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साधना–पथ–(प्रवचन–13)

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साधक का पाथेय—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक, 7 जून, 1964; संध्‍या।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

ह कहा गया है कि आप शास्त्रों में विश्वास करो, भगवान के वचनों में विश्वास करो, गुरुओं में विश्वास करो। मैं यह नहीं कहता हूं। मैं कहता हूं कि अपने में विश्वास करो। स्वयं को जान कर ही शास्त्रों में जो है, भगवान के वचनों में जो है, उसे जाना जा सकता है।

वह जो स्वयं पर विश्वासी नहीं है, उसके शेष सब विश्वास व्यर्थ हैं।

वह जो अपने पैरों पर नहीं खड़ा है, वह किसके पैरों पर खड़ा हो सकता है?

बुद्ध ने कहा है अपने दीपक स्वयं बनो। अपनी शरण स्वयं बनो। स्व—शरण के अतिरिक्त और कोई सम्यक गति नहीं है। यही मैं कहता हूं।

एक रात्रि एक साधु अपने किसी अतिथि को विदा करता था। उस अतिथि ने कहा.’ रात्रि बहुत अंधेरी है। मैं कैसे जाऊं?’ साधु ने उसे एक दीपक जला कर दिया और जब वह अतिथि उस दीपक को लेकर सीढ़ियां उतरता था, उस साधु ने उसे फूंक कर बुझा दिया। पुन: राह पर घना अंधकार हो गया।

उस साधु ने कहा’ मेरा दीपक आपके मार्ग को प्रकाशित नहीं कर सकता है। उसके लिए अपना ही दीपक चाहिए।’ उस अतिथि ने समझा और वह समझ उसके जीवन—पथ पर एक ऐसे दीये का जन्म बन गई जो न तो छीना जा सकता है और न बुझाया ही जा सकता है।

साधना, जीवन का कोई खंड, अंश नहीं है। वह तो समग्र जीवन है। उठना, बैठना, बोलना, हंसना सभी में उसे होना है। तभी वह सार्थक और सहज होती है।

धर्म कोई विशिष्ट कार्य—पूजा या प्रार्थना करने में नहीं है, वह तो ऐसे ढंग से जीने में है कि सारा जीवन ही पूजा और प्रार्थना बन जाए। वह कोई क्रियाकांड, रिचुअल नहीं है। वह तो जीवन—पद्धति है।

इस अर्थ मे कोई धर्म धार्मिक नहीं होता है, व्यक्ति धार्मिक होता है। कोई आचरण धार्मिक नहीं होता, जीवन धार्मिक होता है।

मैं’ की कारा से मुक्त होकर ही चेतना व्यक्ति से ऊपर उठती है और समष्टि से मिलती है।’मैं’ का मृतिका— घेरा उसे वैसे ही सत्य से दूर किए है जैसे मिट्टी का घड़ा सागर के जल को सागर से अलग कर देता है।

यह ’मैं’ क्या है? क्या इसे कभी आपने अपने में खोजा है?

वह है क्योंकि हमने उसे खोजा नहीं है। मैं स्वयं जब उसे खोजने गया तो मैंने पाया कि वह नहीं है।

किसी शांत क्षण में अपने में उतरें और खोजें। वहां कोई भी’ मैं’ नहीं मिलता है।’मैं’ नहीं है। वह तो सामाजिक उपयोगिता से पैदा हुआ एक भ्रम मात्र है।

जैसा मेरा नाम है, वैसा ही मेरा’ मैं’ भी है। वे दोनों उपयोगिताएं हैं, सचाइयां नहीं। वह जो मेरे भीतर है, न तो उसका कोई नाम है और न उसमें कोई ’मैं’ है।

निर्वाण में, मोक्ष में या आत्मा में प्रवेश नहीं होता है। क्योंकि जिस जगह को कभी छोड़ा ही नहीं है, उसमें प्रवेश कैसे हो सकता है?

फिर क्या होता है?

निर्वाण में तो प्रवेश नहीं होता है, विपरीत जिस संसार में प्रवेश था, वही स्वप्न की भांति विलीन हो जाता है। और हम अपने को स्वयं में पाते हैं।

यह अनुभव किसी स्थान में प्रवेश—जैसा नहीं, स्वप्न—यात्रा के टूट जाने पर अपनी ही शथ्या पर अपने को पाने जैसा है।

मैं कहीं गया नहीं हूं इसलिए लौटने का प्रश्न नहीं है और मैंने कुछ खोया नहीं है, इसलिए पाने की बात कोई अर्थ नहीं रखती है।

मैं केवल स्वप्न में हूं। मेरा सारा जाना और सारा खोना स्वप्न में है। इसलिए न मुझे लौटना है, न पाना है। मुझे केवल जाग जाना है।

त्य—साक्षात पूर्ण और समग्र ही होता है। वह उपलब्धि क्रमिक नहीं है। वह विकास, एवोल्‍यूशन नहीं, उत्क्रांति, रेवोल्‍यूशन है।

क्या कोई स्वप्न में क्रमश: जागता है?

या तो स्वप्न है, या स्वप्न नहीं है। दोनों के बीच में कोई स्थिति नहीं होती है।

हां, साधना अनंत समय ले सकती है। पर साक्षात बिजली की कौंध की भांति ही उपलब्ध होती है—पल भर में और पूर्ण। वस्तुत: उसकी उपलब्धि में समय का कोई भी हिस्सा नहीं लगता है, क्योंकि समय में जो भी होता है, सब क्रमिक होता है।

साधना समय में है, साक्षात समय में नहीं है। वह कालातीत है।

सत्य—साक्षात के लिए मात्र शुभ की और विराग की साधना ही पर्याप्त नहीं है। वह खंड—साधना ही है। उसके लिए तो शुभ और अशुभ, राग और विराग, संसार और मोक्ष दोनों के ही ऊपर उठना आवश्यक होता है। उस स्थिति का नाम ही वीतरागता है।

वीतराग—चैतन्य का अर्थ है कि जहां न राग है, न विराग है; न शुभ है, न अशुभ है— जहां मात्र चैतन्य ही है, शुद्ध और स्वयं में। इस भूमिका में ही सत्य का साक्षात होता है।

संलग्न और जागरूक चित्त को साधना है। जीवन में श्वास की भांति अहर्निश उस भाव— भूमि को पिरोना है। प्रत्येक कार्य में जागरूक हों और असंलग्न हों—उसे ही कर्म में अकर्म कहा है। जैसे कि कोई नाटक में अभिनय करता है, होश तो रखता है अभिनय का पर उसमें संलग्न और मूर्च्‍छित नहीं होता है। वह अभिनय में होकर भी उसके बाहर ही बना रहता है। ऐसा ही बनना और होना है।

कर्म में लगे हुए यदि जागरूकता हो तो असलग्नता कठिन नहीं होती। वह उसका ही परिणाम है।

मैं राह पर चल रहा हूं। यदि चलने की किया के प्रति मैं पूरी तरह जागा हुआ हूं तो मुझे ऐसा लगेगा कि जैसे मैं चल भी रहा हूं और नहीं भी चल रहा हूं। शरीर के तल पर ही चलना हो रहा है पर चेतना के तल पर कोई चलना नहीं है।

ऐसा ही भोजन करने में और अन्य कार्यों में भी लगेगा। मेरे भीतर एक केंद्र केवल साक्षी ही रह जाएगा। वह न कर्ता होगा, न भोक्ता होगा। इस केंद्र के अनुभव की जितनी प्रगाढ़ता होगी, उतना ही सुख—दुख के भाव विसर्जित होते जाएंगे। और उस निर्द्वंद्व और शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होगी जो कि हमारी आत्मा है।

मन, माइंड क्या है?

इंद्रियों से जो ग्रहण हुआ है, उसका संग्रह और संग्राहक मन है। यदि कोई इसे ही अपना स्व, सेल्फ समझ लेता है, तो उसने एक दास को ही मालिक समझ लिया है।

और यदि कोई चाहता है कि अपने वास्तविक’ स्व’ को अनुभव करे तो उसे छोड़ देना होगा जो कि वह जानता है, और उसका अनुसरण करना होगा जो कि जानता है।

जो हम जानते हैं, वह हमारा मन है, और जिससे हम जानते हैं, वह हमारा’ स्व’ है।

साक्षी, ज्ञाता ही’ स्व’ है। यह’ स्व’ जन्म और मृत्यु से भिन्न है— माया और मुक्ति से अन्य है। वह तो केवल साक्षी है — सबका साक्षी है— प्रकाश का, अंधकार का, संसार का, निर्वाण का। वह सब द्वैत के अतीत है।

वस्तुत: तो वह’ स्व’ और’ पर’ के भी अतीत है, क्योंकि वह उनका भी साक्षी है।

इस साक्षी को पहचानते ही व्यक्ति कमल की भांति हो जाता है। जिस कीचड़ से पैदा हुआ है, उससे पृथक और जिस पानी में जीता है, उससे अलिप्त। वह जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में—सुख में, दुख में, सम्मान में, अपमान में समभावी होता है, क्योंकि वह केवल साक्षी ही है। जो भी हो रहा है, वह उस पर नहीं केवल उसके समक्ष ही हो रहा है। वह दर्पण की भांति ही हो जाता है जो कि अनेक प्रतिमाओं को अपने में प्रतिफलित करता है, लेकिन उनमें से किसी के भी चिह्न उस पर पीछे छूट नहीं जाते हैं।

एक वृद्ध साधु अपने एक युवा साथी के साथ नदी पार कर रहा था। युवक ने उससे पूछा: ’नदी कैसे पार करें?

वृद्ध ने कहा.’ ऐसे कि तुम्हारे पैर गीले न हों।’

युवक ने सुना। और जैसे एक बिजली कौंध गई हो, ऐसे कुछ उसके सामने स्पष्ट और प्रत्यक्ष हो गया। वह नदी तो आई और पार हो गई, पर वह रहस्य—सूत्र उसके हृदय में बैठ गया। वह उसका मार्ग और जीवन बन गया। वह ऐसे नदी पार करना सीख गया जिसमें कि पैर गीले नहीं होते हैं।

वह जो कि भोजन करता है, लेकिन उपवास है; वह जो कि भीड़ में है, पर अकेला है; वह जो कि सोता है, पर सदा जाग्रत है—ऐसे व्यक्ति बनो, क्योंकि ऐसा व्यक्ति ही संसार में मोक्ष को उपलब्ध होता है और वही पदार्थ में परमात्मा को पा लेता है।

किसी ने कहा है: ’चित्त में संसार न हो, संसार में चित्त न हो।’ यह सूत्र है। पर इसमें पहला आधा यदि पूरा हो तो शेष आधा अपने आप आ जाता है। प्रथम आधा अंशकारण, कॉज है, शेष आधा कार्य, इफेक्ट है। प्रथम सधे तो द्वितीय उसका सहज परिणाम, का कांसिक्‍वेंस है। पर जो दूसरे से प्रारंभ करते है, वे भूल में पड़ जाते हैं। वह आधार नही है। वह कारण नहीं है। वह मूल नहीं है।

इसलिए मैं कहता हू कि सूत्र इतना ही है कि चित्त में संसार न हो। शेष सूत्र नहीं है, सूत्र का परिणाम है। चित्त में संसार नहीं है, तो संसार में चित्त अपने आप नहीं रह जाता है। जो चित्त में नहीं है, उसमे चित्त का होना असंभव है।

माधि में जानने को कोई विषय, ऑब्जेक्ट नहीं होता है, कोई ज्ञेय नहीं होता है। इसलिए समाधि की स्थिति को’ ज्ञान’ नहीं कहा जा सकता है। वह साधारण अर्थों में ज्ञान है भी नहीं, पर वह’ अज्ञान’ भी नहीं है। वहां’ न जानने को’ भी कुछ नहीं है। वह जान और अज्ञान दोनों से भिन्न है। वह किसी’ विषय’, का जानना या न जानना दोनों ही नहीं है, क्योंकि वहां कोई विषय ही नहीं है। वहां तो केवल’ विषय’, सब्जेक्टिविटि ही है। वहां तो केवल वही है, जो जानता है। वहां किसी का ज्ञान नहीं है, केवल ज्ञान, कटेंटलेस कांशसनेस ही है।

एक साधु से किसी ने पूछा: ’ध्यान क्या है?’ उसने कहा’ जो निकट है उसमें होना ध्यान है।’

आपके निकट क्या है? आपके स्वयं के अतिरिक्त जो भी है, क्या वह सब दूर ही नहीं है?

आप ही केवल अपने निकट हो। पर हम सदा इसे छोड़ कर कहीं और बने रहते हैं। हम सब सदा पड़ोस में ही बने रहते हैं। पड़ोस में नहीं, अपने में होना है। वही ध्यान है, वही सामायिक है।

जब आप कहीं भी नहीं हो, नो—व्हेयर और आपका चित्त कहीं भी नहीं है, तब भी तो आप कहीं हो। वही होना ध्यान है।

मैं जब कहीं भी नहीं तब मैं स्वयं में हूं। वही पड़ोस में न होना है, वही दूर न होना है। वही आंतरिकता है। वही निकटता, इंटिमेसी है। उसमें होकर ही सत्य में जागरण होता है। पड़ोस में होकर ही हमने सब—कुछ खोया है, स्वयं में होकर ही उसे वापस पाया जाता है।

मैं संसार को छोड़ने को नहीं, अपने को बदलने को कहता हूं। संसार निषेध से आप नहीं बदलेंगे, लेकिन आप बदल गए तो आपके लिए संसार नहीं ही हो जाता है। वास्तविक धर्म संसार—निषेधक, वर्ल्ड—रिजेक्टिंग नहीं, आत्म—परिवर्तन, सेल्फ—ट्रांसफॉर्मिंग होता है।

संसार नहीं, संसार के प्रति अपनी दृष्टि पर विचार करो। उसे बदलना है। उसके कारण संसार है और बंधन है। संसार नहीं, वही बंधन है। दृष्टि बदली कि सृष्टि बदल जाती है।

संसार में दोष नहीं है। दोष स्वयं में है और स्वयं की दृष्टि में है।

जीवन—परिवर्तन का विज्ञान योग है। पदार्थ विज्ञान अपने विश्लेषण से परमाणु पर पहुंचता है—परमाणु— शक्ति पर, योग आत्मा पर पहुंचता है— आत्म—शक्ति पर। एक से पदार्थ में छिपे रहस्य का पर्दा उठता है; दूसरे से स्वयं में छिपे जगत का उदघाटन होता है। पर दूसरा प्रथम से महत्वपूर्ण है, क्योंकि स्वयं से महत्वपूर्ण इस विश्व में और कुछ भी नहीं है।

मनुष्य ने अपना संतुलन खो दिया है, क्योंकि वह पदार्थ के संबंध में तो बहुत जानता है, पर स्वयं के संबंध में कुछ भी नहीं जानता है। वह सागर की गहराइयों में जाना सीख गया है, और अंतरिक्ष की ऊंचाइयों पर; लेकिन स्वयं में जाना वह भूल ही गया है। यह स्थिति बहुत आत्मघातक है। हमारा दुख यही है।

योग इस असंतुलन से मुक्ति दे सकता है। उसकी शिक्षा की आवश्यकता है। उससे ही सच्चे अर्थों में एक नये मनुष्य का जन्म हो सकता है और एक नई मनुष्यता की आधारशिलाए रखी जा सकती हैं।

विज्ञान ने मनुष्य की पदार्थ पर विजय घोषित कर दी है। अब मनुष्य को स्वयं अपने पर भी विजय करनी है। पदार्थ की शक्ति पर उसकी विजय ने यह अपरिहार्य कर दिया है कि वह अब अपने को भी जाने और जीते, अन्यथा पदार्थ की अपरिसीम शक्तियों पर उसकी विजय उसका ही सर्वनाश बन जाएगी; क्योंकि शक्ति अज्ञान के हाथों में सदा ही विषाक्त और आत्मघाती है।

विज्ञान अज्ञान के हाथों में हो, तो यह जोड़ विध्वंसात्मक, डिस्ट्रक्टिव है। वह ज्ञान के हाथों में हो, तो एक अभूतपूर्व सृजनात्मक, क्रिएटिव ऊर्जा का जन्म होगा जो कि पृथ्वी को स्वर्ग में परिणत कर सकती है। इसलिए मैं कहता हूं कि मनुष्य का भाग्य और भविष्य अब योग के हाथों में है। योग भविष्य का विज्ञान है, क्योंकि वह मनुष्य का विज्ञान है।

 

आज इतना ही।


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भक्‍ति सूत्र–(प्रवचन–2)

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स्‍वयं को मिटाने की कला है भक्‍ति (दूसरा प्रवचन)

दिनाक 12 जनवरी,

1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्न सार:

1–”अथातो”– “अब का मोड़-बिंदु हम सामान्य सांसारिक जनों के जीवन में कब आ पाता है? भक्ति की यात्रा और सदगुरू के बीच कैसा संबंध है?

 2–भक्ति साधना भी है और सिद्धि भी। कृपापूर्वक उसके अलग-अलग रूपों को हमें समझाएं।

 3–मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं अधपका फल हूं……. ?

4–क्या भक्ति-साधना के भी कुछ साधन हैं, या वह सर्वथा स्वत: स्फूर्त और सहज है?

 

 


पहला प्रश्‍न—

“अथातो– “ “अब “ का मोड़-बिंदु हम सामान्य सांसारिक जनों के जीवन में कब आ पाता है? कृपा कर समझाएं।

हली बात कि सामान्य कोई भी नहीं है। यदि तुम सामान्य होते तो फिर “अथातो “ का बिंदु कभी भी न आ पाता।

सामान्य कोई भी नहीं है, क्योंकि परमात्मा छिपा बैठा है। और परमात्मा से ज्यादा असामान्य क्या होगा?

असाधारण हो तुम। तुमने समझा होगा, कंकड़-पत्थर हो। और कंकड़-पत्थर तुम नहीं हो। कंकड़-पत्थर हैं ही नहीं अस्तित्व में। अस्तित्व केवल हीरों से बना है।

इसलिए पहली तो इस भांति को तुम अपने मन में जगह मत देना कि तुम सामान्य हो। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अहंकार को आरोपित करना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने को दूसरों से असामान्य समझना। मैं यह कह रहा हूं कि असामान्य होना जगत का स्वभाव है। तुम असामान्य हो, ऐसा नहीं; यहां सभी कुछ असामान्य है। यहां सारश्मांय होने की सुविधा ही नहीं है।

और इस विरोधाभास को ठीक से समझना– क्योंकि तुमने अपने को सामान्य समझ रखा है, इसलिए तुम असामान्य होने की बड़ी चेष्टा करते हो–धन से, पद से, प्रतिष्टा से।

अहंकार की खोज ही यही है कि मान तो लिया है तुमने कि तुम सामान्य हो–और सामान्य होने में पीड़ा होती है, चुभता है कांटा, मन राजी नहीं होता–तो तुम असामान्य होने का ढोंग करते हो; जबकि मजा यह है कि तुम असामान्य हो, इसके ढोंग की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए जिन्होंने यह जान लिया कि असामान्य हैं, वे तो अहंकार को छोड़ ही देते हत तत्क्षण। अब जरूरत ही न रही।

ऐसा समझो कि हीरा है, और हीरे ने समझ रखा है कि कंकड़-पत्थर है। कंकड़-पत्थर समझ रखा है, इसलिए अपने को सजाता है कि हीरा दिखायी पड़े। कंकड़-पत्थर होने को कौन राजी है। तो हीरा अपने को कंकड़-पत्थर मानकर सजाता है, रंग-रोगन करता है कि कोई जान न ले कि मैं कंकड़-पत्थर हूं। लेकिन जिस दिन यह पहचान पाएगा कि मैं हीरा था ही, उसी दिन कंकड़ होने की भांति भी मिट जाएगी और स्वयं को सजाने की आकांक्षा भी मिट जाएगी। वह कंकड़-पत्थर की भांति ही छाया थी। उस दिन विनम्रता का जन्म होता है।

जिस दिन तुम जानते हो कि तुम असामान्य हो, उसी दिन असामान्य होने की दौड़ मिट जाती है, जिस दिन तुम जान लेते हो कि तुम असाधारण हो… क्योंकि अन्यथा होने का उपाय नहीं।

परमात्मा के हस्ताक्षर हैं तुम पर

रोएं-रोएं पर उसका गीत लिखा है

रोएं-रोएं पर उसके हाथों के चिहृ हैं।

क्योंकि उसने ही तुम्हें बनाया है।

वही तुम्हारी धड़कनों में है।

वही तुम्हारी श्वास में है।

सारश्‍मांय तुम नहीं हो। अगर सामान्य होते तो धर्म का फिर कोई उपाय नहीं। फिर “अथातो” का बिंदु कभी आएगा ही नहीं। अगर तुम सामान्य ही होते तो कैसे परमात्मा की ज्योति तुममें प्रज्वलित होगी, तब कैसे तुम जागोगे और कैसे तुम बुद्ध बनोगे, असंभव है फिर।

नहीं, तुम बन पाते हो बुद्ध, तुम जागते हो, तुम समाधिस्थ हो पाते हो—क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव है। जब तुम नहीं जानते थे तब भी तुम वही थे। जानने-भर का फर्क पड़ता है, अस्तित्व तो सदा एकरस है। कोई जान लेता है, कोई बिना जाने जीये जाता है। ज्ञान और अज्ञान का ही भेद है। अस्तित्व में जरा भी भेद नहीं है। तुममें और बुद्ध में रत्ती- भर भेद नहीं है। जहां तक अस्तित्व का संबंध है। लेकिन बुद्ध ने लौटकर अपने को देख लिया, तुमने लौटकर अपने को नहीं देखा। तुम भिखारी बने हो, बुद्ध सम्राट हो गये हैं।

जिसने अपने को लौटकर देख लिया, वह सम्राट हो गया। सम्राट तो सभी थे, कुछ को याद आ गयी, खबर आ गयी, सुराग मिल गया, कुछ को खबर ही न मिली, कुछ भिखारी ही बने हुए सम्राट बनने की चेष्‍टा में लगे रहे।

तुम जो बनने की चेष्टा कर रहे हो, वह तुम हो। यही तो संदेश है सारे धर्म का।

तुम जिसे खोज रहे हो उसे तुमने कभी खोया नहीं, केवल विस्मरण किया है।

इस पूरे अस्तित्व में मैंने अब तक कोई ऐसी चीज नहीं देखी जो सामान्य हो। घास का पता भी उसी के रंगों से लबालब भरा है। कंकड़-पत्थरों में भी वही सोया है। जागनेवालों में वही जागता है, सोनेवालों में वही सोता है। बुद्धिमानों में वही बुद्धिमान है अज्ञानियों में वही अज्ञानी है।

इसलिए सामान्य होने का तो कोई उपाय नहीं है। जरा गौर से किसी की भी आखों में झांकना, या दर्पण के सामने, हे होकर अपनी ही आंखों में झांकना–और तुम पाओगे कि कोई और झांक रहा है तुम्हारे भीतर से।

तुम तुमसे ज्यादा हो। तुम-तुम पर ही समाप्त नहीं। तुम तो केवल सीमा हो तुम्हारे अस्तित्व की। अभी गहरे तुम गये ही नहीं, डुबकी लगायी ही नहीं।

इसलिए पहली बात—सामान्य मानने की भांति में मत पड़ जाना। इसलिए तो उपनिषद कहते हैं :”तत्वमसि श्वेतकेतु! तू वही है श्वेतकेतु। “

जिन्होंने जाना, वे घोषणा करते हैं : “अहं ब्रह्मास्मि! मैं वही हूं मैं ब्रह्मा हूं! “

ये उदघोषणाएं अहंकार की नहीं हैं। ये उदघोषणाएं स्वभाव की हैं। ऐसा है। ऐसा तथ्य है। इसे झुठलाने का कोई उपाय नहीं है। इसे तुम कितना ही भुलाओ, एक-न-एक दिन तुम्हें लौटकर अपने घर आ ही जाना पड़ेगा।

तो, यह तो पहली बात—सामान्य मत मान लेना। क्योंकि जो तुम मान लिये कि सामान्य हो तो खोज बंद हो गयी। तुम स्वीकार कर लिया कि तुम मात्र मनुष्य हो, कुछ और ज्यादा नहीं, तो और ज्यादा होने का द्वार बंद हो गया, संभावना अवरूद्ध हो गयी।

गंगोत्री पर गंगा कितनी दीन-हीन है। कितनी क्षीणकाय है! बस जरा- सी धार है। गोमुख से गिर जाती है। अगर गंगा गंगोत्री पर ही अपने को मान ले कि बस, यही हूं, तो कभी की सूख जाएगी, कभी की खो जाएगी किन्हीं भी रेगिस्तानों में। लेकिन गंगोत्री पर जो छोटी-सी गंगा है, बढ़ती जाती है, बड़ी होती जाती है, सागर से मिलती है तो सागर हो जाती है। तुम अभी गंगोत्री पर हो सकते हो, लेकिन हो गंगा ही। सागर अभी दूर है… ऐसा तुम्हारी नासमझी में दिखायी पड़ता है। और जब मैं तुमसे झांकता हूं तो तुम्हारे भविष्य को भी तुम्हारे पीछे ही खड़ा हुआ पाता हूं। जब मैं तुमसे झांकता हूं तो तुम्हारे बीज में मैं उन फूलों को खिलते हुए देखता हूं जिनको तुम कभी खिलते हुए देखोगे।

मेरे लिए तुम परमात्मा हो, उससे कम कोई भी नहीं। उससे कम कोई भी नहीं हो सकता। इसलिए सारश्‍मांय की भांति में मत पड़ जाना।

दूसरी बात :

“अथातो” का बिंदु “अब “ का क्रांति-बिंदु तभी आता है जब तुम जीवन के दुख और पीड़ा को सजग होकर भोगने लगते हो।

अभी भी तुमने बहुत पीड़ा भोगी है, लेकिन सोये- सोये। पीड़ा तो भोगी है, लेकिन इस आशा में कि शायद सुख मिल जाएगा, शायद सुख आता ही होगा! आज दुखी हो, कोई चिंता नहीं! किसी तरह बिता लो आज को, बस जरा- सी समय की बात है, कल सब ठीक हो जाएगा! थोड़ी ही देर की पीड़ा है, कल सब ठीक हो जाएगा—इसी आशा में तुम जीये हो। उसी आशा में छिपकर तुम्हारी पीड़ा का दर्शन तुम्हें नहीं हो पाया। तुमने उसे ओट में छिपा रखा है। इन परदों को हटाओ।

न कोई कल है, न कोई कल कभी आएगा—बस, आज है, अभी और यहीं! कल के लिए मत बैठे रहो।

यह “कल “ आज को भुलाने की तरकी है।

फिर “कल “ के बहुत रूप हैं।

धन इकट्ठा करनेवाला अभी तो जीवन को गवाता है, सोचता है : कल जब धन इकट्ठा हो जाएगा तब भोग लूंगा सारे सुख। यश की आकांक्षा में दौड़नेवाला सोचता है : अभी कैसे, अभी तो दांव पर लगाना है सब।

जब यश मिल जाएगा, भोग लूंगा।

वह यश कभी नहीं मिलता। कोई सिकंदर क भी जीत नहीं पाता। यश की दौड़ अधूरी रह जाती है। धन कभी इतना नहीं हो पाता कि तुम्हारी गरीबी को मिटा दे। इतना हो ही नहीं पाता। ऐसा क भी हो ही नहीं सकता कि धन इतना हो जाए कि तुम्हारी गरीबी मिट जाए। क्योंकि गरीबी एक दृष्टिकोई है, धन से उसके मिटने न मिटने का कोई सवाल नहीं, कोई संबंध नहीं। जितना धन होगा, उतने ही तुम आगे की आकांक्षा, आशा से भर जाओगे।

तुम्हारी आशा सदा छलांग लगाती है—तुमसे आगे। वह हमेशा कल पर, पड़ी रहती है। तुम यहां, तुम्हारी आशा सदा कल है। लाख होता है तो दस लाख मांगती है। दस लाख होते हैं तो करोड़ मांगती है। करोड़ होते हैं तो दस करोड़ मांगती है। वह सदा तुमसे आगे छलांग लगा लेती है। तुम उसे कभी भी न पकड़ पाओगे। उसे पकड़ने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम आज को गंवा दोगे। अभिलाषा को तो कभी तुम पूरा न कर पाओगे, लेकिन आज को गंवा दोगे, जो कि अस्तित्व का सार है।

पीड़ा है तो पीड़ा को देखो। पीड़ा को भोगो, कल से झुठलाओ मत। समझाओ मत। कल के नाम की शामक दवाएं लेकर सो जाओ मत। आज जागो! पीड़ा है तो पीड़ा सही। भोगो उसे। कांटा है तो चुभने दो। क्योंकि वही चुभन तुम्हें जगाएगी। उसी पीड़ा से तुम उठोगे। उसी पीड़ा में तुम देखोगे कि तुम्हारा जीवन कुछ गलत ढांचे पर दौड़ता है। अब तक तुमने जो भी किया है, कहीं बुनियादी मूल हो गयी है। तुमने अब तक जो भी किया है, परमात्मा को छोड्कर किया है, बाद देकर किया है। अब तक तुमने जो भी किया है, उसमें परमात्मा की कोई जगह नहीं है।

कहते हैं, गैलिलिओ ने सृष्टि-शास्‍त्र पर एक किताब लिखी, और अपने एक मित्र को दिखाने ले गया। मित्र आस्तिक था। उसने पूरी किताब देख ली, उसमें ईश्वर का कहीं उल्लेख ही न था। सृष्टि-शास्‍त्र और सृष्ट-शास्त्रा का कोई उल्लेख न था! वैज्ञानिक करते ही नहीं उल्लेख। उसकी कोई जरूरत नहीं मालूम होती!

मित्र ने पूछा, “और सब ठीक है, व्यवस्थित है, तर्कबद्ध है, समझ में आता है, लेकिन जरा खाली जगह मालूम पड़ती है। ईश्वर का कोई उल्लेख ही नहीं, एक बार भी नहीं! इनकार करने के लिए भी नहीं कि कह देते कि ईश्वर नहीं है। इतना भी नहीं। ईश्वर के बिना सृष्टि थोड़ी अधूरी मालूम पड़ती है। “

गैलिलिओ ने कहा, “नहीं, उसकी कोई जरूरत ही नहीं। क्योंकि उसके बिना ही मैं सब समझा दिया हूं। उस हाइपो थीसिस की, ईश्वर की परिल्पिना का मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। कोई चीज पूछ लो मुझसे, अगर अनसमझायी रह गयी हो। “

गैलिलिओ ने जैसे सृष्टि- शास्त्र की रचना की, ऐसे ही तुमने अपने जीवन को बनाया है, उसमें ईश्वर के लिए कोई जगह नहीं। उसी खाली जगह में पीड़ा का जन्म होता है। परमात्मा का जो मंदिर है, अगर खाली रहा तो वहीं से पीड़ा का आविर्भाव होता है।

इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना।

पीड़ा तब तक रहेगी जब तक तुम्हारे जीवन में परमात्मा की ज्योति जलती नहीं। पीड़ा परमात्मा का अभाव है। जहां परमात्मा होना चाहिए और नहीं है, वहीं पीड़ा है।

तो, कब तुम्हारे जीवन में “अथातो” की क्रांति आएगी, कब तुम कहोगे, “अब भक्ति की खोज”… ,

तुम कहोगे तभी जब तुम पाओगे कि तुमने अब तक जीवन की जो सार संपदा समझी थी, वह सिवाय पीड़ा के निचोड़ के और कुछ भी नहीं। जिसे तुमने प्रेम जाना, वह प्रेम न था। जिसे तुमने धन जाना वह धन न था। जिसे तुमने “स्वय” जाना वह “स्वयं” न था। तुम्हारा सारा आधार ही गलत है।

अहंकार को तुमने जाना “स्वयं “। वह तुम न थे। वह पहचान भ्रांत थी। बाहर के धन को तुमने जाना धन, वह धन न था। जो खो जाए वह धन है, मौत जिसे छीन ले वह धन है, जानी तुम्हारी संपदा को विपदा कहते हैं, तुम्हारी संपत्ति को विपत्ति कहते हैं।

संपत्ति तो वही है जो मौत भी न छीन पाये। संपत्ति तो वही है जो कोई भी न छीन पाये, जिसकी चोरी न हो सके, जिसे लुटेरे न ले सकें। मौत जिसके सामने हार जाए वही संपत्ति है। तुमने सुना होगा : मित्र तो वही है जो विपत्ति में काम आ जाए। वह संपत्ति की परिभाषा है। संपत्ति तो वही है जो विपत्ति में काम आ जाए। और मौत से बड़ी विपत्ति कहां है! वही कसौटी है। मौत के द्वार से भी जो चली जाए, नाचती हुई, वही संपत्ति है।

जिसे तुमने धन समझा वह धन नहीं है, वह भीतर की निर्धनता को भुलाने का उपाय है। जिसे तुमने अहंकार समझा वह तुम नहीं हो, वह अपने आप को ढांक लेने की तरकीब है, अपने अज्ञान को झुठला लेने की तरकीब है।

जिसको तुमने पद समझा वह तुम नहीं हो। पद का अर्थ ही होता है : जिस पर विश्राम आ जाए, जिस जगह बैठकर विश्राम आ जाए, राहत मिले, जिस जगह बैठकर यात्रा समाप्त हो जाए, पैरों को चलने की अब और जरूरत न रह जाए।

जहां पद अनावश्यक हो जाए वही जगह पद है, वहीं पहुंचकर जाने की यात्रा समाप्त हो जाए, बाहर ऐसा कोई भी पद नहीं है। सारे संसार की जीतनेवाले सम्राट भी आकांक्षा से वैसे ही विह्वल होते हैं जैसे सड़क के किनारे पड़ा हुआ भिखारी। जरा भी भेद नहीं है।

मैंने सूना है जापान का एक सम्राट रात को घोड़े पर सवार होकर अपनी राजधानी में चक्कर लगाता था रोज। अनेक बार उसने एक फकीर को देखा, अनेक बार! रात कि किसी भी पहर में वह गया, उसने उसे सदा जागते हुए देखा, वृक्ष के नीचे कभी खड़ा, कभी बैठा, लेकिन सदा जागा हुआ।

सम्राट की उत्सुकता बढ़ी कि वह सोता क्यों नहीं! पूछा एक दिन, न रूक सका। पूछा कि उत्सुकता है, उचित तो नहीं, क्योंकि तुम्हारा काम है, तुम जागो सोओ, मेरा क्या लेना-देना, लेकिन रोज यहां से निकला हूं तो मन में जिज्ञासा घनी होती चली गयी है : क्यों जागते हो?

तो उस फकीर ने कहा, “कुछ सम्हाल रहा हूं। कुछ मिल गया है, उसकी रक्षा कर रहा हूं। “ सम्राट ने चारों तरफ देखा फकीर के, वहां तो कुछ भी नहीं है : एक भिक्षापात्र पड़ा है टूटा- फूटा, कुछ चीथड़े कपड़े पड़े हैं। फकीर हंसने लगा, उसने कहा, “वहां मत देखो, मेरे भीतर देखो। जो मिला है वह भीतर है, वह खो न जाए! जागने में ही उसकी रक्षा है। सोने में उसका खो जाना है। मूर्च्छा में फिर भूल जाऊंगा। होश रखना है! “

सम्राट ने कहा, “मुझे तो कुछ दिखायी नहीं पड़ता। “ सम्राट की अपनी भाषा है, जो बाहर है, वही उसकी भाषा है। फकीर की अपनी भाषा है, जो भीतर है, वही उसका जगत है। वे अलग यात्रा पर हैं।

सम्राट ने कहा, “तुम किसी संपत्ति की रक्षा कर रहे हो, तो फिर मुझमें और तुममें फर्क क्या है?

फकीर ने कहा, “फर्क ज्यादा नहीं है, थोड़ा ही है—फिर भी है। फर्क इतना है कि तुम बाहर से अमीर हो, मैं बाहर से गरीब हूं, तुम भीतर से गरीब हो। फर्क इतना ही है। मैं भी गरीब हूं, मैं भी अमीर हूं, तुम भी गरीब हो, तुम भी अमीर हो—इसलिए फर्क नहीं कह सकता, लेकिन तुम बाहर से अमीर हो, मैं भीतर से अमीर हूं। मौत बताएगी। … मौत ही कसौटी होगी। “

अगर तुम जीवन में झांको अपने और बचते न रहो अपने से… जैसा मैं देखता हूं, तुम बचते हो, तुम तरकीबें निकालते हो किसी तरह अपने से बचते की, किसी तरह अपने से मुलाकात न हो जाए। हजार ढंग करते हो : कभी शराब पीते हो, कभी पीते हो, कभी सिनेमा जाते हो, कभी भजन-कीर्तन भी करते हो—मगर अपने को भुलाने को। कहीं भी डूब जाओ, किसी तरह अपनी याद न आये! नहीं तो तुम्हारा भज “-कीर्तन भी झूठा है, वह भी शराब है। भजन-कीर्तन तो तभी सच है, जब वह अपने को याद लाने को आधार बने, जगाये तुम्हें, सुलाये न।

जिस दिन तुम जीवन की पीड़ा को देखोगे, आंख भरकर साक्षात करोगे अपना—और दुख ही दुख पाओगे…।

मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं कि “नरक है, “ मैं उनसे कहता हूं,”हद हो गयी! वहीं रहते हो! मुझसे पूछने आते हो?

वे सोचते हैं कि नरक कहीं पृथ्वी के नीचे पाताल में दबा है। किन्हीं पागलों ने सोचा होगा। किन्हीं नासमझों ने कही होगी यह बात तुमसे।

नरक तो जीवन को एक अंधेरे में जीने का ढंग है। वह तो एक दृष्टिकोण है। वह तो एक शैली है। स्थान से इसका कुछ लेना-देना नहीं है।

नरक तो जीवन की एक शैली है। वह तुम पर निर्भर है। जागकर जीयो तो जहां हो वहां स्वर्ग! सोये-सोये जीयो तो जहां हो, वहां नरक।

नींद से पैदा होता है नरक।

जरा विचारो, देखो–और तुम पाओगे, सब तरफ तुम नरक से घिरे हो। और नरक की जरूरत है क्या? इतना नरक काफी नहीं कि तुम और नरक की कल्पनाएं करते हो पाताल में जिस दिन तुम्हें जीवन का नरक दिखायी पड़ेगा, उसी दिन “अथातो “ का बिंदु आ गया, उसी दिन तुम कहोगे, “अब बस हुआ, अब रूकना है, पैर ठिठक जाएंगे।

जैसे ही तुम ठिठकते हो इस संसार की दौड़ में, वैसे ही क्रांति घटित हो जाती है : एक नया आकाश, जिसका कहीं छोर नहीं, जिसका कहीं प्रारंभ और अंत नहीं, तुम्हें उपलब्ध हो जाता है!

अभी तुम जीते हो बड़ी संकीर्ण गली में : रोज संकरी होती जाती है, रोज संकरी होती जाती है, रोज-रोज तुम बंधते जाते हो, रोज-रोज जंजीरें जकड़ती जाती हैं।

तुम्हारा जीवन ऐसा है जैसे तुम अपना ही काराग्रह निर्मित करने में लगे हो। चाहे तुम काराग्रह को घर कहो, मंदिर कहो, तुम्हारे नामों से कोई धोखे में आनेवाला नहीं है। बीमारियों को तुम अच्छे सुंदर नाम दे दो, इससे बीमारियों का दंश जाता नहीं। जागकर पहचानो, देखो!

जिस दिन तुम्हें फर्क दिख जाएगी, वहीं पैर ठिठक जाएंगे–लौट पड़ोगे तुम! वह जो लौटना है, उसको महावीर ने प्रतिक्रमण कहा : अपनी तरफ आना! उसको पंतजलि ने प्रत्याहार कहा : अपनी तरफ आना! उसको जीसस ने “कनवर्सन “ कहा है : क्रांति, रूपातंरण! अभी तुम्हारे जीवन का ढंग कामवासना है, जब तुम ठिठक जाओगे, तब तुम्हारे जीवन का ढंग प्रेम होगा, जब तुम लौट पड़ोगे, तब भक्ति। अभी जहां जा रहे हो वहां काम की खोज है, वासना की खोज है। कामना ही संसार है।

संसार तुमसे कहीं बाहर नहीं है। मंदिर, मस्जिद में छिपकर तुम संसार से न बच सकोगे, हिमालय की गुफाओं में बैठकर भी तुम संसार से न बच सकोगे–क्योंकि संसार तुम्हारी कामना में है! वहां भी बैठकर तुम कामना ही करोगे।

लोग परमात्मा के सामने बैठकर भी मांगे चले जाते हैं। मांग रूकती ही नहीं! मंदिर में खड़े हैं, लेकिन राम के उन्मुख नहीं होते। मूर्ति होगी सामने, लेकिन वहां भी मांगे चले जाते हैं। एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा कि “अब मुझे भरोसा आ गया। लड़के को नौकरी न मिलती थी। परमात्मा से प्रार्थना की और तीन सप्ताह का समय दे दिया कि अगर तीन सप्ताह में मिल गयी तो सदा के लिए भरोसा हो जाएगा, अगर न मिली तो बात खत्म, फिर तुम नहीं हो!” और उस आदमी ने कहा, “मिल गयी। अब तो रोज पूजा करता हूं, प्रार्थना भी करता हूं। इसलिए आपके पास आया हूं। “

मैंने कहा, “संयोग से मिल गयी होगी। क्योंकि परमात्मा तुम्हारी धमकी से हर जाए कि तीन सप्ताह बस, तुम्हारा अल्टीमेटम! तो तुम पागल हुए हो! और यह बड़ा खतरनाक विश्वास है जो तुमने पैदा किया है, यह किसी भी दिन टूटेगा। “

मैंने कहा, “एक बार और कोशिश करो। “

उसने कहा, “क्या मतलब?

मैंने कहा, “एकाध और कोशिश करो। तुम्हारी पत्नी बीमार रहती है…। जब कुंजी ही मिल गयी तो पत्नी को भी ठीक कर लो। “

उसने कहा, “ठीक कहा आपने। “

कल ही वह गया। दे आया अल्टीमेटम फिर। तीन सप्ताह बाद आया, बहुत उदास था। उसने कहा, “खराब कर दिया आपने सब। कुछ फायदा नहीं हुआ, तबीयत और खराब हो गयी। भरोसा डगमगा गया मेरा। “

तुम्हारा भरोसा भी तुम्हारी मांग पर ही खड़ा है : परमात्मा कुछ दे तो परमात्मा है! परमात्मा तुम्हारा अनुसरण करे तो परमात्मा है! तुम जो मांगो, पूरा करे तो परमात्मा है! परमात्मा तुम्हारी सेवा में रत रहे तो परमात्मा है! परमात्मा मालिक नहीं है, मालिक तुम हो! और अगर उसे तुम्हारी पूजा-प्रार्थना चाहनी हो तो बदले में सेवा करता रहे तुम्हारी!

तुम्हारी प्रार्थना भी झूठी है, वह भी कामना है, वह भी संसार ही है।

जब तक तुम बाहर कुछ मांग रहे हो, जब तक तुम सोचते हो बाहर कुछ मिल जाएगा, जिससे तृप्ति होगी, जिससे मन चैन से भर जाएगा, राहत की सांस आएगी, आनंद के क्षण उठेंगे–अगर बाहर तुम ऐसा मांगते चले जा रहे हो, तो अभी तुम नरक से बाहर नहीं जा सकते।

बाहर जाना नरक में जाना है। बाहर जाती हुई चेतना नरक के बाहर नहीं जा सकती।

ठिठकता है कोई देखकर जीवन की व्यर्थता, जीवन का आसार, निष्फलता, हाथ में सिवाय पीड़ा के और कोई संग्रह नहीं, हृदय में सिवाय आंसुओ के और कुछ दिखायी नहीं पड़ता, जीवन बिलकुल अंधकारपूर्ण है, नाव डूबी तब डूबी जैसी हालत है–ऐसे क्षण में जब कोई ठिठक जाता है, उस ठिठकने के क्षण में प्रेम का आविर्भाव होता है, कामना गयी! अब तुम मांगते नहीं, अब तुम देने को उत्सुक हो जाते हो।

प्रेम देता है, काम मांगता है। जब तक मांग है तब तक समझना, काम, जब देना शुरू हो जाए तब प्रेम।

क्योंकि तुम मांगते इसलिए हो कि मांगने से बढ़ेगी संपत्ति और सुख आयेगा। ठिठका हुआ व्यक्ति देना शुरू करता है : “मांगकर देख लिया, सुख न आया, दुख आया, अब जरा उलटा करके देख लें। “ देना शुरू करता है और पाता है कि सुख के हलके झोंके आने लगे, बजने लगी वीणा, कहीं दूर यद्यपि, बहुत दूर यद्यपि–पर बजने लगी, स्वर सुनायी पड़ने लगे, कोई नया लोक शुरू हुआ।

यह तो ठिठके हुए आदमी की बात है। वह देने लगता है, बांटने लगता है—और जैसे- जैसे बांटता है, वैसे- वैसे स्वर साफ होते हैं और तब जाककर उसे पता चलता है : “ये स्वर मेरे ही भीतर से आते हैं! अब तक सोचा था सुगंध बाहर है, यह मेरे भीतर से आती है! कस्तुरी कुडल बसै! यह मेरे ही नाफे में बसी है। “ तब लौटना शुरू होता है। “अथातो “ आ गया बिंदु : अब! और तभी तुम नारद के इन भक्ति-सूत्रों को समझ पाओगे। इसके पहले, जो बाहर जा रहा है, उसके लिए ये नहीं है। जो ठिटठका है उसके लिए भी ये नहीं हैं। जो लौट पड़ा है, उसके लिए ये हैं। यह पहली बात।

दूसरी बात : जब तक तुम सोचते हो कि तुम ही अपने सुख को ले आओगे, तब तक “अथातो “ का बिंदु नहीं आता। तुम न ला पाओगे अपने सुख हो, तुम ही तो सारा दुख ले आये हो। वह तुम्हारे ही उपक्रम का फल है। यह तुम्हारे ही श्रम की निष्पत्ति है। पुरानी भाषा में कहें तो कहते हैं, यह तुम्हारे ही कर्मो का फल है। यह पुरानी भाषा है, बात यही है। यह तुमने ही किया है। यह जो दुख तुम्हें घेरे हैं, यह तुमने ही आमंत्रण दिया था। ये मेहमान बिन बुलाये नहीं आ गये हैं, यह तुमने निमंत्रण भेजे थे। तुमने बड़ा आग्रह किया था कि आओ। यद्यपि तुमने कुछ और सोचकर बुलाया था। तुम्हारे समझने में भूल थी। बुलाये थे मित्र, आ गये हैं शत्रु। बुलाया था सुख, आ गया है दुख। आग्रह किया था फूलों के लिए, आ गये हैं कांटें—क्योंकि कांटे दूर से फूल जैसे दिखायी पड़ते हैं, क्योंकि शत्रु दूर से मित्र जैसे दिखायी पड़ते हैं।

एक छोटा बच्चा अपने साथियों के साथ यात्रा पर गया था। वहां से उसने पत्र लिखा अपनी मां को कि “पहले दिन सब अपरिचित थे, मैं किसी को जानता न था। दूसरे दिन, सभी मित्र हो गये, क्योंकि पहचान हो गयी। तीसरे दिन सभी शत्रु हो गये।

यह तीन दिन की क था पूरी जिंदगी की कथा है। पहले दिन जब तुम देखते हो आंख खोल कर : कोई परिचित नहीं, अनजान जगत है, अपरिचित लोगों से घिरा हुआ है सब, अजनबी और अजनबी! फिर सभी मित्र मालूम होते हैं। फिर शत्रुता शुरू हो जाती है। दूर से जो मित्र मालूम पड़ता है, जैसे- जैसे पास आते हैं वैसे- वैसे शद्धुता शुरू हो जाती है। दूर के ढोल हैं बड़े सुहावने, पास आने पर बिलकुल व्यर्थ हो जाते हैं। … तुमने ही निमंत्रण दिये थे, हो सकता है किन्हीं पिछले जन्मों में दिये हों, अब तुम बिलकुल भूल ही गये होओ, लेकिन तुमने ही बुलाया था। जो तुम्हारे पास आ गया है वह तुम्हारा कृत्य है। और तुम्हारे कृत्य से यह दुख बढ़ता जाएगा, पर्त-दर-पर्त तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठा होता जाएगा। यह तुम्हारे गले को घोंट रहा है।

तुम्हारे किये दुख होता है। जब तुम ठिठकोगे, तब तुम अचानक पाओगे, “करने की कोई जरूरत ही नहीं। “ सब अनकिये, तुम्हारे बिन किये हो रहा है।

प्रेम के क्षण में जीवन स्व-स्फूर्त मालूम होता है : सब अपने-आप हो रहा है। पैदा होना, जवान होना, बूढे हो जाना, जन्म- मौत, सब अपने-आप हो रहा है।

लेकिन जब तुम लौटोगे, भक्ति का आयाम शुरू होगा, तब तुम पाओगे कि अपने-आप नहीं हो रहा है। तुम करनेवाले नहीं हो, अपने-आप भी नहीं हो रहा है। जीवन के रोएं-रोएं में छिपा है कोई प्रयोजन। जीवन के कण-कण में छिपी है कोई नियति; कहो, छिपा है कोई परमात्मा। उससे हो रहा है।

कामवासना में लगा आदमी अपने पर भरोसा करता है। प्रेम में खड़े आदमी का अपने पर भरोसा डगमगा जाता है। भक्ति में जाते व्यक्ति का भरोसा अपने से बिलकुल ही शुन्‍य हो जाता है, परमात्मा पर हो जाता है।

सुना है मैंने, जोश की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं:

“खुदा को सौंप दो ऐ “जोश “ पुश्तारा गुनाहों का

चलोगे अपने सर पर रख के यह बारे-गरां कब तक! “

यह भारी बोझ अपने सिर पर रखकर कब तक चलोगे? दे दो परमात्मा को। तुम नाहक ही परेशान हो!

मैंने सुना है, एक आदमी को, उसकी पचहतरवीं वर्ष-गांठ थी, तो मित्रों ने कहा, “कुछ नया अनुभव तुम्हारे लिए…? तो ऐसी कोई चीज तुमने जीवन में न की हो…? उसने कहा, “हवाई जहाज में कभी नहीं बैठा। “ तो उन्होंने कहा, “चलो। “ उसे हवाई जहाज में बिठलाकर आधा घंटा शहर का चक्कर लगवाया। आधे घंटे बाद जब वह उतरा, तो जो पायलट उसे उड़ा रहा था, उसने पूछा, “आप प्रसन्न तो हैं? परेशान तो नहीं हुए? क्योंकि पहली ही उड़ान थी। “ उसने कहा, “नहीं, परेशान तो नहीं हुआ; पर डर के कारण मैंने पूरा वजन जहाज पर नहीं रखा। डर के मारे अपना पूरा वजन जहाज पर नहीं रखा कि कहीं वजन के कारण कोई उपद्रव न हो जाए। “

अब हवाई जहाज में तुम बैठो, वजन पूरा रखो या न रखो, वजन पूरा हवाई जहाज पर है। सुना हैं मैंने, एक सम्राट अपने रथ से लौटता था, जंगल से महल की तरफ, एक गरीब आदमी को उसने राह पर बड़ा बोझ ढोते हुए देखा। दया आ गयी। कहा, “आ, बैठ जा तू भी रथ में। कहां तुझे उतरना है, छोड़ देंगे। “ यह बैठ तो गया रथ में, लेकिन पोटली उसने सिर की सिर पर ही रखी रही। सम्राट ने कहा, “पोटली नीचे क्यों नहीं रख देता! “ उसने कहा, “इतनी ही आपकी कृपा क्या कम है कि मुझे बिठा लिया! अब पोटली का वजन भी आप पर छोडू, नहीं-नहीं, यह मुझसे न होगा। “

लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम रथ में बैठकर पोटली नीचे रखो रथ पर या सिर पर रखो, वजन तो रथ पर ही है।

जो जरा-से लौटते हैं अपनी तरफ, उनको पता चलता है कि हम नाहक ही परेशान थे; करनेवाला कर रहा था; जो होनेवाला था हो रहा था; हम व्यर्थ ही बीच में उछल-कूद कर रहे थे!

तब तुम समझना कि अब तुम्हारे भीतर भक्ति की शुरूआत हुई।

भक्ति की शुरूआत का अर्थ है कि न मैं करनेवाला हूं, न मैं कर सकता हूं–मैं हूं ही नहीं, वही है! और तब तुम्हारे मन में उसके प्रति अनन्य प्रेम का जन्म होता है।

तुम्हारा सारा बोझ वही ढो रहा है।

और तब तो भक्त ऐसी घड़ी में आ जाता है कि वह जानता है कि भक्ति भी करने का सवाल नहीं, प्रार्थना भी मेरे किये न होगी। वही प्रार्थना करेगा; मुझसे तो होगी। अब तो उसकी तरफ जाना भी मुझसे न होगा; वही चलेगा मेरे पैरों से तो ही पहुंच पाऊंगा।

“उठता नहीं है अब तो कदम मुझ गरीब का

मंजिल को कह दो, दौड़ के ले मुझको राह में। “

धीरे-धीरे उसे अपनी असहाय अवस्था का बोध होता है कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं। अब तो मुझ गरीब का पैर भी नहीं उठता! वही उठाये तो उठता है। और अब भय भी क्या, हर भी क्या! अगर उसे पहुचना ही है तो मंजिल खुद ही आकर बीच राह में मुझे ले लेगी।

इस लिए भक्‍त किनारे को नहीं मांगता। वह तो कहता है, “तू अगर मंझधार में भी डुबा दे तो वही किनारा है। “ उसने अपना सारा बोझ उसी को दे दिया।

कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बस इतनी ही बात समझायी है कि तू सारा बोझ परमात्मा पर छोड़ दे। तू आराम से बैठ हवाई जहाज में, नाहक अपने बोझ को मत उठाये रख। रथ में बैठ ही गया है, सिर की पोटली भी नीचे रख दे। निमित-मात्र हो जा!

दूसरा प्रश्‍न :

 

कल का एक सूत्र था कि भक्ति उसके प्रति प्रेमरूपा है। कृपया समझाएं कि भक्ति की यात्रा और सदगुरू के बीच कैसा संबंध है।

 

गुरु का अर्थ है: सोये हुआ में जागा हुआ व्यक्ति; अंधों में आंखवाला। बस इतना ही। तुम्हें जो स्मरण नहीं आ रहा है, उसे स्मरण आ गया है। तुम जिसे पीठ की तरफ छिपाये हो, वह उसके आमने-सामने, खडा हो गया है। उसने अपनी आंखों में झांक लिया; उसने अपने हृदय में टटोल लिया–और उसने परमात्मा को छिपे वहां पाया है।

गुरू का अर्थ है: जो मिट गया और अब केवल परमात्मा है वहां।

परमात्मा तुम्हारे लिए बड़ी दूर का शब्द है। अनंत फासला मालूम होता है। तुम्हारी नींद में और परमात्मा में अनंत फासला मालूम होता है। होगा ही, क्योंकि परमात्मा जागे हुए चैतन्य का अनुभव है। इसलिए तो तुम मानते हो तो भी मान नहीं पाते। कहते हो, मानते हो, फिर भी भीतर संदेह, खडा रहता है। लाख दबाते हो, छिपाते हो; मगर तुम जानते हो कि कहीं तो संदेह है: “परमात्मा हो सकता है। “

मैंने सुना है कि एक आदमी की कार बिगड़ गयी थी। चाक एक बाहर आ गया था। और वह बड़ी गालियां बक रहा था, क्रोध में था। और गालियां तुम्हें सीखनी हों तो ड्राईवरों से सीखो, और कोई उतना कुशल नहीं। अकेला था। बीच जंगल में गाड़ी बिगड़ गयी है और वह गालियां दे रहा है, दिलभर के गालियां दे रहा है। एक दूसरी कार आकर रूकी। एक पादरी, एक ईसाई पुरोहित उसमें था, वह उतरा। उसने देखा कि इतनी गालियां बक रहा है–और गालियां साधारण नहीं, परमात्मा तब को दे रहा है! तो उसने कहा, परमात्मा पर भरोसा कर। सब हो जाता है। “

“रूक भाई, यह उचित नहीं है।

उस आदमी ने कहा,”कैसे सब हो जाता है? क्या यह चाक लग जाएगा जाकर?

पादरी थोड़ा डरा, पर अब लौट भी नहीं सकता था अपनी बात से, तो उसने कहा, “क्यों नहीं लग जाएगा? भरोसा हो तो सब हो जाता है। “

तो उसने कहा, “तुम ही प्रार्थना करो। “

अब पादरी और भी मुश्किल में पड़ा, क्योंकि वह भी जानता है कि “परमात्मा है कहां? इतना न सोचा था कि बात आगे बढ़ जाएगी। अब यह आदमी सामने खड़ा है और अब पीछे लौटना भी कायरता मालूम होती है। “ उसने सोचा कि एक कोशिश करने में क्या हर्ज है, यहां कोई और है भी नहीं इस जंगल में देखनेवाला, पराजय भी होगी तो बस इस एक आदमी के सामने। तो उसने प्रार्थना की—और हैरानी की बात : चाक उसका गाड़ी में लग गया! तो उस पादरी ने आंख खोली, उस चाक को उचकते देखा तो वह चिल्लाया, “हे भगवान, क्या तुम सच में हो?”

जिंदगीभर वह लोगों को परमात्मा के संबंध में समझा रहा था, और भरोसा नहीं है! धंधा है, व्यवसाय है। तो कोई पूजा का व्यवसाय करता है, कोई परमात्मा का व्यवसाय करता है। भरोसा किसी को नहीं है।

आस्तिक से आस्तिक, जिसको तुम कहते हो, वह भी भीतर संदेह को लिये बैठा है। इसलिए आस्तिक डरता है कि नासितक की बात कहीं कान में न पड़ जाए। असली आस्तिक डरेगा? शास्त्रों में लिखा है : “नास्तिकों की बात मत सुनना। “ ये शास्त्र आस्तिकों ने न लिखे होंगे–ये उन्होंने लिखे होंगे जिनके हृदय में संदेह का कीड़ा अभी भी है। अन्यथा डर क्या है? अगर तुम्हारे भीतर आस्था परिपूर्ण है, अगर तुम्हारा संदेह सच में ही समाप्त हो गया है, जल गया है, तो नास्तिक की बात सुनने में भय क्या है? जरूर सुनना। शायद तुम्हारे शांत मौन श्रवण को अनुभव करके नास्तिक के जीवन में कोई फर्क हो जाए। तुम्हारे जीवन में तो कोई अंतर पड़नेवाला नहीं, शायद तुम्हारे ईश्वर की अनन्य आस्था नास्तिक को भी सक्रामक हो जाए! आ जाने देना बस।

लेकिन आस्तिक डरते हैं, भयभीत होते हैं। हर अपने ही संदेह का है, कोई और तुम्हें डरा नहीं सकता।

तुम भयभीत हो, हरे हुए हो। तुम्हें पता है कि अगर बाहर से कोई संदेह की बात करे तो तुम्हारे भीतर का संदेह, जो सो गया है, जग जाएगा, छिपा है, प्रगट हो जाएगा, बाहर का संदेह तुम्हारे भीतर के संदेह को पुकार दे देगा, प्रतिसंवेदना शुरू हो जाएगी, तुम भीतर कैपने लगोगे।

परमात्मा दूर है बहुत तुम्हारे लिए, नींद में बड़-बड़ते हो दूर है! वस्तुत : दूर नहीं है, तुम्हारी नींद का ही फासला है। परमात्मा के लिए तुम दूर नहीं हो, तुम्हारे लिए परमात्मा दूर है—इसे ध्यान रखना।

जैसे तुम सोये हो, सूरज निकल आया, सूरज की किरणें तुम्हारे ऊपर बरस रही हैं, लेकिन तुम सोये हो : सूरज के लिए तुम दूर नहीं हो, तुम्हारे ऊपर बरस रहा है, तुम्हारे रोएं-रोएं को जगाने की चेष्टा कर रहा है, लेकिन तुम गहरी नींद में हो, तुम्हारे लिए सूरज तो बहुत दूर है, पता ही नहीं कि है भी या नहीं। तुम तो गहन अंधकार में खोये हो।

ऐसी घड़ियां में जब परमात्मा बहुत दूर मालूम पड़ता है, सदगुरू उपयोगी हो सकता है :क्योंकि सदगुरू तुम जैसा है, तुम्हारे पास है, मनुष्य जैसा मनुष्य है, हइडी-मांस-मज्जा का है–और फिर भी तुमसे कुछ ज्यादा है, और फिर भी तुमने जो नहीं जाना है, तुम जो कल होओगे उसकी वह खबर है। वह तुम्हारा भविष्य है। वह तुम्हारी संभावनाओं का द्वार है।

परमात्मा बहुत दूर है, गुरू बहुत पास है। इसलिए परमात्मा के पास गुरू के बिना शायद ही कभी कोई पहुंच पाता है। गुरू ऐसा झरोखा है जिससे दूर के आकाश को तुम देख पाओगे। झरोखा पास है।

कमरे में तुम बैठे हो, तुमसे मैं आकाश की बातें करूं और आकाश के अनंत सौंदर्य की चर्चा करूं–व्यर्थ है। तुमसे सूरज की किरणों की कहानी कहूं–व्यर्थ है। तुमसे फूलों की वार्ता करूं—व्यर्थ है। लेकिन एक झरोखा खोल दूर एक खिड़की खोल दूं जो बंद थी। तुम अपनी ही जगह हो तुममें कोई फर्क नहीं हुआ, तुम उठे भी नहीं अपनी जगह से, तुम अपनी ही कोच पर आराम कर रहे हो, तुमने कुछ भी फर्क न किया–लेकिन एक झरोखा खुल गया : दूर का आकाश अब उतना दूर नहीं! एक कोना आकाश का दिखायी पड़ने लगा–और कोने को जिसने पकड़ लिया वह पूरे को पकड़ ही लेगा। थोड़ी फूलों की गंध भी भीतर आने लगी। थोड़ी किरणें भी आ गयीं और नाचने लगीं फर्श पर। तुम वहीं के वहीं बैठे हो, तुममें कोई फर्क नहीं हुआ, लेकिन एक झरोखा तुम्हारे पास खुल गया! गुरू एक झरोखा है। तुम वही हो, लेकिन गुरू के पास होते ही उस झरोखे से तुम बड़े आकाश को, विराट आकाश को झांक पाओगे।

गुरू जैसे बूंद है, लेकिन बूंद का स्वाद तो वही है जो सागर का है : वैसा ही नमकीन।

बुद्ध कहा करते थे कि बूंद रख लो एक सागर की, तुमने सारा सागर चख लिया। गुरू एक बूंद है, लेकिन ऐसी बूंद जिसने पहचान लिया अपने भीतर छिपे सागर को। तुम भी बूंद हो, लेकिन ऐसी बूंद जिसने अपने भीतर छिपे सागर की कोई खबर नहीं। बूंद और बूंद की थोड़ी बात हो सकती है। ऐसे तो गुरू और शिष्य के बीच भी वार्ता बहुत मुश्किल है, तो खोजी और परमात्मा के बीच तो वार्ता असंभव है।

गुरू पर रुकना नहीं है, गुरू से गुजर जाना है। गुरू तो द्वार है, उससे तो पार जाना है। इसलिए सदगुरू और गुरू में यही फर्क है। सदगुरू का अर्थ है : जो तुम्हें परमात्मा की तरफ ले जाए, इतना ही नहीं जो तुम्हें तुमसे मुक्त करे और जो तुम्हें अपने से भी मुक्त करे। वही गुरू सदगुरु है जो तुम्हें अपने से भी मुक्त होना सिखाये, नहीं तो आखिर में गुरु पकड़ जाएगा। कहीं ऐसा न हो कि कोच से तो तुम उठ जाओ और खिड़की के चौखटे को पकड़ लो। तब तुम चूक गये। तो जो तुम्हें अपने को पकडाने की चेष्टा में लगा हो उससे सावधान रहना।

गुरु पहले तुमसे तुम्हारा संसार तम्हारे गलत दृष्टिकोण छीन लेगा। और जब वे छिन गये, तो आखिरी चीज जो वह छीनेगा, वह स्वयं को तुमसे छीन लगा, ताकि तुम खेले आकाश में प्रवेश पा जाओ।

और असली सवाल झुकने की कला सीखने का है। गुरु के पास तुम झुकने की कला सीख लोगे। जिस दिन तुम्हें झुकना आ गया, बस सब आ गया। असली सवाल मिटने की कला सीखने का है। गुरु के पास तुम मिटना सीख लोगे। जिस दिन मिटना आ गया, सब आ गया।

“कुछ जज्ब-सादिक हो, कुछ इखलासो-इरादत

इससे हमें क्या बहस वह बुत है कि खुदा है। “

“कुछ जज्बए सादिक हो “–कुछ सत्य भावना हो, कुछ प्रेम का आविर्भाव हो : “कुछ इखलासो-इरादत “—कुछ हमारे इरादों में, हमारी भावनाओं में, प्रेम के अंकुर का अंकुरण हो : “इससे हमें क्या बहस, वह बुत है कि खुदा है “—वह पत्थर की मुर्ति हो कि परमात्मा हो, इससे क्या बहस! थोड़ा प्रेम करना आ जाए, थोड़ा स्वाद लग जाए अनंत का, थोड़ी भावना की पवित्रता आ जाए, थोड़ी झुकने की कला समझ में आ जाए।

बहस नासमझ करते हैं। समझदार समय का उपयोग कर लेते हैं और जीवन की कोई गहराई सीख लेते हैं।

यही फर्क है विद्यार्थी और शिष्य में।

विद्यार्थी बहस में उत्सुक है, शिष्य जीवन को बदलने में। विद्यार्थी कुछ ज्ञान की सूचनाएं इकट्ठी करने चला आया है, शिष्य अस्तित्व को बदलने आया है। विद्यार्थी दांव पर कुछ भी नहीं लगाता। विद्यार्थी तो सिर्फ स्मृति का निखार कर रहा है। शिष्य जीवन को दांव पर लगाता है, सब कुछ खोना हो तो भी तैयारी दिखलाता है। क्योंकि जब तक तुम सब खोने को तैयार न हो जाओ तब तक तुम सब को पाने के मालिक न हो सकोगे। जिसने सब खोया उसने सब पाया।

तो, गुरु के पास तो बारहखड़ी सीखनी है, “अल्फाबेट “। परमात्मा का गीत तो अभी कठिन पड़ेगा। तुम्हें अभी बारहखड़ी ही नहीं आती। गुरु के पास अ ब स सीख लेना है–अ ब स परमात्मा का। जब तुम सीख गये, तुम चले अपनी यात्रा पर। पक्षी के बच्चे पैदा होते हैं, अंडों से बाहर आते हैं। तुमने कभी देखा होगा झाडों में लटके घोसलों के किनारों पर बैठे, डरते हैं, आकाश को देखते हैं : आकाश बड़ा है! अभी तक अंडे में रहे थे, बड़ी छोटी दुनिया थी, बड़ी सुरक्षित थी, उष्ण थी। मां गरमी देती रहती थी। अब दुनिया बड़ी ठंडी मालूम पड़ती है। वह उष्णता मां की गयी। किनारे पर बैठते हैं वे, मां उड़ती है। वह उड़ान उनके भीतर भी किसी सोयी हुई, प्रसुप्त आकांक्षा को जन्म देती है। वे भी उड़ान चाहते हैं–कौन नहीं उड़ना चाहता! क्योंकि उड़ने में मुक्ति है, स्वातंत्य है। लेकिन डगमगाते हैं, डरते हैं। बैठे हैं घोंसले के किनारे। उन्हें अपने पंखों का पता नहीं। हो भी कैसे सकता है, पंखों का पता तो तभी चलता है जब तुम उडो। उड़ने के पहले पंखों का पता चल नहीं सकता। उड़ने के बिना कैसे तुम जानोगे कि तुम्हारे पास भी पंख हैं, पैर पता चलते हैं जब तुम चलते हो। आंख पता चलती है जब तुम देखते हो। कान पता चलते हैं जब तुम सुनते हो। पंख पता चलते हैं जब तुम उड़ते हो। अभी पक्षी उड़ा नहीं, अभी अंडे से बाहर आया है। अभी उसे कैसे पता हो सकता है कि मेरे पास भी पंख है। अभी वह डरता है। क्या करता है, क्या चाहता है, चाहता है उड़ना। कोशिश भी करता है, लेकिन पकड़े है जोर से घोंसले को कि कहीं इस विराट शुन्‍य में खो न जाए।

मां क्या करती है, एक धक्का देती है। घबड़ाता है पक्षी, घबड़ाहट में पंख खुल जाते हैं। घबड़ा कर लौट आता है वापस एक चक्कर मारकर, लेकिन अब उसे पता हो गया : पंख उसके पास हैं, थोड़ी देर होगी चाहे, कला सीखने में थोड़ा समय लगेगा लेकिन पंख हैं! एक बड़ा भरोसा आया! एक हिम्मत जगी! एक आत्मविश्वास का जन्म हुआ :”तो यह आकाश भी अपना है! “ दो छोटे पंखों के सहारे पूरा आकाश अपना हो जाता है। बस, दो छोटे पंखों के सहारे सारे आकाश की मालकियत मिल गयी! फिर थोड़ी- थोड़ी दूर जाने के प्रयोग करता है—और दूर, और दूर, बड़े वर्तुल बनाता है–और एक दिन फिर दूर आकाश की यात्रा पर निकल जाता है। जब मां को धक्का देने की जरूरत नहीं पड़ती।

गुरू तुम्हें एक धक्का देगा घोंसलें के बाहर। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। यह तुम भी कर सकते थे। जब तुम कर लोगे तब तुम पाओगे : “अरे, यह तो मैं भी कर सकता था! “ लेकिन यह तुम पाओगे तब जब तुम कर लोगे। इसके पहले, इसके पहले कैसे तुम जानो कि पंख है, गुरू तुम्हें दिखा देगा तब तुम्हें लगेगा :”अरे, यह तो बिना गुरू के भी हो सकता था! “

कृष्णमुर्ति के साथ यही हुआ : धक्का दिया एनीबीसेंट ने, लीडबीटर ने, उनके गुरूओं ने—पंख खुले! कृष्णमुर्ति को समझ आयी कि “यह तो मुझसे ही हो सकता था। पंख मेरे, पंख खुले तो मेरे :धक्के के बिना भी अगर मैं जरा-सी हिम्‍मत कर लेता तो हो जाता। “ तब से चालीस- पचास वर्ष बीत गये, वे दूसरों को यही सिखा रहे हैं कि हिम्मत करो, कूद जाओ, पंख तुम्हारे हैं, गुरू की कोई जरूरत नहीं! लेकिन कोई कूदता हुआ मालूम नहीं पड़ता। बात बिलकुल ठीक कहते हैं। बात में जरा भी गलती नहीं है। भूल- चूक कोई खोज नहीं सकता इसमें।

लेकिन कोई चाहिए जो तुम्हें धक्का दे दे। और जब गुरू धक्का देगा तो बहुत बुरा लगेगा। तो पहले गुरू तुम्हें पास बुलाएगा, प्रेम देगा। तुम चौकोंगे बहुत : ऐसा प्रेमी आदमी ऐसा दुष्ट कैसे हो गया! लेकिन जरूरी है कि वह धक्का दे तभी तुम्हारे पंख खुलेंगे। इसलिए जो परमात्मा को खोजने चले हों सीधे वे थोड़ा सम्हल जाएं : वह सीधी खोज कहीं अहंकार का ही नया करतब न हो, कहीं अहंकार की ही नयी ईजाद न हो! फिर ऐसे लोग हो

सकता है वहीं बैठे रहें घोंसले में, आंख बंद कर लें और खुले आकाश के सपने देखने लगें। वह आसान है।

गुरू को खोजो, परमात्मा की खोज की कोई जरूरत नहीं। गुरू को खोजते ही वह खोज हो जाएगी।

“हे फर्ज तुझ पै फकत बंदा-ए खुदा की तलाश

खुदा की फिक्र न कर, वोह मिला, मिला-न-मिला।“

उसकी बहुत चिंता नहीं है। लेकिन किसी खुदा के बंदे की तलाश कर ले। किसी गुरू को खोज ले। फिर परमात्मा मिला न मिला, तू छोड़ फिक्र। मिल ही जाएगा, उसकी बात ही मत उठा। क्योंकि गुरू को खोजने में ही पहला कदम उठ जाता है।

गुरू को खोजने का अर्थ है : अहंकार का समर्पण।

किसी के चरणों में झुकने का अर्थ है : झुकने की कला का पहला अभ्‍यास। झुक गये तो खुदा तो मिल ही जाएगा। बस तुम झुके न थे, अनिवार्यता है पूरी। जरूरत बिलकुल नहीं है, ऐसा लगता है कि हो सकता है अपने-आप। कहां अड़चन है, पंख तुम्हारे पास हैं, उड़ने की क्षमता तुम्हारे पास है, आकाश मौजूद है—फिर गुरू की क्या जरूरत है? अगर कोई तर्क से विचार करे तो गुरू की जरूरत मालूम नहीं होगी। लेकिन तुम में साहस नहीं है, इसलिए गुरू की जरूरत है। वह साहस को कौन पूरा करे, तुम्हें हिम्मत कौन दे, कौन तुम्हें धक्का दे-दे।

मेरे गांव में एक बूढे सज्जन हैं। उन्होंने करीब- करीब गांव के सभी बच्चों को तैरना सिखाया होगा। वे नदी के प्रेमी हैं। और गांवभर के बच्चे जैसे ही तैरने योग्य हो जाते हैं, नदी पहुंच जाते हैं। और वे सुबह पूरा समय पांच-छह घंटे का, गांवभर के बच्चों को तैरना सिखाने में देते हैं। मुझे भी उन्होंने ही तैरना सिखाया। जब मैं सीख गया, मैंने उनसे कहा, “यह भी कोई बात हुई, तुमने सिखाया जरा भी नहीं, सिर्फ मुझे धकाया। “ उन्होंने कहा, “बस वही सिखाना है। वे फेंक देते हैं बच्चे को। बच्चा घबड़ाता है। वे खड़े हैं सामने। दो तीन फीट दूर फेंक देते हैं गहरे में। बच्चा घबड़ाता है, तड़फड़ाता है, हाथ- पैर फेंकता है। वही तैरने की शुरूआत है। हाथ- पैर फेंकना ही तैरने की शुरूआत है। फिर धीरे- धीरे व्यवस्‍था आ जाती है। पहले अव्यवस्थित फेंकता है। पहले घबड़ाहट में फेंकता है। फिर वे दौड़कर उसे बचा लेते हैं। फिर फेंकते हैं। फिर ले आते हैं किनारे पर। फिर फेंकते हैं। कभी ऐसा लगता है कि यह तो बचना मुश्किल है, मरे! और कुछ नहीं सिखाते वे। दस- पांच दफा फेंकते हैं। हाथ- पैर में गति व्यवस्थित होने लगती है। दो- चार दिन में बच्चा तैरना सीख जाता है। सिखाते कुछ भी नहीं, सिर्फ पानी में तुम अपने से न कूद सकोगे, घबड़ाहट लगेगी, उतनी घबड़ाहट भर छीन लेने की बात है।

परमात्मा उपलब्ध है गुरू के बिना, मगर उपलब्ध हो न सकेगा। जब वह उपलब्ध हो जाएगा तब तुम जानोगे कि हो सकता था। लेकिन वह सदा बाद में।

कोलम्बस ने अमरीका खोजा। जब तक नहीं खोजा था, तो कोई भरोसा नहीं था किसी को; लोग सोचते थे यह गया, यह लौटने वाला नहीं है। क्योंकि यह सिर्फ कल्पना के आधार पर कि यदि पृथ्वी गोल है…जो कि गैलिलिओ और कोपरनीकस ने सिद्ध कर दिया था कि पृथ्वी गोल है, मगर कोई देखा तो नहीं था; देखा तो अभी तक नहीं था। जब पहली दफा अन्तरिक्ष-यात्रा शुरू हुई और मनुष्य पृथ्वी के घेरे के बाहर गया तब पहली दफा दिखायी पड़ा कि पृथ्वी गोल है, इसके पहले तो किसी ने देखा न था, यह तो धारणा थी, तर्कसिद्ध थी, हजार प्रमाण थे इसके, लेकिन सब प्रमाण परोक्ष थे। कोलम्बस ने कहा कि “जब पृथ्वी गोल है तो अगर मैं जाऊं यात्रा पर और करता ही रहूं यात्रा सीधा, सीधा, तो एक दिन वापस इसी जगह लौट आऊंगा। अगर बीच में कुछ हुआ तो मिल गयी कोई जगह तो ठीक है, नहीं तो वापस अपने घर आ जाएंगे। गोल अगर पृथ्वी है तो लौट ही आएंगे अपनी जगह, भटकने का कोई सवाल नहीं है। “

कोई साथ जाने को राजी न था। बड़ी मुश्किल से सालों की खोज के बाद अस्सी आदमी तैयार हो सके। उनमें कई ऐसे थे, जो मरने को तत्पर थे, जिनको जिंदगी में कोई सार न था। कुछ पागल थे, दीवाने थे, उन्होंने कहा, “चलो, कोई हर्जा नहीं; मरेंगे, और क्या होगा! “ ढंग का कोई एक आदमी तैयार नहीं था। कुछ को सम्राट की आज्ञा हुई थी, इसलिए कुछ सैनिकों को जाना पड़ रहा था, तो वे गये थे।

इन अस्सी आदमियों को लेकर कोलम्बस गया। जिसने धन की सहायता दी थी, जिस रानी ने, उसके दरबारियों ने कहा था, “यह फिजूल पैसा खराब हो रहा है। ये अस्सी आदमी मरेंगे। ये लाखों रुपये खराब होंगे। पर उस रानी ने कहा, करने दो, एक प्रयोग है देखेंगे।

कोलम्बस अमरीका खोजकर लौट आया। दरबार में उसका स्वागत हुआ। तो उन्हीं दरबारियों ने कहा, यह कोई क्या खास बात है, यह कोई भी खोज लेता। अगर पृथ्वी गोल है, कोई भी जाता तो मिल जाता। “

कोलम्बस की थाली में एक अंडा रखा था। उसने अंडा उठाया और उसने कहा, “इसे कोई सीधा खड़ा करके बता दे टेबल पर। “ कई ने कोशिश की, खडा करने की; पर अब अंडा कैसे सीधा खड़ा हो? वह गिर-गिर जाए। उन्होंने कहा, “यह हो ही नहीं सकता; यह असंभव है। “ कोलम्बस ने जोर से अंडे को ठोका टेबल पर, नीचे की पर्त सीधी हो गयी, अंदर दब गयी, अंडा, खडा हो गया। उन्होंने कहा, “अरे, यह तो कोई भी कर देता! “ कोलम्बस ने कहा, “लेकिन किसी ने किया नहीं। “

करने के बाद तो सभी कुछ आसान हो जाता है। करने के पहले असली सवाल है। उस करने के पहले गुरु की जरूरत है।

अनिवार्यता बिलकुल नहीं, और अनिवार्यता पूरी है। जानोगे, तब पाओगे : हो जाता है बिना गुरु के। लेकिन तब तुम यह भी पाओगे… अगर तुम पीछे लौटकर देखो कि हो नहीं सकता था, तुम हिम्मत ही न जुटा पाते।

तीसरा प्रश्‍न :

 

भक्ति साधना भी है सिद्धि भी। कृपापूर्वक उसके अलग-अलग रूपों को हमें समझाएं।

, भक्ति के कोई रूप नहीं हैं।

प्रेम के कहीं कोई रूप होते हैं, प्रेम तो बस एक है। उसका स्वाद एक है।

भेद तो बुद्धि से होते हैं, हृदय में भेद नहीं होते। हिंदू की बौद्धिक धारणा अलग, मुसलमान की बौद्धिक धारणा अलग, ईसाई का फलसफा अलग है। वे बुद्धि की बातें है। लेकिन जब हिंदू भक्ति से भरता है और जब मुसलमान भक्ति से भरता है और जब ईसाई भक्ति से भरता है, तो उन भक्तियों में भेद नहीं है, वे एक हैं।

भक्ति हृदय की बात है :उसका तुम्हारे अंतस्तल से संबंध है, तुम्हारी बुद्धि की बाहरी बातों से नहीं। क्या तुमने सीखा है, उससे संबंध नहीं है, क्या तुम्हारा स्वभाव है, उससे संबंध है।

भक्ति का अर्थ है : परम प्रेम। परम प्रेम की साधना करनी है। और जब सिद्धि होगी तब क्या होगा, परम प्रेम उपलब्ध होगा। परम प्रेम को ही साधना है और परम प्रेम को ही पाना है। प्रेम ही वहां मार्ग है और प्रेम ही वहां मंजिल है।

होना भी यही चाहिए। क्योंकि जब तुम भी किसी यात्रा पर जाते हो तो तुम जो पहला कदम उठाते हो मार्ग पर, उस पहले कदम में मंजिल एक कदम करीब आ गयी। तो कदम तुमने मार्ग पर ही नहीं उठाया, मंजिल पर भी उठाया। हजार मील की यात्रा तुम पूरी कर लोगे एक-एक कदम उठा-उठा कर। एक-एक कदम मंजिल करीब आती जाती है। एक दिन तुम मंजिल पर पहुंच जाते हो। उसमें कौन-सा कदम सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था, लगेगा : आखिरी कदम, क्योंकि आखिरी कदम ने ही मंजिल पर पहुंचाया। नहीं, जितना आखिरी कदम महत्वपूर्ण है, उतना ही पहला कदम भी था। क्योंकि पहला कदम अगर चूक जाता है तो आखिरी तो ही हो न पाता।

तुम पानी को गर्म कर रहे हो, निन्यानबे डिग्री तक गर्म करते हो, सौ डिग्री पर भाप बन जाता है। क्या सौंवी डिग्री के कारण भाप बनता है, अगर पहली डिग्री न होती तो सौ डिग्री हो नहीं सकता था, निन्यानबे डिग्री ही रह जाता, भाप नहीं बनता।

पहला कदम आखिरी कदम भी है। मार्ग मंजिल भी है। मार्ग क्या है भक्त का ,

भक्त का मार्ग है : अहोभाव।

अहोभाव को समझना जरूरी है। वही उसकी विधि है।

साधारणत : कामवासना देखती है वह जो तुम्हारे पास नहीं है। कामवासना की दृष्टि अभाव पर रहती है, जो तुम्हारे पास नहीं है उसी को देखती है। भक्ति उलटी स्थिति है, जो तुम्हारे पास है, उसे देखती है।

जब जो तुम्हारे पास नहीं है, तुम उसको देखते हो, तब तुम सदा पीड़ित रहते हो, क्योंकि इतना कम है, इतना कम है, इतना कम है! और यह तो कम रहेगा ही। लाख रुपये तुम्हारे पास हैं, वह तुम नहीं देखते, अरबों-खरबों जो तुम्हारे पास नहीं हैं, वह तुम देखते हो। जो पत्नी तुम्हारे पास है उसे तुम नहीं देखते, सारे संसार की स्त्रियां दिखायी पड़ती हैं।

अगर पति से कोई पूछे ठीक-ठीक कि “तू अपनी पत्नी की शक्ल बता सकता है,… तो दिक्कत खड़ी हो जाएगी। कौन देखता है अपनी पत्नी को! पड़ोस की पत्नी का सब नाक-नक्शा बता देगा वह। आज उसने कैसी साड़ी पहनी है, ख यह भी बता देगा। लेकिन अपनी पत्नी…। “जो है “ उसे हम देखते ही नहीं, जो नहीं है उसे देखते हैं, इसलिए पीड़ित रहते हैं। क्योंकि “नहीं है “ खलता है, कांटे की तरह चुभता है, अभाव मालूम पड़ता है। दीनता-दरिद्रता मालूम पड़ती है। “जो है “ अगर उसे देखें तो अहोभाव पैदा होता है। तो इतना दिया है परमात्मा ने कि तुम सिवाय धन्यवाद के और क्या कर सकोगे! तो अचानक तुम पाते हो कि तुम सम्राट हो गये, भिखारी न रहे।

“दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है।

“ मेरे अल्हाह ने क्या-क्या मुझे दौलत दी है।

“दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है। “

पीडा में भी एक मिठास है। सुख की तो छोड़ो दुख में एक गहराई है—व भक्त को दिखायी पड़ती है। स्वर्ग की तो छोड़ो, नरक में भी एक सौंदर्य है—वह भक्त को दिखायी पड़ता है। कामी को तो स्वर्ग में भी स्वर्ग नहीं दिखायी पड़ता, भक्‍ति को नरक में भी स्वर्ग दिखायी पड़ता है। और तुम्हें जो दिखायी पड़ता है तुम उसी में जीने लगते हो। क्योंकि आदमी जिसको अनुभव करता है, जिसको देखता है, उसी में जीता है। भक्त भाव में जीतना है।

कामी अभाव में जीता है।

“दिल दिया, दर्द दिया, दर्द में लज्जत दी है! “

और तब तो दर्द में भी लज्जत दिखाई पड़ने लगती है।

दर्द में भी एक काव्य है

दर्द का भी एक रहस्य है

पीड़ा में भी कुछ अनूठी मिठास है

पीड़ा का भी काव्य है

और पीड़ा में भी कुछ जन्मता है,

जो बिना पीड़ा के नहीं जन्म सकता।

“रंज हो, दर्द हो, वहशत हो, जुनू हो, कुछ हो,

आप जिस हाल से खुश हों, वहीं हाल अच्छा है। “

और भक्त कहता है, “जो परमात्मा ने दिया है : “रंज हो दर्द हो, वहशत हो, जुनू हो, कुछ हो…”भक्त को जैसे ही यह दिखायी पड़ना शुरू होता है कि कितना दिया है, मेरी कोई पात्रता न थी और इतना दिया है, अपात्र था और जीवन दिया, कमाया कुछ भी न था,

इतने अनंत आनंद की क्षमता दी, सौभाग्य दिया के होऊं, कि मेरे नासापुटू श्वास लें, कि मेरी आखें सूरज की किरणों को देखें, कि मेरा हृदय प्रेम की पुलक को अनुभव करे, कि मेरे कानों पर संगीत का साक्षात्कार हो! कुछ भी न था, श्ल्य से बनाया मुझे और सब कुछ दिया! आप जिस हाल से खुश हों वही हाल अच्छा है!”

और तब भक्त अपनी कोई मर्जी नहीं रखता, परमात्मा की मर्जी ही उसकी मर्जी है : “वह जहां ले जाए वहीं जाएंगे। वह जो कराये वही करेंगे!”

भक्त छोड़ ही देता है सब। भक्‍त उपकरण-मात्र हो जाता है। परमात्मा ही उससे बहता है। यही साधना है और यही सिद्धी भी है। जिस दिन यह स्थिति परिपूर्ण हो जाएगी…।

कब होती है स्थिति परिपूर्ण, यह सौभाग्य कग पूरा होता है,… जब भक्ति की मंजिल आ जाती है। पहले तो साधारण आदमी, जो कामवासना में जीता है, शिकायत करता है, शिकायत ही उसका जीवन है।

तुम लोगों की बातें सुनो, सिवाय शिकायत के उनके जीवन में कुछ भी नहीं है : “यह नहीं है यह ठीक नहीं है, यह गलत हो रहा है, यह गलत हो रहा है, सब गलत हो रहा है!” गलत-गलत से वे घिर गये हैं। शिकायत ही शिकायत है।

भक्त की बात सुनो : अहोभाव ही अहोभाव है।

लेकिन जब मंजिल आती है, पहले शिकायत खो जाती है, भक्त अहोभाव से भर जाता है, फिर तो अहोभाव भी खो जाता है। क्योंकि धन्यवाद भी देने का मतलब है कि थोड़ी-बहुत शिकायत शेष रही होगी। नहीं तो धन्यवाद क्यों?

इसे थोड़ा समझें।

धन्यवाद भी हम तभी देतेहैं कि अगर इससे अन्यथा होता तो शिकायत होती। धन्यवाद शिकायत का उलटा है।

रूमाल तुम्हारे हाथ से गिर गया, किसी ने उठाकर देदिया, तुमने कहा, “धन्यवाद” इसका मतलब है कि अगर वह उठाकर न देता तो शिकायत होती। तो इसका अर्थ यह हुआ कि धन्यवाद ऊपर आ गया है, शिकायत भीतर चली गयी है।

तो, भक्त जब तक मार्ग पर है, अहोभाव से भरा रहता है।

शिकायत से बेहतर है अहोभाव, क्योंकि शिकायत में सिर्फ पीड़ा होती है, दुख होता है, दर्द होता है, अंधेरा ही अंधेरा होता है। अहोभाव में सब रोशन हो जाता है, सब खिल जाता है। लेकिन अभी भी कमी है। मंजिल पर आते सब बात ही समाप्त हो जाती है, कुछ कहने को नहीं रह जाता।

जब अहोभाव भी नहीं बचता तब अहोभाव पूरा हो जाता है।

इस तरह मिटना है कि कुछ भी न बचे। शिकायत तो मरे ही, शिकायत भी मर जाए। “दिल है तो उसी का है, जिगर है तो उसी का है

अपने को राह-ए-इश्क में बरबाद जो कर दे। “

“दिल है तो उसी का, जिगर है तो उसी का “–

बस उसी के पास दिल पैदा होगा, उसी के पास जिगर आएगा।

“अपने को राह-ए-इशक में बर्बाद जो कर दे। “

प्रेम की राह पर जो अपने को पूरा मिटा दे, वही पहली दफा हो पाता है।

भक्ति का अर्थ है : अपने को मिटाने की कला। वह मृत्यु की कला है, अपने को खोने की कला, अपने को डुबाने की कला।

चौथा प्रश्‍न :

 

  मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं एक अधपका फल हूं… ?  

 

प्रतीत होने का सवाल नहीं, होओगे ही! नहीं तो कभी के गिर गये होते। पके फल वृक्षों पर थोड़े ही लटके रहे जाते हैं। पके फल तो गिर जाते हैं। गिरना ही सबूत है कि फल पक गया, और कोई सबूत नहीं। पीले हो जाने से कोई पक गया, ऐसा मत समझ लेना—गिर जाने से ही।

उपनिषद् कहते हैं : “तेन त्यक्तेन भुंजीथा:।

“ उन्होंने ही भोगा जिन्होंने त्यागा। क्योंकि त्याग से ही पता चलता है कि ठीक से भोगा, समझ गये कि भोग बेकार है। जिस दिन पक जाता है उस दिन त्याग अपने आप हो जाता है। जिस दिन फल पक जाता है उस दिन गिर जाता है। “ऐसा प्रतीत होता है…। “

प्रतीत होने की बात ही छोड़ दो, ऐसा जानो कि है, किमैं एक अधपका फल हूं। निश्वित, इस प्रतीति को सत्य समझो, तो पकने की दौड़ श्दुरू होगी, तो “अथातो “ का क्षण शीघ्र ही पास आ जाएगा।

आदमी जब पक जाता है तभी पूरा आदमी होता है। जिस दिन तुम पूरे आदमी होते तो हो उसी दिन गिर जाते हो। आदमी गिरा कि परमात्मा शुरू हो जाता है। जहां आदमी का अंत वहां परमात्मा की शुरूआत है।

“आदमी हैं शुमार से बाहर कहत है फिर भी आदमियत का। “

बहुत आदमी हैं, लेकिन आदमियत कहां? क्‍योंकि पके हुए आदमी कहां?

“फर्श से ताअर्श मुमकिन है तरक्की ओ उरूज

फिर फरिश्ता भी बना लेंगे तुझे, इन्सां तो बन। “

पहले आदमी बन, फिर हम तुझे देवता भी बनालेंगे।

“फिर फरिस्‍ता भी बना लेंगे तुझे इन्सान तो बन। “

पहले पक। फिर देवत्व तो अपने- आप आ जाता है। जो आदमी पूराहुआ कि वहीं से देवत्व की शुरू आत है।

कैसे पकोगे ,

बड़ा मुश्किल हो गया है पकना। इसलिए मुश्किल हो गया है कि तुम्हारे सारे संस्कार, सारी शिक्षा सारा धर्म तुम्हें दमन सिखाते हैं, अनुभव नहीं सिखाते। ऐसा समझो कि जिन-जिन चीजों की जानकारी से तुम्हें जीवन व्यर्थ मालूम पड़ता है, उनकी जानकारी ही पूरी नहीं होने देते।

बच्चे को हम सिखाते हैं “क्रोध मत कर। “ सिखाना चाहिए कि क्रोध जितना बन सके कर ले। जब बच्चा क्रोधित हो तो कहना चाहिए। “खूब कर ले। क्योंकि अभी तो घर है अपना, फिर बाहर की दुनिया में जाएगा, वहां तुझे लोग क्रोध न करने देंगे, अपने घर में पूरा कर ले। पिता पर, मां पर, कर ले पूरा। क्योंकि दूसरे लोग इतनी क्रपा न करेंगे। तू क्रोध को पूरी तरह कर ले, ताकि क्रोध की जलन का तुझे अनुभव हो जाए और क्रोध की व्यर्थता तझे दिखायी पड़ जाए। “

और क्रोध जहर है और सिवाय हानि के कुछ लाभ नहीं देता।

और क्रोध कता है दूसरे के कसूर के लिए अपने को दंड देना है।

क्रोध अज्ञान है क्योंकि क्रोध में तू दूसरे के हाथ में खिलौना हो गया है; कोई भी तेरी कुंजी दबा दे सकता है; कोई भी तुझे क्रोधित कर दे सकता है, तो तू दूसरे का गुलाम हो गया, तेरी मालकियत खो गयी।

मगर यह तो तब होगा जब क्रोध पूरी तरह अनुभव किया जाए।

मेरी प्रतीति ऐसी है कि अगर तुमने जीवन में एक बार भी क्रोध का पूरा अनुभव कर लिया तो पक गया क्रोध, उसके बाद तुम क्रोध न कर पाओगे। क्रोध की बात ही खत्म हो गयी। हाथ जल गया।

दूध का जला छांट भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है। लेकिन तुम्हें दूध से ही नहीं जलने दिया गया, छांछ को फूंककर पीने की तो बात बहुत दूर।

तुम्हें सिखाया गया है, कामवासना से बचो, इसलिए तुम कामवासना में पड़े हो और सड़ते हो। मैं तुमसे कहता हूं, बचना मत। कामवासना में पूरे ही उतर जाना। ठीक तलहटी तक उतर जाना, ताकि और जानने को कुछ शेष न रह जाए। उसे इतनी पूर्णता से जान लेना कि रस ही खो जाए। जिस चीज को हम पूरा जान लेते हैं उसमें रस समाप्त हो जाता है। जहां- जहां रस हो तुम्हारा, जानना कि वहां-वहां अधूरा जानना हुआ है, इसलिए अधपकापन है। और ऐसा जीवन पूरा अधपका रह जाता है।

पको।

अनुभव की धूप पकाती है।

अनुभव की पीड़ा पकाती है। अनुभव की भूल-चूक पकाती है।

भटकाना पकाता है।

राह से उतर जाना पकाता है।

जब तुम पक जाते हो, गिर जाते हो।

उस गिरने में ही–उस गिरने में ही देवत्व का क्षण शुरू होता है।

इसलिए अपने को बचाओ मत, जल्दी करो। जहां- जहां रस हो उसे पूरा-पूरा भोग ही लो। भोगने में आधा- आधा मत करना।

मैं देखता हूं : ऐसा ही होता है। मंदिर में बैठते हो तब दुकान की सोचते हो, क्योंकि दुकान पर कभी पूरे बैठे नहीं! जब दुकान पर बैठते हो तो मंदिर की सोचते हो, क्योंकि मंदिर में कभी पूरे बैठे नहीं। जहां हो वहीं अधूरे हो।

दुकान पर बैठते हो तब तुम्हें बड़ी ज्ञान की बातें सूझने लगती है कि- इसमें क्या रखा है! संसार असार है! “ यह सब सुनी बकवास है। अगर यह तुमने जान लिया होता तो तुम्हारी जिंदगी में क्रांति हो गयी होती। यह सब तुमने सोच लिया है, ये सब तोता रटन है। यह तुमने कचरा इकट्ठा कर लिया है, यह सब उधार है। दुकान पर बैठकर ये सब उधार आने लगता है दिमाग में, फिर मंदिर जाते हो, मंदिर में बैठते हो तो लगता है घंटाभर खराब हो गया, इतनी देर में कुछ कमा ही लेते क्योंकि दुकान में पूरे रहे ही नहीं, वहां मंदिर सताता थ।

जहां हो वहां पूरे, जो करो उसे पूरा, उसमें उतर ही जाओ क्योंकि एक बात सदा स्मरण रखो कि अनुभव के अतिरिक्त और कोई चीज मुक्त नहीं करती। और अपने को धोखा देने की कोशिश मत करकना, कोई और सुगम मार्ग नहीं है। अनुभव एकमात्र मार्ग है। और जो अनुभव से बचना चाहते हैं और सस्ते में चाहते हैं ज्ञान को उपलब्ध हो जायें वे भटकते रहेंगे, अधपके रह जायेंगे, यही तो गति है तुम्हारी, दुर्गति कहनी चाहिए।

आखिरी प्रश्‍न:

 

क्या भक्ति-साधना के भीकुछ साधन हैं, कुछ टेकनीक हैं, या वह सर्वथा स्वत: स्फूर्त और सहज है?    

नहीं, कोई साधन नहीं हैं।

प्रेम का कहीं कोई साधन होता है, कोई टेकनीक, कोई टेकनीक नहीं होता।

प्रेम परम साधन है, स्वयं ही

“खाकसारी का है गसफिल! बहुत ऊंचा मर्तबा! “

मिट जाने का, ऐ सोने वाले!… बहुत ऊंचा है मिट जाने की।

“खाकसारी का है गाफिल! बहुत ऊंचा मर्तबा।

यह जमीं वोह है कि जिस पर आसमां कोई नहीं। “

बस भक्ति तो मिट जाना है, ना-कुछ हो जाना है, अपने को श्ल्य कर लेना है, ताकि परमात्मा तुममें पूर्ण हो सके, जगह देनी है ताकि उसका प्रवेश हो सके, टूटना है!

तुमने बहुत चीजों को टूटते देखा है, अभी अपने को टूटते नहीं देखा। तुमने बहुत चीजें मिटते देखीं अपने को मिटते नहीं देखा। तुमने बहुतों को मरते देखा, अपने को मरते नहीं देखा।

भक्ति अपने को मरते देखना है। वह मृत्यु का साक्षात्कार है।

“हुबाब देख लिया, आबगीना देख लिया

शिकस्ते दिल की नजाकत किसी को क्या मालूम! “

बुलबुले को देखा पानी के, उसको टूटता देखा…! कई बार तुमने देखा होगा पानी के बुलबुले को टूटता।

छोटे बच्चों सोप के बुलबुले उठाते हैं और उनका टूटना देखते हैं, उनकी रंगीनी देखते हैं सूरज की किरणों में। गौर किया, बुलबुले के भीतर कुछ भी नहीं होता, बाहर भी कुछ नहीं, बाहर भी खाली आकाश है भीतर भी खाली आकाश है, बीच में एक छोटी- सी पानी की पर्त है।

“हुबाब देख लिया “—ऐसे बुलबुले को टूटते देख लिया। “ आबगीना देख लिया “—कभी शीशे को पटककर देखा : टुकड़े- टुकड़े हो जाता है, खंड-खंड हो जाता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं है।

“शिकस्ते दिल की नजाकत किसी को क्या मालूम। “

जिसने दिल को टूटता देखा, उसकी सूक्ष्मता का किसी को कोई भी पता नहीं है। क्योंकि जहां दिल टूटता है, जहां दिल भी एक बबूले की तरह टूट जाता है, जहां तुम्हारा होना एक बबूले की तरह टूट जाता है—वहां तुम अचानक पाते हो कि भीतर की आत्मा विराट परमात्मा से मिल गयी, जरा-सी दीवाल थी, खो गयी!

तुम्हारा अहंकार कांच के दर्पण से ज्यादा नहीं है : गिरा नहीं कि टूटा। जरा झुको आर गिरा दोइसे। मिटना सीखो—बस भक्ति का सूत्र इतना ही है।

योग में हजार विधियां हैं, भक्ति का सूत्र एक ही है। पर एक काफी है। वैसे ही जैसे कहावत है : सौ सुनार की एक लुहार की! ऐसे ही योगी खटखट- खटखट बहुत मचाता है। इसलिए तो उसके कर्म को “खटकरम कहते हैं। बहुत उपद्रव करता है। न मालूम कितनी विधियां बनाता है! इसलिए तो उसकी विधियों को गोरखधंधी कहते हैं। वह महायोगी गोरख के नाम से बना है शब्‍द : गोरखधंधी! गोरख ने इतनी विधियां खोजीं कि विधियों में ही कोई खो जाए, पहुंचने की तो बात ही अलग। इसलिए-गोरखधंधा।

भक्ति तो एक ही सूत्र जानती है : अपने को खो दो। झुको। मिटो।

परमात्मा द्वार पर खड़ा है : इधर तुम झुके नहीं, उधर वह मिला नहीं।

आज इतना ही।


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भक्‍ति सूत्र–(प्रवचन–3)

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बड़ी संवेदनशील है भक्ति तीसरा प्रवचन

दिनांक 13 जनवरी, 1976,

श्री रजनीश आश्रम पूना

सूत्र:

सा न कामयमाना निरोधेरूपत्वात्।।

निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यास:।।

तस्मिन्नन्यता तद्धिरोधिघूदासीनता च।।

अन्याश्रयाणा त्यागोधनन्यता।।

लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्धिरोधिघूदासीनता।।

भवतु निश्वयदाढर्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम्।।

अन्यथा पातित्याशड्कया।।

लोकोवपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीधारणावधि।।

 

जीवन की व्यर्थता जब तक प्रगाढ़ अनुभव न बन जाए तब तक परमात्मा की खोज शुरू नहीं होती। जीवन की व्यर्थता का बोध ही उसकी तरफ पहला कदम है। जब तक ऐसी भांति बनी है कि यहां कुछ खोज लेंगे, पा लेंगे, यहां कुछ मिल जायेगा सपनों की दुनिया में–तब तक परमात्मा भी एक सपना ही है, तब तक तुम उसे खोजने नहीं निकलते, तब तक तुम स्वयं को दांव पर भी नहीं लगाते।

परमात्मा मुक्त मिलनेवाला नहीं है। जो भी तुम हो, तुम्हारी परिपूर्ण सत्ता जब तक दांव पर न लग जाए, तब तक परमात्मा से कोई मिलन नहीं। क्योंकि प्रेम इससे कम पर नहीं मिल सकता। और प्रार्थना इससे कम पर शुरू नहीं होती। यह काम जुआरियों का है, दुकानदारों का नहीं। यहां पूरी खोने की हिम्मत चाहिए। दीवानगी चाहिए! मस्ती चाहिए!

लेकिन यह तभी संभव हो पाता है जब जो तुम्हारे पास है, वह व्यर्थ दिखायी पड़ता है, वह कूड़ा- करकट हो जाता है, तब तुम उसे पकड़ते नहीं।

करोड़ों लोग परमात्मा के शब्द का उच्चार करते हैं, प्रार्थना करते हैं, पूजा करते हैं, लेकिन उसकी कोई झलक नहीं मिलती। क्या पूजा व्यर्थ है? नहीं, करनेवालों ने की ही नहीं। क्या प्रार्थना श्ल्य आकाश में खो जाती है, कोई प्रत्युत्तर नहीं आता? प्रार्थना थी ही नहीं, अन्यथा प्रत्युत्तर तत्क्षण आता है। इधर तुमने पुकारा भी नहीं कि उधर प्रत्युत्तर मिला नहीं! पर तुमने पुकारा ही नहीं। तुम सोचते हो कि तुमने पुकारा, तुम सोचते हो कि तुमने प्रार्थना की, लेकिन कभी तुमने हृदय को दांव पर लगाया नहीं।

आधे-आधे मन से न होगा। : पूरे-पूरे की मांग है।

तो, जब तक तुम्हें लगता है कि संसार में अभी कुछ मिल सकता है, रस कायम है, जब तक तुम जागे नहीं, सपने में थोड़े उलझे हो, जब तक तुम्हें सपने में भरोसा है कि यह सच है–तब तक परमात्मा की तरफ आशाओं का प्रवाह, आकांक्षाओं का प्रवाह शुरू नहीं होता; तब तक प्रार्थना तुम्हारी अभीप्सा नहीं होती, तुम्हारे हृदय की भाव-दशा नहीं होती; तब तुम्हारी प्रार्थना भी तुम्हारी चालाकी, तुम्हारे गणित, तुम्हारी होशियारी का हिसाब होती है। तुम सोचते हो “चलो, हो-न-हो कहीं परमात्मा हो ही न, प्रार्थना भी कर लो, पूजा भी कर लो, बिगड़ता क्या है। हानि क्या है। अगर लाभ हुआ तो हो जाएगा, न हुआ तो हानि तो कुछ भी नहीं। “

मैंने सुना है, एक नाटकगृह में ऐसा हुआ कि मध्य नाटक में, जो नाटक का प्रधान पात्र था, उसे हृदय का दौरा पड़ गया। संयोजक परदे के बाहर आया, उसने क्षमा मांगी कि क्षमा करें, दुख की बात है, हृदय के दौरे के कारण प्रमुख नायक की मृत्यु हो गयी है और नाटक आगे न हो सकेगा। हम क्षमा-प्रार्थी हैं, लेकिन हमारे कोई हाथ की बात भी नहीं।

लोग नाटक में बड़े उलझे थे। अभी तो जिज्ञासा जगी थी, और यह तो बीच में सब टूट गया–जैसे नींद टूट गई।

एक स्त्री ने खड़े होकर कहा कि छाती के ऊपर मालिश करो, अभिनेता की।

मैनेजर ने कहा, “देवी जी, वह मर चुका है। अब मालिश से क्या लाभ होगा; “

उस स्त्री ने कहा, “लाभ न हो, हानि क्या होगी; “

बस तुम्हारी प्रार्थना ऐसी ही है कि अगर लाभ न हुआ, कोई हर्जा नहीं, “हानि क्या होगी। “ सभी नास्तिक आस्तिक होने लगते हैं, क्योंकि जैसे-जैसे मौत करीब आती है और पैर लड़खड़ाते हैं और अंधेरा घना होने लगता है और आकाश के तारे छुपने लगते हैं, सब आशाओं के दिये बुझने लगते हैं और लगता है कि अब सिर्फ कब्र के अतिरिक्त और कोई जगह न रही, तो नास्तिक भी परमात्मा का स्मरण करने लगता है कौन जाने, शायद हो। लेकिन “शायद” से प्रार्थना नहीं बनती। “शायद” से समझदारी तो समझ में आती है, प्रेम समझ में नहीं आता।

समझदारी से कोई कभी समझदार नहीं हुआ। समझदारी के कारण ही तो तुम नासमझ बने हो। तुम्हारी समझदारी ही महंगी पड़ रही है।

तो, परमात्मा की तरफ अगर तुम होशियारी से जा रहे हो, बही-खाते का हिसाब वहां भी फैला रहे हो, सोचते हो कि ठीक है, संसार को भी संभाल लें, परमात्मा को भी संभाल लें, दोनों नावों पर सवार हो जाएं–तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। तुम मुश्किल में पड़े हो, क्योंकि मैं देखता हूं, तुम दोनों नावों में आधे-आधे खड़े हो।

नाव पर तो एक ही चढ़ा जाता है…एक ही नाव पर चढ़ा जाता है, अन्यथा दुविधा पैदा हो जाती है। दो दिशाओं में चलोगे तो टूट जाओगे, खंड-खंड हो जाओगे, बिखर जाओगे। और जब तुम ही खंड-खंड हो गये, बिखर गये, जब तुम्हारे भीतर ही एकतानता न रही, तो प्रार्थना कौन करेगा, पूजा कौन करेगा? भीड़ थोड़े ही पूजा करती है; भीतर की एकता से पूजा उठती है; भीतर की अखंडता से सुगंध उठती है प्रार्थना की।

तो इस बात को पहले खयाल में ले लेना चाहिए तो ही भक्ति-सूत्र समझ में आ सकेंगे।

यह जिंदगी अगर तुम्हें अभी भी रसपूर्ण मालूम पड़ती है तो थोड़ा और जी लो। आज नहीं कल, रस टूट जायेगा।

जितना आदमी सजग हो उतने जल्दी रस टूट जाता है। जितना आदमी बेहोश हो, उतनी देर तक रस टिकता है। बेहोशी रस का सहारा है। जितनी तुम्हारे भीतर बुद्धिमानी हो–होशियारी नहीं कह रहा हूं, चालाकी नहीं कह रहा हूं; बुद्धिमत्ता हो–उतनी जल्दी तुम जीवन के रस से चुक जाओगे। और जब जीवन का रस चुकता है तभी तुम्हारी रसधार जो जीवन में नियोजित थी, मुक्त होती है: अब संसार में जाने को कोई जगह न बची; अब वह रास्ता न रहा; अब चीजों की तरफ दौड़ने की बात न रही; अब संग्रह को बड़ा करना है, मकान बड़ा बनाना है धन इकट्ठा करना है, पद-प्रतिष्ठा पानी है–यह सब व्यर्थ हुआअब तुम अपने घर की तरफ लौटते हो।

“घर बयाबां में बनाया नहीं हमने लेकिन

जिसको घर समझे हुए थे वह बयाबां निकला। “

कोई रेगिस्तान में घर नहीं बनाया था, लेकिन जिसको घर समझे हुए थे वही रेगिस्तान निकला, वही वीरान निकला।

जिस दिन तुम्हें अपना घर बयाबां मालूम पड़े, वीरान मालूम पड़े…वीरान है; सिर्फ तुम अपने सपनों के कारण उसे सजाये हो। जरा चौंककर देखो: जिसे तुम घर कह रहे हो, वह घर नहीं है, ज्यादा-से-ज्यादा सराय है; आज टिके हो, कल विदा हो जाना पड़ेगा। जो छिन ही जाना है, उसको अपना कहना किस मुंह से संभव है? जहां से उखड़ ही जाना पड़ेगा, जहां क्षण-भर को ठहरने का अवसर मिला है,, पड़ाव हो सकता है, मंजिल नहीं है, और मंजिल के पहले घर कहां! घर तो वहीं हो सकता है जहां पहुंचे तो पहुंचे, जिसके आगे जाने को कुछ और न रहे।

परमात्मा के अतिरिक्त कोई घर नहीं हो सकता।

मुझसे लोग पूछते हैं, “संन्यास की परिभाषा क्या? “ तो मैं कहता हूं, “दो तरह के घर बनानेवाले हैं, दो तरह के गृहस्थ हैं: एक जो संसार में घर बनाते हैं, उनको हम गृहस्थ कहते हैं; एक जो परमात्मा में घर बनाते हैं, वे भी गृहस्थ हैं, उनको हम संन्यासी कहते हैं–सिर्फ भेद करने को। घर अलग-अलग जगह बनाते हैं। एक हैं जो पानी पर जीवन को लिखते हैं, लिख भी नहीं पाते और मिट जाता है; और एक हैं जो जीवन की शाश्वतता पर लिखते हैं। एक हैं जो रेत पर घर बनाते हैं, जिनकी बुनियाद ही डगमगा रही है; और एक है जो जीवन की शाश्वतता को आधार की तरह स्वीकार करते हैं। “

पहला सूत्र है: “वह भक्ति कामना युक्त नहीं है, क्योंकि वह निरोध-स्वरूपा है। “ संसार यानी कामना।

संसार का ठीक अर्थ समझ लो, क्योंकि तुम्हें संसार का भी अर्थ गलत ही बताया गया है। कोई घर छोड्कर भाग जाता है तो वह कहता है, संसार छोड़ दिया। कोई पत्नी को छोड्कर भाग जाता है तो वह कहता है, संसार छोड़ दिया। काश, संसार इतना स्‍थूल होता! काश, तुम्हारी पत्नी के छोड़ जाने से संसार छूट जाता! काश, बात इतनी सस्ती होती! तो संन्यास बहुत बहुमूल्य नहीं होता।

संसार न तो पत्नी में है, न घर में है, न धन में है, न बाजार में है, न दुकान में है– संसार तुम्हारी कामना में है। जब तक तुम मांगते हो कि मुझे कुछ चाहिए, जब तक तुम सोचते हो कि मेरा संतोष, मेरा सुख, मुझे मिल जाए, उसमें है, तब तक तुम संसार में हो। जब तक मांग है तब तक संसार है।

संसार का अर्थ है: तुम्हारा हृदय एक भिक्षापात्र है, जिसको लिये तुम मांगते फिरते हो–कभी इस द्वार, कभी उस द्वार। कितने ठुकराये जाते हो! लेकिन फिर-फिर संभलकर मांगने लगते हो। क्योंकि एक ही तुम्हारे मन में धारणा है कि और ज्यादा, और ज्यादा मिल जाए, तो शायद सुख हो!

“और “ की दौड़ संसार है।

तो तुम मंदिर में भी बैठ जाओ और वहां भी अगर तुम मांग रहे हो तो तुम संसार में ही हो। तुम हिमालय पर चले जाओ, वहां भी आंख बंद करे अगर तुम मांग ही रहे हो, परमात्मा से कह रहे हो, “और दे, स्वर्ग दे, मोक्ष दे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या मांगते हो। संसार का कोई संबंध इससे नहीं है कि तुम क्या मांगते हो; अन्यथा संसार छोड़ने का ढोंग भी हो जाता है और संसार छूटता भी नहीं।

संसार तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं। संसार तुम्हारी इस मांग में है कि “मैं जैसा हूं वैसा काफी नहीं हूं, कुछ चाहिए जो मुझे पूरा करे; मैं अधूरा हूं, अतृप्त हूं, कुछ मिल जाए जो मुझे पूरा करे, तृप्त करे, संतुष्ट करे! “ स्वयं को अधूरा मानने में और आशा रखने में कि कुछ मिलेगा जो पूरा कर देगा, बस वहां संसार है।

मांग छूटी: संसार छूटा! तब कोई घर छोड़ने की जरूरत नहीं है, न पत्नी को छोड़ने की जरूरत, न पति को, न बच्चों को–उनको कोई कसूर नहीं है!… घर में रहते तुम संसार से मुक्त हो जाते हो। पत्नी के पास बैठे तुम संसार से मुक्त हो जाते हो। बच्चों को सजाते-संभालते तुम संसार से मुक्त हो जाते हो। क्योंकि संसार से मुक्त होने को केवल इतना ही अर्थ है कि अब तुम तृप्त हो, जैसे हो, जो हो; तुम्हारे होने में अब कोई मांग नहीं है; तुम्हारे होने में अब कोई आकांक्षा नहीं है; तुम्हारा होना कामनातुर नहीं है; तुम अब कामनाओं का फैलाव नहीं हो, विस्तार नहीं हो–तुम बस हो: तृप्त, यही क्षण, और जैसे तुम हो, पर्याप्त है, पर्याप्त से भी ज्यादा है।

तब तुम्हारी प्रार्थना धन्यवाद बन जाती है, मांग नहीं। तब तुम मंदिर कुछ मांगने नहीं जाते, तुम उसे धन्यवाद देने जाते हो कि “तूने इतना दिया, अपेक्षा से ज्यादा दिया, जो कभी मांगा नहीं था वह दिया। तेरे देने का कोई अंत नहीं! हमारा पात्र ही छोटा पड़ता जाता है और तू भरे जा रहा है! “

… तब भी तुम रोते हो जाकर मंदिर में, लेकिन तब तुम्हारे आसुओ का सौंदर्य और! जब तुम मांग से रोते हो, तब तुम्हारे आसू गंदे हैं, दीन हैं, दरिद्र हैं। जब तुम अहोभाव से रोते हो, तुम्हारे आसुओ का मूल्य कोई मोती नहीं चुका सकते। तब तुम्हारा एक-एक आसू बहुमूल्य है, हीरा है। आसू वही है, लेकिन अहोभाव से भरे हुए हृदय से जब आता है, तो रूपांतरित हो जाता है।

तुम जरा फर्क करके देखना। तुम दुख में भी रोये हो, पीड़ा में रोये हो, असंतोष में रोये हो, शिकायत में रोये हो, कभी अहोभाव में भी रोकर देखना, कभी आनंद में भी रोकर देखना—और तुम पाओगे : तुम्हारे बदलते ही आसुओ का ढंग भी बदल जाता है। तब आसू फूलों की तरह आते हैं। तब आसुओ में एक सुगंध होती है जो इस लोक की नहीं है।

मीरा भी रोती है, पर मीरा के आसू भिखारी के आंसू नहीं है। चैतन्य भी रोते हैं, लेकिन चैतन्य के आसू दीन- दरिद्र नहीं हैं, कुछ मांग से नहीं निकल रहे हैं, किसी अभाव से पैदा नहीं हुए हैं—किसी बड़ी गहन भाव- दशा से जन्मे हैं! गंगा का जल भी उतना पवित्र नहीं है। “वह भक्ति कामना युक्त नहीं है, क्योंकि वह निरोधस्वरूपा है।

निरोधस्वरूपा!

साधारणत: भक्ति- सूत्र पर व्याख्या करने वालों ने निरोधस्वरूपा का अर्थ किया है कि जिन्होंने सब त्याग दिया, छोड़ दिया। नहीं, मेरा वैसा अर्थ नहीं है। जरा सा फर्क करता हूं, लेकिन फर्क बहुत बड़ा है। समझोगे तो उससे बड़ा फर्क नहीं हो सकता।

निरोधस्वरूपा का अर्थ यह नहीं है कि जिन्होंने छोड़ दिया—निरोधस्वरूपा का अर्थ है कि जिनसे छूट गया। निरोध और त्याग का वही फर्क है। त्याग का अर्थ होता है : छोड़ा निरोध का अर्थ होता है : छूटा, व्यर्थ हुआ। जो चीज व्यर्थ हो जाती है उसे छोड़ना थोड़े ही पड़ता है, छूट जाती है।

सुबह तुम रोज घर का कूड़ा-करकट इकका करके बाहर फेंक आते हो तो तुम कोई जाकर अखबारों के दफतर में खबर नहीं देते कि आज फिर त्याग कर दिया कूड़े-करकट का, ढेर- का- ढेर त्याग कर दिया! तुम जाओगे तो लोग तुम्हें पागल समझेंगे। अगर कूड़ा- करकट है तो फिर छोड़ा, इसकी बात ही क्यों उठाते हो ,

तो जो आदमी कहता है, “मैंने त्याग किया, “वह आदमी अभी भी निरोध को उपलब्ध नहीं हुआ। क्योंकि त्याग करने का अर्थ ही यह होता है कि अभी भी सार्थकता शेष थी।

अगर कोई कहता है कि मैंने बड़ा स्वर्ण छोड़ा बड़े महल छोड़े गौर से देखना : स्वर्ण अभी भी स्वर्ण था, महल अभी भी महल थे। “छोड़ा “! छोड़ना बड़ी चेष्टा से हुआ। चेष्टा का अर्थ ही यह होता है कि रस अभी कायम था, फल पका न था, कच्चा था, तोड़ना पड़ा।

पका फल गिरता है; कच्चा फल तोड़ना पड़ता है।

तो त्यागी तो सभी कच्चे हैं। निमे ध को उपलब्ध व्यक्ति पका हुआ व्यक्ति है। त्याग और निरोध का यही फर्क है। नारद कह सकते थे, “त्यागस्वरूपा है “, पर उन्होंने नहीं कहा। “निमे धस्वरूपा “! व्यर्थ हो गयी जो चीज, वह गिर जाती है, उसका निरोध हो जाता है।

सुबह तुम जागते हो तो सपनों का त्याग थोड़े ही करते हो, कि जागकर तुम कहते हो, “बस रात- भर के सपने छोड़ता हूं। “ जागे कि निरोध हुआ। जागते ही तुमने पाया कि सपने टूट गये, सपने व्य र्थ हो गये, सपने सिद्ध हो गये कि सपने थे, बात समाप्त हुई, अब उनकी चर्चा क्या करनी है!

जो त्याग का हिसाब रखते हैं, समझना, भोगी ही हैं—शीर्षासन करते हुए, उलटे खड़े हो गये हैं, भोगी ही हैं।

एक संन्यासी को मैं जानता हूं जो भूलते ही नहीं…। कोई चालीस साल पहले उन्होंने छोड़ा था संसार—छोड़ा था, निमे ध नहीं हुआ था—चालीस साल बीत गये, अभी भी छूटा नहीं। छोड़ा हुआ क भी छूटता ही नहीं। वे अभी भी कहते रहते हैं कि मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी। मैंने उनसे एक दिन कहा कि लात लग नयी पायी, तुमने मारी होगी, चूक गयी! उन्होंने कहा, क्या मतलब ,     “

चालीस साल हो गये… छूट गया, छूट गया। इसकी चर्चा क्यों खींचते हो, इसे रोज- रोज याद क्यों करते हो, रस कायम है। लाखों में अभी भी मूल्य है। अभी भी तुम दूसरों को भूलते नहीं बताना कि मैने लाखों पर लात मारी। तुमने बैंक- बैलेंस कायम रखा है। गिनती जारी है। नहीं, यह त्याग तो है, निरोध नहीं। “

त्याग झूठा सिक्का है निरोध का। निरोध बड़ी अदभुत घटना है!

रामकृष्ण के पास एक आदमी आया, हजार सोने की अशर्फियां लाया था, दान करने, उनको देने। उन्होंने कहा, “मुझे जरूरत नहीं। तू एक काम कर, गंगा में फेंक आ। “ वह गया, लेकिन घंटा- भर हो गया, लौटा नहीं, तो रामकृष्ण ने आदमी भेजे कि देखो, क्या हुआ, कहीं दुख में डूब तो नहीं मरा! गये तो वह एक अशर्फी को बजा-बजाकर फेंक रहा था, भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, लोग चमत्कृत हो रहे थे। तो उन्होंने आकर कहा कि वह एक-एक अशर्फी गिन- गिनकर फेंक रहा है।

तो रामकृष्ण गये और उससे कहा, “नासमझ! जब कोई इकका करता है तब तो गिनना समझ में आता है। लेकिन जब फेंकना ही है तो क्या गिनकर फेंकना! नौ सौ निन्यानबे थीं कि हजार थीं, क्या फर्क पड़ता है! कोई हिसाब रखना है पीछे कि कितनी फेंकी, कि कितनी दान कीं, अगर हिसाब रखना है तो फेंक ही मत, अपने घर ले जा। जब हिसाब ही नहीं छूटता है तो अशर्फीयां छोड़ने से कुछ भी न होगा। असली चीज हिसाब का छूटना है, असली चीज अशर्फी छोड़ने से कुछ भी न होगा। असली चीज हिसाब का छूटना है, असली चीज अशर्फियां का छूटना नहीं है। “

जीसस ने कहा है : “तुम्हारा एक हाथ जो दान करे, दूसरे हा थ को पता न पड़े। “

सूफी फकीर कहते हैं :”नेकी कर, कुएं में डाल। हिसाब मत रख। किया भूल, कुएं में डाल दे। बात खत्म हो गयी, जैसे कभी हुई ही न थी। “

लेकिन तुम जाओ अपने त्यागियों के पास, महात्माओं के पास, तुम उनके पास पूरा हिसाब पाओगे। हिसाब ठीक भी नहीं पाओगे, बहुत बढ़ा-चढ़ाया हुआ है। हजार छोड़े होंगे तो लाख हो गये हैं। अब पूछता कौन है, और त्याग की परीक्षा भी क्या है, कसौटी भी क्या है, तुम्हारे पास लाख रुपये हैं तो तुम रुपये दिखा सकते हो, लेकिन जिसने लाख छोड़े हैं उसके पास प्रमाण क्या है कि उसने लाख छोड़े कि दस लाख छोड़े, न केवल महात्याग ऐसा करते हैं, महात्माओं के शिष्य उसको बढ़ाते चले जाते हैं।

महावीर ने महल छोड़ा, धन-संपत्ति छोड़ी, जैनियों ने जो शास्त्र लिखे हैं, उनमें इतना बढ़ा- चढ़ा कर लिखा है, वह सरासर झूठ है। क्योंकि महावीर का साम्राज्य बड़ा छोटा-सा था कोई बड़ा नहीं था। महावीर के समय भारत में दो हजार राज्य थे। कोई बहुत बड़ा नहीं था, एक छोटी डिस्ट्रिक्ट से ज्यादा नहीं, एक छोटे जिले से ज्यादा नहीं था। इतने हाथी-घोड़े जितने जैनियों ने लिखे हैं, अगर होते तो आदमियों के रहने की जगह न रह जाती। लेकिन बढ़-चढ़ जाता है।

कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध हुआ। हिंदू उसकी जो कहानी बताते हैं, उसको अगर सुनो तो ऐसा लगता है कि उस युद्ध के लिए पूरी पृथ्वी कम पड़ेगी। कुरुक्षेत्र का छोटा-सा मैदान उसमें अट्ठारह अक्षौहिणी सेनाएं बन नहीं सकतीं, लड़ना तो दूर, अगर वे प्रेम भी करना चाहें, शांत खड़े होकर, तो भी संभव नहीं है। लड़ने के लिए थोड़ी जगह चाहिए, स्थान चाहिए। लेकिन बढ़ता जाता है…।

बुद्ध के भक्तों ने जो लिखा है वह सच नहीं है, क्योंकि बुद्ध की भी जगह बड़ी छोटी थी, वह कोई बहुत बड़ा साम्राज्य नहीं था। लेकिन जिस तरह की कहानियां हैं… और कहानियां बढ़ती चली गयी हैं।

क्यों, इन कहानियों को बढ़ाने का कारण क्या है, कारण साफ है कि हम त्याग को भी धन की मात्रा से ही समझ पाते हैं, और कोई उपाय नहीं है।

समझो, अगर महावीर फकीर के घर पैदा होते और पास धन न होता, तो तुम कैसे जानते कि उन्होंने त्याग किया, वे घर छोड़ देते, लेकिन त्यागी तो नहीं हो सकते थे। महात्यागी तुम कैसे कहते, था ही नहीं कुछ तो छोड़ा क्या, तुम्हें भीतर के रहस्य तो दिखायी नहीं पड़ते, बस बाहर की चीजें दिखायी पड़ती हैं। तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि केवल धनी ही त्यागी हो सकते हैं। तब तो इसका अर्थ हुआ कि त्यागी होने के पहले बहुत धनी हो जाना जरूरी है। तब तो इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा के जगत में भी अंतत : धन का ही मूल्य है, उसी से हिसाब लगेगा।

एक फकीर ने सब छोड़ दिया, उसके पास दो पैसे थे। महावीर ने भी सब छोड़ दिया, उनके पास करोड़ रुपये थे, परमात्मा के सामने हिसाब में महावीर जीत जाएंगे, गरीब हार जाएगा। दो पैसे छोड़े! इन्होंने करोड़ छोड़े!

नहीं, परमात्मा के राज्य में तुमने क्या छोड़ा, इसका सवाल नहीं है; छोड़ा या नहीं छोड़ा, बस इसका ही सवाल है; छोड़ा या छूटा, इसका ही सवाल है।

निरोध का अर्थ है: छूट जाता है।

जिन्होंने संसार के सत्य को देखा, उनके जीवन में निरोध आ जाता है। उस निरोध को नारद ने भक्ति का स्वभाव कहा।

“वह भक्ति कामना युक्त नहीं है, और निरोधस्वरूपा है। “ उसका स्वरूप है निरोध।

जैसे ही संसार से कामना हटती है, वही कामना परमात्मा की दिशा में प्रार्थना बन जाती हैं, वही ऊर्जा है! कोई अलग ऊर्जा नहीं है। वे ही हाथ जो भिक्षापात्र बने थे, प्रार्थना में जुड़ जाते हैं। वही हृदय जो धन-संपत्ति को मांगता फिरता था, परम अहोभाव में झुक जाता है। वही जीवन-ऊर्जा जो नीचे की तरफ भागती थी, खाई-खड्ड खोजती थी, आकाश की तरफ उठने लगती है।

“तेरी राह किसने बतायी न पूछ, दिले मुज्तरब राहबर हो गया। “

तेरी राह किसने बतायी, यह मत पूछ–प्यासा दिल सदगुरु हो गया; व्याकुल हृदय मार्गदर्शक बन गया!

“तेरी राह किसने बतायी न पूछ

दिले मुज्तरब राहबर हो गया। “

जिस दिन संसार से तुम्हारा रस टूटता है, व्याकुलता जगती है परमात्मा की। वही मार्गदर्शक हो जाता है। वही तुम्हें ले चलता है। उसी के सहारे लोग पहुंचते है।

संसार की मांग करता हुआ व्यक्ति उन हजार चीजों में चाहे तो परमात्मा की मांग का भी जोड़ ले सकता है, लेकिन वह फेहरिश्त में एक नाम होगा–लंबी फहेरिश्त में! और मेरे खयाल से आखिरी होगा। अगर तुम्हारी फेहरिश्त में हजार नाम हैं तो वह एक हजार एक होगा। मेरे पास लोग आ जाते हैं और वे कहते हैं, “हम प्रार्थना करना चाहते हैं समय कहां! “ इन्हीं लोगों को मैं सिनेमा में बैठे देखता हूं। इन्हीं लोगों को मैं क्लब-घर में ताश खेलते देखता हूं। इन्हीं लोगों को अखबार को पढ़ते देखता हूं सुबह से उठकर। इन्हीं लोगों को व्यर्थ की गपशप में संलग्न देखता हूं। ये ही लोग हजार तरह के उपद्रव में जुड़ जाते हैं, लड़ाई-झगड़ों में जुड जाते हैं। हिंदू मुसलमानों को काटने लगते हैं, मुसलमान हिंदुओं को काटने लगते हैं। ये ही लोग! लेकिन जब प्रार्थना का सवाल उठता है तो कहते हैं, “समय कहां! “

वे क्या कह रहे हैं? वे यह कह रहे हैं कि और बड़ी चीजें हैं परमात्मा से, समय पहले उनको दें, फिर बच जाए तो परमात्मा को दें। वे यह नहीं कह रहे हैं कि समय नहीं हैं; वे यह कह रहे हैं, समय तो है–समय तो सभी के पास बराबर है–लेकिन और चीजें ज्यादा जरूरी हैं। परमात्मा क्यू में बिलकुल अंतिम खड़ा है। पहले धन इकट्ठा कर लें, मकान बना लें, इज्जत-प्रतिष्ठा संभाल लें, फिर…। ऐसे परमात्मा प्रतीक्षा ही करता रहता है, फिर “ कभी आता नहीं–आयोग ही नहीं, क्योंकि इस संसार की दौड़ कभी पूरी नहीं होती।

यहां कुछ भी पूरा होनेवाला नहीं है। यहां तो जितना पीयो उतनी प्यास बढ़ती जाती है। यहां तो जितना भोजन करो उतनी भूख बढ़ती जाती है। यहां तो जितनी तिजोडी भरती जाए, उतना ही आदमी भीतर कृपण होता चला जाता है। दुनिया बड़ी अदभुत है! यहां गरीब के पास तो अमीर का दिल मिल भी जाए, अमीर के पास बिलकुल गरीब का दिल होता है।

इन हजार उपद्रवों में अगर तुम सोचते हो कि परमात्मा को भी एक आकांक्षा बना लेंगे, तो संभव नहीं है। परमात्मा तो अभीप्सा बने, तो ही तुम अधिकारी होते हो। अभीप्सा का अर्थ होता है: सारी इच्छाएं उसी की इच्छा में परिणत हो जाएं, सारे नदी-नाले उसी के सागर में गिर जाएं; उसके अतिरिक्त कुछ भी न सूझे; उसके अतिरिक्त हृदय में कोई आवाज न रहे; उसके अतिरिक्त श्वासों में कोई स्वर न बजे; उसका ही इकतारा बजने लगे!

फकीरों के पास तुमने इकतारा देखा है। कभी सोचा न होगा, इकतारा प्रतीक है: परमात्मा के लिए एक ही तार काफी है। सितार में और बहुत तार होते हैं, वीणा में बहुत तार होते हैं और सारंगी में बहुत तार होते हैं–वे संसार के प्रतीक हैं; इकतारा, परमात्मा का।

बस इकतारा! एक ही अभीप्सा का स्वर बजने लगे, दूसरी कोई ध्चनि भी न रह जाए, तो हो “रग रग में नेशे इश्क है, ऐ चारागर मेरे!

यह दर्द वह नहीं, के कहीं हो, कहीं न हो। “

रगरग में नेशे इश्क है, ऐ चारागर मेरे!

यह दर्द वह नहीं, कि कहीं हो, कहीं न हो। “

जब परमात्मा का दर्द तुम्हारे रग-रग में समा जाता है; जब तुम्हारा रोआ-रोआ उसी को पुकारता है; सोते और जागते अहर्निश उसका ही स्मरण बना रहता है; करो कुछ भी, याद उसकी ही; जाओ कहीं, याद उसकी ही; बैठो कि उठो कि सोओ, याद उसकी ही– जब रग-रग में ऐसा समा जाता है, तभी तुमने पात्रता पायी, तभी तुम अधिकारी हुए। और ध्यान रखना, आज नहीं कल, इस महाक्रांति में उतरना ही पड़ेगा। लाख तुम कोशिश करो इस संसार को घर बना लेने की, सफलता मिलनेवाली नहीं है। कोई कभी सफल नहीं हो पाया। सपने को सच कितना ही मानो, सपना एक दिन टूटता ही है। सपने का स्वभाव ही टूट जाना है। तुम उसे सच मान कर थोड़ी-बहुत देर नींद ले सकते हो, लेकिन सदा के लिए यह नींद नहीं हो सकती। सपने का स्वभाव ही शुरू होना, समाप्त होना है। इस संसार को, तुम लाख कोशिश करो…हम सब कोशिश कर रहे हैं…हम, हमारी सारी कोशिश यही है कि बुद्ध, नारद, मीरा इन सबको हम गलत सिद्ध कर दें।

हम सबकी कोशिश क्या है? हमारी कोशिश यही है कि हम सिद्ध कर देंगे कि, संसार में सुख है; हम सिद्ध कर देंगे कि परमात्मा आवश्यक नहीं है; हम सिद्ध कर देंगे कि जीवन परमात्मा के दिन पर्याप्त है; हम सिद्ध कर देंगे कि धन में है कुछ, कि यह सपना नहीं है, माया नहीं है, सत्य है।

छोड़ो इस कता को, कभी कोई कर नहीं पाया! लेकिन इस करने की कोशिश में लोग अपने जीवन को गंवा देते हैं।

“हजार तरह तखम्युल ने करवटें बदली

कफस-कफस ही रहा, फिर भी आशिया न हुआ। “

नहीं, यह घर न बन पाएगा। यह जगह कारागह है, यह घर न बन पाएगी। यहां तुम अजनबी हो। यहां तुम लाख उपाय करो, और कल्पनाएं कितनी ही करवटें बदलें, हजार तरह से कल्पनाएं, सपने को संजोए, लेकिन यह जाल कल्पना का ही रहेगा।

कल्पना तुम्हारी है; सत्य परमात्मा का है। जब तक तुम सोचोगे-विचारोगे, तब तक तुम सपने में रहोगे। जब तुम सोच-विचार छोड़ोगे और जागोगे, तब तुम जानोगे, सत्य क्या है। सत्य मुक्तिदायी है। और जो मुक्त करे वही घर है। जहां स्वतंत्रता हो वही घर है।

कारागृह में और घर में फर्क क्या है? दीवालें तो उन्हीं ईंटों की बनी हैं, दरवाजे उन्हीं लकड़ियों के बने हैं।

कारागृह और घर में फर्क क्या है? घर में तुम मुक्त हो; कारागह में तुम मुक्त नहीं हो–बस इतना ही फर्क है।

घर स्वतंत्रता है; कारागृह गुलामी है।

“हजार तरह तखम्युल ने करवटें बदलीं

कफस-कफस ही रहा, फिर भी आशिया न हुआ। “

कारागृह में तुम बदलते रहो कल्पनाएं अपनी, सोचते रहो, जाले बुनते रहो सपनों के, सजाते रहो भीतर से कारागृह को–नहीं, घर न हो पाएगा।

जो जितनी जल्दी जाग जाए इस संबंध में उतना ही सौभाग्यशाली है; जितनी देर लगती है उतना ही समय व्यर्थ जाता है; जितनी देर लगती है उतनी ही गलत आदतें मजबूत होती चली जाती है; जितनी देर लगती है उतने ही बंधन और भी सख्त होते चले जाते हैं और तुम्हारी शक्ति क्षीण होती चली जाती है उन्हें तोड़ने की। इसलिए बुढापे की प्रतीक्षा मत करना। अगर समझ आए तो जब समझ आ जाए, क्षण-भर भी स्थगित मत करना उस समझ को।

“लौकिक और वैदिक समस्त कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं। “

संस्कृत का मूल बहुत अदभुत है! हिंदी में अनुवाद जो लोग करते हैं, उन्हें त्याग और निरोध का कोई भेद साफ नहीं है। संस्कृत का मूल कहता है:

लोक, वेद, व्यापार, इस सबका निरोध हो जाए, न्यास हो जाए, वही भक्ति है।

इसे समझें हम।

इस लोक और परलोक के व्यापार का निरोध हो जाए…। “

इस लोक का व्यापार है: धन की दौड़ है, पद की दौड़ है। परलोक का भी व्यापार है: सुख, आनंद, मोक्ष, वे भी यात्रा ही हैं, वे भी दौड़ हैं। किसी तरह इस संसार से तुम ऊबते हो, ऊब नहीं पाए कि तुम दूसरे संसार के सपने देखते शुरू कर देते हो। इसी तरह सपने देखनेवालों ने स्वर्ग बनाये, स्वर्ग में हजार कल्पनाओं को जगह दी, जो- जो यहां पूरा नहीं हो पाया है, वह- वह वहां रख लिया है। और कभी-कभी तो कल्पनाएं बड़ी मूढतापूर्ण मालूम होती हैं कि विचारों तो बड़ी हैरानी होती है।

मुसलमान कहते हैं, उनके स्वर्ग में बहिश्‍त में, शराब के चश्‍मे बहा रहे हैं। यहां पीने नहीं देते। यहां कहते हैं पाप और वहां चश्‍मे बहाते हैं। तुम सोच सकते हो, बात बिलकुल सीधी है, यह चश्‍मो की कल्पना किसने की होगी। यह उन्होंने की है जि नको यहां पीने में रस था और त्याग कर दिया। यह सीधी सी बात है, सीधा मनोविज्ञान है। यहां पीना चाहते थे, लेकिन हर की वजह से पी न पाये। यहां पीना चाहते थे, लेकिन धार्मिक शि क्षण की वजह से पी न पाये। यहां पीना चाहते थे लेकिन हिम्मत न जुटा पाये, तो अब स्वर्ग में चश्‍मे बहा रहे हैं। यहां चुल्लू-चुल्लू मिलती है, वहां डुबकी लगाएंगे।

“जाहिद के कसे-जुहूद की बुनियाद है यही मस्जिद बहुत करीब थी, मैखाना दूर था। “

वह जिनको तुम त्यागी समझते हो, उनके त्याग में अधिक तर तो कारण यही है कि मस्जिद करीब थी और मधुशाग़ला दूर थी… इतना ही। इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म का शिक्षण देनेवाले लोग तो पास थे, शराब का विज्ञापन करनेवाले लोग दूर थे। मां-बाप, समाज, परिवार, मंदिर- मस्जिद, स्कूल- विद्यालय, वे सब शराब के खिलाफ हैं, वे सब मस्जिद और मंदिर के प्रक्ष में हैं। इसलिए बैठ तो गये मंदिर में, बैठ तो गये मस्जिद में,

लेकिन मन का राग, मन की कामना, कोई शिक्षण से थोड़े ही मिटती है, अनुभव से मिटती है। सोचते तो शराब की ही हैं, यहां नहीं मिली, तो अब कल्पना में फैलाव करते हैं, स्वर्ग में मिलेगी! हिंदुओं का स्वर्ग है…।

और बड़े मजे की बात है, अगर तुम किसी भी जाति का स्वर्ग ठीक से पहचान लो तो तुम यह भी समझ जाओगे : उस जाति ने किन-किन चीजों की वर्जना की है। उस जाति के शास्त्रों को पढ्ने की जरूरत नहीं, उसका स्वर्ग समझ लो, फौरन पता चल जाएगा कि इस जाति ने किन-किन चीजों को जबरदस्ती त्याग है।

… हिंदुओं के स्वर्ग में कल्पवृक्ष है, जहां सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, बैठ जाओ उसके नीचे बस! ऐसा भी नहीं कि कुछ समय का फासला पड़ता हो, समय लगता ही नहीं है। तुमने यहां कामना की कि यहां पूरी हुई! तुमने कहा, “भोजन आ जाए “, थाल आ गये! बस तुम यहां कह भी नहीं पाये थे और थाल मौजूद हो गये।

हिंदुओं के स्वर्ग में कल्पवृक्ष है–क्यों? क्योंकि हिंदुओं ने सभी इच्छाओं के त्याग का आग्रह किया है। सभी इच्छाओं का त्याग! स्वभावत: जो किसी तरह अपने को समझा- बुझाकर त्यागी हो जाएगा, वह इसी आशा में जी रहा है कि कभी तो मरेंगे, यह देह तो कोई ज्यादा दिन चलनेवाली नहीं है, और कुछ साल बीत जाएं, फिर कल्पवृक्ष है! फिर उसके नीचे बैठ जाएंगे!

तुमने कभी देखा, दिन में कभी उपवास कर लो तो तुम रात- भर भोजन के सपने देखते हो! ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो तो सपने में स्त्रियां ही स्त्रियां दिखायी पड़ती हैं।

ये सपने हैं : कल्पवृक्ष! शराब के चश्‍मे! ये इस बात की खबर दे रहे हैं कि तुमने किस- किस चीज को जबरदस्ती छोड़ दिया है—अनु भव से नहीं, पक कर नहीं। संस्कार, शि क्षण, दबाव…!

“मस्जिद बहुत करीब थी, मैखाना दूर था! “ उतने दूर जाने की तुम हिम्मत न जुटा पाये। जाते तो प्रतिष्ठा दांव पर लगती थी। तो तुमने एक तरकीब निकाली कि यहां मस्जिद में रहो, स्वर्ग में मयखाने में रह लेंगे। ऐसे तुमने अपने को समझाया। ऐसे तुमने समझौता किया।

तुम्हारे स्वर्ग तुम्हारी कल्पनाओं के जाल हैं, और तुम्हारे नरक… ? स्वर्ग तुमने अपने लिए बनाये हैं और नरक दूसरों के लिए—वे भी बड़े विचारणीय हैं।

हिंदुओं का नरक है, तो भयंकर आग जल रही है, सतत अग्नि जलती है, बुझती नहीं। उसमें जलाये जा रहे हैं लोग। भारत गरमी से पीड़ित देश है। यहां सूर्य तपता है। तो शीतलता स्वर्ग में… शीतल मंद बयार बहती है! सुबह ही बनी रहती है स्वर्ग में, दोपहर नहीं आती। बस सुबह की ही ताजगी बनी रहती है। फूल खिलते हैं, मुरझाते नहीं। और शीतल हवा बहती रहती है। नरक में भयंकर लपटें हैं। वह गरम देश की धारणा है।

तिब्बती, वे नहीं बनाते, वे नहीं कहते कि नरक में लपटें हैं। उनका स्वर्ग गरम और कृष्ण है, क्योंकि ठंडे मुल्क के लोग मरे जा रहे हैं ठंड से, नरक में बर्फ- ही- बर्फ जमी है, उसमें लोग गल रहे हैं बर्फ में!

न तो कहीं कोई स्वर्ग है, न कहीं कोई नरक है। स्वर्ग तुम बनाते हो अपने लिए। जो- जो कामनाएं तुम पूरी करना चाहते थे और नहीं कर पाये, तो तुम स्वर्ग में कर लेते हो। स्वर्ग हिंदुओं का बिलकुल एयरकं डी S औड है, वातानुकूलित है। वहां कोई ताप नहीं लगती। पसीना नहीं आता स्वर्ग में—पसीना आता ही नहीं।

और जो तुम छोड़ दिये हो, अपने लिए कल्पना कर रहे हो, और दूसरों ने नहीं छोड़ा… समझो कि तुम शराब पीना चाहते थे और नहीं पी पाये, तो तुमने अपने लिए तो स्वर्ग में इंतजाम कर और जी रहे हैं, उनके लिए क्या करोगे, उनको भी दंड तो मिलना ही चाहिए, क्योंकि तुमने त्याग किया, उन्होंने त्याग नहीं किया, तो उनको नरक की लपटों में जलाया जाएगा। और वहां शराब तो दूर, पानी भी पीने को न मिलेगा। आग की लपटें होंगी, कंठ आग से भरा होगा, और पानी नहीं मिलेगा! पानी की बूंद नहीं मिलेगी!

इससे पता चलता है तुम्हारे मन का, तुम्हारी खुद की परेशानी का, तुम्हारी हिंसा का, तुम्हारी वासना का। न किसी स्वर्ग का इससे पता चलता है, न किसी नरक का इससे पता चलता है।

भक्ति तो उसे उपलब्ध होती है जिसको न इस संसार की कोई कामना रही न उस संसार की। जिसकी कामना का व्यापार निरुद्ध हो गया, जिसने कहा, “अब हमें कुछ मांगना ही नहीं है, न यहां न वहां “, मां ही छोड़ दी—उसे सब मिल जाता है “यही

“उस प्रियतम भगवान में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता को भी निरोध कहते हैं। “

बिलकुल ठीक। “उस प्रियतम भगवान में अनन्यता “…! जैसे हम उसके साथ एक हो गये, अनन्य! जरा भी भेद न रह जाए! रत्ती भर भी फासला न रह जाए! मैं और तू का फासला न रह जाए!

“उस प्रियतम में अनन्यता अपने आप ही उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता बन जाती है। “

“उदासीनता “ शब्द को समझ लेना जरूरी है। उदासीनता निरोध का मार्ग है।

जिसको तुम त्यागी कहते हो, वह उदासीन नहीं होता। जो आदमी शराब का त्याग करता है, वह शराब के प्रति उदासीन नहीं होता, शराब के प्रति बड़े विरोध में होता है—उदासीन कैसे होगा, विरोध में होता है।

उदासीन का अर्थ है : हमें कोई प्रयोजन नहीं। विरोध का अर्थ है : शराब जहर है।

जो आदमी कामवासना में उदासीन होता है, वह कामवासना के विरोध में नहीं होता। अगर कोई दूसरा कामवासना में जा रहा है तो इससे उसके मन में निंदा पैदा नहीं होती—”यह उसकी मर्जी है! यह उसकी समझ है! उसका समय न आया होगा, कभी आयेगा। “ उस पर करुणा आ सकती है, क्रोध नहीं आता।

जो आदमी धन में उदासीन है, उसके मन में धन की कोई निंदा नहीं होती। वह धन का पाप नहीं कहता। वह इतना ही कहता है कि धन की उपयोगिता है, लेकिन वह उपयोगिता बड़ी क्षणिक है। वह इतना ही कहता है कि धन सब कुछ नहीं है। वह यह नहीं कहता कि धन कुछ भी नहीं है। वह इतना ही कहता है, संसार में उपयोगी होगा, लेकिन संसार सब कुछ नहीं है। वह धन के विरोध में नहीं है।

ऐसे त्यागी हैं कि अगर उनके सामने तुम रुपये ले जाओ तो वे आंख बंद कर लेते हैं। अब वह उदासीनता न हुई। ऐसे त्यागी हैं जो धन को हाथ से नहीं छूते। यह उदासीनता न हुई। एक आदमी मुझे मिलने आया—एक संन्यासी। कोई दो वर्ष हुए। तो मैंने उन्हें कहा कि ठीक है, कभी एक शिविर में आ जाओ तो ध्यान करो। उन्होंने कहा कि यह जरा मुश्किल है। उनके साथ एक आदमी और था। तो मैंने पूछा, “इसमें क्या मुश्किल है?

उन्होंने कहा, “मैं पैसा नहीं छूता। तो टेन में सफर करो तो टिकट भी खरीदनी पड़ती है। “ तो मैंने कहा, “तुम यहां तक कैसे आये?

तो वे बोले, “यह आदमी साथ है। पैसे यह रखता है, मैं छूता भी नहीं। तो यही साथ आने को तैयार हो तो ही मैं शिविर में ओ सकता हूं।

अब यह तो पैसे से भी ज्यादा बड़ी गुलामी हो गयी। पैसा, और यह आदमी भी उलटा..। इससे तो अकेले पैसे ही गुलामी भी ठीक थी, अब यह कम-से-कम आदमी एक और उपद्रव है। और पैसे इन्हीं के हैं,, रखता वह है! यह दोहरी गुलामी हुई!

उदासीनता का अर्थ है: हो तो हो ठीक, न हो तो ठीक। उदासीनता में को पक्षपात नहीं है। उदासीनता बड़ी अदभुत बात है। वह वैराग्य का परम लक्षण है।

इसलिए अगर तुम किसी वैरागी में पाओ उदासीनता की जगह विरोध, तो समझना कि चूक हो गयी। अगर वह घबड़ाये तो समझना कि रस कायम है, जिस चीज से घबड़ाता है उसी का रस कायम है। अगर धन छूने से हरे तो समझना कि धन का लोभ भीतर मौजूद है। अगर स्त्री को देखने से हरे तो समझना कि कामवासना भीतर मौजूद है। क्योंकि हम उसी से डरते हैं जिसमें गिरने की हमें संभावना मालूम होती है, शंका मालूम होती है।

उदासीनता का अर्थ है: कोई फर्क नहीं पड़ता।

ऐसा हुआ कि बुद्ध एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे, पूर्णिमा की रात थी, और पास के नगर से कुछ युवक, धनपतियों के लड़के, एक वेश्या को लेकर जंगल में आ गये थे– मौज-रंग करने! वे तो शराब पीकर मस्त हो गये, वेश्या ने मौका देखा कि वे तो शराब पीकर होश खो दिये हैं, वह भाग खड़ी हुई।

जब सुबह होने के करीब आयी और उनको ठंड लगी और होश आया और देखा कि वह “ वेश्या तो भाग गयी है, तो वे उसकी खोज में निकले। उसी रास्ते पर बुद्ध ध्यान करते थे, उनके पास आये और उन्होंने कहा कि “यहां से कोई स्त्री तो नहीं निकली?

बुद्ध ने कहा, “कोई निकला जरूर, लेकिन स्त्री थी या पुरुष, यह जरा कहना मुश्किल है– क्योंकि मेरा रस ही न रहा। कोई निकला जरूर, लेकिन स्त्री थी या पुरुष, इसमें मेरा रस न रहा। “ यह उदासीनता है।

बुद्ध ने कहा कि जब तक मेरा रस था, तब तक गौर से देखता भी था: कौन कौन है! अब मेरा कोई रस नहीं है।

जब रस खो जाता है तो सिर्फ एक उदासीनता होती है, एक शांति तुम्हें घेर लेती है। उसमें कोई पक्षपात नहीं होता।

उस प्रियतम में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता को भी निरोध कहते हैं। “

“पीना-न-पीना एक है जाहिद! खता मुआफ

नीयत जब एतबार के काबिल नहीं रही। “

जब तक नीयत पर एतबार न हो, जब तक अपने भीतर की स्थिति पर भरोसा न हो तब तक तुम कसमें भी ले लो, तो कुछ फर्क नहीं पड़ता; व्रत धारण कर लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि असली बात तो नीयत है। तुम पियो न पियो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; घर में रहो कि बाहर रहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; पूजा करो कि न करो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता–असली सवाल तुम्हारे भीतर की नीयत का है। अगर नीयत साफ है तो तुम कहीं भी रहो, मंदिर ही पाओगे। अगर नीयत साफ नहीं है, तो तुम मंदिर में रहो, तुम वेश्यागह में ही रहोगे। क्योंकि आदमी अपनी नीयत में रहता है, अपने भीतर की मनोदशा में रहता है।

“उस प्रियतम में अनन्यता…। “

“कैसी तलब, कहां की तलब, किसलिए तलब

हम हैं तो वह नहीं है, वह है तो हम नहीं। “

एक ही बच सकता है प्रेम में, दो नहीं। या तो परमात्मा बचेगा तो तुम न बचोगे, या तुम बचोगे तो परमात्मा न बचेगा।

“कैसी तलब, कहां की तलब, किसलिए तलब

हम हैं तो वह नहीं है, वह है तो हम नहीं। “

अनन्यता का अर्थ है : एक ही बचेगा।

प्रेम गली अति सांकरी तामे दो न समाय “–उसमें दो नहीं समा सकते।

तो भक्त धीरे- धीरे भगवान हो जाता है, भगवान धीरे- धीरे भक्त हो जाता है।

रामकृष्ण पूजा करते हैं तो भोग लगाने के पहले खुद चख लेते हैं। मंदिर के ट्रस्टियों ने बुलाया कि “यह तो पूजा न हुई। किस शास्त्र में लिखा है, भगवान को भोग पहले लगाओ, फिर तो बचे, वह तुम भोजन करो। लेकिन यह तो बात तो गलत हो रही है। यह उलटा हो रहा है। तुम भगवान को झूठा भोग लगा रहे हो! तुम पहले चखते हो।

रामकृष्ण ने कहा, “संभाल लो फिर अपनी नौकरी, मैं चला। क्योंकि मेरी मां जब भी भोजन बनाती थी तो पहले खुद चखती थी, फिर मुझे देती थी। जब मां का प्रेम इतनी फिक्र करता था तो यह प्रेम तो उससे भी बड़ा है। मैं बिना चखे भोग नहीं लगा सकता भगवान को, पता नहीं लगाने योग्य है भी या नहीं! “

ऐसी अनन्यता, ऐसी निकटता, इतनी समीपता, कि धीरे-धीरे सीमाएं खो जाएं! तो कभी ऐसा होता है कि रामकृष्ण दिन- भर नाचते रहते और कभी ऐसा होता कि पखवाड़ा बीत जाता और मंदिर में न जाते। फिर बुलाये गये के यह क्या मामला है, मंदिर खाली पड़ा रहता है, पूजा नहीं होती। रामकृष्ण कहते, “जब होती है तब होती है, जब नहीं होती तब नहीं होती। जब “वह “ बुलाता है और जब अनन्यता का भाव जगता है तभी…। जब दूरी रहती है, तब क्या सार, जब मैं रहता हूं तब पूजा किसकी,     जब वही बचता है तभी होती है। जब यह मेरे हाथ में नहीं है कि वही बचे। जब होता है तब होता है। सहजस्फूर्त है! “

रामकृष्ण जैसा पुजारी फिर किसी मंदिर को न मिलेगा। दक्षिणेश्वर के भगवान धन्यभागी हैं कि रामकृष्ण जैसा पुजारी मिला। अनन्य- भाव का अर्थ है : “मैं “ और “तू “ दो नहीं, एक ही बचता है। वस्तुत : दोनों तरफ से प्रेमी-प्रेयसी या भक्त और भगवान, दोनों खोते हैं और दोनों के बीच में एक नये का आविर्भाव होता है : एक नये ज्योतिर्मय चैतन्य का आविर्भाव होता है, जिसमें भक्त भी खो गया होता है एक कोने से, दूसरे कोने से भगवान भी खो गया होता है।

भक्त और भगवान तो द्वैत की भाषा है; भक्ति तो अद्वैत है।

“उस प्रीतम में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता को भी निरोध कहते हैं। “ और जिसने भी उसके साथ ऐसी एकतानता साथ ली, वह संसार के प्रति उदासीन हो जाता हैं; छोड़ना नहीं पड़ता संसार, त्यागना नहीं पड़ता संसार, सब छूट जाता है, व्यर्थ हो जाता है; सार्थकता ही नहीं रह जाती; छोड़ने को क्या बचता है।

“अपने प्रीतम को छोड्कर दूसरे आश्रयों के त्याग का नाम अनन्यता है। “

परमात्मा तुम्हें ऐसा भर दे के तुम्हारे भीतर कोई रत्ती-भर जगह न बचे तो उससे भरी हुई नहीं है, तुम लबालब उससे भर जाओ, तुम ऊपर से बहने लगो ऐसे भर जाओ, कोई दूसरा आश्रय न बचे, किसी दूसरे की तरफ कोई लगाव न रह जाए, सभी लगाव उस एक के प्रति ही समर्पित हो जाएं…।

“देखता था मैं निगाहों से हर एक जा तुझको

देखता था मैं निगाहों से हर एक जा तुझको

और उन्हीं में तू निहा था, मुझे मालूम न था। “

“आखों से खोजता था तुझे सब जगह और यह मुझे पता नहीं था कि मेरी आखों में ही बैठा हुआ है। तू खोजनेवाले में ही छिपा है। तू मेरे देखने में ही छिपा है। और मैं निगाहों से खोजता था हर एक जा तुझको, और यह पता न था…!

तुम जब तक परमात्मा को बाहर खोज रहे हो, खोज न पाओगे। वह उन निगाहो में ही छिपा है, उस दृष्टि में ही, उस देखने की क्षमता में ही। वह तुम्हारे होश में छिपा है। वह तुम्हारे होने में छिपा है।

“देखता था मैं निगाहों से हर एक जा तुझको

और उन्हीं में तू निहा था, मुझे मालूम न था। “

तुम मंदिर हो।

परमात्मा को खोजने किसी और मंदिर में जाने की जरूरत नहीं है। अपने ही भीतर डूब कर पाया है, जिन्होंने भी पाया है।

अगर तुम सारे आसरे छोड़ दो, सारे सहारे छोड़ दो, तो तुम अपने ही डूब जाओगे। जो भी तुम पकड़े हो आसरे की तरह, वही तुम्हें अपने से बाहर अटकाये हुए है। धन का आसरा है, पद का आसरा है, मित्र का आसरा है, संगी-साथियों का, परिवार का आसरा है, पति-पत्नी का आसरा है। जिन-जिन आसरों को तुम सोच रहे हो कि ये सहारे हैं, सुरक्षा हैं, वही तुम्हें बाहर अटकाये हैं। छोड़ दो सब आसरे। बे-आसरे हो जाओ। बे-सहारा हो जाओ। असहाय हो जाओ।

और अचानक तुम पाओगे : तुम्हें अपने ही भीतर वह श्रमइ मिल गयी जिसे जन्मों-जन्मों खोजते थे और न पाते थे, अपने ही भीतर वह हाथ मिल गया जो शाश्वत है। अब किसी और आसरे की कोई जरूरत न रही।

“लौकिक और वैदिक कर्मों में भगवान के अनुकूल कर्म करन ही उसके प्रतिकूल विषय में उदासीनता है। “

और फिर ऐसा व्यक्ति जिसकी अनन्यता सध गयी परमात्मा से, जिसका तार मिल गया, तन्मयता बंध गयी, एक सामंजस्य आ गया, हाथ परमात्मा के हाथ में हो गया जिसका—ऐसा व्यक्ति फिर उसके ही अनुकूल कर्म करता है, “वह “ जो करवाता है वही करता है। फिर उसका अपना कर्ता- भाव चला जाता है। फिर वह कहता है, “जो वह करवाये! जो उसकी मर्जी! जो नाच नचाये, वही मेरा जीवन है। “ फिर अपनी तरफ से निर्णय लेना, अपनी तरफ से विचार करना, संभव नहीं है।

“विधि-निषेध से अतीत अलौकिक प्रेम प्राप्ति का मन में दृढ़ निश्वय हो जाने के बाद भी शास्त्र की रक्षा करनी चाहिए, अन्यथा गिर जाने की संभावना है

यह सूत्र महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा घटता है। जब तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम परमात्मा के अनुसार चलने लगे, जब तुम्हें ऐसा लगता है कि अब तो तुम एक हो गये, तो सारी विधि- निषेध के पार हो गये, अब समाज का कोई नियम तुम पर लागू नहीं होता।

सच है, कोई नियम लागू नहीं होता, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि तुम नियम छोड्कर चलने लगो। तुम पर नियम नहीं लागू होता, समाज तो अब भी नियम में जीता है। तुम जिस समाज में हो, उस समाज के लिए तुम अड़चन मत बनो, सहारा बनो, उस समाज के लिए तुम उपद्रव का कारण न बनो, मार्ग बनो।

इसलिए नारद कहते हैं, “विधि-निषेध से अतीत…। “ कोई नियम लागू नहीं होता प्रेम पर, भक्त पर। वह पहुंच गया वहां, सब नियमों के पार, परम नियम उसे मिल गया प्रेम का, अब उस पर कोई नियम लागू नहीं होता। लेकिन फिर भी, अगर वह रास्ते पर चले तो उसे बाएं ही चलना चाहिए, क्योंकि सारा ट्रैफिक बाएं ही चल रहा है। अगर वह दाएं चलने लगे, वह कहे कि हम तो भक्ति को उपलब्ध हो गये, तो खतरा है–खतरा है पतन का। असल में इस तरह का आग्रह वही आदमी करेगा जो अभी उपलब्ध ही नहीं हुआ है, वस्तुत : उपलब्ध नहीं हुआ है। क्योंकि उपलब्ध होकर तो कोई नहीं गिरता, असंभव है गिरना।

इसे थोड़ा गौर से समझ लेना।

जो उपलब्ध नहीं हुआ है परमात्मा को, वही इस तरह का आग्रह करेगा के मुझ पर तो कोई नियम लागू नहीं होता। यह अहंकार की नयी उदघोषणा है। यह अहंकार का नया खेल शुरू हुआ। एक नया संसार चला अब। वह कहेगा, मुझ पर कोई नियम लागू नहीं होता। मैं तो अब उसके ही सहारे जीता हूं। इसलिए जो “वह “ करवाता है वही करता हूं।

इसकी आड़ में कहीं तुम अपने अहंकार को मत छिपा लेना। कहीं ऐसा न हो कि यह भी धोखा हो तुम्हारा।

इसलिए सूत्र कहता है :सजग रहना। ऐसी स्थिति भी आ जाये कि तुम विधि-निषेध के पार हो जाओ, तो भी शास्त्र की रक्षा जारी रखना। उस रक्षा में तुम्हारी रक्षा है। उस रक्षा में दूसरों की रक्षा तो है ही, तुम्हारी भी रक्षा है। क्यों, तुम अपने अहंकार को सजाने- संवारने का नया उपाय न पा सकोगे।

और स्मरण रखना, जो विधि-निषेध के पार हो गया, वह विधि-निषेध को तोड़ने की चिंता में नहीं पड़ता। जो पार ही हो गया, वह चिंता क्या करेगा तोड़ने की! वह कमल जैसा पार हो जाता है पानी के। जो पार हो गया है वह जीवन को चुपचाप स्वीकार कर लेता है जैसा है, लोग जैसे जी रहे हैं, ठीक है।

छोटे बच्चे खिलौनों से खेल रहे हैं, तुम वहां जाते हो, तुम जानते हो, वे खिलौने हैं, तुम जानते हो, खेल के नियम सब बनाये हुए हैं। लेकिन बाप भी छोटे बच्चों के साथ जब खेलता है तो खेल के नियम मानता है। वह यह नहीं कह सकता कि मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूं, मैं नियम के बाहर हूं। छोटे बच्चों के साथ छोटे बच्चों की तरह ही व्यवहार करेगा—यही प्रौढ़ का लक्षण है।

तो जो व्यक्ति वस्तुत : भक्ति के परम सूत्र को उपलब्ध होता है, वह तोड़ नहीं देता जीवन की व्यवस्था को। वह कोई अराजकता नहीं ले आता।

जीसस ने कहा है कि मैं शास्‍त्र को खंडित करने नहीं, पूर्ण करने आया हूं।

वह शास्‍त्र के मूल स्वभाव का पुन : पुन : उदघाटन करता है। वह शास्‍त्र के खो गये सूत्रों को पुन : पुनरुज्जीवित करता है। वह शास्‍त्र पर जम गयी धूल को हटाता है। वह शास्‍त्र के दर्पण को निखारता है ताकि फिर तुम शास्‍त्र के दर्पण में अपने चेहरे को देख सको, फिर तुम अपने को पहचान सको। सदियों में शास्‍त्र पर जो धूल जम जाती है, सदियों में स्त्री पर जो व्याख्या की परतें जम जाती हैं, उनको फिर वह अलग कर देता है, लेकिन शास्‍त्र की रक्षा करता है। क्योंकि शास्त्र तो उनके वचन हैं जिन्होंने जाना। वे बुद्धपुरुषों के वचन हैं। व्याख्याएं कितनी ही गलत हो गयी हों, लोगों ने कितना ही गलत अर्थ लिया हो, लेकिन मूल तो बुद्धपुरुषों से आता है, मूल तो गलत नहीं हो सकता।

मुझसे लोग पूछते हैं कि मैं क्यों शास्‍त्रों की व्याख्या कर रहा हूं। इसीलिए कि जो धूल जमी हो वह अलग हो जाए, ताकि मैं तुम्हें उनका खालिस सोना जाहिर कर सकूं। अगर मैं तुम्हें कभी शास्‍त्र के विपरीत भी मालूम पइं, तो समझना कि तुम्हारे समझने में कहीं भूल हो गयी है, तो समझना कि तुमने शास्त्र का जो अर्थ समझा था वह अर्थ शास्‍त्र का न था, इसलिए मैं विपरीत मालूम पड़ रहा हूं। अन्यथा मैं भी तुमसे कहता हूं कि शास्त्र का खंडन करने नहीं, शास्‍त्र का श्दुद्धतम स्वरूप आविष्कृत करने की सारी चेष्टा है।

“लौकिक कर्मों को भी तब तक (बाह्म ज्ञान रहने तक ) विधिपूर्वक करना चाहिए, पर भोजनादि कार्य, जब तक शरीर रहेगा, होते रहेंगे।

जो बाह्य कर्म हैं, उन्हें साधारणत : जैसी विधि हो, जैसी समाज की धारणा हो, वैसे ही करते जाना चाहिए—बाह्य ज्ञान रहने तक! क्योंकि भक्ति में ऐसी घड़ियां भी आती हैं जब बाह्यज्ञान बिलकुल खो जाता है, तब सूत्र लागू नहीं होता। क्योंकि ऐसी भी घड़ियां आती हैं जब मस्ती ऐसे शिखर छूती है कि बाह्य ज्ञान ही नहीं रह जाता। रामकृष्ण छह- छह दिन के लिए बेहोश हो जाते थे। जब फिर अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तब वे अपने में इतने लीन हो जाते थे, इतने दूर निकल जाते थे कि उनके शरीर को ही संभालकर रखना पड़ता था।

लेकिन भोजनादि कार्य तब तक होते रहेंगे जब तक शरीर है। “

इस सूत्र से यह समझ लो कि जीवन में वासना तो हटनी चाहिए, जरूरतें हटाने का सवाल नहीं है। भोजन तो जरूरी है। वस्त्र जरूरी हैं। छप्पर जरूरी है, उसका कोई निषेध नहीं है, निषेध है गैर जरूरी का, जो कि केवल मन की आकांक्षा से पैदा होता है, जिसके बिना तुम रह सकते थे, मजे से रह सकते थे, जिसके बिना कोई अड़चन न पड़ती थी, शायद मयद और भी मजे से रह सकते।

एक बहुत बड़ा विचारक हुआ : अल्डुअस हक्सले। कैलिफोर्निया में उसका मकान था, और जीवन- भर उसने बड़ी बहुमूल्य चीजें इकट्ठी की थीं—पुराने शास्त्र, बहुमूल्य अनूठी किताबें, चित्र, पेंटिंग, मूर्तियां, शिल्प। बड़ा संवेदनशील व्यक्ति था। उसके पास बहुमूल्य भंडार था अनूठी चीजों का। सारे संसार से उसने इकका किया था। उसकी कीमत कूतनी आसान नहीं। अचानक एक दिन आग लग गयी और सब जलकर राख हो गया।

अल्डुअस हक्सले ने कहा कि मैंने तो सोचा था कि मैं मर जाऊंगा इसके दुख से, लेकिन अचानक, जिसकी कभी अपेक्षा भी न की थी, ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे एक बोझ हलका हो गया। एक बोझ! वह खुद भी चौंका यह अनुभव देखकर। सामने ही जल रहा है उसका विशाल संग्रहालय और वह सामने खड़ा है लपटों के, और उसने कहा कि मुझे लगा कि मैं एकदम हलका हो गया हूं और मुझे ऐसा लगा जैसे मैं स्वच्छ हो गया हूं। “ आई फैल्ट क्लीन “। एक ताजगी!

तुम्हें पता नहीं है कि बहुत- सी गैरजरूरी चीजों ने तुम्हें जीवन तो नहीं दिया है, बोझ दिया है। उनके बिना तुम ज्यादा स्वस्थ हो सकते थे। उनके बिना तुम ज्यादा प्रसन्न हो सकते थे। उन्होंने सिर्फ तनाव दिया है, चिंता दी है।

जरूरत को छोड़ने का कोई सवाल नहीं है। भक्ति कोई जबरदस्ती त्याग नहीं सिखाती। यह भक्ति की खूबी है और उसकी स्वाभाविकता है। जीवन की सामान्य जरूरतें पूरी होनी ही चाहिए।

तो भक्ति कोई जबरदस्ती नहीं करती कि तुम नग्न खड़े हो जाओ, तुम उपवास करो, तुम शरीर को तपाओ व्यर्थ—ऐसी दुष्टता ऐसी हिंसा भक्ति नहीं सिखाती। यह भक्ति की खूबी है और उसकी स्वाभाविकता है। जीवन की सामान्य जरूरतें पूरी होनी ही चाहिए।

तो भक्ति कोई जबरदस्ती नहीं करती कि तुम नग्न खड़े हो जाओ, तुम उपवास करो, तुम शरीर को तपाओ व्यर्थ—ऐसी दुष्टता, ऐसी हिंसा भक्ति नहीं सिखाती।

भक्ति कहती है : यह जो परमात्मा का मंदिर है तुम्हारा घर, इसकी साज-संभाल जरूरी है। यह उसका घर है। इसे तुम्हें “उसके “ योग्य स्वच्छ और ताजा सुंदर रखना चाहिए। लेकिन जरूरत और वासना में फर्क समझना आवश्यक है।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था, शादी करना चाहता था। तो उस स्त्री ने कहा, “नसरुद्दीन, और तो सब ठीक है, एक बात मैं पूछना चाहती हूं, कि तुम उन पुरुषों में तो नहीं हो जो शादी के बाद पत्नी को दपतरों में काम करवाते हैं या नौकरी करवाते हैं?

नसरुद्दीन ने कहा, “भूलकर भी इस तरह का मत सोच। कभी भी मेरी पत्नी काम पर जाने वाली नहीं है। हां, एक बात और, अगर कपड़ा, रोटी, मकान जैसी विलास की चीजों की तूने मांग की तो फिर मैं नहीं जानता…। लेकिन रोटी, कपड़ा, मकान, ऐसी विलास की चीजें मत मांगना। “

विलास और जरूरत में फर्क करना जरूरी है।

भक्ति स्वस्थ सहज मार्ग है। स्वाभाविक, अस्वाभाविक नहीं। भक्ति तुम जैसे हो, तुम्हारी जरूरतों को स्वीकार करती है। कहीं कोई अकारण अपने को कष्ट देना, पीड़ा देना, व्यर्थ के तनाव खड़े करने, उनसे आदमी परमात्मा के प्रेम को उपलब्ध नहीं होता, उनसे तो और सघन अहंकार को उपलब्ध होता है।

भक्ति त्याग नहीं है, निरोध है। जो अपने से छूट जाए। जो व्यर्थ है छूट जाएगा। जो सार्थक है, जरूरी है, शेष रहेगा।

इसलिए आखिरी सूत्र है: लौकिक कर्मों को भी तब तक (बाह्य ज्ञान रहने तक) विधिपूर्वक करना चाहिए, पर भोजनादि कार्य जब तक शरीर रहेगा, होते रहेंगे।

भक्ति की यह स्वाभाविकता ही उसके प्रभाव का कारण है।

भक्ति बड़ी संवेदनशील है। वह जीवन को कुरूप करने के लिए उत्सुक नहीं है, जीवन का सौंदर्य स्वीकार है। क्योंकि जीवन अन्यथा परमात्मा का ही है, अंतत : वही छिपा है! उसको ध्यान में रखकर ही चलना उचित है।

जो व्यर्थ है वह छूट जाए। जो सार्थक है वह संभल जाए। जो क्ड-करकट है वह अपने आप गिर जाए, जो बहुमूल्य है वह बचा रहे।

भक्ति को अगर तुम ठीक से समझो तो तुम पाओगे धर्म की उतनी सहज, स्वाभाविक और कोई व्यवस्था नहीं है।

आज इतना ही।


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भक्‍ति सूत्र–(प्रवचन–4)

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सहजस्फूर्त अनुशासन है भक्तिचौथा प्रवचन

दिनांक 14 जनवरी,

1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍न-सार

1–जीवन की व्यर्थता का बोध ही क्या जीवन में अर्थवत्ता का प्रारंभ-बिंदु बन जाता है?

 2–इस विराट अस्तित्व में मैं नाकुछ हूं, यह अप्रिय तथ्य स्वीकारने में बहुत भय पकड़ता है। इस भय से कैसे ऊपर उठा जाए?

  3–आपसे मिलकर भी यदि हमारा उद्धार न हुआ, तब तो शायद असंभव ही है। कम से कम मुझ निरीह पर तो रहम खाइए।

 4–कल के सूत्र में कहा गया कि लौकिक और वैदिक कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं और निरोध भक्ति का स्वभाव है। : और फिर, यह भी कहा गया कि भक्त को शास्त्रोक्त कर्म विधिपूर्वक करते रहना चाहिए। कृपया इस विरोध को स्पष्ट करें।

 5–जिसे भक्ति में अनन्यता कहा है, क्या वही दर्शन का अद्वैत नहीं है?

 

 


पहला प्रश्‍न:

 

  जीवन की व्यर्थता का बोध ही क्या जीवन में अर्थवत्ता का प्रारंभ-बिंदु बन जाता है?

 

न सकता है, न भी बने। संभावना खुलती है, अनिवार्यता नहीं है। जीवन की व्यर्थता दिखायी पड़े तो परमात्मा की खोज श्दुरू हो सकती है–शुरू होगी ही, ऐसा जरूरी नहीं है।

जीवन की व्यर्थता पता चले तो आदमी निराश भी हो सकता है, आशा ही छोड़ दे, व्यर्थता में ही जीने लगे, व्यर्थता को स्वीकार कर ले, खोज के लिए कदम न उठाये–तो जीवन तो दूभर हो जाएगा, बोझ हो जाएगा, परमात्मा की यात्रा न होगी।

इतना तो सच है कि जिसने जीवन की व्यर्थता नहीं जानी, वह परमात्मा की खोज पर नहीं जाएगा; जाने की कोई जरूरत नहीं है। : अभी जीवन में ही रस आता हो तो किसी और रस की तरफ आंख उठाने का कारण नहीं है।

फिर जीवन की व्यर्थता समझ में आये तो दो संभावनाएं हैं: या तो तुम उसी व्यर्थता में रुककर बैठ जाओ और या उस व्यर्थता के पार सार्थकता की खोज करो–तुम पर निर्भर है। नास्तिक और आस्तिक का यही फर्क है, यही फर्क की रेखा है।

नास्तिक वह है जिसे जीवन की व्यर्थता तो दिखायी पड़ी, लेकिन आगे जाने की, ऊपर उठने की, खोज करने की सामर्थ्य नहीं है, रुक गया, नहीं में रुक गया, “हां’’  की तरफ न उठ सका, निषेध को ही धर्म मान लिया, विधेय की बात ही भूल गया।

आस्तिक नास्तिक से आगे जाता है।

आस्तिक नास्तिक का विरोध नहीं है, अतिक्रमण है। आस्तिक के जीवन में नास्तिकता का पड़ाव आता है, लेकिन उस पर वह रुक नहीं जाता। वह उसे पड़ाव ही मानता है और उससे मुक्त होने की चेष्टा में संलग्न हो जाता है। क्योंकि जहां “नहीं’’ है, वहां “हां“ भी होगा। और जिस जीवन में हमने व्यर्थता पहचान ली है, उस जीवन के किसी तल की गहराई पर सार्थकता भी छिपी होगी; अन्यथा व्यर्थता का भी क्या अर्थ होता है?

जिसने दुख जाना वह सुख को जानने में समर्थ है, अन्यथा दुख को भी न जान सकता। जिसने अंधकार को पहचाना उसके पास आखें हैं जो प्रकाश को भी पहचानने में समर्थ हैं।

अंधों को अंधेरा नहीं दिखायी पड़ता। साधारणत: हम सोचते हैं कि अंधे अंधेरे में जीते होंगे–गलत है खयाल। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। अंधेरा भी आंख की ही प्रतीति है। तुम्हें अंधेरा दिखायी पड़ता है आंख बंद कर लेने पर, क्योंकि अंधेरे को तुमने देखा है। जन्म से अंधे, जन्मांध व्यक्ति को अंधेरा भी दिखायी नहीं पड़ता। देखा ही नहीं है कुछ, अंधेरा कैसे दिखायी पड़ेगा?

तो जिसको अंधेरा दिखायी पड़ता है, उसके पास आंख है; अंधेरे में ही रुक जाने का कोई कारण नहीं है। और जब अंधेरा अंधेरे की तरह मालूम पड़ता है तो साफ है कि तुम्हारे भीतर छिपा हुआ प्रकाश का भी कोई स्रोत है, अन्यथा अंधेरे को अंधेरा कैसे कहते? कोई कसौटी है तुम्हारे भीतर, कहीं गहरे में छिपा मापदंड है।

अंधेरे पर कोई रुक जाए तो नास्तिक; अंधेरे को पहचान कर प्रकाश की खोज में निकल जाए तो आस्तिक। अंधेरे को देखकर कहने लगे कि अंधेरा ही सब कुछ है तो नास्तिक; अंधेरे को जानकर अभियान पर निकल जाए, खोजने निकल जाए, कि प्रकाश भी कहीं होगा, जब अंधेरा है तो प्रकाश भी होगा। क्योंकि विपरीत सदा साथ मौजूद होते हैं।

जहां जन्म है वहां मृत्यु होगी। जहां अंधेरा है वहां प्रकाश होगा। जहां दुख है वहां सुख होगा। जहां नरक अनुभव किया है तो खोजने की ही बात है, स्वर्ग भी ज्यादा दूर नहीं हो सकता। स्वर्ग और नरक पड़ोस-पड़ोस में हैं, एक-दूसरे से जुडे हैं।

अगर तुमने जीवन में क्रोध का अनुभव कर लिया तो समझ लेना कि करुणा भी कहीं छिपी है–खोजने की बात है। तुमने पहली परत छू ली करुणा की! क्रोध पहली परत है करुणा की। अगर तुमने धूणा को पहचान लिया तो प्रेम को पहचानने में देर भला लगे, लेकिन असंभावना नहीं है। प्रश्र महत्वपूर्ण है।

जीवन की व्यर्थता तो अनिवार्य है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। उतना जरूरी है। उतना तो चाहिए ही। पर उस पर तुम रुक भी सकते हो।

पश्‍चिम में बड़ा विचारक है: ज्या पाल सार्त्र। वह कहता है, अंधेरा ही सब कुछ है। दुख ही सब कुछ है। दुख के पार कुछ भी नहीं है। दुख के पार तो सिर्फ मनुष्यों की कल्पनाओं का जाल है। विषाद सब कुछ है। संताप सब कुछ है। संत्रास सब कुछ है। बस नरक ही है, स्वर्ग नहीं है।

बुद्ध ने भी एक दिन जाना था : दुख है। सार्त्र ने भी जाना कि दुख है। यहां तक दोनों साथ-साथ हैं, फिर राहें अलग हो जाती हैं। फिर बुद्ध ने खोजा कि दुख क्यों हैं। और दुख है तो दुख के विपरीत दुख का निरोध भी होगा। तो वे खोज पर गये। दुख का कारण खोजा। दुख मिटाने की विधियां खोजीं, और एक दिन उस स्थिति को उपलब्ध हो गये, जो दुख- निरोध की है, आनंद की है।

सार्त्र पहले कदम पर रुक गया। बुद्ध के साथ थोड़ी दूर तक चलता है, फिर ठहर जाता है। वह कहता है, “आगे कोई मार्ग नहीं है, बस यहीं सब समाप्त हो जाता है।

तो सार्त्र अंधकार को ही स्वीकार करके जीने लगा, ऐसे ही तुम भी जी सकते हो। तब तुम्हारा जीवन एक बड़ी उदासी हो जाएगी। तब तुम्हारे जीवन से सारा रस सूख जाएगा। तब तुम्हारे जीवन में कोई फूल न खिलेंगे, कांटे- ही- कांटे रह जाएंगे। अगर कोई फूल खिलेगा भी तो तुम कहोगे कि कल्पना है, तुम उसे स्वीकार न करोगे। अगर किसी और के जीवन में फूल खिलेगा तो तुम इनकार करोगे कि झूठ होगा, आत्मवचना होगी, धोखा होगा, बेईमानी होगी, फूल होते ही नहीं। तो तुमने अपने ही हाथ कारागह में बंद कर लिया। फिर तुम तड़पोगे। कोई दूसरा तुम्हें इस कारागृह के बाहर नहीं ले जा सकता। अगर तुम्हारी ही तडुफ तुम्हें बाहर उठने की सामर्थ्य नहीं देती और तुम्हारी ही पीड़ा तुम्हें नयी खोज का संबल नहीं बनती, तो कौन तुम्हें उठायेगा, लेकिन एक-न-एक दिन उठोगे, क्योंकि पीड़ा को कोई शाश्र्वत रूप से स्वीकार नहीं कर सकता। एक जन्म में कोई सार्त्र हो सकता है, सदा-सदा के लिए कोई सार्त्र नहीं हो सकता, आज सार्त्र हो सकता है, सदा-सदा के लिए सार्त्र नहीं हो सकता, क्योंकि दुख का स्वभाव ऐसा है कि उसे स्वीकार करना असंभव है।

दुख का अर्थ ही होता है कि जिसे हम स्वीकार न कर सकेंगे। घड़ी-भर को समझा लें, बुझा लें कि ठीक है, यही सब कुछ है, इससे आगे कुछ भी नहीं है, लेकिन फिर- फिर मन आगे जाने लगेगा। क्योंकि मन जानता है गहरे में, सुख है। उसी आधार पर तो हम पहचानते हैं दुख को। हमने जाना है, शायद गहरी नींद में सुख का थोड़ा-सा स्वाद मिला है। पतंजलि ने योग-सूत्र में समाधि की व्याख्या सुषुप्ति से की है कि वह प्रगाढ़ निद्रा है। जैसा सुषुप्ति में सुख मिलता है सुबह उठकर, रात गहरी नींद सोये, कुछ याद नहीं पड़ता, लेकिन एक भीनी-सी सुगंध सुबह तक भी तुम्हें घेरे रहती है। कुछ याद नहीं पड़ता कहां गये, क्या हुआ, लेकिन गये कहीं और आनंद से सराबोर होकर लौटे! कहीं डुबकी लगायी!

अपने में ही कोई गहरा तल छुआ!

कहीं विश्राम मिला!

कोई छाया के तले ठहरे!

वहां धूप न थी!

वहां गहरी शांति थी!

वहां कोई विचारों की तरंगें भी न पहुंचती थी।

कोई स्वप्न के जाल भी न थे!

अपने में ही कोई ऐसी गहरी शरण,

कोई ऐसा गहरा शरण-स्थल पा लिया।

सुबह उसकी सिर्फ हलकी खबर रह जाती है।

दूर सुने गीत की गुन-गुन रह जाती है।

रात गहरी निद्रा सोये तो सुबह तुम कहते हो,

बड़ी गहरी नींद आयी, बड़े आनंदित उठे!

शायद गहरी निद्रा में तुम वहीं जाते हो जहां योगी समाधि में जाता है। गहरी निद्रा में तुम वहीं जाते हो जहां भक्ति भाव की अवस्था में पहुंचाती है। गहरी निद्रा में तुम उसी तल्लीनता को छूते हो जिसको भक्त भगवान में डूबकर पाता है। थोड़ा फर्क है। तुम बेहोशी में पाते हो, वह होश में पाता है। वही फर्क बड़ा फर्क है।

इसलिए सुबह तुम इतना ही कह सकते हो,”सुखद है! अच्छी रही रात। “ लेकिन भक्त नाचता है, क्योंकि यह कोई बेहोशी में नहीं पाया अनुभव, होश में पाया।

तो कभी नींद के किन्हीं क्षणों में तुमने भी जाना है, तभी तो तुम दुख को पहचानते हो, नहीं तो पहचानोगे कैसे,शायद बचपन के क्षणों में जब मन भोला- भाला था और संसार ने मन विकृत न किया था, वासनाएं अभी जगी न थीं, कामनाओं ने अभी खेल शुरू न किया था, अभी तुम ताजेताजे परमात्मा के घर से आये थे—तब शायद सुबह की धूप में बैठे हुए, फूलों को बगीचे में चुनते हुए, या तितलियों के पीछे दौड़ते हुए, तुमने कुछ सुख जाना है जो विचार के अतीत है, तुमने कोई तल्लीनता जानी है जहां तुम खो गये थे, कोई विराट सागर रह गया था, बूंद ने अपनी सीमा छोड़ दी थी! फिर अब भूली- सी बात हो गयी, भूली- बिसरी बात हो गयी। अब याद भी नहीं आता।

बस इतना ही लोग कहे चले जाते हैं कि बचपन बड़ा स्वर्ग जैसा था। कोई जोर डाले तुम पर तो तुम सिद्ध न कर पाओगे कि क्या स्वर्ग था! अगर कोई तर्कयुक्त व्यक्ति मिल जाए, कहे कि सिद्ध करो, “क्या था बचपन में स्वर्ग? तो तुम सिद्ध न कर पाओगे। वह भी गहरी नींद का अनुभव हो गया अब। अब याद रह गयी है। खुद भी तुम्हें पक्का भरोसा नहीं है कि ऐसा हुआ था, भूल ही गया है। क्योंकि जिसकी तुम्हारे जीवन से संगति नहीं बैठती, वह धीरे-धीरे विस्मरण हो जाता है। धीरे-धीरे तुम उसी को याद रख पाते हो, जिसका तुम्हारे मन के ढांचे से मेल बैठता है, बेमेल बातों को हम छोड़ देते हैं। बेमेल बातों को याद रखना मुश्किल हो जाता है।

तो कहीं-न-कहीं कोई अनुभव तुम्हारे भीतर है। कभी प्रेम के गहरे क्षण में, किसी से प्रेम हुआ हो, मन ठिठक गया हो, सौंदर्य के साक्षात्कार में, या कभी चांदनी रात में आकाश को देखते हुए, मन मौन हो गया हो, तो तुमने सुख की झलक जानी। एक किरण तुम्हारे जीवन में कभी- न-कभी उतरी है। उसी से तो तुम पहचानते हो कि यह अंधेरा है। किरण न जानी हो तो अंधेरे को अंधेरा कैसे कहोगे, अंधेरे की प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी, पहचान कैसे होगी, पहचान तो विपरीत से होती है।

तो जो रुक जाए जीवन की व्यर्थता पर, वह नास्तिक। इसलिए नास्तिक को मैं आस्तिक जितना साहसी नहीं कहता। जल्दी रुक गया। पड़ाव को मुकाम समझ लिया! आगे जाना है। और आगे जाना है!

एक बड़ी पुरानी सूफी कथा है कि एक फकीर जंगल में बैठा था। वह रोज एक लकड़हारे को लकड़ियां काटते हुए, ले जाते जाते देखता था। उसकी दीनता, उसके फटे कपड़े, उसकी हड्डियों से भरी देह! उसे दया आ गयी! वह लकड़हारा जब भी निकलता था तो उसके चरण छू जाता था। एक दिन उसने कहा कि कल जब तू लकड़ी काटने जाए, तब आगे जा, और आगे जा! लकड़हारा कुछ समझा नहीं, लेकिन फकीर ने कहा है तो कुछ मतलब होगा। ऐसे कभी यह फकीर बोलता न था, पहली दफा बोला है : आगे जा, और आगे जा!”

तो जहां वह लकड़ियां काटता था, जंगल में थोड़ा आगे गया, चकित हुआ : सुगंध से उसके नासापुट भर गये! चंदन के वृक्ष थे। वहां तक यह कभी गया ही न था। उसने चंदन की लकड़ियां काटीं। चंदन को बेचा तो उस रात खुशी में रोया, दुख में भी खुशी में भी, कि अगर यही लकड़ियां अब तक काटकर बेची होतीं तो करोड़पति हो गया होता। पर अब गरीबी मिट गयी।

दूसरे दिन जब चंदन की लकड़ी फिर काट रहा था तो उसे खयाल आया कि फकीर ने यह नहीं कहा था कि चंदन की लकड़ी तक जा, उसने कहा था, “और आगे, और आगे!” तो उसने चंदन की लकड़ियां न काटीं, और आगे गया, तो देखा कि चांदी की एक खदान है। फिर तो उसके हाथ में एक सूत्र लग गया। फिर और आगे गया तो सोने की खदान! फिर और आगे गया तो हीरों की खदान पर पहुंच गया।

और आगे, जब तक कि हीरों की खदान न आ जाए! उसको ही हम परमात्मा कहते हैं।

तुम लकड़हारा की तरह लकड़ियां ही बेच रहे हो, थोड़ी ही दूर आगे चंदन के वन हैं। तुम विचारों में ही उलझे हो जहां लकड़ियां ही लकड़ियां हैं। बड़ी सस्ती उनकी कीमत है।

थोड़े निर्विचार में चलो : चंदन के वन हैं।

बड़ी सुगंध है वहां!

और थोड़े गहरे चलो तो समाधि ही खदानें हैं!

और गहरे चलो तो निर्बीज समाधि,

निर्विकल्प समाधि की खदानें हैं!

और गहरे चलो तो स्वयं परमात्मा है!

योगी कदम-कदम जाता है, रुक-रुककर जाता है, कई पड़ाव बनाता है। भक्त सीधा जाता है, नाचता हुआ जाता है, रुकता नहीं, पड़ाव भी नहीं बनाता। वह सीधा तल्लीनता में डूब जाता है।

योगी से भी ज्यादा हिम्मत भक्त की है। नास्तिक से ज्यादा हिम्मत आस्तिक की है। योगी से भी ज्यादा हिम्मत भक्त की है। क्योंकि भक्त सीढ़ियां भी नहीं बनाता, एक गहरी छलांग लेता है। जिसमें अपने को डुबा देता है, मिटा देता है।

इस अनुभव पर आना अत्यंत जरूरी है कि जीवन व्यर्थ है।

“अंधेरी रात काने तलातुम नाखुदा गाफिल

यह आलम है तो फिर किश्ती, सरे मौजेरवा कब तक?

“अंधेरी रात!” सब तरफ अंधेरा है। कुछ सूझता नहीं है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। “ काने तलातुम “! बड़ी आधिया हैं, बड़े तूफान हैं, सब उखड़ा जाता है, कुछ ठहरा नहीं मालूम पड़ता, बड़ी अराजकता है। “नाखुदा गाफिल “! और जिसके हाथ में कश्ती है, वह जो मांझी है, वह सोया हुआ है, बेहोश है।” “यह आलम है “, ऐसी हालत है, तो फिर किश्ती सरे मौजेरवा कब तक, “ तो इस किश्ती का भविष्य क्या है? यह नाव अब डूबी तब डूबी! इस नाव में आशा बांधनी उचित नहीं। इस नाव के साथ बंधे रहना उचित नहीं।

लेकिन जाओगे कहां, भागोगे कहां, यही कश्ती तो जीवन है। तुम सोये हो मूर्च्छित, तूफान भयंकर है, अंधेरी रात है, डूबने के सिवाय कोई जगह दिखायी नहीं पड़ती।

लेकिन डूबना दो ढंग का हो सकता है। एक : कश्ती डुबाये तब तुम डुबो और एक, कि कश्ती में बैठे-बैठे तुम डूबने के लिए कोई सागर खोज लो। उस सागर को ही हम परमात्मा कहते है।

“अच्छा यकीं नहीं है तो कश्ती डुबो के देख

एक तू ही नाखुदा नहीं, जालिम! खुदा भी है। “

तो फिर हिम्मत आ जाती है, फिर आदमी कहता है कि ठीक है। तो अगर मांझी! तू चाहता ही है कि कश्ती डुबानी है तो डुबाकर देख! एक तू ही नाखुदा नहीं जालिम! खुदा भी है। “ तू ही अकेला नहीं है, मांझी! तुझसे ऊपर खुदा भी है।

फिर अंधेरी रात, तूफान, कश्ती का अब डुबा तब डुबा होना, सब दूर की बातें हो जाती हैं। तुम भीतर कहीं एक ऐसी जगह लंगर डाल देते हो, जहां तूफान छूते ही नहीं, जहां रात का अंधेरा प्रवेश ही नहीं करता। और जहां किसी नाखुदा की, किसी मांझी की जरूरत नहीं है, क्योंकि वहां परमात्मा ही मांझी है।

जरूरी है कि जीवन की व्यर्थता दिखायी पड़ जाए। बहुत हैं जो जीवन की व्यर्थता बिना देखे आस्तिकता में अपने को डुबाने की चेष्टा करते हैं, वे कभी न डूब पाएंगे। वे चुल्लूभर पानी में डूबने की चेष्टा कर रहे हैं। वे अपने को धोखा दे रहे हैं।

जब तक तुम्हारे जीवन की जड़ें उखड़ न गयी हों, जब तक तुमने गहन झंझावात नास्तिकता के न झेले हों, जब तक तुम्हारा रोआ-रोआ कैप न गया हो जीवन के अंधकार से, जब तक तुम्हारी छाती भयभीत न हो गयी हो–तब तक तुम जिस आस्तिकता की बातें करते हो, वह सांत्वना होगी, सत्य नहीं, तब तक तुम जिन मंदिरों और मस्जिदों में पूजा- उपासना करते हो, वह पूजा-उपासना धोखा- धड़ी है। वह तुम्हारा औपचारिक व्यवहार है। वह संस्कारवशात है। उससे तुम्हारे जीवन का सीधा कोई संबंध नहीं है। उसे तो तुम्हें अपने को चुकाकर ही, अपने को दान में देकर ही, अपना सर्वस्व लुटाकर ही पाना होगा। वह तो तुम जब तक सूली पर न लटक जाओ, तब तक उस सिंहासन तक न पहुंच पाओगे।

तो पहली तो स्मरण रखने की बात यह है कि कहीं जल्दी में आस्तिक मत हो जाना। यह कोई जल्दी का काम नहीं है। बड़ी गहन प्रतीक्षा चाहिए। और यह कोई सांत्वना नहीं है कि तुम ओढ़ लो, संक्रांति है। सांत्वना नहीं है परमात्मा, संक्रांति है, महाक्रांति है। तुम जो हो, मिटोगे, और तुम जो होने चाहिए वह प्रगट होगा।

तो सस्ती आस्तिकता कहीं नहीं ले जाती। सस्ती आस्तिकता से तो असली नास्तिकता बेहतर है, कम-से-कम उस परिधि पर तो खड़ा कर देती है, जहां से कदम चाहो तो उठा सकते हो। झूठी आस्तिकता से तो कोई कभी नहीं गया है, जा ही नहीं सकता। झूठी प्रार्थना कभी नहीं सुनी गयी है। तुम कितने ही जोर से चिल्लाओ, तुम्हारी आवाज के जोर से प्रार्थना का कोई संबंध नहीं है, तुम्हारे हृदय की सच्चाई से, तुम्हारी विनम्रता से, तुम्हारे निरहंकार- भाव से, तुम्हारे असहाय-भाव से, जब तुम्हारी प्रार्थना उठेगी तो पहुंच जाती है, तो जर्रा-जरी, कण-कण अस्तित्व का तुम्हारा सहयोगी हो जाता है।

तो पहले तो झूठी आस्तिकता से बचना, फिर नास्तिकता में मत उलझ जाना। नास्तिक होना जरूरी है, बने रहना जरूरी नहीं है। एक ऐसी घड़ी आएगी जब अंधेरा ही अंधेरा दिखायी पड़ेगा, तूफान ही तूफान होंगे, कहीं कोई सहारा न मिलेगा, सब सहारे झूठ मालूम होंगे, राह भटक जाएगी, तुम बिलकुल अजनबी की तरह खड़े रह जाओगे, जिसका कोई सहारा नहीं, जो एकाकी है–तब घबड़ा कर बैठ मत जाना, यहीं से शरुआत होती है। यहीं से अगर तुमने आगे कदम उठाया, तो उपासना, भक्ति! यहीं से आगे कदम उठाया तो संसार के पार परमात्मा की शरुआत होती है।

झूठी नास्तिकता से बचना है, झूठी आस्तिकता से बचना है। नास्तिकता सच्ची हो तो भी उसको घर नहीं बना लेना है। असली नास्तिकता के दुख को झेलना है ताकि उस पीड़ा के बाहर असली आस्तिकता का जन्म हो सके।

दूसरा प्रश्‍न :

 

इस विराट अस्तित्व में मैं नाकुछ हूं, यह अप्रिय तथ्य स्वीकारने में बहुत भय पकड़ता है। इस भय से कैसे ऊपर उठा जाए?    

“अप्रिय “ कहोगे तो शुरू से ही व्याख्या गलत हो गयी, फिर भय पकड़ेगा। “ अप्रिय “ कहना ही गलत है।

फिर से सोचो : नाकुछ होने में अप्रिय क्या है, वस्तुत : कुछ होने में अप्रिय है। क्योंकि जीवन के सारे दुख तुम्हारे “कुछ होने “ के कारण पैदा होते हैं। अहंकार घाव की तरह है। और जब तुम्हारे भीतर घाव होता है–और अहंकार से बड़ा कोई घाव नहीं, नासूर है–तो हर चीज की चोट लगती है, हर चीज से चोट लगती है, हर चीज से पीड़ा आती है, जरा कोई टकरा जाता है और पीड़ा आती है, हवा का झोंका भी लग जाता है तो पीड़ा आती है, अपना ही हाथ छू जाता है तो पीड़ा आती है।

अहंकार का अर्थ है : मैं कुछ हूं।

अगर तुम जीवन की सारी पीड़ाओं की फेहरिश्त बनाओ तो तुम पाओगे कि वे सब अहंकार से ही पैदा होती हैं। लेकिन तुमने कभी गौर से इसे देखा नहीं। तुम तो सोचते हो कि पीड़ा तुम्हें दूसरे लोग देते हैं।

किसी ने तुम्हें गाली दी, तो तुम सोचते हो, यह आदमी गाली देकर मुझे पीड़ा दे रहा है। व्याख्या की भूल है। विश्लेषण की चूक है। दृष्टि का अभाव है। आंख खोलकर फिर से देखो। इस आदमी की गाली में अगर कोई भी पीड़ा है तो इसीलिए है कि तुम्हारे भीतर अहंकार उस गाली से छूकर दुखी होता है। अगर तुम्हारे भीतर अहंकार न हो तो इस आदमी की गाली तुम्हारा कुछ भी न बिगाड़ पाएगी। तुम उस आदमी की गाली को सुन लोगे और अपने मार्ग पर चल पड़ोगे। हो सकता है, इस आदमी की गाली तुम्हारे मन में करुणा को भी जगाये कि बेचारा नाहक ही व्यर्थ की बातों में पड़ा है। लेकिन गाली उसकी तुम्हें पीड़ा दे जाती है, क्योंकि तुम्हारे पास एक बड़ा मार्मिक स्थल है, जो तैयार ही है पीड़ा पकड़ने को। बड़ा संवेदनशील है! बड़ा नाजुक है! और हर घड़ी तैयार है कि कहीं से पीड़ा आये तो…वह पीड़ा पर ही जीता है।

तो जरूरी नहीं कि कोई गाली दे, राह पर कोई बिना नमस्कार किये निकल जाए तो भी पीड़ा आ जाती है। कोई तुम्हें देखे और अनदेखा कर दे तो भी पीड़ा आ जाती है। राह पर दो आदमी हंस रह हों तो भी पीड़ा आ जाती है कि शायद मुझ पर ही हंस रहे हैं। दो आदमी एक-दूसरे के कान में खुसरफुसर कर रहे हों तो पीड़ा आ जाती है कि शायद मेरे लिए ही…। यह जो “मैं “ है, बड़ा रुग्ण है! इसको लेकर तुम कभी भी स्वस्थ और सुखी न हो पाओगे। और यही अहंकार तुमसे कहता है, “डरो, प्रेम से डरो, क्योंकि प्रेम में इसे छोड़ना पड़ेगा। भक्ति से डरो, क्योंकि भक्ति में तो यह बिलकुल ही डूब जाएगा, प्रेम में क्षणभर को डूबेगा, भक्ति में शाश्वत, सदा के लिए डूब जाएगा। बचो!

यह अहंकार कहता है, “ऐसी जगह जाओ ही मत जहां डूबने का हर हो। बचकर चलो!

संभलकर चलो। “

और यही अहंकार तुम्हारी पीड़ा का कारण है!

ऐसा समझो कि नासूर लिये चलते हो और चिकित्सक से बचते हो।

“इस विराट अस्तित्व में मैं नाकुछ हूं, यह अप्रिय तथ्य स्वीकारने में बहुत भय पकड़ता है।

“यह भय तुम्हें नहीं पकड़ रहा है, यह भय उसी अहंकार को पकड़ रहा है जो कि डूबने से, तल्लीन होने से भयभीत है। क्योंकि तल्लीनता का अर्थ मौत है—अहंकार की मौत, तुम्हारी नहीं! तुम्हारे लिए तो जीवन का नया द्वार खुलेगा। उसी मृत्यु से तुम पहली बार अमृत का दर्शन करोगे। लेकिन तुम्हारे लिए, अहंकार के लिए नहीं!

यह जो तुम्हारे भीतर “मैं “ की गांठ है, यह गांठ दुख दे रही है। इस अप्रिय “मैं “ को पहचानो, तो तुम पाओगे कि निरहकारिता से ज्यादा प्रीतिकर और कुछ भी नहीं।

और जिसे निरहकारिता आ गयी, सब आ गया! फिर उसे किसी मंदिर में जाने की जरूरत नहीं। निरहकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, वह पत्थरों के मंदिरों में जाए भी क्यों!

निरहकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके तो अपने ही भीतर के मंदिर के द्वार खुल गये!

“अदब-आमोज है मैखाने का जरा-जर्रा

सैकड़ों तरफ से आ जाता है सिजदा करना।

इश्क पाबंदेवफा है, न पाबंदे-रसूम

सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिजदा करना। “

“अदब-आमोज है मैखाने का जरी-जर्रा। “

अगर तुम गौर से देखो तो अस्तित्व का कण-कण विनम्रता सिखा रहा है। पूछो वृक्षों से; पूछो पर्वतों से, पहाड़ों से; पूछो झरनों से, पक्षियों से, पशुओं से कहीं अहंकार नहीं हैं।

“अदब-आमोज है मैखाने का जुरी-जूरी। “

एक-एक कण पूरा अस्तित्व एक ही बात सिखा रहा है नाकुछ हो जाओ।

“सैकड़ों तरह से आ जाता है सिजदा करना।

और अगर तुम इन बातों को सुनो जो अस्तित्व में गूंज रही हैं सब तरफ से, सब दिशाओं से, तो सैकड़ों रास्ते हैं जिनसे उपासना का सूत्र तुम्हारे हाथ में आ जाएगा, सिजदा करना आ जाएगा, झुकने की कला आ जायेगी।

जरूरी नहीं है कि तुम शास्त्र ही पढ़ो; अस्तित्व के शास्त्र से बड़ा कोई और शास्त्र नहीं है। जरूरी नहीं है कि तुम ज्ञानियों से ही सीखो; तुम अगर आंख खोलकर देखो तो सारा अस्तित्व तुम्हें सिखाने को तत्पर है।

यहां आदमी के सिवाय कोई अहंकार से पीड़ित नहीं है और इसलिए सिवाय आदमी के यहां कोई भी पीड़ित नहीं है। आदमी ही परेशान है। वृक्ष परेशान नहीं; सिजदा में खड़े हैं। सतत चल रही है पूजा।

आदमी की पूजा घड़ी दो घड़ी की होती है; अस्तित्व की पूजा सतत है। तुम कभी आरती उतारते हो; तारे, चांद, सूरज उतारते ही रहते हैं आरती। चौबीस घंटे। सतत।

तुम कभी एक फूल चढ़ा आते हो; वृक्ष रोज ही चढ़ाते रहते हैं फूल। तुम कभी जाकर मंदिर में एक गीत गुनगुना आते हो; पक्षी सुबह से सांझ तक गुनगुना रहे हैं। अगर गौर से देखो तो तुम सारे अस्तित्व को सिजदा करता हुआ पाओगे। सारा अस्तित्व झुका है, घुटनों पर हाथ जुड़े हैं, आखों से आसुओ की धार बह रही है, हृदय से सुगंध उठ रही है।

फिर से देखो। देखा तो तुमने भी है इसे, ठीक से आंख से नहीं देखा। फिर से देखो तुम हर वृक्ष को झुका हुआ पाओगे प्रार्थना में; हर झरने को उसी का गीत गाता हुआ पाओगे।

“अदब-आमोज है मैखाने का जुरी-जूरी

सैकड़ों तरह से आ जाता है सिजदा करना। “

“इश्‍क पाबंदेवफा है…..।

प्रेम आस्‍था की बात है, श्रद्धा की बात है, भरोसे की बात है।

“इश्‍क पाबंदेवफा है, न कि पाबंदे-रज्य! “

वह कोई नीति-नियम की बात नहीं है, कोई रज्य की बात नहीं है, कोई नियम के आचरण की, विधि-अनुशासन की बात नहीं है—सिर्फ आस्‍था की बात है। कोई मुसलमान होना जरूरी नहीं है, कोई हिंदू होना जरूरी नहीं है, कोई ईसाई होना जरूरी नहीं है—क्योंकि ये सब तो रीति- नियम की बातें हैं, धार्मिक होने के लिए इनकी कोई भी जरूरत नहीं है, सिर्फ आस्‍था काफी है। आस्‍था न हिंदू है न मुसलमान, आस्‍था न जैन है न बौद्ध—आस्‍था वि शेषण- रहित है, उतना ही विशेषण- रहित है जितना कि परमात्मा।

“इश्‍क पाबंदेवफा है, न कि पाबंदे-रज्य। “

तो तुम कोई रीति- नियम से प्रार्थना मत करने बैठ जाना। सीख मत लेना प्रार्थना करना, क्योंकि वही अड़चन हो जाएगी असली प्रार्थना के जन्म होने में। प्रार्थना सहजस्फूर्त हो!

सूर्य के सामने सुबह बैठ जाना, जो तुम्हारे हृदय में आ जाए, कह देना, न कुछ आये, चुपचाप रह जाना। सूरज कुछ कहे, सुन लेना, न कहे तो उसके मौन में आनंदित हो लेना। बंधी हुई प्रार्थनाएं मत दोहराना, क्योंकि बंधी हुई प्रार्थनाएं कंठों में हैं, उससे नीचे नहीं जातीं, बस कंठों तक जाती हैं, कंठों से आती हैं।

इसलिए अक्सर तुम पाओगे कि जिनको प्रा र्थनाएं याद हो गयी हैं, वे प्रार्थनाएं से वंचित हो गये हैं। वे प्रार्थना करते रहते हैं, उनके ओंठ दोहराते रहते हैं मंत्रों को और उनके भीतर विचारों का जाल चलता रहता है। फिर धीरे-धीरे तो यह इतनी आदत हो जाती है दोहराने की कि उससे कोई बांधा ही नहीं पड़ती, भीतर दुकान चलती रहती है, ओंठों पर मंदिर चलता रहता है।

“इश्‍क पाबंदेवफा है, न कि पाबंदे- रज्य! “

प्रेम जानता ही नहीं रीति – रिवाज, क्योंकि प्रेम आखिरी नियम है। किसी और व्यवs था की जरूरत नहीं है, प्रेम पर्याप्त है। प्रेम की अराजकता में भी एक अनुशासन है। वह अनुशासन सहजस्फूर्त है।

“सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिजदा करना! “

और सिर्फ सिर झुकाने का नाम प्रा र्थना नहीं है, खुद के झुक जाने का नाम प्रा र्थना है। सिर झुकाना तो बड़ा आसान है।

मेरे पास लोग बच्चों को लेकर आ जाते हैं। वे खेद सिर झुकाते हैं, बच्चे खड़े रह जाते हैं, तो मां उसका सिर पकड़कर चरणों में झुका देती है। मैं उनको कहता हूं, “यह तुम क्या ज्यादती कर रहे हो, “ वह बच्चा अकड़ रहा है, वह खडा है, उसके सिर नहीं झुकाना है, कोई कारण नहीं है सिर झुकाने का, उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है, मां उसका सिर झुका रही है, रसूम सिखाया जा रहा है, नियम सिखाया जा रहा है। वह धीरे-धीरे अभ्‍यस्त हो जाएगा। बड़ा होते-होते किसी को झुकाने की जरूरत न रह जाएगी, खुद ही झुकने लगेगा, लेकिन हर झुकने में वह मां का हाथ इसकी गर्दन पर रहेगा। यह बुढापे तक जब भी झुकेगा, तब इसे कोई झुका रहा है वस्तुत : यह खुद नहीं झुक रहा है।

तुमने कभी खयाल किया, तुम मंदिर में जाकर झुकते हो, यह सिर्फ एक आदत है या आस्था है, क्योंकि बचपन से मां-बाप इस मंदिर में ले गये थे, झुकाया था, एक दिन तुम्हारी गर्दन को… तुम्हें सभी को याद होगा कि किसी न किसी दिन मां-बाप ने तुम्हारी गर्दन को झुकाया था किसी पत्थर की मूर्ति के सामने, किसी मंदिर में, किसी शास्त्र के सामने, किसी गुरु के सामने। याद करो उस दिन को। फिर धीरे-धीरे तुम अम्यस्त हो गये। फिर तुम भी संसार के रीति-नियम समझने लगे। फिर तुमने भी औपचारिकता सीख ली। वह बच्चा ज्यादा श्दुद्ध है जो सीधा खड़ा है। उसे झुकना नहीं, बात खत्म हो गयी। झुकने का उसे कोई कारण समझ में नहीं आता, बात खत्म हो गयी। मां उसे एक झूठ सिखा रही है। समाज सभी को झूठ सिखा रहा है, औपचारिक आचरण सिखा रहा है। फिर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे परम पर परत जमते-जमते ऐसी घड़ी आ जाती है कि तुम बड़ी सरलता से झुकते हो, और बिना जाने कि यह भी तुम्हारा झुकना नहीं है। यह सरलता भी झूठी है। इस सरलता में भी समाज के हाथ तुम्हारी गर्दन को दबा रहे हैं। इस सरलता में भी तुम्हारी गुलामी है।

और प्रेम, गुलामी से कहीं पैदा हुआ, परतंत्रता से कहीं पैदा हुआ, भक्ति तो परम स्वतंत्रता है। इसलिए छोड़ दो वह सब जो तुम्हें सिखाया गया हो, ताकि “अन-सीखे “ का जन्म हो सके। हटा दो वह सब जो दूसरों ने जबरदस्ती से तुम्हारे ऊपर लादा हो! निर्बोझ हो जाओ!

फिर से सीखना पड़ेगा पाठ।

तुम्हारी स्लेट पर बहुत कुछ दूसरों ने लिख दिया है। खाली करो उसे! धो डालो! ताकि फिर से तुम अपने स्वभाव के अनुकूल कुछ लिख सको।

“इश्क पाबंदेवफा है, न कि पाबंदे-रसूम

सर झुकाने का नहीं कहते हैं सिजदा सिजदा करना। “

प्रार्थना बड़ी अभूतपूर्व घटना है।

झुकना! उसके आगे तो फिर कुछ और नहीं वह तो आखिरी बात है। क्योंकि जो झुक गया, उसने पा लिया! जो झुक गया वह भर गया! वह भर दिया गया!

तुम तो रोज झुकते हो, कुछ भरता नहीं। तुम तो रोज झुकते हो, खाली हाथ आ जाते हो। धीरे, धीरे तुम्हें ऐसा लगने लगता है कि जिसके सामने झुक रहे हैं वह परमात्मा झूठ है, क्योंकि इतनी बार झुके, कुछ हाथ नहीं आता। मैं तुमसे कहता हूं, वह परमात्मा तो सच है, तुम्हारा झुकना झूठा है। तुम कभी झुके ही नहीं।

दुनिया में नास्तिकता बढ़ती जाती है, क्योंकि झूठी आस्तिकता कब तक साथ दे! जबरदस्ती झुकाई गयी गर्दनें कभी न कभी अकड़कर खड़ी हो जायेगी। और इतने बार झुकने के बाद जब कुछ भी न मिलेगा, तो स्वाभाविक है कि आदमी कहे, “क्या सार है, क्यों झुके?

और स्वाभाविक है कि आदमी कहे, “इतनी बार झुककर कुछ न मिला, कोई परमात्मा नहीं है।”

यह तुम्हारी झूठी आस्तिकता का परिणाम है।

सच्ची आस्तिकता आस्था से पैदा होती है।

आस्था का अर्थ है… जैसा तुम समझते हो वैसा नहीं। तुम समझते हो, आस्था का अर्थ है : विश्वास।

नहीं, आस्था का अर्थ विश्वास नहीं है। आस्था का अर्थ है : अनुभव। विश्वास तो दूसरे देते हैं, आस्था वह है जो तुम्हारे भीतर तुम्हारी स्वाभाविकता से पैदा होती है।

प्रेम सीखो!

नियम भूलो!

प्रेम पर दांव लगाओ, जोखिम है! नियम में कभी कोई जोखिम नहीं, इसलिए तो लोग नियम में जीते हैं। लेकिन जिसने जोखिम न उठायी, उसने कुछ पाया ही नहीं। इसलिए तो लोग बिना पाये रह जाते हैं।

पूछा है : “इस विराट अस्तित्व में मैं नाकुछ हूं, यह अप्रिय तथ्य स्वीकार करने में भय पकड़ता है। “ पकड़ने दो भय! भय की मौजूदगी रहने दो। भय से कहो, “तू रह, लेकिन हम झुकते हैं “।

तुम भय को एक किनारे रखो!

मैं जानता हूं कि भय को एक दम मिटा न सकोगे, लेकिन एक किनारे रख सकते हो। भय के रहते हुए भी तुम झुक सकते हो। भय की सुनना जरूरी नहीं है। तुम सुनते हो, स्वीकार करते हो, मान लेते हो, इसलिए भय मालिक हो जाता है।

भय से कहो, “ठीक, तेरी बात सुन ली, फिर भी झुककर देखना है : तू कहता है, जोखिम है! होगी। लेकिन जोखिम उठाकर देखनी है। तू कहता है, मिट जाओगे!… सही। रहकर देख लिया, अब मिटकर देखना है। रह- रहकर कुछ न पाया, जब यह आयाम भी खोज में मिटने का!

“कोई भय को दबाने की जरूरत नहीं है, ध्यान रखना। दबाया हुआ भय तो फिर- फिर उभरेगा। न, भय को पूरा स्वीकार कर लो कि ठीक हो। माना, तुम्हारी बात में भी बल है। तुम्हारे तर्क से कोई इनकार नहीं। लेकिन तुम्हारे साथ रहकर इतने दिन देख लिया और जीवन का कोई अनुभव न हुआ, अब कुछ और भी कर लेने दो।

तर्क उठेंगे मन में। उनसे कहो, ठीक है। तुम्हारी बात जंचती थी, इसलिए तो इतने दिन तक तुम्हारा संग- साथ रहा। इतने दिन तक तुम्हें ओढ़ा, लेकिन कुछ पाया नहीं, हृदय कोरा है, आत्मा रिक्त है, अब बहुत हुआ, अब तुमसे विपरीत दिशा में भी थोड़ा जाकर देख लेने दो।

डर तो लगेगा, क्योंकि जिस दिशा में कभी न गये, उस दिशा में जाते मन घबड़ाता है, पैर कंपते हैं। मन चाहता है : “जाने-माने रास्ते पर चलो। कहां जंगल में जा रहे हो बियाबान में?

भटक जाओगे। भीड़ जहां चलती है वहीं चलो! कम से कम संगी-साथी तो हैं! भीड़ है, तो राहत है, अकेले नहीं हैं। “

पर एक न एक दिन भीड़ के रास्तों को छोड्कर पगडंडी की राह लेनी पड़ती है।

परमात्मा तक कोई राजपथ नहीं जाता, बस पगडंडी जाती हैं। कोई राजपथ परमात्मा तक नहीं जाता, अन्यथा समाज परमात्मा तक पहुंच जाए। व्यक्ति ही पहुंचते हैं, समाज कभी नहीं। पगडंडियां! पगडंडियां भी ऐसी कि तुम चलो तो बनती हैं, कोई तैयार नहीं हैं पहले से, कि किसी ने तुम्हारे लिए बनाकर रखी हों। तुम्हारे चलने से ही बनती हैं। जितना तुम चलते हो उतनी ही निर्मित होती हैं।

यह राह ऐसी है कि तैयार नहीं है, चलने से तैयार होती है। और बड़ा सुंदर है यह तथ्य। नहीं तो आदमी एक परतंत्रता हो जाए, राह तैयार है, उस पर तुम्हें चले जाना है! तब तो तुम रेलगाड़ियों के डब्बों जैसे हो जाओ। लोहे की पटरियों पर दौड़ते रहो। फिर तुम्हारे जीवन में गंगा की स्वतंत्रता न हो। फिर वह मौज न रह जाए, जो अपनी ही खोज से आती है।

गंगा सागर पहुंचती है—लोहे की पटरियों पर नहीं, चलती है, चल- चलकर अपनी राह बनाती है, मार्ग बनाती है : अनजान की खोज पर! सागर है भी आगे, इसका भी क्या पक्का पता तो भय स्वाभाविक है। लेकिन भय के साथ रहकर हम बहुत दिन देख लिये। अब भय को कहो, रहने दो भय को एक किनारे—तुम चलो!

कंपते हुए पैरों से सही, पगडंडी पर उतरो!

डरते हुए, धड़कते हुए हृदय से सही, भीड़ को छोड़ो! घबड़ाहट होगी, लौट- लौट जाने का मन होगा—कोई चिंता नहीं।

कभी लौट जाने का मन हो, कभी घबड़ाहट हो तो इतना ही याद रखना कि भय की और मन की मानकर बहुत दिन चले थे, कहीं पहुंचे न थे। नये को एक अवसर दो!

जिस दिन तुम नये को अवसर देते हो उसी दिन तुम परमात्मा को अवसर देते हो। जब तक तुम पुराने को दोहराते हो, लीक को पीटते हो, लकीर के फकीर हो, तब तक तुम समाज के हिस्से होते हो, भीड़ के हिस्से होते हो।

व्यक्ति बनो!

अकेले का साहस जुटाओ!

और सबसे बड़ा साहस यही है : इस तथ्य को स्वीकार कर लेना कि मैं इस विराट का अंश हूं, अलग- थलग नहीं हूं, द्वीप नहीं हूं, इस पूरे विराट का एक अंश हूं। मैं नहीं हूं, अस्तित्व है!

यही तो भक्ति की सारी की सारी व्यवस्था है कि भक्त खो जाए भगवान में, कि भगवान खो जाए भक्त में, कि एक ही बचे, दो न रह जाएं।

तीसरा प्रश्‍न :

 

  आपसे मिलकर भी यदि हमारा उद्धार न हुआ, तब तो शायद असंभव ही है कम से कम मुझ निरीह पर तो रहम खाइए। न तो मुझसे ध्यान सधता है न भक्ति। भक्ति की लहरियां आती हैं अवश्य, पर बहुत झीनी, और वह भी कभी-कभी, और संसार का भयंकर तूफान तो सदा हावी है।  

ध्यान साधना होता है, भक्ति साधनी नहीं होती।

भक्ति की जो छोटी-छोटी लहरियां आ रही हैं उनमें डूबो, उनमें रस लो। तुम्हारे डूबने से लहरें बड़ी लगेंगी। दूर किनारे पर मत बैठे रहो, अन्यथा लहरें आएंगी और खो जाएंगी और तुम अछूते रह जाओगे। उतरो! लहरों को तुम्हारे तन-प्राण पर फैलने दो। अगर छोटी-छोटी लहरें आ रही हैं तो भरोसा रखो, लहरों में सागर ही आया है। छोटी से छोटी लहर में विराट से विराट सागर छिपा है!

ध्यान साधना पड़ता है। ध्यान साधना है। भक्ति! भक्ति साधना नहीं है, उपासना है।

भेद समझ लो।

साधना का अर्थ है: तुम्हें कुछ करना है। उपासना का अर्थ है: तुम्हें सिर्फ परमात्मा को मौका देना है। साधना में तुम्हें चेष्टा करनी पड़ती है; उपासना में तुम बेसहारा होकर अपने को परमात्मा पर छोड़ देते हो–तुम कहते हो, “अब जो तेरी मर्जी! अब तू जैसे रखे! अब तू जो करवाये! डुबाये तो वही किनारा! अब मैं नहीं हूं।

“ भक्ति साधनी पड़ती। साधने में तो तुम बने रहते हो। उपासना में तुम खो जाते हो, तुम जैसे-जैसे पास आते हो।

उपासना शब्द का अर्थ है: परमात्मा के पास आना। उप-आसन–”उसके “ पास बैठना। बस बैठना ही काफी है। तुम “उसे “ मौका दो। तुम बैठ जाओ–”उसके “ पास! “उस “ पर छोड्कर! और “उसे” मौका दो।

बिलकुल ठीक हो रहा है: “भक्ति की लहरियां आती हैं अवश्य, पर बहुत झीनी, और वह भी कभी-कभी। “

इसे भी सौभाग्य समझो कि आती हैं। बस उन लहरों को ही पकड़ो, उनमें डूबो! एक धागा भी हाथ में आ जाए तो बस काफी है। इसलिए तो भक्ति के इस शास्त्र को भक्ति-सूत्र कहा है, योग के शास्त्र को योग-सूत्र कहा है–धागा! सूत्र यानी धागा। यह पूरा शास्त्र नहीं है, बस सूत्र है। पर सूत्र हाथ में पकड़ आ गया, तो बात खत्म। उसी सूत्र के सहारे चलते-चलते तो…! एक किरण पकड़ लो सूरज की तो सूरज तक पहुंचने के लिए सहारा मिल गया। उसी किरण के सहारे चलते जाना, तो उसके स्रोत तक पहुंच जाओगे, जहां से किरण आती है।

मगर हमारा मन बड़ा लोभी है। वह कहता है “कभी-कभी आती हैं यह भी कोई कम सौभाग्य है? एक बार भी जीवन में लहर आ जाए और तुम अगर होशियार हो, तुम अगर जरा समझदार हो तो तुम उस एक ही लहर के सहारे उसके सागर को पा लोगे।

“कभी-कभी आती हैं! “–जरूरत से ज्यादा आ रही हैं।

तुम्हारी पात्रता क्या है? योग्यता क्या है? कमाई क्या है? कुछ भी नहीं है। उसकी अनुकंपा से आती होंगी। प्रसाद स्वरूप आती होंगी।

धन्यवाद दो, शिकायत मत करो! शिकायत करोगे तो जो लहरें आती हैं वे भी धीरे-धीरे खो जाएंगी। क्योंकि शिकायती चित्त के पास उपासना असंभव है। जितनी ज्यादा तुम्हारी शिकायत होगी उतना ही परमात्मा से फासला हो जाएगा। बिना शिकायत उसके पास बैठ रहो। धन्यवाद दो!

मैंने सुना है, मुसलमान बादशाह हुआ: महमूद। उसका एक नौकर था। बड़ा प्यारा था। इतना उसे प्रेम था उस नौकर से और उस नौकर की भक्ति-भाव से, उसके अनन्य समर्पण से कि महमूद उसे अपने कमरे में ही सुलाता था। उस पर ही एक भरोसा था उसको।

दोनों एक दिन शिकार करके लौटते थे, राह भटक गये, भूख लगी। एक वृक्ष के नीचे दोनों खड़े थे। एक फल लगा था–अपरिचित, अनजान। महमूद ने तोड़ा। जैसी उसकी आदत थी, चाकू निकालकर उसने एक टुकड़ा काटकर अपने नौकर को दिया, जो वह हमेशा देता था, पहले उसे देता था फिर खुद खाता था। नौकर ने खाया। बड़े अहोभाव से कहा कि “एक कली और…! एक कली और दे दी, उसने फिर कहा, “एक कली और…!” तो तीन हिस्से वह ले चुका, एक हिस्सा ही बचा। महमूद ने कहा, “अब एक मेरे लिए छोड़। “ पर उसने कहा कि नहीं मालिक, यह फल तो पूरा ही मैं खाऊंगा। महमूद को भी जिज्ञासा बढ़ी कि इतना मधुर फल है, ऐसा इसने कभी आग्रह नहीं किया! तो छीना-झपटी होने लगी। लेकिन नौकर ने छीन ही लिया उसके हाथ से।

उसने कहा, “रुक! अब यह जरूरत से ज्यादा हो गयी बात। तीन हिस्से तू खा चुका। एक ही फल है वृक्ष पर। मैं भी भूखा हूं। और मेरे मन में भी जिज्ञासा उठती है कि इतनी तो तूने कभी किसी चीज के लिए मांग नहीं की। यह मुझे दे दे वापस।

नौकर ने कहा “मालिक, मत लें, मुझे खा लेने दें। “

पर महमूद ने न माना तो उसे देना पड़ा। उसने चखा तो वह तो जहर था। ऐसी कड्वी चीज उसने अपने जीवन में कभी चखी ही न थी। उसने कहा, “पागल! यह तो जहर है, तूने कहा क्यों नहीं। “

तो उसने कहा कि जिन हाथों से इतने स्वादिष्ट फल मिले, उन हाथों से एक कडुवे फल की क्या शिकायत!

शिकायत दूर ले जाएगी, धन्यवाद पास लाएगा।

थोड़ा सोचो: उस दिन वह नौकर महमूद के हृदय के जितने करीब आ गया…। महमूद रोने लगा। वह तो बिलकुल जहर था फल। वह तो मुंह में ले जाने योग्य न था। और उसने इतने अहोभाव से, इतनी प्रसन्नता से उसे स्वीकार किया, छीना-झपटी की! वह नहीं चाहता था कि महमूद चखे। क्योंकि चखेगा तो महमूद को पता चल जाएगा कि फल कडुवा था। यह तो कहने का ही एक ढंग हो जाएगा कि फल कडुवा है–न कहा लेकिन कह दिया। यह तो शिकायत हो जाएगी। इसलिए छीन-झपटी की। जिन हाथों से इतने मधुर फल मिले, उस हाथ से एक कडुवे फल की क्या चर्चा करनी! यह बात ही उठाने की नहीं है।

परमात्मा ने इतना दिया है कि जो शिकायत करता है वह अंधा है।

थोड़ी लहरें आती हैं, उन लहरों में डूबो! और लहरें आएगी।

धन्यवाद, अनुग्रह का भाव : बड़ी लहरें आएगी। एक दिन सागर का सागर तुम में उतर आएगा। एक दिन तुम्हें बहाकर ले जाएगा। सब कूल- किनारे टूट जाएंगे।

लेकिन सूत्र यही है कि तुम उसके प्रसाद को पहचानो और अनुग्रह के भाव को बढ़ाते चले जाओ। होता अक्सर ऐसा है कि जो तुम्हें मिलता है तुम उसके प्रति अंधे हो जाते हो, तुम उसे स्वीकार ही कर लेते हो ठीक है, यह तो मिलता ही है, और चाहिए!

अक्सर ऐसा होता है जितना ज्यादा तुम्हें मिल जाता है, उतने ही तुम दरिद्र हो जाते हो। क्योंकि उसको तो तुम स्वीकार ही कर लेते हो, उसकी तो तुम बात ही भूल जाते हो जो मिल गया।

एक मनोविज्ञानशाला में बंदरों पर कुछ प्रयोग किया जा रहा था। तो एक कटघरे में दस बंदर रखे गये थे जिनका रोज नहलाना-धुलाना होता था। ठीक भोजन मिलता था। बड़ी उस कटघरे में सफाई रखी गयी थी, एक मक्खी न थी।

दूसरे कटघरे में दस उन्हीं के साथी बंदर थे। उनको नहलाया- धुलाया न जाता था। उन पर गंदगी इकट्ठी हो गयी थी, जूं पड़ गये थे, मक्खियां भनभनाती रहती थीं। सफाई का कोई इंतजाम नहीं किया गया था। यह तो प्रयोग था एक।

तीन महीने में मनोवैज्ञानिकों ने जो निष्कर्ष निकाला था वह था कि वे जो गंदे बंदर थे, जिन पर मक्खियां झूमती रहती थीं और जिनके शरीर में जूं पड़ गयी थीं, और जिनको नहलाया-धुलाया न गया था–वे ज्यादा शांत और ज्यादा प्रसन्न! और जिनको नहलाया- धुलाया जाता था, ठीक भोजन दिया जाता था, वक्त पर दिया जाता था, और सब तरह की साज-संभाल रखी गयी थी, एक मक्खी नहीं जाने दी गयी थी—वे बड़े परेशान!

फिर यही प्रयोग कुत्तों पर भी दोहराया गया और यही परिणाम पाया गया।

तो मनोवैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि जब तुम्हारी जिंदगी में बहुत परेशानी होती है, तब तुम ज्यादा शांत होते हो। तुम परेशानी में उलझे होते हो, अशांत होने की भी तुम्हें सुविधा नहीं होती। जैसे- जैसे तुम्हारे पास सुविधा होती जाती है, वैसे- वैसे तुम अशांत होते जाते हो, क्योंकि सुविधा होती है, व्यस्तता नहीं होती, उलझाव नहीं होता–करो भी तो करो क्या! तो तुम शिकायतों में पड़ जाते हो!

यह मेरा अनुभव है कि जिनके जीवन में भी ध्यान की थोड़ी- सी झलक मिलती है, वे और लोभ से भर जाते हैं। जिनको नहीं मिली है, वे उतने लोभ में भरे नहीं हैं, वे ज्यादा प्रसन्न मालूम पड़ते हैं। जिंदगी का उलझाव काफी है। उन्हें स्वाद ही नहीं मिला तो लोभ कहां से लगे?

तुम गौर करो, गरीब आदमी को तुम ज्यादा शांत पाओगे अमीर आदमी की बजाय! कारण साफ है : वही जो बंदरों के कटघरे में हुआ। अमीर को सब मिल रहा है, अब वह करे क्या! शिकायत ही करता है।

जो बाहर की अमीरी- गरीबी के संबंध में सच है, वही भीतर की अमीरी- गरीबी के संबंध में भी सच है।

अगर तुम्हें झलकें मिल रही हैं थोड़ी झीनी सही… झीनी भी तुम कहते हो, वह भी तुम्हारा शिकायती चित्त है, जो उन्हें झीनी बता रहा है। “ कभी- कभी मिलती हैं, “चलो कभी- कभी सही। कभी- कभी भी तुम कहते हो, वह भी तुम्हारा शिकायती चित्त है। उसमें भी लोभ है। जो मिलता है वह तो स्वीकार कर लिया। वह तो जैसे तुम मालिक थे, मिलना ही चाहिए था, तुम अधिकारी थे उसके! बाकी जो नहीं मिल रहा है उसकी शिकायत है। तो तुमने भक्ति का राज नहीं समझा, तुम्हें उपासना की कला न आयी।

जो नहीं मिलता उसकी बात ही मत उठाओ। वह बात उठानी अशिष्ट है। उससे असंस्कार पता चलता है। जो मिलता है उसकी बात करो, उसका गुणगान करो, उसकी महिमा गाओ, उसके गीत गुनगुनाओ। और तुम जल्दी ही पाओगे : और द्वार खुलने लगे। तुम जल्दी ही पाओगे : और नयी हवाएं आने लगीं, और नयी झलकें मिलने लगीं।

जैसे- जैसे आदमी को मिलना शुरू होता है कुछ, वैसे- वैसे उसके पैर शिथिल होने लगते हैं। यह भी मन की प्रकृति समझ लेनी जरूरी है।

तुमने कभी खयाल किया। अगर तुम कहीं यात्रा पर गये हो, पदयात्रा पर, किसी ती र्थयात्रा पर, जैसे- जैसे मंदिर करीब आने लगता है, वैसे- वैसे पैर शिथिल होने लगते हैं, अक्सर ऐसा है, अक्सर तुमने देखा होगा या अनुभव किया होगा कि ठेठ मंदिर के सामने जाकर यात्री सीढ़ियों पर बैठ जाता है। अब ज्यादा दूर नहीं है मामला। अब पांच सीढ़ियां, दस सीढ़ियां चढुनी हैं, और मंदिर…! दस मील चल आया, पहाड़ चढ़ आया, कभी बैठा नहीं बीच में कहीं, ठीक मंदिर के सामने आकर बैठ जाता है। लगता है : आ ही गये!

लेकिन तुम मंदिर की सीढ़ियों पर बैठो या हजार मील की दूर मंदिर से बैठो, फर्क क्या है, सीढ़ियों पर जो है वह भी मंदिर के बाहर है। हजार मील दूर जो है, वह भी मंदिर के बाहर है। और परमात्मा का मंदिर कुछ ऐसा है कि तुम बैठे कि चूके। यह कोई जड़- पत् थर का मंदिर नहीं है कि तुम सीढ़ियों पर बैठे रहे तो मंदिर भी वहां रुका रहेगा, यह तो चैतन्य मंदिर है, तुम बैठे कि चूके! तुम बैठे कि मंदिर दूर गया! तुम रुके कि खोया! “सामने मंजिल है और आहिस्ता उठते हैं कदम

पास आकर दूर हो रहे हैं मंजिल से हम। “

सावधान रहना!

जब ध्यान की लहरें उठने लगें, भक्ति की उमंग आने लगे, थोड़ी रसधार बहे, थोड़ी मस्ती छाये, तो दो खतरे हैं। एक खतरा यह है, तो इस प्रश्र करनेवाले ने पूछा है, वह खतरा यह है कि तुम कहो कि यह तो कुछ भी नहीं है, और चाहिए! तो भी तुम दूर हो जाओगे! दूसरा खतरा यह है कि तुम कहो, बस हो गया! पहुंच गये। “ और बैठ जाओ, तो भी तुम खो गये!

फिर करना क्या है?

चलते जाना है और शिकायत नहीं करनी है!

चलते जाना है और अहोभाव से भरे रहना है।

चलते जाना है और धन्यवाद देते जाना है!

ओंठ पर गीत रहे धन्यवाद का, और पैर, पैर रुके न! धन्यवाद तुम्हारा रुकावट न बन जाए। अक्सर ऐसा होता है कि शिकायती चलते हैं और धन्यवादी बैठ जाते हैं। दोनों खतरे हैं। पहुंचता वही है जिसने उस गहरे संयोग को साथ लिया, धन्यवादी है, और चलता है। बड़ा गहरा संतुलन है, लेकिन अगर होश रखो तो सध जाता है।

चौथा प्रश्र :

कल के सूत्र में कहा गया है कि लौकिक और वैदिक कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं और निरोध भक्ति का स्वभाव है। और फिर यह भी कहा गया कि भक्त को शास्त्रोक्त कर्म विधिपूर्वक करते रहना चाहिए। कृपया इस विरोध को स्पष्ट करें।

विरोध नहीं है, दिखायी पड़ता है। जो भी पढ़ेगा, तत्क्षण दिखायी पड़ेगा कि पहले तो कहा लौकिक और वैदिक कर्म, सबका त्याग हो जाता है, निरोध हो जाता है, छूट जाते हैं, और फिर कहा, करते रहना चाहिए।

विरोध दिखायी पड़ता है, विरोध है नहीं। जानकर ही दूसरा सूत्र रखा गया है कि जब तुम्हारे जीवन से लौकिक और वैदिक, इस लोक के और परलोक के, सारी आकांक्षाएं और सारे कर्म छूट जाते हैं, तो कहीं ऐसा न हो कि तुम कर्म को छोड़ ही दो। कर्म तो छूट जाते हैं, लेकिन तुम करते रहना। इसका अर्थ हुआ कि अब तक तुमने कर्ता की तरह किया था, अब अभिनेता की तरह करता। फिर तत्क्षण विरोध खो जाता है। अब तक तुमने किया था कि मैं कर्ता हूं, अब तुम अभिनेता की तरह करना। क्योंकि जिस विराट समूह के तुम हिस्से हो, वह मानता है कि कर्म उचित हैं। इनका अभिनय करना है। तुम्हारे लिए इनका कोई मूल्य नहीं है।

ऐसा ही समझो, जब शहर में आते हो तो बाएं चलने लगते हो, जंगल में जाकर फिर बाएं- दाएं का हिसाब रखने की कोई जरूरत नहीं। जंगल में तुम अकेले हो : बाएं चलो, दाएं चलो, बीच में चलो, जैसा चलना हो चलो, क्योंकि वहां कोई पुलिसवाला नहीं खड़ा है, रास्ते पर कोई तख्तियां नहीं लगी हैं। वहां कोई और है ही नहीं तुम्हारे सिवाय।

अगर जंगल में भी जाकर तुम बाएं-ही-बाएं चलो तो तुम पागल हो, फिर तुम्हारा दिमाग खराब है। क्योंकि बाएं चलने का कोई संबंध चलने से नहीं है, बाएं चलने का संबंध भीड़ में चलने से है। जब अकेले हो तब मुक्त हो।

तो, जो व्यक्ति भक्त की दशा को उपलब्ध हुआ, अपने भीतर अपने एकांत में, तो सभी नियमों के बाहर हो जाता है। वहां न तो कोई शास्त्र है, न कोई नियम है, न कोई रीति है, न कुछ पाना है, न कहीं जाना है। वह तो अपने भीतर परम अवस्था को उपलब्ध हो गया है। वह तो परमात्मा के साथ एकरस हो गया! भीतर, जहां सब एकांत है, वहां तो अद्वैत हो गया, वहां तो अनन्यता सध गयी!

लेकिन बाहर, जब वह राह पर जाएगा, तब? तब बाएं चलेगा। कहीं ऐसा न हो कि जो तुमने भीतर अनुभव किया है, तुम उसे बाहर भी थोपने की चेष्टा में न पड़ जाओ, इसीलिए स्पष्ट सूत्र पीछे दिया है : करने चाहिए! उस व्यक्ति को शास्त्रोक्त कर्म विधिपूर्वक करने चाहिए। “ जानकर, होश से, उन नियमों का पालन करना चाहिए। वे अभिनय होंगे अब। उनकी कोई अर्थवत्ता नहीं है।

लेकिन अगर तुम अंधों के भी रहते हो तो अंधों के नियम मानो। अगर तुम अज्ञानियों के बीच रहते हो तो अज्ञानियों के नियम मानो।

इसे थोड़ा समझने जैसा है।

भारत में एक बड़ी प्राचीन धारणा है कि जब व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो जाए तो वह चेष्टापूर्वक नियमों को वैसा ही मानता रहे जैसा पहले मानता था जब ज्ञान को उपलब्ध न हुआ था। शायद यही कारण है कि भारत में महावीर, बुद्ध, पतंजलि, नारद, कबीर किसी को भी जीसस जैसी सूली नहीं लगानी पड़ी, सूली पर नहीं लटकाना पड़ा, और न सुकरात जैसा जहर पिलाकर मारना पड़ा।

इसके पीछे बहुत-से कारणों में एक बुनियादी कारण यह भी है कि बुद्ध ने जो भीतर पाया, उसे जबरदस्ती उन लोगों पर नहीं थोपा जो अभी उसको समझ भी न सकते थे। भीड़ से अकारण संघर्ष न लिया। भीड़ को फुसलाया, समझाया, जगाने की चेष्टा की, ऊपर उठाने के उपाय किये, लेकिन अकारण संघर्ष न लिया।

जीसस सीधे संघर्ष में आ गये। शायद जीसस के मुल्क में, यहूदियों के समाज में, ऐसा कोई सूत्र नहीं था। ऐसे किसी सूत्र को मैं अब तक नहीं देख पाया हूं यहूदियों के किसी भी शास्त्र में, जिसमें यह कहा गया हो कि परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति समाज कि नियमों को मानकर चले। टकराहट स्वाभाविक हो गयी।

और जब टकराहट होगी तो एक बात पक्की है कि जानी तो एक है, अज्ञानी करोड़ हैं। भीड़ उनकी है। वे जानी को मार डालेंगे। जानी अज्ञानियों को तो न उठा पाएगा, अज्ञानी को मिटा देंगे।

तो, भीड़ को मानकर चलना सिर्फ अपनी सुरक्षा ही नहीं है–क्योंकि जानी को अपनी सुरक्षा की क्या चिंता! भीड़ की मानकर चलना, भीड़ पर करुणा है। अन्यथा भीड़ तुम्हारे विपरीत हो जाएगी, तुम उसे फुसला भी न सकोगे, राजी भी न कर सकोगे, तुम उसे दिशा भी न दे सकोगे।

ऐसा समझो कि तुम मेरे साथ हो, तुम्हारी निन्यानबे बातें मैं मान लेता हूं तो तुम भी मेरी एक बात मानने को तैयार हो सकते हो, हालांकि मेरी एक तुम्हें बिलकुल बर्बाद कर देगी, तुम जहां हो वहां से उखाड़ देगी। और तुम्हारी निन्यानबे मेरा कुछ बिगाडनेवाली नहीं है। तुम्हारी निन्यानबे मेरे लिए अभिनय होंगी। मेरी एक तुम्हारे लिए जीवन-क्रांति हो जाएगी।

आखिरी प्रश्र :

जिसे भक्ति में अनन्यता कहा है, क्या वही दर्शन का अद्वैत नहीं है?

अर्थ तो वही है, लेकिन स्वाद में बड़ा भेद है।

अनन्यता में रस है। अद्वैत बड़ा रूखा- सूखा शब्द है। अद्वैत तर्क का शब्द है, अनन्यता प्रेम का। अद्वैत कहता है : दो न रहे।

बात तो वे एक ही कहते हैं। लेकिन “दो न रहे “ इसमें बड़ा तर्क है। अद्वैत यह भी नहीं कहता कि “एक “ हो गये, क्योंकि “एक “ कहने से “दो “ का खयाल आ सकता है। “एक “ में “दो “ का खयाल रहे, इसलिए अद्वैत। क्या हुआ, इसके संबंध में बात नहीं कही जा रही है।

“अनन्यता “ बड़ा प्यारा शब्द है। दूसरा दूसरा न रहा : अनन्य का अर्थ है। अन्य अन्य न रहा, अनन्य हो गया! दूसरा दूसरा न रहा, एक हो गये! अद्वैत से ज्यादा है यह बात। इसमें थोड़ा रस है जो अद्वैत में नहीं है।

“अद्वैत “ गणित और तर्क का शब्द है, “अनन्यता “ प्रेम और काव्य का। अद्वैत पर किताब लिखनी हो तो रूखी-सूखी होगी। अनन्यता पर किताब लिखनी हो तो काव्य होगा, तो गीत होगा। अनन्यता प्रगट करनी हो तो नाचकर प्रगट हो सकती है, जैसे नर्तक नृत्य से एक हो जाता है, ऐसा अनन्य। अनन्यता प्रगट करनी हो तो मस्ती से प्रगट होगी। अद्वैत प्रगट करना हो तो मस्ती की कोई जरूरत नहीं, नृत्य को बीच में लाने में बाधा पड़ेगी, सीधे तर्क के नियम कफिा हैं।

इसलिए वेदांत के शास्त्र बड़े रूखे-सूखे हैं, मरुस्थल जैसे हैं! वे भी परमात्मा के ही शास्त्र हैं, क्योंकि मरुस्थल भी परमात्मा के ही हैं। लेकिन वहां हरियाली नहीं उगती। वहां फूल नहीं लगते और पक्षियों का कोई कलरव नहीं होता। झरनों का कलकल नाद वहां नहीं है। राह से गुजरोगे तो मरुस्थल में भी खजूर के पेड़ मिल जाते हैं, वे भी वेदांत में न मिलेंगे।

इसलिए वेदांत ने एक बड़ा रूखा-सूखा शास्त्र दिया है। इसलिए वेदांती तर्क करते रहे, खंडन- मंडन करते रहे, शास्त्रार्थ करते रहे। भक्त नाचा! उतना समय उसने इसमें न गंवाया।

चैतन्य नाचे! ले लिया तंबूरा, गांव-गांव नाचे! नहीं किया कोई विवाद।

मीरा नाची! पग घुंघरू बांध नाची!

कोई विवाद नहीं किया!

विवाद में कहां वह स्वाद जो पग-घुंघरुओं में है!

विवाद में कहां वह स्वाद जो वीणा की झंकार में है!

और जब इतने मधुर उपाय उपलब्ध हों तो क्या तर्क जैसा रूखा-सूखा उपाय खोजना! मीरा बरसी!

जिसने देखा वह डूबा! जो पास आया, भूला! विस्मृत किया अपने को! एक डुबकी लगायी! कुछ लेकर गया!

चैतन्य के जीवन में तो दोनों घटनाएं हैं, क्योंकि पहले वे बड़े तर्कशास्त्री थे, न्यायविद थे। और एक ही काम था उनके जीवन में: विवाद। उन जैसा विवादी नहीं था। बंगाल में उनकी बड़ी ख्याति थी। बड़े-बड़े पंडितों को उन्होंने हराया। लेकिन धीरे-धीरे एक बात समझ में आयी; पंडित हार जाते हैं, वे जीत जात हैं–लेकिन भीतर कोई रसधार नहीं बह रही; इस जीत को भी इकट्ठा करके भी क्या करेंगे! ऐसे जीवन बीता जाता है। यह प्रमाण-पत्र इकट्ठे करके क्या होगा कि कितने लोगों को जीत लिया और कितने लोगों को तर्क में पराजित किया! यह तर्क के जाल से क्या होगा!

एक दिन होश आया कि यह तो समय को गंवाना है। फिर उन्होंने सब तर्क छोड़ दिया। शास्त्र नदी में डुबा दिया। ले लिया मंजीरा, नाचने लगे! तब उन्होंने किसी और ढंग से लोगों को जीता। तर्क से नहीं जीता, प्रेम से जीता! तब उनके चारों तरफ एक, एक अलग ही माहौल चलने लगा। उनकी हवा में एक और गंध आ गयी! जहां उनके पैर पड़े, वहीं विजय-यात्रा हुई। जिसने उन्हें देखा, वही हारा। लेकिन इस हार में कोई हराया न गया। इस हार में कोई अहंकार न था जीतनेवाले का। इस हार में हारने वाले को पीड़ा न हुई। यह प्रेम की हार थी जो कि जीतने का एक ढंग है।

प्रेम की हार में कोई हारता नहीं, दोनों जीतते हैं।

प्रेम में जीते तो जीत, हारे तो हार। वहां हार-जीत में भेद नहीं है। अनन्यता बड़ा मधुर शब्द है, अद्वैत बिलकुल रूखा, सूखा!

अनन्यता ऐसा है कि जैसा हरा फल, रस- भरा!

अद्वैत ऐसा है जैसे सूखा फल, झुर्रियां पड़ा, सब रस खो गया! गुठली ही गुठली है अद्वैत!

पर अद्वैत की भाषा अहंकार को जमती है, क्योंकि अहंकार को गंवाने की शर्त नहीं है वहां। इसलिए तुम देखोगे: अद्वैतवादी संन्यासी हैं भारत में, उनको तुम बड़ा अहम्मन्य पाओगे, बड़े भक्ति की लोच, भक्त का सौंदर्य, वहां उसका अभाव होगा!

भारत ने अद्वैत के नाम पर बहुत खोया। भारत अकडा अद्वैत के कारण, अहंकारी हुआ, दंभ बढ़ा, शास्त्र बढ़े, तर्कजाल फैला। लेकिन भारत का हृदय धीरे-धीरे रस से श्ल्य होता चला गया। तो ऐसा कुछ हो गया जैसे कि उत्तम गर्मी पृथ्वी सूख जाती है और दरारें पड़ जाती हैं!

भक्ति की वर्षा चाहिए

ताकि फिर दरारें खो जाएं! धरती का कंठ फिर भीगे! धरती के प्राण तृप्त हों!

तृषा मिटे!

के दिन आते हैं, सूरज तपता है और

और धरती धन्यवाद में आकाश को हजारों-हजारों वृक्षों के फूल भेंट करे।

भक्ति वर्षा है। अद्वैत उत्तल सूर्य है।

पर अपनी-अपनी मौज। अद्वैत से भी कोई पहुंचना चाहे तो पहुंच जाता है। लेकिन तब बड़ा ध्यान रखना जरूरी है कि कहीं यह तर्कजाल अहंकार को मजबूत न करे।

भक्ति सुगम है। और भक्ति में भटकना कम संभव है। क्योंकि भक्ति की पहली ही शर्त है अहंकार को छोड़ना।

भक्ति का सारा जोर “उस” पर है।

अद्वैत कहता है “अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। “ ठीक है बिलकुल बात। अगर जोर ब्रह्म पर हो तो ठीक है, कहीं जोर “मैं” पर हुआ तो बिलकुल गलत है। कौन तय करेगा, किस पर जोर है; अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। “ जब मैं यह कहूं कि मैं ब्रह्म हूं तो तुम कैसे तय करोगे कि मेरा जोर कहां है “मैं” पर या ब्रह्म पर; अगर ब्रह्म पर हुआ तो सब ठीक, अगर मैं पर हुआ तो सब गलत। वाक्य वही है।

लेकिन भक्ति “मैं” पर बात ही नहीं उठाती। भक्ति कहती है “उसके” अनन्य प्रेम में डूब जाना “उसके” परम प्रेम में डूब जाना भक्ति है। “उसके”!

आज इतना ही।


Filed under: भक्‍ति सूत्र--(नारद) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

भक्‍ति सूत्र–(प्रवचन–5)

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कलाओं की कला है भक्तिपांचवां प्रवचन

15, जनवरी 1976

श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र :

तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात्।।

पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्य:।।

कथादिष्विति वर्ग:।।

आत्मरत्यविरोधेनेति शांडिल्य:।।

नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता

तद्धिस्मरणे परमव्याकुलतेति

य था वज़गोपिकानाम्।।

तद्धिहीन जाराणामिव।।

नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम्।।

विराट का अनुभव—मुश्किल! पर अनुभव से भी ज्यादा मुश्किल है अभिव्यक्ति। जान लेना बहुत मुश्किल—जान देना और भी ज्यादा मुश्किल! क्योंकि व्यक्ति मिट सकता है… बूंद खो सकती है सागर में, और अनु भव कर ले सकती है सागर का, लेकिन दूसरी बूंदों को कैसे कहें, जिन्होंने मिटना नहीं जाना, जो अभी अपनी पुरानी सीमाओं में आबद्ध हैं… उनको कैसे कहें!

एक पक्षी उड़ सकता है खुले आकाश में अपने पिंजरे में बंद हैं, गहरे में उसकी अनुभूति होती है—लेकिन अनुभव में कैसे उसे कोई बांधै!

शब्‍दों में बैंधते ही आकाश-आकाश नहीं रह जाता। शब्‍दों में बंधते ही विराट नहीं रह जाता। इधर शब्‍द में बांधा कि उधर अनुभव झूठा हुआ।

इसलिए बहुत हैं जो जानकर चुप रह गये हैं। बहुत हैं जो जानकर गूंगे हो गये हैं। गूंगे थे नहीं, जानने ने गूंगा बना दिया। बहुत थोड़े- से लोगों नेहिम्मत की है—दूर की खबर तुम तक पहुंचाने की। वह हिम्मत दाद देने के योग्य हैं। क्योंकि असंभव है चेष्टा। माध्यम इतने अलग हैं।

समझें जैसे देखा सौंदर्य आंख से, और फिर किसी को बताना हो और वह अंधा हो, तो क्या करियेगा, फिर कोई और माध्यम चुनना पड़ेगा, आंख क माध्यम तो काम न देगा। तुमने तो आंख से देखा था सौंदर्य सुबह का, या रात का तारों से भरे आकाश का, अंधे को समझाना है, आंख का माध्यम तो काम नहीं देगा, तो सितार पर गीत बजाओ! धुन बजाओ! नाचो! पैरों में पूंघर बांधो! लेकिन माध्यम अलग हो गया : जो देखा था, वह सुनाना पड़ रहा है।

तो जो देखा था, वह कैसे सुनाया जा सकता है, जो आंख ने जाना, वह कानर कैसे जानेगा, इससे भी ज्यादा कठिन है बात सत्यस के अनुभव की। क्योंकि अनुभव होता है विर्धिचार में और अभिव्यक्ति देनी पड़ती है विचार में। विचार सब झूठा कर देते हैं।

फिर भी हिम्मतवर लोगों ने चेष्टा की है : करुणा के कारण, शायद किसी के मन में थोड़ी भनक पड़ जाए, न सही पूरी बात, न सही पूरा आकाश, थोड़ी-सी मुक्ति की सुगबुगाहट आ जाए, थोड़ी-सी पुलक पैदा हो जाए, न सही पूरा दृश्य स्पष्ट हो, प्यास ही जग जाए, सत्य न बताया जा सके न सही, लेकिन सत्य की तरफ जाने के लिए इशारा, इंगित किया जा सके–उतना भी क्या कम है।

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। “

हजारों साल तक नर्गिस रोती है, कोई उसकी रोशनी को देखने और दिखानेवाला नहीं। फिर कहीं कोई दीदावर पदा होता है, कहीं कोई एक आंखवाला पैदा होता है।

नर्गिस को तो शायद एक आंखवाला भी, उसकी रोशनी के लिए बोध दिला देता होगा कि मत रो, तू सुंदर है, लेकिन सत्य के लिए तो और भी कठिनाई है। हजारों साल में कभी कोई दीदावर वहां भी पैदा होता है। फिर वह जो कहता है, वह कोई गीत जैसा नहीं है, हकलाने जैसा है, वह नाच जैसा नहीं है, लंगड़ाने जैसा है। और नाच में और लंगड़े की गति में जितना अंतर है, किसी के मधुर गीत में और किसी के हकलाने में जितना अंतर है, उतना ही अंतर सत्य को देखने में और सत्य को कहने में है।

बहुत तो चुप रह गये। उन्होंने यह झंझट न ली। लोगों ने पूछा भी ऐसे चुप रह जानेवालों से। वे तो द्वोंग कर गये के दीवाने हैं। वे तो पागल गन गये। उन्होंने तो अपने चारों तरफ एक पागलपन का अभिनय कर लिया। धीरे-धीरे लोग समझ गये के पागल हो गये हैं, छो, डो भी। “चलो अच्छा हुआ काम आ गयी दीवानगी अपनी

वर्ना हम जमाने- भर को समझाने कहां जाते। “

बहुत हैं जिन्होंने सत्य को जानकर अपने को पागल घोषित कर दिया है। सूफी उनको मस्त कहतेहैं। दुनिया उनको पागल समझ लेती है। झंझट मिटी! अब कोई पूछने भी नहीं आता कि क्या जाना। पागल से कौन पूछता है!

लेकिन कुछ थोड़े-से लोग इतना आसान रास्ता नहीं लेते। वे लाख तरह की चेष्टा करते हैं कि तुम्हें किसी तरह जतला दें। तुम्हारा हाथ पकड़कर चलाने की कोशिश करते हैं। तुम्हारे भीतर तुम्हारे प्रेम की आग को जलाने की कोशिश करते हैं। ईंधन बन जाते हैं तुम्हारे हृदय में कि लपटें लगें। हजार तरह के झूठ भी बोलेते हैं, सिर्फ इसीलिए कि सत्य की तरफ थोड़ा इशारा हो जाए। तो, यह पाप करने जैसा है।

लाओत्सु ने कहा है :”सत्य बोला नहीं कि झूठ हुआ नहीं। जो भी बोला जाएगा वह झूठ हो जाएगा।”

इसका यह अर्थ हुआ कि बुद्धपुरुष झूठ बोलते रहे, बोले तो झूठ ही बोले, क्योंकि बोलने में सच तो आता नहीं, बोलने में ही झूठ हो जाता है।

जैसे तुमने क भी देखा, लकड़ी सीधी, पानी में डाली, तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। झूठ हो गया। बाहर खींची, सीधी-की-सीधी है। पानी में डालो, फिर तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। क्या हो जाता है, पानी का माध्यम हवा के माध्यम से भिन्न है। तो हवा के माध्यम में लकेडी का जो रुप है, रंग है, वह पानी में नहीं रह जाता। जानते हो तुम भलीभांति कि लकड़ी सीधी है, तुमने ही डाली है, लेकिन तुम्हीं को तिरछी दिखायी पड़ने लगती है।

उनकी तो बात ही छोड़ दो—सुननेवालों की—जब सत्य को जाननेवाला सत्य को बोलने की कोशिश करता है, उसको खुद ही तिरछा दिखायी पड़ने लगता है। भाषा का माध्यम, अभिव्यक्ति का माध्यम…!

नारद ने इन सूत्रों में, भक्ति की कितने- कितने ढंगों से व्याख्या की गयी है, उनके थोड़े- से उदाहरण दिये हैं।

अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण बताते हैं। “

भक्ति तो एक है, मत नाना हैं। क्योंकि जिसको जैसा सूझा, वैसी उसने अभिव्यक्ति दी है। जिसको जैसी समझ आयी, जिसका जैसा ढंग था, उसने वैसे रंग भरे। ये लक्षण भक्ति के नहीं हैं, अगर गौर से समझो तो ये लक्षण, जिस भक्त ने भक्ति का गीत गाया, उसके हैं :। ये देखने के ढंग के संबंध में खबर देते हैं, जो देखा गया उस संबंध में कुछ भी खबर नहीं देते।

बहुत मत हैं। बहुत मत होंगे ही, क्योंकि भक्ति अनंत है। उसके बहुत किनारे हैं। और कहीं से भी घाट बनाकर तुम अपनी नौका को छोड़ दे सकते हो सागर में। फिर जब तुम सागर की गहराइयों में पहुंचोगे, मध्य में पहुंचोगे, उस पार पहुंचोगे, तो स्वभावत: तुम उसी घाट की बात करोगे जिससे तुमने नाव छोड़ी थी। और तुम कहोगे कि जिसको भी नाव छोड़नी हो, वही घाट है। तुम्हें और घाटों का पता भी नहीं है। एक घाट काफी है। तुम अपनने ही घाट का वर्णन करोगे।

—दूसरा किसी और घाट से उतरा था सागर में। सागर के घाटों का कोई हिसाब है! कोई हिंदू की तरह उतरा था, कोई मुसलमान की तरह उतरा था, कोई ईसाई की तरह उतरा था। से सब घाट हैं, तीर्थ। फिर जो जहां सेउतरा था, उसी की बात करेगा। दूसरे किनारे पर पहुंचकर भी, तुमनेक जिस किनारे से नाव छोड़ी थी, तुम्हारे दूसरे किनारे की अभिव्यक्ति में उस किनारे का हाथ रहेगा।

और निश्वित ही, सभी घाटों से नाव छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, एक ही घाट पर्यापपत है। सभी से छोड़ना भी चाहोगे तो कैसे छोड़ोगे, जब भी छोड़ोगे, एक ही घाट से छोड़ोगे।

किसी घाट पर पत् थर जड़े हैं। किसी घाट पर हीरे जड़े होंगे। किसी घाट पर आकाश को छूते वृक्ष खड़े हैं। किसी घाट पर मरुस्‍थल होगा, रेत का विस्तार होगा। किसी घाट पर आदमी ने

कुछ व्यवस्था कर ली होगी, सीढ़ियां लगा ली होंगी। किसी घाट पर कोई व्यवस्था न होगी, अराजक होगा। पर इससे क्या फर्क पड़ता है! नाव छूट जाती हा सभी घाटों से।

“शोरे-नाकूसे-बरहमन हो कि बागे-हरम

छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं।

“जो जानते हैं, वह कहते हैं: यह मंदिर के पुजारी के घंटों की आवाज हो कि मस्जिद के मुल्ला की, सुबह की बांग हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

“छुपके हर आवाज में तुझको सदा देता हूं मैं। “ हर आवाज में, हर ढंग में, हर व्यवस्था में, खोजनेवाला तो वही चैतन्य है; वही प्राण है– प्यासे, प्रेम के लिए आतुर!

“अब नाना मतों के अनुसार उस भक्ति के लक्षण बताते हैं। “

“पाराशर के पुत्र व्यास के अनुसार भगवान की पूजा आदि में अनुराग होना भक्ति है। “ पूजा का अर्थ होता है: परमात्मा को प्रतिस्थापित करना; एक पत्थर की मूर्ति है या मिट्टी की मूर्ति है, परमात्मा को उसमें आमंत्रित करना; परमात्मा को कहना कि “इसमें आओ और विराजो–क्योंकि तुम हो निराकार: कहां तुम्हारी आरती उतारुं? हाथ मेरे छोटे हैं, तुम छोटे बनो! तुम हो विराट: कहां धूप-दीप जलाऊ? मैं छोटा हूं, सीमित हूं, तुम मेरी सीमा के भीतर आओ! तुम्हारा ओर-छोर नहीं: कहां नाचूं? किसके सामने गीत गाऊं? तुम इस मूर्ति में बैठो! “

पूजा का अर्थ है: परमात्मा की प्रतिस्थापना सीमा में, आमंत्रण–इसलिए पूजा का प्रारंभ  उसके बुलाने से है।

अंगरेजी में शब्‍द है “गाड “ भगवान के लिए। वह शब्‍द बड़ा अनूठा है। उसका मूल अर्थ है—जिस मूल धातू से वह पैदा हूआ है, भाषा शास्त्री कहते हैं, उस मूल धातु का अर्थ है— “जिसको बुलाया जाता है। “ बस इतना ही अर्थ है जिसको बुलाया जाता है, जिसको पुकारा जाता है—वही भगवान।

दूसरा, जिसने कभी पूजा का रहस्य नहीं जाना, देखेगा तुम्हें बैठे पत् थर की गतइr के सामने, समझेगा :”नासमझ हो! क्या कर रहे हो, “ उसे पता नहीं कि पत् थर की मूर्ति अब पत्थर की नहीं—मृण्मय चिन्मय हो गया है! क्योंकि भक्त ने पुकारा है! भक्त ने अपनी विशिता जाहिर कर दी है। उसने कह दिया है कि “मैं मजबूर हूं। तुम जैसा विराट मैं न हो सकूंगा, तुम कृपा करो, तुम तो हो सकते हो मेरे जैसे छोटे! मेरी अड़चनें हैं। मेरी शक्‍ति नहीं इतनी बड़ी के तुम जैसा विराट हो सकूं। दया करो! तुम ही मुझ जैसे छोटे हो जाओ ताकि थोड़ा संवाद हो सके, थोड़ी गुफ्तगू हो सके, दो बातें हो सकें। मैं फूल चढ़ा सकूं, आरती उतार सकूं, नाच लूं तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा। सभी रूप तुम्हारे हैं, यह एक और रूप तुम्हारा सही! मुझे बहुत कुछ मिल जाएगा, तुम्हारा कुछ खोएगा नहीं।

“भक्त की आंख से देखना मूर्ति को, नहीं तो तुम मूर्ति को न देख पाओगे, तुम्हें पत्थर दिखायी पड़ेगा, मिट्टी दिखायी पड़ेगी। भक्त ने वहां भगवान को आरोपित कर लिया है। और जब परिपूर्ण हृदय से पुकारा जाता है, तो मिट्टी भी उसी की है। मिट्टी उससे खाली तो नहीं। पत्थर उसके बाहर तो नहीं। वह वहां छिपा ही पड़ा है। जब कोई हृदय से पुकारता है तो उसका आविर्भाव हो जाता है।

इसलिए भक्त जो देखता है मूर्ति में, तुम जल्दी मत करना, तुम नहीं देख सकते। देखने के लिए भक्त की आंखें चाहिए।

“बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

इजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है। “

पत्थर रोते हैं हजारों साल, तब कहीं कोई पत्थर में परमात्मा को देखनेवाला पैदा होता है।

आंख चाहिए।

पूजा का प्रारंभ है आमंत्रण में कि आओ, विराजो, प्रतिस्थापना में।

मूर्ति तो झरोखा है, वहां से हम विराट में झांकते हैं।

तुम अपने घर में, खड़े हो, झरोखे से आकाश में झांकते हो। तुम चांदतारों की बात करो, दूर फैले नील-गगन की बात करो, और कोई दूसरा हो जिसको सिर्फ चौखटा ही दिखायी पड़ता हो खिड़की का, वचह कहे, कहां की बातें कर रहे हो, पागल हो गये हो? लकड़ी का चौखटा लगा है, और तो कुछ भी नहीं। कहां के चांदतारे?”…

तो, जब तुम्हें मूर्ति में कुछ भी न दिखायी पड़े तो जल्दी मत करना, तुम्हें चौखटा ही दिखायी पड़ रहा है।

भक्त जब हृदयपूर्वक बुलाता है तो मूर्ति खुल जाती है, उसके पट बंद नहीं रहते। भक्त को उस मुर्ति के माध्यम से कुछ दिखायी पड़ने लगता है। उसके देखने के लिए भक्त की ही आंखें चाहिए।

कहते हैं कि मजनूं जब बिलकुल पागल हो गया लैला के लिए, तो उस देश के सम्राट ने उसे बुलवाया। उसे भी दया आने लगी, द्वार-द्वार, गली-गली, कूचे-कूचे वह पागल “लैला-लैला “ चिल्लाता फिरता है! गावभार के हृदय पसीज गये। लोग उसके आसुओ के साथ रोने लगे। सम्राट नेउसु बुलाया और कहा, “तू मत रो। “ उसने अपने महल से बारह सुदरिया बुलवाई और उसने कहा, “इस पूरे देश में भी तू खोजेगा, तो ऐसी सुंदर स्त्रियां तुझे न मिलेंगी। कोई भी तू चुन ले। “

मजनूं ने आंख खोली। आंसू थमे। एक-एक स्त्री को गौर से देखा, फिर आंसू बहने लगे और उसने कहा कि लैला तो नहीं है। सम्राट ने कहा, “पागल! तेरी लैला मैंने देखी है, साधारण- सी स्त्री है। तू नाहक ही बावला हुआ जा रहा है। “

कहते हैं, मजनूं हंसने लगा। उसने कहा, “आप ठीक कहते होंगे, लेकिन लैला को देखना हो तो मजनूं की आंख चाहिए। आपने देखी नहीं। आप देख ही नहीं सकते, क्योंकि देखने का एक ही ढंग है लैला को–वह मजनूं की आंख है। वह आपके पास नहीं है। “

भगवान को देखने का एक ही ढंग है, वह भक्त की आंख है। “

तो कोई अगर मंदिर में पूजा करता हो तो नाहक हंसना मत।

मूर्ति-भंजक होना बहुत आसपन है, क्योंकि उसके लिए कोई संवेदनशील तो नहीं चाहिए। मूर्तियों को तोड़ देनपा बहुत आसान है। क्योंकि उसके लिए कोई हृदय की गहराई तो नहीं चाहिए।

मूर्ति में अमूर्त को देखना बड़ा कठिन है! वह इस जगत की सबसे बड़ी कला है। आकार में निराकार को झांक लेना, शब्द में शुन्‍य को सुन लेना, दृश्य में अदृश्य की पेड़ लेना–उससे बड़ी और कोई कला नहीं है।

इसलिए प्रेम कलाओं की बला है, सरताज है! उसके पार फिर कुछ भी नहीं है।

पूजा का अर्थ है: आकार में आमंत्रण निराकार को।

और अगर तुमने कभी पूजा की है तो तुम जानोगे, तुम्हारे बुलाने के पहले गतइr साधारण पत्थर का टुकड़ा है।

रामकृष्ण पूजा करते थे। अनेक दिन बीत गये। वे रोज रोते, घंटों पूजा करते, फिर एक दिन गुस्से में आ गये। तलवार टंगी थी काली के मंदिर में मूर्ति के सामने, तलवार उतार ली, और कहा, बहुत हो गया! इतने दिन से बुलाता हूं! अगर तू प्रगट नहीं होती तो मैं अप्रगट हुआ जाता हूं। या तो तू दिखायी दे, तू हो, या मैं मिटता हूं। तलवार खींच ली। एक क्षण और, और गर्दन पर मारे लेते थे, कि सब कुछ बदल गया। मूर्ति जीवंत हो उठी! वहां काली न थी। मातृत्व साकार हो उठा! ओंठ जो बंद थे, पत्थर के थे, मुस्कराये! आक्षें जो पत्थर की थीं, और जिनसे कुछ दिखायी न पड़ता था, उन्होंने रामकृष्ण में झांका। तलवार झनकार के साथ फर्श पर गिर गयी।

रामकृष्ण छह दिन बेहोश रहे। भक्त घबड़ा गये। मित्र परेशान हुए। हर तो पहले ही था कि यह आदमी थोड़ा पागल-सा है, यह अब और क्या हो गया! छह दिन की बेहोशी के बाद जब बेहोशी में भेजती है? इतने दिन होश में रखा छह दिन–अब, क्‍यों बेहोशयी में भेजती है? फिर से बुला ले! जा मत! रुक! “

इतना विराट था, इतना प्रगाढ़ था अनुभव कि अपने को संभाल न सके। डगमगा गये! बूंद में जब सागर उतरे तो ऐसा होगा ही। तुम्हारे आगन में जब पूरा आकाश उतर आये तो तुम्हारे आगन की दीवारलें कहां तक संभली रहेंगी, गिर जाएंगी

उन छ: दिनों रामकृष्ण ने चिन्मय का जलवा देखा। वे छ: दिन सतत परमात्मा के साक्षसत्कार के दिन थे। वह उनकी पहली समाधि थी।

लेकिन पूजा का अर्थ यही है: पहले परमात्मा को आमंत्रित करो, फिर अपने को उसके चरणों में चढ़ा दो रामक्रष्ण जैसे, कि कह दो कि तू ही है, अब मैं नहीं!

तुम जितनी दूर तक परमात्‍मा को बुलाते हो, जितनी गहराई तक बुलाते हो, उतनी दूर तक, उतनी गहराई तक वह आता है। तुम जब अपने को मिटाने को भी तत्पर हो जाते हो तो तुम्हारे अंतरतम को छू लेता है। तुम्हारी बिना आकाश के वह तुम में प्रवेश न करेगा। वह तुम्हारा सम्मान करता है। वह कभी भी किसी की सीमा में आक्रमण नहीं करता। बिन बुलाया मेहमान परमात्मा कभी नहीं होता। तुम बुलाते हो, मनाते हो, समझाते-बुझाते हो, तो मुश्किल से आता है।

भक्ति खो गयी है जगत से, क्योंकि भक्ति की कला बड़ी कठिन है–सब कुछ दांव पर लगाने की कला है, जुआ है। बड़ी हिम्मत चाहिए। आंख के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए।

“पाराशर के पुत्र व्यास के अनुसार भगवान की पूजा में अनुराग होना भक्ति है। “ पूजा तो बहुत लोग करते हैं, अनुराग होना चाहिए। संस्कारवशात है तो फिर भक्ति नहीं है। क्‍योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी तुम्हारे घर के लोग मंदिर में जाते रहे तो तुम मंदिर जाते हो, मस्जिद जाते रहे तो मस्जिद जाते हो, आकार को पूजा तो आकार को पूजते हो, निराकार को पूजा तो निराकार को पूजते हो–औपचारिक, परपरागत, लकीर के फकीर, दूसरों के पदचिह्नों पर चलनेवाले! नहीं, ऐसे न होगा।

उधार कोई परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचता। तुम्हारी प्यास चाहिए, परंपरा नहीं। तुम्हारी आंख चाहिए, लकीर की फकीर और उसका अंधीपन नहीं।

तो शर्त है : पूजा में अनुराग! प्रेम चाहिए! वैसा ही प्रेम चाहिए जैसे जब तुम किसी के प्रेम में पड़ जाते हो, तो सब औपचारिकता खो जाती है। सब शिष्टाचार खो जाता है। पहली दफा तुम किसी और ही गहराई से बोलना शुरू करते हो। इसके पहले भी बोलते रहे थे, लेकिन वह ओठों की बात थी। अब हृदय बोलता है। पहली दफा तुम किसी और ही हवा में और किसी और ही माहौल में जीते हो। क्या हो जाता है।

साधारण प्रेम में क्या होता है, दूसरे में तुम्हें कुछ दिखायी पड़ने लगता है जो अब तक तुम्हें कभी किसी में दिखायी न पड़ा था, तुम्हारी आंख खुलती है! तुमने कभी खयाल किया, प्रेमी दूसरों को पागल मालूम पड़ते हैं! अगर कोई दूसरा किसी के प्रेम में पड़ जाए और दीवाना हो जाए, तो तुम हसोगे, तुम कहोगे, “पागल है, नासमझ है। समझ में आ! होश में आ! क्या कर रहा है?

“हम खुदा के भी कभी काइल न थे

उनको देखा तो खुदा याद आया। “

प्रेमी पहली दफा किसी साधारण व्यक्ति में परमात्मा के दर्शन कर लेता है, कोई झलक पाता है। तुम जिसके प्रेम में पड़ जाते हो, वहीं तुम्हें परमात्मा की थोड़ी-सी झलक पहली दफा मिलती है, तुम्हारा आस्तिक होना शरु हुआ।

प्रेम : आस्तिकता की पहली गंध, पहली लहर। प्रेम : आस्तिकता की तरफ पहला कदम! क्योंकि कम-से-कम चलो एक में ही सही, परमात्मा दिखा तो! और एक में दिखा तो सब में दिख सकता है, न भी दिखे तो भी इतना तो तुम समझ ही सकते हो कि एक में दिखा तो सब में भी होगा।

लेकिन जल्दी ही तुम्हारी प्रेम की आंख धुधली हो जाती है : जिसमें तुम्हें परमात्मा दिखा था, वह भी एक ख्वाब, एक सपना हो जाता है, जल्दी ही तुम भूल जाते हो, धूल जम जाती है।

जब प्रेम की घटना घटे तो जल्दी करना उसे पूजा बनाने की, अन्यथा समय ढांक देगा।

इसलिए मैं कहता हूं, जवानी पूजा के दिन हैं। लेकिन लोग कहते हैं, पूजा बुढापे में करेंगे। वे कहते हैं, जवानी में प्रेम करेंगे। बुढापे में पूजा करेंगे। इतना फासला प्रेम में और पूजा में होगा तो प्रेम तो मर ही जाएगा, पूजा आ न पाएगी। लोग यही कह रहे हैं कि प्रेम तो जवानी में करेंगे, जब प्रेम मरने लगेगा, मर ही जाएगा, तब फिर पूजा कर लेंगे।

और असलियत यह है प्रेम ही पूजा बनता है। प्रेम के मरने सेपूजा नहीं आती, प्रेम के पूरे निखरने से पूजा बन जाती है। एक में जो दिखायी पड़ा है, अब इस सूत्र को पकड़ लेना और इसको औरों में भी देखने की कोशिश करना। जब आंख ताजी हो, लहर नयी हो, उमंग अभी जोश भरी हो, उत्साह युवा हो, तो जल्दी कर लेना। जो तुम्हें अपनी प्रेयसी में, प्रेमी में दिखा हो, बच्चे में दिखा हो, अपने बेटे में दिखा हो, मित्र में दिखा हो, जल्दी करना क्योंकि उस वक्त तुम्हारे पास आंख है, उस वक्त सारे जगत को गौर से देख लेना, तुम अचानक पाओगे, वह सभी के भीतर छिपा है, क्योंकि उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। “पूजा में अनुराग “…। पूजा करते तुम बहुत लोगों को देखोगे, लेकिन अनुराग नहीं है, प्रेम नहीं है, पूजा तो है, विधिविधान है। सात दफा आरती उतारनी है तो तुम सात दफा आरती उतारते हो, गिनती से उतारते हो, कहीं आठ न हो जाए। वहां भी कंजूसी है।

रामकृष्ण पूजा करते तो कभी- कभी, दिन- भर- दिन खाना- पीना भूल जाते। उनकी पत्नी शारदा द्वार पर खड़ी है, वह कहती है कि परमहंस देव, समय निकला जा रहा है, सूर्यास्त हुआ जा रहा है, दिन- भर से आप भूखे हैं। मगर वहां कोई परमहंस देव हैं कि सुनें। वे नाच रहे हैं! भूख की खबर किसको लगे! भूख की याद किसको आये! जो भगवान का भोग लगा रहा हो, संसार के भोजन उसे क्या याद आए! गिर पड़ते, तभी उठाकर लाये जाते, अपने से न आते। बहुत दफे उन्हें कहा गया, “ऐसा न करें! पूजा ठीक है, घड़ी- दोघडी की ठीक है। “ पर रामकृष्ण कहते कि घड़ी- दोघडी की याद रह जाए तो पूजा होती ही नहीं।

तुमने कभी अपने को पूजा करते देखा, बीच- बीच में तुम घड़ी देख लेते हो। घड़ी कोवहें रख आया करें जहां जूते छोड़ आते हो। जूते भी आ जाएं, मंदिर खराब न होगा, घड़ी नहीं आनी चाहिए। जूतों में ऐसा कुछ भी नहीं है, घड़ी नहीं आनी चाहिए। क्यों, क्योंकि परमात्मा है शाश्र्वत। समय को अपने साथ लिये तुम उसे न छू सकोगे। वह है अनंत, तुम क्षणों को साथ लिये बैठे हो। और तुम्हारा मन बार-बार देख रहा है कि कब दुकान जाएं, कब दक्तर जाएं! तो अच्छा है जाना ही मत। ऐसा समय जो तुमने मंदिर में बिताया, और बाजार के सोच में बिताया, बिकुल व्यर्थ गया, इसका उपयोग बाजार में ही कर लेना, कुछ भी तो लाभ होगा। यह तो कुछ भी न लाभ न हुआ। मैंने देखा है लोगों को पूजा करते, नमाज पढ़ते।

मैं राजस्थान जाता था अकसर, तो चितोढ़गढ़ पर गाड़ी बदलती है। सांझ की नमाज का समय होता, कोई घंटे-भर गाड़ी रुकती, तो जितने भी मुसलमान होते तो ट्रेन में, वे उतरकर नमाज करने लगते, बिछा लेते अपनी चादर, बैठ जाते नमाज करने, मगर हर मिनट दो मिनट में पीछे लौटकर देखते रहते कि कहीं गाड़ी छूट तो नहीं गयी। यह मैंने बहुत बार देखा।

एक मुसलमान मित्र मेरे साथ यात्रा कर रहे थे। वे भी पूजा के लिए गये। नल के पास प्लेटफार्म पर उन्होंने अपनी चादर बिछा ली, पूजा करने बैठ गये, मैं उनके पीछे खड़ा हो गया। जब उन्होंने गर्दन पीछे मोड़ी तो मैंने उनकी गर्दन वापस पकड़कर उस तरफ मोड़ दी। बहुत नाराज हुए। उस वक्त तोकुछबोल न सके। जल्दी-जल्दी उन्होंने नमाज पूरी की। कहा, “यह क्या मामला है? आपने क्यों मेरी गर्दन इस तरफ मोड़ी?

इस तरफ अगर गर्दन रखनी हो तो इसी तरफ रखो, उस तरफ रखनी हो तो उसी तरफ रखो। यह कैसी नमाज हुई? यह कैसी पूजा हुई कि बीच-बीच में खयाल है कि गाड़ी छूट न जाए? गाड़ी छूट न जाए, इसमें परमात्मा छूटा जा रहा है, “ मैंने उनसे कहा, “तुम या तो गाड़ी पकड़ लो या परमात्मा को पकड़ लो। कोई जरूरत नहीं है, मत करोनमाज–झूठी तो मत करो। कम-से-कम इतने सच्चे तो रहो कि नहीं है हृदय में तो न करेंगे।

रामक्रष्ण बहुत दिन तक मंदिर न जाते। वे कहते, “जब भीतर ही नहीं है तो कैसे जाऊं, कैसे धोखा दूं–परमात्मा को कैसेधोखा दूं? किस मुंह से भीतर जाऊं? “ द्वार के बाहर से ही, बाहर-बाहर, क्षमा मांगकर लोट आते, मंदिर में भीतर न जाते, सीढ़ियों पर से क्षमा मां लेते: “माफ कर, भावच नहीं है। करूंगा तो धोखा होगा, झूठ होगा। “

लेकिन तुम्हारा सब झूठ हो गया है। जिससे तुम्हें प्रेम नहीं है, उसे तुम कहते हो, प्रेम है। जिसे देखकर तुम्हारे भीतर कोई मुस्कराहट नहीं आती, तुम मुस्कुराते हो। जिसे देखकर तुम्हारे भीतर अभिशाप देने का भाव उठता है, उसको आर्शिवाद देते हुए अपने को दिखलाते हो। इन झूठों से घिरे तुम अगर परमात्मा के पास भी जाओगे तो तुम इन्हीं झूठों का प्रयोग वहां भी करोगे। फिर पूजा वैसी ही हो जाएगी जैसी सारी दुनिया की हो रही है।

कितने ही लोग हैं, अनगिनित, पूजा कर रहे हैं, और पूजा की गंध कहीं भी नहीं अनुभव में आती! कितने ही लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं! अगर सच में ही इतनी प्रार्थनाएं हों तो जैसे आकाश में भाप उठ-उठ कर बादल बन जाते हैं, ऐसे प्रार्थनाओं के बादल बन जाएं। सब प्रार्थना बरसने लगे। मेघ घने हो जाएं आकाश में। जल ही न बरसे, प्रार्थना भी बरसे। नदी-नाले प्रार्थना से भर जाएं!

जितने लोग प्रार्थना करते हैं, अगर ये सच में ही प्रार्थना करते हों…।

ठीक है व्यास की भी परिभाषा। ठीक है:

“भगवान की पूजा में अनुराग भक्ति है। “

फिर गर्गाचार्य के मत से भगवान की कथा में अनुराग भक्ति है। “

पूजा में कुछ करना होता है। निश्वित ही व्यास सक्रिय वृत्ति के रहे होंगे। कुछ करना पड़ता है: आरती उतारनी पड़ती है, फूल चढ़ाने पड़ते हैं, घंटी बजानी पड़ती है–कुछ करना पड़ता है। इसे समझ लें। व्यास निश्वित ही सक्रिय प्रकृति के रहे होंगे। गर्गाचार्य निष्क्रिय प्रकृति के रहे होंगे। क्योंकि व्यास जहां कहते हैं, “पूजा आदि मग अनुराग”, वहां गर्गाचार्य कहते हैं, “भगवान की कथा में…, कोई सुनाये हम सुनें, रस से सुनें, डूबकर सुनें, मिटकर सुनें– पर कोई सुनाए, हम सुनें! “ “भगवान की कथा में अनुराग…! “

तुमने कभी खयाल किया: कथाओं में तो तुम्हें भी अनुराग है, भगवान की कथा में नहीं है! पड़ोसी की पत्नी किसी के साथ भाग गई, इस कथा को तुम कितने रस से सुनते हो! खोद- खोद कर बातें निकलवा लेते हो। हजार काम हों, रोक देते हो।

छोटे गांव में एकाध स्त्री भाग जाए तो पूरे गांव में काम-धंधा बंद हो जाता हैउस दिन, पूरा गांव उसी चर्चा में लग जाता है।

किसी के घर चोरी हो जाए…कुछ भी हो जाए…!

अखबार तुम पढ़ते हो, वह कथा का रस है। लेकिन भगवान की कथा में अब कोई रस नहीं है। और अगर कभी तुम भगवान की कथा में श्रर रस लेते हो तो वह रस भगवान की कथा का नहीं होता। उसमें भी कारण वहीं होंगे, जिन कारणों से तुम और कथाओं में रस लेते थे। कोई की स्त्री किसी के साथ भाग गई, राम की स्त्री को रावण भगा ले गया, तो तुम उसमें भी रस लेते हो। लेकिन तुम खयाल करना, रस तुम्हारा रावण सीता को भगा ले गया है, इसमें है, राम की कथा में नहीं है।

गर्गाचार्य कहते हैं, “भगवान की कथा में अनुराग… “। ऐसे सुनना जैसे प्यासा जल पीता है। ऐसे सुनना जैसे तुम बिलकुल खाली हो–कान ही हो गए, तुम्हारा सारा अस्तित्व बस कान पर ठहर गया। हृदयपूर्वक सुनना! तो परमात्मा का स्मरण अनेक-अनेक रूपों में तुम्हें भर देगा। कुछ करने की जरूरत नहीं है; तुम अगर शांत बैठकर सुन भी सको…। तुम यहां मुझे सुन रहे हो…यह भगवान की कथा है। यहां तुम ऐसे भी सुन सकते हो, जैसे और साधारण बातें सुनते हो। तुम ऐसे भी सुन सकते हो, जैसे तुम्हारा पूरा जीवन दाव पर लगा है, जीवन और मृत्यु का सवाल है।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी को कहा था कि आज मैं आराम चाहता हूं, किसी को मिलाना मत; कोई आ भी जाए तो कह देना घर पर नहीं है। लेकिन वह बैठा ही था आराम करने कुर्सी पर, कि पत्नी आई, उसने कहा, “सुनो, एक आदमी दरवाजे पर खड़ा है। “

मुल्ला ने कहा, “अभी मैंने कहा, अभी देर भी नहीं हुई कि आज दिनभर विश्राम करना है। अभी शरुआत भी नहीं हुई,मैं कुर्सी पर ठीक से बैठ भी नहीं पाया। “

तो उसकी पत्नी ने कहा, “लेकिन वह आदमी कहता है, जीवन-मरण का सवाल है। “

तब तो मुल्ला भी उठ आया, जब जीवन- मरण का सवाल हो तो कैसा विश्राम! बाहर गया तो पाया कि वह इन्श्‍यारेंस कंपनी का एजेंट है। जीवन- मरण का सवाल…!

जीवन- मरण का सवाल हो, तभी तुम उठोगे, तभी तुम जागोगे।

भगवान तुम्हारे लिए जीवन- मरण का सवाल है या नहीं, अगर नहीं है, तो फिर बिलकुल मत सुनो, क्योंकि वह समय व्यर्थ ही गया। तुम जो सुनोगे वह किसी सार का नहीं होगा। क्योंकि सार तो तुम्हारे सुनने में छिपा है। सार कहने में नहीं छिपा है, सार तुम्हारे सुनने में छिपा है।

अगर तुम सुनने के लिए ही परिपूर्ण तैयार होकर नहीं आ गये हो, अगर यह सवाल तुम्हारे जीवन- मरण का नहीं है, अगर तुम अभी भी परमात्मा को किनारे पर टालकर अपने संसार में लगे रह सकते हो, अच्छा है तुम संसार में ही लगे रहो। कभी- न- कभी ऊबोगे। कभी- न- कभी लौटोगे। कभी तो वह घड़ी आएगी, जब तुम्हारी अंधेरी रात तुम्हें दिखाई पड़ेगी और सुबह की पुकार तुम्हारे मन में उठेगी। कभी तो वह घड़ी आएगी, जब तुम्हारी अंधेरी रात तुम्हें दिखाई पड़ेगी और सुबह की पुकार तुम्हारे पन में उठेगी। कभी तो वह घड़ी आएगी, तुम अपने कूड़ा- करकट से घिरे- घिरे किसी दिन तो दुर्गंध को अनुभव करोगे, फूलों की गंध की तलाध शुरू होगी।

लेकिन जल्दी मत करो, अगर दुर्गंध से अभी लगाव बाकी है, तो भोग ही जो दुर्गंध को अनुभव करोगे, फूलों की गंध की तलाश शुरू होगी। लेकिन जल्दी मत करो, अगर दुर्गंध से अभी लगाव बाकी है, तो भोग ही लो दुर्गंध को। चुक ही जाओ। रिक्त ही हो जाने दो उस अनुभव से अपने को। नहीं तो तुम सुन न पाओगे। मैं एक पंजाबियों की सभा में बोलने गया। उस सभा के बाद फिर मेरा किसी सभा में जाने का मन न रहा। कृष्णाष्टमी थी। और पंजाबी हिंदुओं का मोहल्ला था। मैं तो चकित हुआ, वहां व्याख्यान देने वाले व्याख्यान दे रहे थे, और ऐसी भी स्त्रियां थीं उस सभा में—स्त्रियां ही ज्यादा थीं—जो बोलने वालों की तरफ पीठ किए आपस में गपशप कर रही थीं। वहां झुंड-के- झुंड बने थे। बड़ी भीड़ थी। मुझसे भी उन्होंने प्रार्थना की। मैंने कहा, “तुम पागल हो! यहां कोई सुननेवाला ही नहीं है। यहां लोग अपनी बातचीत में लगे हैं और बोलने वाले बोले जा रहे हैं। “ मैंने कहा, “मुझे जाने दो। इनकी कोई तैयारी सुनने की नहीं है। सुनने कोई इनमें आया भी नहीं है। कृष्ण से इन्हें कुछ लेना- देना नहीं है। “

तुम मंदिरों में जाओ, स्त्रियां जो चर्चा मंदिरों में कर रही हैं, पुरुष जो बातचीत मंदिरों में कर रहे हैं, उसका मंदिर से कुछ लेना- देना नहीं है, वही राजनीति, वही उपद्रव बाहर के, वहां भी ले आते हैं, वे ही घर के, बाहर के झगड़े वहां भी ले आते हैं।

परमात्मा की क था तो तुम त भी सुन सकते हो जब तुम पूरे रिक्त होकर सुनो। ठीक कहते हैं गर्गाचार्य, “भगवान की क था में अनुराग…। “ और जिस दिन इस क था में अनुराग आता है उसी दिन संसार की क था में अनुराग खो जाता है।

तुम व्यर्थ की बातें मत सुनो, क्योंकि यह सिर्फ सुनना ही नहीं, जो तुम सुनते हो वह तुम्हारे भीतर इकट्ठा हो रहा है।

थोड़ा सोचो, अगर पड़ोसी तुम्हारे घर में कूड़ा फेंक दे तो तुम झगड़ा करने को तैयार हो जाते हो। और पड़ोसी तुम्हारे मन में हजार कूड़ा फेंकता रहे तो तुम झगड़ा तो करते नहीं, तुम रोज प्रतीक्षा करते हो कि कब आओ, कब थोड़ी चर्चा हो! तुम्हें घर में कूड़ा- करकट से भी इतनी समझ है, उतनी समझ तुम्हें भीतर के कूड़ा- करकट की नहीं है।

रोको अपने को व्यर्थ की बात सुनने से, नहीं तो सार्थक को सुनने की क्षमता खो जाएगी। अकारण, आवश्‍यक न हो, ऐसा सब सुनना त्याग दो, ताकि तुम्हारी संवेदनशीलता तुम्हें फिर से उपलब्ध हो जाए, और भगवान का नाम तुम्हारे कान में पड़े, तो वह बहुत से विचारों की भीड़ में न पड़े, अकेला पड़े। वह चोट अकेली हो तो तुम्हारे हृदय के झरने फिर से खुल सकते हैं।

“शांडिल्य के मत से आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग होना ही भक्ति है।

व्यास सक्रिय घाट से उतने होंगे। गर्गाचार्य निष्क्रिय घाट से उतरे होग। पर दोनों सरल व्यक्ति रहे होंगे, बड़े विचारक नहीं, सीधे- सादे, इनोसेंट, निर्दोष, भोले- भाले! शांडिल्य विचारक मालूम होते हैं। उनकी परिभाषा दा र्शनिक की परिभाषा है। वे कहते हैं, “आत्मरति के अविरोध विषय में अनुराग होना ही भक्ति है। “ दार्शनिक व्याख्या है।

अपने में साधारणत : आदमी को रस होता है। साधारणत :! उसे तुम स्वार्थ कहते हो। स्वार्थ अपने में रस है, लेकिन बिना समझ का। चाहते हो तुम हो कि सुख मिले, मिलता नहीं! चाह तो ठीक है, जो तुम करते हो उस चाह के लिए, उसमें कहीं कोई गलती है।

स्वार्थ और आत्मरति में यही फर्क है। स्वार्थ भी अपने सुख की खोज करता है, लेकिन गलत ढंग से, परिणाम हाथ में दुख आता है। आत्मरति भभ अपने सुख की खोज करती है, लेकिन ठीक ढंग से, परिणाम सुख आता है। तुम भी अपने ही सुख के लिए जी रहे हो, लेकिन अभी तुमने अपने को जो समझा है वह अहंकार है, आत्मा नहीं। अभी तुम्हारा “स्व “ अहंकार है, झूठा है। जिस दिन तुम्हारा “स्व “ वास्तविक होगा, आत्मा होगी, उस दिन तुम पाओगे : स्वार्थ ही परमा र्थ है। उस दिन अपने आनंद की खोज कर लेने में ही तुमने सारी दुनिया के लिए आनंद के द्वार खोले। उस दिन तुम सुखी हुए तो दूसरों को भी सुखी होने की संभावना बतायी। उस दिन तुम्हारा दिया जला तो दूसरों के बुझे दीये भी जल सकते हैं, इसका भरोसा उनमें तुमने पैदा किया। और फिर तुम्हारे जले दीये से न मालूम कितने बुझे दिये भी जल सकते हैं।

आत्मरति का अर्थ है : वस्तुत : सच्चा स्वार्थ। उसमें परार्थ अपने- आप आ जाता है। जिसे तुम स्वार्थ समझते हो वह परार्थ के विपरीत है। और जिसको आत्मज्ञानियों ने आत्मरति कहा है, परम स्वार्थ कहा है, वह परार्थ के विपरीत नहीं है, परार्थ उसमें समाहित है, समाविष्ट है।

“आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग होना भक्ति है। “

अब इसे समझो।

तुम अपने को प्रेम करते हो–ठीक, स्वाभाविक है। इस प्रेम के कारण तुम ऐसी चीजों को प्रेम करते हो जो तुम्हारे स्वभाव के विपरीत हैं उनसे तुम दुख पाते हो। चाहते सुख हो, मिलता दुख है। आकांक्षा में भूल नहीं है। आकांक्षा को प्रयोग में लाने में तुम ठीक-ठीक समझदारी का प्रयोग नहीं कर रहे हो।

बुद्ध भी स्वार्थी हैं, कबीर भी, कृष्ण भी–लेकिन वे परम स्वार्थी हैं। वे भी अपना साथ रहे हैं आनंद, लेकिन इस ढंग से साथ रहे हैं कि मिलता है। तुम इस ढंग से साथ रहे हो कि मिलता कभी नहीं, साधते सदा हो, मिलता कभी नहीं।

तुम कुछ ऐसी चीजों से चीजों से अनुराग करने लगते हो जो कि तुम्हारे स्वभाव के विपरीत है, जैसे समझो, तुम धन को प्रेम करने लगे, तो तुम अपने स्वभाव के विपरीत जा रहे हो। क्योंकि धन है जड़, तुम हो चैतन्य। चैतन्य को प्रेम करो, जड़ को मत करो, अन्यथा जड़ता बढ़ेगी। और चैतन्य अगर जड़ता में फंसने लगे तो कैसे सुखी होगी ,     धन का उपयोग करो, प्रेम मत करो। प्रेम तो चैतन्य से करो।

तुम पद की पूजा करते हो। पद तो बाहर है। तुम पद के आकांक्षी हो। लेकिन पद तो बाहर है, तुम भीतर हो, तो तुम में और तुम्हारे पद में कभी तालमेल न हो पाएगा, तुम भीतर रहोगे। पद बाहर रहेगा। कोई उपाय नहीं है, भीतर तो तुम दीनहीन ही बने रहोगे। कितना ही धन इकट्ठा कर लो अपने चारों तरफ, कितने ही बड़े पद पर बैठ जाओ, कितना ही बड़ा सिंहासन बना लो–तुम्हारे भीतर सिंहासन न जा सकेगा, न धन जा सकेगा, न पद जा सकेगा। वहां तो तुम जैसे पहले थे वैसे ही अब भी रहोगे।

भिखारी को राजसिंहासन पर बिठा दो, क्या फर्क पड़ेगा! बाहर धन होगा, शायद भूल भी जाए बाहर के धन में कि भीतर अभी भी निर्धन हूं, तो यह तो और आत्मघाती हुआ। यह स्वार्थ न हुआ, यह तो कता हुई। असली धन खोजो–असली धन भीतर है।

असली पद खोजो–असली पद चैतन्य का है।

चैतन्य की सीढ़ियों पर ऊपर उठो। उठने दो चैतन्य की उड़ान।

उठने दो ऊर्जा चैतन्य की–परमात्मा तक ले जाना है उसे।

मनुष्य परमात्मा होने की अभीप्सा है। इससे पहले कोई पड़ाव नहीं है, कोई मुकाम नहीं। पहुंचना है उस आखिरी मंजिल तक। लेकिन तुम बीच में बहुत से पड़ाव बना लेते हो, पड़ाव ही नहीं, उनको मुकाम बना लेते हो, मंजिल समझ लेते हो। कोई धन को ही इकट्ठा करना अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है।

शांडिल्य की परिभाषा दार्शनिक है, बहुमूल्य है :

“आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग “…।

तुमने अब तक आत्मरति के विरोधी विषय में अनुराग किया है। आत्मरति के अविरोध विषय में अनुराग करोगे, तो परमात्मा शब्द को बीच में लाने की जरूरत भी नहीं है, तुम धीरे-धीरे परमात्म-स्वरूप होने लगोगे।

जब भी तुम्हारे सामने चुनाव हो तो सदा ध्यान रखना : जड़ को मत चुनना, चैतन्य को चुनना। जब भी दो चीजों में से एक चुननी हो तो उसमें देख लेना, कौन ज्यादा चैतन्य है। जैसे प्रेम और धन में चुनना हो तो प्रेम चुनना। फिर प्रेम और भक्ति में चुनना हो तो भक्ति चुनना। संसार और परमात्मा में चुनना हो तो परमात्मा चुनना।   इसे अगर तुम समझ लो तो शांडिल्य की परिभाषा में ईश्वर का नाम की नहीं है, जरूरत नहीं है उसको कहने की, वह छिपा है। इस सूत्र को मानकर अगर तुम चले तो उसे पा लोगे। अब तुम फर्क देख सकते हो। यह तीनों व्यक्तित्वों का फर्क है। शांडिल्य बुद्ध जैसा व्यक्ति रहा होगा : “परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है। “

बुद्ध ने कहा : ध्यान खोज लो। शांडिल्य कह रहा है : चैतन्य खोज लो, क्योंकि वही अविरोधी है। उससे तुम्हारा तालमेल बैठेगा।

“देवर्षि के मत से “… फिर नारद अपना मत देते है।

“नारद के मत से अपने सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना और भगवान का थोड़ा-सा

विस्मरण होने से परम व्याकुल होना भक्ति है। “

संस्कृत में, जहां-जहां हिंदी में अनुवाद किया है लोगों ने, चूक हुई है। सभी ने अनुवाद किया है, क्योंकि ऐसा लगता है ठीक नहीं कहना, नारद खुद ही शास्त्र लिख रहे हैं, तो हिंदी में अनुवादों में अनुवादकों ने लिखा है, “देवर्षि के मत से “। लेकिन संस्कृत में “नारदस्तु “- “नारद के मत से “…। नारद अपने ही नाम का उपयोग कर रहे हैं। इसमें बड़ी बात छिपी है। नारद अपने व्यक्तित्व को भी अपने से उतना ही दूर रख रहे हैं जितना शांडिल्य, जितना गर्गाचार्य, जितना व्यास। ऐसा नहीं कहते कि “मेरे मत से”। उसमें तो मत के प्रति जरा मोह हो जाएगा “मेरा मत “। “यह नारद का मत है”- नारद भी ऐसा ही कहते हैं।

स्वामी राम अपने को हमेशा इसी तरह बोलते थे :”राम “ को भूख लगी है, “राम “ को प्यास लगी है। एसा न कहते थे : मुझे प्यास लगी है, मुझे भूख लगी है। अपरीका गये तो लोग वहां बड़े हैरान होते थे। पहले ही दिन जब वे एक बगीचे से शाम को घूमकर लौटे, तब तो गेरुआ वस्त्र बड़ी अनूठी चीज थी, बड़ी भीड़ लग गई वहां। अब तो न लगेगी, कम-से-कम पंद्रह हजार मेरे संन्यासी हैं सारी दुनिया में… गेरुआ वस्त्र…! जल्दी ही उनको लाखों तक पहुंचा देना है। लेकिन उस समय बड़ी नयी बात थी, तो भीड़ लग गई। लोग कंकड़-पत्थर फेंकने लगे कि कोई दिवाना आ गया। राम हंसते रहे। भीड़ में से किसी को दया आई कि यह आदमी हो सकता है, पागल हो, लेकिन दया-योग्य है। उसने भीड़ को हटाया, उनको बचाया, उनको ले चला। रास्ते में उसने पूछा कि तुम हंसते क्यों थे, तो उन्होंने कहा, “राम की इतनी पीटाई हो रही थी और मैं न हंसू!” तो उसने कहा, “क्या मतलब?

क्योंकि उसे पता नहीं था उनकी आदत का। वे कहने लगे, “राम की इतनी हंसाई हो रही थी! लोग पत्थर मार रहे थे, गालियां दे रहे थे और मैं न हंसू! मैं खड़ा दूर देख रहा था। “ अपने ही नाम को इस तरह अगर तुम दूर कर लो तो बड़ी मुक्ति अनुभव होती है; तब तुम अपने व्यक्तित्व से अलग हो गए; तब तुम साक्षी-भाव में प्रविष्ट हो गए।

ठीक किया, नारद ने कहा: “नारदस्तु “।

और नारद का मत है: “सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना, और भगवान का थोड़ा-सा विस्मरण होने से परम व्याकुल होना भक्ति है “।

शांडिल्य दार्शनिक हैं, नारद भक्त हैं। शांडिल्य विचारक हैं, नारद प्रेमी हैं।

“सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना…!” प्रेमी की यही तो खूबी है कि वह कुछ भी बचाना नहीं चाहता, सब अर्पण करना चाहता है। जितना अर्पण करता है उतना ही उसे लगता है, कम ही तो किया, और करूं! आखिर में वह अपने को भी अर्पण कर देता है।

सब अर्पण करना और भगवान का थोड़ा-सा भी विस्मरण होने से परम व्याकुल होना परम व्याकुलता पकड़ ले, व्याकुलता ही व्याकुलता रह जाए। ऐसा समझो कि तुम रेगिस्तान में भटक गए, जल चूक गया, दूर-दूर तक कहीं कोई मरूधान नहीं है, हरियाली का कोई पता नहीं है, सागर है सूखी रेत का। प्यास तो तम्हें पहले भी लगी थी, लेकिन आज तुम पहली दफे जानोगे कि परम प्यास क्या है। प्यास तो बहुत दफे लगी थी, लेकिन पानी सदा उपलब्ध था, जरा लगी थी आर पी लिया था। आज तुम्हारा रोआं-रोआं रोएगा। आज तुम्हारा रोआं-रोआं तडुफेगा। एक-एक रोएं में तुम प्यास अनुभव करोगे, कण्ठ में नहीं। तुम्हारा सारा व्यक्तित्व, तुम्हारा सारा होना प्यासमें रूपांतरित हो जाएगा। …तब परम व्याकुलता! जब ऐसे ही नहीं कि तुम ऐसे ही बुलाते हो परमात्मा को कि आ जाओ तो ठीक, न आए तो भी कोई बात नहीं…नहीं, ऐसे बुलाते हो जैसे रेगिस्तान में कोई पानी को खोजता है, तड़पता है। मछली को डाल दो रेत पर पानी से निकालकर, जैसे तड़पती है, वैसी परम प्यास!

“सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना और भगवान का थोड़ा-सा भी विस्मरण होन से परम व्याकुल होना… “।

अभी तो हमने जिसे प्यास समझा वह प्यास नहीं है। अभी तो जिसे धन समझा, धन नहीं है। अभी तो हमारी सारी समझ ही गलत है।

“हम भूल को अपनी इल्मोफन समझे हैं

गुरबत के मुकाम को वतन समझे हैं

मंजिल पे पहुंच के झाड़ देंगे इसको

ये गर्देसफर है जिसको तन समझे हैं। “

अभी तो हमारी सारी समझ उलटी है। अभी तो हम नासमझी को समझदारी समझते हैं। अभी तो हम अहंकार को आत्मा समझे हैं। अभी तो हमने शरीर को अपना होना समझा है। “हम भूल को अपनी इल्माफन समझे हैं

गुरबत के मुकाम का वतन समझे हैं। “

रात- भर का पड़ाव है, ठहर जाने के लिए सराय है कि धर्मशाला है, उसको हम घर समझे।

“मंजिल पे पंहुच के झाड़ देंगे इसको “…

मंजिल पर पहुंचोगे तब पता चलेगा कि जैसे यात्री राह की धूल झाड़ देता है, ऐसे ही यह सब जिसे तुम धन समझे हो, जिसे तुम अपना समझे हो, यह सब झड़ जाएगा।

“ये गर्देसफर है जिसको तन समझे हैं “।

यह राह की धूल है, इससे ज्यादा नहीं। यह तुम नहीं हो। तुम तो साक्षी हो। शरीर के पीछे जो शरीर को देखने वाला है, मन के पीछे जो मन को भी देखने वाला है–तुम तो वही परम साक्षी हो।

सब छोड़ दो परमात्मा पर। इनमें से कुछ भी अपना मत समझो। शरीर भी उसका है—उसी पर छोड़ दो। मन भी उसका है—उसी पर छोड़ दो। कर्म भी उसी के हैं–उसी पर छोड़ दो। तुम कर्ता न रह जाओ, साक्षी हो जाओ।

तो नारद के हिसाब से, सब कर्मों को भगवान के अर्पण करना और भगवान का थोड़ा-सा विस्मरण होने से परम व्याकुल होना… जरा हटे परमात्मा से तो वही हालत हो जाए जो मछली की हो जाती है सागर से हटकर, जरा भूले उसे तो तड़प हो जाए।

“ठीक ऐसा ही है “।

नारद कहते हैं, “ये सब जो परिभाषाएं हैं–ठीक ऐसा ही है “। ये सब परिभाषाएं ठीक हैं। इनमें कोई परिभाषा गलत नहीं है। सभी अधूरी हैं, पूरी कोई भी नहीं। सभी ठीक हैं, गलत कोई भी नहीं। भाषा का स्वरूप ऐसा है कि अधूरा ही रहेगा।

सत्य के इतने पहलू हैं कि तुम चुका न पाओगे, और एक आदमी एक ही पहलू की बात कर पाता है।

एक महाकवि की मृत्यु हुई, तो उसके मित्रों ने उसके मरने के पहले पूछा कि तुम्हारी कब्र पर क्या लिखेंगे, तो उसने कहा, “लिख देना सिर्फ एक शब्द—”अनफिनिश्ड “, अधूरा। “

वे पूछने लगे, “क्यों, क्या तुम सोचते हो, तुम अधूरे मर रहे हो, क्योंकि तुम्हारे गीत पूरे हैं। तुम्हारा यश पूरा, सम्मान पूरा। तुम एक सफल जिंदगी जीए। तुमने खूब आदर पाया। क्या तुम भी अधूरे मर रहे हो?

तो उस कवि ने कहा, “इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि कितना हमने किया, कितना गाया, कुछ भी करो, जीवन का स्वभाव अधूरा है। हारे हुए तो यहां हारे हुए जाते ही हैं, जीते हुए भी हारे हुए ही जाते हैं। गरीब तो गरीब मरते हैं, अमीर भी गरीब मरते हैं। जिनके पास नहीं है, वे तो अधूरे रहते ही हैं, जिनके पास है वे भी अधूरे रहते हैं। क्योंकि यह जीवन का स्वभाव अधूरा है।

ऐसे ही मैं तुमसे कहूंगा, भाषा का स्वभाव अधूरा है। कुछ भी कहोगे, वह पूरा चुकता न हो पाएगा। बड़ी बातें छोड़ो, एक छोटे- से गुलाब के फूल के संबंध में भी पूरी बातें नहीं कही जा सकतीं। अगर एक छोटे-से गुलाब के फूल के संबंध में तुम पूरी-पूरी बात कहना चाहो तो तुम्हें पूरे ब्राह्माण्ड के संबंध में जो भी है, सब कुछ वह कहना पड़ेगा, तभी उस गुलाब के संबंध में पूरी बात होगी, क्योंकि उसकी जड़ें जमीन से जुड़ी हैं, उसकी पंखुड़ियां सूरज से जुड़ी हैं, उसकी आस हवाओं से जुड़ी है, उसके भीतर बहती रसधर बादलों से जुड़ी है, सागरों से जुड़ी है।

तुम अगर एक छोटे-से गुलाब के फूल के संबंध में सब कहना चाहो तो तुम बड़ी अड़चन में पड़ जाओगे–तुम पाओगे कि यह तो धीरे-धीरे पूरे ब्रह्माण्ड के संबंध में सब कहना हो जाएगा। नहीं, पूरा कहना असंभव है। सत्य बहुत बड़ा है, कथनी बड़ी छोटी है।

जीवन में परमात्मा को छोड़कर सब मिल सकता है–और तुम अधूरे रहोगे, उदास रहोगे, दुखी रहोगे, पीड़ित रहोगे। और कुछ भी न मिले, परमात्मा मिल जाए तो पूरा मिल जाता है। क्योंकि परमात्मा खंड-खंड नहीं हो सकता; मिलता है तो पूरा, नहीं मिलता है तो नहीं। मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते हैं, “मेरे पास सब है, लेकिन बड़ी उदासी है। अब क्या करें? जब नहीं थी इतनी व्यवस्था तब तो एक आसरा भी था कि कभी जब सब होगा तो सब ठीक हो जाएगा, वह आसरा भी छिन गया “।

“मयकदों के भी आसपास रही

गुलरुखों से भी रूसनास रही

जाने क्या बात थी इस पर भी

जिंदगी उम्र-भर उदास रही “।

मधुशालाएं पास थीं, दूर नहीं। सुंदर मुखड़ों वाले लोग निकट थे, परिचय था उनसे…। “मयकदों के भी आसपास रही… “

फूल के जैसे सुंदर चेहरे वाले व्यक्त्विो से भी परिचय रहा, मुलाकात रही; मधुशाला में भी विस्मरण किया; प्रेम में भी डूबे– “जाने क्या बात थी इस पर भी… “ फिर भी कुछ बात–

“जाने क्या बात थी इस पर भी

जिंदगी उम्र भर उदास रही “।

रहेगी ही! उदासी तो उसी की मिटती है जो भक्ति को उपलब्ध हुआ; उसी की मिटती है जो भगवान को उपलब्ध हुआ; उसी की मिटती है जिसने जाना कि मैं अलग नहीं हूं, जो अनन्यता को उपलब्ध हुआ!

अन्यथा, तुम जो भी करोगे…। करते लोग बहुत कुछ हैं, अथक श्रम करते हैं, सब व्यर्थ जाता है। इतने श्रम से तो परमात्मा मिल सकता है जिससे तुम कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर पाते हो। तुम्हें देखकर रोना भी आता है, हंसी भी आती है। हंसी आती है कि कैसा पागलपन है! इतने श्रम से तो मंदिर बन जाता, इसे तुमने धर्मशाला बनाने में गंवाया। इतने श्रम से परमात्मा उतर आता, भिक्षा पात्र ले कर तुम कंकड़-पत्थर इकट्ठे करते रहे! इतने श्रम से तो अमृत्व को उपलब्ध हो जाता, इससे तुम गंदे-नालों का पानी ही इकट्ठा करते रहे।

मौत जब आती है तब तुम्हें पता चलेगा, लेकिन तब बहुत देर हो जाती है।

तुमसे मैं कहता हूं : जागो अभी!

मौत तो जगाती है, पर तब समय नहीं बचता–परमात्मा का स्मरण करने का भी समय नहीं बचता! मौत आती है तब पता चलता है : “अरे! यह तो गंवाना हो गया! “

यह सब पड़ा रह जाएगा जो इकट्ठा किया, चले तुम अकेले। अकेले आये : अकेले चले! पानी पर खींची लकीरें हो गई सारी जिंदगी।

“वाए नादानी कि वक्ते-मर्ग से साबित हुआ “।

ख्वाब था जो कुछ भी देखा, जो सुना अफसाना था।

“ मरते वक्त…!

“वाए नादानी कि वक्ते-मर्ग ये साबित हुआ। “

यह मूढ़ता सिद्ध हुई मरते वक्त, यह नादानी पता चली मरते वक्त, यह नासमझी खयाल में आई मरते वक्त–

“ख्वाब था जो कुछ कि देखा…..

“ जो देखा, वह सपना था…

“…… जो सुना अफसाना था। “

और जो बात सुनते रहे, वह सिर्फ कहानी थी। हाथ खाली रह गए!

अकसर तो ऐसा है कि लेकर तो तुम कुछ न जाओगे, जो लेकर आये थे, शायद उसे भी गंवा कर जाओ।

बच्चे पैदा होते हैं, मुट्ठी बंधी होती है, मरते वक्त मुट्ठी खाली होती है, खुली होती है। बच्चा कुछ लेकर आता है–कोई ताजगी, कोई कमल के फूलों जैसा निर्दोष भाव, कुछ भोलापन- वह भी गंदा हो जाता है। बच्चा आता है दर्पण की तरह ताजा-नया, धूल जम जाती है जिंदगी की, वह भी खो जाता है।

हम जिंदगी में कमाते नहीं, गंवाते हैं–बड़ा अजीब सौदा करते हैं!

जो मौत के पहले जग जाए वही धार्मिक हो जाता है। जो मौत तुम्हें दिखाएगी, वह तुम अपनी समझदारी में देख लो, अपने होश में देख लो, मौत को दिखाने की जरूरत न पड़े, तो तुम्हारी जिंदगी में एक क्रांति घटित हो जाती है।

“ठीक ऐसा ही है, जैसे ब्रजगोपियों की भक्ति! “

“इस अवस्था में भी गोपियों में माहात्म्यज्ञान की विस्मृति का अपवाद नहीं।”

इसे समझना।

“उसके बिना, भगवान को भगवान जाने बिना किया जाने वाला ऐसा प्रेम जारों के प्रेम के समान है। “

“उसमें, जार के प्रेम में, प्रियतम के सुख से सुखी होना नहीं है। “

“………जैसे ब्रजगोपियों की भक्ति। “

कृष्ण के प्रेम में, कथा है, सोलह हजार गोपियों की। संख्या तो सिर्फ असंख्य का प्रतीक है। लेकिन गोपियों के प्रेम को समझना जरूरी है, क्योंकि भक्त वैसी ही दशा में फिर पहुंच जाता है। कृष्ण का होना शरीर में आवश्यक नहीं है। यह तो भक्त का भाव है जो कृष्ण को मौजूद कर लेता है। कृष्ण के होने का सवान नहीं है; ये तो हजारों गोपियों की प्रार्थनाएं हैं, जो कृष्ण को शरीर में बांध लेती हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

राधा कृष्ण के साथ ही नाची; मीरा को जरा भी तकलीफ न हुई, कृष्ण के बिना भी वैसा ही नाच नाची, और कृष्ण के साथ ही नाची। और अगर गौर करो, तो मीरा की गइराई राधा से भी ज्यादा मालूम पड़ती है, क्योंकि राधा के लिए तो कृष्ण सहारे के लिए मौजूद थे, मीरा के लिए तो कोई भी मौजूद न था। मीरा के भगवान तो उसके भाव का ही साकार रूप थे। मीरा के भगवान तो मीरा ने अपने को ही ढालकर बनाए थे, अपने को ही निछावर करके निर्मित किए थे।

कृष्ण मौजूद हो और तुम राधा बन जाओ, तुम्हारी कोई खूबी नहीं, कृष्ण की खूबी होगी। कृष्ण मौजूद न हों और तुम मीरा बन जाओ, तो तुम्हारी खूबी है, कृष्ण को आना पड़ेगा। भक्त खींचता है भगवान को रूप में। भक्त भगवान को गुणों के जगत में, पृथ्वी पर ले आता है। कैसी थी ब्रजगोपियों की भक्ति?

एक क्षण को भी विस्मरण हो जाए तो रोती हैं। एक क्षण को भी कृष्ण न दिखाई पड़े तो तडुफती हैं। लेकिन ऐसा तो साधारण प्रेम में भी कभी हो जाता है: प्रेमी न हो, प्रेयसी तडुफती है; प्रेयसी न हो तो प्रमी तड़पता है।

फर्क क्या है ब्रज की गोपियों की भक्ति में और साधारण प्रेमियों की भक्ति में? फर्क इतना है कि ब्रजगोपिया कृष्ण के प्रेम में हैं, लेकिन परिपूर्ण होशपूर्वक कि कृष्ण भगवान हैं। वह प्रेम किसी व्यक्ति को प्रेम नहीं, भगवता का प्रेम है। अन्यथा फिर साधारण प्रेम हो जाएगा।

कृष्ण को भी तुम ऐसे प्रेम कर सकते हो जैसे वे शरीर हैं, तुम्हारे जैसे ही एक व्यक्ति हैं। तब कृष्ण मौजूद भी हों तो भी तुम चूक गए।

रुक्मणी कृष्ण की पत्नी है, लेकिन रुक्मणी का नाम कृष्ण के साथ अकसर लिया नहीं जाता–लिया ही नहीं जाता। सीता का नाम राम के साथ लिया जाता है। पार्वती का नाम शिव के साथ लिया जाता है। कृष्ण का नाम रुक्मणी के साथ और रुक्मणी का नाम कृष्ण के साथ नहीं लिया जाता। और राधा उनकी पत्नी नहीं है, याद रखना। राधा का नाम लेना बिलकुल गैरकानूनी है, कृष्ण-राधा कहना, राधा-कृष्ण कहना बिलकुल गैरकानूनी है, नाजायज है, नियम के बाहर है। वह उनकी पत्नी नहीं है। पर क्या बात है, रुक्मणी कैसे विस्मृत हो गई? रुक्मणी कैसे अलग-थलग पड़ गई?

रुक्मणी पत्नी थी और कृष्ण में भगवान को न देख पायी, पुरुष को ही देखती रही–बस ही चूक हो गई। वहीं राधा करीब आ गई जहां रुक्मणी चूक गई।

सौराष्ट्र में एक जगह है–तुलसीश्याम। वहां ध्यान का एक शिविर हुआ। तो जब मैं वहां गया तो जिस तलहटी में शिविर हुआ था वहां कृष्ण का मंदिर है। और ऊपर पहाड़ी की चोटी पर एक छोटा सा मंदिर है, तो मैने पूछा कि वह मंदिर किसका है। कहा, “वह रुक्मणी का है “। “उतने दूर! कृष्ण का मंदिर इधर मील दो मील के फासले पर!”

पुजारी उत्तर ना दे सके। उन्होंने कहा कि यह तो पता नहीं।

रुक्मणी दूर पड़ती गई। वह कृष्ण को पुरुष ही मानती रही, पुरुषोत्तम न देख पाई, पुरुष ही दिखाई पड़ता रहा, पति ही दिखाई पड़ता रहा। गहनर ईष्या में जली रुक्मणी, जैसा पत्नियां अकसर जलती है। वह मंदिर भी इस ढंग से बनाया गया है कि वहां से वह नजर रख सकती है कृष्ण पर। बिलकुल ठीक ढंग से बनाया है, जिसने भी बनाया है बड़ी होशियारी से बनाया है। पत्नी वहां दूर बैठी है और देख रही है। राधा और गोपियां और कृष्ण के पास प्रेमियों का और प्रेयसियों का इतना बड़ा जाल : रुक्मणी जली! बड़े दुख में पड़ी। कृष्ण की भगवत्ता न देख पाई। तो प्रेम साधारण हो गया–प्रेम रह गया, भक्ति न बन पाई। प्रेम कब भक्ति बनता है ,

जैसे ही प्रेमी में भगवान दिखाई पड़ता है, वैसे ही प्रेम भक्ति बन जाता है। कृष्ण का होना जरूरी थोड़े ही है! क्योंकि कृष्ण के होने में अगर यह बात होती तो रुक्मणी को भी भक्ति उपलब्ध हो गई होती।

तो, मैं तुमसे कहता हूं, इससे उलटा भी हो सकता है। तुम अपने प्रेमी में, अपने पति में, अपनी पत्नी में, अपने बेटे में, अपने मित्र में, कहीं वही भूल तो नहीं कर रहे हो तो रुक्मणी ने की, सोचना। कहीं वही भूल तो नहीं हो रही है?

मैं तुमसे कहता हूं, वही भूल हो रही है, क्योंकि उसके सिवाय कोई भी नहीं है। “वही “ सब में छिपा है। जरा खोदो, जरा गहरे उतरो। जरा दूसरे में डुबकी लो। जरा अनन्यता के भाव को जगने दो। और तुम अचानक पाओगे : वही भूल, रुक्मणी की भूल, सारे संसार से हो रही है। सभी के पास कृष्ण खड़ा है–सभी के पास भगवान खड़ा है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। लेकिन बाहर तुम्हारी आखें देखने की आदी हैं, कम से कम बाहर तो उसे देखो। एक दफा पुरुष खो जाए और परमात्मा दिखाई पड़े, पुरुष खो जाए, पुरुषोत्तम दिखाई पड़े…! तो नारद कहते हैं, “जैसे ब्रजगोपियों की भक्ति इस अवस्था में भी गोपियों में माहात्म्यज्ञान की विस्मृति का अपवाद नहीं हैं “।

हालांकि वे दीवानी थीं, पागल थीं प्रेम में, लेकिन एक क्षण को भी भूली नहीं कि कृष्ण भगवान हैं; उतनी बेहोशी में भी होश रहा, अपवाद नहीं है; यह बात तो कभी न भूली कि कृष्ण भगवान हैं; यह बात तो याद ही रही; लड़ी भी, झगडी भी, रूठीं भी, लेकिन यह बात तो याद रही कि कृष्ण भगवान हैं।

उतनी ही बात प्रेम को भक्ति की ऊंचाई पर उठा देती है।

“उसके बिना, भगवान को भगवान जाने बिना, किया जाने वाला प्रेम जारों के प्रेम के समान है।

“उसमें जार के प्रेम में प्रियतम के सुख से सुखी होना नहीं है “।

थोड़ा आगे बढ़ो! थोड़े गहरे जाओ! “हरम से कुछ आगे बढ़े तो देखा जबीं के लिए आस्ता और भी हैं सितारों के आगे जहां और भी हैं

अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं”।

प्रेम जब तक भक्ति न बन जाए तब तक जानना “अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं, “ अभी और भी परिक्षाएं पार करनी हैं प्रेम की। प्रेम पर मत रुक जाना।

प्रेम कली है, भक्ति फूल है। प्रेम मर मत रुक जाना।

“अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं

सितारों के आगे जहां और भी हैं। “

जब तक प्रेम तुम्हारा भक्ति न बन जाए, जब तक प्रेमी में तुम्हें भगवान न दिखाई पड़ जाए–तब तक रुकना मत; तब तक मस्जिद-मंदिरों में ठहर मत जाना।

“हरम के आगे बढ़े तो देखा

जबीं के लिए आस्ता और भी हैं। “

मंदिर-मस्जिद से पार जाना है! सीमा से पार जाना है! संप्रदाय से पार जाना है! मत-मतांतर से पार जाना है!

प्रासंगिक दिखाई पड़ती है बात कि हम कहीं मंदिर-मस्जिदों में, आकारों में, सीमाओं में, गुणों में उलझे हैं– और इसलिए वह जो उनके भीतर छिपा है, हमारे हाथ से चूका जा रहा है, पकड़ में नहीं आता। खोल ही दिखाई पड़ती है। ऊपर का सांयोगिक असार ही दिखाई पड़ता है, भीतर का सार, स्वभाव, स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता।

“उसके बिना, भगवान को जाने बिना, किया जानेवाला ऐसा प्रेम जारों के प्रेम के समान है”। “उसमें, जार के प्रेम में, प्रियतम के सुख से सुखी होना नहीं है”। फर्क क्या है?

जब तुम प्रेम करते हो–साधारण प्रेम, जिसे हम प्रेम कहते हैं–तो तुम अपने सुख की फिक्र कर रहे हो; तुम प्रेमी का उपयोग कर रहे हो। भक्ति प्रेमी के सुख की चिंता करती है, बपने को समर्पित करती है। प्रेम में तुम प्रेमी का उपयोग करते हो साधन की तरह, अपने सुख के लिए। भक्ति में तुम साधन बन जाते हो प्रेमी के, उसके सुख के लिए। भक्ति समर्पण है। भक्त फिर भगवान के लिए जीता है।

कबीर ने कहा है, जैसे बांस की पोली पोंगरी खुद गीत नहीं गाती, फिर परमात्मा के ही गीत उससे बहते हैं। बांस की पोंगरी तो सिर्फ पोली है, राह देती है, जगह देती है, स्थान देती है, रुकावट नहीं देती।

तो कबीर ने कहा है, “अगर गीत में कहीं कोई अड़चन आती हो तो मेरी बांस की पोंगरी की भूल समझना, कहीं कोई गड़बड़ होगी। तुम तो गीत ठीक ही ठीक गाते हो, अड़चन आती होगी, बाधा पड़ती होगी, मेरे कारण पड़ जाती है। कसूर हो तो मेरा, भूल-चूक हो तो मेरी, जो भी ठीक हो, तेरा! दुखी होता हूं तो मैं अपने कारण, सुखी होता हूं तो तेरे कारण। बंधता हूं तो अपने कारण, मुक्त होता हूं तो तेरे कारण। नरक बनता हूं तो मैं, स्वर्ग तो सब तेरा प्रसाद है!”

प्रेम अपने सुख की तलाश है इसलिए प्रेम दुख में ले जाता है। जो अपने सुख की तलाश कर रहा है, वह “मैं “ को पकड़े हुए है। और “मैं “ सारे दुखों का निचोड़ है। वही तो कांटा है, चुभता है। जिसने प्रेमी के सुख को सब कुछ माना, जिसने सब प्रेमी के सुख पर निछावर किया, उसके जीवन में कोई दुख नहीं।

तुम जब तक अपना सुख खोजोगे, दुख पाओगे। जिस दिन तुम परमात्मा का सुख खोजने लगे कि वह जिसमें सुखी हो, वही मेरा सुख…। जीसस को सूली लगी, एक क्षण को कैप गए और उन्होंने कहा, “हे भगवान यह मुझे क्या दिखला रहा है ,     “    फिर संभल गए और कहा, “तेरी मर्जी पूरी हो!” उसी क्षण क्रांति घटी। उसी क्षण जीसस का साधारण मनुष्य रूप खो गया, उधर परमात्मा रूप प्रकट हुआ। सूली स्वीकार हो गई तो सिंहासन हो गई।

जीसस की सूली से ऊंचा सिंहासन तुमन कहीं देखा, जीसस की सूली से बहुमूल्य सिंहासन तुमने कहीं देखा ,

… मृत्यु महाजीवन का द्वार बन गई। इधर अहंकार गया, उसर परमात्मा प्रविष्ट हुआ। अपने सुख को खोजने का अर्थ है : अहंकार अभी भी खोज रहा है। उसके सुख को खोजना जब शुरू हो जाए, भक्त तब ऐसे जीने लगता है जैसे बांस की पोंगरी, बांसुरी बन जाता है : सब स्वर “उसी “ के हैं। फिर कोई दुख नहीं है। फिर कोई नरक नहीं है। फिर अंधेरा भी रोशन है। फिर मौत भी और नये जीवन की शुरूआत है। फिर कांटों में भी फूल दिखाई पड़ने लगते हैं, कांटे भी फूल हो जाते हैं। फिर दुख अनुभव में आता ही नहीं। फिर हैरानी होती है यह देखकर कि लोग दुखी क्यों हो रहे हैं!

सब उपलब्ध है। महोत्सव की तैयारियां हैं और लोग दुखी हो रहे हैं। परमात्मा गीत गाने को तैयार है। उसके ओंठ फड़क रहे हैं।

तुम्हारी बांसुरी तैयार नहीं है। तुम खाली नहीं हो, तुम भरे हो!

अहंकार से खाली होते ही “उसका “ प्रवेश हो जाता है।

आज इतना ही।



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साधना–पथ–(प्रवचन–14)

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साधना और संकल्‍प—(प्रवचन—चौदहसवां)

8 जून, 1964; सुबह

मुछाला महावीर, राणकपुर।

मैं आज क्या कहूं?

संध्या हम विदा होंगे और उस घड़ी के आगमन के विचार से ही आपके हृदय भारी हैं। इस निर्जन में अभी पांच दिवस पूर्व ही हमारा आना हुआ था और तब जाने की बात किसने सोची थी?

पर स्मरण रहे कि आने में जाना अनिवार्यरूपेण उपस्थित ही रहता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे साथ ही साथ हैं, यद्यपि दिखाई अलग—अलग देते हैं। उनके अलग—अलग समयों में दिखाई पड़ने से हम भ्रम में पड़ जाते हैं, पर जो थोड़ा गहरा देखेगा, वह पाएगा कि मिलन ही विदा है और सुख ही दुख है और जन्म ही मृत्यु है।

सच ही, आने और जाने में कितना कम फासला है, या कि फासला है ही नहीं!

जीवन में भी ऐसा ही है। आ भी नहीं पाते हैं कि जाना प्रारंभ हो जाता है और जिसे हम रहना कहते हैं, क्या वह जाने की तैयारी मात्र ही नहीं है?

जन्म और मृत्यु में दूरी ही कितनी है?

पर वह दूरी बहुत भी, अनंत भी हो सकती है। जीवन साधना बने तो वह दूरी अनंत हो सकती है।

जीवन साधना बने, तो मृत्यु मोक्ष बन जाती है। और जन्म और मृत्यु में तो बहुत दूरी नहीं है, पर जन्म और मोक्ष में तो अनंत दूरी है।

वह दूरी उतनी ही है, जितनी कि शरीर और आत्मा में है, जितनी कि स्वप्न और सत्य में है। और वह दूरी सर्वाधिक है। उससे अधिक दूरी पर और कोई दो बिंदु नहीं हैं।

मैं शरीर हूं—यह भ्रम, इलूजन मृत्यु है, आत्मा हूं यह साक्षात, रियलाइजेशन मोक्ष है।

जीवन इस सत्य—साक्षात के लिए अवसर है। इस अवसर का उपयोग हो—यह अवसर व्यर्थ न खोया जाए तो जन्म और मृत्यु में अनंत फासला हो जाता है।

और इन बीते थोड़े से दिनों में, हमारे यहां आने और जाने में भी बहुत फासला हो सकता है। क्या यह नहीं हो सकता है कि हम जो आए हों, वही वापस न लौटें? क्या आप एक बिलकुल नये व्यक्ति होकर वापस नहीं लौट सकते हैं?

वह क्रांति आप चाहें तो एक क्षण में भी हो सकती है; पांच दिन तो बहुत ज्यादा हैं, और अन्यथा पांच जन्म भी थोड़े हैं, दिनों की तो विसात ही क्या?

संकल्प का, पूर्ण संकल्प का एक क्षण भी बहुत है। संकल्पहीन पूरा जीवन भी कुछ नहीं है।

स्मरण रहे कि समय, टाइम नहीं, संकल्प, विल महत्वपूर्ण है। संसार की उपलब्धियां समय में और सत्य की उपलब्धियां संकल्प में होती हैं।

संकल्प की प्रगाढ़ता, एक क्षण को ही अनंत विस्तार और गहराई दे देती है। वस्तुत: संकल्प की प्रगाढ़ता में समय, टाइम मिट ही जाता है, और केवल शाश्वतता, इंटरनिटी ही शेष रह जाती है।

संकल्प द्वार है जो समय से मुक्त करता और शाश्वतता से जोड़ता है।

अपने संकल्प को घना और प्रगाढ़ होने दें। वह श्वास—श्वास में परिव्याप्त हो जाए। वह सोते—जागते स्मृति में हो। उसी से नया जन्म होता है—वह जन्म होता है जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। वही वास्तविक जन्म है। एक जन्म शरीर का है। पर उसकी परिणति मृत्यु है— अनिवार्य मृत्यु है। इसलिए मैं उसे वास्तविक जन्म नहीं कहता हूं। जो मृत्यु में समाप्त हो, वह जीवन का प्रारंभ कैसे हो सकता है? पर एक जन्म और भी है जिसकी परिसमाप्ति मृत्यु में नहीं होती है। वही वास्तविक है, क्योंकि उसकी परिपूर्णता अमृत में है।

उस जन्म के लिए ही इन दिनों मैंने आपको आमंत्रित किया और पुकारा है। उसके लिए ही हम यहां इकट्ठे हुए थे।

पर हमारे इकट्ठे होने का मूल्य नहीं है। आप अपने भीतर—प्रत्येक अपने भीतर इकट्ठा, एक होकर पुकारे और प्यासा हो तो वही समग्र चित्त का संकल्प सत्य की निकटता में परिणत हो जाता है। सत्य तो निकट है, पर हममें उसके निकट होने का संकल्प चाहिए।

सत्य के लिए प्यास आप में है, पर संकल्प भी चाहिए। संकल्प से संयुक्त होकर ही प्यास साधना बनती है।

संकल्प का क्या अर्थ है?

एक व्यक्ति ने किसी फकीर से पूछा कि प्रभु को पाने का मार्ग क्या है? उस फकीर ने उसकी आंखों में झांका। वहां प्यास थी। वह फकीर नदी जाता था। उसने उस व्यक्ति को भी कहा’ मेरे पीछे आओ। हम स्नान कर लें, फिर बताऊंगा।’ वे स्नान करने नदी में उतरे।

वह व्यक्ति जैसे ही पानी में डूबा, फकीर ने उसके सिर को जोर से पानी में ही दबा कर पकड़ लिया। वह व्यक्ति छटपटाने लगा। वह अपने को फकीर की दबोच से मुक्त करने में लग गया। उसके प्राण संकट में थे। वह फकीर से बहुत कमजोर था, पर क्रमश: उसकी प्रसुप्त शक्ति जागने लगी।

फकीर को उसे दबाए रखना असंभव हो गया। वह पूरी शक्ति से बाहर आने में लगा था और अंततः वह पानी के बाहर आ गया। वह हैरान था! फकीर के इस व्यवहार को समझ पाना उसे संभव नहीं हो रहा था। क्या फकीर पागल था? और फकीर जोर से हंस भी रहा था।

उस व्यक्ति के स्वस्थ होते ही फकीर ने पूछा :’ मित्र, जब तुम पानी के भीतर थे, तो कितनी आकांक्षाएं थीं? वह बोला’ आकांक्षाएं? आकांक्षाएं नहीं, बस एक ही आकांक्षा थी कि एक श्वास, हवा कैसे मिल जाए?’ वह फकीर बोला.’ प्रभु को पाने का रहस्य—सूत्र, सीक्रेट यही है। यही संकल्प है। संकल्प ने तुम्हारी सब सोई शक्तियां जगा दीं। संकल्प के उस क्षण में ही शक्ति पैदा होती है और व्यक्ति संसार से सत्य में संक्रमण करता है।

संकल्प से ही संसार से सत्य में संक्रमण होता और संकल्प से ही स्वप्न से सत्य में जागरण होता है। विदा के इन क्षणों में मैं यह स्मरण दिलाना चाहता हूं।

संकल्प चाहिए। और क्या चाहिए? और चाहिए साधना—सातत्य। साधना सतत होनी चाहिए। पहाड़ों से जल को गिरते देखा है? सतत गिरते हुए जल के झरने चट्टानों को तोड़ देते हैं।

व्यक्ति यदि अज्ञान की चट्टानों को तोड्ने में लगा ही रहे तो जो चट्टानें प्रारंभ में बिलकुल राह देती नहीं मालूम होती हैं, वे ही एक दिन रेत हो जाती हैं, और राह मिल जाती है।

राह मिलती तो निश्चित है, पर वह बनी—बनाई नहीं मिलती है। उसे स्वयं ही, अपने ही श्रम से बनाना होता है। और यह मनुष्य का कितना सम्मान है! यह कितना महिमापूर्ण है कि सत्य को हम स्वयं अपने ही श्रम से पाते हैं!

‘ श्रमण’ शब्द से महावीर ने यही कहना चाहा है। सत्य श्रम से मिलता है। वह भिक्षा नहीं है, सिद्धि है। संकल्प और सतत श्रम और अनंत प्रतीक्षा।

सत्य अनंत है और इसलिए उसके लिए अनंत प्रतीक्षा और धैर्य आवश्यक है। अनंत प्रतीक्षा में ही वह विराट अवतरित होता है। जो धैर्यवान नहीं हैं, वे उसे नहीं पा सकते हैं।

विदा के इन क्षणों में यह भी स्मरण दिलाना चाहता हूं।

अंत में एक कथा मुझे स्मरण आती है। बिलकुल काल्पनिक कथा है। पर बहुत सत्य भी है। एक वृद्ध साधु के पास से कोई देवता निकलता था। उस साधु ने कहा’ प्रभु से पूछना कि मेरी मुक्ति में कितनी देर और है?’ उस वृद्ध साधु के पास ही एक बरगद के दरख्त के नीचे एक बिलकुल नव—दीक्षित युवा संन्यासी का आवास भी था।

उस देवता ने उस युवा संन्यासी से भी पूछा कि क्या आपको भी प्रभु से अपनी मुक्ति के संबंध में पूछना है? पर वह संन्यासी कुछ बोला नहीं, वह जैसे एकदम शांत और शून्य था।

फिर कुछ समय बाद वह देवता लौटा। उसने वृद्ध तपस्वी से कहा.’ मैंने प्रभु को पूछा था। वे बोले. अभी तीन जन्म और लग जाएंगे!’

वृद्ध तपस्वी ने माला क्रोध में नीचे पटक दी। उसकी आंखें लाल हो गईं। उसने कहा’ तीन जन्म और? कैसा अन्याय है?’

वह देवता बरगद वाले युवा संन्यासी के पास गया। उससे उसने कहा’ मैंने प्रभु से पूछा था। वे बोले वह नव—दीक्षित साधु जिस वृक्ष के नीचे आवास करता है, उस वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे और साधना करनी है।’

युवा साधु की आंखें आनंद से भर गईं और वह उठ कर नाचने लगा और उसने कहा :’ तब तो पा ही लिया। जमीन पर कितने वृक्ष हैं और उन वृक्षों में कितने पत्ते हैं! यदि इस छोटे से बरगद के दरख्त के पत्तों के बराबर जन्मों में ही वह मिल जाएगा तो मैंने उसे अभी ही पा लिया है!’

यह भूमिका है जिसमें सत्य की फसल काटी जाती है।

और कथा का अंत जानते हैं क्या हुआ?

वह साधु नाचता रहा, नाचता रहा और उस नृत्य में ही उसी क्षण वह मुक्त हो गया और प्रभु को उपलब्ध हो गया। शांत और अनंत प्रेम—प्रतीक्षा का वह क्षण ही सब—कुछ था। वह क्षण ही मुक्ति है।

इसे मैं अनंत प्रतीक्षा कहता हूं। और जिसकी प्रतीक्षा अनंत है, उसे सब—कुछ अभी और यहीं उपलब्ध हो जाता है। वह भाव— भूमि ही उपलब्धि है।

क्या आप इतनी प्रतीक्षा करने को तैयार हैं?

मैं इस प्रश्न के साथ ही आपको विदा दे रहा हूं।

प्रभु सामर्थ्य दे कि आपकी जीवन—सरिता सत्य के सागर तक पहुंच सके।

यही मेरी कामना और प्रार्थना है।

आज इतना ही

(साधना पथ समाप्‍त)


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नाम सुमिर मन बावरे–(जगजीवन )

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नाम सुमिर मन बावरे

जगजीवन (वाणी)

गजीवन का जीवन प्रारंभ हुआ प्रकृति के साथ। कोयल के गीत सुने होंगे, पपीहे की पुकार सुनी होगी। चातक को टकटकी लगाये चांद को देखते होंगे। चमत्‍कार देखे होंगे कि वर्षा आती है और सूखी पड़ी हुई पहाडियां हरी हो जाती है। घास में फूल खिले देखे होंगे।

बैठे—बैठे झाड़ों के नीचे जगजीवन को गायों—बैलों को चराते, बांसुरी बजाते कुछ—कुछ रहस्‍य अनुभव होने लगा होगा। क्‍या है ये सब—यह विराट।…….

…..सत्‍संग चलने लगा। और एक दिन अनूठी घटना घटी। चराने गये थे गाये—बैल को, दो फकीर—दो मस्‍त फकीर वहां से गुजरे। उनकी मस्‍ती ऐसी थी कि कोयलों की कुहू—कुहू ओछी पड़ गई। पपीहों की पुकार में कुछ खास न रहा। गायों की आंखें देखी थी। गहरी थी। मगर इन आंखों के सामने कुछ भी नहीं थी। झीलें देखी थीं। शांत थी, मगर यह शांति कुछ और बात कह रही थी। यह किसी और ही लोक का गीता सूना रही थी। किसी और ही लोक की शांति दर्श रही थी। ये चाल किसी और ही लोक की थी……..

ओशो (इसी पुस्‍तक से)

संकीर्तंत—

दुनिया में दो तरह के लोग हैं बोलने वाले। एक : जिनके पास बोलने को कुछ नहीं है। वे कितने ही सुंदर शब्द जानते हों, उनके शब्द निष्प्राण होते हैं, उनके शब्दों में श्वांस नहीं होती। उनके पास शब्द सुंदर होते हैं, जैसे कि लाश पड़ी हो किसी सुंदर स्त्री की। जैसे क्लिओपेत्त्रा मर गई है और उसकी लाश पड़ी है। उनके शब्द ऐसे ही होते हैं। असली बात तो उड़ गई। पिंजड़ा पड़ा रह गया है। पक्षी तो जा चुका; या पक्षी कभी था ही नहीं।

पंडित सुंदर-सुंदर शब्द बोलता है। उसके शब्दों में शृंगार होता है, कुशलता होती है, भाषा होती है, व्याकरण होती है। सब होता है प्राण नहीं होते। बस एक ढांचा होता है, आत्मा नहीं होती।

संत भी बोलते हैं, शायद शब्द ठीक-ठाक होते भी नहीं, व्याकरण का शायद पता भी नहीं होता। व्याकरण छूट जाती है, भाषा बिखर जाती है लेकिन जो मधु बहता है, जो मदिरा बहती है वह किसी को भी डुबा दे, सदा को डुबा दे। शब्द तो बोतलों जैसे हैं। बोतल सुंदर भी हो और भीतर शराब न हो तो क्या करोगे? और बोतल कुरूप भी हुई और भीतर शराब हुई तो डुबा देगी, तो मस्त कर देगी। तो तुम्हारे भीतर भी गीत पैदा होगा और नाच पैदा होगा। आत्मापूर्ण हों शब्द तो तुम्हारे भीतर भी आत्मा को झंकृत करते हैं।

जगजीवन जैसे बे पढ़े-लिखे संतों की वाणी में जो बल है वह बल शब्दों का नहीं है, वह उनके शून्य का बल है। शब्दों की संपदा उनके पास बड़ी नहीं है, कामचलाऊ है; बोल-चाल की भाषा है। लेकिन बोल-चाल की भाषा में भी अमृत ढाला है। पंडितों के शब्द मूल्यवान होते हैं लेकिन शब्दों को उघाड़ोगे तो भीतर कुछ भी नहीं, चली हुई कारतूस जैसे। ऋषियों के शब्द मूल्‍यवान हों न हों, शब्दों को उघाड़ोगे तो भीतर परम संपदा को पाओगे; एक प्रगाढ़ता पाओगे; एक घनीभूत प्रार्थना पाओगे; एक रस-विमुग्ध चैतन्य पाओगे।

सीधे-सादे शब्द हैं, जगजीवन जो बोल रहे हैं। कुछ जटिल नहीं हैं। लोकभाषा है–जैसा सभी लोग बोल रहे होंगे। इनमें एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो पारिभाषिक हो; कि जिसे देखने के लिए तुम्हें शब्दकोश उलटना पड़े। अगर तुम्हें कुछ शब्द कठिन मालूम पड़ते हों तो उसका कारण यह नहीं है कि वे शब्द कठिन हैं उसका कुल कारण इतना है कि वे लोक-व्यवहार के बाहर हो गये हैं। उस दिन की लोकभाषा के हैं। आज उनका उपयोग नहीं होता। अन्यथा बिलकुल कामचलाऊ हैं। गाड़ीवान बोलता था, दुकानदार बोलता था, चरवाहा बोलता था, लकड़हारा बोलता था, जुलाहा बोलता था, कुम्हार बोलता था। उन्हीं के शब्द हैं लेकिन शब्द ज्योतिर्मय है।…………..

…….मैं तुमसे कहता हूं : मंदिर जाओ न जाओ, चलेगा; लेकिन कभी वृक्षों के पास जरूर बैठना; नदियों के पास जरूर बैठना, सागर में उठती हुई उत्ताल तरंगों को जरूर देखना; हिमाच्छादित शिखर हिमालय के जरूर दर्शन करना। फूलों से दोस्ती बनाओ! वृक्षों से बातें करो। हवाओं में नाचो। वर्षा से नाते जोड़ो। और तुम सद्गुरु को खोज लोगे।

— भगवान श्री रजनीश

 


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–8)

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चखो, अमृत का स्‍वाद—(प्रवचन—आठवां)

प्‍यारे ओशो।

 मुंडकौपनिषद् में यह श्लोक आता है:

 नयां आत्‍मा प्रवचनेन लभ्‍यो न मधया न बहुना श्रुतेन।

यं एवैष वृणुते तेन लभ्‍यात् तस्‍यैष आत्‍मा विवृणुतै स्‍वाम्।।

 अर्थात यह आत्‍मा वेदों के अध्‍ययन से नहीं मिलती, न मेधा की बारीकी या बहुत शास्‍त्र सुनने से मिलता है। यह आत्‍मा जिस व्‍यक्‍ति का वरण करता है, उसी को इसकी प्राप्‍ति होती है—आत्‍मा उसी को अपना स्‍वरूप दिखाता है।

प्‍यारे ओशो, उपनिषद् के इस सूत्र को हमारे लिए बोधगम्‍य बनाने की अनुकम्‍पा करे।

हजानन्द! यह सूत्र उन थोड़े—से सूत्रों में से एक है, जिनमें अमृत भरा है। जितना पिओ, उतना थोड़ा।

‘नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो’

यह आत्मा शब्दों से उपलब्ध नहीं। वे शब्द फिर वेद के हों कि कुरान के हों कि बाइबिल के, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। यह आत्मा सुनकर उपलब्ध नहीं। फिर चाहे वे वचन बुद्ध के हों, महावीर के, लाओत्सु के, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। क्यों? क्यों आत्मा प्रवचन सुनकर उपलब्ध नहीं हो सकता? क्योंकि आत्मा बाहर की कोई वस्तु नहीं, अन्तर्तम का अनुभव है। आत्मा अमृत का स्वाद है। जैसे अंधे कौ कोई लाख समझाए प्रकाश के संबंध में, अंधा कैसे समझेगा? उसने प्रकाश देखा नहीं; उसकी कोई प्रतीति नहीं, कोई साक्षात्कार नहीं। कुछ का कुछ समझ लेगा।

रामकृष्ण निरंतर यह प्यारी कथा कहते थे—कि एक अंधे मित्र को उसके साथियों ने भोजन पर आमंत्रित किया। गरीब था अंधा। खीर परोसी। उस अंधे ने अपने पास में बैठे हुए मित्र को पूछा, बड़ी स्वादिष्ट है, यह क्या है? मित्र ने कहा, यह खीर है। दूध की बनी है। एक मिष्ठान है। अंधा पूछने लगा, दूध कैसा होता है? मित्र ने कहा, दूध कैसा होता है! शुभ्र होता है, श्वेत होता है। अंधे ने पूछा, उलझाओ मत पहेली को और। बात बनती नहीं, बिगड़ती चली जाती है। मुझे खीर का पता नहीं, तुमने दूध की बात कही। मुझे दूध का पता नहीं, तुमने श्वेत की बात कही। मुझे श्वेत का भी कुछ पता नहीं। यह श्वेत क्या?

मित्र ने कहा, तुम समझे नहीं? अरे, कभी बगुला देखा है? जैसा बगुला होता है, शुभ्र श्वेत। पुरानी कहानी है, नहीं तो मित्र कहता, नेता देखा है? सफेद शुद्ध खद्दर! और बगुले और नेता में ऐसे भी बहुत संबंध हैं। बगुले ही नेता होते हैं। और बगुला पुराना नेता है, बड़ा अभ्यासी नेता है। बगुले को कभी खड़ा देखा है, सरोवर के तट पर, एक टांग पर? ऐसा आसन साधता है! पुराना योगी है। तपस्वी है। एक ही टल पर खड़ा रहता है—बिना हिले, बिना डुले, एकाग्रचित्त से। क्योंकि हिले—डुले तो पानी हिल—डुल जाए। पानी हिल—डुल जाए तो मछलियां सजग हो जाएं। फिर उसके पास न आएं। यूं खड़ा रहता है कि जैसे है ही नहीं। तभी मछलियां फंसती हैं। यूं ही नेता भी खड़ा रहता है, तभी मछलिया फंसती हैं। वह धन्धा एक ही है। मगर कहानी पुरानी है। रामकृष्ण के समय में अभी यह गांधीवादी नेता आया नहीं था। अब थोड़ी रद्दोबदल कर लेनी चाहिये कहानी में, थोड़ा आधुनिक बना लेना चाहिये।.. उस मित्र ने कहा कि बगुले को देखा है? जैसा बगुला होता है।

मित्र भी पंडित रहा होगा। पंडित यानी अंधे से भी गया—गुजरा। नहीं तो अंधे को समझाने बैठे रंग की बात! अंधे को जो रंग की बात समझाने बैठे, वह महाअंधा होना ही चाहिये। अंधे ने कहा, अब मैं कुछ और पूछूं ठीक नहीं, क्योंकि बात दूर से दूर हुई चली जाती है। मैंने बगुला कभी देखा नहीं। कुछ इस ढंग से कहो कि मेरी भी समझ में आ सके। मैं अंधा हूं यह देखकर कहो। तब उसे होश आया। उसने कहा, तो फिर ऐसा करो, यह मेरा हाथ है, मेरे हाथ पर हाथ फेरी। उसने अपने हाथ को इस ढंग से मोड़ा जैसे बगुले की गर्दन हो। अंधे ने हाथ पर हाथ फेरा और मित्र ने कहा, देखते हो, इस तरह बगुले की गर्दन होती है। वह अंधा प्रसन्न हो गया, आह्रादित हो गया, उसने कहा, धन्यवाद! तुम्हारे कष्ट के लिये बहुत अनुगृहीत हूं। अब समझा कि खीर कैसी होती है! मुड़े हुए हाथ जैसी!

स्वाभाविक! अंधे पर हंसना उचित नहीं। अंधे की मजबूरी समझो। और जहां तक आत्मा का संबंध है, करीब—करीब सभी अंधे हैं। क्योंकि भीतर की आंख तो खुली नहीं है। तो जो भी आत्मा के संबंध में कहा जाएगा, वह गलत समझा जाएगा। तुम तक पहुंचते—पहुंचते बुद्धों के वचन कुछ के कुछ हो जाते हैं। बुद्ध कहते एक बात, तुम सुनते दूसरी बात। और यह स्वाभाविक है। क्योंकि बुद्ध जो कहते हैं, वही समझने के लिये तुम्हें भी प्रबुद्ध होना होगा। उसी जीवन तल पर होना होगा। उसी चैतन्य की कोटि में होना होगा। वही बोध, वही समाधि, वही ध्यान। वही अतराकाश—ज्योतिर्मय। वही आह्लाद। वही शून्यता। वही मौन। तभी तो बुद्ध अपने स्वाद को तुम तक पहुंचा सकेंगे। मगर जिसको ऐसी अवस्था हो गई हो, उसे समझने को ही कुछ नहीं बचा।

एक बुद्ध को तो दूसरे बुद्ध से बोलने की जरूरत नहीं होती। बिनबोले बात समझ में आ जाती है। क्योंकि दोनों ही एक जगह खड़े होते हैं, एक ही चैतन्य की अवस्था में। दो होते ही नहीं। जहां दो बुद्ध मिलते हैं, वहां एक ही रह जाता है। हजार बुद्ध भी मिलें तो वहां बुद्धत्व तो एक ही होता है। जैसे हजार नदियां गिर जाएं सागर में, क्या फर्क पड़ता है! सब जाकर सागर के साथ एक हो जाती हैं। सब खारी हो जाती हैं। सबका स्वाद सागर का स्वाद हो जाता है। हजार बुद्ध इकट्ठे हों तो वहा हजार बुद्ध नहीं होते। जैसे हजार दिये तुम जला दो तो रोशनी एक होती है—दीये हजार होंगे! हजार देहों में बुद्धत्व का दीया जलेगा, मगर रोशनी एक होगी। और सबकी रोशनी एक है। किससे कहना? क्या कहना? दो बुद्धों के पास एक—दूसरे से कहने को कुछ भी नहीं होता।

जो बोल सकते थे, जो एक दूसरे को समझ सकते थे, वे बोलते नहीं—बोलने को कुछ नहीं बचता। और दो बुद्धओं के पास बहुत बोलने को होता है, मगर समझने को कोई भी नहीं होता वहां। दोनों बुद्ध हैं, समझनेवाला वहां कौन? इस दुनिया में कितनी बकवास चलती है। जानें चली जाती हैं, तलवारें खिंच जाती हैं। दो बुद्ध बहुत बोलते हैं, समझ में किसी के कुछ नहीं आता। दो बुद्ध बोलते नहीं, समझ में सब आ जाता है।

तो न तो बुद्धों के बीच संवाद होता है और न बुद्धओं के बीच संवाद होता है। बुद्धओं के बीच विवाद होता है, बुद्धों के बीच मौन होता है।

फिर बोलना कहां सार्थक है? जब कोई बुद्धपुरुष अबुद्धों से बोलता है, बस, वहीं केवल बोलने की कोई सार्थकता है; थोड़ी —बहुत; वह भी बहुत ज्यादा नहीं। क्योंकि यह सूत्र बहुत स्पष्ट है।

‘नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो’

नहीं मिलेगी यह आत्मा प्रवचन से। फिर बुद्ध क्यों बोलते हैं। फिर उपनिषद् का यह ऋषि भी क्यों बोला? इतना भी कहने की बात थी? बुद्ध बोलते हैं इस आशा में—इस आशा में नहीं कि तुम समझ पाओगे, वरन इस आशा में कि शायद तुम्हारे भीतर जानने की प्यास जग जाए, अभीप्सा पैदा हो जाए। तुम्हारे भीतर सोयी पड़ी है अभीप्सा। आग दबी पड़ी है, जरा उकसाने की बात है। जरा राख झाडू देने की बात है और ज्योति प्रज्वलित हो सकती है।

बुद्ध इसलिये नहीं बोलते तुमसे, इस आशा में नहीं बोलते कि तुम समझ लोगे, इस आशा में बोलते हैं कि शायद समझने की यात्रा पर निकल जाओ; शायद तुम्हारे जीवन में खोज पैदा हो जाए; एक अभीप्सा जग जाए जानने की कि यह क्या है? क्या है आत्मा? क्या है हमारे जीवन का सत्य? हम कौन हैं, कहां से हैं, कहां जा रहे हैं? यह कौन है जो हमारे भीतर है; धोलता है, देखता है, सुनता है, जीता है? यह जीवन क्या है?

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना

शेवए इश्क नहीं हुस्न को रुसवा करना

देखना भी तो…….

उनको यां वादे पै आ लेने दे ऐ अबे बहार

ऐ अबे बहार…!

जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना

शेवए इश्क नहीं हुस्न को रुसवा करना

देखना भी तो…….

शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी

(याद उन्हीं की रखनी—दिन हो या रात हमें जिक्र उन्हीं का करना!)

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना

शेवए इश्क नहीं हुस्न को रुसवा करना

देखना भी तो……..

कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है हसरत

ये क्या है हसरत?

उनसे मिलकर भी न इजहांरे तमन्ना करना

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना

शेवए इश्क नहीं हुस्न को रुसवा करना

देखना भी तो…….

बुद्ध बोलते हैं इसलिये कि तुम्हारे भीतर पड़ी कोई सोयी याद जग जाए। अभी तो दूर से ही देखोगे। जैसे कोई आकाश मेघाच्छादित न हो और कोई सैकड़ों मील दूर से हिमालय के उतुंग शिखरों को देखे। उन पर जमी हुई क्वांरी बर्फ देखे।

देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना

शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी

दिन हो या रात हमें जिक्र उन्हीं का करना

देखना भी तो……..

बुद्धों के बोलने का प्रयोजन यह नहीं है कि तुमने सुन लिये शब्द और तुम्हें ज्ञान हो जाएगा। इतना ही है कि शायद शब्द तुम्हारे भीतर किसी भूली—बिसरी प्यास को जगा दें। शायद बुद्धों की मौजूदगी तुम्हारे भीतर कुतूहल बने, जिज्ञासा बने, मुआ बने। वे बोलते हैं इसलिये कि शायद उनके वचनों की चोट तुम्हारे हृदय की वीणा को छेड़ दे। नहीं कि तुम सत्य को जान लोगे, लेकिन सत्य को जानना है, इतना स्मरण आ जाए तो बहुत। बस, इतना ही स्मरण आ सकता है। जागे हुए व्यक्तियों ने सिर्फ इसीलिये बात की है गैर—जागे हुए व्यक्तियों से कि देखो, हम जाग गए; देखो, हमारे दुख मिट गए; देखो, हमारा संताप झड़ गया; देखो, हमारे जीवन में फूल खिल गए; देखो ये सुगन्ध, यह तुम्हारी भी सुगन्ध है! यह तुम्हारे भी भीतर छिपा हुआ खजाना है। यह तुम्हारी भी सम्पदा है। जरा खोदों और पा लोगे।

लेकिन जो छू हैं, वे केवल शब्दों को पकडकर बैठ जाते हैं। जैसे तोते राम—राम दोहराते रहते हैं, ऐसे ही वे भी वेदों को दोहराते हैं, उपनिषदों को दोहराते हैं। अब यह बड़े मजे की बात है, मुंडकोपनिषद् में यह श्लोक है, और मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो जीवनभर से मुंडकोपनिषद् पढ़ रहे हैं, जिनको उनका शब्द—शब्द याद है और जिनको जरा भी बेचैनी नहीं होती इस श्लोक को उद्धरण करने में और जिन्होंने जाना नहीं और जिनकी आंखें खुली नहीं।

‘नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो।’

थोड़े से शब्दों में कितनी बात कह दी। बूंद में जैसे सागर को समा दिया। नहीं, प्रवचन से यह उपलब्ध नहीं है। सुनना जरूर उनको जो जानते हैं, लेकिन उनके शब्दों को मत पकड़ लेना। बुद्ध ने कहा है : मैं जो कहता हूं उस पर ज्यादा ध्यान मत दो, मैं जो हूं उस पर ध्यान दो। मैं जो कहता हूं वह उतना महत्वपूर्ण नहीं, मैं जहां से कहता हूं वह स्रोत महत्वपूर्ण है। और, मैं कहूं इसलिये मत मानना। मैं कहूं इसलिये तो केवल प्रयोग करना जानने का। हां जिस दिन जान लो, उस दिन मानना।

‘न मेधया न बहुना हतेन।’

न तो बड़ी मेधा से, प्रतिभा से, तर्क से, बुद्धि से यह आत्मा मिलती है। तर्क के हाथ बहुत छोटे हैं। आकाश के तारों को तर्क से नहीं छुआ जा सकता। तर्क के लिये तो आत्मा वैसे ही है जैसे तुमने ईसप की कहानी में पढ़ा है कि लोमड़ी उछली, कूदी, अहो तक पहुंची नहीं। फिर चारों तरफ उसने देखा कि कोई देखता तो नहीं है। और फिर यह कहती हुई कि अगर किसी ने देख भी लिया हो तो सुन ले कि अभी अंह कच्चे हैं, अभी मह खट्टे हैं,चल पड़ी। एक खरगोश छिपा यह देख रहा था झाड़ी में से; उसने कहा, चाची, आप पहुंच नहीं पायीं। लेकिन लोमड़ी ने कहा, चुप बदतमीज, पहुंचकर करूंगी क्या, अभी अंह कच्चे हैं, अभी अंह खट्टे हैं। पक जाने दे, फिर पहुंचूंगी, अभी तोड्ने से सार क्या है! उछलकर मैंने देख लिया कि मह अभी कच्चे हैं और खट्टे हैं। अभी चखा नहीं, छुआ भी नहीं और जान लिया कि मह खट्टे हैं!

तर्क की छलांग बहुत छोटी है। इतनी छोटी। लेकिन तर्क का अहंकार बहुत बड़ा है। तो तर्क के पास एक ही उपाय है कि वह कह दे, आत्मा होती ही नहीं। अंह कच्चे, मह खट्टे! तर्क की पकड़ में नहीं आती आत्मा तो आत्मा हो कैसे सकती है; इसलिये नहीं है। ऐसा इनकार करके तर्क अपने अहंकार को बचा लेता है।

जरूर तर्क के हाथ कुछ चीजों तक पहुंचते हैं—विज्ञान में सार्थक है तर्क, क्योंकि वस्तुओं को पकड़ लेता है, खोज लेता है। लेकिन आत्मा कोई वस्तु नहीं। आत्मा तो तर्क के पीछे है, तर्कातीत है। तर्क के आगे जो है उसको तर्क छू सकता है, लेकिन तर्क के पीछे जो है, उसके लिये तर्क क्या करे! दर्पण के सामने जो है, वह दर्पण में दिखाई पड़ जाएगा, लेकिन दर्पण के पीछे जो है, वह दर्पण में कैसे दिखाई पडेगा! लेकिन अगर दर्पण का भी अहंकार हो तो दर्पण भी कहेगा कि जो मेरे पीछे है, वह है ही नहीं। अगर होता तो दिखाई पड़ता। जो मुझमें दिखाई न पड़े, वह है ही नहीं।

तर्क के सामने संसार है और पीछे तुम हो। और तुम्हारा होना आत्मा है। तर्क में तुम्हारा कोई प्रतिफलन नहीं बनता। इसलिये तर्क निश्चित रूप से नास्तिक होता है।

‘न मे धया……’।

बुद्धि से नहीं पाया जा सकता। और बुद्धि है क्या? विचार की शृंखला। और विचार से कभी किसी ने अज्ञेय को जाना है? विचार की तो सीमा है, ज्ञात। जो जाना है, विचार उसी की जुगाली करता है। तुमने भैसों को जुगाली करते देखा? बस, विचार उतना ही करता है, जुगाली करता है। जो जाना है, जो सुना है, जो पढ़ा है, उसी की जुगाली करता है। लेकिन आत्मा को न तो जाना जा सकता है, न सुना जा सकता है, न पढ़ा जा सकता है, उसकी जुगाली कैसे करोगे? उसके लिये तर्कातीत होना जरूरी है। आत्मा को जानने के लिये विचार के पार जाना जरूरी है। निर्विचार होना जरूरी है।

तर्क है विकल्प : यह ठीक या वह ठीक; और आत्मा को जानना हो तो निर्विचार होना जरूरी है। यही तो समाधि की परिभाषा है, निर्विचार, निर्विकल्प, मनातीत। वह जो मनातीत अवस्था है समाधि की, उसमें ही जाना जाता है आत्मा को।

‘न मेधया न बहुना श्रुतेन।’

और बहुत सुन लोगे तुम, बहुत जानकारी भी इकट्ठी कर लोगे, सारे शास्त्र तुम्हें कंठस्थ हो जाएं तो भी तुम्हारे अनुभव में कुछ न आयेगा। गीता कंठस्थ है लोगों को, लेकिन इससे वे कृष्ण न हो गये हैं। धम्मपद कंठस्थ है लोगों को, इससे वे बुद्ध नहीं हो गये हैं। कितने लोग कुरान की आयतों को दोहराते हैं, मगर इससे वे मुहम्मद नहीं हो गये हैं। काश, इतना आसान होता! कि हम शास्त्रों को दोहरा देते यंत्रवत् और शास्त्रों में जो छिपा पड़ा है, वह हमारी सम्पदा हो जाता। तब तो हम विश्वविद्यालयों में धर्म सिखा सकते थे।

मैं तुमसे कहता हूं धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती। लेकिन मैं हैरान होता हूं जो लोग मुंडकोपनिषद् के इस सूत्र को उद्धरण देते हैं, वे भी धार्मिक शिक्षा की बात करते हैं। तब मैं देखता हूं कि चूक गये वे, यह सूत्र भी उनकी पकड़ में नहीं आया। आत्मा तो दूर, आत्मा के संबंध में यह सूत्र भी उनकी समझ में नहीं आया। धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये! पंडित, पुरोहित, मौलवी, पादरी, सबकी एक इच्छा है; संत, महात्मा, मुनि, सबकी एक इच्छा है धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये। धर्म की शिक्षा हो सकती है—सवाल यह है!

मैं विश्वविद्यालय में जब प्रोफेसर था तो दिल्ली में मंत्रालय ने भारत से कोई बीस प्रोफेसरों को आमंव्रित किया था—धार्मिक शिक्षा के ऊपर एक संगोष्ठी आयोजित थी—भूल—चूक से वे मुझे भी बुला बैठे। भूल—चूक से ही कहूंगा, क्योंकि उन्होंने आशा की होगी कि मैं धार्मिक शिक्षा के संबंध में कुछ सुझाव दूंगा कि कैसे धार्मिक शिक्षा दी जाये और मैंने मुंडकोपनिषद् का यह सूत्र ही कहा—

‘नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो

न मेधया न बहुना हतेन।

धर्म की शिक्षा हो ही नहीं सकती। और जिसकी शिक्षा हो सकती है, वह धर्म नहीं है। इसलिये कोई विश्वविद्यालय कभी धर्म की शिक्षा नहीं दे सकेगा। धर्म के संबंध में शिक्षा दे सकता है, कि हिन्दू क्या कहते हैं, मुसलमान क्या कहते हैं, ईसाई क्या कहते हैं, लेकिन कोई विश्वविद्यालय जीसस को, महावीर को, जरथुस्त्र को पैदा नहीं कर सकेगा। हां गणित की शिक्षा हो सकती है। विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, भूगोल की, इतिहास की शिक्षा हो सकती है, लेकिन धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती है। धर्म के संबंध में शिक्षा हो सकती है, लेकिन स्मरण रखना भेद को : प्रेम के संबंध में जानना प्रेम को जानना नहीं है। प्रेम के संबंध में तो वह भी जान सकता है जिसने कभी प्रेम नहीं किया। पुस्तकालयों में हजारों किताबें हैं। और ईश्वर के संबंध में जानना ईश्वर को जानना नहीं है। ईश्वर के संबंध में तो कोई भी जान सकता है। लेकिन संबंध में जानना और सत्य को जानना दो भिन्न बातें हैं। खतरा यही है कि कहीं सूचनाओं में ही न भटक जाना, कहीं सूचनाओं में ही न अटक जाना। बहुत लोग अटके हैं। जिनको तुम पंडित कहते हो, वे इसी तरह के अटके हुए लोग हैं।

‘न मेधया न बहुना श्रुतेन।’

कितना ही श्रुति को पढ़ो, कितना ही स्मृतियों को पढ़ो, कितने ही सुंदर—सुंदर शब्दों के संग्रह बना लो, कितने ही सुभाषित कंठस्थ कर लो, इससे कुछ भी न होगा। तुम जितने अज्ञानी थे, उतने ही रहोगे। हां एक खतरा है कि तुम्हें यह भ्रांति पैदा हो सकती है कि तुम ज्ञानी हो गये। और यह सबसे बड़ा खतरा है। अज्ञानी को भांति हो जाए कि ज्ञानी हो गया, अब इसकी जीवन स्थिति बड़ी दयनीय हो गयी। अब इसके सुधार का उपाय भी न रहा।

सद्गुरु तुम्हें यह नहीं सिखाता कि आत्मा क्या है, सद्गुरु तुम्हें यह नहीं बताता कि परमात्मा क्या है। सद्गुरु तुम्हें ज्ञान नहीं देता, सद्—गुरु तुम्हें ध्यान देता है। और ध्यान का अर्थ है : निर्विचार होना, निर्विकल्प होना, शास्त्र से मुक्त होना, शब्द से मुक्त होना, सिद्धात से मुक्त होना, सूचना से मुक्त होना। ध्यान का पहला अर्थ है : अपने अज्ञान को स्वीकार करना, अंगीकार करना। सुकरात सही है।

सुकरात कहता है, मैं बस इतना ही जानता हू कि कुछ भी नहीं जानता। यह ज्ञान की तरफ पहला कदम है। और जिसको यह भ्रांति है, में जानता हूं—और भांति पैदा हो जाती है सुंदर वचनों से—वह तो भटक गया। ज्ञान जितने लोगों को डुबाता है, अज्ञान नहीं डुबाता। अज्ञान से ज्ञान ज्यादा खतरनाक है। उपनिषद का प्रसिद्ध वचन है कि अज्ञानी तो अंधेरे में भटकते ही हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। मगर मजा यह है, इस सूत्र को भी पंडित याद कर लेते हैं। इस सूत्र का भी तोतों की तरह उद्धरण देते हैं।

‘यं एवैष वृयुते तेन लभ्यात्’

यह आत्मा तो जिसका वरण करता है, उसी को मिलता है। यह महत्वपूर्ण सूचना है, मगर इसके बड़े गलत अर्थ लिये गये हैं——होने ही थे गलत अर्थ। जितनी महत्वपूर्ण बात हो उतने गलत अर्थ होंगे। क्योंकि जितनी महत्वपूर्ण बात हो, तुम्हारे अनुभव से उतनी ही दूर हो जाती है। तुम्हारे और उसके बीच फासला बड़ा होता जाता है। तुम्हें वे ही बातें समझ में आती हैं जो तुम्हारे अनुभव के करीब पड़ती हैं। और सत्य तो बहुत दूर। तुम्हारे .और उसके बीच तो कोई नाता ही नहीं रहा है। जन्मों से कोई नाता नहीं है। फासला बढ़ता ही गया है।

इस —सूत्र का अर्थ किया गया है अब तक और मैं तुमसे कहना चाहता हूं वह अर्थ बुनियादी रूप से गलत है। अर्थ किया गया है कि यह तो परमात्मा की जिस पर कृपा होती है, उसको आत्मा का बोध होता है। न तो प्रवचन से मिलती, न बुद्धि से मिलती, न जानकारी से मिलती। तो फिर कैसे मिलती है? परमात्मा की जिस पर कृपा होती है। यह सरल अर्थ निकाल लिया लोगों ने। तो करना क्या है? फिर करने को कुछ बचा नहीं। फिर तो परमात्मा की जब कृपा होगी तब होगी।

इस देश की काहिलता इसी तरह के अर्थों पर निर्भर है। इस देश की सुस्ती, मुर्दगी, इस देश का मरा—मरा होना, इस देश की दयनीयता, दीनता, इस देश की बाईस सौ वर्षों पुरानी गुलामी इसी तरह के अर्थों पर आधारित है। इसी तरह की हमने बेवकूफिया कर ली हैं। जब पत्ता भी उसकी मर्जी के बिना नहीं हिलता तो गुलामी कैसे आ जायेगी? और जब उसकी ही मर्जी है, तो हम क्या कर सकते हैं? इसलिये अब गुलाम होना ही ठीक है। उसकी मर्जी से राजी होना ही ठीक है।

उसकी बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता तो बीमारी कैसे हो जायेगी? तो अब क्या कर सकते हैं? इसलिये बीमारी को अंगीकार कर लेना ठीक है। घसीटते रहो बीमारियों को। जीते रहो किसी तरह, सड़ते रहो, कुछ करो मत—क्या कर सकते हैं हम! जब उसकी इच्छा होगी।

‘यं एवैष वृमुते तेन लभ्यात्।’

आत्मा को भी हम तो पा नहीं सकते—शास्त्र में है नहीं, वचनों में है नहीं, ज्ञान में है नहीं, बुद्धि में है नहीं; अब क्या करें? अब तो प्रतीक्षा के सिवाय कोई रास्ता न रहा। अब तो उसकी जब कृपा होगी!

इसका तो यह भी मतलब हुआ कि किसी पर उसकी कृपा होती है और किसी पर उसकी कृपा नहीं होती। ज्यादातर तो कृपा होती ही नहीं; कभी किसी पर हो जाती है कृपा। मतलब यह हुआ कि परमात्मा की तरफ से भी बड़ा अन्याय चल रहा है। किसी बुद्ध पर हो गई कृपा, किसी महावीर पर हो गई कृपा, किसी याज्ञवल्ल पर हो गयी कृपा, किसी कबीर पर हो गई कृपा, ठीक! बाकी लोग क्या कर सकते हैं! वे राह देखेंगे, जब जन्मों—जन्मों में कभी उन पर भी कृपा होगी, कभी उन पर भी नजर पड़ेगी, तो ठीक। और नहीं पड़ी तो यूं ही घसिटना है। यूं ही मरना है, यूं ही गलना है।

नहीं, ऐसा इसका अर्थ नहीं है। ये भाग्यवादी अर्थ इस पर थोप दिया गया। मगर अज्ञानियों के हाथ में अमृत भी पड़ जाए तो जहर हो जाता है। इस सूत्र का बड़ा और अर्थ है यह तो जिसका वरण करता है ,. उसी को मिलता है। लेकिन किसका वरण करता है? परमात्मा की कृपा तो सभी पर बराबर बरसती है—बरसनी ही चाहिये। अगर परमात्मा भी भेदभाव करता हो कि किसी पर थोड़ा ज्यादा बरसे और किसी पर थोड़ा कम बरसे; ब्राह्मण पर थोड़ा ज्यादा और शूद्र पर थोड़ा कम; जनेऊ पहन लो तो थोड़ा ज्यादा और जनेऊ न पहनो तो थोड़ा कम; चुटैया बढ़ा लो तो थोड़ा ज्यादा और चुटैया कटा लो, थोड़ा कम, अगर ऐसी मूढ़ताएं ईश्वर को भी हों—उपवास कर लो, थोड़ा ज्यादा और पेट भरे होओ तो थोड़ा कम, सिर के बल खड़े हो जाओ तो थोडा ज्यादा और पैर पर चलो, आदमी की तरह, भले आदमी की तरह तो कम। यह क्या पागलपन हुआ कि मंदिरों में घंटियां बजाओ तो थोड़ा ज्यादा और घंटियां न बजाओ तो बस, नाराज हो गये! परमात्मा की कृपा तो सभी पर बराबर बरसती है। लेकिन कुछ पात्र हैं जो उलटे रखे हैं। वर्षा तो होती रहती है अमृत की लेकिन पात्र खाली के खाली रह जाते हैं।

वर्षा में कुछ भेद नहीं। तुम देखो रखकर, एक मटके को उलटा रख दो, वर्षा हो रही हो, धुआंधार वर्षा हो रही हो, मूसलाधार वर्षा हो रही हो और बर्तन को उलटा रख दो, कैसे भरेगा! वर्षा क्या करे! वर्षा की तरफ से कोई कंजूसी नहीं है, मगर पात्र तो सीधा होना चाहिये! फिर पात्र भी सीधा हो, लेकिन फूटा हो, तो भरता हुआ मालूम पडेगा लेकिन भर कभी पायेगा नहीं। इधर भरेगा उधर खाली हो जायेगा। फिर यूं समझो कि पात्र सीधा भी हो, छिद्रवाला भी न हो, लेकिन जमाने भर की गंदगी से भरा हो, तो वर्षा तो हो भी जाए, भर भी जाए, मगर वह जल पीने योग्य नहीं होगा। वह तुम्हारी तृषा को मिटा न सकेगा।

तो ये तीन बातें खयाल रखनी जरूरी हैं।

पहली बात, पात्र सीधा हो। पात्र सीधा हो, इसका अर्थ है : तुम्हारा हृदय अंगीकार करने को राजी हो। इसी को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा का अर्थ है : अंगीकार करने की तत्परता—स्वागत, अभिनन्दन, वंदनवार। जैसे कोई मेहमान आता है और तुम द्वार पर खड़े होकर पलक—पांवड़े बिछाए प्रतीक्षा करते हो, राह देखते हो। दरवाजा बन्द करके नहीं बैठते, दरवाजा खुला रखते हो कि कहीं मेहमान लौट न जाए। द्वार पर ही खड़े रहते हो कि आए तो स्वागत की आरती उतारनी है। श्रद्धा का इतना ही अर्थ है कि तुम आओगे तो मेरे द्वार बंद न पाओगे।

पात्र सीधा हो। संदेह से भरा हुआ व्यक्ति उलटा पात्र है—बंद! अंगीकार करने को राजी नहीं, इनकार करने को तत्पर।

फिर, छिद्र नहीं होने चाहिये। पात्र सीधा हो और छिद्र न हों। तुम्हारे जीवन में कितने छिद्र हैं! तुम्हारी ऊर्जा कितने छेदों से बही जा रही है! क्रोध से तुम कितनी ऊर्जा को बहाते हो! पाते क्या हो? पाते कुछ भी नहीं, गंवाते बहुत हो। कमाते क्या हो? क्रोध करके कभी किसी ने कुछ कमाया है? हजार तरह की वासनाएं तुम्हारे छिद्र हैं। कोई धन के पीछे दौड़ रहा है, कोई पद के पीछे दौड़ रहा है, सभी मृगमरीचिकाओं के पीछे दौड़ रहे हैं, लेकिन दौड़ने में ऊर्जा समाप्त होती है। दौड़ने में तुम्हारी शक्ति क्षीण होती है। और जिन चीजों के पीछे भाग रहे हो वहां कुछ पाने को नहीं; सिर्फ मौत मिलेगी। हर आदमी अपनी कब में गिर जाता है जाकर। कहीं से जाओ, किसी दिशा में भागों—पद चाहो कि यश चाहो कि धन चाहो—एक दिन पहुंच जाओगे कब्र में। और कहीं तो पहुंचने को नहीं है।

इसके पहले कि कब्र तुम्हें अपने में समा ले, इन छिद्रों को बन्द करो। यह आपाधापी छोड़ो। किसने धन को पाकर पाया है? बड़े से बड़े धनी से भी पूछो तो वह निर्धन है। भीतर अभी रो रहा है। बाहर तो अंबार लग गया धन का, लेकिन भीतर? भीतर तो सब खाली का खाली है। बाहर का धन भीतर के खालीपन को नहीं भर सकता। और बाहर का धन तो मौत छीन लेगी। तुम खाली हाथ आए और खाली हाथ जाओगे। आए थे तब कम से कम मुट्ठी बंधी थी, जाओगे तब मुट्ठी भी खुल जायेगी। बच्चे आते हैं तो मुट्ठी बंधी होती है, और के मरते हैं तो मुट्ठी भी खुल गयी होती है। और भद्द हो गई होती है! मुट्ठी कम से कम बंद होती है तो पता तो लगता है कि कुछ होगा भीतर। हो या न हो। बंधी मुट्ठी लाख कीं—समझदार लोग कहते हैं—खुली तो खाक की। बच्चा कम से कम आशाएं तो लेकर आता है, संभावनाएं लेकर आता है, इसलिये मुट्ठी बंद होती है। अभी जिन्दगी में हीरे बरस सकते हैं, इसलिये मुट्ठी बंद होती है। का तो सब गंवाकर जाता है, कुछ बरसा नहीं; कुछ हाथ न लगा, उसके हाथ खाली होते हैं; उसके हाथ उसके जीवन की कथा कहते हैं, उसके जीवन की व्यथा कहते हैं।. .छिद्र नहीं होने चाहिये। वासनाएं छिद्र हैं।

और फिर छिद्र भी न हों और भीतर अगर गंदगी भरी हो—घडा खाली होना चाहिये; घड़ा पहले ही से भरा हो, कूड़ा—करकट से भरा हो, तो भी फिर जलधार बरसती रहेगी मगर तुम खाली के खाली रह जाओगे। और तुम्हारे भीतर कितना कूडा—करकट भरा है! कभी सोचो तो, कभी विचारो तो, कभी एकान्त में बैठकर एक खाली कागज लेकर सिर्फ लिखते चले जाओ जो भी तुम्हारे मन में उठ रहा हो—जो भी! किसी को बताना तो है नहीं, दरवाजा बंद कर देना, ताला लगा देना, कि कोई झांक न ले; किसी को बताना नहीं है, इसलिये ईमानदारी बरतना; ईमान से लिख डालना, और फिर आग लगाकर जला देना ताकि किसी को पता भी न चले, मगर तुम्हें तो कम से कम साफ हो जायेगा; दस मिनट लिखने बैठोगे और तुम चकित हो जाओगे कि कौन सा कचरा तुम्हारी खोपडी में भरा हुआ है! क्या—क्या चल रहा है! और कहां— कहां से चला आ रहा है! संगत—असंगत, प्रासंगिक—अप्रासंगिक; एक कडी भजन की आती है, दूसरी कड़ी किसी फिल्मी गीत की आ जाती है; पडोस में कुत्ता भौंकता है, उसके भौंकने को सुनकर तुम्हें अपनी प्रेयसी की याद आ जाती है जिसके पास एक कुत्ता था। अब चले! और प्रेयसी की याद आती है तो पत्नी की याद आ जाती है, कि इसी दुष्ट ने तो सब गड़बड़ करवा दिया! अब लगे कोसने अपने को कि किस दुर्दिन में

मैंने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा कि स्त्रियां आपको नमस्कार करती हैं, आप जवाब क्यों नहीं देते? उन्होंने कहा, बीस साल पहले एक स्त्री को जवाब दिया था, उसका फल तो अभी तक भोग रहा हूं। अब नहीं! अब जवाब नहीं देता! एक दफा भूल कर ली, वही बहुत है! अब उसी से तो किसी तरह बच जाऊं तो काफी है! दिखती नहीं, कोई आशा नहीं! यह मेरी पत्नी मुझे मारकर ही मरेगी! स्त्रियां जीती भी पुरुषों से पांच साल ज्यादा हैं। उनकी औसत उम्र ज्यादा है—सारी दुनिया में। परमात्मा ने भी क्या इंतजाम किया है! कि तुम आशा ही करते रही, आशा ही करते रहो!

मुल्ला नसरुद्दीन रास्ते पर कोई भी ट्रक देखता, बस देखता, एकदम कांपने लगता। पसीना—पसीना हो जाता, चाहे सर्द सुबह ही क्यों न हो! मैंने उससे पूछा कि क्या बात है, कुछ दिन से तुम जब भी कोई बस निकलती है या ट्रक निकलता है, एकदम पसीने—पसीने हो जाते हो, तुम्हें घबराहट किस बात की होती है? तुम अपने रास्ते चल रहे हो, ट्रक बीच में जा रहा है—अलग, तुमसे इतने दूर, तुम्हें क्या घबराहट है! उसने कहा, घबराहट की बात यह है कि मेरी पत्नी एक ट्रक ड्राइवर के साथ भाग गई है, तो मुझे डर लगता है कहीं लौट न आ रही हो! बस, ट्रक देखता हूं कि बस, फिर मैं होश में नहीं रह जाता, हे प्रभु, कहीं फिर न आ जाए! आती ही होगी! जरा बैठो दस मिनट और तुम्हारे मन में क्या—क्या आएगा, उसे लिखते जाना। और जैसा आए वैसा ही लिखना, सुधारना मत! बनावट न लाना, पाखंड मत करना! नहीं तो बैठकर अच्छे—अच्छे सूत्र लिखने लगो—यदा यदा हि धर्मस्य…! क्योंकि लोग दूसरों को ही धोखा नहीं देते, अपने को भी धोखा देते हैं। अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान—ऐसे कुछ सूत्र मत लिखने लगना! जो सच्चा—सच्चा आए, वही लिखना। जैसा आए वैसा ही लिखना, भेद ही न करना। और तब तुम देखोगे कि भीतर कैसा कचरा भरा है! क्या—क्या उपद्रव भीतर चल रहा है!

इस कचरे से भरे हुए मन में तुम चाहते हो, परमात्मा प्रवेश कर जाए, उसका अमृत आ जाए! तुम किस आशा पर बैठे हो? इस सारे कचरे को बाहर फेंक देना जरूरी है। इसको बाहर फेंकने की प्रक्रिया, इसको उलीचने की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है। मगर ध्यान के नाम से लोग और कचरा भरते हैं। कोई नमोकार मंत्र पढ़ रहा है, कोई गायत्री मंत्र पढ रहा है—ध्यान के नाम से! कोई जय जगदीश हरे घोंटे चला जा रहा है! कोई हनुमान चालीसा ही दोहरा रहा है! इससे कुछ भी न होगा। कचरा वैसे ही काफी है, उसमें और कचरा बढ़ा रहे हो—धार्मिक कचरा सही! मगर कचरा कचरा है, धार्मिक हो कि अधार्मिक, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। खाली ‘करना है। ध्यान है : रिक्त होना। सब कचरा बाहर फेंक दो।

बाहर फैंकने की प्रक्रिया सुगम है, सरल है—साक्षीभाव। जो भी भीतर कचरा चल रहा है, उसको देखते रहो। मात्र देखते रहो। तादात्म्य तोड़ लो। मेरा है, यह भाव छोड़ दो। मैं तो द्रष्टा हूं और जो भी मेरे आमने—सामने आ—जा रहा है, वह सब दृश्य है.। मैं’ दृश्य नहीं हूं। बस, इस भाव में अपने को स्थिर करते जाओ और तुम धीरे— धीरे पाओगे, कचरा अपने से जा चुका। जिस दिन तुम बिलकुल ‘खाली हो जाओगे, उस दिन

‘यं एवैष वृमुते तेन लभ्यासु’

—उसी क्षण तुम वर लिये गये, वरण कर लिये गये। परमात्मा तुम्हारा आलिंगन कर लेगा। आत्मा का अनुभव तुम्हारे भीतर सुलग उठेगा।

‘तस्यैष आत्मा विवृवृते स्वाम्।।’

और तभी तुम जान सकोगे आत्मा के रहस्य; उद्घाटित होंगे वे सारे रहस्य। जान सकोगे आत्मा का स्वरूप।

यह सूत्र प्यारा है। विचारना ही मत, इसे जीने की कोशिश करना।

सहजानंद ऐसे प्यारे—प्यारे सूत्र बिखरे पड़े हैं! हीरे—जवाहरात इनके सामने कुछ भी नहीं! मगर गलत लोगों के हाथ में तो हीरे—जवाहरात भी पड़ जाएं तो क्या होगा। क्या करेंगे वे’? कैसे पहचानेंगे! वे तो इन सूत्रों पर भी अपनी धारणाएं थोप देते हैं। जो सूत्र उनके लिये मुक्तिदायी हो सकते थे, वे उनसे भी अपने लिये नयी जंजीरें खड़ी कर लेते हैं। ऐसी ही जंजीरों में तो हिन्दू बंधे हैं, मुसलमान बंधे हैं, ईसाई बंधे हैं, जैन बंधे हैं। अगर इनमें से किसी ने भी अपने ही सूत्रों को समझा होता, तो उसे दूसरों के सूत्र भी समझ में आ गये होते।

मैं तुम्हें अनुभव से अपने कह रहा हूं कि जिसने भी किसी एक धर्म की मूल आधारशिला को समझ लिया, उसने सारे धर्मों की मूल आधारशिला को समझ लिया। क्योंकि वह आधारशिला एक ही है, अलग हो ही नहीं सकती। इसलिये जो सच में हिन्दू है वह हिन्दू नहीं रह जायेगा। जो झूठा है, वही हिन्दू रहेगा। जो सच में मुसलमान है वह मुसलमान नहीं रह जायेगा। कैसे मुसलमान रहेगा? जो सच में जैन है, जैन नहीं रह जायेगा! जो झूठे हैं, थोथे हैं, पाखंडी हैं, वे ही जैन होंगे। जिसने सच में महावीर या बुद्ध या क्या को पी लिया, एक को तुमने क्या पिया—किस घाट से पिया, क्या फर्क पड़ता है—तुम्हें स्वाद मिल गया! और स्वाद तो सारे सागर का एक है। बुद्ध ने कहा हैं, तुम सागर को कहीं से भी चखो, उसका स्वाद एक है। किस घाट से चखते हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता है। कुछ घाटों के कारण सागर का स्वाद नहीं बदलता है।

धार्मिक आदमी तो सिर्फ धार्मिक होगा, न हिंन्दु होगा, न मुसलमान? न ईसाई, न बौद्ध, न सिक्‍ख, न पारसी। सिर्फ धार्मिक होगा और मैं उसी धार्मिक व्यक्ति की तलाश में हूं। उसी व्यक्ति को यहां आमंत्रित कर रहा हूं। इसलिये मुझसे हिन्दू नाराज होंगे, ईसाई नाराज होंगे, जैन नाराज होंगे, मुसलमान नाराज होंगे—स्वभावत:। उनकी नाराजगी मैं समझ सकता हूं। लेकिन जिनको सच में धर्म की प्यास है, वे आह्लादित होंगे। वे यहां आकर मस्त होंगे, सरोबोर होंगे। वे यहां आकर गीले हो उठेंगे, उनकी आंखें आनंद के आंसुओ से भर जायेंगी, उनके प्राणों में गीत उठेंगे, गंध उठेगी; उनका जीवन एक तीर्थ; काबा और कैलाश फीके पड़ जाएंगे उनके जीवन के सामने। वे जहां बैठेंगे वहां काबा है र जहां उठेंगे वहां कैलाश है। जहां चलेंगे वहां तीर्थ बन जाएंगे।

स्वभावत: बहुत अधिक लौग मेरे पास नहीं आ सकते क्यौंकि लोग तो पिटी—पिटायी धारणाओं में बँधे हुए हैं। और मैं तुम्हें सारी धारणाओं से मुक्त करना चाहता हूं—सारे शास्त्रों से।

‘दीपक बारा नाम का’ प्रवचनमाला सै

दिनांक 2 अस्तृबर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना

 



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तंत्र–सूत्र–(भाग–3)

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तंत्र—सूत्र—(भाग—3)

ओशो

भूमिका :

तंत्र अनुभूति का जगत है।

तंत्र कोई दर्शनशास्त्र नहीं है, कोई चिंतन—मनन की प्रक्रिया अथवा विचार—प्रणाली नहीं है।

तंत्र शुद्धतम रूप में अनुभूति है। इसका पहला चरण है अपनी अनुभूति—अपना मन, अपने भाव, अपनी इंद्रिया, अपना बोध—अपने समग्र होने की अनुभूति। इसका दूसरा चरण है : दूसरे की अनुभूति। इसका तीसरा और आखिरी चरण है : अखंड अस्तित्व की अनुभूति।

सभ्यता के विकास के क्रम में मनुष्य विचार की दुनिया में ऐसा भटक गया है कि अब वह केवल विचारों ही विचारों में जीता है, उसकी भाव की दुनिया, संवेदनशीलता और अनुभूति के जगत पर केवल विचारों के बादल छाए हैं। वह जो नहीं है अथवा नहीं होना चाहिए, वही वह हो गया है। वह झूठा हो गया है।

ओशो कहते हैं तंत्र ठीक विपरीत प्रक्रिया है। तंत्र तुम्हें झूठा होने से बचाता है। और अगर तुम झूठे हो गए हो तो तंत्र सिखाता है कि कैसे उस सत्य से फिर से संपर्क साधो जो तुम्हारे भीतर जा छिपा है, कि कैसे फिर से सच्चे हो जाओ।

मनुष्य की जीवन—ऊर्जा उसकी निरंतर विचार—प्रक्रिया के कारण उसके सिर में केंद्रित हो गयी है। इसलिए मनुष्य केवल सोचता है, लेकिन अनुभव नहीं करता, अथवा उसका सोचना उसे अनुभव करने के समान लगता है, क्योंकि उसका मन के साथ ऐसा तादात्म्य हो गया है।

तंत्र—सूत्र में ओशो समझाते हैं इस तादात्म्य के साथ कि मैं मन हूं सब कुछ झूठ हो जाता है। तुम झूठे हो जाते हो, क्योंकि यह तादात्म्य ही झूठा है। इस तादात्म्य को तोड़ना है। और तंत्र की विधियां उन्हें ही तोड्ने को बनी हैं। तंत्र तुम्हें सिर—विहीन, केंद्र—विहीन बनाने की चेष्टा करता है। उसकी चेष्टा है कि तुम या तो सर्वत्र होओ या कही न होओ। तंत्र कहता है : नीचे आओ, सिंहासन से उतरो। अपने सिरों से नीचे उतर आओ।

और सिर से नीचे उतरते ही एक चमत्कार घटित होता है. व्यक्ति की जीवन—ऊर्जा उसके रोएं—रोएं में, पोर—पोर में प्रवाहित होने लगती है। व्यक्ति जीवंत अनुभव करने लगता है। इसमें चमत्कार जैसा कुछ नहीं है, यह सहज ही होता है। लेकिन व्यक्ति चूंकि सिर में अटक गया है, और हमेशा वहीं अटका रहता है, इसलिए पहली बार ऊर्जा को, अपने अखंड होने को अनुभव करना चमत्कार ही प्रतीत होगा।

तंत्र के संबंध में बहुत सी भ्रांतिया प्रचलित रही हैं, उसे कभी ठीक से समझा नहीं गया और आज भी लोग तंत्र से सर्वथा अनभिग हैं। ओशो कहते हैं. तंत्र बहुत क्रांतिकारी धारणा है—सबसे पुरानी और सबसे नयी। तंत्र सबसे पुरानी परंपराओं में एक है और साथ ही वह गैर—परंपरावादी भी है, परंपरा—विरोधी भी है। क्योंकि तंत्र कहता है कि जब तक तुम अखंड, पूर्ण और एक नहीं हो, तुम पूरे जीवन से चूक रहे हो। तुम्हें विभाजित, खंडित अवस्था में नहीं रहना है; तुम्हें एक होना है।

मनुष्य अपने अज्ञान में अथवा अपने धर्मगुरुओं की भ्रामक शिक्षाओं के कारण अपने ही भीतर विभाजित हो गया है, वह अपने को ही पूरा का पूरा स्वीकार नहीं कर पाता। वह अपने भीतर अच्छे—बुरे, नैतिक—अनैतिक, शुभ— अशुभ के द्वंद्व में घिरा रहता है। यही योगदान है सब धर्मों का व्यक्ति के जीवन में। तंत्र इन सब धर्मों के प्रति विद्रोह है। ओशो कहते हैं. तंत्र जीवन का गहन स्वीकार है, समग्र स्वीकार है। तंत्र अपने ढंग की सर्वथा अनूठी साधना है, अकेली साधना है। सभी देश और काल में तंत्र का यह अनूठापन अक्षुण्ण रहा है।

तंत्र व्यक्ति के आंतरिक जगत में प्रसुप्त एवं उपेक्षित चैतन्य—संपदा से संबंधित होने की, उसमें स्थापित एवं प्रतिष्ठित होने की विधिवत प्रणाली है। दुर्भाग्य से, तंत्र की यह अनूठी संपदा, केवल कुछ गिने—चुने साधकों को छोड़ कर, शेष सबके लिए आज तक अनुपलब्ध रही अथवा अनेक तरह के आवरणों और भ्रांतियों में ढंकी रही। आज पुन: एक विशाल पैमाने पर ओशो ने आधुनिक मनुष्यता के लिए इस संपदा को उदघाटित कर सर्वसुलभ बनाया है। तंत्र की इन अनूठी ध्यान—विधियों के प्रयोग के बिना यह दुनिया अनावश्यक रूप से दरिद्र बनी रही है। आज ओशो ने पुन: हमारी आध्यात्मिक समृद्धि के समस्त द्वार खोल दिये हैं। इस महत कार्य के लिए यह पूरा युग ओशो के प्रति अनुगृहीत होगा।

आओ, तो अनुभूति के इस अनुपम जगत में प्रवेश करें।

स्‍वामी चैतन्‍य कीर्ति


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3) प्रवचन–33

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संभोग से ब्रह्मचर्य की यात्रा—(प्रवचन—तैतीसवां)

सूत्र—

48—काम—आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक

      अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए

अंत में उसके अंगारे से बचो।

49—ऐसे काम—आलिंगन में जब तुम्‍हारी इंद्रियां पत्‍तों

      की भांति कांपने लगें, उस कंपन में प्रवेश करो।

50—काम आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्‍मरण

      करके भी रूपांतरण होगा।

51—बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो

      हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन हो जाओ।

52—भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी

      का स्‍वाद ही बन जाओ,और उसमें भर जाओ।

 

सिग्‍मंड फ्रायड ने कहीं कहा है कि मनुष्य मन के तल पर रुग्ण, बीमार जन्म लेता है। यह आधा ही सत्य है। मनुष्य रुग्ण नहीं पैदा होता, वह एक रुग्ण मनुष्यता में पैदा होता है। उसके चारों ओर का समाज देर—अबेर प्रत्येक मनुष्य को रुग्ण बना देता है। मनुष्य जन्म से सहज, सामान्य और प्रामाणिक होता है। लेकिन ज्यों ही वह नवजात शिशु समाज का अंग बनता है, उसकी रुग्णता आरंभ हो जाती है।

हम जैसे हैं, गा हैं। यह रुग्णता विभाजन से पैदा होती है—गहन विभाजन से। तुम एक नहीं हो, तुम दो हो, या अनेक भी हो। यह बात गहराई से समझने जैसी है, तभी हम तंत्र में गति कर सकते हैं। तुम्हारे भाव का केंद्र और विचार का केंद्र टूट गए हैं, दो भिन्न चीजें हो गए हैं। यही बुनियादी रोग है। तुम्हारे भाव का जीवन और विचार का जीवन अलग—अलग हो गए हैं। और तुमने अपने विचार के साथ तादात्म्य कर लिया है, भाव से तुम टूट गए हो।

और भाव विचार से ज्यादा असली है, ज्यादा यथार्थ है। भाव विचार से ज्यादा स्वाभाविक है। तुम अपने साथ भावपूर्ण हृदय लेकर आए थे। और विचार तो सिखाया गया है, संस्कारजन्य है। विचार तुम्हें समाज से मिला है। लेकिन तुम्हारा भाव दमन का शिकार हो गया है। तुम जब कहते हो कि यह मेरा भाव है तो दरअसल तुम विचार कर रहे हो कि यह मेरा भाव है। भाव मर गया है। और ऐसा कई कारणों से हुआ है।

जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो वह एक भाव—प्रवण प्राणी है, वह चीजों को महसूस करता है। वह अभी विचार करने वाला प्राणी नहीं हुआ है। वह सहज और स्वाभाविक है, वैसे ही जैसे प्रकृति की हर चीज, चाहे पेड़ हो या पशु, सहज और स्वाभाविक होती है। लेकिन हम उसे ढांचे में ढालने लगते हैं, संस्कारित करने लगते हैं। उसे अपने भावों को दबाना पड़ता है, क्योंकि भावों को दबाए बिना वह सदा कठिनाई में होगा। जब वह रोना चाहता है तो वह नहीं रो सकता, क्योंकि उसके मां—बाप को रोना पसंद नहीं है। रोने पर उसकी निंदा होगी, उसे प्रशंसा और प्रेम नहीं मिलेंगे। बच्चा जैसा है वैसा स्वीकृत नहीं है, उसे व्यवहार सीखना होगा।

उसे एक विशेष आदर्श जैसा और विशेष ढंग का व्यवहार सीखना होगा तो ही उसे प्रेम मिलेगा। जैसा वह है वैसा ही रहने पर उसे प्रेम नहीं मिल सकता। प्रेम पाने के लिए उसे कुछ नियमों का पालन करना होगा।

और वे नियम ऊपर से लादे जाते हैं, वे सहज—स्वाभाविक नहीं हैं। फलत: तुम्हारा सहज—स्वाभाविक जीवन दमित हो जाता है और अस्वाभाविक—अयथार्थ जीवन ऊपर से ओढ़ लिया जाता है। यही अयथार्थ, यही नकली तुम्हारा मन है। और एक क्षण आता है कि यह विभाजन, यह बंटाव इतना बड़ा हो जाता है कि उसे जोड्ने का कोई उपाय नहीं रह जाता, तुम बिलकुल भूल जाते हो कि तुम्हारा सच्चा स्वभाव क्या था—या है। तुम जो झूठा चेहरा ओढ़ लेते हो वही हो जाते हो और मौलिक चेहरा खो जाता है। और तुम मौलिक को महसूस करने से भी डरते हो, क्योंकि जिस क्षण तुम उसे महसूस करोगे, पूरा समाज तुम्हारे विरोध में हो जाएगा। इसलिए तुम खुद भी अपने सच्चे स्वभाव के विरोध में हो जाते हो।

और इससे चित्त की बहुत रुग्ण अवस्था पैदा होती है। तब तुम्हें पता नहीं रहता कि तुम क्या चाहते हो, तब तुम्हें मालूम नहीं रहता कि तुम्हारी असली, प्रामाणिक जरूरत क्या है। और तब तुम अप्रामाणिक जरूरतो के पीछे भागते हो। क्योंकि भावुक हृदय ही तुम्हें तुम्हारी प्रामाणिक जरूरतो का दिशा—बोध दे सकता है। जब प्रामाणिक जरूरतें दबा दी जाती हैं तो तुम उनकी जगह झूठी जरूरतें पैदा कर लेते हो। उदाहरण के लिए, तुम ज्यादा भोजन लेना शुरू कर दे सकते हो, तुम खाते चले जा सकते हो और तुम्हें कभी नहीं लगेगा कि तृप्ति हुई। यह दरअसल प्रेम की जरूरत है, भोजन की जरूरत यह नहीं है। लेकिन भोजन और प्रेम आपस में गहन रूप से जुड़े हैं। इसलिए जब प्रेम की मांग पूरी नहीं होती है या दमित हो जाती है तो उसकी जगह भोजन की झूठी जरूरत पैदा हो जाती है और तुम ज्यादा खाने लगते हो। और क्योंकि जरूरत झूठी है, इसलिए वह कभी पूरी नहीं हो सकती।

और हम झूठी जरूरतो के साथ जीते हैं। यही कारण है कि कभी तृप्ति नहीं मिलती है। तुम प्रेम पाना चाहते हो। वह बुनियादी जरूरत है, वह स्वाभाविक जरूरत है। लेकिन इस जरूरत को गलत आयाम में गतिमान किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, प्रेम की इस जरूरत को झूठा रूप मिल जाएगा, अगर तुम लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगे। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर ध्यान दें तो तुम राजनेता बन जा सकते हो। तब बड़ी भीड़ तुम पर ध्यान देने लगेगी। लेकिन तुम्हारी असली, बुनियादी जरूरत प्रेम पाने की है। इसलिए अगर सारा संसार भी तुम्हें ध्यान देने लगे तो भी यह बुनियादी जरूरत तृप्त नहीं होगी। वह जरूरत तो एक व्यक्ति भी पूरी कर सकता है, यदि वह तुम्हें सचमुच प्रेम करे, यदि वह प्रेम के कारण तुम पर ध्यान दे।

जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम उस पर ध्यान देते हो। प्रेम और ध्यान में गहरा तालमेल है। लेकिन अगर तुम प्रेम की मांग को दमित कर देते हो तो वह एक झूठी मांग का रूप ले लेती है। तब तुम दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगते हो। वह तुम्हें मिल भी जाए तो भी तृप्ति नहीं होगी, क्योंकि मांग झूठी है, स्वाभाविक और बुनियादी मांग के साथ उसका तालमेल नहीं रहा। व्यक्तित्व का यह विभाजन ही रोग है।

तंत्र बहुत क्रांतिकारी धारणा है—सबसे पुरानी और सबसे नयी। तंत्र सबसे पुरानी परंपराओं में एक है और साथ ही वह गैर—परंपरावादी भी है, परंपरा—विरोधी भी है। क्योंकि तंत्र कहता है कि जब तक तुम अखंड, पूर्ण और एक नहीं हो, तुम पूरे जीवन से चूक रहे हो। तुम्हें विभाजित, खंडित अवस्था में नहीं रहना है, तुम्हें अखंड होना है।

इस अखंड होने के लिए क्या करना है? तुम सोच—विचार कर सकते हो, लेकिन उससे कुछ नहीं होगा। सोच—विचार तो विभाजन की विधि है। विचार विश्लेषण है, वह बांटता है, तोड़ता है। भाव जोड़ता है, संश्लिष्ट करता है, भाव चीजों को एक करता है। तुम चिंतन, अध्ययन, मनन करते रह सकते हो, लेकिन उससे कुछ नहीं होगा। जब तक भाव के केंद्र पर नहीं लौटते, कुछ होने वाला नहीं है।

लेकिन वह बहुत कठिन काम है। क्योंकि जब हम भाव के केंद्र के बारे में विचार करते हैं तो भी बस विचार ही करते हैं। जब तुम किसी को कहते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं तो ध्यान रहे, यह तुम्हारा विचार है या भाव है?

अगर वह विचार ही है तो तुम कुछ चूक रहे हो। भाव अखंड होता है, उसमें तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन, तुम्हारा सब कुछ संलग्न रहता है। विचार में सिर्फ तुम्हारी बुद्धि संलग्न होती है, वह भी समग्रता से नहीं, बस आशिक रूप से। वह एक भागता हुआ विचार हो सकता है, अगले क्षण वह विलीन हो सकता है। तुम्हारा एक खंड ही इसमें भाग लेता है और उसी से जीवन में बहुत दुख पैदा होता है। क्योंकि आशिक विचार से तुम ऐसे वादे करते हो जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता। तुम किसी को कह सकते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और मैं तुम्हें सदा प्रेम करूंगा। यद्यपि वादे का यह जो दूसरा हिस्सा है वह कभी पूरा नहीं होगा, क्योंकि आशिक विचार ने यह वादा किया है। इसमें तुम्हारा समूचा अस्तित्व संलग्न नहीं हुआ है। और कल तुम क्या करोगे—जब यह खंड विदा हो जाएगा और उसके साथ विचार भी? अब यह वादा बंधन बन जाने वाला है।

सार्त्र ने कहीं कहा है कि हरेक वादा झूठा होने को बाध्य है। तुम पूरे नहीं हो, इसलिए तुम्हारे वादे की कीमत नहीं है। एक खंड वादा करता है। लेकिन जब वह खंड सिंहासन से उतर जाएगा और दूसरा उसकी जगह लेगा तो तुम क्या करोगे? तब कौन वादा पूरा करेगा? उससे ही पाखंड का जन्म होता है। क्योंकि जब तुम वादा पूरा करने का प्रयत्न करते हो, जब तुम उसे पूरा करने का ढोंग करते हो, तब सब कुछ झूठा हो जाता है।

तंत्र कहता है अपने भीतर भाव के केंद्र पर उतर आओ। यह उतरना कैसे हो? इसके लिए क्या किया जाए? अब मैं सूत्रों में प्रवेश करता हूं। ये सूत्र, इनमें से प्रत्येक सूत्र तुम्हें अखंड बनाने का प्रयत्न है।

पहला सूत्र:

काम— आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।

ई कारणों से काम—कृत्य गहन परितृप्ति बन सकता है और वह तुम्हें तुम्हारी अखंडता पर, स्वाभाविक और प्रामाणिक जीवन पर वापस पहुंचा सकता है। उन कारणों को समझना होगा।

एक कारण यह है कि काम—कृत्य समग्र कृत्य है। इसमें तुम अपने मन से बिलकुल अलग हो जाते हो, छूट जाते हो। यह कारण है कि कामवासना से डर लगता है। तुम्‍हारा तादात्म्य मन के साथ है और काम अ—मन का कृत्य है। उस कृत्य में उतरते ही तुम बुद्धि—विहीन हो जाते हो, उसमें बुद्धि काम नहीं करती। उसमें तर्क की जगह नहीं है, कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। और अगर मानसिक प्रक्रिया चलती है तो काम—कृत्य सच्चा और प्रामाणिक नहीं हो सकता। तब आर्गाज्य संभव नहीं है, गहन परितृप्ति संभव नहीं है। तब काम—कृत्य उथला—उथला हो जाता है, मानसिक कृत्य हो जाता है। ऐसा ही हो गया है।

सारी दुनिया में कामवासना की इतनी दौड़ है, काम की इतनी खोज है, उसका कारण यह नहीं है कि दुनिया ज्यादा कामुक हो गई है। उसका कारण इतना ही है कि तुम काम—कृत्य को उसकी समग्रता में नहीं भोग पाते हो। इसीलिए कामवासना की इतनी दौड़ है। यह दौड़ बताती है कि सच्चा काम खो गया है और उसकी जगह नकली काम हावी है। सारा आधुनिक चित्त कामुक हो गया है, क्योंकि काम—कृत्य ही खो गया है। काम—कृत्य भी मानसिक कृत्य बन गया है। काम मन में चलता रहता है और तुम उसके संबंध में सोचते रहते हो।

मेरे पास अनेक लोग आते हैं और कहते हैं कि हम काम के संबंध में सोच—विचार करते हैं, पढ़ते हैं, चित्र देखते हैं, अश्लील चित्र देखते हैं। वही उनका कामानद है, सेक्स का शिखर अनुभव है। लेकिन जब काम का असली क्षण आता है तो उन्हें अचानक पता चलता है कि उसमें उनकी रुचि नहीं है। यहं। तक कि वे उसमें अपने को नपुंसक अनुभव करते हैं। सोच—विचार के क्षण में ही उन्हें काम—ऊर्जा का अहसास होता है, लेकिन जब वे कृत्य में उतरना चाहते हैं तो उन्हें पता चलता है कि उसके लिए उनके पास ऊर्जा ही नहीं है। तब उन्हें कामवासना का भी पता नहीं चलता, उन्हें लगता है कि उनका शरीर मुर्दा हो गया है।

उन्हें क्या हो रहा है? यही हो रहा है कि उनका काम—कृत्य भी मानसिक हो गया है। वे इसके बारे में सिर्फ सोच सकते हैं, वे कुछ कर नहीं सकते। क्योंकि कृत्य में तो पूरे का पूरा जाना पड़ता है। और जब भी पूरे होकर कृत्य में संलग्न होने की बात उठती है, मन बेचैन हो जाता है। क्योंकि तब मन मालिक नहीं रह सकता, तब मन नियंत्रण नहीं कर सकता।

तंत्र काम—कृत्य को, संभोग को तुम्हें अखंड बनाने के लिए उपयोग में लाता है। लेकिन तब तुम्हें इसमें बहुत ध्यानपूर्वक उतरना होगा। तब तुम्हें काम के संबंध में वह सब भूल जाना होगा जो तुमने सुना है, पढ़ा है; जो समाज ने, संगठित धर्मों ने, धर्मगुरुओं ने तुम्हें सिखाया है। सब कुछ भूल जाओ और समग्रता से इसमें उतरो। भूल जाओ कि नियंत्रण करना है। नियंत्रण ही बाधा है। उचित है कि तुम उस पर नियंत्रण करने की बजाय अपने को उसके हाथों में छोड़ दो, तुम ही उसके बस में हो रहो। संभोग में पागल की तरह जाओ। अ—मन की अवस्था पागलपन जैसी मालूम पड़ती है। शरीर ही बन जाओ, पशु ही बन जाओ। क्योंकि पशु पूर्ण है।

जैसा आधुनिक मनुष्य है, उसे पूर्ण बनाने की सबसे सरल संभावना केवल काम में है, सेक्स में है। क्योंकि काम तुम्हारे भीतर गहनतम जैविक केंद्र है। तुम उससे ही उत्पन्न हुए हो। तुम्हारी प्रत्येक कोशिका काम—कोशिका है। तुम्हारा समस्त शरीर काम—ऊर्जा की घटना।

यह पहला सूत्र कहता है: ‘काम— आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।’

इसी में सारा फर्क, सारा भेद निहित है। तुम्हारे लिए काम—कृत्य, संभोग महज राहत का, अपने को तनाव—मुक्त करने का उपाय है। इसलिए जब तुम संभोग में उतरते हो तो तुम्हें बहुत जल्दी रहती है, तुम किसी तरह छुटकारा चाहते हो। छुटकारा यह कि जो ऊर्जा का अतिरेक तुम्हें पीड़ित किए है वह निकल जाए और तुम चैन अनुभव करो। लेकिन यह चैन एक तरह की दुर्बलता है। ऊर्जा की अधिकता तनाव पैदा करती है, उत्तेजना पैदा करती है और तुम्हें लगता है कि उसे फेंकना जरूरी है। जब वह ऊर्जा बह जाती है तो तुम कमजोरी अनुभव करते हो और तुम उसी कमजोरी को विश्राम मान लेते हो। क्योंकि ऊर्जा की बाढ़ समाप्त हो गई, उत्तेजना जाती रही, इसीलिए तुम्हें विश्राम मालूम पड़ता है।

लेकिन यह विश्राम नकारात्मक विश्राम है। अगर सिर्फ ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम विश्राम प्राप्त करते हो तो यह विश्राम बहुत महंगा है। और तो भी वह सिर्फ शारीरिक विश्राम होगा। वह गहरा नहीं होगा, वह आध्यात्मिक नहीं होगा।

यह पहला सूत्र कहता है कि जल्दबाजी मत करो और अंत के लिए उतावले मत बनो, आरंभ में बने रहो। काम—कृत्य के दो भाग हैं. आरंभ और अंत। तुम आरंभ के साथ रहो। आरंभ का भाग ज्यादा विश्रामपूर्ण है, ज्यादा उष्ण है। लेकिन अंत पर पहुंचने की जल्दी मत करो। अंत को बिलकुल भूल जाओ।

‘काम—आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो।’

जब तुम ऊर्जा से भरे हो तो उससे छुटकारे की मत सोचो, इस ऊर्जा की बाढ़ के साथ रहो। वीर्य—सख्‍लन की फिक्र मत करो, उसे पूरी तरह भूल जाओ। इस प्रेमपूर्ण आरंभ में पूरी तरह उपस्थित होकर स्थिर रहो। अपनी प्रेमिका या प्रेमी के साथ ऐसे हो रहो मानो दोनों एक हो गए हों। एक वर्तुल बना लो।

तीन संभावनाएं हैं। दो प्रेमी प्रेम में तीन आकार, ज्यामितिक आकार निर्मित कर सकते हैं। शायद तुमने इसके बारे में पढ़ा भी होगा, या कोई पुरानी कीमिया की तस्वीर भी देखी हो, जिसमें एक स्त्री और एक पुरुष तीन ज्यामितिक आकारों में नग्न खड़े हैं। एक आकार चतुर्भुज है, दूसरा त्रिभुज है और तीसरा वर्तुल है। यह एल्केमी और तंत्र की भाषा में काम—क्रोध का बहुत पुराना विश्लेषण है।

आमतौर से जब तुम संभोग में होते हो तो वहां दो नहीं, चार व्यक्ति होते हैं। वही है चतुर्भुज। उसमें चार कोने हैं, क्योंकि तुम दो हिस्सों में बंटे हो। तुम्हारा एक हिस्सा विचार करने वाला है और दूसरा हिस्सा भावुक हिस्सा है। वैसे ही तुम्हारा साथी भी दो हिस्सों में बंटा है। तुम चार व्यक्ति हो। दो नहीं, चार व्यक्ति प्रेम कर रहे हैं। यह एक भीड़ है और इसमें वस्तुत: प्रगाढ मिलन की संभावना नहीं है। इस मिलन के चार कोने हैं और मिलन झूठा है। वह मिलन जैसा मालूम पड़ता है, लेकिन मिलन है नहीं। इसमें प्रगाढ़ मिलन की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि तुम्हारा गहन भाग दबा पड़ा है, तुम्हारे साथी का गहन भाग दबा पड़ा है। केवल दो सिर, दो विचार की प्रक्रियाएं मिल रही हैं, भाव की प्रक्रियाएं अनुपस्थित हैं। वे दबी—छिपी हैं।

दूसरी कोटि का मिलन त्रिभुज जैसा होगा। तुम दो हो, आधार के दो कोने और किसी

क्षण अचानक तुम दोनों एक हो जाते हो—त्रिभुज के तीसरे कोने की तरह। किसी आकस्मिक क्षण में तुम्‍हारी दुई मिट जाती है और तुम एक हो जाते हो। यह मिलन चतुर्भुजी मिलन से बेहतर है, क्योंकि कम से कम एक क्षण के लिए ही सही, एकता सध जाती है। वह एकता तुम्हें स्वास्थ्य देती है, शक्ति देती है। तुम फिर युवा और जीवंत अनुभव करते हो।

लेकिन तीसरा मिलन सर्वश्रेष्ठ है। और यह तांत्रिक मिलन है। इसमें तुम एक वर्तुल हो जाते हो, इसमें कोने नहीं रहते। और यह मिलन क्षणभर के लिए नहीं है, वस्तुत: यह मिलन समयातीत है। उसमें समय नहीं रहता। और यह मिलन तभी संभव है जब तुम स्खलन नहीं खोजते हो। अगर स्खलन खोजते हो तो फिर यह त्रिभुजी मिलन हो जाएगा। क्योंकि सख्‍लन होते ही संपर्क का बिंदु, मिलन का बिंदु खो जाता है।

आरंभ के साथ रहो, अंत की फिक्र मत करो। इस आरंभ में कैसे रहा जाए? इस संबंध में बहुत सी बातें खयाल में लेने जैसी हैं। पहली बात कि काम—कृत्य को कहीं जाने का, पहुंचने का माध्यम मत बनाओ। संभोग को साधन की तरह मत लो, वह अपने आप में साध्य है। उसका कहीं लक्ष्य नहीं है, वह साधन नहीं है। और दूसरी बात कि भविष्य की चिंता मत लो, वर्तमान में रहो। अगर तुम संभोग के आरंभिक भाग में वर्तमान में नहीं रह सकते, तब तुम कभी वर्तमान में नहीं रह सकते, क्योंकि काम—कृत्य की प्रकृति ही ऐसी है कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।

तो वर्तमान में रही। दो शरीरों के मिलन का सुख लो, दो आत्माओं के मिलन का आनंद लो। और एक—दूसरे में खो जाओ, एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम्हें कहीं जाना है। वर्तमान क्षण में जीओ, जहां से कहीं जाना नहीं है। और एक—दूसरे में मिलकर एक हो जाओ। उष्णता और प्रेम वह स्थिति बनाते हैं जिसमें दो व्यक्ति एक—दूसरे में पिघलकर खो जाते हैं। यही कारण है कि यदि प्रेम न हो तो संभोग जल्दबाजी का काम हो जाता है। तब तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो, दूसरे में डूब नहीं रहे हो। प्रेम के साथ तुम दूसरे में डूब सकते हो।

आरंभ का यह एक—दूसरे में डूब जाना अनेक अंतर्दृष्टियां प्रदान करता है। अगर तुम संभोग को समाप्त करने की जल्दी नहीं करते हो तो काम—कृत्य धीरे— धीरे कामुक कम और आध्यात्मिक ज्यादा हो जाता है। जननेंद्रिया भी एक—दूसरे में विलीन हो जाती हैं। तब दो शरीर—ऊर्जाओं के बीच एक गहन मौन मिलन घटित होता है। और तब तुम घंटों साथ रह सकते हो। यह सहवास समय के साथ—साथ गहराता जाता है। लेकिन सोच—विचार मत करो, वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से— विलीन होकर रहो। वही समाधि बन जाती है। और अगर तुम इसे जान सके, इसे अनुभव कर सके, इसे उपलब्ध कर सके तो तुम्हारा कामुक चित्त अकामुक हो जाएगा। एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है। काम से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है!

यह वक्तव्य विरोधाभासी मालूम पड़ता है कि काम से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि हम सदा से सोचते आए हैं कि अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है तो उसे विपरीत यौन के सदस्य को नहीं देखना चाहिए उससे नहीं मिलना चाहिए। उससे सर्वथा बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। लेकिन उस हालत में एक गलत किस्म का ब्रह्मचर्य घटित होता है। तब चित्त विपरीत यौन के संबंध में सोचने में संलग्न हो जाता है। जितना ही तुम दूसरे से बचोगे उतना ही ज्यादा उसके संबंध में सोचने को विवश हो जाओगे। क्योंकि काम मनुष्‍य की बुनियादी आवश्यकता है, गहरी आवश्यकता है।

तंत्र कहता है कि बचने की, भागने की चेष्टा मत करो, बचना संभव ही नहीं है। अच्छा है कि प्रकृति को ही उसके अतिक्रमण का साधन बना लो। लड़ो मत, प्रकृति के अतिक्रमण के लिए प्रकृति को स्‍वीकार करो।

अगर तुम्हारी प्रेमिका या तुम्हारे प्रेमी के साथ इस मिलन को अंत की फिक्र किए बिना लंबाया जा सके तो तुम आरंभ में ही बने रह सकते हो। उत्तेजना ऊर्जा है और शिखर पर जाकर तुम उसे खो सकते हो। ऊर्जा के खोने से गिरावट आती है, कमजोरी पैदा होती है। तुम उसे विश्राम समझ सकते हो, लेकिन वह ऊर्जा का अभाव है।

तंत्र तुम्हें उच्चतर विश्राम का आयाम प्रदान करता है। प्रेमी और प्रेमिका एक—दूसरे में विलीन होकर एक—दूसरे को शक्ति प्रदान करते हैं। तब वे एक वर्तुल बन जाते हैं और उनकी ऊर्जा वर्तुल में घूमने लगती है। वे दोनों एक—दूसरे को जीवन—ऊर्जा दे रहे हैं, नवजीवन दे रहे हैं। इसमें ऊर्जा का हास नहीं होता है, वरन उसकी वृद्धि होती है। क्योंकि विपरीत यौन के साथ संपर्क के द्वारा तुम्हारा प्रत्येक कोश ऊर्जा से भर जाता है, उसे चुनौती मिलती है।

और अगर तुम उस ऊर्जा के प्रवाह में, उसे शिखर तक पहुंचाए बिना, विलीन हो सके; अगर तुम काम—आलिंगन के आरंभ के साथ, उत्तप्त हुए बिना सिर्फ उसकी उष्णता के साथ रह सके तो वे दोनों उष्णताएं मिल जाएंगी और तुम काम—कृत्य को बहुत लंबे समय तक जारी रख सकते हो।

यदि सख्‍लन न हो, यदि ऊर्जा को फेंका न जाए तो संभोग ध्यान बन जाता है और तुम पूर्ण हो जाते हो। इसके द्वारा तुम्हारा विभाजित व्यक्तित्व अविभाजित हो जाता है, अखंड हो जाता है। चित्त की सब रुग्णता इस विभाजन से पैदा होती है। और जब तुम जुड़ते हो, अखंड होते हो तो तुम फिर बच्चे हो जाते हो, निर्दोष हो जाते हो।

और एक बार अगर तुम इस निर्दोषिता को उपलब्ध हो गए तो फिर तुम अपने समाज में उसकी जरूरत के अनुसार जैसा चाहो वैसा व्यवहार कर सकते हो। लेकिन तब तुम्हारा यह व्यवहार महज अभिनय होगा, तुम उससे ग्रस्त नहीं होगे। तब यह एक जरूरत है जिसे तुम पूरा कर रहे हो। तब तुम उसमें नहीं हो, तुम मात्र अभिनय कर रहे हो। तुम्हें झूठा चेहरा लगाना होगा, क्योंकि तुम एक झूठे संसार में रहते हो। अन्यथा संसार तुम्हें कुचल देगा, मार डालेगा।

हमने अनेक सच्चे चेहरों को मारा है। हमने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, क्योंकि वे सच्चे मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगे थे। झूठा समाज इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता है। हमने सुकरात को जहर दे दिया, क्योंकि वे भी सच्चे मनुष्य की तरह पेश आने लगे थे। समाज जैसा चाहे वैसा करो, अपने लिए और दूसरों के लिए व्यर्थ की झंझट मत पैदा करो। लेकिन जब तुमने अपने सच्चे स्वरूप को जान लिया, उसकी अखंडता को पहचान लिया तो यह झूठा समाज तुम्हें फिर रुग्ण नहीं कर सकता, विक्षिप्त नहीं कर सकता।

‘काम— आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।’

अगर स्खलन होता है तो ऊर्जा नष्ट होती है और तब अग्नि नहीं बचती। तुम कुछ प्राप्त किए बिना ऊर्जा खो देते हो।

दूसरा सूत्र:

ऐसे काम— आलिंगन में जब तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की भांति कांपने लगे उस कंपन में प्रवेश करो।

ब प्रेमिका या प्रेमी के साथ ऐसे आलिंगन में, ऐसे प्रगाढ़ मिलन में तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की तरह कांपने लगें, उस कंपन में प्रवेश कर जाओ।

तुम भयभीत हो गए हो, संभोग में भी तुम अपने शरीर को अधिक हलचल नहीं करने देते हो। क्योंकि अगर शरीर को भरपूर गति करने दिया जाए तो पूरा शरीर इसमें संलग्न हो जाता है तुम उसे तभी नियंत्रण में रख सकते हो जब वह काम—केंद्र तक ही सीमित रहता है। तब उस पर मन का नियंत्रण रह सकता है। लेकिन जब वह पूरे शरीर में फैल जाता है तब तुम उसे नियंत्रण में नहीं रख सकते। तुम कांपने लगोगे, चीखने—चिल्लाने लगोगे। और जब शरीर मालिक हो जाता है तो फिर तुम्हारा नियंत्रण नहीं रहता।

हम शारीरिक गति का दमन करते हैं। विशेषकर हम स्त्रियों को दुनियाभर में शारीरिक हलन—चलन करने से रोकते हैं। वे संभोग में लाश की तरह पड़ी रहती हैं। तुम उनके साथ जरूर कुछ कर रहे हो, लेकिन वे तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं करतीं, वे निष्‍क्रिय सहभागी बनी रहती हैं। ऐसा क्यों होता है? क्यों सारी दुनिया में पुरुष स्त्रियों को इस तरह दबाते हैं?

कारण भय है। क्योंकि एक बार अगर स्त्री का शरीर पूरी तरह कामाविष्ट हो जाए तो पुरुष के लिए उसे संतुष्ट करना बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि स्त्री एक श्रृंखला में, एक के बाद एक अनेक बार आर्गाज्म के शिखर को उपलब्ध हो सकती है, पुरुष वैसा नहीं हो सकता। पुरुष एक बार ही आर्गाज्म के शिखर—अनुभव को छू सकता है, स्त्री अनेक बार छू सकती है। स्त्रियों के ऐसे अनुभव के अनेक विवरण मिले हैं। कोई भी स्त्री एक श्रृंखला में तीन—तीन बार शिखर—अनुभव को प्राप्त हो सकती है, लेकिन पुरुष एक बार ही हो सकता है। सच तो यह है कि पुरुष के शिखर—अनुभव से स्त्री और—और शिखर—अनुभव के लिए उत्तेजित होती है, तैयार होती है। तब बात कठिन हो जाती है। फिर क्या किया जाए?

स्त्री को तुरंत दूसरे पुरुष की जरूरत पड़ जाती है। और सामूहिक कामाचार निषिद्ध है। सारी दुनिया में हमने एक विवाह वाले समाज बना रखे हैं। हमें लगता है कि स्त्री का दमन करना बेहतर है। फलत: अस्सी से नब्बे प्रतिशत स्त्रियां शिखर—अनुभव से वंचित रह जाती हैं। वे बच्चों को जन्म दे सकती हैं, यह और बात है। वे पुरुषों को तृप्त कर सकती हैं, यह भी और बात है। लेकिन वे स्वयं कभी तृप्त नहीं हो पातीं। अगर सारी दुनिया की स्त्रियां इतनी कड़वाहट से भरी हैं, दुखी हैं, चिड़चिड़ी हैं, हताश अनुभव करती हैं तो यह स्वाभाविक है। उनकी बुनियादी जरूरत पूरी नहीं होती।

कापना अदभुत है। क्योंकि जब संभोग करते हुए तुम कापते हो तो तुम्हारी ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होने लगती है, सारे शरीर में तरंगायित होने लगती है। तब तुम्हारे शरीर का अणु— अणु संभोग में संलग्न हो जाता है। प्रत्येक अणु जीवंत हो उठता है, क्योंकि तुम्हारा प्रत्येक अणु काम—अणु है।

तुम्हारे जन्म में दो काम—अणु आपस में मिले और तुम्हारा जीवन निर्मित हुआ, तुम्हारा शरीर बना। वे दो काम—अणु तुम्हारे शरीर में सर्वत्र छाए हैं। यद्यपि उनकी संख्या अनंत गुनी हो गई है, लेकिन तुम्हारी बुनियादी इकाई काम—अणु ही है। जब तुम्हारा समूचा शरीर कांपता है तो प्रेमी—प्रेमिका के मिलन के साथ—साथ तुम्हारे शरीर के भीतर प्रत्येक पुरुष—अणु स्त्री—अणु से मिलता है। यह कंपन यही बताता है। यह पशुवत मालूम पड़ेगा। लेकिन मनुष्य पशु है और पशु होने में कुछ गलती नहीं है।

यह दूसरा सूत्र कहता है : ‘ऐसे काम—आलिंगन में जब तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की भाति कांपने लगें।’

मानो तूफान चल रहा है और वृक्ष कांप रहे हैं। उनकी जड़ें तक हिलने लगती हैं, पत्ता—पत्ता कांपने लगता है। यही हालत संभोग में होती है। कामवासना भारी तूफान है। तुम्हारे आर—पार एक भारी ऊर्जा प्रवाहित हो रही है। कंपो! तरंगायित होओ! अपने शरीर के अणु—अणु को नाचने दो! और इस नृत्य में दोनों के शरीरों को भाग लेना चाहिए। प्रेमिका को भी नृत्य में सम्मिलित करो। अणु— अणु को नाचने दो। तभी तुम दोनों का सच्चा मिलन होगा। और वह मिलन मानसिक नहीं होगा, वह जैविक ऊर्जा का मिलन होगा।

‘उस कंपन में प्रवेश करो।’

और कापते हुए उससे अलग— थलग मत रहो, दर्शक मत बने रहो। मन का स्वभाव दर्शक बने रहने का है। इसलिए अलग मत रहो, कंपन ही बन जाओ। सब कुछ भूल जाओ और कंपन ही कंपन हो रहो। ऐसा नहीं कि तुम्हारा शरीर ही कापता है, तुम पूरे के पूरे कांपते हो, तुम्हारा पूरा अस्तित्व कापता है। तुम खुद कंपन ही बन जाओ। तब दो शरीर और दो मन नहीं रह जाएंगे। आरंभ में दो कंपित ऊर्जाएं हैं और अंत में मात्र एक वर्तुल है। दो नहीं रहे।

इस वर्तुल में क्या घटित होगा? पहली बात कि तब तुम अस्तित्वगत सत्ता के अंश हो जाओगे। तुम एक सामाजिक चित्त नहीं रहोगे, अस्तित्वगत ऊर्जा बन जाओगे। तुम पूरी सृष्टि के अंग हो जाओगे। उस कंपन में तुम पूरे ब्रह्मांड के भाग बन जाओगे। वह क्षण महान सृजन का क्षण है। ठोस शरीरों की तरह तुम विलीन हो गए हो, तुम तरल होकर एक—दूसरे में प्रवाहित हो गए हो। मन खो गया, विभाजन मिट गया, तुम एकता को प्राप्त हो गए।

यही अद्वैत है। और अगर तुम इस अद्वैत को अनुभव नहीं करते तो अद्वैत का सारा दर्शनशास्त्र व्यर्थ है। वह बस शब्द ही शब्द है। जब तुम इस अद्वैत अस्तित्वगत क्षण को जानोगे तो ही तुम्हें उपनिषद समझ में आएंगे। और तभी तुम संतो को समझ पाओगे कि जब वे जागतिक एकता की, अखंडता की बात करते हैं तो उनका क्या मतलब है। तब तुम जगत से भिन्न नहीं होगे, उससे अजनबी नहीं होगे। तब पूरा अस्तित्व तुम्हारा घर बन जाता है। और इस भाव के साथ कि पूरा अस्तित्व मेरा घर है सारी चिंताएं समाप्त हो जाती हैं, फिर कोई द्वंद्व न रहा, संघर्ष न रहा, संताप न रहा।

उसको ही लाओत्सु ताओ कहते हैं, शंकर अद्वैत कहते हैं। तब तुम उसके लिए कोई अपना शब्द भी दे सकते हो। लेकिन प्रगाढ़ प्रेम—आलिंगन में ही उसे सरलता से अनुभव किया जाता है। लेकिन जीवंत बनो, कांपो, कंपन ही बन जाओ।

तीसरा सूत्र:

काम— आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्मरण करके भी रूपांतरण होगा।

क बार तुम इसे जान गए तो प्रेम—पात्र की, साथी की जरूरत भी नहीं है। तब तुम कृत्य का स्मरण कर उसमें प्रवेश कर सकते हो। लेकिन पहले भाव का होना जरूरी है। अगर भाव से परिचित हो तो साथी के बिना भी तुम कृत्य में प्रवेश कर सकते हो।

यह थोड़ा कठिन है, लेकिन यह होता है। और जब तक यह नहीं होता, तुम पराधीन रहते हो; एक पराधीनता निर्मित हो जाती है। और यह प्रवेश अनेक कारणों से घटित होता है। अगर तुमने उसका अनुभव किया हो, अगर तुमने उस क्षण को जाना हो जब तुम नहीं थे, सिर्फ तरंगायित ऊर्जा एक होकर साथी के साथ वर्तुल बना रही थी तो उस क्षण साथी भी नहीं रहता है, केवल तुम होते हो। वैसे ही उस क्षण तुम्हारे साथी के लिए तुम नहीं होते, वही होता है। वह एकता तुममें होती है, साथी नहीं रह जाता है। और यह भाव स्त्रियों के लिए सरल है, क्योंकि स्त्रियां आख बंद करके ही संभोग में उतरती हैं।

इस विधि का प्रयोग करते समय आख बंद रखना अच्छा है तो ही वर्तुल का आंतरिक भाव, एकता का आंतरिक भाव निर्मित हो सकता है। और फिर उसका स्मरण करो। आख बंद कर लो और ऐसे लेट जाओ मानो तुम अपने साथी के साथ लेटे हो। स्मरण करो और भाव करो। तुम्हारा शरीर कांपने लगेगा, तरंगायित होने लगेगा। उसे होने दो। यह बिलकुल भूल जाओ कि दूसरा नहीं है। ऐसे गति करो जैसे कि दूसरा उपस्थित है। शुरू में कल्पना से ही काम लेना होगा। एक बार जान गए कि यह कल्पना नहीं, यथार्थ है; तब दूसरा मौजूद है।

ऐसे गति करो जैसे कि तुम वस्तुत: संभोग में उतर रहे हो, वह सब कुछ करो जो तुम अपने प्रेम—पात्र के साथ करते; चीखो, डोलो, कांपो। शीघ्र वर्तुल निर्मित हो जाएगा। और यह वर्तुल अदभुत है। शीघ्र ही तुम्हें अनुभव होगा कि वर्तुल बन गया, लेकिन अब यह वर्तुल स्त्री—पुरुष: से नहीं बना है। अगर तुम पुरुष हो तो सारा ब्रह्मांड स्त्री बन गया है और अगर तुम स्त्री हो तो सारा ब्रह्मांड पुरुष बन गया है। अब तुम खुद अस्तित्व के साथ प्रगाढ़ मिलन में हो और उसके लिए दूसरा द्वार की तरह अब नहीं है।

दूसरा मात्र द्वार है। किसी स्त्री के साथ संभोग करते हुए तुम दरअसल अस्तित्व के साथ ही संभोग में होते हो। स्त्री मात्र द्वार है, पुरुष मात्र द्वार है। दूसरा संपूर्ण के लिए द्वार भर है। लेकिन तुम इतनी जल्दी में हो कि तुम्हें इसका एहसास नहीं होता। अगर तुम प्रगाढ़ मिलन में, सघन आलिंगन में घंटों रह सको तो दूसरा विस्मृत हो जाएगा, दूसरा समष्टि का विस्तार भर रह जाएगा।

अगर एक बार इस विधि को तुमने जान लिया तो अकेले भी तुम इसका प्रयोग कर सकते हो। और जब अकेले रहकर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हें एक नयी स्वतंत्रता प्रदान करेगा, वह तुम्हें दूसरे से स्वतंत्र कर देगा। तब वस्तुत: समूचा अस्तित्व दूसरा हो जाता है, तुम्हारी प्रेमिका या तुम्हारा प्रेमी हो जाता है। और फिर तो इस विधि का प्रयोग निरंतर किया जा सकता है और तुम सतत अस्तित्व के साथ आलिंगन में, संवाद में रह सकते हो।

और तब तुम इस विधि का प्रयोग दूसरे आयामों में भी कर सकते हो। सुबह टहलते हुए इसका प्रयोग कर सकते हो। तब तुम हवा के साथ, उगते सूरज के साथ, चांद—तारों के साथ, पेड़—पौधों के साथ लयबद्ध हो सकते हो। रात में तारों को देखते हुए इस विधि का प्रयोग कर सकते हो। चांद को देखते हुए कर सकते हो। तुम पूरी सृष्टि के साथ काम—भोग में उतर सकते हो, अगर तुम्हें इसके घटित होने का राज पता चल जाए। लेकिन मनुष्यों के साथ प्रयोग आरंभ करना अच्छा रहेगा। कारण यह है कि मनुष्य तुम्हारे सबसे निकट हैं, वे तुम्हारे लिए जगत के निकटतम अंश हैं। लेकिन फिर उन्हें छोड़ा जा सकता है, उनके बिना भी चलेगा। तुम छलांग ले सकते हो और द्वार को बिलकुल भूल सकते हो।

‘ऐसे मिलन का स्मरण करके भी रूपांतरण होगा।’

और तुम रूपांतरित हो जाओगे, तुम नए हो जाओगे।

तंत्र काम का उपयोग वाहन के रूप में करता है। वह ऊर्जा है, उसे वाहन या माध्यम बनाया जा सकता है। काम तुम्हें रूपांतरित कर सकता है। वह तुम्हें अतिक्रमण की अवस्था को, समाधि को उपलब्ध करा सकता है। लेकिन हम गलत ढंग से काम का उपयोग करते हैं। और गलत ढंग स्वाभाविक ढंग नहीं है। इस मामले में पशु भी हमसे बेहतर हैं, वे स्वाभाविक ढंग से काम का उपयोग करते हैं। हमारे ढंग बड़े विकृत हैं। काम पाप है, यह बात निरंतर प्रचार से मनुष्य के मन में इतनी गहरी बैठ गई है कि अवरोध बन गई है। उसके चलते तुम कभी अपने को काम में उतरने की पूरी छूट नहीं देते, तुम कभी उसमें उन्‍मुक्‍त भाव से नहीं प्रवेश करते। तुम्हारा एक अंश सदा अलग खड़े होकर उसकी निंदा करता रहता है।

और यह बात नयी पीढ़ी के लिए भी सच है। वे भला कहते हों कि हमारे लिए काम कोई समस्या नहीं रही, कि हम उससे दमित और ग्रस्त नहीं हैं, कि वह हमारे लिए टैबू नहीं रहा। लेकिन बात इतनी आसान नहीं है। तुम अपने अचेतन को इतनी आसानी से नहीं पोंछ सकते, वह सदियों—सदियों में निर्मित हुआ है। मनुष्य का पूरा अतीत तुम्हारे साथ है। हो सकता है कि तुम चेतन में काम की निंदा न करते होओ, तुम उसे पाप न भी कहो, लेकिन तुम्हारा अचेतन सतत उसकी निंदा में लगा है। तुम कभी समग्रता से काम—कृत्य में नहीं होते हो। सदा ही कुछ अंश बाहर रह जाता है। और वही बाहर रह गया अंश विभाजन पैदा करता है, टूट पैदा करता है।

तंत्र कहता है, काम में समग्रता से प्रवेश करो। अपने को, अपनी सभ्यता को, अपने धर्म को, संस्कृति और आदर्श को भूल जाओ। काम—कृत्य में उतरो, पूर्णता से, समग्रता से उतरो। अपने किसी भी अंश को बाहर मत छोड़ो। सर्वथा निर्विचार हो जाओ। तभी यह बोध होता है कि तुम किसी के साथ एक हो गए हो। और तब एक होने के इस भाव को साथी से पृथक किया जा सकता है और उसे पूरे ब्रह्मांड के साथ जोड़ा जा: सकता है। तब तुम वृक्ष के साथ, चांद—तारों के साथ, किसी भी चीज के साथ काम—क्रीड़ा में उतर सकते हो। एक बार तुम्हें वर्तुल बनाना आ जाए तो किसी भी चीज के साथ यह वर्तुल निर्मित किया जा सकता है—किसी भी चीज के बिना भी बनाया जा सकता है।

तुम अपने भीतर भी इस वर्तुल का निर्माण कर सकते हो; क्योंकि मनुष्य दोनों है, पुरुष और स्त्री दोनों है। पुरुष के भीतर स्त्री है और स्त्री के भीतर पुरुष है। तुम दोनों हो, क्योंकि दोनों ने मिलकर तुम्हें निर्मित किया है। तुम्हारा निर्माण स्त्री और पुरुष दोनों के द्वारा हुआ है, इसलिए तुम्हारा आधा अंश सदा दूसरा है। तुम बाहरी सब कुछ को पूरी तरह भूल जाओ और वह वर्तुल भीतर निर्मित हो जाएगा।

इस वर्तुल के बनते ही तुम्हारा पुरुष तुम्हारी स्त्री के आलिंगन में होता है और तुम्हारी भीतर की स्त्री भीतर के पुरुष के आलिंगन में होती है। और तब तुम अपने साथ ही आंतरिक काम—आलिंगन में होते हो। और इस वर्तुल के बनने पर ही सच्चा ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। अन्यथा सब ब्रह्मचर्य विकृति है और उससे समस्याएं ही समस्याएं जन्म लेती हैं। और जब यह वर्तुल तुम्हारे भीतर निर्मित होता है तो तुम मुक्त हो जाते हो।

तंत्र यही कहता है. कामवासना गहनतम बंधन है, लेकिन उसका उपयोग परम मुक्ति के लिए वाहन के रूप में किया जा सकता है। तंत्र कहता है : जहर को औषधि बनाया जा सकता है, लेकिन उसके लिए विवेक जरूरी है।

तो किसी चीज की निंदा मत करो, वरन उसका उपयोग करो। किसी चीज के विरोध में मत होओ, उपाय निकालों कि उसका उपयोग किया जाए, उसको रूपांतरित किया जाए। तंत्र जीवन का गहन स्वीकार है, समग्र स्वीकार है। तंत्र अपने ढंग की सर्वथा अनूठी साधना है, अकेली साधना है। सभी देश और काल में तंत्र का यह अनूठापन अक्षुण्ण रहा है। और तंत्र कहता है, किसी चीज को भी मत फेंको, किसी चीज के भी विरोध में मत जाओ, किसी चीज के साथ संघर्ष मत करो। क्योंकि द्वंद्व में, संघर्ष में मनुष्य अपने प्रति ही विध्वंसात्मक हो जाता है।

सभी धर्म कामवासना के विरोध में हैं, वे उससे डरते हैं। क्योंकि कामवासना महान ऊर्जा है। उसमें उतरते ही तुम नहीं बचते हो, उसका प्रवाह तुम्हें कहीं से कहीं बहा ले जाता है। यही भय का कारण है। इससे ही लोग अपने और इस प्रवाह के बीच एक दीवार, एक अवरोध खड़ा कर लेते हैं, ताकि दोनों बंट जाएं, ताकि यह प्रबल शक्ति तुम्हें अभिभूत न करे, ताकि तुम उसके मालिक बने रहो।

लेकिन तंत्र का कहना है—और केवल तंत्र का कहना है—कि यह मालकियत झूठी होगी, रुग्ण होगी, क्योंकि तुम सच में इस प्रवाह से पृथक नहीं हो सकते। वह प्रवाह तुम हो। सभी विभाजन झूठे होंगे, सभी विभाजन थोपे हुए होंगे। बुनियादी बात यह है कि विभाजन संभव ही नहीं है, क्योंकि तुम्हीं वह प्रवाह हो, तुम उसके अंग हो, उसकी एक लहर हो। संभव है कि तुम बर्फ की तरह जम गए हो और इस तरह तुमने अपने को प्रवाह से अलग कर लिया है, लेकिन वह जमना, वह अलग होना मृतवत होना है। सारी मनुष्यता मृतवत हो गई है। कोई भी आदमी वास्तव में जीवित नहीं है। तुम नदी में बहते हुए मुर्दों जैसे हो। पिघलो!

तंत्र कहता है : पिघलने की चेष्टा करो। हिमखंड की तरह मत जीओ, पिघलो और नदी के साथ एक हो जाओ। नदी के साथ एक होकर, नदी में विलीन होकर बोधपूर्ण होओ और तब रूपांतरण घटित होगा। तब रूपांतरण है। संघर्ष से नहीं, बोध से रूपांतरण घटित होता है।

ये तीन विधियां बहुत वैज्ञानिक विधियां हैं। लेकिन तब काम या सेक्स वही नहीं रहता है जो तुम उसे समझते हो, तब वह कुछ और ही चीज है। तब सेक्स कोई क्षणिक राहत नहीं है, तब वह ऊर्जा को बाहर फेंकना भर नहीं है। तब इसका अंत नहीं आता, तब वह ध्यानपूर्ण वर्तुल बन जाता है।

इससे संबंधित कुछ और विधियां :

 

बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है उस हर्ष में लीन होओ। उस हर्ष में प्रवेश करो और उसके साथ एक हो जाओ। किसी भी हर्ष से काम चलेगा।

ह एक उदाहरण भर है।

‘बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है।’

तुम्हें अचानक कोई मित्र मिल जाता है जिसे देखे हुए बहुत दिन, बहुत वर्ष हो गए है। और तुम अचानक हर्ष से, आह्लाद से भर जाते हो। लेकिन अगर तुम्हारा ध्यान मित्र पर है, हब यात्रा

पर नहीं तो तुम चूक रहे हो। और यह हर्ष क्षणिक होगा। तुम्हारा सारा ध्यान मित्र पर केंद्रित होगा, तुम उससे बातचीत करने में मशगूल रहोगे, तुम पुरानी स्मृतियों को ताजा करने में लगे रहोगे। तब तुम इस हर्ष को चूक जाओगे और हर्ष भी विदा हो जाएगा। इसलिए जब किसी मित्र से मिलना हो और अचानक तुम्हारे हृदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो, उसके साथ एक हो जाओ। और तब हर्ष से भरे हुए और बोधपूर्ण रहते हुए अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि पर रहने दो और तुम अपने सुख के भाव में केंद्रित हो जाओ।

अन्य अनेक स्थितियों में भी यह किया जा सकता है। सूरज उग रहा है और तुम अचानक अपने भीतर भी कुछ उगता हुआ अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल जाओ, उसे परिधि पर ही रहने दो और तुम उठती हुई ऊर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो जाओ। जब तुम उस पर ध्यान दोगे, वह भाव फैलने लगेगा। और वह भाव तुम्हारे सारे शरीर पर, तुम्हारे पूरे अस्तित्व पर फैल जाएगा। और बस दर्शक ही मत बने रही, उसमें विलीन हो जाओ।

ऐसे क्षण बहुत थोड़े होते हैं जब तुम हर्ष या आह्लाद अनुभव करते हो, सुख और आनंद से भरते हो। और तुम उन्हें भी चूक जाते हो, क्योंकि तुम विषय—केंद्रित होते हो। जब भी प्रसन्नता आती है, सुख आता है, तुम समझते हो कि यह बाहर से आ रहा है।

किसी मित्र से मिलते हो, स्वभावत: लगता है कि सुख मित्र से आ रहा है, मित्र के मिलने से आ रहा है। लेकिन यह हकीकत नहीं है। सुख सदा तुम्हारे भीतर है। मित्र तो सिर्फ परिस्थिति निर्मित करता है। मित्र ने सुख को बाहर आने का अवसर दिया और उसने तुम्हें उस सुख को देखने में हाथ बंटाया।

यह नियम सुख के लिए ही नहीं, सब चीजों के लिए है, क्रोध, शोक, संताप, सुख, सब पर लागू होता है। ऐसा ही है। दूसरे केवल परिस्थिति बनाते हैं जिसमें जो तुम्हारे भीतर छिपा है वह प्रकट हो जाता है। वे कारण नहीं हैं, वे तुम्हारे भीतर कुछ पैदा नहीं करते हैं। जो भी घटित हो रहा है वह तुम्हें घटित हो रहा है। वह सदा है। मित्र का मिलन सिर्फ अवसर बना, जिसमें अव्यक्त व्यक्त हो गया, अप्रकट प्रकट हो गया।

जब भी यह सुख घटित हो, उसके आंतरिक भाव में स्थित रहो और तब जीवन में सभी चीजों के प्रति तुम्हारी दृष्टि भिन्न हो जाएगी। नकारात्मक भावों के साथ भी यह प्रयोग किया जा सकता है। जब क्रोध आए तो उस व्यक्ति की फिक्र मत करो जिसने क्रोध करवाया, उसे परिधि पर छोड़ दो और तुम क्रोध ही हो जाओ। क्रोध को उसकी समग्रता में अनुभव करो, उसे अपने भीतर पूरी तरह घटित होने दो।

उसे तर्क—संगत बनाने की चेष्टा मत करो, यह मत कहो कि इस व्यक्ति ने क्रोध करवाया। उस व्यक्ति की निंदा मत करो। वह तो निमित्त मात्र है। उसका उपकार मानो कि उसने तुम्हारे भीतर दमित भावों को प्रकट होने का मौका दिया। उसने तुम पर कहीं चोट की और वहां एक घाव छिपा पड़ा था। अब तुम्हें उस घाव का पता चल गया। अब तुम वह घाव ही बन जाओ।

विधायक या नकारात्मक, किसी भी भाव के साथ प्रयोग करो और तुम में भारी परिवर्तन घटित होगा। अगर भाव नकारात्मक है तो उसके प्रति सजग होकर तुम उससे मुक्त हो जाओगे। और अगर भाव विधायक है तो तुम भाव ही बन जाओगे। अगर यह सुख है तो तुम सुख बन जाओगे। लेकिन अगर वह क्रोध है तो क्रोध विसर्जित हो जाएगा। और नकारात्मक और विधायक भावों का भेद भी यही है। अगर तुम किसी भाव के प्रति सजग होते हो और उससे वह भाव विसर्जित हो जाता है तो समझना कि वह नकारात्मक भाव है। और यदि किसी भाव के प्रति सजग होने से तुम वह भाव ही बन जाते हो और वह भाव फैलकर तुम्हारे तन—प्राण पर छा जाता है तो समझना कि वह विधायक भाव है। दोनों मामलों में बोध अलग—अलग ढंग से काम करता है। अगर कोई जहरीला भाव है तो बोध के द्वारा तुम उससे मुक्त हो सकते हो। और अगर भाव शुभ है, आनंदपूर्ण है, सुंदर है तो तुम उससे एक हो जाते हो। बोध उसे प्रगाढ़ कर देता है।

मेरे लिए यही कसौटी है। अगर कोई वृत्ति बोध से सघन होती है तो वह शुभ है और अगर बोध से विसर्जित हो जाती है तो उसे अशुभ मानना चाहिए। जो चीज होश के साथ न जी सके वह पाप है और जो होश के साथ वृद्धि को प्राप्त हो वह पुण्य है। पुण्य और पाप सामाजिक धारणाएं नहीं हैं, वे आंतरिक उपलब्धियां हैं।

अपने बोध को जगाओ, उसका उपयोग करो। यह ऐसा ही है जैसे कि अंधकार है और तुम दीया जलाते हो। दीए के जलते ही अंधकार विदा हो जाएगा। प्रकाश के आने से अंधेरा नहीं हो जाता है। क्योंकि वस्तुत: अंधेरा नहीं था। अंधकार प्रकाश का अभाव था, वह प्रकाश की अनुपस्थिति था। लेकिन प्रकाश के आने से वहां मौजूद अनेक चीजें प्रकाशित भी हो जाएंगी, प्रकट भी हो जाएंगी। प्रकाश के आने से ये अलमारियां, किताबें, दीवारें विलीन नहीं हो जाएंगी। अंधकार में वे छिपी थीं, तुम उन्हें नहीं देख सकते थे। प्रकाश के आने से अंधकार विदा हो गया, लेकिन उसके साथ ही जो यथार्थ था वह प्रकट हो गया। बोध के द्वारा जो भी अंधकार की तरह नकारात्मक है—घृणा, क्रोध, दुख, हिसा—वह विसर्जित हो जाएगा और उसके साथ ही प्रेम, हर्ष, आनंद जैसी विधायक चीजें पहली बार तुम पर प्रकट हो जाएंगी।

इसलिए ‘बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।’

पांचवीं तंत्र विधि:

भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्वाद ही बन जाओ और उससे भर जाओ।

म खाते रहते हैं, हम खाए बगैर नहीं रह सकते। लेकिन हम बहुत बेहोशी में भोजन करते हैं—यंत्रवत। और अगर स्वाद न लिया जाए तो तुम सिर्फ पेट को भर रहे हो।

तो धीरे— धीरे भोजन करो, स्वाद लेकर करो और स्वाद के प्रति सजग रही। और स्वाद के प्रति सजग होने के लिए धीरे— धीरे भोजन करना बहुत जरूरी है। तुम भोजन को बस निगलते मत जाओ। आहिस्ते—आहिस्ते उसका स्वाद लो और स्वाद ही बन जाओ। जब तुम मिठास अनुभव करो तो मिठास ही बन जाओ। और तब वह मिठास सिर्फ मुंह में नहीं, सिर्फ जीभ में नहीं, पूरे शरीर में अनुभव की जा सकती है। वह सचमुच पूरे शरीर पर फैल जाएगा। तुम्हें लगेगा कि मिठास—या कोई भी चीज—लहर की तरह फैलती जा रही है। इसलिए तुम जो कुछ खाओ, उसे स्वाद लेकर खाओ और स्वाद ही बन जाओ।

यहीं तंत्र दूसरी परंपराओं से सर्वथा भिन्न और विपरीत मालूम पड़ता है। जैन अस्वाद की बात करते हैं। महात्मा गांधी ने तो अपने आश्रम में अस्वाद को एक नियम बना रखा था। नियम है कि खाओ, लेकिन स्वाद के लिए मत खाओ। स्वाद मत लो, स्वाद को भूल जाओ। वे कहते हैं कि भोजन आवश्यक है, लेकिन यंत्रवत भोजन करो। स्वाद वासना है, स्वाद मत लो। तंत्र कहता है कि जितना स्वाद ले सकी उतना स्वाद लो। ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनो, जीवंत बनो। इतना ही नहीं कि संवेदनशील बनो, स्वाद ही बन जाओ। अस्वाद से तुम्हारी इंद्रियां मर जाएंगी, उनकी संवेदनशीलता जाती रहेगी। और संवेदनशीलता के मिटने से तुम अपने शरीर को, अपने भावों को अनुभव करने में असमर्थ हो जाओगे। और तब फिर तुम अपने सिर में केंद्रित होकर रह जाओगे। और सिर में केंद्रित होना विभाजित होना है।

तंत्र कहता है अपने भीतर विभाजन मत पैदा करो। स्वाद लेना सुंदर है, संवेदनशील होना सुंदर है। और तुम जितने संवेदनशील होंगे, उतने ही जीवंत होंगे। और जितने तुम जीवंत होगे, उतना ही अधिक जीवन तुम्हारे अंतस में प्रविष्ट होगा। तुम अधिक खुलोगे, उन्‍मुक्‍त अनुभव करोगे।

तुम स्वाद लिए बिना कोई चीज खा सकते हो, यह कठिन नहीं है। तुम किसी को छुए बिना छू सकते हो, यह भी कठिन नहीं है। हम वही तो करते हैं। तुम किसी के साथ हाथ मिलाते हो और उसे स्पर्श नहीं करते। स्पर्श करने के लिए तुम्हें हाथ तक आना पड़ेगा, हाथ में उतरना पड़ेगा। स्पर्श करने के लिए तुम्हें तुम्हारी हथेली, तुम्हारी अंगुलियां बन जाना पड़ेगा—मानो तुम, तुम्हारी आत्मा तुम्हारे हाथ में उतर आयी है। तभी तुम स्पर्श कर सकते हो। वैसे तुम किसी का हाथ हाथ में लेकर भी उससे अलग— थलग रह सकते हो। तब तुम्हारा मुर्दा हाथ किसी के हाथ में होगा। वह छूता हुआ मालूम पड़ेगा, लेकिन वह छूता नहीं है।

हम स्पर्श करना भूल गए हैं। हम किसी को स्पर्श करने से डरते हैं, क्योंकि स्पर्श करना कामुकता का प्रतीक बन गया है। तुम किसी भीड़ में, बस या रेल में अनेक लोगों को छूते हुए खड़े हो सकते हो, लेकिन वास्तव में न तुम उन्हें छू रहे हो और न वे तुम्हें छू रहे हैं। सिर्फ शरीर एक—दूसरे के संपर्क में हैं, लेकिन तुम दूर—दूर हो। और तुम इस फर्क को समझ सकते हो। अगर तुम भीड़ में किसी को वास्तव में स्पर्श करो तो वह बुरा मान जाएगा। तुम्हारा शरीर बेशक छू सकता है, लेकिन तुम्हें उस शरीर में नहीं होना चाहिए। तुम्हें शरीर से अलग रहना चाहिए, मानो तुम शरीर में नहीं हो, मानो कोई मुर्दा शरीर स्पर्श कर रहा है।

यह संवेदनहीनता बुरी है। यह बुरी है, क्योंकि तुम अपने को जीवन से बचा रहे हो। तुम मृत्यु से इतने भयभीत हो और तुम मरे हुए ही हो। सच तो यह है कि तुम्हें भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि कोई भी मरने वाला नहीं है। तुम तो पहले से ही मरे हुए हो। और तुम्हारे भयभीत होने का कारण भी यही है कि तुम कभी जीए ही नहीं। तुम जीवन से चूकते रहे और मृत्यु करीब आ रही है।

जो व्‍यक्‍ति जीवित है वह मृत्यु से नहीं डरेगा, क्योंकि वह जीवित है। जब तुम वास्तव में जीते हो तो मृत्यु का भय नहीं रहता। तब तुम मृत्यु को भी जी सकते हो। जब मृत्यु आएगी तो तुम इतने संवेदनशील होंगे कि मृत्यु का भी आनंद लोगे। मृत्यु एक महान अनुभव बनने वाली है। अगर तुम सचमुच जिंदा हो तो तुम मृत्यु को भी जी सकते हो। और तब मृत्यु मृत्यु नहीं रहेगी। अगर तुम मृत्यु को भी जी सको—जब तुम अपने केंद्र को लौट रहे हो, जब तुम विलीन हो रहे हो, उस क्षण यदि तुम अपने मरते हुए शरीर के प्रति भी सजग रह सको, अगर तुम इसको भी जी सको—तो तुम अमृत हो गए।

‘भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्वाद ही बन जाओ, और उससे भर जाओ।’

पानी पीते हुए पानी का ठंडापन अनुभव करो। आंखें बंद कर लो, धीरे—धीरे पानी पीओ और उसका स्वाद लो। पानी की शीतलता को महसूस करो और महसूस करो कि तुम शीतलता ही बन गए हो। जब तुम पानी पीते हो तो पानी की शीतलता तुममें प्रवेश करती है, तुम्हारा अंग बन जाती है। तुम्हारा मुंह शीतलता को छूता है, तुम्हारी जीभ उसे छूती है और ऐसे वह तुम में प्रविष्ट हो जाती है। उसे तुम्हारे पूरे शरीर में प्रविष्ट होने दो। उसकी लहरों को फैलने दो और तुम अपने पूरे शरीर में यह शीतलता महसूस करोगे। इस भांति तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ेगी, विकसित होगी और तुम ज्यादा जीवंत, ज्यादा भरे—पूरे हो जाओगे।

हम हताश, रिक्त और खाली अनुभव करते हैं। और हम कहते हैं कि जीवन रिक्त है। लेकिन जीवन के रिक्त होने का कारण हम स्वयं हैं। हम जीवन को भरते नहीं हैं। हम उसे भरने नहीं देते हैं। हमने अपने चारों ओर एक कवच लगा रखा है—सुरक्षा—कवच। हम वलनरेबल होने से, खुले रहने से डरते हैं। हम अपने को हर चीज से बचाकर रखते हैं। और तब हम कब बन जाते हैं—मृत लाशें।

तंत्र कहता है जीवंत बनो, क्योंकि जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं है। तुम जितने जीवंत होगे उतने ही परमात्मा होगे। और जब समग्रत: जीवंत होगे तो तुम्हारे लिए कोई मृत्यु नहीं है।

आज इतना ही।


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अंतर्यात्रा–ध्‍यान–शिविर–(प्रवचन–1)

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अंतर्यात्रा (ओशो)

(साधना—शिविर, आजोल में हुए 8 प्रवचनों, प्रश्‍नोत्‍तरोएवं ध्‍यान—सूत्रों का अपूर्व संकलन।)

 साधना की पहली सीढ़ी: शरीर–(प्रवचन–पहला)

( दिनांक 3 फरवरी, 1968; सुबह, आजोल)

मेरे प्रिय आत्मन्!

साधना—शिविर की इस पहली बैठक में, साधक के लिए जो पहला चरण है, उस संबंध में ही मैं आपसे बात करना चाहूंगा।

साधक के लिए पहली सीढ़ी क्या है? विचारक के लिए सीढ़ियां अलग होती हैं, प्रेमी के लिए सीढ़ियां अलग होती हैं। साधक के लिए अलग ही यात्रा करनी होती है।

साधक के लिए पहली सीढ़ी क्या है?

साधक के लिए पहली सीढ़ी शरीर है। लेकिन शरीर के संबंध में न तो कोई ध्यान है, न शरीर के संबंध में कोई विचार है। और थोड़े समय से नहीं, हजारों वर्षों से शरीर उपेक्षित है। यह उपेक्षा दो प्रकार की है। एक तो उन लोगों ने शरीर की उपेक्षा की है, जिन्हें हम भोगी कहते हैं—जों जीवन में खाने—पीने और कपड़े पहनने के अतिरिक्त और किसी अनुभव को नहीं जानते। उन्होंने शरीर की उपेक्षा की है, शरीर का अपव्यय, शरीर को व्यर्थ खोया है, शरीर की वीणा को खराब किया है।

और वीणा खराब हो जाए तो उससे संगीत पैदा नहीं हो सकता। यद्यपि संगीत वीणा से बिलकुल भिन्न बात है। संगीत बात ही और है, वीणा बात ही और है। लेकिन वीणा के बिना संगीत पैदा नहीं हो सकता। जिन लोगों ने शरीर को उपभोग की दिशा में व्यर्थ किया है, वे एक तरह के लोग हैं। और दूसरी तरह के लोग हैं, जिन्होंने योग की और त्याग की दिशा में भी शरीर के साथ अनाचार किया है। शरीर को कष्ट भी दिया है, शरीर का दमन भी किया है, शरीर के साथ शत्रुता भी की है।

न तो शरीर को भोगने वालों ने शरीर की अर्थवत्ता को समझा है और न शरीर को कष्ट देने वाले तपस्वियों ने शरीर की अर्थवत्ता को समझा है।

शरीर की वीणा पर दो तरह के अनाचार और अत्याचार हुए हैं—एक भोगी की तरफ से, दूसरा योगी की तरफ से। और इन दोनों ने ही शरीर को नुकसान पहुंचाया है। पश्चिम में एक तरह से शरीर को नुकसान पहुंचाया गया है, पूरब में दूसरी तरह से। लेकिन नुकसान पहुंचाने में हम सब एक साथ सहभागी हैं। वेश्यागृहों में जाने वाले लोग और मधुशालाओं में जाने वाले लोग भी शरीर को एक तरह का नुकसान पहुंचाते हैं। धूप में नग्न खड़े रहने वाले लोग और जंगल की तरफ भागने वाले लोग भी शरीर को दूसरी तरह से नुकसान पहुंचाते हैं।

लेकिन शरीर की वीणा से ही जीवन का संगीत उत्पन्न हो सकता है। यद्यपि जीवन का संगीत शरीर से बिलकुल अलग बात है; बिलकुल भिन्न और दूसरी बात है, लेकिन शरीर की वीणा के अतिरिक्त उसकी कोई उपलब्धि संभव नहीं है। इस तरफ अब तक कोई ध्यान ठीक से नहीं दिया गया है।

पहली बात है शरीर और शरीर की तरफ साधक का सम्यक ध्यान। उस संबंध में ही आज पहली चर्चा में आपसे बात करना चाहता हूं।

कुछ सूत्र समझ लेने जरूरी हैं।

पहली बात शरीर के किन्हीं केंद्रों पर आत्मा का संपर्क है, उसी से जीवन है। शरीर के किन्हीं केंद्रों से आत्मा निकटतम रूप से संबंधित है, वहीं से जीवन की धारा शरीर में प्रवाहित होती है। आत्मा और शरीर के संपर्क के जो केंद्र हैं, जो स्थल हैं, जिस साधक को उन स्थलों का कोई खयाल नहीं है, वह कभी भी आत्मा को उपलब्ध नहीं हो सकता है। अगर मैं आपसे पूछूं कि आपके शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र और स्थल क्या है—तो शायद आप अपने सिर की तरफ हाथ उठाएं।

मनुष्य की गलत शिक्षा ने मनुष्य के शरीर में केवल सिर को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण बना दिया है। सिर मनुष्य की जीवन— धारा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र नहीं है। मस्तिष्क मनुष्य की जीवन— धारा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र नहीं है। जैसे हम किसी पौधे के पास जाएं और पूछें कि पौधे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और जीवंत क्या है, तो ऊपर ही फूल दिखाई पड़ जाएंगे और कोई भी कह देगा कि ये फूल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। फूल सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिखाई पड़ते हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण फूल नहीं हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण वे जड़ें हैं, जो दिखाई नहीं पड़ती।

मस्तिष्क मनुष्य के पौधे पर लगा हुआ फूल है। वह मनुष्य के शरीर की जड़ नहीं है। फूल सबसे बाद में आते हैं और अंतिम होते हैं। जड़ें सबसे प्रथम होती हैं। और अगर जड़ें भूल जाएं तो फूल कुम्हला जाएंगे। फूलों का अपना कोई जीवन नहीं होता। और अगर जड़ें सम्हाल ली जाएं तो फूल अपने आप सम्हल जाते हैं, उन्हें सम्हालने के लिए अलग से कोई आयोजन नहीं करना होता। लेकिन पौधे में देखने पर ऐसा लगेगा, फूल सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। ऐसे ही मनुष्य में भी लगता है कि मस्तिष्क सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मस्तिष्क अंतिम बात है मनुष्य के शरीर में। वह मनुष्य के शरीर की जड़ें नहीं है, वह रूट्स नहीं है।

माओत्से तुंग ने अपने बचपन का एक संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है कि मैं छोटा था, मेरी मां के झोपड़े के पास एक बड़ी सुंदर बगिया थी। वह बगिया इतनी सुंदर थी, उसमें ऐसे सुंदर फूल आते थे कि दूर—दूर से लोग देखने आते थे। फिर मेरी मां बूढ़ी हो गई और बीमार पड़ी। न तो वह अपनी बीमारी से चिंतित थी, न अपने बुढ़ापे से। उसकी चिंता एक ही थी कि उसकी बगिया का क्या होगा। माओ छोटा था। उसने अपनी मां को कहा कि तू बेफिकर रह, मैं तेरी बगिया की फिकर कर लूंगा।

और माओ सुबह से सांझ तक बगिया की फिकर करता रहा। एक महीने बाद उसकी मां ठीक हुई, तो जैसे ही वह थोड़ी चल सकी, उठ कर बगिया में आ गई और देख कर घबड़ा गई। बगिया तो बर्बाद हो चुकी थी। पौधे सब सूख गए थे। फूल सब कुम्हला कर गिर गए थे। वह बहुत हैरान हुई। उसने माओ को कहा कि पागल! तू तो सुबह से सांझ तक बगिया में ही रहता था। तूने यह क्या किया? ये सब फूल तो नष्ट हो गए। यह बगिया तो कुम्हला गई। सब पौधे तो मरने के करीब आ गए। तू करता क्या था?

माओ रोने लगा। वह खुद भी परेशान था। वह रोज दिन भर मेहनत करता था, लेकिन न मालूम क्या बात थी कि बगिया सूखती गई। वह रोने लगा और उसने कहा कि मैंने तो बहुत फिकर की। मैं तो एक—एक फूल को अता था और प्रेम करता था। एक—एक पत्ते को झाड़ता था, धूल पोंछता था, लेकिन पता नहीं क्या हुआ। मैं फिकर भी करता था, लेकिन फूल कुम्हलाते गए, पत्ते सूखते गए और बगिया धीरे— धीरे मुर्झाती गई।

उसकी मां ने कहा पागल! वह हंसने लगी, बोली—उसने कहा तू पागल है! तुझे अभी यह पता नहीं कि फूलों के प्राण फूलों में नहीं होते और न पत्तों के प्राण पत्तों में होते हैं।

पौधे के प्राण वहां होते हैं, जहां किसी को दिखाई ही नहीं पड़ते। वे उन जड़ों में होते हैं, जो जमीन के नीचे छिपी होती हैं। और उन जड़ों की अगर कोई फिकर न करे तो फूल और पत्ते नहीं सम्हाले जा सकते। कितने ही चूमे जाएं, कितना ही उनको प्रेम किया जाए, कितनी ही उनकी धूल झाड़ी जाए। पौधा कुम्हला ही जाएगा। लेकिन फूलों की कोई बिलकुल भी फिकर न करे और जड़ों को सम्हाल ले, तो फूल अपने आप सम्हल जाते हैं। जड़ों में से फूल आते हैं, फूलों में से जड़ें नहीं आती हैं।

लेकिन अगर हम किसी आदमी से पूछें कि मनुष्य के शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा क्या है, तो अनजाने ही उसका हाथ सिर की तरफ उठेगा और वह कहेगा कि सिर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। या अगर वह स्त्री हो, तो हो सकता है उसका हाथ हृदय की तरफ उठ जाए और वह कहे, हृदय सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।

हृदय भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं है और मस्तिष्क भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं है। पुरुषों ने सारा बल मस्तिष्क पर दिया है और स्त्रियों ने सारा बल हृदय पर दिया है। और दोनों से मिला हुआ समाज रोज नष्ट होता चला गया है, क्योंकि ये दोनों ही बिंदु शरीर में महत्वपूर्ण बिंदु नहीं हैं। ये दोनों ही बहुत बाद के विकास हैं। मनुष्य की जड़ें इनमें नहीं हैं। और मनुष्य की जड़ों से मेरा क्या मतलब है? जैसे पौधे की जड़ें होती हैं पृथ्वी में, उन्हीं जड़ों से वह जीवन और रस खींचता है, उसी से जीवित होता है। ऐसे ही मनुष्य के शरीर में किसी बिंदु पर वे जड़ें हैं, जो आत्मा से जीवन और रस खींचती हैं और जिनके कारण शरीर जीवित होता है। जिस दिन वे जड़ें शिथिल हो जाती हैं, शरीर समाप्त हो जाता है।

भूमि में पौधे की जड़ें हैं। मनुष्य के शरीर की जड़ें आत्मा में प्रविष्ट हैं। लेकिन मस्तिष्क नहीं है वह जगह और न ही हृदय वह जगह है, जहां से मनुष्य प्राणों से जुड़ता है। और अगर हमें उन जड़ों का कोई पता न हो, तो हम कभी भी साधक के जगत में प्रवेश नहीं कर सकते।

कहां हैं फिर मनुष्य की जड़ें? शायद आपके खयाल में भी नहीं है। कुछ सीधी और सरल सी बातें भी अगर हजारों साल तक ध्यान से भूली रहें तो विस्मृत हो जाती हैं। मां के पेट में बच्चा पैदा होता है, बड़ा होता है, तो मां से वह किस जगह से जुड़ा होता है? मस्तिष्क से या हृदय से? वह नाभि से जुड़ा होता है। जीवन की धारा उसे नाभि से उपलब्ध होती है। हृदय भी बाद में विकसित होता है, मस्तिष्क भी बाद में विकसित होता है। मां की जीवन— धारा उसे नाभि से उपलब्ध होती है। मां के शरीर में बच्चे की जड़ें नाभि से फैली होती हैं। न केवल दूसरे—मां के शरीर में उसकी जड़ें नाभि से फैली होती हैं, बल्कि स्वयं के प्राणों में भी उसकी जड़ें नाभि से ही फैली होती हैं।

मनुष्य के शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिंदु नाभि है। उसके बाद हृदय विकसित होता है, उसके बाद मस्तिष्क विकसित होता है। ये बाद की फैली हुई टहनियां हैं। इन पर फूल भी लगते हैं।

मस्तिष्क पर ज्ञान के फूल लगते हैं।

हृदय पर प्रेम के फूल लगते हैं।

यही फूल हमें भुला लेते हैं और हमको लगता है कि यही फूल स्ब—कुछ हैं। लेकिन जड़ें मनुष्य के शरीर की और प्राणों की नाभि में होती हैं। वहां कोई फूल नहीं लगते। वे बिलकुल अदृश्य हैं, वे दिखाई भी नहीं पड़ते। लेकिन पिछले पांच हजार वर्षों में मनुष्य के जीवन में जो विकृति आई है, वह इसी बात से आई है कि हमने सारा बल या तो मस्तिष्क पर दिया है या हृदय पर दिया है। हृदय पर भी बहुत कम बल दिया है। अधिक बल तो मस्तिष्क पर दिया है।

बचपन से ही सारी शिक्षा मस्तिष्क की शिक्षा है। नाभि की तो दुनिया में किसी कोने में कहीं कोई शिक्षा नहीं है।

सारी मस्तिष्क की शिक्षा है! तो मस्तिष्क तो बड़ा होता चला जाता है और जडें छोटी होती चली जाती हैं। मस्तिष्क का फूल तो…….फिकर करते हैं हम उसकी, वह भारी हो जाता है और जड़ें हमारी विलीन होती चली जाती हैं। फिर जीवन की धारा क्षीण बहने लगती है और आत्मा से हमारे संपर्क शिथिल हो जाते हैं। फिर धीरे— धीरे तो हम उस जगह आ गए हैं कि आदमी यह भी कहने लगा है, कहां है आत्मा? कौन कहता है कि आत्मा है? कौन कहता है कि परमात्मा है? हमें तो कुछ पता नहीं चलता है। पता नहीं चलेगा। पता नहीं चल सकता है, क्योंकि कोई आदमी अगर वृक्ष के पूरे शरीर पर ढूंढ ले और कहे कहां हैं जड़ें, हमें तो कुछ पता नहीं चलता है, तो ठीक ही कह रहा है। वृक्ष के ऊपर कहीं कोई जड़ें नहीं हैं। जड़ें जहां हैं, वहां तक हमारी पहुंच बंद हो गई है। वहां तक हमारा खयाल बंद हो गया है। और बचपन से ही चूंकि मस्तिष्क का ही और माइंड का ही सारा प्रशिक्षण है, सारा शिक्षण है, तो हमारा सारा ध्यान, हमारा सारा अटेंशन मस्तिष्क में उलझ कर समाप्त हो जाता है। जीवन भर हम मस्तिष्क के आस—पास ही घूमते रहते हैं। उससे नीचे हमारा ध्यान प्रवेश ही नहीं करता।

साधक की यात्रा नीचे की तरफ है— जड़ों की तरफ। मस्तिष्क से उतरना है हृदय तक। और हृदय से उतरना है नाभि तक। और नाभि के बाद ही कोई आत्मा में प्रवेश पा सकता है, उसके पहले कभी नहीं पा सकता।

आमतौर से हमारे जीवन की गति नाभि से मस्तिष्क की तरफ है। साधक की गति बिलकुल उलटी होने को है। मस्तिष्क से नाभि की तरफ उसे नीचे उतरना है।

तो इन तीन दिनों में मैं…….वह तो आपसे क्रमश: बात करूंगा कि मस्तिष्क से हृदय तक कैसे उतरें और हृदय से नाभि तक कैसे उतरें और फिर नाभि से आत्मा तक प्रवेश कैसे हो सकता है।

आज तो सिर्फ शरीर के संबंध में ही कुछ बात कहनी जरूरी है।

पहली बात तो यही ध्यान में लेने की आवश्यक है कि मनुष्य के प्राणों का केंद्र नाभि है। वहीं से बच्चा जीवन पाना शुरू करता है, वहीं से उसके सारे जीवन की शाखाएं—प्रशाखाएं फैलनी शुरू होती हैं, वहीं से उसे ऊर्जा मिलती है, वहीं से शक्ति मिलती है, लेकिन उस ऊर्जा के केंद्र पर हमारा ध्यान नहीं है, जरा भी नहीं है! और उस ऊर्जा के केंद्र को, उस शक्ति के केंद्र को जानने की जो भी व्यवस्था है, उस पर भी हमारी कोई दृष्टि नहीं है! बल्कि उसे भूल जाने की जो व्यवस्था है, उस पर हमारी पूरी दृष्टि है और पूरी शिक्षा है! इसीलिए पूरी शिक्षा गलत हो गई है।

सारी शिक्षा मनुष्य को धीरे— धीरे पागलपन की तरफ ले जा रही है।

अकेला मस्तिष्क केवल पागलपन की तरफ ही ले जा सकता है।

क्या आपको पता है, जो मुल्क जितना ज्यादा शिक्षित हो गया है, उतनी ही वहां पागलों की संख्या बढ़ गई है? अमरीका में आज पागलों की संख्या सर्वाधिक है। यह गौरव की बात है। यह इस बात का सबूत है कि अमरीका सबसे ज्यादा शिक्षित है, सबसे ज्यादा सभ्य है। अमरीकी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सौ वर्षों तक यही व्यवस्था चली, तो अमरीका में ठीक आदमी खोजना मुश्किल हो जाएगा। आज भी चार आदमियों में से तीन आदमियों के मस्तिष्क डांवाडोल स्थिति में हैं।

सिर्फ अमरीका में ही तीस लाख लोग रोज अपनी मानसिक चिकित्सा के लिए डॉक्टरों से सलाह ले रहे हैं! धीरे— धीरे शरीर के डॉक्टर कम और मन के डॉक्टर अमरीका में बढ़ते जाते हैं। क्योंकि शरीर के डॉक्टर भी यह कहते हैं कि आदमी की अस्सी प्रतिशत बीमारियां मन की हैं, शरीर की नहीं हैं! और जैसे—जैसे समझ बढ़ती है, यह प्रतिशत बढ़ता जाता है। पहले वे कहते थे चालीस प्रतिशत, फिर वे कहने लगे पचास प्रतिशत, अब वे कहते हैं अस्सी प्रतिशत बीमारी मन की है, शरीर की नहीं! और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि बीस—पच्चीस साल के बाद वे कहेंगे निन्यानबे प्रतिशत बीमारियां मन की हैं, शरीर की नहीं हैं! यह उनको कहना पड़ेगा, क्योंकि मनुष्य के मस्तिष्क पर ही सारा बल दिया जा रहा है। मस्तिष्क विक्षिप्त हो गया है।

आपको अंदाज नहीं है कि मस्तिष्क बड़ी डेलिकेट, बड़ी महीन, बहुत बारीक, बहुत नाजुक चीज है। आदमी का मस्तिष्क दुनिया की सबसे ज्यादा नाजुक मशीन है। उस मशीन पर इतना भार दिया जा रहा है कि यही आश्चर्य है कि वह बिलकुल टूट कर पागल क्यों नहीं हो जाती! सारा भार मस्तिष्क पर है और मस्तिष्क कितना नाजुक है, इसकी हमें कोई कल्पना नहीं है। एक आदमी की छोटी सी खोपड़ी में कितने पतले स्नायु हैं, जिन पर सारा बोझ पड़ता है, चिंता पड़ती है, सारा दुख पड़ता है, सारा शान पड़ता है, सारी शिक्षा पड़ती है, सारे जीवन का भार पड़ता है! वे नाजुक कितने हैं, इसका हमें कोई अंदाज नहीं है।

शायद आपको खयाल भी न हो, इस छोटे से सिर के भीतर कोई सात करोड़ तंतु हैं। उनकी संख्या ही आपको बता सकती है कि वे कितने छोटे होंगे। क्योंकि इतने से.. बहुत नाजुक है, उससे ज्यादा नाजुक कोई यंत्र नहीं है। उससे ज्यादा नाजुक कोई पौधा नहीं है। यह इससे भी खयाल में आ सकता है कि मनुष्य के बहुत छोटे से सिर के भीतर सात करोड़ स्नायु हैं। ये स्नायु इतने हैं कि अगर एक आदमी के सिर के स्नायुओं को एक के बाद एक फैलाया जाए तो पूरी पृथ्वी की परिक्रमा एक आदमी के मस्तिष्क के स्नायु ले लेंगे।

इस छोटे से सिर के भीतर इतनी बारीक व्यवस्था है, इतनी नाजुक व्यवस्था है। इस नाजुक मस्तिष्क पर ही पिछले पांच हजार वर्षों में सबसे ज्यादा जोर दिया गया है। उसका परिणाम होना स्वाभाविक था। उसका परिणाम यह हुआ कि ये तंतु टूटने शुरू हो गए, ये तंतु विक्षिप्त होने शुरू हो गए, ये तंतु पागल होने शुरू हो गए।

विचार का अति भार मनुष्य को पागलपन के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं ले जा सकता है।

सारी जीवन— धारा ही मस्तिष्क के आस—पास घूमने लगी है। यह जो मस्तिष्क के पास घूमती हुई जीवन— धारा है, साधक को इसी जीवन— धारा को और गहरे और नीचे और केंद्र की तरफ उतारना है, वापस लौटाना है। यह कैसे वापस लौट सकेगी, उसके पहले सूत्र ‘शरीर’ के संबंध में हमें समझ लेने हैं।

पहली बात शरीर को या तो भोगने की दृष्टि से देखा जाता है या त्यागने की दृष्टि से देखा जाता है। शरीर को साधना का एक मार्ग, और परमात्मा का एक मंदिर, और जीवन के केंद्र को खोज लेने की एक सीढ़ी की तरह नहीं देखा जाता है। ये दोनों ही बातें भूल—भरी हैं।

जीवन में जो भी श्रेष्ठ है और जो भी उपलब्ध करने जैसा है, उस सबका मार्ग शरीर के भीतर और शरीर से होकर ही जाता है।

शरीर की स्वीकृति एक मंदिर की भांति, एक मार्ग की भांति जब तक मन में न हो, तब तक या तो शरीर के हम भोगी होते हैं या शरीर के हम त्यागी होते हैं। और दोनों ही स्थितियों में शरीर के प्रति हमारी भाव—दशा सम्यक, ठीक, संतुलित नहीं होती है।

बुद्ध के पास एक युवक दीक्षित हुआ था। वह युवक राजकुमार था। उसने जीवन के सब तरह के भोग देखे थे। भोग में ही जीआ था। फिर वह संन्यासी हो गया। बुद्ध के भिक्षु बहुत आश्चर्य से भरे। उन्होंने कहा यह व्यक्ति संन्यासी होता है! यह कभी राजमहल के बाहर नहीं निकला, यह कभी रथ के नीचे नहीं चला, यह जिन रास्तों पर चलता था, वहां मखमली कालीन बिछा दिए जाते थे। यह भिखारी होगा! यह इसको क्या पागलपन सूझा है!

बुद्ध ने कहा आदमी का मन हमेशा अति पर डोलता है—एक एक्सट्रीम से दूसरी एक्सट्रीम पर, एक अति से दूसरी अति पर। मनुष्य का मन मध्य में कभी भी खड़ा नहीं होता। जैसे घड़ी का पेंडुलम इस कोने से उस कोने चला जाता है, लेकिन बीच में कभी नहीं होता है। ऐसे ही मनुष्य का मन एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। अब तक इसने शरीर— भोग की अति पर जीआ, अब यह शरीर—त्याग की अति पर जीएगा।

और यही हुआ। वह राजकुमार जो कभी बहुमूल्य कालीनों के नीचे नहीं चला था, जब और भिक्षुओं के साथ रास्ते पर चलता, तो सारे भिक्षु राजपथ पर चलते, वह पगडंडियों पर चलता, जिन पर कांटे होते!

जब सारे भिक्षु वृक्षों की छाया में बैठते, तब वह धूप में खड़ा होता। सारे भिक्षु एक दिन भोजन भी लेते—दिन में एक बार। वह एक दिन उपवास रखता, एक दिन भोजन लेता। छह महीने में उसने शरीर को सुखा कर कांटा बना दिया। उसकी सुंदर देह काली पड़ गई। उसके पैरों में घाव पड़ गए।

बुद्ध छह महीने बाद उसके पास गए और उस भिक्षु को कहा कि श्रोण! — श्रोण उसका नाम था—एक बात मुझे पूछनी है। मैंने सुना है, जब तू राजकुमार था, तो तू वीणा बजाने में बहुत कुशल था। क्या यह सच है? उस भिक्षु ने कहा हां। लोग कहते थे, मुझ जैसी वीणा बजाने वाला और कोई भी नहीं।

तो बुद्ध ने कहा फिर मैं एक प्रश्न पूछने आया हूं हो सकता है तू उत्तर दे सके। मैं यह पूछता हूं कि वीणा के तार अगर बहुत ढीले हों, तो संगीत पैदा होता है या नहीं?

श्रोण हंसने लगा। उसने कहा. कैसी बात पूछते हैं! यह तो बच्चे भी जानते हैं कि वीणा के तार बहुत ढीले होंगे तो संगीत पैदा नहीं होगा, क्योंकि ढीले तारों पर टकार पैदा नहीं हो सकती, चोट नहीं की जा सकती। ढीले तार खींचे नहीं जा सकते, उनसे ध्वनि—तरंग पैदा नहीं हो सकती। ढीले तारों से कोई संगीत पैदा नहीं हो सकता।

तो बुद्ध ने कहा और तार अगर बहुत कसे हों?

तो श्रोण ने कहा बहुत कसे तारों से भी संगीत पैदा नहीं होता। क्योंकि बहुत कसे तार छूते ही टूट जाते हैं।

तो बुद्ध ने कहा संगीत कब पैदा होता है?

वह श्रोण कहने लगा संगीत तो तब पैदा होता है, जब तार ऐसी दशा में होते हैं, जब न तो हम कह सकते हैं कि वे बहुत कसे हैं और न हम कह सकते हैं कि बहुत ढीले हैं। एक तारों की ऐसी’ अवस्था भी है, जब न तो वे ढीले होते और न कसे होते। एक बीच का बिंदु भी है, एक मध्य—बिंदु भी है। संगीत तो वहीं पैदा होता है। और कुशल संगीतज्ञ इसके पहले कि गीत उठाए, तारों को देख लेता है कि तार ढीले तो नहीं हैं, तार कसे तो नहीं हैं।

तो बुद्ध ने कहा बस, उत्तर मुझे मिल गया। और यही मैं तुझसे कहने आया हूं। जैसे तू वीणा बजाने में कुशल था, ऐसे ही जीवन की वीणा बजाने में मैंने भी कुशलता पाई है। और जो वीणा का नियम है, वही जीवन— वीणा का नियम भी है। जीवन के तार बहुत ढीले हों, तो भी संगीत पैदा नहीं होता है और बहुत कसे हों, तो भी संगीत पैदा नहीं होता है। और जो जीवन का संगीत पैदा करने चला हो, वह पहले देख लेता है कि तार बहुत कसे तो नहीं हैं, तार बहुत ढीले तो नहीं हैं।

और जीवन—वीणा कहां है?

मनुष्य के शरीर के अतिरिक्त कोई जीवन—वीणा नहीं है। और मनुष्य के शरीर में कुछ तार हैं, जो न तो बहुत कसे होने चाहिए और न बहुत ढीले होने चाहिए। उस संतुलन में, उस बैलेंस में ही मनुष्य संगीत की ओर प्रविष्ट होता है। उस संगीत को जानना ही आत्मा को जानना है। और जब एक व्यक्ति अपने भीतर के संगीत को जान लेता है, तो वह आत्मा को जान लेता है और जब वह समस्त के भीतर छिपे संगीत को जान लेता है, तो वह परमात्मा को जान लेता है।

तो मनुष्य के शरीर की इस वीणा के तार कहां—कहां हैं? पहली तो बात, मस्तिष्क में बहुत से तार हैं, जो बहुत कसे हुए हैं। जो इतने कसे हुए हैं कि उनसे संगीत पैदा नहीं हो सकता। अगर उनको कोई छुएगा, तो केवल विक्षिप्तता पैदा होती है और कुछ भी पैदा नहीं होता। और हम सारे लोग ही मस्तिष्क के तारों को बहुत कसे हुए बैठे हैं। चौबीस घंटे कसे हुए हैं, सुबह से लेकर सांझ तक। और कोई सोचता हो, रात भी ढीले हो जाते हों, तो गलती में है। रात भी हमारा मस्तिष्क कसा हुआ है और खिंचा हुआ है।

पहले तो हमें पता नहीं था कि आदमी के मस्तिष्क में रात क्या चलता है? अब तो मशीनें ईजाद कर ली गई हैं! आप रात भर सोए रहिए और आपका मस्तिष्क क्या कर रहा है भीतर, यह मशीन सब खबर देती रहेगी!

अमरीका में और रूस में इस समय कोई सौ प्रयोगशालाएं काम कर रही हैं। आदमी नींद में क्या करता है, इसकी जांच—पड़ताल के लिए। कोई चालीस हजार लोगों के ऊपर प्रयोग किए गए हैं रात सोते में। और जो नतीजे मिले हैं, वे बड़े हैरानी के हैं। वे नतीजे ये हैं कि आदमी दिन भर जो करता है, रात भर भी वही करता है। दिन भर जो करता है— अगर दुकान दिन भर चलाता है, तो रात भर भी दुकान चलाता है। मस्तिष्क अगर दिन भर चिंता करता है, तो रात भर भी चिंता करता है। अगर दिन में क्रोध करता है, तो रात में भी क्रोध करता है।

रात प्रतिबिंब है पूरे दिन का, प्रतिछाया है, उसका ही रिफ्लेक्यान है, उसकी ही प्रतिध्वनि है। जो दिन भर मन पर होता है, रात उसके ही प्रतिबिंब मन पर गूंजते रहते हैं। जो—जो काम अधूरा रह गया होता है, रात मन उसे पूरा करने की कोशिश करता है। अगर किसी पर क्रोध कम किया है, क्रोध अधूरा रह गया है, अटका हुआ रह गया है, तो रात मन उसे रिलीज करता है। पूरे क्रोध को करके वीणा का तार अपनी जगह बैठने की कोशिश करता है। अगर दिन में कोई आदमी उपवास किया है, तो रात भोजन कर लेता है सपने में। दिन में जो अधूरा रह गया है, वह रात पूरा होने की कोशिश करता है। तो जो हम दिन में करते हैं, वही पूरे रात मन करता है।

चौबीस घंटे मन खिंचा हुआ है। मन पर कोई विश्राम नहीं है। मन के तार कभी भी ढीले नहीं होते। तो मन के तार हैं बहुत खिंचे हुए—एक बात। और दूसरी बात. हृदय के तार हैं बिलकुल ढीले। हृदय के तार हमारे कसे हुए ही नहीं हैं। प्रेम जैसी चीज को हम जानते हैं?

हम क्रोध को जानते हैं, हम द्वेष को जानते हैं, हम ईर्ष्या को जानते हैं, हम घृणा को जानते हैं। प्रेम जैसी चीज को हम जानते हैं? शायद हम कहेंगे, हम जानते हैं। कभी—कभी हम प्रेम करते हैं। शायद हम कहेंगे कि हम घृणा भी करते हैं, हम प्रेम भी करते हैं। लेकिन क्या आपको पता है, ऐसा हृदय भी हो सकता है क्या जो घृणा भी करे और प्रेम भी करे? यह वैसे ही है जैसे हम कहें, एक आदमी कभी—कभी जिंदा भी होता है और कभी—कभी मुर्दा भी होता है। यह हमारे विश्वास में नहीं आएगी बात, क्योंकि आदमी या तो जिंदा हो सकता है या मुर्दा हो सकता है। ये दोनों बातें साथ—साथ नहीं हो सकतीं कि एक आदमी कभी जिंदा भी हो और कभी मुर्दा भी हो। यह असंभव है। यह संभव नहीं है। या तो हृदय घृणा को ही जानता है या प्रेम को ही जानता है। इन दोनों के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता। क्योंकि जिस हृदय में प्रेम होता है, उस हृदय में घृणा असंभव हो जाती है।

राबिया नाम की एक फकीर औरत थी। राबिया के पास एक दूसरा फकीर आकर ठहरा। राबिया जिस धर्मग्रंथ को पढ़ती थी, उसमें उसने एक पंक्ति को काट दिया था, एक लकीर उसने काट दी थी। धर्मग्रंथों में कोई पंक्तियां काटता नहीं है, क्योंकि धर्मग्रंथों में कोई सुधार क्या करेगा?

वह दूसरे फकीर ने किताब पढ़ी और उसने कहा कि राबिया, किसी ने तुम्हारे धर्मग्रंथ को नष्ट कर दिया, यह तो अपवित्र हो गया, इसमें एक लाइन कटी हुई है, यह किसने काटी है?

राबिया ने कहा यह मैंने ही काटी है।

वह फकीर बहुत हैरान हो गया। उसने कहा तूने यह लाइन क्यों काटी? उस पंक्ति में लिखा हुआ था शैतान को घृणा करो।

राबिया ने कहा : मैं मुश्किल में पड़ गई हूं। जिस दिन से मेरे मन में परमात्मा के प्रति प्रेम जगा है, उस दिन से मेरे भीतर घृणा विलीन हो गई है। मैं घृणा चाहूं भी तो नहीं कर सकती हूं। और अगर शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो जाए, तो मैं प्रेम ही कर सकती हूं। मेरे पास कोई उपाय न रहा, क्योंकि घृणा करने के पहले मेरे पास घृणा होनी चाहिए।

मैं आपको घृणा करूं, इसके पहले मेरे हृदय में घृणा होनी चाहिए। नहीं तो मैं करूंगा कहां से और कैसे? और एक ही हृदय में घृणा और प्रेम का सह—अस्तित्व, को—एक्सिस्टेंस संभव नहीं है। ये दोनों बातें उतनी ही विरोधी हैं, जितनी बातें जीवन और मृत्यु। ये दोनों बातें एक साथ एक ही हृदय में नहीं होती हैं।

तो फिर हम जिसको प्रेम कहते हैं, वह क्या है?

थोड़ी कम जो घृणा है, उसे हम प्रेम कहते हैं। थोड़ी ज्यादा जो घृणा है, उसे हम घृणा कहते हैं। वह घृणा की ही मात्राएं हैं, वह घृणा की ही ग्रेडेशंस हैं, वह घृणा की ही थोड़ी और ज्यादा अनुपात हैं। प्रेम वहां जरा भी नहीं है। अनुपात से भूल पैदा होती है। अनुपात से इसलिए भूल पैदा होती है— आप समझते होंगे कि ठंड और गर्मी दो अलग चीजें हैं। दोनों अलग चीजें नहीं हैं। गर्मी और ठंड एक ही चीज के अनुपात हैं। वही चीज, अनुपात गर्मी का कम हो जाए, तो ठंडी मालूम होने लगती है। वही चीज, अनुपात गर्मी का बढ़ जाए, तो गर्म मालूम होने लगती है। ठंड गर्मी का ही एक रूप है। ठीक विरोधी मालूम होने लगती हैं दोनों चीजें कि दोनों अलग—अलग हैं, दुश्मन हैं एक—दूसरे की। दुश्मन नहीं हैं, एक ही चीज के घने और गैर—घने रूप हैं। ऐसे ही घृणा को हम जानते हैं।

घृणा के ही कम घने रूपों को हम प्रेम समझ लेते हैं और घृणा के ही तीव्र घने रूपों को हम घृणा समझ लेते हैं। लेकिन प्रेम घृणा का कोई रूप ही नहीं है। प्रेम घृणा से बिलकुल ही अलग बात है। प्रेम का घृणा से कोई संबंध नहीं है।

हमारा हृदय और उसके तार बिलकुल ढीले हैं। उन ढीले तारों से कोई प्रेम का संगीत पैदा नहीं होता; न कोई आनंद का संगीत पैदा होता है।

जीवन में आपने आनंद को जाना है कभी? कह सकते हैं किसी क्षण को कि यह आनंद का था और मैंने आनंद पहचाना और जाना? कठिन है ईमानदारी से यह कहना कि मैंने कभी आनंद जाना है।

कभी प्रेम जाना है, यह कहना भी कठिन है। कभी शांति जानी है, यह कहना भी कठिन है।

हम क्या जानते हैं? हम अशांति जानते हैं। हां, अशांति कभी—कभी कम होती है मात्रा में, उसी को हम शांति समझ लेते हैं। असल में हम इतने अशांत रहते हैं कि अगर अशांति थोड़ी कम हो जाती है तो शांति का भ्रम देती है।

एक आदमी बीमार है, थोड़ी बीमारी कम होती है, वह कहता है, मैं स्वस्थ हुआ, क्योंकि बीमारी इतनी घिरी है उसके आस—पास कि थोड़ी बीमारी कम है तो उसे लगता है मैं स्वस्थ हूं। लेकिन स्वास्थ्य और बीमारी का क्या संबंध है? स्वास्थ्य तो बात ही अलग है!

स्वास्थ्य तो बात ही अलग है।

हममें से बहुत कम लोग ही स्वास्थ्य को जान पाते हैं, ज्यादा बीमारी को जानते हैं, कम बीमारी को जानते हैं, लेकिन स्वास्थ्य को नहीं जान पाते। ज्यादा अशांति को जानते हैं, कम अशांति को जानते हैं, लेकिन शांति को नहीं जान पाते। ज्यादा घृणा को जानते हैं, कम घृणा को जानते हैं। ज्यादा क्रोध को जानते हैं, कम क्रोध को जानते हैं।

आप शायद सोचते होंगे कि कभी—कभी क्रोध आता है। झूठी है यह बात। आप चौबीस घंटे क्रोध में होते हैं। कभी ज्यादा होते हैं, कभी कम होते हैं। चौबीस घंटे आप क्रोध में हैं। जरा सा मौका मिल जाए और क्रोध प्रकट होना शुरू हो जाएगा। मौके की तलाश है, क्रोध भीतर तैयार है, सिर्फ ऑपरच्‍यूनिटी की खोज है कि कोई बाहर से मौका दे दे। क्योंकि बिना मौके के अगर आप क्रोध करेंगे, तो लोग आपको पागल समझेंगे। अगर आपको मौके न दिए जाएं, तो आप बिना मौके के भी क्रोध करना शुरू कर देंगे, यह आपको शायद पता नहीं होगा।

अगर एक आदमी को एक कमरे में बंद कर दिया जाए, सारी सुविधाएं दे दी जाएं और उससे पूछा जाए कि वह रोज इस बात को नोट करता रहे कि क्या उसके चित्त में बिना किसी कारण के भी फर्क पड़ते हैं? और वह नोट करेगा, उस बंद कमरे में कभी उसे अच्छा लगने लगेगा, कभी उसे बुरा लगने लगेगा। कभी वह उदास हो जाएगा, कभी वह खुश हो जाएगा। कभी वह क्रोधित अनुभव करेगा, कभी क्रोधित नहीं अनुभव करेगा। वहां कोई मौके नहीं हैं, वहां सब स्थिति समान चल रही है। लेकिन उसे क्या हो रहा है? और इसीलिए एकांत से आदमी डरता है, क्योंकि एकांत में बाहर कोई बहाना नहीं होता और सब चीजें भीतर ही मान लेनी पड़ेगी। कोई भी आदमी एकांत में रख दिया जाए, छह महीने से ज्यादा स्वस्थ नहीं रह सकता, पागल हो जाएगा।

एक सम्राट ने इजिप्त में यह प्रयोग किया था। किसी फकीर ने उसको कहा यह। उस सम्राट ने कहा मैं नहीं मानता हूं। तो उस फकीर ने कहा कि तुम्हारे नगर में कोई सबसे स्वस्थ आदमी हो, तो उसे छह महीने के लिए बंद कर दो। नगर में खोजा गया। एक स्वस्थ युवक जो सब तरह से प्रसन्न था, नई शादी हुई थी, एक बच्चा था, ठीक कमाता था, बहुत मजे में था। उसे पकड़वा लिया गया। और सम्राट ने उससे कहा कि तुम्हें हम कोई कष्ट नहीं देंगे। हम सिर्फ एक प्रयोग करते हैं। और तुम्हारे घर के लोगों की ठीक व्यवस्था रहेगी— भोजन की, कपड़ों की, सब इंतजाम रहेगा। तुमसे अच्छा इंतजाम रहेगा। और तुम्हारे लिए भी सब व्यवस्था रहेगी। सिर्फ छह महीने तुम्हें अकेले रहना पड़ेगा।

एक बड़े भवन में उसको बंद कर दिया। सारी सुविधा जुटा दी, लेकिन एकांत इतना था कि जो आदमी भी पहरे पर खड़ा था, वह भी उसकी भाषा नहीं समझता था, ताकि बोल न सके वे आपस में। दो—चार दिन में ही वह आदमी घबड़ाने लगा। सब सुविधा थी। कोई कठिनाई न थी। ठीक वक्त पर भोजन मिलता था, ठीक वक्त पर सोने मिलता था। शाही महल था। सब इंतजाम था। कोई कठिनाई नहीं थी, वह जो करना चाहे कर सकता था बैठ कर वहां। सिर्फ इतना था कि किसी से बात नहीं कर सकता था, किसी से मिल नहीं सकता था। दो—चार दिन में ही बेचैनी शुरू हो गई। आठ दिन बाद वह चिल्लाने लगा कि मुझे बाहर निकालो! मैं यहां नहीं रहना चाहता हूं!

कौन सी तकलीफ आ गई थी? भीतर से तकलीफें आनी शुरू हो गईं। जिनको वह कल तक समझता था, बाहर से आती हैं, वे अकेले में पता चलीं कि भीतर से आती हैं। छह महीने होते—होते वह आदमी पागल हो गया। छह महीने बाद जब उसे निकाला गया, वह पूरा पागल हो चुका था। वह अपने से ही बातें करने लगा था। अपने को ही गाली देने लगा था। अपने पर ही क्रोध करने लगा था। अपने से ही प्रेम करने लगा था। अब कोई दूसरा तो मौजूद नहीं था। छह महीने बाद वह पागल की तरह बाहर निकाला गया। उसके ठीक हो जाने में छह साल लगे।

आपमें से कोई भी पागल हो जाएगा। दूसरे लोग मौका दे देते हैं, आप पागल नहीं हो पाते। आपको बहाना मिल जाता है, इस आदमी ने गाली दी है, इसलिए मैं क्रोध से भर गया हूं। कोई आदमी किसी के गाली देने से क्रोध से नहीं भरता है। भीतर क्रोध मौजूद है। गाली केवल मौका बनती है, उसके निकल आने का। एक कुएं में पानी भरा हुआ है। हम बाल्टी डालते हैं, कुएं से पानी निकल आता है। अगर कुएं में पानी न हो, तो हम बाल्टी कितनी ही डालें, वहां से कुछ निकलने वाला नहीं है। बाल्टी पानी नहीं निकाल सकती। बाल्टी की क्या ताकत है पानी निकालने के लिए? कुएं में पानी होना चाहिए। कुएं में पानी है, तो बाल्टी पानी निकाल सकती है। कुएं में पानी नहीं है, तो बाल्टी पानी नहीं निकाल सकती।

आपके भीतर क्रोध नहीं है, आपके भीतर घृणा नहीं है, दुनिया की कोई ताकत आपके भीतर से क्रोध और घृणा बाहर नहीं निकाल सकती है। वे जो बीच के क्षण हैं, जब कोई कुएं में बाल्टी नहीं डालता है, तब यह भ्रम पैदा हो सकता है कि कुएं में पानी नहीं है। जब कोई डालता है तब तो पानी निकलता है, लेकिन जब कोई बाल्टी नहीं डालता है, कुआं खाली पड़ा है, तो शायद हम सोचते हों कि कुएं में अब पानी नहीं है, तो हम गलती में हैं। ठीक ऐसे ही जब कोई हमें मौका नहीं देता है, तो हमारे भीतर क्रोध नहीं निकलता, घृणा नहीं निकलती, द्वेष नहीं निकलता, तो इस खयाल में न रहें कि आपके कुएं में पानी नहीं है। कुएं में पानी मौजूद है और प्रतीक्षा कर रहा है कि कोई बाल्टी लेकर आएगा और मैं निकलूं। लेकिन हमारे भीतर ये जो खाली मौके हैं, इन्हीं को हम समझ लेते हैं प्रेम के, शांति के क्षण। यह झूठी बात है।

गांधी ने एक दफा कहा कि दुनिया में अब तक युद्ध होता है, फिर लोग कहते हैं, शांति हो जाती है। लेकिन गांधी ने कहा मेरी समझ में ऐसा नहीं आता। या तो युद्ध होता है या युद्ध की तैयारी चलती है, शांति तो कभी नहीं आती। शांति धोखा है। जैसे अभी दुनिया में कोई युद्ध नहीं हो रहा है। दूसरा महायुद्ध बंद हो गया, अब तीसरे महायुद्ध की हम प्रतीक्षा कर रहे हैं। तो हम कहेंगे, ये पीसफुल डेज, ये शांति के दिन हैं। यह झूठी बात है। ये शांति के दिन नहीं हैं। ये तीसरे महायुद्ध की तैयारी के दिन हैं। सारी दुनिया में तैयारी चल रही है युद्ध की। युद्ध होता है या युद्ध की तैयारी होती है। अभी तक दुनिया ने शांति के कोई दिन नहीं देखे।

आदमी के भीतर भी क्रोध होता है या क्रोध की फिर तैयारियां होती हैं, अक्रोध की कोई अवस्था आदमी नहीं जानता। अशांति होती है, प्रकट होती है या तैयार होती है। भीतर जो तैयारी के क्षण हैं, उनको हम समझ लेते हैं शांति के क्षण, तो हम भूल में पड़ जाते हैं।

हृदय के तार बिलकुल ढीले हैं। उनसे क्रोध ही पैदा होता है। उनसे विकृति पैदा होती है। विसंगीत ही पैदा होता है। लेकिन उनसे कोई संगीत पैदा नहीं होता। मस्तिष्क के तार हैं बहुत खिंचे हुए, उनसे पागलपन पैदा होता है और हृदय के तार हैं बिलकुल ढीले, उनसे क्रोध, वैमनस्य, द्वेष, घृणा, ये सब पैदा होते हैं। हृदय के तार थोड़े कसे हुए होना चाहिए, ताकि उनसे प्रेम पैदा हो सके और मस्तिष्क के तार थोड़े शिथिल होना चाहिए, ताकि उनसे विवेक पैदा हो सके, विक्षिप्तता नहीं। और अगर ये दोनों तार ठीक संतुलन में आ जाएं, तो जीवन के संगीत की संभावना पैदा हो सकती है।

तो हम दो बातों पर विचार करेंगे। एक तो कि मस्तिष्क के तार कैसे शिथिल किए जा सकें और हृदय के तार कैसे तीव्र किए जा सकें। हृदय के तारों पर कैसे कसाव लाया जा सके और मस्तिष्क के तारों को कैसे शिथिल किया जा सके, कैसे रिलैक्स किया जा सके, इन दोनों बातों पर विचार करेंगे। और इन दोनों की जो साधना है, उसको ही मैं ध्यान कहता हूं। इन दोनों की तरफ जो साधना है, उसको ही मैं मेडिटेशन कहता हूं उसे ही मैं ध्यान कहता हूं।

और ये दोनों बातें अगर पैदा हो जाएं तो फिर तीसरी बात पैदा हो सकती है। वह जो हमारा असली केंद्र है जीवन का—नाभि, उस तक भी उतरना संभव है। इनमें संगीत पैदा हो जाए दोनों केंद्रों पर तो भीतर गति हो सकती है। वह संगीत ही नाव बन जाता है हमें और गहरे ले जाने का। जितना संगीतपूर्ण होता है व्यक्तित्व, जितना भीतर संगीत पैदा होता है, उतने ही हम गहरे उतर सकते हैं। और जितना भीतर विसंगीत होता है, उतना ही हम उथले रह जाते हैं, हम बाहर रह जाते हैं। आने वाले दो दिनों में इस बाबत विचार करेंगे और न केवल विचार करेंगे प्रयोग करेंगे कि कैसे हम इन दोनों की वीणा को— ये वीणा के तारों को हम कैसे संतुलन में ला सकें।

अभी तो तीन बातें मैंने कहीं, वे खयाल में रख लेने की हैं, ताकि आगे जो बातें मैं कहूंगा, उनसे आप उनको जोड़ सकें। पहली बात मनुष्य की आत्मा न तो मस्तिष्क से जुड़ी है और न हृदय से। मनुष्य की आत्मा जुड़ी है नाभि से। मनुष्य के शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिंदु नाभि है। वही केंद्र है, वह शरीर के ही मध्य में नहीं है नाभि, जीवन के भी मध्य में वही है। बच्चा पैदा भी उससे ही होता है और जीवन का अंत भी नाभि से ही होता है। और जो लोग जीवन के सत्य में प्रवेश करते हैं, उनके लिए भी नाभि ही द्वार बनती है।

और आज भी आपको खयाल में नहीं होगा कि दिन भर आप श्वास फेफड़ों से लेते हैं, लेकिन रात आपकी श्वास नाभि से चलनी शुरू हो जाती है। दिन भर आपका सीना उठता—फैलता है, लेकिन रात जब आप सो जाते हैं, आपका पेट उठने—गिरने लगता है। छोटे बच्चे को आपने श्वास लेते देखा होगा, तो छोटे बच्चों का फेफड़ा ऊपर नहीं उठता, पेट ऊपर उठता हुआ दिखाई पड़ेगा। छोटे बच्चे अभी नाभि के ज्यादा करीब हैं। जैसे— जैसे आदमी बड़ा होने लगता है, वैसे—वैसे उसकी श्वास ऊपर से ही वापस लौटने लगती है और नाभि तक उसके कंपन बंद हो जाते हैं।

अगर आप रास्ते पर जा रहे हैं, साइकिल चला रहे हैं, या कार चला रहे हैं और एकदम से एक्सीडेंट की हालत आ जाए, तो आप हैरान होंगे, आपको पहली चोट नाभि पर लगेगी—न मस्तिष्क पर लगेगी, न हृदय पर लगेगी। अगर एक आदमी एकदम से आपके ऊपर छुरा लेकर आ जाए, तो आपको पहला जो कंपन होगा, वह नाभि पर होगा और कहीं भी नहीं होगा। अगर अभी भी आप घबड़ा जाएं एकदम से, तो पहला कंपन नाभि पर होगा। जीवन पर जब भी संकट पैदा होता है, तो नाभि पर पहले कंपन होते हैं, क्योंकि जीवन का केंद्र नाभि है। और कहीं कंपन नहीं होते। जीवन के स्रोत वहां से जुड़े हैं और चूंकि नाभि पर हमारा ध्यान बिलकुल ही नहीं रहा है, इसलिए आदमी बिलकुल ही अधर में लटका रह गया है। नाभि का केंद्र एकदम अस्वस्थ है, उस पर ध्यान ही नहीं है। उसके विकास की भी कोई व्यवस्था नहीं है।

आप हैरान होंगे यह बात जान कर कि नाभि का केंद्र विकसित होने के लिए कुछ व्यवस्था होनी चाहिए। जैसे हमने मस्तिष्क को विकसित करने के लिए स्कूल और कॉलेज बना छोड़े हैं, वैसा नाभि के केंद्र को विकसित करने के लिए कुछ व्यवस्था अत्यंत जरूरी है। और कुछ बातें हैं जिनसे नाभि का केंद्र विकसित होता है। कुछ बातें हैं जिनसे विकसित नहीं होता है। जैसे मैंने कहा कि अगर भय की स्थिति खड़ी हो जाए, तो सबसे पहले नाभि कैप जाती है। इसलिए जो आदमी जितना अभय की साधना करेगा, उसकी नाभि उतनी ही स्वस्थ होती चली जाती है।

जो आदमी जितना करेज, जितने साहस की साधना करेगा, उसकी नाभि, उसका केंद्र उतना ही विकसित होता है। जितना अभय बढ़ेगा, उतनी नाभि मजबूत और पुष्ट होगी और जीवन से संबंध गहरे होंगे। इसलिए दुनिया के सारे महत्वपूर्ण साधकों ने अभय को, फियरलेसनेस को साधक का अनिवार्य गुण माना है। फियरलेसनेस का और कोई मूल्य नहीं है— अभय का। अभय का मूल्य है। वह नाभि के केंद्र को पूरा जीवंत कर देती है। उसके सारे विकास को पूरा खुल कर प्रकट कर देती है।

वह हम धीरे—धीरे बात करेंगे।

नाभि के केंद्र पर सर्वाधिक ध्यान देना आवश्यक है। मस्तिष्क के केंद्र से ध्यान को धीरे— धीरे हटाना जरूरी है। हृदय के केंद्र से भी धीरे— धीरे ध्यान को हटाना जरूरी है, ताकि वह नीचे और डीपर और डीपर, और गहरे से गहरे में प्रवेश हो जाए। तो उसके लिए दो प्रयोग सुबह और रात्रि हम ध्यान के करेंगे। सुबह का प्रयोग मैं आपको समझाता हूं। फिर पंद्रह मिनट के लिए हम उस प्रयोग के लिए बैठेंगे और उस प्रयोग को करेंगे।

निश्चित ही अगर मस्तिष्क से चेतना को नीचे ले जाना है, तो मस्तिष्क को बिलकुल शिथिल छोड़ देना जरूरी है, रिलैक्स छोड़ देना जरूरी है। हम मस्तिष्क को खींचे रहते हैं पूरे वक्त। खयाल ही भूल गया है कि हम खींचे हुए चले जा रहे हैं। पूरा टेंस किए हुए हैं माइंड को, पूरा खिंचे हुए हैं, यह खयाल में नहीं है। तो पहले उसे शिथिल छोड़ देना जरूरी है।

तो अभी हम जब ध्यान के लिए बैठेंगे, तो उसमें तीन बातें हैं।

पहली बात पूरे मस्तिष्क को बिलकुल ऐसे शिथिल छोड़ देना है, इतना शांत और ढीला छोड़ देना है, जैसे आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं। लेकिन आपको कैसे समझ में आएगा कि आपने शिथिल छोड़ दिया? आपको कैसे खयाल में आएगा कि मैंने शिथिल छोड़ दिया? अगर मैं इस मुट्ठी को जोर से खींचूं तो मुझे पता चलता है कि सारी नसें खिंची हुई हैं। फिर मैं इसे ढीला छोड़ दूं तो मुझे पता चलेगा कि सारी नसें ढीली छूट गई हैं।

और चूंकि हमारा मस्तिष्क पूरे वक्त ही खींचा हुआ है, इसलिए हमें पता ही नहीं चलता है कि खींचा हुआ होना क्या है और ढीला हो जाना क्या है। तो एक काम करेंगे— पहले मस्तिष्क को जितना खींच सकेंगे, खींच लेंगे। जितना मस्तिष्क के सारे स्नायुओं को खींच सकें, पूरा खींच लेंगे। जितना टेंस कर सकें, कर लेंगे। फिर एकदम से ढीला छोड़ेंगे। तो आपको पता चलेगा कि खिंचा हुआ होना और ढीले होने में, दोनों में क्या फर्क है!

तो अभी जब हम ध्यान के लिए बैठेंगे, तो एक मिनट के लिए जितना मस्तिष्क को आप खींच सकें, जितना तनाव दे सकें, उतना खींच लेंगे और फिर मैं कहूंगा कि अब ढीला छोड़ दें, तो आप बिलकुल ढीला छोड़ देंगे। और वह आपको पता चल जाएगा कि क्रमश: कैसा खिंचा होना क्या है और ढीला हो जाना क्या है। यह आपको फील होना चाहिए, वह आपको अनुभव में आ जाना चाहिए, तो फिर धीरे— धीरे आप ढीला और ढीला छोड़ने में समर्थ हो जाएंगे।

तो पहला काम है, मस्तिष्क को बिलकुल ढीला छोड़ देना। मस्तिष्क के साथ ही पूरे शरीर को भी ढीला छोड़ देना है। इतने आराम से बैठ जाना है, जिससे शरीर पर कहीं भी कोई जोर न पड़े, कहीं कोई भार न पड़े। फिर आप क्या करेंगे? जैसे ही आप सब ढीला छोड़ देंगे—पक्षी बोल रहे हैं, यह कहीं पनचक्की की आवाज हो रही है, कहीं कोई कौआ बोलेगा, कहीं कोई और आवाज होगी, ये सब आवाजें आपको सुनाई पड़नी शुरू हो जाएंगी। क्योंकि मस्तिष्क जितना शिथिल होगा उतना सेंसिटिव हो जाएगा, उतना संवेदनशील हो जाएगा। एक— एक चीज सुनाई पड़ने लगेगी। आपको अपने हृदय की धड़कन भी सुनाई पड़ने लगेगी। श्वास का आना—जाना भी सुनाई पड़ने लगेगा, अनुभव होने लगेगा।

फिर चुपचाप बैठ कर, यह सब चारों तरफ हो रहा है, उसे चुपचाप अनुभव करना है, और कुछ भी नहीं करना है। आवाज सुनाई पड़ रही है, उसे चुपचाप सुनना है। पक्षी बोलेगा, उसे चुपचाप सुनना है। भीतर श्वास चल रही है, उसे चुपचाप देखते रहना है, और कुछ भी नहीं करना है। आपको अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करना है। क्योंकि आपने अपनी तरफ से कुछ भी किया कि मस्तिष्क खिंचना शुरू हो जाएगा।

आपको तो एक रिलैक्सड अवेयरनेस में, एक शिथिल जागरूकता में बैठे रहना है। सब हो रहा है, आप चुपचाप सुन रहे हैं। और आप हैरान हो जाएंगे, जैसे ही आप शांति से सुनेंगे, वैसे ही और गहरी शांति भीतर उतरनी शुरू हो जाएगी। जितने आप गहरे से सुनेंगे, उतनी और गहराई भीतर बढ़ती चली जाएगी। एक दस मिनट में ही आप पाएंगे कि आप एक शांति के अदभुत केंद्र बन गए हैं। सारी चीज शांत हो गई है।

तो यह हम सुबह का पहला प्रयोग करेंगे। पहली बात मस्तिष्क को खींचेंगे आप पूरी तरह से। जब मैं कहूंगा, पूरे मस्तिष्क को खींच लें, तो आख बंद करके पूरे मस्तिष्क को जितना आप खींच सकते हैं, जितना टेंस कर सकते हैं, उतना टेंस कर लेंगे। फिर मैं कहूंगा, छोड़ दें ढीला, तो एकदम से ढीला छोड़ देंगे, फिर ढीला छोड़ते चले जाएंगे।. .उसी तरह शरीर को ढीला छोड़ देंगे। आख बंद रहेगी। चुपचाप बैठे हुए जो भी आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, उन्हें चुपचाप सुनते रहेंगे। दस मिनट केवल चुपचाप सुनते रहना है, और कुछ भी नहीं करना है। और इन्हीं दस मिनट में पहली दफा आपको लगना शुरू होगा कि भीतर कोई शांत— धारा बहनी शुरू हो जाती है। और प्राण नीचे की तरफ उतरने शुरू हो जाएंगे। मस्तिष्क से वे नीचे की तरफ डूबने शुरू हो जाएंगे।

…….क्योंकि थोड़ी दूर—दूर बैठना पड़ेगा। बिलकुल पास नहीं बैठना है। कोई किसी को छुएगा नहीं। हां— हां, यह पीछे लीन पर आ जाएं। जो लोग परिचित हैं सुबह के ध्यान से, पहले शिविरों में आए हैं, वे तो पीछे यहां लीन पर आ जाएं, ताकि जो लोग नये हैं वे सुन सकें। उनको मुझे कुछ कहना हो, सूचना देनी हो तो सुनाई पड़ जाए। जो लोग भी परिचित हैं वे यहां पीछे आ जाएं। जो भी परिचित हैं वे पीछे चले जाएं, ताकि नये लोग यहां बैठ जाएंगे। ही, पुराने मित्र तो पीछे चले जाएं, नये मित्र थोड़े आगे आ जाएं। कुछ लोग यहां ऊपर आ जाएं, कुछ यहां पीछे आ जाएं, ताकि सुनाई आपको पड़ सके। कोई किसी को छूता हुआ नहीं बैठेगा। कोई किसी को छुए नहीं। हूं उधर तुम लोग तो छू रही हो एक—दूसरे को, थोड़ा— थोड़ा हटो। थोड़ा आगे हट आओ, यह रेत पर बैठ जाओ। थोड़ा आगे हट आओ।

तो सबसे पहले तो आख धीरे से बंद कर लें। बहुत धीरे से आख बंद करनी है। आख पर भी जोर नहीं पड़ना चाहिए कि आप उसे खींच कर बंद कर लें। पलक को धीरे से छोड़ दें। धीरे से छोड़ दें, आख पर भी कोई भार न हो। आख बंद कर लें। ही, आख बंद कर लें, धीरे से आख बंद कर लें।

अब सारे शरीर को ढीला छोड़ दें। सिर्फ मस्तिष्क को खींचें। जितना आप मस्तिष्क को तनाव दे सकें, जितना तनाव, जितना खींचना कर सकें, पूरे मस्तिष्क को खींच लें। अपने भीतर पूरे मस्तिष्क को जोर से टेंस कर लें। सारा मस्तिष्क खिंच जाए जितनी आपकी ताकत हो। खींच लें पूरी ताकत से, सारे शरीर को ढीला छोड़ दें, सारी ताकत मस्तिष्क पर लगा दें कि मस्तिष्क बिलकुल खिंच गया। जैसे मुट्ठी बंद हो गई हो और सारे स्नायु खिंच जाएं। एक मिनट तक पूरी तरह खींचे रहें। उसको ढीला न छोड़ने दें, पूरा खींच लें। और जितना खींच सकें खींच लें। मस्तिष्क को भीतर पूरी तरह खींच लें। खिंचे रहें। खींच लें पूरी ताकत से, पूरे क्लाइमेक्स पर। जितनी आपकी ताकत हो, मस्तिष्क को उतना पूरा तनाव दे दें, ताकि जब वह शिथिल हो तो पूरा शिथिल भी हो सके। ठीक है! खींच लें……!

ठीक है! अब एकदम से ढीला छोड़ दें। बिलकुल ढीला छोड़ दें। मस्तिष्क को बिलकुल ढीला छोड़ दें। सारा खिंचाव छोड़ दें। एक शिथिलता भीतर आनी शुरू हो जाएगी। मालूम पड़ेगा भीतर कोई चीज छूट गई, कोई तनाव विलीन हो गया, चीज शांत हो गई है। बिलकुल ढीला छोड़ दें, अब सब ढीला छोड़ दें…। और चारों तरफ जो भी आवाज है—हवाएं पत्तों को हिलाएगी, कोई पक्षी बोलेगा— चुपचाप मौन बैठ कर सारी आवाजों को सुनते रहें।……सिर्फ सुनते रहें। बाहर की सारी आवाजों को सुनते रहें। सुनते ही सुनते मन और शांत होगा, शांत होता जाएगा। सुनें.. .चुपचाप सुनते रहें, बिलकुल रिलैफ्ल, बिलकुल शिथिल। सुनते रहें.. .दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रह जाएं।. .सुनते रहें, सुनते—सुनते ही मन शांत होता जाता है। चुपचाप सुनते रहें, सुनते ही सुनते मन शांत होता जाएगा। भीतर एक शांति अपने आप उतरनी शुरू हो जाएगी। आप सिर्फ सुनें.. .सुनते रहें.. .मन शांत होता चला जा रहा है.. .मन एकदम शांत होता जाएगा.. .मन शांत हो रहा है…।

मौन सुनते जाएं, मन शांत हो रहा है.. मन शांत हो रहा है. मन एकदम गहरे और शांत होता जाएगा। कोई चीज गहरे और गहरे डूबती चली जाएगी। चेतना नीचे उतरेगी और शांत होती जाएगी।…

मन शांत हुआ है… अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें… धीरे— धीरे गहरी श्वास लें.. .प्रत्येक श्वास के साथ शांति और बढ़ती हुई मालूम पड़ेगी। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें…….फिर बहुत आहिस्ता से आख खोलें.. .जैसी शांति भीतर मालूम हुई वैसी ही बाहर भी दिखाई देगी। धीरे— धीरे आख खोल कर एक मिनट चुपचाप आख खोल कर बैठे रहें… धीरे— धीरे आख खोल लें…।

यह तो प्रयोग हमने समझने के लिए किया। दोपहर में कहीं भी एकांत में बैठ जाएं और इस प्रयोग को ठीक से करें। यह सिर्फ समझने के लिए हमने यहां प्रयोग किया कि आपकी समझ में आ जाए कैसे करना है। दोपहर में किसी भी वृक्ष के नीचे जाकर बैठ जाएं, या रात में अकेले में चुपचाप और इस प्रयोग को पूर्णता से करें। वहां ठीक—ठीक गहराई में उतरना संभव हो पाएगा। तीन दिन अगर ठीक से मेहनत करेंगे, तो ऐसा असंभव है कि तीन दिन में कोई गहराई उपलब्ध न हो। वह निश्चित उपलब्ध होती है। तो अलग बैठ कर एकांत में जाकर प्रयोग को करें।

सुबह की बैठक समाप्त हुई।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–9)

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ऋत् है स्‍वभाव में जीना—(प्रवचन—नौंवां)

प्यारे ओशो!

ऋतस्‍य यथा प्रेत।

अर्थात् प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ।

यह सूत्र ऋग्वेद का है।

प्यारे ओशो! हमें इसका अभिप्रेत अर्थ समझाने की कृपा करें।

नंद मैत्रेय! यह सूत्र अपूर्व है। इस सूत्र में धर्म का सारा सार—निचोड़ है। जैसे हजारों गुलाब के फूलों से कोई इत्र निचोड़े, ऐसा हजारों प्रबुद्ध पुरुषों की सारी अनुभूति इस एक सूत्र में समायी हुई है। इस सूत्र को समझा तो सब समझा। कुछ समझने को फिर शेष नहीं रह जाता।

लेकिन इस सूत्र का इतना ही अर्थ नहीं है कि प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ। सच तो यह है कि ‘ऋत् शब्द के लिए हिंदी में अनुवादित करने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए समझने की कोशिश करो।’प्राकृत’ शब्द से भूल हो सकती है। निश्चित ही वह एक आयाम है ऋत् का। लेकिन बस एक आयाम। ऋत् बहु आयामी है। जिसको लाओत्सु ने ‘ताओ’ कहा है, उसको ही ऋग्वेद ने ऋत् कहा है। जिसको बुद्ध ने ‘एस धम्मो सनंतनो’ कहा है, ‘धम्म’ कहा है, वही ऋत् का अर्थ है।

ऋत् का अर्थ : जो सहज है, स्वाभाविक है; जिसे आरोपित नहीं किया गया है, आविष्कृत किया गया है; जो अंतस् है तुम्हारा, आचरण नहीं, जो तुम्हारी प्रज्ञा का प्रकाश है, चरित्र की व्यवस्था नहीं; जिससे यह सारा जीवन अनुस्थूत है; जिसके आधार से सब ठहरा है, सब चल रहा है; जिसके कारण अराजकता नहीं है। वसंत आता है और फूल खिलते हैं। पतझड़ आता है और पत्ते गिर जाते हैं। वह अदृश्य नियम, जो वसंत को लाता है और पतझड़ को। सूरज है, चांद है, तारे हैं। यह विराट विश्व है और कहीं कोई अराजकता नहीं है। सब सुसंबद्ध है। सब संगीतपूर्ण है। इस लयबद्धता का नाम ऋत् है।

इतने विराट विश्व के भीतर अकारण ही इतना सुनियोजन नहीं हो सकता। कोई अदृश्य ऊर्जा सबको बांधे हुए है। सब समय पर हो रहा है। सब वैसा हो रहा है जैसा होना चाहिये अन्यथा नहीं हो रहा है। यह जो जीवन की आंतरिक व्यवस्था है……न तो वृक्षों से कोई कह रहा है कि हरे हो जाओ, न पत्तों को कोई खींच—खींचकर उगा रहा है… बीज से वृक्ष पैदा होते है, वृक्षों में फूल लग जाते हैं। सुबह होती है, पक्षी गीत गाते हैं।

संगीत में कोई बांसुरी बजाता है तो हम कहेंगे सुंदर है और कोई सितार बजाता है, वह भी सुंदर है और कोई तबला बजाता है, वह भी सुंदर है। लेकिन जब बहुत से वाद्य आर्केस्ट्रा बनते हैं, जब सारे वाद्य एक साथ किसी एक राग और एक लय में नियोजित हो जाते हैं, जब सारे वाद्यों का संगीत मिलकर एक प्रवाह बनता है—तब जो रस है, तब जो संगीत है, तब जो सौंदर्य है, वह एक—एक वाद्य का नहीं हो सकता। और अगर सारे वाद्य अलग—अलग संगीत पैदा करें तो सिर्फ शोरगुल पैदा होगा, संगीत नहीं पैदा होगा।

यह विश्व एक आर्केस्ट्रा है। और जिस सत्य के कारण यह आर्केस्ट्रा है, कि बांसुरी तबले से बंधकर बज रही है, तबला सितार से बंधकर बज रहा है, सब एक दूसरे से बंधकर बज रहे हैं, कोई किसी के विपरीत नहीं है, कहीं कोई संघर्ष नहीं है, सहयोग है—ऋत् शब्द में यह सब समाया हुआ है। इसलिए ऋत् का अर्थ समझो : धर्म। प्राकृत होना उसका एक अंग है।

जैसे आग का धर्म है गर्म होना और पानी का धर्म है नीचे की तरफ प्रवाहित होना और मनुष्य का धर्म है परमात्मा की तरफ ऊपर उठना। जैसे अग्नि की लपट ऊपर की ओर ही जाती है, चाहो तुम दीए को उलटा भी कर दो तो भी ज्योति ऊपर की तरफ ही जाएगी, ज्योति उलटी नहीं होगी—ऐसे ही सारा जीवन प्रवाहित हो रहा है किसी अज्ञात शिखर की ओर! किसी ऊंचाई को छूने के लिए एक गहरी अभीप्सा है। किसी सत्य को जानने की प्यास है। उस परम सत्य का नाम ऋत् है।

लाओत्सु ने कहा, उसका कोई नाम नहीं, इसलिए मैं उसको ‘ताओ’ कहूंगा। वेद भी कहते हैं, उसका कोई नाम नहीं, हम उसे ऋत् कहेंगे। ऋत् शब्द से ही ऋतु बना है। ऋतु का अर्थ है. पता नहीं कौन अज्ञात हाथ कब मधुमास ले आते हैं, मगर नियोजित, सुसम्बद्ध, संगीतपूर्ण! कब हेमंत आ जाता, कब वसंत आ जाता! कैसे आता है! न कहीं कोई आज्ञा सुनायी पड़ती है, न कहीं ढोल पीटे जाते, न कहीं नोटिस लगाए जाते। कोई किसी को कुछ कहता नहीं। पता नहीं कैसे फूलों को खबर हो जाती है! पता नहीं कैसे पक्षियों को पता चल जाता है! पता नहीं कैसे मेघ घिर आते हैं, मोर नाचने लगते हैं! पता नहीं कैसे, यह जो अज्ञात सबको समाए हुए है अपने में, यह जो अज्ञात सबके भीतर यूं समाया हुआ है जैसे माला के मनकों में धागा पिरोया होता है! यूं तो फूलों का ढेर भी लगा सकते हो, मगर फूलों का ढेर ढेर ही है। लेकिन धागा पिरो दो, इन्हीं फूलों में, तो माला बन जाए। और माला ही अर्पित हो सकती है। यह जगत फूलों का ढेर नहीं, एक माला है। और माला परमात्मा के चरणों में अर्पित की जा सकती है। यह सारा जगत, जैसे—जैसे तुम समझोगे वैसे —वैसे पाओगे—संगीतपूर्ण है, लयबद्ध है।

तुम अपने ही भीतर देखो। वैज्ञानिक आज तक नहीं खोज पाए कोई उपाय कि रोटी कैसे खून बन जाती है। नहीं तो वैज्ञानिक रोटी से सीधा खून बना लें। रक्तदान की, अस्पतालों में रक्त के बैंक बनाने की ऐसी कोई जरूरत न रह जाए, लोगों से रक्त मांगना न पड़े, मशीन में ही इधर रोटी डाली, पानी डाला और दूसरी तरफ से रक्त निकाल लिया। विज्ञान इतना विकसित हुआ है, फिर भी अभी छोटी—सी बात पकड़ में नहीं आ सकी कि कैसे रोटी रक्त बन जाती है। और तुम बनाते हो, ऐसा तो तुम सोचोगे भी नहीं, भूलकर भी नहीं कह सकते हो कि तुम बनाते हो। तुमने रोटी से गले के नीचे कर ली, इसके बाद तुम्हें पता नहीं कि क्या होता है, कौन सब सम्हाल जाता है? कैसे रोटी टूटती है, कैसे रक्त बनती है, कैसे मांस मज्जा बनती है? वही रोटी तुम्हारी मस्तिष्क की ऊर्जा बनती है। वही रोटी वीर्य—क्या बनती है। उसी रोटी से जीवन की धारा बहती है। तुम्हारा जीवन ही नहीं, तुम्हारे बच्चों का जीवन भी उस रोटी से निर्मित होता है। तुम्हारे भीतर एक अद्भुत कीमिया काम कर रही है। उस कीमिया का नाम ऋत् है।

तुम क्यों सांस लेते हो, कैसे सांस लेते हो? अकसर हम सोचते हैं, हम सांस लेते हैं। वहां बड़ी भूल है, बुनियादी भूल है। हम सांस नहीं लेते। अगर हम सांस लेते होते 1 तब तो किसी का मरना संभव ही नहीं था। मौत आती और हम सांस लिए चले जाते। हम कहते हम तो सांस लेंगे, तो मौत क्या करती? लेकिन जब सांस चली जाती है बाहर और नहीं भीतर लौटती, तो कोई उपाय नहीं है हमारे पास उसे भीतर लौटा लेने का। गयी तो गयी। हम श्वास लेते हैं, यह भ्रांति है। श्वास हमें लेती है, यह ज्यादा बड़ा सत्य होगा। ज्यादा सही होगा कि श्वास हमें लेती है।

यह हमारा अहंकार है, नहीं तो ऋत् को समझने में जरा भी अड़चन न हो। तुम्हारे भीतर भी ऋत् समाया हुआ है। तुम्हारी हर सांस उसकी गवाही है। कौन ले रहा है श्वास तुम्हारे भीतर? तुम तो नहीं ले रहे हो, यह पक्का है। नहीं तो रात नींद में कैसे लोगे जब तुम सो जाते हो? यह शराब पीकर जब तुम बेहोश होकर नाली में गिर जाते हो, जब यह भी होश नहीं रहता कि नाली है, जब यह भी होश नहीं रहता कि कहां गिर पड़ा हूं जब यह भी होश नहीं रहता कि कौन हूं…..।

मुल्ला नसरुद्दीन एक रात शराब पीकर लौटा। सामने ही उसके दरवाजे पर बिजली का खम्भा है। दूर से ही उसने देखा खम्भे को, तो खम्भे से बचकर निकलने की कोशिश की कि कहीं टकरा न जाऊं। यूं काफी जगह है खम्भे के दोनों तरफ। और खम्भे की मोटाई ही क्या होगी—छह इंच। कोई उससे टकराने का कारण न था। कोई अंधा भी निकलता तो सौ में एक ही मौका था कि टकराता। मगर वह बचकर निकलने को कोशिश की कि कहीं टकरा न जाऊं और टकरा गया। बचकर निकलने में एक खतरा है टकराने का।

अगर तुमने नयी—नयी साइकिल चलानी सीखी हो तो तुम्हें पता होगा, साठ फीट चौड़ा रास्ता, और रास्ते के किनारे लगा हुआ एक मील का पत्थर। वह बेचारा हनुमान जी की तरह अलग बैठा हुआ है, उसको कुछ लेना—देना नहीं तुम्हारी साइकिल से, तुमसे। मगर दूर से ही वह जो लाल हनुमान जी दिखाई पड़ते हैं मील के पत्थर के, सिक्‍खड़ साइकिल वाले को घबड़ाहट होती है कि कहीं पत्थर से टकरा न जाऊं। और टकराता है, उसी पत्थर से जाकर टकराता है। साठ फीट चौड़े रास्ते पर, साठ मील लंबे रास्ते पर, एक छोटा—सा पत्थर जिसमें कोई बहुत निशानेबाज भी अगर तीर मारना चाहता तो शायद चूक जाता, मगर नया सिक्‍खड़ नहीं चूकता।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिससे हम बचना चाहते हैं उस पर हमारी आंखें आरोपित हो जाती हैं। स्वभावत:, उससे बचना है तो हमारा सारा चित्त उसी पर केंद्रित हो जाता है। और सब भूल जाता है, सारी नजर वहीं टिक जाती है, सारे प्राण वहीं अटक जाते हैं। वह साठ फीट चौड़ा रास्ता भूल गया, बस वे हनुमान जी दिखाई पड़ने लगे। अब तुम लाख भीतर— भीतर हनुमान—चालीसा पढ़ो, कि कहो कि जय बजरंग बली, बचाओ बजरंग बली! मगर अब कुछ न होगा, आंखें तुम्हारी टिकी हैं। इसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं : आत्म—सम्मोहन। तुम सम्मोहित हो गए हो पत्थर से। अब वह पत्थर तुम्हें खींच रहा है। पत्थर का कोई हाथ नहीं है, तुम्हारा ही सब खेल है। और सिक्‍खड़ जाकर उसी पत्थर से टकराता है। और सोचता भी है कि माजरा क्या है, इतने बड़े रास्ते पर, खाली पड़े रास्ते पर टकरा क्यों गया! मगर उसके पीछे मनोवैज्ञानिक सूत्र है, वह आत्म—सम्मोहित हो गया, उसकी आंखें अटक गयीं। बचने की कोशिश में वह सारा रास्ता ही भूल गया। बस पत्थर ही याद रहा। और पत्थर याद रहा तो चल पड़ा पत्थर की तरफ। जितना बचने लगा उतना ही पत्थर की तरफ चल पड़ा। इस सूत्र को खयाल में रखना।

तो शराबी तो और भी जल्दी सम्मोहित हो जाता है। शराब का अर्थ ही इतना होता है कि वह तुमसे तुम्हारा होश छीन लेती है। और जहां होश नहीं है वहा सम्मोहित हो जाना है; किसी भी चीज से सम्मोहित हो जाने में कोई अड़चन नहीं है; किसी भी कल्पना में जकड़ जाने में कोई अड़चन नहीं है।

मुल्ला बिलकुल सम्हलकर चला कि खंभे से बचकर निकलना है और टकरा ही गया खंभे से जाकर। बड़ी जोर से चोट लगी। लौटा दस कदम पीछे। फिर से कोशिश की कि बचकर निकल जाऊं। अब की दफा और बुरी तरह टकराया। खयाल रखना, जिस चीज से तुम एक बार टकरा गए हो उससे फिर अगर कोशिश करोगे बचकर निकलने की तो निश्चित ही टकराओगे। तीसरी बार और मुश्किल हो गयी। चौथी बार, पांचवीं बार, छठवीं बार… तब वह एकदम घबड़ाया और जोर से चिल्लाया कि, ‘हे प्रश्न, बचाओ! लगता है मैं खंभों के जंगल में खो गया हूं!’ उसको लगा कि खंभे ही खंभे हैं चारों तरफ, जहां जाता हूं खंभे से ही टकराता हूं! वहां एक ही खंभा है कुल जमा।

एक पुलिसवाले ने किसी तरह पकड़कर उसे उसके दरवाजे पर पहुंचा दिया और कहा कि कोई जंगल वगैरह नहीं है, एक खंभा है। और मैं खड़ा देख रहा हूं मैं चकित हो रहा हूं कि तुम कैसे उससे टकरा रहे हो।

हाथ कंप रहे हैं उसके। ताला पकड़ता है तो ताला कंप रहा है। तो पुलिस वाले ने कहा कि लाओ ., मैं तुम्हारा ताला खोल दूं। उसने कहा कि नहीं—नहीं, मैं खोल लूंगा। ऐसा कुछ नशा नहीं है।

कोई नशा करनेवाला नहीं मानता कि मैं कुछ नशे में हूं। पूरी कोशिश यह करता है कि मैं नशे में हूं ही नहीं। और फिर पुलिस वाले के सामने तौ कैसे स्वीकार करे कि नशे में हूं। खीसे में हाथ डाला, चाबी निकाली। अब वह चाबी ताले में नहीं जाती, क्योंकि हाथ दोनों कंप रहे हैं, ताला भी कैप रहा है, जिसमे चाबी लिए हुए है वह भी कैप रहा है। पुलिसवाले ने कहा कि लाओ भैया र चाबी मुझे दो, मैं खोल दूं।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘ऐसा करो कि अगर सहायता ही करनी है तो जरा मकान को पकड़ लो कि मकान हिले न। यह मकान इतने जोर से हिल रहा है, भूकंप आ रहा है या क्या हो रहा है?’

इस बीच पत्नी भी जग गयी। उसने खिड़की से झांककर देखा और कहा कि फजलू के पिता, बात क्या है? चाबी तो नहीं खो गयी है? कहो तो दूसरी चाबी फेंक दूं।

नसरुद्दीन ने कहा, ‘चाबी बिलकुल ठीक है। हरामजादा ताला गड़बड़ कर रहा है। तू दूसरा ताला फेंक दे।’

होश न हो तो आदमी जो भी करेगा, जो भी सोचेगा, वहीं भूल होती चली जाती है। होशियारी करता है। नशे में आया हुआ आदमी बड़ी होशियारी करता है। होशियारी में ही फंसता है। कैसे होशियारी करेगा?

हम सब अहंकार के नशे में पड़े हुए हैं, इसलिए ऋत् से वंचित हैं। देख नहीं पाते। कहते हैं—’मैं सांस ले रहा हूं! मुझे भूख लगी है!’ क्या तुम्हें भूख लगेगी? तुम साक्षी हो भूख के। भूख तुम्हें नहीं लगती। न तुम्हें प्यास लगती है। न तुम श्वास ले रहे हो। न तुम जवान होते हो, न तुम के होते हो। तुम तो कुछ भी नहीं होते। तुम तो जैसे हो वैसे ही हो। तुम्हारे चारों तरफ कुछ हो रहा है। मगर होश कहां! शरीर बच्चा था, जवान हुआ, बूढ़ा होगा—और शरीर किसी एक अज्ञात नियम को मानकर चल रहा है। तुम्हारा कुछ वश नहीं है। लाख उपाय करता है आदमी कि जवानी में ही अटका रहे।

चंदूलाल की पत्नी उससे कह रही थी कि जरा मेरी तरफ तो देखो। तीन घंटे आईने के सामने सजकर आयी थी। और चंदूलाल भन्नाए बैठे थे, क्योंकि अब स्टेशन जाने से कोई सार नहीं था, गाड़ी कभी की निकल गयी होगी। अब तो दूसरी गाड़ी मिल जाए, वह भी बहुत है। मगर इसी आशा में थे कि दूसरी गाड़ी मिल जाएगी। मगर भन्नाए तो बहुत थे। और उसने, पत्नी ने आकर क्या पूछा.. उसको गाड़ी—वाड़ी से क्या लेना! उसने पूछा कि जरा मेरी तरफ तो देखो, मेरी उम्र तुम्हें तीस साल की लगती है या नहीं?

चंदूलाल ने कहा कि लगती थी जब रहीं तुम तीस साल की। अब कैसे लगे? अब तीन घंटे नहीं, तुम तीस घंटे भी संवारी अपने को तो तीस साल की नहीं लग सकती हो। लगती थी कभी, जब तीस साल की रहीं।

मगर हर स्त्री कोशिश कर रही है कि जवानी को रोक ले। हर पुरुष कोशिश कर रहा है कि जवानी को रोक ले। तुम्हारे हाथ में नहीं है। सांस ही तुम्हारे हाथ में नहीं है, जवानी और बुढ़ापा तो तुम्हारे हाथ में क्या होगा! फिर किसके हाथों में है? कौन है अदृश्य ऊर्जा? उस ऊर्जा का नाम : ऋत्। उसे नाम तो देना होगा, ताओ कहो, ऋत् कहो, धम्म कहो, धर्म कहो, कोई भी नाम दे दो। उसका कोई नाम नहीं है, अनाम है। लेकिन एक बात समझ लो कि यह सारा जीवन किसी एक अशात सूत्र के सहारे चल रहा है। उस सूत्र को खोज लेना ही सत्य को खोज लेना है। और उसे खोजने की दिशा में पहला कदम होगा अपने से शुरू करो। अपने ही भीतर ऋत् को खोजो। लेकिन वह ऋत् नहीं खोज पाओगे अगर अहंकार में दबे रहे।

और अहंकार कैसे—कैसे तर्क खोज लेता है—यह मैंने किया! कुछ तुमने किया नहीं है, सब हुआ है। कोई चित्रकार है, उसने कुछ किया नहीं। यह उसका ऋत् है। यह उसका स्वभाव है। कोई कवि है, उसने कुछ किया नहीं। कोई गायक है, उसने कुछ किया नहीं। उसका जो स्वभाव था, वही प्रगट हुआ है। गुलाब है, जुही है, चंपा है। अगर गुलाब, जुही और चंपा के पास भी सोच—विचार की क्षमता होती तो गुलाब भी कहता कि देखो, क्या फूल मैंने खिलाए हैं! कैसे फूल मैंने खिलाए हैं! क्या सुगंध है! और रातरानी भी कहती कि चुप रहो, बकवास बंद करो। सुगंध है तो मेरी है, कि सारा अपान भर दिया है सुगंध से! तुम्हारी क्या सुगंध, कि जब कोई पास आए, सूंघे तो बामुश्किल पता चले? सुगंध मेरी है! राह से गुजरते लोग भी आंदोलित हो रहे हैं। यह मैंने किया है!

मैंने सुना है, एक बच्चे ने एक पत्थर को उठाया और एक महल की खिड़की की तरफ फेंक दिया। पत्थर जब उठने लगा ऊपर की तरफ, तो उसने पत्थरों की जो नीचे ढेरी थी जिसमें वह वर्षों से पड़ा था, अपने मित्रों, सगे—संबंधियों की तरफ चिल्लाकर कहा कि देखते हो, मैं जरा महल की यात्रा के लिए जा रहा हूं। फेंका गया था, लेकिन कहा कि महल की यात्रा के लिए जा रहा हूं। कसमसा गए और पत्थर, ईर्ष्या से जल— भुन गए और पत्थर, मगर करते भी क्या! इनकार भी नहीं कर सकते थे। जा तो रहा ही था। उन्हें भी पता नहीं कि भेजा जा रहा है। और उनकी भी तो आकांक्षा थी कि कभी इस महल की यात्रा करें। यह महल पास में ही खड़ा है। यह सुंदर महल, पता नहीं इसके भीतर क्या हो रहा है! कभी गीत उठते हैं, कभी संगीत बजता है, कभी दीए जलते हैं, कभी दीवाली है, कभी होली है। पता नहीं क्या रंग, क्या ढंग भीतर गुजर रहा है! देखने की तो उनकी भी इच्छा थी। वे सब हार गए और उनका एक साथी जीत गया। जा रहा है, इनकार कर भी नहीं सकते। मन मसोसकर रह गए।

वह पत्थर ऊपर उठा और जाकर टकराया काच की खिड़की से। काच चकनाचूर हो गया। स्वभावत:, जब पत्थर कांच से टकराता है तो काच चकनाचूर हो जाता है। वह पत्थर का ऋत् और कांच का ऋढ़ इसमें कुछ पत्थर की खूबी नहीं और काच की कोई कमजोरी नहीं। यह सिर्फ स्वाभाविक नियम है, कि रात्थर कांच से टकराएगा तो कांच टूटता है। पत्थर कांच को तोड़ता नहीं, कुछ हथौड़ी लेकर कांच को तोड्ने नहीं बैठ जाता है। बस यह स्वाभाविक है। इसमें पत्थर को अकड़ने की कोई जरूरत नहीं है। न कोई कांच को दीन होने की जरूरत है। लेकिन कांच दीन—हीन हो गया। और पत्थर ने कहा, ‘मैंने हजार बार कहा है, सुना नहीं तुमने? तुम्हें खबर नहीं? कितनी बार मैंने नहीं कहा है, कि जो मुझसे टकराएगा, चकनाचूर हो जाएगा! अब देख लो, अब खुद देख लो अपनी आंखों से क्या गति तुम्हारी हो गयी है। मुझसे दुश्मनी लेना ठीक नहीं है।’

और तभी पत्थर जाकर भीतर बहुमूल्य कालीन पर गिरा—ईरानी कालीन। और पत्थर ने कहा, ‘बहुत थक भी गया। लंबी यात्रा, आकाश में उड़ना। फिर दुश्मनों का सफाया। इस काच से टकराना, कांच को चकनाचूर कर देना। यह विजय! थोड़ा विश्राम कर लूं।

विश्राम कर लूं—ऐसा सोच रहा है! गिरा है मजबूरी में; क्योंकि जिस बच्चे ने फेंका था वह ऊर्जा पूरी हो गयी। जितनी ऊर्जा उस बच्चे के हाथ ने दी थी वह समाप्त हो गयी। अब पत्थर को गिरना ही है। यह ‘मजबूरी है, मगर मजबूरी को कोई स्वीकार करता है? हम तो मजबूरी में भी अहंकार खोज लेते हैं। हम तो वहा भी तरकीबें खोज लेते हैं। उस पत्थर ने भी खोज लीं। कहा कि थोड़ा विश्राम कर लूं फिर आगे की यात्रा पर निकलूंगा।

तभी महल के दरबान ने, यह पत्थर का आना और कोच का टूटना, आवाज सुनी, पत्थर का गिरना, वह भागा आया। पत्थर पड़ा पड़ा ईरानी कालीन पर बहुत आनंद ले रहा था। सोच रहा था इस महल के लोग भी बड़े अतिथि—प्रेमी मालूम होते हैं। लगता है मेरे आने की खबर उनको पहले ही हो गयी थी। कालीन इत्यादि बिछा रखे हैं। सब फानूस लटका दिए हैं। सुंदर चित्र भी लगा रखे हैं। दीवालों पर नया—नया ही रंग—रोगन किया गया है। फर्नीचर भी सब ताजा—ताजा है। तैयारी पूरी है। कहा भी है कि अतिथि तो देवता है। मैं अतिथि हूं! मेरे लिए ही यह इंतजाम हुआ है।

यही हमारी भाषा है। हर आदमी यही सोचता है कि मेरे लिए ही सारा इंतजाम हुआ है। जैसे सब चांद—तारे सूरज मेरे लिए ही उगते और ड़बते हैं! यह सारा जगत, प्रत्येक व्यक्ति अपने आसपास ही घूमता हुआ अनुभव करता है कि मैं ही केंद्र हूं। पत्थर ने भी कुछ भूल तो न की, मनुष्य की भाषा में ही सोचा। दरबान ने पत्थर हाथ मैं उठाया और पत्थर ने सोचा कि दिखता है, महल का मालिक मुझे हाथों में उठाकर स्वागत कर रहा है कि धन्यभाग हमारे कि आप पधारे! पलक—पांवड़े बिछाते हैं! स्वीकार करो हमारा आतिथ्य! हाथों में उठाकर यही कह रहा है। हाथों में उठाया था दरबान ने इसलिए कि वापिस फेंक दे। लेकिन यह बात तो कोई सोचता नहीं।

मौत तुम्हारी करीब आती है और तुम जन्म—दिन मनाए चले जाते हो। मनाना चाहिए मृत्यु—दिवस। हर साल मृत्यु—दिवस मनाना चाहिए, मनाते हो जन्म—दिवस। और जन्म तो पीछे छूटता जा रहा है, मौत करीब आती जा रही है। हर साल एक साल और बीत गया। एक साल और गुजर गया। एक साल और कम हो गया। तुम्हारा जीवन—घट और रीत गया। तुम व्यतीत हो रहे हो। तुम अतीत .रहे हो। तुम समाप्त हो रहे हो। तुम बूंद—बूंद निचुड़ते जा रहे हो। मगर मनाते हो जन्म—दिन। मृत्यु के दिन को तुम जन्म —दिन मनाते हो! मरते हो और सोचते हो कि जीवन घटित हो रहा है। घसिटते हो, लेकिन सोचते हो कि विजय —यात्रा हो रही है!

उस पत्थर को दरबान ने वापिस फेंक दिया। लेकिन पत्थर ने यही सोचा कि दरबान समझ सका… यह मालिक महल का समझ सका —वह तो मालिक ही समझ रहा था उसे—कि मुझ घर की बहुत याद आ रही है, कि मुझे अपने प्रियजनों की बहुत याद सता रही है। मैं तो वापिस जाता हू,। अरे मुझे महलों से क्या लेना! महलों में रखा भी क्या है!

अफ खट्टे। मिलें न तो खट्टे, मिल जाएं तो मीठे। पत्थर वापिस गिरा अपनी ढेरी पर। गिरते समय उसने कहा, ‘मित्रो, महल सुंदर था, बहुत सुंदर था! मगर अपने घर की बात और, स्वदेश की बात ही और! तुम्हारी बड़ी याद आती थी, मैं तो वापिस लौट आया।’

और कहते हैं, बाकी पत्थरों ने उससे कहा कि तुम हमारे बीच सबसे धन्यभागी पत्थर हो। तुम साधारण पत्थर नहीं, अवतारी हो। तम अपनी जीवन—कथा लिखो, ताकि बच्चों के काम आए।

अब वह पत्थर जीवन—कथा लिख रहा है।

तुम्हारी भी जीवन—कथा यही है। ऋत् को कैसे समझोगे? अहंकार को थोपते जाते हो, आरोपित करते जाते हो। अहंकार को जरा हटाकर देखो, अहंकार का घूंघट हटाकर देखो! घूंघट के पट खोल! वह घूंघट क्या है? वह घूंघट का पट क्या है? किस चीज का घूंघट है तुम्हारे स्वभाव पर? अहंकार का। हटाओ अहंकार के घूंघट को! थोड़ा अपने में झांको। और तुम चकित हो जाओगे। तुम इस सूत्र का ही अर्थ, इस सूत्र का अभिप्राय, अभिप्रेत अनुभव कर पाओगे।’ऋतस्य यथा प्रेत!’.. तब तुम जानोगे कि जीवन की सम्यक् कला ऋत् के साथ एक होकर जीने में है; भिन्न होकर नहीं, अभिन्न होकर। जो इससे अलग होकर जीने की कोशिश करता है —टूटता है, हारता है, पराजित होता है। जो इसके साथ जीता है, उसकी जीत सुनिश्चित है। उसकी जीत नहीं है, जीत तो ऋत् की है हमेशा।

तुम यूं हो, अहंकार यूं है, जैसे कोई नदी में उलटी धार तैरना चाहे। थोड़े—बहुत हाथ मार सकता है, मगर जल्दी थक जाएगा। नाहक थक जाएगा। और थकेगा तो नदी पर नाराज होगा। और कहेगा, ‘ये दुष्ट नदी मुझे ऊपर की तरफ नहीं जाने देती।’ नदी जा रही Sऐ?ए3 सागर की तरफ। तुम नदी के संगी—साथी हो लो।’ऋतस्य यथा प्रेत!’ तुम नदी से लड़ो मत, नदी के साथ बहो। तैसे भी मत बहो।

तुमने देखा, जिंदा आदमी नदी में ड़ब जाता है और मर जाता है और मुर्दा तैर जाता है! कुछ कला है जो मुर्दे को आती है, जो जिंदा को नहीं आती। जिंदा कैसे ड़ब गया और मुर्दा कैसे तैर गया? जिंदा नीचे जाता है, मुर्दा ऊपर आता है, बात क्या है, मामला क्या है, रहस्य क्या है? रहस्य इतना ही है कि मुर्दा लड़ता नहीं है नदी से। लड सकता नहीं, मुर्दा है। समर्पित है। समर्पित है तो नदी का मित्र है। और मित्र को कौन हाथों पर न उठा ले! और जिंदा लड़ता है। हर तरह से लडता है; जब तक सांस है, लड़ता है, झगड़ता है। झगड़ने मैं ही .टूट जाता है। लड़ने में ही खुद की शक्ति गंवा बैठता है। लड़ने में ही ड़बता है। लड़ने मे ही मरता है।

ऋतस्य यथा प्रेत।

ऋत् के अनुसार जीओ, अर्थात् नदी के साथ बहो, लड़ो मत। यह जीवन की नदी, यह जीवन की सरिता परमात्मा के सागर की तरफ अपने—आप जा रही है। कुछ और करना नहीं है। इस जीवन के प्रति समर्पित हो जाओ। इस जीवन के स्नान अपने को एक अनुभव करो। एक तुम हो, अनुभव करो या न करो! करो तो विजय का आनंद है। न करो तो पराजय की पीड़ा है।

लेकिन हमारी सारी शिक्षा इसके विपरीत है। हमारा सारा समाज इसके विपरीत है। हम प्रत्येक व्यक्ति को आचरण सिखाते हैं —अंतस का आविष्कार नहीं। आचरण का अर्थ है ऊपर से थोपी हुई बात। हम कहते हैं : ‘ऐसे जीओ, ऐसा करो, ऐसा मत करना! यह पुण्य है, यह पाप है।’ दूसरे तय करते हैं। दूसरे अपने स्वार्थ से तय करते हैं। निश्चित, उनके अपने स्वार्थ होने वाले हैं। उन्हें तुमसे कोई प्रयोजन नहीं।

जब बच्चा पैदा होता है तो मां बाप तय करते हैं कि कैसे जीए क्या बने क्या न बने। किसे पड़ी है बच्चे की, कि वह क्या बनने का राज लेकर आया है, कि उसका ऋत् क्या है, किसी को प्रयोजन नहीं है। इसलिए तो हमने इतनी उदास मनुष्यता को जन्म दिया है, इतनी विक्षिप्त मनुष्यता को जन्म दिया है। जिसको संगीतज्ञ होना था, वह डाक्टर है। वह कभी सुखी नहीं होगा। वह सदा दुखी होगा। उसे बजानी थी वीणा, वह दवाइयों की बोतलें भर रहा है, प्रिस्कि्रपान लिख रहा है। कैसे प्रसन्न हो? और जिसको डाक्टर होना था वह दुकान कर रहा है। जिसको दुकानदार होना था वह नौकरी कर रहा है। जिसको नौकरी करनी थी वह कविता कर रहा है। जिसको कवि होना था वह सब्जी बेच रहा है। सब औरों की जगह बैठे हुए हैं, कोई अपनी जगह नहीं है। कोई अपने स्वभाव में नहीं है, सब च्युत हो गए हैं। किसने किया यह सब उपद्रव? कौन कर रहा है यह उपद्रव? यह उपद्रव भी उनसे हो रहा है जो तुम्हारे बड़े हिताकांक्षी हैं। यह बड़ी अच्छी अभिलाषा से हो रहा है। कौन मां—बाप अपने बच्चे को दुखी देखना चाहता है? लेकिन कौन मां—बाप अपने बच्चे को उसके स्वभाव के अनुसार जीने देने के लिये राजी है। मां—बाप की अपनी महत्त्वाकांक्षाएं हैं, जो अतृप्त रह गयीं। महत्त्वाकांक्षाएं तो सभी की अतृप्त रह जाती हैं, किसी की कभी पूरी होती नहीं।

बुद्ध ने कहा है : तृष्णा दुष्‍पूर है। तृष्णा का स्वभाव ही है दुष्‍पूर होना, वह कभी पूरी नहीं होती। मां—बाप की अभिलाषाएं अधूरी रह गयी हैं, वे बच्चों के कंधों पर सवार होकर अपनी अभिलाषाएं पूरी करना चाहते हैं। हालाकि ऐसा वे सोचते नहीं, न ऐसा वे कहते हैं, न ऐसा उन्हें बोघ है। वे तो सोचते हैं बच्चों के हित में वे यह कर रहे हैं। बच्चा कहता है, मुझे बांसुरी बजानी है। बाप कहता है, ‘पागल, फेंक बांसुरी, गणित कर, भूगोल पढ़, इतिहास पढ़। यह काम आएगा। बांसुरी बजाकर क्या भूखे मरना है, क्या भीख मांगनी है? ‘

एक बहुत बडे सर्जन की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मनायी गयी। नृत्य का आयोजन हुआ, भोज का आयोजन हुआ। उसके सारे मित्र, उसके सारे शिष्य इकट्ठे हुए। उन्होंने बड़ी प्रशंसा में, उसकी स्तुति में बड़ी—बड़ी बातें कहीं। कहा कि आपसे बड़ा सर्जन पृथ्वी पर नहीं है। लेकिन वह उदास ही बैठा रहा। उसके एक मित्र ने कहा कि हम सब उत्सव मना रहे हैं तुम्हारे पचहत्तरवें जन्म—दिन का, दुनिया से, दूर—दूर कोनों से तुम्हारे मित्र और तुम्हारे शिष्य इकट्ठे हुए हैं और तुम हो कि उदास बैठे हुए हो! तुम सफलतम व्यक्तियों में से एक हो।

उस सर्जन ने कहा, मत कहो यह बात, मत कहो! यह सारा उत्सव देखकर, नाचते हुए जोड़ों को देखकर मेरे चित्त में जो उदासी छा रही है, वह मैं जानता हूं। क्योंकि मैं वस्तुत: एक नर्तक होना चाहता था। लेकिन मेरे पिता ने मुझे सर्जन बना दिया। धक्के दे—देकर भेज दिया मुझे मेडीकल कालेज। मैं जाना चाहता था संगीत अकेडेमी में। आज तुम सबको नाचते देखकर मैं अनुभव कर रहा हूं मेरा जीवन व्यर्थ गया। मुझे कोई आनंद नहीं मिला सर्जन होने से। धन मिला, सफलता मिली, आनंद नहीं मिला। मैं भीतर खाली का खाली रहा। मैं गरीब रहता, लेकिन नर्तक हो गया होता, तो मुझे आनंद मिलता।

और आनंद से बड़ी कोई संपदा है?

स्वभाव के अनुसार जब कोई चलता है तो आनंद घटता है और स्वभाव के प्रतिकूल जब कोई चलता है तो दुख। दुख और सुख की तुम परिभाषा खयाल रखना। सुख का अर्थ है : स्वभाव के अनुकूल। कभी भूल—चूक से जब तुम स्वभाव के अनुकूल पड़ जाते हो तो सुख होता है। भूल—चूक से ही पड़ते हो तुम, क्योंकि तुम्हें बोध तो है नहीं। कभी आकस्मिक रूप से संग—साथ हो जाता है, तुम्हारे स्वभाव का, ये और बात। लेकिन जितनी देर को संग साथ हो जाता है, उतनी देर के लिए जीवन में रोशनी आ जाती है। जितनी देर के लिए संग—साथ हो जाता है, जीवन में नृत्य और उत्सव आ जाता है। मगर यह सब आकस्मिक है। कभी—कभी हो जाता है। आमतौर से तो तुम अपने साथ जबरदस्ती किए जाते हो, वही तुम्हें सिखाया गया है। इसको अच्छे—अच्छे नाम दिए हैं—अनुशासन, कर्त्तव्य, शिक्षा, दीक्षा। मगर क्या करते हैं हम शिक्षा—दीक्षा में? महत्वाकांक्षा सिखाते हैं।

सम्यक् शिक्षा का अभी पृथ्वी पर जन्म नहीं हुआ है। हो जन्म तो इस पृथ्वी पर एक—एक व्यक्ति उत्सव हो। हर व्यक्ति में फूल खिले। हर व्यक्ति में सुगंध हो, ज्योति जले। लेकिन सब उदास, सब बुझे दीए बैठे हैं। सारी पृथ्वी पर विषाद ही विषाद है। किसी तरह ढकेले जाते हैं, जीए जाते हैं। एक ही आशा है कि कोई सदा थोडे ही जिंदा रहना है, अरे कभी तो खत्म हो ही जाएंगे। और इतने दिन गुजारा और थोड़े दिन गुजार लेंगे।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी, मरणशैया पर पड़ी थी। डाक्टर ने उसके कान में फुसफुसाकर कहा कि क्षमा करो, तुम्हारी पत्नी दो—तीन महीने से ज्यादा नहीं जी सकेगी।

मुल्ला ने कहा, ‘कोई फिक्र न करो। अरे जब तीस साल गुजार दिए तो तीन महीने और गुजार देंगे। क्यों इतने दुखी हो रहे हो? तीन महीने की बात है, गुजार देंगे।

यहां न कोई प्रेम अनुभव कर रहा है, न कोई धन्यभाग अनुभव कर रहा है। मामला क्या हो गया है? पशु—पक्षी भी ज्यादा आनंदित मालूम होते हैं। तुमने कभी किसी कोयल से बेसुरापन सुना, किसी कोयल से? तुमने कभी किसी कोयल के कंठ से बेसुरे राग उठते देखे? सभी कोयलों के कंठ से सदा सुरभरे राग ही उठते हैं। तुमने किसी पपीहे को जब पी—कहा पुकारता है, तो अनुभव किया? सारे पपीहे एक ही माधुर्य से पी—कहा पुकारते हैं। तुमने किसी हिरण को कुरूप देखा? सभी हिरण सुंदर मालूम होते हैं। जरा जंगल जाओ, पशु—पक्षियों को देखो। सभी प्रफुल्लित, सभी मस्त, सभी अपनी चाल में मदमाते! आदमी को क्या हो गया है? आदमी, जो कि इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा श्रेष्ठतम चैतन्य का मालिक है, बुद्धिमत्ता का धनी है, इसको क्या हो गया है? इस पर कौन—सा दुर्भाग्य घटा है? इस पर कौन—सा अभिशाप पड़ गया है?

पशु—पक्षियों के पास इतनी बुद्धि नहीं है कि वे स्वभाव के विपरीत जा सकें। सहज ही स्वभाव के अनुकूल होते हैं। आदमी का सौभाग्य भी यही है कि उसके पास बुद्धि है और दुर्भाग्य भी यही है कि उसके पास बुद्धि है। अब तुम्हारे हाथ में है, तुम चाहे सौभाग्य बना लो चाहे दुर्भाग्य। धन्य हैं वे लोग जो अपनी बुद्धि का उपयोग ऋत् के साथ जोड़ लेते हैं। और अभागे हैं वे जन, जो ऋत् के विपरीत चल पडते हैं।

ध्यान है ऋत् के आविष्कार की प्रक्रिया। ध्यान का अर्थ होता है : साक्षीभाव। भीतर साक्षीभाव से देखो कि तुम्हारी निजता क्या है। और अपनी निजता की उद्घोषणा करो, चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े। भूखा मरना पड़े, गरीब होना पड़े, मगर अगर बांसुरी बजाने में ही तुम्हारा रस है तो बांसुरी ही बजाना। तुम भिखारी होकर भी सिकंदर महान से ज्यादा सुखी होओगे। मत बेच देना अपनी आत्मा को, क्योंकि आत्मा को बेचने का एक ही अर्थ होता है. ऋत् के विपरीत चले जाना। आचरण थोथा है, ऊपर से आरोपित है। दूसरों ने कह दिया—ऐसा करो, ऐसा उठो, ऐसा बैठो—और तुम मानकर चले जा रहे हो। तुम नकलची हो गए हो। तुम पाखंडी हो गए हो। तुमने एक पर्त ओढ़ ली है ऊपर से, एक चदरिया ओढ़ ली है राम—नाम की। और भीतर? भीतर तुम कुछ और हो। तो तुम्हारे भीतर खंड हो गए। तुम्हारा व्यक्तित्व विभाजित हो गया। और जहां विभाजन है वहा विषाद है। क्योंकि संगीत टूट जाता है। बांसुरी अलग बज रही है, तबला अलग बज रहा है; दोनों में कोई तालमेल नहीं है। तबला बांसुरी को नष्ट कर रहा है, बांसुरी तबले को नष्ट कर रही है; दोनों एक दूसरे से दुश्मनी साधे हुए हैं। संगीत नहीं बैठ रही है, साज नहीं बैठ रहा है। सब बेसाज हुआ जा रहा है!

तुम जरा अपने को भीतर देखो सब बेसाज हुआ जा रहा है। और क्या कारण है बेसाज हो जाने का—तुमने अपनी न सुनी, औरों की सुनी। और औरों को क्या पता कि तुम क्या होने को पैदा हुए, तुम्हारी नियति क्या है। औरों को क्या पता कि तुम्हारे जीवन का अभिप्राय क्या है। तुम्हें पता नहीं तो औरों को कैसे पता होगा। औरों को अपना पता नहीं, तुम्हारा कैसे पता होगा।

संन्यास का मैं एक ही अर्थ करता हूं : अपनी निजता की उद्घोषणा। संन्यास बगावत है, विद्रोह है—समस्त थोपे गए आचरण के विपरीत; दूसरों की जबरदस्ती के विपरीत। संन्यास इस बात का स्पष्ट स्वीकार है कि मैं अब अपने ढंग से जीऊंगा, चाहे जो भी परिणाम हो। मैं किसी और के द्वारा नहीं जीऊंगा। कोई और मुझे खींचतान करे तो मैं इनकार करूंगा। न तो मैं किसी की जबरदस्ती सहूंगा और न किसी पर जबरदस्ती करूंगा। संन्यास इन दो बातों की घोषणा है। ये दो बातें एक ही सिक्के के पहल हैं—दो पहलू मगर सिक्का एक। मैं स्वतंत्रता से जीऊंगा।

यह ‘स्वतंत्रता’ शब्द बड़ा प्यारा है। दुनिया की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं। स्वतंत्रता का अर्थ होता है : स्वयं का तंत्र, स्वयं के आंतरिक बोध में जीना। और वही स्वच्छंदता का भी अर्थ होता है। बिगड गया, लोगों ने उसका अर्थ खराब कर लिया है। जिन्होंने खराब कर लिया है, वे ही लोग हैं तुम्हारे दुश्मन। उन्होंने ही तुम्हें खींच—खींचकर परतंत्र किया है। मगर परतंत्र भी जब किसी को करना हो तो होशियारी से करना होता है। जंजीरें भी पहनानी हों तो सोने की पहनाओ, क्योंकि वे आभूषण लगेंगी। और आभूषण के धोखे में आदमी पहन लेगा। मछली को भी पकड़ने जाते हैं तो काटे में आटा लगाते हैं। कोई मछली कांटा तो लीलने को राजी होगी नहीं, आटा लीलने को राजी हो जाती है। और आटे के साथ काटा चला जाता है। जंजीरें बनानी हों तो कम से कम सोने का पालिश तो चढा ही दो। न मिलें असली हीरे—जवाहरात तो सस्ते खरीदकर नकली लगा दो, मगर चमकदार पत्थर होने चाहिए। ऐसी भ्रांति हो जाए कैदी को कि ये आभूषण हैं, तो फिर तुम्हें उस पर पहरा नहीं बिठाना पड़ेगा। वह खुद ही अपने आभूषणों की रक्षा करेगा।

संन्यास इस बात की घोषणा है कि दूसरे आभूषण भी दें तो जंजीरें बन जाते हैं। दूसरा तुम्हें परतंत्रता ही दे सकता है। और दूसरे तुम्हें समझाते हैं कि देखो स्वच्छंद मत हो जाना। हालांकि ‘स्वच्छंद’ शब्द बड़ा प्यारा है। उसका अर्थ है : स्वयं के छंद को उपलब्ध हो जाना। बड़ा अद्भुत शब्द है! स्वयं के गीत को… छंद यानी गीत! हमारे पास एक उपनिषद् है : छांदोग्य उपनिषद्। छंद बड़ा प्यारा शब्द है। ऋत् का भी वही अर्थ है। तुम्हारे भीतर का जो नाच है, जो गीत है, जो संगीत है, जो स्वर हैं—उसको ही जीओ। जरूर कठिनाई होगी। तलवार की धार पर चलने जैसा है, क्योंकि ये चारों तरफ जो लोग तुम्हें घेरे हुए हैं, कोई भी बर्दाश्त न करेंगे। क्योंकि जो व्यक्ति अपने छंद से जीता है वह बहुत बार दूसरों की आज्ञा स्वीकार करने में अपने को असमर्थ पाता है। हर बात में ही न भर सकेगा। जब उसके स्वयं के छंद के अनुकूल होगी तो हां भरेगा, जब प्रतिकूल होगी तो विनम्रता से नहीं कहेगा। वह आज्ञाकारी नहीं हो सकता। जरूरत नहीं है कि वह जरूरी रूप से आज्ञा का खंडन करे। मगर आज्ञा को तब तक ही मानेगा जब तक उसके छंद के साथ तालमेल है; जहां छंद से तालमेल टूटा, वहा पिता कहते हों, कि शिक्षक कहते हों, कि राजनेता कहते हों, कि धर्मगुरु कहते हों, कोई भी कहता हो..। स्वयं के छंद से बड़ी कोई चीज नहीं क्योंकि स्वयं का छंद ईश्वर की वाणी है। वह तुम्हारे भीतर बैठे हुए परमात्मा का स्वर है। उसके अनुसार जीना संन्यास है और उसको खोज लेना ध्यान है।

प्यारा है यह सूत्र : ‘ऋतस्य यथा प्रेत!’ ऋत् के अनुसार जीओ। यह क्रांति का मूलसूत्र है। यह आध्यात्मिक क्रांति का आधार है, बुनियाद है। यह एक चिनगारी है, जो तुम्हारे भीतर आग को पैदा कर देगी। तुम्हें आग्नेय कर देगी। तुम प्रज्जवलित हो उठोगे। तुम न केवल खुद प्रकाशित हो जाओगे, तुम्हारे प्रकाश से दूसरे भी प्रकाशित होने लगेंगे। तुम्हारी ज्योति से दूसरे भी अपने बुझे दीयों को जला सकते हैं।

मगर यह जमीन गुलामों से भरी है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन है। ये सब गुलामों के नाम हैं। मैं तुमसे नहीं कहता किए जैन बनो। मैं कहता हूं : जिन बनो! जिन यानी विजेता। जैसे महावीर जिन थे। महावीर जैन नहीं थे, जिन थे। जैन वह है जो नकल कर रहा है, जो महावीर के ढंग से चलने की कोशिश कर रहा है। और ध्यान रखना, दुनिया में दो महावीर न पैदा हुए हैं, न होंगे। इस जगत मे प्रत्येक व्यक्ति को परमात्म।. अद्वितीय बनाता है, बेजाड़ बनाता है। और जब भी तुम किसी की नकल करते हो, तुम परमात्मा का अपमान करते हो। तुम अपना भी अपमान करते हो। ये दोनों एक ही बात हैं—परमात्मा का अपमान करना या अपना अपमान करना।

और जब भी तुम नकल करोगे तो एक बात खयाल रखना, जिसकी तुम नकल कर रहे हो वह तो तुम हो ही न पाओगे। वह तो हो ही नहीं सकता। वह तो ऋत् के विपरीत है। क्योंकि दो आदमी एक जैसे न कभी होते हैं, न हो सकते हैं। और दूसरा खतरा है कि दूसरे होने की कोशिश में तुम्हारी ऊर्जा लग जायेगी तो स्वयं होने के लिए ऊर्जा न बचेगी। दूसरे तुम हो न सकोगे। और स्वयं जो हो सकते थे, वह तुम हो न पाओगे। तुम्हारा जीवन विडंवना हो जायेगी। तुम्हारा जीवन एक तनाव—सिर्फ एक तनाव, एक चिंता, एक व्यथा हो जायेगी।

हर आदमी के चेहरे पर व्यथा लिखी है। व्यथा ही हमारी एकमात्र कथा है, और हमारे पास कुछ भी नहीं। दुख ही दुख! और सबसे बड़ा दुख यह है कि व्यक्ति अपने केंद्र से स्मृत हो जाए। और सारे तुम्हारे हितेच्छु तुम्हें स्मृत करने में लगे हैं। वे भी अंधे हैं। कोई जानकर नहीं कर रहे हैं। सारी शिक्षा की आयोजना ऐसी है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके स्वभाव से हटा देती है। महत्त्वाकांक्षा दे देती है। पद पर पहुंचने की दौड़ दे देती है। धन कमाने की एक विक्षिप्तता पैदा कर देती है।’आगे हो जाओ, सबसे आगे हो जाओ! दौड़ो, लड़ो! फिर कोई भी साधन हों, येन केन प्रकारेण, लेकिन तुम्हें पद पर होना है! धनी होना है!’ और कोई नहीं पूछता कि पद पर होकर करोगे क्या? धन ही पा लोगे तो करोगे क्या? अगर खुद को गंवा दिया और सारी दुनिया का धन भी पा लिया तो क्या सार है क्या हाथ लगेगा? खाक भी हाथ नहीं लगेगी।

लकड़ी जल कोयला भई कोयला जल भई खाक

मैं पापिन ऐसी जली कोयला भई न राख

ऐसे जलोगे कि न कोयला हाथ लगेगा, न राख हाथ लगेगी। कुछ भी हाथ न लगेगा। व्यर्थ ही जल जाओगे। लेकिन न तो अभी सम्यक्शिक्षा पैदा हो सकी है, न सम्यक् सभ्यता पैदा हो सकी है, क्योंकि बिना शिक्षा के कैसे सभ्यता पैदा हो? और जब सभ्यता ही पैदा नहीं हो सकती तो संस्कृति कैसे पैदा हो? शिक्षा पहली चीज है। सम्यक् शिक्षा अर्थात् स्वयं के ऋत् के अन्वेषण की विधि। उससे दोनों चीजें पैदा होंगी! बाहर के जगत में सभ्यता पैदा होगी; तुम्हारा दूसरों से जो संबंध है, बड़े प्रीति और बड़े आनंद का हो जाएगा। और उससे .संस्कृति पैदा होती है—संस्कृति भीतरी चीज है, आंतरिक चीज है। तुम्हारा आत्म—परिष्कार होगा। तुम्हारे भीतर जो भी कूड़ा—करकट है, छंटता जाएगा। तुम्हारे भीतर परमात्मा की मूर्ति निखरती आएगी।

जार्ज बर्नार्ड शॉ से किसी ने कहा कि आपका सभ्यता के संबंध में क्या खयाल है? जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा, ‘सभ्यता बहुत अच्छा विचार है, लेकिन किसी को उस विचार को क्रियान्वित करने की कोशिश करनी चाहिए। विचार ही है सिर्फ। अभी आदमी सभ्य हुआ नहीं। अभी हम सभ्यता पूर्व अवस्था में हैं। और संस्कृति तो बहुत दूर की बात है, जब सभ्यता ही नहीं हुई। सभ्यता यानी बाहर के संबंध, तो भीतर का परिष्कार तो अभी कैसे होगा? और दोनों नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि शिक्षा हमारी बुनियादी रूप से गलत है।

जिस शिक्षा में ध्यान आधार नहीं है, वह शिक्षा कभी भी सही नहीं हो सकती। वह क्या सिखाएगी? धन सिखाएगी, पद सिखाएगी, प्रतिष्ठा सिखाएगी। ये अहंकार के ही सींग हैं—पद प्रतिष्ठा इत्यादि—इत्यादि। और ध्यान तुम्हें निरहकारिता सिखाता है। और निरहंकारिता में ही तो ऋत् का अनुभव हो सकता है। जब मैं नहीं हूं तभी तो पता चलता है कि परमात्मा है। जहां मैं गया वहां परमात्मा है। और जहां मैं नहीं वहां ऋत् है।

ऋत्परमात्मा से भी प्यारा शब्द है। क्योंकि परमात्मा से खतरा है कि कहीं तुम पूजा न करने लगो। ऋत् में तो यह खतरा नहीं है। ऋत् की पूजा नहीं की जा सकती। ऋत् के अनुसार जीआ जा सकता है। ऋत् जीवन बनता है, परमात्मा आराध्य बन जाता है, वह खतरा है, शब्द का खतरा है। इसलिए बुद्ध जैसे अद्भुत व्यक्ति ने परमात्मा शब्द का उपयोग ही नहीं किया, इनकार ही कर दिया कि छोड़ो यह बकवास है। धर्म की बात करो, परमात्मा की बात मत करो।

आमतौर से हम सोचते हैं कि परमात्मा के बिना कैसा धर्म? लेकिन बुद्ध ने कहा : धर्म पर्याप्त है। धर्म यानी ऋत्। धर्म यानी जिसने सबको धारण किया है। धर्म यानी जिसके आधार पर हम जी रहे हैं; श्वास ले रहे हैं, हम चेतन हैं। उसको ही समझ लो। उसको ही पहचान लो। ध्यान उसी के आविष्कार की कला है। जैसे हर जगह जमीन के नीचे पानी है, कुदाली उठाकर खोदो तो पानी मिल जाएगा। ध्यान कुदाली है। हरेक के भीतर ऋत् है। जरा खोदो। समाज ने बहुत सी मिट्टी तुम्हारे ऊपर जमा दी है। न मालूम कहां—कहां के कचरा विचार तुम्हारे ऊपर आरोपित कर दिए हैं! उन सबको जरा हटा डालो। कूड़ा—करकट को अलग कर दो, पत्थर—मिट्टी को तोड़ डालो और तुम्हारे भीतर झरना फूट पड़ेगा। फिर उस झरने को जीओ। वही झरना तुम हो, तुम्हारा स्वभाव है—तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी स्वच्छंदता, तुम्हारी निजता, तुम्हारा अहोभाव। फिर तुम जैसा भी जीओगे वही ठीक है, वही सम्यक है, वही पुण्य है।

ऋत् के विपरीत जाना पाप है। ऋत् के साथ कदम उठाना पुण्य है। ऋत् के विपरीत जो गया उसका परिणाम दुख है। और ऋत् के साथ जो बहा उसका परिणाम महासुख है।

‘ज्‍यू मछली बिन नीर’ प्रवचनमाला से

दिनांक 26 सितम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना


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अंतर्यात्रा-ध्‍यान शिविर–(प्रवचन–2)

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मस्‍तिष्‍क से ह्रदय, ह्रदय से नाभि की और—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 3 फरवरी, 1968, दोपहर

साधना—शिविर–आजोल।

सुबह की बैठक में शरीर का वास्तविक केंद्र क्या है, इस संबंध में हमने थोड़ी सी बातें कीं।

न तो मस्तिष्क और न हृदय, बल्कि ‘ नाभि ‘ मनुष्य के जीवन का सर्वाधिक केंद्रीय और मूलभूत आधार है।

इस संबंध में कुछ और प्रश्न पूछे गए हैं, उनके संबंध में मैं थोड़ी बात करूंगा।

मस्तिष्क के आधार पर निर्मित जो मनुष्य है, उसकी जीवन—दिशा और धारा गलत चली गई है। पिछले पांच हजार वर्षों में हमने केवल मस्तिष्क को ही, बुद्धि को ही दीक्षित और शिक्षित किया है। परिणाम बहुत घातक उपलब्ध हुए हैं। परिणाम ये उपलब्ध हुए हैं कि करीब—करीब सारे मनुष्य ही विक्षिप्तता के किनारे खड़े हो गए हैं। थोड़ा सा धक्का लग जाए और कोई भी आदमी पागल हो सकता है। मस्तिष्क बिलकुल टूटने की सीमा पर ही खड़ा हुआ है। जरा सा धक्का और मस्तिष्क जवाब दे देता है।

और यह भी आश्चर्य की बात है कि पिछली आधी सदी में, पचास वर्षों में, दुनिया के श्रेष्ठतम विचारक करीब—करीब सभी पागल होते देखे गए हैं। पश्चिम में तो पिछले पचास वर्षों में एक भी बड़ा विचारक नहीं था, जिसने मानसिक रूप से विक्षिप्तता को अनुभव न किया हो। बड़े कवि, बड़े चित्रकार, बड़े विचारक, बड़े दार्शनिक, बड़े वैज्ञानिक अनिवार्यरूपेण मन की विकृतियों से पीड़ित होते दिखाई पड़ते हैं। और धीरे.— धीरे जैसे मनुष्य की जाति अधिक अंशों में शिक्षित होती जा रही है, वैसे—वैसे यह पागलपन के प्रभाव सामान्य जनता तक भी पहुंच रहे हैं।

एक नया मनुष्य पैदा करना हो, तो मनुष्य के जीवन का केंद्र बदल देना अत्यंत आवश्यक है। और वह केंद्र मस्तिष्क की बजाय नाभि के निकट होगा, उतना ही जीवन— धारा के करीब पहुंच जाएगा।

यह मैं क्यों कहता हूं? इस संबंध में दों—चार बातें और समझ लेनी जरूरी हैं।

मां के पेट में जो बच्चा निर्मित होता है, जो आ निर्मित होता है, वह नाभि से ही मां से संयुक्त होता है। मां की जीवन— धारा नाभि के द्वारा ही उस बच्चे में प्रवाहित होती है। मां की जीवन— धारा भी एक अत्यंत अज्ञात, एक अत्यंत अनजान विद्युत की धारा है, जो उस बच्चे की नाभि से उसके पूरे व्यक्तित्व को पोषित करती है। फिर बच्चा मां से अलग होता है। उसका जन्म होता है। जन्म होते ही उसकी नाभि काट देनी पड़ती है। मां से पृथक होने की शुरुआत हो जाती है। मां से पृथक होना अत्यंत जरूरी है, अन्यथा बच्चे का कोई अपना जीवन नहीं हो सकता। जिस मां के शरीर के साथ एक होकर बच्चा बड़ा होता है, उसी मां से एक सीमा पर उसे अलग हो जाना पड़ता है। और यह अलग हो जाने की घटना उसकी नाभि से जो संबंध था मां का, उसके विच्छेद से होती है। वह संबंध तोड़ दिया जाता है। जो जीवन— धारा उसे नाभि से मिलती है, वह एकदम बंद हो जाती है। उसके सारे प्राण तड़फड़ा उठते हैं। उसके सारे प्राण उस धारा की मांग करने लगते हैं, जो उसे कल तक मिली थी। लेकिन आज अचानक सारी धारा टूट गई है।

बच्चा जो रोना शुरू करता है, वह जो पीड़ा अनुभव करता है जन्म के बाद, वह पीड़ा भूख की पीड़ा नहीं है। वह पीड़ा जीवन— धारा से टूट जाने और विच्छिन्न हो जाने की पीड़ा है। सारी जीवन— धारा से उसका संबंध टूट गया है, जिससे कल तक उसने जीवन पाया था, वह सब टूट गया है। वह बच्चा तड़फड़ाता है और जो बच्चा नहीं रोता, तो चिकित्सक या जो लोग जानते हैं, वे कहेंगे कि कुछ बात गड़बड़ हो गई है। वह बच्चा अगर नहीं रो रहा है, तो इसका मतलब यह है कि वह बच्चा जी नहीं सकेगा। जीवन— धारा से विच्छिन्न हो जाने का उसे कोई पता नहीं चला है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि उसके भीतर मृत्यु करीब—करीब निकट है। वह बच्चा जी नहीं सकेगा। इसलिए बच्चे को रुलाने की पूरी कोशिश की जाती है। उसका रोना बहुत जरूरी है, क्योंकि जीवन— धारा से टूटे हुए संबंध का उसे पता चलना चाहिए, अगर वह जीवित है। और अगर पता नहीं चलता है, तो यह बड़ी खतरनाक बात है।

और वह बच्चा नये रूप में अपनी जीवन— धारा को फिर से जोड्ने की कोशिश करता है। मां के दूध के साथ ही उसकी जीवन— धारा फिर से संयुक्त होती है। इसलिए बच्चे का दूसरा संबंध हृदय से होता है। मां के हृदय के साथ उसके अपने हृदय का केंद्र भी धीरे— धीरे विकसित होता है और नाभि का केंद्र भूल जाता है। नाभि का केंद्र भूल जाना जरूरी है, क्योंकि वह टूट गया है, उससे संबंध बंद हो गए और जो विद्युत— धारा नाभि से मिलती थी, वह बच्चा ओंठों से लेना शुरू कर देता है। वह मां से फिर वापस जुड़ जाता है। एक दूसरा सर्किट, एक दूसरा विद्युत—वृत्त खड़ा हो जाता है, वह उससे संयुक्त हो जाता है।

यह जान कर आपको हैरानी होगी कि अगर बच्चे को मां के दूध पर जीवन न मिले, पालन न मिले, तो बच्चे की जीवन— धारा हमेशा के लिए क्षीण रह जाती है। उसे दूध पिलाया जा सकता है और तरह से भी, लेकिन अगर मां के हृदय का उसे निरंतर स्पर्श न मिले, तो उसका जीवन हमेशा के लिए कुंठित हो जाता है और हमेशा के लिए उसके जीवन की संभावना क्षीण हो जाती है। जो बच्चे मां के दूध पर नहीं पाले जाते, वे बच्चे कभी भी जीवन में बहुत आनंद को और शांति को उपलब्ध नहीं हो सकते हैं।

पश्चिम का सारा युवक समाज और धीरे— धीरे भारत का भी, जो अत्यंत विद्रोह से भर रहा है, इसके बहुत गहरे में और बुनियाद में यह बात है कि पश्चिम के बच्चे मां के दूध पर नहीं पाले जा रहे हैं। जीवन के प्रति उनकी आस्था और जीवन के प्रति उनके संबंध प्रीतिपूर्ण नहीं हैं। बचपन से ही उनकी जीवन— धारा ने धक्के पाए हैं और वे अप्रीतिपूर्ण हो गए हैं। उन धक्कों में, मां से विच्छिन्न होने में जीवन से ही वे विच्छन्न हो गए हैं। क्योंकि बच्चे के लिए प्राथमिक रूप से मां के अतिरिक्त और कोई जीवन नहीं होता।

सारी दुनिया में, जहां भी स्त्रियां शिक्षित हो रही हैं, वे बच्चों को अपने निकट पालना पसंद नहीं करती हैं और उसके परिणाम घातक होने शुरू हुए हैं। आदिवासी समाजों में बच्चे बहुत देर तक मां के दूध पर पलते हैं। जितना समाज शिक्षित होता जाता है, बच्चे उतनी ही जल्दी मां के दूध से अलग कर दिए जाते हैं। जो बच्चे जितनी जल्दी मां के दूध से अलग कर दिए जाएंगे, वे बच्चे अपने जीवन में शांति को उतनी ही कठिनाई से अनुभव कर सकेंगे। उनके जीवन में एक गहरी अशांति हमेशा के लिए प्रांरभ से ही शुरू हो जाएगी। और यह अशांति का बदला वे किससे लें?

इसका बदला मां—बाप से ही लिया जाएगा, और सारी दुनिया में बच्चे मां—बाप से बदला ले रहे हैं। इसका बदला किससे लेंगे बच्चे? उनको भी पता नहीं है कि यह कौन सी प्रतिक्रिया उनके भीतर पैदा हो रही है, यह कौन सा एक विद्रोह उनके भीतर पैदा हो रहा है, यह कौन सी आग उनके भीतर पैदा हो रही है। लेकिन अनजान में, बहुत गहरे में उनका मन जानता है कि यह विद्रोह मां से बहुत शीघ्र छुड़ा लिए जाने का ही परिणाम है। उनकी जीवन—चेतना इस बात को जानती है, उनकी बुद्धि नहीं जानती। इसका परिणाम यह होगा कि वे मां से, पिता से सबसे इसका बदला लेंगे।

और जो बच्चा मां और पिता के विरोध में है, वह बच्चा परमात्मा के कभी भी पक्ष में नहीं हो सकता। कोई संभावना नहीं है कि वह परमात्मा के पक्ष में हो जाए। क्योंकि परमात्मा के प्रति जो सबसे पहले भावनाएं उठनी शुरू होती हैं, वे वे ही हैं, जो मां और पिता के प्रति उठती हैं।

सारी दुनिया में परमात्मा को पिता कहना अकारण नहीं है। परमात्मा को पिता की शक्ल में देखना अकारण नहीं है। बच्चे के पहले जीवन—अनुभव मां और पिता के प्रति ही अगर कृतज्ञता, धन्यता और श्रद्धा के हैं, तो ही वे अनुभव परमात्मा के प्रति भी विकसित होंगे, अन्यथा नहीं हो सकते।

लेकिन बच्चे को तोड़ लिया जाता है। दूसरी उसकी जीवन— धारा हृदय से संबंधित होती है मां के। लेकिन एक सीमा पर आकर बच्चे को मां के दूध से अलग होना ही पड़ेगा।

लेकिन ठीक समय वह कब आता है? वह उतनी जल्दी नहीं आ जाता है, जितनी जल्दी हम सोचते हैं। वह इतनी जल्दी नहीं आता। बच्चे और थोड़ी ज्यादा देर तक मां के हृदय के करीब होने चाहिए, अगर उनके जीवन में प्रेम और हृदय का ठीक विकास करना है। वे बहुत जल्दी छीन—झपट कर अलग किए जाते हैं। मां को उन्हें अलग नहीं करना चाहिए, उन्हें अपने आप अलग होने देना चाहिए। एक सीमा पर आकर वे अपने से अलग होंगे। यह वैसे ही है— उनको कोशिश करके अलग करना, जैसे मां के पेट में नौ महीने बच्चा रहने के बाद अपने आप बाहर आएगा—लेकिन कोई मां जल्दी में चार महीने के बच्चे को या पांच महीने के बच्चे को बाहर निकाल देना चाहे। यह उतना ही खतरनाक है, उससे कम खतरनाक नहीं, कि कोई मां जब कि बच्चा खुद उसका दूध छोड़े, उसके पहले उसे अपने से अलग करना चाहे। मां की यह कोशिश खतरनाक है और इस कोशिश में बच्चे के हृदय का दूसरा केंद्र ठीक से विकसित नहीं होता।

और आप हैरान होंगे…..चूंकि बात आ गई, इसलिए मैं आपसे कहना उचित समझूंगा।……

सारी दुनिया में स्त्रियों के प्रति पुरुषों का जो सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र है, वह स्त्रियों का हृदय ही क्यों बना रहता है? —ये सब बच्चे मां के दूध से बहुत जल्दी अलग कर लिए गए हैं। सारी दुनिया में स्त्रियों के प्रति पुरुषों का जो आकर्षण है, वह उनके हृदय के प्रति ही क्यों बना रहता है? वह उनके स्तनों के प्रति ही क्यों बना रहता है? ये सब बच्चे मां से बहुत जल्दी अलग कर लिए गए हैं। इनकी जीवन—चेतना में कहीं गहरे में स्त्रियों के स्तन के निकट रहने की कामना शेष रह गई है, वह पूरी नहीं हो पाई है, अन्यथा कोई कारण नहीं है, अन्यथा कोई वजह नहीं है। आदिवासी समाजों में, प्रिमिटिव सोसाइटीज में जहां बच्चे मां के स्तन के पास पूरे समय तक रहते हैं, स्तन के प्रति पुरुषों का कोई आकर्षण नहीं है।

लेकिन हमारी कविताएं, हमारे उपन्यास, हमारी फिल्में, हमारे नाटक, हमारे चित्र सभी स्त्रियों के स्तन के पास क्यों केंद्रित हैं?

ये उन पुरुषों के द्वारा बनाई गई बातें हैं, जो पुरुष अपने बचपन में मां के स्तन के निकट पूरी तरह नहीं रह पाए। वह कामना शेष रह गई है, वह कामना अब नये रूपों में प्रकट होनी शुरू होती है। और फिर हम कहेंगे कि अश्लील चित्र बनते हैं, अश्लील किताबें लिखी जाती हैं, अश्लील गीत लिखे जाते हैं। फिर हम कहेंगे कि बच्चे रास्तों पर स्त्रियों को धक्का देते हैं, पत्थर मारते हैं। ये सब बेवकूफियां हम पैदा करवाते हैं और फिर इसके पीछे इन पर रोते हैं और इनको दूर करने के उपाय करते हैं।

बच्चे को बहुत देर तक मां के स्तन के निकट रहना अत्यंत अनिवार्य है। उसके मानसिक विकास में, उसके शारीरिक विकास में, उसके चित्त के विकास में, उसके हृदय का केंद्र ठीक से विकसित नहीं होगा, वह अधूरा रह जाता है। वह रुका हुआ रह जाता है, अवरुद्ध रह जाता है। और जब हृदय का केंद्र अवरुद्ध रह जाए तो एक और अनहोनी घटना घटनी शुरू होती है। और वह यह कि जो काम हृदय पूरा नहीं कर पाया, जो काम नाभि पूरा नहीं कर पाई, उस काम को मनुष्य अपने मस्तिष्क से पूरा करने की कोशिश करता है। यह कोशिश और भी उपद्रव ले आती है, क्योंकि प्रत्येक केंद्र का अपना काम है, और प्रत्येक केंद्र अपना ही काम पूरा कर सकता है, किसी दूसरे केंद्र का काम पूरा नहीं कर सकता।

न तो नाभि हृदय का काम कर सकती है और न हृदय का काम मस्तिष्क कर सकता है। लेकिन मां से जैसे ही बच्चा अलग कर दिया जाता है, उसके पास अब एक ही केंद्र रह जाता है, जिस पर वह सारा का सारा भार पड़ जाता है, वह मस्तिष्क का केंद्र होता है। फिर शिक्षा भी उसी की, उपदेश भी उसी के, स्कूल भी उसी के, विद्यालय भी उसी के। जीवन में विकास भी उन्हीं का जिनका मस्तिष्क ज्यादा विकसित और ज्यादा संपन्न हो। एक दौड़ शुरू होती है और सारा काम जीवन का मस्तिष्क से लेने की कोशिश शुरू हो जाती है।

जो आदमी मस्तिष्क से प्रेम करेगा, उसका प्रेम झूठा होगा। क्योंकि मस्तिष्क का प्रेम से कोई संबंध नहीं है। प्रेम तो हृदय से हो सकता है, मस्तिष्क से नहीं हो सकता। लेकिन हृदय के केंद्र हमारे ठीक से विकसित नहीं हैं, तो हम मस्तिष्क से काम लेना शुरू करते हैं। तो प्रेम भी हम सोचते—विचारते हैं। प्रेम के सोचने—विचारने से कोई संबंध नहीं है। लेकिन प्रेम भी हममें मानसिक रूप से सोच—विचार की तरह प्रकट होता है। इसीलिए सारी दुनिया में इतनी सेक्सअलिटी, इतनी कामुकता व्याप्त हो गई है।

कामुकता का एक ही अर्थ है कि सेक्स का केंद्र और सेक्स के केंद्र का काम मस्तिष्क से लिया जा रहा है, बुद्धि से लिया जा रहा है। और बुद्धि में जब काम प्रविष्ट हो जाएगा, तो जीवन नष्ट हो जाता है। और हमारी बुद्धि में काम प्रविष्ट हो गया है।

काम का, सेक्स का जो केंद्र है, वह नाभि ही .है, क्योंकि जीवन की सबसे बड़ी ऊर्जा सेक्स है, सबसे बड़ी ऊर्जा काम है। उसी से जन्म है, उसी से जीवन है, उसी से जीवन का विकास है। लेकिन नाभि के केंद्र हमारे अविकसित हैं, तो हम दूसरे केंद्रों से उनका काम लेना शुरू करते हैं।

पशुओं में सेक्स है, लेकिन सेक्सुअलिटी नहीं है। काम है, लेकिन कामुकता नहीं है। इसलिए पशुओं का काम भी एक सौंदर्य है, एक अभिनव आनंद है।

और मनुष्य की कामुकता एक कुरूपता है, एक अग्लीनेस है, क्योंकि वह काम भी चिंतन बन गया है, उसके मन में जाकर। वह काम का भी चिंतन कर रहा है।

एक आदमी भोजन करता हो, भोजन करना बहुत अच्छा है। लेकिन एक आदमी चौबीस घंटे भोजन के संबंध में चिंतन करता हो, तो यह आदमी पागल है। भोजन करना बिलकुल ठीक है और भोजन बहुत जरूरी है और भोजन करना ही है। लेकिन भोजन के संबंध में अगर कोई चिंतन करता हो चौबीस घंटे, तो इस आदमी के केंद्र डांवाडोल हो गए। जो काम इसे पेट से लेना चाहिए था, वह यह बुद्धि से ले रहा है!

और बुद्धि कोई भोजन नहीं पचा सकती है. और न बुद्धि तक भोजन पहुंचाया जा सकता है। बुद्धि केवल सोच सकती है, विचार कर सकती है। और बुद्धि जितना भोजन के संबंध में विचार करेगी, उतना ही काम पेट का छिन जाएगा और पेट अस्त—व्यस्त हो जाएगा। आप कभी सोचें, करके देखें।

आप भोजन कर लेते हैं, फिर आप कोई सोच—विचार नहीं करते। वह अपने आप जाता है। पेट पचाने का काम करता है। वे अनकांशस सेंटर्स हैं, अचेतन केंद्र हैं, वे अपने काम करते हैं। आपको सोचना—विचारना नहीं पड़ता है।

लेकिन आप किसी दिन सजग होकर इस बात का विचार करें कि अब पेट में भोजन पहुंच गया होगा अब पच रहा होगा, अब ऐसा हो रहा होगा, अब वैसा हो रहा होगा। और आप पाएंगे कि आपका भोजन उस दिन पचना असंभव हो गया है। जितना चिंतन प्रविष्ट होगा उतना पेट की जो अचेतन प्रक्रिया है, उसमें बाधा पड़ जाएगी। भोजन के साथ ऐसी दुर्घटना कम घटती है, सिर्फ उन लोगों को छोड़ कर जो उपवासवादी होते हैं।

अगर कोई आदमी अकारण उपवास करता है, तो धीरे— धीरे भोजन उसके चिंतन में प्रविष्ट हो जाएगा। वह भोजन तो नहीं करेगा, उपवास करेगा, लेकिन फिर भोजन का चिंतन करेगा। और यह चिंतन भोजन करने से भी बहुत खतरनाक है। भोजन करना तो खतरनाक है ही नहीं। भोजन तो जीवन के लिए अत्यंत जरूरी है। लेकिन भोजन का चिंतन रुग्णता है। और जो आदमी भोजन का चिंतन करने लगे, उसके जीवन में सब तरह के विकास होने बंद हो जाएंगे। उसका चिंतन इस फिजूल की बात में ही समाप्त होगा।

सेक्स के साथ, यौन के साथ, काम के साथ ऐसी घटना घट गई है। उसे हमने केंद्र से झपट कर छीन लिया है और चिंतन कर रहे हैं उसका। तो ऐसे हमारे जीवन के जो तीन महत्वपूर्ण केंद्र हैं, उन सबका काम धीरे— धीरे बुद्धि के हाथ में सौंप दिया गया है। यह ऐसा ही है, जैसे कोई आदमी आख से ही सुनने की भी कोशिश करे। यह वैसा ही है, जैसे कोई आदमी मुंह से भी देखने की कोशिश करे। यह वैसा ही है, जैसे कोई आदमी कान से भी देखने की कोशिश करे या स्वाद लेने की कोशिश करे। तो हम कहेंगे, यह आदमी पागल है, क्योंकि आख देखने का यंत्र है, कान सुनने का यंत्र है। कान देख नहीं सकते, आख सुन नहीं सकती। और अगर हम ऐसी कोशिश करेंगे तो उसका कुल परिणाम—केऑस, व्यक्तित्व में एक अराजकता ही हो सकती है।

ऐसे ही तीन केंद्र हैं मनुष्य के। जीवन का केंद्र नाभि है, भाव का केंद्र हृदय है, विचार का केंद्र मस्तिष्क है। विचार इन तीनों केंद्रों में सबसे ऊपरी केंद्र है। उससे गहरा केंद्र भाव का है। उससे भी गहरा केंद्र प्राणों का है।

शायद आप सोचते होंगे कि हृदय अगर बंद हो जाए तब तो जीवन— धारा बंद हो जाती है। लेकिन अभी वैज्ञानिक इस नतीजे पर सहज ही पहुंच गए हैं कि हृदय की गति बंद हो जाने के बाद भी अगर छह मिनट के भीतर हृदय फिर से चलाया जा सके तो आदमी पुनरुज्जीवित हो सकता है। हृदय का संबंध समाप्त हो जाने पर भी छह मिनट के पीछे तक नाभि का जीवन—केंद्र सक्रिय रहता है। और छह मिनट के भीतर अगर हृदय को फिर से चलाया जा सके या नया हृदय डाला जा सके, तो आदमी पुनरुज्जीवित हो जाएगा। आदमी के मरने की तब कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अगर नाभि—केंद्र से जीवन हट गया तो फिर किसी भी हृदय को बदलने से कुछ भी नहीं हो सकता है।

तो हमारे भीतर सर्वाधिक गहरा और बुनियादी केंद्र नाभि का है।

इस नाभि—केंद्र के लिए सुबह मैंने थोड़ी सी बातें कीं।

अभी हमने जो आदमी बनाया है, वह सिर के बल पर खड़ा हुआ है। जैसे एक आदमी शीर्षासन करता है। शीर्षासन करने वाला सिर को आधार बना लेता है पैरों की जगह, और पैरों को ऊपर उठा देता है। अगर एक आदमी चौबीस घंटे शीर्षासन करता रहे तो उसकी क्या स्थिति होगी, आप समझ सकते हैं। वह आदमी सुनिश्चित ही पागल हो जाएगा। वह पागल हो ही गया है, नहीं तो चौबीस घंटे खड़ा भी नहीं हो सकता था। कोई कारण भी नहीं था। लेकिन जीवन में हमने ऐसा ही रिवर्सन कर दिया है, ऐसा ही उलटा कर दिया है! हम सब सिर के बल पर खड़े हुए हैं! जीवन का आधार हमने सिर बना लिया है। सोचना और विचारना यह हमारे जीवन के आधार हो गए हैं।

धर्म कहता है सोचना और विचारना जीवन का आधार नहीं है, बल्कि सोचने और विचारने से मुक्त हो जाना, निर्विचार हो जाना जीवन का आधार है।

लेकिन हम तो सोच—विचार से ही जीते हैं, और सोच—विचार से ही हम सारे जीवन को मार्ग निर्दिष्ट करने की कोशिश करते हैं। इससे सारे मार्ग भटक गए हैं। सोचने—विचारने से कभी कोई मार्ग उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि न तो भोजन पचता है आपके सोचने से, न आपकी नाड़ियों में खून बहता है आपके सोचने से, न आपकी श्वास चलती है आपके सोचने से।

कभी आपने सोचा है कि जीवन की कोई भी महत्वपूर्ण क्रिया आपके सोचने से संबंधित नहीं है, बल्कि जीवन की सब क्रियाएं आपके अत्यधिक सोचने से कुंठित होती हैं और उनको बाधा पड़ती है। इसलिए रोज रात को आपका गहरी नींद में खो जाना जरूरी होता है, ताकि आपकी सारी क्रियाएं ठीक से चल सकें, आप बाधा न दे पाएं और सुबह आप वापस ताजगी अनुभव कर सकें।

जिस आदमी की नींद खो जाए, उस आदमी का बचना फिर कठिन हो जाता है, क्योंकि सोच—विचार जीवन की बुनियादी क्रियाओं में बाधा डालता है पूरे समय। तो थोड़ी देर को प्रकृति आपको गहरी नींद में डुबा देती है। वह एक मूर्च्छा में ले जाती है। सारा सोच—विचार बंद हो जाता है और आपके वास्तविक केंद्र सक्रिय हो जाते हैं। हमारे वास्तविक केंद्रों का भी एक नाता है।

मैं आपसे बुद्धि से जुड़ सकता हूं। मेरे विचार आपको ठीक मालूम पड़े, मेरे विचार आपको प्रभावी मालूम पड़े, तो मेरा और आपका बुद्धिगत नाता होगा। यह कम से कम नाता है। यह कम से कम रिलेशनशिप है। बुद्धि का कोई गहरा संबंध नहीं होता।

उससे गहरे संबंध हृदय के होते हैं, प्रेम के होते हैं। लेकिन प्रेम के संबंध आपके सोच—विचार से नहीं होते। प्रेम के संबंध बिलकुल अनजान में आपके बिना सोचे—विचारे घटित होते हैं। उससे भी गहरे जीवन के संबंध होते हैं। जैसे, जो नाभि से प्रभावित होते हैं, हृदय से भी प्रभावित नहीं होते, वे तो और भी अव्याख्य होते हैं। उनकी तो व्याख्या ही करना मुश्किल होता है कि मेरा क्या संबंध है, क्योंकि हमें पता ही नहीं होता।

लेकिन जैसा मैंने आपसे कहा कि मां की जीवन— धारा बच्चे की नाभि को प्रभावित करती रहती है। एक विद्युत मां की नाभि से बच्चे की नाभि तक बहती रहती है। जीवन में वह बच्चा जब भी किसी ऐसी स्त्री के करीब पहुंचेगा, जिससे वैसे ही विद्युत— धारा प्रवाहित हो रही है जैसी उसकी मां से प्रवाहित होती थी, तो बिलकुल अनजान संबंध में गिर जाएगा। उसे समझ में ही नहीं आएगा कि यह क्या संबंध बनना शुरू हुआ। उस अनजान संबंध को हम प्रेम कहते रहे हैं। वह हमारी पहचान में नहीं आता है, इसलिए उसको ब्लाइंड कहते हैं— अंधा है प्रेम। निश्चित प्रेम अंधा है, जैसे कान अंधे हैं, जीभ अंधी है, लेकिन आख बहरी है। प्रेम अंधा है, क्योंकि वह बहुत गहरे उन तलों से उठता है जिनकी हमें कोई खबर नहीं। हमें समझना मुश्किल हो जाता है कि क्या कारण है इस प्रेम के उठने के।

किन्हीं लोगों के प्रति हमें अचानक तीव्र रूप से दूर हटने का रिपल्सन पैदा होता है। कोई कारण समझ में नहीं आता कि इनसे हम क्यों दूर हटना चाहते हैं? क्यों दूर हटाना चाहते हैं? इनसे क्यों दूर होना चाहते हैं? अगर आपकी विद्युत— धारा और उनकी विद्युत— धारा, जो नाभियों से प्रभावित होती हैं, विरोधी हैं, तो आपकी समझ में नहीं आएगा, लेकिन आपको दूर हटना पड़ेगा। आपको ऐसा लगेगा कि कोई चीज दूर कर रही है। और किसी व्यक्ति के पास आप अचानक खिंचे चले जाना चाहते हैं। आपकी समझ में नहीं आता। कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता। आपकी विद्युत— धारा और उसकी विद्युत— धारा निकट मालूम हो रही हैं, सजातीय मालूम हो रही हैं, करीब मालूम हो रही हैं, एक—दूसरे से संबंधित हो रही हैं। इसलिए वैसी प्रतीति आपको होती है।

तीन तरह के संबंध मनुष्य के जीवन में होते हैं। बुद्धि के संबंध, जो बहुत गहरे नहीं हो सकते। गुरु और शिष्य में ऐसी बुद्धि के संबंध होते हैं। प्रेम के संबंध, जो बुद्धि से ज्यादा गहरे होते हैं। हृदय के संबंध, मां—बेटे में, भाई— भाई में, पति—पत्नी में इसी तरह के संबंध होते हैं, जो हृदय से उठते हैं। और इनसे भी गहरे संबंध होते हैं, जो नाभि से उठते हैं

नाभि से जो संबंध उठते हैं, उन्हीं को मैं मित्रता कहता हूं। वे प्रेम से भी ज्यादा गहरे होते हैं। प्रेम टूट सकता है, मित्रता कभी भी नहीं टूटती है।

जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे कल हम घृणा भी कर सकते हैं। लेकिन जो मित्र है, वह कभी भी शत्रु नहीं हो सकता है। और हो जाए, तो जानना चाहिए कि मित्रता नहीं थी।

मित्रता के संबंध नाभि के संबंध हैं, जो और भी अपरिचित गहरे लोक से संबंधित हैं। इसीलिए बुद्ध ने नहीं कहा लोगों से कि तुम एक—दूसरे को प्रेम करो। बुद्ध ने कहा मैत्री। यह अकारण नहीं था। बुद्ध ने कहा कि तुम्हारे जीवन में मैत्री होनी चाहिए। किसी ने बुद्ध को पूछा भी कि आप प्रेम क्यों नहीं कहते? बुद्ध ने कहा मैत्री प्रेम से बहुत गहरी बात है। प्रेम टूट भी सकता है। मैत्री कभी टूटती नहीं।

और प्रेम बांधता है, मैत्री मुक्त करती है।

प्रेम किसी को बांध सकता है अपने से, पजेस कर सकता है, मालिक बन सकता है, लेकिन मित्रता किसी की मालिक नहीं बनती, किसी को रोकती नहीं, बांधती नहीं, मुक्त करती है। और प्रेम इसलिए भी बंधन वाला हो जाता है कि प्रेमियों का आग्रह होता है कि हमारे अतिरिक्त और प्रेम किसी से भी नहीं।

लेकिन मित्रता का कोई आग्रह नहीं होता। एक आदमी के हजारों मित्र हो सकते हैं, लाखों मित्र हो सकते हैं, क्योंकि मित्रता बड़ी व्यापक, गहरी अनुभूति है। जीवन की सबसे गहरी केंद्रीयता से वह उत्पन्न होती है। इसलिए मित्रता अंततः परमात्मा की तरफ ले जाने वाला सबसे बड़ा मार्ग बन जाती है। जो सबका मित्र है, वह आज नहीं कल परमात्मा के निकट पहुंच जाएगा, क्योंकि सबके नाभि—केंद्रों से उसके संबंध स्थापित हो रहे हैं और एक न एक दिन वह विश्व की नाभि—केंद्र से भी संबंधित हो जाने को है।

ये, ये जो नाते हैं, यह जो रिलेशनशिप है जीवन की, वह बौद्धिक तो नहीं होनी चाहिए, अकेली बौद्धिक नहीं होनी चाहिए। हार्दिक होनी चाहिए और अकेली हार्दिक भी नहीं होनी चाहिए, उससे भी गहरी नाभिगत होनी चाहिए। जैसे यह हमें आज बहुत स्पष्ट नहीं है जगत में— आज नहीं कल ज्यादा स्पष्ट हो सकेगा, आज नहीं कल हमें पता चल सकेगा कि हम जीवन की बहुत दूर धाराओं से जुड़े हैं, जो हमें दिखाई नहीं पड़ती। हम जानते हैं कि चांद बहुत दूर है, लेकिन समुद्र के पानी पर कोई अनजाना प्रभाव छोड़ता रहता है। चांद के साथ समुद्र का पानी ऊपर उठने लगता है, चांद के साथ नीचे गिरने लगता है।

हमें पता है सूरज बहुत दूर है, लेकिन किन्हीं अदृश्य धागों से वह जीवन से बंधा है। सुबह सूरज निकलता है और जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है। जो सब सोया हुआ था, जो सब मुर्दा सा पड़ा था, जो सब बेहोश था, वह होश में आने लगता है। कोई सोई चीज जागने लगती है। फूल खिलने लगते हैं, पक्षी गीत गाने लगते हैं। सूरज की अदृश्य धारा कोई प्रभाव हम तक पहुंचाती है।

और भी जीवन की अदृश्य धाराएं हैं, जो इसी भांति हम तक पहुंचती हैं और हमारे जीवन को संचालित करती रहती हैं; निरंतर संचालित करती रहती हैं। सूरज ही नहीं, चांद ही नहीं, आकाश के तारे ही नहीं, बल्कि जीवन की भी एक विद्युत— धारा है, जो हमें कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती और जो निरंतर हमारे केंद्रों को प्रभावित करती है और संचालित करती है। लेकिन जितना रिसेप्टिव हमारा केंद्र होगा, जितना ग्राहक हमारा केंद्र होगा, वह जीवन— धारा उतनी ही हमारे जीवन को प्रभावित कर सकती है। जो केंद्र हमारा जितना कम ग्राहक होगा, उतनी ही वह जीवन— धारा उसे प्रभावित करने से वंचित रह जाएगी।

सूरज निकलता है, फूल खिल जाता है। लेकिन अगर हम फूल के चारों तरफ दीवाल उठा दें और सूरज की रोशनी फूल तक न पहुंच पाए, तो फूल नहीं खिलेगा, कुम्हला जाएगा। बंद दीवाल में फूल कुम्हला ही जाएगा। सूरज जबरदस्ती घुस कर उस फूल को नहीं खोल सकता। फूल को खुले में होना चाहिए। फूल को तैयार होना चाहिए। फूल के लिए मौका देना चाहिए सूरज को कि वह आए और खोल दे।

सूरज किसी एक—फूल को ढूंढने नहीं जा सकता कि कौन फूल दीवाल के भीतर छिपा है, तो उसके दीवाल के भीतर पहुंचे। सूरज को कोई पता भी नहीं है फूलों का। यह तो बिलकुल ही एक अचेतन जीवन—प्रभाव है। सूरज निकलता है, फूल खिलते हैं। लेकिन अगर कोई फूल दीवाल के भीतर बंद है, तो नहीं खिलेगा, मुर्झा जाएगा और मर जाएगा।

जीवन— धारा चारों तरफ से बह रही है और जिनके नाभि—केंद्र खुले हुए नहीं हैं, वे उस धारा से वंचित रह जाएंगे। उनको उस धारा का कोई पता नहीं चलेगा। उन्हें बोध ही नहीं होगा कि यह धारा भी आई थी और हमें प्रभावित कर सकती थी। हमारे भीतर कुछ छिपा था उसे खोल सकती थी। उन्हें पता भी नहीं होगा। यह जीवन—धारा प्रभावित कर सके—यह हमारे नाभि का जो फूल है, जिसको बहुत पुराने दिनों से लोग कमल कहते रहे, लोटस कहते रहे, वे इसीलिए कहते रहे कि वह खिल सके, कोई एक जीवन— धारा उसे खोल दे। उसके लिए तैयारी चाहिए। उसके लिए हमारे केंद्र को खुले आकाश के नीचे होना चाहिए। हमारा ध्यान होना चाहिए उस पर। हमारी जीवन— धारा, भीतर जो हमारी जीवन— धारा है, वह उस फूल तक पहुंच कर उसे जीवन देना चाहिए। इसलिए मैंने सुबह कुछ थोड़ी सी बातें कहीं।

यह कैसे संभव होगा? यह कैसे संभव हो सकता है कि हमारे जीवन का केंद्र एक खिला हुआ फूल बन जाए, ताकि जो भी चारों तरफ से अदृश्य विद्युत— धाराएं आ रही हैं, वे उससे संपर्क स्थापित कर सकें? किस रास्ते से यह होगा? दों—चार बातें स्मरणीय हैं जो अभी और रात में आपसे बात कर लूंगा, ताकि कल हम दूसरे बिंदु पर बात कर सकें।

पहली बात. आपकी ब्रीदिंग, आपकी श्वास की प्रक्रिया जितनी गहरी हो, उतना ही आप नाभि को प्रभावित करने में और विकसित करने में समर्थ हो सकते हैं। लेकिन हमें इसका कोई खयाल नहीं है। हमें इस बात का पता ही नहीं है कि श्वास हम कितनी ले रहे हैं या कितनी कम ले रहे हैं, या जरूरत के माफिक ले रहे हैं या नहीं ले रहे हैं। और जितने हम ज्यादा चिंतित होते जाते हैं, जितने चिंतन से भरते जाते हैं, मस्तिष्क पर जितना बोझ बढ़ता है, आपको खयाल भी न होगा, श्वास की धारा उतनी ही क्षीण और अवरुद्ध होती है। क्या आपने कभी खयाल किया है, क्रोध में आपकी श्वास दूसरी तरह से चलती है, शांति में दूसरी तरह से चलती है?

क्या आपने कभी खयाल किया है कि तीव्र कामवासना मन में चलती हो, तो श्वास और तरह से चलती है और मन मधुर भावों से भरा हो, तो श्वास दूसरी तरह से चलती है? क्या आपने खयाल किया है, बीमार आदमी की श्वास और तरह से चलती है, स्वस्थ आदमी की और तरह से चलती है? श्वास के स्पंदन प्रतिक्षण आपके चित्त को देख कर परिवर्तित होते रहते हैं।

ठीक उलटी बात भी सच है। अगर श्वास के स्पंदन बिलकुल संगतिपूर्ण हों, तो आपका चित्त भी परिवर्तित होता रहता है। या तो चित्त को बदलिए तो श्वास बदलती है या श्वास को बदलिए तो चित्त पर परिणाम होते हैं।

तो जिस व्यक्ति को भी जीवन—केंद्रों को विकसित करना है और प्रभावित करना है, उसे पहली बात है, रिदमिक ब्रीदिंग, उसके लिए पहली बात है, लयबद्ध श्वास। चलते—उठते—बैठते इतनी लयबद्ध, इतनी शांत, इतनी गहरी श्वास कि श्वास का एक अलग संगीत, एक अलग हार्मनी दिन—रात उसे मालूम होने लगे। आप चल रहे हैं रास्ते पर, कोई काम तो नहीं कर रहे हैं। बड़ा आनदपूर्ण होगा कि आप गहरी, शांत, धीमी और गहरी और लयबद्ध श्वास लें। दो फायदे होंगे। जितनी देर तक लयबद्ध श्वास रहेगी, उतनी देर तक आपका चिंतन कम हो जाएगा, उतनी देर तक मन के विचार बंद हो जाएंगे।

अगर श्वास बिलकुल सम हो, तो मन के विचार एकदम बंद हो जाते हैं, शांत हो जाते हैं। श्वास मन के विचारों को बहुत गहरे, दूर तक प्रभावित करती है। और श्वास ठीक से लेने में कुछ भी खर्च नहीं करना होता है। और श्वास ठीक से लेने में कोई समय भी नहीं लगाना होता है। श्वास ठीक से लेने में कहीं से कोई समय निकालने की भी जरूरत नहीं होती है। आप ट्रेन में बैठे हैं, आप रास्ते पर चल रहे हैं, आप घर में बैठे हैं—धीरे—धीरे अगर गहरी, शांत श्वास लेने की प्रक्रिया जारी रहे तो थोड़े दिन में यह प्रक्रिया सहज हो जाएगी। आपको इसका बोध भी नहीं रहेगा। यह सहज ही गहरी और धीमी चलने लगेगी।

जितनी श्वास की धारा धीमी और गहरी होगी, उतना ही आपका नाभि—केंद्र विकसित होगा। श्वास प्रतिक्षण जाकर नाभि—केंद्र पर चोट पहुंचाती है। अगर श्वास ऊपर से ही लौट आती है, तो नाभि—केंद्र धीरे— धीरे सुस्त हो जाता है, ढीला हो जाता है। उस तक चोट नहीं पहुंचती।

पुराने लोगों ने एक सूत्र खोज निकाला था। लेकिन आदमी इतना नासमझ है कि सूत्रों को दोहराने लगता है। उनका अर्थ नहीं देख पाता, उनको समझ भी नहीं पाता। जैसे अभी वैज्ञानिकों ने पानी का एक सूत्र निकाल लिया एच टू ओ। वे कहते हैं कि पानी में उदजन और आक्सीजन दोनों के मिलने से पानी बनता है। दो अणु उदजन के, एक अणु आक्सीजन का— तो वह एच टू ओ फार्म बना लिया, उदजन दो और आक्सीजन एक। अब कोई आदमी अगर बैठ जाए और दोहराने लगे एच टू ओ, एच टू ओ, जैसे लोग राम—राम, ओम—ओम दोहराते हैं, तो उसको हम पागल कहेंगे। क्योंकि सूत्र को दोहराने से क्या होता है? सूत्र तो केवल सूचक है किसी बात का। वह बात समझ में आ जाए तो सूत्र सार्थक है।

ओम आप निरंतर सुनते होंगे। लोग बैठे दोहरा रहे हैं, ओम—ओम जप कर रहे हैं! उन्हें पता नहीं है ओम तो एच टू ओ जैसा सूत्र है। ओम में तीन अक्षर हैं अ है, उ है, म है। शायद आपने खयाल न किया हो अगर आप मुंह बंद करके जोर से ‘अ’ कहें भीतर तो ‘अ’ की ध्वनि मस्तिष्क में गूंजती हुई मालूम होगी। ‘अ’ जो है, वह मस्तिष्क के केंद्र का सूचक है। अगर आप भीतर ‘उ’ कहें, तो ‘उ’ की ध्वनि हृदय में गूंजती हुई मालूम होगी। ‘उ’ हृदय का सूचक है। और अगर आप ‘म’ कहें भीतर, तीसरा ओम का हिस्सा, तो वह नाभि के पास आपको गूंजता हुआ मालूम होगा। यह ‘अ, उ और म’ मस्तिष्क, हृदय और नाभि के तीन सूचक शब्द हैं। अगर आप ‘ म ‘ कहें, तो आपको सारा जोर नाभि पर पड़ता हुआ मालूम पड़ेगा। अगर आप ‘उ’ कहें, तो जोर हृदय तक जाता हुआ मालूम पड़ेगा। अगर आप ‘अ’ कहें, तो ‘अ’ मस्तिष्क में ही गंज कर विलीन हो जाएगा।

ये तीन सूत्र हैं। ‘अ’ से ‘उ’ की तरफ और ‘उ’ से ‘ म’ की तरफ जाना है। ओम—ओम बैठ कर दोहराने से कुछ भी नहीं होता। तो जो इस दिशा में ले जाए— ‘अ’ से ‘उ’ की तरफ, ‘उ’ से ‘म’ की तरफ— वे प्रक्रियाएं ध्यान देने की हैं। उसमें गहरी श्वास पहली प्रक्रिया है। जितनी गहरी श्वास, जितनी लयबद्ध, जितनी संगतिपूर्ण, उतनी ही आपके भीतर जीवन—चेतना नाभि के आस—पास विकीर्ण होने लगेगी, फैलने लगेगी।

नाभि एक जीवित केंद्र बन जाएगी। और थोड़े ही दिनों में आपको नाभि से अनुभव होने लगेगा कि कोई शक्ति बाहर फिंकने लगी। और थोड़े ही दिनों में आपको यह भी अनुभव होने लगेगा कि कोई शक्ति नाभि के करीब आकर खींचने भी लगी। आप पाएंगे कि एक बिलकुल लिविंग, एक जीवंत, एक डाइनैमिक केंद्र नाभि के पास विकसित होना शुरू हो गया है।

और जैसे ही यह अनुभव होगा, और बहुत से अनुभव इसके आस—पास प्रकट होने शुरू हो जाएंगे। फिजियोलॉजिकलि, शारीरिक रूप से श्वास पहली चीज है नाभि के केंद्र को विकसित करने के लिए। मानसिक रूप से कुछ गुण नाभि को विकसित करने में सहयोगी होते हैं। जैसा मैंने सुबह आपसे कहा, अभय, फियरलेसनेस। जितना आदमी भयभीत होगा, उतना ही आदमी नाभि के निकट नहीं पहुंच पाएगा। जितना आदमी निर्भय होगा, उतना ही नाभि के निकट पहुंचेगा।

इसीलिए बच्चों के लिए शिक्षा देने में मेरा अनिवार्य सुझाव है कभी भूल कर बच्चों से मत कहना कि बाहर अंधेरा है, वहां मत जाओ। आपको पता नहीं, आप उनके नाभि—केंद्र को हमेशा के लिए नुकसान पहुंचा रहे हैं। जहां अंधेरा हो, वहां बच्चों से कहना कि जरूर बाहर जाओ, बाहर अंधेरा तुम्हें बुलाता है। नदी पूर पर आई हो, तो बच्चों को मत कहना कि इसमें मत उतरो, क्योंकि आपको पता नहीं, पूर में आई नदी में जो बच्चा उतरने की हिम्मत करता है, उसका नाभि—केंद्र विकसित होता है। और जो बच्चा नहीं उतरता है, उसका नाभि— केंद्र कमजोर और क्षीण होता है। बच्चे पहाड़ पर चढ़ते हों तो चढ़ने देना। बच्चे वृक्षों पर चढ़ते हों तो चढ़ने देना। जहां साहस और जहां अभय उनको उपलब्ध होता हो, वहां उनको जाने देना। अगर किसी कौम के दस—पचास हजार बच्चे प्रतिवर्ष मर जाए—पहाड़ों पर चढ़ने में, नदियों में उतरने में, वृक्षों पर चढ़ने में—कोई हर्जा नहीं है। लेकिन अगर बच्चे पूरी कौम के भय से भर जाएं और अभय से खाली हो जाएं, तो पूरी कौम जिंदा दिखाई पड़ती है, लेकिन वस्तुत: पूरी कौम मर गई होती है।

हमारे देश में यह दुर्भाग्य घटित हुआ है। हम धर्म की बहुत बातें करते हैं, लेकिन साहस की जरा भी नहीं। और हमें यह पता ही नहीं है कि बिना साहस के कभी कोई धर्म है ही नहीं। क्योंकि साहस के अभाव में जीवन के केंद्रीय तत्व ही अविकसित रह जाते हैं। करेज चाहिए— इतना साहस चाहिए अदम्य कि मृत्यु के सामने भी कोई खड़ा हो सके। और हमारी कौम इतनी धर्म की बातें करती है, लेकिन मरने से हम इतना डरते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं! होना उलटा चाहिए कि जो लोग आत्मा को जानते हों, पहचानते हों, उनको मरने से बिलकुल नहीं डरना चाहिए, क्योंकि मृत्यु है ही नहीं। लेकिन हम आत्मा की इतनी बातें करते हैं और मृत्यु से इस भांति डरते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं!

शायद हम आत्मा की बातें इसीलिए करते हों कि हम मृत्यु से डरते हैं। और आत्मा की बातें करने से हमको राहत मिलती हो कि नहीं मरेंगे, आत्मा तो अमर है। शायद भय के कारण ही हम बातें करते हों। सचाई कुछ ऐसी ही मालूम होती है।

अभय विकसित होना चाहिए। अदम्य अभय विकसित होना चाहिए। और इसके लिए जीवन में जो भी खतरे के मौके हों, उनको स्वागत मानना चाहिए।

नीत्शे से किसी ने पूछा था एक बार, कि हम अपने व्यक्तित्व को कैसे विकसित करें? उसने एक बड़ा अजीब सूत्र दिया, जिसका खयाल भी नहीं हो सकता था। उसने कहा लिव डेंजरसली! उसने कहा खतरे में जीओ, अगर व्यक्तित्व को विकसित करना हो!

लेकिन हम तो सोचते हैं, जितनी सुरक्षा में, जितनी सिक्योरिटी में जीएं— बैंक—बैलेंस हो, मकान हो, कोई डर न हो, पुलिसवाले हों, मिलिटरी हो और हम चुपचाप उसके भीतर जीएं। तो हमको पता ही नहीं है कि इस व्यवस्था और इस सुविधा जुटाने में हम मर ही गए।

जीने का कोई सवाल न रहा। क्योंकि जीने का एक ही अर्थ है खतरे में जीना!

जीने का कोई दूसरा अर्थ होता ही नहीं। मुर्दे बिलकुल सुरक्षित हैं। क्योंकि अब वे मर भी नहीं सकते हैं। अब उनको कोई मार भी नहीं सकता है। कब्रें बिलकुल सुरक्षित हैं।

एक सम्राट ने एक महल बनवाया था। और सुरक्षा की दृष्टि से उसने उस महल में एक ही दरवाजा रखा। पड़ोस का सम्राट देखने आया उसे। देख कर बहुत खुश हुआ। और उसने कहा ऐसा मकान तो मैं भी बनवाना चाहूंगा। यह तो बड़ा ही सुरक्षित है। इसमें कोई शत्रु आ ही नहीं सकता। एक ही दरवाजा था और दरवाजे पर बहुत पहरा था। फिर वह सम्राट विदा होने लगा, जब उस रास्ते पर आकर मकान के मालिक सम्राट ने आए हुए मेहमान को विदा किया तो रास्ते पर भीड़ इकट्ठी हो गई। और जब उस सम्राट ने जाते वक्त कहा कि मैं बहुत खुश हुआ, मैं भी एक ऐसा मकान बनवाऊंगा। तो एक का आदमी वहां खड़ा था, वह हंसने लगा। उस सम्राट ने पूछा तुम क्यों हंसते हो?

उसने कहा कि अगर आप मकान बनवाएं, तो एक गलती मत करना जो इसने की है।

कौन सी गलती?

यह एक दरवाजा और मत रखना। सब दरवाजे बंद कर देना। तो फिर आप बिलकुल खतरे के बाहर हो जाएंगे।

पर उस आदमी ने कहा. फिर तो वह कब बन जाएगी!

कब्र यह भी बन गई है। एक दरवाजा जहां है और जहां सब तरह की सुरक्षा है और जहां कोई भय नहीं रहा चारों तरफ से।

हम भय के न रह जाने को अभय समझ लेते हैं, यह गलती है। अभय भय की अनुपस्थिति नहीं है। भय की उपस्थिति में कोई दूसरी ही घटना है अभय, जो भीतर घटती है। वह भय की अनुपस्थिति नहीं है, एकेंस ऑफ फियर नहीं है। अभय भय की पूरी उपस्थिति में सामना करने का साहस है। लेकिन यह हमारे जीवन में विकसित नहीं हो पाता है।

मेरी प्रार्थना है आपसे, मंदिरों में प्रार्थना करने से नहीं आप परमात्मा के निकट पहुंचेंगे। लेकिन जहां जीवन का अभय आपको बुलाता हो, साहस बुलाता हो, जहां खतरे बुलाते हों, वहां पहुंचने से जरूर परमात्मा के निकट पहुंचेंगे। खतरों में, डेंजर्स में, इनसिक्योरिटी में, असुरक्षा में, वहां आपके भीतर जो छिपा केंद्र है, सोया हुआ, वह जागता है और सजग होता है। वहां उसे चुनौती मिलती है। वह केंद्र नाभि का वहीं विकसित होता है। पुराने दिनों में संन्यासी ने यही असुरक्षा स्वीकार की थी। इसी इनसिक्योरिटी को स्वीकार किया था। घर छोड़ दिया, इसलिए नहीं कि घर बुरा था। पीछे के पागल लोग यही समझने लगे कि घर बुरा था इसलिए छोड़ दिया। पत्नी—बच्चे छोड़ दिए, इसलिए नहीं कि पत्नी—बच्चे जंजीर थे। गलत है यह बात। लेकिन जहां—जहां सुरक्षा थी, संन्यासी उसको छोड़ देता था। असुरक्षा में प्रवेश करता था, इनसिक्योरिटी में, जहां कोई सहारा नहीं, जहां कोई मित्र नहीं, जहां कोई परिचित नहीं, जहां कोई अपना नहीं। जहां बीमारी होगी, मौत होगी, खतरे होंगे, एक पैसा पास नहीं—ऐसी असुरक्षा में प्रवेश करता था। तो वह जो इनसिक्योरिटी में जाता था, असुरक्षा में जाता था, वही संन्यासी था।

लेकिन पीछे संन्यासियों ने भी बहुत अच्छी सुरक्षा कर ली। गृहस्थियों से भी ज्यादा अच्छी सुरक्षा कर ली! गृहस्थी को बेचारे को कमाना भी पड़ता है, संन्यासी को कमाना भी नहीं पड़ता है। वह और भी सुरक्षित है। उनको तो मिल जाता है। उनको वस्त्र भी मिलते हैं, कपड़ा भी मिलता है, मकान भी मिलते हैं। कोई उन्हें कमी नहीं रही। सिर्फ फर्क एक पड़ा कि उन्हें यह बनाना भी नहीं पड़ता। बनाने की झंझट और असुरक्षा भी खत्म हो गई कि बना पाएंगे कि नहीं बना पाएंगे। कोई न कोई बना देता है, कोई न कोई व्यवस्था जुटा देता है। तो संन्यासी और भी खूंटे से बंधा हुआ आदमी हो गया। इसीलिए संन्यासी हिम्मत नहीं करता। संन्यासी बहुत कमजोर मालूम होता है आज की दुनिया में। वह जरा सी भी हिम्मत नहीं कर सकता।

एक संन्यासी कहता है, मैं जैन हूं। एक संन्यासी कहता है, मैं हिंदू हूं। एक संन्यासी कहता है, मैं मुसलमान हूं। संन्यासी भी हिंदू जैन और मुसलमान हो सकते हैं? संन्यासी तो सबका है।

लेकिन सबका कहने में डर है। क्योंकि सबका कहने का मतलब कहीं यह न हो जाए कि किसी के हम नहीं हैं, तो जो रोटी देते हैं, मकान बनाते हैं, उनसे साथ छूट जाएगा। वे कहेंगे कि आप हमारे नहीं, सबके हैं, तो सबके पास जाएं। हम तो, जैन साधु हो, तो आपके लिए व्यवस्था करते हैं, हिंदू साधु हो, तो व्यवस्था करते हैं, मुसलमान साधु हो, तो हम व्यवस्था करते हैं। हम तो मुसलमान हैं, हम मुसलमान साधुओं की व्यवस्था करते हैं। तो साधु कहता है, हम मुसलमान हैं। साधु कहता है, हम हिंदू हैं। यह सिक्योरिटी की तलाश है, यह सुरक्षा की तलाश है। यह नये घर की खोज है। पुराना घर छोड़ा है, नया घर चाहिए। बल्कि अब तो हालत ऐसी है कि जो समझदार हैं और जिनको अच्छा घर चाहिए, वे घर बनाते ही नहीं—संन्यासी हो जाते हैं।

आप तो नासमझ हैं। अपना घर बनाएं और पाप में भी पड़े और नरक में भी जाएं। दूसरे से घर बनवा लें, उसमें रहें भी, स्वर्ग भी जाने का मजा लें, पुण्य भी कमाए और झंझट से भी बचें। तो संन्यासी ने एक अपने तरह की सुरक्षा खड़ी कर ली है।

लेकिन मूलतः संन्यासी का अर्थ होता है खतरे में जीने की कामना।

मूलतः अर्थ होता है कोई छाया नहीं घर पर, कोई साथी नहीं। कल का कोई भरोसा नहीं।

क्राइस्ट एक बगिया के पास से निकलते थे। और उन्होंने अपने मित्रों को कहा कि देखते हो, इस बगिया में खिले फूलों को? इन्हें पता नहीं कि कल सूरज निकलेगा कि नहीं निकलेगा। इन्हें पता नहीं कि कल पानी मिलेगा कि नहीं मिलेगा, लेकिन ये आज अपने आनंद में खिले हुए हैं।

आदमी अकेला है, जो कल की व्यवस्था आज ही कर लेता है। परसों की व्यवस्था कर लेता है। ऐसे भी आदमी हैं कि उनकी कब्र कैसी बने, इसका भी इंतजाम कर लेते हैं। जो समझदार हैं, वे तो अपना स्मारक मरने के पहले ही बना लेते हैं। उसमें उनकी लाश रख दी जाएगी पीछे!

हम सब इंतजाम कर लेते हैं और हम यह भूल ही जाते हैं कि कल का इंतजाम जो आदमी आज कर लेता है, वह आज को कल के इंतजाम में खत्म कर देता है। कल फिर वह आने वाले कल का इंतजाम करेगा और उसकी हत्या कर देगा। वह रोज आने वाले कल का इंतजाम करेगा और आज की हत्या करता चला जाएगा। और आज के अतिरिक्त कभी कुछ आता ही नहीं।

कल कभी आता ही नहीं। जब भी आता है, आज ही आता है। आज की हत्या कर देता है कल के लिए! यह सुरक्षा खोजने वाले मन की प्रवृत्ति है आज की हत्या कर देता है कल के लिए! वर्तमान को न्योछावर कर देता है भविष्य के लिए! और भविष्य कभी आता नहीं। कल कभी आता नहीं। आखिर में वह पाता है सारा जीवन उसके हाथ से निकल गया।

जो आज जीने की हिम्मत करता है और जो कल की फिकर भी नहीं करता, यह आदमी डेंजर में जी रहा है, यह आदमी खतरे में जी रहा है, कल हो सकता है खतरा हो। किसी चीज का कोई भरोसा नहीं है। आज जो पत्नी प्रेम करती है, हो सकता है, कल प्रेम न करे। आज जो पति घर प्रेम करता है, हो सकता है कल प्रेम न करे। कोई भरोसा नहीं है कल का! आज पैसा है, कल पैसा न हो, आज कपड़े हैं, कल कपड़े न हों। लेकिन कल की इस असुरक्षा को, इस इनसिक्योरिटी को जो पूरी तरह स्वीकार करता है और कल की प्रतीक्षा करता है कि कल जब सामने होगा तब देखेंगे।

इस आदमी के भीतर वह केंद्र विकसित होना शुरू होता है, जिसे मैं नाभि—केंद्र कह रहा हूं। इसके भीतर एक बल खड़ा होता है, एक ऊर्जा खड़ी होती है, एक वीर्य खड़ा होता है। इसके भीतर एक हिम्मत का संबल खड़ा होता है। एक पिलर की तरह इसके भीतर कोई चीज खड़ी हो जाती है। उसी स्तंभ के ऊपर जीवन आगे यात्रा करता है।

तो शारीरिक दृष्टि से श्वास और मानसिक दृष्टि से साहस, ये दो बातें नाभि—केंद्र के विकास के लिए प्राथमिक रूप से जरूरी हैं। कुछ और बात होगी, कुछ आपके मन में इस संबंध में प्रश्न होंगे, तो रात मैं आपसे बात कर लूंगा। एक बात अंत में कह कर अभी की बैठक पूरी होगी।

जापान में इधर कोई सात—आठ सौ वर्षों से एक अलग ही तरह के आदमी को पैदा करने की उन्होंने कोशिश की, उसे वे समुराई कहते थे। वह साधु भी होता था और सैनिक भी होता था। यह बात बड़ी बेबूझ थी, क्योंकि साधु और सैनिक का क्या संबंध? जापान में जो ध्यान के मंदिर थे, वे भी बड़े अजीब थे। वे ध्यान के मंदिर, जहां ध्यान सिखाया जाता था, वहां जुजुत्सु भी सिखाते हैं, खे भी सिखाते हैं, कुश्ती लड़ने की कला भी सिखाते हैं, तलवार चलाना भी सिखाते हैं, तीर चलाना भी सिखाते हैं। अगर हम वहां जाकर देखते, तो हम हैरान हो जाते कि ध्यान के मंदिर में तलवार चलाने की क्या जरूरत है! और यहां को सिखाना, और जुजुत्सु सिखाना, और कुश्ती लड़ना सिखाना, इसका क्या संबंध ध्यान से! ध्यान के मंदिर के सामने तलवारों के निशान बने रहते हैं! बड़ी अजीब बात हो गई थी।

लेकिन कुछ कारण था। जापान के साधकों ने धीरे— धीरे अनुभव की यह बात कि जिस साधक के जीवन में साहस और बल के पैदा होने की संभावना नहीं होती, उस साधक का केवल मस्तिष्क ही रह जाता है पास में। उसका और गहरा केंद्र विकसित नहीं होता। वह पंडित ही हो सकता है, साधु नहीं हो पाता। वह ज्ञानी हो सकता है तथाकथित—कि उसे गीता भी मालूम है, कुरान भी मालूम है और बाइबिल भी मालूम है, उपनिषद भी मालूम है! तोते की तरह सब कंठस्थ है, यह हो सकता है। लेकिन जीवन का उसे कोई अनुभव नहीं होता। तो वे तलवार भी सिखाते, वे तीर चलाना भी सिखाते।

अभी एक मेरे मित्र जापान से लौटे तो किसी ने उनको एक मूर्ति भेंट कर दी। वे उस मूर्ति से बड़े हैरान हुए। उनको वह मूर्ति बिलकुल समझ में नहीं आ सकी कि यह मूर्ति कैसी है। वे लौटे तो मेरे पास मूर्ति लेकर आए और कहा कि किसी ने मुझे भेंट की तो मैं ले तो आया, लेकिन मैं बार—बार सोचता रहा कि यह मूर्ति है कैसी? इसका मतलब क्या है? वह एक समुराई सैनिक की मूर्ति थी।

तो मैंने उनको कहा आपकी समझ में इसलिए नहीं पड़ रहा है कि हजारों साल से हमने गलत ही समझ पैदा कर रखी है। उस मूर्ति में एक सैनिक है। और उसके हाथ में एक नंगी तलवार है। और जिस हाथ में उसके नंगी तलवार है, उस तरफ का उसका चेहरा नंगी तलवार की चमक में चमक रहा है। वह चेहरा ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे हो सकता है, अर्जुन का रहा हो! और दूसरे हाथ में उसके एक दीया है और दीये की ज्योति उसके चेहरे के दूसरे हिस्से पर पड़ रही है। और वह चेहरा ऐसा मालूम पड़ता है, जैसा बुद्ध का रहा हो, महावीर का रहा हो, क्राइस्ट का रहा हो! एक हाथ में तलवार है और एक हाथ में दीया है!

हमारी समझ में यह बात नहीं आती, क्योंकि या तो तलवार होनी चाहिए हाथ में या दीया होना चाहिए हाथ में। दोनों चीजें एक आदमी के हाथ में कैसे हो सकती हैं? तो उनकी समझ में कुछ नहीं पड़ता था। उन्होंने मुझे आकर कहा कि मैं बड़ा परेशान हूं यह मामला क्या है?

मैंने कहा कि यह जो दीया है, यह उसी आदमी के हाथ में हो सकता है, जिसके हाथ में तलवार की चमक भी हो सकती है! जिसके पास तलवार पकड़ने का, तलवार चलाने का सवाल नहीं हैं—तलवार चलाते तो कमजोर लोग हैं, भयभीत लोग हैं; लेकिन जिनकी जिंदगी एक तलवार हो जाती है, वे तलवार नहीं चलाते। उन्हें तलवार चलाने की जरूरत नहीं रह जाती। उनकी पूरी जिंदगी एक तलवार होती है। तो जिसके हाथ में तलवार है, इससे यह मत समझ लेना कि वह तलवार चलाने वाला ही है, कि किसी की हत्या करेगा, काटेगा! क्योंकि हत्या तो वही करता है जो अपनी हत्या से डरता है, अन्यथा कोई हत्या नहीं करता। हिंसक तो सिर्फ भयभीत ही होता है। तलवार तो अहिंसक के हाथ में ही हो सकती है। असल में अहिंसक एक तलवार ही होता है। खुद ही एक तलवार होता है, तो ही अहिंसक हो सकता है; नहीं तो नहीं हो सकता।

लेकिन यह जो दीया है, यह जो शांति का दीया है, यह उसी के हाथ में शोभा पा सकता है, और उसी के हाथ में हो सकता है केवल, जिसके प्राणों में वीर्य की तलवार भी पैदा हो गई हो—ऊर्जा की, शक्ति की तलवार भी पैदा हो गई हो।

तो एक तरफ व्यक्तित्व पूरी शक्तिमत्ता से भर जाए और दूसरी तरफ पूरी शांति से, तो ही परिपूर्ण व्यक्ति, इंटिग्रेटेड पर्सनैलिटी जिसको हम कहें, जिसे हम पूर्ण योग कहें, वह उत्पन्न होता है।

अब तक दुनिया में दो तरह की बातें हुई हैं। या तो लोगों ने दीये हाथ में रख लिए हैं और बिलकुल कमजोर हो गए हैं। इतने कि उनका कोई दीया फूंक दे, तो वह इनकार भी नहीं कर सकते कि आप हमारा दीया क्यों फूंक रहे हैं। वे सोचेंगे कि बेचारा चला जाए तो हम फिर जला लेंगे, या नहीं गया तो अंधेरे में ही रह लेंगे, ऐसा भी क्या हर्जा है। लेकिन कौन झंझट करे। तो एक तो दीया पकड़ने वाले ऐसे लोग हैं कि जिनका दीया बचाने की भी जिनके पास कोई सामर्थ्य नहीं है।

भारत ऐसे ही कमजोर कौमों में से एक कमजोर कौम हो गई है। और यह कमजोर कौम इसलिए हुई कि हमने जीवन की शक्ति के वास्तविक केंद्र तो विकसित नहीं किए। हमने केवल बुद्धि के पास बैठ कर गीता कंठस्थ कर ली और महावीर के वचन याद कर लिए और बैठ कर व्याख्या करने लगे। और उपनिषद याद करने लगे और गुरु—शिष्य बैठे हैं और जमाने भर की फिजूल की बातों पर बातें कर रहे हैं, जिनका जीवन से कोई संबंध नहीं है। यह हम, सारा मुल्क, पूरी की पूरी कौम कमजोर हो गई है, दीन—हीन हो गई है, नपुंसक हो गई है।

और दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने दीये की फिकर ही छोड़ दी, सिर्फ तलवार लेकर चलाने में लग गए। फिर वह उनके पास दीया न होने से अंधेरे में दिखता नहीं कि वह किसको काट रहे हैं— अपने लोगों को काट रहे हैं कि दूसरों को काट रहे हैं। वे काटे चले जाते हैं! और कोई दीया—वीया जलाने की बात कहे, तो कहते हैं, बकवास मत करो। जितनी देर में दीया जलाएंगे उतनी देर में तलवार नहीं चला लेंगे। और जिस धातु से दीया बनाएंगे, उससे एक तलवार और बन जाएगी। उतना तेल कौन खराब करे, उतनी धातु कौन खराब करे। जिंदगी तो तलवार चलाना है।

तो पश्चिम के लोग अंधेरे में ही तलवार चलाए जा रहे हैं। और पूरब के लोग बिना तलवार लिए दीया लिए बैठे हुए हैं। वे दोनों रो रहे हैं। सारी दुनिया रो रही है। ठीक आदमी पैदा नहीं हो सका है। ठीक आदमी एक जीवंत तलवार भी होता है और एक शांति का दीया भी होता है। ये दोनों बातें जिस व्यक्तित्व में फलित होती हैं, उस व्यक्ति को ही मैं योगी कहता हूं और किसी व्यक्ति को योगी नहीं कहता।

उसके पहले सूत्र पर आज हमने बात की है। इस संबंध में आपके मन में बहुत से प्रश्न उठने जरूरी हैं, उठने चाहिए। तो वे प्रश्न आप लिखेंगे तो रात मैं उनकी बात कर सकूंगा। फिर कल हम दूसरे सूत्रों पर चर्चा शुरू करेंगे। इसलिए आज इस संबंध में ही प्रश्न पूछें और किसी संबंध में नहीं। फिर कल दूसरे संबंध में बात होगी, तब उस संबंध में प्रश्न पूछ लें। परसों तीसरे संबंध में बात होगी, तब उस संबंध में प्रश्न पूछ लेंगे।

तो जो मैंने कहा है, उस संबंध में ही पूछेंगे तो ठीक होगा। और अगर कुछ ऐसे प्रश्न हों, जो कि इन तीनों दिनों में संबंधित न हों, तो अंतिम दिन आप उनको पूछ लेंगे। तो अंतिम दिन हम उनकी बात कर सकेंगे।

(आज इतना ही)

आज दोपहर की बैठक पूरी हुई।


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नाम सुमिर मन बावरा-(जगजीवन)–(प्रवचन–2)

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तुमसों मन लागो है मोर—(प्रवचन—पहला)

दिनांक,। अगस्‍त,।978;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र—

तुमसों मन लागो हे मोरा।

हम तुम बैठे रही अटरिया, भला बना है जोरा।।

सत की सेज बिछाय सूति रहि, सुख आनन्द धनेरा।

करता हरता तुमहीं आहहु, करौं मैं कौन निहोरा।।

रहचो अजान अब जानि परयो है, जब चितयो एक कोरा।

आवागमन निवारह साईं, आदि—अंत का आहिऊं चोरा।

जगजीवन बिनती करि मांगे, देखत दरस सदा रहो तोरा।।

अब निर्वाह किये बनि आइहि लाय प्रीति नहिं तोरिया डोरा।।

मन महं जाइ फकीरी करना।

रहे एकंत तंत लें लागा, राग निर्त नहिं सुनना।।

कथा चारचा पढै—सुनै नहि, नाहि बहुत बक बोलना।

ना थिर रहे जहां तह धावै, यह मन अहै हिंडोलना।।

मैं तैं गर्व गुमान बिबार्दाहं, सबै दूर यह करना।

सीतल दीन रहे मरि असर, गहे नाम की सरना।।

अल पषान की करै आस नहिं, आहै सकल भरमना।

जगजीवनदास निहारि निरखिकै, र्गाहे रहु गुरु की सरना।।

भूलु फूलु सुख पर नहीं, अबहूं होहु सचेत।

साई पठवा तोहि कां, लाचो तेहि ले हेत।।

तजु‘ आसा सब झूंठ ही, संग साथी नहिं कोव।

केउ केहू न उबारिही, जेहि पर होय सो होय।।

कहवा तें चलि आयहू, कहां रहा अस्थान।

सो सुधि बिसरि गई तोहि, अब कस भयसि हेवान।।

काया—नगर सोहावना, सुख तबहीं पै होय।

रमत रहे र्तोहुं भीतरे, दुख नहीं व्यापै कोय।।

मृत—मंडल कोउ थिर नहीं, आवा सो चलि जाय।

गाफिल हूवै फंदा परयौ जहं—तंह गयो बिलाय।।

क नई यात्रा पर निकलते हैं आज!

बुद्ध का, कृष्ण का, क्राइस्ट का मार्ग तो राजपथ है।

राजपथ का अपना सौंदर्य है, अपनी सुविधा, अपनी सुरक्षा। सुंदरदास, दादूदयाल या अब जिस यात्रा पर हम चल रहे हैं—जगजीवन साहब—इनके रास्ते पगडंडियां हैं। पगडंडियों का अपना सौंदर्य है। पहुंचाते तो राजपथ भी उसी शिखर पर हैं जहां पगडंडियां पहुंचाती हैं। राजपथों पर भीड़ चलती है; बहुत लोग चलते हैं—हजारों, लाखों, करोड़ों। पगडंडियों पर इक्के—दुक्के लोग चलते हैं। पगडंडियों के कष्ट भी हैं, चुनौतियां भी हैं। पगडंडियां छोटे—छोटे मार्ग हैं।

पहाड़ की चढ़ाई करनी हो, दोनों तरह से हो सकती है। लेकिन जिसे पगडंडी पर चढ़ने का मजा आ गया वह राजपथ से बचेगा। अकेले होने का सौंदर्य—वृक्षों के साथ, पक्षियों के साथ, चांद—तारों के साथ, झरनों के साथ।

राजपथ उन्होंने निर्माण किए हैं जो बड़े विचारशील लोग थे। राजपथ निर्माण करना हो तो अत्यंत सुविचारित ढंग से ही हो सकता है। पगडंडियां उन्होंने निर्मित की हैं, जो न तो पढ़े—लिखे थे, न जिनके पास विचार की कोई व्यवस्था थी—अपढ; जिन्हें हम कहें गंवार; जिन्हें काला अक्षर भैंस बराबर था।

लेकिन यह स्मरण रखना कि परमात्मा को पाने के लिए ज्ञानी को ज्यादा कठिनाई पड़ती है। बुद्ध को ज्यादा कठिनाई पड़ी। सुशिक्षित थे, सुसंस्कृत थे। शास्त्र की छाया थी ऊपर बहुत। सम्राट के बेटे थे। जो श्रेष्ठतम शिक्षा उपलब्ध हो सकती थी, उपलब्ध हुई थी। उसी शिक्षा को काटने में वर्षो लग गए। उसी शिक्षा से मुक्त होने में बड़ा श्रम उठाना पड़ा।

बुद्ध छह वर्ष तक जो तपश्चर्या किए, उस तपश्चर्या में शिक्षा के द्वारा डाले गए संस्कारों को काटने की ही योजना थी। महावीर बारह वर्ष तक मौन रहे। उस मौन में जो शब्द सीखे थे, सिखाए गए थे उन्हें भुलाने का प्रयास था। बारह वर्षो के सतत मौन के बाद इस योग्य हुए कि शब्द से छुटकारा हो सका।

और जहां शब्द से छुटकारा है वहीं निःशब्द से मिलन है। और जहां चित्त शास्त्र के भार से मुक्त है वहीं निर्भार होकर उड़ने में समर्थ है। जब तक छाती पर शास्त्रों का बोझ है, तुम उड़ न सकोगे; तुम्हारे पंख फैल न सकेंगे आकाश में। परमात्मा की तरफ जाना हो तो निर्भार होना जरूरी है।

जैसे कोई पहाड़ चढ़ता है तो जैसे—जैसे चढ़ाई बढ़ने लगती है वैसे—वैसे भार भारी मालूम होने लगता है। सारा भार छोड़ देना पड़ता है। अंततः तो आदमी जब पहुंचता है शिखर पर तो बिल्कुल निर्भार हो जाता है। और जितना ऊंचा शिखर हो उतना ही निर्भार होने की शर्त पूरी करनी पड़ती है।

महावीर पर बड़ा बोझ रहा होगा। किसी ने भी इस तरह से बात देखी नहीं है। बारह वर्ष मौन होने में लग जाएं, इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ होता है कि भीतर चित्त बड़ा मुखर रहा होगा। शब्दों की धूम मची होगी। शास्त्र पंक्तिबद्ध खड़े होंगे। सिद्धांतों का जंगल होगा। तब तो बारह वर्ष लगे इस जंगल को काटने में। बारह वर्ष जलाया तब यह जंगल जला; तब सन्नाटा आया; तब शून्य उतरा; तब सत्य का साक्षात्कार हुआ।

पंडित सत्य की खोज में निकले तो देर लगनी स्वाभाविक है। अक्सर तो पंडित निकलता नहीं सत्य की खोज में। क्योंकि पंडित को यह भ्रांति होती है कि मुझे तो मालूम ही है, खोज क्या करनी है? वे थोड़े—से पंडित सत्य की खोज में निकलते हैं जो ईमानदार हैं; जो जानते हैं कि जो मैं जानता हूं वह सब उधार है। और जो मुझे जानना है, अभी मैंने जाना नहीं। ही, उपनिषद मुझे याद हैं लेकिन वे मेरे उपनिषद् नहीं हैं; वे मेरे भीतर उमगे नहीं हैं।

जैसे किसी मां ने किसी दूसरे के बेटे को गोद ले लिया हो ऐसे ही तुम शब्दों को, सिद्धांतों को गोद ले सकते हो, मगर अपने गर्भ में बेटे को जन्म देना, अपने गर्भ में बड़ा करना, नौ महीने तक अपने जीवन में उसे ढालना बात और है। गोद लिए बच्चे बात और हैं। लाख मान लो कि अपने हैं, अपने नहीं हैं। समझा लो कि अपने हैं; मगर किसी तल पर, किसी गहराई में तो तुम जानते ही रहोगे कि अपने नहीं हैं। उसे भुलाया नहीं जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता।

उपनिषद कंठस्थ हो सकते हैं—मगर गोद लिया तुमने ज्ञान; तुम्हारे गर्भ में पका नहीं। तुम उसे जन्म देने की प्रसव—पीड़ा से नहीं गुजरे। तुमने कीमत नहीं चुकाई। और बिना कीमत जो मिल जाए, दो कौड़ी का है। जितनी कीमत चुकाओगे उतना ही मूल्य होता है।

पंडित एक तो सत्य की खोज में जाता नहीं और जाए तो सबसे बड़ी अड़चन यही होती है कि ज्ञान से कैसे छुटकारा हो—तथाकथित ज्ञान से कैसे छुटकारा हो? अज्ञान से छूटना इतना कठिन नहीं है क्योंकि अज्ञान निर्दोष है। सभी बच्चे अज्ञानी हैं। लेकिन बच्चों की निर्दोषता देखते हो! सरलता देखते हो, सहजता देखते हो।

अज्ञानी और ज्ञान के बीच ज्यादा फासला नहीं है। क्योंकि अज्ञानी के पास कुछ बातें हैं जो ज्ञान को पाने की अनिवार्य शर्ते हैं : जैसे सरलता है, जैसे निर्दोषता है, जैसे सीखने की क्षमता है, झुकने का भाव है, समर्पण की प्रक्रिया है। अज्ञानी की सबसे बड़ी संपदा यही है कि उसे अभी जानने की भ्रांति नहीं है। उसे साफ है, स्पष्ट है कि मुझे पता नहीं है। जिसको यह पता है कि मुझे पता नहीं है, वह तलाश में निकल सकता है। या कोई अगर जला हुआ दीया मिल जाए तो वह उसके पास बैठ सकता है। सत्संग की सुविधा है।

इसलिए तो जीसस ने कहा : ‘धन्य हैं वे जो छोटे बच्चों की भांति हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। ‘पंडित की बड़ी से बड़ी कठिनाई यही है कि बिना जाने उसे पता चलता है कि मैं जानता हूं। न ही उसे एक भी उत्तर मिला है जीवन से, लेकिन किताबों ने सब उत्तर दे दिए हैं उधार, बासे, पिटे—पिटाए, परंपरा से।

महावीर को बारह वर्ष लगे मौन साधने में! कोई जैनशास्त्र यह नहीं कहता कि बारह वर्ष लगने का अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ यही होता है कि मन में खूब धूम रही होगी विचारों की। होना स्वाभाविक भी है। राजपुत्र थे, सुशिक्षित थे, बड़े—बड़े पंडितों के पास बैठकर सब सीखा होगा, जो सीखा जा सकता था। सब कलाओं में पारंगत थे। वही पारंगतता, वही कुशलता, वही ज्ञान बन गई चट्टान। उसी को तोड्ने में बारह वर्ष सतत श्रम करना पड़ा, तब कहीं मौन हुए; तब कहीं चुप्पी आयी; तब कहीं फिर से अज्ञानी हुए। झूठे ज्ञान से छुटकारा हुआ। कागज फिर कोरा हुआ।

और जब कागज कोरा हो तो परमात्मा कुछ लिखे। और जब अपना उपद्रव शांत हो, अपनी भीड़— भाड़ छटे, अपना शोरगुल बंद हो तो परमात्मा की वाणी सुनाई पड़े, उपनिषद् का जन्म हो, ऋचाएं गंजे तुम्हारे हृदय से। तुम्हारी श्वासें सुवासित हों ऋचाओं से। तुम जो बोलो सो शास्त्र हो जाए। तुम उठो—बैठो, तुम आख खोलो, आख बंद करो और शास्त्र झरें। तुम्हारे चारों तरफ वेद की हवाएं उठें।

कुरान का संगीत पैदा होता है तभी, जब तुम्हारे भीतर शून्य गहन होता है। जैसे बादल जब भर जाते हैं वर्षा के जल से तो बरसते हैं। और जब आत्मा शून्य के जल से भर जाती है तो बरसती है।

मुहम्मद, कबीर, जगजीवन ये बे—पढे लिखे लोग हैं। ये निपट गंवार हैं, ग्रामीण हैं। सभ्यता का, शिक्षा का, संस्कार का, इन्हें कुछ पता नहीं है। बड़ी सरलता से इनके जीवन में क्रांति घटी है। इन्हें बारह बारह वर्ष महावीर की भांति, या बुद्ध की भांति मौन को साधना नहीं पड़ा है। इनके भीतर कूड़ा—करकट ही न था। विद्यापीठ ही नहीं गए थे। विश्वविद्यालयों में कचरा इन पर डाला नहीं गया था। ये कोरे ही थे। संसार में तो मूढ़ समझे जाते।

लेकिन ध्यान रखना, संसार का और परमात्मा का गणित विपरीत है। जो संसार में मूढ़ है उसकी वहां बड़ी कद्र है। फिर जीसस को दोहराता हूं। जीसस ने कहा है : ‘जो यहां प्रथम हैं वहां अंतिम, और जो यहां अंतिम हैं वहां प्रथम हैं।

यहां जिनको तुम मूढ़ समझ लेते हो… और मूढ़ हैं; क्योंकि धन कमाने में हार जाएंगे, पद की दौड़ में हार जाएंगे। न चालबाज हैं न चतुर हैं। कोई भी धोखा दे देगा। कहीं भी धोखा खा जाएंगे। खुद धोखा दे सकें, तो सवाल ही नहीं; अपने को धोखे से बचा भी न सकेंगे। इस जगत् में तो उनकी दशा दुर्दशा की होगी। लेकिन यही हैं वे लोग जो परमात्मा के करीब पहुंच जाते हैं—सरलता से पहुंच जाते हैं।

ऐसे लोग राजपथ नहीं बना सकते। पतंजलि राजपथ बना सकते हैं। सुविचारित, नियमबद्ध, धर्म का विज्ञान निर्मित कर सकते हैं। जगजीवन जैसे लोग तो छोटी—सी पगडंडी बनाते हैं। इस खयाल से भी नहीं बनाते कि कोई मेरे पीछे आएगा। खुद चलते हैं, उस चलने से ही घास—पात टूट जाता है, पगडंडी बन जाती है। कोई आ जाए पीछे, आ जाए।

आ जाते हैं लोग। क्योंकि सत्य का जब अवतरण होता है तो वह चाहे राजपुत्रों में हो और चाहे दीन—दरिद्रों में हो, सत्य का जब अवतरण होता है तो उसकी गंध ऐसी है, उसका प्रकाश ऐसा है, जैसे बिजली कौंध जाए! फिर किस में कौंधी, इससे फर्क नहीं पड़ता। राजमहल पर कौंधी कि गरीब के झोपड़े पर कौंधी, महानगरी में कौंधी कि किसी छोटे—मोटे गांव में कौंधी—बिजली कौंधती है तो प्रकाश हो जाता है। सोए जग जाते हैं। बंद जिनकी आंखें थीं, खुल जाती हैं। मूर्च्छा में जो पड़े थे उन्हें होश आ जाता है।

कुछ लोग चल पड़ते हैं। ज्यादा लोग नहीं चल सकते क्योंकि जगजीवन को समझाने की क्षमता नहीं होती। ही, जो लोग प्रेम करने में समर्थ हैं, समझने के मार्ग से नहीं चलते बल्कि प्रेम के मार्ग से चलते हैं, वे लोग पहचान लेते हैं।

जगजीवन प्रमाण नहीं दे सकते, गीत गा सकते हैं और गीत भी काव्य के नियमों के अनुसार नहीं होगा, छंदबद्ध नहीं होगा। गीत भी ऐसा ही होगा जैसे गांव के लोग गा लेते हैं, बना लेते हैं। इसलिए जगजीवन के वचनों में तुम मात्रा और छंद खोजने मत बैठ जाना। जैसे गांव के लोग गीत गाते हैं, ऐसे ये गीत हैं।

जगजीवन का काम था गाय—बैल चराना। गरीब के बेटे थे। बाप किसान थे—छोटी—मोटी किसानी। और बेटे का काम था कि गाय—बैल चरा लाना। न पढ़ने का मौका मिला, न पढ़ने का सवाल उठा। तो जैसे गाय—बैल चरानेवाले लोग भी गीत गाते हैं… गीत तो सबका है। कोई विश्वविद्यालय से शोध के ऊपर उपाधि लेकर आने पर ही गीत गाने का हक नहीं होता।

और सच तो यह है कि जो लोग विश्वविद्यालय से सब भांति मात्रा, छंद और काव्यशास्त्र में कुशल होकर आते हैं, जो भरत के नाट्यशास्त्र से लेकर अरस्तू के काव्यशास्त्र तक को समझते हैं उनसे कभी कविता पैदा नहीं होती। यह तुमने मजे की बात देखी कि विश्वविद्यालय में जो लोग काव्य पढ़ाते हैं उनसे कविता पैदा नहीं होती। कविता उनसे बचकर निकल जाती है। शेक्सपियर को पढ़ाते हैं और कालिदास को पढ़ाते हैं और भवसूति को पढ़ाते हैं, मगर कविता उनसे बचकर निकल जाती है। कविता कभी प्रोफेसरों के गले में वरमाला पहनाती ही नहीं। काव्यशास्त्र को ज्यादा जान लेना—और कविता के प्राण निकल जाते हैं। कविता तो फलती है—फूलती है—जगलों में, पहाड़ों में, प्रकृति में और प्राकृतिक जो मनुष्य हैं, उनमें।

जगजीवन के जीवन का प्रारंभ वृक्षों से होता है, झरनों से, नदियों से, गायों से, बैलों से। चारों तरफ प्रकृति छायी रही होगी। और जो प्रकृति के निकट है वह परमात्मा के निकट है। जो प्रकृति से दूर है वह परमात्मा से भी दूर हो जाता है।

अगर आधुनिक मनुष्य परमात्मा से दूर पड़ रहा है, रोज—रोज दूर पड़ रहा है, तो उसका कारण यह नहीं है कि नास्तिकता बढ़ गई है। जरा भी नहीं नास्तिकता बढ़ी है। आदमी जैसा है ऐसा ही है। पहले भी नास्तिक हुए हैं, और ऐसे नास्तिक हुए हैं कि उनकी नास्तिकता के ऊपर और कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। चार्वाक ने जो कहा है तीन हजार साल पहले, इन तीन हजार साल में एक भी तर्क ज्यादा जोड़ा नहीं जा सका है। चार्वाक सब कह ही गया जो ईश्वर के खिलाफ कहा जा सकता है। न तो दिदरो ने कुछ जोड़ा है, न मार्क्स ने कुछ जोड़ा है, न माओ ने कुछ जोड़ा है। चार्वाक तो दे गया नास्तिकता का पूरा शास्त्र; उसमें कुछ जोड्ने का उपाय नहीं है। या यूनान में एपिकुरस दे गया है, नास्तिकता का पूरा शास्त्र। सदियां बीत गई हैं, एक नया तर्क नहीं जोड़ा जा सका है।

यह सदी कुछ नास्तिक हो गई है, ऐसा नहीं है। फिर क्या हो गया है? एक और ही बात हो गई है जो हमारी नजर में नहीं आ रही है; प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध टूट गया है। आज आदमी आदमी की बनाई हुई चीजों से घिरा है; परमात्मा की याद भी आए तो कैसे आए? हजारों—हजारों मील तक फैले हुए सीमेंट के राजपथ हैं, जिन पर घास भी नहीं उगती। आकाश को छूते हुए सीमेंट के गगनचुंबी महल हैं। लोहा और सीमेंट—उसमें आदमी घिरा है। उसमें फूल नहीं खिलते।

और आदमी जो भी बनाता है उसमें कुछ भी विकसित नहीं होता। वह जैसा है वैसे ही का वैसा होता है। आदमी जो बनाता है वह मुर्दा होता है। और जब हम मुर्दे से घिर जाएंगे तो हमें जीवन की याद कैसे आए?

महीनों बीत जाते हैं, न्यूयार्क या बंबई में रहनेवाले लोगों को, कि सूरज के दर्शन नहीं होते। फुरसत कहां है! भागदौड़ इतनी है। जमीन से आख हटाने का अवसर कहां है! अगर ऐसे आकाश की तरफ देखकर चलो बंबई की सड्कों पर तो घर नहीं लौटोगे, अस्पताल में पाए जाओगे। रास्ता पार करना है, भागती कारों की दौड़ है, संभलकर चलना है। गए वे दिन जब कोई आकाश की तरफ देखता। अब तो जमीन पर देखकर भी बचे हुए घर लौट आओ वापिस तो बहुत है।

वर्षो बीत जाते हैं, लोग पूर्णिमा के चांद को नहीं देख पाते। कब पूर्णिमा आती है, चली जाती है, पता कहां चलता है! और पता भी चलता है तो कैलेंडर में चलता है। अब कैलेंडर में पूर्णिमा होती है कहीं? पूर्णिमा आकाश में होती है। लोग चांद को पहचानते भी हैं तो फिल्मों में देखकर पहचानते हैं कि अरे, चांद है! कहानियां रह गई हैं।

लंदन में कुछ वर्षो पहले बच्चों का एक सर्वे किया गया। दस लाख बच्चों ने एक अजीब बात कही कि उन्होंने गाय—बैल नहीं देखे हैं। लंदन में कहां गाय—बैल! मगर अभागा है वह आदमी जिसने गाय की आंखों में नहीं झांका। क्योंकि आंखों में अब भी एक शाश्वतता है, एक सरलता है, एक गहराई है—जो आदमी की आंखों ने खो दी है! आदमी की आंखों में वैसी गहराई पानी हो तो कोई बुद्ध मिले तब; मगर गाय की आख में तो है ही।

अभागे नहीं हैं वे बच्चे जिन्होंने गाय नहीं देखी। अभागे हैं वे बच्चे जिन्होंने खेत नहीं देखे। लंदन के बहुत—से बच्चों ने, लाखों बच्चों ने बताया कि उन्होंने अभी तक खेत नहीं देखे। और जिसने खेत नहीं देखा उसे परमात्मा की याद आएगी? जिसने बढ़ती हुई फसलें नहीं देखीं, जिसने बढ़ती हुई फसलों का चमत्कार नहीं देखा। जहां जीवन बढ़ता है, फलता है, फूलता है, वहीं तो रहस्य का पदार्पण होता है।

मनुष्य नास्तिक हुआ है, नास्तिकता के कारण नहीं; मनुष्य नास्तिक हुआ है, आदमी के ही द्वारा बनाई चीजों में घिर गया है बहुत। हमारी हालत वैसी है जैसे कभी छोटे—छोटे बच्चे कहीं कोई मकान बन रहा हो… मैंने देखा, एक दिन मैं रास्ते से गुजरता था। एक मकान बन रहा था। रेत के और ईंटों के ढेर लगे थे। एक छोटे बच्चे ने खेल—खेल में अपने चारों तरफ ईंटें जमानी शुरू कीं। फिर ईंटें इतनी जमा लीं उसने कि वह उसके नीचे पड़ गया।

फिर वह घबड़ाया, अब निकले कैसे बाहर? चिल्लाया : ‘बचाओ!’ खुद ही जमा ली हैं ईंटें अपने चारों तरफ। अब ईंटों की कतार ऊंची हो गई है। अब वह घबड़ा रहा है कि मैं फंस गया।

उस दिन उस बच्चे को अपनी ही जमायी हुई ईंटों में फंसा हुआ देखकर मुझे आदमी की याद आयी। ऐसा ही आदमी फंस गया है। अपनी ही ईंटें हैं जमायी हुई, लेकिन परमात्मा और स्वयं के बीच एक चीन की दीवाल खड़ी हो गई है।

जगजीवन का जीवन प्रारंभ हुआ प्रकृति के साथ। कोयल के गीत सुने होंगे, पपीहे की पुकार सुनी होगी, चातक को टकटकी लगाए चांद को देखते देखा होगा। चमत्कार देखे होंगे कि वर्षा आती है और सूखी पड़ी हुई पहाड़ियां हरी हो जाती हैं। घास में फूल खिलते देखे होंगे। और गायों—बैलों के साथ रहना! न बातचीत, न अखबार। गाय—बैलों को पड़ी क्या अखबार की! न दिल्ली की खबर। गाय—बैलों को लेना—देना क्या है तुम्हारे प्रधानमंत्री क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं। कौन किसकी टांग खींच रहा है, कौन किसको गिरा रहा है—गाय—बैलों को लेना—देना क्या? गाय—बैल इस तरह की व्यर्थ बातों में पड़ते ही नहीं।

गाय—बैलों के साथ रहते—रहते गाय—बैलों जैसे हो गए होंगे—सरल, निर्दोष, गैर—महत्त्वाकांक्षी। गाय को तो भूख लगती है तो घास चर लेती है। थक जाती है तो झाडू के नीचे विश्राम कर लेती है। बजाते होंगे बांसुरी। जब गाय—बैल चरती होंगी तो जगजीवन बांसुरी बजाते होंगे।

चरवाहे अक्सर बांसुरी बजाते हैं। चरवाहे ही बांसुरी बजा सकते हैं, और कौन बजाएगा? जिसको बांसुरी बजाना आता है उससे परमात्मा बहुत दूर नहीं। और जो वृक्षों की छाया में बैठकर बांसुरी बजा सकता है, उससे परमात्मा कितनी देर छिपा रहेगा? कैसे छिपा रहेगा? खुद ही बाहर निकल आएगा। अपने से प्रकट उसे होना पड़ेगा।

इसलिए कहता हूं एक नई यात्रा पर चलते है। एक बे—पढे—लिखे आदमी के वचन हैं ये। प्रकृति के साथ—साथ बैठे—बैठे सत्संग की सूझ उठी जगजीवन को। छोटे ही थे, बच्चे ही थे, मगर सत्संग की सूझ उठी।

लोग सोचते हैं, शास्त्र पड़ेंगे तो सत्संग की सूझ उठती है। नहीं, शास्त्र तो सत्संग से बचा देता है। शास्त्र तो स्वयं ही सत्संग का काम पूरा कर देता है। फिर सत्संग की कोई जरूरत नहीं रह जाती। सब तो लिखा है किताब में, सत्संग करने कहां जाते हो? पुस्तकालय की तरफ चले जाओ। सत्संग तो एक का कर हो? पुस्तकालय में तो सभी भरा पड़ा है। सारे जगत् के ज्ञानी वहां मौजूद हैं। डूबो किताबों में; वहीं सब मिल जाएगा।

किताबों में कहीं डुबकी लगी है? किताबों के पहाड़ झूठे, किताबों के सागर झूठे, किताबों का परमात्मा झूठा। किताबों में तो नक्‍शो हैं, तस्वीरें हैं; असलियत कहां है? लेकिन किताबों में आदमी बड़ी बुरी तरह खो जाते हैं। शास्त्र में जो उलझ गया वह शास्ता की खोज पर नहीं निकलता।

बैठे—बैठे झाड़ों के नीचे जगजीवन को गायों—बैलों को चराते, बांसुरी बजाते कुछ—कुछ रहस्य अनुभव होने लगा होगा। क्या है यह सब—यह विराट जब तक तुम खुली रात आकाश के नीचे, घास पर लेटकर तारों को न देखो, तुम्हें परमात्मा की याद आएगी ही नहीं। जब तक तुम पतझड़ में खड़े सूखे वृक्षों को फिर से हरा होते बसंत में न देखो, फिर नए अंकुर आते न देखो, जीवन के आगमन के ये पदचाप तुम्हें सुनाई न पड़े, तब तक तुम परमात्मा की याद न कर हरे। या तुम्हारा परमात्मा शाब्दिक होगा, झूठा होगा। परमात्मा शब्द में परमात्मा नहीं है, रहस्य की अनुभूति में परमात्मा है।

यह रहस्य जगने लगा होगा : क्या है यह सारा विस्तार! मैं कौन हूं? मैं क्या हूं? इस हरी— भरी सुंदर दुनिया में मेरे होने का प्रयोजन क्या है? ऐसे कुछ प्रश्न—अनपढ़, बेक जगजीवन के हृदय को आंदोलित करने लगे होंगे।

साधुओं की तलाश शुरू हो गई। जब फुरसत मिल जाती तो साधुओं के पास पहुंच जाते। सुनते। जिसने प्रकृति को सुना है वह सद्गुरुओं को भी समझ सकता है। क्योंकि सद्गुरु महाप्रकृति की बातें कर रहे हैं। जो प्रकृति की पाठशाला में बैठा है वह महाप्रकृति के समझने में तैयारी कर रहा है, तैयार हो रहा है।

परमात्मा क्या है? इस प्रकृति के भीतर छिपे हुए अदृश्य हाथों का नाम : जो सूखे वृक्षों पर पत्तियां ले आता है; प्यासी धरती के पास जल से भरे हुए मेघ ले आता है; जो पशुओं की और पक्षियों की भी चिंता कर रहा है; जिसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। अगोचर, अदृश्य, फिर भी उसकी छाप हर जगह है। दिखाई तो नहीं पड़ता पर उसके हाथों को इंकार कैसे करते हो? इतना विराट आयोजन चलता है, इस सब व्यवस्था से इंकार कैसे करते हो? फिर उस व्यवस्था को तुम प्रकृति का नियम कहो कि परमात्मा कहो, यह केवल शब्द की बात है।

सत्संग चलने लगा। और एक दिन अनूठी घटना घटी। चराने गए थे गाय—बैल को, दो फकीर—दो मस्त फकीर वहां से गुजरे। उनकी मस्ती ऐसी थी कि कोयलों की कुहू—कुहू ओछी पड़ गई। पपीहों की पुकार में कुछ खास न रहा। झीलें देखी थीं, गहरी थीं, मगर इन आंखों के सामने कुछ भी नहीं। झीलें देखी थीं, शांत थीं, मगर यह शांति कुछ बात ही और थी। यह किसी और ही लोक की शांति थी। यह पारलौकिक थी।

बैठ गए उनके पास, वृक्ष के नीचे महात्मा सुस्ताते थे। उनमें एक था बुल्लेशाह—एक अद्भुत फकीर, जिसके पीछे दीवानों का एक पंथ चला : बावरी। दीवाना था, पागल ही था। थोड़े—से पागल संत हुए हैं। इतने प्रेम में थे कि पागल हो गए। ऐसे मस्त थे कि डगमगाकर चलने लगे। जैसे शराब पी हो—शराब जो ऊपर से उतरती है; शराब जो अनंत से आती है।

एक तो उनमें बुल्लेशाह था, जिसे देखकर जगजीवन दीवाने हो गए। कहते हैं बुल्लेशाह को जो देखता था वही दीवाना हो जाता था। मां—बाप अपने बच्चों को बुल्लेशाह के पास भेजते नहीं थे। जिस गांव में बुल्लेशाह आ जाता, लोग अपने बच्चों को भीतर कर लेते थे। खबरें थीं कि वह दीवाना ही नहीं है, उसकी दीवानगी संक्रामक है। उसके पीछे बावरी पंथ चला, पागलों का पंथ चला।

पागल से कम में परमात्मा मिलता भी नहीं। उतनी हिम्मत तो चाहिए ही। तोड़कर सारा तर्कजाल, छोड्कर सारी बुद्धि—बुद्धिमत्ता, डुबाकर सब चतुराई—चालाकी जो चलते हैं वे ही पहुंचते हैं; उन्हीं का नाम पागल है।

एक तो उसमें बुल्लेशाह था और दूसरे थे गोविदशाह : बुल्लेशाह के ही एक संगी—साथी। दोनों मस्त बैठे थे। जगजीवन भी बैठ गया—छोटा बच्चा। बुल्लेशाह ने कहा : ‘बेटे, आग की जरूरत है, थोड़ी आग ले आओ। ‘वह भाग।। इसकी ही प्रतीक्षा करता था कि कोई आज्ञा मिल जाए, कोई सेवा का मौका मिल जाए।

सद्गुरु के पास वे ही पहुंच सकते हैं जो सेवा की प्रतीक्षा करते हैं—कोई मौका मिल जाए। सेवा का कोई मौका मिल जाए। और जुड्ने का नाता, और कोई उपाय भी तो नहीं है। आग ही नहीं लाया जगजीवन, साथ में दूध की एक मटकी भी भर लाया। भूखे होंगे, प्यासे होंगे। आग ले आया तो दोनों ने अपने हुक्के जलाए। दूध ले आया तो दूध पीया। लेकिन बुल्लेशाह ने जगजीवन को कहा कि दूध तो तू ले आया, लेकिन मुझे ऐसा लगता है, किसी को घर में बताकर नहीं आया।

बात सच थी। जगजीवन चुपचाप दूध ले आया था, पिता को कह नहीं आया था। थोड़ा ग्लानि भी अनुभव कर रहा था, थोड़ा अपराध भी अनुभव कर रहा था कि लौटकर पिता को क्या कहूंगा? पर बुल्लेशाह ने कहा : ‘घबड़ा मत। जरा भी चिंता न कर। जो उसे देता है उसे बहुत मिलता है। ‘वे तो दोनों फकीर कहकर और चल भी दिए।

जगजीवन सोचता घर चला आया कि ‘जो उसे देता है उसे बहुत मिलता है, इसका मतलब क्या?’ घर पहुंचा, जाकर मटकी उघाड़कर देखी, जिसमें से दूध ले गया था। आधा दूध तो ले गया था, मटकी आधी खाली छोड़ गया था, लेकिन मटकी भरी थी।

यह तो प्रतीक कथा है, सांकेतिक है। यह कहती है, जो उसके नाम में देते हैं, उन्हें बहुत मिलता है। देनेवाले पाते हैं, बचानेवाले खो देते हैं।

हसीद फकीर झुसिया ने कहा है : ‘जो मैंने दिया, बचा। जो मैंने बचाया, खो गया। ‘ये उसके आखिरी वचन थे अपने शिष्यों के लिए कि देना। जितना दे सको देना। जो हो वही देना। देने में कभी कंजूसी मत करना क्योंकि मैंने जो दिया, वह बचा। आज मैं अपने साथ वही ले जा रहा हूं जो मैंने दिया। और जो मैंने बचाया था वह सब खो गया है, आज मेरे पास नहीं है। मेरे हाथ खाली हैं।

इस जगत् का एक गणित है, एक अर्थशास्त्र है : बचाओ तो बचेगा, दोगे तो खो जाएगा। उस जगत् का अर्थशास्त्र बिल्कुल उल्टा है। वहां तो दोगे तो बचेगा, बचाओगे तो खो जाएगा।

मटकी भरी देखकर जगजीवन को होश आया कि किन अपूर्व लोगों को मैं छोड्कर चला आया हूं। भाग।। फकीर तो जा चुके थे मगर फिर अब रुकने की कोई बात न थी। भागता ही रहा, खोजता ही रहा। मीलों दूर जाकर फकीरों को पकड़ा। जानते हो, क्या मांगा? बुल्लेशाह से कहा, मेरे सिर पर हाथ रख दें। सिर्फ मेरे सिर पर हाथ रख दें। जैसे मटकी भर गई खाली, ऐसा आशीर्वाद दे दें कि मैं भी भर जाऊं। मुझे चेला बना लें।

छोटा बच्चा! बहुत समझाने की कोशिश की बुल्लेशाह ने कि तू लौट जा। अभी उम्र नहीं तेरी। अभी समय नहीं आया। लेकिन जगजीवन जिद पकड़ गया। उसने कहा, मैं छोडूंगा नहीं पीछा। हाथ रखना पड़ा बुल्लेशाह को।

गुरु हाथ रखता ही तब है जब तुम पीछा छोड़ते ही नहीं। तो ही हाथ रखने का मूल्य होता है। और कहते हैं, क्रांति घट गई। जो महावीर को बारह साल मौन की साधना करने से घटी थी, वह बुल्लेशाह के हाथ रखते जगजीवन को घट गई। अंतर बदल गया। काया पलट गई। चोला कुछ से कुछ हो गया। उस हाथ का रखा जाना—जैसे एक लफट उतरी। जला गई जो व्यर्थ था। सोना कुंदन हो गया। एक क्षण में हुआ।

ऐसी क्रांति तब हो सकती है जब मांगनेवाले ने सच में मांगा हो। यूं ही औपचारिक बात न रही हो कि मेरे सिर पर हाथ रख दें। हार्दिकता से मांगा हो, समग्रता से मांगा हो, परिपूर्णता से मांगा हो, रोएं—रोएं से मांगा हो। मांग ही हो, प्यास ही हो और भीतर कोई दूसरा विवाद न हो; शक न हो, संदेह न हो। निस्सदिग्ध मांगा हो कि मेरे सिर पर हाथ रख दें। मुझे भर दें जैसे मटकी भर गई।

छोटा बच्चा था; न पढ़ा न लिखा। गांव का गंवार चरवाहा। मगर मैं तुमसे फिर कहता हूं कि अक्सर सीधे—सरल लोगों को जो बात सुगमता से घट जाती है वही बात जो बुद्धि से बहुत भर गए हैं और इरछे—तिरछे हो गए हैं, उनको बड़ी कठिनाई से घटती है। युगपत क्रांति हो गई। जिसको झेन फकीर ‘सडन इनलाइटमेंट कहते हैं, एक क्षण में बात हो गई—ऐसी जगजीवन को हुई।

प्यास, त्वरा, तीव्रता, अभीप्सा—इन शब्दों को याद रखो। कुतूहल से नहीं होगा कि चलो देखें, क्या होता है अगर गुरु सिर पर हाथ रखे। कुछ भी नहीं होगा। और जब कुछ भी नहीं होगा तो तुम कहोगे कि जब फिजूल की बात है। जिज्ञासा से रखें कि शायद कुछ हो, तो भी नहीं होगा। जब तक कि अभीप्सा से न रखो। होना ही है, हुआ ही है, इधर हाथ छुआ कि वहां हो जाना है—ऐसी श्रद्धा से मांगो तो जरूर हो जाता है; निश्चित हो जाता है। सदा हुआ है। इस जगत् के शाश्वत नियमों में से एक नियम है कि जो पूर्णता से यासा होगा उसकी प्रार्थना सुन ली जाती है। उसकी प्रार्थना पहुंच जाती है।

उस दिन बुल्लेशाह ने ही हाथ नहीं रखा जगजीवन पर, बुल्लेशाह के माध्यम से परमात्मा का हाथ जगजीवन के सिर पर आ गया। टटोल तो रहा था, तलाश तो रहा था। बच्चे की ही तलाश थी—निबोंध थी, अबोध थी। लेकिन प्रकृति से झलकें मिलनी शुरू हो गई थीं। कोई रहस्य आवेष्टित किए है सब तरफ से इसकी प्रतीति होने लगी थी, इसके आभास शुरू हो गए थे। आज जो अचेतन में जगी हुई बात थी, चेतन हो गई। जो भीतर पक रही थी, आज उभर आयी। जो कल तक कली थी, बुल्लेशाह के हाथ रखते ही फूल हो गई। रूपांतरण क्षण में हो गया। जगजीवन ने फिर कोई साधना इत्यादि नहीं की। बुल्लेशाह से इतनी ही प्रार्थना की : कुछ प्रतीक दे जाएं। याद आएगी बहुत, स्मरण होगा बहुत। कुछ और तो न था, बुल्लेशाह ने अपने हुक्के में से एक सूत का धागा खोल लिया—काला धागा; वह दाएं हाथ पर बांध दिया जगजीवन के। और गोविदशाह ने भी अपने हुक्के में से एक धागा खोला—सफेद धागा, और वह भी दाएं हाथ पर बांध दिया।

जगजीवन को माननेवाले लोग जो सत्यनामी कहलाते हैं— थोड़े—से लोग हैं—वे अभी भी अपने दाएं हाथ पर काला और सफेद धागा बांधते हैं। मगर उसमें अब कुछ सार नहीं है। वह तो बुल्लेशाह ने बांधा था तो सार था। कुछ काले—सफेद धागे में रखा है क्या? कितने ही बांध लो, उनसे कुछ होनेवाला नहीं है। वह तो जगजीवन ने मांगा था, उसमें कुछ था। और बुल्लेशाह ने बांधा था, उसमें कुछ था। न तो तुम जगजीवन हो, न बाधनेवाला बुल्लेशाह है। बांधते रहो।

इस तरह मुर्दा प्रतीक हाथ में रह जाते हैं। कुछ और नहीं था तो धागा ही बांध दिया। और कुछ पास था भी नहीं। हुक्का ही रखते थे बुल्लेशाह, और कुछ पास रखते भी नहीं थे। लेकिन बुल्लेशाह जैसा आदमी अगर हुक्के का धागा भी बांध दे तो रक्षाबंधन हो गया। उसके हाथ से छूकर साधारण धागा भी असाधारण हो जाता है।

और प्रतीक भी था। गोविदशाह ने सफेद धागा बांध दिया, बुल्लेशाह ने काला धागा बांध दिया। मतलब? मतलब कि काले और सफेद दोनों ही बंधन हैं। पाप भी बंधन है, पुण्य भी बंधन है। शुभ भी बंधन है, अशुभ भी बंधन है। यह बुल्लेशाह की देशना थी। यह उनका मौलिक जीवन—मंत्र था।

अच्छा तो बांध लेता है, जैसे बुरा बांधता है। नरक भी बांधता है, स्वर्ग भी बांधता है। इसलिए तुम बुरे से तो छूट ही जाना, अच्छे से भी छूट जाना। न तो बुरे के साथ तादात्म्य करना, न अच्छे के साथ तादात्म्य करना। तादात्म्य ही न करना। तुम तो साक्षी मानना अपने को कि मैं दोनों का द्रष्टा हूं। लोहे की जंजीरें बांधती हैं, सोने की जंजीरें भी बांध लेती हैं। जिसको तुम पापी कहते हो वह भी कारागृह में है, जिसको तुम पुण्यात्मा कहते हो वह भी कारागृह में है। चौंकेगे तुम।

चोरी तो बांधती ही है, दान भी बांध लेता है। अगर दान में दान की अकड़ है कि मैंने दिया—अगर यह भाव है तो तुम बंध गए। जहां मैं है वहां बंधन है। अगर दान में यह अकड़ नहीं है कि मैंने दिया, परमात्मा का था, उसी ने दिया, उसी ने लिया, तुम बीच में आए ही नहीं; तो दान की तो बात ही छोड़ो, चोरी भी नहीं बंधती। अगर तुम अपने सारे कर्ता— भाव को परमात्मा पर छोड़ दो, फिर कुछ भी नहीं बांधता। फिर तुम नरक में भी रहो, तो मोक्ष में हो। कारागृह में भी स्वतंत्र हो। शरीर में भी जीवनमुक्त हो। लेकिन दोनों के साक्षी बनना।

ऐसा सूक्ष्म संदेश था उसमें। यह कुछ कहा नहीं गया। कहने की जरूरत न थी। वह जो हाथ रखा था गुरु ने और वह जो जीवन—ऊर्जा प्रवाहित हुई थी और भीतर जो स्वच्छ स्थिति पैदा हुई थी, उस स्वच्छ स्थिति को कुछ कहने की जरूरत न थी। ये प्रतीक पर्याप्त थे।

उसी दिन से जगजीवन शुभ—अशुभ से मुक्त हो गए। उन्होंने घर भी नहीं छोड़ा। बड़े हुए, पिता ने कहा शादी कर लो, तो शादी भी कर ली। गृहस्थ ही रहे। कहां जाना है? भीतर जाना है! बाहर कोई यात्रा नहीं है। काम—धाम में लगे रहे और सबसे पार और अछूते—जल में कमलवत्।

ऐसे इस गैर—पढ़े—लिखे लेकिन असाधारण दिव्य पुरुष के वचनों में हम प्रवेश करें।

फिर नजर में फूल महके दिल में फिर शम् जली

फिर तसब्यूर ने लिया उस बज्म में जाने का नाम

जिनके भीतर प्यास है, उन्हें तो इस तरह की यात्राओं की बात ही बस पर्याप्त होती है। फिर नजर में फूल महके… उनकी आंखें फूलों से भर जाती हैं।

दिल में फिर शम् जली… फिर उनके हृदय में दीये जगमगाने लगते हैं, दीवाली हो जाती है।

फिर तसब्यूर ले लिया उस बज्म में जाने का नाम

उस प्यारे की महफिल में जाने की बात हो किसी बहाने—फिर बहाना कबीर हों कि नानक, कि बहाना जगजीवन हों कि दादू हो भेद नहीं पड़ता। उसकी बज्म, उसकी महफिल में जाने की बात! फिर राजपथ से गए कि पगडंडियों से गए, कि बुद्धों का हाथ पकड़कर गए कि कृष्ण का हाथ पकड़कर गए, कोई फर्क नहीं पड़ता। असली बात उसकी महफिल में जाने की बात। उसकी बात ही उठते आंखों में फूल उठ आते हैं। हृदय रंग से भर जाता है, रोशनी जग जाती है।

तुमसे मन लागो है मोरा।

जगजीवन कहते हैं : मेरा मन तुमसे लग गया। और जब मन उससे लग जाता है तो मन मिट जाता है। मन का उससे लग जाना मन का मिट जाना है। जब तक मन और—और चीजों से लगा होता है तब तक बचता है। धन से लगाओ, बचेगा। पद से लगाओ, बचेगा। जब तक मन को तुम किसी और चीज से लगाओगे संसार में, बचता रहेगा। जैसे ही परमात्मा से लगाओगे कि तुम चकित हो जाओगे। उससे लगा नहीं कि गया नहीं। उसके साथ बच ही नहीं सकता, उसमें डूब जाता है, उसमें लीन हो जाता है। उस निराकार के साथ कोई आकार बच नहीं सकता। मन आकार है। उस अरूप के साथ कोई रूप टिक नहीं सकता। मन एक रूप है। निराकार से जुडो कि निराकार हुए।

तुम सों मन लागो है मोरा।

जिंदगी में अगर लगाना ही हो मन तो परमात्मा से लगाना, अन्यथा तुम हारे ही जियोगे, हारे ही मरतौ। तुम्हारी जिंदगी की सारी कथा हारने की एक कथा होगी। और ऐसा नहीं है कि जिंदगी में जीत नहीं थी। जीत हो सकती थी लेकिन आदमी अकेला कभी नहीं जीतता। अकेला तो सदा हारता है। जब भी जीत होगी, परमात्मा के साथ होती है। उसके साथ हो जाओ, असंभव संभव हो जाता है। उससे अलग खड़े हो जाआ, संभव भी असंभव हो जाता है।

सुनता हूं बड़े गौर से अफसाना—ए—हस्ती

कुछ ख्वाब है, कुछ अस्त है, कुछ तजें— अदा है

इस जिंदगी में सब कुछ है लेकिन अगर गौर से देखोगे—सुनता हूं बड़े गौर से अफसाना—ए—हस्ती अगर इस जिंदगी की कथा को, कहानी को गौर से परखोगे, जाचोगे, कसौटी पर कसोगे तो पाओगे—कुछ ख्वाब है। इसमें कुछ तो बिल्कुल सपना है—तुम्हारा ही निर्मित, तुम्हारा आरोपित।

कुछ ख्वाब है, कुछ अस्ल है—लेकिन सभी कुछ सपना भी नहीं है, इसमें कुछ अस्ल भी है।

……. कुछ तजें—अदा है। और कुछ तो इस कथा में सिर्फ कहने की शैली है और कुछ भी नहीं।

लेकिन ध्यान रखना, अगर निन्यानबे प्रतिशत भी यहां स्‍वप्‍न है, माया है तो भी एक प्रतिशत ब्रह्म मौजूद है। उस एक प्रतिशत को ही पकड़ लो तो जो निन्यानबे प्रतिशत स्‍वप्‍न हैं, अपने आप तिरोहित हो जाएंगे। छोटा—सा दीया भी गहन से गहन अंधकार को तोड़ देता है। फिर अंधकार हजारों साल पुराना हो तो भी तोड़ देता है। अंधकार यह नहीं कह सकता कि मैं बहुत पुराना हूं तू अभी आज का छोकरा है। ए दीये, तू मुझे न तोड़ सकेगा। मैं अति प्राचीन हूं समय लगेगा। दीया जला कि अंधकार गया—एक दिन का हो कि करोड़ वर्ष का हो।

तुम्हारे सपने कितने ही पुराने हों…… और पुराने हैं। जन्मों—जन्मों यही स्‍वप्‍न तुमने देखे हैं। इतने बार देखे हैं, बार—बार देखे हैं कि सपने भी सच मालूम होने लगे हैं। तुमने खयाल किया कभी? अगर एक ही झूठ को बार—बार दोहराए जाओ तो वह सच मालूम होने लगता है। अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा ‘मैनकेम्‍फ’ में लिखा है कि सच और झूठ में ज्यादा फर्क नहीं है। इतना ही फर्क है कि जिन शो को बहुत बार दोहराया जाता है वे सच हो जाते हैं। बस दोहराते रहो।

इसी पर तो सारी दुनिया का विज्ञान खोज करता है और हैरान होता है। आदमी कैसे—कैसे अंधविश्वासों में पड़ा रहा है। सदियां बीत गई, उन अंधविश्वासों की जड़ें कहां हैं? पुनरुक्ति में, दोहराने में। बस दोहराए जाओ। तुम्हारे पिता ने कुछ दोहराया था, तुम अपने बच्चों से दोहरा दो। दोहराए चले जाओ। पंडित हैं, पुजारी हैं, मौलवी हैं, दोहराए चले जाओ।

जब लोग एक ही बात को बार—बार सुनते हैं तो सोचने लगते हैं कि जहां धुआं है, वहां आग भी होगी। कुछ न कुछ तो सच होगा ही। एक बार सुनते हैं तो शायद शक करें; दूसरी बार सुनते हैं, तीसरी बार सुनते हैं, धीरे— धीरे बात बैठती जाती है। लकीर गहरी हो जाती है। रसरी आवत—जात है सिल पर पड़त निशान। पत्थरों पर निशान पड़ जाते हैं तो आदमी का मन… आदमी का मन तो पत्थर नहीं है। आदमी का मन तो बहुत कोमल है, मोम की तरह है। निशान बड़ी जल्दी पड़ जाते हैं।

इसी आधार पर तो सारा विज्ञापन जीता है। बस दोहराए चले जाओ। फिकर ही मत करो कोई सुन रहा है कि नहीं। तुम सिर्फ दोहराए चले जाओ। मनुष्य विज्ञापन से जी रहा है। तुम कुछ भी सोचते हो, जब तुम जाकर दुकान में पूछते हो : बिनाका टूथपेस्ट। तो तुम सोचते हो, तुम कुछ सोच—समझकर पूछ रहे हो? कि तुमने कुछ विचार किया है कि कौन—सा टूथपेस्ट वैज्ञानिक रूप से दांतों के लिए उपयोगी है? तुमने डाक्टर से पूछा है? डाक्टरों की सलाह तुम मानोगे?

एक दफे एक टूथपेस्ट—कंपनी ने यह प्रयोग किया कि एक टूथपेस्ट का विज्ञापन दिया दस दुनिया के सब से बड़े दांतों के डाक्टरों के नामों के साथ। उसकी बिक्री हुई ही नहीं। दूसरा टूथपेस्ट विज्ञापन किया मरलिन मन्‍रो—अमरीका की बहुत प्रसिद्ध अभिनेत्री के नग्न चित्र के साथ। उसके दात, मुस्कुराती हुई मनो, और मुस्कुराहट कि जिमी कार्टर को झेंपा दे! खूब बिक्री हुई। और दस बड़े डाक्टर… पहले तो बड़े डाक्टरों का नाम जानता कौन? होंगे कोई, किसको लेना—देना! और डाक्टरों की सुनता कौन? और डाक्टरों का प्रभाव क्या पड़ता है! लेकिन सुंदर अभिनेत्री! अब हेमामालिनी तुम्हारे कान में कुछ कहे, उसकी सुनोगे कि नहीं? फुसफुसाकर कहा जाए: ‘बिनाका टूथपेस्ट। ‘फिर सारे दुनिया के डाक्टर चिल्लाते रहें कुछ और, कौन फिकर करता है।

दोहराए जाओ। और इस ढंग से दोहराओ कि लोगों की कामनाएं और वासनाओं में उसके अंकन हो जाएं। कोई भी चीज बेचनी हो, नग्न स्त्री का विज्ञापन देना पड़ता है। चीजें नहीं बिकती, हमेशा नग्न स्त्री बिकती है। ऐसी चीजें जिनसे कुछ लेना—देना नहीं स्त्री का, उनको भी बेचना हो तो नग्न स्त्री को खड़ा कर दो। पुरुष की आंखें एकदम फैल जाती हैं।

और जब आंखें फैली होती हैं… तुम चकित होओगे, यह मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हूं कोई, काव्य की भाषा में नहीं कह रहा हूं कि आंखें फैल जाती हैं, विज्ञान की भाषा में आंखें फैल जाती हैं। वह जो तुम्हारी आख की पुतली है, जब तुम नग्न स्त्री को देखते हो, एकदम बड़ी हो जाती है। क्योंकि तुम चाहते हो कि पूरी की पूरी गप कर जाओ। तो छोटा—सा छेद पुतली का, उसमें से कहां जाएगी? हेमामालिनी जरा मोटी भी है! तो आख की पुतली एकदम बड़ी हो जाती है। वह तुम्हारी आख की पुतली पी रही है। वह पी रही है हेमामालिनी को, मगर साथ में बिनाका टूथपेस्ट भी चला जा रहा है।

फिर जगह—जगह विज्ञापन। अखबार—बिनाका टूथपेस्ट। रेडियो—बिनाका गीतमाला। फिर सीलोन हो कि आदिस अबाबा—बिनाका। रास्ते पर निकलो, बड़े—बड़े अक्षरों में बिनाका। जहां जाओ वहां बिनाका। तुम्हें खयाल भी नहीं आता कि क्या हो रहा है। एक दिन तुम जाते हो दुकान पर और दुकानदार पूछता है, कौन—सा टूथपेस्ट? और तुम कहते हो, बिनाका!

और तुम सोचते हो तुम बड़े बुद्धिमान आदमी हो? तुम बुद्ध हो। तुम बुद्ध बनाए गए हो। चीजें दोहरायी गई हैं और तुम्हारे मन में बिठा दी गई हैं। तुम सिर्फ संस्कारित कर दिए गए हो।

जिंदगी पुनरुक्ति से चल रही है। और इसीलिए तुम्हारे चारों तरफ लोग जो मानते हैं वही तुम भी मान लेते हो। सब लोग धन की दौड़ में लगे हैं, तुम भी लग जाते हो। अ भी दौड़ रहा है, ब भी दौड़ रहा है, सभी दौड़ रहे हैं। सभी धन की दौड़ में दौड़ रहे हैं। सभी कहते हैं, धन मूल्यवान है। तुम भी दौड़े। सब दिल्ली जा रहे हैं, तुमने उठा लिया झंडा कि चलो दिल्ली; कि अब दिल्ली से पहले रुकना ही नहीं है।

चारों तरफ एक हवा होती है। उस हवा में आदमी बहता है। लहरें उठती हैं, लहरों के साथ आदमी चले जाते हैं। समझदार आदमी वही है जो अपने को इन लहरों से बचाए। नहीं तो तुम धक्के खाते रहे, कितने जन्मों तक खाते ही रहोगे। यहां परमात्मा को खोजनेवाले लोग तो बहुत कम हैं, न के बराबर हैं। उनका तुम्हें पता ही न चलेगा अगर तुम खोजने ही न निकलो। धन को खोजनेवाले तो सब जगह हैं। सभी वही कर रहे हैं। तुम्हारे पिता भी वही कर रहे हैं, तुम्हारे भाई भी वही कर रहे हैं, तुम्हारा परिवार भी वही कर रहा है, तुम्हारे पड़ोसी भी वही कर रहे हैं। सारी दुनिया धन खोज रही है। इतने लोग गलत थोड़े ही हो सकते हैं। इतने लोग खोज रहे हैं तो ठीक ही खोज रहे होंगे।

इसलिए तुम्हारा मन हजार—हजार चीजों में उलझ जाता है। तुम ऐसी चीज खरीद लेते हो जिनकी तुम्हें जरूरत नहीं है। लेकिन पड़ोसियों ने खरीदी हैं, तुम कर भी क्या सकते हो? जब पड़ोसी खरीदते हैं तो तुम्हें भी खरीदनी पड़ती हैं। तुम ऐसे कपड़े पहने हुए हो, जो तुम्हें न रुचते हैं न जंचते हैं, न सुखद हैं। अब हिंदुस्तान जैसे देश में भी लोग टाई बांधे हुए हैं। यहां गर्मी से वैसे ही मरे जा रहे हो। टाई ठंडे मुल्क के लिए जरूरी है, उपयोगी है ताकि गले में कोई संध न रह जाए जरा भी। ठंडी हवा भीतर न जा सके। ठंडे मुल्कों में टाई बिल्कुल ठीक है लेकिन गर्म मुल्क…! तुम टाई बांधे हुए हो, गलफांस—अपने हाथ से ही फांसी लगाए बैठे हो। मगर बैठे हैं लोग।

ठंडे मुल्कों में लोग जूते और मोजे दिन— भर पहने रहते हैं, स्वाभाविक है। मगर तुम किसलिए पहने हुए हो? पसीने से तरबतर हो रहे हो मगर मोजे नहीं उतार सकते, जूते नहीं उतार सकते। उसके बिना साहबी चली जाती है।

लोग जीवन को सोचकर नहीं जी रहे हैं, सिर्फ अनुकरण कर रहे हैं अंधा। जो दूसरे कर रहे हैं वैसा ही तुम भी कर रहे हो, तो तुम शायद परमात्मा तक कभी नहीं पहुंच पाओगे। क्योंकि तुम्हारा मन इतना छितर जाएगा, इतना बिखर जाएगा खंड—खंडों में। और परमात्मा को पाने के लिए अखंड मन चाहिए। और परमात्मा मांग करता है कि पूरा मन मेरी तरफ हो तो ही तुम मुझे पाने के हकदार हो। वह उसकी शर्त है। उससे कम शर्त पर उसे कोई पाता नहीं।

तुमसों मन लागो है मोरा।

लेकिन लग गया जगजीवन का मन। प्रकृति से रस जुड़ते—जुड़ते एक दिन बुल्लेशाह से रस जुड़ गया। जो प्रकृति से रस जोड़ेगा उसे आज नहीं कल सद्गुरु मिल जाएगा।

तो मैं तुमसे कहता हूं, मंदिर जाओ न जाओ चलेगा; लेकिन कभी वृक्षों के पास जरूर बैठना; नदियों के पास जरूर बैठना; सागर में उठती हुई उत्ताल तरंगों को जरूर देखना; हिमाच्छदित शिखर हिमालय के जरूर दर्शन करना। फूलों से दोस्ती बनाओ। वृक्षों से बातें करो। हवाओं में नाचो। वर्षा से नाता जोड़ो—और तुम सद्गुरु को खोज लोगे। क्योंकि न तो वृक्ष झूठ बोलेंगे तुमसे, न नदियां झूठ बोलेंगी, न पक्षी झूठ बोलेंगे। इन्हें झूठ का कुछ पता नहीं है। झूठ आदमी की ईजाद है। ये विज्ञापन भी नहीं करेंगे लेकिन उनकी मौजूदगी, उनकी शांति, उनका सन्नाटा, उनका उत्सव। यह चल रहा सतत उत्सव, यह प्रकृति का चौबीस घंटे चल रहा नृत्य—यह तुम्हें कितनी देर तक दूर रखेगा? जल्दी ही तुम्हें रहस्य का अनुभव होगा, विस्मय जगेगा, आश्चर्य का भाव उठेगा। जल्दी ही तुम सद्गुरु को खोजने में समर्थ हो जाओगे। और ध्यान रखना, एक पुरानी इजिप्ती कहावत तुम्हें मैं दोहराऊं। इजिप्त के पुराने फकीरों ने कहा है कि जब शिष्य राजी होता है तो गुरु प्रकट होता है।

ऐसे ही बुल्लेशाह जगजीवन के जीवन में प्रकट हुए। अचानक! बांसुरी बजाता होगा, गाय चराता होगा। बुल्लेशाह का आना, इसे आग लेने भेजना, बुल्लेशाह का इसकी आंखों में आख डालकर देखना, इसके सिर पर हाथ रखना, इसके हाथ में प्रेम की राखी बांध देना। जरूर इसकी प्यास इतनी प्रगाढ़ हो गई होगी कि सरोवर इसकी तरफ चला; कि सरोवर ने इसकी तलाश की। और फिर तो जगजीवन का मन पूरा का पूरा परमात्मा में लग गया। वह जो संस्पर्श हुआ गुरु का, उसने उसके सारे मन को एक प्रज्वलित अग्नि बना दिया।

तुमसों मन लागो है मोरा।

हम तुम बैठे रही अटरिया, भला बना है जोरा।

और कहता है, अब तो खूब मजा हो रहा है, खूब रस बह रहा है। यह भी खूब जोड़ी बनी है हमारी और तुम्हारी। इसी की तलाश है।

तुम जब किसी स्त्री के प्रेम में पड़े हो या किसी पुरुष के प्रेम में पड़े हो तब भी तुम परमात्मा की ही तलाश कर रहे हो, हालांकि तुम्हारी तलाश अंधी है। और चूंकि परमात्मा को तुम इस अंधे ढंग से तलाश रहे हो, तुम असफल होओगे। क्या तुम्हें पता है कि सभी प्रेम असफल हो जाते हैं इस पृथ्वी पर? और सभी प्रेम पीछे मुंह में कडुवा स्वाद छोड़ जाते हैं।

क्यों? कारण क्या है? कारण है अपेक्षा। जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो तो तुम साधारण स्त्री नहीं मानते हो उसे; मान ही नहीं सकते। तुम मानते हो अद्वितीय, दिव्य प्रतिमा। और फिर धीरे— धीरे तुम पाते हो, मिट्टी की है। ऐसी मिट्टी की जैसी और स्त्रियां हैं। जरा भेद नहीं है। जब कोई स्त्री किसी पुरुष के प्रेम में पड़ती है तो परमात्मा के ही प्रेम में पड़ती है। वह पुरुष में परमात्मा को खोजना शुरू करती है और नहीं पाती है। तब विषाद मन को पकड़ लेता है। लगता है जैसे धोखा दिया गया। तब धोखे की प्रतीति में क्रोध उठता है।

पति—पत्नी अगर सतत कलह करते रहते हैं तो उसका कारण क्या है? जो कारण वे बताते हैं उनमें मत उलझना। उन कारणों का कोई मूल्य नहीं है। पति कहे कि आज रोटी में नमक कम था इसलिए झगड़ा हो गया, कि पत्नी कहे कि पति आज रात देर से लौटा घर इसलिए झगड़ा हो गया। ये तो बहाने हैं झगड़े के। अगर पति घर में ही बैठा रहे तो भी झगड़ा हो जाएगा कि तुम यहीं क्यों बैठे हो?

मुल्ला नसरुद्दीन शाह की पत्नी उससे झगड़ती रहती कि तुम हमेशा बकवास क्यों करते हो? मैंने उससे एक दिन कहा कि तू बकवास बंद ही कर दे, अब यही झगड़े का कारण है। तो उसने कहा, अच्छा आज मैं कसम खाकर जाता हूं। वह जाकर बिल्कुल चुप बैठ गया। घड़ी— भर बाद पत्नी बोली कि तुम चुप क्यों बैठे हो? बोलते क्यों नहीं? क्या लकवा मार गया है?

बोले तो मौत, न बोले तो मौत। बोलो तो फंसो, न बोलो तो फंसो। अगर पति दिन— भर घर में रहे तो पत्नी पूछती है कि बात क्या है? तुम यहीं—यहीं क्यों चक्कर काट रहे हो? काम— धाम नहीं करना है? अगर काम— धाम के लिए जाए तो पूछती है, तुम्हें काम ही धाम पड़ा है। तुम्हें मेरी कोई चिंता नहीं है। अगर गौर से देखोगे तो पति—पत्नी के झगड़े के भीतर में छोटी—छोटी बातें तो सिर्फ निमित्त हैं। असली झगड़ा कुछ और है। दोनों ने धोखा खाया है। दोनों ने सोचा था किसी दिव्य प्रेम का आविर्भाव हो रहा है और फिर पीछे पाया कि न कुछ दिव्य है न कुछ प्रेम है। सब क्षुद्र है। सब मिट्टी से भरा है। मुंह मिट्टी से भर गया है। सोचा था कुछ, हो गया कुछ है।

लेकिन अगर तुम्हें समझ में आ जाए कि किस कारण यह हो रहा है तो बड़े फर्क पड़ जाएंगे। फिर झगड़े की कोई बात न रही। परमात्मा की तलाश चल रही है। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा को खोज रहा है, चाहे उसे पता हो और चाहे पता न हो। वे भी जो कहते हैं ईश्वर नहीं है, परमात्मा की खोज में लगे हैं। नास्तिक भी उसी तरफ चल रहा है। कोई बचने का उपाय ही नहीं है। हर नदी सागर की तरफ जा रही है। जैसे हर नदी सागर की तरफ जा रही है, चाहे दिशा कोई भी हो, ऐसे ही हर चैतन्य परमात्मा की तरफ जा हा है। क्योंकि चैतन्य उस परम चेतना की किरणें हैं; वे अपने मूल उद्गम को खोज रही हैं। और जब तक मूल उद्गम न मिले तब तक विश्राम नहीं है।

तुमसों मन लागो है मोरा!

हम तुम बैठे रही अटरिया, भला बना है जोरा।

और अब जगजीवन कहते हैं कि बन गई जोड़ी। रच गया विवाह। आ गई सुहागरात जिसका कोई अंत नहीं होता। अटरिया पर बैठे हैं। बड़ी ऊंचाई पर बैठे हैं क्योंकि यह मिलन बड़ी ऊंचाई पर होता है।

अब यह तो गैर—पढ़े—लिखे आदमी की भाषा है इसलिए अटरिया। अगर पतंजलि कहते तो कहते, सहस्रार। वह पढ़े—लिखे आदमी की भाषा है। अगर बुद्ध कहते तो कहते, निर्वाण। वह सुसंस्कृत आदमी की भाषा है। अगर महावीर कहते तो कहते, मोक्ष।

बेचारे जगजीवन कहते हैं…… गांव में अटारी से बड़ी और तो कोई चीज होती नहीं। और अटारी भी क्या कोई खास अटारी होती है! दो मंजिल का मकान हो उसको गांव में अटारी कहते हैं।

मैं जिस घर में पैदा हुआ उसको उस गांव के लोग अटारी कहते हैं। दो मंजिल का मकान! कुल तीन सौ रुपए में बिका। उसको गांव के लोग अटारी कहते हैं।

मगर गांव के आदमी थे जगजीवन। अपनी ही तो भाषा बोलेंगे न।

हम तुम बैठे रही अटरिया, भला बना है जोरा

बैठे हैं, बड़ी ऊंचाई पर—अटारी पर। खूब जोड़ा बना है।

सत की सेज बिछाय सूति रहि…

और हमने सत्य की सेज बिछा ली है। सत्य की सेज को बिछाकर हम सो रहे हैं साथ—साथ। मिलन हुआ है, प्रेम हुआ है। प्रेम में डुबकी मार रहे हैं।… सुख आनंद घनेरा और बड़ा घना सुख है और बड़ा अपूर्व आनंद है। आ गई अंतिम घड़ी मिलन की।

करता हरता तुम हीं आहहु,

तुम्हीं हो करनेवाले, तुम्हीं हो हरनेवाले …

…….करौं मैं कौन निहोरा

अब तो मैं विनती भी क्या करूं! अब तो मैं प्रार्थना भी क्या करूं! जो ठीक होता है, तुम सदा कर ही देते हो। देखो बुल्लेशाह को भेज दिया। मैं तो अपनी बांसुरी बजा रहा था, अपने गाय—बैल चरा रहा था। देखो बुल्लेशाह के हाथ से तुमने अपना हाथ मेरे सिर पर रख दिया। देखो मेरी तो कुछ हैसियत न थी। न कोई साधना की, न कोई सिद्धि, न कोई जप। तुम आ गए अचानक, जला दिया सब कूड़ा—करकट। कर दिया मुझे कुंदन। कर दिया मुझे शुद्ध। तो अब तो विनती भी क्या करूं! अब तुमसे मांग क्या? तुम तो बिन मांगे दे देते हो।

करता हरता तुमहीं आहहु, करौं मैं कौन निहोरा

रह्यो अजान अब जानि परयो है

अब तक तो अजान था तो मांगता था। क्षमा कर देना। तुमसे कभी कुछ मांगा हो, माफ कर देना। अजान था तो प्रार्थना कर लेता था कि ऐसा करो प्रभु, कि वैसा करो प्रभु। रह्यो अजान अब जान परयो है—लेकिन अब तो मैं जान गया। और जाना कैसे?

—जब चितयो एक कोरा

तुमने प्यार— भरी एक नजर से देख लिया बस। बस जान गया सब। एक बार तुमने प्यार— भरी नजर से देख लिया, बस जान गया सब। जब चितयो एक कोरा—आख की एक कोर से मुझे देख लिया, इतना पर्याप्त है। मुझ भिखारी को सम्राट बना दिया।

अब निर्वाह किए बन अइहे…

और अब कोई चिंता नहीं है। अब तो सब निर्वाह कर लूंगा। अब तो सुख आए, दुःख आए; सफलता हो, विफलता हो; स्वास्थ्य हो, बीमारी हो; जीवन हो, मृत्यु हो, अब कोई चिंता नहीं है। तुम्हारी आख का प्रेम देख लिया, उसमें अमृत बरस गया है।

अब निरवाह किए बन अइहे—

अब तो सब निर्वाह कर लूंगा। अब तुमसे क्या प्रार्थना करनी।

लाय प्रीति नहिं तोरिय डोरा—

अब तो मुझे पक्का भरोसा आ गया है कि प्रेम का जो धागा तुमसे मेरा बंध गया है, अब टूटनेवाला नहीं है। अब टूट नहीं सकता। मेरे किए बना होता तो शायद टूट भी जाता, तुम्हारे ही किए बना है, कैसे टूट सकता है? लाए प्रीति नहीं तोरे डोरा। तुम्हीं लाए हो प्रेम। मेरा किया कुछ है नहीं। प्रसादरूप आया है सब, कैसे तोड़ोगे?

इश्क सुनते थे जिसे हम वह यही है शायद

खुद—ब—खुद दिल में इक शख्स समाया जाता है

जगजीवन के जीवन में अपने—आप परमात्मा प्रविष्ट हुआ। और जब अपने आप परमात्मा प्रविष्ट होता है तो उसका सौंदर्य अलग, उसकी महिमा अलग। भक्त इसी को प्रसाद कहते हैं। तुम पात्र भर बनो। और पात्र यानी प्यास, गहन प्यास। और परमात्मा उतरेगा, निश्चित उतरता है।

कब आप आए कि ताकत नहीं इशारे की

कब आप आये कि जुंबिश नहीं जुबां के लिए

और जब उसका उतरना होता है तो भक्त के इशारे खो जाते हैं। भक्त बिल्कुल गूंगा हो जाता है।

कब आप आए कि ताकत नहीं इशारे की

अब कैसे बताऊं किए कब आप आए, कैसे आप आए। मेरे किए तो आए नहीं। ज्ञानी बता सकता है, तपस्वी बता सकता है कि परमात्मा कैसे आता है। इतना व्रत, इतना उपवास, इतना ध्यान, इतनी पूजा, इतनी प्रार्थना—तब परमात्मा आता है। भक्त कैसे बताए? क्योंकि भक्त के ऊपर तो ऐसा आता है, छप्पर तोड़कर आता है, प्रमाद की तरह बरसता है।

कब आप आए कि ताकत नहीं इशारे की

कब आप आए कि जुंबिश नहीं जुबां के लिए

अब मेरे पास जबान नहीं है कि कह दूं।

जगजीवन बिनती करि मांगै, देखत दरस सदा रहौं तोरा

इतनी ही प्रार्थना है : तू दिखाई पड़ता रहना, ओझल न हो जाना। जैसे पहले ओझल थी ऐसे फिर छिप मत जाना। बस भक्त की एक ही आकांक्षा है—न मोक्ष की आकांक्षा है, न निर्वाण की आकांक्षा, एक ही आकांक्षा है कि तेरा दरस मिलता रहे। तू दिखाई पड़ता रहे। तेरी झलक मिलती रहे। तेरी झलक काफी है। तेरी एक झलक में हजार वैकुंठ, तेरी एक झलक में सारे मोक्ष, तेरी एक झलक में सारे निर्वाण। भक्त तो उसकी एक झलक से ही बेहोश रहने लगता है, मस्त रहने लगता है।

अब यह आलम है तेरे हुस्न की खैर

होश—ओ—मस्ती में इप्तियाज नहीं

यह तेरे सौंदर्य ने ऐसा दीवाना बना दिया है। यह तेरे सौंदर्य की कृपा कि अब तो होश और मस्ती में कुछ फर्क नहीं मालूम होता। वही होश है, वही मस्ती है।

बे पिए कहते हो सब रिद—ए—मैशाआम मुझे

बेखुदी तूने किया मुफत में बदनाम मुझे

लोग कहते हैं कि यह आदमी कुछ पिया—पिया—सा मालूम पड़ता है। रिंद हो गया है, पियक्कड़ हो गया है, मद्यप हो गया है। और सच यह है कि मैंने सिर्फ तुझे देखा है। मगर तुझे देखकर ऐसा बेखुद हुआ हूं! मेरी खुदी मिट गई, मेरा अहंकार मिट गया।

बे पिए कहते हो सब रिद—ए—मैशाआम मुझे

बेखुदी तूने किया मुफत में बदनाम मुझे

मन महं जाइ फकीरी करना

कहते हैं, बस मन के भीतर डुबकी मारो और फकीरी हो गई। फकीरी कुछ बाहर आयोजन नहीं करनी पड़ती। मन के जो भीतर गया वह फकीर हो गया। पहाड़ों पर जाने से कोई फकीर नहीं होता; न भिक्षापात्र ले लेने से कोई फकीर हो जाता है।

जगजीवन इसी तरह फकीर कभी हुए भी नहीं। भीतर गए और फकीर हो गए। भीतर जाने से दिखाई पड़ गया, संसार में सब व्यर्थ है और जो सार्थक है वह अपने भीतर मौजूद है। मांगना किससे है? हाथ किसके सामने फैलाने हैं? मालिक भीतर बैठा है। देनेवाला भीतर बैठा है। मांगो भी मत तो भी देता है। एक बार उस पर नजर डालो। एक बार लौटो। उसकी तरफ पीठ की है, उसकी तरह मुंह करो। अभी तुम राम से विमुख हो, राम के सम्मुख हो जाओ। वही फकीरी है।

रहे एकत तत तें लागा

और भीतर डूबो कि वहां एकांत है। फिर किसी गुफा और हिमालय पर बैठने की कोई जरूरत नहीं है। भीतर जाओ; वहां से बड़ा हिमालय और कहीं भी नहीं है। हृदय की गुफा से गहरी कोई गुफा नहीं है।

रहे एकत तत तें लागा—

और वहां जो बैठता है उसका तत्व में चित्त लगा रहता है; उसका प्रभु से संबंध जुड़ा रहता है।

राग निर्त नहिं सुनना—

फिर बाहर का सब रता—रंग सुनाई भी नहीं पड़ता। बाजार में बैठे रहो, भीतर डूबने की कला आ जाए। फिर बाजार का सब रता—रंग चलता रहता है, सुनाई भी नहीं पड़ता। पहचान में भी नहीं आता।

कथा—चरचा पढै—सुनै नहिं, नाहिं बहुत बक बोलना

ना थिर रहै जहां तहं धावै, यह मन अहै हिंडोलना

न तो फिर व्यर्थ की बातचीत करनी होती, न व्यर्थ की कथा—कहानियां सुननी होतीं। फिर गपशप इधर—उधर की सब व्यर्थ हो जाती है।

कथा—चरचा पढै—सुनै नहिं, नहिं बहुत बक बोलना

ना थिर रहै जहां तहं धावै, यह मन अहै हिंडोलना

यह मन जब तक है तब तक हिंडोलने की तरह डोलता रहता है—यहां जाए वहां जाए, यह करूं, वह करूं। भीतर जाओ और सब ठहर जाता है।

मैं तैं गुमान बिबादंहि, सबै दूर यह करना

और जैसे ही भीतर गए, मैं ही मिट जाता है फिर तू कहां; फिर विवाद कहां! सब विवाद मैं—तू के विवाद हैं।

लोग सिद्धांतों की सिर्फ आडू लेते हैं। बातें सिद्धांतों की करते हैं लेकिन सब विवाद… कोई कहेगा, मैं समाजवाद के लिए लड़ रहा हूं और कोई कहेगा कि मैं लोकतंत्र के लिए लड़ रहा हूं, लेकिन सब विवाद मैं—तू के विवाद हैं। यह तो सिर्फ अच्छे—अच्छे नाम हैं। जिनके पीछे अहंकार को छिपाना पड़ता है।

कोई कहता है मैं इस्लाम के लिए लड़ रहा हूं, कोई कहता है मैं हिंदू धर्म के लिए लड़ रहा हूं। कुल लड़ाई, सारी लड़ाई अहंकार की लड़ाई है। और जिस दिन आदमी यह देख लेगा कि ये सारे पर्दे झूठे हैं उस दिन दुनिया से लड़ाइयां बहुत कम हो जाएंगी। हर आदमी अपनी लड़ाई को सैद्धांतिक रंग देता है; उसको लीपता है, पोतता है। अहंकार को सजाता है—समाजवाद! लोकतंत्र! क्रांति! बड़े—बड़े शब्द, बड़ी—बड़ी बातें।

अभी तुमने देखा! एक फिजूल की घटना घटी, उसको दूसरी क्रांति कहते हैं। देशभर के मुर्दो को सत्ता में बिठाल दिया, उसको क्रांति कहते हैं। दूसरी क्रांति हो गई! लोकतंत्र आ गया! न कभी कुछ आता, न कभी कुछ जाता। सब वैसा का वैसा चलता रहता है। नाम बदल जाते हैं, काम वही के वही।

जरा गौर से देखो कि ये सारे लोग जो विवाद में पड़े रहते हैं, इनके विवाद के पीछे सार क्या है? सार इतना है कि मैं बड़ा हूं, तुम छोटे हो। मगर यह कैसे कहें? यह सीधा—सीधा कहो तो जरा भद्दा मालूम होता है। और सीधा—सीधा कहो तो लोग फौरन गर्दन पर सवार हो जाएंगे। कि तुम बड़े अकड़े, बड़े अहंकारी। यहां तो अहंकार की भी घोषणा करनी हो तो कहना पड़ता है : मैं विनम्र हूं आपके पैर की धूल हूं। ये ढंग हैं, यहां अहंकार की घोषणा करने के। यहां घोषणाएं परोक्ष करनी होती हैं। प्रत्यक्ष नहीं करनी होती हैं। यहां आडू लेकर करनी होती हैं।

अगर तुम्हीं को मारना है तो भी यह कहना पड़ता है कि तुम्हारे ही हित में तुम्हें मार रहा हूं। फिर तो बचना भी मुश्किल हो जाता है। अब अपने ही हित में मार रहे हैं तो अब करो भी क्या? और वे तो कहते हैं, हम हित करके रहेंगे। तुम अज्ञानी हो, तुम क्या जानो।

एक स्कूल में एक ईसाई पादरी ने बच्चों को समझाया कि प्रत्येक सप्ताह कम से कम एक अच्छा काम जरूर करो। बच्चों ने पूछा, कौन—से अच्छे काम? तो उन्होंने कहा, जैसे कोई डूब रहा हो तो उसको बचाओ, किसी के घर में आग लगी हो तो चाहे जीवन में जोखम हो, कोई फिक्र नहीं मगर जाकर कुछ बचा सकते हो तो बचाओ। पर बच्चों ने कहा कि यह तो बहुत… कभी—कभी होता है। हर सप्ताह कहां आग लगती है, कहां कोई डूबता है! तो उसने कहा, छोटे—छोटे काम भी हैं, जैसे कोई गिर पड़े तो उसको उठाओ, या कोई की स्त्री रास्ता पार नहीं हो सकती है तो उसको पार करवा दो। बच्चों ने कहा, यह ठीक है।

सात दिन बाद जब दुबारा वह आया, उसने पूछा कि ‘बच्चो, कुछ अच्छे काम किए?’ एक लड़के ने हाथ हिलाया, बड़े जोर से कि ही, मैंने एक की स्त्री को रास्ता पार करवाया। तो बिल्कुल ठीक किया, यही करना चाहिए। यही धर्म है। दूसरा भी बच्चा हाथ हिला रहा था। पूछा, तुमने क्या किया? उसने कहा, मैंने भी एक की स्त्री को रास्ता पार करवाया। थोड़ा तो शक हुआ पादरी को मगर कुछ हैरानी की बात नहीं है। कोई एकाध बुढ़िया थोड़े ही है गांव में, कई बुढ़िएं हैं, करवा दिया होगा। तीसरा भी हाथ हिला रहा था। पूछा, भाई, तूने क्या किया? उसने कहा, मैंने भी एक की स्त्री को रास्ता पार करवाया।

तब पादरी ने कहा कि तुम तीनों को की स्त्रियां मिल गई? उन्होंने कहा, तीन नहीं थीं, एक ही थी। हम तीनों ने उसी को पार करवाया। तो उसने पूछा कि तीन की जरूरत पड़ी पार करवाने को? उसने कहा, हम तीन भी बामुश्किल करवा पाए। वह तो जाना ही नहीं चाहती थी। धक्का दे—देकर… मगर करवा दिया। जब आपने कहा कि करना ही है कोई अच्छा कार्य, तो हमने किया।

कुछ लोग हैं जो अच्छे काम करने के पीछे पड़े हैं। मगर सारे अच्छे कामों के पीछे मजा सिर्फ एक है—अहंकार का। अच्छे काम तो बहाने हैं।

मैं तैं गर्व गुमान बिबादंहि, सबै दूर यह करना

सीतल दीन रहै मरि अंतर, गहै नाम की सरना

शीतल बनो। मैं न रहे तो शीतलता आ जाती है। और तब तो सिर्फ एक ही उस नाम कीछयाद रह जाती है और सब विस्मरण हो जाता है।

तुमसों मन लागो है मोरा

जल पषान की करै आस नहिं, आहै सकल भरमना

जगजीवनदास निहारि निरखिकै, गहि रहु गुरु की सरना

और फिर ऐसा व्यक्ति न तो नदियों की पूजा करता है, न पत्थरों की—जल पषान की करै आस नहिं। फिर इनसे कुछ आशा नहीं रखता। फिर इस तरह की सारी व्यर्थ बातें उससे छूट जाती हैं। वह तो एक सद्गुरु के चरण पकड़ लेता है।

कहते हैं, अब जागो। इस फूल जैसी छोटी—सी जिंदगी पर भूले मत रहो, इतराओ मत। यह सुबह खिला, सांझ मुरझा जाएगा।

भूलु फूलु सुख पर नहीं, अबहुं होहुं सचेत

साइर्ट पठवा तोहि कौ, लावो तेहि ते हेत

जिसने भेजा है उसकी याद करो। यह फूल तो कुम्हला जाएगा। यह फूल जहां से आया है उसकी याद करो। यह फूल जिससे जन्मा है और जिसमें लीन हो जाएगा उसकी याद करो। मूल स्रोत की याद करो तो शाश्वत से मिलन हो। अन्यथा क्षणभंगुर भटकाता है, तड़पाता है।

तजु आसा सब झूठ ही, संग साथी नहिं कोय

यहां कौन किसका संगी है, कौन किसका साथी है? ये झूठी आशाएं छोड़ो।

केउ केहू न उबारिहि, जेहि पर होय सो होय

और यहां कोई किसी को उबार नहीं सकता। न पत्नी तुम्हें उबारेगी न पति; न पिता न मां, न बेटा न भाई, न मित्र। यहां कोई किसी को उबार नहीं सकता।

उबार तो एक ही सकता है—जेहि पर होय सो होय। वह जो करना चाहेगा वही होगा। उस मालिक का हाथ पकड़ो, ताकि बच सको। झूठी सुरक्षाओं में मत डूबे रहो। समय मत गवाओ। उस माझी का साथ ले लो, वही पार ले जाएगा; वही उस पार ले जा सकता है।

कहंवां ते चलि आयहू र कहां रहा अस्थान

कहां से आए हो, पूछो। कहां जा रहे हो, पूछो।

सो सुधि बिसरि गई तोहि, अब कस भयसि हेवान

सब कुछ भूल— भाल गए। बिल्कुल पशु हो गए हो। अपने में और पशु में फर्क तो खोजो। वही काम, वही लोभ, वही मोह, वही मत्सर, वही द्वेष, वही घृणा, वही हिंसा—जो पशु में है वही तुममें है। भेद कहां है? अगर पशु और आदमी में कहीं कोई भेद है तो वह भेद तभी शुरू होता है, जब तुम सजग होकर, जागकर अंतर्यात्रा शुरू करते हो। कोई पशु अंतर्यात्रा करने में समर्थ नहीं मालूम होता, सिर्फ आदमी अंतर्यात्रा कर सकता है।

काया—नगर सोहावना, सुख तबहीं पै होय

और यह जो तुम्हें देह मिली है, इसको तुम किन व्यर्थ चीजों में नष्ट कर रहे हो! यह बड़ा सुहावना नगर है। इसके भीतर मालिक का वास है। यह मंदिर है। लेकिन बाहर ही बाहर चक्कर काटते रहोगे, परिक्रमा करते रहोगे? मंदिर के देवता से मिलोगे या नहीं? जैसे कोई मंदिर के बाहर से ही चक्कर काटकर लौट आए और मंदिर के देवता के चरणों में जाए ही नहीं, ऐसे ही अधिक लोग हैं।

काया—नगर सोहावना, सुख तबही पै होय

रमत रहै तेहि भीतरे, दुख नहीं व्यापै कोय

तुम्हारे भीतर जो रम रहा है उसे कोई दुःख कभी व्यापा नहीं। तुम व्यर्थ दुःखी हो रहे हो। उससे दोस्ती करो, उससे संबंध बनाओ, उससे विवाह रचाओ।

मृत मंडल कोउ थिर नहीं, आवा सो चलि जाय

इस मर्त्य लोक में कोई चीज थिर नहीं है। जो आया वह गया। जो बना वह मिटा।

गाफिल क्रै फंदा परयौ, जहं—तहं गयो बिलाय

और तू भी इस मुर्दो की बस्ती में फंदों में उलझ गया है और अपने को बिल्कुल भूल गया है।

सूफी फकीर इब्राहिम कभी सम्राट था, फिर सब छोड—छाड़कर जंगल में बैठ गया। रास्ते से राहगीर गुजरते थे तो पूछते थे कि बस्ती का रास्ता कहां है? तो बता देता : बाएं जाना। बाएं ही जाना तो बस्ती पहुंच जाओगे। अगर दाएं तरफ चले गए तो मरघट पहुंच जाओगे।

फकीर आदमी, मस्त आदमी! उसकी बात लोग मान लेते और बाएं जाते। तीन—चार मील चलने के बाद मरघट पहुंच जाते। बड़े हैरान होते। लौटकर आते, बड़े नाराज होते कि फकीर होकर कुछ तो शर्म खाओ। इस तरह की मजाक शोभा देती है? थके—मांदे यात्री! हम इतनी दूर से यात्रा करके आ रहे हैं, हमें गांव पहुंचना है। सांझ हो रही है, सूरज ढल रहा है। तुमने मरघट भेज दिया? और तुमने बड़े जोर से कहा कि बाएं जाओगे तो बस्ती पहुंचोगे, दाएं जाओगे तो मरघट। और हम मरघट पहुंच गए।

इब्राहिम ने कहा, तो भाई, हमारी—तुम्हारी भाषा में भेद मालूम पड़ता है। क्योंकि तुम जिसको बस्ती कहते हो उसको मैंने मरघट जाना है। क्योंकि वहां सब लोग मरने के लिए तैयार बैठे हैं। कोई आज मरा, कोई कल मरा, क्यू लगा है। जहां सभी लोग मरने को बैठे हैं उसको मरघट कहोगे या क्या? कुछ मर गए हैं, कुछ मरने की तैयारी कर रहे हैं कुछ चल पड़े हैं, पहुंच जाएंगे; मगर सब मौत की तरफ जा रहे हैं। उसको तुम बस्ती कहते हो? जहां एक भी आदमी सदा के लिए बसा नहीं रहेगा, उसको बस्ती कहते हो? मैं मरघट को बस्ती कहता हूं क्योंकि वहां जो बस गया सो बस गया। फिर न आना, न जाना। हमारी—तुम्हारी भाषा का भेद है, नाराज न होओ। अगर तुम्हें मरघट जाना है तो दाएं चले जाओ। उसको ही तुम बस्ती कहते हो।

जाननेवाले तुम्हारी बस्ती को मरघट कहते हैं। और तुम भी जरा सोचो तो मरघट पाओगे। सब मरणधर्मा हैं यहां। बाहर मृत्यु है, भीतर अमृत है। बाहर ए जुड़े, मृत्यु से जुड़े। और मृत्यु दुःख लाएगी। मृत्यु से कैसे परमानंद होगा?

भीतर चलो। कोई चरण गहो। कोई शरण गहो। किसी बुल्लेशाह का हाथ पड़ने दो सिर पर। प्यास और प्रार्थना से भरे हुए पुकारो कि कोई बुल्लेशाह खोजता हुआ तुम्हें आ जाए तो तुम्हारा अमृत से मिलन हो जाए। अमृतस्य पुत्र:। तुम पुत्र तो अमृत के हो, लेकिन मृत्यु में भटक गए हो।

जागो!

आज इतना ही


Filed under: नाम सुमिर मन बावरे--(जगजीवन दास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

तंत्र-सूत्र–(भाग–3)–(प्रवचन–34)

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तांत्रिक संभोग और समाधि—(प्रवचन—चौतीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या आप भोग सिखाते है?

2—ध्‍यान में सहयोग की दृष्‍टि से संभोग में

      कितनी बार उतरना चाहिए?

3—क्‍या आर्गाज्‍म से ध्‍यान की ऊर्जा क्षीण नहीं होती?

4—आपने कहा कि काम—कृत्‍य धीमें, पर समग्र

      और अनियंत्रित होना चाहिए। कृपया इन दोनों

      बातों पर प्रकाश डालें।

तुम्‍हारे प्रश्नों को लेने के पूर्व कुछ अन्य बातो को स्पष्ट करना जरूरी है, क्योंकि उनसे तुम्हें तंत्र के अर्थ और अभिप्राय को समझने में मदद मिलेगी।

तंत्र कोई नैतिक धारणा नहीं है। वह न नैतिक है न अनैतिक, तंत्र अधिनैतिक है। तंत्र विज्ञान है। और विज्ञान नैतिक— अनैतिक कुछ नहीं है। तुम्हारी अनैतिक और नैतिक धारणाएं तंत्र के लिए अप्रासंगिक हैं। तंत्र को इस बात से लेना—देना नहीं है कि आदमी का आचरण क्या होना चाहिए। तंत्र आदर्शों की चिंता नहीं लेता है। तंत्र की बुनियादी चिंता यह है कि यथार्थ क्या है, तुम वास्तव में क्या हो। इस भेद को ठीक से समझना जरूरी है।

नैतिकता आदर्शों की फिक्र करती है, उसे फिक्र है कि तुम्हें कैसा होना चाहिए, क्या होना चाहिए। इसलिए नैतिकता बुनियादी रूप से निंदात्मक है। तुम कभी आदर्श नहीं हो सकते, इसलिए निंदित हो जाते हो। सब नैतिकता अपराध— भाव निर्मित करती है। तुम कभी आदर्श को नहीं पहुंच सकते, तुम सदा पीछे रह जाते हो। तुम्हारे और आदर्श के बीच सदा खाई बनी रहेगी, क्योंकि आदर्श असंभव है और नैतिकता उसे और भी असंभव बना देती है। आदर्श सदा भविष्य में है और तुम अभी तो जैसे हो वैसे हो। और तुम सदा अपनी तुलना आदर्श से करते रहते हो। तुम कभी पूर्ण मनुष्य नहीं हो, सदा कुछ न कुछ कमी रह जाती है। तब तुम अपने को अपराधी अनुभव करते हो, आत्म—निंदा अनुभव करते हो।

तंत्र आत्म—निंदा के विरोध में है, क्योंकि आत्म—निंदा तुम्हें कभी रूपांतरित नहीं कर सकती। निंदा से सिर्फ पाखंड पैदा होता है। तब तुम यह दिखाने की चेष्टा करते हो कि तुम वह हो जो कि तुम वास्तव में नहीं हो। पाखंड का अर्थ यह है कि तुम आदर्श व्यक्ति नहीं हो, तुम जो हो वही हो, लेकिन दिखाते हो कि आदर्श व्यक्ति हो। उससे तुम्हारे भीतर टूट पैदा होती है, तुम खंडित हो जाते हो। तब तुम एक झूठा चेहरा ओढ़ लेते हो और तुम्हारे भीतर एक झूठा आदमी पैदा हो जाता है। तंत्र बुनियादी रूप से सच्चे आदमी की खोज है, झूठे की नहीं।

नैतिकता आवश्यक रूप से पाखंड पैदा करती है। उसके लिए ऐसा करना अनिवार्य है। पाखंड और नैतिकता में चोली—दामन का संबंध है। पाखंड नैतिकता का अंग है, उसकी छाया है। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती है, क्योंकि नीतिवादी लोग ही पाखंड की सर्वाधिक निंदा करते हैं। लेकिन पाखंड के निर्माता वे ही हैं। और जब तक दुनिया से नैतिकता नहीं जाती तब तक पाखंड भी नहीं जा सकता है। वे दोनों साथ—साथ रहेंगे, वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

नीति तुम्हें आदर्श देती है और तुम आदर्श नहीं हो। आदर्श तुम्हें दिया ही इसलिए जाता है कि तुम आदर्श नहीं हो। लेकिन तब तुम अपने को गलत समझने लगते हो। और जिसे तुम गलत समझते हो वही तुम्हारा स्वाभाविक जीवन है। वह तुम्हें निसर्ग से मिला है, उसे लेकर तुम पैदा हुए हो। और तत्काल उसके साथ कुछ नहीं किया जा सकता है, तुम उसे बदल नहीं सकते हो। बदलना इतना आसान नहीं है। तुम केवल उसका दमन कर सकते हो। दमन आसान है।”

लेकिन तुम दो चीजें कर सकते हो। तुम एक मुखौटा, एक झूठा चेहरा निर्मित कर सकते हो, तुम वह होने का अभिनय कर सकते हो जो तुम नहीं हो। उससे तुम अपना बचाव कर लेते हो, तुम समाज के बीच ज्यादा आसानी से, ज्यादा सुविधा से रह सकते हो। और तुम्हें भीतर के अपने यथार्थ को, अपने असली व्यक्ति को दबाना होगा, क्योंकि झूठे को तभी लादा जा सकता है जब सच्चे को दबा दिया जाए। फलत: तुम्हारा यथार्थ अचेतन में दब जाएगा और तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व चेतन व्यक्तित्व बन जाएगा। तुम्हारा झूठा अंश ज्यादा प्रभावी हो जाएगा और सच्चा अंश नीचे दब जाएगा। तब तुम बंट गए, टूट गए। और तुम जितना ही दिखावा करोगे, अंतराल उतना ही बड़ा होता जाएगा।

बच्चा जब जन्म लेता है तो वह अखंड होता है, पूर्ण होता है। यही कारण है कि बच्चा इतना सुंदर होता है। यह सौंदर्य पूर्णता का सौंदर्य है। बच्चे में कोई बंटाव, कोई विभाजन, कोई अंतराल नहीं होता है। बच्चा एक है, वहा कुछ सच्चा और कुछ झूठा नहीं है। बच्चा बस असली है, प्रामाणिक है। तुम यह नहीं कह सकते कि बच्चा नैतिक है। वह न नैतिक है, न अनैतिक, उसे नैतिक—अनैतिक का बोध भी नहीं है। जिस क्षण उसे नैतिक— अनैतिक का बोध होता है, बंटाव शुरू हो जाता है, टूट शुरू हो जाती है। और तब बच्चा झूठा, नकली आचरण करने लगता है, क्योंकि उसके लिए अब सच्चा रहना कठिन से कठिनतर होता जाता है।

ध्यान रहे, यह आवश्यक है। समाज के लिए, मां—बाप के लिए बच्चे का नियंत्रण करना आवश्यक हो जाता है। बच्चे को शिक्षित और सभ्य बनाना, उसे सुसंस्कार और शिष्टाचार सिखाना जरूरी है, अन्यथा बच्चे के लिए समाज में रहना असंभव हो जाएगा। उसे बताना ही होगा कि यह करो और यह मत करो।

लेकिन जब हम उसे कहते हैं कि यह करो तो संभव है कि उसकी प्रामाणिकता वह करने को तैयार न हो। हो सकता है, उसकी वास्तविकता से इस आदर्श का मेल न खाता हो, बच्चे में वह करने की सच्ची इच्छा ही न हो। और जब हम कहते हैं कि यह न करो या वह न करो तो हो सकता है कि बच्चे का निसर्ग उसे करना चाहे। तो हम नैसर्गिक को, असली को निंदित कर देते हैं और झूठे को, नकली को लादते हैं। क्योंकि झूठे समाज में झूठ से ही काम चलता है। झूठ सुविधापूर्ण है। जहां सभी झूठे हैं वहां सत्य सुविधापूर्ण नहीं है। एक बच्चे को समाज के साथ बुनियादी कठिनाई होगी, क्योंकि पूरा समाज झूठा है।

यह एक दुष्ट—चक्र है। हम सब समाज में जन्म लेते हैं। और अब तक धरती पर एक भी ऐसा समाज नहीं हुआ जो सच्‍चा हो। यही मुसीबत है। बच्‍चा समाज में पैदा होता है। और समाज के अपने नियम—निषेध हैं, नीति और आचरण के ढांचे हैं। उन्हें बच्चे को सीखना है। यह बच्चा जब बड़ा होगा तो झूठा हो जाएगा। फिर उसके भी बच्चे होंगे और वह उन्हें भी झूठ बना जाएगा। और यह सिलसिला चलता रहता है। तो फिर करें क्या? हम समाज को नहीं बदल सकते हैं। और यदि हम समाज को बदलने की चेष्टा करेंगे तो जब तक यह समाज बदलेगा तब तक हम यहां नहीं होंगे। उसके लिए अनंत समय लग जाएगा। तो फिर क्या किया जा सकता है?

व्यक्ति इस बुनियादी विभाजन के प्रति जागरूक हो सकता है कि सच्चा दमित हो गया है और झूठा आरोपित है। यही पीड़ा है, यही संताप है, यही नरक है! तुम झूठ के द्वारा तृप्त नहीं हो सकते, क्योंकि झूठ से जो तृप्ति मिलेगी वह झूठी होगी। यह स्वाभाविक है। सचाई से ही सच्ची तृप्ति घटित हो सकती है। सत्य से ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है। झूठ से कल्पना और सपने और भ्रांतियां ही हाथ आ सकती हैं। झूठ से तुम अपने को सिर्फ धोखा दे सकते हो, उससे कभी तृप्त नहीं हो सकते।

उदाहरण के लिए, सपने में तुमको प्यास लगती है और सपने में ही तुम पानी भी पी लेते हो। उससे नींद को जारी रखने में सुविधा मिल जाती है। अगर पानी पीने का स्वप्न न निर्मित हो तो तुम्हारी नींद टूट जाएगी। प्यास सच्ची है, वह नींद को तोड़ देगी। तब नींद में बाधा पड़ जाएगी। सपना सहयोगी है, वह तुम्हें एहसास देता है कि तुम पानी पी रहे हो। लेकिन वह पानी झूठा है। उससे तुम्हारी प्यास दूर नहीं हुई, प्यास सिर्फ भूल गई। यह तृप्ति का धोखा है। तुम्हारी नींद जारी रह सकती है, लेकिन प्यास तो दमित हो गई।

और यह बात नींद और स्‍वप्‍न में ही नहीं, तुम्हारे पूरे जीवन में घटित हो रही है। तुम अपने झूठे व्यक्तित्व के द्वारा उन चीजों को खोजते हो जो नहीं हैं, जो होने का धोखा देती हैं। अगर वे चीजें तुम्हें न मिलीं तो तुम दुखी होगे और अगर मिल गईं तो भी दुखी होगे। और स्मरण रहे, उनके न मिलने पर कम दुख होगा, मिलने पर ज्यादा और गहरा दुख होगा।

मनस्विद कहते हैं कि इस झूठे व्यक्तित्व के कारण हम कभी सच में नहीं चाहते कि मंजिल मिले। क्योंकि अगर मंजिल मिल गई तो तुम पूरी तरह निराश हो जाओगे। तुम आशा में जीते हो और आशा में तुम चलते रह सकते हो। आशा स्वप्न है। तुम कभी मंजिल पर नहीं पहुंचते, इसलिए तुम्हें कभी पता नहीं चलता कि मंजिल झूठी थी। एक गरीब आदमी धन के लिए संघर्ष करता है। वह उस संघर्ष में रहकर ज्यादा सुखी है, क्योंकि संघर्ष में आशा है। और झूठे व्यक्तित्व के लिए आशा ही सुख है। अगर गरीब को धन मिल जाए तो वह निराश हो जाएगा। अब निराशा ही स्वाभाविक परिणाम होगी। धन तो होगा, लेकिन तृप्ति नहीं होगी। उसे मंजिल मिल गई, लेकिन उससे कुछ भी नहीं मिला। उसकी आशाएं धूल में मिल गयीं।

यही कारण है कि जब कोई समाज समृद्ध हो जाता है, वह अशांत हो जाता है, वह उपद्रव में पड़ जाता है। आज अगर अमेरिका इतने उपद्रव में है तो उसका कारण है कि आशाएं पूरी हो गयीं, मंजिल मिल गई। अब वह अपने को और अधिक धोखा नहीं दे सकता। अगर अमेरिका की युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के सभी लक्ष्यों के प्रति विद्रोह कर रही है तो उसका कारण यही है कि सभी उपलब्‍धियां व्‍यर्थ सिद्ध हुई है।

भारत में हम यह सोच भी नहीं सकते हैं। हम नहीं सोच सकते हैं कि युवक स्वेच्छा से गरीब हो सकते हैं, हिप्पी बन सकते हैं। स्वेच्छा से गरीबी का वरण—हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते। हमें अभी आशा बनी है। हम भविष्य के प्रति आशा से भरे हैं कि किसी दिन देश धनवान होगा और यहां स्वर्ग उतरेगा। स्वर्ग सदा आशा में है।

इस झूठे व्यक्तित्व के कारण तुम जो भी करते हो, जो कुछ भी करते हो, जो कुछ भी देखते हो, सब झूठा हो जाता है।

तंत्र कहता है कि सत्य तुम्हें घटित हो सकता है, अगर तुम फिर से यथार्थ में, वास्तविकता में अपनी जड़ें जमा लो, सत्य में, वास्तविकता में अपनी नींव रख लो। लेकिन वास्तविकता में जड़ें जमाने के लिए तुम्हें अपने साथ बहुत—बहुत साहस की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि झूठ सुविधापूर्ण है, और तुमने झूठ का इतना अभ्यास किया हुआ है, और तुम्हारा मन झूठ से इस भांति संस्कारित है कि तुम्हें असलियत से बहुत भय मालूम पड़ेगा।

किसी ने पूछा है :

 

कल आपने कहा कि काम— कृत्य में समग्रत: उतरो, उसका सुख लो, उसका आनंद लो, उसमें डूबे रहो? और जब शरीर कांपने लगे तो कंपन ही हो जाओ। तो क्या आप हमें भोग लिखा रहे हैं?

 

ही विकृति है। यही तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व है जो तुमसे बोल रहा है। झूठा व्यक्तित्व सदा किसी चीज का सुख लेने का विरोधी है। वह सदा तुम्हारे विरोध में है। वह कहता है कि सुख मत लो। वह सदा त्याग का पक्षपाती है। वह कहता है कि तुम दूसरों के लिए अपना बलिदान कर दो। यह बहुत सुंदर मालूम पड़ता है, क्योंकि तुम इसी शिक्षा में पले हो कि दूसरों के लिए त्याग करो। इसे वे परोपकार कहते हैं। और अगर तुम सुख लेते हो तो वे तुम्हें स्वार्थी कहेंगे। और जब कोई कहता है कि यह स्वार्थ है तो सुख पाप बन जाता है।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि तंत्र की दृष्टि बिलकुल भिन्न है। तंत्र कहता है कि जब तक तुम स्वयं सुखी नहीं हो, तब तक तुम किसी को भी सुख नहीं पहुंचा सकते। जब तक तुम स्वयं से संतुष्ट नहीं हो, तब तक तुम दूसरों की सेवा नहीं कर सकते, तब तक तुम दूसरों के संतुष्ट होने में कुछ हाथ नहीं बंटा सकते। जब तक तुम खुद आनंद से नहीं भरे हो, तब तक तुम समाज के लिए एक खतरा हो। क्योंकि जो व्यक्ति त्याग करता है वह सदा पर—पीड़क हो जाता है।

अगर तुम्हारी मां तुमसे हमेशा कहती रहे कि मैंने तुम्हारे लिए इतना त्याग किया तो समझना कि वह तुम्हें सताएगी। अगर कोई पति अपनी पत्नी से कहता रहे कि मैं तुम्हारे लिए त्याग कर रहा हूं तो समझना कि वह पर—पीड़क होगा, आततायी होगा।

त्याग सदा दूसरों को सताने की एक चालाक विधि है। जो लोग सदा त्याग करने में लगे हैं, वे बड़े खतरनाक लोग हैं, उनसे खतरे की संभावना बहुत है। उनसे सावधान रहो। और त्याग से बचो। यह शब्द ही कुरूप है।

सुख लो, आनंद से भरो। और जब तुम आनंद से भरे होते हो तो वही आनंद दूसरों तक पहुंचने लगता है। लेकिन वह त्याग नहीं है। तुम किसी पर उपकार नहीं करते हो, किसी को तुम्हें धन्यवाद देने की जरूरत नहीं है। बल्कि तुम दूसरों के प्रति अनुगृहीत अनुभव करोगे कि वे तुम्हारे आनंद में सम्मिलित हुए। त्याग, कर्तव्य, सेवा जैसे शब्द कुरूप हैं, गंदे हैं। उनमें हिंसा भरी है।

तंत्र कहता है कि यदि तुम खुद प्रकाश से नहीं भरे हो तो दूसरों को प्रकाशवान होने में सहायता नहीं दे सकते। स्वार्थी बनो तो ही तुम परोपकारी बन सकते हो। अन्यथा परोपकार की सारी धारणा अर्थहीन है। स्वयं सुखी होओ तो ही तुम दूसरों के सुखी होने में हाथ बंटा सकते हो। अगर तुम दुखी और उदास हो, अगर तुम निराश हो, तो तुम दूसरों के प्रति सदा हिंसा से भरे रहोगे, तब तुम दूसरों के लिए दुख ही निर्मित करोगे।

तुम महात्मा बन जा सकते हो, वह बहुत कठिन नहीं है। लेकिन अपने महात्माओं को तो देखो! वे उन सब को सताने में लगे हैं जो उनके पास जाते हैं। लेकिन उनके सताने में बड़ी चालबाजी है। वे तुम्हें तुम्हारे हित में सताते हैं, तुम्हें तुम्हारे हित के लिए यातना देते हैं। और चूंकि वे अपने को भी सताते हैं, इसलिए तुम यह नहीं कह सकते कि आप हमें जो उपदेश देते हैं वह खुद नहीं करते। वे करते हैं, वे अपने को भी सताते हैं। इसलिए उन्हें तुम्हें सताने का पूरा अधिकार है। और जो यातना तुम्हारे हित में दी जाती है वह बहुत खतरनाक है, उससे तुम बच नहीं सकते।

और सुख लेने में गलती क्या है? सुखी होने में गलती क्या है? अगर गलती है तो दुखी होने में गलती है, क्योंकि दुखी आदमी अपने चारों ओर दुख की तरंगें पैदा करता है। सुखी होओ! और काम—कृत्य, प्रेम—कृत्य आनंद को उपलब्ध होने का सबसे गहन साधन बन सकता है।

तंत्र कामुकता नहीं सिखाता है। वह कहता है कि काम आनंद का स्रोत बन सकता है। और एक बार तुमने उस आनंद को जान लिया तो तुम उसके पार जा सकते हो। क्योंकि अब तुम्हारे पांव यथार्थ की जमीन में जमे हैं। काम में ही सदा नहीं रहना है, लेकिन काम को जंपिंग प्याइंट बनाया जा सकता है। तंत्र यही सिखाता है : काम को जंपिंग प्याइंट बनाओ। अगर तुम्हें आर्गाज्म का, काम—समाधि का अनुभव हो जाए तो तुम उस बड़ी समाधि को, जागतिक समाधि को समझ सकते हो जिसकी चर्चा संत सदा से करते आए हैं।

मीरा नाच रही है। तुम उसे नहीं समझ सकते, तुम उसके गीतों को भी नहीं समझ सकते। वे कामुक गीत हैं, उनके प्रतीक कामुक हैं। ऐसा होगा ही। क्योंकि मनुष्य के जीवन में काम—कृत्य ही एक कृत्य है जिसमें तुम्हें अद्वैत का, गहन एकता का अनुभव होता है, जिसमें अतीत विलीन हो जाता है, भविष्य विलीन हो जाता है और सिर्फ वर्तमान का क्षण—जो कि एकमात्र वास्तविक क्षण है—बचता है।

इसलिए समस्त संतो ने, रहस्यवादियों ने, जिन्हें परमात्मा के साथ, अस्तित्व के साथ एकता का अनुभव हुआ है, अपने अनुभवों को व्यक्त करने के लिए सदा काम—प्रतीकों का उपयोग किया है। कोई दूसरा प्रतीक, कोई दूसरी उपमा नहीं है जो करीब भी आती हो।

काम सिर्फ आरंभ है, अंत नहीं। लेकिन अगर तुम आरंभ चूक गए तो अंत भी चूक जाओगे। और अंत को उपलब्‍ध होने में आरंभ से नहीं बचा जा सकता।

तंत्र कहता है कि जीवन को सहजता से स्वीकार करो, झूठे व्यक्ति मत बनो। काम की संभावना प्रगाढ़ है, उसकी क्षमता बड़ी है। उसका उपयोग करो। और उसका सुख लेने में गलती क्या है?

सच तो यह है कि समस्त नैतिकता सुख के विरोध में है। यदि कोई सुखी है तो तुम्हें लगता है कि कुछ गलत हो रहा है। यदि कोई दुखी है तो सब ठीक—ठाक मालूम पड़ता है। हम एक रुग्ण समाज में रहते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति दुखी है। इसलिए जब तुम दुखी हो तो सब लोग खुश हैं, क्योंकि सब लोग तुम्हारे साथ सहानुभूति दिखा सकते हैं। और जब तुम सुखी हो तो लोगों को समझ में नहीं आता कि वे क्या करें। जब कोई तुम्हें सहानुभूति प्रकट करता है तो उसके चेहरे को देखो। चेहरे पर एक चमक है, एक सूक्ष्म दीप्ति आई हुई है। सहानुभूति प्रकट करते हुए वह प्रसन्न है। लेकिन अगर तुम सुखी हो तो उसकी कोई संभावना नहीं रहती। तुम्हारा सुख दूसरों के लिए दुख पैदा करता है और तुम्हारा दुख दूसरों का सुख बन जाता है। यह रुग्णता है, मानसिक रुग्णता है। मालूम पड़ता है कि हमारी बुनियाद ही विक्षिप्त हो गई है।

तंत्र कहता है. सच्चे बनो, अपने प्रति प्रामाणिक बनो। तुम्हारा सुख बुरा नहीं है, शुभ है। सुख पाप नहीं है। पीड़ा पाप है, दुखी होना पाप है। सुखी होना पुण्य है, क्योंकि सुखी व्यक्ति दूसरों के लिए दुख नहीं निर्मित करेगा। सुखी आदमी ही दूसरों के सुख का आधार बन सकता है।

दूसरी बात कि जब मैं कहता हूं कि तंत्र न नैतिक है न अनैतिक तो उसका मतलब है कि तंत्र बुनियादी रूप से एक विज्ञान है। वह तुम्हारा निरीक्षण करता है। तुम जो हो, उसकी फिक्र करता है। उसका अर्थ है कि तंत्र तुम्हें बदलने की चेष्टा तो बिलकुल नहीं करता, लेकिन वह यथार्थ के जरिए तुम्हें निश्चित ही रूपांतरित कर देता है।

जादू और विज्ञान में जो भेद है वही भेद नीति और तंत्र में है। जादू यथार्थ को जाने बिना सिर्फ शब्दों के जरिए चीजों को बदलने की चेष्टा करता है। जादूगर कह सकता है कि अब वर्षा बंद हो जाएगी, लेकिन वास्तव में वह वर्षा को नहीं रोक सकता। या वह कह सकता है कि वर्षा होगी, लेकिन वह वर्षा ला नहीं सकता है। वह महज शब्दों का खेल है। कभी—कभार संयोग घट सकता है और तब जादूगर को लगेगा कि मैं कितना शक्तिशाली हूं। और अगर उसकी भविष्यवाणी के मुताबिक कोई चीज नहीं होती है तो वह सदा कह सकता है कि कुछ भूल—चूक रह गई होगी। उसके धंधे में सदा इतनी सुविधा छिपी रहती है। जादूगरी में सब कुछ ‘ अगर’ से शुरू होता है। जादूगर कह सकता है कि अगर सब शुभ हों, पुण्यवान हों तो फलां दिन वर्षा होगी। फिर अगर वर्षा हुई तो ठीक और अगर नहीं हुई तो जादूगर कहेगा कि सब पुण्यवान नहीं थे, कोई न कोई पापी था।

इस बीसवीं सदी में भी जब बिहार में अकाल पड़ा तो महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति ने कहा कि बिहार में अकाल इसलिए पड़ा क्योंकि वहा के लोग पापी हैं। मानो सारा संसार पुण्यात्मा है, सिर्फ बिहार पापी है।

जादू अगर से शुरू करता है और वह अगर बहुत बड़ा है। विज्ञान कभी अगर से नहीं शुरू करता है। विज्ञान सबसे पहले यह जानने की चेष्टा करता है कि तथ्य क्या है, यथार्थ क्या है, असलियत क्या है। यथार्थ को, असलियत को जानकर ही उसे रूपांतरित किया जा सकता है। अगर तुम जानते हो कि विद्युत क्‍या है तो तुम उसे बदल सकते हो, रूपांतरित कर सकते हो, उसका उपयोग कर सकते हो। लेकिन जादूगर नहीं जानता है कि विद्युत क्या है और जाने बिना ही वह उसे रूपांतरित करने चलता है, कम से कम रूपांतरित करने का विचार करता है। ऐसी भविष्यवाणियां झूठी हैं, भ्रांत हैं।

नीति जादू जैसी है। वह पूर्ण मनुष्य की चर्चा किए जाती है और उसे यह नहीं मालूम है कि मनुष्य क्या है, यथार्थ मनुष्य क्या है। पूर्ण मनुष्य स्‍वप्‍न ही बना रहता है और उसका उपयोग सिर्फ यथार्थ मनुष्य की निंदा करने के लिए होता है। मनुष्य उस लक्ष्य तक कभी नहीं पहुंच पाता है।

तंत्र विज्ञान है। तंत्र कहता है कि पहले जानो कि यथार्थ क्या है, मनुष्य क्या है। अभी मूल्य मत निर्मित करो, अभी आदर्श मत खडे करो। पहले उसे जानो जो है। इसका विचार मत करो कि क्या होना चाहिए। सिर्फ उसकी सोचो, जो है। और जब वह जान लिया जाए जो है तो तुम उसे बदल सकते हो। तब तुम्हें कुंजी मिल गई।

उदाहरण के लिए, तंत्र कहता है कि कामवासना का विरोध मत करो। अगर तुम कामवासना के विरोध में जाओगे और ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होने की चेष्टा करोगे तो तुम असंभव की चेष्टा करोगे। वह जादूगरी है। काम—ऊर्जा को जाने बिना, काम की संरचना को समझे बिना, उसके यथार्थ को, उसके रहस्यों को जाने बिना तुम ब्रह्मचर्य का आदर्श निर्मित कर ले सकते हो। लेकिन तब तुम क्या करोगे? तब तुम सिर्फ दमन करोगे।

लेकिन जो व्यक्ति कामवासना का दमन करता है वह उस व्यक्ति से ज्यादा कामवासना से ग्रस्त है जो काम— भोग में संलग्न है। क्योंकि भोग के द्वारा ऊर्जा व्यय हो जाती है, दमन से वह तुम्हारे भीतर चक्कर लगाती रहती है। जो व्यक्ति काम—दमन करता है उसे सर्वत्र कामुकता ही नजर आती है, उसके लिए सब कुछ कामुक हो जाता है। ऐसा नहीं कि सब कुछ कामुक है, लेकिन वह सर्वत्र उसका प्रक्षेपण कर लेता है। अब वह प्रक्षेपण करता है, उसकी दमित ऊर्जा प्रक्षेपण करती है। वह जहां भी दृष्टि डालेगा, उसे कामुकता ही कामुकता नजर आएगी। और क्योंकि वह अपनी निंदा करता है, वह सबकी निंदा करने लगेगा।

ऐसा नैतिक व्यक्ति खोजना मुश्किल है जो भयानक रूप से निंदा करने वाला न हो। वह सबकी निंदा करेगा, उसकी नजर में सब लोग गलत हैं। और ऐसा करके वह तृप्त होता है, उसका अहंकार तृप्त होता है। वह क्यों सबको गलत समझता है? क्योंकि उसे सर्वत्र वही चीज दिखाई देती है जिसका वह दमन कर रहा है। उसका अपना चित्त ज्यादा कामुक होता जाएगा और वह और—और भयभीत रहेगा। यह ब्रह्मचर्य विकृति है, यह अस्वाभाविक है।

एक भिन्न गुणवत्ता का ब्रह्मचर्य, एक अलग ढंग का ब्रह्मचर्य तंत्र के साधक को घटित होता है। लेकिन उसकी पूरी प्रक्रिया उलटी है, बिलकुल उलटी है। तंत्र पहले यह सिखाता है कि तुम कामवासना में प्रवेश कैसे करो, उसे कैसे जानो, कैसे अनुभव करो। उसकी गहनतम छिपी संभावना को, उसके शिखर को कैसे प्राप्त करो। उसमें छिपे सार—सौंदर्य को, उसके मूलभूत सुख और आनंद को कैसे उपलब्ध होओ। और अगर तुमने उस रहस्य को जान लिया तो तुम उसका अतिक्रमण कर सकते हो। क्योंकि गहन काम—समाधि में तुम्हें जो आनंद मिलता है वह आनंद काम से नहीं, किसी और चीज से आता है। काम तो सिर्फ एक स्‍थिति है; और उसमें जो सुख, जो आनंद मिलता है, वह किसी दूसरी चीज से, दूसरे स्रोत से मिलता है।

वह दूसरी चीज तीन तत्वों में बांटी जा सकती है। लेकिन जब मैं उन तत्वों के संबंध में बोलता हूं तो यह मत समझो कि तुम उन्हें मेरे शब्दों से ही समझ जाओगे। उन्हें तुम्हारा अनुभव बनना होगा, सिद्धात की भांति वे व्यर्थ हैं। लेकिन काम के इन्हीं तीन तत्वों के कारण तुम आनंद को उपलब्ध होते हो।

उनमें प्रथम है, समय—शून्यता, उसमें तुम बिलकुल ही समय के पार हो जाते हो। वहा समय नहीं है। तुम समय को बिलकुल भूल जाते हो, तुम्हारे लिए समय समाप्त हो जाता है। यह नहीं कि समय मिट जाता है, सिर्फ तुम्हारे लिए समय समाप्त हो जाता है, तुम समय में नहीं होते हो, न अतीत होता है और न भविष्य। इसी क्षण में, यहां और अभी सारा अस्तित्व केंद्रीभूत होता है। यही क्षण एकमात्र सच्चा क्षण होता है। अगर तुम इस क्षण को काम—कृत्य के बिना भी एकमात्र वास्तविक क्षण बना सको तो काम की जरूरत ही न रहे। ध्यान में यही घटित होता है।

दूसरी बात कि काम—कृत्य में पहली बार तुम्हारा अहंकार खो जाता है, तुम निरहंकारी हो जाते हो। इसलिए वे सारे लोग जो अति अहंकार से भरे हैं, सदा काम के विरुद्ध हो जाते हैं। क्योंकि काम में उन्हें अहंकार खोना पड़ता है। तब न तुम हो और न दूसरा है, तुम और तुम्हारी प्रेमिका, दोनों किसी और चीज में विलीन हो जाते हैं। एक नया यथार्थ घटित होता है, एक नई इकाई अस्तित्व में आती है, जिसमें पुराने दो खो जाते हैं, पूरी तरह खो जाते हैं। इससे अहंकार को भय होता है। तुम नहीं बचोगे। अगर तुम काम के बिना भी इस क्षण को प्राप्त कर सको जिसमें तुम नहीं होते हो तो फिर काम— भोग की जरूरत नहीं रहती।

और तीसरी बात कि काम—कृत्य में तुम पहली बार नैसर्गिक होते हो। जो कुछ झूठा था, ओढ़ा हुआ था, मुखौटा था, वह सब खो जाता है। समाज, सभ्यता, संस्कृति, सब खो जाता है। तब तुम निसर्ग के अंश मात्र हो। जैसे वृक्ष हैं, पशु हैं, चांद—तारे हैं, वैसे ही तुम भी प्रकृति के अंश हो। अब तुम विराट के साथ हो, ऋत के साथ हो, ताओ के साथ हो, तुम उसके साथ बह रहे हो। तुम उसमें तैर भी नहीं सकते, क्योंकि तुम नहीं हो। तुम बस बह रहे हो, प्रवाह तुम्हें लिए जा रहा है।

ये तीन चीजें तुम्हें आनंद देती हैं, समाधि की एक झलक देती हैं। काम—कृत्य एक स्थिति भर है जिसमें यह सहजता से घटित होता है। अगर तुम इन तत्वों को जान लेते हो और इन्हें अनुभव कर लेते हो तो तुम काम—कृत्य के बिना भी उन्हें निर्मित कर सकते हो। समस्त ध्यान मूलतः काम— भोग के बिना काम— भोग का अनुभव है। लेकिन तुम्हें उससे गुजरना ही होगा। उसे तुम्हारे अनुभव का हिस्सा बन जाना होगा। उसकी मात्र धारणा, सिद्धात या विचार से कुछ भी नहीं होगा।

तंत्र काम— भोग के लिए नहीं, काम के अतिक्रमण के लिए है। लेकिन वह अतिक्रमण आदर्श से नहीं, सिर्फ अनुभव से हो सकता है—अस्तित्वगत अनुभव से। ब्रह्मचर्य केवल तंत्र के द्वारा घटित होता है। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती है, लेकिन विरोधाभासी नहीं है। ज्ञान के द्वारा ही अतिक्रमण घटित होता है। अज्ञान से अतिक्रमण नहीं हो सकता, अज्ञान से सिर्फ पाखंड पैदा होता है।

अब मैं दूसरे प्रश्न लूंगा। किसी ने पूछा है :

 

ध्यान की प्रक्रिया में बाधा न पहुंचे, बल्कि सहयोग मिले, इस दृष्टि से संभोग में कितनी बार उतरना उचित है?

 

ह प्रश्न हमारी नासमझी के कारण उठता है। तुम्हारे साधारण संभोग में और तांत्रिक संभोग में बुनियादी भेद है। तुम्हारा काम— भोग सिर्फ तनाव से क्षणिक छुटकारा होता है, वह अच्छी छींक जैसा है। उसमें ऊर्जा फिंक जाती है और तुम हलके हो जाते हो। यह काम— भोग दीन—हीन करता है, यह सृजनात्मक नहीं है। यह ठीक है—राहत जैसा है। इससे तुम्हें आराम मिल जाता है, लेकिन और कुछ नहीं।

तांत्रिक संभोग बुनियादी रूप से बिलकुल उलटा और भिन्न है। वह छुटकारा पाने के लिए नहीं है, वह ऊर्जा को बाहर फेंकने के लिए नहीं है। तंत्र में स्खलन के बिना, ऊर्जा को बाहर फेंके बिना संभोग में रहना है, वह भी उसके आरंभ के साथ रहना है, अंत के साथ नहीं। इससे काम— भोग की गुणवत्ता बदल जाती है, उसका पूरा गुणधर्म भिन्न हो जाता है।

यहां दो चीजें समझने जैसी हैं। काम— भोग में दो प्रकार के शिखर— अनुभव हैं, दो प्रकार के आर्गाज्म हैं। एक आर्गाज्म से तुम परिचित हो, जिसमें तुम उत्तेजना के शिखर पर पहुंचकर उसके आगे नहीं जा सकते, अंत आ जाता है। उत्तेजना ऐसे बिंदु पर पहुंच जाती है जहां वह स्वैच्छिक नहीं रह जाती, ऊर्जा छलांग लेती है और बाहर निकल जाती है। उससे तुम खाली हो जाते हो, हलके हो जाते हो। कोई बोझ सा उतर जाता है और तुम विश्रांति और नींद में चले जाते हो।

तुम यहां काम— भोग का उपयोग ट्रैंक्वेलाइजर की तरह करते हो। यह प्रकृति प्रदत्त ट्रैंक्वेलाइजर है। इसके बाद अच्छी नींद आएगी, बशर्ते चित्त धर्म से बोझिल न हो। अन्यथा ट्रैक्येलाइजर भी व्यर्थ हो जाएगा। अगर तुम्हारा चित्त धारणाओं से बोझिल नहीं है तो ही काम— भोग ट्रैंक्वेलाइजर का काम कर सकता है। अगर तुम्हें अपराध— भाव पकड़ता है तो तुम्हारी नींद भी बिगड़ जाएगी। तब तुम्हें गिरावट अनुभव होगी, तब तुम आत्म—निंदा में संलग्न हो जाओगे। और तब तुम व्रत लोगे कि अब फिर मैं इस पाप में नहीं गिरूंगा। तब तुम्हारी नींद भी उपद्रव में पड़ जाएगी। लेकिन यदि तुम सहज हो, धर्म से, नीति से बोझिल नहीं हो तो काम— भोग टैंरक्वेलाइजर बन सकता है।

यह एक तरह का आर्गाज्म है, काम का शिखर—अनुभव है, जिसमें उत्तेजना का शिखर प्राप्त होता है। तंत्र दूसरे प्रकार के शिखर—अनुभव की फिक्र लेता है। और अगर तुम पहले प्रकार को शिखर— अनुभव कहते हो तो तांत्रिक संभोग को घाटी—अनुभव कहना उचित होगा। इसमें तुम्हें उत्तेजना के शिखर पर नहीं पहुंचना है, वरन विश्राम की गहनतम घाटी में उतरना है। लेकिन दोनों के आरंभ में उत्तेजना से काम लेना है। इसलिए मैं कहता हूं कि आरंभ में दोनों समान हैं, लेकिन उनके अंत बिलकुल भिन्न हैं।

उत्तेजना का उपयोग दोनों में करना है। वहा से तुम या तो उत्तेजना के शिखर पर चढ़ोगे या विश्राम की घाटी में उतरोगे। पहली यात्रा तो तीव्र से तीव्रतर होते जाना है; तुम्हें उत्तेजना के साथ बढ़ना है, उत्तेजना को उसके शिखर तक पहुंचाना है। लेकिन दूसरी यात्रा में उत्तेजना केवल आरंभ में होगी। और पुरुष के प्रवेश करते ही प्रेमी और प्रेमिका दोनों विश्राम में हो सकते हैं। किसी हलचल की जरूरत नहीं है, दोनों प्रेम— आलिंगन में विश्रामपूर्ण हो सकते हैं। जब भी पुरुष या स्त्री को ऐसा लगे कि इंद्रियों का तनाव समाप्त होने को है, तभी थोड़ी गति और उत्तेजना की जरूरत है। लेकिन फिर विश्राम में चले जाना चाहिए।

तुम इस प्रगाढ़ आलिंगन को सख्‍लन के बिना घंटों लंबा सकते हो और उसके बाद दोनों गहरी नींद में सो जा सकते हो। यही घाटी— अनुभव है। इसमें दोनों व्यक्ति विश्रामपूर्ण हैं और उनका मिलन भी विश्रामपूर्ण होता है।

सामान्य संभोग में तुम दो उत्तेजित व्यक्तियों की भांति मिलते हों—तनावग्रस्त, उत्तेजित, खाली होने को आतुर। साधारण आर्गाज्म पागलपन जैसा मालूम होता है। तांत्रिक आर्गाज्‍म्र प्रगाढ़ विश्राम वाला ध्यान है। उसमें यह प्रश्न ही नहीं उठता है कि कितनी बार संभोग में उतरा जाए। तुम जितनी बार चाहो उतर सकते हो, क्योंकि उसमें ऊर्जा की हानि नहीं, वरन ऊर्जा की प्राप्ति होती है।

तुम्हें शायद इसका बोध नहीं, लेकिन यह जीवशास्त्र या जीव—ऊर्जा का एक तथ्य है कि पुरुष और स्त्री विपरीत शक्तियां हैं। तुम उन्हें निषेध—विधेय, यिन—याग या जो भी कहो, वे एक—दूसरे को चुनौती देने वाली शक्तियां हैं। और जब वे गहन विश्राम में मिलती हैं तो वे परस्पर एक—दूसरे को जीवन प्रदान करती हैं। इस मिलन से स्त्री—पुरुष दोनों शक्तिसंपन्न हो जाते हैं, दोनों शक्तिशाली हो जाते हैं, दोनों जीवंत हो जाते हैं, दोनों नई ऊर्जा से भर जाते हैं। ऐसे मिलन में कुछ भी खोता नहीं, विपरीत ध्रुवों के मिलन से ऊर्जा का नवीकरण होता है। तांत्रिक संभोग तुम जितना चाहो उतना कर सकते हो।

साधारण संभोग में तुम बार—बार नहीं उतर सकते, क्योंकि उसमें तुम्हारी ऊर्जा नष्ट होती है और उसे पुन: प्राप्त करने के लिए तुम्हारे शरीर को प्रतीक्षा करनी होगी। और ऊर्जा प्राप्त करके फिर उसे नष्ट ही करना है। यह एक अर्थहीन सिलसिला है, सारा जीवन फिर—फिर ऊर्जा कमाने और नष्ट करने में व्यतीत हो जाता है। यह एक ग्रस्तता है, रुग्णता है।

इस संबंध में एक दूसरी बात भी समझने जैसी है। तुमने शायद ध्यान न दिया हो कि पशु काम—कृत्य का सुख लेते हुए नहीं मालूम पड़ते हैं, संभोग में वे सुख लेना नहीं जानते। बंदरों और वनमानुषों को देखो, कुत्तों और अन्य जानवरों को देखो, उन्हें संभोग में देखकर यह कहना असंभव है कि वे उसका सुख ले रहे हैं, कि वे आनंदित हो रहे हैं। यह असंभव है। उनका काम— भोग बिलकुल यांत्रिक मालूम पड़ता है। लगता है कि कोई प्राकृतिक शक्ति उन्हें इसके लिए बाध्य कर रही है। अगर तुमने बंदरों को संभोग करते देखा हो तो देखा होगा कि संभोग के बाद वे तुरंत एक—दूसरे से अलग हो जाते हैं। उनके चेहरों को देखो, उनमें प्रसन्नता जरा भी नहीं है, जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं। जब ऊर्जा धक्के देती है, जब वह अतिशय होती है तो वे उसे बस फेंक देते हैं।

साधारण काम—कृत्य ऐसा ही है। लेकिन नीतिवादी ठीक उलटी बात कहते आ रहे हैं।

वे कहते हैं : भोग मत करो, सुख मत लो। वे कहते हैं. यह तो पशुओं जैसा कृत्य है। लेकिन यह बात गलत है। पशु कभी सुख नहीं लेते हैं, केवल मनुष्य सुख ले सकता है। और तुम जितना गहरा सुख लोगे उतनी ही श्रेष्‍ठ मनुष्‍यता का उदय होगा। और अगर तुम्‍हारा संभोग ध्यानपूर्ण हो जाए, समाधि पूर्ण हो जाए तो परम उपलब्ध हो जाए। लेकिन तंत्र की बात स्मरण रखो. यह घाटी— अनुभव है। यह शिखर—अनुभव नहीं है, घाटी— अनुभव है।

पश्चिम में अब्राहम मैसलो ने शिखर—अनुभव की बहुत बात की है। तुम उत्तेजना के शिखर पर पहुंचकर नीचे गिरते हो। यही कारण है कि प्रत्येक संभोग के बाद तुम दीन—हीन अनुभव करते हो। और यह स्वाभाविक है, तुम शिखर से नीचे गिरते हो।

लेकिन तांत्रिक संभोग के बाद तुम्हें यह गिरावट कभी अनुभव नहीं होगी। उसमें तुम और नीचे नहीं गिर सकते, क्योंकि तुम घाटी में ही हो। वरन तुम ऊपर उठते हुए अनुभव करोगे। तांत्रिक संभोग से लौटने पर तुम गिरते नहीं, ऊपर उठते हो। तुम ऊर्जा से आपूरित होकर ज्यादा शक्तिवान, ज्यादा जीवंत और तेजोमय हो जाते हो। और वह आनंद घंटों बना रह सकता है, दिनों बना रह सकता है। यह इस पर निर्भर है कि तुम कितनी गहराई से उसमें उतरे थे। तांत्रिक संभोग में उतरने पर देर— अबेर तुम्हें पता चलेगा कि स्खलन ऊर्जा का अपव्यय है, उसकी कोई जरूरत नहीं है। अगर बच्चा नहीं पैदा करना है तो स्खलन बिलकुल जरूरी नहीं है।

और इस तांत्रिक काम—अनुभव के बाद तुम पूरे दिन विश्राम अनुभव करोगे। एक तांत्रिक काम—अनुभव के बाद तुम कई दिनों तक विश्रांत, शात, अहिंसक, अक्रोधी और सुखी रह सकते हो। और इस तरह का व्यक्ति कभी दूसरों के लिए उपद्रव नहीं खडा करेगा, मुसीबत नहीं पैदा करेगा। हो सकेगा तो वह दूसरों को सुखी बनाने में सहयोग देगा, अन्यथा वह दूसरों को दुख तो कभी नहीं देगा।

केवल तंत्र नए मनुष्य का निर्माण कर सकता है। और यह नया मनुष्य—समयातीत और निरहंकार को, अस्तित्व के साथ गहन अद्वैत को जानने वाला मनुष्य—अवश्य विकासमान होगा। एक नया आयाम खुल गया है। वह बहुत दूर नहीं है, वह दिन बहुत दूर नहीं है, जब काम या सेक्स विलीन हो जाएगा। जब काम अनजाने विदा हो जाता है, जब एक दिन अचानक तुम्हें पता चलता है कि काम बिलकुल विदा हो गया, उसकी कोई वासना न रही, तो ब्रह्मचर्य का जन्म होता है।

लेकिन यह कठिन है। यह कठिन मालूम पड़ता है, क्योंकि तुम्हें बहुत गलत शिक्षा दी गई है। और तुम इससे भयभीत हो, क्योंकि तुम्हारा मन संस्कारित है।

हम दो चीजों से बहुत डरते हैं, हम कामवासना और मृत्यु से बहुत डरते हैं। और वे दोनों ही बुनियादी हैं। धर्म का सच्चा साधक दोनों में प्रवेश करेगा। वह काम को जानने के लिए काम का अनुभव लेगा। क्योंकि काम को जानना जीवन को जानना है। और वह मृत्यु को भी जानना चाहेगा। क्योंकि जब तक तुम मृत्यु को नहीं जानते हो तब तक तुम शाश्वत जीवन को भी नहीं जान सकते।

अगर तुम काम में उसके मर्म तक प्रवेश कर सकी तो तुम जीवन को जान लोगे। और वैसे ही अगर तुम स्वेच्छा से मृत्यु में उसके केंद्र तक प्रवेश कर जाओ तो तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे। तब तुम अमर हो, क्योंकि मृत्यु तो केवल परिधि पर घटित होती है।

काम और मृत्यु, दोनों एक सच्चे साधक के लिए बुनियादी हैं। लेकिन सामान्य मनुष्यता के लिए दोनों घबड़ाने वाले है। कोई उनकी चर्चा नहीं करता है। और दोनों बुनियादी हैं और दोनों गहन रूप से एक—दूसरे से संबंधित हैं। वे इतने जुड़े हुए हैं कि तुम कामवासना में प्रवेश करो और तुरंत तुम एक प्रकार की मृत्यु में प्रवेश करने लगते हो। क्योंकि काम—अनुभव में तुम मरते हो, तुम्हारा अहंकार विलीन होता है। काम— अनुभव में समय विलीन हो जाता है, तुम्हारा व्यक्तित्व विदा हो जाता है। तब तुम ही मरने लगते हो। संभोग सूक्ष्म मृत्यु है।

और अगर तुम्हें बोध हो जाए कि काम सूक्ष्म मृत्यु है तो मृत्यु तुम्हारे लिए बड़ी काम—समाधि का अनुभव बन जाएगी। कोई सुकरात मृत्यु में निर्भय प्रवेश करता है। बल्कि वह मृत्यु को जानने के लिए उत्साह से भरा है, उल्लास और उत्तेजना से भरा है। उसके हृदय में मृत्यु के लिए गहन स्वागत का भाव है। क्यों? क्योंकि अगर तुम संभोग की छोटी मृत्यु को जानते हो, अगर तुमने उससे प्राप्त होने वाला आनंद जाना है, तो तुम बड़ी मृत्यु को भी जानना चाहोगे। तुम उसके पीछे छिपे आनंद को भी भोगना चाहोगे।

लेकिन हमारे लिए काम और मृत्यु दोनों घबड़ाने वाले हैं। तंत्र के लिए दोनों अनुसंधान के आयाम हैं। उनसे होकर ही यात्रा है।

किसी ने पूछा है :

 

अगर किसी को कुंडलिनी जागरण का अनुभव हो तो क्या काम के शिखर अनुभवों से उसकी ध्यान की ऊर्जा क्षीण नहीं होती है?

 

बुनियादी रूप से काम—कृत्य को न समझने के कारण ये सारे प्रश्न उठ रहे हैं। सामान्यत: तो यही होता है, अगर तुम्हारी कुंडलिनी ऊर्जा जागती है और सिर की तरफ उठती है तो तुम्हें सामान्य आर्गाज्म नहीं हो सकेगा। और अगर तुम उसकी कोशिश करोगे तो तुम्हें अपने भीतर गहन द्वंद्व का सामना करना होगा। क्योंकि ऊर्जा ऊपर उठ रही है और तुम उसे नीचे लाने की चेष्टा कर रहे हो।

लेकिन तांत्रिक आर्गाज्म में यह कठिनाई नहीं है, बल्कि यह सहयोगी होगा। ऊपर उठती ऊर्जा तांत्रिक आर्गाज्म के विरोध में नहीं है। तुम विश्रामपूर्ण हो सकते हो, और अपनी प्रेमिका के साथ यह विश्रामपूर्ण स्थिति ऊर्जा को ऊपर उठने में सहयोग देगा।

सामान्य काम—कृत्य में यह कठिनाई जरूर है। यही कारण है कि सभी गैर—तांत्रिक विधियां काम के विरोध में हैं। क्योंकि उन्हें नहीं मालूम है कि घाटी—अनुभव भी संभव है। वे एक ही भांति के अनुभव से, सामान्य शिखर— अनुभव से परिचित हैं। और तब उनके लिए जरूर यह समस्या है। योग के लिए यह समस्या है, क्योंकि योग तुम्हारी काम—ऊर्जा को ऊपर उठाने की चेष्टा करता है। तुम्हारी ऊपर उठती काम—ऊर्जा को ही कुंडलिनी कहते हैं। काम— भोग में ऊर्जा नीचे जाती है। योग कहेगा कि ब्रह्मचर्य धारण करो, क्योंकि अगर तुम दोनों करोगे, योग और भोग दोनों करोगे तो तुम अपने को अराजकता में डाल लोगे। एक और तुम ऊर्जा को ऊपर उठाने की चेष्टा करोगे और दूसरी ओर उसे नीचे उतारने की, बाहर फेंकने की चेष्टा करोगे। तब तुम उपद्रव में पड़ोगे, अराजकता में पड़ोगे।

यही कारण है कि योग की विधियां काम—विरोधी हैं। लेकिन तंत्र काम — विरोधी नहीं है, क्योंकि तंत्र का आर्गाज्‍म, तंत्र का काम — अनुभव सर्व था भिन्न है। वह घाटी — अनुभव है। घाटी—अनुभव सहयोगी हो सकता है; अराजकता की संभावना नहीं है। वह सहयोगी हो सकता है।

अगर तुम पुरुष हो और स्त्री से बच रहे हो या स्त्री हो और पुरुष से बच रहे हो तो तुम जो भी करोगे, विपरीत यौन तुम्हारे मन में सदा बसा रहेगा और तुम्हें नीचे की ओर खींचता रहेगा। यह विरोधाभासी है, लेकिन सच है। लेकिन जब तुम अपनी प्रेमिका के साथ प्रगाढ़ आलिंगन में होते हो तो तुम दूसरे को भूल सकते हो। तभी तुम दूसरे को भूलते हो। पुरुष भूल जाता है कि स्त्री है, स्त्री भूल जाती है कि पुरुष है। प्रगाढ़ आलिंगन में ही दूसरा विदा होता है। और जब दूसरा नहीं है तो तुम्हारी ऊर्जा आसानी से प्रवाहित होती है, अन्यथा दूसरा उसे नीचे की ओर खींचता रहता है।

इसलिए योग तथा दूसरी सामान्य विधियां तुम्हें विपरीत यौन से बचने की शिक्षा देती हैं। तुम्हें बचना होगा, तुम्हें सतत सजग रहना होगा, संघर्ष और नियंत्रण करना होगा। लेकिन अगर तुम विपरीत यौन के विरोध में हो तो वह विरोध ही तुम्हें निरंतर तनावग्रस्त रखेगा और तुम्हें नीचे खींचता रहेगा।

तंत्र कहता है : तनाव की जरूरत नहीं है। दूसरे के साथ विश्रामपूर्ण होओ। उस विश्रांत क्षण में दूसरा विलीन हो जाता है और तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की ओर प्रवाहित हो सकती है। लेकिन यह तभी ऊपर की ओर प्रवाहित होती है जब तुम घाटी में होते हो। अगर तुम शिखर पर हो तो वह नीचे बहने लगती है।

एक और प्रश्न :

 

कल रात आपने कहा कि पूरा कृत्य बिना किसी जल्दबाजी के धीरे— धीरे होना चाहिए। और आपने यह भी कहा कि काम—कृत्य पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए और उसमें भाग लेने वाले को समग्र होना चाहिए। इससे मुझे उलझन हो रही है। कृपा कर इन दोनों बलों को स्पष्ट करें।

ह नियंत्रण नहीं है। नियंत्रण एक भिन्न चीज है और विश्राम उससे बिलकुल भिन्न चीज है। संभोग में तुम विश्रामपूर्ण होते हो, उसे नियंत्रित नहीं करते। अगर तुम उसे नियंत्रित करते हो तो विश्रामपूर्ण नहीं हो सकोगे। अगर तुम नियंत्रण कर रहे हो तो देर—अबेर तुम उसे खतम करने की जल्दी. में होगे। क्योंकि नियंत्रण में शक्ति लगती है और उससे तनाव पैदा होता है। और तनाव के कारण तुम्हें कृत्य को समाप्त करने की जरूरत और जल्दी पड़ती है। तंत्र में नियंत्रण नहीं है, तुम किसी चीज का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो। तुम किसी जल्दबाजी में नहीं हो, क्योंकि किसी लक्ष्य के लिए संभोग नहीं हो रहा है। तुम कहीं जा नहीं रहे हो। यह बस एक खेल है, इसमें कोई गंतव्य नहीं है, कहीं पहुंचना नहीं है। इसलिए कोई जल्दी नहीं है।

लेकिन आदमी अपने किसी कृत्य में पूरी तरह नहीं उपस्थित रहता है। अगर तुम अपना हर काम जल्दबाजी में करते हो तो तुम्हें काम—कृत्य: में भी जल्दी रहेगी। जो व्यक्ति बहुत ज्यादा समय —बोध से भरा है वह काम — कृत्य भी जल्दी —जल्दी निपटाएगा। उसे लगेगा कि इसमें समय नष्ट रहा। हम इंस्‍टैंट काफी और इंस्‍टैंट संभोग की मांग करते है। काफी तक तो बात ठीक है, लेकिन इंस्टैंट संभोग की मांग मूढ़ता है। इंस्टैंट संभोग नहीं हो सकता, यह कोई काम नहीं है, यह जल्दी करने की चीज नहीं है। जल्दबाजी में तुम उसे नष्ट कर दोगे, तुम उसकी असली बात ही चूक जाओगे। उसका सुख लो, क्योंकि उसके द्वारा समयशून्यता का अनुभव होता है। जल्दबाजी में समयशून्यता का अनुभव नहीं हो सकता।

तंत्र कहता है कि संभोग में जल्दी मत करो, आहिस्ते—आहिस्ते चलो, उसका सुख लो। उसमें ऐसे जाओ जैसे सुबह टहलने के लिए निकलते हो। इसे आफिस जाने जैसा मत समझो, आफिस जाना और बात है। जब तुम आफिस जा रहे हो तो कहीं पहुंचने की चिंता रहती है। और जब टहलने जाते हो तो कोई जल्दी नहीं रहती, क्योंकि कहीं पहुंचना नहीं है। तुम सिर्फ टहल रहे हो, घूम रहे हो। कोई जल्दी नहीं है, कोई गंतव्य नहीं है। तुम किसी भी जगह से लौट सकते हो।

घाटी निर्मित करने के लिए यह गैर—जल्दबाजी, यह धीमापन आधारभूत है, अन्यथा शिखर निर्मित हो जाएगा। लेकिन जब मैं यह कहता हूं तो उसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हें नियंत्रण करना है। तुम्हें अपनी उत्तेजना को नियंत्रित नहीं करना है। वह स्व—विरोधी बात हो जाएगी। उत्तेजना को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, अगर करोगे तो दोहरी उत्तेजना पैदा हो जाएगी। बस विश्राम करो। उसे खेल की भाति लो। कोई लक्ष्य मत बनाओ। आरंभ पर्याप्त है।

संभोग में आंखें बंद कर लो और दूसरे के शरीर को, दूसरे की अपनी ओर आती हुई ऊर्जा को अनुभव करो और उसमें लीन हो जाओ, उसमें डूब जाओ। यह होगा। थोड़े दिन पुरानी आदत जिद्द के साथ बनी रहेगी, लेकिन फिर वह भी जाती रहेगी। लेकिन उसे हटाने की जबरदस्ती मत करो। सिर्फ विश्राम में, ज्यादा से ज्यादा विश्राम में उतरो। अगर स्खलन न हो तो यह मत समझो कि कुछ गलत हो रहा है।

अक्सर स्खलन न होने पर आदमी सोचता है कि कुछ गड़बड़ है, उसे लगता है कि कुछ गलत हो रहा है। कुछ भी गलत नहीं हो रहा है। और यह मत सोचो कि तुम कुछ चूक रहे हो। तुम कुछ नहीं चूक रहे हो। शुरू—शुरू में तो लगेगा कि तुम कुछ चूक रहे हो, क्योंकि उत्तेजना और शिखर का अभाव रहेगा। घाटी के आने के पूर्व तुम्हें लगेगा कि मैं कुछ चूक रहा हूं। लेकिन ऐसा सिर्फ पुरानी आदत के कारण लगेगा। थोड़े समय में, कोई महीने भर या तीन सप्ताह के भीतर घाटी प्रकट होना शुरू होगी। और जब घाटी प्रकट होगी तो तुम अपने शिखर को भूल जाओगे। इसके सामने कोई शिखर कुछ नहीं है। लेकिन तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी। उसके साथ जबरदस्ती मत करो। उसका नियंत्रण मत करो। सिर्फ विश्राम करो।

विश्राम एक समस्या है। जब हम कहते हैं कि विश्राम करो तो लगता है कि उसके लिए कोई प्रयत्न करना होगा। हमारी भाषा के कारण यह भाव पैदा होता है। मैं एक किताब पढ़ रहा था। किताब का नाम है : यू मस्ट रिलैक्स—तुम्हें विश्राम जरूर करना है। अब यह ‘जरूर करना है’ तुम्हें विश्राम नहीं करने देगा। जब विश्राम लक्ष्य बन जाता है, जब उसे करना अनिवार्य हो जाता है तो जब तुम विश्राम नहीं कर पाओगे तो तुम्हें निराशा होगी।’जरूर करना है’ यह शब्दावली कहती है कि इसमें कठिन प्रयत्न निहित है, यह मुश्किल काम है।

ऐसे तुम विश्राम नहीं कर सकते। समस्या भाषा की है। कुछ चीजें हैं जिन्हें भाषा सदा गलत ढंग से पेश करती है। उदाहरण के लिए यह विश्राम है। अगर मैं विश्राम करने को कहता हूं तो लगता है कि उसके लिए कुछ प्रयत्‍न करना है और तुम पूछोगे कि विश्राम कैसे किया जाए। ’कैसे’ पूछकर तुम बात ही चूक गए। तुम यह नहीं पूछ सकते, क्योंकि ‘कैसे’ का अर्थ विधि है। और विधि प्रयत्न मांगती है और प्रयत्न तनाव पैदा करता है।

अगर तुम पूछोगे कि विश्राम कैसे किया जाए तो मैं कहूंगा कि कुछ मत करो, बस विश्राम करो! मैं कहूंगा : लेट जाओ और प्रतीक्षा करो। कुछ भी मत करो, तुम जो भी करोगे उससे बाधा पैदा होगी, अवरोध पैदा होगा। अगर तुम एक से सौ तक और फिर सौ से वापस एक तक गिनती करने लगो तो तुम्हें सारी रात जागना पड़ेगा। और अगर बीच में नींद आ जाए तो यह मत सोचना कि गिनती के कारण नींद आ गई। नहीं, नींद इसलिए आ गई क्योंकि गिनते—गिनते तुम ऊब गए। और ऊब नींद लाती है। गिनती नहीं, ऊब नींद ले आई। ऊब के कारण तुम गिनना भूल गए और तब नींद लग गई। नींद या विश्राम तभी आता है जब तुम कुछ भी नहीं करते।

यही समस्या है। जब मैं कहता हूं काम—कृत्य तो तुम्हें लगता है कि इसमें प्रयत्न निहित है। नहीं, प्रयत्न नहीं करना है। तुम बस अपनी प्रेमिका या अपने प्रेमी के साथ खेलना शुरू कर दो, खेलते रहो। एक—दूसरे को महसूस करो, एक—दूसरे के प्रति संवेदनशील बनो—जैसे बच्चे आपस में खेलते हैं या कुत्ते या अन्य जानवर खेलते हैं। खेलते रहो और काम—कृत्य के संबंध में कोई विचार मत करो। संभोग हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। अगर खेलते—खेलते वह घटित हो तो वह तुम्हें आसानी से घाटी में पहुंचा देगा।

अगर तुम काम— भोग के संबंध में विचार करते हो तो तुम अपने से आगे निकल जाते हो। तुम अपनी प्रेमिका के साथ खेलते हुए काम—कृत्य का विचार कर रहे हो तो उसका मतलब है कि तुम्हारा खेल झूठा है। तब तुम वर्तमान में नहीं हो, तुम्हारा मन भविष्य में है। और यह मन सदा भविष्य में सरकता रहेगा। जब तुम संभोग में होगे तो मन उसको समाप्त करने का विचार करने लगेगा। मन सदा तुम्हारे आगे— आगे चलता है।

मन को ऐसा मत करने दो। बस खेलो और काम—कृत्य के बारे में भूल जाओ। वह घटित होगा। और जब वह घटित हो तो उसे घटित होने दो। तब विश्राम करना आसान होगा। जब संभोग घटित हो तो विश्राम करो। एक—दूसरे में डूबो, एक—दूसरे की उपस्थिति में रहो और आनंदित होओ।

परोक्ष रूप से कुछ किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जब तुम उत्तेजित होते हो तो तुम्हारी श्वास तेजी से चलने लगती है। उत्तेजना में तेज श्वास की जरूरत है। तो विश्राम के लिए तुम गहरी श्वास लो, गहरी पर धीमी श्वास लो—तेज श्वास नहीं। श्वास को सरल—सहज बना लो तो संभोग लंबा होगा।

और बातचीत मत करो, कुछ मत बोलो। बोलने से भी उपद्रव होता है। मन का नहीं, शरीर का उपयोग करो। और मन का उपयोग सिर्फ उसे महसूस करने के लिए करो जो घटित हो रहा है। विचार मत करो, सिर्फ महसूस करो कि क्या हो रहा है। जो उष्णता बह रही है, जो प्रेम प्रवाहित हो रहा है, उसे अनुभव करो। और सजग रहो। लेकिन सजगता को भी प्रयास मत बनाओ। अप्रयास बहो, अनायास बहो। तब घाटी प्रकट होगी। और जब घाटी प्रकट होगी

घाटी को, विश्रामपूर्ण आर्गाज्म को प्राप्त करते ही अतिक्रमण है। तब काम काम नहीं रहता; वह ध्यान हो जाता है, समाधि हो जाता है।

आज इतना ही।


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अंतर्यात्रा–(ध्‍यान शिविर)–प्रवचन–3

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नाभि—यात्रा : सम्‍यक आहार—श्रम—निंद्रा—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक, 3 फरवरी; 1968; रात्रि।

साधना—शिविर—आजोल।

नुष्य का जीवन कैसे आत्म—केंद्रित हो, कैसे वह स्वयं का अनुभव कर सके, कैसे आत्म—उपलब्धि हो सके, इस दिशा में आज दिन की दो चर्चाओं में थोड़ी सी बात हुई है। कुछ बातें और पूछी गई हैं। उन्हें समझने के लिए मैं तीन सूत्रों पर और अभी आपसे बात करूंगा। जो प्रश्न आज की चर्चा से संबंधित नहीं हैं, उनकी कल और परसों आपसे बात करूंगा। जो प्रश्न आज की चर्चा से संबंधित हैं, उन्हें मैं तीन सूत्रों में बांट कर आपसे बात करता हूं।

पहली बात मनुष्य स्वनिष्ठ, आत्म—केंद्रित या नाभि के केंद्र से जीवन की प्रक्रिया को कैसे शुरू करे? तीन और सूत्र महत्वपूर्ण हैं, जिनके माध्यम से नाभि पर सोई हुई ऊर्जा जाग सकती है और नाभि के द्वार से मनुष्य शरीर से भिन्न जो चेतना है, उसके अनुभव को उपलब्ध हो सकता है। उनमें तीन सूत्रों को पहले आपसे कहूं फिर उनकी आपसे बात करूं।

पहला सूत्र है सम्यक व्यायाम। दूसरा सूत्र है : सम्यक आहार। और तीसरा सूत्र है सम्यक निद्रा।

जो व्यक्ति ठीक—ठीक श्रम से, ठीक—ठीक आहार से, और ठीक—ठीक निद्रा से वंचित हो जाता है, वह कभी भी नाभि—केंद्रित नहीं हो सकता है। और इन तीनों ही चीजों से मनुष्य—जाति वंचित हो गई है!

मनुष्य अकेला प्राणी है, जिसके आहार का कोई ठिकाना नहीं रहा है। बाकी सभी प्राणियों के आहार सुनिश्चित हैं। उनकी मूल प्रवृत्ति, उनकी प्रकृति निर्धारित करती है कि वे क्या खाएं और क्या न खाएं, और कितना खाएं और कितना न खाएं, और कब खाएं और कब खाने से रुक जाएं। लेकिन मनुष्य बिलकुल ही इनडिटर्मिनेट है, वह बिलकुल अनिश्चित है। न तो उसकी प्रकृति कुछ कहती है कि वह क्या खाए। न उसका बोध कहता है कि वह कितना खाए। न उसकी समझ कोई निर्धारण करती है कि वह कब रुक जाए। ये कोई भी बातें मनुष्य की सब निर्धारित न होने से मनुष्य का जीवन बहुत अनिश्चित दिशाओं में प्रवृत्त हुआ है। लेकिन थोड़ी भी समझ हो, थोड़ी भी बुद्धिपूर्वक, थोड़े भी विचार से, थोड़े भी आख खोल कर आदमी जीना शुरू करे, तो आहार को सम्यक कर लेना जरा भी कठिन नहीं है, अत्यंत आसान बात है। उससे ज्यादा आसान कोई बात नहीं हो सकती। सम्यक आहार को दो—तीन टुकड़ों में बांट कर समझ लेना चाहिए।

पहली तो बात, मनुष्य क्या खाए, क्या न खाए? शरीर तो रासायनिक तत्वों से निर्मित होता है। शरीर की सारी प्रक्रिया तो अत्यंत रासायनिक, अत्यंत केमिकल है। अगर एक आदमी के भीतर शराब डाल दी जाए, तो शरीर उस रसायन के प्रति प्रवृत्त होगा—नशे से, मूर्च्छा से भर जाएगा। फिर चाहे वह व्यक्ति कितना ही स्वस्थ, कितना ही शांत क्यों न हो, नशे की रासायनिकता उसके शरीर पर परिणाम लाएगी। चाहे वह व्यक्ति कितना ही साधु क्यों न हो, जहर उसे पिला दिया जाए तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।

सुकरात की मृत्यु जहर के पिला देने से हो गई और गांधी की मृत्यु एक गोली के मार देने से हो गई। गोली यह नहीं देखती है कि यह आदमी साधु है या असाधु है। और जहर भी यह नहीं देखता है कि यह आदमी सुकरात है या कोई साधारणजन है। न ही नशे यह देखते हैं, न भोजन यह देखता है कि आप कौन हैं और क्या हैं। उसके तो सीधे सूत्र हैं, वे शरीर की केमिस्ट्री में, शरीर के रसायन में जाकर काम करना शुरू कर देते हैं।

ऐसा कोई भी भोजन जो मादक है, मनुष्य की चेतना में बाधा डालना शुरू करता है। ऐसा कोई भी भोजन जो उत्तेजक है, मनुष्य की चेतना को नुकसान पहुंचाना शुरू करता है। ऐसा कोई भी भोजन जो मनुष्य को किसी भी तरह की मूर्च्छा में, उत्तेजना में, किसी भी तरह की तीव्रता में, किसी भी तरह के विक्षेप में ले जाता हो, वह सभी नुकसान करता है। और उस सबका अंतिम नुकसान और गहरे से गहरा नुकसान नाभि—केंद्र पर पहुंचना शुरू हो जाता है।

यह शायद आपको खयाल न हो, सारी दुनिया में नेचरोपैथी, या नैसर्गिक उपचार—मिट्टी की पट्टियों का, शाकाहारी भोजन का, हलके भोजन का, पानी की पट्टियों का, टब—बाथ का प्रयोग करते हैं। लेकिन किसी भी नेचरोपैथ को अभी यह खयाल में बात नहीं आई है कि पानी की पट्टियों का, मिट्टी की पट्टियों का, या टब— बाथ का जो भी परिणाम होता है, वह पानी का उतना नहीं है, न मिट्टी का उतना है, बल्कि नाभि—केंद्र के ऊपर उनका जो परिणाम होता है, उसके कारण वे सारे प्रभाव पड़ते हैं। वे प्रभाव न तो मिट्टी के हैं उतने, न पानी के हैं, न टब—बाथ के हैं। लेकिन ये सारी चीजें नाभि—केंद्र की छिपी हुई ऊर्जा को जिस भांति प्रभावित करती हैं और वह यदि जाग्रत हो जाए तो मनुष्य के जीवन में स्वास्थ्य का अवतरण शुरू हो जाता है।

लेकिन अभी नेचरोपैथी को इसका कोई खयाल नहीं है। वे सोचते हैं कि शायद मिट्टी की पट्टी चढ़ाने से यह फायदा हो रहा है, पानी में बिठाने से यह फायदा हो रहा है, पेट पर कपड़े की गीली पट्टी लगाने से यह फायदा हो रहा है! इसके फायदे हैं, लेकिन मौलिक फायदा तो नाभि—केंद्र के सुप्त केंद्रों के जागरण से शुरू होता है। यह जो नाभि—केंद्र है, इसके ऊपर अगर अनाचार किया जाए, इस नाभि—केंद्र के ऊपर अगर गलत आहार, गलत भोजन किया जाए, तो वह धीरे— धीरे केंद्र सुप्त होता है और उसकी ऊर्जा क्षीण होती है। वह धीरे— धीरे केंद्र सोता है। अंततः वह करीब—करीब सो जाता है। उसका हमें कोई पता ही नहीं चलता कि वह भी कोई केंद्र है। हमें फिर दो ही केंद्रों का पता चलता रहता है। एक तो मस्तिष्क में, जहां विचार दौड़ते रहते हैं और एक थोड़े हृदय में, जहां भावनाएं दौड़ती रहती हैं। उसके नीचे हमारे कोई संबंध नहीं रह जाते। जितना हलका आहार होगा, जितना कम बोझिल आहार होगा, शरीर के ऊपर जो बोझ न लाता हो, उतना ही कीमती और अर्थपूर्ण आपकी अंतर्यात्रा प्रारंभ होगी।

तो सम्यक आहार का पहला तो ध्यान रखना यह है कि वह उत्तेजक न हो, मादक न हो, वह भारी न हो। ठीक भोजन के बाद आपको बोझिलता और भारीपन अनुभव नहीं होना चाहिए। लेकिन शायद भोजन के बाद हम सभी को भारीपन और बोझिलता अनुभव होती है। तो हम गलत भोजन कर रहे हैं, यह हमें जान लेना चाहिए।

एक बहुत बड़े डॉक्टर ने, केनेथ वाकर ने अपनी आत्म—कथा में लिखा है कि मैं अपने जीवन भर के अनुभव से यह कहता हूं कि लोग जो भोजन करते हैं, उनमें से आधे भोजन से उनका पेट भरता है और आधे भोजनों से हम डॉक्टरों का पेट भरता है। अगर वे आधा भोजन करें, तो वे बीमार ही नहीं पड़ेंगे और हम डॉक्टरों की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी।

कुछ लोग इसलिए बीमार रहते हैं कि उन्हें पूरा भोजन नहीं मिलता। और कुछ लोग इसलिए बीमार रहते हैं कि उन्हें ज्यादा भोजन मिल जाता है। कुछ लोग भूख से मरते हैं, कुछ लोग भोजन से मरते हैं। और भोजन से मरने वालों की संख्या भूख से मरने वालों की संख्या से हमेशा ज्यादा रही है। भूख से मरने वाले बहुत कम लोग हैं। एक आदमी भूखा भी रहना चाहे तो कम से कम तीन महीने तक उसके मरने की बहुत कम संभावना है। तीन महीने तक तो कोई भी आदमी भूखा रह सकता है। लेकिन एक आदमी अगर तीन महीने तक अति भोजन करे, तो कोई हालत में जिंदा नहीं रह सकता है।

लेकिन ऐसे—ऐसे लोग हुए हैं कि जिनका खयाल ही हमें हैरानी से भर देता है। नीरो हुआ है एक बहुत बड़ा बादशाह। उसने दो डॉक्टर लगा रखे थे कि वह भोजन करने के बाद उसे वॉमिट करवा दें, उसे उल्टी करवा दें, ताकि दिन में वह कम से कम पंद्रह—बीस बार भोजन करने का आनंद ले सके। तो वह खाना खाता, फिर दवा देकर उसे उलटी करवा दी जाती, ताकि वह फिर से भोजन का आनंद ले सके!

हम भी क्या कर रहे हैं? उसने डॉक्टर घर रख छोड़े थे, वह बादशाह था। हमने पड़ोस में बसा रखे हैं, हम बादशाह नहीं हैं। वह रोज उलटी करवा लेता था, हम दो—चार महीने में करवाते हैं। लेकिन हम करवाते क्या हैं? हम गलत खाकर इकट्ठा कर लेते हैं, फिर डॉक्टर उसको साफ करता है। फिर हम गलत खाना शुरू कर देते हैं। वह होशियार आदमी था, उसने रोज ही व्यवस्था कर ली थी। हम दों—तीन महीने में करते हैं। अगर हम भी बादशाह होते तो हम भी ऐसा ही करते। यह हमारी मजबूरी है, हमारे पास इतनी सुविधा नहीं है, तो हम इतना नहीं कर पाते। नीरो पर हमें हंसी आती है, लेकिन हम सब छोटी—मोटी मात्रा में नीरो से भिन्न नहीं हैं।

यह जो, यह जो हमारी असम्यक दृष्टि है भोजन के प्रति, यह भारी पड़ती चली जा रही है। यह बहुत महंगी पड़ती चली जा रही है। और यह उस जगह हमको पहुंचा दिए है, जहां कि हम किसी तरह जिंदा हैं। भोजन हमारा हमें स्वास्थ्य लाता हुआ नहीं मालूम पड़ता, बल्कि भोजन बीमारी लाता हुआ मालूम पड़ता है। और जब भोजन बीमारी लाने लगे तो आश्चर्य की घटना शुरू हो गई।

यह वैसे ही है कि सूरज सुबह निकले और अंधकार हो जाए। यह उतनी ही आकस्मिक और आश्चर्यजनक घटना है। लेकिन दुनिया के सारे चिकित्सकों का मत यह है कि आदमी की अधिकतम बीमारियां उसके गलत भोजन की बीमारियां हैं।

तो पहली बात, प्रत्येक व्यक्ति को इस संबंध में बहुत बोध और होश से चलना चाहिए—साधक के लिए मैं कह रहा हूं यह—साधक को यह ध्यान में रखना जरूरी है कि वह क्या खाता है, कितना खाता है और उसके परिणाम उसके शरीर पर क्या हैं? और अगर एक आदमी दो—चार महीने ध्यानपूर्वक प्रयोग करे, तो वह अपने योग्य, अपने शरीर को समता और शांति और स्वास्थ्य देने वाले भोजन की तलाश जरूर कर लेगा। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन हम ध्यान ही नहीं देते हैं, इसलिए हम कभी तलाश ही नहीं कर पाते। हम कभी खोज ही नहीं पाते।

दूसरी बात, भोजन के संबंध में, जो हम खाते हैं, उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम उसे किस भाव—दशा में खाते हैं। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। आप क्या खाते हैं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह महत्वपूर्ण है कि आप किस भाव—दशा में खाते हैं। आप आनंदित खाते हैं, या दुखी, उदास और चिंता से भरे हुए खाते हैं। अगर आप चिंता से खा रहे हैं, तो श्रेष्ठतम भोजन के परिणाम भी पायजनस होंगे, जहरीले होंगे। और अगर आप आनंद से खा रहे हैं, तो कई बार संभावना भी है कि जहर भी आप पर पूरे परिणाम न ला पाए। इसकी बहुत संभावना है। आप कैसे खाते हैं, किस चित्त—दशा में?

रूस में एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक था पीछे, पावलफ। उसने जानवरों पर कुछ प्रयोग किए और वह उस नतीजे पर पहुंचा, जो बड़े हैरानी का है। वह कुछ कुत्तों पर प्रयोग कर रहा था, कुछ बिल्लियों पर प्रयोग कर रहा था। उसने एक बिल्ली को भोजन दिया और सामने उसके एक्सरे मशीन लगा रखी थी, जिससे वह देख रहा था कि उस— उस बिल्ली के पेट में क्या हो रहा है भोजन के बाद। भोजन पेट में गया और भोजन के जाते ही पेट ने उस भोजन को पचाने वाले रस छोड़े। तभी एक कुत्ते को भी खिड़की के भीतर ले आया गया। कुत्ता भौंका, बिल्ली देख कर डर गई और एक्सरे की मशीन ने बताया कि उसके रस भीतर छूटने बंद हो गए! पेट बंद हो गया, सिकुड़ गया!

फिर कुत्ते को बाहर निकाल दिया गया, लेकिन छह घंटे तक पेट उसी हालत में पड़ा रहा! फिर भोजन के पचाने की क्रिया शुरू नहीं हुई! और छह घंटे में भोजन सब शांत हो गया। और छह घंटे के बाद जब रस छूटने शुरू हुए तो वह भोजन सब ठंडा हो चुका था। उस भोजन को पचाना कठिन हो गया था। बिल्ली के मन में चिंता पकड़ गई कुत्ते की मौजूदगी और पेट ने अपना काम बंद कर दिया।

हमारी हालत क्या होगी? हम तो चिंता में ही चौबीस घंटे जीते हैं। तो हम जो भोजन करते होंगे, वह कैसे पच जाता है यह मिरेकल है, यह बिलकुल चमत्कार है। यह भगवान कैसे करता है, हमारे बावजूद करता है यह। हमारी कोई इच्छा उसके पचने की नहीं है। यह कैसे पच जाता है, यह बिलकुल आश्चर्य है! और हम कैसे जिंदा रह लेते हैं, यह भी एक आश्चर्य है! भाव—दशा— आनंदपूर्ण, प्रसादपूर्ण निश्चित ही होनी चाहिए।

लेकिन हमारे घरों में हमारे भोजन की जो टेबल है या हमारा चौका जो है, वह सबसे ज्यादा विषादपूर्ण अवस्था में है। पत्नी दिन भर प्रतीक्षा करती है कि पति कब घर खाने आ जाए। चौबीस घंटे का जो भी रोग और बीमारी इकट्ठी हो गई है, वह पति की थाली पर ही उसकी निकलती है। और उसे पता नहीं कि वह दुश्मन का काम कर रही है। उसे पता नहीं, वह जहर डाल रही है थाली में।

और पति भी घबड़ाया हुआ, दिन भर की चिंता से भरा हुआ थाली पर किसी तरह भोजन को पेट में डाल कर हट जाता है! उसे पता नहीं है कि एक अत्यंत प्रार्थनापूर्ण कृत्य था, जो उसने इतनी जल्दी में किया है और भाग खड़ा हुआ है। यह कोई ऐसा कृत्य नहीं था कि जल्दी में किया जाए। यह उसी तरह किए जाने योग्य था, जैसे कोई मंदिर में प्रवेश करता है, जैसे कोई प्रार्थना करने बैठता है, जैसे कोई वीणा बजाने बैठता है। जैसे कोई किसी को प्रेम करता है और उसे एक गीत सुनाता है। यह उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था। वह शरीर के लिए भोजन पहुंचा रहा था। यह अत्यंत आनंद की भाव—दशा में ही पहुंचाया जाना चाहिए। यह एक प्रेमपूर्ण और प्रार्थनापूर्ण कृत्य होना चाहिए।

जितने आनंद की, जितने निश्चित और जितने उल्लास से भरी भाव—दशा में कोई भोजन ले सकता है, उतना ही उसका भोजन सम्यक होता चला जाता है।

हिंसक भोजन यही नहीं है कि कोई आदमी मांसाहार करता हो। हिंसक भोजन यह भी है कि कोई आदमी क्रोध से आहार करता हो। ये दोनों ही वायलेट हैं, ये दोनों ही हिंसक हैं। क्रोध से भोजन करते वक्त, दुख में, चिंता में भोजन करते वक्त भी आदमी हिंसक आहार ही कर रहा है। क्योंकि उसे इस बात का पता ही नहीं है कि वह जब किसी और का मांस लाकर खा लेता है, तब तो हिंसक होता ही है, लेकिन जब क्रोध और चिंता में उसका अपना मांस भीतर जलता हो, तब वह जो भोजन कर रहा है, वह भी अहिंसक नहीं हो सकता है। वहां भी हिंसा मौजूद है।

सम्यक आहार का दूसरा हिस्सा है कि आप अत्यंत शांत, अत्यंत आनंदपूर्ण अवस्था में भोजन करें। और अगर ऐसी अवस्था न मिल पाए, तो उचित है कि थोड़ी देर भूखे रह जाएं, उस अवस्था की प्रतीक्षा करें। जब मन पूरा तैयार हो, तभी भोजन पर उपस्थित होना जरूरी है। कितनी देर मन तैयार नहीं होगा? मन के तैयार होने का अगर खयाल हो, तो एक दिन मन भूखा रहेगा, कितनी देर भूखा रहेगा? मन को तैयार होना पड़ेगा। मन तैयार हो जाता है, लेकिन हमने कभी उसकी फिकर नहीं की है। हमने भोजन डाल लेने को बिलकुल मैकेनिकल, एक यांत्रिक क्रिया बना रखी है कि शरीर में भोजन डाल देना है और उठ जाना है। वह कोई साइकोलॉजिकल प्रोसेस, वह कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं रही है। यह घातक बात है।

शरीर के तल पर सम्यक आहार स्वास्थ्यपूर्ण हो, अनुत्तेजनापूर्ण हो, अहिंसक हो और चित्त के आधार पर आनंदपूर्ण चित्त की दशा हो, प्रसादपूर्ण मन हो, प्रसन्न हो, और आत्मा के तल पर कृतज्ञता का बोध हो, धन्यवाद का भाव हो। ये तीन बातें भोजन को सम्यक बनाती हैं।

मुझे भोजन उपलब्ध हुआ है, यह बहुत बड़ी धन्यता है। मुझे एक दिन और जीने को मिला है, यह बहुत बड़ा ग्रेटिटयूड है। आज सुबह मैं फिर जीवित उठ आया हूं। आज फिर सूरज ने रोशनी की है। आज फिर चांद मुझे देखने को मिलेगा। आज मैं फिर जीवित हूं। जरूरी नहीं था कि मैं आज जीवित होता। आज मैं कब में भी हो सकता था, लेकिन आज मुझे फिर जीवन मिला है। और मेरे द्वारा कुछ भी कमाई नहीं की गई है, जीवन पाने को। जीवन मुझे मुफ्त में मिला है। इसके लिए कम से कम धन्यवाद का, मन में अनुग्रह का, ग्रेटिटयूड का कोई भाव होना चाहिए।

भोजन हम कर रहे हैं, पानी हम पी रहे हैं, श्वास हम ले रहे हैं, इस सबके प्रति अनुग्रह का बोध होना चाहिए। समस्त जीवन के प्रति, समस्त जगत के प्रति, समस्त सृष्टि के प्रति, समस्त प्रकृति के प्रति, परमात्मा के प्रति एक अनुग्रह का बोध होना चाहिए कि मुझे एक दिन और जीवन का मिला है। मुझे एक दिन और भोजन मिला है। मैंने एक दिन और सूरज देखा। मैंने आज और फूल खिले देखे। आज मैं और जीवित था।

रवींद्रनाथ की मृत्यु आई, उसके दो दिन पहले उन्होंने कहा—उन्होंने कहा कि हे परमात्मा, मैं कितना अनुगृहीत हूं कैसे कहूं! तूने मुझे जीवन दिया, जिसे जीवन पाने की कोई भी पात्रता न थी। तूने मुझे श्वासें दीं, जिसके श्वास पाने का कोई अधिकार न था। तूने मुझे सौंदर्य के, आनंद के अनुभव दिए, जिनके लिए मैंने कोई भी कमाई न की थी। तो मैं धन्य रहा हूं और तेरे बोझ से, अनुग्रह के बोझ से दब गया हूं। और अगर तेरे इस जीवन में मैंने कोई दुख पाया हो, कोई पीड़ा पाई हो, कोई चिंता पाई हो, तो वह मेरा कसूर रहा होगा। तेरा जीवन तो बहुत—बहुत आनंदपूर्ण था। वह मेरी कोई भूल रही होगी। तो मैं नहीं कहता हूं तुझसे कि मुझे मुक्ति दे दे जीवन से। अगर तू मुझे फिर से योग्य समझे तो बार—बार मुझे जीवन में भेज देना। तेरा जीवन अत्यंत आनंदपूर्ण था और मैं अनुगृहीत हूं।

यह जो भाव है, यह जो कृतज्ञता का भाव है, वह समस्त जीवन के साथ संयुक्त होना चाहिए। आहार के साथ तो बहुत विशेष रूप से। तो ही आहार सम्यक हो पाता है।

दूसरी बात है सम्यक श्रम। वह भी जीवन से विच्छिन्न हो गया है, वह भी अलग हो गया है। श्रम एक लज्जापूर्ण कृत्य हो गया है, वह एक शर्म की बात हो गई है। पश्चिम के एक विचारक आल्वेयर कामू ने अपने एक पत्र में मजाक में लिखा है कि एक जमाना ऐसा भी आएगा कि लोग अपना प्रेम भी नौकर के द्वारा करवा लेंगे। अगर किसी को किसी से प्रेम हो जाएगा, तो एक नौकर लगा देगा बीच में कि तू मेरी तरफ से प्रेम कर आ। यह संभावना किसी दिन घट सकती है। क्योंकि और सब तो हम दूसरों से करवाना शुरू कर दिए हैं, सिर्फ प्रेम भर एक बात रह गई है, जो हम खुद ही करते हैं।

प्रार्थना हम दूसरे से करवाते हैं। एक पुरोहित को रखवा लेते हैं। कहते हैं, हमारी तरफ से प्रार्थना कर दो, हमारी तरफ से यज्ञ कर दो। मंदिर में एक पुजारी पाल लेते हैं, उससे कहते हैं कि तुम हमारी तरफ से पूजा कर देना। प्रार्थना और पूजा भी हम नौकरों से करवा लेते हैं! तो कोई आश्चर्य नहीं है कि जब परमात्मा से प्रेम का कृत्य हम नौकरों से करवा लेते हैं, तो कोई बहुत कठिन नहीं है कि किसी दिन समझदार आदमी अपना प्रेम भी नौकरों से करवा लें। इसमें कौन सी कठिनाई है? और जो नहीं नौकरों से करवा सकेंगे, वे लज्जित होंगे कि हम गरीब आदमी हैं, हमको खुद ही अपना प्रेम करना पड़ता है। ठीक भी है, यह संभव हो सकता है। क्योंकि जीवन में और बहुत कुछ महत्वपूर्ण है, जो हमने नौकरों से करवाना शुरू कर दिया है! और हमें इस बात का पता ही नहीं है कि उसको खोकर हमने क्या खो दिया है।

सारे जीवन की जो भी शक्ति है, वह सब खो गई है। क्योंकि मनुष्य का शरीर, मनुष्य के प्राण किसी विशिष्ट श्रम के लिए निर्मित हैं और उस सारे श्रम से उसे खाली छोड़ दिया गया है। सम्यक श्रम भी मनुष्य की चेतना और ऊर्जा को जगाने के लिए अनिवार्य हिस्सा है।

अब्राहम लिंकन एक दिन सुबह—सुबह अपने घर बैठा अपने जूतों पर पॉलिश करता था। उसका एक मित्र आया और उस मित्र ने कहा लिंकन, यह क्या करते हो? तुम खुद ही अपने जूतों पर पॉलिश करते हो? लिंकन ने कहा तुमने मुझे हैरानी में डाल दिया। तुम क्या दूसरों के जूतों पर पॉलिश करते हो? मैं अपने ही जूतों पर पॉलिश कर रहा हूं। तुम क्या दूसरों के जूतों पर पॉलिश करते हो? उसने कहा कि नहीं—नहीं, मैं तो दूसरों से करवाता हूं। लिंकन ने कहा दूसरों के जूतों पर पॉलिश करने से भी बुरी बात यह है कि तुम किसी आदमी से जूते पर पॉलिश करवाओ।

इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि जीवन से सीधे संबंध हम खो रहे हैं। जीवन के साथ हमारे सीधे संबंध श्रम के संबंध हैं। प्रकृति के साथ हमारे सीधे संबंध हमारे श्रम के संबंध हैं। कनफ्यूशियस के जमाने में—कोई तीन हजार वर्ष पहले—कनक्यूशियस एक गांव में घूमने गया था। उसने एक बगीचे में एक माली को देखा। एक का माली कुएं से पानी खींच रहा है। बूढ़े माली का कुएं से पानी खींचना बड़ा कष्टपूर्ण है। वह बुड्डा लगा हुआ है पानी को……जहां बैल लगाए जाते हैं, वहां बुडु[ लगा हुआ है और उसका जवान लड़का लगा हुआ है। वे दोनों पानी खींच रहे हैं! वह बूढ़ा बहुत का है।

कनक्यूशियस को खयाल हुआ कि क्या इस बूढ़े को अब तक पता नहीं है कि बैलों या घोड़ों से पानी खींचा जाने लगा है। यह खुद ही लगा हुआ खींच रहा है। यह कहां के पुराने ढंग को अख्तियार किए हुए है। तो वह के आदमी के पास कनक्यूशियस गया और उससे बोला कि मेरे मित्र! क्या तुम्हें पता नहीं है, नई ईजाद हो गई है। लोग घोड़े और बैलों को जोत कर पानी खींचते हैं, तुम खुद लगे हुए हो?

उस के ने कहा धीरे बोलो, धीरे बोलो! क्योंकि मुझे तो कुछ खतरा नहीं है, लेकिन मेरा जवान लड़का न सुन ले।

कनक्यूशियस ने कहा तुम्हारा मतलब?

उस के ने कहा मुझे सब ईजाद पता है, लेकिन सब ईजाद आदमी को श्रम से दूर करने वाली है। और मैं नहीं चाहता कि मेरा लड़का श्रम से दूर हो जाए। क्योंकि जिस दिन वह श्रम से दूर होगा, उसी दिन जीवन से भी दूर हो जाएगा।

जीवन और श्रम समानार्थक हैं। जीवन और श्रम एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन धीरे— धीरे हम उनको धन्यभागी कहने लगे हैं, जिनको श्रम नहीं करना पड़ता है और उनको अभागे कहने लगे हैं, जिनको श्रम करना पड़ता है! और यह हुआ भी। एक अर्थ में बहुत से लोगों ने श्रम करना छोड़ दिया, तो कुछ लोगों पर बहुत श्रम पड़ गया। बहुत श्रम प्राण ले लेता है, कम श्रम भी प्राण ले लेता है।

इसलिए मैंने कहा सम्यक श्रम। श्रम का ठीक—ठीक विभाजन।

हर आदमी के हाथ में श्रम होना चाहिए। और जितनी तीव्रता से और जितने आनंद से और जितने अहोभाव से कोई आदमी श्रम के जीवन में प्रवृत्त होगा, उतना ही पाएगा कि उसकी जीवन— धारा मस्तिष्क से उतर कर नाभि के करीब आनी शुरू हो गई है। क्योंकि श्रम के लिए मस्तिष्क की कोई जरूरत नहीं होती। श्रम के लिए हृदय की भी कोई जरूरत नहीं होती। श्रम तो सीधा नाभि से ही ऊर्जा को ग्रहण करता है और निकलता है।

थोड़ा श्रम, ठीक आहार के साथ—साथ थोड़ा श्रम अत्यंत आवश्यक है। और यह इसलिए नहीं कि यह किसी और के हित में है कि आप गरीब की सेवा करें तो यह गरीब के हित में है, कि आप जाकर गांव में खेती— बाड़ी करें, तो यह किसानों के हित में है, कि आप कोई श्रम करेंगे, तो बहुत बड़ी समाज—सेवा कर रहे हैं। झूठी हैं ये बातें। यह आपके हित में है और किसी के हित में नहीं है। किसी और के हित का इससे कोई संबंध नहीं है। किसी और का हित इससे हो जाए, वह बिलकुल दूसरी बात है, लेकिन यह आपके हित में है।

चर्चिल रिटायर हो गया था पीछे, तो मेरे एक मित्र उससे मिलने गए, और उसके घर गए। वह अपनी बगिया में उस बुढ़ापे में खोद कर कुछ पौधे लगा रहा था। तो मेरे मित्र ने उनसे कुछ राजनीति के प्रश्न पूछे। चर्चिल ने कहा छोड़ो भी। वह बात खत्म हो गई। अगर अब मुझसे कुछ पूछना है, तो दो चीजों के बाबत पूछ सकते हो। अगर बाइबिल के बाबत कुछ पूछना है, तो इधर में पढ़ता हूं और बागवानी के संबंध में पूछना है, तो इधर मैं बागवानी करता हूं। बाकी अब राजनीति के संबंध में मुझे कोई— कोई मतलब नहीं है। हो गई वह दौड़ खत्म। अब मैं श्रम कर रहा हूं और प्रार्थना कर रहा हूं।

वे लौट कर मुझसे कहने लगे कि मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि चर्चिल कैसा आदमी है। मैं सोचता था, कुछ उत्तर देगा वह। उसने कहा, अब मैं श्रम कर रहा हूं और प्रार्थना कर रहा हूं।

मैंने उनसे कहा उसने दो शब्द पुनरुक्त किए, रिपीटीशन किया। श्रम और प्रार्थना एक ही अर्थ रखते हैं, दोनों पर्यायवाची हैं। और जिस दिन श्रम प्रार्थना हो जाता है और जिस दिन प्रार्थना श्रम बन जाती है, उस दिन सम्यक श्रम उपलब्ध होता है।

थोड़ा श्रम अत्यंत आवश्यक है। लेकिन श्रम की तरफ ध्यान नहीं गया। नहीं गया भारत के संन्यासियों का भी ध्यान, क्योंकि उन्होंने श्रम से अपने हाथ अलग खींच लिए। श्रम करने का उन्हें सवाल नहीं था। वे दूर हट गए। धनपति इसलिए दूर हट गया कि उसके पास धन था, वह श्रम खरीद सकता था। संन्यासी इसलिए दूर हट गए कि उन्हें संसार से कुछ लेना—देना न था, उन्हें कुछ पैदा न करना था, पैसा न कमाना था, उन्हें श्रम की जरूरत क्या थी। परिणाम यह हुआ कि समाज के दो आदरणीय वर्ग श्रम से दूर हट गए। तो श्रम जिनके हाथ में रह गया, वे धीरे— धीरे अनादरणीय हो गए।

श्रम का— साधक की दृष्टि से कह रहा हूं मैं— अत्यंत बहुमूल्य अर्थ और उपादेयता है। इसलिए नहीं कि उससे आप कुछ पैदा कर लेंगे, बल्कि इसलिए कि जितना आप श्रम में प्रवृत्त होंगे, आपकी चेतना— धारा केंद्रीय होने लगेगी, मस्तिष्क से नीचे उतरनी शुरू होगी। उत्पादक ही हो श्रम यह भी जरूरी नहीं है। अनुत्पादक भी हो सकता है। व्यायाम भी हो सकता है। लेकिन कुछ श्रम शरीर की पूरी स्‍फूर्ति और प्राणों की पूरी सजगता के लिए और चित्त की पूरी जागृति के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह दूसरा हिस्सा है।

लेकिन इस हिस्से में भी भूल हो सकती है। जैसी भोजन के हिस्से में भूल होती है, या तो कोई कम भोजन करता है या कोई ज्यादा भोजन कर लेता है। वैसी भूल यहां भी हो सकती है। या तो कोई श्रम नहीं करता है या फिर ज्यादा श्रम कर सकता है। पहलवान ज्यादा श्रम कर लेते हैं। वह रुग्ण अवस्था है। पहलवान कोई स्वस्थ आदमी नहीं है। पहलवान शरीर पर अति भार डाल रहा है और शरीर के साथ बलात्कार कर रहा है। तो शरीर के साथ बलात्कार किया जाए, तो शरीर के कुछ अंग, कुछ मसल्स अधिक विकसित हो सकते हैं। लेकिन कोई पहलवान ज्यादा नहीं जीता! और कोई पहलवान स्वस्थ नहीं मरता! यह आपको पता है?

चाहे गामा हो, चाहे सैंडो हो, चाहे दुनिया के कोई बड़े से बड़े शरीर के पहलवान हों, वे सभी अस्वस्थ मरते हैं, जल्दी मरते हैं और खतरनाक बीमारियों से मरते हैं। शरीर के साथ बलात्कार मसल्स को फुला सकता है, शरीर को दर्शनीय बना सकता है, एकिझबीशन के योग्य बना सकता है, लेकिन एक्‍झिबीशन, प्रदर्शन और जिंदगी में बड़ा फर्क है। जीने में और स्वस्थ होने में और प्रदर्शन—योग्य होने में बड़ा फर्क है।

तो न तो कम और न ज्यादा—हर व्यक्ति को खोज लेना चाहिए अपने योग्य, अपने शरीर के योग्य कि वह कितना श्रम करे कि ज्यादा स्वस्थ और ताजा जी सके। जितनी ताजगी होगी, जितनी भीतर स्वस्थ हवा होगी, जितनी श्वास—श्वास आनंदपूर्ण होगी, उतना ही जीवन आतरिक होने में सक्षम होता है।

सिमोन वेल ने, एक फ्रेंच विचारिका ने एक बड़ी अदभुत बात अपनी आत्म—कथा में लिखी है। उसने लिखा है कि मैं तीस वर्ष की उम्र तक हमेशा बीमार थी। मेरे सिर में दर्द था, अस्वस्थ थी। लेकिन यह तो मुझे चालीस साल की उम्र में पता चला कि मैं तीस साल तक साथ—साथ नास्तिक भी थी। और जब मैं स्वस्थ हुई तो मुझे पता नहीं कि मैं कब आस्तिक हो गई। और यह तो बाद में सोचने पर मुझे दिखाई पड़ा कि मेरे बीमार और रुग्ण होने का संबंध भी मेरी नास्तिकता से था।

जो आदमी रुग्ण और बीमार है, वह परमात्मा के प्रति धन्यवाद से भरा हुआ नहीं हो सकता। उसके मन में थैंकफुलनेस नहीं हो सकती परमात्मा के प्रति। उसके मन में क्रोध ही होता है। और जिसके प्रति क्रोध हो, उसको स्वीकार करना असंभव है। और जिसके प्रति क्रोध हो, वह तो न हो, यही भावना होती है कि वह न हो।

तो अगर जीवन ठीक श्रम और ठीक व्यायाम पर एक विशिष्ट स्वास्थ्य के संतुलन को नहीं पाता है, तो आपके चित्त में जीवन के मूल्यों के प्रति एक निषेध का भाव, एक निगेटिव वैस्थू एक विरोध का भाव, एक विद्रोह का भाव होना स्वाभाविक है।

सम्यक श्रम परम आस्तिकता की सीढ़ियों में एक अनिवार्य सीढ़ी है।

तीसरी बात है सम्यक निद्रा।

भोजन अव्यवस्थित हुआ है, श्रम अराजक हो गया है, और निद्रा की तो बिलकुल ही हत्या की गई है। मनुष्य—जाति की सभ्यता के विकास में सबसे ज्यादा जिस चीज को हानि पहुंची है वह निद्रा है। जिस दिन से आदमी ने प्रकाश की ईजाद की उसी दिन निद्रा के साथ उपद्रव शुरू हो गया। और फिर जैसे—जैसे आदमी के हाथ में साधन आते गए उसे ऐसा लगने लगा कि निद्रा एक अनावश्यक बात है। समय खराब होता है जितनी देर हम नींद में रहते हैं। समय फिजूल गया। तो जितनी कम नींद से चल जाए उतना अच्छा। क्योंकि नींद का भी कोई जीवन की गहरी प्रक्रियाओं में दान है, कंट्रीब्यूशन है यह तो खयाल में नहीं आता। नींद का समय तो व्यर्थ गया समय है। तो जितने कम सो लें उतना अच्छा। जितने जल्दी यह नींद से निपटारा हो जाए उतना अच्छा।

एक तरफ तो इस तरह के लोग थे जिन्होंने नींद को कम करने की दिशा शुरू की। और दूसरी तरफ साधु— संन्यासी थे, उनको ऐसा लगा कि नींद जो है, मूर्च्छा जो है, यह शायद आत्म—शान की या आत्म—अवस्था की उलटी अवस्था है निद्रा। तो निद्रा लेना ठीक नहीं है। तो जितनी कम नींद ली जाए उतना ही अच्छा है। और भी साधुओं को एक कठिनाई थी कि उन्होंने चित्त में बहुत से सप्रेशंस इकट्ठे कर लिए, बहुत से दमन इकट्ठे कर लिए। नींद में उनके दमन उठ कर दिखाई पड़ने लगे, सपनों में आने लगे। तो नींद से एक भय पैदा हो गया। क्योंकि नींद में वे सारी बातें आने लगीं जिनको दिन में उन्होंने अपने से दूर रखा है। जिन स्त्रियों को छोड़ कर वे जंगल में भाग आए हैं, नींद में वे स्त्रियां मौजूद होने लगीं, वे सपनों में दिखाई पड़ने लगीं। जिस धन को, जिस यश को छोड़ कर वे चले आए हैं, सपने में उनका पीछा करने लगा। तो उन्हें ऐसा लगा कि नींद तो बड़ी खतरनाक है। हमारे बस के बाहर है। तो जितनी कम नींद हो उतना अच्छा। तो साधुओं ने सारी दुनिया में एक हवा पैदा की कि नींद कुछ गैर—आध्यात्मिक, अन—स्‍प्रिचुअल बात है।

यह अत्यंत मूढतापूर्ण बात है। एक तरफ वे लोग थे जिन्होंने नींद का विरोध किया, क्योंकि ऐसा लगा फिजूल है नींद, इतना सोने की क्या जरूरत है, जितने देर हम जागेंगे उतना ही ठीक है। क्योंकि गणित और हिसाब लगाने वाले, स्टैटिक्स जोड्ने वाले लोग बड़े अदभुत हैं। उन्होंने हिसाब लगा लिया कि एक आदमी आठ घंटे सोता है, तो समझो कि दिन का तिहाई हिस्सा तो सोने में चला गया। और एक आदमी अगर साठ साल जीता है, तो बीस साल तो फिजूल गए। बीस साल बिलकुल बेकार चले गए। साठ साल की उम्र चालीस ही साल की रह गई। फिर उन्होंने और हिसाब लगा लिए—उन्होंने हिसाब लगा लिया कि एक आदमी कितनी देर में खाना खाता है, कितनी देर में कपड़े पहनता है, कितनी देर में दाढ़ी बनाता है, कितनी देर में स्नान करता है—सब हिसाब लगा कर उन्होंने बताया कि यह तो सब जिंदगी बेकार चली जाती है। आखिर में उतना समय कम करते चले गए, तो पता चला, कि दिखाई पड़ता है कि आदमी साठ साल जीआ—बीस साल नींद में चले गए, कुछ साल भोजन में चले गए, कुछ साल स्नान करने में चले गए, कुछ खाना खाने में चले गए, कुछ अखबार पढ़ने में चले गए। सब बेकार चला गया। जिंदगी में कुछ बचता नहीं। तो उन्होंने एक घबड़ाहट पैदा कर दी कि जितनी जिंदगी बचानी हो उतना इनमें कटौती करो। तो नींद सबसे ज्यादा समय ले लेती है आदमी का। तो इसमें कटौती कर दो। एक उन्होंने कटौती करवाई। और सारी दुनिया में एक नींद—विरोधी हवा फैला दी। दूसरी तरफ साधु—संन्यासियों ने नींद को अन—म्प्रिचुअल कह दिया कि नींद गैर—आध्यात्मिक है। तो कम से कम सोओ। वही उतना ज्यादा साधु है जो जितना कम सोता है। बिलकुल न सोए तो परम साधु है।

ये दो बातों ने नींद की हत्या की। और नींद की हत्या के साथ ही मनुष्य के जीवन के सारे गहरे केंद्र हिल गए, अव्यवस्थित हो गए, अपरूटेड हो गए। हमें पता ही नहीं चला कि मनुष्य के जीवन में जो इतना अस्वास्थ्य आया, इतना असंतुलन आया, उसके पीछे निद्रा की कमी काम कर गई।

जो आदमी ठीक से नहीं सो पाता, वह आदमी ठीक से जी ही नहीं सकता। निद्रा फिजूल नहीं है। आठ घंटे व्यर्थ नहीं जा रहे हैं। बल्कि आठ घंटे आप सोते हैं इसीलिए आप सोलह घंटे जाग पाते हैं, नहीं तो आप सोलह घंटे जाग नहीं सकते। वह आठ घंटों में जीवन—ऊर्जा इकट्ठी होती है, प्राण पुनरुज्जीवित होते हैं। और आपके मस्तिष्क के और हृदय के केंद्र शांत हो जाते हैं और नाभि के केंद्र से जीवन चलता है आठ घंटे तक। निद्रा में आप वापस प्रकृति के और परमात्मा के साथ एक हो गए होते हैं, इसलिए पुनरुज्जीवित होते हैं।

अगर किसी आदमी को सताना हो, टॉर्चर करना हो, तो उसे नींद से रोकना सबसे बढ़िया तरकीब है। हजारों साल में ईजाद की गई। उससे आगे नहीं बढ़ा जा सका अब तक। अभी भी रूस में या हिटलर ने जर्मनी में जिन कैदियों को सताया उनमें सबसे सताने की जो तरकीब काम में लाई गई वह नींद। सोने मत दो किसी कैदी को। बस उसकी जिंदगी में इतना टॉर्चर पैदा हो जाता है जिसका हिसाब नहीं। तो कैदियों के पास आदमी लगा छोड़े थे। सबसे पहले चीनियों ने ईजाद की थी यह बात, आज से दो हजार साल पहले—कि वे आदमी को सोने नहीं देते थे जिसको सताना हो। उन्होंने सबसे सस्ती तरकीब निकाली थी। एक कोठरी में उसको खड़ा कर देते थे, कोठरी इतनी संकरी होती थी कि वह हिल—डुल नहीं सकता था, न बैठ सकता था, न लेट सकता था। और उसके सिर पर बूंद—बूंद पानी टपकाते रहते ऊपर से। तो टप, टप, टप, वह उसके सिर पर पड़ता रहता। तो वह, और हिल—डुल सकता नहीं, बैठ सकता नहीं, लेट सकता नहीं। ज्यादा से ज्यादा बारह घंटे, सोलह घंटे, अठारह घंटे और आदमी चिल्लाने लगता, चीखने लगता कि मैं मर जाऊंगा, मुझे बचाओ, मुझे बाहर निकालो। वे कहते कि फिर बता दो जो बातें तुम छिपा रहे हो। तीन दिन से ज्यादा साहस से साहस वाला आदमी भी थक जाता।

इधर जर्मनी में हिटलर ने और स्टैलिन ने भी रूस में यही किया लाखों लोगों के साथ—कि उनको जगाए रखो, उनको सोने मत दो। इससे ज्यादा टॉर्चर किया ही नहीं जा सकता। किसी आदमी की हत्या कर दो, उससे उतनी पीड़ा नहीं होती, जितना उस आदमी को न सोने दो। क्योंकि सोकर ही वह जो खोया है उसे वापस पाता है। और अगर न सो पाए, न सो पाए, न सो पाए, तो खोता चला जाता है और वापस कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। वह रिक्त और खाली हो जाता है, एंप्टी हो जाता है।

हम सब करीब—करीब खाली जैसे लोग हैं। क्योंकि उपलब्ध करने के द्वार हमारे बंद और खोने के द्वार हमारे बढ़ते चले गए हैं।

नींद वापस लौटानी जरूरी है। और अगर सौ, दो सौ वर्षों के लिए इस सारी दुनिया में कोई कानूनी व्यवस्था की जा सके कि आदमी को मजबूरी में सो ही जाना पड़े, कोई और उपाय न रहे, तो मनुष्य—जाति के मानसिक स्वास्थ्य के लिए इससे बड़ा कोई कदम नहीं उठाया जा सकता। साधक के लिए तो बहुत ध्यान देना जरूरी है कि वह ठीक से सोए और काफी सोए। और यह भी समझ लेना जरूरी है कि सम्यक निद्रा हर आदमी के लिए अलग होगी। सभी आदमियों के लिए बराबर नहीं होगी। क्योंकि हर आदमी के शरीर की जरूरत अलग है, उम्र की जरूरत अलग है, और कई दूसरे तत्व हैं जिनकी जरूरत अलग है।

बच्चा जब मां के पेट में होता है चौबीस घंटे सोता है, क्योंकि उस वक्त बच्चे के सब स्नायु बन रहे होते हैं। पूरी नींद की जरूरत है। चौबीस घंटे सोया रहेगा तो ही ठीक से शरीर उसका विकसित हो पाएगा। जो बच्चे लंगडे—लूले पैदा हो जाते हैं या काने या लंगड़े, हो सकता है बीच—बीच में जग जाते हों या और कोई गड़बड़ हो जाती हो। हो सकता है किसी दिन वितान इस बात को समझ पाए कि जो बच्चे मां के पेट में ही किसी तरह से जग जाते हैं वे बच्चे अपंग हो जाएंगे, उनके कोई अंग विकसित होने से रह जाएंगे। चौबीस घंटे पेट में सोया रहना जरूरी है, क्योंकि पूरा शरीर निर्मित होता है, पूरा शरीर विकसित होता है। नींद बहुत गहरी जरूरी है। तभी शरीर की सारी क्रियाएं काम कर सकती हैं। फिर बच्चा पैदा होता है, तो वह बीस घंटे सोता है। अभी उसका शरीर बन रहा है। फिर वह अठारह घंटे सोता है, फिर चौदह घंटे सोता है। अभी उसका शरीर बन रहा है। जैसे— जैसे उसका शरीर परिपक्व होता चला जाता है, वैसे—वैसे नींद कम हो जाती है। आखिर में वह आठ घंटे और छह घंटे के करीब थिर हो जाती है। फिर बूढ़े आदमी की नींद कम हो जाती है— और पांच घंटे, चार घंटे भी हो जाती है, तीन घंटे भी हो जाती है, क्योंकि के आदमी के शरीर में फिर बनने का उपक्रम बंद हो जाता है। फिर उसे वापस रोज उतनी नींद की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि अब उसकी मृत्यु करीब आ रही है। अगर वह उतना ही सोता रहे जितना बच्चा सोता है तो का आदमी भी मर नहीं सकता है, मरना मुश्किल हो जाए।

मरने के लिए जरूरी है कि नींद कम होती चली जाए। और जीवन के लिए जरूरी है कि नींद गहरी हो।

इसलिए बूढ़ा आदमी क्रमश: कम सोने लगता है। बच्चा ज्यादा सोता है। लेकिन अगर बूढ़े भी बच्चों के साथ वही व्यवहार करें जो खुद के साथ करते हैं तो खतरा हो जाता है। और के अक्सर करते हैं। बूढ़े बच्चों को भी का समझ कर व्यवहार करते हैं। उनको भी उठाते हैं कि उठो! तीन बज गए, चार बज गए, उठो! उनको पता नहीं कि तुम के हो, तुम चार बजे उठ गए हो, यह बिलकुल ठीक है। लेकिन बच्चे चार बजे नहीं उठ सकते। और उठाना गलत है। बच्चे की शरीर की प्रक्रियाओं को नुकसान पहुंचाना है। बच्चे के साथ बहुत अहितकर है यह बात।

एक बच्चा मुझसे कह रहा था कि मेरी मां भी बड़ी अजीब है। जब रात को मुझे नींद नहीं आती है, तब जबरदस्ती मुझे सुलाती है और जब मुझे नींद आती है सुबह, तब जबरदस्ती मुझे उठाती है। मेरी कुछ समझ में नहीं आता है कि जब मुझे नींद नहीं आती है, तब मुझे सुलाया जाता है, और जब मुझे नींद आती है तब मुझे उठाया जाता है! तो वह मुझसे बोला कि मेरी मां को आप समझा दें, दुनिया को आप समझाते हैं। मेरी मां की कुछ समझ में आ जाए तो अच्छा, यह उलटा ही क्यों करती है?

बच्चों के साथ को जैसा व्यवहार निरंतर होता है, हमें खयाल ही नहीं है। और फिर किताबों में लिखे हुए, बंधे हुए सूत्र हैं, स्टैंडर्ड सूत्र हैं, उनके अनुसार आदमी जीने लगता है!

आपको शायद पता न हो, नवीनतम खोज—बीन यह कहती है कि हर आदमी के लिए उठने का समय भी एक नहीं हो सकता। जैसा हमेशा कहा जाता है कि पांच बजे उठ आना सबके लिए हितकर है। यह बात बिलकुल ही अवैज्ञानिक और गलत है। सबके हित में नहीं है, कुछ लोगों के हित में हो सकता है, कुछ लोगों के अहित में हो सकता है।

चौबीस घंटे में कोई तीन घंटे के लिए शरीर का तापमान नीचे गिर जाता है हर आदमी का। और जिन तीन घंटों में तापमान नीचे गिरता है, वे ही तीन घंटे उसके लिए सबसे गहरी नींद के घंटे होते हैं। अगर उन तीन घंटों में उसे उठा दिया जाए तो उसका दिन भर खराब हो जाएगा। उसकी सारी ऊर्जा अस्त—व्यस्त हो जाएगी।

आमतौर से ये घंटे दो और पांच के बीच में होते हैं रात को। अधिकतम लोगों के ये तीन घंटे रात के दो बजे से लेकर और पांच बजे के बीच में होते हैं, लेकिन सभी के नहीं होते हैं। किन्हीं का छह बजे तक तापमान नीचे होता है। किन्हीं का सात बजे तक तापमान नीचे होता है। किन्हीं का चार बजे तापमान वापस लौटना शुरू हो जाता है। तो यह तापमान के बीच में अगर कोई उठ जाएगा तो उसके चौबीस घंटे खराब होंगे और दुष्परिणाम होंगे। जब उसका तापमान फिर से उठने लगता है, गिरा हुआ तापमान वापस उठने लगता है, तभी उठने का वक्त है।

आमतौर से यह ठीक है कि आदमी सूरज के उगने के साथ उठ आए, क्योंकि सूरज के उगने के साथ ही सबका तापमान बढ़ना शुरू हो जाता है। लेकिन यह नियम है। कुछ इसके अपवाद होते हैं, जिनके लिए हो सकता है कि सूरज के थोड़ी देर बाद तक भी लेटा रहना जरूरी हो, क्योंकि हर आदमी के शरीर का तापमान अलग क्रम से, अलग मात्रा से उठता है। तो हर आदमी को यह देख लेना चाहिए कि जितनी देर सोने के बाद और जग उठने के बाद मुझे स्वस्थ मालूम होता है, वही मेरे लिए नियम है—चाहे शास्त्र कुछ भी कहते हों, गुरु कुछ भी बताते हों, किसी की सुनने की जरा भी जरूरत नहीं है।

तो सम्यक निद्रा के लिए जितनी ज्यादा से ज्यादा गहरी और लंबी नींद ले सकें, वह लेना उचित है। लेकिन नींद लेने को कह रहा हूं बिस्तर पर पड़े रहने को नहीं कह रहा हूं। बिस्तर पर पड़े रहना नींद नहीं है। और जब आपके लिए स्वास्थ्यपूर्ण मालूम पड़े, तभी उठना आपके लिए नियम है।

आमतौर से सूरज के उगने के साथ यह घटना घटनी चाहिए। लेकिन हो सकता है कुछ को न घटती हो, तो उसमें घबड़ाने की, चिंतित होने की और अपने आप को पापी समझने की और नरक चले जाने के डर की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि कई जल्दी उठने वाले भी नरक चले जाते हैं और कई देर से उठने वाले भी स्वर्ग में निवास कर रहे हैं। कोई, इससे कोई संबंध आध्यात्मिकता और गैर—आध्यात्मिकता का नहीं है। लेकिन सम्यक निद्रा का, राइट स्लीप का जरूर संबंध है। तो वह हर व्यक्ति को अपना आयोजन खोज लेना चाहिए। एक तीन महीने तक हर व्यक्ति को श्रम पर, निद्रा पर और आहार पर प्रयोग करने चाहिए, और देखना चाहिए कि मेरे लिए सर्वाधिक स्वास्थ्यपूर्ण, सर्वाधिक शांतिपूर्ण, सर्वाधिक आनंदपूर्ण कौन से सूत्र हो सकते हैं।

और प्रत्येक व्यक्ति को अपने सूत्र खोज लेने चाहिए। कोई दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं, इसलिए कोई सामान्य नियम किसी के लिए कभी लागू नहीं होता है। और जब भी कोई सामान्य नियम लागू करने की कोशिश करता है तो उसके दुष्परिणाम होते हैं। एक—एक व्यक्ति इंडिविजुअल है। एक—एक व्यक्ति अनूठा, अद्वितीय और यूनीक है। उस जैसा वही है, उस जैसा कोई दूसरा आदमी जमीन पर कहीं भी नहीं है। इसलिए कोई नियम उसके लिए नियम नहीं हो सकता है, जब तक कि वह अपनी ही जीवन—प्रक्रिया से नियम को न खोज ले।

तो किताबें, शास्त्र और गुरु खतरनाक सिद्ध होते हैं, क्योंकि उनके पास रेडीमेड फार्मूला होते हैं, तैयार फार्मूला होते हैं। वे बता देते हैं कि इतने बजे उठना चाहिए, यह खाना चाहिए, यह नहीं खाना चाहिए, ऐसा सोना चाहिए, ऐसा करना चाहिए। ये रेडीमेड फार्मूला खतरनाक हैं। वे समझने के लिए ठीक हैं, लेकिन हर आदमी को अपने जीवन में अपनी व्यवस्था खोजनी पड़ती है।

हर आदमी को अपनी साधना खोजनी पड़ती है। हर आदमी को साधना का पथ स्वयं चल कर निर्मित करना होता है। कोई राजपथ नहीं है जो बना—बनाया है, जिस पर आप गए और चलने लगे। ऐसा कहीं कोई राजपथ नहीं है। साधना बिलकुल पगडंडी की भांति है और वह भी ऐसी पगडंडी की भांति, जो पहले से तैयार नहीं है; आप चलते हैं, जितना चलते हैं, उतनी ही तैयार होती है। और जितना आप चल लेते हैं, उतना आगे की समझ बढ़ जाती है और आगे के लिए निर्मित हो जाती है।

तो ये तीन सूत्र और ध्यान में ले लेने जरूरी हैं सम्यक आहार, सम्यक श्रम और सम्यक निद्रा।

अगर इन तीन सूत्रों पर ठीक से— ठीक—ठीक इन सूत्रों पर जीवन की गति हो, तो वह जिसे मैं नाभि—केंद्र कह रहा हूं जो कि द्वार है आत्मिक जीवन का, उसके खुलने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। और वह खुल जाए, उस द्वार के निकट हम पहुंच जाएं, तो एक बहुत ही अभिनव घटना घटती है, जिसका हमें सामान्य जीवन में कोई भी अनुभव नहीं है।

सांझ को मैं यहां से गया और एक मित्र मिले और उन्होंने कहा कि आप कहते हैं, वह तो ठीक है, लेकिन जब तक हमें संतोष न मिल जाए, तब तक बड़ा मुश्किल है। मैंने उनसे कुछ कहा नहीं। वे शायद सोचते हों कि मेरे कहने से संतोष मिल जाएगा तो बिलकुल गलती में हैं और समय खराब कर रहे हैं। अपनी तरफ से जो मुझे मेहनत करनी है, वह मैं कर देता हूं। लेकिन आपकी तरफ उससे बहुत बड़ी मेहनत शेष रह जाती है। वह अगर आप नहीं करते हैं तो मेरे कहने का कोई प्रयोजन नहीं, कोई अर्थ नहीं है।

मुझे निरंतर लोग कहते हैं कि हम यह चाहते हैं— शांति चाहते हैं, आनंद चाहते हैं, आत्मा चाहते हैं। आप तो सब चाहते हैं, लेकिन चाहने से जगत में कुछ भी नहीं मिलता है। अकेली चाह बिलकुल इंपोटेंट है, बिलकुल नपुंसक है, उसमें कोई शक्ति नहीं है। चाह के पीछे संकल्प और श्रम भी तो चाहिए। आप चाहते हैं यह तो ठीक है, लेकिन उस चाह के लिए आप कितना श्रम करते हैं, उस चाह के लिए आप कितने कदम उठाते हैं— आप क्या करते हैं अपनी चाह के लिए?

मेरे हिसाब में तो आप चाहते हैं, इसका एक ही सबूत है कि आप उस चाह के लिए क्या करके बताते हैं। नहीं तो कोई सबूत नहीं है कि आप चाहते भी हैं। जब कोई आदमी किसी चीज को चाहता है तो उसके लिए कुछ श्रम करके दिखाता है। वह श्रम ही इस बात की गवाही होता है कि उस आदमी ने चाहा कुछ। लेकिन आप कहते हैं कि चाहते तो हम हैं, लेकिन श्रम, उसके लिए कोई संकल्प, वह सब हमारे खयाल में नहीं है।

अंत में एक बात और दोहरा दूं। तीन केंद्रों की मैंने बात कही है बुद्धि का केंद्र मस्तिष्क, भाव का केंद्र हृदय। और नाभि? नाभि किसका केंद्र है? विचार का केंद्र है बुद्धि, भाव का केंद्र है हृदय। नाभि किसका केंद्र है? — नाभि संकल्प का केंद्र है, विल पावर का केंद्र है। नाभि जितनी सजग होगी, उतना ही संकल्प तीव्र होगा, विल फोर्स तीव्र होगी। उतना ही करने की दृढ़ता और बल और आत्म—ऊर्जा उपलब्ध होती है।

या इससे उलटा सोच लें। जितना आप संकल्प करेंगे, जितना करने का बल लेंगे, उतनी ही आपकी नाभि का केंद्र भी विकसित होगा। ये दोनों अंतर्निभर हैं, ये एक—दूसरे से संबंधित बातें हैं। जितना आप विचार करेंगे, उतनी बुद्धि विकसित होगी। जितना आप प्रेम करेंगे, उतना हृदय विकसित होगा। जितना आप संकल्प करेंगे, उतना आपकी— आपकी अंतर—ऊर्जा का केंद्रीय चक्र, वह जो केंद्रीय कमल है नाभि का, वह विकसित होता है।

एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूं।

एक फकीर— अंधा फकीर एक गांव में भीख मांग रहा था। उसके पास तो आंखें नहीं थीं, भीख मांगते हुए वह मस्जिद के द्वार पर पहुंच गया। मस्जिद के द्वार पर उसने हाथ फैलाया और मांगा कि मुझे कुछ मिल जाए, मैं भूखा हूं। पास से निकलते हुए लोगों ने कहा पागल! यह ऐसा घर नहीं है, जहां कोई भीख मिल सकेगी। यह तो मस्जिद है, यह तो मंदिर है। यहां कोई रहता ही नहीं है। तू कहां भीख मांग रहा है, यह तो मस्जिद है, यहां कुछ भी नहीं मिलेगा, और कहीं आगे बढ़।

वह फकीर हंसने लगा। और उसने कहा अगर भगवान के घर से कुछ नहीं मिलेगा तो फिर किस घर से मिलेगा? यह तो अंतिम घर आ गया, भूल से मैं अंतिम मकान के सामने आ गया। अब यहां से कैसे हटूं, और हटूं तो कहां जाऊं, क्योंकि इसके आगे कोई घर नहीं है। अब मैं यहीं रुक जाऊंगा और यहां से लेकर ही हटूगा।

लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा. पागल, यहां कोई रहता ही नहीं, तुझे देगा कौन?

उसने कहा यह सवाल नहीं है। लेकिन भगवान के घर से अगर खाली हाथ लौटना पड़ेगा, तो फिर हाथ कहां भरे जा सकेंगे? फिर तो कहीं हाथ नहीं भरे जा सकते। अब आ ही गया हूं इस द्वार पर तो हाथ भर के ही लौटूंगा।

वह फकीर वहीं रुक गया। और एक वर्ष तक उसके हाथ वैसे ही फैले रहे और उसके प्राण वैसे ही पुकार करते रहे। और गांव के लोग उसे पागल कहने लगे। और गांव के लोग उससे कहने लगे कि तू बिलकुल नासमझ है, तू कहां हाथ फैलाए बैठा हुआ है? यहां कुछ भी मिलने को नहीं है। लेकिन वह फकीर भी एक था, वह बैठा ही रहा, और बैठा ही रहा, और बैठा ही रहा!

और एक वर्ष बीत जाने के बाद उस गांव के लोगों ने देखा कि शायद उस फकीर को कुछ मिल गया है। उसके चेहरे की रौनक बदल गई है। उसके आस—पास एक शांति की हवा उठने लगी, उसके आस—पास एक रोशनी खड़ी हो गई, एक सुगंध बहने लगी। वह आदमी नाचने लगा। जिसकी आंखों में आंसू थे, वहां मुस्कुराहट आ गई। वह जैसे मुर्दा हो गया था इस वर्ष में। उसके प्राण फिर से खिल उठे, वह नाचने लगा।

लोगों ने पूछा कि क्या तुम्हें मिल गया?

उसने कहा कि यह असंभव था कि न मिलता, क्योंकि मैंने तय ही कर लिया था कि या तो मिलेगा और या फिर मैं नहीं रह जाऊंगा। जो मैंने चाहा था वह मुझे उपलब्ध हो गया है। और मैंने तो शरीर के लिए रोटी चाही थी और मुझे आत्मा के लिए रोटी भी मिल गई है। और मैंने तो शरीर की भूख मिटानी चाही थी और मेरी आत्मा की भूख भी मिट गई है। लेकिन वे पूछने लगे कि तुझे मिला कैसे, तूने कैसे पाया?

उसने कहा मैंने कुछ भी नहीं किया, लेकिन मैंने अपनी प्यास के पीछे अपने पूरे संकल्प को खड़ा कर दिया। और मैंने कहा अगर प्यास है तो उसके साथ पूरा संकल्प भी चाहिए। मेरा पूरा संकल्प साथ था, मेरी प्यास पूरी हो गई। मैं उस जगह पहुंच गया, जहां वह पानी मिल जाता है, जिसे पीने से फिर कोई प्यास नहीं रह जाती। संकल्प का अर्थ है जो हम चाहते हैं, जो हमें ठीक दिखाई पड़ता है, जो हमें मालूम होता है कि रास्ता है, उस पर चलने का आत्मबल भी जुटाना और साहस जुटाना और दृढ़ता जुटानी। अगर वह नहीं होती तो मेरे कहने से या किसी के कहने से कुछ भी नहीं हो सकता है। और अगर मेरे कहने से होता, तब तो बड़ी आसान बात थी। दुनिया में बहुत लोग हो चुके हैं, जिन्होंने बहुत अच्छी बातें कही हैं। अब तक सारी दुनिया को सब— कुछ हो गया होता। लेकिन न महावीर कुछ कर सकते हैं, न बुद्ध कुछ कर सकते हैं; न क्राइस्ट, न कृष्‍ण, न मोहम्मद। कोई कुछ नहीं कर सकता है, जब तक कि आप ही करने को तैयार न हों।

गंगा बही जाती है, सागर भरे पड़े हैं, लेकिन आपके हाथ में पात्र ही नहीं है और आप चिल्लाते हैं कि मुझे पानी चाहिए। गंगा कहती है, पानी है, लेकिन पात्र कहां है? आप कहते हैं, पात्र की बात मत करो, तुम तो गंगा हो, इतना पानी है इसमें, तो कुछ हमें दे दो। गंगा के द्वार बंद नहीं हैं, गंगा के द्वार खुले हैं, लेकिन पात्र तो चाहिए।

संकल्प का पात्र जहां नहीं है, वहां साधना की कोई तृप्ति, कोई संतोष कभी उपलब्ध नहीं होता है।

मेरी बातें इतनी शांति से सुनीं। आज हमारी पहले दिन की तीन बैठकें पूरी होती हैं। कल से हम दूसरे दो तत्वों पर विचार करना शुरू करेंगे। और अब इस बैठक के बाद हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे एक दस मिनट के लिए।

तो रात्रि के ध्यान के संबंध में दो—तीन बातें समझ लेनी चाहिए, फिर हम बैठेंगे।

(क्या लेटने का उपाय हो सकेगा? लेटने का उपाय हो सकेगा? यानी इतनी जगह बन जाएगी न कि सब लोग लेट सकें? ठीक है!)

पहले समझ लें और फिर रात्रि का ध्यान हम करेंगे। सुबह का ध्यान तो बैठ कर करने के लिए है। सुबह तो जीवन उठता है, जागता है, इसलिए बैठ कर ध्यान करना उपयोगी है। और रात्रि का ध्यान तो आप बिस्तर पर जब सोने चले जाते हैं तभी बिस्तर पर सोकर ही करने का है और फिर करने के बाद चुपचाप सो जाने का है। वह अंतिम है। सुबह का ध्यान प्रथम, जागने के बाद। रात्रि का ध्यान अंतिम, सोने के पहले।

सोने के पहले अगर ठीक से ध्यान में उतर जाएं तो सारी नींद परिवर्तित हो जाती है। पूरी नींद ध्यान बन सकती है, क्योंकि नींद के कुछ नियम हैं। इसमें पहला नियम यह है कि रात्रि में जो हमारा अंतिम विचार होता है वह हमारी निद्रा में केंद्रीय होता है, और वही सुबह उठने पर हमारा प्रथम विचार होता है।

रात्रि में सोते समय चित्त में जो अंतिम विचार होता है वह निद्रा में केंद्रीय हो जाता है, और सुबह उठते वक्त पहला विचार वही होता है। तो रात अगर आप क्रोध में सो गए हैं तो रात्रि भर आपके सपने, आपका चित्त क्रोध के आस—पास मंडराता रहेगा और सुबह जब आप उठेंगे तो आप पाएंगे कि पहला भाव और पहला विचार क्रोध ही आपके सामने खड़ा हो जाएगा। रात भर हम संजोते हैं उसे जिसे हम रात लेकर सो जाते हैं।

इसलिए मेरा कहना है रात अगर कुछ लेकर ही सोना है, तो ध्यान को लेकर सो जाना चाहिए, ताकि रात पूरी नींद ध्यान के आस—पास, उसी शांति के आस—पास मंडराती रहे। धीरे— धीरे आप कुछ ही दिनों में पाएंगे, सपने शून्य हो जाते हैं, नींद एक गहरी नदी बन जाती है और सुबह जब आप उठते हैं छह घंटे या आठ घंटे की इस गहरी निद्रा के बाद— इस ध्यान के बाद, तो जो पहला खयाल होता है वह भी शांति का, आनंद का और प्रेम का ही होता है।

तो सुबह की यात्रा शुरू करनी है सुबह के ध्यान से और रात्रि की यात्रा शुरू करनी है रात्रि के ध्यान से। रात्रि का ध्यान लेट कर करने का है— बिस्तर पर लेट कर करने का है। यहां हम प्रयोग के लिए अभी लेट कर उसको करेंगे। लेट कर तीन बातें ध्यान में लेनी हैं।

पहली बात तो, कि शरीर को बिलकुल ही शिथिल छोड़ देना है। जैसे बिलकुल शरीर में कोई प्राण ही न हो। इतना ढीला, इतना ढीला छोड़ देना है जैसे कोई प्राण नहीं है और तीन मिनट तक मन में यह भाव करते रहना है कि मेरा शरीर शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है……..जैसे—जैसे मन भाव करेगा, शरीर वैसा ही होता चला जाएगा।

शरीर बिलकुल सेवक है, अनुगामी है। हम जो भी भाव करते हैं, शरीर वही करता है। अगर आप क्रोध से भरते हैं, शरीर पत्थर उठा लेता है, आप प्रेम से भरते हैं, शरीर किसी को हृदय से लगा लेता है। आप जो चाहते हैं, जो होना चाहते हैं, जो करना चाहते हैं, मन में भीतर विचार उठता है और शरीर क्रिया में उसे परिवर्तित कर देता है।

हम रोज देखते हैं यह चमत्कार घटते हुए कि भीतर विचार उठता है और शरीर उसे रूपांतरण दे देता है। हमने कभी शिथिल होने का विचार नहीं किया, अन्यथा शरीर बिलकुल शिथिल भी हो जाता। शरीर तो इतना शिथिल हो जाता है कि पता ही नहीं चलता है कि शरीर है भी या नहीं, लेकिन थोड़े दिन के प्रयोग से यह हो जाता है। तो तीन मिनट तक सोचते रहना है, भाव करते रहना है।

अभी तो मैं आपको सुझाव दे दूंगा ताकि आपको खयाल में आ जाए। तो जब मैं सुझाव दूं कि शरीर शिथिल हो रहा है, तो आप मन में भाव करते जाएंगे कि शरीर शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है……..शरीर शिथिल हो जाएगा!

शरीर के शिथिल होते ही श्वास शांत हो जाएगी। शांत होने का मतलब बंद नहीं, लेकिन धीमी, आहिस्ता और गहरी हो जाएगी। फिर तीन मिनट तक मन में भाव करना है कि मेरी श्वास भी शांत होती जा रही है, श्वास भी शिथिल होती जा रही है……तब धीरे— धीरे श्वास भी बिलकुल शांत और सम हो जाती है। जब श्वास शांत हो जाती है और इन तीनों का संबंध है, जब शरीर शिथिल होगा तो श्वास अपने आप शांत होगी, जब श्वास शांत होगी तो मन अपने आप शांत होगा।

तो पहले हम शरीर पर शिथिलता का भाव करेंगे, उससे श्वास शांत होगी। फिर श्वास की शिथिलता का भाव करेंगे, उससे मन शांत होगा।

और फिर तीसरा सुझाव मैं आपको दूंगा कि अब आपका मन भी शांत और शून्य होता जा रहा है। तो ऐसा थोड़ी— थोड़ी देर तीनों सुझावों को करने के बाद दस मिनट के लिए मैं कहूंगा कि अब मन बिलकुल शांत हो गया है, तो जैसे हम सुबह बैठे रहे थे वैसे ही चुपचाप शांति में लेटे रहेंगे।

कुत्ते की आवाज आएगी, कोई पक्षी चिल्लाएगा, कोई और कुछ आवाज होगी, उसे चुपचाप सुनते रहना है, जैसे कोई सूना कमरा हो, कोई आवाज आती हो, गूंजती हो और चली जाती हो। न तो उस आवाज के लिए यह सोचना है कि यह मुझे क्यों सुनाई दे रही है, न यह सोचना है कि यह कुत्ता क्यों भौंक रहा है, क्योंकि आपका कुत्ते से कोई संबंध नहीं है। आपको कोई सोचने की जरूरत भी नहीं है कि क्यों भौंक रहा है। या हम ध्यान कर रहे हैं, यह दुष्ट हमारे पीछे क्यों पड़ा हुआ है, इससे भी कोई संबंध नहीं है। वह कुत्ते को आपका बिलकुल पता नहीं कि आप ध्यान कर रहे हैं। उसे कुछ मालूम नहीं है इसका, वह बिलकुल अनजान है, वह अपने काम में लगा हुआ है। उसे आपसे कुछ लेना—देना नहीं है। वह भौंक रहा है, उसे भौंकने देना है। वह डिस्टर्बेंस नहीं है आपके लिए। जब तक आप उसे डिस्टर्बेंस न बना लें! और वह डिस्टर्बेंस तब बनता है जब आप रेसिस्ट करते हैं। जब आप यह चाहते हैं कि कुत्ता न भौंके, तब परेशानी शुरू हो जाती है। लेकिन कुत्ता भौंक रहा है, जरूर भौंके। हम ध्यान कर रहे हैं, हम जरूर ध्यान करें। इन दोनों में कोई झगड़ा नहीं, कोई विरोध नहीं। आप शांत……. कुत्ते की आवाज आएगी और निकलेगी और चली जाएगी।

मैं एक छोटे से गांव में ठहरा हुआ था—एक छोटे से रेस्ट हाउस में। एक राजनीतिक नेता भी मेरे साथ ठहरे हुए थे। रात उस रेस्ट हाउस में न मालूम क्या हुआ कि गांव भर के कुत्ते जैसे इकट्ठे हो गए, वे बहुत चिल्लाने लगे। वे नेता बहुत परेशान हो गए। वे उठ कर मेरे कमरे में आए और कहा कि आप सो गए हैं क्या? क्योंकि मैं तो बड़ी मुश्किल में पड़ा हुआ हूं। ये कुत्तों को मैं दो बार भगा आया हूं लेकिन ये वापस लौट आते हैं!

मैंने कहा किसी को भी भगाइए, वह हमेशा वापस लौट आएगा। भगाने में यही गलती हो जाती है। कि जिसको हम भगाते हैं वह समझता है हमारी कोई जरूरत है, हमसे कोई मामला है, हमारा कोई महत्व है इसलिए हमें भगाया जा रहा है। तो कुत्ते भी बेचारे कुत्ते तो हैं। वे समझ गए होंगे कि आपको कोई जरूरत है। आप कुछ उन्हें इंपॉर्टेंस देते हैं, महत्व देते हैं, तो वे लौट आते हैं। और रह गई बात यह कि कुत्तों को तो कोई खबर नहीं है कि यहां कोई नेता ठहरे हुए है—कि वे आपके लिए चिल्लाते हों। आदमी तो है नहीं, आदमी को पता चल जाए तो नेता के आस—पास इकट्ठे हो जाते हैं। अभी कुत्तों में इतनी अक्ल नहीं आई कि नेता आ जाए तो इकट्ठे हो जाएं। कुत्ते अपने रोज ही आते होंगे। आप यह व्यर्थ का अपने मन में भाव न लें कि मेरी महत्ता के कारण यहां ये सब इकट्ठे हो गए हैं। उनको बिलकुल पता भी नहीं होगा। रह गई आपके न सोने की बात, तो कुत्ते आपको नहीं जगा रहे हैं, आप खुद ही जागे जा रहे हैं। आप व्यर्थ ही यह सोच रहे हैं कि कुत्तों को नहीं भौंकना चाहिए। आपको क्या हक है? कुत्तों को भौंकने का हक है, आपको सोने का हक है। इसमें दोनों में कोई विरोध नहीं है। ये पैरेलल चलती हैं चीजें, इनमें कहीं कोई कटाव नहीं है। कुत्ते भौंकते रहेंगे, आप सोते चले जाएंगे। न कुर्त्ते यह कह सकते हैं कि आप मत सोइए, हमारे भौंकने में बाधा पड़ती है। न आप कह सकते हैं। तो मैंने उनसे कहा आप स्वीकार कर लें कि कुत्ते भौंक रहे हैं और चुपचाप सुनें। अस्वीकार छोड़ दें। एक्सेप्ट कर लें। स्वीकार कर लें और स्वीकार करते ही आप पाएंगे कि कुत्तों का भौंकना भी एक संगतिपूर्ण लयबद्धता में परिवर्तित हो जाता है।

फिर वे पता नहीं कब सो गए। सुबह उठ कर उन्होंने कहा कि मैं सच में हैरान रह गया। जब कोई रास्ता न रहा……पहले तो आपकी बात मुझे नहीं जंची।

मेरी बात एकदम से किसी को भी नहीं जंचती है। उनको भी नहीं जंची।

लेकिन जब कोई रास्ता नहीं रहा और मजबूरी आ गई और देखा कि अब कोई उपाय ही नहीं है— या तो नींद खराब करूं या आपकी बात मामू जब दो ही विकल्प रह गए, तो फिर मैंने कहा अब कुत्तों की तरफ तो मैंने ध्यान दे लिया, अब आपकी बात पर भी ध्यान देकर देख लूं। तो फिर मैं चुपचाप लेट गया और सुनता रहा और मैंने स्वीकार कर लिया। और मुझे पता नहीं कब नींद लग गई। और कुत्ते पता नहीं कब तक भौंकते रहे और कब बंद हो गए। और मैं सचमुच पूरी रात ही सो पाया हूं।

आप विरोध नहीं करें, जो भी चारों तरफ है उसे चुपचाप सुनते रहें। यह जो चुपचाप सुनते रहना है, यह बड़ी अदभुत……यह जो नॉन—रेसिस्टेंस है, यह जो अप्रतिरोध है, यह जो अविरोध है, जीवन के प्रति अविरोध ही ध्यान में ले जाने का सूत्र है।

तो पहले हम शिथिल होंगे, फिर हम अविरोध के भाव में चुपचाप सुनते रहेंगे। यह प्रकाश बुझा दिया जाएगा, ताकि आपको खयाल न रह जाए कि दूसरे लोग मौजूद हैं। क्योंकि कुत्तों को भूलना आसान है, पास— पड़ोस के आदमियों को भूलना और भी कठिन है।

तो सब थोड़े फासले पर हो जाएंगे ताकि लेट सकें। कुछ लोग यहां पीछे आ जाएं, कुछ यहां मंच पर आ जाएं। जो लोग परिचित हैं वे थोड़े दूर हट आएं, जो अपरिचित हैं वे मेरे सामने रह जाएं। और अपनी—अपनी लेटने की जगह बना लें। कोई किसी को छूता हुआ नहीं होगा।

हूं—हूं आ जाओ यहां ऊपर ही, यह जगह ले लो।

यह सब लाइट बुझ सकेगा न? हां, जल्दी आप हट जाएं ताकि फिर लाइट बुझ सके। और कोई बातचीत न करें। इसमें बातचीत की कोई जरूरत नहीं है।

हां, जल्दी करें।

समझ ली न बात? अपनी—अपनी जगह बना लें। थोड़े दूर हट जाएं, कोई किसी को छूता हुआ न हो। ये सामने कुछ लोग आ जाएं, यहां फर्श का उपयोग कर लें। और बातचीत नहीं करेंगे। नहीं, बातचीत नहीं। क्योंकि इतनी बातचीत से ध्यान में पीछे जाना बहुत मुश्किल होगा। और यह भी ध्यान रखेंगे कि आपके कारण किसी दूसरे को जरा भी बाधा न हो। कुछ भी ऐसा आपसे न हो कि किसी दूसरे को जरा भी बाधा हो। क्योंकि आप अपना ध्यान खराब करने के हकदार हैं लेकिन किसी दूसरे का ध्यान खराब करने के हकदार नहीं हैं।

तो अपनी— अपनी जगह बना लें और फिर धीरे से लेट जाएं। धीरे से लेट जाएं। आख बंद कर लें। बिलकुल आहिस्ता से आख बंद कर लें। फिर सारे शरीर को ढीला छोड़ दें। बिलकुल ढीला छोड़ दें। कोई शरीर में कड़ापन न रहे, कोई तनाव न रहे। बिलकुल ढीला छोड़ दें। जैसा आपको सुविधापूर्ण लगे, बिलकुल ढीला छोड़ दें।

ठीक है! शरीर ढीला छोड़ दिया है। अब मैं सुझाव दूंगा, मेरे सुझाव के साथ अनुभव करें। शरीर ढीला छोड़ दिया है, आख बंद कर ली है। शरीर शिथिल हो रहा है…… भाव करें, शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है……शरीर में शिथिलता दौड़ रही है….. शरीर के सब अंग शिथिल होते जा रहे हैं……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर धीरे— धीरे शिथिल होता जाता है……जैसे—जैसे भाव करेंगे, शरीर शिथिल हो जाएगा।

छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें, शरीर पर सारी पकड़ छोड़ दें। शरीर शिथिल हो रहा है……शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो गया है……शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है…।

श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत होती जा रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास बिलकुल शांत होती जा रही है… भाव करें, श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो रही है……श्वास शांत हो गई है……श्वास शांत हो गई है……श्वास बिलकुल शांत हो गई है…।

मन भी मौन हो रहा है……मन मौन हो रहा है.. भाव करें, मन मौन हो रहा है……मन भी शांत होता जा रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है. .मन शांत हो रहा है……मन शांत हो रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन शांत हो गया है……मन बिलकुल शांत हो गया है…।

अब दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रहें— कोई भी आवाज हो, चुपचाप सुनते रहें। सब स्वीकार कर लें और चुपचाप सुनते रहें। सुनते—सुनते ही गहराई और गहराई और गहराई उपलब्ध होती है। सुनें……दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रह जाएं…।

सुनते रहें, सुनते रहें, शांत सुनते रहें, मन बिलकुल शांत हो जाएगा। मन शांत हो जाएगा। मन शांत होता जा रहा है……मन एक गहरी शांति में उतर रहा है……मन गहरे से गहरे शांत और सन्नाटे में उतर रहा है……मन धीरे— धीरे शून्य होता जा रहा है…।

सुनते रहें, सुनते रहें……मन शून्य होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन बिलकुल शांत होता जा रहा है……चुपचाप सुनते रहें……मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन शांत हो गया है……मन बिलकुल शून्य हो गया है…। और गहरे डूब जाएं, और गहरे उतर जाएं। मन बिलकुल शून्य हो गया है……मन शून्य हो गया है… ‘इस शून्य को पूरी तरह अनुभव करें, रोज—रोज इसी शून्य में प्रवेश करें। मन बिलकुल शून्य हो गया है…।

अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें… धीरे— धीरे लेटे हुए ही दो—चार गहरी श्वास लें। प्रत्येक श्वास के साथ बहुत गहरी शांति अनुभव होगी। धीरे— धीरे दों—चार गहरी श्वास लें। फिर बहुत आहिस्ता से आख खोलें। लेटे हुए ही धीरे से आख खोलें। जैसी शांति भीतर है वैसी शांति बाहर भी अनुभव होगी। धीरे से आख खोलें, फिर धीरे— धीरे उठ कर बैठ जाएं। किसी को बाधा न हो, बहुत आहिस्ता से। बहुत चुपचाप धीरे से उठ कर बैठ जाएं। धीरे से चुपचाप अपनी जगह पर बैठ जाएं।

यह तो हमने प्रयोग के लिए समझा, लौट कर अपने—अपने कमरे पर प्रयोग को करें और फिर चुपचाप सो जाएं। इस प्रयोग को करने के बाद चुपचाप सो जाएं।

रात्रि की बैठक पूरी हुई।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3)–प्रवचन–35

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स्‍वप्‍न नहीं,स्‍वप्‍नदर्शी सच है—(प्रवचन—पैंतीसवां)

सूत्र:

53—हे कमलाक्षी, हे सुभगे, गाते हुए, देखते हुए,

स्‍वाद लेते हुए या बोध बना रहे कि मैं हूं।

और शाश्‍वत आविर्भूत होता है।

54—जहां—जहां, जिस किसी कृत्‍य में संतोष मिलता हो,

      उसे वास्‍वतिक करो।

55—जब नींद अभी नहीं आयी हो और बाह्म जागरण

      विदा हो गया हो, उस मध्‍य बिंदु पर बोधपूर्ण

      रहने से आत्‍मा प्रकाशित होती है।

56—भ्रांतियां छलती है, रंग सीमित करते है,

विभाज्‍य भी अविभाज्‍य है।

भ्‍यता इस बात का प्रशिक्षण है कि कैसे झूठा हुआ जाए, नकली हुआ जाए। तंत्र ठीक विपरीत प्रक्रिया है, तंत्र तुम्हें झूठा होने से बचाता है। और अगर तुम झूठे हो गए हो तो तंत्र सिखाता है कि कैसे उस सत्य से फिर से संपर्क साधो जो तुम्हारे भीतर छिपा है, कि कैसे फिर से सच्चे हो जाओ। पहली चीज समझने की यह है कि हम कैसे झूठे होते चले जाते हैं। और जब यह प्रक्रिया समझ में आ जाती है तो तुरंत ही बहुत सी बातें बदल जाती हैं। और समझ ही रूपांतरण बन जाती है, क्रांति बन जाती है।

मनुष्य अविभाजित, अखंड जन्म लेता है। वह न शरीर है न मन, वह अखंड, एक व्यक्ति की भांति पैदा होता है। वह शरीर और मन दोनों है। यह कहना भी गलत है कि वह शरीर और मन दोनों है। वह शरीर—मन है। शरीर और मन उसके होने के दो पहलू हैं, अलग— अलग खंड नहीं। वे जीवन या ऊर्जा या किसी भी चीज अ, ब, स, केर दो छोर हैं, पर शरीर और मन दो चीजें नहीं हैं।

सभ्यता, शिक्षा, संस्कृति, संस्कार की प्रक्रिया विभाजन से शुरू होती है। हरेक व्यक्ति को सिखाया जाता है कि तुम एक नहीं, दो हो। और तब स्वभावत: हरेक व्यक्ति मन के साथ तादात्म्य करने लगता है, शरीर के साथ नहीं। फिर सोच—विचार की जो प्रक्रिया है वह तुम्हारा केंद्र बन जाती है। लेकिन विचार की प्रक्रिया केवल परिधि है, वह केंद्र नहीं है। क्योंकि तुम सोच—विचार के बिना भी जी सकते हो, कभी तुम उसके बिना जीते ही थे। जीने के लिए सोच—विचार आवश्यक नहीं है।

अगर तुम ध्यान में गहरे उतरो तो तुम तो रहोगे, लेकिन विचार—प्रक्रिया नहीं रहेगी। वैसे ही अगर तुम बेहोश हो जाओ तो तुम तो रहोगे, लेकिन विचार—प्रक्रिया नहीं रहेगी। गाढ़ी नींद में उतर जाने पर भी तुम तो रहोगे, लेकिन विचार—प्रक्रिया नहीं रहेगी। विचार—प्रक्रिया परिधि पर है, तुम्हारा होना कहीं और है—विचार—प्रक्रिया से बहुत गहरे में।

लेकिन तुम्हें निरंतर सिखाया जाता है कि तुम दो हो, शरीर और मन हो। तुम्हें सिखाया जाता है कि दरअसल तुम मन हो और शरीर तुम्हारे अधिकार में है, तुम्हारी मालकियत में है। तब मन मालिक बन जाता है। और शरीर गुलाम। और तब तुम शरीर के साथ संघर्ष करते हो; और उससे अलगाव पैदा होता है, अंतराल पैदा होता है। और यह अलगाव ही समस्या है। सब मानसिक रोग इस अलगाव से जन्म लेते हैं, सब चिंताएं उससे ही पैदा होती हैं।

तुम्हारा होना तुम्हारे शरीर से जुड़ा हुआ है। और तुम्हारा शरीर अस्तित्व से पृथक नहीं है, अलग नहीं है, वह अस्तित्व का हिस्सा है। तुम्हारा शरीर समूचा ब्रह्मांड है, वह कोई सीमित और छोटी चीज नहीं है। तुमने हो सकता है न निरीक्षण किया हो, लेकिन अब निरीक्षण करना कि तुम्हारा शरीर दरअसल कहां समाप्त होता है। क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारा शरीर चमड़ी पर समाप्त हो जाता है? तो सूरज जो इतना दूर है, अगर वह अभी ठंडा हो जाए तो तुम भी तुरंत यहं। ठंडे हो जाओगे। अगर सूरज की किरणें यहां आना बंद कर दें तो तुम समाप्त हो जाओगे। इतनी दूरी पर जो सूरज है उसके बिना तुम्हारा शरीर नहीं जीवित रहेगा। तो सूरज और तुम किसी न किसी तरह गहरे में जुड़े हो। सूरज तुम्हारे शरीर में सम्मिलित है, अन्यथा तुम नहीं हो सकते हो। तुम उसकी किरणों के हिस्से हो।

सुबह तुम फूलों को खिलते देखते हो, उनका खिलना असल में सूरज का उगना है। रात में फूल बंद हो जाते हैं, उनका बंद होना सूरज का डूबना है। वे फूल बस सूरज की फैली हुई किरणें हैं। तुम यहां हो, क्योंकि बहुत दूर पर सूरज भी है। तुम्हारी चमड़ी पर ही तुम्हारी चमड़ी समाप्त नहीं है, वह फैलती ही जाती है और सूरज को भी अपने में समेट लेती है।

तुम श्वास लेते हो। तुम श्वास ले सकते हो, क्योंकि वायु है, वायुमंडल है। प्रत्येक क्षण तुम वायुमंडल से श्वास लेते हो और उसी में श्वास छोड़ते हो। अगर एक क्षण को हवा न रहे तो तुम मर जाओगे। तुम्हारी श्वास ही तुम्हारा जीवन है। और अगर तुम्हारी श्वास तुम्हारा जीवन है तो सारा वायुमंडल तुम्हारा अंग है, तुम उसके बिना नहीं जी सकते। तो तुम्हारा शरीर वस्तुत: कहा समाप्त होता है? उसकी सीमा कहां है?

कोई सीमा नहीं है। अगर तुम निरीक्षण करो, अगर गहराई से देखो तो तुम्हें पता चलेगा कि कोई सीमा नहीं है। या कि ब्रह्मांड की सीमा ही तुम्हारे शरीर की सीमा है, समूचा ब्रह्मांड तुम में निहित है, वह तुम से अभिन्न है। तो तुम्हारा शरीर तुम्हारा शरीर ही नहीं है, वह तुम्हारा ब्रह्मांड है और तुम उसमें आधारित हो। तुम्हारा मन भी शरीर के बिना नहीं रह सकता, वह शरीर का एक हिस्सा है, उसकी एक प्रक्रिया है।

विभाजन विध्वंसकारी है। और विभाजन के होते ही तुम्हारा मन के साथ तादात्म्य अनिवार्य हो जाता है। तुम सोचते हो—और सोचे बिना विभाजन नहीं हो सकता—तुम सोचते हो और तुम्हारा सोचने के साथ तादात्म्य हो जाता है। तब तुम्हें ऐसा लगता है मानो शरीर तुम्हारे अधिकार में है।

यह बात सत्य के सर्वथा विपरीत है। शरीर तुम्हारे अधिकार में नहीं है और न तुम ही शरीर के अधिकार में हो। वे दो चीजें नहीं हैं। तुम्हारा अस्तित्व एक है—विपरीत ध्रुवों की सघन लयबद्धता। लेकिन ये विपरीत ध्रुव बंटे नहीं हैं, वे परस्पर जुड़े हैं। तो ही वे विपरीत ध्रुव हो सकते हैं। और यह विपरीतता, यह विरोध शुभ है; इससे चुनौती पैदा होती है; इससे बल, शक्ति और ऊर्जा निर्मित होती है। यह द्वंद्वात्मक है। अगर तुम वस्तुत: एक ही होते, अगर तुम्हारे भीतर विपरीत ध्रुव नहीं होते तो तुम उदास और मुर्दा होते। ये जो विपरीत ध्रुव हैं—शरीर और मन—वे तुम्हें जीवन देते हैं। वे विपरीत हैं, लेकिन साथ ही साथ परिपूरक भी है। और मूलत: तथ अंतत: वे एक ही है, दोनों में ऊर्जा की एक ही धारा प्रवाहित होती है।

लेकिन जब हम विचार की प्रक्रिया से एकात्म हो जाते हैं तो हमें लगता है कि हम अपने सिर में केंद्रित हैं। अगर तुम्हारे पांव काट दिए जाएं तो तुम्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कट गया, तुम कहोगे कि मेरे पांव कट गए। लेकिन अगर तुम्हारा सिर कट जाए तो तुम ही कट गए, तुम्हारी हत्या हो गई। अगर तुम आख बंद करके यह महसूस करो कि मैं कहौ हूं तो तुम्हें तुरंत महसूस होगा कि मैं अपने सिर में हूं।

लेकिन तुम सिर में नहीं हो। क्योंकि जब तुमने पहली दफा अपनी मां के पेट में प्रवेश किया था, जीवन में प्रवेश किया था, जब पहली बार पुरुष और स्त्री के अणु मिले थे, तब कोई सिर नहीं था। लेकिन तभी जीवन आरंभ हो गया था और तुम थे, लेकिन सिर नहीं था। दो जीवित अणुओं के उस प्रथम मिलन में तुम निर्मित हुए थे; सिर तो पीछे आया। लेकिन तुम्हारा होना था। वह होना कहां है? वह तुम्हारे सिर में नहीं है। वस्तुत: वह कहीं नहीं है, या वह तुम्हारे शरीर में सर्वत्र है। वह कहीं एक जगह नहीं है, तुम अंगुली उठाकर नहीं बता सकते कि वह यहां है। और जिस क्षण तुम ऐसा बताओगे, तुम चूक गए, पूरी बात ही चूक गए। वह सर्वत्र है। तुम्हारा जीवन सर्वत्र है। वह तुम्हारे शरीर में सर्वत्र फैला है। और वह सिर्फ तुम्हारे शरीर में ही नहीं सर्वत्र फैला है, अगर तुम उसका अनुसरण करो तो तुम्हें ब्रह्मांड के आखिरी छोर तक जाना पड़े। वह सर्वत्र है।

इस तादात्म्य के साथ कि मैं मन हूं सब कुछ झूठ हो जाता है। तुम झूठे हो जाते हो, क्योंकि यह तादात्म्य ही झूठा है। इस तादात्म को तोड़ना है। और तंत्र की विधियां इसे ही तोड़ने के लिए हैं। तंत्र तुम्हें सिर—विहीन, केंद्र—विहीन बनाने की चेष्टा करता है कि तुम या तो सर्वत्र होओ या कहीं न होओ।

और मनुष्य या मनुष्यता मन के कारण झूठी और नकली क्यों हो जाती है? क्योंकि मन एक उप—घटना है, गौण है। ९ मन एक प्रक्रिया है जो जरूरी है, उपयोगी है; लेकिन प्राथमिक नहीं है। मन एक प्रक्रिया है जो शब्दों से बनी है, सत्यों से नहीं। प्रेम शब्द प्रेम नहीं है, न ईश्वर शब्द ईश्वर है। लेकिन मन शब्दों से बना है, वह एक शाब्दिक प्रक्रिया है, और तब प्रेम प्रेम शब्द से कम महत्वपूर्ण हो जाता है। मन के लिए शब्द ज्यादा महत्वपूर्ण है। ईश्वर ईश्वर शब्द से कम महत्वपूर्ण हो जाता है। मन का यही हाल है, उसके लिए शब्द ज्यादा अर्थपूर्ण, ज्यादा प्राथमिक हो जाते हैं।

और तब हम शब्दों में जीने लगते हैं। और तुम जितना ज्यादा शब्दों में जीते हो उतने ही उथले हो जाते हो। और तब तुम सत्य से वंचित हो जाते हो, क्योंकि सत्य शब्द नहीं है। सत्य अस्तित्व है।

मन में रहना ऐसा है मानो तुम दर्पण में रहते हो। रात में अगर तुम किसी झील पर जाओ और झील शात हो, उसमें लहरें न हों, तो वह झील दर्पण बन जाएगी। तुम उसमें चाँद को देख सकते हो। लेकिन वह चांद झूठा है, प्रतिबिंब भर है। वह प्रतिबिंब सत्य से आता है, लेकिन खुद सत्य नहीं है। वैसे ही मन भी दर्पण जैसी घटना है। उसमें सत्य प्रतिबिंबित होता है, लेकिन प्रतिबिंब सत्य नहीं है। और अगर तुम प्रतिबिंबों में उलझ गए तो तुम सत्य को बिलकुल चूक जाओगे। यही कारण है कि मन और मन के प्रतिबिंब सदा कंपित होते रहते हैं; एक छोटी सी भी हलचल, एक हलकी सी भी लहर तुम्हारे मन को विचलित कर देती है। मन दर्पण जैसा है और हम मन में ही रहते हैं।

तंत्र कहता है : नीचे आओ, सिंहासन से उतरी, अपने सिरों से नीचे उतर आओ। तंत्र कहता है प्रतिबिंबों को भूल जाओ. और सत्य की ओर बढ़ो। जिन विधियों की हम यहां चर्चा करने वाले हैं वे सब इसी से संबंधित हैं कि कैसे मन से हटकर सत्य में गति की जाए।

अब हम विधियों को लेंगे।

आत्म—स्मरण की पहली विधि:

हे कमलाक्षी हे सुभने गाते हुए देखते हुए स्वाद लेते हुए यह बोध बना रहे कि मैं हूं और शाश्वत आविर्भूत होता है।

म हैं, लेकिन हमें बोध नहीं है कि हम हैं। हमें आत्म—स्मरण नहीं है। तुम खा रहे हो, या तुम स्नान कर रहे हो, या टहल रहे हो। लेकिन टहलते हुए तुम्हें इसका बोध नहीं है कि मैं हूं। सजग नहीं हो कि मैं हूं सब कुछ है, केवल तुम नहीं हो। झाडू हैं, मकान हैं, चलते रास्ते हैं, सब कुछ है; तुम अपने चारों ओर की चीजों के प्रति सजग हो, लेकिन सिर्फ अपने होने के प्रति कि मैं हूं सजग नहीं हो। लेकिन अगर तुम सारे संसार के प्रति भी सजग हो और अपने प्रति सजग नहीं हो तो सब सजगता झूठी है। क्यों? क्योंकि तुम्हारा मन सबको प्रतिबिंबित कर सकता है, लेकिन वह तुम्हें प्रतिबिंबित नहीं कर सकता। और अगर तुम्हें अपना बोध है तो तुम मन के पार चले गए।

तुम्हारा आत्म—स्मरण तुम्हारे मन में प्रतिबिंबित नहीं हो सकता, क्योंकि तुम मन के पीछे हो। मन उन्हीं चीजों को प्रतिबिंबित करता है जो उसके सामने होती हैं। तुम केवल दूसरों को देख सकते हो, तुम अपने को नहीं देख सकते। तुम्हारी आंखें सबको देख सकती हैं, लेकिन अपने को नहीं देख सकतीं। अगर तुम अपने को देखना चाहो तो तुम्हें दर्पण की जरूरत होगी। दर्पण में ही तुम अपने को देख सकते हो, लेकिन उसके लिए तुम्हें दर्पण के सामने खड़ा होना होगा। तुम्हारा मन दर्पण है तो वह सारे संसार को प्रतिबिंबित कर सकता है, लेकिन तुम्हें प्रतिबिंबित नहीं कर सकता। क्योंकि तुम उसके सामने नहीं खड़े हो सकते, तुम सदा पीछे हो, दर्पण के पीछे खड़े हो।

यह विधि कहती है कि कुछ भी करते हुए—गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए—यह बोध बना रहे कि मैं हूं और शाश्वत को आविर्भूत कर लो। अपने भीतर उसे आविष्कृत कर लो जो सतत प्रवाह है, ऊर्जा है, जीवन है, शाश्वत है।

लेकिन हमें अपना ही बोध नहीं है। पश्चिम में गुरजिएफ ने आत्म—स्मरण का प्रयोग एक बुनियादी विधि के रूप में किया। वह आत्म—स्मरण इसी सूत्र से लिया गया है। और गुरजिएफ की सारी साधना इसी एक सूत्र पर आधारित है। सूत्र है कि तुम कुछ भी करते हुए अपने को स्मरण रखो।

यह बहुत कठिन होगा। यह सरल मालूम होता है, लेकिन तुम भूल— भूल जाओगे। तीन या चार सेकेंड के लिए भी तुम अपना स्मरण नहीं रख सकते। तुम्हें लगेगा कि मैं अपना स्मरण कर रहा हूं और अचानक तुम किसी दूसरे विचार में चले गए। अगर यह विचार भी उठा कि ठीक है, मैं तो अपना स्‍मरण कर रहा हूं तो तुम चूक गए; क्‍योंकि यह विचार आत्‍म–स्‍मरण नहीं है। आत्म—स्मरण में कोई विचार नहीं होगा, तुम बिलकुल रिक्‍त और खाली होगे। और आत्म—स्मरण कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। ऐसा नहीं है कि तुम कहते रही कि हा, मैं हूं। यह कहते ही कि ही, मैं हूं तुम चूक गए। मैं हूं यह सोचना एक मानसिक कृत्य है। यह अनुभव करो कि मैं हूं। मैं हूं इन शब्दों को नहीं अनुभव करना है। उसे शब्द मत दो, बस अनुभव करो कि मैं हूं। सोचो मत, अनुभव करो।

प्रयोग करो। कठिन है, लेकिन अगर तुम प्रयोग में लगन से लगे रहे तो यह घटित होता है। टहलते हुए स्मरण रखो कि मैं हूं अपने होने को महसूस करो। ऐसे किसी विचार या धारणा को नहीं लाना है, बस महसूस करना है। मैं तुम्हारा हाथ छूता हूं या तुम्हारे सिर पर अपना हाथ रखता हूं तो उसे शब्द मत दो, सिर्फ स्पर्श को अनुभव करो। और इस अनुभव में स्पर्श को ही नहीं, स्पर्शित को भी अनुभव करो। तब तुम्हारी चेतना के तीर में दो फलक होंगे।

तुम वृक्षों की छाया में टहल रहे हो; वृक्ष हैं, हवा है, उगता हुआ सूरज है। यह है तुम्हारे चारों ओर का संसार और तुम उसके प्रति सजग हो। घूमते हुए क्षणभर के लिए ठिठक जाओ और अचानक स्मरण करो कि मैं हूं अपने होने को अनुभव करो। कोई शब्द मत दो, सिर्फ अनुभव करो कि मैं हूं। यह शब्दहीन अनुभूति, क्षण मात्र के लिए ही सही, तुम्हें सत्य की वह झलक दे जाएगी जो कोई एल .एस .डी. नहीं दे सकती। क्षणभर के लिए तुम अपने अस्तित्व के केंद्र पर फेंक दिए जाते हो। तब तुम दर्पण के पीछे हो, तुम प्रतिबिंबों के जगत के पार चले गए हो। तब तुम अस्तित्वगत हो।

और यह प्रयोग तुम किसी भी समय कर सकते हो। इसके लिए न किसी खास जगह की जरूरत है और न किसी खास समय की। तुम यह नहीं कह सकते कि मेरे पास समय नहीं है। तुम भोजन करते हुए इसका प्रयोग कर सकते हो। तुम स्नान करते हुए इसका प्रयोग कर सकते हो। चलते हुए या बैठे हुए, किसी समय भी यह प्रयोग कर सकते हो। कोई भी काम करते हुए अचानक अपना स्मरण करो और फिर अपने होने की उस झलक को जारी रखने की चेष्टा करो।

यह कठिन होगा। एक क्षण लगेगा कि यह रहा और दूसरे क्षण ही वह विदा हो जाएगा। कोई विचार प्रवेश कर जाएगा, कोई प्रतिबिंब, कोई चित्र मन में तैर जाएगा और तुम उसमें उलझ जाओगे। उससे दुखी मत होना, निराश मत होना। ऐसा होता है, क्योंकि हम जन्मों—जन्मों से प्रतिबिंबों में उलझे रहे हैं। यह यंत्रवत प्रक्रिया बन गई है। अविलंब, आप ही आप हम प्रतिबिंबों में उलझ जाते हैं।

लेकिन अगर एक क्षण के लिए भी तुम्हें झलक मिल गई तो वह प्रारंभ के लिए काफी है। और वह क्यों काफी है?

क्योंकि तुम्हें कभी दो क्षण एक साथ नहीं मिलेंगे। सदा एक क्षण ही तुम्हारे हाथ में होता है। और अगर तुम्हें एक क्षण के लिए भी झलक मिल जाए तो तुम उसमें ज्यादा बने रह सकते हो। सिर्फ चेष्टा की जरूरत है, सतत चेष्टा की। तुम्हें एक क्षण ही तो दिया जाता है, दो

क्षण तो कभी एक साथ नहीं आते। दो क्षणों की फिक्र मत करो, तुम्हें सदा एक क्षण ही मिलेगा। और अगर तुम्‍हें एक क्षण के लिए बोध हो सके तो जीवन भर के लिए बोध बना रह सकता है। अब सिर्फ प्रयत्न चाहिए। और यह प्रयोग सारा दिन चल सकता है। जब भी स्मरण आए, अपने को स्मरण करो।

‘हे कमलाक्षी, हे सुभगे, गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए यह बोध बना रहे कि मैं हूं? और शाश्वत आविर्भूत होता है।’

जब सूत्र कहता है कि ‘बोध बना रहे कि मैं हूं, तो तुम क्या करोगे? क्या तुम याद करोगे कि मेरा नाम राम है, या जीसस है, या और कुछ है? क्या तुम स्मरण करोगे कि मैं फलां परिवार का हूं फला धर्म का हूं फलां—फलां परंपरा का हूं? क्या तुम याद करोगे कि मैं अमुक देश का हूं अमुक जाति का हूं अमुक मत का हूं? क्या तुम स्मरण करोगे कि मैं कम्युनिस्ट हूं या हिंदू या ईसाई हूं? तुम क्या स्मरण करोगे?

सूत्र कहता है कि ‘बोध बना रहे कि मैं हूं,, इतना ही कहता है कि मैं हूं। किसी नाम की जरूरत नहीं है, किसी देश की जरूरत नहीं है, सिर्फ होने की जरूरत है कि तुम हो। तो अपने से यह मत कहो कि तुम कौन हो। यह मत कहो कि मैं यह हूं वह हूं। तुम हो, इस अस्तित्व को स्मरण करो।

लेकिन यह कठिन हो जाता है, क्योंकि हम कभी मात्र अस्तित्व को स्मरण नहीं करते। हम सदा उसे स्मरण करते हैं जो एक लेबल है, पदवी है, नाम है, वह अस्तित्व नहीं है। जब भी तुम अपने बारे में सोचते हो, तुम अपने नाम, धर्म, देश इत्यादि की सोचते हो, तुम कभी इस मात्र अस्तित्व की नहीं सोचते कि मैं हूं।

तुम इसकी साधना कर सकते हो। अपनी कुर्सी में या किसी पेड़ के नीचे विश्रामपूर्वक बैठ जाओ, सब कुछ भूल जाओ और इस अपने होनेपन को अनुभव करो। न ईसाई हो, न हिंदू न बौद्ध, न भारतीय, न अंग्रेज, न जर्मन; बस तुम हो। इसकी प्रतीति भर हो, भाव भर हो। और तब तुम्हारे लिए याद रखना आसान होगा कि यह सूत्र क्या कहता है।

‘बोध बना रहे कि मैं हूं और शाश्वत आविर्भूत होता है।’

जिस क्षण तुम्हें बोध होता है कि मैं कौन हूं उसी क्षण तुम शाश्वत की धारा में फेंक दिए जाते हो। जो असत्य है, उसकी मृत्यु निश्चित है, केवल सत्य शेष रहता है।

यही कारण है कि हम मृत्यु से इतना डरते हैं, क्योंकि झूठ को मिटना ही है। असत्य सदा नहीं रह सकता है। और हम असत्य से बंधे हैं, असत्य से तादात्म किए बैठे हैं। तुममें जो हिंदू है, वह तो मरेगा; जो राम है या कृष्ण है, वह तो मरेगा; जो कम्युनिस्ट है, आस्तिक है, नास्तिक है, वह तो मरेगा—जो—जो नाम—रूप है वह मरेगा। और अगर तुम नाम—रूप के मोह में पड़े हो, उससे आसक्‍त हो तो जाहिर है कि मृत्यु का डर तुम्हें घेरेगा।

लेकिन तुम्हारे भीतर जो सत्य है, जो अस्तित्वगत है, जो आधारभूत है, वह अमृत है। जब नाम—रूप भूल जाते हैं और तुम्हारी दृष्टि भीतर के अनाम और अरूप पर पड़ती है, तब तुम शाश्वत में प्रवेश कर गए।

‘बोध बना रहे कि मैं हूं और शाश्वत आविर्भूत होता है।’

यह विधि अत्यंत कारगर विधियों में से एक है और हजारों साल से सदगुरुओं ने इसका उपयोग किया है। बुद्ध इसे उपयोग में लाए, महावीर लाए, जीसस लाए। और आधुनिक जमाने में गुरजिएफ ने इसका खूब उपयोग किया। सभी विधियों से इस विधि की क्षमता सर्वाधिक है। इसका प्रयोग करो। यह समय लेगा, महीनों लग सकते है।

जब आस्पेंस्की गुरजिएफ के पास साधना कर रहा था तो उसे तीन महीने तक इस बात के लिए बहुत श्रम, कठिन श्रम करना पड़ा कि आत्म—स्मरण की एक झलक मिले। निरंतर तीन महीने तक आस्पेंस्की एक एकांत घर में रहकर एक ही प्रयोग करता रहा—आत्म—स्मरण का प्रयोग। तीस व्यक्तियों ने उस प्रयोग को आरंभ किया था और पहले सप्ताह के खतम होते—होते सत्ताइस व्यक्ति भाग खड़े हुए, सिर्फ तीन बचे। सारा दिन वे और कोई काम नहीं करते थे, सिर्फ स्मरण करते थे कि मैं हूं। सत्ताइस लोगों को ऐसा लगा कि इस प्रयोग से हम पागल हो जाएंगे, हमारे विक्षिप्त होने के सिवाय कोई चारा नहीं है। और वे गायब हो गए। वे फिर कभी नहीं वापस आए, वे गुरजिएफ से फिर कभी नहीं मिले। क्यों?

हम जैसे हैं, असल में हम विक्षिप्त ही हैं, पागल ही हैं। जो नहीं जानते हैं कि हम क्या हैं, हम कौन हैं, वे पागल ही हैं। लेकिन हम इस विक्षिप्तता को ही स्वास्थ्य माने बैठे हैं। जब तुम पीछे लौटने की कोशिश करोगे, जब तुम सत्य से संपर्क साधोगे तो वह विक्षिप्तता जैसा, पागलपन जैसा ही मालूम पड़ेगा। हम जैसे हैं, जो हैं, उसकी पृष्ठभूमि में सत्य ठीक विपरीत है। और अगर तुम जैसे हो उसको ही स्वास्थ्य मानते हो तो सत्य जरूर पागलपन मालूम पड़ेगा।

लेकिन तीन व्यक्ति प्रयोग में लगे रहे। उन तीन में पी .डी. आस्पेंस्की भी एक था। वे तीन महीने तक प्रयोग में जुटे रहे। पहले महीने के बाद उन्हें मात्र होने की—कि मैं हूं —झलक मिलने लगी। दूसरे महीने के बाद मैं भी गिर गया और उन्हें मात्र होनेपन की हूं —पन की झलक मिलने लगी। इस झलक में मात्र होना था, मैं भी नहीं था, क्योंकि मैं भी एक संज्ञा है। शुद्ध अस्तित्व न मैं है न तू वह बस है। और तीसरे महीने के बाद हूं —पन का भाव भी विसर्जित हो गया। क्योंकि हूं —पन का भाव भी एक शब्द है, यह शब्द भी विलीन हो जाता है। तब तुम बस हो और तब तुम जानते हो कि तुम कौन हो।

इस घड़ी के आने के पूर्व तुम नहीं पूछ सकते कि मैं कौन हूं। या तुम सतत पूछते रह सकते हो कि मैं कौन हूं मैं कौन हूं और मन जो भी उत्तर देगा वह गलत होगा, अप्रासंगिक होगा। तुम पूछते जाओ कि मैं कौन हूं मैं कौन हूं और एक क्षण आएगा जब तुम यह प्रश्न नहीं पूछ सकते। पहले सब उत्तर गिर जाते हैं और फिर खुद प्रश्न गिर जाता है और खो जाता है। और जब यह प्रश्न भी कि ‘मैं कौन हूं?’ गिर जाता है, तुम जानते हो कि तुम कौन हो।

गुरजिएफ ने एक सिरे से इस विधि का प्रयोग किया : सिर्फ यह स्मरण रखना है कि मैं हूं। रमण महर्षि ने इसका प्रयोग दूसरे सिरे से किया। उन्होंने इस खोज को कि ‘मैं कौन हूं?’ पूरा ध्यान बना दिया। उन्होंने कहा कि पूछते रही कि मैं कौन हूं? और इसके उत्तर में मन जो भी कहे उस पर विश्वास मत करो। मन कहेगा कि क्या व्यर्थ का सवाल उठा रहे हो! मन कहेगा कि तुम यह हो, तुम वह हो, कि तुम मर्द हो, तुम औरत हो, तुम शिक्षित हो, अशिक्षित हो, कि गरीब हो, अमीर हो, मन उत्तर दिए जाएगा, लेकिन तुम प्रश्न पूछते ही चले जाना। कोई भी उत्तर मत स्वीकार करना, क्योंकि मन के दिए गए सभी उत्तर गलत होंगे। वे उत्तर तुम्हारे झूठे हिस्से से आते हैं। वे शब्दों से आते हैं, वे शास्त्रों से आते हैं, वे तुम्हारे संस्कारों से आते हैं, वे समाज से आते हैं। सच तो यह है कि वे सब के सब दूसरों से आते हैं, वे तुम्हारे नहीं हैं। तुम पूछे ही चले जाओ। इस ‘मैं कौन हूं?’ के तीर को गहरे से गहरे में उतरने दो।

एक क्षण आएगा जब कोई उत्तर नहीं आएगा। वही सम्यक क्षण होगा। अब तुम उत्तर के करीब आ रहे हो। जब कोई उत्तर नहीं आता है, तुम उत्तर के करीब होते हो। क्योंकि अब मन मौन हो रहा है, अब तुम मन से बहुत दूर निकल गए हो। जब कोई उत्तर नहीं होगा और जब तुम्हारे चारों ओर एक शून्‍य निर्मित हो जाएगा तो तुम्हारा प्रश्न पूछना व्यर्थ मालूम होगा। तुम किससे पूछ रहे हो? जवाब देने वाला अब कोई नहीं है।

अचानक तुम्हारा प्रश्न भी गिर जाएगा। और प्रश्न के गिरते ही मन का आखिरी हिस्सा भी गिर गया, खो गया, क्योंकि यह प्रश्न भी मन का ही था। वे उत्तर भी मन के थे और यह प्रश्न भी मन का था। दोनों विलीन हो गए। अब तुम बस हो।

इसे प्रयोग करो। अगर तुम लगन से लगे रहे तो पूरी संभावना है कि यह विधि तुम्हें सत्य की झलक दे जाए। और सत्य शाश्वत है।

आत्म—स्मरण की दूसरी विधि :

 

जहां— जहां जिस किसी कृत्य में संतोष मिलता हो उसे वास्तविक करो।

तुम्हें प्यास लगी है, तुम पानी पीते हो, उससे एक सूक्ष्म संतोष प्राप्त होता है। पानी को भूल जाओ, प्यास को भी भूल जाओ और जो सूक्ष्म संतोष अनुभव हो रहा है उसके साथ रही। उस संतोष से भर जाओ, बस संतुष्ट अनुभव करो।

लेकिन मनुष्य का मन बहुत उपद्रवी है। वह केवल असंतोष और अतृप्ति अनुभव करता है, वह कभी संतोष नहीं अनुभव करता है। अगर तुम असंतुष्ट हो तो तुम उसे अनुभव करोगे और असंतोष से भर जाओगे। जब तुम प्यासे हो तो तुम्हें प्यास अनुभव होती है, तुम्हारा गला सूखता है। और अगर प्यास और बढ़ती है तो वह पूरे शरीर में महसूस होने लगती है। और एक क्षण ऐसा भी आता है जब तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि मैं प्यासा हूं तुम्हें लगता है कि मैं प्यास ही हो गया हूं। अगर तुम किसी मरुस्थल में हो और पानी मिलने की कोई भी आशा नहीं हो तो तुम्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मैं प्यासा हूं तुम्हें लगेगा कि मैं प्यास ही हो गया हूं।

असंतोष अनुभव में आते हैं, दुख और संताप अनुभव में आते हैं। जब तुम दुख में होते हो तो तुम दुख ही बन जाते हो। यही कारण है कि पूरा जीवन नरक हो जाता है। तुमने कभी विधायक को नहीं अनुभव किया है, तुमने सदा नकारात्मक को अनुभव किया है। जीवन वैसा दुख नहीं है जैसा हमने उसे बना रखा है। दुख हमारी महज व्याख्या है।

बुद्ध यहीं और अभी सुख में हैं, इसी जीवन में सुखी हैं। कृष्ण नाच रहे हैं और बांसुरी बजा रहे हैं। इसी जीवन में यहीं और अभी, जहां हम दुख में हैं, वहीं कृष्ण नाच रहे हैं। जीवन न दुख है और न जीवन आनंद है, दुख और आनंद हमारी व्याख्याएं हैं, हमारी दृष्टियां हैं, हमारे रुझान हैं, हमारे देखने के ढंग हैं। यह तुम्हारे मन पर निर्भर है कि वह जीवन को किस तरह लेता है।

अपने ही जीवन का स्मरण करो और विश्लेषण करो। क्या तुमने कभी संतोष के, परितृप्ति के, सुख के, आनंद के क्षणों का हिसाब रखा है? तुमने उनका कोई हिसाब नहीं रखा

है। लेकिन तुमने अपने दुख, पीड़ा और संताप का खूब हिसाब रखा है। और तुम्हारे पास इसका बड़ा संग्रह है। तुम एक संगृहीत नरक हो और यह तुम्हारा अपना चुनाव है। कोई दूसरा तुम्‍हें इस नरक में नहीं ढकेल रहा है, यह तुम्‍हारा ही चुनाव है। मन नकार को पकड़ता है, उसका संग्रह करता है और फिर खुद नकार बन जाता है। और फिर यह दुथ्चक्र हो जाता है। तुम्हारे चित्त में जितना नकार इकट्ठा होता है, तुम उतने ही नकारात्मक हो जाते हो। और फिर नकार का संग्रह बढ़ता जाता है। समान समान को आकर्षित करता है। और यह सिलसिला जन्मों—जन्मों से चल रहा है। तुम अपनी नकारात्मक दृष्टि के कारण सब कुछ चूक रहे हो।

यह विधि तुम्हें विधायक दृष्टि देती है। सामान्य मन और उसकी प्रक्रिया के बिलकुल विपरीत है यह विधि। जब भी संतोष मिलता हो, जिस किसी कृत्य में भी संतोष मिलता हो, उसे वास्तविक करो, उसे अनुभव करो, उसके साथ हो जाओ। यह संतोष किसी बडे विधायक अस्तित्व की झलक बन सकता है।

यहां हर चीज महज एक खिड़की है। अगर तुम किसी दुख के साथ तादात्‍मय करते हो तो तुम दुख की खिड़की से झांक रहे हो। और दुख और संताप की खिड़की नरक की तरफ ही खुलती है। और अगर तुम किसी संतोष के क्षण के साथ, आनंद और समाधि के क्षण के साथ एकात्म होते हो तो तुम दूसरी खिड़की खोल रहे हो। अस्तित्व तो वही है, लेकिन तुम्हारी खिडकियां अलग—अलग हैं।

‘जहां—जहां, जिस किसी कृत्य में संतोष मिलता हो, उसे वास्तविक करो।’

बेशर्त! जहां कहीं भी संतोष मिले, उसे जीओ। तुम किसी मित्र से मिलते हो और तुम्हें प्रसन्नता अनुभव होती है; तुम्हें अपनी प्रेमिका या अपने प्रेमी से मिलकर सुख अनुभव होता है। इस अनुभव को वास्तविक बनाओ, उस क्षण सुख ही हो जाओ और उस सुख को द्वार बना लो। तब तुम्हारा मन बदलने लगेगा और तब तुम सुख इकट्ठा करने लगोगे। तब तुम्हारा मन विधायक होने लगेगा और वही जगत भिन्न दिखने लगेगा।

झेन संत बोकोजू ने कहा है कि जगत वही है, लेकिन कुछ भी वही नहीं है, क्योंकि मन वही नहीं है। सब कुछ वही रहता है, लेकिन कुछ भी वही नहीं रहता है, क्योंकि मैं बदल जाता हूं।

तुम संसार को बदलने की कोशिश में लगे रहते हो, लेकिन तुम कुछ भी करो, जगत वही का वही रहता है, क्योंकि तुम वही के वही रहते हो। तुम एक बड़ा घर बना लेते हो, तुम्हें एक बड़ी कार मिल जाती है, तुम्हें सुंदर पत्नी या पति मिल जाता है, लेकिन उससे कुछ भी नहीं बदलेगा। बड़ा घर बड़ा नहीं होगा, सुंदर पत्नी या पति सुंदर नहीं होगा, बड़ी कार भी छोटी ही रहेगी, क्योंकि तुम वही के वही हो। तुम्हारा मन, तुम्हारी दृष्टि, तुम्हारा रुझान, सब कुछ वही का वही है। तुम चीजें तो बदल लेते हो, लेकिन अपने को नहीं बदलते। एक दुखी आदमी झोपड़ी को छोड़कर महल में रहने लगता है, लेकिन वह वहा भी दुखी आदमी ही रहता है। पहले वह झोपड़ी में दुखी था, अब वह महल में दुखी रहेगा। उसका दुख महल का दुख होगा, लेकिन वह दुखी होगा।

तुम अपने साथ अपने दुख लिए चल रहे हो और तुम जहां भी जाओगे अपने साथ रहोगे। इसलिए बुनियादी तौर पर बाहरी बदलाहट बदलाहट नहीं है, वह बदलाहट का आभास भर है। तुम्हें लगता है कि बदलाहट हुई, लेकिन दरअसल बदलाहट नहीं होती है। केवल एक बदलाहट, केवल एक क्रांति, केवल एक आमूल रूपांतरण संभव है और वह यह कि तुम्हारा चित्त नकारात्मक से विधायक हो जाए। अगर तुम्हारी दृष्टि दुख से बंधी है तो तुम नरक में हो और अगर तुम्हारी दृष्टि सुख से जुड़ी है तो वही नरक स्वर्ग हो जाता है। इसे प्रयोग करो, यह तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता को रूपांतरित कर देगा।

लेकिन तुम तो गुणवत्ता में नहीं, परिमाण में उत्सुक हो। तुम इसमें उत्सुक हो कि कैसे ज्यादा धन हो जाए। तुम धन की गुणवत्ता में नहीं, उसके परिमाण में, मात्रा में उत्सुक हो। तुम्हारे दो घर हो सकते हैं, तुम्हें दो कारें मिल सकती हैं, बैंक में तुम्हारा खाता बड़ा हो सकता है, बहुत चीजें हो सकती हैं, लेकिन यह सब परिमाण की बदलाहट है। परिमाण बड़ा होता जाता है, लेकिन तुम्हारी गुणवत्ता वही की वही रहती है।

संपदा चीजों की नहीं होती, संपदा तो तुम्हारे चित्त की गुणवत्ता है, वह तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता है। जहां तक गुणवत्ता का सवाल है, एक दरिद्र आदमी भी धनी हो सकता है और एक अमीर आदमी दरिद्र हो सकता है। सच्चाई यही है, क्योंकि जो व्यक्ति चीजों और चीजों के परिमाण में उत्सुक है वह इस बात से सर्वथा अपरिचित है कि उसके भीतर एक और भी आयाम है, वह गुणवत्ता का आयाम है। और वह आयाम तभी बदलता है जब तुम्हारा मन विधायक हो।

तो कल सुबह से दिनभर यह स्मरण रहे जब भी कुछ सुंदर और संतोषजनक हो, जब भी कुछ आनंददायक अनुभव आए, उसके प्रति बोधपूर्ण होओ। चौबीस घंटों में ऐसे अनेक क्षण आते हैं—सौंदर्य, संतोष और आनंद के क्षण—ऐसे अनेक क्षण आते हैं जब स्वर्ग तुम्हारे बिलकुल करीब होता है। लेकिन तुम नरक से इतने आसक्‍त हो, इतने बंधे हो कि उन क्षणों को चूकते चले जाते हो। सूरज उगता है, फूल खिलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं, पेड़ों से होकर हवा गुजरती है। वैसे क्षण घटित हो रहे हैं! एक बच्चा निर्दोष आंखों से तुम्हें निहारता है और तुम्हारे भीतर एक सूक्ष्म सुख का भाव उदित हो जाता है; या किसी की मुस्कुराहट तुम्हें आह्लाद से भर देती है।

अपने चारों ओर देखो और उसे खोजो जो आनंददायक है और उससे पूरित हो जाओ, भर जाओ। उसका स्वाद लो, उससे भर जाओ और उसे अपने पूरे प्राणों पर छा जाने दो, उसके साथ एक हो जाओ। उसकी सुगंध तुम्हारे साथ रहेगी। वह अनुभूति पूरे दिन तुम्हारे भीतर गूंजती रहेगी। और वह अनुगूंज तुम्हें ज्यादा विधायक होने में सहयोग देगी।

यह प्रक्रिया भी और—और बढ़ती जाती है। यदि सुबह शुरू करो तो शाम तक तुम सितारों के प्रति, चांद के प्रति, रात के प्रति, अंधेरे के प्रति ज्यादा खुले होगे। इसे एक चौबीस घंटे प्रयोग की तरह करो और देखो कि कैसा लगता है। और एक बार तुमने जान लिया कि विधायकता तुम्हें दूसरे ही जगत में ले जाती है तो तुम उससे कभी अलग नहीं होगे। तब तुम्हारा पूरा दृष्टिकोण नकार से विधायक में बदल जाएगा। तब तुम संसार को एक भिन्न दृष्टि से, एक नयी दृष्टि से देखोगे।

मुझे एक कहानी याद आती है। बुद्ध का एक शिष्य अपने गुरु से विदा ले रहा है। शिष्य का नाम था पूर्णकाश्यप। उसने बुद्ध से पूछा कि मैं आपका संदेश लेकर कहां जाऊं बुद्ध ने कहा कि तुम खुद ही चुन लो। पूर्णकाश्यप ने कहा कि मैं बिहार के एक सुदूर हिस्से की तरफ जाऊंगा—उसका नाम सूखा था—मैं सूखा प्रांत की तरफ जाऊंगा।

बुद्ध ने कहा कि अच्छा हो कि तुम अपना निर्णय बदल लो, तुम किसी और जगह जाओ, क्योंकि सूखा प्रांत के लोग बड़े क्रूर, हिंसक और दुष्ट हैं। और अब तक कोई व्यक्ति वहां उन्हें अहिंसा, प्रेम और करुणा का उपदेश सुनाने नहीं गया है। इसलिए अपना चुनाव बदल डालों। पर पूर्णकाश्यप ने कहा : मुझे जाने की आज्ञा दें, क्योंकि वहां कोई नहीं गया है और किसी को तो जाना ही चाहिए।

बुद्ध ने कहा कि इसके पहले कि मैं तुम्हें वहां जाने की आज्ञा दूं मैं तुमसे तीन प्रश्न पूछना चाहता हूं। अगर उस प्रांत के लोग तुम्हारा अपमान करें तो तुम्हें कैसा लगेगा? पूर्णकाश्यप ने कहा : मैं समझूंगा कि वे बड़े अच्छे लोग हैं जो केवल अपमान करते हैं, मुझे मार तो नहीं रहे हैं। वे अच्छे लोग हैं; वे मुझे मार भी सकते थे। बुद्ध ने कहा : अब दूसरा प्रश्न, अगर वे लोग तुम्हें मारें—पीटें भी तो तुम्हें कैसा लगेगा? पूर्णकाश्यप ने कहा. मैं समझूंगा कि वे बड़े अच्छे लोग हैं। वे मेरी हत्या भी कर सकते थे, लेकिन वे मुझे सिर्फ पीट रहे हैं। बुद्ध ने कहा : अब तीसरा प्रश्न, अगर वे लोग तुम्हारी हत्या कर दें तो मरने के क्षण में तुम कैसा अनुभव करोगे? पूर्णकाश्यप ने कहा : मैं आपको और उन लोगों को धन्यवाद दूंगा। अगर वे मेरी हत्या कर देंगे तो वे मुझे उस जीवन से मुक्‍त कर देंगे जिसमें न जाने कितनी गलतियां हो सकती थीं। वे मुझे मुक्‍त कर देंगे इसलिए मैं अनुगृहीत अनुभव करूंगा।

तो बुद्ध ने कहा अब तुम कहीं भी जा सकते हो, सारा संसार तुम्हारे लिए स्वर्ग है। अब कोई समस्या नहीं है। सारा जगत तुम्हारे लिए स्वर्ग है, तुम कहीं भी जा सकते हो।

ऐसे चित्त के साथ जगत में कहीं भी कुछ गलत नहीं है। और तुम्हारे चित्त के साथ कुछ भी सम्यक नहीं हो सकता, ठीक नहीं हो सकता। नकारात्मक चित्त के साथ सब कुछ गलत हो जाता है। इसलिए नहीं क्योंकि कुछ गलत है, बल्कि इसलिए क्योंकि नकारात्मक चित्त को गलत ही दिखाई पड़ता है।

‘जहां—जहां, जिस किसी कृत्य में संतोष मिलता हो, उसे वास्तविक करो।’

यह एक बहुत ही नाजुक प्रक्रिया है, लेकिन बहुत मीठी भी है। और तुम इसमें जितनी गति करोगे, यह उतनी मीठी होती जाएगी। तुम एक नयी मिठास और सुगंध से भर जाओगे। बस सुंदर को खोजो, कुरूप को भूल जाओ। तब एक क्षण आता है जब कुरूप भी सुंदर हो जाता है। सुखी क्षण की खोज करो, और तब एक क्षण आता है जब कोई दुख नहीं रह जाता है। तब कोई दुख का क्षण नहीं रह जाता है। आनंद की फिक्र करो, और देर— अबेर दुख तिरोहित हो जाता है। विधायक चित्त के लिए सब कुछ सुंदर है।

आत्म—स्मरण की तीसरी विधि :

जब नीदं अभी नहीं आयी हो और बाह्य जागरण विदा हो गया हो उस मध्य बिंदु पर बोधपूर्ण रहने से आत्मा प्रकाशित होती है।

तुम्हारी चेतना में कई मोड आते हैं, मोड़ के बिंदु आते हैं; इन बिंदुओं पर तुम अन्य समयों की तुलना में अपने केंद्र के ज्यादा करीब होते हो। तुम कार चलाते समय गियर बदलते हो और गियर बदलते हुए तुम न्‍यूट्रल गियर से गुजरते हो। यह न्‍यूट्रल गियर निकटतर है।

सुबह जब नींद बिदा हो रही होती है और तुम जागने लगते हो, लेकिन अभी जागे नहीं हो, ठीक उस मध्य बिंदु पर तुम न्‍यूट्रल गियर में होते हो। यह एक बिंदु है जहां तुम न सोए हो और न जागे हो, ठीक मध्य में हो; तब तुम न्‍यूट्रल गियर में हो। नींद से जागरण में आते समय तुम्हारी चेतना की पूरी व्यवस्था बदल जाती है, वह एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में छलांग लेती है। और इन दोनों के बीच में कोई व्यवस्था नहीं होती, एक अंतराल होता है। इस अंतराल में तुम्हें अपनी आत्मा की एक झलक मिल सकती है।

यही बात फिर रात में घटित होती है जब तुम अपनी जाग्रत व्यवस्था से नींद की व्यवस्था में, चेतन से अचेतन में छलांग लेते हो। तब फिर एक क्षण के लिए कोई व्यवस्था नहीं होती है, तुम पर किसी व्यवस्था की पकड़ नहीं होती है, क्योंकि तब तुम एक से दूसरी व्यवस्था में छलांग लेते हो। इन दोनों के मध्य में अगर तुम सजग रह सके, बोधपूर्ण रह सके, इन दोनों के मध्य में अगर तुम अपना स्मरण रख सके, तो तुम्हें अपने सच्चे स्वरूप की झलक मिल जाएगी।

तो इसके लिए क्या करें? नींद में उतरने के पहले विश्रामपूर्ण होओ और आंखें बंद कर लो। कमरे में अंधेरा कर लो। आंखें बंद कर लो और बस प्रतीक्षा करो। नींद आ रही है; बस प्रतीक्षा करो। कुछ मत करो, बस प्रतीक्षा करो। तुम्हारा शरीर शिथिल हो रहा है, तुम्हारा शरीर भारी हो रहा है। बस शिथिलता को, भारीपन को महसूस करो। नींद की अपनी ही व्यवस्था है, वह काम करने लगती है। तुम्हारी जाग्रत चेतना विलीन हो रही है। इसे स्मरण रखो, क्योंकि यह क्षण बहुत सूक्ष्म होगा, यह क्षण परमाणु सा छोटा होगा। इसे चूक गए तो चूक गए। यह कोई बड़ा अंतराल नहीं है, बहुत छोटा है। यह क्षणभर का अंतराल है, जिसमें तुम जागरण से नींद में प्रवेश कर जाते हो। तो बस पूरी सजगता से प्रतीक्षा करो। प्रतीक्षा किए जाओ।

इसमें थोड़ा समय लगेगा। कम से कम तीन महीने लगते हैं। तब एक दिन तुम्हें उस क्षण की झलक मिलेगी जो ठीक बीच में है। तो जल्दी मत करो। यह अभी ही नहीं होगा, यह आज रात ही नहीं होगा। लेकिन तुम्हें शुरू करना है और महीनों प्रतीक्षा करनी है। साधारणत: तीन महीने में किसी दिन यह घटित होगा। यह रोज ही घटित हो रहा है, लेकिन तुम्हारी सजगता और अंतराल का मिलन आयोजित नहीं किया जा सकता। वह घटित हो ही रहा है। तुम प्रतीक्षा किए जाओ और किसी दिन वह घटित होगा। किसी दिन तुम्हें अचानक यह बोध होगा कि मैं न जागा हूं और न सोया हूं।

यह एक बहुत विचित्र अनुभव है, तुम उससे भयभीत भी हो सकते हो। अब तक तुमने दो ही अवस्थाएं जानी हैं, तुम्हें अपने जागने का पता है और तुम्हें अपनी नींद का पता है। लेकिन तुम्हें यह नहीं पता है कि तुम्हारे भीतर एक तीसरा बिंदु भी है जब तुम न जागे हो और न सोए हो। इस बिंदु के प्रथम दर्शन से तुम भयभीत भी हो सकते हो, आतंकित भी हो सकते हो। भयभीत मत होओ, आतंकित मत होओ। जो भी चीज इतनी नयी होगी, अनजानी होगी, वह जरूर भयभीत करेगी। क्योंकि यह क्षण, जब तुम्हें इसका बार—बार अनुभव होगा, तुम्हें एक और एहसास देगा कि तुम न जीवित हो और न मृत, कि तुम न यह हो और न वह। यह अतल खाई जैसा है।

नींद और जागरण की व्यवस्थाएं दो पहाड़ियों की भांति हैं, तुम एक से दूसरे पर छलांग लगाते हो। लेकिन यदि तुम उनके मध्य में ठहर जाओ तो तुम अतल खाई मैं गिर जाओगे। और इस खाई का कहीं अंत नहीं है, तुम गिरते जाओगे, गिरते जाओगे।

सूफियों ने इस विधि का उपयोग किया है। लेकिन जब वे किसी साधक को यह विधि देते हैं तो सुरक्षा के लिए वे साथ ही एक और विधि भी देते हैं। सूफी साधना में इस विधि के दिए जाने के पहले दूसरी एक विधि यह दी जाती है कि तुम बंद आंखों से कल्पना करो कि मैं एक गहरे और अंधेरे कुएं में गिर रहा हूं एक अतल कुएं में गिर रहा हूं। बस कल्पना करो कि अतल कुएं में गिर रहे हो—गिरते ही जाओ, गिरते ही जाओ, सतत गिरते ही जाओ। यह कुआं अतल है, तुम कहीं रुक नहीं सकते। यह गिरना कहीं रुकने वाला नहीं है। तुम रुक सकते हो, तुम आंखें खोलकर कह सकते हो कि अब और नहीं, लेकिन यह गिरना अपने आप में कहीं रुकने वाला नहीं है। अगर तुम गिरते रहे तो कुआं अतल है और वह और—और अंधकारपूर्ण होता जाएगा।

सूफी साधना में यह अभ्यास, अतल कुएं में गिरने का अभ्यास पहले कराया जाता है। और यह अच्छा है, उपयोगी है। अगर तुमने इसका अभ्यास किया, अगर तुमने इसके सौंदर्य को समझा, इसकी शांति को अनुभव किया, तो तुम जितने ही गहरे इस कुएं में उतरोगे उतने ही ज्यादा शांत होते जाओगे। संसार बहुत पीछे छूट जाएगा और तुम्हें लगेगा कि मैं बहुत दूर, बहुत दूर, बहुत दूर निकल आया हूं। अंधकार के साथ शांति बढ़ती जाती है। और क्योंकि नीचे गहरे में कहीं कोई तल नहीं है, इसलिए भय पकड़ सकता है। लेकिन तुम्हें मालूम है कि यह सिर्फ कल्पना है, इसलिए तुम इसे जारी रख सकते हो।

इस अभ्यास के द्वारा तुम इस विधि के लिए तैयार होते हो। और फिर जब तुम जागरण और नींद के अंतराल के कुएं में गिरते हो तो वह कल्पना नहीं है, वह यथार्थ है। और यह कुआं भी अतल है, अनंत है। इसीलिए बुद्ध ने इसे शून्य कहा है, उसका अंत नहीं है। और तुम एक बार इसे जान गए तो तुम भी अनंत हो गए।

तुम्हें जाग्रत अवस्था में इस शून्य की झलक नहीं मिल सकती है, कठिन है। और नींद में इस झलक को पाना तो असंभव ही है। क्योंकि दोनों अवस्थाओं में शरीर की व्यवस्था सक्रिय रहती है और उससे अपने को पृथक करना कठिन है। लेकिन रात में एक क्षण आता है और वैसा ही क्षण सुबह में आता है—चौबीस घंटे में ये दो ही क्षण है—जब यह आसान .है। लेकिन तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी।

‘जब नींद अभी नहीं आयी हो और बाह्य जागरण विदा हो गया हो, उस मध्य बिंदु पर बोधपूर्ण रहने से आत्मा प्रकाशित होती है।’

तब तुम जानते हो कि मैं कौन हूं मेरा सच्चा स्वभाव क्या है, मेरा प्रामाणिक अस्तित्व क्या है। जागते हुए तुम झूठे हो। और यह तुम भलीभांति जानते हो। जब तुम जागे हुए हो, तुम झूठे बने रहते हो। तुम उस समय मुस्कुराते हो, जब कि आंसू बहाना ज्यादा सच होता। तुम्हारे आंसू भी भरोसे योग्य नहीं हैं। वे भी दिखाऊ हो सकते हैं, नकली हो सकते हैं, होने चाहिए इसलिए हो सकते हैं। तुम्हारी मुस्कूराहट झूठी है। जो लोग चेहरे पढ़ना जानते वे कह सकते हैं कि यह मुस्कूराहट रंग—रोगन से ज्यादा नहीं है, भीतर उसकी कोई जड़ें नहीं हैं। यह मुस्कुराहट बस तुम्हारे चेहरे पर है, ओंठों पर है, ऊपरी है। यह तुम्हारे प्राणों से नहीं उठी है। कहीं उसकी जड़ें नहीं है और न कहीं उसके हाथ—पाँव ही है। वह ऊपर से ओढ़ी हुई है। वह भीतर से बाहर नहीं आई है, वह बाहर से थोपी गई है।

तुम जो भी कहते हो, तुम जो भी करते हो, सब नकली है। यह जरूरी नहीं है कि तुम यह नकली व्यापार जान—बूझकर करते हो। यह जरूरी नहीं है। उसके प्रति तुम सर्वथा अनजान भी हो सकते हो। तुम अनजान हो। अन्यथा इस नकली मूढ़ता को सतत जारी रखना बहुत कठिन हो जाए। यह व्यापार स्वचालित है। यह झूठ चलता रहता है जब तुम जागे हुए हो और यह झूठ तब भी चलता रहता है जब तुम सोए हुए हो—लेकिन तब और ढंग से चलता है। तुम्हारे सपने प्रतीकात्मक हैं, सच नहीं। हैरानी की बात है कि तुम अपने सपनों में भी सच्चे नहीं हो, तुम अपने सपनों में भी भयभीत हो और तुम प्रतीक निर्मित करते हो।

अब मनोविश्लेषक तुम्हारे सपनों का विश्लेषण करता रहता है, यही उसका धंधा है। और यह एक भारी धंधा बन गया है, क्योंकि तुम खुद अपने सपनों का विश्लेषण नहीं कर सकते हो। सपने प्रतीकात्मक हैं, वे सच नहीं हैं। वे सिर्फ प्रतीकों के द्वारा कुछ कहते हैं। अगर तुम अपनी मां की हत्या करना चाहते हो, उससे छुटकारा पाना चाहते हो, तो तुम सपने में उसकी हत्या नहीं करोगे, तुम उसकी जगह किसी ऐसे व्यक्ति की हत्या कर दोगे जो देखने में तुम्हारी मां जैसा हो। तुम अपनी चाची या किसी और की हत्या करोगे, अपनी मां की नहीं। तुम अपने सपने में भी प्रामाणिक नहीं हो सकते हो। यही कारण है कि मनोविश्लेषण की जरूरत पड़ती है, एक पेशेवर व्यक्ति की जरूरत पड़ती है, जो तुम्हारे सपनों की व्याख्या कर सके। लेकिन तुम सपने को भी इस ढंग से रख सकते हो कि मनोविश्लेषण भी धोखा खा जाए।

तुम्हारे सपने भी सर्वथा झूठे हैं। लेकिन अगर तुम जागते हुए सच्चे रह सकी तो तुम्हारे सपने सच हो सकते हैं, तब वे प्रतीकात्मक नहीं होंगे। तब अगर तुम अपनी मां की हत्या करना चाहोगे तो तुम सपने में अपनी मां की ही हत्या करोगे, किसी और की नहीं। और फिर व्याख्या करने वाले की जरूरत नहीं होगी जो तुम्हें बताए कि तुम्हारे सपने का अर्थ क्या है। लेकिन हम इतने झूठे हैं, धोखेबाज हैं कि सपने के एकांत में भी संसार से, समाज से डरते हैं। मां की हत्या करना सबसे बड़ा पाप है। और पता नहीं, तुमने कभी इस पर विचार किया है कि नहीं कि मां की हत्या करना क्यों सबसे बड़ा पाप है। यह सबसे बड़ा पाप कहा गया है, क्योंकि प्रत्येक आदमी मां के प्रति गहरी शत्रुता अनुभव करता है। यह सबसे बड़ा पाप है और तुम्हें सिखाया जाता है, संस्कारित किया जाता है कि मां को चोट पहुंचाने का विचार करना भी पाप है। मां ने तुम्हें जन्म दिया है! सारी दुनिया में, सभी समाजों में यही बात सिखायी जाती है। धरती पर एक भी ऐसा समाज नहीं है जो इससे सहमत न हो कि मां की हत्या सबसे बड़ा पाप है। जिसने तुम्हें जन्म दिया उसे ही तुम मार रहे हो?

लेकिन यह सिखावन क्यों? गहरे में यह संभावना है कि प्रत्येक व्यक्ति अनिवार्यत: अपनी मां के विरोध में चला जाए, क्योंकि मां ने तुम्हें सिर्फ जन्म ही नहीं दिया, उसने तुम्हें झूठ और नकली बनने के लिए मजबूर भी किया। तुम जो भी हो, अपनी मां के बनाए हुए हो। अगर तुम एक नरक हो तो इसमें तुम्हारी मां का बड़ा हाथ है, सबसे बड़ा हाथ है। अगर तुम दुख में हो तो उस दुख में कहीं न कहीं तुम्हारी मां मौजूद है, क्योंकि मां ने तुम्हें जन्म दिया,

उसने तुम्हें पाल—पोसकर बड़ा किया। या कहें कि उसने तुम्हें पाल—पोसकर नकली कर दिया, उसने तुम्हें तुम्हारी प्रामाणिकता से हटा दिया। तुम्हारा पहला झूठ तुम्हारे और तुम्हारी मां के बीच घटित हुआ—पहला झूठ।

जब बच्चे ने बोलना भी नहीं सीखा है, उसके पास भाषा भी नहीं है, तब भी वह झूठ बोल सकता है। देर— अबेर वह जान जाता है कि उसके अनेक भाव मां को पसंद नहीं हैं। मां का चेहरा, उसकी आंखें, उसका व्यवहार, उसकी मुद्रा, सब बता देते हैं कि उसकी कुछ चीजें पसंद नहीं की जाती हैं, स्वीकृत नहीं हैं। और तब बच्चा दमन करने लगता है; उसे लगता है कि कुछ गलत है। अभी उसके पास भाषा नहीं है, उसका मन सक्रिय नहीं है, लेकिन उसका सारा शरीर दमन करने लगता है। और फिर उसे पता चलता है कि कभी—कभी कोई बात उसकी मां के द्वारा सराही जाती है। और यह बच्चा मां पर निर्भर है, उसका जीवन ही मां पर निर्भर है। अगर मां उसे छोड़ दे तो वह नहीं जी सकता। उसका पूरा जीवन मां में केंद्रित है।

इसलिए मा का सब कुछ—उसका व्यवहार, उसकी बात, उसका इशारा—बच्चे के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। अगर बच्चा मुस्कुराता है और तब मां उसे प्रेम देती है, लाड़—दुलार देती है, दूध पिलाती है, छाती से लगा लेती है, तो समझो कि बच्चा राजनीति सीखने लगा। वह तब भी मुस्कुराएगा जब उसके भीतर मुस्कुराहट नहीं होगी। क्योंकि अब वह जानता है कि ऐसा करके वह मां को खुश कर सकता है। अब वह झूठी मुस्कुराहट मुस्कुराएगा। अब एक झूठा व्यक्ति पैदा हो गया। अब एक राजनीतिज्ञ अस्तित्व में आया। अब वह जानता है कि कैसे झूठ हुआ जाए।

और यह सब वह अपनी मां के सत्संग में सीखता है। संसार में यह उसका पहला संबंध है। इसलिए जब उसे अपने दुखों का पता चलेगा, अपने नरक का बोध होगा, उलझनें घेरेंगी, तब उसे यह भी पता चलेगा कि इस सब में कहीं न कहीं उसकी मां छिपी है। और पूरी संभावना यह है कि तुम अपनी मां के प्रति शत्रुता अनुभव करो। यही कारण है कि सभी संस्कृतियां जोर देकर कहती हैं कि मां की हत्या जघन्य पाप है; विचार में भी, स्वप्न में भी तुम मां की हत्या नहीं कर सकते।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अपनी मां की हत्या करो। मैं केवल यह कह रहा हूं कि तुम्हारे स्‍वप्‍न तक झूठे हैं, वे प्रतीकात्मक हैं, सच्चे नहीं। तुम इतने झूठे हो कि तुम सच्चा स्‍वप्‍न भी नहीं देख सकते।

ये दो तुम्हारे झूठे चेहरे हैं। एक चेहरा तुम्हारे जागरण में प्रकट होता है और दूसरा तुम्हारी नींद में। इन दो झूठे चेहरों के बीच एक छोटा सा द्वार है, एक छोटा सा अंतराल है। इस अंतराल में तुम्हें अपने मौलिक चेहरे की झलक मिल सकती है—उस मौलिक चेहरे की जो तब था जब तुम मां से नहीं संबंधित हुए थे, और मा के जरिए समाज से नहीं जुड़े थे; जब तुम अपने साथ अकेले थे, जब तुम तुम थे—तुम यह—वह नहीं थे, जब कोई विभाजन नहीं था। केवल सत्य था, कुछ असत्य नहीं था। इन दो व्यवस्थाओं के बीच तुम्हें अपने उस सच्चे चेहरे की झलक मिल सकती है।

साधारणत: हम अपने सपनों की चिंता नहीं लेते, हम सिर्फ जागते समय की चिंता लेते हैं। लेकिन मनोविश्लेषण तुम्हारे सपनों की ज्यादा चिंता लेता है, वह तुम्हारे जागरण की चिंता नहीं लेता। क्योंकि वह समझता है कि जागे हुए तुम ज्यादा झूठे होते हो। तुम्हारे सपनों से कुछ पकड़ा जा सकता है। जब तुम सोए होते हो तो कम सजग होते हो, तुम कुछ आरोपित नहीं करते, तब तुम तोडते—मरोड़ते नहीं। उस अवस्था में कुछ सत्य पकड़ा जा सकता है।

तुम जागते हुए ब्रह्मचारी हो सकते हो, साधु हो सकते हो। लेकिन तुमने अपनी कामवासना को दबा रखा है। वह दबी हुई कामवासना तुम्हारे स्‍वप्‍नों में अभिव्यक्‍त होगी; तुम्हारे सपने कामुक होंगे। ऐसा साधु खोजना कठिन है जो कामुक सपने न देखता हो। यह असंभव है। तुम्हें कामुक सपनों के बिना अपराधी तो मिल जाएंगे, लेकिन ऐसा धार्मिक आदमी खोजना मुश्किल है जो कामुक सपने न देखता हो। एक व्यभिचारी कामुक सपनों के बिना हो सकता है, लेकिन तथाकथित साधु—महात्मा कामुक सपनों के बिना नहीं हो सकते। क्योंकि तुम जागते हुए जिसे दबाओगे, वह तुम्हारे सपनों में उभरकर आएगा, वह तुम्हारे सपनों को प्रभावित करेगा।

मनोचिकित्सक तुम्हारे जागरण की फिक्र नहीं करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि वह बिलकुल झूठा है। अगर कुछ सच्चा, कुछ यथार्थ देखना हो तो वह केवल सपनों में देखा जा सकता है।

लेकिन तंत्र कहता है कि सपने भी उतने सच नहीं हैं। हालांकि जागरण की तुलना में वे ज्यादा सच हैं—यह पहेली सी मालूम होगी, क्योंकि हम सपनों को असत्य मानते हैं—वे जागरण की घड़ियों की बजाय ज्यादा सच हैं। क्योंकि सपनों में तुम अपने पहरे पर कम होते हो, नींद में सेंसर सोया रहता है, और दमित चीजें ऊपर आ सकती हैं, अपने को अभिव्यक्‍त कर सकती हैं। ही, यह अभिव्यक्ति प्रतीकात्मक होगी, पर प्रतीकों को समझा जा सकता है।

सारी दुनिया में मनुष्य के प्रतीक समान हैं। जागते हुए तुम भिन्न भाषा बोल सकते हो, लेकिन सपने में तुम वही भाषा बोलते हो जो सारे लोग बोलते हैं। सारी दुनिया की स्‍वप्‍न— भाषा एक है। अगर कामवासना दबाई गई है तो दुनियाभर में एक ही तरह के प्रतीक उसे अभिव्यक्‍त करेंगे। अगर भोजन की इच्छा को दबाया गया है, भूख को दमित किया गया है तो उसे भी सपने में सर्वत्र एक ही तरह के प्रतीक अभिव्यक्‍त करेंगे। स्वप्न— भाषा एक है। लेकिन प्रतीकों के कारण ही स्‍वप्‍नों के साथ एक दूसरी कठिनाई है। फ्रायड उनका अर्थ एक ढंग से कर सकता है, दा उनका अर्थ भिन्न ढंग से कर सकता है और एडलर उनका अर्थ और भी भिन्न ढंग से कर सकता है। अगर सौ मनोविश्लेषक तुम्हारा विश्लेषण करें तो वे सौ व्याख्याएं करेंगे। और तुम पहले से भी ज्यादा उलझन में पड़ जाओगे। एक ही चीज की सौ व्याख्याएं तुम्हें और भी भ्रांत कर देंगी।

तंत्र कहता है, तुम न जागते हुए सच हो और न सोते हुए सच हो, तुम इन दो अवस्थाओं के बीच में कहीं सच हो। इसलिए न जागरण की फिक्र करो और न नींद और स्वप्न की, सिर्फ अंतराल की फिक्र करो। उस अंतराल के प्रति जागो। एक से दूसरी अवस्था में गुजरते हुए इस अंतराल का दर्शन करो। और एक बार तुम जान जाते हो कि. यह अंतराल कब आता है, तुम उसके मालिक हो जाते हो। तब तुम्हें कुंजी मिल गई, तुम किसी भी वक्‍त उस अंतराल को खोलकर उसमें प्रवेश कर सकते हो। तब होने का एक भिन्न आयाम, एक नया आयाम खुलता है।

आत्म—स्मरण की चौथी और अंतिम विधि :

भ्रांतियां छलती हैं रंग सीमित करते हैं विभाज्य भी अविभाज्य हैं।

ह एक दुर्लभ विधि है जिसका प्रयोग बहुत कम हुआ है। लेकिन भारत के एक महानतम शिक्षक शंकराचार्य ने इस विधि का प्रयोग किया है। शंकर ने तो अपना पूरा दर्शन ही इस विधि के आधार पर खड़ा किया। तुम उनके माया के दर्शन को जानते हो। शंकर कहते हैं कि सब कुछ माया है। तुम जो भी देखते, सुनते या अनुभव करते हो, सब माया है। वह सत्य नहीं है, क्योंकि सत्य को इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता।

तुम मुझे सुन रहे हो और मैं देखता हूं कि तुम मुझे सुन रहे हो, हो सकता है कि यह सब स्‍वप्‍न हो। यह स्‍वप्‍न है या नहीं, यह तय करने का कोई उपाय नहीं है। हो सकता है कि मैं स्वप्न देख रहा हूं कि तुम मुझे सुन रहे हो। यह मैं कैसे जान सकता हूं कि यह स्वप्न नहीं, सत्य है? कोई उपाय नही है।

च्चांगत्सु के बारे में कहा जाता है कि एक रात उसने स्‍वप्‍न देखा कि वह तितली हो गया है। सुबह जागने पर वह बहुत दुखी था—और वह दुखी होने वाला व्यक्ति नहीं था, लोगों ने कभी उसे दुखी नहीं देखा था। उसके शिष्य इकट्ठे हुए और उन्होंने पूछा गुरुदेव, आप इतने दुखी क्यों हैं?

च्चांगत्सु ने बताया कि एक सपने के कारण मैं दुखी हूं। उसके शिष्यों ने कहा कि हैरानी की बात है कि आप सपने के कारण दुखी हैं! आपने तो हमें सदा यही सिखाया कि यदि सारा संसार भी दुख देने आए तो दुखी मत होना। और एक सपने के कारण आप दुखी हैं? आप क्या कह रहे हैं? च्चांगत्सु ने कहा कि यह सपना ही ऐसा है कि इससे मैं बहुत उलझन में पड़ गया हूं और इसलिए दुखी हूं। मैंने सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं।

शिष्यों ने पूछा कि इसमें हैरानी की बात क्या है?

च्चांगत्सु ने कहा कि दिक्कत यह है कि अगर च्चांगत्सु सपना देख सकता है कि मैं तितली हो गया हूं तो इससे उलटा भी हो सकता है, तितली सपना देख सकती है कि मैं च्चांगत्सु हो गयी हूं। यही कारण है कि मैं परेशान हूं कि क्या ठीक है और क्या गलत है? क्या च्चांगत्सु ने सपना देखा था कि वह तितली हो गया है या कि तितली सोने चली गई और उसने सपना देखा कि वह च्चांगत्सु हो गई है? अगर एक बात हो सकती है तो दूसरी भी हो सकती है।

और कहा जाता है कि च्चांगत्सु को जीवनभर इस पहेली का हल न मिला, यह सदा उसके साथ रही।

यह कैसे तय हो कि मैं जो अभी तुमसे बात कर रहा हूं वह सपने में नहीं कर रहा हूं? यह कैसे तय हो कि तुम सपना नहीं देख रहे हो कि मैं बोल रहा हूं? इंद्रियों से कोई निर्णय संभव नहीं है, क्योंकि सपना देखते हुए सपना यथार्थ मालूम पड़ता है—उतना ही यथार्थ जितना कुछ भी दूसरा यथार्थ मालूम होता है। जब तुम सपना देखते हो तो तुम्हें वह सदा सच्चा मालूम पड़ता है। और जब सपने को सच की तरह देखा जा सकता है तो क्यों सच को सपने की तरह नहीं देखा जा सकता है?

शंकर कहते हैं कि इंद्रियों से यह जानना संभव नहीं है कि जो चीज तुम्हारे सामने है वह सच है या स्‍वप्‍न। और जब जानने का उपाय ही नहीं है कि वह सच है या झूठ तो शंकर। उसे माया कहते हैं।

माया का अर्थ झूठ नहीं है, माया का अर्थ है कि यह निर्णय करना असंभव है कि वह सच है या झूठ। इस बात को स्मरण रखो। पश्चिम की भाषाओं में माया का गलत अनुवाद हुआ है, पश्चिम की भाषाओं में माया शब्द अयथार्थ या झूठ का अर्थ रखता है। यह अर्थ सही नहीं है। माया का इतना ही अर्थ है कि यह निश्चय नहीं हो सकता है कि कोई चीज यथार्थ है कि अयथार्थ। यह उलझन माया है।

यह सारा जगत माया है। जुम उसके संबंध में निश्चित नहीं हो सकते, कुछ भी निर्णयपूर्वक नहीं कह सकते। यह जगत निरंतर तुमसे छूट—छूट जाता है, निरंतर बदल जाता है, कुछ से कुछ हो जाता है। यह इंद्रजाल सा लगता है, स्‍वप्‍नवत लगता है। और यह विधि इसी दृष्टि से संबंधित है।

‘भ्रांतियां छलती हैं।’

या जो चीज छले वह भांति है।

‘रंग सीमित करते हैं, विभाज्य भी अविभाज्य हैं।’

इस माया के जगत में कुछ भी निश्चित नहीं है। सारा जगत इंद्रधनुष के समान है, वह भासता है, लेकिन है नहीं। जब तुम उससे बहुत दूर होते हो तो वह है, जब करीब जाते हो तो वह खोता जाता है। जितना करीब जाओगे उतना ही वह खोता जाएगा। और अगर तुम उस बिंदु पर पहुंच जाओ जहां इंद्रधनुष दिखाई पड़ता था तो वह बिलकुल खो जाएगा।

सारा जगत इंद्रधनुष के रंगों जैसा है। और सच्चाई यही है। जब तुम दूर होते हो, सब कुछ आशापूर्ण दिखाई देता है, जब तुम करीब आते हो, आशा खो जाती है। और जब तुम मंजिल पर पहुंच जाते हो, तब तो राख ही राख बचती है। मृत इंद्रधनुष बचता है जिसके सब रंग उड़ गए हैं, कुछ भी वैसा नहीं है जैसा दिखता था। जैसा तुमने चाहा था वैसा कुछ भी नहीं है।’विभाज्य भी अविभाज्य हैं।’

तुम्हारा सब गणित, तुम्हारा सब हिसाब—किताब, तुम्हारी सब धारणाएं, तुम्हारे सब सिद्धात—सब कुछ व्यर्थ हो जाते हैं। अगर तुम इस माया को समझने की चेष्टा करोगे तो तुम्हारी चेष्टा ही तुम्हें और भ्रांत कर देगी। वहा कुछ भी निश्चित नहीं है, सब कुछ अनिश्चित है। जगत एक प्रवाह है, परिवर्तनों का प्रवाह, और तुम्हारे लिए यह तय करने का कोई उपाय नहीं है कि क्या सच है और क्या सच नहीं है।

इस हालत में क्या होगा? अगर तुम्हारी ऐसी दृष्टि हो तो क्या होगा? अगर यह दृष्टि तुममें गहरी उतर जाए कि जिस चीज के संबंध में निश्चय नहीं हो सके वह माया है तो तुम अपने ही आप, सहजता से अपनी तरफ मुड़ जाओगे। तब तुम्हें अपना केंद्र सिर्फ अपने भीतर खोजना होगा। वही एकमात्र सुनिश्चितता है।

इसे इस तरह समझने की कोशिश करो। रात में मैं स्वप्न देख सकता हूं कि मैं तितली बन गया हूं और मैं स्वप्न में तय नहीं कर सकता कि यह सच है या झूठ। और अगली सुबह मैं च्चांगत्सु की तरह उलझन में पड़ सकता हूं कि अब कहीं तितली ही यह सपना तो नहीं देख रही है कि वह च्चांगत्सु हो गई है!

अब ये दो सपने हैं और तुलना का कोई उपाय नहीं है कि इनमें कौन सच है और कौन झूठ। लेकिन च्चांगत्सु एक चीज चूक रहा है—वह है स्‍वप्‍न देखने वाला। वह केवल सपनों की सोच रहा है, उनकी तुलना कर रहा है, और स्‍वप्‍न देखने वाले को चूक रहा है। वह उसे चूक रहा है जो सपना देखता है कि च्चांगत्सु तितली बन गया है। और वह उसे चूक रहा है जो विचार करता है कि बात बिलकुल उलटी भी हो सकती है—कि तितली सपना देख रही हो कि वह च्चांगत्सु हो गई है। यह देखने वाला कौन है? द्रष्टा कौन है? कौन है वह जो सोया हुआ था और अब जागा हुआ है?

तुम मेरे लिए असत्य हो सकते हो, तुम मेरे लिए स्वप्न हो सकते हो, लेकिन मैं अपने लिए स्वप्न नहीं हो सकता। क्योंकि स्वप्न के होने के लिए भी एक सच्चे स्‍वप्‍न देखने वाले की जरूरत है। झूठे स्वप्न के लिए भी सच्चे स्‍वप्‍नदर्शी की जरूरत है। स्वप्न भी सच्चे स्‍वप्‍नदर्शी के बिना नहीं हो सकता है। तो स्वप्न को छोड़ो।

यह विधि कहती है. स्वप्न को भूल जाओ। सारा जगत माया है, तुम माया नहीं हो। तुम जगत के पीछे मत भागों, क्योंकि वहां सुनिश्चित होने की कोई संभावना नहीं है कि क्या सत्य है और क्या असत्य। और अब तो वैज्ञानिक शोध से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है।

पिछले तीन सौ वर्षों तक विज्ञान सुनिश्चित था और शंकर एक दार्शनिक, एक कवि मालूम पड़ते थे। तीन सदियों तक विज्ञान असंदिग्ध था, सुनिश्चित था, लेकिन पिछले दो दशकों से विज्ञान का निश्चय अनिश्चय में बदल गया है। अब बड़े से बड़े वैज्ञानिक कहते हैं कि कुछ भी निश्चित नहीं है और पदार्थ के साथ हम कभी निश्चित नहीं हो सकते। सब कुछ पुन: संदिग्ध हो गया है। सब कुछ प्रवाहमान, बदलता हुआ मालूम पड़ता है। बाहरी रूप—रंग ही निश्चित मालूम पड़ता है, लेकिन जैसे—जैसे तुम उसमें गहरे जाते हो, सब अनिश्चित होता जाता है, सब धुंधला— धुंधला होता जाता है।

शंकर कहते हैं—और तंत्र ने सदा कहा है—कि जगत माया है। शंकर के जन्म के पहले भी तंत्र इस विधि का उपयोग करता था कि जगत माया है, उसे स्‍वप्‍नवत समझो। और अगर तुमने इसे माया समझा—और यदि तुमने जरा भी ध्यान दिया तो तुम जानोगे ही कि यह माया है—तो तुम्हारी चेतना का पूरा तीर भीतर की ओर मुड़ जाएगा, क्योंकि सत्य को जानने की अभीप्सा प्रगाढ़ है।

अगर सारा जगत अयथार्थ है, असत्य है, तो उसमें कोई आश्रय नहीं मिल सकता है। तब तुम छायाओं के पीछे भाग रहे हो; अपने समय, शक्ति और जीवन का अपव्यय कर रहे हो। अब भीतर की तरफ चलो, क्योंकि एक बात तो निश्चित है. कि मैं हूं। यदि सारा जगत भी माया है तो भी एक चीज निश्चित है कि कोई है जो जानता है कि यह माया है। ज्ञान भ्रांत हो सकता है, ज्ञेय भ्रांत हो सकता है, लेकिन ज्ञाता भ्रांत नहीं हो सकता। यही एकमात्र निश्चय है, एकमात्र चट्टान —है, जिस पर तुम खडे हो सकते हो।

यह विधि कहती है : संसार को देखो; यह स्‍वप्‍नवत है, माया है, वैसा बिलकुल नहीं है जैसा भासता है। यह बस इंद्रधनुष जैसा है। इस भाव की गहराई में उतरो और तुम अपने पर फेंक दिए जाओगे। और अपने अंतस पर आने के साथ—साथ तुम निश्चय को, सत्य को, असंदिग्ध को, परम को उपलब्ध हो जाते हो।

विज्ञान कभी परम तक नहीं’ पहुंच सकता, वह सदा सापेक्ष रहेगा। सिर्फ धर्म परम को उपलब्ध हो सकता है। क्‍योंकि धर्म स्‍वप्‍न को नहीं,स्‍वप्‍नदर्शी को खोजता है। धर्म दृश्‍य को नहीं, द्रष्टा को खोजता है। धर्म उसे खोजता है जो चिन्मय है।

आज इतना ही।


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अंतर्यात्रा–(ध्‍यान-शिविर)–प्रवचन–4

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मन—साक्षात्‍कार के सूत्र—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; सुबह।

ध्‍यान साधना शिविर, आजोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य का मन, उसका मस्तिष्क एक रुग्ण घाव की तरह निर्मित हो गया है। वह एक स्वस्थ केंद्र नहीं है, एक अस्वस्थ फोड़े की भांति हो गया है। और इसीलिए हमारा सारा ध्यान मस्तिष्क के आस—पास ही घूमता रहता है। शायद आपको यह खयाल न आया हो कि शरीर का जो अंग रुग्ण हो जाता है, उसी अंग के आस— पास हमारा ध्यान घूमने लगता है। अगर पैर में दर्द हो तो ही पैर का पता चलना शुरू होता है और पैर में दर्द न हो तो पैर का कोई भी पता नहीं चलता। हाथ में फोड़ा हो तो उस फोड़े का पता चलता है। फोड़ा न हो तो हाथ का कोई पता नहीं चलता है। हमारा मस्तिष्क जरूर किसी न किसी रूप में रुग्ण हो गया है, क्योंकि चौबीस घंटे हमें मस्तिष्क का ही पता चलता है और किसी चीज का कोई पता नहीं चलता।

शरीर जितना स्वस्थ होगा, उतना ही उसका बोध नहीं होगा। जो अंग अस्वस्थ होता है, उसी का बोध होता है। मस्तिष्क का ही हमें बोध होता है शरीर में, उसके आस—पास ही हमारी चेतना घूमती है और जानती है और पहचानती है। जरूर वहां कोई रुग्ण घाव पैदा हो गया है। इस रुग्ण घाव से मुक्त हुए बिना, मस्तिष्क की इस अत्यंत अशांत और तनाव से भरी हुई स्थिति से मुक्त हुए बिना कोई व्यक्ति जीवन के केंद्र की ओर गति नहीं कर सकता है। इसलिए आज मस्तिष्क की इस स्थिति और इसमें परिवर्तन के लिए कुछ विचार हम करेंगे।

पहली तो बात है, हम मस्तिष्क की स्थिति को ठीक से समझ लें। यदि दस मिनट को आप एकांत में बैठ जाएं और आपके मन में जो विचार चलते हों उन्हें एक कागज पर ईमानदारी से लिख लें, तो उस कागज को आप अपने निकटतम मित्र को भी बताने को राजी नहीं होंगे। क्योंकि आप पाएंगे, उसमें ऐसे पागल विचार हैं जिनकी आपसे कोई भी अपेक्षा नहीं करता। आप स्वयं भी अपने से अपेक्षा नहीं करते। इतने असंगत, इतने व्यर्थ, इतने एक—दूसरे से असंबद्ध विचार हैं कि आपको प्रतीत होगा, आप पागल तो नहीं हो गए!

ईमानदारी से दस मिनट आप के मन में जो भी चलता है उसे वैसा ही लिख लें तो आप खुद ही आश्चर्य से भर जाएंगे कि मेरे मन के भीतर यह क्या चलता है! मैं स्वस्थ हूं या विक्षिप्त हूं? लेकिन कभी हम दस मिनट के लिए भी मन के भीतर झांक कर नहीं देखते कि वहां क्या चल रहा है। हो सकता है हम इसीलिए न झांकते हों कि हमें बहुत गहरे में इस बात का पता है कि वहां क्या चल रहा है।

शायद हम भयभीत हैं। इसीलिए आदमी अकेले में होने से डरता है और चौबीस घंटे किसी न किसी का साथ खोजता रहता है—कोई मित्र मिल जाए, कोई क्लब हो, कहीं भीड़ हो। नहीं कोई मिले तो अखबार मिल जाए, रेडियो मिल जाए, लेकिन अकेला कोई भी नहीं होना चाहता, क्योंकि अकेले होते से ही स्वयं की जो वास्तविक दशा है, उसकी खबरें मिलनी शुरू हो जाती हैं।

दूसरे की मौजूदगी में हम दूसरे में उलझे रहते हैं और खुद का कोई भी पता नहीं चलता। दूसरे की जो तलाश है, वह अपने से दूर भागने की तलाश के सिवाय और कुछ भी नहीं है। वह स्वयं से पलायन है, स्वयं से एस्केप है।

हम जो दूसरे लोगों में इतने उत्सुक होते हैं उसका बुनियादी कारण यह है कि हम अपने से डरते हैं। और हमें भलीभांति पता है कि अगर हमने पूरी तरह अपने को जान लिया तो हम पाएंगे कि हम बिलकुल पागल हैं। इस स्थिति से बचने के लिए आदमी साथ खोजता है, संगी खोजता है, मित्र खोजता है, समाज खोजता है, भीड़ खोजता है।

एकांत से आदमी डरता है, एकांत से भयभीत होता है, क्योंकि एकांत में उसकी वास्तविक स्थिति का प्रतिफलन मिल सकता है। उसके खुद के चेहरे की छाया उसे दिखाई पड़ सकती है। और वह बहुत घबड़ाने वाली होगी, वह बहुत डराने वाली होगी। इसलिए सुबह उठने के बाद सोने तक हम अपने से भागने के सब उपाय करते रहते हैं कि कहीं स्वयं से मिलना न हो जाए, कहीं ऐसा न हो कि खुद से मुलाकात हो जाए।

और हजारों तरकीबें आदमी ने विकसित की हैं स्वयं से भागने की। और जितनी मनुष्य की मस्तिष्क की स्थिति बिगड़ती गई है उतने ही हमने स्वयं से भागने के लिए नये—नये आविष्कार किए हैं। अगर हम पिछले पचास वर्षों की मानसिक दशा का आकलन करें तो हम पाएंगे कि पचास वर्षों में आदमी ने स्वयं से भागने की जितनी ईजादें की हैं, इसके पहले कभी भी नहीं की थीं। हमारे सिनेमा—गृह, हमारे रेडियो, हमारे टेलीविजन, सब स्वयं से भागने के उपाय हैं। और आदमी इतना परेशान होता जा रहा है।

मनोरंजन की इतनी खोज, स्वयं को थोड़ी देर के लिए भुलाने के लिए इतना आयोजन इसीलिए किया जा रहा है कि भीतर स्थिति बिगड़ती जा रही है। दुनिया भर में सभ्यता के बढ़ने के साथ—साथ नशों का प्रयोग बढ़ता चला गया है। और अभी नये—नये नशे खोजे गए हैं जिनकी यूरोप और अमरीका में जोर से धूम है। लिसर्जिक एसिड है, मेस्कलीन है, मारिजुआना है। सारे यूरोप और अमरीका के सारे सभ्य नगरों में, सारे शिक्षित लोगों में जोर से नये—नये नशों की खोज चल रही है कि आदमी के लिए स्वयं को भूल जाने का कोई सुव्यवस्थित उपाय होना चाहिए, नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।

क्या कारण इस सबके पीछे होगा? क्यों हम अपने को भूलना चाहते हैं? सेल्फ—फॉरगेटफुलनेस के लिए, आत्म—विस्मरण के लिए हम इतने आतुर क्यों हैं? और आप ऐसा न सोचें कि सिनेमा में जाने वाले लोग ही स्वयं को भूलते हैं। मंदिर में जाने वाले भी इसीलिए मंदिर जाते हैं, कोई फर्क नहीं है। मंदिर स्वयं को भूल जाने का पुराना उपाय है, सिनेमा नया उपाय है। एक आदमी बैठ कर राम—राम जपता रहता है, तो आप यह न सोचें कि वह कोई भिन्न काम कर रहा है। वह राम—राम के शब्द में स्वयं को भूलने की उसी भांति कोशिश कर रहा है जैसे कोई आदमी फिल्मी गीत सुन कर कर रहा हो। इन दोनों बातों में फर्क नहीं है।

अपने से बाहर किसी भी चीज में उलझने की कोशिश— वह चाहे राम हो, चाहे सिनेमा हो, चाहे संगीत हो— अपने से बाहर किसी भी चीज में उलझे रहने की कोशिश बहुत बुनियाद में, गहरे में अपने से बचने की कोशिश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह आत्म—पलायन चल रहा है और हम सब इसमें किसी न किसी रूप में संलग्न हैं। यह इस बात की सूचना है कि भीतर स्थिति बहुत बिगड़ती जा रही है और वहां झांकने का साहस भी हम खोते जा रहे हैं। वहां देखने का साहस भी हम खोते जा रहे हैं। वहां आख ले जाने के लिए भी हम भयभीत हो गए हैं।

हम उन शुतुरमुर्गों की तरह काम कर रहे हैं जिनके बाबत आपने सुना होगा कि वे दुश्मन को देख कर रेत में मुंह छिपा कर खड़े हो जाते हैं। दुश्मन को देखना खतरनाक है। दुश्मन सामने है, शुतुरमुर्ग अपने सिर को रेत में गड़ा लेता है और निश्चित हो जाता है। क्योंकि जब दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता तो तर्क उसका कहता है कि जो नहीं दिखाई पड़ता वह नहीं है। लेकिन यह भूल भरा तर्क है। और शुतुरमुर्ग माफ किए जा सकते हैं, आदमी माफ नहीं किया जा सकता है। नहीं दिखाई पड़ने से कोई चीज मिट नहीं जाती है। दिखाई पड़ने से तो मिटने का कोई उपाय भी हो सकता है, लेकिन न दिखाई पड़ने से तो मिटने का उपाय भी नहीं किया जा सकता।

हम भूलना चाहते हैं भीतर जो स्थिति है उसे। उस स्थिति को हम देखना नहीं चाहते। शायद हम मन में यह संतोष कर लेते होंगे कि जो नहीं दिखाई पड़ रहा है वह नहीं है। जो नहीं दिखाई पड़ रहा वह पूरी तरह है। न दिखाई पड़ने से न हो जाने का कोई संबंध नहीं है। और अगर दिखाई पड़ता तो शायद हम उसे बदल भी सकते। लेकिन नहीं दिखाई पड़ रहा है इसलिए हम उसे बदलने में भी असमर्थ हो गए हैं। वह भीतर बढ़ता जाएगा, एक ऐसे घाव की तरह, एक ऐसे फोड़े की तरह जिसे हमने छिपा लिया है और जिसे हम देखने को तैयार नहीं हैं।

मस्तिष्क एक फोड़ा हो गया है। अगर किसी दिन ऐसा संभव हो सका कि कोई मशीन ईजाद हो सकी और हम एक—एक आदमी के भीतर क्या चलता है उसे देखने में समर्थ हो सके तो शायद दुनिया में हर आदमी उसी क्षण आत्मघात कर लेगा। क्योंकि कोई भी इस बात के लिए तैयार नहीं होगा कि उसके भीतर क्या चलता है, उसे कोई और देख ले। यह किसी न किसी दिन संभव हो जाएगा। और यह परमात्मा की बड़ी दया है कि उसने ऐसी खिड़की नहीं बनाई हमारे मस्तिष्क में, जिसमें से हम झांक कर एक—दूसरे के भीतर क्या चलता है उसे देख लें।

आदमी भीतर दबाए बैठे हुए हैं कुछ और, बाहर वे जो कहते हैं वह बहुत और है। बाहर जो उनके चेहरे पर दिखाई पड़ता है वह कुछ और है, भीतर जो उनके चलता है वह बिलकुल और है। हो सकता है, बाहर वे प्रेम की बातें कर रहे हों और भीतर घृणा के विचार चल रहे हों। हो सकता है, वे सुबह से मिल कर किसी आदमी से कह रहे हों कि नमस्कार! आपको देख कर बहुत आनंद हुआ। सुबह से आप मिल गए बड़ी खुशी हुई। और भीतर वे कह रहे हों कि इस दुष्ट का चेहरा सुबह से कैसे दिखाई पड़ गया!

अगर एक विंडो हो, एक खिड़की हो और हम आदमी के सिर के भीतर झांक सकें तो बड़ी मुश्किल पड़ जाए, जीना कठिन हो जाए। जिससे वे मित्रता की बातें कर रहे हों, भीतर सोच रहे हों कि यह आदमी कब खत्म हो जाए। ऊपर कुछ और है, भीतर कुछ और है। और भीतर की तरफ हम देखने की हिम्मत भी नहीं करते कि भीतर हम झांकें और देखें।

एक रात ऐसा हुआ। एक घर में एक मां थी और उसकी बेटी थी। और उन दोनों को रात में उठ कर नींद में चलने की बीमारी और आदत थी। कोई तीन बजे होंगे रात में, तब वह मां उठी और मकान के पीछे बगिया में पहुंच गई। नींद में ही स्लीप वॉकिंग की आदत थी, नींद में चलने की और बात करने की। वह मकान के पीछे बगिया में पहुंच गई। उसकी लड़की भी उठी, और वह भी थोड़ी देर बाद बगिया में पहुंच गई। जैसे ही उस बूढ़ी ने अपनी लड़की को देखा, वह जोर से चिल्लाई. चांडाल, तूने ही मेरी युवा अवस्था छीन ली है। तूने ही मेरी जवानी छीन ली है। तू जब से पैदा हुई तब से मैं की होनी शुरू हो गई। तू मेरी शत्रु है, तू न होती तो मैं अभी भी जवान होती।

उस लड़की ने जैसे ही अपनी बूढ़ी मां को देखा, वह जोर से चिल्लाई कि दुष्ट, तेरे ही कारण मेरा जीवन एक संकट और बंधन बन गया है। मेरे जीवन के हर प्रवाह में तू रोड़े की तरह खड़ी हुई है। मेरे जीवन के लिए तू एक जंजीर बन गई है।

और तभी मुर्गे ने बांग दी और उन दोनों की नींद खुल गई। की ने लड़की को देखते ही कहा. बेटी, इतनी सुबह क्यों उठ आई? कहीं तुझे सर्दी न लग जाए। चल, भीतर चल! और उस लड़की ने जल्दी से अपनी की मां के पैर पड़े। सुबह से पैर पड़ने का उसका रोज का नियम था। और उसने कहा कि मां, तुम इतनी जल्दी उठ आईं? तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती है। इतनी जल्दी नहीं उठना चाहिए। आप चलिए और विश्राम करिए। और नींद में उन्होंने यह कहा और जाग कर उन्होंने यह कहा!

नींद में आदमी जो कहता है वह जागने के बजाय ज्यादा सच्चा होता है, क्योंकि ज्यादा भीतरी होता है। सपने में जो आप देखते हैं, वह आपकी कहीं ज्यादा असलियत है, बजाय उसके जो रोज आप बाजार और भीड़ में देखते हैं। भीड़ का चेहरा बनाया हुआ कृत्रिम चेहरा है। आप अपने गहरे में बिलकुल दूसरे आदमी हैं।

ऊपर से आप कुछ अच्छे— अच्छे विचार चिपका कर काम चला लेते हैं, लेकिन भीतर विचारों की आग जल रही है। ऊपर से आप बिलकुल शांत और स्वस्थ मालूम होते हैं, भीतर सब अस्वस्थ और विक्षिप्त है। ऊपर से आप मुस्कुराते मालूम होते हैं, और हो सकता है कि सारी मुस्कुराहट भीतर आसुओ के ढेर पर खड़ी हो। बल्कि बहुत संभावना यही है कि भीतर जो आंसू हैं, उनको छिपाने के लिए ही मुस्कुराहट का आपने अभ्यास कर लिया हो। आमतौर से आदमी यही करता है।

नीत्शे से किसी ने एक बार पूछा कि तुम हमेशा हंसते रहते हो! इतने प्रसन्न हो! सच में ही क्या? नीत्शे ने कहा अगर तुमने पूछ ही लिया है तो मैं असलियत भी बता दूं। मैं इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लग। इसके पहले कि रोना शुरू हो जाए, मैं हंसी से उसको दबा लेता हूं भीतर ही रोक लेता हूं। मेरी हंसी दूसरों को धोखा दे देती होगी कि मैं खुश हूं। और मैं सिर्फ इसलिए हंसता हूं कि मैं इतना दुखी हूं कि हंसने से ही राहत मिल जाती है। अपने को समझा लेता हूं।

बुद्ध को किसी ने हंसते नहीं देखा, महावीर को किसी ने हंसते नहीं देखा, क्राइस्ट को किसी ने हंसते नहीं देखा। कोई बात होनी चाहिए। शायद भीतर अब आंसू नहीं रहे जिन्हें छिपाने के लिए हंसने की जरूरत हो। शायद भीतर दुख नहीं रहा, जिसे ढांकने के लिए मुस्कुराहट सीखनी पड़ती हो। भीतर जो उलटा था, वह विसर्जित हो गया है, इसलिए बाहर अब हंसी के फूल लगाने की कोई जरूरत नहीं रह गई।

जिसके शरीर से दुर्गंध आती हो, उसे सुगंध छिड़कने की जरूरत पड़ती है। और जिसका शरीर कुरूप हो, उसे सुंदर दिखाई पड़ने के लिए चेष्टा करनी पड़ती है। और जो भीतर दुखी है, उसे हंसी सीखनी पड़ती है। और जिसके भीतर आंसू भरे हैं, उसे मुस्कुराहट लानी पड़ती है। और जो भीतर कांटे ही कांटे से भरा है, उसे बाहर से फूल चिपकाने पड़ते हैं।

आदमी बिलकुल वैसा नहीं है जैसा दिखाई पड़ता है, उससे बिलकुल उलटा है। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है। और यह बाहर जो हमने चिपका लिया है इससे दूसरे धोखे में आ जाते तो भी ठीक था, हम खुद ही धोखे में आ जाते हैं। यह जो बाहर हम दिखाई पड़ते हैं इससे दूसरे लोग धोखे में आते तो ठीक था, वह कोई बड़े आश्चर्य की बात न थी, क्योंकि लोग बाहर से ही देखते हैं। लेकिन हम खुद ही धोखे में आ जाते हैं, क्योंकि हम भी दूसरों की आंखों में अपनी बनी हुई तस्वीर को अपना होना समझ लेते हैं। हम भी दूसरों के जरिए अपने को देखते हैं, कभी सीधा नहीं देखते— जैसा कि मैं हूं र जैसा कि मेरे भीतर मेरा वास्तविक होना है।

दूसरों की आंखों में बनी हुई हमारी तस्वीर हमको भी धोखा दे जाती है और इसीलिए हम भीतर देखने से डरते हैं। हम लोगों की आंखों में अपनी तस्वीर देखना चाहते हैं, अपने को नहीं देखना चाहते। लोग क्या कहते हैं। इसीलिए हम इतने उत्सुक होते हैं इस बात को जानने के लिए कि लोग मेरे बाबत क्या कहते हैं। इसके जानने की उत्सुकता के पीछे और कुछ भी नहीं है। उनकी आंखों में जो मेरी तस्वीर बनती है, उससे ही मैं अपने को पहचान लूंगा कि मैं कैसा हूं। बड़े आश्चर्य की बात है! स्वयं को पहचानने के लिए भी मुझे दूसरों की आंखों में झांकना पड़ेगा।

आदमी डरता है कि मेरे संबंध में लोग कुछ बुरा तो नहीं कहते। आदमी प्रसन्न होता है, लोग अगर उसके संबंध में अच्छा कहते हैं, क्योंकि उसका खुद का अपना ज्ञान, उनकी कही गई बातों पर, उनके ओपिनियन पर निर्भर करता है। उसका अपना सीधा, इमीजिएट कोई शान नहीं है। उसे स्वयं अपने को जानने का सीधा—सीधा कोई अनुभव नहीं है। यह अनुभव हो सकता है, लेकिन यह अनुभव होता नहीं, हम तो इस अनुभव से बचने की कोशिश करते हैं।

मस्तिष्क के संबंध में पहली बात जाननी जरूरी है दूसरे क्या कहते हैं— यह नहीं; दूसरों को मैं कैसा दिखाई पड़ता हूं—यह भी नहीं; मैं कैसा हूं—इसे सीधा, इसका सीधा साक्षात, इसका सीधा एनकाउंटर करना जरूरी है। मुझे अपने एकांत में अपने मन को पूरी तरह खोल कर देखना जरूरी है कि वहां क्या है। यह अत्यंत दुस्साहस का काम है। यह अपने हाथ से अपने भीतर छिपे हुए नरक में प्रवेश करने का साहस है। यह अपनी नग्नता में स्वयं को देखने की हिम्मत बड़ी हिम्मत है।

एक सम्राट था। उसके परिवार के लोग, उसके घर के लोग, उसके मित्र, उसके वजीर, सभी एक बात से बहुत हैरान थे। वह रोज महल के मध्य में बने एक कक्ष में प्रवेश करता। चाबी अपने पास ही रखता उस कक्ष की। भीतर से जाकर द्वार बंद कर लेता। और एक ही द्वार था, उसमें कोई खिड़की भी न थी। सब तरफ से दीवालें बंद थीं। एक घंटे वह रोज चौबीस घंटे में उस भवन के भीतर रहता। न उसकी पत्नियां जानती थीं, क्योंकि उसने कभी किसी को नहीं बताया। कोई पूछता तो वह हंस कर चुप रह जाता और न वह किसी को चाबी देता था। सारे घर में विस्मय था और आश्चर्य था। और सारे लोगों की उत्सुकता निरंतर बढ़ती चली गई, वह वहां करता क्या है! यह किसी को भी पता नहीं था कि वह वहां करता क्या है!

एक घंटे वह उस बंद घर में होता था, फिर चुपचाप बाहर निकल आता, चाबी अपने पास रख लेता, दूसरे दिन फिर उस बंद घर में जाता। आखिर उत्सुकता अपनी चरम अवस्था पर पहुंच गई और सारे घर के लोगों ने मिल कर साजिश की कि जानना ही पड़ेगा कि बात क्या है! वजीर, उसकी पत्नियां, उसके लड़के, उसकी बेटियां, सब सम्मिलित थे उस साजिश में। और उन्होंने दीवाल में रात को एक छेद किया ताकि कल सुबह वे जान सकें कि वह आदमी करता क्या है! वहां जाकर भीतर होता क्या है रोज एक घंटा!

फिर दूसरे दिन जब वह सम्राट भीतर गया तो उन सबने उस छेद पर एक—एक ने आख रख कर देखी। जिसने भी आख रखी, वह तत्काल वहां से हट आया और कहने लगा यह क्या कर रहे हैं! यह क्या करते हैं! लेकिन कोई भी नहीं कहता था, सम्राट वहां क्या कर रहा था। जो भी आख छेद पर ले आता, जल्दी हट आता और कहता कि यह क्या करते हैं!

सम्राट ने वहां भीतर जाकर अपने सारे वस्त्र फेंक दिए और नग्न हो गया। और उसने हाथ आकाश की तरफ जोड़े और उसने कहा हे परमात्मा! वह जो कपड़े पहने हुए आदमी था, वह मेरी असलियत नहीं थी—वह मैं नहीं था— असलियत तो अब है। और वह कूदने लगा और चिल्लाने लगा और गालियां बकने लगा और पागल की तरह व्यवहार करने लगा। तो जिसने भी आख रख कर उस छेद पर देखा वह जल्दी हट आया और उसने कहा कि यह सम्राट क्या करते हैं! हम तो सोचते थे शायद कोई प्रार्थना करते होंगे, कोई योग—साधन करते होंगे। यह क्या करते हैं!

और वह सम्राट कहने लगा ईश्वर से कि वह जो मैं अब तक वस्त्र पहने हुए चुपचाप और शांत दिखाई पड़ता था वह बिलकुल झूठा आदमी था। वह साधा हुआ आदमी था, वह कल्टीवेटेड था। वह मैंने कोशिश कर—कर के बना रखा था। असली अब मैं यह हूं। यह है मेरी असलियत, यह मेरी नग्नता, और यह मेरा पागलपन! यह है मेरी असलियत। और अगर मेरी असलियत तुझे स्वीकार हो जाए तो ठीक है, क्योंकि मैं आदमियों को तो धोखा दे सकता हूं तुझे मैं कैसे धोखा दे सकता हूं? आदमियों को तो मैं वस्त्र पहन कर दिखा सकता हूं कि मैं नग्न नहीं हूं लेकिन तू तो जानता है भलीभांति कि मैं नग्न हूं मैं तुझे कैसे धोखा दे सकता हूं? मैं आदमियों को तो दिखा सकता हूं कि बहुत शांत और आनंदित हूं लेकिन तू तो मेरे भीतर तक जानता है। तुझे मैं कैसे धोखा दे सकता हूं? तेरे सामने तो मैं एक पागल हूं।

परमात्मा के सामने हम सब एक पागल की भांति हैं। परमात्मा को छोड़ दें एक तरफ, अगर हम भी अपने भीतर आख ले जाएंगे तो हम अपने सामने ही एक पागल की भांति प्रकट होंगे। मस्तिष्क बिलकुल विक्षिप्त हो गया है, लेकिन इस तरफ हमारा कोई ध्यान नहीं है, इसलिए इसे बदलने का हम उपाय भी नहीं कर पाते हैं। पहली बात है, स्वयं के मस्तिष्क का सीधा साक्षात्कार। कैसे यह साक्षात्कार हो सकता है, उसके दो— तीन सूत्र समझ लेने उपयोगी हैं। फिर इस मस्तिष्क को कैसे बदला जा सकता है, उसके बाबत भी विचार किया जा सकेगा।

मस्तिष्क के सीधे साक्षात्कार के लिए पहली तो बात यह है कि हम सब तरह का भय छोड़ दें अपने को जानने में। भय क्या है स्वयं को जानने में? भय यह है कि कहीं हम बुरे आदमी न हों। भय यह है कि कहीं हम बुरे आदमी न हों—हम तो अपने को अच्छे आदमी बनाए हुए हैं। हम तो अच्छे आदमी दिखाई पड़ते हैं। हम तो साधु हैं, हम तो सरल चित्त हैं। हम तो ईमानदार हैं, हम तो सत्यवादी हैं। भय यह है कि कहीं भीतर यह पता न चले कि हम बेईमान हैं। भय यह है कि कहीं यह पता न चल जाए कि हम झूठे हैं। भय यह है कि कहीं यह पता न चल जाए कि हम असाधु हैं, जटिल हैं, कपटी हैं, पाखंडी हैं। कहीं यह पता न चल जाए कि हम सज्जन नहीं हैं। भय यह है कि कहीं हम जो अपने को समझे हुए हैं वह तस्वीर झूठी न साबित हो जाए।

जिस आदमी को यह भय है, यह फियर है वह कभी मन का साक्षात नहीं कर सकता है। जंगल में जाना आसान है, अंधेरे में जाना आसान है, जंगली जानवरों के पास भी निर्भय होकर बैठ जाना आसान है, लेकिन हमारे भीतर जो जंगली आदमी छिपा है, उसके सामने निर्भय होकर खड़ा होना बहुत कठिन है, बहुत आरडुअस है, बहुत तपश्चर्यापूर्ण है। धूप में खड़े होने में कोई तपश्चर्या नहीं है, कोई भी बेवकूफ खड़ा हो सकता है। सिर के बल खड़े हो जाने में भी कोई कठिनाई नहीं है, कोई भी जड़बुद्धि को सर्कस के खेल सिखाए जा सकते हैं। और न कीटों पर लेट जाना बहुत कठिन है—चमडा बहुत जल्दी तैयार हो जाता है, कांटों पर लेटने के लिए भी तैयार हो जाता है, एडजस्ट हो जाता है। लेकिन कठिनाई अगर है मनुष्य के जीवन में तो कोई एक है, और वह यह है कि वह जैसा है भीतर सीधा और साफ—चाहे बुरा, चाहे पागल, उसे वैसा ही जानने की हिम्मत और साहस।

इसलिए पहली बात है भय को छोड़ कर साहसपूर्वक स्वयं को देखने की तैयारी। यह तैयारी जिसके पास नहीं है, वह कठिनाई में पड़ जाता है। आत्मा पाने के लिए तो हम उत्सुक होते हैं, परमात्मा के दर्शन के लिए भी उत्सुक होते हैं, लेकिन अपने सीधे और सच्चे दर्शन का साहस भी हममें नहीं है तो परमात्मा और आत्मा दूर की बातें हो जाती हैं। सबसे पहली सचाई हमारा मन है, हमारा मस्तिष्क है। सबसे पहली सचाई हमारे विचारों का केंद्र है जिससे हम निकटतम संबंधित हैं। पहले तो उसे ही देखना और जानना होगा, पहचानना होगा।

पहला सूत्र है:

निर्भयता से स्वयं के मन को एकांत में जानने की कोशिश। आधा घंटे के लिए कम से कम रोज, मन जैसा है उसको वैसा ही सहज रूप से प्रकट होने का मौका देना चाहिए। बंद कर लें उस सम्राट की तरह एक कमरे में अपने को, और मन में जो भी उठता हो उसे मुक्त कर दें और उससे कहें कि जो भी तुझे सोचना है और जो भी तुझे विचारना है, वह सब उठने दें। सारा सेंसर जो हम बिठाए हुए हैं अपने ऊपर कि कोई चीज बाहर न निकल आए, वह सब छोड़ दें। और मन को एक फ्रीडम, एक मुक्ति दे दें कि जो भी उठता हो उठे, जो भी प्रकट होना चाहता हो प्रकट हो। न तो हम कुछ दबाके, न हम कुछ रोकेंगे। हम तो यह जानने को तत्पर हुए हैं कि भीतर क्या है! बुरे और भले का निर्णय भी नहीं करना है, क्योंकि निर्णय करते ही दमन शुरू हो जाता है। जिस चीज को आप बुरा कहते हैं उस चीज को मन दबाने लगता है और जिसको आप अच्छा कहते हैं उसको ओढ़ने लगता है।

तो न तो बुरा कहना है, न भला कहना है। जो भी है मन में, जैसा भी है, उसे वैसा ही जानने के लिए हमारी तैयारी होनी चाहिए। तो इस भांति अगर मन को पूरा मुक्त छोड़ दिया जाए और वह जो भी सोचना चाहता हो, वह जो भी विचारना चाहता हो, जिन भी भावों में बहना चाहता हो, उनमें उसे बहने दिया जाए। बहुत घबड़ाहट होगी, लगेगा कि हम पागल हैं क्या?

लेकिन जो भीतर छिपा है, उसे जान लेना अत्यंत जरूरी है, उससे मुक्त हो जाने के लिए। उससे मुक्त हो जाने के लिए पहली बात उसकी जानकारी और उसकी पहचान है। और उसकी पहचान न हो, उसकी जानकारी न हो, तो जिस शत्रु को हम जानते नहीं उससे हम जीत भी नहीं सकते हैं। उससे जीतने का कोई रास्ता नहीं है। छिपा हुआ शत्रु, पीठ के पीछे खड़ा हुआ शत्रु खतरनाक है उस शत्रु से जो आख के सामने हो, जिससे हम परिचित हों, जिसे हम पहचानते हों।

पहली बात है, मन के ऊपर से सारा सेंसर, सारा प्रतिबंध, जो हमने लगा रखा है सब तरफ से कि मन को हम कहीं उसकी सहजता में प्रकट नहीं होने देते। मन की जितनी स्पांटेनिटी है, जितनी सहजता है, सब रोक रखी है। सब असहज हो गया है, सब झूठा कर डाला है, सब पर्दे ओढ़ लिए हैं, सब झूठे मुंह पहन लिए हैं, और कहीं से भी उसकी सीधी बात को हम प्रकट नहीं होने देते। तो उसे उसकी सीधी बात में प्रकट होने देना, अपने सामने कम से कम शुरू में, ताकि हम परिचित हो सकें एक—एक अंश से मन के, जो भीतर छिपे हैं और दबा दिए गए हैं।

मन का बहुत हिस्सा अंधकार में दबाया हुआ है। वहां हम कभी दीया नहीं ले जाते। अपने ही घर के बाहर के बरामदे में जीते हैं, भीतर के सारे कमरों में अंधकार छाया हुआ है और वहां कितने कीड़े—मकोड़े और कितने जाल और कितने सांप—बिच्छू इकट्ठे हो गए हैं, इसका कोई सवाल नहीं। अंधकार में वे इकट्ठे हो ही जाते हैं। और हम डरते हैं वहां रोशनी ले जाने से कि हमारा घर ऐसा है, यह हम सोचना भी नहीं चाहते, यह हम कल्पना भी नहीं करना चाहते। यह भय छोड़ देना अत्यंत आवश्यक है साधक के लिए।

मस्तिष्क, मन और विचारों के जगत में क्रांति लाने के लिए पहला काम है, वह भय छोड़ कर, निर्भय होकर स्वयं को जानने के लिए तैयार हो जाए।

दूसरी बात है, इनमें से सारा सेंसर, सारा प्रतिबंध उठा लेना। और हमने बहुत प्रतिबंध लगा रखे हैं। हमारी शिक्षा ने, नैतिक शिक्षा ने, सभ्यता और संस्कृति ने बहुत प्रतिबंध लगा रखे हैं कि यह सोचना ही मत, इस तरह का विचार ही मत करना, यह बुरा विचार है, इसे आने ही मत देना। जब हम रोक लगा देते हैं तो बुरे विचार नष्ट नहीं हो जाते, केवल हमारे प्राणों के और गहरे में प्रविष्ट हो जाते हैं। रोक लगा देने से कोई विचार हमसे बाहर नहीं हो जाता और हमारे भीतर गहरे खून में प्रविष्ट हो जाता है। क्योंकि जिस पर हम रोक लगाते हैं वह भीतर से उठ रहा था, कहीं बाहर से नहीं आ रहा था।

ध्यान रहे, जो भी आपके मन में है वह कहीं बाहर से नहीं आ रहा है, आपके भीतर से आ रहा है। जैसे कोई झरना प्रकट हो रहा हो किसी पहाड़ से हम उसका दरवाजा बंद कर दें तो झरना इससे नष्ट नहीं हो जाएगा, और रास्ते खोजेगा पहाड़ में, और प्रवेश करेगा, और नये रास्ते खोजेगा प्रकट होने के। एक झरना होता, शायद दस झरने हो जाएंगे अब, दस टुकड़ों में धाराएं टूट कर प्रकट होने की कोशिश करेंगी। और अगर हम दस जगह से बंद कर दें तो सौ झरने हो जाएंगे।

हमारे भीतर से कुछ आ रहा है, बाहर से नहीं। तो इस पर जितनी रोक हम लगाते हैं उतना ही यह कुरूप होकर, विकृत होकर नये—नये रास्ते लेता है, नई—नई ग्रंथियां निर्मित करता है, लेकिन हम निरंतर रोक लगाते रहते हैं। बचपन से ही हमारी शिक्षा की बुनियाद यह है कि मन में फलां चीज बुरी है, उसे रोक लेना है। वह रुकी हुई चीज नष्ट नहीं हो जाती, हमारे प्राणों में गहरे प्रविष्ट हो जाती है। और जितना हम रोकते जाते हैं वह उतनी ही गहरी होती चली जाती है, उतना हमें पकड़ती चली जाती है।

क्रोध बुरा है तो हम क्रोध को रोक देते हैं। फिर क्रोध का झरना हमारे सारे खून में फैल जाता है। काम बुरा है, लोभ बुरा है, यह बुरा है, वह बुरा है। जो—जो बुरा है उसे रोक देते हैं, अंत में हम पाते हैं कि जिसे—जिसे हमने रोका था वही हम हो गए हैं। रुका हुआ, छेड़ा गया, बांधे गए बांध वे जो झरने थे, उन्हें कहां ले जाएंगे? और मन के कुछ नियम हैं—उनमें एक नियम यह है कि जिस चीज को हम रोकना चाहते हैं, जिस चीज से हम हटना चाहते हैं, जिससे हम बचना चाहते हैं, वही चीज हमारे चित्त का केंद्र बन जाती है, वह सेंट्रल हो जाती है। जिस चीज से हम बचना चाहते हैं वह हमारे केंद्र का आकर्षण बन जाती है, मन हमारा उसके पास चक्कर काटने लगता है। आप कोशिश करके देख लें किसी चीज से बचने की, रोकने की और आप पाएंगे, चित्त आपका वहीं घूमने लगा है।

तिब्बत में एक फकीर था, मिलारेपा। उसके पास एक युवक आया और उसने कहा कि मुझे कोई मंत्र सिद्धि करनी है, मुझे कोई शक्ति अर्जित करनी है, मुझे कोई मंत्र दे दें। मिलारेपा ने कहा कि मंत्र हमारे पास कहां! हम तो फकीर हैं। मंत्र तो जादूगरों के पास होते हैं, मदारियों के पास होते हैं, तुम उनके पास जाओ। हमारे पास मंत्र कहां? हमारे पास सिद्धि का क्या संबंध?

लेकिन वह युवक जितना ही उस साधु ने मना किया, उतना ही उस युवक को लगा कि जरूर यहां कुछ होना चाहिए, इसीलिए यह मना करता है। जितना साधु रोकने लगा और इनकार करने लगा उतना ही वह युवक साधु के पास जाने लगा।

जो साधु डंडे से किन्हीं को भगाते हैं, उनके पास बहुत भीड़ इकट्ठी हो जाती है। जो गाली देते हैं और पत्थर मारते हैं, उनके पास भीड़ और बढ़ जाती है। क्योंकि जरूर यहां कुछ होना चाहिए, नहीं तो यह पत्थर मारेगा और डंडे मारेगा? लेकिन हमें पता नहीं है कि चाहे अखबार में खबर निकलवा कर बुलावाया जाए लोगों को, चाहे पत्थर मार कर, तरकीब एक ही है, प्रोपेगेंडा दोनों में ही एक है। और दूसरी तरकीब ज्यादा कनिंग से भरी है। जब पत्थर मार कर लोगों को भगाया जाए, तो लोगों के यह भी खयाल में नहीं आता कि हमें बुलाया जा रहा है। लेकिन पत्थर मार कर भगाना भी बुलाने की विधि है। और तब आदमी आता भी है और उसे खयाल में भी नहीं आता है कि मैं बुलाया गया।

उस युवक ने समझा कि यह शायद कुछ छिपाना चाहता है, इसलिए वह और रोज आने लगा। आखिर में मिलारेपा परेशान हो गया तो उसने एक कागज पर मंत्र लिख कर दे दिया और कहा इसे ले जाओ और आज अमावस की रात है तो अंधेरे में पांच बार इसको पढ़ लेना। बस पांच बार तुमने पढ़ लिया कि सिद्धि हो जाएगी। फिर तुम जो भी चाहते हो, वह कर सकोगे। जाओ और मेरा पीछा छोड़ो।

वह युवक भागा। उसने धन्यवाद भी नहीं दिया। वह सीढ़ियां उतर भी नहीं पाया था मंदिर की कि मिलारेपा ने कहा कि मेरे मित्र! एक बात बताना मैं भूल गया। एक कंडीशन भी है, एक शर्त भी है। जब उस मंत्र को पढ़ो तो बंदर का स्मरण नहीं आना चाहिए। उस युवक ने कहा बेफिकर रहिए, आज तक जिंदगी में कभी नहीं आया। कोई आने का कारण नहीं है। और पांच ही बार तो पढ़ना है न, कोई हर्जा नहीं है।

लेकिन भूल हो गई उससे। वह पूरी सीढ़ियां उतर भी नहीं पाया था कि बंदर आना शुरू हो गए। वह बहुत घबड़ाया। आख बंद करता है तो बंदर हैं, बाहर देखता है तो जहां बंदर नहीं हैं वहां भी दिखाई पड़ते हैं, मालूम होते हैं कि बंदर हैं। रात है, वृक्षों पर हलचल होती तो लगता है कि बंदर हैं। घर पहुंचा, बहुत परेशान हुआ कि यह मामला क्या है! यह आज तक मुझे बंदर कभी खयाल में नहीं आए। मेरा कोई नाता—रिश्ता बंदरों से नहीं रहा, कोई पहचान नहीं रही।

घर पहुंचा, स्नान किया, लेकिन स्नान करता जा रहा है और बंदर साथ हैं। एक ही तरफ खयाल रह गया है— बंदरों की तरफ। फिर मंत्र पढ़ने बैठता है। हाथ में कागज लेता है, आख बंद करता है और बंदरों की भीड़ उसको चिढ़ा रही है, भीतर बंदर मौजूद हैं। वह बहुत घबड़ा गया। रात भर उसने कोशिश की। सब भांति करवट बदलीं, इस भांति बैठा, उस पद्यासन में बैठा, इस सिद्धासन में बैठा, भगवान के नाम लिए, हाथ जोड़े, गिड़गिड़ाया, रोया कि पांच मिनट के लिए केवल इन बंदरों से छुटकारा दिला दो। लेकिन वे बंदर थे कि उस रात उसका पीछा छोड़ने को राजी नहीं हुए।

सुबह तक वह बिलकुल पागल हो उठा। घबड़ा गया और समझ गया कि यह मामला हल होने का नहीं है। यह सिद्धि नहीं हो सकती। मैं समझता था बड़ी सरल है, साधु होशियार है। उसने शर्त कठिन लगा दी। पागल है लेकिन… अगर बंदरों के कारण ही रुकावट होती थी तो कम से कम बंदरों का नाम न लेता। तो शायद यह मंत्र सिद्ध भी हो जाता।

लेकिन सुबह वह साधु के पास गया रोता हुआ और उसने कहा वापस ले लें अपना मंत्र। बड़ी गलती की है आपने। अगर बंदर ही इसकी रुकावट थे इस मंत्र में, तो कृपा करके कल न कहते, आज कह देते तो कोई हर्ज होता था आपका? मुझे कभी बंदर याद भी नहीं आए थे। लेकिन रात भर बंदरों ने मेरा पीछा किया। अब अगले जन्म में आऊंगा, फिर हो सकता है कि यह मंत्र सिद्ध हो सके, क्योंकि अब इस जन्म में तो यह मंत्र और बंदर संयुक्त हो गए हैं। अब इनसे छुटकारा संभव नहीं है।

यह जो बंदर संयुक्त हो गए मंत्र के साथ, यह कैसे संयुक्त हो गए? उसके मन ने आग्रह किया कि बंदर नहीं होने चाहिए और बंदर हो गए। उसके मन ने बंदरों से छूटना चाहा और बंदर मौजूद हो गए। उसका मन बंदरों से बचना चाहा और बंदर आ गए।

निषेध आकर्षण है, इनकार आमंत्रण है, रोकना बुलाना है।

हमारे चित्त की जो इतनी रुग्ण—दशा हो गई है, वह इस सीधे से सूत्र को न समझने की वजह से हो गई है। क्रोध को हम नहीं चाहते कि आए और फिर क्रोध बंदर बन जाता है और आने लगता है। सेक्स को हम नहीं चाहते कि आए और फिर वह आता है और चित्त को पकड़ लेता है। लोभ को हम नहीं चाहते कि वह आए, अहंकार को हम नहीं चाहते कि वह आए, फिर वे सब आ जाते हैं। और जिन—जिन को हम चाहते हैं कि परमात्मा आए, आत्मा आए, मोक्ष आए, उनका कोई पता नहीं चलता कि वे आएं। जिनको हम नहीं चाहते वे आते हैं और जिन्हें हम बुलाते हैं उनकी कोई खबर नहीं मिलती है। मन के इस सीधे से सूत्र को न समझने से सारी विकृति पैदा हो जाती है।

तो दूसरी बात ध्यान में रखने की है कि मन में क्या आए और क्या न आए, इसका कोई आग्रह लेने की जरूरत नहीं है। जो भी आए उसे हम देखने को तैयार हैं। जो भी आए, हमारी तैयारी उसे सिर्फ देखने की है। हमारा आग्रह नहीं है कि क्या आए और क्या न आए। हमारी कोई शर्त नहीं, हमारी कोई कंडीशन नहीं, अनकंडीशनल, बेशर्त हम मन को देखने के लिए तत्पर हुए हैं। हम सिर्फ जानना चाहते हैं कि मन अपनी वस्तुस्थिति में क्या है। हमारा कोई आग्रह नहीं है कि कौन आए और कौन न आए। हमारा कोई प्रयोजन नहीं है।

दुनिया भर के विज्ञापनदाता इस सीधी सी बात को समझते हैं, लेकिन धर्मगुरु अब तक नहीं समझ पाए। दुनिया भर के प्रोपेगेंडिस्ट इस बात को समझते हैं, लेकिन धर्मगुरु अब तक नहीं समझ पाए। और समाज को शिक्षा देने वाले लोग भी नहीं समझ पाए। एक फिल्म के ऊपर लिख दिया जाता है ‘फॉर अडल्ट्स ओनली, सिर्फ प्रौढ़ लोगों के लिए। ‘और बच्चे एक आने की मूंछ खरीद कर लगा कर पहुंच जाते हैं देखने के लिए। जानते हैं विज्ञापनदाता कि अगर बच्चों को बुलाना हो तो फिल्म के ऊपर लिखना जरूरी है कि सिर्फ प्रौढ़ों के लिए। स्त्रियों की पत्रिका है. ‘फॉर वीमेन ओनली।’ उसको सिवाय पुरुषों के और कोई भी नहीं पढ़ता है, स्त्रियां तो कभी नहीं पढ़ती। पुरुष ग्राहक हैं, मैंने पता लगवाया तो पता चला उसके अधिकतम ग्राहक पुरुष हैं! और बाजार में मैंने पत्रिका बेचने वाले एजेंटों से भी पूछा, तो उन्होंने कहा कि स्त्रियां तो कभी कोई मुश्किल से खरीदती हैं। स्त्रियां दूसरी पत्रिका खरीदती हैं, उसका नाम है ‘फॉर मैन ओनली। ‘

विज्ञापनदाता इस तरकीब को समझ गए कि आदमी का मन किस बात के प्रति आकर्षित होता है, लेकिन धर्मगुरु अब तक नहीं समझे! नीतिशास्त्री अब तक नहीं समझे! वे आदमी को अब भी बेवकूफियां सिखाए जाते हैं कि तुम क्रोध मत करो, क्रोध से लड़ो। क्रोध से लडने और क्रोध से बचने वाला आदमी जीवन भर क्रोध के चक्कर में रहेगा, क्रोध से कभी मुक्त नहीं हो सकता है। क्रोध से वह मुक्त होता है जो क्रोध को जानने को उत्सुक होता है, लड़ने को उत्सुक नहीं।

दूसरा सूत्र है मन के किन्हीं भी रूपों के प्रति संघर्ष का भाव छोड़ दें, द्वंद्व का भाव छोड़ दें, कांफ्लिट छोड़ दें, लड़ाई छोड़ दें। सिर्फ जानने का, सिर्फ समझने का, सिर्फ अंडरस्टैंडिंग का..। मैं समझ लूं यह मेरा मन क्या है? इतने सरल भाव से मन में प्रवेश करना जरूरी है, दूसरी बात।

और तीसरी बात मन में जो भी रूप उठे, उनका कोई जजमेंट, कोई निर्णय नहीं लेना है। कोई निर्णय नहीं लेना है कि यह जो उठ रहा है यह बुरा है, यह जो उठ रहा है यह अच्छा है। हमें इस बात का पता ही नहीं है कि बुराई और अच्छाई एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां बुराई है उसके ही दूसरी तरफ अच्छाई है। जहां अच्छाई है, उसके ही दूसरी तरफ बुराई है।

अच्छे आदमी के भीतर बुरा आदमी छिपा होता है, बुरे आदमी के भीतर अच्छा आदमी छिपा होता है। अच्छे आदमी का सिक्का अच्छाई का ऊपर की तरफ है, बुराई का भीतर की तरफ है। इसलिए कभी अच्छा आदमी अगर बुरा हो जाए तो बुरे से बुरे आदमी से भी बुरा आदमी सिद्ध होता है। और कभी बुरा आदमी अच्छा हो जाए तो अच्छे आदमी उसके सामने फीके पड़ जाते हैं, क्योंकि उसके भीतर बुरे आदमी के भीतर अच्छाई बिलकुल साबित छिपी रहती है, बुराई ऊपर होती है। अगर कभी वह करवट ले ले और अच्छा आदमी हो जाए, तो अच्छे आदमी फीके पड़ जाते हैं उसके सामने। बड़ी ताजी और छिपी हुई ताकत अच्छाई की उसके भीतर से प्रकट हो जाती है। वाल्मीकि या अंगुलीमाल इसी तरह के बुरे आदमी हैं जो एक दिन अच्छे आदमी हो जाते हैं तो सारे संत फीके पड़ जाते हैं उनके सामने।

अच्छा और बुरा आदमी अलग—अलग नहीं हैं, एक ही चीज के दो सिक्के हैं। और इसलिए जो साधु है वह तीसरी तरह का आदमी है। उसके भीतर न अच्छाई होती है, न बुराई होती है, वह पूरे ही सिक्के को फेंक देता है। साधु अच्छा आदमी नहीं है, सज्जन संत नहीं है। सज्जन के भीतर दुर्जन छिपा ही होता है। दुर्जन के भीतर सज्जन हमेशा मौजूद होता है। संत बिलकुल तीसरी तरह की घटना है। वह न अच्छा है, न बुरा है। वह तटस्थ हो गया है। उसका न अच्छाई से कोई संबंध रहे, न बुराई से। वह एक भिन्न ही दिशा में प्रविष्ट हो गया है। वहां अच्छे और बुरे का कोई सवाल नहीं है।

एक फकीर था। एक युवा फकीर था जपान के एक गांव में। उसकी बड़ी कीर्ति थी, उसकी बड़ी महिमा थी। सारा गांव उसे पूजता और आदर करता। उसके सम्मान में सारे गांव में गीत गाए जाते। लेकिन एक दिन सब बात बदल गई। गांव की एक युवती को गर्भ रह गया और उसे बच्चा हो गया। और उस युवती को घर के लोगों ने पूछा कि किसका बच्चा है, तो उसने उस साधु का नाम ले दिया कि उस युवा फकीर का यह बच्चा है। फिर देर कितनी लगती है, प्रशंसक शत्रु बनने में कितनी देर लेते हैं? जरा सी भी देर नहीं लेते, क्योंकि प्रशंसक के मन में हमेशा भीतर तो निंदा छिपी रहती है। मौके की तलाश करती है, जिस दिन प्रशंसा खत्म हो जाए उस दिन निंदा शुरू हो जाती है। आदर देने वाले लोग, एक क्षण में अनादर देना शुरू कर देते हैं। पैर छूने वाले लोग, एक क्षण में सिर काटना शुरू कर देते हैं, इसमें कोई भेद नहीं है इन दोनों में। यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं।

वे सारे गांव के लोग फकीर के झोपड़े पर टूट पड़े। इतने दिनों का सप्रेस था भीतर, इतनी श्रद्धा दी थी तो दिल में तो क्रोध इकट्ठा हो ही गया था कि यह आदमी बड़ी श्रद्धा लिए जा रहा है! आज अश्रद्धा देने का मौका मिला था तो कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े पर आग लगा दी। और जाकर उस बच्चे को, एक दिन के बच्चे को उस फकीर के ऊपर पटक दिया।

उस फकीर ने पूछा कि बात क्या है? तो उन लोगों ने कहा यह भी हमसे पूछते हो कि बात क्या है? यह बच्चा तुम्हारा है, यह भी हमें बताना पड़ेगा कि बात क्या है? अपने जलते मकान को देखो, और अपने भीतर दिल को देखो, और इस बच्चे को देखो, और इस लड़की को देखो। हमसे पूछने की जरूरत नहीं, यह बच्चा तुम्हारा है।

वह फकीर बोला इज इट सो? ऐसी बात है, बच्चा मेरा है? वह बच्चा रोने लगा तो उस बच्चे को वह चुप कराने के लिए गीत गाने लगा। वे लोग उसका मकान जला कर वापस लौट गए। फिर वह अपने रोज के समय पर, दोपहर हुई और भीख मांगने निकला। लेकिन आज उस गांव में उसे कौन भीख देगा? आज जिस द्वार पर भी वह खड़ा हुआ, वह द्वार बंद हो गया। आज उसके पीछे बच्चों की टोली और लोगों की भीड़ चलने लगी, मजाक करती, पत्थर फेंकती। वह उस घर के सामने पहुंचा जिस घर की वह लड़की थी और जिस लड़की का वह बच्चा था। उसने वहां आवाज दी और उसने कहा कि मेरे लिए भीख मिले न मिले, लेकिन इस बच्चे के लिए तो दूध मिल जाए! मेरा कसूर भी हो सकता है, लेकिन इस बेचारे का क्या कसूर हो सकता है?

वह बच्चा रो रहा है, भीड़ वहां खड़ी है। उस लड़की के सहनशीलता के बाहर हो गई बात। वह अपने पिता के पैर पर गिर पड़ी और उसने कहा : मुझे माफ करें, मैंने साधु का नाम झूठा ही ले दिया। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने सोचा कि साधु का नाम ले दूं। साधु से मेरा कोई परिचय भी नहीं है।

बाप तो घबड़ा आया। यह तो बड़ी दुर्घटना हो गई। वह नीचे भागा हुआ आया, फकीर के पैर पर गिर पड़ा और उससे बच्चा छीनने लगा।

और उस फकीर ने पूछा : बात क्या है? उसके बाप ने कहा : माफ करें, भूल हो गई, यह बच्चा आपका नहीं है। उस फकीर ने पूछा : इज इट सो। ऐसी बात है कि यह बच्चा मेरा नहीं है? तो उस बाप ने, उस गांव के लोगों ने कहा. पागल हो तुम! तुमने सुबह ही क्यों नहीं इनकार किया? उस फकीर ने कहा. इससे क्या फर्क पड़ता था, बच्चा किसी न किसी का होगा ही। और एक झोपड़ा तुम जला ही चुके थे। अब तुम दूसरा जलाते। और एक आदमी को तुम बदनाम करने का मजा ले ही चुके थे, तुम एक आदमी को और बदनाम करने का मजा लेते। इससे क्या फर्क पड़ता था? बच्चा किसी न किसी का होगा, मेरा भी हो सकता है; इसमें क्या हर्जा! इसमें क्या फर्क क्या पड़ गया? तो लोगों ने कहा : तुम्हें इतनी भी समझ नहीं है कि तुम्हारी इतनी निंदा हुई, इतना अपमान हुआ, इतना अनादर हुआ?

उस फकीर ने कहा. अगर तुम्हारे आदर की मुझे कोई फिकर होती तो तुम्हारे अनादर की भी मुझे कोई फिकर होती। मुझे तो जैसा ठीक लगता है, वैसा मैं जीता हूं तुम्हें जैसा ठीक लगता है, तुम करते हो। कल तक तुम्हें ठीक लगता था, आदर करें, तो तुम आदर करते थे। आज तुम्हें ठीक लगा, अनादर करें, तुम अनादर करते थे। लेकिन न तुम्हारे आदर से मुझे प्रयोजन है, न तुम्हारे अनादर से। तो उन लोगों ने कहा भले आदमी, इतना तो सोचता कम से कम कि तू भला आदमी है और बुरा हो जाएगा?

तो उसने कहा न मैं बुरा हूं और न भला हूं अब तो मैं वही हूं जो मैं हूं। अब मैंने यह बुरे— भले के सिक्के छोड़ दिए। अब मैंने यह फिकर छोड़ दी है कि मैं अच्छा हो जाऊं, क्योंकि मैंने अच्छा होने की जितनी कोशिश की, मैंने पाया कि मैं बुरा होता चला गया। मैंने बुराई से बचने की जितनी कोशिश की, मैंने पाया कि भलाई उतनी दूर होती चली गई। मैंने वह खयाल छोड़ दिया। मैं बिलकुल तटस्थ हो गया। और जिस दिन मैं तटस्थ हो गया, उसी दिन मैंने पाया कि न बुराई भीतर रह गई, न भलाई भीतर रह गई। और एक नई चीज का जन्म हो गया है, जो सभी भलाइयों से ज्यादा भली है और जिसके पास बुराई की छाया भी नहीं होती।

तो संत एक तीसरी तरह का व्यक्ति है। साधक की दिशा सज्जन होने की दिशा नहीं है, साधक की दिशा संत होने की दिशा है।

इसलिए तीसरा सूत्र है निर्णय न लें कि कौन सी बात मन में अच्छी उठ रही है, कौन सी बुरी उठ रही है। न कडेमनेशन, न एप्रीसिएशन— न प्रशंसा और न निंदा। न तो यह कि यह बुरा है, न यह कि यह अच्छा है। मन की धारा के किनारे तटस्थ बैठ जाएं, जैसे कोई नदी के किनारे बैठा हो और नदी बहती जाती है और देख रहा है— नदी में पानी भी बह रहा है, पत्थर भी बह रहे हैं, पत्ते भी बह रहे हैं, लकड़ियां भी बह रही हैं। वह चुपचाप देख रहा है किनारे बैठा हुआ।

ये तीन सूत्र सुबह की इस बैठक में मुझे आपसे कह देने थे। पहली बात मन के साक्षात के लिए अत्यंत अभय। दूसरी बात मन के ऊपर कोई भी प्रतिबंध नहीं— अप्रतिबंध, बेशर्त। तीसरी बात मन में जो विकल्प और विचार उठें उनके प्रति कोई निर्णय नहीं, कोई शुभ—अशुभ का भाव नहीं, एक तटस्थ दृष्टि। ये पहले तीन सूत्र हैं, मन की विकृति के साक्षात के लिए। फिर हम दोपहर और सांझ बात करेंगे इस विकृति के बाहर और ऊपर उठ जाने के लिए क्या किया जा सकता है, लेकिन ये तीन बुनियादी बातें खयाल में रखनी जरूरी हैं।

ब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे। सुबह के ध्यान के संबंध में दो बातें समझ लें। फिर हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।

सुबह का ध्यान बड़ी सीधी और सरल सी प्रक्रिया है। असल में जीवन में जो भी महत्वपूर्ण हैं वे सभी प्रक्रियाएं बड़ी सरल और सीधी होती हैं। जीवन में जितनी व्यर्थ बात होती है, उतनी ही जटिल और कांप्लेक्स होती है। जीवन में जितनी श्रेष्ठ बात होती है, वह अत्यंत सरल और सीधी होती है, बिलकुल सिम्पल होती है। तो बड़ी सीधी और सरल सी प्रक्रिया है। इतना ही करना है कि चुपचाप बैठ कर, मौन बैठ कर चारों तरफ जो ध्वनियों का संसार है उसे चुपचाप सुनते रहना है। सुनते रहने के कुछ अदभुत परिणाम हैं। हम कभी सुनते ही नहीं। जब मैं यहां बोल रहा हूं तो आप सोचते होंगे आप सुन रहे हैं, तो आप बड़ी गलती में हैं। कान पर आवाज पड़ जाना ही सुनने के लिए पर्याप्त अर्थ नहीं है।

जब मैं बोल रहा हूं अगर मेरे साथ—साथ आप सोच भी रहे हैं तो आप सुन नहीं रहे हैं, क्योंकि मन एक ही साथ एक ही क्रिया कर पाता है, दो क्रियाएं कभी भी नहीं। या तो आप सुन सकते हैं या सोच सकते हैं। जितनी देर आप सोचते हैं उतनी देर के लिए सुनना बंद हो जाता है। जितनी देर आप सुनते हैं उतनी देर के लिए सोचना बंद हो जाता है। तो जब मैं कह रहा हूं कि सुनना एक बड़ी अदभुत प्रक्रिया है। अगर आप सिर्फ शांति से सुनें तो भीतर सोचना अपने आप बंद हो जाएगा; क्योंकि मन के अनिवार्य नियमों में से एक है कि एक ही साथ मन दो काम करने में असमर्थ है— एकदम असमर्थ है।

एक आदमी बीमार पड़ा था। एक वर्ष से उसके पैर में लकवा लगा हुआ था। डॉक्टर उसे कहते थे कि लकवा शरीर में मालूम नहीं पड़ता, आपके मन को भ्रम हो गया है। लेकिन वह आदमी कैसे मानता, उसे लकवा था!

फिर उसके मकान में आग लग गई और आग लगी सारे घर के लोग भागे। वह लकवे में पड़ा हुआ आदमी भी भाग कर बाहर निकल आया। वह साल भर से उठा ही नहीं था अपने बिस्तर से। जब वह बाहर आ गया तभी उसे खयाल आया कि अरे! यह क्या मामला हो गया! मैं तो उठ भी नहीं सकता था। ये पैर चले कैसे? उस आदमी ने मुझसे पूछा, तो मैंने कहा मन एक ही साथ दो बातें नहीं सोच सकता। लकवा लगा हुआ है, यह मन का एक खयाल था, लेकिन मकान में आग लग गई, मन पूरी तरह मकान की आग में संलग्न हो गया और वह पहला खयाल खिसक गया मन से कि पैर में लकवा लगा हुआ है। और आदमी भाग कर बाहर आ गया। मन एक ही चीज में तीव्रता से जाग सकता है।

यह जो सुबह का प्रयोग है, वह चारों तरफ पक्षियों के, हवाओं के गीत चलते हैं, सारी दुनिया के ध्वनियों का जाल बिछा हुआ है उसको चुपचाप सुनने का है। इतनी शांति से सुनते रहने का है, एक ही बात पर ध्यान देने का है कि मैं सुन रहा हूं। और जो भी हो रहा है उसे पूरी तरह सुन रहा हूं। टोटल लिसनिंग, कुछ भी नहीं कर रहा हूं सिर्फ सुन रहा हूं।

यह सुनने पर इसलिए जोर दे रहा हूं कि जैसे ही आप पूरी तरह सुनेंगे भीतर वह सोच—विचार का जो निरंतर जाल है वह एकदम शांत हो जाएगा। क्यौंकि ये दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते हैं। तो आप पूरी फिकर सुनने की तरफ लें। और यह पाजिटिव फिकर है।

अगर आप विचार को निकालने की कोशिश करेंगे तो जो गलती मैंने अभी आपसे कही, वह शुरू हो जाएगी। यह निगेटिव फिकर है। विचार को निकालने की कोशिश से कभी विचार नहीं निकल सकते, लेकिन मन की जो ताकत विचार करने में लगती है अगर वह ताकत किसी और धारा में प्रवाहित हो जाए तो विचार अपने आप क्षीण हो जाते हैं। उनको…।

उस आदमी को उसके डॉक्टर कहते थे कि तू यह खयाल निकाल अपने मन से कि तुझे लकवा लगा हुआ है। तुझे लकवा लगा हुआ नहीं है। शरीर तेरा ठीक है। लेकिन वह आदमी जितनी कोशिश करता होगा निकालने की कि मुझे लकवा नहीं लगा हुआ है, जितनी बार यह कहता होगा कि मुझे लकवा नहीं लगा हुआ है, उतनी ही बार लकवे की याद आएगी। उतनी बार वह जानता है कि लकवा मुझे लगा हुआ है। अगर नहीं लगा हुआ होता तो मैं दोहराता ही क्यों कि मुझे लकवा नहीं लगा हुआ है? वह जितनी बार दोहराएगा कि मुझे लकवा नहीं लगा है उतनी ही बार वह अपने इस भाव को गहरा कर रहा है कि मुझे लकवा लगा हुआ है। वह मजबूत हो रहा है। उस आदमी के चित्त को डायवर्शन चाहिए था, उस आदमी को लकवे को रोकने की जरूरत नहीं थी। उसका चित्त पूरी तरह से कहीं और चला जाता तो लकवा विलीन हो जाता, क्योंकि चित्त का लकवा था। चित्त पूरा हट जाता तो लकवा विलीन हो जाता।

मकान में आग लग गई भाग्य से। कई बार ऐसा होता है कि किन्हीं के घर में दुर्भाग्य से आग लगती है, किन्हीं के घर में भाग्य से भी आग लग जाती है। उस आदमी के घर में भाग्य से आग लग गई, और सारा मन मकान से लगी आग पर चला गया। मन हट गया उस बात से जिसको पकड़े हुए था, वह ग्रंथि विलीन हो गई। क्योंकि वह विचार की ग्रंथि थी, इससे ज्यादा कोई ग्रंथि नहीं थी। असली में वहां कोई जंजीरें नहीं थीं, केवल विचार का जाल था। पूरा मन वहां से हट गया, विचार का जाल सूख कर निर्जीव हो गया, क्योंकि विचार के जो भी प्राण हैं वह हमारे ध्यान से उपलब्ध होते हैं।

विचार में अपने आप में कोई प्राण नहीं हैं। हम जितना ध्यान देते हैं विचार पर उतना ही वह जीवंत हो जाता है। जितना हमारा ध्यान हट जाता है उतना ही वह मुर्दा हो जाता है। अगर ध्यान बिलकुल हट जाए, विचार निर्जीव हो जाते हैं, मर जाते हैं, उसी समय समाप्त हो जाते हैं।

तो इसे, जो मैं कह रहा हूं कि सुनने पर सारे ध्यान को जाने दें। पाजिटिवली, विधायक रूप से यह खयाल करें कि एक चिड़िया की छोटी सी आवाज भी मेरे बिना सुने न व्यतीत हो जाए, न निकल जाए। सब सुन लूं मैं। इंटिग्रेटेड चारों तरफ जो हो रहा है, वह मुझे सुनाई में आ जाए। तो आप अचानक पाएंगे कि मन एक गहरी शांति में उतरता जा रहा है, विचार क्षीण होते चले जाएंगे।

एक ही काम करना है, शरीर को शिथिल छोड़ कर बैठ जाना है। कल मैंने आपको कहा था कि मस्तिष्क को पहले जोर से खींचें। शायद वह आपकी समझ में नहीं आया, उसे फिकर छोड़ दें, उसको मत खींचें। कोई जरूरी नहीं है। क्योंकि उसी में परेशान हो जाएंगे आप तो पीछे और गड़बड़ होगी, उसे छोड़ दें।

कोई, वह कोई ध्यान का हिस्सा नहीं था। वह तो सिर्फ मैंने इसलिए आपको कहा था कि आपको यह खयाल में आ सके कि खिंचा हुआ मस्तिष्क क्या है और शिथिल मस्तिष्क क्या है। उसकी कोई फिकर करने की बहुत जरूरत नहीं है, उसे छोड़ दें। शिथिल छोड़े, मन को शांत छोड़ दें। सिर के जितने भी स्नायु खिंचे हुए हों, सिर की जो भी नसें खिंची हुई हों उनको रिलैक्स छोड़ दें, उनको ढीला छोड़ दें। सवाल ढीला छोड़ने का है। सवाल यह नहीं है कि आप उसको खींचने की कला सीखें। खींचने की कला फनी है। वह मैंने सिर्फ इसलिए कहा था कि आपको दोनों कंट्रास्ट समझ में आ जाएं कि खिंचा हुआ यह है और ढीला यह है। जो नहीं समझ में आता है उसको छोड़ दें फिलहाल। शिथिल ही छोड़े सीधा।

……तो सब लोग थोड़े एक—दूसरे पर फासले पर बैठ जाएंगे। एक—दूसरे को कोई छूता हुआ न हो। यह आगे की जगह का उपयोग कर लें। इधर ऊपर आ जाएं, इधर पीछे चले जाएं। लेकिन कोई किसी को छूता हुआ न हो।

शरीर को बिलकुल आराम से ढीला छोड़ दें और फिर आख आहिस्ता से बंद कर लें। आख इतने धीमे से बंद करनी है कि आख पर कोई भार न पड़े। भींच नहीं लेनी है आख कि उस पर भार पड़ जाए। आख के स्नायुओं का संबंध मस्तिष्क से बहुत ज्यादा है, इसलिए बहुत ढीला छोड़ दें। जैसे छोटे से बच्चे अपनी पलक बंद कर लेते हैं, ऐसा पलक को गिरा दें। पलक को धीरे से गिर जाने दें शिथिल। फिर सिर के सारे तंतुओं को बिलकुल ढीला छोड़ दें। जैसे एक छोटे से बच्चे का चेहरा होता है बिलकुल शिथिल, कोई चीज खिंची हुई नहीं है। बिलकुल ढीला, रिलैक्स छोड़ दें। शरीर को भी ढीला छोड़ दें। जैसे ही आप सब ढीला छोड़ देंगे, श्वास अपने आप ढीली हो जाएगी, शांत हो जाएगी।

फिर अब एक ही काम करें कि चारों तरफ जो आवाजें हो रही हैं उन्हें चुपचाप सुनते रहें। कोई कौआ बोलेगा, कोई पक्षी आवाज करेगा, कोई बच्चा रास्ते पर बोलेगा। चुपचाप सुनते रहें, सुनते रहें, सुनते रहें और भीतर सब शांत होता जाएगा।

सुनें……दस मिनट के लिए चुपचाप सुनते रहें……सारा ध्यान सुनने पर फैल जाए। बस सुन रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। सुनें, पक्षी बोल रहे हैं, हवाएं वृक्षों को हिलाकी, और कोई आवाज होगी, चुपचाप सुनते रहें। सुनते—सुनते ही भीतर एक शांति का तार शुरू हो जाएगा।

मन शांत हो रहा है……सुनते रहें, सुनते रहें……मन शांत होता जा रहा है. मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन बिलकुल शांत होता जा रहा है…। एक गहरा सन्नाटा भीतर मालूम होगा। सुनते रहें, आप सिर्फ सुनते रहें……सुनते—सुनते मन शांत होता जाएगा…।

मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है……मन शांत होता जा रहा है…। सुनते रहें, सुनते रहें……मन बिलकुल सन्नाटे में उतर जाएगा। मन शांत हो रहा है…… मन शांत हो गया है……मन बिलकुल शांत हो गया है…।

धीरे— धीरे दों—चार गहरी श्वास लें……प्रत्येक श्वास के साथ बहुत शांति आती हुई मालूम होगी। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें। फिर बहुत आहिस्ता से, धीरे से आख खोलें। जैसी शांति भीतर है वैसी ही बाहर भी प्रतीत होगी। धीरे— धीरे आख खोलें।

इस प्रयोग को दोपहर में कहीं किसी वृक्ष के नीचे अकेले में जाकर करें। यहां तो हम सिर्फ समझने को कर रहे हैं। आप अकेले में करेंगे तो ही परिणाम होगा।

सुबह की बैठक समाप्त हुई।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–10)

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शील मुक्‍ति है, चरित्र—बंधन—(प्रवचन—दसवां)

प्यारे ओशो!

संस्कृत में एक सुभाषित है कि यदि शील अर्थात शुद्ध चरित्र न हो

तो मनुष्य के सत्य, तप, जप, ज्ञान, सर्व विद्या और

 कला सब निष्फल होते हैं—

सत्यं तपो जपो ज्ञानं सर्वा विद्या: कला अपि।

नरस्य निष्फल? संति यस्य शील न विद्यते।।

 

प्यारे ओशो! निवेदन है कि इस सूक्ति पर कुछ कहें।

 

नंद किरण! सुभाषित शब्द तो बहुत प्यारा है। संभवत: दुनिया की किसी और भाषा में वैसा शब्द नहीं। उस शब्द से बहुत—सी बातों की ध्वनि उठती है—खिले हुए फूलों की, बजती हुई बांसुरी की, अमृत के स्वाद की, मिठास की। जीवन में यूं तो जहर है—लेकिन जो न पहचाने, न जाने, उसके लिए। जो पहचान ले, जान ले, जीवन ही अमृत भी हो जाता है। नासमझ तो घर को खाद से भर ले सकता है और तब दुर्गंध ही दुर्गंध हो जाएगी। समझदार खाद को घर में नहीं भरता, बगिया में फैलाता है। उसी खाद से फूलों की सुगंध उठती है। शब्द ही गालियां बन जाते हैं और शब्द ही सुभाषित।

सुभाषित हमने उन शइक्तयों को कहा है, जो बुद्धों ने कहीं, जाग्रतपुरुषों ने कहीं—जिनके शब्दों में शून्य की झंकार है। वे शून्य में ही मीठे नहीं, सुभाष ही नहीं, जीने में और भी मीठे हैं। इशारे हैं उनमें, इंगित हैं, दूर चांद की तरफ उठी हुई अंगुलियां हैं। जैसे फूल खिलता है—सुबह—सुबह कमल का खिला फूल; कीचड़ से निकलता है। कीचड़ को देखकर किसे भरोसा आये कि इससे कमल भी पैदा हो सकता है। कमल शब्द का ही अर्थ कीचड़ से पैदा हुआ, मल से पैदा हुआ।

कमल के लिए संस्कृत शब्द है. पंकज।’पैक’ का अर्थ होता है : कीचड़; ‘ज’ का अर्थ होता है. जन्मा। कीचड़ से जन्मा। संस्कृत की कुछ खूबियां हैं! क्योंकि जिन लोगों ने उसे रचा, बुना, उसे रूप दिया, रंग दिया, उनमें बहुतों के हाथ बुद्धों के हाथ थे। बांसुरी किसके हाथ में पड जाएगी, इस पर सब निर्भर है। बांसुरी तो पोली है, कौन गाएगा गीत……। बुद्धों ने शब्दों को छूकर भी समाधि का रूप दे दिया। कमल कीचड़ से खिलता है। कीचड़ से ही उठता है, कीचड़ से ही जन्मता है। कीचड़ में ही छिपा था। न तो कीचड़ को देखकर कोई कह सकता है कि कमल इसमें छिपा होगा और न कमल को देखकर कोई कह सकता है कि यह कीचड़ से पैदा हुआ होगा। मगर कमल और कीचड़ के बीच सारे जीवन की कथा है। पैदा तो हर एक व्यक्ति कीचड़ की तरह होता है, लेकिन संभावना लाता है कमल होने की।

फिर कमल झील पर तैरता है—फिर भी झील का जल उसे छू नहीं पाता। झील में होकर भी झील में नहीं। झील में तो होता है, लेकिन अछूता। झील में तो होता है, अस्पर्शित। कमल तो झील में होता है लेकिन झील कमल में नहीं हो पाती। यही संन्यासी की जीवनचर्या है।

और सुभाषित भी ऐसे ही हैं। शब्दों में हैं लेकिन शब्दों में मत पकड़ना नहीं तो चूक जाओगे। शब्दों से बहुत ज्यादा उनमें भरा है। शब्द को ही पकडा तो कुछ पकड़ में न आएगा। खोल ही हाथ लगेगी, भीतर का सार चूक जाएगा। खोल को तो अलग कर दो, शब्दों को तो हटा दो। शब्दों के जाल में मत उलझ जाना। उसी जाल में उलझे हुए लोगों का नाम पंडित है। शब्दों के भीतर झांको, उसमें मौन को सुनो, सन्नाटे को अनुभव करो। शब्द अगर विचारे तो दर्शन का जंगल है फिर, जिसका कोई अंत नहीं, झाड़ियों पर झाड़ियां। और रोज घनी होती जाती हैं। और उलझाव बढ़ता जाता है। शब्दों पर ध्यान करो!

सुभाषित ध्यान करने के लिए हैं। उनको पीओ! चुप, मौन, उनको भीतर उतरने दो। उन्हें मांस—मज्जा—हड्डी—खून बनने दो। वे तुम्हारे भीतर रसधार की तरह बहने लगें। यह एक अलग ही प्रक्रिया है। विचारना बुद्धि की बात है; पी जाना, पचा लेना अस्तित्वगत है, बौद्धिक नहीं। और तब ये छोटे—छोटे वचन—ये छोटे —छोटे फूल—इतना छिपाये हुए हैं। एक—एक सुभाषित में एक—एक वेद छिपा है।

‘सत्यं तपो जपो ज्ञानं

सर्वा विद्या: कला अपि।

क्रस्ट निष्फल? संति

यस्य शील न विद्यते।।

जहां शील न हो वहां तप, सत्य, जप, ज्ञान, विद्या, कला सब व्यर्थ हैं। यह शील क्या है?

आनंद किरण, तुमने जहां से भी अनुवाद लिया, वहीं भूल है। अनुवाद में ही भूल आ गयी। पांडित्य आ गया। जिसने भी किया हो यह .अनुवाद, चूक गया। निशाना ठीक जगह नहीं लगा। अनुवाद करनेवाले लोग शब्दों का अनुवाद करते हैं। काश, ये सुभाषित सिर्फ शब्द ही होते तो इनका अनुवाद बड़ा आसान था इनका अनुवाद तो केवल ध्यानी ही कर सकते हैं, समाधिस्थ ही कर सकते हैं। अनुवाद तुमने जो दिया है : शील अर्थात् शुद्ध चरित्र यह जो ‘अर्थात् आ गया और ‘शुद्ध चरित्र’ आ गया, फिर सब भ्रांति हो गयी; फिर सब गडबड़ हो गया; फिर तुमने गुड़ गोबर कर दिया; फिर कमल कीचड़ हो गया।

कहां शील और कहां चरित्र! जमीन—आसमान का फर्क है। उस भेद को ही समझो. तो सुभाषित का अर्थ प्रगट होने लगेगा।

चरित्र होता है ऊपर से आरोपित। दूसरे सिखाते हैं तुम्हें जो, वह चरित्र और जो तुम्हारे अंतर से आविर्भूत होता है, वह शील। शील का अर्थ है. ध्यान से खुली हुई आंख, फिर तुम्हारा जो हलन—चलन है, गति है, तुम्हारे जीवन की जो विधि है, शैली है, वह शील। खुद की तो आंख बंद है, खुद तो अंधे हो, किसी ने लाठी पकड़ा दी है, किसी ने दिशा बता दी है, किसी ने कहा यूं जाना, यूं जाना, बाएं मुड़ जाना, दाएं मुड़ जाना—और चल पड़े हो। तुम्हें पक्का नहीं तुम क्या कर रहे हो, तुम्हें यह भी पक्का नहीं कि तुम ठीक चल रहे हो कि नहीं चल रहे हो, तुम्हें यह भी पक्का नहीं है कि जिसका तुमने मार्ग—निर्देश लिया है वह भी अंधा था या आंखवाला था, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने भी किसी से निर्देश लिया हो! यूं सदियों—सदियों निर्देश चलते रहते हैं। नानक ने कहा है, अंधा—अधम ठेलिया, दोनों कूप पड़त। अंधे अंधों को धक्के दे रहे हैं, अंधे अंधों को चला रहे हैं और दोनों कुएं में गिर रहे हैं।

अंधों की अपनी दुनिया है। अंधे अनुकरण ही कर सकते हैं। चरित्र है अनुकरण।

मुल्ला नसरुद्दीन गया था ईद की नमाज पढ़ने ईदगाह। जब नमाज करने झुका तो उसके कुर्ते का एक छोर पाजामे में अटका रह गया पीछे। उसके पीछे के आदमी ने देखा, शोभा योग्य नहीं था, तो उसने झटका देकर कमीज को पाजामे से छुटकारा दिला दिया। वह जो पाजामे में अटक गया था छोर, उसको मुक्त कर दिया। मुल्ला नसरुद्दीन ने सोचा, होगा जरूर इसमें कोई राज! नहीं तो क्यों पीछेवाला आदमी झटका देगा! होगा इसमें कोई रिवाज! सो उसने आगेवाले आदमी के कमीज को पकड़कर झटका दिया। आगेवाले आदमी ने भी सोचा कि शायद नमाज का यह हिस्सा है, सो उसने आगेवाले आदमी की कमीज को पकड़कर झटका दिया। आगेवाला आदमी चौंका, उसने कहा कि क्यों मेरी कमीज को झटका दे रहे हो? उसने कहा कि भाई, मुझसे न पूछो, पीछेवाले से पूछो। पीछेवाले से पूछा; उसने कहा, मुझसे न पूछो, यह मुल्ला नसरुद्दीन जो मेरे पीछे बैठा है! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा मुझे तो बीच में डालो ही मत! मेरे पीछे जो बैठा है इसी कमबख्त ने मेरी कमीज को झटका दिया। फिर यह सोचकर कि नमाज तो व्यवस्था से करनी चाहिए, मैंने भी झटका दिया। मेरा इसमें कोई हाथ नहीं।

और सदियों—सदियों से ऐसा तुम कर रहे हो। इस करने का नाम चरित्र है। चरित्र है. अनुकरण। न बोध है, न बुद्धि है. न सोचा है, न समझा है, न ध्याया है; और कर रहे हैं तो तुम भी कर रहे हो। किसी एक घर में पैदा हुए हो, वहा एक चरित्र की व्यवस्था थी तो तुम भी पूरा कर रहे हो। नहीं कर पाते हो तो अपराध अनुभव होता है और करते हो तो जीवन में कोई फूल नहीं खिलते।

चरित्र की यह दुविधा है—और यही उसकी पहचान भी।

पूरा करो, तो जीवन उदास—उदास। न पूरा करो, तो ग्लानि, आत्मग्लानि। हर हाल में मुसीबत! पूरा करो तो मुसीबत। तुम्हारे संतों को देखो, महात्माओं को देखो! उदास। न मुस्कुराहट है जीवन में, न हंसी की फुलझड़ियां हैं, न आनंद का उत्सव है, न दीये जलते हैं, न रंग है, न गुलाल है, न होली, न दीवाली। मरुस्थल की तरह रूखे—सूखे लोग, उनको देखकर किसी को भी विरक्ति पैदा हो जीवन से, उनको देखकर जीवन व्यर्थ मालूम पड़ने लगे इसमें कुछ आश्चर्य नहीं। और यही उनका उपदेश और उनका जीवन और उनके उपदेश का प्रमाण कि जीवन व्यर्थ है। और मैं तुमसे कहता हूं : जीवन व्यर्थ नहीं है। क्योंकि जीवन में ही छिपा है सत्य और जीवन में ही छिपा है मोक्ष और जीवन में ही छिपा है परमात्मा। जीवन में छिपा है सारा साम्राज्य शाश्वत का, सनातन का। एस धम्मो सनंतनो। यही जीवन तो सनातन धर्म। और यह जीवन कितने रंगों में, कितने रूपों में प्रगट हो रहा है।

मगर अगर तुम किसी की बात मानकर चलते रहे, मानकर ही चलते रहे, तो तुम्हें कभी इस जीवन से संबंध न जुड़ पाएगा, तुम टूटे—टूटे रह जाओगे, तुम उदास हो जाओगे। अनुकरण का अर्थ है : थोथा हो जाना, नकली हो जाना; झूठा सिक्का, पाखंड। चरित्र तो पाखंड होता है। इसीलिए मैं कहता हूं : संन्यासी का कोई झूठा चरित्र नहीं होता। शील तो होता है, लेकिन चरित्र नहीं होता। चरित्र है बाह्य व्यवस्था। इसलिए हिन्दू का चरित्र अलग होता है, मुसलमान का अलग होता है, जैन का अलग होता है, बौद्ध का अलग होता है, सिख का अलग होता है, पारसी का अलग होता है। लेकिन शील तो अलग—अलग नहीं होते। बुद्ध का भी वही, कृष्ण का भी वही, महावीर का भी वही, लाओत्सु का भी वही, जरथुस्त्र का भी वही। शील तो अलग—अलग नहीं हो सकते। लेकिन आचरण तो अनंत प्रकार के हो सकते हैं।

दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है जो कहीं किसी देश में, किसी जाति में, किसी काल में अनादृत न रही हो। और ऐसी भी कोई चीज नहीं है जो किसी देश में, किसी जाति में अनादृत न रही हो। पृथ्वी पर हजारों तरह के कबीले हैं। जो तुम सोच भी नहीं सकते, उसे करनेवाले लोग भी हैं। और जो तुम कर रहे हो, उस पर हंसनेवाले लोग भी हैं। चरित्र के साथ यह दुविधा रहेगी।

एक ईसाई मिशनरी को अफ्रीका के जंगलों में आदमखोर लोगों ने पकड़ लिया। ईसाई मिशनरी ने समझाने की कोशिश की कि तुम यह क्या कर रहे हो, आदमी को मार रहे हो, मुझे मार रहे हो! मुझे बचने की उतनी फिक्र नहीं, मगर तुम यह कर क्या रहे हो! क्या आदमी को खाना उचित है? वे आदमखोर बोले—दूसरे महायुद्ध के जमाने की बात है—कि तुम और हमें सिखाते हो! लाखों लोग मारे जा रहे हैं, खबरें हम तक भी आती हैं, हम तुमसे यह पूछते हैं, इतने आदमियों को मारते हो तो करते क्या हो? अरे, खाने के लिए कोई मारे तो समझ में आता है। न खाना है, न पीना है, सिर्फ मारना है! यह बात निपट मूर्खतापूर्ण है। हम तो मारते हैं तभी जब खाना होता है। और तुम तो खाना भी नहीं होता और मारे चले जाते हो! और एक दो नहीं, लाखों को मारते हो। और हमने तो सुन रखा है कि यही तुम्हारा इतिहास है। और हम को तुम कहते हो, अमानवीय! और तुम मनुष्य हो!

बात तो बड़ी सोचने जैसी है। तीन हजार साल में आदमी ने पांच हजार युद्ध लड़े हैं। और वह लोगों को काटा है! और यह काटनेवाले लोग सोचते हैं कि आदमखोर जो हैं, आदमियों को खानेवाले जो लोग हैं, यह पशु से भी गये—बीते हैं। और यह अरबों को मारनेवाले लोग ये ईसाई हैं, मुसलमान हैं, हिन्दू हैं, जैन हैं, बौद्ध है—ये धार्मिक लोग हैं!

महाभारत के युद्ध का अगर हम शास्त्रीय विवरण स्वीकार करें, जो कि करने योग्य नहीं है, तो अंदाजन सवा अरब आदमी महाभारत के युद्ध में मरे। सवा अरब आदमी! अभी भी पृथ्वी की कुल आबादी चार अरब है। सवा अरब आदमी उस युद्ध में मरे! और मारनेवाले लोग धर्म के नाम पर मार रहे थे. धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे! वह जो कुरुक्षेत्र था, वह धर्म का क्षेत्र था। धर्म की रक्षा के लिए मारकाट की जा रही थी। अरे, किसी और चीज के लिए मारकाट करो तो समझ में भी आ जाए, धर्म की रक्षा के लिए मारकाट! मारकाट से धर्म की रक्षा होगी! अधर्म से धर्म की रक्षा होगी!

ठीक कहा उस आदमखोर ने कि हम तो कभी—कभी खाते हैं, और हम तभी किसी को मारते हैं जब भूखे होते हैं, यूं हम नहीं मारते तुम्हारे जैसे! तुम हो पशुओं से गये—बीते! मिशनरी तो बहुत हैरान हुआ इस तर्क से। बात में तो बल था। फिर भी अपनी जान तो बचाने के लिए उसे कोशिश और भी करनी जरूरी थी। उसने कहा कि तुम को धर्म का कोई भी स्वाद नहीं। उन्होंने कहा, है जी! पहले भी हम दो मिशनरी खा चुके हैं! कोई तुम नये थोडे ही हो। हम तो मिशनरियों की प्रतीक्षा ही करते हैं। हमें और धर्म का स्वाद नहीं! तुम्हें नहीं है। तुमने कभी मिशनरी खाया? पादरी—पुरोहित—पंडित तुमने कभी खाया? साधु? अरे हम सबको पचाये हैं। अनुभव से कहते हैं, सबका स्वाद लिया है। और तुम हमसे पूछ रहे हो कि धर्म का स्वाद है या नहीं!

आचरण तो अजीब—अजीब तरह के होंगे।

अफ्रीका का एक कबीला चींटे और चींटियों का भोजन करता है। एकदम चींटे—चींटियां इकट्ठा करता रहता है। छोटे—छोटे बच्चे चींटा दिखा कि गप्प कर जाते हैं और तुम्हरी तो सब्जी में भी चींटा दिख जाए चींटा मिल जाए मरा हुआ, तो सब्जी भी खायी न जाए तुमसे! और वे इसको स्वादिष्ट मानते हैं। चींटे—चींटियों को इकट्ठा करते हैं, सुखाकर रखते हैं। मौके—बेमौके मेहमान आ जाएं तो चींटे—चींटियों का नाश्ता।

चीन में लोग सांप को खाते हैं। सांप की सब्जी बहुत बहुमूल्य सब्जी समझी जाती है। और साधारण आदमी ही नहीं खाते, बौद्ध भिक्षु भी खाते हैं।

प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु लिंची के संबंध में यह उल्लेख है कि कोई मेहमान आया हुआ था—प्रतिष्ठित; वजीर था, बड़े ओहदे पर था, धनपति था—उसके स्वागत में लिंची ने पूरे अपने आश्रम को भोजन दिया था। पांच सौ भिक्षु उसके साथ भोजन करने बैठे। लिंची के पास ही वजीर बैठा था। और जब रसोइयों ने आकर भोजन परोसा और प्रधान रसोइये ने आकर वजीर की और लिंची की थाली में सब्जी परोसी तो लिंची थोड़ा हैरान हुआ। उसने कुछ उठाकर दिखाया रसोइये को—यह क्या है? सांप का मुंह था। मुंह नहीं डाला जाता, मुंह काटकर फेंक दिया जाता है, क्योंकि मुंह में जहर की ग्रंथि होती है। सब्जी बाकी शरीर की बनती है, मुंह को छोड़कर।

लेकिन यह कहानी झेन शास्त्रों में बहुत आदर से उल्लिखित है। आदर का कारण है।

जब उसने मुंह उठाकर दिखाया तो उस रसोइये ने क्या किया? वह भी भिक्षु था, आश्रम का रसोइया था उसने झट से मुंह हाथ में लिया, अपने मुंह में डाल दिया और कहा धन्यवाद! गुरु तो बहुत प्रसन्न हुआ। न जरा झिझका, न जरा परेशान हुआ, सांप के मुंह को भी अपने मुंह में डाल दिया। बात को यूं पचा गया। किसी की समझ में ही नहीं आया, क्या हुआ! लोग यही समझे कोई मीठी चीज, कोई स्वादिष्ट भोजन प्रसादरूप में भिक्षु को मिला है।

लेकिन सांप की सब्जी खायी जाती थी। अब भी खायी जाती है।

अभी कल के अखबार में खबर थी कि एक आदमी रोज ही एक सांप खाता है चीन में। जिस दिन सांप नहीं मिलता उस दिन उसकी तबीयत ढीली हो जाती है, सुस्त हो जाता है। सांप चाहिए ही चाहिए। पौष्टिक आहार है 1 उसके बिना वह नहीं जी सकता। दुनिया में कहीं भी कोई सांप को खाने का खयाल न करे!

मगर बिच्छू को खानेवाले लोग भी हैं।

और जो जिस घर में पैदा हुआ है, जिस परिवार में, जिस संस्कार में, उसको ही पकड़ लेता है। और तो कुछ पकड़ने को होता भी नहीं। मां—बाप सिखा देते हैं; शिक्षक, गुरु, पंडित—पुरोहित, सब सिखा देते हैं, वह वैसा ही आचरण करना शुरू कर देता है। इस आचरण का नाम शील नहीं है। यह तो बिलकुल थोथी बात है। यह तो ऊपर से पहनाये गये वस्त्रों जैसी है। यह तो मुखौटा है। जैसे

किसी ने चेहरे को रंग दिया हो, सुंदर बना दिया हो। यह तो पानी पड़ जाए एक तो बह जाए। बूंदाबांदी हो जाए तो सब राज खुल जाए। इसलिए, आनंद किरण, शील का अर्थ शुद्ध चरित्र न करो। और तुम्हारा मन—या जिसने भी यह अनुवाद किया हो—सिर्फ चरित्र से ही न माना, उसमें शुद्ध और जोड़ दिया। चरित्र काफी नहीं, शुद्ध भी होना चाहिए। प्रेम काफी नहीं, शुद्ध प्रेम।…….दूध काफी नहीं, शुद्ध दूध.. मिलावटी दिमांग हो गया हमारा। हर चीज में मिलावट है। आजकल तो प्रेमी भी प्रेयसियों से कहते हैं कि बिलकुल खालिस प्रेम है, सौ टका। ऐसा मत समझना कि कुछ मिलावट है कि पानी वगैरह मिलाया हुआ है, बिलकुल शुद्ध प्रेम है, कोई फिल्मी नहीं है।

अब तो कोई चीज शुद्ध नहीं है। इसलिए शुद्ध का आग्रह बढ़ता जा रहा है। जब शुद्ध घी मिलता था तो दुकानों पर तख्तियां नहीं लगती थीं कि शुद्ध घी बिकता है। तब ‘घी बिकता है’ इतना ही काफी था। जब से शुद्ध घी नहीं मिलता, तबसे ‘शुद्ध घी बिकता है।’ अब तो हालत और बिगड गयी। अब तो शुद्ध डालडा भी बिकता है। अब तो डालडा भी शुद्ध कहां है? इसलिए अब शुद्ध डालडा की भी तख्ती लगी रहती है कि यहां ‘शुद्ध डालडा मिलता है।’ पहले डालडा यानी अशुद्ध ही चीज थी। अब डालडा शुद्ध चीज है, क्योंकि उससे भी रही घी को मिलानेवाले लोग हैं। घी भी नहीं है, उसको भी मिलानेवाले लोग हैं। चर्बी मिला दें, कुछ भी मिला दें।

अब तो दवाओं का भी कोई भरोसा नहीं है। अब तो तुम इंजेक्‍शन ले रहे हो और सोच रहे हो इंजेक्‍शन है, हो सकता है सिर्फ पानी हो। और वह पानी भी जरूरी नहीं कि शुद्ध हो।

तो हम इतने से ही राजी नहीं होते कि चरित्र। चरित्र पर्याप्त है। चरित्र का अर्थ ही होना चाहिए शुद्ध। और चरित्रहीनता का अर्थ होगा अशुद्ध। शुद्ध चरित्र का क्या मतलब? लेकिन हमारे दिमाग में मिलावट घुस गयी है। एक तो चरित्र शील का अर्थ नहीं है—यह बाहरी आडंबर है—दूसरा इसमें भी ‘शुद्ध’ जोड़ रहे हो! आडंबर को और भी झूठा बना रहे हो।

शील का अर्थ होता है : ध्यान के शून्य में जिसने अपने अंतःकरण को पहचाना है; जिसने शून्य में अपने केन्द्र से संबंध जोड़े हैं; जो अपने प्राणों के प्राण से संयुक्त हुआ है; जिसने पहली दफा जाना है कि मैं परिधि ही नहीं हूं केन्द्र भी हूं। और जिसकी परिधि केन्द्र से प्रभावित होने लगी है। उसका नाम शील है। शील है तुम्हारे भीतर से खट्ट हुआ और चरित्र है ऊपर से थोपा हुआ। जैसे कोई कागजी फूल लाकर वृक्षों पर अटका दे। हो सकता है राह चलते राहगीरों को धोखा हो जाए। मगर तुम किसको धोखा दे रहे हो? क्या मधुमक्खियों को धोखा दे पाओगे? कोई एक मधुमक्खी भी तुम्हारे कागज के फूल पर न बैठेगी। क्या तुम भंवरों को धोखा दे पाओगे? कोई भंवरा तुम्हारे कागज के फूलों के पास गुनगुन करके गीत न गाएगा। तुम किसे धोखा दे रहे हो? और तुम सबको भी धोखा दे दो, मगर तुम्हें तो पता ही रहेगा कि ये फूल कागजी हैं। तुमने ही लटकाए हैं। तुम अपने को तो धोखा न दे पाओगे। तुम वृक्ष को तो धोखा न दे पाओगे। इन कागजी फूलों को वृक्ष रस नहीं देने लगेगा। और अगर दिया भी उसने रस तो ये गल जाएंगे। ये मर जाएंगे। वह जीवनदायी रस इनके लिए मृत्यु हो जाएगा। असली फूल वृक्ष में लगते हैं। उसका अंग होते हैं।

शील है : असली फूल—तुम्हारे भीतर कत, तुम्हारे भीतर लगा। नकली नहीं है, बाजारू नहीं है, कागजी नहीं है। और तब इस सुभाषित का अर्थ खुल सकेगा। तो मैं शील का अर्थ शुद्ध चरित्र नहीं करता हूं। यह ‘अर्थात शुद्ध चरित्र’ छोड दो! खयाल से भी हटा दो! इतना ही कहो कि शील न हो तो मनुष्य के जीवन में सत्य नहीं होता। क्या होगा? अगर सत्य हो तो शील ही होगा; अगर शील हो तो सत्य भी होगा। जिसने अपने जीवन के केन्द्र को जान लिया, उस जानने को, उस पहचानने को ही तो सत्य का अनुभव कहते हैं। और जिसके जीवन में आत्म—अनुभव हो, उसके जीवन में तप होता है।

तप का क्या अर्थ होता है? तप शब्द को समझना चाहिए।

लोग सोचते हैं तप का अर्थ है अपने को सताना, गलाना, परेशान करना, हैरान करना। तब तो तप एक तरह की आत्महिंसा हो गयी। तो फिर दुनिया में दो तरह के लोग हैं : दूसरों को सतानेवाले और अपने को सतानेवाले। इनमें कुछ फर्क नहीं है, जहां तक सताने का संबंध है ये एक जैसे हैं। इनकी कोटियां अलग—अलग नहीं हैं। कोई दूसरे को अगर सताये तो हम उसको दुष्ट कहते हैं। और अपने को सताये तो उसको संत कहते हैं। गजब के लोग हैं! हम भी गजब के लोग हैं! हमारी कोटियां भी गजब की, हमारी व्याख्याएं भी अदभुत! अरे, दूसरे को जो सताये वह उतना दुष्ट नहीं है, क्योंकि दूसरा अपनी आत्मरक्षा भी कर सकता है। लेकिन जो खुद को सताये, वह तो बहुत ही दुष्ट है, क्योंकि खुद की अब कोई आत्मरक्षा करनेवाला भी नहीं है। अब तो जिसको हमने रक्षक समझा था, वही सता रहा है। अब तो जिससे हम बचना चाहते थे, वही मार रहा है। अब कौन बचाएगा? जिसको हमने सुरक्षा मानी थी, वही झूठी सिद्ध हो गयी। इसलिए जो कायर हैं और दूसरों को सताने में डरते हैं—क्योंकि दूसरों को सताने में खतरा है, दूसरों को छेड़ने में खतरा है! जैसे कोई मधुमक्खी का छत्ता छेड़ दे! दूसरे को छेड़ोगे तो दूसरा बदला लेगा, आज नहीं कल, कल नहीं परसों। और कौन जाने खतरनाक आदमी हो!

मुल्ला नसरुद्दीन चला जा रहा था एक रास्ते से, ऊपर से एक ईंट गिरी, उसकी खोपड़ी पर पड़ी। भनभना गया। तमतमा गया। उठायी ईंट और गुस्से में गया जीना चढ़कर ऊपर कि सिर खोल दूंगा! कौन हरामजादा है जिसने ईंट पटकी? देखता भी नहीं! उधर जाकर देखा तो एक पहलवान खड़ा था। अभी दंड—बैठक लगाकर ही उठा था। पहलवान को देखकर मुल्ला चौकड़ी भूल गये। पहलवान ने पूछा, कहो, क्या काम है? उसने कहा, कुछ नहीं, आपकी ईंट गिर गयी थी, वह वापिस करने आया हूं। अरे, कभी भी जरूरत हो तो पड़ोस में ही रहता हूं आवाज दे दी। कोई चीज गिर जाए, कुछ हो तो उठाकर ला दूंगा। सेवा तो हमारा धर्म है!

भूल गये चौकड़ी! गये तो थे कि खोल दूंगा सिर, ईंट लौटाकर वापिस अपना सिर मलते आ गये!

एक दिन मुल्ला घर लौटा, देखा कि पत्नी के बिस्तर पर कोई सोया हुआ है। दोनों कंबल के भीतर हैं। आगबबूला हो गया। सोचा कि निकाल लूं तलवार कि पिस्तौल। पर इसके पहले कि पिस्तौल निकालने जाऊं, जरा देख तो लूं कि कौन है? कंबल उठाया, वही पहलवान? जल्दी से कंबल उढा दिया। पत्नी ने कहा, ‘क्यों, क्या करते हो?’ अरे, उसने कहा, ‘बेचारे पहलवान को ठंड न लग जाए! और एक कंबल ले आऊं, भैया? शांति से सोओ!’

मगर दिल तो भनभना रहा था। यह तो हद हो गयी! ईंट भी ठीक थी, मगर अब जरा बात आगे बढ़ गयी बहुत! कंबल तो उढाकर बाहर लौट आया, पहलवान का छाता रखा था, उसका छाता अपनी टांग पर रखकर तोड़ दिया और कहा कि हे प्रभु, अब ऐसा हो कि जमकर बरसे, पानी ऐसा बरसे कि कमबख्त को पता चल जाए! घर पहुंचने में मजा आ जाए इसको भी!

अब और क्या करोगे? उसका छाता तोड़कर परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं।

जो लोग दूसरों को नहीं सता सकते, क्योंकि दूसरों को सताना खतरे से खाली नहीं है, जोखम का काम है, वह अपने को सताने लगते हैं। और मजा यह है कि यही कायर तुम्हारे महात्मा बन जाते हैं। यही तुम्हारे संत बन जाते हैं। इन्हीं के चरणों में तुम सिर झुका रहे हो। इन्हीं कायरों की पूजा चल रही है।

तप का यह अर्थ नहीं है। तप का अर्थ होता है—तप शब्द में ही अर्थ छिपा हुआ है : तप यानी तपिश—एक ऊर्जा, एक गर्मी। जैसे भीतर सूरज ज्या आया हो। जैसे जीवन की सारी ऊर्जा जाग्रत हो गयी हो। जैसे सोये स्रोत खुल गये हों। झरने फूट पड़े हों। एक दीप्ति, एक ओजस—जिस व्यक्ति ने स्वयं के सत्य को जाना है, उसके जीवन में एक गर्मी होगी—क्रांति की, बगावत की। उसके जीवन में एक आग्नेयता होगी। क्योंकि उसके भीतर आत्मज्योति का दीया जलेगा; उसके भीतर ठंडा बरफ जैसा हृदय नहीं होगा, मुर्दा हृदय नहीं होगा, जीवंत हृदय होगा। तप का अर्थ है : ऊर्जा, गर्मी। जैसे सूरज निकल आता है तो फूल जो बंद थे रातभर, खुल जाते हैं, पक्षी जो रातभर सोये रहे, जग जाते हैं; जिनके कंठ रातभर चुप थे, अचानक गीतों में फूट पड़ते हैं, वैसे ही सत्य के अनुभव के साथ तुम्हारे जीवन में ऊर्जा का पदार्पण होता है। सूरज ऊगता है, फूल खिलते हैं, जागरण आता है—और गीत और नृत्य और उत्सव। उत्सव।

तप अपने को सताना नहीं है, अपनी जीवन ऊर्जा को उसकी पराकाष्ठा पर प्रगट होने देना है। और जिसकी जीवन ऊर्जा परकाष्ठा पर प्रगट होगी, निश्चित ही उसका अंतिम परिणाम सृजन होगा, कला होगी। क्योंकि ऊर्जा तुम्हें सृष्टा बनाएगी। तुम गीत रचो कि मूर्ति रचो कि चित्र बनाओ कि तुम जो कुछ भी करोगे, उस सब में एक सौष्ठव होगा, उस सब में एक संस्कृति होगी। तुम मिट्टी छुओगे तो सोना हो जाएगी। और मिट्टी को छूकर सोना बना देने का काम ही कला है।

जब तक स्वयं के सत्य को नहीं जाना, शील को नहीं पहचाना, अपने भीतर के केन्द्र को अनुभव नहीं किया, तब तक सब झूठ है; उसके साथ ही सब सच हो जाता है। एक को जान लो तुम, स्वयं को, तो तुम्हारे जीवन में फूल ही फूल खिल जाते हैं कि तुमने कभी कल्पना भी न की थी। इतने गीत कि तुमने कभी सोचा भी न था कि तुम्हारे भाग्य में होंगे! इतना आनंद, इतना नृत्य, इतनी ऊर्जा कि नृत्य तो फूटेगा ही, आनंद तो जगेगा ही। ऊर्जा तो अपने—आप नाचती है। ऊर्जा बिना नाचे नहीं रह सकती! झरने फूट पड़ेंगे!

और तभी जप।

यह बैठकर जो रामनाम की चदरिया ओढ़े हुए और माला हाथ में लिए हुए जप कर रहे हैं, मुर्दों की भांति, इनके जप को कोई मूल्य नहीं है। लेकिन जप का अर्थ होता है. जब तुम्हारे जीवन में आनंद की पुलक आयी, लहर दौड़ी और तुम्हारे भीतर अनुग्रह का भाव उठा। परमात्मा को या परमात्मा शब्द को भी बीच में न लाओ तो भी चलेगा—अस्तित्व को जब धन्यवाद देने के लिए तुम झुके, उस झुकने का नाम जप है। फिर वह मौन भी हो सकता है, मुखर भी हो सकता है।

उस स्वानुभूति के पहले जो ज्ञान है, कचरा है, किताबी है, शास्त्रीय है। उस स्वानुभव के बाद ही ज्ञान है। ज्ञान एक ही है : अपने को जानना।

उपनिषदों ने बड़ी अनूठी व्याख्या की है। दुनिया में कभी ऐसी व्याख्या नहीं की गयी। जिसको आज हम विज्ञान कहते हैं, उसको उपनिषद अविद्या कहते हैं। बाहर का शान अविद्या। ये भूगोल और यह इतिहास और यह गणित और यह भौतिकी और यह रसायन—बाहर का सब शान उपनिषद अविद्या कहते हैं। और भीतर के ज्ञान को विद्या कहते हैं। तो ज्ञान तो एक ही बचा फिर. स्वयं को जानना, आत्मसाक्षात्कार। और शेष सब अविद्या हो गया। शेष सब कामचलाऊ है। उपादेयता है उसकी, लेकिन उससे कोई मुक्ति नहीं बनती। और उससे जीवन में कोई आनंद नहीं निर्मित होता और अमृत नहीं निचुडता। ज्ञान तो वह है जो मुक्तिदायी हो।

सा विद्या या विमुक्तये। वही है विद्या जो मुक्ति लाये। यह परिभाषा हुई विद्या की—जो मुक्ति लाये वह विद्या। जो बांध दे, वह विद्या नहीं। जो बांध दे, वह विद्या नहीं। जो खोल दे सारे बंधन, वही विद्या, वही ज्ञान।

‘सत्यं तपो जपो ज्ञानं

सर्वा विद्या: कला अपि।

नरस्य निष्फल? संति

यस्य शील न विद्यते।।

शील न हो तो कुछ भी नहीं। भीतर अंधेरा हो तो कुछ भी नहीं। भीतर उजाला हो तो सब कुछ। इसलिए मेरा जोर एक ही बात पर है—सिर्फ एक बात पर कि कुछ भी हो, किसी भी कीमत पर हो, समाधि को पाना है। ध्यान को जगाना है। ध्यान की अंतिम चोटी को छूलेना है। वही समाधि है, संबोधि है, बुद्धत्व है। उसको छू लिया तो शेष सब रूपांतरित हो जाएगा। और उसको न छुआ, तो तुम लाख वीणा बजाओ—तकनीकी दृष्टि से तुम शायद वीणावादक हो जाओगे लेकिन तुम्हारे वीणा बजाने में प्राण नहीं होंगे। तार झनझनाएंगे, गीत भी ओठों से आएगा मगर हृदय से नहीं।

अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणावादन देखकर कभी—कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता ‘है। तानसेन ने कहा, क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे: गुरु अभी जिन्दा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें तो कहां वे और कहां मैं!

बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा तो फिर उन्हें बुलाओ! तानसेन ने कहा, इसीलिए कभी मैंने उनकी बात नही छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं ही है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गयी। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्‍क्षण कहेंगे, ‘उन्हें बुलाओ’। और तब मैं मुश्किल में पढूंगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुननेवाला नहीं। जहां कभी—कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को। वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार मे न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं। तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़े, कैसे सुनना पड़े? तो तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं—हरिदास उनका नाम था—हम रात चलकर छुप जाएं—दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाए, चार बजे —बजाए, पांच बजे बजाए; मगर एक बार (जरूर सुबह—सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं— तो हमें चोरी से ही सुनना होगा, बाहर झोपड़े के छिपे रहकर सुनना होगा।.. शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने, अकबर जैसे बड़े सम्राट ने चोरी से किसी की वीणा सुनी हो!.. लेकिन अकबर गया।

दोनों छिपे रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्थान करके हरिदास यमुना सै आये और उन्होंने अपनी वीणा उठायी और बजायी। कोई घंटा कब बीत गया—यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गयी, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा। आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे। अब तो वीणा बंद भी हो. चुकी। अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गयी मगर भीतर की वीणा बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद ‘हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार छिड़ गये हैं।। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहा तुम और कहां तुम्हारे गुरु!

अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन— आसमान का फर्क है। तानसेन ने कहा, कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्‍धि की, किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं मगर गणित! बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे, कि मोतियों की माला, कि मेरी झोली सोने से भर देंगे, कि अशार्फेयों से? जब बजाता हूं तब पूरी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य, वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है। उनके जीवन में साधन और साध्य में बहुत फर्क है, साधन ही साध्य है; ओर मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में कोई फर्क नहीं है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं। उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं। वे पीये हैं।

और जो परमात्मा को पीये है, उसके बजाने में जरूर वही शराब कुछ तो कह ही आएगी! उन तक भी बह आएगी जिन्होंने तौबा कर —रखी है; कि कभी न पीएंगे; उनके कंठों में भी उतर जाएगी। किसी सच्चे पीनेवाले के पास अगर बैठ गये, किसी पियक्कडु के पास अगर बैठ गये तो तुम्हारी तौबा के जीने से ही उतर—उतरकर तुम्हारे हृदय तक शराब पहुंच जाएगी। तुम्हारी कसमों को तोड़ देगी।

तुम्हारे नियम—व्रत—उपवास तोड़ देगी। आनंद तुम्हें बहा ले जाएगा। बह जाओगे तभी पता चलेगा कि अरे, कितनी दूर निकल आये? बहुत दूर निकल आये!

शील हो तो शेष सब आ जाता है। और शील न हो तो तुम जमाते रहो, बिठाते रही सब साज—सामान, बस कचरा ही इकट्ठा कर रहे हो। मुक्ति नहीं होगी और कचरे से दब जाओगे। शील मुक्ति है। चरित्र बंधन है।

आज इतना ही।

‘लगन महूरत झूठ सब’ प्रवचनमाला से

दिनांक 25 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना


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नाम सुमिर मन बावरे-(जगजीवन)–प्रवचन–2

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कीचड़ में खिले कमल—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 2 अगस्‍त,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्नसार:

1—संन्यास लेने पर गहरे ध्यान में प्रवेश और लोगों—द्वारा पागल समझा जाना।

2—विरह की असह्य पीड़ा से साधक की तड़पन।

3—‘शेष प्रश्न क्या है?

4—मेरे जीवन में क्यों कष्ट हैं?

5—संसार की कीचड़ से कैसे मुक्त हुआ जाए?

6—भगवान की बातें सुनकर प्रेम और मस्ती का नशा चढ़ जाना।

पहला प्रश्न :

 

भगवान, जबसे मैंने संन्यास लिया है तबसे रंग ही बदल गया है। मैं आपका हाथ अपने हाथ में महसूस करती हूं। कभी—कभी ध्यान की अवस्था में पूरे शरीर के रोएं खड़े हो जाते हैं, शरीर उड़ाने भरने लगता है और आंसुओ की झड़ी लग जाती है।

मेरी यह हालत देखकर लोग मुझे पागल कहते हैं। उन्हें कैसे समझाऊं कि इन गैरिक वस्त्रों में बहुत खुशियों के लच्छे हैं। हमें पागल ही रहने दो, पागल ही अच्छे हैं।

कृष्णा भारती, संन्यास का रंग शुरू तो बाहर से ही होता है लेकिन अंत तो तभी है जब भीतर भी रंग जाए। और जो बाहर से रंगने को राजी है उन्होंने नियंत्रण दिया, उन्होंने द्वार खोले। उन्होंने सूचन दिया कि अब हम भीतर से रंगने को भी राजी हैं। यह रंग गुलाल, यह गैरिक आया धीरे— धीरे व्याप्त होगी, गहन होगी। और एक घड़ी ऐसी आएगी—बाहर और भीतर एक ही रंग हो जाएगा। जब बाहर और भीतर में कोई भेद न रह जाए तभी जानना कि वास्तविक संन्यास घटित हुआ। वही घड़ी करीब आ रही है।

और जब भी ऐसी घड़ी करीब आएगी, लोग पागल कहेंगे। क्योंकि लोग तर्क से जीते हैं, गणित से जीते हैं, हिसाब—किताब रखते हैं। बाहर बाहर होना चाहिए, भीतर भीतर होना चाहिए। शरीर, शरीर; आत्मा, आत्मा। बुद्धि, बुद्धि; हृदय, हृदय। वे विभाजन करके रखते हैं; हर चीज को खंडों में बांटकर रखते हैं।

संन्यास का अर्थ ही है समग्रता। बाहर को भीतर में डूबा देंगे, भीतर को बाहर फैला देंगे। बुद्ध को अलग— थलग न रहने देंगे, हृदय में मिला लेंगे। भाव और विचार एक साथ नाचे। देह और आत्मा में रंचमात्र भी भेद न रह जाए। पदार्थ और परमात्मा एक ही सिक्के के दो पहलू हो जाएं। सब द्वंद्व मिटें। द्वंद्वातीत का जन्म हो। अद्वैत उमगे।

लेकिन अद्वैत तो निश्चित ही पागलपन जैसा मालूम होगा। क्योंकि अद्वैत का अर्थ हुआ : बुद्धि ने जितनी सीमाएं खींची थीं, तुमने सब पोंछ डालीं। बुद्धि ने भेद खड़े किए थे, तुमने सब मिटा दिए। संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। माया और ब्रह्म दो नहीं हैं। दो का कोई अस्तित्व ही नहीं है।

लेकिन जीवन का सारा व्यवहार दो के स्वीकार पर खड़ा है। इसलिए जब भी किसी के जीवन से दो का भाव गिरेगा, लोग पागल कहेंगे। लोग ठीक ही कहते हैं; उससे पीड़ा भी मत लेना; उससे दंश मत पाना। लोग अपनी तरफ से ठीक ही कहते हैं। उनकी बात को लेकर उनके अनुसार चलने की चेष्टा भी मत करना, क्योंकि वह अब संभव नहीं होगा। यह रंग चढ़े तो फिर उतरता नहीं।

बाहर के दीये तो बुझ जाते हैं। तेल चुक जाता है, बाती चुक जाती है, दीये टूट जाते हैं; भीतर का दीया बुझता नहीं। बिन बाती बिन तेल। न तो वहां तेल है जो चुक जाए, न बाती है जो जल जाए, न दीया है जो टूट जाए। भीतर शाश्वत धारा है प्रकाश की। वहां प्रतिपल दीवाली है और प्रतिपल होली है। वहां तो पहुंच ही वे पाते हैं जो पागल होने को ही नहीं, बिल्कुल मिट जाने को राजी हैं। मुझसे वो कहते हैं परवाने को देखा तुमने देख यूं जलते हैं इस तरह से दम देते हैं देखा है परवाने को शमा पर जल जाते हैं? वही संन्यास का ढंग है।

मुझसे वो कहते हैं परवाने को देखा तुमने देख यूं जलते हैं इस तरह से दम देते हैं जब परवाना शमा के साथ एक हो जाता है, जब हमारी छोटी—सी ज्योति उस विराट ज्योति में लीन हो जाती है, जब हम उसी के रंग में रंग जाते हैं। कबीर ने कहा न! ‘लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।’ उसे देखने जो जाएंगे, उस जैसे ही हो जाएंगे। उसे देखते ही देखनेवाले में और दिखाई पड़ने वाले में भेद नहीं रह जाता।

यह गैरिक रंग तो प्रतीक है। प्रतीक है बहुत—सी बातों का। सुबह के उगते सूरज का। जब आकाश पर प्राची में लालिमा छा जाती है, वैसे ही तुम्हारे भीतर का प्रकाश जब उगता है तो तुम्हारे अंतराकाश पर प्राची में लाली छा जातीहै।

वही रंग उतर रहा है। अहोभाव से, आनंद से दोनों बाहें फैलाओ और जो आ रहा है उसे भेंट लो। जरा भी संकोच मत करना। लोकलाज मत करना। जरा भी लज्जा मत करना। हटा दो सब घूंघट। गिरा दो सब पर्दे। उस परम से तो कोई निर्वस्त्र ही मिलता है, जहां कोई अड़चन नहीं रह जाती।

और उससे मिलना मिटना है। उससे मिलकर कौन जिया, कौन बचा? इसलिए रास्ता तो पागलों का है ही; हुशियारो का नहीं। हुशियार तो धन इकट्ठा करते हैं, पद इकट्ठा करते हैं, प्रतिष्ठा कमाते हैं। पागल परमात्मा की तरफ जाते हैं।

फानी को या जुनूं है या तेरी आरजू है

कल नाम लेके तेरा दीवानवार रोया

या तो पागल रोते हैं या उसके प्रेमी रोते हैं।

फानी को या जुनू है या तेरी आरजू है

या तो उसकी अभीप्सा पैदा हो जाए या कोई पागल हो जाए। सच में तो दोनों एक ही बात के दो नाम हैं।

मैं साधारण पागलों की बात नहीं कर रहा हूं, असाधारण पागलों की बात कर रहा हूं, मस्तों की बात कर रहा हूं। साधारण पागल तो वह है जो बुद्धि से नीचे गिर गया। असाधारण पागल वह है जो बुद्धि से ऊपर उठ गया। दोनों से बुद्धि छूट जाती है। मगर जो बुद्धि से नीचे गिर गया उसका तो संसार भी गया, परमात्मा कहां मिला? उसके तो हाथ में जो था वह भी खो गया। मिलने की तो कोई बात नहीं है। जो बुद्धि से ऊपर उठता है उसका भी संसार खो जाता है लेकिन संसार का मालिक मिल जाता है। और जिसको मालिक मिल गया उसको तो सारा साम्राज्य मिला ही हुआ है।

लोग हंसेंगे भी। लोग मखौल भी उड़ाके। लोग पागल भी कहेंगे। ऐसा उन्होंने सदा किया है। यह उनकी पुरानी आदत है, कुछ नई नहीं।

दिल के तअईं आतिशे—हिज्रां से बचाया न गया

घर जला सामने और हमसे बुझाया न गया

जब तुम अपने घर को जलते हुए देखोगे तो दूसरे तुम्हें पागल तो कहेंगे ही कि खड़े—खड़े देखते क्या हो? बुझाते नहीं? उन्हें क्या पता कि बूंद मिट रही है और सागर हो रहा है। उन्हें क्या पता कि बीज टूट रहा है और वृक्ष का जन्म हो रहा है, उन्हें क्या पता कि सूली के पीछे सिंहासन है। सूली ऊपर सेज पिया की। उन्हें तो सूली दिखाई पड़ रही है।

दिल के तअईं आतिशे—हिज्रां से बचाया न गया

घर जला सामने और हमसे बुझाया न गया

ये गैरिक वस्त्र अग्नि के प्रतीक भी हैं। कबीर ने कहा, ‘कबीरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारे आपना चले हमारे साथ।’किस घर में आग लगानी है? अहंकार के घर में आग लगानी है। यह आशियां दिखता है कि आशियां है; यह कारागृह है, यह कैद है। यह तो जल ही जाए तो तुम मुक्त हो जाओ। यह तो राख हो जाए तो सारा आकाश तुम्हारा हो जाए।

लेकिन लोग पागल कहें तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसे वे घर समझते हैं उसे तुम जलाने चल पड़े। और जिसे वे यश समझते हैं उसे तुमने दो कौड़ी का माना।

मार रहता है उसको आखिरकार

इश्क को जिससे प्यार होता है

प्रेम के रास्ते पर तो मृत्यु अहोभाग्य है। लेकिन जिन्होंने प्रेम जाना ही नहीं उन अभागों को तो मृत्यु मृत्यु ही है। फिर प्रेम के रास्ते पर घटे कि घृणा के रास्ते पर घटे, उन्हें कुछ भेद मालूम नहीं होता। वे तो इतना ही जानते हैं : खाओ, पियो, मौज करो। मौत आ गई, सब छिन जाएगा। उन्हें पता नहीं है कि एक ऐसी भी मौत है कि क्षुद्र छिनता है और विराट मिलता है। एक ऐसी भी मौत है जो महाजीवन का द्वार है।

पर उन पर दया करना। उन पर नाराज भी मत होना। उनसे विवाद भी मत करना। क्योंकि कृष्ण, वे विवाद समझेंगे भी नहीं।

पूछा है : ‘जबसे मैंने संन्यास लिया है तब से रंग ही बदल गया है।’बदल ही जाना चाहिए। संन्यास लो तो बदलेगा ही।

लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कपड़ों का रंग बदलने से क्या होगा? यह तो बाहर की बात है। भीतर से तो हम आपके संन्यासी हैं ही। मैं उनकी आंखों में देखता हूं, न वे बाहर से हैं न वे भीतर से। भीतर की बात तो सिर्फ इसलिए उठा रहे हैं ताकि बाहर से बच जाएं। मैं उनसे कहता हूं, ईमान से कहते हो भीतर से संन्यासी हो? या केवल बातचीत कर रहे हो, बहाना खोज रहे हो? अभी बाहर से संन्यासी होने की भी हिम्मत नहीं है लेकिन आदमी बड़ा चालबाज है। बड़ी ऊंची बातें उठाता है। छोटी—मोटी बातों को तो करना ही क्या है! बड़ी—बड़ी बातें करता है। फिर भीतर की बात तो ऐसी है कि किसी को दिखाई पड़ती नहीं।

जो कहता है कि मैं भीतर से संन्यासी हूं, बाहर से लेने से क्या होगा, उसे भी जब प्यास लगती है तो बाहर से पानी पीता है। यह नहीं कहता है कि भीतर की प्यास को बाहर के पानी से क्यों बुझाए? भीतर की भूख को बाहर के भोजन से क्यों बुझाए? भीतर के प्रेम को बाहर के प्रेमी से क्यों बुझाए? तब बाहर का पानी, बाहर का भोजन, बाहर का प्रेम, बाहर की श्वास—सब स्वीकार है। लेकिन जब संन्यास की बात उठे तो वह कहता है, बाहर से क्या जरूरत? भीतर तो मैं संन्यासी ही हूं। जब सर्दी लगती है तो बाहर से कोट पहन लेते हो, कपड़े पहन लेते हो। तब नहीं कहते कि सर्दी तो भीतर लग रही है, बाहर से क्या जरूरत? भीतर तो मैं संन्यासी ही हूं। जब सर्दी लगती है तो बाहर से कोट पहन लेते हो, कपड़े पहन लेते हो। तब नहीं कहते कि सर्दी तो भीतर लग रही है, बाहर कोट पहनने से क्या होगा?

बाहर और भीतर का फासला कहां है? जो अभी बाहर है, अभी भीतर हो जाएगा। और जो अभी भीतर है, अभी बाहर हो जाएगा। बाहर और भीतर में प्रतिपल लेन—देन है। जो श्वास भीतर जा रही है, अभी भीतर है, क्षणभर बाद बाहर हो गई। और जो अभी बाहर थी, क्षण भर बाद भीतर हो गई। वृक्ष पर फल लगा है, अभी बाहर है; फिर तुमने भोजन कर लिया, फल को पचा गए, खून—मांस—मज्जा बन गया। अब तुम्हारे भीतर है। उसी से तुम्हारी हड्डी बनेगी, उसी से तुम्हारा मांस बनेगा, उसी से तुम्हारा रक्त बनेगा। इतना ही नहीं, उसी से तुम्हारी बुद्धि के तंतु बनेंगे, जिनसे तुम सोचोगे—विचारोगे, गणित करते हो, विज्ञान शोधोगे, काव्य लिखोगे। वह जो अभी बाहर वृक्ष पर लटका हुआ फल था, कल तुम्हारे भीतर से कविता बनकर उमगेगा, गीत बनकर उठेगा। वही फल सितार छेड़ेगा, संगीत जगाएगा।

और जो अभी तुम्हारे भीतर है, कल मर जाओगे, जमीन में गड़ा दिए जाओगे। तुम्हारी लाश पर कोई वृक्ष उगेगा। तुम्हारी मांस—मज्जा फिर फल बन जाएगी, खाद बन जाएगी। क्या बाहर क्या भीतर? बाहर भीतर का अंग है, भीतर बाहर का अंग है।

झूठी चालबाजियों, झूठे तर्को में, तर्काभासों में अपने को मत उलझाना।

कृष्ण, तूने हिम्मत की। संन्यास लिया बाहर से। अब भीतर से भी घट रहा है। अब फल पचने लगा। अब फल तेरा रक्त—मांस मज्जा बनने लगा।

‘आपका हाथ अपने में महसूस करती है —संन्यास का यही अर्थ है कि मैं हाथ देने को तैयार हूं, तुम ले लो।’कभी—कभी ध्यान की अवस्था में पूरे शरीर के रोएं खड़े हो जाते हैं।’ रोमांच होगा। जब आनंद बरसेगा, रोएं—राएं मगन हो जाएंगे। रोआ—रोआ नाचेगा। स्फुरणा होगी, उसे दबाना मत। क्योंकि दबाना सिखाया गया है।

हमारा जीवन का जो ढंग है अब तक, वह ऐसा है कि दब—दबकर जियो। न तो खुलकर हंसना, न खुलकर रोना, न खुलकर नाचना। तुम्हारी देह कुछ बातें भूल ही गई है। तुम्हारा मन कुछ बातें विस्मरण ही कर गया है। न रोएं कभी, न नाचे कभी, न हंसे कभी। पंगु हो गए हो। और परमात्मा की तरफ जाने के लिए यह अनिवार्य कदम है।

इसलिए जब रोएं खड़े हो जाएं, रोमांच हो, आहलादित हो जाना। प्रार्थना करीब है। परमात्मा पास है, इसलिए रोएं खड़े हो गए होंगे। देखते हो, वृक्षों के पत्ते हिलते हैं, उसका अर्थ हवाएं आ गई। वृक्ष के पत्ते हिलने लगे। जब रोमांच हो तो समझना कि परमात्मा बहुत करीब से गुजर रहा है। उसका चुंबक बहुत करीब है। उसी के चुंबकीय आकर्षण में रोएं खड़े हो गए हैं, रोमांच हुआ है। सौभाग्य समझना।

‘शरीर उड़ाने भरने लगता है।’ भरेगा ही। भरना चाहिए। जैसे—जैसे तुम्हारा अंतर्जीवन निखरेगा, रंगेगा, जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर होली का उत्सव होगा और दीवाली के दीये जलेंगे, तुम निर्भार होओगे वैसे पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण अब तुम्हें बांध न रख सकेगा। अब तुम पंख फैलाओगे। अब तुम्हारे डैने आकाश को नापने के लिए चलने के लिए तैयार होने लगेंगे।

‘शरीर उड़ाने भरने लगता है, आंसुओ की झड़ी लग जाती है।’ये आंसू परम आनंद के आंसू हैं। रोकना मत, पोंछना मत, सम्हालना मत। तुम्हारे पैर डगमगाने लगें तो समझना कि मंदिर बहुत करीब है। उसके मंदिर में कौन सम्हल। हुआ पहुंचा है? उसके मंदिर में लोग डगमगाते हुए ही पहुंचते हैं।

कुछ हो रहा है। कुछ गहरा हो रहा है।

ऐ दोस्त, मेरे सीने की धड़कन को देखना

वो चीज तो नहीं है मुहब्बत कहें जिसे

वही चीज है! दिल जोर से धड़क रहा है। रोमांच हुआ है। आंखें गागर की तरह आंसुओ को बहा रही हैं। शरीर उड़ान भरने को आतुर हो रहा है।

डर भी लगेगा। भय भी होगा। क्योंकि हमें सदा कहा गया है कि आंसू दुःख के लक्षण हैं। सौ प्रतिशत बात गलत है। आंसुओ का दुःख से कुछ लेना—देना नहीं है। कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। आंसू तो अतिरेक के लक्षण हैं। न दुःख के, न सुख के, न प्रीति के, न क्रोध के, न घृणा के—अतिरेक के। जब भी कोई भाव अतिरेक से हो जाता है, सम्हालना मुश्किल हो जाता है तो आंसू उसे बहाकर बाहर ले जाने लगते हैं। लोगों के मन में आंसू दुःख के पर्यायवाची हो गए हैं क्योंकि उन्होंने एक ही चीज अतिरेक से जानी है—दुःख। और तो उन्होंने अतिरेक से कुछ जाना नहीं। इसलिए दुःख और आंसुओ का साहचर्य हो गया है। जब तुम आनंद में भी अतिरेक जानोगे तो आनंद के भी आंसू बहेंगे।

लोग क्रोध में भी रोने लगते हैं। स्त्रियां अक्सर क्रोध में रोने लगती हैं। क्रोध का अतिरेक हो जाता है। करुणा में भी लोग रोते हैं। प्रेम में भी लोग रोते हैं। और घृणा में भी। इतना स्मरण रखना कि आंसू तो जो भी तुम्हारे भीतर सम्हालने के बाहर हो जाता है, उसको तुमसे बाहर ले जाते हैं। जैसे घड़ा भर गया और ऊपर से बहने लगा। बस ऊपर से बहने का लक्षण है।

अश्क आंख से, दिल हाथ से, जी तन से चला जाए

ए वाए—मुसीबत! कोई किस—किसको सम्हाले

अब सम्हालना ही मत। क्योंकि सहालना घातक है। और सम्हालने की आदतें पुरानी हैं। सम्हालों तो सम्हाल सकोगे। रोको तो रोक सकोगे। हर चीज का दमन किया जा सकता है। लोग आनंद तक का दमन कर लेते हैं।

कुछ दिन हुए, चेतना मेरे पास सांझ मिलने आयी थी। उसके माथे पर मैंने हाथ रखा। देखा, अतिरेक से उसके भीतर आनंद उठा, पर जैसे अनजाने, जैसे मूर्च्छा में उसने अपना ओंठ काट लिया। वह भी मैं देख रहा—उसने अपना ओंठ काट लिया अपने दांतों में ओंठ भींच लिया। वह दबा रही है, वह घबड़ा गई है। इतना आनंद प्रकट करना पागलपन होगा। शायद सोचकर उसने किया भी नहीं यह। ओंठ को दांतों के बीच दबा लेना, दबाने का एक ढंग है। एक गहन अवसर चूका। कोई चीज उठी उठी हो रही थी, दबा दी गई।

होश रखो। जब कुछ बहना चाहे तो बहने दो। घबड़ाहट इतनी भी हो सकती है कि बहुत बार ऐसा लगे, किस झंझट में पड़ गए! छोड़े। इस उपद्रव से हट जाएं।

मजाल—ए—तर्क—ए—मुहब्बत न एक बार हुई

खयाल—ए—तर्क—ए—मुहब्बत तो बार—बार आया

और कई बार ऐसा आएगा, छोड़ो यह प्रेम की झंझट, यह प्रार्थना की झंझट।

खयाल—ए—तर्क—मुहब्बत तो बार—बार आया

बहुत बार खयाल आया कि प्रेम का त्याग ही कर दें, हालांकि यह हो नहीं सकता।

मजाल—ए—तर्क—ए—मुहब्बत न एक बार हुई लेकिन प्रेम का त्याग एक बार भी न हो सका। और फिर प्रेम जब प्रभु की तरफ बहता हो तब तो उसके त्याग का कोई उपाय नहीं है। आज ओंठ काट लोगे, कब तक काटते रहोगे? प्रभु और और जोर से आएगा। मेघ और घने होकर बरसेंगे। बाढ़ आएगी और बहा ले जाएगी। एक बार तुमने द्वार खोल दिया बाढ़ लिए तो बंद कर लेने का उपाय नहीं है।

और लोग पागल कहेंगे। कृष्णा, लोग कहेंगे कि बचो। इस स्थान से बचो। इस तरह के लोगों से बचो। मेरा नाम तक लेने में मित्रों को डर लगने लगता है। दूसरों से बात करते वक्त मेरा नाम नहीं लेते। यह सब भय छोड़ो। जो तुम्हें हुआ है उसे संक्रामक बनाओ। जो आंसू तुम्हें बह रहे हैं, औरों को भी बहे। और जो रोमांच तुम्हें हो रहा है, औरों को भी हो। जो उड़ान तुम्हारे भीतर भी जग रही है, वह औरों के भीतर भी जगे। जाओ! उन्हें पागल कहने दो लेकिन तुम अपने आनंद को बांटो। तुम अपने गीत को बांटो। सौ को बांटो तो शायद एकाध सुन लेगा। एक ने भी सुन लिया तो बहुत।

कुछ जुर्म नहीं इश्क जो दुनिया से छुपाएं।

हमने तुम्हें चाहा है हजारों में कहेंगे

जाओ और कहो और पुकारो। और जब तुम्हारे भीतर कुछ होने लगे तो बांटना। क्योंकि बांटने से बढ़ता है। रोकना मत; रोकने से मरता है। रोकने से सड़ता है। कितने ही स्वच्छ जल की धार क्यों न हो…….।

कल मैं एक सूफी कहानी पढ़ता था। एक गरीब खानाबदोश तीर्थयात्रा से वापस लौट रहा था। रास्ते में उसे एक मरूद्यान में, भयंकर रेगिस्तान के बीच एक छोटे—से मरूद्यान में पानी का इतना मीठा झरना मिला कि उसने अपनी चमड़े की बोतल में जल भर लिया। सोचा, अपने सम्राट को भेंट करूंगा। इतना प्यारा, इतना स्वच्छ उसने जल देखा नहीं था। और इतनी मिठास थी उस जल में।

भर लिया अपनी चमड़े की बोतल में और पहला काम उसने यही किया, राजधानी पहुंचा तो जाकर राजा के द्वार पर दस्तक दी। कहा, कुछ भेंट लाया हूं सम्राट के लिए। बुलाया गया। उसने बड़ी तारीफ की उस झरने की और कहा, यह जल लाया हूं। इतना मीठा जल शायद ही आपने जीवन में पिया हो। सम्राट ने थोड़ा—सा जल लेकर पिया, खूब प्रसन्न हुआ, आनंदित हुआ। उस गरीब की झोली सोने की अशर्फियों से भर दी। उसे विदा किया।

दरबारियों ने भी कहा कि थोड़ा हम भी चखकर देखें। सम्राट ने कहा, रुको; पहले उसे जाने दो। जब वह चला गया तब सम्राट ने कहा, भूलकर मत पीना। बिल्कुल जहर हो गया है। लेकिन उस गरीब आदमी के प्रेम को देखो। जब उसने भरा होगा तो मीठा रहा होगा। लेकिन चमड़े की बोतल में, महीनों बीत गए उस जल को भरे हुए। वह बिल्कुल सड़ चुका है। जहरीला हो गया है। घातक भी हो सकता है। इसलिए मैंने एक ही घूंट पिया। और फिर मैंने बोतल सम्हालकर रख ली। उसके सामने मैं तुम्हें यह जल नहीं देना चाहता था क्योंकि मुझे भरोसा नहीं था तुममें इतनी समझ होगी कि तुम उसके सामने ही कह न दोगे कि यह जहर है। भूलकर भी इसे पीना मत।

स्वच्छ से स्वच्छ जल भी जब झरनों में नहीं बहता तो जहरीला हो जाता है। तुम्हारे आंसू अगर तुम्हारे आंख के झरनों से न बहे, तुम्हारे शरीर में जहर होकर रहेंगे। तुम्हारे रोएं अगर आनंद में नाचना चाहते थे, न नाचे तो तुम्हारे भीतर वही ऊर्जा जहर बन जाएगी।

इस जगत् में लोग इतने कडुवे क्यों हो गए हैं? इसीलिए हो गए हैं। इतना तिक्त स्वाद हो गया है लोगों में। शब्द बोलते हैं तो उनके शब्दों में जहर है। गीत भी गाएं तो उनके गीतों में गालियों की धुन होती है। सब जहरीला हो गया है। क्योंकि जीवन एक कला भूल गया है—बांटने की, देने की, लुटाने की। लुटाओ! ‘दोनों हाथ उलीचिए यही सज्जन को काम।

‘लोग पागल कहें, ठीक ही कहते हैं। बुरा न मानना। जो पागल कहे उसको भी बांटना। कौन जाने! तुम्हें पागल कहने में भी तुम्हारे प्रति उसका आकर्षण ही कारण हो। कौन जाने! तुम्हें पागल कहकर वह अपनी सिर्फ सुरक्षा कर रहा हो।

दूसरा प्रश्न :

 

प्रभु, विरह की पीड़ा असह्य है। अब तो आप कुछ करें।

जिंदगी जब अजाब होती है

आशिकी कामयाब होती है

ब जीवन इतनी पीड़ा से भर जाए कि तुम सह न सको, तभी प्रेम का फूल खिलता है।जिंदगी जब अजाब होती है—मुसीबत ही मुसीबत हो जाती है, विरह की अग्नि धूं— धूंकर जलती है। आशिकी कामयाब होती है— ‘तभी प्रेम सफल होता है। जल्दी पानी मत छिड़ककर आग को बुझा देना। यह आग ऐसी नहीं है कि बुझाओ, यह आग ऐसी है कि बढ़ाओ। यह आग ऐसी नहीं है कि जलधारा को पुकारो, यह आग ऐसी है कि कहो हवाओं से कि आओ। आधियो आओ, इस आग को और भड़काओ। यह आग ऐसी जले कि आग ही आग रह जाए और तुम न बचो।

तुम कहते हो, ‘प्रभु, विरह की पीड़ा असह्य है।’मैं जानता हूं। लेकिन जब तक तुम हो तब तक पीड़ा रहेगी। किसको असह्य है? अभी तुम थोड़े दूर खड़े हो इसलिए आंच लग रही है। जब तुम न बचोगे, फिर कैसे असह्य होगी? किसको असह्य होगी?

और यह पीड़ा ऐसी नहीं है कि बुझाई जा सके। लगाए लगती नहीं, बुझाए बुझती नहीं। न लगाए लगे, न बुझाए बुझे। कोई चेष्टा करके लगाना चाहे तो लगती नहीं और कोई चेष्टा करके बुझाना चाहे तो बुझती नहीं। तुम धन्यभागी हो। यह प्रभु का प्रसाद है। झुको। सिर आंखों पर लो। स्वीकार करो। तुम चुने गए। मैं जानता हूं, कहना भी मुश्किल है। कठिनाई ऐसी भी नहीं कि शब्दों में व्यक्त की जा सके।

गमे—हिज्र का या रब किस जब। से माजरा कहिए

न कहिए गर तो क्या कहिए, अगर कहिए तो क्या कहिए

कहते भी नहीं बन पड़ता। जबान लड़खड़ाती है। बड़े—बड़े ज्ञानी तुतलाते हैं। बड़े—बड़े ज्ञानी छोटे बच्चों जैसा बोलने लगते हैं। सूझ—बूझ खो जाती है।

असह्य मालूम होती है क्योंकि तुम अपने को बचाना चाह रहे हो। और जब तक तुम अपने को बचाना चाह रहे हो तब तक असह्य मालूम होगी। अब तो छलांग लगा जाओ इसमें। सती हो जाओ। उतर ही जाओ इस अग्नि में। और उतरकर तुम पाओगे, आग में खिला फूल कमल का। जल में खिलते कमल के फूल तो देखे हैं। आग में खिला कमल का फूल कब देखोगे? जल में खिले कमल के फूल क्षण भर को खिलते हैं, फिर मुरझा जाते हैं। मिट्टी से उठते हैं, मिट्टी में मुरझा जाते हैं; मृण्मय हैं। आग में जला फूल, आग में उठा फूल, लपटों से बना फूल शाश्वत है।

जब आग में ही जन्मा है तो अब कैसे मिटेगा? अब तो मिटने का कोई उपाय न रहा। अब तो इसे कौन मिटाएगा? कौन चिता इसे नष्ट कर सकेगी? अब तो यह अमृत है।

जब तक यह न हो जाए तब तक विरह की पीड़ा जितने आनंद से झेल सको उतना अच्छा है; क्योंकि उतने ही जल्दी रात कट जाएगी और सुबह होगी।

मुझमें और शमअ में होती थीं ये बातें शब भर

आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे

लंबी है विरह की रात्रि।

मुझमें और शमअ में होती थीं ये बातें शब भर

आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे

आज की रात बच जाएं तो सुबह देखने का मौका मिले। और यह रात लंबी है। लेकिन इस रात की लंबाई तुम पर निर्भर है। यह छोटी—सी हो सकती है। यह बहुत लंबी भी हो सकती है। यह जन्मों—जन्मों तक फैल सकती है अगर कुनकुनी—कुनकुनी हो। और अगर कुनकुनी न हो, त्वरा से जले, प्रचंड हो, एक क्षण में पूरी हो सकती है। अभी सुबह हो सकती है। यहीं सुबह हो सकती है। कल तो दूर, एक क्षण के लिए भी टालना आवश्यक नहीं। मगर फिर साहस चाहिए—जुआरी का साहस, जो सब दाव पर लगा दे। इकट्ठा दाव पर लगा दे।

कौन देता है साथ गम की रात का शमअ भी आखिर भड़ककर रह गई और आखिर में तो आदमी बिल्कुल अकेला रह जाता है। सब छूट जाते हैं—संगी और साथी, प्रियजन, अपने—पराए। सब छूट जाते हैं। और जैसे—जैसे संगी—साथी छूटने लगते हैं वैसे—वैसे प्रगाढ़ होने लगता है विरह। वैसे—वैसे भाला छिदने लगता है छाती में। वैसे—वैसे पीड़ा और गहरे जाने लगती है। जब तक आरपार ही न हो जाए यह तीर, तब तक कठिनाई रहेगी।

ऐसी तो प्रार्थना भूलकर मत करना कि यह तीर निकाल लो क्योंकि यही तीर तो एकमात्र आशा है। ऐसी प्रार्थना करना कि प्रभु, इसे पूरा ही उतर जाने दो। जल्दी करो। मुझे मिटा ही दो।

हाय ये मजबूइरयां, महरूमियां, नाकामियां

इश्क आखिर इश्क है, तुम क्या करो हम क्या करें

कोई भी कुछ कर न सकेगा। इसका कोई इलाज थोड़े ही है! तुम मुझसे पूछते हो: ‘प्रभु, विरह की पीड़ा असह्य है। अब तो आप कुछ करें।’इश्क आखिर इश्क है, तुम क्या करो, हम क्या करें कोई कुछ कर नहीं सकता। इलाज इसका होता नहीं। यह बीमारी बीमारी नहीं है, यह तो परम स्वास्थ्य की शुरुआत है। यह तुम्हें बीमारी जैसी लगती है क्योंकि तुमने इसे कभी जाना नहीं।

एक राजा रात भर नाच—गाने में रहा, जैसी उसकी रोज की आदत थी। डटकर शराब चली, जैसी उसकी रोज की आदत थी। फिर उसे नींद नहीं आ रही थी तो उठकर बगीचे में आ गया। ब्रह्ममुहूर्त…… पहली दफा जीवन में ब्रह्ममुहूर्त में उठा और बगीचे में आ गया। ठंडी और ताजी हवाएं। मलय—पवन सुवासित! उसने अपने पहरेदार को पूछा, यह बदबू कैसी? यह दुर्गंध कहां से आ रही है? अब जिनको शराब में ही सुगंध मालूम पड़ती रही हो, उनको अगर सुबह के मलय—समीर में दुर्गंध मालूम पड़े, तो आश्चर्य तो नहीं। उस पहरेदार ने कहा, मालिक, यह सुबह की ताजी हवा है। यह दुर्गंध नहीं है।

तुमने तो जीवन में अब तक जो जाना है वह बीमारी थी, रोग था। अब पहली बार स्वास्थ्य का अवतरण हो रहा है। तुम्हें तो डर लगेगा कि यह कौन—सी बीमारी चली आ रही है? अपरिचित, अनजान! और इसका कोई इलाज भी नहीं। कोई चिकित्सक कुछ भी न कर सकेगा।

नानक बीमार पड़े, चिकित्सक बुलाए गए। नानक की नाड़ी पर चिकित्सक ने हाथ रखा। नानक हंसने लगे। और नानक ने कहा कि देखो नाड़ी, तुम्हारे देखने की इच्छा है तो। और औषधि भी दोगे तो पी लूंगा। मगर यह बीमारी ऐसी है कि इसका कोई इलाज नहीं। तुम्हारे हाथ में नहीं।

घर के लोग परेशान थे क्योंकि नानक दुबले होते जाते। सोते भी नहीं, ठीक से भोजन भी नहीं करते। न मालूम कौन—सी धुन चढ़ी है! रात—रात बैठे रोते हैं। एक रात बहुत देर तक रोते रहे। मां ने कहा कि अब सो भी जाओ। रोने से सार क्या है? लेकिन नानक ने कहा कि जिद बंधी है एक किसी से। सुनती हो? दूर एक पपीहा कह रहा है: पी कहां? पी कहां? इससे जिद बंधी है, कि जब तक यह चुप न होगा, मैं भी चुप नहीं हो सकता। मैं भी अपने प्यारे को पुकार रहा हूं : पी कहां? और पपीहा नहीं हार रहा है तो मैं हार जाऊं! इस प्रतियोगिता में मैं हारनेवाला नहीं हूं; रहूं कि जाऊं।

पी कहां? प्यारे की खोज पर जो निकला है उसकी जिंदगी यहां तो अस्तव्यस्त होने लगेगी। इस अस्तव्यस्तता को लोग तो यही समझेंगे कि बीमारी है। तुम भी पहले यही समझोगे कि यह क्या हो गया? भले—चंगे थे, यह सब कैसे बिगड़ गया? मगर मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं, यह सुबह की खबर है। मलय—पवन आता है। तुम्हें थोड़े अनुभव से धीरे— धीरे सुवास का पता चलेगा।

और जल्दी भी मत करो। यह भी मत सोचो कि इतनी देर क्यों हो रही है? प्रतीक्षा प्रार्थना का प्राण है। और जो इंतजार में आनंदित नहीं है उसके इंतजार में कमी है और उसका इंतजार पूरा नहीं होगा।

तुझको पा लेने में यह बेताब कैफियत कहां

जिंदगी वो है जो तेरी जुस्तजू में कट गई

पानेवालों ने कहा है कि तुझे पाया, सब ठीक, मगर वह मजा नहीं जो तेरी खोज में था, तेरे इंतजार में था, तेरी प्रतीक्षा में था। वह ललक, वह पुलक! वे आकांक्षाओ—अभीप्साओ की लपटें।

तुझको पा लेने में यह बेताब कैफियत कहां

जिंदगी वो है जो तेरी जुस्तजू में कट गई

असली जिंदगी तो तब पता चलती है कि वे जो खोज के दिन थे, बड़े प्यारे थे। मंजिल तो प्यारी है ही, मगर यात्रा भी कुछ कम प्यारी नहीं; शायद ज्यादा ही प्यारी है। क्योंकि उसी यात्रा—पथ से तो हम मंजिल तक पहुंचते हैं।

जो मंजिल तक ले आती है उसको भी सौभाग्य की तरह स्वीकार करो। यही विरह की अग्नि, यही असह्य पीड़ा तुम्हें मंदिर तक ले आएगी। ये रास्ते के काटे… एक—एक काटा हजार—हजार फूल बनकर खिलेगा। ये रास्ते की मुसीबतें… एक—एक मुसीबत हजार—हजार अमृत के घट बनेगी।

चलते चलो। रोते चलो। पुकारते चलो। हारो मत।’हारिए न हिम्मत, बिसरिए न राम।’

तीसरा प्रश्न :

 

सिर्फ हमारे ही देश के नहीं, किसी भी देश के पुरखा ‘शेष प्रश्न’ का जवाब नहीं दे गए हैं। दे गए हों, ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि तब तो फिर सृष्टि ही रुक जाती है।

 

गवान, विख्यात कथाकार शरदचंद्र चटोपाध्याय की इस उक्ति पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।

मैत्रेय, एक ही प्रश्न का उत्तर नहीं है; और तो सब प्रश्नों के उत्तर हैं। उस एक ही प्रश्न को शेषप्रश्न कहा जाता है। वह प्रश्न है परमात्मा के संबंध में या आत्मा के संबंध में या अस्तित्व के संबंध में। और ये तीनों एक ही बात के तीन नाम हैं।

अस्तित्व क्या है, क्यों है, इसका कोई उत्तर नहीं है। इसका उत्तर हो भी नहीं सकता। ऐसा नहीं है कि आदमी ने खोजा नहीं है इसलिए उत्तर नहीं है। नहीं, उत्तर होने की संभावना ही नहीं है। उत्तर का न होना प्रश्न के स्वभाव का हिस्सा है। अगर कोई कारण बता भी दे कि अस्तित्व इसलिए है तो फिर प्रश्न खड़ा हो जाएगा। उस कारण के संबंध में कि वह कारण क्यों है? एक प्रश्न तो सदा शेष रहेगा ही।

कोई कह दे कि अस्तित्व को ईश्वर ने बनाया तो तुम पूछोगे, ईश्वर को किसने बनाया? अंतहीन श्रृंखला है। फिर तुम और ईश्वर खोजते चले जाओ। मगर अंततः प्रश्न तो खड़ा ही रहेगा। हर उत्तर के पीछे प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा रहेगा: इसको किसने बनाया?

इसे ही शरदचंद्र ने शेषप्रश्न कहा है। यह शेष ही रहेगा।

हम छोटी—छोटी बातों के उत्तर पा सकते हैं। खंडों के संबंध में उत्तर पा सकते हैं, समग्र के संबंध में उत्तर नहीं पा सकते क्योंकि हम भी उस समग्र के हिस्से हैं। हम उस समग्र के भीतर पैदा हुए और उसी समग्र में लीन हो जाएंगे। हम अपने को इतना पीछे खड़ा नहीं कर सकते कि समग्र हमारे बाद आए, ताकि हम देख सकें कि समग्र कहां से आया, कैसे आया! और न ही हम अपने को बचा सकते हैं, जब समग्र नष्ट हो रहा हो; कि हम दूर खड़े देखते रहें कि समग्र कैसे विलीन होता है! न तो हम पहले दिन हो सकते हैं इस यात्रा में, न अंतिम दिन हो सकते हैं। हम तो मध्य में आते हैं, मध्य में ही विलीन हो जाते हैं। तो हम कैसे उत्तर दे सकेंगे?

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जाना नहीं जा सकता। इन दोनों बातों में भेद समझ लेना। उत्तर नहीं है, अनुभव है। यह तो नहीं जाना जा सकता कि परमात्मा क्यों है, लेकिन परमात्मा हुआ जा सकता है। और परमात्मा होने के लिए परमात्मा क्यों है, इस उत्तर को जानना जरूरी भी नहीं है।

सागर क्यों है—क्या सागर में डुबकी लगाने के लिए यह जानना जरूरी है? अनिवार्यता है? पानी क्यों है—क्या प्यास को बुझाने के लिए यह जानना जरूरी है? क्या तुम समझते हो, जब लोगों को पता नहीं था कि पानी एच०टू०ओ० से बनता है, तब तक प्यास नहीं बुझती थी? और अभी भी क्या पता चल गया? यह भी पता चल गया कि पानी आक्सीजन और उद्जन से मिलकर बनता है। अब सवाल यह है कि उद्जन कहां से, कैसे बनती है? यह भी पता चल गया कि उद्जन परमाणुओं से बनती है, कि इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान से बनती है। वे कैसे बनते हैं, वे कहां से आते हैं?

प्रश्न तो खड़ा होता ही चला जाएगा। हर उत्तर के पीछे प्रश्नचिह्न खड़ा रहेगा। एक जगह जाकर हमें थक ही जाना होगा। इसको ही उपनिषदों ने अतिप्रश्न कहा है।

जनक ने एक बहुत बड़ा संयोजन किया, जिसमें देश के सारे पंडित आए विचार—विमर्श के लिए। उसने एक हजार गौएं, सुंदरतम गौएं महल के सामने खड़ी कर दीं। उनके सीगों पर सोना चढ़ा था, हीरे जड़े थे। और उसने कहा, जो भी जीत जाएगा इस विवाद में वही इन गौओं को ले जाएगा।

बहुत लोग आकांक्षी थे विजेता होने के, लेकिन मुश्किल थी विजय। क्योंकि देश पंडितों से भरा था। फिर याज्ञवल्ल आया अपने शिष्यों के साथ। दुपहर हो गई थी, धूप तेज थी, गौएं धूप में खड़ी थीं। याज्ञवल्ल अपने किस्म का अद्भुत आदमी था। उसने अपने शिष्यों से कहा कि खदेड़ो गौओं को और आश्रम ले जाओ। मेरे जैसा आदमी रहा होगा! खदेड़ो गौओं को, आश्रम ले जाओ— कोरेगांव पार्क ले जाओ सबको। पर शिष्यों ने कहा कि कोरेगांव पार्क ले जाएं? अभी आप जीते कहां हैं! उसने कहा, वह हम निपट लेंगे। लेकिन गौएं धूप में खड़े—खड़े थक गई हैं, पसीना—पसीना हो रही हैं। यह मेरी बर्दाश्त के बाहर है। तुम गौएं ले जाओ।

गौएं तो ले जायी गई। और पंडित तो चौंके रह गए। और ज्ञानी तो बड़े हतप्रभ हुए। शिकायत भी की उन्होंने जनक से कि यह तो बड़ा मजा हुआ। अभी विवाद शुरू भी नहीं हुआ है। लेकिन याज्ञवल्ल को अपने बोध का ऐसा भरोसा था। बोध था तो भरोसा था। बाकी पंडित ही पंडित थे वे। याज्ञवल्ल ज्ञानी था। जो जानता था, जानता था। इसमें हार का प्रश्न ही कहां था? और यह भी जानता था कि जो इकट्ठे हैं, तोते हैं।

विवाद हुआ और याज्ञवल्ल करीब—करीब जीत गया। और तभी एक स्त्री खड़ी हो गई—गार्गी। और उसने कहा, औरों के तो प्रश्न सब आपने उत्तर दे दिए, मेरे प्रश्नों के उत्तर भी चाहिए। उसने सरल—सा प्रश्न पूछा। ऊपर से दिखता सरल था लेकिन पीछे जटिल था। वह शेषप्रश्न था।

उसने पूछा कि ‘यह पृथ्वी किस चीज पर ठहरी है?

‘याज्ञवल्म ने कहा, ‘सब कुछ परमात्मा पर ठहरा है।

‘और गार्गी ने पूछा, ‘परमात्मा किस पर ठहरा है?

‘याज्ञवल्म ने कहा, ‘यह अतिप्रश्न है गार्गी।

‘अतिप्रश्न का क्या अर्थ होता है?

अतिप्रश्न का अर्थ होता है, शेषप्रश्न। उसी को शरदचंद्र शेषप्रश्न कहते हैं। याज्ञवल्ल ने कहा, यह अतिप्रश्न है गार्गी। अतिप्रश्न का अर्थ हुआ कि मैं जो भी उत्तर दूंगा, यह उस पर फिर लागू होगा।

यह प्रश्न नहीं है। इसे जानने का उपाय उत्तर नहीं है, इसे जानने का उपाय ध्यान है। मैं उत्तर नहीं दे सकता इसका। कोई उत्तर नहीं दे सकता इसका। कोई शास्त्र न कभी दिया है, न कभी देगा। लेकिन जो स्वयं में डुबकी लगाए वह जान लेता है। यह स्वाद की बात है। प्रश्न की दृष्टि से अतिप्रश्न है, अनुभव की दृष्टि से कोई अड़चन नहीं।

और आश्चर्य की बात तो यही है कि बुद्ध जिसको सोच—सोचकर थक जाए और न खोज पाए, हृदय एक छलांग में जान लेता है। विचार महत् चेष्टा के बाद भी हारता है और भाव बिना चेष्टा के पहुंच जाता है। प्रयत्न से हम और दूर निकलते जाते हैं। निष्प्रयत्न, अप्रयास, असहाय—और प्रसाद बरस जाता है।

चौथा प्रश्न :

 

मेरे जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों हैं?

 

किसके जीवन में नहीं हैं?

अपने को ऐसा अलग— थलग मत तोड़ो। अपने को ऐसा विशिष्ट मत मानो कि तुम्हारे ही जीवन में कष्ट ही कष्ट हैं। सभी के जीवन में कष्ट हैं। जीवन कष्ट है।

और जीवन अगर कष्ट न होता तो परमात्मा की खोज ही क्यों होती? जीवन कष्ट है इसीलिए तो परमात्मा की खोज है। यह जीवन कष्ट है इसीलिए तो किसी और जीवन की तलाश है, जहां कष्ट न हों। आश्चर्य यह नहीं है कि जीवन में कष्ट क्यों हैं, आश्चर्य यह है कि इतने कष्ट हैं फिर भी लोग दूसरे जीवन को खोजने नहीं निकलते। सहे जाते हैं, कुटे जाते हैं, पिटे जाते हैं। सौ—सौ जूते खाएं, तमाशा घुसकर देखें। कुछ भी हो जाए, कितनी ही कुटाई—पिटाई हो, मगर वे तमाशा देखते ही चले जाते हैं। दूसरे उनका तमाशा देखते हैं, वे दूसरों का तमाशा देखते हैं। ऐसा पारस्परिक समझौता मालूम पड़ता है कि जब हम पिटे, तुम मजा ले लेना; जब तुम पिटो, हम मजा ले लेंगे। मगर यहां दुःख के अतिरिक्त और है क्या?

तो पहली तो बात, यह तो मत पूछो कि मेरे ही जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों हैं? तुम्हारे जीवन में कुछ विशेषता नहीं है। जीवन कष्ट है क्योंकि जीवन हम अंधेरे में जी रहे हैं।

कोई आदमी पूछे कि मैं हर जगह टकरा—टकरा क्यो जाता हूं? कभी टेबल से, कभी कुर्सी से, कभी दीवाल से। तो उसका मतलब हुआ कि कमरे में अंधेरा है। या फिर मतलब हुआ कि अंधेरा भी न हो, प्रकाश हो, तो तुम आंखें बंद किए हो। तुम्हारे लिए अंधेरा है। आंखें बंद हैं इसलिए टकराहट हो रही है। अंधेरा है इसलिए टकराहट हो रही है। आदमी अंधा है इसलिए अड़चन है।

एक झेन कथा : शिष्य गुरु से मिलकर वापस लौटता था। शिष्य अंधा था। सभी शिष्य अंधे होते हैं। अंधे न हों तो शिष्य होने की जरूरत क्या? गुरु आंखवाला, शिष्य अंधा। गुरु ने कहा, जा रहे हो तुम, रात भी हो गई है, यह लालटेन लेकर जाओ। उस अंधे शिष्य ने कहा, लालटेन का मैं क्या करूंगा? व्यर्थ का बोझ क्यों ढोऊं? मैं तो अंधा हूं। मुझे दिखाई पड़ता ही नहीं। लालटेन भी मेरे हाथ में हो तो क्या फायदा! मुझे तो दिन और रात सब बराबर हैं। लेकिन गुरु ने कहा, मेरी सुन, तू लालटेन ले जा। तुझे तो दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन कम से कम दूसरों को तो दिखाई पड़ता रहेगा कि तू लालटेन लिए आ रहा है। तो दूसरे तुझसे टकराने से बच जाएं यह भी क्या कम है?

यह तर्क ऐसा था कि शिष्य कुछ कह न सका। लालटेन लेकर चला, बेमन से ही चला। कोई सार नहीं, फिजूल लालटेन लटकाए चला जा रहा हूं। और एक वजन हो गया। अगर रोशनी न दिखाई पड़ती हो तो लालटेन एक वजन तो है ही। और कोई बीस—पच्चीस कदम ही चला होगा कि एक आदमी आकर उससे टकरा गया। उसने कहा, हद हो गई! एक तो वजन ढो रहा हूं और गुरु ने कहा था वह तर्क भी खंडित हो गया। गुरु ने कहा था कि कम—से—कम दूसरे तुमसे न टकरायेंगे।

क्रोध से उस शिष्य ने पूछा कि महानुभाव, क्या आप भी अंधे हैं? उस आदमी ने कहा, मैं तो अंधा नहीं हूं लेकिन आपकी लालटेन बुझ गई है। अब अंधे आदमी को कैसे पता चले कि उसकी लालटेन बुझ गई है?तुम्हें बहुत बार दीये दिए गए हैं। उपनिषदों ने दिए, वेदों ने दिए, कुरान ने दिए धम्मपद ने दिए।

तुम्हें बहुत बार दीये दिए गए हैं लेकिन वे कभी के बुझ गए हैं। तुम नाहक बुझी लालटेन ढो रहे हो। बोझ भी भारी हो गया है। सदियों का कूड़ा—कबाड़ भी उन पर जम गया है। मगर तुम ढो रहे हो—मदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा। अपने को चलाना मुश्किल है और इन सबको भी चला रहे हो। और हर जगह टकरा रहे हो। जगह—जगह टक्कर! फिर किसी तरह उठाकर अपना सामान बटोरकर फिर चल पड़ते हो।

जीवन में कष्ट न होगा तो और क्या होगा? रोशनी चाहिए। आंख खुली चाहिए। और मैं तुमसे कहना चाहता हूं रोशनी तो है ही, सिर्फ आंख खोलो। और मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूं कि तुम अंधे नहीं हो, सिर्फ तुम्हें आंख बंद करने की आदत पड़ी है। और आंख भी तुम इसलिए बंद किए हो कि आंख बंद करो तो भीतर सुंदर सपने देखने में मजा आता है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने एक रात सपना देखा कि कोई चमत्कारी पुरुष सामने खड़ा है और कहता है, मांग ले भाई। ले, यह एक रुपया ले ले। मुल्ला ने कहा, एक? एक से राजी नहीं होऊंगा। कम से कम सौ। जब मांग ही रहे हैं और जब आप दे ही रहे हैं, और बड़े दिलदार बने हैं तो कम से कम सौ। मगर वह भी आदमी एक ही था। उसने कहा, दो ले ले, तीन ले ले…… ऐसी बड़ी घिसा—पिसी हुई। निन्यानवे पर जाकर बात अटक गई। वह आदमी भी जिद पकड़ गया कि निन्यानवे से एक ज्यादा नहीं। क्योंकि सपने का चक्कर निन्यानवे का चक्कर है। वह भी अटक गया। उसने कहा, निन्यानबे से ज्यादा तो दे ही नहीं सकता। कोई सपना निन्यानवे से ज्यादा नहीं देता। तभी तो सपना जारी रहता है। अगर सौ ही दे दे, सपना ही खतम हो जाए। बात ही पूरी हो गई। निपटारा ही हो गया।

उस आदमी ने भी जिद पकड़ ली कि बस निन्यानवे से एक रत्ती ज्यादा नहीं। लेना हो, ले ले। मगर मुल्ला भी जिद्दी जैसे सभी आदमी जिद्दी होते हैं। मुल्ला ने कहा, मैं तो सौ ही लूंगा। अब हद हो गई तुम्हारी भी कंजूसी की। जब निन्यानवे तक देने को राजी हो गए तो एक रुपए में क्या बिगड़ा जा रहा है? एक रुपटली के पीछे क्यों झंझट कर रहे हो? दे ही दो।

बात इतनी बढ़ गई, जोर—शोर इतना बढ़ गया कि मुल्ला कहे कि सौ और वह आदमी कहे, निन्यानवे। मुल्ला ने इतने जोर से कहा सौ, कि नींद टूट गई। नींद टूट गई तो देखा, कोई नहीं है। पत्नी पास बैठी देख रही है। क्योंकि पत्नियां रात को देखती हैं बैठकर कि पति क्या—क्या कह रहा है। कोई कमला, विमला इत्यादि के नाम तो नहीं ले रहा है। जब इतने जोर—जोर से बात कर रहा है तो कुछ मतलब की बात हो रही है। और संख्या की बात चल रही थी तो वह भी जरा उत्सुक थी। वह भी हिसाब लगाने लगी कि अगर मिल ही जाए इसको निन्यानवे या सौ या जितना भी हो, तो वह जो हार देखा है बाजार में, वह फिर खरीद ही लिया जाए। वह भी नए सपनों में डूबी जा रही थी।

मुल्ला ने आंख खोली, देखा पत्नी बैठी है—वैसे ही घबड़ा गया। और पास के जाने की नौबत आयी जा रही है। मिलना तो दूर रहा। जल्दी से आंख बंद कर ली और बोला, भाई कहां हो? चलो निन्यानवे ही सही। मगर अब इतनी देर तो बहुत देर हो गई। एक दफा आंख खुल गई तो सपने तो नष्ट हो जाते हैं। वह आदमी का पता ही नहीं चला। फिर बहुत उसने आंखें बंद कीं बार—बार और कहा, अट्ठानवे, सत्तानवे, छियानवे… उल्टा लौटने लगा। एक रुपए पर भी वापस आ गया कि चलो, कुछ तो दो।

मगर एक बार आंख खुल गई तो सपना गया। फिर कोई उपाय नहीं। वह आदमी दिखाई ही न पड़े। आखिर मुल्ला अपनी पत्नी से बोला, जरा मेरा चश्मा उठाकर ला। रात भी है, अंधेरा भी, और सज्जन दिखाई भी नहीं पड़ते हैं। लेकिन तुम फिर चश्मे भी लगाओ, तो भी कुछ सार नहीं।

आदमी अंधा नहीं है, सिर्फ आंखें बंद किए है। आंखें बंद करने के पीछे एक न्यस्त स्वार्थ है कि सुंदर—सुंदर सपने देख रहा है। यह भवन बना लें, यह अटारी उठा लें, यह हवेली। ऐसी धन की राशि जोड़ दें। कैसे निन्यानवे सौ हो जाएं, सबकी यही तो मांग है। और निन्यानवे कभी सौ होते नहीं। तनाव जारी रहता है। सपना भरता नहीं। आंख खोलने की हिम्मत नहीं होती किछकहीं आंख खोलूं तो जो हाथ में है वह भी न छिटक जाए।

इसलिए जीवन में कष्ट है। और सबके जीवन में कष्ट है। और एकाध कष्ट नहीं, कष्ट ही कष्ट है। इसीलिए तो लोगों की बात सुनो। बैठे हैं लोग अपना—अपना कष्ट—पुराण लिए। एक—दूसरे को सुना रहे हैं। सुनो कष्ट—पुराण।

एक कष्ट से उपजैं तीन

चौथा कष्ट किए गमगीन

कष्ट एक और है

पहला कष्ट है कि पढे—लिखे

फिक्र खर्च की रही नहीं

पढने में जो खर्च किया

उतने की नौकरी नहीं

दूजा कष्ट नौकरी है

कष्टों से यह भरी है

इसके कष्ट वर्णनातीत

जिसने जाने जिसने करी है

सब जिसका अनुभव करते

कष्ट तीसरा ऐसा है

आते—जाते दुखी करे

सब जानें वह पैसा है

चौथा कष्ट पड़ोसी है

सदा सामने रहता है

हम तो दुख से रह लेते है

वह सुख से क्यों रहता है?

कष्ट एक और है

कष्ट कि रुपया ज्यादा है

आया आफत का मारा

खर्च नहीं कर सकते हम

काला सारा का सारा

कष्ट दूसरा सुविधाएं

सब कुछ मेरे पास है

करने को कुछ नहीं बचा

कष्ट यही अहसास है

कष्ट तीसरा शाम है

रोज—रोज आ जाती है

कैसे इसे बिताएं हम

रोज समस्या आती है

चौथा कष्ट एकरसता

हो आदमी या कि मौसम

कुछ भी नहीं बदलता है

सब न समझ पाएं यह गम

कष्ट एक और है

कष्ट बहुत कुछ करना है

करने दिया न जाता है

निर्णय किसी और का है

बंदा हुकुम बजाता है

कष्ट दूसरा है माखन

मिलता है यह सभी कही

जो उपयोग जानता है

हारेगा वह कभी नहीं

भाषण कष्ट तीसरा है

सुनना जिसे जरूरी है

कह देना कुछ, करना कुछ

छूट यहां पर पूरी है

चौथा कष्ट बड़ा भारी

सहने की है लाचारी

पैदा हुए बाद में हम

उनका पलड़ा है भारी

कष्ट एक और है……

—लेकिन कोई अंत नहीं है। अगर कष्टों की बात करने बैठो तो पुराण शुरू तो हो सकता है लेकिन अंत नहीं होता। और तुम कहते हो कि मेरे जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों हैं? सबके जीवन में हैं। लोगों की बातें सुनो, एक—दूसरे को कष्ट सुनाते हैं। कष्टों की ही बात चलती रहती है। कौन कितनी मुसीबत में है! सभी मुसीबत में हैं।

तो जरूर कहीं मौलिक कुछ भूल हो रही है, कहीं कुछ ऐसी बुनियादी भूल हो रही है जो सभी से हो रही है। सभी मूर्च्‍छित हैं। मूर्च्छा दुःख है और जागृति आनंद है। जागो। चैतन्य को उभासे। सोयी आंखें खोलो।

बुद्धों की सुनो। वे तो कहते हैं, जीवन में सच्चिदानंद है और तुम कहते हो, कष्ट ही कष्ट हैं। तो जरूर वे किसी और जीवन की बात कर रहे हैं, तुम किसी और जीवन की बात कर रहे हो। मैं भी तुमसे कहता हूं, आ नंद के अतिरिक्त जीवन में और कुछ भी नहीं है। जीवन बना ही आनंद की ईंटों से है।

लेकिन तुम कहते हो कष्ट ही कष्ट हैं। जरूर तुम्हारे देखने में कहीं कुछ भूल हो रही है, चूक हो रही है। तुम अंधे हो, आंख बंद किए हो। अंधेरे में टटोलते हो, टकरा—टकरा जाते हो। अंधेरे में कुछ का कुछ समझ लेते हो। फिर टकराओगे न तो क्या होगा?मैंने सुना है एक आदमी रात शराबघर गया। वहां लोग जाते ही इसीलिए हैं कि किसी तरह कष्टों को भूल जाएं। थोड़ी देर के लिए ही सही, नशे में डूब जाएं। खुद डूबेंगे तो कष्ट भी डूब जाएंगे। थोड़ी देर को ही सही, राहत तो मिलेगी। खूब पिया उसने, डटकर पिया उसने।

जब घर से चला था तो खयाल करके चला था कि लौटते वक्त अंधेरा हो जाएगा। रात है अंधेरी, अमावस, तो लालटेन साथ ले गया था। लेकिन खूब डटकर पी गया। चारों खाने चित्त पड़ा था। अब अपनी लालटेन टटोल रहा है। किसी का पैर हाथ में आ जाए, कुर्सी का पाया हाथ में आ जाए, टेबल का पाया हाथ में आए, लालटेन का पता न चले। फिर लालटेन मिल गई। ली लालटेन और चल पड़ा। बाहर निकला ही था, एक भैंस से टकरा गया। फिर एक नाली में गिर पड़ा। फिर एक ट्रक ने धक्का मार दिया। सुबह जब पाया गया तो एक नाली में पड़ा था। उसे उठाकर घर पहुंचाया गया।

दुपहर को शराबघर का मालिक आया और उसने कहा महानुभाव, यह आपकी लालटेन लो। उस आदमी ने कहा, अरे! क्या लालटेन मैं आपके यहां ही भूल आया? मैं तो लेकर चला था। उस शराबघर के मालिक ने कहा, आप जरूर लेकर चले थे, वह मेरे तोते का पिंजरा है। मेरा तोता मुझे वापस करो। यह लालटेन अपनी सम्हालो।

बेहोश आदमी लालटेनों की जगह तोतों के पिंजरे लेकर चले जाते हैं। फिर भैंसों से टकराते हैं। फिर ट्रक का धक्का लग गया, फिर नाली में पड़े। और फिर तुम पूछते हो, जीवन में कष्ट ही कष्ट क्यों हैं? जरा गौर से देखो, तुम्हारे हाथ में तोतों के पिंजरे हैं, लालटेन नहीं। तुम खुद ही तोते हो गए हो। तुम खुद ही तोते हो जो पिंजरे में बंद हैं। तुम सिर्फ दोहरा रहे हो—कोई गीता, कोई कुरान, कोई बाइबल।

यह दोहराना बंद करो। इस दोहराने से रोशनी नहीं होगी। दीये की बातें करने से दीये नहीं जलते, दीये जलाने पड़ेंगे। ज्योति अपने भीतर उठानी पड़ेगी। और जब तुम्हारे भीतर ज्योति होगी और चारों तरफ प्रकाश पड़ेगा, तुम्हारे कष्ट ऐसे ही तिरोहित हो जाएंगे जैसे कि अंधकार तिरोहित हो जाता है।

जीवन में कष्ट है यह इस बात का सबूत है कि तुम्हारे जीवन में ध्यान का दीया नहीं है। तुम्हारे जीवन में प्रार्थना और प्रेम नहीं है और प्रकाश नहीं है और परमात्मा नहीं है। कष्टों से इंगित लो, इशारा लो, समझो कुछ। कष्ट इतना ही कह रहे हैं: तुम भटक गए हो, राह पर आओ।

मेरे देखे दुःख लक्षण है कि हम जीवन के धर्म से दूर हट गए हैं। सुख लक्षण है कि हम जीवन के धर्म से दूर हट गए हैं। सुख लक्षण है कि हम जीवन के धर्म के पास आ गए हैं। और आनंद लक्षण है कि हम जीवन के धर्म के साथ एकरूप हो गए हैं।

पांचवां प्रश्न : मैं संसार की कीचड़ से मुक्त होना चाहता हूं लेकिन आप तो उसे पलायन कहते हैं। मैं क्या करूं?संसार को कीचड़ कहोगे, वहीं से चूक शुरू हो गई। संसार में खिले कमल तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते? बुद्ध कहां खिले? महावीर कहां खिले? कबीर कहां खिले? ये जो जगजीवन के सूत्रों पर हम विचार कर रहे हैं, ये सूत्र कहां जन्मे? यह जगजीवन का गीत कहां उठा? इसी संसार में। इसी कीचड़ में।

तो कीचड़ को सिर्फ कीचड़ ही मत कहो, इसमें कमल भी होते हैं। कीचड़ कमल की जननी है। सम्मान करो। कीचड़ के बिना कमल कहां? कीचड़ को छोड्कर भाग जाओगे तो फिर कमल कैसे पैदा होगा? कीचड़ का उपयोग करो। कमल कीचड़ की संभावना है। कमल कीचड़ में दबा पड़ा है। खोजो। तलाशो। मिलेगा। मिला है, तुम्हें भी मिलेगा। भागकर कहां जाओगे? और कीचड़ से भाग गए तो कमल से भी भाग गए; याद रखना। सूखोगे, लेकिन जीवन में सुगंध कभी न उठेगी।

इसलिए मैं कहता हूं संसार से भागना भगोड़ाफन है, फलायन है। संसार का उपयोग करो। संसार एक अवसर है—एक महान अवसर। एक चुनौती, जहां प्रतिपल तुम्हें जगाने के लिए कितना आयोजन परमात्मा करता है। किसी के मुंह से गाली आ जाती है तुम्हारे लिए। अगर तुम समझदार हो तो गाली जगाएगी। कोई निंदा कर गया तो निंदा जगाएगी। किसी से टक्कर हो गई तो टक्कर जगाएगी। क्रोध आया, क्रोध से जलन हुई, भीतर घाव बने, छाले उठे तो क्रोध जगाएगा। करुणा उठी, रस बहा तो करुणा जगाएगी। प्रेम उफजेगा, प्रार्थना बनी तो प्रार्थना जगाएगी। यहां दुःख भी जगाएगा, सुख भी जगाएगा। और संसार सुख—दुःख की कीचड़ है। लेकिन इसी सुख—दुःख की कीचड़ में, इसी सुख—दुःख के तनाव में कमल के अपूर्व फूल भी खिलते हैं।

सोख लिया है

ग्रीष्म ने

सरोवर के जल को

किया है कीचड़

और दलदल में

घुटनों तक

गड़ा हुआ खड़ा मैं

भागूंगा नहीं

इस सरोवर को छोड़कर

कीचड में

झरे हुए कमल के बीज

मरे नहीं है

सिर्फ हो गए हैं भूमिगत

लड़ रहे हैं

जन्मने की

लड़ाई

कीचड़ में ही

दरअसल

उगती है

कमल की फसल।

यहां बीज पड़े हैं। इसी कीचड़ में दबे पड़े हैं। समझदार तो जहर को भी अमृत बना लेता है। नासमझ अमृत को भी जहर कर लेता है।

जिनने तुमसे कहा है, संसार से भाग जाओ, वे नासमझ ही लोग हो सकते हैं। और इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं तुमसे कह रहा हूं कि कभी—कभार अगर तुम पहाड़ चले जाओ और थोड़े दिन वहां मौन और एकांत में रह आओ तो कुछ बुरा है। लेकिन ध्यान रखना, लौट यहीं आना है। पहाड़ तुम्हारी आदत नहीं बननी चाहिए। पहाड़ तुम्हारी लत नहीं बननी चाहिए। पहाड़ तुम्हारी आसक्ति नहीं बननी चाहिए। ऐसा न हो कि जंगल की शांति से ऐसी आसक्ति लग जाए कि फिर बाजार का कोलाहल बिल्कुल न सह सको। यह तो और हार हो गई। यह तो और कमजोरी हो गई। यह तो तुम पहले से भी ज्यादा दीन हो गए।

जंगल की शांति, कभी—कभी जाओ, भोगो। वह भी संसार है—संसार का दूसरा पहलू। उसे भी भोगो लेकिन लौट आओ बाजार में। असली परीक्षा बाजार में है। और जिस दिन तुम पाओ : जंगल में तुम जितने शांत, उतने ही बाजार में शांत, उस दिन समझना, कुछ हुआ; उसके पहले नहीं। उस दिन समझना, कुछ हुआ। उस दिन समझना, अब अपना स्वरूप मिला। अब परिस्थिति अनुकूल हो कि प्रतिकूल, भेद नहीं पड़ता। हार हो कि जीत, भीतर की मौज अछूती रहती है। सुख आए कि दुःख, भीतर का गीत वैसा का वैसा। जीवन हो कि मृत्यु, भीतर सब अस्पर्शित।

उस अस्पर्शित दशा का नाम ही संन्यास है। संन्यास का अर्थ नहीं है संसार के विपरीत। संन्यास का अर्थ है : द्वंद्व के बीच में निर्द्वंद्व रहने की कला।

तो जंगल चले गए हैं और बाजार में आने से डरते हैं वे भी बंध गए। जंगल के सन्नाटे से उन्होंने जंजीरें ढाल लीं। पहाड़ के मौन को उन्होंने अपना मौन समझ लिया जो कि धोखा है। हिमालय की शांति तुम्हारी शांति नहीं है। लौटकर देखो बाजार में। अगर बाजार में भी टिक जाए तो समझना कि तुम्हारी है; और अगर बाजार में आते ही से खो जाए तो समझना हिमालय की थी। तो हिमालय की शांति से हिमालय का मोक्ष होगा, तुम्हारा कैसे होगा? यह कैसी उधारी! इस उधार से क्यों अपने को धोखा देते हो?

हमेशा लौट आओ बाजार में। लौट—लौटकर बाजार में आ जाओ। वहीं कसौटी है। वहीं तुम्हारा सोना कसा जाएगा कि पीतल हो या सोना।

और जिस दिन तुम पाओगे कि कीचड़ में कमल खिलता है, उस दिन तुम परमात्मा को धन्यवाद देने में निश्चित ही सफल होओगे। बस उसी दिन सफल होओगे; उसके पहले नहीं। अभी तो तुम्हारे मन में कीचड़ है—परमात्मा ने कहां पटक दिया! तुम जैसे प्यारे आदमी को कहां कीचड़ में पटक दिया! कहां हीरे को कीचड़ में डाल दिया! शिकायत ही शिकायत है मन में तुम्हारे। इस शिकायत में कैसे तो प्रार्थना जन्मे? इस शिकायत में कैसे तो पूजा बने? इस शिकायत में कैसे तो अर्चना का थाल सजे? इस शिकायत में कहां तो गंध, कहां सुगंध, कहां धूप, कहां दीप।

प्रार्थना तो तब उठती है, जब जैसा परमात्मा ने दिया है, शुभ है; जैसा दिया है यही श्रेष्ठ है; जैसा है इससे ज्यादा पूर्णतर हो ही नहीं सकता—ऐसा भाव जब सघन होता है, उसी सघनता से धन्यवाद उठता है, कृतज्ञता उठती है।

मैं तुम्हें जंगल की शांति से नहीं तोड़ना चाहता, न बाजार के शोरगुल से तोड़ना चाहता हूं। दोनों का मजा लो। कभी—कभी जंगल चले जाओ, जब सुविधा हो। न जंगल जा सको, द्वार—दरवाजे बंद करके घडी—दो घड़ी दिन में चुपचाप बैठ जाओ। संसार को भूल जाओ। चलने दो बाजार बाहर, चलता है, चलता रहेगा। तुम्हारा क्या लेना—देना है? तुम अपने में थिर हो जाओ।

ऐसे अपने में डूबते रहो। कभी—कभी जंगल में भी जाकर वृक्षों के पास पहाड़ों की शांति को भी भोगते रहो, पर हर बार लौट आओ बाजार में। और हर बार यह खयाल रखो, जो तुमने कमाया वह बचता है या नहीं?मेरे पास पश्चिम से इतने संन्यासी आते हैं, उन सबकी पीड़ा यही है कि उन्हें अंततः जाना पड़ता है। एक सीमा तक ही वे यहां रुक सकते हैं। कोई तीन महीने रुक सकता है, कोई केवल तीन सप्ताह रुक सकता है। क्योंकि राज्यों की सीमाएं हैं। ये बड़े कारागृह हैं। इनमें तीन सप्ताह की छुट्टी किसी को मिलती है कि चले जाओ। तीन सप्ताह के बाद बाहर हो जाओ देश के।

यह दुनिया अभी भी खंडित है, बटी है। सारे दुनिया के विधानशास्त्र कहते हैं कि आवागमन की आजादी है। कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती कि मनुष्य आवागमन के लिए स्वतंत्र है—कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। जरा अपने देश के बाहर जाओ तो तुम्हें पता चलना शुरू होता है कि कितनी झंझट है। बाहर जाने में झंझट, फिर दूसरे देश में प्रवेश करने में झंझट। यह पूरी पृथ्वी जैसे हमारी नहीं है; छोटे—छोटे टुकड़े बांट लिए हैं।

तो पश्चिम से, बाहर के देशों से जो लोग आते हैं उनकी अड़चन है। तीन महीने यहां मेरे पास रह लेते हैं, एक रस का स्वाद लगता है, फिर जाने की घड़ी जल्दी आ जाती है। फिर उदास होता है चित्त। और उनकी उदासी मैं समझ सकता हूं। क्योंकि तुम्हारे बाजार तो कुछ भी नहीं हैं पश्चिम के बाजारों के मुकाबले। तुम्हारे बाजारों में जो उपद्रव चल रहा है वह तो कुछ भी नहीं है। वह तो बहुत आदिम है। बाबा आदम के जमाने के बाजार हैं तुम्हारे। उनके बहुत विकसित बाजार हैं। वहां शोरगुल सच में भारी है। वहां उपद्रव अपनी चरम सीमा पर है। वहां आत्मा—परमात्मा का कोई पता ही नहीं चलता। वहा कैसा ध्यान, कैसी प्रार्थना, कैसी पूजा! जो करे वह पागल है।

और लोग कहकर नहीं छोड़ देंगे जैसा मैंने पहले प्रश्न में तुमसे कहा। कृष्णा को लोग कहते हैं, पागल है। अच्छा है कि तू भारत में है। यहां लोग सिर्फ पागल कहकर छोड देते हैं। बात खतम हो गई। पश्चिम में इतनी आसानी से छोड़ नहीं देते। एक दफे कहा पागल है तो बस, किया भर्ती पागलखाने में। फिर तुम लाख चिल्लाओ, फिर लाख तुम रोओ, लाख कहो कि मैं बिल्कुल ठीक हूं। जितना तुम कहोगे, मैं ठीक हूं उतनी ही मुश्किल होती जाएगी। लगेंगे इंजेक्‍शन। डालने लगेंगे जहर तुम्हारे शरीर में। तुम्हें मूर्च्‍छित करेंगे, बेहोश रखेंगे। हजार तरह की दवाएं पिलायेगें।

एक फ्रैंच युवक कुछ दिन पहले गया। उसने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में हूं। क्योंकि जाते ही से मुझे सेना में जाना पड़ेगा। मेरी उम्र हो गई है सेना में जाने की और डेढ़ वर्ष मुझे सेना में रहना पडेगा। और अब मैं जाना नहीं चाहता सेना में। अब मैं नहीं चलाना चाहता बंदूकें और नहीं सीखना चाहता बम फेंकना। अब ये बातें मुझे मूढ़ता जैसी मालूम पड़ती हैं। आपने मुझे मुश्किल में डाल दिया। इस देश में मैं रुक नहीं सकता। सरकार कहती है, छोड़ो। नोटिस आ रहे हैं। वहां मैं जा नहीं सकता क्योंकि वहां मैं गया कि तत्क्षण पकड़ लिया जाऊंगा। मिलिट्री में मुझे जाना पड़ेगा।

मैंने पूछा, बचने का कोई उपाय है? उसने कहा, एक ही उपाय है : अगर यह सिद्ध हो जाए कि मैं पागल हूं। मैंने कहा, फिर तो बहुत आसान मामला है। उसने कहा, कैसे? मैं क्या करूं कि सिद्ध हो जाए? कहा, तू कुछ मत करना। तू तो चले जाना और एकदम कुंडलिनी करना शुरू कर देना। या सक्रिय ध्यान करेगा तो भी चलेगा। जैसे ही तू ‘हू हू हू ‘ करना शुरू करेगा…। और दिल खोलकर कुंडलिनी करना। फिर जब कर ही रहे हैं… फिर रोकना मत। उसने कहा, आप कह क्या रहे हैं? मैंने कहा, तू करके देख।

उसने करके देखा भी और सफल भी हुआ। उसका पत्र आया है कि गजब हो गया! जब मैंने कुंडलिनी किया तो उन्होंने कहा, यह तो बिल्कुल पागल है। इसे तो भूलकर मिलिट्री में लेना मत। वे कुछ भी करते रहे, मैं अपनी कुंडलिनी करता ही रहा। वे जांच—पड़ताल करते रहे, मैं अपनी कुंडलिनी करता रहा।

पश्चिम में तो जल्दी ही पागल करार दिए जाओगे। और फिर पश्चिम का उपद्रव और बाजार और धन की विक्षिप्त दौड़! संन्यासी दुःखी होने लगते हैं कि कैसे जाएं! पर मैं उन्हें भेजता हूं। मैं कहता हूं, जाना लाभ का है, हानि का नहीं। तुमने जो यहां कमाया है, तुम्हें तीन महीने में जो यहां मिला है, अब उसे वहां बचाना। जो यहां से तुम ले जा रहे हो उसकी सुरक्षा करना। माना कि पौधा कमजोर है, टूट सकता है। मगर अगर सुरक्षा ठीक से की तो मजबूत हो जाएगा। और जहां चुनौती होगी वहां अगर तुम सजग पहरेदार हो गए अपने भीतर के तो तुम्हें खूब लाभ होगा। और यह मेरा निरंतर का अनुभव है कि जो व्यक्ति यहां दो—चार—पाच महीने ध्यान करने के बाद पश्चिम जाता है और फिर लौटता है, उसकी गहराई बहुत बढ़ जाती है।

मैं तुमसे संसार छोड़ने को नहीं कहता। ही, कभी—कभी छुट्टी ले लो संसार से। दिन—दो चार दिन, महीने—पंद्रह दिन चले जाओ जंगल में, मगर फिर लौट आना। और हर बार आना—जाना तुम्हारी गहराई को बढ़ाका, ऊंचाई को बढ़ाका।

आखिरी प्रश्न :

 

आपकी बातें क्या सुनीं, बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। आंसू थमते ही नहीं हैं। याद भी प्रतिपल बनी रहती है। मुझे यह क्या हो रहा है? लोग कहते हैं कि मैं आपको छोड़ दूं। और वह भी असंभव मालूम पड़ता है।

इब्‍तिदा—ए—इश्क है रोता है क्या!

आगे—आगे देखिए होता है क्या

शुरुआत है अभी तो। अभी तो पहले कदम पड़े हैं। घबड़ाओ न। चिंता न लो।

इश्क जब तक न कर चुके रुसवा

आदमी काम का नहीं होता

जब तक प्रेम बरबाद न कर दे, बदनाम न कर दे, तब तक आदमी काम का होता ही नहीं।

तुम पूछते हो, मुझे क्या हो गया है? प्रेम हो गया है तुम्हें। तुम्हारा भाव भक्ति में रूपांतरित हो रहा है। और यह बड़े सौभाग्य से होता है।

नसीबों से मिलता है दर्दे—मुहब्बत

यहां मरनेवाले ही अच्छे रहे हैं

जो प्रेम में मर जाएं वे अमृत को पा जाते हैं। और बड़े भाग्य से मिलता है यह दर्द, यह पीड़ा। यह सभी को नहीं मिलती।

आंसू आएं, उन्हें प्रार्थना बनाओ।

क्यों हिज्र के शिकवे करता है

क्यों दर्द के रोने रोता है।

अब इश्क है तो सब भी कर

इसमें तो यही कुछ होता है

और यह तो शुरुआत है। यह तो पहली बूंदाबांदी है। अभी तो मूसलाधार वर्षा होगी जो सब बहा ले जाएगी—सब जो तुमने अपना माना है, सब जैसा तुमने अपने को माना है। और जब तुम पूरे के पूरे बह जाओगे इस बाढ़ में, पीछे जो शेष रह जाएगा, वही तुम्हारा स्वत्व है; वही तुम्हारा सार है। सत्य कहो उसे, परमात्मा कहो उसे, निर्वाण कहो उसे; या जो नाम देना चाहो, दो।

जब सब इस बाढ़ में बह जाएगा इन आंसुओ में, यह विक्षिप्तता जब सब तुम्हारे तर्कजाल तोड़ देगी, यह प्रेम जब धीरे— धीरे तीर की तरह तुम्हारे हृदय के अंतस्तल में चुभ जाएगा तब… तब तुम्हें पता चलेगा तुम कितने सौभाग्यशाली हो। तुम्हें जलस्रोत मिल जाएंगे। भीतर खोदने से ही मिलते हैं। और प्रेम की कुदाल लेकर कोई खोदता है तो ही भीतर खुदाई होती है।

दिक्कतें आएंगी। बदनामी होगी।

फिरते हैं मीर ख्वार कोई पूछता नहीं

इस आशिकी में इज्जते—सादात भी गई

कोई पूछेगा भी नहीं। पहले तो लोग कहेंगे कि पागल हो गए। पहले लोग कहेंगे, यह तुम्हें क्या हो गया? फिर धीरे— धीरे लोग कहेंगे, अब हो ही गया, पूछना भी क्या! लोग रास्ता काटकर निकल जाएंगे। लोग जयरामजी तक करने में डरेंगे। पागलों से कौन दोस्ती रखता है? और पागलों के साथ रहो तो दूसरे लोग समझने लगते हैं कि तुम भी पागल हो रहे हो।

फिरते हैं मीर ख्वार कोई पूछता नहीं।

इस आशिकी में इज्जते—सादात भी गई

यह प्रेम ऐसा है, इसमें सब चला जाता है। सय्यद होने का जो सम्मान था वह भी गया—इज्जते—सादात भी गई। इसमें तो सब गंवाना पड़ता है। लेकिन जो गंवाते हैं वे ही पाते हैं।

और बहुत लोग तुम्हें समझाएंगे कि अभी रुक जाओ, अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। अभी ठहर जाओ। अभी तो दो ही कदम बढ़े हैं, लौट आओ। मगर प्रेम के रास्ते पर एक भी कदम पड़ जाए, तो पूरी मनुष्य—जाति के इतिहास में अभी तक ऐसा हुआ नहीं कि कोई लौट गया हो। रस ऐसा है। मादकता ऐसी है।

कुछ न मैं समझा जुनूने—इश्क में

देर नासह मुझको समझाता रहा

लोग समझाएंगे तुम्हें। समझदार लोग समझाएंगे, उपदेशक समझाएंगे, धर्मगुरु समझाएंगे, पंडित मौलवी समझाएंगे।

कुछ न मैं समझा जुनूने—इश्क में

देर नासह मुझको समझाता रहा

लेकिन जिसको दीवानी चढ़ी, जिसको प्रेम का पागलपन आया, उसको कुछ सुनाई भी नहीं पड़ता, समझ में भी नहीं आता। जिसने एक बार प्रेम की पुकार सुनी, इस जगत् के कोई तर्क उसे सार्थक नहीं मालूम होते। वह हंसकर टाल देगा। वह अपनी धुन में मस्त रहेगा। ये सो तर्क तो वह भी जानता है। इन तर्को से कुछ भी नहीं मिला। घास का एक फूल भी नहीं खिला इन तर्को से। और अब उसके भीतर गुलाब की गंध आनी शुरू हो रही है। कैसे रुके? अवश आदमी खिंचा चला जाता है।

मिटना ही होगा अब तो। तुम पूछते हो, ‘आपकी बातें क्या सुनीं, बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं।’

हाथ उठाओ इश्क के बीमार से

कोई बचता भी है इस आजार से

इस रोग से कोई बचता ही नहीं। इस रोग में तो जाना ही पड़ता है, मिटना ही पड़ता है।

न सुनते तो एक बात थी, अब सुन ली…! न आते यहां तो एक बात थी, अब आ गए…! अब यह रंग तुम पर चढ़ा। अब यह उतरनेवाला रंग नहीं। मैं तो रंगरेज हूं।

और फिर तुम्हें याद दिला दूं कि यह जो दुःख अभी मालूम हो रहा है, इसे सम्हालना संपदा की तरह। जैसे मां के पेट में बच्चा होता है गर्भ में—पीड़ा झेलनी पड़ती है। भोजन पचता नहीं, उलटिया हो जाती हैं। बोझ, पीड़ा नौ महीने तक झेलनी पड़ती है। लेकिन मां झेलती है क्योंकि एक भरोसा है। एक नया जीवन उसके भीतर पल रहा है। एक नया जीवन आ रहा है।

ऐसे ही तुम हो। ये जो बातें तुम्हारे भीतर पड़ रही हैं, तुम्हारा गर्भ बनेंगी। बहुत पीड़ा से गुजरना होगा। लेकिन सब पीड़ा झेलने—योग्य है क्योंकि इसीसे तुम्हारा नया जीवन पैदा होगा। एक जन्म तो मिलता है मां—बाप से, एक जन्म देना पड़ता है स्वयं को। अपने ही गर्भ में अपने को जन्माना पड़ता है। यही साधना है।

वहीं लुट गया कारवाने—हयात

जहां से तेरा गम जुदा हो गया

और जिस दिन परमात्मा का गम जुदा हो जाता है, समझ लेना वहीं जीवन का काफिला लुट गया। वे ही लोग अभागे हैं जिनके जीवन में परमात्मा ने गर्भ की प्रसव पीड़ा नहीं दी है। तुम सौभाग्यशाली हो।

पूछते हो, ‘मैं मुसीबत में पड़ गया हूं।’ अच्छा हुआ। और भी तुम्हें मुसीबत में डालेंगे। ऐसे ही तो निखरोगे। ऐसे ही तो सुथरोगे। ऐसे ही सुलझोगे।

‘आंसू रुकते ही नहीं हैं।’ रोकते ही क्यों हो? सहारा दो, सहयोग करो, बाहर की ही आंखों को आंसू साफ नहीं करते, भीतर की आंखों को भी साफ करते हैं।’याद भी प्रतिपल बनी रहती है।’ अच्छा हो रहा है। जिनको नहीं बनी रहती है प्रतिपल याद, उन्हें दुःखी होना चाहिए। तुम क्यों दुःखी हो? उन्हें प्रश्न उठाना चाहिए। तुम क्यों प्रश्न उठाते हो? याद तो ऐसी हो जाना चाहिए कि दिन तो रहे रहे, रात भी रहे। जागे—जागे तो रहे ही, सोए—सोए भी रहे।

स्वामी राम अमरीका से लौटे। हिमालय पर मेहमान थे टेहरी गढ़वाल के महल में। उनके शिष्य थे एक सरदार पूर्णसिंह; उनकी सेवा में रहते थे। रात सोए, गर्मी तेज थी और पूर्णसिंह को नींद न आयी। और नींद न आने का एक कारण और भी था कि कोई पास में ही बस ‘राम, राम, राम’ की धुन लगा रहा था। उठे कि कौन पागल है? बाहर गए बरामदे में चक्कर लगाया—महल खाली है कहीं दूर—दूर तक भी कोई नहीं है। जितना दूर तक चक्कर लगाया उतनी आवाज कम सुनाई पड़ी। फिर कमरे में लौटे, आवाज फिर सुनाई पड़ी।

थोड़े हैरान हुए। कहीं राम तो नहीं राम—राम जप रहे हैं! नींद न आ रही हो तो पड़े—पड़े क्या करें! तो पास गए, वे तो सो रहे हैं। न केवल सो रहे हैं, घुर्रा भी रहे हैं। मगर आवाज, जैसे ही उनके पास गए, और जोर से आने लगी। गौर से सुना; सिर के पास सुना, पैर के पास सुना, हाथ के पास सुना। कान लगाकर सुना, पूरे शरीर से ‘राम, राम, राम की धुन आ रही है।

सुबह राम से पूछा। राम ने कहा, तुमने ठीक ही सुना। पहले दिन में ही आती थी, फिर धीरे— धीरे रात में भी समा गई। पहले मन में ही आती थी, फिर धीरे— धीरे तन में भी समा गई। अब तो राम ही हैं। अब तो मैं नहीं हूं।

तुम तो न पूछो। प्रतिपल याद आती है? गहराओ उसे। एक क्षण खाली न जाए। यही याद तो धीमा—सा धागा है, जो तुम्हें परमात्मा तक ले जाएगा। पतला धागा है स्मृति का, सुरति का; यही तो तुम्हें पहुंचाएगा। इस धागे में अपनी पूरी ऊर्जा डाल दो ताकि यह मजबूत हो, रोज—रोज मजबूत हो। इसे प्रगाढ़ करो।’

….. याद भी प्रतिपल बनी रहती है। मुझे यह क्या हो रहा है?’ लक्षण बिल्कुल साफ हैं। किसी से पूछने जाने की जरूरत नहीं। प्रेम हो रहा है। भाव भक्ति बन रही है। रात कटना शुरू हो रहा है। सुबह करीब आ रही है। चलते ही रहे, रुक न गए तो पहुंच जाओगे।’लोग कहते हैं, मैं आपको छोड़ दूं। और वह तो अब असंभव है।’ लोग तो कहेंगे। लोग दयावश कहते हैं। लोग कहते हैं, कैसी तुम्हारी हालत हो गई है! अच्छे— भले आदमी थे, यह तुम्हें क्या हो गया है? आंख से आंसू बहते रहते हैं। पहले तो कभी नहीं बहते थे। यह तुमने कैसी बात सीख ली? यह तुम कहां के जाल में पड़ गए? यह तुम किसके सम्मोहन में आ गए? होश में नहीं चलते। चलते कहीं हो, देखते कहीं हो। बोलते कुछ हो, सोचते कुछ हो। तुम्हारे भीतर क्या हो रहा है? नशे में तो नहीं हो? कुछ पीना इत्यादि तो शुरू नहीं कर दिया है?लोग भी दयावश कहते हैं। उन पर नाराज न होना। लेकिन जो तुम्हें हो रहा है, इससे लौटने का कोई उपाय भी नहीं है।

उसकी तरफ से दिल न फिरेगा नासहो

अब हो गया यह जिसका तरफदार, हो गया

परमात्मा से जब तक तुम नहीं जुड़े, नहीं जुड़े। भटकते रहो जन्मों तक। एक बार जुड्ने लगे, फिर कोई उपाय लौटने का नहीं है।

हो गया यह जिसका तरफदार, हो गया

यह दिल एक बार उसकी तरफ झुक जाए तो फिर सारा जगत् और सारे जगत् का साम्राज्य भी दूसरे पलड़े पर रखा हो तो भी तुम लेने को राजी न होओगे।

उसकी तरफ से दिल न फिरेगा नासहो

अब हो गया यह जिसका तरफदार, हो गया

 

आज इतना ही


Filed under: नाम सुमिर मन बावरे--(जगजीवन दास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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