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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–4)

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स्‍वयं का सत्‍य—(प्रवचन—चौथा)

प्यारे ओशो!

यह श्लोक मुंडकोपनिषद् का है :

सत्यं एव जयते नानृतम्

सत्येन पन्या विततो देवयान:।

येनाक्रमन्ति ऋषयो ह्याप्तकामा

यत्र तत्र सत्यस्य परमं निधानम्।।

अर्थात् सत्य की जय होती है, असत्य की नहीं। जिस मार्ग से आप्तकाम ऋषिगण जाते हैं और जहां उस सत्य का परम निधान है, ऐसा देवों का वह मार्ग हमारे लिए सत्य के द्वारा ही खुलता है। प्यारे ओशो! क्या सत्य साध्य और साधन दोनों है?

हमें दिशाबोध देने की अनुकंपा करें!

हजानन्द! धर्म के सूत्रों के संबंध में एक प्राथमिक बात सदा स्मरण रखना : वे अन्तर्यात्रा के सूत्र हैं, बहिर्यात्रा के नहीं। यह भूल जाए तो फिर सूत्रों की व्याख्या गलत हो जाती है। यह सूत्र धर्म का प्राण है, लेकिन राजनीति का नहीं। धर्म में तो निश्चित ही सत्य जीतता है और असत्य हारता है, और राजनीति में बात बहुत भिन्न है। वहा जो जीते, वह सत्य, जो हारे वह असत्य। वहां निर्णय जीत और हार से होता है, सत्य और असत्य से नहीं। राम अगर हार गये होते रावण से, तो तुम दशहरे पर राम की होली जलाते रावण की नहीं। रावण अगर जीत गया होता, तो तुम्हारे तुलसीदासों ने रावण की स्तुति और प्रशंसा में गीत लिखे होते। राजनीति का जगत अर्थात बहिर्यात्रा। वहा बेईमानी जीतती है, असत्य जीतता है, पाखंड जीतता है, चालबाजी जीतती है, कपट जीतता है। और फिर जो जीतता है, वह सत्य मालूम होता है। वहां सरलता हारती है। वहा सत्य पराजित होता है। वहां ईमानदार की कोई गति नहीं है। वहा सीधा—साफ, सुथरा होना हारने के लिए पर्याप्त कारण है। वहां धोखेबाज.. उनकी गति है।

यह सूत्र अंतर्यात्रा का सूत्र है। लेकिन राजनीतिज्ञ भी इसका उपयोग करते हैं। भारत ने तो अपना राष्ट्रीय घोषणापत्र ही इस सूत्र को बना लिया है : सत्यमेव जयते। सत्य की सदा विजय होती है। मगर जिसके पास भी आंखें हैं, वह देख सकता है। क्या तुम सोचते हो कि स्टेलिन सत्य था, इसलिए हिटलर से जीत गया? दोनों एक दूसरे से बढ़कर असत्य थे। हिटलर इसलिए नहीं हारा कि असत्य था और चर्चिल, रूजवेल्ट और स्टेलिन इसलिए नहीं जीते कि सत्य थे। इसलिए जीते कि ये सारे असत्य इकट्ठे हो गये थे एक असत्य के खिलाफ। एक असत्य कमजोर पड़ गया इन सारे असत्यों के मुकाबले। असत्य ही जीता।

एडोल्फ हिटलर जीत सकता था। तो सारा इतिहास और ढंग से लिखा जाता। यही इतिहासविद जो उसकी निंदा में लिख रहे हैं, उसकी प्रशंसा में लिखते। इतिहास तुम्हारा सरासर झूठ है। इतिहास का कोई संबंध तथ्यों से नहीं है। इतिहास का संबंध है लिखनेवालों से। और लिखनेवाले उसकी खुशामद में लिखते हैं जो जीता है। हारे को तो पूछता कौन? डूबते सूरज को तो कौन नमस्कार करता है? ऊगते सूर्यों को नमस्कार किया जाता है। अंग्रेजों ने एक ढंग का इतिहास लिखा था और जब हिन्दुओं ने इतिहास लिखना शुरू किया, उन्होंने दूसरे ढंग का इतिहास लिखा। मुसलमान तीसरे ढंग का इतिहास लिखेंगे।

पश्चिम का एक बहुत बड़ा इतिहासज्ञ एडमंड बर्क मनुष्यजाति का इतिहास लिख रहा था—पूरी मनुष्यजाति का। उसने कोई बीस वर्ष अपने जीवन के इस महान कार्य में संलग्न किये थे। और उसकी किताब करीब पूरी होने को आ रही थी, बस आखिरी अध्याय लिख रहा था और एक दिन यूं घटना घटी कि उसने अपनी बीस साल की मेहनत को आग लगा दी। बात ऐसी हुई, उसके घर के पिछवाड़े में ही एक हत्या हो गयी। दो आदमियों में झगड़ा हुआ और एक आदमी मार डाला गया—उसको गोली मार दी गयी। यह गोली कोई रात के अंधेरे में एकांत में नहीं मारी गयी थी। भरी दोपहरी में, भीड़ खड़ी थी, सारा मोहल्ला इकट्ठा था, सैकड़ों लोग मौजूद थे जब यह झगड़ा हुआ। जब एडमंड बर्क को गोली की आवाज सुनायी पड़ी, वह भागा हुआ पहुंचा। वहा भीड़ इकट्ठी थी, आदमी मरने के करीब था—लहूलुहान था—जिसने मारा था वह भी मौजूद था। उसने अलग— अलग लोगों से पूछा, क्या हुआ? और जितने मुंह उतनी बातें। घर के पिछवाड़े हत्या हुई, अभी मरनेवाला मरा भी नहीं है—मर रहा है—अभी मारनेवाला भाग भी नहीं गया है—मौजूद है—चश्मदीद गवाह मौजूद हैं—एक नहीं, अनेक—सबने देखा है, लेकिन सबकी व्याख्या अलग है। जो मारनेवाले के पक्षपाती हैं, वे कुछ और कह रहे हैं। जो मरनेवाले के पक्षपाती हैं, वे कुछ और कह रहे हैं। जो तटस्थ हैं, वे कुछ और कह रहे हैं। एडमंड बर्क ने बहुत कोशिश की जानने की कि तथ्य क्या है, नहीं जान पाया। लौटकर उसने अपने बीस वर्षों का जो श्रम था उसमें आग लगा दी। उसने कहा, जब मैं अपने घर के पिछवाड़े अभी— अभी घटी ताजी घटना को तय नहीं कर पाता कि तथ्य क्या है, और मैं मनुष्यजाति का इतिहास लिखने चला हूं! कि पांच हजार वर्ष पहले क्या हुआ? मैंने ये बीस वर्ष व्यर्थ ही गंवाए। मैं पानी पर लकीरें खींचता रहा।

इतिहास कौन लिखता है; कौन लिखवाता है? और फिर सदियों तक जो बात लिखी गयी, उसे हम दोहराते चले जाते हैं।

राजनीति बहिर्यात्रा है। राजनीति का अर्थ है : दूसरे पर विजय पाना। और जहां दूसरे पर विजय पाना है, वहां सत्य का क्या प्रयोजन! सत्य का कोई उपयोग भी नहीं किया जा सकता दूसरे पर विजय पाने के लिए। यह बात ही गलत है। दूसरे पर विजय पाने की आकांक्षा ही गलत है। इसके लिए सत्य का साधन की तरह उपयोग नहीं किया जा सकता। सत्य और दूसरे पर विजय पाना, इन दोनों के बीच क्या संबंध हो सकता है! हा, अतर्यात्रा के जगत में यह सूत्र जरूर सत्य है। वहां सत्य ही जीतता है। सत्य ही जीत सकता है। वहा असत्य की हार सुनिश्चित है। वहां असत्य को हारना ही होगा। अंतर्जगत में असत्य वह है जो है ही नहीं। जो है ही नहीं, वह जीतेगा कैसे? मगर वह जीत और है। वह आत्म—विजय है। अपने पर विजय है। और अपने पर विजय में किसको धोखा देना है? और क्या सार है धोखा देने का? खुद को ही धोखा देने से मिलेगा भी क्या? और धोखा देना भी चाहोगे तो कैसे दोगे? तुम तो जानते ही रहोगे कि धोखा दे रहे हो।

इस भेद को खयाल में ले लेना। इस सूत्र की व्याख्या तो बहुत बार की गयी, क्योंकि प्यारा सूत्र है, मगर यह बुनियादी भेद कभी साफ नहीं किया गया कि यह सूत्र बाहर के जगत में लागू नहीं होता। वहां सब तरह की तिकडुम, चालबाजी, पाखंड, मुखौटे उपयोगी हैं। यहां सत्य तुम्हें हरा देगा। वहा तुम सत्य बोले कि गये। राजनीति में कहीं सत्य चल सकता है! राजनीति में तो चाणक्य का शास्त्र चलता है, मुंडकोपनिषद् नहीं चलते। राजनीति में तो मेक्यावेली चलता है, बुद्ध और महावीर की वहा कोई गति नहीं है। फिर चाणक्य हों या मेक्यावेली, इनकी आधारशिला एक ०,, धोखा देने की कुशलता। हा, जरूर सत्य को तो नहीं जिताया जा सकता बाहर के जगत में, लेकिन असत्य को भी जिताना हो तो सत्य की तरह प्रतिपादित करना होता है। असत्य को भी चलाना हो तो सत्य का रंग—रोगन करना होता है। सत्य की कम—से —कम झूठी प्रतीति खड़ी करनी पड़ती है। क्योंकि लोग सत्य से प्रभावित होते हैं। फिर सत्य हो या न हो, यह और बात है। भ्रम काफी है। झूठ को भी यूं सजाना होता है कि वह सच जैसा मालूम पड़े। कम—से—कम मालूम पड़े! जैसे खेत में हम पशु—पक्षियों को डराने के लिए एक झूठा आदमी बनाकर खड़ा कर देते हैं; एक डंडे पर हंडी रख देते हैं, दूसरा डंडा बांधकर हाथ बना देते हैं, फिर कुर्ता पहना दो और गांधी टोपी लगा दो; चाहो चूड़ीदार पाजामा—और मोरारजी देसाई तैयार! और चाहिए क्या? पशु —पक्षियों को भगाने के काम में कम—से—कम आ ही जाएंगे। और तो किसी काम के हैं भी नहीं!

खलील जिब्रान की एक प्रसिद्ध कथा है, कि मैं निकलता था एक खेत के करीब से और मैंने वहा एक धोखे के आदमी को खड़ा देखा। वर्षा हो, धूप हो, सर्दी हो—यह बेचारा सतत प्रहरी की तरह खड़ा रहता—न थकता, न ऊबता, न बैठता, न सुस्ताता, न लेटता। अथक इसकी साधना है—महायोगी है। तो मैंने पूछा, कभी थक नहीं जाते हो? कि भाई कभी सुस्ताते भी नहीं! कि मैं पूछता हूं ऊबते नहीं हो? यही जगह, वही काम रोज सुबह—शाम, दिन और रात, कभी तो ऊब पैदा हो जाती होगी? वह खेत में खड़ा झूठा आदमी हंसने लगा और उसने कहा कि पशु—पक्षियों को भगाने में ऐसा मजा आता है, डराने में ऐसा मजा आता है, कि ऊब का सवाल कहां उठता है?

दूसरों को डराने का एक मजा है! राजनीति वही मजा है। दूसरों पर हावी होने का एक मजा है! इससे तुम राजनीतिज्ञ को देखो, हमेशा प्रफुल्लित मालूम होता है। हजार उपद्रवों के बीच, झंझटों के……हजार उपद्रवों के, झंझटों के बीच…… ताजा लगता है। राजनीतिज्ञ लम्बे जीते हैं। किसी और कारण से नहीं, दूसरों को डराने का मजा, धमकाने का मजा! मरना ही नहीं चाहते। जीते ही रहना चाहते हैं। छोड़ते नहीं बनता यह मजा! जैसे ही कोई राजनीतिज्ञ पद से उतरता है कि बस, जीवनऊर्जा क्षीण होने लगती है। जब तक पद पर होता है, तब तक जीवनऊर्जा बड़ी अभिव्यक्त होती है। ये सब झूठे आदमी हैं, खेत के आदमी हैं। अब खेत में डराने के लिए कोई असली आदमी थोड़े ही खड़ा करना जरूरी है। लेकिन असली आदमी का धोखा होना चाहिए। पशु—पक्षियों को ऐसा लगना चाहिए कि है असली। तो गांधी टोपी, खादी का कुरता, शेरवानी, चमचमाते जूते—इतना पर्याप्त है।

राजनीति में सत्य नहीं जीतता। कभी नहीं जीतता। कभी जीतेगा भी नहीं। जिस दिन राजनीति में सत्य जीतने लगेगा, उस दिन राजनीति राजनीति न रह जाएगी। उस दिन नीति हो जायेगी सिर्फ नीति, शुद्ध नीति। उस दिन जगत से राजनीति विदा हो जाएगी। उस दिन धर्म ही होगा। लेकिन तब राजनीति की व्याख्या और होगी, उसकी गुणवत्ता और होगी—उसमें भगवत्ता होगी। आशा करना करीब—करीब दुराशा है; ऐसा हो नहीं पाएगा।

लेकिन भीतर के जगत में यह सूत्र बिलकुल सत्य है—सौ प्रतिशत!

‘सत्यं एव जयते नानृतम्’।

सत्य जीतता है, असत्य नहीं।

असत्य का अर्थ समझ लो : जो नहीं है—जैसे अंधेरा। अब दिया जलाओगे तो क्या अंधेरा जीत सकता है? कितना ही पुराना हो, सदियों पुराना हो, तो भी यह नहीं कह सकता दिये से कि छोकरे, तू तो अभी—अभी जला, अभी घड़ी भी नहीं हुई तुझे और इतनी अकड़ दिखला रहा है! और हम सदियों से यहां हैं, यूं हम मिट जाएंगे क्या? इतनी पुरानी हमारी परंपरा, इस घर में हमारा अड्डा पुराना और तू अभी— अभी आया, मेहमान की तरह, और यूं इतरा रहा है! अभी तुझे बुझाकर रख देंगे! नहीं, अंधेरा एक छोटे—से दिये को भी नहीं बुझा सकता। क्योंकि अंधेरा है नहीं, असत्य है।

असत्य शब्द का अर्थ : जो नहीं है, जिसका अस्तित्व नहीं है; जो सिर्फ प्रतीत होता है; जो वस्तुत: अभाव है, अनुपस्थिति है। प्रकाश के अभाव का नाम अंधकार है। और सत्य के अभाव का नाम असत्य है। तो जैसे ही प्रकाश आया, फिर अभाव कैसे रह जाएगा?… मैं जब तक नहीं आया था, यह कुर्सी खाली थी। अब मैं इस कुर्सी पर आ गया, अब यह कुर्सी खाली नहीं है। मैं इस कुर्सी पर बैठा हूं तो यह कुर्सी खाली कैसे हो सकती है? यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। वह जो खालीपन था, वह सिर्फ अभाव था। ऐसा अंधकार है। ऐसा असत्य है। दीया जला कि अंधकार मिटता है—ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जब हम कहते हैं मिटता है, तो यह भ्रांति होती है कि रहा होगा। यह भाषा की मजबूरी है। मिटता कहना ठीक नहीं है, युक्तियुक्त नहीं है। सत्य के अनुकूल नहीं है। क्योंकि मिटती तो वह चीज है जो रही हो। और अंधकार तो था ही नहीं, तो मिटेगा कैसे? जो नहीं था वह मिट नहीं सकता। यह कहना भी कि अंधकार चला गया, ठीक नहीं है। क्योंकि जो था ही नहीं वह जाएगा चलकर कहां? क्या उसके पैर हो सकते हैं? तुम दरवाजे पर खड़े हो जाओ, भीतर कोई दिया जलाए, क्या तुम सोचते हो अंधेरा दरवाजे से भागता हुआ दिखाई पड़ेगा? तुम द्वार दरवाजे बंद कर दो, रंध्र—रंध्र बंद कर दो, जरा—सी संध न छोड़ो, जब दिया जलाओगे तो अंधकार कहां से भागेगा, कहां जाएगा भागकर? संध भी तो नहीं है जाने को।

तो अंधकार कहीं जाता नहीं। है ही नहीं तो जाएगा कैसे? मिटता नहीं—है ही नहीं तो जायेगा कैसे? मिटता नहीं—है ही नहीं तो मिटेगा कैसे? फिर क्या हो जाता है? प्रकाश की अनुपस्थिति थी, प्रकाश आ गया, अनुपस्थिति समाप्त हो गयी। उपस्थिति अनुपस्थिति को पोंछ डाली।

बस, ऐसा ही सत्य और असत्य का संबंध है। असत्य अर्थात जो नहीं है। सत्य आ जाए, तो असत्य तत्‍क्षण तिरोहित हो जाता है। सत्य कैसे आ जाए, इसलिए महत्वपूर्णं सवाल यह है। दीया कैसे जले, महत्वपूर्ण सवाल यह है।

इस सूत्र से गलती हो सकती है, वह गलती होती रही है। तुमसे न हो जाए, इसलिए सावधान करना चाहता हूं। लोग सोचते हैं, सत्य को शास्त्रों से सीखा जा सकता है। यह यूं हुआ जैसे कि कोई दिये की तस्वीर बना ले और अंधेरे में ले जाए और दिये की तस्वीर रख दे। क्या तुम सोचते हो, दिये की तस्वीर से अंधेरा मिटेगा? शास्त्रों में केवल दीये की तस्वारें हैं। दीये की तस्वारों से अंधकार नहीं मिटेगा। या कोई दीये की खूब चर्चा करने लगे, गुणगान करने लगे, दीये की स्तुति में गीत गुनगुनाये, तो भी अंधकार नहीं मिटेगा। दीया ही लाना होगा, ज्योति ही जलानी होगी।

इस सूत्र से यह भ्रांति भी पैदा होती है कि चूंकि असत्य जीतता नहीं, इसलिए असत्य को निकाल बाहर करो। असत्य को त्यागों। यह वैसा ही हुआ जैसे कोई अंधकार को त्यागने की बात करे। कैसे त्यागोगे अंधकार को? धक्के देकर निकालोगे अंधकार को? लड़ोगे अंधकार से? संघर्ष करोगे? क्योंकि यह विजय शब्द खतरनाक है। इससे ऐसा लगता है, लड़ना पडेगा, घूसेबाजी होगी, पहलवानी होगी, दावपेंच लगेंगे, तलवारें चलेंगी, कृपाणें उठेंगी—’बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’—कुछ उपद्रव होनेवाला है; कि या—अली या बजरंगबली, कुछ—न—कुछ—लगोट कसकर और जूझ पड़ना है! कि दंड—बैठक लगाने होंगे! कि हाथ—पैर मजबूत करने होंगे! अंधकार से लड़ना जो है! असत्य से लड़ना जो है!

यह सब पागलपन की बातें हैं।

मगर इन बातों का बड़ा आकर्षण है। लोग असत्य से लड रहे हैं। अनाचरण से लड़ रहे हैं, दुराचरण से लड़ रहे हैं, बुराइयों से लड़ रहे हैं, अनीति से लड़ रहे हैं, दुष्‍चरित्रता से लड़ रहे हैं। लड़कर खुद ही टूट जाएंगे और कुछ भी नहीं होगा। लड़ने में खुद ही आत्मघात कर लेंगे, अपनी ही शक्ति को व्यर्थ व्यय कर देंगे। यह सवाल लड़ाई का नहीं है। अंधकार के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। न तो तुम लड़ सकते हो, न तलवार से उसे काट सकते हो, न फौजें लाकर उसे हटा सकते हो। जो नहीं है, उसके साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। हां, अगर उसके साथ कुछ करना हो, तो प्रत्यक्ष मार्ग नहीं है, परोक्ष मार्ग है। अंधकार के साथ कुछ करना हो तो प्रकाश के साथ कुछ करो। अगर चाहते हो अंधकार हटे, तो प्रकाश जलाओ। और अगर चाहते हो अंधकार रहे, तो प्रकाश बुझाओ। करना होगा प्रकाश के साथ। क्योंकि जो है, उसी के साथ कुछ किया जा सकता है।

इसलिए मेरा जोर आचरण पर नहीं है, मेरा जोर ध्यान पर है। ध्यान है प्रक्रिया—स्वयं के भीतर प्रकाश को जला लेने की। ध्यान है प्रक्रिया—स्वयं के भीतर सत्य को आमंत्रित कर लेने की। सत्य में उत्सुक हो गये तो शास्त्रों में उलझ जाओगे। ध्यान में उत्सुक होना। नहीं तो तस्वीरों में पड़े रह जाओगे। और तस्वीरें काम नहीं आती। दीये की चर्चा से कुछ नहीं होता, दीया चाहिए।

‘सत्यं एव जयते नानृतम्’।

निश्चय ही सत्य जीतता है, असत्य नहीं। मगर सत्य लाओगे कहा से? ध्यान के अतिरिक्त न कभी सत्य आया है, न आ सकता है। शास्त्र से नहीं आता, सिद्धांतों से नहीं आता, सिर्फ अपने भीतर परम मौन, पूर्ण शून्यता में उतरता है। निर्विचार अवस्था में सत्य का बोध होता है। लेकिन लोग अजीब हैं! लोग सत्य के संबंध में विचार करने में लगे हैं कि सत्य क्या है! यूं वे दर्शनशास्त्र में भटक जाते हैं।

इसी जगह से दर्शन और धर्म का रास्ता अलग होता है। दर्शनशास्त्र सोचने लगता है : सत्य क्या है, सत्य को कैसे पाएं, सत्य की रूपरेखा क्या है, व्याख्या क्या है, परिभाषा क्या है, सत्य है या नहीं? और धर्म ध्यान की यात्रा पर निकल जाता है। निर्विचार की यात्रा पर। और दर्शनशास्त्र कहीं भी नहीं पहुंचा, किसी निष्पत्ति पर नहीं।

दर्शनशास्त्र से ज्यादा असफल पृथ्वी पर कोई प्रयोग नहीं हुआ है। और कितनी प्रतिभाएं डूब गयीं इस प्रयोग में! कितने अद्भुत लोग नष्ट हो गये! और ध्यानियों के पास भी बैठकर लोग दर्शन की यात्रा पर निकल जाते हैं। सुकरात ध्यानी है, लेकिन उसका शिष्य प्लेटो भटक गया। बैठा सुकरात के पास, सुना सुकरात को, लेकिन सुन—सुनकर सोचने विचारने में लग गया। और जब सुकरात के पास बैठकर प्लेटो भटक गया, तो प्लेटो का शिष्य अरस्तू तो और भी भटक गया! बात ही गड़बड़ हो गयी। अगर सुकरात और अरस्तु का मिलन हो जाए तो दोनों को एक—दूसरे की बात ही समझ में न आएगी। जमीन— आसमान का फर्क हो गया।

और यह करीब—करीब पृथ्वी के हर देश में हुआ है, हर परंपरा में हुआ है।

बुद्ध के मरते ही उनके संघ में बत्तीस दार्शनिकों के सम्प्रदाय पैदा हो गये। लोग चल पड़े सोचने की दुनिया में अलग— अलग। और सोचने में विवाद है। सोचने में कोई निष्कर्ष तो मिलता नहीं, लेकिन भारी आपाधापी, ऊहापोह मच जाता है। अंधे सोचने लगते हैं हाथी के संबंध में।

पांच अंधों की कहानी तुमने सुनी है? सुनी है—पंचतंत्र में, कि गये थे अंधे हाथी को देखने। अंधे गये थे हाथी को देखने! जिसने कान छुआ, उसने कहा कि हाथी सूप की सिद्धांतों है। और जिसने पैर छुआ था, उसने कहा… अंधा क्या समझेगा और.. उसने सोचा, हाथी खम्भे की भांति है, स्तम्भ की भांति है। और पांचों अंधों ने अलग— अलग वक्तव्य दिये। उनमें भारी विवाद मच गया। अंधे अकसर दार्शनिक होते हैं। दार्शनिक अकसर अंधे होते हैं। इनमें कुछ बहुत भेद नहीं होता। अंधे ही दार्शनिक हो सकते हैं। जिनके पास आंखें नहीं हैं वे ही सोचते हैं, प्रकाश क्या है? नहीं तो सोचेंगे क्यों? जिसके पास आंख है, वह देखता है, सोचेगा क्यों?

खयाल रखना, दार्शनिक और द्रष्टा में बड़ा भेद है। यह सूत्र द्रष्टा के लिए है, दार्शनिक के लिए नहीं। सोचने मत बैठ जाना कि सत्य क्या है। निर्विचार होना है। सोचने से मुक्त होना है। वही भूमिका है। जब तुम परिपूर्ण शून्य होते हो, तुम मंदिर हो जाते हो। तुम तीर्थ बन जाते हो। सत्य अपने से अवतरित होता है, उतरता है। क्योंकि तुम जब शून्य होते हो, तुम्हारे द्वार—दरवाजे सब खुले होते हैं—अस्तित्व तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकता है।

‘सत्यं एव जयते नानृतम्’

सत्य जीतता है, असत्य नहीं।

‘सत्येन पन्था विछले देवयान:’

और यह सत्य का जो पंथ है, यही है देवयान, यही है दिव्यमार्ग। विचार का नहीं, शास्त्र का नहीं, दिव्यता का।

‘सत्येन प्ल—था वितके देवयान:।

सत्य मार्ग है। वही देवयान है।

दोनों यानों को समझ लो। एक को कहा है परंपरा में पितृयान और दूसरे को कहा है : देवयान। यान का अर्थ होता है नाव। पितृयान का अर्थ होता है. हमारे बुजुर्ग, हमारे बाप—दादे जो करते रहे, वही हम करें। पितृयान यानी परंपरा। जिससे सदियों से लोग चलते रहे उन्हीं लकीरों पर हम भी फकीर बनें रहें। और देवयान का अर्थ होता है. क्रांति, परंपरा से मुक्ति; अपनी दिव्यता की खोज, औरों के पीछे न चलना—उद्घोषणा—बगावत—विद्रोह!

मैं तुम्हें देवयान दे रहा हूं। संन्यास का अर्थ है देवयान। तुम हिन्दू नहीं हो, मुसलमान नहीं हो, ईसाई नहीं हो, जैन नहीं हो, बौद्ध नहीं हो, तुम सिर्फ धार्मिक हो! मैं तो संन्यासी को चाहता हूं वह सारे विशेषणों से मुक्त हो जाए। क्योंकि वह सब पितृयान है। तुम्हारे पिता हिंदू थे, इसलिए तुम हिंदू हो। और तो तुम्हारे हिंदू होने का कोई कारण नहीं है। अगर बचपन से ही तुम्हें मुसलमान घर में बड़ा किया गया होता, तुम मुसलमान होते। चाहे हिंदू घर में ही पैदा हुए होते, लेकिन अगर मुसलमान मां—बाप ने बड़ा किया होता, तो मस्जिद जाते, मंदिर नहीं; कुरान पढ़ते गीता नहीं, जरूरत पड़ जाती तो मंदिर को आग लगाते, और मस्जिद को बचाने के लिए प्राण दे देते

यह तुम नहीं हो, यह तुम्हारे भीतर सड़ा—गला अतीत बोल रहा है।

जो व्यक्ति अपने को हिंदू या मुसलमान या ईसाई या जैन कहता है, वह अपने व्यक्तिव को नकार रहा है, अपनी आत्मा को इनकार कर रहा है। वह कह रहा है. मेरा कोई मूल्य नहीं है; कब्रों का मूल्य है, मुर्दों का मूल्य है। देवयान का अर्थ होता है. अपनी दिव्यता की अनुभूति और घोषणा; परंपरा से मुक्ति; अतीत से मुक्ति और वर्तमान में जीने की कला।

‘सत्येन प्ल—था विततो देवयान:।’

यह जो सत्य का मार्ग है, यह देवयान है; यह बगावत का रास्ता है, यह विद्रोह है। यह पितृयान नहीं है। तुम यह नहीं कह सकते कि मेरे पिता मानते थे, इसलिए मैं मानता हूं। नहीं, तुम्हें जानना होगा—जानना पहले। और जिसने जान लिया उसे मानने की जरूरत ही नहीं होती। और जिसने माना, उसके जीवन में जानने का सौभाग्य कभी पैदा नहीं होता। जिसने माना, वह तो मर ही गया। जिस दिन माना, उसी दिन मर गया। क्योंकि उसी दिन खोज समाप्त हो गयी, अन्वेषण बंद हो गया। मानने का अर्थ ही होता है कि अब क्या करना है, मैंने तो मान लिया। और तुम्हें यही सिखाया गया है कि मानो, विश्वास करो। और इस भांति सारी पृथ्वी पर थोथे धार्मिक लोग पैदा किये गये हैं। विश्वासी हैं, मगर धार्मिक नहीं।

विश्वास थोथा ही होगा। जो तुम्हारा अपना अनुभव नहीं है, वह कैसे सत्य हो सकता है? मैं कहूं वह मेरा अनुभव है, तुम उसे दोहराओ, तुम्हारे लिए असत्य हो गया। जिस दिन तुम भी जानोगे, अपनी निजता में, उस दिन तुम्हारे लिये सत्य होगा। और स्वयं का सत्य ही मुक्त करता है। दूसरों के सत्य बंधन बन जाते हैं, जंजीरें बन जाते हैं।

इसलिए मेरा कोई संन्यासी मेरा अनुयायी नहीं है। मेरा संगी है, मेरा साथी है, लेकिन मेरा अनुयायी नहीं है—मैं कोई सिद्धात दे भी नहीं रहा। तुम चाहो भी मेरा अनुगमन करना तो न कर सकोगे। मैं तुम्हें सिर्फ इशारे दे रहा हूं—इशारे अंतर्यात्रा के। मैं तुम्हें कुछ सिद्धात नहीं दे रहा कि तुम पकड़ लो और मान लो। मैं तुमसे सारे सिद्धात छीन रहा हूं। यह देवयान की प्रक्रिया है।

‘सत्येन पन्या विततो देवयान:।

येनाक्रमन्ति ऋषयो ह्याप्तकामा

इस सत्य मार्ग से जो जाते हैं, वे हैं आप्तकाम। जिसने सत्य को जाना, उसकी कामना मर जाती है। कामना बाहर कुछ पाने की दौड़ है। कामना राजनीति है। कामना का अर्थ है धन मिले, पद मिले, प्रतिष्ठा मिले, यश मिले। कामना का अर्थ है : दूसरों पर मैं हावी हो जाऊं; दूसरों के सिरों पर बैठ जाऊं। आप्तकाम का अर्थ है : जिसने देख ली मूढ़ता इस दौड़ की; जो इस दौड़ से मुक्त हो गया; जिसकी भ्रांति टूट गयी, जिसको यह बात समझ में आ गयी कि मैं अपना मालिक नहीं हूं किसी और का मालिक कैसे हो सकूंगा? यह असंभव है। अपना ही मालिक हो जाऊं, इतना ही काफी है। काफी से ज्यादा है। क्योंकि जो अपना मालिक हुआ, उसके जीवन में भीतर के खजानों के द्वार खुल जाते हैं। इस सत्यमार्ग से जो जाते हैं—वे ही आप्तकाम हैं, वे ही ऋषि हैं, वे ही द्रष्टा हैं।

ऋषि शब्द बड़ा प्यारा है। दुनिया की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं। ऋषि का यूं तो अर्थ होता है : कवि। लेकिन एक गुणात्मक भेद है कवि और ऋषि में। दुनिया की सभी भाषाओं में कवि के लिए शब्द हैं, लेकिन ऋषि के लिए नहीं—कारण है।

हमने इस देश में कोई पांच हजार वर्षों से निरन्तर भीतर की शोध की है। जैसे आज पश्चिम विज्ञान के शिखर पर है, ऐसे हमने धर्म के शिखर पर पहुंचने का सतत अभियान किया है। जरूर कोई सारा पश्चिम वैज्ञानिक नहीं है, लेकिन विज्ञान की एक खूबी है; अगर एक व्यक्ति ने बिजली खोज ली और बिजली का बल्व बना लिया—जैसे एडीसन ने—तो एक दफा बिजली का बल्व बन गया और बिजली खोज ली गयी, तो सभी उसके हकदार हो जाते हैं। फिर घर—घर में बिजली जलती है। फिर ऐसा नहीं है कि एडीसन के घर में ही बिजली जलेगी। एक दफा बात जान ली गयी, तो बाहर के जगत की सारी बातें एक बार जान ली गयीं तो सबकी हो जाती हैं।

इससे विज्ञान में एक भांति बड़े स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाती है, वैज्ञानिक तो थोड़े ही होते हैं—कोई एडीसन, कोई आइंस्टीन, कोई रदरफोर्ड, थोड़े से वैज्ञानिक—लेकिन एक वैज्ञानिक जो भी खोजता है, जैसे एडीसन ने एक हजार आविष्कार किये, लेकिन वे सारे आविष्कार सबके हो गये।

धर्म के संबंध में एक अड़चन है। धर्म भी थोडे लोगों ने ही अनुभव किया है—बुद्ध ने, महावीर ने, कृष्ण ने, पतंजलि ने, गोरख ने, नानक ने, कबीर ने, मीरा ने, थोड़े—से लोगों ने—मगर धर्म के साथ एक अड़चन है, जो अनुभव करता है, बस उसके ही भीतर ज्योति जगती है। इसको हर घर में नहीं जलाया जा सकता। बुद्ध ने जाना तो बुद्ध मुक्त हो गये। और मीरा ने पाया तो मीरा नाचती है मग्न होकर; पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! मगर तुम कैसे पद में घुंघरू बाधोगे? और तुम कैसे नाचोगे? तुमने तो पाया नहीं। और तुम नाचे तो नकल करोगे। तुम नकलची हो जाओगे। तुम कार्बन कापी हो जाओगे। और इस दुनिया में इससे बड़ा कोई पाप नहीं है : कार्बन कापी हो जाना। अपनी मौलिकता को भूल जाना जघन्य अपराध है, आत्मघात है।

थोड़े से लोगों ने धर्म के शिखर को छुआ। लेकिन जिन्होंने धर्म के शिखर को छुआ, उन्होंने हमारी भाषा पर भी छाप छोड़ दी। हमारी भाषा को उन्होंने नया श्रृंगार दे दिया। हमारी भाषा को नये अर्थ, नयी अभिव्यंजनाएं दे दीं—जैसे ऋषि शब्द दिया।

कवि का अर्थ होता है. जिसके पास बाहर की आंखें हैं, जो बाहर के सौन्दर्य को देखने में समर्थ है, जिसके पास बाहर के सौन्दर्य को अनुभव करने की संवेदनशीलता है। सूर्योदय के सौन्दर्य को देखता है, सूर्यास्त के सौन्दर्य को देखता है; पक्षियों के गीत, फूलों के रंग, रात तारों से भरा हुआ आकाश, किसी की आंखों का सौन्दर्य, किसी के चेहरे का सौन्दर्य, लेकिन उसकी आंख बाहर के सौन्दर्य को देखती है, वह कवि। वह इस सौन्दर्य के गीत गाता है। लेकिन यह सौन्दर्य कुछ भी नहीं है उस सौन्दर्य के मुकाबले जो भीतर है। जिसकी भीतर की आंख खुल जाती है—प्रतीकात्मक रूप से हमने उसको तृतीय नेत्र कहा है। यह भी थोड़ा सोचने जैसा है। बाहर देखनेवाली दो आंखें हैं और भीतर देखनेवाली एक आंख है।

क्यों?

क्योंकि बाहर देखने का जो ढंग है वह द्वंद्व का है, द्वैत का है। वह हर चीज को दो में तोड़ देने का है। और भीतर जो देखने का ढंग है, वह हर चीज को एक में जोड़ देने का है। बाहर विश्लेषण है, और भीतर संश्लेषण।

विज्ञान विश्लेषण है, क्योंकि वह बाहर की आंख है। और धर्म संश्लेषण है, क्योंकि वह भीतर की आंख है। वहां दो आंखें मिलकर एक आंख हो जाती है। वहां एक ही दृष्टि रह जाती है। वहा कोई द्वैत नहीं बचता। इसलिए हमने उसे तीसरा नेत्र कहा है। वह भीतर की आंख है। और जिसे भीतर का सौन्दर्य दिखाई पड़ता है, वह ऋषि।

लेकिन भीतर का सौन्दर्य तो तब दिखाई पड़ेगा जब भीतर का दिया जले। बाहर का सौन्दर्य दिखाई पड़ता है, क्योंकि बाहर रोशनी है। रात के अंधेरे में तो फूलों के रंग दिखाई नहीं पड़ते! दिन के प्रकाश में फूलों के रंग दिखाई पड़ते हैं। रात में इन्द्रधनुष दिखाई नहीं पड़ता—बन ही नहीं सकता, दिखाई कैसे पड़ेगा! उसके लिए सूरज तो चाहिए ही चाहिए। हां दिन की रोशनी में कभी इन्द्रधनुष बनता है। सारे रंग! अपूर्व सौन्दर्य के साथ पृथ्वी और आकाश को जोड़ देता है, सेतु बन जाता है। तुम्हारे कमरे में कितनी ही सुंदर तस्वीरें टंगी हों, बड़े—से—बड़े चित्रकारों कीं—पिकासो की, डाली की, वानगाग की—मगर रात के अंधेरे में तुम उन्हें देख न पाओगे। रोशनी चाहिए—सुबह जब सूरज उगेगा और खिड़कियों से किरणें झाकेंगी तब तुम अचानक चकित होओगे कि कितनी अदभुत कलात्मक कृतियां कमरे में मौजूद हैं। हो सकता है बुद्ध की मूर्ति रखी हो! किसी अदभुत मूर्ति का आपका सृजन हो। हो सकता है माइकेल एन्जलो की, जीसस की प्रतिमा रखी हो, मगर रात के अंधेरे में कैसे देखोगे?

भीतर अंधेरा है, इसलिए भीतर के सौन्दर्य का तुम्हें पता नहीं। भीतर भी फूल खिलते हैं। हमने कहा है कि भीतर सहस्रदल कमल खिलता है। बाहर के फूलों में क्या रखा है! क्षणभर को होते हैं; अभी हैं; अभी नहीं, आ भी नहीं पाते कि जाने की तैयारी शुरू हो जाती है; झूले में और अर्थी में बहुत भेद नहीं होता; सुबह खिला फूल सांझ मर जाता है; सुबह झूले में था सांझे अर्थी बंध जाती है, राम नाम सत्य हो जाता है; सुबह किस शान से उठा था, किस गरिमा और गौरव से, किस दंभ से घोषणा की थी और सांझ पंखुड़ियां बिखर गयी हैं। कैसी हताशा है! मिट्टी में गिर गया है! सुबह सोचा भी न होगा कि यह अंत होगा, कि यूं खाक में पड़ जाना होगा! बाहर का सौन्दर्य क्षणभंगुर है, पानी में बने बबूले जैसा है। कवि उसी सौन्दर्य की चर्चा करता है। ऋषि उस सौन्दर्य की चचा करता है, जो शाश्वत है। जिसे एक बार जाना तो सदा के लिए जाना। वही सौन्दर्य तृप्ति दे सकता है। कवि भी गीत गाता है। लेकिन कवि के गीत भी क्षणभंगुर की ही छाया होते हैं। ऋषि भी गीत गाता है। लेकिन ऋषि के गीत शाश्वत की अनुगूंज होते हैं, अनाहद का नाद होते हैं।

सूफी फकीर—स्त्री हुई, राबिया। उसके घर मेहमान था, हसन। सुबह हुई, हसन बाहर गया, सूरज उगता था, पक्षी गीत गाते थे, दूर अमराई से कोई कोयल कूकती थी, बड़ी प्यारी सुबह थी, अभी ओस की बूंदें घास पर जमीं थीं, मोतियों जैसी चमकती थीं, फूलों की गंध हवा को भर रही थी, उसने आवाज दी राबिया को कि राबिया! तू भीतर झोपड़े में बैठी क्या कर रही है? बाहर आ, परमात्मा ने एक बहुत सुंदर सुबह को जन्म दिया है, इसे देखने से चूकना उचित नहीं। तू जल्दी बाहर आ! राबिया खिलखिलाकर हंसी और उसने कहा, हसन, कब तक बाहर के सौन्दर्य में उलझे रहोगे? मैं तुमसे कहती हूं भीतर आओ! क्योंकि जिसने उस बाहर की सूबह को बनाया है, मैं उसे देख रही हूं। तुम सिर्फ चित्र देख रहे हो, मैं चित्रकार को देख रही हूं। तुम्हीं भीतर आ जाओ! सुनो मेरी, मानो मेरी, तुम्हीं भीतर आ जाओ!

हसन ने यह सोचा था कि बात यूं हो जाएगी। मगर ऋषियों के हाथ में कंकड़ भी पड़ जाएं तो हीरे हो जाते हैं। हसन ने तो यूं ही कहा था कि राबिया, बाहर आ! सोचा भी न था कि इसमें कुछ आध्यात्मिक संदेश राबिया दे देगी। मगर राबिया जैसे अनुभूति से भूरे व्यक्तियों के जीवन में तुम कुछ भी कहो, वे उस में से कुछ—न—कुछ शाश्वत का इशारा खोज लेंगे।

कल कृष्णतीर्थ ने मुझसे पूछा था कि आप जब उत्तर देते हैं किसी के प्रश्न का तो प्रश्नकर्त्ता महत्त्वपूर्ण होता है या प्रश्न महत्त्वपूर्ण?

कृष्णतीर्थ, न तो प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता है, न प्रश्नकर्त्ता महत्वपूर्ण होता है, महत्त्वपूर्ण तो हमेशा उत्तर देनेवाला होता है, उत्तर होता है। उत्तर से भी ज्यादा उत्तर देनेवाला होता है। अब हसन ने क्या पूछा था? हसन ने यह बात ही न की थी, हसन तो कुछ और ही पूछ रहा था, साधारण—सी बात कर रहा था। राबिया ने क्या मोड़ दे दिया! हालात बदल दिये! हसन को चौंका दिया! हसन के प्रश्न में तो कुछ भी न था, तुमसे यह बात अगर किसी ने कही होती तो तुम यह उत्तर नहीं दे सकते थे जो राबिया ने दिया। और अगर राबिया का उत्तर सुनकर देते भी तो झूठा होता। और जहां झूठ है, वहा बल नहीं होता। लचर—पचर तुमने कहा होता, हकलाते हुए कहा होता। तुम्हारी बात में प्राण न होते, श्वास न होती। लेकिन राबिया ने जिस ढंग से बात कही, हसन को भीतर खिंचकर आ जाना पड़ा। पड़ी रह गयी सुबह बाहर। पड़े रह गये फूल और कोयल की पुकार। और पड़ा रह गया सूरज और ओस की चमकती हुई बूंदें—सब पड़ा रह गया।

हसन भीतर आया और हसन ने कहा, राबिया यह तूने क्या कहा! राबिया ने कहा, जो कहना उचित था वही मैंने कहा। कब तक उलझे रहोगे, हसन? बहुत दिन हो गये मुझे देखते, तुम बाहर ही उलझे हो। माना कि बाहर सुंदर है जगत, मगर बनानेवाले को देखो; उस मूल स्रोत को देखो जहां से यह सारा सौन्दर्य निकलता है, यह सौन्दर्य उसके सामने कुछ भी नहीं है, बूंद भी नहीं है! जब सागर भीतर मौजूद है, तो क्यों बूंदों में अटके हो?

और हसन के जीवन में यह घटना क्रांति की हो गयी। उस दिन से हसन की आंखें बंद हो’ गयीं। अब तक हसन एक कवि था, अब उसके जीवन में ऋषि की यात्रा शुरू हुई।

ऋषि का अर्थ है : जो बाहर विजय करनी है, इस बात की मूढ़ता को पहचान लिया और अंतविजय के लिए निकल पडा है। और ऋषि का अर्थ है : जिसने भीतर के सौन्दर्य को देखा है और उसे गाया है। वह भी कवि है, लेकिन आंखवाला; अंधा नहीं—भीतर की आंखवाला। वह भी कवि है, लेकिन उसके भीतर दीया जल रहा है। और इसलिए उसके प्रत्येक शब्द में ज्योति है। उसके शब्द—शब्द में आग है। उसके शब्द—शब्द आग्नेय हैं। और जिनके भीतर थोड़ी भी क्षमता है जागने की, वे उसके शब्दों को सुनकर जाग ही जायेंगे।

‘येनाक्रमन्ति ऋषयो ह्याप्तकामा

यत्र तत्र सत्यस्य परमं निधानम्।।

जहां सत्य है, वहीं परम द्वार है। और एक बार तुमने अपने सत्य को जाना कि परमात्मा दूर नहीं, निकट से भी निकट है। एक बार तुमने अपने सत्य को जाना कि उसी सत्य के केन्द्र पर विराजमान तुम परमात्मा को पाओगे। सत्य परमात्मा का द्वार है। और जिसने परमात्मा को जाना, वही विजयी है। उसको हमने जिन कहा है। जैन दो—कौड़ी के हैं, लेकिन जिन..! महावीर को हमने जिन कहा। महावीर जैन नहीं हैं; खयाल रखना, कोई भूलकर यह दावा न करे कि महावीर जैन हैं; महावीर जिन हैं।

जिन का अर्थ है. जिसने जीता, जिसने जाना। और जैन कौन है? जैन वह है, जिसने जीते हुए लोगों के शब्द तोतों की तरह रट लिये हैं, जो उनको दोहरा रहा है यंत्रवत् लेकिन उन शब्दों पर उसके हस्ताक्षर नहीं हैं, उन शब्दों पर उसके प्राणों की कोई छाप नहीं है। वे शब्द उधार हैं, बासे हैं, झूठे हैं। और गंदे हो गये हैं, क्योंकि हजारों ओंठों से चल चुके हैं।

सहजानंद, यह सूत्र तो प्यारा है। मगर इतनी सारी बातों को खयाल में रखना, तो ही तुम इस सूत्र में छिपे अमृत का स्वाद ले पाओगे। सोचने—विचारने में मत पड़ जाना। जागो! भीतर का दीया जलाओ! ध्यान की थोडी—सी ज्योति पर्याप्त है।

आज इतना ही

‘दीपक बारा नाम का’ प्रवचनमाला से

दिनांक 3 अक्टूबर 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना


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साधना–पथ–(प्रवचन–8)

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सत्‍य: स्‍वानुभव की साधना—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक, 5 जून, 1964; सुबह।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

 चिदात्मन्!

मैं आपको सत्य देने में असमर्थ हूं। और कोई कहे समर्थ है तो वह प्रारंभ से ही असत्य दे रहा है! सत्य देने में कोई भी समर्थ नहीं है। यह देने वाले की असमर्थता का नहीं, सत्य के जीवंत होने का संकेत है। वह वस्तु नहीं है कि उसे लिया—दिया जा सके। वह जीवंत अनुभूति है और अनुभूति स्वयं ही पानी होती है।

मृत वस्तुएं ली—दी जा सकती हैं, अनुभूतियां नहीं। क्या वह प्रेम—प्रेम की वह अनुभूति जो मैंने जानी है, मैं आपके हाथों में रख सकता हूं? क्या वह सौंदर्य और संगीत जो मुझे अनुभव हुआ है, मैं आपको दान कर सकता हूं? उस आनंद को मैं कितना चाहता हूं कि आपको दे दूं जो मेरी इस साधारण सी दिखती देह में असाधारण रूप से घटित हुआ है, पर कोई रास्ता उसे देने का नहीं है! मैं तड़प कर ही रह जाता हूं— कितनी असमर्थता है!

एक मेरे मित्र थे, उनके पास जन्म से ही आंखें नहीं थीं। मैंने कितना चाहा कि मेरी दृष्टि उन्हें मिल जाए, पर क्या वह हो सकता था? शायद एक दिन वह हो भी जाए, क्योंकि आंखें शरीर की अंग हैं, और हस्तांतरित हो सकती हैं, पर वह दृष्टि जिसे सत्य उपलब्ध होता है, उसे तो कुछ भी चाह कर नहीं दिया जा सकता—वह शरीर की नहीं आत्मा की शक्ति है।

आत्मा के जगत में जो भी पाया जाता है, वह स्वयं ही पाया जाता है। आत्मा के जगत में कोई ऋण संभव नहीं है। वहां कोई पर—निर्भरता संभव नहीं है। किसी दूसरों के पैरों पर वहां नहीं चला जा सकता है। स्वयं के अतिरिक्त वहां कोई भी शरण नहीं है।

सत्य को पाना है तो स्व—शरण बनना आवश्यक है। वह शर्त अनिवार्य है। इसलिए मैंने कहा कि मैं सत्य नहीं दे सकता हूं। हस्तांतरण में केवल शब्द ही संवादित होते हैं—निर्जीव और निष्प्राण— और सत्य सदा पीछे ही छूट जाता है। और निश्चय ही मात्र शब्दों का संवादित होना, कोई संवाद नहीं है। वह जो जीवित है—वह अर्थ, वह अनुभूति, जो कि उनका प्राण है, वह उनके साथ नहीं जाता है। वे खाली कारतूसों की तरह हैं, या मृत देहों, लाशों की भांति, जो आपके ऊपर बोझ तो बन सकते हैं, पर आपको मुक्त नहीं करते। शब्दों में सत्य की लाश ही हमारे हाथों पड़ती है, जिसमें सत्य के हृदय की धड़कन बिलकुल भी नहीं होती है।

सत्य तो नहीं दिया जा सकता, पर मैं आपके इस बोझ को उतारने में अवश्य सहयोगी हो सकता हूं जो सदियों ने आपके ऊपर घना और भारी कर दिया है। शब्दों के बोझ से मुक्त हो जाना आवश्यक है। यात्रियों पर रास्ते की धूल इकट्ठी हो जाती है। जीवन की यात्रा में भी शब्दों और विचारों की धूल इकट्ठी हो जाती है। यह सहज ही है। इस धूल को झाड़ देना आवश्यक है।

शब्द मृत हैं, वे सत्य नहीं हैं। किसी के भी शब्द सत्य नहीं हैं। उन्हें इकट्ठा न करें। उनका परिग्रह घातक है। उनके बोझ के नीचे दब कर फिर सत्य की यात्रा नहीं हो सकती है।

पहाड़ों पर चढ़ने को, ऊंचाइयां छूने को पर्वतारोही को निर्भार होना होता है। ऐसे ही सत्य की यात्रा पर जो निकले हैं, अच्छा है कि वे शब्दों से निर्भार हो जाएं। शब्द से स्वतंत्र चेतना सत्य की ऊंचाइयां छूने में समर्थ हो जाती है।

मैं एक ही अपरिग्रह सिखाता हूं : शब्द और विचार का अपरिग्रह। उनका मृत बोझ आपकी यात्रा को बहुत दुर्गम कर रहा है।

च्चांगत्सु ने कहा है. ‘जाल मछलियां पकड़ने को है। कृपा कर मछलियां पकड़ लें और जाल को फेंक दें।’ पर हम ऐसे मछुए हैं कि हमने जालों को पकड़ लिया है और मछलियों को भूल गए हैं। अपने सिर पर देखें। नावों को आप सिर पर लिए हैं, और उन पर यात्रा करना भूल गए हैं!

शब्द संकेत है। वह इशारा है। वह स्वयं सत्य नहीं है। इशारा समझ लें और उसे फेंक दें। उसे इकट्ठा करना लाशें इकट्ठी करने से भिन्न नहीं है।

शब्द चांद को इशारा करती हुई अंगुलियों की भांति हैं, फिंगर्स प्याइंटिंग टु दि मून। जो इन अंगुलियों पर ही ध्यान केंद्रित कर लेता है, वह लक्ष्य से चूक जाता है।

अंगुलियों की सार्थकता यही है कि वे आपको अपने से दूर ले जा सकें। वे आपको अपने में ही उलझा लें तो व्यर्थ ही नहीं, अनर्थ भी हो जाती हैं।

सत्य के संबंध में जो शब्द आपने सीख लिए हैं, क्या वे ऐसे ही अनर्थ नहीं हो गए हैं? क्या उन्होंने ही आपको एक—दूसरे से—मनुष्य को मनुष्य से नहीं तोड़ दिया है? क्या तथाकथित धर्मों के नाम पर हुई समस्त मूढ़ताएं और कूरताएं किन्हीं शब्दों के कारण ही नहीं हुई हैं? क्या धर्मों के रूप में खड़े सारे संप्रदाय शब्द— भेद पर ही नहीं खड़े हुए हैं?

सत्य तो एक ही है और एक ही हो सकता है। पर शब्द अनेक हैं। जैसे चांद तो एक है, पर इशारा करती अंगुलियां अनंत हो सकती हैं।

सत्य को इंगित करते इन अनेक शब्दों को जिन्होंने पकड़ लिया है, उन्होंने धार्मिक संप्रदायों को जन्म दिया है। धर्मों का जन्म सत्य से नहीं, शब्दों से हुआ है।

सत्य एक है। धर्म भी एक ही है। और जो शब्दों को छोड़ने में समर्थ हैं, वे इस अद्वय धर्म को, अद्वय सत्य को जान पाते हैं।

इसलिए मैं आपके शब्द— भार को और शब्दों से भारी नहीं करना चाहता हूं। शब्दों के नीचे तो आपकी कमर टूटी जा रही है, आपकी झुकी हुई गर्दनों को मैं भलीभांति अनुभव कर रहा हूं।

सत्य को जिन्होंने जाना है, उनके ओंठ बिलकुल बंद हैं, उसके संबंध में उनसे कोई भी शब्द आता हुआ नहीं मालूम होता है। क्या इससे वे काफी नहीं कह रहे हैं! क्या वे नहीं कह रहे हैं कि निशब्दता में ही सत्य है या कि निःशब्दता ही सत्य है? पर हम इसे नहीं समझ पाते हैं। हम शब्द के बिना कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। हमारी सब समझ शब्द की है और तब वे शब्द से बोलते हैं। उसे शब्द से बोलते हैं, जो कि शब्द से बोला ही नहीं जा सकता है! उनकी करुणा शब्दों के द्वारा एक असंभव चेष्टा करती है और हमारा अज्ञान उन शब्दों को ही पकड़ लेता है।

शब्द और अज्ञान मिल कर संप्रदाय बन जाते हैं।

शब्द + अज्ञान = संप्रदाय।

और इस भांति हम पुन: सत्य से वंचित रह जाते हैं। और धर्म जितना दूर था, उतना ही दूर रह जाता है। शब्द से ऊपर उठना आवश्यक है, तभी शब्द के पीछे जो है, उसका बोध होता है।

शब्द स्मृति को ही भरते हैं, ज्ञान स्वयं उनसे नहीं आता है। और स्मृति, मेमोरी को जान, नॉलेज न समझ लेना। जानना कि जो स्मृति है, वह मात्र स्मृति ही है। वह जानकारी, लर्निग है, वह ज्ञान नहीं है।

रमण को कोई पूछता था कि मैं सत्य को जानने को क्या करूं? उन्होंने कहा ‘ जो जानते हो, वह सब भूल जाओ।’

काश! जो आप जानते हैं, उस सबको भूल सकें तो उस मूलने से, उस निर्दोषता, इनोसेंस और सरल चित्तता, सिम्प्लिसिटी का जन्म होगा, जिसमें स्वयं को और सत्य को जाना जाता है। शब्द और शब्दों से निर्मित विचार जब आपकी चेतना पर भीड़ की भांति नहीं छाए होते हैं, तब उस मुक्त क्षण में प्रकाश के लिए द्वार मिलता है और आप ज्ञान से संयुक्त होते हैं।

चेतना के द्वार और खिड़कियां खोलनी हैं। वस्तुत: चेतना को घेरने वाली दीवालें ही तोड़ देनी हैं, तब उस प्रकाश से मिलन होता है, जो कि हमारा स्वरूप है।

निश्चय ही, आकाश से मिलने के लिए आकाश जैसा होना ही जरूरी है—उतना ही रिक्त और शून्य, उतना ही मुक्त और असीम। विचार यह नहीं होने देते। वे बदलियों की भांति हमें घेरे हैं। इन बदलियों को विसर्जित करना है, तो मैं आपके चित्त पर विचारों के और बादल कैसे छोडूं?

मैं जो कह रहा हूं या जो कि कहना चाहता हूं और नहीं कह पा रहा हूं—वह कोई विचार, कोई प्रत्यय, आइडिया नहीं है। वह एक अनुभव है, एक साक्षात है। विचार ही होता तो कहा भी जा सकता था और अनुभव भी बाहर का होता तो कोई न कोई शब्द उसकी सूचना दे ही देते, लेकिन वह अनुभव बाहर का नहीं है। वह उसका है जो कि सब अनुभव करता है। वह ज्ञाता का ज्ञान है, इससे कठिनाई है।

साधारणत: ज्ञान में ताता और ज्ञेय भिन्न होते हैं—साक्षात और साक्षी भिन्न होते हैं, पर स्वयं के साक्षात में वे भिन्न नहीं हैं। वहां ज्ञान, ताता, ज्ञेय एक ही है। इससे शब्द एकदम ही व्यर्थ हो जाते हैं। वे उस संदर्भ के लिए निर्मित ही नहीं हैं। उस सीमा में उनका प्रयोग— उनकी सामर्थ्य और संभावना के बाहर उन्हें खींचना है। इस खींचतान में वे बिलकुल अपंग और निष्प्राण हो जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं है। और तब वे सत्य के शरीर की सूचना तो दे देते हैं, उसकी आत्मा का स्पर्श उनसे नहीं होता।

सत्य तब जाना जाता है, जब शब्द उपस्थित नहीं होते हैं, तो वे उसे प्रकट कैसे कर सकते हैं? जो निर्विचारणा में उपलब्ध होता है, वह विचार में नहीं बांधा जा सकता है।

क्या आकाश को बांधने का कोई उपाय है? और क्या जो बंध सके उसे हम आकाश कह सकेंगे?

पर हम सत्य के संबंध में यही क्यों नहीं सोचते? सत्य क्या आकाश से कम असीम है, या कम अनंत है? आकाश गठरियों में बंधा हुआ बाजार में बिकता हो तो कोई भी नहीं खरीदेगा, पर सत्य को हम खरीद लेते हैं।

सत्य, परमात्मा, मोक्ष सब बाजार में बिकते हैं। इसमें बेचने वालों का दोष नहीं है। वे तो केवल खरीददारों की मांग की पूर्ति करते हैं।

और जब तक सत्य के खरीददार हैं, ग्राहक हैं, तब तक सत्य की दुकानें भी उठाई नहीं जा सकतीं।

धर्म के नाम पर चलने वाले सारे संगठन, सारे संप्रदाय, दुकानों में परिणत हो गए हैं। वहां बना—बनाया, रेडिमेड सत्य आपको मिल जाता है। वस्त्र ही बने—बनाए नहीं मिलते हैं, सत्य भी मिल जाते हैं।

मैं आपको बना—बनाया सत्य नहीं दे सकता हूं क्योंकि ‘ बना—बनाया सत्य ‘ जैसी कोई चीज होती ही नहीं है!

एक कथा मुझे स्मरण आ रही है। एक सदगुरु ने अपने शिष्य से कभी कोई प्रश्न पूछा था— सत्य के संबंध में कुछ पूछा था। उसने कोई उत्तर दिया। गुरु ने कहा : ‘ठीक है। ठीक है।’

पर दूसरे दिन गुरु ने फिर वही प्रश्न पूछा। शिष्य ने कहा : ‘कल तो मैंने आपको उत्तर दिया था?’ गुरु ने कहा ‘आज फिर दो।’ शिष्य ने वही उत्तर दोहरा दिया था, तो गुरु ने कहा था ‘ नहीं, नहीं।’ शिष्य हैरान हुआ। उसने पूछा कल आपने कहा ‘हां’ आज ‘नहीं’, ऐसा क्यों कहते हैं?

गुरु ने क्या कहा. जानते हैं? कहा, ‘कल ‘हां’ था, आज ‘नहीं’ है!’

इस कथा का अर्थ क्या है? आप समझे? अर्थ ही है कि उत्तर बंधा हुआ हो गया, वह एक ढांचे, पैटर्न में कैद हो गया। वह एक धारणा, कॉनसेप्ट में आबद्ध हो गया, इसलिए वह उत्तर जीवित न रहा, मर गया। वह स्मृति का ही हिस्सा था, वह ज्ञान नहीं था। हमारी स्मृति ऐसे ही मृत उत्तरों से भरी हुई है और इसलिए जो जीवित है, उसका इन मुर्दों के कारण आविर्भाव नहीं हो पाता।

मित्र! स्मृति नहीं, अनुभव को, अनुभूति को जगाना है। स्मृति मृत— भार है, अनुभूति जीवित मुक्ति है। सत्य के अनुभव को पूर्व निश्चित नहीं किया जा सकता है। उसे किसी भी दर्शन, किसी भी धर्म और किसी भी विचार—प्रणाली की बंधी—बधाई शब्दावली और परिभाषा में आबद्ध नहीं किया जा सकता। वह किसी भी विचारसरणी या विचार—सूत्र, फॉर्मूला के अनुकूल ही सिद्ध हो, यह आकांक्षा भी नहीं की जा सकती है। उसे बांधने के सब उपाय व्यर्थ हैं। उसे नहीं बांधना है, विपरीत अपने को ही खोलना है। उसे पाने का उपाय उसे बांधना नहीं, वरन स्वयं को ही खोलना है।

सत्य को मत बांधो, अपने को खोलो। यही एकमात्र राह उसे पा लेने की है।

सत्य का अनुभव, अनुभव से ही उपलब्ध होता है। स्वानुभव के पूर्व उसे किसी और भांति नहीं जाना जा सकता है। केवल अनुभव और केवल अनुभव ही निर्णायक है।

मैं एक पर्वतीय झरने के करीब था। उसके जल को मैंने पीआ और जाना कि वह मीठा था। ऐसा ही सत्य के संबंध में भी है। पीओ और जानो। वह एक ऐसा स्वाद है, जो बस केवल लेकर ही जाना जा सकता है। सत्य आपके ज्ञान की उत्पत्ति नहीं है, वह आपका सृजन नहीं है। उसे आप बनाते नहीं हैं। कोई भी नहीं बनाता, न बना सकता है। वह तो है। इसलिए वह बना बनाया नहीं मिल सकता। वह तो सदा से है। आप आख खोलते हैं तो वह दिखता है, आप आख बंद रखते हैं तो वह नहीं दिखता। वह प्रकाश की ही भांति है।

उसे खरीदना नहीं है, बंद आख ही खोलनी है। और तब सत्य अपनी पूर्ण मौलिकता में, अपनी पूर्ण शुद्धता में, अपनी पूर्ण सत्ता में उठता है और आपको परिवर्तित कर देता है। यह हो सके, इसके लिए जरूरी है कि अपने को बासी और उधार विचारों से विकृत मत करो और किसी की जूठन और उतारे हुए वस्त्रों को ग्रहण मत करो।

क्या आपको ज्ञात नहीं है कि जीवन किसी भी बासी और मृत चीज को स्वीकार नहीं करता है?

फिर मैं आप से क्या कहूं? सत्य के संबंध में तो नहीं कहूंगा, फिर किस संबंध में कहूं?

सत्य को कैसे जाना जा सकता है, इस संबंध में मैं आपसे कहूंगा। प्रकाश के संबंध में तो नहीं, पर आंखें कैसे प्रकाश के प्रति खोली जा सकती हैं, इस संबंध में मैं कहूंगा। मैं जो देख रहा हूं वह तो नहीं, लेकिन कैसे मैं देख रहा हूं वह कहूंगा। वही कहा जा सकता है। और यह भी सौभाग्य है कि कम से कम उतना तो कहा जा सकता है।

धर्म का संबंध— वास्तविक धर्म का संबंध सत्य के सिद्धांत, डॉक्ट्रिन से नहीं, सत्य को जानने की विधि, मेथड से है।

मैं इसलिए सत्य के संबंध में तो कुछ भी नहीं कहूंगा। मैं उसे आपको, जानने से पहले जाना हुआ नहीं बनना चाहता। मैं तो आपको उस स्थान तक ले चलना चाहता हूं जहां आप स्वयं उसे जान सकेंगे— उस बिंदु तक जहां से उसके दर्शन संभव हैं—उत्ताप के उस क्षण तक जहां आपका अज्ञान वाष्पीभूत हो जाता है और उस अग्नि—शिखा से मिलन होता है जो कि आप स्वयं हैं।

इसलिए अब हम उस विधि की बात करें।

सत्य के मार्ग पर जाने वालों को दो द्वार मालूम होते हैं। एक मार्ग है सत्य के विचार का, एक है सत्य की साधना का। एक है तर्कणा का, एक है योग का। एक है तत्व—चिंतन का, एक है तत्व—साधना का। ऐसे दो द्वार मालूम होते हैं, पर मेरे देखे तो द्वार एक ही है। दूसरा है नहीं, केवल प्रतीत ही होता है। वह दूसरा आभास ही है। सत्य के विचार का द्वार वास्तविक द्वार नहीं है। वह आभास—द्वार है और अनेक उस भ्रम में खो जाते हैं। सत्य पर विचार से— विचार के द्वार से कहीं पहुंचते नहीं हैं। वह ले जाता है, पर कहीं पहुंचाता नहीं है। उस पर बहुत चल कर भी पाया जाता है कि आप वहीं खड़े हैं, जहां से प्रारंभ किया है। वह प्रारंभ ही है, अंत उसमें नहीं है और जिसका अंत नहीं है, उसका प्रारंभ केवल आभास ही हो सकता है।

विचार में क्या करेंगे? सत्य को विचारेंगे कैसे? जो ज्ञात नहीं है, वह विचारा नहीं जा सकता। विचार अज्ञात को कैसे विचारेगा? उसकी तो जात के भीतर ही गति है।

विचार समस्याएं दे सकता है, समाधान उससे नहीं आता। जो उसके ही पीछे चलेगा वह एक अराजकता, अनार्की में खो सकता है— एक विक्षिप्तता में उसकी चित्त की परिणति हो सकती है। अनेक विचारकों का विक्षिप्त हो जाना आकस्मिक और अनायास नहीं है। वह विचार का अंतिम निष्कर्ष है। वह विचार की चरम गति है।

सत्य के साक्षात के लिए विचार का मार्ग कोई मार्ग ही नहीं है।

एक अदभुत कथा कहूं। एक आदमी दुनिया के अंतिम छोर की तलाश में निकला। बहुत यात्रा के बाद वह एक ऐसे मंदिर के पास पहुंचा, जहां लिखा हुआ था ‘ यहां दुनिया समाप्त होती है। दिस इज द एंड ऑफ दि वर्ल्ड।’ वह हैरान हुआ, पर विश्वास नहीं कर सका। बात भी कितनी अविश्वसनीय! वह और भी आगे बढ़ता गया और अंतत: जल्दी ही उस जगह पहुंच गया, जहां कि विश्व का अंत था। एक अनंत खड्ड और अनंत शून्य सामने था। उसने झांका। वहां तो कुछ भी नहीं था, लेकिन उसकी श्वासें बंद सी हो गईं और उसका सिर चकरा गया। वह लौट कर भागा और फिर वह पीछे लौट कर नहीं देख सका था।

यह कथा विचार के अंत की कथा है। हम यदि सत्य के संबंध में सोच रहे हैं तो हम सोचेंगे, सोचेंगे और तब हम एक ऐसी जगह पहुंचेंगे जहां और नहीं सोचा जा सकता। वही अंत है— विचार का अंत। एक अनंत खड्ड सामने होगा और हमारा मन और आगे कदम लेने से इनकार कर देगा। विचार में यह घड़ी आती है। यदि हम अंत तक उसका अनुसरण करें, तो वह अपरिहार्य, इनएविटेबल है। और यदि आपको लगता हो कि अभी कुछ और विचार करने को शेष है, तो आप समझें कि अभी वास्तविक अंत नहीं आया है। जब कुछ भी विचार करने को शेष नहीं है और एक भी कदम आगे नहीं उठाया जा सकता, तब यह वास्तविक अंत है और आप उस मंदिर के करीब पहुंच गए हैं जहां कि दुनिया समाप्त होती है!

वही आदमी जो कि दुनिया के अंत पर पहुंच गया था, यदि मुझसे पूछता कि अब वह क्या करे, तो मैं उसे भागने की सलाह नहीं देता! जानते हैं कि मैं उसे क्या सलाह देता? मैं उसे कहता कि इतनी यात्रा की है तो अब एक कदम और उठा लो— अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण कदम। वह खड्ड, वह शून्य जो सामने है, उसको साहसपूर्वक कूद जाओ। एक ही कदम की और आवश्यकता है और स्मरण रहे कि जहां जगत का अंत होता है, वहीं से प्रभु का प्रारंभ होता है।

वह बिंदु जो कि जगत के अंत का है, उससे महत्वपूर्ण बिंदु और कोई भी नहीं है, क्योंकि वही प्रभु के प्रारंभ का बिंदु भी है।

विचार जहां समाप्त होता है, वहीं दर्शन प्रारंभ होता है।

विचार जहां समाप्त होता है, वहीं सत्य का साक्षात है।

विचार से निर्विचार में कूदना है, शब्द से शून्य में कूदना है—यही विधि है, यही साहस है, यही तप है, यही साधना है।

इस जगह यदि आपको ब्रह्मा—विष्णु—महेश दिखाई पड़ते हों, तो जानना कि आप अभी भी सोच रहे हैं। यदि महावीर, बुद्ध या कृष्ण दिखाई पड़े, तो जानना कि आप अभी भी स्वप्न देख रहे हैं। फिर यह वास्तविक अंत नहीं है। वास्तविक अंत तब है जब कि सोचने को कुछ भी नहीं है, देखने को कुछ भी नहीं है, जानने को कुछ भी नहीं है। आप हैं और शून्य है— आप भी कहां हैं? शून्य ही है!

दुनिया के अंत पर खड़े हैं। चित्त लौटना चाहेगा—पूरी शक्ति से लौटना चाहेगा। इसी समय साहस की अपेक्षा है और एक और कदम उठाने की जरूरत है। एक कदम और—एक छलांग ही बस अपेक्षित है और फिर सब बदल जाता है। फिर विचार नहीं है, दर्शन है।

फिर आप जानते हैं। सब जानना छोड़ते हैं, तब जान पाते हैं। सब देखना छोड़ते हैं, तब देख पाते हैं। और सब भांति जब मिट जाते हैं, तब हो पाते हैं।

साधना मृत्यु में कूदना है पर उसके द्वारा ही अमृत का साक्षात होता है।

विचार नहीं, विचार से छलांग विधि है। विचार से छलांग ध्यान, मेडिटेशन है। मैं रोज उसकी ही बात कर रहा हूं। विचार चैतन्य के सागर पर उठी तरंगें हैं— क्षणभंगुर बुदबुदे जो कि बन भी नहीं पाते कि मिट जाते हैं। उनसे विक्षुब्ध और अशांत सतह की सूचना मिलती है। उनमें जो है, वह गहराई में नहीं हो सकता। उसमें होना ही उथले में होना है। विचारमात्र उथले हैं। कोई विचार गहरा नहीं हो सकता है, क्योंकि कोई लहर गहरे में नहीं हो सकती है—लहर सतह की ही संभावना है। विचार भी चेतना की सतह के खेल हैं। लहरों में झील नहीं है, झील में लहरें हैं। लहरें बिना झील के नहीं होंगी, पर झील बिना लहरों के हो सकती है।

विचार बिना चेतना के नहीं हो सकते हैं, पर चेतना निर्विचार हो सकती है। वह मूल है, आधार है। उसे जानना है तो लहरों के पीछे चलना होगा, लहरों का अतिक्रमण करना होगा। सागर के किनारे नहीं बैठे रहना है। कबीर ने कहा है ‘मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ!’ ऐसे आप भी मत बैठ जाना। किनारे पर कुछ भी नहीं है, जिसका किनारा है, उसमें चलना है। किनारा केवल उसमें कूद जाने के लिए ही उपयोगी है!

पर यह भी हो सकता है कि कोई किनारे पर तो न हो, पर लहरों में तैरे। मेरी दृष्टि में वह भी किनारा ही है। जो डूबने से रोके वही किनारा है। विचार में तैरते हुए लोग ऐसे ही हैं। वे किनारा छोड़ने के भ्रम में हैं, पर उन्होंने किनारा छोड़ा नहीं है।

महावीर का निर्वाण हुआ तो उन्होंने बाहर गए अपने प्रिय गौतम के लिए एक दिशा—सूचक सूत्र छोड़ा था। उन्होंने कहा था ‘ गौतम को कह देना कि तू सारी नदी तो पार कर गया है, पर अब किनारे को क्यों पकड़े है, उसे भी छोड़ दे।’ वे किस किनारे की ओर इशारा कर रहे थे? मैं भी उसी की बात कह रहा हूं। वह विचार का किनारा है। वह विचार में तैरने का किनारा है।

सत्य तैरने से नहीं, डूबने से मिलता है। तैरना सतह पर है, डूबना उन गहराइयों में ले जाता है जिनका कि कोई अंत नहीं है।

विचार के किनारे से शून्य की गहराई में कूदना है।

बिहारी की एक मीठी पंक्ति है ‘अनबूड़े, बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग।’ जो अधूरे डूबे थे, वे डूब ही गए और जो संपूर्ण डूब गए थे वे तर गए! आपके क्या इरादे हैं? पार होना है तो डूबने का साहस आवश्यक है!

मैं वही डूबना, वही मिटना सिखा रहा हूं ताकि आप पार हो सकें, ताकि आप वह हो सकें, जो कि आप हैं।

आज इतना ही।


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साधना–सूत्र–(प्रवचन–11)

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जीवन का संगीत—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

सूत्र:

4—जीवन का संगीत सुनो।

उसे खोजो और पहले उसे अपने हृदय में ही सुनो।

आरंभ में तुम कदाचित कहोगे कि यहां गीत तो है नहीं,

मैं तो जब ढूंढता हूं तो केवल बेसुरा कोलाहल ही सुनाई देता है।

और अधिक गहरे ढूंढो,

यदि फिर भी तुम निष्फल रहो

तो ठहरो और भी अधिक गहरे में फिर ढूंढ़ों।

एक प्राकृतिक संगीत,

एक गुप्त जल—स्रोत प्रत्येक मानव हृदय में है।

वह भले ही ढंका हो, बिलकुल छिपा हो

और नीरव जान पड़ता हो— किंतु वह है अवश्य।

तुम्हारे स्वभाव के मूल में तुम्हें श्रद्धा,

आशा और प्रेम की प्राप्ति होगी।

जो पाप—पथ को ग्रहण करता है,

वह अपने अंतरंग में देखना अस्वीकार कर देता है,

अपने कान हृदय के संगीत के प्रति मूंद लेता है

और अपनी आंखों को अपनी आत्मा के प्रकाश के प्रति अंधी कर लेता है।

उसे अपनी वासनाओं में लिप्त रहना सरल जान पड़ता है,

इसी से वह ऐसा करता है।

परंतु समस्त जीवन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है,

जिसे रोका नहीं जा सकता।

सचमुच गहरा पानी वहां मौजूद है, उसे ढूंढ निकालो।

इतना जान लो कि तुम्हारे अंदर निःसंदेह वह वाणी मौजूद है।

उसे वहां ढूंढ़ों और जब एक बार उसे सुन लोगे,

तो अधिक सरलता से तुम उसे अपने आसपास के लोगों में पहचान सकोगे।

नुष्य अपने हृदय की प्रतिध्वनि ही अपने जीवन के सारे अनुभवों में सुनता है। जो तुम्हें बाहर मिलता है, वह तुम्हारे भीतर का ही प्रक्षेपण होता है। बाहर तो केवल पर्दे हैं। तुम अपने को ही उन पर्दों पर, अपनी ही छायाओं को उन पर देखा करते हो। अगर जीवन में दुख मालूम पड़ता है और चारों ओर दुख की छाया दिखाई पड़ती है, तो तुम्हारे हृदय का ही दुख है। अगर जीवन में विषाद दिखाई पड़ता है, तो वह विषाद तुमने ही जीवन में डाला है। वही दिखाई पड़ता है बाहर, जो हम बाहर अपने भीतर से फैलाते हैं।

ऐसा समझें कि जगत एक दर्पण है, और हमें अपनी ही तस्वीर उसमें दिखाई पड़ जाती है। लेकिन हम सोचते हैं कि जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह जगत में है। और तब हम उसे जगत से मिटाने की कोशिश में संलग्न हो जाते हैं। यही कोशिश अज्ञान है। और यही कोशिश और गहरे दुख में ले जाती है। क्योंकि जिसे हम वहां मिटा रहे हैं, उसका मूल वहां नहीं है। जैसे कि दर्पण में आपको अपनी तस्वीर दिखाई पड़े और लगे कि तस्वीर कुरूप है, और आप दर्पण को तोड्ने में लग जाएं। तो आप दर्पण को तोड़ सकते हैं, लेकिन इससे आपका कुरूप चेहरा बदलेगा नहीं। दर्पण टूटने पर यह भी हो सकता है कि आपको अपनी कुरूप अवस्था दिखाई न पड़े। लेकिन न दिखाई पड़ना, मिट जाना नहीं है।

इसलिए बहुत से लोग समाज को छोड़ कर भाग जाते हैं, क्योंकि समाज में उनकी कुरूपता दिखाई पड़ती है। संबंधों में, संबंधों के दर्पण में, उनके भीतर का सब रोग प्रकट होता है। जंगल में, एकांत में, हिमालय में, कोई दर्पण नहीं रह जाता। उन्हें वहां दिखाई नहीं पड़ता कि वे कैसे हैं। और तब इस न दिखाई पड़ने को वे समझ लेते हैं कि आत्मिक रूपांतरण हो रहा है। वह भ्रांति है। उन्हें वापस हिमालय से लौट कर आना होगा। और जब वे समाज के बीच खड़े होंगे, तब ही उन्हें पता चलेगा कि कुछ मिटा था हिमालय में, या केवल दर्पण के न होने से दिखाई नहीं पड़ता था।

इसलिए जो एक बार जंगल के एकांत में भाग जाता है, वह समाज में आने से भयभीत हो जाता है। क्योंकि फिर वही दिखाई पड़ना शुरू होगा, जो उसने सोचा है कि मिट गया है। कोई दूसरा चाहिए। बिना दूसरे के आप अपने को नहीं देख पाते हैं। दूसरे की मौजूदगी, दूसरे से संबंध, आपको खुद को प्रकट करने में सुविधा हो जाती है।

कैसे क्रोध करिएगा, अगर कोई मौजूद न हो न: तो क्रोध को मिटाने के दो रास्ते हैं, या तो क्रोध को मिटाइए या दूसरे की मौजूदगी से भाग जाइए। कैसे वासना करोगे, कैसे परिग्रह करोगे, कैसे अहंकार को निर्मित करोगे— अगर दूसरा मौजूद न हो? अगर जमीन पर आप बिलकुल अकेले हों, तो क्या करिएगा? किस बात का लोभ करिएगा? लोभ का अर्थ ही क्या होगा? पूरी जमीन ही आपके लिए, अकेले के लिए है। कहां बागुडु बनाइए? कहां मकान की दीवाल—रेखा खींचिए? कहां दावा करिए कि यह मेरा है? अकेले होंगे तो दावे का कोई अर्थ नहीं। दावा तो दूसरे के खिलाफ है। दूसरे की मौजूदगी चाहिए।

अहंकार की घोषणा भी क्या करिएगा? क्या कहिएगा कि मैं सिकंदर हूं कि मैं नेपोलियन हूं? क्या प्रयोजन होगा? किससे कहिएगा? कौन सुनेगा? कौन आपकी तरफ आख उठा कर देखेगा कि आप सिकंदर हैं? नहीं, अहंकार का भी कोई अर्थ न होगा। और विनम्रता भी साधिका तो क्या सार है? किसको खबर करिएगा कि मुझ जैसा विनम्र कोई भी नहीं है?

आप अकेले होंगे, तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे। क्योंकि आपके भीतर जो भी छिपा है, उसे प्रकट करने के लिए कोई भी सुविधा न होगी। यह भी हो सकता है कि आपको पता ही न चले कि आपके भीतर क्या—क्या छिपा है।

इसलिए जो संन्यास समाज को छोड़ कर फलता—फूलता है, वह संन्यास कच्चा है। वह टूट जाएगा। वह भयभीत है, वह सुरक्षा में ही जी सकता है। एक विशेष स्थिति उपलब्ध हो, तो ही बच सकता है। सामान्य जीवन में, खुले आकाश के नीचे, उसका रंग—रोगन उतर जाएगा।

जो समाज के भीतर फलित होता है संन्यास, उसको ही मैं वास्तविक कहता हूं। क्योंकि वहां दर्पण मौजूद थे। और तुमने दर्पण नहीं तोड़े, बल्कि दर्पण में अपनी कुरूप तस्वीर देख कर अपने को बदलने की कोशिश की और सुंदर बनाया। वहां लोग मौजूद थे, जिन्हें देख कर क्रोध आता, जिन पर तुम क्रोध को फेंकते, जो क्रोध का कारण बन जाते और तुम्हारे भीतर के क्रोध की अग्नि बाहर लपटें फेंकती। लेकिन तुम उन्हें छोड़ कर नहीं भागे, न तुमने उन्हें दोषी ठहराया, न तुमने यह कहा कि तुम क्रोध के कारण हो। तुमने समझा कि तुम तो केवल खूंटी हो, क्रोध तो मेरे भीतर है। उस क्रोध को मैं तुम्हारी खूंटी पर टांगता हूं तुम्हारी कृपा है कि तुमने मौका दिया। और मुझे, मेरे भीतर जो छिपा था, वह देखने की सुविधा जुटाई। तुम परिस्थिति बने और मेरा आत्म—अध्ययन बढ़ा।

और तुम अपने को बदलोगे, खूंटी को नहीं तोड़ोगे, दर्पण को नहीं तोड़ोगे और समाज को छोड़ कर नहीं भागोगे, तो तुम हैरान हो जाओगे। जिस दिन तुम्हारे भीतर से क्रोध विसर्जित हो जाएगा, उस दिन अचानक तुम पाओगे कि सारे जगत से क्रोध विसर्जित हो गया है। ऐसा नहीं कि सारे जगत से क्रोध विसर्जित हो जाएगा। क्योंकि क्रोधी अब भी क्रोधी रहेंगे। लेकिन तुम्हारे लिए यह जगत क्रोध—शून्य हो जाएगा। क्योंकि तुम्हें अब इस जगत की कोई भी परिस्थिति क्रोधित न कर पाएगी। अब कोई भी खूंटी समर्थ नहीं होगी कि तुम्हारे भीतर के क्रोध को अपने पर टांग ले, क्योंकि भीतर क्रोध नहीं बचा। अब कोई भी दर्पण तुम्हारी कुरूपता को प्रकट नहीं कर जाएगा, क्योंकि अब वह वहां नहीं है।

अध्यात्म की खोज इस मौलिक सूत्र से शुरू होती है कि जो भी हम अपने बाहर पाते हैं, वह हमारे भीतर छिपा है। अगर हम मानते हैं कि वह बाहर ही है, तो आप कभी भी धार्मिक नहीं हो सकते। इसलिए कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजिल्स और लेनिन, उन्होंने इनकार किया धर्म को। उनके इनकार करने में बड़ा अर्थ है। और उन्होंने इनकार किया तो तर्कयुक्त है। क्योंकि कार्ल मार्क्स ने कहा कि बीमारी समाज में है, व्यक्ति में नहीं है। इसलिए समाज को बदलना होगा, तभी दुनिया बेहतर होगी। व्यक्ति को बदलने का कोई अर्थ ही नहीं है। क्योंकि व्यक्ति के भीतर कोई बीमारी नहीं है। यह मूल प्रस्तावना है कम्यूनिज्य की। इसलिए मार्क्स ने कहा, धर्म निष्प्रयोजन है, व्यर्थ है। अगर उसकी बात ठीक है, तो धर्म निष्प्रयोजन है। उसने बात तो ठीक पकड़ी। क्योंकि अगर कम्यूनिज्य ठीक है, तो धर्म व्यर्थ है। मौलिक प्रस्तावना कम्यूनिज्य की यह है कि बीमारी बाहर है, भीतर नहीं है। और धर्म की मौलिक प्रस्तावना यह है कि बीमारी भीतर है, बाहर नहीं है।

इसलिए इस जमीन पर धर्म और कम्यूनिज्म बड़े से बड़े प्रतिद्वंद्वी हैं। गहरे से गहरा संघर्ष, इन दो मान्यताओं के बीच हो रहा है। और होगा। अगर बीमारी बाहर है तो फिर व्यक्ति को कुछ करने की जरूरत नहीं। न कोई ध्यान, न कोई साधना, न कोई आत्म—क्रांति। सब निष्फल बातें हैं। तब तो हमें बाहर की स्थिति बदल देनी चाहिए। और जब स्थिति बदल जाएगी, जब दर्पण बदल जाएगा, तो आप सुंदर दिखाई पड़ने लगेंगे। आपको बदलने की कोई जरूरत नहीं।

लेकिन कम्यूनिज्य की मान्यता में एक बुनियादी कठिनाई है। यह बदलेगा कौन? बदलेंगे व्यक्ति! वे व्यक्ति, जो उस समाज में पैदा हुए हैं, जो कुरूप था, गंदा था, शोषक था! और वे व्यक्ति समाज के निर्माता हैं! क्योंकि कम्यूनिज्य मानता नहीं है कि व्यक्ति की कोई सामर्थ्य है। सब सामर्थ्य समाज की है। तो जिस समाज में पैदा हुए व्यक्ति हैं, वे उसको बदलेंगे कैसे! और यहां कम्यूनिज्य मुश्किल में पड़ जाता है। वे ही व्यक्ति बदलेंगे जो इस समाज ने पैदा किए हैं? और व्यक्ति की कोई सामर्थ्य नहीं है सब सामर्थ्य समाज की है। तो इन व्यक्तियों के द्वारा जो समाज निर्मित होगा, वह नया समाज नहीं हो सकता। क्योंकि नयापन आएगा कहां से? पुराने में पले हुए, पुराने को ही फिर से स्थापित कर देंगे। और यही हुआ।

रूस में क्रांति हुई, बदलाहट ऊपर—ऊपर हुई, भीतर फिर वही का वही पुराना ढांचा आ गया। नाम बदल गए, व्यवस्था बदल गई, बड़ा उपद्रव हुआ, बड़ी हत्याएं हुईं, लेकिन मौलिक रूप समाज का वही रहा, जो था। पूंजीपति नहीं रहा, गरीब नहीं रहा, लेकिन अब मैनेजर और मजदूर हो गए! फर्क वही का वही है, फासला उतना का उतना है, शोषण वैसा का वैसा है। दीन अब भी दीन है, समृद्ध अब भी समृद्ध है। समृद्धि का ढंग बदल गया। अब उसके पास बैंक—बैलेंस नहीं है! अब समृद्धि के लिए रुपऐ की ताकत नहीं रही रूस में। अब समृद्धि के लिए कम्यूनिस्ट पार्टी के कितने बड़े पद पर है, वह यह ताकत हो गई।

इससे क्या फर्क पड़ता है कि नोट हाथ में हैं कि कम्यूनिस्ट पार्टी का सर्टिफिकेट हाथ में है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ताकतवर, ताकतवर है; कमजोर, कमजोर है। और उनके बीच का फासला उतना ही है, जितना था। शायद फासला ज्यादा हो गया है। क्योंकि गरीब मुल्क में कोई गरीब भी अमीर हो सकता है, लेकिन रूस में जो कम्यूनिस्ट नहीं है, उसको कम्यूनिस्ट सीढ़ियां चढ़ना करीब—करीब असंभव है। पिछले चालीस—पचास साल से दस—पंद्रह लोगों का एक छोटा सा जत्था पूरे रूस पर हावी है। एक छोटा सा ग्रुप पूरे रूस पर कब्जा किए हुए है। सारा मुल्क गुलामी की हालत में है। कोई गरीब इतना गुलाम कभी नहीं था।

धर्म की मान्यता यह है कि रोग व्यक्ति के साथ है, समाज के साथ नहीं है। मौलिक गुण अगर व्यक्ति का बदल जाए, तो ही समाज भी बदल सकता है। अगर क्रांति व्यक्ति में हो सकती है, तो ही हो सकती है, नहीं तो कोई क्रांति नहीं हो सकती है।

व्यक्ति की क्रांति का क्या अर्थ होता है? व्यक्ति की क्रांति का अर्थ होता है कि मैं जो भी अपने जीवन में पाता हूं वह मेरे भीतर से ही डाला गया है।

इसे हम ऐसा समझें। आप भूखे हैं, आप दुखी हैं, आप उदास हैं, मन विषाद से घिरा है। वसंत आ गया, फूल खिल गए, पक्षी गीत गाने लगे। लेकिन आपको न तो पक्षियों के गीत सुनाई पड़ेंगे, न फूलों का खिलना सुनाई पड़ेगा, न फूलों से झरती सुगंध आपके नासापुटों को स्पर्श करेगी। वसंत आ गया है, यह आपको पता भी नहीं चलेगा। आप अपनी उदासी में घिरे हैं, आप अपने विषाद में घिरे हैं। यह भी हो सकता है कि फूलों का खिलना कष्टप्रद मालूम पड़े। और पक्षियों का गीत शोरगुल मालूम पड़े। और आप चाहें कि सब शांत हो जाए। यह क्या उपद्रव मचा है? वसंत की हवाएं आपके लिए दंश दें। क्योंकि आपके भीतर जो विषाद है, आप उसी के माध्यम से देख पाएंगे।

ऐसा भी हो जाता है कि आप बड़े प्रेम में हैं, आप बड़े आनंद में हैं, आप बड़े प्रफुल्लित हैं। तो यह भी हो सकता है कि जहां फूल के पौधे में फूल न हों सिर्फ कांटे ही कांटे हों, तो उन कांटों में भी आपको सौंदर्य की अनुभूति हो सकती है। एक कैक्टस का पौधा भी परम सौंदर्य का प्रतीक हो सकता है। अगर भीतर प्रेम और आनंद का उल्लास हो तो कांटे फूल बन जाते हैं। क्योंकि देखने वाला ही तो देखता है, सुनने वाला ही तो सुनता है। आंखें जो बाहर देखती हैं, वह कम मूल्य का है। जो भीतर छिपा है, जो आंखों से झांकता है, वह ज्यादा मूल्य का है।

आपकी आत्मा ही आपके चारों तरफ फैलती है और चीजों पर छा जाती है। तो जो भी आप देखते हैं, जो भी आप पाते हैं, वह आपका ही फैला हुआ रूप है। अगर ऐसा है, तो ही जीवन में परिवर्तन का कोई उपाय है। क्योंकि तब मैं अपने को बदल लूं तो मैं पूरे जगत को बदल लेता हूं।

इसको हम ऐसा भी समझें कि हम एक ही जगत में नहीं रहते हैं। ऐसा लगता है कि एक ही जगत में रहते हैं, लेकिन हम सबका मानसिक जगत अलग—अलग है। जितने लोग हैं यहां बैठे, उतने जगत यहां मौजूद हैं। क्योंकि कोई आपमें से दुखी होगा, कोई आपमें से सुखी होगा, और कोई शांत होगा, और कोई अशांत होगा। तो एक ही जगत के आप सदस्य नहीं हो सकते। जो यहां शांत बैठा है, उसे यह चारों तरफ का जो जगत है, परिपूर्ण शांति से भरा हुआ मालूम होगा। इस हवा का कण—कण, आकाश का एक—एक तारा, पत्तों का, फूलों का, वृक्षों का सब कुछ, उसे शांति देता हुआ मालूम पड़ेगा। हवा की एक हल्की सी लहर भी उसे शांति का एक झोंका होगी। वह ताजगी से भर जाएगा। और जो उसके पास में ही उदास और दुखी बैठा है, घटनाएं यही उसके पास भी घटेंगी, लेकिन व्याख्या अलग होगी।

व्याख्या से जगत निर्मित होता है, वस्तुओं से नहीं। हम क्या व्याख्या करते हैं, हम कैसे देखते हैं, इससे जगत निर्मित होता है।

और हम सबकी दृष्टि अलग—अलग है। हम सबका दर्शन अलग—अलग है। हम सबके जगत अलग—अलग होते हैं। हर आदमी अपने मानसिक जगत में रहता है। और इसलिए हम एक—दूसरे से टकराते हैं, क्योंकि हमारे जगत इतने अलग होते हैं।

दो व्यक्ति विवाह कर लेते हैं। और कभी भी एक तालमेल नहीं हो पाते हैं। क्योंकि दोनों का जगत, मानसिक रचना का जो लोक है, वह इतना अलग है कि वे टकराते हैं, संघर्षण होता है। पति कुछ कहता है, पत्नी बिलकुल कुछ और ही समझती है, जो उसने कहा ही नहीं। वह लाख दफे कहता है कि यह मेरा मतलब नहीं है, लेकिन पत्नी यह मान नहीं सकती कि यह तुम्हारा मतलब नहीं है। यही तुम्हारा मतलब है। पत्नी जो कहती है, पति नहीं समझ पाता। संवाद बिलकुल असंभव मालूम पड़ता है। तुम कुछ कहते हो, कुछ समझा जाता है। कोई दूसरा कुछ कहता है, तुम कुछ अर्थ निकालते हो। दूसरा लाख सिर पटके कि यह मेरा प्रयोजन नहीं, तो भी तुम्हें भरोसा नहीं आता। तुम कहते हो, प्रयोजन तो यही है, अब तुम बदल रहे हो। देखने का ढंग…….।

हम कितने ही पास आ जाएं, हमारे जगत अलग—अलग होते हैं। और उनके बीच संघर्षण बना रहता है। जब तक कि तुम यह न समझ लो कि हर व्यक्ति अपने मनस—लोक में रह रहा है, जब तक कि तुम इतने सजग न हो जाओ कि तुम, दूसरा कैसा देख रहा होगा, जब तक तुम अपने को उसकी जगह रख कर न देखना शुरू कर दो, तब तक संघर्ष जारी रहेगा। तब तक मित्रता भी एक तरह की शत्रुता है। संबंध भी एक तरह की कलह है। परिवार भी एक तरह का उपद्रव है। क्योंकि वहां इतने जगत पैदा हो जाते हैं और उनके बीच संघर्ष है।

लेकिन हमें यह खयाल नहीं कि हम एक खोल के भीतर से देखते हैं, कि हम एक चश्मे के भीतर से देखते हैं। और हमारे चश्मे का रंग सब तरफ की चीजों पर फैल जाता है। और फिर हम चीजों को बदलने में लग जाते हैं, बजाय इसके कि हम चश्मे को बदल दें, बजाय इसके कि हम चश्मे को अलग कर दें। बजाय इसके कि मैं अपने को बदलू मैं बाहर की व्यवस्था जुटाने में लग जाता क्योंकि दुनिया कैसे अच्छी हो, मकान कैसे अच्छा हो, सौंदर्य कैसे मेरे चारों तरफ हो। और भीतर का आदमी कुरूप होता है, वह सब चीजों को कुरूप कर लेता है।

मैं धनपतियों के घर में ठहरता हूं तो मैं देख कर चकित होता हूं। उनके पास धन है, लेकिन सौंदर्य का बोध नहीं है। तो घर में कबाड़, कचरा इकट्ठा कर लेते हैं—बड़ा कीमती। कीमती लाते हैं, सारी दुनिया से बटोर लाते हैं, लेकिन उनके पास सौंदर्य का कोई बोध नहीं है। पैसा उनके पास है, तो घर उनका कबाड—खाना मालूम होता है। वे चीजें रख लेते हैं लल्ला कर, जो भी बाजार में नया आता है, वह खरीद लाते हैं। लेकिन न तो उसे रखने का सलीका है, न देखने की दृष्टि है, न काव्य का कोई बोध है, न सौंदर्य का कोई अनुभव है। अनुभव तो सिर्फ रुपया इकट्ठा करने का है, जो कि इस जगत में कुरूपतम कृत्य है। तो सारी आत्मा तो कुरूप है, लेकिन फिर पैसा पास में है तो वे सौंदर्य को खरीद ले सकते हैं। तो जो भी उन्हें लगता है कि सुंदर है… अगर खबर आ जाती है कि पिकासो का चित्र घर में होना जरूरी है, तो वे लाखों रुपया खर्च करके पिकासो का चित्र खरीद लाते हैं! न वे समझते हैं कि यह चित्र क्या है! वे यह भी नहीं बता सकते कि चित्र उलटा टंगा है कि सीधा टंगा है। लेकिन पिकासो का है, तो घर में होना चाहिए। फिर उसे वे लटका देते हैं।

पिकासो ने अपने एक पत्र में लिखा है कि मेरा जीवन एक दुखी आदमी का जीवन है। क्योंकि मैंने जो भी जीवन में श्रम से तैयार किया है, वह ऐसे घरों में लटका है, जिनमें न तो देखने वाली आंखें हैं, न समझने वाले हृदय हैं। कहीं किसी बाथरूम में, कहीं किसी बैठक—घर में मैं लटका हूं। मेरे सारे जीवन का श्रम उन लोगों के पास चला गया है, जो कभी एक क्षण रुक कर भी नहीं देखते, कि क्या है, क्या वह ले आए हैं!

आप कितनी ही चीजें इकट्ठी कर लें, अगर भीतर सौंदर्य का बोध नहीं है, तो आपके चारों तरफ कुरूपता होगी। और एक झोपड़े में भी सौंदर्य हो सकता है, अगर आपके भीतर सौंदर्य का बोध है। तब एक खाली जगह भी सुंदर हो सकती है। वह बोध आरोपित होता है। वह बोध ही आपके चारों तरफ के जगत को निर्मित करता है। तब हो सकता है कि आपके फूलदान में कीमती फूल न हों और आपने सिर्फ एक साधारण पत्तों की सजावट कर रखी हो, लेकिन उसमें भी सौंदर्य होगा। क्योंकि सौंदर्य आपके भीतर से आता है।

यह सूत्र समझने जैसा है। क्योंकि जीवन—क्रांति की दिशा में चलने वालों के लिए बहुत ही विचारणीय है।

चौथा सूत्र, ‘जीवन का संगीत सुनो। उसे खोजो और पहले उसे अपने ह्रदय में ही सुनो। आरंभ

में तुम कदाचित कहोगे कि यहां गीत तो है ही नहीं, मैं तो जब ढूंढता हूं तो केवल बेसुरा कोलाहल ही सुनाई देता है। और अधिक ढूंढो। यदि फिर भी तुम निष्फल रहो, तो ठहरो और भी अधिक गहरे में फिर ढूंढो। एक प्राकृतिक संगीत, एक गुप्त जल—स्रोत प्रत्येक मानव हृदय में है। वह भले ही ढंका हो, बिलकुल छिपा हो, और नीरव जान पड़ता हो—किंतु वह है अवश्य।’

‘जीवन का संगीत सुनो।’

लेकिन इसे सुनने की पहली शर्त है कि उसे पहले अपने हृदय में सुनो। नहीं तो यह बाहर सुनाई नहीं पड़ेगा। हम बाहर संगीत सुनते हैं। शायद सोचते भी हैं कि संगीत समझ में आ रहा है। सिर भी हिलाते हैं, आनंदित भी होते हैं। लेकिन अगर भीतर का संगीत नहीं सुना है, तो यह सब ऊपर—ऊपर की बात है, इससे संगीत में प्रवेश न हो पाएगा।

संगीत अध्यात्म है। और जब तक आपके हृदय में राग का अनुभव न होने लगे, और जब तक आपकी श्वास—श्वास में एक लयबद्धता न आ जाए, और जब तक आपका जीवन—स्पंदन वीणा न बन जाए; जब तक आपको भीतर न सुनाई पड़ने लगे वह नाद, जो जीवन का नाद है, जिसको पैदा नहीं करना होता, जो चल ही रहा है, जो आप हैं ही, जब तक आपको वह सुनाई न पड़ जाए, तब तक इस जगत में जो अनंत संगीत गुंजायमान हो रहा है, उससे आपकी कोई पहचान न होगी। और एक बार आपको अपने हृदय में सुनाई पड़ जाए वह नाद, तब आप पाएंगे कि हर तरफ, झरने की कलकल में, हवाओं का गुजरना वृक्षों के पत्तों के बीच से, उसमें, पत्थर के गिरने में, नदी के बहने में, नीरवता में, रात्रि के सन्नाटे में, झींगुरों की आवाज में, सब तरफ आपको अपने हृदय की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ने लगेगी। यह जगत एक संगीत हो जाएगा।

लेकिन यह होगा उस दिन, जिस दिन हृदय को सुना जा सके।

क्यों? क्योंकि हृदय इतना निकट है कि जब आप उसका संगीत नहीं सुन पाते, तो और सब चीजें तो दूर हैं, उनका संगीत आप न सुन पाएंगे। तारे बहुत दूर हैं, उनका संगीत आपको कैसे सुनाई पड़ेगा? और हृदय इतना निकट है, उसका ही सुनाई नहीं पड़ रहा है!

जो निकटतम है, उससे यात्रा शुरू करो।

पुराने दिनों में— बहुत पुराने दिनों में, इतिहास ने जिसका स्मरण भी छोड़ दिया है— संगीत की शिक्षा ध्यान से शुरू होती थी। क्योंकि वाद्य पर क्या करोगे, कंठ से क्या होगा, जब तक हृदय के संगीत का स्वर अनुभव न होने लगे? नृत्य की शिक्षा ध्यान से शुरू होती थी। क्योंकि शरीर को हिलाने से क्या होगा? जब तक कि स्पंदन भीतर न आने लगे, जब तक कि भीतर विद्युत प्रवाहित न होने लगे, जब तक कि भीतर कोई न नाच उठे—तब तक शरीर को हिलाना कवायद होगी, तब तक वह नृत्य नहीं होगा। और चाहे कितनी ही कुशलता आ जाए शरीर को नचाने की, वह कुशलता टेक्यिकल होगी, हार्दिक नहीं होगी। उसमें कहीं भी हृदय नहीं होगा, कुशलता होगी। और कुशलता बहुत गहरी हो सकती है। फिर भी आत्मा नहीं होगी, शरीर ही नाचेगा। वही फर्क है।

बड़े से बड़ा संगीतज्ञ भी नाच सकता है, नृत्यकार नाच सकता है। बड़े से बड़ा संगीतज्ञ संगीत को जन्म दे सकता है। लेकिन कृष्ण के नृत्य में बात कुछ और है। टेक्‍निकली वह गलत भी हो सकते हैं। उनके नृत्य में भूल—चूक खोजी जा सकती है। और पंडितो को लगा दें, तो वे जरूर खोज लेंगे। लेकिन फिर भी उनका नृत्य किसी और आयाम में है।

मीरा के संगीत में भूल—चूक खोजी जा सकती है, काव्य में भूल—चूक खोजी जा सकती है, व्याकरण में भूल—चूक खोजी जा सकती है। क्योंकि मीरा न तो कोई कवि है, न वह कोई नर्तकी है, न वह कोई संगीतज्ञ है। लेकिन फिर भी किसी अंतस के कोने में, गहरे में, संगीत घटा है, नृत्य घटा है, काव्य का जन्म हुआ है। वही काव्य, वही नृत्य शरीर तक आ गया है, बाहर तक फैल गया है। इसलिए उसके नृत्य में कुछ बात ही और है। वह इस जगत का नहीं है नृत्य। तो वह कहीं पार से आती है कोई किरण, वह कहीं दूर की खबर लाती है। इसलिए मीरा छा गई हृदय पर। बहुत बडे संगीतज्ञ हुए, मीरा की कोई तुलना नहीं उनसे। टेक्‍निकली कोई उसका अस्तित्व नहीं है, लेकिन संगीतज्ञों को हम भूलते चले जाएंगे, मीरा को भूलना असंभव है।

चैतन्य नाचते हैं। उनके नाचने में न कोई व्यवस्था है, न कोई जानकारी है, नाचना अनगढ़ है। लेकिन नृत्य में कुछ प्राण हैं, कोई आत्मा है, नृत्य सजीव है। शरीर ही नहीं कैप रहा है, भीतर कहीं गहरे में स्पंदन हो रहे हैं। और शरीर उन स्पंदनों की केवल खबर दे रहा है।

नृत्य—संगीत जैसी सारी कलाओं का जन्म कभी मंदिर में हुआ था, उनका जन्म मंदिर से है। वे कलाएं मंदिर से फिर लोक—लोक में व्याप्त हो गई हैं। उनका प्राथमिक चरण कभी अध्यात्म की खोज का ही हिस्सा था। लेकिन धीरे— धीरे सभी चीजों के साथ होता है कि हम उसके बाह्य आवरण में ज्यादा उत्सुक हो जाते हैं। फिर बाह्य आवरण की व्यवस्था में उत्सुक हो जाते हैं। फिर हम इतनी व्यवस्था कर लेते हैं कि हम भूल ही जाते हैं कि जिसके लिए व्यवस्था कर रहे हैं, वह कभी का मर चुका है। अब हम शरीर की सजावट किए चले जा रहे हैं।

संगीत बहुत दूर चला गया अध्यात्म से, नृत्य बहुत दूर चला गया। इतने दूर कि करीब—करीब उलटा हो गया है। करीब—करीब नृत्य और संगीत अब वासना की सेवा कर रहा है। कभी वह आत्मा से पैदा हुआ था, अब वासना की सेवा में रत है!

इसलिए इस्लाम को तो इनकार ही कर देना पड़ा संगीत को कि यह पाप है। यह हैरानी की बात है। मगर सोचने जैसी है।

हिंदुओं ने संगीत को श्रेष्ठतम समझा। संगीत की अनुभूति को परम— ध्यान समझा। और हजारों साल बाद जो आखिरी धर्म जमीन पर आया, इस्लाम, उसने संगीत को वर्जित कर दिया, कि मस्जिद के सामने संगीत नहीं बज सकता! संगीत को पाप घोषित कर दिया!

इस्लाम भी सही है और हिंदू भी सही हैं। जिस दिन संगीत पैदा हुआ था, उस दिन वह परम—ज्ञान का हिस्सा था, ध्यान का हिस्सा था। लेकिन धीरे— धीरे हटते—हटते वह वासना की सेवा में रत हो गया। और जब मोहम्मद का जन्म हुआ तो संगीत वासना की सेवा में रत था। वह कामवासना का हिस्सा हो गया था। इसलिए मोहम्मद ने कहा कि संगीत मस्जिद के सामने नहीं। तो वह पाप है। दोनों सही हैं। क्योंकि संगीत के दोनों बिंदु हैं, दो छोर हैं।

एक बात स्मरणीय है कि संगीत वासना की सेवा में लग जाएगा, अगर आपने उसे पहले भीतर न सुना। अगर बाहर सुना तो उसकी जो चोट है, वह आपके काम—केंद्र पर होगी। क्योंकि काम—केंद्र आपका सबसे बाहरी केंद्र है— सबसे निम्न, सबसे बाहरी। अगर आपने संगीत भीतर सुना, तब तो वह आत्मा में प्रतिध्वनित होगा। अगर आपने बाहर सुना तो उसकी पहली चोट, पहला आघात सेक्स सेंटर पर होगा, काम—केंद्र पर होगा, क्योंकि वही निकटतम है। और तब अनिवार्य रूप से संगीत काम की सेवा में संलग्न हो जाएगा। तो कामातुर लोग नाच में रस लेते हैं, गान में रस लेते हैं। तो धीरे— धीरे राजा—महाराजाओं के दरबार की बात हो गई। साधु दूर हटता गया, क्योंकि असाधु संगीत का रस लेने लगा। लेकिन कारण संगीत नहीं है, कारण अगर भीतर से पहले यात्रा न हुई, तो यह उलझन आएगी। अगर भीतर से यात्रा हुई, एक बार भीतर का संगीत अनुभव में आया, तो फिर जगत में जो भी संगीत संभव है—निर्मित, अनिर्मित, प्राकृतिक, कृत्रिम—वह सभी संगीत, एक बार भीतर का स्मरण आ जाए, तो वहीं चोट करेंगे।

नानक अपने साथ एक संगीतज्ञ को रखते थे। बोलते कम थे, गाते ज्यादा थे। और बगल में बैठा मरदाना अपने इकतारा को बजाता था। पर नानक पहले अजपा की शिक्षा देते थे। कि पहले भीतर अजप का जो नाद है, वह सुना जाए। और जब उनके साधक अजपा के नाद में लीन होने लगते थे, भीतर का नाद सुनने लगते थे, तब वे बाहर का संगीत भी साथ में देते थे। यह बाहर का भी संगीत तब भीतर के उस गहन संगीत के साथ एक हो जाता था। और जब बाहर और भीतर का संगीत एक होता है, तो बाहर और भीतर मिट जाते हैं, सिर्फ संगीत रह जाता है। वह संगीत का क्षण ब्रह्म—अनुभव का क्षण हो जाता है।

‘उसे खोजो और पहले उसे अपने हृदय में ही सुनो। आरंभ में तुम कदाचित कहोगे कि यहां गीत तो है ही नहीं, संगीत तो है ही नहीं, मैं तो जब ढूंढता हूं तो केवल बेसुरा कोलाहल ही सुनाई पड़ता है।’

निश्चित ही, जब तुम पहली दफा भीतर जाओगे, तो सिवाय भीड़ और बाजार के वहां कुछ भी न मिलेगा। क्योंकि तुमने अब तक भीड़ और बाजार को ही अपने भीतर पहुंचाया है। तब वहां तुम शोरगुल सुनोगे। वहां व्यर्थ की आवाजें सुनाई पड़ेगी। वहां खंड—खंड टुकड़े बातचीत के सुनाई पडेंगे, जिनमें कोई तुक भी नहीं है— संगीत तो बहुत दूर—जिनमें कोई संगति भी नहीं है, जिनमें कोई संबंध भी नहीं है। अगर तुम बैठ जाओ एकांत में और तुम्हारे भीतर जो चल रहा है, उसे तुम कागज पर लिखो, तो तुम समझोगे कि यह कोई पागल है मेरे भीतर या बहुत पागल हैं मेरे भीतर।

अभी वैज्ञानिक सोचते हैं कि आज नहीं कल, ऐसा उपाय कर लेंगे कि आपकी खोपड़ी में विद्युत का यंत्र लगा कर एंप्लीफाई किया जा सके, कि वहां जो भीतर चल रहा है, उसे और लोग भी सुन सकें। कोई राजी नहीं होगा इस काम के लिए, कि आपके भीतर जो चल रहा है, उसे और लोग भी सुन लें। एक दफा औरों ने सुन लिया, फिर आपका कोई भरोसा नहीं करेगा। क्योंकि आप अपना एक चेहरा बनाए हुए बैठे हैं, वह बिलकुल नकली है। आप बड़े बुद्धिमान दिखाई पड़ रहे हैं, वह सब नकली है। वह भीतर जो चल रहा है, वह बिलकुल विक्षिप्त स्वर हैं वहां।

स्वभावत: जब आप भीतर जाएंगे तो पहले यह विक्षिप्तता ही सुनाई पड़ेगी। पहले आपको यही आवाजें सुनाई पड़ेगी। उनसे डरना मत, घबड़ाना भी मत। और थोड़े भीतर प्रवेश की जरूरत है। साक्षीभाव से उन्हें सुनना, तो भीतर प्रवेश हो सकेगा। उनके विरोध में भी कुछ मत करना। क्योंकि विरोध में किया, तो वहीं उलझ जाओगे। उनसे लड़ना भी मत। क्योंकि लड़े, तो तुम भी एक हिस्सा हो जाओगे उस भीड़ में उपद्रव का। उपद्रव और बढ़ जाएगा। उनको रोकने की भी कोशिश मत करना, क्योंकि रोकने से उनसे छुटकारा नहीं है। और फिर जिसे हम रोकते हैं, उसकी छाती पर हमें बैठे रहना पड़ता है, उससे आगे नहीं जा सकते। उनके साथ कुछ करना ही मत। तटस्थ भाव से!

बुद्ध ने कहा है, उपेक्षा से भीतर की तरफ चलना।

वह चल रहा है शोरगुल, चलने देना। जैसे एक बाजार से तुम गुजर रहे हो, तो ठीक है, बाजार है। तुम उसकी चिंता नहीं ले रहे हो। ऐसे ही तुम इस भीतर के बाजार से भी गुजरते वक्त परेशान मत होना। एक उपेक्षा का भाव रखना कि ठीक है, बाजार है। अब तक यही इकट्ठा किया है, वह है। तुम चुपचाप साक्षीभाव से भीतर की तरफ चलना और गहरे खोजना।

‘और अधिक गहरे ढूंढो। यदि फिर भी तुम निष्फल रहो, तो ठहरो और भी अधिक गहरे ढूंढ़ों।’ डरना मत, क्योंकि निश्चित ही स्रोत है। वह स्रोत अनेकों ने पाया है और तुम भी पा सकते हो। वह जिन्होंने पाया है, उनकी गवाही है कि पाया जा सकता है। वह तुम्हारे भीतर है, पर्त दर पर्त दबा है। बहुत पर्तें हो सकती हैं। लेकिन घबड़ाना मत और उसकी खोज जारी रखना। और कितना ही उपद्रव भीतर मालूम पड़े, तुम शांत बैठ कर उस उपद्रव को देखते रहना।

श्री अरविंद जब पहली दफा साधना में उतरे, तो उनके गुरु ने उन्हें कहा कि विचार तुम्हारे भीतर चलेंगे बहुत, तुम एक छोटा सा काम ही करना, कि तुम विचारों को मक्खियां समझ लेना, कि मक्खियां तुम्हारे सिर के आसपास मंडरा रही हैं। और तुम उनकी फिक्र न करना, उनको शोरगुल मचाने देना। तुम समझना कि तुम बीच में खड़े हो और मक्खियां गज रही हैं चारों तरफ। श्री अरविंद तीन दिन तक वैसी अवस्था में बैठे रहे। पहले तो वे बहुत घबडाए, क्योंकि मक्खियां थोड़ी न थीं। एक—एक विचार अगर एक—एक मक्खी था, तो करोड़ों मक्खियां भिनभिनाने लगीं। पर संकल्प के व्यक्ति थे। उन्होंने कहा कि अगर मक्खियां ही मानना है, तो फिर चिंता क्या करनी है, बैठे रहना है। बैठे रहे, बैठे रहे; मक्खियां भिनभिनाती रहीं, न तो उनसे लड़े, न उनको भगाया, न हटाया।

धीरे— धीरे उन्होंने पाया, घंटों के बीतने के बाद, मक्खियों की भीड़ कम होती जा रही है। तब भरोसा बढा कि सिर्फ बैठने से भीड़ कम हो रही है, तो और बैठने से और भी कम हो जाएगी। तो फिर प्रसन्नता भी आ गई, आस्था भी आ गई, आशा भी आ गई, आत्मविश्वास भी बढ़ा। फिर वे बैठे ही रहे, फिर उन्होंने सोचा कि अब उठना उचित नहीं, क्योंकि उठने पर हो सकता है कि फिर इतनी भीड़ से गुजरना पड़े। तो बैठे ही रही। तो वे तीन दिन तक बिना खाए—पीए बैठे ही रहे। उन्होंने तय कर लिया कि जब तक आखिरी मक्खी न चली जाए, तब तक मैं बैठा ही रहूंगा। तीन दिन में आखिरी मक्खी भी चली गई। कोई विचार न रहा।

उस क्षण में सुना जाता है जीवन—संगीत, उस क्षण में भीतर का स्रोत प्रकट हो जाता है। जब आप होते हैं निर्विचार, तब संबंध हो जाता है हृदय के संगीत से। जब तक विचार से भरे हैं, तब तक कोलाहल रहेगा। पर यह कोलाहल, बहुत कठिन नहीं है इसको पार करना। सिर्फ उपेक्षा और इस कोलाहल में न उलझने की दृष्टि, और धीरे— धीरे अपने को शिथिल छोड़ते जाना भर जरूरी है।

अभी पश्चिम में उन्होंने फीड—बैक मशीनें बनाई हैं। सस्ती मशीनें हैं, बड़े काम की हैं। बहुत छोटी सी मशीनें हैं, कोई हजार रुपए की होंगी। आपके माथे पर दोनों तरफ जहां विचार की चोट पड़ती है और आपके मस्तिष्क के स्नायु कंपते हैं, वहां तार लगा दिए जाते हैं। ऊपर से तार चिपका दिए जाते हैं और मशीन के सामने आपको बिठा दिया जाता है और मशीन को आन कर दिया जाता है। मशीन तत्‍क्षण, उसका कांटा घूमने लगता है तेजी से। जितनी तेजी से आपके विचार घूम रहे हैं,

मशीन का कांटा झट लगता। और आपसे कहा जाता है कि आप शांत होते जाए, शिथिल होते जाएं। आप सामने देखते हैं कि कांटा, जैसे आप शिथिल होते हैं, कम हो जाता है। उससे भरोसा बढ़ता है। जब आप और शांत होते हैं तो कांटा और धीमा हो जाता है। और जब आप ठीक एक शांति की अवस्था में आते हैं, जिसको वे अल्फा कहते हैं, तब मशीन पीप पीप पीप की आवाज करने लगती है। जैसे ही मशीन पीप पीप पीप की आवाज करती है, आपको पक्का भरोसा आ जाता है कि विचार शांत हो गए, और मैं अल्फा—वेव में आ गया, जहां ध्यान और गहरी नींद घटित होती है। उस क्षण आप अपने भीतर देखें तो एक भी विचार नहीं होता। बाहर मशीन खबर देती है, भीतर एक भी विचार नहीं होता। अगर आप और शांत होते चले जाएं, तो अल्फा से भी गहरे उतर जाते हैं, तब मशीन दूसरी तरह की आवाज देती है।

जो काम आप सालों में कर पाते हैं, वह इस मशीन पर बैठ कर तीन या सात दिन में हो जाता है। क्योंकि आप कुछ भी करते हैं, ध्यान करते हैं, कुछ भी करते हैं, तो आपको पता तो चलता नहीं कि भीतर हो क्या रहा है! पता चल जाए तो बडी सुविधा हो जाती है। क्योंकि आपको भरोसा आता है कि कोई गति हो रही है, कोई फर्क पड़ रहा है। इसको वे फीड—बैक कहते हैं, क्योंकि वह मशीन आपको सहायता देती है। वह फीड करती है आपको, वह खबर देती है कि ही, अब आप शांत हो रहे हैं। तो भीतर का तो आपको पता नहीं चलता, लेकिन मशीन से पता चलता है कि आप शांत हो रहे हैं। यह खयाल कि मैं शांत हो रहा हूं सजेशन बन जाता है, सुझाव बन जाता है। अगर मैं शांत हो रहा हूं तो आप और शांत हो जाते हैं। जब आप और शांत होते हैं, मशीन और भी खबर देती है। और इस तरह मशीन और आपके बीच एक संवाद निर्मित हो जाता है। अगर आप कुछ न करें, सिर्फ बैठ कर अपने को शिथिल छोड दें, तो पांच—सात मिनिट में एक दों—तीन दिन के प्रयोग में आप अल्फा—वेव को उपलब्ध कर लेते हैं।

यह जो भीतर का जगत है, इस भीतर के जगत में विचारों को शिथिल छोड़ना और विचारों से अपने को शांति से अलग हटा लेना— यही एकमात्र प्रयोग है, सारे धर्मों, सारी व्यवस्थाओं, सारे योग, सारे तंत्रों में। एक ही महत्वपूर्ण बात है कि किसी तरह भीतर के कोलाहल की पर्त को पार करके आप उस जगह पहुंच जाएं, जहां भीतर शांति का झरना है। वह झरना आपके भीतर है। वह उतना ही आपके भीतर है, जितना बुद्ध के भीतर है, उससे रत्ती भर भी कम नहीं है। उस झरने से संपर्क स्थापित करने की बात है।

‘फिर भी तुम निष्फल रहो तो ठहरो और भी अधिक गहरे में फिर ढूंढो। एक प्राकृतिक संगीत, एक गुप्त जल—स्रोत प्रत्येक मानव हृदय में है। वह भले ही ढंका हो, बिलकुल छिपा हो, और नीरव जान पड़ता हो— किंतु वह है अवश्य। तुम्हारे स्वभाव के मूल में तुम्हें श्रद्धा, आशा और प्रेम की प्राप्ति होगी।’

और जिस दिन तुम इस स्रोत से संबंधित हो जाओगे, तुम्हारा जीवन श्रद्धा, आशा और प्रेम से भर जाएगा। वह लक्षण होगा।

लोगों से कहा जाता है, श्रद्धा करो। वे श्रद्धा कर भी कैसे सकते हैं? भरोसा लाओ। वे भरोसा ला भी कैसे सकते हैं? विश्वास करो। वे विश्वास कर कैसे सकते हैं? क्योंकि भरोसा, विश्वास या श्रद्धा, जब तक भीतर के आनंद, शांत—संगीत से संबंध न हो जाए, तब तक पैदा नहीं होते। वह भीतर के संगीत से संबंधित होने के बाह्य परिणाम हैं। तो चेष्टा करके लोग झूठी श्रद्धा ले आते हैं, जबर्दस्ती

विश्वास कर लेते हैं। मान लेते हैं कि जब इतना कहा जाता है कि मानो, तो ठीक है, मान लेते हैं। लेकिन तब एक नुकसान होता है। तब वे असली श्रद्धा से वंचित रह जाते हैं। नकली, झूठी श्रद्धा उनके हाथ में रह जाती है। और वे सोचते हैं कि यही श्रद्धा है।

हम सबके हाथ में ऐसी श्रद्धा है। बचपन से सिखाया जा रहा है कि विश्वास करो, विश्वास करो, तो हम विश्वास कर रहे हैं। फिर अविश्वास करने में अड़चन भी है। सुविधापूर्ण भी, कनविनियेंट भी यही है कि विश्वास करो, क्योंकि चारों तरफ विश्वास करने वाले लोगों का समूह है। लेकिन झूठा विश्वास है, इससे भीतर की आस्था तक हम पहुंच ही नहीं पाते।

भीतर की आस्था तक जाना हो तो ध्यान के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। जानकारी, शिक्षा, कुछ भी सहायता न पहुंचा सकेगी, जब तक कि तुम्हें भीतर का स्वाद न आने लगे। इस स्वाद के आते ही तीन घटनाएं घटेंगी। तुम्हारे जीवन में श्रद्धा आ जाएगी।

श्रद्धा का अर्थ किसी के प्रति श्रद्धा नहीं है। श्रद्धा का अर्थ है, भरोसा करने की वृत्ति। ऐसा नहीं है कि तुम अपने गुरु के प्रति श्रद्धा रखोगे, कि महावीर के प्रति श्रद्धा रखोगे। क्योंकि मैं देखता हूं जो महावीर के प्रति श्रद्धा रखता है, वह मोहम्मद के प्रति नहीं रखता। यह श्रद्धा झूठी है। श्रद्धा किसके प्रति, यह सवाल नहीं है। तुम्हारे भीतर श्रद्धा का एक सहज भाव होगा। तुम्हारी सहज वृत्ति यही होगी कि तुम भरोसा करोगे। किसका, यह सवाल नहीं है। तुम्हारा पहला लक्षण भरोसा करना होगा। अभी क्या है? तुम्हारा पहला लक्षण अविश्वास करना है।

अगर एक नया आदमी तुम्हारे घर में आता है, अजनबी है, तुम पहले उसको ऐसे ही देखते हो— कोई चोर तो नहीं है? कोई बदमाश तो नहीं है? सामान सम्हाल कर रखो! कुछ ले तो नहीं जाएगा? या कुछ दान लेने तो नहीं आया है? कोई पैसा तो नहीं मांगेगा? क्या करेगा? पहले तुम… फिर तुम उसके कपड़े—लत्ते देखते हो कि उसकी हालत कैसी है। क्योंकि हालत खबर देगी। पहली तुम्हारी जो दृष्टि है किसी के भी प्रति, वह अविश्वास की है। तुम भरोसा भी अगर लाते हो, तो बहुत तुम अविश्वास करके जब देख लेते हो कि नहीं, अविश्वास सफल नहीं हो रहा है, यह आदमी न तो चोरी कर रहा है, न ले कर भाग रहा है, न कुछ कर रहा है, तब तुम लाते हो।

तुम्हारा भरोसा जो है, वह तुम्हारा सहज भाव नहीं है, तुम्हारे तर्क की निष्पत्ति है। तुम्हारा सहज भाव अविश्वास है। पहली बात जो पैदा होती है, वह अविश्वास की है। अगर रात में तुम देखते हो कि कोई आदमी घर में चला आ रहा है अंधेरे में, तो तुम एकदम चिल्ला देते हो, चोर! और कोई उपाय ही नहीं है, वह तुम्हारी सहज वाणी है। अंधेरे में किसी छायाओं को देख कर, पहला खयाल यही आता है कि दुश्मन है। मित्र, ऐसा खयाल नहीं आता!

जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि हमारा सहज भाव बिना किसी तर्क के अविश्वास का है। यह कोलाहल से भरे चित्त का लक्षण है। वह डरा हुआ है। जिंदगी में सब जगह उसे शत्रुता दिखाई पड़ती है, सब जगह कोई न कोई कुछ छीनने को उत्सुक है। कोई न कोई कुछ न कुछ लेने को उत्सुक है। सब चोर हैं, सब बेईमान हैं। और सब तरफ लूट मची हुई है। और बस उसके ऊपर ही सारी दुनिया की नजर है।

जैसे ही कोई व्यक्ति अपने भीतर के संगीत से संबंधित होता है, इसके विपरीत सहज भरोसा आ जाता है। तब चोर भी आपके घर में घुस आए तो आपको पहला खयाल यह नहीं आता कि वह चोर है। पहला यह खयाल आना बहुत बुरा है— भला वह चोर ही क्यों न हो— लेकिन यह पहला खयाल आना बहुत बुरा है। भला यह सही ही क्यों न हो आपका खयाल कि वह चोर है। और वह चोर ही

क्यों न साबित हो, लेकिन चोर जितना नुकसान पहुंचा सकता है, उससे ज्यादा नुकसान इस खयाल से पहुंच रहा है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति धार्मिक नहीं हो पाएगा। और ऐसा व्यक्ति परमात्मा से वंचित रह जाएगा। वह बचा लेगा थोड़ी—बहुत चीजें, चोर वगैरह से बच जाएगा, बेईमान से बच जाएगा, जेब

सम्हाल कर रखेगा। लेकिन जो वह बचा रहा है, वह दो कौड़ी का है। और वह जो खो रहा है, वह

अनंत है।

अगर भरोसा किया तो क्या खो जाएगा? आपके पास है क्या जो खो जाएगा? क्या लुट जाएगा? और वह आदमी जिसको हजार बार धोखा दिया जाए और फिर भी एक हजार एक बार मौका आए, तो भरोसा कर ले, वह आदमी संत है। उसके संतत्व का कारण यह है कि उसकी भरोसे की वृत्ति सहज है। कितना ही अनुभव विपरीत हो, वह उस वृत्ति को नहीं छोड़ेगा।

मैंने सुना है, उमा स्वाति ने कहीं लिखा है, कि एक साधु नदी में स्नान करने को उतरा था। देखा उसने कि एक बिच्छू गिर पड़ा है। तो उसने उसे हाथ पर उठा कर किनारे के बाहर रखना चाहा। उस बिच्छू ने एक डंक मारा। डंक मारने से वह हाथ से बिच्छू छूट गया, फिर पानी में गिर गया। तो उस साधु ने उसे फिर उठाया। तो पास किनारे खड़े एक मछुए ने कहा कि आप पागल तो नहीं हैं? वह बिच्छू डंक मार रहा है और अभी उसने डंक मारा है, और फिर पानी में से तुम उसे उठा रहे हो! तो उस साधु ने कहा, बिच्छू अपना स्वभाव नहीं छोड़ता, मुझे भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए। मैं बचाना चाहता हूं पर बिच्छू बेचारा डरा हुआ है, डर के मारे वह समझ रहा है कि पता नहीं मैं उसकी हत्या कर रहा हूं या क्या कर रहा हूं इसलिए डंक मार रहा है। लेकिन क्या तुम सोचते हो कि मैं बिच्छू से हार जाऊं, और बिच्छू जीत जाए? मैं उसे उठाऊंगा। और मैं यह कोशिश करूंगा कि ऐसा वक्त आए कि बिच्छू भी समझ जाए कि उठाने वाला मुझे हत्या करने के लिए नहीं उठा रहा है, तभी मैं रुकूंगा। बिच्छू से मैं हार नहीं सकता।

इसे हम थोड़ा समझें। बिच्छू काट कर भी क्या करेगा? थोड़ी पीड़ा देगा। लेकिन अगर यह साधु बिच्छू से नहीं हारा, तो इसे जो आनंद उपलब्ध होगा, उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।

यह सूत्र कह रहा है कि तुम्हारे स्वभाव के मूल में तुम्हें श्रद्धा, आशा और प्रेम की प्राप्ति होगी।

श्रद्धा सहज भाव हो जाएगी। किस पर, यह सवाल नहीं है, तुम श्रद्धालु हो जाओगे। वह चोर हो कि साधु, कि महात्मा हो कि और कोई, इससे कोई सवाल नहीं है। अपना हो कि पराया, तुम्हारा सहज भाव श्रद्धा का होगा। यह श्रद्धालु का लक्षण है।

इसलिए जिन श्रद्धालुओं को तुम देखते हो कि मंदिर के सामने माथा झुका रहे हैं और मस्जिद के सामने अकड़ कर चल रहे हैं, वे श्रद्धालु वगैरह नहीं हैं। श्रद्धालु तो सब जगह झुका होगा। कि मस्जिद

को तो बचा रहे हैं और मंदिर को जला रहे हैं! वे श्रद्धालु नहीं हैं। कि कुरान को तो सिर पर रखे हुए है और गीता को लात मार रहा है! वह श्रद्धालु नहीं है। यह श्रद्धा झूठी है। और यह श्रद्धा खतरनाक है, जहरीली है।

श्रद्धालु का तो अर्थ यह है कि कुछ भी हो चारों तरफ, वह उसमें से कुछ खोज लेगा, जिसमें श्रद्धा की जा सकती है। वह खोज ही लेगा अपनी श्रद्धा के योग्य। वह उसकी सहज खोज है।

‘आशा और प्रेम…..।’

जिस व्यक्ति को भीतर के संगीत का स्वर सुनाई पड़ जाएगा, उसके जीवन से निराशा समाप्त हो जाएगी। और आशा का मतलब आप यह मत समझना कि वह सोचेगा कि कल मुझे यह मिलने वाला है, परसों मुझे यह मिलने वाला है। नहीं, वह आशा तो वासना की आशा है। उसे तो हम बहुत पीछे छोड़ आए सूत्रों में। साधक उसे बहुत पीछे छोड़ आया।

आशा का अर्थ यह है अब कि जीवन में जहां भी वह देखेगा, उसे आशा का पहलू दिखाई पड़ेगा। अगर रात अंधेरी होगी, तो उसे दिखाई पड़ेगा कि सुबह बहुत करीब है। अगर आकाश में काले बादल घिरे होंगे, तो वह कहेगा कि आज की बिजली की चमक बड़ी शानदार होगी। कि दुख आएगा, तो वह कहेगा कि सुख की प्रतीक्षा करो, सुख जरूर करीब ही होगा। उसे कितना ही दुख दिया जाए, वह उसमें से सुख खोज लेगा। और उसे कितना ही परेशान किया जाए, उस परेशानी में से वह शिक्षा निकाल लेगा। उसके जीवन में कुछ भी घटित हो, उसे निराश न किया जा सकेगा। तो वह हर तरफ से आशा का बिंदु खोज लेगा। वह जो शुभ्र बिंदु है, वह हर जगह खोज लेगा। वह हर जगह मौजूद है।

निराश आदमी हर जगह अंधेरे को खोज लेता है। कुछ भी करो, निराश आदमी से पूछो, तो वह कहता है कि दुनिया बड़ी बुरी है। दो रातें होती हैं, तब कहीं एक छोटा सा दिन होता है।

इस तरह का आदमी कहेगा, दुनिया बड़ी अदभुत है, दो उजाले दिन होते हैं, तब कहीं बीच में छोटी सी रात होती है। और रात—दिन बराबर होते हैं, बाकी देखने का कोण है।

निराश आदमी गुलाब के फूल के पास जा कर कीटों की गिनती करेगा। और जब वह देख लेगा कि हजार कांटे हैं, तो वह कहेगा कि यह एक जो फूल है, झूठ है। जहां इतने कांटे हैं, वहां फूल हो सकता है? जिस पौधे में ऐसे जहरीले कांटे निकल रहे हैं कि जान ले लें, उसमें यह फूल हो सकता है? यह फूल प्रलोभन है, ताकि कांटों में फंस जाओ। यह फूल झूठ है। और फिर वह कहेगा कि फूल सुबह खिलता है और सांझ गिर जाता है, और कांटे सदा रहते हैं। सत्य है कांटा। यह फूल तो माया है, सपना है; इसमें मत उलझना, इससे बचना।

आशा वाला व्यक्ति भी गुलाब के फूल के पास जाएगा, तो फूल उसे पहले पकड़ लेगा। वह फूल में इतना डूब जाएगा कि अगर कोई उसे याद भी दिलाएगा कि यहां कांटे हैं, तो वह कहेगा कि जहां इतना अदभुत फूल खिला है, वहां कांटे कैसे हो सकते हैं? और अगर कांटे हैं तो जरूर फूल की रक्षा के लिए होंगे। और अगर कांटे हैं तो जरूर उनका कोई अर्थ होगा। क्योंकि जहां ऐसा सुंदर फूल खिल रहा है जिस पौधे में, उस पौधे में कांटे दुश्मन की तरह नहीं लग सकते, वे मित्र की तरह ही लगेंगे।

और जो फूल के रस में ठीक से डूब जाएगा, उसके लिए कांटों में भी फूल दिखाई पड़ने लगेंगे। और जो कांटों के जहर में ठीक से डूब जाएगा, उसे फूल के रस में भी जहर दिखाई पड़ने लगेगा। तब दुनिया वैसी ही हो जाती है, जैसा हम देखते हैं।

आशा का अर्थ है, जीवन का वह जो शुभ पहलू है, वह उसे दिखाई पड़ेगा।

‘और प्रेम की प्राप्ति होगी।’

प्रेम का अर्थ नहीं कि वह किसी एक व्यक्ति को प्रेम करने लगेगा। प्रेम का अर्थ है इस घड़ी में, कि प्रेम उसकी सहज अवस्था होगी। वह प्रेम करेगा! और जो भी तैयार हैं, जो भी खुले हैं, वे उसके प्रेम के पाने के पात्र हो जाएंगे। उसका प्रेम कोई मोह नहीं होगा। उसका प्रेम कोई आसक्ति नहीं होगी। उसके प्रेम से कोई बंधन निर्मित नहीं होगा। उसका प्रेम एक सहज दान होगा। उसके भीतर जो शांति और आनंद घटा है, वह बांटेगा। प्रेम का कृत्य होगा कि वह अपनी शांति और आनंद को बांटता रहे। हमारे लिए प्रेम एक संबंध है, उसके लिए प्रेम एक अवस्था होगी। ऐसा नहीं है कि वह प्रेम करेगा आपको, वह प्रेमपूर्ण होगा।

दोनों में फर्क है। आप किसी को प्रेम करते हैं, तो प्रेम आपके लिए एक संबंध है, लेकिन आप प्रेमपूर्ण नहीं हैं। बुद्ध या महावीर किसी को प्रेम नहीं करते, लेकिन प्रेमपूर्ण हैं। इसका यह मतलब भी नहीं है कि सभी को उनका प्रेम बराबर मिलेगा। वे तो सभी को बराबर देते हैं, लेकिन जो जितना ले सकेगा, उतना ही पाएगा। और जो उनके पास दुश्मन की तरह खड़ा हो जाएगा, वह वंचित रह जाएगा। जो उनके पास पूरा हृदय का पात्र खोल देगा, वह पूरा भर जाएगा।

सबको अलग—अलग मिलेगा। लेकिन महावीर की तरफ से बराबर दिया जा रहा है। दिया जा रहा है, यह कहना ठीक नहीं है। यह ऐसे ही है, जैसे कि दीया जलता है तो उससे प्रकाश गिरता है। आप उसके पास से निकलेंगे, अगर आंखें खुली होंगी, तो आपको दिखाई पड़ेगा। आंखें बंद होंगी तो नहीं दिखाई पड़ेगा। प्रकाश आपके लिए गिर भी नहीं रहा है। प्रकाश तो गिर रहा है। आप निकले, आपकी आंखें खुली हैं, तो उपलब्ध हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में प्रेम एक अवस्था होगी।’ जो पाप—पथ को ग्रहण करता है, वह अपने अंतरंग में देखना अस्वीकार कर देता है, अपने कान हृदय के संगीत के प्रति मूंद लेता है और अपनी आंखों को अपनी आत्मा के प्रकाश के प्रति अंधा कर लेता है। उसे अपनी वासनाओं में लिप्त रहना सरल जान पड़ता है, इसी से वह ऐसा करता है।’

पाप—पथ का एक ही अर्थ है, कि तुम अपनी तरफ, अपने भीतर न जा कर, बाहर की तरफ, किसी और की तरफ जा रहे हो। पाप का एक ही अर्थ है कि तुम्हारी अंतर्यात्रा बंद हो रही है और बहिर्यात्रा शुरू हो रही है। सभी बहिर्यात्रा पाप है। उसका नाम चाहे धार्मिक भी दे दो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन जब भी तुम अपने से दूर जा रहे हो, तब तुम पाप—पथ पर हो। और जब तुम अपने करीब आ रहे हो, तो तुम पुण्य—पथ पर हो। और जो व्यक्ति अपने से दूर जाना चाहता है, उसे अपने भीतर की आवाज के प्रति बहरा हो जाना जरूरी है। क्योंकि वह आवाज भीतर खींचेगी। जो अपने से दूर जाना चाहता है, उसे भीतर के प्रति अंधा हो जाना जरूरी है। क्योंकि वह भीतर का दृश्य, आंखों को भीतर बुलाएगा!

तो हम धीरे— धीरे भीतर की तरफ बिलकुल समाप्त हो जाते हैं, ताकि हम बाहर सुविधा से जा सकें, दूर जा सकें, कोई हमें रोके न। फिर जितने हम दूर चले जाते हैं, उतना ही कोलाहल, उतना ही उपद्रव हमारे चारों तरफ इकट्ठा हो जाता है। और फिर जब हम पीड़ित और परेशान हो कर भीतर लौटना चाहते हैं, तो पहले हमें इसी बाजार से लौटना पड़ता है जो हमने ही निर्मित किया है। पर अगर कोई हिम्मत रखे, साहस रखे, तो इस भीड़ के पार जाया जाता है। क्योंकि यह भीड़ बहुत कमजोर है, वह भीतर का स्वर बहुत बलशाली है। बस एक बार संबंध स्थापित हो जाए, तो अनंत के स्रोत के हम मालिक हो जाते हैं।

‘परंतु समस्त जीवन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है, जिसे रोका नहीं जा सकता। सचमुच गहरा पानी वहां मौजूद है, उसे ढूंढ निकालों। इतना जान लो कि तुम्हारे अंदर निःसंदेह वह वाणी मौजूद है। उसे वहां ढूंढो और जब एक बार उसे सुन लोगे, तो अधिक सरलता से तुम उसे अपने आसपास के लोगों में पहचान सकोगे।’

काश, वह तुम्हें सुनाई पड़ जाए, तो फिर वह तुम्हें अपने आसपास सभी में सुनाई पड़ने लगेगी। जितने गहरे तुम अपने भीतर जाओगे, उतने ही गहरे तुम दूसरों के भीतर भी देख सकोगे। जिस दिन तुम अपने केंद्र को पहचान लोगे, उस दिन लोग भी तुम्हारे लिए, शरीर न हो कर आत्माएं हो जाएंगे। क्योंकि उनका केंद्र भी तुम्हारे लिए पारदर्शी हो जाएगा।

एक बात याद रखनी चाहिए, आप अपने भीतर जितने गहरे होते हैं, उतने ही गहरे आप दूसरे के भीतर देख सकते हैं। अगर आप अपने भीतर बिलकुल नहीं हैं, उथले हैं, तो उतना ही उथला आप दूसरे के भीतर देख पाते हैं।

इसलिए कई बार ऐसा हो जाता है कि आप बुद्ध और कृष्ण के करीब से भी गुजर जाते हैं और नहीं पहचान पाते हैं। क्योंकि आप जितना अपने भीतर देख सकते हैं, उतना ही उनके भीतर भी देख सकते हैं। आप उथले हैं तो आप उनकी गहराई में नहीं झांक सकते। आपको उथला ही खयाल आता है, आप उथली ही बातें इकट्ठी कर लेते हैं और सोचते हैं कि आपने जान लिया, पहचान लिया!

और जब मैं यह कहता हूं कि आप बुद्ध के करीब से निकलते हैं, तो मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हूं आप निकले भी हैं। क्योंकि आप जमीन पर रहे ही होंगे। कोई न कोई बुद्ध, कोई न कोई क्राइस्ट, कोई न कोई महावीर, कोई न कोई राम, कोई न कोई कृष्ण, आपके रास्ते पर पड़ा ही होगा। कितने जन्मों में कितने रास्तों से आप गुजरे हैं, लेकिन आप उसको पहचान नहीं पाए! आप पहचान लेते तो शायद आज आप होते भी नहीं। या आप ऐसे न होते, जैसे दुख और पीड़ा से भरे आप हैं।

नहीं पहचानने का कारण यह है कि आप सदा अपनी ही गहराई के अनुपात में देख पाते हैं। जो आपको अपने भीतर नहीं दिखाई पड़ता, वह आपको किसी के भीतर दिखाई नहीं पड़ सकता। अगर आपको चारों तरफ बुरे लोग दिखाई पड़ते हैं, गलत लोग दिखाई पड़ते हैं, अंधकार दिखाई पड़ता है, तो एक बात निश्चित है कि आपने अपने भीतर प्रकाश नहीं देखा। एक बात निश्चित है कि आपने अपने भीतर दिव्यता नहीं देखी। एक बात निश्चित है कि भीतर का संगीत अभी सुनने में नहीं आया।

 

आज इतना ही।


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तंत्र–सूत्र–(भाग-2) प्रवचन–29

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ध्‍वनि से मौन की यात्रा—(प्रवचन—उन्‍नतीसवां)

सूत्र:

42—किसी ध्‍वनि का उच्‍चार ऐसे करो कि वह सुनाई

दे; फिर उस उच्‍चार को मंद से मंदतर किए जाओ—

जैसे—जैसे भाव मौन लयबद्धता में लीन होता जाए।

 

43—मुंह को थोड़ा—सा खुला रखेत हुए मन को जीभ

के बीच में स्‍थिर करो। अथवा जब श्‍वास चुपचाप

भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।

 

44—अ और म के बिना ओम ध्‍वनि पर मन को एकाग्र करो।

 

तंत्र जीवन को दो आयामों में बांटता है। एक आयाम संसार है—यानी जो है। और दूसरा आयाम मोक्ष है—यानी जो हो सकता है, जो अप्रकट से प्रकट हो सकता है। लेकिन इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। जो अप्रकट है, छिपा है, वह भी यहां है, संसार में ही है, लेकिन वह तुम्हारे लिए अज्ञात है। वह अनस्तित्व नहीं है, वह भी है। परम और प्रत्यक्ष दो चीजें नहीं हैं, वरन एक ही अस्तित्व के दो आयाम हैं।

तो तंत्र के लिए कोई विरोध नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। एक ही दो जैसा भासता है; क्योंकि हमारी सीमा है; क्योंकि हम पूरे को, संपूर्ण को नहीं देख सकते हैं। जिस घड़ी हम संपूर्ण को देख सकते हैं, एक एक मालूम होता है। विभाजन यथार्थत: नहीं है, वह हमारे सीमित ज्ञान के कारण है। जिसे हम जानते हैं, वह संसार है। और जो अज्ञात है, लेकिन जाना जा सकता है, वह मोक्ष है, परम है।

दूसरी परंपराओं में संसार और मोक्ष में विरोध है; लेकिन तंत्र कोई विरोध नहीं मानता। इस बात को मन और हृदय के तल पर बहुत गहरे से समझना जरूरी है। जब तक तुम इसे गहन भाव से नहीं समझते, तुम तंत्र की दृष्टि को कभी नहीं समझ पाओगे।

और तुम्हारे जो भी विश्वास हैं, धारणाएं हैं, वे सब द्वैत को, द्वंद्व को मानकर चलती हैं। चाहे तुम ईसाई हो या मुसलमान हो, या हिंदू हो या जैन हो, तुम्हारी मान्यता द्वैत की है, द्वंद्व की है। संसार तुम्हें परमात्मा के विरोध में दिखाई देता है और परमात्मा को पाने के लिए संसार से लड़ना जरूरी मालूम पड़ता है। सभी तथाकथित धर्मों की, खासकर संगठित धर्मों की यह समान धारणा है।

मन द्वैत को बहुत आसानी से समझ सकता है। सच तो यह है कि वह द्वैत को ही समझ सकता है; क्योंकि मन का काम ही बांटना है, विभाजन करना है। मन संपूर्ण को खंडों में तोड़ देता है। यही उसका काम है। मन एक प्रिज्‍म की भांति है। जब प्रकाश की किरण प्रिज्‍म से गुजरती है तो सात रंगों में बंट जाती है। मन एक प्रिज्‍म है, जो सत्य को विभाजित कर देता है। यही कारण है कि मन विश्लेषण करने में बहुत मजा लेता है। वह चीजों को खंडों में बांटता चला जाता है, वह तब तक नहीं रुकता है जब तक बांटने को कुछ शेष रहता है। मन की वृत्ति है कि वह अंतिम इकाई पर, परमाणु पर पहुंच जाता है। वह बांटता जाता है, बांटता जाता है; उस क्षण तक बांटता जाता है जब बांटने को कुछ नहीं बचता है। अगर अब भी बांटना संभव हो तो मन बांटता ही चला जाएगा।

मन खंड करता जाता है, छोटे से छोटे खंड करता जाता है। और सत्य पूर्ण है; सत्य अखंड है। इसलिए सत्य को जानने के लिए सर्वथा विपरीत प्रक्रिया की जरूरत पड़ती है। वह प्रक्रिया संश्लेषण की है, विश्लेषण की नहीं। वह प्रक्रिया जोड़ती है, बांटती नहीं। एक अ—मन की प्रक्रिया जरूरी है।

तंत्र विभाजन को नहीं मानता है। तंत्र कहता है कि पूर्ण पूर्ण है। जिस अंश को हम जानते हैं, वह संसार है; और जो अंश छिपा हुआ है, वह मोक्ष है, परमात्मा है, या उसे जो भी नाम दो। लेकिन जो छिपा है वह भी यहां और अभी है। तुम उसे संभवत: नहीं जानते हो; लेकिन वह है, यहां और अभी है। वह है ही। तुम्हारे लिए वह भविष्य में होगा; लेकिन अस्तित्व में वह यहां और अभी है। हो सकता है कि तुम्हें उस तक पहुंचने के लिए यात्रा करनी पड़े; हो सकता है कि तुम्हें देखने के लिए अ—मन की अवस्था प्राप्त करनी पड़े तब कहीं जाकर तुम उसे जान सको।

यह ऐसा ही है कि तुम खड़े हो और सुबह का सूरज उग रहा है; लेकिन तुम आंख बंद किए खड़े हो। सुबह तो यहां और अभी है, लेकिन तुम्हारे लिए वह यहां और अभी नहीं है। जब तुम आंख खोलोगे तब वह तुम्हारे लिए तथ्य होगा। अस्तित्व में तो सुबह है; लेकिन तुम्हारे लिए नहीं है। तुम उसके प्रति बंद हो; तुम्हारे लिए वह छिपा है। तुम्हारे लिए तो सिर्फ अंधेरा है; प्रकाश छिपा है। लेकिन अगर तुम आंख खोल लो तो किसी भी क्षण सुबह तुम्हारे लिए हकीकत हो जाए। हकीकत तो वह थी ही; लेकिन तुम अंधे थे।

तंत्र कहता है कि संसार ही परमात्मा है; लेकिन तुम अंधे हो। इसलिए तुम अपने अंधेपन में जो कुछ जानते हो वह संसार कहलाता है, और तुम्हारे अंधेपन के कारण जो भी छिपा है वह परमात्मा है। यह एक बुनियादी सिद्धांत है कि संसार ही मोक्ष है, संसार ही परमात्मा है, संसार ही निर्वाण है। प्रत्यक्ष और परम दो नहीं, एक ही हैं। यहां और वहां दो नहीं, एक ही हैं।

इस स्पष्ट दृष्टि के कारण तंत्र के लिए बहुत सी चीजें संभव हो जाती हैं। एक तो यह कि तंत्र सब कुछ को स्वीकार कर सकता है। और यह प्रगाढ़ स्वीकृति तुम्हें बहुत शांति से भर देती है। कोई दूसरी चीज तुम्हें इतनी शांति नहीं दे सकती।

अगर इहलोक और परलोक में विभाजन नहीं है, अगर परम तत्व यहीं और अभी है, अगर पदार्थ परमात्मा का ही शरीर है तो कुछ भी अस्वीकृत नहीं रहता, कुछ भी निंदा योग्य नहीं रहता। और तब तनाव की क्या जरूरत है! अगर परमात्मा को पाने में सदियां लग जाएं तो भी तंत्र को कुछ जल्दी नहीं है। वह है ही; और समय की कोई कमी नहीं है। वह शाश्वत रूप से यहां है; जब भी तुम आंख खोलोगे वह तुम्हें मिल जाएगा। और अभी भी तुम्हें जो कुछ मिल रहा है, वह भी परमात्मा ही है—अप्रकट परमात्मा।

तो ईसाइयों की निंदा और पाप की जो धारणा है, या अन्य धर्मों की जो ऐसी धारणाएं हैं, वे तंत्र को स्वीकृत नहीं हैं; तंत्र उन्हें सर्वथा गलत और बेकार मानता है। क्योंकि जब तुम किसी चीज की निंदा करते हो तो तुम भी अपने भीतर बंट जाते हो। तुम सिर्फ चीजों को बहार से बांट नहीं सकते, जब तुम किसी चीज को बांटते हो तो तुम भी साथ—साथ बंट जाते हो। अगर तुम कहते हो कि यह संसार गलत है तो तुम्हारा शरीर गलत हो जाता है, क्योंकि तुम्हारा शरीर इस संसार का ही हिस्सा है। अगर तुम कहते हो कि यह संसार परमात्मा को पाने के लिए बाधा है तो यह कहने से ही तुम्हारा सारा जीवन निंदित हो जाता है और तुम अपराधी अनुभव करते हो। तब तुम आनंदित नहीं हो सकते हो। तब तुम्हारे लिए जीना कठिन होगा। तब तुम हंस नहीं सकते हो। तब तुम्हारा चेहरा सदा गंभीर बना रहेगा। तब तुम गंभीर ही हो सकते हो। तब तुम गैर—गंभीर नहीं हो सकते; तब तुम जीवन को खेल की तरह नहीं ले सकते।

यही हुआ है। संसार में सबके मनों के साथ यही हुआ है। सबके मन गंभीर हो गए हैं, मृत हो गए हैं। गंभीरता के कारण वे मृतवत हो गए हैं। क्योंकि जीवन जैसा है वे उसे वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकते। वे उसे इनकार करते हैं और वे समझते हैं कि उसे इनकार किए बिना वे परलोक को नहीं प्राप्त कर सकते। इसलिए परलोक उनका आदर्श, उनका भविष्य, उनकी कामना, उनका स्वप्न बना है और यह लोक पाप बन गया है। और तब आदमी उसके साथ अपराधी अनुभव करता है। और जो धर्म तुम्हें अपराधी बनाता है। वह तुम्हें रुग्ण बना देता है। वह तुम्हें विक्षिप्त बना देता है।

इस अर्थ में तंत्र ही एकमात्र स्वस्थ धर्म है। और जब भी कोई धर्म स्वस्थ होता है, वह तंत्र हो जाता है, तंत्रमय हो जाता है। प्रत्येक धर्म के दो पक्ष हैं। एक उसका बाहरी पक्ष है, जिसमें संगठन है, व्यवस्था है, चर्च है; वह उसका प्रचलित और सार्वजनिक रूप है। यह पक्ष सदा जीवन—विरोधी होता है। दूसरा आंतरिक पक्ष है, गुह्य पक्ष है। और प्रत्येक धर्म में यह गुह्य पक्ष भी होता है। और वह पक्ष सदा तंत्र—सम्मत होता है—सब स्वीकार करने वाला होता है।

जब तक तुम संसार को समग्रता से स्वीकार नहीं करते, तुम अपने भीतर चैन में नहीं हो सकते हो। अस्वीकार से तनाव पैदा होता है। जब तुम जीवन जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार कर लेते हो, यह संसार तुम्हारा घर हो जाता है। और तंत्र कहता है कि यह बात आधारभूत है कि तुम्हें अपने घर में होने का अनुभव हो—शांत और स्वस्थ। तभी कुछ महत के घटित होने की संभावना होती है। अगर तुम तनावग्रस्त हो, विभाजित हो, अपराधी अनुभव करते हो, दुख—द्वंद्व में हो तो तुम अतिक्रमण नहीं कर सकते। तुम अपने भीतर इतने विक्षिप्त हो कि आगे की यात्रा कैसे होगी? तुम यहीं इतने उलझे हो, यहीं तुम इतने ग्रस्त हो कि तुम इसके पार नहीं जा सकते।

यह बड़ा विरोधाभास है। जो लोग संसार के बहुत विरोध में होते हैं, वे उतने ही संसार में होते हैं। उन्हें होना पड़ता है। तुम अपने दुश्मन से भागकर नहीं जा सकते; दुश्मन ने तुम्हें बांधा हुआ है। अगर संसार तुम्हारा दुश्मन है तो चाहे तुम कुछ भी करो या करने का नाटक करो, कुछ फर्क नहीं पड़ता, तुम संसारी ही रहोगे। तुम उसके विपरीत भी जा सकते हो, तुम उसका त्याग भी कर दे सकते हो, लेकिन तुम्हारी पकड़ सांसारिक की ही पकड़ रहेगी। मैं एक संत को जानता हूं। वे बड़े प्रसिद्ध संत हैं। वे धन को नहीं छूते हैं। अगर तुम उनके सामने कुछ मुद्राएं रख दो तो वे अपनी आंखें बंद कर लेंगे। यह मानसिक रुग्णता है। यह आदमी बीमार है। वह क्या कर रहा? लेकिन इसके लिए ही लोग उसकी पूजा करते है। वे सोचते हैं कि वे बड़े भारी संत हैं, जो कि वे नहीं हैं। वे संसार में बहुत ग्रस्त हैं। तुम भी उतने ग्रस्त नहीं हो। पर वे कर क्या रहे हैं?

उन्होंने बस प्रक्रिया को उलट दिया है। वे शीर्षासन कर रहे हैं। वे वही आदमी अब भी हैं जो धन का लोभी था। पहले वे निरंतर धन की चिंता में लगे थे, धन बटोर रहे थे। अब वे उसके ठीक विपरीत हो गए हैं। लेकिन तो भी वे वही आदमी हैं; कोई फर्क नहीं पड़ा है। अब वे धन के विरुद्ध हैं; अब वे धन को नहीं छूते हैं। पर यह भय क्यों? यह घृणा क्यों?

स्मरण रहे, घृणा प्रेम का ही सिर के बल खड़ा रूप है; घृणा शीर्षासन करता हुआ प्रेम है। तुम उसी चीज से घृणा करते हो जिसके साथ गहरे प्रेम में होते हो। जिससे तुम प्रेम करते हो, उससे ही घृणा भी करते हो। सदा प्रेम के साथ ही घृणा संभव होती है। तुम अगर किसी चीज के बहुत पक्ष में हो तो ही तुम उसके विरोध में जा सकते हो। लेकिन बुनियादी वृत्ति वही की वही रहती है। यह आदमी लोभी है।

मैंने उस आदमी से पूछा कि तुम इतने भयभीत क्यों हो? उसने कहा कि धन बाधा है, यदि मैं धन के प्रति अपने लोभ पर अंकुश न लगाऊं तो मैं परमात्मा को नहीं पा सकूंगा।

लेकिन यह तो नया लोभ हो गया। यह आदमी सौदा कर रहा है। अगर वह धन छूता है तो परमात्मा को खो देता है। और वह परमात्मा को पाना चाहता है, परमात्मा पर कब्जा करना चाहता है, इसलिए वह धन के खिलाफ है।

तंत्र कहता है, न संसार के पक्ष में होओ और न विपक्ष में, बस उसे वैसा ही स्वीकार करो जैसा वह है। उसको समस्या मत बनाओ।

इस स्वीकार से क्या होगा? अगर तुम संसार को अपनी समस्या नहीं बनाते, अगर तुम इस बात को लेकर—पक्ष या विपक्ष में जाकर—तनावग्रस्त और बीमार नहीं होते, अगर तुम उसके साथ राजी होते हो, वह जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करते हो तो तुम्हारी सारी ऊर्जा उससे मुक्त हो जाती है। और तब वह अज्ञात जगत में, अदृश्य आयाम में गति कर सकती है। इस जगत में स्वीकार उसके लिए अतिक्रमण बन जाता है। यहां का सर्व —स्वीकार तुम्हें दूसरे आयाम में, अज्ञात आयाम में ले जाएगा, तुम्हें रूपांतरित कर देगा। क्योंकि स्वीकार करते ही तुम्हारी सारी ऊर्जा मुक्त हो जाती है; वह यहां बंधी नहीं रहती।

तंत्र नियति की धारणा में प्रगाढ़ रूप से भरोसा करता है। तंत्र कहता है कि इस जगत को अपनी नियति मानो, भाग्य की भांति लो और उसकी चिंता मत करो। अगर तुम उसे अपनी नियति की तरह ले सको तो ही तुम उसे स्वीकार कर सकोगे—चाहे वह जो भी हो। तब तुम्हें उसे बदलने की, उसमें फर्क लाने की, उसे अपनी इच्छा के अनुसार बनाने की फिक्र नहीं रहेगी। और जब तुम उसे वैसा ही स्वीकार कर लेते हो जैसा वह है, जब तुम उससे परेशान नहीं हो, तो तुम्हारी सारी ऊर्जा मुक्त होकर अंतर्यात्रा पर निकल जाती है।

अगर तुम्हारी दृष्टि ऐसी हो तो ही ये विधियां सहयोगी हो सकती हैं; अन्यथा नहीं। और ये विधियां इतनी सरल मालूम पड़ती हैं। अगर तुम वैसे ही रहे जैसे हो और सीधे उनका प्रयोग करने लगे तो तुम उनके साथ सफल नहीं हो सकते—चाहे वे कितनी ही सरल मालूम पड़ें। क्योंकि वह बुनियादी पृष्ठभूमि ही नहीं है। स्वीकार वह बुनियादी पृष्ठभूमि है। इस स्वीकार के होते ही ये सरल सी विधियां कमाल करने लगेंगी।

ध्वनि—संबंधी छठवीं विधि:

किसी ध्वनि का उच्चार ऐसे करो कि वह सुनाई दे; फिर उस उच्चार को मंद से मंदतर किए जाओ— जैसे— जैसे भाव मौन लयबद्धता में लीन होता जाए।

कोई भी ध्वनि काम देगी; लेकिन अगर तुम्हारी कोई प्रिय ध्वनि हो तो वह बेहतर होगी। क्योंकि तुम्हारी प्रिय ध्वनि मात्र ध्वनि नहीं रहती; जब तुम उसका उच्चार करते हो तो उसके साथ एक अप्रकट भाव भी उठता है। और फिर धीरे— धीरे वह ध्वनि तो विलीन हो जाएगी और भाव भर रह जाएगा।

ध्वनि को भाव की तरफ ले जाने वाले मार्ग की तरह उपयोग करना चाहिए। ध्वनि मन है और भाव हृदय है। मन को हृदय से मिलने के लिए मार्ग चाहिए। हृदय में सीधा प्रवेश कठिन है। हम हृदय को इतना भुला दिए हैं, हम हृदय के बिना इतने जन्मों से रहते आए हैं कि हमें पता नहीं रहा है कि कहां से उसमें प्रवेश करें। द्वार बंद मालूम पड़ता है। हम हृदय की बात बहुत करते हैं; लेकिन वह बातचीत भी मन की ही है। हम कहते तो हैं कि हम हृदय से प्रेम करते हैं, लेकिन हमारा प्रेम भी मानसिक है, मस्तिष्कगत है। हमारा प्रेम भी बौद्धिक प्रेम है। हृदय की बात भी मस्तिष्क में घटित होती है। हमें पता ही नहीं रहा है कि हृदय कहा है।

हृदय से मेरा अभिप्राय शारीरिक हृदय से नहीं है, उसे तो हम जानते हैं। लेकिन शरीर शास्त्री और वैद्य—डाक्टर कहेंगे कि उस हृदय में प्रेम की संभावना नहीं है, वह तो केवल पंप का काम करता है, फुफ्फुस का काम करता है। उसमें और कुछ नहीं है, और बातें बस कपोलकल्पना हैं, कविता हैं, स्‍वप्‍न हैं।

लेकिन तंत्र जानता है कि तुम्हारे शारीरिक हृदय के पीछे ही एक गहरा केंद्र छिपा है। उस गहरे केंद्र तक मन के द्वारा ही पहुंचा जा सकता है, क्योंकि हम मन में हैं। हम अपने मन में हैं और अंतस की ओर कोई भी यात्रा वहीं से आरंभ हो सकती है।

मन ध्वनि है, आवाज है। अगर सब ध्वनि बंद हो जाए तो तुम्हारा मन नहीं रहेगा। मौन में मन नहीं है। यही कारण है कि मौन पर इतना बल दिया जाता है। मौन अ—मन की अवस्था है। आमतौर से हम कहते हैं कि मेरा मन शांत है। यह बात बेतुकी है, अर्थहीन है। क्योंकि मन का अर्थ है मौन की अनुपस्थिति। तुम यह नहीं कह सकते कि मन शांत है। मन है तो शाति नहीं हो सकती और शाति है तो मन नहीं हो सकता। शांत मन नाम की कोई चीज नहीं होती। हो नहीं सकती। यह ऐसा ही है जैसे कि तुम कहो कि कोई व्यक्ति जीवित—मृत है। उसका कोई अर्थ नहीं है। अगर वह मृत है तो वह जीवित नहीं हो सकता और अगर वह जीवित है तो मृत नहीं हो सकता। तुम जीवित—मृत नहीं हो सकते हो। इसलिए शांत मन जैसी कोई चीज नहीं होती। शाति आती है तो मन नहीं रहता। सच तो यह है कि मन जब विदा होता है तो शाति आती है। या कहो कि शाति आती है तो मन विदा हो जाता है। दोनों एक साथ नहीं हो सकते।

मन ध्वनि है। अगर यह ध्वनि व्यवस्थित है तो तुम स्वस्थ चित्त हो। और अगर वह अराजक हो जाए तो तुम विक्षिप्त कहलाओगे। लेकिन दोनों हालत में ध्वनि है, आवाज है।

और हम मन के तल पर रहते हैं। उस तल से हृदय के आंतरिक तल पर कैसे उतरा जाए? ध्‍वनि का उपयोग करो। ध्‍वनि का उच्‍चार करो। किसी एक ध्‍वनि का उच्‍चार उपयोगी होगी। अगर मन में अनेक ध्वनियां हैं तो उन्हें छोड़ना कठिन होगा। और अगर एक ही ध्वनि हो तो उसे सरलता से छोड़ा जा सकता है। इसलिए पहले एक ध्वनि के लिए अनेक का त्याग करना होगा। एकाग्रता का यही उपयोग है।

किसी एक ध्वनि का उच्चार करो। उसका उच्चार करते जाओ। पहले जोर से उच्चार करो कि तुम उसे सुन सको और फिर धीरे— धीरे उच्चार को मंद से मंदतर करते जाओ कि सुनाई न पड़े। तब कोई दूसरा उसे न सुन सकेगा, यद्यपि तुम तो उसे भीतर सुनोगे। इस उच्चार को और धीमा करते जाओ कि कम से कम सुनाई दे, और फिर अचानक उच्चार को बंद कर दो। तब शाति होगी, शाति का विस्फोट होगा। लेकिन भाव रहेगा। विचार तो अब नहीं रहेंगे, लेकिन भाव रहेगा।

इसलिए अच्छा है कि कोई ध्वनि, कोई नाम, कोई मंत्र लो, जो तुम्हें प्रीतिकर हो, जिससे तुम्हारा भाव जुड़ा हो। अगर कोई हिंदू राम शब्द का उपयोग करता है तो उसके साथ उसका भाव जुड़ा होगा। यह उसके लिए मात्र शब्द नहीं रहेगा। यह उसकी बुद्धि तक ही सीमित नहीं रहेगा, इसकी तरंगें उसके हृदय तक चली जाएंगी। उसको भला इसका पता न हो; लेकिन यह ध्वनि उसके रक्त में समाई है, उसकी मांस—मज्जा में समाहित है। उसके पीछे लंबी परंपरा है, गहरे संस्कार हैं; उसके पीछे जन्मों—जन्मों के संस्कार हैं। जिस ध्वनि के साथ तुम्हारा लंबा लगाव बन जाता है, वह तुममें गहरी जड़ें जमा लेती हैं। उसका उपयोग करो। उसका उपयोग किया जा सकता है।

अगर कोई ईसाई ’राम’ का उपयोग करता है तो वह कर सकता है, लेकिन यह उसके मन में ही रहेगा, वह उसमें गहरा नहीं जा पाएगा। उसके लिए जीसस या मारिया या कुछ ऐसा ही नाम उपयोगी रहेगा। नई धारणा से प्रभावित होना आसान है, लेकिन उसका उपयोग करना कठिन है। उसके लिए तुम्हारे दिल में कोई भाव नहीं रहेगा। अगर तुम्हें अपने मन में विश्वास भी हो कि यह नई धारणा बेहतर होगी तो भी यह विश्वास सतही होगा।

मेरे एक मित्र जर्मनी में बीमार पड़े। वे जर्मनी में तीस वर्षों से रह रहे थे और अपनी मातृभाषा बिलकुल भूल गए थे। वे महाराष्ट्र के थे और उनकी मातृभाषा मराठी थी। वे मराठी बिलकुल भूल गए थे। तीस वर्षों से वे जर्मन भाषा में बोलते थे। जर्मन भाषा उनकी मातृभाषा जैसी हो गई थी। मैं मातृभाषा जैसी इसलिए कहता हूं क्योंकि कोई दूसरी भाषा तुम्हारी मातृभाषा नहीं हो सकती। वह संभव ही नहीं है; क्योंकि मातृभाषा तुम्हारी गहराई में बसी होती है। चेतन रूप से वे अपनी मातृभाषा भूल गए थे; वे न उसे बोल सकते थे, न समझ सकते थे।

और फिर वे बीमार पड़े। और वे इतने अधिक बीमार हुए कि उनके पूरे परिवार को उन्हें देखने के लिए उनके पास जाना पड़ा। वे तो बेहोश पड़े थे। कभी—कभी होश वापस आता था। और बड़ी हैरानी की बात यह थी कि जब वे होश में होते थे तो जर्मन बोलते थे और जब बेहोशी में होते थे तो मराठी में बड़बड़ाते थे। बेहोशी में वे मराठी बोलते थे और होश में जर्मन। चेतन अवस्था में वे मराठी बिलकुल नहीं समझते थे; और अचेतन अवस्था में वे जर्मन नहीं समझते थे।

कहीं गहरे अचेतन में मराठी बसी थी, जीवित थी। वह उनकी मातृभाषा थी और मातृभाषा छीन से मौन की जगह कोई नहीं ले सकता। तुम उसके ऊपर दूसरी भाषाएं आरोपित कर सकते हो, दूसरी की यात्रा तो अगर कोई ध्वनि तुम्हें प्रीतिकर है तो उसका उपयोग करना अच्छा रहेगा। कोई बौद्धिक ध्वनि मत उपयोग करो। उससे कोई लाभ नहीं होता; क्योंकि ध्वनि का उपयोग मन से हृदय तक मार्ग बनाने के लिए करना है। इसलिए कोई ऐसी ध्वनि काम में लाओ जिसके लिए तुम्हें गहरा लगाव हो, भाव हो। अगर कोई मुसलमान ’राम’ का उपयोग करता है तो यह उसके लिए कठिन होगा। यह शब्द उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखता है।

यही कारण है कि दुनिया के दो सबसे पुराने धर्म—हिंदू और यहूदी—धर्म—परिवर्तन में कभी विश्वास नहीं करते। वे सबसे प्राचीन धर्म हैं, आदि धर्म हैं; और सारे धर्म उनकी ही शाखा—प्रशाखा हैं। ईसाइयत और इस्लाम यहूदी परंपरा की शाखाएं हैं और बौद्ध, जैन और सिक्‍ख धर्म हिंदू धर्म की शाखाएं हैं। और ये दो आदि धर्म धर्म—परिवर्तन को नहीं मानते हैं। उसका कारण यह है कि तुम किसी को बौद्धिक तल पर ही बदल सकते हो, हृदय के तल पर नहीं बदल सकते। तुम एक हिंदू को ईसाई बना सकते हो, एक ईसाई को हिंदू बना सकते हो, लेकिन यह बदलाहट मन के तल पर ही रहेगी। धर्म—परिवर्तन करने वाला हिंदू अपने अंतस में हिंदू ही रहता है। वह चर्च जा सकता है, वह मैरी या जीसस की प्रार्थना भी कर सकता है; लेकिन उसकी प्रार्थना भी बुद्धिगत ही रहेगी। तुम उसके अचेतन को नहीं बदल सकते। अगर तुम उसे सम्मोहित करोगे तो पाओगे कि वह हिंदू है। अगर उसे सम्मोहित करके उसके अचेतन को प्रकट करने का मौका दोगे तो उसके भीतर तुम्हें हिंदू मिलेगा।

इसी बुनियादी तथ्य के कारण हिंदू और यहूदी धर्म—परिवर्तन नहीं कराते थे। तुम किसी व्यक्ति के धर्म को नहीं बदल सकते; क्योंकि तुम उसके हृदय और अचेतन भावों को नहीं बदल सकते। अगर तुम वैसी चेष्टा करोगे तो सिर्फ उस व्यक्ति को उपद्रव में डालोगे। क्योंकि तुम उसे कुछ पकड़ा दोगे जो सतह पर ही रहेगा और वह खंडित हो जाएगा। तब उसका व्यक्तित्व खंडित व्यक्तित्व बन जाएगा। गहरे में वह हिंदू रहेगा और सतह पर ईसाई होगा। वह ईसाई ध्वनियों और मंत्रों का प्रयोग करेगा, जो गहरे नहीं जाएंगे, और वह गहरे जाने वाली हिंदू ध्वनियों का प्रयोग नहीं करेगा। उसका जीवन एक उपद्रव हो जाएगा।

तो कोई ऐसी ध्वनि खोजो जिसके प्रति तुम्हारे हृदय में कुछ भाव हो, रस हो। तुम्हारा अपना नाम भी इस अर्थ में सहयोगी हो सकता है। तुम्हारा नाम भी! अगर किसी और चीज के लिए भाव न हो तो तुम्हारा नाम ही काम दे देगा। ऐसे कई उदाहरण हैं।

बक्स नाम का एक प्रसिद्ध संत अपने नाम को ही उपयोग में लाता रहा। वह कहता था कि मैं किसी परमात्मा को नहीं मानता, मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता, यह भी नहीं जानता कि उसका नाम क्या है। जो भी नाम हैं वे मैंने सुने भर हैं; लेकिन क्या सबूत है कि वे उसके ही नाम हैं! और फिर वह कहता था कि मैं तो अपने को खोजता हूं तो अपना नाम ही क्यों न पुकारूं! और वह अपना नाम ले—लेकर मौन में उतर जाया करता था।

तो अगर तुम्हें और किसी ध्वनि से प्रेम नहीं है तो अपना नाम ही उपयोग करो। लेकिन

यह भी बहुत कठिन है। कारण यह है कि तुम अपने प्रति इतनी निंदा से भरे हो कि तुम्हें अपने प्रति कोई भाव नहीं है, कोई आदर नहीं है। दूसरे भले तुम्हारा आदर करते हों; लेकिन तुम खुद अपना आदर नहीं करते।

तो पहली बात है कि कोई उपयोगी ध्वनि खोजो। उदाहरण के लिए, अपने प्रेमी या अपनी प्रेमिका का नाम भी चलेगा। अगर तुम्हें फूल से प्रेम है तो गुलाब शब्द काम दे देगा। कोई भी ध्वनि जो तुम्हें भाती हो, जिसे सुनकर तुम स्वस्थ अनुभव करते हो, उसका उपयोग कर लो। और अगर तुम्हें ऐसा कोई शब्द न मिले तो परंपरागत स्रोतों से जो कुछ शब्द उपलब्ध हैं उनका उपयोग कर सकते हो। ओम का उपयोग करो। आमीन का उपयोग करो। मारिया भी चलेगा। राम भी चलेगा। बुद्ध और महावीर के नाम भी काम में लाए जा सकते हैं। कोई भी नाम, जिसके लिए तुम्हें भाव हो, चलेगा। लेकिन भाव का होना जरूरी है। इसीलिए गुरु का नाम सहयोगी हो सकता है; लेकिन भाव चाहिए। भाव अनिवार्य है।

‘किसी ध्वनि का उच्चार ऐसे करो कि वह सुनाई दे; फिर उस उच्चार को मंद से मंदतर किए जाओ—जैसे—जैसे भाव मौन लयबद्धता में लीन होता जाए।’

ध्वनि को निरंतर घटाते जाओ। उच्चार को इतना धीमा करो कि तुम्हें भी उसे सुनने के लिए प्रयत्न करना पड़े। ध्वनि को कम करते जाओ, कम करते जाओ—और तुम्हें फर्क मालूम होगा। ध्वनि जितनी धीमी होगी, तुम उतने ही भाव से भरोगे। और जब ध्वनि विलीन होती है तो भाव ही शेष रहता है। इस भाव को नाम नहीं दिया जा सकता; वह प्रेम है, प्रगाढ़ प्रेम है। लेकिन यह प्रेम किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं है। यही फर्क है।

जब तुम कोई ध्वनि या शब्द उपयोग करते हो तो उसके साथ प्रेम जुड़ा रहता है। तुम राम—राम कहते हो तो इस शब्द के प्रति तुम्हारे भीतर बड़ा गहरा भाव होता है। लेकिन यह भाव राम के प्रति निवेदित है, राम पर सीमित है। लेकिन जब तुम राम ध्वनि को मंद से मंदतर करते जाते हो तो एक क्षण आएगा जब राम विदा हो जाएगा, ध्वनि विदा हो जाएगी और सिर्फ भाव शेष रहेगा। यह प्रेम का भाव है जो राम के प्रति नहीं है, यह किसी के भी प्रति नहीं है। केवल प्रेम का भाव है—मानो तुम प्रेम के सागर हो।

प्रेम जब किसी के प्रति निवेदित नहीं होता है तो वह हृदय का प्रेम होता है। और जब वह निवेदित प्रेम होता है तो वह मस्तिष्क का प्रेम होता है। जो प्रेम किसी के प्रति है, वह मस्तिष्क से घटित होता है। और केवल प्रेम, मात्र प्रेम हृदय का होता है। और यह केवल प्रेम, अनिवेदित प्रेम ही प्रार्थना बनता है। अगर वह किसी के प्रति निवेदित है तो वह प्रार्थना नहीं बन सकता; तब तुम अभी राह पर ही हो।

इसीलिए मैं कहता हूं कि अगर तुम ईसाई हो तो तुम हिंदू की भांति नहीं आरंभ कर सकते; तुम्हें ईसाई की भाति ही आरंभ करना चाहिए। अगर तुम मुसलमान हो तो तुम ईसाई की तरह शुरू नहीं कर सकते, तुम्हें मुसलमान की तरह ही शुरू करना चाहिए। लेकिन तुम जितने गहरे जाओगे उतने ही कम मुसलमान या ईसाई या हिंदू रहोगे। सिर्फ आरंभ हिंदू मुसलमान या ईसाई की तरह से होगा।

तुम जितना ही हृदय की तरफ गति करोगे—ध्वनि जितनी कम होगी और भाव जितना बढ़ेगा—तुम उतने ही कम हिंदू या मुसलमान रह जाओगे। और जब ध्वनि विलीन हो जाएगी तो तुम केवल मनुष्य होगे—न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई।

संप्रदाय या धर्म का यही फर्क है। धर्म एक है; संप्रदाय अनेक हैं। संप्रदाय शुरू करने में सहयोगी हैं। लेकिन तुम अगर सोचते हो कि संप्रदाय अंत हैं, मंजिल हैं, तो तुम कहीं के न रहेगा। वे आरंभ भर है। तुम्‍हें उसके पार जाना होगा; क्‍योंकि आरंभ अंत नहीं है। अंत में धर्म है; आरंभ में संप्रदाय है। संप्रदाय का उपयोग धर्म के लिए करो; सीमित का उपयोग असीम के लिए करो; क्षुद्र का उपयोग विराट के लिए करो।

किसी भी ध्वनि से काम चलेगा। अपनी ध्वनि खोज लो। और जब तुम उसका उच्चार करोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि उसके साथ तुम्हारा संबंध प्रेमपूर्ण है अथवा नहीं। प्रेमपूर्ण संबंध होगा तो तुम्हारा हृदय उसके साथ तरंगायित होने लगेगा। प्रेमपूर्ण संबंध होगा तो तुम्हारा शरीर ज्यादा संवेदनशील होने लगेगा। तुम्हें लगेगा जैसे कि मैं प्रेमिका की गोद जैसी उष्ण व सुखद जगह में बैठा हूं। एक उष्णता तुम्हें घेरने लगेगी। तुम्हें यह अनुभव न केवल मानसिक तल पर होगा, बल्कि शारीरिक तल पर भी होगा। अगर तुम किसी ऐसी ध्वनि का उच्चार करोगे जो तुम्हें प्रीतिकर है तो तुम्हें अपने भीतर और बाहर, चारों तरफ एक ऊष्मा का, सुख का अनुभव होगा। तब यह संसार एक कठोर संसार नहीं रह जाएगा, एक हृदयपूर्ण संसार होगा।

यदि तुम किसी हिंदू मंदिर में गए हो तो वहां तुमने गर्भ—गृह का नाम सुना होगा। मंदिर के अंतरस्थ भाग को गर्भ कहते हैं। शायद तुमने ध्यान न दिया हो कि उसे गर्भ क्यों कहते हैं। अगर तुम मंदिर की ध्वनि का उच्चार करोगे—हरेक मंदिर की अपनी ध्वनि है, अपना मंत्र है, अपना इष्ट—देवता है और उस इष्ट—देवता से संबंधित मंत्र है—अगर उस ध्वनि का उच्चार करोगे तो पाओगे कि उससे वहां वही ऊष्णता पैदा होती है जो मा के गर्भ में पाई जाती है। यही कारण है कि मंदिर के गर्भ को मां के गर्भ जैसा गोल और बंद, करीब—करीब बंद बनाया जाता है। उसमें एक ही छोटा सा द्वार रहता है।

जब ईसाई पहली बार भारत आए और उन्होंने हिंदू मंदिरों को देखा तो उन्हें लगा कि ये मंदिर तो बहुत अस्वास्थ्यकर हैं; उनमें खिड़कियां नहीं हैं, सिर्फ एक छोटा सा दरवाजा है। लेकिन मां के गर्भ में भी तो एक ही द्वार होता है और उसमें भी हवा के आने—जाने की व्यवस्था नहीं रहती। यही वजह है कि मंदिर को ठीक मां के पेट जैसा बनाया जाता है; उसमें एक ही दरवाजा रखा जाता है। अगर तुम उसकी ध्वनि का उच्चार करते हो तो गर्भ सजीव हो उठता है। और इसे इसलिए भी गर्भ कहा जाता है क्योंकि वहां तुम नया जन्म ग्रहण कर सकते हो, तुम नया मनुष्य बन सकते हो।

अगर तुम किसी ऐसी ध्वनि का उच्चार करो जो तुम्हें प्रीतिकर है, जिसके लिए तुम्हारे हृदय में भाव है, तो तुम अपने चारों ओर एक ध्वनि—गर्भ निर्मित कर लोगे। अत: इसे खुले आकाश के नीचे करना अच्छा नहीं है। तुम बहुत कमजोर हो; तुम अपनी ध्वनि से पूरे आकाश को नहीं भर सकते। एक छोटा कमरा इसके लिए अच्छा रहेगा। और अगर वह कमरा तुम्हारी ध्वनि को तरंगायित कर सके तो और भी अच्छा। उससे तुम्हें मदद मिलेगी। और एक ही स्थान पर रोज—रोज साधना करो तो वह और भी अच्छा रहेगा। वह स्थान आविष्ट हो जाएगा। अगर एक ही ध्वनि रोज—रोज दोहराई जाए तो उस स्थान का प्रत्येक कण, वह पूरा स्थान एक विशेष तरंग से भर जाएगा; वहां एक अलग वातावरण, एक अलग माहौल बन जाएगा।

यही कारण है कि मंदिरों में अन्य धर्मों के लोगों को प्रवेश नहीं मिलता। अगर कोई मुसलमान नहीं है तो उसे मक्का में प्रवेश नहीं मिल सकता है। और यह ठीक है। इसमें कोई भूल। इसका कारण यह है कि मक्का एक विशेष विज्ञान का स्थान है। जो व्‍यक्‍ति मुसलमान नहीं है वह वहां ऐसी तरंग लेकर जाएगा जो पूरे वातावरण के लिए उपद्रव हो सकती है। अगर किसी मुसलमान को हिंदू मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता है तो यह अपमानजनक नहीं है। जो सुधारक मंदिरों के संबंध में, धर्म और गुह्य विज्ञान के संबंध में कुछ भी नहीं जानते हैं और व्यर्थ के नारे लगाते हैं, वे सिर्फ उपद्रव पैदा करते हैं।

हिंदू मंदिर केवल हिंदुओं के लिए हैं, क्योंकि हिंदू मंदिर एक विशेष स्थान है, विशेष उद्देश्य से निर्मित हुआ है। सदियों —सदियों से वे इस प्रयत्न में लगे रहे हैं कि कैसे जीवंत मंदिर बनाएं; और कोई भी व्यक्ति उसमें उपद्रव पैदा कर सकता है। और यह उपद्रव खतरनाक सिद्ध हो सकता है। मंदिर कोई सार्वजनिक स्थान नहीं है। वह एक विशेष उद्देश्य से और विशेष लोगों के लिए बनाया गया है। वह आम दर्शकों के लिए नहीं है।

यही कारण है कि पुराने दिनों में आम दर्शकों को वहां प्रवेश नहीं मिलता था। अब सब को जाने दिया जाता है; क्योंकि हम नहीं जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं। दर्शकों को नहीं जाने दिया जाना चाहिए; यह कोई खेल—तमाशे का स्थान नहीं है। यह स्थान विशेष तरंगों से तरंगायित है, विशेष उद्देश्य के लिए निर्मित हुआ है।

अगर यह राम का मंदिर है और अगर तुम उस परिवार में पैदा हुए हो जहां राम का नाम पूज्य रहा है, प्रिय रहा है, तो जब तुम उस मंदिर में प्रवेश करते हो जो सदा राम के नाम से तरंगायित है तो वहां जाकर तुम अनजाने, अनायास जाप करने लगोगे। वहां का माहौल तुम्हें राम—नाम जपने को मजबूर कर देगा। वहां की तरंगें तुम पर चोट करेंगी और तुम्हारे अंतस से नाम—जप उठने लगेगा।

इसलिए एक ही स्थान का उपयोग करो—स्थान के रूप में मंदिर अच्छा है। ये विधियां मंदिर के लिए हैं। मंदिर अच्छा है, मस्जिद अच्छी है; चर्च अच्छा है। तुम्हारा अपना घर इन विधियों के लिए उपयुक्त नहीं है। वहां इतना कोलाहल है कि वह अराजकता का स्थान बन गया है। और तुम इतने बलवान नहीं हो कि अपनी ध्वनि से उस वातावरण को बदल सको। तो अच्छा है कि किसी ऐसी जगह चले जाओ जो किसी विशेष ध्वनि के लिए बनी हो। ऐसे स्थान का उपयोग करो। और अच्छा है कि रोज—रोज एक ही स्थान को काम में लाओ।

धीरे— धीरे तुम शक्तिशाली हो जाओगे और धीरे— धीरे तुम मन से हृदय में उतर जाओगे। तब तुम कहीं भी यह प्रयोग कर सकते हो; तब सारा ब्रह्मांड तुम्हारा मंदिर बन जाएगा। तब समस्या नहीं रहेगी।

लेकिन आरंभ में स्थान का चुनाव जरूरी है। और अगर तुम समय का, निश्चित समय का चुनाव कर सको तो वह और अच्छा। क्योंकि तब वह मंदिर उस निश्चित समय पर तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा। रोज ठीक उसी समय पर मंदिर तुम्हारा इंतजार करेगा। उस वक्त वह ज्यादा खुला होगा; उसे प्रसन्नता होगी कि तुम आ गए। वह सारा स्थान प्रसन्न होगा। और मैं यह बात प्रतीक के अर्थ में नहीं कह रहा हूं; यह एक सचाई है।

यह ऐसा ही है जैसे कि तुम किसी निश्चित समय पर भोजन लेते हो तो रोज ठीक उसी समय पर तुम्हारा शरीर भूख अनुभव करने लगता है। शरीर की अपनी अलग आंतरिक घड़ी है। शरीर अपने ठीक समय पर भूख—प्यास अनुभव करता है। अगर तुम प्रतिदिन एक विशेष समय पर सोते हो तो तुम्हारा पूरा शरीर उस समय सोने के लिए तैयार हो जाता है। और अगर तुम रोज—रोज अपने खाने और सोने का समय बदलते रहते हो तो तुम अपने शरीर को उपद्रव में डाल रहे हो।

अब तो वे कहते हैं कि ऐसे परिवर्तन से तुम्हारी आयु प्रभावित हो सकती है। अगर तुम रोज—रोज अपने शरीर की चर्या को, रूटीन को बदलते हो तो संभव है कि तुम्हारी उम्र कम हो जाए। यदि तुम अस्सी साल जीने वाले थे तो इस सतत परिवर्तन के कारण तुम सत्तर साल ही जीओगे। तुम दस वर्ष गंवा दोगे। और अगर तुम शरीर की घड़ी के अनुसार अपनी चर्या चलाते हो तो तुम आसानी से अस्सी की बजाय नब्बे वर्षों तक जीवित रह सकते हो। दस वर्ष जोड़े जा सकते हैं।

ठीक इसी तरह तुम्हारे चारों तरफ हर चीज की अपनी घड़ी है और सारा संसार जागतिक समय में गति करता है। अगर तुम प्रतिदिन निश्चित समय पर मंदिर में प्रवेश करते हो तो मंदिर तुम्हारे लिए तैयार होता है और तुम मंदिर के लिए तैयार होते हो। ये दो तैयारियां आपस में मिलती हैं और उसका फल हजार गुना हो जाता है।

या तुम अपने घर में एक छोटा सा कोना इसके लिए सुरक्षित कर ले सकते हो। लेकिन तब उस स्थान को किसी और काम के लिए उपयोग मत करो। क्योंकि हर काम की अपनी तरंगें हैं। अगर तुम उस स्थान को व्यवसाय के काम में लाते हो, वहां ताश खेलते हो, तो वह स्थान कनफ्यूजड हो जाएगा। अब तो इन कनफ्यूजन को रेकार्ड करने के यंत्र हैं; जाना जा सकता है कि स्थान कनफ्यूजड है।

अगर तुम अपने घर में एक छोटा सा कोना इसके लिए अलग कर लो तो अच्छा। घर में एक छोटा सा मंदिर ही बना लो, बहुत अच्छा रहेगा। अगर तुम एक छोटा मंदिर बना सको तो सर्वोत्तम है। लेकिन फिर उसे किसी दूसरे काम में मत लाओ। उसे अपना निजी मंदिर रहने दो। और शीघ्र ही परिणाम आने लगेंगे।

ध्वनि—संबंधी सातवीं विधि :

 

मुंह को थोड़ा— सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्थिर करो। अथवा जब श्वास चुपचाप भीतर आए हकार ध्वनि को अनुभव करो।

न को शरीर में कहीं भी स्थिर किया जा सकता है। सामान्यत: हमने उसे सिर में स्थिर कर रखा है; लेकिन उसे कहीं भी स्थिर किया जा सकता है। और स्थिर करने के स्थान के बदलने से तुम्हारी गुणवत्ता बदल जाती है। उदाहरण के लिए, पूर्व के कई देशों में, जापान, चीन, कोरिया आदि में परंपरा से सिखाया जाता है कि मन पेट में है, सिर में नहीं। और इस कारण उन लोगों के मन के गुण बदल गए जो सोचते हैं कि मन पेट में है। जो लोग सोचते हैं कि मन सिर में है, उनमें ये गुण नहीं हो सकते।

असल में मन कहीं नहीं है। सिर में मस्तिष्क है, मन नहीं है। मन का अर्थ है एकाग्रता; तुम मन को कहीं भी स्थिर कर सकते हो। और जहां उसे एक बार स्थिर कर दोगे वहां से उसे हटाना कठिन होगा। उदाहरण के लिए, अब मनोवैज्ञानिक और मनुष्य के गहरे में शोध करने वाले लोग कहते हैं कि जब तुम संभोग कर रहे हो तो तुम्हारा मन सिर से उतरकर कामेंद्रित पर चला आता है। अन्‍यथा तुम्‍हारी काम—क्रिया बैकार जाएगी। अगर मन सिर में ही रहे तो तुम काम— भोग में गहरे नहीं उतर पाओगे। तब काम—समाधि नहीं घटित होगी और तुम्हें आर्गाज्म का अनुभव नहीं होगा। तब तुम्हें उसका शिखर नहीं प्राप्त होगा। तुम बच्चे पैदा कर सकते हो; लेकिन तुम्हें प्रेम के शिखर का कोई अनुभव नहीं होगा।

तुम्हें उसकी कोई समझ नहीं है जिसकी तंत्र चर्चा करता है या जिसे खजुराहो चित्रित करता है। तुम नहीं समझ सकते। क्या तुमने खजुराहो देखा है? अगर तुम खजुराहो नहीं गए हो तो तुमने खजुराहो के मंदिरों के चित्र अवश्य देखे होंगे। उनके चेहरों को ध्यान से देखो; संभोगरत जोड़ों को देखो, उनके चेहरों को देखो। वे चेहरे दिव्य मालूम पड़ते हैं। वे काम— भोग में संलग्न हैं; लेकिन उनके चेहरों में बुद्ध की समाधि झलकती है। उन्हें क्या हो रहा है?

उनका काम— भोग मानसिक नहीं है। वे बुद्धि से संभोग नहीं करते हैं; वे उसके संबंध में विचार नहीं करते हैं। वे बुद्धि से नीचे उतर आए हैं, उनका फोकस बदल गया है। और सिर से हट जाने के कारण उनकी चेतना कामेंद्रिय पर उतर आई है। अब मन नहीं है। अब मन अ—मन हो गया है। इसीलिए उनके चेहरों पर बुद्ध की समाधि झलकती है। उनका काम— भोग ध्यान बन गया है। क्यों?

क्योंकि फोकस बदल गया। अगर तुम अपने मन के फोकस को बदल देते हो, अगर तुम उसे सिर से हटा लेते हो, तो सिर विश्राम में होता है, चेहरा विश्राम में होता है। तब सभी तनाव विलीन हो जाते हैं। तब तुम नहीं हो। तब अहंकार नहीं है।

यही कारण है कि चित्त जितना बौद्धिक होता है, बुद्धिवादी होता है, उतना ही वह प्रेम करने में असमर्थ हो जाता है। प्रेम के लिए भिन्न फोकसिंग की जरूरत है। प्रेम में तुम्हारा फोकस हृदय के पास होने की जरूरत है, संभोग में तुम्हारा फोकस काम—केंद्र के पास होने की जरूरत है। जब तुम गणित करते हो तो सिर उसके लिए उचित जगह है। लेकिन प्रेम गणित नहीं है, संभोग बिलकुल गणित नहीं है। और अगर सिर में गणित से भरे होकर तुम संभोग में उतरते हो तो तुम अपनी ऊर्जा नष्ट करते हो। तब सारा श्रम बेचैनी पैदा करेगा।

लेकिन मन को बदला जा सकता है। तंत्र कहता है कि शरीर में सात चक्र हैं और मन को उनमें से किसी भी चक्र पर स्थिर किया जा सकता है। प्रत्येक चक्र का अलग गुण है। और अगर तुम एक विशेष चक्र पर एकाग्र करोगे तो तुम भिन्न ही व्यक्ति हो जाओगे।

जापान में एक सैनिक समुदाय हुआ है, जो भारत के क्षत्रियों जैसा है। उन्हें समुराई कहते हैं। उन्हें सैनिक के रूप में प्रशिक्षित किया जाता है। और उन्हें पहली सीख यह दी जाती है कि तुम अपने मन को सिर से उतारकर नाभि—केंद्र के ठीक दो इंच नीचे ले आओ। जापान में इस केंद्र को हारा कहते हैं। समुराई को मन को हारा पर लाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। जब तक समुराई हारा को अपने मन का केंद्र नहीं बना लेता है तब तक उसे युद्ध में भाग लेने की इजाजत नहीं दी जाती है।

और यही उचित है। समुराई संसार के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में गिने जाते हैं। दुनिया में समुराई का कोई मुकाबला नहीं है। वह भिन्न ही किस्म का मनुष्य है, भिन्न ही प्राणी है; क्योंकि उसका केंद्र भिन्न है।

वे कहते हैं कि जब तुम युद्ध करते हो तो समय नहीं रहता है। और मन को समय की जरूरत पड़ती है; वह हिसाब—किताब करता है। अगर तुम पर कोई आक्रमण करे और उस समय तुम्हारा मन सोच—विचार करने लगे कि कैसे बचान किया जाए। तो तुम गए; तुम अपना बचाव न कर सकोगे। समय नहीं है, तुम्हें तब समयातीत में काम करना होगा। और मन समयातीत में काम नहीं कर सकता है। मन को समय चाहिए। चाहे कितना भी थोड़ा हो, मन को समय चाहिए।

नाभि के नीचे एक केंद्र है जिसे हारा कहते हैं— यह हारा समयातीत में काम करता है। अगर चेतना को हारा पर स्थिर किया जाए और तब योद्धा लड़े तो वह युद्ध प्रज्ञा से लड़ा जाएगा, मस्तिष्क से नहीं। हारा पर स्थित योद्धा आक्रमण होने के पूर्व जान जाता है कि आक्रमण होने वाला है। यह हारा का एक सूक्ष्म भाव है, बुद्धि का नहीं। यह कोई अनुमान नहीं है; यह टेलीपैथी है। इसके पहले कि तुम उस पर आक्रमण करो, इसके पहले कि तुम उस पर आक्रमण करने की सोचो, वह विचार उसे पहुंच जाता है। उसके हारा पर चोट लगती है और वह अपना बचाव करने को तत्पर हो जाता है। वह आक्रमण होने के पहले ही अपने बचाव में लग जाता है। उसने अपना बचाव कर लिया।

कभी—कभी जब दो समुराई आपस में लड़ते हैं तो हार—जीत मुश्किल हो जाती है। समस्या यह होती है कि कोई किसी को नहीं हरा पाता है। किसी को विजेता नहीं घोषित किया जा सकता। एक तरह से निर्णय असंभव है; क्योंकि आक्रमण ही नहीं हो सकता। तुम्हारे आक्रमण करने के पहले ही वह जान जाता है।

एक भारतीय गणितज्ञ हुआ। सारा संसार चकित था; क्योंकि वह कोई हिसाब—किताब नहीं करता था। उसका नाम रामानुजम था। तुम उसे कोई भी समस्या दो और वह तुरंत उत्तर बता देता था। इंग्लैंड का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ हार्डी रामानुजम के पीछे पागल रहता था। हार्डी सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ था, लेकिन उसे भी किसी—किसी प्रश्न को हल करने में छह—छह घंटे लग जाते थे। लेकिन रामानुजम का हाल यह था कि तुम उसे प्रश्न दो और वह उसका उत्तर तुरंत बता देता था। इस ढंग से मन के काम करने का कोई उपाय नहीं था। मन को तो समय चाहिए। रामानुजम को बार—बार पूछा गया कि तुम यह कैसे करते हो? वह कहता था कि मैं नहीं जानता; तुम मुझे प्रश्न कहते हो और मुझे उसका उत्तर आ जाता है। वह कहीं नीचे से आता है, वह मेरे सिर से नहीं आता है।

यह उत्तर उसके हारा से आता था। उसे खुद यह बात नहीं मालूम थी। उसे कोई प्रशिक्षण भी नहीं मिला था। लेकिन मेरे देखे वह अपने पिछले जन्म में जापानी रहा होगा; क्योंकि भारत में हमने हारा पर काम नहीं किया है।

तंत्र कहता है कि अपने मन को भिन्न—भिन्न केंद्रों पर स्थिर करो और उसके भिन्न—भिन्न परिणाम होंगे। यह विधि मन को जीभ पर, जीभ के मध्य भाग पर स्थिर करने को कहती है।

’मुंह को थोड़ा—सा खुला रखते हुए……।’

मानो तुम बोलने जा रहे हो। मुंह को बंद नहीं, थोड़ा—सा खुला रखना है—मानो तुम बोलने वाले हो। ऐसा नहीं कि तुम बोल रहे हो; ऐसा ही कि तुम बोलने जा रहे हो। मुंह को’’ इतना ही खोलों जितना उस समय खोलते हो जब बोलने को होते हो। और तब मन को जीभ के बीच में स्थिर करो। तब तुम्हें अनूठा अनुभव होगा; क्योंकि जीभ के ठीक बीच में एक केंद्र है जो तुम्‍हारे को नियंत्रित करता है। अगर तुम अचानक सजग जाओ और उस केंद्र पर मन को स्थिर करो तो तुम्हारे विचार बंद हो जाएंगे। जीभ के ठीक बीच में मन को स्थिर करो—मानो तुम्हारा समस्त मन जीभ में चला आया है। जीभ के ठीक बीच में।

मुंह को थोड़ा—सा खुला रखो, जैसे कि तुम बोलने जा रहे हो। और तब मन को इस तरह स्थिर करो कि वह सिर में न होकर जीभ में आ जाए जीभ के ठीक मध्य भाग में।

जीभ में वाणी का, बोलने का केंद्र है; और विचार वाणी है। जब तुम सोचते हो, विचार करते हो, तो क्या करते हो? तुम अपने भीतर बातचीत करते हो। क्या तुम भीतर बात किए बिना विचार कर सकते हो? तुम अकेले हो; तुम किसी दूसरे व्यक्ति के साथ बातचीत नहीं कर रहे हो। लेकिन तब भी तुम विचार कर रहे हो। जब तुम विचार कर रहे हो तो क्या कर रहे हो? तुम अपने भीतर बातचीत कर रहे हो; तुम अपने साथ बातचीत कर रहे हो और उसमें तुम्हारी जीभ संलग्न है।

अगली दफा जब तुम विचार में संलग्न होओ तो सजग होकर अपनी जीभ पर अवधान दो। उस वक्त तुम्हारी जीभ ऐसे कंपित होगी जैसे वह किसी के साथ बातचीत करते समय कंपित होती है। फिर अवधान दो और तुम्हें पता चलेगा कि तरंगें जीभ के मध्य में केंद्रित हैं; वे मध्य से उठकर पूरी जीभ पर फैल जाती हैं।

विचार करना अंतस की बातचीत है। और अगर तुम अपनी पूरी चेतना को, अपने मन को जीभ के मध्य में केंद्रित कर सको तो विचार ठहर जाते हैं। जो लोग मौन का अभ्यास करते हैं, वे यही तो करते हैं कि बातचीत बंद कर देते हैं। जब तुम बाहर की बातचीत बंद कर देते हो तो तुम अपने भीतर चलने वाली बातचीत के प्रति बहुत बोधपूर्ण हो जाते हो। और अगर तुम महीने दो महीने, या वर्ष भर बिलकुल मौन रह सको, बिना बातचीत के रह सको, तो तुम देखोगे कि तुम्हारी जीभ कितनी जोर से कंपित होती है। तुम्हें इसका पता नहीं चलता है; क्योंकि तुम निरंतर बात करते रहते हो और उससे तरंगों का निरसन हो जाता है।

लेकिन अगर अभी भी तुम रुककर अपने विचार के प्रति सजग होओ तो तुम्हें मालूम होगा कि जीभ थोड़ी— थोड़ी कंपित हो रही है। अब अपनी जीभ को पूरी तरह ठहरा दो, रोक दो और तब सोचने की चेष्टा करो; तुम नहीं सोच पाओगे। जीभ को ऐसे स्थिर कर दो जैसे वह जम गई हो, उसमें कोई गति मत होने दो; और तब तुम्हारा सोचना—विचारना असंभव हो जाएगा। केंद्र ठीक मध्य में है; मन को वहीं स्थिर करो।

‘मुंह को थोड़ा—सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्थिर करो। अथवा जब श्वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्वनि को अनुभव करो।’

यह दूसरी विधि है और पहली जैसी ही है।

‘अथवा जब श्वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्वनि को अनुभव करो।’

पहली विधि से तुम्हारा विचार बंद हो जाएगा। तुम अपने भीतर एक ठोसपन अनुभव करोगे—मानो तुम ठोस हो गए हो। जब विचार नहीं होते हैं तो तुम अचल हो जाते हो, थिर हो जाते हो। और जब विचार नहीं हैं और तुम अचल हो तो तुम शाश्वत के अंग हो जाते हो। यह शाश्वत बदलता हुआ लगता है, लेकिन दरअसल वह अचल है, ठहरा हुआ है। निर्विचार में तुम शाश्वत के, अचल के अंग हो जाते हो।

विचार के रहते तुम चलायमान के, परिवर्तनशील के अंग हो; क्योंकि प्रकृति चलायमान है, संसार चलायमान है। यही कारण है कि हम इसे संसार कहते हैं। संसार का अर्थ है. चक्र, चाक। यह चल रहा है, चल रहा है, यह सतत घूम रहा है। संसार निरंतर गति है। और जो अदृश्य है, परम है, वह अचल है, ठहरा हुआ है।

यह ऐसा है कि चाक तो घूमता है, लेकिन जिसके सहारे वह घूमता है वह धुरी अचल है। चाक तभी घूम सकता है जब उसके केंद्र पर कुछ है जो सदा अचल है—धुरी अचल है। संसार चल रहा है; और ब्रह्म अचल है। जब विचार विसर्जित होता है तो तुम अचानक इस लोक से दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हो। भीतरी गति के बंद होते ही तुम शाश्वत के अंग हो जाते हो—उस शाश्वत के, जो कभी बदलता नहीं है।

‘अथवा जब श्वास चुपचाप भीतर आए हकार ध्वनि को अनुभव करो।’

मुंह को थोड़ा—सा खुला रखो, मानो तुम बोलने जा रहे हो। और तब श्वास को भीतर ले जाओ और उस ध्वनि के प्रति सजग रहो जो भीतर आती हुई श्वास से पैदा होती है। वह ध्वनि ही हकार है—चाहे श्वास भीतर जाती हो या बाहर। इस ध्वनि को तुम्हें पैदा नहीं करना है; तुम्हें तो अंदर आती श्वास को अपनी जीभ पर केवल महसूस करना है। यह बहुत धीमा स्वर है; लेकिन है। वह हकार जैसा मालूम देगा। वह बहुत मौन है; मुश्किल से सुनाई देता है। उसे सुनने के लिए तुम्हें बहुत सजग होना पड़ेगा। लेकिन उसे पैदा करने की चेष्टा मत करो। तुमने अगर उसे पैदा करने की चेष्टा की तो तुम चूक जाओगे। पैदा की हुई ध्वनि किसी काम की नहीं होगी। जब—जब श्वास भीतर जाती है या बाहर आती है, तब जो ध्वनि अपने ही आप पैदा होती है वह स्वाभाविक है।

लेकिन विधि कहती है कि भीतर आती श्वास के साथ प्रयोग करना है, बाहर जाती श्वास के साथ नहीं। क्योंकि बाहर जाती श्वास के साथ तुम भी बाहर चले जाओगे, ध्वनि के साथ—साथ तुम भी बाहर चले जाओगे, जब कि चेष्टा भीतर जाने की करनी है। अत: भीतर जाती श्वास के साथ हकार ध्वनि को अनुभव करो। देर—अबेर तुम्हें अनुभव होगा कि यह ध्वनि सिर्फ जीभ में ही नहीं, कंठ में भी हो रही है। लेकिन तब वह बहुत ही धीमी हो जाती है; उसे सुनने के लिए प्रगाढ़ जागरूकता की जरूरत है।

तो जीभ से शुरू करो; फिर धीरे—धीरे सजगता को बढ़ाओ, उसे महसूस करो। तब तुम उसे कंठ में सुनोगे। और उसके बाद उसे अपने हृदय में सुनने लगोगे। और जब वह हृदय में पहुंचती है तो तुम मन के पार चले गए। ये सारी विधियां वह सेतु निर्मित करती हैं जहां से तुम विचार से निर्विचार में, मन से अ—मन में, सतह से केंद्र में प्रवेश करते हो।

ध्वनि—संबंधी आठवीं विधि :

अ और न के बिना ओम ध्वनि पर मन को एकाग्र करो।

म ध्वनि पर एकाग्र करो; लेकिन इस ओम में अ और म न रहें। तब सिर्फ उ बचता है। यह कठिन विधि है; लेकिन कुछ लोगों के लिए वह योग्य पड़ सकती है, खासकर जो लोग ध्वनि के साथ काम करते हैं। संगीतज्ञ, कवि, जिनके कान बहुत संवेदनशील हैं, उनके लिए यह विधि सहयोगी हो सकती है। लेकिन दूसरों के लिए, जिनके कान संवेदनशील नहीं है; यह विधि कठिन पड़ेगी। क्‍योंकि यह बहुत सूक्ष्म।

तो तुम्हें ओम का उच्चारण करना है और इस उच्चारण में तीनों ध्वनियों को—अ, उ और म को महसूस करना है। ओम का उच्चारण करो और उसमें तीन ध्वनियों को—अ, उ, म को अनुभव करो। वे तीनों ओम में समाहित हैं। बहुत संवेदनशील कान ही इन तीनों ध्वनियों को अलग—अलग सुन सकते हैं। वे अलग— अलग हैं, यद्यपि बहुत करीब—करीब भी हैं। अगर तुम उन्हें अलग—अलग नहीं सुन सकते तो यह विधि तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हारे कानों को उनके लिए प्रशिक्षित करना होगा।

जापान में, विशेषकर झेन परंपरा में, वे पहले कानों को प्रशिक्षित करते हैं। कानों के प्रशिक्षण के उपाय हैं। बाहर हवा चल रही है, उसकी एक ध्वनि है। गुरु शिष्य से कहेगा कि इस ध्वनि पर अपने कान को एकाग्र करो; उसके सूक्ष्म भेदों को, उसकी बदलाहटों को समझो; देखो कि कब ध्वनि कुपित है और कब उन्मत्त, कब ध्वनि करुणावान है और कब प्रेमपूर्ण है, कब वह शक्तिशाली है और कब नाजुक है। ध्वनि की बारीकियों को अनुभव करो। वृक्षों से होकर हवा गुजरती है, उसे महसूस करो। नदी बह रही है; उसके सूक्ष्म भेदों को पहचानो।

और महीनों साधक नदी के किनारे बैठकर उसके कलकल स्वर को सुनता रहता है। नदी का स्वर भी भिन्न—भिन्न होता है, वह सतत बदलता रहता है। बरसात में नदी पूर पर होती है, बहुत जीवंत होती है, उमड़ती होती है। उस समय उसके स्वर भिन्न होते हैं। और गर्मी में नदी ना—कुछ हो जाती है, उसका कलकल भी समाप्त हो जाता है। लेकिन अगर तुम सुनना चाहो तो वह सूक्ष्म स्वर भी सुना जा सकता है। सालभर नदी बदलती रहती है और साधक को सजग रहना पड़ता है।

हरमन हेस के उपन्यास सिद्धार्थ में सिद्धार्थ एक माझी के साथ रहता है। नदी है, माझी है और सिद्धार्थ है; उनके अतिरिक्त और कोई नहीं है। और माझी बहुत शांत व्यक्ति है। वह आजीवन नदी के साथ रहा है; वह इतना शांत हो गया है कि कभी—कभार ही बोलता है। और जब भी सिद्धार्थ अकेलापन महसूस करता है, माझी उससे कहता है कि नदी के किनारे जाओ और उसकी कलकल ध्वनि को सुनो। मनुष्य की बकवास की बजाय नदी को सुनना बेहतर है। और सिद्धार्थ धीरे— धीरे नदी के साथ लयबद्ध हो जाता है। और तब उसे नदी की भावदशा का बोध होने लगता है। नदी की भावदशा बदलती रहती है। कभी वह मैत्रीपूर्ण है और कभी नहीं; कभी वह गाती है और कभी रोती—चीखती है; कभी वह हंसती है और कभी उसे उदासी घेर लेती है। और सिद्धार्थ उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म भेदों को पकड़ने लगता है। उसके कान नदी के साथ लयबद्ध हो जाते हैं।

तो हो सकता है, आरंभ में तुम्हें यह विधि कठिन मालूम पड़े। लेकिन प्रयोग करो, ओम का उच्चार करो और उच्चार करते हुए ओम की ध्वनि को अनुभव करो। इसमें तीन ध्वनियां सम्मिलित हैं; ओम तीन स्वरों का समन्वय है। और जब तुम इन तीन स्वरों को अलग— अलग अनुभव कर लो तो उनमें से अ और म को छोड़ दो। तब तुम ओम नहीं कह सकोगे, क्योंकि अ निकल गया, म भी निकल गया। तब सिर्फ उ बच रहेगा। क्यों? क्या होगा?

म् मंत्र असली चीज नहीं है। असली चीज ओम नहीं है और न उसका छोड़ना है। असली

चीज तुम्हारी संवेदनशीलता है। पहले तुम तीन ध्वनियों के प्रति संवेदनशील होते हो, जो कठिन काम है। और जब तुम इतने संवेदनशील हो जाते हो कि तुम उनमें से दो स्वरों कै।, अ और म को छोड़ सकते हो तो सिर्फ बीच का स्‍वर बचता है। और इस प्रयत्‍न में तुम्‍हारा मन विसर्जित हो जाता है। तुम उसमें इतने तल्लीन हो जाओगे, उसके प्रति इतने अवधान से भर जाओगे, तुम इतने संवेदनशील हो जाओगे कि विचार विसर्जित हो जाएंगे। और अगर तुम सोच—विचार करते हो तो तुम स्वरों के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकते।

यह तुम्हें तुम्हारे सिर से बाहर निकालने का परोक्ष उपाय है। बहुत सारे उपाय प्रयोग में लाए गए हैं और वे बहुत सरल प्रतीत होते हैं। तुम्हें आश्चर्य होता है कि इन सरल उपायों से क्या हो सकता है! लेकिन चमत्कार घटित होता है, क्योंकि वे उपाय परोक्ष हैं। तुम्हारे मन को बहुत सूक्ष्म चीज पर स्थिर किया जा रहा है। इस प्रयत्न में सोच—विचार नहीं चल सकता है, तुम्हारा मन खो जाएगा। और तब किसी दिन अचानक तुम्हें इस बात का पता चलेगा और तुम चकित रह जाओगे कि क्या हुआ।

झेन में कोआन का, पहेली का प्रयोग होता है। एक बहुत प्रचलित कोआन है जो नए साधकों को दिया जाता है। उन्हें कहा जाता है कि एक हाथ की ताली सुनो। अब ताली तो दो हाथों से बजती है। लेकिन उन्हें कहा जाता है कि एक हाथ से बजने वाली ताली को सुनो।

किसी झेन गुरु की सेवा में एक लड़का रहता था। वह देखता था कि अनेक लोग आते हैं, गुरु के पैर पर सिर रखते हैं और कहते हैं कि हमें बताएं कि हम् किस पर ध्यान करें। गुरु उन्हें कोई कोआन दिया करता था। वह लड़का गुरु के छोटे —मोटे काम कर दिया करता था; वह उसकी सेवा में था। उसकी उम्र नौ—दस वर्ष की थी। रोज—रोज साधकों को आते—जाते देखकर वह भी एक दिन बहुत गंभीरता के साथ गुरु के निकट गया और उसके चरणों में सिर रखकर निवेदन किया कि मुझे भी ध्यान करने के लिए कोई कोआन दें।

गुरु हंसा। लेकिन लड़का गंभीर बना रहा। तो गुरु ने उसे कहा कि ठीक है, एक हाथ की ताली सुनने की चेष्टा करो और जब सुनाई पड़ जाए तो आकर मुझे बताना।

लड़के ने बहुत प्रयत्न किए। रातभर उसे नींद नहीं आई। दूसरे दिन सुबह वह गुरु के पास जाकर बोला : मैंने सुन लिया, वह वृक्षों से गुजरने वाली हवा है। लेकिन गुरु ने पूछा. इसमें हाथ कहां है? जाओ और फिर प्रयत्न करो। ऐसे लड़का रोज ही आता रहा। वह कोई ध्वनि खोज लेता और गुरु को बताता। लेकिन हर बार गुरु कहता कि यह भी नहीं है, और प्रयत्न करो।

फिर एक दिन लड़का गुरु के पास नहीं आया। गुरु ने उसकी बहुत प्रतीक्षा की; लेकिन वह नहीं आया। तब उसने अपने दूसरे शिष्यों से कहा कि जाकर पता करो कि क्या हुआ। गुरु ने कहा कि मालूम होता है कि उसने एक हाथी की ताली सुन ली। शिष्य गए। लड़का एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ बैठा था—मानो एक नवजात बुद्ध बैठा हो।

उन्होंने लौटकर गुरु को खबर दी। उन्होंने कहा कि हमें उसे हिलाने में डर लगा, वह तो नवजात बुद्ध मालूम पड़ता है। मालूम पड़ता है कि उसने ताली सुन ली। तब गुरु स्वयं आया, उसने लड़के के चरणों पर अपना सिर रखा और पूछा. क्या तुमने सुना? मालूम होता है कि तुमने सुन लिया। लड़के ने स्वीकृति में सिर हिलाते हुए कहा : हां, लेकिन वह तो मौन है।

इस लड़के ने कैसे सुना? उसकी संवेदनशीलता विकसित हुई। उसने प्रत्येक ध्वनि को सुनने की चेष्‍टा की और उसने बहुत अवधान से सुना। उसका अवधान विकसित हुआ। उसकी नींद जाती रही। वह रात—रातभर जागकर सुनता कि एक हाथ की ताली क्या है। वह तुम्हारे जैसा बुद्धिवादी नहीं था; उसने यह सोचा ही नहीं कि एक हाथ की ताली नहीं हो सकती है।

वही पहेली तुम्हें दी जाए तो तुम प्रयोग करने वाले नहीं हो। तुम कहोगे कि यह मूढ़ता है, एक हाथ की ताली नहीं हो सकती। लेकिन उस लड़के ने प्रयोग किया। उसने सोचा कि जब गुरु ने कहा है तो उसमें जरूर कुछ होगा, उसने श्रम किया। वह सरल था। जब भी उसे लगता कि कोई नई चीज है तो वह दौड़कर गुरु के पास जाता। इस ढंग से उसकी संवेदनशीलता विकसित हुई; वह सजग और बोधपूर्ण होता गया। वह एकाग्र हो गया। वह लड़का खोज में लगा था, इसलिए उसका मन विसर्जित हो गया। गुरु ने उससे कहा था कि अगर तुम सोच—विचार करते रहोगे तो तुम चूक जाओगे। कभी—कभी ऐसी ध्वनि होती है जो एक हाथ की होती है, इसलिए सजग रहना ताकि चूक न जाओ। और उसने प्रयत्न किए।

एक हाथ की ताली नहीं होती है। लेकिन यह तो संवेदनशीलता को, बोध को पैदा करने का एक परोक्ष उपाय था। और एक दिन अचानक सब कुछ विलीन हो गया। वह इतना अवधानपूर्ण हो गया कि अवधान ही रह गया। वह इतना संवेदनशील हो गया कि संवेदनशीलता ही रह गई। वह इतना बोधपूर्ण हो गया कि बोध ही रह गया। वह सिर्फ बोधपूर्ण था; किसी चीज के प्रति बोधपूर्ण नहीं। और तब उसने कहा मैंने सुन लिया। लेकिन यह तो मौन है, शून्य है।

लेकिन इसके लिए तुम्हें सतत और होशपूर्ण होने का अभ्यास करना होगा।

‘अ और म के बिना ओम ध्वनि पर मन को एकाग्र करो।’

यह विधि है जो तुम्हें ध्वनि के सूक्ष्म भेदों के प्रति, नाजुक भेदों के प्रति सजग बनाती है। इसका प्रयोग करते—करते तुम ओम को भूल जाओगे। न सिर्फ अ गिरेगा, न सिर्फ म गिरेगा, बल्कि किसी दिन तुम भी अचानक खो जाओगे। तब शून्य का, मौन का जन्म होगा। और तब तुम भी किसी वृक्ष के नीचे बैठे नवजात बुद्ध हो जाओगे।

आज इतना ही।


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साधना–सूत्र–(प्रवचन–12)

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स्‍वर—बद्धता का पाठ—(प्रवचन—बारहवां)

      सूत्र:

5—सुने गये स्वर—माधुर्य को अपनी स्मृति में अंकित करो।

 जब तक तुम केवल मानव हो,

तब तक उस महा—गीत के कुछ अंश ही तुम्हारे कानों तक पहुंचते हैं।

परंतु यदि तुम ध्यान देकर सुनते हो,

तो उन्हें ठीक—ठीक स्मरण रखो;

जिससे कि जो कुछ तुम तक पहुंचा है, वह खो न जाए।

और उससे उस रहस्य का आशय समझने का प्रयत्न करो,

जो रहस्य तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है। एक समय आएगा,

जब तुम्हें किसी गुरु की आवश्यकता न होगी।

क्योंकि जिस प्रकार व्यक्ति को वाणी की शक्ति है,

उसी प्रकार उस सर्वव्यापी अस्तित्व में भी यह शक्ति है,

जिसमें व्यक्ति का अस्तित्व है।

  1. और उन स्वर—लहरियों से स्वर—बद्धता का पाठ सीखो

जीवन की अपनी भाषा है और वह कभी मूक नहीं रहता,

और उसकी वाणी एक चीत्कार नहीं है,

जैसा कि तुम जो बहरे हो, कदाचित समझो।

वह तो एक गीत है।

उससे सीखो कि तुम स्वयं उस सुस्वरता (हार्मनी) के अंश हो,

और उससे सुस्वरता के नियमों का पालन करना सीखो।

 

जीवन में सबसे अधिक सीखने योग्य यदि कुछ है, तो संगीत का बोध है, संगीत का भाव है। संगीत का अर्थ है कि जीवन का अंतिम रहस्य स्वरों की भीड़— भाड़ नहीं है, न ही एक अराजकता है, न ही एक अव्यवस्था है; वरन सभी स्वर मिल कर एक ही तरंग, एक ही लय, एक ही इंगित, एक ही इशारा कर रहे हैं। जीवन के परम—केंद्र पर सभी संयुक्त है, सुव्यवस्थित है। और जो अव्यवस्था दिखाई पड़ती है, वह हमारे अंधेपन के कारण है। और जो स्वरों का उपद्रव दिखाई पड़ता है, जो तनाव दिखाई पड़ता है, वह भी हमारे बहरे होने के कारण है। क्योंकि हम ठीक से नहीं सुन पाते, इसलिए हम स्वरों के बीच में बहती हुई जो समस्वरता है, उसका अनुभव नहीं कर पाते हैं।

हमें स्वर तो सुनाई पड़ जाते हैं, लेकिन एक स्वर को दूसरे स्वर से जोड्ने वाला जो बीच का सेतु है— संगीत— वह हमें सुनाई नहीं पड़ता है। जैसे—जैसे सुनने की सामर्थ्य बढ़ेगी, वैसे—वैसे स्वर खोते जाएंगे और संगीत उभरने लगेगा। एक ऐसा क्षण भी आता है, जब स्वर खो जाते हैं, शून्य हो जाते हैं; सब लहरें खो जाती हैं और केवल संगीत का सागर रह जाता है, केवल संगीत की प्रतीति रह जाती है।

संगीत का अर्थ है, स्वरों के बीच जो प्रेम का संबंध है, एक स्वर दूसरे स्वर से जिस मार्ग से जुड़ा है, एक स्वर दूसरे स्वर में जिस भांति खो जाता है और लीन हो जाता है। यह जो दो स्वरों के बीच में अंतराल है, वह अंतराल खाली नहीं है। वह अंतराल भी भरा हुआ है। चाहे वह अंतराल सन्नाटे से ही भरा हो, चाहे वह अंतराल शून्य से ही भरा हो, लेकिन वह अंतराल भरा हुआ है। उस अंतराल को अनुभव करने का नाम जीवन के संगीत को अनुभव करना है।

सुना होगा कि सत्य शब्दों में नहीं कहा जा सकता। लेकिन शब्दों के बीच में जो खाली जगह होती है, वहां प्रकट होता है। और सुना होगा कि रिक्तता तोड़ती नहीं, जोड़ती है। और यह भी सुना होगा कि शून्यता भी मात्र शून्यता नहीं है, शून्यता भी एक अपूर्व संगीत से भरी है। लेकिन शून्यता को सुनने की, सन्नाटे को सुनने की सामर्थ्य हमारे पास नहीं है। जीवन का संगीत अंतरालों में है। अंतराल हमें दिखाई नहीं पड़ते। बीच में खाई—खड्डे मालूम पड़ते हैं। एक स्वर सुनाई पड़ता है, फिर दूसरा स्वर सुनाई पड़ता है, लेकिन बीच में कोई सेतु नहीं दिखाई पड़ता। इससे अराजकता अनुभव होती है।

हम यहां इतने लोग बैठे हैं। एक व्यक्ति दिखाई पड़ता है, फिर दूसरा व्यक्ति दिखाई पड़ता है, दोनों के बीच में जो जोड है, वह दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए सभी व्यक्ति अलग— अलग मालूम पड़ते हैं। अगर बीच का जोड़ दिखाई पड़ जाए, तो व्यक्ति यहां खो जाएं, जीवन की एक सरिता रह जाए। जैसे मैं देखता हूं कि आप महत्वपूर्ण कम हैं, आपके पड़ोस में बैठा हुआ व्यक्ति भी कम महत्वपूर्ण है, लेकिन दोनों के बीच जो जीवन बह रहा है, वही ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि उसी जीवन के कारण आप भी जीवित हैं और आपका पड़ोसी भी जीवित है। लेकिन वह जीवन अदृश्य है। आप दिखाई पड़ते हैं एक छोर पर, पड़ोसी दिखाई पड़ता है दूसरे छोर पर, बीच में जो जीवन की तरंग है, वह दिखाई नहीं पडती।

दृश्य को ही जो देखता है, उसे जीवन में अराजकता दिखाई पड़ेगी। क्योंकि सभी दृश्य अदृश्य से जुड़े हैं। जो दिखाई पड़ता है, वह तो छोर है; जो नहीं दिखाई पड़ता—बीच की जो तरंग, बीच की जो लहर—वही वास्तविक अस्तित्व है। उस अदृश्य को अनुभव करना ही जीवन के संगीत को अनुभव करना है।

संगीत का अर्थ ठीक से खयाल में ले लेंगे। अंतराल को जो भरे हुए है, रिक्त को भी जो पूर्ण किए हुए है, शून्य में भी जो पूर्ण की तरह मौजूद है। जो दिखाई नहीं पड़ता, और है। लेकिन अनुभव किया जा सकता है। जैसे—जैसे हम भीतर ज्यादा संवेदनशील होते जाएं, वैसे—वैसे अनुभव होने लगेगा। और तब व्यक्ति न दिखाई पड़ेंगे, उनको जोड्ने वाला परमात्मा दिखाई पड़ेगा। तब एक वृक्ष नहीं दिखाई पड़ेगा, दूसरा वृक्ष नहीं दिखाई पड़ेगा, बल्कि दोनों वृक्षों में जो जीवन एक सा बह रहा है— भीतर भी और दोनों वृक्षों के बाहर भी—वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा।

जिस दिन वह दिखाई पड़ने लगता है, उस दिन यह जगत एक की ही अभिव्यक्ति है। इसलिए इन सूत्रों में संगीत पर बड़ा जोर दिया गया है। क्योंकि संगीत को जो अनुभव कर लेगा—स्वरों को नहीं स्वरों को जोड्ने वाली तरंगों को, अदृश्य तरंगों को, स्वरों के बीच में बहने वाली लयबद्धता को जो अनुभव कर लेगा— वह ब्रह्म को अनुभव कर लेगा। क्योंकि ब्रह्म वही है, जो सबको जोड़े हुए है और दिखाई नहीं पड़ता।

निश्चित ही, जो दिखाई पड़ता है, वह मिटेगा। जो दिखाई पड़ता है, वह खो जाएगा। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह नहीं मिटेगा। उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। लहरों की तरह हम उठते हैं और दिखाई पड़ते हैं। और फिर लहरें गिर जाती हैं और खो जाती हैं। और जो सागर कभी दिखाई नहीं पड़ता…। आप हैरान होंगे, आप कहेंगे, सागर दिखाई पड़ता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं सागर कभी दिखाई नहीं पड़ता। जब दिखाई पड़ती हैं, लहरें ही दिखाई पड़ती हैं। सागर को आपने नहीं देखा। जब दिखाई पड़ती हैं, लहरें ही दिखाई पड़ती हैं। क्योंकि सागर की सतह दिखाई पड़ती है। सतह तो सदा लहरों से भरी है। सागर को आप कभी देख नहीं पाते हैं। देखते उन लहरों को ही हैं, सागर तो अनुमान है आपका। लहरें दिखती हैं, उठती हैं, गिरती हैं। लेकिन जिस सागर में उठती हैं, जिस सागर से उठती हैं, और जिस सागर में खो जाती हैं, वह है संगीत। लहरें तो स्वर हैं। पर स्वर सुनाई पड़ते हैं और संगीत सुनाई नहीं पड़ता है! लहरें दिखाई पड़ती हैं, सागर दिखाई नहीं पड़ता!

और बहुत मजे की बात है कि लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं। और स्वर बिना संगीत के नहीं हो सकते। सागर बिना लहरों के हो भी सकता है, लेकिन लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं। संगीत बिना स्वरों के भी हो सकता है, लेकिन स्वर बिना संगीत के नहीं हो सकते। फिर भी संगीत सुनाई नहीं पड़ता, सागर दिखाई नहीं पड़ता! लहरें दिखाई पड़ती हैं, स्वर सुनाई पड़ते हैं!

वह जो निरव्यक्ति है, वह जो ब्रह्म है, वह जो जीवन का परम गुह्य विस्तार है, वह अनुभव में नहीं आता; व्यक्ति अनुभव में आते हैं। व्यक्ति की सीमा है, इसलिए दिखाई पड़ जाता है। लहर छोटी है, दिखाई पड़ जाती है। सागर बड़ा है, आंखें छोटी हैं, दिखाई नहीं पड़ता। स्वर छोटा है, चोट पड़ती है, सुनाई पड़ जाता है। संगीत सागर का विराट है, उसकी चोट भी नहीं पड़ती। वह अनुभव में नहीं आता। लेकिन अगर हम भीतर चलना शुरू करें, तो जैसे—जैसे हम भीतर सरकेंगे, वैसे—वैसे वह संगीत हमें सुनाई पड़ेगा।

लेकिन क्यों? भीतर सरकने से क्यों सुनाई पड़ेगा?

लहर की बात को थोड़ा और खयाल में ले लें। अगर एक लहर भी उठ कर देखे, लहर के पास आंखें हों— और कोई कठिनाई नहीं कि लहर के पास आंखें हों, क्योंकि हम भी लहर हैं और हमारे पास आंखें हैं— अगर लहर के पास बुद्धि हो और लहर अपने चारों तरफ देखे, तो उसे लहरें ही लहरें दिखाई पड़ेगी, सागर दिखाई नहीं पड़ेगा। और लहर को यह भी दिखाई पड़ेगा कि सभी लहरें मुझसे भिन्न हैं।

निश्चित ही, कोई लहर बड़ी हो रही है, कोई छोटी हो रही है, कोई गिर रही है, कोई बन रही है। तो यह मेरी लहर कैसे मान सकती है कि मैं लहरों के साथ एक हूं। क्योंकि कोई लहर मेरे सामने ही मिट रही है, और मैं नहीं मिट रहा हूं। अगर हम एक होते तो मिट जाते साथ—साथ। कोई लहर उठ रही है, मुझसे बड़ी हो रही है। तो हम एक नहीं हो सकते। क्योंकि अगर हम एक होते, तो मैं भी उसके साथ बड़ा हो जाता। तो निश्चित ही, लहर अगर देखें चारों तरफ, तो एक बात—सागर दिखाई नहीं पड़ेगा। क्योंकि तरंगें छाती पर भरी हैं सागर के। और दूसरी बात—लहर को सब लहरें अपने से भिन्न मालूम पड़ेगी। और तीसरी बात—लहर को सारी लहरें उसकी दुश्मन हैं, उसको मिटाने को उत्सुक हैं, हटाने को उत्सुक हैं, ऐसा भी प्रतीत होगा।

संघर्ष, प्रतियोगिता, स्पर्धा—यही हमारे साथ हो रहा है। लेकिन अगर लहर भीतर की तरफ मुड़ सके, बाहर से आख बंद कर ले और भीतर की तरफ मुड़े, तो क्या मिलेगा? अगर लहर भीतर की तरफ मुड़े तो जैसे ही भीतर की तरफ जाएगी, वैसे ही सागर में उतरने लगेगी। क्योंकि लहर के भीतर तो सागर ही है, लहर के नीचे सागर ही है।

लहर अगर अपने से बाहर देखे तो लहरें दिखाई पड़ती हैं, अगर भीतर देखे तो सागर अनुभव में आएगा। और भीतर देख कर फिर सारी स्थिति बदल जाएगी। अगर सागर अनुभव में आए तो लहर हसेगी कि वह जो लहरें दिखाई पड़ रही थीं, वह वास्तविक न थीं। उनके भीतर भी वही सागर है। अब तो लहर अपने भीतर से दूसरी लहरों के भीतर भी प्रवेश करके देख सकती है। क्योंकि नीचे एक ही सागर है, कहीं कोई बाधा नहीं है, कहीं कोई दीवाल नहीं है, कहीं जाने में कोई अड़चन नहीं है।

जो अपने भीतर जाता है, वह किसी के भी भीतर प्रवेश कर सकता है। क्योंकि उसे वह रास्ता मिल गया है नीचे का, अंतर—गर्भ का, जहां से हम एक हैं।

इसलिए जब आप बुद्ध या महावीर जैसे व्यक्ति के पास जाते हैं, तो आपको पता नहीं चलता, आपको लगता है कि वे आपको ऊपर से ही देख रहे हैं। लेकिन उनके पास एक भीतर का रास्ता भी है, जहां से वे आपको भीतर से देख रहे हैं। जहां से वे आपको उस भांति देख रहे हैं, जैसे आपने भी अपने को नहीं देखा।

इसीलिए इतना जोर है परंपराओं में, कि गुरु के प्रति पूरा समर्पण कर देना ही मार्ग बन सकता है। क्योंकि आप अपने संबंध में जो नहीं जानते, वह भी आपके संबंध में जान सकता है, जानता है। जो आप अपने संबंध में बताते हैं, वह दो कौड़ी का है। जो आप अपना परिचय देते हैं, उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। क्योंकि आपकी पहचान क्या है?

आपने अपनी ही लहर की ऊपर की परत को देखा है। और यह भी हो सकता है कि वह जो आपको कहे, आपकी समझ में न आए। क्योंकि वह आपको गहरे से देख रहा है, वहां से देख रहा है जहां से आपका अभी तक कोई संबंध, कोई संपर्क स्थापित नहीं हुआ है।

पूर्ण समर्पण का अर्थ यह है कि आप अपने परिचय को, जो आप जानते हैं, छोड़ते हैं। और आप उस मार्ग से अब परिचित होने को राजी हैं, जो गुरु जानता है और आप नहीं जानते हैं। अगर कोई लहर अपने भीतर चली जाए, तो वह दूसरी लहरों के भीतर भी चली गई। तो उसे अनुभव होगा कि लहर होना अवास्तविक है, सागर होना वास्तविक है। उसे अनुभव होगा कि दूसरी लहरें मुझसे भिन्न नहीं हैं, कितनी ही भिन्न दिखाई पड़ती हों, हम एक ही सागर का खेल हैं।

और तीसरी बात उसे दिखाई पड़ेगी कि लहर की तरह तो मैं मिट जाऊंगी, लेकिन सागर की तरह मेरे मिटने का कोई उपाय नहीं है। अमृत का यही अनुभव है। और अगर शानियों ने कहा है कि आत्मा नहीं मरती, तो आप यह मत समझना कि आप नहीं मरते। आप तो मरेंगे ही। आप पैदा हुए हैं और आप मरेंगे— आत्मा नहीं मरती। आत्मा का अर्थ है, आपके भीतर जो सागर है, वह नहीं मरता है। आपके भीतर जो लहर है, वह तो मरती ही है।

लेकिन अभी तो आप लहर को ही समझते हैं अपना होना। इसलिए बड़ी भांति होती है। लोग पढ़ लेते हैं कि आत्मा नहीं मरती, तो वे सोचते हैं कि मैं नहीं मरूंगा। आप तो मरेंगे ही! आपके बचने का तो कोई उपाय ही नहीं है। लेकिन जब मैं कहता हूं कि आप मरेंगे ही, तो मैं यही कह रहा हूं कि जिसको आप अभी समझते हैं कि आप हैं, वह मरेगा। लेकिन आपके भीतर एक ऐसा केंद्र भी है, जिसको आप पहचानते ही नहीं कि आप हैं, वह नहीं मरेगा।

लहर की भांति मृत्यु निश्चित है, सागर की तरह अमृत निश्चित है।

अब हम इन सूत्रों में प्रवेश करें।

पांचवां सूत्र, ‘सुने गए स्वर—माधुर्य को अपनी स्मृति में अंकित करो। जब तक तुम केवल मानव हो, तब तक उस महा—गीत के कुछ अंश ही तुम्हारे कानों तक पहुंचते हैं। परंतु यदि तुम उन्हें ध्यान दे कर सुनते हो, तो उन्हें ठीक—ठीक स्मरण रखो, जिससे कि जो कुछ तुम तक पहुंचा है, वह खो न जाए। और उससे उस रहस्य का आशय समझने का प्रयत्न करो, जो रहस्य तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है। एक समय आएगा, जब तुम्हें किसी गुरु की आवश्यकता न होगी। क्योंकि जिस प्रकार व्यक्ति को वाणी की शक्ति है, उसी प्रकार उस सर्वव्यापी में भी यह शक्ति है, जिसमें व्यक्ति का अस्तित्व है।’

‘सुने गए स्वर—माधुर्य को अपनी स्मृति में अंकित करो।’

निश्चित ही उस महा—संगीत को पूरा नहीं सुना जा सकता आज। अभी जैसे तुम हो, वहां से उस पूरे संगीत को नहीं सुना जा सकता। उस पूरे संगीत को सुनने के लिए तो तुम्हें भी धीरे— धीरे भीतर लयबद्ध होना पड़ेगा, क्योंकि समान ही समान का अनुभव कर सकता है।

इस महा—सूत्र को सदा याद रखो, कि समान ही समान का अनुभव कर सकता है।

अगर तुम उस महा—संगीत को सुनना चाहते हो, तो तुम्हें खुद भी संगतिपूर्ण हो जाना पड़ेगा। अगर तुम उस महा—प्रकाश को देखना चाहते हो, तो तुम्हें प्रकाश—पूर्ण हो जाना पड़ेगा। अगर तुम्हें उस अमृत का अनुभव करना है, तो तुम्हें मृत्यु के भय के पार हो जाना होगा।

तुम जिसको जानना चाहते हो, उसके जैसा ही तुम्हें होना पड़ेगा। क्योंकि समान को ही जाना जा सकता है, असमान को जानने का कोई उपाय नहीं।

इसलिए पुराने अनुभवियों ने कहा है कि आख तुम्हारे भीतर सूरज का ही हिस्सा है, इसीलिए

प्रकाश को देख पाती है। कान तुम्हारे भीतर ध्वनि का ही हिस्सा है, इसीलिए सुन पाता है। कामवासना तुम्हारे भीतर पृथ्वी का ही हिस्सा है, इसलिए नीचे की ओर तुम्हें खींचती है। ध्यान तुम्हारे भीतर परमात्मा का ही अंश है, इसलिए परमात्मा की तरफ ले जाता है।

ध्यान रखना, जो जिससे जुड़ा है, उसी का यात्रा—पथ बन जाता है। तो अगर तुम उस महा—संगीत को सुनना चाहते हो, वैसे ही जैसे तुम हो, तो न सुन पाओगे। क्योंकि तुम इतने असंगीत से भरे हो, तुम्हारी जिंदगी इतनी स्वर—माधुर्य से हीन है। तुम्हारे भीतर उपद्रव तो बहुत है, लयबद्धता जरा भी नहीं है। तुम्हारे उठने में, बैठने में, चलने में, जीने में, सोचने में, एक भीड़— भाड़, शोरगुल है। जैसे कि तुम एक बाजार की सड़क हो, जिस पर न मालूम क्या—क्या चल रहा है; जिसके बीच कोई व्यवस्था नहीं है, अराजकता है। इस अराजक स्थिति से अगर तुम चाहो कि तुम उस महा—संगीत को सुन लोगे, तो असंभव है।

पर अगर तुम थोड़ी चेष्टा करो, तो उसके खंड सुनाई पड़ सकते हैं। क्योंकि तुम चाहे कितनी ही अराजकता में होओ, तुम जीवित हो। यही इस बात की खबर है कि कुछ न कुछ लय तुम्हारे भीतर भी होगी, अन्यथा जी नहीं सकते हो; तुम टूट जाते, बिखर जाते। अगर सच में ही तुम्हारी भीड़ इतनी बड़ी हो गई हो कि तुम्हारे भीतर उस भीड़ को जोड्ने वाला कोई भी न बचा हो, तो तुम खंड—खंड हो कर गिर जाओगे। तुम उस मकान की तरह गिर जाओगे, जिसकी ईंटों के बीच का सब जोड़ खो गया है। तुम भूमिसात हो जाओगे।

लेकिन तुम जीवित हो, मिट नहीं गए हो, भूमिसात नहीं हुए हो। इसलिए चाहे कितना ही उपद्रव तुम्हारे भीतर हो, और कितना ही स्वरों के बीच तनाव हो, और कितना ही स्वरों के बीच संघर्ष हो, कहीं न कहीं, कोई न कोई चीज तुम्हें जोड़ती होगी। अन्यथा तुम हो कैसे सकते हो? कोई न कोई चीज तुम्हें बांधे होगी। कहीं न कहीं, कुछ न कुछ संगीत तुम्हारे इस उपद्रव में भी मौजूद है। चाहे कभी उसकी झलक मिलती हो।

किसी दिन सुबह सूरज को उगते देख कर तुम्हें शांति की लहर दौड़ जाती हो। या किसी दिन रात आकाश में तारे भरे हों और तुम जमीन पर लेटे उन्हें देख रहे हो, अचानक सब मौन हो जाता हो। या किसी के प्रेम के क्षण में, या किसी संगीत को सुन कर, या किसी नर्तक को नाचते देख कर तुम्हारे भीतर भी कुछ नृत्य बन जाता हो। कहीं कोई क्षणों में तुम्हें भी एक झलक संगीत की मिलती है। उस झलक को ही तुम कभी सुख कहते हो, उसी झलक को तुम कभी शांति कहते हो, उसी झलक को कभी तुम रस कहते हो। तुमने बहुत नाम दिए हैं।

लेकिन वह झलक इसी बात की है कि बाहर की कोई घटना की उपस्थिति में भीतर तुम बंध जाते हो। तुम्हारा उपद्रव एक क्षण को खो जाता है, और तुम्हारे भीतर स्वर एक क्षण को मिल जाते हैं। लहरें एक क्षण को सागर हो जाती हैं। और तुम्हारे भीतर जैसे एक द्वार खुल जाता है। क्षण भर को ही सही, एक झलक मिलती है, और जगत दूसरा हो जाता है। यह संभावना है। खंड ही तुम्हें अनुभव में आएगा। बहुत दूर की ध्वनि तुम्हें सुनाई पड़ेगी।

इसलिए यह सूत्र कहता है पांचवां, ‘सुने गए स्वर—माधुर्य को अपनी स्मृति में अंकित करो।’ तुम्हारे जीवन में जो भी ऐसी घटनाएं घटी हों, जब तुमने रस का, संगीत का, लय का अनुभव किया हो, तो उनको अपनी स्मृति में संजोओ, उनको खो मत जाने दो।

ईसाइयों का एक पुराना संप्रदाय था— ईसेन, जिसमें जीसस को दीक्षा मिली थी। ईसेन संप्रदाय का एक ध्यान—मार्ग था। और वह ध्यान—मार्ग यह था, कि तुम्हारे जीवन में अगर कभी भी कोई ऐसा क्षण घटा हो, जिस क्षण में विचार न रहे हों और तुम आनंद से भर गए हो, तो उसी क्षण को पुनः—पुन: स्मरण करके, उसी पर ध्यान करो। वह क्षण कोई भी रहा हो, उसी को बार—बार स्मरण करके उस पर ही ध्यान करो, क्योंकि उस क्षण में तुम अपनी श्रेष्ठतम ऊंचाई पर थे, जहां तक तुम अब तक जा सके हो। उसी को खोदो, उसी जगह मेहनत करो।

सभी के जीवन में ऐसा कोई क्षण है। उसी की आशा में आदमी जीए चला जाता है कि शायद वह क्षण फिर आए। इसी भरोसे में जीए चला जाता है कि शायद वह क्षण और गहरा हो जाए। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसके जीवन में एकाध ऐसी स्मृति न हो। कभी—कभी तो बहुत क्षुद्र कारणों में वैसी घटना घट जाती है। कभी तुम जा रहे हो, सूरज की किरणें तुम्हारे सिर पर पड़ रही हैं, अचानक तुम पाते हो कि तुम शांत हो। तुमने कुछ किया नहीं है, आकस्मिक, तुम उस जगह आ गए हो, जहां टचूनिंग हो गई।

कभी बहुत साधारण सी घटनाओं में, कि तुम अपने बिस्तर पर पड़े हो, सुबह तुम्हारी आख खुली और अचानक तुम पहचान भी नहीं पाते हो कि तुम कौन हो? वह जो आदमी रात सोया था— उपद्रव, परेशानी, चिंता से भरा—वह नहीं है। एक क्षण को तुम्हें यह भी समझ में नहीं आता कि तुम कहां हो? तुम एकदम शांत हो। तुम इतने शांत हो कि खुद की पहचान भी भूल गई है। कभी किन्हीं भी कारणों में—उनका कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे भीतर जिंदगी चलती रहती है। कभी तुम्हारे अनजाने भी तुम्हारे भीतर के खंड—खंड इकट्ठे पड़ जाते हैं— संयोगवश। और तब कोई भी घड़ी बाहर मौजूद हो, तुम अचानक शांत हो जाते हो।

इन स्मृतियों को संजोओ। फिर अगर तुम ध्यान कर रहे हो, तो ऐसी स्मृतियां बढ़ती चली जाएंगी। इन स्मृतियों को इकट्ठा करो। इनको हृदय के कोने में इकट्ठा करते जाओ, ताकि वे गहरी हो जाएं। और सारी स्मृतियां जितनी तुम्हारे जीवन में इस आनंद की घटी हों, जब तुमने संगीत जाना हो, उन सबको पास ले आओ, उनको एकाग्र कर दो एक बिंदु पर, ताकि उन सबके सहारे तुम आगे बढ़ सको। अभी तुम्हें खंड—खंड मिलेंगे, तुम इन्हें इकट्ठे करते जाना। कभी ये खंड इकट्ठे होते जाएंगे, तो और बड़े खंडों के मिलने की संभावना बढ़ती जाएगी। ऐसे धीरे— धीरे एक—एक ईंट रख कर वह भवन खड़ा होगा, जिस दिन तुम उस महा—संगीत को सुन सकोगे, जिसे जीवन का संगीत कहा जा रहा है।

लेकिन आदमी बहुत उलटा है। हम दुख की स्मृति संजोते हैं! हम दुख में बड़ा रस लेते हैं। हम बार—बार दुख की चर्चा करते हैं। लोगों की बातें सुनो, वह अपना दुख रोते रहते हैं। सुख कोई भी नहीं हंसता, दुख लोग रोते हैं! तो यह भाषा में शब्द ही नहीं कि फलां आदमी सुख हंस रहा है। भाषा में शब्द यह है कि फलां आदमी दुख रो रहा है। लोग अपना दुख एक—दूसरे को बताते रहते हैं, जैसे कि दुख कुछ बताने जैसा है, जैसे कि दुख कुछ बड़ी घटना है! कोई आपने महान कार्य किया है कि आप दुखी हैं!

लेकिन क्यों आदमी दुख की इतनी चर्चा करता है? और उसे पता नहीं कि वह अपना आत्मघात कर रहा है। क्योंकि दुख की चर्चा से दुख घना हो जाता है। दुख की चर्चा से दुख इकट्ठा हो जाता है। दुख की चर्चा से दुख पर ध्यान बंट जाता है, ध्यान बंध जाता है। दुख की चर्चा से दुख घनीभूत होता

है और नए दुखों को पैदा करता है। क्योंकि तुम जो संजोते हो, उसी को जानने में समर्थ होते चले जाते हो।

सुख की कोई बात ही नहीं करता! सुख को हम छोड़ कर ही चलते हैं! वैसे सुख है भी कम। लेकिन उसके कम होने का एक कारण यह भी है कि हम सुख को इकट्ठा नहीं करते हैं। हम दुख को इकट्ठा करते हैं।

पर क्यों? आदमी दुख की चर्चा क्यों करता है?

उसके कारण हैं। क्योंकि जब भी कोई आदमी दुख की चर्चा करता है, तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि वह दूसरे की सहानुभूति चाहता है, दूसरे का प्रेम चाहता है। और सुख की चर्चा इसलिए नहीं करता कि सुख से कोई सहानुभूति नहीं करता। और सुखी आदमी से लोग ईर्ष्या करते हैं, प्रेम नहीं करते। इस भय से कि दूसरे ईर्ष्या करेंगे, इस भय से कि कोई सहानुभूति न देगा, आदमी दुख की चर्चा करता है। आदमी सहानुभूति का प्यासा है, प्रेम का प्यासा है।

लेकिन ध्यान रहे, दुख सुन कर जो सहानुभूति की जाती है, वह प्रेम नहीं है। और दुख सुन कर जो दया प्रकट की जाती है, वह आपकी दीनता की स्वीकृति है। लेकिन इस भांति आप और दीन होते चले जाएंगे। और अगर आपने एक ही रस बना लिया है अपने जीवन का, सहानुभूति पाना, तो फिर आप झूठे दुखों की भी कल्पना कर लेंगे, जो कभी नहीं घटे। और धीरे— धीरे उनके घटने का रास्ता बना देंगे।

ध्यान रहे, अपने दुख की चर्चा मत करो। उससे क्या प्रयोजन है?

सुख की चर्चा के लिए नहीं कह रहा हूं लेकिन अपने सुख को प्रकट करो। दुख को एकांत में विसर्जित कर दो। द्वार—दरवाजे बंद कर लो, हृदयपूर्वक रो लो, चीख लो, चिल्ला लो; लेकिन दूसरे के पास जा कर दुख की चर्चा मत करो। क्योंकि न तो तुम दूसरे के सुख में सहयोगी हो रहे हो, तुम उसे भी दुखी कर रहे हो। इसलिए दुख की चर्चा करने वाले पर हम सहानुभूति कितनी ही बताएं, लेकिन उस आदमी से हम बचना चाहते हैं। वह न मिले तो अच्छा है। क्योंकि वह अपने दुख की तरंगें हम तक भी पहुंचा देता है। और अगर हम उसकी दुख की चर्चा सुनते भी हैं, तो इसी आशय में कि वह चुप हो जाए, तो हम अपने दुख की चर्चा उसको सुनाएं। ऐसा दुख का लेन—देन चलता रहता है।

दुख की बात ही बंद कर दो। दुख तुम्हारा निजी है, उसे तुम निज में ही भोग लो। दबाने को नहीं कह रहा हूं उसे प्रकट तो जरूर करो, लेकिन शून्य—आकाश में, जहां वह किसी की भी छाती पर बोझ नहीं बनेगा। और दुख बता कर सहानुभूति मत मांगो। यह भिखमंगापन है। अकेले में छोड़ दो, दुख को विसर्जित कर दो।

और जब भी कोई तुम्हारे पास हो, तो तुम्हारे भीतर जो सुख की स्मृति है, उसको ऊपर ले आओ। जब भी तुम किसी के पास हो, तो तुम्हारे सुख को प्रकट करो, अपने सुख को नाचो और हंसों, और अपने सुख को जीओ, ताकि तुम दूसरे के दुख को थोड़ा कम कर पाओ। और तुम जितना इस सुख को जीने लगोगे, उतना ही सुख बढ़ता जाएगा। और जितना तुम इस सुख की स्मृति करोगे, उतनी ही ज्यादा गहन सुख में तुम्हारी गति होने लगेगी।

हम जिस पर ध्यान देते हैं, वह बढ़ता जाता है। ध्यान बढ़ोत्तरी का मार्ग है।

अभी वनस्पति—शास्त्री कहते हैं कि अगर पौधे पर आप ठीक से ध्यान दें, तो वह जल्दी बढ़ता

है—पौधा भी। इसलिए माली बगीचे में जिस पौधे को ज्यादा प्रेम करता है, वह जल्दी बढ़ता है। जिस पर वह ज्यादा ध्यान देता है, वह जल्दी बढ़ता है, उसमें जल्दी फूल आते हैं।

अब तो इस पर बहुत वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं। सिर्फ ध्यान देने से! जिस पौधे बूढ़ो कोई ध्यान नहीं देता, उसको मिट्टी दो, खाद दो, पानी दो, सूरज दो, सब दो, सिर्फ ध्यान मत दो, उपेक्षा दो; उसकी बढ़ती रुकती है!

वैज्ञानिक अब कहते हैं कि बच्चा मां के पास जो बढ़ता है गति से, उसका कारण है मां का ध्यान। वह चाहे दूर हो, चाहे वह दूसरे कमरे में हो, लेकिन ध्यान उसका बच्चे की तरफ लगा है। वह चाहे सैकड़ों मील दूर चली गई हो, वह हजार काम में उलझी हो, लेकिन भीतर उसके ध्यान अपने बच्चे में लगा है। रात वह सो रही है, तो भी ध्यान उसका बच्चे में लगा है। आकाश में बादल गरजते रहें, तो भी उसकी नींद नहीं टूटती; लेकिन बच्चा जरा सा कुनमुना दे, और उसकी नींद टूट जाती है! उसका ध्यान बच्चे में लगा है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे की बढ़ती में मां का दूध जितना जरूरी है, उससे भी ज्यादा जरूरी उसका ध्यान है। इसलिए अनाथालय में भी बच्चे बड़े होते हैं; दूध उनको शायद मां के दूध से भी अच्छा मिल सकता है, वह कोई अड़चन की बात नहीं है; सेवा उनको प्रशिक्षित नर्सों की मिल सकती है; मां उतनी अच्छी सेवा नहीं कर सकती, क्योंकि उसका कोई प्रशिक्षण नहीं है; उनको वस्त्र, दवा, सारा इंतजाम अच्छा मिलता है, लेकिन न मालूम क्या है कि उनके भीतर बढ़ती नहीं होती मालूम पड़ती है। सब सूखा—सूखा लगता है। कोई एक चीज कमी हो रही है। ध्यान नहीं मिल रहा है।

हम प्रेम के लिए इतने आतुर होते हैं। तुम्हें पता नहीं होगा कि क्यों? क्योंकि प्रेम के बिना ध्यान नहीं मिलता। प्रेम की तलाश वस्तुत: ध्यान की तलाश है। कोई तुम पर ध्यान दे, तो तुम्हारे भीतर जीवन का फूल खिलता है, बढ़ता है। कोई ध्यान न दे, कुम्हला जाता है। इसलिए प्रेम की प्यास कि कोई प्रेम करे, वस्तुत: प्रेम की नहीं है। कोई ध्यान दे, कोई तुम्हारी तरफ देखे, कोई तुम्हारी तरफ देख कर प्रसन्न हो, आनंदित हो, तो तुम बढ़ते हो।

मगर कभी—कभी यह रुग्ण रूप ले लेता है। रुग्ण रूप हर चीज के होते हैं।

प्रेम की खोज तो स्वस्थ है, लेकिन कोई आदमी फिर यह भी कोशिश करता है कि किसी भी भांति ध्यान मिले, तो खतरा हो जाता है। तुम अगर जोर से रोओ—चिल्लाओ, तो लोगों का ध्यान तुम्हारी तरफ आएगा। बच्चा सीख जाता है, मां अगर उसे ठीक से प्रेम नहीं करती। जिस बच्चे को मां ठीक से प्रेम करती है, वह रोता, चीखता, चिल्लाता नहीं है। लेकिन जिसकी मां ठीक से प्रेम नहीं करती, बच्चा ज्यादा रोता, चीखता, चिल्लाता है। क्योंकि अब वह एक तरकीब सीख रहा है कि जब वह चिल्लाता है, तो मां ध्यान देती है; सामान पटक देता है, तो मां ध्यान देती है; कोई चीज तोड़ देता है, तो मां ध्यान देती है।

कभी आपने खयाल किया कि आपके घर में मेहमान आ जाएं, तो बच्चे ज्यादा चीजें पटकते हैं, ज्यादा उपद्रव मचाते हैं? वे मेहमानों का ध्यान खींच रहे हैं। वैसे शांत बैठे थे। और आप चाहते हैं कि जब मेहमान आएं तब वे शांत रहें। वे कैसे शांत रहें? घर में और लोग आए हों, उनका ध्यान…? और मेहमान आपसे ही बातें कर रहे हैं और बच्चे की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं, तो बच्चा पच्चीस उपद्रव खड़े करेगा कि आप भी ध्यान दो, मेहमान भी ध्यान दें।

अनजाने चल रहा है। लेकिन ध्यान बढ़ोत्तरी का हिस्सा है। वह बढ़ेगा, जितना ज्यादा ध्यान दिया जाएगा।

फिर लोग बीमार हो जाते हैं। जैसे एक राजनीतिज्ञ है, वह भी और कुछ नहीं मांग रहा है। पद पर हो कर मिलेगा क्या उसको? हजार तरह की गालियां मिलेंगी, हजार तरह का अपमान मिलेगा, हजार तरह की निंदा मिलेगी, और कुछ मिलने वाला नहीं है। लेकिन एक बात है, कि जब वह पद पर होगा, कुर्सी पर होगा, तो ध्यान मिलेगा, चारों तरफ से लोग देखेंगे।

पद की खोज ध्यान की खोज है, लेकिन रुग्ण। क्योंकि यह जो ध्यान है, इस तरह मांगना, जबर्दस्ती मांगना है, हिंसात्मक है। जैसे बच्चा चीज तोड़ कर ध्यान मांग रहा है, ऐसे ही राजनीतिक भी हिंसात्मक हो कर ध्यान मांग रहा है।

इसलिए आप देखें, अगर कभी इस मुल्क में युद्ध हो जाए, तो युद्ध के समय में जो मुल्क का बड़ा नेता है, वह महा नेता हो जाता है। क्योंकि युद्ध के समय में जितना ध्यान आपको नेता पर देना पड़ता है, शांति के समय में नहीं देना पड़ता है। इसलिए राजनीतिशास्त्र कहता है कि अगर किसी को महान नेता होना हो, तो पद पर होते वक्त युद्ध होना ही चाहिए। नहीं तो नहीं होता।

हिंदुस्तान—पाकिस्तान का युद्ध हो गया बंगलादेश को ले कर, तो इंदिरा को आप कहने लगे कि महाकाली है। वह आपने कभी नहीं कहा होता। नेता खो जाते हैं, अगर युद्ध उनके जीवन में न घटे। और अगर युद्ध में वे हार जाएं, तो फिर ध्यान उनको बिलकुल नहीं मिलता। अगर युद्ध में जीत जाएं, तो फिर पूरा ध्यान मिलता है। इसलिए नेता बड़ी कोशिश में होता है कि किसी तरह जीत का सेहरा उसके सिर पर बंध जाए, तो सारा मुल्क, सारी दुनिया ध्यान देती है।

मगर यह रुग्ण है। क्योंकि यह ध्यान प्रेम से नहीं मिल रहा है, यह ध्यान सृजनात्मकता से नहीं मिल रहा है। यह ध्यान मिल रहा है विध्वंस से, हिंसा से, घृणा से। मगर ये वे ही बच्चे हैं, जिन्होंने घर में बर्तन तोड़ कर ध्यान आकर्षित किया होगा। अब वे एम.एल.ए., एमपी., मिनिस्टर हो कर ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। ये वे ही बच्चे हैं, जिनको मां का प्रेम नहीं मिला।

अगर मां का प्रेम मिला हो तो आदमी हिंसात्मक ढंग से ध्यान आकर्षित नहीं करता। तब सृजनात्मक ढंग से.. .तब वह आनंदित होता है। और अगर आनंद को ध्यान मिल जाए तो ठीक है, तब वह रोता—चिल्लाता नहीं है।

यह जो ध्यान की तलाश है, यह आप दुख के साथ मत जोड़ना, नहीं तो आप और दुखी होते चले जाएंगे। या दूसरे को दुख दे कर भी ध्यान मत मांगना आप, क्योंकि तब आप और दुखी होते चले जाएंगे।

आप अपने जीवन के सुख— क्षणों को इकट्ठा करना, उनकी स्मृति संजोना। ध्यान के प्रयोग में जब भी आपबूढ़ो कोई अनुभव मिले— कोई ताजी हवा आपके भीतर से गुजर जाए, कोई सूरज की किरण कौंध जाए, कोई फूल खिल जाएं भीतर, कोई सुगंध भर जाए, कोई संगीत का एक टुकड़ा आपको सुनाई पड़ जाए— उसे इकट्ठा करते जाना, हृदय के गहन में उसे संजोते जाना। और उसको ज्यादा से ज्यादा जीने की कोशिश करना। उसे ज्यादा से ज्यादा पुकारना। उसे ज्यादा से ज्यादा अनुभव में उतारना। जब भी मौका मिले, स्वात क्षण मिले, आख बंद कर लेना, उसी क्षण में लौट जाना, उसे पुन: जीना। तो आप उसको बढ़ा रहे हैं, और आप उसको जीवन और ध्यान दे रहे हैं। आप धीरे— धीरे पाएंगे, और बड़े खंड आने लगे, और बड़े टुकड़े उतरने लगे, और चीजें साफ होने लगीं, संगीत का बोध और प्रगाढ़ होने लगा।

‘जब तक तुम केवल मानव हो, तब तक उस महा—गीत के कुछ अंश ही तुम्हारे कानों तक पहुंचते हैं। परंतु यदि तुम ध्यान दे कर सुनते हो, तो उन्हें ठीक—ठीक स्मरण रखो; जिससे कि जो कुछ तुम तक पहुंचा है, वह खो न जाए। और उससे उस रहस्य का आशय समझने का प्रयत्न करो, जो रहस्य तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है।’

जो भी श्रेष्ठतम मिलता है, वह खोया जा सकता है। जब तक कि पूर्ण की उपलब्धि नहीं होती, तब तक कुछ भी पाया हुआ, खोया जा सकता है।

इसे ध्यान रखना। ऐसा मत सोच लेना कि जो पा लिया है, वह खोएगा नहीं। जब तक पूर्ण न मिल जाए, तब तक तो तुम्हें लापरवाही नहीं करनी है, तब तक तो जो थोड़ा—बहुत मिलता है, उसे बचाने की कोशिश करना। क्योंकि दुख तुम्हारे पास बहुत है, सुख का कण कभी मिलता है। अगर तुमने लापरवाही की, तो इस दुख में वह कहीं भी खो जाएगा। तुम्हारे घर में कूड़ा—कर्कट इतना है, कि अगर तुम्हें एक हीरे का टुकड़ा भी मिल जाए, तो तुम उसे अपने घर के ही कूड़े—कर्कट में खो सकते हो। कहीं बाहर जा कर खोने की कोई जरूरत नहीं है। वह तुम्हारे घर की धूल में कहीं भी दब सकता है। वह इतना छोटा है और कभी मिलता है। और तुमने घर में इतना कचरा इकट्ठा किया है कि उस कचरे में ही वह दबा पड़ा रह जाएगा।

तो अपने हृदय के एक कोने को साफ कर लो और वहां केवल सुख को संजोओ! जब तक कि पूर्ण की उपलब्धि नहीं होती। पूर्ण की उपलब्धि पर तो तुम्हारा गर्द, तुम्हारा कचरा सब खो जाता है। फिर तो कोई डर नहीं है, फिर खोने का कोई डर नहीं है। आखिरी सीमा तक से भी गिरना हो सकता है। एक क्षण पहले भी परम—अनुभूइत के, भटकना हो सकता है। उसके हो जाने के बाद फिर कोई डर नहीं है। क्योंकि जहां तुम खो सकते हो, वह तुम्हारे पास काफी सामान है। जिसमें तुम खो सकते हो, वह तुम्हारे पास बहुत है। तो एक हृदय का कोना बिलकुल साफ—सुथरा कर लो। जैसे घर में कोई एक मंदिर बना लेता है, तो उस मंदिर में सोता नहीं है, उस मंदिर में लड़ने—झगडने नहीं जाता और उस मंदिर में खाना नहीं खाता। उस मंदिर में सिर्फ प्रार्थना को जाता है, पूजा को जाता है। घर कितना ही अपवित्र हो, उस छोटे से कोने को पवित्र रखता है।

ऐसे ही हृदय के एक कोने में एक मंदिर बना लो, वहां सिर्फ तुम्हारे जीवन में जो सुख की कभी— कभी प्रतीतिया आती हैं, उन्हें इकट्ठी करते जाओ। और कभी जब तुम्हारे पास मौका हो तो आख बंद कर लो और उस कोने में सरक जाओ। पुन: जीयो, उन्हीं स्मृतियों को फिर लौटा लो। कोई प्रेम का क्षण, कोई आनंद का क्षण, कोई ध्यान का क्षण, उनको पुनः—पुन: जीओ। पुन: जीने का अर्थ सिर्फ स्मृति नहीं है। पुन: जीने का अर्थ है पुन: जीना। दोनों में फर्क है।

समझो, अपने बचपन की तुम याद करते हो। तुम याद करते हो कि बचपन सुखद था। या तुम्हें कोई खयाल है कि एक दिन सुबह बगीचे में तुम गए, वृक्ष मौन थे, सन्नाटा था, वृक्षों के किनारे से सूरज की किरणें भीतर प्रवेश कर रही थीं, और एक तितली को तुमने उड़ते देखा और तुम उसके पीछे दौड़ने लगे थे। वह तुम्हें आज भी याद है। तुम इसे दो तरह से याद कर सकते हो। एक— बौद्धिक स्मृति की तरह विवरण दे सकते हो कि ऐसा—ऐसा हुआ अपने सामने। दूसरा रास्ता यह है कि आख बंद कर लो और पुन: बच्चे हो जाओ। स्मरण करो कि तुम फिर उन वृक्षों की छाया में खड़े हो, जहां तुम बीस साल, पचास साल पहले खड़े थे। स्मरण करो कि धूप की किरणें तुम्हें छू रही हैं, तुम पुन: एक बच्चे हो गए हो। तुम भूल जाओ बीच के यह पचास वर्ष, हटा दो, तुम पुन: बच्चे हो जाओ। रि—लिव, पुन: जीयो, स्मरण भर मत करो। स्मरण तो ऊपर से है, बाहर से है। तुम पचास साल के हो, तो पचास साल के रह कर स्मरण करते हो।

पुन: जीने का अर्थ है कि तुम फिर पांच—छह साल के हो गए। अब तुम भूल ही गए कि बीच के पैंतालीस साल गुजरे। तुम पांच साल के बच्चे हो, वही क्षण फिर मौजूद है। धूप उतर रही है वृक्षों के किनारे से, एक तितली उड़ रही है, तुमने उसके पीछे दौड़ना शुरू कर दिया है। तुम दौड़ो। तुम घड़ी भर पांच साल के बच्चे हो जाओ। जब तुम वापस लौटोगे, तुम पाओगे तुम ताजगी ले कर वापस लौटे। इस पचास साल की उम्र में पुन: तुम अगर पांच साल के बच्चे हो सकते हो, तो तुमने पचास साल की उम्र को भी एक नई ताजगी और नए जीवन से भर दिया। जब तुम आख खोलोगे, तो तुम पाओगे तुम्हारे पास आंखें हैं, जो पांच साल के बच्चे के पास हैं, निर्दोष। क्षण भर यह टिकेगा, लेकिन इसे पुनः—पुन: जीना तुम्हारे जीवन को बदलने का रास्ता हो सकता है।

सुख के क्षण को, आनंद के क्षण को जीयो, संगीत के क्षण को जीयो, ताकि वह खो न जाए।’ एक समय आएगा, जब तुम्हें किसी गुरु की आवश्यकता न होगी। क्योंकि जिस प्रकार व्यक्ति को वाणी की शक्ति है, उसी प्रकार उस सर्वव्यापी में भी यह शक्ति है, जिसमें व्यक्ति का अस्तित्व है।’ अगर तुम संगीत के इन टुकड़ों को पकड़ते चले गए और ये टुकड़े आपस में बैठ कर एक बड़े संगीत को जन्म देने लगे, तो एक दिन ऐसी घड़ी आ जाएगी कि तुम उस अंतर—आत्मा की या उस परमात्मा की, या जो भी नाम तुम देना चाहो, उसकी वाणी, और उसके निर्देश को सीधा ही सुन सकोगे। तुम्हें तब किसी व्यक्ति को गुरु बनाने की जरूरत न रहेगी। वह तो तभी तक जरूरत है, जब तक तुम सीधा नहीं सुन सकते। तब तक तुम्हें एक मध्यस्थ की जरूरत है, जो सीधा सुन सकता है। वह तुमसे वही कह रहा है, जो तुम सीधा भी सुन सकते थे। वह तुमसे वही कह रहा है, जो तुम भी सुनने में समर्थ हो। लेकिन अभी तुम समर्थ नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे भीतर इतना कोलाहल है। यह कोलाहल जैसे— जैसे गिरता जाएगा, और जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर की भूमि के टुकड़े साफ होते जाएंगे, और जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर से कचरा अलग फिकता जाएगा और व्यर्थ के झाड़—झंखाड़ उखड़ जाएंगे, और तुम्हारे भीतर वही रह जाएगा, जो जरूरी है; तुम जैसे—जैसे भीतर साफ—सुथरे होते जाओगे, वैसे—वैसे तुम खुद ही पकड़ने लगोगे अनंत के स्वर को, अनंत की वाणी को, अनंत के शब्द को।

जिस दिन तुम खुद पकड़ने लगोगे, उस दिन बाहर के गुरु की कोई जरूरत न रह जाएगी। वह केवल मध्यस्थ था। वह पकड़ता था, तुम नहीं पकड़ पाते थे। वह तुमसे वही कहता था, जो तुम्हारी अंतर—आत्मा भी तुमसे कहेगी। लेकिन एक—एक कदम सुख के अनुभव को, जितना ज्यादा तुम पकड़ सको, उसे पकड़ कर भरते जाना।

इसमें एक बात और खयाल में ले लेना जरूरी है, जो बड़ी बुरी तरह बाधा बनती है। इससे कहीं वैसी भूल आप भी मत कर लेना। बहुत से लोग करते हैं। वे मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि कल तो ध्यान में बड़ा आनंद आया था, आज वैसा आनंद नहीं आया। शुरू में तो ध्यान में बड़ा आनंद आया था, अब वैसा नहीं आ रहा है, कोई आ कर कहता है। वह बड़ा परेशान है इससे।

ध्यान रहे, इस सूत्र का यह अर्थ नहीं है। कल जो ध्यान आया था, उसे अगर तुम आज मांगोगे, तो वह नहीं आएगा। क्योंकि आनंद जबर्दस्ती नहीं लाया जा सकता है। उसकी कोई अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। उसके लिए अगर तुमने अपेक्षा की, तो तुम इतने तन जाओगे कि वह नहीं आएगा। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पहली दफा जो लोग ध्यान शुरू करते हैं, तो उन्हें जैसा आनंद अनुभव होता है, फिर उन्हें बाद में नहीं होता। उसका कारण वे खुद ही हैं। क्योंकि जो पहली दफा उनको अनुभव में आया, उस वक्त तो कोई प्रतीक्षा भी नहीं थी, उन्हें पता भी नहीं था, कोई तनाव भी नहीं था कि आना चाहिए। नहीं आया तो दुखी हो जाएंगे, यह भी नहीं था। कुछ पता ही नहीं था। वे भोले— भाले थे। उस भोले— भाले अपेक्षा—रहित मन में आनंद उतरा था।

एक दफे आनंद उतर आया, तो अब उनकी अपेक्षा है। ध्यान में खड़े होते हैं, तो उनकी शर्त है कि अब आनंद आना चाहिए। अब वे तने हुए हैं, अब वे खिंचे हुए हैं। अब ध्यान नहीं कर रहे हैं, अब वे सिर्फ आनंद की मांग कर रहे हैं। पहली दफा आया था, तब कोई मांग नहीं थी, अब मांग है। अब वह न आएगा। आपने उसकी बुनियादी आधारशिला बदल ली।

इस सूत्र का यह अर्थ नहीं है कि जो मिला है, उसको मांगो। इस सूत्र का अर्थ है, जो भी मिला है, उसको जीयो, स्मरण करो। लेकिन उसकी पुनरुक्ति की मांग मत करो, तो वह पुनरुक्त होगा। उसको मांगो मत, तो वह मिलेगा। उसको जबर्दस्ती लाने की कोशिश मत करो। क्योंकि जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, उसके साथ जबर्दस्ती नहीं हो सकती। सिर्फ निकृष्ट के साथ जबर्दस्ती हो सकती है। श्रेष्ठ के साथ जबर्दस्ती नहीं हो सकती। तुमने जबर्दस्ती की कि वह टूट जाएगा।

एक अजनबी आदमी तुम्हें मिलता है। तुम प्रेम में पड़ जाते हो, बड़ा सुख मिलता है। फिर तुम विवाह कर लेते हो और फिर वैसा सुख नहीं मिलता। वही हो रहा है। अब तुम्हारी अपेक्षा है कि अब वह सुख कहां है, लाओ? जो सुख पहले दिन जाना था, वह वापस लाओ। कोई भी नहीं ला सकता दुनिया में। कोई उसे खींच—तान कर नहीं लाया जा सकता।

तुम अपनी पत्नी से मांग रहे हो कि जब तू मेरी प्रेयसी थी, और जैसा सुख का क्षण तूने मुझे दिया था, अब क्यों नहीं दे रही है? क्या तेरा प्रेम खतम हो गया? पत्नी पति से कह रही है, अब तुम उस तरह की बातें नहीं करते, उस तरह का प्रेम प्रकट नहीं करते, जैसा तुम पहले करते थे! क्या बात है? कहीं किसी और के साथ तो तुम प्रेम में नहीं उलझ गए हो? अब पति—पत्नी चिंतित हैं, परेशान हैं। एक—दूसरे पर पहरा दे रहे हैं। और एक—दूसरे से मांग कर रहे हैं। और कुछ भी हाथ नहीं आ रहा है। और जीवन रिक्त होता जाता है, चुकता जाता है। अब वे केवल एक—दूसरे को कष्ट दे रहे हैं। कष्ट का कारण वही है। जो पहले दिन घटा था, वह अनजान में घटा था। उस दिन वह तुम्हारी पत्नी न थी, उस दिन तुम्हारा कोई बल न था उसके ऊपर। उस दिन तुम मांग नहीं सकते थे, उस दिन दिया था। उस दिन तुमने भी दिया था बिना मांगे। अनजान में घटना घटी थी। जो अनजान में घटा था, अब तुम जान कर घटाना चाहते हो। तुम एक नई शर्त प्रविष्ट कर रहे हो, वह शर्त सब खराब कर देगी।

प्रेयसी और प्रेमी के भीतर जो प्रेम की धारा होती है, वह पति—पत्नी के बीच नहीं रह जाती है। बडा कठिन है। असंभव है।

पहले दिन जब तुम ध्यान में उतरे हो, तो जो सुख अनुभव होता है, वह दूसरे दिन नहीं होगा। क्योंकि दूसरे दिन तुम तैयारी से आ रहे हो कि अब सुख लेने जा रहे हैं। यह तैयारी पहले दिन नहीं थी, ध्यान रखो। दूसरे दिन भी उसी तरह गैर—तैयार आओ, जैसे पहले दिन आए थे, और भी बड़ा सुख घटेगा। तीसरे दिन और भी गैर—तैयार हो कर आओ। मांग ही मत करो, सिर्फ ध्यान करो। पूछो ही मत कि अब यह कब होगा? यह बात ही मत उठाओ। तुम तो सिर्फ ध्यान करो, यह बढ़ता जाएगा।

इस सूत्र का अर्थ है कि जो तुम्हारा सुख है, उसे इकट्ठा करो। उसे पुन: जीयो, लेकिन उसकी पुनरुक्ति की कामना मत करना।

पुन: जीने का मतलब है कि पीछे से जो तुमने इकट्ठा किया है, उसका बार—बार स्वाद लो, उसकी जुगाली करो। भैंस—गाय जुगाली करना जानती हैं, वह सीखो। वह भोजन कर लेती हैं, फिर उसकी जुगाली करती हैं, बार—बार चबाती हैं। जो सुख का अनुभव हो, उसकी जुगाली करो।

दुख के अनुभव की तुम काफी करते हो, इसलिए जुगाली तो तुम जानते ही हो। कोई आदमी एक दफा गाली दे दे, तो तुम पचास बार उसकी गाली अपने भीतर दोहराते हो, कि उसने ऐसा कहा। फिर— फिर तुम जोश में आ जाते हो। क्या लेना है? उसने एक दफा दिया, तुम पचास दफे दे रहे हो! रात तुम्हें नींद नहीं आती कि उसने गाली दी। अब तुम उसकी जुगाली किए जा रहे हो। गाली में इतना क्या रस है? जरा सा दुख हो जाए, तो तुम फिर उसको सोचते ही चले जाते हो, सोचते ही चले जाते हो, कि ऐसा क्यों हुआ, ऐसा नहीं होना था!

सुख की इस भांति जुगाली करो। दुख की जुगाली करके तुमने खूब दुख बढ़ा लिया है। तो सुख की जुगाली करो, और खूब सुख बढ़ जाएगा। लेकिन मांग मत करो। भविष्य में तो जाओ खाली। अतीत से रस को खींच लो पूरा अपने प्राणों में, लेकिन भविष्य में जाओ खाली, शून्य। वह जो अतीत से तुम सुख का रस खींच रहे हो, वह तुम्हें भविष्य के लिए तैयार कर रहा है। तुम्हें मांगने की जरूरत नहीं है, तुम्हारा सुख बढ़ता चला जाएगा।

छठवां सूत्र, ‘और उन स्वर—लहरियों से स्वर—बद्धता का पाठ सीखो। जीवन की अपनी भाषा है और वह कभी मूक नहीं रहता, और उसकी वाणी एक चीत्कार नहीं है, जैसा कि तुम जो बहरे हो, कदाचित समझो। वह तो एक गीत है। उससे सीखो कि तुम स्वयं उस सुस्वरता के अंश हो, और उससे सुस्वरता के नियमों का पालन करना सीखो।’

यह जो संगीत के खंड तुम भीतर इकट्ठे कर लोगे, इनको खंडों की भांति इकट्ठा मत करना, इनके बीच संबंध भी खोजना।

कठिन है। और जीवन की कला चाहिए। बचपन में तितली के साथ दौड़ कर एक सुख मिला था, वह तुम्हारे भीतर पड़ा है। फिर पहली बार तुम किसी के प्रेम में गिर गए थे, और तब तुमने एक आनंद का अतिरेक अपने में अनुभव किया था, वह भी तुम्हारे भीतर पड़ा है। और तब किसी एक रात सागर के किनारे बैठ कर सागर के गर्जन में तुम डूब गए थे, वह भी तुम्हारे भीतर पड़ा है। और कभी अकारण ही, खाली तुम बैठे थे और अचानक तुमने पाया कि सब मौन और शांत हो गया, वह भी तुम्हारे भीतर पड़ा है। ऐसे दस—पांच अनुभव तुम्हारे भीतर पड़े हैं। ये टुकडे—टुकड़े हैं। इनमें तुमने कभी यह खोजने की कोशिश नहीं की है कि इन सबके भीतर कामन एलिमेन्ट क्या है? इन सबके भीतर सम—स्वरता कहां है?

तितली के पीछे दौड़ता हुआ बच्चा और अपनी प्रेयसी के पास बैठा हुआ युवक—इन दोनों के बीच क्या मेल है? दोनों से सुख मिला है, और दोनों से एक संगीत का अनुभव हुआ है, और दोनों के बीच आनंद की कोई झलक थी, तो जरूर दोनों के बीच कोई तत्व समान होना चाहिए। बात बिलकुल भिन्न है। तितली के पीछे दौड़ता हुआ बच्चा, अपनी प्रेयसी के पास बैठा हुआ जवान, ओं का पाठ करता हुआ का, कहीं इनमें कोई तालमेल ऊपर से नहीं दिखता; लेकिन भीतर जरूर कोई घटना समान है। क्योंकि तीनों कहते हैं, बड़ा आनंद है। वे स्वाद जरूर समान हैं, भोजन कितने ही भिन्न हों।

तो जरा खोजना कि तितली के पीछे दौड़ते हुए बच्चे को जो सुख मिला था, वह क्या था? एकाग्रता थी, तितली ही रह गई थी। सारा जगत भूल गया था। बच्चा दौड़ रहा है उसके पीछे, यह भी उसे पता नहीं था। दौड़ने के साथ एक हो गया था। उसकी आंखें तितली पर बंध गई थीं। चित्त में सारे विचार खो गए थे, क्योंकि तितली पकड़नी थी, उतना ही विचार था। वह भी विचार था, ऐसा कहना कठिन है। एक भाव था। उस भाव—एकाग्रता के कारण सुख का अनुभव हुआ था।

फिर जवान हो गया था वही बच्चा जो तितली पकड़ रहा था, फिर वह अपनी प्रेयसी के पास बैठा है एक तारों भरी रात में। तितली और प्रेयसी में कोई संबंध नहीं है। लेकिन इस प्रेयसी के पास बैठ कर वह पुन: एकाग्र हो गया है। बस एक ही भाव रह गया, जगत मिट गया है, यह प्रेयसी ही रह गई है। अब कोई मन में उसके विचार नहीं है। इस प्रेयसी की मौजूदगी में वह उसी को पीता है। अब कोई दूसरा भाव, कोई दूसरा विचार उसको नहीं पकड़ता। इस क्षण में वह पुन: भाव—एकाग्रता में डूब गया है।

फिर का ओं का पाठ करता है। कहां तितली, कहां प्रेयसी, कहां रूँ का पाठ! कहां यह मंदिर का कोना, धूप—दीप—बाती! कोई संबंध नहीं दिखता। लेकिन ओं के पाठ में वह फिर भाव—एकाग्र हो गया। जगत मिट गया है, ओंकार का नाद ही सब कुछ है। भूल गया है अपने को। वह जो मंत्र बोल रहा है, उसका भी पता नहीं है। मंत्र ही रह गया है, ओं की ध्वनि ही रह गई है। फिर भाव—एकाग्र हो गया है। तब आपको समझ में आएगा कि तीन खंड हैं, अब खंड न रहे। इनके भीतर एक सूत्र मिल गया। वही संगीत है, वही सम—स्वरता है।

तो अपने जीवन— अनुभव, अपने आनंद, अपने संगीत के बीच जो खंड तुम इकट्ठे कर लो, उनके बीच सम—स्वरता, हार्मनी को खोजना। और तब तुम बहुत चकित हो जाओगे। तब तुम बहुत चकित हो जाओगे कि कितने ही भिन्न दिखाई पड़ने वाले अनुभव भी, अगर उनके भीतर सुख है, तो समान होते हैं। और कितने ही भिन्न दिखाई पड़ने वाले अनुभव, अगर उनके भीतर दुख है, तो समान होते हैं।

दुख की एक ही भाषा है। सुख की भी एक ही भाषा है। इनको अलग—अलग देखते रहोगे, तो तुम्हें जीवन—दृष्टि न मिलेगी। तब तुम सोचते रहोगे…….कि बूढ़ा ओंकार का पाठ करता हुआ सोचेगा कि जवान नासमझ है, कि कहां स्त्रियों के पीछे भटक रहा है? जवान प्रेयसी के पास बैठा हुआ बच्चों को देख कर समझेगा कि क्यों व्यर्थ अपना समय खो रहे हैं, तितलियों के पीछे भटक रहे हैं!

तब ये एक—दूसरे को न समझ पाएंगे। इसलिए नहीं समझ पाएंगे कि का अपनी ही जवानी को भी न समझ पाया, अपने बचपन को भी नहीं समझ पाया। वह का हो गया है, लेकिन उसे यह अभी तक पता नहीं चल पाया है, कि जवानी, बचपन, बुढ़ापा, एक ही जीवन— धारा के अंग हैं। और जब भी कहीं कोई सुख मिलता है, कोई आनंद की प्रतीति होती है, तो चाहे बाहरी वातावरण कितना ही भिन्न हो, भीतर की घटना एक ही होती है।

तितली के पीछे दौड़ो कि ओंम का पाठ करो, बराबर है। तितली के पीछे दौड़ना, बच्चे का ढंग है ओंकार का पाठ करने का। ओंकार का पाठ करना, के का ढंग है तितली के पीछे दौड़ने का। जवान भी अपनी प्रेयसी के पास ओंकार का पाठ कर रहा है और तितली के पीछे दौड़ रहा है। यह जिस दिन तुम्हें दिखाई पड़ेगा, उस दिन सब खंड एक संगीत में गिर जाएंगे, और तुम्हें भीतर का सूत्र मिल जाएगा। तब माला के मनके महत्वपूर्ण न रह जाएंगे, भीतर का धागा तुम्हारी पकड़ में आ गया। और वही धागा परम—सत्य की तरफ ले जा सकता है।

तब का बच्चे पर नाराज नहीं होता, क्योंकि वह अपने बचपन को समझ चुका है और आत्मसात कर लिया है। जो का बच्चे पर नाराज हो रहा है, वह ठीक से बुद्धिमान नहीं है। वह अपने बचपन के प्रति ही नाराज है। असल में, दूसरे बच्चे पर तो वह प्रक्षेपण कर रहा है। जो का जवान को कह रहा है कि क्यों जिंदगी नष्ट कर रहे हो, वह जीवन के अनुभव को समझ नहीं पाया। उसका किसी जवान से यह कहना है कि तुम जीवन नष्ट कर रहे हो, इस बात की प्रतीति है, कि वह समझता है कि जवानी में उसने जीवन नष्ट किया, और कुछ अर्थ नहीं है इसका। इस बूढ़े के जीवन में जवानी और बचपन एकाकार नहीं हो पाए। यह बूढ़ा खंड—खंड में जी रहा है।

खंड—खंड में दुख है। नहीं तो का बच्चे को सहायता देगा तितली पकड़ने में। और का जवान को सहायता देगा प्रेम की कला में उतरने में। क्योंकि का जानता है कि वह सब ओंकार का ही नाद है अलग—अलग अवस्थाओं में। तब वह नाराज नहीं है। तब वह किसी चीज पर नाराज नहीं है। तब उसकी कोई शिकायत नहीं है।

और ध्यान रहे, इस तरह के बूढे को ही हम ऋषि कह सकते हैं, हर किसी के को नहीं। तो के तो सब हो जाते हैं उम्र से, लेकिन वार्धक्य बहुत कम लोगों को उपलब्ध होता है। वार्धक्य का अर्थ है, जीवन का सारा अनुभव निचोड़ लिया।

इसलिए हमने इस देश में बूढ़ो को आदर दिया था, बुढ़ापे के कारण नहीं। के को हमने आदर दिया था, क्योंकि बच्चे के पास तितली पकड़ने का अनुभव है, लेकिन ओंकार का अनुभव नहीं है। जवान के पास प्रेयसी के पास बैठने का अनुभव है, लेकिन ओंकार का अनुभव नहीं है। बूढ़े के पास तीनों हैं। उसके पास सब है। इसलिए हमने को के चरणों में झुकने को कहा था, कि झुकना। इसलिए नहीं कि उसकी उम्र ज्यादा है, बल्कि इसलिए कि उसके मनके सब पूरे हो गए और हो सकता है कि उसने उस धागे को पकड लिया हो। जिसने नहीं पकड़ा है, वह बूढ़ा हुआ ही नहीं। उसने बाल धूप में पका लिए हैं। उसकी उम्र समय के भीतर गुजरी है, लेकिन उसने समयातीत को अनुभव नहीं किया है। क्या है समयातीत? विभिन्न, अनंत अनुभवों के बीच एक स्वर—संगीत को पकड़ लेना समयातीत है। वह समय के बाहर है।

और जिसने उसको पकड़ लिया है, उसके लिए इस जगत में फिर कोई दुख नहीं है। उसके लिए इस जगत में फिर कुछ भी बंधन नहीं है। उसने इस जीवन का सार पा लिया है। सार पाते ही व्यक्ति जीवन से मुक्त हो जाता है।

जीवन है ही इसलिए कि तुम सार पा सको। अगर तुम सार न पाओगे तो के से फिर तुम्हें बच्चा होना पड़ेगा, फिर नया जन्म लेना पड़ेगा, फिर तुम्हें तितलियां पकड़नी पड़ेगी, और फिर तुम्हें प्रेयसियों के पास बैठना पड़ेगा, फिर तुम्हें ओंकार का नाद करना पड़ेगा। और अगर फिर भी तुम जीवन के पूरे सार का सूत्र न पकड़ पाए, फिर तुम्हें बच्चा होना पड़ेगा। अगर तुम पूरे जीवन को एकसूत्रता में पकड़ लो, तो तुम्हारे फिर बच्चे होने की कोई जरूरत नहीं है। बच्चा होने का मतलब है कि तुम्हें फिर छोटी क्लास में वापस भेजा गया है। मैट्रिक तक आ गए थे, फिर तुम्हें उतार कर पहली क्लास में बिठा दिया। बहुत दुखद है।

इसलिए इस मुल्क में हमारे मन की पीड़ा एक ही रही है कि आवागमन से कैसे छुटकारा हो? उसका कुल मतलब यह है कि बार—बार का हो कर बच्चा होने का मतलब क्या होता है? उसका मतलब यह होता है कि वह समय व्यर्थ गया। पहुंच गए आखिरी क्लास तक, फिर उतार कर पहली क्लास में बिठा दिया गया! वह तो आपको नया शरीर मिल जाता है, इसलिए ज्यादा पीड़ा नहीं होती। अगर परमात्मा फिर से सृष्टि बनाए, तो उससे यह प्रार्थना करनी चाहिए कि दूसरा शरीर मत देना। के को वापस बच्चा बना देना, वैसे का वैसा। फिर वह तितलियां पकड़े तो ज्यादा लाभ होगा। वह दूसरा शरीर मिल जाता है, तो आप भूल ही जाते हैं कि क्या मामला है! आप क्या कर रहे हैं! वह तो बेहतर यही हो कि बूढ़े को के ही रहते हुए फिर तितलियां पकड़वाना, फिर स्त्रियों के पीछे दौडवाना, फिर मंदिर में पहुंचाना। मगर हो यही रहा है, क्योंकि भीतर की आत्मा तो वही रहती है।

‘उन स्वर—लहरियों से स्वर—बद्धता का पाठ सीखो।’

वही पाठ जीवन का संचित सार है।

आज इतना ही।


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साधना–पथ–(प्रवचन–9)

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मन का अतिक्रमण—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 5 जून, 1964; संध्‍या।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

प्रश्न: ओशो सत्य देने में कोई भी समर्थ नहीं है पर क्या आपकी बातें सत्य नहीं हैं?

 मैं जो कह रहा हूं वह केवल इशारा है। उसे ही सत्य नहीं समझ लेना है। सत्य उस इशारे से बहुत दूर है।

उस इशारे को नहीं, जिस तरफ इशारा है वहां देखना है। उस तरफ देखने पर जो स्वयं दिखेगा वह सत्य है। उस सत्य को कहने का मार्ग नहीं है। वह कहते ही असत्य हो जाता है। वह अनुभव तो बनता है, पर अभिव्यक्ति नहीं बनता है।

प्रश्न: ओशो पूर्णतया डूबने को आप कहते हैं वह हम कैसे करें?

मैं जैसा देखता हूं उस अनुभव के आधार पर आपसे कहता हूं कि डूबने से— स्वयं में डूबने से ज्यादा सरल और सुगम और कोई बात नहीं है। उसके लिए इतना ही करना है कि चित्त की सतह पर कोई भी सहारा न पकड़े। विचार को पकड़ने से डूबना नहीं हो पाता है। उसके सहारे ही फिर हम सतह पर रह जाते हैं।

विचार को पकड़ने की हमारी आदत है। एक विचार छूटता है तो हम दूसरा पकड़ लेते हैं। पर दो विचारों के बीच में जो अंतराल, इंटरवल है, उसमें हम कभी नहीं जाते हैं। वह अंतराल ही गहराई में डूबने की राह है। विचारों में नहीं, उसमें चलें जो कि विचारों के बीच में है।

यह कैसे होगा?

यह होगा, विचार—प्रवाह के प्रति जागने से। जैसे कोई चलते राही को किनारे से खड़े होकर देखता है, ऐसे ही अपने भीतर मन की राह पर चलते विचार—यात्रियों को देखें। उन्हें देखें मात्र। उनमें से किसी का चुनाव न करें। किसी को चुनें नहीं और न किसी के प्रति कोई निर्णय लें।

असंग और अलिप्त भाव से उनके दर्शन से, उन पर बंधी हमारी मुट्ठियां खुल जाती हैं और हम विचारों पर नहीं, विचारों के बीच में जो अंतराल है, उसमें खड़े हो जाते हैं। पर अंतराल तो आधारहीन है, इसलिए उसमें खड़े होना संभव नहीं है। उसमें तो खड़े होने से ही डूबना हो जाता है। यह डूब जाना ही वास्तविक आधार को पा लेना है, क्योंकि इस भांति ही वह सत्ता मिलती है जो कि हम स्वयं हैं।

विचारों के जगत में जो आधार खोज रहा है, वह निराधार में लटका हुआ है और जो वहां स्वयं को निराधार कर लेता है, वह स्वयं के आधार को पा जाता है।

प्रश्न : ओशो मैं मन को जीतना चाहता हूं पर वह तो एक असंभावना मालूम होती है; पर आप कहते हैं कि वह कत सरल बात है?

मैं जीत के विचार में ही जीत की असंभावना के बीज देखता हूं। वह भूल ही जीतने नहीं देती है। यदि आप अपनी ही छाया को जीतना चाहेंगे, तो क्या उसे जीत सकते हैं? छाया तो यह जानते ही कि छाया है, जीत ली जाती है। छाया को जीतना नहीं, जानना ही होता है। और छाया के संबंध में जो सच है, वही मन के संबंध में भी सच है।

मैं, आपको मन को जीतने को नहीं, जानने को कहता हूं।

बोधिधर्म से किसी ने पूछा था, प्रार्थना की थी’ मेरा मन बहुत अशांत है, कृपा करके उसे शांत करने का उपाय बता दें!’ बोधिधर्म ने कहा’ कहां है तुम्हारा मन? लाओ, मैं उसे शांत कर दूं।’

वह प्रार्थी बोला’यही तो मुश्किल है कि वह पकड़ में नहीं आता है।’

मैं होता तो कहता कि उसे पकड़ो ही मत और जाने दो। पकड़ना चाहते हो यही अशांति है। छाया को क्या पकड़ा जा सकता है?

बोधिधर्म ने क्या कहा? उसने कहा ’लो, मैंने शांत कर दिया न?’

हम यदि अपने मन को केवल देखें और पकड़ने और जीतने में न लगें तो वह पाया ही नहीं जाता है! पहले पूछा जाता था कि क्या आप अश्व को वशीभूत करने के लिए उसे थकाना चाहते हैं, या कि लगाम को मजबूत करना चाहते हैं! मन को जीतने की ये दो पद्धतियां रही हैं। पर मैं इन दोनों में से कोई भी उत्तर नहीं देता हूं। मैं कहता हूं पहले देखो भी कि अश्व है या नहीं? जो है ही नहीं, उसे हम थकाने और बांधने लगे हैं! वे दोनों ही प्रयास असत्य हैं, क्योंकि अश्व है ही नहीं! अश्व हमारी मूर्च्छा की छाया है। मैं जाग जाऊं तो कोई अश्व नहीं है। कोई मन नहीं है, जिसे जीतना है या कि जिससे हारना है।

प्रश्न : ओशो विचार के अपरिग्रह को आप कहते हैं क्या शुभ विचार भी संग्रह योग्य नहीं है?

दि उसे जानना है, जो कि आपका स्वरूप है, तो शुभ—अशुभ दोनों से शून्य और रिक्त हो जाना जरूरी है। शुभ—अशुभ विचार सब परिग्रह हैं। उनका आगमन बाहर से हुआ है। वे आसव हैं। उनके आच्छादन और आवरण में ही स्वरूप छिपा हुआ है।

विचार मात्र आच्छादन है। उनकी जंजीरों को तोड़ना आवश्यक है।

फिर जंजीरें लोहे की हैं या स्वर्ण की, इससे भेद नहीं पड़ता है।

जो भी बाहर से आया है, वह सब परिग्रह है। अपरिग्रह का अर्थ है चेतना की वह शुद्ध अवस्था जहां बाहर आया कोई भी प्रभाव, इंप्रेशन अनुपस्थित है। संस्कारों, कडिशनिग्स के अभाव में ही आत्मा का उदघाटन संभव होता है। उसके लिए संस्कार—शून्यता, अनकडिशंड माइंड की भूमिका चाहिए। पर हम सब तो विचारों से भरे हैं। और जो धार्मिक हैं वे तो धार्मिक विचारों से अत्याधिक भरे हुए हैं। धार्मिक होने का यही अर्थ समझा जाता है। धर्मग्रंथों से भर जाना धार्मिक होना समझा जाता है। यह बिलकुल ही भूल की बात है।

एक सदगुरु ने अपने एक विद्वान शिष्य से कभी कहा था ‘और सब तो बिलकुल ठीक है, केवल एक भूल ही और तुममें रह गई है।’ वह शिष्य बहुत दिन तक सोचता रहा, पर उसे अपने आचरण में तो कोई भूल नहीं दिखाई पड़ती थी। उसने गुरु से पूछा। तब गुरु ने कहा.’धर्म तुममें बहुत ज्यादा भरा हुआ है, उससे तुम बहुत भरे हुए हो! यू हैव ऑल टुगेदर टू मच ऑफ रिलिजन, यही एक भूल और शेष रह गई है। और यह कोई छोटी भूल नहीं है।’

धर्म तो क्या ज्यादा हो सकता है, धर्मशास्त्र ज्यादा हो सकते हैं। धार्मिक विचार ज्यादा भरे हुए हो सकते हैं। उनसे भरा हुआ चित्त इतना भारी होता है कि सत्य के आकाश में उड़ान नहीं भर सकता है! इसलिए मैं खाली हो जाने को कहता हूं। विचार मात्र से अपने को खाली कर लो— संस्कार मात्र से अपने को शून्य कर लो और फिर देखो कि उस शून्य में क्या घटित होता है? उस शून्य में जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार, मिरेकल घटित होता है। वह शून्य आपको स्वयं के आमने—सामने कर देता है। इससे बड़ा कोई चमत्कार नहीं है, क्योंकि आप स्वयं के सामने होते ही परमात्मा के सामने हो जाते हैं।

प्रश्न: ओशो मैं मूर्ति— पूजक हूं पर आपके विचारों से ज्ञात होता है कि मूर्ति की कोई आवश्यकता नहीं है क्या मैं मूर्ति— पूजा छोड़ दूं?

मैं कुछ भी छोड़ने या पकड़ने को नहीं कहता। मैं तो आप जागे, इसके लिए पुकार रहा हूं। जाग जाने पर स्वप्न छूट जाए तो बात दूसरी है। चेतना के तल के साथ ही सब व्यवहार बदल जाता है। बच्चे बड़े हो जाते हैं तो उनके गुड्डा—गुड्डियों के खेल अपने आप ही छूट जाते हैं। उन्हें छोड़ना नहीं पड़ता है, वे छूट ही जाते हैं।

एक गांव के अंत पर एक साधु रहता था। अकेला एक झोपड़े में, जिसमें कि द्वार भी नहीं थे और कुछ भी नहीं था, जिसके लिए कि द्वारों की आवश्यकता हो! एक दिन कुछ सैनिक उधर आए। वे उस झोपड़े में जल मांगने गए। उनमें से किसी ने साधु से पूछा ‘आप कैसे साधु हैं? आपके पास भगवान की कोई मूर्ति भी नहीं दिखाई पड़ती है। ‘वह साधु बोला’ यह झोपड़ा देखते हैं कि बहुत छोटा है। इसमें दो के रहने के योग्य स्थान कहां है?’ उसकी यह बात सुन कर वे सैनिक हंसे और दूसरे दिन भगवान की एक मूर्ति लेकर उसे भेंट करने लगे। पर उस साधु ने कहा ‘मुझे भगवान की मूर्ति की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि बहुत दिन हुए तब से वे ही यहां रहते हैं,’मैं’ तो मिट गया हूं। देखते नहीं हैं कि यहां दो के रहने योग्य स्थान नहीं है?’ और उन सैनिकों ने देखा कि वह अपने हृदय की ओर इशारा कर रहा था। वही उसका झोपड़ा था।

परमात्मा अमूर्त है। शक्ति अमूर्त ही हो सकती है। वह निराकार है। चेतना का आकार नहीं हो सकता। वह असीम है। सर्व, टोटेलिटी की कोई सीमा नहीं हो सकती है। वह अनादि है, अनंत है, क्योंकि’जो है’ उसका आदि—अंत तक नहीं हो सकता है।

और हम कैसे बच्चे हैं कि उसकी भी मूर्तियां बना लेते हैं? और फिर इन स्व—निर्मित मूर्तियों की पूजा करते हैं।

मनुष्य ने अपनी ही शकल में परमात्मा को गढ़ लिया है और फिर इस भांति अपनी ही पूजा स्वयं ही किया करता है। आत्मवचना, अहंकार और अज्ञान की यह अति है।

भगवान की पूजा नहीं करनी होती है, भगवान को जीना होता है। उसकी मंदिर में नहीं, जीवन में प्रतिष्ठा करनी होती है। वह हृदय में विराजमान हो और श्वास—श्वास में परिव्याप्त हो जाए, ऐसी साधना करनी होती है। और इसके लिए जरूरी है कि ‘मैं’ विलीन हो! उसके रहते प्रभु—प्रवेश नहीं हो सकता है। कबीर ने कहा है न कि प्रेम की वह गली ‘अति सांकरी’ है और इसलिए उसमें दो नहीं बन सकते!

एक रात्रि मैं देर तक दीया जलाए पढ़ता था। फिर दीया बुझाया तो हैरान हो गया। बाहर पूरा चांद था। पर मेरे दीये के टिमटिमाते प्रकाश के कारण उसकी चांदनी भीतर नहीं आ पा रही थी। यहां दीया बुझा ही था कि चांद ने अपने अमृत—प्रकाश से मेरे कक्ष को आलोकित कर दिया था। उस दिन जाना था कि’ मैं’ का दीया जब तक जलता रहता है, तब तक प्रभु—प्रकाश द्वार पर ही प्रतीक्षा करता है। और उसके बुझते ही वह प्रविष्ट हो जाता है। उसका—’मैं’ का बुझना, निर्वाण ही, प्रभु—प्रकाश का— प्रभु का आना भी है।

भगवान की मूर्ति मत बनाओ,’मैं’ की मूर्ति तोड़ दो। उसका अभाव ही भगवान का सदभाव है।

आज इतना ही।



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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–5)

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अंतर—आकाश—(प्रवचन—पांचवां)

प्यारे ओशो!

ऋचो अक्षरे परने व्योमन्

यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदु:।

यस्तं न वेदं किमृचा करिष्यति

य इत् तद् विदुस्त इने समासते।।

जिसमें सब देवता भली— भांति स्थित हैं उसी अविनाशी परम व्योम में सब वेदों का निवास है। जो उसे नहीं जानता वह वेदों से क्या निष्कर्ष निकालेगा? परन्तु जो जानता है उसे वह उसी में से भली— भांति मिल जाता है।

प्यारे ओशो! श्वेताश्वर उपनिषद् के इस सूत्र को हमारे लिये खोलने की अनुकंपा करें।

त्यार्नद! यह सूत्र उन थोड़े से अद्भुत सूत्रो में से एक है जिन्हें गलत समझना तो आसान, सही समझना बहुत मुश्किल। एक—एक शब्द की गहराई में उतरना जरूरी है। एक—एक शब्द जैसे जीवन अनुभव का निचोड़ है। हजारों गुलाबों से जैसे इत्र की कुछ बूदें बनें, ऐसे हजारों समाधि के अनुभव इस एक सूत्र में पिरोए हुए हैं।

पहले एक—एक शब्द को अलग—अलग समझ लें, फिर उनकी माला बना लेना कठिन न होगा। पहला शब्द है. ऋचा। विश्व की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं है। ऋचा का साधारण अर्थ तो होता है कविता, मगर वह तो कविता से ही प्रकट हो जाता है; उसके लिये ऋचा शब्द की कोई आवश्यकता नहीं है। कविता के पर्यायवाची शब्द दुनिया की सभी भाषाओं में हैं, संस्कृत अकेली भाषा है, जिसमें कविता के लिये दो शब्द हैं—कविता और ऋचा। कविता वह, जो मनुष्य निर्मित करता है, बांधता है छंद में, राग में, गीत में, सौंदर्य देता है, निखारता है, रूप देता है, रंग देता है।

जैसे कोई चित्रकार तितली बनाए : प्यारे हों रंग, सुन्दर हो आकृति; अब उड़ी तब उड़ी ऐसा लगे—मगर उड़े कभी भी नहीं, उड़ सके ही नहीं। केनवास पर ही रहेगी न कहीं आएगी न कहीं जाएगी। बगीचे में फूल भी खिलेंगे तो भी वह तितली केनवास पर ही रहेगी। सूरज भी निकलेगा, किरणें संदेश भी लाएंगी कि चलो यात्रा पर चलो, हवाएं भी आएंगी, शायद केनवास भी फड़फड़ाका; लेकिन तितली के पंख नहीं खुलेंगे। नहीं खुल सकते हैं। वह तो केवल तसवीर है।

कविता मात्र आदमी के द्वारा बनाई गई तसवीर है। कितनी ही प्यारी हो फिर भी तस्वीर है। और ऋचा जब मनुष्य मिट जाता है। मन मिट जाता है, तो मनुष्य मिट जाता है—मन नहीं तब ध्यान। उस ध्यान में जो उतरता है आकाश से, अंतरिक्ष से—वह है ऋचा। उसके छंद नहीं बिठाने होते। उसके बंध नहीं बिठाने होते। उसकी मात्राएं नहीं जुटानी होतीं। वह गीत जीवित, वह जीवंत काव्य है। वह बहता है। जैसे तितली उड़ती है। जैसे असली फूल खिलते हैं। वह कागज का फूल नहीं, गुलाब की झाड़ी पर खिला फूल है। वह तसवीर नहीं है दीए की, सच में ही दीया है।

ऋचा उतरती है समाधिस्थ चेतना में। काव्य है सौंदर्य की संवेदनशीलता। और ऋचा है परमात्मा को अपने में से बहने देना। जब कोई बांस की पोगरी की तरह हो जाता है शून्य, खाली, तो बस परमात्मा के होंठों पर बांसुरी बन जाता है।

इसलिये कविता तो कवि की होती है, ऋचा ऋषि की होती है। दोनों ही गाते हैं, दोनों ही गुनगुनाते हैं; मगर दोनों की गुनगुनाहट के स्रोत अलग हैं। ऋषि वह है जो परमात्मा के साथ एक हो गया। उस एकता से जो आनन्द की लहरें उठती हैं, उस एकता से जो नृत्य उठता है, जो पूंघर बज उठते है—वह है ऋचा। उस एकता के बिना मनुष्य अपने सौंदर्य—बोध से, अपने मन से, जो निर्मित करता है—कितना ही प्रीतिकर हो, मगर रहेगा मुर्दा। परमात्मा के बनाए बिना किसी चीज में कोई जीवन नहीं होता है। आदमी केवल लाशें गूढ़ सकता है, मूर्तियां बना सकता है, लेकिन उनमें प्राण का संचरण नहीं कर सकता, उनमें श्वास नहीं फूंक सकता।

ऋचा है सांस लेती हुई कविता। ऋचा है सप्राण काव्य। कविता है केवल देह। जब देह में आत्मा भी विराजित होती है तो ऋचा। दूसरा शब्द है : अक्षर। वर्णमाला को हम—केवल हम, सारी पृथ्वी पर, अक्षर से शुरू करते हैं।’ अ’ अक्षर का प्रतीक है। अच्छा नहीं किया लोगों ने कि अभी कुछ वर्षों से वर्णमाला क ख ग से शुरू होने लगी। वह अ से ही शुरू होनी चाहिये। अ यानी अक्षर। अक्षर परमात्मा का दूसरा नाम है। सभी यात्रा उसी से शुरू होनी चाहिये। शब्द की यात्रा के पहले कदम में ही अक्षर की झलक होनी चाहिये। इसलिये हमारी वर्णमाला अक्षरमाला है। हम ही हैं केवल पृथ्वी पर जो अक्षर जैसे अनूठे भाव का प्रयोग कर रहे है वर्णमाला के लिये। और वर्णमाला की यात्रा का जो पहला कदम है, अ, वह अक्षर का संकेत है—जिसका क्षय न हो; जो कभी झरे न; जो कभी मिटे न; जो है—सदा था—सदा रहेगा।

तीसरा शब्द है : व्योम। आकाश ही कहने से चल जाता। लेकिन आकाश वह है जो हमारे बाहर फैला है। और व्योम आकाश से भी बड़ा है। व्योम का अर्थ है : बाहर का आकाश + भीतर का आकाश। एक तो अस्तित्व है जो हमारे बाहर फैलता चला गया है; कहो संसार, कहो विश्व, ब्रह्मांड। और एक है अस्तित्व जो हमारे भीतर फैलता चला गया है। दोनों के जोड़ का नाम व्योम है। व्योम का अर्थ होता है : जो सदा ही विस्तीर्ण होता चला जा रहा है, फैलता जा रहा है, जिसकी कोई सीमा नहीं आती। कितना ही चलो, लेकिन कभी ऐसा क्षण न आयेगा कि कह सको कि बस, अब आगे और कुछ भी नहीं है। फिर भी शेष है। फिर भी शेष है, जो सदा शेष है, कितनी ही डुबकी मारो, जिसकी थाह नहीं मिलती; और कितना ही विचार करो, जिसका वर्णन नहीं होता है और कितने ही गीत गाओ, जो अनगाया ही रह जाता है—उसका नाम है व्योम। व्योम में अन्तर आकाश सम्मिलित है।

अब तुम्हें पहली पंक्ति का अर्थ समझ में आ सकता है। ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्। ऋचा अविनाशी परम व्योम में झरती है। वह फूल उस अंतर आकाश में खिलता है। वह कमल चैतन्य की झील में उमगता है और उस कमल की गंध ही ऋचा बन जाती है, वेद बन जाती है। वेद से तुम अर्थ न लेना उन चार वेदों का। उनमें तो निन्यान्नबे प्रतिशत व्यर्थ की बातें हैं। कहीं भूले, चूके कोई हीरा मिल जाये—मिल जाये। नहीं, तो सब कंकर—पत्थर हैं। वेद का अर्थ होता है तुम्हारे भीतर जो जानने की क्षमता है, उसका परम निखार—विद् का परम निखार। विद् यानि ज्ञान, बोध। बुद्धत्व है, वेद का अर्थ। इसलिये बुद्ध ने चारों वेदों को इनकार कर दिया। क्योंकि जिसे पांचवां वेद उपलब्ध हो उसे चारों को इनकार करना ही होगा। उन चार में जो खो जाता है वह पांचवें को नहीं पाता है।

‘यस्मिन देवा अधि विश्वे निषेदु:।’

और इस व्योम में ही विश्व के सारे देवताओं का निवास है।

देवता शब्द भी समझने जैसा है, नहीं तो भ्रांति हो जाएगी। क्योंकि तुमने देवता शब्द सुना कि तुमने समझा श्री गणेशाय नम—कि गणेश जी, कि हनुमान जी, कि इन्द्र महाराज, कि ब्रह्मा—विष्णु—महेश। इन सबसे देवता का कोई संबध नहीं है। देवता शब्द बड़ा वैज्ञानिक शब्द है। देवता बनता है, दिव से। दिव का अर्थ होता है प्रकाश। उसी से दिवस बना है, दिन! उसी से अंग्रेजी का ‘डे’ बना है—दिव से। उसी से अंग्रेजी का डिवाइन बना है। उसी से हिन्दी का दिव्य बना है। और तुम चकित होओगे जानकर, उसी से अंग्रेजी का ‘डेविल’ बना है। दिव्य भी उसी से और अदिव्य भी उसी से। क्योंकि वही है, और कोई भी नहीं है। उठो तो उसमें, गिरो तो उसमें। जागों तो उसमें, सोओ तो उसमें। डेविल का अर्थ होता है जो सोया है; जो गिर गया है; जो सिर के बल खड़ा है मगर इससे क्या फर्क पड़ता है? है तो उसकी ऊर्जा भी दिव्य। यूं समझोगे तो तुम्हें यह बात समझ में आ जाएगी कि क्यों चांद को देवता कहा गया है, तो क्यों सूरज को देवता कहा गया है—इसलिये कि वे प्रकाश के स्रोत हैं। प्रकाश के कारण ही उन्हें देवता कहा गया है। इसलिये अग्नि को देवता कहा गया है।

लेकिन लोग तो नासमझ हैं। वे अग्नि की पूजा करने लगे। वे सूर्य—नमस्कार करने लगे। उन्होंने समझा कि सूर्य देवता है। जैन मुनि तो बहुत नाराज थे, जब पहली दफा अमरीकी यात्री चांद पर उतरे। जैन मुनियों ने तो एक भारी संगठन खड़ा किया कि ऐसा नहीं होना चाहिये, क्योंकि देवता के ऊपर और मनुष्य के चरण पड़े, आदमी और देवता पर चलें, यह बात शोभा देती है? क्योंकि हमने देवता का अर्थ ही गलत समझ लिया है। यूं तो पृथ्वी भी देवता है। जिन्होंने चांद पर खड़े होकर पृथ्वी को देखा वे चकित हुए, क्योंकि देखा कि पृथ्वी भी इतनी ही ज्योतिर्मय है, जैसा चांद। चांद से पृथ्वी ज्योतिर्मय मालूम होती है, चांद मिट्टी रह जाता है—दूर के ढोल सुहावने! जमीन से चांद लगता है प्रकाशित। चांद से पृथ्‍वी लगती है प्रकाशित। क्योंकि प्रकाशित लगने का कारण सूर्य की किरणों का वापिस लौटना है। सूर्य की किरणें चांद पर पड़कर वापिस लौटती हैं, वापिस लौटती किरणें जब तुम्हारी आंखों को मिलती हैं तो लगता है कि चांद प्रकाशित है। चांद पर खड़े देखोगे तो पृथ्वी से सूरज की किरणें वापिस लौट रही हैं। वे तुम्हारी आंखों से मिलती हैं तो लगता है पृथ्वी प्रकाशित है।

जैसे कि कोई टार्च को दर्पण के ऊपर मारे तो दर्पण से ज्योति निकलनी शुरू हो जाए; दर्पण प्रतिफलित कर देगा प्रकाश को—और तुम्हें लगेगा कि शायद दर्पण से ज्योति आ रही है। ठीक ऐसा ही चांद है, ऐसी ही पृथ्वी है, ऐसा ही मंगल है। ये कोई व्यक्ति नहीं, लेकिन देवता शब्द से व्यक्ति की भ्रांति पैदा होती है। सिर्फ अर्थ है : इस जगत में जो भी प्रकाशित है, इस जगत में जो भी प्रकाश है, आलोक है, वह सब इसी परम अविनाशी व्योम में, इसी भीतर के महाशून्य में, उसका .स्रोत है।

‘जिसमें सब देवता भली भांति स्थित हैं उसी अविनाशी परम व्योम में सब वेदों का निवास है।’ और जहां से यह प्रकाश आ रहा है, जहां से तुम्हारी चेतना आ रही है, क्योंकि चेतना से ज्यादा प्रकाशित इस जगत में और कुछ भी नहीं—न चांद, न सूरज, न तारे। चेतना इस जगत में सबसे ज्योतिर्मय है, सर्वाधिक प्रकाशोज्वल अनुभूति है—इस चेतना में ही सब वेदों का निवास है, अर्थात सारे ज्ञान का निवास है।

यही मैं तुमसे कह रहा हूं रोज कि खोदो अपने भीतर। कहीं और जाना नहीं है—न वेद में, न गीता में, न कुरान में, न बाईबिल में। खोदो अपने भीतर। लो ध्यान की कुदाली और खोदो अपने भीतर। जो अपने भीतर खोदता है उसको मैं संन्यासी कहता हूं। जो बाहर की खुदाई में लगा है वह संसारी है। जो भीतर की खुदाई में लग गया है वह संन्यासी है। और जिसने भीतर खोदा उसने सब वेद पा लिये, सब कुरान पा लिए, सब बाईबिलें पा लीं। उसके भीतर बुद्ध भी मिल गये, महावीर भी मिल गये, कृष्ण भी मिल गये, जरथुस्त्र भी, जीसस भी। उसके भीतर मुहम्मद भी बोले, फरीद भी बोले, कबीर भी बोले, पलटू भी बोले। उसके भीतर सारे. संतों का समांगम हो गया। सारे देवता वहां विराजमान हैं। सारे वेदं वहां विराजमान हैं। क्योंकि बोध वहां विराजमान है।

‘जो उसे नहीं जानता वह वेदों से क्या निष्कर्ष निकालेगा?’

सूत्र बड़ा प्यारा है। यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति! और जिसने भीतर के वेद को नहीं पहचाना वह पागल बाहर के वेदों के अर्थ कर रहा है! पंडित लगे हैं व्याख्याएं करने में। अपना पता नहीं है और शास्त्रों के अर्थ कर रहे हैं। अर्थ क्या करेंगे, अनर्थ कर रहे हैं! अर्थ कर ही नहीं सकते। उनसे अर्थ हो ही नहीं सकता, केवल अनर्थ ही हो सकता है। मगर मजे से करते चले जाते हैं।

चैतन्य कीर्ति ने पूछा है कि एक जैन मुनि श्री मधुकर ने आपके खिलाफ एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि संभोग से समाधि असंभव है।

जहां तक मुझे याद पड़ता है, मधुकर मुनि मुझे मिले हैं। राजस्थान में ब्यावर में तीन दिन तक मुझे रोज मिले हैं। और एक ही उनकी जिज्ञासा थी कि ध्यान कैसे लगे। ध्यान का पता नहीं और संभोग और समाधि की व्याख्या में लगे हैं! दोनों शब्द एक ही बीज से निकले हैं : सम—संभोग भी और समाधि भी। जहां समता है, जहां सब सम्यक् हो गया, वहीं संभोग है। क्षणभर को होगा, लेकिन उस क्षण को सब ठहर गया, सब सम हो गया, कुछ विषम न रहा। कोई विचार न रहा, कोई चिन्ता न रही, कोई मैं—तू का भाव न रहा—ऐसी ही घड़ी को तो संभोग कहते हैं। वह एक क्षण को ठहरेगी, फिर खो जाएगी। समाधि ऐसा संभोग है जो आया तो आया, फिर जाता नहीं है। अगर संभोग बूंद है तो समाधि सागर है। मगर दोनों सम से ही बने हैं, खयाल रहे। संभोग शब्द को गाली मत देना। उसे गाली दी तो तुम सम शब्द को गाली दे रहे हो।

लेकिन उन्हें ध्यान का तो कुछ पता है नहीं, न समाधि का कुछ पता है लेकिन पंडित हैं तो उन्होंने व्याख्या कर दी समाधि की : सम + आधि। और संभोग रहेगा तो, तो आधि रहेगी, आधि से व्याधि पैदा होगी, व्याधि से उपाधि पैदा होगी। चले अब शब्द में से शब्द निकलते जाएंगे। समाधि का कोई अनुभव नहीं है। समाधि की कोई झलक नहीं है। लेकिन समाधि शब्द की व्याख्या शुरू हो गई और फिर व्याख्या में अनर्थ तो होनेवाला है। समाधि की क्या व्याख्या की! कि जो आधियों के बीच अपने मन को संतुलित रखता है। सुख आए कि दुख आए, आधियां आती हैं; सफलता मिले कि असफलता मिले! जो दोनों के बीच अपने मन को सम रखता है—वह समाधिस्थ है। मन को सम रखता है? मन कभी सम होता ही नहीं! मन है ही विषमता का नाम। जब तक यह दिखाई पड़ रहा है कि यह सफलता है और यह असफलता, क्या खाक मन को सम रखोगे? जिस दिन मन नहीं रहता उस दिन समता आती है। मन का अभाव है समता। मन कभी सम नहीं होता। मन का तो स्वरूप विषम है। मन तो डांवाडोल ही रहेगा, नहीं तो मन ही न रहेगा।

लेकिन भाषा में हम इस तरह के उपयोग करते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन ने एक होटल खोली और पहला ही आदमी भीतर आया—चंदूलाल मारवाड़ी। मुल्ला ने तो सिर पीट लिया कि यह कहां सुबह सुबह मारवाड़ी दिखाई पड़ गया! और पहले ही दिन होटल खोली है, हो गया भंटा ढार! लेकिन अब क्या कर सकता था? कहा कि विराजिए; क्या सेवा करूं?

चंदूलाल बोले कि बड़ी गर्मी है, बड़ी धूप पड़ रही है, एक पानी का गिलास!

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, पानी का गिलास? असंभव! पानी का गिलास यहां है ही नहीं। गिलास में पानी दे सकता हूं लेकिन पानी का गिलास कहीं और खोजो। रास्ता पकड़ो!

भाषा में चल जाता है, पानी का गिलास। मगर मुल्ला नसरुद्दीन भी मुल्ला है, मौलवी है। अरे, किसी मुनि से पीछे थोड़े ही है! किसी मधुकर मुनि से पीछे थोड़े ही हैं! आधि से व्याधि, व्याधि से उपाधि—चले! उसने वहीं तरकीब निकाल ली। मारवाडी को वहीं ठंडा कर दिया कि जा— भाग, कहां पानी का गिलास मांग रहा है! पानी का कहीं गिलास होता है?

तूफान आता है, सागर में लहरें ही लहरें उठ आती हैं; उलुंग लहरें, जैसे आकाश को छू लेंगीं। नावें डावांडोल होती हैं, डूबती हैं, जहाजें टकराती हैं। फिर तूफान चला गया। तुम कहते हो, तूफान शांत हो गया लेकिन यह सिर्फ उसी तरह का शाब्दिक उपयोग है, जैसे पानी का गिलास। तूफान शात हो गया या नहीं हो गया? तूफान शात होने का अर्थ तो यह है कि तूफान है तो, मगर अभी शात है। अगर शब्द को ही पकड़ो… और पंडित के पास कुछ और तो पकड़ने को होता नहीं, सिर्फ शब्द ही पकड़ने को होते हैं। तूफान शांत है, इसका अर्थ है कि तूफान तो है मगर शान्त है और कब अशात हो जाएगा, क्या पता? जंजीरें डाल दी हैं, शांत बैठा है। है तो, लेकिन जब तुम कहते हो तूफान शांत हो गया, तो असल में तुम्हारा मतलब यह है कि तूफान नहीं हो गया, अब तूफान नहीं हो गया, अब तूफान नहीं है।

मन शांत नहीं होता। मन को शात कहने का कोई अर्थ नहीं है। मन को शात कहने का अर्थ है : अमनी दशा। नानक ने कहा : अमनी दशा। मन नहीं रहा। वही शांति है, मन का न होना। जहां मन नहीं है वहा समाधि है।

मगर मधुकर मुनि व्याख्या कर रहे हैं : ‘सफलता में, असफलता में, सुख—दुख में, हार में, जीत में—समभाव रखना।’ मगर अभी हार और जीत दिखाई तो पड़ती है न! जब दिखाई पड़ती है तो समभाव कैसे रहेगा? हार हार है, जीत जीत है। मिट्टी पड़ी है, सोना पड़ा है; दोनों के बीच समभाव से बैठे हैं मधुकर मुनि, कि समभाव रखना है—सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है, अपने को क्या लेना देना? मगर जब तक सोना सोना दिखाई पड़ रहा है और मिट्टी मिट्टी दिखाई पड़ रही है, तब तक तुम लाख अपने को समझाकर बिठाए रखो, यह जबरदस्ती थोपा हुआ संयम तो हो सकता है, लेकिन समाधि नहीं। समाधि तो बड़ी और बात है!

कबीर का बेटा था : कमाल। कबीर ने उसे नाम ही ‘कमाल’ दिया—इसीलिये कि कबीर से भी एक कदम आगे छलांग ली उसने। कबीर का ही बेटा था, आगे जाना ही चाहिये। वह बेटा ही क्या जो बाप को पीछे न छोड़े! हर बाप की यही आकांक्षा होनी चाहिये कि मेरा बेटा मुझे पीछे छोड दे। हर गुरु की यही आकांक्षा होनी चाहिये कि मेरा शिष्य मुझे पीछे छोड दे। यही उसकी सफलता है। यही उसका सौभाग्य है।

कबीर के पास लोग धन ले आते चढ़ाने, सोना ले आते। कबीर कहते, ‘नहीं भाई, यह सब तो मिट्टी है। इस मिट्टी को क्या करेंगे, ले जाओ!’ कमाल कबीर के झोंपडे के बाहर ही बैठा रहता। वह कहता, ‘भैया, मिट्टी लाए और मिट्टी फिर ले जा रहे! अरे रख जाओ, मिट्टी ही है! जब मिट्टी ही है तो कहां ले जा रहे हो? एक तो लाने की भूल की, अब कम से कम दूसरी तो भूल न करो। रख दे, रख दे!’

कबीर को लोगों ने शिकायत की, कि आप ऐसे महात्यागी और यह लड़का तो शैतान है! आप तो भीतर से कह देते हो लोगों को कि यह मिट्टी है, ले जा भाई, हम क्या करेंगे, हम तो फकीर आदमी हैं; और यह लोगों से कहता है कि ‘अरे मिट्टी है, कहां ले जा रहे हो? एक तो यहां तक ढोयी, यह कष्ट सहा; अभी भी अज्ञान में पड़े हो? अरे छोड़ दे, रख दे! यहीं रख दे!’ रखवा लेता है।

कबीर ने कहा, ‘यह बात तो ठीक नहीं।’ कमाल को कहा कि यह बात ठीक नहीं। कमाल ने कहा, ‘ आप ही कहते हो कि मिट्टी है, तो फिर बात ठीक क्यों नहीं? बेचारों ने यहां तक ढोया, अब उनको फिर ढोने के लिये कह रहे हो! कुछ तो दया करो! अरे, दया ममता तो होनी ही चाहिये फकीर में, संन्यासी में!’

कबीर ने कहा कि मेरी तेरी नहीं बनेगी, तू अलग ही एक झोपड़ा बना ले। तो उसने अलग ही झोपड़ा बना लिया। काशी नरेश कबीर के पास आते थे, उन्होंने पूछा, बहुत दिन से कमाल दिखाई नहीं पड़ता; वह तो बाहर ही बैठा रहता था। कबीर ने कहा, ‘उसे अलग कर दिया, क्योंकि वह लोगों से धन—पैसा ले लेता था।’

काशी नरेश ने कहा कि देखें, परीक्षा करें। वे गये एक बडा बहुमूल्य हीरा लेकर। कमाल बैठा था अपने झोपड़े में। उन्होंने हीरा चढ़ाया। कमाल ने कहा, ‘ अरे, क्या पत्थर लाए! न खा सकते, न पी सकते, क्या पत्थर लाए! कुछ लाते काम की चीज।’

काशी नरेश ने सोचा, यह तो बात बड़ी गजब की कह रहा है और उसको कबीर ने अलग कर दिया! उसने उठाकर—वह अपने हीरे को वापिस अपनी जेब में रखने लगे। अरे, कमाल ने कहा, अब छोड़ दों—अरे मूरख, यहां तक ढोया पत्थर, अब कहा ले जा रहा है, रख!

तब काशी नरेश ने समझा कि यह तो आदमी होशियार है! यह तो बड़ा. अब इससे कुछ कह भी नहीं सकते, क्योंकि इनकार ही अगर करना था कि पत्थर नहीं है तो पहले ही करना था। पहले तो ही भर ली कि ही भई, है तो पत्थर ही, अब कैसे इनकार करें, किस मुंह से इनकार करें? इसने तो खूब फंसाया।

तो काशी नरेश ने पूछा, ‘कहां रख दूं?’ कमाल ने कहा, ‘वही गलती, गलती पर गलती। अरे पत्थर को कोई पूछता है, कहां रख दूं? अभी भी तुम हीरा ही मान रहे हो? अरे कहीं भी रख दो, जहां रखना हो। या पड़ा रहने दो जहां पड़ा है। रखना क्या?’

मगर काशी नरेश भी तय करके आया था कि परीक्षा पूरी कर लेनी उचित है। तो उसने… बहुमूल्य हीरा था, मुश्किल था उसको पड़ा देना… छप्पर में खोंस दिया। पंद्रह दिन बाद लौटा। सोचा उसने कि मैं इधर बाहर लौटा कि इसने हीरा निकाला। पंद्रह दिन बाद वापिस लौटा, इधर उधर की बात की, आया तो पता लगाने था हीरे का। पूछा कि मैं पंद्रह दिन पहले हीरा लाया था, क्या हुआ, हीरे का क्या हुआ? कमाल ने कहा, ‘गजब करते हो! कैसा हीरा? कब लाए थे? मैंने तो नहीं देखा।’

काशी नरेश ने कहा, ‘अरे हद्द! मेरे सामने ही झूठ बोल रहे हो! मेरा वजीर भी मौजूद था, मैं उसको साथ लेकर आया हूं गवाह। तो कबीर ठीक ही कहते हैं कि यह आदमी गड़बड़ है।’

कमाल ने कहा, ‘कि अरे, तुम उस पत्थर की बात तो नहीं कर रहे जो एक दिन लाए थे, पंद्रह बीस दिन पहले? उसी पत्थर को हीरा कह रहे हो, अभी भी हीरा कह रहे हो? यह तो तय हो गया था, यह तो निर्णय हो चुका था, पत्थर है।’

काशी नरेश ने कहा, ‘हां निर्णय हो गया था, मैं उसको खोंस गया था झोपड़े में। तूने निकाला होगा।’

कमाल ने कहा, ‘मुझे क्या पड़ी निकालने की? तुम देख लो। अगर कोई और निकालकर ले गया हो तो मैं कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि मैं कोई पहरेदार नहीं हूं यहां तुम्हारे पत्थरों का। और अगर किसी ने न निकाला हो तो होगा झोपड़े में। नरेश चकित हुआ देखकर, हीरा वहीं के वहीं झोपड़े में खुसा हुआ था। पैरों पर गिर पड़ा कमाल के और कहा, ‘मुझे क्षमा कर दो।’ पर उसने कहा, ‘इसमें क्षमा करने की बात ही क्या है? तुम गलती ही गलती किये चले जा रहे हो। अरे पत्थर है, उसको मैंने नहीं निकाला तो इसमें खूबी की क्या बात है? पत्थर तो बाहर बहुत पड़े हैं। कोई पत्थर बीनने के लिये यहां बैठा हूं। यहां पैरों पर किसलिये पड रहे हो? अगर तुम उसे हीरा ही मानते हो तो भैया ले जाओ और दुबारा इस तरह की चीजें यहां मत लाना।’

हिम्मत तो नहीं पड़ी, ले जाने की काशी नरेश की।

लेकिन यह कमाल कबीर से भी गहरी बात कह रहा है। अगर तुम्हें दिखाई पड़ने लगा कि सोना मिट्टी है, तो फिर मिट्टी और सोने में फर्क ही कहा रह जाएगा? फिर समता का सवाल ही कहां है? अगर सफलता और असफलता सच में ही समान हो गये तो किसको सफलता कहोगे, किसको असफलता कहोगे? किसको प्रशंसा, किसको अपमान?

ये मधुकर मुनि सिर्फ लफ्फाजी कर रहे हैं। न इन्हें संभोग शब्द का अर्थ पता है क्योंकि अनुभव का पता नहीं, समता का कोई अनुभव ही नहीं। एक क्षण नहीं जाना समता का। मेरे सामने गिड़गिड़ाते थे, पूछते थे कि ध्यान कैसे लगे। और उस लेख में उन्होंने ध्यान समझाया है—’चित्त की एकाग्रता ध्यान है। और धारणा ध्यान बन जाती है जब मजबूत होती है। और ध्यान जब मजबूत होता है तो समाधि!’ मजबूत! जैसे धारणा डंड—बैठक लगाए तो ध्यान बने, फिर ध्यान अखाडाबाजी करे तो समाधि बने! मजबूत! कौन करेगा धारणा? धारणा के मन में होती है। अगर धारणा मजबूत होगी तो मन मजबूत होगा, ध्यान मजबूत नहीं होगा। और चित्त की एकाग्रता से तो चित्त ही मजबूत होगा, इससे समाधि कैसे आ जाएगी? मगर यही चलता है!

यह सूत्र ठीक कहता है कि जो उसे नहीं जानता, जो स्वयं के भीतर के वेद को नहीं पढ़ा है अभी, वह वेदों से क्या निष्कर्ष निकालेगा। मगर वे ही लोग व्याख्याएं कर रहे हैं, टीकाएं कर रहे हैं, बड़ी विस्तीर्ण व्याख्याएं लिखते हैं। ब्रह्म का कोई अनुभव नहीं है और ब्रह्म—सूत्र पर भाष्य लिखते हैं। योग की कोई झलक भी नहीं मिली। योग मतलब जोड़। परमात्मा से मिलने की कोई प्रतीति ही नहीं हुई और पंतजलि के योग—सूत्र पर लिखे चले जाते हैं। अभी भगवान ने कोई गीत भीतर गाया नहीं, अभी भगवद्गीता जन्मी नहीं——हा, मगर वह जो बाहर की गीता है उस पर कितनी टीकाएं हैं! एक हजार तो प्रसिद्ध टीकाएं हैं और अनेक हजार अप्रसिद्ध टीकाएं होंगीं।

‘यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति ‘पहले भीतर के वेद को तो खोल लो। वह कोरी किताब तो पढ लो। उसे पढ़ते ही सब समझ में आ जाता है। क्यों? क्यों सब समझ में आ जाता है? इसलिये कि ‘य हुए तद् विदुस्त इने समासते : क्योंकि जो भीतर को जानता है वह भीतर के साथ एक हो जाता है। जो उसे जानता है, जो चैतन्य को जानता है, वह चैतन्य की परिपूर्णता को उपलब्ध हो जाता है, वह चैतन्य के साथ तदाकार हो जाता है। बूंद सागर को जानने जायेगी, सागर में उतरेगी कि सागर हो जायेगी। और जानने का एकमात्र यही उपाय है—वही हो जाओ। बाकी सब जानना बाहर—बाहर से है।

यही विज्ञान और धर्म का भेद है। विज्ञान यूं है जैसे फूल के चारों तरफ चक्कर लगाओ, लगाए जाओ चक्कर—इधर से जानो, उधर से जानो। इस कोने से देखो, उस कोने से देखो। इधर से परखो, उधर से परखो—बाहर—बाहर। और धर्म है, फूल में प्रवेश कर जाओ।

चीन की एक बहुत पुरानी झेन कथा है। एक सम्राट ने, जिसे हिमालय से बहुत प्रेम था, एक झेन फकीर को कहा, जो उस समय का सर्वाधिक बड़ा कलाविद था, चित्रकार था—कि क्या तुम मेरे लिये हिमालय की छवि उतार दोगे? मेरे सोने के कमरे में, पूरी दीवाल पर हिमालय के वे उड़ा आकाश को छूते हुए शिखर! वे हिमाच्छादित शिखर! वे कुंवारे हिमाच्छादित शिखर, जिन पर कोई कभी चला नहीं! उनकी तुम छवि बना दो। उस चित्रकार ने कहा, ‘बनाऊंगा। लेकिन समय बहुत लगेगा। जब तक पूरी बात न हो जाए, पूरा चित्र न बन जाए, भीतर किसी को आने की आज्ञा न होगी।’

सम्राट राजी हुआ। तीन वर्ष लगे। प्रतीक्षा बढ़ती गयी, उत्सुकता बढ़ती गयी कि तीन वर्ष झेन फकीर क्या कर रहा है! तीन वर्ष बाद उसने एक दिन कहा कि बस आज आप आएं। दरवाजा खोला, सम्राट भीतर गया। उसके दरबारी भीतर गये, उसकी रानी भीतर गयी। अवाक खड़ा रह गया, आंख की पलकों ने झपकना बंद कर दिया। हिमालय देखा था, मगर उस फकीर ने तो गजब कर दिया था। ऐसा सजीव हो उठा था हिमालय दीवार पर कि वह भूल ही गया कि यह चित्र है! वह पूछने लगा, ‘यह कौन सा शिखर है? यह कौन सा शिखर है? यह कौन सी नदी बह रही है? और तभी उसने पूछा कि यह पहाड़ के पास एक पगडंडी जाती है, यह कहा जाती है? उस फकीर ने कहा कि इस पगडंडी पर जाकर मैंने देखा नहीं। मैं जरा जाकर देखूं। और कहते हैं कि वह फकीर उस पगडंडी पर जो गया सो गया, लौटा ही नहीं।

अब यह कहानी बड़ी बेबूझ हो गयी। कहीं कोई चित्र की पगडंडी पर जा सकता है। और जाए भी तो लौटे ही नहीं! थोडी दूर तक तो सम्राट को दिखाई पड़ता रहा, फिर पहाड़ की ओट में चली गयी थी पगडंडी, पीछे की तरफ मुड़ गयी थी, फिर उसका कोई पता न चला।

मगर यह कहानी बड़ी प्रीतिकर है। यह कहानी यही कह रही है कि धर्म के जानने का ढंग विज्ञान के जानने के ढंग से भिन्न है। विज्ञान बाहर से जानता है, चारों तरफ चक्कर मारता है। इसलिये विज्ञान में ज्ञान नहीं है, केवल परिचय है, पहचान है। धर्म ज्ञान है, वेद है, बोध है। व्यक्ति प्रविष्ट हो जाता है। यूं प्रविष्ट हो जाता है कि लौटने की जगह ही नहीं बचती। अब बूंद सागर में उतरेगी तो फिर क्या लौटेगी? यही कह रही है यह कहानी।

ठीक कहता है यह सूत्र : ‘जो उसे जानता है वह उसी में भलीभांति मिल जाता है।’ और जब तक हम एकाकार न हो जाएं अस्तित्व से तब तक हमने जाना नहीं। बुद्ध ने इसी व्योम को शून्य कहा है। कबीर ने भी इसी व्योम को ‘सुन्न गगन’ कहा है। निर्वाण कहो इसे। लेकिन बात एक ही है। इस तरह मिट जाना है कि खोजने से भी अपना पता न चले। जिस दिन तुम इस भांति मिट जाओगे कि अपना कोई पता न चलेगा उसी दिन पता चलेगा कि परमात्मा क्या है। और उसी दिन पता चलेगा जीवन का अर्थ, जीवन का गीत, जीवन का नृत्य, जीवन का उत्सव इ!

ऋचो अक्षरे परने व्योमन्

यस्मिन देवा अधि विश्वे निषेदु :।

यस्तं न वेदं किमृचा करिष्यति

य इत् तद् विदुस्त इने समासते।।

‘सहज आसिकी नाहिं’ प्रवचनमाला से

दिनांक 10 दिसम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम; पूना ।

 


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साधना–पथ–(प्रवचन–10)

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ध्‍यान, जीवन और सत्‍य—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक, 6 जून, 1964 सुबह;

मुछाला महावीर, राणकपुर

सत्य का दर्शन कितनी सरल बात है, लेकिन सरलतम को ही देख पाना सदा कठिनतम रहा है।

यह इसलिए कि जो सरल है और निकट है, वह सरल और निकट होने के कारण ही भूल जाता है। हम दूर में उलझे रहते हैं और इसलिए निकट दृष्टि से ओझल हो जाता है, और हम ’पर’ में व्यस्त, ऑकुपाइड होते हैं, इसलिए ’स्व’ की विस्मृति हो जाती है।

नाटक में क्या ऐसा नहीं होता है कि देखने वाले दृश्यों में इतने खो जाते हैं कि स्वयं को भूल ही जाएं? ऐसा ही जीवन में भी हुआ है। वह भी एक बड़ी नाटयशाला है और हमने दृश्यों की तल्लीनता में द्रष्टा को, स्वयं को खो ही दिया है।

सत्य को, स्वयं को पाने को कुछ और नहीं करना है, बस दृश्यों से, नाटक से जागना भर है।

मैं देखता हूं कि आपके आस—पास निरंतर एक अशांति का घेरा बना रहता है। आपके उठते—बैठते, चलते—सोते वह प्रकट होता रहता है। वह आपकी प्रत्येक छोटी—बड़ी प्रक्रिया में उपस्थित होता है। क्या आप भी यह अनुभव नहीं करते हैं? क्या आपने कभी देखा है कि आप जो भी कर रहे हैं, सब अशांति में कर रहे हैं? इस अशांति के घेरे को तोड़ना है और एक शांति का घेरा, जोन ऑफ साइलेंस पैदा करना है। उस भूमिका में ही आप उस आनंद को और उस संगीत को अनुभव कर सकेंगे जो कि निरंतर आपके ही भीतर मौजूद है, पर अपने ही आतंरिक कोलाहल के कारण जिसे सुन पाना और जी पाना संभव नहीं हो रहा है।

मित्र! बाहर का कोलाहल कोई बाधा, डिस्टरबेंस नहीं है। हम भीतर शांत हों तो वह है ही नहीं। हम भीतर अशांत हैं, यही एकमात्र बाधा है।

सुबह कोई मुझसे पूछता था.’ भीतर शांत होने के लिए क्या करें?’ मैंने कहा’ फूलों को देखो, उनके खिलने को देखो। पहाड़ के झरनों को देखो और उनके बहने को देखो। क्या वहां कोई अशांति दिखाई देती है? सब कितना शांति से हो रहा है। मनुष्य को छोड़ कर कहीं भी अशांति नहीं है। इस भांति हम भी जी सकते हैं। इस तरह जीओ और अनुभव करो कि आप भी निसर्ग के एक अंग हो।’ मैं’ की पृथकता ने सब अशांति और तनाव पैदा कर दिया है!’

‘मैं—शून्य’ होकर कार्य करो। और आप पाओगे कि एक अलौकिक शांति भीतर अवतरित हो रही है। हवाओं में समझो कि आप भी हवा हो, और वर्षा में समझो कि आप भी वर्षा हो। और फिर देखो कैसी शांति क्रमश: घनी होने लगती है।

आकाश के साथ आकाश हो जाओ, और अंधकार के साथ अंधकार, और प्रकाश के साथ प्रकाश। अपने को अलग न रखो और अपनी बूंद को सागर में गिरने दो, फिर वह जाना जाता है जो कि संगीत है, जो कि सौंदर्य है, जो कि सत्य है।

मैं चलूं तो मुझे स्मरण होना चाहिए कि मैं चल रहा हूं। मैं उठूं तो मुझे होश होना चाहिए कि मैं उठ रहा हूं। कोई भी क्रिया शरीर से या मन से मूर्च्छित और बेहोशी में नहीं होनी चाहिए। इस भांति जाग कर अप्रमाद से जीवनाचरण करने से चित्त अत्यंत निर्मल और निर्दोष और पारदर्शी हो जाता है। इस भांति के अप्रमत्त जीवन आचरण से ध्यान हमारे समग्र जीवन व्यवहार पर परिव्याप्त हो जाता है। उसकी अंतधारा अहर्निश हमारे साथ बनी रहती है। वह हमें शांत करती है और हमारे व्यवहार को शुद्ध और सात्विक बनाती है।

यह स्मरणीय है कि जो व्यक्ति अपनी प्रत्येक शारीरिक और मानसिक क्रिया में सजग और जाग्रत है, उससे किसी दूसरे के प्रति कोई दुर्व्यवहार असंभव है। दोषों के लिए मूर्च्छा आवश्यक है। इसलिए अमूर्च्छा में उनका परिहार सहज ही हो जाता है।

समाधि को मैं महामृत्यु, ग्रेट डैथ कहता हूं—वह है भी। साधारण मृत्यु से मैं मिटूगा, पर पुन: हो जाऊंगा, क्योंकि मेरा’ मैं’ उसमें नहीं मिटेगा। वह’ मैं’ नये जन्म लेगा और नई मृत्युओं से गुजरेगा। साधारण मृत्यु वास्तविक मृत्यु नहीं है, क्योंकि उसके बाद फिर जन्म है और फिर मृत्यु है। और यह चक्रीय गति उस समय तक है जब तक कि समाधि की महामृत्यु आकर जन्मों और मृत्युओं से छुटकारा नहीं दे देती। समाधि महामृत्यु है, क्योंकि उसमें ’मैं’ मिट जाता है और उसके साथ ही जन्म और मृत्यु भी मिट जाता है। और जो शेष रह जाता है वही जीवन है। समाधि की महामृत्यु से अमृत—जीवन उपलब्ध होता है। उसका न जन्म है, न मृत्यु है। उसका न तो आदि है, न अंत है। इस महामृत्यु को ही मोक्ष कहते हैं, निर्वाण कहते हैं, ब्रह्म कहते हैं।

मेरी सलाह है कि ध्यान को काम नहीं, विश्राम समझना है। अक्रिया का यही अर्थ है। वह पूर्ण विश्राम है —समस्त क्रियाओं का पूर्ण विराम है। और जब समस्त क्रियाएं शून्य होती हैं और चित्त के सब स्पंदन विलीन हो जाते हैं, तब जो सारे धर्म मिल कर भी नहीं सिखा सकते हैं वह उस विश्राम में उभरना शुरू हो जाता है। क्रियाएं जब नहीं हैं, तब उसका दर्शन होता है जो कि क्रिया नहीं वरन सब क्रियाओं का केंद्र और प्राण है, कर्त्ता है।

सरहपाद ने कहा है:

 

‘जेहि क्या पका न संचरई, रवि ससि णाहि पवेस।

तहि बढ़ चित्त विसाम करु, सरहें कहिय उवेस।।’

‘ऐ चित्त! उस मन में चल कर विश्राम करें जहां पवन तक की गति नहीं होती है, और जहां सूरज और चांद का भी प्रवेश नहीं है। ऐसा एक केंद्र हमारे भीतर है, जहां हमारे अतिरिक्त और किसी का प्रवेश नहीं है। वही हमारी आत्मा है। और जहां तक किसी का प्रवेश है, वहां तक ही हमारा शरीर है।’

संसार जिस सीमा तक हममें प्रविष्ट हो सकता है, वही हमारी देह है। संसार उसमें प्रवेश कर सकता है, क्योंकि वह संसार का ही अंग है। इंद्रियां इस प्रवेश के द्वार हैं। और मन इस भांति प्रविष्ट संस्कारों का संग्रह है।

शरीर, इंद्रियों और मन के अतीत जो है, वह हमारी आत्मा है। उस आत्मा को पाए बिना जीवन व्यर्थ है। क्योंकि उसे जाने और जीते बिना हमारी कोई जीत नहीं है और हमारी कोई उपलब्धि, उपलब्धि नहीं है।

मैं संसार को और निर्वाण को भिन्न नहीं देखता हूं। उसमें जो भेद है, वह सत्ता— भेद नहीं है। वह भेद उनमें नहीं, मेरी दृष्टि में है। संसार और निर्वाण ऐसी दो सत्ताएं नहीं हैं। वे’ जो है’ उसे देखने की मेरी दो दृष्टियां हैं। सत्ता तो एक ही है। पर देखना दो प्रकार का है। ज्ञान की दृष्टि से वही सत्ता कुछ दिखती है और अज्ञान की दृष्टि से कुछ और दिखती है।

अज्ञान में जो संसार है, ज्ञान में वही निर्वाण हो जाता है। न जानने पर जो जगत है, जानने पर वही ईश्वर है। इसलिए प्रश्न वहां बाहर का नहीं, यहां भीतर परिवर्तन का है। मैं बदलता हूं तो सब बदल जाता है। मैं ही संसार हूं मैं ही निर्वाण हूं।

सत्य को किसी मूल्य पर नहीं पाया जाता। उसे किसी अन्य से पाया नहीं जा सकता। वह तो आत्म— विकास का फल है।

सम्राट बिंबिसार ने एक बार महावीर से जाकर कहा था.’ मैं सत्य पाना चाहता हूं। मेरे पास जो कुछ है, वह मैं सब देने को राजी हूं पर मैं वह सत्य चाहता हूं जो कि मनुष्य को दुख से मुक्त कर देता है।’

महावीर ने देखा कि जगत को जीतने वाला सम्राट सत्य को भी उसी भांति जीतना चाहता है। सत्य को भी वह खरीदने के विचार में है। उसके अहंकार ने ही यह रूप भी धरा है। उन्होंने बिंबिसार से कहा.

‘सम्राट, अपने राज्य के पुण्य— श्रावक से पहले एक सामायिक का, एक ध्यान का फल प्राप्त करो। उससे सत्य और मोक्ष—प्राप्ति का तुम्हारा मार्ग प्रशस्त होगा।’

बिंबिसार पुण्य— श्रावक के पास गए। उन्होंने कहा :’ श्रावक श्रेष्ठ, मैं याचना करने आया हूं। मूल्य जो मांगोगे, दूंगा।’

सम्राट की मांग सुन कर श्रावक ने कहा.’ महाराज, सामायिक तो समता का नाम है। राग—द्वेष की विषमता को चित्त से दूर कर स्वयं में ठहरना ही सामायिक है। यह कोई किसी को कैसे दे सकता है? आप उसे खरीदना चाहते हैं, यह तो असंभव है। उसे तो आपको स्वयं ही पाना होगा। उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है।’

सत्य को खरीदा नहीं जा सकता है। न उसे दान में, भिक्षा में ही पाया जा सकता है और न उसे आक्रमण करके ही जीता जा सकता है।

उसे पाने का मार्ग आक्रमण नहीं है। आक्रमण अहंकार की वृत्ति है। और अहंकार जहां है, वहां सत्य नहीं है।

सत्य को पाने के लिए स्वयं को शून्य होना पड़ता है। शून्य के द्वार से उसका आगमन होता है, अहंकार के आक्रमण से नहीं, शून्य की ग्रहणशीलता से, सेसिटिविटी से वह आता है। सत्य पर आक्रमण नहीं करना है, उसके लिए स्वयं में द्वार, ओपनिंग देना है।

हुईनेंग ने कहा’ सत्य को पाने का मार्ग है— अनभ्यास के द्वारा अभ्यास, कल्टीवेशन बाई मीन्स ऑफ नॉन—कल्टीवेशन। अभ्यास में भी आक्रमण न हो, इसलिए उसमें अनभ्यास की शर्त रखी है। वह किया नहीं अक्रिया है, अभ्यास नहीं अनभ्यास है, पाना नहीं खोना है। पर, यही उसे पाने का मार्ग भी है। मैं जितना अपने को रिक्त और खाली कर लेता हूं वह उतना ही मुझे उपलब्ध हो जाता है।

वर्षा में पानी कहां पहुंच जाता है! भरे हुए टीलों पर नहीं, खाली गडुाएं में उसका आगमन होता है। सत्य की प्रकृति भी वही है जो जल की है। यदि सत्य को चाहते हैं, तो अपने को बिलकुल खाली और शून्य कर लें। शून्य होते ही पूर्ण उसे भर देता है।

आज इतना ही।


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साधना–सूत्र–(प्रवचन–13)

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जीवन का सम्‍मान—(प्रवचन—तैरहवां)

सूत्र:

7—समग्र जीवन का सम्‍मान करो, जो तुम्‍हें चारों और से घेरे हुए है।

अपने आसपास के निरंतर बदलने वाले

और चलायमान जीवन पर ध्‍यान दो,

क्‍योंकि वह मानवों के ह्रदय का ही बना है।

और ज्‍यों–ज्‍यों तुम उसकी बनावट और उसकी आशय समझोगे,

त्‍यों—त्‍यों क्रमश: तुम जीवन का विशालतर शब्‍द भी

पढ़ और समझ सकोगे।

8—समझ पूर्वक मानव ह्रदय में झांकना सीखों।

मनुष्‍य के ह्रदयों का अध्‍ययन करो,

ताकि तुम जान सको कि वह जगत कैसा है,

जिसमें तुम रहते हो, और

जिसके तुम एक अंश बन जाना चाहते हो।

बुद्धि निष्‍पक्ष होती है,

न कोई तुम्‍हारा शत्रु है और न कोई मित्र।

सभी समान रूप से तुम्‍हारे शिक्षक है।

तुम्‍हारा शत्रु एक रहस्‍य बन जाता है।

जिसे तुम्‍हें हल करना है,

चाहे इस हल करने में युगों का समय लग जाए,

क्योंकि मानव को समझना तो है ही।

तुम्हारा मित्र तुम्हारा ही एक अंग बन जाता है,

तुम्हारा ही एक विस्तृत रूप हो जाता है,

जिसे समझना कठिन होता है।

 

जीवन—सत्य की खोज में जो बड़ी से बड़ी कठिनाई हो सकती है, वह है जीवन के प्रति असम्मान का भाव। और हम सबके भीतर जीवन के प्रति असम्मान का भाव है। और यह बात उलटी लगेगी और समझने में थोड़ी मुश्किल पड़ेगी कि तथाकथित धर्मों ने ही हमें जीवन के प्रति असम्मान से भर दिया है, जब कि वास्तविक धर्म हमें जीवन के प्रति सम्मान से भरेगा।

क्योंकि परमात्मा जीवन में ही छिपा है। जीवन उसका ही वस्त्र है, उसका ही आच्छादन है। जीवन उसकी ही श्वास है। और अगर जीवन के प्रति असम्मान का भाव है, तो परमात्मा को खोजना असंभव है। क्योंकि उस सम्मान से ही तो उसमें प्रवेश का द्वार मिलेगा। असम्मान से तो हमारी पीठ उसकी तरफ हो जाती है।

पर ऐसी उलझन हो गई है कि धर्म कहते हैं कि परमात्मा को खोजो। और धर्म यह भी कहते हैं कि परमात्मा जीवन के कण—कण में छिपा है। लेकिन परमात्मा को खोजने की बात, जो रुग्ण चित्त लोग हैं, वे समझते हैं, जैसे जीवन का निषेध करके खोजना है! जैसे परमात्मा की खोज जीवन का विरोध है। जैसे परमात्मा को पाना है तो जीवन को छोड़ना होगा।

अगर यह सच है कि परमात्मा को पाने के लिए जीवन को छोड़ना होगा, तो फिर जीवन का सम्मान नहीं हो सकता है, जीवन की निंदा होगी, अपमान होगा। और जीवन का अपमान होगा तो जीवन का जो परम—रहस्य है, उसका सम्मान कैसे हो सकता है?

कृष्‍ण तो जीवन के प्रति सम्मान से भरे हैं, जीसस तो जीवन के प्रति सम्मान से भरे हैं, बुद्ध तो जीवन के प्रति सम्मान से भरे हैं, लेकिन उनके अनुयायिओं का बड़ा वर्ग जीवन के प्रति अपमान से भरा है। इसका कारण बुद्ध, कृष्‍ण या क्राइस्ट की शिक्षाओं में नहीं है। इसका कारण अनुयायिओं की समझ में है।

क्योंकि वे सभी कहते हैं कि परम—सत्य को खोजो। हम भी उसे खोजना चाहते हैं। लेकिन जब भी हम उसकी खोज का विचार करते हैं, तभी हमें लगता है कि हमारा जो आज का क्षण, अभी का जो जीवन है, उसे छोड़ना पड़े, तभी उसकी खोज हो सके। इससे हटना पड़े, इसे नष्ट करना पड़े, तभी उसकी खोज हो सके। इसलिए नहीं कि उसकी खोज के लिए इससे हटना जरूरी है, बल्कि सचाई यह है कि हम इससे इतने ऊब गए हैं, और परेशान हो गए हैं, और हम इसमें इतने दुखी और इतने दीन हो गए हैं, कि जब भी हमें कोई मौका मिले, इसे छोड़ने और तोड्ने का, तो हम तैयार हैं। कोई भी बहाना मिले तो हम जीवन को नष्ट करने को तैयार हैं। हम आत्मघाती हैं, हम रुग्ण हैं। और ये रुग्ण लोग इकट्ठे हो जाते हैं, और ये सारी जीवन की परिभाषा बदल देते हैं, सारा ढंग बदल देते हैं। और ये पूरी व्यवस्था को उलटा कर देते हैं।

धर्म की तरफ पैथालाजिकल, रुग्ण चित्त लोग बहुत तीव्रता से उत्सुक होते हैं। उनकी उत्सुकता का कारण है। क्योंकि वे जीवन के तो विरोध में हैं। क्योंकि जीवन से तो उनको कोई सुख और शांति नहीं मिली। इसका कारण यह नहीं है कि जीवन में सुख और शांति नहीं है। इसका कारण यह है कि उनका जो ढंग था जीवन से सुख और शांति पाने का, वह गलत था। तो वे जीवन के प्रति विरोध से भर गए हैं। और जब भी उन्हें कोई शिक्षक मिल जाता है, जो किसी और बड़े जीवन की तरफ इशारा करता है, तभी वे तत्काल यह निर्णय बना लेते हैं कि इस जीवन में ही पाप है, इस जीवन में ही दुःख है। इसको छोड़ेंगे तो वह परम—जीवन मिलेगा।

जीवन में दुख नहीं है, जीवन को देखने के ढंग में दुख है। और अगर यही ढंग ले कर तुम परम—जीवन में भी प्रवेश कर गए, तो वहां भी दुख पाओगे। वह ढंग तुम्हारे साथ है। तुम कहां हो यह सवाल नहीं है। तुम जहां भी रहोगे, वह ढंग तुम्हारे साथ रहेगा। तुम जहां भी जाओगे, तुम्हारी आख तुम्हारे साथ रहेगी। तुम्हें परमात्मा भी मिल जाए, तो तुम उससे भी दुखी होने वाले हो! तुम सुखी हो नहीं सकते, तुम्हारा जो ढंग है उसको बिना बदले। लेकिन ढंग तुम बदलना नहीं चाहते, तुम परिस्थिति बदलने को उत्सुक हो जाते हो। तुम जीवन की निंदा करने में रस लेते हो। खुद गलत हो, यह तुम्हें सोचना मुश्किल हो जाता है।

यह जो निंदकों का एक समूह है, यह जीवन को नुकसान तो पहुंचा देता है, लेकिन परमात्मा की तरफ एक भी कदम बढ़ने में सहायता नहीं कर पाता।

एक बात समझ लेनी जरूरी है कि अगर कोई परम—जीवन भी है, तो इस जीवन की ही गहराई का नाम है। अगर कोई पार का जीवन भी है, तो भी इसी जीवन की सीढ़ियों से होकर वह रास्ता जाता है। यह जीवन तुम्हारा दुश्मन नहीं है। यह जीवन तुम्हारा सहयोगी है, साथी है, संगी है। और अगर इस जीवन से तुम्हें कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता, तो तुम अपने देखने के ढंग को बदलना। तुम अपने देखने की वृत्ति को बदलना। लेकिन कोई भी आदमी अपने को बदलने को तैयार नहीं! मैं तो इतना चकित होता हूं कि जो लोग कहते भी हैं कि हम स्वयं को बदलने को तैयार हैं, वे भी स्वयं को बदलने को तैयार नहीं होते, कहते ही हैं। उनकी उत्सुकता भी होती है कि सब बदल जाएं और वे न बदलें। क्योंकि खुद को बदलना—अहंकार को बड़ी चोट लगती है, बहुत पीडा होती है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे मुझे भी बदलने की योजनाएं ले कर आ जाते हैं! वे कहते हैं कि अगर आप ऐसा करें तो बहुत अच्छा होगा, अगर आप ऐसा कहें तो बहुत अच्छा हो, अगर आप ऐसे जीएं तो बहुत अच्छा हो! मैं उनसे पूछता हूं कि तुम यहां किसलिए आए थे? तुम अपने को बदलने आए हो या मुझे? मैं जैसा हूं आनंदित हूं। मुझे इसमें रत्ती भर बदलने का कोई सवाल नहीं है। तुम अगर दुखी हो तो खुद को बदलने की फिक्र करो। अगर तुम भी आनंदित हो तो बात खतम हो गई।

लेकिन दुखी आदमी भी आता है तो उसे इसका खयाल ही नहीं कि वह किसलिए आया हुआ है! वह किसलिए आया हुआ है? अपने को बदलने!

यहां शिविर में लोग आते हैं, दिन भर मेरा सिर खाते हैं—फलां आदमी ऐसा कर रहा है, ढिकां आदमी ऐसा कर रहा है! तुम यहां किसलिए आए हो? तुम सारे लोगों की चिंता के लिए यहां आए हो? तुम्हें किसने ठेका दिया सबकी चिंता का? तुम्हारे पास बहुत समय मालूम पड़ता है, बहुत शक्ति मालूम पड़ती है। अपना जीवन तुम दूसरों के लिए चुका रहे हो कि कौन आदमी क्या कर रहा है। क्या प्रयोजन है? कौन आदमी किस स्त्री के साथ बात कर रहा है, कौन आदमी किस स्त्री के पास बैठा हुआ है, तुम्हें चिंता का क्या कारण है? तुम कौन हो?

लेकिन तुम आए थे यहां अपने को बदलने को और यहां तुम फिक्र में पड़ जाते हो किसी दूसरे को बदलने की! असल में तुम अपने को बदलने आए ही नहीं हो, इसीलिए यह फिक्र पैदा होती है। तुम्हारा खयाल गलत था कि तुम अपने को बदलने आए हो। तुमने अपने को धोखा दिया। तुम चाहते तो सारी दुनिया को बदलना हो, तुम तो जैसे हो, उससे तुम रत्ती भर हटना नहीं चाहते! और फिर तुम चाहते हो कि तुम्हारा दुख समाप्त हो जाए, तुम्हारी पीड़ा समाप्त हो जाए! तुम जैसे हो, वैसे ही रह कर दुख समाप्त न होगा। फिर इससे क्या तुम्हें पीड़ा होती है कि कोई आदमी किसी स्त्री के साथ बात कर रहा है, प्रेमपूर्ण ढंग से बैठा हुआ है? इससे तुम्हें क्या पीड़ा होती है?

मुझे खबर दी किसी ने कि फलां आदमी किसी स्त्री के साथ इस ढंग से बैठा है, जो शोभादायक नहीं है। शोभा का कौन निर्णायक है? और जो आदमी खबर दे रहा है, उसे इस बात का खयाल ही नहीं है कि उसको यह पीड़ा क्यों पकड़ रही है। इस आदमी को मैं भलीभांति जानता हूं। यह किसी भी स्त्री के पास बैठने में समर्थ नहीं है। कोई स्त्री इसके पास बैठने में समर्थ नहीं है। यह परेशान है। यह उस आदमी की जगह बैठना चाहता था, इसलिए यह परेशानी की खबर ले आया। लेकिन इसे यह खयाल नहीं है कि इसका खुद का रोग इसको खा रहा है। यह दूसरे को बदलने की फिक्र में है!

मैंने उस आदमी को कहा कि जो आदमी वहां बैठा है स्त्री के पास, तुमने उस आदमी के बाबत एक बात खयाल की, कि वह आदमी सदा प्रसन्न रहता है, सदा हंसता है, सदा खुश है। और तुम सदा उदास, दुखी और परेशान हो। तुम उस आदमी से कुछ सीखो, उसके पास में बैठी स्त्री की फिक्र छोड़ दो। और यह भी हो सकता है कि तुम भी उतने खुश हो जाओ कि कोई स्त्री तुम्हारे पास भी बैठना चाहे। लेकिन तुम्हारी शकल नारकीय है। तुम इतने दुख और परेशानी से भरे हो कि कौन तुम्हारे पास बैठना चाहेगा! और फिर अगर दो व्यक्ति प्रेमपूर्ण ढंग से बैठे हैं, तो इसमें अशोभन क्या है?

यह बहुत मजे की बात है कि जीवन के असम्मान के कारण प्रेम अशोभन मालूम पड़ता है। क्योंकि प्रेम जीवन का गहनतम फूल है। अगर दो आदमी सड़क पर लड़ रहे हों तो कोई नहीं कहता कि अश्लील है। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डाल कर एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं, तो लोग कहेंगे, अश्लील है! हिंसा अश्लील नहीं है, प्रेम अश्लील है! प्रेम क्यों अश्लील है? हिंसा क्यों अश्लील नहीं है? हिंसा मृत्यु है, प्रेम जीवन है। जीवन के प्रति असम्मान है और मृत्यु के प्रति सम्मान है!

देखिए, कितनी हैरानी की बात है! युद्ध की फिल्में बनती हैं, कोई सरकार उन पर रोक नहीं लगाती। हत्या होती है, खून होता है फिल्म में, कोई दुनिया की सरकार नहीं कहती कि अश्लील है। लेकिन अगर प्रेम की घटना है तो सारी सरकारें चिंतित हो जाती हैं। सरकारें तय करती हैं कि चुंबन कितने दूर से लिया जाए! छ: इंच का फासला हो, कि चार इंच का फासला हो! कि कितने इंच के फासले पर चुंबन श्लील होता है और कितने इंच के फासले पर अश्लील हो जाता है! लेकिन छुरा भोंका जाए फिल्म में, तो अश्लील नहीं होता! कोई नहीं कहता कि छ: इंच दूर छुरा रहे।

यह बहुत विचार की बात है कि क्या कठिनाई है। चुंबन में ऐसा क्या पाप है, जो छुरा भोंकने में नहीं है? लेकिन चुंबन जीवन का साथी है और छुरा मृत्यु का। छुरे पर किसी को एतराज नहीं है। हम सब आत्मघाती हैं। हम सब हत्यारे हैं। लेकिन प्रेम के हम सब दुश्मन हैं! यह दुश्मनी क्यों है? इसको अगर हम बहुत गहरे में खोजने जाएं तो हमारा जीवन के प्रति सम्मान का भाव नहीं है।

फिर अगर दो व्यक्ति प्रेम से बैठे हैं, किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं, यह उनकी निजी बात है, यह उनका निजी आनंद है। अगर यह आपको कष्ट देता है तो आपको अपने भीतर खोज करनी चाहिए। आपके जीवन में प्रेम की कमी रह गई है। या आपकी कामवासना पूरी नहीं हो पाई है, अटकी रह गई है। आपकी कामवासना पूरी बन गई है, घाव बन गई है। मगर ये आदमी जो मेरे पास आ कर खबर लाएंगे, वे यह नहीं कहते कि हम अपनी कामवासना से पीड़ित हैं! वे यह कहते हैं कि यह क्या हो रहा है!

अपनी तरफ खयाल करो, अपने दृष्टिकोणों को सोचो, दूसरे की चिंता मत करो। और एक बात सदा खयाल में रखो कि तुम किस बात का सम्मान करते हो? जीवन का?

दो व्यक्तियों का प्रेमपूर्ण ढंग से खड़ा होना, इस पृथ्वी पर घटने वाली सुंदरतम घटनाओं में से एक है। और अगर प्रेम सुंदर नहीं है, तो फूल सुंदर नहीं हो सकते, पक्षियों के गीत सुंदर नहीं हो सकते, क्योंकि फूल भी प्रेम की घटना है। वह भी वृक्ष की कामवासना है। उससे वृक्ष अपने बीज पैदा कर रहा है, अपने वीर्य—क्या पैदा कर रहा है। पक्षियों के सुबह के गीत सुंदर नहीं हो सकते, क्योंकि वह भी प्रेयसियों के लिए बुलाई गई पुकार है या प्रेमियों की खोज है—वह भी कामवासना है।

अगर कोई व्यक्ति जीवन के प्रति असम्मान से भरा है तो इस जगत में फिर कुछ भी सुंदर नहीं है, सब अश्लील है। आपको फूल में दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि फूल की कामवासना का आपको पता नहीं है। जब वसंत आता है, तो पृथ्वी जवान होती है। वह जो आप खुशी देखते हैं चारों तरफ, वह भी कामवासना की ही खुशी है, वह जो उत्सव दिखाई पड़ता है।

जीवन की निंदा में कामवासना भी एक कारण है। न मालूम किस—किस भांति से हमने कामवासना का विरोध किया है, उसको पाप कहा है। वह पाप हो सकती है, क्योंकि उसमें पुण्य होने की क्षमता है। एक बात खयाल रखना. वही चीज पाप हो सकती है, जिसमें पुण्य होने की क्षमता हो।

एक छोटा बच्चा अगर कोई भूल करता है, तो हम उसे माफ कर देते हैं। हम पाप नहीं कहते, हम कहते हैं कि वह बच्चा है। अभी ठीक करने की क्षमता ही उसमें नहीं है, तो गलत करना माफ किया जाए। एक आदमी शराब पी कर कोई जुर्म कर लेता है, तो अदालत भी माफ कर देती है, क्योंकि उसने बेहोशी में किया है। होश में होता तो हम मानते हैं कि उसमें ठीक करने की क्षमता भी थी। जब क्षमता ही न थी तो फिर गलत का जुम्मा भी नहीं रह जाता। एक आदमी पागल सिद्ध हो जाए तो बड़े से बड़ा जुर्म भी माफ हो जाता है, क्योंकि पागल को क्या दोष देना? वह ठीक कर ही नहीं सकता था, तो गलत करने के लिए जिम्मेवार भी नहीं रह जाता।

एक बात— कि जिस स्थिति में पाप हो सकता है, वह वही स्थिति है, जिसमें पुण्य भी हो सकता था। नहीं तो पाप नहीं हो सकता है। जो ऊर्जा पाप बन सकती है, वही ऊर्जा पुण्य भी बन सकती है। इसलिए कामवासना का जो विरोध किया है जानने वालों ने, उसका कारण दूसरा है। न जानने वालों ने विरोध को पकड़ लिया, उसका कारण दूसरा है। जानने वालों ने इसलिए कहा है कि तुम कामवासना में मत पड़ों, ताकि तुम्हारी काम—ऊर्जा परमात्मा की तरफ प्रवाहित हो सके। इसमें कामवासना की निंदा नहीं है, केवल उसका महत्तर उपयोग है। सच पूछें तो इसमें उसकी महत्ता है। क्योंकि कामवासना में पड़ कर तुम संसार में प्रवेश कर जाओगे, और गहन अंधकार में। अगर तुम कामवासना में न पड़ी, तो यही ऊर्जा ऊपर चढने की सीढ़ी बन जाएगी।

तो जो सीढ़ी तुम्हें ऊपर ले जा सकती हो, उसको तुम नीचे की यात्रा पर मत लगाओ। इसमें सम्मान है, अपमान नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि काम—ऊर्जा परम—सत्य तक ले जा सकती है। और तुम उसे व्यर्थ मत खो देना। लेकिन रुग्ण लोगों ने उसका जो अर्थ लिया, उन्होंने अर्थ लिया कि कामवासना के शत्रु हो जाओ। वे सीढ़ी ऊपर की तरफ तो लगाते नहीं, सीढ़ी नीचे की तरफ भी नहीं लगाते! वे सीढ़ी कंधे पर ले कर घूमते रहते हैं, वे सीडी लगाते ही नहीं!

ऊपर की तरफ लगाओ, बहुत सुखद है, परम—आनंदपूर्ण है। ऊपर की तरफ न लगा सको, तो कंधे पर ले कर मत घूमो। क्योंकि उससे तुम सिर्फ रुग्ण हो रहे हो और बोझ ढो रहे हो। कामवासना के विरोध के कारण जीवन का भी अपमान हो गया हमारे मन में। क्योंकि जीवन उसी से तो उठता है, जीवन उसी से तो जगता है। जीवन कामवासना का ही तो फैलाव है।

प्रेम छुप—छुप कर करना पड़ता है, कहीं भाव है कि पाप है। अगर प्रेम पाप है, तो प्रेम से पैदा होने वाले बच्चे पुण्य नहीं हो सकते। अगर प्रेम पाप है, तो पूरा जीवन पाप है।

 

ये सूत्र बहुत कीमती हैं, समझने जैसे हैं। पहला सूत्र है—

 

सातवां सूत्र, ‘ समग्र जीवन का सम्मान करो, जो तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है।’

मस्त जीवन का सम्मान करो— मृत्यु का नहीं, हिंसा का नहीं, विध्वंस का नहीं—जीवन का, सृजन का, प्रेम का। जहां से जीवन उठता है, जहां से जीवन जन्मता है, जहां से जीवन फैलता है—चाहे पौधों में, चाहे पक्षियों में, चाहे मनुष्यों में—जीवन का सम्मान करो, समग्र जीवन का।

‘अपने आसपास के निरंतर बदलने वाले और चलायमान जीवन पर ध्यान दो, क्योंकि यह मानवों के हृदय का ही बना है। और ज्यों—ज्यों तुम उसकी बनावट और उसका आशय समझोगे, त्यों—त्यों क्रमश: तुम जीवन का विशालतर शब्द भी पढ़ और समझ सकोगे।’

जीवन के सम्मान में एक सृजनात्मक दृष्टिकोण है। चारों ओर देखो, हृदय से बना है सब कुछ। तुम्हारे पड़ोस में जो बैठा है, उसका हृदय भी धड़क रहा है। वह जो वृक्ष लगा है, उसकी भी जीवन— धारा प्रवाहित हो रही है। वह जो तुम्हारे नीचे पृथ्वी है, वह भी श्वास ले रही है। छोटा सा कीड़ा—मकोड़ा हो या आकाश के बड़े से बड़े तारा—मंडल हों, उन सबमें एक ही जीवन विभिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है। इसका सम्मान अगर मन में न हो, तो तुम अस्तित्व में प्रवेश कैसे करोगे? तुम कैसे प्रवेश करोगे? कहां से द्वार खोजोगे? अगर तुम्हारी घृणा है, अगर तुम्हारा विरोध है, निंदा है, तो तुम पीठ करके खड़े हो जाओगे द्वार की तरफ। जहां भी जीवन दिखाई पड़े, उसकी पूजा करो। जहां भी जीवन की कली खिलती हो, उसका स्वागत करो। विध्वंस तुम्हारे मन में न आए, निंदा तुम्हारे मन में न आए, सम्मान तुम्हारी भावदशा बन जाए।

श्वीत्जर ने किताब लिखी है, रिवरेन्स फार लाइफ, जीवन के प्रति सम्मान। और श्वीत्जर ने अपना पूरा जीवन, जीवन के प्रति सम्मान में समर्पित किया। और श्वीत्जर ने कहा है कि जीवन का सम्मान करते—करते ही मुझे प्रभु की प्रतीति होने लगी। और न मैंने कोई पूजा की है, और न मैंने कोई प्रार्थना की है, और न मैंने कोई ध्यान किया है। मुझे तो जहां भी जीवन दिखाई पड़ा, जो भी मुझसे बन सका जीवन के स्वागत, सेवा, समादर के लिए, वह मैंने किया है। और जहां भी मुझे खयाल आ गया कि मैं मृत्यु का पक्षपाती हो रहा हूं र वहीं से मैंने अपने को हटा लिया। जहां भी मुझे लगा कि मुझसे कोई विध्वंस हो रहा है, वहीं मैंने अपने हाथ रोक लिए। मैंने अपनी शक्ति को विध्वंस में नियोजित नहीं किया। कुछ मैंने तोड्ने में अपनी शक्ति नहीं लगाई। कुछ जोड़ सका, कुछ बना सका, कुछ निर्मित कर सका, जीवन के लिए कोई रास्ता, कोई सहारा—वही मैंने किया है। तो यही मेरी पूजा है। और मैं इसमें तृप्त हूं। क्योंकि मैंने पा लिया वह, जो मुझे पाने जैसा लगता है। कोई और खोज बाकी नहीं है।

लेकिन यह तभी हो सकेगा, जब तुम्हारा दृष्टिकोण बदले। अभी तो तुम विध्वंस की तलाश में

रहते हो। कहीं तुम्हें कुछ तोड़ने—फोड़ने को मिल जाए, तो तुम्हारे आनंद का अंत नहीं होता। बनाने में किसी बूढ़ो कोई रस नहीं है, मिटाने की बड़ी उत्सुकता है।

इस उत्सुकता को अपने भीतर खोजना। निंदा का बड़ा भाव है। अगर मैं किसी की निंदा करूं, तो आप बिना किसी विवाद के स्वीकार कर लेते हैं। अगर मैं किसी की प्रशंसा करूं, तो आपका मन एकदम चौंक जाता है, आप स्वीकार करने को राजी नहीं होते हैं। आप कहते हैं, सबूत क्या है? प्रमाण क्या है? आप वहम में पड़ गए हैं! लेकिन जब कोई निंदा करता है, तब आप ऐसा नहीं कहते।

कभी आपने देखा कि कोई आ कर जब आपको किसी की निंदा करता है, तो आप कैसे मन से, कैसे भाव से स्वीकार करते हैं? आप यह नहीं पूछते कि यह बात सच है? आप यह नहीं पूछते कि इसका प्रमाण क्या है? आप यह भी नहीं पूछते कि जो आदमी इसकी खबर दे रहा है, वह प्रमाण योग्य है? आप यह भी नहीं पूछते कि इसको मानने का क्या कारण है? क्या प्रयोजन है?

नहीं, कोई निंदा करता है तो आपका प्राण एकदम खुल जाता है, फूल खिल जाते हैं, सारी निंदा को आत्मसात करने के लिए मन राजी हो जाता है! और इतना ही नहीं, जब आप यही निंदा दूसरे को सुनाते हैं, क्योंकि ज्यादा देर आप रुक नहीं सकते। घड़ी, आधा घड़ी बहुत है। आप भागेंगे किसी को बताने को। क्योंकि निंदा का रस ही ऐसा है। वह हिंसा है। और अहिंसक दिखाई पड़ने वाली हिंसा है। किसी को छुरा मारो अदालत में, पकड़े जाओगे। लेकिन निंदा मारो, तो कोई पकड़ने वाला नहीं है। कोई कारण नहीं है, कोई झंझट नहीं है। हिंसा भी हो जाती है साध्य, रस भी आ जाता है तोड्ने का, और कोई नुकसान भी कहीं अपने लिए होता नहीं। भागोगे जल्दी। और खयाल करना, कि जितनी निंदा पहले आदमी ने की थी, उससे दुगुनी करके तुम दूसरे को सुना रहे हो। अगर उसने पचास कहा था, तो तुमने सौ संख्या कर ली है। तुम्हें खयाल भी नहीं आएगा कि तुमने कब यह सौ कर ली है। निंदा का रस इतना गहरा है कि आदमी उसे बढ़ाए चला जाता है।

लेकिन कोई तुमसे प्रशंसा करे किसी की, तुमसे नहीं सहा जाता फिर, तुम्हारा हृदय बिलकुल बंद हो जाता है, द्वार—दरवाजे सख्ती से बंद हो जाते हैं। और तुम जानते हो कि यह बात गलत है, यह प्रशंसा हो नहीं सकती, यह आदमी इस योग्य हो नहीं सकता। तुम तर्क करोगे, तुम दलील करोगे, तुम सब तरह के उपाय करोगे, इसके पहले कि तुम मानो कि यह सच है। और तुम जरूर कुछ न कुछ खोज लोगे, जिससे यह सिद्ध हो जाए कि यह सच नहीं है। और तुम आश्वस्त हो जाओगे कि नहीं, यह बात सच नहीं थी। और यह कहने तुम किसी से भी न जाओगे, कि यह प्रशंसा की बात तुम किसी से कहो। यह तुम्हारा जीवन के प्रति असम्मान है और मृत्यु के प्रति तुम्हारा सम्मान है।

अखबार में अगर कुछ हिंसा न हुई हो, कहीं कोई आगजनी न हुई हो, कहीं कोई लूटपाट न हुई हो, कोई डाका न पड़ा हो, कोई युद्ध न हुआ हो, कहीं बम न गिरे हों, तो तुम अखबार ऐसा पटक कर कहते हो कि आज तो कोई खबर ही नहीं है! क्या तुम इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे? क्या तुम सुबह—सुबह उठ कर यही अपेक्षा कर रहे थे कि कहीं यह हो? कोई समाचार ही नहीं है। तुम्हें लगता है कि अखबार में जो दो आने खर्च किए, वे व्यर्थ गए। तुम्हारे दो आने के पीछे तुम क्या चाह रहे थे, इसका तुमने कुछ सोच—विचार किया? तुम्हारे दो आने की सार्थकता का कितना मूल्य तुम लेना चाहते हो जगत से?

अखबार भी तुम्हारे लिए ही छपते हैं। इसलिए अखबार वाले भी अच्छी खबर नहीं छापते। उसे कोई पढ़ने वाला नहीं है, उसमें कोई सेन्सेशन नहीं है, उसमें कोई उत्तेजना नहीं है। अखबार वाले भी वही छापते हैं, जो तुम चाहते हो। वहीं खोजते हैं, जो तुम चाहते हो। दुनिया में जो भी कचरा और गंदा और व्यर्थ कुछ हो, उस सबको इकट्ठा कर लाते हैं। तुम प्रफुल्लित होते हो सुबह से, तुम्हारा हृदय बडा आनंदित होता है। तुम अखबार से जो इकट्ठा कर लेते हो, दिन भर फिर उसका प्रचार करते हो। तुम्हारा ज्ञान अखबार से ज्यादा नहीं है, फिर तुम उसी को दोहराते हो

पर कभी यह खयाल किया कि तुम्हारा रस क्या है? लोग डिटेक्टिव कहानियां पढ़ते हैं। क्यों? क्यों जासूसी उपन्यास पढ़ते हैं? क्यों जा कर हत्या और युद्ध की फिल्में देखते हैं? अगर रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों, तो तुम हजार काम रोक कर खड़े हो कर देखोगे। हो सकता है तुम्हारी मां मर रही हो और तुम दवा लेने जा रहे हो। लेकिन फिर तुम्हारे पैर आगे न बढ़ेंगे। तुम कहोगे कि मां तो थोड़ी देर रुक भी सकती है, ऐसी कोई जल्दी नहीं है। बाकी यह जो दो आदमी लड़ रहे हैं, पता नहीं, क्या से क्या हो जाए? और अगर दो आदमी लड़ते रहें और कुछ से कुछ न हो, तो थोड़ी देर में तुम वहां से निराश हटते हो कि कुछ भी न हुआ।

इसलिए मैं कह रहा हूं इसे तुम निरीक्षण करना। इससे तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारा कोण क्या है जीवन को देखने का? तुम चाहते क्या हो? तुम्हारी क्या है मनोदशा? इसको तुम पहचानना और तब इसे बदलना। तब देखना जहां—जहां तुम्हें लगे कि मृत्यु, हिंसा और विध्वंस के प्रति तुम्हारा रस है, उसे हटाना। और जीवन के प्रति बढ़ाना। अच्छा हो कि जब कली फूल बन रही हो, तब तुम रुक जाना। घड़ी भर वहां बैठ कर ध्यान कर लेना उस फूल बनती कली पर, क्योंकि वहां जीवन खिल रहा है। अच्छा हो कि कोई बच्चा जहां खेल रहा हो, हंस रहा हो, नाच रहा हो, वहां घड़ी भर तुम रुक जाना।

दो आदमी छुरा ले कर लड़ रहे हों, वहां रुकने से क्या प्रयोजन है? और तुम्हें शायद पता न हो और तुमने कभी सोचा भी न हो कि वे दो आदमी जो छुरा मार रहे हैं एक—दूसरे को, उसमें तुम्हारा हाथ हो सकता है। क्योंकि तुम ध्यान देते हो। अगर भीड़ इकट्ठी न हो तो लड़ने वालों का रस भी चला जाता है। अगर कोई देखने न आए, तो लड़ने वाले भी सोचते हैं कि बेकार है; फिर देखेंगे, फिर कभी। जब भीड़ इकट्ठी हो जाती है तो लड़ने वालों को भी रस आ जाता है। जितनी भीड़ बढ़ती जाती है, उतना उनका जोश गरम हो जाता है, उतना अहंकार और प्रतिष्ठा का सवाल हो जाता है।

इसलिए तुम यह मत सोचना कि तुम खड़े थे तो तुम भागीदार नहीं थे, तुम्हारी आंखों ने भी हिंसा में भाग लिया। और वह जो छुरा भोंका गया है, अगर दुनिया में कोई सच में अनूठी अदालत हो, तो उसमें छुरा मारने वाला ही नहीं, तुम भी पकड़े जाओगे, क्योंकि तुम भी वहां खड़े थे। तुम क्यों खड़े थे? तुम्हारे खड़े होने से सहारा मिल सकता है। तुम्हारे खड़े होने से उत्तेजना मिल सकती है। तुम्हारे खड़े होने से वह हो सकता है, जो न हुआ होता।

पर अपनी उत्सुकता को खोजो, और अपनी उत्सुकता को जीवन की तरफ ले जाओ। और जहां भी तुम्हें जीवन दिखाई पडे, वहां तुम सम्मान से भर जाना। वहां तुम अहोभाव से भर जाना। और तुमसे जीवन के लिए जो कुछ बन सके, तुम करना।

अगर ऐसा तुम्हारा भाव हो तो तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी हजार चिंताएं खो गईं, क्योंकि वे तुम्हारी रुग्ण—वृत्ति से पैदा होती हैं। तुम्हारे हजार रोग खो गए, क्योंकि तुम्हारे रोग, तुम विध्वंस की भावना से भरते थे। तुम्हारे बहुत से घाव मिट गए, क्योंकि उन घावों को तुम दूसरे को दुख पहुंचा—पहुंचा कर खुद भी अपने को दुख पहुंचाते थे और हरा करते थे।

इस जगत में केवल वही आदमी आनंद को उपलब्ध हो सकता है, जो अपनी तरफ से, जहां भी आनंद घटित होता हो, उस आनंद से आनंदित होता है।

लेकिन जब तुम किसी को सुखी देखते हो, तो तुम दुखी होते हो। तुम्हारी पूरी चिंता यह हो जाती है कि इस व्यक्ति को दुखी कैसे किया जाए। जान कर शायद तुम ऐसा न भी करते हो, लेकिन अनजाने यह चलता है कि तुम किसी को सुखी नहीं देख पाते। जब तुम किसी को दुखी देखते हो, तब तुम्हारे पैरों में थिरकन आ जाती है। तब तुम बड़ी सहानुभूति प्रकट करते हो। और शायद तुम सोचते हो कि तुम दुखियों के बड़े साथी हो, क्योंकि कितनी सहानुभूति प्रकट करते हो। लेकिन एक बात ध्यान रखना कि अगर तुम दूसरे के सुख में सुखी नहीं होते, तो तुम्हारा दूसरे के दुख में दुखी होना झूठा है। यह हो ही नहीं सकता। जब तुम दूसरे के सुख में सुखी नहीं होते, तो तुम दूसरे के दुख में दुखी नहीं हो सकते।

जब तुम दूसरे के सुख में दुखी होते हो, तो खोज करना अपने भीतर, तुम दूसरे के दुख में जरूर सुखी होते होंगे। क्योंकि यह तो सीधा गणित है। इस गणित से विपरीत नहीं होता। तुम्हारी सहानुभूति

दूसरे के लिए नहीं है, तुम्हारी सहानुभूति में तुम मजा लेते हो। दूसरा नीचे पड़ गया है आज, उसका पैर छिलके से फिसल गया है और जमीन पर चारों खाने चित्त पड़ा है। तुम्हारा चित्त बड़ा प्रसन्न है कि तुम नहीं गिरे, कोई और गिर गया है। अब तुम बड़ी शिष्टता और सभ्यता दिखला रहे हो, बड़ी सहानुभूति— उठा कर झाडू रहे हो, उस आदमी के वस्त्रों को। लेकिन तुम्हारा हृदय प्रसन्न हो रहा है कि तुम नहीं गिरे, और यह पड़ोसी गिर गया। कितनी दफा तुमने इसे गिराना चाहा था, आज केले के छिलके ने वह काम कर दिया है। तुम जब किसी के दुख में दुख प्रकट करने जाते हो, तब जरा अपने भीतर देखना कि तुम सुखी तो नहीं हो रहे हो?

मैं एक घर में रहता था। उस घर की गृहिणी बड़ी तलाश में रहती थी कि कब, कौन, कहां मर गया! न भी हो पहचान, तो भी वह गृहिणी संवेदना प्रकट करने जाती थी! और जब भी मैंने उस गृहिणी को संवेदना प्रकट करते जाते देखा, तो उसकी चाल का मजा ही और था! मैंने पूछा भी कि मामला क्या है? कोई मर जाता है, कुछ हो जाता है, तो तू इतनी क्यों प्रसन्न हो कर जाती है? उसने कहा कि दुख में तो साथ देना ही चाहिए। मैंने कहा कि तेरी आंखों से दुख का कोई पता नहीं चलता, तेरी चाल से कुछ पता नहीं चलता। मुझे तो ऐसा लगता है कि तू प्रतीक्षा में थी कि कब कोई मरे। तेरी जल्दी, तेरा रस, यह सब शक पैदा करते हैं।

आप अपने पर ध्यान करना। जब आप किसी के दुख में दुख प्रकट कर रहे हों, एक क्षण आँख बंद करके भीतर देखना कि रस तो नहीं आ रहा है। आपको अच्छा तो नहीं लग रहा है, मजा तो नहीं ले रहे हैं सहानुभूति में। अगर मजा ले रहे हैं, तो इस मजे को आप समझना कि रोग है। और जब कोई सुखी दिखाई पड़े, तो क्या आपको ईर्ष्या पकड़ती है? क्या यह होता है कि दूसरा आदमी सुखी है, तो आपको कष्ट होता है? अगर कष्ट होता है, तो आपके मन में जीवन का सम्मान नहीं है।

जीवन कहीं भी खिलता हो और खुश होता हो, आपको खुश होना चाहिए।

और यह मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि इससे दूसरों को लाभ होगा, यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि इससे तुम रोग से मुक्त हो जाओगे। तुम्हारे घाव मिट जाएंगे। तुम अपने लिए दुख पैदा करना बंद कर दोगे। क्योंकि जो दूसरों के लिए दुख पैदा करता है, वह अपने ही लिए दुख पैदा कर रहा है; उसे इसका पता नहीं है। जो दूसरे के लिए सुख पैदा करता है, वह अपने लिए बड़े सुख का आयोजन कर रहा है।

अगर तुम दुखी हो तो तुम जिम्मेवार हो। और यह जिम्मेवारी तुम्हारी तभी तुम्हारे खयाल में आनी शुरू होगी। क्योंकि हर आदमी अपने को तो सुखी करना ही चाहता है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो अपने को सुखी नहीं करना चाहता। और बड़े मजे की बात है कि पृथ्वी पर चार अरब आदमी हैं, सभी आदमी अपने को सुखी करना चाहते हैं और सभी आदमी दुखी हैं! जरूर कहीं कुछ भूल हो रही है। और भूल कुछ बड़ी है और बुनियादी है। नहीं तो चार अरब आदमी एक ही भूल को कैसे दोहराते रहेंगे? और सभी सुखी होना चाहते हैं और कोई सुखी नहीं है!

भूल यह हो रही है कि आप खुद तो सुखी होना चाहते हैं, लेकिन दूसरे को दुखी करना चाहते हैं। और जो दूसरे को दुखी करना चाहता है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता। भूल यह हो रही है कि आप खुद तो सुखी होना चाहते हैं, लेकिन किसी को सुखी नहीं देखना चाहते हैं। और जो किसी को सुखी नहीं देख सकता, वह दुखी रहेगा, वह कभी सुखी नहीं हो सकता।

जो हम दूसरों के लिए चाहते हैं, वह हमें उपलब्ध हो जाता है। जो हम दूसरों के लिए करते हैं, वह प्रतिध्वनित हो कर हम पर बरस जाता है। यह जगत एक गज है। यहां सब जो तुम लुटाते हो, तुम पर ही बरस जाता है। तुम गालियां फेंकते हो, गालियां तुम पर लौट आती हैं। तुम सुख लुटाते हो, सुख तुम पर लौट आता है। यह जगत तुम्हें वही दे देता है, तुम जो इसे देने को तत्पर हो।

अगर तुमने जीवन का सम्मान किया है, तो यह सारा जगत, यह सारा अस्तित्व, तुम्हारे प्रति सम्मान से भर जाएगा। अगर तुमने जीवन का अपमान किया है, तो यह सारा अस्तित्व तुम्हारे प्रति अपमान से भर जाएगा।

और तब एक बहुत कठिन समस्या पैदा हो जाती है। अगर तुम जगत का अपमान करते हो, जीवन का अपमान करते हो, तो जगत और जीवन तुम्हारा अपमान करता है। और जब तुम्हारा अपमान जगत और जीवन करता है, तो तुम सोचते हो कि ठीक ही था मेरा दृष्टिकोण, यह जगत अपमान के ही योग्य है। अब तुम एक चक्कर में पड़ गए, जिसके बाहर आना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अब तो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा यह खयाल ठीक ही था, कि यह जगत एक दुख है। यह कोई उत्सव नहीं है, यह एक रुदन है। अब तो तुम्हें पक्का ही हो जाएगा। क्योंकि यह जगत तुम्हें दुख देगा। और तुम्हें यह खयाल भी न आएगा कि यह दुख तुम्हारा ही बोया हुआ है, जो तुम्हारी तरफ वापस लौट रहा है।

अगर कर्म के सिद्धांत का कोई मौलिक अर्थ है, तो यह है कि तुम जो करते हो, वह तुम पर ही लौट आता है। तुम जो भी करते हो, वही तुम्हें मिल जाता है। तुम्हारा किया हुआ ही तुम्हारी संपदा बन जाती है। वही संपदा फिर तुम्हें ढोनी पडती है। वह संपदा दुख की है, तो तुम समझना कि तुमने जो किया है, वह दुख लाने वाला था। वह सुख की है, तो तुम समझना कि तुमने जो किया है, वह सुख लाने वाला था।

ये सूत्र महा—सुख के सूत्र हैं।

‘समग्र जीवन का सम्मान करो,

जो तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है। अपने आसपास के निरंतर बदलने वाले और चलायमान जीवन पर ध्यान दो, क्योंकि यह मानवों के हृदय का ही बना है। और ज्यों—ज्यों तुम उसकी बनावट और उसका आशय समझोगे, त्यों—त्यों क्रमश: तुम जीवन का विशालतर

शब्द भी पढ़ और समझ सकोगे।’

आठवां सूत्र, ‘समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो।’

‘समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो। मनुष्यों के हृदय का अध्ययन करो, ताकि तुम जान

सको कि वह जगत कैसा है, जिसमें तुम रहते हो और जिसके तुम एक अंश बन जाना चाहते हो।’

समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो— हम झांकते ही नहीं, समझ की तो बात ही दूर है। नासमझी तक से नहीं झांकते। दूसरे के हृदय में झांकने की हम झंझट नहीं लेते। सच तो यह है कि हम बिना दूसरे को समझे, दूसरे के संबंध में धारणाएं बना लेते हैं। हम अपनी धारणाओं से ही चलते हैं। हम दूसरे के हृदय में नहीं झांकते, हम पहले से ही पक्का कर लेते हैं, कौन कैसा है! फिर हम जो पक्का कर लेते हैं, उसी के अनुकूल हम तथ्य भी खोज लेते हैं। हमने हजार तरकीबें बना ली हैं, जिससे हम मानव हृदय में झांकने से बच जाते हैं। वह कष्ट हमें नहीं उठाना पड़ता, वह श्रम नहीं उठाना पड़ता।

आप किसी के पड़ोस में बैठे हैं। आप उससे पूछते हैं कि कौन हैं आप? क्या है धर्म आपका? क्या है जाति? नाम— धाम? पता—ठिकाना? आप यह इसलिए पूछते हैं, ताकि उस आदमी में झांकने से बच सकें। अगर वह आदमी कह दे कि मैं ब्राह्मण हूं और आप भी ब्राह्मण हैं, तो आप आश्वस्त हुए, अब झांकने की जरूरत नहीं है। आप ब्राह्मण के संबंध में जानते ही हैं। लेकिन कोई ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण जैसा ब्राह्मण नहीं है। हर आदमी अलग है।

अगर वह आदमी कह दे कि मैं मुसलमान हूं तो आप पक्के हो गए कि अब इससे आगे बातचीत बढ़ाना ठीक नहीं है। आदमी मुसलमान है। और मुसलमान बुरा है हिंदू के लिए। हिंदू है तो मुसलमान के लिए बुरा है। बात तय हो गई। अब इस निजी एक व्यक्ति में झांकने की कोई जरूरत नहीं है। हमने लेबल चिपका दिया है कि यह मुसलमान है। हमारे भीतर हृदय ने कह दिया है कि आदमी बुरा है।

अब आगे संबंध बढ़ाना ठीक नहीं है। अगर उस आदमी ने कहा कि मैं कम्युनिस्ट हूं तब हम सरक कर बैठ गए कि अब जरा दूर ही बैठना उचित है।

हम व्यक्तियों में झांकने से बचते हैं, हम लेबल लगा देते हैं।

कोई दो मुसलमान एक से होते हैं? कि कोई दो हिंदू एक से होते हैं? कि कोई दो कम्युनिस्ट एक से होते हैं? एक आदमी तो अकेला अपने ही जैसा होता है, दूसरा उसके जैसा कोई होता ही नहीं। लेकिन सुविधा इसमें है। क्योंकि अगर हम एक—एक को अद्वितीय मान लें, तो एक—एक का अध्ययन करना पड़ेगा। इतनी झंझट में कौन पड़े? तो हम उसका धंधा पूछ लेते हैं, व्यवसाय पूछ लेते हैं, फिर हम निश्चिंत हो जाते हैं। उससे हम तय कर लेते हैं। ऊपर—ऊपर से दो मिनट में तय हो जाता है कि दूसरा आदमी कौन है।

पूरी जिंदगी भी अध्ययन करके मुश्किल है दूसरे आदमी को जानना कि वह क्या है! हम दो मिनट में तय कर लेते हैं, उस हिसाब से चलने लगते हैं! फिर हम इमेज बना लेते हैं, प्रतिमाएं बना लेते हैं। ईं वे भी तरकीबें हैं हमारी।

आपके मन में आपकी पत्नी की एक प्रतिमा है। आपकी पत्नी के मन में आपके बाबत, अपने पति के बाबत एक प्रतिमा है। बस उसी प्रतिमा से काम चलता है! सीधे आदमी से कोई संबंध नहीं है! पत्नी जानती है कि पति को क्या करना चाहिए। अगर पति वही करता है तो ठीक है, अगर वही नहीं करता है तो गलत है। लेकिन पति क्या है, इसके समझने की उसे कोई चिंता नहीं है। सिद्धांत पहले से तय हैं। उन सिद्धांतो पर, आदमियों को हम ढांचे में बिठा देते हैं! ढांचे आदमियों के लिए नहीं हैं, आदमी ढांचों के लिए मालूम पड़ते हैं! तो वह यह नहीं देखती कि यह जो पति सामने खड़ा है, यह क्या है? पति की एक धारणा है, उस धारणा से वह जीवित है! अगर वह धारणा के अनुकूल है तो ठीक है, अगर प्रतिकूल है तो ठीक नहीं है!

लेकिन कोई भी आदमी किसी धारणा के अनुकूल, प्रतिकूल नहीं होता। प्रत्येक आदमी अपने ही जैसा होता है। सभी धारणाएं ओछी पड़ जाती हैं। सभी धारणाएं रेडीमेड कपड़ों की तरह होती हैं। वह आपके लिए नहीं बनाई गई होती हैं। सामान्य हिसाब से बनाई गई होती हैं, औसत होती हैं। और हर आदमी औसत से भिन्न होता है। कोई आदमी औसत में नहीं होता।

जैसे, हो सकता है आप अपने गांव की ऊंचाई नाप लें, सब आदमी की ऊंचाई नाप ली जाए— छोटे बच्चे भी हैं, बूढ़े भी हैं, लंबे लोग भी हैं, ठिगने लोग भी हैं, पांच सौ आदमी हैं—पांच सौ की ऊंचाई नाप कर पांच सौ का भाग दे दिया जाए, तो जो आएगा, वह औसत ऊंचाई होगी। फिर आप उस औसत ऊंचाई के आदमी को खोजने जाएं, गांव में एक आदमी नहीं मिलेगा, जो उस औसत ऊंचाई का हो। क्योंकि कोई औसत होता ही नहीं। औसत तो एक झूठ है। हर आदमी अपनी ही ऊंचाई का होता है। औसत जैसी कोई चीज नहीं होती। एवरेज गणित का हिसाब है, जिंदगी का नहीं है।

तो हम सिद्धांत, प्रतिमाएं निर्मित करके उनमें जीते रहते हैं। सीधा कोई देखता ही नहीं, हृदय में कोई झांकता नहीं! हृदय में क्या हो रहा होगा, इससे किसी को प्रयोजन भी नहीं! वह जरा खतरनाक मामला भी है। क्योंकि हृदय में झांको तो आप उलझन में पड़ सकते हो। इसलिए दूर बाहर खडे रहना अच्छा है। ज्यादा गहराई में किसी के भी उतरना खतरनाक है। क्योंकि तब दूसरे की गहराई आपको भी बदलेगी। तब इतनी आसानी से आप निपटारा न कर सकेंगे।

आपका नौकर है। आप उसके हृदय में कैसे झांक सकते हैं? झाकेंगे तो झंझट आएगी। झांकेंगे तो फिर उसके साथ नौकर जैसा व्यवहार करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि तब वह एक मानव हृदय है। उसके साथ नौकर जैसा व्यवहार रखना है, तो फिर आपको हृदय में नहीं झांकना चाहिए।

कभी आपने खयाल किया है कि आप कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं, अगर कोई अजनबी कमरे में आ जाए तो आप उसकी तरफ उठ कर खड़े हो जाएंगे, बैठने को कहेंगे। कोई परिचित आ जाए, तो आप उस पर ध्यान देंगे। नौकर कमरे में आ कर बुहारी लगा जाएगा, आपको पता ही नहीं चलेगा कि कोई आया और गया! जैसे नौकर कोई मनुष्य नहीं है, एक यंत्र है। काम फंक्शनल है, उसका काम से संबंध है। उसके हृदय में झांकना खतरनाक है। क्योंकि उसकी मां बीमार है, उसके बच्चे को शिक्षा चाहिए। उसके हृदय में भी वही सब घटित होता है, जो किसी मनुष्य के हृदय में घटित होता है।

अगर आप उसके हृदय में झांकते हैं, तो आप झंझट में पड़ेंगे। आपको कुछ करना पडेगा। तब आप भी सोच में पड़ जाएंगे कि पचास रुपए वेतन इस आदमी को हम देते हैं, क्या होता होगा? इसकी मां है की, इसका बच्चा है, इसकी पत्नी है, घर है, पचास रुपए में यह कैसे जीता होगा? अगर इसके ह्रदय में झांकेंगे तो आपको किसी न किसी दिन इस आदमी की जगह अपने को रख कर सोचना पड़ेगा कि अगर मुझे पचास रुपए मिलें, तो क्या होगा?

इससे उचित है कि भीतर हृदय में न उतरा जाए, दूर रहा जाए। इतना ही समझा जाए कि यह आदमी काम करता है, पचास रुपए काम के दिए जाते हैं। इससे ज्यादा इस आदमी के संबंध में समझदारी खतरनाक है। इसलिए हमने दीवालें खड़ी कर ली हैं। हम किसी के हृदय में नहीं झांकते, हम दूर—दूर रहते हैं। हम सब एक—दूसरे से अछूत की तरह रहते हैं।

यह सूत्र कहता है, ‘समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो।’

क्योंकि जब तक तुम मानव के हृदय में झांकना न सीखोगे, तब तक तुम पिघलोगे भी नहीं, गलोगे भी नहीं, तब तक तुम मिटोगे भी नहीं, तब तक तुम्हारे अहंकार से छुटकारा बहुत मुश्किल है। तुम दूसरे के हृदय में बहो, तो धीरे— धीरे तुम्हारा अहंकार अपने आप गल जाएगा। क्योंकि तुम पाओगे कि तुम्हारा जैसा ही हृदय दूसरों में भी धड़कता है। तब तुम पाओगे कि ठीक तुम ही, दूसरे के भीतर भी बैठे हुए हो। तब तुम्हें अपना जो दंभ है, वह व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा। तब तुम्हें यह भी दिखाई पड़ना साफ हो जाएगा, यह भी दिखाई पडने लगेगा कि व्यक्ति—व्यक्ति के जो फासले हैं, वह बहुत ऊपरी हैं। भीतर शायद एक ही महा—हृदय धड़क रहा है। अगर हृदय में झांकना तुम सीख लो तो हृदय की जो शुद्धतम गहराई है, वह तुम्हें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी। तब तुम पाओगे कि एक ही हृदय धड़क रहा है बहुत हृदयों में। फेफड़े बहुत होंगे, हृदय शायद एक ही है। और यह प्रतीति तुम्हें परमात्मा की तरफ ले जाने में एक बहुत बड़ा कदम सिद्ध होगी।

‘मनुष्यों के हृदय का अध्ययन करो, ताकि तुम जान सको कि यह जगत कैसा है, जिसमें तुम रहते हो और जिसके तुम एक अंश बन जाना चाहते हो। बुद्धि निष्पक्ष होती है। न कोई तुम्हारा शत्रु है और न कोई मित्र। सभी समान रूप से तुम्हारे शिक्षक हैं। तुम्हारा शत्रु एक रहस्य बन जाता है, जिसे तुम्हें हल करना है, चाहे इस हल करने में युगों का समय लग जाए। क्योंकि मानव को समझना तो है ही। तुम्हारा मित्र तुम्हारा ही एक अंग बन जाता है, तुम्हारा ही एक विस्तृत रूप हो जाता है, जिसे समझना कठिन होता है।’

मनुष्यों के हृदय का अध्ययन अगर करना है, तो निष्पक्ष होना जरूरी है, नहीं तो अध्ययन न हो सकेगा। अगर तुम्हारे पक्ष पूर्व से ही तय हैं, तो तुम जो भी खोज लोगे, वह तुम्हारी ही मान्यता का पुन: आविष्कार होगा, वह तुम्हारी ही धारणा की पुनरुक्ति होगी। तुम अपने को ही ठीक सिद्ध कर लोगे। हम इसी तरह जीते हैं। हमारा पक्ष तो पहले से तय होता है, फिर हम सत्य की खोज करने निकलते हैं। तो यह सत्य की खोज तो पहले से ही झूठ हो गई। अगर तुम्हारा पक्ष पहले से ही तय है, तो बात ही व्यर्थ हो गई।

राजस्थान विश्वविद्यालय में एक अध्यापक हैं, वे मृत—आत्माओं और पुनर्जीवन की खोज करते हैं। तो कभी कोई उन्हें मुझसे मिलने लिवा लाया था। तो उन्होंने कहा कि मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म होता है।

तो मैंने उनको कहा कि तुमने मुझे आते से ही मुश्किल में डाल दिया। क्योंकि तुम कहते हो कि वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म होता है! इसका एक मतलब तो यह हुआ कि तुम तो मान ही चुके हो कि पुनर्जन्म होता है, और अब तुम वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहते हो कि पुनर्जन्म होता है। तो तुम्हारा पक्ष तो पहले से तय है। उचित हो, अगर तुम सच में ही वैज्ञानिक बुद्धि के हो, तो तुम यह कहो कि मैं जानना चाहता हूं वैज्ञानिक रूप से कि पुनर्जन्म होता है या नहीं होता है। तुम तो कहते हो कि मैं सिद्ध करना चाहता हूं! तो इसका अर्थ हुआ कि यह तो तय ही है तुम्हारे लिए कि पुनर्जन्म होता है! अब रह गई बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करने की, तो वह तुम करके दिखा दोगे। क्योंकि तुम वही घटनाएं खोज लोगे, जो सिद्ध करती हैं, और वे घटनाएं छोड़ दोगे, जो सिद्ध नहीं करतीं। तुम मतलब की बातें छांट लोगे, और गैर—मतलब की छोड दोगे। तब तो आदमी कुछ भी सिद्ध कर सकता है।

एक आदमी ने किताब लिखी है, जिसमें सिद्ध किया है कि तेरह तारीख अपशकुन है। और वैज्ञानिक रूप से सिद्ध किया है कि तेरह तारीख अपशकुन है। उसने क्या किया है? उसने तेरह तारीख को दुनिया भर की अदालतों में जितने मुकदमे चलते थे, वे सब इकट्ठे कर लिए हैं। तेरह तारीख को कितने लोगों को फांसी लगती है, वह इकट्ठी कर ली है। तेरह तारीख को कितने एक्सीडेंट होते हैं, वे इकट्ठे कर लिए हैं। तेरह तारीख को कितने लोग मरते हैं, वह इकट्ठा कर लिया है। तेरह तारीख को जो लोग पैदा होते हैं, उनमें से कितने लोग बीमार रहते हैं, वह इकट्ठा कर लिया है। उसने सब इकट्ठा कर लिया है उपद्रव। उसने एक भारी किताब लिखी है। अगर आप भी किताब पढ़ेंगे, तो आप भी डर जाएंगे कि तेरह तारीख से बचना चाहिए।

लेकिन यह चौदह तारीख के बाबत भी इतने ही तथ्य उपलब्ध हैं। और पंद्रह के बाबत भी इतने ही उपलब्ध हैं। लेकिन उसने उसकी कोई फिक्र नहीं की, बस तेरह के उपलब्ध कर लिए! और तेरह को दुर्घटनाएं ही नहीं होतीं, सुघटनाएं भी होती हैं, वह उसने छोड़ दीं! तेरह को असफलताएं ही नहीं होतीं, सफलताएं भी होती हैं। और तेरह को मृत्यु ही नहीं होती, जन्म भी होते हैं। तेरह को फांसी ही नहीं लगती, तेरह को मुकदमे खारिज भी होते हैं और फासिया छूटती भी हैं। लेकिन वह उसने छोड़ ही दी हैं! और यही सब चौदह को भी होता है। लेकिन किताब पढ़ कर तो आप भी थोड़े घबड़ा जाएंगे, क्योंकि इतने तथ्य उसने इकट्ठे किए हैं कि तेरहवीं मंजिल से कितने लोग गिर कर मर जाते हैं। बारहवीं से भी मरते हैं। कोई मरने वाला तेरह और चौदह, बारह को खोजने जाता है?

उसकी किताब का यह परिणाम हुआ कि अमरीका में होटलों में तेरह नंबर की मंजिल समाप्त कर दी। अमरीका की बड़ी होटलों में आपको बारह नंबर की मंजिल मिलेगी, फिर सीधी चौदह नंबर की! क्योंकि तेरह पर कोई रुकने को राजी नहीं होता कि कौन झंझट ले, जब तेरह में इतना उपद्रव हो रहा है! तेरह का आकड़ा ही खराब है। मकान लोग बनाते हैं तो तेरहवें नंबर की मंजिल को छोड़ देते हैं। नंबर नहीं रखते तेरह का। नहीं तो कोई उसको खरीदता ही नहीं, वह खाली रह जाता है हिस्सा!

यह विक्षिप्तता पैदा हो सकती है, अगर पक्ष पहले से तय है।

यह सूत्र कहता है कि अगर सच में तुम मनुष्यों के हृदय का अध्ययन करना चाहते हो, तो तुम निष्पक्ष रहना।

और बुद्धि का लक्षण निष्पक्षता है। अगर तुम बुद्धिमान हो, तो निष्पक्ष होओगे। अगर तुम पक्षपातपूर्ण हो तो तुममें बुद्धि नहीं है। बुद्धि का अर्थ ही है कि जानने के पहले तय नहीं करेंगे। जब तक पूर्णता से कोई बात सिद्ध न हो जाए, तब तक हम कोई पक्ष न लेंगे, तब तक हम बीच में ही खड़े रहेंगे। हम इस पार या उस पार कोई निर्णय न करेंगे।

बुद्धिमान होना कठिन है, क्योंकि उसके लिए प्रतीक्षा चाहिए और धैर्य चाहिऐ। बुद्धिहीन होना बहुत आसान है, उसमें दिक्कत ही नहीं है। जल्दी से कहीं भी सम्मिलित हो जाता है कोई आदमी। अगर तुम निष्पक्ष हो तो तुम्हें खयाल करना पड़ेगा कि न कोई तुम्हारा शत्रु है और न कोई मित्र। सभी समान रूप से तुम्हारे शिक्षक हैं।

यह सूत्र बड़ा गजब का है, ‘सभी समान रूप से तुम्हारे शिक्षक हैं।’

तुम्हारा मित्र भी तुम्हें कुछ सिखा रहा है, तुम्हारा शत्रु भी तुम्हें कुछ सिखा रहा है। और कई बार मित्र से भी ज्यादा शत्रु सिखाता है। बहुत बार शत्रु से तुम इतना सीख सकते हो, जिसका हिसाब नहीं। लेकिन अगर तुम्हारे मन में यह खयाल हो कि शत्रु भी शिक्षक है और मित्र भी, तब तुम शत्रु के हृदय में भी उतर सकते हो। तब शत्रु का हृदय भी तुम्हारे लिए बंद नहीं होगा। तब तुम्हारे लिए जगत में कोई चीज बंद नहीं है, सभी चीजें खुली हैं, क्योंकि तुम खुले हो।

‘तुम्हारा शत्रु एक रहस्य बन जाता है, जिसे तुम्हें हल करना है।’

आखिर कोई तुम्हारा शत्रु क्यों है? हम तो आमतौर से तय कर लेते हैं, क्योंकि वह आदमी बुरा है, इसलिए शत्रु है। आप अच्छे आदमी हैं, वह आदमी बुरा है, इसलिए आपका शत्रु है। और यही वह भी मानता है कि वह अच्छा आदमी है और आप बुरे आदमी हैं, इसलिए उसके शत्रु हैं।

नहीं, अपने को अच्छा मान कर, दूसरे को बुरा मान कर आप हल नहीं कर रहे हैं कुछ भी। समझ भी नहीं बढ़ रही है आपकी। आप वहीं खड़े हैं, जहां आप सदा से खड़े थे। वह शत्रु है आपका, तो समझने की कोशिश करें कि क्यों शत्रु है? क्या बात है कि वह आपका शत्रु है?

उसकी शत्रुता में आपका होना भी सम्मिलित है। आप जिस ढंग के हैं, वह भी सम्मिलित है। वह जिस ढंग का है, वह भी सम्मिलित है। यह एक रहस्य है।

यह सूत्र कहता है, तुम्हारा शत्रु एक रहस्य बन जाता है, एक मिस्ट्री, जिसे तुम्हें हल करना है। इसे तुम हल करो। और यह तभी हल हो सकेगा, जब तुम निष्पक्ष हो।

जीसस ने मरते वक्त सूली पर कहा है, क्षमा कर देना इन सबको जो मुझे सूली पर चढ़ा रहे हैं, क्योंकि इन्हें पता ही नहीं कि ये क्या कर रहे हैं! हे प्रभु, इन्हें क्षमा कर देना!

यह है शत्रु के हृदय में झांकना। जीसस मर रहे हैं, सूली पर चढ़ाए जा रहे हैं, फांसी लगने के करीब है, और उनसे कहा जाता है कि कोई प्रार्थना आखिरी तुम्हें परमात्मा से करनी हो तो कर लो, क्योंकि आखिरी क्षण आ गया है। तो क्या प्रार्थना जीसस ने की? गजब की प्रार्थना, मनुष्य—जाति के इतिहास में कभी किसी ने इतनी महत्वपूर्ण प्रार्थना नहीं की। जीसस ने प्रार्थना की कि हे पिता, एक ही बात मुझे तुझसे कहनी है, कि इन सबको माफ कर देना जो मुझे सूली लगा रहे हैं, क्योंकि इन्हें पता ही नहीं कि ये क्या कर रहे हैं! ये अज्ञान—वश कर रहे हैं, ये क्षमा योग्य हैं। ये भूल में कर रहे हैं। ये सोचते हैं कि मैं इनका शत्रु हूं इसलिए कर रहे हैं। ये सोचते हैं कि मैं बुरा आदमी हूं इसलिए कर रहे हैं। ये सोचते हैं कि मैं नुकसान पहुंचा रहा हूं इसलिए कर रहे हैं। बाकी ये नासमझ हैं, और इनको मेरी फांसी के लिए दंड मत देना।

यह शत्रु के हृदय में झांकना है। यह निष्पक्ष भाव है। नहीं तो जो आपको सूली लगा रहा है, उसके क्ले लिए आप ऐसी प्रार्थना कर सकते हैं? आप तो प्रार्थना करते कि इन सबको जड़—मूल से ही नष्ट कर देना, नरक में डाल देना।

और ऐसा नहीं कि आप ही ऐसा करते हैं, ऐसे ऋषि तक हो गए हैं, उनको हम ऋषि भी कहते है, जो अभिशाप दे देते हैं! अगर दुर्वासा होते जीसस की जगह, तो आप सोच सकते हैं कि क्या होता? थोड़ी कल्पना करिए— सारा जगत नरक में पड़ा होता!

हम ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कह देते हैं! उसका जिम्मा ऋषियों पर नहीं है, हम पर है। हमें समझ में नहीं आ रहा है कि हम क्या कर रहे हैं। हम कहते हैं कि दुर्वासा ऋषि ने अभिशाप दे दिया। ऋषि और अभिशाप दे सकता है! तो फिर आपमें और ऋषि में फर्क क्या है? और अगर ऋषि अभिशाप दे सकता है, तो आप क्यों कंजूसी कर रहे हैं? अभिशाप दें और ऋषि हो जाएं।

लेकिन जो दुर्वासा को ऋषि कह रहे हैं, ये अपने संबंध में खबर दे रहे हैं, दुर्वासा के संबंध में नहीं। यह अपने संबंध में खबर दे रहे हैं। इनको दुर्वासा तक में ऋषि दिख जाता है! उसका अर्थ है, इनको खयाल ही नहीं है कि विध्वंस, घृणा और हिंसा, इनसे ऋषित्व का क्या संबंध हो सकता है? निष्पक्ष जिसका मन हो, शत्रु भी उसे एक पहेली है। चाहे इसे हल करने में युगों का समय लग जाए, तो भी कोई हर्ज नहीं। जल्दी मत करना, निष्पक्ष रहना। जल्दी के कारण पक्ष मत बनाना, चाहे कितना ही समय लग जाए; मानव को समझना तो है ही।

‘तुम्हारा मित्र तुम्हारा एक अंग बन जाता है, तुम्हारा ही एक विस्तृत रूप हो जाता है, जिसे समझना कठिन होता है।’

शत्रु को समझना कठिन है, क्योंकि वह एक पहेली है। मित्र को भी समझना कठिन है, क्योंकि वह भी एक पहेली है! शत्रु को समझना कठिन है, क्योंकि वह बहुत दूर खड़ा हो जाता है। मित्र को समझना कठिन है, क्योंकि वह बहुत पास आ जाता है।

आप अपने मित्रों को भी नहीं समझते। आप फिक्र ही नहीं करते कि किसी को समझना है; कि मानव हृदय एक किताब है, जिसे खोलना है और पढ़ना है; कि मानव हृदय एक सितार है, जिसे सीखना है और बजाना है; कि मानव हृदय एक बीज है, जिसे भूमि देनी है, प्रकाश और पानी देना है और अंकुरित करना है!

नहीं, मानव हृदय के संबंध में हम कुछ सोचते ही नहीं।

ये दो सूत्र खयाल रखें, ‘समग्र जीवन का सम्मान करो, जो तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है। और समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो।’

ये तुम्हें परम हृदय, परमात्मा के हृदय तक ले चलने वाली सीढ़ियां बन सकते हैं।

आज इतना ही।



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तंत्र–सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–30

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संभोग, स्‍वीकार और समर्पण—(प्रवचन—तीसवां)

प्रश्‍न—सार:

1—अगर तंत्र मध्‍य में रहने को कहता है तो भोग

और दमन के फर्कको कैसे समझा जाए?

 2—क्‍या गुरु के प्रति खुलेहोने और कामवासना

के प्रति खुले होने के बीच कोई संबंध है?

पहला प्रश्न:

 पिछली रात आपने सभी तंत्र—साधना के आधार के रूप मैं सर्व—स्वीकार की चर्चा की। जहां तक मुझे स्‍मरण है, किसी दूसरे दिन आपने कहा था कि तंत्र का विज्ञान सब कुछ के मध्‍य में होना सिखाता है, जीवन में अतियों से बचना सिखाता है। इस संदर्भ में कृपया समझाएं कि जीवन में कामवासना के भोग और दमन के फर्क को कैसे समझा जाए।

मग्र जीवन को स्वीकार करने का ही अर्थ है मध्य मार्ग। अगर तुम अस्वीकार करते हो तो तुम दूसरी अति पर चले गए। अस्वीकार अति है। अगर तुम किसी चीज को अस्वीकार करते हो तो उसे उसके विपरीत के लिए अस्वीकार करते हो। वह दूसरी अति पर जाना हुआ। अगर कोई कामवासना को इनकार करता है तो वह ब्रह्मचर्य को, दूसरी अति को पकड़ेगा। और अगर वह ब्रह्मचर्य को इनकार करता है तो वह उसके दूसरे छोर भोग पर चला जाएगा। इनकार करते ही तुम अति मार्ग पर चले जाते हो।

समग्र का स्वीकार सहज ही मध्य में होना है। तुम न किसी के पक्ष में होते हो और न विपक्ष में, तुम चुनाव ही नहीं करते हो। तुम नदी की धारा के साथ बहते हो। तुम्हारी कोई मंजिल नहीं है, तुम्हारा कोई चुनाव नहीं है, जो होता है तुम उसे बस होने देते हो।

तंत्र पूरी तरह धारा के साथ बहने में भरोसा करता है। जब तुम चुनाव करते हो तो उसके साथ ही तुम्हारा अहंकार प्रविष्ट हो जाता है। जब तुम चुनाव करते हो तो उसमें तुम्हारा संकल्प समाविष्ट हो जाता है। जब तुम चुनाव करते हो तो तुम सारे जगत के विरोध में खड़े हो जाते हो। तुम्हारा चुनाव तुम्हारा होता है। जब तुम चुनाव करते हो तो तुम जागतिक प्रवाह से टूट जाते हो, उससे अलग— थलग हो जाते हो। तब तुम एक द्वीप बन जाते हो। तब तुम जीवन के समस्त प्रवाह के विरुद्ध होकर स्वयं होने की चेष्टा करते हो।

अचुनाव का अर्थ है कि जीवन कहां जाए इसका निर्णय तुम्हें नहीं करना है। तुम जीवन को बहने देते हो, तुम भी जीवन के साथ हो जाते हो, जीवन जहां ले जाए। तब तुम्हारी कोई निश्चित मंजिल नहीं है। अगर तुम्हारी कोई निश्चित मंजिल है तो चुनाव करना अनिवार्य हो जाता है। अचुनाव में जीवन की मंजिल तुम्हारी मंजिल हो जाती है। तुम जीवन के विरोध में नहीं जाते हो, जीवन के विरोध में तुम्हारी अपनी कोई धारणा नहीं है। तुम अपने को जीवन—शक्ति के हाथों में छोड़ देते हो, समर्पित हो जाते हो। समग्र स्वीकार से तंत्र का यही अर्थ है।

और एक बार जीवन को समग्रता में स्वीकार करते ही चीजें अपने आप घटित होने लगती हैं। क्योंकि यह समग्र स्वीकार तुम्हें अहंकार से मुक्त कर देता है। तुम्हारा अहंकार ही समस्या है, इसके कारण ही तुम्‍हारी निर्मित होती है। जीवन कोई समस्या नहीं है, अस्तित्व समस्या—रहित है। तुम खुद समस्या हो। तुम खुद ही समस्या के निर्माता हो। और तुम हर चीज को समस्या बना लेते हो। अगर तुम्हें परमात्मा मिल जाए तो तुम परमात्मा को भी समस्या बना लोगे। अगर तुम स्वर्ग पहुंच जाओ तो तुम स्वर्ग को भी समस्या में बदल दोगे। क्योंकि तुम समस्याओं के मूल स्रोत हो। तुम समर्पण नहीं करोगे। और यही समर्पण न करने वाला अहंकार ही सभी समस्याओं की जड़ है।

तंत्र कहता है कि कुछ उपलब्ध करने का प्रश्न नहीं है, प्रश्न यह नहीं है कि ब्रह्मचर्य को उपलब्ध कैसे हुआ जाए। अगर तुमने कामवासना के विरुद्ध ब्रह्मचर्य उपलब्ध भी कर लिया तो तुम्हारा ब्रह्मचर्य बुनियादी रूप से कामुक होगा। दो अतियां, चाहे एक—दूसरे से कितने विपरीत हों, एक के ही अंग हैं, एक ही चीज के दो पहलू हैं। अगर तुमने एक को चुना तो उसके साथ ही दूसरे को भी चुन लिया। दूसरा अभी छिपा रहेगा, दबा रहेगा। दमन का क्या अर्थ है? एक ही चीज के दो पक्षों में से, दो अतियों में से एक के विरुद्ध दूसरे को चुनना दमन है।

तुम कामवासना के विरुद्ध ब्रह्मचर्य को चुनते हो। लेकिन ब्रह्मचर्य क्या है? वह कामवासना का उलटा रूप है। तुमने ब्रह्मचर्य चुना तो उसके साथ ही तुमने कामवासना को भी चुन लिया। अब सतह पर ब्रह्मचर्य होगा और गहरे में कामवासना होगी। और तुम उपद्रव में रहोगे। और यह उपद्रव तुम्हारे चुनाव के कारण होगा। तुम एक छोर को चुन लो और दूसरा छोर अपने आप ही चला आएगा। और चूंकि तुम दूसरे छोर के विरुद्ध हो, इसलिए तुम उपद्रव में रहोगे।

तंत्र कहता है, चुनाव मत करो, चुनाव—रहित होओ। और एक बार यदि तुम यह समझ जाओ तो फिर यह प्रश्न नहीं उठेगा कि भोग क्या है और दमन क्या है। तब न दमन है और न भोग है। यह प्रश्न इसीलिए उठता है क्योंकि तुम अब भी चुनाव करते हो। लोग आते हैं और मुझसे कहते हैं कि हम जीवन को स्वीकार कर लेंगे, लेकिन जीवन को स्वीकार करने पर ब्रह्मचर्य कब घटित होगा?

वे समग्र स्वीकार के लिए राजी हैं, लेकिन उनका यह राजी होना झूठा है, केवल सतह पर है। गहराई में वे अभी भी अतियों को पकड़े हुए हैं। वे ब्रह्मचर्य चाहते हैं। लेकिन कामवासना से लड़कर उन्हें ब्रह्मचर्य नहीं मिला। और जब वे मुझे सुनते हैं तो सोचते हैं कि लड़कर नहीं मिला तो अब उसे स्वीकार के द्वारा पाना चाहिए। लेकिन पाने वाला मन, चाह वाला मन, लोभी मन ज्यों का त्यों है। मंजिल भी है, चुनाव भी है; सब ज्यों का त्यों कायम है। और जब तक तुम्हें कुछ पाना है तब तक तुम समग्र को नहीं स्वीकार कर सकते। यह स्वीकार समग्र नहीं है। तब तुम स्वीकार को भी उपलब्धि का साधन बना रहे हो।

स्वीकार का अर्थ है कि अब तुम कामना वाले मन को, चाह भरे मन को, किसी के पीछे भागने वाले मन को तिलांजलि देते हो। अब तुम जीवन को खुलकर बहने देते हो। जैसे पेड़ों से होकर हवा बहती है, वैसे ही तुम जीवन को अपने भीतर स्वतंत्रतापूर्वक बहने देते हो, तुम कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं करते। जीवन जहां ले जाए तुम वहीं जाने को राजी हो। तुम्हारी अपनी कोई मंजिल नहीं है। अगर कोई मंजिल है तो तुम जीवन का प्रतिरोध करोगे, जीवन से लड़ोगे।

अगर वृक्ष का कोई लक्ष्‍य है, कोई रूझान, कोई धारणा है, तो वह हवा को अपने से होकर स्वतंत्रतापूर्वक नहीं बहने देगा। अगर हवा दक्षिण की तरफ जाना चाहती है और वृक्ष चाहता है कि वह उत्तर की तरफ जाए तो वृक्ष हवा के साथ दुश्मनी करेगा। अगर तुम्हारा कोई लक्ष्य है तो तुम जीवन को मित्र की तरह कभी स्वीकार नहीं कर सकते। तुम्हारा लक्ष्य शत्रुता निर्मित करता है। अगर तुम जीवन से कुछ अपेक्षा रखते हो तो तुम जीवन पर अपने को आरोपित करते हो, तुम जीवन को घटित होने से रोकते हो।

तंत्र कहता है कि चीजें अपने आप घटित होती हैं। जब तुम उनकी चाह नहीं करते, चीजें घटित होती हैं। जब तुम उनके साथ जबरदस्ती नहीं करते, चीजें घटित होती हैं। जब तुम उनके पीछे भागते नहीं, चीजें घटित होती हैं। लेकिन यह परिणति है, फल नहीं।

परिणति और फल के भेद को साफ—साफ समझ लेना चाहिए। फल सचेतन रूप से चाहा जाता है, परिणति बाइ—प्रोडक्ट है, उप—उत्पत्ति है। उदाहरण के लिए, अगर मैं तुम से कहता हूं कि खेलो, क्योंकि अगर खेलोगे तो परिणाम में सुख मिलेगा, तो तुम फल के उद्देश्य से खेलोगे। तब तुम खेलते भी हो और सुख के फल की प्रतीक्षा भी करते रहते हो।

लेकिन मैंने तुमसे कहा था कि सुख परिणति होगा, फल नहीं। परिणति का अर्थ है कि अगर तुम सच में खेलते हो तो सुख घटित होगा। और अगर तुम सतत सुख की सोच रहे हो तो वह सुख फल होगा और वह कभी हाथ नहीं आएगा। फल सचेतन प्रयत्न है, परिणति उप—उत्पत्ति है। अगर तुम खेल में डूब जाओ तो सुख मिलेगा ही। लेकिन अगर तुम सुख की प्रतीक्षा करोगे तो प्रतीक्षा ही, सुख की सचेतन चाह ही तुम्हें खेल में गहरे नहीं डूबने देगी, वह फल की आकांक्षा ही बाधा बन जाएगी और तुम सुखी न हो सकोगे। सुख फल नहीं, परिणति है।

अगर मैं तुमसे कहूं कि तुम प्रेम करोगे तो सुखी होगे, तो यह समझना चाहिए कि सुख फल नहीं, परिणति होगा। और अगर तुम सोचते हो कि क्योंकि मैं सुखी होना चाहता हूं इसलिए मुझे प्रेम करना चाहिए, तो उस प्रेम से कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है। तब पूरी बात झूठी हो जाएगी, बनावटी हो जाएगी, क्योंकि कोई व्यक्ति फल के लिए प्रेम नहीं कर सकता है। प्रेम तो बस होता है, उसके पीछे कोई फलाकांक्षा नहीं होती। और अगर उसमें कोई फलाकांक्षा है तो वह प्रेम नहीं है, वह कुछ और चीज होगी। अगर मेरे भीतर फलाकांक्षा है और मैं सोचता हूं कि क्योंकि मैं सुख चाहता हूं इसलिए मैं प्रेम करूंगा, तो वह प्रेम झूठा होगा। और क्योंकि प्रेम झूठा होगा इसलिए उससे सुख का फल कभी नहीं निकलेगा। उससे सुख नहीं मिलेगा, वह असंभव है। लेकिन अगर मैं किसी फलाकांक्षा के बिना प्रेम करता हूं तो सुख उसके पीछे छाया की तरह आता है।

तंत्र का मानना है कि रूपांतरण स्वीकार के पीछे—पीछे आता है। लेकिन स्वीकार को रूपांतरण की विधि मत बनाओ। स्वीकार विधि नहीं है। रूपांतरण की आकांक्षा मत करो। और मजे की बात है कि तभी रूपांतरण घटित होता है। अगर तुम उसकी आकांक्षा करते हो तो वह आकांक्षा ही बाधा बन जाएगी।

तब फिर यह प्रश्न नहीं उठता है कि भोग क्या है और दमन क्या है। मन में यह प्रश्न इसीलिए उठता है। क्‍योंकि तुम पूरे को स्‍वीकार करने को राज़ी नहीं हो। पूरे को स्‍वीकार करो। अगर वह भोग है तो भोग को स्वीकार करो। और स्वीकार करते ही तुम मध्य में फेंक दिए जाओगे। और अगर वह दमन है तो दमन को भी स्वीकार करो। अगर स्वीकार है तो तुम निश्चित ही मध्य में पहुंच जाओगे। स्वीकार की स्थिति में तुम अति पर नहीं ठहर सकते हो। अति का अर्थ ही है किसी चीज का अस्वीकार, तुम कुछ स्वीकार करते हो और कुछ अस्वीकार। अति का अर्थ है कि तुम किसी चीज के पक्ष में हो और किसी चीज के विपक्ष में हो। लेकिन जब तुम सब कुछ को स्वीकार करते हो जो है, तुम मध्य में फेंक दिए जाते हो, तब तुम अति पर नहीं रह सकते। इसलिए दमन और भोग की बौद्धिक व्याख्या को भूल जाओ। वह व्यर्थ है, कचरा है। उससे तुम कहीं भी नहीं पहुंच सकते। जहां भी तुम हो उसे पूरी तरह स्वीकार करो। अगर भोग में हो तो उसे स्वीकार करो। उससे डरना क्या!

लेकिन एक समस्या है। समस्या यह है कि अगर तुम भोगी हो तो तुम तभी भोगी बने रह सकते हो जब तुम भोग के साथ—साथ भोग से छुटकारे के प्रयत्न भी करते रहो। वह अहंकार को बहुत अच्छा लगता है, उससे तुम अच्छा अनुभव करते हो और तुम बदलाहट को भविष्य के लिए स्थगित कर सकते हो। तुम जानते हो कि ऐसा ही सदा नहीं रहेगा। तुम सोचते हो कि आज तो मैं भोगी हूं लेकिन कल इसके पार चला जाऊंगा। आने वाला कल तुम्हें आज भोग में संलग्न रहने की सुविधा देता है। तुम सोचते हो कि आज मैं शराब पीता हूं या सिगरेट पीता हूं लेकिन यह बात मेरे साथ जीवनभर नहीं रहने वाली है, मैं जानता हूं कि यह बुरी बात है और कल मैं इसे छोड़ दूंगा।

कल की यह आशा तुम्हें आज भोग में संलग्न रखती है। और यह एक अच्छी तरकीब है, चालबाजी है। जो लोग भोग में लिप्त रहना चाहते हैं उन्हें जरूर बड़े—बड़े आदर्शों का सहारा लेना चाहिए। वे बड़े —बड़े आदर्श तुम्हें अवसर देते हैं, सुविधा देते हैं। तब तुम्हें अपने कृत्यों के लिए बहुत ग्लानि अनुभव करने की जरूरत नहीं रहती, क्योंकि तुम सोचते हो कि भविष्य में सब कुछ ठीक हो जाने वाला है, यह तो थोड़े समय की बात है।

यह मन की चालाकी है। इसलिए भोगी लोग सदा त्याग की बात करते हैं। भोगी उन गुरुओं के पास जाएंगे जो भोग के विरोध में हैं। और तुम उनके बीच एक गहरा संबंध देखोगे। अगर तुम धन और पद के पीछे दौड़ते हो तो तुम सदा किसी ऐसे व्यक्ति की पूजा करोगे जो धन के खिलाफ है, जो त्यागी है। त्यागी तुम्हारा आदर्श हो जाएगा। समृद्ध समाज केवल उनको पूजता है, जिन्होंने धन का त्याग किया है।

अपने चारों ओर देखो और तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा। अगर तुम कामवासना में लिप्त हो तो तुम उस आदमी को आदर दोगे जो उसके पार चला गया है, जो ब्रह्मचारी हो गया है। तुम उसकी पूजा करोगे। वह तुम्हारा आदर्श है। वह तुम्हारा भविष्य है। तुम सोचते हो कि किसी दिन मैं भी उसके जैसा हो जाऊंगा। तुम उसे पूजते हो।

और किसी दिन अगर तुम्हारे कान में कोई अफवाह पड़ जाए कि यह आदमी काम— भोग करता है तो तुम्हारा आदर तुरंत काफूर हो जाएगा। क्योंकि तुम अपने को आदर म् नहीं दे सकते। तुम जो भी हो उसके प्रति इतनी निंदा से भरे हो, तुम इतनी आत्मनिंदा से भरे हो कि अगर तुम्हें पता चले कि तुम्हारा गुरु तुम्हारे जैसा ही है तो उसके लिए तुम्हारा आदर समाप्त हो जाएगा। उसे तुम्हारे ठीक विपरीत होना चाहिए। तभी तुम्हें भरोसा हो सकता है कि वह तुम्हैं दूसरे किनारे पर पहुंचा देगा। तब तुम उसके पीछे चल सकते हो।

तो अनुयायियों और गुरुओं के बीच सदा ही गहरा संबंध रहा है। तुम सदा उन्हें विपरीत ध्रुवों पर पाओगे। अनुयायी विपरीत ध्रुव पर होगा, इस कारण ही तो वह अनुयायी है। अगर तुम्हें भोजन में बहुत रस है तो तुम उस आदमी को आदर दोगे जो लंबे उपवास करता है। वह तुम्हारे लिए चमत्कार है और तुम्हें आशा है कि तुम भी किसी दिन उसके जैसे हो जाओगे। वह तुम्हारा भविष्य बन जाएगा। तुम उसे सम्मान दोगे, तुम उसकी पूजा करोगे। वह तुम्हारे आदर्श की प्रतिमा है।

लेकिन यह आदर्श तुम्हें तुम जो हो वही बने रहने की सुविधा देता है। वह तुम्हें बदलने नहीं देता। बदलने का प्रयत्न ही, बदलने का विचार ही बाधा है। तंत्र की यही दृष्टि है।

तंत्र कहता है कि तुम जो भी हो उसे स्वीकार करो, कोई आदर्श निर्मित मत करो। सब आदर्श सपने हैं, झूठे हैं। जो है उसे स्वीकार करो, उसे भला या बुरा मत कहो, उसे उचित या अनुचित मत कहो, उसे तर्कसंगत बनाने की कोशिश न करो। उसे जीओं और देखो कि यही सचाई है। तथ्य के साथ रहो और तथ्य को स्वीकार करो।

यह कठिन है, बहुत कठिन है। लेकिन यह कठिन क्यों है? क्योंकि तथ्य को स्वीकारते ही तुम्हारा अहंकार चूर—चूर हो जाता है। तब तुम जानते हो कि तुम एक कामुक पशु हो। तब ब्रह्मचर्य का ऊंचा आदर्श तुम्हारे अहंकार को कुछ भी सहारा न दे सकेगा। तब तुम जानते हो कि तुम निन्यानबे प्रतिशत पशु हो—यहां मैं एक प्रतिशत छोड़ देता हूं ताकि तुम्हें बहुत ज्यादा चोट न लग जाए। महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट को आदर्श बनाकर तुम समझते हो कि तुम निन्यानबे प्रतिशत परमात्मा हो, सिर्फ एक प्रतिशत की कमी है जिसे देर—अबेर ईश्वर की कृपा से पूरा कर लोगे। और तब तुम जैसे हो उससे प्रसन्न अनुभव करते हो।

लेकिन उससे कुछ भी न होगा। उससे तुम सिर्फ असली समस्या को स्थगित कर सकते हो, असली संकट को टाल सकते हो। लेकिन जब तक तुम उस संकट का सामना नहीं करते, तुम रूपांतरित नहीं हो सकते। तुम्हें उससे गुजरना ही होगा, तुम्हें उसकी पीड़ा झेलनी ही होगी। जीवन की असलियत ही तुम्हें सत्य तक पहुंचा सकती है, कल्पना से काम नहीं होगा।

तो तथ्य के साथ जीओ। तुम जो भी हो, पशु या और कुछ, वही ठीक है। कामवासना है, क्रोध है, लोभ है, सब ठीक है। जो है सो है। जैसा है वैसा है। जगत तुम्हारे लिए इसी रूप में घटित हुआ है। तुमने अपने को इसी रूप में पाया है। जीवन ने तुम्हें इसी भांति बनाया है। और इसी भाति जीवन तुम्हें कहीं लिए जा रहा है। यही तुम्हारी नियति है। अपनी ओर से सब तनाव छोड़ दो, विश्राम में उतर जाओ। और जीवन तुम्हें जहां ले जाना चाहे उसे वहां ले जाने दो।

लेकिन विश्राम में उतरने में कठिनाई है। कठिनाई क्या है? कठिनाई यह है कि अगर तुम शिथिल हुए, अगर तुम विश्राम में उतरे तो तुम्हारा अहंकार नहीं बचेगा। अहंकार को प्रतिरोध के द्वारा ही कायम रखा जा सकता है। जब तुम नहीं कहते हो, तुम्हारा अहंकार मजबूत होता है। और जब ही कहते हो, अहंकार विलीन हो जाता है।

यही कारण है कि किसी चीज को ही कहना इतना कठिन है। मामूली बातों में भी ही कहना कठीन है। नहीं कहना हमे रास आता है। लड़ने से अहंकार या का भाव सुख अनुभव करता है। जब तुम किसी दूसरे से लड़ते हो तो अहंकार को अच्छा लगता है, जब स्वयं से लड़ते हो तो अहंकार को और भी अच्छा लगता है। क्योंकि दूसरों से लड़ने में और झंझटें आती हैं, अपने से लड़ने में कोई झंझट नहीं है। जब तुम दूसरों से लड़ते हो तो समाज तुम्हारे लिए समस्याएं खड़ी करेगा, लेकिन अगर स्वयं से लड़ोगे तो सारा समाज तुम्हारी पूजा करेगा।

यह अच्छा है, क्योंकि तब तुम किसी दूसरे की हानि नहीं करते हो। और जो लोग आत्म—पीड़क हैं उन्हें अगर अपने को सताने से रोका जाए तो वे दूसरों को सताने लगेंगे। अन्यथा उनकी ऊर्जा कहां जाएगी? इसलिए समाज उन मूढ़ों से प्रसन्न रहता है जो अपने को सताते हैं। समाज उनसे प्रसन्न इसलिए रहता है क्योंकि ऊर्जा उन पर ही लौट आती है, उससे किसी दूसरे की हानि नहीं होती।

इसीलिए तो हम उन्हें साधु—महात्मा कहते हैं। वे साधु हैं, क्योंकि वे बहुत हानि कर सकते हैं और कर रहे हैं, लेकिन अपनी ही हानि कर रहे हैं। वे आत्मघातक हैं। खूनी और हत्यारे अगर अपने ही विरोध में हो जाएं तो वे आत्मघातक हो जाएंगे। और समाज इससे खुश होता है कि चलो एक हत्यारे से मुक्ति हुई, क्योंकि वह आत्मघातक हो गया। समाज उसकी प्रशंसा करता है, उसे सम्मान देता है। लेकिन ऐसा व्यक्ति वही का वही बना रहता है। वह हिंसक ही बना रहता है, लेकिन अब वह स्वयं के प्रति हिंसक है।

अगर ऐसा व्यक्ति लोभी है तो वह लोभी ही बना रहता है, यद्यपि वह अलोभ की बात करता है। लेकिन इस अलोभ को देखो, उसे समझने की कोशिश करो। उसके आधार में सदा लोभ है। वे कहते हैं कि अगर तुम लोभ छोड़ दोगे तो ही तुम्हें स्वर्ग प्राप्त होगा। और स्वर्ग में क्या मिलेगा? वे ही सब चीजें जो लोभ खोजता है। तो स्वर्ग पाने के लिए लोभ छोड़ो, अलोभ धारण करो।

अगर तुम ब्रह्मचारी नहीं हो तो स्वर्ग नहीं पहुंच सकोगे। और तुम्हें स्वर्ग में मिलने क्या वाला है? यहां पृथ्वी पर जिन—जिन चीजों की निंदा करते हो, वे ही चीजें वहां मिलने वाली हैं। वहां सुंदर स्त्रियां मिलेंगी, अप्सराएं मिलेंगी, जिनका कोई मुकाबला नहीं है। क्योंकि यहां जो स्त्री आज सुंदर है वह कल कुरूप हो जाएगी, ऐसा शास्त्र समझाते हैं। लेकिन अप्सराएं कभी की नहीं होतीं, उनकी उम्र सोलह वर्ष पर रुक जाती है। यदि यहां ब्रह्मचर्य का पालन करोगे तो स्वर्ग में अप्सराएं भोगने को मिलेंगी।

लेकिन यह किस तरह का तर्क है? यह वही लोभ है, वही का वही लोभ, सिर्फ विषय बदल जाते हैं, समय—क्रम बदल जाता है। तुम भविष्य के लिए अपनी कामनाओं को स्थगित कर रहे हो। यह सौदेबाजी है।

तंत्र कहता है, मन की इस पूरी प्रक्रिया को, उसके ढंग—ढांचे को समझने की कोशिश करो। और तब अच्छा है कि लड़ना छोड़ दो, अच्छा है कि जैसे हो वैसे अपने को स्वीकार करो और जीवन को बहने दो। हमें डर लगता है कि अगर हम स्वीकार कर लेंगे तो हम बदलेंगे कैसे! और तंत्र कहता है कि स्वीकृति ही अतिक्रमण है। लड़कर तो तुमने देख लिया और तुम नहीं बदले। अपने पूरे जीवन को देखो, उसका विश्लेषण करो। और अगर तुम

ईमानदार हो तो तुम पाओगे कि तुम रंचमात्र भी नहीं बदले हो। अपने बचपन में लौटकर देखो, अपने पूरे जीवन को उघाड़कर देखो। और तुम पाओगे कि चाहे विचार या बातें कुछ भी करो तुम्‍हारा यथार्थ जीवन वहीं का वही रहा है। और तुम निरंतर लड़ते रहे हो और कुछ भी नहीं हुआ।

तो अब तंत्र का प्रयोग करो। तंत्र कहता है कि लड़ो मत, लड़कर कोई कभी नहीं बदलता है। स्वीकार करो। और फिर यह प्रश्न नहीं रहता है कि भोग क्या है और दमन क्या है, ब्रह्मचर्य क्या है और यह—वह क्या है। तब कोई प्रश्न नहीं रहता है। जो भी है, तुम उसे स्वीकार करते हो और उसके साथ बहते हो। तुम अपने अहंकार के प्रतिरोध को छोड़ देते हो और अस्तित्व के साथ विश्रामपूर्ण हो जाते हो। और तब जीवन तुम्हें जहां ले जाए वहां जाने को तुम राजी हो। अगर अस्तित्व की नियति कहती है कि तुम्हें पशु रहना है तो तंत्र कहता है कि तुम पशु रहने को राजी हो जाओ। इससे क्या होगा और कैसे होगा?

तंत्र कहता है कि समग्र स्वीकार से समग्र रूपांतरण घटित होता है। क्योंकि जब तुम स्वीकार कर लेते हो तो आंतरिक विभाजन विसर्जित हो जाता है। और तुम अखंड हो जाते हो, एक हो जाते हो। तब तुम्हारे भीतर दो नहीं रहे, संत और पशु नहीं रहे। अभी दोनों एक साथ हैं। संत पशु के दमन में लगा है और पशु प्रत्येक क्षण संत को उखाड़ फेंकने में लगा है। तब दोनों विदा हो जाएंगे। तब तुममें खंड नहीं होंगे। तब तुम अखंड हो।

और यह अखंडता ऊर्जा देती है। तुम्हारी सब ऊर्जा आंतरिक द्वंद्व और संघर्ष में नष्ट हो जाती है। यह स्वीकृति तुम्हें एकजुट कर देती है। अब न वह पशु रहा जिसकी निंदा की जाए और न वह संत रहा जिसको उछाला जाए। तुम अब जो भी हो वह हो। तुमने उसे स्वीकार कर लिया है, तुम उसके साथ विश्राम में हो, इसलिए तुम्हारी सब ऊर्जा इकट्ठी हो गई है। तब तुम अखंड हो, पूर्ण हो। तब तुम अपने भीतर बंटे नहीं हो।

यह अखंडता, यह संपूर्णता ही वह कीमिया है जो रूपांतरित करती है। इस संपूर्णता के साथ तुम ऊर्जावान होते हो। अब तुम अपने जीवन का अपव्यय नहीं करते, क्योंकि कोई आंतरिक द्वंद्व न रहा। अब तुम अपने भीतर चैन में हो। और द्वंद्व—मुक्त होने से जो ऊर्जा प्राप्त होती है वही ऊर्जा तुम्हारा बोध बन जाती है, चैतन्य बन जाती है।

ऊर्जा दो आयामों में गति कर सकती है। अगर वह संघर्ष में उतरती है तो वह रोज—रोज नष्ट होगी। लेकिन अगर संघर्ष न हो और ऊर्जा इकट्ठी होती जाए तो एक दिन वही ऊर्जा रूपांतरण बन जाती है। यह वैसे ही है जैसे पानी को गर्म करते हो। और जब सौ डिग्री पर पहुंच जाता है तब पानी कुछ और हो जाता है। तब पानी पानी नहीं रहता, भाप बन जाता है। निन्यानबे डिग्री पर भी पानी भाप नहीं बनेगा, सिर्फ सौ डिग्री पर ही वह रूपांतरित होगा।

वही प्रक्रिया अंतस जगत में घटती है। तुम तो रोज—रोज अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हो, इसलिए वाष्पीभूत होने का बिंदु कभी नहीं आता है। वह नहीं आ सकता, क्योंकि ऊर्जा ही इकट्ठी नहीं हो पाती है। आंतरिक संघर्ष के विदा होते ही ऊर्जा संगृहीत होने लगती है और तुम ज्यादा से ज्यादा सबल होते जाते हो।

लेकिन यह बात अहंकार के लिए नहीं है, अहंकार तो संघर्ष से ही शक्तिशाली अनुभव करता है। जब संघर्ष नहीं रहता तो अहंकार नपुंसक अनुभव करता है। लेकिन तब तुम शक्तिशाली अनुभव करते हो। और यह तुम सर्वथा भिन्न चीज है। जब तक तुम अखंड नहीं होता हो, एक नहीं होते हो। जब तक तुम इसे नहीं जान सकते। अहंकार तोड़ने में जीता है। विभाजन में जीता है। और यह तो वह तुम है जिसे हम आत्मा कहते हैं। वह आत्मा तब पैदा होती है जब विभाजन नहीं रहता है, संघर्ष नहीं रहता है। आत्मा का अर्थ है संपूर्ण। आत्मा का अर्थ है. अखंड ऊर्जा। और जब ऊर्जा अखंड होती है तो वह संगृहीत होने लगती है।

तुम रोज—रोज ऊर्जा का सृजन करते हो, तुम्हारे भीतर जीवन—ऊर्जा निर्मित होती रहती है। लेकिन तुम इस ऊर्जा को संघर्ष में गंवा देते हो। यही ऊर्जा एक बिंदु पर पहुंचकर बोध बन जाती है, चैतन्य बन जाती है। यह अपने आप होता है। तंत्र कहता है कि यह अपने आप होता है। जब तुम जानोगे कि अखंड कैसे हुआ जाता है, समग्र कैसे हुआ जाता है, तब तुम ज्यादा से ज्यादा सजग और बोधपूर्ण हो जाओगे। और एक दिन आएगा जब तुम्हारी समग्र ऊर्जा बोध में रूपांतरित हो जाएगी।

और जब ऊर्जा बोध में रूपांतरित होती है तो बहुत सी चीजें घटित होती हैं। अब यह ऊर्जा कामवासना में नहीं जा सकती। जब वह ऊंचे आयाम में गति कर सकती है तो वह नीचे आयाम में नहीं जा सकती। तुम्हारी ऊर्जा नीचे की तरफ प्रवाहित होती है, क्योंकि तुम्हारे लिए कोई ऊंचा आयाम उपलब्ध नहीं है। और तुम्हें ऊर्जा का वह तल भी नहीं उपलब्ध है जहां से ऊर्जा ऊर्ध्वगमन करती है। इसलिए वह कामवासना में गति करती रहती है। और जब वह कामवासना बनती है तो तुम भयभीत हो जाते हो और ब्रह्मचर्य का आदर्श निर्मित कर लेते हो। इस आदर्श के कारण तुम विभाजित हो जाते हो और तुम्हारी शक्ति क्षीण होने लगती है। इस तरह तुम्हारी शक्ति नष्ट होती है।

यह एक महत्वपूर्ण अनुभव है कि जब तुम कमजोर होते हो तो अधिक कामुक अनुभव करते हो। जीवशास्त्र की दृष्टि से यह बात अत्यंत बेतुकी मालूम पड़ती है, क्योंकि जीवशास्त्र कहता है कि जब तुम शक्तिशाली हो, तब उन्हें अधिक कामुक होना चाहिए। लेकिन ऐसी बात नहीं है। जब तुम दुर्बल हो, बीमार हो, तब कामवासना ज्यादा सताती है। जब तुम स्वस्थ हो, जब एक सूक्ष्म ढंग का स्वास्थ्य तुम्हें उपलब्ध है, तब तुम उतने कामुक नहीं अनुभव करते। और तब कामवासना की गुणवत्ता भी और होगी। जब तुम कमजोर हो तो तुम्हारी कामवासना भी रुग्ण होगी। और तब एक दुष्ट—चक्र निर्मित हो जाएगा। काम— भोग के जरिए तुम ज्यादा कमजोर हो जाओगे और जितने ज्यादा कमजोर होओगे उतने ही ज्यादा कामुक होते जाओगे।

और तब कामुकता मस्तिष्कगत हो जाएगी, वह काम—केंद्र से हटकर मस्तिष्क में समा जाएगी। और जब तुम स्वस्थ होते हो, जब भले—चंगे होते हो, जब तुम आनंदित अनुभव करते हो, विश्रामपूर्ण होते हो, तब तुम कामुक नहीं होते। और यदि सेक्स घटता भी है तो वह रुग्णता नहीं है। तब वह ऊर्जा का अतिरेक है, तब वह ऊर्जा की बाढ़ है। उसकी गुणवत्ता ही और है। जब काम ऊर्जा की बाढ़ की तरह घटता है तो वह प्रेम है, जो जैविक ऊर्जा के द्वारा अपने को अभिव्यक्त करता है। वह जैविक ऊर्जा के द्वारा गहन मिलन बन जाता है, गहरा संपर्क बन जाता है। वह प्रेम का ही हिस्सा है।

और जब तुम कमजोर होते हो, जब काम—ऊर्जा बाढ़ नहीं बनती, तब काम— भोग अपने प्रति ही हिंसा है। और आत्म—हिंसा कभी प्रेम नहीं बन सकती है। दुर्बल आदमी कामवासना में उतर सकता है, लेकिन उसका काम कभी प्रेम नहीं हो सकता। यह करीब—करीब बलात्कार है, दोनों के प्रति बलात्कार है; उसके अपने प्रति भी बलात्कार है। लेकिन तब एक दुष्ट—चक्र निर्मित हो जाता है, वह जितना दुर्बल होता है उतना ही कामुक होता जाता है।

लेकिन ऐसा क्यों होता है? जीवशास्त्र के पास इसका कोई उत्तर नहीं है, लेकिन तंत्र के पास इसका उत्तर है। तंत्र कहता है कि कामवासना मृत्यु का एंटीडोट है। कामवासना समाज के लिए जीवन है। तुम मर जाओगे, लेकिन जीवन चलता रहेगा। इसलिए जब तुम निर्बल होते हो, मृत्यु करीब मालूम पड़ती है। तंत्र कहता है कि तब कामवासना बहुत प्रबल हो जाती है, क्योंकि तुम किसी भी क्षण समाप्त हो सकते हो। तुम्हारी ऊर्जा का तल नीचे गिर गया है, तुम किसी भी क्षण मर सकते हो। इसलिए कामवासना प्रबल हो जाती है, ताकि कोई नया जीवन तुम्हारी जगह ले और जीवन चलता रहे।

तंत्र की दृष्टि में बूढ़े लोग युवकों से ज्यादा कामुक होते हैं। और यह दृष्टि बहुत गहरी है। युवक में शक्ति ज्यादा होती है, लेकिन कामुकता उतनी नहीं होती। बूढ़े लोगों में शक्ति कम होती है, लेकिन वे कामुक ज्यादा होते हैं। अगर हम किसी बूढ़े के मन में प्रवेश कर सकें तो पता चलेगा कि क्या स्थिति है। जहां तक काम—ऊर्जा का संबंध है, बूढ़े में वह कम है और युवक में ज्यादा। लेकिन जहां तक कामुकता का संबंध है, काम—चिंतन का संबंध है, वह युवक से बूढ़े में ज्यादा है। मृत्यु करीब आ रही है, इसलिए क्षीण होती ऊर्जा चाहेगी कि किसी को जन्म दे जाए। जीवन को चलते रहना है। जीवन को तुम्हारी चिंता नहीं है, उसे अपनी चिंता है। और यही दुष्ट—चक्र है।

और यही बात विपरीत क्रम में भी घटित होती है। अगर तुम ऊर्जा से लबालब हो तो कामवासना कम और प्रेम ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। और तब काम प्रेम के ही एक अंग की तरह, एक गहन मिलन की तरह घटित होता है। जैविक—ऊर्जा का मिलन सबसे गहरा मिलन है, क्योंकि वही जीवन—शक्ति है। तुम जिसे प्रेम करते हो उसे कुछ देना चाहोगे। देना प्रेम का अंग है। प्रेम में तुम कुछ भेंट देते हो। और सबसे बड़ी भेंट अपनी जीवन—ऊर्जा की भेंट है। प्रेम में सेक्स जैविक ऊर्जा की, जीवन की भेंट बन जाता है। तुम अपना एक अंश भेंट करते हो। सच तो यह है कि प्रत्येक संभोग में तुम अपने को समग्रत: दे देते हो। और तब एक दूसरा वर्तुल निर्मित होता है, तुम जितने प्रेमपूर्ण होते हो उतने ही सबल भी होते हो। तुम जितना प्रेम करते हो, जितना प्रेम देते हो, उतने ही सबल होते जाते हो। क्योंकि प्रेम में अहंकार विलीन हो जाता है, प्रेम में तुम्हें जीवन के साथ बहना पड़ता है।

राजनीति में रहकर तुम्हें जीवन के साथ बहने की जरूरत नहीं है। राजनीति में रहकर जीवन के साथ बहना मूढ़ता होगी। क्योंकि राजनीति में तो जीवन के विरुद्ध बहना पड़ता है, तभी तुम राजनीति में ऊपर उठ सकते हो। अगर तुम दुकानदार हो तो तुम जीवन के साथ बहने की मूढ़ता न करोगे। जीवन के साथ बहकर तुम कहीं के न रहोगे। बाजार में तुम्हें प्रतियोगिता करनी होगी, संघर्ष करना होगा, हिंसा करनी होगी। वहां तुम जितने हिंसक बनोगे, जितने पागल बनोगे, उतने ही सफल होओगे। व्यवसाय संघर्ष है।

प्रेम में, केवल प्रेम में प्रतियोगिता नहीं है, संघर्ष नहीं है, हिंसा नहीं है। प्रेम में तो तुम तभी जीतते हो जब समर्पण करते हो। इसलिए पृथ्वी पर प्रेम ही एकमात्र अपार्थिव तत्व है, संसार में प्रेम ही एकमात्र गैर—सांसारिक चीज है, अलौकिक वस्तु है। और अगर तुम प्रेम में हो तो तुम ज्‍यादा अखंड होगे,ज्‍यादा समग्र बनोगे। तब तुम्‍हारे पास ज्‍यादा से ज्‍यादा ऊर्जा संगृहीत होगी। और जितनी ज्यादा ऊर्जा होगी, कामुकता उतनी कम होगी। और फिर एक क्षण आता है जब ऊर्जा उस जगह पहुंचती है जहां रूपांतरण घटित होता है और वही ऊर्जा बोध बन जाती है। तब काम विदा हो जाता है और सिर्फ प्रेमपूर्ण हार्दिकता, मात्र करुणा बच रहती है।

बुद्ध के चारों ओर जो प्रेमपूर्ण करुणा की आभा फैली है वह काम—ऊर्जा का ही रूपांतरण है। लेकिन तुम इसे लड़कर नहीं प्राप्त कर सकते, क्योंकि लड़ने से तुम विभाजित होते हो और विभाजन तुम्हें ज्यादा कामुक बनाता है। यह तंत्र की दृष्टि है, यह उससे सर्वथा भिन्न है जिसे तुम काम या ब्रह्मचर्य समझते हो। केवल तंत्र के द्वारा ही सच्चा ब्रह्मचर्य, सच्ची निर्दोषता घटित होती है। लेकिन वह फल नहीं, परिणति है, वह समग्र स्वीकार की छाया है।

दूसरा प्रश्न:

मेरा मन कहता है कि मैं आपका संदेश ग्रहण करने के लिए तत्पर हूं लेकिन अंत में मैं प्रतिरोध करने लगता हूं और थक जाता हूं। मुझे संदेह है कि अगर मैं कामवासना के तल पर खुला रहता तो मैं आपके संदेश के प्रति भी खूला रहता। तो क्या गुरु के प्रति खुला होने और कामवासना के प्रति खुला होने के बीच कोई विशेष संबंध है? मेरी पृष्ठभूमि, मेरा अतीत जीवन समर्पण का एक नकारात्‍मक और निष्‍क्रिय अर्थ प्रदान करता है। मुझे ऐसा लगता है कि जब तक मैं अपने चित्त की इस नकारात्मकता के ऊपर नहीं उठता तब तक मैं गहरे नहीं जा सकता हूं। क्या समर्पण तब भी संभव है जब कि उसका विपरीत भाव इतनी गहरी जड़ जमाकर बैठा हो?

हां, समर्पण और काम के बीच संबंध है, क्योंकि काम पहला समर्पण है। वह जैविक समर्पण है, जिसे तुम आसानी से अनुभव कर सकते हो। समर्पण का क्या अर्थ है? उसका अर्थ है खुला होना, निर्भय होना, ग्राहक होना। उसका अर्थ है दूसरे को अपने में प्रवेश देना। जैविक तल पर, प्रकृति के तल पर काम वह बुनियादी अनुभव है जिसमें तुम अनायास दूसरे को अपने में प्रवेश देते हो, या किसी को अपने इतने करीब आने देते हो कि उससे कोई बचाव नहीं करते, कोई प्रतिरोध नहीं करते। तुम उसके साथ बहते हो, विश्रामपूर्ण होते हो, निर्भय होते हो। उसके संग में तुम्हें भविष्य की चिंता नहीं रहती, परिणाम की चिंता नहीं रहती, तुम बस उस क्षण में होते हो। उस क्षण में यदि मृत्यु भी हो जाए तो तुम उसे स्वीकार कर लोगे।

गहन प्रेम में प्रेमियों ने सदा अनुभव किया है कि मरने के लिए यही ठीक क्षण है। अगर मृत्यु आ जाए तो उस क्षण में मृत्यु का भी स्वागत किया जा सकता है। प्रेमी खुले होते हैं, मृत्यु के प्रति भी खुले होते हैं। अगर तुम जीवन के प्रति खुले हो तो मृत्यु के प्रति भी खुले रहोगे। और अगर तुम जीवन के प्रति बंद हो तो मृत्यु के प्रति भी बंद रहोगे। जो लोग मृत्यु से भयभीत हैं वे बुनियादी रूप से जीवन से भयभीत हैं। असल में वे जी नहीं पाए, यही कारण है कि वे मृत्यु से भयभीत हैं। और यह भय स्वाभाविक है। अगर तुम जीवन को नहीं जी पाए हो तो तुम मृत्यु से अनिवार्यत: भयभीत होओगे। क्योंकि मृत्यु तुम्हें जीने के अवसर से वंचित कर देगी। अब तक तुम जीए ही नहीं और मृत्यु आ गई तो फिर तुम कब जीओगे?

जो आदमी जीवन को प्रगाढ़ता से जीता है वह मृत्यु से नहीं डरता है। वह तृप्त है और अगर मृत्‍यु भी उसके सामने आ जाए तो वह उसका भी स्‍वागत करेगा, उसे भी स्‍वीकार करेगा। जीवन उसे जो कुछ दे सकता था, वह उसने पा लिया है। जीवन में जो कुछ जाना जा सकता था, वह उसने जान लिया है। अब वह आसानी से मृत्यु में प्रवेश कर सकता है। वह तो स्वेच्छा से मृत्यु में जाना पसंद करेगा, ताकि कुछ अज्ञात, कुछ नया जाना जा सके।

काम में, प्रेम में तुम निर्भय होते हो। तुम भविष्य में मिलने वाली किसी चीज के लिए नहीं लड़ रहे हो, यही क्षण तुम्हारे लिए स्वर्ग है, यही क्षण शाश्वत है।

लेकिन जब मैं यह कहता हूं तो उसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने काम के द्वारा यह अनुभव प्राप्त कर लिया है। अगर तुम भयभीत हो, प्रतिरोध कर रहे हो तो सेक्स में तुम्हें बस जैविक राहत का अनुभव होगा, तुम बस तनाव—मुक्त हो जाओगे, लेकिन तुम्हें उस समाधि का अनुभव नहीं होगा जिसकी तंत्र चर्चा करता है।

विलहेम रेख कहता है कि जब तक संभोग में तुम्हें प्रगाढ आर्गाज्म का, काम—समाधि का अनुभव नहीं होता, तब तक समझना कि तुमने काम को नहीं जाना। वह मात्र काम—ऊर्जा का बहिर्गमन नहीं है, तुम्हारे पूरे शरीर को विश्राम में डूब जाना चाहिए। तब काम का अनुभव काम—केंद्र पर ही सीमित नहीं रहता है, वह पूरे शरीर पर फैल जाता है। तुम्हारे शरीर की रग—रग उससे नहा जाती है और तुम्हें एक शिखर—अनुभव प्राप्त होता है, जिसमें तुम शरीर नहीं रहते। अगर तुमने संभोग में इस शिखर— अनुभव को नहीं जाना है जिसमें तुम शरीर नहीं रहते तो तुमने काम को जाना ही नहीं। इसलिए विलहेम रेख एक विरोधाभासी बात कहता है, वह कहता है कि सेक्स इज़ स्‍प्रिचुअल—काम— भोग आध्यात्मिक है।

तंत्र भी यही कहता है और उसका अर्थ यह है कि गहरे काम— भोग में तुम शरीर नहीं रहोगे, तुम कंपती—डोलती हुई ऊर्जा मात्र रह जाओगे। तुम्हारा शरीर बहुत पीछे छूट जाएगा, तुम उसे बिलकुल भूल जाओगे, वह नहीं जैसा हो जाएगा। तुम भौतिक जगत के हिस्से नहीं रहोगे, तुम अपार्थिव हो जाओगे। तभी काम—समाधि घटित होती है। संभोग के संबंध में तंत्र यही कहता है। उसमें एक ऐसे समग्र विश्राम का भाव आता है, जहां व्यक्ति आप्तकाम अनुभव करता है, जहां किसी भी चीज की चाह नहीं रह जाती है। जब तक संभोग में यह भाव न उठे—यह अचाह का भाव—तब तक तुमने संभोग बिलकुल नहीं जाना। हो सकता है कि तुमने बच्चे पैदा किए हों, वह आसान है, लेकिन वह भिन्न चीज है।

काम में अध्यात्म का अनुभव केवल मनुष्य उपलब्ध कर सकता है, अन्यथा कामवासना महज पाशविक वृत्ति है। लेकिन जब साधु—महात्मा कामवासना की निंदा करते हैं तो तुम कहते हो कि वे सही हैं। और जब तंत्र कुछ और कहता है तो उसमें भरोसा करना कठिन होता है, क्योंकि वह तुम्हारा अनुभव नहीं है। यही कारण है कि तंत्र का संदेश अब तक विश्वव्यापी नहीं हो सका। लेकिन उसका भविष्य उज्जवल है, क्योंकि मनुष्य जितना ही विवेकशील होगा, जितनी उसकी समझ बढ़ेगी, उतना ही ज्यादा तंत्र भी स्वीकृत होगा। पिछले सौ वर्षों में मनोविज्ञान ने उस संसार का आधार रख दिया है जो तांत्रिक संसार होगा।

लेकिन तुम तो उसकी ही में ही मिलाते हो जो काम की निंदा करता है, क्योंकि तुम्हारा अनुभव भी वही है। तुम भी जानते हो कि उसमें कुछ नहीं होता है, कामवासना में उतरने के बाद तुम थकावट अनुभव ही का अनुभव करते हो। इसलिए काम की इतनी नींदा होती है, जब भी तुम उसमें उतरते हो तुम उदास हो जाते हो और बाद में पश्चात्ताप करते हो।

तंत्र, विलहेम रेख, फ्रायड और दूसरे जानने वाले लोग इस बात में बिलकुल एकमत हैं कि अगर संभोग में तुम्हें आर्गग्ज उपलब्ध हो तो उसकी पुलक घंटों रहेगी और तुम सर्वथा भिन्न अनुभव करोगे। तुम्हें कोई चिंता नहीं रहेगी, कोई तनाव नहीं रहेगा, बस आह्लाद का भाव होगा, समाधि का भाव होगा। और वह समाधि तभी घटित होती है जब तुम उसमें पूरे मुक्त भाव से उतरते हो, अपने को जरा भी बचाकर नहीं रखते। जब तुम लड़ते नहीं, जीवन—ऊर्जा के साथ बहते हो।

जीवन—ऊर्जा के दो तल हैं और उन्हें समझ लेना अच्छा रहेगा। मैं उस दिन श्वास की चर्चा कर रहा था। मैंने तुम्हें बताया कि श्वास तुम्हारी स्वैच्छिक व्यवस्था और तुम्हारी गैर—स्वैच्छिक व्यवस्था के बीच सेतु है। तुम्हारे शरीर का बड़ा भाग गैर—स्वैच्छिक है।

खून दौड़ता रहता है और तुम्हें उसके लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है, वह अपने आप ही दौड़ता रहता है। सिर्फ पिछले तीन सौ वर्षों से आदमी को पता है कि खून दौड़ता है। उसके पहले समझा जाता था कि शरीर में बस खून भरा है—नहीं कि वह भीतर बहता रहता है। कारण यह है कि तुम्हें उसके बहने का एहसास नहीं होता है, वह तुम्हारे बिना ही, तुम्हारे अनजाने ही अपना काम करता है। वह गैर—स्वैच्छिक है।

तुम भोजन लेते हो। भोजन लेने के बाद ही शरीर अपना काम शुरू कर देता है। मुंह के आगे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। ज्यों ही भोजन मुंह से नीचे उतरता है कि शरीर उसे अपने हाथ में ले लेता है, गैर—स्वैच्छिक व्यवस्था अपना काम शुरू कर देती है। और यह अच्छा ही है कि यह काम ऐसे होता है। अगर यह काम तुम्हारे हाथ में होता तो तुम उसे भी चौपट कर देते। यह काम अपने आप में इतना बड़ा है कि अगर तुम्हें करना पड़ता तो फिर तुम और कोई काम नहीं कर सकते थे। एक कप चाय पीने के बाद तुम्हें पूरा दिन उसी चाय में व्यस्त रहना पड़ता कि कैसे उसे खून में रूपांतरित करें। काम ही इतना बड़ा है।

तो शरीर गैर—स्वैच्छिक ढंग से काम करता है। लेकिन थोडे से काम हैं जो हम स्वैच्छिक ढंग से कर सकते हैं। मैं अपने हाथ को चला सकता हूं लेकिन मैं उस खून को नहीं चला सकता जो हाथ को चलाता है। मैं उसकी व्यवस्था के साथ कुछ नहीं कर सकता हूं लेकिन मैं हाथ को चला सकता हूं। मैं अपने शरीर को चला सकता हूं लेकिन उसके भीतर जो कुछ हो रहा है, उसके साथ मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं उस व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं कर सकता जो उसके भीतर है। मैं कूद सकता हूं मैं दौड़ सकता हूं बैठ सकता हूं लेट सकता हूं लेकिन भीतर मैं कुछ भी नहीं कर सकता। सिर्फ सतह पर मुझे थोड़ी स्वतंत्रता है।

सेक्स बहुत रहस्यपूर्ण घटना है। तुम उसे आरंभ तो करते हो, लेकिन एक क्षण आता है जब तुम नहीं होते हो। सेक्स का आरंभ तो स्वैच्छिक है, लेकिन फिर उसकी एक सीमा है। अगर तुम उस सीमा के पार गए तो फिर लौट नहीं सकते। सीमा के भीतर रहने पर वापस लौटा जा सकता है। इसलिए सेक्स स्वैच्छिक और गैर—स्वैच्छिक दोनों है। एक सीमा तक तुम्हारे मन की जरूरत पड़ती है। लेकिन अगर तुमने अपना मन, अपनी बुद्धि, अपनी चेतना, अपना धर्म, अपना दर्शन, अपनी जीवन—शैली, सब कुछ बचाए रखा, अगर तुमने अपना मन विसर्जित नहीं किया तो फिर सीमा का अतिक्रमण नहीं हो सकेगा और तुम स्वैच्छिक क्षेत्र में है। सेक्‍स का अनुभव करते रहोगे।

वही हो रहा है। और तब संभोग के बाद तुम थकावट महसूस करोगे, तुम उसके विरोध में हो जाओगे, तबै तुम उसके विरुद्ध व्रत लोगे, तब तुम्हें जीवन से ही विराग होने लगेगा। यह ठीक है कि ये व्रत—नियम ज्यादा दिन नहीं चलेंगे, चौबीस घंटे के भीतर तुम ठीक हो जाओगे और फिर कामवासना में उतरने को तैयार हो जाओगे। लेकिन वह पुनरुक्ति हो जाती है और सारी चीज व्यर्थ हो जाती है। तुम फिर—फिर ऊर्जा इकट्ठी करते हो, फिर—फिर उसे बाहर फेंकते हो और उससे कुछ भी फलित नहीं होता है। और यह एक लंबी ऊब का, विरसता का सिलसिला बन जाता है। और इसीलिए वे साधु—महात्मा तुम्हें प्रभावित करते हैं जो कामवासना की निंदा करते हैं, उनकी बात तुम्हें समझ आती है

लेकिन तुम्हें गैर—स्वैच्छिक संभोग का पता नहीं है। वह सेक्स का सबसे गहरा जैविक आयाम है, जिसे कभी तुमने स्पर्श नहीं किया है। तुम सदा सीमा से ही लौट आते रहे, क्योंकि सीमा पर भय लगता है। उस सीमा के पार तुम्हारा अहंकार नहीं बचेगा, उस सीमा के पार तुम खुद नहीं बचोगे। उस सीमा के पार तुम काम—ऊर्जा के बस में हो जाओगे, काम—ऊर्जा तुम्हें आविष्ट कर लेगी। तब तुम कुछ करोगे जिस पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं रहेगा। और जब तक तुम इस अनियंत्रित क्षेत्र में नहीं प्रवेश करते तब तक आर्गाज्म को नहीं उपलब्ध हो सकते। इस अनियंत्रित जीवन—ऊर्जा को जानते ही तुम नहीं रहते, तुम सागर में लहर जैसे हो जाते हो। और तब चीजें अपने आप ही घटित होती हैं, उन पर तुम्हारा बस नहीं रहता। असल में तुम सक्रिय नहीं रहते, निष्‍क्रिय हो जाते हो। शुरू में ही तुम सक्रिय होते हो, फिर एक क्षण आता है जब तुम निष्‍क्रिय हो जाते हो। और तभी आर्गाज्म, काम—समाधि घटित होती है।

अगर तुम इस अनुभव को जान लो तो फिर तुम बहुत सी चीजें समझ सकते हो। तब तुम समझ सकोगे कि धार्मिक समर्पण क्या चीज है। तब तुम गुरु के प्रति शिष्य के समर्पण को समझ सकोगे। तब तुम अस्तित्व के प्रति किसी के समर्पण को भी समझ सकोगे। लेकिन अगर तुम किसी भी समर्पण से परिचित नहीं हो तो तुम्हें इसकी कल्पना भी नहीं हो सकती कि समर्पण क्या है।

तो यह सही है कि सेक्स या काम समर्पण से गहरे ढंग से संबंधित है। अगर तुमने सेक्स का गहन अनुभव किया है तो तुम समर्पण करने में ज्यादा सक्षम होंगे। क्योंकि तुमने समर्पण से आने वाले गहन सुख को जाना है, तुमने उस आनंद को जाना है जो समर्पण की छाया की तरह आता है। सेक्स जैविक समर्पण है, समाधि अस्तित्वगत समर्पण है। काम के द्वारा तुम जीवन का संस्पर्श करते हो, समाधि में तुम जीवन से भी गहरे उतरकर अस्तित्व के आधार को ही छू लेते हो। काम के द्वारा तुम स्वयं से दूसरे व्यक्ति में गति करते हो, समाधि में तुम स्वयं से समस्त में, पूरे ब्रह्मांड में गति कर जाते हो।

तो यदि तुम मुझे कहने दो तो तंत्र जागतिक संभोग है। यह पूरे जगत के प्रेम में पड़ना है, यह पूरे जगत के प्रति समर्पित होना है। और तुम्हें निष्‍क्रिय रहना है। एक सीमा तक सक्रिय होना है, लेकिन उसके पार तुम्हारी जरूरत नहीं रहती, उसके पार तुम बाधा बन सकते हो। उसके पार सब कुछ जीवन—ऊर्जा के हाथ में छोड़ दो, अस्तित्व के हाथ में छोड़ दो।

दूसरी बात, अगर तुम समर्पण को नकारात्मक और निष्‍क्रिय मानते हो तो उसमें कोई भूल नहीं है। वह निष्‍क्रिय और नकारात्मक है, लेकिन यह निष्‍क्रियता और नकारात्मकता कोई निंदा की बात नहीं है। हमारे मन में नकार शब्द सुनते ही निंदा का भाव उठता है, निष्‍क्रिय शब्द सुनते ही निंदा उठती है, क्योंकि अहंकार के लिए ये दोनों मृत्यु जैसे हैं। निष्क्रिय होने में कोई गलती नहीं है। निष्‍क्रियता जगत के साथ गहन संपर्क में होने का ढंग है। तुम इस संपर्क में सक्रिय नहीं हो सकते हो।

धर्म और विज्ञान में यही भेद है। विज्ञान जगत के प्रति सक्रिय है, धर्म जगत के प्रति निष्‍क्रिय है। विज्ञान पुरुष चित्त जैसा है—सक्रिय, हिंसक, बलात्कारी। और धर्म स्त्रैण चित्त जैसा है—खुला, निष्‍क्रिय, ग्राहक। ग्राहकता सदा निष्‍क्रिय होती है।

तुम्हें सत्य को निर्मित नहीं करना है, उसे बस ग्रहण करना है। तुम सत्य का निर्माण नहीं कर सकते, सत्य तो है ही। उसे ग्रहण भर करना है। तुम आतिथेय हो जाओ तो सत्य तुम्हारा अतिथि हो जाएगा। तुम मेजबान बनो तो वह तुम्हारा मेहमान बन जाएगा। और मेजबान को निष्‍क्रिय ही रहना है। सत्य को ग्रहण करने के लिए गर्भ बनना पड़ता है। लेकिन तुम्हारा मन सक्रियता में प्रशिक्षित है, वह सदा कुछ करता रहता है। और यह वह जगत है जहां तुम्हारा कुछ करना ही बाधा बन जाता है। कुछ मत करो, बस होओ। निष्‍क्रियता का यही अर्थ है : कुछ मत करो, बस होओ; और जो है उसे होने दो। तुम्हें सक्रिय रूप से कुछ करना नहीं है, तुम्हें बस ग्राहक होने की जरूरत है। निष्‍क्रिय रहो, हस्तक्षेप मत करो।

निष्क्रियता में कोई दोष नहीं है। कविता तभी घटित होती है जब तुम निष्‍क्रिय होते हो। विज्ञान के बड़े से बड़े आविष्कार भी निष्क्रियता में ही घटित हुए हैं। लेकिन विज्ञान का रुझान सक्रिय है। विज्ञान में भी जो सर्वश्रेष्ठ है वह तब घटित होता है जब वैज्ञानिक निष्‍क्रिय होता है, प्रतीक्षातुर होता है, कुछ करता नहीं। और धर्म तो बुनियादी रूप से निष्क्रिय है।

बुद्ध जब ध्यान करते हैं तो क्या करते हैं? हमारी भाषा, हमारे शब्द गलत धारणा पैदा करते हैं। जब हम कहते हैं कि बुद्ध ध्यान कर रहे हैं तो शब्दों के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि वे कुछ कर रहे हैं। लेकिन ध्यान का अर्थ है कुछ भी नहीं करना। अगर तुम कुछ कर रहे हो तो ध्यान नहीं होगा।

लेकिन सब करना सेक्स जैसा है : आरंभ में तुम्हें सक्रिय होना है, लेकिन तब एक क्षण आता है जब सब सक्रियता समाप्त हो जाती है और तुम निष्‍क्रिय हो जाते हो। जब मैं कहता हूं कि बुद्ध ध्यान कर रहे हैं तो उसका अर्थ है कि बुद्ध नहीं हैं; वे कुछ कर नहीं रहे, वे निष्‍क्रिय हैं। बुद्ध बस मेजबान हैं, प्रतीक्षा कर रहे हैं।

और जब तुम अज्ञात की प्रतीक्षा करते हो तो तुम कोई अपेक्षा भी नहीं कर सकते। असल में तुम नहीं जानते हो कि क्या होने जा रहा है। क्योंकि अगर तुम जानते हो तो प्रतीक्षा अशुद्ध हो गई और उसमें वासना प्रविष्ट हो गई। तुम कुछ नहीं जानते हो। तुम जो कुछ जानते थे वह विसर्जित हो गया है, सब ज्ञात गिर गया है। मन कुछ भी नहीं कर रहा है, मात्र प्रतीक्षा कर रहा है। और तब सब कुछ घटित होता है। तब सारा ब्रह्मांड तुममें समा जाता है, सभी दिशाओं से तुममें प्रवेश कर जाता है। तब सभी अवरोध गिर जाते हैं, तुम अपने को बिलकुल नहीं बचाते हो।

निष्क्रियता में कोई भूल नहीं है, वरन तुम्हारी सक्रियता ही समस्या है। लेकिन हमें सक्रियता में प्रशिक्षिण किया गया है। हमें द्वंद्व और संघर्ष और हिंसा में प्रशिक्षित किया गया है। और यह अपनी जगह ठीक भी है, क्योंकि संसार में निष्क्रियता से काम नहीं चलेगा। संसार में तो तुम्हें सक्रिय, संघर्षशील और कठोर होना पड़ेगा। लेकिन जो चीज संसार में सहयोगी होती है, वह तब सहयोगी नहीं होती जब तुम अस्तित्व के गहन तलों में प्रवेश करते हो। तब तुम्हें ठीक विपरीत दिशा में कदम रखने होंगे। अगर तुम राजनीति में हो, समाज में हो, धन की दौड़ में हो, तो तुम्हें सक्रिय होना पड़ेगा। लेकिन परमात्मा में, धर्म में, ध्यान में प्रवेश के लिए निष्‍क्रियता जरूरी है। वहां निष्‍क्रियता ही उपाय है।

और नकारात्मकता में भी कोई दोष नहीं है। नकारात्मक का अर्थ है कि कोई चीज छोड़नी है। उदाहरण के लिए, अगर मुझे इस कमरे में स्थान निर्मित करना है तो मैं क्या करूंगा? स्थान निर्मित करने की प्रक्रिया क्या है? मैं क्या करूंगा? क्या बाहर से स्थान लाकर इस कमरे को भर दूंगा? बाहर से स्थान नहीं लाया जा सकता है। स्थान तो यहां पहले से है, उससे ही तो यह कमरा कहलाता है। लेकिन यह लोगों से या फर्नीचर से या चीजों से भरा हुआ है। तो मैं उसे चीजों और लोगों से खाली कर देता हूं और तब स्थान फिर से उपलब्ध हो जाता है। यह स्थान कहीं से आया नहीं है, यह तो था ही। केवल भरा था, तो मैंने नकार की प्रक्रिया के द्वारा उसे खाली कर दिया।

नकार का अर्थ है, अपने को खाली करना। कुछ विधायक नहीं करना है, क्योंकि तुम जिसे पाना चाहते हो वह है ही। सिर्फ फर्नीचर को बाहर करना है। और मन के विचार ही फर्नीचर हैं। उन्हें हटा दो और मन आकाश बन जाता है। और वह आकाश ही तुम्हारी आत्मा है। जब वह विचारों से, कामनाओं से भरा होता है तब वह मन है; रिक्त, खाली होकर वह मन नहीं रह जाता। नकार चीजों को हटाने का, छांटने का उपाय है।

तो नकार और निष्‍क्रिय शब्दों से भयभीत मत होओ। यदि भयभीत होगे तो तुम कभी समर्पण नहीं कर सकते। समर्पण निष्‍क्रिय और नकारात्मक है। समर्पण किया नहीं जाता है, वरन समर्पण में सब करना छोड़ना पड़ता है, यह धारणा भी छोड़नी पड़ती है कि मैं कुछ कर सकता हूं। तुम कुछ नहीं कर सकते, यही समर्पण का बुनियादी भाव है। तभी समर्पण संभव है। यह नकारात्मक है, क्योंकि तुम अज्ञात में प्रवेश कर रहे हो। ज्ञात तो छूट गया।

यह अपने में चमत्कार ही है कि तुम किसी गुरु के प्रति समर्पण करते हो। क्योंकि तुम्हें यह भी नहीं मालूम है कि क्या होने जा रहा है और यह आदमी तुम्हारे साथ क्या करने वाला है। और तुम्हें यह भी पक्का नहीं है कि यह आदमी प्रामाणिक है या नहीं। तुम्हें पता नहीं है कि तुम किसको समर्पित हो रहे हो और वह तुम्हें कहां ले जाएगा। तुम पक्का पता करने की चेष्टा करोगे, लेकिन यह प्रयत्न ही बताता है कि तुम समर्पण के लिए तैयार नहीं हो।

समर्पण के पहले अगर तुम बिलकुल निश्चित हो कि यह आदमी तुम्हें कहां ले जाने वाला है, किस स्वर्ग में पहुंचाने वाला है और तब तुम समर्पण करते हो तो वह समर्पण समर्पण ही नहीं है। तब तुमने समर्पण ही नहीं किया। समर्पण सदा अज्ञात के प्रति होता है। जब सब चीज जान ली गई तो वह समर्पण नहीं है। तुमने तो पहले ही पता कर लिया कि यह होने वाला है, कि दो और दो चार होते हैं, तब समर्पण नहीं है। तुम नहीं कह सकते कि मैं समर्पण करता हूं, क्‍योंकि मुझे चार का पता है। अनिश्‍चय में, असुरक्षा में समर्पण है।

इसलिए ईश्वर के प्रति समर्पण करना आसान है। वस्तुत: वहां कोई भी नहीं है और तुम अपने मालिक बने रहते हो। एक जीवित गुरु के प्रति समर्पण कठिन है, क्योंकि तब तुम मालिक नहीं रहते हो। ईश्वर के नाम पर तुम समर्पण का भ्रम पाल सकते हो, क्योंकि वहां कोई तुमसे पूछने वाला नहीं है।

मैं एक यहूदी कहानी पढ़ रहा था। एक का व्यक्ति परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था। उसने कहा कि मेरा अ नामक पड़ोसी बहुत गरीब है, पिछले साल भी मैंने आपसे उसके लिए प्रार्थना की थी, लेकिन आपने कुछ नहीं किया। और उसने कहा कि मेरा दूसरा पड़ोसी ब अपंग है। और बीते वर्ष में मैंने उसके लिए भी आपसे प्रार्थना की थी और उसके लिए भी आपने कुछ नहीं किया। और इस प्रकार वह गिनाता चला गया। उसने अपने सभी पड़ोसियों की चर्चा की और अंत में कहा. अब मैं इस वर्ष भी प्रार्थना करूंगा। अगर आप मुझे क्षमा कर दें तो मैं भी आपको क्षमा कर सकता हूं।

लेकिन वह आदमी अपने से ही बातें कर रहा था। परमात्मा से की गई सब बातचीत एकालाप है, वहां दूसरा कोई नहीं है। तो यह तुम्हारी अपनी मर्जी की बात है। तुम क्या करते हो, उसके तुम मालिक हो।

यही कारण है कि तंत्र में जीवित गुरु के प्रति समर्पण पर इतना जोर दिया जाता है, क्योंकि तब तुम्हारा अहंकार चूर—चूर हो जाता है। और अहंकार का विसर्जन ही आधार है। वही आधार है और तभी उससे कुछ संभव है।

लेकिन मुझसे यह मत पूछो कि समर्पण कैसे करें? तुम कुछ नहीं कर सकते। या तुम सिर्फ एक चीज कर सकते हो : इसके प्रति जागरूक हो जाओ कि करके भी मैं क्या कर सकता हूं! करके मैंने क्या पाया! अपने करने के प्रति जागरूक बनो। तुमने बहुत कुछ पाया है, तुमने बहुत दुख पाया है, तुमने बहुत संताप पाया है। तुमने अपने करने से यही पाया है। और यही है जिसे अहंकार पा सकता है। इसके प्रति सजग होओ। तुमने जो दुख, समर्पण किए बिना, सक्रिय रूप से, विधायक रूप से अर्जित —किया है, उसके प्रति होशपूर्ण बनो। तुमने अपने जीवन के साथ जो किया है, उसके प्रति जागरूक बनो।

यही बोध एक दिन इन चीजों को कचरेघर में फेंकने में और समर्पण करने में तुम्हें सहयोगी होगा। और स्मरण रहे, तुम किसी गुरु के प्रति समर्पण से रूपांतरित नहीं होते, समर्पण से रूपांतरित होते हो। गुरु प्रासंगिक नहीं है, वह सवाल नहीं है।

बहुत लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि हम समर्पण करना चाहते हैं, लेकिन किसके प्रति समर्पण करें? वह बात ही नहीं है, तुम तब बात ही चूक गए। प्रश्न यह नहीं है कि किसको समर्पण करें। समर्पण करने से ही बात बन जाती है। किसके प्रति समर्पण किया, वह व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है। संभव है वहां कोई व्यक्ति न हो, संभव है वह व्यक्ति प्रामाणिक न हो, ज्ञानोपलब्ध न हो। यह भी संभव है कि वह कोई बदमाश हो।

लेकिन यह बात प्रासगिकनहीं है। तुमने समर्पण किया, यही बात सहयोगी है। क्योंकि अब तुम खुले हो, ग्राहक हो, संवेदनशील हो। अब तुम स्त्रैण हो गए। पुरुष—अहंकार जाता रहा और अब तुम स्त्रैण गर्भ बन गए।

जिस व्यक्ति के प्रति तुमने समर्पण किया, वह धोखेबाज भी हो सकता है। वह महत्‍वपूर्ण ही नहीं है। महत्‍वपूर्ण यह हे कि तुमने समर्पण किया। अब तुम्‍हें कुछ घटित हो सकता है। अनेक बार ऐसा हुआ है कि नकली गुरुओं के साथ रहकर भी शिष्य ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि झूठे गुरुओं के साथ रहकर भी शिष्य बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं।

मिलरेपा के संबंध में कथा है कि वह एक गुरु के पास गया और उसके प्रति समर्पित हो गया। मिलरेपा बहुत निष्ठावान, बहुत श्रद्धापूर्ण व्यक्ति था। जब गुरु ने कहा कि तुम्हें समर्पण करना होगा तो ही मैं तुम्हारी मदद करूंगा, तो मिलरेपा ने हा कर दी। अनेक लोगों को मिलरेपा से ईर्ष्या होने लगी, क्योंकि मिलरेपा बिलकुल भिन्न ढंग का व्यक्ति था। उसमें कोई चुंबकीय शक्ति थी। गुरु के पुराने शिष्य डरने लगे कि कहीं यह आदमी टिक गया तो यह प्रधान शिष्य हो जाएगा, अगला गुरु हो जाएगा। तो उन्होंने गुरु से कहा कि यह आदमी झूठा मालूम पड़ता है, इसकी परीक्षा होनी चाहिए कि क्या इसका समर्पण सच्चा है। गुरु ने पूछा कि किस ढंग की परीक्षा ली जाए? तो उन्होंने कहा कि इसे इस पहाड़ी से नीचे कूद जाने को कहा जाए—वे सब एक पहाड़ी पर बैठे थे।

तो गुरु ने मिलरेपा से कहा कि अगर तुम्हारा समर्पण सच्चा है तो इस पहाडी से नीचे कूद जाओ। मिलरेपा ही कहने के लिए भी नहीं रुका और पहाड़ी से नीचे कूद गया। शिष्यों ने सोचा कि वह मर गया। यह देखने के लिए वे पहाड़ी से नीचे उतरे, उन्हें घाटी में पहुंचने में घंटों लग गए। मिलरेपा वहां एक वृक्ष के नीचे बैठा ध्यान कर रहा था और वह बहुत प्रसन्न था—सदा की तरह प्रसन्न।

शिष्यों ने फिर इकट्ठे होकर इस बात पर विचार किया। उन्होंने सोचा कि यह एक संयोग हो सकता है। गुरु भी चकित हुआ। उसने मिलरेपा से एकांत में पूछा कि तुमने यह कैसे किया? यह चमत्कार कैसे घटित हुआ? मिलरेपा ने कहा कि मैंने जब समर्पण कर दिया तो मेरे कुछ करने की बात कहां उठती है! आपने ही कुछ किया होगा। गुरु तो भलीभांति जानता था कि उसने कुछ नहीं किया है। उसने फिर परीक्षा लेने की सोची।

सामने एक मकान जल रहा था। गुरु ने मिलरेपा से कहा कि उस जलते हुए मकान में जाओ, वहां अंदर बैठो और वहां तब तक बैठे रहो जब तक मकान जलकर राख न हो जाए। मिलरेपा चला गया और वहां घंटों बैठा रहा। मकान जलकर राख हो गया। जब सब लोग उसे ढूंढने गए तो वह राख में दबा पड़ा मिला, लेकिन वह जीवित और आनंदित था—सदा की तरह आनंदित। मिलरेपा ने अपने गुरु के पैर छुए और कहा कि आप चमत्कार कर रहे हैं।

गुरु ने इस बार कहा कि अब इसे संयोग मानना कठिन है। लेकिन शिष्यों ने इसे भी संयोग बताया और कहा कि एक और परीक्षा ली जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि कम से कम तीन परीक्षाएं जरूरी हैं।

वे सब एक गांव से गुजर रहे थे जहां एक नदी पार करनी थी। गुरु ने मिलरेपा से कहा कि नाव नहीं है और न माझी ही है, मालूम होता है कि दोनों दूसरे किनारे पर ही हैं। तुम पानी पर चलकर उस पार जाओ और माझी को बुला लाओ।

मिलरेपा चला गया। वह पानी पर चलकर दूसरे किनारे पहुंच गया और नाव को इस पार ले आया। अब तो गुरु को भी पक्का गया कि यह चमत्कार है। उसने मिलरेपा से पूछा कि तुमने यह कैसे किया? मिलरेपा ने कहा कि मैं बस आपका नाम लेकर चला जाता हूं। गुरुदेव, आपका नाम लेने भर से काम हो जाता है।

गुरु ने सोचा कि जब मेरे नाम से हो जाता है तो मैं ही क्यों न प्रयोग करूं! और उसने पानी पर चलने की कोशिश की, लेकिन वह नदी में डूब गया। और तब से फिर किसी ने उस गुरु के संबंध में कुछ नहीं सुना।

यह कैसे हुआ? समर्पण असली चीज है, गुरु या वह व्यक्ति नहीं जिसके प्रति समर्पण किया जाता है। कोई मूर्ति, कोई मंदिर, वृक्ष, पत्थर, कुछ भी काम दे देगा। अगर तुम समर्पण करते हो तो तुम अस्तित्व के प्रति खुले हो जाते हो, तब समस्त अस्तित्व तुम्हें अपनी बाहों में ले लेता है। हो सकता है कि यह कथा कथा ही हो, लेकिन इसका अर्थ यह है कि जब तुम समर्पण करते हो तो सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ हो जाता है। तब आग, पर्वत, नदी, घाटी, सब तुम्हारे साथ हैं, कोई भी तुम्हारे विरोध में नहीं है। क्योंकि जब तुम ही किसी के विरुद्ध नहीं रहे तो सारी शत्रुता समाप्त हो जाती है।

अगर तुम पहाड़ से गिरते हो और तुम्हारी हड्डियां टूट जाती हैं तो वे तुम्हारे अहंकार की हड्डियां हैं जो टूटती हैं। तुम प्रतिरोध कर रहे थे, तुमने घाटी को तुम्हारी सहायता करने का मौका नहीं दिया। तुम स्वयं अपनी सहायता करने में लगे थे, तुम अपने को अस्तित्व से ज्यादा बुद्धिमान समझते थे।

समर्पण का अर्थ है कि तुम्हें यह समझ आ गई कि मैं जो भी करूंगा वह मूढ़तापूर्ण होगा। और तुमने जन्मों—जन्मों ये मूढ़ताएं की हैं। अब इसे अस्तित्व पर छोड़ दो। तुमसे कुछ होने वाला नहीं है। तुम्हें यह समझना होगा कि मैं असहाय हूं। यह असहाय होने की प्रतीति ही समर्पण करने में सहयोगी होती है।

आज इतना ही।


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साधना–पथ–(प्रवचन–11)

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निविषय—चेतना का जागरण—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 6 जून, 1964; संध्‍या।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

 चिदात्मन्!

मैं आपको देख कर कितना आनंदित हूं! सत्य के लिए आपकी जिज्ञासा और प्यास कितनी गहरी है। उसे मैं आपकी आंखों में देख रहा हूं उसे मैं आपकी श्वास—श्वास में अनुभव कर रहा हूं। और सत्य के लिए आंदोलिन आपके हृदय मेरे हृदय को भी आंदोलिन कर रहे हैं। और सत्य के लिए आपकी प्यास मुझे भी छू रही है। यह कितना आनंदपूर्ण है, और यह सब कितना रसमय और सुंदर है!

सत्य के लिए अभीप्सा से सुंदर, मधुर और प्रिय इस धरा पर कुछ भी नहीं है।

आनंद के इस अभूतपूर्व क्षण में मैं क्या आपसे कहूं! आपकी प्यास और प्रतीक्षा के इस क्षण में मैं क्या आपसे कहूं!

शब्द कितने ओछे, पार्थिव और अपारदर्शी हैं, यह ऐसे क्षणों में ही बोध होता है। शब्द कितने व्यर्थ और असमर्थ हैं और कितने शक्तिहीन, यह ऐसे क्षणों में ही ज्ञात होता है। कुछ कहने जैसा यदि न हो तो वे अवश्य कह पाते हैं, पर कुछ कहने जैसा हो तो एकदम अपर्याप्त पड़ जाते हैं।

यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि सत्य का बोध या आनंद की अनुभूति या सुंदर का साक्षात इतनी अपार्थिव घटनाएं हैं कि उन्हें कोई भी पार्थिव रूप देना संभव नहीं है। और पार्थिव रूप देने से ही वे अनुभूतियां मृत हो जाती हैं।

फिर हमारे हाथों में वह जीवित नहीं आता है जो कि जाना और जीया गया था, आती है केवल उसकी मृत देह। आत्मा पीछे ही छूट जाती है और शब्द जिसे सवांदित करते हैं, वह सत्य नहीं रह जाता है।

फिर मैं क्या कहूं?

क्या इस समय यह अच्छा नहीं था कि हम न कुछ बोलते, न कुछ सुनते, और चुप और मौन हो जाते—बिलकुल निःशब्द हो जाते— और उस मौन में, उस शून्य, साइलेंस में जागते और देखते— केवल जागते और देखते, वॉचफुल एंड सीइंग और उसे अनुभव करते—’जो है’ तो शायद जो मैं कहना चाहता हूं वह बिना कहे ही कह दिया जाता, और मैं कहने से बच जाता और आप सुनने से बच जाते, और सत्य भी कह दिया जाता; क्योंकि वह तो प्रत्येक के भीतर ही है।

यह संगीत, जिसकी कि हम खोज में हैं, प्रतिक्षण स्वयं की ही गहराइयों में निनादित हो रहा है।

सत्य की प्यास के क्षण यदि मौन के क्षण भी हों, तो वे प्रार्थना, स्टेट ऑफ प्रेयर की स्थिति में परिणत हो जाते हैं। प्रभु—प्यास और निःशब्द प्रतीक्षा ही—प्रार्थना है।

मनुष्य जिसकी खोज में है, वह उसके भीतर ही है। आप जिसे मुझसे पूछने और जानने आए हैं, वह सदा आपके साथ ही है। उसे न कभी आपने खोया है, न कभी खो सकते हैं, क्योंकि वही तो आपका अस्तित्व और होना, बीइंग है।

वह अकेली ही ऐसी संपदा है, जो कि खोई नहीं जा सकती है, क्योंकि वह आप स्वयं ही हैं। पर हम सब उसे ही खोज रहे हैं, जो खो नहीं सकता है, उसे ही खोज रहे हैं! कैसा मजा है, कैसी लीला है।

एक अदभुत प्रवचन मुझे याद आ रहा है। कब दिया, किसने दिया, यह कुछ भी मुझे याद नहीं। एक संध्या किसी मंदिर में बहुत भीड़ थी। बहुत से भिक्षु इकट्ठे थे। बड़ी प्रतीक्षा के बाद बोलनेवाले का आना हुआ।

वह बोलने उठा। और तभी किसी ने खड़े होकर पूछा’ सत्य क्या है?’ एक अत्यंत जीवित और प्रतीक्षातुर सन्नाटा छा गया। जिससे पूछा गया था, वह जानता था, इसलिए उसके एक—एक शब्द का मूल्य था। पर जानते हैं, उसने क्या कहा? उसने बहुत जोर से कहा’ ओ, भिक्षुओं, ओ मॉन्‍व’स!’ और उस अपूर्व शांति में उसके वे दो शब्द गंजे और सभी आंखें उसकी ओर उठीं, और सभी ने उसकी ओर देखा।

सभी मौन थे, निस्तब्ध थे और सजग, वाँचफुल थे। फिर बोलने वाला और कुछ नहीं बोला। उसकी बात पूरी हो गई थी। उसे जो कहना था, उसने कह दिया था। आप समझे कि उसने क्या कहा? कुछ भी तो नहीं कहा न! पर मेरे देखे उसने सब कह दिया। जो कहने जैसा है, उसके कहने में सब आ गया है। मैं भी वही कहना चाहता हूं। वही कहूंगा। वही केवल कहने जैसा है। जो शब्द नहीं कह पाते हैं, वही केवल कहने जैसा है।

उसने क्या कहा? उसने कहा था, सत्य को और कहीं मत खोजो और किसी से मत पूछो, वह है तो तुम्हारे भीतर है, अन्यथा कहीं भी नहीं है।

इसलिए, यद्यपि सत्य के संबंध में उससे पूछा गया था, पर सत्य के संबंध में तो उसने कुछ भी नहीं कहा, बल्कि पूछने वालों को ही उसने पुकारा था। उसने वैसे ही उन्हें पुकारा था, जैसे कोई किसी को निद्रा से पुकारता है। सत्य की खोज के लिए यही उत्तर है। नींद से जागना ही उसे पाना है, अन्यथा कोई मार्ग नहीं है।

हम निद्रा में हैं, इसलिए जो स्वयं के पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता— जो हम स्वयं हैं, उसका दर्शन नहीं होता है। और हम स्वप्न में दूर—दूर उसकी ही खोज करते हैं—जो खोजने वाले में ही है, उसकी ही खोज करते हैं। जैसे कस्तूरी—मृग कस्तूरी की खोज में भटकता है, ऐसी ही हमारी भटकन और तलाश है। पर कितना ही हम खोजें जो स्वयं में है, वह किसी भी खोज से नहीं मिलेगा, क्योंकि खोज से वह मिल सकता है जो बाहर है। स्वयं को उसी भांति की खोज से नहीं पाया जा सकता है।

वह खोजने से नहीं, जागने से मिलता है। इसलिए उसने पुकारा था। इसलिए महावीर पुकारते हैं, बुद्ध पुकारते हैं, कृष्ण पुकारते हैं, क्राइस्ट पुकारते हैं। वह बोलना नहीं, पुकारना है। वह शिक्षा नहीं, संबोधन है। मैं भी बोलना नहीं, पुकारना चाहता हूं।

क्या आप सुनेंगे? क्या आप आशा देंगे कि मैं आपकी नींद को तोडूं, और आपके स्वप्नों को खंडित करूं? यह भी हो सकता है कि जो स्वप्न आप देख रहे हों, वे बहुत सुखद हों, पर जो स्वप्न सुखद होते हैं वे ही घातक होते हैं; क्योंकि वे जागने नहीं देते हैं, और नींद की मादकता को और घना करते हैं।

मैं स्वयं जाग कर जो आनंद अनुभव कर रहा हूं उसमें आपको भी साझीदार बनाना चाहता हूं। इसलिए तय किया है कि आपको पुकारूंगा। आपसे बोलंगूा ही नहीं, आपको बुलाऊगा भी। यह पुकार आपकी तंद्रा तोड़ दे और आपके स्वप्नों के धुएं को तितर—बितर कर दे, तो मुझे क्षमा करना।

मैं असमर्थ हूं। स्वप्न तोड़े बिना सत्य के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। एक निद्रा हमें घेरे हुए है। इस निद्रा के बने रहते हमारा कुछ भी करना सार्थक नहीं है। उसके बने रहते हम जो भी करें, वह सब करना, वह सब जानना स्वप्न में है। सर्वप्रथम बात निद्रा से जागना है। शेष सब उसके बाद है। उसके पूर्व कुछ भी नहीं है। इस निद्रा में उपलब्ध किए विचार और साधे गए आचार, किन्हीं का भी कोई मूल्य मत मानना। वह सब समझना कि जैसे स्वप्न में ही हो रहा है।

मैं स्वयं ही अभी जब स्वयं को अज्ञात हूं तो मुझसे अभी कुछ भी सम्यक होना संभव नहीं है। मेरा ज्ञान, मेरा आचरण, अभी सभी मिथ्या होने को आबद्ध है। मेरी श्रद्धा, मेरी आस्था, मेरे विश्वास, सभी अभी अंधे होंगे।

मैं अभी किसी भी रास्ते पर चलूं वह मुझे सत्य तक नहीं ले जा सकेगा। अभी तो चलने का सवाल ही नहीं है। निद्रा में क्या कोई चलता है? वहां तो केवल चलने का स्वप्न ही होता है।

आत्म—अज्ञान ही वह निद्रा है जिसके संबंध में मैं आपसे कह रहा हूं। उससे जागना आवश्यक है। उससे जागने के लिए वह सब समझना जरूरी है जो कि आपको नहीं जागने दे रहा है। और धर्म को जानने के पहले उससे परिचित होना आवश्यक है जो कि धर्म नहीं है, और जिसे आप धर्म समझ कर पकड़े हुए हैं, और जो जागने की विधि की जगह, कहीं नींद लाने की ही दवा ज्यादा है!

मार्क्स ने धर्म को अफीम का नशा कहा है। धर्म तो नशा नहीं है, पर साधारणत: जिसे धर्म समझा जाता है, वह नशा ही है। मार्क्स भूल में था, क्योंकि उसने धर्म को नशा समझ लिया था। और आप भी भूल में हैं क्योंकि आपने नशे को ही धर्म समझ लिया है।

यह समझना जरूरी है कि क्या नशा है? और क्या धर्म है?

सबसे पहले उसका विचार करें जो कि धर्म नहीं है, और फिर उसका अनुभव करेंगे जो कि धर्म है। अधर्म का विचार ही काफी है। वह उतने से ही समाप्त हो जाता है। पर धर्म के लिए विचार पर्याप्त नहीं है। वह साधना से आता है।

मैं आपको एक बात कहूं कि अगर धार्मिक जीवन में, सच ही कहीं पहुंचना हो, तो कोई भी मान्यता लेकर नहीं चलना चाहिए। अगर सत्य को जानना हो तो कोई भी पूर्व—धारणा नहीं बनानी चाहिए। सत्य के पास हमें बिलकुल शांत और शून्य और बिना किसी धारणा, कनसेप्शन के पहुंचना चाहिए।

पूर्व— धारणाएं और पक्ष, दृष्टि को विकृत और धूमिल कर देते हैं। जो हम जानते हैं वह सत्य नहीं, अपने ही विचार का प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन होता है। उस भांति सत्य हम पर अवतरित नहीं होता, विपरीत हम ही उस पर आरोपित हो जाते हैं। सत्य के और हमारे बीच में कोई पक्ष, कोई सिद्धात न हो तो ही हम जो जानेंगे वह सत्य होगा। अन्यथा हम अपने चित्त—घेरे के बाहर नहीं हो पाते हैं, और वही जानते रहते हैं, जो कि जानना चाहते हैं। यह ज्ञान, नॉलेज नहीं है, कल्पना, इमेजिनेशन है।

मनुष्य में कल्पना की असीम शक्ति है। सत्य और उसके बीच यही दीवार है। सत्य, आत्मा, परमात्मा—इनके बाबत अगर पूर्व से कोई निर्णय ले लें, तो हमारा चित्त उस निर्णय को परिकल्पित कर लेगा, और हम जानेंगे कि हमने कुछ जाना है, जब कि हमने कुछ भी नहीं जाना है, और हम केवल कल्पना मात्र में विचरण किए हैं। यह सत्य का नहीं, स्वप्न का दर्शन है।

यह तो आप जानते ही हैं कि मन स्वप्न देखने में अपूर्वरूप से समर्थ है। जो नहीं है, उसे भी कामना दिखा देती है। वह मृग—मरीचिकाए पैदा कर देती है और जो है वह छिप जाता है, और जो नहीं है वह प्रत्यक्ष बन जाता है। पर आप कहेंगे कि स्वप्न तो निद्रा में होते हैं। निश्चय ही स्वप्न निद्रा में होते हैं। पर निद्रा साधी जा सकती है, और एक अर्थ में जागते हुए भी आप सोए हुए हो सकते हैं।

दिवास्वप्न भी तो हम देखते हैं। फिर यदि कोई निरंतर सत्य की या परमात्मा की किसी धारणा को करे और सोते—जागते उसकी कल्पना—स्मृति से भरा हुआ हो, तो निश्चय ही प्रक्षेप हो जाता है और साक्षात भी होता है, जो कि दिवास्वप्न का ही प्रगाढ़ रूप है। आंखों के सामने तो कुछ भी नहीं होता है, पर जिसे आंखों के पीछे बहुत दिन पोषित किया है, वही सामने आ जाता है। यही प्रक्षेपण है। स्वप्न इसी भांति दिखते हैं, तथाकथित पूर्व— धारणा आधारित सत्य के साक्षात भी ऐसे ही संभव होते हैं।

क्राइस्ट का भक्त क्राइस्ट को देख लेता है, कृष्ण का भक्त कृष्ण को देख लेता है, और किसी का भक्त और किसी को देख लेता है। यह सत्य का या परमात्मा का अनुभव नहीं है। यह अपनी ही कल्पनाओं का विस्तार है, क्योंकि सत्य और परमात्मा दो नहीं हो सकते हैं।

सत्य एक है, उसकी अनुभूति भी एक है। और जो इस एक को जानना चाहता है, उसे अनेक धारणाओं और कल्पनाओं को छोड़ना होता है। मैं किसी एक धारणा के पक्ष में अन्य धारणाओं को छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। मैं तो धारणा मात्र को छोड़ने को कह रहा हूं। ये धारणाएं ही धर्म के नाम पर प्रचलित और प्रतिष्ठित संप्रदायों के प्राण हैं, और इनके कारण ही संप्रदाय तो बहुत हैं, पर धर्म का होना असंभव हो गया है।

सत्य को जानना है, तो सत्य के संबंध में सब सिद्धांतों को छोड़ना आवश्यक है, क्योंकि उस निष्पक्ष, पूर्वाग्रह मुक्त, प्रिज्युडिस—मुक्त और अतएव, निर्दोष स्थिति में ही जो है, उसे जाना जा सकता है। जहां पूर्व धारणा नहीं है, जहां पूर्व कल्पना नहीं है, जहां पूर्व अपेक्षा, एक्सपेक्टेशन नहीं है, वहा स्वप्न निर्मित नहीं होते, वहां सत्य का दर्शन होता है।

सत्य—दर्शन की साधना वस्तुत:, सत्य—दर्शन की साधना न होकर, केवल स्वप्न मुक्ति की साधना है। सत्य को क्या जानना है, बस स्वप्न से ही मुक्त होना है। वह मुक्ति ही सत्य—दर्शन है। स्वप्नों में खोए हैं, इसलिए जो है, वह निरंतर उपस्थित होकर भी, अनुपस्थित जैसा है। सत्य तो है, क्योंकि जो है, उसी का नाम तो सत्य है। उसे कहीं से लाना नहीं है। वह तो नित्य उपस्थित ही है, पर स्वप्नों में खोए होने के कारण हम उसके प्रति उपस्थित नहीं हैं।

सत्य को नहीं, स्वयं को लाना है। यह लाना परमात्मा के प्रति और नये स्वप्न देखने से नहीं होगा। यह होगा सब स्वप्न छोड़ देने सें—जागने से। इसलिए मैंने कहा कि सत्य की कोई कल्पना नहीं करनी है, वरन जानना है कि चित्त जब किसी भी कल्पना में नहीं होता है, तब वह सत्य में होता है।

संसार सविकल्प चित्त का साक्षात है। सत्य निर्विकल्प चित्त का साक्षात है। सब धारणाएं, सब मान्यताएं, बिलीक्स विकल्प हैं, इसलिए वे सत्य का द्वार नहीं हैं। वे बाधाएं हैं और कहीं पहुंचाती नहीं, विपरीत अटकाती हैं। उनमें होकर नहीं, उनसे उठ कर सत्य का मार्ग जाता है।

इसलिए कोई विचार, कोई रूप, कोई आकार, कोई आस्था सत्य की मत बनाइए। जो आस्था बनाएगा, वह अनुभव हो जाएगी। पर वह अनुभव वास्तविक नहीं, मानसिक ही होता है। ऐसे अनुभव आत्मिक नहीं हैं। सत्य को जानने को अज्ञान में बताई गई सब मान्यताएं गलत हैं।

यह मत विचारिए कि सत्य क्या है, और कैसा है? ऐसा सब चिंतन अंधा है। वह वैसा ही है, जैसे कोई चक्षुहीन प्रकाश की कोई कल्पना करे। वह बेचारा क्या कल्पना करेगा? जब आंख ही नहीं है, तो प्रकाश के संबंध में कुछ भी सोच—विचार संभव नहीं है।

वह जो भी सोचेगा, आधार से ही गलत होगा। प्रकाश तो दूर, अंधेरे तक की कल्पना वह सही नहीं कर सकता है, क्योंकि उसे भी देखने को आंखें जो चाहिए। फिर चक्षुहीन क्या करे? मैं कहूंगा—प्रकाश का विचार न करे, आंख का उपचार करे। विचार नहीं, उपचार ही सहायक और सार्थक हो सकता है। पर मैं क्या देखता हूं कि उसे उपदेश दिए जा रहे हैं, प्रकाश का तत्वज्ञान समझाया जा रहा है, पर उपचार की किसी को कोई चिंता नहीं है।

और, यह देख कर जो और भी आश्चर्य होता है कि जो उपदेश में संलग्न हैं, प्रकाश के दर्शन उन्हें भी नहीं हुए हैं, और उन्होंने भी प्रकाश के संबंध में ही जाना है, प्रकाश को नहीं जाना है। यह मैं इसलिए कहता हूं कि यदि उन्होंने प्रकाश को जाना होता तो वे अवश्य ही उपदेश की व्यर्थता को समझ गए होते, और उनकी चिंता और हृदयता उपचार पर केंद्रित होती। आंख ठीक हो जाए तो प्रकाश का अपने आप अनुभव हो जाता है। वह तो निरंतर मौजूद है। केवल आंख की ही जरूरत है। स्मरण रहे कि यदि आंख नहीं हैं तो प्रकाश होकर भी नहीं हो जाता है।

यह कहना चाहूंगा कि आंख है तो प्रकाश है। आंख और प्रकाश ये दो शब्द बड़ी भिन्न दिशाओं में ले जाने में समर्थ हैं। प्रकाश की चितना तत्वमीमांसा, फिलॉसफी में ले जाती है। वह दिशा मात्र चिंतन की है। उसकी निष्पत्ति में अनुभूति नहीं आती है। वह कोरा विचार है।

उसमें चलना तो बहुत है, पर पहुंचना कहीं भी नहीं होता है। निष्कर्ष तो बहुत आते हैं, पर अंतिम निष्कर्ष नहीं आता है। ऐसा निष्कर्ष नहीं आता है जो समाधान हो। यह स्वाभाविक ही है। पानी का पूर्णतम विचार भी अल्पतम प्यास को कैसे मिटा सकता है? प्यास की परितृप्ति का रास्ता कुछ दूसरा है।

वह प्रकाश के विचार का नहीं, आंख की साधना का है। मैंने कहा, प्रकाश की चितना तत्व—मीमांसा, फिलॉसफी है, और अब मैं कहना चाहूंगा कि आंख की साधना धर्म, रिलिजन है। विचार से बौद्धिक निष्पत्तियां हाथ आती हैं, साधना से आत्मिक अनुभूतियां उपलब्ध होती हैं। एक पानी का विचार है, एक प्यास की परितृप्ति है। एक समस्या ही है, एक समाधान है।

मैं प्रत्येक से यही पूछता हूं—प्रकाश जानना चाहते हैं, या कि प्रकाश के संबंध में जानना चाहते हैं? सत्य को जानना है, या कि सत्य के संबंध में जानना है? पानी के संबंध में जानना है, या कि प्यास को मिटाना है

और आपके उत्तर पर निर्भर करेगा कि आप जान, नॉलेज के पिपासु हैं या कि मात्र जानकारी, इनफॉर्मेशन के। यह स्मरण रहे कि ये दोनों दिशाएं बिलकुल विपरीत हैं; एक अहंकार—विसर्जन पर ले जाती है और दूसरी अहंकार—संवर्धन पर। एक से आप सरल होते हैं और दूसरी से और जटिल हो जाते हैं। ज्ञान’ मैं’ को मिटा देता है, जानकारी उसे और भर देती है। सब संग्रह, सब परिग्रह’ मैं’ को भरते हैं, इसलिए अहं को उनकी आकांक्षा और लालसा होती है। विचार भी सूक्ष्म परिग्रह है। वह भी अहंकार का खाद्य है।

पंडितों में जो दंभ परिलक्षित होता है, वह अनायास और आकस्मिक नहीं है। वह विचार का सहज परिणाम है। विचार संगृहीत होते हैं। वे बाहर से आते हैं, वे अंतस से जाग्रत नहीं होते। इसलिए वे आवरण ही हैं, आत्मा नहीं हैं। अंधे व्यक्ति को प्रकाश की जानकारी बाहर से दी जा सकती है, पर दृष्टि की संवेदना उसमें भीतर से जगानी होती है। एक संग्रह है, दूसरी शक्ति है।

जानकारी, इनफॉर्मेशन और ज्ञान, नॉलेज में संग्रह और शक्ति का भेद है। संग्रह बाहर से आता, शक्ति भीतर से आती है। संग्रह शक्ति का भ्रम देता है। वह भ्रम बहुत प्रबल है। उस भ्रम से ही अहंकार परिपुष्ट होता है।

अहंकार शक्ति नहीं है, शक्ति का भ्रम है। वह अशक्ति ही है, क्योंकि सत्य की एक किरण मात्र उसे वाष्पीभूत कर देती है। इसलिए ही वास्तविक शक्ति सदा ही निर—अहंकार देखी जाती है।

मैं समझता हूं कि आप पांडित्य और प्रज्ञा के भेद को समझे होंगे? वह समझना बहुत जरूरी है। अज्ञान से भी बड़ी बाधा सत्य—साधक के मार्ग में मिथ्या—ज्ञान की है। पाडित्य मिथ्या—ज्ञान है। मिथ्या—ज्ञान का अर्थ है कि न जानते हुए भी जानना कि मैं जान रहा हूं।

दूसरों के विचार—संग्रह से यह भ्रांति सहज ही पैदा हो जाती है। शास्त्र—ज्ञान, शब्द—ज्ञान, इस भ्रांति को पैदा कर देता है। शब्द जानते—जानते लगता है कि सत्य जान लिया। शब्द स्मृति के हिस्से हो जाते हैं, और प्रत्येक प्रश्न का उत्तर ज्ञात मालूम होने लगता है। विवेक उधार विचारों से दब जाता है, और इसके पूर्व कि कोई समाधान अंतस में खोजा जा सके, विचारों का आवरण उत्तर दे देता है। इस भांति हम समस्या को जीने से बच जाते हैं और परिणामत: समाधान से वंचित हो जाते हैं।

समस्या मेरी है तो किसी दूसरे का उधार मांगा समाधान काम नहीं दे सकता है। समस्या मेरी है तो समाधान भी मेरा ही चाहना होगा। जीवन उधार नहीं मांगा जा सकता है, न ही जीवन का समाधान मांगा जा सकता है। समस्या के बाहर से समाधान नहीं आता है। वह समस्या के भीतर से ही विकसित होता है। समस्या अंतस में है, तो सत्य बाहर नहीं हो सकता है।

वह इसलिए सीखा नहीं जा सकता है। उसे तो उघाड़ना होगा, आविष्कृत करना होगा। वह शिक्षा से नहीं, साधना से आता है। शास्त्रविद होने और आत्मविद होने में यही मौलिक अंतर है। संसार के संबंध में शास्त्रविद होना पर्याप्त है। स्वयं के संबंध में वह प्रारंभ भी नहीं है।

संसार की, पदार्थ की, पर की केवल जानकारी ही हो सकती है। जो बाहर है, उसका ज्ञान नहीं हो सकता। जो भी हमसे बाहर है, उसे हम बाहर से ही जान सकते हैं। हम उसके कितने ही निकट हों, तब भी दूर ही होंगे। उससे दूरी कितनी ही कम हो, पर समाप्त नहीं होगी। तब हम जो’ स्व’ नहीं है, उससे परिचित ही हो सकते हैं। उसका ज्ञान हमें नहीं हो सकता है। हम उसके संबंध में जान सकते हैं, उसे ही नहीं जान सकते हैं।

ज्ञान के लिए दूरी का न होना जरूरी है, तभी अंत:सत्ता में प्रवेश होता है। पर जिससे दूरी है, उससे दूरी मिट नहीं सकती है। दूरी जिससे नहीं है उससे ही मिट सकती है। दूरी भ्रम हो तो मिट सकती है, वास्तविक हो तो मिटना असंभव है। एक ही सत्ता है जिससे मेरी दूरी नहीं है, जिससे मेरी दूरी होनी असंभव भी है। वह सत्ता मैं स्वयं हूं। इस सत्ता का ही केवल जान हो सकता है। इस सत्ता से जो दूरी है, वह निश्चय ही भ्रम है, क्योंकि स्वयं से ही दूरी हो कैसे सकती है? मैं ही मेरे लिए एकमात्र केंद्र हूं जिसमें आत्यंतिक रूप से मेरा आंतरिक प्रवेश है, आंतरिक निवास और प्रतिष्ठा है। इस बिंदु को ही केवल जाना जा सकता है। मात्र इसका ही ज्ञान हो सकता है।

यह भी आपको स्मरण दिला दूं कि जिस भांति संसार ज्ञान का नहीं हो सकता है, केवल परिचय, एक्‍वेंटेंस और जानकारी ही हो सकती है— और ज्ञान केवल स्वयं का ही हो सकता है—उसी भांति आत्मा की कोई जानकारी नहीं हो सकती है, उसका केवल ज्ञान, नॉलेज ही हो सकता है। यही कारण है कि संसार के, पदार्थ के संबंध में शास्त्रविद होना ही पर्याप्त है, स्वयं के संबंध में नहीं है। विज्ञान, साइंस शास्त्र है। धर्म शास्त्र नहीं है। क्योंकि विज्ञान पदार्थ की जानकारी है, धर्म स्वयं का ज्ञान है। विज्ञान शास्त्र है, धर्म साधना है। मैं उपदेश नहीं देता हूं वह दिशा ही निरर्थक है। उपदेश नहीं, उपचार का प्रश्न है। सत्य के संबंध में सिद्धांत नहीं देने हैं। उनका कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य उस विधि का है, जिससे सत्य का दर्शन होता है।

विधि से उपचार होता है और आंख खुलती है। फिर प्रकाश को सोचना नहीं पड़ता है, उसका दर्शन होता है। आंख न हो तो सोचना पड़ता है, आंख हो तो सोचने की बात ही नहीं है। विचारणा, थिंकिंग अंधेपन में आंख की जगह काम करती है। आंख के आते ही वह व्यर्थ हो जाती है।

इससे मेरे देखे—विचार ज्ञान का नहीं, अज्ञान का लक्षण है। ज्ञान निर्विचार होता है। वह सोचना नहीं अंतर्दृष्टि है।

सत्य के संबंध में कोई भी सिद्धांत यह अंतर्दृष्टि, इनसाइट नहीं दे सकता है। वह बौद्धिक परिग्रह होकर ही रह जाता है। वह स्मृति का अंश बन जाता है, ज्ञान नहीं बन सकता। सिद्धांत सिखाए जा सकते हैं, पर उनसे किसी का व्यक्तित्व परिवर्तित नहीं होता। वस्त्रों की भांति वह ऊपर से भेद ला देते हैं, पर भीतर जो था वह वैसा का वैसा ही बना रहता है। अंतस उनसे अछूता ही रह जाता है, केवल आवरण नये रूप—रंग ले लेता है। इसी भांति व्यक्ति प्रज्ञा में तो जाग्रत नहीं होता, उलटे पाखंड, हिपोक्रेसी में पतित हो जाता है। उसके’ होने’ और’ जानने’ में एक खाई बन जाती है। वह होता कुछ है, जानता कुछ है। उसके दो व्यक्तित्व हो जाते हैं। अंतस और आवरण में विरोध और द्वैत आ जाता है। इसकी स्वाभाविक परिणति ही पाखंड है। ऐसा व्यक्ति जो उसके अंतस में नहीं है उसे दिखाने में लग जाता है, और जो है उसे छिपाने में लग जाता है। यह अभिनय धार्मिकता नहीं है। और इससे दूसरों का नहीं, स्वयं का ही जीवन नष्ट होता है।

यह आत्म—वंचना है। पर इसे ही धार्मिकता समझा और समझाया जाता है। सिद्धांतों की कोरी बौद्धिक शिक्षा केवल इतना ही कर सकती है। उससे आवरण परिवर्तन हो सकता है। आत्म—क्रांति के लिए कुछ और दिशा चाहिए। वह दिशा सिद्धांत की नहीं, साधना की है। वह दिशा उपदेश की नहीं, उपचार की है। वह दिशा सत्य के संबंध में विचारणा की नहीं, सत्य के प्रति आंख खोलने की है।

धर्म आंख खोलने की विधि है। आंख खुल जाए तो’ जो है’ उसका दर्शन सहज है। पर सिद्धांतों से आंखें नहीं खुलती हैं, विपरीत जो उनकी मूर्च्छा में पड़े रहते हैं, वे भूल ही जाते हैं कि उनकी स्वयं की आंखें अभी बंद हैं और वे जिन सत्यों की चर्चा कर रहे हैं, वे उनकी स्वयं की नहीं, किन्हीं अन्य की आंखों से देखे गए हैं।

पर, दूसरे की आंख से देखा गया सत्य वैसा ही है जैसे दूसरे के द्वारा किया गया भोजन। उसकी सार्थकता किसी दूसरे के लिए कुछ भी नहीं है। सत्य की अनुभूति अत्यंत वैयक्तिक और निजी है और उसे कोई भी किसी दूसरे को हस्तांतरित नहीं कर सकता है।

वह ली—दी नहीं जा सकती है। उसे तो स्वयं ही पाना होता है। उसकी चोरी का या उसे दान में पाने का कोई मार्ग नहीं है। वह संपत्ति नहीं है, स्वत्व है।

सत्य संपत्ति नहीं, स्वत्व है, इसलिए अहस्तांतरणीय, अनट्रांसफरेबल है। आज तक उसे किसी ने भी किसी को नहीं दिया है और न भविष्य में ही कोई कभी उसे किसी को दे सकेगा। क्योंकि जिस दिन भी वह दिया जाएगा, उसी दिन सत्य नहीं, वस्तु हो जाएगा। वस्तु ली—दी जा सकती है। सत्य को स्वयं में और स्वयं से ही पाना होता है।

वह वस्तुत:’ पाना’ भी नहीं है, वह’ होना’ है। वह हमारी स्व—सत्ता है। उसे सीखने का प्रश्न कहां है? उसे तो उघाड़ना है। सीखने, लर्निंग से तो और पर्तें बनती हैं, और स्व आच्छादित होता है। बाहर से जो भी सीख, टीचिंग मिलती है, वह आवृत्त ही करती है। बाहर से जो भी आएगा वह आवृत्त ही करेगा। बाहर से आवरण ही हो सकता है।

विचारों के वस्त्र’ स्व’ को ढांकते जाते हैं। इन सब वस्त्रों को छोड़ कर नग्न होना होता है। स्वयं को जानने को सब वस्त्र छोड़ देने होते हैं। सीखना नहीं, अनसीखना, अनलर्निग करना होता है। बाहर से आए हुए अतिथि जब नहीं होते हैं, तब वह जाना जाता है, जो कि अतिथि, गेस्ट नहीं, आतिथेय, होस्ट है।

सत्य तो नहीं सिखाया जा सकता, पर सत्य को जानने की विधि सिखाई जा सकती है। आज इस विधि की कोई चर्चा नहीं है। सत्य की चर्चा तो बहुत है, पर सत्य—दर्शन की विधि की चर्चा नहीं है।

इससे बड़ी भूल नहीं हो सकती है।

यह तो प्राण को छोड़ देह को पकड़ लेने जैसा ही है। इसके परिणाम स्वरूप ही धर्म तो बहुत हैं, धर्म नहीं है। आज जो संप्रदाय धर्म के नाम पर चलते दिख रहे हैं, वे धर्म नहीं हैं। धर्म तो एक ही हो सकता है। उसमें विशेष नहीं लग सकता। वह तो विशेषण—शून्य है।

धर्म—’ यह’ धर्म और’ वह’ धर्म नहीं हो सकता है। जहां’ यह’ और’ वह’ है, वहां धर्म नहीं है।

सत्य के संबंध में सिद्धांतों के कारण, इन संप्रदायों का जन्म हुआ है। सिद्धांतों पर जब तक जोर और आग्रह है, तब तक संप्रदाय भी बने ही रहेंगे। सिद्धात शब्द—आग्रह है। इन्हीं शब्दों के केंद्र पर संप्रदाय बनते हैं। इन शब्दों पर संघर्ष चलता है और वैमनस्य और विद्वेष पलता है। ये शब्द मनुष्य को मनुष्य से तोड़ देते हैं। और कैसा आश्चर्य है कि विश्वास किया जाता है कि जो मनुष्य को मनुष्य से तोड़ रहा है, वह मनुष्य को परमात्मा से नहीं जोड़ सकेगा?

जो मनुष्य को मनुष्य से तोड़ता है, वह न तो उसे स्वयं से जोड़ सकता है और न सत्य से जोड़ सकता है। धर्म का सिद्धांतों में यह विघटन सिद्धांतों के कारण हुआ है, शब्दों के कारण हुआ है, विश्वासों और मान्यताओं के कारण हुआ है।

यह विघटन ज्ञान पर नहीं, अज्ञान पर आधारित है। सत्य का कोई संप्रदाय नहीं है, सब संप्रदाय सिद्धांतों के हैं। सत्य—बोध— संप्रदाय—मुक्ति बन जाता है। उसी क्षण धर्म में प्रवेश होता है—उस धर्म में, जो न हिंदू है, न जैन है, न ईसाई है, जो मात्र धर्म है, जो मात्र प्रकाश है, जो मात्र चैतन्य है।

धर्म स्वरूप—साक्षात है। संप्रदाय धार्मिक नहीं हैं। धर्म का संगठन से क्या वास्ता? सब संगठन, ऑर्गनाइजेशन राजनैतिक और सामाजिक हैं। संगठन मात्र सांसारिक हैं। वे एक दूसरे के भय पर खड़े होते हैं। और जहां भय है, वहां घृणा है। उसका जन्म सत्य से नहीं, सुरक्षा के लिए होता है। राष्ट्र हों, समाज हों, या संप्रदाय हों, वे सब भय से उत्पन्न होते हैं। और जो भय से उत्पन्न होता है, उसकी सार्थकता यही है कि वह दूसरों में भय उत्पन्न करे।

सारे संप्रदाय यही करते हैं। वे किसी को धार्मिक नहीं बनाना चाहते हैं। वे सब अपनी संख्या बढ़ाना चाहते हैं क्योंकि संख्या शक्ति है और सुरक्षा का आश्वासन है। वह आत्म—रक्षा भी है और आक्रमण की क्षमता भी है। संप्रदाय यही करते रहे हैं, कर रहे हैं, और करते रहेंगे। उन्होंने मनुष्य को धर्म से जोड़ा नहीं, तोड़ा है। धर्म एक सामाजिक घटना नहीं, एक अत्यंत वैयक्तिक क्रांति है। उसका दूसरों से कोई संबंध नहीं, स्वयं से ही संबंध है। व्यक्ति दूसरों के साथ क्या करता है इससे नहीं, उसका संबंध इस बात से है कि व्यक्ति स्वयं अपने साथ क्या करता है?

‘मैं’ अपने निपट अकेलेपन में, अपने साथ क्या करता हूं—इस बात का संबंध धर्म से है।

मैं अपने निपट अकेलेपन में क्या हूं यह जानना है। मैं क्या हूं यह जानना है। मेरी सत्ता का बोध ही मुझे धर्म में ले जाएगा। और कोई मार्ग धर्म में नहीं ले जाता है। कोई मंदिर, कोई मस्जिद, कोई शिवालय, कोई चर्च मुझे वहां नहीं पहुंचाते, जहां मैं हूं। वहा जाने के लिए बाहर की कोई सीढ़ियां पार नहीं करनी हैं। सब शिवालय बाहर हैं, सब मंदिर संसार के हिस्से हैं। उनके द्वार’ स्व’ तक पहुंचाने में समर्थ नहीं हैं। बाहर की गई कोई भी यात्रा, तीर्थयात्रा नहीं है। वह तीर्थ तो भीतर है जहां धर्म का अनुभव होता है और उस रहस्य का, उस आनंद का, उस सौंदर्य का, उस जीवन का उदघाटन होता है, जिसे पाए बिना सब दुख है, सब व्यर्थ है और सब अर्थहीन, मीनिंगलेस है।

‘मैं’ को जानने को बाहर नहीं, भीतर चलना है। पर मनुष्य की सारी इंद्रियां उसे बाहर ले जाती हैं। वे सब बहिर्गामी हैं। उसकी आंखें बाहर देखती हैं, उसके हाथ बाहर फैलते हैं, उसके चरण बाहर चलते हैं। उसका मन भी बाहर को ही प्रतिबिंबित और प्रतिध्वनित करता है। और यही कारण है कि उसने भगवान की मूर्तियां बना ली हैं, और सत्य के मंदिर खड़े कर लिए हैं। ताकि उसकी आंखें भगवान के दर्शन कर सकें और उसके चरण सत्य की यात्रा कर सकें! यह आत्म—वंचना स्वयं हमने कर ली है। और यह विष स्वयं हमने अपने हाथों पी लिया है और इस वंचना और इस विष की मूर्च्छा में हम अपना सारा जीवन व्यय और व्यतीत कर देते हैं। इंद्रियों की सुविधा के लिए हमने धर्म की, बाहर ही कल्पना और सृष्टि कर ली है, जब कि धर्म को जानने को हमें इंद्रियों के पीछे जाना जरूरी है। जो ज्ञान, जो चेतना इंद्रियों के माध्यम से जगत को जानती है, उसे ही स्वयं जानना हो तो इंद्रियां माध्यम नहीं हो सकतीं। जो जान रहा है, जो ज्ञान है, वह स्वयं ही ज्ञेय की भांति नहीं जाना जा सकता।

जो द्रष्टा है, जो दर्शन की शक्ति है, उसका स्वयं दृश्य की भांति दर्शन नहीं हो सकता है। विषय, सब्जेक्ट कभी भी विषयी, ऑब्जेक्ट में परिणत और पतित नहीं हो सकता। यह सरल सी, सीधी सी बात ध्यान में न आने से सारी भूल हो गई है। परमात्मा की खोज होती है, जैसे वह कोई बाह्य वस्तु है। उसे पाने के लिए पर्वतों और वनों की यात्राएं होती हैं, जैसे वह कोई बाह्य व्यक्ति है। यह सब कैसा पागलपन है? उसे खोजना नहीं है। जो खोज रहा है, उसे ही जानने से वह मिल जाता है। वह वहीं है। खोज में नहीं, खोजने वाले में ही वह छिपा है।

सत्य आपके भीतर है। सत्य मेरे भीतर है। वह कल आपके भीतर नहीं होगा, वह इसी क्षण अभी और यहीं आपके भीतर है। ’मैं हूं’ यह होना ही मेरा सत्य है। और जो भी मैं देख रहा हूं वह हो सकता है कि सत्य न हो, हो सकता है कि वह सब स्वप्न ही हो, क्योंकि मैं स्वप्न भी देखता हूं और देखते समय वे सब सत्य ही ज्ञात होते हैं। यह सब दिखाई पड़ रहा संसार भी स्वप्न ही हो सकता है। आप मेरे लिए स्वप्न हो सकते हैं। हो सकता है कि मैं स्वप्न में हूं और आप उपस्थित नहीं हैं। लेकिन देखने वाला द्रष्टा असत्य नहीं हो सकता है। वह स्वप्न नहीं हो सकता है, अन्यथा स्वप्न देखना उसे संभव नहीं हो सकता था।

स्वप्न ही स्वप्न को नहीं देख सकता है। असत्य ही असत्य को नहीं जान सकता है। स्वप्न देखने को कोई चाहिए जो कि स्वप्न न हो। असत्य दर्शन को भी सत्य द्रष्टा अपरिहार्य है। इसलिए मैं कहता हूं कि मैं सत्य हूं। सत्य ही मेरा होना, बीइंग है। इसे खोजने कहीं नहीं जाना है। इसे अपने में ही खोज लेना है। कुआं खोदते हैं न? वैसे ही इसे भी खोद लेना है। मिट्टी की कुछ पर्तें जल—स्रोत को दबाए रहती हैं, उन पर्तों को हटाना भर है और जल—स्रोत उपलब्ध हो जाते हैं। स्वयं को कुछ’ पर’ की, अन्य की पर्तों ने दबा रखा है। उन्हें तोड़ना भर है— और वह उपलब्ध हो जाता है जिसकी कि जन्म—जन्म से खोज थी। और जिसका पाना नहीं हो सका है, क्योंकि उसे हम दूर खोजते रहे हैं जब कि वह निकट ही है— जब कि वह वही है, जो कि खोज रहा है।

आत्मा का कुआं खोदना है। उस खुदाई का उपकरण ध्यान, मेडिटेशन है। ध्यान की कुदाली से स्वभाव पर बैठी’ पर— भाव’ की मिट्टी की पर्तें खोदनी होती हैं। यही उपचार है। इसकी ही मैं चर्चा करना चहता हूं। स्वभाव पर, मेरी स्व—सत्ता पर किसका आच्छादन है, यह जानना सबसे पहले जरूरी है। वह क्या है जो मुझे मुझसे ही छिपाए हुए है?

क्या आपको दिखता है? क्या आच्छादन समझ में नहीं आता है? जब भीतर जाते हैं तो किसे पाते हैं? ह्यूम ने कहा है, ’जब भी मैं भीतर गया तो विचारों और विचारों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया।’ उसे कोई आत्मा नहीं मिली। ऐसे तो आपको भी नहीं मिलेगी। वह आच्छादन से ही लौट आया था। वह उस खोल से ही लौट आया, जिसे तोड़ कर ही भीतर जो है उसके दर्शन किए जा सकते हैं।

जैसे कोई किसी झील पर जाए और उसकी सतह पर आच्छादित काई और पत्तों को देख कर लौट आए और कहे कि वहां तो कोई झील ही नहीं है—साधारणत ऐसा ही होता है। भीतर तो हम रोज आते हैं पर उन विचार—वस्त्रों को देख कर ही लौट आते हैं जो कि सतत ही वहां मौजूद हैं। विचार के अतिरिक्त आप कुछ नहीं जानते हैं। वही आपका संसार है। और जो केवल विचारों में ही जीता है, वही संसारी है। विचारों के पार किसी को जानना, धार्मिक होने का प्रारंभ है।

निर्विचार को जानना धर्म में प्रवेश है। यह हो सकता है कि आपके विचार संसार के न हों— आत्मा के हों, परमात्मा के हों, और आप भ्रम में हों कि आप धार्मिक हैं। मैं आपके इस भ्रम को तोड़ देना चाहता हूं। विचार मात्र आच्छादन है। विचार मात्र विकार है, क्योंकि विचार मात्र बाह्य है। कोई विचार स्व का नहीं होता है। स्व का विचार नहीं होता, ज्ञान होता है।

विचार का आच्छादन है—निर्विचार से उदघाटन हो सकता है। निर्विचारणा ध्यान है। जब कोई विचार नहीं होता है, तब हम उसे जानते हैं जो कि विचारों में छिपा हुआ था। बदलिया जब नहीं होती हैं, तब नीलाकाश प्रकट होता है।

मित्र! एक आकाश भीतर भी है—विचार की बदलियों को विदा करना है, ताकि वह जाना जा सके। यह हो सकता है, जब आंख शांत होती है और उसमें कोई विचार नहीं होता है, तभी उस मौन में, उस प्रगाढ़ निर्विचार, निर्विकल्प अवस्था में सत्य का दर्शन होता है।

क्या करें कि यह हो? एक बहुत सरल सी बात करनी है, पर वह बहुत कठिन मालूम होगी, क्योंकि हम बहुत जटिल हैं। एक अभी—अभी जन्मे बच्चे को जो संभव है, वही हमें असंभव हो गया है। फिर से जगत को और स्वयं को वैसे देखना है जैसा कि अभी—अभी जन्मा बच्चा देखता है। वह केवल देखता है और सोचता नहीं है। वह केवल देखता है। यह’ केवल देखना’, जस्ट सीइंग अदभुत है। यह वह रहस्य—कुंजी है जिससे सत्य का द्वार खोला जा सकता है।

मैं आपको देख रहा हूं। मैं बस देख रहा हूं। देखते हैं—मैं सोच नहीं रहा हूं। और तब एक अपूर्व सन्नाटा, एक जीवित शांति भीतर अवतरित हो जाती है। तब सब देखा जाता है, तब सुना जाता है। पर भीतर कुछ कंपित नहीं होता है और भीतर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है। विचार नहीं होते हैं और केवल दर्शन होता है।

सम्यक दर्शन, राइट अवेयरनेस ध्यान की विधि, मेथड ऑफ मेडिटेशन है। देखना है, मात्र देखना है, जो बाहर है उसे और जो भीतर है उसे भी। बाहर वस्तुएं हैं, भीतर विचार हैं। इन्हें देखना है, ऐसे ही जैसे हम सब निष्प्रयोजन उन्हें देख रहे हैं। कोई प्रयोजन नहीं है, बस देख रहे हैं। एक साक्षी, विटनेस मात्र हैं— तटस्थ साक्षी हैं। और देख रहे हैं। निरीक्षण, यह सजगता क्रमश: शांति में, शून्य में, निर्विचार में ले जाती है। करें और जानें। विचार जैसे—जैसे विलीन होते हैं, वैसे—वैसे चेतना जागती और जीवित होती है। कहीं भी, कभी भी— अनायास दो क्षण को रुक जाएं और देखें—सुनें—साक्षी हों— जगत के और स्वयं के। सोचें नहीं, साक्षी हों। और फिर देखें कि क्या होता है? फिर इस साक्षीभाव को फैलने दें। वह आपकी सारी शारीरिक और मानसिक क्रियाओं में उपस्थित हो। वह सतत साथ हो—वह होगा तो आप मिट जाएंगे और उसका दर्शन होगा जो कि वस्ततुः आप हैं।’मैं’ तो मिट जाता है। और मैं मिल जाता है।

साक्षी—साधना में, तटस्थ द्रष्टा के निरीक्षण में, उस पर से जिसके कि हम साक्षी हैं, उस पर अनायास संक्रमण, ट्रांसफॉर्मेशन, परिवर्तन हो जाता है जो कि साक्षी है। विचारों को देखते—देखते ही उसकी झलकें आने लगती हैं जो कि उन्हें देख रहा है— और फिर जब एक दिन वह अपनी पूरी गौरव गरिमा में प्रकट होता है तो हमारी सारी दरिद्रता और दीनता मिट जाती है।

यह साधना ऐसी नहीं है कि कभी की— और मुक्त हुए। इसे तो सतत और अहर्निश साधना है। वह क्रमश: सारे समय पर व्याप्त हो जाती है। साक्षीभाव को करते—करते—उस भाव में जाते—जाते वह भाव घिर हो जाता है— वह भाव निरंतर उपस्थित रहने लगता है। उठते—बैठते, चलते—रुकते वह मौजूद रहता है। धीरे— धीरे जागते— सोते भी रहने लगता है। निद्रा में भी वह बना रहता है— और जब वह निद्रा में भी बना रहने लगे तो जानना चाहिए कि वह प्रगाढ़ हुआ है— और उसने भीतर प्रवेश किया है। अभी तो हम जागे हुए भी सोए हैं— तब सोए हुए भी जागे रहते हैं।

साक्षीभाव की साधना जागरण से विचार और निद्रा से स्वप्न को विसर्जित कर देती है। विचार और स्वप्न—शून्य चित्त अपनी तरंगें खो देता है। वह निस्तरंग होता है और निष्कंप— जैसे किसी सागर पर लहरें न हों और वह निस्तरंग, वेवलेस होता है और जैसे किसी ऐसे गृह में जहां हवा के झोंके नहीं होते हैं तो दीये की लौ निष्कंप होती है। इस स्थिति में जाना जाता है— जो स्व है, जो मैं हूं जो सत्य है। और प्रभु के भवन के द्वार खुलते हैं।

शास्त्रों में, शब्दों में नहीं, स्वयं में यह द्वार है। इसलिए मैंने कहा कि कहीं और न खोजें वरन अपने में ही खोजें। कहीं न जाएं, स्वयं में जाएं। इस जाने के लिए मैंने विधि को समझाया है।

आपकी आंखों में आई शांति और चमक से मैं समझता हूं कि आप समझे हैं। पर इतनी समझ ही काफी नहीं है। बौद्धिक समझ, अंडरस्टैंडिंग पर्याप्त नहीं है—वह नहीं, आत्मिक अनुभूति, एक्सपीरियंस ही सत्य जीवन का आधार बनती है। जो मैंने कहा है, उस दिशा में थोड़ा चल कर देखें—उस दिशा में थोड़ा होकर देखें। आप थोड़ा ही चलें तो बहुत पहुंच जाएंगे, क्योंकि सत्य की ओर चलने पर जैसे—जैसे हम उसके निकट होते हैं वैसे— वैसे उसका गुरुत्वाकर्षण, ग्रेविटेशन भी प्रभावी होता जाता है, और हम चलते ही नहीं, खींच भी लिए जाते हैं। और अंत में इतना स्मरण रखें कि जो चलते हैं वे अवश्य पहुंच जाते हैं।

परमात्मा की ओर उठाया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। मैं इस सत्य की गवाही दे रहा हूं।

मैं चाहता हूं कि एक क्षण भी उस सत्य को जानें और गवाही दे सकें। वह निकट ही है— केवल आपके जागने भर की बात है। सूरज तो निकला ही हुआ है— केवल आप आंख भर खोल लें! इस आंख खोलने के लिए ही मैं आमंत्रण दे रहा हूं—क्या आप मेरी पुकार सुनेंगे और आंख खोलेंगे? यह निर्णय और संकल्प आप पर और केवल आप पर ही निर्भर है।

 

आज इतना ही।


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साधना–सूत्र–(प्रवचन–14)

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अंतरात्‍मा का सम्‍मान—(प्रवचन—चौहदवां)

सूत्र:

9—अपनी अंतरात्मा का पूर्णरूप से सम्मान करो।

क्योंकि तुम्हारे हृदय के द्वारा वह प्रकाश प्राप्त होता है,

जो जीवन को आलोकित कर सकता है

और उसे तुम्हारी आंखों के समक्ष स्पष्ट कर सकता है।

समझने में कठिन केवल एक ही वस्तु है—

स्वयं तुम्हारा अपना हृदय।

जब तक व्यक्तित्व के बंधन ढीले नहीं होते,

तब तक आत्मा का गहन रहस्य खुलना आरंभ नहीं होता है।

जब तक तुम उससे अलग एक ओर खड़े नहीं होते,

तब तक वह अपने को तुम पर प्रकट नहीं करेगा।

तभी तुम उसे समझ सकोगे और उसका पथ—प्रदर्शन कर सकोगे,

उससे पहले नहीं। तभी तुम उसकी समस्त शक्तियों का उपयोग कर सकोगे

और उन्हें किसी योग्य सेवा में लगा सकोगे, उससे पहले नहीं।

जब तक तुम्हें स्वयं कुछ निश्चय नहीं हो जाता,

तुम्हारे लिए दूसरों की सहायता करना असंभव है।

जब तुमको आरंभ के पंद्रह नियमों का ज्ञान हो चुकेगा

और तुम अपनी शक्तियों को विकसित

और अपनी इंद्रियों को उन्मुक्त करके ज्ञान—मंदिर में प्रविष्ट हो जाओगे,

तब तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम्हारे भीतर एक स्रोत है,

जहां से वाणी मुखरित होगी।

ये बातें केवल उनके लिए लिखी गयी हैं,

जिनको मैं अपनी शांति देता हूं और जो लोग,

जो कुछ मैंने लिखा है

उसके बाह्य अर्थ के अतिरिक्त उसके भीतरी अर्थ को भी साफ समझ सकते हैं।

जारों—हजारों वर्ष की धारणाओं ने तुम्हारे मनों को इस भांति विकृत कर दिया है, कि जो भी तुम देखते हो, वह निसर्ग का सत्य नहीं होता, तुम्हारी अपनी धारणाओं से देखा गया विकृत रूप होता है। फिर उससे तुम जो भी निर्णय लेते हो, वे भ्रांति में ले जाते हैं।

और जीवन को बदला जा सकता है निसर्ग की सहायता से, निसर्ग के विपरीत नहीं। क्योंकि तुम निसर्ग से ही निर्मित होते हो, उसके विपरीत बहने का कोई भी उपाय नहीं है।

तुम जिस प्रकृति में खड़े हो, उसको ही संस्कारित किया जा सकता है। उस प्रकृति के नियमों के ही माध्यम से तुम उसके पार भी जा सकते हो। सीढ़ी के सहारे ही आदमी पार भी चला जाता है। रास्ते के सहारे ही आदमी मंजिल तक पहुंच जाता है, रास्ते को छोड़ देता है। लेकिन रास्ते के विपरीत चल कर कोई मंजिल तक नहीं पहुंचता। लेकिन तर्क में भ्रांति हो सकती है। अगर मैं आपसे कहूं कि यह रास्ता मंजिल तक पहुंचा देगा, लेकिन ध्यान रखना, मंजिल पर जब पहुंचोगे तो इस रास्ते को छोड़ देना होगा; क्योंकि अगर तुमने रास्ते को पकड़ लिया तो मंजिल को नहीं पहुंच सकोगे। तो इसका अर्थ यह भी हो सकता है, तुम यह भी सोच सकते हो, कि जिस रास्ते को अंत में छोड़ ही देना है, उसे पहले ही क्यों न छोड़ दिया जाए। लेकिन तब तुम मंजिल तक कभी न पहुंच सकोगे।

रास्ते को पकड़ना भी होगा और छोड़ना भी होगा। प्रारंभ में पकड़ना होगा, अंत में छोड़ना होगा। लेकिन इसका उलटा अर्थ दो तरह से हो सकता है। एक तो यह कि रास्ते को पकड़े ही क्यों, जब उसे छोड़ना है। यह तर्कयुक्त लगता है, कि जो चीज छोड़ ही देनी है, उसे पकड़ना ही क्यों? लेकिन जिसे तुमने पकड़ा ही नहीं है, उसे तुम छोड़ न पाओगे। और बिना छोड़े तुम मंजिल तक न पहुंचोगे। इसका दूसरा उपद्रव भी संभव है। और वह यह कि जिस रास्ते को पकड़ा है, उसको छोड़ेंगे नहीं। जब पकड़ ही लिया है तो फिर छोड़ना क्या? तब भी तुम मंजिल तक न पहुंच पाओगे। रास्ता मंजिल तक ले जाता है, मंजिल में नहीं ले जाता। और जब तुम रास्ते को छोड़ देते हो, तो मंजिल में प्रवेश होता है।

सीढ़ियां छत तक ले जाती हैं, छत में नहीं ले जातीं। अगर तुम सीढियों पर ही खड़े रहो तो तुम छत के पास पहुंच गए, लेकिन छत पर नहीं पहुंचे। लेकिन सीढ़ियों को अगर तुम पहले ही छोड़ दो, तो तुम छत के पास भी न पहुंच सकोगे। सीढ़ियां छोड़नी पड़ती हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि तुम सीढियों के दुश्मन हो जाओ। सीढ़ियां पकड़नी पडती हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि सीढ़ियों के तुम प्रेमी हो जाओ। सीढ़ियों का उपयोग करना है।

निसर्ग सीढ़ी है, वहां तुम खड़े हो। इस निसर्ग के लिए यह सूत्र है। पहला सूत्र था, जीवन का सम्मान करो। वह निसर्ग का सम्मान है। और उसे समझो, अगर पार जाना है। पार जाना है जरूर। क्योंकि निसर्ग में ही रह कर तुम परम आनंद को उपलब्ध न हो सकोगे। निसर्ग में सुख और दुख दोनों होंगे।

निसर्ग द्वंद्व है, वह द्वंद्व पर ही खड़ा है। वहां सुख भी मिल सकता है, दुख भी मिलेगा। और जिस अनुपात में तुम सुख चाहोगे, उसी अनुपात में दुख मिलेगा। और जिस अनुपात में तुम सुख पाने में समर्थ हो जाओगे, उसी अनुपात में तुम दुख पाने में भी समर्थ हो जाओगे। निसर्ग तो द्वंद्व है। और द्वंद्व के पलड़े सदा समान बने रहते हैं, समतुल रहते हैं। नहीं तो निसर्ग विकृत हो जाए, अस्तव्यस्त हो जाए। तो तुम एक तरफ जो कमाते हो, उससे विपरीत भी तुम कमा रहे हो। अगर तुम यश चाहते हो तो अपयश तुम्हारे साथ ही बढ़ रहा है। वह साथ ही चलेगा। अगर तुम स्वास्थ्य चाहते हो तो बीमारी तुम्हारे साथ ही खड़ी है। अगर तुम जीवन चाहते हो तो तुम्हें मृत्यु को भी स्वीकार करना होगा। निसर्ग में रह कर सुख—दुख दोनों मिलेंगे। वह द्वंद्व है। पार तो जाना ही है, क्योंकि द्वंद्व ही तो उपद्रव है। और उस घड़ी को तो उपलब्ध करना है, जहां द्वंद्व खो जाए।

जहां सुख—दुख दोनों खो जाते हैं, उस घड़ी को हमने आनंद कहा है, उस घड़ी को हमने शांति कहा है, उस घड़ी को हमने मुक्ति कहा है। मुक्ति का अर्थ है, द्वंद्व के बाहर। जहां दो नहीं दबाते, जहां दोनों तरफ से विपरीत तुम्हें नहीं कसते। जहां विपरीत तुम्हें खींचते नहीं। जहां किनारे खो जाते हैं और नदी सागर में लीन होती है। किनारों के सहारे ही लेकिन नदी सागर तक आती है। इसलिए किनारे मित्र हैं और सागर तक उनका उपयोग करना है। लेकिन किनारे इतने मित्र नहीं हैं कि सागर में गिरने से तुम रुक जाओ और किनारों को पकड़ कर ठहर जाओ।

तो निसर्ग का सम्मान, जीवन का सम्मान। और जीवन के नियमों का समझपूर्वक उपयोग।

एक मित्र मेरे पास आए। युवा हैं, स्वभावत: स्त्रियों में रस होगा। लेकिन हजारों साल की मन में धारणा है। बचपन से साधु—सत्संग में पड़ गए होंगे, तो खयाल भी आया कि यह पाप है। जितना खयाल आया कि स्त्री के प्रति रस लेना पाप है, उतना ज्यादा रस बढ़ता गया। स्त्रियों से भागने भी लगे। लेकिन जितना भागने लगे, उतना उद्दाम वेग होने लगा। भीतर दबाने लगे वासना को, तो वासना और भी नए—नए रूपों में खड़ी होने लगी। दिन में विचार; रात में स्वप्न; सब वासना से भर गए। फिर किसी महात्मा के पास गए, तो महात्मा ने कहा कि स्त्री में मां को देखो। तो बड़ी मुश्किल थी, कैसे स्त्री में मां को देखो! और वह जो प्रबल वेग था वासना का, वह धक्के मार रहा है। तो महात्मा ने सहायता के लिए उनको कहा कि फिर तुम ऐसा करो, अगर स्त्री में मां को नहीं देख सकते, तो तुम देवी की पूजा करो। देवी में मां को देखो। और धीरे— धीरे जब तुम्हारा देवी में भाव दृढ़ हो जाएगा, तो तुम देवी को ही सभी स्त्रियों में भी देख सकोगे।

महात्मा का प्रयोजन ठीक ही था। सहायता की ही इच्छा थी। लेकिन बिना समझ के सहायता भी नहीं की जा सकती। और जीवन जटिल है। और जीवन के नियमों को समझे बिना आप शुभ इच्छा से भी कुछ सहायता करें, तो भी अशुभ ही फलित होगा।

परिणाम आप सोच भी नहीं सकते। परिणाम यह हुआ कि उस व्यक्ति ने देवी की पूजा शुरू कर दी और देवी का चित्र अपने साथ रखने लगा। जो परिणाम न महात्मा ने सोचा था, न महात्मा कभी सोच पाते हैं। परिणाम यह हुआ कि अब देवी के प्रति ही वासना खड़ी हो गई। और रात स्वप्न में देवी से ही काम—संबंध स्थापित होने लगा। तो बेचारा घबड़ा गया। जो काम को ही पाप समझता था, वह देवी के साथ कामवासना का भाव आ जाए, तो भयंकर पाप से भर गया कि अब तो मैं मरा, अब तो मेरे बचाव का कोई उपाय ही न रहा। उस व्यक्ति ने मुझे आ कर कहा कि मैं ऐसा पाप कर रहा हूं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। मैं देवी का खयाल करता हूं तो भी कामवासना ही उठती है!

तो मैंने उसको कहा कि जिनसे तुमने सहायता ली है, उनके पास समझ नहीं है। यही होने वाला था। कामवासना को समझ कर उससे पार हुआ जा सकता है। यह तो नासमझी का काम है कि स्त्रियों को मां समझ लो। समझ लेने से क्या होगा? कि देवी के प्रति आरोपित कर लो अपने को! तो तुम्हारे भीतर जो है, वही तो आरोपित होगा। जो तुम्हारे भीतर नहीं है, वह आरोपित कहां से होगा। देवी थोड़े ही सवाल है, सवाल तो तुम हो। भीतर तो कामवासना धक्के मार रही है। और कामवासना इतनी प्रबल है कि तुम जहां भी जाओगे, वह वहीं आरोपित हो जाएगी। तो एक पाप से छूटने को और बड़ा पाप हो गया। और अब वह व्यक्ति इतना दीन और दुर्बल हो गया, क्योंकि उसे लग रहा है कि देवी नाराज हो जाएगी। मैंने कहा, कोई देवी नाराज नहीं होगी। देवी तुम्हारे महात्माओं से ज्यादा समझदार है। तुम फिकर न करो, कोई नाराज नहीं हो जाएगा।

लेकिन अब इस आदमी की पीड़ा आप समझ सकते हैं कि यह आदमी नरक में पड़ गया है। और कोई भी महात्मा को जिम्मेदार नहीं ठहराएगा कि उसने इसको नरक में डाला है। उसने ही डाला है। और जिस महात्मा ने इसको इस नर्क में डाला है, वह खुद भी इसी तरह के नर्क में होगा। नहीं तो इस तरह की समझ, इस तरह की सहायता, जो बिलकुल नासमझी से भरी है और अज्ञान से भरी है, कभी भी पैदा नहीं हो सकती।

अब मैं इस व्यक्ति को क्या कहूं? मैं इसको नहीं कहूंगा कि तू ऐसा कर। मैं इससे कहूंगा कि बजाय इस तरह की विकृतियों में पड़ने के, तू किसी स्त्री से प्रेम कर। और घबरा मत। और अपने प्रेम को स्वाभाविक कर। यह देवी वाला प्रेम घातक है, क्योंकि अस्वाभाविक है और कल्पनाजन्य है। तू वास्तविक स्त्री के प्रेम में ही उतर और घबरा मत। और प्रेम में ही उतर कर प्रेम को समझ कि प्रेम क्या है? तो तेरा सारा प्रेम पहले तो प्राकृतिक होना जरूरी है विकृति से। क्योंकि प्रकृति के सहारे फिर पार जाया जा सकता है। फिर तू प्रेम को ध्यान बना। और फिर प्रेम को तू जितना शुद्ध कर सके, उतना शुद्ध कर। और जितना प्रेम को ध्यानपूर्ण कर सके, उतना ध्यानपूर्ण कर। और प्रेम तेरे जीवन में पाप की तरह न रहे, पुण्य की तरह हो जाए, उस भाव से जी।

और अपराध मत समझ! क्योंकि जो वासना है, वह भी प्रभु—प्रदत्त है। वह भी परमात्मा ने तुझे दी है। और कोई महात्मा, जो परमात्मा ने दिया है उसे छीन नहीं सकता। कोई उपाय नहीं है। जो तुझे प्रकृति से मिला है, उसका तू सम्यक उपयोग कर और उससे पार उठ। लेकिन पार दुश्मन की तरह तू न उठ सकेगा। ये दुश्मनी की तो इस तरह के परिणाम होंगे। दुश्मनी कहां तक पहुंच जाती है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।

विक्टोरिया के जमाने में इंग्लैंड में घरों में लोग कुर्सियों की टांग पर भी कपड़ा बांधते थे, कि नंगी टांग से कामवासना पैदा होती है! कुर्सी की टांग! अगर किसी घर में आप जाते और आपको नंगी कुर्सी मिल जाती, तो आप समझते कि यह आदमी अशोभन काम कर रहा है, कुर्सी की टांग नंगी है! विक्टोरिया बहुत सख्त थी इस मामले में। यह अनीति का काम था। तो घर—घर में लोग कुर्सी रखते थे और उसमें टांग पर कपड़ा रखते थे। अब टांग पर कपड़ा डाला हो तो ज्यादा कामवासना का खयाल आता है कि यह क्या बेवकूफी है?

लेकिन ऐसा कोई विक्टोरिया के जमाने में था ऐसा नहीं, ऐसे लोग सब तरफ मौजूद हैं। अभी भी इंग्लैंड में स्त्रियों का एक समाज है—वे स्त्रियां जरूर ही प्रेम से वंचित रही होंगी और उनके जीवन में प्रेम का कोई अनुभव न होगा—उनका एक समाज है, वह उसका प्रचार करता है कि सड़क पर जानवर भी कपड़े में निकाले जाने चाहिए! कुत्ते, घोड़े, बैल, ये नंगे नहीं होने चाहिए। क्योंकि नंगे होने से कामवासना पैदा होती है! अगर आपको बैल को देख कर यह खयाल भी आता है कि बैल नंगा है, तो इसका मतलब है कि आप रुग्ण हैं। आपके भीतर कोई रोग है, आप स्वस्थ नहीं हैं। नहीं तो यह कोई सवाल नहीं है। अगर आप स्वस्थ होते तो मनुष्य को भी नग्न देख कर आप बूढ़ो कोई तकलीफ न होगी। अगर आप अस्वस्थ हों तो कुर्सी को भी नग्न देख कर तकलीफ हो सकती है। वह आपके अस्वस्थ होने का प्रतीक है।

लेकिन आप जानवरों को भी कानून बना कर कपड़े पहना सकते हैं, कुर्सियों को भी पहना सकते हैं। लेकिन यह जो मन काम में लगा हुआ है, यह मन निसर्ग के प्रतिकूल जा रहा है। और यह मन और भी जाल में पड़ जाएगा। और यह मन हिम्मत खो रहा है, और अपराधी बन जाएगा।

एक युग था इस मुल्क में कि हमने कोणार्क, खजुराहो, भुवनेश्वर और पुरी के मंदिर बनाए। बड़े हिम्मतवर लोग रहे होंगे। शानदार लोग थे, प्रकृति को पूरा स्वीकार किया था। मंदिर के बाहर की दीवाल पर नग्न चित्र खोदे थे, मैथुन—चित्र खोदे थे। संभोग की मूर्तियां बनाई थीं, मंदिर के द्वार पर, मंदिर की दीवाल पर। बहुत हिम्मतवर लोग रहे होंगे, बड़े शानदार लोग रहे होंगे। जीवन की ऐसी स्वीकृति थी कि मंदिर भी प्रकृति के ही भीतर था। मंदिर की बाहर की दीवाल पर प्रकृति थी, और मंदिर के भीतर की दीवाल पर परमात्मा था।

और खयाल यह था इन खजुराहो और कोणार्क के मंदिर बनाने वालों का, कि जब तक तुम्हारा बाहर की दीवालों में रस है, तुम भीतर प्रवेश न कर पाओगे। तो अपने रस को बाहर की दीवाल पर पूरा कर लो, इन मैथुन—चित्रों पर ध्यान कर लो। और जिस दिन तुम्हें बाहर की दीवाल में कुछ भी रस न रह जाए, और तुम बाहर की दीवाल से ऐसे गुजर जाओ, जैसे वहां कोई चित्र नहीं है, उसी दिन तुम समझना कि अब भीतर प्रवेश के अधिकारी बने, तो तुम भीतर आ जाना। लेकिन मंदिर की बाहर की दीवाल से बच कर भीतर तुम न आ सकोगे। अगर तुम्हारा रस मंदिर की बाहर की दीवाल पर है, तो तुम भीतर भी आ जाओगे, तो भी तुम्हारे मन में बाहर की दीवाल ही चलती रहेगी। उसको दबाने की जरूरत नहीं है।

मंदिर के बाहर की दीवाल पर मैथुन—चित्र खोदना, बड़े अदभुत मनोवैज्ञानिकों का काम रहा होगा। उन्होंने समझा होगा। लेकिन फिर एक कमजोरी इस मुल्क में आई। एक नपुंसकता का लंबा युग आया। मुल्क गुलाम हुआ। और इसने सारी हिम्मत खो दी। तो आखिर में परिणाम यह हुआ कि महात्मा गांधी और पुरुषोत्तमदास टंडन ने एक सुझाव रखा कि खजुराहो, और पुरी, और कोणार्क के मंदिरों को मिट्टी से ढांक कर दबा दिया जाए, चूंकि इनको देखना खतरनाक है।

एक बहादुर लोग वे थे, जिन्होंने ये मूर्तियां खोदी, उन्होंने प्रकृति को स्वीकार किया था। ये एक कमजोर लोग हैं, कमजोरी का लक्षण यह है कि इनको थोप दिया जाए! खजुराहो की मूर्तियां थोपी जा सकती हैं, मिटाई जा सकती हैं, लेकिन आदमी की प्रकृति को कैसे मिटाइएगा? आदमी की प्रकृति नहीं मिटाई जा सकती। आदमी की प्रकृति का उपयोग किया जा सकता है, विनाश नहीं किया जा सकता। स्मरण रखें एक नियम, कि जगत में कोई भी शक्ति नष्ट नहीं की जा सकती— असंभव है—सिर्फ रूपांतरण हो सकता है। निसर्ग रूपांतरित हो सकता है और ब्रह्म में लीन हो सकता है, लेकिन निसर्ग नष्ट नहीं हो सकता।

तो जीवन के सम्मान में यह महा—सूत्र खयाल में रखें कि जीवन ने जो भी दिया है बाहर और भीतर, उसका सम्मान करना। लेकिन ध्यान रहे, बाहर भी आप तभी सम्मान कर सकते हैं, जब भीतर सम्मान हो। बाहर आप उसी चीज का अपमान करते हैं, जिसका भीतर अपमान है। अगर आपके मन में भीतर किसी चीज के प्रति अपमान है तो बाहर भी अपमान होगा। और अगर भीतर सम्मान है तो बाहर भी सम्मान होगा।

आप अपने निसर्ग की खोज करना। अपने भीतर की अंतरात्मा की खोज करना, स्वभाव की खोज करना।

ध्यान रखें दो शब्द, स्वभाव और स्वरूप। स्वभाव प्रकृति है और स्वरूप ब्रह्म है। जब तक आप स्वभाव को न समझेंगे, तब तक स्वरूप में न जा सकेंगे। जैसे ही आप भीतर जाएंगे तो पहले मिलेगा, स्वभाव, निसर्ग। और भी भीतर जाएंगे तो मिलेगा, स्वरूप, निसर्ग के पार जो ब्रह्म है वह। लेकिन अगर आप स्वभाव से ही डर गए तो भीतर ही न जाएंगे। फिर आप बाहर—बाहर घूमेंगे। और अगर आप स्वभाव से डर गए, तो स्वभाव के विपरीत अपने चारों तरफ आप एक दीवाल बना लेंगे। उस दीवाल का नाम व्यक्तित्व है, पर्सनेलिटी है।

अब हम इस सूत्र को समझें।

नौवां सूत्र, ‘अपनी अंतरात्मा का पूर्ण रूप से सम्मान करो।’

सोच कर ही कठिनाई होती है, हम कहेंगे कि अपनी अंतरात्मा का तो हम सम्मान करते ही हैं। नहीं, अभी यह जो मित्र मेरे पास आए, इन्होंने अपनी कामवासना का सम्मान नहीं किया, अपमान किया, उसे दबाया, उसे नष्ट करने की कोशिश की। और अब कामवासना उनसे बदला ले रही है। देवी का सहारा लिया था उन्होंने कामवासना से मुक्त होने के लिए, अब कामवासना देवी पर ही आरोपित हो रही है। देवी कमजोर सिद्ध हो रही है, कामवासना ज्यादा बलवती सिद्ध हो रही है। यह बदला है। यह अपने स्वभाव को नहीं समझा, तो कठिनाई खड़ी होगी।

‘अपनी अंतरात्मा का पूर्ण रूप से सम्मान करो।’

जो भी तुम्हारे भीतर है। और अभी पहले तो निसर्ग से ही मुलाकात होगी। जब आप आख बंद करोगे, तो पहले आपका किससे मिलना होगा? आपके देह की प्रकृति मिलेगी। मन की प्रकृति मिलेगी। और जब इन दोनों के आप पार चले जाएंगे, तो आपको आत्मा की प्रकृति मिलेगी। ये तीन तल हैं। देह की प्रकृति है, उसका सम्मान करो।

पर हम उसका भी अपमान करते हैं! हम उपवास में रस लेते हैं या भोजन में रस लेते हैं। या तो हम भोजन में इतना रस लेते हैं कि भोजन ही हमारे लिए मृत्यु का कारण बन जाता है। वह भी शरीर का सम्मान नहीं है। जब आप ज्यादा भोजन करते हैं, तब आप शरीर का अपमान कर रहे हैं। क्योंकि जो शरीर को जरूरत नहीं है, वह आप थोप रहे हैं उस पर। आप उसके लिए जहर पैदा कर रहे हैं।

चिकित्सक कहते हैं कि दुनिया में भूख से कम लोग मरते हैं, भोजन से ज्यादा लोग मरते हैं। हालांकि ऐसा होना नहीं चाहिए, क्योंकि दुनिया में बहुत भूख है। लेकिन फिर भी चिकित्सक कहते हैं कि दुनिया में भूख से बहुत कम लोग मरते हैं, भोजन से ज्यादा लोग मरते हैं! भूखा आदमी जी सकता है, लेकिन ज्यादा भोजन किया हुआ आदमी अपने भीतर जहर इकट्ठा करता है, टॉक्सिन इकट्ठे करता है, और नष्ट होता है।

तो जो आदमी ज्यादा खा रहा है, आप यह मत समझना कि वह शरीर का प्रेमी है, वह शरीर का दुश्मन है। वह अपमान कर रहा है। शरीर की जो सहज सूचना है, उसको स्वीकार नहीं कर रहा है। जब शरीर कहता है मत खाओ, तब भी वह खाए चला जाता है। यह शरीर को नष्ट करने का एक उपाय हुआ। इस तरह का आदमी, आज नहीं कल उपवास में उत्सुक हो जाएगा। क्योंकि जिसने ज्यादा खा कर शरीर को पीडित किया है, फिर शरीर दुख देगा, बदला लेगा। तो दूसरी अति पर जाएगा, उपवास करने लगेगा। उपवास भी शरीर का अपमान है। क्योंकि जब शरीर भूखा है, तब आप उसे भोजन नहीं दे रहे हैं। एक अपमान है कि शरीर जब भूखा नहीं है, तब आप उसमें भोजन ठूंस रहे हैं। एक अपमान है कि जब शरीर भूखा है, तब आप भोजन नहीं दे रहे हैं।

सम्मान क्या है? सम्मान यह है कि शरीर की जो निसर्ग प्रकृति है, शरीर की जो सहज, स्वाभाविक मांग है, उसको उतना ही पूरा कर देना— सम्मानपूर्वक, आदरपूर्वक। क्योंकि शरीर तो एक यंत्र है। और इतना महान यंत्र है कि उसके सहारे ही तो आप संसार का अनुभव लेंगे, और उसके सहारे ही आप परमात्मा के द्वार तक पहुंचेंगे। उसके सम्मान की जरूरत है। लेकिन हमें कोई चिंता नहीं है।

हम मन का भी कोई सम्मान नहीं करते। हम मन के साथ भी उपद्रव मचाए रखते हैं। अति पर हम डोलते हैं। एक अति से दूसरी अति पर चले जाते हैं। मध्य में सम्मान है।

इसलिए बुद्ध ने तो अपने पूरे जीवन—दृष्टिकोण का नाम मष्यिम—निकाय दे दिया, मध्य—मार्ग। उन्होंने कहा, न तो यह अति न वह अति, क्योंकि दोनों में अपमान होता है प्रकृति का। तुम ठीक बीच में रुक जाना। अति पर मत जाना। तो तुम सम्मानपूर्वक रहोगे।

शरीर, मन, इनका अगर अपमान किया जाए, तो आपमें झूठा व्यक्तित्व पैदा होता है।

अंग्रेजी में शब्द है, पर्सनेलिटी। वह बहुत कीमती शब्द है। यूनान में जो नाटक होते थे, उन नाटकों में पात्रों को अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगाना पड़ता था। उस मुखौटे का नाम परसोना होता था। और उसी शब्द परसोना से पर्सनैलिटी बना है। पर्सनैलिटी का अर्थ है, ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व, ओढ़ा हुआ मुखौटा। जो आप नहीं हैं, वैसा चेहरा।

तो जो व्यक्ति अपने भीतर की प्रकृति के विपरीत होता है, अनिवार्य रूप से उसे उस प्रकृति के विपरीत एक मुखौटा निर्मित करना होता है। एक व्यक्तित्व की खोल अपने चारों तरफ बना लेता है। यह खोल अंतरात्मा से मिलन न होने देगी। निसर्ग आपके खिलाफ नहीं है, लेकिन आपका व्यक्तित्व आपके खिलाफ है। और हर आदमी व्यक्तित्व बनाए हुए है, और उसको मजबूत किए चला जाता है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आत्मा को जानना है, लेकिन व्यक्तित्व को छोड़ने की जरा भी तैयारी नहीं होती। वे अपने व्यक्तित्व को पकड़ कर ही आत्मा को पाना चाहते हैं! यह असंभव है। इस व्यक्तित्व को ठीक से समझ लेना जरूरी है, तो ही आप आत्मा की खोज में आगे बढ़ सकेंगे, अन्यथा आप हमेशा भटकते रहेंगे। क्योंकि जिसको आपने पकड़ा है, वही तो बाधा है।

ऐसा समझ लें कि एक आदमी जेल के बाहर आना चाहता है, और जेल की दीवालों को जोर से पकडे हुए है, और कहता है कि ये दीवालें मैं कभी न छोडूंगा, क्योंकि इन दीवालों के साथ मैं इतने दिन रहा हूं। अपनी ही जंजीरों को तोड्ने के लिए राजी नहीं है! कहता है, ये मेरे आभूषण हैं, ये बड़े कीमती हैं! और कहता है, इन आभूषणों के बिना तो मैं सो भी न सकूंगा! इनके बिना तो मुझे नींद भी न आएगी।

इनके बिना तो मुझे खाली—खाली, नंगापन मालूम पड़ेगा! इनको मैं नहीं छोड़ सकता। लेकिन मुझे स्वतंत्र होना है, मुझे मुक्त होना है!

आपकी अवस्था ऐसी ही है। जिसको आप बचाना चाहते हैं, वही है दीवाल। और उसको तोड़े बिना आप अंतरात्मा में प्रवेश न कर पाएंगे।

समझें।

‘अपनी अंतरात्मा का पूर्णरूप से सम्मान करो। क्योंकि तुम्हारे हृदय के द्वारा वह प्रकाश प्राप्त होता है, जो जीवन को आलोकित कर सकता है और तुम्हारी आंखों के समक्ष स्पष्ट कर सकता है। समझने में कठिन केवल एक ही वस्तु है—स्वयं तुम्हारा अपना हृदय। जब तक व्यक्तित्व के बंधन ढीले नहीं होते, तब तक आत्मा का गहन रहस्य खुलना संभव नहीं होता है।’

क्या हैं व्यक्तित्व के बंधन? हम सब पैदा होते हैं। अनिवार्यरूपेण समाज, परिवार, शिक्षा हमें उपलब्ध होती है, संस्कार उपलब्ध होते हैं, धारणाएं उपलब्ध होती हैं। कैसे जीना, कैसे उठना, कैसे बैठना, क्या ठीक है, क्या गलत है—सब हमें रेडीमेड मिलता है। फिर हम उसके अनुसार बड़े होते हैं। और हमें उसके अनुसार ही बड़ा होना पड़ता है। क्योंकि जिनके बीच हम बड़े हो रहे हैं, वे शक्तिशाली हैं। वे जो भी सिखा रहे हैं, वह हमें सीखना ही पड़ेगा। क्योंकि अगर हम न सीखेंगे तो वे हमें जिंदा ही न रहने देंगे। उनकी धारणाएं हमें माननी ही पड़ेगी, क्योंकि उनका दबाव चारों तरफ है, वे शक्तिशाली हैं। समाज उनका है, अधिकार उनका है, ताकत उनकी है, राज्य उनका है। वे सब तरफ से एक छोटे बच्चे को जो भी मनवाना चाहते हैं, मनवा देंगे। फिर यह बच्चा बड़ा होगा एक व्यक्तित्व को ले कर, जो दूसरों ने इसे दिया है। इस व्यक्तित्व के सहारे आज नहीं कल, इसको भयंकर पीड़ा और संताप पैदा होगा। क्योंकि यह झूठा है। झूठ से पीड़ा पैदा होती है।

आनंद तो केवल सत्य से पैदा हो सकता है, जो तुम्हारा स्वभाव है उससे ही। तो फिर यह खोज में लगेगा अध्यात्म की, परमात्मा की, ज्ञान की, योग की, ध्यान की। लेकिन इसे यह खयाल ही नहीं है कि यह जो व्यक्तित्व है, इसे तोड़ना पड़ेगा। यह जैसे एक खोल की तरह तुम्हारे झरने के चारों तरफ हो गया है। जैसे एक पत्थर की तरह तुम्हारे झरने को रोके हुए है। पर यह चाहेगा कि इस व्यक्तित्व को ले कर ही परमात्मा तक पहुंच जाए और शांति तक पहुंच जाए, तो अड़चन है।

और व्यक्तित्व को तोड़ना बड़ी कठिन बात है, क्योंकि हमारा बड़ा मोह निर्मित हो जाता है। हम तो सोचते ही यही हैं कि यही व्यक्तित्व हमारा स्वभाव है, यही हम हैं। व्यक्तित्व के साथ इस तादात्म्य का नाम ही अहंकार है।

अहंकार की बहुत चर्चा होती है। लोग कहते हैं, अहंकार छोड़ो। लेकिन अहंकार आप समझते ही नहीं कि क्या है। इस व्यक्तित्व के साथ जो तादात्म्य है— कि यही व्यक्तित्व मैं हूं— यही अहंकार है। कोई हिंदू व्यक्तित्व को लिए है, कोई मुसलमान व्यक्तित्व को लिए है, कोई जैन व्यक्तित्व को लिए है, कोई ईसाई व्यक्तित्व को लिए है। वह अड़चन डाल रहा है। और उससे हम जुड़े हुए हैं कि यह मैं हूं। इसको तोड़ना जरूरी है। इसमें थोड़े से छेद भी हो जाएं, तो आपको थोड़ी सी निसर्ग की ताजी हवा मिले। जरूरी नहीं है कि आप इसको तोड़ कर समाज के विपरीत हो जाएं। क्योंकि इसको तोड़ कर अगर आप बिलकुल फेंक दें, तो आप समाज के विपरीत हो जाएंगे। जरूरी नहीं है कि आप समाज के दुश्मन हो जाएं। इतना ही जरूरी है कि आप इस खोल को उतार कर पहनने में समर्थ हो जाएं।

आप मेरी बात को समझ लें। ऐसा नहीं है कि आप वस्त्रों को फेंक दें सारे व्यक्तित्व के। तो आप दिक्कत में पड जाएंगे। क्योंकि जिनके बीच आप रह रहे हैं, उन्होंने व्यक्तित्व नहीं फेंका है। आप अड़चन में पड़ जाएंगे। वे आपको मुसीबत में डाल देंगे। क्योंकि आप उनकी व्यवस्था को तोड़े डाल रहे हैं। और उनकी व्यवस्था में उनका न्यस्त स्वार्थ है, सुविधा है।

व्यक्तित्व को छोड़ने का एक ही अर्थ है कि आपको यह स्मरण आ जाए कि व्यक्तित्व आप नहीं हैं, और चाहें तो उतार कर एक तरफ रख सकते हैं। बस इतना काफी है। फिर समाज में काम के लिए आप व्यक्तित्व को ओढ़े रहें। लेकिन फिर आपकी गुलामी नहीं रही, फिर खेल हो गया। फिर समाज के लिए आप व्यक्तित्व को ओढ़ लेते हैं, और अपने लिए उतार कर रख देते हैं। ध्यान के वक्त आप व्यक्ति नहीं रह जाते, सिर्फ आत्मा हो जाते हैं।

तो आपके जीवन में बाहर के जगत के लिए एक नाटक, एक अभिनय शुरू हो जाएगा। बुद्धिमान आदमी अनिवार्य रूप से समाज में अभिनय के अतिरिक्त और किसी ढंग से नहीं जीता है। समाज के साथ उसका संबंध नाटकीय है।

लेकिन यह नाटकीयता अपने साथ अगर हो जाए, तो कठिनाई खड़ी होती है। आप दूसरे के लिए चेहरा ओढ़ लें। दूसरे को अच्छा लगता है वैसा ही चेहरा, तो क्या अड़चन है? लेकिन जब आप अपने एकांत में हैं, तो वहां तो कम से कम चेहरा उतार दें। क्योंकि अब आप किसके लिए चेहरा ओढ़े हुए हैं? आप किसको धोखा दे रहे हैं अब? लेकिन यह बोधपूर्वक हो तो व्यक्तित्व बंधन नहीं होता! तब व्यक्तित्व एक कुशलता हो जाती है। तब व्यक्तित्व अच्छी बात है। क्योंकि उससे संबंधों में, सामाजिक संबंधों में, लुब्रीकेन्ट का काम हो जाता है, उससे थोड़ा सा संघर्षण कम होता है। व्यर्थ का संघर्षण बच जाता है।

लेकिन खुद के लिए, खुद के एकांत में अगर आप उसको ओढ़े बैठे रहें, तो आप अपनी हत्या कर रहे हैं। समाज के साथ व्यक्तित्व, अपने साथ कोई व्यक्तित्व नहीं। और यह व्यक्तित्व के बंधन जब तक ढीले नहीं होते, तब तक आत्मा का रहस्य खुलना प्रारंभ नहीं होता है। क्योंकि इसके भीतर, इस व्यक्तित्व की गांठ के भीतर ही आत्मा का रहस्य छिपा है।

थोड़ा समझें, क्या है व्यक्तित्व और कैसे ढीला हो सकता है?

आपको भूल ही जाता है। एक मित्र हैं मेरे, हंसते रहते हैं। और मैं जानता हूं कि दुखी आदमी हैं। और बुरा भी नहीं है, क्योंकि किसी दूसरे को क्या दुख जाहिर करना! लेकिन एक रात मेरे पास रुके। आधी रात मैं उठ कर बाथरूम की तरफ गया, प्रकाश जलाया तो देखा कि नींद में भी उनका मुंह हंसी की तरह फैला हुआ है। तो मैं थोड़ा चिंतित हुआ। वह आदमी दुखी हैं, दिन भर मुस्कुराते रहते हैं, यह मुस्कुराहट थोपी हुई है। क्योंकि वे अपना हृदय भी मुझे खोलते हैं और कहते हैं, मैं दुखी हूं और मुस्कुराहट तो सिर्फ मेरी एक सामाजिक आदत है। रात सोते में भी उनका मुंह मुस्कुरा रहा है!

तो मैंने सुबह उनसे पूछा, तो उन्होंने कहा, अभी इतनी आदत हो गई है कि कभी—कभी मैं अकेले में भी चाहता हूं कि अब न मुस्कुराऊं, तो भी जबड़े को ढीला करना मुश्किल होता है, जकड़ गया है। आप जरा अपने चेहरे पर खयाल करना। जब आप किसी से मिल कर आते हैं, तत्काल आईने के सामने जा कर खड़े हो जाना और चेहरे को ढीला छोडना, तब आप फौरन दो चेहरे देखेंगे। एक चेहरा जो अभी आप ले कर आए थे, और जब वह शिथिल होगा, तो एक दूसरा चेहरा होगा।

यहां मैं देखता हूं आपके चेहरे। जब आप ध्यान शुरू करते हैं, तब आपके पास एक चेहरा होता है। जब आप दूसरे चरण में बिलकुल विक्षिप्त हो जाते हैं, तब आपके हजारों चेहरे एक साथ बदलते हैं—एक चेहरा, दूसरा चेहरा, तीसरा चेहरा; एक कतार लग जाती है चेहरों की आपके ऊपर! आपके सब चेहरे, जिनका आप उपयोग करते हैं अलग—अलग रूपों में, सब झलक देते हैं। फिर चौथे चरण में जब आप शांत खड़े होते हैं, तो आपके सब चेहरे खो जाते हैं, और एक तरह की फेसलेसनेस, एक तरह की चेहरा—शून्यता पैदा होती है। आपका चेहरा जैसे नहीं रह जाता, उसकी सब रेखाएं तनाव की, खो गई होती हैं। आपका चेहरा शायद वैसा होता है, जैसा बचपन में रहा होगा, जब समाज ने आपको बिगाड़ना शुरू नहीं किया था। या मां के गर्भ में रहा होगा, जब कि किसी ने आप बूढ़ो कोई शिक्षा न दी थी। अगर इसमें आप थोड़े और गहरे प्रवेश करते जाएं, तो आपको वह चेहरा उपलब्ध हो जाएगा, जो आपका चेहरा है, दूसरों का दिया हुआ नहीं है।

जापान में झेन फकीर कहते हैं कि अपने ओरिजिनल चेहरे को, अपने मूल चेहरे को खोजो, जो जन्म के पहले तुम्हारे पास था, या मृत्यु के बाद तुम्हारे पास होगा। बीच के सब चेहरे उधार हैं।

पर ये चेहरे सीखने पड़ते हैं। आपके घर में छोटा बच्चा है, घर में कोई मेहमान आते हैं, आप उससे कहते हैं, चलो पैर पड़ो। और वह बिलकुल नहीं पड़ना चाह रहा है। लेकिन आपकी आज्ञा उसे माननी पड़ेगी।

मैं किसी के घर में जाता हूं मां—बाप पैर पड़ते हैं, और अपने छोटे—छोटे बच्चों को गर्दन पकड़ कर झुका देते हैं! वे बच्चे अकड़ रहे हैं, वे इंकार कर रहे हैं। उनका कोई संबंध नहीं है, उनका कोई लेना—देना नहीं है, और बाप उनको दबा रहा है!

यह बच्चा थोड़ी देर में सीख जाएगा कि इसी में कुशलता है कि पैर छू लो। इसका पैर छूना व्यक्तित्व का हिस्सा हो जाएगा। फिर यह कहीं भी झुक कर पैर छू लेगा, लेकिन इसमें कभी आत्मीयता न होगी। इसकी एक महत्वपूर्ण घटना जीवन से खो गई। अब यह किसी के भी पैर छू लेगा और वह कृत्रिम होगा, औपचारिक होगा। और वह जीवन का परम अनुभव, जो किसी के पैर छूने से उपलब्ध होता है, इसको नहीं उपलब्ध होगा। अब इसका पैर छूना एक व्यवस्था का अंग है। यह समझ गया कि इसमें ज्यादा सुविधा है। यह अकड़ कर खड़े रहना ठीक नहीं है। बाप झुकाता ही है, और बाप को नाराज करना उचित भी नहीं है, क्योंकि वह पच्चीस तरह से सताता है, और सता सकता है। तो इसमें ही ज्यादा सार है, बुद्धिमान बच्चा झुक जाएगा। समझ लेगा।

मगर यह झुकना यांत्रिक हो जाएगा। और खतरा यह है कि किसी दिन ऐसा व्यक्ति भी इसको मिल जाए, जिसके चरणों में सच में यह झुकना चाहता था; तो भी यह झुकेगा, वह कृत्रिम होगा। क्योंकि वह सच इतने पीछे दब गया, और व्यक्तित्व इतना भारी हो गया है।

बच्चों से मां—बाप कह रहे हैं कि यह तुम्हारी मां है, इसको प्रेम करो। यह भी कोई कहने की बात है! कि यह तुम्हारे पिता हैं, इनको प्रेम करो! इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि मां का और बेटे का संबंध प्रेमपूर्ण नहीं है, इसलिए प्रेम करवाना पड़ रहा है। मां कहती है, मैं तुम्हारी मां हूं मुझे प्रेम करो। यह भी कोई कहने की बात है! मां होनी चाहिए, प्रेम फलित होना चाहिए। लेकिन वह नहीं फलित हो रहा है। और भूल अगर कहीं होगी, तो मां की ही हो सकती है, बच्चे की क्या भूल हो सकती है? बच्चा तो अभी कुछ भी नहीं जानता है।

लेकिन जिस मां को बेटे से यह कहना पड़ता है, मैं तुम्हारी मां हूं मुझे प्रेम करो, वह जननी होगी, मां नहीं है। उसने पैदा किया होगा। लेकिन मातृत्व कुछ और बात है, सभी स्त्रियों को उपलब्ध नहीं होता। जननी तो कोई भी स्त्री बन सकती है, लेकिन मां बनना बड़ा कठिन है। क्योंकि मां तो एक बड़ी लंबी प्रेम की प्रक्रिया है।

तो वह बेटे को कह रही है कि मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारी मां हूं। बेटा धीरे— धीरे प्रेम दिखाने लगेगा। क्योंकि क्या करेगा? इस मां से दूध लेना है, इस मां से पैसे लेना है, इस मां के ऊपर सब कुछ निर्भर है। बेटा बिलकुल असहाय है। यह मां ही उसकी जीवन सुविधा है, सहारा है, सुरक्षा है। तो सौदा हो जाएगा, बेटा प्रेम प्रकट करने लगेगा। मां को देख कर हंसने लगेगा, चाहे हंसी उसे न आ रही हो। मां को देख कर कहने लगेगा कि मेरी जैसी सुंदर मां और कहीं भी नहीं है। और मां इससे प्रफुल्लित होगी। और बेटा धोखा सीख रहा है, और बेटा झूठ सीख रहा है, और प्रेम जैसी परम घटना असत्य हुई जा रही है। फिर यह बेटा बड़ा तो मां के पास होगा, और झूठा प्रेम गहरा हो जाएगा, वह उसका व्यक्तित्व बन जाएगा।

फिर जब यह किसी स्त्री के प्रेम में भी पड़ेगा, तो वह प्रेम आंतरिक नहीं हो पाएगा। यह झूठ ही बोलता रहेगा। यह उस स्त्री से भी कहेगा कि तुझसे ज्यादा सुंदर स्त्री कोई भी नहीं है। यह स्त्री से भी प्रेम करने की कोशिश करेगा। यह प्रेम प्रकट करेगा। यह दिन में दस दफे कहेगा कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। मगर यह सब झूठ हुआ जा रहा है।

इसे आप कभी सोचना। जब आप अपनी पत्नी को कहते हैं कि मैं तुझे प्रेम करता हूं तो भीतर कुछ भी होता है प्रेम जैसा जब आप कहते हैं? अक्सर तो डर के कारण कहते हैं। अक्सर तो इसलिए कहते हैं कि कहते रहना बार—बार ठीक रहता है, याददाश्त बनी रहती है। पत्नी को भी भरोसा रहता है, आपको भी भरोसा रहता है। पत्नी भी इसी तरह दोहरा रही है, वह भी झूठ है।

आपके व्यक्तित्व बातें कर रहे हैं, आपकी अंतर—आत्माएं नहीं मिल रही हैं। तब इस झूठ से कोई आनंद पैदा नहीं होता है। और तब इस झूठ से कोई भी संतोष नहीं मिलता। झूठ से मिल भी नहीं सकता।

झूठे बीज से कहीं अंकुर पैदा हुए हैं? झूठे कंठ से कहीं गीत पैदा हुए हैं? झूठी आख से कहीं कोई दृश्य दिखाई पड़े हैं? झूठ का अर्थ ही है कि जो नहीं है। उससे कुछ भी पैदा नहीं होगा। झूठ का अर्थ ही है कि जो दिखाई पड़ता है और है नहीं! उससे कुछ भी पैदा नहीं होगा। जीवन तब एक रिक्तता बन जाएगी। इस व्यक्तित्व को पहचानें! आपके भीतर जो—जो झूठ है, उसे पहचानें।

मैं आपसे यह नहीं कहता कि झूठ इसलिए मत बोलें कि दूसरे को नुकसान पहुंचता है, वह तो पहुंचता ही है। झूठ से लेकिन पहले आपको नुकसान पहुंच रहा है। आप झूठे हुए जा रहे हैं, मिथ्या हुए जा रहे हैं। हुए जा रहे हैं कहना ठीक नहीं है, आप बिलकुल हो चुके हैं। आप निष्णात हो गए हैं! आप इतने कुशल हो गए हैं कि आपको याद ही नहीं आता कि आप क्या कर रहे हैं!

मैं झूठ बोलने वाले लोगों को जानता हूं। मैं उनको दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि वे झूठ जान कर नहीं बोल रहे हैं अब। अब उनसे झूठ बोला जा रहा है। और कभी—कभी वे ऐसे झूठ बोलते हैं कि जिससे न तो कोई लाभ है, न कोई उनका हित है। और जान कर भी नहीं बोल रहे हैं। झूठ ऐसा पक्का हो गया है कि उनसे बोला जाता है। जैसे ही वे बोलते हैं, कुछ भी वे सोचते हैं, उनके झूठ के ढांचे में पड़ कर वह झूठ हो जाता है। वे सच भी बोलें तो थोड़ा झूठ बिना मिलाए नहीं बोल सकते! अपने इस ढांचे को पहचानें। इसके प्रति सजग हों। और इसको उतार कर रखने की कोशिश करें।

एक मित्र मेरे पास आए। कैसे झूठ मजबूत हो जाता है, वह मैं आपसे कहूं। वे मेरे पास आए, वे कहने लगे कि आप कहते हैं कि दूसरे चरण में बिलकुल पागल हो जाओ, तो मैं नाचता—कूदता हूं रोता—चिल्लाता हूं लेकिन आज मुझे खयाल आया कि यह तो मैं झूठ ही कर रहा हूं। न मुझे रोना आ रहा है, न मुझे नाचना आ रहा है, यह तो मैं झूठ कर रहा हूं। यह तीन दिन करने के बाद उनको खयाल आया! इसको मैं कहता हूं झूठ कैसा मजबूत ढांचा बन जाता है। तीन दिन से वे नाच—कूद रहे हैं। तीन दिन बाद उनको खयाल आया कि यह तो मैं झूठ कर रहा हूं। लेकिन फिर भी जल्दी आ गया। उनका ढांचा बहुत मजबूत नहीं है। यह तो पहले ही क्षण याद आ जाना चाहिए कि आप क्या कर रहे हैं?

और झूठ आप कितना ही करें, कितना ही नाचे—कूदे; थोड़ी कवायद हो जाएगी। अच्छा भी लगेगा, जैसे व्यायाम से अच्छा लगता है। लेकिन ध्यान नहीं होगा। ध्यान तो आपके भीतर से सत्य टूटना शुरू हो, तो होगा।

लेकिन कठिनाई है। बचपन से समझाया जा रहा है, रोना मत। खास कर पुरुषों को तो इस बुरी तरह समझाया गया है कि रोना मत। तो वे रोने की कला ही भूल गए हैं। उनको इस बुरी तरह समझाया गया है कि क्या लड़कियों जैसा काम कर रहे हो? जैसे रोने का ठेका लड़कियों ने ले रखा है! जैसे पुरुष रोने का अधिकारी नहीं है। तो परमात्मा ने आंसू क्यों बनाए हैं? और पुरुष की आंखों के पीछे आंसू की ग्रंथियां क्यों बनाई हैं? तो रोने की क्षमता पुरुष को दी गई है, तो वह किसलिए दी गई है? मगर नहीं, हर लड़के को समझाया जा रहा है कि यह क्या लड़कियों जैसा काम कर रहे हो! जैसे यह कुछ बुरा काम है।

और बड़ा मजा यह है कि स्त्रियां भी कहती हैं, मां भी कहती है कि क्या लड़कियों जैसा काम कर रहा है? जैसे यह कोई बुरा काम हो, और सिर्फ स्त्रियां ही कर सकती हैं। बुरे काम क्या स्त्रियों ने करने का कोई ठेका लिया हुआ है?

लेकिन पुरुष को कठोर बनाना है, यह समाज का इंतजाम है। उसको कठोर बनाना है, ताकि वह दुष्ट बन सके, हिंसा कर सके, मार सके, पीट सके। अगर वह रोका और तरल होगा, कोमल होगा, तो यह सब काम नहीं कर सकेगा। युद्ध पर भेजोगे उसको बंदूक ले कर, वह रोने लगेगा कि अरे, इसको मारना है आदमी को! मर जाएगा, ठीक नहीं है। तो आदमी को कठोर बनाना है, पथरीला बनाना है। उसके भीतर से आत्मा मारनी है बुरी तरह। इसलिए उसको समझाया जा रहा है, उसके अहंकार को फुसलाया जा रहा है कि तू पुरुष है, तू रोना मत; यह स्त्रियों का काम है।

स्त्रियां भी अगर कठोर हो जाएं, तो पुरुष बड़ी प्रशंसा करते हैं! वे कहते हैं कि खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी! मर्दाना होना जैसे कोई बड़े गौरव की बात है। एक स्त्री खराब हो गई, अं वह उसकी प्रशंसा कर रहे हैं! और अगर कोई पुरुष जरा कोमल हो, नाजुक हो, तो वे कहते हैं, स्त्रैण, गैर—मर्दाना!

पुरुष को हमने सिखाया है, हिंसा के लिए तैयार किया है। तो आप रो नहीं सकते! आपके आंसू सूख गए हैं। वर्षों से आप रोए नहीं हैं, आपकी ग्रंथियां जड़ हो गई हैं। तो आप चीख—पुकार भी मचाते हैं, तो भी आंसू नहीं आते! लेकिन मैं चाहता हूं कि आपकी ग्रंथियां पुन: सक्रिय हो जाएं, आंसू पुन: आ जाएं। उन आसुरों के आते ही आपका तीस साल का जो समाज का व्यक्तित्व था, वह एक तरफ हट जाएगा। और आप तीस साल, चालीस साल पहले, जब छोटे बच्चे थे और रो सकते थे, और जब किसी ने आपको यह नहीं कहा था कि क्या लड़कियों जैसा काम कर रहे हो, उस क्षण में वापस लौट जाएंगे। आपके आंसू अगर बह सकें, सच्चे आंसू ग्रंथियों से खुल जाएं, तो आप पाएंगे कि आपका व्यक्तित्व सरक गया, नीचे गिर गया; आप हल्के हो गए, एक छेद हो गया।

इसलिए इतना मेरा आग्रह है कि रोओ, चिल्लाओ, हंसो; क्योंकि तुमसे सब कुछ छीन लिया गया है। तुम खिलखिला कर हंस भी नहीं सकते। क्योंकि लोग कहते हैं, खिलखिला कर हंसना असभ्यता है। आदमी को इस बुरी तरह मारा है! खिलखिला कर हंस नहीं सकते, असभ्यता है! अगर चार आदमी जोर से खिलखिला कर हंस रहे हैं, तो लोग उनकी तरफ ऐसे देखेंगे, जैसे कि असंस्कृत हैं! पढ़े—लिखे नहीं हैं, गंवार हैं! मुस्कुरा सकते हैं सिर्फ आप, आवाज नहीं होनी चाहिए!

यह तो ऐसा है, जैसे कि झरनों से हम कहें कि बस बिलकुल धीरे— धीरे सरक सकते हो, शोरगुल नहीं। हवाएं इस तरह बहो कि पत्तों में आवाज न हो। जब आप दिल खोल कर हंस लेते हैं, तो आपको पता नहीं कि कितना कचरा उस कोलाहल में बह जाता है। लेकिन आप हंस नहीं सकते, वह कचरा अटका रह जाता है। आपको कुछ भी हृदयपूर्वक नहीं करने दिया जा रहा है अपने आप से। खतरा है, क्योंकि हृदयपूर्वक अगर आप कुछ भी करेंगे, तो समाज आपको गुलाम नहीं बना सकेगा; यह कारण है।

अगर आपकी सारी वृत्तियों को दबा दिया जाए, तो आप गुलाम बनाए जा सकते हैं। अगर आपकी सारी वृत्तियों को उम्मुक्त छोड़ दिया जाए, तो आप इतने ताजे और इतने जीवंत होंगे, कि कोई ताकत आपको गुलाम नहीं बना सकती। और समाज चाहता है कि आप गुलाम हों, मालिक न हों। सेवक हों! समाज जिस तरफ इशारा करे, वैसा आप करें! समाज जो कहे, उस तरह उठे और बैठें! आप मुक्त न हों। क्योंकि मुक्त व्यक्ति रिबेलियस, विद्रोही हो जाता है। तो समाज सब तरह की मुक्ति छीन लेता है, और आपके ऊपर एक खोल चढ़ा देता है। उस खोल के भीतर से आप हंसे भी, तो वह खोल जगह नहीं देती, रोएं तो वह खोल आंसू नहीं बहने देती।

एक स्त्री को मेरे पास लाया गया। उसका पति मर गया, और तीन महीने से उसे हिस्टीरिया हो गया था, बेहोश हो जाती थी। तो मैंने पूछा कि यह स्त्री पति के मरने पर रोई या नहीं? तो जो लाए थे, उन्होंने बड़ी प्रशंसा से कहा, कि बड़ी हिम्मतवर स्त्री है, युनिवर्सिटी में प्रोफेसर है, बड़ी बुद्धिमान है, इसने एक आंसू नहीं गिराया। मैंने कहा कि हिस्टीरिया उसका परिणाम है। और तुम नासमझों ने इसकी प्रशंसा की होगी, कि तू गजब की है, क्या हृदय पाया है मजबूत!

हृदय और कहीं मजबूत होता है? हृदय की तो खूबी ही, उसकी मजबूती तो उसकी कोमलता ही है। वह तो फूल जैसी कोमल चीज है। मजबूत हृदय का क्या मतलब? कोई पत्थर का फूल बनाया हुआ है?

उन सबने उसकी खूब प्रशंसा की, उन सबने हिस्टीरिया पैदा करवा दिया। और कोई नहीं सोचता कि इसका कर्मफल किसको भोगना पड़ेगा? और वह स्त्री बेहोश हो—हो जाती है। वह रो नहीं पाई। मैंने उस स्त्री को कहा कि तू इन नासमझों की बातो में पड़ी है, तू रो ले। क्योंकि प्रोफेसर होने से कोई ऐसा थोड़े है कि तू स्त्री नहीं रह गई। लेकिन प्रोफेसर भारी है, युनिवर्सिटी में किसी डिपार्टमेंट की हेड है वह, कैसे रो सकती है? समझदार है। समझदारी से रोने से क्या वैपरीत्य है? समझदार हृदयपूर्वक रोएगा, बस इतना फर्क होगा।

वह कहने लगी, आप क्या कहते हैं, मुझे रोना चाहिए था?

तुझे रोना ही चाहिए था। क्योंकि जिसको तूने प्रेम किया है, और जिससे तूने सुख पाया है, तो दुख क्या मैं पाऊंगा? दुख तुझे पाना होगा। सुख पाते वक्त तू मेरे पास कभी नहीं आई। अब दुख कौन लेगा? संसार द्वंद्व है, वहां सुख तूने पाया, तो दुख तुझे पाना होगा। तब तराजू तुल जाएंगे, संतुलन पैदा हो जाएगा। तू खूब छाती पीट, रो, लोट।

उसने कहा कि आप क्या बातें कर रहे हैं! मैंने कहा, तो फिर हिस्टीरिया होगा।

यह हिस्टीरिया, जो दबा है, वेगपूर्वक दबा है, उसका उफान है, उसका धक्का है। जो नहीं बह पा रहा है दुख, वह इतना धक्का मार रहा है कि तेरे स्नायु—जाल में पूरी की पूरी जकड़न पैदा हो जाती है। यह हालत ऐसी ही है, जैसे कोई कार चला रहा हो; एक्सीलेटर भी दबा रहा हो, और ब्रेक भी दबा रहा हो, तो कार की जो हालत हो जाए, वह हिस्टीरिया उसका नाम होगा।

इस औरत का पूरा हृदय रोना चाहता है। क्योंकि मैंने उससे पूछा कि तूने अपने पति से आनंद पाया? उसने कहा, मैंने बहुत आनंद पाया। मैं बहुत सुखी थी। तो फिर मैंने कहा कि उतना ही दुखी होना जरूरी है। तो तेरा पूरा हृदय बहना चाह रहा है। और तेरा प्रोफेसर, तेरा ज्ञान और यह नासमझों की कतार, जो चारों तरफ मौजूद है, इनकी प्रशंसा, कि तू गजब की है, ऐसा होना चाहिए— तू ब्रेक लगा रही है। और एक्सीलेटर भी दबा रही है और ब्रेक भी लगा रही है! जब भी किसी व्यक्तित्व में एक्सीलेटर और ब्रेक एक साथ दबता है, तो हिस्टीरिया पैदा हो जाता है। या तो ब्रेक ही लगा, एक्सीलेटर मत दबा। लेकिन वह तभी संभव है, जब तूने पति से कोई सुख न पाया हो। लेकिन सुख तूने पाया है, तो उसका दूसरा पहलू झेलना ही पड़ेगा।

वह स्त्री मेरे सामने बैठी—बैठी रोने लगी। और मैंने उससे कहा कि तू आधा घंटा यहीं बैठ, और हृदयपूर्वक रो ले। और आधा घंटे बाद उसने कहा कि मैं जानती हूं कि हिस्टीरिया अब नहीं आएगा। और मैंने कहा कि तू किसी की मत सुनना। चार—छह महीने लगेंगे, दुख को भोगना ठीक से। दुख का भोगना भी कीमती है, जरूरी है। वह भी जीवन—शिक्षा का अंग है। हिस्टीरिया वापस नहीं लौटा। कोई आठ महीने हो गए, फिट नहीं आया है। लेकिन वह जो समझदारों की कतार है, उन जैसे नासमझ खोजने कठिन हैं।

व्यक्तित्व को अपने पहचानना और अपने व्यक्तित्व को तोड़ना।

मेरे ध्यान की प्रक्रिया आपके व्यक्तित्व को तोड्ने के लिए व्यवस्था है। वह ध्यान नहीं है, वह आपके व्यक्तित्व का हटाना है! और वह हट जाए, तो ध्यान तो बड़ी सहज बात है। आपका पत्थर हट जाए, तो झरने के बहने के लिए कुछ करना थोड़े ही पड़ता है। झरना अपने से बहता है, सिर्फ पत्थर नहीं चाहिए। ध्यान तो स्वभाव है। अगर व्यक्तित्व के पत्थर न हों, तो वह आ जाएगा। लेकिन कुछ तो सहज बनने दो। आंसू मुस्कुराहट, नाचना, कुछ तो सहज होने दो। तो फिर वह जो परम सहज है, वह भी हो सकता है।

‘जब तक तुम अपने व्यक्तित्व से अलग एक ओर खड़े नहीं होते, तब तक वह अपने को तुम पर प्रकट नहीं करेगा।’

वह जो तुम्हारा स्वरूप है, तुम पर प्रकट नहीं होगा।

‘तभी तुम उसे समझ सकोगे और उसका पथ—प्रदर्शन कर सकोगे, उससे पहले नहीं। तभी तुम उसकी समस्त शक्तियों का उपयोग कर सकोगे और उन्हें किसी योग्य सेवा में लगा सकोगे, उससे पहले नहीं।’

यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है। कि लोग खुद को बिना समझे—बूझे दूसरे की सेवा में लगा देते हैं! ऐसे बहुत सेवक हैं, हमारे मुल्क में तो जरूरत से ज्यादा हैं। जिनबूढ़ो कोई बोध नहीं है स्वयं का, और जिनके जीवन में अंतरात्मा की एक किरण नहीं उतरी है, वे भी दूसरों की सेवा में अपने को लगा देते हैं। तब उनकी सेवा से दुष्परिणाम होता है। और सेवक जितना नुकसान कर सकते हैं, कोई भी नहीं कर सकता। क्योंकि वे आपके हित में ही करते हैं, उनसे बचना मुश्किल है। आप एक हत्यारे से बच सकते हैं, सेवक से कैसे बचिका? क्योंकि हत्यारा गर्दन पकड़ता है, आप फौरन सचेत हो जाते हैं। सेवक पैर से शुरू करता है, आप और पैर फैला देते हैं, कि ठीक है, सेवा करो। लेकिन फिर पैर से वह ऊपर की तरह बढ़ेगा। प्रगति तो करनी ही होगी। वह भी गर्दन तक आएगा। जरा वह फासला, वक्त लेगा। और पैर से दबाना शुरू करता है, तो जब गर्दन पकड़ लेता है, तब आप यह नहीं कह सकते कि गर्दन मत दबा देना। क्योंकि आप सोचते हैं, सेवा कर रहा है। सब सेवक आखिर में गर्दन पकड़ लेते हैं।

गांधीजी के साथ जमात थी सेवकों की। वे सब गर्दन पकड़े हुए हैं मुल्क की। वे जो—जो सेवक थे, वे सब अब पदों पर और कुर्सियों पर हैं, पूरे मुल्क की गर्दन पकड़े हुए हैं। निकले थे सेवा करने, अब वे सेवा ले रहे हैं, और भरपूर ले रहे हैं। और जो नहीं ले पा रहे हैं, वे बड़े दुखी हैं। वे कहते हैं, जीवन अकारथ हो गया, इतनी सेवा की और कुछ न पाया। वे कहते हैं, कम से कम ताम्र—पत्र ही दे दो लिख कर कि तुमने सेवा की! कुछ पेंशन बांध दो— सेवा की! कभी—कभी स्वागत—समारंभ करवा दो— सेवा की! और उन्होंने सेवा क्या की है? अगर सेवकों को समझने जाएं आप, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे।

मेरे पास सेवक आ जाते हैं। कोई कहता है, मैं तीस साल से आदिवासी बच्चों की सेवा कर रहा हूं कुछ शिक्षा दे रहा हूं। अभी एक महिला मेरे पास आई, कहती है, मैंने तीस साल, अपना पूरा जीवन लगा दिया। तब मैंने उससे पूछा कि तूने सेवा की, वह ठीक, तूने अपना जीवन लगाया, वह ठीक, बाकी जिन बच्चों के लिए तूने तीस साल जीवन लगाया, उनको कुछ लाभ हुआ कि नुकसान हुआ? असली सवाल तो वह है, कि उन बच्चों के जीवन में शांति बढ़ी कि घटी? सुख बढ़ा कि घटा? वे कम आनंदित हुए कि ज्यादा आनंदित हुए? तो वह थोड़ी बेचैन हो गई। क्योंकि मैंने कहा कि आदिवासी बच्चों को पढ़ा—लिखा कर, ज्यादा से ज्यादा इतना ही करोगे कि हमारे बच्चे जैसे हैं, उस तरह के हो जाएंगे, और क्या होगा? हमारे बच्चे कौन से स्वर्ग में हैं? इधर हम युनिवर्सिटीज में परेशान हैं अपने बच्चों से, क्योंकि उनको पढ़ा—लिखा लिया है, अब वे युनिवर्सिटीज जला रहे हैं, प्रिंसिपल को पीट रहे हैं, वाइस—चांसलर का घिराव करके पत्थर मार रहे हैं, छुरे दिखा रहे हैं! यह हमने शिक्षा दे कर उनको किया। तुम आदिवासी बच्चों पर बड़ी मेहनत कर रही हो, तुम कह रही हो कि तुमने जीवन लगा दिया। अगर तुम सफल हो गईं अपने काम में, तो ये ही बच्चे यही काम करेंगे, और क्या करेंगे? कौन सा लाभ हुआ जा रहा है?

लेकिन उसे लाभ से कोई मतलब नहीं है, वह व्यस्त है! और व्यस्त रहना एक तरकीब है अपने से बचने की। वह अच्छे काम में लगी है, तो भीतर देखने का मौका नहीं आता। वह बहुत अशांत है, परेशान है, दमित है; सारे वेग रोग बन गए हैं भीतर, लेकिन वह दूसरों की सेवा में अपने को उलझाए हुए है! इस सेवा की व्यस्तता में उसे खयाल भी नहीं आता कि मेरी कोई परेशानी है।

अक्सर लोग दूसरे की परेशानियों में उलझ जाते हैं, अपनी परेशानी मूलने को। और उनको अगर आप कहें कि एक पांच दिन की छुट्टी ले लो सेवा से तो……। क्योंकि पांच दिन में भी उनको अपनी परेशानियां दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी।

आदमी बहुत चालाक है। उसके कई पलायन के रास्ते हैं। वह दूसरों में उत्सुकता लेने लगता है, ताकि अपने से बच सके, अपना खयाल ही न आए! भागदौड़ में लगा रहता है, स्कूल खोलना है, आश्रम बनाना है, दिल्ली जाना है! वह महिला इसी काम में लगी है! चंदा इकट्ठा करना है, एक बस लानी है! लगी हुई है, फुरसत कहां है!

मैंने उससे पूछा कि तू शांत है? और उसने कहा कि नहीं, शांत तो नहीं हूं और आप कोई रास्ता बताएं। मैंने उसको कहा कि तू आबू शिविर में आ जा। उसने कहा, वह तो बहुत मुश्किल है, उस वक्त मुझे दिल्ली जाना है। काहे के लिए दिल्ली जाना है? एक अस्पताल खुलवाना है आदिवासियों के गांव में! मैंने उससे पूछा, पहले तू इसकी तो फिक्र कर ले कि जहां अस्पताल हैं, वहां ज्यादा लोग स्वस्थ हैं? कि आदिवासी, जहां अस्पताल नहीं हैं, वहां ज्यादा लोग स्वस्थ हैं? पहले इसकी फिक्र कर ले। क्योंकि अस्पताल इलाज भी लाता है, बीमारियां भी लाता है! आदिवासी ज्यादा स्वस्थ हैं। मगर उसको तो अस्पताल खोलना है! वह बोली कि यह बात तो ठीक है, मगर फिर भी अस्पताल के बिना ठीक नहीं है, अस्पताल तो जरूरी है, प्रगति होनी चाहिए। वह यह भी मानती है कि आदिवासी ज्यादा स्वस्थ हैं, लेकिन अस्पताल होना चाहिए! फिर किसलिए अस्पताल होना चाहिए? तो ठीक सेवा यह होगी कि जहां अस्पताल हैं, वहां मिटाओ और लोगों को आदिवासी बना दो, अगर स्वास्थ्य का ही रस है। अगर और कोई रस है, तो बात दूसरी है। लेकिन स्वास्थ्य तो आदिवासियों के पास ज्यादा अच्छा है। मगर वह बोली कि नहीं, आप जो कहते हैं, वह ठीक है, अभी तो दिल्ली जाना ही पड़ेगा, फिर मैं किसी दूसरे शिविर में आ जाऊंगी!

मगर ध्यान, शांति में कोई रस नहीं है। अशांति को निकालने की तरकीब उसने आदिवासियों की सेवा बना ली है। तो कोई आदमी दुकान पर अपनी अशांति निकाल रहा है। पैसा कमाने में लगा है, उसे कोई मतलब नहीं है दूसरी बातो से। कोई आदमी राजनीति के चक्कर में लगा है, इलेक्शन जीतना है, मिनिस्टरी में जाना है, उसे कोई मतलब नहीं है आत्मा से! कोई आदमी सेवा में लगा है, उसे कोई मतलब नहीं है आत्मा से!

लेकिन ध्यान रहे, जो आदमी भी स्वयं को जाने बिना दूसरे की सेवा में लगेगा, वह नुकसान करेगा दूसरे का। क्योंकि जिसको अभी खुद का हित पता नहीं है, उसे दूसरे का हित पता नहीं हो सकता। आत्म—प्रवेश हुए बिना सेवक होने का मतलब है कि आप कोई न कोई मिसचीफ, कोई न कोई शरारत पैदा करोगे। यह दुनिया शरारतियो से कम परेशान है, शुभेच्छुओं से ज्यादा परेशान है। वे ऐसा—ऐसा इंतजाम कर देते हैं शुभेच्छा से, कि उनके साथ आपको जाना पड़ता है। वे नरक भी ले जाएं, तो भी जाना पड़ता है। क्योंकि इतनी शुभेच्छा से ले जा रहे हैं, इतने भले मन से ले जा रहे हैं, इतना कष्ट उठा रहे हैं आपके लिए, कि आप मना भी नहीं कर सकते कि क्यों नरक की तरफ घसीट रहे हो! इंकार भी करना अशोभन लगता है, क्योंकि बेचारा कितना श्रम उठ रहा है!

पुराना अरबी सूत्र है कि नरक का रास्ता शुभेच्छाओं से भरा पड़ा है। शुभेच्छाओं से भरा पड़ा है! सेवा का हक केवल उसे उपलब्ध होता है, जो ध्यान की गहराई में पहुंच गया है। उसके पहले सेवा का कोई हक नहीं है। क्योंकि जब तक तुम्हें आनंद नहीं मिला है, तुम आनंद दे नहीं सकते। तुम दुख ही दे सकते हो, नाम तुम कुछ भी रखो। आनंद है तुम्हारे भीतर, तो वह आनंद दूसरों में भी प्रवाहित हो सकता है।

‘तभी तुम उसकी समस्त शक्तियों का उपयोग कर सकोगे और उन्हें किसी योग्य सेवा में लगा सकोगे, उससे पहले नहीं। जब तक तुम्हें स्वयं कुछ निश्चय नहीं हो जाता, तुम्हारे लिए दूसरों की सहायता करना असंभव है।’

कैसे करोगे सहायता? जिस बात का तुम्हें पता ही नहीं है, उसकी भी तुम सहायता करते हो! तुम यह सोचते ही नहीं कि तुम्हें पता है? तुम्हारे पास कोई सलाह लेने आता है, कभी तुमने ऐसा कहा कि नहीं, मैं सलाह नहीं दे सकूंगा, क्योंकि मुझे कुछ भी पता नहीं है। न, सलाह देने में तुम इतने उदार हो कि कोई आ भर जाए; आने की बात ही दूसरी, तुम्हें पता भर चल जाए कि फलाने को सलाह की जरूरत है, तुम उसके घर चले जाते हो। वह तुमसे बचना भी चाहे तो बच नहीं सकता, तुम सलाह देते ही हो।

यहां मैं देखता हूं शिविर में भी लोग एक—दूसरे के कमरे में जा रहे हैं, सलाह—मश्विरा भी दे रहे हैं, ज्ञान दे रहे हैं; एक—दूसरे को जगा रहे हैं, एक—दूसरे को शांति पहुंचा रहे हैं! चैन से नहीं बैठे हैं, और न दूसरे को चैन से बैठने देते हैं! तुम्हारी सलाह किस को चाहिए? तुम्हारे पास सलाह है?

लेकिन बड़ा मजा आता है। गुरु बनने में बड़ा मजा है! कोई शिष्य बनने को उत्सुक नहीं है! गुरु बनने में बड़ा रस है, क्योंकि अहंकार की बड़ी तृप्ति है। और इन सलाहकारों की हालत अगर देखने जाओ, तो अभी वे तुम्हें सलाह दे रहे हैं, और कल जब उन पर वही घटना घट जाए, तो तुम उन्हें सलाह दोगे! और वे इसी दयनीय हालत में होंगे, जिसमें तुम हो। अगर तुम क्रोध में हो तो वे तुमको बताएंगे कि क्रोध से कैसे मुक्त होना है! और तुम उनको जरा गाली दे कर देखो। और वे भूल जाएंगे कि क्या सलाह दे रहे थे! और तुम्हें उनको सलाह देनी पड़ेगी।

क्यों? क्यों इतनी उत्सुकता है दूसरे को सलाह देने की? बिना ज्ञान के ज्ञानी होने का रस लेना चाहते हैं। बुद्धिमान आदमी से अगर आप सलाह लेने जाएंगे, तो सौ में निन्यानबे मौके पर तो वह कह देगा कि इसका मुझे कुछ पता नहीं है। एक मौके पर जिसका उसे पता है, वह आपसे निवेदन कर देगा। लेकिन वह यह भी निवेदन कर देगा कि जरूरी नहीं है कि यह आपके काम आए, क्योंकि मेरे काम आई है। क्योंकि आदमी अलग—अलग हैं, परिस्थिति भिन्न—भिन्न है। इसलिए इतना ही मैं कह सकता हूं कि यह सलाह मेरे काम आई थी, इससे मुझे लाभ हुआ था। इससे आपको हानि भी हो सकती है, इसलिए आप सोच—समझ लेना। यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है।

लेकिन जो सलाह आपके ही कभी काम नहीं आई, वह भी आप दूसरे को दे देते हैं!

मैं पढ़ रहा था एक मनोवैज्ञानिक की पत्नी का संस्मरण। उसने मुझे संस्मरण लिख कर भेजा। उसने मुझे लिखा कि मेरे पति मैरिज काउंसलर हैं। वह लोगों के शादी—विवाह में जो झगड़ा—झांसा हो जाता है, उसको सुलझाते हैं। लेकिन हम दोनों के बीच जो झगड़ा—झांसा चल रहा है, उसका कोई हल नहीं है! वह सैकड़ों शादियों में जो झगड़े हो जाते हैं, उनको सुलझा देते हैं। पति—पत्नी लड़ते आते हैं, वे उन दोनों को समझते हैं, समझाते हैं, रास्ता बना देते हैं। न मालूम कितने तलाक उन्होंने बचा दिए। लेकिन हमारा तलाक हो कर रहेगा, यह निश्चित है! तो उसने मुझे पूछा कि तकलीफ क्या है? आखिर मेरे पति इतने बुद्धिमान हैं, यह मैं भी मानती हूं क्योंकि मैंने अपने सामने देखा कि उन्होंने कई लोगों को ठीक रास्ते पर ला दिया, लेकिन उनकी खुद की सलाह, खुद के काम क्यों नहीं आती?

कभी—कभी यह हो सकता है कि आपकी सलाह दूसरे के काम आ जाए। लेकिन यह दूसरे के काम आ ही इसलिए रही है कि आप दूसरे से दूर खड़े हैं, तो आप निष्पक्ष देख सकते हैं। जब आपका ही मामला होता है, तो आप दूर खड़े नहीं हो पाते, निष्पक्ष नहीं देख सकते, पक्ष हो जाता है।

तो मैंने उसकी पत्नी को पत्र लिखवा दिया, तू फिकर मत कर, किसी और मैरिज काउंसलर के पास तुम दोनों चले जाओ, वह कुछ रास्ता बना देगा। इस अंधों की दुनिया में, अंधे भी एक—दूसरे को रास्ता बताते रहते हैं! चलता है। तो वह रास्ता बनेगा। अगर तू अपने ही पति से सलाह लेना चाहती है, तो मुश्किल है। क्योंकि पति से तू सलाह ले नहीं सकती। पति तुझे सलाह निष्पक्ष दे नहीं सकता। क्योंकि वह खुद भी हिस्सा है एक, पार्टी है झगड़े में। तुम दोनों किसी और के पास चले जाओ।

यह जो बुद्धिमानी है, जो इस तरह एक—दूसरे के काम आती रहती है, यह बुद्धिमानी बहुत गहरी नहीं है। यह बुद्धिमानी किसी गहरे अनुभव से नहीं निकली है। यह बुद्धिमानी किताबी है, यह ऊपरी है। इससे बचना जरूरी है।

जब तक हमें आत्मा की कुछ झलक न मिलने लगे, तब तक कम से कम आत्मा के संबंध में सलाह—मश्विरे से बचना जरूरी है। क्योंकि उससे तुम उपद्रव ही पैदा करोगे। और दूसरे की जिंदगी में अगर तुमसे कोई आनंद न आए, तो कम से कम इतनी तो कृपा करनी ही चाहिए कि कोई उपद्रव पैदा न हो।

‘जब तुमको आरंभ के पंद्रह नियमों का ज्ञान हो चुकेगा और तुम अपनी शक्तियों को विकसित और अपनी इंद्रियों को उन्मुक्त करके ज्ञान—मंदिर में प्रविष्ट हो जाओगे, तब तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम्हारे भीतर एक स्रोत है, जहां से वाणी मुखरित होगी।’

‘ये बातें केवल उनके लिए लिखी गई हैं, जिनको मैं अपनी शांति देता हूं और जो लोग, जो कुछ मैंने लिखा है, उसके बाह्य अर्थ के अतिरिक्त उसके भीतरी अर्थ को भी साफ समझ सकते हैं।’

 

आज इतना ही।


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साधना–पथ–(प्रवचन–12)

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सत्‍य–अनुभूति में बाधाएं—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक, 7 जून, 1964; सुबह।

मुछाला महावीर, राणकपुर।

प्रश्न : ओशो क्या आप तत्वदर्शन का कोई मूल्य नहीं मानते हैं? क्या सत्य को जानने के लिए सत्य के संबंध में जानना आवश्यक नहीं है?

त्य को जानने के पूर्व सत्य को नहीं जाना जा सकता है। और सत्य के संबंध में जानना, सत्य को जानना नहीं है। वह सब असत्य है। वह इसलिए असत्य है, क्योंकि स्वानुभव के अभाव में उसे समझा ही नहीं जा सकता है।

वह कहने वाले की ओर से नहीं, सुनने वाले की ओर से असत्य है।

मैं सत्य के संबंध में जो कहूंगा, क्या आप वही समझेंगे?

यह तो संभव नहीं है। क्योंकि वही समझने के लिए आपका वही और वहीं होना जरूरी है जो मैं हूं और जहां मैं हूं। अन्यथा वह आप तक पहुंचते—पहुंचते ही असत्य हो जाता है।

ऐसा ही होता है। क्योंकि मैं तो शब्द ही दूंगा, पर उनका अर्थ आपके भीतर से आएगा। वह अर्थ आपसे होगा पैदा और वह आपसे अन्यथा नहीं होगा। शब्द मेरे होंगे, अर्थ आपका होगा। वह अर्थ आपसे ज्यादा और आपकी अनुभूति से ऊपर नहीं हो सकता है।

क्या आप सोचते हैं कि जब आप गीता पढ़ते हैं तब आप कृष्ण को पढ़ते हैं, ऐसा सोचते हों तो बड़ी भूल में हैं। मित्र! गीता में आप अपने को ही पढ़ते हैं, अन्यथा गीता के इतने अर्थ और टीकाएं क्या संभव थीं? प्रत्येक शास्त्र में हम अपनी ही शक्ल देख लेते हैं, और प्रत्येक धर्म हमारे लिए दर्पण से भिन्न नहीं है।

सत्य को जानने के पूर्व सत्य नहीं, शब्द ही जाने जा सकते हैं, वे शब्द दूसरों के होंगे, पवित्र ग्रंथों और अवतारों, तीर्थंकरों के होंगे, पर उनमें अर्थ हमारा ही होगा, उनके भीतर मैं ही रहूंगा। क्या तथाकथित धर्मों में जो भेद और वैमनस्य है, उसका कारण यही नहीं है?

क्या बुद्ध और क्राइस्ट में विरोध और वैमनस्य संभव है? वह मेरा और आपका वैमनस्य है, वह मेरा और आपका अर्थ है, वह मेरा और आपका विरोध है, जो हम उनके नाम से चला रहे हैं।

सत्य को जो जानते हैं, उनसे धर्म प्रकट होता है, पर जो सत्य को सुनते और मानते हैं, उनसे धर्म नहीं, संप्रदाय बनते और संगठित होते हैं। इसलिए धर्म तो एक ही है, पर संप्रदाय अनेक हैं, क्योंकि सत्य को’ जानना’ तो एक ही अनुभूति है पर सत्य को’ मानना’ एक ही नहीं है। ज्ञान एक ही है, पर मान्यताएं उतनी ही हैं जितने कि मानने वाले हैं।

धर्म, रिलिजन का जन्म तो सत्य—दर्शन से होता है, पर धर्मों, रिलिजस का जन्म सत्य—अदर्शन से होता है। धर्म—चक्र का प्रवर्तन तो वे करते हैं जो जानते हैं, पर धर्म—संगठन वे करते हैं जो नहीं जानते हैं, और उनके सदप्रयासों में ही धर्म अधर्म हो जाता है। मनुष्य का पूरा इतिहास इस दुर्भाग्य से पीड़ित रहा है।

प्रश्न: ओशो सत्य की कोई धारणा बिना बनाए तो हम उनके संबंध में कुछ सोच ही नहीं सकते हैं?

मैं सोचने को कह भी नहीं रहा हूं। सोचना आपके जानने से ऊपर कभी नहीं जाता है। और यदि आप सत्य को नहीं जानते हैं, तो इस संबंध में सोच ही कैसे सकते हैं? सोचना, थिंकिंग सदा जानने की सीमा में ही होता है। वह उसी की जुगाली है।

सोचना—विचारना सृजनात्मक, क्रिएटिव कभी नहीं है, वह केवल पुनर्वृत्यात्मक, रिपीटीटिव है। जो अज्ञात है, वह उससे नहीं जाना जा सकता है। उसे जानना है तो जो हम जानते ही हैं, उसके बाहर चलना जरूरी है। अज्ञात में प्रवेश के लिए ज्ञात तटों को छोड़ना ही होता है।

इसलिए अच्छा है कि सत्य की कोई धारणा न बनाएं। वह धारणा एकदम ही असत्य होगी। वह निष्प्राण शब्द ही होगी, जीवित अर्थ नहीं। वह शब्द परंपरा से आदृत हो सकता है, हजारों लोगों से पूज्य हो सकता है, उसके समर्थन में धर्मशास्त्र हो सकते हैं, पर उसका आपके लिए कोई मूल्य नहीं है। सत्य—साधक के लिए वह निर्मूल्य ही नहीं, घातक भी है।

उस शब्द के घेरे में से, उस शब्द की चौखट में सें—सत्य के खंडित आकाश को देखना एक बात है और सारे घेरों और चौखटों के बाहर आकर अखंड आकाश के दर्शन करना बिलकुल ही दूसरी बात है। आकाश किसी घेरे में नहीं है, सत्य भी किसी घेरे में नहीं है। सब घेरे मनुष्य—निर्मित हैं। सब धारणाएं मनुष्य—निर्मित हैं। सब शब्द मनुष्य द्वारा दिए गए हैं। सत्य वह है जो मनुष्य—निर्मित नहीं है।

उस सत्य को जानना है तो चलें, थोड़ा अपने घरों से बाहर चलें—शब्दों, विचारों और अपने तथाकथित जान के बाहर चलें। ज्ञात को छोड़े ताकि अज्ञात आ सके और मनुष्य—सृष्ट धारणाओं को छोड़े ताकि उसका साक्षात हो सके जो कि सृष्ट नहीं है, बल्कि समस्त सृष्टि का आधार है।

प्रश्न: ओशो शास्त्रों के बिना हम सत्य को जान ही कैसे सकते हैं? सत्य का ज्ञान तो उन्हीं से होता है। क्या आप सोचते हैं कि समस्त शास्त्र नष्ट हो जाएं तो सत्य नष्ट हो जाएगा? क्या सत्य शास्त्र—निर्भर है या कि शास्त्र ही सत्य—निर्भर है?

मित्र! शास्त्रों से सत्य कभी नहीं पाया गया है, विपरीत सत्य को पाने से ही शास्त्र पाए गए हैं। शास्त्रों का मूल्य नहीं, मूल्य सत्य का है, क्योंकि मूल शास्त्र नहीं, मूल सत्य है।

और यदि शास्त्रों से सत्य मिल सकता तो बहुत सस्ती बात होती, वह स्वयं को बदले बिना ही हो जाता। पर शास्त्र स्मृति को ही भर सकते हैं, स्वयं एक बोध नहीं दे सकते हैं। और सत्य की दिशा में स्मृति— प्रशिक्षण, मेमोरी ट्रेनिंग से कुछ भी नहीं होता है। उसके लिए तो स्वपरिवर्तन, सेल्फ ट्रांसफॉर्मेशन का मूल्य चुकाना होता है।

शास्त्र आपको पंडित बना सकते हैं। ज्ञान का उनसे जन्म नहीं होता है।

शास्त्रों से और शास्त्रों का जन्म हो सकता है। यह स्वाभाविक ही है; पार्थिव से पार्थिव ही पैदा हो सकता है। पर ज्ञान उनसे कैसे आविर्भूत होगा?

वह तो चैतन्य का स्वरूप है। यह जड़ से नहीं आ सकता है।

शास्त्र जड़ है, सत्य जड़ नहीं है। उनसे जड़ स्मृति समृद्ध हो सकती है। चेतन ज्ञान उनमें गति से नहीं, स्वयं में गति से उपलब्ध होता है।

मैं कहूंगा कि शास्त्रों के बीच में रहते आप सत्य को कैसे जान सकते हैं?

यह मिथ्या धारणा कि सत्य कहीं से मिल सकता है—शास्त्र से या गुरु से— आपको स्वयं में नहीं खोजने देती है। यह धारणा बहुत बाधा है। यह भी संसार में ही तलाश है।

स्मरण रहे कि शास्त्र भी संसार के ही हिस्से हैं। जो भी बाहर है, वही संसार है। सत्य वहां है, जहां बाहर नहीं है, क्योंकि स्व वहां है।

स्व ही वास्तविक शास्त्र है और स्व ही वास्तविक गुरु है—उसमें प्रवेश से ही सत्य उपलब्ध होता है।

प्रश्न: ओशो बुद्धि जो बताती है कि सत्य है? क्या वह सत्य नहीं है?

बुद्धि, इंटेलेक्ट विचार करती है। ज्ञान उसे नहीं होता। विचार अंधेरे में टटोलना है, वह जानना नहीं है। सत्य विचारा नहीं जाता, उसका दर्शन होता है, उसका साक्षात होता है। यह बुद्धि से नहीं होता, वरन जब बुद्धि शांत और शून्य होती है, तब होता है। वह अंतर्बोध की स्थिति, बुद्धि नहीं, प्रज्ञा, इनटयूशन है।

प्रज्ञा विचार नहीं, आंख है। जैसे अंधे व्यक्ति को आंख मिल जाए ऐसे ही वह सत्य के लिए आंख है। विचार से कोई कभी कहीं पहुंचता नहीं है। वह अंतहीन टटोलना है। जैसे अंधा व्यक्ति अनंत तक टटोलता रहे तो भी क्या वह टटोलने से प्रकाश को पा सकेगा? टटोलने और प्रकाश में जैसे कोई संबंध नहीं है, वैसे ही विचारने और सत्य में भी नहीं है। वे दोनों बिलकुल भिन्न आयाम, डाइमेन्शन हैं।

प्रश्न: ओशो क्या कृष्ण या क्राइस्ट के साक्षात को आप आत्मिक अनुभव नहीं मानते हैं?

हीं, वे आत्मिक अनुभव नहीं हैं। किसी का भी अनुभव आत्मिक अनुभव नहीं है। उस तल पर सब अनुभव मानसिक, साइकोलॉजिकल हैं।

जब तक’ किसी’ का साक्षात है, तब तक’ अपना’ साक्षात नहीं है। उस तरह के अनुभवों में भी हम अपने से बाहर ही हैं और हमारा स्वयं में आना नहीं हुआ है।

वह आना तो तब होता है, जब बाहर कोई भी अनुभव नहीं होता है। जब कोई विषय, ऑब्जेक्ट होकर चेतना के समक्ष नहीं होता है, तब वह सहज ही स्वयं में प्रतिष्ठित होता है। निर्विषय, ऑब्जेक्टलेस ही चेतना स्वाधार होती है।

मैं अपने से बाहर दो जगतों से घिरा हूं— एक पदार्थ, मैटर का, एक मन, माइंड का। वे दोनों ही मुझसे बाहर हैं। पदार्थ तो बाहर है ही, मन भी बाहर है। मन देह के भीतर होने से, भीतर होने का भ्रम देता है। वह भी’ भीतर’ नहीं है।’मैं’ उसके भी पीछे हूं और उसके भी पार हूं।

पदार्थानुभवो को हम आत्मिक समझने की भूल नहीं करते हैं, पर मानसिक अनुभवों को आत्मिक समझने की भांति इसलिए ही हो जाती है, क्योंकि वे पदार्थ जगत से भिन्न मालूम होते हैं और आंख बंद करने पर दिखाई पड़ते हैं। पर मानसिक अनुभवों में स्वप्न आदि को हम आत्मिक नहीं समझते, क्योंकि उनकी सत्ता आंख बंद करने पर ही होती है, और जागरण, बाहर के जगत से संपर्क उन्हें खंडित कर देता है। उन मानसिक अनुभवों का ही आत्मिक और वास्तविक होने का भ्रम होता है, जिन्हें मानसिक प्रक्षेप, मेंटल प्रोजेक्शन कहा जाता है। मन की यह क्षमता है कि वह स्वयं को इतना सम्मोहित, हिप्‍नोटाइज कर सकता है कि जिन स्वप्नों को उसने केवल आंख बंद करके देखा है, उन्हें आंख खोल कर भी देख सके। यह एक तरह की जाग्रत सुषुप्ति, वेकिंग स्लीप में होता है। भगवान के मनोनुकूल दर्शन ऐसे ही होते हैं। ऐसे साक्षात मानसिक प्रक्षेप हैं। जो है, वह नहीं, जो हमने देखना चाहा है, वही हम उनमें देखते हैं। ये अनुभव न तो आत्मिक हैं, न भगवान के हैं। ये केवल मानसिक हैं और आत्म—सम्मोहन जनित हैं।

प्रश्न : ओशो फिर भगवान के दर्शन कैसे होते हैं?

ह’ दर्शन’ शब्द भ्रामक है। इससे ऐसा प्रतिध्वनित होता है कि जैसे भगवान कोई व्यक्ति है, जिसका कि साक्षात होगा और ऐसे ही’ भगवान’ शब्द ही व्यक्ति का भी भ्रम देता है। भगवान कोई नहीं है, केवल भगवत्ता है। व्यक्ति नहीं है, शक्ति है शक्ति का अनंत सागर है। चैतन्य का अनंत सागर है। वही सब रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। वह भगवान स्रष्टा, क्रिएटर की भांति अलग नहीं है। वही है सृष्टि, वही है सृजनात्मकता, क्रिएटिविटी, वही है जीवन।

‘अहं’, ईगो से घिर कर हम इस’ जीवन’, लाइफ से भिन्न होने का आभास कर लेते हैं। वही प्रभु से हमारी दूरी है, यूं वस्तुत: दूरी असंभव है। अहं से,’मैं’ से पैदा हुआ आभास ही दूरी है। यह दूरी अज्ञान है। वस्तुत: दूरी नहीं है, अज्ञान ही दूरी है।

‘मैं’ मिट जाए तो अनंत, अपरिसीम सृजनात्मक जीवन—शक्ति का अनुभव होता है। वही भगवान है।’मैं’ की शून्यता पर जो अनुभव है, वही’ भगवान’ का दर्शन है।

मैं क्या देख रहा हूं कि’ मैं’ कहीं भी नहीं है और जो सागर की लहरों में है वही मुझमें है, जो स्वयं वसंत में नई फूटती कोंपलों में है, वही मुझमें है, जो पतझड़ में गिरे पत्तों में है, वही मुझमें है। मैं विश्वसत्ता से कहीं भी टूटा और पृथक नहीं हूं उसमें हूं वही हूं—यही अनुभव प्रभु—साक्षात है।

ऋषि ने कहा है’ तत्वमसि श्वेतकेतु।’ श्वेतकेतु, वह तू ही है, दैट आर्ट दाउ। ऐसा ही जिस दिन आपको दिखे, उस दिन जानना कि प्रभु—साक्षात हुआ है। इससे नीचे और इससे भिन्न सब कल्पना, इमेजिनेशन है।

प्रभु का दर्शन क्या होना है? स्वयं ही प्रभु हो जाना है। बूंद सागर का दर्शन क्या करती होगी! मिट सकती है, तो सागर ही हो जाती है। बूंद होकर सागर उससे अनंत दूरी पर है, मिट कर वह स्वयं ही सागर है।

भगवान को मत खोजो, भगवान होने को खोजो। और खोजने का मार्ग वही है जो बूंद का सागर को खोजने का है।

प्रश्न: ओशो मैं ईश्वर पर विश्वास करता हूं। पर आप कहते हैं कि विश्वास घातक है तो क्या मैं अपना विश्वास छोड़ हूं?

क्या आपके प्रश्न में ही उत्तर नहीं छिपा हुआ है? जो विश्वास पकड़ा और छोड़ा जा सकता है, क्या वह भी कोई विश्वास है? वह तो मात्र एक अंध मानसिक धारणा है, जिसका कि स्पष्ट ही कोई भी मूल्य नहीं है। वह अंधविश्वास है। और अंधापन तो जीवन में जितना कम हो, उतना अच्छा है।

मैं विश्वास करने को नहीं, जानने को कहता हूं।

ज्ञान से, साक्षात से, जानने से, जो चित्त—स्थिति आती है, उसका मूल्य है, चाहें तो उसे सम्यक श्रद्धा कहे—पर वह श्रद्धा नहीं है, ज्ञान ही है।

सत्य पर श्रद्धा मत करिए, शोध करिए—खोजिए। मान्यता मत पकडिए कोई भी। वह चित्त की कमजोरी का लक्षण है। वह आलस्य है, वह प्रमाद है। वह स्वयं खोज के श्रम से बचने का घातक उपाय है। अंधविश्वास साधना से पलायन है। एक अर्थ में वह आत्मघात ही है; क्योंकि जो उसमें गिरा वह सत्य तक उठने में असमर्थ हो जाता है। वे दोनों विपरीत राहें हैं। एक है खाई, जिसमें गिरना होता है। दूसरा है पर्वत, जिस पर चढ़ना होता है।

श्रद्धा सरल है, क्योंकि उसमें कुछ करना ही नहीं है। ज्ञान उस अर्थ में सरल नहीं है। वह पूरा जीवन— परिवर्तन है। श्रद्धा मात्र वस्त्र है, ज्ञान अंतस—क्रांति है। श्रद्धा की सरलता धर्म को सहज ही साधना की तपश्चर्या से अंधविश्वास की निद्रा में गिरा देती है। धर्म श्रद्धा नहीं है; पर लोकधर्म श्रद्धा ही है। और इसलिए जो लोकधर्म बना दिख रहा है, उसे मैं धर्म कहने में अपने को असमर्थ ही पाता हूं। उसके संबंध में मार्क्स ही सही है। वह धर्म नहीं, नशा ही है।

आज इतना ही।


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साधना–सूत्र–(प्रवचन–15)

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पूछो—पवित्र पुरूषों से—(प्रवचन—पंद्रहवां)

सूत्र:

आंतरिक इंद्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके,

बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीतकर,

जीवात्मा की इच्छाओं पर विजय पाकर और ज्ञान प्राप्त करके,

हे शिष्य,

वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा।

मार्ग मिल गया है

उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर।

10—पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से—

उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं।

तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों के विकास के कारण यह कार्य कर सकोगे।

 

11—पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से,

उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए संजोए हुए हैं।

बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत लेने से तुम्हें यह रहस्य जान लेने का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।

सूत्र के पहले कुछ मित्रों ने थोड़े से प्रश्न पूछे हैं.. .सभी प्रश्न साधना के समय नग्न होने से संबंधित हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि नग्नता पर रोक क्यों लगाई गई है? क्या उसका उपयोग नहीं है?

नग्नता का तो बहुत उपयोग है। सिर्फ नग्नता, नग्नता ही नहीं है इसलिए। तुम्हारे वस्त्रों के साथ तुम्हारी संस्कृति, तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारे संस्कार, सभी जुड़े हुए हैं। उन्हें उतार कर रखते ही वह सब भी, जो तुम्हारे ऊपर चढ़ा है वस्त्रों की भांति, उतार कर रख दिया जा सकता है। नग्न होने का भय ही यही है कि मैं जैसा हूं वैसा ही दिखाई न पड़ जाऊं।

बाह्य नग्नता तो प्रथम चरण है। वस्तुत: तो नग्न भीतर होना है, कि मैं जैसा हूं वैसा ही प्रकट हो जाऊं। कोई नकाब, कोई चेहरा, कोई मुखौटा, कोई ऊपर का आवरण, जो झूठा है, मेरे ऊपर न रहे। लेकिन मनुष्य चूंकि बाहर ही जीता है, इसलिए बाहर की नग्नता भी भीतर की नग्नता की तरफ सहयोगी होती है। नग्न होने में भय भी लगता है। क्योंकि वस्त्रों ने तुम्हें वह रूप दिया है, जो तुम्हारे शरीर पर नहीं है। वस्त्रों ने तुम्हें ढांक रखा है, वस्त्रों ने तुम्हें छिपा रखा है। दूसरे की आंखों से तुम वस्त्रों के कारण बच जाते हो।

नग्न खड़े होने का अर्थ है, मैं जैसा हूं बुरा—भला, सुंदर—असुंदर, वैसा प्रकट हूं और अपने को छिपाता नहीं हूं।

यह एक प्रतीक है। और सुबह के ध्यान में, दूसरे चरण में, जब कि मैं तुमसे कहता हूं कि जो भी तुम्हारे भीतर हो, उसे प्रकट कर दो, तो स्वभावत: वस्त्रों को फेंक देने का खयाल भी पैदा होता है। और वस्त्रों को जो उतार कर रख देता है, उसे दूसरे चरण में अपनी विक्षिप्तता को प्रगट करने में ज्यादा आसानी हो जाती है। क्योंकि जो नग्न होने को राजी हो गया, उसे अब दूसरे की चिंता नहीं है। अब वह चीख भी सकता है, चिल्ला भी सकता है, नाच भी सकता है। दूसरे की चिंता जैसे वस्त्रों के साथ ही उतर गई। दूसरे क्या कहेंगे, जिसको इस बात का भय है, वह तो वस्त्र भी नहीं उतार पाएगा। सहयोगी है कि वस्त्रों को उतार कर रख कर ही सुबह के ध्यान में प्रवेश किया जाए। लेकिन कुछ साधक उतना साहस नहीं भी कर पाते, तो बीच में भी दूसरे चरण में उन्हें ऐसा खयाल आ सकता है कि वस्त्र अलग कर दें, तब भी वस्त्रों को अलग कर देना उपयोगी है।

यह उपयोगिता अगर वस्त्र सिर्फ वस्त्र ही होते, तो न होती। वस्त्रों के साथ बहुत कुछ जुड़ा है। जब तुम बच्चे की भांति पैदा हुए थे तो नग्न थे। जब भी तुम पुन: नग्न खडे हो जाते हो, तुम अपने बचपन में वापस लौट जाते हो। वस्त्र तुम पर आरोपित किए गए हैं। जिस दिन से तुम्हारे ऊपर वस्त्र आरोपित किए गए, उसी दिन से तुम्हें शरीर का बोध हुआ। उसी दिन से शरीर में कुछ पाप है, शरीर में कुछ छिपाने योग्य है, शरीर में कुछ ढांकने योग्य है, शरीर में कुछ बुरा है, ये सारे भाव पैदा हुए। छोटे बच्चे को उसके मां—बाप, अगर वह नग्न बाहर आ जाए, तो डांटेंगे, डपटेंगे। तो शरीर के प्रति एक निंदा का भाव, वस्त्रों के साथ ही पैदा हुआ है।

शरीर में कुछ बुरा है, विशेष कर जननेंद्रिया बुरी हैं, छिपाने योग्य हैं। उसके साथ ही तुम्हारा शरीर भी दो हिस्‍सों में बंट गया है। नीचे का शरीर कुछ बुरा है और ऊपर का शरीर कुछ अच्छा! यह जो विभाजन है शरीर के भीतर, इसने तुम्हारी जीवन चेतना को भी दो खंडों में बांट दिया है। आमतौर से लोग अपने सिर को ही अपना मानते हैं, बाकी शरीर को अपना नहीं मानते! बहुत हुआ तो ऊपर के हिस्से को अपना मानते हैं, नीचे के हिस्से को ऐसा मानते हैं कि मजबूरी है। इससे तुम्हारे भीतर जो जीवन—ऊर्जा है, वह खंडित हो गई है। बच्चे के भीतर जीवन—ऊर्जा अखंड होती है, उसका वर्तुल होता है। तुम्हारे भीतर वह वर्तुल नहीं है। लेकिन जिस क्षण तुम साहस करते हो और वस्त्रों को उतार कर रख देते हो, उसी क्षण, वस्त्र पहनने के दिन से, वस्त्र जबर्दस्ती पहनाए जाने के दिन से, अब तक तुम्हारे चित्त पर जो—जो शरीर के संबंध में निंदा के भाव थे, वे भी हट जाते हैं।

तुम्हें खयाल ही न होगा कि हम इतने वस्त्रों में रहते हैं कि धीरे— धीरे हमें खुद भी भूल गया है कि वस्त्रों के बिना हमारा शरीर क्या है। वस्त्रों में हम एक कैद की तरह हैं, वस्त्र हटते ही हम मुक्त हो जाते हैं। पशु—पक्षियों की तरह मुक्त हो जाते हैं। उस मुक्तता का उपयोग किया जा सकता है।

इसलिए उपयोगिता तो बहुत है, लेकिन इस शिविर में मजबूरी थी। मजबूरी ऐसी थी कि या तो शिविर हो, तो नग्नता की सुविधा न हो सकेगी; नग्नता की सुविधा करनी हो तो शिविर न हो सकेगा। तो इन दोनों में जो कम बुराई थी, वही चुन लेनी उचित समझी। क्योंकि राजस्थान सरकार ने केवल दो दिन पहले खबर भेज दी कि वह अपने कोई मैदान, अपनी कोई संस्था, अपना कोई भवन नहीं दे सकेंगे। दो दिन पहले कोई भी व्यवस्था होनी मुश्किल थी। और साधक सारी दुनिया से आ चुके थे। भारत के साधक तो आने वाले थे, भारत के बाहर के साधक आ चुके थे। और कोई उपाय नहीं था। और सरकार को इतना तो हक है ही कि वह अपनी जमीन के लिए इंकार कर दे, कि वहां नग्न कोई नहीं हो सकेगा। उसके हक में भी कोई बुराई नहीं है, वह जमीन उनकी है, हमारे पास अपनी कोई जमीन नहीं है। यहां इस पैलेस होटल में जहां व्यवस्था की गई है, होटल व्यवस्थापकों की भी मजबूरी है, वे भी साहस नहीं जुटा सकते हैं कि नग्न होने का मौका दें। क्योंकि उनके लिए सवाल व्यवसाय का है।

तो इसलिए मजबूरी थी कि सुबह की नग्नता पर प्रतिबंध लगा देना पड़ा। लेकिन इससे आप यह न समझें कि हमने कोई साधना की पद्धति बदल ली है। और इससे आप यह भी न समझें कि सरकार के सामने कोई हम झुक गए हैं। ये सारी बातें नहीं हैं। न तो कोई झुकने का सवाल है, न कोई व्यवस्था बदलने की बात है। सरकार ने हमें एक सुविधा ही दी और उससे लाभ ही होगा कि हम अपनी ही व्यवस्था शीघ्र कर पाएंगे, जहां किसी का कोई प्रतिबंध न हो सके।

सरकार की अपनी मजबूरियां हैं, उसके ऊपर अपने दबाव हैं—समाज के, संस्कारों के, समूह के। लेकिन हमारी निजी व्यवस्था हो तो कोई दबाव डाला नहीं जा सकता। वह हमारी निजी व्यवस्था होगी। उसके भीतर जो नग्न होना चाहते हैं, वे हो सकते हैं। वह कोई पब्लिक, कोई सार्वजनिक जगह नहीं होगी। अब यह होटल है, सार्वजनिक जगह है, और लोग भी आ सकते हैं। तो जहां और लोग भी आ सकते हैं, वहां और लोगों का ध्यान भी रखना जरूरी है।

और फिर जीवन को बदलने की जो भी प्रक्रियाएं हैं, वे आमतौर से हमेशा ही समूह के विपरीत पड़ जाती हैं। नग्नता का ही सवाल नहीं है, नग्नता तो केवल प्रतीक है, हम जो भी कर रहे हैं, वह समूह की धारणाओं के प्रतिकूल पड़ेगा ही। क्योंकि समूह जीता है अंधे की भांति बिना सोचे—समझे। समूह जीता है परंपरा की लीक पर। जो परंपरा कहती है, उसे ठीक मानता है। चाहे उसे ठीक मानने के कारण उसे कितना ही दुख झेलना पड़ता हो। उसे खयाल भी नहीं होता कि मेरी मान्यताएं ही मेरे दुख का कारण हैं। जो लोग भी जीवन में क्रांति करने को उत्सुक हैं, उन्हें समूह की धारणाओं के पार तो उठना ही पड़ता है।

संन्यास का यही अर्थ है। संन्यास का अर्थ समाज को छोड़ना नहीं है, क्योंकि समाज को तो छोड़ा जा नहीं सकता। संन्यास का अर्थ है, समाज की धारणाओं के पार उठना। वह जो समाज जिसको ठीक समझता है, अगर वह अनुभव से ठीक मालूम पड़े तो ही मानना, अगर अनुभव से ठीक न मालूम पड़े, तो उससे भिन्न की खोज करना।

लेकिन फिर भी बुद्धिमान व्यक्ति को यह ध्यान रखना जरूरी है कि जिनके बीच हम जीते हैं, उनकी मान्यताएं, उनकी धारणाएं, हम अपने लिए तो छोड़ सकते हैं, लेकिन उनकी धारणाओं को हम तोड़े, वह उचित नहीं है। हम अपने लिए उनकी धारणाएं तोड़ सकते हैं, हम धारणाओं से मुक्त हो सकते हैं। वह हमारी निजी स्वतंत्रता है। लेकिन मैं आपसे नहीं कहूंगा कि आप सड़क पर जा कर नग्न खड़े हो जाएं, क्योंकि सड़क आपकी नहीं है। और सड़क के आसपास रहने वाले जो लोग हैं, उनको किसी भी बात से दुख हो, ऐसा कोई भी काम करना उचित नहीं है। लेकिन मैं सड़क के लोगों से भी कहना चाहता हूं कि उनका भी यह हक नहीं है कि कोई एकांत निर्जन में अपनी व्यवस्था के भीतर नग्न खड़ा हो, तो वह उसमें अड़चन पैदा करें। व्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल्य होना जरूरी है।

लेकिन व्यक्ति की स्वतंत्रता का कभी भी यह अर्थ नहीं है कि वह स्वतंत्रता स्वच्छंदता हो जाए। तुम्हें मैंने अगर कहा भी है कि सुबह के ध्यान में नग्न हो सकते हो, तो वह तुम्हें कोई नग्न होने की छूट नहीं दे दी है कि तुम कहीं भी नग्न हो सकते हो। और अगर तुम कहीं भी नग्न होना चाहो, तो उसका अर्थ ही यह हुआ कि तुम्हें ध्यान में रस नहीं है, तुम्हें नग्नता में रस है। वह रोग है। फिर तो रोग हो गया, उलटा रोग हो गया। कोई वस्त्रों के दीवाने हैं, तुम नग्नता के दीवाने हो गए। उसमें कुछ फर्क न रहा। नासमझी उलटी हो गई। तुम शीर्षासन करके खड़े हो गए। कोई पागल है, वह कहता है, वस्त्र उतारना नहीं, चाहे कुछ भी हो जाए।

मैंने एक ईसाई साध्वी के संबंध में पढ़ा है कि वह अपने स्नानगृह में भी वस्त्र पहन कर ही स्नान करती थी! तो उसके साथियों—संगियों ने कहा कि तू बिलकुल पागल है, स्नानगृह में तेरे अतिरिक्त तो कोई होता नहीं, तो वहां कपड़े पहन कर स्नान करने का क्या अर्थ है? स्नान का तो मजा ही चला गया! तो उस साध्वी ने कहा कि जब से मैंने बाइबिल में यह पढ़ा है कि परमात्मा तुम्हें सब जगह देख रहा है, तब से मैं बाथरूम में भी नग्न नहीं हो पाती।

यह एक पागलपन है। और अगर परमात्मा सभी जगह देख रहा है, तो कपड़ों के भीतर नहीं देख सकेगा? उसे कपडे क्या अड़चन देंगे? जब दीवाल अड़चन नहीं दे रही है, तो कपड़े क्या अड़चन देंगे? और परमात्मा भी कोई पीपिंग टीम है कि हर किसी के बाथरूम में झांक रहा है! तो रुग्ण है फिर तुम्हारा परमात्मा भी।

आदमी खुद रुग्ण हो तो वह अपने परमात्मा को भी रुग्ण कर लेता है। तुम्हारे रोग तुम्हारे देवी— देवताओं पर हावी हो जाते हैं। क्योंकि तुम्हारे ईश्वर की धारणा भी तुम्हीं तो निर्मित करते हो। अगर घोड़े ईश्वर की धारणाएं बनाएं, तो उसका चेहरा आदमी जैसा नहीं बनाएंगे, घोड़े जैसा ही बनाएंगे। अगर नीग्रो ईश्वर बनाते हैं तो वे उसको काला ही चित्रित करते हैं। उनके ईश्वर के ओंठ नीग्रो के ओंठ होते हैं, उनके ईश्वर के नीग्रो के बाल होते हैं। अगर चीनी ईश्वर को बनाते हैं, तो उसकी गाल की हड्डियां निकालते हैं, चपटी नाक रखते हैं।

हम अपने ईश्वर को अपनी ही शकल में बनाते हैं। तो हमारे जो रोग होते है, वे हमारे ईश्वर पर भी हावी हो जाते हैं। अब ये आदमी एक—दूसरे के बाथरूम में झांक कर जरूर देखना चाहते हैं। यह आदमी का रोग है। ये ईश्वर भी ऐसा बना लेते हैं, जो सब जगह झांक रहा है!

नग्न होने का मोह अगर पैदा हो जाए, तो वह भी रोग है, बीमारी है। ध्यान रहे, आपका नग्न होना एक बात है। और आप दूसरों को नग्न हो कर दिखाएं, यह दूसरी बात है। इन दोनों में फर्क है। आप का नग्न होना सहज हो सकता है। लेकिन आप नग्न हो कर दूसरे को दिखाने में उत्सुक हों कि कोई देखे, तो मनोविज्ञान में उसे वे कहते हैं, एक्जिबीशनिस्ट। वह प्रदर्शनवादी जो है, वह रोगी है।

इसे थोड़ा समझें। मनोविज्ञान दो तरह की बीमारियां बताता है इस संबंध में। एक को वह कहता है, व्योरिज्म— दूसरा नग्न हो, ऐसा देखने में रस लेना। एक को कहता है, एक्जिबीशनिज्म— हम नग्न हों और दूसरे देखें, इसमें रस लेना। ये दोनों बीमारियां हैं। ये दोनों सहज नहीं हैं। पुरुष अक्सर वोयूर होते हैं। पुरुषों को जो बीमारी होती है, वह झांक कर स्त्रियों को देखने की होती है। स्त्रियां एक्जिबीशनिस्ट होती हैं। उनकी जो बीमारी होती है, वह यह होती है कि उन बूढ़ो कोई झांक कर देखे। इसलिए स्त्रियां सारा उपाय करती हैं। ऐसे वस्त्र पहनती हैं, ऐसे गहने लगाती हैं, ऐसा सारा इंतजाम करती हैं कि कोई देखे। और पुरुष सारा इंतजाम करते हैं कि किस भांति देखें। मगर ये दोनों रोग हैं।

और आप जान कर हैरान होंगे कि दोनों रोग ही वस्त्रों के कारण पैदा हुए हैं। अगर आप एक आदिवासी समाज में चले जाएं, जहां पुरुष—स्त्रियां नग्न हैं, तो न तो वहां वोयूर होता है, और न एक्जिबीशनिस्ट होता है। वहां न तो कोई देखने में उत्सुक होता है, क्योंकि देखने को बचा क्या है? जिसमें उत्सुकता रखो। सभी नग्न हैं, देखने को है क्या? देखने की उत्सुकता तो जब कुछ छिपाया हो, तब होती है। जब बातें खुली ही हों, तो देखने को क्या है? तो आदिवासी समाज में, जहां स्त्री—पुरुष नग्न हैं, न तो कोई देखने में उत्सुक है, न कोई दिखाने में उत्सुक है। देखने—दिखाने का रोग वस्त्रों के साथ पैदा हुआ है। फिर रोग कितना बढ़ सकता है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।

कितने चित्र, कितनी कहानियां, कितनी फिल्में, कितनी पत्रिकाएं, सिर्फ इसलिए छपती हैं और बिकती हैं कि उनमें नग्न चित्र छपते हैं। और सारी दुनिया की सरकारें रुकावट लगाती हैं कि यह न हो। लेकिन यह नहीं रुक पाता। अंडर—ग्राउंड प्रेस हैं, भारी प्रचार चलता है, करोड़ों रुपए का साहित्य नीचे— नीचे बिकता रहता है। कोई दुनिया की ताकत उस पर रोक लगा नहीं पाती। बल्कि जितनी रोक लगाई जाती है, उतना ब्लैक—मार्केट में वह सारा का सारा साहित्य बिकता है।

पर यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आदमी क्यों किसी को नग्न देखने में इतना उत्सुक है?

आप जान कर चकित होंगे कि आप उन्हीं हिस्सों को देखने में उत्सुक होते हैं, जो ढंके हैं। जो उघडे हैं, उनको देखने में उत्सुक नहीं होते। जिन लोगों ने वस्त्रों की ईजाद की, शायद आप सोचते होंगे कि वे लोग कामवासना के बड़े विपरीत थे, इसलिए ईजाद किए, तो आप गलती में हैं। जिन्होंने वस्त्रों की ईजाद की, उन्होंने आदमियों को कामातुर बनाने का बड़ा भारी उपाय किया। क्योंकि जो अंग छिपा दिए गए हैं, उनमें बहुत रस पैदा हो गया है, रूग्‍ण रस पैदा हो गया है। इस रस का कोई भी कारण नहीं है, शरीर सहज बात है। लेकिन उसको छिपा—छिपा कर हमने, निषेध कर—कर के बहुत रस पैदा कर दिया। सारी दुनिया इस रस से ग्रस्त हो गई है।

तो आप दोनों बातें खयाल रखें। न तो दूसरे को नग्न देखने में उत्सुकता लेनी कोई समझदार व्यक्ति की बात है। और न ही कोई उसे नग्न देखे, इसमें कोई रस लेना किसी समझदार व्यक्ति की बात है। ये दोनों रोग हैं। और ये दोनों रोग आपके वस्त्रों के साथ ही रख दिए जाने चाहिए। तो ही आपकी नग्नता में अध्यात्म प्रविष्ट होता है। तो ही आपकी नग्नता अश्लील नहीं रह जाती।

लेकिन यह तो आपकी बात है। समाज इसके लिए राजी होगा, जरूरी नहीं है। क्योंकि समाज तो उन्हीं रुग्ण बातों से भरा हुआ पड़ा है। अखबार राजी होंगे, यह सवाल नहीं है। अखबार छापने वाला, पत्रकार, वे सब उन्हीं रुग्ण बातो से भरे पड़े हैं। उनकी भी तकलीफ वही है, उनकी भी अड़चन वही है। सरकार राजी हो जाएगी, ऐसा नहीं है। क्योंकि सरकार के पदों पर जो लोग बैठे हैं, उन्हें कोई अध्यात्म की जरा सी भी झलक होती, तो वहां नहीं होते, कहीं और होते। इसलिए वे कोई राजी हो जाएंगे, यह सवाल नहीं है। उनको राजी करने की कोई जरूरत भी नहीं है, कोई प्रयोजन भी नहीं है। उनकी तरफ ध्यान भी देने की जरूरत नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। लेकिन इतना तो तय है कि वे बाधा और अड़चन डाल सकते हैं। लेकिन बाधा और अड़चन वे तभी डाल सकते हैं, जब आप भी नग्नता को रोग की तरह पकड़ लें। नहीं तो वे भी बाधा और अड़चन नहीं डाल सकते। यह हमारी निजी साधना की बात है, और निजी स्थल पर है।

मैं तो पक्ष में नहीं हूं कि इस बात के भी कि जैन मुनि भी सड़क पर नग्न निकलें। क्योंकि सड़क निकलने वाले की ही नहीं है, सड़क पर जो लोग रहते हैं, उनकी भी है; जिनको दिखाई पड़ता है, उनकी भी है। अगर वे नहीं देखना चाहते हैं, तो उनकी आंखों पर हमला करना उचित नहीं है। वे ठीक हैं या गलत, यह सवाल नहीं है। लेकिन आख मेरी है और मैं आपको नग्न नहीं देखना चाहता हूं तो आपको ऐसी जगह खड़े नहीं होना चाहिए, जहां से आप मुझे नग्न दिखाई पड़े। और आप ऐसी जगह खड़े होते हैं, तो उसका मतलब ही यह है कि आपको नग्न होने में रस कम है, कोई आपको नग्न देखे, इसमें ज्यादा रस है। तब तो बात ही व्यर्थ हो गई। तब तो यह हुआ कि हम एक रोग को छोड़ कर दूसरे रोग में पड़ गए। कुएं से बचे तो खाई में गिर गए।

मैं कोई नग्नतावाद का प्रचारक नहीं हूं। लेकिन नग्नता का एक उपयोग हो सकता है साधना में, उसमें जरूर मेरी सहमति है। लेकिन समाज का ध्यान रखना सदा ही जरूरी है। इसलिए नहीं कि आप समाज से कोई डरते हैं, यह डर का कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन यह तो ऐसा ही हुआ कि जैसे कोई हार्न बजा रही हो बस और आप सामने ही खड़े रहें, कि हम डरते थोड़े ही हैं, जो रास्ते से हटें? तो आप पागल हैं। हार्न बज रहा हो और बस आ रही हो, तो कोई डर की वजह से थोड़े ही हटता है। कि जो हट जाए उसको आप कहेंगे कि डरपोक हो, क्योंकि जब बस आ रही थी, तब आप हटे क्यों? जब हार्न बज रहा था, तब खड़े रहना था। तो कोई पागल होता तो खड़ा रहता।

जीवन में झुकने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन जीवन में व्यर्थ अकड़े रहने की भी कोई जरूरत नहीं है, और दोनों के बीच मार्ग खोज लेना जरूरी है।

इसलिए यहां जो एक ही उपाय था कि शिविर हो सकता, तो नग्नता पर रोक लगानी—जरूरी थी, होगा। थोड़ी बाधा तो पड़ेगी ही, लेकिन उस बाधा से इतना नुकसान नहीं होगा, जितना शिविर के न होने से होता। और मैं किसी भी मामले में अंधा नहीं हूं। और किसी भी मामले में मुझे किसी तरह का पागलपन नहीं है। जो उचित हो, और जो सुगम हो, और जिस भांति अधिक लोगों को लाभ हो सके, सदा उस पर ही विचार कर लेना उचित है।

‘आंतरिक इंद्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके, बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत कर, जीवात्मा की इच्छाओं पर विजय पा कर और ज्ञान प्राप्त करके, हे शिष्य, वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा। मार्ग मिल गया है, उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर।’

 

दसवां सूत्र, ‘ पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से—उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं। तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों के विकास के कारण यह कार्य कर सकोगे।’

सवां सूत्र बहुत विचारणीय है। लंबी यात्रा के बाद, जिन सूत्रों की हमने बात की है, उनको समझ कर और उनको जीने के बाद, दसवें सूत्र पर प्रयोग किया जा सकता है, उसके पहले नहीं। उसके पहले तो यह बात ही बड़ी अजीब लगेगी, यह सूत्र बेबूझ मालूम पड़ेगा। कोई बहुत ही ज्यादा समझने की कोशिश करेगा, तो सोचेगा कि काव्य की बात है, सुंदर है, प्रतीक है। लेकिन यह काव्य नहीं है और न ही प्रतीक है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। पर यह तथ्य विज्ञान का, सारे प्रयोग कर चुके हैं तो ही खयाल में आ सकता है।

‘पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से— उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं।’

यह अध्यात्म की गुह्य विद्या के कुछ बुनियादी आधारों में से एक है। इसे हम समझें।

इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम सत्य की उदघोषणा होती है, वह शास्त्रों में तो संगृहीत होती ही है, लेकिन वह अस्तित्व में भी संगृहीत हो जाती है। शास्त्रों में तो भूल भी हो सकती है, क्योंकि आदमी संगृहीत करता है। लेकिन अस्तित्व में कोई भूल नहीं हो सकती, क्योंकि कोई संगृहीत करता नहीं, संगृहीत होती है।

बुद्ध बोले। पहला वचन बोधि—वृक्ष के नीचे प्रकट हुआ। उसके भी पहले बुद्ध को जो ज्ञान की परम—अवस्था हुई, वह बोधि—वृक्ष के नीचे घटित हुई। बौद्धों ने उस बोधि—वृक्ष को बचाने की कोशिश की है। वही बोधि—वृक्ष अब भी जीवित है। उसकी एक शाखा अशोक ने अपनी बेटी संघमित्रा और अपने बेटे महेन्द्र के हाथ लंका भेजी। बौद्ध भिक्षुओं ने, जो भविष्य में झांक सकते थे, उनको यह प्रतीति थी कि भारत में बौद्ध— धर्म बचेगा नहीं। बुद्ध ने भी घोषणा की थी कि मेरा धर्म अब पांच सौ वर्ष से ज्यादा भारत में न बच सकेगा। कारण? कारण था स्त्रियों का संघ में प्रवेश।

बुद्ध ने बहुत समय तक, स्त्रियों को संन्यास न दिया जाए, इसकी जिद्द पकड़े रखी। बहुत समय तक, वर्षों तक बुद्ध टालते रहे, कि स्त्रियों को संन्यास न दिया जाए। बौद्ध भिक्षुओं का संघ सिर्फ पुरुषों के लिए हो। लेकिन इसमें थोड़ी ज्यादती मालूम पड़ती थी। थी भी। और अनेकों, लाखों स्त्रियां भिक्षुणी होने को तैयार थीं, और उनकी प्रार्थना बढ़ती चली गई। और आखिर उनके दबाव में, और उनके प्रति करुणा के वश, बुद्ध राजी हुए। और बुद्ध ने स्त्रियों को संन्यास दिया। जिस दिन उन्होंने स्त्रियों को दीक्षा दी, उसी दिन उन्होंने कहा कि अगर मैं स्त्रियों को संघ में दीक्षा न देता, तो जो धर्म हजारों वर्ष चल सकता था, वह अब केवल पांच सौ वर्ष चलेगा।

मैं भी बहुत सोचता था कि बुद्ध ने थोडी ज्यादती की, इतनी देर तक स्त्रियों को रोकना उचित न था। लेकिन जैसे—जैसे स्त्रियों से मेरा संपर्क बढ़ रहा है, वैसे—वैसे मुझे लगता है कि शायद उन्होंने ठीक ही किया था।

स्त्रियों की जो भाव—दशा है, उनके काम करने का जो ढंग है, वह पुरुषों से बहुत भिन्न है। और उसके कारण, अकारण ही बहुत से उपद्रव खड़े हो जाते हैं, जिनसे कि बचा जा सकता था। और वे उपद्रव इस ढंग से खड़ा करती हैं, और इतना जाल बुन लेती हैं, भावना का, कल्पना का, और उसको इतना सत्य मान लेती हैं कि उन्हें उस कल्पना के बाहर खींचना मुश्किल है। वह दूसरों को भी अपने कल्पना—जाल में फंसा डालती हैं। स्त्री और पुरुष के विचार का काम भिन्न है, विपरीत है।

पुरुष चलता है बुद्धि से, विचार से, तर्क से; तो उसके काम में एक व्यवस्था होती है, एक योजना होती है। स्त्रियां चलती हैं भाव से, कल्पना से, स्वप्न से; उनके काम में कोई व्यवस्था और कोई योजना नहीं होती। फिर तर्क और बुद्धि में तो दस लोग साथ राजी हो सकते हैं, कल्पना में कोई राजी नहीं हो सकता। कल्पना आपकी निजी होती है, तर्क सामूहिक हो सकता है। अगर मैं कोई तर्क दूं तो हम निर्णय कर सकते हैं कि किस तरफ राजी हो जाना है। लेकिन अगर भावना की ही बात हो, तो निर्णय का कोई उपाय नहीं रहता। भावना निजी होती है।

इसलिए स्त्रियां कभी संघबद्ध नहीं हो पातीं। चार स्त्रियों को भी इकट्ठा करना बहुत मुश्किल है। स्त्रियों की कोई सेना खड़ी करनी हो तो असंभव है। क्योंकि हर स्त्री सेनापति बन जाएगी, सैनिक नहीं बन सकती। और हर स्त्री आदेश जारी कर देगी, और आदेश मानने वाला कोई भी नहीं होगा। और हर स्त्री अपनी बात में इतनी दृढ़ होगी कि झुकने को भी राजी नहीं हो सकती। और झुकाने का कोई उपाय भी नहीं है, क्योंकि तर्क का तो कोई सवाल ही नहीं है। तर्क में तो सुविधा है कि हम सोच— विचार कर लें, कोई निष्कर्ष निकाल लें, कि क्या ठीक है। लेकिन भावना में कोई सुविधा नहीं है। दस— पच्चीस स्त्रियां इकट्ठी हो जाएं, तो वे इतना उपद्रव मचा सकती हैं, जितना कि पचास हजार पुरुष भी इकट्ठे हो कर नहीं मचा सकते। और काम करने की प्रक्रिया भिन्न है, ढंग भिन्न है।

इसलिए कभी—कभी तो मैं भी सोचता हूं कि बुद्ध ठीक थे। उन पर जोर देना शायद उचित नहीं हुआ। पहले मैं सोचता था कि यह करुणा नहीं है उनकी, क्यों स्त्रियों को रोकते हैं? अब मैं सोचता हूं कि शायद यही करुणावान हुआ होता कि स्त्रियों को वे रोक देते, तो धर्म उनका हजारों साल रह जाता। वह करुणा ज्यादा होती, कि स्त्रियों को दीक्षा दे कर पांच सौ साल में नष्ट हो जाए, यह करुणा ज्यादा होती—कहना मुश्किल है।

अशोक ने अपने बेटे और अपनी बेटी को बोधि—वृक्ष की एक शाखा ले कर लंका भेजा, ताकि यह बोधि—वृक्ष सुरक्षित रह सके। क्योंकि भारत में जिस दिन बुद्ध धर्म समाप्त होगा, उसी दिन बोधि— वृक्ष भी जला दिया जाएगा, तोड़ दिया जाएगा, मिटा दिया जाएगा— सूख जाएगा। वह बोधि—वृक्ष लंका में जिंदा रहा। और अभी कुछ ही वर्ष पहले उसमें से फिर शाखा ला कर वापस बोधि—वृक्ष को बुद्ध गया में पुनर्स्थापित किया।

इस वृक्ष के पीछे इतने लगाव का कारण सिर्फ भावना का नहीं है। इस वृक्ष ने बुद्ध के जीवन में जो परम—प्रकाश हुआ, वह अंकित किया है अपने में। यह वृक्ष उस प्रकाश को पी गया है। बुद्ध के अस्तित्व में जो विस्फोट हुआ, वह इस वृक्ष के रोएं—रोएं में समा गया है।

तो आदमी ने जो संग्रह किया है बुद्ध के बाबत, उसमें तो भूलें हैं। भूलें होंगी। बड़ी कठिनाई है। बुद्ध बोलते हैं, तो भी पच्चीस सुनने वाले पच्चीस अर्थ निकालते हैं। बुद्ध के मर जाने के बाद इकट्ठा हुआ संघ, बुद्ध की वाणी इकट्ठी करने को, तो बड़ी अड़चन आई, कोई तालमेल न था। जो लोग सदा से उनके साथ रहे थे, उनमें भी भेद था। वे कहते, यह कभी कहा नहीं। कोई कहता था, यह उन्होंने सदा कहा। कोई कहता था, उसका यह अर्थ है। कोई कहता था, उसका यह अर्थ हो ही नहीं सकता। बड़ी कठिनाई थी। फिर किसी तरह सब के बीच छान—बीन कर जो सब में ताल—मेल खाता था, वह इकट्ठा किया गया।

अगर बुद्ध आएं तो उसे बिलकुल इंकार कर देंगे, क्योंकि वह मौलिक है ही नहीं। पहले तो पचास लोगों ने इकट्ठा किया, फिर उसमें भी जिन—जिन में तालमेल नहीं खाता था, वे हिस्से अलग कर दिए। फिर सबकी बात जिसमें सहमति होती थी, वह इकट्ठी कर ली। अगर बुद्ध आएं, तो वे कहेंगे, यह तो मैंने कभी कहा नहीं।

ऐसा ही समझें कि मैं यहां कुछ बोल रहा हूं फिर आप सब लोगों का मंतव्य लिया जाए कि मैंने क्या कहा है। फिर उसमें से सार निकाला जाए, जिसमें कोई नाराज न हो, कोई असहमत न हो, ऐसा सार—बिंदु खोजा जाए। तो आप इतना पक्का समझ लें कि वह कुछ भी हो, जो मैंने कहा है, वह नहीं हो सकता है। क्योंकि आप इतने लोग मिल कर उसको नष्ट ही कर देंगे।

लेकिन यह बोधि—वृक्ष के पास तो कोई मन नहीं है, यह बोधि—वृक्ष तो मौन, मूक है। इसके नीचे जो बुद्धत्व की घटना घटी, वह इस बोधि—वृक्ष में प्रविष्ट हो गई है। न केवल बोधि—वृक्ष में, बल्कि पास से बहती निरंजना में भी वह समाविष्ट हो गई है। उस पृथ्वी में जिसके पास इतना ज्वलंत प्रकाश हुआ, उस पृथ्वी के कणों में भी समाविष्ट हो गई। उस आकाश में जो उसका गवाह और साक्षी हुआ, उसमें भी प्रविष्ट हो गई।

यह सूत्र यह कह रहा है कि ‘ आंतरिक इंद्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके, बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत कर, जीवात्माओं की इच्छाओं पर विजय पा कर और ज्ञान प्राप्त करके, हे शिष्य, वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा। मार्ग मिल गया है, उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर।’

‘ पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से— उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं।’

शास्त्रों से पूछने की जरूरत इसीलिए है कि हम अस्तित्व से पूछने की कला नहीं जानते हैं। अन्यथा बोधि—वृक्ष कहेगा कि क्या हुआ। अन्यथा निरंजना नदी कहेगी कि क्या हुआ। अन्यथा यह पृथ्वी कहेगी कि क्या हुआ। बुद्ध जब इस पृथ्वी पर चले, महावीर जब इस पृथ्वी पर बैठे, कृष्ण जब इस पृथ्वी पर नाचे, तो इस पृथ्वी की क्या संजोई हुई स्मृतियां हैं।

अब तो धीरे— धीरे इसके वैज्ञानिक आधार भी मिलते जाते हैं। इसलिए यह बात समझनी आसान हो सकती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि जैसे अभी मैं बोल रहा हूं तो जो मैं बोल रहा हूं वह वाणी कभी भी खोएगी नहीं। वह खो नहीं सकती, वह गूंजती ही रहेगी, गूंजती ही रहेगी—वायु की तरंगों में मौजूद रहेगी। और आज नहीं कल, वैज्ञानिक कहते हैं, ऐसे यंत्र के बनने की संभावना है कि हम अतीत की वाणियों को पकड़ सकें। कृष्ण ने सच में ही गीता युद्ध के मैदान पर कही है या नहीं कही है, इसका निर्णय हो सकेगा। क्योंकि जो वाणी है, वह नष्ट नहीं होती, वह गूंजती रहती है। सूक्ष्म हो जाती है, लेकिन गूंजती रहती है। सूक्ष्मतर हो जाती है, लेकिन गूंजती रहती है। उसको पकड़ा जा सकता है।

ऐसा समझें कि अगर न्यूयार्क से रेडियो स्टेशन कुछ घोषणा करता है, तो आप यहां सुनते हैं। लेकिन न्यूयार्क से यहां तक आने में समय लगता है। अगर न्यूयार्क में दो मिनट पहले घोषणा की गई, तो आप दो मिनट बाद सुनते हैं। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि जो बात दो मिनट पहले हुई, वह दो मिनट बाद सुनी जा सकती है। अतीत की बात हो गई वह। वह घटी दो मिनट पहले थी, सुनी दो मिनट बाद गई।

अगर दो मिनट बाद सुनी जा सकती है, तो दो दिन बाद क्यों नहीं? क्योंकि सैद्धांतिक रूप से तो बात साफ हो गई कि अतीत भी पकड़ा जा सकता है। दो मिनट पहले जो हुआ था, वह दो मिनट बाद पकड़ा जा सकता है। तो दो दिन बाद क्यों नहीं? थोड़े और विस्तीर्ण यंत्र चाहिए, तो दो दिन बाद भी पकड़ा जा सकेगा। जब तक रेडियो नहीं था, तो हम दो मिनट बाद भी नहीं पकड़ सकते थे। अब हम दो मिनट बाद पकड़ सकते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इस पर काम चल रहा है। और वे कहते हैं कि असंभावना नहीं है कि हम अतीत को, दो हजार साल, दो लाख साल पहले भी जो वाणी प्रकट हुई हो, उसे हम पकड़ने में समर्थ हो जाएं। जटिलताएं हैं, लेकिन वाणी मौजूद है।

यह सूत्र उसी की बात कह रहा है। विज्ञान किस दिन पकड़ेगा पता नहीं। लेकिन जो व्यक्ति बाह्य इंद्रियों और अंतर इंद्रियों को विजय कर लेता है, इन सारे सूत्रों पर चल कर जो शून्य में विराजमान हो जाता है, जो ध्यान को उपलब्ध हो जाता है, वह व्यक्ति बिना किसी यंत्र के भी, सिर्फ ध्यान अपना फोकस कर ले, सिर्फ शांत हो जाए, और अपने ध्यान को अतीत में ले जाए, और उस जगह केंद्रित कर लें, जहां कृष्ण ने गीता कही, तो पुन: अंतर्वाणी में गीता सुनी जा सकती है।

क्योंकि उस अंतर—जगत के लिए समय का कोई फासला नहीं है। वहां समय है ही नहीं। वहां कोई स्थान का फासला नहीं है, वहां कोई स्थान है ही नहीं। वह जो भीतर का केंद्र है, वह सनातन है। उस जगह से आप अतीत में जा सकते हैं और भविष्य में भी। तो फिर वायु में जो रहस्य छिपे हों, वह आपको पता चल जाएंगे।

यह सूत्र कहता है, पूछो वायु से, पूछो पृथ्वी से, पूछो जल से—इन तीनों ने बहुत से रहस्य छिपाए हुए हैं।

हिंदुओं ने अपने मंदिर नदियों के किनारे बनाए हैं, खास कारणों से। क्योंकि हिंदुओं के साधना— स्थल सभी नदियों के किनारे थे। वह भी खास कारणों से। हिंदुओं के सभी तीर्थ नदियों के किनारे हैं, वह भी खास कारणों से। हिंदू—साधना की जो गहनतम प्रक्रियाएं हैं, हिंदू ऋषि—महर्षियों ने जल में उनको संरक्षित किया है, इसलिए तीर्थ इतने मूल्यवान हैं।

लोग तो नासमझी की तरह यात्रा करते रहते हैं, गंगा की, जमुना की। चले जाते हैं तीर्थों में, संगम पर पहुंच जाते हैं, मेले जुटा लेते हैं। लेकिन उन्हें पता नहीं है कि जब प्राथमिक रूप से यह घटना शुरू हुई थी, तो इसके पीछे बड़े रहस्य थे। गंगा में हिंदुओं ने अपने जीवन—रहस्य के अनुभवों का सब कुछ हू’ छिपाया हुआ है। और जो व्यक्ति भी गंगा से पूछने में समर्थ हो सकता है, उसे उत्तर उपलब्ध हो जाएंगे।। तो गंगा के किनारे जा कर बैठ जाना, कोई परंपरागत बात ही नहीं है, गंगा के किनारे बैठना बड़ा अर्थपूर्ण है।

जैनों ने अपने सारे मंदिर और सारे तीर्थ पहाड़ों पर बनाए हुए हैं, जान कर। क्योंकि नदियों के किनारे हिंदुओं ने अपनी धारणाओं को काफी दूर तक प्रविष्ट किया था। और दोनों के मिश्रित होने की और दोनों के एक—दूसरे में उलझ जाने की संभावना थी। तो जैनों ने अपने सारे तीर्थ पहाड़ों पर चुने हैं। और पर्वतों में उन्होंने अपनी धारणा को आविष्ट किया है।

एक छोटे से पहाड़ पर, पार्श्वनाथ हिल पर, जैनों के बाईस तीर्थंकरों ने देह—त्याग की। चौबीस में से बाईस! आकस्मिक नहीं हो सकता। चौबीस तीर्थंकरों में से, हजारों साल की यात्रा में, बाईस तीर्थंकर एक ही पर्वत पर जा कर देह को त्याग करें! वे दो भी नहीं कर पाए तो कुछ आकस्मिक दुर्घटनाओं के कारण। अन्यथा योजना यही थी कि चौबीस के चौबीस तीर्थंकर एक ही पर्वत पर देह को त्याग करें। क्योंकि देह के त्याग के वक्त, तीर्थंकर से जो ज्योति उत्पन्न होती है, वह पत्थरों पर सदा के लिए अंकित हो जाती है। जो उस रहस्य को जानता है, वह पार्श्वनाथ हिल पर जा कर आज भी पहाड़ से पूछ सकता है, कि जब पार्श्वनाथ ने देह त्यागी, तो इस पर्वत पर क्या घटा, इस पर्वत ने क्या अनुभव किया?

प्रक्रियाओं में फर्क है। क्योंकि नदी में अगर अंकित करना हो तो और ढंग से अंकित करना होता है, क्योंकि नदी सतत प्रवाहशील है। अगर पर्वत पर कोई चीज अंकित करनी हो तो और ढंग से अंकित करनी होती है। पूरी प्रक्रिया, पूरा तंत्र अलग होता है, क्योंकि पर्वत स्थिर है।

सारे धर्मों ने सिर्फ शास्त्र ही नहीं रचे हैं, क्योंकि शास्त्र तो बहुत ही कागजी चीज है, उसका ज्यादा भरोसा नहीं, उससे भी गहरे उपाय उन्होंने खोजें हैं। जैसे इजिप्त में पिरामिड बनाए हैं, इजिप्त के धार्मिक लोगों ने। उन्होंने पिरामिड की रचना में सब कुछ छिपा दिया है। पिरामिड की बनावट में, पिरामिड के पत्थर—पत्थर में, उसकी पूरी योजना में, सब छिपा दिया, जो उन्होंने जाना था। और जो पिरामिड को समझने वाले लोग हैं— अब कई तरह से खोज चलती है पिरामिडों की, वे चकित हैं कि कितना रहस्य! कहा जाता है कि इजिप्त ने जो भी जाना था, वह सब पिरामिड में डाल दिया है। लेकिन कुंजियां खो गई हैं। थोड़ा—बहुत कुछ कुंजी पकड़ में आती है कहीं से, तो थोड़े—बहुत रहस्य समझ में आते हैं। सारी दुनिया में किताब पर भरोसा पुराने धर्मों ने कभी नहीं किया। उन्होंने कुछ और उपाय किया। लेकिन पिरामिड भी आदमी की बनाई हुई चीज है, कितनी ही मजबूत हो, मिट सकती है। इसलिए भारत में हमने आदमी की बनाई हुई चीजों में छिपाने की कोशिश न करके प्रकृति के ही उपादानों में डाल देने की व्यवस्था की है।

‘पूछो पृथ्वी से, वायु से, जल से—उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए छिपाए हुए हैं।’

एक विशेष ध्यान की अवस्था में, संपर्क स्थापित हो जाता है, उत्तर मिलने शुरू हो जाते हैं। लेकिन उसके पहले तुम्हारा हृदय इतना शांत हो जाना चाहिए कि तुम अपने उत्तर उसमें न डाल लो। नहीं तो सब विकृत हो जाएगा। तुम्हें इतना मौन हो जाना चाहिए कि तुम्हारी तरफ से जोड्ने का कोई उपाय न रहे। तो ही तुम्हें पता चलेगा कि क्या कहा जा रहा है। अन्यथा तुम अपना ही मिश्रित कर लोगे।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आपने स्वप्न में हमसे ऐसा कहा! मैं उनसे कहता हूं कि तुम पहले चुप होना सीखो। नहीं तो स्वप्न भी तुम्हारा है और तुम्हारे स्वप्न में आया हुआ मैं भी तुम्हारा ही हूं, मैं नहीं हूं। स्वप्न भी तुम्हीं निर्मित कर रहे हो, मुझे भी तुम्हीं निर्मित कर रहे हो, और मुझसे जो वाणी तुम बुलवा रहे हो, वह भी तुम्हारी ही है। लेकिन तुम होशियार हो, क्योंकि तुम अपने पर तो भरोसा नहीं कर सकोगे, इसलिए तुम मुझसे बुलवा रहे हो। और तुम जो चाहते हो वही बुलवा रहे हो।

आदमी को स्वयं के साथ छल करने की इतनी संभावना है कि जिसका कोई हिसाब नहीं, अंत नहीं। मेरे पास ही आ कर लोग मुझसे कहते हैं कि आपने ही आदेश दिया था, इसलिए हमने ऐसा किया! कब तुमने मुझसे आदेश लिया था? कहते हैं, स्वप्न में आपने कह दिया था! और किया उन्होंने वही, जो वे करना चाहते थे! और कई दफे तो मैं इतना चकित हो जाता हूं कि मैं सामने ही उनको आदेश दे रहा हूं कि ऐसा मत करना, वे उसको सुन ही नहीं रहे हैं! वे कह रहे हैं कि आपने आदेश दिया था स्वप्न में, उसको हमने किया! और मैं सीधा आदेश दे रहा हूं वह उसको सुन ही नहीं रहे हैं, करने की तो बात ही अलग है! इसको कहता हूं मैं छल। पर इसका उन्हें पता भी नहीं कि वे क्या कर रहे हैं! मैं उनसे कह रहा हूं प्रकट में कि ऐसा करो, उसको वे सिर हिला रहे हैं कि यह हमसे न होगा! लेकिन स्वप्न में मैंने कहा था, उसको मान कर उन्होंने किया! निश्चित ही, जो वे करना चाहते हैं, वही कर रहे हैं।

जब तक तुम्हारा मन पूरी तरह शांत न हो गया हो, तब तक तुम वही सुनोगे, जो तुम सुनना चाहते हो। तब तक तुम वही करोगे, जो तुम करना चाहते हो। तब तक इस जगत के रहस्य तुम्हारे सामने न खुल सकेंगे। क्योंकि तुम अपनी ही भावनाओं, अपनी ही वासनाओं, अपनी ही कामनाओं से इस बुरी तरह भरे हो कि जगत कुछ प्रकट भी करना चाहे, तो प्रकट कर नहीं सकता है। लेकिन अगर ध्यान तुम्हारा सधता जाए और ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम अनुभव कर सको कि अब कोई भी विचार नहीं है, तो थोड़ा प्रयोग करना।

थोड़ा प्रयोग करना। ऐसे ध्यान की अवस्था में किसी वृक्ष के नीचे कुछ दिन प्रयोग करना। किसी भी वृक्ष के नीचे प्रयोग हो सकता है। लेकिन अगर कोई विशेष वृक्ष हो तो परिणाम बहुत शीघ्र और साफ होंगे। जैसे बुद्ध—गया का बोधि—वृक्ष है। अगर उसके नीचे बैठ कर तुम सात दिन ध्यान करते रहो। और तुम्हारा ध्यान जम गया हो, ठीक आ गया हो, तो फिर तुम वहां चले जाओ और सात रात बैठे रहो वृक्ष के नीचे, ध्यान करते हुए। और जब तुम्हें लगे कि तुम बिलकुल शून्य हो गए हो, तब तुम वृक्ष को सिर्फ इतना कह दो, कि तुझे कुछ मेरे लिए कहना हो तो कह दे। और तब तुम मौन बैठ कर प्रतीक्षा करते रहो। तुम हैरान हो जाओगे कि वृक्ष तुमसे कुछ कहेगा। और कुछ ऐसा कहेगा जो तुम्हारे पूरे जीवन को रूपांतरित कर दे।

वृक्ष कुछ संजोए हुए है, कुछ संगृहीत किए हुए है, और केवल उन्हीं के लिए संजोए हुए है, जो पूछने की सामर्थ्य रखते हैं। वे पूछेंगे तो उनको उत्तर मिल जाएगा। लेकिन उतनी दूर जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। यह आकाश सारे बुद्धों को अपने में समाए हुए है। इस पृथ्वी पर सारे महावीर और सारे जीसस और सारे कृष्ण चले और उठे हैं। इस पृथ्वी से ही पूछ सकते हो।

पूरी तरह ध्यान की अवस्था में पृथ्वी पर नग्न लेट जाओ, जैसे कोई छोटा बच्चा मां की छाती पर लेटा हो। और ऐसा ही खयाल कर लो कि यह पूरी पृथ्वी तुम्हारी मां है, तुम उसके स्तन अपने हाथ में लिए हुए उसकी छाती पर लेटे हुए हो। बिलकुल शांत और शून्य हो जाओ। और जब तुम्हें लगे कि अब तुम्हारे शरीर की मिट्टी में और उसकी मिट्टी में कोई फर्क न रहा, दोनों एक हो गई हैं, और तुम्हारे भीतर शून्य विराजमान हो गया है, तब तुम पूछ लो। यह पृथ्वी अगर तुम्हारे लिए कोई संदेश रखे है, तो तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा। और तुम पाओगे कि ऐसा बलशाली संदेश तुमने कभी कहीं से नहीं पाया। उसके पाने के बाद तुम वही न रह जाओगे, जो तुम थे। और तब इस प्रक्रिया में गहरा उतरा जा सकता है। और इस तरह से बहुत सी चीजें उपलब्ध की जा सकती है; जो वैसे खो गई है।

यह किताब भी मैबल कॉलिन्स की इसी तरह खोज कर पाई गई है। क्योंकि इसकी मूल—प्रति संस्कृत में तो खो चुकी है, हजारों साल पहले खो चुकी है। इसकी कोई मूल—प्रति अब नहीं है। मैबल कॉलिन्स ने यह तो इसी तरह के रहस्य—सूत्रों से वापस ये सूत्र उपलब्ध किए हैं। इसलिए वह इसकी लेखिका नहीं है। यह पुस्तक मैबल कॉलिन्स की लिखी हुई नहीं है। यह उसके द्वारा पढ़ी हुई है। उसने यह पढ़ा है जीवन के किन्हीं गुप्त द्वारों से। उसको उसने संगृहीत कर दिया है। ये सूत्र, उसने इतना ही उल्लेख किया है कि किसी खो गए संस्कृत ग्रंथ के हैं। मैं लेखिका नहीं हूं मैंने इन्हें रचा नहीं है, मैंने इन्हें सुना है। और उनको वैसा ही संगृहीत कर दिया है, जैसे वे हैं।

बहुत सी किताबें खो गई हैं। आदमी जो भी बनाता है, वह खो ही जाता है। लेकिन कोई और उपाय भी है, जिनसे जो खो गया है, उसे वापस पाया जा सकता है। बहुत सी किताबें प्रक्षिप्त हो गई हैं, उनमें बहुत कुछ डाल दिया गया है, जो बाद में लोग जोड़ते चले गए हैं। जब तक पृथ्वी से, आकाश से वापस उनकी मूल—प्रति न पाई जा सके, तब तक उन पुस्तकों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उनमें बहुत कुछ जोड़ा हुआ है, वह मूल नहीं है। लेकिन हमें कुछ पता नहीं उन कुंजियों का, जिनसे वायु का ताला खुल जाए। एक कुंजी स्पष्ट है, उसको मैं मास्टर—की कहता हूं। उससे सभी ताले खुल जाते हैं। और वह है तुम्हारी एक शून्य—अवस्था। तब तुम महावीरों से बोल सकते हो, बुद्धों से साक्षात ले सकते हो, कृष्ण की बांसुरी फिर से सुनी जा सकती है। लेकिन तुम्हारा शून्य हो जाना जरूरी है।

‘तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों के विकास के कारण यह कार्य कर सकोगे।’

ग्‍यारहवां सूत्र, ‘ पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से, उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए संजोए हुए हैं। बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत लेने से तुम्हें यह रहस्य जान लेने कर अधिकार प्राप्त हो जाएगा।’ ‘ पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से।’

ह पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से पूछने की बात भी थोड़ी समझ लेने जैसी है।

इस जगत में, जो शरीर लिए हुए हैं, वे ही अकेले नहीं हैं। इस जगत में अशरीरी पुरुष भी हैं, अशरीरी आत्माएं भी हैं। जब भी कोई व्यक्ति मरता है, तो अगर साधारण व्यक्ति हो— साधारण वासनाओं से भरा, साधारण शुभ आकांक्षाओं से भरा, साधारण बुराई, साधारण अच्छाई— तो क्षण भर भी नहीं लगता, उसका नया जन्म हो जाता है। क्योंकि साधारण आदमी के लिए साधारण गर्भ निरंतर उपलब्ध हैं, उनकी कोई कमी नहीं है। उसे कभी क्यू में खड़े होने की जरूरत नहीं पड़ती।

लेकिन अगर असाधारण बुराई से भरा हुआ आदमी हो, तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है। क्योंकि असाधारण बुरा गर्भ पाने में कठिनाई है। हिटलर मरे तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कभी—कभी सैकड़ों वर्ष भी लग सकते हैं जब ठीक इतना ही उपद्रवग्रस्त गर्भ मिले, जिसमें हिटलर पैदा हो सके। या असाधारण रूप से अच्छी आत्मा हो, बहुत साधु आत्मा हो, तो भी हजारों वर्ष लग जाते हैं। क्योंकि उतना श्रेष्ठ गर्भ पाना भी मुश्किल है। श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ मुश्किल हैं। सामान्य, बिलकुल साधारण रोज उपलब्ध है। जो बुरी आत्माएं रुक जाती हैं बिना देह के, उन्हीं को हम प्रेत कहते हैं। जो भली आत्माएं रुक जाती हैं बिना देह के, उन्हें ही हम देवता कहते हैं। इसमें देवताओं का उल्लेख है।

‘पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से, उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए संजोए हुए हैं।’

अगर तुम शांत हो सको, तो तुम पाओगे कि तुम एक दूसरे जगत में प्रवेश कर रहे हो। जहां बहुत सी अशरीरी आत्माएं तुम्हें सहायता करने को उत्सुक हैं, और बहुत सी बातें तुम्हें खोल सकती हैं, जो कि तुम अपने श्रम से जन्मों में भी नहीं उपलब्ध कर पाओगे। ये आत्माएं मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो गई हैं, क्योंकि जो मोक्ष को उपलब्ध हो गई हैं, उनसे संपर्क स्थापित करना अति कठिन है। लेकिन जो आत्माएं अशरीरी हैं और केवल किसी शुभ जन्म की प्रतीक्षा कर रही हैं, उनसे संपर्क स्थापित कर लेना बहुत ही आसान है। सिर्फ एक टयूनिंग— जैसे रेडिओ पर तुम बटन को घुमाते हो, नॉब को घुमाते हो, ताकि ठीक स्टेशन पर कांटा रुक जाए। अगर जरा भी गड़बड़ हो, इधर—उधर हिला—डुला हो तो शोरगुल मचता है, कुछ पकड़ में नहीं आता है। अगर ठीक जगह रुक जाए, तो पकड़ में आना शुरू हो जाता है। ठीक तुम्हारा ध्यान भी, अगर ठीक जगह रोकने की कला आ जाए, तो तुम कहीं भी उस ध्यान को जोड़ ले सकते हो। बहुत सी आत्माएं उत्सुक हैं, जो तुम्हें सहायता कर दें और तुम्हारा बहुत सा काम हल कर दें। और बहुत सी आत्माएं उत्सुक हैं कि तुम्हें नुकसान पहुंचा दें, और तुम्हारा बहुत सा बना हुआ काम बिगाड़ दें।

जो लोग दुष्ट प्रकृति के हैं, वे दूसरे को परेशान करने में आनंदित होते हैं। जो भली प्रकृति के हैं, वे दूसरे को आनंदित करने में आनंदित होते हैं। तुम्हारे आसपास बहुत सी आत्माएं हैं, जो तुम्हें लाभ पहुंचा सकती हैं। और बहुत सी आत्माएं हैं, जो तुम्हें नुकसान पहुंचा सकती हैं। अगर तुम बहुत भयभीत हो, अगर तुम बहुत चिंताग्रस्त हो, अगर तुम्हारे मन में भीतर बहुत उत्पात चल रहा है, तो तुम्हारी बुरी आत्माओं से संबंधित होने की संभावना है। क्योंकि तुम तब बुरी आत्माओं के लिए खुले द्वार हो। अक्सर ऐसा होता है कि जब तुम भयभीत हो, तब तुम्हें भूत—प्रेत दिखाई पड़ जाते हैं। इसका कारण यह नहीं है कि भय के कारण वे पैदा हो जाते हैं। भय के कारण तुम उनसे संबंधित हो जाते हो। भय तुम्हें खोल देता है उनके प्रति।

जब तुम अभय हो, शांत हो, आनंदित हो, तब तुम्हारा बुरी आत्माओं से कोई संपर्क नहीं बन सकता। उस तरफ से तुम्हारा द्वार बंद है। लेकिन उस क्षण में तुम्हारा अच्छी आत्माओं से संबंध बन सकता है। वह जो मैं निरंतर ध्यान में तुमसे कहता हूं कि आनंद के क्षण में ही, परम— आनंद के क्षण में ही तुम प्रभु से संयुक्त हो सकते हो, और कोई उपाय नहीं है। वह टयूनिंग है। तुम जब पूरे आनंद से भरे हो, तब तुम इस जगत का जो आनंद का स्रोत है, उससे जुड़ सकते हो। जब तुम दुख से भरे हो, तो इस जगत में जहां—जहां दुख का विस्तार है, तुम उससे जुड़ सकते हो।

दुखी आदमी हम कहते हैं कि नरक में चला जाता है। जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुखी आदमी सिर्फ नरक की तरफ खुल जाता है, नरक उसमें आ जाता है। सुखी आदमी स्वर्ग की तरफ खुल जाता है, स्वर्ग उसमें आ जाता है। आनंदित आदमी जीवन की परम—सत्ता की तरफ खुल जाता है, परम— सत्ता उसमें प्रवेश कर जाती है। तुम किस तरफ खुले हो? उसी तरफ तुम्हारे जीवन का विस्तार होना शुरू हो जाएगा।

यह सूत्र कहता है, ‘पूछो पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से, उन रहस्यों को, जो वे तुम्हारे लिए संजोए हुए हैं। बाह्य इंद्रियों की वासनाओं को जीत लेने से तुम्हें यह रहस्य जान लेने का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।’

 

आज इतना ही।


Filed under: साधना--सूत्र--(मैबलकॉलिन्‍स) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–6)

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जीवंत धर्म—(प्रवचन—छट्ठवां)

प्यारे ओशो!

मनुस्मृति में यह श्लोक है :

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:।

तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतो वधीत्।।

मारा हुआ धर्म मार डालता है;

रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है।

इसलिए धर्म को न मारना चाहिए,

जिससे मारा हुआ धर्म हमको न मार सके।

हजानन्द! यह श्लोक प्रीतिकर है। ऐसे तो मनुस्मृति बहुत कुछ कचरे से भरी है, लेकिन खोजो तो राख में भी कभी—कभी कोई अंगारा मिल जाता है। कचरे में भी कभी—कभी कोई हीरा हाथ लग जाता है।

मनुस्मृति निन्यानबे प्रतिशत तो कभी की व्यर्थ हो चुकी है। भारत की छाती से उसका बोझ उतर जाए तो अच्छा। उसमें ही जड़ें हैं भारत के बहुत से रोगों की। भारत की वर्ण—व्यवस्था; अछूतों के साथ अनाचार, स्त्रियों का अपमान, जिसकी अंतिम परिणति स्वभावत: बलात्कार में होती है; ब्राह्मणों की उच्चता का गुणगान—जिसका परिणाम पाण्डित्य के बढ़ने में तो होता है लेकिन बुद्धत्व के विकसित होने में नहीं।

लेकिन फिर भी कभी—कभी कोई सूत्र हाथ लग जा सकता है, जो अपूर्व हो। यह उन थोड़े से सूत्रों में से एक है। इस सूत्र को ठीक से समझो, तो मैंने जो अभी कहा कि निन्यानबे प्रतिशत मनुस्मृति कचरा है, वह भी समझ में आ जायेगी बात—इस सूत्र को समझने

यह सूत्र निश्चित ही मनु का नहीं हो सकता; मनु से प्राचीन होगा। क्योंकि मनु ने जो भी कहा है, वह इसके बिलकुल विपरीत है। मनु के सारे वक्तव्य धर्म की हत्या करनेवाले वक्तव्य हैं। मनु जैसे व्यक्तियों ने ही तो धर्म की हत्या की है।

यह सूत्र किसी बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति से आया होगा। लेकिन पुराने समय में एक ही ग्रंथ में सब कुछ समाहित कर लिया जाता था। जैसे अभी भी विश्वकोश निर्मित करते हैं—इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका—तो सभी कुछ, जो भी खोजा गया है, जो भी आज की समझ है, उसका संकलन कर लेते हैं। ऐसे ही पुराने शास्त्र संकलित थे। इसलिए उन्हें संहिताएं कहा जाता है।

वेद को हम संहिता कहते हैं। संहिता का अर्थ होता है—संकलन। वेद में किसी एक व्यक्ति के वचन नहीं हैं। अनेक—अनेक ऋषियों के वचन हैं। और उनके साथ—साथ बहुत से अंधों के वचन भी हैं। इसलिए वेद को पढ़ते समय बहुत होश चाहिए। क्योंकि अंधे हमेशा आंख वालों से ज्यादा होते हैं। हीरे तो मुश्किल से ही मिलते हैं। कंकड़—पत्थर तो गली—कूचे, जगह—जगह मिल जाते हैं। उनकी कोई खदानें थोड़े ही खोजनी पड़ती हैं।

मनुस्मृति का अर्थ भी यही होता है कि जो—जो मनु उस समय स्मरण कर सके, जो—जो चारों तरफ व्याप्त था, जो—जो हवा में रोशनी छूट गई थी, सदियों पुरानी हो सकती है; मनु उसके लेखक नहीं हैं, केवल स्मृतिकार हैं। मनु उसके रचयिता नहीं हैं, सिर्फ संग्राहक हैं। उन्होंने उस सब को स्मृति में बांध दिया है, जो बिखरा पड़ा था।

यह सूत्र मनु का नहीं हो सकता। और अगर यह सूत्र मनु का है, तो फिर पूरी मनुस्मृति मनु की नहीं हो सकती। यह मैं इसलिए कहता हूं—आंतरिक साक्षी के आधार पर। यूं तो मनुस्मृति में यह सूत्र है, इसलिए शोधकर्ता मेरे विरोध में हो सकते हैं। लेकिन मेरे देखने—सोचने—समझने के ढंग और हैं। शोधकर्ता के वे ढंग नहीं हैं।

अंतसाक्षी का अर्थ होता है : यह वक्तव्य इतना विपरीत है बाकी सारे वक्तव्यों से कि या तो यह ठीक होगा या फिर बाकी सब ठीक हो सकते हैं। इस एक को हटा लो, तो मनुस्मृति में से सार की बात ही निकल जाती है।

और इस सूत्र को समझना जरूरी है। फिर किसी का हो। किसने कहा, यह बात मूल्यवान नहीं है; मगर जो कहा है, अपूर्व है, अद्वितीय है। शायद भूल—चूक से मनु से ही निकल गया हो! कभी—कभी तो विक्षिप्त भी पते की बातें कह जाते हैं! कभी—कभी पागल भी बड़े दूर की खोज लाते हैं। कहावत है : ‘अंधे को अंधेरे में दूर की सूझी!’

कभी—कभी टटोलते—टटोलते भी अंधे को भी दरवाजा हाथ लग जाता है। अपवाद है वह, नियम नहीं।

इसलिए यह भी हो सकता है कि मनु ने ही यह सूत्र कहा हो। लेकिन मनु ने किसी ऐसी अवस्था में कहा होगा र जो साधारण मनु से बिलकुल भिन्न है। कोई झरोखा खुल गया होगा; किसी मस्ती में होंगे। कोई क्षण ध्यान का उतर आया होगा। मगर मनु की प्रकृति के अनुकूल नहीं है यह।

मनु की गिनती बुद्धों में नहीं है। वे भारतीय नीति—नियम के सर्जक हैं। उन्होंने भारत को नैतिक व्यवस्था दी। और नैतिक व्यवस्था अकसर ही राजनीति का अंग होती है।’राजनीति’ में भी जो ‘नीति’ शब्द है, वह ध्यान रखने योग्य है। व्यक्ति की नीति होतsईहै, तो उसको हम नैतिकता कहते हैं। और राज्य की नीति होती है, तो उसको राजनीति कहते हैं। दोनों में तालमेल है लेकिन दोनों ऊपर—ऊपर होती हैं, सतही होती हैं। धर्म होता है आंतरिक— भीतर का दिया जले तो। फिर उसके अनुसार जो जीवन में क्रांति होती है, वह क्रांति किन्हीं नियमों के आधार पर नहीं होती, किसी शास्त्र के अनुसार नहीं होती। इसलिए उस क्रांति की कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। कोई नहीं कह सकता कि उस क्रांति का अंतिम निखार क्या होगा। एक बात सुनिश्चित जरूर कही जा सकती है कि वह क्रांति कभी भी पुनरुक्ति नहीं करती। बुद्ध जैसा व्यक्ति फिर दुबारा उस क्रांति से पैदा नहीं होता—न महावीर जैसा, न कृष्ण जैसा, न कबीर जैसा, न मोहम्मद जैसा। उस क्रांति से हमेशा मौलिक प्रतिभा का जन्म होता है। पुनरुक्ति नहीं होती। इतनी बात भर कही जा सकती है।

नीति हमेशा पुनरुक्ति करती है। नीति तो यूं है, जैसे कार्बन कापी करते हैं हम। किसी के पीछे चलो। किसी की मानकर चलो। अपने ऊपर जैसे वस्त्र ओढ़ते हो, ऐसे ही शास्त्रों को ओढ़ लो, तो तुम नैतिक हो जाओगे, लेकिन धार्मिक नहीं।

नीति ऐसे है जैसे अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में बातें करने लगे। बातें करने में क्या अड़चन है! प्रकाश के संबंध में अंधा आदमी सारी जानकारी इकट्ठी कर सकता है। लेकिन फिर भी उसने प्रकाश देखा नहीं है। और जिसने देखा नहीं, ‘उसकी कितनी ही बडी जानकारी हो, हिमालय के पहाड़ जैसा ढेर हो जानकारी का, तो भी दो कौड़ी उसका मूल्य है। और जिसने प्रकाश देखा है, शायद प्रकाश के संबंध में और कुछ भी न जानता हो, तो भी क्या बात है। प्रकाश देख लिया, तो सब जान लिया। न समझे प्रकाश का भौतिकशास्त्र, न समझे प्रकाश का रसायनशास्त्र, न समझे प्रकाश का गणित, पर करना क्या है! फूल देख लिए, रंग देख लिए, इंद्रधनुष देख लिए, तितलियों के पंख देख लिए हरियाली देख ली, लोगों के चेहरे देख लिए चांद—तारे देख लिए सूर्योदय—सूर्यास्त देख लिए, रोशनी के अनंत—अनंत खेल और लीलाएं देख लीं—अब क्या करना है, कि न समझे प्रकाश का विज्ञान!

लेकिन कुछ मूढ़ प्रेम को समझते रहते हैं, प्रेम नहीं करते! प्रकाश को समझते रहते हैं, आंख नहीं खोलते! उधार बासी बातों को गुनते रहते हैं, कभी अपने जीवन की किरण को जगाते नहीं। कभी अपने सोये हुए प्राणों को पुकारते नहीं।

यह सूत्र जिससे भी आया हो, आँख वाले से आया होगा। और मनु सबूत नहीं देते—आँख वाले का। आँख वाला आदमी, आदमी—आदमी को ब्राह्मण और शूद्र में नहीं बांट सकता। आँख वाले आदमी के लिए सारे विभाजन गिर जाते हैं। न कोई काला रह जाता, न कोई गोरा—न कोई ब्राह्मण, न कोई शूद्र। न कोई स्त्री, न कोई पुरुष। यूं हुआ कि कुछ शराबी युवक धनाड्य थे, एक सुंदर वेश्या को लेकर और खूब शराब लेकर जंगल गये। पूर्णिमा की रात थी; मजा करेंगे। खूब डटकर उन्होंने शराब पी और नशे में ऐसे धुत हो गये कि वेश्या के सारे कपड़े छीनकर उसे नग्न कर दिया। वेश्या तो घबड़ा गयी, उनका नशा देखकर, कि इन्होंने कपड़े ही छीने, यही बहुत है। ये चमड़ी तक नोंच ले सकते हैं। उनको नशे में धुत्त देखकर वह भाग खड़ी हुई। कपड़े तो उसके पास थे नहीं, तो नंगी ही भाग गयी वह। उसने सोचा : जान बची और लाखों पाये। अब किसी तरह पहुंच ही जाऊंगी घर, रात का वक्त है, नंगी भी पहुंची तो किस को पता चलेगा!

सुबह—सुबह भोर होने के करीब होती होगी, जब ठण्डी हवाएं चलीं, उन युवकों को थोड़ा होश आया। वे रातभर उन कपड़ों को ही छाती से लगाये रहे थे! होश आया तो पता चला : वेश्या तो नदारद है। किसी के हाथ में साड़ी है, किसी के हाथ में चोली है, किसी के हाथ में कुछ है। वेश्या तो नदारद है; वेश्या तो किसी के हाथ में नहीं है! वे उसकी तलाश में निकले।

जिस रास्ते से वे आये थे, वह एक ही रास्ता था, उसी रास्ते पर उन्हें याद आया कि जब वे आये थे, तो उन्होंने एक संन्यासी को वृक्ष के नीचे बैठा देखा था। शायद वह अब भी बैठा हो! अगर वह बैठा हो तो पता दे सकता है, क्योंकि इसी रास्ते से भागी होगी। और तो कोई रास्ता नहीं है।

वह संन्यासी कोई साधारण संन्यासी न था, स्वयं गौतम बुद्ध थे। वे बैठे थे अब भी। डोल रहे थे अपनी मस्ती में। सुबह की ताजी हवाएं उठने लगी थीं; फूलों की सुगंध बिखरने लगी थी; पक्षियों के गीत गंजने लगे थे। सारा वन प्रांत सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रहा था; अभिनन्दन कर रहा था; बंदनवार सजाये बैठा था।

उन्होंने जाकर उनको हिलाया। बुद्ध ने आंखें खोलीं। उन्होंने पूछा कि ‘आपने जरूर यहां से एक नग्न स्त्री को भागते देखा होगा। बहुत सुंदर है; युवा है। ऐसा नाक—नक्‍श है, जैसे अप्सरा हो। क्या उर्वशी होगी! क्या मेनका होगी! सोने जैसी देह है उसकी। नागिन जैसे उसके बाल हैं। मछलियों जैसी उसकी आंखें हैं! कवियों ने जिसका वर्णन किया है, सब उसमें मौजूद है? और नग्न भागी है, जरूर आपने देखा होगा।’

बुद्ध ने कहा, ‘तुम अगर मुझे पहले ही कह गये होते, क्योंकि तुम जब गये थे, तब मैंने भीड़— भाड़ देखी थी; शोरगुल सुना था, तुम जा रहे हो। तुम अगर तभी मुझे कह गये होते, कि जरा ध्यान रखना, खयाल रखना, तो मैं खयाल रखता। कोई निकला जरूर था, कोई गुजरा जरूर था, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि वह स्त्री थी या पुरुष! और यूं भी नहीं कि मैंने न देखा हो। मगर जब से मेरे भीतर की वासना गिर गयी, तब से मेरे भीतर ये फासला भी नहीं उठता कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष। तुम मुझे क्षमा करो। तुमने कहा होता, तो मैं खयाल करता; ध्यानपूर्वक देखता। और अब तुम मुझसे यह भी मत पूछो कि वह सुंदर थी या असुंदर। जब से वासना गयी, तब से कौन सुंदर है—कौन असुंदर है! वह तो हमारे ही भीतर की भूख होती है, जो सौदर्य—असौदर्य के मापदण्ड बनाती है; स्त्री—पुरुष के मापदण्ड बनाती है। कोई निकला जरूर था। किस दिशा में गया, यह भी मत पूछो, क्योंकि मैं अपने में डूबा बैठा हूं मैं किस—किस की फिक्र करूं कि कौन किस दिशा में जा रहा है! मैं भीतर की दिशा में जा रहा हूं। और सब दिशाएं बाहर हैं। मैंने बाहर की दिशाएं छोड़ दीं तो अब बाहर की दिशाओं में जानेवाले लोग……। यूं कान में भनक मेरे पड़ी थी कि कोई गुजरा है, जरूर गुजरा है। मगर यूं तो यहां से हिरण भी गुजरते हैं, हाथी भी गुजरते हैं; कभी सिंह भी गुजर जाता है। यह जंगल है। कोई गुजरा जरूर, मगर मैं तुम्हें ठीक—ठीक न कह सकूंगा—कौन गुजरा!’

यह बुद्धत्व की दशा है, जहां स्त्री और पुरुष का भेद भी गिर जाता है। लेकिन मनु के लिए ये भेद गिरे नहीं।’स्त्री नरक का द्वार है।’ यह पुरुष का दंभ!

स्त्रियों की जब चर्चा करते हैं जब मनु जैसे लोग, तो उसके भीतर की हड्डी, मांस—मज्जा, मवाद, खून इत्यादि—इत्यादि की बातें करते हैं जैसे खुद के शरीर में सोना—चांदी भरा हो! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि महात्मागण स्त्रियों के शरीर का वर्णन करने में जैसे बेहूदे, भद्दे, अभद्र शब्दों का उपयोग करते हैं, उस समय बिलकुल भूल ही जाते हैं कि खुद भी स्त्री से पैदा हुए हैं! उनकी देह भी उसी

मांस—मज्जा से बनी है, स्त्री की ही मांस—मज्जा से बनी है। तुम्हारे पिता का दान तो ना—कुछ के बराबर है। वह तो काम एक इंजेक्‍शन कर सकता है, जो तुम्हारे पिता ने किया! वह कोई खास काम नहीं है। और भविष्य में इंजेक्‍शन ही करेगा। जानवरों की दुनिया में तो इंजेक्‍शन करने ही लगा है।

लेकिन तुम्हारे देह की पूरी की पूरी जीवन ऊर्जा तो स्त्री से आती है, मां से आती है। तुम्हारी देह में वही सब है, जो स्त्री की देह में है। लेकिन स्त्री की देह को गाली देते वक्त, गंदगी का ढेर बताते वक्त पता नहीं महात्मा भूल ही जाते हैं कि उनकी भी देह उसी से बनी है; वैसी ही गंदगी से। फिर गंदगी क्या गंदगी का वर्णन कर रही है! फिर पुरुष की देह में ऐसी क्या खूबी है, ऐसा कौन—सा स्वर्ग है—जो स्त्री की देह नरक का द्वार है!

स्त्री की जैसी अवमानना मनु ने की है, और फिर बाबा तुलसीदास तक मनु के पीछे चलनेवालों की जो कतार है, वह सब उन्हीं गालियों को दोहराती रही है। शूद्रों को तो पशुओं से भी गया—बीता माना है। गाय की हत्या करो तो महापाप है। लेकिन शूद्र की हत्या में कोई पाप नहीं बताया! जैसे गाय से भी ज्यादा गर्हित, गिरा हुआ शूद्र है। यह मनु जैसे ही लोगों की बात मानकर तो राम ने एक शूद्र के कान में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया, क्योंकि उसने वेद के वचन सुन लिए थे! पशु—पक्षी सुनते रहते हैं, तो किसी को एतराज नहीं। कुत्ते—बिल्लियां सुनते रहें, चूहे—मच्छड़ सुनते रहें—किसी को एतराज नहीं। कितने चूहों ने नहीं सुना होगा वेद! सुना क्या—पचा गये! चूहों के हाथ जब भी वेद पड़ गया है, तो पचा ही गये उसको। कितने चूहों के कान में राम ने सीसा पिघलवाकर भरवा दिया! और ऋषि—मुनि जहां वेद का पाठ कर रहे हों, वहां तुम सोचते हो—मच्छडू भाग जाते हैं! वहीं गुन—गुन मचाते हैं।

महावीर ने तो अपने मुनियों के लिए कहा है कि कैसी जगह में बैठकर ध्यान करना. ऊंची—नीची जगह न हो; कंकड—पत्थर वाली न हो; मच्छड़ों इत्यादि से भरी हुई न हो—यह भी उसमें उल्लेख है! निश्चित ही महावीर को मच्छड़ों ने खूब सताया होगा। निश्चित सताया होगा। एक तो नंग— धडंग आदमी और फिर भारतीय मच्छड़! और ये क्या फिक्र करें कि कौन महावीर है और कौन कौन है! ऐसा शुभ अवसर ये छोड़े! ऐसी मीठी देह; ऐसा सुस्वादु भोजन ये छोड़े! अरे तीर्थंकर मिलता हो भोजन को, तो फिर ये साधारण मनुष्यों की फिक्र करें! महावीर को बहुत सताया होगा, सताया होगा इसलिए उल्लेख किया है अपने जैन मुनियों को कि जहां मच्छड़ इत्यादि हों, वहां ध्यान करने मत बैठना। क्योंकि वे ध्यान करने नहीं देंगे।

बुद्ध ने भी उल्लेख किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मच्छड़ ध्यानियों के सदा से दुश्मन रहे हैं! राक्षस वगैरह ध्यान में बाधा डालते हैं कि नहीं, यह तो कपोल—कल्पना मालूम पड़ती है, मगर मच्छड़—यह यथार्थ मालूम होता है।

मैं सारनाथ में मेहमान था। मच्छड़ मैंने बहुत देखे, लेकिन जैसे सारनाथ में हैं, वैसे कहीं भी नहीं। हों भी क्यों न—वह पहला स्थल है जहां बुद्ध ने प्रवचन दिया। उसकी महिमा ही और है। यूं तो जबलपुर जब मैं रहता था, तो जबलपुर में भी बड़े मच्छड़ हैं। तो मैं सोचता था कि जबलपुरी मच्छड़ का कोई मुकाबला नहीं। मगर जब सारनाथ गया, तब मुझे पता चला कि मच्छड़ हैं ‘तो सारनाथ के!

भिक्षु जगदीश काश्यप के घर में मैं मेहमान था। रात हम दोनों ने किस तरह गुजारी—मत पूछो! वे तो अभ्यासी भी थे, क्योंकि वहीं रह रहे थे वर्षों से। मैंने उनसे पूछा कि ‘इतने मच्छड़ों के बीच कैसे गुजार रहे हो?’ उन्होंने कहा, ‘मत पूछिये। पूछिये ही मत यह बात! खुद भगवान बुद्ध एक ही बार आये; एक ही रात रुके हैं सारनाथ! फिर नहीं आये। हालांकि और सभी स्थानों पर वे कई बार गये। वैशाली, कहते हैं चालीस बार गये। मगर सारनाथ बस एक ही बार आये! तो मैंने कहा, मै भी समझा राज, क्यों एक ही बार आये! मैं भी दुबारा आनेवाला नहीं हूं!’ और दुबारा गया भी नहीं। उन्होंने बहुत निमंत्रण दिये; मैंने कहा, ‘क्षमा करो। सारनाथ छोड़ कहीं और मिलना हो जायेगा। मगर सारनाथ नहीं आना है!’ दिन में भी मच्छडूदानी के भीतर बैठे रहो! बाहर निकले कि वे तैयार हैं! तो बुद्ध बेचारे कोई मच्छडूदानी लेकर चलते भी नहीं थे! उन दिनों शायद मच्छड्दानी थी भी नहीं। और होती भी तो संन्यासी मच्छडूदानी लेकर चले, तो बदनामी हो जाये! मेरे जैसा कोई संन्यासी हो, जो बदनामी से डरते ही नहीं! एक मच्छडूदानी नहीं, कई मच्छडूदानियां लेकर चल सकते हैं; पूरी दुकान लेकर चल सकते हैं! कोई हर्जा नहीं।

लेकिन राम ने शूद्र के कानों में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया। यह मनु के ही इशारों पर सारा काम चला। इस देश में जो आज भी अत्याचार हो रहा है शूद्रों पर, उसमें मनु महाराज का हाथ है।

अभी भी मनुस्मृति हिंदू—मानस का आधार—स्तंभ है। अभी भी हम उससे छूट नहीं पाये।

मगर यह सूत्र बड़ा प्यारा है। यह सूत्र अकेला ही होता, तो मनुस्मृति अद्भुत होती। मगर यह सूत्र तो दबा पड़ा है। यह सहजानंद ने कैसे’ खोज लिया, यह भी आश्चर्य है! क्योंकि मनुस्मृति—बहुत से सूत्र हैं, बहुत श्लोक हैं। पूरे पढे होंगे तब कभी इस सूत्र पर हाथ लगा होगा। मगर यह सूत्र… जब मैं मनुस्मृति को देख रहा था—उलट—पलट रहा था—तब मेरी आंखों में भी जगमगाते दीये की तरह बैठा रह गया था। मैं इसे भूला नहीं। इस सूत्र का अर्थ तुम समझो। अर्थ मनु के बिलकुल विपरीत जाता है। अर्थ ब्राह्मणों के विपरीत जाता है। अर्थ पण्डितों के विपरीत जाता है। पुरोहितों के विपरीत जाता है। क्योंकि धर्म को मारता कौन है!

यह सूत्र कहता है : ‘धर्म एव हतो हन्ति—मारा हुआ धर्म मार डालता है।’

निश्चित ही इसके प्रमाण ही चारों तरफ दिखाई पड़ेंगे। हिंदू धर्म ने हिंदुओं को मार डाला है। मुसलमान धर्म ने मुसलमानों को मार डाला है। जैन धर्म ने जैनों को’ मार डाला है। बौद्ध धर्म ने बौद्धों को मार डाला है। ईसाई धर्म ने ईसाईयों को मार डाला है। यह पृथ्वी मरे हुए लोगों से भरी है। इसमें मुरदों के अलग— अलग मरघट हैं! कोई हिंदुओं का, कोई मुसलमानों का, कोई जैनों का—वह बात और—मगर सब मरघट हैं!

मारता कौन है धर्म को! तुम ‘सोचते हो अधार्मिक लोग धर्म को मारते हैं, तो गलत। अधार्मिक की क्या हैसियत है कि धर्म को मारे।

तुमने कभी देखा : अंधेरे ने आकर और दीये ‘को बुझा दिया हो! अंधेरे की क्या हैसियत कि दीये को बुझाये! अंधेरा दीये को नहीं बुझा सकता। अंधेरा धोखा भी नहीं दे सकता आलोक होने का। इसलिए इस बात को बहुत गांठ में बांध लेना, भूलना ही मत कभी। इस दुनिया में धर्म को खतरा अधर्म से नहीं होता; झूठे धर्म से होता है। असली सिक्कों को खतरा कंकड़—पत्थरों से नहीं होता; नकली सिक्कों से होता है। नकली सिक्के चूकि असली सिक्कों जैसे मालूम पड़ते हैं, इसलिए असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं।

अर्थशास्त्र की यह मान्य धारणा है, और उचित मालूम होती है : कि असली सिक्कों को चलन के बाहर करने की क्षमता केवल नकली सिक्कों में होता है। तुम्हारी जेब में भी अगर सौ—सौ रुपये के दो नोट हों—स्व नकली और एक असली—तो तुम पहले किसको चलाओगे? तुम पहले नकली को चलाओगे। क्योंकि असली तो कभी भी चल जायेगा। तुम नकली को किसी भी बहाने चलाओगे। अखबार ही खरीद लोगे, चाहे पढ़ना हो या न पढ़ना हो! कुछ भी खरीद लोगे—रुपये दो रुपये की चीज, चार—छह आने की चीज। सौ रुपये का नकली सिक्का चल जाये! और जिसके हाथ में वह पड़ेगा, जैसे ही वह पहचानेगा कि नकली है, वह भी पहला काम यह करेगा कि इससे निपटारा हो। क्योंकि नकली को रखना खतरे से खाली नहीं है। चले—न चले, तो जल्दी चला दो। असली तो कभी भी चल सकता है। इसलिए जब नकली सिक्के बजार में होते हैं, तो असली सिक्के तिजोडियो में बंद हो जाते हैं, और नकली सिक्के चलने लगते हैं।

यही नियम धर्म के जगत में भी लागू होता है। बुद्धों को चलन के बाहर कर देते हैं—पण्डित —पुरोहित। ये नकली सिक्के हैं। ईसा को चलन के बाहर कर दिया ईसाई पादरियों ने, लेकिन महावीर को चलन के बाहर कर दिया जैन मुनियों ने। कृष्ण को चलन के बाहर कर दिया तथाकथित कृष्ण के उपासक, पुजारी, पण्डित—इन्होंने चलन के बाहर कर दिया।

नकली सिक्के सस्ते भी मिलते हैं। असली सिक्कों के लिए कीमत चुकानी पड़ती है! और बड़े मजे की बातें हैं कि नकली सिक्के के लिए कोई श्रम ही नहीं उठाना पड़ता। असली सिक्के के लिए बहुत श्रम से गुजरना पड़ता है।

धर्म को मारता कौन है?

पहले समझें कि धर्म को जिलाता कौन है? क्योंकि अगर हम जिलाने वाले को पहचान लें, तो मारनेवाले को भी पहचान जायेंगे।

धर्म को जिलाते हैं, इस जगत में जीवंत करते हैं वे लोग जो धर्म के अनुभव से गुजरते हैं। बुद्ध, जीसस, कृष्ण, मोहम्मद, जलालुद्दीन, नानक, कबीर—ये धर्म के मृत प्राणों में पुनरुज्जीवन फूंक देनेवाले लोग हैं। फिर बांसुरी बज उठती है, जो सदियों से न बजी हो। ठूंठ फिर हरे पत्तों से भर जाते हैं, और फूलों से लद जाते हैं—जिन पर सदियों से पत्ते न आये हों।

बुद्ध के जीवन में कहानी आती है……।’कहानी’ ही कहूंगा, क्योंकि मैं नहीं मानता कि यह कोई तथ्य है; मगर प्रतीकात्मक है। बहुमूल्य है। सत्य है—तथ्य नहीं।

कहानी कहती है कि बुद्ध जब निकलते हैं—अगर किसी ठूंठ के पास से निकल जायें, तो ठूंठ हरा हो जाता है। और किसी बांझ वृक्ष के पास से निकल जायें, जिसमें फल न लगते हों, तो फल लग जाते हैं। असमय में भी फूल खिल जाते हैं।

कथा है एक गांव में बुद्ध ठहरे हैं। सुबह—सुबह एक शूद्र चमार—उसका नाम था—सुदास, वह उठा; अपने घर के पीछे गया। काम— धाम में लगने का वक्त हो गया। घर के पीछे उसका पोखर था, छोटी—सी तलैया। चमार था; गांव में उसे कोई पानी भरने न दे, तो अपनी ही तलैया से अपना गुजारा करता था।

देखकर उसकी आंखें ठगी रह गयीं! बे—मौसम कमल का फूल खिला। उसने अपनी पत्नी को पुकारा, ‘सुन। यह क्या हुआ! यह कभी नहीं हुआ! मेरी जिंदगी हो गयी। यह कोई मौसम है, यह कोई समय है! कली भी न थी रात तक, और सुबह इतना बड़ा फूल खिला! इतना बड़ा फूल कि कभी खिला नहीं देखा! यह कैसे हुआ?’ उसकी पत्नी ने कहा, ‘हो न हो बुद्ध पास से गुजरे होंगे। क्योंकि मैंने सुना है—जब बुद्ध गुजरते हैं, तो असमय फूल खिल जाते हैं।’

सुदास हंसने लगा। उसने कहा कि ‘पागल! यहां कहां बुद्ध गुजरेंगे! इस चमार के झोपड़े के पास से कहां बुद्ध गुजरेंगे!’ उसने आस—पास खबर की। पता चला कि यह सच है; सांझ ही बुद्ध का आगमन हुआ है। वे इसी रास्ते से गुजरे हैं और आगे जाकर एक अमराई में रुके हैं।

तो सुदास ने कहा कि ‘फिर क्या करूं इस फूल का! यह तो बड़ा शुभ अवसर है। इस फूल को तोड़कर मैं सम्राट को बेच दूं। सौ —पचास रुपये जरूर इनाम में मिल जायेंगे। क्योंकि असमय का कमल!’

तो वह फूल को तोड़कर राजमहल की तरफ जाता था। चकित हुआ। राजा का रथ ही आ रहा था! अभी सूरज ज्या रहा था और राजा का रथ—स्वर्ण रथ—सूरज में यूं चमक रहा था, जैसे दूसरा सूरज ध्या रहा हो। वह ठिठककर राह पर ही खड़ा हो गया।

माजरा क्या है! रात इस गरीब के झोपड़े के सामने से बुद्ध गुजरे; सुबह सम्राट का स्वर्ण—रथ आ रहा है! इस रास्ते पर कभी आया ही नहीं। यह चमारों की बस्ती, यहां सम्राट आयें किसलिए! ठिठककर खडा हो गया। हिम्मत ही न पड़ी कहने की कि मैं फूल लेकर राजमहल की तरफ आ रहा था। लेकिन रथ खुद ही रुका। सम्राट ने सारथी को कहा— ‘रुको। इस सुदास को बुलाओ।’

सुदास सम्राट के जूते बनाता था। सुदास का नाम सम्राट को मालूम था। सुदास डरते हुए गया और कहा कि ‘ फूल लेकर आपकी तरफ ही आ रहा था। असमय का फूल है, मैंने सोचा—किसको भेंट करूं! आपके ही योग्य है।’

सम्राट ने कहा, ‘मांग, क्या मांगता है? जो मांगेगा इसके बदले में—दूंगा।’ सुदास ने कहा कि ‘जो आप दे देंगे।’

‘नहीं’ सम्राट ने कहा, ‘तू मांग। क्योंकि यह फूल मैं बुद्ध को चढ़ाने ले जाऊंगा। तू जो मांगेगा, दूंगा। बुद्ध प्रसन्न होंगे देखकर—ऐसे असमय का फूल! इतना सुंदर—इतना बड़ा फूल कमल का!’

सुदास के गरीब मन में भी एक अमीर चाह उठी कि क्यों न मैं ही चढ़ा दूं जाकर फूल! रोटी—रोजी तो चल ही जाती है। मगर लालच भी मन में उठा कि आज सम्राट कहता है—जो मांगना हो मांग ले!

लेकिन इसके पहले कि वह कुछ कहे, वह सोच रहा था कि कहूं—स्व हजार स्वर्ण अशर्फियां; हिम्मत नहीं बंध रही थी कि एक हजार स्वर्ण अशर्फियां मांग रहा हूं एक फूल के लिए! तो थोड़ा झिझक रहा था। तभी सम्राट के रथ के पीछे ही उसके वजीर का रथ आकर रुका। और वजीर ने कहा, ‘सुदास, बेच मत देना; मैं भी खरीददार हूं। मैं चढ़ाऊंगा बुद्ध को। और सम्राट तो औपचारिकता वश जा रहे हैं। इनको बुद्ध से कुछ लेना—देना नहीं है। जाना चाहिए, इसलिए जा रहे हैं। मैं बुद्ध का प्रेमी हूं, इसलिए सम्राट को कहा कि ‘देखें, आप बीच में न आयें। आप प्रतिस्पर्धा में न पड़े। निश्चित ही मैं आप से कैसे जीतूंगा, अगर प्रतिस्पर्धा हो जाये। मगर आप बीच में न आयें, क्योंकि आपके लिए तो सिर्फ औपचारिक है जाना; मेरे हृदय की बात है।’—’सुदास, तू मल जो मांगेगा, दे दूंगा।’

सुदास ने सोचा, ‘जब बात यूं है, तो अब एक हजार अशर्फियां क्या मांगनी; दो हजार अशर्फियां मांग लूं!’ मगर उसकी जबान न खुले। दो अशर्फियां मांगने में भी बात ज्यादा होती थी; दो हजार अशर्फियां!

और तभी नगरसेठ का भी रथ आकर रुका, उसने कहा, ‘सुदास, बेचना मत, मैं भी खरीददार हूं।’ नगरसेठ तो इतना बड़ा सेठ था कि सम्राट को भी खरीद सकता था। सम्राट को जब जरूरत पड़ती थी, तो उससे ही उधार मांगता था। और इस अकेले सम्राट को ही नहीं, आसपास के और बड़े सम्राट भी इस नगरसेठ से धन उधार लेते थे। कहते थे कि इस नगरसेठ के पास धन तौला जाता था—गिना नहीं जाता था। क्योंकि गिनने की फुर्सत किसको थी! तो फावड़े से भर— भरकर टोकरियों में अशर्फियां गिनी जाती थीं, कि कितनी टोकरियां गिने एक—एक दो—दो! ऐसे गिनती करने की फुर्सत किसको थी!

उस सेठ ने कहा कि ‘तू जो कहेगा। लाख अशर्फियां मांगना हो, लाख अशर्फियां मांग। लेकिन फूल मैं चढ़ाऊंगा।’

सुदास ठिठका खड़ा रह गया। उसने कहा, ‘फूल बेचना नहीं है।’ उन तीनों ने एक साथ पूछा— ‘क्यों।’ सुदास ने कहा कि ‘जिस फूल के लिए एक लाख अशर्फियां देने के लिए कोई तैयार हो, गरीब आदमी हूं मगर मेरे मन में भी गहन भाव उठा कि फिर मैं ही क्यों न इस फूल को बुद्ध के चरणों में चढा दूं। जरूर उन चरणों में चढ़ाने का मजा लाख अशर्फियों से ज्यादा होगा। नहीं तो तुम एक अशर्फी न देते’, नगरसेठ से उसने कहा, ‘मुझे! लाख अशर्फियां दे रहे हो! सम्राट राजी है, वजीर राजी है; तुम राजी हो। और मुझे ऐसा लगता है कि अगर गांव में जाऊं तो और भी लोग राजी हो जायेंगे। मुझे इसके जितने दाम चाहिए, उतने मिल सकते हैं। लेकिन अब बेचना ही नहीं है।’

नगरसेठ ने कहा, ‘दो लाख अशर्फियां देता हूं। तू जो मांग—मुंहमांगा।’ उसने कहा, ‘ अब बेचना ही नहीं है। सुदास गरीब है मगर इतना गरीब नहीं। चमार है। काम तो चल ही जाता है मुझ गरीब का—जूते सीने से ही। यह मौका मैं नहीं छोडूंगा। यह फूल मैं ही चढ़ाऊंगा।’ और सुदास ने जाकर वह फूल बुद्ध के चरणों में स्वयं चढ़ाया। और बुद्ध ने उस सुबह अपने प्रवचन में कहा कि ‘सुदास ने आज इतना कमाया है, जितना कि सदियों में सम्राट नहीं कमा सकते। पूछो इस सम्राट से, पूछो इस वजीर से पूछो इस नगरसेठ से! आज इन सब को हरा दिया सुदास ने। आज इस शूद्र ने अपने को परम श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। आज लात मार दी धन पर। आज इसका अपरिग्रही रूप प्रगट हुआ है। यह धन्यभागी है।’

और सुदास पर ऐसी वर्षा हुई उस दिन अमृत की कि फिर लौटा नहीं। उसने कहा, ‘अब जाना क्या! जब फूल चढ़ाने से इतना मिला, तो अपने को भी चढ़ाता हूं।’ सुदास भिक्षु हो गया। फूल ही नहीं चढ़ा; खुद भी चढ़ गया।

यूं कहानियां हैं कि असमय, बुद्ध के पास से गुजरने से फूल खिल जाते हैं। ऐसा होता हो, न होता हो.. हो नहीं सकता ऐतिहासिक अर्थों में। क्योंकि समय कोई नियम नहीं बदलता। होना चाहिए, मगर होता नहीं है। प्रकृति तो निरपवाद रूप से चलती है; कुछ भेद नहीं करती। लेकिन प्रतीकात्मक हैं ये बातें। बुद्धों की मौजूदगी में सदियों से निष्प्राण पड़े धर्म में पुन: प्राण की प्रतिष्ठा होती है।

जिस व्यक्ति ने स्वयं सत्य को जाना है वह धर्म को जीवित करता है—सिर्फ वही, केवल वही। उसके छूने से ही धर्म जीवित हो उठता है और उस धर्म को मारनेवाले वे लोग हैं, जिन्होंने स्वयं तो अनुभव नहीं किया है, लेकिन जो दूसरों के उधार वचनों को दोहराने में कुशल होते हैं।

पण्डित और पुरोहित का व्यवसाय क्या है! उनका व्यवसाय है कि बुद्धों के वचनों को दोहराते रहें; बुद्धों की साख का मजा लूटते रहें। बुद्धों को लगे सूली, बुद्धों को मिले जहर, बुद्धों पर पड़े पत्थर—और पण्डितों पर, पुजारियों पर, पोपों पर फूलों की वर्षा!

अभी तुम देखते हो—पोप किसी देश में जाते है, तो इतने लोग देखने को इकट्ठे होते हैं कि अभी ब्राजील में सात आदमी भीड में दबकर मर गये; और जीसस को सूली लगी, तब सात आदमी भी जीसस को प्रेम करनेवाले भीड़ में इकट्ठे नहीं थे। सात यहां दबकर मर गये—साधारण आदमी को देखने के लिए जिसमें कुछ भी नहीं है! जिसके पोप होने के पहले कोई एक आदमी देखने न आता। अभी सालभर पहले जब यह आदमी पोप नहीं हुआ था, किसी को नाम का भी पता नहीं था! किसी को प्रयोजन भी नहीं था। और ऐसा इस आदमी में कुछ भी नहीं है। लेकिन लाखों लोग इकट्ठे होंगे। इतने लोग इकट्ठे होंगे, कि सात आदमी भीड़ में दबकर मर जायें! और यह पहली घटना नहीं है। ऐसी और घटनाएं घट चुकी हैं पहले। कहीं तीन आदमी मरे, कहीं दो आदमी मरे भीड़ में दबकर! देखने का ऐसा पागलपन! और जीसस को कितने लोग देखने गये थे! जब जीसस को सूली लगने का वक्त आया, तो उनके बारह शिष्य भी भाग खड़े हुए थे। सिर्फ एक पीछे चला। जीसस ने उसको इंगित करके कहा; नाम तो लिया नहीं, क्योंकि नाम लेना खतरे से खाली न था। पकड़ लिया जाये बेचारा। तो जोर से इतना ही कहा कि ‘भाई लौट जा। लौट ही जा!’

जो लोग जीसस को पकड़कर ले जा रहे थे, उन्होंने पूछा, ‘किससे आप कह रहे हैं? क्या कोई जीसस का संगी—साथी यहां भीड़ में है?’ उन्होंने मशालें घुमाकर देखा। एक आदमी पकड़ गया, जो आदमी अजनबी लग रहा था। उन्होंने पूछा, ‘क्या तुम जीसस के साथी हो?’ उसने कहा कि ‘नहीं।’ और जीसस ने कहा, ‘देख, मैं कहता था लौट जा। मुर्गा सुबह की बांग दे, उसके पहले तीन बार कम से कम तू मुझे इनकार कर चुका होगा।’

और यही हुआ। मुर्गे की बांग देने के पहले तीन बार वह आदमी पकड़ागया। दुश्मनों ने बार—बार देखा कि कौन है! तो वह हर बार बदल जाये कि ‘मैं! मैं तो अजनबी हूं। बाहर के गांव से आया हूं। गांव का पता मुझे मालूम नहीं। आप सब गांव की तरफ जा रहे हैं, मशालें हैं आप के हाथ में, तो सोचा मैं भी साथ हो लूं।’

उन्होंने पूछा, ‘तू पहचानता है, यह आदमी कौन है, जिसको हम बांधे हैं?’

उसने कहा, ‘नहीं, कभी देखा नहीं! मैं बिलकुल पहचानता नहीं। मुझे क्या पता! कौन है यह आदमी? क्यों इसको बांधकर ले जा रहे हो? चोर होगा, बदमाश होगा!’

सुबह मुरगे के बांग देने के पहले एक शिष्य साथ गया था, वह भी इनकार कर गया था! हालांकि भीड़ इकट्ठी हुई थी, कोई एक लाख लोग इकट्ठे हुए थे। लेकिन वे एक लाख लोग जीसस को देखने इकट्ठे नहीं हुए थे… गालियां देने, पत्थर फेंकने, सडे—गले केले —टमाटर फेंकने; जीसस का मखौल उडाने, मजाक करने—कि ‘यह देखो ईश्वर का बेटा, सूली पर लटक रहा है! अब स्पासे अपने बाप को। अब कहो अपने बाप से जो आकाश में है, जिसकी तुम बातें करते थे सदा, कि अब बचाये। बड़े चमत्कार तुम दिखाते थे, कहते हैं—मुर्दों को जिलाते थे, कहते हैं लंगड़ों को चला दिया, कहते हैं अंधों को दिखा दिया, अब कुछ करो!’

लोगों ने भाले भोंक— भोंककर जीसस को कहा, ‘अरे, अब कुछ चमत्कार दिखाओ! अब क्या हो गया! कैसे गुमसुम खड़े हो? अब भूल गयी चौकड़ी!’

आये थे लाख लोग देखने तमाशा—हंसी—मजाक करने! यह जीसस जैसे व्यक्तियों के साथ हमारा व्यवहार है। और फिर जीसस के पादरी—पुरोहितों के साथ हमारा व्यवहार बिलकुल बदल जाता है। बड़ी अजीब दुनिया है! बड़ा अजीब रिवाज है! यहां झूठे पूजे जाते हैं, यहां सच्चे मारे जाते हैं! सत्य को यहां सूली लगती है—झूठ को सिंहासन मिलता है!

धर्म को कौन मार डालता है?

‘धर्म एव हतो हन्ति—और निश्चित ही अगर धर्म मरा हुआ होगा, तो वह तुम्हारी क्या खाक रक्षा करेगा! तुम उसके बोझ के नीचे दबकर मर जाओगे। तुम उसकी लाश के नीचे सड़कर मर जाओगे।

‘मारा हुआ धर्म मार डालता है।’ मगर धर्म को कौन मारता है? नास्तिक तो नहीं मार सकते। नास्तिक की क्या बिसात! लेकिन झूठे आस्तिक मार डालते हैं। और झूठे आस्तिकों से पृथ्वी भरी है। झूठे धार्मिक मार डालते हैं। और झूठे धार्मिकों का बड़ा बोल—बाला है। मंदिर उनके, मस्जिद उनके, गिरजे उनके, गुरुद्वारे उनके। झूठे धार्मिक की बडी सत्ता है! राजनीति पर बल उसका; पद उसका, प्रतिष्ठा उसकी; सम्मान और सत्कार उसका!

किसी जैन मुनि के कानों में तुमने खीले ठोंके जाते देखे! महावीर के कानों में खीले ठोंके गये! और जैन मुनि आते हैं, तो उनके पावों में तुम आंखें बिछा देते हो! कि आओ महाराज! पधारी। धन्यभाग कि पधारे! और महावीर को तुमने ठीक उलटा व्यवहार किया था। तुमने पागल कुत्ते महावीर के पीछे छोड़े, कि नोंच डालो, चीथ डालो इस आदमी को!

तुमने बुद्ध को मारने की हर तरह कोशिश की। पहाड से पत्थर की शिलाएं सरकाई कि दबकर मर जाये। पागल ह ;थी छोड़ा। जहर पिलाया।

तुमने मीरा को जहर पिलाया! और अब भजन गाते फिरते हो! कि ऐ री मैं तो प्रेम दिवानी, मेरी दरद न जाने कोय! और दरद तुमने दिया मीरा ‘को; तुम क्या खाक दरद जानोगे! दरद जाने मीरा। और मीरा जाने कि प्रेम का दीवानापन क्या है!

क्या तुमने व्यवहार किया मीरा के साथ! तुमने सब तरह से दुर्व्यवहार किया। आज तो तुम मीरा के गुणगान गाते हो, लेकिन वृन्दावन में कृष्ण के बड़े मंदिर में मीरा को घुसने नहीं दिया गया। रुकावट डाली गयी। क्योंकि उस कृष्ण मंदिर का जो बड़ा पुजारी था….. रहा होगा उन्हीं विक्षिप्तों की जमात में से एक जो स्त्रियों को नहीं देखते, जो स्त्रियों को देखने में डरते हैं। जिनके प्राण स्त्रियों को देखने से निकल जाते हैं! जिनका धर्म ही मर जाता है—स्त्री देखी कि धर्म गया उनका! कि एकदम अधर्म हो जाता है उनके जीवन में; पाप ही पाप हो जाता है!

उसने कसम ले रखी थी कि स्त्री को नहीं देखेगा। तो मीरा को कैसे घुसने दे! जैसे ही खबर आयी वृन्दावन में कि मीरा आ रही है, वह घबडाया। उसने पहरेदार लगा दिये कि मीरा को अंदर मत आने देना, क्योंकि उसके मंदिर में स्त्रियां आ ही नहीं सकती थीं।

मगर मीरा तो मस्त थी। वह इतनी मस्त थी कि जब वह नाचने लगी मंदिर के द्वार पर जाकर, तो मंदिर के पहरेदार भी उसकी मस्ती में डोलने लगे। और यूं नाचते—नाचते वह भीतर प्रवेश हो गयी! जब वह भीतर प्रवेश हो गयी, तब द्वारपालों को पता चला कि यह क्या हो गया! अब तो बड़ी मुश्किल हुई!

ब्रह्मचारी महाराज भीतर अपना पूजा का थाल लिए आरती उतार रहे थे। उनके हाथ से थाली गिर पडी। स्त्री सामने आ जाये! कैसे—कैसे लोग इस दुनिया में हुए! और ऐसे लोग अभी भी हैं!

अभी इंग्लैण्ड में श्री प्रमुख स्वामी स्त्रियों को नहीं देखते! तो बहुत तहलका मचा हुआ है। वे कैन्टरबरी के प्रमुख बिशप से मिलने गये, तो उसको बेचारे को पता नहीं था। जब मिलने की घड़ी आयी, तब खबर पहुंची कि ‘कोई स्त्री मौजूद नहीं होना चाहिए।’ अब बिशप की सेक्रेटरी ही स्त्री! टाइपिस्ट स्त्री! और कई स्त्रियां पत्रकार—फोटोग्राफर—वे सब आयी हुई थीं। उन सब को हटाना पड़ा। इंग्लैण्ड में बहुत चर्चा हुई इस बात की, कि यह स्त्रियों का अपमान है। वे स्त्रियों को नहीं देख सकते! ऐसा ही वह आदमी रहा होगा—ऐसा ही विक्षिप्त। उसके हाथ से थाली गिर पड़ी। और वह ए_कदम नाराज हो गया, आगबबूला हो गया। ऐसे लोगों के भीतर आग तो सुलगती ही रहती है। ये तो ज्वालामुखी पर बैठे हुए लोग हैं। कब भभक उठे इनकी अता—जरा—सा अवसर, बस काफी है।

चिल्लाया—चीखा कि स्त्री! तुझे तमीज नहीं! जब तुझे मालूम है—और बार—बार दरवाजे पर लिखा हुआ है कि स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है—तू कैसे प्रवेश की? मेरा पूजा का थाल गिर गया; मेरे तीस वर्ष की साधना भ्रष्ट हो गयी! स्त्री को देखने से इनकी साधना भ्रष्ट हो गयी! इनकी पूजा का थाल गिर गया; कृष्ण ने भी अपना माथा ठोंक लिया होगा—यह मेरा भक्त है! और कृष्ण की साधना भ्रष्ट न हुई! और सोलह हजार सखियां नाचती रहीं चारों तरफ। और ये उनके भक्त हैं!

ये कृष्ण—जीवंत धर्म। जिसके पास सोलह हजार स्त्रियां नाचे, तो कुछ नहीं बिगड़ता। और यह मुरदों का धर्म—कि एक स्त्री आ जाये—वह भी मीरा जैसी स्त्री, जिसको देखकर भी इस अंधे को आंखें खुल सकती थीं, इस मुरदे में प्राण पड़ सकते थे—उसके हाथ की थाली गिर गयी!

लेकिन मीरा ने जो वचन कहे, बड़े प्यारे हैं। मीरा ने कहा कि ‘क्षमा करें। मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के भक्त मानते हैं—कृष्ण के अलावा और कोई पुरुष नहीं। तो दो पुरुष हैं : एक कृष्ण और एक आप? मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के भक्तों की यह धारणा है कि हम सब स्त्रियां ही हैं; पुरुष तो एक परमात्मा है; हम सब उसकी प्रेमिकाएं हैं। उसकी सखियां हैं, उसकी गोपियां हैं। आज पता चला कि वह धारणा गलत थी। दो पुरुष हैं। एक कृष्ण और एक ब्रह्मचारी महाराज आप! मगर आप क्यों पूजा का थाल उठाकर प्रार्थना कर रहे हैं! आप तो स्वयं परमात्मा हैं! आप तो स्वयं पुरुष हैं! और परमात्मा होकर आपके हाथ से थाली गिर गयी—स्त्री को देखकर आप ऐसे विचलित, ऐसे उद्विग्न हो उठे!’

इस दुनिया में सबसे बड़ी दुश्मनी बुद्धों और पण्डितों के बीच है। मगर मजा यह है कि जब तक बुद्ध जिंदा होते हैं, पण्डित उनका विरोध करते हैं। और जैसे ही बुद्ध विदा होते हैं, पण्डित बुद्धों की जो छाप छूट जाती है, उसका शोषण करने लगते हैं। तत्‍क्षण चींटों की तरह इकट्ठे हो जाते हैं! क्योंकि बुद्धों का जीवन ऐसी मिठास छोड़ जाता है कि सब तरफ से चींटे भागे चले आते हैं! जैसे शक्कर के ढेर पर चींटे इकट्ठे हो जायें।

बुद्धों की मौजूदगी में तो उन्हें विरोध करना पड़ता है। क्योंकि बुद्ध का एक—एक वचन, जाग्रत व्यक्ति का एक—एक वचन उनके लिए प्राणघाती तीर जैसा लगता है। लेकिन जैसे ही बुद्ध विदा हुए, वैसे ही वे कब्जा कर लेते हैं। बुद्ध जो अपने आसपास हजारों लोगों को प्रभावित छोड जाते हैं, अपनी आभा से मण्डित छोड़ जाते है—ये पण्डित जल्दी से उनकी उस विराट प्रतिभा का शोषण करने में तल्लीन हो जाते हैं। ऐसे धर्म निर्मित होते हैं—तथाकथित धर्म।

ईसा के पीछे ईसाइयत; इसका ईसा से कुछ लेना—देना नहीं है। और बुद्ध के पीछे बौद्ध धर्म—इसका बुद्ध से कुछ लेना—देना नहीं है। और महावीर के पीछे जैन धर्म—इसका महावीर से कुछ लेना—देना नहीं है। मगर इनकी घबडाहटें बडी अजीब हैं! एक से एक हैरानी की घबडाहटें! इनकी बेचैनी!

पण्डितों की हमेशा एक बेचैनी रहती है : कहीं फिर कोई बुद्ध न पैदा हो जाये! नहीं तो इनका जमाया हुआ अखाड़ा फिर उखड़ जाये! मगर सौभाग्य से बुद्ध आते रहते हैं। कभी कहीं न कहीं कोई दीया जल जाता है। और बुझे दीयों की छाती कंप जाती है।

‘धर्म एव हतो हन्ति—मारा हुआ धर्म मार डालता है।’ सहजानन्द! बात तो बडे पते की हैं। धर्म को पण्डित मारते हैं, पुजारी मारते हैं। फिर मारा हुआ धर्म, तुम जो उस मुरदा धर्म के पीछे चलते हो, तुम्हें मार डालता है। मुरदे को ढोओगे, तो मरोगे नहीं तो क्या होगा और!

‘रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है।’ लेकिन रक्षा धर्म की कौन करेगा? धर्म की रक्षा तो वही करे, जिसे धर्म का अनुभव हुआ हो। जिसने धर्म को जिया हो, पिया हो, पचाया हो; जिसके लिए धर्म उसका रोआ—रोआ हो गया हो; जिसकी धड़कन— धड़कन में धर्म समाया हो—वह व्यक्ति धर्म की रक्षा करेगा। और धर्म की अगर रक्षा की जाये, तो धर्म तुम्हारी रक्षा करता है—स्वभावत।

‘तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो—इसलिए धर्म को मत मारो।’

इसलिए पण्डित—पुजारियों से बचो; धर्म को मत मारो। मंदिर—मसजिद कब्रें हैं धर्म की। इनसे बचो। कभी किसी सद्गुरु के मयखाने में बैठो, मयकदे में बैठो—जहां अभी जीवंत शराब ढाली जाती हो, पी जाती हो, पिलायी जाती हो—जहां दीवाने जुड़ते हों, जहां परवाने इकट्ठे होते हों। जहां दीया जलता है, वहां परवाने इकट्ठे होते हैं। मंदिर—मसजिदों में क्या है अब! हा, दीये की तस्वीरें हैं। मगर दीये की तस्वीरों को तुम सोचते हो—परवाने आयेंगे!

जरा एक दीये की तस्वीर तो लगाकर बैठो घर में और राह देखो कि कोई परवाना आ जाये! परवाने इतने मूरख नहीं—जितना मूरख आदमी होता है! परवाने पर भी न मारेंगे वहां। कितनी ही सुंदर तस्वीर हो दीये की, कितनी ही चमचमाती तस्वीर हो दीये की—सोने की बना लो—तो भी परवानों को धोखा न दे पाओगे।

सोलोमन के जीवन में उल्लेख है। ईथोपिया की रानी उसकी परीक्षा लेने गयी। क्योंकि उसने सुन रखा था कि सोलोमन पृथ्वी पर आज सर्वाधिक ज्ञानी व्यक्ति है। ईथोपिया की रानी उसकी परीक्षा लेने गयी। उसने एक हाथ में नकली फूल लिए, जो बड़े कलाकारों से बनवाये थे। और दूसरे हाथ में असली फूल लिए। नकली फूल इतने सुंदर बने थे कि असली को मात करते लगते थे! वह दोनों फूलों को लेकर सोलोमन के दरबार में गयी। सोलोमन से थोड़ी दूर पर खडे होकर उसने कहा कि ‘सोलोमन, मैंने सुना है कि तुम पृथ्वी के सबसे बडे ज्ञानी हो। जरा सा मेरे प्रश्न का उत्तर दे दो। मेरे किस हाथ में असली फूल हैं? और किस हाथ में नकली फूल हैं?

सोलोमन भी बहुत हैरान हुआ! देखे दोनों हाथ में फूल; तय करना मुश्किल था। मैं होता तो तय कर लेता। जो असली से भी ज्यादा असली मालूम हो रहे थे, उनको नकली कह देता। क्योंकि असली से कहीं ज्यादा असली कहीं कुछ होता है!

मगर सोलोमन ने जल्दी से तय करना ठीक न समझा। उसने कहा कि ‘जरा अंधेरा है; मैं तो का भी हो गया; जरा द्वार—खिड़कियां खोल दो सब, ताकि रोशनी आये, ताकि मैं देख तो सकूं ठीक से।’ सारे द्वार—खिड़कियां खोल दी गयीं। और वह थोड़ी देर चुपचाप रहा और उसने कहा, ‘तेरे बांये हाथ में असली फूल हैं।’

ईथोपिया की रानी हैरान हुई। उसके वजीर हैरान हुए। दरबारी हैरान हुए। उन्होंने कहा, ‘आपने कैसे पहचाना! क्योंकि हम भी देख रहे हैं रोशनी में भी। मगर कुछ पहचान में नहीं आता कि कौन असली है!’

उसने कहा, ‘मैंने नहीं पहचाना। मैं तो सिर्फ राह देखता रहा था कि कोई मधुमक्खी भीतर आ जाये। और एक मधुमक्खी खिडकी से भीतर आ गयी। अब मधुमक्खी को तुम धोखा नहीं दे सकते, चाहे कितने ही बड़े चित्रकारों ने फूल बनाये हों। मधुमक्खी जिस फूल पर बैठ गयी, वे असली फूल हैं।’

परवानों को धोखा न दे सकोगे। मुझे भी धोखा नहीं होता। मैं फौरन पहचान जाता; जो असली से ज्यादा असली मालूम होते.

एक आदमी सेठ चंदूलाल के पास दान मांगने गया था। चंदूलाल यु किसी को दान देते नहीं। उनके घर के सामने से भिखारी यूं निकल जाते हैं कि यह तो चंदूलालजी का मकान है! मांगते ही नहीं। अगर कोई भिखारी उनके घर के सामने भीख मांगता है, तो दूसरे लोग कहते हैं, ‘मालूम होते हो, अजनबी हो; इस गांव में नये हो। अरे यह चंदूलाल का मकान है! जल्दी करो, निकल जाओ। हाथ में होगा कुछ, छीन लेगा और! चंदूलाल से मिला कभी किसी को नहीं है। जिसका ले गया—पा गया, सो पा गया!’

लेकिन गांव में कुछ बहुत जरूरत पड़ गयी थी और गाव के कुछ लोगों ने सोचा, एक दफे कोशिश करनी चाहिए। कई सालों से कोशिश की भी नहीं। आदमी बदल भी जाता है! अब कौन जाने बदल गया हो। बुढापा भी करीब आ रहा है; तो मौत के पास आते—आते आदमी के हृदय में भी. बदलाहट होने लगती है। आदमी धार्मिक होने लगता है। कौन जाने दया— भाव जगा हो! चलो, एक कोशिश करने में हमारा क्या बिगड़ जायेगा! बहुत से बहुत मना ही करेगा न। तो हमारा क्या ले लेगा!

वे गये। चंदूलाल ने बड़े प्रेम से बिठाया। चंदूलाल ने कहा कि ‘जरूर, जरूर दान दूंगा!’ बड़े हैरान हुए। खुद भी भरोसा न आया कि क्या सुन रहे हैं! फिर सोचा कि ठीक ही हमने सोचा था कि आदमी बूढ़ा होता है, तो बदलाहट होती है। ’पर’, चंदूलाल ने कहा, ‘एक शर्त है। मेरी दोनों आंखों को देखकर बताओ कि कौन—सी असली—कौन—सी नकली। अगर बता सके सही—सही, तो जो मांगोगे वह दान दूंगा!’

बहुत गौर से उन्होंने देखा। आखिर उन्होंने कहा, ‘ आपकी बायीं आंख नकली है।’ चंदूलाल ने कहा, ‘गजब कर दिया! मार डाला मुझ गरीब को! कैसे पहचाने कि मेरी बायीं आंख नकली है?’

उन्होंने कहा, ‘इसलिए पहचाने कि बायीं आंख में थोड़ा दया— भाव मालूम पड़ता है! दायीं आंख तो असली होनी चाहिए; उसमें तो कोई दया — भाव नहीं!’

परवानों को धोखा नहीं दिया जा सकता। लेकिन मंदिरों में, गिरजों में, गुरुद्वारों में, जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, ये परवाने नहीं हैं; नहीं तो इनको धोखा नहीं हो सकता था। परवाने तो मयकदों में इकट्ठे होते हैं। और मयकदा वहां होता है, जहां कोई जीवित सद्गुरु होता है।

मगर भीड़ सदा जीवित सद्गुरु के खिलाफ होगी। क्योंकि भीड़ तो पण्डित—पुरोहितों से ही चलती है। और भीड़ के पास तो झूठा और सस्ता धर्म है। और भीड़ अपने सस्ते धर्म को, और झूठे धर्म को झूठ मानने को राजी नहीं होना चाहती। क्योंकि उसे झूठ मान ले, तो छोड़ना पड़ेगा। और उसे छोड़ना अर्थात सच को खोजना भी पड़ेगा। और फिर सच्चे को खोजना कठिन भी हो सकता है, दुरूह हो सकता है। साधना करनी होगी; ध्यान करना होगा।

यह झूठा धर्म तो सत्यनारायण की कथा करवाने से मिल जाता है! खुद करनी भी नहीं पडती! कोई और कर जाता है! एक दस—पांच रुपये का खर्चा हो जाता है। एक उधार नौकर को ले आते हैं, वह कर देता है!

जार्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा है कि ‘दुर्भाग्य के वो दिन भी एक दिन आयेंगे, जब धनपति अपनी पत्नियों के पास भी नौकरों को भेज दिया करेंगे कि जा मेरी पत्नी को चुम्बन दे आ। कहना—पति ने भेजा है; उनको जरा फुर्सत नहीं है काम में। और ये छोटे मोटे काम तो नौकर भी कर सकते हैं। इसके लिए मेरे आने की क्या जरूरत है!’ लेकिन तुम धर्म के साथ यही कर रहे हो।

तुम एक पुजारी से कहते हो कि आकर रोज हमारे घर में मंदिर की घंटी बजा जाया कर। पूजा चढ़ा जाया कर। दो फूल चढ़ा जाया कर। तीस रुपये महीने लगा दिये। वह भी दस—पच्चीस घरों में जाकर घंटी बजा आता है। उसको भी घंटी बजाने में कोई मतलब नहीं है। इससे मतलब नहीं है कि भगवान ने घंटी सुनी कि नहीं। वह जो तीस रुपये महीने देता है, उसको सुनाई पड़ जानी चाहिए, बस! जल्दी से सिर पटकता है। कुछ भी बक—बकाकर भागता है, क्योंकि उसको और दस—पच्चीस जगह जाना है। कोई एक ही भगवान है! कई मंदिरों में पूजा करनी है! जगह—जगह जाकर किसी तरह क्रियाकर्म करके भागता है।

उधार! तुम प्रार्थना उधार करवा रहे हो! तो तुम प्रेम भी उधार करवा सकते हो। आखिर प्रार्थना प्रेम ही तो है। परमात्मा से भी तुम सीधी बात नहीं करते; बीच में दलाल रखते हो। परमात्मा के भी आमने—सामने कभी नहीं बैठते! अरे, फूल चढ़ाने हैं—खुद चढ़ाओ। अगर दीप जलाने हैं—खुद जलाओ। अगर नाचना—गाना हो, तो खुद नाचो—गाओ। ये किराये के टट्ट, इनको लाकर तुम पूजा करवा रहे हो! यह पूजा झूठी है। इनको पूजा से प्रयोजन नहीं है; इनको पैसे से प्रयोजन है। तुमको इससे प्रयोजन है कि भगवान कभी होगा, कहीं मरने के बाद मिलेगा, तो कहने को रहेगा कि भई पूजा करवाते थे। तीस रुपया महीना खर्च किया था। कुछ तो खयाल रखो। आखिर उस सब का कुछ तो बदला दो! बहुत सुनते आये थे कि पुण्य का फल मिलता है, कहां है फल! अब मिल जाये।

लेकिन न तुमने पूजा की; न तुम्हारे पुजारी ने पूजा की। पुजारी को पैसे से मतलब था; तुम्हें कुछ आगे के लोभ का इंतजाम कर रहे हो। तुम आगे के लिp बीमा कर रहे हो! तुम कुशल व्यवसायी हो।

धर्म को मार डाला है, इस तरह के लोगों ने।

और क्या—क्या मजे की बातें फिर निकालते हैं! कल एक व्यक्ति का पत्र पढ़ रहा था अखबार में। उसने लिखा है कि मेरे घर एक साधु बाबा मेहमान हुए। सुबह उठकर उन्होंने ध्यान—स्नान इत्यादि किया। मैंने कहा कि ‘कुछ नाश्ता करें।’ उन्होंने नाश्ता नहीं लिया। चले गये कुछ काम से बाहर। सांझ को लौटे। फिर स्नान— ध्यान किया। मैंने कहा, ‘कुछ भोजन करें’। उन्होंने कहा, ‘नहीं बच्चा’। मैंने पूछा कि ‘साधु बाबा, आप न भोजन सुबह किये, न सांझ! कुछ सत्संग ही हो जाये; कुछ दो शब्द मुझे कह दें।’ तो उन्होंने कहा, ‘जो असली साधु है, वह मुलाकात नहीं देता। जो असली साधु है, वह जमात इकट्ठी नहीं करता। जो असली साधु है, वह करामात नहीं दिखाता।’ यही तीन उन्होंने व्याख्याएं कीं असली साधु की—’मुलाकात नहीं देता, जमात नहीं जुटाता, करामात नहीं दिखाता।’ और उसी रात वे चले गये।

उन सज्जन ने लिखा है कि मुझे तो उनका नाम भी पता नहीं, लेकिन उनकी परिभाषा याद रह गयी। उसकी परिभाषा के अनुसार आजकल का कोई महात्मा, कोई साधु, सच्चा साधु नहीं है, न सच्चा महात्मा है। कोई उन सज्जन को कहे—तो फिर कृष्ण भी सच्चे महात्मा नहीं हैं! मुलाकात दी अर्जुन को, नहीं तो गीता कैसे पैदा होती! फिर बुद्ध भी सच्चे महात्मा नहीं हैं—मुलाकात भी दी, जमात भी इकट्ठी की, नहीं तो भिक्षुओं का संघ कैसे निर्मित होता! फिर तो महावीर भी सच्चे महात्मा नहीं हैं—मुलाकात भी दी, जमात भी इकट्ठी की! फिर जीसस भी सच्चे महात्मा नहीं हैं—और मोहम्मद भी सच्चे महात्मा नहीं हैं—करामात, मुलाकात, जमात; सभी कुछ किया!

तो इनके हिसाब से कौन सच्चा महात्मा है? न कृष्ण, न लाओत्सु, न जरथुस्त्र, न महावीर, न बुद्ध, न मोहम्मद, न क्राइस्ट, न नानक, न कबीर। इनके हिसाब से वह एक आदमी जो इनके घर में ठहरा था, जिसका इनको नाम भी पता नहीं, उसके सिवाय कोई महात्मा नहीं है! खूब इनको पकड़ा गया परिभाषा! अब उस परिभाषा को पकडे बैठे रहना। मगर इस तरह की बातें लोग पकड़कर बैठ जाते हैं। और फिर सोचते हैं कि बड़ा ज्ञान हाथ लग गया। अब ये किसी कृष्ण के पास पहुंच जायेंगे, तो अपनी परिभाषा से ये बच जायेंगे। बुद्ध के पास से गुजर जायेंगे—अपनी परिभाषा से बच जायेंगे, कि अरे, इसने जमात इकट्ठी की! अगर जीसस के पास जायेंगे, तो फौरन बच जायेंगे—अरे, यह तो करामात दिखा रहा है! इनके पास बचने के लिए इंतजाम हो गया! और वह कौन आवारा आदमी, जो इनके घर में ठहरा था, जो इनको परिभाषा दे गया.. और ठहरा भी कि नही, ठहरा, कि किसी सपने में इन्होंने देख लिया! मगर इनके पास एक परिभाषा है, जो इनको सब से बचा देगी। नानक मिलेंगे—बचा देगी! कबीर मिलेंगे—बचा देगी। कृष्ण मिलेंगे—बचा देगी।

पण्डित भी तुम्हें क्या—क्या चीजें दे जाते हैं, क्या—क्या चीजें पकड़ा जाते हैं; क्या—क्या मूर्खतापूर्ण विवरण तुम्हारे हाथ में थमा देते हैं, कसौटियां थमा देते हैं—और फिर उनके हिसाब से तुम चलने लगते हो।

दिगम्बर जैन सोचता है कि तब तक कोई आदमी भगवान को उपलब्ध नहीं होता है, जब तक नग्न न हो। इसलिए वह बुद्ध को भगवान नहीं मानता, कृष्ण को भगवान नहीं मानता, क्राइस्ट को भगवान नहीं मानता, मोहम्मद को भगवान नहीं मानता, उसके पास एक परिभाषा है।

जीसस को माननेवाला मानता है कि जब तक कोई आदमी अंधों को आंख न दे, बहरों को कान न दे, मुरदों को जिलाये न—तब तक वह महात्मा नहीं! तब तक वह भगवान का असली बेटा नहीं! तो, न तो महावीर ने किसी अंधे को आंख दी। न कबीर ने किसी अंधे की आंखें ठीक कीं, न किसी मुरदे को जिलाया। न कृष्ण ने किसी मुरदे को जिलाया, ये सब कोई महात्मा न रहे! ये सब व्यर्थ हो गये। इनका ईश्वर से कुछ संबंध न रहा!

अपनी—अपनी परिभाषाएं लिए लोग बैठे हैं! और परिभाषाएं तुम्हें कौन पकडा देता है? दो कौड़ी के लोग परिभाषाएं पकड़ाने को तैयार हैं! लेकिन उन दो कौड़ी के लोगों की बातें तुम्हारी समझ में आ जाती हैं, क्योंकि उतनी ही तुम्हारे पास समझ भी है। जितनी ओछी बात हो, उतनी जल्दी तुम्हारी समझ में आ जाती है। और कितना शोरगुल तुम मचाने लगते हो फिर!

‘मारा हुआ धर्म मार डालता है।’ और पण्डित धर्म को मारते हैं। फिर मारा हुआ धर्म तुम्हें मारता है।

‘रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है।’ बुद्धपुरुष धर्म की रक्षा करते हैं। बुद्धों के साथ होना, स्वयं की रक्षा पा लेना है। बुद्ध में ही शरण है।

‘इसलिए धर्म को न मारना चाहिए।’ पण्डितों से साथ अलग कर लो अपना। उनके साथ रहना, उनके साथ अपना संबंध जोड़ना धर्म को मारने में भागीदार होना है।…… ‘जिससे मारा हुआ धर्म हमको न मार सके।’ पृथ्वी को बड़ी जरूरत है आज धर्म के पुनरुज्जीवित होने की, नहीं तो आदमी मर ही चुका; उसकी ऊर्जा खो गयी, आनंद खो गया, उत्सव खो गया, नृत्य खो गया। बांसुरी यूं पड़ी है! दर्पण पर धूल जमी है। न कोई गीत उठता है; न सत्य की कोई छवि बनती है।

अब कब तक राह देखोगे! झाड़ो यह धूल। साफ करो इस बासुरी को, कि फिर गीत उतर सकें। फिर सत्य की छवि बन सके, फिर कोयल तुम्हारे भीतर कूके और पपीहा तुम्हारे भीतर पुकारे।

लेकिन यह तभी संभव है जब किसी सद्गुरु के साथ हो जाओ। किसी जलते हुए दिये के पास ही अपने दीये केले जाओ, तो तुम्हारा दीया जल सकता है। लेकिन जिनके दीये खुद ही बुझे हैं, उनके पास तुम अपना दिया लिए बैठे हो! बैठे रहो जन्मों—जन्मों, तुम्हारे दीये के जलने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन सस्ता है यह काम।

पण्डितों के पास होने में कुछ हर्ज नहीं, कुछ खर्च नहीं। और तुम्हारे जैसे ही लोग हैं वे, इसलिए उनसे तालमेल बैठ जाता है, उनसे समझौता बैठ जाता है। बुद्धों से तालमेल बिठालने के लिए क्रांति से गुजरना जरूरी है? आग से गुजरना जरूरी है।

अब मेरे साथ जो आज संन्यासी हैं, उनको सब तरह की आग से गुजरना पड़ रहा है, गुजरना पड़ेगा। इसी आग से गुजरकर वे कुंदन बनेंगे।

हर छोटी—मोटी बात पर उपद्रव है! हर छोटी—मोटी बात पर बाधा है! और कितना शोर—शराबा मचता है! अब मैं कच्छ के रेगिस्तान में बस जाना चाहता था, ताकि लोगों को मुझ से परेशानी न हो। तो कच्छ के रेगिस्तान में भी बसने देना कठिन है! भारी शोरगुल मचा हुआ है! कच्छियों के प्राण निकले जा रहे हैं! जैसे मैं कच्छ पहुंच जाऊंगा, तो कच्छ एकदम लुट जायेगा! जैसे मेरे बिना कच्छ में बहुत कुछ है, जो एकदम बरबाद ही हो जायेगा! एकदम प्राणों पर बन आयी है!

जैन मुनि इकट्ठे हो रहे हैं। जैनियों से आह्वान किया जा रहा है। भद्रगुप्त मुनि ने—किस तरह की भद्रता है, पता नही—और किस तरह का जैन—धर्म है, पता नहीं—आह्वान किया है सारे जैनों का, कि अब सब कुछ बलिदान करना पड़े, तो भी करने की तैयारी रखो। मगर इस व्यक्ति को कच्छ में प्रवेश नहीं करने देना है।

मैं कच्छ का क्या बिगाडूगा!

कल खबर थी कि बंबई के सारे कच्छियों की सभा होने वाली है। सभा का निमंत्रण छापा गया है, उसमें यह साफ लिखा हुआ है कि जो लोग विरोध करना चाहते हों, केवल वे ही आयें! तो मतलब, जो विरोध नहीं करना चाहता है, उसको तो आने भी नहीं देना है! सभा में भी नहीं आने देना है, ताकि विरोध नहीं करने की तो बात ही न उठे! जो लोग विरोध करना चाहते हैं, केवल उनके लिए निमंत्रण है। और फिर घोषणा मचाएंगे कि देखो, जितने लोग आये, सब ने विरोध किया। एक भी तो पक्ष में होता! एक भी आदमी पक्ष में नहीं है। और निमंत्रण में ही जाहिर है, कि सिर्फ निमंत्रण ही उनके लिए दिया गया है, जो विरोध में हैं।

अब बंबई के कच्छियों के प्राण क्यों संकट में पड़े हैं! मैं कच्छ जा रहा हूं तुम कच्छ छोड़कर बंबई बस गये हो! तुम कच्छ कब का छोड़ चुके। कच्छ में है कौन अब? मैं भी एक दीवाना हूं कि कच्छ को चुना हूं जहां से सब भाग गये! मैं इस लिहाज से चुना कि अब यहां किसी को परेशानी न होगी। यहां है ही कौन! पूरे कच्छ की आबादी सात लाख है। सैकड़ों मील खाली पड़े हैं।

कभी डेढ़ सौ साल पहले कच्छ आबाद हुआ करता था, तब सिंध नदी कच्छ के पास से गुजरती थी। फिर सिंध ने अपना रास्ता बदल लिया। सिंध भी भाग खडी हुई! उसने भी कच्छ छोड दिया! डेढ़ सौ साल पहले सिंध ने भी कहा कि ‘क्षमा करो। हे कच्छ महाराज, आप ऐसे ही रहो!’ सिंध ने जब से छोड़ दिया, कच्छ रेगिस्तान है। और जिस दिन से सिंध ने छोड़ा, कच्छ का व्यवसाय मर गया, कच्छ का उत्पादन मर गया। कच्छ के लोगों को हट जाना पड़ा। कच्छ बर्बाद हो गया। कच्छ में कुछ भी न बचा।

लेकिन कच्छ पर भारी संकट आ गया है; उससे भी बड़ा संकट जो सिंध को हटने से आया था; उससे भी बड़ा संकट आ रहा है—मेरे वहां जाने से! मैं कभी—कभी चकित होता हूं कि कैसे छो की जमात है! कैसे अजीब लोग हैं! इनको क्या इतनी बेचैनी हो रही है! आखिर जैन—धर्म को क्या खतरा आ गया होगा, कि सातों जैन धर्मों के अलग—अलग पंथ इकट्ठे हो गये और सातों ने मिलकर निर्णय किया। इनको क्या खतरा आ गया होगा! इनको क्या बेचैनी हो रही है!

बंबई के सारे उद्योगपति इकट्ठे हो गये, जैसे इनके उद्योग को भी कोई खतरा पहुंचा रहा हूं! कि कच्छ मैं चला जाऊंगा तो इनके उद्योग खत्म हो जायेंगे, या इनके कारखाने बंद हो जायेंगे। कच्छ में तो कोई कारखाने हैं नहीं। इनको क्या बेचैनी आ रही है!

एक से एक घबडाहटें! अब उन्होंने एक नया शिगूफा खड़ा किया कि मेरे कच्छ में पहुंचने से देश की सुरक्षा को खतरा हो जायेगा! उस रेगिस्तान में मैं अपने मित्रों को लेकर बैठ जाऊंगा—देश को खतरा—देश की सुरक्षा को खतरा हो जायेगा! देश फिर बच नहीं सकता! फिर देश का बचना मुश्किल है!

अजीब बातें लोग उठाते हैं! लेकिन ये सारे बहाने हैं। ये सब बहाने ऊपर—ऊपर—भीतर बात कुछ और है। भीतरी डर! डर एक बात का कि तुम जिस धर्म को पकड़े बैठे हो, मेरी मौजूदगी में तुम उसे पकड़े न रह सकोगे।

तो इस आश्रम के खिलाफ कितनी अफवाहें उड़ाई जाती हैं! और जब अफवाहें चलती हैं, छपती हैं अखबारों में, तो लोग तो छपे हुए अखबार को मानते हैं। छपी हुई बात तो सच होनी ही चाहिए! लिखे पर हमारा ऐसा भरोसा है! और छापाखाने का छपा हो, तो फिर कहना ही क्या! फिर तो सत्य होना ही चाहिए। फिर उन्हें कोई फिक्र नहीं है—यहां आने की, यहां आकर देखने की, यहां आकर परिचित होने की। यहां तो आने में भी डर होता है।

मेरे पास पत्र आते हैं कि हम आना तो चाहते हैं, लेकिन हमने सुना है, जो भी आता है—सम्मोहित हो जाता है! तो यह भी आने में एक डर है, कि वहां जो जाता है, वह सम्मोहित हो जाता है।

एक व्यक्ति ने विरोध में पत्र लिखा है। अखबार में छपा है, कि मेरे पक्ष में सिवाय मेरे अनुयायियों के और कोई भी नहीं है। बाकी सब लोग मेरे विरोध में हैं।

बात बड़े पते की है! तुम सोचते हो, कृष्ण के पक्ष में कृष्ण के अनुयायियों के सिवाय कोई और है! कि बुद्ध के पक्ष में बुद्ध के अनुयायियों के सिवाय कोई और है? कि क्राइस्ट के पक्ष में क्राइस्ट के अनुयायियों के सिवाय कोई और है? मेरे ऊपर ही सिर्फ यह नियम लागू होगा!

और बड़े मजे का तर्क है : जो मेरे पक्ष में है, वह मेरा अनुयायी। और अनुयायी तो पक्ष में होगा ही! इसलिए जो मेरे पक्ष में है, उसकी तो बात सुननी ही मत, क्योंकि वह अनुयायी है। और जो मेरे विपक्ष में है, वह सच कह रहा होगा, क्योंकि वह अनुयायी नहीं है! अब यह तो बड़ा मुश्किल हो गया है मामला। मेरे पक्ष में कहना चाहिए—और मेरे अनुयायी होना नहीं चाहिए, तब उसकी बात

में कुछ बल होगा। मगर यह कैसे होगा? जिसे मेरी बात सही लगेगी, वह मेरा अनुयायी हो गया। सही लगी और फिर अनुयायी न हुआ, तो क्या खाक सही लगी! सही भी लगी, और अनुयायी भी न हुआ, तो सही कैसे लगी?

तो जो मेरे पक्ष में बोले, वह मेरा अनुयायी है, इसलिए इसकी बात का तो कोई मूल्य नहीं है। और जो मेरे विपक्ष में बोले, उसकी बात का मूल्य है, क्योंकि वह मेरा अनुयायी नहीं है! अगर यह मापदण्ड एक—सा ही लागू करना है, तो अगर मेरे पक्षवाला मेरे पक्ष में बोले, उसकी बात का कोई मूल्य नहीं; तो जो मेरे विपक्ष में है, उसकी बात का भी कोई मूल्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह विपक्ष में है इसलिए विपक्ष में बोलेगा। तब उस तीसरे आदमी को खोजो जो न पक्ष में है, न विपक्ष में है। मगर ऐसा आदमी तुम्हें मिलना मुश्किल है, जो न पक्ष में है—न विपक्ष में। जो पक्ष में, विपक्ष में नहीं है, उसका मतलब हुआ कि वह उदासीन है; उसे प्रयोजन ही नहीं है। वह क्या बोलेगा? किसलिए बोलेगा? और बोलने के पहले उसको विचार करना पड़ेगा कि ठीक है या गलत! और उसी में तो गड़बड़ हो जायेगी। या तो पक्ष में हो जायेगा, या विपक्ष में हो जायेगा। लोग अजीब—अजीब तर्क ईजाद करते हैं! लेकिन असली बात को छिपाने के लिए। और ये वही पुराने तर्क हैं, जो सदा से वे ईजाद करते रहे।

बौद्धों को भारत में टिकने नहीं दिया। आखिर भारत में एक समय था, कि बुद्ध की छाया में और प्रभाव में और फिर अशोक की गर्जना में पूरा का पूरा भारत बौद्ध हो गया था। फिर सारे बौद्ध गये कहां! फिर उनका हुआ क्या? लाखों संन्यासी थे बौद्धों के भारत में, उनको कड़ाहों में जलाया गया; उनको मारा गया, काटा गया। उनको खदेड़ा गया मुल्क के बाहर। उनको भारत छोड़ देना पड़ा। तिब्बत में बसे। लंका में बसे। बर्मा में बसे। जापान गये। चीन गये। कोरिया गये। पूरा एशिया बौद्ध हो गया। सिर्फ भारत को छोड़ना पड़ा उन्हें। इतनी उनको मजबूरियां कर दीं खडी!

उनकी सारी चेष्टा यही है कि वे इतनी मजबूरियां मेरे लिए खडी कर दें कि मुझे भारत छोड़ना पड़े। उनकी आकांक्षा यही है। लेकिन मैं भारत छोड़नेवाला नहीं हूं। मैं तो यहीं शराब ढालूंगा। यहीं पीऊंगा, यहीं पिलाऊंगा। यहीं दीवानगी फैलाऊंगा। क्योंकि मेरे हिसाब में भारत के पास ठीक—ठीक भूमि है। बुद्धों ने इस भूमि को निर्मित किया है। महावीरों ने इस भूमि को सींचा है। कृष्णों ने इस भूमि पर बीज बोये हैं। इस भूमि को यूं छोड़ देनेवाला नहीं हूं। इस भूमि का पूरा—पूरा उपयोग कर लेना है, क्योंकि इसी भूमि से सारी मनुष्यता को बचानेवाले धर्म का अष्णुदय हो सकता है, पुनरोदय हो सकता है। अभागे होंगे भारतवासी, अगर वे न लाभान्वित हों। वे जानें।

और यह तुम्हें दिखाई पड़ना शुरू हो गया है कि सारी दुनिया से लोग आ रहे हैं। लेकिन भारतीयों को क्या हो रहा है! मुझे पत्र लिखकर पूछते हैं कि क्या बात है—सारी दुनिया से लोग आ रहे हैं, फिर भारतीय क्यों नहीं आ रहे हैं?

अभागे हैं। किस्मत खराब है। दो हजार साल से गुलाम रहे हैं। भूमि तो बुद्धों की है, लेकिन बुद्धओं के हाथ में पड़ गयी है। तो जिनमें भी थोड़ी बुद्धि है, वे आ रहे हैं। बुद्ध तो इकट्ठे होकर किस तरह से, जो सूर्य उदय हो सकता है उसको न उदय होने दिया जाये, उसकी चेष्टा में संलग्न हैं!

मगर यह सूरज उगेगा। यह उग ही चुका है। ये गैरिक वस्त्र पूरब में फैल गयी लाली के प्रतीक हैं। सूरज को आने में देर नहीं है। पूरब लाल हो रहा है; उठ रहा है।

यह काम जारी रहेगा। ये बाधाएं बिलकुल स्वभाविक हैं। ये बाधाएं किसी और के लिए नहीं हैं भारत में। न सत्य साईं बाबा के लिए ये बाधाएं हैं; न बाबा मुक्तानंद के लिए बाधाएं हैं; न स्वामी अखण्डानंद के लिए ये बाधाएं हैं। तुम जरा सोचते हो कि ये बाधाएं सिर्फ एक आदमी के लिए हैं! मेरे लिए हैं। और किसी के लिए ये बाधाएं नहीं हैं। इससे कुछ सोचो, इससे कुछ विचारो, कि मामला क्या है? जरूर कुछ राज है इस बाधा में।

मरे हुए धर्म को जो भी पोषण देनेवाले लोग हैं, और उसको मुरदा ही रखनेवाले लोग हैं, मरी लाश को ही जो सम्हालनेवाले लोग हैं, उनको कोई बाधा नहीं है। मैं कहता हूं—अता लगाओ इस लाश को। जो मर गया है, उसे जलाओ, ताकि हम नये के लिए जगह बना सकें। इसलिए बाधा है।

यह श्लोक प्रीतिकर है।

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:।

तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो मा के धर्मो हतो वधीत।

‘जो बोलैं तो हरिकथा’ प्रवचनमाला से

दिनांक 22 जुलाई 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–31

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शब्‍द से शांति की और—(प्रवचन—इक्कतीसवां)

सूत्र:

45—अ: से अंत होने वाले किसी शब्‍द का उच्‍चार

चुपचाप करो। और तब हकार में अनायस सहजता

को उपलब्‍ध होओ।

46—कानों को दबाकर और गुदा को सिकोड़कर बंद

करो, और ध्‍वनि में प्रवेश करो।

47—अपने नाम की ध्‍वनि में प्रवेश करो, और उस

ध्‍वनि के द्वारा सभी ध्‍वनियों में।

तंत्र कोई दर्शनशास्त्र नहीं है, वरन एक विशान है। लेकिन वह विज्ञान है एक फर्क के साथ। विज्ञान आब्जेक्टिव होता है और तंत्र सब्जेक्टिव, विज्ञान की खोज बाहर है और तंत्र की खोज भीतर। इस फर्क के बावजूद तंत्र एक विज्ञान है, तंत्र दर्शनशास्त्र नहीं है।

दर्शनशास्त्र सत्य के, अज्ञात के, परम के संबंध में सोच—विचार करता है। विज्ञान, जो है, उसकी खोज करता है, उसे उदघाटित करता है। विज्ञान प्रत्यक्ष में प्रवेश करता है, दर्शनशास्त्र परम का विचार करता है। दर्शनशास्त्र सदा आकाश की ओर देखता है, विज्ञान धरती की ओर। तंत्र परम की चिंता नहीं लेता है, वह प्रत्यक्ष की, अभी और यहीं की फिक्र करता है। तंत्र कहता है कि परम प्रत्यक्ष में छिपा है, तुम्हें परम की चिंता नहीं लेनी है। परम की चिंता कर—करके तुम प्रत्यक्ष को गंवा दोगे और परम प्रत्यक्ष में ही छिपा है। परम का विचार करके तुम दोनों को गंवा दोगे। अगर तुमने प्रत्यक्ष को गंवा दिया तो तुम परम को भी गंवा दोगे।

तो दर्शनशास्त्र धुआ ही धुआ है। तंत्र की दृष्टि वैज्ञानिक है, लेकिन उसका उद्देश्य तथाकथित विज्ञान से भिन्न है। विज्ञान आब्जेक्ट को, आब्जेक्टिव संसार को—उस सत्य को जो तुम्हारी आंखों के सामने है—समझने की चेष्टा करता है। तंत्र उस सत्य का विज्ञान है जो तुम्हारी आंखों के पीछे है, वह सब्जेक्ट का विज्ञान है। लेकिन तंत्र की दृष्टि बिलकुल वैज्ञानिक है। वह विचार में नहीं, प्रयोग और अनुभव में विश्वास करता है। और जब तक तुम्हें अनुभव नहीं होता, तब तक सब कुछ शक्ति का अपव्यय मात्र है।

मुझे एक घटना याद आती है। मुल्ला नसरुद्दीन एक सड़क पार कर रहा था। ठीक चर्च के सामने उसे एक तेज भागती कार ने धक्का देकर गिरा दिया। वह का था और भीड़ उसके पास इकट्ठी हो गई। उसमें से किसी ने कहा कि यह आदमी नहीं बचेगा। चर्च का पुरोहित बाहर भागा आया और उसने निकट जाकर देखा कि वह व्यक्ति मरने—मरने को है, तो उसने उसकी अंतिम—क्रिया की’ की। उसने नजदीक जाकर मरणासन्न मुल्ला से पूछा, क्या तुम परम पिता ईश्वर में विश्वास करते हो? क्या तुम ईश्वर के पुत्र में विश्वास करते हो? और क्या तुम पवित्र आत्मा में विश्वास करते हो? मुल्ला ने आंखें खोलीं और कहा. हे परमात्मा, मैं मर रहा हूं और यह आदमी मुझे पहेलियां बुझा रहा है!

सभी दर्शनशास्त्र ऐसे ही हैं, वे पहेलियां बुझा रहे हैं, जब कि तुम मर रहे हो। प्रतिक्षण तुम मर रहे हो, प्रतिक्षण हरेक आदमी मृत्यु—शय्या पर है, क्योंकि मृत्यु तो किसी भी क्षण घट सकती है। लेकिन दर्शनशास्त्र पहेलियां बुझा रहे हैं।

तंत्र कहता है, सोच—विचार के ऊहापोह में पड़ना बच्चों के लिए तो ठीक है, लेकिन जो बुद्धिमान हैं वे सिद्धांतों में अपना समय नहीं नष्ट करेंगे। वे जानने की चेष्टा करेंगे, विचारने की नहीं, क्योंकि विचारने से शान नहीं होता है। विचार के द्वारा तुम शब्दों के जाल भर बुनते हो, शब्दों के ढांचे गढ़ते हो, लेकिन विचार कहीं नहीं पहुंचाता है। तुम वही के वही रहते हो, न कोई रूपांतरण होता है, न कोई अंतर्दृष्टि उपलब्ध होती है। पुराना मन सिर्फ धूल इकट्ठा किए जाता है।

जानना और ही बात है। उसका मतलब किसी के संबंध में सोचना—विचारना नहीं है। उसका मतलब है कि जानने के लिए तुम खुद अस्तित्व की गहराई में प्रवेश करते हो, सीधे अस्तित्व में उतरते हो।

यह ध्यान रहे, तंत्र दर्शनशास्त्र नहीं है। तंत्र विज्ञान है, स्वयं में उतरने का विज्ञान है। उसकी दृष्टि गैर—दार्शनिक है, वैज्ञानिक है। तंत्र बहुत यथार्थवादी है; प्रत्यक्ष से, निकट से उसका नाता है। प्रत्यक्ष: को परम का द्वार बनाया जा सकता है। अगर तुम प्रत्यक्ष में प्रवेश कर जाओ तो परम घटित होता है। परम मौजूद ही है। और उस तक पहुंचने के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

तंत्र की नजर में दर्शनशास्त्र कोई मार्ग नहीं है, वह झूठा मार्ग है। वह मार्ग जैसा सिर्फ भासता है। वह ऐसा द्वार है जो है नहीं, सिर्फ द्वार जैसा भासता है। वह झूठा द्वार है। जैसे ही तुम उसमें प्रवेश करने की कोशिश करते हो, तुम्हें पता चलता है कि प्रवेश संभव नहीं है। वह द्वार का चित्र है, सच्चा द्वार नहीं। दर्शनशास्त्र द्वार का रंगीन चित्र है, उसके बगल में बैठकर सोच—विचार करना तो अच्छा है, लेकिन अगर प्रवेश करना चाहो तो वह दीवार है। प्रत्येक दर्शनशास्त्र सोच—विचार के लिए ठीक है, अनुभव के लिए बेकार है, व्यर्थ है।

यही कारण है कि तंत्र विधियों पर इतना जोर देता है—इतना ज्यादा जोर देता है। क्योंकि विज्ञान तो टेक्यीक ही दे सकता है—चाहे वह बाहरी दुनिया के लिए हो या भीतरी दुनिया के लिए। तंत्र शब्द का अर्थ ही टेक्यीक है, विधि है। तंत्र शब्द का मतलब ही विधि है। इसीलिए इस छोटी सी, लेकिन सर्वाधिक महत्व और गहराई की पुस्तक में विधियां ही विधियां दी हुई हैं, उसमें कोई दर्शन नहीं है। इसमें प्रत्यक्ष के जरिए परम को पाने की एक सौ बारह विधियां हैं।

ध्वनि—संबंधी नौवीं विधि:

अ से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार चुपचाप करो और तब हकार में अनायास सहजता को उपलब्ध होओ।

‘अ: से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार चुपचाप करो।’

कोई भी शब्द जिसका अंत अ: से होता है, उसका उच्चार चुपचाप करो। शब्द के अंत में अ: के होने पर जोर है। क्यों? क्योंकि जिस क्षण तुम अ का उच्चार करते हो, तुम्हारी श्वास बाहर जाती है। तुमने खयाल नहीं किया होगा, अब खयाल करना कि जब भी तुम्‍हारी श्वास बाहर जाती है, तुम ज्यादा शांत होते हो और जब भी श्वास भीतर जाती है, तुम ज्यादा तनावग्रस्त होते हो। कारण यह है कि बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु है और भीतर आने वाली श्वास जीवन है। तनाव जीवन का हिस्सा है, मृत्यु का नहीं। विश्राम मृत्यु का अंग है, मृत्यु का अर्थ है पूर्ण विश्राम। जीवन पूर्ण विश्राम नहीं बन सकता, वह असंभव है। जीवन का अर्थ है तनाव, प्रयत्न, सिर्फ मृत्यु विश्रामपूर्ण है।

तो जब भी कोई व्यक्ति पूरी तरह विश्रामपूर्ण हो जाता है, वह दोनों हो जाता है—बाहर से वह जीवित होता है और भीतर से मृत। तुम बुद्ध के चेहरे में जीवन और मृत्यु को साथ—साथ देख सकते हो। इसीलिए उनके चेहरे पर इतना मौन, इतनी शांति है—मौन और शाति मृत्यु के अंग हैं।

जीवन विश्रामपूर्ण नहीं है, रात में जब तुम सो जाते हो तो तुम विश्राम में होते हो। इसीलिए पुरानी परंपराएं कहती हैं कि मृत्यु और नींद समान हैं। नींद अस्थायी मृत्यु है। और यही कारण है कि रात्रि विश्रामदायी होती है, वह बाहर जाने वाली श्वास है। सुबह भीतर आने वाली श्वास है। दिन तुम्हें तनाव से भर देता है, रात तुम्हें विश्राम से भरती है। प्रकाश तनाव पैदा करता है, अंधकार विश्राम लाता है। यही वजह है कि तुम दिन में नहीं सो सकते, दिन में विश्राम करना कठिन है। प्रकाश जीवन जैसा है, वह मृत्यु—विरोधी है। अंधकार मृत्यु जैसा है, वह मृत्यु के अनुकूल है।

तो अंधकार में गहरी विश्रांति है। और जो लोग अंधकार से डरते हैं, वे विश्राम में नहीं उतर सकते। यह असंभव है।

विश्राम अंधेरे में घटित होता है। और तुम्हारे जीवन के दोनों छोरों पर अंधेरा है। जन्म के पहले तुम अंधेरे में होते हो और मृत्यु के बाद तुम फिर अंधेरे में होते हो। अंधकार असीम है। और यह प्रकाश, यह जीवन उस अंधकार के भीतर एक क्षण जैसा है। अंधकार के समुद्र में प्रकाश लहर जैसा है जो उठता—गिरता रहता है। अगर तुम जीवन के दोनों छोरों को घेरने वाले अंधकार को स्मरण रख सको तो तुम यहीं और अभी विश्राम में हो सकते हो।

जीवन और मृत्यु अस्तित्व के दो छोर हैं। भीतर आने वाली श्वास जीवन है, बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु है। ऐसा नहीं है कि तुम किसी दिन मरोगे, तुम प्रत्येक श्वास के साथ मर रहे हो।

यही कारण है कि हिंदू जीवन को श्वासों की गिनती कहते हैं, वे उसे वर्षों की गिनती नहीं कहते। तंत्र, योग आदि सभी भारतीय परंपराएं जीवन को श्वासों में गिनती हैं, वे कहती हैं कि तुम्हें इतनी श्वासों का जीवन मिला है। वे कहती हैं कि अगर तुम तेजी से श्वास लोगे, थोड़े समय में ज्यादा श्वासें लोगे तो तुम बहुत जल्दी मरोगे। और अगर तुम बहुत धीरे— धीरे श्वास लोगे, अगर एक निश्चित समय में कम श्वास लोगे तो तुम ज्यादा समय तक जीओगे।

और बात ऐसी ही है। अगर तुम पशुओं का निरीक्षण करोगे तो पाओगे कि बहुत शक श्वास लेने वाले पशु लंबी उम्र जीते हैं। उदाहरण के लिए हाथी है, हाथी की उम्र बड़ी है, क्योंकि उसकी श्वास धीमी चलती है। फिर कुत्ता है, उसकी श्वास तेज है और उसकी उम्र बहुत कम। भी पशु बहुत तेज श्वास लेता मिलेगा, उसकी उम्र लंबी नहीं हो सकती। लंबी उम्र सदा धीमी श्वास के साथ जुड़ी है।

तंत्र, योग और अन्य भारतीय साधना—पथ तुम्हारे जीवन का हिसाब तुम्हारी श्वासों से लगाते हैं। सच तो यह है कि तुम हरेक श्वास के साथ जन्मते हो और हरेक श्वास के साथ मरते हो। येह विधि बाहर जाने वाली श्वास को गहरे मौन में उतरने का माध्यम बनाती है उपाय बनाती है। यह एक मृत्यु—विधि है।

‘अ: से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार चुपचाप करो।’

श्वास बाहर गई है—इसलिए अ: से अंत होने वाले शब्द का उपयोग है। यह अ: अर्थपूर्ण है, क्योंकि जब तुम अ: कहते हो, वह तुम्हें पूरी तरह खाली कर देता है। उसके साथ पूरी श्वास बाहर निकल जाती है, कुछ भी भीतर बची नहीं रहती। तुम बिलकुल खाली हो जाते हो—खाली और मृत। एक क्षण के लिए बहुत थोड़ी देर के लिए जीवन तुमसे बाहर निकल गया है और तुम मृत और खाली हो।

अगर इस रिक्तता को, इस खालीपन को तुम जान लो, उसके प्रति बोधपूर्ण हो जाओ तो तुम पूर्णत: रूपांतरित हो जाओगे। तुम और ही आदमी हो जाओगे। तब तुम भलीभांति जान लोगे कि न यह जीवन तुम्हारा जीवन है और न यह मृत्यु ही तुम्हारी मृत्यु है। तब तुम उसे जान लोगे जो आती—जाती श्वासों के पार है, तब तुम साक्षी आत्मा को जान लोगे। और साक्षित्व उस समय आसानी से घट सकता है जब तुम श्वासों से खाली हो, क्योंकि तब जीवन उतार पर होता है और सारे तनाव भी उतार पर होते हैं। तो इस विधि को प्रयोग में लाओ। यह बहुत ही सुंदर विधि है।

लेकिन आमतौर से, सामान्य आदत के मुताबिक, हम सदा भीतर आने वाली श्वास को ही महत्व देते हैं, हम बाहर जाने वाली श्वास को कभी महत्व नहीं देते। हम सदा श्वास भीतर लेते हैं, उसे बाहर नहीं छोड़ते। हम श्वास लेते हैं और शरीर उसे छोड़ता है। तुम अपनी श्वसन—क्रिया का निरीक्षण करो और तुम्हें यह पता चल जाएगा।

हम सदा श्वास लेते हैं, हम उसे छोड़ते नहीं। छोड़ने का काम शरीर करता है। और इसका कारण यह है कि हम मृत्यु से भयभीत हैं। बस यही कारण है। अगर हमारा बस चलता तो हम कभी श्वास को बाहर जाने ही नहीं देते, हम श्वास को भीतर ही रोक रखते। कोई भी व्यक्ति श्वास छोड़ने पर जोर नहीं देता, सब लोग श्वास लेने की ही बात करते हैं। लेकिन श्वास को भीतर लेने के बाद उसे बाहर निकालना अनिवार्य हो जाता है, इसलिए हम मजबूरी में उसे बाहर जाने देते हैं। उसे हम किसी तरह बरदाश्त कर लेते हैं, क्योंकि श्वास छोड़े बगैर श्वास लेना असंभव है। इसलिए श्वास छोड़ना आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकृत है। लेकिन बुनियादी तौर से श्वास छोड़ने में हमारा कोई रस नहीं है।

और यह बात श्वास के संबंध में ही सही नहीं है, पूरे जीवन के प्रति हमारी दृष्टि यही है। जो भी हमें मिलता है, उस पर हम मुट्ठी बांध लेते हैं, उसे छोड़ने का नाम ही नहीं लेते। यही मन की कृपणता है। और याद रहे, इसके बहुत परिणाम होते हैं। अगर तुम कब्जियत से म् पीड़ित हो तो उसका कारण यह है कि तुम श्वास तो लेते हो, लेकिन उसे छोड़ते नहीं। जो व्यक्ति श्वास लेना जानता है, लेकिन छोड़ना नहीं, वह कब्जियत से पीड़ित होगा। कब्जियत उसी चीज का दूसरा छोर है। वह किसी भी चीज को अपने से बाहर जाने देने के लिए राज़ी नहीं है, वह सिर्फ इकट्ठा करता जाता है। वह भयभीत है और भय के कारण वह इकट्ठा किए जाता है।

लेकिन जो चीज रोक ली जाती है वह विषाक्त हो जाती है। तुम श्वास तो लेते हो लेकिन अगर उसे छोड़ते नहीं तो वही श्वास जहर बन जाएगी और तुम उसके कारण मरोगे। अगर तुमने कंजूसी की तो तुम एक जीवनदायी तत्व को जहर में बदल दोगे, क्योंकि श्वास का बाहर जाना नितांत जरूरी है। बाहर जाती श्वास तुम्हारे भीतर से सब जहर को बाहर निकाल फेंकती है।

तो सच तो यह है कि मृत्यु शुद्धि की प्रक्रिया है और जीवन अशुद्धि की, विषाक्त करने की प्रक्रिया है। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ेगी। जीवन विषाक्त करने की प्रक्रिया है क्योंकि जीने के लिए बहुत सी चीजों को उपयोग में लाना पड़ता है और जैसे ही तुम उनका उपयोग कर लेते हो, वे विष में बदल जाती हैं। जब तुम श्वास लेते हो तो तुम आक्सीजन का उपयोग कर रहे हो, लेकिन उपयोग करने के बाद जो चीज बच रहती है वह विष है। आक्सीजन के कारण ही वह जीवन था। लेकिन जब तुमने उसका उपयोग कर लिया तो शेष विष हो जाता है। ऐसे ही जीवन हर चीज को जहर में बदलता रहता है।

अभी पश्चिम में एक बड़ा आंदोलन चलता है जिसका नाम इकोलाजी है परिवेश—विज्ञान है। मनुष्य सब चीजों का उपयोग करता रहा है और उन्हें जहर में बदलता रहा है। और नतीजा यह है कि पृथ्वी मृत्यु के कगार पर आ खड़ी है। किसी दिन भी उसकी मृत्यु हो सकती है, क्योंकि हमने सब चीजों को विषाक्त कर दिया है।

मृत्यु शुद्धि की प्रक्रिया है। जब सारा शरीर विषाक्त हो जाता है, तब मृत्यु तुम्हें उस शरीर से मुक्त कर देती है। मृत्यु तुम्हें फिर से नया बना देगी, तुम्हें नया जन्म दे देगी, तुम्हें नया शरीर मिल जाएगा। मृत्यु के द्वारा शरीर का सब संगृहीत विष प्रकृति में विलीन हो जाता है और तुम्हें एक नया शरीर उपलब्ध होता है।

और यह बात प्रत्येक श्वास के साथ घटित होती है। बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु के समान है, वह विष को बाहर ले जाती है। और जब वह श्वास बाहर जाती है तो तुम्हारे भीतर सब कुछ शांत होने लगता है। अगर तुम सारी की सारी श्वास बाहर फेंक दो, कुछ भी भीतर न रहने पाए तो तुम शांति के उस बिंदु को छू लोगे जो श्वास के भीतर रहते हुए कभी नहीं छुआ जा सकता था। यह ज्वार— भाटे जैसा है। आती हुई श्वास के साथ तुम्हारे पास जीवन—ज्वार आता है और जाती हुई श्वास के साथ सब कुछ शांत हो जाता है। ज्वार चला गया, तब तुम खाली, रिक्त सागरतट भर रह जाते हो। इस विधि का यही उपयोग है।

‘अ से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार चुपचाप करो।’

बाहर जाने वाली श्वास पर जोर दो। और तुम इस विधि का उपयोग मन में अनेक परिवर्तन लाने के लिए कर सकते हो। अगर तुम कब्जियत से पीड़ित हो तो श्वास लेना भूल जाओ, सिर्फ श्वास को बाहर फेंको। श्वास भीतर ले जाने का काम शरीर को करने दो, तुम छोड़ने भर का काम करो। तुम श्वास को बाहर निकाल दो और भीतर ले जाने की फिक्र ही मत करो। शरीर वह काम अपने आप ही कर लेगा, तुम्हें उसकी चिंता नहीं लेनी है। उससे तुम मर नहीं जाओगे। शरीर ही श्‍वास को भीतर ले जाएगा। तुम छोड़ने भर का काम करो, शेष शरीर कर लेगा। और तुम्हारी कब्जियत जाती रहेगी।

अगर तुम हृदय—रोग से पीड़ित हो तो श्वास को बाहर छोड़ो, लेने की फिक्र मत करो। फिर हृदय—रोग तुम्हें कभी नहीं होगा। अगर सीढ़ियां चढ़ते हुए या कहीं जाते हुए तुम्हें थकावट महसूस हो, तुम्हारा दम घुटने लगे तो तुम इतना ही करो : श्वास को बाहर छोड़ो, लो नहीं। और तब तुम कितनी ही सीढ़ियां चढ़ जाओगे और नहीं थकोगे। क्या होता है?

जब तुम श्वास छोड़ने पर जोर देते हो तो उसका मतलब है कि तुम अपने को छोड़ने को, अपने को खोने को राजी हो, तब तुम मरने को राजी हो। तब तुम मृत्यु से भयभीत नहीं हो। और यही चीज तुम्हें खोलती है, अन्यथा तुम बंद रहते हो। भय बंद करता है। जब तुम श्वास छोड़ते हो तो पूरी व्यवस्था बदल जाती है और वह मृत्यु को स्वीकार कर लेती है। भय जाता रहता है और तुम मृत्यु के लिए राजी हो जाते हो।

और वही व्यक्ति जीता है जो मरने के लिए तैयार है। सच तो यह है कि वही जीता है जो मृत्यु से राजी है। केवल वही व्यक्ति जीवन के योग्य है, क्योंकि वह भयभीत नहीं है। जो व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करता है, मृत्यु का स्वागत करता है, मेहमान मानकर उसकी आवभगत करता है, उसके साथ रहता है, वही व्यक्ति जीवन में गहरे उतर सकता है।

श्वास बाहर छोड़ो, लेने की फिक्र मत करो और तुम्हारा समस्त चित्त रूपांतरित हो जाएगा। इन सरल विधियों के कारण ही तंत्र प्रभावी नहीं हुआ। क्योंकि हम सोचते हैं कि हमारा मन तो इतना जटिल है, वह इन सरल विधियों से कैसे बदलेगा। मन जटिल नहीं है, मन मूढ़ भर है। और मूढ़ बड़े जटिल होते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति सरल होता है। तुम्हारे चित्त में कुछ भी जटिल नहीं है, वह एक बहुत सरल यंत्र है। अगर तुम उसे समझोगे तो बहुत आसानी से उसे बदल सकते हो।

अगर तुमने किसी आदमी को मरते हुए नहीं देखा है, अगर तुम्हें बुद्ध की भांति मृत्यु को देखने से बचाकर रखा गया है तो तुम मृत्यु को नहीं समझ सकते। बुद्ध के पिता भयभीत थे, क्योंकि किसी ज्योतिषी ने कहा था कि तुम्हारा बेटा महान संन्यासी होने वाला है, वह संसार का त्याग कर देगा। पिता ने पूछा कि उसे संन्यासी होने से बचाने के लिए क्या किया जाए? तो ज्योतिषियों ने उस पर बहुत विचार—विमर्श किया और अंत में वे इस नतीजे पर पहुंचे और उन्होंने बुद्ध के पिता को कहा कि इस बालक को कभी मृत्यु न दिखे, क्योंकि अगर उसे मृत्यु का बोध नहीं होगा तो वह कभी संसार का त्याग नहीं करेगा।

यह कथा बहुत सुंदर है, बहुत अर्थपूर्ण है। उसका अर्थ है कि समस्त धर्म, समस्त दर्शन, समस्त तंत्र और योग बुनियादी रूप से मृत्योगखी हैं। अगर तुम्हें मृत्यु का बोध है तो ही धर्म तुम्हारे लिए अर्थपूर्ण हो सकता है। यही कारण है कि मनुष्य के सिवाय कोई भी पशु धार्मिक नहीं है। पशु को मृत्यु का बोध नहीं है। वह मरता तो है, लेकिन उसे इसका बोध नहीं है। वह सोच भी नहीं सकता कि मैं मरने वाला हूं।

जब एक कुत्ता मरता है तो दूसरे कुत्तों को कभी यह आभास नहीं होता कि हमारी मृत्यु भी होगी। जब भी मरता है, कोई दूसरा मरता है, तो कोई कुत्ता कैसे कल्पना करे कि मैं भी मरने वाला हूं। उसने कभी अपने को मरते नहीं देखा, सदा किसी दूसरे को ही मरते देखा है। वह कैसे कल्पना करे, कैसे निष्पत्ति निकाले कि मैं भी मरूंगा? पशु को मृत्यु का बोध नहीं है, इसी लिए कोई पशु संसार का त्‍याग नहीं करता। कोई पशु संन्‍यासी नहीं हो सकता।

केवल एक बहुत ऊंची कोटि की चेतना ही तुम्हें संन्यास की तरफ ले जा सकती है। मृत्यु के प्रति जागने से ही संन्यास घटित होता है। और अगर आदमी होकर भी तुम मृत्यु के प्रति जागरूक नहीं हो तो तुम अभी पशु ही हो, मनुष्य नहीं हुए हो। मनुष्य तो तुम तभी बनते हो जब मृत्यु का साक्षात्कार करते हो। अन्यथा तुममें और पशु में कोई फर्क नहीं है। पशु और मनुष्य में सब कुछ समान है, सिर्फ मृत्यु फर्क लाती है। मृत्यु का साक्षात्कार कर लेने के बाद तुम पशु नहीं रहे। तुम्हें कुछ घटित हुआ है जो कभी किसी पशु को घटित नहीं होता है। अब तुम एक भिन्न चेतना हो।

तो बुद्ध के पिता ने बुद्ध को किसी भी भांति की मृत्यु को देखने से बचाकर रखा। न सिर्फ मनुष्य की मृत्यु से, वरन पशु और फूल तक की मृत्यु से बचाया। मालियों को आदेश दिया गया कि इस बालक को मुर्झाए फूल, पीले फूल, मृत फूल देखने को न मिलें, उसे डाल से गिरते हुए सूखे पीले पत्ते भी देखने को न मिलें। कहीं से भी उसे यह एहसास न हो कि कोई चीज मरती भी है, क्योंकि वह इससे अनुमान लगा सकता है कि मैं भी मरने वाला हूं।

और तुम हो कि अपने मां—बाप की मृत्यु से, अपने बच्चे की मृत्यु से भी नहीं अनुमान करते कि मैं मरूंगा। तुम उनके लिए रोते भले हो, लेकिन उनकी मृत्यु से यह इंगित नहीं लेते कि तुम भी मरोगे।

लेकिन ज्योतिषियों ने कहा कि यह बालक अत्यंत संवेदनशील है, इसलिए उसे मृत्यु—बोध से बचाना जरूरी है। और बुद्ध के पिता तो अति सावधान थे, उन्होंने व्यवस्था की कि उनके बेटे को कोई का आदमी भी न देखने को मिले। क्योंकि बुढ़ापा मृत्यु की खबर है, वह दूर से दिखाई देने वाली मृत्यु ही है। तो उन्होंने बुद्ध की दृष्टि से वृद्ध स्त्री—पुरुष को दूर रखने की आज्ञा जारी की। अगर बुद्ध को अचानक पता चले कि बस श्वास बंद होने से आदमी मर जाता है तो यह उसको कठिन पड़ेगा। उसे आश्चर्य होगा कि कैसे कोई बस श्वास के न आने से मर जाता है! जीवन तो इतनी विराट और जटिल प्रक्रिया है।

अगर तुमने भी किसी को मरते नहीं देखा है तो तुम भी नहीं सोच सकते कि कैसे कोई श्वास के रुकने से मर जाता है! क्या मृत्यु इतनी सरल है? कैसे इतना जटिल जीवन मर सकता है?

ऐसा ही इन विधियों के साथ है। वे सरल मालूम पड़ती हैं, लेकिन वे बुनियादी सत्य को स्पर्श करती हैं। जब श्वास बाहर जा रही है, जब तुम जीवन से सर्वथा रिक्त हो, तब तुम मृत्यु को छूते हो, तब तुम उसके बहुत करीब पहुंच जाते हो। तब तुम्हारे भीतर सब कुछ मौन और शांत हो जाता है।

इसे मंत्र की तरह उपयोग करो। जब भी तुम्हें थकावट महसूस हो, तनाव महसूस हो तो अ: से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार करो। अल्लाह से भी काम चलेगा—कोई भी शब्द जो तुम्हारी श्वास को समग्रत: बाहर ले आए, जो तुम्हें श्वास से बिलकुल खाली कर दे। जिस क्षण तुम श्वास से रिक्त होते हो उसी क्षण तुम जीवन से भी रिक्त हो जाते हो।

और तुम्हारी सभी समस्याएं जीवन की समस्याएं हैं, मृत्यु की कोई समस्या ही नहीं है। तुम्‍हारी चिंताएं, तुम्‍हारे दुख—संताप, तुम्हारा क्रोध, सब जीवन की समस्याएं हैं। मृत्यु तो समस्याहीन है, मृत्यु असमस्या है। मृत्यु कभी किसी को समस्या नहीं देती है। तुम भला सोचते हो कि मैं मृत्यु से डरता हूं कि मृत्यु समस्या पैदा करती है, लेकिन हकीकत यह है कि मृत्यु नहीं, जीवन के प्रति तुम्हारा आग्रह, जीवन के प्रति तुम्हारा लगाव समस्या पैदा करता है। जीवन ही समस्या खड़ी करता है, मृत्यु तो सब समस्याओं का विसर्जन कर देती है।

तो जब श्वास बिलकुल बाहर निकल जाए—अ:ऽऽ—तुम जीवन से रिक्त हो गए। उस क्षण अपने भीतर देखो, जब श्वास बिलकुल बाहर निकल जाए। दूसरी श्वास लेने के पहले उस अंतराल में गहरे उतरो जो रिक्त है और उसके आंतरिक मौन और शांति के प्रति सजग होओ। उस क्षण तुम बुद्ध हो।

और अगर तुम उस क्षण को पकड़ सको तो तुम्हें वह’ स्वाद मिल जाएगा जिसे बुद्ध ने जाना। और एक बार यह स्वाद जान लिया गया तो फिर तुम उसे आने—जाने वाली श्वास से अलग कर ले सकते हो। फिर श्वास आती—जाती रह सकती है और तुम चेतना की उस अवस्था में रह सकते हो जिसे तुम ने जाना है। वह तो सदा है, सिर्फ उसे उघाड़ना है। और उसे उस समय उघाड़ना आसान होता है जब तुम जीवन से, श्वास से रिक्त होते हो।

‘अ: से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार चुपचाप करो। और तब हकार में अनायास सहजता को उपलब्ध होओ।’

और जब श्वास बाहर निकल जाती है, तब सब कुछ निकल जाता है। इस क्षण किसी प्रयास की जरूरत नहीं है। इस क्षण अनायास, बिना प्रयास के सहजता को, बोध को उपलब्ध होओ, मृत्यु के इस क्षण को उपलब्ध होओ। यही वह क्षण है जब तुम द्वार के बिलकुल करीब होते हो, परमात्मा के द्वार के बिलकुल पास होते हो। जो प्रकट है, जो असार है, वह बाहर चला गया; इस क्षण में तुम लहर नहीं रहे, सागर हो गए। अभी तुम बिलकुल सागर के निकट हो। अगर तुम बोधपूर्ण हो सके, सजग हो सके, तो तुम भूल जाओगे कि मैं लहर हूं। फिर लहर आएगी, लेकिन अब तुम लहर के साथ कभी तादात्म्य नहीं बनाओगे, तुम सागर बने रहोगे। एक बार तुमने जान लिया कि तुम सागर हो, फिर तुम लहर नहीं हो सकते।

जीवन लहर है, मृत्यु सागर है। इस कारण ही बुद्ध इस बात पर जोर देते हैं कि मेरा निर्वाण मृत्युवत है। वे कभी नहीं कहते कि तुम अमरत्व को प्राप्त करोगे, वे इतना ही कहते हैं कि तुम मिटोगे, समग्रत: मिटोगे। जीसस कहते हैं : मेरे पास आओ और मैं तुम्हें विराट जीवन दूंगा। बुद्ध कहते हैं : मेरे पास मिटने के लिए आओ, मैं तुम्हें समग्र मृत्यु दूंगा। और दोनों एक ही बात कह रहे हैं। लेकिन बुद्ध की शब्दावली ज्यादा बुनियादी है। मगर तुम उससे भयभीत हो जाओगे।

यही कारण है कि बुद्ध भारत में प्रभावी नहीं हो सके, उन्हें पूरी तरह उखाड़ फेंका गया। और हम कहे चले जाते हैं कि यह भूमि धार्मिक भूमि है। लेकिन यहां जो सर्वाधिक धार्मिक पुरुष हुआ उसे यहां हमने जमने नहीं दिया। किस तरह की धार्मिक भूमि है यह? हम दूसरा बुद्ध नहीं पैदा कर सके, बुद्ध अप्रतिम हैं। जब भी संसार भारत को धर्म—भूमि के रूप में स्मरण करता है, वह बुद्ध को स्मरण करता है, और किसी को नहीं। बुद्ध के कारण ही भारत धार्मिक समझा जाता है। किस प्रकार की धर्म— भूमि है यह! बुद्ध को यहां जगह नहीं मिली, उन्हें सर्वथा उखाड़ फेंका गया।

कारण यह था व बुद्ध मृत्यु की भाषा उपयोग की। ब्राह्मण जीवन की भाषा उपयोग करते थे, वे कहते थे ब्रह्म; बुद्ध ने कहा निर्वाण। ब्रह्म का अर्थ जीवन, अनंत जीवन है; और निर्वाण का अर्थ परिसमाप्ति, मृत्यु, समग्र मृत्यु है। बुद्ध कहते हैं कि तुम्हारी सामान्य मृत्यु समग्र नहीं होती, तुम्हें फिर—फिर जन्म लेना पड़ेगा। साधारण मृत्यु समग्र नहीं है, तुम्हें पुन: संसार में आना पड़ेगा। बुद्ध कहते थे कि मैं तुम्हें ऐसी समग्र मृत्यु दूंगा कि तुम्हें फिर कभी जन्म लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। समग्र मृत्यु का अर्थ है कि अब दुबारा जन्म संभव नहीं रहा। इसलिए बुद्ध कहते हैं कि यह तथाकथित मृत्यु मृत्यु नहीं है, यह विश्राम भर है। तुम फिर जीवित हो उठोगे। यह मृत्यु तो बाहर गई श्वास जैसी है। तुम फिर श्वास भीतर लोगे और तुम्हारा पुन: जन्म हो जाएगा। बुद्ध कहते हैं कि मैं तुम्हें वह उपाय बताता हूं कि बाहर गई श्वास फिर वापस नहीं लौटेगी, वही समग्र मृत्यु है, निर्वाण है।

हम भयभीत होते हैं, क्योंकि हम जीवन को जोर से पकड़ते हैं। जीवन के प्रति हमारी आसक्ति प्रगाढ़ है। और यही विरोधाभास है। तुम जितना जीवन को पकड़ोगे उतने ही तुम मरोगे। और तुम जितना मरने को राजी होओगे उतने ही तुम अमर हो जाओगे। अगर तुम मरने को राजी हो तो मृत्यु की संभावना न रही। अगर तुम मृत्यु को स्वीकार कर लो तो कोई भी तुम्हें नहीं मार सकता, क्योंकि उस स्वीकार में ही तुम अपने भीतर उस तत्व को जान लेते हो जो अमृत है।

आने वाली और जाने वाली श्वास केवल शरीर के लिए जन्म और मृत्यु हैं, मेरे नहीं। लेकिन मैं अभी शरीर के अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता, शरीर के साथ मेरा तादात्म है। उस हालत में आने वाली श्वास के साथ बोधपूर्ण होना कठिन है, जाने वाली श्वास के साथ ही बोध संभव है। जब श्वास बाहर जा रही है तो उस क्षण तुम के हो गए मर गए खाली हो गए। बहिर्गामी श्वास के साथ तुम क्षणभर को मर गए।

‘तब हकार में अनायास सहजता को उपलब्ध होओ।’

इसका प्रयोग करो। किसी भी समय यह प्रयोग कर सकते हो। बस या रेलगाड़ी में यात्रा करते हुए, या अपने आफिस जाते हुए, जब भी तुम्हें समय मिले अल्लाह जैसे शब्द का, अ से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार करो। इस्लाम का यह अल्लाह शब्द बड़ा काम का है—इस कारण नहीं कि वहां आसमान में कोई अल्लाह है, वरन इस अ: के कारण। यह शब्द सुंदर है। और जितना ही कोई अल्लाह—अल्लाह कहता है उतना ही यह शब्द छोटा होता जाता है। अल्लाह से वह लाह हो जाता है और फिर लाह से आह रह जाता है। यह अच्छा है। लेकिन तुम अ से अंत होने वाले किसी भी शब्द को काम में ला सकते हो, केवल अ: से भी चलेगा।

तुमने देखा होगा कि जब भी तुम तनाव से भरते हो, तुम एक आह भरकर हलके हो जाते हो; या जब तुम खुशी से भरते हो, बहुत खुशी से, तुम अहा कहते हो और पूरी श्वास बाहर निकल जाती है और तुम अपने भीतर एक अपूर्व शाति अनुभव करते हो। इसे प्रयोग करो। जब तुम खूब प्रसन्न हो तो श्वास अंदर लो और देखो कि क्या होता है। तुम स्वस्थ अनुभव नहीं करोगे, जितना अहा कहने से करते हो। वह फर्क श्वास के कारण है।

भाषाएं अलग—अलग हैं, लेकिन ये दो चीजें सभी भाषाओं में समान हैं। सारी धरती पर जहां भी कोई थकावट अनुभव करता वह आह करता है। दरअसल वह मृत्यु को बुलाकर कहता है कि मुझे विश्राम दो। और जब वह आह्लादित होता है, आनंदित होता है, तब वह अहा कहता है। वह आनंद से इतना पूरित है कि वह मृत्यु से नहीं डरता, वह अपने को पूरी तरह छोड़ने को, खोने को राजी है।

और अगर तुम इस विधि का निरंतर प्रयोग करते रहो तो उसके गहरे परिणाम होंगे। तब तुम्हारे भीतर जो सहज है, तुम उसके बोध से भर जाओगे, तब तुम अपनी सहजता को उपलब्ध हो जाओगे। तुम सहज ही हो, लेकिन तुम जीवन से इतने बंधे हो, ग्रस्त हो कि उसके पीछे खड़ी सहज सत्ता से अपरिचित रह जाते हो। लेकिन जब तुम जीवन से, आने वाली श्वास से ग्रस्त नहीं हो, तब वह सहज सत्ता प्रकट होती है, तब उसकी झलक मिलती है। और धीरे — धीरे वह झलक उपलब्धि में बदल जाएगी, तुम्हारी सिद्धि बन जाएगी।

और अगर तुमने एक बार उसे जान लिया तो फिर तुम उसे भुला नहीं सकोगे। वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तुम निर्मित करते हो। वह स्वाभाविक है, सहज है; उसे बनाना नहीं, उघाड़ना भर है। वह तो है ही, तुम भूल गए हो। बस स्मरण करना है, उघाड़ना है।

बच्चों को, छोटे बच्चों को श्वास लेते हुए देखो। वे अगर ढंग से श्वास लेते हैं। किसी सोए हुए बच्चे का निरीक्षण करो, उसकी छाती नहीं, उसका पेट उठता—गिरता है। अगर तुम सोए हो और तुम्हारा निरीक्षण किया जाए तो तुम्हारी छाती ऊपर—नीचे होती मालूम पड़ेगी। उसका मतलब है कि तुम्हारी श्वास नीचे पेट तक नहीं जाती है। श्वास पेट तक तभी जाएगी जब तुम उसे लेने की बजाय छोड़ने की फिक्र करोगे। अगर तुमने छोडने की बजाय लेने की फिक्र की तो श्वास कभी पेट तक नहीं जाएगी। इसका कारण यह है कि जब कोई श्वास छोड़ता है तो सब हवा बाहर निकल जाती है और फिर शरीर अपनी ओर से श्वास भीतर लेता है। और शरीर उतनी श्वास अंदर लेता है जितनी जरूरी है—न ज्यादा, न कम। शरीर का अपना ही विवेक है, वह तुमसे ज्यादा बुद्धिमान है। उसे उपद्रव में मत डालो। अगर तुम ज्यादा श्वास लोगे तो वह उपद्रव में पड़ेगा और कम लोगे तो भी उपद्रव में पड़ेगा।

शरीर अपने विवेक से चलता है। वह उतना ही ग्रहण करता है जितना जरूरी है। जब उसे ज्यादा की जरूरत होती है तो वह वैसी स्थिति बना लेता है और कम की जरूरत होती है तो वैसी स्थिति बना लेता है। शरीर कभी अति पर नहीं जाता है, वह सदा संतुलित रहता है। जब तुम श्वास लेते हो तब वह संतुलित नहीं है, क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम है कि शरीर की जरूरत क्या है। और यह जरूरत क्षण— क्षण बदलती रहती है।

इसलिए शरीर को मौका दो, तुम तो बस श्वास छोड़ने भर का काम करो, उसे बाहर फेंको। और तब शरीर खुद श्वास लेने का काम कर लेगा। और शरीर जब खुद श्वास अंदर लेता है तो वह धीरे— धीरे लेता है और गहरे लेता है और पेट तक ले जाता है। वह श्वास ठीक नाभि—केंद्र पर चोट करती है, जिससे तुम्हारा पेट ऊपर—नीचे होता है। और अगर श्वास लेने का काम भी तुम खुद करोगे तो फिर समग्रता से श्वास छोड़ न सकोगे। तब श्वास भीतर बची रहेगी और उसके ऊपर से ली गई श्वास गहराई में न उतर सकेगी। इसीलिए श्वास—क्रिया म् उथली हो जाती है। तुम श्वास भीतर लेते रहते हो और भीतर जहर इकट्ठा होता रहता है।

वे कहते हैं कि तुम्हारे फेफड़े में कोई छह हजार छिद्र हैं और उनमें से सिर्फ दो हजार छिद्रों तक ही श्वास पहुंच पाती है। बाकी चार हजार छिद्र तो सदा जहरीली गैस से भरे रहते है। जिन्‍हें सदा खाली करने की जरूरत है। वह जो तुम्‍हारी छाती का दो—तिहाई हिस्‍सा जहर से भरा रहता है, वही तुम्हारे शरीर और मन में दुख और चिंता और संताप पैदा करता है।

बच्चा सदा श्वास छोड़ता है, लेता नहीं; लेने का काम शरीर करता है। जब बच्चा जन्म लेता है तो वह जो पहला काम करता है वह रोना है। उस रोने के साथ ही उसका कंठ खुलता है, रोने के साथ ही वह पहला अ: बोलता है, उस रोने के साथ ही मां के द्वारा भीतर ली गई हवा बाहर निकल जाती है। वह उसकी पहली श्वास—क्रिया है—श्वास—क्रिया का आरंभ। यही कारण है कि अगर बच्चा जन्म के तुरंत बाद न रोए तो डाक्टर चिंतित हो जाते हैं। उसका मतलब हुआ कि बच्चे ने जीवन का लक्षण नहीं प्रकट किया, वह अभी मां पर ही निर्भर अनुभव करता है। उसे रोना चाहिए। रोना बताता है कि अब वह व्यक्ति बन रहा है, अब मां जरूरी न रही। अब वह अपनी श्वास आप लेगा। और पहला काम वह यह करेगा कि वह उस श्वास को बाहर निकालेगा जिसे उसकी मां ने भीतर लिया था। और तब उसका शरीर श्वास लेना शुरू करेगा।

बच्चा सदा श्वास छोडता है। और जब बच्चा श्वास लेने लगे, जब उसका जोर छोड़ने से हटकर लेने पर चला जाए तो सावधान हो जाना, तब बच्चा का होने लगा। उसका अर्थ है कि बच्चे ने वह तुमसे सीखा है, वह तनावग्रस्त हो गया है।

जब तुम तनावग्रस्त होते हो तो तुम गहरी श्वास नहीं ले सकते। क्यों? तब तुम्हारा पेट सख्त हो जाता है। जब तुम तनाव में होते हो तो तुम्हारा पेट सख्त हो जाता है, वह सख्ती श्वास को गहरे नहीं जाने देती। तब तुम उथली श्वास लेने लगते हो।

अ: का प्रयोग करो। यह तुम्हारे चारों ओर एक सुंदर भाव निर्मित करता है। जब भी तुम थकावट महसूस करो, अ: कहकर श्वास को बाहर फेंको। और श्वास छोड़ने पर बल दो। तुम भिन्न ही आदमी होंगे और एक भिन्न ही मन विकसित होगा। श्वास लेने पर जोर देकर तुमने कंजूस मन और कंजूस शरीर विकसित किए हैं, श्वास छोड़ने पर बल देकर वह कंजूसी विदा जो जाएगी और उसके साथ ही अन्य अनेक समस्याएं भी विदा हो जाएंगी। तब दूसरे पर मालकियत करने का भाव तिरोहित हो जाएगा।

तो तंत्र यह नहीं कहता कि मालकियत का भाव छोड़ो, तंत्र कहता है कि अपने श्वास—प्रश्वास का ढंग बदल दो और मालकियत अपने आप ही छूट जाएगी। तुम अपनी श्वास को देखो, अपने भावों को देखो और तुम्हें बोध हो जाएगा। जो भी गलत है वह भीतर जाने वाली श्वास को महत्व देने के कारण है और जो भी शुभ और सत्य, शिव और सुंदर है वह बाहर जाने वाली श्वास के साथ संबंधित है। जब तुम झूठ बोलते हो, तुम अपनी श्वास को रोक रखते हो और जब सच बोलते हो तो श्वास को कभी नहीं रोकते। झूठ बोलते समय तुम्हें डर लगता है और उस डर के कारण तुम श्वास को रोक रखते हो। तुम्हें यह डर भी होता है कि बाहर जाने वाली श्वास के साथ कहीं छिपाया गया सत्य भी न प्रकट हो जाए।

इस अ: का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करो और तुम शरीर और मन में ज्यादा स्वस्थ रहोगे और तुम्हें एक विशेष ढंग की शांति और विश्राम का अनुभव होगा।

ध्वनि—संबंधी दसवीं विधि :

कानों को दबाकर और गुदा को सिकोड़कर बंद करो और ध्वनि में प्रवेश करो।

म अपने शरीर से भी परिचित नहीं हैं। हम नहीं जानते कि शरीर कैसे काम करता है और उसका ताओ क्या है, ढंग क्या है, मार्ग क्या है। लेकिन अगर तुम निरीक्षण करो तो आसानी से उसे जान सकते हो।

अगर तुम अपने कानों को बंद कर लो और गुदा को ऊपर की ओर सिकोड़ो तो तुम्हारे लिए सब कुछ ठहर जाएगा; ऐसा लगेगा कि सारा संसार रुक गया है, ठहर गया है। गतिविधियां ही नहीं, तुम्हें लगेगा कि समय भी ठहर गया है। जब तुम गुदा को ऊपर खींचकर सिकोड़ लेते हो तो क्या होता है? अगर दोनों कान बंद कर लिए जाएं तो बंद कानों से तुम अपने भीतर एक ध्वनि सुनोगे। लेकिन अगर गुदा को ऊपर खींचकर नहीं सिकोड़ा जाए तो वह ध्वनि गुदा—मार्ग से बाहर निकल जाती है। वह ध्वनि बहुत सूक्ष्म है। अगर गुदा को ऊपर खींचकर सिकोड़ लिया जाए और कानों को बंद किया जाए तो तुम्हारे भीतर एक ध्वनि का स्तंभ निर्मित होगा और वह ध्वनि मौन की ध्वनि होगी। यह नकारात्मक ध्वनि है। जब सब ध्वनियां समाप्त हो जाती हैं तब तुम्हें मौन की ध्वनि या निर्ध्वनि का एहसास होता है। लेकिन वह निर्ध्वनि गुदा से बाहर निकल जाएगी।

इसलिए कानों को बंद करो और गुदा को सिकोड़ लो। तब तुम दोनों ओर से बंद हो जाते हो और तुम्हारा शरीर भी बंद हो जाता है और ध्वनि से भर जाता है। ध्वनि से भरने का यह भाव गहन संतोष को जन्म देता है। इस संबंध में बहुत सी चीजें समझने जैसी हैं और तभी तुम उसे समझ सकोगे जो घटित होता है।

हम अपने शरीर से परिचित नहीं हैं। साधक के लिए यह एक बुनियादी समस्या है। और समाज शरीर से परिचय के विरोध में है, क्योंकि समाज शरीर से भयभीत है। हम हरेक बच्चे को शरीर से अपरिचित रहने की शिक्षा देते हैं, हम उसे संवेदन शून्य बना देते हैं। हम बच्चे के मन और शरीर के बीच एक दूरी पैदा कर देते हैं, ताकि वह अपने शरीर से ठीक से परिचित न हो पाए। क्योंकि शरीर—बोध समाज के लिए समस्याएं पैदा करेगा।

इसमें बहुत सी चीजें निहित हैं। अगर बच्चा शरीर से परिचित है तो वह देर— अबेर काम या सेक्स से भी परिचित हो जाएगा। अगर वह शरीर से बहुत ज्यादा परिचित हो जाएगा तो वह उतना ही कामुक और इंद्रियोन्मुख अनुभव करेगा। इसलिए हमें उसकी जड़ को ही काट देना है। हम बच्चे को उसके शरीर के प्रति जड़ और संवेदनशून्य बना देते हैं, ताकि उसे उसका एहसास न हो। तुम्हें तुम्हारे शरीर का एहसास नहीं होता। हां, जब वह किसी उपद्रव में पड़ता है तो ही उसका एहसास होता है।

तुम्हारे सिर में दर्द होता है तो तुम्हें सिर का पता चलता है। जब पाव में कांटा गड़ता है तो पांव का पता चलता है। और जब शरीर में दर्द होता है तो तुम जानते हो कि मेरा शरीर भी है। जब शरीर रुग्ण होता है तो ही उसका पता चलता है, लेकिन वह भी शीघ्र नहीं। तुम्हें अपने रोगों का पता भी तुरंत नहीं चलता है। कुछ समय बीतने पर ही पता चलता है, जब रोग तुम्हारी चेतना के द्वार पर बार—बार दस्तक देता है, तब पता चलता है। यही कारण है कि कोई भी व्यक्ति समय रहते डाक्टर के पास नहीं पहुंचता है। वह देर कर के पहुंचता है, जब रोग गहन हो चुकता है और बहुत हानि कर चुकता है।

अगर बच्चे को संवेदनशीलता के साथ बड़ा किया जाए तो वह रोग के आने के पहले जान जाएगा कि रो आ रहा है। अब तो, रूस में खासकर,वे इस सिद्धांत पर काम कर रहे है। कि अगर कोई अपने शरीर के प्रति प्रगाढ़ रूप से सजग हो तो रोग को उसके आने के छह महीने पहले जाना जा सकता है। क्योंकि रोग के आने के पूर्व शरीर में सूक्ष्म परिवर्तन होने लगते हैं, वे परिवर्तन शरीर को रोग के लिए तैयार करते हैं। इसलिए छह महीने पहले आसार नजर आने लगते हैं।

लेकिन रोग की क्या बात, हम तो मृत्यु को भी नहीं जान पाते हैं। अगर कल तुम्हारी मृत्यु होने वाली है तो तुम्हें आज भी उसका पता नहीं चलता है। मृत्यु जैसी चीज भी यदि अगले क्षण घटित होने वाली है तो तुम्हें उसका पता इस क्षण तक भी नहीं चलता है। तुम अपने शरीर के प्रति बिलकुल संवेदनशून्य हो, मृत हो। और सारा समाज, सारी संस्कृति इस जड़ता को, इस मुर्दापन को पैदा करने में लगी है, क्योंकि वह शरीर विरोधी है। तुम्हें शरीर का बोध नहीं होने दिया जाता है, सिर्फ दुर्घटनाओं में तुम्हें उसे जानने की अनुमति है। अन्यथा समाज का आदेश है कि शरीर को मत जानो।

इससे कई समस्याएं पैदा होती हैं—विशेषकर तंत्र के लिए। तंत्र गहन संवेदनशीलता और शरीर के बोध में भरोसा करता है।

तुम अपने काम में लगे हो और तुम्हारा शरीर बहुत कुछ कर रहा है, जिसका तुम्हें कोई बोध नहीं है। अब तो शरीर की भाषा पर बहुत काम हो रहा है। शरीर की अपनी भाषा है। और मनोचिकित्सक और मनस्विद को शरीर की भाषा का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। क्योंकि वे कहते हैं कि आधुनिक मनुष्य का भरोसा नहीं किया जा सकता। आधुनिक मनुष्य जो कहता है, उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। उससे अच्छा है उसके शरीर का निरीक्षण करना, क्योंकि शरीर उसके बारे में ज्यादा खबर दे सकता है।

एक आदमी मनोचिकित्सक के आफिस में प्रवेश करता है। पुरानी मनोचिकित्सा, फ्रायडियन मनोविश्लेषण उस आदमी के मन में छिपी—दबी बातों को जानने के लिए उससे घंटों बातें करेगा। आधुनिक मनोचिकित्सा उसके शरीर का निरीक्षण करेगी, क्योंकि शरीर ही सुराग बता देता है।

अगर आदमी अहंकारी है, अगर अहंकार उसकी समस्या है तो यह उसके बैठने के ढंग से मालूम हो जाएगा। अहंकारी आदमी नम्र आदमी से सर्वथा भिन्न ढंग से बैठता है। उसकी गर्दन एक खास ढंग से तनी होगी, उसकी रीढ़ लचीली नहीं, अकड़ी होगी, मृत होगी। और वह आदमी जीवित नहीं, जड़ मालूम पड़ेगा। अगर तुम उसके शरीर को छुओ तो तुम्हें सजीवता कम, जड़ता ज्यादा मिलेगी। वह उस सैनिक जैसा मालूम पड़ेगा जो मोर्चे पर जा रहा हो।

मोर्चे पर जाते हुए किसी सैनिक को देखो! उसका चेहरा सख्त होगा, पथरीला होगा। वह सैनिक के लिए जरूरी है, क्योंकि वह मरने—मारने जा रहा है। उसे अपने शरीर के प्रति ज्यादा सजग नहीं रहना चाहिए, इसलिए प्रशिक्षण के द्वारा उसके शरीर को सख्त और मुर्दा कर दिया जाता। कूच व हुए सैनिक ऐसे लगते कि मृत खिलौने कूच कर रहे हैं।

अगर तुम विनम्र हो तो तुम्हारे शरीर की भंगिमा भिन्न होगी। तुम भिन्न ढंग से बैठोगे, भिन्न ढंग से खड़े होगे। अगर तुममें हीनता का भाव है तो तुम और ढंग से खड़े होगे। और श्रेष्‍ठता की ग्रंथि से पीडित व्‍यक्‍ति और ढ़ंग से खड़ा होगा। अगर तुम सदा भयभीत रहते हो तो तुम इस ढंग से खड़े होंगे, मानो किसी अज्ञात शक्ति से अपना बचाव कर रहे हो। वह अज्ञात शक्ति तुम्हें सदा और सर्वत्र मिलेगी। अगर तुम निर्भय हो तो तुम उस बच्चे की भांति हो, जो मा के साथ खेल रहा है। मां के साथ क्या डर! तुम जहां जाओगे, निर्भय होकर जाओगे; और तुम्हें तुम्हारे चारों ओर का जगत अपना घर मालूम पड़ेगा। और जो आदमी भयभीत है वह सदा कवच लगाए रहेगा। और सिर्फ प्रतीक के रूप में मैं कवच शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूं सचमुच भयभीत आदमी शारीरिक तल पर कवच लगाए रहता है।

विलहेम रेख ने शरीर की संरचना पर बहुत काम किया है। और उसे शरीर और मन के बीच बहुत गहरा संबंध दिखाई पड़ा। यदि कोई आदमी भयभीत है तो उसका पेट कोमल नहीं होगा, तुम उसका पेट छुओ और वह पत्थर जैसा मालूम पड़ेगा। और अगर वह निडर हो जाए तो उसका पेट तुरंत शिथिल हो जाएगा। या अगर पेट को शिथिल कर लो तो भय चला जाता है। पेट पर थोड़ी मालिश करो और तुम देखोगे कि डर कम हो गया, निर्भयता आई। जो व्यक्ति प्रेमपूर्ण है, उसके शरीर का गुण— धर्म और होगा। उसके शरीर में उष्णता होगी, जीवन होगा। और जो व्यक्ति प्रेमपूर्ण नहीं है, उसका शरीर ठंडा होगा, मुर्दा होगा।

यही ठंडापन तथा अन्य चीजें तुम्हारे शरीर में प्रविष्ट हो गई हैं और वे ही बाधाएं बन गई हैं। वे तुम्हें तुम्हारे शरीर को नहीं जानने देती हैं। लेकिन शरीर अपने ढंग से अपना काम करता रहता है और तुम अपने ढंग से अपना काम करते रहते हो। दोनों के बीच एक खाई पैदा हो जाती है। उस खाई को पाटना है।

मैंने देखा है कि अगर कोई व्यक्ति दमन करता है, अगर तुमने क्रोध को दबाया है तो तुम्हारे हाथों में, तुम्हारी अंगुलियों में दमित क्रोध की उत्तेजना होगी। और जो जानता है वह तुम्हारे हाथों को छूकर बता देगा कि तुमने क्रोध को दबाया है।

और हाथ को छूकर क्यों? क्योंकि क्रोध को हाथ के माध्यम से प्रकट किया जाता है। अगर तुमने क्रोध का दमन किया है तो दमित क्रोध तुम्हारे दांतों में, मसूढ़ों में इकट्ठा हो जाता है। और दांतों और मसुढ़ों को छूकर उस दमित क्रोध का अनुभव किया जा सकता है, उनकी तरंगें बता देंगी कि क्रोध यहां दमित पड़ा है।

अगर तुमने कामवासना का दमन किया है तो वह कामवासना तुम्हारे काम—अंगों में दबी पड़ी रहेगी। ऐसे किसी अंग को छूकर बताया जा सकता है कि यहां काम दमित पड़ा है। वह अंग भयभीत हो जाएगा और तुम्हारे स्पर्श से बचना चाहेगा, वह खुला या ग्रहणशील नहीं रहेगा। चूंकि तुम बचना चाहते हो इसलिए वह अंग भी संकुचित हो जाएगा, वह तुम्हें द्वार नहीं देगा।

अब वे कहते हैं कि पचास प्रतिशत स्त्रियां ठंडी होती हैं, उनकी कामवासना को उत्तेजित नहीं किया जा सकता। और कारण यह है कि हम लड़कों से बढ़कर लड़कियों को काम—दमन सिखाते हैं। लड़कियां बहुत दमन करती हैं। और जब वे बीस वर्ष की उम्र तक दमन करती हैं तो यह उनकी लंबी आदत बन जाती है। बीस वर्षों का दमन! फिर जब वह प्रेम करेगी तो वह प्रेम की बात ही करेगी, प्रेम के प्रति उसका शरीर उन्मुख नहीं होगा, नहीं

खुलेगा। उसका शरीर एक तरह से सेक्स के प्रति बंद हो जाता है, जड़ हो जाता है। और तब एक सर्वथा विरोधपूर्ण घटना घटती है, उसके भीतर परस्पर—विरोधी दो धाराएं एक साथ बहती है। वह प्रेम करना चाहती है, लेकिन उसका शरीर दमित है; शरीर असहयोग करता है, शरीर पीछे हटने लगता है, वह पास आने को तैयार नहीं होता।

अगर तुम किसी स्त्री को किसी पुरुष के पास बैठे देखो और अगर वह स्त्री पुरुष को प्रेम करती है तो तुम पाओगे कि वह स्त्री उस पुरुष की तरफ झुककर बैठी है। अगर वे दोनों सोफा पर बैठे हैं तो उनके शरीर एक—दूसरे की तरफ झुके होंगे। उन्हें इस बात का बोध नहीं है, लेकिन तुम यह जान सकते हो। और अगर स्त्री पुरुष से डरती है तो उसका शरीर उससे विपरीत दिशा में झुका होगा। अगर स्त्री पुरुष के प्रेम में है तो वह अपनी टांगों को एक—दूसरे पर रखकर नहीं बैठेगी। वह ऐसा तभी करेगी जब वह पुरुष से भयभीत होगी। उसे इस बात की खबर नहीं है, वह अनजाने कर रही है। शरीर अपना बचाव आप करता है, वह अपने ढंग से अपना काम करता है।

तंत्र को पहले से इस बात का बोध था, सब से पहले तंत्र को ही शरीर के तल पर ऐसी गहरी संवेदनशीलता का पता चला था। और तंत्र कहता है कि अगर तुम सचेतन रूप से अपने शरीर का उपयोग कर सको तो शरीर ही आत्मा में प्रवेश का साधन बन जाता है। तंत्र कहता है कि शरीर का विरोध करना मूढ़ता है, बिलकुल मूढ़ता है। शरीर का उपयोग करो, शरीर माध्यम है। और इसकी ऊर्जा का उपयोग इस भांति करो कि तुम इसका अतिक्रमण कर सको। अब कानों को दबाकर और गुदा को सिकोड़कर बंद करो, और ध्वनि में प्रवेश करो।’ तुम अपने गुदा को अनेक बार सिकोड़ते रहे हो, और कभी—कभी तो गुदा—मार्ग अनायास भी खुल जाता है। अगर तुम्हें अचानक कोई भय पकड़ ले तो तुम्हारा गुदा—मार्ग खुल जाएगा। भय के कारण अनायास मल—मूत्र निकल जाता है। तब तुम उसे नियंत्रण में नहीं रख सकते। आकस्मिक भय की अवस्था में तुम्हारे मलाशय ढीले पड़ जाते हैं। क्या होता है? भय में क्या होता है? भय तो मानसिक चीज है, फिर भय में पेशाब क्यों निकल जाता है? नियंत्रण क्यों जाता रहता है? जरूर ही कोई गहरा संबंध होना चाहिए।

भय सिर में, मन में घटित होता है। जब तुम निर्भय होते हो तो ऐसा कभी नहीं होता। असल में बच्चे का अपने शरीर पर कोई मानसिक नियंत्रण नहीं होता है। कोई पशु अपने मल—मूत्र का नियंत्रण नहीं करता है। जब भी मलाशय भर जाता है, वह अपने आप ही खाली हो जाता है। पशु उस पर नियंत्रण नहीं करता है। लेकिन मनुष्य को आवश्यकतावश उस पर नियंत्रण करना पड़ता है। हम बच्चे को सिखाते हैं कि कब उसे मल—मूत्र त्याग करना चाहिए, हम उसके लिए समय बांध देते हैं। इस तरह मन एक ऐसे काम को अपने हाथ में ले लेता है, जो स्वैच्छिक नहीं है। और यही कारण है कि बच्चे को मलमूत्र—विसर्जन का प्रशिक्षण देना इतना कठिन होता है।

अब मनस्विद कहते हैं कि अगर मलमूत्र—विसर्जन का प्रशिक्षण बंद कर दिया जाए तो मनुष्यता की हालत बहुत सुधर जाएगी। बच्चे का, उसकी स्वाभाविकता का, सहजता का पहला दमन मलमूत्र—विसर्जन के प्रशिक्षण में होता है। लेकिन इन मनस्विदों की बात मानना कठिन मालूम पड़ता है। कठिन इसलिए मालूम पड़ता है क्योंकि तब बच्चे बहुत सी समस्याएं खड़ी कर देंगे। केवल समृद्ध समाज, अत्यंत समृद्ध समाज ही इस प्रशिक्षण के बिना काम चला सकता। गरीब समाज को इसकी चिंता लेनी ही पड़ेगी। बच्‍चे जहां चाहे पेशाब करें, यह हम कैसे बरदाश्त कर सकते हैं! तब तो वह सोफा पर ही पेशाब करेगा और यह हमारे लिए बहुत खर्चीला पड़ेगा। तो प्रशिक्षण जरूरी है। और यह प्रशिक्षण मानसिक है, शरीर में इसकी कोई अंतर्निहित व्यवस्था नहीं है। ऐसी कोई शरीरगत व्यवस्था नहीं है। जहां तक शरीर का संबंध है, मनुष्य पशु ही है। और शरीर को संस्कृति से, समाज से कुछ लेना—देना नहीं है।

यही कारण है कि जब तुम्हें गहन भय पकड़ता है तो वह नियंत्रण की व्यवस्था, जो शरीर पर लादी गई है, ढीली पड़ जाती है। तुम्हारे हाथ से नियंत्रण जाता रहता है। सिर्फ सामान्य हालातों में यह नियंत्रण संभव है, असामान्य हालातों में तुम नियंत्रण नहीं रख सकते। आपात स्थितियों के लिए तुम्हें प्रशिक्षित नहीं किया गया है, सामान्य दिन—चर्या के कामों के लिए ही प्रशिक्षित किया गया है। आपात स्थिति में यह नियंत्रण विदा हो जाता है, तब तुम्हारा शरीर अपने पाशविक ढंग से काम करने लगता है।

लेकिन इससे एक बात समझी जा सकती है कि निर्भीक व्यक्ति के साथ ऐसा कभी नहीं होता है, यह तो कायरों का लक्षण है। अगर डर के कारण तुम्हारा मल—मूत्र निकल जाता है तो उसका मतलब है कि तुम कायर हो। निडर आदमी के साथ ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि निडर आदमी गहरी श्वास लेता है। उसके शरीर और श्वास—प्रश्वास के बीच एक तालमेल है, उनमें कोई अंतराल नहीं है। कायर व्यक्ति के शरीर और श्वास—प्रश्वास के बीच एक अंतराल होता है और इस अंतराल के कारण वह सदा मल—मूत्र से भरा रहता है। इसलिए जब आपात स्थिति पैदा होती है तो उसका मल—मूत्र बाहर निकल जाता है।

और इसका एक प्राकृतिक कारण भी है। मल—मूत्र के निकलने से कायर हलका हो जाता है और वह आसानी से भाग सकता है, बच सकता है। बोझिल पेट बाधा बन सकता है, इसलिए कायर के लिए मल—मूत्र का निकलना सहयोगी होता है।

मैं यह बात क्यों कह रहा हूं? मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि तुम्हें अपने मन और पेट की प्रक्रियाओं से परिचित होना चाहिए। मन और पेट में गहरा अंतर्संबंध है। मनस्विद कहते हैं कि तुम्हारे पचास से नब्बे प्रतिशत सपने पेट की प्रक्रियाओं के कारण घटित होते हैं। अगर तुमने ठूंस—ठूंसकर खाया है तो तुम दुखस्‍वप्‍न देखे बिना नहीं रह सकते। ये दुखस्वप्न मन से नहीं, भारी पेट से आते हैं।

बहुत से सपने बाहरी आयोजन के द्वारा पैदा किए जा सकते हैं। अगर तुम नींद में हो और तुम्हारे हाथों को मोड़कर सीने पर रख दिया जाए तो तुम तुरंत दुखस्‍वप्‍न देखने लगोगे। अगर तुम्हारी छाती पर सिर्फ एक तकिया रख दिया जाए तो तुम सपना देखोगे कि कोई राक्षस तुम्हारी छाती पर बैठा है और तुम्हें मार डालने पर उतारू है।

यह विचारणीय है कि एक छोटे से तकिए का भार इतना ज्यादा क्यों हो जाता है? यदि तुम जागे हुए हो तो तकिया कोई भार नहीं है, तुम्हें कुछ भार नहीं महसूस होता है। लेकिन क्या बात है कि नींद में छाती पर रखा गया एक छोटा सा तकिया भी चट्टान की तरह भारी मालूम पड़ता है? इतना भार क्यों महसूस होता है?

कारण यह है कि जब तुम जागे हुए हो तो तुम्हारे शरीर और मन के बीच तालमेल नहीं रहता है, उनमें एक अंतराल रहता है। तब तुम शरीर और उसकी संवेदनशीलता को महसूस नहीं कर सकते। नींद में नियंत्रण, संस्कृति, संस्कार, सब विसर्जित हो जाते हैं और तुम फिर से बच्चे जैसे हो जाते हो और तुम्हारा शरीर संवेदनशील हो जाता है। उसी संवेदनशीलता के कारण एक छोटा सा तकिया भी चट्टान जैसा भारी मालूम पड़ता है। संवेदनशीलता के कारण भार अतिशय हो जाता है, अनंत गुना हो जाता है।

तो मन और शरीर की प्रक्रियाएं आपस में बहुत जुड़ी हुई हैं और यदि तुम्हें इसकी जानकारी हो तो तुम इसका उपयोग कर सकते हो।

गुदा को बंद करने से, ऊपर खींचने से, सिकोड़ने से शरीर में ऐसी स्थिति बनती है जिसमें ध्वनि सुनी जा सकती है। तुम्हें अपने शरीर के बंद घेरे में, मौन में, ध्वनि का स्तंभ सा अनुभव होगा। कानों को बंद कर लो और गुदा को ऊपर की ओर सिकोड़ लो और फिर अपने भीतर जो हो रहा हो उसके साथ रहो। कान और गुदा को बंद करने से जो रिक्त स्थिति बनी है उसके साथ बस रहो। भीतर जो जीवन—ऊर्जा प्रवाहित हो रही है, उसे अब बाहर जाने का कोई मार्ग न रहा। ध्वनि तुम्हारे कानों के मार्ग से या गुदा के मार्ग से बाहर जाती है। उसके बाहर जाने के ये ही दो रास्ते हैं। इसलिए अगर उनका बाहर जाना न हो तो तुम उसे आसानी से महसूस कर सकते हो।

और इस आंतरिक ध्वनि को अनुभव करने से क्या होगा? इस आंतरिक ध्वनि को सुनने के साथ ही तुम्हारे विचार विलीन हो जाते हैं। दिन में किसी भी समय यह प्रयोग करो गुदा को ऊपर खींचो और कानों को अंगुली से बंद कर लो। कानों को बंद करो और गुदा को सिकोड़ लो, तब तुम्हें एहसास होगा कि मेरा मन ठहर गया है, उसने काम करना बंद कर दिया है और विचार भी ठहर गए हैं। मन में विचारों का जो सतत प्रवाह चलता है, वह विदा हो गया है। यह शुभ है।

और जब भी समय मिले इसका प्रयोग करते रही। अगर दिन में पांच—छह दफे इसका प्रयोग करते रहे तो तुम्हें इस प्रयोग में कुशलता प्राप्त हो जाएगी। और तब उससे बहुत शुभ घटित होगा।

तुम एक बार यह आंतरिक ध्वनि सुन लो तो यह सदा तुम्हारे साथ रहेगी। तब तुम उसे दिनभर सुन सकते हो। तब बाजार के शोरगुल में भी, सडक के शोरगुल में भी—यदि तुमने उस ध्वनि को सुना है—वह तुम्हारे साथ रहेगी। और फिर तुम्हें कोई भी उपद्रव अशांत नहीं करेगा। अगर तुमने यह अंतर्ध्वनि सुन ली तो बाहर की कोई चीज तुम्हें विचलित नहीं कर. सकेगी। तब तुम शांत रहोगे, जो भी आस—पास घटेगा उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

ध्वनि—संबंधी अंतिम विधि :

 

अपने नाम की ध्वनि में प्रवेश करो और उस ध्वनि के द्वारा सभी ध्वनियों में।

मंत्र की तरह तुम्हारे नाम का उपयोग बहुत आसानी से किया जा सकता है। यह बहुत सहयोगी होगा, क्योंकि तुम्हारा नाम तुम्हारे अचेतन में बहुत गहरे उतर चुका है। दूसरी कोई भी चीज अचेतन की उस गहराई को नहीं छूती है। यहां हम इतने लोग बैठे हैं। यदि हम सभी सो जाएं और कोई बाहर से आकर राम को आवाज दे तो उस व्यक्ति के सिवाय जिसका नाम राम है, कोई भी उसे नहीं सुनेगा। राम उसे सुन लेगा, सिर्फ राम की नींद में उससे बाधा पहुंचेगी। दूसरे किसी को भी राम की आवाज नहीं देगी।

लेकिन यही एक आदमी क्यों सुनता है? कारण यह है कि यह नाम उसके गहरे अचेतन में उतर गया है। अब वह चेतन नहीं है, अचेतन बन गया है। तुम्हारा नाम तुम्हारे बहुत भीतर प्रवेश कर गया है। तुम्हारे नाम के साथ एक बहुत सुंदर घटना घटती है। तुम कभी तक

अपने को अपने नाम से नहीं पुकारते हो। सदा दूसरे तुम्हारा नाम पुकारते हैं। तुम अपना नाम कभी नहीं लेते, सदा दूसरे लेते हैं।

मैंने सुना है कि पहले महायुद्ध में अमेरिका में पहली बार राशन लागू किया गया। थॉमस एडीसन महान वैज्ञानिक था, लेकिन क्योंकि गरीब था इसलिए उसे भी अपने राशन कार्ड के लिए कतार में खड़ा होना पड़ा। और वह इतना बड़ा आदमी था कि कोई उसके सामने उसका नाम नहीं लेता था। और उसे खुद कभी अपना नाम लेने की जरूरत नहीं पड़ती थी। और दूसरे लोग उसे इतना आदर करते थे कि उसे सदा प्रोफेसर कहकर पुकारते थे। तो एडीसन को अपना नाम भूल गया।

वह क्यू में खड़ा था। और जब उसका नाम पुकारा गया तो वह ज्यों का त्यों चुप खड़ा ताकता रहा। क्यू में खड़े दूसरे व्यक्ति ने, जो एडीसन का पड़ोसी था, उससे कहा कि आप चुप क्यों खड़े हैं! आपका नाम पुकारा जा रहा है। तब एडीसन को होश आया। और उसने कहा कि मुझे तो कोई भी एडीसन कहकर नहीं पुकारता है, सब मुझे प्रोफेसर कहते हैं। फिर मैं कैसे सुनता? अपना नाम सुने हुए मुझे बहुत समय हो गया।

तुम कभी अपना नाम नहीं लेते हो। दूसरे तुम्हारा नाम लेते हैं, तुम उसे दूसरों के मुंह से सुनते भर हो। लेकिन अपना नाम अचेतन में गहरा उतर जाता है—बहुत गहरा। वह तीर की तरह अचेतन में छिद जाता है। इसलिए अगर तुम अपने ही नाम का उपयोग करो तो वह मंत्र बन जाएगा। और दो कारणों से अपना नाम सहयोगी होता है।

एक कि जब तुम अपना नाम लेते हो—मान लो कि तुम्हारा नाम राम है और तुम राम—राम कहे जाते हो—तो कभी तुम्हें .अचानक महसूस होगा कि मैं किसी दूसरे का नाम ले रहा हूं कि यह मेरा नाम नहीं है! और अगर तुम यह भी समझो कि यह मेरा ही नाम है तो भी तुम्हें ऐसा लगेगा कि मेरे भीतर कोई दूसरा व्यक्ति है जो इस नाम का उपयोग कर रहा है। यह नाम शरीर का हो सकता है, मन का हो सकता है, लेकिन जो राम—राम कह रहा है वह साक्षी है।

तुमने दूसरों के नाम पुकारे हैं। इसलिए जब तुम अपना ही नाम लेते हो तो तुम्हें ऐसा लगता है कि यह नाम किसी और का है, मेरा नहीं। और यह घटना बहुत कुछ बताती है। तुम अपने ही नाम के साक्षी हो सकते हो। और इस नाम के साथ तुम्हारा समस्त जीवन जुड़ा है। नाम से पृथक होते ही तुम अपने पूरे जीवन से पृथक हो जाते हो। और यह नाम तुम्हारे गहरे अचेतन में चला गया है, क्योंकि तुम्हारे जन्म से ही लोग तुम्हें इस नाम से पुकारते हैं। तुम सदा—सदा इसे सुनते रहे हो। तो इस नाम का उपयोग करो। इस नाम के साथ तुम उन गहराइयों को छू लोगे जहां तक यह नाम प्रवेश कर गया है।

पुराने दिनों में हम सबको परमात्मा के नाम दिया करते थे, कोई राम कहलाता था, कोई नारायण कहलाता था, कोई कृष्ण कहलाता था, कोई विष्णु कहलाता था। कहते हैं कि मुसलमानों के सभी नाम परमात्मा के नाम हैं। और पूरी धरती पर यही रिवाज था कि परमात्मा के नाम के आधार पर हम लोगों के नाम रखते थे। और इसके पीछे अच्छे कारण थे।

एक कारण तो यही विधि था। अगर तुम अपने नाम को मंत्र की तरह उपयोग करते हो तो इसके दोहरे लाभ हो सकते हैं। एक तो यह तुम्हारा अपना नाम होगा, जिसको तुमने इतनी बार सुना है, जीवनभर सुना है और जो तुम्हारे अचेतन में प्रवेश कर गया है। फिर यही परमात्मा का नाम भी है। और जब तुम उसको दोहराओगे तो कभी अचानक तुम्हें बोध होगा कि यह नाम मुझसे पृथक है। और फिर धीरे— धीरे उस नाम की अलग पवित्रता निर्मित होगी, महिमा निर्मित होगी। किसी दिन तुम्हें स्मरण होगा कि यह तो परमात्मा का नाम है। तब तुम्हारा नाम मंत्र बन गया। तो इसका उपयोग करो। यह बहुत ही अच्छा है।

तुम अपने नाम के साथ कई प्रयोग कर सकते हो। अगर तुम सुबह पांच बजे जागना चाहते हो तो तुम्हारे नाम से बढ़कर कोई अलार्म घड़ी सही काम नहीं देगी। वह ठीक तुम्हें पांच बजे जगा देगा। बस अपने भीतर तीन बार कहो : राम, तुम्हें ठीक पांच बजे जाग जाना है। तीन बार कहकर तुरंत सो जाओ। तुम पांच बजे जाग जाओगे, क्योंकि तुम्हारा नाम राम तुम्हारे गहन अचेतन में बसा है। अपना ही नाम लेकर अपने को कहो कि पांच बजे मुझे जगा देना। और कोई तुम्हें जगा देगा। अगर तुम इस अभ्यास को जारी रख सको तो तुम पाओगे कि ठीक पांच बजे कोई तुम्हें पुकार कर कहता है : राम, जागो! यह तुम्हारा अचेतन तुम्हें पुकारता है। यह विधि कहती है’अपने नाम की ध्वनि में प्रवेश करो, और उस ध्वनि के द्वारा सभी ध्वनियों में।’

तुम्हारा नाम सभी नामों के लिए द्वार बन जाता है। लेकिन ध्वनि में प्रवेश करो। पहले तुम जब राम—राम जपते हो तो वह शब्द भर है। लेकिन अगर जप सतत जारी रहता है तो उसका अर्थ कुछ और हो जाता है।

तुमने बाल्मीकि की कथा सुनी होगी। उन्हें यही राम मंत्र दिया गया था। लेकिन बाल्मीकि अनपढ़ आदमी थे—सीधे—सादे, बच्चे जैसे निर्दोष। उन्होंने राम—राम जपना शुरू किया। लेकिन इतना अधिक जप किया कि वे भूल गए और राम की जगह उलटा मरा—मरा कहने लगे। वे राम—राम को इतनी तेजी से जपते थे कि वह मरा—मरा बन गया। और मरा—मरा कहकर ही वे पहुंच गए।

तुम भी अगर अपने भीतर अपने नाम का जाप तेजी से करो तो वह शब्द न रहकर ध्वनि में बदल जाएगा। तब वह एक अर्थहीन ध्वनि होगी। और तब राम और मरा में कोई भेद नहीं रहेगा। राम कहो या मरा, कोई फर्क नहीं पड़ता। वे अब शब्द नहीं रहे, वे बस ध्वनि हैं। और ध्वनि असली चीज है।

तो अपने नाम की ध्वनि में प्रवेश करो, उसके अर्थ को भूल जाओ; सिर्फ ध्वनि में प्रवेश करो। अर्थ मन की चीज है, ध्वनि शरीर की चीज है। अर्थ सिर में रहता है, ध्वनि सारे शरीर में फैल जाती है। अर्थ को भूल ही जाओ, उसे एक अर्थहीन ध्वनि की तरह जपो। और इस ध्वनि के जरिए तुम सभी ध्वनियों में प्रवेश पा जाओगे। यह ध्वनि सब ध्वनियों के लिए द्वार बन जाएगी। सब ध्वनियों का अर्थ है जो सब है—सारा अस्तित्व।

भारतीय अंतस—अनुसंधान का यह एक बुनियादी सूत्र है कि आस्‍तित्‍व को मूलभूत इकाई ध्वनि है, विद्युत नहीं। आधुनिक विज्ञान कहता है कि अस्तित्व की मूलभूत इकाई विद्युत है, ध्‍वनि नहीं। लेकिन वे यह भी मानते है कि ध्वनि भी एक तरह की विद्युत है। भारतीय सदा कहते आए हैं कि विद्युत ध्वनि का ही एक रूप है। तुमने सुना होगा कि किसी विशेष राग के द्वारा आग पैदा की जा सकती है। यह संभव है। क्योंकि भारतीय धारणा यह है कि समस्त विद्युत का आधार ध्वनि है। इसलिए अगर ध्वनि को एक विशेष ढंग से छेड़ा जाए, किसी खास राग में गाया जाए तो विद्युत या आग पैदा हो सकती है।

लंबे पुलों पर फौज की टुकड़ियों को लयबद्ध शैली में चलने की मनाही है, क्योंकि कई बार ऐसा हुआ है कि उनके लयबद्ध कदम पड़ने के कारण पुल टूट गए हैं। ऐसा उनके भार के कारण नहीं, ध्वनि के कारण होता है। अगर सिपाही लयबद्ध शैली में चलेंगे तो उनके लयबद्ध कदमों की विशेष ध्वनि के कारण पुल टूट जाएगा। वे सिपाही यदि सामान्य ढंग से निकलें तो पुल को कुछ नहीं होगा।

पुराने यहूदी इतिहास में उल्लेख है कि जेरीको शहर ऐसी विशाल दीवारों से सुरक्षित था कि उन्हें बंदूकों से तोड़ना असंभव था। लेकिन वे ही दीवारें एक विशेष ध्वनि के द्वारा तोड़ डाली गईं। उन दीवारों के टूटने का राज ध्वनि में छिपा है। दीवारों के सामने अगर उस ध्वनि को पैदा किया जाए तो दीवारें टूट जाएंगी। तुमने अली बाबा की कहानी सुनी होगी, उसमें भी एक खास ध्वनि बोलकर चट्टान हटाई जाती है।

वे प्रतीक हैं। वे सच हों या नहीं, एक बात निश्चित है कि अगर तुम किसी ध्वनि का इस भांति सतत अभ्यास करते रहो कि उसका अर्थ मिट जाए, तुम्हारा मन विलीन हो जाए, तो तुम्हारे हृदय पर पड़ी चट्टान हट जाएगी।

आज इतना ही।


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साधना–सूत्र–(प्रवचन–16)

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पूछो—अपने ही अंतरतम से—(प्रवचन—सोलहवां)

सूत्र:

12—पूछो अपने ही अंतरतम, उस एक से,

जीवन के परम रहस्य को,

जो कि उसने तुम्हारे लिए युगों से छिपा रखा है।

जीवात्मा की वासनाओं को

जीत लेने का बड़ा और कठिन कार्य युगों का है।

इसलिए उसके पुरस्कार को पाने की आशा तब तक मत करो,

जब तक युगों के अनुभव एकत्रित न हो जाएं।

जब इस बारहवें नियम को सीखने का समय आता है,

तब मानव मानवेतर (अतिमानव) अवस्था की डचोढी पर पहुंच जाता है।

जो ज्ञान अब तुम्हें प्राप्त हुआ है

वह इसी कारण तुम्‍हें मिला है कि तुम्‍हारी आत्मा सभी शुद्ध आत्मओं से एक है

और उस परम—तत्‍व से एक हो गयी है।

यह ज्ञान तुम्‍हारे पास उसी सर्वोच्च (परमात्मा) की धरोहर है।

इसमें यदि तुम विश्वासघात करो,

उस ज्ञान का दुरुपयोग करो या उसकी अवहेलना करो,

तो अब भी संभव है कि तुम जिस उच्च पद तक पहुंच चुके हो,

उससे नीचे गिर पड़ो।

बड़े पहुंचे हुए लोग भी अपने दायित्व का भार न सम्हाल सकने के कारण

और आगे न बढ़ सकने के कारण

डचोढ़ी से गिर पड़ते हैं और पिछड़ जाते हैं।

इसलिए इस क्षण के प्रति श्रद्धा और भय के साथ सजग रहो

और युद्ध के लिए तैयार रहो।

सूत्र के पहले दो छोटे प्रश्न हैं।

 

प्रश्‍न: कोई पूछ रहा है कि क्या कारण है कि मीरा जहर पी कर भी नहीं मरी? कैसी भक्ति थी वह? कैसा प्रेम था? प्रहलाद के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है, अग्नि में नहीं जला। लेकिन सुकरात जहर पी कर क्यों मर गए? और सूली पर चढ़ने पर जीसस बचे क्यों नहीं?

कुछ बातें समझ लेनी उपयोगी होंगी।

एक दो प्रबुद्ध पुरुषों के बीच तुलना भूल कर भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि कोई एक—दूसरे का अनुकरण नहीं है। जीसस जैसा व्यक्ति दुबारा नहीं हुआ, होगा भी नहीं। मीरा जैसा व्यक्तित्व भी दुबारा नहीं होगा। सुकरात अनूठा है, प्रहलाद भी। लेकिन हमारे मन में साधारण आदत है तुलना करने की। वे एक—दूसरे का अनुकरण नहीं हैं, इसलिए उनके व्यक्तित्व का प्रवाह, ढंग और अंत अलग—अलग होगा।

मीरा जहर पी कर नहीं मरी, क्योंकि मीरा जिस भाव—दशा में थी, वहां जहर का प्रवेश नहीं हो सकता है। प्रेम की गहनतम अवस्था में जहर का प्रवेश नहीं हो सकता है। जहर शरीर में प्रवेश भी नहीं कर सकेगा। मीरा का मार्ग था प्रेम का— प्रेम जहर का एंटीडोट है।

अगर आप बहुत प्रेम से भरे हैं, तो आपके रक्त में जहर प्रवेश नहीं कर सकेगा। जहर के प्रवेश के लिए आपके रक्त में जहर होना जरूरी है। समान ही समान को आकर्षित करता है। अगर आप क्रोध से भरे हैं, तो जहर शीघ्रता से प्रवेश कर जाएगा। क्योंकि क्रोध आपके भीतर जो जहर की ग्रंथियां हैं, उनको सक्रिय कर देता है, और आपके खून में जहर पहले से ही मौजूद हो जाता है।

हम सब क्रोध और घृणा से भरे हैं। हमारे रक्त में जहर मौजूद ही है। उस जहर के कारण ही शरीर में जहर प्रवेश कर सकता है। जो आपके भीतर नहीं है, वह आपके भीतर प्रवेश नहीं कर सकेगा। मीरा जैसा व्यक्तित्व इतने प्रेम में जी रहा है कि उसकी अपने भीतर की जहर—ग्रंथियां समाप्त हो गई हैं। उसका रक्त प्रेम से प्रभावित है, प्रेम से आच्छादित है; जहर प्रवेश नहीं कर सकेगा, जहर शरीर से बाहर हो जाएगा। लेकिन मीरा को इसका पता भी नहीं है। अगर इसका पता चल जाए, तो जहर प्रवेश कर जाएगा। मीरा को यह खयाल भी नहीं है कि उसे जहर दिया जा रहा है, कि वह जहर पी रही है। वह अपने प्रेम में इस भांति लीन है कि क्या हो रहा है शरीर के तल पर, उसका उसे कोई स्मरण भी नहीं है।

इसे आप ऐसा समझें। अगर आपको चूहा भी काट ले और आपको खयाल हो जाए कि सांप ने काटा है, तो जहर प्रवेश हो जाएगा; और चूहे में जहर था नहीं। आप मर भी सकते हैं। भ्रांति काफी है मार डालने के लिए।

आप जान कर हैरान होंगे, सर्प—विज्ञान को समझने वाले लोगों का कहना है कि केवल तीन प्रतिशत सर्पों में जहर होता है। सौ में से तीन सांपों में जहर होता है, सत्तानबे सांप बिना जहर के होते हैं। लेकिन चमत्कार यह है कि बिना जहर के सांप के काटने से भी लोग मरते हैं। और इसीलिए तो सांप का जहर उतारने वाला सफल हो जाता है। क्योंकि जिस सांप ने काटा है, उसमें जहर था ही नहीं। वह सिर्फ भ्रांति है आपकी, इसलिए मंत्र से कट जाती है। मंत्रों से भ्रांतियां कटती हैं। सांप में तो जहर

नहीं था, जिसने काटा है; लेकिन सांप ने काटा है, यह भाव—दशा जहर बन जाती है। आप मर सकते हैं, आपके भीतर की ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं इस भाव—दशा में। यह भाव—दशा मंत्र से कट सकती है, इसलिए सांप का काटा झाड़ा जा सकता है।

इससे विपरीत भी होता है। असली सांप भी आपको काट ले, लेकिन मंत्र अगर आपको यह भरोसा दिला दे, झाड़ने वाला यह भरोसा दिला दे कि उसने झाडू दिया है, तो यह भरोसा दीवाल बन जाता है आपके भीतर। यह भरोसा सांप के जहर को आपके खून में मिलने से रोक देता है।

आपको अंदाज नहीं है कि आपके मन की कितनी ताकत है आपके शरीर पर! सम्मोहन के संबंध में खोज करने वाले लोगों के नतीजे बड़े चमत्कारी हैं। वे कहते हैं कि अगर सम्मोहित व्यक्ति को— और यह मैं अपने प्रयोग से भी कह रहा हूं क्योंकि सम्मोहन पर इधर मैंने बहुत प्रयोग किए हैं— आपको बेहोश कर दिया जाए सम्मोहित करके, निद्रा में सुला दिया जाए, और आपके हाथ पर साधारण कंकड़ उठा कर रख दिया जाए और आपसे कहा जाए, यह अंगारा है। आप फौरन चीख मार कर उस कंकड़ को फेंक देंगे। और इस तरह चिल्लाएंगे, जैसे अंगारा आपके हाथ पर रखा हो। और साधारण ठंडा कंकड़ था। यहां तक तो ठीक है कि आप बेहोश हैं, आपने भरोसा कर लिया मेरी बात का। लेकिन आपके हाथ पर फफोला भी आ जाएगा! वह फफोला ठीक वैसा ही होगा, जैसा कि अंगारा रखने से आता है! आप होश में भी आ जाएंगे, वह फफोला टिकेगा उतनी ही देर, जितनी देर असली फफोला टिकता है। इससे उलटा भी हो जाता है कि आपको बेहोश करके आपके हाथ पर अंगारा रख दिया जाए और कहा जाए कि यह साधारण ठंडा कंकड़ है, आप चीख भी नहीं मारेंगे, और अंगारे को फेकेंगे भी नहीं और फफोला भी नहीं उठेगा!

अब इसके संबंध में तो वैज्ञानिक निर्णय एकमत हो गया है कि मन जो भाव कर ले, शरीर उसके पीछे चलता है। तो मीरा इतने प्रेम से भरी है कि उसे जहर दिखाई ही नहीं पड़ता।

ध्यान रखें, आपको वही दिखाई पड़ता है, जो आपका भाव होता है।

मीरा को सारा जगत अमृतमय दिखाई पड़ता है, कृष्णमय दिखाई पड़ता है। वह जहर को भी कृष्ण देख कर पी गई होगी, उसमें भी कृष्ण का ही रस उसे आया होगा। यह जो भाव—दशा है, तो जहर का कोई परिणाम नहीं होगा। जहर अस्पर्शित रह जाएगा, मीरा तक नहीं पहुंच पाएगा।

और अगर हाथ में अंगारा रखने से फफोला न पड़ता हो, तो वैज्ञानिक बात तय हो गई। प्रहलाद भी आग में जलने से बच सकता है। यह भाव—दशा की बात है। कोई भगवान प्रहलाद को बचा रहा है, यह तो कहानी है, यह तो विज्ञान नहीं है। कोई भगवान ऐसा एक—एक को बचाते और समझाते— बुझाते और जहर को रोकते फिर रहा हो, तो बहुत बड़ा गोरखधंधा उसके पीछे हो जाएगा। कोई भगवान बैठ कर यह सब नहीं कर रहा है। लेकिन प्रहलाद की भाव—दशा। उसका यह भरोसा है कि वह नहीं जलेगा, भगवान उसे बचाएगा। भगवान बचा रहा है, यह सवाल नहीं है। लेकिन ध्यान रखिए, अगर आपको यह खयाल हो कि कोई भगवान बचाने वाला नहीं, तो भरोसा पक्का नहीं हो पाएगा। प्रहलाद को यह पक्का भरोसा है कि भगवान है और वह बचाएगा, मैंने उसके हाथों में अपने को छोड़ दिया है, तो प्रहलाद को आग नहीं जला पाती।

आपने सुना होगा कि लोग अंगारों पर नाच जाते हैं; अलाव भर लेते हैं, निकल जाते हैं, कोई पैर में फफोला भी नहीं आता। कुछ चमत्कार नहीं है। या चमत्कार है, क्योंकि मन की शक्ति है शरीर के ऊपर। आग से बचा जा सकता है। लेकिन अगर जरा सा भी संदेह हुआ तो जल जाएंगे।

तो आज प्रहलाद को पैदा करना मुश्किल है। वह जमाना गया, जब इतना भरोसा था कि संदेह का रंचमात्र भी नहीं था। इतनी सरलता थी, इतना भोलापन था। आज तो एक छोटा सा बच्चा भी पूछेगा कि नहीं, यह हो नहीं सकता। आज छोटा बच्चा भी एकदम छोटा बच्चा नहीं है। पुराने जमाने में का भी छोटा बच्चा था। जीवन सरल था, प्रकृति के निकट था। सभ्यता न थी, शिक्षा न थी, तो संदेह भी कम था। जितना शिक्षित व्यक्तित्व होगा, उतना संदेह बढ़ जाएगा। क्योंकि शिक्षा के साथ प्रश्न उठते ही हैं—उठने ही चाहिए, नहीं तो शिक्षा आगे नहीं बढ़ सकती।

इसे ऐसा समझें। अगर दुनिया में विज्ञान बढ़ता रहेगा तो संदेह बढ़ता रहेगा। क्योंकि संदेह के बिना विज्ञान नहीं बढ़ सकता। विज्ञान प्रश्नों से जीता है। पूछो, तभी तो उत्तर मिलेंगे। खोजो, लेकिन खोज में संदेह जरूरी है, जिज्ञासा जरूरी है; भरोसा जरूरी नहीं है।

धर्म भरोसे से चलता है, जैसे विज्ञान संदेह से चलता है। अगर दुनिया में धर्म होगा, तो विज्ञान का होना बहुत मुश्किल है। अगर दुनिया में विज्ञान होगा तो धर्म का होना बहुत मुश्किल है, बहुत कठिन है। क्योंकि दोनों की आधार—शिलाएं अलग हैं। लेकिन अगर भरोसा पूरा हो और भीतर कोई संदेह न हो, तो आपका भरोसा, इस जगत में ऐसा कोई भी नियम नहीं है जिसे न तोड़ दे। और आपका भरोसा इस जगत में कोई भी ऐसी घटना नहीं है, जिसको संभव न बना दे। लेकिन भरोसा पूर्ण होना चाहिए, उसमें रत्ती भर का छेद भी नाव को डुबा देगा।

इसलिए कोई अगर कोशिश करके प्रयोग करे तो दिक्कत में पड़ेगा। भूल कर मत करना। अगर आपने सोचा कि जब प्रहलाद आग से बच सकता है, तो मैं क्यों नहीं बच सकता, तो मैं आग में हाथ डाल कर देखूं! लेकिन आप जो आग में हाथ डाल रहे हैं, वह ढंग वैज्ञानिक का है, आस्तिक का नहीं है। आप परीक्षण कर रहे हैं कि देखें? लेकिन देखने का मतलब यह है कि आपको शक है, कि पता नहीं होगा कि नहीं होगा? आप जलेंगे।

इसीलिए धर्म के प्रयोग पुनरुक्त नहीं किए जा सकते। विज्ञान का प्रयोग पुनरुक्त किया जा सकता है। दुनिया के किसी कोने में प्रयोग हो, आप उसे कहीं भी दोहरा सकते हैं। क्योंकि वह संदेह पर खड़ा है, भरोसा उसका हिस्सा नहीं है। लेकिन जो प्रहलाद को हुआ है, वह अगर आप दोहराने की कोशिश किए तो आप दिक्कत में पड़ जाएंगे, क्योंकि दोहराया नहीं जा सकता।

धर्म का प्रयोग निजी और वैयक्‍तित है। क्योंकि प्रहलाद की मनोदशा आपके पास नहीं हो सकती। दोहराने वाले के पास हो भी कैसे? प्रहलाद ने किसी का दोहराया नहीं था प्रयोग। वह कोई परीक्षण नहीं कर रहा था परमात्मा का। परीक्षण का मतलब ही यह है कि संदेह मौजूद है। वह तो अपने को छोड़ रहा था। उस बूढ़ो कोई पता ही नहीं था, वह तो मानता था कि यही होगा, इससे अन्यथा होने का कोई सवाल नहीं है। यह जो पूर्ण भरोसा है, आस्था है, वह आग से बचा सकती है।

लेकिन जीसस की स्थिति बिलकुल भिन्न है। जीसस सूली से नहीं बच सकते हैं, यह सवाल नहीं है। लेकिन अगर आप ठीक से समझें, तो जो लोग जीसस को गहराई से जानते हैं, वे मानते हैं कि सूली पर चढ़ाने का आयोजन जीसस का ही था। यह व्यवस्था जीसस की ही थी। जीसस चाहते थे कि उनको सूली पर चढ़ा दिया जाए। यह जीसस की योजना का हिस्सा था। प्रहलाद और मीरा के पास कोई योजना नहीं थी। जीसस के पास एक विराट योजना थी।

इसलिए प्रहलाद को मानने वाले कितने लोग हैं? और मीरा के पीछे चलने वाले कितने लोग हैं?

जीसस ने आधी दुनिया को ईसाई बना दिया। उसके पीछे एक विराट योजना है। जीसस के पास एक खयाल है जगत के रूपांतरण करने का। और जीसस को यह बात साफ दिखाई पड़ गई थी कि जो मैं कह रहा हूं अगर मैं सूली पर लटका दिया जाऊं, तो मेरा कहा हुआ मनुष्य के हृदय पर सदा के लिए अंकित हो जाएगा। सूली तो खेल थी, क्योंकि जीसस बूढ़ो कोई मरने का सवाल ही नहीं है। जीसस के लिए सूली तो खेल थी। लेकिन इस खेल का उपयोग किया जा सकता है। यह प्लान था। यह जीसस का पूरा का पूरा खेल सुनियोजित था। इसमें लोग सोचते हैं कि जीसस के दुश्मनों के हाथ में जीसस पड़े। जो जानते हैं, वे समझते हैं कि जीसस के हाथ में उनके दुश्मन पड़ गए। वे समझ नहीं पाए कि हो क्या रहा है!

जीसस के ही एक शिष्य जुदास ने खबर दी दुश्मनों को। लोग समझते हैं कि जुदास जीसस का दुश्मन था। ऐसा नहीं है। वह जीसस का गहरे से गहरा अनुयायी था। और उस सीमा तक अनुयायी था कि जीसस ने उसे आज्ञा दी कि तू मुझे सूली पर लटकवाने का इंतजाम कर दे, तो उसने वह इंतजाम भी कर दिया। वह आज्ञा जो थी, उसे पूरा करना था।

इसलिए जिस क्षण जुदास जीसस को छोड़ कर जा रहा है दुश्मन को खबर देने, उस समय जीसस ने उसके पैर छुए और उसे चूमा। लोग सोचते हैं कि यह दुश्मन के प्रति प्रेम का कारण था। यह नहीं है मामला। जो गहरी कथा है, वह कुछ और है। जुदास ही उनमें सबसे ज्यादा समझदार शिष्य था। और आपको पता नहीं कि जिस दिन जीसस को सूली लगी है, उस दिन बाकी शिष्य तो भाग गए, लेकिन जुदास ने आत्महत्या कर ली। उसने अपने को सूली पर खुद लटका लिया। लोग सोचते हैं कि पश्चात्ताप में ऐसा किया, कि मैंने फंसा दिया जीसस को, मैंने सूली लगवा दी। नहीं, उसका प्रेम गहरा था, बहुत आंतरिक था। वह इस सीमा तक था कि अगर जीसस कहें कि सूली पर लटकवाना है मुझे, तो वह इसका भी इंतजाम करेगा। लेकिन प्रेम के लिए बड़ी कठिनाई है। यह इंतजाम भी उसने किया और अपने को सूली पर भी लटका लिया। क्योंकि अब रहने का कोई अर्थ न था।

यह योजनाबद्ध था, जीसस सूली पर लटकना चाहते थे। क्योंकि सूली पर लटकने से ही वह घटना घटेगी, जो लोगों के जीवन को रूपांतरित कर देगी। इसलिए जीसस से भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतीक ईसाइयत के लिए क्रास है। जीसस की मूर्ति नहीं लटकाते हृदय पर, क्रास लटकाते हैं। क्योंकि क्रास के कारण ही, सूली के कारण ही ईसाइयत का जन्म हुआ।

एक बहुत गहरा ईसाई संत हुआ, सोरेन कीर्कगार्ड। उसने तो क्रिश्चियनिटी को कहा है कि क्रिश्चियनिटी नहीं कहना चहिए, क्रासियानिटी कहना चाहिए। इसको ईसाइयत नहीं कहना चाहिए, यह तो सूली पर निर्भर है। इसलिए क्रास ज्यादा महत्वपूर्ण है क्राइस्ट की बजाय। क्राइस्ट तो बन ही सके क्राइस्ट, जिस दिन वे सूली पर लटके। इसलिए सूली पर लटका हुआ चित्र ही जीसस का, सबसे ज्यादा प्यारा हो गया है। यह एक ऐतिहासिक आयोजन था।

सुकरात की मनोदशा और भी भिन्न है। तुलना कभी करनी नहीं चाहिए। तुलना मैं कर भी नहीं रहा हूं। मैं सिर्फ उनकी व्यक्तिगत खूबी की बात कह रहा हूं कि किसलिए ऐसा हुआ। सुकरात से कहा गया था कि तू अगर प्रवचन देना बंद कर दे, बोलना बंद कर दे, तो हम तुझे मुक्त कर देते हैं। न्यायाधीशों ने कहा था कि तू अगर बोलना बंद कर दे तो हम तुझे मुक्त कर देते हैं।

लेकिन सुकरात ने कहा कि अगर मैं बोलना बंद कर दूं तो मेरे होने का प्रयोजन ही क्या है? मेरे होने का एक ही अर्थ है कि मैं सत्य को कहूं। मेरा होना अर्थात सत्य का कहना, ये दोनों एक ही बात हैं। तो तुम ऐसा मत करो। या तो तुम मुझे सत्य को बोलने दो, तो मुझे जीने दो, या फिर तुम मुझे सत्य बोलने से रोकते हो तो बेहतर है कि तुम मुझे मार ही डालो, तुम मुझे जहर दे ही दो। क्योंकि अगर तुम मुझे जहर दे देते हो, तो याद रखना मैं कभी न मरूंगा। और तुम्हारे जहर के कारण मैं सदा के लिए अमर हो जाऊंगा। और तुम्हें भी लोग अगर याद करेंगे तो सिर्फ इसीलिए तुम्हारा नाम याद रहेगा कि तुमने सुकरात को जहर दिया था। तुम्हारा पूछने वाला भी कोई और नहीं होगा। इसी कारण तुम्हारा नाम लिया जाएगा कि तुमने सुकरात को जहर दिया था। लेकिन एक बात सुकरात ने कहा कि साफ हो जानी चाहिए कि सत्य मुझे जीवन से भी ज्यादा प्रिय है। मेरे लिए मृत्यु का कोई मूल्य नहीं है, सत्य का मूल्य है। सत्य के लिए मैं मृत्यु स्वीकार कर सकता हूं।

और जो सत्य के लिए मृत्यु स्वीकार कर सकता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। जब तक तुम सत्य के लिए मृत्यु स्वीकार न कर सको, तब तक सत्य का कोई मूल्य नहीं है। सत्य जब परम साध्य है, जिसके लिए हम जीवन भी खो सकते हैं, तभी सत्य है।

तो सुकरात जो कह रहा था, उसको उसने आचरण में उतार दिया। सुकरात मर रहा है, जहर तैयार किया जा रहा है। वह जो जहर तैयार कर रहा है, वह धीरे— धीरे तैयार करता है, क्योंकि वह भी सुकरात को प्रेम करने लगा है। जेल में सुकरात था, वह आदमी ऐसा था कि उसके पास जो भी रहता, वह उसे प्रेम करने लगता। जेलर भी उसको प्रेम करने लगा। वह धीरे— धीरे पीस रहा है जहर को, ताकि जितनी देर सुकरात जी सके, उतना अच्छा है। जितनी देर पृथ्वी पर ऐसा फूल खिला रह जाए, उतना अच्छा है।

तो सुकरात उससे कहता है, लेकिन तू देर लगा रहा है, तू अपने कर्तव्य से स्तुत हो रहा है। मालूम होता है तू मेरे प्रति लगाव और आसक्ति से भर गया है। यह उचित नहीं है, तेरा जो काम है, तू पूरा कर। जल्दी जहर तैयार कर, छह बजने के करीब हो गए और ठीक छह बजे तुझे जहर ले आना है। तो वह जहर पीसने वाला कहता है, तुम कैसे पागल हो सुकरात! मैं थोड़ी देर लगा रहा हूं कि तुम थोड़ी देर और जी लो! और तुम्हें इतनी जल्दी क्या है?

तो सुकरात कहता है, जीवन तो मैंने जान लिया, मृत्यु को जानने का मन है। सुकरात है खोजी। ऐसा खोजी जमीन पर दूसरा नहीं हुआ। सुकरात कोई भक्त नहीं है। सुकरात है खोजी, अन्वेषक। वह कहता है कि मृत्यु के साथ आंखें मिलाने का मन है। मृत्यु को देखना चाहता हूं मृत्यु कैसी है? कोई कहता है, सुकरात तुम घबरा नहीं रहे हो? मौत करीब है, तुम घबरा नहीं रहे हो? तो सुकरात कहता है, कि मुझे पता नहीं कि मैं बचूंगा या नहीं, इसलिए घबराने का कोई कारण नहीं है। अगर मुझे पता हो कि मैं बचूंगा, तब भी घबराने का कोई कारण नहीं है; क्योंकि मैं बचूंगा। और अगर मुझे पता हो कि मैं बचूंगा नहीं, तब तो घबराने की कोई बात ही नहीं है, क्योंकि जो बचेगा ही नहीं, वह घबराएगा क्या? और मुझे कुछ पता नहीं, मैं अपनी मृत्यु में प्रवेश करूंगा और जानूंगा। सुकरात कहता है, जो मुझे पता नहीं, उसके संबंध में मैं कुछ भी न कहूंगा।

ज्ञान की ऐसी सहज खोज पक्षपात—रहित बडी मुश्किल है। मीरा का भाव है, जीसस का भाव है, सुकरात की खोज है। सुकरात कहता है, मुझे पता नहीं है। ध्यान रहे, आपको अगर भरोसा है कि आत्मा अमर है, तो निर्भय मरना आसान है। लेकिन सुकरात की निर्भयता अनूठी है। वह कहता है कि मुझे पता नहीं कि आत्मा अमर है, यह तो मैं मर कर ही जानूंगा। इसके पहले जाना कैसे जा सकता है! मैं तो गुजरूंगा अनुभव से और जानूंगा। अगर मर जाऊंगा, तब तो डर का कोई कारण ही नहीं है; क्योंकि मर ही गया, डरेगा कौन? दुखी कौन होगा? पीड़ित कौन होगा? अगर बचूंगा, तब भी डर का कोई कारण नहीं, क्योंकि बच ही गया। तो सुकरात कहता है, दोनों हालत में मृत्यु से डरना फिजूल है। अगर तुम आस्तिक हो, तो भी फिजूल है, क्योंकि तुम बचोगे। अगर तुम नास्तिक हो, तो भी फिजूल है, क्योंकि तुम बचोगे ही नहीं। तो किसके लिए चिंता? किसके लिए दुख?

फिर उसे जहर ले कर आया देने वाला, तो उसका हाथ कांप रहा है। सुकरात जैसे आदमी को जहर देने में हाथ कंपेगा ही। तो सुकरात कहता है कि हाथ कंपना नहीं चाहिए, तुम जो कर रहे हो, उसे निष्कंप करो। हाथ मत कंपाओ। क्योंकि जब मैं नहीं डर रहा हूं मरने से, तो तुम क्यों डर रहे हो? मेरी तरफ देखो! सुकरात का है, लेकिन अपने हाथ में जहर का प्याला लेता है, तो हाथ कंपता नहीं। वह जहर पी लेता है, वह लेट जाता है। उसके सारे शिष्य रो रहे हैं। तो वह कहता है, रोओ मत, क्योंकि अभी तो मैं जिंदा हूं। रोना तो तुम पीछे भी कर सकते हो, इतनी जल्दी क्या है? अभी तो यह मृत्यु मेरे ऊपर आ रही है, उसका तुम दर्शन कर लो, शायद इससे तुम्हें कुछ बोध हो।

और फिर सुकरात बोलता जाता है कि मेरे पैर ठंडे पड गए, लगता है पैर मर गए। फिर मेरी जांघें ठंडी हो गईं, लगता है मेरी जांघें मर गईं। वह कहता जाता है कि मृत्यु ऊपर की तरफ सरक रही है, लेकिन एक आश्चर्य है कि मेरा अपना होने का भाव पूरा का पूरा है। आधा शरीर जड़ हो गया है, लेकिन मेरे होने का भाव अब भी पूरा का पूरा है। उसमें से रत्ती भर नहीं कटा। मैं अब भी अपने भीतर अपने को उतना ही अनुभव करता हूं जितना पहले अनुभव करता था। फिर उसके हाथ भी ढीले पड़ गए। फिर वह कहता है, अब मेरे हृदय की धड़कन भी डूबती जाती है। फिर वह कहता है कि मेरे ओंठ शिथिल होते जा रहे हैं, शायद अब मैं इसके आगे न बोल सकूंगा। इसलिए आखिरी वचन मेरा याद रखना कि अभी तक मैं पूरा का पूरा जिंदा हूं। इसलिए लगता है कि जब पूरा शरीर भी……जब इतना शरीर मरने के करीब हो गया है और मैं पूरा का पूरा हूं तो शायद पूरे शरीर के मरने के बाद भी मैं नहीं मरूंगा। लेकिन यह भी अभी खोज है, अभी मैं कुछ कह नहीं सकता।

यह अलग तरह का व्यक्तित्व है। और इनको तौलना मत। इन्हें छोटा—बड़ा करने की कोशिश भी मत करना। वह क्षुद्र मन के लक्षण हैं। ये सब अलग शिखर हैं। हिमालय पर बहुत शिखर हैं, हर शिखर का अपना सौंदर्य है। मनुष्य चेतना में भी बहुत शिखर उठते हैं, हर शिखर का अपना सौंदर्य है। और अच्छा ही है कि एक से शिखर नहीं हैं, नहीं तो ऊब और बोरियत पैदा हो जाए। बहुत सी मीराए हों, तो कोई मतलब की नहीं रह जाएंगी। और बहुत प्रहलाद हों, गांव—गांव में हों, तो वह कूड़े— करकट की तरह हो जाएंगे। बहुत सुकरात चाहिए भी नहीं। और हर आदमी को खयाल रखना चाहिए कि वह स्वयं होने को पैदा हुआ है। और जिस दिन वह शिखर को छुएगा, तो उस जैसा आदमी न पहले कभी हुआ है, न फिर कभी होगा। वह अनूठी घटना है।

जगत मौलिक को प्रेम करता है। उधार, कार्बन—कापियां, उनका जगत में कोई मूल्य नहीं है।

एक और मित्र ने पूछा है कि कल नव—संन्यास अंतर्राष्ट्रीय की बैठक में वक्तव्य दिया गया कि हमारा भरोसा फ्री सेक्स, स्वतंत्र यौन में है। क्या आप इससे सहमत हैं?

मेरा भरोसा न तो स्वतंत्र यौन में है और न परतंत्र यौन में है। इस तरह के भरोसे की कोई जरूरत भी नहीं है। यौन निजी और व्यक्तिगत बात है, उसके संबंध में कोई भी दृष्टिकोण रखना ओछे मन का सबूत है। आप नहीं पूछते कि भोजन के संबंध में आपका क्या दृष्टिकोण है? स्नान के संबंध में आपका क्या दृष्टिकोण है? स्वतंत्र स्नान कि परतंत्र स्नान? पूछेंगे तो आप भी लगेंगे कि मूढ़ हैं। यौन के संबंध में क्यों पूछते हैं? निजी बात है। एकदम निजी है। किसी के दृष्टिकोण का कोई सवाल नहीं है। समाज है परतंत्र यौन में भरोसा रखने वाला, कि यौन के चारों तरफ से दीवाल खड़ी करो, कानून खड़े करो, पुलिस और अदालत खड़ी करो। यौन के संबंध में व्यक्ति को स्वयं का निर्णय मत लेने दो। इसके विपरीत, इसकी प्रतिक्रिया में, इसके रिएक्‍शन में कुछ लोग हैं। वे कहते हैं, स्वतंत्र यौन चाहिए, कोई बाधा न डाल सके। कोई किसी तरह का नियम न बना सके। स्वच्छंदता चाहिए। यह प्रतिक्रिया है दूसरी भी। और दूसरी अति पर ले जाती है।

मेरी अपनी दृष्टि यही है कि हमें यौन को स्वाभाविक मानना चाहिए। और उसके संबंध में कोई दृष्टि नहीं लेनी चाहिए। दृष्टि लेते ही सब चीजें अस्वाभाविक हो जाती हैं। एक—एक व्यक्ति की अपनी समझ, अपने जीवन का भाव—बोध मार्गदर्शक बनना चाहिए। और मैं छोटी—छोटी बातों में मार्गदर्शन नहीं देता। क्योंकि मेरी मान्यता ऐसी है कि अगर आपके पास बुद्धि हो, ध्यान हो, थोड़ी प्रज्ञा का विस्तार हो, तो अपनी छोटी—छोटी बातों के संबंध में आप खुद ही निर्णय ले सकेंगे। और अगर एक—एक बात के संबंध में आप मेरे निर्णय पर निर्भर हैं, तो उसका अर्थ हुआ कि आपको मैं अंधे की तरह हाथ पकड़ कर सहारा दे रहा हूं। मैं कब तक सहारा दे सकता हूं? कौन आपको सहारा दे सकता है?

एक अंधा आदमी मेरे पास आता है और वह पूछता है कि रास्ता बाएं की तरफ है कि दाएं की तरफ है? मैं स्टेशन की तरफ जाऊं, तो कहां मुडूं? और नदी की तरफ जाऊं तो कहां मुडूं? अगर मैं उसको यह सब विस्तार में मार्गदर्शन दूं तो भी वह अंधा ही रहेगा। और हो सकता है कि कुछ रास्तों पर मजबूती से चलना सीख जाए। लेकिन जगत में बहुत रास्ते हैं, और रास्ते रोज बदल जाते हैं। कभी नदी जाना है, कभी स्टेशन जाना है, और कभी इस गांव में और कभी किसी दूसरे गांव में। रोज परिस्थितियां बदलती हैं, रोज रास्ते बदलते हैं, रोज गांव बदल जाते हैं। तो मैं अंधे को कहूंगा कि तू रास्ते मुझसे मत पूछ, तू मुझसे आंख का इलाज पूछ। तेरी आंख ठीक हो जाए, तो तू कहीं भी होगा, रास्ता खोज लेगा।

ध्यान को मैं आंख कहता हूं आपके जीवन की।

मुझसे क्षुद्र बातों के संबंध में मत पूछें। मुझसे लोग पूछते हैं, क्या खाएं? क्या न पीए? ये सब व्यर्थ की बातें मुझसे मत पूछें। आपके पास देखने की खुद की आंख होनी चाहिए। वह आपको कहेगी कि क्या खाएं और क्या न खाएं। मेरे कहने से कुछ भी न होगा। अगर मैं कह भी दूं कि यह मत खाएं, यह मत पीए, तो भी अगर आप अंधे हैं और अंधेरे से भरे हैं और ध्यान की क्षमता नहीं है, तो आप तरकीबें निकाल लेंगे।

बुद्ध से लोगों ने पूछा कि हम मांसाहार करें या न करें? तो बुद्ध ने कहा कि हत्या करना, हिंसा करना बुरा है, तो तुम किसी पशु—पक्षी को मार कर मत खाना। तो पता है आपको, सारे बौद्ध मांस खाते हैं, लेकिन वे कहते हैं, हम मरे हुए का, अपने आप मरे हुए का खाते हैं! बुद्ध ने कहा, हिंसा पाप है, तुम मार कर कुछ मत खाना। उसमें से तरकीब निकाल ली कि जो गाय अपने आप ही मर गई, अब उसको तो खाने में कोई हर्ज नहीं। क्योंकि बुद्ध ने यह तो कहा नहीं कि अपने आप मरे हुए को मत खाना।

तो चीन और जापान में होटलों पर, जैसे हिंदुस्तान में लगा रहता है, यहां शुद्ध घी बिकता है। जहां लिखा है, उसका मतलब ही साफ है। घी काफी है, शुद्ध होने की क्या जरूरत है? लेकिन शुद्ध है तो साफ ही है कि शुद्ध नहीं है। जापान और चीन में तख्ती लगी रहती है कि यहां मरे हुए जानवर का मांस मिलता है, अपने आप मरे हुए! इतने जानवर कैसे अपने आप मरते हैं, यह बड़ा मुश्किल है। पूरा मुल्क मांसाहार करता है।

तरकीब है। तुम निकाल ही लोगे। तुम्हें जो करना है, तुम करोगे ही। क्योंकि तुम्हारा जो अंधेरा है, वहां से तुम्हारा करना निकलता है। उसमें बचने का कोई बहुत उपाय नहीं है।

जैन हैं। तो महावीर ने कहा है कि किन्हीं दिनों में, पर्व और धर्म के दिनों में, तुम हरी शाक—सब्जी, ताजी शाक—सब्जी मत खाना। तो जैनी सुखा कर रख लेते हैं पहले से, फिर सूखी शाक—सब्जी खा लेते हैं! और मजे की तो हद हो गई। एक घर में मैं मेहमान था। पर्यूषण के दिन थे। तो वे मुझे केला देने ले आए। तो मैंने कहा कि आप लोग केला खाते हैं पर्यूषण में? पर उन्होंने कहा, लेकिन यह तो हरा नहीं है, पीला है; हरियाली के लिए मनाई है!

तुम महावीर को भी धोखा दोगे। तुम धोखा दे ही सकते हो, तुम और कुछ कर सकते नहीं हो। तुम जैसे हो, वहां से तुम गलत को खोज ही लोगे, क्योंकि तुम गलत हो।

अगर मैं कहूं परतंत्र यौन के पक्ष में हूं तो तुम उसमें तरकीबें निकालोगे। अगर मैं कहूं स्वतंत्र यौन के पक्ष में हूं तुम तत्काल उसमें तरकीबें निकालोगे। लेकिन तरकीब तुम्हीं निकालोगे। तो मैं तुमसे नहीं कहता कि मैं किस पक्ष में हूं किस विपक्ष में हूं। मैं तो तुम्हारी आंख के पक्ष में हूं। तुम्हारी आंख खुलनी चाहिए, तुम्हारा बोध बढ़ना चाहिए। फिर तुम्हारा बोध ही निर्धारक होगा, कि तुम्हें जो करना हो, तुम करना। बोधपूर्वक करना, जो भी तुम करो। होशपूर्वक करना, विवेकपूर्वक करना, तुम जो भी करो। तो तुम्हारे जीवन में मार्ग खुलेगा।

मेरी बात को ठीक से समझ लेना। मैं किसी विस्तार में मार्ग—निर्देश देने के जरा भी पक्ष में नहीं हूं। क्योंकि सभी मार्ग—निर्देश अगर विस्तार में दिए जाएं तो परतंत्र करते हैं, क्योंकि फिर तुम उन्हें मान कर चलोगे। और जब भी कोई चीज परतंत्र करती है तो तुम उसमें से छूटने का उपाय भी निकालते हो। तो तुम छूटने का उपाय भी निकाल लोगे।

तो मैं तुम्हें न तो बांधता हूं और न तुम्हें छूटने का उपाय निकालने को मजबूर करता हूं। मैं तो तुम्हें तुम्हारी आंख देना चाहता हूं जो तुम्हारे रास्ते को साफ करेगी। फिर तुम्हें जैसा ठीक लगे, तुम चलना। अगर तुम गलत चलोगे तो तुम उसका फल भोगोगे। और अगर तुम ठीक चलोगे तो तुम उसका फल भोगोगे। अगर तुम्हें दुख में पड़ना है तो तुम गलत चलोगे। फिर मैं कौन हूं कि तुम्हें दुख में पड़ने से रोकूं। क्योंकि वह भी तुम्हारी स्वतंत्रता पर बाधा होगी। फिर अगर तुम ठीक चलोगे, तो तुम उसका आनंद भोगोगे। यह तुम्हारे ऊपर निर्णय है कि तुम्हें साफ—साफ दिखाई पड़ने लगे कि कार्य—कारण का संबंध क्या है। तुम्हें साफ—साफ दिखाई पड़ने लगे कि मैं क्या करता हूं उससे दुख मिलता है। और क्या करता हूं उससे आनंद मिलता है। फिर तुम्हारा मार्ग साफ है। आनंद की खोज तुम्हारी है। तुम अपनी आंख का उपयोग करके उस मार्ग पर चलते जाना। और सदा के लिए खयाल रखना कि क्षुद्र बातों में मुझसे कोई मार्ग—दर्शन मत मांगना। और अगर कोई गुरु तुम्हें क्षुद्र बातों में मार्ग—दर्शन देता है, तो वह गुरु ही नहीं है। वह सिर्फ तुम्हें बांध रहा है और गुलाम कर रहा है।

अब हम सूत्र को लें।

बारहवां सूत्र, ‘पूछो अपने ही अंतरतम, उस एक से, जीवन के परम रहस्य को, जो कि उसने तुम्हारे लिए युगों से छिपा रखा है। जीवात्मा की वासनाओं को जीत लेने का बड़ा और कठिन कार्य युगों का है। इसलिए उसके पुरस्कार को पाने की आशा तब तक मत करो, जब तक युगों के अनुभव एकत्रित न हो जाएं। जब इस बारहवें नियम को सीखने का समय आता है, तब मानव मानवेतर (अतिमानव) अवस्था की डचोढी पर पहुंच जाता है।’

‘जो ज्ञान अब तुम्हें प्राप्त हुआ है, वह इसी कारण तुम्हें मिला है कि तुम्हारी आत्मा सभी शुद्ध आत्माओं से एक है और उस परम तत्व से एक है। यह ज्ञान तुम्हारे पास उस सर्वोच्च की धरोहर है। इसमें यदि तुम विश्वासघात करो, या उस ज्ञान का दुरुपयोग करो, या उसकी अवहेलना करो, तो अब भी संभव है कि तुम जिस उच्च पद पर पहुंच चुके हो, उससे नीचे गिर पड़ो। बड़े पहुंचे हुए लोग भी अपने दायित्व का भार न सम्हाल सकने के कारण और आगे न बढ़ सकने के कारण डचोढी से गिर पड़ते हैं और पिछड़ जाते हैं। इसलिए इस क्षण के प्रति श्रद्धा और भय के साथ सजग रहो और युद्ध के लिए तैयार रहो।’

‘पूछो अपने ही अंतरतम, उस एक से, जीवन के परम रहस्य को, जो कि उसने तुम्हारे लिए युगों से छिपा रखा है।’

पूछो पृथ्वी से, पूछो वायु से, पूछो आकाश से, जल से—लेकिन वे तुमसे बाहर हैं और उन्होंने जो भी छिपा रखा है, वह तुमसे बाहर की घटना है। वे तुम्हें बुद्धों के संबंध में बता सकेंगे, तीर्थंकरों के संबंध में, क्राइस्टों, कृष्णों के संबंध में, लेकिन असली रहस्य तो तुम्हारे भीतर ही छिपा है।

तुम्हारा अंतरतम अनंत से यात्रा कर रहा है। अनंत उसके अनुभव हैं। तुम क्या नहीं रहे हो? तुम कभी पत्थर थे, कभी तुम पौधे थे, कभी तुम पक्षी थे, कभी तुम पशु थे, कभी तुम स्त्री थे, कभी तुम पुरुष थे, कभी तुम साधु थे और कभी तुम चोर थे। ऐसा कोई भी अनुभव नहीं है, जो तुम्हें नहीं हो चुका है। ऐसी कोई अवस्था नहीं है, जिससे तुम पार नहीं हुए हो। तुमने नर्क भी जाने हैं, तुमने स्वर्ग भी। तुमने दुख भी, तुमने सुख भी। तुमने पीड़ाओं का संताप झेला है और आत्महत्याएं की हैं। और तुमने विनाश भी किया है, हिंसाएं की हैं। तुमने सृजन का सुख भी जाना है। तुमने जन्म भी दिया है, तुमने निर्माण भी किया है, तुमने बनाया भी है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुमसे न गुजर गया हो, जिससे तुम न गुजर गए हो। तुम्हारे अंतरतम में वह धरोहर सुरक्षित है। तुमने जो भी जीया है, और जो भी जाना है, और जो भी किया है, उस सबका सार संचित है। उस सारे अनुभव का निचोड़ तुम्हारे गहन में छिपा है। इससे भी तुम पूछो, इसको भी तुम खोलो। इसके खुलते ही तुम्हें जीवन का सारा रहस्य खुल जाएगा। क्योंकि तुम जीवन को जीए हो, तुम स्वयं जीवन हो।

ऐसा कुछ भी नहीं है इस जगत में जो अपरिचित हो तुम्हें। लेकिन तुम भूल— भूल गए हो। और हर नए शरीर के साथ तुमने नया अहंकार निर्मित कर लिया है। और हर नए अहंकार के साथ तुम्हें विस्मृति हो गई है अतीत की। तुम्‍हें ख्‍याल नहीं रहा है कि पीछे क्‍या हुआ। इसलिए तुम अपनी ही धरोहर को भूलते चले गए हो। तुमने ही जो संचित किया है, उसका भी तुम उपयोग नहीं कर पाते हो। और इसलिए तुम बार—बार वही भूलें दोहराते हो, जिनको तुम बहुत बार कर चुके हो।

महावीर निरंतर अपने शिष्यों को जाति—स्मरण का आग्रह करते थे। वे कहते थे, पहले तुम पिछले जन्मों का स्मरण करो। उन्होंने इसे अपनी पद्धति का आधारभूत बना रखा था। वे कहते थे, जब तक तुम्हें याद न आ जाए पिछला जन्म, तब तक तुम वही भूलें दोहराओगे, जो तुम अभी दोहरा रहे हो। क्योंकि तुम भूल ही जाते हो कि तुम यह काम कर चुके हो।

तुमने बहुत बार धन इकट्ठा किया है, यह कोई पहला मौका नहीं है। और बहुत बार धन इकट्ठा करके तुम असफल हुए हो और फिर तुम वही कर रहे हो। तुमने बहुत बार मकान बनाए हैं और वे उजड़ गए हैं, और आज उनका कोई नामो—निशान नहीं है। लेकिन तुम फिर बड़े मकान बना रहे हो और फिर तुम सोच रहे हो कि ये मकान सदा रहेंगे, और जैसे कि तुम सदा इन मकानों में रहोगे! तुमने पहले भी स्त्रियों को और पुरुषों को प्रेम किया है, और सब प्रेम व्यर्थ गए हैं, और तुमने कुछ उपलब्ध नहीं किया है। लेकिन तुम फिर वही कर रहे हो और तुम सोच रहे हो जैसे जीवन की संपदा स्त्री—पुरुषों के संबंध से उपलब्ध हो जाएगी! तुमने पहले भी बच्चे पैदा किए हैं, तुमने पहले भी उन्हें बड़ी महत्वाकांक्षा से बड़ा किया था और वे सब व्यर्थ गए। उन्होंने तुम्हें कभी तृप्त नहीं किया है। क्योंकि जो स्वयं को तृप्त नहीं कर पाता, उसे कोई दूसरा कैसे तृप्त कर सकेगा? लेकिन तुम फिर—फिर वही कर रहे हो! तुम चक्के की तरह घूम रहे हो, जिसके आरे बार—बार नीचे जाते हैं और बार—बार ऊपर आ जाते हैं, और चाक घूमता चला जाता है। हर बार जब तुम्हारा कोई आरा ऊपर आता है, तो तुम सोचते हो कि कोई नई घटना घट रही है। लेकिन तुम अनंत बार उन घटनाओं से गुजर चुके हो।

तो महावीर कहते थे कि तुम पीछे लौट जाओ, थोड़ा स्मरण कर लो अपने पिछले जन्मों का। तो फिर तुम उन भूलों को दोबारा न दोहराओगे। तब तुम समझोगे कि तुम जो कर रहे हो, वह पुनरुक्ति है। पुनरुक्ति व्यर्थ है, उसका कोई अर्थ नहीं है।

लेकिन तुम्हारे भीतर सब छिपा है। सब छिपा है, कुछ भी खोता नहीं। जो भी तुम्हारे ज्ञान में एक बार आ गया है, वह तुम्हारा हिस्सा हो गया है। यह तो है ही, इससे भी बड़ी चीज तुम्हारे भीतर छिपी है, और वह है इस जगत का प्रारंभ। क्योंकि तुम प्रारंभ में साक्षी थे। यह सृष्टि जब शुरू हुई, तब तुम साक्षी थे, क्योंकि तुम कभी शुरू नहीं हुए। तुम उसका हिस्सा हो, जो कभी शुरू नहीं होता। सृष्टियां बनती हैं और विलीन हो जाती हैं। सृष्टियां आती हैं, समाप्त हो जाती हैं। लेकिन तुम उस चैतन्य के हिस्से हो, तुम उस चैतन्य की किरण हो, जो सृष्टि के बनने के क्षण में मौजूद होती है, जो सृष्टि को बनाती है कहना चाहिए। और जब सृष्टि विसर्जित होती है, तब भी साक्षी होता है। चैतन्य कभी नष्ट नहीं होता। उस परम—चैतन्य के तुम हिस्से हो। तुम्हें सृष्टि के जन्म का क्षण भी मालूम है क्योंकि तुमने ही इसे जन्म दिया है, तुम भागीदार थे। वह तुम्हारे गहरे अंतरतम में छिपी है घटना। तुम लोगों से पूछते फिरते हो कि जगत को किसने बनाया है? तुम्हें पता ही नहीं कि तुम भी भागीदार हो जगत को बनाने में।

लेकिन यह तो तुम भीतर प्रवेश करोगे, तो ही जान सकोगे। तुम्हारे भीतर जगत का अंत भी छिपा है। क्योंकि यह कथा तुमने ही लिखी है। इस कहानी के निर्माता तुम्हीं हो। इस सारी लीला के तुम भागीदार हो। यह परम गुह्य रहस्य भी तुम्हारे भीतर मौजूद है। तुम मृत्यु से भयभीत होते हो, क्योंकि तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे भीतर अमृत का केंद्र है। तुम डरते हो, कंपते हो क्षुद्र बातों से, जब कि कुछ भी तुम्हें कंपा नहीं सकता, कुछ भी तुम्हें डरा नहीं सकता, क्योंकि कुछ भी तुम्हें मिटा नहीं सकता। लेकिन वह तुम्हारे भीतर छिपा है।

यह सूत्र कहता है, ‘ पूछो अपने ही अंतरतम, उस एक से, जीवन के परम रहस्य को, जो कि उसने तुम्हारे लिए युगों से छिपा रखा है।’

अपने से ही पूछो।

महर्षि रमण अपनी साधना—पद्धति को इस एक सूत्र पर ही खड़ा किए थे। वे कहते थे कि एक ही साधना है कि पूछो, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? वे कहते थे, सारी शक्ति लगा कर, सारी प्राण—ऊर्जा को समर्पित करके, रोआं—रोआं, श्वास—श्वास एक ही सवाल भीतर पूछे, मैं कौन हूं? और पूछते ही चले जाओ और उत्तर मत देना, क्योंकि तुम्हारे दिए उत्तर सब झूठे होंगे। उत्तर को आने देना, तुम मत देना, क्योंकि तुम बहुत जल्दी उत्तर दे देते हो। तुम्हारे जल्दी में दिए गए उत्तर सब झूठे होते हैं, क्योंकि तुम्हारे उत्तर प्रश्न के पहले ही तुम्हें खयाल में हैं।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम पूछते हैं, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? फिर उत्तर आता है कि मैं आत्मा हूं मैं परमब्रह्म हूं।

इतनी जल्दी नहीं आता। यह किसी किताब में तुमने पढ़ा है, यह किसी शास्त्र से तुमने सीखा है। और यह तो तुम्हें पूछने के पहले ही पता है! बड़ा मजा यह है। फिर पूछने की जरूरत ही नहीं है। तुम पूछ क्यों रहे हो? किससे पूछ रहे हो? यह तुम्हें मालूम ही है कि मैं आत्मा हूं! पूछना क्या है अगर मालूम है!

नहीं, तुम्हारी स्मृति से दिए उत्तर काम के न होंगे। तुम्हारी खोपड़ी से आए उत्तर काम के न होंगे। तुम्हारे अंतरतम से उत्तर आएगा, वह बहुत भिन्न है। वह तुम्हें सुनाई पड़ेगा कि कोई और बोल रहा है, तुम नहीं। यह फर्क साफ होगा। पूछ रहे हो तुम, बोल रहा है कोई और। वह वाणी तुम्हारी नहीं होगी, वे शब्द तुम्हारे नहीं होंगे, वह ध्वनि तुम्हारी नहीं होगी। वह सब तरफ से अपरिचित होगा।

इसलिए तो फकीरों ने, सूफियों ने, भक्तों ने कहा है कि हमने पूछा और परमात्मा ने उत्तर दिया। कोई परमात्मा उत्तर नहीं दे रहा है। तुम्हारा अंतरतम ही उत्तर देता है, क्योंकि वहां तुम ही परमात्मा हो। लेकिन वाणी इतनी अपरिचित होती है, जो तुमने कभी नहीं सुनी। तुम्हारे शब्दों से उसका कोई मेल नहीं होता, तुम्हारे ओंठों से उसका कोई संबंध नहीं होता। तुम्हारे कंठ से वह आती ही नहीं है। तुम्हारी स्मृति, तुम्हारी बुद्धि से उसका कोई लेना—देना नहीं है। वह बहुत दूर से आती मालूम पड़ती है, बहुत पार से आती मालूम पड़ती है। इसलिए सबको लगा है कि किसी और ने उत्तर दिया है। कोई और उत्तर नहीं देता है। उत्तर तो तुम्हारी ही अंतर—आत्मा से आता है। लेकिन तुम्हारी आत्मा तुमसे इतनी दूर हो गई है, तुम इतने दूर हो गए हो उससे, तुम दूर हटते—हटते इतने फासले पर आ गए हो, कि अपना ही उत्तर, किसी और का उत्तर मालूम पड़ता है।

पूछना, मैं कौन हूं? लेकिन उत्तर मत देना। अपनी सारी शक्ति पूछने में लगाना, उत्तर के लिए जरा भी मत बचाना। क्योंकि तुम्हारे उत्तर का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारा उत्तर या तो पढ़ा हुआ होगा, या सुना हुआ होगा, ऋषियों—मुनियों से, शास्त्रों से, संस्कारों से आया हुआ होगा। वह तुम्हारे ऊपर बाहर से आई धूल है, उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम तो पूछना इस तरह कि तुम्हारे पास उत्तर ही न बचे।

तुम्हारे पूछने की प्रक्रिया में तुम्हारे सब उत्तर गिर जाएं और सिर्फ प्रश्न रह जाए। और जिस दिन तुम्हारे पास सिर्फ प्रश्न होगा, उस दिन तुम्हारा प्रश्न तीर की तरह भीतर जाने लगेगा। क्योंकि जब उत्तर रोकने के लिए न होंगे परिधि पर, तब तुम भीतर की तरफ यात्रा करोगे।

इसलिए परम—ज्ञान के पहले सभी ज्ञान छोड़ देना पड़ता है—ज्ञान जो तुमने सीखा है। इसलिए परम ज्ञान घटित हो सके, उसके पहले सभी शास्त्र नदी में बहा देने पड़ते हैं। सभी बोझ उतार कर रख देने पड़ते हैं, सभी सिद्धांतो से छुटकारा पा लेना पड़ता है। क्योंकि जो भी बाहर से आया है, वह तुम्हें भीतर नहीं ले जा सकता।

अगर तुम एक शुद्ध प्रश्न पूछने में समर्थ हो जाओ और तुम्हारा पूरा प्राण नियोजित हो जाए उस प्रश्न में, कि मैं कौन हूं? और उत्तर देने की कोई जल्दी न रहे, कोई भाव ही न रहे; बल्कि यह साफ रहे कि उत्तर मुझे पता ही नहीं, उत्तर मैं दूंगा कैसे! तो तुम एक दिन पाओगे कि तुम्हारा प्रश्न तुम्हें अंतरतम की तरफ ले चला। वह नाव बन गया और तुम भीतर की यात्रा पर निकल पड़े। एक घड़ी ऐसी आएगी कि पूछते—पूछते—पूछते एक दिन प्रश्न भी गिर जाएगा। क्योंकि जिस परिधि के उत्तर व्यर्थ हैं, उसका प्रश्न भी सार्थक नहीं हो सकता।

यह थोड़ा जटिल है। जिस परिधि के उत्तर व्यर्थ हैं, उसका प्रश्न भी क्या सार्थक होगा?

लेकिन पहले उत्तर गिरेंगे, पहले तुम्हारा ज्ञान गिरेगा और तुम अज्ञानी हो जाओगे। अज्ञान में प्रश्न बचेगा, उत्तर नहीं बचेंगे। फिर तुम्हारा अज्ञान भी गिरेगा, तुम्हारा प्रश्न भी गिर जाएगा। पूछते—पूछते एक घड़ी आती है, सब उत्तर गिर जाने के बाद, अचानक एक दिन प्रश्न भी तुम्हारे भीतर नहीं उठता। तुम बनाना भी चाहते हो प्रश्न, लेकिन नहीं बनता; तुम शून्य हो जाते हो। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछते—पूछते शून्यता फलित हो जाती है। उसी शून्य में पहली बार तुम्हारी अंतर—वाणी प्रकट होगी और तुम्हें उत्तर सुनाई पड़ेगा।

यह बड़ी उलटी बात हो गई। जब तक तुम पूछोगे, तब तक उत्तर नहीं मिलेगा। जब पूछना भी गिर जाएगा, तब उत्तर मिलेगा। लेकिन तुम यह मत कहना, तो फिर पूछने की जरूरत क्या है? अभी हम आंख बंद करके बैठ जाते हैं, उत्तर मिल जाए! अभी तो तुम कितना ही कहो कि मैं नहीं पूछ रहा हूं तुम पूछ ही रहे हो। अभी नहीं होगा। परिधि से हटने में प्रश्न सहयोगी हैं।

ठीक ऐसा ही जैसे एक कांटा गड़ जाए तो हम दूसरे कांटे से उसे निकाल लेते हैं। फिर दूसरे कांटे का आप क्या करते हैं? उसको घाव में रख लेते हैं पुराने? उसको भी फेंक देते हैं। अभी आपका मन बहुत से उत्तर से भर गया है, इसलिए रमण कहते हैं, पूछो। यह पूछने के कांटे से ज्ञान का कांटा निकाल बाहर करो। फिर दूसरे कांटे का क्या करोगे? बड़ा सहारा दिया उसने, ज्ञान से छुटकारा दिलाया, सम्हाल कर रखोगे? जब ज्ञान से छुटकारा ही हो गया, तो अज्ञान को क्या सम्हाल कर रखोगे? जो आदमी ज्ञान तक को छोड़ने में राजी हो गया, उसको अज्ञान पकड़ने का मोह होगा? जो उत्तर छोड़ सका, कि मैं आत्मा हूं — ब्रह्म हूं फला—ढिकां, अहं ब्रह्मास्मि; इस सब कचरे को जो फेंक सका, वह क्या इस प्रश्न को कि मैं कौन हूं इसको पकड़े रखेगा? एक घड़ी आएगी, वह इसको भी छोड़ देगा। दोनों कांटे हट जाएंगे।

ज्ञान भी कांटा है, अज्ञान भी कांटा है। और जब ज्ञान, अज्ञान दोनों नहीं होते, तो परम—ज्ञान उपलब्ध होता है, तो प्रज्ञा प्रस्कुटित होती है। तब तुम जानोगे कि मैं ब्रह्म हूं। लेकिन तब तुम जानोगे, अनुभव करोगे; यह तुम्हारी प्रतीति होगी, यह तुम्हारा साक्षात्कार होगा। यह साक्षात्कार तुम्हारा निज का होगा। अब तुम यह किसी से सुन कर नहीं कह रहे हो। अब यह तुम अपने ही अनुभव से कह रहे हो। अब दुनिया की सारी ताकत भी तुमसे इस अनुभव को नहीं छीन सकती।

वह जो पहला तुम्हारा ज्ञान था कि मैं ब्रह्म हूं वह तो कोई छोटा बच्चा भी सवाल उठाता, तो तुम्हें दिक्कत में डाल देता। वह तो यह कह सकता था, अच्छा तो तुम ब्रह्म हो, तो यह पत्थर का टुकड़ा है, इसको तुम समाप्त कर दो! बस तुम मुश्किल में पड़ जाते, तुम्हारा ज्ञान झंझट में आ जाता। वह कह देता है कि अभी मौसम नहीं है फूल का, इस वृक्ष पर फूल ला दो— ब्रह्म हो।

एक जैन मुनि हैं, मेरे पास आते हैं। उनकी बेचारों की एक ही तकलीफ है। उनको यह खयाल है कि उनको परम—ज्ञान हो चुका है, कैवल्य की उपलब्धि हो गई है। लेकिन एक झंझट है। क्योंकि जैन— शास्त्रों में कहा गया है कि जिसको कैवल्य—ज्ञान होता है, वह त्रिकालज्ञ हो जाता है, उसको तीनों काल का ज्ञान हो जाता है। तो उनबूढ़ो कोई भी दिक्कत में डाल देता है। वह कहते हैं कि मुझे कैवल्य— ज्ञान हो गया। तो वे कहते हैं कि तीनों काल का ज्ञान? तो वह मेरे पास आते हैं कि यह एक बड़ी झंझट है। क्या कैवल्य—ज्ञान में तीनों कालों का ज्ञान बिलकुल जरूरी है? क्या बिना त्रिकालज्ञ हुए कोई कैवल्य—ज्ञानी नहीं हो सकता? मैं कैवल्य—ज्ञानी तो हो गया हूं लेकिन लोग मुझे दिक्कत में डाल देते हैं। वे कहते हैं कि अच्छा कैवल्य—ज्ञानी, तो हमारी मुट्ठी बंद है, उसके भीतर क्या है? इसमें मैं झंझट में पड़ जाता हूं। तो आप कुछ ऐसा समझाइए कि कैवल्य—ज्ञान हो सकता है, त्रिकालज्ञ होने की कोई जरूरत नहीं।

अब यह शास्त्र में पढ़ कर उनको कैवल्य—ज्ञान हो गया है! और उसी शास्त्र में पढ़ कर हुआ है, जिसमें त्रिकालज्ञ होना भी लिखा है। अब वह उसको झुठला भी नहीं सकते। तो मैं उनको कहता हूं कि तुम बेहतर हो कि अपने को अज्ञानी समझो। अभी जल्दी मत करो यह कैवल्य—ज्ञान की। क्योंकि जिस दिन तुम्हें कैवल्य—ज्ञान होगा, उस दिन तुम मुझसे गवाही लेने नहीं आओगे, मुझसे सर्टिफिकेट लेने नहीं आओगे, कि लिख दें आप कि इनको कैवल्य—ज्ञान हो गया है और त्रिकालज्ञ होने की कोई जरूरत नहीं है। यह तो तुम्हें कैवल्य—ज्ञान होगा, जब यह तुम्हारी प्रतीति होगी, तो ये सब बातें नहीं रह जाएंगी। अगर तुमको कैवल्य—ज्ञान हो जाएगा बिना त्रिकालज्ञ हुए, तो तुम कहोगे कि ठीक है, त्रिकालज्ञ मैं नहीं हूं मुझे कैवल्य—ज्ञान हो गया है। लेकिन दूसरे को कहने की जरूरत क्या है? दूसरे को राजी करने की जरूरत क्या है? उसको राजी करना चाहोगे तो वह भी सवाल उठाएगा, वह भी तर्क उठाएगा। फिर उनके जवाब भी देने पड़ेंगे, फिर मुश्किलें खड़ी होती हैं।

अक्सर जिनके दिमाग थोड़े खराब हैं, उनको कैवल्य—ज्ञान, ब्रह्म—ज्ञान बडे जल्दी हो जाते हैं। देर ही नहीं लगती। वह सिर्फ पागलपन के लक्षण हैं, उनका इलाज होना चाहिए। उनको मानसिक चिकित्सालय में रखे जाने की जरूरत है। उनको जो वहम हो रहा है, वह सिर्फ अहंकार की वजह से हो रहा है।

यह सूत्र कहता है, ‘जीवात्मा की वासनाओं को जीत लेने का बड़ा और कठिन कार्य युगों का है।’ यह कोई एक क्षण में नहीं हो जाता। अभी मेरे पास अनेक लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं कि हमारी कुंडलिनी जग गई है! कोई देवी ने हाथ लगा दिया और कुंडलिनी जग गई! और क्या हुआ? वे कहते हैं, और कुछ नहीं हुआ, बाकी सब वैसा का वैसा है। अभी एक देवी हैं बंबई में, वे दस—पच्चीस लोग, जितने उनके पास जाते हैं, सभी एनलाइटेंड हो गए! पच्चीस के करीब आदमियों को बुद्ध बना दिया उन्होंने, एकदम! और वे जो बुद्ध बन गए हैं, उनसे पूछो कि और क्या हुआ? वे कहते हैं, और कुछ नहीं हुआ, बस बुद्ध बन गए! क्योंकि उन्होंने कहा है कि तुम्हें परम—ज्ञान हो गया है।

आदमी सस्ते के लिए इतना उत्सुक है और कोई कह दे, इसकी कोशिश में रहता है कि तुम्हें यह हो गया, वह हो गया! वह मान लेता है, वह मानना ही चाहता है। जीवन इतना सस्ता नहीं है। वहां युगों की तपश्चर्या है, युगों का श्रम है, युगों की भटकन है, तभी कुछ थोड़ा—बहुत हाथ में आता है। वह भी थोड़ा—बहुत।

यह सूत्र कहता है कि सब कुछ कर लेने के बाद भी, डचोढ़ी पर पहुंचा हुआ आदमी, परमात्मा के दरवाजे पर पहुंचा हुआ आदमी भी, वापस गिर सकता है।

थोड़ी सी भूल, और दरवाजा जो सामने था, युगों के लिए खो सकता है। और जितने हम करीब पहुंचते हैं, उतनी ही भूल खतरनाक होने लगती है। क्योंकि जब आप मंजिल से बहुत दूर हैं, तो भटकाव का ज्यादा डर नहीं रहता। क्योंकि आप इतने दूर हैं कि भटकेंगे भी तो क्या होगा? दूर ज्यादा और क्या होंगे इससे, जितने दूर हैं? जितने करीब पहुंचते हैं मंजिल के, उतना एक—एक कदम मुश्किल का हो जाता है। क्योंकि अब एक कदम भी भटके, तो मंजिल चूक सकती है। महंगा सौदा हो गया। दायित्व बढ़ जाता है। बोध ज्यादा चाहिए। जितने निकट पहुंचते हैं, उतनी ज्यादा कठिनाई हो जाती है। लेकिन लोग बिना चले ही पहुंच जाते हैं! कोई उनको वहम दिला दे, बस वे राजी हो जाते हैं!

अमरीका में एक सज्जन हैं। उनके शिष्य का एक पत्र मेरे पास आया कि अनेक लोगों ने उनको कह दिया कि वे सिद्ध हो गए हैं, और हिंदुस्तान से भी दो—तीन ज्ञानियों ने उनको लिख कर सर्टिफिकेट भेज दिया है कि वे सिद्ध— अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, बस आपके सर्टिफिकेट की और जरूरत है। क्या पागलपन है! और जिन्होंने लिख कर भेजा है, उन तक ने सिद्ध कर दिया है कि वे भी अभी सिद्ध नहीं हैं। कोई सर्टिफिकेट का मामला है? किसी से पूछने की जरूरत है? कोई निर्णय देगा कि तुम पहुंच गए हो? और पहुंच कर भी तुम दूसरे के निर्णय की प्रतीक्षा करोगे?

लेकिन आदमी बिना कुछ किए कुछ हो जाना चाहता है! और धर्म में जितनी आसानी है बिना कुछ किए हो जाने की, उतनी और कहीं भी नहीं है। क्योंकि कहीं भी कुछ करना ही पड़ेगा, तभी कुछ हो पाएंगे। धर्म में तो ऐसा है कि आप हो ही सकते हैं, कोई अड़चन नहीं है, कोई कसौटी नहीं है, कोई बाधा नहीं डाल सकता।

ध्यान रखना इसका, कि जैसे—जैसे ध्यान गहरा होगा, समाधि करीब आएगी, वैसे—वैसे उत्तरदायित्व बढ़ रहा है। खतरा भी बढ़ रहा है। क्योंकि पहले तो कुछ भी भूल होती, तो कुछ खास फर्क न पड़ता था। भटके इतने थे कि अब और क्या भटकना था? दूर इतने थे कि और दूरी क्या होगी? लेकिन अब तो इंच भर की भूल, और हजारों कोस का फासला हो सकता है। अब तो जरा सा दिशा का परिवर्तन और भटकाव हो सकता है। निकट पहुंच कर बहुत लोग भटकते हैं और गिर जाते हैं। और निकट पहुंच कर अगर अहंकार की जरा सी भी रेखा रह गई, तो वह अहंकार भटका देता है। वह समाधि के पहले ही घोषणा कर देता है कि समाधि हो गई, ध्यान के पहले ही घोषणा कर देता है कि ध्यान हो गया। और जब हो ही गया तो यात्रा उसी क्षण रुक जाती है।

‘जो ज्ञान अब तुम्हें प्राप्त हुआ है, वह इसी कारण तुम्हें मिला है कि तुम्हारी आत्मा सभी शुद्ध आत्माओं से एक हो गई है और उस परम—तत्व से एक हो गई है। यह ज्ञान तुम्हारे पास उस सर्वोच्च (परमात्मा) की धरोहर है। इसमें यदि तुम विश्वासघात करो, उस ज्ञान का दुरुपयोग करो, या उसकी अवहेलना करो, तो अब भी संभव है कि तुम जिस उच्च पद पर पहुंच चुके हो, उससे नीचे गिर पड़ो।’

यह मैं रोज देखता हूं कि जैसे—जैसे लोग करीब पहुंचते हैं, वैसे—वैसे अहंकार आखिरी बल मारता है। कल धन का अहंकार था, पद का अहंकार था, फिर वह ध्यान का अहंकार हो जाता है। कि मैं ध्यानी हो गया! जैसे ही यह अहंकार बल मारता है, वैसे ही तुम विश्वासघात कर रहे हो, वैसे ही तुम दुरुपयोग कर रहे हो, वैसे ही तुम अवहेलना कर रहे हो। और यह संभव है कि तुम वापस फेंक दिए जाओ।

‘बडे पहुंचे हुए लोग भी अपने दायित्व का भार न सम्हाल सकने के कारण और आगे न बढ़ सकने के कारण डचोढ़ी से गिर पड़ते हैं और पिछड़ जाते हैं। इसलिए इस क्षण के प्रति श्रद्धा और भय के साथ सजग रहो और युद्ध के लिए तैयार रहो।’

श्रद्धा और भय के साथ सजग—इसको थोड़ा समझ लेना चाहिए। क्या अर्थ हुआ? श्रद्धा और भय को एक साथ क्यों रखा? श्रद्धा और भय तो बड़े विपरीत मालूम पड़ते हैं। क्योंकि श्रद्धावान को कैसा भय? और भयभीत को कैसी श्रद्धा? लेकिन प्रयोजन इनका महत्वपूर्ण है। और दोनों का तालमेल बिठाने की बात नहीं है, दो अलग आयाम में दोनों की उपस्थिति है।

श्रद्धा भविष्य के प्रति और भय पीछे गिर जाने के प्रति। श्रद्धा आगे बढ़ने के लिए और भय कि कहीं पीछे न गिर जाऊं। दोनों का आयाम अलग है, दोनों साथ—साथ नहीं हैं। भय इस बात का सदा रखना कि मैं पीछे अभी भी गिर सकता हूं। भय रहेगा तो तुम सजग रहोगे। अभी भी गिर सकता हूं। अहंकार का स्वर जहां भी सुनाई पड़े, भयभीत हो जाना। अभी तुम पीछे खींचे जा सकते हो, अभी सेतु बिलकुल नहीं मिट गया, अभी रास्ता बना हुआ है पीछे जाने का। अभी तुम रास्ते को पकड़ सकते हो।

और श्रद्धा भविष्य के प्रति। भविष्य के प्रति पूरा भरोसा। और अतीत के प्रति भय, जरा भी भरोसा नहीं। अगर ये दो बातें तुम्हारे खयाल में रहें कि अभी और बहुत कुछ होने को है, सब नहीं हो गया है, भविष्य के प्रति यह बोध। और अतीत मिट गया है, लेकिन बिलकुल नहीं मिट गया है, अभी लौटना संभव हो सकता है। रास्ते कायम हैं। और जरा सी भूल और तुम बहुत पीछे लौट जा सकते हो।

चढ़ना बहुत कठिन है, उतरना कठिन नहीं है। एक क्षण में तुम न मालूम कितना उतर जा सकते हो, गिर जा सकते हो। उठने में युगों लग जाते हैं। यह भय है। और भविष्य के प्रति परिपूर्ण आस्था, आशा। ये दो बातें खयाल में रहें।

 

आज इतना ही।


Filed under: साधना--सूत्र--(मैबलकॉलिन्‍स) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–32

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समर्पण का मार्ग: तंत्र—(प्रवचन—बत्‍तीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—ये विधियां तंत्र की केंद्रीय विषय—वस्‍तु है

            या योग की?

      2—संभोग को ध्‍यान कैसे बनाएं? क्‍या किसी

            विशेष आसन का अभ्‍यास जरूरी है?

      3—अनाहत नाद कोई ध्‍वनि है या निर्ध्‍वनि?

पहला प्रश्न :

 

कृपया समझाएं कि विज्ञान भैरव तंत्र की जिन विधियों की चर्चा आपने अब तक की है वे क्‍या तंत्र की वास्‍तविक विषय—वस्‍तु न होकर योग—विज्ञान की विधियां है। और तंत्र की केंद्रीय विषय—वस्‍तु क्‍या है?

ह प्रश्न अनेक लोगों को उठता है। हमने जिन विधियों की चर्चा की है वे योग में भी हैं। विधियां वही हैं, लेकिन एक फर्क के साथ। एक ही विधि का प्रयोग सर्वथा भिन्न दर्शन की पृष्ठभूमि में किया जा सकता है। विधियां वही होंगी सिर्फ पृष्ठभूमि भिन्न होगी, ढांचा भिन्न होगा। जीवन के प्रति तुम्हारी दृष्टि भिन्न हो सकती है, तंत्र की दृष्टि से सर्वथा भिन्न हो सकती है।

योग संघर्ष में विश्वास करता है, योग बुनियादी रूप से संकल्प का मार्ग है। तंत्र संघर्ष में विश्वास नहीं करता, तंत्र संकल्प का मार्ग नहीं है। बल्कि इसके विपरीत, तंत्र समग्र समर्पण का मार्ग है। तंत्र में तुम्हारे संकल्प की जरूरत नहीं है। तंत्र के लिए तो संकल्प ही समस्या है संकल्प ही मनुष्य के सारे संताप का स्रोत है। और योग के लिए तुम्हारा समर्पण, तुम्हारी संकल्प—हीनता समस्या है।

योग की समझ है कि तुम दुख में हो, क्योंकि तुम्हारा संकल्प निर्बल है। और तंत्र की समझ है कि तुम अपने अहंकार के कारण दुख में हो; तुम दुख में हो, क्योंकि तुम्हारा अपना व्यक्तित्व है। योग कहता है कि तुम अपने संकल्प को उसकी पूर्णता पर ले आओ और तुम मुक्त हो जाओगे। और तंत्र कहता है कि अपने संकल्प को पूरी तरह विसर्जित कर दो, उससे समग्रत: रिक्त हो जाओ और वह रिक्तता ही तुम्हारी मुक्ति बन जाएगी।

और योग और तंत्र दोनों सही हैं। और इससे ही प्रश्न उठता है। मेरे देखे दोनों सही हैं। लेकिन योग का मार्ग बहुत कठिन है। यह असंभव है, करीब—करीब असंभव है कि तुम अहंकार की पूर्णता को उपलब्ध हो जाओ। उसका मतलब है कि तुम पूरे अस्तित्व का केंद्र बन गए। यह लंबा और कठिन मार्ग है। सच तो यह है कि योग कभी अंतिम मंजिल तक नहीं पहुंचता है। तो फिर योग के अनुयायियों का क्या होता है? योग के अनुयायी साधना के पथ पर चलते हुए कहीं न कहीं, किसी न किसी जन्म में तंत्र की तरफ मुड़ जाते हैं।

बौद्धिक तल पर सोचने से तो योग संभव मालूम पड़ता है, लेकिन अस्तित्वगत रूप से वह असंभव है। वैसे वह संभव है, तुम योग से भी पहुंच जाओगे। लेकिन सामान्यत: कभी ऐसा होता नहीं है। और यदि होता भी है तो यदा—कदा ही। उदाहरण के लिए महावीर का नाम लिया जा सकता है। सदियों—सदियों में कभी महावीर जैसे पुरूष होता है, जो योग से भी पहुंच जाता है। लेकिन महावीर दुर्लभ हैं, अपवाद हैं, वे नियम तोड़कर पहुंचते हैं। लेकिन योग तंत्र से ज्यादा आकर्षक है। तंत्र सरल है, स्वाभाविक है और तंत्र से बहुत आसानी से पहुंचा जा सकता है, बहुत सहजता से, अनायास पहुंचा जा सकता है। और यही कारण है कि तंत्र तुम्हें कभी उतना आकर्षक नहीं लगता है। क्यों?

जो भी चीज तुम्हें भाती है वह दरअसल तुम्हारे अहंकार को भाती है। जिस चीज से भी तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे अहंकार की तृप्ति होगी वह चीज तुम्हें ज्यादा भाएगी। तुम अहंकार के चंगुल में हो, इससे ही तुम्हें योग बहुत प्रभावित करता है। सच तो यह है कि तुम्हारा अहंकार जितना बड़ा होगा, योग तुम्हें उतना ही अधिक प्रभावित करेगा। योग शुद्ध अहंकार का प्रयास है। जो चीज जितनी असंभव होगी वह अहंकार को उतनी ही आकर्षित करेगी।

यही कारण है कि एवरेस्ट में इतना आकर्षण है। हिमालय के इस शिखर पर पहुंचने का आकर्षण इसीलिए है क्योंकि वह बहुत कठिन है। जब हिलेरी और तेनसिह एवरेस्ट पर पहुंचे तो उनके आह्लाद का हिसाब नहीं था। वह क्या था? उनका अहंकार तृप्त हो गया, क्योंकि वे पहुंचने वाले पहले लोग थे।

जब पहले आदमी ने चंद्रमा पर पैर रखा तो क्या तुम सोच सकते हो कि उसे कैसा लगा होगा? वह पूरे इतिहास में पहला आदमी था जो चांद पर उतरा। और अब उसका यह स्थान उससे नहीं छीना जा सकता, वह सदा के लिए इतिहास का प्रथम व्यक्ति बन गया। भावी इतिहास में भी उसका यह पद अटल बना रहेगा। अहंकार को इससे बड़ी परितृप्ति और क्या हो सकती है? अब उसका कोई प्रतिस्पर्धी न रहा, न हो सकता है। अनेक लोग चांद पर पहुंचेंगे, लेकिन वे प्रथम न होंगे।

अनेक लोग चांद पर जाएंगे, अनेक लोग एवरेस्ट पर जाएंगे—लेकिन योग और भी ऊंचा शिखर प्रदान करता है। और मंजिल जितनी अगम्य हो, अहंकार की उतनी ही पुष्टि होती है, अहंकार शुद्ध और पूर्ण होता है। नीत्शे को योग बहुत पसंद पड़ता, क्योंकि वह समझता था कि जीवन के पीछे जो ऊर्जा काम कर रही है वह संकल्प की ऊर्जा है—विल टु पावर। योग तुम्हें वही भाव देता है, उससे तुम ज्यादा शक्तिशाली होते हो। तुम अपने पर जितना नियंत्रण कर पाते हो, अपनी वृत्तियों पर, शरीर और मन पर जितना अधिकार प्राप्त करते हो, तुम उतने ही अधिक शक्तिशाली हो जाते हो। तुम उतने ही अपने भीतर मालिक हो जाते हो।

लेकिन यह उपलब्धि द्वंद्व के मार्ग से आती है, संघर्ष और हिंसा के रास्ते से आती है। और लगभग यह सदा होता है कि जो व्यक्ति योग के मार्ग से अनेक जन्मों तक साधना करता है वह एक क्षण ऐसे बिंदु पर पहुंचता है जहां उसे पूरी यात्रा मरुस्थल जैसी सूखी और व्यर्थ प्रतीत होती है। क्योंकि जितना ही अहंकार परितृप्त होता है उतना ही तुम्हें लगता है कि सब व्यर्थ है। और तब योग—पथ का पथिक तंत्र की तरफ मुड़ता है।

लेकिन योग का प्रभाव है, क्योंकि लोग अहंकारी हैं। आरंभ में तंत्र कभी किसी को आकर्षित नहीं करता है। तंत्र सदा ऊंचे साधकों को आकर्षित करता है, जिन्होंने जन्मों—जन्मों तक योग के द्वारा साधना की है, संघर्ष किया है। तब वे तंत्र की ओर मुंह करते हैं, क्योंकि तब वे उसे समझ सकते हैं। सामान्यत: तंत्र तुम्हें नहीं भाएगा और भाएगा भी तो गलत कारणों से समर्पण का भाएगा। उन गलत कारणों को भी समझना जरूरी है।

शुरू—शुरू में तंत्र तुम्‍हें प्रीतिकर नहीं लगेगा, क्‍योंकि तंत्र तुमसे संघर्ष नहीं, समर्पण की मांग करता है। तंत्र कहता है. नदी में बहो, तैसे मत। वह कहता है : धारा के साथ चलो, उलटी दिशा में जाने का प्रयत्न मत करो। तंत्र कहता है कि स्वभाव शुभ है, स्वभाव पर भरोसा करो, उससे लडो मत। तंत्र कहता है कि कामवासना भी शुभ है, उसका भरोसा करो, उसका अनुगमन करो, उसके साथ बहो, उससे लड़ो मत। तंत्र की केंद्रीय शिक्षा असंघर्ष है। बहो, जो होता है उसे होने दो।

यह प्रभावी नहीं हो सकता, इससे तुम्हारे अहंकार की पूर्ति नहीं होती है। आरंभ में ही तंत्र तुम्हारे अहंकार की आहुति चाहता है, वह कहता है कि अहंकार को विसर्जित करो। योग भी अहंकार का विसर्जन चाहता है, लेकिन अंत में। वह पहले अहंकार को शुद्ध करने को कहता है। और अहंकार अगर पूरी तरह शुद्ध हो जाए तो वह विसर्जित हो जाता है। लेकिन वह योग का अंतिम चरण है। तंत्र में वही प्रथम है। लेकिन तंत्र आमतौर से प्रभावी नहीं होता है। और अगर वह प्रभावी भी होता है तो गलत कारणों से।

उदाहरण के लिए, अगर तुम काम या सेक्स का मजा लेना चाहते हो तो तुम तंत्र के नाम पर उसे तर्कसंगत बना सकते हो। तंत्र इस अर्थ में आकर्षक हो सकता है। अगर तुम नशे में, संभोग में, वैसी किसी भी चीज में उतरना चाहते हो तो तंत्र तुम्हें आकर्षक मालूम पड़ेगा। लेकिन तब तुम वस्तुत: तंत्र में उत्सुक नहीं हो, तंत्र तुम्हारे लिए बस मुखौटा है, बहाना है। तुम्हारा आकर्षण किसी और चीज में है और तुम सोचते हो कि तंत्र तुम्हें उसकी इजाजत देता है। इसलिए तंत्र सदा गलत कारणों से प्रभावी होता है।

तंत्र तुम्हें तुम्हारे भोग में सहारा देने के लिए नहीं है, वह तुम्हें रूपांतरित करने के लिए है। अपने को धोखा मत दो। तंत्र के द्वारा तुम अपने को आसानी से धोखा दे सकते हो। और आत्मवचना की इसी संभावना के कारण महावीर तंत्र की बात नहीं करते। यह संभावना, यह खतरा सदा है। आदमी इतना आत्मवचक है कि वह कहेगा कुछ और करेगा कुछ और ही। वह आत्मवचना को भी तर्कसंगत बना सकता है।

उदाहरण के लिए, पुराने चीन में तंत्र जैसा ही एक गुह्य वितान था, जिसे ताओ कहते हैं। ताओ तंत्र से मिलता—जुलता है। उदाहरण के लिए, ताओ कहता है कि अगर तुम कामवासना से मुक्त होना चाहते हो तो अच्छा है कि तुम एक ही व्यक्ति से, एक पुरुष या एक स्त्री से मत चिपके रहो। अगर तुम काम से मुक्ति चाहते हो तो एक ही व्यक्ति के साथ मत रहो, अपने साथी सदा बदलते रहो।

यह बिलकुल सही है। लेकिन तुम इसकी आडू लेकर अपने को धोखा दे सकते हो। हो सकता है कि तुम मात्र काम—विक्षिप्त हो, तुम पर वासना का भूत सवार हो और तुम तर्क कर सकते हो कि मैं तंत्र—साधना कर रहा हूं इसलिए मुझे एक ही स्त्री से नहीं चिपके रहना है, अनेक का साथ चाहिए। चीन में अनेक सम्राट इस साधना की आड़ में बडे—बडे हरम और जनान खाने रखते थे।

लेकिन अगर तुम मनुष्य के मनोविज्ञान को गहराई में देखोगे तो तुम्हें ताओ की अर्थवत्ता समझ में आ जाएगी। इसमें अर्थ है। अगर तुम एक ही स्त्री से संबंधित रहते हो तो देर—अबेर उस स्‍त्री के लिए तुम्‍हारा आकर्षण क्षीण हो जाएगा, लेकिन स्‍त्रियों के प्रति तुम्हारा आकर्षण बना रहेगा। विपरीत यौन के लिए तुम्हारा खिंचाव कायम रहेगा। यह स्त्री, जो तुम्हारी पत्नी है, तुम्हारे लिए विपरीत यौन की नहीं रह जाएगी, वह तुम्हें आकर्षित नहीं करेगी, मोहित नहीं करेगी। तुम उसके आदी हो जाओगे।

ताओ कहता है कि अगर कोई पुरुष अनेक स्त्रियों का सहवास करे तो वह एक ही स्त्री से नहीं, स्त्री मात्र से ही मुक्त हो जाएगा, उसका अतिक्रमण कर जाएगा। अनेक स्त्रियों का शान उसे अतिक्रमण करने में सहयोगी होगा। और यह ठीक है, लेकिन खतरनाक भी है। खतरनाक इसलिए है कि तुम इसे सही होने के कारण नहीं, बल्कि इसलिए पसंद करोगे क्योंकि यह तुम्हें उच्छृंखल होने की अनुमति देता है।

तंत्र के साथ यही समस्या है। इसीलिए चीन में उस विद्या को दबा दिया गया, दमन जरूरी हो गया। भारत में भी तंत्र को दबाया गया, क्योंकि वह बहुत खतरनाक बातें कहता था। वे बातें खतरनाक इसलिए थीं क्योंकि तुम बड़े धोखेबाज हो। अन्यथा वे अदभुत हैं। तंत्र से ज्यादा अदभुत और रहस्यपूर्ण घटना मनुष्य की चेतना में दूसरी नहीं घटी है। अन्य कोई विद्या इतनी गहरी नहीं गई है।

लेकिन ज्ञान के खतरे हैं, सदा से हैं। उदाहरण के लिए, अब विज्ञान खतरा बन रहा है, क्योंकि उसे अनेक गहरे रहस्यों का पता चल गया है। अब उसे मालूम है कि परमाणु—ऊर्जा का सृजन कैसे किया जाता है। आइंस्टीन ने कहा है कि अगर मुझे फिर से जीवन मिले तो मैं वैज्ञानिक होने की बजाय प्लंबर होना पसंद करूंगा। क्योंकि उसने कहा कि जब मैं पीछे लौटकर देखता हूं तो मुझे अपना पूरा जीवन व्यर्थ मालूम पड़ता है। व्यर्थ ही नहीं, मनुष्यता के लिए खतरनाक मालूम पड़ता है। और आइंस्टीन ने मनुष्य को एक गहनतम रहस्य का पता दिया है। लेकिन ऐसे मनुष्य को जो आत्म—वंचक है।

मुझे लगता है कि वह दिन शीघ्र आने वाला है जब हमें विज्ञान को भी दबा देना पड़े। खबर है कि वैज्ञानिकों के बीच गुप्त विचार—विमर्श चल रहा है कि दुनिया को और अधिक जानकारी न दी जाए। वे विचार कर रहे हैं कि वैज्ञानिक शोध को और आगे बढ़ाए या नहीं, क्योंकि अब वह खतरनाक होती जा रही है।

सब ज्ञान खतरनाक है, केवल अज्ञान निरापद है। अज्ञान को लेकर तुम बहुत कुछ नहीं कर सकते। अंधविश्वास सदा निरापद होते हैं। उनसे कोई बड़ा खतरा नहीं हो सकता। वे होमियोपैथी की दवा जैसे हैं। होमियोपैथी की दवा कोई नुकसान नहीं करती है। उससे लाभ होगा या नहीं, यह तुम्हारी निर्दोषता पर निर्भर है, लेकिन एक बात निश्चित है, उससे कुछ नुकसान नहीं होने वाला है। होमियोपैथी निरापद है, वह एक गहन अंधविश्वास है। अगर वह काम करे तो उससे लाभ ही होगा।

और ध्यान रहे, यदि किसी चीज से लाभ ही होता हो तो वह गहरा अंधविश्वास है। अगर उससे लाभ और हानि दोनों होते हों तो ही वह ज्ञान है। सच्ची चीज दोनों करती है, वह लाभ और हानि दोनों करती है। केवल नकली चीज से लाभ ही होता है। लेकिन वह लाभ दरअसल उस चीज से नहीं आता है, वह तुम्हारे मन का प्रक्षेपण होता है। एक अर्थ में केवल भ्रामक चीजें ही अच्छी होती हैं, वे तुम्हें कभी नुकसान नहीं पहुंचाती।

तंत्र विज्ञान है और वह परमाणु—विज्ञान से भी अधिक गहन विज्ञान है। परमाणु—विज्ञान पदार्थ से संबंधित है, तंत्र तुमसे संबंधित है। और तुम सदा ही किसी भी परमाणु—ऊर्जा से ज्यादा खतरनाक हो। तंत्र जैविक परमाणु से, तुमसे, जीवंत कोशिका से, स्वयं जीवन—चेतना से संबंधित है, उसकी आंतरिक व्यवस्था से संबंधित है।

यही वजह है कि काम या सेक्स में तंत्र की रुचि इतनी गहरी है। जो व्यक्ति जीवन और चेतना में रुचि रखता है, वह अपने आप काम में रुचि लेगा। क्योंकि काम जीवन का स्रोत है, प्रेम का स्रोत है। चेतना के जगत में जो भी घट रहा है उसका आधार काम है। अगर कोई साधक काम में उत्सुक नहीं है तो समझना चाहिए कि वह साधक ही नहीं है। वह दार्शनिक हो सकता है, पर वह साधक नहीं है। और दर्शनशास्त्र करीब—करीब कचरा है, व्यर्थ की चीजों के संबंध में ऊहापोह है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन को लड़कियों में काफी दिलचस्पी थी। लेकिन दुर्भाग्य से कोई लड़की उसे नहीं चाहती थी। एक बार वह किसी लड़की से पहली दफा मिलने जा रहा था, तो मिलने के पहले उसने अपने एक मित्र से कहा : तुम तो लड़कियों के मामले में बहुत कुशल हो, उन पर तुम्हारा जादू काम करता है और एक मैं हूं कि सदा असफलता ही हाथ आती है, बताओ कि तुम्हारा राज क्या है? मैं एक लड़की से पहली बार मिलने जा रहा हूं मुझे कुछ तरकीब बता दो तो बहुत अच्छा। उसके मित्र ने कहा. तीन चीजें याद रखो—हमेशा भोजन, खानदान और फिलासफी की बातें करना।

मुल्ला ने पूछा कि भोजन की बात क्यों करनी चाहिए? मित्र ने कहा कि मैं भोजन की बात इसलिए करता हूं क्योंकि उससे लड़की खुश रहती है। कारण है। कारण है कि हरेक स्त्री भोजन में उत्सुक है। वह खुद बच्चे के लिए भोजन है, वह पूरी मनुष्यता के लिए भोजन है, इसलिए उसकी बुनियादी रुचि भोजन में है। मुल्ला ने फिर पूछा कि खानदान की बात किसलिए की जाए? मित्र ने कहा कि उसके खानदान की बात करने से तुम्हारे इरादे नेक मालूम पड़ेंगे। और जब मुल्ला ने ऐसे ही फिलासफी के संबंध में पूछा तो मित्र ने कहा कि फिलासफी की बातचीत करने से स्त्री को एहसास होता है कि मैं बुद्धिमान हूं।

तो मुल्ला लड़की के पास आनन—फानन गया और उससे मिलते ही पूछा, क्या तुम्हें सेवई पसंद है? लड़की तो चकित रह गई और उसने कहा, नहीं। तो मुल्ला ने उससे पूछा, क्या तुम्हारे दो भाई हैं? लड़की तो और भी हैरान हो गई और सोचने लगी कि किस ढंग का प्रेमी है यह। लड़की ने कहा, नहीं। तो मुल्ला भी कुछ परेशान हुआ और सोचने लगा कि अब दर्शनशास्त्र के बारे में चर्चा किस तरह छेड़ी जाए। क्षणभर की परेशानी के बाद उसने तीसरा तीर छोड़ा, अगर तुम्हें भाई होता तो क्या उसे सेवई पसंद होती?

दर्शनशास्त्र ऐसी ही बकवास है। तंत्र की उत्सुकता दर्शनशास्त्र में नहीं है, उसकी उत्सुकता वास्तविक और अस्तित्वगत जीवन में है। तंत्र कभी नहीं पूछता कि क्या ईश्वर है, क्या मोक्ष है, क्या स्वर्ग—नरक है। तंत्र जीवन के संबंध में बुनियादी प्रश्न पूछता है। यही कारण है कि काम और प्रेम में उसकी इतनी रुचि है।

काम और प्रेम बुनियादी हैं। तुम उनके द्वारा जगत में आए हो, तुम उनके अंश हो। तुम

काम—ऊर्जा का खेल भर हो, और कुछ भी नहीं। और जब तक तुम इस ऊर्जा को समझते नहीं, इसका अतिक्रमण नहीं करते, तब तक तुम इससे कुछ ज्‍यादा नहीं हो सकते। अभी तो तुम काम—ऊर्जा के सिवाय कुछ भी नहीं हो।

तुम काम—ऊर्जा से ऊपर उठ सकते हो, उससे बहुत अधिक हो सकते हो, लेकिन उसके लिए तुम्हें काम—ऊर्जा को समझना होगा, उसका अतिक्रमण करना होगा। अन्यथा कभी तुम काम—ऊर्जा से अधिक नहीं हो सकते। जो संभावना है वह बस बीज की भांति है। यही वजह है कि तंत्र काम—ऊर्जा में, प्रेम में, सहज जीवन में इतना उत्सुक है।

लेकिन काम—ऊर्जा को जानने का मार्ग संघर्ष नहीं है। तंत्र कहता है कि तुम अगर लड़ने की मनःस्थिति में हो तो तुम किसी भी चीज को नहीं जान सकते, क्योंकि तब तुम ग्रहणशील नहीं हो सकते। इस लड़ने के कारण ही जीवन का राज तुमसे छिपा रह जाएगा, तुम उसे जानने के लिए खुले हुए नहीं हो। और जब भी तुम लड़ते हो, तुम बाहर रह जाते हो। अगर तुम काम—ऊर्जा से लड़ते हो तो तुम सदा बाहर—बाहर रह जाते हो। और अगर तुम उसके प्रति अपने को समर्पित कर देते हो तो तुम उसके अंतर्गृह में प्रवेश कर जाते हो, तब तुम अंतेवासी हो जाते हो। अगर तुम समर्पण करते हो तो बहुत सी चीजों से परिचित हो जाते हो।

तुमने सेक्स को जीया जरूर है, लेकिन हमेशा ही उसके प्रति शत्रुता का भाव बनाए रखा है। नतीजा यह हुआ है कि तुम उसके अनेक रहस्यों से वंचित रह गए हो। उदाहरण के लिए, तुमने काम—ऊर्जा की जीवनदायी शक्तियों को नहीं जाना है। तुम नहीं जान सके, क्योंकि तुम उसे ऊपर—ऊपर से नहीं जान सकते हो—जानने के लिए भीतर प्रवेश की जरूरत है।

अगर तुम सचमुच काम—ऊर्जा के साथ बहते हो, उसके प्रति समर्पित होकर बहते हो तो देर—अबेर तुम्हें मालूम हो जाएगा कि काम नए जीवन को ही जन्म नहीं देता, तुम्हें भी अधिक जीवन प्रदान कर सकता है। प्रेमियों के लिए काम या सेक्स जीवनदायी शक्ति बन सकता है, लेकिन उसके लिए समर्पण जरूरी है।

और समर्पण करते ही अनेक आयाम बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए, तंत्र और ताओ दोनों को पता है कि अगर वीर्यपात होता है तो संभोग जीवनदायी नहीं हो सकता है। वीर्यपात की कोई जरूरत नहीं है, वीर्यपात को भूला जा सकता है। तंत्र और ताओ का मानना है कि क्योंकि तुम लड़ते हो इसलिए वीर्यपात होता है, अन्यथा उसकी जरूरत नहीं है। प्रेमी—प्रेमिका बहुत विश्रामपूर्ण गहन कामालिंगन में हो सकते हैं और उन्हें स्खलन की, संभोग समाप्त करने की जल्दी नहीं रहेगी। वे एक—दूसरे में डूब सकते हैं। और अगर यह डूबना समग्र हो सके तो दोनों को अधिक जीवन का अनुभव होगा, वे एक—दूसरे को अधिक समृद्ध कर देंगे।

ताओ कहता है कि मनुष्य की उम्र हजार वर्ष हो सकती है अगर वह काम—कृत्य में जल्दबाजी न करे, अगर वह गहन विश्राम में हो सके। अगर स्त्री—पुरुष गहन विश्राम में हों, एक—दूसरे में डूब जाएं, खो जाएं, जल्दी में न हों, तनाव में न हों, तो बहुत चीजें, अदभुत चीजें घटित होती हैं। क्योंकि तब दोनों के जीवन—रस, दोनों की विद्युत—ऊर्जा, दोनों की जैविक—ऊर्जा आपस में मिलती है, और इस मिलन से, परस्पर विरोधी तत्वों के मिलन से, प्रगाढ़ मिलन से वे एक—दूसरे को शक्तिशाली कर देते हैं, अधिक जीवंत और प्राणवान बना देते हैं। इसतरह वे दीर्घायु हो सकते हैं और सदा युवा रह सकते हैं।

लेकिन यह तभी जाना जा सकता है जब तुम संघर्ष की भाव—दशा से मुक्त हो जाओ, जब उसकी जगह स्वीकार और सहयोग की भाव—दशा निर्मित हो। और यह बड़ी विरोधाभासी बात मालूम होती है। जो लोग कामवासना से लड़ते है वे शीध्रपात के शिकार होंगे, क्‍योंकि तनावग्रस्त चित्त तनाव से मुक्त होने की जल्दी में है।

अब तो नयी खोजें बहुत हैरानी के तथ्य प्रकट कर रही हैं। मास्टर्स और जानसन ने पहली दफा संभोग की प्रक्रिया का वैज्ञानिक अध्ययन किया है। और वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि पचहत्तर प्रतिशत पुरुष शीघ्रपात के शिकार हैं—पचहत्तर प्रतिशत! गहन मिलन के पहले ही वे स्खलित हो जाते हैं और क्रीड़ा समाप्त हो जाती है। और नब्बे प्रतिशत स्त्रियां कभी आर्गाज्म को नहीं उपलब्ध हांती हैं, कभी संभोग के शिखर सुख को नहीं पहुंच पाती हैं—नब्बे प्रतिशत स्त्रियां!

यही कारण है कि अक्सर स्त्रियां चिड़चिड़ी और क्रोधी होती हैं। उन्हें ऐसा होना ही है। कोई औषधि उन्हें शांत नहीं बना सकती है, कोई दर्शनशास्त्र, धर्म या नीति उन्हें अपने पुरुषों के प्रति सहृदय नहीं बना सकती। वे अतृप्त हैं। वे क्रुद्ध हैं। और आधुनिक मनोविज्ञान और तंत्र दोनों कहते हैं कि जब तक स्त्री काम— भोग में गहन तृप्ति को नहीं प्राप्त होती, वह परिवार के लिए समस्या बनी रहेगी। जिससे वह वंचित रह गई है, वह चीज उसे क्षुब्ध रखेगी और वह हमेशा झगड़ालू बनी रहेगी।

तो अगर तुम्हारी पत्नी हमेशा लड़ती—झगड़ती रहती है तो पूरी स्थिति पर फिर से विचार करो। इसमें पत्नी का ही कसूर नहीं है, हो सकता है कि उसका कारण तुम्हीं हो। और आर्गाज्म को न उपलब्ध होने के कारण स्त्रियां काम—विमुख हो जाती हैं, वे आसानी से काम— भोग में उतरने को नहीं राजी होतीं। उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है, वे संभोग में जाने को राजी नहीं होतीं। और वे क्यों राजी हों यदि उन्हें इससे गहन सुख की उपलब्धि ही नहीं होती?

सच तो यह है कि स्त्रियों को लगता है कि पुरुष उनका उपयोग करते हैं, उनका शोषण करते हैं। उन्हें लगता है कि हम कोई वस्तु हैं जिसका उपयोग करके फेंक दिया जाता है। पुरुष तो संतुष्ट हो जाता है, क्योंकि वह स्खलित हो जाता है। फिर वह करवट लेकर सो जाता है। लेकिन स्त्री आंसू बहाती रहती है। वह अनुभव उसके लिए तृप्तिदायी नहीं होता है। उसे लगता है कि मेरा उपयोग किया गया है। हो सकता है, उसके पति, प्रेमी या मित्र को उससे राहत मिली हो, लेकिन वह खुद अतृप्त रह जाती है।

सौ में से नब्बे स्त्रियां तो यह भी नहीं जानती हैं कि आर्गाज्म क्या है, काम—समाधि क्या है। उन्हें कभी इसका अनुभव ही नहीं हुआ। वे कभी उस शिखर को नहीं छू पाती हैं, जहां उनके शरीर का रोआं—रोआं आर्गाज्म से कंपित हो उठे, भरपूर हो जाए। यह अनुभव उनके लिए अनजाना ही रहता है।

और इसका कारण समाज की काम—विरोधी दृष्टि है। मनुष्य का चित्त सदा काम से लड़ रहा है। और स्त्री इतनी दमित है कि वह मंदकाम हो गई है। पुरुष संभोग में इस भांति उतरता है जैसे कि वह कोई पाप कर रहा हो। उसे हमेशा यह अपराध—भाव सताता है कि यह कोई कुकर्म है। वह शरीर के तल पर अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ प्रेम करता रहता है और मन में किसी महात्मा की सोचता रहता है कि कैसे उनके पास पहुंचकर इस अपराध से, इस पाप से उबरने का उपाय करे।

महात्माओं से बचना मुश्किल है। जब तुम प्रेम कर रहे होते हो तब भी वे मौजूद रहते हैं। वहां तुम दो ही नहीं होते, महात्मा भी बगल में खड़े रहते हैं। और अगर वहां महात्मा न हुए तो परमात्मा आ जाता है और तुम्हारे पाप पर पहरा देने लगता है। लोगों के मन में परमात्मा की जो धारणा है वह एक बड़े पहरेदार की धारणा है, मानो वह तुम पर सतत पहरा दे रहा है। और यही दृष्टि चिंता पैदा करती है। और चिंता से जल्दी वीर्यपात हो जाता है।

अगर यह चिंता न हो तो संभोग को घंटों, दिनों लंबाया जा सकता है। वीर्यपात जरूरी नहीं है। अगर प्रेम गहन हो तो दोनों प्रेमी एक—दूसरे को संजीवन प्रदान कर सकते हैं। तब स्खलन की बात समाप्त हो जाती है और प्रेमी—युगल वर्षों स्खलित हुए बिना, ऊर्जा नष्ट किए बिना एक—दूसरे में डूबे रह सकते हैं, प्रेम कर सकते हैं। वे एक—दूसरे में विश्राम को उपलब्ध हो सकते हैं। तब उनके शरीर आलिंगन में होकर भी विश्राम पूर्ण रह सकते हैं, तब वे संभोग में उतरकर भी विश्रामपूर्ण रह सकते हैं। तब काम—कृत्य उत्तेजना नहीं बनेगा, अभी वह उत्तेजना है। तब काम गहन विश्राम बन जाएगा, समाधि बन जाएगा।

लेकिन यह समाधि तभी संभव है जब तुम अपने अंतस में काम—ऊर्जा के प्रति, जीवन—शक्ति के प्रति अपने को समर्पित कर देते हो। और उसके बाद ही तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका के प्रति समर्पित हो सकते हो।

तंत्र का कहना है कि यह होता है। और तंत्र इसके होने का उपाय करता है। तंत्र कहता है कि जब तुम उत्तेजित हो तो कभी संभोग में मत उतरो। यह बात बहुत बेबूझ मालूम पड़ेगी, क्योंकि तुम तो तभी उसमें उतरना चाहते हो जब कामोत्तेजना पकड़ती है। और सामान्यत: उसमें उतरने के लिए स्त्री और. पुरुष एक—दूसरे को उत्तेजित भी करते हैं। लेकिन तंत्र कहता है कि उत्तेजना में सिर्फ ऊर्जा नष्ट होती है। केवल तभी प्रेम करो जब तुम अनुद्विग्न, शांत और ध्यानपूर्ण हो। पहले ध्यान करो और तब संभोग में उतरो। और संभोग में सीमा का उल्लंघन मत करो। और सीमा का उल्लंघन न करने का क्या अर्थ है? अर्थ यह है कि उत्तेजित और हिंसात्मक मत होओ, ताकि ऊर्जा का बिखराव न हो।

अगर तुम प्रेम—कृत्य में संलग्न किसी जोड़े को देखो तो तुम्हें लगेगा कि वे लड़ रहे हैं। जब छोटे बच्चे अपने मां —बाप को इस अवस्था में देखते हैं तो उन्हें लगता है कि बाप मां को मार डालने पर उतारू है। वह लड़ाई जैसा मालूम पड़ता है, हिंसापूर्ण लगता है और अशोभन भी। वह सुंदर नहीं लगता।

उसे ज्यादा लयपूर्ण होना चाहिए, ज्यादा संगीतपूर्ण होना चाहिए। प्रेमी—युगल को नृत्यमय होना चाहिए, संघर्षमय नहीं। इसे तो ऐसा होना चाहिए मानो कि वे कोई लयपूर्ण गीत गा रहे हों। उन्हें एक ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहिए जिसमें दोनों घुल—मिलकर एक हो जाएं। और तभी वे विश्रामपूर्ण हो सकते हैं। तंत्र का यही अर्थ है।

तंत्र जरा भी कामुक नहीं है। तंत्र सबसे कम कामुक है और फिर भी काम—ऊर्जा से इतना संबंधित है। यदि विश्राम और सहजता के द्वार से प्रकृति तुम्हें अपने रहस्य बता देती है तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। तब तुम्हें बोध होने लगता है कि क्या घटित हो रहा है। और उस बोध में ही तुम पर अनेक रहस्य प्रकट होने लगते हैं।

पहली बात कि काम—कृत्य जीवनदायी हो जाता है। अभी तो जैसा वह है, वह मृत्युदायी है। तुम उसके द्वारा मिटते हो, नष्ट होते हो, छिन्न—भिन्न होते हो। और दूसरी बात कि तब काम—कृत्य गहनतम ध्यान बन जाता है। तुम्‍हारे विचार बिलकुल खो जाते है, जब तुम अपने प्रेमी के साथ पूरे के पूरे विश्राम में होते हो तो विचार विलीन हो जाते हैं। तब मन नहीं रहता है, केवल हृदय धड़कता है। वह सहज—स्वाभाविक ध्यान बन जाता है। और अगर प्रेम ध्यान में सहयोगी नहीं हो सकता तो कुछ भी सहयोगी नहीं हो सकता; क्योंकि शेष सब कुछ ऊपर—ऊपर है, सतही है। अगर प्रेम सहयोगी नहीं हो सकता तो कुछ भी सहयोगी नहीं हो सकता। प्रेम का अपना ही ध्यान है।

लेकिन तुम्हें प्रेम का पता नहीं है, तुम सिर्फ कामवासना से और उससे होने वाले ऊर्जा—अपव्यय के दुख से परिचित हो। और तब तुम संभोग के बाद बहुत हारे— थके, बहुत उदासी अनुभव करते हो। और फिर तुम ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हो। लेकिन यह व्रत थकावट की, उदासी की हालत में लिया जाता है, यह व्रत निराशा की हालत में लिया जाता है। उससे कुछ भी नहीं होगा।

व्रत तभी सहयोगी होता है जब उसे बहुत विश्रामपूर्ण और ध्यान की भाव—दशा में लिया जाए। अन्यथा व्रत के नाम पर तुम सिर्फ अपना क्रोध प्रकट कर रहे हो, अपनी निराशा प्रकट कर रहे हो और कुछ भी नहीं। और तुम इस व्रत को चौबीस घंटों के भीतर भूल जाओगे। फिर काम—ऊर्जा जागेगी और तुम फिर पुरानी आदत के अनुसार उसे फेंकने का उपाय करोगे।

तंत्र कहता है कि काम बहुत गहन है, क्योंकि काम ही जीवन है। लेकिन तुम गलत कारणों से उसमें उत्सुक हो सकते हो। गलत कारणों से काम में मत उत्सुक होओ। और तब तुम्हें तंत्र खतरनाक नहीं लगेगा। तब तंत्र जीवन—रूपांतरण की कीमिया है।

योग ने भी कुछ तांत्रिक विधियों का उपयोग किया है, लेकिन उसने यह उपयोग संघर्ष के ढंग से किया है। तंत्र भी उन्हीं विधियों का उपयोग करता है, लेकिन वह यह उपयोग बहुत प्रेमपूर्ण भाव से करता है। और यह बहुत बड़ा फर्क है। उससे विधि की गुणवत्ता बदल जाती है। विधि भिन्न हो जाती है, क्योंकि पूरी पृष्ठभूमि भिन्न है।

पूछा गया है कि ’तंत्र की केंद्रीय विषय—वस्तु क्या है?’

उत्तर है. वह तुम हो। तंत्र की केंद्रीय विषय—वस्तु तुम हों—तुम जो अभी हो और जो तुममें विकसित होने को छिपा है। तंत्र का विषय तुम हों—तुम जो हो और तुम जो हो सकते हो। अभी तो तुम बस कामवासना हो। और जब तक यह काम अच्छी तरह नहीं समझ लिया जाता है तब तक तुम राम नहीं हो सकते हो, आत्मवान नहीं हो सकते हो। कामुकता और आध्यात्मिकता एक ही ऊर्जा के दो छोर हैं।

तंत्र वहां से शुरू करता है जहां तुम हो, योग तुम्हारी संभावना से शुरू करता है। योग अंत से आरंभ करता है, तंत्र आरंभ से आरंभ करता है। और आरंभ से ही आरंभ करना अच्छा है। यह सदा ही अच्छा है कि शुरू से ही शुरू करो। अगर अंत को आरंभ बना दिया जाए तो तुम अपने लिए नाहक दुख निर्मित कर लोगे। तुम अंत नहीं हो, आदर्श नहीं हो। तुम्हें भविष्य में परमात्मा बनना है, आदर्श बनना है, लेकिन अभी तो तुम मात्र पशु हो। और यह पशु परमात्मा के आदर्श के कारण विक्षिप्त हो जाता है, पागल हो जाता है।

तंत्र कहता है कि परमात्मा को भूल जाओ। अगर तुम पशु हो तो इस पशु को उसकी समग्रता में समझो। उसी समझ से, परमात्मा का विकास होगा। और अगर इस समझ से परमात्मा नहीं विकसित होता है तो उसे भूल जाओ, तब फिर वह कभी नहीं होने वाला है। आदर्श तुम्हारी संभावना को वास्तविक नहीं बना सकते, यथार्थ का ज्ञान ही उसे वास्तविक बना सकता है।

तो तंत्र की विषय—वस्तु तुम हो—जो हो और जो हो सकते हो। तुम्हारा यथार्थ और तुम्हारी संभावना तंत्र की विषय—वस्तु है।

कभी—कभी लोग परेशान हो जाते हैं। अगर तुम तंत्र को समझने चलो तो वहां परमात्मा की चर्चा नहीं होती, मोक्ष और निर्वाण की चर्चा नहीं होती। लोग सोचते हैं, यह तंत्र किस तरह का धर्म है! तंत्र उन चीजों की चर्चा करता है जिनकी चर्चा से तुम्हें घबराहट होती है, जिनकी चर्चा तुम्हें पसंद नहीं है। सेक्स की चर्चा कौन करना चाहता है? हरेक आदमी सोचता है कि मैं इसे जानता ही हूं। क्योंकि तुम बच्चे पैदा कर सकते हो, इससे समझते हो कि मैं जानता हूं।

कोई आदमी सेक्स की चर्चा करना नहीं चाहता है और सेक्स हरेक आदमी की समस्या है। कोई आदमी प्रेम की चर्चा करना नहीं चाहता है, क्योंकि हरेक अपने को पहले से ही महान प्रेमी माने बैठा है। और अपने जीवन को तो देखो, उसमें घृणा के अतिरिक्त और क्या है! और जिसे तुम प्रेम कहते हो वह भी इसी घृणा के तनाव को थोड़ा कम करने का बहाना है। अपने चारों ओर देखो और तुम्हें पता चलेगा कि मुझे प्रेम का पता नहीं है।

एक फकीर बालशेम रोज ही अपने दर्जी के पास अपनी पोशाक के लिए जाता था। दर्जी ने एक मामूली पोशाक बनाने में छह महीने लगा दिए। गरीब फकीर! जब पोशाक बनकर तैयार हुई और दर्जी ने उसे बालशेम के हाथ में दिया तो बालशेम ने कहा कि परमात्मा ने पूरी दुनिया छह दिनों में बना दी और तुम्हें एक गरीब फकीर के कपड़े सीने में छह महीने लग गए! बालशेम ने अपने संस्मरणों में इस दर्जी को याद किया है। उस दर्जी ने कहा : है।, परमात्मा ने छह दिनों में ही दुनिया बना दी, लेकिन इस दुनिया को तो देखो, किस तरह की दुनिया है यह! छह दिनों में बनी दुनिया और कैसी होगी!

अपने चारों ओर तो देखो, जो दुनिया तुमने बनायी है उसे तो जरा देखो। तब तुम्हें पता चलेगा कि मैं कुछ नहीं जानता हूं मैं बस अंधेरे में टटोल रहा हूं। और क्योंकि दूसरे लोग भी अंधेरे में टटोल रहे हैं, इसलिए यह नहीं हो सकता कि तुम प्रकाश में रहते हो। और जब सब लोग अंधेरे में टटोल रहे हैं तो यह तुम्हें अच्छा लगता है, क्योंकि कोई तुलना की बात न रही।

लेकिन तुम अंधकार में हो। और तुम जैसे हो, जो हो, तंत्र वहीं से आरंभ करता है। तंत्र तुम्हें उन बुनियादी बातों का बोध देना चाहता है, जिन्हें तुम इनकार नहीं कर सकते। और अगर तुम उन्हें इनकार करने की कोशिश करोगे तो तुम्हारा ही अहित होगा।

दूसरा प्रश्‍न:

 

संभोग को ध्यान कैसे बनाया जाए? क्या उसके लिए संभोग में किसी विशेष आसन का अभ्यास जरूरी है?

सन अप्रासंगिक हैं, आसन बहुत अर्थपूर्ण नहीं हैं। असली चीज दृष्टि है, रुझान है। शरीर की स्थिति नहीं, मन की स्थिति असली बात है। लेकिन अगर मन बदल जाए तो संभव है कि उसके साथ आसन भी बदल जाएं। क्‍योंकि वे एक—दूसरे से जुड़े है। लेकिन वे बुनियादी नहीं हैं।

उदाहरण के लिए, पुरुष सदा स्त्री के ऊपर होता है। इसमें पुरुष का अहंकार छिपा है, पुरुष हमेशा समझता है कि मैं श्रेष्ठ हूं, बड़ा हूं। वह स्त्री के नीचे कैसे हो सकता है? लेकिन सारी पृथ्वी पर आदिम समाजों में स्त्री पुरुष के ऊपर होती है। इसलिए अफ्रीका में लोग उस आसन को मिशनरी आसन कहने लगे जिसमें पुरुष ऊपर होता है। जब पहली बार ईसाई मिशनरी अफ्रीका गए तो आदिवासी उनके संभोग के ढंग को देखकर हैरान रह गए। उन्हें समझ में नहीं आया कि वे क्या कर रहे हैं। उन्होंने सोचा कि इसमें स्त्री तो मर जाएगी। अफ्रीका में इस आसन को मिशनरी आसन कहते हैं। अफ्रीका के आदिवासी कहते हैं कि यह हिंसापूर्ण है कि पुरुष स्त्री के ऊपर रहे। स्त्री कमनीय है, कोमल है, इसलिए उसे पुरुष के ऊपर होना चाहिए। लेकिन पुरुष के लिए अपने को स्त्री के नीचे रखना बहुत कठिन है।

अगर तुम्हारा मन बदल जाए तो बहुत चीजें बदल जाएंगी। अच्छा तो यही है कि स्त्री ऊपर रहे। इसके पक्ष में कई बातें हैं। स्त्री निष्‍क्रिय है, इसलिए अगर वह ऊपर रहेगी तो बहुत हिंसा नहीं करेगी, वह विश्राम में होगी। और अगर पुरुष नीचे होगा तो वह भी बहुत उपद्रव नहीं कर सकेगा। उसे भी विश्रामपूर्ण होना पड़ेगा। यह अच्छा रहेगा। ऊपर होकर वह बहुत हिंसात्मक होगा ही, वह बहुत कुछ करेगा। और स्त्री को तो कुछ करने की जरूरत नहीं है। तंत्र में तुम्हें विश्रामपूर्ण होना चाहिए, इसलिए स्त्री का ऊपर रहना ठीक है। वह पुरुष से अधिक विश्रामपूर्ण रह सकती है। स्त्री का चित्त निष्‍क्रिय है, इसलिए उसे विश्राम सहज होता है।

तो आसन बदलेंगे, लेकिन आसनों की बहुत चिंता मत करो। बस अपने मन को बदलो। जीवन—शक्ति के प्रति समर्पण करो, उसके साथ बहो। अगर तुम सचमुच समर्पित हो तो तुम्हारा शरीर उस समय के लिए जरूरी आसन को, सम्यक आसन को खुद ही ग्रहण कर लेगा। अगर प्रेमी—प्रेमिका गहन रूप से समर्पित हैं तो उनके शरीर आप ही उचित आसन ग्रहण कर लेंगे।

स्थिति रोज—रोज बदल जाती है, इसलिए पहले से कोई आसन तय कर लेने की जरूरत नहीं है। यही तो अड़चन है कि तुम पहले से सब तय कर लेना चाहते हो। जब भी तुम ऐसा करते हो, यह मन का ही धंधा है। तब तुम समर्पण नहीं करते हो। समर्पण में तो चीजें अपने आप घटित होती हैं, रूप लेती हैं। जब प्रेमी—प्रेमिका दोनों समर्पण करते हैं तो एक अदभुत लयबद्धता निर्मित होती है। तब वे अनेक आसन ग्रहण करेंगे, या एक भी नहीं, महज विश्राम में होंगे। वह जीवन—शक्ति पर निर्भर है, पहले से लिए गए मानसिक निर्णय पर नहीं। पहले से कुछ भी निर्णय लेने की जरूरत नहीं है।

निर्णय ही समस्या है। संभोग के लिए भी तुम्हें निर्णय करना पड़ता है। ऐसी किताबें हैं जो सिखाती हैं कि संभोग कैसे किया जाए। इससे पता चलता है कि हमने कैसा मन निर्मित किया है। संभोग के लिए भी तुम्हें किताबों से पूछना पड़ता है। तब वह मानसिक कृत्य हो जाता है, तब तुम्हें हर बात का विचार करना पड़ता है। पहले तुम मन में रिहर्सल करते हो और तब संभोग में उतरते हो। तब तुम्हारा कृत्य नाटक हो जाता है, नकली हो जाता है। उसे सच्चा संभोग नहीं कह सकते, वह अभिनय हो गया। वह प्रामाणिक नहीं रहा।

समर्पण करो और महाशक्ति के साथ बही। भय क्या है? डर क्यों है? अगर तुम अपने प्रेमी के साथ भी निर्भय नहीं हो सकते तो किसके साथ होओगे? और एक बार तुम्हें प्रतीति हो जाए कि जीवन—शक्ति स्वयं ही सहायता करती है और स्वयं ही सम्यक मार्ग पकड़ लेती है तो उससे तुम्हें अपने पूरे जीवन के प्रति बहुत बुनियादी दृष्टि उपलब्ध हो जाएगी। तब तुम अपना समस्त जीवन परमात्मा के हाथ में छोड़ दे सकते हो, वही तुम्हारा प्रियतम है। तब तुम अपना सारा जीवन परमात्मा को सौंप देते हो। तब तुम न सोच—विचार करते हो, न योजना बनाते हो और न भविष्य को अपनी मर्जी के अनुसार चलाने की चेष्टा करते हो। तब तुम परमात्मा की मर्जी से, समग्र की मर्जी से भविष्य में गति करते हो।

लेकिन काम—कृत्य को ध्यान कैसे बनाया जाए? समर्पण करने से ही संभोग ध्यान बन जाता है। उस पर सोच—विचार मत करो, उसे बस होने दो। और विश्राम में उतर जाओ, आगे —आगे मत चलो। मन की यह एक बुनियादी समस्या है कि वह सदा आगे —आगे चलता है, वह सदा फल की खोज करता रहता है। और फल भविष्य में है। इसलिए तुम कभी कर्म में नहीं होते, तुम सदा फल की खोज करते भविष्य में होते हो। यह फल की खोज ही उपद्रव है, वह सब कुछ खराब कर देती है। बस कर्म में समग्रता से होओ। भविष्य क्या है? वह अपने आप ही आएगा, तुम्हें उसकी चिंता नहीं लेनी है। और तुम्हारी चिंताएं भविष्य को नहीं ला सकती हैं। वह आ ही रहा है, वह आया ही हुआ है। तुम उसे भूल जाओ और यहं। और अभी, वर्तमान में होओ।

यहां और अभी होने के लिए काम—कृत्य एक गहन अंतर्दृष्टि बन सकता है। मेरे देखे अब यही एक कृत्य बचा है जिसमें तुम यहां और अभी हो सकते हो। अपने आफिस में तुम यहां और अभी नहीं हो सकते हो। जब तुम कालेज में पढ़ रहे हो, वहां भी यहां और अभी नहीं हो सकते। इस आधुनिक संसार में कहीं भी यहां और अभी होना कठिन है। केवल प्रेम में यहां और अभी हुआ जा सकता है।

लेकिन तुम ऐसे हो कि प्रेम में भी वर्तमान क्षण में नहीं होते, तुम वहां भी फल की सोच रहे हो। और अनेक आधुनिक पुस्तकों ने नई कठिनाइयां पैदा कर दी हैं। तुम काम— भोग पर एक पुस्तक पढ़ते हो और तब तुम डरने लगते हो कि मैं सही ढंग से संभोग कर रहा हूं या गलत ढंग से। तुम कामासनों पर एक पुस्तक पढ़ते हो और तब तुम भयभीत हो जाते हो कि मेरा आसन सही है या गलत। मनोवैज्ञानिकों ने तुम्हारे मन में नई चिंताएं खड़ी कर दी हैं। अब वे कहते हैं कि पति को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसकी पत्नी को आर्गाज्म प्राप्त हो रहा है या नहीं।

तो अब पति इसी चिंता में फंसा है। और इस चिंता से कुछ हासिल होने वाला नहीं है, वरन वह बाधा ही बनने वाली है। और पत्नी चिंतित है कि पति पूर्ण विश्राम को उपलब्ध हो रहा है या नहीं। उसे दिखाना होगा कि मैं बहुत आनंदित हो रही हूं। फिर सब कुछ झूठा हो जाता है। दोनों फल के लिए चिंतित हैं। और इसी चिंता में फल कभी हाथ नहीं आएगा।

सब भूल जाओ और क्षण में बहो। अपने शरीर को अभिव्यक्ति का मौका दो। तुम्हारा शरीर सब जानता है, उसका अपना विवेक है। तुम्हारा शरीर काम—कोशिकाओं से बना है, उसका अपना बिल्ट—इन प्रोग्राम है। उसे तुमसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं है। सब शरीर पर छोड़ दो और शरीर अपने आप ही गति करेगा। यह प्रकृति के हाथों में अपने को छोड़ना, यह समर्पण ही ध्यान बन जाएगा।

और अगर तुम्हें सेक्स में यह अनुभव हो जाए तो तुम्हें राज हाथ लग गया कि जहां भी तुम समर्पण करोगे वहीं तुम्हें यह अनुभव होगा। तब तुम गुरु को समर्पित हो सकते हो, यह प्रेम—संबंध है। गुरु के प्रति समर्पण करते हुए जब तुम उसके चरणों पर अपना सिर रखोगे, तुम्हारा सिर शून्य हो जाएगा, तुम ध्यान में चले जाओगे। और फिर गुरु की भी जरूरत नहीं रहेगी। तब बाहर जाओ और आकाश को समर्पित हो जाओ। और तब तुम जान गए कि समर्पण कैसे किया जाए—और यही असली बात है। तब तुम जाकर एक वृक्ष के प्रति समर्पण कर सकते हो।

लेकिन यह बात मूढ़तापूर्ण मालूम देगी, अगर तुम्हें समर्पण करना नहीं आता है। हम देखते हैं, एक ग्रामीण, एक आदिवासी नदी जाता है और नदी के प्रति झुक जाता है। वह नदी को माता कहकर पुकारता है। वह उगते हुए सूरज के प्रति झुक जाता है और उसे देवता कहकर पुकारता है। या वह किसी झाडू के पास उसकी जड़— पर अपना सिर रख देता है और झुक जाता है। हमें यह अंधविश्वास जैसा मालूम पड़ता है। तुम कहते हो, यह क्या मूढ़ता कर रहा है! वृक्ष क्या करेगा? नदी क्या करेगी? वे कोई देवी—देवता नहीं हैं। सूरज कोई देवता नहीं है।

लेकिन अगर तुम समर्पण करो तो कोई भी चीज परमात्मा है। समर्पण करने वाला चित्त ही भगवत्ता का निर्माण करता है। पत्नी को समर्पण करो और वह दिव्य हो जाती है। पति को समर्पण करो और वह भगवान हो जाता है। भगवत्ता समर्पण के द्वारा प्रकट होती है। पत्थर को समर्पण करो और पत्थर पत्थर नहीं रह जाता, पत्थर ग्रतइr बन जाता है, जीवित व्यक्ति हो जाता है।

इसलिए सिर्फ जानो कि समर्पण कैसे किया जाता है। और जब मैं कहता हूं कि समर्पण कैसे किया जाता है तो उसका यह मतलब नहीं है कि उसकी कोई विधि है, मेरा मतलब है कि प्रेम में समर्पण की सहज संभावना है। प्रेम में समर्पण करो और वहां उसका अनुभव लो। और फिर उसको अपने पूरे जीवन पर फैल जाने दो।

तीसरा प्रश्न:

 

कृपया समझाएं कि अनाहत नाद एक प्रकार की ध्वनि है या कि वह समग्रत: निर्ध्‍वनि है। और यह भी बताने की कृपा करें कि समग्र ध्वनि और समय निध्र्वर्नि की अवस्थाएं समान कैसे हो सकती हैं?

नाहत नाद कोई ध्वनि नहीं है। यह निर्ध्वनि है, यह मौन है। लेकिन यह मौन सुना जा सकता है। इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है, क्योंकि तब यह तर्कसम्मत प्रश्न उठता है कि निर्ध्वनि कैसे सुनी जा सकती है!

यह बात समझने जैसी है। मैं इस कुर्सी पर बैठा हूं। अगर मैं कुर्सी छोड़कर चला जाऊं तो क्या तुम कुर्सी में मेरी अनुपस्थिति नहीं देखो? जिसने मुझे इस कुर्सी में बैठा नहीं देखा है उसे मेरी अनुपस्‍थिति नहीं दिखाई पड़ सकती है। उसे सिर्फ कुर्सी दिखाई पड़ेगी। लेकिन एक क्षण पहले मैं यहां बैठा था और तुमने यह देखा है। अगर मैं हट जाऊं और तुम कुर्सी को देखो तो तुम्हें एक साथ दो चीजें दिखाई देंगी : कुर्सी और मेरी अनुपस्थिति। लेकिन मेरी अनुपस्थिति तभी दिखाई देगी जब तुमने मुझे देखा है और तुम्हें स्मरण है कि मैं यहां था।

वैसे ही हम ध्वनि को सुनते हैं, ध्वनि को जानते हैं; और जब निर्ध्वनि आती है, अनाहत नाद आता है तो हमें अनुभव होता है कि ध्वनि खो गई और उसकी अनुपस्थिति अनुभव होती है। इसीलिए इसे अनाहत नाद कहते हैं। इसे नाद भी कहते हैं, लेकिन अनाहत नाद होना नाद की गुणवत्ता को बदल देता है। अनाहत का अर्थ है. जो अनिर्मित है। वह अनिर्मित, असृष्ट ध्वनि है। प्रत्येक ध्वनि पैदा की गई ध्वनि है। जो भी ध्वनि तुम सुनते हो सब पैदा की हुई है। और जो ध्वनि पैदा की गई है वह नष्ट होगी। मैं हाथ की ताली बजाता हूं तो ध्वनि पैदा होती है। एक क्षण पहले वह नहीं थी और अब फिर वह नहीं है। वह पैदा हुई और मर गई। निर्मित की गई ध्वनि को आहत नाद कहते हैं, अनिर्मित ध्वनि को अनाहत नाद कहते हैं। अनाहत नाद वह है जो सदा है। सदा रहने वाला नाद कौन सा है? दरअसल यह नाद नहीं है, हम उसे नाद इसलिए कहते हैं क्योंकि अनुपस्थिति सुनी जाती है।

अगर तुम रेलवे स्टेशन के पास रहते हो और किसी दिन मजदूर संघ हड़ताल कर दे तो तुम्हें कुछ ऐसा सुनाई देगा जो किसी दूसरे को नहीं सुनाई देगा। तुम्हें आती—जाती रेलगाड़ियों की अनुपस्थिति सुनाई देगी।

पहले मैं हर महीने कम से कम तीन हफ्ते यात्रा पर रहा करता था। शुरू—शुरू में रेलगाड़ी में सोना कठिन होता था, पर पीछे चलकर घर पर सोना कठिन हो गया। फिर जब—जब मुझे गाड़ी में नहीं सोना पड़े, गाड़ी की आवाज की अनुपस्थिति महसूस होती थी। जब मैं घर आता था तो वहां सोना कठिन लगता था, क्योंकि मुझे लगे कि कुछ चूक रहा हूं। मुझे रेल की आवाज की अनुपस्थिति अनुभव होने लगी।

हम ध्वनियों के आदी हैं। प्रत्येक क्षण ध्वनि से भरा है। हमारी खोपड़ी निरंतर ध्वनि से लबालब है। लेकिन जब तुम्हारा मन विदा हो जाता है—अतिक्रमण कर जाता है या नीचे उतर जाता है—जब तुम ध्वनियों के संसार में नहीं होते हो, तब तुम ध्वनियों की अनुपस्थिति को सुन सकते हो। वह अनुपस्थिति निर्ध्वनि है। लेकिन हमने इसे अनाहत नाद कहा है। क्योंकि यह सुना जाता है, इसलिए इसे नाद कहते हैं। और क्योंकि यह ध्वनि नहीं है, इसलिए इसे अनाहत नाद कहते हैं। अनाहत नाद विरोधाभासी शब्द है। ध्वनि तो आहत ही होती है, अनाहत कहना विरोधाभासी है।

पर जीवन के सभी गहन अनुभव विरोधाभासों में व्यक्त किए जाते हैं। अगर तुम इकहार्ट या जेकब बोहमे जैसे गुरुओं से पूछो, या हयाकुजो, उबाकू और बोधिधर्म जैसे झेन गुरुओं से पूछो, या नागार्जुन से पूछो, या वेदांत और उपनिषदों से पूछो, तो सभी जगह गहन अनुभवों की अभिव्यक्ति परस्पर विरोधी शब्दों में मिलेगी।

वेद ईश्वर के संबंध में कहते हैं कि वह है और वह नहीं है। अब इससे अधिक नास्तिक वक्तव्य और क्या होगा? वह है और नहीं है! वे कहते हैं : वह दूर से दूर है और

निकट से निकट। ऐसे विरोधी वक्तव्य क्यों? उपनिषद कहते हैं. तुम उसे नहीं देख सकते, लेकिन जब तक तुमने उसे नहीं देखा तब तक कुछ भी नहीं देखा। यह किस तरह की भाषा है?

लाओत्‍सु कहता है कि सत्‍य नहीं कहा जा सकता है और वह कह भी रहा है। यह भी तो कहना ही हुआ। वह कहता है कि सत्य नहीं कहा जा सकता और जो कहा जाए वह सत्य नहीं है। और फिर वह एक किताब लिखता है, जिसमें सत्य के संबंध में कुछ कहता है। यह विरोधाभासी है।

एक महान वृद्ध संत के पास एक दिन एक विद्यार्थी आया। विद्यार्थी ने कहा गुरुदेव अगर आप मुझे क्षमा कर दें तो मैं अपने संबंध में आपको कुछ बताना चाहता हूं। मैं नास्तिक हो गया हूं अब मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करता। के संत ने पूछा : कितने दिनों से तुम धर्मशास्त्रों का अध्ययन कर रहे हो? कितने दिनों से? उस साधक ने, उस विद्यार्थी ने कहा. कोई बीस वर्षों से मैं वेदों का, शास्त्रों का अध्ययन कर रहा हूं। के संत ने आह भरकर कहा : सिर्फ बीस वर्ष और तुम्हें यह कहने की हिम्मत आ गई कि मैं नास्तिक हूं?

युवक तो हैरान रह गया। उसने सोचा, यह बूढ़ा आदमी क्या कह रहा है? उसने पूछा मैं समझा नहीं कि आप क्या कह रहे हैं। आपने तो मुझे और भी उलझन में डाल दिया। इस पर संत ने कहा वेदों का अध्ययन जारी रखो। आरंभ में आदमी कहता है कि ईश्वर है, केवल अंत में वह कहता है कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर आरंभ में है, अंत में ईश्वर नहीं है। जल्दी मत करो। वह युवक तो और भी बिगचन में पड़ गया।

ईश्वर है और ईश्वर नहीं है—यह वक्तव्य उनका है जो जानते हैं। जो नहीं जानते हैं वे कहते हैं कि ईश्वर है। जो नहीं जानते हैं वे यह भी कहते हैं कि ईश्वर नहीं है। जो जानते हैं वे दोनों बातें साथ—साथ कहते हैं ईश्वर है और ईश्वर नहीं है।

अनाहत नाद विरोधाभासी वक्तव्य है, लेकिन जानकर, बहुत सोच—विचार के साथ उसका उपयोग किया गया है। वह अर्थपूर्ण है। वह कहता है कि वह ध्वनि जैसी लगती है और वह ध्वनि नहीं है। वह ध्वनि जैसी लगती है, क्योंकि तुमने केवल ध्वनि ही जानी है। कोई दूसरी भाषा तुम नहीं जानते, केवल ध्वनियों की भाषा जानते हो। यही कारण है कि वह ध्वनि जैसी लगती है। लेकिन असल में वह मौन है, ध्वनि नहीं।

और प्रश्न में आगे कहा है: ’यह भी बताने की कृपा करें कि ध्वनि और निर्ध्वनि की अवस्थाएं कैसे समान हो सकती हैं?’

सदा से ऐसा ही है। शून्य और पूर्ण दोनों एक ही अर्थ रखते हैं। उदाहरण के लिए, मेरे पास अगर एक घड़ा है जो पूर्णत: खाली है और दूसरा घड़ा है जो पूर्णत: भरा है तो दोनों घड़े पूर्ण हैं। एक पूर्णत: खाली है और दूसरा पूर्णत: भरा है। लेकिन दोनों पूर्ण हैं, दोनों पूरे हैं। अगर घड़ा आधा भरा है तो वह आधा खाली भी है। तुम उसे आधा खाली और आधा भरा कह सकते हो। लेकिन वह चाहे पूरा खाली हो और चाहे पूरा भरा, एक बात दोनों में समान है : पूर्णता समान है।

निर्ध्वनि, ध्वनि—शून्यता पूर्ण है, उसे अब और अधिक ध्वनि—शून्य बनाने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते। इसे समझो। यह पूर्ण है, अब और कुछ नहीं किया जा सकता। तुम उस बिंदु पर पहुंच गए हो जिसके आगे कोई गति नहीं हो सकती। और अगर कोई ध्वनि समग्र है तो भी तुम उसमें कुछ जोड़ नहीं सकते। तुम दूसरी सीमा पर पहुंच गए, तुम उसके आगे नहीं जा सकते। यही समानता है ओर इसका मतलब है।

कोई कह सकता है कि यह निर्ध्वनि है, ध्वनि—शून्यता है, क्योंकि कोई ध्वनि नहीं सुनाई देती है, सब कुछ अनुपस्थित है। तुम अब इसमें से कुछ घंटा नहीं सकते, यह पूर्ण है। या तुम कह सकते हो कि यह पूर्ण ध्वनि है, समग्र ध्वनि है, उसमें अब कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। लेकिन दोनों मामले में इशारा पूर्णता की ओर है, समग्रता की ओर है।

यह मन पर निर्भर है। दो तरह के मन हैं और दो तरह की अभिव्यक्तियां हैं। उदाहरण के लिए, अगर तुम बुद्ध से पूछोगे कि गहन ध्यान में क्या होता है? समाधि उपलब्ध होने पर क्या होता है? तो वे कहेंगे : दुख नहीं रहेगा, पीड़ा नहीं रहेगी। वे यह कभी नहीं कहेंगे कि आनंद होगा, वे इतना ही कहेंगे कि दुख नहीं होगा, दुख—शून्यता होगी। और अगर तुम शंकर से पूछोगे तो वे कभी दुख की बात नहीं करेंगे, वे यही कहेंगे कि आनंद होगा, परमानंद होगा। और दोनों एक ही अनुभव की बात कर रहे हैं।

बुद्ध जब अदुख की बात करते हैं तो उनका इशारा संसार की ओर है। वे कहते हैं कि जो भी दुख मैंने जाना वह वहां नहीं है और जो है उसे मैं तुम्हारी भाषा में नहीं कह सकता। और शंकर कहते हैं कि वहां आनंद है, परम आनंद है। शंकर संसार और उसके दुख की बात नहीं करते हैं। वे तुम्हारे संसार की चर्चा नहीं करते, वे अनुभव की चर्चा करते हैं।

शंकर विधायक हैं, बुद्ध निषेधात्मक हैं। लेकिन उनके इशारे एक ही चांद को बताते हैं। उनकी अंगुलियां भिन्न हैं, लेकिन उनकी अंगुलियों का लक्ष्य एक है।

आज इतना ही।

(समाप्ति)


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साधना–सूत्र–(प्रवचन–17)

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अदृश्‍य का दर्शन—(प्रवचन—सत्‍तरहवां)

सूत्र:

लिखा है कि जो दिव्यता के द्वार तक पहुंच चुका है,

उसके लिए कोई भी नियम बनाया नहीं जा सकता

और न कोई पथ—प्रदर्शक ही उसके लिए हो सकता है!

फिर भी शिष्य को समझाने के लिए

इस अंतिम युद्ध का वर्णन इस प्रकार कर सकते हैं:

13—जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलंबन लो।

 14—केवल नाद—रहित वाणी ही सुनो।

 15—जो बाह्य और अंतर दोनों चक्षुओं से अदृश्य है,

केवल उसी का दर्शन करो। तुम्हें शांति प्राप्त हो।

 

प्रभु मंदिर की यात्रा सत्य के लिए वैसे ही कठिन है, उसे कहना मुश्किल है। जो अनुभव उस यात्रा पथ पर होते हैं, शब्दों में डालते ही झूठे हो जाते हैं। क्योंकि शब्द बहुत छोटा है, अनुभव बहुत विराट है। जैसे कोई अपनी मुट्ठी में आकाश को भरने की कोशिश करे और असफल हो जाए, वैसा ही सत्य को शब्द में ढालने में असफलता मिलती है। शून्य से कहा जा सकता है, शब्द से नहीं कहा जा सकता। मौन में तो शायद मुखरित भी हो सके, लेकिन वाणी से अवरुद्ध हो जाता है। यह तो यात्रा पथ की बात है। लेकिन मंदिर के द्वार पर जब खड़ा हो जाता है साधक, तब तो शब्द बिलकुल ही कठिनाई में डाल देते हैं। क्योंकि मंदिर के द्वार का अर्थ है. द्वंद्व का हुआ अंत!

और हमारी सारी भाषा ही द्वंद्व से निर्मित है। हमारी भाषा में विपरीत का होना जरूरी है। अगर हम अंधेरे का अर्थ समझ पाते हैं, तो सिर्फ इसीलिए कि प्रकाश है, नहीं तो अंधेरे का अर्थ खो जाए। अगर कोई अंधेरे की परिभाषा पूछे, तो क्या कहिएगा? यही कहिएगा न, कि प्रकाश का न होना। अंधेरे की परिभाषा में प्रकाश को लाना पड़े, बड़ी मजबूरी है! और, और भी मजबूरी तो तब पता चलती है, जब कोई पूछ ले कि प्रकाश की परिभाषा क्या है? तो आप को कहना पड़ता है अंधेरे का न होना! यह तो बड़ा जाल हो गया। अंधेरे की परिभाषा में प्रकाश को लाना पड़ता है। प्रकाश की परिभाषा में अंधेरे को लाना पड़ता है! दोनों एक—दूसरे पर निर्भर मालूम पड़ते हैं। और दोनों अलग— अलग अस्तित्व में नहीं हो सकते, उनकी परिभाषा तक नहीं हो सकती।

भाषा द्वंद्व से भरी है, क्योंकि भाषा द्वंद्व—जगत के लिए निर्मित हुई है। यहां जन्म का अर्थ मृत्यु में छिपा है। उलटी दिखाई पड़ने वाली मृत्यु में जन्म का सारा अर्थ छिपा है! यहां प्रेम का अर्थ भी घृणा में छिपा है। और घृणा अगर संसार से मिट जाए, तो प्रेम मिट जाए।

मंदिर के प्रवेश द्वार पर द्वंद्व समाप्त हो जाता है।

तो द्वंद्व की भाषा फिर काम नहीं आएगी। तो क्या कहें? परमात्मा को प्रकाश कहें, तो परिभाषा अंधेरे से करनी पड़ती है। और ऐसा परमात्मा भी क्या जिसकी परिभाषा के लिए अंधेरे को लाना पड़े? फिर परमात्मा को क्या कहें? प्रेम कहें, तो घृणा से परिभाषा करती पडती है। परमात्मा को शाश्वत कहें, तो परिवर्तनशील से व्याख्या करनी पड़ती है। परमात्मा को स्रष्टा कहें, तो सृष्टि से ही संबंध जोडना पड़ता है। और जिसका होना सृष्टि पर निर्भर है, वह क्या स्रष्टा होगा?

विपरीत जब द्वार पर गिर जाता है, तो भीतर के संबंध में कहने को कुछ भी बचता नहीं।

इसलिए यह सूत्र शुरू होता है, ‘लिखा है कि जो दिव्यता के द्वार तक पहुंच चुका है, उसके लिए कोई भी नियम नहीं बनाया जा सकता और न कोई पथ—प्रदर्शक ही उसके लिए हो सकता है। फिर भी शिष्य को समझाने के लिए इस अंतिम युद्ध का वर्णन इस प्रकार कर सकते हैं।’

जो दिव्यता के द्वार तक पहुंच चुका, उसके लिए कोई भी नियम नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि नियम तो सभी संसार के हैं। मंदिर के बाहर उनका परिणाम और प्रभाव है, मंदिर के भीतर उनका कोई प्रयोजन नहीं है। क्या ठीक है और क्या गलत है, वह भी द्वंद्व की ही दुनिया की बात है। वह भी परिभाषाओं पर निर्भर है। इस मंदिर के द्वार पर तो ठीक और गलत भी गिर जाएगा। यहां तो शुभ— अशुभ भी नहीं बचेगा, यहां तो धर्म और अधर्म भी नहीं बचेगा, नीति—अनीति भी नहीं बचेगी। यहां तो हमने दो के जगत में जो भी सीखा था, उसे हमें द्वार पर ही छोड़ देना होगा। तो इस निर्द्वंद्व, अद्वैत, इस मंदिर के भीतर के लिए क्या नियम हो सकता है?

इसलिए हमने परमहंस को नियमातीत कहा है। उसके लिए हम कोई नियम नहीं बना सकते! वह क्या करे, क्या न करे, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वह जो करे, वही ठीक है। वह जो न करे, वही गलत है। हमारे लिए उलटी है बात। जो गलत है, वह हमें नहीं करना चाहिए। जो ठीक है, वह हमें करना चाहिए। परमहंस के लिए कहा है कि वह जो करे, वही ठीक है। वह जो न करे, वही गलत है। और उसके ऊपर कोई भी नियम नहीं है। क्योंकि जो मंदिर में प्रविष्ट हो गया, वह नियम के बाहर हो गया। नियम का अस्तित्व है परिधि पर, केंद्र पर नियम का कोई अस्तित्व नहीं है। और जब तक हम परिधि पर होते हैं, तब तक नियम लागू होते हैं। और जैसे ही हम केंद्र पर पहुंच जाते हैं, नियम लागू नहीं होते हैं।

फिर भी परमहंस नियम मान कर चल सकता है, यह उसकी मौज है। वह नियम तोड़ कर भी चल सकता है, यह भी उसकी मौज है। और दायित्व उसका कोई भी नहीं है, उत्तरदायित्व उसका कोई भी नहीं है। क्योंकि अब कोई भी नहीं है, जिसके प्रति वह उत्तरदायी हो। अब वह स्वयं उस जगह खड़ा है, जिसके पार और कुछ भी नहीं है।

तो यह सूत्र कहता है. कोई नियम नहीं है। कोई नियम बनाया नहीं जा सकता, न ही कोई पथ— प्रदर्शन ही हो सकता है। न उससे कहा जा सकता है कि अब तू कैसे मंदिर में प्रवेश कर। इतना ही कहा जा सकता है कि तू जो भी है अब तक, द्वंद्व से सीखा हुआ, उसे तू द्वार पर छोड़ दे। उस मंदिर के द्वार पर निषेध की ही व्यवस्था हो सकती है। इसलिए उपनिषद कहते हैं, नेति—नेति। यह मंदिर के आखिरी चरण पर कहा हुआ वक्तव्य है। इसके पार फिर कोई वक्तव्य नहीं है।

नेति—नेति का अर्थ है, यह भी नहीं, वह भी नहीं। तुम जो भी कहो, वैसा नहीं है। तुम्हारा सब इनकार कर देने का है। तुम्हारे पास अपना कुछ भी न बचे। तुमने जो भी सीखा था संसार से, अनुभव से, वह सब व्यर्थ हो रहा है। वह तुम द्वार पर ही छोड़ देना। उसमें से तुम कुछ भी ले कर भीतर मत जाना, अन्यथा तुम भीतर ही न पहुंच पाओगे।

तो नियम निषेध का हो सकता है कि जो भी सीखा है, वह द्वार पर छोड़ दो। और तुम अनसीखे, निर्दोष, कोरे कागज की तरह; जैसे कि संसार में गए ही नहीं कभी, जैसे कि तुमने कुछ जाना नहीं, जैसे कि तुमने कुछ जीया नहीं, जैसे कि तुम बिलकुल कुंआरे हो, तुम पर कोई रेखा भी नहीं अनुभव की, ऐसे कुंआरे तुम प्रवेश कर जाना मंदिर में। यह जो कुआंरापन है, इसकी परिभाषा निषेध से ही हो सकती है। कि जो—जो तुमने सीखा है, पोंछ डालना, क्योंकि द्वंद्व से सीखा हुआ भीतर नहीं ले जाया जा सकता। और अगर जरा सा भी तुमने बचाया, तो तुम मंदिर में भीतर नहीं पहुंच सकोगे। तुम्हें द्वार ही नहीं मिलेगा।

नियम तो नहीं बनाए जा सकते और न कोई पथ—प्रदर्शन ही किया जा सकता है। कोई नक्‍शा भी हाथ में नहीं दिया जा सकता कि मंदिर के भीतर, प्रभु के मंदिर के भीतर या प्रभु के भीतर यह नक्‍शा तुम्हारा सहयोगी होगा। ये रास्ते, इन मार्गों से तुम भीतर यात्रा कर सकोगे।

इसे थोड़ा समझ लेने जैसा है।

चेतना का आकाश ठीक इस आकाश जैसा ही है एक अर्थों में। जमीन पर कोई चलता है तो चिह्न बन जाते हैं, पद—चिह्न बनते हैं। आकाश में पक्षी उड़ते हैं तो पद—चिह्न नहीं बनते हैं। जमीन पर तो रास्ते होते हैं, आकाश में कोई रास्ता नहीं बनता। जो तुमसे पहले चले हैं, उनके कोई चिह्न नहीं छूटते, जिनके पीछे तुम अनुकरण कर सको! वह जो परमात्मा का मंदिर है, वह जो अंतिम घटना है अनुभव की, बोध की, चैतन्य की—वहा कोई पद—चिह्न नहीं हैं। वहां बुद्ध चले हैं, वहां जीसस चले हैं, लेकिन कोई पद—चिह्न नहीं छूट गए।

इसलिए नक्‍शा नहीं बनाया जा सकता। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि नक्‍शा सम्हाल लो और इसके अनुसार तुम भी उसके भीतर चले जाना। तुम्हारा नक्‍शा भी इसी तरफ छूट जाएगा। क्योंकि नक्‍शो जिस पदार्थ के जगत में काम आते हैं, वह पदार्थ का जगत नहीं है। पदार्थ पर तो चिह्न बनते हैं, परमात्मा पर कोई चिह्न नहीं बनते। पदार्थ पर तो रेखाएं खिंचती हैं, आत्मा पर कोई रेखाएं नहीं खिंचती। इसलिए वहां कोई मार्ग नहीं है, कोई दिशासूचक व्यवस्था नहीं है, इसलिए कोई पथ—प्रदर्शन नहीं किया जा सकता।

वहां तो अज्ञात में उतरने का जिनके पास साहस है, वे ही केवल उतर पाते हैं। जो नक्‍शा मांगते हैं, उन्हें मंदिर के बाहर ही रुक जाना पड़ेगा। जो कहते हैं, आगे जा कर क्या होगा; जब तक हम यह न जान लें, तब तक हम आगे न बढ़ेंगे; वे आगे बढ़ ही नहीं सकते। वहां तो केवल वे ही प्रवेश कर सकते हैं, जो दुस्साहसी हैं, जो कहते हैं, कोई चिंता नहीं है कि आगे क्या होगा। जो कहते हैं कि कोई सुरक्षा की फिक्र नहीं। जो कहते हैं कि मृत्यु भी घटित होगी, तो भी हम राजी हैं। सदा के लिए खो जाएंगे और कभी कुछ न मिलेगा, तो भी हम राजी हैं।

मंदिर के द्वार पर जो इतना दुस्साहस करता है अपने को खोने का, वही प्रवेश करता है।

बाहर से लाया हुआ कोई ज्ञान सहयोगी नहीं हो सकता, क्योंकि कोई ज्ञान स्पर्श नहीं कर सकता उस परम अनुभव का। और इसीलिए जो भी वहां पहुंचता है, वह मौलिक अनुभव में पहुंचता है। हजारों बुद्ध पहुंचे हैं वहां, लेकिन फिर भी मौलिक, अभी भी अछूता है। मौलिक है अनुभव। जब भी कोई व्यक्ति पुन: पहुंचता है उस मंदिर में, तो वह अनुभव करता है कि कुछ भी बासा नहीं है। अगर तुम्हें नक्‍शो दिए जा सकें और शास्त्रज्ञ दिए जा सकें और गाइड दिए जा सकें, और तुम उनके हिसाब से भीतर जा सको, तो अनुभव झूठा हो जाएगा।

अमरीका में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आज अमरीकन यात्री कहीं भी जाए, तो उसे लगता है, जो भी वह देख रहा है, सब बासा है। मजा यह है कि आज अमरीका के पास ही सर्वाधिक सुविधा है दुनिया में चक्कर मारने की। दुनिया भर में यात्रियों का जो विराट दल घूमता है, उसमें अस्सी प्रतिशत अमरीका के निवासी हैं। सारी दुनिया में कोने—कोने तक यात्री पहुंचते हैं, वे अमरीका के निवासी हैं। लेकिन एक बड़े मजे की घटना घटी है, वे जहां भी पहुंचते हैं, उनको लगता है, सब बासा है।

क्योंकि ताजमहल को वे देख चुके हजार दफे चित्रों में, टेलीविजन पर, फिल्म में। जब वे ताजमहल पहुंचते हैं, तो वह हजार दफा देखा हुआ ताजमहल है। वह बासा है। वे बड़ी आशाएं बांध कर आते हैं ताजमहल देखने, लेकिन जब देखते हैं, तो वे अनुभव करते हैं, यह तो हजार दफे देख चुके हैं। और सच तो यह है कि फोटोग्राफी से, टेलीविजन पर, फिल्मों में, जितना सुंदर ताजमहल दिख सकता है, उतना खाली आंखों से दिख नहीं सकता। इसलिए जो असली ताजमहल है, वह फीका लगता है। जो देखा था फिल्मों में, वह कहीं ज्यादा रंगीन था, कहीं ज्यादा बहुमूल्य मालूम पड़ा था।

उसको देख कर यह सोच कर कि मूल इससे भी मूल्यवान होगा, वे देखने आए। लेकिन मूल फीका मालूम पड़ता है। और फिर इतनी दफा देखा जा चुका है, तो मौलिकता तो कुछ है नहीं। इसलिए अमरीकन यात्री घूमता तो बहुत है, लेकिन पहुंचता कहीं भी नहीं, अनुभव उसे कुछ भी नहीं होता। क्योंकि वह जो भी है, सब देखा हुआ है, सब बासा है, सब चीजें उबाने वाली हैं।

अच्छा ही है कि परमात्मा के मंदिर का कोई नक्‍शा नहीं है। नहीं तो तुम वहां भी पहुंच कर सिर पीट लेते। यह वही का वही, जो गीता में पढ़ा था; यह वही का वही, जो पहले ही बुद्ध समझा चुके हैं! तुम वहां भी ऊब जाते। लेकिन उसका कोई नक्‍शा बन नहीं सका, बनेगा भी नहीं कभी। और उसके संबंध में जो भी खबरें दी गई हैं, वे कोई भी खबरें मंदिर के भीतर काम नहीं आतीं, मंदिर के द्वार तक ही ले जाती हैं। इसलिए मंदिर सदा अछूता और कुंआरा है। उसमें तुम जब भी पहुंचते हो तो अनुभव अनूठा है, अद्वितीय है। तुम भी उस अनुभव को करने के बाद किसी को कह न सकोगे। तुम अचानक उस अनुभव के बाद पाओगे कि जो भी कहा जा सकता है, उससे इसका कोई संबंध नहीं। और यह जो देखा है, इसका कहने से कोई संबंध नहीं बनाया जा सकता।

इसलिए सूत्र कहता है कि न तो कोई नियम, न कोई पथ—प्रदर्शक ही उसके लिए हो सकता है! फिर भी शिष्य को समझाने के लिए इस अंतिम युद्ध का वर्णन इस प्रकार कर सकते हैं।

यह जो अंतिम घटना, आखिरी घटना जीवन की घटेगी, मंदिर के द्वार पर सब छोड़ कर भीतर प्रवेश की; वह जो मंदिर के द्वार पर छोड़ने की घटना है, उसका वर्णन किया जा सकता है। वह भी कोशिश है, वह भी पूरी सफल नहीं होती, लेकिन इशारा हो सकता है। वह इशारा कठिन है।

तेरहवां सूत्र, ‘जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलंबन लो।’

जटिलता द्वंद्व की ही है—जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलंबन लो।

हम जानते हैं कि मूर्त क्या है, पदार्थ क्या है, साकार क्या है। पदार्थ का हमें पता है। हमें अमूर्त का कोई पता नहीं है। इसलिए लोग कहते हैं कि आत्मा अमूर्त है, पदार्थ के पार है। पदार्थ का आकार है, गुण है; आत्मा का आकार नहीं, गुण नहीं; निर्गुण है, निराकार है। तो पदार्थ से हम आत्मा की व्याख्या करते हैं। पदार्थ है मूर्त, आत्मा है अमूर्त। हमें तो मूर्त का ही पता है, अमूर्त तक का कोई पता नहीं है।

यह सूत्र कहता है, लेकिन अगर तुम्हें आत्यंतिक सत्य में प्रवेश करना है, तो मूर्त तो छोड़ ही देना पड़ेगा, अमूर्त भी छोड़ देना पड़ेगा; आकार तो छोड़ ही देना पड़ेगा, निराकार भी छोड़ देना पड़ेगा। क्यों? थोड़ा कठिन है। इसीलिए इतनी झिझक के साथ ये सूत्र लिखे गए हैं।

आकार तो छोड़ ही देना पड़ेगा, निराकार भी छोड़ देना पड़ेगा। क्योंकि निराकार में भी आकार मौजूद है। वह आकार से ही पारिभाषित होता है। अगर कोई पूछे कि निराकार क्या है? तो आप यही कहेंगे न कि जहां आकार नहीं। आकार से ही बंधा है निराकार भी। निराकार भी आकार से मुक्त नहीं हो पाता, क्योंकि निराकार की भी कोई व्याख्या नहीं हो सकती आकार के बिना। झगड़ा चलता है; आकारवादी हैं, निराकारवादी हैं; सगुणवादी हैं, निर्गुणवादी हैं! वे बड़ा विवाद करते हैं कि परमात्मा निर्गुण है कि सगुण। हजारों साल से विवाद चलता है।

लेकिन यह सूत्र कहता है कि परमात्मा न सगुण है, न निर्गुण है। यह सूत्र यह कहता है कि निर्गुण की भी परिभाषा जब गुण से ही होती हो, तो कितना सार रहा तुम्हारे निर्गुण में। अगर सच में ही परमात्मा निर्गुण है, तो उसको निर्गुण भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह तो गुण का ही निषेध हो रहा है सिर्फ, गुण का ही इनकार हो रहा है। तो गुण के बिना तुम परमात्मा को भी कुछ नहीं कह सकते हो, तो इतना तो कम से कम तुम्हें मानना ही पड़ेगा कि परमात्मा में गुण भला न हों, लेकिन उसकी परिभाषा गुण के बिना नहीं हो सकती। और जिसकी परिभाषा गुण के बिना नहीं हो सकती, उसको निर्गुण कैसे कहिएगा?

यह सूत्र कहता है कि न वहां सगुण की गति है और न निर्गुण की, वहां न आकार बचता है, न निराकार; वहां न मूर्त बचता है, न अमूर्त; वहां न पदार्थ बचता है, न आत्मा।

जटिल है, कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि पहले तो पदार्थ से आत्मा तक उठना कठिन है। और फिर आत्मा से भी उठना और भी कठिन हो जाता है। पदार्थ और आत्मा भी द्वंद्व का हिस्सा है। पदार्थ और आत्मा भी दो विरोध हैं। चेतना और पदार्थ दो विरोध हैं। पदार्थ तो छूट ही जाना है, चैतन्य भी। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप अचेतन हो जाएंगे वहां। लेकिन जो कुछ भी आपने चेतना की तरह जाना था, वह पाएंगे कि सब व्यर्थ हो गया। और कुछ नई ही घटना घटी है, जो चेतना के भी पार जाती है, जो परा—चैतन्य है, चेतना के भी अतीत हो जाती है।

‘जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलंबन लो।’

इस द्वार के बाहर ही छोड़ देना। इसे हम ऐसा समझें कि यात्रा को हम बांट लें। एक तो यात्रा है, मूर्त को छोड़ो। जो—जो आकार है, उसको छोड़ो, ताकि तुम भीतर के निराकार में प्रवेश कर सको। यह पहली व्यवस्था है। जिस दिन तुम्हारा भीतर प्रवेश हो जाए पूरा— बाहर को छोड़ा था भीतर जाने के लिए—लेकिन जब बाहर बिलकुल छूट जाए, तो भीतर को भी छोड़ देना, क्योंकि भीतर भी बाहर का ही हिस्सा है। पदार्थ को छोड़ा था आत्मवान बनने के लिए और जब पदार्थ पूरा छूट जाए तो इस आत्मवान को भी छोड़ देना।

इसलिए बुद्ध ने कह दिया कि आत्मा नहीं है। और बुद्ध की बात समझी नहीं जा सकी, परम—ज्ञान की बात थी। तो उन्होंने कहा, आत्मा भी नहीं है— अनात्मा, अनत्ता। वह इसी अर्थ में है कि जिस पदार्थ को छोड़ कर आत्मा जानी थी, वह आत्मा भी छोड़ने योग्य है। उसके बाद जो बच रहेगा, तो बुद्ध ने उसके लिए कोई शब्द उपयोग नहीं किया। उन्होंने कहा कि कुछ भी शब्द उपयोग करूंगा तो जटिलता बढ़ती है; कुछ भी कहूंगा तो सीमा बनती है; कुछ भी कहूंगा तो उसके विपरीत भी होता है, इसलिए मैं कुछ भी न कहूंगा।

बुद्ध से जिंदगी भर लोग पूछते रहे कि क्या होता है उस परम घड़ी में? तो बुद्ध कहते थे, जैसे दीया बुझ जाता है, बस ऐसा ही होता है। तुम बुझ जाओगे, जैसे दीए की ज्योति बुझ जाती है, फिर कोई पूछता नहीं कि कहां गई ज्योति? ऐसे ही तुम भी बुझ जाओगे। ज्योति कहां गई, यह पूछना व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए बुद्ध ने मोक्ष शब्द का उपयोग नहीं किया, निर्वाण शब्द का उपयोग किया। निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझ जाना। मोक्ष शब्द से ऐसा लगता है कि तुम बचोगे मुक्त हो कर, लेकिन तुम बचोगे जरूर। बुद्ध कहते हैं, तुम बचोगे ही नहीं, क्योंकि तुम द्वंद्व का ही हिस्सा हो। इसका यह मतलब नहीं कि कुछ भी नहीं बचेगा। सब कुछ बचेगा। जो बचने योग्य है, वह बचेगा। लेकिन उसके लिए बुद्ध कहते हैं, मैं कोई शब्द न दूंगा, क्योंकि सभी शब्द विपरीत से बने हैं, और विपरीत संसार का हिस्सा है।

‘जो मूर्त नहीं और जो अमूर्त भी नहीं, उसका अवलंबन लो।’

चौदहवां सूत्र, ‘केवल नाद—रहित वाणी ही सुनो।’

जो भी वाणी हम सुनते हैं, वह सब आघात से पैदा होती है, दो चीजों की टक्कर से पैदा होती है, द्वंद्व से पैदा होती है। अगर आप मंजीरे को टकराते हैं तो आवाज पैदा होती है। अगर दोनों हाथों को टकराते हैं तो ताली पैदा होती है। अगर हवाएं वृक्षों से गुजरती हैं, तो सरसराहट पैदा होती है। अगर मैं बोल रहा हूं तो मेरा कंठ टक्कर देता है, तो वाणी पैदा होती है। हम जो भी वाणी जानते हैं, वह सब नाद है। संघर्ष से पैदा हुआ है, दो की टक्कर से।

लेकिन उस मंदिर में दो तो बचेंगे नहीं, तो वहां कोई वाणी नहीं हो सकती। वहां शब्द नहीं हो सकता। वहां दो की टकराहट हो नहीं सकती। क्योंकि जहां द्वंद्व नहीं है, वहां टक्कर कैसी? खाली आकाश है। जहां कोई दूसरा नहीं है, तो वहां कैसी वाणी होगी? वहां नाद आघात वाला पैदा नहीं हो सकता।

तो दो बातें हैं— या तो हम कहें नाद—रहित वाणी, नाद—रहित स्वर, ऐसा स्वर जो टक्कर से पैदा नहीं होता, जो दो चीजों के आघात से पैदा नहीं होता। और या फिर संतो ने एक और शब्द चुना है वह भी बहुत कीमती है— अनाहत नाद। अनाहत का मतलब भी यही होता है कि जो आहत से नहीं, टक्कर से पैदा नहीं हुआ— अनाहत। क्या ऐसा कोई नाद है, जो अनाहत है? क्या ऐसा भी कोई नाद है, जो बिना टक्कर के पैदा होता है?

ऐसा अगर कोई नाद है तो वही जीवन का मूल—स्वर है। इसमें कई बातें समझ लेने जैसी हैं। क्योंकि जो चीज टकराहट से पैदा होती है, वह नष्ट हो जाएगी। क्योंकि टकराहट से एक शक्ति की मात्रा उपलब्ध होती है। लेकिन वह एक शक्ति की मात्रा कितनी देर चलेगी? मैं ताली बजाता हूं तो मेरे दोनों हाथों की टक्कर से जितनी शक्ति पैदा होती है, वह शक्ति सीमित है। कितनी देर वह स्वर गूंजेगा? जो पैदा हुआ है, वह नष्ट हो जाएगा। जो बना है, वह मिट जाएगा।

बुद्ध कहते थे, जो संघात से बना है, वह शाश्वत नहीं हो सकता, सनातन नहीं हो सकता। कैसे होगा? जो अभी नहीं था, अभी पैदा हुआ, वह सदा तो नहीं हो सकता। जिस डंडे में एक छोर है, उसमें दूसरा छोर भी होगा ही। तो जिसमें पैदा होने वाला छोर है, उसमें मरने वाला छोर भी होगा। सिर्फ वही हो सकता है शाश्वत, जो पैदा ही न हुआ हो। जो अजन्मा हो, जो अनादि हो, वही अनंत हो सकता है। तो क्या ऐसा भी कोई स्वर, ऐसा भी कोई नाद, ऐसा भी कोई संगीत है, जिसे हम जीवन का संगीत कहें! जो पैदा नहीं हुआ और कभी मिटेगा भी नहीं। और जब तक हम उसे न जान ले, तब तक हमने जीवन की परम व्यवस्था को नहीं जाना।

‘केवल नाद—रहित वाणी ही सुनो।’

वही होगी शक्ति। केवल नाद—रहित स्वर सुनो, वही है परम—संगीत। लेकिन कैसे इसे सुनेंगे? मंत्र शास्त्र ने इसकी व्यवस्था की है। मंत्र शास्त्र कहता है, किसी मंत्र का उच्चार शुरू करो। तो पहले जोर से उच्चार करो, ओंम का उच्चार शुरू करो, औंम सुनाई पड़ेगा, हवाओं में गूंजेगा। फिर जब यह उच्चार सध जाए और जब ओंम इस तरह गंजने लगे कि तुम्हारे भीतर कोई दूसरा शब्द, कोई दूसरा विचार न रह जाए, तभी तुम्हारा ओंम शुद्ध होगा। नहीं तो तुम्हारे भीतर अगर कोई भी विचार चल रहा है, तो उसकी छाया तुम्हारे औंम की गज में भी मौजूद रहेगी। इसे थोड़ा समझना।

अगर तुम ओंम कह रहे हो, और तुम्हारे मन में चल रहा है कि जा कर बाजार से कोई सामान खरीद लाएं, तो तुम्हारा ओंम जो है, वह अशुद्ध हो रहा है। क्योंकि उसके पीछे यह स्वर भी जुड़ा हुआ है बारीक कि बाजार जाएं, सामान खरीद लाएं, यह स्वर उसे विकृत कर रहा है। तुम्हारा औंम तब शुद्ध हो जाएगा, जब सिर्फ ओंम की ही गज होगी और भीतर कोई दूसरा विचार न होगा। उसे विकृत करने वाला कोई भी मौजूद न होगा। जिस दिन तुम्हारे ओंम का यह गुंजार शुद्ध हो जाए, उस दिन तुम ओंठ बंद कर लेना और अब तुम भीतर ही ओंम को गुजाना। अब तुम जोर से मत बोलना, अब तुम सिर्फ भीतर ही गुजाना। ओंठ बंद रखना, हवा की टक्कर से बचाना, तो भीतर ओंम का गुंजार चलेगा। और जब भीतर ओंम का गुंजार चलेगा, तब फिर खयाल रखना, दूसरे गहरे तल पर भी तुम्हारे मन में कोई विचार तो नहीं है! कोई कामना, कोई वासना, कोई भावना तो नहीं है! अगर वह भावना और वासना और कोई विचार चल रहा है गहरे तल पर, तो वह अशुद्ध कर रहा है, उसको भी विसर्जित करना। और भीतर सिर्फ—ओंम की जब गंज रह जाए, तब तुम तीसरा प्रयोग करना। तब तुम ओंम को पैदा मत करना, तुम सिर्फ आंख बंद करके सुनना। जैसे कि ओंम तुम्हारे भीतर गंज रहा है, तुम कर नहीं रहे हो।

यह घटना घटती है, अगर दोनों चीजें शुद्ध हो गई हों पहले प्रयोग में। तुमने ओंम का गुंजार किया और भीतर कोई विचार न बचे, तो तुम्हारे चेतन मन से विचार समाप्त हो गए। अब तुम ओंठ बंद कर लो, अब तुम ओंम का गुंजार भीतर करो। अब तुम्हारे अचेतन मन में विचार बाधा डालेंगे। अब तुम गुंजार इतना करो कि तुम्हारा अचेतन मन भी उसमें गंज जाए और कोई भीतर विचार न रह जाएं, तो तुम्हारा अचेतन मन भी शांत हो गया। तुम्हारे मन की दो पर्तें शांत हो गईं। अब तुम ओंम का गुंजार बंद कर दो। क्योंकि मन जब शांत हो जाता है, तो तुम्हारे हृदय के अंतस्तल में जो गुंजार चल ही रहा है स्वभावत: — सदा से चल रहा है, जिससे तुम बने हो, जो तुम्हारी मूल प्रकृति है—वह अब तुम्हें सुनाई पड़ सकता है। तुम्हारे विचारों के कारण ही वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता था। अब सुनाई पड़ सकता है।

तो तुमने जो पहले ओंम का पाठ किया, वह असली मंत्र नहीं है। वह तो केवल तुम्हारे विचारों से छुटकारे का उपाय है। अब तुम चुप हो जाओ और सुनो। बोलो मत। अब तक तुम बोलते थे। पहले तुम जोर से ओंम बोले थे, फिर तुमने धीमे से भीतर ओंम को बोला था। अब तुम बोलो मत, अब तुम सुनो। अब तुम सिर्फ सुनो भीतर कि क्या वहां ओंम गज रहा है? और तुम चकित हो जाओगे, औंम का गुंजार तुम्हारे प्राणों से आ रहा है। और तुम्हारे रोएं—रोएं, शरीर में फैलता जा रहा है। यह प्रतीति जैसे— जैसे तुम्हारी साफ होती जाएगी, तुम पाओगे कि ओंम तुम्हारा जीवन—स्वर है।

यह जो स्वर तुम्हें सुनाई पड़ेगा, यह अनाहत है। क्योंकि वह किसी चीज के संघर्षण से पैदा नहीं हो रहा है। इसको कबीर और नानक अजपा कहते हैं, क्योंकि यह किसी जप से पैदा नहीं हो रहा है। यह सूत्र इसको नाद—रहित वाणी कहता है।

‘केवल नाद—रहित वाणी ही सुनो।’

पंद्रहवां सूत्र, ‘जो बाह्य और अंतर दोनों चक्षुओं से अदृश्य है, केवल उसी का दर्शन करो।’

जगत को हमने देखा— इंद्रियों का एक आयाम। जो बाहर था, वह हमने देखा। फिर हमने इंद्रियों का दूसरा आयाम खोला और हमने उसको देखा, जो भीतर है। आंख ने बाहर देखा जगत को, पदार्थ को। फिर आंख ने भीतर देखा और देखा आत्मा को।

यह सूत्र कहता है, अब तुम बाहर और भीतर दोनों की आंखें बंद कर लो। अब तुम उसे देखो, जो आंखों से देखा ही नहीं जाता। अब तुम उसे देखो, जो इंद्रियों से स्पर्शित ही नहीं होता है। अब तुम बाहर— भीतर से भी मुक्त हो जाओ और अब तुम उस परम को देखो, जो न बाहर है, न भीतर है। या दोनों में है, बाहर भी है और भीतर भी है।

यह जो तीसरा है—बाहर भी नहीं, भीतर भी नहीं या बाहर भी और भीतर भी— यही है वह एक। इस एक की खोज में तुम्हें दोनों तरह के प्रयोग इंद्रियों के छोड़ देने पड़ेंगे।

इसे हम ऐसा समझें। बाहर की इंद्रियों से जो हम देखते हैं, वह है जगत, पदार्थ। भीतर की इंद्रियों से जो हम देखते हैं, वह है आत्मा, चेतना। और दोनों को छोड़ कर जो हम देखते हैं, वह है परमात्मा। या ऐसा समझें। बाहर की इंद्रियों से जो हम देखते हैं, वह है विचार। भीतर की इंद्रियों से जो हम देखते हैं, वह है ध्यान। और बाहर और भीतर दोनों इंद्रियों को छोड़ कर जो हम देखते हैं, वह है समाधि।

बाहर से जो देखा, वह भी आधा है। भीतर जो देखा, वह भी आधा है। बाहर और भीतर दोनों को छोड़ कर जब हम देखते हैं, तो वही पूरा है, वही पूर्ण है। और जब तक पूर्ण को नहीं देखा, तब तक मुक्ति नहीं है। अधूरा बांधता है, पूर्ण मुक्त करता है।

‘तुम्हें शांति प्राप्त हो।’

परम—शांति उसी क्षण प्राप्त होती है, जब तुम बचे ही नहीं। जब तक तुम हो, तुम अशांत रहोगे। इसलिए आखिरी बात खयाल में ले लेनी चाहिए। तुम कभी भी शांत न हो सकोगे, क्योंकि तुम्हारे होने में ही अशांति भरी है। तुम्हारा होना ही अशांति है, उपद्रव है। जब तुम ही न रहोगे, तब ही शांत हो पाओगे।

इसलिए जब कहा जाता है कि तुम्हें शांति प्राप्त हो, तो इसके बहुत अर्थ हैं। इसका अर्थ है कि तुम न हो जाओ, तुम समाप्त हो जाओ, ताकि शांति ही बचे। तुम्हीं तो उपद्रव हो।

सागर में तूफान आता है। फिर तूफान शांत हो जाता है। तो हम कहते हैं, तूफान शांत हो गया। लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या शांत तूफान वहां मौजूद है? शांत तूफान का अर्थ ही होता है कि तूफान न रहा। कोई आदमी बीमार पड़ता है। फिर ठीक हो जाता है। हम कहते हैं, बीमारी ठीक हो गई। इसका क्या मतलब है? बीमारी ठीक हो कर वहां मौजूद है? बीमारी ठीक हो गई, इसका अर्थ ही यह है कि बीमारी नहीं हो गई, बीमारी अब नहीं है। बीमारी थी, अब नहीं है।

आप जो भी अभी हैं, बीमारी का जोड़ हैं। तुम कभी शांत न हो सकोगे, जब तक कि यह ‘तुम’ शांत ही न हो जाए, जब तक कि यह ‘तुम’ खो ही न जाए।

तुम्हें शांति प्राप्त हो, इसका एक ही अर्थ है कि तुम उस जगह पहुंच जाओ, जहां तुम न रहो। जब तक तुम हो, तुम अशांति का स्वर खींचते ही चलोगे। इसलिए धर्म महा—मृत्यु है। उसमें तुम पूरी तरह मर जाते हो, तुम बचते नहीं। जो बचता है, वह तुम्हारा अंतरतम है, तुम्हारा केंद्र है। लेकिन उससे तुम्हारा अभी कोई परिचय नहीं है। वह शांत है, वह अभी भी शांत है। अगर तुम चुप हो जाओ अभी भी, तुम न रहो, तो अभी भी तुम उस शांति को सुन सकोगे। तुम हो कोलाहल, भीड़, उपद्रव, विक्षिप्तता। तुम्हारे कारण वह जो भीतर का शांत अनाहत नाद है, वह जो नाद—रहित वाणी है, वह जो शून्य—स्वर है, वह सुनाई नहीं पड़ता।

एक क्षण को भी तुम न रहो, तो उसका दर्शन हो जाए। और एक बार उसका दर्शन हो जाए, तो तुम फिर वापस न लौट सकोगे। क्योंकि तब तुम जान ही लोगे कि इस बीमारी को वापस बुलाने का कोई प्रयोजन नहीं।

लेकिन अभी हम कोशिश करते हैं। अभी हम कोशिश करते हैं कि मैं शांत हो जाऊं, बिना इसकी फिक्र किए कि मैं ही तो अशांति है। अभी हम कोशिश करते हैं कि मैं कैसे मुक्त हो जाऊं, बिना इसकी फिक्र किए कि मैं ही तो अमुक्ति हूं।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारी मुक्ति नहीं, तुमसे मुक्ति। तुम्हारी कोई मुक्ति न होगी, तुमसे ही मुक्ति होगी। और जिस दिन तुम अपने को छोड़ पाओगे, जैसे सांप अपनी केंचुल छोड़ देता है, उस दिन अचानक तुम पाओगे कि तुम कभी अमुक्त नहीं थे। लेकिन तुमने वस्त्रों को बहुत जोर से पकड़ रखा था, तुमने खाल जोर से पकड़ रखी थी, तुमने देह जोर से पकड़ रखी थी, तुमने आवरण इतने जोर से पकड़ रखा था कि तुम भूल ही गए थे कि यह आवरण हाथ से छोड़ा भी जा सकता है।

ध्यान की समस्त प्रक्रियाएं, क्षण भर को ही सही, तुमसे इस आवरण को छुड़ा लेने के उपाय हैं। एक बार तुम्हें झलक आ जाए, फिर ध्यान की कोई जरूरत नहीं। फिर तो वह झलक ही तुम्हें खींचने लगेगी। फिर तो वह झलक ही चुंबक बन जाएगी। फिर तो वह झलक तुम्हें पुकारने लगेगी और ले चलेगी उस राह पर, जहां यह सूत्र पूरा हो सकता है, ‘तुम्हें शांति प्राप्त हो।’

(समाप्‍त)


Filed under: साधना--सूत्र--(मैबलकॉलिन्‍स) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–7)

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अंतर्यात्रा पर निकलो—(प्रवचन—सातवां)

प्‍यारे ओशो,

अथर्ववेद में एक ऋचा है:

पृष्‍ठात्‍पृथिव्‍या अहमन्‍तरिक्षमारूहम्

अन्‍तरिक्षाद्दिविमारूहम् दिवोनाकस्‍य

पृष्‍ठात्उस्‍वर्ज्‍योतिरगामहम्।

अर्थात हम पार्थिव लोक से उठकर अंतरिक्ष लोक में आरोहण करो,

अंतरिक्ष लोक से ज्‍योतिष्‍मान् देवलोक के शिखर पर पहुंचें और

ज्‍योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्‍योतिपुंज में विलीन हो जाएं।

प्‍यारे ओशो ! कृपया बताएं कि ये लोक क्‍या है और कहां है?

चैतन्य कीर्ति! लोक शब्द से भ्रांति हो सकती है—हुई है। सदियों तक शब्दों की भ्रांतियों के दुष्परिणाम होते हैं। लोक शब्द से ऐसा लगता है कि कहीं बाहर, कहीं दूर—यात्रा करनी है किसी गंतव्य की ओर। लोक से भौगोलिक बोध होता है—जबकि ऋषि का मंतव्य बिल्कुल भिन्न है। यह तुम्हारे भीतर की बात है—तुम्हारे अंतरलोक की।

जो जानता है, वह बात ही भीतर की करता है। बाहर की बात तो सिर्फ इसलिए की जा सकती है ताकि भीतर की बात का स्मरण दिलाया जा सके। तुम तो बाहर की भाषा समझते हो, इसलिए मजबूरी है ऋषियों की। उन्हें बाहर की भाषा बोलनी पड़ती है। तुम जो समझ सकते हो वही तुमसे कहा जा सकता है। लेकिन फिर खतरा है। खतरा यह है कि तुम वही समझोगे जो तुम समझ सकते हो। ऋषि जब जीवित होता है, तब तो वह तुम्हारी भ्रांतियों को रोकने के उपाय कर लेता है, तुम्हें सम्हाल लेता है, शब्दों के जाल में नहीं पड़ने देता। लेकिन जब ऋषि मौजूद नहीं रह जाता और ऋषि की जगह पंडित—पुरोहित ले लेते हैं—जिनका कि सारा आयाम ही शब्दों का है—तब ठीक वह होना शुरू हो जाता है जो ऋषि के विपरीत है।

लेकिन फिर भी ईसाई जब हाथ जोड़ते हैं आकाश की तरफ तो वह ईश्वर तुम्हारे भीतर है। जीसस ने बहुत बार दोहराया कि वह ईश्वर का राज्य तुम्हारे भीतर है— थक गये बुद्धपुरुष कह—कहकर, लेकिन जब भी तुम पूजा करते हो तो किसी मूर्ति की। और अगर मूर्ति की भी न की, अगर मस्जिद में भी गये, तो पुकार भी लगाते हो तो बाहर के किसी परमात्मा के लिए। सारी अंगुलियां भीतर की तरफ इशारा कर रही हैं और तुम जब भी देखते हो तो बाहर की तरफ देखते हो।

मत पूछो कि ये लोक कहां हैं।’कहां’ से उपद्रव शुरू हो जाता है? तुमने पूछा कि कोई बतानेवाला मिल जाएगा कि कहां हैं। नक्‍शे टंगे हैं मंदिरों में, इन लोकों के। ये लोक तुम्हारी चेतना के भिन्न आयामों के नाम हैं। और इतना साफ है, फिर भी आदमी इतना अंधा है। सारी बातें इतनी रोशन हैं, फिर भी अंधे को तो कैसे दिखाई पडे! रोशनी ही दिखाई नहीं पड़ती, रोशनी में लिखे गये ये सूत्र हैं। इसलिए हमने इनकोऋचा कहा है, साधारण कविता नहीं।

कविता और ऋचा में भेद है। कविता अज्ञानी की ही व्यवस्था है, जोड़—तोड़ है, शब्दों का जमाव है। राग में बांध ले, छंद में बांध ले, तुक बिठा दें—वह सब ठीक, लेकिन अंधेरा और अंधा टटोले, बस ऐसी ही कविता है। ऋषि हम उसे कहते हैं जिसने देखा और जो देखा, उसे ग्गुनगुनाया, उसे गाया।

ऋषियों से जो वचन झरते हैं, बुद्धपुरुषों से जो वचन झरते हैं, उनके लिए हमने अलग ही नाम दिया—ऋचा। ऋषि से आए तो ऋचा। और ऋषि वह जो देखने में समर्थ हो गया, जिसके भीतर की आंख खुल गयी। भीतर की आंख खुलेगी तो भीतर की ही बात होगी। तुम्हारी तो बाहर की आंखें हैं, भीतर की आंख बंद है। ऋषि भीतर की कहते हैं, तुम बाहर की समझते हो।

इसलिए हर शास्त्र गलत समझा गया है और हर शास्त्र की गलत टीकाएं और व्याख्याएं की गयी हैं। कोई ऋषि ही किसी दूसरे ऋषि के मंतव्य को प्रगट कर सकत है। यह काम पाडित्य का नहीं, शास्त्रीयता का नहीं।

पार्थिव लोक से अर्थ है—तुम्हारी देह, तुम्हारा शरीर। अंतरिक्ष लोक से अर्थ है—तुम्हारा मन! ज्योतिष्मान देवलोक के शिखर से अर्थ है—आत्मा। और प्रकाशमान ज्योतिपुंज में अंततः सब विलीन हो जाता है, वह है अस्तित्व का नाम—चौथी अवस्था, तुरीय, समाधि, निर्वाण। तीन को पार करना है, चौथे को पाना है। न केवल शरीर के पार जाना है, न केवल मन के पार जाना है—आत्मा के भी पार जाना है, क्योंकि आत्मा भी सूक्ष्म रूप में अहंकार ही है। मैं— भाव अभी भी मौजूद है। आत्मा का अर्थ ही होता है : मैं। इसलिए बुद्ध ने ‘अनत्ता’ शब्द का उपयोग किया।’ अत्ता’ यानी आत्मा, मैं। अनत्ता यानी ‘न—मैं’, अनात्मा।

बुद्ध को समझा नहीं जा सका। अथर्ववेद की टीका करनेवाले भी नहीं समझे, कैसा मजा है! ब्राह्मण, पंडित—पुरोहित नहीं समझे। जो दोहराते हैं ऋचाओं को निरंतर और यह अथर्ववेद का सूत्र यही कह रहा है कि ‘ज्योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन हो जाएं, जहां सब विलीन हो जाता है।’ इस ‘विलीन’ के लिए बुद्ध ने जो शब्द चुना, बड़ा प्यारा है—’निर्वाण’। निर्वाण का अर्थ होता है : दीये का बुझ जाना। जैसे दीया जला हो और तुम फूंक मार दो और दीया बुझ जाए और कोई पूछे कि कहां गयी ज्योति। कहा बताओगे? कहोगे विलीन हो गयी, इतना ही कह सकते हो। अब न बता सकोगे—कहां है, पता, ठिकाना, विलीन हो गयी! अस्तित्व में एक हो गयी।

जैसे दीये का बुझ जाना है, ऐसे ही व्यक्ति को बुझ जाना है—तब समष्टि के साथ एकता सधती है। व्यक्ति का होना एक तरह का त्रैत है। शरीर, मन, आत्मा—यह त्रिकोण है। इस त्रिकोण से तुम निर्मित हो। इस त्रिकोण के ठीक मध्य में वह बिंदु है, जहां त्रिकोण शून्य हो जाता है। ये तीनों कोने मिट जाते हैं; निराकार प्रगट होता है, सब आकार खो जाता है।

बहुत स्पष्ट है ऋचा—’हम पार्थिव लोक से उठकर अंतरिक्ष लोक में आरोहण करें।’ हम उठें शरीर से। अधिक लोग तो शरीर में ही खोये हैं। जो शरीर में खोया है, वह पशु। जो शरीर में खोया है, वह शूद्र। फिर चाहे वह ब्राह्मण—घर में पैदा हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जो शरीर में है, वह शूद्र। और अधिकतम लोग शरीर में हैं। शरीर ही उनका सब कुछ है। खाओ, पीओ, मौज करो—बस इतना ही उनके जीवन का अर्थ है। यही उनके जीवन का गणित है। काम उनके जीवन की सारी अर्थवत्ता है। वासना उनका सारा विस्तार है। भोग—बस इतिश्री आ गयी! भोजन, वस्त्र, काम, धन—दौलत, पद—प्रतिष्ठा—बस, यहीं सब समाप्त हो जाता है।

और रोज देखते हैं, लोगो को गिरते। रोज देखते हैं, लोगों को कब्रों में उतरते। रोज देखते हैं, लोगों को चिताओं पर जलते। फिर भी होश नहीं आता। जैसे तय ही कर रखा है कि होश को आने न देंगे!

और यह जो शरीर का तल है, यहीं हमारे सारे संबंध हैं। पत्नी है, पति है, बेटे हैं, बेटियां हैं, परिवार है, मित्र हैं, प्रियजन हैं—और कौन अपना है? कहां कौन किसका है? मगर जीवनभर यही आकांक्षा रहती है—किसी तरह खोज लें, शायद कहीं कोई मिल जाए। अभी तक नहीं मिला, आज तक नहीं मिला, कल मिल सकता है—आशा बनी रहती है। आशा की टिमटिमाती मोमबत्ती में हम चले जाते हैं।

अब तक मुझे न कोई मिस सजदा मिला

जो भी मिला असीर—जमानो—मका मिला

जो भी मिला……….

क्या जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश

सौ बार बिजलियों को मिस आशियां मिला

सौ बार बिजलियों को……

उकता गया हूं जादा—ए नौ की तलाश में

हर राह में कोई न कोई कारवां मिला

हर राह में………

किन हौसलों के कितने दीये बुझ के रह गये

सोजे—आशिकी तू बहुत की गत मिला

सोजे—आशिकी……

था एक राजदारे मुहब्बत से लुके—जीस्त

लेकिन वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला

लेकिन वो राजदारे…..

अब तक मुझे न कोई मिरा राजदा मिला

अब तक मुझे न कोई……..

 

कहां मिलता है कोई संगी—साथी, राजदा? असंभव है मिलना। मगर आशा मिट—मिटकर भी नहीं मिटती। गिर जाती है, फिर उठा लेते हैं। हर बार गिरती है, फिर सम्हाल लेते हैं। नये सहारे, नयी बैसाखिया खोज लेते हैं। कितनी बार तुम्हारा आशियां नहीं जल चुका! कितनी बार बिजलियां नहीं गिरीं तुम्हारे आशियां पर! देह में तुम पहली बार तो नहीं हो, अनंत बार रह चुके हो। यह अनुभव कोई नया नहीं, मगर भूल— भूल जाते हो, विस्मरण करते चले जाते हो।

क्या जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश

पता नहीं कैसा है आदमी कि फिर—फिर भरोसा कर लेता है! वही भूलें, वही भरोसे, कुछ नया नहीं। वर्तुल में घूमता रहता है—कोल्हू के बैल की भांति घूमता रहता है।

क्या जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश

साए बार बिजलियों को मिस आशियां मिला

और फिर भी सौ बार बिजलियां गिर चुकीं, बार—बार मौत आयी, बार—बार आशियां मिटा। फिर—फिर चार तिनके जोड़कर तुम आशियां बना लेते हो—फिर इस आशा में कि अब नहीं बिजलियां गिरेंगी।

क्या जाने क्या समझ के हमेशा किया गुरेश

सौ बार बिजलियों को मेरा आशियां मिला

उकता जाते हो, ऊब जाते हो, घबड़ा जाते हो, बेचैन हो जाते हो—फिर .कोई सांत्वना खोज लेते हो। नहीं मिलती तो गूढ़ लेते हो, ईजाद कर लेते हो।

उकता गया हूं जादा—ए—नौ की तलाश में

हर राह में कोई न कोई कारवां मिल

और तुम ने देखा, तुम अकेले ही नहीं चल रहे हो। किसी भी राह पर जाओ, धन के पीछे दौड़ो, पद के पीछे दौड़ो, यश के पीछे दौड्रो—हर जगह तुम करोड़ों की भीड़ को जाते देखोगे।

उकता गया हूं जादा—ए—नौ की तलाश में

हर राह में कोई न कोई कारवां मिला

कारवां चले जा रहे हैं। तुम अकेले नहीं हो। इससे और भाति होती है। ऐसा लगता है, जहां इतने लोग जा रहे हैं वहां कुछ जरूर होगा, इतने लोग गलती में नहीं हो सकते। तो फिर अपने को सम्हाल लेते हो। जागते—जागते रुक जाते हो, फिर सपने में पड़ जाते हो।

     किन हौसलों के कितने दीये बुझ के रह गये

ऐ सोजे—आशिकी तू बहुत ही गरा मिला

और क्या—क्या हौसले लेकर आदमी चलता है! क्या—क्या स्‍वप्‍न संजोता है! हर बार दीये बुझ जाते हैं। जरा—सा हवा का झोंका और दीया बुझा। फिर हम जला लेते हैं। दूसरों से मांग लेते हैं तेल—बाती। दूसरों से मांग लेते हैं ज्योति। फिर—फिर दीये जला लेते हैं। दीये बुझते जाते हैं, हम जलाते चले जाते हैं।

किन हौसलों के कितने दीये बुझके रह गये

ऐ सोजे—आशिकी तू बहुत ही गत मिला

मगर यह हमारी वासना का विस्तार कुछ ऐसा है, टूटता ही नहीं। होश आता ही नहीं। अपने को सम्हाल ही नहीं पाते।

था एक राजदारे मुहब्बत से लुके—जीस्त ले

किन वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला

 

आशा भर रहती है कि कोई मिल जाएगा अपना, कि कोई मिल जाएगा प्रेमी, कि कोई प्रेयसी, कि कोई मित्र। इसी आशा मे सोचते हैं जिंदगी मे रस आ जाएगा, फूल खिल जाएंगे।

था एक राजदारे मुहब्बत से लुके—जीस्त

लेकिन वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला

सोचो तो, कितने जमाने हो गये खोजते—खोजते—वो राजदारे मुहब्बत कहां मिला।

अब तक न मुझे कोई मिस सजदा मिला

जो भी मिला असीरे—जमानो—मका मिला

अब तक मुझे न कोई मिस सजदा मिला

यहां शरीर के तल पर सिवाय असफलता के और कुछ भी नहीं, सिवाय विषाद के और कुछ भी नहीं। शरीर से ऊपर उठो। तुम शरीर ही नहीं हो, तुम्हारे भीतर और बहुत है।

शरीर तो यूं समझो कि अपने घर के कोई बाहर ही बाहर जी रहा हो, अपने घर के भीतर ही नहीं प्रवेश किया हो। यूं बाहर ही चक्कर काट रहे हो, जरूर। चलो, जरा भीतर चलो—शरीर से थोड़े भीतर, शरीर से थोड़े ऊपर। और भीतर और ऊपर का एक ही अर्थ है। भाषाकोश में कुछ भी हो, जीवन के कोश में एक ही अर्थ है। जितने भीतर गये उतने ऊपर गये। जितने बाहर आये उतने नीचे गये।

भीतर चलो तो मन है। मन अंतर्यात्रा का पहला पड़ाव है। मन अर्थात् मनन की क्षमता, सोचने—विचारने की कला। मनन पैदा हो तो इतना तो दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि शरीर के जगत मे सिर्फ भ्रांतियां हैं, मोह हैं, आसक्तियां हैं, बंधन हैं, पाश हैं। इसलिए मैंने कहा, जो शरीर में जीता है वह पशु—बंधा हुआ पशु—पाश से बंधा हुआ, जकड़ा हुआ।

भोजन, यौन—ये दो छोर हैं जिनके बीच घड़ी के पैण्डुलम की तरह शरीर में बंधा आदमी घूमता रहता है—एक से दूसरे की तरफ। इसे समझ लेना। जो लोग अपनी कामवासना को दबा लेंगे उनका भोजन में बहुत रस हो जाएगा, क्योंकि पैण्डुलम उनका भोजन में अटक रहेगा। जो लोग अपने भोजन पर दबाव डालेंगे, रुकावट डालेंगे, उनके जीवन में कामवासना ही कामवासना रह जाएगी।

मन अर्थात् मनन। जरा सोचना अपने जीवन के संबंध में कि यह क्या है, मैं क्या कर रहा हूं क्या मेरे हाथ लग रहा है, क्या किसी और के हाथ लग रहा है? इतने लोग दौडते रहे, इतने लोग सदियों—सदियों तक खोजते रहे, किसी को कुछ भी नहीं मिला है, मुझे कैसे मिल जाएगा? एक व्यक्ति नहीं है पूरी मनुष्य—जाति के इतिहास में, जिसने यह कहा हो—बाहर मैंने खोजा और पाया। जिन्होंने पाया वे थोड़े—से लोग यही कहते हैं : भीतर खोजा और पाया। बाहर खोजनेवाला तो एक नहीं कह सका कि मैंने पाया। है ही नहीं पाने को तो कोई कहेगा भी कैसे? किस मुंह से कहेगा? किस बल से कहेगा? किस आधार पर कहेगा?

सोचो, तो थोड़ा—सा शरीर के ऊपर उठना शुरू होता है। लेकिन फिर सोच—विचार में ही उलझे न रह जाना, नहीं तो उठे थोडे ऊपर, गये थोड़े भीतर, लेकिन फिर अटकाव खड़ा हो जाता है। कुछ लोग जो शरीर से थोडे ऊपर उठते हैं, वे मन में उलझे रह जाते हैं। उनका रस बदल जाता है, शरीर के रस से बेहतर हो जाता है। संगीत में उनका रस होगा, काव्य में उनका रस होगा, कला में उनका रस होगा। कोई पशु, कोई पक्षी उत्सुक नहीं है—कला में, दर्शन में, काव्य में, मूर्तियों में, चित्रों में, संगीत में। मनुष्य केवल उस दिशा में यात्रा कर पाता है।

‘मनुष्य’ शब्द भी मनन से ही बनता है, मन से ही बनता है। जब तुम देह के ऊपर उठते हो तो तुम पशु नहीं रह जाते। मन में आते हो तो मनुष्य हो जाते हो—लेकिन बस मनुष्य। उतना होना काफी नहीं है। वह शुरुआत है सिर्फ यात्रा की, अंत नहीं, बस प्रारम्भ है। फिर जल्दी ही सोच—विचार करनेवाले व्यक्ति को यह भी दिखाई पड़ेगा कि सोच—विचार भी हवा में महल बनाना है, इससे भी कुछ उपलब्धि नहीं है। कितना ही तर्कयुक्त सोचो, कोई निष्कर्ष हाथ नहीं लगता। दर्शनशास्त्र के पास कोई निष्कर्ष नहीं है, कोई निष्पत्ति नहीं है।

फिर मन ही मन के ऊपर उठने का पहला बोध देता है, कि शरीर से ऊपर उठे, थोड़ा मुक्त आकाश मिला—अंतरिक्ष मिला अंतर—आकाश मिला! एक कदम और उठकर देखे।

मन से ऊपर उठने की कला का नाम ध्यान है। शरीर से ऊपर उठने की कला का नाम मनन है। मन से ऊपर उठने की कला का नाम ध्यान है। ध्यान से आत्मा मिलेगी। और आत्मा में बहुत सुख है, बहुत अर्थ है, गरिमा है, महिमा है। और इसलिए खतरा भी बहुत है। बहुत—से धार्मिक व्यक्ति आत्मा पर ही अटक रह गये। इतना सुख था कि उन्होंने सोचा, इससे ज्यादा और क्या हो सकता है! आत्मा में जितना मिलता है, उससे ज्यादा की कल्पना करना भी असंभव है। लेकिन कुछ हिम्मतवर आत्मा के भी पार गये। उन्होंने कहा : शरीर को छोड़ा इतना पाया; मन को छोड़ा, और बहुत पाया। काश, आत्मा को भी छोड़ सकें तो पता नहीं कितना मिले! बड़े साहस की जरूरत है।

और बुद्धत्व केवल उनको उपलब्ध होता है जो आत्मा को भी छोड़ देते हैं। कुछ हिम्मतवर लोगों ने वह अंतिम कदम भी उठाया। खतरनाक कदम है। किसी अतल अज्ञात में गिरना है, जिसका कोई ओर—छोर नहीं होगा। उसी को अथर्ववेद कह रहा है : ‘और फिर ज्योतिर्मय देवलोक से अनंत प्रकाशमान ज्योतिपुंज में विलीन हो जाएं।’ फिर विलीन हो जाने के सिवाय कुछ भी नहीं है।

थोड़े से तुम बचते हो आत्मा में, बस थोड़े से—अस्मि, मैं— भाव। जरा—सी आखिरी रेखा, जैसे पुच्छल तारा गुजर जाता है और पीछे थोड़ी—सी रेखा छूट जाती है। थोड़ी देर जगमगाती रहती है, फिर विलीन हो जाती है। या जैसे जैट गुजरता है तो उसके पीछे धुएं की एक रेखा बनी रह जाती है। फिर थोड़ी देर मे वह भी बिखर जाती है।

आत्मा भी धुएं की एक रेखा मात्र है—मगर बहुत सुखद, बहुत फूलों से भरी, बहुत सुगंधित—इसलिए अटकाने मे बहुत समर्थ। और जिन्होंने सिर्फ शरीर ही जाना है, मन ही जाना है, उनके लिए तो यूं हो जाता है कि मिल गया धनों का धन। इसलिए बहुत—से धार्मिक व्यक्ति आत्मा पर रुक जाते हैं, सोचते हैं, बस आ गया पड़ाव, अंतिम मंजिल आ गयी, अब कहीं जाना नहीं!

अभी एक कदम और है : तुरीय। अभी चतुर्थ को पाना है। जब तक हो तब तक समझना कि अभी और कुछ पाने को शेष है। मिट जाना है, तल्लीन हो जाना है, विलीन हो जाना है। जैसे सरिता सागर में विलीन हो जाती है—ऐसे! तुम्हारी जो ज्योति है अलग— थलग वह महाज्योति में एक हो जाए। तब मैं बचता ही नहीं।

ऐसा नहीं है कि बुद्धों ने मैं शब्द का उपयोग नहीं किया—करना पड़ता है, लेकिन बस उपयोगिता की दृष्टि से, क्योंकि तुमसे बात करनी है। अन्यथा उनके भीतर कोई मैं नहीं है।

यह सूत्र प्यारा है। लेकिन चैतन्य कीर्ति, मत पूछो कि ये लोक कहां हैं। ये तुम्हारे भीतर हैं। ये तुम्हारी निज की सम्पदाएं हैं। अंतर्यात्रा पर निकलो! अथर्ववेद का यह सूत्र तुम्हारी पूरी अंतर्यात्रा के मार्ग को आलोकित कर सकता है।

‘ज्यू मछलीबिन नीर’ प्रवचनमाला से

दिनांक23 सितम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।


Filed under: उपनिषद--मेरा स्‍वर्णिम भारत(विविध उपनिषद) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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