षी का अनुभव नहीं हुआ। उनका प्रश्न एक साधारण व्यक्ति का प्रश्न है, जिसको साक्षी का कोई अनुभव नहीं हुआ। यह किसी बुद्धपुरुष का प्रश्न नहीं है—हो नहीं सकता। क्योंकि अगर विवेकानंद को साक्षी का अनुभव हुआ होता, तो यह बात उठती ही नहीं।

लेकिन जब रोज—रोज विवेकानंद कहने लगे, तो रामकृष्ण सीधे—सादे आदमी थे, चोट भी करते थे तो बहुत परोक्ष करते थे, सीधी नहीं करते थे, उन्होंने कहा, ठीक है, तू इतना परेशान हो रहा है, तो आज मैं आख बंद करके काली से कहे देता हूं। आख बंद की, और फिर आख खोलकर कहा कि मैंने कहा, मगर काली ने क्या कहा, मालूम?……. अब यह सिर्फ विवेकानंद को समझाने के लिए है। क्योंकि कहां काली! और क्या कहना काली से! साक्षी को जो उपलब्ध हो गया है, उसके लिए काली इत्यादि सब खेल हैं, बच्चों के खेल हैं, खिलौने हैं। यह सब खिलौने हैं। चाहे तुम हनुमान के मंदिर में पूजा करो और चाहे गणेश जी की मूर्ति बनाकर पूजा करो और चाहे काली की मूर्ति बनाओ, ये सब खिलौने हैं नासमझों के लिए। और नासमझों के ही द्वारा निर्मित हो रहे हैं। और नासमझ ही इनके पीछे बड़ा शोरगुल मचाए फिरते हैं। यह कुछ ज्ञानियों की बातें नहीं हैं!…….

पर रामकृष्ण तो उस भाषा में बोले जो विवेकानंद की समझ में आए। कहा कि मैंने कहा, तू नहीं माना तो मैंने कहा काली को; और तुझे पता है, काली ने मुझे बहुत डाटा! विवेकानंद ने कहा, डांटा? कहा कि ही, बहुत डाटा और कहा कि ज्ञानी होकर ऐसी अज्ञानपूर्ण बातें करता है! और काली एकदम नाराज हो गयी और कहने लगी कि चुप, कभी दुबारा इस तरह की बात मत करना! अगर एक कंठ से जल जाना बंद हो गया, तो इतने सारे कंठ उपलब्ध हैं, ये भी तो तेरे ही कंठ हैं इनसे ही जल पी! इस कंठ से तो बहुत काम ले लिया, अब कब तक इसी पर अटका रहेगा? सारे कंठ तेरे हैं। यह विवेकानंद का ही कंठ है, यह भी तेरा है, जब प्यास लगे, इसी कंठ से पी लिये। तो रामकृष्ण ने विवेकानंद से कहा, जब मुझे प्यास लगे, तू पानी पी लिया कर। अब तो सब कंठ मेरे हैं। काली. ने—देख, तेरी बात मैंने क्या कही, मुझे बहुत डांटा! इस तरह की बातें अब दुबारा मत कहना! तेरी बात मानकर मैंने कहा और झंझट में मैं पड़ा।

मैं जानता हूं कि यह पूरी की पूरी बात रामकृष्ण सिर्फ विवेकानंद को समझा रहे हैं। न तो काली से उन्होंने कहा है, न कह सकते हैं, न कहने की कोई बात है। न कहने को कोई काली है कहीं। यह सिर्फ ऐसा है जैसे हम छोटे बच्चों को किताब जब पढ़ाना शुरू करते हैं तो कहते हैं. आ आम का, ग गणेश का। और अब थीड़ी बात बदल गयी है, अब कहते हैं ग गधे का। क्योंकि राज्य जो है हमारा, वह सेक्यूलर है, वह धर्म—निरपेक्ष है, इसमें गणेश को लाओ तो धर्म आ जाए, तो ग गधे का! गधा बिलकुल ही निरपेक्ष प्राणी है—न हिन्दू न मुसलमान, न ईसाई, न जैन। गधा तो बिलकुल ही पार जा चुका—परमहंस है। उसको कुछ लेना—देना नहीं मंदिर से, मस्जिद से। कभी देखो तो मस्जिद के सामने बैठा है, कभी देखो तो मंदिर के सामने बैठा है। उसको सब बराबर—तुम उस पर कुरान लादो तो इनकार नहीं, और गीता लादी तो इनकार नहीं। उसको तो ढोना है। वह ढो देगा। वह जरा चिंता नहीं करता कि तुमने किसको उसके ऊपर लाद दिया है!

तो अब बच्चों को पढ़ाया जाता है. ग गधे का; आ आम का। ताकि बच्चे को आ और ग समझ में आने शुरू हो जाएं। लेकिन जिंदगीभर जब भी ग पढ़ो, पहले कहो ग गधे का और फिर ग पढ़ो, तब तो पढ़ना ही मुश्किल हो जाए। एक शब्द को पढ़ने में कितनी देर लग जाए! उसमें ग आ जाए तो गधे का, और आ आ जाए तो आम का—और तब आम और गधों में इतने खो जाओगे!…… और ब बन्दर का और हा हाथी का, पूरा जंगल ही खड़ा हो जाएगा! वह जो शब्द था, उसका तो पता ही नहीं चलेगा यह जंगली जानवरों में हो खो जाओगे।

वह ग गधे का पहली कक्षा में ठीक। फिर गधे को भूल जाना है, ग को याद रखना है। फिर ग किसी का नहीं, न गधे का, न गणेश का, ग सिर्फ ग है। जिस दिन तुम्हारा ‘ग’ गधे से और गणेश से मुक्त हो जाता है, उस दिन तुम समझना कि तुम सीख गये—ग। जब तक वह ग गधे और गणेश से बंधा रहे, तब तक तुमने सीखा नहीं। और अगर हमेशा के लिए बंध जाए, तो तुम पागल हो।

काली है और हनुमान हैं, यह सब पाठ पढ़ाने के लिए ठीक है। मगर लोग इन्हीं के सामने बंधे बैठे हैं। कुछ लोग जो जिंदगीभर हनुमान चालीसा ही पढ़ रहे हैं। इनकी जिंदगी व्यर्थ गयी! निरर्थक गयी! जीवन की सार्थकता साक्षीभाव में है। रामकृष्ण ने वही कहा कि मुझे कोई पीड़ा नहीं हो रही है, तू पी लेना पानी, काम चल जाएगा। मैंने पीआ कि तूने पीआ, सब बराबर है।

‘सर्वं ह पश्य: पश्यति सर्वमाम्नोति सर्वश इति।’

वह सबको आत्मरूप देखता है। जैसे ‘मैं’ गया, सब आत्मरूप हो जाते हैं। और सब कुछ प्राप्त कर लेता है। मैं क्या गंवाया, सब सम्पत्ति मिल गयी। ‘मैं’ के साथ विपत्ति ही विपत्ति है; दुख ही दुख है, नर्क ही नर्क है। तुमने मैं से कभी कोई सुख पाया? तुमने अहंकार से कभी कोई आनंद पाया? मगर अहंकार को भरने के लिए ही दौड़े चले जा रहे हो। इससे बड़ी मूढ़ता इस संसार में दूसरी नहीं है।

अहंकार की मूढ़ता को देखो। अहंकार से मुक्त हो जाओ। और मुक्त होना कठिन नहीं। सिर्फ छोटी—सी प्रक्रिया है, छोटी—सी कुंजी. कुंजी तो हमेशा छोटी होती है। ताले कितने ही बड़े हों, कुंजियां तो छोटी होती हैं। जरा—सा राज होता है कुंजी का और ताला खुल जाता है। कुंजी न हो तो ताला खुलना मुश्किल हो जाता है। हथौड़ी से तोड़ो तो शायद और भी मुश्किल हो जाए। फिर शायद कुंजी भी मिल जाए तो काम न आए। और तुम्हारे ताले ऐसी ही हालत में हो गये हैं। हथौडिया तो तुमने बहुत मारी हैं, कुंजियों की तलाश नहीं की। इसलिए अब जब कुंजी भी मिल जाती है, तो बड़ी देर लगती है, मुश्किल होती है। यह मुश्किल तुम्हारे ताले के साथ किये गये दुर्व्यवहार के कारण है। अन्यथा कुंजी सीधी—साफ है।

कुंजी इतनी ही है कि चलते समय जागकर चलो, देखकर चलो, कि जो चल रहा है वह शरीर है, मैं अचल हूं। मैं सिर्फ देख रहा हूं कि शरीर चल रहा है। यह बाया पैर उठा, यह दायां पैर उठा, यह मैं बायें मुड़ा, यह दायें मुड़ा. ऐसा कुछ शब्द दोहराने की जरूरत नहीं है, सिर्फ देखते रही! जैसे कोई किसी और को चलते हुए देख रहा हो। और जब विचार भीतर चलें—जो कि प्रतिपल चल रहे हैं तो देखते रही कि विचार चल रहे हैं। लड़ो मत, पकडो मत। यह अच्छा विचार है, इसको छाती से मत लगा लो; और यह बुरा विचार है, इसको धक्के देकर निकालने मत लगो; नहीं तो झगड़े में पड़ गये। साक्षी गया, कर्ता हो गये। कर्ता हुए कि अहंकार आया। लड़ना मत, झगड़ना मत, विचार को देखना, सिर्फ देखना। कुछ करना ही नहीं है, सिर्फ देखना है। बैठकर घडीभर, जब सुविधा मिल जाए, देखते रहना, विचारों का सिलसिला लगा है। जैसे कोई रास्ते के किनारे बैठ जाए और रास्ते पर चलते हुए लोगों को देखे, नदी के किनारे बैठ जाए, नदी की धार को बहते हुए देखे, ऐसे ही मन की धार को भी देखना।

और मत सोचना कि मेरा मन। क्योंकि मेरा मन है, तो आग्रह आ जाते हैं। कि अच्छे— अच्छे विचार आएं, सुंदर—सुंदर विचार आएं; फूल लगें, काटे न लग जाएं; कोई बुरा विचार न आ जाए; बस, फिर तुम मुश्किल में पड़े! तुमने मेरा माना कि अहंकार जगना शुरू हो गया। तुम्हारा कुछ भी नहीं है। क्या लेना—देना है! देखते रहना है। जैसे फिल्म पर तुम कुछ आग्रह नहीं रखते, पर्दे पर फिल्म चलती है, तुम देख रहे हो, यूं देखते रहना है।

और तुम चकित होओगे, शरीर को देखते—देखते शरीर से छुटकारा हो जाता है, मन को देखते—देखते मन से छुटकारा हो जाता है। रफ्ता—रफ्ता, आहिस्ता—आहिस्ता तुम्हारे भीतर एक नयी चीज पैदा होने लगती है, एक नया सूत्र जन्मता है : साक्षी का, सिर्फ द्रष्टा का। और वही द्रष्टा जिस दिन अपनी पराकाष्ठा को पहुंचता है, संबोधि बन जाती है, समाधि बन जाती है। उस दिन दूर रह गये बहुत शरीर और मन, दूर रह गये शरीर और मन के खेल, उस दिन तुम अपनी परमसत्ता में विराजमान हो जाते हो। वहीं परम आनंद है, परम जीवन है।

‘दीपक बारह नाम का’ प्रवचन माला से

दिनांक, 8 अक्ट्रबर 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना


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नाम सुमिर मन बावरे–(जगजीवन)–प्रवचन–8

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संन्यास परम भोग है—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 8 अगस्‍त 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्नसार:

1—अल्बेयर कामू की सत्य की परिभाषा और भगवान श्री की सत्य की परिभाषा में भिन्नता क्यों है?

2—वेदांतमार्गी संन्यासी तथा आर्यसमाज के प्रचारकों द्वारा भगवान श्री की आलोचना करने का क्या कारण होगा?

3—प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से क्यों डरता हूं?

4—एक लहर उठी, किनारे से टकराने के पहले मझधार में डूब गई। उस डूबने में आनंद घना होकर छा गया।

 

पहला प्रश्न :

 

अल्बेयर कामू का कथन है : “इंसान सदैव अपनी सच्चाइयों का शिकार होता है। एक बार सत्यों को स्वीकार करके वह उनसे अपने को मुक्त नहीं कर पाता।

सत्य की यह कैसी परिभाषा? और आप तो रोज—रोज यही दोहराते हैं कि अपना सत्य ही मुक्त करता है।

रेंद्र, अल्बेयर कामू एक विचारक है, द्रष्टा नहीं है। विचार सदा ही अंततः निराशाजनक होता है। विचार की निष्पत्ति नकारात्मक है। विचार को उसके तार्किक अंत तक ले जाया जाए तो नास्तिकता के अतिरिक्त हाथ और कुछ भी नहीं लगता। विचार का स्वरूप “नहीं’ है। “नहीं’ शब्द में विचार की प्रक्रिया समा जाती है। विचार “हां’ को जानता ही नहीं।

इसलिए विचारक की यह मजबूरी है कि जितना सोचेगा उतना ही उदास होता जाएगा। क्योंकि जितना सोचेगा उतने जीवन के भ्रम टूटेंगे। सिर्फ भ्रम ही टूटेंगे और जीवन के सत्यों का उसे कुछ भी पता नहीं चलेगा। भ्रम टूटने से रिक्तता हाथ लगती है। और रिक्तता वही नहीं है जिसे जाननेवालों ने शून्य कहा है। शून्य तो बड़ा भरा—पूरा होता है, बड़ा रस—विभोर होता है; रस से सरोबोर होता है। रिक्तता में कुछ भी नहीं है, खालीपन है। जो था वह भी गया। पुराने से हाथ छूट जाता है और नए की उपलब्धि नहीं होती।

जैसे किसी के हाथ में कंकड़—पत्थर थे और उसने मान रखा था कि हीरे हैं। मानने में कम से कम मजा तो था। उसके लिए तो हीरे ही थे। सम्हालकर रखता था, तिजोड़ी में छिपाकर रखता था। उसे तो यह भरोसा था कि हीरे हैं। कभी जरूरत होगी तो काम आ जाएंगे। उसका “कल’ अंधकारपूर्ण नहीं था, उसका भविष्य रोशन था, हीरों की जगमगाहट से भरा था, यद्यपि थे कंकड़—पत्थर; कभी काम आनेवाले नहीं थे। मगर उसकी आशा तो जगी—जगी थी! आश्वासन तो था! सपना उसके लिए अभी सच था।

विचार बता देगा कि ये कंकड़—पत्थर हैं। सोचो उस आदमी की दशा, जिसे यह पता चल जाए कि उसकी तिजोड़ी में केवल कंकड़—पत्थर हैं; पूर्ण रूप से पता चल जाए कि ये कंकड़—पत्थर हैं——सपना टूट जाए। उसके साथ ही आशा गई। उसी के साथ उत्साह गया, भविष्य अंधकारपूर्ण हो गया।

ऐसी विचार की स्थिति है। ध्यान के अतिरिक्त हीरों का तो पता ही नहीं चलेगा। ध्यान विधेय है; वह अस्तित्व में ले जाता है। विचार निषेध है; वह तुम्हारे भ्रमों को तोड़ देता है। विचार का उपयोग किया जा सकता है लेकिन ध्यान की सेवा में; ध्यान के सेवक की तरह। अगर किसी ने विचार को मालिक बना लिया तो पछताएगा; बहुत पछताएगा।

अल्बेयर कामू इसीलिए कह रहा है कि सत्य बहुत खतरनाक है, उनसे सावधान रहना। क्योंकि जिसके भी जीवन के भ्रम टूट जाते हैं उसका जीना मुश्किल हो जाता है।

ऐसा ही समझो कि कोई आदमी मंदिर में पूजा करता है; मानता है, उसकी पूजा परमात्मा तक पहुंच रही है। मानता है तो मस्त है। फिर विचार जगे, सोचने लगे कहां परमात्मा, कैसा परमात्मा! कभी देखा तो नहीं। किसने देखा? यह पत्थर की मूर्ति है जिसके सामने मैं पूजा कर रहा हूं। यह मैं ही बाजार से खरीद लाया हूं। यह आदमी की बनायी हुई मूर्ति है। परमात्मा तो वह है जिसने आदमी को बनाया। और यह कैसा परमात्मा, जिसको आदमी ने बनाया? यह परमात्मा नहीं हो सकता।

पूजा का थाल गिर जाए हाथ से। फूल बिखर जाएं। प्रार्थना खंडित हो गई। इस आदमी के जीवन में अमावस आ गई। चांद तो कभी था ही नहीं, अमावस ही थी, मगर चांद को मान रखा था। मानने में भी मजा था; वह मजा भी गया।

इसके जीवन में भ्रम टूटा, यह आधा काम है। अब इसके आगे विचार की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। इसके आगे ध्यान की प्रक्रिया शुरू होती है। बाहर भगवान नहीं है, मंदिर में भगवान नहीं है, मूर्ति में भगवान नहीं है। यह पूजा का थाल व्यर्थ हुआ। ये सब पत्थर पा लिए कि हीरे नहीं थे, मान्यता थी। सब मान्यताएं उखड़ गईं।

अगर यहीं कोई रुक गया तो आत्मघात के अतिरिक्त और कुछ बचता नहीं। जिएगा भी तो मरा—मरा जिएगा। ध्यान यहीं से शुरू होता है। अब भीतर मुड़ो बाहर के मंदिर व्यर्थ हो गए, अब भीतर के मंदिर में तलाशो। विचार व्यर्थ हो गया, विचार ने अपना काम पूरा कर दिया, अब निर्विचार को काम करने दो।

कामू निर्विचार की तरफ नहीं जाता। वह पश्चिम की मजबूरी है। पश्चिम विचार से ऊपर नहीं जाता। ध्यान पूरब की महिमा है। हमने भी खूब विचार किया है। इतना विचार किया है कि विचार बिल्कुल व्यर्थ हो गया। विचार को बिल्कुल निचोड़ लिया है।

लेकिन वहीं हम रुके नहीं। वहीं हमने परिसमाप्ति नहीं मानी। वहीं से हमने शुरुआत मानी असली यात्रा की। तीर्थयात्रा वहीं से शुरू हुई है। फिर हमने निर्विचार में झांका। फिर हम चुप हुए, मौन हुए। फिर हमने आंखें बंद कीं और आंखें बंद करके देखा। तर्क छोड़ा, सिर्फ देखा। भीतर साक्षी बने। सोचा नहीं, देखा। देखा कि क्या है भीतर? यह मैं कौन हूं? यह मेरा अस्तित्व क्या है? यह मेरा चैतन्य क्या है? उस दर्शन से फिर आशा के फूल खिलते हैं। उस दर्शन से हीरों की खदान मिल जाती है। उस दर्शन से अपना साम्राज्य मिल जाता है। विचार भ्रम तोड़ता है, ध्यान सत्य को देता है।

अल्बेयर कामू अकेला नहीं है ऐसा कहनेवाला। नीत्शे ने भी कहा है कि जिस दिन आदमी के सारे भ्रम टूट जाएंगे उस दिन आदमी जी न सकेगा। आदमी के भ्रम मत तोड़ो, आदमी विक्षिप्त हो जाएगा। उसको अपने भ्रमों में जीने दो। करने दो उसे पूजा—पाठ, जपने दो उसे मंत्र, फेरने दो उसे माला, मानने दो उसे आकाश में किसी परमात्मा को, रहने दो भयभीत नरक से, भरा रहने दो लोभ से स्वर्ग के प्रति, करने दो कामना अप्सराओं की, स्वर्ग में बहते हुए शराब के झरनों की। उसके जीवन में उत्साह रहेगा। हैं सब बातें फिजूल, लेकिन इससे क्या लेना—देना है? मस्त रहेगा। डोलता रहेगा। ऐसे मस्त रहते—रहते मर जाएगा। मिट्टी मिट्टी में मिल जानेवाली है; न कोई स्वर्ग है, न कोई मोक्ष है; न कोई परमात्मा है न कोई आगे जीवन है। मगर कहो मत। आदमी के पैर के नीचे की जमीन मत खींच लो।

और नीत्शे ने ऐसे ही नहीं कह दिया यह। उसके खुद के पैर के नीचे की जमीन खिसक गई। उसने बहुत सोचा। इस पृथ्वी पर जो सोचनेवाले लोग हुए हैं उनमें नीत्शे अग्रणी विचारक हैं। कामू इत्यादि उसके पीछे ही चलनेवाले लोग हैं; उसी की छोटी—छोटी धाराएं हैं। नीत्शे स्वयं भी पागल हो गया। जब उसके सारे भ्रम टूट गए तो कैसे जियोगे? विक्षिप्त न हो जाओगे तो क्या करोगे? धन व्यर्थ है, प्रेम व्यर्थ है, परमात्मा भी व्यर्थ हो गया। पद व्यर्थ है, प्रतिष्ठा व्यर्थ है। सब कुछ व्यर्थ हो गया, अब जियोगे कैसे? अब या तो अपने को मार डालो …..।

तो कामू ने कहा है कि वास्तविक आध्यात्मिक समस्या एक ही है कि आदमी आत्महत्या क्यों न करे? क्यों जिए? और अगर अल्बेयर कामू की तर्कसारणी को हम स्वीकार करें तो जरूर यह प्रश्न ही सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। ईश्वर नहीं, मोक्ष नहीं, तो सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न ही यह है कि आदमी जिए ही क्यों? जब सब व्यर्थ है तो चुपचाप मर जाने में ज्यादा सार है। क्यों इतना ऊहापोह ? क्यों इतनी आपाधापी? क्यों यह चिंता, बेचैनी? क्यों यह दुःखस्वप्नों का जाल? क्यों न चुपचाप गिर जाएं मिट्टी में और सो जाएं सदा को? क्यों न शांत हो जाएं? क्यों ये मन के सारे तनाव और चिंताएं खींचते फिरें?

या तो आत्महत्या कर लें, और अगर आत्महत्या करने में भय लगता हो तो विक्षिप्तता बचती है। वही नीत्शे को हुआ। नीत्शे विक्षिप्त होकर मरा। तो अपने अनुभव से कह रहा है। जब वह विक्षिप्त हो गया था तब भी कभी—कभी बीच में जब उसे होश आता था तो वह यही कहता था : मनुष्यों के भ्रम मत तोड़ो। मैंने अपने भ्रम तोड़े और सिवा पागलपन के कुछ भी हाथ न लगा। मनुष्य को जीने दो उसके भ्रमों में। मनुष्य बिना भ्रमों के नहीं जी सकता। भ्रम उसका आधार है, उसकी बुनियाद है।

लेकिन यह बात अधूरी है। और ध्यान रखना, अधूरे सत्य …..सच्ची है मगर अधूरी है; अधूरे सत्य असत्यों से भी ज्यादा भयंकर होते हैं। तुमसे छीन तो लेते हैं कुछ, लेकिन तुम्हें देते कुछ भी नहीं। तुम्हारे हाथ में कांटा था, वह तो छिन जाता है लेकिन फूल नहीं आता। माना कि कांटा दुःख भी दे रहा था तो भी कम से कम कुछ तो हाथ में था! दुःख ही सही, अकेले तो नहीं थे! कुछ व्यस्त होने का उपाय तो था। वह भी गया। बीमारी ही सही …..।

इस बात को खयाल रखो कि मनुष्य रिक्तता की बजाय बीमारियां पसंद करेगा। कम से कम भरा रहता है। रिक्तता की बजाय उलझनें पसंद करेगा। कम से कम उलझा तो रहता है। रिक्तता तो बहुत भयानक है, बहुत घबड़ानेवाली है। रिक्तता में जिसने भी झांका वह पागल हो जाएगा। उसने एक ऐसे जगत में देख लिया जहां कोई अर्थ नहीं है।

कामू और उस जैसे विचारकों का जन्म पश्चिम में हुए दो महायुद्धों के बाद हुआ। पहला महायुद्ध हुआ, पश्चिम के बहुत—से भ्रम टूट गए। फिर दूसरा महायुद्ध हुआ और उसने सारे भ्रम तोड़ डाले। उसने मनुष्य की पाशविकता उघाड़कर रख दी, उधेड़कर रख दी। उसने बता दिया कि मनुष्य मनुष्य नहीं है, यह बिल्कुल जंगली पशु है। मनुष्यता केवल ऊपर का आवरण है। खोल ओढ़ रखी इसने। भेड़िए ने भेड़ की खाल ओढ़ रखी है।

जो पश्चिम ने देखा दूसरे महायुद्ध में वह इतना भयानक था, इतना दुःखांत था …। कैसे आदमी काटे गए, कैसे स्त्रियों का बलात्कार किया गया, कैसे बच्चे जलाए गए! और फिर हिरोशिमा में पूर्णाहुति हुई। अणुबम पर जाकर युद्ध अपना पूर्णविराम पाया। इतनी भयंकर हिंसा न कभी हुई थी, न कभी सोची गई थी। और आदमी ऐसा करेगा? आदमी, जिसको कि शास्त्र कहते हैं, बस देवताओं से एक कदम नीचे, एक सीढ़ी नीचे!

दूसरे महायुद्ध ने सिद्ध कर दिया कि आदमी पशुओं से एक सीढ़ी नीचे है। पशु भी इतने भयंकर नहीं हैं। तुम जानते हो न! कोई पशु अपनी ही जाति के पशुओं को नहीं मारता। कुत्ते कुत्ते की हत्या करते नहीं पाए जाते; न भेड़िए भेड़ियों की हत्या करते हैं, न सिंह सिंहों को मारते हैं। सिर्फ आदमी अकेला प्राणी है सारी पृथ्वी पर, जो आदमी को मारता है। कोई पशु—पक्षी अपनी जाति को नहीं मारते। और दूसरी जातियों को भी मारते हैं तो सिर्फ भोजन की दृष्टि से, भूख के कारण। शिकार खेलने नहीं जाते। आदमी अकेला है जो शिकार खेलता है। कोई सिंह शिकार नहीं खेलता।

सुनी है मैंने कहानी कि एक सिंह और खरगोश एक होटल में पहुंचे। खरगोश ने नाश्ते का ऑर्डर दिया। वेटर ने पूछा, “और आपके मित्र के लिए क्या लाऊं?’ खरगोश ने कहा कि “अगर मेरे मित्र को नाश्ते की जरूरत होती तो मैं उनके साथ हो ही नहीं सकता था। वे नाश्ता कर ही चुके होते। वे बिल्कुल भरे पेट हैं इसलिए तो मैं उनके साथ हूं।’

सिंह मारता तभी है जब भूखा हो। सिर्फ आदमी खेल में भी मारता है; मारने में भी रस लेता है। मारने में एक कुत्सित रस है। ध्वंस में एक कुत्सित रस है।

दूसरे महायुद्ध ने आदमी की पाशविकता इस बुरी तरह से प्रकट कर दी कि उसका सब परमात्मा, उसके मंदिर—मस्जिद, उसके चर्च, सब झूठे हो गए। और एक बात साथ हो गई कि अच्छी—अच्छी बातों के पीछे भी मनुष्य अपनी बुराइयों को ही छिपाए खड़ा है। बातें करता है चर्च की, इंतजाम करता है जिहाद का, धर्मयुद्ध का। बातें करता है शांति की, फिर कहता है शांति की रक्षा के लिए युद्ध करना होगा। मजा देखो! शांति की रक्षा के लिए युद्ध करना होगा। बातें करता है प्रेम की, लेकिन अगर इसके प्रेम को ठीक से देखो तो हिंसा से बदतर, घृणा से बदतर। इसके प्रेम का शिकंजा जिसके गले पर पड़ जाता है, उसकी ही फांसी लग जाती है। प्रेम सिर्फ कारागृह बनाता हुआ मालूम पड़ता है।

आदमी बातें बड़ी अच्छी करता है। बस, बातें करने में कुशल हो गया है। भीतर बड़ी नग्नता है; और बड़ी भयंकर नग्नता है। ऊपर—ऊपर सम्हला दिखता है, भीतर बिल्कुल पागल है।

इसीलिए अल्बेयर कामू, सार्त्र और उस जैसे विचारकों ने एक निराशा का दर्शनशास्त्र पश्चिम को दिया : “अस्तित्ववाद।’ पूर्ण निराशा का शास्त्र है। आदमी के भ्रम मत तोड़ो।

इसलिए कामू कहता है कि इंसान सदैव अपनी सच्चाइयों का शिकार होता है। उसे सच्चाइयां बताओ ही मत। उसे चुपचाप जीने दो अपने भ्रम में। भ्रम मधुर है। सपना प्रीतिकर है। उसको सपना देखने दो, तोड़ो मत उसका सपना। तोड़ दोगे, फिर उसे सुलाना मुश्किल हो जाएगा। फिर तुम पछताओगे कि इसको जगाया क्यों? फिर उसे वापिस नींद में पहुंचाना बहुत कठिन है। एक बार नींद टूट गई तो फिर कोई उपाय उसे सुलाने का नहीं है।

इसलिए उसे सोने दो, चुपचाप सोने दो। उसे अपने सपने देखने दो, उसे अपना भ्रम देखने दो। पूजने दो पत्थर, जाने दो काबा। मानने दो भूत—प्रेत——जो उसे मानना हो। गंडेत्ताबीज, पूजा—प्रार्थना——जो उसे करना हो करने दो। उसे सत्य मत कहो क्योंकि सत्य भयानक है। ऐसा उनको अनुभव हुआ; क्योंकि जो सत्य युद्धों में प्रकट हुआ वह भयानक था।

अहरमन हंस पड़ा इस तर्जे—जहां बानी पर

कंगूरे झुक गए, ईवानों के हिलने लगे दर

किस कदर—बे—बसो—कम माया नजर आता है

गरां कद्र को महदूद किया जाता है

फिक्रे—इंसानी की इस दर्जा मुजैय्यन शहकार

हर्पे बरबादिएत्तहजीब हुआ जाता है

अपने इन हाथों ने अपना ही गला घोंट दिया

काफिलेवालों ने खुद काफिले को लूट लिया

हमने चाहा था कि इस कूवते—बे—पायां से

अपनी खुद—साख्ता दोजख को बना लें जन्नत

न कि उम्मीद जो कुछ थी भी वही मिट जाए

जिसे—कुर्बानी की दुनिया में रही क्या कीमत

फटके जर्रे भी फना हो गए, कुछ कर न सके

दामने—जीस्त ही कर गए, भर न सके

हमने अणु भी तोड़ लिया——फटके जर्रे भी फना हो गए। हमने अणु भी तोड़ ािया, इतनी शक्ति पैदा कर ली मगर फायदा क्या हुआ?

फटके जर्रे भी फना हो गए, कुछ कर न सके

दामने—जीस्त ही कर गए, भर न सके

आदमी की जिंदगी की जेब और खाली हो गई, भरी नहीं। सोचा तो हमने कुछ और था। हमने चाहा था कि उस कूवते—बे—पायां से——विज्ञान के द्वारा दी गई शक्ति से, इस महान शक्ति से …..

हमने चाहा था कि इस कूवते—बे—पायां से

अपनी खुद—साख्ता दोजख को बना लें जन्नत

——कि हम इस नरक को, नरक जैसी पृथ्वी को स्वर्ग जैसा बना लेंगे, मगर बात कुछ और हुई। थोड़े—बहुत सपने भी थे स्वर्ग के, वे भी नष्ट हो गए। पृथ्वी और नरक हो गई।

अहरमन हंस पड़ा इस तर्जे—जहां बानी पर

शैतान हंसने लगा आदमी को देखकर। हंसने लगा क्योंकि इतना तो शैतान भी चेष्टा करता तो आदमी को बरबाद नहीं कर सकता था। आदमी तो एक कदम आगे निकल गया।

अहरमन हंस पड़ा इस तर्जे—जहां बानी पर

कंगूरे झुक गए ईवानों के हिलने लगे दर

——सब कंप गया। सारे मंदिर कंप गए, सारे महल कंप गए।

ऐसे दूसरे महायुद्ध के बाद जो छाया पड़ी पश्चिम के चित्त पर, उस छाया का परिणाम है अस्तित्ववाद। अस्तित्ववाद कहता है, मत कहो आदमी से उसके सत्य। एक बार सत्य जान लेगा तो फिर तुम बहुत पछताओगे। आदमी को बचकाना ही रहने दो; उसे प्रौढ़ मत बनाओ।

मगर यह बात अधूरी है। हमने और आगे भी तलाश की है। जहां कामू और सार्त्र रुक गए हैं वहां बुद्धों ने प्रवेश किया है। उन्होंने विचार के पार ध्यान में झांका। रिक्तता मिट जाती है, पूर्ण का अवतरण होता है। ध्यान परम आलोक से भर जाता है। शाश्वत जीवन की प्रतीति होने लगती है। मान्यता नहीं; मान्यता के तो बुद्ध भी खिलाफ हैं, मैं भी खिलाफ हूं। मान्यता तो तोड़नी ही होगी। लेकिन कामू डरता है कि मान्यता टूट गई तो फिर क्या होगा? कोई डरने का कारण नहीं है। मान्यता टूट जाए तो हम आदमी को जानने की तरफ ले चलेंगे।

मेरे देखे तो जगत में जो निराशा फैली है, यह सूरज के पहले रात का घना हो जाना है; और कुछ भी नहीं है। सुबह होने के पहले रात खूब काली हो जाती है, बस इतना ही। इस निराशा से कुछ निराश होने की जरूरत नहीं है। यह निराशा एक बड़ी आशा का जन्म बनेगी।

इसलिए पश्चिम में ध्यान की तलाश शुरू हुई है। विचार ले आया आखिरी कगार पर। अब लौटने का कोई उपाय नहीं है। जीवन के सारे खिलौने टूट गए। जीवन की सारी मान्यताएं उखड़ गईं। अब किताबों में भरोसा नहीं है आदमी को। अब आदमी ध्यान की तलाश में निकला है।

मुझसे लोग पूछते हैं कि भारत के लोग ध्यान में इतने उत्सुक कयों नहीं है? भारत अभी निराश नहीं है। भारत ने अभी कुछ देखा नहीं। भारत पहले महायुद्ध से भी बच गया, दूसरे महायुद्ध से भी बच गया। भारत ने महाभारत के बाद कोई युद्ध ही नहीं देखा है।

और महाभारत भी कभी हुआ कि नहीं, पता नहीं। और हुआ भी हो तो छोटी—मोटी लड़ाई! क्योंकि कुरुक्षेत्र में भूमि इतनी नहीं है कि बहुत बड़े युद्ध हो सके। अठारह अक्षौहिणी सेनाएं तो वहां खड़ी भी नहीं हो सकतीं, जितनी लिखी हैं। लड़ने की तो बात दूर, खड़ा होना ही असंभव है। लड़ने के लिए थोड़ी जगह तो चाहिए! भाग—दौड़ के लिए कोई उपाय चाहिए। हाथी—घोड़ों के लिए कोई जगह चाहिए, रथों के लिए कोई जगह चाहिए। वहां इतनी जगह नहीं है। कुरुक्षेत्र छोटी—सी जमीन है।

भारत ने, पश्चिम ने जो मनुष्य की नग्नता देखी है, वह नहीं देख पाया। और भारत अभी इतना दरिद्र है कि विचार भी नहीं कर पाया, ध्यान कैसे करें? अभी विचार में भी हीन है। अभी तो भारत अपनी मान्यताओं में डूबा हुआ है, अभी सपने देख रहा है।

अभी भारत में संत—महात्मा उसको व्यर्थ की पिटी—पिटायी पुरानी बातें दोहराए चले जा रहे हैं। उसको अभी लगाए जा रहे हैं हवन में, यज्ञ में। अभी भी करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। विश्वशांति के लिए यज्ञ हो रहा है! एक पति—पत्नी में तो शांति करवा कर दिखला दो यज्ञ से। विश्वशांति करने चले हो….. जरा मूढ़ता की कुछ तो सीमा रखो।

और कितने यज्ञ हो गए, विश्वशांति होती ही नहीं। फिर भी तुम्हें समझ में नहीं आती कि तुम्हारे यज्ञों से विश्वशांति नहीं हो सकती। लेकिन भारत अभी इसी तरह की बातों में लगा हुआ है। आग में गेहूं फेंकता है, घी उड़ेलता है, सोचता है विश्वशांति हो जाएगी।

और न केवल गैर पढ़े—लिखे लोग, पढ़े—लिखे लोग भी व्यर्थ की बातें खोजते हैं। वे कहते हैं कि इससे इस तरह का धुआं उठता है कि उस धुएं से शांति के बादल बन जाते हैं। सारी दुनिया में शांति का वातावरण हो जाता है। और मजा यह है कि वे जो पुजारी यज्ञ करते हैं, वे ही यज्ञ के बाद लड़ते हैं कि किसको ज्यादा मिल गया, किसको कम मिला। बादलों का असर उन पर भी नहीं होता, जिन धुएं के बादलों की बात हो रही है।

और विज्ञान के इस युग में इस तरह की बातें बच्चों की किताबों में हों तो चलेगा, परियों की कथाओं में हों तो चलेगा। अगर तुम्हारे यज्ञ से ऐसा धुआं पैदा होता है तो बड़ा आसान है मामला। दो आदमी लड़ रहे हों, वहां जाकर यज्ञ का धुआं छोड़कर देखो; लड़ाई और बढ़ जाएगी। वे दोनों तुम पर भी टूट पड़ेंगे कि तुम यह धुआं यहां क्यों ले आए? तुमने समझा क्या है? तुम जरा प्रयोग करके तो देख लो। कहीं भी युद्ध इस तरह बंद हो सकते हैं——घी के जलाए धुएं से और तुम्हारे मंत्रोच्चारों से? और मंत्रोच्चार करनेवाले इतनी कलह में हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। उनका सारा काम लड़ाई झगड़ा है। लेकिन भारत अभी इस तरह की बातों में उलझा है। अभी विचार की भी क्षमता नहीं है, इसलिए ध्यान की तो बात ही अलग।

यहां आते हैं भारतीय मित्र। उनमें से अधिक तो सिर्फ देखने आते हैं कि दूसरे क्या कर रहे हैं। भेद साफ है : पश्चिम से जो भी आता है वह भाग लेना चाहता है। वह कहता है, हम भागीदार होना चाहते हैं, हम अनुभव करना चाहते हैं। भारतीय मित्रों में से थोड़े—से ही——जो विचार की क्षमता को उपलब्ध हुए हैं, और जिन्हें दिखाई पड़ना शुरू हुआ है कि विचार के आगे जाना जरूरी है, वे सम्मिलित होते हैं। बाकी तमाशबीन होते हैं। बाकी वे कहते हैं, हम खड़े होकर देखेंगे कि क्या हो रहा है। और खड़े होकर सोचते हैं कि समझ गए वे कि ध्यान क्या है। वे सोचते हैं बात उनकी समझ में आ गई कि यही ध्यान है। ध्यान भीतरी घटना है, बाहर से देखने का कोई उपाय नहीं है।

इसलिए भारत की उत्सुकता ध्यान में नहीं है, भारत की उत्सुकता धन में है। और तुम लाख कहो कि भारत धार्मिक देश है। कभी रहा होगा, अभी तो नहीं है। और कभी रहा होगा यह भी संदिग्ध है। क्योंकि तुम तो अभी भी यही दोहराए चले जा रहे हो, यही तुम सदा दोहराते रहे हो कि हम धार्मिक हैं।

तुमने धार्मिक होने को मान्यता की बात बना ली है, विश्वास की बात बना ली है। धार्मिक होना विश्वास की बात नहीं है, धार्मिक होना एक जीवंत रूपांतरण है। जब तक तुम्हारे सारे विश्वास गलकर न गिर जाएं, और तुम्हारी सब धारणाएं न गिर जाएं तब तक तुम जानने के मार्ग पर कदम नहीं उठा सकते।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, अल्बेयर कामू ठीक कहता है। वहां तक तो तुम जाओ, मगर वहां रुक मत जाना। रुके तो गलती होगी। उससे आगे जाना है। अल्बेयर कामू तुमसे छीन लेगा, जो—जो व्यर्थ है। फिर उसके बाद ही तुम्हारे जीवन में सार्थक की खोज शुरू होगी। कंकड़—पत्थर तो कंकड़—पत्थर हो गए, अब हीरे कहां हैं? हीरे भी हैं। और हीरे तुम्हारे भीतर हैं, कंकड़ पत्थर बाहर हैं।

बाहर जो है, सब अधर्म है——तुम्हारे तीर्थ भी, तुम्हारे मंदिर—मस्जिद भी; तुम्हारे पंडित—पुरोहित भी; तुम्हारे मंत्र—यज्ञ—हवन भी। बाहर जो है, सब पाखंड है। अगर परमात्मा को खोजना है तो भीतर खोजो। अकेले चलो। एकला चलो रे। अपने भीतर चलो। जहां कोई न रह जाए, कोई दूसरा न रह जाए, दूसरे की छाया भी न रह जाए; जहां कोई विचार की तरंग न रह जाए, जहां सब निर्विचार हो, उसी निर्विचार चैतन्य में तुम जानोगे कि ईश्वर है। ईश्वर ही है। और फिर वह ईश्वर हिंदुओं का ईश्वर नहीं है, और न मुसलमानों का ईश्वर है, न ईसाइयों का ईश्वर है। वह मात्र ईश्वर है।

और तब श्रद्धा का आविर्भाव होता है। श्रद्धा ज्ञान से उपलब्ध होती है। विश्वास अज्ञान में उत्पन्न होता है। और विश्वास को श्रद्धा मत समझ लेना। विश्वास धोखा है। इसलिए मैं तुममें विश्वास पैदा नहीं करवाना चाहता। मैं तो तुम्हें श्रद्धा देना चाहता हूं, विश्वास छीन लेना चाहता हूं। विश्वास झूठा सिक्का है; श्रद्धा जैसा लगता है। झूठे सिक्के को लगना ही चाहिए ठीक सिक्के जैसा, तभी तो चल सकता है बाजार में; नहीं तो चलेगा कैसे? ठीक असली सिक्के जैसा मालूम पड़ना चाहिए। वैसा ही विश्वास मालूम पड़ता है।

विश्वास ने आदमी को बहुत भरमाया है, बहुत भटकाया है। और कामू ठीक कहता है, अगर विश्वास छीन लोगे, आदमी घबड़ा जाएगा। इसलिए विश्वास केवल वे ही छीनने में समर्थ हैं, उन्हीं को छीनना चाहिए जो श्रद्धा दे सकते हों। सद्गुरु ही केवल विश्वास छीन सकता है। क्योंकि उसे भरोसा है कि जब तुम रिक्त हो जाओगे तो तुम्हें शून्य होने की कला भी सिखा देगा।

और रिक्तता और शून्यता पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। भाषाकोश में पर्यायवाची हैं, जीवन के कोष में नहीं हैं। रिक्तता का मतलब है, कुछ भी नहीं है। शून्य का मतलब है, सब कुछ का स्रोत है। शून्य विधायक शब्द है। शून्य में पूर्ण समाया हुआ है, सोया हुआ है, प्रच्छन्न है। रिक्त में कुछ भी नहीं है। रिक्तता सिर्फ खाली है। रिक्तता में कोई कैसे जिएगा?

इसलिए कामू भी ठीक कहता है कि अगर आदमी रिक्त हो गया तो फिर जियोगे कैसे? फिर अपना ही सत्य मार डालेगा; फिर उससे छुटकारा पाना मुश्किल है।

मैं तुमसे उसके आगे की बात कह रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं, यह असत्य नहीं है, यह केवल असत्य का छूटना हुआ। यह केवल असत्य का छूटना सत्य का हो जाना नहीं है। पैर से कांटा निकल गया, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारे हाथ में फूल आ गए। पैर से कांटा निकल गया, वह अच्छा हुआ। कांटा चुभा रहता तो फूल को खोजना मुश्किल था। पैर में कांटा चुभा था, चलते कैसे? अब पैर स्वस्थ हैं, अब तुम चल सकते हो। अब फूल की खोज हो सकती है। विचार का कांटा निकल जाए तो ध्यान का फल खोजा जा सकता है। इसलिए समस्त ध्यानियों ने निर्विचार को समाधि कहा है।

सत्य तो मुक्त करता है। तुमने जिसे सत्य मान रखा है वह सत्य नहीं है। इसलिए जब तुम थोड़े जागोगे, थोड़ा सोचोगे तो पहले तो घबड़ाहट आएगी।

मेरे पास आने में वही तो घबड़ाहट है, वही तो डर है। मेरे पास बहुत लोग आना चाहते हैं और भय के कारण नहीं आ पाते। निरंतर मुझे पत्र मिलते हैं लोगों के कि हम आना चाहते हैं, मगर डर लगता है, कहीं आप हमारे विश्वास न छीन लें।

विश्वास तो छीनने ही पड़ेंगे। जगह खाली करनी पड़ेगी। सिंहासन खाली करना पड़ेगा कचरे से, तभी परमात्मा आएगा; तभी विराजेगा तुम्हारे भीतर।

मैं जो कर रहा हूं, दोनों प्रक्रियाएं उसमें सम्मिलित हैं। इसलिए विचार से मैं कुछ झिझकता नहीं हूं। विचार करने को मैं राजी हूं। जितने दूर तक विचार ले जा सकता है उसके साथ चलने को राजी हूं। इसलिए बहुत—से लोग मेरे विचारों में ठीक नीत्शे का खतरा पाते हैं। और ठीक है उनका पाना। उतने दूर तक वे सच हैं लेकिन और थोड़े आगे चलो। मेरी तो समझ ही यही है कि नीत्शे अगर पूरब में पैदा हुआ होता तो बुद्ध होता। बुद्ध की क्षमता का आदमी था। विचार उतना ही प्रगाढ़ था, उतना ही प्रखर था। वैसी ही धार थी जैसी बुद्ध की। लेकिन बस, विचार पर ही रुक गया। विचार ध्यान न बन पाया। और व्हीं अटकाव हो गया। मैं राजी हूं नीत्शे से जहां तक नीत्शे जाता है, लेकिन उससे भी आगे मैं चलता हूं।

तो ठीक कहता हूं, नीत्शे, फ्रायड कि आदमी भ्रमों में जीता है। उसके साथ ऐसा मत करना कि तुम भ्रम छीन लो; नहीं तो वह जिएगा कैसे? जैसे छोटे बच्चे के खिलौने छीन लो तो छोटा बच्चा जिएगा कैसे? लेकिन क्या तुम सोचते हो, ऐसी प्रौढ़ता नहीं आती कभी जब खिलौने बच्चा खुद ही छोड़ देता है? फिर भी तो तुम जीते हो बिना खिलौनों के। एक दिन ऐसा लगता था कि बच्चा बिना खिलौनों के नहीं जी सकता। रात भी अपने खिलौने अपने साथ छाती से लगाकर सोता है। सुबह होते ही पहले अपने खिलौने को तलाशता है। पर हम जानते हैं कि कल प्रौढ़ हो जाएगा, यह खिलौना आज जो इतना प्यारा है, किसी दिन कोने में पड़ा रह जाएगा, कचरेघर में फेंक दिया जाएगा। इसे फिर इसका ध्यान भी न आएगा।

ऐसे ही तुम्हारे विश्वास हैं; बचपन के खिलौने हैं। उन्हें तो छोड़ना ही होगा। पीड़ादायी भी है उन्हें छोड़ना। कष्ट भी होगा। कांटा निकाला जाता है तो भी तो तकलीफ होती है। मवाद भरी हो और उसे निकालना हो देह से तो भी तो तकलीफ होती है। सभी तरह की सर्जरी तकलीफ की होती है। और यह तो देह की ही सर्जरी नहीं है, आत्मा की सर्जरी है। लेकिन एकबार सारी मवाद निकल जाए, सारे भ्रम गिर जाएं तो तुम तैयार हो जाओगे उड़ान भरने को। हां, वहीं रुकोगे तो कामू की बात सत्य हो जाएगी। वहां रुकना मत; उससे आगे जाना है। जब तक शून्य न मिल जाए, समाधि न मिल जाए तब तक रुकना ही मत। समाधि है; और तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

दूसरा प्रश्न :

 

एक बार स्वामी मनोहरदास वेदांती हमारे गांव आए। आपके संबंध में चर्चा होने पर कहने लगे, उनका सब अललटप्पू है। इसी प्रकार आर्यसमाज के प्रचारक भिक्खु ने जब आपकी माला देखी तो कहने लगे, उनका संन्यास युवकों को फ्रस्ट्रेशन की तरफ ले जा रहा है। इन दोनों महानुभावों ने आम सभाओं में इन बातों को कई रूपों में दोहराया। इन्हें आपसे क्या परेशानी हो सकती है?

वेदांत, मुझसे इन्हें परेशानी नहीं होगी तो किससे इन्हें परेशानी होगी? स्वाभाविक है। मैं उनकी जड़ें काट रहा हूं। उनकी नाराजगी बिल्कुल स्वाभाविक है। मैं उनके सारे धंधे को नष्ट किए दे रहा हूं, उनके व्यवसाय की मूल आधारशिलाएं गिरा रहा हूं।

मैं सिर्फ ऊपर—ऊपर हमला नहीं कर रहा हूं, मेरा हमला गहरा है। अगर मैं इतना ही कहूं कि ऊपर—ऊपर का कुछ भेद करना है। तुम ऐसे कपड़े पहनाते हो भगवान को, मैं ऐसे कपड़े पहनाऊंगा भगवान को। तुम इस तरह खड़ा करते हो, मैं इस तरह खड़ा करूंगा। तुम आंखें खुली रखते हो, मैं आंखें बंद रखूंगा भगवान की। तुम कहते हो तीन चेहरे हैं, मैं कहूंगा चार हैं। अगर इस तरह का झगड़ा होता तो ऊपर—ऊपर का झगड़ा था; उसमें कोई अड़चन की बात नहीं थी। इस तरह के झगड़े किसी तरह का कोई भेद पैदा नहीं कर पाते।

बुद्ध के बाद पच्चीस सौ साल में फिर से एक बार एक घटना घट रही है। बुद्ध के समय में ऐसा हुआ था कि सारे पंडित—पुरोहित, सारे साधु—संत, सारे महानुभाव—महात्मा बुद्ध के खिलाफ हो गए थे। सारे के सारे! एक बात पर राजी हो गए थे कि बुद्ध गलत हैं।

ऐसा फिर हो रहा है। एक बात पर तुम्हारे साधु—संत, महानुभाव—महात्मा, पंडित—पुरोहित राजी होते जा रहे हैं——मेरे विरोध में एकदम राजी हैं। उनके आपस में कितने ही झगड़े हों, आपस में कितने ही विवाद हों ….. अब वेदांती और आर्यसमाजी का आपस में बहुत विवाद है, लेकिन एक संबंध में कम से कम वे राजी हैं——मेरे विरोध में राजी हैं। मैं इससे भी खुश होता हूं कि चलो इतनी एकता आयी, यह भी क्या कम है? कुछ एकता तो आयी; किसी बहाने सही! मैं निमित्त बना, यह भी अच्छा; है यह भी सौभाग्य। चलो, इसी कारण वे इकट्ठे हो जाएं।

तुम कहते हो, एक सज्जन ने कहा कि मेरा….. उनका सब अललटप्पू है। यही तो उन्होंने बुद्ध के लिए कहा है। यही उन्होंने महावीर के लिए कहा है। कुछ नई बात वे नहीं कह रहे हैं। जो बात उनकी समझ में नहीं आती वह अललटप्पू मालूम होती है।

नास्तिक यही बात तो आस्तिकों के संबंध में कहते हैं कि ईश्वर इत्यादि सब अललटप्पू। है ही नहीं; सब बकवास है। चार्वाकों ने क्या कहा है? चार्वाकों ने यही तो कहा है कि यह सब पंडितों—पुरोहितों की बकवास है, अललटप्पू है। कहीं कोई ईश्वर नहीं है। मरने के बाद कोई लौटना नहीं है। पागलो, इनकी बातों में मत पड़ना। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। डरो ही मत। ऋण भी लेकर पीना पड़े तो घी पियो क्योंकि लौटकर कौन आता है! किसको चुकाना है! कौन चुकानेवाला, कौन लेनेवाला, कौन देने वाला? सब मर गए, सब मिट्टी में मिल गए। पंडित—पुरोहितों की बकवास में मत पड़ो। न कोई पुण्य है, न कोई पाप है, सब अललटप्पू है।

यही तो चार्वाक ने कहा। चार्वाकों की समझ में नहीं बात आयी परलोक की। यही तो माक्र्स ने कहा है धार्मिकों के संबंध में। यही तो फ्रायड ने कहा है धार्मिकों के संबंध में।

जो बात जिसकी समझ में नहीं आती है, वह सोचता है कि होनी ही नहीं चाहिए। क्योंकि यह तो मानने को तैयार ही नहीं होता कि कोई बात ऐसी भी हो सकती है। जो उसकी समझ के आगे हो। अपनी समझ और किसी बात से छोटी पड़ती हो ऐसा तो अहंकार मानने को राजी नहीं होता। तो दूसरा उपाय यही है कि यह बात ठीक होगी ही नहीं। यह बात गलत ही होगी। जो मेरी समझ के बाहर है वह कैसे ठीक हो सकती है? मेरी समझ कसौटी है।

अब तुम कहते हो कि स्वामी मनोहरदास वेदांती हमारे गांव आए। आपके संबंध में चर्चा होने पर कहने लगे, उनका सब अललटप्पू है। ठीक ही कह रहे हैं। क्योंकि मैं जिस समाधि की बात कर रहा हूं, जिस शून्य की बात कर रहा हूं, मैं जिस श्रद्धा की बात कर रहा हूं, वह उनकी समझ में नहीं आयी होगी। आ जाती तो अपने को वेदांती कहलवाते? आ जाती तो किताबों से बंधते? आ जाती तो विशेषण लगाते?

जिसकी बात समझ में आ जाएगी उसके सारे विशेषण गिर जाएंगे। जो शून्य को समझ लेगा, अब शून्य पर कैसे विशेषण लगाओगे? शून्य वेदांती होगा कि आर्यसमाजी होगा? शून्य तो बस शून्य होगा। शून्य में भेद नहीं होगा। शून्य जैन होगा कि हिंदू होगा? शून्य तो बस शून्य होगा।

तुम यहां इतने लोग बैठे हो। तुम सब सोच रहे हो तो तुम सब अलग—अलग हो। कोई हिंदू है तो हिंदू ढंग से सोच रहा है। कोई मुसलमान है तो मुसलमान ढंग से सोच रहा है। कोई ईसाई है तो ईसाई ढंग से सोच रहा है। लेकिन अगर तुम सब निर्विचार होकर बैठ जाओ यहां; न हिंदू सोचे, न ईसाई सोचे, न जैन सोचे। अगर सब असोच की शांत अवस्था में हो जाएं तो फिर क्या भेद होगा? क्या हिंदू का शून्य अलग होगा मुसलमान के शून्य से? शून्य तो बस एक ही प्रकार का होगा।

विचार में भेद होते हैं; निर्विचार में भेद नहीं होते। मन में भेद होते हैं, अमन में कैसे भेद? उन्मनी दशा में कैसे भेद? जहां मन ही न रहा वहां सब भेद गए।

उनको लगा होगा अललटप्पू। उनकी समझ से ऊपर जाती होगी। इतनी उनकी उड़ान न होगी। और जहां तक तो संभावना इस बात की है कि उन्हें पता भी न होगा कि मैं क्या कह रहा हूं। ऐसे लोग हैं जो मुझे पढ़ते भी नहीं और मेरे संबंध में वक्तव्य देते हैं। उन्हें पता भी नहीं होगा कि यहां क्या हो रहा है।

अज्ञान में वक्तव्य देना बहुत आसान है। जानकर वक्तव्य देनेवाला आदमी झिझकेगा, सोचेगा, विचारेगा, अनुभव करेगा। अगर वे ईमानदार हों तो उन्हें आकर यहां अनुभव करना चाहिए। अनुभव करके कहना चाहिए अललटप्पू। एक घूंट तो आकर पीना चाहिए, थोड़ा स्वाद लेना चाहिए। स्वाद से घबड़ाहट है। यहां पास आने में भी भय है।

मेरी किताबें भी तुम्हारे साधु—संत पढ़ते हैं तो छिपाकर पढ़ते हैं। किसी को पता न चल जाए कि मेरी किताब पढ़ रहे हैं। इतना भय? इतनी नपुंसकता? इतनी कमजोरी? साधु होने चले हो? जीवन की महायात्रा पर निकले हो और इतना कमजोर मन कि किसी को पता न चल जाए! पढ़ भी लेते हैं तो बताते नहीं कि उन्होंने मेरी किताब पढ़ी है। और मैं जो करने को कह रहा हूं वह तो कर ही नहीं सकते क्योंकि उसमें तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।

एक जैन मुनि ने मुझे पत्र लिखा है कि आप कहते हैं, मुझे बात भी जंचती है, ध्यान करना भी चाहता हूं लेकिन इतने जोर—जोर से श्वास लूंगा, सबको पता चल जाएगा। और सबको पता है कि यह किसका ध्यान है। तो मैं यह भी नहीं कह सकता कि पंतजलि को पढ़कर कर रहा हूं कि …..। यह तो सबको जाहिर है। बस, जोर से श्वास ली कि उन्होंने कहा, बिगड़ा यह आदमी।

मैंने उनको कहा कि आप सुना है कि बंबई आते हैं——तब मैं बंबई था——तो आप यहीं आकर कर लेना। वे बंबई भी आ गए। बड़ी बेचारों को चोरी करनी पड़ी। किसी और के घर जा रहे हैं ऐसा बताकर मुझसे मिलने आए। मुझसे कहा कि किसी को पता न चले। हम ऐसे ही बीच में आ गए हैं। बताकर कुछ और निकले हैं।

अब जैन मुनि को मुझसे मिलने में झूठ बोलना पड़े तो बड़ी दयनीय दशा हो गई। कहा, आपकी बातें ठीक भी लगती हैं और हम वर्षों से कोशिश करके ध्यान की हार भी चुके हैं। अब एक आपमें ही आशा है कि शायद ध्यान लग जाए; और तो हमारा लगता नहीं। तो हम आकर रोज सुबह—सुबह घूमने निकलेंगे, यहां आकर ध्यान कर जाएंगे। एक पंद्रह दिन आकर आपके पास ध्यान कर लेना है। मगर किसी को पता न चले। चोरी—चोरी कर लेना है।

मैंने कहा, पंद्रह दिन तुम चोरी—चोरी कर लोगे, मगर पंद्रह दिन से कुछ हो नहीं जाएगा। स्वाद लगेगा, करना तो फिर आगे भी पड़ेगा। कैसे करोगे? कहां करोगे? पता तो चलने ही वाला है। इसको छिपाया नहीं जा सकता।

पंद्रह दिन करके भी गए। और बड़े आनंदित होकर गए। जीवन में शायद कभी उछले—कूदे नहीं होंगे, नाचे नहीं होंगे, उछले, कूदे, नाचे। फिर मुझे पत्र लिखवाया कि बड़ा रस आया लेकिन आगे तो जारी रख नहीं सकते। अब और झंझट में हम पड़े। अब हमें मालूम है कि किस दिशा से यात्रा करनी चाहिए, मगर हम कर नहीं सकते।

मनोहरदास वेदांती से तुम्हें पूछना था, कभी गए हो वहां? कभी उस सरोवर से एकाध घूंट पिया है? कभी उस मधुशाला में सम्मिलित हुए हो? थोड़ी बूंदें पड़ी हैं कंठ में? क्या वहां घट रहा है वह देखा है?

लेकिन जो समझ में नहीं आता या जिसको हम समझना नहीं चाहते उसको अललटप्पू कह देना बहुत आसान है। इससे केवल उनकी बुद्धि का पता चलता है, और कुछ भी नहीं। बहुत संकीर्ण दायरे की बुद्धि होगी। आकाश की, विराट की बातें उनको अललटप्पू मालूम हो रही हैं।

और जिसको मेरी बात अललटप्पू मालूम हो रही है उसे वेदांत की बात भी अललटप्पू मालूम होनी चाहिए——अगर वह ईमानदार है। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह शुद्ध वेदांत है। इतना शुद्ध है कि उस पर वेदांत का विशेषण भी नहीं लगाया जा सकता। ब्रह्म की बात भी उसे अललटप्पू मालूम होनी चाहिए। शायद अनजाने उनके मुंह से उनकी आत्मा का भाव निकल गया है। वे जो बातें कर रहे होंगे वेदांत की, उनको भी वे अललटप्पू ही समझते होंगे। लेकिन वह धंधा है, करना पड़ता है। वही उनकी आजीविका है; उसी से जी रहे हैं।

तो कहे जाते हैं लेकिन भीतर से असली स्वर बाहर आ गया है; मेरे बहाने बाहर आ गया है। अगर मेरी बातें अललटप्पू हैं तो सारे उपनिषद् झूठे हो जाएंगे। फिर उपनिषदों का सत्य क्या बचेगा? क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह उपनिषदों की सुवास है; उनका सार है, इत्र है। सारे वेद व्यर्थ हो जाएंगे। क्योंकि वेदों में जो कुछ भी है, जो कुछ भी मूल्यवान है वही मैं कह रहा हूं। सारे बुद्धपुरुष अललटप्पू हो जाएंगे।

उनसे फिर तुम्हारा वेदांत, मिलना हो जाए तो उनसे कहना, पुनर्विचार करो। अपने बुद्धि के थोड़े द्वार—दरवाजे खोलो। थोड़ा पहचानो, समझो। लेकिन वे भरे होंगे कूड़ा—करकट से। वे भरे होंगे तथाकथित ज्ञान से। तथाकथित ज्ञान का बड़ा उपद्रव है।

मैं अमृतसर में था और एक वेदांत सम्मेलन में बोलने गया था। मुझसे पहले एक वेदांती स्वामी हरिगिरी बोले। मैं उनके बाद बोला, वे बहुत मुश्किल में पड़ गए। वे बीच में उठकर खड़े हो गए और कहा कि ये बातें गलत हैं। और में जो कह रहा था वह यही कह रहा था कि परमात्मा को कोई बाहर से नहीं जनवा सकता, भीतर से जानना होगा। स्वयं ही जानना होगा।

तो उन्होंने एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी कही। उनको पता नहीं था वे किससे उलझ रहे हैं। क्योंकि कहानी के संबंध में कोई मुझसे न उलझे यही अच्छा है। उन्होंने बड़ी प्रसिद्ध कहानी कही। तुम्हें मालूम होगी, वेदांती निरंतर कहते रहते हैं, कि दस आदमियों ने नदी पार की। वर्षा की नदी थी, पूर आयी नदी थी। फिर उस पार जाकर उन्होंने गिनती की तो प्रत्येक अपने को गिनना भूल गया। गिनती नौ होती थी। वे रोने लगे बैठकर कि एक खो गया। फिर वहां से कोई ज्ञानी निकला। होगा कोई वेदांती! उसने देखी हालत, उसने कहा, क्यों रोते हो? उन्होंने कहा, हम दस नदी पार किए थे, अब नौ रह गए। एक कोई डूब गया है, उसके लिए रो रहे हैं। उसने नजर डाली, दस के दस थे। उसने कहा, जरा गिनती करो तो उन्होंने गिनती की। पकड़ में आ गई भूल कि हरेक अपने को छोड़े जा रहा है। तो उसने कहा, देखो, अब इस तरह गिनती करो : मैं एक चांटा मारूंगा पहले को, तब तुम बोलना, एक; दूसरे को मारूं तो बोलना, दो; तीसरे को मारूं तो बोलना, तीन। मैं चांटा मारते जाऊंगा, तुम बोलते जाना आंकड़े। ऐसा वह मारता चला चांटा। और जब दसवें को मारा तो वह बोला, दस। वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा कि चमत्कार कर दिया आपने।

हरिगिरी जी ने बताया लोगों को कि देखो, दूसरे ने बताया तब उनको बोध हुआ। अगर यह वेदांती वहां से न निकलता, कोई। बोध करवानेवाला न होता तो वे नौ ही के नौ रहते और रोते ही रहते। अब उन्होंने सोचा कि बात खतम हो गई। मैंने उनसे पूछा कि यह तो बताइए कि जब इन्होंने नदी पार की, उसके पहले गिनती इन्होंने कैसे की थी? यह कहानी जरा अब आगे ले चलें। नदी जब इन्होंने पार की तो गिनती की थी? उनको कहना पड़ा कि हां, गिनती की थी, दस थे। गिनती कैसे की थी? नदी पार करने में ही भूल गए गिनती करना!

जरूर किसी और की मान ली होगी। किसी और ने कहा होगा, तुम दस हो। खुद गिना होता तो कैसे भूल जाते? फिर भी गिन लेते। किसी और ने कह दिया होगा कि तुम दस हो। मान लिया होगा। मान्यता से चले होंगे कि हम दस हैं, फिर गड?बड़ खड़ी हुई। मान्यता से जो चलेगा, गड़बड़ खड़ी हो जाती है। क्योंकि जब जानने का सवाल आएगा तब चूक हो जाएगी। इसलिए चूक हुई। दूसरे के बताने से ही भूल हुई, मैंने उनसे कहा। वह वेदांती इनको पहले भी कोई मिल गया होगा उस तरफ भी। वेदांती दोनों किनारों पर रहते हैं। और जहां तक तो संभावना है, यही सज्जन रहे होंगे पहले भी, जिन्होंने उनको बताया था कि तुम दस हो। यह दूसरे की बतायी बात थी इसलिए बह गई पानी में। यह अपनी जानी बात होती तो कैसे बहती?

अपना जानना ही ज्ञान है। दूसरा जो जना देता है, वह जानकारी है। जानकारी तो उधार है। और जितने लोग उधारी से भरे हैं। उनको बड़ा डर रहता है कि कहीं जाननेवाला कोई आदमी न मिल जाए। नहीं तो एकदम उनकी रोशनी फीकी पड़ जाती है। एकदम मुश्किल खड़ी हो जाती है।

अब मिल जाए कहीं तुम्हें मनोहरदास वेदांती तो उनको कहना, चले चलो। आमना—सामना हो ले। पता चल जाए कि अललटप्पू क्या है। अगर मैं अललटप्पू हूं तो इस जगत् में जो भी महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं, सब अललटप्पू हो जाएंगी। मेरे डूबने में सब वेद, सब कुरान, सब उपनिषद् डूब जाएंगे। मेरे सही होने में वे सही हैं। मैं गवाह हूं। मैं उनका साक्षी हूं। और जो मैं तुमसे कह रहा हूं, अपने अनुभव से कह रहा हूं। यह गिनती मैंने किसी और से नहीं सीखी है। यह किसी और ने मुझे नहीं बताया है कि तुम दस हो। यह मैंने जाना है। इसे छीन लेने का कोई उपाय नहीं है। यह स्वानुभव है।

उन्हें कहना, आ जाओ। ले आना उनको। यहां थोड़ा उछलेंगे—कूदेंगे; थोड़ा गाएंगे—नाचेंगे; थोड़ी नींद टूटेगी। और जो अभी वेदांती का रंग लगा रखा है वह बह जाएगा। और वह बह जाए तो अच्छा। तो फिर भीतर का रंग प्रकट होना शुरू होता है। और तुम कहते हो, दूसरे सज्जन हैं आर्यसमाज के प्रचारक आर्य भिक्खू। जब आपकी माला देखी तो कहने लगे, उनका संन्यास युवकों को फ्रस्ट्रेशन की तरफ ले जा रहा है। मेरा संन्यास अगर युवकों को विषाद की तरफ ले जाएगा तो फिर कौन—सा संन्यास उन्हें आनंद की तरफ ले जा सकता है? इस बात के लिए भी प्रमाण देने होंगे? मेरे संन्यासी से ज्यादा आनंदित संन्यासी पृथ्वी पर कभी हुआ है? मेरे संन्यासी से ज्यादा स्वतंत्र संन्यास की कोई धारणा कभी पृथ्वी पर जन्मी है? मेरे संन्यासी को उदास होने का तो कोई कारण ही नहीं है। क्योंकि उससे मैं संसार भी नहीं छीनता। उससे मैं कुछ छीनता ही नहीं हूं। उसे सिर्फ जगाता हूं; या कहो कि उसकी नींद छीनता हूं। पुराना संन्यास विषाद ला सकता है। पुराना संन्यास विषाद से जन्मता है और विषाद में ले जाता है।

पुराना संन्यासी, पुराने ढब का संन्यासी उदास आदमी होता है——हारा—थका, बेचैन, डरा हुआ, भयभीत, हर छोटी—छोटी चीज से डरा हुआ। मेरा संन्यासी तो किसी बात से डरा हुआ नहीं है। पुराना संन्यासी तो अपराध—भाव से भरा हुआ होता है कि यह किया तो गलती हो जाएगी, यह किया तो गलती हो जाएगी।

मेरे संन्यासी को तो मैंने कोई अपराध पैदा करने का उपाय नहीं दिया है। मैंने तो सिर्फ उसे कहा है, सहज प्रतिपल अपने बोध से जीना। और तुम्हारा बोध तुम्हें जो करने को कहे, करना। फिर चाहे सारी दुनिया एक तरफ हो, तुम फिकर न लेना।

परमात्मा ने तुम्हें जो जीवन दिया है वह जीने के लिए दिया है। पुराना संन्यास तो जीवन से भयभीत है, डरा हुआ है, घबड़ाया हुआ है। सुंदर स्त्री दिख जाए तो पुराना संन्यास थरथराने लगता है, कंपने लगता है, पसीना—पसीना होने लगता है। मेरे संन्यासी को तो भय का कोई कारण नहीं है क्योंकि मैंने कहा है, सुंदर स्त्री में परमात्मा के सौंदर्य को देखना। वहां भी झुकना, वहां भी पूजा का भाव रखना। वहां भी उसी की महिमा है, उसी का रंग है, उसी का रूप है, उसी का रस है। अगर सुंदर फूल में परमात्मा देख सकते हो तो आदमी का कसूर क्या है? एक सुंदर आदमी में क्यों नहीं देख सकते? एक सुंदर स्त्री में क्यों नहीं देख सकते?

अगर मेरा संन्यास फैला….. और फैलेगा; क्योंकि विधायक है। जीवन के स्वीकार पर खड़ा है। तो जैसे तुम फूल के सौंदर्य की प्रशंसा करते हो वैसे ही किसी दिन पुरुषों के, स्त्रियों के सौंदर्य की भी प्रशंसा कर सकोगे। और प्रशंसा में जरा भी अपराध और भय का भाव नहीं होगा। क्योंकि परमात्मा की ही प्रशंसा है। हम किसी की भी स्तुति करें, उसी की स्तुति है। नदी किसी भी दिशा में बहे, सागर पहुंच जाती है। सभी स्तुतियां उसी की तरफ पहुंच जाती हैं। स्तुति मात्र उसकी है।

मैंने तुम्हें भोजन से नहीं तोड़ा है कि तुम यह मत खाना, यह मत पीना; कि अगर कहीं तुमने यह खा लिया तो पाप हो जाएगा, नरक में पड़ोगे।

कैसे—कैसे लोग हैं! कोई आलू खा लेगा तो नरक में जाएगा। कोई निर्दोष टमाटर से डरा हुआ है। अब टमाटर से ज्यादा निर्दोष प्राणी देखा तुमने दुनिया में ? टमाटर बेचारा! एकदम भोला—भाला। इससे भोली—भाली कोई चीज ही नहीं होती। इसको खाने से तुम कैसे नरक चले जाओगे? लेकिन टमाटर खाने से कुछ लोग डरते हैं। उसका रंग मांस जैसा है। बस रंग ही मांस जैसा है, घबड़ाहट हो गई; भय हो गया।

डरने की तो तुम बात ही मत पूछो कि लोग किस—किस चीज से डरते हैं। अगर तुम सारे डरों को इकट्ठा कर लो तुम्हें इसी वक्त मरना पड़े; तुम जी नहीं सकते। क्वेकर ईसाई हैं, वे दूध पीने से डरते हैं। तुम कहोगे, यह तो हद हो गई। वे दही नहीं खाते, वे मक्खन नहीं छूते क्योंकि यह हिंसा है।

बात में अर्थ तो है। क्योंकि गाय के थन में जो दूध है, वह उसके बच्चों के लिए है, तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हें किसने हक दिया कि तुम उसके बच्चों का दूध छीनकर पी जाओ। जरा सोचो तो कि यही तुम्हारी स्त्रियों के साथ किया जाए, कि बच्चे को तो दूध न मिले और कोई भी आकर बच्चे की मां का दूध पी जाए तो इसको हिंसा कहोगे कि नहीं कहोगे? तुम गाय का दूध पी रहे हो बड़े मजे से, कह रहे हो दुग्धाहार कर रहे हैं और बछड़े का क्या हुआ?

लोग बछड़ों को मार डालते हैं और गाय को धोखा देने के लिए झूठा बछड़ा खड़ा कर देते हैं। घास—फूस का बनाकर बछड़ा खड़ा कर देते हैं गाय को धोखा देने के लिए। क्योंकि असली बछड़ा रहेगा तो कुछ तो पी ही जाएगा। थोड़ा न बहुत तो पीएगा ही। आखिर जिंदा रखना है तो कुछ न कुछ तो उसको देना ही पड़ेगा। तो झूठा बछड़ा खड़ा कर दिया। हद हो गई बेईमानी की! आदमियों को धोखा दो, दो; गाय को भी धोखा देने लगे? और एक तरफ से गौमाता भी कहते हो उसको। माता ही को धोखा दे रहे हो, उसकी जेब काट रहे हो। और आंदोलन भी बड़ा चलाते हो कि गौहत्या नहीं होनी चाहिए। और गौ को चूसे जा रहे हो। तुम्हारी गौओं की हालत देखते हो? हड्डी—हड्डी हो रही हैं और खींचे जा रहे हो उनका दूध, जितना खींच सकते हो; जिस तरह खींच सकते हो।

क्वेकर कहते हैं, दूध खून का हिस्सा है। इसीलिए तो दूध पीने से खून बढ़ जाता है। तो दूध खून है। दूध पीना खून पीना है। यह तो पाप हो गया। अब मारे गए! अब क्या करोगे? दही ले नहीं सकते, दूध ले नहीं सकते, घी ले नहीं सकते, मक्खन ले नहीं सकते। गए सब रसगुल्ले! गए सब संदेश! सारी मिठाइयां पाप हो गईं।

तुम जरा सारे धर्मों का हिसाब तो लगाकर देख लो। कुछ नहीं बचेगा खाने को। उधर जैन तेरापंथी है, वह नाक पर पट्टी बांधे बैठा है कि हिंसा न हो जाए। श्वास से हिंसा हो रही है। गरम श्वास से कीड़े—मकोड़े हवा में छोटे—छोटे मर जाते हैं, वे मर न जाएं। लेकिन तुम्हारे जीने में ही हिंसा हो रही है। तुम्हारे शरीर के भीतर प्रतिपल न मालूम कितने जीवाणु मर रहे हैं। वे ही तो जीवाणु मरकर तुम्हारे बाल बनकर निकलते हैं, नाखून बनकर निकलते हैं। इसलिए तो बाल को काटने से दुःख नहीं होता क्योंकि वे मरे हुए जीवाणु हैं। नाखून काटने से दुःख नहीं होता, खून नहीं बहता क्योंकि वे मरे हुए जीवाणुओं की लाशें हैं; हड्डियां हैं। तुम्हारे भीतर प्रतिपल लाखों जीवाणु मर रहे हैं। और इसलिए तो रोज भोजन की जरूरत है ताकि नया भोजन नए जीवाणु दे दे।

एकेक शरीर में सात—सात करोड़ जीवाणु हैं। पूरी बस्ती हो तुम। पुराने शास्त्रों ने ठीक ही तुमको पुरुष कहा है। पुरुष का मतलब है, पुर के बीच में बसा। एक पूरा नगर तुम्हारे चारों तरफ है। सात करोड़! बंबई भी छोटी है। सात करोड़ जीवाणु, उनके बीच में आप बसे हैं। और उनमें प्रतिपल मरना हो रहा है, जीना हो रहा है, सब चल रहा है। चलते हो, उठते हो, बैठते हो, उसमें हिंसा हो रही है। करवट लेते हो, उसमें हिंसा हो रही है। श्वास लेते हो, उसमें हिंसा हो रही है। जियोगे कैसे? अगर तुम सारे धर्मों का हिसाब करके चलो तो जी ही नहीं सकते। और ये ही धर्म अब तक आदमी को सिखाते रहे हैं। आदमी की जिंदगी में जहर घोल दिया है।

मैं तो आदमी की जिंदगी को मुक्ति दे रहा हूं। मैं तो तुमसे कह रहा हूं, जो परमात्मा ने दिया है उसे भोगो। और मैं तो तुमसे यह कह रहा हूं, कोई मरता ही नहीं। आत्मा अमर है। कहां की हिंसा, कैसी हिंसा? चिंता छोड़ो। शांति से, सरलता से, स्वभाव से जियो। और इस जीवन को परमात्मा की भेंट समझकर अनुग्रह मानो। इस भेंट में ही परमात्मा को खोजो। अगर संगीतज्ञ को खोजना हो तो उसके संगीत में ही खोजना पड़ेगा। अगर सन्नाटा को खोजना हो तो उसकी सृष्टि में ही खोजना पड़ेगा। अगर कवि को खोजना हो तो उसके काव्य में ही खोजना पड़ेगा, और कहां पाओगे? वहीं से सूत्र मिलेंगे, वहीं से सेतु बनेगा।

मैं तो जीवन के अहोभाव, जीवन के परम स्वीकार, जीवन के आनंद, जीवन के उत्सव को दे रहा हूं मेरे संन्यासी को। मेरे संन्यासी फ्रस्ट्रेशन में पड़ रहे हैं, विषाद में पड़ रहे हैं, इससे ज्यादा मूढ़ता की कोई बात हो सकती है? हां, मेरे संन्यासियों को देखकर पुराने संन्यासी बड़े फ्रस्ट्रेशन में पड़ रहे हैं, यह जरूर सच है। उनके प्राण बड़ी मुश्किल में पड़ रहे हैं। वे बड़े बेचैन हो रहे हैं कि यह कैसा संन्यास? उनकी बेचैनी यह है कि यह तो हद हो गई, हम इतना छोड़—छाड़कर मोक्ष पहुंचेंगे और ये बिना छोड़े—छाड़े पहुंच जाएंगे! यहां भी मजा करेंगे और वहां भी!

और मैं तुमसे कहे देता हूं कि जो यहां मजा करेगा वही वहां भी मजा करेगा। क्योंकि मजे का अभ्यास करना होता है। और जो यहां मजा नहीं करेगा, वहां भी मजा नहीं करेगा। क्योंकि यहां अगर उसने गैर—मजे का अभ्यास कर लिया तो बड़ी मुश्किल में पड़ेगा।

तुम्हारे पुराने ढब के संन्यासियों को नरक में ज्यादा शांति मिलेगी। उनके ज्यादा अनुकूल होगा। यहां उनको कांटों की खुद ही सेज बनानी पड़ती है, वहां शैतान के शिष्य बना देंगे। यहां उनको ही आग जलाकर बैठना पड़ता है और भभूत लगानी पड़ती है , वहां शैतान के …..अच्छी मालिश करेंगे। और भभूत से ही मालिश करेंगे और खूब भभूत लगा देंगे——ऐसी कि उतरे ही नहीं। अंगारों सहित मालिश कर देंगे। खूब त्यागत्तपश्चर्या करवा देंगे।

उनको नरक ही मौजूं पड़ेगा, स्वर्ग नहीं मौजूं पड़ सकता। स्वर्ग में वे करेंगे क्या? बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे। स्वर्ग में अप्सराएं हैं और शराब के झरने हैं। और कल्पवृक्ष हैं। कल्पवृक्ष के नीचे जरा बैठकर तुम्हारा संन्यासी करेगा क्या——पुराने ढब का? मेरे संन्यासी को तो कोई दिक्कत नहीं है। मगर पुराने ढब का संन्यासी कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर करेगा क्या? कि हे प्रभु, पत्थर गिराओ! कि थोड़ी तपश्चर्या और करवाओ! कल्पवृक्ष किस काम का? पुराने संन्यासी अगर स्वर्ग पहुंचे होंगे तो कुल्हाड़ियां लेकर उन्होंने सब कल्पवृक्ष काट डाले होंगे अब तक। जंगल साफ कर दिया होगा। फिर से वृक्षारोपण करना पड़ेगा।

मैं एक संन्यास दे रहा हूं जो सहज है——स्वाभाविक; आनंद जिसका अनुशासन है। मेरा संन्यास और फ्रस्ट्रेशन में ले जा रहा है लोगों को या मेरा संन्यासी फ्रस्ट्रेशन में जा रहा है, इससे ज्यादा व्यर्थ, असंगत बात क्या हो सकती है? हां, मगर आर्यसमाजियों को पड़ गई होगी अड़चन। उनको बड़ी अड़चन है।

यहां शंकराचार्य किसी मठ के कोई मित्र ले आया था द्वार पर। ले आया था मुझे मिलाने। गाड़ी मैं उन्हें बैठा हुआ छोड़कर वह पूछने आया दफ्तर में अंदर कि कब मिलना हो सकता है? लेकिन इसी बीच सब गड़बड़ हो गई। एक विदेशी संन्यासी अपनी पत्नी का हाथ हाथ में लिए दरवाजे से प्रविष्ट हुआ। दोनों मस्त! गीत गुनगुनाते हुए! शंकराचार्य को आग लग गई। जब तक उनका शिष्य वापिस पहुंचा व्यवस्था करके मिलने की, वे बोले, इसी वक्त चलो। इस जगह से हटो! यह कैसा संन्यास है! संन्यासी और स्त्री का हाथ हाथ में लिए?

तुम सोचते हो, अगर ये शंकराचार्य स्वर्ग पहुंच जाएं और देख लें कि रामचंद्र जी सीता जी के साथ खड़े हैं, एकदम झपट्टा मारकर अलग कर देंगे दोनों को, हटो! शर्म नहीं आती? राम होकर और सीता जी का हाथ पकड़े हो? तुमने समझा क्या है, जगजननी सीता! छोड़ो हाथ!

यह संन्यासी के कारण बड़ी अड़चन होगी वैकुंठ में। यह कृष्ण महाराज तो एकदम छीन—छान लेगा उनका मोर—मुकुट और बंसी—वंसी की छोड़ो! यह नहीं चलेगा। ये किनकी स्त्रियां तुम्हारे आसपास नाच रही हैं? तुमको मालूम है कि सोलह हजार स्त्रियां कृष्ण की, उनमें उनकी स्त्रियां कौन थीं? एक रुक्मिणी के सिवा और कोई ब्याही हुई स्त्री नहीं थी। बाकी ये हजारों स्त्रियां उनके पास नाचीं किसी प्रेम में डूबकर, किसी आनंद में लीन होकर।

मैं तो कृष्ण को वापस लौटा रहा हूं। मैं तो संन्यास के ओंठों पर फिर बांसुरी रख रहा हूं। संन्यास गाता हुआ होना चाहिए। अगर गाते हुए परमात्मा तक पहुंच सकते हो तो क्यों रोते हुए जाते हो? अगर नाचते हुए पहुंच सकते हो तो क्यों चलते हुए जाना? और अगर परमात्मा भी नाचता हुआ ….. और मैं कहता हूं कि नाचता हुआ है। जरा चारों तरफ प्रकृति को देखो, वह परमात्मा का प्रतीक है——नाचती हुई प्रकृति, सब तरफ मौज से भरी प्रकृति। सब तरफ झरने बह रहे हैं, फूल खिल रहे हैं; वास उड़ रही है, बादल घिर रहे हैं, चांद तारों से भरा आकाश है। इस सबसे तुम्हें याद नहीं पड़ती कि परमात्मा महात्मा तो नहीं है। परमात्मा खूब रंग—रंगीला है। रसो वै सः। रसपूर्ण है, रस का स्रोत है, सच्चिदानंद है।

लेकिन आर्यसमाजी को यह बात न जंचेगी। उसे यह बात पसंद ही नहीं पड़ेगी। हां, उसे देखकर फ्रस्ट्रेशन पैदा हो जाएगा। मेरे संन्यासी को देखेगा तो उसको जलन औरर् ईष्या पैदा हो जाएगी। वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह चाहता है, लोग दुःखी हों। वह दुःख को आदर देता है। ये सब दुःख का सम्मान करनेवाले लोग हैं। जितना जो दुःखी होता है उसको उतना आदर देता है। कहता है, यह उतना बड़ा तपस्वी है। जो जितना अपने को सताता है, गलाता है, जो अपने मन कोत्तन को खूब मारता है, कोड़े फटकारता है, उसको उतना सम्मान। तपश्चर्या उसका लक्ष्य है। त्याग उसका लक्ष्य है।

मेरे संन्यास का लक्ष्य है, परम भोग। और मैं सीधी—सादी बातें कर रहा हूं; कहीं कुछ छिपाना नहीं है, सीधी बात है : परम भोग। मैं अगर तुम्हें परमात्मा की तरफ ले जाना चाहता हूं तो इसलिए नहीं कि भोग बुरा है बल्कि इसलिए कि तुमने जिसको भोग जाना है वह भोग ही नहीं है। इसी जीवन में परम भोग घट सकता है। मैं तुम्हारे जीवन से सुख को छीन नहीं लेना चाहता, तुम्हारे जीवन में सुख को गहराना चाहता हूं, घना करना चाहता हूं।

तो यह बात तो बड़ी बेमौजूं है। वेदांत, तुम्हारा मिलना अगर फिर हो जाए आर्यसमाजी सज्जन से, आर्य भिक्षु से, तो उनसे निवेदन करना। और फिर तो तुम मेरे संन्यासी हो। तुम्हें वहीं जवाब देना था। तुम्हें एकदम खड़े होकर नटराज शुरू कर देना था। हाथ पकड़ लेना था कि आओ, नाचें। वहीं समझ में आ जाता कि फ्रस्ट्रेशन में कौन है। खिलखिलाकर हंसना था, आनंदित होना था, निमंत्रण देना था कि आओ, हम नाचें। यहां तक तुम्हें प्रश्न लाने की जरूरत ही न थी, उत्तर वहीं देना था। और उत्तर जीवंत होना चाहिए।

तीसरा प्रश्न :

 

प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से डरता क्यों हूं?

सीलिए, क्योंकि इतनी महिमा है। और तुम्हारे संस्कार तुम्हें इतनी महिमा तक जाने से रोकते हैं। प्रेम विराट है और तुम्हारे संस्कारों ने तुम्हें क्षुद्र बनाया है, छोटा बनाया है, ओछा बनाया है। प्रेम भोग है और तुम्हारे संस्कारों ने तुम्हें त्याग सिखाया है। प्रेम आनंद है और तुम्हारे संस्कार कहते हैं, उदासीन हो जाओ। प्रेम रस है और तुम्हारे संस्कार रस—विपरीत हैं इसलिए तुम भयभीत होते हो।

और फिर तुम इसलिए भी भयभीत होते हो कि प्रेम के रास्ते पर अहंकार की आहुति देनी होती है। अपने सिर को काटकर चढ़ाना होता है। अपने को खाना होता है। जैसे बूंद सागर में गिरे, ऐसे प्रेम के सागर में गिरना होता है।

फिर भय लगता है कि प्रेम इतना विराट है, इतना बड़ा आकाश! और तुम पिंजरे में रहने के आदी हो गए हो। तुमने देखा कभी? पिंजरे में बंद पक्षी को अगर तुम दरवाजा भी खोल दो तो बाहर नहीं निकलता।

मैंने तो सुना है, एक सराय में एक आदमी एक रात मेहमान हुआ। कवि था। और दिन भर सुबह से उसने सुना, तोता एक, बड़ा प्यारा तोता बंद है; सराय के दरवाजे पर लटका है। और दिनभर चिल्लाता है, “स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!’ कवि को बड़ी बात जंची। कवि था, उसके हृदय में भी स्वतंत्रता का मूल्य था। उसने सोचा, हद हो गई! मैंने तोते बहुत देखे; कोई कहता, राम—राम, कोई कुछ जपता, कोई कुछ, मगर स्वतंत्रता की याद करनेवाला तोता पहली दफा देखा।

इतना भावाभिभूत हो गया कि रात जब सब सो गए दूसरे दिन तो वह उठा और उसने पिंजरा खोल दिया उसका और कहा, “प्यारे, उड़ जा। अब रुक मत।’ मगर तोता उड़ा नहीं। पिंजरे के सींखचों को पकड़कर रुक गया। कवि के हृदय में बड़ी दया आ गई थी। स्वतंत्रता का ऐसा प्रेमी! उसने हाथ डालकर तोते को बाहर निकालना चाहा तो तोते ने चोंचें मारीं उसके हाथ में, लहूलुहान कर दिया। वह निकलना नहीं चाहता।

मगर कवि तो कवि होते हैं। पागल तो पागल हैं! उसने तो निकाल ही दिया तोते को, चाहे चोट मारता रहा तोता, चिल्लाता रहा। और मजा यह था, चोटें मार रहा था, बाहर निकलता नहीं था, सींखचे पकड़े था और चिल्ला रहा था, “स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!’ मगर कवि ने भी निकालकर….. उसकी एक न सुनी “स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।’ निकालकर उसको स्वतंत्र कर ही दिया। निश्चिंत आकर सो गया कवि अपने कमरे में। हृदय का भार हलका हो गया। लेकिन सुबह जब उसकी आंख खुली, तोता पिंजरे में बैठा था। वह दरवाजा बंद करना पिंजरे का रात भूल गया। तोता फिर वापिस आ गया था और सुबह से फिर रट लगा रहा था। और पिंजरे का द्वार खुला था। रट लगा रहा था, “स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!’

ऐसी तुम्हारी दशा है। तुम प्रेम की मांग भी करते हो मगर पिंजरे में तुम्हारी रहने की आदत भी हो गई है। तुम प्रार्थना की मांग भी करते हो मगर बस तोतों की तरह रट रहे हो। यह वास्तविक तुम्हारे प्राणों की प्यास हो तो अभी घटना घट जाए।

प्रेम खतरनाक मार्ग है। अपने को गंवाना पड़ता है तब कोई प्रेम को पाता है। इतनी कीमत चुकानी पड़ती है। सस्ता सौदा नहीं है, महंगा सौदा है। अपने को खोने की तैयारी चाहिए। जब इतनी तैयारी हो——

दिलो—दिमाग को रो लूंगा आह कर लूंगा

मैं तेरे इश्क में सब कुछ तबाह कर लूंगा

जब इतनी तैयारी हो तो प्रेम और उसकी महिमा का स्वाद मिलना शुरू होता है।

फिर प्रेम रुलाता भी बहुत है। क्योंकि आज तुम प्रेम करोगे तो आज थोड़े ही प्रेमी मिल जाएगा! लंबी विरह की रात्रि आएगी तब मिलन की सुबह होती है। विरह की रात्रि का भी डर होता है। इसलिए लोग प्रेम करने से घबड़ाते हैं कि कौन विरह को सहेगा! समझदार आदमी इस तरह की बातों में पड़ते ही नहीं। क्योंकि उसमें पीड़ा है।

कोई ऐ “शकील‘ देखे यह जुनून नहीं तो क्या है

कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा

न मालूम कितनी रातों यहीं रोना पड़ेगा——कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा। तुमने चाहा और प्रेम उसी वक्त थोड़े ही घट जाता है! प्रेम परीक्षाएं मांगता है, कसौटियां मांगता है। प्रेम की विरह की अग्नि से गुजरना पड़ता है तभी तुम योग्य के लिए पात्र हो पाते हो; तभी तुम प्रेम को पाने के अधिकारी हो जाते हो।

कोई ऐ “शकील‘ देखे यह जुनून नहीं तो क्या है

कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा

यह पागलपन नहीं तो और क्या है? पागलपन मालूम होता है प्रेम।

समझदार बच जाते हैं, इस पागलपन की तरफ नहीं जाते। समझदार धन कमाते हैं, प्रेम नहीं। समझदार दिल्ली की यात्रा करते हैं, प्रेम की नहीं। समझदार और सब करते हैं, प्रेम से बचते हैं क्योंकि प्रेम पागलपन है। और पागलपन है ही। बुद्धि की सब सीमाओं को तोड़कर, बुद्धि की सारी व्यवस्थाओं को तोड़कर प्रेम उमगता है। इसलिए तुम डरते होओगे। विचारशील आदमी होओगे।

कहूं किससे मैं कि क्या है शबे—गम, बुरी बला है

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

प्रेमी को कितनी बार मरना पड़ता है इसका पता है? बार—बार मरना पड़ता है, हर बार मरना पड़ता है। हर बार विरह जब घेरती है, मौत घटती है। इंच—इंच मरना पड़ता है।

कहूं किससे मैं कि क्या है शबे—गम, बुरी बला है——वह जो विरह की लंबी रात है, बड़ी खतरनाक है।

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता——एक बार मर जाता तो भी कोई बात थी। मरते हैं, मरते हैं। जी भी नहीं पाते, मर भी नहीं पाते। प्रेमी की बड़ी फांसी लग जाती है। प्रेम फांसी है; मगर फांसी के बाद ही सिंहासन है। याद करो जीसस की कहानी। सूली लगी, और सूली के बाद ही पुनरुज्जीवन। प्रेम सूली है।

और जिसने प्रेम नहीं जाना उसे भक्ति से तो मिलना कैसे हो पाएगा? प्रेम भक्ति का बीज है। भक्ति प्रेम का फूल है। प्रेम ही प्रगाढ़ होते—होते एक दिन भक्ति बनता है। जो प्रेम से वंचित रह गया, वह भक्ति से वंचित रह जाएगा। और अगर भक्ति करेगा तो उसकी भक्ति थोथी होगी, औपचारिक होगी, क्रियाकांड होगी, पाखंड होगी, दिखावा होगी, धोखा होगी।

बरस रही है हरीमे—हविस में दौलते—हुस्न

गदाए—इश्क के कासे में इक नजर भी नहीं

न जाने किसलिए उम्मीदवार बैठा हूं

इक ऐसी राहपै जो तेरी रहगुजर भी नहीं

बहुत बार ऐसा लगेगा कि कहां बैठा हूं, किसकी राह देख रहा हूं? न कोई आता, न कोई जाता। कहीं ऐसा तो नहीं है एक ऐसी राह पर बैठा हूं जहां से परमात्मा का निकलना होने ही वाला नहीं है ! जहां से प्रेमी गुजरेगा ही नहीं!

न जाने किसलिए उम्मीदवार बैठा हूं

इक ऐसी राहपै जो तेरी रहगुजर भी नहीं

कभी तुझे गुजरते भी नहीं देखा। कभी तेरे पैरों की चाप भी नहीं सुनी। मैं कहीं ऐसा व्यर्थ बैठे—बैठे व्यर्थ ही तो नहीं हो जाऊंगा?

प्रेम बड़ी प्रतीक्षा मांगता है, बड़ा धीरज मांगता है। और जिनके पास धीरज की कमी है वे प्रेम के रास्ते पर नहीं जा सकते। और यहां तो सारे लोग जल्दी में हैं। अभी हो जाए कुछ, इसी वक्त हो जाए कुछ, मुफ्त में हो जाए कुछ, उधार हो जाए कुछ। न तो कोई कीमत चुकाने को राजी है, न कोई प्रतीक्षा करने को राजी है, न कोई विरह के आंसू गिराने को राजी है।

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे

बे—नियाजी तेरी आदत ही सही

प्रेमी को तो कहना पड़ता है, अगर तेरा उपेक्षाभाव तेरी आदत है तो रहे तेरी आदत, सम्हाल तू अपनी आदत। हम भी तस्लीम की खू डालेंगे——हम भी धैर्य की आदत डालेंगे।

हम भी तस्लीम की खू डालेंगे

बे—नियाजी तेरी आदत ही सही

तू रख अपनी आदत बेपरवाही की। मतकर चिंता हमारी, मत ले खोज—खबर, मत देख हमारी तरफ। तू कर उपेक्षा जितनी कर सकता हो। हम अपने धीरज से तेरी उपेक्षा को हराएंगे।

लंबी यात्रा है विरह की, आंसुओं की। मगर जो हिम्मत कर लेता है, पूरी हो जाती है। और जिसे एक बार थोड़ा—सा भी स्वाद लग जाता है प्रेम का, फिर लौट नहीं पाता। फिर सिर गंवाना हो तो सिर गंवाता है। फिर जो गंवाना हो, गंवाने को राजी होता है।

जीते—जी कूचः—ए—दिलदार से आया न गया

उसकी दीवार का सर से मिरे साया न गया

एक बार उसकी दीवाल की छाया भी तुम पर पड़ जाए तो फिर चाहे जान रहे कि जाए, तुम उसके दीवाल के साए को छोड़कर जा न सकोगे।

तुम तो मंदिर भी हो आते हो, लौट आते हो। तुम्हारा मंदिर झूठा है। उसके मंदिर जाकर कोई कभी लौटा है? जो गया सो गया। जो गया सो उसके मंदिर का हिस्सा हो गया।

जीते—जी कूचः ए—दिलदार से आया न गया

प्रेमी की गली से कोई जिंदा लौटता है?

उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया

इतनी हिम्मत नहीं है इसलिए प्रेम की महिमा सुन लेते हो, बुद्धि से समझ भी लेते हो, फिर भी भीतर—भीतर डरे रहते हो।

यह हाल था शब—ए—वादा कि ता—ब—रहगुजर

हजार बार गया मैं, हजार बार आया

कितनी बार जाना पड़ता है देखने द्वार पर कि कहीं प्रेमी आ तो नहीं गया? विरह की रात्रि में पत्ता भी खड़कता है तो गलता है, उसी का आगमन हो रहा है। हवा का झोंका आता है तो लगता है, उसी का आगमन हो रहा हैं। राह से कोई अजनबी गुजर जाता है तो लगता है, वही आ गया।

यह हाल था शब—ए—वादा कि ता—ब—रहगुजर

हजार बार गया मैं, हजार बार आया

——सोने की फिर चैन नहीं। प्रेम में जो पड़ा वह जागा।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, दो मार्ग हैं परमात्मा तक जाने के। एक मार्ग है, ध्यान। ध्यान का अर्थ है, जागो। जो जागेगा वह प्रेम करने लगेगा। जागा हुआ आदमी घृणा नहीं कर सकता क्योंकि जागे हुए आदमी को दिखाई पड़ता है, सब एक है। मैं ही हूं। यहां किसी को चोट पहुंचाना अपने ही गाल पर चांटा मारना है। यहां किसी को दुःख देना अपने को ही दुःख देना है। जागे हुए पुरुष को दिखाई पड़ता है, एक का ही विस्तार है, एक ही परमात्मा सबमें छाया है। प्रेम अपने आप पैदा होता है।

दूसरा रास्ता है प्रेम का। प्रेम करो और तुम जाग जाओगे क्योंकि प्रेमी सो नहीं सकता। उसकी प्रतीक्षा में पलक लगे कैसे? उसकी राह देखनी पड़ती है, कब आ जाए, किस क्षण आ जाए, किस द्वार से आ जाए, किस दिशा से आ जाए। प्रेम हिम्मत की बात है, दुस्साहस की बात है।

तुम पूछते हो, “प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से डरता क्यों हूं?’ इसीलिए डरते हो। महिमा का तुम्हें थोड़ा—थोड़ा बोध होने लगा है। आकर्षण पैदा हो रहा है, कशिश पैदा हो रही है। प्रेम पुकार दे रहा है। और अब भय पकड़ रहा है। अच्छे लक्षण हैं, भय की मानकर रुकना मत। भय के बावजूद प्रेम की पुकार सुनना और प्रेम के स्वर को पकड़कर चल पड़ना।

प्रेम परमात्मा का आयाम है। निकटतम कोई मार्ग अगर परमात्मा के पास ले जानेवाला है तो प्रेम है। ध्यान का मार्ग लंबा है और रूखा—सूखा है; मरुस्थल जैसा है। प्रेम का मार्ग बहुत हरा—भरा है। प्रेम के मार्ग पर गंगा बहती है, मरुस्थल नहीं है। छोड़ो अपनी नौका गंगा में। भय तो पकड़ता है। जब भी कोई नई यात्रा को निकलता है, नए अभियान को, अज्ञात अनजान की खोज में, भय स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक भय का अर्थ यह नहीं है कि उसके कारण रुको।

अंतिम प्रश्न :

 

प्यारे भगवान, एक लहर उठी थी और किनारे से टकराने के पहले ही सम्हल गई। और फिर से वही लहर वापस मझधार में डूब गई। उस क्षण का क्या कहूं! डूबने में आनंद घना होकर छा गया और भीग गई। प्रेम—सागर में डूबकर पुनः गाती हूं, “झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री।’

रु, जो तुझे हो रहा है, मुझे पता है। धीरे—धीरे औरों को भी पता होना शुरू हो जाएगा।

वाकिफ है जोश इश्क से अपने तमाम शहर

और हम यह जानते हैं कि कोई जानता नहीं

प्रेम का तो पता चलना शुरू हो जाता है। प्रेम तो प्रकट होने लगता है। प्रेमी की चाल बदल जाती है, चलन बदल जाता है, उठना—बैठना बदल जाता है, भाव—भंगिमा बदल जाती है। प्रेम घटता है तो पता चलने ही लगता है। प्रेम को छुपाने का उपाय नहीं है।

पड़ा था सूना सितार दिल का

हुई अचानक यह जाग तुमसे

जो जिंदगी रोग बन चुकी थी

वह बन गई है आज राग तुमसे

यह मेरे जीवन की रागिनी क्या

प्रेम की यह मीठी बांसुरी क्या

यह दान तुमने दिया है साजन

मिला है मन को यह राग तुमसे

परमात्मा को धन्यवाद दो। उसके अनुग्रह में झुको। और जितने अनुग्रह में झुको उतनी ही और प्रेम की वर्षा होगी।

उनके ओंठों में है कैसी मै—ए—गुल रंग “सुरूर

देखिए कब वह घड़ी आए कि हम तक पहुंचे

——परमात्मा मदिरा है।

उनके ओंठों में है कैसी मै—ए—गुल रंग “सुरूर

——उसके ओंठ अमृत से भरे हैं।

देखिए कब वह घड़ी आए कि हम तक पहुंचे

——जितने झुकोगे उतने जल्दी घड़ी आ जाएगी। जो बिल्कुल झुक गया उसकी घड़ी आ गई। जरा भी झुकोगे तो बूंदाबांदी शुरू हो जाएगी। अगर बिल्कुल झुक गए तो वह भी तुम पर झुक आता है। झुकि आयी बदरिया सावन की!

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी

सर के लिए गफलत है, दिल के लिए बेदारी

और जैसे—जैसे यह मस्ती छाएगी, वैसी—वैसी एक हैरानी की बात समझ में आएगी—— सर के लिए गफलत है। सर तो बेहोश होने लगेगा। दिल के लिए बेदारी——और दिल होश से भरने लगेगा। मस्तिष्क तो सोने लगेगा, खोने लगेगा, हृदय जागने लगेगा।

साधारणतः खोपड़ी जगी हुई है, हृदय सोया हुआ है। विचार, तर्क जगे हुए हैं, प्रेम सोया हुआ है। जैसे—जैसे कोई परमात्मा के अनुग्रह में डूबता है वैसे—वैसे बुद्धि तो सोने लगती है, हृदय जागने लगता है। हृदय के जागने को ही मैं श्रद्धा कहता हूं। बुद्धि तुम्हें विश्वास दे सकती है, श्रद्धा नहीं। श्रद्धा स्वाद है हृदय का।

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी

——और एक प्याली में दोनों बातें घोली हैं।

इक जाम में घोली है बेहोशी—ओ—हुश्यारी

सर के लिए गफलत है दिल के लिए बेदारी

जिससे सिर तो सो जाएगा और जिससे हृदय सदा के लिए जाग जाएगा। हृदय का जागरण जगत् में परमात्मा का अनुभव है।

तरु, तू ठीक ही कहती है कि उस क्षण का क्या कहूं! डूबने में आनंद घना होकर छा गया और भीग गई। उस क्षण के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। या कुछ ऐसी बातें कही जा सकती हैं——

ख्वाबीद : तरन्नुम है खामोश कयामत है

रफ्तार की शोखी में गंगा की मतानत है

जज्बात की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे

तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे

ख्वाबीद : तरन्नुम है—— स्वप्निल संगीत है। इतना सूक्ष्म है कि स्वप्न जैसा मालूम होता है, सत्य नहीं मालूम होता। अनाहत का नाद ऐसा ही है।

ख्वाबीद : तरन्नुम है खामोश कयामत है——सारा अस्तित्व ऐसा चुप है जैसे कयामत हो गई; जैसे सृष्टि का अंत हो गया; जैसे प्रलय आ चुकी, महाप्रलय घट गई।

ख्वाबीदः तरन्नुम है खामोश कयामत है

रफ्तार की शोखी में गंगा की मतानत है

और फिर भी जीवन में एक आनंद है, एक नृत्य है; जैसे गंगा नाचती हुई सागर की तरफ चली हो।

जज्बात की बेदारी जाहिर है——और भावनाएं जग गई हैं, विचार सो गए हैं। जज्वाब की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे। और ऐसा भी नहीं है कि हृदय के भीतर ही भीतर है, रोएं—रोएं में है, रग—रग में है, अंग—अंग में है।

जज्बात की बेदारी जाहिर है रगो—पैसे——एक—एक रोआ खबर दे रहा है उसकी।

तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे——और जैसे तालाब के पानी पर एक कमल थिर हो और बहता हो।

नहीं, उस क्षण के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे। मगर यह भी कुछ नहीं कहना है। हमारे सब प्रतीक छोटे पड़ जाते हैं। हमारे सब प्रतीक ओछे पड़ जाते हैं। भाषा लंगड़ी हो जाती है। व्याकरण का दिवाला निकल जाता है। उस क्षण को तो जो जानता है, वही जानता है। लेकिन वह क्षण जिसके जीवन में आना शुरू हो जाता है उसके जीवन में परमात्मा ने प्रवेश शुरू किया। एक—एक किरण धीरे—धीरे घने सूरज बन जाते हैं। एक—एक बूंद सागर बन जाते हैं।

और उसकी अटरिया पर तो हम चढ़ ही रहे हैं। झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री। यह तो खयाल ही तब आता है जब सीढ़ियों पर पैर पड़ने लगते हैं। तब दो—दो सीढ़ियां एक साथ छलांग लगा जाने का मन होता है। झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री। उमंग में, उत्साह में, आनंद में। कोई होश रह जाता है चढ़ने का? छलांगें लगती हैं। क्रम टूट जाते हैं, छलांगें घटती हैं।

जगजीवन का यह वचन : “झमकि चढ़ जाऊं अटरिया री’ बड़ा प्यारा है। मैं तुम्हें जो संन्यास दिया हूं वह ऐसा ही है——झमककर चढ़ जाए अटरिया। नाचता हुआ, गीत गाता हुआ, परम आनंद में लीन।

आज इतना ही।


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नाम सुमिर मन बावरं–(जगजीवन)–प्रवचन–9

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तीरथ—ब्रत की तजि दे आसा—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 9 अगस्‍त 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

सुनु सुनु सखि री, चरनकमल तें लागि रहु री।

नीचे तें चढ़ि ऊंचे पाउ मंदिल मगन मगन ह्वै गाउ।।

दृढ़करि डोरि पोढ़िकरि लाव इत—उत कतहूं नाहीं घाव।।

सत समरथ पिय जीव मिलाव नैन दरस रस आनि पिलाव।।

माती रहहु सबै बिसराव आदि अंत तें बहु सुख पाव।।

सन्मुख ह्वै पाछे नहिं आव जुग—जुग बांधहु एहै दाव।।

जगजीवन सखि बना बनाव अब मैं काहुक नाहिं डेरांव।।

तीरथ—ब्रत की तजि दे आसा।

 

सत्तनाम की रटना करिकै, गगन मंडल चढ़ि देखु तमासा।।

ताहि मंदिल का अंत नहीं कछु, रबी बिहून किरिन परगासा।

तहां निरास बास करि रहिए, काहेक भरमत फिरै उदासा।।

देऊं लखाय छिपावहुं नाहीं, जस मैं देखउं अपने पासा।

ऐसा कोऊ शब्द सुनि समुझैं, कटि अध—कर्म होइ तब दासा।।

नैन चाखि दरसन—रस पीवै, ताहि नहीं है जम की त्रासा।।

जगजीवन भरम तेहि नाहीं, गुरु क चरन करै सुक्ख—बिलासा।।

 

सखि, बांसुरी बजाय कहां गयो प्यारो।।

घर की गैल बिरसिगै मोहितें, अंग न बस्त्र संभारो।।

चलत पांव डगमगत धरनि पर, जैसे चलत पतवारो।।

घर आंगन मोहिं नीक न लागै, सब्द—बान हिये मारो।

लागि लगन में मगन बाहिसों, लोक—लाज कुल—कानि बिसारो।।

सुरति दिखाय मोर मन लीन्हों, मैं तो चहों होय नहिं न्यारो।

जगजीवन छबि बिसरत नाहीं, तुमसे कहों सो इहै पुकारो।।

जीवन एक समस्या नहीं है, अन्यथा उसका समाधान हो जाता । जीवन प्रश्न होता तो उत्तर खोजा जा सकता था। जीवन पहेली होती तो बूझ लेते। जीवन एक रहस्य है; बूझने का कोई उपाय नहीं, जीने का उपाय है, मदमस्त होने का उपाय है, पीने का उपाय है, समझने का—सूझने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए दर्शनशास्त्र हार जाता है। दर्शनशास्त्र की खोज व्यर्थ खोज है। सदियों—सदियों में आदमी ने सोचा है, खूब सोचा है; बहुत—से प्रश्न और बहुत—से उत्तर खड़े किए हैं, लेकिन न तो कोई प्रश्न जीवन की गहराई को छूता है और न कोई उत्तर जीवन की गहराई को छूता है। जीवन स्वाद की बात है। जीवन शराब है; पियोगे तो जानोगे। पियोगे, मदमस्त होओगे तो पहचानोगे।

यहीं दर्शन और धर्म का भेद है। दर्शन सोचता है, धर्म पीता है। अब प्यास लगी हो तो जल के संबंध में सोचने से क्या होगा? और जल के संबंध में सब पता भी चल जाए तो भी प्यास बुझेगी नहीं। असली सवाल जल के संबंध में जानना नहीं है, असली सवाल है जल को कंठ से उतार लेना।

फिर क्या तुम सोचते हो जो व्यक्ति जल के संबंध में कुछ भी नहीं जानते उनकी प्यास नहीं बुझती? पीते हैं तो बुझती है। अज्ञानी की बुझ जाती है पीने से और ज्ञानी की भी नहीं बुझती है सिर्फ जानने—सोचने—विचारने से।

धर्म डुबकी लगाने का उपाय है। दर्शन किनारे पर बैठकर विचार करता है, धर्म नाव छोड़ देता है सागर में। तूफानों से टकराता है, चुनौतियों को स्वीकार करता है और उन्हीं चुनौतियों, उन्हीं आंधियों से आत्मा का जन्म होता है, अनुभव का जन्म होता है।

आज जगजीवन के अंतिम सूत्र हैं; और बड़े प्यारे।

सुनु सुनु सखि री, चरनकमल तें लागि रहु री

अपने शिष्यों को कह रहे हैं, अपने मित्रों को कह रहे हैं। क्योंकि धर्म की खोज में शिष्य मित्र ही हैं। इसलिए सखि शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।

शिष्य की तरफ से गुरु कितने ही दूर मालूम पड़े, गुरु की तरफ से शिष्य दूर नहीं समझा जाता। शिष्य गुरु के चरणों में झुकता है। झुकने में रहस्य है, झुकने में कुछ पाने की विधि छिपी है, कुंजी है। लेकिन गुरु तो जानता है कि जो मैं हूं वही तू है। मुझमेंत्तुझमें जरा भी भेद नहीं है। गुरु तो शिष्य के बुद्धत्व को उसी तरह पहचानता है जैसे अपने बुद्धत्व को पहचानता है।

बुद्ध ने कहा है, जिस दिन मैं बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ, सारा अस्तित्व बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया। जिसकी आंख खुल गई और जिसे प्रकाश दिखाई पड़ गया अपने भीतर, उसे सब तरह प्रकाश दिखाई पड़ जाता है। शिष्य की दशा ऐसी है कि प्रकाश उसके भीतर है और उसे पहचान नहीं है। गुरु को तो उसके भीतर का प्रकाश भी दिखाई पड़ता है।

इसीलिए जगजीवनदास ने ठीक ही किया है कि शिष्यों को “सखि’ कहकर संबोधन दिया है——सुनु सुनु सखि री। हे सहेली, सुन।

सखा कहते, सखि क्यों कहा? मित्र कहते, सहेली क्यों कहा? क्योंकि धर्म की खोज में प्रत्येक व्यक्ति को स्त्रैण हो जाना पड़ता है। धर्म की खोज में पुरुष की गति ही नहीं है। खयाल रखना, जब मैं कहता हूं पुरुष की गति नहीं है, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि पुरुष वहां नहीं पहुंचते। जगजीवनदास खुद भी पुरुष थे। पुरुष भी वहां पहुंचते हैं। लेकिन पहुंचते वहां जिस ढंग से हैं, उस ढंग को स्त्रैण ही कहा जा सकता है। भेद समझें।

पुरुष से अर्थ है : अहंकार, अस्मिता, मैं—भाव। स्त्री से अर्थ है : विनम्रता, झुकने की क्षमता, निर्अहंकार। पुरुष से अर्थ है : आक्रमण, विजय की यात्रा, अभियान। स्त्री से अर्थ है : प्रतीक्षा, प्रार्थना, धैर्य। पुरुष सत्य की खोज में निकलता है, स्त्री सत्य के आने की प्रतीक्षा करती है। पुरुष प्रेयसी की खोज में पहल करता है, स्त्री प्रेमी की राह देखती है। स्त्री प्रेम का निवेदन भी नहीं करती अपनी ओर से, चुपचाप प्रतीक्षा करती है। स्त्री के मुंह से प्रेम का निवेदन भद्दा भी लगता है। पुरुष की ओर से निवेदन उचित है। पुरुष पहल करे यह उचित है।

परमात्मा की खोज में जो निकले हैं वे अगर पुरुष की अकड़ से चले तो नहीं पहुंचेंगे। परमात्मा पर आक्रमण नहीं किया जा सकता और न परमात्मा को जीता जा सकता है। और पुरुष तो जीतने की भाषा में ही सोचता है। परमात्मा के समक्ष तो हारने में जीत है। वहां तो जो झुके, उठा लिए गए। वहां तो जो गिरे वे शिखर पर चढ़ गए।

तुमने कहावत सुनी है कि उसकी कृपा हो जाए तो लंगड़े भी पर्वत चढ़ जाते हैं। मैं तुमसे कहता हूं उसकी कृपा ही उन पर होती है जो लंगड़े हैं। लंगड़े ही पर्वत चढ़ते हैं। जिनको अकड़ है अपने पैरों की और अपने बल का भरोसा है, वे तो घाटियों में ही भटकते रह जाते हैं। अंधेरे की घाटियां अनंत हैं। जन्मों—जन्मों तक भटक सकते हो। ईश्वर को पाना हो तो ईश्वर पुरुष है, उसकी प्रतीक्षा करना हमें सीखना होगा। प्रार्थना और पुकार, सुरति और सुमिरन; मगर प्रतीक्षा!

भक्त को स्त्री के गर्भ जैसा होना चाहिए——लेने को राजी, लेने को आतुर, अपने भीतर समाविष्ट करने को उत्सुक, प्रार्थनापूर्ण। अपने भीतर नए जीवन को उतारने के लिए द्वार खुले हुए हैं। लेकिन जीवन को खोजने हम जाएं तो जाएं कहां? परमात्मा की तलाश करें तो कहां करें, किस दिशा में करें?

जाननेवाले कहते हैं, सब जगह है। न जाननेवाले कहते हैं कहां है, दिखाओ। भक्त जाए तो कहां जाए? खोजे तो कहां खोजे? एक तरफ जाननेवाले हैं, वे कहते हैं, रत्ती—रत्ती में वही, कण—कण में वही; वही है और कोई भी नहीं। और एक तरफ न जाननेवाले हैं, वे कहते हैं कि और सब कुछ है, परमात्मा नहीं है।

भक्त इन दोनों के बीच खड़ा है। न उसे पता है कि सब जगह है, और न ही वह ऐसे अहंकार से भरा है कि कह सके कि कहीं भी नहीं है। क्योंकि वह कहता है, मुझे पता ही नहीं, मैं कैसे कहूं कि कहीं भी नहीं है? ऐसी अस्मिता मेरी नहीं।

तो भक्त क्या करे? भक्त प्रतीक्षा करे, प्रार्थना करे, रोए—गाए, नाचे, पुकारे। पुकार को ऐसा गहन करे, पुकार उसके प्राणों में ऐसी गहरी उतर जाए कि उसका रोआं—रोआं पुकारे, उसकी श्वास—श्वास पुकारे और अगर कहीं परमात्मा है तो आएगा, जरूर आएगा। अगर कहीं परमात्मा है तो आंसू व्यर्थ नहीं जाएंगे, पुकारें सुनी जाएंगी। और जितनी गहरी पुकार होगी उतनी त्वरा से सुनी जाएगी, शीघ्रता से सुनी जाएगी। अगर कोई पूरे प्राण से पुकार सके तो इसी क्षण घटना घट सकती है।

इसलिए जगजीवनदास “सखा’ शब्द का उपयोग नहीं करते। कहते हैं, “सुनु सुनु सखि री।’ ए सखि सुन! चरनकमल तें लागि रहु री।’

परमात्मा तो दिखाई नहीं पड़ता लेकिन उसके चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं। परमात्मा तो विराट है, पर उसके चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं। क्या अर्थ हुआ, चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं? अर्थ हुआ कि अगर झुकना हो तो कहीं भी झुक सकते हो।

एक गुलाब का फूल खिला, जिसको झुकने की कला आती है, झुक जाएगा। चमत्कार घट रहा है, मिट्टी गुलाब का फूल बन गई और तुम अंधे की तरह जा रहे हो बिना झुके, बिना नमस्कार किए?

मिट्टी गुलाब का फूल बन गई है, और बड़ा जादू होता है कहीं? साधारण—सी मिट्टी में ऐसी सुवास उठी है, और किस चमत्कार की प्रतीक्षा करते हो जब तुम झुकोगे? अगर तय ही कर लिया हो न झुकने का तो बात और, अन्यथा पल—पल, प्रतिकदम पर झुकने के लिए अवसर है। सूरज निकला, अब तुम किस प्रतीक्षा में खड़े हो? और परमात्मा की महिमा कैसे प्रकट होगी? उसके चरण और कहां पाओगे? और आकाश तारों से भर गया और तुम झुकोगे नहीं तो तुम कहां झुकोगे, कैसे झुकोगे?

मैं बहुत चमत्कृत हो जाता हूं यह देखकर कि लोग जाकर मंदिरों में झुक जाते है, जो आकाश को तारों से भरा देखकर नहीं झुकते। इनका मंदिर में झुकना झूठा होगा, निश्चित झूठा होगा। यह सच नहीं हो सकता। इसमें हार्दिकता नहीं हो सकती। आदमी की बनाई हुई मूर्ति में इन्हें क्या दिखाई पड़ सकता है? अगर परमात्मा की बनाई हुई मूर्तियों में इन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। इतने अंधे! ये संगमरमर की एक बनी प्रतिमा के सामने झुकते हैं, उसमें हृदय होगा? आदतवश झुक जाते होंगे। बचपन से झुकाए गए होंगे इसलिए झुक जाते होंगे मां—बाप ने कहा होगा, झुको, इसलिए झुक जाते होंगे, भय के कारण झुक जाते होंगे; डर के कारण——कि कहीं नरक न हो, कहीं दंड न मिले। या लोभ के कारण झुक जाते होंगे कि झुकने से स्वर्ग मिलेगा, पुरस्कार मिलेंगे। कि क्या बिगड़ता है, थोड़ी खुशामद कर ली। परमात्मा को भी राजी रखना उचित है। फिर जो करना है करते रहो लेकिन उसे भी राजी रखते रहो।

थी वह शायद अपनी ही बेचारगी की एक पुकार

जिसको अपनी सादालौही से खुदा समझा था मैं

लोग अपने भय, कमजोरी, नपुंसकता के कारण झुक जाते हैं और समझ लेते हैं कि हम खुदा के सामने झुक रहे हैं।

थी वह शायद अपनी ही बेचारगी की एक पुकार

जिसको अपनी सादालौही से खुदा समझा था मैं

अज्ञान है; तुमने प्रार्थना समझी है उसे? वहां प्रार्थना बिल्कुल नहीं है, प्रेम बिल्कुल नहीं है। सरासर झूठ है। क्यों? क्योंकि अगर आंखों में प्रेम होता तो इन पास खड़े वृक्षों के पास तुम्हारे झुकने का मन न होता? कोयल कूकती और तुम न झुकते? मोर नाचता और तुम न झुकते? आकाश बादलों से भर जाता और तुम न झुकते? चांदनी के फूल झर—झर झरते और तुम न झुकते? कोई हंसता और तुम न झुकते? मिट्टी में और हंसी? किस चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे हो? उसके चरण—कमल प्रत्येक पल हैं, प्रत्येक स्थल पर हैं। एक—एक रेत के दाने पर उसके हस्ताक्षर हैं, लेकिन संवेदनशीलता चाहिए।

जगजीवन कहते हैं:

सुनु सुनु सखि री चरनकमल तें लागि रहु री

——उसके चरणकमलों में लग जाओ। उसके चरणकमलों का विस्तार सब तरफ है। उसका चेहरा तो बहुत दूर है, विराट है लेकिन उसके पैर हरेक के पास हैं। और जो भी झुकना जानता है उसे उसके पैर मिल जाते हैं। पैरों को खोजकर फिर हम झुकेंगे ऐसा मत सोचो। झुकने की कला सीखो, और पैर मिले। तुम जहां झुके वहां मंदिर उठा। तुमने जहां अपना सिर जमीन पर टेका, वहीं काबा है। तुमने अगर जमीन को चूम लिया तो तुमने उसके चरण चूम लिए; तुमने उसे ही चूम लिया। तुम्हें काबा का पत्थर चूमने जाने के लिए उतने दूर की यात्रा करने की जरूरत नहीं है। तुम जहां झुक जाओगे, वहीं हज हो गई। वहीं तुम हाजी हो गए।

लेकिन झुकना न आता हो तो तुम काबा भी पहुंचकर क्या करोगे? जो जिंदगी भर न झुका हो, जो चांदत्तारों के सामने न झुका हो वह काबा जाकर भी क्या करेगा? कवायत हो जाएगी। सिर झुका लेगा मगर भीतर का अहंकार तो खड़ा ही रहेगा; शायद सिर झुकाने से और अकड़ जाएगा। अहंकारी अगर काबा हो आए तो और अहंकारी हो जाएगा। थोड़े और आभूषण मिल गए अहंकार को। हाजी होकर लौट आया। तीर्थयात्रा कर आए अहंकारी तो और अकड़ जाता है। थोड़ा पुण्य कर ले तो अहंकार में और थोड़ी सी—संपदा बढ़ गई, और थोड़ा पोषण मिल गया अहंकार को। यह तो उलटी बात हो गई। यह झुकना न हुआ। यह तो अकड़ने के लिए तुमने धर्म का भी उपयोग कर लिया। तुमने धर्म के माध्यम से भी अपने को अकड़ा लिया। और जितने तुम अकड़े उतने तुम परमात्मा से दूर हुए। जितने तुम झुको उतने तुम उसके करीब हो। अगर तुम परिपूर्णता से झुक जाओ तो तुम्हारे हृदय के भीतर वह विराजमान है।

अभी तो सीधा—सीधा देखना कठिन होगा। अभी तो परोक्ष से खोजना होगा। अभी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इसलिए झुको। झुकने में उसके चरणों पर तुम्हारे हाथ पड़ेंगे। धीमे—धीमे, आहिस्ता—आहिस्ता क्रमशः तुम्हें तुम्हारी पहचान बढ़ेगी। उसके चरणों की गंध तुम्हारे नासापुटों में भरने लगेगी। इसलिए उसके चरणों को कमल कहते हैं। उसके चरण बड़े सुगंधित हैं। अपूर्व उनकी सुगंध है। उसके चरण बड़े कोमल हैं, बड़े सुंदर हैं। अपूर्व उनका सौंदर्य है। उसके चरण बड़े चमत्कारी हैं जैसे कीचड़ से कमल का होना——यह चमत्कार है, ऐसे कीचड़ में भी वह छिपा है। जो झुकता है वह कीचड़ में भी हीरा पा लेता है। अभी सीधे तो देखना संभव नहीं है।

एक प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के पास पत्रवाहक को भेजा, नामावर भेजा और पत्रवाहक को कहा:

मजा लेंगे हम देखकर तेरी आंखें

उन्हें खूब तू नामावर देख लेना

सीधे तो हम जा नहीं सकते। अभी सीधी अपनी प्रेयसी की आंखें नहीं देख सकेंगे उसका चेहरा नहीं देख सकेंगे लेकिन तू जा रहा है संदेशवाहक, गौर से चेहरे को देख लेना। सौंदर्य को खूब पी लेना मेरी प्रेयसी के, कि तू जब आएगा तो हम तेरी आंखों को देखकर आनंद ले लेंगे।

मजा लेंगे हम देखकर तेरी आंखें

उन्हें खूब तू नामावर देख लेना

——प्रेम का ही विस्तार है भक्ति। प्रेम का ही परिष्कार है भक्ति।

आज उनकी नजर में कुछ हमने सबकी नजरें बचाकर देख लिया

सीखी यहीं मेरे दिले—काफिर ने बंदगी

रबे—करीब है तो तेरी रहगुजर में

——तुमने अगर किसी को भी प्रेम किया है तो तुम जान ही जाओगे।

सीखी यहीं मेरे दिले—काफिर ने बंदगी

ऐसे तो आदमी सभी काफिर की तरह पैदा होते हैं, सभी धर्मविहीन पैदा होते हैं। झुकने की बात सीखनी पड़ती है।

सीखी यहीं मेरे दिले—काफिर ने बंदगी

——प्रेम के रास्ते पर ही प्रार्थना सीख ली जाती है।

रबे—करीब है तो तेरी रहगुजर में

और जहां से प्रेम गुजरता है उसी राह पर परमात्मा भी गुजरता है। प्रेम की राह और परमात्मा की राह दो राहें नहीं हैं। अभी परमात्मा का तो तुम्हें पता नहीं है लेकिन प्रेम का तो थोड़ा—थोड़ा पता है। चलो प्रेम से ही शुरू करें। जितना अपने पास है उस संपदा से ही तो शुरू करोगे न! एक कौड़ी भी पास हो तो करोड़ों रुपयों को खींच ला सकती है। प्रेम तुम्हारे पास है, पर्याप्त है। इतनी पूंजी से हो जाएगा काम। काफिर में ईमान जग जाएगा। न झुकनेवाला झुकना सीख जाएगा। विचार तिरोहित हो जाएंगे। विचारों की ऊर्जा भावनाओं में रूपांतरित हो जाएगी।

नीचे तें चढ़ि ऊंचे पाउ

——जगजीवन कहते हैं, नीचे हो जाओ तो ऊंचे पहुंच जाओ।

ठीक यही तो जीसस ने कहा है : जो पीछे खड़े होंगे वे आगे पहुंच जाएंगे। और अभागे हैं वे लोग जो आगे होने की कोशिश में हैं क्योंकि पीछे पड़ जाएंगे। यहां जिसने पहाड़ चढ़ना चाहा वे घाटियों में भटकते रह गए; और जो झुके रहे और जिन्होंने जीवन को स्वीकार कर लिया, जैसा था वैसा स्वीकार कर लिया, वहीं से जिन्होंने पुकार दी, आवाज दी, वे पर्वत—शिखरों पर चढ़ गए हैं, वे ऊंचाई जीवन की पाने में सफल हो गए हैं।

नीचे तें चढ़ि ऊंचे पाउ

——हो जाओ नीचे, झुक जाओ।

चरनकमल तें लागि रहु री

——लग जाओ उसके चरणों से। नीचे से नीचे हो जाओ।

मंदिल गगन मगन ह्वै गाउ

——और एक बार तुम्हें झुकना आ जाए तो तुम्हारे भीतर वह जो शून्य है वह गीत गाने लगे; तुम्हारे भीतर वह छुपी हुई जो समाधि है, नाचने लगे।

पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे!

तुम भी नाच सकते हो। सब तुम्हारे पास भी उतना ही है जितना किसी मीरा के पास। लेकिन एक कला तुम्हें नहीं आ रही, जरा झुकना नहीं आ रहा । पुरुष वहीं अकड़ा खड़ा है। इसलिए मैं फिर कहता हूं, स्त्री हुए बिना कोई सत्य तक नहीं पहुंचता है।

और स्त्री होने से मेरा मतलब स्त्री की देह से नहीं है। क्योंकि स्त्री की देह भी हो और भीतर अकड़ हो तो यह तो पुरुषता हुई। पुरुष की भी देह हो और भीतर अकड़ न हो तो यह स्त्रैणता हो गई।

इस बात को ही प्रतीक—रूप से कहने के लिए हमने बुद्ध की, महावीर की, राम की, कृष्ण की जो प्रतिमाएं बनाई हैं वे तुमने गौर से देखी हैं? उन सारी प्रतिमाओं में बड़ा स्त्रैण माधुर्य है। उनमें पुरुष का भाव प्रकट नहीं होता। तुमने विचार किया कभी कि बुद्ध की दाढ़ी—मूंछ कहां है? महावीर की दाढ़ी—मूंछ का क्या हुआ? कृष्ण की दाढ़ी मूंछ का क्या हुआ? राम की दाढ़ी—मूंछ का क्या हुआ? ये कभी बूढ़े हुए कि नहीं? या तो इन सबके भीतर पुरुष हारमोन की कमी थी, जिसकी वजह से इनके चेहरे पर बाल नहीं उगे; और या फिर यह काव्य का प्रतीक है।

यह प्रतीक है। बाल तो उगे जरूर। बुद्ध भी बूढ़े हुए, अस्सी वर्ष के होकर मरे। लेकिन हमने उनके बुढ़ापे की प्रतिमा नहीं बनाई। क्यों? उनके भीतर जो जीवन था वह सदा युवा रहा। उनकी ताजगी कभी फीकी न पड़ी। वे सुबह की ओस जैसे ताजे ही रहे। और देह तो वे नहीं थे। हमने उनकी आत्मा की चिंता ली। आत्मा सदा युवा है। देह का युवा होना तो बड़ा भ्रामक है। आज युवा, कल बूढ़ी हो जाएगी। आज जीवन, कल मृत्यु। और भीतर तो जीवन की सतत धारा है। दाढ़ी—मूंछ उनको भी थीं लेकिन हमने अपनी मूर्तियों में उनको नहीं बनाई——जानकर। हम एक प्रतीक की तरह उपयोग कर रहे हैं। हम स्त्रैण भाव को प्रकट कर रहे हैं। हम इसके द्वारा यह सूचना दे रहे हैं कि तुम भी जब समर्पण की ऐसी स्त्रैण दशा में होओगे तो परमात्मा तुम्हारे भीतर उतरेगा।

नीचे तें चढ़ि ऊंचे पाउ, मंदिल गगन मगन ह्वै गाउ

और एक बार झुक जाओ तो तुम्हारे भीतर का मंदिर, शून्य मंदिर तुम्हें मिल जाए। शून्य आकाश तुम्हारे भीतर भी है, वैसा ही जैसे बाहर है। और बाहर का आकाश और बाहर के तारे और बाहर का चांद और बाहर के सूरज उस भीतर के आकाश और भीतर के चांदत्तारों और सूरजों के सामने फीके हैं। बाहर तुमने जो देखा है वह प्रतिफलन है——जैसे दर्पण में देखा हो। भीतर तुम जो देखोगे वह असली है। बाहर उसी की छाप है, छाया है। बाहर भीतर की छाया है। और जो भीतर को देख लेता है वह गाएगा नहीं तो क्या करेगा? गाता है ऐसा कहना ठीक नहीं है, उससे गीत फूटते हैं।

इसलिए हमने कहा है कि वेद अपौरुषेय है। अपौरुषेय का अर्थ ? जिन्होंने गाए उन्होंने नहीं गाए; उनके भीतर परमात्मा गुनगुनाया है। पुरुष की छाप नहीं है उन पर। आदमी के हस्ताक्षर नहीं हैं उन पर। वह वाणी परमात्मा की है। क्योंकि जो गानेवाले थे वे तो इतने झुक गए थे कि मिट गए थे; थे ही नहीं। बांस की पोंगरी हो गए थे। फिर जो स्वर उठे बांस की पोंगरी से, जिसने उस बांस की पोंगरी को बांसुरी बना दिया, जिन अदृश्य ओंठों से वे स्वर उठे, वे परमात्मा के हैं।

एक तो गीत है, जिसे तुम गाते हो। तुम्हारा गीत तुमसे बड़ा नहीं होता, तुम्हारा गीत तुमसे छोटा होता है; बहुत छोटा होता है। और तुम्हारा गीत अक्सर झूठ होता है। तुम ही झूठ हो। तुम्हारे भीतर आंसू भरे रहते हैं और बाहर तुम गीत गाते रहते हो। तुम्हारे भीतर रोना चलता रहता है और ओंठों पर मुस्कुराहट चलती रहती है।

मजबूरी है। जीवन से ऐसा समझौता करना पड़ता है। रोते रास्तों से गुजरोगे, नाहक ही दया के पात्र हो जाओगे। तो सज—संवर कर अपने, रोने को भीतर छिपाकर, अपनी छाती में ढांककर, मुंह पर झूठी मुस्कुराहटें फैलाकर निकल पड़ते हो।

जिनके जीवन में प्रेम बिल्कुल नहीं है वे प्रेम का गीत गाकर अपने को समझा लेते हैं, सांत्वना कर लेते हैं। जिनके जीवन में संगीत बिल्कुल नहीं है, वे बाहर की वीणाओं के तार छेड़—छेड़कर सोचते हैं कि संगीत मिल गया।

मनुष्य तो जो भी करेगा, मनुष्य से छोटा होगा। और चूंकि मनुष्य झूठ हो गया है, मनुष्य के होने का ढंग ही झूठ है, पाखंड है। बाहर कुछ, भीतर कुछ। और बचपन से ही यह कथा शुरू हो जाती है। हम बच्चों को भी समझाने लगते हैं कि बाहर से कुछ, भीतर से कुछ। हम बच्चों से कहते हैं, घर में मेहमान आते हैं, अभी शोरगुल मत करना। अब अगर उनके भीतर शोरगुल हो रहा हो तो अब झूठ होना शुरू हुआ। मेहमान हैं तो वे दबाकर बैठे रहेंगे। ऊपर से कुछ दिखाते रहेंगे, भीतर कुछ।

मैं एक घर में मेहमान था। वे मुझे लेकर पास के एक सरोवर पर गए सांझ के समय। सरोवर सुंदर था। वे उतरकर कुछ खरीदने गए, उनका छोटा बच्चा और मैं, दोनों गाड़ी में बैठे रहे। ठंडी—ठंडी हवा! छोटा बच्चा, उसको झपकी आ गई, वह गिर पड़ा। गिरा तो उसके सिर में चोट भी लग गई गाड़ी के स्टयरिंग वील से। उसे उठाकर मैंने बिठा दिया। मुझे लगे कि वह रोना चाहता है मगर रोता नहीं। अब खुद ही नहीं रोना चाहता तो मैं भी क्या करूं? मैंने कहा, बैठा रहे।

वह बैठा रहा। आधा घंटे बाद उसके पिता लौटे। उनके आते ही से रोने लगा। मैंने कहा, देख, अब बेईमानी की बात है। आधा घंटे पहले तू गिरा था। उसने कहा, गिरा तो आधा घंटा पहले था मगर आपकी तरफ देखा और ऐसा लगा, कोई सार नहीं है रोने से। मैंने पूछा, अब तुझे दर्द हो रहा है? उसने कहा, अब दर्द नहीं हो रहा । फिर क्यों रो रहा है तू? मगर अब रोने में ठीक मालूम पड़ता है क्योंकि पिता आ गए हैं।

अब यह बच्चा झूठ होने लगा। जब रोना चाहेगा तब रोएगा नहीं, जब रोने की कोई जरूरत नहीं होगी तब रोएगा। द्वंद्व शुरू हुआ। पाखंड शुरू हुआ।

हम लोगों से कहते हैं, ईमानदारी से परमात्मा पर विश्वास करो। अब यह झूठ की बात है। अगर ईमानदारी शब्द का प्रयोग करते हो तो विश्वास किया नहीं जा सकता। क्योंकि जिसका पता नहीं उस पर कैसे विश्वास करें? और हम कहते हैं, ईमानदारी से परमात्मा पर विश्वास करो।

इस्लाम तो ईमान शब्द का अर्थ ही धर्म करता है। “ईमानदारी से विश्वास करो, ईमान लाओ’। अब झूठ की बात हो रही है। परमात्मा का पता नहीं है, और ईमान ले आए तो यह बेईमानी हो गई । जब परमात्मा का पता होगा तब ईमान आएगा। वह ईमानदारी होगी। जब अनुभव होगा तब भरोसा होगा। उस भरोसे का नाम श्रद्धा है।

यह तो श्रद्धा जिसे हम कहते हैं, झूठी है, नकली सिक्का है; है नहीं। मूल से यह भी बेईमानी का विचार है। मूल से ही झूठ है। और जहां मूल में झूठ हो जाए वहां सारे पत्ते झूठ न हो जाएं तो और क्या हो? हमारी जड़ें झूठ पर खड़ी हैं।

हम लोगों को कुछ सिखा रहे हैं जिससे वे अपने आसपास एक तरह का रूप बना रखते हैं, एक मुखौटा। भीतर की हमें पहचान ही नहीं हो पाती फिर। हम बाहर ही बाहर जीने लगते हैं। फिर हम रोते हैं तो भी छिछला। आंसू शायद आंख से ही आते हैं, हृदय से नहीं आते। हंसते हैं तो भी छिछला। ओंठ पर ही फैली होती है हंसी——लिपस्टिक के रंग की तरह।

अब देखते हो लिपस्टिक का रंग? ओंठ सूर्ख हों यह समझ में आता है। ओंठों में जीवन हो, लाली हो, यह समझ में आता है, लेकिन लिपस्टिक पोतकर चल रहे हो। किसको धोखा दे रहे हो? शर्म भी नहीं उठती। संकोच भी नहीं होता। ओंठ लाल होते, ठीक बात थी; होने चाहिए। ओंठ स्वस्थ हों, जीवंत हों, उनमें खून बहता हो, रसधार बहती हो, ठीक है, समझ में आनेवाली बात है। लेकिन रंग ऊपर से पोतकर चले——!

मगर यह हमारी पूरी जिंदगी का ढंग है। लिपस्टिक में हमारी आदमी की पूरी कथा छिपी है। वह उसकी पूरी कहानी है। वही उसकी व्यथा भी है। क्योंकि झूठ, सब झूठ है। सब दिखावा है।

जब तुम किसी से कहते हो, मैं प्रेम करता हूं, तब भी तुम शायद कह ही रहे हो। तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं है। शायद तुमने सोचा भी नहीं है। यह कहने की आदत हो गई है।

तो आदमी तो गीत भी गाएगा तो झूठ होंगे। एक ऐसा भी गीत है जो आदमी नहीं गाता, आदमी से गाया जाता है; उसी गीत का नाम धर्म है। एक ऐसा भी नृत्य है जो आदमी नहीं नाचता, आदमी के द्वारा नाचा जाता है; उसी नृत्य को अपौरुषेय कहा है।

जैसे वेद के वचन अपौरुषेय है, मैं तुमसे कहना चाहता हूं, मीरा का नृत्य भी अपौरुषेय है; यद्यपि किसी ने यह बात इसके पहले कही नहीं है। क्योंकि कौन मीरा को, स्त्री को इतना गौरव दे! उसका नृत्य भी अपौरुषेय है; उतना ही अपौरुषेय जितने वेद के वचन; जितनी कुरान की आयतें।

अपौरुषेय का अर्थ इतना ही होता है कि अब अहंकार नहीं है, अब मैं नहीं हूं। अब गाए तो वही गाए, नाचे तो वही नाचे। बैठे तो वही बैठे, उठे तो वही उठे। सब उसका है। मैं सब तरफ से झुक गया हूं, उसका हो गया हूं।

मंदिल गगन मगन ह्वै गाउ

और एक मगनता आती है, एक मस्ती आती है, एक नशा छा जाता है। एक नशा, जो फिर कभी उतरता नहीं। एक नशा, जो अंगूरों का नहीं है, आत्मा का है। एक नशा, जो बाहर से भीतर नहीं ले जाना पड़ता, भीतर से बाहर की तरफ आता है।

बाहर से शराब मत पियो। लेकिन एक ऐसी शराब है जो भीतर से बाहर की तरफ बहती है; उसे जरूर पियो। उसके संबंध में तो शराबी हो ही जाना चाहिए। सच तो यह है कि बाहर की शराब भी आदमी इसीलिए पीता है कि उसे भीतर की शराब की तलाश है।

क्या तुम्हें यह पता है कि शराब की सबसे पहले खोज साधुओं ने की ? सबसे पहले शराब ढाली गई ईसाई आश्रमों में। अब भी ढाली जाती है। जैसे चाय को बौद्धों ने खोजा——बौद्ध भिक्षुओं ने, वैसे शराब को ईसाई भिक्षुओं ने खोजा। यह आश्चर्य की बात है कि ईसाई भिक्षुओं ने पहाड़ों में बसे अपने आश्रमों में शराब की सबसे पहले खोज की। सबसे पुरानी शराब, सबसे कीमती शराब आज भी ईसाई आश्रमों से उपलब्ध होती है। सैकड़ों वर्ष पुरानी शराब उनके तलघरों में रखी है।

कैसे खोजा साधुओं ने शराब को? क्यों खोजा? और शराब के प्रति इतना आकर्षण क्यों है सारी दुनिया में। शराब किसी कमी की पूर्ति करती है। क्षणभर को ही सही, मगर कुछ झलक देती है। झलक झूठी है; प्रवंचना है, भ्रांति है। मगर फिर भी झलक जिसकी है उसके संबंध में हमारी कोई एक आंतरिक आकांक्षा है।

हम सब मस्त होकर जीना चाहते हैं। यह हमारी अंतरतम अभीप्सा है कि हम मस्त होकर जिएं। कि हमारे जीवन में मस्ती का स्वर हो, नाद हो। कहां से पाएं मस्ती? दो ही तरह मिल सकती है : या तो बाहर के नशे जो थोड़ी देर के लिए मस्त कर देंगे और फिर कल सुबह सिरदर्द भी छोड़ जाएंगे, शरीर को भी तोड़ जाएंगे, रुग्ण भी कर जाएंगे। बड़ी कीमत! और मस्ती भी कुछ बहुत गहरी मस्ती नहीं, सिर्फ बेहोशी है; मस्ती नहीं है, मस्ती का धोखा है।

एक भीतर की मस्ती है, जिसमें बेहोशी नहीं होती, होश होता है। जब भीतर की शराब तुम्हारे जीवन में बहनी शुरू हो जाती है तो तुम मस्त होते हो। और जैसे—जैसे मस्ती बढ़ती है, वैसे—वैसे होश बढ़ता है। अगर बेहोशी बढ़े तो कहीं कुछ भूल हो गई। होश बढ़ना चाहिए। क्योंकि बुद्धत्व तो होश से ही उपलब्ध होगा। मस्ती भी बढ़ेगी, नृत्य भी बढ़ेगा, गीत भी उठेंगे, शांति भी बढ़ेगी, जागरूकता भी बढ़ेगी, प्रेम भी बढ़ेगा, ध्यान भी बढ़ेगा।

प्रेम और ध्यान जब साथ—साथ बढ़ते हैं, अर्थात मस्ती और होश साथ—साथ बढ़ते हैं, तब समझना कि ठीक दिशा में चल पड़े हो। तब तुम्हारा दिशा सूचक यंत्र ठीक—ठीक तरफ इशारा कर रहा है। अब आगे बढ़े चलो। यही द्वार है।

मंदिल गगन मगन ह्वै गाउ

दृढ़करि डोरि पोढ़िकरि लाव, इत—उत कतहूं नाहीं घाव

मन तो यहां—वहां दौड़ता है। अब डोरी बांध लो। मन को बांध लो, दृढ़ करके बांध लो। उसी परमात्मा के साथ फेरे डाल लो। इसे यहां—वहां न भागने दो।

दृढ़करि डोरि पोढ़िकर लाव——कहीं भी भाग जाए, पकड़कर ले आओ। समझा बुझाकर वापस ले आओ। फिर स्मरण करो प्रभु का। फिर झुको, फिर याद जगाओ। ऐसे जगाते—जगाते एक दिन रस का झरना फूट पड़ता है। खोदते—खोदते—खोदते जैसे एक दिन जलस्त्रोत मिल जाते हैं जमीन में, ऐसे ही जगाते—जगाते अपने भीतर रसस्त्रोत मिल जाते हैं।

इत—उत कतहूं नाहीं घाव——अभी तो मन बहुत भागता है। इधर भागता है, उधर भागता; फिर बिल्कुल नहीं भागता। फिर तो मस्त होकर बैठा रहता है। फिर तो पी लिया कि फिर कहां जाना है। किसलिए जाना है? जिसकी तलाश थी, घर में ही मिल गया। जिस संपदा को खोजने सारी दिशाओं में दौड़ते थे, वह अपने भीतर ही पा लिया।

नहीं तो मन दौड़ता ही रहता है। मन न मालूम कितनी तरकीबें करता रहता है। मन कहता है, यह भी पा लो, वह भी पा लो, यहां भी हो आओ, वहां भी हो आओ। विकल्प पर विकल्प खड़े करता है।

अभी शबाब है कर लूं खताएं जी भरके

फिर इस मकाम पे उम्र—ए—रवां मिले, न मिले

मन कहता है, अभी तो कर लो। यह भी कर लो, वह भी कर लो। फिर क्या पता उम्र का! कब बचो, न बचो; यह जवानी रहे न रहे।

तुम जरा देखते हो, मन का तर्क और जो मन के बाहर गए हैं उनका तर्क एक ही आधार पर खड़ा है। बुद्ध कहते हैं, जागो, क्योंकि यह जिंदगी चली जाएगी हाथ से। इस जिंदगी में ज्यादा समय मत गंवाओ। यह रेत का घर है, इसमें अपने को ज्यादा व्यस्त मत करो। असली घर बनाना है तो समय खराब मत करो। यह जिंदगी तो जा रही है। यह तो गई। यह तो देखते—देखते चली जाएगी। यह तो सपना है।

मन भी यही कहता है कि यह जिंदगी जा रही है। इसके पहले निकल जाए, भोग लो। देखते हो? दोनों का तर्क एक है। मन भी यही कहता है कि जिंदगी दो दिन की है; चार दिन की है ज्यादा से ज्यादा। भोग लो। क्या पता, फिर मौका मिले न मिले। अभी शबाब है कर लूं खताएं जी भरके

लोग चलो इसको खता ही कहते हैं, बुरा ही कहते हैं, पाप ही कहते हैं, कहने दो। अभी शबाब है——अभी जवानी है।

………..कर लूं खताएं जी भरके

फिर इस मकाम पे उम्र—ए—रवां मिले न मिले

फिर यह मकाम दुबारा आए कि न आए; फिर उम्र मिले न मिले, बचे न बचे।

तर्क का आधार एक ही है। इसी तर्क के आधार पर चार्वाक कहता है, भोग लो। इसी तर्क के आधार पर बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट कहते हैं, जाग लो।

तर्क दुधारी तलवार है। तर्क से बड़े सावधान होकर चलना। और मन बड़ा कारीगर है। मन बड़ा कुशल है। तर्क तो ऐसा देता है जो बुद्धों का है लेकिन नतीजा ऐसा पकड़ा देता है जो बुद्धुओं का है। तर्क बिल्कुल साफ—सुथरा, नतीजा बिल्कुल गलत।

सत समरथ पिय जीव मिलाव…..

एक ही चीज इस जगत में है——सत्य भी देगी, सामर्थ्य भी देगी, प्रेम से भी भर देगी, और वह है : परमात्मा के साथ प्रेम की डोरी दृढ़ हो जाए। परमात्मा से मिलन हो जाए।

….. नैन दरस रस आनि पिलाव

और जब उसकी आंखों से तुम्हारी आंखों में रस उतरने लगे, जब उसकी आंखें और तुम्हारी आंखें एक भाव—भंगिमा में लीन हो जाएं, एकात्म सध जाए, जब तुम उससे जरा भी भिन्न अपने को अनुभव न करो, तब तुमने शराब पी।

तू जो जाहिद मुझे कहता है कि तोबा कर ले

क्या कहूंगा जो कहेगा कोई पीना होगा

——तू तो कहता है, कसम खा ले न पीने की, लेकिन एक वक्त आएगा जब परमात्मा कहता है, पियो।

तू तो जाहिद मुझे कहता है कि तोबा कर ले

क्या कहूंगा जो कहेगा कोई पीना होगा

अपने हाथों से दिया यार ने मीना मुझको

——एक घड़ी आती है जब परमप्यारा अपने ही हाथ से प्याली भरकर देता है।

अपने हाथों से दिया यार ने मीना मुझको

रुख्सत—ऐत्तोबा कि लाजिम हुआ पीना मुझको

उस दिन मुझे सारी कसमें छोड़ देनी पड़ीं। सारे व्रत—नियम छोड़ देने पड़े। जब उस प्यारे ने ही हाथ से भरकर दी प्याली तो इंकार तो नहीं किया जा सकता।

इसलिए जो व्यक्ति सच में पहुंच गया है, अगर फिर भी उदास दिखता हो, तो समझना कि पहुंचा नहीं। अभी प्यारे ने प्याली भरकर दी नहीं।

किसी के नैन बोले भी, अबोले भी

भृकुटी में बंक चितवन धनुष भी है, तीर भी है

तरल आंसू तरल मोती, हृदय की पीर भी है

किसी के नैन चंचल और भोले भी

उडुप उस पार मन की थाह छूने को तरे हैं

कि वे इस पार उमड़े ज्वार में डूबे भरे हैं

किसी के नैन डोले भी, अडोले भी

कभी इन लोचनों से वे नैन मिल—जुल गए हैं

कभी ये अश्रु उनके आंसुओं में घुल गए हैं

तुला पर नेह की तौले, अतौले भी

किसी के नैन बोले भी, अबोले भी

——जब उन परम आंखों से मिलन होता है तो वे बोलती भी नहीं हैं और बोलती भी हैं।

किसी के नैन बोले भी, अबोले भी

तरल आंसू तरल मोती, हृदय की पीर भी है

किसी के नैन चंचल और भोले भी

परमात्मा विरोधाभासी है। वह समस्त विरोधों का संगम है। वहां स्त्री—पुरुष एक हो जाते हैं। इसलिए हमने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा बनाई——आधा पुरुष, आधा नारी। वहां रात और दिन एक हो जाते हैं।

इसलिए हमने संध्याकाल को प्रार्थनाकाल चुना है। क्योंकि संध्या में रात और दिन एक हो जाते हैं। ब्रह्म शब्द को हमने नपुंसकलिंग में रखा है; न पुरुष न स्त्री। क्योंकि वहां सारे द्वंद्व खो जाते हैं, सारा द्वैत खो जाता है।

कि वे इस पार उमड़े ज्वार में डूबे भरे हैं

किसी के नैन डोले भी, अडोले भी

कभी इन लोचनों से वे नैन मिल—जुल गए हैं

कभी ये अश्रु उनके आंसुओं में घुल गए हैं

तुला पर नेह की तौले, अतौले भी

परमात्मा को पा भी लिया जाता है और पाकर यह भी पाया जाता है कि बहुत पाने को शेष रह गया। उसे जितना पाओ उतना ही पाने को शेष रहता मालूम होता है। हम पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है, उपनिषद् कहते हैं।

तुला पर नेह की तौले, अतौले भी

किसी के नैन बोले भी, अबोले भी  

——लेकिन वे दो आंखें, इस अस्तित्व की आंखें जब तुम्हारी आंखों से मिल जाती हैं तो मस्ती छाती है।

नैन दरस रस आनि पिलाव——तो रसमग्न हो जाते हो तुम। बाढ़ आती है रस की।

माती रहहु सबै बिसराव …..

——फिर तो सब भूल जाता है। फिर भूलना नहीं पड़ता। फिर तो एक मदमस्ती, एक मतवालापन।

माती रहहु सबै बिसराव आदि अंत तें बहु सुख पाव

फिर मिले वह सुख जो पहले भी था और अंत में भी है; जो स्त्रोत है और गंतव्य भी; जो मूल है और अंत भी; जो उद्गम भी है हमारा, जहां से हम आए हैं, हमारा घर, और जो हमारी आखिरी मंजिल भी।

…..आदि अंत तें बहु सुख पाव

सन्मुख ह्वै पाछे नहिं आव

इतना ही खयाल रखना कि घबड़ा मत जाना, डर मत जाना। एक बार वे आंखें तुम्हारी आंखों में झांकें तो घबड़ाकर लौट मत पड़ना। ध्यान की घड़ी से बहुत घबड़ाकर लौट जाते हैं। प्रेम की आखिरी घड़ी से बहुत लोग घबड़ाकर लौट आते हैं। क्योंकि लगता है, मैं गया! मैं गया! कि अब मैं गया; कि यह तो मृत्यु हुई; कि अब बचना संभव नहीं है; कि अब तो मैं डूबा।

घबड़ाकर लौट मत आना। ठीक कहते हैं जगजीवन। सन्मुख ह्वै पाछे नहिं आव। हिम्मत रखना। पीछे कदम मत रखना एक भी। उसके सामने पड़ गए तो और करीब जाना है।

….. जुग—जुग बांधहु एहै दांव

यही तो जिंदगी—जिंदगी से दांव लगाने की प्रतीक्षा की थी। अब मौका आ गया, अब लौट मत आना। यही दांव, अपने को पूरा दांव पर लगा देना। जरा भी बचाना मत। इंच भर बचाया कि चूक गए। क्योंकि इंच—भर बचाया तो उतनी तुमने खबर दे दी कि श्रद्धा कम है। और पूर्ण श्रद्धा हो तो ही पूर्ण तुम्हारा मेहमान बनेगा। जरा—सी भी श्रद्धा अपूर्ण हुई तो चूक हो जाएगी। इंच भर की भी दूरी रह गई परमात्मा और तुममें तो चूक हो जाएगी। फिर इंच भर की दूरी कोसों की दूरी हो सकती है, अनंत कोसों की दूरी हो सकती है। जब एक बार सन्मुख पड़ जाओ तो लौटना मत।

ये बहुत प्यारे शिष्यों से कहे हुए वचन हैं, जो पहुंच रहे हैं करीब । जब सद्गुरु ऐसे वचन बोलता है तो अकारण नहीं बोलता है, हर किसी से नहीं बोलता है। ये बातें हर किसी से कहने की नहीं हैं। ये बाजार में नहीं कही जातीं। ये भीड़—भाड़ में नहीं कही जातीं। ये उनसे कही जाती हैं जो पहुंच रहे हैं।

सन्मुख ह्वै पाछे नहिं आव, जुग—जुग बांधहु एहै दांव

बाद एक उम्र के मैखाने में आए हैं रियाज

आप बैठे हैं बचाए हुए दामन कैसा!

इतनी मुश्किल से तो आए मधुशाला में, अब दामन बचाए बैठे हो? अब तो छोड़ो सब फिक्रें। पी उठो। नाच उठो। कितने जन्मों से इसकी प्रतीक्षा की थी। अब लौट मत आना, कदम पीछे मत ले लेना। क्योंकि ध्यान रखना, आखिरी समय तक भी कदम पीछे लिया जा सकता है। जब तक तुम मिट ही नहीं गए हो तब तक कदम पीछे लिया जा सकता है।

….. जुग—जुग बांधहु एहै दांव

जगजीवन सखि बना बनाव …..

यह मौका बन गया। यह अवसर आ गया। जुग—जुग दांव की प्रतीक्षा थी, अब दांव की घड़ी आ गई जगजीवन सखि बना बनाव। अब यह मौका चूक मत जाना, यह अवसर खो मत देना।

….. अब मैं काहुक नाहिं डेरांव

अब तो सोच लेना, अब मैं किसी चीज से नहीं डरता। मौत हो तो मौत सही। परमात्मा के चरणों में मरना परमात्मा के बिना जीने से लाख गुना बहुमूल्य है। उसके चरणों में मिट जाना बचने से बहुत बेहतर है। जीसस ने कहा है, याद करो, कि जो अपने को बचाएगा, मिट जाएगा; और जो मिटने को राजी है, बच गया। कबीर ने कहा है, यह कुछ अजीब यात्रा है। यहां जो बचते हैं, डूब जाते हैं; जो डूब जाते हैं, बच जाते हैं।

पूछिए मैकशों से लुत्फ—ए—शराब

यह मजा पाकबाज क्या जानें

इस संबंध में लेकिन हर किसी की सलाह लेने मत चले जाना। इस संबंध में उनकी ही सलाह लेना जो मिट गए हों, जो डूब गए हों।

पूछिए मैकशों से लुत्फ—ए—शराब

——अगर इस शराब का लुत्फ, इसका रस पूछना हो तो पियक्कड़ों से पूछना।

यह मजा पाकबाज क्या जानें

——जिन्होंने कभी पी ही नहीं उनसे मत पूछना। और मजा ऐसा है कि जिन्होंने कभी नहीं पी, वे सलाहें देते रहते हैं। जिनको परमात्मा का कुछ पता नहीं वे सलाहें देते रहते हैं।

दो दिन पहले एक महिला ने मुझे आकर कहा कि मैं क्या करूं? आपने जो ध्यान की विधि दी है, उससे परम आनंद हो रहा है, लेकिन मेरा डॉक्टर कहता है, यह विधि बंद कर दो, नहीं तो पागल हो जाओगी। अब मैं क्या करूं? मैंने उससे कहा, डॉक्टर से जाकर पूछना, उसने कभी ध्यान किया है? उसने या उसके बाप—दादों ने——किसी ने कभी ध्यान किया है? बाप—दादों ने किया होता तो ये पैदा नहीं हो सकते थे।

ध्यान किया है? ध्यान किया हो तो सलाह देनी चाहिए। डॉक्टर को क्या पता ध्यान का! और तेरा अपना अनुभव कह रहा है कि तू मस्त हो रही है। वह कहती है, वही मस्ती की वजह से तो मेरे पति को शक हो रहा है कि मैं पागल हो रही हूं। इसीलिए तो डॉक्टर के पास ले गए कि तू डॉक्टर के पास चल। वे कहते हैं, तू अकेली बैठी—बैठी मुस्कुराती है, यह बात ठीक नहीं है।

और महिला कहने लगी कि मैं अकेले बैठकर ऐसी मस्त हो जाती हूं कि सबके सामने मुस्कुराऊं तो लोग पागल समझेंगे, सो अकेले में मुस्कुराती हूं। क्योंकि सबके सामने मुस्कुराना, लोग कहेंगे पता नहीं क्यों, क्या कारण है, क्यों मुस्कुरा रही है। तो मैं एकांत में ….. और मेरे पति जांच—पड़ताल करते रहते हैं। खिड़कियों से झांकते, इधर—उधर से देखते, मैं कुछ ऐसा तो नहीं कर रही हूं कि जिस …..। सबके सामने नहीं करती क्योंकि झंझट खड़ी होगी। एकांत में जो मुझे करने जैसा होता है …..।

तो पति को शक होता है कि तू अकेले में मुस्कुराती है, कभी रोती है, कभी झर—झर तेरे आंसू गिरते हैं। और एक दिन उन्होंने मुझे अकेले में आपसे बातें करते पकड़ लिया। आपकी तस्वीर रखे दो—दो बातें हो रही थीं। बस, फिर तो पक्का हो गया कि अब तेरा दिमाग खराब हो गया है। उन्होंने कहा, अब इसी वक्त डॉक्टर के पास चल। अब मैं मस्त हो रही हूं। जिंदगी में पहली दफा मुझे मजा आ रहा है। डॉक्टर कहता है, ध्यान बंद कर दो नहीं तो पागल हो जाओगी।

डॉक्टर को क्या पता ध्यान का? और डॉक्टर को क्या पता कि ऐसे भी पागलपन हैं जो बुद्धिमानियों से लाख गुना बेहतर हैं। ऐसे भी पागलपन हैं जो सौभाग्यशालियों को ही मिलते हैं। रामकृष्ण भी पागल थे, और मीरा भी पागल थी और बुद्ध भी पागल थे।

तुम जानते हो बुद्धू शब्द कैसे पैदा हुआ? बुद्ध की वजह से पैदा हुआ। जब बुद्ध सारा महल, धन, दौलत, पत्नी, परिवार छोड़कर चले गए तो लोगों ने कहा कि ये देखो बुद्धू। फिर जब भी कोई ऐसा करने लगा तो उन्होंने कहा, तुम भी हो गए बुद्धू? होश सम्हालो, अकल में आओ। बुद्ध एकांत बैठकर, शांत बैठकर, बोधिगया में ध्यान को उपलब्ध हो गए, समाधि को उपलब्ध हो गए। तो जहां भी कोई आदमी चुपचाप बैठ जाए झाड़ के नीचे आंख बंद करके, उन्होंने कहा देखो, ये बुद्धू होने चले। बुद्धू शब्द पैदा हुआ इसलिए——बुद्ध की निंदा में।

चिकित्सकों का बस चलता तो उन्होंने बुद्ध को भी ठीक कर लिया होता। अच्छा हुआ चिकित्सकों से बच गए। और ऐसा नहीं था कि चिकित्सक नहीं पहुंचे; पहुंचे। जहां बुद्ध गए वहीं झंझट थी। शुरू—शुरू में तो बहुत झंझट थी। क्योंकि बुद्ध बड़े परिवार से आते थे। सारे देश में उनके पिता का नाम था। और सारे देश में खबर पहुंच गई कि बेटा भाग गया है। राज्य को छोड़ दिया था उन्होंने अपने ताकि पिता परेशान न करें। नहीं तो आदमियों को भेजेंगे, खुद आएंगे, खींचतान मचेगी, पत्नी आकार रोएगी, कुछ उपद्रव होगा। राज्य छोड़ दिया। दूसरे राज्य में चले गए थे।

लेकिन दूसरे राजा को जब खबर मिली ….. तो वह बचपन का साथी था बुद्ध के पिता का। साथ—साथ पढ़े थे, धनुर्विद्या साथ सीखी थी। उसने सोचा कि हो गया होगा, बेटा है, नाराज हो गया होगा, कुछ बात हो गई होगी। और मैं जानता हूं शुद्धोदन को। क्रोधी आदमी हैं, कुछ कह दिया होगा। तो वह आया; उसने बुद्ध को कहा, तू फिक्र मत कर। अगर पिता से नहीं बनती, कोई चिंता की बात नहीं। मुझे अपना पिता मान। यह भी राज्य तेरा है। तू महल चल। यह राज्य तेरे राज्य से बड़ा है। मेरी एक ही बेटी है, उससे तेरा विवाह करवा देता हूं। तू इसका मालिक हो जा। भागने की क्या जरूरत है? छोड़ने की क्या जरूरत है?

बुद्ध उनको लाख समझाए कि मैं किसी से नाराज नहीं हूं, पिता से झगड़कर नहीं आया हूं। लेकिन लोग कैसे मानें! झगड़कर ही लोग भागते हैं। किसी क्रोध में ही लोग भागते हैं। उस राजा ने कहा, मुझे यह बात समझ में नहीं आती। अगर क्रोध भी नहीं है, झगड़ा भी नहीं हुआ ….. पत्नी से झगड़ा हुआ है? क्या बात है?

बुद्ध ने कहा, बात कुछ नहीं है, यही है कि वहां बात कुछ थी नहीं इसलिए चला आया छोड़कर। वहां कुछ सार नहीं था। बात की तलाश में निकला हूं कि जिंदगी में कुछ बात हो जाए। ऐसे ही खाली—खाली न चला जाऊं। उस राजा ने कहा, मेरी समझ में नहीं आती। तुम पागल तो नहीं हो? सारी दुनिया धन की तलाश कर रही है, तुम धन छोड़कर आ गए हो? मैं अपने चिकित्सक को भेज दूंगा। वह तुम्हारी जांच—पड़ताल कर लेगा, कुछ अड़चन हो, कुछ कठिनाई हो। बुद्ध को वहां से भागना पड़ा कि यह झंझट आयी।

कुछ नई बात नहीं है। लेकिन जिन्होंने कभी ध्यान नहीं किया वे भी सलाह देने लगते हैं। अब ठीक है, अगर कोई बीमारी हो तो चिकित्सक की सलाह लेना, लेकिन अगर जूते में पैबंद लगवाना हो तो तुम डॉक्टर के पास नहीं जाते, चमार के पास जाते हो; वह विशेषज्ञ है। और अगर कपड़े फट गए हों और कपड़े सिलाने हों तो दर्जी के पास जाते हो।

एक भिखारी पश्चिम के बहुत बड़े धनपति, कुबेर, रथचाइल्ड के घर भीख मांगने आया——पांच बजे सुबह। हिंदुस्तान हो तो चल भी जाए। ब्रह्ममुहूर्त समझते हैं लोग पांच बजे सुबह। पश्चिम में पांच बजे सुबह कोई किसी के घर आकर दरवाजा खटखटाए ….. और उसने बड़ा शोरगुल मचाया भिखमंगे ने। रथचाइल्ड उठा, उसने पूछा कि भाई, यह भी कोई वक्त है भीख मांगने का? उस भिखारी ने क्या कहा पता है? उसने कहा, मैं भीख मांगने आया हूं, सलाह मांगने नहीं। और तुम मुझे सलाह क्या दोगे! किसी को अगर धन कमाने की सलाह लेनी हो तो तुमसे सलाह लेनी चाहिए, और किसी को अगर भीख मांगने की सलाह लेनी हो तो मुझसे लेनी चाहिए। जिंदगी हो गई, बाप—दादों से यह काम चल रहा है। यह हमारा पुश्तैनी धंधा है। पांच बजे आओ तो जरूर भीख मिलती है क्योंकि आदमी इतना परेशान हो जाता है कि कुछ न कुछ देकर जल्दी टालता है। तुम हमें मत सिखाओ। हम अपनी कला हम जानते हैं।

भिखमंगा भी कह सकता है दुनिया के करोड़पति से कि तुम मुझे सलाह मत दो क्योंकि यह मेरा अनुभव है। डॉक्टर से पूछ तो लेना, कि तुम्हें कुछ अनुभव है ध्यान का? तुमने कभी इस पागलपन का थोड़ा स्वाद लिया है? अगर लिया हो तो तुम्हें कुछ अधिकार है सलाह देने का।

जगजीवन सखि बना बनाव …..

जगजीवन कहते हैं, यह बनाव बन गया है। यह अवसर आ गया है मस्त होने का। मौका छोड़ो मत। कितनी बार तो सौदा बनते—बनते बिगड़ गया है।

बाजार—ए—मुहब्बत में कमी करती है तकदीर

बन—बनके बिगड़ जाता है सौदा मेरे दिल का

मगर अब इस बार बनाव बन गया है, छोड़ो मत। गुरु भी मिल गया, सत्संग भी मिल गया, ध्यान की अभीप्सा भी तुम्हारे भीतर है, प्रेम की आकांक्षा भी जगी है, परमात्मा को पाने की धीमे—धीमे एक लहर मन में उठ रही है, एक प्यास जग रही है।

जगजीवन सखि बना बनाव——अब तो सब भय छोड़ दो। अब तो डुबकी मार जाओ। डूबो तो तरो।

तीरथ—ब्रत की तजि दे आसा

और व्यर्थ की बातों में मत पड़ना। नहीं तो आदमी बड़ा चालबाज है। मन बड़ा हुशियार है। मन कहता है कि ठीक है, परमात्मा को खोजना है? चलो तीरथ कर आएं, व्रत कर लें। ध्यान भर से बचो, सत्संग से बचो। तो मन कहता है, और सब करो। तीर्थ जाना है, तीर्थ हो आओ। काशी जाओ, काबा जाओ, कैलाश जाओ। चल पड़ो, केदारनाथ—बद्रीनाथ की यात्रा कर आओ। यह सब करो, कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि इससे कोई मन नहीं मिटता।

तुम चाहे केदारनाथ जाओ, चाहे बद्रीनाथ जाओ, कोई मन नहीं मिटता। यह तो मन की ही भागदौड़ है——इत—उत कतहूं नहीं धाव। यह मन तो यहां—वहां भगाता है। वह कहता है यह कर लो, वह कर लो। चलो दान कर दो। बहुत ही ज्यादा झक सवार हो गई हो, उपवास कर लो। और क्या करोगे? चलो, चार दिन भूखे रह जाओ। अकल आ जाएगी अपने आप। चार दिन भूखे रहोगे, अपने आप समझ में आ जाएगा। रास्ते पर लौट आओगे।

जगजीवनदास कहते है, तीरथ—ब्रत की तजि दे आसा। सब आशाए छोड़ो। तीर्थ और व्रत से कभी कुछ नहीं हुआ है।

सत्तनाम की रटना करिकै, गगन मंडल चढ़ि देखु तमासा

अगर एक कोई चीज से कभी होता रहा है दुनिया में, कुछ भी महत्त्वपूर्ण घटा है, परमात्मा उतरा है तो वह सत्यनाम से। उसकी ही रटना से। उसकी ही स्मृति को जगाए—जगाए—जगाए—जगाए, उसी की याद में घुलते—घुलते, मिटते—मिटते——गगन मंडल चढ़ि देखु तमासा। और तब कोई अपने भीतर के शून्याकाश में बैठ जाता है। और वहां से देखता है रहस्य, तमाशा सारे जगत् का ।

यह अस्तित्व बड़ा रहस्य है। इसलिए मैंने कहा, जीवन समस्या नहीं है, रहस्य है। ठीक जगह से देखोगे तो चमत्कृत हो जाओगे। यहां हर छोटी बात चमत्कार है। एक बीज का फूटना, हरी पत्तियों का निकल आना! देखते हो, और क्या चमत्कार होगा? और तुम मदारियों के चमत्कारों में पड़े हो। कोई आदमी हाथ से राख निकाल देता है, तुम इसको चमत्कार मान रहे हो। और राख से फूल निकल रहे हैं, उनमें तुम चमत्कार नहीं देख रहे। तुम अंधे हो बिल्कुल। तुम्हें होश नहीं है।

चारों तरफ चमत्कार ही चमत्कार घट रहे हैं। सारा अस्तित्व चमत्कारों का जमघट है। लेकिन ठीक जगह बैठ जाओ तो दिखाई पड़े। ठीक परिप्रेक्ष्य चाहिए। ठीक ऊंचाई चाहिए।

गगन मंडल चढ़ि देखु तमासा

और जो लोग तीरथ—व्रत, मंदिर—मस्जिद में उलझ जाते हैं वे गगन—मंडल तक नहीं पहुंच पाते। वे छोटे—छोटे आंगन में घिर जाते हैं, उस विराट आकाश को कैसे पाएंगे? जैसे कोई हिंदू हो गया, कोई मुसलमान हो गया, कोई ईसाई हो गया। फिर इनमें भी और छोटे घरों में घर हैं——कोई ब्राह्मण हो गया, कोई शूद्र हो गया। फिर ब्राह्मणों में भी और घरों में घर हैं; कोई देशस्थ है, कोई कोकणस्थ है। और घरों में घर बनाते जाते हैं लोग। छोटी से छोटी चूहों की खोलें रह जाती हैं, तब उनको चैन पड़ता है। जब तक आदमी चूहा न हो जाए तब तक उसको चैन नहीं पड़ता। बस एक जरा—सी खोल रह जाए, उसी में अपना जिए, निकलकर बाहर आ जाए, भीतर हो जाए, जीता रहे। विराट आकाश को कैसे पाओगे?

दीवार से घिरा था हरम का कुसूर क्या?

पैदा अगर हदूद में वुसअत न हो सकी

काबा का कोई कसूर नहीं है, दीवाल से घिरा है। अगर काबा जानेवाले के हृदय में विशालता पैदा न हो सकी तो कसूर काबा का नहीं है। जाहिर बात है कि काबा दीवाल से घिरा है।

दीवार से घिरा था हरम का कुसूर क्या?

पैदा अगर हदूद में वुसअत न हो सकी

मंदिरों में जाओगे, हदों से घिरे हैं। उनकी सीमाएं हैं; उन सीमाओं में तुम्हारा हृदय भी सीमित हो जाएगा। खोजो कोई, जो असीम हो। खोजो कोई जगह जहां हिंदू हिंदू न रहे, मुसलमान मुसलमान न रहे। खोजो कोई जगह जहां गोरा गोरा न हो, काला काला न हो। खोजो कोई जगह जहां चीनी चीनी न हो, हिंदुस्तानी हिंदुस्तानी न हो। खोजो कोई जगह जहां विशालता जन्म ले रही हो, जहां आकाश जैसा फैलाव हो। उस जगह तुम भी विशाल हो सकोगे। तब तुम देख सकते हो गगन—मंडल पर चढ़कर तमाशा।

ताहि मंदिल का अंत नहीं कछु रबी बिहून किरिन परगासा

और वह जो अंतर का आकाश है उसका कोई अंत नहीं है, उसकी कोई सीमा नहीं है। और वहां बड़े चमत्कार हैं। बड़े से बड़ा चमत्कार यह हैः रबी बिहून किरिन परगासा। वहां प्रकाश बहुत है और सूरज है ही नहीं। वहां बिना स्रोत के प्रकाश है। बिन बाती बिन तेल ! वहां दीया जल रहा है, न बाती है और न तेल है। वहां ऐसा प्रकाश है जो शाश्वत है।

किरण वह बोली नहीं

नाचती रही

थिरकता रहा जल

उन्मत्ता आकाश

उलट गिरा सरोवर में

पवन ताल देता रहा

मौन एक सूनापन रहा अविचल

——तुम चुप हो जाओ, झील जैसे शांत हो जाओ।

किरण वह बोली नहीं

नाचती रही

थिरकता रहा जल

उन्मन्त आकाश

उलट गिरा सरोवर में

पवन ताल देता रहा

मौन एक सूनापन रहा अविचल

सब कुछ होता रहे तुम्हारे चारों तरफ, बीच केंद्र पर तुम अविचल हो जाओ, मौन हो जाओ तो तुम देख पाओगे रहस्य जगत् का; अनुभव कर पाओगे। और वह अनुभव ही परमात्मा का अनुभव है। रहस्य का अनुभव परमात्मा का अनुभव है।

तहां निरास बास करि रहिए …..

——छोड़ दो धर्म इत्यादि की आशा; निराश होकर वहां वास कर लो अपने भीतर।

….. काहेक भरमत फिरै उदासा

फिर तुम्हारे जीवन में उदासी न रहेगी। बड़ा अद्भुत वचन है। कहते हैं, बाहर से निराश हो जाओ तो तुम्हारे जीवन से उदासी चली जाए। उल्टी बात कहते मालूम पड़ते हैं। एक ही वचन में कहते हैं——

तहां निरास बास करि रहिए, काहेक भरतम फिरै उदासा

वहां सब तरह से निराश होकर बैठ जाओ भीतर, और सब उदासी मिट जाएगी। बड़ा विरोधाभासी वचन है, मगर बड़ा बहुमूल्य भी। सच यह है कि सत्य को कहने का एक ही ढंग है : विरोधाभास। और सत्य को कहने का कोई ढंग ही नहीं है।

निराश का अर्थ होता है : अब बाहर कोई आशा न रही। सब देख लिया, सब परख लिया, असली बाहर है ही नहीं। बिल्कुल निराश हो गए बाहर से।

लोग बाहर से निराश नहीं होते। एक चीज से निराश होते हैं तो दूसरी चीज में आशा टांग देते हैं। दुकान से निराश हुए, मंदिर पकड़ लिया; खातेबही से ऊबे, गीता पकड़ ली, कुरान लिया। मगर चलते हैं बाहर ही बाहर। खातेबही भी उतने ही बाहर थे जितने गीता और कुरान हैं। और दुकान भी उतनी ही बाहर थी जितना मस्जिद और मंदिर है। कोई भेद नहीं है। एक उपद्रव से छूटे, दूसरे उपद्रव में समाविष्ट हो गए। एक जेल से निकल भी न पाए थे कि जल्दी से दूसरे में घुस जाते हैं। चूहा एक पोल से निकला, दूसरी पोल में गया। खुला आकाश रुचता ही नहीं। आदत हो गई है जंजीरों में रहने की। कारागृह में पड़े होने का हमारा स्वभाव हो गया है।

बाहर से बिल्कुल निराश हो जाओ। न तो दुकान से मिलता है, न मंदिर से मिलता है; न खाते बही में कुछ है, न शास्त्रों में कुछ है। जब कोई इतना निराश हो जाता है कि बाहर पकड़ने को कुछ बचता ही नहीं, तभी कोई भीतर जाता है। और भीतर जाते ही से आशाएं पूरी हो जाती हैं। सारी आशाएं फलवती हो जाती हैं। सब मिल गया, जिसको जन्मों—जन्मों तक खोजा था। फिर कैसी उदासी?

देऊं लखाय छिपावहुं नाहीं …..

क्या प्यारी बात कही है जगजीवन ने! कि दिखा दूं सब तुम्हें अगर राजी हो; छिपाऊं कुछ भी नहीं।

बुद्ध ने भी कहा है अपने शिष्यों को, मेरी मुट्ठी खुली है। मैंने तुमसे कुछ छिपाया नहीं है। सब कह दिया है। जो समझदार हैं, समझ लेंगे, जाग जाएंगे, पहुंच जाएंगे। जो नासमझ हैं वे इसी विचार में पड़े रहेंगे——क्या करना, क्या नहीं करना, क्या अर्थ था बुद्ध का, क्यों ऐसा कहा था? उसमें से अपने मतलब की बातें निकालते रहेंगे, चुनाव करते रहेंगे।

देऊं लखाय छिपावहुं नाहीं …..

——जरा भी छिपाऊंगा नहीं। जो है, सब पूरा दिखा दूं।

जस मैं देखऊं अपने पासा——जैसे मैं उसे अपने पास देख रहा हूं ऐसा तुम्हें भी दिखा दूं। तुम्हारे भी वह इतने ही पास है, मगर मेरी सुनो।

ऐसा कोऊ सब्द सुनि समुझैं, कटि अध—कर्म होइ तब दासा

——अगर तुम्हें मेरा शब्द समझ में आ जाता हो तो मैं इतनी ही बात कह रहा हूं कि तुम झुक जाओ; तुम मिटने को राजी हो जाओ और शेष सब अपने से हो जाएगा।

नैन चाखि दरसन—रस पीवै …..

——और तुम झुको तो अभी दरसन—रस पीयो।

….. ताहि नहीं है जम की त्रासा

——और जिसने उस अमृत—रस को पी लिया परमात्मा के, उसकी आंख में आंख डालकर एक बार देख लिया उसको मृत्यु का भय मिट जाता है क्योंकि उसे अमृत का पता चल गया। उसे चल ही गया कि मैं अमृत हूं। अमृत मेरा स्वभाव है।

जगजीवनदास भरम तेहि नाहीं, गुरु क चरन करै सुक्ख—बिलासा

उसको फिर कोई भ्रम नहीं रह जाता। फिर तो गुरु के चरण में परम आनंद को, परम भोग को उपलब्ध होता है। करै सुक्ख—बिलासा। सुनते हो ये शब्द?

धर्म तुम्हें दुःख देने को नहीं है। धर्म तुमसे कुछ छुड़ाने को नहीं है। धर्म तुम्हें परम भोग की कला देता है। धर्म तुम्हें जीवन के परम विलास में ले जाता है। तुम परमात्मा को भोग सको, इसके योग्य बनाता है। अगर राजी हो——जैसा कहते हैं जगजीवनदासः ऐसा कोऊ शब्द सुनि समुझैं। अगर मेरी बात तुम्हारी समझ में आती हो——देऊं लखाय छिपावहुं नाहीं, जस मैं देखउं अपने पासा। क्योंकि वह इतने पास है कि दिखाने में कोई अड़चन ही नहीं है। तुम देखने भर को राजी भर हो जाओ। जरा तुम आंख खोलो। बस, जरा आंख खोलो; जरा घूंघट उठाओ।

हालांकि पहली बार ही घूंघट उठा लेने से सदा के लिए घूंघट नहीं उठ जाएगा। आदतें बड़ी पुरानी हैं। परदा गिर—गिर जाएगा। आदतें बड़ी पुरानी हैं। तुम देख—देखकर भी आंख बंद कर लो—लोगे। जैसे कोई सूरज की तरफ देखे, आंख झपक जाए। वह तो परम प्रकाश है। तो बहुत बार ऐसा होगा——

सखि, बांसुरी बजाय कहां गयो प्यारो

——सुनाई पड़ेगी बांसुरी——यह रही, यह रही। हाथ में आते—आते छूट जाएगी। स्वर सुना था, बिल्कुल पास आकर नाच गया था और फिर दूर निकल गया।

सखि, बांसुरी बजाय कहां गयो प्यारो

घर की गैल बिसरिगै मोहितें, अंग न वस्त्र संभारो

यह क्या हुआ? यह कौन मुझे बांसुरी सुना गया? यह कौन मेरा घूंघट उठा गया? यह किसने मेरे पैरों में घूंघर बांधी? यह कौन मुझे एक नए जीवन का दर्शन दे गया——एक नई पुलक, एक नया उत्साह, एक नया रस, एक नया अर्थ। यह कौन? और कहां गया?

सखि, बांसुरी बजाय कहां गयो प्यारो

जब परमात्मा की पहली बार छवि दिखाई पड़ती है तो जीवन का असली आनंद भी शुरू होता है और असली पीड़ा भी। उसके पहले तो आनंद भी नकली था और पीड़ा भी नकली थी। सभी कुछ नकली था। तुम हंसे थे तो नकली था, रोए थे तो नकली था। तुम्हारे फूल भी झूठे थे, तुम्हारे कांटे भी झूठे थे। परमात्मा को देखने के साथ आनंद भी असली होता है और पीड़ा भी होती है असली। भक्त ही जानता है उस पीड़ा को। क्योंकि जैसे ही झलक मिलती है, आनंद से भर जाता है और जैसे ही झलक खो जाती है, गहन अंधकार हो जाता है; ऐसा, जैसा कभी नहीं था।

घर की गैल बिसरिगै मोहितें …..

यह क्या हो गया? जिसको मैंने अब तक अपना घर समझा था उसकी गैल बिसर गई।

….. अंग न वस्त्र संभारो

याद ही नहीं रही कि वस्त्रों को सम्हालूं। वस्त्र ढलक गए हैं नीचे। घर का रास्ता भूल गया। घर ही भूल गया जिसको अब तक घर समझा था अपना। अपना परिचय भूल गया। मैं कौन हूं, यही बात खतम हो गई। यह क्या हो गया? यह कौन बांसुरी बजा गया? यह कौन—सा नया स्वर सुना कि सब पुराने स्वर फीके पड़ गए, व्यर्थ हो गए? और फिर यह नया स्वर कहां खो गया है?

वो आए भी तो बबूले की तरह आए—गए

चिराग बनके जले जिनके इंतजार में हम

आयी हवा, गई हवा। एक झोंका आया, आयी सुगंध आकाश की और चला गया। अब मन कभी न लगेगा संसार में। संसार तो व्यर्थ हो गया। अब संसार में शोरगुल ही शोरगुल दिखाई पड़ेगा। जिसने उसकी बांसुरी सुन ली, एक बार भी सुन ली, एक स्वर भी कान में पड़ गए, उसके लिए सब संगीत शोरगुल हो गए।

घर की गैल बिसरिगै मोहितें, अंग न वस्त्र संभारो

आईने में देखो अपनी सूरत

नजरों में झिझक, जबां में लुकनत

पिंदार में बेखुदी की हालत

कहते हैं इसी को क्या मुहब्बत

चितवन के झुकाव में इशारा

आंखों में है आज दिल तुम्हारा

खामोशी में गुफ्तगू की शिद्दत

कहते हैं इसी को क्या मुहब्बत?

मतवाली नशीली अंखड़ियों से

आंखों की हसीन खिड़कियों से

फिर झांक रही है एक हकीकत

कहते हैं इसी को क्या मुहब्बत?

सीने में इक आग—सी लगी है

एक हूक—सी दिल में उठ रही है।

एक दर्द है और उसमें लज्जत

कहते हैं इसी को क्या मुहब्बत?

ओंठों पर घुटी—घुटी—सी आहें

बहकी—बहकी हुई निगाहें

खोयी—खोयी हुई तबियत

कहते हैं इसी को क्या मुहब्बत?

सखि, बांसुरी बजाय कहां गयो प्यारो

घर की गैल बिसरिगै मोहितें, अंग न वस्त्र संभारो

चलत पांव डगमगत धरनि पर, जैसे चलत पतवारो

यह क्या हो गया है मुझे? यह मैं डगमगाने लगी। ये रास्ते पर मेरे पैर ऐसे पड़ने लगे जैसे शराबी के पैर। घर की सुध खो गई, वस्त्रों का होश न रहा। अपने ही पैर सम्हाले नहीं पड़ते हैं। यह मुझे क्या हो गया?

रोकती ही रह गई मासूम दूर अंदेशियां

उनके लब पर मेरा जिक्रे—नात्माम आ ही गया

है जहां इश्क को हविस को ऐतराफ—ए—बेकसी

तल्खी—ए—हस्ती के कुर्बां वो मुकाम आ ही गया

जैसे सागर से छलक जाए मचलती मौज—ए—मैं

कांपते ओंठों पे उनके मेरा नाम आ ही गया

एक बार परमात्मा के ओंठों पर तुम्हारा नाम आ जाए। जब तुम खूब पुकारोगे, खूब पुकारोगे तो वह भी पुकारेगा। वही अर्थ है : सखि, बांसुरी बजाय कहां गयो प्यारो।

तुमने तो बहुत पुकारा। एक बार परमात्मा तुम्हें जब पुकारता है, तुम्हारी पुकार जब इस योग्य हो जाती है तो परमात्मा पुकारता है।

जो तेरे पास से आता है, मैं पूछं हूं यही

क्यों जी कुछ जिक्र हमारा भी वहां होता था?

जब सुना तुम भी मुझे याद किया करते हो

क्या कहूं, हद न रही कुछ मेरी हैरानी की

तुमने ही थोड़े परमात्मा को पुकारा है। यह आग एक तरफ से लगी नहीं है। अगर एक तरफ से लगी हो तो व्यर्थ है। दूसरी तरफ भी आग इतनी ही धधक रही है। परमात्मा भी तुम्हें पुकार रहा है। लेकिन तुम जब खूब गहनता से पुकारोगे तो उसकी पुकार तुम्हें सुनाई पड़ेगी। और तब तुम यह भी जानोगे, वह तुमसे भी पहले से तुम्हें पुकार रहा था।

जैसे सागर से छलक जाए मचलती मौज—ए—मै

कांपते ओंठों पे उनके मेरा नाम आ ही गया

बस, एक बार उसके ओंठों पर नाम आ जाए तो सुन ली बांसुरी।

चलत पांव डगमगत धरनि पर, जैसे चलत पतवारो

घर आंगन मोहिं नीक न लागै …..

अब ये छोटे—छोटे घर और ये छोटे—छोटे आंगन और ये छोटी—छोटी सीमाएं, मुझे अच्छी नहीं लगतीं।

घर आंगन मोहिं नीक न लागै, सब्द बान हिए मारो

——ऐसी तुमने चोट की है, ऐसा बाण मारा है मेरे हृदय पर, ऐसी पीड़ा से भर दिया है मेरा हृदय।

लागि लगन में मगन बाहिसों, लोग—लाज कुल—कानि बिसारो

——अब तो उसके सिवा कोई और याद आती नहीं। लागि लगन में मगन बाहिसों——बस उसकी ही याद में मगन हूं। उसकी ही याद में डूबी हूं।

——लोक—लाज कुल—कानि बिसारो——सब मर्यादा गई, सब व्यवस्था गई, सब अनुशासन गया, सब लोकलाज गई, लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता गई।

सुरति दिखाय मोर मन लीन्हो …..

——और एक बार अपनी झलक दिखाकर मेरे मन को मोह लिया।

…..मैं तो चहों होय नहिं न्यारो

——अब तो एक ही चाह भीतर जलती है कि एक क्षण को भी दूर न होना पड़े। यह छबि एक क्षण को भी हटे न आंखों से।

जगजीवन छबि बिसरत नाहीं, तुमसे कहों सो इहै पुकारो

जगजीवन कहते हैं, छबि बिसरती नहीं, भूलती नहीं अब। एक जमाना था कि याद करते थे और याद नहीं आती थी। एक वक्त था कि परमात्मा को याद करते थे और याद नहीं आती थी और अब एक वक्त है कि लाना चाहो तो भूलती नहीं। जब ऐसा वक्त आ जाए कि परमात्मा को भुलाना भी चाहो और न भूल सको तो समझना कि घर आ गया; तो समझना कि पहुंच गए मंजिल पर।

तुमसे कहों सो इहै पुकारो

जगजीवन कहते हैं, इसलिए पुकार—पुकार कर तुमसे कह रहा हूं, घबड़ाओ मत। जैसी तुम्हारी हालत है, मेरी हालत भी थी एक दिन, कि याद करना चाहता था और याद नहीं आती थी। और अब मैं तुमसे कहता हूं, अब भुलाना चाहता हूं तो भुला नहीं पाता हूं। तुम्हें पुकार—पुकार कर कहता हूं।

देऊं लखाय छिपावहुं नाहीं, जस मैं देखउं अपने पासा

ऐसा कोऊ शब्द सुनि समुझैं …..

कोई सुन ले, कोई समझ ले, इसलिए पुकार रहा हूं। तुमसे कहों सो इहै पुकारो।

और इसका एक अर्थ और भी हो सकता है। तुमसे कहों सो इहै पुकारो——तुम्हारे बहाने मैं उनके लिए भी पुकार पुकार कर कह रहा हूं जो पीछे आएंगे। तुमसे कह रहा हूं, ताकि यह पुकार गूंजती रहे। तुम तो निमित्त हो। तुम जाग जाओ तो ठीक; नहीं तो कोई और जागेगा।

मैं तुमसे बोल रहा हूं। लेकिन तुम्हारे बहाने और लाखों लोगों से बोल रहा हूं जो यहां नहीं हैं। जो अभी जमीन के अलग—अलग कोनों पर कहीं हैं; उन तक भी पुकार पहुंच जाएगी। और जो कल आएंगे, उन तक भी पुकार पहुंच जाएगी। तुम बहाने हो।

और तुम सौभाग्यशाली भी हो कि तुम निमित्त बने हो इस पुकार के। तुम्हारे माध्यम से यह पुकार औरों तक भी पहुंचेगी। इसका पुण्य तुम्हारा भी पुण्य है। तुम सुन लो तो अच्छा; तो तुम भी जाग जाओ। तुम न भी सुने तो भी तुम एक पुण्य कार्य में भागीदार हुए ही हो। उतना पुण्य तुम्हारा है।

जगजीवन छबि बिसरत नाहीं, तुमसे कहों सो इहै पुकारो

——ताकि पुकार कायम रहे; ताकि आवाहन कायम रहे। कभी भी कोई भूला—भटका खोज पर निकलेगा तो ये रास्ते के दीये उसको रोशनी दें। कभी कोई भूला—भटका परमात्मा की याद करेगा तो ये शब्द उसका सहारा बन जाएंगे।

सुनते हो? चलत पांव डगमगत धरनि पर। पैर डगमगाते हैं, होश खो गया है, इसी को तो पागलपन कहते हैं। इसी को मैंने कहा, एक ऐसा पागलपन भी है जो तुम्हारी बुद्धिमानी से हजार गुना कीमती है। तुम्हारी बुद्धिमत्ता दो कौड़ी की है उस पागलपन के मुकाबले, जो मीरा को पकड़ता है, जगजीवन को पकड़ता है, बुद्धों को पकड़ता है।

जिस पागलपन से दूसरे लोग जीवन को नष्ट कर लेते हैं, समझदार लोग उसी पागलपन का उपयोग कर लेते हैं, मंजिल की सीढ़ियां चढ़ जाते हैं। कोई धन के पीछे पागल है; यह पागल जरूर है। कोई पद के पीछे पागल है; यह पागल जरूर है। ऐसे पागलों को तुम्हें देखना हो तो दिल्ली—कभी—कभी चले गए। दिल्ली दर्शनीय है। देश के सब बड़े से बड़े पागल तुम्हें वहां मिल जाएंगे। अगर दुनिया भर के पागलों को पकड़ना हो तो दस—पच्चीस जो बड़ी—बड़ी राजधानियां हैं उन पर घेरा डालकर ताले डाल देना चाहिए। सारे पागल पकड़ में आ जाएंगे। असल में राजधानियों को पागलखानों में बदल देना चाहिए। वहां चिकित्सक बिठा देना चाहिए।

पद का पागलपन कैसी दौड़ है! कुछ भी हो जाए, पहुंचना है। कुर्सी पर चढ़ना है। कौन गिरेगा, कौन मिटेगा, क्या होगा, कोई फिक्र नहीं है बस, कुर्सी पर पहुंचना है। और जो पहुंच गया, फिर वह कहता है, कुर्सी से चिपकना है। अब कोई कितना ही खींचे, अब कुर्सी नहीं छोड़नी । अब तो मर जाएंगे तभी अर्थी उठेगी।

जो कुर्सी पर नहीं पहुंचा है वह दौड़ में लगा है, जो पहुंच गया वह पकड़ने की दौड़ में लगा है, कहीं छूट न जाए। क्योंकि और लोग चले आ रहे हैं। चली आ रही है भीड़ चिल्लातीः “सिंहासन छोड़ो’। दूसरे भी उसी दौड़ में हैं। पास भी जो खड़े हैं, मित्र भी जो मालूम पड़ रहे है। वे भी इसीलिए खड़े हैं कि मौका मिल जाए तो एक धक्का दे दें। तुम चारों खाने चित्त गिरो कुर्सी से तो वे कुर्सी पर चढ़ जाएं। तुम भी जानते हो, वे भी जानते हैं।

राजनीति में कोई किसी का मित्र नहीं होता। राजनीति में सभी शत्रु होते हैं। राजनीति में कोई मित्र हो कैसे सकता है? महत्वाकांक्षी से कैसी मित्रता? वह तो जब मौका पाएगा, पीठ में छुरा भोंक देगा। इसलिए राजनीतिक जब एक—दूसरे की पीठ में छुरा भोंकें तो तुम चौंका मत करो। यह बिल्कुल नियम के अनुकूल हो रहा है। यही होना था। यही होना चाहिए। राजनीति का यह पूरा का पूरा अर्थ है।

धन का पागल है कोई। वह कहता है, धन इकट्ठा करें, इतना इकट्ठा करें कि किसी के पास न हो। और फिर मर जाएगा। यह पागलपन है, सच में पागलपन है।

मीरा का पागलपन तो महान बुद्धिमत्ता है। क्योंकि उसने एक ऐसा पद पाया, एक ऐसा न्यारा पद, जो किसी से छीनना नहीं पड़ता——पहली बात। मीरा को मिलता है लेकिन किसी का छिनता नहीं। दूसरी बात——एक बार मिल जाए तो कोई छीन सकता नहीं। महत्वाकांक्षा नहीं है उसमें, संघर्ष नहीं है, प्रतियोगिता नहीं है, स्पर्धा नहीं है। और ऐसा धन पाया जो मौत भी नहीं छीन पाएगी। देह जल जाएगी चिता पर और धन साथ जाएगा।

ध्यान ऐसा धन है, प्रेम ऐसा पद है। ध्यान और प्रेम के इस मिलन का नाम परमात्मा है। जहां तुम्हारे भीतर ध्यान और प्रेम का मिलन होता है, वहीं परमात्मा प्रकट होता है। पागल तो हो जाओगे तुम परमात्मा के साथ भी। पैर डगमगाएंगे। लेकिन यह पागलपन और है।

मैं खुदा को पूजता हूं, मैं खुदा से रूठता हूं

यह वो नाजे—बंदगी है जिसे पूछिए खुदा से

कभी वह भी जिंदगी थी कि खुदा खजिल था मुझसे

कभी यह भी जिंदगी है कि खजिल हूं मैं खुदा से

तू वह जुल्फ शाना परवर जिसे खौफ है हवा का

मैं वह काकुले—परेशां जो संवर गई हवा से

कुछ लोग हैं, वे कंघी से सम्हाले गए बालों की तरह हैं। तू वह जुल्फ शाना पर जिसे खौफ है हवा का। कंघी से सम्हाला हुआ बाल हवा से डरता है, हवा आएगी और बालों को बिखरा देगी।

तू वह जुल्फ शाना परवर जिसे खौफ है हवा का

मैं वह काकुले—परेशां …..

और मैं हवा में झूलती बालों की वह लट हूं ….. मैं वह काकुले—परेशां जो संवर गई हवा से। जिसे हवाएं आती हैं तो संवार जाती हैं।

एक ऐसा पागलपन है——राजनीति का, धन का, यश का, जो तुम्हें गिरा जाता है; जो तुम्हें दो कौड़ी का कर जाता है; जो तुम्हें कीड़े—मकोड़े की हैसियत दे जाता है; जो तुम्हें पशुओं से नीचे उतार जाता है। और एक ऐसा पागलपन है जो तुम्हें सम्हाल जाता है; जिसकी डगमगाहट सम्हलने का ही दूसरा नाम है। और जो तुम्हें सीढ़ियां चढ़ा देता है परमात्मा की; जो तुम्हें मनुष्य से ऊपर उठा जाता है। एक पागलपन है जो तुम्हें मनुष्य से नीचे गिरा देता है और एक पागलपन है जो तुम्हें मनुष्य से ऊपर उठा देता है। इस दूसरे पागलपन की तलाश करो। इस दूसरे पागलपन को खोजो। इस पागलपन का ही नाम भक्ति है।

ये सूत्र भक्ति के सूत्र हैं। जगजीवन के सूत्रों को समझना, सोचना, विचारना। मगर इतने से ही कुछ न होगा। पीना पड़ेगा। अनुभव करना होगा। और अनुभव हो सकता है। तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। न करो तो तुम्हारे अतिरिक्त और कोई कसूरवार नहीं । कर सकते थे, नहीं किया। तुम्हें स्वतंत्रता है न करने की। लेकिन दोष किसी और को मत देना। दोषी तुम्हीं हो।

जगजीवन सखि बना बनाव, अब मैं काहुक नाहिं डेरांव

अब चूको मत मौका। यह बनाव बन गया। यह बनते—बनते बड़ी मुश्किल से बनता है बनाव। यह बन गया बनाव।

तुम यहां बैठे हो मेरे सामने। तुम्हारे भीतर परमात्मा मुझे उतना ही दिखाई पड़ रहा है जितना अपने भीतर। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा । तुम्हें दिखाई न भी पड़े तो भी है। तुम्हें सभी दिखाई नहीं पड़ता जो है। तुम्हारे देखने की क्षमता बहुत छोटी है। तुम केवल बाहर ही देखना जानते हो, आंखें बंद करके देखना नहीं जानते। तुम विचार के माध्यम से देखना जानते हो, तुम निर्विचार के माध्यम से देखना नहीं जानते।

लेकिन बनाव बन गया है। तुम एक ऐसे आदमी के साथ बैठे हो जो निर्विचार से देखना जानता है; जो आंख बंद करके देखना जानता है। मेरी भी मुट्ठी खुली है। मैं तुम्हें सब देने को राजी हूं, बस तुम लेने को राजी हो जाओ।

सन्मुख ह्वै पाछे नहिं आव, जुग—जुग बांधहु एहै दांव

कौन जाने कितने जन्मों से तुम सत्संग की तलाश करते थे। अब यह बनाव बन गया। अब लौट मत जाना। अब पैर पीछे न डालना। अब विमुख मत हो जाना।

देऊं लखाय छिपावहुं नाहीं, जस मैं देखउं अपने पासा

ऐसा कोऊ सब्द सुनि समुझैं …..

तुममें से जो भी समझ रहा हो वह जीना शुरू करे। जियो तो ही तुम सबूत दोगे कि समझे। पीना शुरू करे। यह मधुशाला है, मंदिर नहीं। यहां भी हम शराब ही ढाल रहे हैं। लेकिन शराब ऐसी जो डुबाकर उबारती है; जो बेहोश करके होश देती है; जिसमें पैर डगमगा गए तो बस आ गई धन्यभाग की घड़ी, सम्हल गए; जिसमें डगमगा जाना संयम का दूसरा नाम है; जिसमें डगमगा जाना साधना की फलश्रुति है।

आज इतना ही।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–23)

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धर्म : मुक्‍ति का आरोहण—(प्रवचन—तैइसवां)

प्यारे ओशो।

यह सूत्र छान्दोग्य उपनिषद्में उपलब्ध है :

‘जो विशाल है, वही अमृत है। जो लघु है, वह मर्त्य है।

जो विशाल है, वही सुख रूप है। अल्प में सुख नहीं रहता।

निस्संदेह विशाल ही सुख है

इसलिए विशाल को ही विशेष रूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए।

मूल पाठ इस प्रकार है :

यो वै भूमा तदमृतम्। अथ यदल्पं तन्मर्त्यम्।

यो वै भूमा तत्सुखम्। नाल्पे सुखमस्ति।

भूमैवसुखम्। भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य:।।

 

प्यारे ओशो। इस सूत्र को हमारे लिए सुस्पष्ट बनाने की कृपा करे।

हजानंद! छान्दोग्य उपनिषद् ऐसे है जैसे अमृत से भरा सरोवर, जैसे शुद्ध संगीत। इसलिए उसका नाम है : छान्दोग्य।’छंद’ से बना है नाम।

जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है। एक तो जीवन का ढंग है : संगीतशून्य; आपाधापी, चिन्ता, विषाद, संताप, अहंकार, महत्त्वाकांक्षा, संघर्ष। स्वभावत: संगीत असंभव होगा। ऐसे ही दौड़— धूप में भीतर का छंद बिखर जाता है। जैसे रात पूरे चांद की हो, पूर्णिमा हो, आकाश बादलों से रहित हो, चांद अपने पूरे सौन्दर्य में प्रगट हो, फिर भी अगर झील पर लहरें हों तो झील में चांद का प्रतिबिम्ब बन न पाएगा। बनेगा, लेकिन लहरों के कारण टूट—टूट जाएगा, खंड—खंड हो जाएगा, छितर—बितर हो जाएगा। जैसे कोई पारे को फर्श पर गिरा दे, इकट्ठा करना मुश्किल हो जाए। ऐसे ही चांद भी पारे की तरह है—खंड—खंड होकर बिखर जाएगा। सारी झील पर चांदी फैल जाएगी। लेकिन चांद जैसा है वैसा प्रतिफलित न हो सकेगा। और अगर झील मौन हो, शात हो, निस्तरंग हो, आंधियां न उठ रही हों, तूफान न आया हो, झील ध्यानस्थ हो, समाधिस्थ हो, तो फिर चांद जैसा है वैसा ही प्रतिफलित होगा।

एक तो मनुष्य के जीने का ढंग है विक्षिप्त झील की भांति, जहां वासनाओं की आंधियां लहरों पर लहरें उठाये चली जाती हैं; जहां मन हमेशा कंपित है, डावाडोल है, चंचल है। इस चंचल मन में परमात्मा का प्रतिफलन नहीं बन सकता। इस चंचल मन में सब विकृत हो जाएगा। छंद टूट जाएगा। छांदोग्य का अर्थ है : छंद टूटे नहीं। यह ध्यान की पराकाष्ठा है। जहां चित्त निर्विचार होता है। जैसे ही चित्त निर्विचार हुआ कि भीतर अनाहत का संगीत बजने लगता है; हृदय की वीणा पर शाश्वत की गुनगुनाहट सुनायी पड़ती है। चित्त विक्षिप्त हो तो हम संसार को जानते हैं, और चित्त शात हो तो हम परमात्मा को जानते हैं।

संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। सत्य तो एक है। चांद दो नहीं हैं, चाहे झील में लहरें हों और चाहे झील में लहरें न हों, चांद तो वही है, जैसा है, वैसा ही है। लेकिन अगर झील के पास भी सोचनेवाली बुद्धि होती, तो लहरोवाली झील सोचती एक ढंग से और शांत झील सोचती दूसरे ढंग से। लहरवाली झील देखती संसार को और शांत झील देखती परमात्मा को। जिसने संसार देखा, उसने अभी कुछ भी नहीं देखा। जिसने संसार में परमात्मा देखा, उसे ही आख मिली। और जिसने परमात्मा को देखा, वह देखते ही परमात्मा हो जाता है।

कल हम मुंडकोपनिषद् के सूत्र पर ही तो बात कर रहे थे कि जो उस ब्रह्म को जानता है, ब्रह्मैव भवति, वह ब्रह्म ही हो जाता है। जिसने परमात्मा को जाना, उसने यह भी जाना कि मैं उसी का अंग हूं। और जिसने परमात्मा नहीं जाना, स्वभावत: उसने इतना ही जाना कि मैं क्षुद्र हूं अपने में बद्ध हूं जरा—सा पोखर हूं डबरा हूं।

अहंकार का अर्थ है : अपने को अस्तित्व से पृथक जानना। और परमात्मा के अनुभव का अर्थ है अपने को अस्तित्व के साथ एक पाना—एकाकार। इसी अनुभूति की तरफ छान्दोग्य का इशारा है—

‘यो वै भूमा तदमृतम्।’

जो विशाल है वही अमृत है। लहरें तो मिटेगी, सागर रहेगा। हम तो मिटेगे, परमात्मा रहेगा। हम तो जन्मे हैं, तो मृत्यु भी घटेगी। यह देह बनी है, तो बिखरेगी भी—देर— अबेर। मगर कितनी ही देर हो, बहुत देर तो नहीं होगी। समय में जो भी बनता है, वह बिखरता है। यह समय का नियम है। यहां तो मृत्यु अनिवार्य है।

तुमने ध्यान दिया, हम मृत्यु को भी काल कहते हैं और समय को भी काल कहते हैं—कारण हैं। शायद दुनिया की किसी भाषा में मृत्यु और समय के लिए एक ही शब्द उपयोग नहीं होता। सिर्फ हमने ही मृत्यु को भी काल कहा, समय को भी काल कहा। गहरे अनुभव के आधार पर ऐसा कहा। समय अर्थात मृत्यु। समय के भीतर तो मृत्यु अपरिहार्य है, उससे बचा नहीं जा सकता। वह तो घट ही चुकी है, जन्म के साथ ही घट चुकी है, जिस दिन चीज बनती है, उसी दिन बिखरनी शुरू हो जाती है। बच्चा पैदा हुआ और मरना शुरू हुआ। पहली ही घड़ी से मृत्यु आनी शुरू हो जाती है। यह और बात है कि आते—आते सत्तर वर्ष लग जाते हैं। ऐसा मत सोचना कि सत्तर वर्ष पूरे होने पर अचानक एक दिन मृत्यु तुम्हारे द्वार पर दस्तक देती है। तुम मरते ही रहे, मरते ही रहते, सत्तर वर्ष में प्रक्रिया पूरी हुई। सत्तर वर्ष में पहली बार मृत्यु तुम्हारे द्वार पर नहीं आती, सत्तर वर्ष में मृत्यु काम पूरा कर चुकी, इसलिए तुम्हारे द्वार से विदा होती है। तुम सोचते हो आती है, उस दिन मृत्यु जाती है। आती तो है जन्म के साथ—वह जन्म का दूसरा पहलू है।

समय के भीतर हम क्षुद्र हैं। लेकिन अगर हम समय के ऊपर उठ सकें, तो तत्‍क्षण सीमातीत हो जाते हैं, विशाल का अनुभव शुरू होता है। हम उतने ही असीम हो जाते हैं जितना असीम आकाश है। फिर आकाश भी हमारी सीमा नहीं है ‘यौ वै भूना तदड़ु तमर ‘। फिर जिसने इस विशाल को अनुभव किया, इस विराट को अनुभव किया, इस विस्तीर्ण को अनुभव किया, वह अमृत को उपलब्ध हो गया। अब उसकी कोई मृत्यु नहीं है। कालातीत होते ही हम अमृत हो जाते हैं। काल है मृत्यु और कालातीत हो जाना है अमृत। ध्यान में पहली बार समय मिटता है। इसलिए ध्यान में पहली दफा अमृत की एक बूंद तुम्हारे गले के भीतर उतरती है, तुम्हारे कंठ को छूती है। ध्यान में पहली दफा झरोखा खुलता है। पहली बार तुम देख पाते हो कि जो वस्तुत: है, वह कभी मिटेगा नहीं; और जौ मिटता है, वह था ही नहीं, तुमने मान लिया था। जैसे कोई ताश के घर बनाए, या कागज की नाव चलाए। कागज की नाव नाव —जैसी मालूम होती है, नाव नहीं है। उसका डूबना सुनिश्चित है। तुम कागज की नाव में दीये को जलाकर भी नदी में तैरा दो, थीड़ी दूर तक चमकता रहेगा, झलकता रहेगा, फिर खो जाएगा।

ऐसे ही तो हम जन्म के साथ यात्रा शुरू करते हैं, कागज की नाव—देह इससे ज्यादा नहीं है—और यह विराट सागर है, इसमें कितनी दूर तक चलोगे? इसमें गिरना सुनिश्चित है। गिरने के पहले जो सजग हो जाए और समझ ले कि मेरी नाव कागज की है, मेरी नाव मृत्यु की है, उसके जीवन में क्रांति घट जाती है। क्योंकि उसके भीतर जिज्ञासा पैदा होती है। जिज्ञासा पैदा होती है उसे जानने की, जो कभी नहीं मिटेगा। और उसे बिना जाने जीवन में कैसे सुख हो सकता है? धन कितना ही हो, सुख न होगा।

तुम देखते तो हो धनी लोगों को, अकसर तो गरीब से भी ज्यादा दुखी हो जाते हैं। गरीब को एक ही दुख होता है कि गरीब है और आशा होती है, कम—से—कम आशा होती है कि आज नहीं कल जब गरीबी मिट जाएगी तो जीवन में सुख होगा। और आशा के सहारे जी लेता है। अमीर की आशा भी मिट जाती है। अब अमीर गरीब तो नहीं है, इसलिए आशा क्या करे? अब धन तो पा लिया और भीतर की पीड़ा तो वैसी की वैसी है, अछूती की अछूती, उसमें तो रत्तीभर भेद नहीं पडा! इसलिए धनी दोहरे दुख में पहुंच जाता है। धन भी मिल गया, आशा भी मर गयी और भीतर जैसा था वैसा ही है। वही पीड़ा, वही विषाद, वही संताप, वही नर्क, वही खालीपन, वही अर्थहीनता। न तो गीत जन्मा, न संगीत पैदा हुआ, न फूल खिले, न चांद—तारे ज्यों; कुछ भी न हुआ! अंधेरा और सघन हो गया। वह जो दूर टिमटिमाता—सा दीया जलता था आशा का, वह भी बुझ गया।

अंधेरी रात में जंगल में भटके राही को दूर टिमटिमाता दीया भी जिलाए रखता है। आशा बंधी रहती है. पहुंच जाऊंगा। चाहे पहुंचकर पता चले कि दीया कल्पित था। मृगमरीचिका थी; मैंने ही सपना देख लिया था; मेरी ही आकांक्षा थी दीये को पाने की, इसलिए दीया दिखाई पड़ने लगा था, खुली आंखों का देखा सपना था। इसलिए जो पहुंच जाता है—धन पा लेता—उसकी पीड़ा बहुत सघन हो जाती है।

मेरे अनुभव में उस पीड़ा से ही धर्म का जन्म होता है।

इसलिए गरीब समाज धार्मिक नहीं हो पाता। आशा बंधी रहती है संसार से। आशा की डोर लगी रहती है।……. कमल ने कल पूछा था कि भारतीयों की इतनी अवमानना क्यों है? क्यों भारतीय की इतनी अप्रतिष्ठा है जगत में? बहुत कारण हैं। उनमें एक कारण यह भी है कि भारत जिस धर्म की बात कर रहा है, वह गरीब समाज को शोभा नहीं देता। गरीब उसकी बात करने का हकदार नहीं है। और गरीब जब उस तरह के धर्म की बात करता है, तो वह झूठी होती है, मिथ्या होती है, थीथी होती है।

मेरे पास न—मालूम कितने पत्र आते हैं। पश्चिम से पत्र आते हैं, तो उनकी जिज्ञासा और होती है। और भारतीयों के पत्र आते हैं तो उनकी जिज्ञासा बड़ी और होती है। एक मित्र ने लिखा कि मैंने सुना है कि आपके आश्रम के पास करोड़ों रुपये हैं; अगर आप असली महात्मा हैं तो कम—से—कम एक लाख रुपये मुझे भेज दें—तो मैं मानूंगा कि आप असली महात्मा हैं। एक मित्र ने लिखा—कल ही पत्र आया है—कि मैंने सुना कि आपके पास दो कारें हैं, और मेरे पास केवल साइकिल है, और मुझे दूर दफ्तर में काम करने साइकिल पर जाना पड़ता है, अगर आप सच में ही भगवान हैं, तो एक कार मुझे भेज दें! कोई लिखता है, कि वह बीमार है। कोई लिखता है, उसे नौकरी चाहिए। कोई लिखता है, उसके लड़के के लिए यूरोप भिजवा दें, अमरीका भिजवा दें। और ये सारे लोग सोचते हैं कि धार्मिक हैं! इन सारे लोगों को भ्रांति है।

पश्चिम तुम्हारे पाखंड को देख पाता है। तुम्हारे झूठ को देख पाता है।

तुम्हारा झूठ अपरिहार्य है। धर्म जब इस देश में पैदा हुआ था, तब यह देश सोने की चिड़िया थी। तब धर्म की बात अर्थपूर्ण थी, क्योंकि हमने देख लिया था कि व्यर्थ है दौड़— धूप। उस दौड़—धूप की व्यर्थता ने हमें एक प्रमाणिकता दी थी। आशा छूट गयी थी संसार से, तो हमने परमात्मा की जिज्ञासा की थी। अभी तो आशा हमारी संसार से बंधी है, अभी तो हम परमात्मा की जिज्ञासा भी करेंगे तो इसी संसार के लिए करेंगे।

मंदिरों में जाकर लोगों की प्रार्थनाएं सुनो, वह क्या मांग रहे है? किस मूर्ति के सामने प्रार्थना कर रहे हैं, यह दो कौडी की बात है, असली बात यह है कि वे क्या मांग रहे हैं प्रार्थना में, उससे पता चलेगा। उनके हृदय की खबर मूर्ति से नहीं मिलेगी; न मंदिर से, न मस्जिद से, न गुरुद्वारा से, न गिरजे से, उनके हृदय की खबर तो वे क्या मांग रहे हैं इससे मिलेगी। वे क्या प्रार्थना कर रहे हैं, यह सवाल नहीं है, प्रार्थना के पीछे छिपा हुआ अभिप्राय क्या है? कि पत्नी की बीमारी ठीक हो जाए, कि लड़के को नौकरी मिल जाए कि धंधा ठीक से चल पड़े, कि इस बार लाटरी मेरे नाम से खुल जाए! और मैं इसमें दोष भी नहीं देखता—गरीब का कुछ कसूर भी नहीं है। खतरा तब पैदा होता है जब ऐसा गरीब समाज उन बातों को करने लगता है या किये चला जाता है, जिनसे अब उसके जीवन का कोई संबंध नहीं रह गया। दीन—हीन को क्या अंतर्छंद से संबंध होगा! रोटी—रोजी जुट जाए तो बहुत। अभी किसको पड़ी है कि अंतर में छंद जगे!

लेकिन अगर व्यक्ति बाहर के जगत को अनुभव करे, तो एक—न—एक दिन निराशा हाथ लगेगी। और निराशा बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि उसी निराशा के बाद जिसको छान्दोग्य कहता है : विजिज्ञासितव्य, वह विशेष जिज्ञासा पैदा होगी, विजिज्ञासा पैदा होगी। साधारण जिज्ञासा नहीं, विशेष जिज्ञासा पैदा होगी। कि मैं जानूं कि इस देह के पार भी कुछ है या नहीं? जानूं कि धन के पार भी कोई धन है या नहीं? पद के पार भी कोई पद है या नहीं? यह जो दिखाई पड़ता है जगत, इसके पीछे कोई छिपा हुआ राज है भी या नहीं? पाखंड पैदा हो जाता है जब तुम चाहते तो हो कि इसी जगत की चीजें मिलें, लेकिन बातें और दूसरे जगत की करते हो—तब पाखंड पैदा हो जाता है।

सेठ चंदूलाल ने अपने गुरु स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी से पूछा, ‘गुरुदेव आप दूसरों को तो धूम्रपान छोड़ने के लिए कहते हैं और खुद पीते हैं!’ स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी ने कहा, ‘बच्चा, मैं खुद न पीऊं तो इसकी हानियां कैसे जानूंगा?’

सेठ चंदूलाल जा रहे थे तीर्थयात्रा पर। बड़े चिंतित थे कि दो—तीन महीने घर में ताला पड़ा रहेगा, चोर—उच्चके भरपूर हैं, मित्रों का भी अब कोई भरोसा नहीं, अब कोई किसी के काम आता नहीं, चाबियां साथ ले जाना भी खतरनाक है—तीन महीने में कहीं खो जाए चोरी चली जाएं—सो उन्होंने सोचा कि गुरुदेव को ही दे दें। स्वामी मटकानाथ ब्रह्मचारी को जाकर उन्होंने कहा कि मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं ये मकान की चाबियां हैं, ये आपको सौंपे जाता हूं। आजकल जरा डर बना रहता है, इसलिए चाबियां सम्हालकर रखना। और ध्यान रखना कि कोई ताला तोड़कर चोरी न कर जाए। ब्रह्मचारी जी ने कहा, ‘बच्चा, बेफिक्री से जा! अरे, ताला—वाला तोड्ने की क्या जरूरत है, चाबियां तो हैं ही! वह नौबत नहीं आएगी!’

यहां आश्रम की ही यह घटना है। एक भारतीय संन्यासी ने एक अमरीकन संन्यासी से कहा, ‘मित्र, मुझे बीस रुपये उधार दे दो, बहुत तंगी में हूं।

अमरीकन संन्यासी बोला, ‘भई, रुपये तो दे दूं लेकिन कर्ज को दोस्ती की कैंची कहते हैं।’ भारतीय संन्यासी हंसने लगा और बोला, ‘यार, तुम रुपये तो दो! यूं ही हम कहां कोई बहुत गहरे दोस्त हैं!’

एक थोथापन अनिवार्य है। क्योंकि तुम जो मानते हो, अगर वह तुम्हारा अपना जीवित अनुभव नहीं है, तो तुम व्यवहार कुछ करोगे, कहोगे कुछ। इसलिए भारतीय सारे जगत में अनादृत है। क्योंकि वह कहता कुछ है, करता कुछ है। बताता कुछ है और निकलता है भीतर से बिलकुल विपरीत। एक थोथा पांडित्य है। उपनिषद् कंठस्थ हो गये हैं……. छान्दोग्य भी दोहरा देगा—हालांकि भीतर कोई छंद नहीं है। और जिसके भीतर छंद नहीं है, उसकी छान्दोग्य की व्याख्या झूठ है, पाखंड है, मिथ्या है; उसके जीवन में उसका कोई कहीं भी लक्षण नहीं मिलेगा।

छान्दोग्य की व्याख्या करने का वही अधिकारी है, जिसके भीतर छंद जगा हो। जिसके जीवन में संगीत हो, काव्य हो, प्रसाद हो। और तुम्हारा जीवन बताएगा। तुम्हारा जीवन कुछ और बताएगा, तुम्हारी बातें कुछ और कहेंगी। तुम्हारी बातें आकाश की होंगी, और तुम्हारा जीवन जमीन पैर कीड़े—मकोड़ों की तरह सरकता हुआ होगा।

एक महापंडित का हाथ, बायां हाथ मशीन में कट गया। बड़े शास्त्री थे। गीता—ज्ञान—मर्मज्ञ थे। वे मलहम—पट्टी करवाने डाक्टर के पास पहुंचे। डाक्टर ने कहा, ‘पंडित जी, यह तो आपकी किस्मत अच्छी थी कि मशीन में बायां हाथ आया। यदि दायां हाथ आ जाता तो आप दुनिया का कोई भी काम नहीं कर सकते थे।’ पंडित जी बोले, ‘अरे डाक्टर साहब, किस्मत काहे की अच्छी, यह तो मेरी होशियारी है। दरअसल मेरा दायां हाथ ही मशीन में आया था, लेकिन मैंने झट से उसे पीछे खींच बायां हाथ आगे कर दिया।’

गीता —ज्ञान—मर्मज्ञ होंगे, मगर जिंदगी तो कुछ और प्रमाण देगी। जिंदगी तो मूढ़ता को बताएगी।

और भारतीय व्यक्तित्व इसलिए भी अनादृत है कि तुम्हारी बातों की चूंकि भीतर कोई जड़ें नहीं रह गयी हैं, ऊपर—ऊपर हैं, कागजी हो गयी हैं, शास्त्रीय हो गयी हैं, तुम उबाते हो लोगों को।

मैंने सुना है, जार्ज बर्नार्ड शा से एक भारतीय पंडित मिलने गया था। जार्ज बर्नार्ड शा को बुरी तरह उबा रहा था। बर्नार्ड शा संकोचवश, शिष्टाचारवश कह भी नहीं सक रहे थे कि पंडित जी, अब क्षमा करो, यह बकवास बंद करो! कोई और रास्ता न देखकर बर्नार्ड शा ने पास में ही पड़ी हुई एक पत्रिका उठा ली और पढ़ने लगे। पढ़ने तो क्या लगे, पन्ने पलटने लगे; कि पंडित इशारा समझ ले। पंडित जी ने जब यह देखा तो वे बोले बर्नार्ड शा से, मैं आपसे कुछ कहना चाहता था, पर याद नहीं आ रहा है। जार्ज बर्नार्ड शा ने कहा, शायद आप नमस्ते कहना चाहते थे। मैं याद दिलाए देता हूं।

लोग ऊब गये हैं। लोग बुरी तरह ऊब गये हैं। और ऐसा नहीं कि तुम भी नहीं ऊब गये हो अपने पंडितों से, अपने साधुओं से, अपने महात्माओं से। तुम भी ऊब गये हो। मगर तुममें इतना बल भी नहीं रह गया है कि तुम स्पष्ट कह सको कि अब बस बंद करो! तुम्हारे जीवन में छंद नहीं है, तो कम—से—कम छान्दोग्य पर मत बोलो! तुम्हारे जीवन में गीत नहीं है, तो तुम्हारा गीता—ज्ञान—मर्मज्ञ होना दो कौड़ी का है! जब तक तुम्हारे भीतर भगवत्—गीत का जन्म न हो, तब तक क्या तुम भगवत्—गीता पर बोलोगे! जब तक तुम ब्रह्म को न जान लो, तब तक तुम कैसे वेद की कोई व्याख्या कर सकते हो!

यह सूत्र जिसने भी कहा होगा, जानकर कहा है। अहंकार दुख है, क्यौंकि अहंकार सीमा है। और निर—अहंकारिता सुख है, क्योंकि निर—अहंकारिता असीम है। शरीर में आबद्ध होना दुख है, क्योंकि शरीर सीमा है। और मैं शरीर से मुक्त हूं ऐसा जानना सुख है। मैं चैतन्य हूं ऐसा जानना सुख है—जानना, मानना नहीं—ऐसा अनुभव, ऐसा सिद्धात नहीं—ऐसी प्रतीति, ऐसा साक्षात्कार, ऐसी धारणा नहीं। ये प्रश्न धारणाओं के नहीं हैं। समय में अपने को देखना मृत्यु से बंधे रहना है। कालातीत अपने को अनुभव करना अमृत का अनुभव है।

और कालातीत अपने को अनुभव करने का ध्यान के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है! कितना ही गऊ—माता का दूध पीओ, कालातीत को न जान पाओगे। खोपड़ी में गोबर—ही—गोबर भर जाए तो भी कालातीत को नहीं जान पाओगे। और कितना ही शीर्षासन करो, कालातीत को न जान पाओगे। उल्टा खड़े—होने से, शीर्षासन करने से कालातीत को जानने का कोई संबंध नहीं है। लाख ब्रह्ममुहूर्त में उठो, ब्रह्म को न जान लोगे। और कितना ही दोहराते रहो तोतों की तरह अपने शास्त्रों को, कुछ पाओगे नहीं, हाथ कुछ लगेगा नहीं—कौड़िया भी हाथ नहीं लगेंगी, हीरे —जवाहरात तो दूर। ध्यान के अतिरिक्त न कभी कोई उपाय था, न कभी कोई उपाय होगा।

ध्यान का अर्थ है. कालातीत होने की प्रक्रिया। समय के पार जाने की प्रक्रिया। तुम समय के स्वभाव को थीड़ा समझ लो। कुछ बातें तो तुम्हारे अनुभव में हैं, इसलिए समझना कठिन नहीं होगा। कुछ तुम्हारे अनुभव में नहीं है, लेकिन जो तुम्हारे अनुभव में है, उससे उस दिशा में इशारे मिल सकते हैं जो तुम्हारे अनुभव में नहीं है।

जब तुम दुखी होते हो, तो समय लम्बा हो जाता है। जैसे, तुम्हारी मां या तुम्हारे पिता मरणशैथ्या पर पडे हैं और रातभर तुम बैठे हो, जाग रहे हो, क्योंकि डाक्टरों ने कहा है कि पता नहीं कब श्वास खो जाएगी! तो वह रात इतनी लम्बी हो जाएगी कि कयामत की रात मालूम होगी। अंत ही आता न मालूम पडेगा। लगेगा कि अब सहर होगी ही नहीं, सुबह होगी ही नहीं। रात इतनी लम्बी हो जाएगी और घड़ी का काटा यूं सरकेगा कि जैसे सरकना ही भूल गया! हालाकि घडी का काटा पुराने ही ढंग से चल रहा है। घड़ी को क्या पड़ी है कि कौन मर रहा है, कौन जी रहा है! रात भी पुराने ढंग से ही सरक रही है। लेकिन तुम्हारे चित्त की अवस्था दुख की है। दुख में समय लम्बा हो जाता है।

समय तुम यूं समझो कि जैसे रबर है। दुख में खिंच जाता है, लम्बा हो जाता है। सुख में सिकुड़ जाता है।

तुम्हारी प्रेयसी तुम्हें मिलने आ गयी है, बरसों का बिछड़ा यार मिल गया है, तो घंटे यूं बीत जाते हैं जैसे पल बीते। पलक झपकते बीत जाते हैं। रातभर मित्र से बातें करते रहते हो, कब सुबह हो गयी पता नहीं चलता। एकदम पता चलता है कि रात पूरी बीत गयी। यूं बीत गयी! कब आयी, कब गयी, पता नहीं। तुम बातों में ऐसे तल्लीन थे, बरसों बाद मित्र मिला था, न—मालूम कितनी बातें करने की थीं, हृदय उघाडकर रख देने में लगे थे—आनंदित थे, मस्त थे —तो समय छोटा हो गया।

यह तुम्हारा अनुभव है। इस अनुभव से इशारे ले सकते हो। दुख में समय लम्बा हो जाता है, सुख में छोटा हो जाता है। लेकिन महासुख में? स्वभावत : विलीन हो जाएगा। और महादुख में? स्वभावत : अनंत हो जाएगा।

बर्ट्रेंड रसल ने एक बहुत महत्वपूर्ण किताब लिखी है, ईसाइयत के खिलाफ, कि मैं ईसाई क्यों नहीं हूं? उसमें बहुत से तर्क दिये हैं, महत्वपूर्ण तर्क दिये हैं। एक तर्क उसने जो दिया, वह ऊपर से तो महत्वपूर्ण दिखता है लेकिन ध्यान का उसे कोई अनुभव नहीं रहा होगा, इसका सबूत देता है। बहुत से तर्कों में उसने एक तर्क यह भी दिया है कि जीसस का कहना है कि जो लोग पाप करते हैं, जो लोग मूर्छा में जीते हैं, वे नर्क में पड़ेंगे। और ईसाइयत की धारणा है कि नर्क अनंत है। मतलब एक बार पड़े सो पड़े।

बर्ट्रेंड रसल का कहना बिलकुल तर्कयुक्त है कि मैं कितने ही पाप करूं—और ईसाइयत में एक ही जन्म होता है, अगर अनंत जन्म भी होते तो भी समझ में आ सकता था कि अनंत पाप किये होंगे अनंत—अनंत जन्मों में; चौरासी करोड़ योनियों में कितने नहीं पाप किये होंगे, तो अनंत काल तक रहना पड़ेगा—लेकिन ईसाइयत तो एक ही जन्म को मानती है; सत्तर साल का जन्म, जीवन, इसमें कितने पाप करोगे? बर्ट्रेंड रसल का कहना है कि अगर कठिन—से—कठिन भी कोई मजिस्ट्रेट हो, तो मुझे चार या पांच साल की सजा दे सकता है—मैंने जो पाप किये। अगर वे भी पाप जोड़ लिये जायें जो मैंने किये नहीं सिर्फ सोचे……. कि फलाने की स्त्री ले भाग—सिर्फ सोचा, किया भी नहीं है—अगर वह भी जोड़ लिया जाए, तो समझ लो ज्यादा—से—ज्यादा आठ से दस साल की मुझे सजा दी जा सकती है—वह भी कठोर—सें—कठोर कोई न्यायाधीश हो तो। दस साल की इस सजा के लिए मुझे अनंत काल तक नर्क में रहना पड़ेगा! और फिर भी ईसाई कहते हैं कि परमात्मा न्यायपूर्ण है! यह तो महा अन्याय हो गया। अरे, सत्तर साल में कितने पाप करोगे? अगर सत्तर साल भी पाप करते रहो, सतत—और दूसरा काम ही न करो; न खाओ, न पीओ, न सास लो, न उठो, न बैठो, न नहाओ, न धोओ, पाप ही पाप करते रहो सत्तर साल, तो भी कितने दंड दोगे? सात सौ साल का दण्ड दे देना और क्या करोगे? सात हजार साल का दे देना, सात लाख साल का दे देना, मगर अनंत! यह तो कुछ बात जंचती नहीं।

और बर्ट्रेंड रसल का कोई उत्तर ईसाई पादरी नहीं दे सकते हैं, ईसाई धर्मगुरु नहीं दे सके हैं। बर्ट्रेंड रसल ने किताब लिखी थी आज से कोई साठ साल पहले—बर्ट्रेंड रसल नब्बे साल तक जीया, अभी—अभी मरा है कुछ वर्ष पहले, साठ साल प्रतीक्षा की उसने, किताब लिखी थी जब वह कोई तीस साल का था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिल सका उसको।

जवाब मिले कैसे? न बर्ट्रेंड— रसल को ध्यान का अनुभव है, न ईसाई पादरी—पुरोहितों को ध्यान का कोई अनुभव है, जवाब देगा कौन? और जवाब बड़ा सीधा—सरल था, अगर ध्यान का कोई भी अनुभवी हो तो जवाब बड़ा सीधा—सरल है। अनंत का अर्थ अनंत नहीं है। अनंत का अर्थ है : नर्क अनंत मालूम पड़ेगा। क्योंकि दुख में समय लम्बा हो जाता है। साधारण दुख में लम्बा जाता है, तो नर्क तो अनंत मालूम पड़ेगा। है अनंत, ऐसा नहीं है, मालूम पड़ेगा।

और इसीलिए तो हमको प्रतीत होता है कि सुख क्षणभंगुर है। क्योंकि समय छोटा हो जाता है। दुख को नहीं कहता कोई क्षणभंगुर।

तुमने यह सुना! तुम्हारे महात्मा समझाते रहते हैं, सुख क्षणभंगुर है, लेकिन किसी महात्मा को तुमने यह कहते सुना कि दुख क्षणभंगुर है? तुमने यह वचन ही कहीं नहीं देखा होगा कि दुख क्षणभंगुर है। सुख क्षणभंगुर है। सुख क्षणभंगुर है इसलिए नहीं कि क्षणभंगुर है, बल्कि इसलिए कि सुख में समय सिकुड़ जाता है, एक क्षण हो जाता है। और दुख अनंत हो जाता है। प्रतीत होता है। एहसास होता है।

समय हमारी प्रतीति है।

तो ये चार बातें खयाल रखो। अगर महादुख होगा तो समय अनंत मालूम होगा।…… मालूम होगा, खयाल रखना। समय तो जैसा है वैसा ही है, सिर्फ तुम्हारी प्रतीति बहुत खिंच जाएगी। अगर छोटा—मोटा दुख होगा तो समय बडा मालूम होगा। अगर छोटा—मोटा सुख होगा तो समय बहुत अल्प मालूम होगा। और अगर महासुख होगा तो समय विलीन हो जाएगा।

जीसस से किसी ने पूछा—बाइबिल में यह उल्लेख नहीं है, लेकिन सूफियों की परंपरा में यह वचन संगृहीत है। यह प्यारा वचन है और पी. डी. आस्पेंस्की ने अपनी महान किताब टर्शियम आर्गनम में यह वचन सबसे पहले उद्धृत किया है। जैसे कि पूरी किताब इसी की व्याख्या है। किसी ने जीसस से पूछा कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में, जिसकी तुम निरंतर चर्चा करते हो, सबसे खास बात क्या होगी? तो जीसस ने कहा. ‘देयर शैल बी टाइम नो लागर’। वहां समय नहीं होगा। पी. डी. आस्पेंस्की ने अपनी किताब के प्रथम ही इसको उल्लेख किया है, जीसस के इस वचन को कि वहां समय नहीं होगा।

यह अनुभव तो ध्यान में किसी को भी हो जाता है। क्योंकि ध्यान में हम तत्मण प्रभु के राज्य के हिस्से हो गये। ध्यान का अर्थ है : निर्विचार, शून्य। जहां कोई विचार न रहा, वहा कोई सीमा न रही। विचार ही बागुडू की तरह तुम्हें घेरे हुए हैं। जहां विचार गिर गये, सारी दीवालें गिर गयीं, सारे कारागृह गिर गये, सारे कटघरे विलीन हो गये, तिरोहित हो गये—सब द्वार खुल गये। उस घड़ी में घडी बंद हो जाती है। समय ठहर जाता है। छान्दोग्य उसी की तरफ इशारा कर रहा है। कह रहा है:

जो विशाल है, वही अमृत है।

यो वै भूमा तदमृतम्।

आ शब्द बहुत अर्थ रखता है, जो विशाल शब्द में नहीं आते। विशाल केवल उसका एक पहलू है। आ का अर्थ होता है : सर्वव्यापी। जहां—जहां तक तुम्हारी कल्पना जा सकती है, वहा तो मौजूद है ही और जहां तुम्हारी कल्पना भी नहीं जा सकती, वहा भी मौजूद है। इतना विराट कि जहां तुम्हारी कल्पना भी थककर गिर जाती है, जहां तुम्हारे विचार भी गति नहीं कर सकते, जहां तुम्हारे स्वप्न भी उड़ान नहीं भर सकते, इतना विराट कि तुम थक जाओ सोच—सोचकर और सोच न पाओ, अनिर्वचनीय रूप से जो विराट है। ब्रह्म शब्द का भी आ ही अर्थ होता है। ब्रह्म शब्द जिस धातु से बना है, उसी से हमारा हिन्दी का शब्द बना है. विस्तीर्ण।

ब्रह्म शब्द बहुत अद्भुत है। अगर इसका ठीक—ठीक अनुवाद करना हो तो यूं कहना पडे : जो सदा ही विस्तीर्ण होता चला जाता है। तुम जहां भी जाओगे, पाओगे वह अभी और आगे शेष है। तुम उसे कभी चुकता न कर सकोगे। तुम ऐसा न कह सकोगे कि बस, यह आ गया आखिरी पडाव, यह आ गयी मंजिल, अब इसके आगे कुछ भी नहीं—ऐसा तुम कभी न कह सकोगे। तुम जहां भी जाओगे, पाओगे वह और आगे फैला हुआ है और आगे फैला हुआ है। तुम बढते जाओगे और तुम पाओगे वह और आगे फैला हुआ है। उसका कोई कूल—किनारा नहीं है।

ब्रह्म शब्द का उपयोग हमने किया है आज से पाच हजार साल पहले—कम—से—कम। जो सदा विस्तीर्ण होता चला जाता है। और आधुनिक विज्ञान ने इस सदी में आकर ठीक इसी सत्य को स्वीकार किया है। अल्वर्ट आइंस्टीन की बड़ी—से—बड़ी खोजों में एक खोज यह है कि जगत वह है जो सदा विस्तीर्ण हो रहा है। अल्वर्ट आइंस्टीन के पहले वैज्ञानिक मानते थे कि जगत जैसा है वैसा है, जहां तक है वहां तक है; उनकी धारणा एक थिर जगत की थी। अल्वर्ट आइंस्टीन ने धारणा को तोड़ दिया थिर जगत की। गतिमान, गत्यात्मक जगत की धारणा दी —’ऐक्सांडिंग यूनीवर्स’ की। फैलता हुआ विश्व, विस्तीर्ण होता हुआ विश्व फैल ही रहा है। बड़े से बड़ा होता जा रहा है, बड़ा होता जाता है। विराट से विराटतर होता जा रहा है। जैसे कि कोई छोटा—सा बच्चा अपने फुग्गे में हवा भरता जाता है और फुग्गा बड़ा होता जाता है, बड़ा होता जाता है। ऐसे यह अस्तित्व विराट होता जा रहा है। यह प्रतिक्षण फैल रहा है। और बड़ी गति से फैल रहा है।

विज्ञान के हिसाब से जो गति सूर्य के प्रकाश की है, उसी गति से जगत विस्तीर्ण हो रहा है। गति बहुत है, अकल्पनीय है। प्रकाश की गति है प्रति सेकंड एक लाख छियासी हजार मील। इसलिए सूरज से हम तक किरण को आने में कोई साढ़े नौ मिनट लगते हैं—इस गति से आने में, एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकंड। इसमें साठ का गुणा करो तो एक मिनट में इतनी गति। फिर साढ़े नौ का गुणा करो तो उतनी देर में प्रकाश यहां तक आ पाता है—इतनी हमारी सूरज से दूरी है।

और सूरज कोई बहुत दूर नहीं।

जो सबसे निकट का तारा है, उससे हम तक प्रकाश को इसी गति से आने में चार वर्ष लगते हैं। और फिर तारे हैं, जिनसे करोड़ों वर्ष लगते हैं। तारे हैं, जिनसे अरबों वर्ष लगते हैं। ऐसे तारे हैं कि जब पृथ्वी बनी थी तब उनकी किरणें चली थीं, वे अभी तक पृथ्वी पर नहीं पहुंची। और ऐसे तारे हैं कि शायद पृथ्वी समाप्त भी हो जाएगी और उनकी किरणें चली थीं तब जब पृथ्वी बनी न थी और जब आयेगी तब तक पृथ्वी विदा हो चुकी होगी। उन किरणों को कभी पृथ्वी मिलेगी ही नहीं। पृथ्वी को बने कोई चार अरब वर्ष हुए। तो जिस तारे से पृथ्वी की तरफ अभी तक चार अरब वर्ष में चली किरण नहीं पहुंच पायी है, उसकी दूरी की तुम कल्पना कर सकते हो—वही गति है, एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकिंड!

और इसी गति से जगत विस्तीर्ण हो रहा है।

एक महिला एक डाक्टर के पास गयी। डाक्टर होंगे हमारे अजित सरस्वती जैसे। जच्चा—बच्चा अस्पताल चलाते होंगे। उस महिला की एक ही चिंता थी—उसको गर्भ रह गया था—वह कहने लगी, यह मुझे कैसे पक्का पता चलेगा कि अब नौ महीने पूरे हो गये? क्योंकि मुझे चीजें भूल— भूल जाती हैं। मैं यही भूल जाती हूं कि सुबह जो तय किया था, वह दोपहर याद नहीं रहता। बाजार सामान लेने जाती हूं कुछ लेने जाती हूं कुछ खरीदकर आ जाती हूं—मेरी स्मृति बड़ी कमजोर है। तो मैं भूल ही जाऊंगी कि कब नौ महीने पूरे हुए। तो उस डाक्टर ने थीडा सोचा और कहा कि ठीक है, लेट! उसको लिटा दिया टेबल पर, फाउन्टेन पेन उठाया और उसके पेट पर कुछ लिख दिया। उस महिला ने कहा कि इससे क्या होगा? उस डाक्टर ने कहा कि जब तू इसे साफ—साफ पढ़ने लगे, तब आ जाना। अभी कुछ तेरी पढ़ाई में आता है? उसने कहा, कुछ पढ़ाई में नहीं आता। इतने बारीक अक्षरों में लिखा है आपने कि मुझे कुछ दिखायी नहीं पड़ता कि लिखा क्या है। बस, तो उस डाक्टर ने कहा, फिकर न कर, जब तेरी साफ—साफ समझ में आने लगे—यह मेरा पता है—जब तू इसे बिलकुल ठीक—ठीक पढ़ने लगे, समझ लेना कि नौ महीने पूरे हो गये। पेट फैल रहा है, यह बड़ा होता जा रहा है, जब नौ महीने का बच्चा हो जाएगा तो अक्षर बराबर पढ़ पाएगी, कोई चिंता न कर!

यह अस्तित्व फैलता जा रहा है। इसको रहस्यदर्शियों ने स्त्री के फैलते हुए गर्भ का ही नाम दिया है। यह निरंतर विराट होता जा रहा है। यह विस्तीर्ण होता जगत है। यह प्रक्रिया सतत चल रही है। ब्रह्म शब्द का यही अर्थ है : जो सदा विस्तीर्ण होता चला जाता है। बड़ा प्यारा शब्द है ब्रह्म। वही आ का अर्थ है : जो सदा विराट होता चला जाता है। जो विराट है, ऐसा ही नहीं, जो विराट होता चला जाता है। जो एक क्षण ठहरता नहीं और विराट होता ही चला जाता है।

बुद्ध ने कहा है कि काश, हम अपनी भाषाओं से संज्ञाएं अलग कर दें और सिर्फ क्रियाएं बचा लें, तो हम सत्य के बहुत करीब पहुंच जायेंगे। क्‍योंकि संज्ञाएं हमें एक भांति देती हैं कि चीजें थिर हैं। और क्रियाएं हमें बोध देंगी कि चीजें गतिमान हैं। जैसे, हम कहते हैं : नदी है। लेकिन बुद्ध कहते हैं, उचित होगा कि तुम कहो : नदी हो रही है। मत कहो कि है। हम कहते हैं : वृक्ष है। बुद्ध कहते हैं कि अच्छा होगा कि तुम कहो : वृक्ष हो रहा है। क्योंकि प्रतिपल गति है—जीवन यानी गति।

आ का अर्थ है : जो प्रतिपल हो रहा है, विराट हो रहा है, बडा हो रहा है। बड़े—सें—बडा हो रहा है, विराट से विराटतर होता जा रहा है। और जिसकी कोई सीमा नहीं है, कोई अंत नहीं है। जो कहीं ठहरेगा नहीं। जो ठहरना जानता ही नहीं है। जिन्होंने देखा है, अनुभव किया है, वे कहेंगे : जगत में कोई मंजिल नहीं है, यात्रा ही यात्रा है—अनत यात्रा है।

‘जो विशाल है, वही अमृत है’। और काश, तुम इस विशाल के साथ अपने को एक अनुभव कर सको, फिर कैसी मृत्यु? क्षुद्र मरता है, बूंद मरती है, सागर नहीं मरता। लहर मरती है, सागर नहीं मरता। जीवन का एक रूप विदा हो जाता है, लेकिन जीवन जारी रहता है। जीवन की अभिव्यक्तियां बदल जाती हैं, रंग बदल जाते हैं, ढंग बदल जाते हैं, लेकिन जीवन जारी रहता है।

‘यो वै भूमा तदमृतम्।’ जो विशाल है, विराट है, विराटतर हो रहा है, वही अमृत है।’जो लघु है, वह मर्त्य है।’ इसलिए लघु के साथ अपने को न जोडना।

‘अथ यदल्पं तन्मर्त्यर।’

अल्प के साथ अपने को मत जोड़ना। और हमने अल्प के साथ ही अपने को जोड़ रखा है। शरीर के साथ जोड़ रखा है। मन के साथ जोड़ रखा है। दोनों अल्प हैं। दोनों लघु हैं। दोनों बहुत छोटे हैं। और उसके कारण हम छोटे हो गये हैं। और जब हम छोटे हो जाते हैं तो पीड़ा होती है, कि मैं छोटा, तो बड़े होने की दौड़ शुरू होती है।

अब यह तुम पागलपन समझने की कोशिश करो।

पहले हम अपने को छोटा बना लेते हैं, छोटे के साथ अपना तादात्म कर लेते हैं, फिर तादात्म्य करने से हीनता की ग्रंथि पैदा होती है, फिर हीनता की ग्रंथि हमको दौडाती है कि अब बड़े होओ, धन कमाओ, पद पर पहुंचो, प्रधानमंत्री हो जाओ, राष्ट्रपति हो जाओ, दुनिया के सबसे बड़े धनी हो जाओ, यशस्वी हो जाओ, यह करो, वह करो, दौड़ाती है, दौड़ाती है! और भूल कुल इतनी है कि तुम बड़े हो ही, तुम से बड़ा कुछ भी नहीं है, काश, तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए तो दौड़ सब बंद हो जाती है।

इसलिए मैं नहीं कहता कि संसार छोड़ो, पद छोड़ो, धन छोड़ो—छोड़ने से कुछ भी न होगा—ध्यान जानी! ध्यान को जाना कि यह जो दौड है, यह अपने—आप क्षीण होने लगती है। फिर तुम जहां हो, संतुष्ट हो। क्योंकि वह हीनता की ग्रंथि ही गल गयी।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सभी राजनीतिज्ञ हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। हीनता की ग्रंथि न हो तो राजनीति समाप्त हो जाए। भीतर लगता है कि मैं इतना छोटा, तो किसी तरह बड़ा होकर दिखा दूं। अब बड़े होने की एक ही समझ आती है—या तो धन हो, या पद हो, प्रतिष्ठा हो, यश हो; किसी भी तरह बड़ा होकर दिखा दूं। इससे आदमी अहंकार के नये—नये सोपान चढ़ता है, नयी—नयी सीढ़ियां चढ़ता है। और मजा यह है, विडम्बना यह है कि वही अहंकार तुम्हारे छोटे होने का कारण है। जो तुम्हारे छोटे होने का कारण है, उसी की मानकर तुम बड़े होने की चेष्टा कर रहे हो। उसको जब तक मानते रहोगे, बड़े हो न पाओगे। जिस दिन उसे छोड़ दोगे, उसी दिन छोटापन छूट जाएगा। और जहां छोटापन नहीं रह गया, अल्प के साथ संबंध नहीं रह गया वहा सब दौड़ समाप्त हो गयी। फिर व्यक्ति जीता है। जब दौड़ता नहीं तब जीता है।

और जब कोई मृत्यु नही रह जाती, तो जीवन ही जीवन बचता है। शरीर के साथ अपने को एक माना कि मुश्किलें खड़ी हुईं। मन के साथ अपने को एक माना कि मुश्किलें खड़ी हुई। शरीर के साथ एक माना तो अभी जवान हो, डर लगेगा कि अब बुढ़ापा करीब आता है। ये बाल सफेद हुए, ये चमड़ी पर झुर्रियां पडने लगीं, ये पैर कंपने लगे—अब यह बुढ़ापा आया! अब घबडाए! अब परेशान हुए! अब बुढ़ापा आ रहा है तो मौत भी आती ही होगी। कदम—कदम, रफ्ता—रफ्ता सरकने लगे कब की तरफ। लाख कब्रिस्तानों को गांव के बाहर बनाओ—छिपाने के लिए हम गांव के बाहर बनाते हैं, ताकि मौत भूली रहे—मगर कैसे भूलोगे मौत को? जब तक अहंकार के साथ जुडे हो, मौत याद आएगी। वृक्ष से पीला पत्ता गिरेगा और मौत याद आएगी। सुबह की धूप में ओस का कण वाष्पीभूत होगा और मौत याद आएगी। रास्ते पर चलते बूढे को देखोगे, मौत याद आएगी। कोई की अर्थी निकलेगी—और निकलेगी ही किसी की अर्थी—और मौत याद आएगी ‘जब तक अहंकार से जुड़े हो, मौत से छूट .नहीं सकते। मौत का भय तुम्हें कंपाए रखेगा। और जब तक अहंकार से जुडे हो, छोटे हो। इसलिए मन में ये आकांक्षाएं प्रबल होती रहेंगी कि किस तरह धन पाऊं, किस तरह पद पाऊं, कैसे सिकंदर हो जाऊं? हालांकि सिकंदर होकर भी कोई कुछ हुआ नहीं। सिकंदर भी खाली हाथ मरता है।

हमारी तरफ से…….

हमारी तरफ से सलाम उनको देना

हमारी तरफ से सलाम उनको देना

तो कह देना कासिद सलाम आखरी है

 

तो कह देना कासिद……

तो कह देना कासिद सलाम आखरी है

हमारी तरफ से सलाम उनको देना

तो कह देना कासिद सलाम आखरी है

मुलाकात हमसे…….

 

मुलाकात हमसे न अब हो सकेगी

ये बीमारे—गम का

ये बीमारे—गम का पयाम आखरी है

हमारी तरफ से सलाम उनको देना

तो कह देना कासिद सलाम आखरी है

मुलाकात हमसे न अब हो सकेगी

ये बीमारे—गम का पयाम आखरी है

सरे—शाम तुम जब जुदा हो रहे हो…….

 

सरे—शाम तुम जब जुदा हो रहे हो

जुदा रूह गोया कि होती है तन से

मुझे ऐसा मालूम होता है जैसे

मैरी जिंदगी की यह शाम आखिरी है

हमारी तरफ से सलाम उनको देना

तो कह देना कासिद सलाम आखरी है

जवानी के नशे में

जवानी के नशे में बदमस्त होकर……

 

जवानी के नशे में बदहोश होकर…….

जवानी के नशे में बदमस्त होकर न चल…….

न चल टूटी कब्रों को ठुकरा के जालिम

जवानी के नशे में बदमस्त होकर

न चल टूटी कब्रों को ठुकरा के जालिम

तुझे भी यहीं…………..

 

तुझे भी यहीं मरके आना है इक दिन

यह दुनिया में सबका मकाम आखरी है

यह दुनिया में सबका मकाम आखरी हैं…….

जवानी के नशे में बदमस्त होकर

न चल टूटी कब्रों को ठुकरा के जालिम

तुझे भी यहीं मरके आना है इक दिन

यह दुनिया में सबका मकाम आखरी है

हमारी तरफ से सलाम उनको देना

तो कह देना कासिद सलाम आखरी है

 

मुंह देख लिया आईने में और दाग न देखे सीने में…….

मुंह देख लिया आईने में और दाग न देखे सीने में

जी कैसा लगा है जीने में, मरने को भी इंशा भूल गये

मुंह देख लिया आईने में और दाग न देखे सीने में

जी कैसा लगा है जीने में, मरने को भी ईशा भूल गये

ये आदमी का जिस्म क्या है जिसपै शैदा है जहां

एक मिट्टी की इमारत एक मिट्टी का मकां

खून का गारा बनाया, ईंट की इसमें हड्डियां

चंद साधों पर खड़ा है ये खयाली आस्मां

मौत की पुरजोर आधी जब इसे टकरायेगी

तो टूटकर ये इमारत खाक में मिल जायेगी

ये आदमी का जिस्म क्या है?…….

 

ये आदमी का जिस्म क्या है जिसपै शैदा है जहां

एक मिट्टी की इमारत एक मिट्टी का मकां

खून का गारा बनाया, ईंट की इसमें हड्डियां

चंद साधों पर खड़ा है ये खयाली आस्मां

चंद ख्वाबों पर खड़ा है ये ख्याली आस्मां

मौत की पुरजोर आधी जब इसे टकरायेगी…….

 

मौत की पुरजोर आधी जब इसे टकरायेगी

तो टूटकर ये इमारत खाक में मिल जायेगी

ये इमारत : पैर में लालो—गुहर क्या चीज है

दौलते—ईमा के आगे मालो—जर क्या चीज है

बेनवां, मुफलिस नवी, खुशहाल पूछे जायेंगे…….

बेनवा, मुफलिस नवी, खुशहाल पूछे जायेंगे

माल के बदले फकत आमाल पूछे जायेंगे

 

जवानी के नशे में बदमस्त होकर…..

जवानी के नशे में बदहोश होकर

न चल टूटी कब्रों को ठुकरा के जालिम

तुझे भी यहीं मरके आना है इक दिन

यह दुनिया में सबका मकाम आखरी है

हमारी तरफ से सलाम उनको देना

तो कह देना कासिद सलाम आखरी है

सुबूते वफा…………

 

सुबूते वफा कर रहा हूं मुकम्मल

सुबूते वफा कर रहा हूं मुकम्मल……

दिया था…………

 

दिया था जिन्हें मैंने दिल रोजे — अव्वल?……

दिया था जिन्हें मैंने दिल रोजे — अव्वल

कूए जान भी आज देने चला हूं

कूए जान भी आज देने चला हूं…….

मुहब्बत में पुरनम………..

 

मुहब्बत में पुरनम ये काम आखरी है

सुबूते वफा कर रहा हूं मुकम्मल

दिया था जिन्हें मैंने दिल रोजे — अव्वल

कूए जान भी आज देने चला हूं

मुहब्बत में पुरनम ये काम आखरी है

हमारी तरफ से सलाम उनको देना

तो कह देना कासिद सलाम आखरी है

समय में मौत निश्चित है। मत चलो अकड़कर! मत जीओ अकड़कर! लेकिन अहंकार अकड़कर जीने की तमन्ना का ही नाम है। अहंकार को हम कितने सहारे देते हैं—धन के, पद के, प्रतिष्ठा के —फिर भी गिर जाता है, फिर भी बिखर जाता है। बिखरना ही बदा है उसकी किस्मत में। झूठ है; झूठ को कितना खींचोगे? ज्यादा नहीं खींचा जा सकता। आज नहीं कल, कल नहीं परसो, झूठ का यह गुब्बारा फूटेगा ही। यह झूठ का बबूला टूटेगा ही। इसके पहले कि यह टूटे, तुम लघु से अपने को मुक्त कर लो।

अथ यदल्पं तन्मर्त्यम्

इतना जान लो कि जो लघु है, वह मृत्यु के घेरे में है। तुम लघु के पार हो चलो।

ध्यान नेति—नेति की प्रक्रिया है। न मैं शरीर हूं न मैं मन हूं न मैं हृदय हूं फिर जो शेष रह जाता है, वही मैं हूँ। और जो शेष रह जाता है, उसकी फिर कोई सीमा नहीं है।

शरीर स्थूल सीमा है, मन थीड़ी सूक्ष्म, हृदय और सूक्ष्मातिसूक्ष्म। लेकिन सब सीमाएं हैं। इन तीन परकोटों के भीतर हम हैं। और वह जो हमारा चैतन्य इन तीन परकोटों के भीतर है, उसकी कोई सीमा नहीं है। वह आकाश जैसा विराट है। उसको जान लेना ही सुख है।

यो वै भूमा तत्सुखम्

जिसने उस आ को पहचान लिया, उसके जीवन में महासुख की वर्षा हो जाती है। कमल खिल जाते हैं। सुगंध बिखर जाती है। दीये जल जाते हैं। और ऐसे दीये जो बुझते नहीं। और ऐसे कमल जो मुरझाते नहीं। और ऐसी गंध जो उड़ नहीं जाती है।

नाल्ये सुखमस्ति।

अल्प में सुख कहां! जागो, अल्प में सुख कहां! मगर हम अल्प में अकड़े हुए हैं। हम अल्प में ऐसे अकड़े हुए हैं कि जिसका हिसाब नहीं।

जवानी के नशे में बदमस्त होकर

न चल टूटी कब्रों को ठुकराके जालिम

तुझे भी यहीं मरके आना है इक दिन

ये दुनिया में सबका मकाम आखरी है

जिसने मृत्यु के आने के पहले मृत्यु को पहचान लिया, जान लिया, उसे छूटने में अडूचन नहीं होती। मैं संन्यास कहता हूं इसी समझ को। जीते—जी मृत्यु को पहचान लेना संन्यास है। संसार का त्याग नहीं, मृत्यु का बोध संन्यास है। फिर तुम संसार में रहो, संसार के बाहर रहो, कुछ भेद नहीं पड़ता। शरीर से बंधे हुए न रहो। मन से बंधे हुए न रहो। बंधे हुए ही न रहो किसी से—निर्बंध, निर्ग्रंथ, मुक्त—यूं तैसे जैसे कमल के पत्ते झील पर तैरते हैं। झील में होते हैं और झील उन्हें छूती नहीं। पानी उन्हें छूता नहीं। ओस की बूंदें भी जम जाती हैं कमल के पत्तों पर, तो भी कमल के पत्तों को भिगा नहीं पातीं। वे अनभीगे ही रह जाते हैं। ऐसे जीने का नाम संन्यास है।

‘भू मै व सुखम्।’

और फिर सुख ही सुख है। क्योंकि जो कहीं बंधा नहीं, जिस पर कोई जंजीर नहीं, कोई बेडी नहीं, उसके लिए दुख कैसे हो सकता है? परतंत्रता दुख है। स्वतंत्रता सुख है।

‘भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य।।’

और, यही आ अभीप्सा करने योग्य है। यही आ अन्वेषण करने योग्य है। इसी आ की तलाश करो! यही आ, यही अमृत, यही सत्य, यही विराट, निरंतर फैलता हुआ विराट, इसकी खोज ही धर्म है।

लेकिन तुमने तो धर्म के नाम पर भी कैसे पाखंड खड़े कर लिए। तुमने तो धर्म के नाम पर जंजीरें गढ़ ली हैं। धर्म है मुक्ति का आरोहण। लेकिन बन गये कारागृह धर्म के नाम पर। कोई मंदिर में बंद है, कोई मस्जिद में बंद है, कोई गुरुद्वारे में, कोई गिरजे में। कोई ईसाई होकर बंद है, कोई हिन्दू होकर बंद है, कोई जैन होकर बंद है। जमीन पागलों से भरी मालूम पड़ती है। हमें स्वतंत्रता भी दी जाए तो हम स्वतंत्रता से भी जंजीरें और बेड़ियां गढ़ लेते हैं। अजीब लोग हैं! हम स्वतंत्र होना जैसे चाहते ही नहीं। हमें अगर वीणा भी थमा दी जाए, तो हम संगीत पैदा नहीं करते, हम उससे शोरगुल पैदा करते हैं। मुहल्ले वालों की नींद हराम करते हैं; खुद की नींद हराम करते हैं।

चंदूलाल के दुश्मन ने—और दुश्मन यानी पडोसी : यह हमेशा एक ही तरह के व्यक्ति का नाम है, उसको दुश्मन कहो कि पड़ोसी कहो—चंदूलाल के बेटे को उसके जन्मदिन पर एक ढोल भेंट कर दिया। बेटे को ढोल क्या मिला—अब जैसे बंदर को ढोल मिल जाए! —सो वह वक्त—बेवक्त ढोल बजाता रहे। उसने चंदूलाल की नींद हराम कर दी, चंदूलाल की पत्नी की नींद हराम कर दी। आधी रात उठ आए और ढोल बजा दे! अब जब तक रोको तब तक नींद ही टूट गयी। बहुत परेशान हो गये चंदूलाल। चंदूलाल की पत्नी परेशान हो गयी। यह दुष्ट ने ढोल क्या भेंट कर दिया है। इतने परेशान हो गये कि जब दूसरा जन्मदिन आया और बेटे ने मां—बाप के पैर छुए तो दोनों के मुंह से एकदम निकल गया. जीओ और जीने दो!

चंदूलाल मुझसे पूछते थे, क्या करूं? यह ढोल हमें मारे डाल रहा है! मैंने कहा, तुम भी पागल हो! मैंने चंदूलाल को एक चक्कू दे दिया। मैंने कहा, यह चक्कू ले जाओ, अपने बेटे को भेंट कर दो। इससे क्या होगा? मैंने कहा, तुम बेटे को भेंट तो करो और फिर उसकी जिज्ञासा जगा देना कि अरे, इस ढोल के भीतर भी तो देख कि क्या है! इतना पर्याप्त है। तब से ढोल खतम हो गया। क्योंकि बेटे ने जिज्ञासा की, ढोल में चक्कू डाल दिया; भीतर तो कुछ न निकला—ढोल के भीतर तो पोल ही होती है—मगर ढोल खतम हो गया।

अब किसी बंदर के हाथ में ढोल लग जाए तो उपद्रव ही होनेवाला है!

स्वतंत्रता तुम्हें देने बुद्धों ने क्या—क्या नहीं किया, मगर तुम उस स्वतंत्रता से जंजीरें ढाल देते हो! संगीत पैदा नहीं होता है तुम्हारे जीवन में, और विसंगीत पैदा हो जाता है। हिन्दू—मुसलमान लड़ते हैं! यह तो विसंगीत हो गया। इससे तो अच्छा था कि न इस्लाम होता दुनिया में, न हिन्दू धर्म होता, न ईसाइयत होती, न जैन धर्म होता। कम—से—कम आदमी शांति से तो जीता। कम—से—कम धर्म के नाम पर तो हत्याएं न होतीं, खून न बहाया जाता। जितना धर्म के नाम पर अनाचार हुआ है, किसी और चीज के नाम पर नहीं हुआ है। आदमी को होश नहीं है। उसकी बेहोशी में तुम उसे हीरे भी दे दो, तो कुछ—न—कुछ नुकसान करेगा। सम्पदा को भी विपदा बना लेगा।

डाक्टर ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा, आप ठीक तो हो जायेंगे किन्तु आपको नियम से रहना पड़ेगा। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, नियम से? आप भी क्या बात कर रहे हैं डाक्टर साहिब, मैं तो हमेशा नियम से रहता हूं। डाक्टर ने कहा कि तुम्हें शर्म नहीं आती मुझसे यह कहते हुए! यह बात बिलकुल झूठ है। तुम किसी और को धोखा देना। अभी कल ही तो मैने तुमको शराब पीते हुए देखा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, उससे क्या फर्क पड़ता है? यह तो मेरा रोज का नियम है।

अब देखते हैं नियम का क्या अर्थ! रोज शराब पीता हूं नियम से पीता हूं। क्या बातें कर रहे हैं आप! एक दिन चूक नहीं होती। कभी नियम का भंग नहीं होता। जो यम—नियम दे गये तुम्हें, अपना सिर फोड़ते होंगे! कि नियम से भी क्या अर्थ निकाले!

सेठ चंदूलाल तरह—तरह की दवाइयां बेचते हैं। उन्होंने दवा के एक पैकेट पर छपा रखा था : ‘फोड़े—फुन्सियों की सर्वोत्तम दवा। फायदा न होने पर दाम वापिस।’ एक सज्जन दवा का पैकेट वापस लाकर चंदूलाल से कहने लगे : ‘सेठ साहब, मैंने एक माह तक आपकी दवा का इस्तेमाल किया, लेकिन मुझे कुछ भी फायदा न हुआ, मुझे दाम वापिस चाहिए।’ चंदूलाल ने कहा, ‘फायदा न होने पर दाम वापिस किये जाते हैं। आपको न हुआ हो, हमको तो हर पैकेट पर आठ आने का फायदा होता है।’

मतलब देखते हैं! आपको हो या न हो, इससे क्या मतलब है; साफ लिखा है कि फायदा न होने पर दाम वापिस, हमको तो फायदा हो रहा है! तुम्हारी बात ही किसने की है!

मां अपने बेटे से बोली, फिर से लड़ते देखकर, ‘कि अरे, तुम लोग फिर लड़ने लगे?’ उसके एक बेटे ने कहा, ‘नहीं, मम्मी यह तो वही पहले वाली लड़ाई है!’ फिर से नहीं लड़ रहे, वही चल रही है।

 

चंदूलाल कह रहे थे मुल्ला नसरुद्दीन से : ‘आप कब उठते हैं?’ मुल्ला ने कहा : ‘जब सूरज की किरणें मेरे कमरे में प्रवेश करती हैं।’ चंदूलाल ने कहा : ‘तब तो आप काफी जल्दी उठ जाते हैं, ब्रह्ममुहूर्त में। मुसलमान होकर और ब्रह्ममुहूर्त में! मैं भी इतना संयम नहीं पाल पाता।’ मुल्ला नररुद्दीन ने कहा : ‘गलत न समझिये, मेरे कमरे का रुख पश्चिम की और है।’

 

मुल्ला नसरुद्दीन की बेटी फरीदा स्कूल से लेट आयी। नसरुद्दीन ने कारण पूछा तो फरीदा ने कहा, ‘पिता जी, ‘एक दुष्ट लड़का मेरे पीछे पड गया था। बिलकुल लफंगा था, लुच्चा था। इसलिए लेट हों गयी।’ मुल्ला बोला, ‘पर बेटी, इससे लेट होने का क्या संबंध है?’ फरीदा बोली, ‘पापा, मेरे भोले पापा, कुछ समझा भी करो न! भला मैं करती भी क्या, वह बहुत धीरे — धीरे चल रहा था।’

लफंगा पीछे पड़ा था, मगर बहुत धीरे—धीरे चल रहा था तो विचारी फरीदा को भी धीरे—धीरे चलना पड़ा!

जिंदगी के लिए सूत्र तो बहुत बार दिये गये हैं, लेकिन हर सूत्र से —लगे अपनी फांसी लगा ली है। तुमने हर शास्त्र से अपनी आत्महत्या का उपाय कर लिया है।

यह प्यारा सूत्र है छांदोग्य का जो विराट है, विशाल है, जो अनंत है, असीम है, वही अमुरत है। और तुम भी वही हो। अमृतस्य पुत्र:। तुम अमृत के पुत्र हो।’जो —लघु है वह मर्त्य है।’ और तुम नाहक —लघु बनकर बैठ गये हो। सिवाय तुम्हारो भूल के और कोई जिम्मेवारी किसी की नहीं है। जो विशाल है, वही आनंद है। और तुम्हारा दुख कह रहा है कि तुम्हें आनंद की कोई खबर ही नहीं मिली। तुम्हारा जीवन, तुम्हारी उदासी पर्याप्त प्रमाण हैं कि तुमने कुछ गलत कर लिया है। जीवन के उत्सव को तुमने क्या मातमी रंग दे दिया है! तुम ऐसे जी रहे हो जैसे बोझ ढो रहे हो। दबे जा रहे हो, मरे जा रहे हो। और फिर भी जागते नहीं! और बात कुल जागने की है।

नि. संदेह विशाल .में ही आनंद है.। इसलिए विशेष को ही जानने की अभीप्सा करो!

यो वै भूमा तदमृतम्। अथ यदलां तन्मर्त्यम्।।

यो वै आ तत्सुखम्। नाल्येसुखमस्ति।

भूमैव सुखम् भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य।

जिज्ञासा करो, अभीप्सा करो, मुमुक्षा करो मगर विराट की। और विराट कहीं दूर तुमसे बाहर नहीं, तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम्हारा अंतस्तल है। तुम्हारी अंतरात्मा है। इसलिए कहीं जाना. नही है, अपने भीतर आना है। न काबा जाना है, न काशी? न कैलाश, अपने भीतर आना है। मत इस शरीर के साथ अपने को इतना बांधो! और ध्यान रखना, मैं कोई शरीर का दुश्मन नहीं हूं। मैं नही कह रहा हूं कि शरीर को सताओ। क्योंकि सताते वे —ही हैं, जिन्हें यह बोध नहीं हुआ कि हम शरीर नहीं हैं। तुम भलीभांति जानते हो कि तुम जिस मकान में रहते हो, तुम वह मकान नहीं हो। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम. उस मकान की ईंटे गिराने लगते हो, कि उसका पलस्तर उखाड़ने लगते हां, कि उसका छप्पर गिराने लगते हो। जानते हो, भलीभाँति कि तुम मकान नहीं, लेकिन वर्षा आती है तो छप्पर को ठीक करते हो, खपड़ों को ठीक से जमवाते हो। और जानते हो कि मैं मकान नहीं हूं लेकिन मकान में रहता हूं तो’ मकान को सुंदर रखते हो, सजाकर रखते हो। आखिर रहना तुम्हें है!

‘दुनिया में दो तरह के पागल हैं। एक, जो शरीर को समझ रहे हैं कि मैं शरीर हूं और उस कारण दुख भोग रहे हैं। और दूसरे पागल, जो कहते हैं कि हम शरीर नहीं हैं, इसलिए शरीर को सता रहे हें। उपवासे मर रहे हैं। .शरीर को गला रहे हैं। क्योंकि’ वे कहते हैं, हम शरीर नहीं हैं। तुम शरीर नहीं—हैं। तो शरीर को सता ‘किसलिए रहे हो? यह तो एक अति से दूसरी अति पर जाना हौं गया। एक अति थी कि शरीर के द्वारा भोगेंगे, और दूसरी अति है कि अब शरीर को सताएंगे, परेशान करेंगे। दोनों में ही तुमने शरीर के साथ अपना तादात्म्य किया हुआ है। और दोनों अतियों के मध्य’ में संगीत है, छद हैं——छान्दोग्य है।

बुद्ध के पास एक राजकुमार, श्रोण ने दीक्षा लो। वह महाभोगी था। जीवनभर उसने भोग के अतिरिक्त कुछ भी न जाना था। शराब पीना, खाना? स्त्रियां, मौज—मजा—वह बिलकुल चार्वाकवादी था। न कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है, न कोई सत्य है, न कोई मोक्ष है, ऐसी उसकी धारणा थी। मगर कब तक भोगोगे? भोग— भोगकर थक गया। भोग— भोगकर ऊब गया। जो भोगता है वह ऊब ही जाने वाला है। खतरा उनका है जो भोगते नहीं और भोग को जबरदस्ती छोड्कर खड़े रहते हैं। वे कभी नहीं ऊबते। ऊबेगे कैसे? जो स्त्रियों को छोड्कर भागे हैं, उनके मन में स्त्रियों के प्रति रस बना ही रहेगा। बैठेंगे हिमालय की गुफा में, उन्हें राम याद नहीं आएगा, काम याद आएगा। बातें ब्रह्मचर्य की करेंगे, सपने उनके अब्रह्मचर्य से भरे होंगे। यह बिलकुल अनिवार्य है। यह बिलकुल वैज्ञानिक है। जो धन को छोड्कर भागा है, उसके पीछे धन भूत की तरह लगा रहेगा। तुम कितना ही भागों, कहावत है न : ‘भागते भूत की लंगोटी ही भली’, वह धन जिसे दुम छोड्कर भागे हो वह तुम्हारी लंगोटी पकड़े रखेगा। तुम जितना भागोगे, कुछ फर्क नहीं पड़ता, लंगोटी उसके हाथ में रहेगी।

जिससे तुम भयभीत हुए हो, तुम उससे मुक्त नहीं हो सकते।

लेकिन श्रोण ने भोगा था। अभी जवान ही था, कुल पैंतीस वर्ष उसकी उम्र थी, लेकिन थक गया। इतना भोग लिया जितना कि आदमी तीन—चार जन्मों में भोगे। वह उसने एक ही जन्म में भोगकर दिखा दिया। लेकिन ऊब गया। स्त्रियां बेमानी हो गयीं, शराब व्यर्थ हो गयी, भोजन में स्वाद न रहा—सब व्यर्थ दिखायी पड़ने लगा। और तब बुद्ध का गांव में आगमन हुआ। श्रोण उनके पास गया। उन्हें देखा—सुना भी नहीं, सिर्फ देखा! एक परिपक्व अवस्था थी उसकी; भोग से ऊब गया था। त्यागी तो .गांव में बहुत आपु थे, लेकिन त्यागियों में उसे कोई रस नहीं आया था। त्यागी दिखते थे उदास—उससे भी ज्यादा उदास। त्यागी दिखते थे मुर्दा—उससे भी ज्यादा मुर्दा। न उनकी आंखों में ज्योति थी, न उनके जीवन में कोई आनंद की झलक थी, न कोई प्रकाश की किरणें थीं, न कोई प्रसाद था उनके आसपास, न कोई सौन्दर्य था—श्रोण कैसे प्रभावित होता?

लेकिन बुद्ध को देखा—सुन’ भी नहीं अभी बुद्ध से बोला भी नही, बुद्ध ने एक शब्द भी नहीं कहा——और श्रोण उनके चरणों में गिरा और उसने कहा कि मुझे दीक्षा दें। मैं भिक्षु होने को तैयार हूं। बुद्ध ने कहा, न तूने मुझे सुना, न तूने मुझे समझा, अभी मैं गांव में आया ही आया हूं तू अभी—अभी मेरे पास आया, हालाकि तेरे बाबत कहानियां मेरे पास आ चुकी हैं, अनेक लोगों ने कहा कि आप श्रणे की नगरी जा रहे है, वह महाभोगी है, महा लम्पट है, वह शायद आपके दर्शन को भी न आए; लेकिन तू आया है और आते ही से भिक्षु होना चाहता है! उसने कहा, आपको देखकर सब समझ में आ गया। एक मैं हूं कि भोग के सिर्फ कांटों से बिंध गया हूं। और मैंने त्यागी भी देखे हैं, उनको भी मैंने कीटों में बिंधा हुआ पाया। आपके जीवन में कुछ नयी बात देखता हूं। न आप योगी मालूम पड़ते हैं, न आप भोगी मालूम पडते हैं। मगर आपकी यह प्रफुल्लित मुद्रा, आपके यह व्यक्तित्व की आभा, आपकी आंखों से झरता यह अमृत, काफी है, बस काफी है, आपकी उपस्थिति का बोध काफी है। मुझे दीक्षा दें! मैं एक क्षण भी नहीं गंवाना चाहता। क्योंकि कल का क्या पता है? मुझसे मत कहना आप कि सोच ले, विचार ले। सोचने—विचारने को कुछ बचा नहीं, मैं सब भोगकर देख लिया हूं।

बुद्ध ने उसे दीक्षा दे दी। और जिस बात का डर था, वही हुआ। दीक्षा लेने के बाद वह तत्‍क्षण दूसरी अति पर चला गया, जो कि मनुष्य के मन की साधारण प्रक्रिया है। मनुष्य का मन यूं चलता है जैसे घड़ी का पेण्डुलम। बायें से दायें, दायें से बायें। और एक खयाल रखना पेण्डुलम के संबंध में, एक बात ध्यान में रखना, जब पेण्डुलम बायीं तरफ जाता है तो दिखाई तो पड़ता है बायीं तरफ जा रहा है, लेकिन वह दायीं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी करता होता है। बायें जाता है और दायें तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी करता है। जब दायें जाता है तब बायें जाने की शक्ति इकट्ठी करता है। दिखाई एक बात पड़ती है, भीतर कुछ और बात हो रही है।

और यही स्थिति तुम्हारे तथाकथित भोगियों की और त्यागियों की है। जाते त्याग में हैं, लेकिन तैयारी भोग की हो रही है। फिर चाहे भोग स्वर्ग में हो। और वही हालत तुम्हारे भोगियों की है। जाते हैं भोग में, लेकिन तैयारी त्याग की हो रही है। मगर अतियों के बीच डोलने से कुछ क्रांति नहीं होती। एक अति दूसरे पर ले जाती है, दूसरी फिर थका देती है और पहले पर ले जाती है। और जन्मों—जन्मों तक यह पेण्डुलम ऐसा ही घूमता रहता है।

और वही हुआ। श्रोण ने अति करनी शुरू कर दी। अति उसकी पुरानी आदत थी। भोग मैं अति की थी, अब वह त्याग में अति करने लगा। बौद्ध भिक्षु दिन में एक ही बार भोजन करते थे—क्योंकि बुद्ध का कहना था : पर्याप्त है—श्रोण जिंदगीभर की पुरानी आदत, सबसे आगे होने की आदत, अगर दूसरे राजाओं के पास हजार स्त्रियां थीं तो उसने दो हजार इकट्ठी करके दिखा दी थीं; अगर दूसरे राजाओं के पास महल थे, तो उसने दुगुने बड़े महल बनाकर दिखा दिये थे—वह भिक्षुओं में भी पीछे नहीं रह सकता था; वही अहंकार। बुद्ध से आंदोलित हो गया था, प्रभावित हो गया था, लेकिन प्रभावित होते से ही तो क्रांति नहीं हो जाती। क्रांति करने के लिए तो फिर रफ्ता—रफ्ता, एक—एक इंच जीवन को बदलना होता है। प्रभावित होना तो बहुत आसान है, क्रांति लम्बी प्रक्रिया है, वह आग से गुजरना है। पुरानी आदतें एकदम से नहीं चली जातीं। लौट—लौटकर आ जाती हैं, पीछे के दरवाजे से आ जाती हैं। एक दरवाजे से फेंको, दूसरा दरवाजा खोज लेती हैं।…… .वह दो दिन में एक बार भोजन करता था।

उसने सब भिक्षुओं को मात कर दिया।

और भिक्षु रास्तों पर चलते थे, वह हमेशा रास्ते के नीचे से चलता था; जहां कांटे होते, कंकड़—पत्थर होते। उसके पैर लहूलुहान हो गया। और भिक्षु तीन वस्त्र रखते थे, वह सिर्फ एक लंगोटी रखता था। उसने सब भिक्षुओं को मात कर दिया। वही पुराना श्रोण! उसने यहां भी अपना कब्जा जमा दिया। और सब साधारण रह गये, वह एकदम असाधारण हो गया। सुंदर उसकी देह थी, फूल जैसी कोमल उसकी देह थी, बहुत सुख में पला था, बहुत सुख में जीआ था, उसने देह को बिलकुल ही जला डाला पूप में। काला पड़ गया। सूख गया। पैरों में घाव हो गया। रात सोता तो भी ककडों—पत्थरो में सोता, बाहर सोता।

बुद्ध को खबरें आने लगीं कि उसकी हालत बिगड़ती जा रही है। हालांकि लोग उससे प्रभावित भी हो रहे थे। लोग अजीब—अजीब तरह की चीजों से प्रभावित होते हैं।. .वह फिर अहंकार में मजा लेने लगा था।

बुद्ध एक रात उसके झाडू के पास गये जहां वह लेटा था और कहा. श्रोण, एक प्रश्न तुझे मूरछना है। और उसके पहले कि तू मुझसे प्रश्न पूछे, शायद तेरे सामने अभी साफ भी नहीं है प्रश्न, मैं तुझसे एक प्रश्न पूछता हूं फिर तू भी शायद पूछ सकेगा। मैं राह देखता रहा कि तू पूछे। लेकिन लगता है कि तू प्रश्न को साफ नहीं कर पा रहा है; इसलिए पहले मैं पूछता हूं। मैं तुझसे पूछता हूं कि जब तू सम्राट था, तो सुना है मैंने कि तू अद्भुत वीणा बजाता था, तेरा वीणावादन अपूर्व था। श्रोण को भूली—बिसरी यादें आयी। उसने कहा, आप ठीक याद दिलाते हैं, मैं तो सब भूल— भाल गया हूं हां, वीणा में मुझे रस था। और वीणा बजाने में मेरी कुशलता थी। और दूर—दूर से संगीतज्ञ भी उसकी प्रशंसा करते थे। बुद्ध ने कहा : यह मुझे पूछना है कि तू इतना वीणा का कुशल वादक था। तुझे तो अच्छी तरह पता होगा कि वीणा के तार अगर बहुत ढीले हों, तो क्या होगा? श्रोण ने कहा, तार ढीले हों तो संगीत पैदा नही होता है। और बुद्ध ने कहा. तार अगर बहुत कसे हों? तो, श्रोण ने कहा, तो तार खीचोगे, टूट जायेंगे; संगीत फिर पैदा नहीं होगा। बुद्ध ने कहा बस। तुझे कुछ पूछना है?

तू अपने जीवन पर पुनर्विचार कर ले। पहले तेरे तार बहुत ढीले थे, तब संगीत पैदा नहीं हुआ। अब तूने तार बहुत कस लिये हैं, अब तार टूटने के करीब हैं, अब भी संगीत पैदा नहीं हो रहा है। मुझे देख, मैं वीणा बजाना नहीं जानता, लेकिन जीवन की वीणा बजाना जानता हूं। और मैं तुझसे कहता हूं : जो वीणा बजाने का नियम है, वही जीवन की वीणा को बजाने का नियम भी है। न तार बहुत ढीले होने चाहिए, न बहुत कसे। एक ऐसी भी व्यवस्था है तारों की, जब न तो कह सकते हैं हम कि वे कसे हैं और न कह सकते हैं कि ढीले हैं; वह मध्य की अवस्था, वह समता की अवस्था, वह सम्यक्त्व, वह समतुलता की अवस्था जहां दोनों अतियों के बीच में तार होते हैं, वहीं संगीत पैदा होता है। और वीणा बजाना तो आसान है, लेकिन वीणा को ठीक समतुल अवस्था में लाना किसी उस्ताद को ही आता है।

श्रोण फिर पैरों पर गिरा, दुबारा। एक दफा गिरा था जब भोगी की तरह आया था, आज गिरा योगी की तरह, त्यागी की तरह। उसने कहा, आपने मुझे ठीक समय पर सचेत कर दिया। जरूर मुझसे वही भूल हो गयी। तार ढीले थे, मैंने जरूरत से ज्यादा कस लिये। मैं भी सोच रहा था कि आनंद पैदा क्यों नहीं हो रहा है? सब तो मैं कर रहा हूं दूसरे कर रहे हैं उनसे दुगुना कर रहा हूं फिर आनंद क्यों पैदा नहीं हो रहा है? बुद्ध ने कहा : वह दुगुना करने के कारण ही पैदा नहीं हो रहा है। जीवन में एक सम्यक्त्व चाहिए, तो छंद पैदा होता है, तो छांदोग्य पैदा होता है।

शरीर से बहुत बंधने की जरूरत नहीं है, शरीर के दुश्मन होने की भी जरूरत नहीं है। शरीर सुंदर घर है, रहो, शरीर की देखभाल करो, अपने को शरीर ही न मान लो। मन भी प्यारा है। उसका भी उपयोग करो। उसकी भी जरूरत है। और हृदय तो और भी प्यारा है। उसमें भी जीओ। मगर, ध्यान बना रहे कि मैं साक्षी हूं।

और जिसे सतत स्मरण है कि मैं साक्षी हूं उसकी क्रांति सुनिश्चित है। जिसे स्मरण है कि मैं साक्षी हूं वह आ को उपलब्ध हो जाता है।

तुम सिर्फ साक्षी हो, वह तुम्हारा स्वरूप है। न तुम कर्त्ता हो—शरीर से कर्म होते हैं; न तुम विचारक हो—मन से विचार होते हैं; न तुम भावुक हो—हृदय से भावनाएं होती है; तुम साक्षी हो—भावों के, विचारों के, कृत्यों के। ये तुम्हारी तीन अभिव्यक्तियां हैं। और इन तीनों के बीच में तुम्हारा साक्षी है। उस साक्षी के सूत्र को पकड़ लो।

साक्षी के सूत्र को पकड़ते ही संन्यास का फूल खिल जाता है। जो कली की तरह रहा है जन्मों—जन्मों से, तत्‍क्षण उसकी पखुडियां खुल जाती हैं। और वह फूल ऐसा नहीं जो कुम्हलाए, वह फूल अमृत है। वह फूल ऐसा नहीं जो मरे, वह आ है, असीम है। वह फूल आनंद का फूल है। वह फूल ही मोक्ष है।

‘दीपक बारा नाम का’ प्रवचनमाला से

दिनांक 7 अक्टर 1978; श्री रजनीश आश्रम पूना


Filed under: उपनिषद--मेरा स्‍वर्णिम भारत(विविध उपनिषद) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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