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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–185

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ऊर्ध्‍वगमन और अधोगमन—(प्रवचन—छठवां)

अध्‍याय—16

सूत्र

इदमद्य मया लब्‍धमिमं प्राप्‍स्‍ये मनोरथम् ।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।। 13।।

असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्‍ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहम्हं भोगी सिद्धोsहं बलवान्तुखी।। 14।।

आढ्योऽभिजनवानस्मि कीऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्‍ये दास्यामि मौदिष्य इत्‍याज्ञानविमीहिता:।। 15।।

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृता:।

प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेsशुचौ।। 16।।

और उन आसुरी पुरूषों के विचार इस प्रकार के होते है, कि मैने आज यह तो पाया है और हस मनोरथ को प्राप्त होऊंगा तथा मेरे पास यह हतना धन है और फिर भी यह भविष्य में और अधिक होवेगा।

तथा वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा। मैं ईश्वर अर्थात ऐश्वर्यवान हूं और ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान और सुखी हूं।

मैं का धनवान और के कुटुंब वाला हूं; मेरे समान दूसरा कौन है! मैं यज्ञ करूंगा, दान देऊंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा—इस प्रकार के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित हैं। वे अनेक प्रकार से भ्रमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन मोहरूप जाल में फंसे हुए एवं विषय—भोगों में अत्यंत आसक्त हुए महान अपवित्र नरक में गिरते हैं।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : गीता के इस अध्याय में देवों और असुरों के गुण बताए गए। हम असुरों से तो धरती पटी पड़ी है, किंतु देव तो करोड़ों में कोई एक होता है। ऐसा क्यों है?

 

जीवन में एक अनिवार्य संतुलन है। जितनी यहां बुराई है, उतनी ही यहां भलाई है। जितना यहां अंधेरा है, उतना ही यहां प्रकाश है। जितना यहां जीवन है, उतनी ही यहां मृत्यु है। दोनों में से कोई भी कम—ज्यादा नहीं हो सकते। दोनों की बराबर मात्रा चाहिए, तो ही जीवन चल पाता है। वे गाड़ी के दो चाक हैं

संसार चल रहा है, चलता रहा है, चलता रहेगा। उसके दोनों चाक बराबर हैं, इसीलिए। लेकिन फिर भी प्रश्न सार्थक है। क्योंकि साधारणत: देखने पर हमें यही दिखाई पड़ता है कि असुरों से तो पृथ्वी भरी है; देव कहां हैं?

समझने की कोशिश करें।

हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं। पृथ्वी असुरों से भरी दिखाई पड़ती है, वह हमारी अपनी आसुरी वृत्ति का दर्शन है। देव को तो हम पहचान भी नहीं सकते। वह दिखाई भी पड़े, मौजूद भी हो, तो भी हम उसे पहचान नहीं सकते। क्योंकि जब तक दिव्यता की थोड़ी झलक हमारे भीतर न जगी हो, तब तक दूसरे के भीतर जागे हुए देव से हमारा कोई संबंध निर्मित नहीं होता।

जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारी ही आंखों का फैलाव है, वह हमारी दृष्टि का ही फैलाव है। हमें वह नहीं दिखाई पड़ता जो है, बल्कि वही दिखाई पड़ता है जो हम हैं।

दैवी संपदा से भरे व्यक्ति को इस जगत में असुर कम और देवता ज्यादा दिखाई पड़ने लगते हैं। संत को बुरा आदमी दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। हमें जो बुरा दिखाई पड़ता है, संत को वही .उसकी व्याख्या बदल जाती है। और व्याख्या के अनुसार जो हमें दिखाई पड़ता है, उसका रूप बदल जाता है।

लेकिन संत को दिखाई पड़ने लगता है, सभी भले हैं। असंत को दिखाई पड़ता है, सभी बुरे हैं। दोनों ही बातें अधूरी हैं। और जब आप परिपूर्ण साक्षी— भाव को उपलब्ध होते हैं, जहां न तो आप अपने को जोड़ते हैं साधुता से, न जोड़ते हैं असाधुता से, जहां बुरे और भले दोनों से आप पृथक हो जाते हैं, उस दिन आपको दिखाई पड़ता है कि जगत में दोनों बराबर हैं। और बराबर हुए बिना जगत चल नहीं सकता, क्षणभर भी नहीं जी सकता।

तो यदि हमें दिखाई पड़ती है पृथ्वी असुरों से भरी, तो इसका केवल एक ही अर्थ लेना कि हम आसुरी संपदा में जी रहे हैं। इसका दूसरा कोई और अर्थ नहीं है। पृथ्वी से इसका कोई संबंध नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन ने एक रात भांग पी ली। भाग के नशे में जमीन घूमती हुई दिखाई पड़ने लगी। तो सुबह उठकर जब वह होश में आ गया, उसने कहा, मैं समझ गया। जिस आदमी ने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी घूमती है, वह भंगेड़ी रहा होगा!

हमारा अनुभव ही हम फैलाते हैं, दूसरा कोई उपाय भी नहीं है। जो हमारे भीतर है, उसके माध्यम से ही हम दूसरे को देखते हैं। तो दूसरे की वास्तविक स्थिति हमें दिखाई नहीं पड़ती, हमारा ही मन उस पर छा जाता है, हमारी छाया ही उसे आच्छादित कर लेती है। फिर जो हम देखते हैं, वह अपने ही मन का फैलाव है। दूसरा व्यक्ति जैसे परदा बन जाता है। हमारा ही चित्त उस परदे पर हमें दिखाई पड़ता है। दूसरे में हम स्वयं को ही देखते हैं। दूसरा जैसे दर्पण है।

तो अगर लगता हो कि सारी पृथ्वी असुरों से भरी है, तो जानना कि आपका चित्त आसुरी संपदा से भरा है। इसके अतिरिक्त यह बात किसी और चीज का लक्षण नहीं है। इससे पृथ्वी के संबंध में कोई खबर नहीं मिलती, सिर्फ आपके संबंध में खबर मिलती है; आपकी आंखों के संबंध में खबर मिलती है, आंखों के पीछे छिपे मन के संबंध में खबर मिलती है।

और अगर आपको कभी—कभी कोई एकाध देव भी दिखाई पड़ जाता है, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि आपके भीतर की दैवी संपदा भी थोड़ी—बहुत सक्रिय है। वह बिलकुल मर नहीं गई है, जीवंत है। उसकी भी कोई एक किरण इस अंधेरे में मौजूद है, इसलिए कभी—कभी आप झलक दूसरे में उसकी भी देख लेते हैं। जैसे—जैसे आप दैवी संपदा में लीन होंगे, वैसे—वैसे जगत आपको दिव्य मालूम पड़ने लगेगा।

लेकिन ध्यान रहे, योग की जो परम दशा है, वह दोनों ही भावनाओं से मुक्त हो जाना है। जिस दिन जगत आपको उसकी वस्तुस्थिति में दिखाई पड़े, जिस दिन आपके भीतर से कोई भाव जगत पर न फैले, उस दिन आपको अनूठा अनुभव होगा कि जगत में सभी चीजें संतुलित हैं। यहां बुरा और भला बराबर है। यहां पापी और पुण्यात्मा बराबर हैं। यहां ज्ञानी और अज्ञानी बराबर हैं। उनकी मात्रा सदा ही बराबर है। उस मात्रा में जरा भी विचलन हुआ कि जगत नष्ट हो जाता है। वह संतुलन बना रहता है।

जिस दिन आपको ऐसा दिखाई पड़ जाएगा, यह संतुलन की अवस्था अनुभव में आ जाएगी, उस दिन न तो आप जगत को बुरा कहेंगे, न भला कहेंगे। उस दिन बुरे आदमी को भी बुरा नहीं कहेंगे, भले आदमी को भी भला नहीं कहेंगे। उस दिन आप कहेंगे, बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उस दिन आप बुरे को मिटाना नहीं चाहेंगे, भले को बचाना नहीं चाहेंगे। क्योंकि उस दिन आप जानेंगे कि बुरा मिटे, तो भला भी मिटता है; भला बचे, तो बुरा भी बचता है।

लाओत्से ने कहा है, जब दुनिया धार्मिक थी, तो न कोई भला आदमी था, न कोई बुरा आदमी था।

जब आप भी परम धार्मिक होंगे, तो न कोई बुरा रह जाएगा, न कोई भला रह जाएगा। तब बुरा और भला एक जागतिक संयोग होगा। जैसे हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर पानी बनता है, वैसे बुरे और भले से मिलकर संसार बनता है। और वह मात्रा सदा बराबर है।

जगत एक संतुलन है। पर हमें संतुलन दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि हम संतुलित नहीं हैं। हम साक्षी होंगे, तो संतुलित होंगे। तो जीवन में तीन दिशाएं हैं। एक दिशा है कि अपने भीतर जो आसुरी संपदा है, उसको हम अपना स्वभाव समझ लें, तो फिर सारा जगत बुरा है। दूसरी संभावना है कि हमारे भीतर जो दैवी संपदा है, हम उसके साथ अपने को एक समझ लें, तो सारा संसार भला है। और एक तीसरी परम संभावना है कि हम इन दोनों गुणों से, इस द्वैत से अपने को मुक्त कर लें और साक्षी हो जाएं, तो फिर जगत बुरे और भले का संयोग है, रात और दिन का जोड़ है, अंधेरे और प्रकाश का मेल है, ठंडे और गरम का संतुलन है। और जिस दिन आप इस तरह चुनावरहित, विकल्परहित भीतर दोनों संपदाओं में से किसी को भी न चुनेंगे, उसी दिन आपकी परम मुक्ति है। हमारे पास तीन शब्द हैं। एक शब्द नरक है। नरक का अर्थ है, जिसने अपने को आसुरी संपदा से एक कर लिया। दूसरा शब्द स्वर्ग है। स्वर्ग का अर्थ है, जिसने अपने को दैवी संपदा से एक कर लिया। और तीसरा शब्द मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है, जिसने अपने को दोनों संपदाओं से मुक्त कर लिया।

देव भी मुक्त नहीं है, वह भी बंधा है। उसके बंधन प्रीतिकर हैं। उसकी जंजीरें सोने की हैं। उसका कारागृह बहुमूल्य है, उसका कारागृह बहुत सजा है। उसका जीवन आभूषणों से लदा है। लेकिन लदा है, वह निर्भार नहीं है। बुरा आदमी लोहे की जंजीरों से बंधा है; अच्छा आदमी सोने की जंजीरों से बंधा है। लेकिन बंधन में जरा भी कमी नहीं है।

सिर्फ भारत ने एक अनूठे शब्द का प्रयोग किया है, मोक्ष। दुनिया के किसी दूसरे धर्म ने, दुनिया की किसी जाति ने मोक्ष की कल्पना नहीं की है। स्वर्ग और नरक सारी दुनिया को पता हैं। इस्लाम या ईसाइयत या यहूदी, स्वर्ग और नरक से परिचित हैं। मोक्ष की धारणा एकांतिक रूप से भारतीय है।

मोक्ष का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जो नरक से तो मुक्त हुआ ही, स्वर्ग से भी मुक्त है। जिसने बुरे को तो छोड़ा ही, भले को भी छोड़ा। इसे समझना बहुत कठिन है, क्योंकि भला हमें लगता है, छोड़ने का सवाल ही नहीं है। लेकिन तब हमें जीवन की गहरी व्यवस्था का कोई अनुभव नहीं है। भले के पीछे बुरा तो छिपा ही रहेगा।

अगर आप कहते हैं कि मैं सत्य ही बोलता हूं सदा सत्य ही बोलूंगा, और सदा सत्य को पकड़े रहूंगा! तो एक बात पक्की है, आपके भीतर झूठ भी उठता है। नहीं तो आपको सत्य का पता कैसे चलेगा! सत्य को आप बचाएंगे कैसे! सत्य को सम्हालेंगे कैसे! झूठ भीतर मौजूद है, उसके विरोध में ही सत्य उठता है।

अगर आप कहते हैं, मैं ब्रह्मचर्य का साधक हूं मैं ब्रह्मचर्य को पकड़े रहूंगा, मैं कभी ब्रह्मचर्य को छोडूंगा नहीं! तो उसका अर्थ है, कामवासना आपके भीतर लहरें लेती है। जिसके भीतर कामवासना समाप्त हो गई, उसको ब्रह्मचर्य का पता भी नहीं चलेगा।

जिसकी बीमारी बिलकुल मिट गई, उसे स्वास्थ्य का भी पता नहीं चलेगा। इसलिए जब आप बीमार पड़ते हैं और स्वस्थ होते हैं, तब आपको स्वास्थ्य की थोड़ी—सी झलक मिलती है। बीमारी में गिरने के बाद जब आप पहली दफे स्वस्थ होना शुरू होते हैं, तब आपको पता चलता है, स्वास्थ्य क्या है। अगर आप सदा ही स्वस्थ रहें, आपको स्वास्थ्य भूल जाएगा; उसका आपको कोई स्मरण ही नहीं रहेगा।

दुख के कारण सुख का पता चलता है, बुरे के कारण भले का पता चलता है।

मोक्ष का अर्थ है, अब मेरे दोनों ही बंधन न रहे; अब मैं मुक्त हूं; मेरा कोई चुनाव नहीं। न यह संपदा मेरी है, न वह संपदा मेरी है। संपदाएं ही मैंने छोड़ दी हैं। यह परम दशा है। यह परमहंस की अवस्था है।

अभी जहां आप खड़े हैं, अगर जगत आपको बुरा लगे, तो समझना कि आसुरी संपदा आपकी आंखों पर छाई है। अगर जगत अच्छा लगे, तो समझना कि दैवी संपदा ने आपको घेरा है। जगत दोनों लगे और दोनों में संतुलन दिखाई पड़े, तो समझना कि साक्षी के स्वर का जन्म हुआ है।

उस तीसरे की खोज जारी रखनी है। जब तक वह न हो जाए, तब तक समझना कि अभी हम धर्म के मंदिर के बाहर ही भटकते हैं, अभी हमारा भीतर प्रवेश नहीं हुआ है।

दूसरा प्रश्‍न:

आपने कहा किं मनुष्य दैवी और आसुरी संपदा बराबर मात्रा में लेकर पैदा होता है। तब ऐसा क्यों है कि इस जगत में आसुरी संपदा ही अधिक फूलती—फलती नजर आती है? दैवी संपदा की फसल इतनी दुर्लभ क्यों है?

सुरी संपदा फूलती—फलती नजर आती है, क्योंकि वही हमारी कामना है। एक चोर सफल होता हमें दिखाई पड़ता है। एक चोर धन को इकट्ठा कर लेता है, प्रतिष्ठा बना लेता है। हमारे मन में काटा चुभता है इससे। चाहते तो हम भी इसी तरह का महल, इसी तरह का धन, इसी तरह की पद—प्रतिष्ठा हैं। चोरी करने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं और चोर ने जो जुटा लिया है, उसकी भी आका्ंक्षा मन में है; उससे मन को चोट लगती है। उससे मन कहता है कि चोर फल—फूल रहा है। हम साधु हैं और फल—फूल नहीं रहे हैं।

अगर आप साधु हैं, तो आपको दिखाई पड़ेगा कि चोर दुख पा रहा है। अगर आप असाधु हैं, तो दिखाई पड़ेगा कि चोर सफल हो रहा है।

दुनिया में दो तरह के चोर हैं बड़ी मात्रा में। एक वे, जो चोरी की हिम्मत कर लेते हैं; और एक वे, जो चोरी की हिम्मत नहीं करते, सिर्फ विचार करते हैं।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम अपना जीवन संतोष से बिताते हैं, बुरा काम नहीं करते, किसी को चोट नहीं पहुंचाते, फिर भी असफलता हाथ लगती है। और देखें, फलां आदमी ब्लैक मार्केटिंग कर रहा है, कि स्मगलिंग कर रहा है, कि चोर है, बेईमान है, धोखाधड़ी कर रहा है, और सफल हो रहा है!

उसकी सफलता आपको सफलता दिखाई पड़ती है, क्योंकि आप भी वैसी ही सफलता चाहते हैं। अगर सच में ही आपका साधु—चित्त होता, तो आपको उस आदमी की पीड़ा भी दिखाई पड़ती। भला उसने महल खड़ा कर लिया हो, लेकिन महल के भीतर वह जिस संताप से गुजर रहा है, वह आपको दिखाई पड़ता।

उस संताप से आपको कोई प्रयोजन नहीं है। उसकी भीतरी पीड़ा से आपको कोई प्रयोजन नहीं है। उसका बाहर जो ठाठ है, वह आपको दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि बाहर का ठाठ आप भी चाहते हैं! जो उसने पा लिया है, वह आप नहीं पा सके, इससे मन में काटा चुभता है। इसलिए वह सफल लगता है और स्वयं आप असफल लगते हैं।

सिर्फ बुरा आदमी ही बुरे आदमी की सफलता को सफलता मान सकता है। भले आदमी को तो दया आएगी; भले आदमी को बुरे आदमी पर दया आएगी। क्योंकि वह उसके भीतर देखेगा, झांकेगा, और पाएगा कि उसने धन तो इकट्ठा कर लिया, स्वयं को खो दिया। वह पाएगा कि उसने संपदा तो इकट्ठी कर ली, लेकिन शांति नष्ट हो गई। वह पाएगा कि उसके पास साधन तो काफी इकट्ठे हो गए, लेकिन वह खुद भटक गया है। उसके जीवन की सफलता साधु—चित्त व्यक्ति को आत्मघात जैसी मालूम पड़ेगी। उसने अपने को सड़ा डाला, उसने अपने को बेच लिया।

लेकिन हमें हो सकता है दिखाई पड़े कि आदमी सफल हो रहा है, बुरा आदमी सफल हो रहा है। रोज चारों तरफ लोगों को दिखाई पड़ता है, बुरे आदमी सफल हो रहे हैं।

बुरा आदमी सफल हो ही नहीं सकता। और अगर सफल होता दिखाई पड़े, तो समझना कि आपकी सफलता की व्याख्या में कहीं कोई भांति है। बुरा आदमी तो असफल होगा ही।

मैंने सुना है, सिकंदर अपने साम्राज्य को बढ़ाता हुआ नील नदी के किनारे पहुंचा। रास्ते में उसने न मालूम कितनी सीमाएं तोड़ी, कितने राज्य नष्ट किए, कितनी सेनाओं को पराजित किया, लेकिन नील नदी के किनारे पहुंचकर उसको बड़े अचंभे का अनुभव हुआ। जगह—जगह उसे प्रतिरोध मिला, टक्कर मिली। लोग हारे, तो भी आखिरी दम तक लड़े। लेकिन नील नदी के किनारे जब वह आया, तो उसे स्वागत मिला—वंदनवार, फूलों की वर्षा, निमंत्रण, उत्सव—लड़ने का कोई सवाल ही नहीं! वह चकित भी हुआ, हैरान भी हुआ।

जिस पहले नगर में उसने प्रवेश किया, नगर के लोगों ने पूरी सिकंदर की फौजों को निमंत्रण दिया, रात्रि— भोज का आयोजन किया। सुंदरतम भोजन, शराब, नृत्य—संगीत की व्यवस्था की। सिकंदर चकित भी था, हैरान भी था। यह कौन—सा ढंग है दुश्मन के प्रवेश पर स्वागत करने का! थोड़ा लज्जित भी था। क्योंकि वे तलवार लेकर खड़े होते, तो सिकंदर उन्हें जीत लेता। लेकिन वे प्रेम लेकर खड़े हुए, तो जीतना मुश्किल मालूम पड़ेगा।

जब उसके सामने भोजन की थाली लाई गई, तो वह एकदम नाराज हो गया; उसने जोर से घूंसा मारा टेबल पर और कहा कि यह क्या है? मेरा मजाक किया जा रहा है? क्योंकि थाली में सोने की रोटी थी, हीरे—जवाहरातों की सब्जियां थीं। सिकंदर ने कहा कि तुम मूढ़ तो नहीं हो? शक तो मुझे तभी हुआ। जब मैं गांव में प्रवेश किया कि यह पागलों का गांव है, क्योंकि तुम लड़े नहीं, उलटे तुमने स्वागत किया। हम जीतने आए हैं, तुमने हमें फूलमालाएं पहनाई। शक तो मुझे तभी हुआ; लेकिन अब बिलकुल पक्का हो गया कि तुम्हारे दिमाग खराब हैं। सोने की रोटी खाई नहीं जाती! तो एक के आदमी ने, जो गांव का सर्वाधिक का था, उसने कहा, अगर गेहूं की रोटी ही खानी थी, तो वह तो आपको अपने घर ही मिल जाती। हम सोचे कि इतनी तकलीफ उठाकर आ रहे हैं, तो सोने की रोटी की तलाश होगी!

वह जो चोर है, लुटेरा है, बदमाश है, आपको उसकी सोने की रोटी दिखाई पड़ती है। लेकिन सोने की रोटी कोई खा तो पा नहीं सकता, भीतर भूखा मरता है। और आपको सोने की रोटी में सफलता दिखाई पड़ती है, क्योंकि आका्ंक्षा वही आपकी भी है, आप वही खुद भी चाहते हैं।

जो हम चाहते हैं, उससे ही हमारी संपदा का पता चलता है। अगर चोर आपको सफल होता दिखाई पड़ता है, तो आप चोर हैं। भला आपने कभी चोरी न की हो। अगर आपको चोर सफल होता हुआ मालूम होगा, तो साधु आपको असफल होता हुआ मालूम होगा। तो आप दया कर सकते हैं साधु पर। ईर्ष्या आपकी चोर से है। साधु को आप कह सकते हैं कि भोला— भाला है, जाने भी दो। समझ इसकी कुछ है नहीं। लेकिन ईर्ष्या आपकी चोर से है, प्रतियोगिता चोर से है।

पहली बात तो यह समझ लें कि बुराई कभी भी सफल नहीं होती, सफल होती दिखाई पड़ सकती है। देखने में भूल है, भांति है। भलाई सदा सफल होती है, असफल होती दिखाई पड़ सकती है। क्योंकि बुराई की सफलता बाहर—बाहर है, भलाई की सफलता आंतरिक है।

इस जगत में जिन्होंने थोड़ा भी आनंद जाना है, उन्होंने भलाई के कारण जाना है। जिन्होंने महा दुख झेला है, उन्होंने बुराई के कारण झेला है।

अगर हम हिटलर और चंगेज और तैमूर के हृदय उघाड़कर देख सकें, तो हमें महानरक का दर्शन होगा। लेकिन इतिहास में नाम उनके हैं; सदा रहेंगे। आप भी सोच सकते हैं कि सफल हुए; बड़े साम्राज्य उन्होंने खड़े किए हैं, तो आप भी सोच सकते हैं, सफल हुए।

वस्तुत: जो सफल हुए हैं इस जमीन पर, शायद उनका नाम भी इतिहास में नहीं है, उनके नाम का आपको पता भी नहीं है। कौन सफल होता है जीवन में? जिसे शांति का अनुभव हो जाए, जिसे आनंद की प्रतीति हो जाए, जिसे समाधि की झलक मिल जाए।

अगर मुझसे पूछें सफलता की परिभाषा, तो समाधि सफलता की परिभाषा है। जिन्हें समाधि का थोड़ा रस आ जाए, जो नाच उठें समाधि में, जिनका हृदय पुलकित हो उठे समाधि में, वे ही केवल सफल हैं।

और बुरा कभी समाधिस्थ नहीं हो सकता। बुरा तो संतप्त ही होगा, चिंतित होगा। उसका मन धीरे— धीरे और नारकीय, और नारकीय होता चला जाएगा।

तो पहली बात तो यह, आसुरी संपदा फूलती—फलती दिखाई पड़ती है, क्योंकि उसी संपदा की चाह हमारे भीतर है। आसुरी संपदा कभी फली—फूली नहीं है। जिनके मन में दैवी संपदा की चाह है, वे हमेशा देखेंगे कि आसुरी संपदा सदा भटकी है, दुखी हुई है, कभी फली—फूली नहीं, सदा नष्ट हुई है।

और दूसरी बात, दैवी संपदा की फसल इतनी दुर्लभ क्यों है? दुर्लभ इसलिए है कि जीवन के कुछ नियम समझ लें, तो खयाल में आ जाए।

एक, कि बुरा करने के लिए आपको कुछ भी करना नहीं पड़ता, वह ढाल है। पानी को बहा दिया, पानी अपने आप गड्डों में चला जाता है। गड्डों में जाने के लिए पानी को कुछ करना नहीं पड़ता। पहाड़ पर चढ़ना हो, तो बड़ी कठिनाई है। फिर पानी को चढ़ाने का आयोजन करना पड़ता है। आयोजन में श्रम होगा। आयोजन में असफलता भी हो सकती है।

बुरा ढलान है। बुरे का मतलब यह है कि जो हमसे नीचे है। भले का अर्थ है कि जो हमसे ऊपर है। बुरे का अर्थ है, जहां से हम गुजर चुके। हम पशु थे, पौधे थे। वहां से हम गुजर चुके। अगर आप वापस लौटना चाहते हैं, तो बिलकुल आसान है।

ऐसा समझें कि एक व्यक्ति स्कूल में परीक्षाएं पार कर—करके मैट्रिक में पहुंच गया है। अगर वह पहली की परीक्षा फिर से देना चाहे, तो क्या कठिनाई होगी! कोई कठिनाई न होगी। अगर वह पहली कक्षा में प्रवेश पाना चाहे, तो कोई अड़चन नहीं है, कोई उसे रोकेगा भी नहीं। और वह बड़ा सफल भी होगा पहली कक्षा में!

जहां से हम गुजर चुके हैं, विकास की जिन सीढ़ियों को हम पार कर चुके हैं, उनमें वापस उतरना हमेशा आसान है। बूढ़े से के आदमी को अगर आप क्रोध में ला दें, तो वह बच्चे के जैसा व्यवहार करने लगता है। वह बिलकुल आसान है। बच्चे का मतलब है, वापस लौट जाना। होशियार से होशियार आदमी भी क्रोध में आ जाए, तो नासमझी का व्यवहार करता है, जो बचकाना है। बच्चों की तरह पैर पटक सकता है, सामान तोड़ सकता है, चीख—पुकार मचा सकता है। यह रिग्रेशन है, पीछे लौटना है।

पीछे लौटना हमेशा आसान है। क्योंकि पीछे लौटने का मतलब है, वहां से हम गुजर चुके हैं, वह रास्ता परिचित है, उसे पाने के लिए कोई खोज नहीं करनी है।

दैवी संपदा का अर्थ है कि हमें आगे बढ़ना है, ऊंचाई छूनी है। जितनी ऊंचाई छूनी है, उतना श्रम होगा। और जितनी ऊंचाई छूने की हम कोशिश करेंगे, उतनी भूल—चूक भी होगी, हम गिरेंगे भी। याद रखें, केवल वही गिरता है, जो ऊंचा उठना चाहता है। नीचे गिरने वाले को तो गिरने का कोई कारण ही नहीं है।

दैवी संपदा हमसे ऊपर है, उसके लिए हाथ बढ़ाने पड़े, यात्रा करनी पड़े, हिमालय के शिखर की तरह हमें गौरीशंकर की तरफ बढ़ना पड़े। उसमें अड़चन होगी ही, असफलता भी हो सकती है; गिरेंगे भी, कभी रास्ता भी खो जाएगा। नीचे उतरने के लिए न गिरने का कोई डर है, न रास्ता खोने का कोई डर है, रास्ता परिचित है, जाना—माना है, उससे हम गुजर चुके हैं। और फिर नीचे उतरने में कोई प्रतिरोध न होने से सुगमता है। ऊपर चढ़ने में सारे शरीर पर जोर पड़ेगा।

अमेरिका का बहुत बड़ा वैज्ञानिक हुआ, थामस अल्वा एडिसन। उसने कोई एक हजार आविष्कार किए। दूसरे किसी मनुष्य ने इतने आविष्कार नहीं किए। छोटे से लेकर बड़े तक, बिजली, रेडियो, टेलीफोन, अनेक आविष्कार उसने किए हैं। उसका घर आविष्कारों से भरा था। लोग उसके घर आते थे, तो चकित होते थे, क्योंकि सब चीजों में उसने कुछ न कुछ किया था। उसके पूरे घर में नए—नए आविष्कार थे। पानी की टोंटी के नीचे हाथ रखिए और पानी गिरने लगे, खोलने की जरूरत नहीं, हाथ अलग करिए और पानी बंद हो जाए!

एक दिन अमेरिका का प्रेसिडेंट उसके घर उसके आविष्कार देखने गया था। हर चीज देखकर चकित हुआ। उसने अनूठे—अनूठे यंत्र खोजे थे। चलते वक्त अमेरिकी प्रेसिडेंट ने कहा, और सब तो ठीक है, एक बात मेरी समझ में नहीं आई। तुम जैसा आविष्कारक बुद्धि का आदमी, जिसने घर को आविष्कारों से भर रखा है, जिसकी हर चीज अनूठी और तिलिस्मी है, लेकिन तुम्हारे मकान का जो बगीचे का दरवाजा है, वह इतना भारी है कि खोलने में बड़ी ताकत लगती है। तुम्हें इसका खयाल नहीं आया?

उसने कहा, आप समझे नहीं। खयाल मुझे है। जो आदमी भी मेरा दरवाजा एक बार खोलता है, पांच गैलन पानी मेरी टंकी में पहुंच जाता है। तो मैं नौकर नहीं रखे हुए हूं। जो देखने आने वाले हैं—दिनभर आते हैं—वे खोलते, बंद करते हैं। बस, हर बार खोलो, बंद करो, तो पांच गैलन पानी दरवाजा ऊपर फेंक रहा है। जब भी कुछ ऊपर भेजना हो, तो थोड़ा श्रम तो होगा, थोड़ा भारी भी लगेगा, क्योंकि हम नियम जीवन के तोड़ रहे हैं।

जमीन चीजों को नीचे की तरफ खींचती है, ग्रेविटेशन है। पत्थर को आप ऊपर की तरफ फेंकते हैं, तो आपका हाथ थकता है, चोट लगती है। जितनी जोर से ऊंचा फेंकेंगे, उतनी ज्यादा शक्ति खोएगी। लेकिन पत्थर फिर नीचे चला आता है। जैसे ही आपकी भेजी हुई ऊर्जा पत्थर में चुक जाती है, जमीन उसे नीचे खींच लेती है। नीचे खींचते वक्त किसी ताकत की जरूरत नहीं पड़ती, जमीन स्वभावत: चीजों को नीचे खींच रही है।

आसुरी संपदा ग्रेविटेशन है, वह जमीन की कशिश है।

छोटा बच्चा एकदम खड़ा नहीं हो सकता मां के पेट से पैदा होकर। क्योंकि खड़े होने का मतलब है, ग्रेविटेशन से लड़ना, वह जो जमीन की कशिश है। इसलिए बच्चा पहले जमीन पर लेटकर सरकता है। वह जमीन खींच रही है, अभी बच्चा खड़ा होगा, तो फौरन गिरेगा। तो सरकेगा, फिर घुटनों के बल अपने को सम्हालेगा। वह जमीन की कशिश से ऊपर उठने की कोशिश कर रहा है। फिर किसी का सहारा लेकर खड़ा होगा। फिर अपने भरोसे पर दो कदम चलेगा; लेकिन गिरेगा, घुटने टूटेंगे, चोट लगेगी। फिर धीरे—धीरे, धीरे— धीरे.। और पैर उसके समर्थ हैं, वह खड़ा हो सकता है, शरीर उसका पूरा का पूरा तैयार है, लेकिन ग्रेविटेशन से संघर्ष करना होगा। फिर एक दिन आएगा कि वह अपने को संतुलित कर लेगा, खड़ा हो जाएगा।

फिर आपको खड़ा होना आसान मालूम पड़ता है। लेकिन अभी भी जब भी आप थक जाते हैं, तो लेटना ही पड़ता है। क्योंकि खड़े होने में, चाहे आपको कितना ही आसान हो गया हो, जमीन आपको खींच रही है और थका रही है। इसलिए खड़े—खड़े हम थक जाते हैं। जब भी थक जाते हैं, तब हमें जमीन पर लेटना पड़ता है।

रात सोकर हमें जो सुख मिलता है, वह जमीन की कशिश से लड़ाई छोड़ देने के कारण! तो हम समतल जमीन पर सो जाते हैं; फिर छोटे बच्चे हो गए, फिर जमीन से हमारी कोई लड़ाई नहीं है। हमने स्वीकार कर लिया। रातभर हमको विश्राम मिल जाता है। सुबह हम फिर खड़े होने में समर्थ हो जाते हैं।

खड़े होने का मतलब संघर्ष है। और अगर आदमी उड़ना चाहे, तो और बड़ा संघर्ष है, क्योंकि फिर जमीन से बिलकुल उसको अपनी मुक्ति चाहिए।

आसुरी संपदा जमीन की कशिश जैसी है। सुगम है। बुरा होने के लिए कोई बड़ी चितना नहीं करनी पड़ती। बुरा होने के लिए कोई बहुत बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है।

अपराधियों के अध्ययन किए गए हैं। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अपराधियों में नब्बे प्रतिशत जड़बुद्धि होते हैं, ईडिआटिक होते हैं, उनके पास कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। पर बड़ी हैरानी की बात है कि वे बुद्धिहीन जो हैं, वे बुराई करके कई दफा हमें सफल होते भी दिखाई पड़ते हैं। बुद्धिमान हारता दिखाई पड़ जाए, बुद्धिहीन सफल होते दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि बुद्धिहीन में एक क्षमता तो है, वह क्षमता है नीचे गिरने की। अगर नीचे गिरने में ही प्रतियोगिता हो, तो वह आपसे जीत जाएगा। और हम सभी उसके साथ प्रतियोगिता कर रहे हैं। इसलिए वह हमें जीतता मालूम पड़ता है।

जो जितना नीचे गिर सकता है, उतने जल्दी सफल हो जाएगा। चाहे धन की दौड़ हो, चाहे राजनीति की दौड़ हो, वह जो बुरा आदमी है, सफल हो जाता है, क्योंकि वह ज्यादा नीचे गिर सकता है। दो राजनीतिज्ञों में वह राजनीतिज्ञ जीत जाएगा, जो ज्यादा नीचे गिर सकता है, उसको कम श्रम पड़ेगा।

मैंने सुना है कि विंसटन चर्चिल एक चुनाव में जिस क्षेत्र से लड़ रहे थे, एक बूढ़े आदमी के पास वोट मांगने गए थे। उनके विरोध में कोई खड़ा था। उस के आदमी ने कहा कि मैं सोचूंगा। चर्चिल ने उस पर दबाव डाला और कहा, कुछ तो कहो; कुछ तो धारणा बना ही लो, अब चुनाव करीब आ रहा है।

तो उस आदमी ने कहा, तुम मानते नहीं तो मैं कहूं कि मैं यही प्रार्थना करता हूं भगवान से कि तेरी बड़ी कृपा है कि दो में से एक ही जीत पाएगा। क्योंकि दोनों उपद्रवी हैं, और इतना ही अच्छा है कि दोनों नहीं जीतेंगे, एक ही जीतेगा। कम से कम एक ही बुराई जीतेगी।

मैंने सुना है, एक किसान एक बार स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। उसे बड़ी उदासी हुई वहां, जो हाल उसने देखा। बड़ी देर तक दरवाजा खटखटाता रहा, किसी ने फिक्र ही न की। तब उसने देखा कि उसके पीछे एक राजनीतिज्ञ है, जो उसके बाद में मरा और उसके बाद स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। उसने जाकर दस्तक दी। दस्तक दी नहीं कि द्वार खुल गए। द्वारपाल ने उसे भीतर ले लिया।

वह किसान तो खड़ा ही रहा। सोचने लगा मन में कि शायद यहां भी मेरी कोई चिंता होने वाली नहीं है। राजनीतिज्ञ यहां भी जीत जाएगा। और भीतर बैंड—बाजों की आवाज आने लगी। राजनीतिज्ञ का स्वागत हो रहा है।

फिर थोडी देर बाद जब बैंड—बाजे बंद हो गए, द्वार खुला; किसान को भीतर ले जाया गया। उसने सोचा कि शायद अब बैड—बाजे मेरे लिए भी बजेंगे। वे नहीं बजे! तो उसने द्वारपाल से पूछा कि यह पक्षपात यहां भी है? द्वारपाल ने कहा, पक्षपात जरा भी नहीं है। तुम्हारे जैसे लोग तो रोज यहां आते हैं। यह कोई हजारों साल के बाद राजनीतिज्ञ स्वर्ग में आया है। इसका विशेष स्वागत होना ही चाहिए।

राजनीति में भला होना मुश्किल है, भला होने वाला हारेगा। क्योंकि वहां गिरने की प्रतियोगिता है, कौन कितना गहरा गिर सकता है!

धर्म राजनीति से उलटी यात्रा है। वहां ऊपर आकाश में उड़ने की प्रतियोगिता है, कौन कितना पृथ्वी के आकर्षण से दूर जा सकता है! वहां कठिनाई पड़नी शुरू हो जाएगी। जितने आप दूर जाएंगे, उतनी ही पृथ्वी खींचेगी और संघर्ष बढ़ेगा। लेकिन उसी संघर्ष से आत्मा का जन्म होता है। उसी तनाव से, उसी प्रतिरोध से, उसी संयम से आपके भीतर व्यक्तित्व निर्मित होता है, इंटीग्रेशन घटता है, आप केंद्रित होते हैं।

तो यह ठीक है। दैवी संपदा की फसल इतनी दुर्लभ इसलिए है। और इसलिए भी कि हमारे चारों ओर सभी लोग आसुरी संपदा को पैदा करने में लगे हैं। और आदमी जीता है भीड़ से, भीड़ का अनुगमन करता है। भीड़ जहां जाती है, आप भी चल पड़ते हैं। आपके मां—बाप, आपका परिवार, आपका समाज जो कर रहा है, बच्चा पैदा होता है, वही बच्चा सीख लेता है, वह भी करना शुरू कर देता है।

आसुरी संपदा के लिए शिक्षण की काफी सुविधा है। दैवी संपदा के लिए शिक्षण की कोई सुविधा नहीं मालूम पड़ती। और जिस चीज की सुविधा हो उस तरफ आसानी हो जाती है, हम उसमें कुशल हो जाते हैं। जिस तरफ कोई सुविधा न हो, उस तरफ हमारे अंग पंगु हो जाते हैं।

आप चलते हैं, इसलिए पैरों में गति है, जान है। आप मत चलें, पैर सिकुड़ जाएंगे, पैरालाइब्द हो जाएंगे, लकवा लग जाएगा। आप देखते हैं, तो आंखें सजग हैं। मत देखें, अंधेरे में रहे आएं, थोड़े दिन में आंखें अंधी हो जाएंगी। आप सुनते हैं, तो कान तेज हैं। संगीतज्ञ के कान सबसे ज्यादा तेज हो जाते हैं। क्योंकि सुनने के लिए वह इतना आतुर होता है, एक छोटी से छोटी ध्वनि के परिवर्तन को वह पकड़ना चाहता है। चित्रकार की आंखें सतेज हो जाती हैं। दार्शनिक की बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है।

आप जो करते हैं, वह कुशल हो जाता है। आप जो नहीं करते हैं, उसमें आप अकुशल हो जाते हैं। अगर जन्म से ही हमारी आंखों पर पट्टियां बांध दी जाएं, और फिर जब हम जवान हो जाएं तब पट्टियां खोली जाएं, तो हम सब अंधे ही पट्टियों के बाहर आएंगे। वैज्ञानिक कहते हैं कि तीन साल तक कोई भी इंद्रिय काम न करे, तो जड़ हो जाएगी।

और आसुरी संपदा का तो हम उपयोग कर रहे हैं जन्मों—जन्मों से, दैवी संपदा का हमने उपयोग नहीं किया जन्मों—जन्मों से, इसलिए कठिन मालूम पड़ती है। वहा भूमि सख्त हो गई है। उस पर हमने कभी न हल चलाया, न कुछ खेती की, न बीज डाले। सब सूख गया है। पठार हो गया है, पत्थर जैसा मालूम होता है। जिस तरफ हम खेती करते रहे हैं, वहा आसानी मालूम होती है, वहां जमीन तैयार है, वहां जमीन फुसफुसी है, वहां बीज पकड़ना आसान है।

लेकिन कितनी ही कठिन हो दैवी संपदा की फसल, एक बार जो करना शुरू कर देगा, वह पाएगा कि वह कठिनाई भी कठिन नहीं है। और एक बार स्वाद आ जाए, तो आपको पता चलेगा कि आसुरी संपदा बड़ी कठिन थी, पुरानी आदत की वजह से सरल मालूम पडती थी। कठिनाइयां उसमें बहुत थीं, दुख बहुत था, दुख ही दुख था।

जहां फसल सरलता से हो जाती हो, लेकिन फल सदा दुख के ही हाथ लगते हों, उस सरलता का मूल्य भी क्या है? भला फसल कठिनाई की हो, लेकिन फल आनंद के लगते हों, तो उसे सरल और सहज ही मानना होगा।

जिन्होंने भी जाना है, उन सबने कहा है कि वह समाधि बड़ी सहज है, बड़ी सरल है; वह अंतिम उपलब्धि कठिन नहीं है। लेकिन हमें तो कठिन लगती है। क्योंकि हमने उस तरफ कोई कदम नहीं उठाया। हमने उस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। उस दिशा में हमने कोई कदम ही नहीं उठाया है, कोई यात्रा ही नहीं की है, हमारे पैर उस तरफ पंगु हैं।

तो बैठकर सोचते मत रहें कि वह कठिन है, कुछ करें और उसे सरल बनाएं। करने से चीजें सरल होती हैं।

आप कभी पानी में नहीं तैरे हैं, तो बहुत कठिन लगेगा। और आप यह भरोसा ही नहीं कर सकते कि आपको पानी में छोड़ दिया जाए, तो आप बच सकेंगे। लेकिन जो लोग तैरने की कला सिखाते हैं, वे कुछ भी नहीं करते, वे सिर्फ आपको पानी में छोड़ते हैं। पानी में छोड़ते से ही आप हाथ—पैर तड़फड़ाने लगते हैं बचाने के लिए खुद को। तैरना तो आपको आता नहीं, तैरने का तो आपको कोई पता नहीं, अपने को बचाने के लिए हाथ—पैर तड़फड़ाते हैं।

यह हाथ—पैर तड़फड़ाना ही तैरने की शुरुआत है। फिर इसको ही थोड़ी व्यवस्था से फेंकने लगेंगे, तैरना हो जाएगा। थोड़ी व्यवस्था ही सीखनी है। अभी थोड़ा अस्तव्यस्त फेंकते हैं, अराजक। फिर सिस्टम हो जाएगी, फिर आप ढंग से फेंकने लगेंगे। एक दफा ढंग से फेंकना आ गया, तो आप पाएंगे कि तैरने से सरल और कुछ भी नहीं हो सकता। अभी तो तैरने में लगेगा कि जान जाने का खतरा है, अगर नहीं जानते तो।

शुरू करें! यह ऊपर की तरफ जो उड़ान है, यह भी एक तैरना है। शुरू में कठिनाई होगी; स्वाभाविक है। जैसे—जैसे अभ्यास गहन होगा, वैसे—वैसे कठिनाई बदलती जाएगी। और एक ऐसा क्षण आता है, जब समाधि ही एकमात्र सरलता रह जाती है। तब बुरे होने से ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं होता।

अब हम सूत्र को लें।

और उन आसुरी पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं, कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊंगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह भविष्य में और अधिक होवेगा। आसुरी संपदा के व्यक्ति को और की दौड़ होती है। उसके पास जो भी हो, उसे वह और बढ़ा लेना चाहता है। जो भी उसके पास हो, उतनी मात्रा उसे कभी काफी नहीं मालूम पड़ती।

आसुरी संपदा का व्यक्ति मात्रा में बड़ा उत्सुक होता है, क्वांटिटी में उत्सुक होता है। दस रुपए हों, तो हजार हो जाएं; हजार हों, तो दस हजार हो जाएं; दस हजार हों, तो दस करोड़ हो जाएं; उसकी मात्रा बढ़ती जाती है। आकड़ों में जीता है, कितने बड़े आकड़ों का फैलाव हो जाए! और उसकी पकड़ है। उसके पास जो भी है, वह कम है।

दूसरी बात, उसके पास जो भी है, उसमें उसे कोई सुख नहीं है। सुख सदा वहां है, जो उसके पास नहीं है।

आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को सुख सदा आकाश में कहीं दूर है। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति आशा में जीता है। जो उसके पास है, उसमें तो कुछ खास रस नहीं है। ठीक है। जो नहीं है, आनंद वहां छिपा है। और जब तक वह उसे न पा ले, तब तक आनंदित न हो सकेगा। वह दौड़ता रहता है। आज नष्ट करता है कल के लिए। कल को फिर नष्ट करेगा और आगे आने वाले कल के लिए। ऐसे पूरे जीवन को वह नष्ट करता जाएगा और जीने को पोस्टपोन करता रहेगा। वह कहेगा कि कल जब सब मेरे पास होगा, तब मैं जीऊंगा।

जर्मनी का एक विचारक हुआ। उसके पास बहुत धन था, और अध्ययन की बड़ी रुचि थी, और बड़ी आकांक्षा थी कि जितना ज्यादा से ज्यादा जान सकूं? जान लूं। तो उसने दुनियाभर से जो भी अनूठी से अनूठी पुस्तकें हों, दुर्लभ शास्त्र हों, अनेक भाषाओं के शास्त्र इकट्ठे करने शुरू कर दिए।

उसके पास विशाल पुस्तकालय खड़ा हो गया। पचासों भाषाओं की पुस्तकें उसके पास इकट्ठी हो गईं। ऐसा कोई ग्रंथ नहीं था दुनिया में, जो उसने खोजकर इकट्ठा न कर लिया हो। लेकिन यह इकट्ठा करते—करते उसने पाया कि वह नब्बे वर्ष का हो गया है। जब उसे होश आया कि इकट्ठा तो मैंने कर लिया, लेकिन इसको मैं पढूंगा कब!

और कहते हैं, यह धक्का उस पर इतना भारी पड़ा कि यह धक्का ही उसकी मृत्यु का कारण हुआ। और यह नब्बे वर्ष वह रोज सोच रहा था, कल! कल! और इकट्ठा हो जाए! और इकट्ठा हो जाए! पहले इकट्ठा कर लूं र फिर अध्ययन कर लूंगा, फिर ज्ञान को उपलब्ध हो जाऊंगा।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति भी ऐसे ही दौड़ता रहता है। धन इकट्ठा करता है। पद इकट्ठा करता है। उसे सुविधा तो कभी मिल ही नहीं पाती कि वह उसका उपयोग कर ले। आगे की दौड़ उसे पकड़े रहती है। और रोज को वह कुर्बान करता है। भविष्य के लिए, वर्तमान को वह बलि चढ़ाता है भविष्य के लिए।

और ध्यान रहे, वर्तमान के अतिरिक्त किसी चीज की कोई सत्ता नहीं है। भविष्य तो बिलकुल सपना है। जो आज को खो रहा है कल के लिए, वह आज को व्यर्थ ही खो रहा है। और एक बार यह आदत बन गई आज को खोने की, तो मैं सदा आज को खोता रहूंगा। और जब भी समय आता है, वह आज की तरह आता है; कल तो कभी आता नहीं।

और यह जो और की दौड़ है, इसका कोई भी अंत नहीं हो सकता, क्योंकि यह हर चीज पर जुड़ जाएगी। जो भी आप पा लेंगे, आपका आसुरी संपदा वाला मन कहेगा, और! आप सोच भी नहीं सकते कोई ऐसी स्थिति, जब आपका मन कहे कि बस, काफी! आप सोचें, कभी एकांत में बैठकर यही सोचें कि कितना धन आपको मिल जाए, तो आपका मन और नहीं कहेगा। तो आप अपने साथ ही खेल में पड़ जाएंगे। पहले सोचेंगे, दस करोड़। लेकिन भीतर—अभी कोई दस करोड़ दे भी नहीं रहा है, मिल भी नहीं गए हैं—लेकिन भीतर कोई कहेगा, इतने कम पर राजी क्यों होते हो जब दस अरब हो सकते हैं!

तो जो आपको आखिरी संख्या मालूम है, वहां तक तो आपका मन दौड़ाएगा। और आखिरी संख्या पर भी आपको बेचैनी अनुभव होगी कि और गणित क्यों न सीख लिया! और गणित जानते, तो आज यह मुसीबत तो न होती। आज अटक गए यहां आकर, दस महाशंख या एक करोड़ महाशंख, कहा अब जो संख्या आती है, वह भी छोटी मालूम पड़ेगी। सारी दुनिया आपको मिल जाए, तो भी छोटी मालूम पड़ेगी।

सिकंदर को किसी ने कहा कि तू जीत तो रहा है दुनिया को, लेकिन अगर तूने दुनिया जीत ली तो मुश्किल में पड़ेगा। सिकंदर ने कहा, कौन—सी मुसीबत होगी? जिसने कहा था, वह था डायोजनीज, एक फकीर। उसने कहा, तब तुझे पता चलेगा कि दूसरी दुनिया नहीं है, मुसीबत में पड़ जाएगा। एक दफे पूरी दुनिया जीत ली, तब तुझे पता चलेगा कि दूसरी दुनिया नहीं है।

और कहते हैं कि सिकंदर उसी क्षण उदास हो गया। और उसने कहा कि ऐसी उदासी की बातें मत करो। पहले मुझे एक तो जीतने दो। लेकिन चित्त उसका उदास हो गया यह बात सोचकर ही कि एक जीतने के बाद फिर दूसरी कोई दुनिया नहीं है। और कहीं भी थकेगा नहीं, और की मांग चलती ही जाएगी।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति आज, यहीं जो उसके पास है, जो वह है, उसको परिपूर्णता से जीता है। इसका यह अर्थ नहीं कि उसका विकास नहीं होता। उसका ही विकास होता है। और भी निकलता है आज से, लेकिन वह उसकी माग नहीं करता। वह आज को जीने से उसका और निकलता है। और उसकी मांग नहीं है, उसके जीवन का फल है।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति आज तो जीता नहीं, और को सोचता रहता है। उसका और केवल मन पर दौड़ रहा है; वह जीवन का फल नहीं है।

तो यह विरोधाभासी बात: आप समझ लें। आसुरी संपदा वाला सोचता है, और! और! और! और जितना सोचता है उतना कम होता जाता है, क्योंकि जीवन क्षीण हो रहा है। दैवी संपदा वाला और का विचार नहीं करता, जो है, उसको पूरे के पूरे समस्त भाव से स्वीकार करके डूबता है। इस डूबने से और निकलता है, और बहुत कुछ उसे मिलता है।

जीसस से किसी ने पूछा कि क्या यह भी हो सकता है कि हम परमात्मा को भी खोजें और संसार के सुख भी हमें मिल जाएं? तो जीसस ने कहा, तुम संसार के सुखों की बात सोचो ही मत। फर्स्ट यी सीक दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू। पहले तुम परमात्मा को खोज लो, फिर सब उसके पीछे चला आएगा।

वह जो परमात्मा का तलाशी है, दैवी संपदा का जो व्यक्ति है, वह इसी क्षण में परमात्मा की तलाश कर रहा है। शेष सब भी आता है, लेकिन उस शेष सबकी उसकी कोई मांग नहीं है।

जितनी हो मांग कम, उतना ज्यादा मिलता है। जो मांगते हैं, भिखारी रह जाते हैं। जो नहीं मांगते, सम्राट हो जाते हैं। जीवन बड़ा पहेली से भरा हुआ है! जो मांगते हैं, भिखारी रह जाते हैं। उनके पास जो है, वह भी छिन जाता है। जो नहीं मांगते, सम्राट हो जाते हैं; जो उनके पास नहीं था, वह भी मिल जाता है।

जीसस का एक बहुत विरोधाभासी वचन है। जीसस ने कहा है, अगर तुम मांगोगे, तो जो तुम्हारे पास है, वह भी छीन लिया जाएगा। और अगर तुम बांटोगे, तो जो तुम्हारे पास नहीं है, वह भी दे दिया जाएगा।

ऐसा ही है और ऐसा ही प्रतिपल हो रहा है। जो—जो आपने जीवन में मांगा है, वह कुछ भी आपके पास है नहीं। जो—जो आपने जीवन में दिया है, छोड़ दिया है, वह सब आपके पास है। जिसे हम छोड़ देते हैं, वह सदा के लिए हमारा हो जाता है। और जिसे हम पकड़ लेते हैं, वह सदा के लिए बोझ हो जाता है, और छूटने की तैयारी करता रहता है।

मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊंगा तथा मेरे पास यह इतना धन है फिर भी यह भविष्य में और अधिक होएगा। तथा वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा। मैं ऐश्वर्यवान हूं ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त बलवान एवं सुखी हूं।

यह बड़ा समझने जैसा है।

हमेशा आसुरी संपदा वाला व्यक्ति दूसरों को नष्ट करने की कामना से भरा रहता है, कैसे दूसरों को मिटा दूं! क्योंकि वह सोचता है, जब कोई भी न होगा, तब मैं परिपूर्ण हो जाऊंगा। अगर इस पृथ्वी पर कोई न हो, तो मैं ही सम्राट होऊंगा। तो जो भी मेरे विपरीत है, उसको मिटा दूं; जो भी मुझसे अन्यथा है, उसको नष्ट कर दूर ताकि मेरा साम्राज्य अबाध हो।

दैवी संपदा का व्यक्ति दूसरे को मिटाने का विचार नहीं करता। दैवी संपदा का व्यक्ति अपने को मिटाने का विचार करता है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। क्योंकि वह कहता है, जब तक मैं हूं तभी तक कष्ट रहेगा। जब मैं नहीं रहूंगा, शून्य हो जाऊंगा, तब आनंद हो जाएगा।

दैवी संपदा के व्यक्ति का साम्राज्य उसके अहंकार के खो जाने पर उपलब्ध होता है। आसुरी संपदा के व्यक्ति के साम्राज्य की आका्ंक्षा दूसरों को मिटाने में है, कितना मैं दूसरों को मिटा दूं। आसुरी संपदा का व्यक्ति आपको जिंदा छोड़ सकता है, अगर आप उसके सामने मुरदे की भांति हो जाएं।

आसुरी संपदा का व्यक्ति विवाह करे, तो पत्नी को वस्तु बना देगा, वह मार डालेगा बिलकुल। उसको इस हालत में कर देगा कि उसमें कोई जीवन न बचे। वह कहे रात, तो रात। वह कहे दिन, तो दिन। आसुरी संपदा की स्त्री हो, तो पति को बिलकुल मिट्टी कर देगी। उसको छाया की भांति चलाना चाहेगी। आसुरी संपदा का पिता हो, तो बेटों को पोंछ देगा। उनको बड़ा करेगा, लेकिन ऐसे, जैसे वे मुरदे हैं। उनकी कोई स्वतंत्रता, उसकी कोई गरिमा नहीं बचने देगा।

आसुरी संपदा का व्यक्ति दुश्मनों को मार डालता है। मित्रों को मरे हुए कर देता है। उससे मित्रता रखनी हो तो मुरदा होना जरूरी है।

मैं आज ही इजिप्त के शाह फारूख के जीवन के संबंध में कुछ पढ रहा था। एक व्यक्ति ने संस्मरण लिखा है। वह व्यक्ति जड़ी—बूटियों के द्वारा चिकित्सा करता है। तो शाह फारूख ने उसे अपने इलाज के लिए बुलाया था। जब वह पहुंचा, तो शाह फारूख अपने मंत्रियों के साथ ताश खेल रहा था, जुआ खेल रहा था। उसका प्रधानमंत्री, उसके और मंत्री। यह व्यक्ति भी बैठकर चुपचाप देखता रहा। क्योंकि जब फारूख निपट ले, तब बात हो! यह देखकर हैरान हुआ कि चाहे पत्ते मंत्रियों के पास अच्छे हों, तो भी शाह फारूख ही जीतता है। चाहे उसके पत्तों में कोई जान न हो, तो भी वही जीतता है।

शाह फारूख को भी लगा कि यह आदमी देखकर चकित हो रहा है, हैरान हो रहा है। तो उसने कहा, चकित होने की कोई बात नहीं है; ये सब मेरे नौकर हैं और मेरी आशा मानना उनका फर्ज है। और शाह फारूख ने अपने प्रधानमंत्री से, जो उसके साथ ताश खेल रहा था, उससे कहा कि धोखा देने की कोई जरूरत नहीं, बस हार जाओ। उसी वक्त उसने पत्ते डाल दिए और हार गया।

यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, दुश्मनों को मिटा डालता है, क्योंकि वे झुकने को तैयार नहीं होते। मित्रों को पोंछ डालता है, उनके जीवन में कुछ सत्व नहीं बचने देता। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा कि वह आपको चूस रहा है, नष्ट कर रहा है।

दैवी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा कि वह आपको जीवन दे रहा है। आपकी कुम्हलाई हुई जिंदगी फिर से ताजी हो रही है। दैवी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा, आपका भी मूल्य है; आप भी स्वीकार किए गए हैं, स्वागत है। आप भी एक धन्यता हैं। छोटे से छोटे व्यक्ति को भी दैवी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर लगेगा, उसका कोई मूल्य है, जगत में उसका भी कोई अर्थ है। वह व्यर्थ नहीं है, बोझ नहीं है।

आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के पास श्रेष्ठ से श्रेष्ठ व्यक्ति को भी बैठकर लगेगा, उसका जीवन तुच्छ है। जिसके पास पहुंचकर आपको ऐसा लगे कि आपको तुच्छ किया जा रहा है, तो समझना कि आसुरी संपदा काम कर रही है। अगर आप दूसरों को तुच्छ करने की वृत्ति से भरे हों, तो समझना कि आप आसुरी संपदा से भरे हैं।

दूसरे की गरिमा और गौरव को स्वीकार करने का आपका मन हो, दूसरे का निजी मूल्य है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में साध्य है, वह कोई साधन नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में परम मूल्य है, अल्टिमेट वैज्यू है। अगर दूसरे व्यक्ति के प्रति आपका ऐसा सदभाव हो, तो आप में दैवी संपदा का जन्म होगा।

जर्मनी के बहुत बड़े विचारक इमेनुएल काट ने अपने नीति—शास्त्र का एक आधार—स्तंभ रखा है। और वह आधार—स्तंभ है कि दूसरे व्यक्ति को साधन की तरह मत देखो, साध्य की तरह देखो।

दूसरा व्यक्ति आपका साधन नहीं है कि आप उसका उपयोग कर लो। दूसरा व्यक्ति अपने आप में साध्य है, उसका उपयोग करना गलत है। उसका उपयोग करने का अर्थ यह हुआ कि आप उससे वस्तु की तरह व्यवहार कर रहे हैं। लेकिन हमारी हालत यह है कि हमें अपनी वस्तु, मुरदा वस्तु भी एक जीवित व्यक्ति से ज्यादा मालूम पड़ती है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सफर कर रहा था। बड़ी खचाखच भीड़ थी उस डिब्बे में और वह अपना लोहे का बड़ा वजनी संदूक ऊपर की सीट पर चढ़ाने की कोशिश कर रहा था। नीचे बैठी एक स्त्री ने कहा कि महानुभाव, वहां मत रखिए, ऊपर गिर पड़ेगा। वजनी बहुत है, और बहुत भारी और लोहे का है। नसरुद्दीन ने कहा, देवी जी, आप बिलकुल बेफिक्र रहिए; उसमें टूट जाने वाली कोई भी चीज नहीं।

वह जो महिला बैठी है, उसका सिर टूट जाने का सवाल ही नहीं है। उनके संदूक में टूटने वाली कोई चीज नहीं है।

हम सबकी जीवन—दशा ऐसी है। दूसरे का सिर भी कम कीमत का है, हमारा संदूक भी ज्यादा कीमती है। व्यक्ति का हमारे लिए कोई मूल्य नहीं है।

आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के लिए व्यक्ति है ही नहीं, व्यक्तित्व की कोई गरिमा नहीं है। शत्रुओं को वह नष्ट करना चाहता है। और निरंतर सोचता है, आज शत्रु को मारा; वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, दूसरों को भी मैं कल मारूंगा! वह सदा मारने की तैयारी में लगा है। उसकी चितना विध्वंस की है। वह मृत्यु का आराधक है। वह यमदूत है।

ठीक उससे विपरीत सृजन की जो आराधना है, क्रिएटिविटी, कि मैं कुछ निर्मित करूं, कुछ बनाऊं, जहां कुछ भी नहीं था, वहां कुछ निर्मित हो, जहां जमीन खाली पड़ी थी, वहां एक पौधा उगे, कुछ बने—वह जो सृजन की आराधना है, वही ईश्वर की तरफ जाने का मार्ग है।

इधर मैं आपको कहना चाहूं कि दुनिया के सभी धर्मों ने ईश्वर को स्रष्टा कहा है। ईश्वर को स्रष्टा सिद्ध करना आसान नहीं। दुनिया की कभी सृष्टि हुई है, इसके लिए प्रमाण जुटाना आसान नहीं। और एक बात तो निश्चित है कि उस सृष्टि के क्षण में हममें से कोई भी नहीं था, इसलिए कोई गवाही नहीं दे सकता। और जो भी हम कहेंगे, वह सिर्फ कल्पना होगी। क्योंकि अगर हम मौजूद थे, तो सृष्टि उसके पहले ही हो चुकी थी।

तो सृष्टि के प्राथमिक क्षण का तो हमें कोई पता नहीं है। हम कल्पना कर सकते हैं कि परमात्मा ने बनाई, कि नहीं बनाई, कि क्या हुआ। लेकिन वह सिर्फ मानसिक विलास होगा।

लेकिन फिर भी दुनिया के अधिक धर्म परमात्मा के स्रष्टा होने पर जोर क्यों देते हैं? कुछ कारण है। और वह कारण यह है कि जिस व्यक्ति को भी सृजन पकड़ लेता है, जो व्यक्ति भी अपने जीवन में स्रष्टा हो जाता है, उसे परमात्मा का अनुभव शुरू होता है। इस अनुभव से यह प्रमाण मिलता है कि इस जगत की गहनतम स्थिति सृजनात्मक है। परमात्मा स्रष्टा है, यह स्रष्टा अगर हम हों, तो हमें पता चलता है।

अगर आप एक गीत भी जन्म दे सकें, तो उस गीत को जन्म देने के क्षण में आप में परमात्म— भाव प्रकट होता है। आप एक चित्र भी बना सकें, एक मूर्ति खोद सकें, एक बच्चे को निर्मित कर सकें, बड़ा कर सकें—कुछ भी—एक पौधे को भी आप सम्हाल लें, और उसमें फूल आ जाएं, तो उन क्षणों में जो आपको प्रतीति होती है, वह परमात्मा की छोटी—सी झलक है।

विध्वंस परमात्म—विरोध है; सृजन परमात्मा की तरफ प्रार्थना है। और जो प्रार्थना सृजनात्मक न हो, वह प्रार्थना बांझ है, उस प्रार्थना का कोई भी मूल्य नहीं। मंदिर में बैठकर आप चीख—पुकार करते रहें, उससे कुछ बहुत हल होने वाला नहीं है। उतनी शक्ति सृजन में लग जाए, तो प्रार्थना सजीव हो उठेगी। जब आप स्रष्टा होते हैं, तभी आप परमात्मा के निकट होते हैं।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति, मैं ऐश्वर्यवान हूं ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान हूं और सुखी हूं ऐसी मान्यता रखता है।

सुखी तो होता नहीं, लेकिन मान्यता ऐसी रखता है कि मैं सुखी हूं; ऐसा अपने को समझाता है। यह बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य है। हम जो नहीं होते, अपने को समझाने की कोशिश करते हैं। कमजोर आदमी अपने को शक्तिशाली समझता है। कमजोर आदमी अपने को समझाता है कि मैं महाशक्तिशाली हूं।

मैं एक स्कूल में पढ़ता था। मेरे जो हिंदी के शिक्षक थे, वे कक्षा में हमेशा, पहले दिन से ही आना शुरू हुए, तो अपनी बहादुरी की बातें करते थे, कि मैं इतना हिम्मतवर हूं कि चाहे अमावस की रात हो तो भी मरघट पर चला जाता हूं।

दों—चार बार मैंने उनसे सुना, तो मैंने एक बार उनसे पूछा कि मुझे शक होता है। इसमें कोई बहादुरी की बात भी नहीं है। और कहने की तो कोई जरूरत भी नहीं। आपके भीतर डर है। मरघट आप जा नहीं सकते।

उनके चेहरे पर पसीना आ गया। उन्होंने कहा, तुम्हें कैसे पता चला? मैंने कहा, पता चलने की बात ही नहीं। आप इतनी दफा दोहराते हैं। यह दोहराना बताता है कि आप अपने को समझा रहे हैं।

कुरूप आदमी दोहराता रहता है कि मैं सुंदर हूं। मूढ़ समझाता रहता है कि मैं बुद्धिमान हूं। कमजोर समझाता रहता है कि मैं ताकतवर हूं, और इसको सिद्ध करने की जगह—जगह कोशिश भी करता है। क्योंकि अपने से कमजोर आदमी तो खोज लेना हमेशा आसान है। अपने से मूढ़ भी खोज लेना आसान है। जगत इतना बड़ा है; आप अकेले नहीं हैं। काफी जगह है।

तो वह जो कमजोर आदमी है, अपने से कमजोर खोज लेता है। उनकी छाती पर चढ़कर वह सिद्ध कर लेता है कि मैं निश्चित ही बलवान हूं। आप अपने से मूढ़ को खोज लेते हैं!

और ध्यान रहे, हम सदा यही कोशिश करते हैं कि हमसे कमजोर, हमसे मूढ़ हमें मिल जाए। क्योंकि उसके पास हम बड़े मालूम होते हैं। लगता है, हम कुछ हैं। इससे प्रतीति हम अपने भीतर कर लेते हैं कि सब ठीक है।

पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक हुआ, एडलर। उसने एक मनोविज्ञान को जन्म दिया, इंडिविजुअल साइकोलाजी। और उस मनोविज्ञान का आधार—स्तंभ उसने हीनता की ग्रंथि बनाया। उसका कहना है कि जिस व्यक्ति में जो चीज हीन होती है, वह उसके विपरीत रूप अपने आस—पास खड़ा करता है, ताकि खुद भी भूल जाए, दूसरे भी भूल जाएं। उसने बड़ा गहरा अध्ययन किया और उसने कहा कि जितने लोग दुनिया में जिन—जिन चीजों के पीछे पागल होते हैं, वह पागलपन बताता है कि वही उनकी कमजोरी है।

हिटलर जैसा व्यक्ति, यह किसी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित है। और जब तक वह अपने को नहीं समझा लेगा कि मैं सारी दुनिया का मालिक हो गया, तब तक उसको शांति न मिलेगी। जो लोग पैर से कमजोर हैं, वे दौड़ने की कोशिश करते हैं।

विपरीत की कोशिश चलती है, ताकि हम अपने को भी दिखा दें, दुनिया को भी दिखा दें कि नहीं, यह बात नहीं है। कौन कहता है कि हम कमजोर हैं! कौन कहता है हमारे पैर कमजोर हैं! कौन कहता है हमारी आंख कमजोर है!

वह एक जगह बोल रहा था, तो एक बड़ी मजेदार घटना घटी। वह समझा रहा था कि जिन लोगों में जो—जो चीज की हीनता होती है, उस—उस की वे तलाश में जाते हैं। जैसे जिस आदमी को गरीबी की बड़ी ग्लानि होती है, वह धन की कोशिश करता है। जिस आदमी को अपने पद में हीनता दिखाई पड़ती है, वह पद—प्रतिष्ठा, राष्ट्रपति होने की दौड़ में लग जाता है। जो कुरूप होता है, वह

सौंदर्य की तलाश करने लगता है।

एक आदमी खड़ा हो गया और उसने कहा कि क्या यह बात आप पर भी लागू है? एडलर कुछ समझा नहीं। वह आदमी बड़ी गहरी मजाक कर रहा था। उसने कहा कि क्या इसका मतलब है कि जिसका मन कमजोर होता है, वह मनोवैज्ञानिक हो जाता है!

लेकिन एडलर की बात में सचाई है।

कृष्ण भी वही बात कह रहे हैं; कह रहे हैं कि ऐसा आदमी सुखी होता नहीं, हो नहीं सकता, लेकिन मानता है कि मैं सुखी हूं। और गौरव से इसका प्रचार करता है कि मैं सुखी हूं। उसके प्रचार के कारण आप भी धोखे में आ जाते हैं।

आपके राजनीतिज्ञ हैं, बड़े पदों पर हैं। उनको देखकर बाहर से आपको ऐसा लगेगा कि बड़े प्रसन्न हैं, फूलमालाएं डाली जा रही हैं, और बड़ा आनंद ही आनंद है। काश, उनके जीवन में आपको झांकने का मौका मिल जाए, तो वे बड़े दुखी हैं और बड़े परेशान हैं। और किसी तरह अपनी फजीहत न हो जाए बिलकुल, इसको बचाने में लगे हुए हैं। और फजीहत पूरे क्षण हो रही है। लेकिन वे जब बाहर निकलते हैं, तो मुस्कुराते निकलते हैं।

उनकी मुस्कुराहट बिलकुल ऊपर से पोती गई है, पेंटेड है, क्योंकि भीतर वे रो रहे हैं और परेशान हैं। और एक क्षण की उनको सुविधा नहीं है, सुख नहीं है, शांति नहीं है। लेकिन बाहर वे दिखलाने की कोशिश करते हैं कि बड़े प्रसन्न हैं, बड़े आनंदित हैं। उससे आपको भी भ्रम पैदा होता है।

आप भी जब घर से बाहर निकलते हैं, तो दूसरों को भ्रम पैदा करवाते हैं कि बड़े प्रसन्न हैं। घर में कोई मेहमान आ जाए, तो पति—पत्नी ऐसी प्रेमपूर्ण बातें करने लगते हैं, जैसी उन्होंने कभी नहीं कीं। घर में कोई न हो, तब उनका असली रूप दिखाई पड़ता है। शिष्टाचार है, सभ्यता है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन अपने पति से बोली कि पच्चीस साल हो गए विवाहित हुए—कोई मेहमान घर आया था, उसके सामने ही उसने यह बात उठानी ठीक समझी, नसरुद्दीन शायद लज्जित हो जाए—पच्चीस साल हो गए, मैं इस घर में बंदिनी होकर रह रही हूं। कभी हम एक बार भी एक साथ घूमने भी घर के बाहर नहीं निकले!

नसरुद्दीन ने कहा, फजलू की मां, बात का इतना बतंगड़ मत बनाओ। इतनी बात बढ़ा—चढ़ाकर मत कहो। अतिशयोक्ति की तुम्हें आदत हो गई है। जब एक बार घर में स्टोव फट गया था, तो

हम दोनों साथ—साथ बाहर निकले थे कि नहीं?

घर—घर में वैसा है। लेकिन बाहर पति—पत्नी को देखें, सिनेमा की तरफ जाते, बाजार की तरफ जाते, तो ऐसा लगेगा कि परम सुख भोग रहे हैं।

हर कहानी कहती है, जहां शादी हो जाती है राजकुमारी और राजकुमार की, फिर वे दोनों सुख से रहने लगे। यहीं खतम हो जाती है। और इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता। यहीं से दुख की शुरुआत होती है। उसके पहले थोड़ा—बहुत सुख रहा भी हो कल्पना में, आशा में। लेकिन सब कहानियां यहीं बंद हो जाती हैं। यह उचित भी है, क्योंकि इसके बाद आगे बात उठानी अशिष्टाचार की होगी। यहीं बंद कर देना ठीक है।

हम सब बाहर एक रूप बनाए हुए हैं। सुखी नहीं हैं, लेकिन दिखा रहे हैं कि सुखी हैं। दीन हैं, लेकिन दिखा रहे हैं कि दीन नहीं हैं। चाहे हमें उधार चीजें लेकर भी प्रभाव पैदा करना पड़े, घर में कोई मेहमान आ जाए, तो पड़ोस से सोफा उठा लाना पड़े, तो भी कोई बात नहीं, लेकिन हम दिखा रहे हैं।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति अपनी दीनता को छिपाकर उसका विपरीत रूप प्रकट करता रहता है। तो वह कहता है, मैं ऐश्वर्यवान हूं। वह कहता है कि मैं ऐश्वर्यों का भोगने वाला हूं। वह कहता है कि मैं सब सिद्धियों से युक्त हूं; कि मैं बलवान हूं? मैं सुखी हूं।

ये कोई भी बातें सच नहीं हैं। ये बातें तो सच होती हैं दैवी संपदा वाले को, कि वह ऐश्वर्यवान हो जाता है, ईश्वर हो जाता है, कि सारी सिद्धियां उसे सिद्ध हो जाती हैं; कि सारे सुख, सारी शक्तियां उसके ऊपर बरस जाती हैं। यह घटना तो घटती है दैवी संपदा वाले को। लेकिन आसुरी संपदा वाला मानकर चलता है कि ऐसा है; और इसका प्रचार भी करता है। और प्रचार अगर ठीक से किया जाए तो दूसरों को भी भरोसा आ जाता है। और अगर दूसरों को भरोसा आ जाए, तो हो सकता है, जिसने प्रचार किया है, उसको भी भरोसा आ जाए; कि इतने लोग मानते हैं, तो ठीक ही मानते होंगे।

मैं बड़ा धनवान, बड़े कुटुंब वाला हूं मेरे समान दूसरा कौन है! मैं यज्ञ करूंगा, दान देऊंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा—इस प्रकार के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित है।

यह कुछ करने वाला नहीं है; न वह यश करने वाला है, न वह दान देने वाला है; लेकिन सोचता है कि मैं दूंगा। अच्छी बातें वह सदा सोचता है कि मैं करूंगा, करता तो सब बुरी बातें है, लेकिन सोचता हमेशा अच्छी बातें है। इस सोचने से एक बड़ी सुविधा हो जाती है। वह सुविधा यह है कि उसको लगता है कि मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं।

आप भी सब यह करते हैं। अच्छी—अच्छी बातें सोचते हैं, करेंगे! ऐसा सोचने से खुद को भी लगने लगता है कि जब करने की सोच रहे हैं, तो कर ही रहे हैं। और देरी क्या है, आज नहीं तो कल करेंगे, लेकिन करना तो निश्चित है!

कभी आप करने वाले नहीं। क्योंकि पचास साल जी चुके, इस पचास साल में कभी नहीं किए। आगे कैसे करेंगे? कौन करेगा? आप ही करने वाले हैं, और आप रोज टालते जाते हैं।

बुरे को आप आज कर लेते हैं, अच्छे को सोचते हैं, करेंगे। उससे मन में खयाल बना रहता है कि मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं। अगर मजबूरी की वजह से थोड़ा बुरा करना भी पड़ रहा है, तो यह तो केवल अस्थायी है, यह तो परिस्थितिवश है। लेकिन भाव तो मेरा अच्छा करने का है। उस भाव के कारण बुरा आदमी अपनी बुराई को झेलने में समर्थ हो जाता है। उस भाव के कारण बुरा आदमी बुराई के काटे को चुभने नहीं देता। वह भाव सुरक्षा बन जाता है।

मैं यज्ञ करूंगा, दान करूंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा—इस प्रकार के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित है। यह उसकी आटो—हिम्मोसिस है, यह उसका मोह है।

यह मोहित शब्द समझ लेने जैसा है। मोहित का अर्थ है कि ऐसे भाव से वह अपने को समझा लेता है। और जो समझा लेता है, वैसा ही हो जाता है। वह मानने ही लगता है, धीरे— धीरे, धीरे— धीरे, बिना दान किए मानने लगता है कि मैं दानी हूं; क्योंकि दान करने का विचार करता है। बिना दिए दाता बन जाता है! क्योंकि इतनी बार सोचा है, सोचते—सोचते हमारे मन में लकीरें पड़ जाती हैं।

पश्चिम में एक विचारक हुआ एमाइल कुए। वह लोगों को कहता था, कुछ और करने की जरूरत नहीं; जो भी तुम होना चाहते हो, उसको सोचो। अगर तुम स्वस्थ होना चाहते हो, तो निरंतर सोचते रहो कि मैं स्वस्थ हो रहा हूं स्वस्थ हो रहा हूं? स्वस्थ हो गया हूं।

इसका परिणाम होगा। इसके परिणाम होते हैं। भला आप स्वस्थ हों या न हों, लेकिन आपको प्रतीति होने लगती है कि आप स्वस्थ हो गए।

एक घटना है, एमाइल कुए का एक मित्र एक दिन रास्ते पर उसे मिला। तो कुए ने पूछा कि तुम्हारी मां की तबियत अब कैसी है? तो उसके मित्र ने कहा कि अब तो तबियत बड़ी खराब है। बीमारी बढ़ती जा रही है, बुरी तरह बीमार है मेरी मां। बचने की कोई उम्मीद नहीं है। एमाइल कुए ने कहा, गलत। यह सिर्फ उसका खयाल है। यह खयाल है उसका कि वह बीमार है। यह खयाल मिट जाए, वह ठीक हो जाएगी।

फिर कुछ दिन बाद दुबारा रास्ते पर मिलना हुआ, तो एमाइल कुए ने पूछा कि अब तुम्हारी मां की कैसी हालत है? तो उसने कहा, अब उसका खयाल है कि वह मर गई है। पहले खयाल था, आपने बताया था, कि बीमार है। अब मर गई है, तब यही समझना चाहिए कि उसका खयाल है कि मर गई है!

अगर आप एक विचार को बहुत बार दोहराते रहे हैं, तो उसकी एक तंद्रा आपके आस—पास निर्मित हो जाती है, वह सम्मोहन है। और बुरा आदमी अपने को सम्मोहित किए रहता है भले विचारों से, हर्ष को उपलब्ध होऊंगा, दान करूंगा……।

सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन जब मरा, तो उसने वसीयत लिखी। जब वह वसीयत लिखवा रहा था, उसने कहा कि इतना मेरी पत्नी को, इतना मेरे बेटे को, इतना मेरी बेटी को। संपत्ति का विभाजन किया कि आधा मेरी पत्नी को, फिर आधे का आधा मेरे बेटे को, फिर उसके आधे का आधा लड़की को…..। यह सब बांटकर और उसने कहा कि अब जो भी बचे, वह गरीबों को।

वह जो वकील लिख रहा था, उसने कहा कि बचता तो अब इसमें कुछ भी नहीं है! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि बचने का सवाल ही नहीं है, वह तो मुझे पता है। है तो मेरे पास कुछ भी नहीं, इसीलिए तो कह रहा हूं आधा मेरी पत्नी को, संख्या नहीं लिखवा रहा हूं। है तो कुछ भी नहीं। मिलनो तो पत्नी को भी कुछ नहीं है, बेटे को भी, लेकिन मरते वक्त अच्छे खयाल…। और फिर जो बच जाए वह गरीबों को! और कहा है धर्मशास्त्रों में कि अच्छे खयालों से जो मरता है, वह अच्छे लोक को उपलब्ध होता है। यह तो अच्छे खयाल की बात है।

बुरा आदमी निरंतर अच्छे खयाल सोचता रहता है। और एक तंद्रा निर्मित करता है अपने आस—पास। बार—बार पुनरुक्त करने से सुझाव भीतर बैठ जाते हैं। वह सोचता है, हर्ष को प्राप्त होऊंगा, दान दूंगा, यज्ञ करूंगा। लेकिन यह सब भविष्य, करूंगा। करता नहीं। करता इनके विपरीत है, छीनता है।

अगर आप चोरी करने जा रहे हों, और चोरी करते वक्त आप सोचें कि हर्ज क्या है, अमीर से छीन रहा हूं गरीब को बांट दूंगा, दान करूंगा। तो चोरी का पाप और जो दंश है, वह मिट जाता है। फिर आपको लगता है कि आप एक काम, एक धार्मिक काम ही कर रहे हैं। अमीर से छीन रहे हैं, गरीब को देंगे।

छीन आप अभी रहे हैं, देने की बात कल्पना में है। वह देना कभी होने वाला नहीं है। क्योंकि छीनने वाला चित्त देगा कैसे? वह मौका लगेगा तो गरीब से भी छीन लेगा। सोचेगा, और भी गरीब हैं इससे ज्यादा, उनको दूंगा। और आखिर में वह पाएगा, अपने से ज्यादा गरीब कोई भी नहीं है। इसलिए जितना छीन लिया, उसे अपने काम में ले आना चाहिए।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने पड़ोसी के घर में गया, और उसने कहा कि क्या आप कुछ विचार करेंगे! एक की विधवा, जो दस साल से मकान में रह रही है और दस साल से किराया नहीं चुका पाई है। और किराया चुकाने का कोई उपाय भी नहीं है। आज उसे उसका मकान मालिक मकान के बाहर निकाल रहा है। कुछ सहायता करें। तो जिससे उसने सहायता मागी थी, सोचकर कि यह बूढ़ा आदमी बेचारा उस वृद्धा की सहायता के लिए आया है, उसने कहा, जो भी आप कहें, मैं सहायता करूंगा। कुछ रुपए उसने दिए। और उसने कहा, मित्रों को भी कहूंगा। लेकिन आप कौन हैं उस वृद्धा के? बड़े दयालु मालूम पड़ते हैं।

नसरुद्दीन ने कहा, मैं! मैं मकान मालिक हूं। दस साल से वृद्धा बिना किराया दिए रह रही है।

वह सोच रहा है कि वृद्धा की सहायता करने चला है!

यह जो हमारा चित्त है, यह बड़े प्रवंचक नुस्खे जानता है और उनके उपयोग करता है। और बहुत दिन उपयोग करने पर आपको उनका पता भी चलना बंद हो जाता है।

वे अनेक प्रकार से अमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन मोहरूप जाल में फंसे हुए एवं विषय— भोगों में अत्यंत आसक्त हुए अपवित्र नरक में गिरते हैं।

नरक से कुछ अर्थ नहीं है कि कहीं कोई पाताल में छिपा हुआ कोई पीड़ागृह है, जहां उनको गिरा दिया जाता है। ये केवल प्रतीक हैं। ऐसी भावनाओं में जीने वाला व्यक्ति नरक में गिर ही गया। वह नरक में जीता ही है। उसके भीतर प्रतिपल आग जलती रहती है विषाद की, दुख की, पीड़ा की। उसका संताप गहन है। क्योंकि जिसने कभी सुख न बांटा हो, उसे सुख नहीं मिल सकता। और जिसने सदा दुख ही बांटा हो, उसे दुख ही घनीभूत होकर मिलता है। वह दुख उस पर बरसता रहता है। उस दुख की वर्षा ही नरक है।

जो हम देते हैं, वह हमारे पास अनतगुना होकर लौट आता है। फिर हम सुख दें तो, हम दुख दें तो। हम वही अर्जित कर लेते हैं, जो हम बांटते हैं।

ऐसा व्यक्ति, जो दुख देता है और सुख देने की केवल कल्पना करता है, वह दुख पाता है और सुख की केवल आशा कर सकता है। उसे सुख मिल नहीं सकता। हमारे वास्तविक कृत्य ही हमारे जीवन में परिणाम लाते हैं, वे हमारी निष्पत्तिया हैं। जो हम करते हैं, वही हमारी निष्पत्ति बनता है।

अगर आप दुख पा रहे हैं, तो आप निरंतर ऐसा ही सोचते हैं कि लोग बहुत बुरे हैं, इसलिए दुख दे रहे हैं। आप दुख इसलिए पा रहे हैं कि दुख आपने बांटा है आज, पीछे, कल और पीछे कल। आप वही पा रहे हैं, जो आपने बांटा है।

बुद्ध को किसी पागल आदमी ने मारने की, हत्या करने की कोशिश की, एक पागल हाथी उनके ऊपर छोड़ा। एक पहाड़ के नीचे बैठकर ध्यान करते थे, तो चट्टान ऊपर से सरकाई।

बुद्ध के शिष्यों ने बुद्ध को कहा कि यह आदमी महान दुष्ट है। बुद्ध ने कहा, ऐसा मत कहो। मैंने उसे कभी कोई दुख दिया होगा, वही दुख मुझ पर वापस लौट रहा है। और मैं इस खाते को बंद कर देना चाहता हूं। इसलिए उसे चट्टान गिराने दो; उसे पागल हाथी छोड़ने दो, और मैं कोई प्रतिक्रिया न करूं, मैं कुछ भी न कहूं इस संबंध में अब, अब इस चीज को आगे बढ़ाना नहीं है। क्योंकि इतना भी मैं कहूं कि वह दुष्ट है, तो फिर मैं उसे दुख देने का उपाय कर रहा हूं। यह बात भी उसको चोट पहुंचाएगी कि दुष्ट है, ऐसा मैंने कहा। यह बात भी उसको काटा बनेगी, फिर इसका प्रतिफल होगा। तो वह जो कर रहा है, वह मैंने कुछ किया होगा, उसका प्रतिफल है। और इस खाते को मैं यहीं समाप्त कर देना चाहता हूं। यह किताब अब बंद कर देनी है। उसे कर लेने दो। और मैं अब कुछ भी न करूंगा, कोई भी प्रतिक्रिया, ताकि आगे के लिए कोई भी लेन—देन निर्मित न हो।

जब भी हमें दुख मिलता है, हम् सोचते हैं, लोग हमें दुख दे रहे हैं। वह हमारी भ्रांति है। कोई आपको क्यों दुख देने चला? किसी को क्या प्रयोजन है? किसको फुरसत है? लोगों को अपना जीवन जीना है कि आपको दुख देने का उपाय करना है?

नहीं, कहीं कोई आपने निर्मिति की है; कहीं कोई प्रतिध्वनि आपने फेंकी थी, वह आज वापस लौट रही है। उसे इस भाति जो चुपचाप स्वीकार कर लेता है, उसके दुखों के जो अतीत के बोझ हैं, वे कट जाते हैं और नए बोझ निर्मित नहीं होते।

और अगर कभी आपको कोई सुख मिलता है, तो भी आप जानना कि आपने कोई सुख बांटा होगा, जाने या अनजाने, उसका प्रतिफल है।

अगर हम अपने सुखों और दुखों को अपने ही कर्मों का प्रतिफल समझ लें, तो कर्म का सिद्धात हमारी समझ में आ गया। कर्म का सिद्धांत बस सार में इतना ही है कि मुझे वही मिलता है, जो मैंने किया है। मैं वही फसल काटता हूं जो मैंने बोई है; अन्यथा कुछ भी हो नहीं सकता।

ऐसी चित्त की दशा बनती चली जाए, तो आप धीरे— धीरे आसुरी संपदा से मुक्त होकर दैवी संपदा में प्रवेश कर जाएंगे। इससे विपरीत अपने को आप आदत बनाते रहें, तो आसुरी संपदा में धीरे— धीरे थिर हो जाएंगे। ऐसे थिर हो गए लोग, कृष्ण कहते हैं, महानरक में गिर जाते हैं।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–186

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जीवन की दिशा—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—16

सूत्र:

अत्मसंभाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता:।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।। 17।।

अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोध च संश्रता:।

मामत्‍मपरहेहेषु प्रद्धईषन्तोऽभ्यसूक्का:।। 18।।

तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।

क्षियाम्यजस्रमशुभानासुरीष्येव योनिषु।। 19।।

आसुरी योनिमापन्‍ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामाप्राप्‍यैव कौन्तेय ततो यान्‍त्‍यधमां गतिम्।। 29।।

 वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष बन और मान के मद से युक्‍त हुए, शास्त्र— विधि से रहित केबल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन करते हैं।

तथा वे अहंकार, बल, धमंड, कामना और क्रोधादि के परायण हुए एंव दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिरता हूं।

इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ पूरूष जन्म— जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए, मेरे को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं।

 

पहले कुछ प्रश्न।

 

पहला प्रश्न : कल कहा गया कि दुनिया में अच्छाई और बुराई का संतुलन है। ये दोनों सदा ही सम परिमाण हैं। एक बुरा मिटता है, तो अच्छा भी कम होता है। अगर इस संतुलन में कभी बदल होने वाला नहीं है, तो साधना का प्रयोजन क्या है?

 

प्रश्न महत्वपूर्ण है। साधकों को गहराई से सोचने जैसा है।

साधना के संबंध में हमारे मन में यह भांति होती है कि साधना भलाई को बढ़ाने लिए है। साधना का कोई संबंध भलाई को बढ़ाने से नहीं है; न साधना का कोई संबंध बुराई को कम करने से है। साधना का संबंध तो दोनों का अतिक्रमण, दोनों के पार हो जाने से है। साधना न तो अंधेरे को मिटाना चाहती है, न प्रकाश को बढ़ाना चाहती है। साधना तो आपको दोनों का साक्षी बनाना चाहती है।

इस जगत में तीन दशाएं हैं। एक बुरे मन की दशा है, एक अच्छे मन की दशा है और एक दोनों के पार अमन की, नो—माइंड की दशा है। साधना का प्रयोजन है कि अच्छे—बुरे दोनों से आप मुक्त हो जाएं। और जब तक दोनों से मुक्त न होंगे, तब तक मुक्ति की कोई गुंजाइश नहीं।

अगर आप अच्छे को पकड़ लेंगे, तो अच्छे से बंध जाएंगे। बुरे को छोड़ेंगे, बुरे से लड़ेंगे, तो बुरे के जो विपरीत है, उससे बंध जाएंगे। चुनाव है; कुएं से बचेंगे, तो खाई में गिर जाएंगे। लेकिन अगर दोनों को न चुनें, तो वही परम साधक की खोज है कि कैसे वह घड़ी आ जाए, जब मैं कुछ भी न चुनूं, अकेला मैं ही बधू; मेरे ऊपर कुछ भी आरोपित न हो। न मैं बुरे बादलों को अपने ऊपर ओढु न भले बादलों को ओढूं। मेरी सब ओढ़नी समाप्त हो जाए। मैं वही बचूं जो मैं निपट अपने स्वभाव में हूं।

यह जो स्वभाव की सहज दशा है, इसे न तो आप अच्छा कह सकते और न बुरा। यह दोनों के पार है, यह दोनों से भिन्न है, यह दोनों के अतीत है।

लेकिन साधारणत: साधना से हम सोचते हैं, अच्छा होने की कोशिश। उसके कारण हैं, उस भ्रांति के पीछे लंबा इतिहास है। समाज की आकांशा आपको अच्छा बनाने की है। क्योंकि समाज बुरे से पीड़ित होता है, समाज बुरे से परेशान है। इसलिए अच्छा बनाने की कोशिश चलती है। समाज आपको साधना में ले जाना नहीं चाहता। समाज आपको बुरे बंधन से हटाकर अच्छे बंधन में डालना चाहता है।

समाज चाहता भी नहीं कि आप परम स्वतंत्र हो जाएं, क्योंकि परम स्वतंत्र व्यक्ति तो समाज का शत्रु जैसा मालूम पड़ेगा। समाज चाहता है, रहें तो आप परतंत्र ही; पर समाज जैसा चाहता है, उस ढंग के परतंत्र हों। समाज आपको अच्छा बनाना चाहता है, ताकि समाज को कोई उच्छृंखलता, कोई अनुशासनहीनता, आपके द्वारा कोई उपद्रव, बगावत, विद्रोह न झेलना पड़े।

समाज आपको धार्मिक नहीं बनाना चाहता, ज्यादा से ज्यादा नैतिक बनाना चाहता है। और नीति और धर्म बड़ी अलग बातें हैं। नास्तिक भी नैतिक हो सकता है, और अक्सर जिन्हें हम आस्तिक कहते हैं, उनसे ज्यादा नैतिक होता है। ईश्वर के होने की कोई जरूरत नहीं है आपके अच्छे होने के लिए; न मोक्ष की कोई जरूरत है। आपके अच्छे होने के लिए तो केवल एक विवेक की जरूरत है। तो नास्तिक भी अच्छा हो सकता है, नैतिक हो सकता है।

धर्म कुछ अलग ही बात है। धर्म का इतने से प्रयोजन नहीं है कि आप चोरी नहीं करते। नहीं करते, बड़ी अच्छी बात है। लेकिन चोरी न करने से कोई मोक्ष नहीं पहुंच जाता है। जब चोरी करने वाले को कुछ नहीं मिलता, तो चोरी से बचने वाले को क्या मिल जाएगा! जब धन इकट्ठा करने वाले को कुछ नहीं मिलता, जब धन इकट्ठा कर—करके कुछ नहीं मिलता, तो धन छोड्कर क्या मिल जाएगा! अगर धन इकट्ठा करने से कुछ मिलता होता, तो शायद धन छोड़ने से भी कुछ मिल जाता। जब काम— भोग में डूब—डूबकर कुछ नहीं मिलता, तो उनको छोड़ने से क्या मिल जाएगा! वह कचरा है, उसको छोड्कर मोक्ष नहीं मिल जाने वाला है। यह थोड़ा कठिन है समझना।

एक बात ध्यान रखें, जिस चीज से लाभ हो सकता है, उससे हानि हो सकती है। जिससे हानि हो सकती है, उससे लाभ हो सकता है। लेकिन जिस चीज से कोई लाभ ही न होता हो, उससे कोई हानि भी नहीं हो सकती। अगर धन के इकट्ठा करने से कोई भी लाभ नहीं होता, तो धन के इकट्ठा करने से कोई हानि भी नहीं हो सकती।

धार्मिक व्यक्ति धन के इकट्ठा करने को मूढ़ता मानता है, बुराई नहीं। वह बाल—बुद्धि है। धर्म कामवासना में डूबे व्यक्ति को पापी नहीं कहता, सिर्फ अज्ञानी कहता है। उसे पता नहीं कि वह क्या कर रहा है। तो धर्म की कोई इच्छा नहीं ‘है कि आप, जिन—जिन चीजों को समाज बुरा कहता है, उन्हें छोड़ देंगे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। सज्जन पुरुष हमारे बीच हैं, फिर भी मोक्ष उनसे उतना ही दूर है, जितना दुर्जन से, उस दूरी में कोई फर्क नहीं पड़ता। मोक्ष की दूरी में तो तभी कमी होनी शुरू होती है, जब आप न दुर्जन रह जाते, न सज्जन, न साधु, न असाधु; क्योंकि इन दोनों का द्वंद्व है। और जब तक द्वंद्व नहीं टूटता, तब तक परमहंस अवस्था नहीं आती।

साधना का प्रयोजन है, परमहंस अवस्था आ जाए। इससे हमें डर भी लगता है। क्योंकि अगर कोई व्यक्ति बुराई— भलाई दोनों छोड़ दे, जैसे ही हम यह सोचते हैं, तो हमें डर लगता है कि वह आदमी बुरा हो जाएगा।

अगर आपसे कहा जाए कि बुराई— भलाई दोनों छोड़ दो, तो आपके मन में तत्क्षण बुरे करने के विचार आएंगे। भलाई तो छोड़ना बिलकुल आसान है। उसको तो कभी पकड़ा ही नहीं है, इसलिए छोड़ने का कोई प्रश्न नहीं है। आपको अगर पता चले कि दोनों बेकार हैं, तो आप तत्क्षण बुराई करने में लग जाएंगे। उस खुद की मनोदशा के कारण, धर्म की यह जो परम आत्यंतिक धारणा है, दोनों के पार हो जाना, उससे हमें भय लगता है।

लेकिन अगर आप समझेंगे साधना का अर्थ, साधना का अर्थ है, धीरे—धीरे बाहर से भीतर की तरफ जाना।

अच्छाई भी बाहर है, बुराई भी बाहर है। अगर आप चोरी करते हैं, तो भी आपके अतिरिक्त किसी और का होना जरूरी है। अकेले आप कैसे चोरी करिएगा? अगर इस पृथ्वी पर आप अकेले रह जाएं, सारा समाज नष्ट हो जाए; युद्ध हो जाए तीसरा, सब नष्ट हो जाएं, आप भर अकेले बचें; आप चोरी कर सकिएगा फिर? किसकी चोरी करिएगा? चोरी का अर्थ ही क्या होगा?

अगर आप अकेले हैं, तो चोरी नहीं कर सकते। अगर अकेले हैं, तो दान कर सकिएगा? दान के लिए भी दूसरे की जरूरत है। तो चोरी हो या दान, नीति हो या अनीति, पुण्य हो या पाप, ये सब बाहर की घटनाएं हैं। लेकिन सारी दुनिया नष्ट हो जाए और आप अकेले बचें, तो भी ध्यान कर सकते हैं। ध्यान का दूसरे से कुछ संबंध नहीं है। ध्यान आंतरिक घटना है। इसलिए ध्यान भीतर ले जाता है।

पुण्य भी बाहर भटकाता है, पाप भी बाहर भटकाता है। अच्छाई भी बाहर, बुराई भी बाहर। अच्छाई भी समाज में, बुराई भी समाज में। उन दोनों का कोई अंतस्तल से संबंध नहीं है।

साधना का अर्थ है, ध्यान। साधना का अर्थ है, अंतर्मुखता। साधना का अर्थ है, उसे मैं जानूं जो मैं अपनी निजता में हूं; जिसका दूसरे से संबंधित होने का कोई संबंध नहीं है। साधना का संबंध रिलेशनशिप, संबंधों से जरा भी नहीं है। साधना का संबंध है स्वयं से; मैं उसे जान लूं जो मैं हूं।

तो न तो चोरी करके कोई उसे जान पाता है, न चोरी छोड्कर कोई उसे जान पाता है। चोर भी भटकते हैं, जो चोरी नहीं .करते, वे भी भटकते हैं। न तो बुरा करके उसे कोई कभी जाना है, न भला करके कभी कोई उसे जाना है। उसे जानने वाले को तो सभी करना छोड़ देना पड़ता है, बुरा भी, भला भी। उसे तो भीतर अक्रिया में डूब जाना पड़ता है। उसे तो बाहर से आख ही बंद कर लेनी पड़ती है।

उसके लिए कामवासना भी व्यर्थ है, उसके लिए ब्रह्मचर्य भी दो कौड़ी का है। क्योंकि ब्रह्मचर्य और कामवासना दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे अलग—अलग बातें नहीं हैं। आपको ब्रह्मचर्य मूल्यवान दिखाई पड़ता है, क्योंकि कामवासना में आपको रस है। जिस दिन कामवासना में कोई रस न रह जाएगा, उस दिन ब्रह्मचर्य भी दो कौड़ी का है, उसका भी कोई मूल्य नहीं है।

द्वंद्व से कोई संबंध नहीं है। और जगत एक संतुलन है। जगत में बुराई और भलाई सदा संतुलित है। साधना तो जगत के पार उठने की प्रक्रिया है। लेकिन यह खयाल में तभी आएगा, जब थोड़ा—सा अनुभव करेंगे।

अभी तो हम कामों में ही चुनते हैं। यह काम बुरा है, छोड़ दें। यह काम भला है, कर लें। अभी एक्शंन पर, कर्म पर ही हमारा जोर है। वह जो कर्मों के पीछे छिपा हुआ हमारा स्वभाव है, उस पर हमारा कोई जोर नहीं है।

उसे जान लें, जो बुरा भी करता है और भला भी करता है। उसे जान लें, जो दोनों के पीछे छिपा है। उसे जान लें, जो सब करके भी अकर्ता है। उसे जान लें, जो सबका द्रष्टा है। उससे कोई लेना—देना नहीं है आपके कर्म का। आप सुबह पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, स्नान करते हैं कि नहीं करते हैं, मंदिर में जाते हैं कि मस्जिद में—इससे कोई संबंध नहीं है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप मंदिर मत जाएं। और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप अच्छाई मत करें। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि करने के पार जाना पड़ेगा, तभी धर्म से संबंध जुड़ेगा। वह अर्जुन भी इसी द्वंद्व से ग्रस्त है। उसका भी सवाल क्या है? उसकी भी चिंता क्या है? उसकी उलझन क्या है?

यही उलझन है। वह देखता है कि यह जो युद्ध है, बुराई है। इसमें सिर्फ लोग मरेंगे, सिर्फ हत्या होगी, खून बहेगा। न मालूम कितनी स्त्रियां विधवा हो जाएंगी। न मालूम कितने बच्चे अनाथ हो जाएंगे। घर—घर में दुख और हाहाकार छा जाएगा। यह बुरा है।

तो वह कृष्ण से यही कह रहा है कि इस बुराई को मैं छोड़ दूं। यह बुराई करने जैसी नहीं लगती। इससे तो अच्छा है कि मैं जंगल चला जाऊं, संन्यास ले लूं विरक्त हो जाऊं, छोड़ दूं सब। बुराई को छोड़ दूं अच्छाई को पकड़ लूं। और कृष्ण उसे क्या समझा रहे हैं? इसलिए कृष्ण का संदेश सरल होते हुए भी अति कठिन है।

कृष्ण उसे यह समझा रहे हैं कि तू जब तक यह सोचता है कि यह बुरा है, इसे छोड़ यह भला है, इसे करूं; तब तक तू उलझन में रहेगा। तू कर्म की धारणा छोड़ दे। तू यह भाव छोड़ दे कि मैं कर्ता हूं।

अगर तू युद्ध छोड्कर चला जाएगा, तो तू सोचेगा, मैंने संन्यास किया, मैंने त्याग किया, मैंने वैराग्य किया; पर कर्म का भाव तुझे बना रहेगा। युद्ध करेगा, तो तू समझेगा, मैंने युद्ध किया, मैंने लोगों को मारा, या मैंने लोगों को बचाया।

दोनों ही धारणाएं भ्रांत हैं। तू करने वाला नहीं है। करने की बात तू विराट पर छोड़ दे। तू सिर्फ निमित्त हो जा। तू सिर्फ विराट को मौका दे कि तेरे भीतर से कुछ कर सके। तू सिर्फ देखने वाला बन जा। तू इस युद्ध में एक द्रष्टा हो।

कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि अर्जुन बुरे और भले के द्वंद्व से छूट जाए, निर्द्वंद्व हो जाए; दो के बीच चुने नहीं, तीसरा हो जाए; दोनों से अलग हो जाए।

साधना का यही प्रयोजन है।

दूसरा प्रश्न :

 

कल के सूत्र में आपने कहा कि वैज्ञानिक कहते हैं कि किसी भी इंद्रिय का यदि तीन साल तक उपयोग न किया जाए, तो वह इंद्रिय क्रियाशील नहीं रह जाती। और हम कामेंद्रिय का उपयोग बीस—पच्चीस वर्षो तक भी नहीं करते, फिर भी हम खुद को कामवासना से मुक्त नहीं पाते। हम— तो क्या, तथाकथित साधु—संन्यासी कई वर्षो की साधना के बाद भी कामवासना से पीड़ित दिखाई पड़ते हैं। क्या यह सिद्धांत काम—इंद्रिय पर लागू नहीं होता?

स संबंध में दो—तीन बातें समझनी पड़ें।

पहली बात, काम—इंद्रिय आपकी और इंद्रियों जैसी ही इंद्रिय नहीं है। सच तो यह है कि काम—इंद्रिय आपकी सुरभी इंद्रियों का केंद्र है, आधार—स्रोत है। तो और इंद्रियां ऊपर—ऊपर हैं, परिधि पर हैं। कामेंद्रिय गहन अंतर में है, गहरे में है, जड़ में है।

वृक्ष की शाखाओं को हम काट दें, तो वृक्ष नहीं मरता; नई शाखाएं निकल आती हैं। वृक्ष की जड़ों को हम काट दें, वृक्ष मर जाता है। पुरानी शाखाएं भी जो हरी थीं, वे भी सूखकर समाप्त हो जाती हैं।

आख ऊपर है, हाथ ऊपर है, कान ऊपर हैं, कामेंद्रिय बहुत गहरे मैं है। इसलिए अगर आप आख का उपयोग तीन वर्ष तक न करें, तो आंखें क्षीण हो जाएंगी। कान का उपयोग न करें, तो आप बहरे हो जाएंगे। हाथ को न चलाएं, तो हाथ पंगु हो जाएगा। पैर का उपयोग न करें, पैर पक्षाघात से भर जाएंगे। लेकिन कामेंद्रिय भिन्न है। उसके कारण समझ लें।

आपके शरीर का प्रत्येक कण कामवासना से निर्मित है। आख तो छोटा—सा हिस्सा है, कान तो छोटी—सी हड्डियों का जोड़ है। लेकिन काम—इंद्रिय आपके पूरे शरीर को घेरे हुए है। वह जो मां के गर्भ में पहला अणु निर्मित हुआ था, वह कामवासना से निर्मित हुआ। फिर उसी अणु के विस्तार से आपका पूरा शरीर निर्मित हुआ है। आपका प्रत्येक अणु कामवासना से भरा है।

इसलिए आख फोड़ लें, कान तोड़ डालें, हाथ काट डालें, कामवासना में अंतर नहीं पड़ेगा। जननेंद्रिय को लोग कामेंद्रिय समझ लेते हैं, उससे भूल हो जाती है। जननेंद्रिय कामेंद्रिय का शरीर के ऊपर सिर्फ अभिव्यक्ति है। जननेंद्रिय सिर्फ कामेंद्रिय के उपयोग का द्वार है। लेकिन आपका पूरा शरीर कामवासना है। इसलिए जननेंद्रिय भी काट डालें, तो भी कामवासना नहीं मिटेगी।

कामवासना तो तभी मिटेगी, जब आप अपनी आत्मा को शरीर से बिलकुल पृथक अनुभव कर लें। उसके पहले नहीं मिटेगी। अगर शरीर से रंचमात्र भी तादात्‍मय है, अगर जरा—सा भी जोड़ है कि मैं शरीर हूं तो उतनी कामवासना कायम रहेगी। आख नष्ट हो जाएगी बड़ी आसानी से, कामवासना इतनी आसानी से नष्ट नहीं होगी। दूसरी बात, आप कामवासना से पैदा हुए हैं। आपके पैदा होने में कामवासना का प्रगाढ़ हाथ है। तो जब तक आप में जीवन की आकांक्षा रहेगी, तब तक कामवासना से छुटकारा न होगा। जब तक आप चाहते हैं कि मैं बचूं जीऊं, रहूं तब तक आप कामवासना से मुक्त न होंगे। क्योंकि जीवन पैदा ही कामवासना से हुआ है; और आप जीना चाहते हैं, तो कामवासना को बल मिलता है।

जिस दिन आपकी जीवेषणा छूटेगी, और आप कहेंगे कि मैं मिटूं खो जाऊं, समाप्त हो जाऊं, वही मेरा आनंद है; अब मैं बचना नहीं चाहता, अब मैं रहना नहीं चाहता, अब इस देह को घर नहीं बनाऊंगा, अब मैं मुक्त हो जाना चाहता हूं सब सीमाओं से; जिस दिन जीवन की जगह मृत्यु आपका लक्ष्य हो जाएगी, उस दिन कामवासना मिटेगी। उसके पहले कामवासना नहीं मिटेगी।

इसलिए पच्चीस वर्ष, पच्चीस जन्म भी कामवासना को दबाए रखने से उसका अंत नहीं होता। फिर जितना आप उसे दबाते हैं, उतनी ही वह बढ़ती है। क्योंकि भला आप कमेंद्रिय का उपयोग न करें, जननेंद्रिय का उपयोग न करें, लेकिन चित्त कामवासना में लगा ही रहता है। तो आपका शरीर तो संलग्न है।

आप पच्चीस वर्ष तक अपने को सब तरह की कामवासना से बचा लें, तो भी ऊपर—ऊपर ही बचाव हो रहा है, भीतर तो मन कामवासना में ही चल रहा है। और वह जो भीतर कामवासना बह रही है, चित्त में जो विचार चल रहे हैं, वे कामेंद्रिय को सजग रखेंगे, जीवित रखेंगे।

हालत तो उलटी है। अगर आपको कामवासना का अतिशय उपयोग करने दिया जाए, तो कामवासना मर भी जाए; उपयोग न करने दिया जाए, तो नहीं मरेगी।

मैं एक फ्रेंच चिकित्सक मोरिस मैक्यू के संस्मरणों का एक संकलन पढ़ रहा हूं आफ मेन एंड प्लांट्स। उसने अपने संस्मरणों की एक किताब लिखी है। वह जड़ी—बूटियों के संबंध में बड़े से बड़ा ज्ञाता है। और जड़ी—बूटियों के द्वारा उसने हजारों मरीजों को ठीक किया है। और दुनिया के बड़े—बड़े लोग उसे निमंत्रण देते रहे हैं। चर्चिल, बड़े अभिनेता, बड़े लेखक, बड़े कवि, राजा—महाराजा उससे इलाज करवाते रहे हैं। तो उसने सारे संस्मरण लिखे हैं। उसने प्रिंस अली खां का भी संस्मरण लिखा है, आगा खां के लड़के का।

प्रिंस अली खां ने उसे फोन किया और कहा कि कुछ निजी बीमारी है, कुछ गुप्त बीमारी है, उसके लिए तुम्हें आना पड़े। प्रिंस अली खां का निमंत्रण बड़ी बात है। चिकित्सक भागा हुआ उनके महल पर पहुंचा। सबको विदा करके प्रिंस अली ने अपनी बीमारी बतानी शुरू की। चिकित्सक को भी लग तो रहा था कि बीमारी कामवासना से संबंधित होगी, यौन की होगी, इसलिए इतनी गुप्तता रखी जा रही है। प्रिंस अली खां ने कहा कि मेरी कामवासना बिलकुल खो गई है, सुधा मेरी मर गई है, मुझे इच्छा ही नहीं होती। कुछ करो!

तो चिकित्सक ने पूछा कि आप महीने में कितनी बार संभोग करते हैं? प्रिंस अली खां खिलखिलाकर हंसने लगा, और उसने कहा, महीने में! हर रोज दिन में तीन बार करता हूं। लेकिन इच्छा बिलकुल मर गई है। कोई वासना नहीं पैदा होती। बस, एक यांत्रिक कृत्य की तरह कर रहा हूं।

अब यह कोई बीमारी न हुई। अगर दिन में कोई तीन बार संभोग कर रहा है, तो इच्छा मर ही जाएगी। इच्छा क्या, वह खुद भी मर जाएगा जल्दी।

कामवासना का अगर ज्यादा उपयोग किया जाए, तो मर जाती है। अगर बिलकुल उपयोग न किया जाए, दबाकर रखा जाए, तो सजीव रहती है, जीवित रहती है। लेकिन न तो बहुत उपयोग करने

से उससे छुटकारा होता है……।

क्षुधा मर गई है, लेकिन और भी गहरी वासना है कि न मरे। वासना क्षीण हो गई है, लेकिन भीतर से मन कह रहा है, इसे जिलाए रखो, कुछ उपाय करो।

अक्सर ऐसा हो जाता है कि व्यभिचारियों की कामवासना शिथिल हो जाती है और ब्रह्मचारियों की नहीं शिथिल हो पाती। क्योंकि व्यभिचारी तो अति कर देते हैं, थक जाते हैं।

गुरजिएफ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि काकेशस में पैदा होने वाला एक खास फल उसे बचपन में बहुत प्रिय था। इतना ज्यादा प्रिय था कि उसकी वजह से वह अक्सर बीमार पड़ जाता था। इतना ज्यादा खा लेता था। और वह नुकसानदायक भी था, और बहुत भारी और वजनी था।

उसने लिखा है कि मेरे दादा ने मुझे कहा कि इससे छूटने का एक ही उपाय है : एक दिन तू जितना खा सके आखिरी दम तक, मौत करीब मालूम होने लगे, तब तक तू इसको खाता जा। गुरजिएफ ने कहा, इससे कैसे छुटकारा होगा! बल्कि उसे रस भी आया कि बात तो बड़ी गजब की है। क्योंकि घर में सभी उसे रोकते थे अब तक कि इसे मत खाओ, इसे मत खाओ, यह ठीक नहीं है, इससे नुकसान है।

लेकिन दादा ने जब कहा, तो फिर वह बड़ी मात्रा में फल जाकर बाजार से ले आया। दादा उसके सामने बैठ गए और कहा कि तू खा जितना तुझे खाना है। वह खाता गया। वह थक गया और एक कौर भी भीतर ले जाने का उपाय न रहा। लेकिन दादा ने कहा, अभी भी तू थोड़ा खा सकता है। तू और खा ले।

फिर उसे उल्टियां होनी शुरू हुईं, दस्त लगने शुरू हुए। वह कोई तीन महीने बीमार रहा। लेकिन वह कहता है, उसके बाद उस फल में मेरा कोई रस नहीं रह गया।

कामवासना से मुक्त होने के लिए दमन तो कतई मार्ग नहीं है; लेकिन कामवासना इस भांति हो जाए कि आप उससे पीडित हो उठें, वह दुख बन जाए विषाद .हो जाए तो शायद जागरण आए। लेकिन उतने से भी कुछ न होगा। क्योंकि फल का छूट जाना एक बात है, कामवासना का छूटना बड़ी अलग बात है। फिर थोड़े दिन में वापस लौट आएगी। दबाएं तो बनी रहेगी, भोगें तो थोड़े दिन शिथिल हो जाएंगे, फिर वापस लौट आएगी।

कामवासना से मुक्त होना हो, तो दो बातें मैंने कहीं। एक तो मैं शरीर नहीं हूं यह दृष्टि थिर हो। दूसरा, जीवन की मेरी कामना नहीं।

मृत्यु कामवासना का विरोध है। जन्म कामवासना से होता है, मृत्यु कामवासना का विरोध है। जिन साधना—प्रक्रियाओं ने—जैसे बुद्ध की साधना—प्रक्रिया ने—कामवासना पर अनूठे प्रयोग किए हैं, तो मृत्यु को उन्होंने साधना का आधार बनाया।

बुद्ध जब किसी व्यक्ति को ब्रह्मचर्य में दीक्षा देते थे, तो उससे कहते थे, तीन महीने पहले मरघट पर तू मृत्यु का ध्यान कर। एकदम से तो सुनकर हमें हैरानी होगी कि ब्रह्मचर्य से और मरघट और मृत्यु का क्या लेना—देना?

लेकिन बुद्ध कहते कि तीन महीने तू मरघट पर सुबह से सांझ, रात, जब भी मुरदे जलते हों, बैठा रह। तेरा वही ध्यान—स्थल है। लाशें आएंगी—बच्चे आएंगे, जवान—बूढ़े, सुंदर—कुरूप, स्वस्थ— अस्वस्थ—सब तरह के लोग आएंगे। बस, तू उनको देखता रह। उनकी जलती चिताएं, उनकी टूटती हड्डियां, उनके गिरते सिर, उनका शरीर हो गया राख, सब खो गया धुएं में, उसे तू देखता रह। तीन महीने जलती हुई चिताओं पर ध्यान कर।

और मुझे लगता है, यह बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रयोग है। क्योंकि मृत्यु अगर बहुत साफ हो जाए तो कामवासना तत्‍क्षण खो जाएगी। इसे आप ऐसा समझें कि एक सुंदरतम स्त्री खड़ी हो और आप वासना से भरे खड़े हों, उसी वक्त एक तार आए कि राज्य ने तय किया है कि आज सांझ आपको फासी लगा देंगे। सुंदर स्त्री तत्‍क्षण आंखों से खो जाएगी। शरीर से वासना का प्रवाह बंद हो जाएगा। फिर कोई कितना ही समझाए, आपका रस अब वासना में नहीं रह जाएगा। सांझ मौत आ रही है!

तो जिस साधक को कामवासना से मुक्त होना हो 1 उसे समझना चाहिए कि यह क्षण आखिरी है, मौत दूसरे क्षण हो सकती है। और सच भी यही है, मौत दूसरे क्षण हो सकती है। जो क्षण मैं जी रहा हूं यह आखिरी है, मौत आने वाली है, इस शरीर से मैं टूट जाने वाला हूं।

जितनी मौत की धारणा गहरी हो जाए और जितना यह शरीर मैं नहीं हूं यह प्रतीति स्पष्ट हो जाए, उतने ही आप कामवासना से मुक्त होंगे। यह मुक्ति न तो दमन से फलित होती है, न भोग से। यह मुक्ति समझ से, अंडरस्टैंडिंग से फलित होती है।

पर यह स्मरण रखें कि कामवासना साधारण इंद्रिय नहीं है। यह कहना उचित होगा कि सभी इंद्रियों का केंद्र कामेंद्रिय है। आंखें भी इसीलिए देखती हैं कि कामवासना आंखों के द्वारा रूप को खोज रही है। कान इसीलिए सुनते हैं कि कामवासना कानों के द्वारा ध्वनि को खोज रही है। संगीत में इतना रस आता है, क्योंकि संगीत कानों के द्वारा कामवासना की तृप्ति है। सौंदर्य को देखकर—सुंदर चित्र, सुबह का उगता सूरज, पक्षियों का आकाश में उड़ना, वृक्षों पर खिले फूल, एक सुंदर चेहरा, सुंदर आंखें, सुंदर रंग आनंदित करते मालूम पड़ते हैं, क्योंकि आंखों के द्वारा यह जगत के साथ संभोग है। आख रूप को खोज रही है।

इसलिए कुरूप व्यक्ति दिख जाए, तो आपकी वासना सिकुड़ती है। कुरूप व्यक्ति सामने आ जाए, तो आप आख फेरकर चल पड़ते हैं। सुंदर व्यक्ति सामने आ जाए, तो आप अपना होश खो देते हैं।

तो आप यह मत सोचना कि जननेंद्रिय से ही कामवासना प्रकट होती है; सभी इंद्रियों से प्रकट होती है। हाथ से जब आप कुछ छूना चाहते हैं, तो हाथ के माध्यम से कामवासना स्पर्श खोज रही है। यह पूरा शरीर कामेंद्रिय है। इसका रोआं—रोआं कामवासना से भरा है।

इसलिए जब तक शरीर से तादात्म न छूट जाए तब तक कामवासना से छुटकारा नहीं है। और कुछ भी आप करते रहें, तो उससे सिर्फ समय व्यय होगा, शक्ति व्यय होगी और चित्त आत्मग्लानि से भरेगा। क्योंकि आप बार—बार तय करेंगे छोड़ने का, और छूटेगा नहीं। और जब बार—बार आप असफल होंगे, छोड़ न पाएंगे वासना को, तो धीरे—धीरे आपको आत्मग्लानि आएगी, आत्म—अविश्वास आएगा, और ऐसा लगेगा कि मैं किसी भी योग्य नहीं हूं। मैं बिलकुल पात्र नहीं हूं। मैं पापी हूं अपराधी हूं।

और किसी भी व्यक्ति को, मैं पापी हूं अपराधी हूं ऐसी धारणा गहरी हो जाए तो उसके जीवन में साधना—पथ अति कठिन हो जाता है। तो इस तरह के छोटे—मोटे प्रयोग करने में मत पड़ जाना। कामवासना से छूटा जा सकता है। लेकिन कामवासना जीवन—वासना का पर्यायवाची है। जब आप जीवन की वासना से छूटेंगे……।

इसलिए बुद्ध ने जगह—जगह कहा है, जीवेषणा जब तक है, तब तक मुक्ति नहीं है। जब तक तुम चाहते हो, मैं जीऊं!

बुद्ध के पास लोग पहुंचते हैं। वे कहते हैं कि मान लिया कि सब इच्छाएं छोड़ देंगे, शरीर छूट जाएगा, तो फिर हम मोक्ष में बचेंगे या नहीं? मैं रहूंगा न? आत्मा तो बचेगी, शरीर छूट जाएगा।

और बुद्ध कहते हैं कि यह फिर वही की वही बात है। तुम मिटना नहीं चाहते, तुम बचना ही चाहते हो। शरीर मिट जाए, तो भी तुम राजी हो। क्योंकि तुम देखते हो, शरीर तो मिटेगा, उसे बचाने का कोई उपाय नहीं है। तो फिर आत्मा ही बच जाए।

इसलिए बुद्ध ने एक अनूठी बात कही कि कोई आत्मा नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं कि आत्मा नहीं है। यह बात सिर्फ इसलिए कही कि वे जो आत्मा के नाम से अपने को बचाना चाहते हैं, वे उस बचाने की बात को भी छोड़ दें।

जीवेषणा वासना है। मैं जीऊं, यही हमारा पागलपन है। और मजा यह है कि जीकर हम कुछ पाते भी नहीं, लेकिन फिर भी जीना चाहते हैं। जीकर कुछ हाथ में भी नहीं आता, फिर भी कैसी ही कठिनाई हो, तो भी जीना चाहते हैं। जीवन को छोड़ने को हम राजी नहीं होते।

इस सूत्र को याद रख लें, जो जीवन को छोड़ने को स्वेच्छा से राजी है, महाजीवन उसका हो जाता है। और जो जीवन को दरिद्र की तरह पकड़ता है, भिखारी की तरह, उसके हाथ में कुछ भी आता नहीं। सिर्फ जंजीरें ही उसके हाथ में आती हैं।

तीसरा प्रश्न :

 

आपने कहा कि सृजनात्मकता दैवी स्वभाव है और विध्वंस व विनाश आसुरी हैं। लेकिन अस्तित्व में तो दोनों प्रक्रियाएं साथ—साथ चलती हैं। और सिर्फ युद्ध में ही विध्वंस होता हो, ऐसा नहीं है। दैवी विपदाएं कम विध्वंस नहीं करती हैं।

दैवी संपदा सृजनात्मक है, इसका यह अर्थ नहीं कि जो सृजन करता है वह मिटाता नहीं। बनाना हो, तो मिटाना पड़ता है। अगर मूर्ति बनानी हो, तो पत्थर को मिटाना पड़ता है। अगर वृक्ष निर्मित करना हो, तो बीज को मिटाना पड़ता है। अगर परमात्मा को खोजना हो, तो अपने को मिटाना पड़ता है। सृजनात्मकता भी बिना मिटाए तो नहीं होती। कुछ मिटता है, तो कुछ बनता है। मिटना बनने का ही प्रयोग है।

फिर फर्क क्या हुआ? क्योंकि दैवी संपदा भी मिटाती है, आसुरी संपदा भी मिटाती है। दोनों में फर्क क्या है?

फर्क लक्ष्य का है। दैवी संपदा सदा ही बनाने को मिटाती है। आसुरी संपदा सदा ही मिटाने को मिटाती है। आसुरी संपदा बनाती भी है, तो सिर्फ मिटाने को।

फर्क यह है, आसुरी संपदा अगर बनाती भी दिखाई पड़ती हो, तो भी समझना कि वह मिटाने को ही बना रही है। वह बनाना वैसे ही है, जैसे आप घर में एक बकरा पाल लें। और उसे खूब खिलाएं, उसकी सेवा करें, क्योंकि उसको बलि के दिन काटना है। उसकी सेवा भी चले, धुलाई भी चले, भोजन भी चले। ऐसे बकरे की कोई इतनी पूजा नहीं करता, जैसी आप करें। लेकिन बलि के दिन उसको काटकर फिर भोजन कर लेना है, वह तैयारी चल रही है। आप बना रहे हैं मिटाने के लिए।

लक्ष्य मिटाना होगा, आसुरी संपदा में। लेकिन जिसको मिटाना है, उसे भी बनाना पड़ता है। क्योंकि बिना बनाए मिटाइएगा कैसे? दैवी संपदा में लक्ष्य होगा बनाना। अगर मिटाना भी पड़ता है, तो यही नजर होती है कि बनाएंगे। अगर नया मकान बनाना हो, तो पुराना मकान गिरा देना पड़ता है। पुराने मकान से जमीन साफ हो जाए तो नया बन सके।

सभी सृजन में विध्वंस छिपा है; सभी विध्वंस में सृजन छिपा है। लक्ष्य का फर्क है। दैवी संपदा हमेशा सोचती है, निर्मित करने को। अगर मिटाना भी पड़ता है, तो सिर्फ इसीलिए ताकि कुछ और श्रेष्ठतर बन सके। आसुरी संपदा सदा सोचती है मिटाने को। अगर बनाना भी पड़ता है, तो सिर्फ इसीलिए कि बनाएंगे, ताकि मिटा सकें।

उस लक्ष्य को खयाल में रखें, तो बात आसान हो जाएगी और ठीक से समझ में आ जाएगी। रस कहां है आपका? तोड्ने में रस है कि निर्माण करने में रस है?

वही रस ध्यान में रहे, तो फिर आप कितना ही तोड़े, हर्ज नहीं। लेकिन हर तोड़ना एक कदम हो बनाने के लिए। फिर आपके विध्वंस में भी सृजन आ गया; फिर आपके युद्ध में भी शाति आ गई; फिर आप कुछ भी करें, अगर यह लक्ष्य सदा ध्यान में बना रहे, तो आप जो भी करेंगे, वह शुभ होगा।

जगत द्वंद्व है। वहां विध्वंस भी है, निर्माण भी है। उन दोनों में किसको आप ऊपर रखते हैं, उससे आपकी संपदा निर्णीत होगी।

चौथा प्रश्न :

 

आपने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में साध्य है, परम मूल्य है। दैवी संपदा का यह सिद्धात अपने प्रति तो आसानी से लागू किया जा सकता है, लेकिन दूसरों के प्रति उसे लागू करना बहुत कठिन है। ऐसा क्यों है?

साफ ही है। अपने प्रति लागू करना आसान है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सोचता है, मैं साध्य हूं और सभी मेरे साधन हैं। लक्ष्य मैं हूं, यह पूरा जगत मेरे लिए है। आकाश मेरे लिए चांद—तारे मेरे लिए वृक्ष—पौधे, पशु—पक्षी मेरे लिए। मैं केंद्र हूं।

यह तो कोई भी सोचता है। इसमें दैवी संपदा का सवाल ही नहीं है। यही तो आसुरी संपदा का केंद्र है कि मैं जगत का केंद्र हूं सब कुछ मेरे लिए घूम रहा है। मेरे लिए सब भी मिट जाए तो भी कुछ हर्ज नहीं है। मैं बचूं। सब कुछ मेरा साधन है, यही तो आसुरी संपदा का केंद्र है।

दैवी संपदा का केंद्र यह है कि दूसरा लक्ष्य है, दूसरा साध्य है, उसका मैं साधन की तरह उपयोग न करूं। वह परम मूल्य है। उसकी सेवा तो मैं कर सकता हूं लेकिन शोषण नहीं। अगर जरूरत पड़े मिटने की, तो उसके लिए मैं तो मिट सकता हूं लेकिन उसको नहीं मिटाऊंगा।

कभी—कभी जीवन के कुछ क्षणों में ऐसा आपको लगता है किसी व्यक्ति के संबंध में, उसको हम प्रेम कहते हैं। जब आपको ऐसा सारे जगत के संबंध में लगने लगे, तो उसको हम प्रार्थना कहेंगे। कभी एक व्यक्ति के संबंध में ऐसा लगता है कि चाहे मैं मिट जाऊं, लेकिन यह व्यक्ति बचे; तो वह साध्य हो गया। मां मर सकती है बच्चे के लिए या पत्नी मर सकती है पति के लिए या पति अपने को खो सकता है पत्नी के लिए। कभी एक व्यक्ति के साथ आपको क्षणभर को भी ऐसा लग जाता हो कि मैं ना—कुछ, वह सब कुछ; मैं परिधि, वह केंद्र; तो प्रेम घटा।

इसलिए प्रेम एक आध्यात्मिक घटना है। छोटी—सी घटना है, पर बड़ी मूल्यवान। चिनगारी है, सूरज नहीं; लेकिन अग्नि वही है, जो सूरज में होती है। और यह चिनगारी अगर फैलने लगे, तो किसी दिन सूर्य भी बन सकती है। जिस दिन ऐसा सारे जगत के प्रति लगने लगे, उस दिन समझना कि प्रार्थना है।

महावीर जमीन पर पांव फूंककर रखते हैं। चींटी भी न मर जाए क्योंकि उसका भी परम मूल्य है। चींटी भी साध्य है, वह हमारा साधन नहीं है कि हम उससे इस तरह व्यवहार कर सकें।

कणाद वृक्षों से फल तोड़कर नहीं खाते। जो कण खेत में अपने आप गिर जाते हैं सूखकर, पककर, उनको बीन लेते हैं। इसीलिए उनका नाम कणाद है; कण—कण बीनकर जीते हैं। कच्चे फल को भी तोड़ते नहीं, क्योंकि वृक्ष हमारा साधन नहीं है। वृक्ष का अपना जीवन है। वृक्ष अपने आप में मूल्यवान है। हम उसका शोषण नहीं कर सकते। अहिंसा की धारणा इसी बात से निर्मित है। जीवन में जो भी परम है, श्रेयस्कर है, वह सब इसी विचार से निकलता हैं।

लेकिन पहली बात तो बिलकुल आसान है। हम सभी को लगता है कि मैं ही केंद्र हूं; मेरा हित, मेरा स्वार्थ, मेरा अहंकार! शेष सब…….।

मैंने सुना है, यूनान में एक सम्राट ने उन दिनों यूनान के एक महा मनीषी सोलन को अपने राजमहल बुलाया। सोलन एक सुकरात जैसा मनीषी था। सम्राट ने बुलाया सिर्फ इसलिए कि सोलन की बड़ी ख्याति थी। उसके एक—एक शब्द का मूल्य अकूत था। तो कुछ उससे ज्ञान लेने नहीं बुलाया था। कुछ उससे सीखने नहीं बुलाया था। सिर्फ सोलन को बुलाया था कि देख मेरे महल को! मेरे साम्राज्य को! मेरी धन—संपदा को! और सम्राट चाहता था कि सोलन प्रशंसा करे कि आप जैसा सुखी और कोई भी नहीं है, तो इस वचन का मूल्य होगा। सारा यूनान, यूनान के बाहर भी लोग समझेंगे कि सोलन ने कहा है।

सोलन आया, महल घुमाकर दिखाया गया। अकूत संपदा थी सम्राट के पास, न मालूम कितना उसने लूटा था। बहुमूल्य पत्थरों के ढेर थे, स्वर्ण के खजाने थे, महल ऐसा सजा था, जैसे दुल्हन हो। फिर सम्राट उसे दिखा—दिखाकर प्रतीक्षा करने लगा कि वह कुछ कहे। लेकिन सोलन चुप ही रहा। न केवल चुप रहा, बल्कि गंभीर होता गया। न केवल गंभीर हुआ, बल्कि ऐसे उदास हो गया, जैसे सम्राट मरने को पड़ा हो और वह सम्राट को देखने आया हो। आखिर सम्राट ने कहा कि तुम्हारी समझ में आ रहा है कि नहीं? मैंने तो सुना है कि तुम बड़े बुद्धिमान हो! मुझ जैसा सुखी तुमने कहीं कोई और मनुष्य देखा है? मैं परम सुख को उपलब्ध हुआ हूं। सोलन, कुछ बोलो इस पर!

सोलन ने कहा कि मैं चुप ही रहूं वही अच्छा है, क्योंकि क्षणभंगुर को मैं सुख नहीं कह सकता। और जो शाश्वत नहीं है, उसमें सुख हो भी नहीं सकता। सम्राट, यह सब दुख है। बड़ा चमकदार है, लेकिन दुख है। तुम इसे सुख समझे हो, तो तुम मूढ़ हो।

सम्राट को धक्का लगा। जो होना था, वह हुआ। सोलन चुप ही रहता, तो अच्छा था। सोलन को उसी वक्त गोली मार दी गई। सामने महल के एक खंभे से लटकाकर, बंधवाकर सम्राट ने कहा, अभी भी माफी मांग लो। तुम गलती पर हो। अभी भी कह दो कि सम्राट, तुम सुखी हो।

सोलन ने कहा, झूठ मैं न कह सकूंगा। मृत्यु में कुछ हर्जा नहीं है, क्योंकि मरना मुझे होगा ही; किस निमित्त मरता हूं यह गौण है। तुमने मारा, कि बीमारी ने मारा, कि अपने आप मरा, यह सब गौण है। मौत निश्चित है। झूठ मैं न कहूंगा। शाश्वत सुख ही सुख है। क्षणभंगुर सुख दिखाई पड़ता है, लेकिन दुख है। सम्राट! तुम भूल में हो।

गोली मार दी गई।

फिर दस वर्षों बाद, यह सम्राट पराजित हुआ। विजेता ने इसे अपने महल के सामने एक खंभे पर बांधा। जब वह खंभे पर लटका था और गोली मारे जाने को थी, तब उसे अचानक सोलन की याद आई। ठीक दस वर्ष पहले ऐसा ही सोलन खंभे पर लटका था! तब उसे उसके शब्द भी सुनाई पड़े, कि जो शाश्वत नहीं, वह सुख नहीं। जो क्षणभंगुर है, उसका कोई मूल्य नहीं। यह चमकदार दुख है सम्राट! उसी चमकदार दुख को सुख मानकर यह सम्राट इस खंभे पर लटक गया।

सम्राट की आंखें बंद हो गईं। वह अपने को भूल ही गया, सोलन को देखने लगा। और जब उसे गोली मारी जा रही थी, तब उसके होंठों पर मुस्कुराहट थी। और आखिरी शब्द जो उसके मुंह से निकले, वे यह थे : सोलन, सोलन, मुझे क्षमा कर दो। तुम ही सही थे।

विजेता सम्राट सुनकर चकित हुआ; कौन सोलन? किसके वचन सही? और इस मरते सम्राट के होंठों पर मुस्कुराहट कैसी? उसने सारी खोज—बीन करवाई, तब यह पूरी कथा पता चली।

वह जो हमें सुख जैसा मालूम होता है, वह सुख नहीं है। और वह जो हमें सुख जैसा मालूम होता है, उसके लिए हम सबको दुख देते हैं, सब का साधन की तरह उपयोग करते हैं, सब को चूसते हैं, शोषण करते हैं।

हमारा जीवन हमें इतना मूल्यवान होता है मालूम कि अगर सबकी मृत्यु भी उसके लिए घट जाए तो भी कोई हर्ज नहीं। अगर हमें दूसरों के सिरों पर पैर रखकर, सीढ़ियां बनाकर राजमहल तक पहुंचने का उपाय हो, तो हम लोगों के सिरों का उपयोग सीढ़ियों की तरह करेंगे। सभी महत्वाकांक्षी करते हैं। लोग उनके लिए सीढियों से ज्यादा नहीं हैं। धन की यात्रा करता हो कोई, पद की यात्रा करता हो, लोगों का उपयोग करता है सीढ़ियों की तरह। सभी राजनीतिज्ञ जानते हैं।

राजनीतिज्ञों के सबसे बड़े दार्शनिक मेक्यावेली ने लिखा है कि तुम जिस आदमी का सीढ़ी की तरह उपयोग करो, उपयोग करने के बाद उसे जिंदा मत छोड़ना। उसको काट—पीट डालना। क्योंकि तुम उसका सीढ़ी की तरह उपयोग कर सके हो, दूसरे भी उसका सीढ़ी की तरह उपयोग कर सकते हैं।

इसलिए सभी राजनीतिज्ञ यही करते हैं। जिनके कंधे पर पैर रखकर राजनीतिज्ञ पहुंचता है राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के पद पर, पहुंचते ही उस आदमी को गिराने में लगता है। क्योंकि वह आदमी खतरनाक है, उसके कंधे पर दूसरा भी कल कोई आ सकता है। इसके पहले कि दूसरा उसके कंधे पर सवार हो, उसका विनाश कर देना जरूरी है। या उसे उस जगह पहुंचा देना जरूरी है, जहां वह सीढ़ी का काम न दे सके।

इसलिए सब राजनीतिज्ञ, जिन सीढ़ियों से चढ़ते हैं, उनको जला देते हैं। जिन रास्तों से गुजरते हैं, उनको तोड़ देते हैं। जिन सेतुओं को पार करते हैं, उनको गिरा देते हैं, ताकि दूसरा पीछे से उन पर न आ सके। धन की यात्रा करने वाला भी वही करेगा।

महत्वाकांक्षी अपने को साध्य मानता है, दूसरे को साधन। महत्वाकांक्षी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता। एंबीशन, महत्वाकांक्षा इस जगत में सबसे अधार्मिक घटना है।

धर्म का सूत्र तो कृष्ण कह रहे हैं; वह यह है कि दूसरा साधन नहीं है, साध्य है। दैवी संपदा का व्यक्ति दूसरे को साध्य मानता है। कभी जरूरत पड़े, तो वह सीढ़ी बन सकता है, लेकिन दूसरे को सीढ़ी नहीं बनाएगा। अपने सुख के लिए दूसरे के दुख का सवाल नहीं है। अगर अपना सुख दूसरे के सुख से ही मिल सकता हो, तो ही दैवी संपदा का व्यक्ति उस सुख को स्वीकार करेगा।

और यह समझ लेने जैसा है कि अगर आपके सुख से दूसरा भी सुखी होता हो, तो वह सुख आनंद है। यह आनंद का फर्क है। जिस आपके सुख से दूसरा दुखी होता हो, वह आनंद नहीं है। और वह सिर्फ दिखाई पड़ता है सुख है, वह सुख भी नहीं है। और एक दिन आप अनुभव करेंगे, तब आपके भीतर से भी आवाज आएगी कि सोलन, सोलन, तू ठीक था। मुझे क्षमा करना। मैं गलती पर हूं। मेरा सुख अगर आस—पास सभी का सुख बनता हो, तो ही आनंद है। उसे फिर कोई भी छीन न सकेगा।

दैवी और आसुरी संपदा, दूसरों का हम उपयोग करते हैं, कैसा उपयोग करते हैं, इससे विभाजित होती है। दैवी संपदा का व्यक्ति दूसरे का उपयोग ही नहीं करता, दूसरे के उपयोग आ सकता है।

इसलिए जीसस या उन जैसे महाप्रज्ञावान पुरुषों ने सेवा को, दूसरे की सेवा को धर्म की आधारशिला बनाया। उसमें मूल्य है। उस बात का इतना ही मूल्य है कि दूसरे के लिए जरूरत पड़े, तो तुम मिट जाना, लेकिन किसी को भी अपने लिए मत मिटाना। पूछा है, यह कैसे संभव होगा कि हम दूसरे को साध्य समझ लें? समझने का सवाल नहीं है, यह तथ्य है। यह वास्तविक स्थिति है कि आप केंद्र नहीं हैं इस जगत के। आप एक छोटी—सी लहर हैं। इस विराट अस्तित्व में आप एक छोटा—सा कण हैं। यह विराट अस्तित्व आपके लिए नहीं है, आप इस विराट अस्तित्व के लिए हैं। जैसे ही यह खयाल में आ जाएगा…..।

और इसे खयाल में लाने के लिए कुछ सोचने की जरूरत नहीं है, सिर्फ आख खोलने की जरूरत है, और यह दिखाई पड़ जाएगा।

आप कल नहीं थे, आज हैं, कल नहीं हो जाएंगे। यह अस्तित्व आपके पहले भी था, अब भी है, आपके बाद भी होगा। आप इस अस्तित्व में से उठते हैं, इसी अस्तित्व में डूब जाते हैं। यह अस्तित्व आपसे बड़ा है, विराट है। आप एक छोटे—से अंश हैं। अंश केंद्र नहीं हो सकता, अंशी ही केंद्र होगा। अंश सब को मिटाकर अपने को बचाने की बात सोचे, तो पागलपन है। यह होने वाला नहीं है।

वह खुद ही मिटेगा। लेकिन यह अंश अगर अपने को मिटाकर सारे को बचाने की सोचे, तो कभी भी नहीं मिटेगा। क्योंकि समग्र उसे स्वीकार कर लेगा। समग्र के साथ आत्मसात और एक हो जाएगा।

जिनको हमने भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति कहा है—कृष्ण को, बुद्ध को, महावीर कों—उनको भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति इसीलिए कहा है कि उन्होंने अपने अंश को अंशी में छोड दिया। अब वे लड़ नहीं रहे; अब उनका कोई विरोध इस जगत से नहीं है। इस अस्तित्व से उनका रत्तीमात्र फासला नहीं है। उन्होंने अपने को पूरा इसमें समर्पित कर दिया, लीन कर दिया।

जो व्यक्ति स्वयं को साध्य मानता है, वह लीन कैसे करे? समर्पण कैसे करे? जो अपने को निमित्त और साधन मान लेता है, वह तत्क्षण लीन हो जाता है।

कृष्ण की पूरी शिक्षा अर्जुन को यही है कि तू निमित्त बन जा। यह खयाल ही छोड़ दे कि तू है। तू यही समझ कि परमात्मा है और तू केवल उसका एक मार्ग है, कि जैसे परमात्मा की बांसुरी है दूर परमात्मा बोल रहा है, उसकी वाणी है और तू सिर्फ बांस की पोली नली है। तू सिर्फ मार्ग दे, स्वरों को बहने दे, अवरोध मत कर। इसे हम कैसे उपलब्ध करें?

कैसे उपलब्ध करने का सवाल नहीं है। यह स्थिति है। थोड़ा—सा सजग और आख खोलकर देखने की जरूरत है। ऐसा है। जैसे आपकी दो आंखें हैं, दो हाथ हैं; आप आख बंद किए बैठे हैं और कहते हैं, मैं कैसे मानूं कि मेरे दो हाथ हैं! तो मैं यह कहूं आख खोलें और देखें, दो हाथ हैं। इसको मानने की जरूरत नहीं है, सिर्फ आख खोलने की जरूरत है।

जब भी आप थोड़ा—सा देखेंगे चारों तरफ, तो यह आपको समझने में कठिनाई नहीं होगी कि आप केंद्र नहीं हो सकते। विक्षिप्तता है यह मानना कि मैं केंद्र हूं।

अब हम सूत्र को लें।

वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष धन और मान के मद से युक्त हुए, शास्त्र—विधि से रहित केवल नाममात्र यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन करते हैं।

तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के पारायण हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं।

ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं। इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ़ पुरुष जन्म—जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए, मेरे को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं। आसुरी संपदा के जो व्यक्ति हैं, वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं। उनके लिए श्रेष्ठता का एक ही अर्थ है कि जो भी मैं हूं, वही श्रेष्ठता है। अपना होना उनकी श्रेष्ठता की परिभाषा है। श्रेष्ठता और अहंकार में उन्हें कोई भेद नहीं है।

नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा है..। उसने कुछ कानून बनाए फिर उनको बदल दिया, फिर बदल दिया। तो उसके राजमत्रियों ने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं! कानून थिर होना चाहिए। और इस तरह तो अराजकता हो जाएगी। तो नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा, आइ एम दि लॉ—और कोई कानून नहीं है, मैं कानून हूं। जो मुझसे निकलता है, वह कानून है। कोई कानून मेरे ऊपर नहीं है, मैं ही कानून हूं।

यही आसुरी संपदा वाले का प्राथमिक लक्षण है, मैं श्रेष्ठ हूं। और धन और मान के मद से युक्त हुए..।

ऐसे व्यक्ति अगर धर्म भी करते हैं, तो उनका धर्म भी धन और मद का ही मान होता है। वे बड़ा मंदिर खड़ा कर सकते हैं, जो आकाश को छुए। वे यज्ञ करवा सकते हैं, करोड़ों रुपए उसमें खर्च कर सकते हैं। लेकिन यह भी उनके अहंकार की ही यात्रा है। उनके मंदिर का अर्थ है, उनसे बड़ा मंदिर और कोई खड़ा नहीं कर सकता। उनके यश का अर्थ है कि ऐसा यज्ञ पृथ्वी पर कभी हुआ नहीं। उनका धर्म भी उनकी श्रेष्ठता को ही सिद्धश्करे, इतना ही उनके धर्म का प्रयोजन है।

शास्त्र—विधि से रहित केवल नाममात्र यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन करते हैं…….।

वे अगर शुभ भी करेंगे, तो सिर्फ इसलिए ताकि वे पूजे जाएं। वे अगर कुछ भला भी करेंगे, दान भी देंगे, तो सिर्फ इसलिए ताकि वे जाने जाएं। उनके प्रत्येक कृत्य का लक्ष्य वे स्वयं हैं।

तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं।

परमात्मा कहीं भी हो, उससे उन्हें द्वेष होगा। क्यों? क्योंकि परमात्मा की स्वीकृति, अपने अहंकार का खंडन है।

नीत्से ने अपने एक वचन में लिखा है—जब वह पागल हो गया, तब उसने अपनी डायरी में लिखा है—कि मैं परमात्मा को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि अगर परमात्मा है, तो फिर मैं नंबर दो हूं इसलिए मैं परमात्मा को स्वीकार नहीं कर सकता। नंबर एक तो मैं ही हो सकता हूं और या यह हो सकता है कि नंबर एक कोई भी नहीं है। लेकिन परमात्मा कहीं भी है, तो फिर मैं पीछे पड़ता हूं। फिर मेरी स्थिति नीची हो जाती है।

इसलिए परमात्मा को स्वीकार करना आसुरी वृत्ति वाले व्यक्ति को अति कठिन है। इसलिए नहीं कि उसको पता है कि परमात्मा नहीं है। इसलिए भी नहीं कि तर्कों से सिद्ध होता है कि परमात्मा नहीं है। वह तर्क भी देगा, वह सिद्ध भी करेगा। लेकिन न तो तर्कों से सिद्ध होता है कि परमात्मा है और न सिद्ध होता है कि परमात्मा नहीं है। इसे थोड़ा समझ लें।

मनुष्य की बुद्धि न तो पक्ष में कुछ तय कर सकती है, न विपक्ष में। अब तक हजारों—हजारों तर्क दिए गए हैं। जितने पक्ष में हैं, उतने ही विपक्ष में। बराबर संतुलन है। कोई आस्तिक किसी नास्तिक को राजी नहीं कर सकता कि ईश्वर है, और कोई नास्तिक किसी आस्तिक को राजी नहीं करवा सकता कि ईश्वर नहीं है। दोनों बातें समतुल हैं। तर्कों से कुछ सिद्ध नहीं हुआ है।

. लेकिन फिर भी कुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर है। कुछ लोग मानते हैं, नहीं है। तो किस आधार पर मानते होंगे, क्योंकि तर्क से कुछ भी सिद्ध नहीं होता। तब आधार दूसरे हैं; तब आधार का कारण आसुरी संपदा और दैवी संपदा है।

वे जो समझते हैं कि मैं ही श्रेष्ठ हूं, मुझसे ऊपर कोई भी नहीं, वे परमात्मा को नहीं मान सकते। फिर वे तर्क खोज लेते हैं। लेकिन वे तर्क पीछे आते हैं, वे तर्क रेशनलाइजेशस हैं। वह अपनी ही मानी हुई बात को सिद्ध करने का उपाय है।

और दूसरे वे लोग हैं, जो जानते हैं कि मैं कैसे केंद्र हो सकता हूं! मैं केवल एक लहर हूं। वे परमात्मा को स्वीकार कर लेते हैं। उनकी स्वीकृति भी तर्क से नहीं आती, उनकी दैवी संपदा से आती है।

और इन दोनों के बीच में अधिक लोग हैं, जिन्होंने कुछ तय ही नहीं किया। जिनको हम अधिकतर आस्तिक कहते हैं, वे बीच के लोग हैं; आस्तिक नहीं हैं। उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि परमात्मा है या नहीं। आप में से अधिक लोग उस तीसरे हिस्से में ही हैं।

अगर आप कहते हैं कि होगा, तो उसका मतलब यह नहीं कि आप मानते हैं कि ईश्वर है। आप मानते हैं, सोचने योग्य भी नहीं है। लोग कहते हैं; होगा। और क्या हर्जा है, हो तो हो। और कभी वर्ष में एकाध बार अगर मंदिर भी हो आए तो क्या बनता—बिगड़ता है! और होशियार आदमी दोनों तरफ कदम रखकर चलता है। अगर हो ही, तो मरने के बाद कोई झंझट भी नहीं होगी। न हो, तो हमने कुछ उसके लिए खोया नहीं। हमने संसार अच्छी तरह भोगा। और मानते रहे कि परमात्मा है। हम दोनों नाव पर सवार हैं।

बहुत थोड़े—से लोग हैं, जो मानते हैं कि परमात्मा है। वे वे ही लोग हैं, जो अपने अहंकार को तोड़ते हैं, घमंड को छोड़ते हैं, गर्व को गिराते हैं। बहुत लोग हैं, जो मानते हैं परमात्मा नहीं है। उनका कुल कारण इतना है कि वे खुद अपने को साध्य समझे हैं। इसलिए अपने से परम को स्वीकार करना उनके लिए आसान नहीं है। और अधिक लोग हैं, जिनको कोई चिंता ही नहीं है, जिनको कोई प्रयोजन नहीं है, जो उपेक्षा से भरे हैं।

इसमें आप कहा हैं? और आप जहां भी होंगे, मजे की बात यह है कि वहीं के लिए आप तर्क खोज लेंगे।

फ्रायड ने एक बहुत बड़ी खोज इस सदी में की। और उसने यह खोज की कि लोग तय पहले कर लेते हैं, तर्क बाद में खोजते हैं। आप एक स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हैं। कोई आपसे पूछे कि आप प्रेम में क्यों पड़े हैं इसके? तो आप कहते हैं, वह इतनी सुंदर है। लेकिन फ्रायड कहता है, मामला बिलकुल उलटा है। वह स्त्री दूसरों को सुंदर नहीं दिखाई पड़ती। आप कहते हैं, सुंदर है, इसलिए प्रेम में पड़े। फ्रायड कहता है, आप प्रेम में पड़ गए, इसलिए सुंदर दिखाई पड़ती है।

यह बात ज्यादा सही मालूम होती है, क्योंकि और किसी को सुंदर नहीं दिखाई पड़ती। और दूसरों को शायद कुरूप दिखाई पड़ती हो। शायद दूसरे चकित होते हों कि आपका दिमाग खराब हो गया है कि आप इस स्त्री के चक्कर में पड़े हैं! और आप अपने मन में सोचते हैं कि दुनिया भी कैसी मूढ़ है; अज्ञानीजन हैं। इनको इस स्त्री का असली रूप दिखाई ही नहीं पड़ रहा है।

प्रेम में हम पहले पड़ते हैं, फिर तर्क हम बाद में इकट्ठा करते हैं।

किसी व्यक्ति को आप देखते ही घृणा करने लगते हैं, फिर आप तर्क खोजते हैं, फिर आप कारण खोजते हैं। क्योंकि बिना कारण हमें अड़चन होती है। अगर कोई हमसे पूछे कि क्यों घृणा करते हो, और हम कहें कि बिना कारण करते हैं, तो हम मूढ़ मालूम पड़ेंगे। तो हम कारण खोजते हैं कि यह आदमी मुसलमान है; मुसलमान बुरे होते हैं। यह आदमी हिंदू है; हिंदू भले नहीं होते। कि यह आदमी मांसाहारी है, कि इस आदमी का चरित्र खराब है। आप फिर हजार कारण खोजते हैं। वे कारण आपने पीछे से खोजे हैं। भाव आपका पहले निर्मित हो गया। और भाव अचेतन है और कारण चेतन है।

फ्रायड की खोज बड़ी बहुमूल्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अंधे की तरह जीता है और सिद्ध करने को कि मैं अंधा नहीं हूं कारणों की तजवीज करता है। उनको उसने रेशनलाइजेशस कहा है। फिर उनको वह बुद्धि—युक्त ठहराता है।

ईश्वर के साथ भी यही होता है, गुरु के साथ भी यही होता है। मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास दो युवक गए। वे साधना में उत्सुक थे और सत्य की खोज करना चाहते थे। उस फकीर ने कहा, सत्य और साधना थोड़े दिन बाद, अभी मुझे कुछ और दूसरा काम तुमसे लेना है। लकड़ी चुक गई हैं आश्रम की, तो तुम दोनों जंगल चले जाओ और लकड़ियां इकट्ठी कर लो। और अलग— अलग ढेर लगाना। क्योंकि तुम्हारी लकड़ी का ढेर केवल लकड़ी का ढेर नहीं है, उससे मुझे कुछ और परीक्षा भी करनी है। तो दोनों युवक गए; उन्होंने लकड़ी के दो ढेर लगाए। फिर गुरु सात दिन बाद आया, तो उसने पहले युवक के लकड़ी के ढेर में आग लगाने की कोशिश की। सांझ तक परेशान हो गया। आंखों से आंसू बहने लगे। धुआं ही धुआं निकला, आग न लगी। सब लकड़िया गीली थीं। शिष्य ने क्या कहा गुरु को? कि मैं चला। जब तुमसे लकड़ी में आग लगाना नहीं आता, तो तुम मुझे क्या बदलोगे!

दूसरे युवक की लकड़ियों में गुरु ने आग लगाई; लकड़िया भभककर जल गईं। सूखी लकड़ियां थीं। दूसरा युवक भी पहली घटना देख रहा था।

और पहला युवक छोड्कर जा चुका था, और जाकर उसने गांव में प्रचार करना शुरू कर दिया था कि यह आदमी बिलकुल बेकार है। एक तो हमारे सात दिन खराब किए लकड़ी इकट्ठी करवाईं। हम गए थे सत्य को खोजने! इसमें कोई तुक नहीं है, संगति नहीं है। फिर हमने पसीना बहा—बहाकर, खून—पसीना करके लकड़ियां इकट्ठी कीं। और इस आदमी को आग लगाना नहीं आता। तो उसने लकड़ियां भी खराब कीं, धुआं पैदा किया, हमारी तक आंखें खराब हुईं। और यह आदमी किसी योग्य नहीं है। भूलकर कोई दुबारा इसकी तरफ न जाए।

दूसरा युवक भी यह देख रहा था कि पहला युवक जा चुका है। दूसरे युवक की लकड़ियां जब भभककर जलने लगीं, तो उसने कहा कि बस, ठहरो। यह मत समझ लेना कि बड़े अकलमंद हो तुम। लकड़ियां सूखी थीं, इसलिए जल रही हैं, इसमें तुम्हारी कोई कुशलता नहीं है। और मैं चला। अगर तुम इसको अपना ज्ञान समझ रहे हो कि सूखी लकड़ियों को जला दिया तो कोई बहुत बड़ी बात कर ली, तो तुम से अब सीखने को क्या है!

दोनों युवक चले गए। गुरु मुस्कुराता हुआ वापस लौट आया। आश्रम में लोगों ने उससे पूछा, क्या हुआ? तो उसने कहा, जो होना था ठीक उससे उलटा हुआ। पहला युवक अगर कहता कि लकड़ियां गीली हैं, मैं गीला हूं इसलिए तुम्हें जलाने में इतनी कठिनाई हो रही है, तो उसका रास्ता खुल जाता। दूसरा युवक अगर कहता कि तुम्हारी कृपा है कि मेरी लकड़ियों में आग लग गई, तो उसका रास्ता खुल जाता। लेकिन दोनों ने रास्ते बंद कर लिए। और अब दोनों जाकर प्रचार कर रहे हैं; दोनों ने धारणा बना ली, अब दोनों उसके लिए तर्क जुटा रहे हैं। मुझसे उन्होंने पूछा नहीं। मेरी तरफ देखा नहीं। मैं क्या कर रहा था, मेरा क्या प्रयोजन था, इसकी उन्होंने कोई खोज न की। सतह से कुछ बातें लेकर वे जा चुके हैं।

आप भी, जहां भी आपको दूसरे को श्रेष्ठ मानना पड़ता है, वहा बड़ी अड़चन आती है। दूसरे को अपने से नीचा मानना बिलकुल सुगम है। हम हमेशा तैयार ही हैं। हम पहले से माने ही बैठे हैं कि दूसरा नीचा है। सिर्फ अवसर की जरूरत है और सिद्ध हो जाएगा। और अगर कोई दूसरा हमसे आगे भी निकल जाए कभी, तो हम जानते हैं कि चालाकी, शरारत, कोई धोखाधड़ी, कोई भाई— भतीजा वाद, कुछ न कुछ मामला होगा, तभी दूसरा आगे गया, नहीं तो हमसे आगे कोई जा कैसे सकता था! अगर दूसरा हमसे पीछे रह जाए, तो हम समझते हैं, रहेगा ही पीछे; क्योंकि हमसे आगे जाने की कोई योग्यता भी तो होनी चाहिए।

हम जो भी होते हैं, जहां भी होते हैं, उसके अनुसार तर्क खोज लेते हैं।

ईश्वर है या नहीं है, यह बडा सवाल नहीं। जो व्यक्ति ईश्वर को मान सकता है कि है, उसने अपने को झुकाया, यह बड़ी भारी बात है। ईश्वर न भी हो, तो भी जिसने स्वीकार किया कि ईश्वर है और अपने को झुकाया, इसके लिए ईश्वर हो जाएगा। और जो कहता है, ईश्वर नहीं है—चाहे ईश्वर हो ही—इसने अपने को अकड़ाया। ईश्वर हो, तो भी इसके लिए नहीं है, तो भी इसके लिए नहीं हो सकेगा, तो भी क्योंकि इसके द्वार बंद हैं।

वह जो आसुरी संपदा का व्यक्ति है, अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण हुआ, दूसरों की निंदा करने वाला, दूसरों के शरीर में मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाला है। ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार—बार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं।

यह वचन थोड़ा कठिनाई पैदा करेगा, क्योंकि हमें लगेगा कि क्यों परमात्मा गिराएगा! होना तो यह चाहिए कि कोई आसुरी वृत्ति में गिर रहा हो, तो परमात्मा उसे रोके, बचाए, दया करे। क्योंकि हम निरंतर प्रार्थना करते हैं कि हे पतितपावन! हे करुणा के सागर! दया करो, बचाओ, मैं पापी हूं। और ये कृष्ण कह रहे हैं कि ऐसे नराधम, क्रूरकर्मी को मैं संसार में बार—बार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं!

जब ईसाई या इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग इस तरह के वचन पढ़ते हैं, तो उनको बड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि इस्लाम में तो परमात्मा के सभी नाम—रहीम, रहमान, करीम—स्ब नाम दया के हैं कि वह दयालु है। यह कैसी दया! और जीसस ने कहा है कि तुम प्रार्थना करो, तो सब तरह की क्षमा संभव है। तुम पुकारो, तो क्षमा कर दिए जाओगे।

लेकिन कृष्ण का यह वचन! इसका तो अर्थ यह हुआ, और यही भारतीय प्रज्ञा की खोज है, कि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि तुम पुकारों और वह क्षमा कर दे। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि तुम उसे फुसला लो, राजी कर लो—प्रशंसा से, खुशामद से, स्तुति से—और वह बदल दो परमात्मा एक नियम है, व्यक्ति नहीं। पहुंच जाता है।

इसको थोड़ा समझ लें।

परमात्मा एक व्यवस्था है, व्यक्ति नहीं। तो आग में कोई आदमी हाथ डाले, तो आग जलाकी। आग जलाने को उत्सुक नहीं है। आग इस आदमी को जलाने के लिए पीछे नहीं दौड़ती। लेकिन यह आदमी आग में हाथ डालता है, तो आग जलाती है। क्योंकि आग का स्वभाव जलाना है, वह उसका नियम है। अगर हम आग से पूछें, तो वह कहेगी, जो मुझमें हाथ डालेगा, उसे मैं जलाऊंगी। आग चूंकि बोलती नहीं, इसलिए हमें खयाल में नहीं है।

कृष्ण परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं। वह जो जागतिक नियम है, युनिवर्सल ली है, वह जो जीवन का आधार—स्तंभ है, उसकी तरफ से बोल रहे हैं। वह कहते हैं, जो व्यक्ति ऐसा कर्म करेगा, इस तरह की दृष्टि और धारणा रखेगा, ऐसा पाप में डूबेगा, उसे मैं गिराता हूं। गिराने का कुल मतलब इतना ही है, ऐसा करने से वह अपने आप गिरता है, कोई परमात्मा उसको धक्का नहीं देता। धक्का देने की कोई जरूरत नहीं है। वह ऐसा करता है, इसलिए गिरता है।

इसलिए भारत की जो गहरी से गहरी खोज है, वह कर्म का सिद्धात है। यह खोज इतनी गहरी है कि जैनों और बौद्धों ने परमात्मा को विदा ही कर दिया। उन्होंने कहा, यह सिद्धात ही काफी है। परमात्मा को बीच में लाने की कोई जरूरत भी नहीं है। जैनों और बौद्धों ने परमात्मा को इनकार ही कर दिया कि कोई जरूरत ही नहीं है परमात्मा को बीच में लाने की। कर्म से मामला साफ हो जाता है। और सच में ही साफ हो जाता है।

लेकिन परमात्मा को इनकार करने की कोई भी जरूरत नहीं, क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही वह महानियम है जो इस जीवन को चला रहा है। उसे हम कर्म का नियम कहें, या परमात्मा कहें, एक ही बात है।

वह जो गिरता है अपने हाथ से, नियम उसे गिराता है। आप जमीन पर चलते हैं, सम्हलकर चलते हैं, तो ठीक। उलटे—सीधे चलते हैं, तो गिर जाते हैं, हाथ—पैर टूट जाते हैं। कोई जमीन आपको गिराती नहीं है। लेकिन उलटा—सीधा जो चलता है, नियम के विपरीत, उसके हाथ—पैर टूट जाते हैं।

जमीन स्वेच्छा से, आकांक्षा से आपका हाथ—पैर नहीं तोड़ती। लेकिन जमीन का नियम है, उसके विपरीत जो जाता है, वह टूट जाता है। उसके अनुकूल जो जाता है, वह सहजता से मंजिल पर पहुंच जाता है।

जगत के नियम को समझकर उसके अनुकूल चलने का नाम धर्म है।

बुद्ध ने धर्म शब्द का अर्थ ही नियम किया है, दि ली। जब बुद्ध कहते हैं, धम्म शरणं गच्छामि, तो वह कहते हैं, धर्म की शरण जाओ, तो उसका यही अर्थ है कि नियम की शरण जाओ। और नियम के अनुकूल चलोगे, तो तुम मुक्त हो जाओगे। नियम के प्रतिकूल चलोगे, तो अपने हाथ से बंधते चले जाओगे। नियम के विपरीत जो जाएगा, वह दुख पाएगा। नियम के अनुकूल जो जाएगा, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है।

इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ़ पुरुष जन्म—जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए मेरे को न प्राप्त होकर उससे भी अति नीची गति को ही प्राप्त होते हैं।

जब कोई व्यक्ति गिरना शुरू हो जाता है, तो वह मोमेंटम पकड़ता है, गिरने में भी गति आ जाती है। आप कभी सोचें, अगर आप एक झूठ बोलें, तो फिर दूसरा और तीसरा और चौथा। और दूसरा पहले से बड़ा, और तीसरा दूसरे से बडा, क्योंकि फिर और बड़ा झूठ बोलना जरूरी है पिछले झूठ को सम्हालने के लिए। फिर एक गति आ जाती है। फिर उस गति का कोई अंत नहीं है।

एक पाप करें, फिर दूसरा, फिर तीसरा, और बड़ा, और बड़ा; तब आप अपने ही हाथ से गिरते चले जाते हैं। और अगर आप गिरना चाहते हैं, तो नियम सहयोग देता है। अगर आप उठना चाहते हैं, तो नियम सीढ़ी बन जाता है। गहरे में समझने पर, आप जो करते हैं, उससे आपकी दिशा निर्मित होती है।

सुबह आप उठे और आपने क्रोध किया। आपने दिन के लिए चुनाव कर लिया। अब दूसरा क्रोध पहले से ज्यादा आसान होगा, तीसरा दूसरे से ज्यादा आसान होगा। सांझ तक आप अनेक बार क्रोध करेंगे और सोचेंगे, न मालूम किस दुष्ट का चेहरा देखा!

आईने में अपना ही देखा होगा। क्योंकि किसी दूसरे के चेहरे से आपके जीवन की गति का कोई संबंध नहीं है, आपसे ही संबंध है। इसलिए सारे धर्मों ने फिक्र की है कि सुबह उठकर पहला काम परमात्मा की प्रार्थना का करें। उससे मोमेंटम बदलेगा, उससे गति बदलेगी। प्रार्थना के बाद एकदम से क्रोध करना मुश्किल होगा। और प्रार्थना के बाद और प्रार्थनापूर्ण होना आसान हो जाएगा।

जो बात गलत के संबंध में सही है, वही सही के संबंध में भी सही है। जो आप करते हैं, उसी दिशा में करने की और गति आती है। जिस तरफ आप चलते हैं, उस तरफ आप दौड़ने लगते हैं। दिशा चुनना बड़ा जरूरी है। सुबह उठते ही प्रेम और प्रार्थना और करुणा का भाव हृदय में भर जाए, तो आपके दिन की यात्रा बिलकुल दूसरी होगी। लेकिन सुबह अगर आप चूक गए, तो बड़ी कठिनाई हो जाती है।

यही बात पूरे जीवन के संबंध में भी लागू है। अगर बचपन में दिशा प्रार्थना और परमात्मा की हो जाए, तो पूरे जीवन की यात्रा आसान हो जाएगी। इसलिए हम अपने बच्चों को इस मुल्क में पुराने दिनों में, पहले चरण में गुरुकुल भेज देते थे कि पच्चीस वर्ष तक वे प्रार्थनापूर्ण जीवन व्यतीत करें। क्योंकि उससे गति बनेगी, एक यात्रा का पथ निर्मित होगा। फिर बहुत आसानी से आगे सब हो जाएगा।

एक बार बचपन खो गया, गति बिगड़ गई, पैर डावाडोल हो गए, उलटी दिशा पकड़ गई, फिर उसी दिशा में दौड़ शुरू हो जाती है। जवानी दौड़ का नाम है। बचपन में जो दिशा पकड़ ली, जवानी उसी दिशा में दौड़ती चली जाएगी। फिर बुढ़ापा ढलान है। जिस दिशा में आप जवानी में दौड़े हैं, उसी दिशा में आप बुढ़ापे में ढलेंगे। क्योंकि शक्ति फिर क्षीण होती चली जाती है।

अब तो मनोवैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि सात वर्ष की उम्र के बच्चे को हम जो दिशा दे देंगे, सौ में निन्यानबे मौके पर वह उसी दिशा में जीवनभर यात्रा करेगा। बहुत शक्ति की जरूरत है फिर बाद में दिशा बदलने के लिए। शुरू में दिशा बदलना बिलकुल आसान है। कोमल पौधा है, झुक जाता है। फिर रास्ता पकड़ लेता है, फिर उस झुकाव को तोड़ना बहुत कठिन हो जाता है।

बचपन में जाने का तो अब कोई उपाय नहीं, लेकिन रोज सुबह आप फिर से थोड़ा—सा बचपन उपलब्ध करते ‘हैं। कम से कम दिन को दिशा दें। दिन जुड़ते जाएं। और अनेक दिन जुड़कर जीवन बन जाते हैं। गलत कदम उठाने से रोकें। उठ जाए, तो बीच से वापस लौटा लें। सही कदम उठाने की पूरी ताकत लगाएं; आधा भी जा सकें, तो न जाने से बेहतर है। थोड़े ही दिन में आपकी जीवन—ऊर्जा दिशा बदल लेगी।

आसुरी दिशा, हम जो कर रहे हैं, क्रोध, मान, अहंकार, उसमें हमें बढ़ाती जाती है। उससे रुकेंगे नहीं, बदलेंगे नहीं, हाथ हटाएंगे नहीं, कुछ छोड़ेंगे नहीं गलत, खाली न होंगे हाथ, तो दैवी संपदा की तरफ बढ़ना बहुत मुश्किल है। और जिस तरफ आप जाते हैं, उस तरफ…..।

कृष्ण कहते हैं, और भी मैं अति नीची योनियों में गिराता हूं। वे गिराते नहीं। कोई गिराने वाला नहीं है, कोई उठाने वाला नहीं है। आप ही गिरते हैं। नियम न पक्षपात करता है, न चुनाव करता है। नियम निष्पक्ष है। इसलिए जो भी आप हैं, अपनी ऊर्जा, दिशा और नियम, तीन का जोड़ हैं।

नियम शाश्वत है, सनातन है; आपकी ऊर्जा शाश्वत है, सनातन है; ये दोनों समानांतर हैं। इन दोनों के बीच में एक और तत्व है, आपका चुनाव, इस ऊर्जा को नियम के अनुकूल बहाना या नियम के प्रतिकूल बहाना।

नदी बह रही है, नाव आपके पास है, वह आपका जीवन है, नदी नियम है। अब इस नदी के साथ नाव को बहाना है या नदी के विपरीत नदी से लड़ने में नाव को लगाना है?

जो नदी के विपरीत बहेगा, वह आसुरी चित्त—दशा को उपलब्ध होता जाएगा। जो नदी के साथ बह जाएगा—उस साथ बहने का नाम ही समर्पण है—वह दिव्यता को उपलब्ध हो जाता है।

आज इतना ही।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–7)

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मूर्च्छा में मृत्यु है—और जागृति में जीवन—(प्रवचन—सातवां)

 बिना विचारे कुछ करने की प्रवृत्ति पहली चीज है जिसको तोड़ डालना है। विचार करने की प्रवृत्ति पैदा करनी है और बिना विचार किए मान लेने की प्रवृत्ति तोड़ देनी है।

 मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि मृत्यु से बड़ा कोई सत्य नहीं ऐसा मैने कभी कहा है; और फिर यह भी कभी कहा है कि मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। इन दोनों में वे पूछते हैं कि कौन— सी बात सच है?

इन दोनों में ये दोनों ही बातें सच हैं। जब मैंने यह कहा कि मृत्यु से बड़ा कोई सत्य नहीं, तो मैं इस बात की तरफ ध्यान दिला रहा हूं कि इस जीवन में, जिसे हम जीवन कहते हैं, जिसे हम जीवन समझते हैं; और इस व्यक्तित्व में जिसे मैं ‘मैं’ कहता हू इस व्यक्तित्व में और इस जीवन में मरने की घटना बहुत बड़ा सत्य है। यह व्यक्तित्व भी मरेगा, यह जीवन, जिसे हम जीवन कहते हैं, यह जीवन भी मरेगा। मृत्यु, होगी ही। आप तो मरेंगे ही, मैं तो मरूंगा ही। और जिसे मैं जीवन कह रहा हूं वह भी मिटेगा, नष्ट होगा, धूल में गिरेगा।

तो जब मैं यह कहता हूं कि मृत्यु से बड़ा कोई सत्य नहीं, तो मैं इस बात की याद दिलाना चाहता हूं कि मैं, आप, हम सब मरेंगे। और जब मैं यह कहता हूं कि मृत्यु बिलकुल ही असत्य है, तो मैं यह याद दिलाना चाहता हूं कि ‘मैं’ के भीतर कोई और भी है जो नहीं मरेगा, आपके भीतर कोई और भी है जो नहीं मरेगा। और जिसे आप जीवन समझ रहे हैं, उससे भिन्न कोई जीवन भी है जिसमें कोई मृत्यु नहीं। ये दोनों ही बातें सच हैं, एक ही साथ सच हैं। और इनमें से अगर एक को सच माना, तो पूरे सत्य का बोध न हो पाएगा।

समझें! अगर कोई कहे कि छाया एक सत्य है, अगर कोई कहे कि अंधकार एक सत्य है, तो वह झूठ नहीं कहता। अंधकार है, छाया है। फिर कोई कहे कि अंधकार है ही नहीं, तब भी गलत नहीं कहता। तब वह यह कह रहा है कि अंधकार का कोई पॉजिटिव एक्सिस्टेंस, कोई विधायक अस्तित्व नहीं है। अगर मैं आपसे कहूं कि दो पोटली अंधकार बाहर से ले आएं, तो आप ला न सकेंगे। और अगर आपसे कहूं कि एक कमरे में अंधेरा भरा है, इसे निकाल कर बाहर फेंक दें, तो आप फेंक न सकेंगे। और फिर मैं आपसे पूछूं कि अगर अंधकार है तो कृपा करके इसे बाहर ले जाइए! तो आप कहेंगे कि अंधकार को बाहर नहीं ले जाया जा सकता। क्यों? क्योंकि अंधकार विधायक नहीं है, निगेटिव है। अंधकार केवल प्रकाश की अनुपस्थिति का नाम है।

अंधकार है, दिखाई पड़ रहा है, और फिर भी अंधकार सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति है, एबसेंस है। इसलिए अंधकार को अगर कोई कहे कि बिलकुल नहीं है, तो भी ठीक कहता है। प्रकाश है और प्रकाश का न होना है, अंधकार जैसी कोई चीज नहीं है।

इसलिए हम प्रकाश के साथ कुछ भी कर सकते हैं, अंधकार के साथ कुछ भी नहीं कर सकते। अगर अंधकार को हटाना हो, तो प्रकाश को जलाना पड़े। और अगर अंधकार को लाना हो, तो प्रकाश को बुझाना पड़े। अंधकार के साथ सीधा कुछ भी नहीं किया जा सकता है।

दौड़ते हैं रास्ते पर, पीछे छाया बनती है। छाया है। कौन कहेगा नहीं है! दिखाई पड़ती है, है। पीछे दौड़ती है, भागती है। और फिर भी कहा जा सकता है, छाया नहीं है। क्योंकि छाया का कोई अस्तित्व नहीं है। छाया का मतलब केवल इतना है कि हम प्रकाश को रोक लेते हैं, तो जितना प्रकाश हम रोक लेते हैं उतने प्रकाश का पीछे अभाव हो जाता है। इसलिए सूरज जब सिर पर आ जाता है, तो छाया बननी बंद हो जाती है। क्योंकि प्रकाश रुकता नहीं। अगर हम एक काच का आदमी बनाएं, तो उसकी छाया न बनेगी। क्योंकि उससे प्रकाश आर—पार निकल जाएगा। प्रकाश अवरुद्ध हो जाता है, तो छाया दिखाई पड़ती है। छाया केवल प्रकाश का अभाव है, अनुपस्थिति है।

तो कोई अगर कहे कि छाया है, तो गलत नहीं कहता। लेकिन आधा है यह सत्य, साथ में उसे यह भी कहना चाहिए, छाया है भी नहीं, तब सत्य पूरा हो जाता है। इसका मतलब हुआ कि छाया कुछ ऐसी है कि नहीं भी है। इसका मतलब यह हुआ। लेकिन हम जिस तरह सोचते हैं, वहां हम चीजों को बिलकुल दो हिस्सों में तोड़ कर देखते हैं।

एक बार ऐसा हुआ, एक अदालत में एक मुकदमा चला। एक आदमी ने किसी की हत्या कर दी है। आंखों देखे गवाहों ने अदालत में गवाही दी। एक गवाह ने कहा कि यह हत्या खुले आकाश के नीचे हुई और जिस समय हत्या हुई, उस समय आकाश में तारे थे। मैंने तारे भी देखे और यह हत्या होते हुए भी देखी। उसके ठीक बाद दूसरे आंख देखे गवाह ने कहा कि यह हत्या घर के भीतर हुई है, दरवाजे के पास, दीवाल के निकट। दीवाल पर खून के छींटों के दाग भी हैं। और मैं दीवाल से सटकर खड़ा था, मेरे ऊपर तक खून के दाग आए हैं। यह हत्या घर के भीतर हुई।

उस न्यायाधीश ने कहा, बड़ी मुश्किल है, तुम दोनों कैसे सच हो सकोगे? तुम दोनों में से एक कोई जरूर ही झूठ बोल रहा है। वह जो हत्यारा था, वह हंसने लगा। न्यायाधीश ने पूछा, तुम क्यों हंसते हो? उसने कहा कि मैं आपको कहे देता हूं ये दोनों ही ठीक कहते हैं। मकान अधबना था, अभी छप्पर न पड़ा था। ऊपर तारे दिखाई पड़ रहे थे। खुले आकाश के नीचे हत्या हुई और दीवाल के पास हुई है —दरवाजे के पास। और दीवाल पर खून के धब्बे भी पड़े हैं। मकान उठ गया था, दीवालें उठ चुकी थीं, सिर्फ छप्पर पड़ने को रह गया था। ये दोनों ही ठीक कहते हैं।

जिंदगी इतनी जटिल है कि वहां जो बातें हमें विरोधी दिखाई पड़ती हैं, वे भी ठीक हो जाती हैं। जिंदगी बहुत जटिल है। जिंदगी वैसी नहीं है, जैसा हम सोचते हैं। जिंदगी में बहुत विरोध समाहित है। जिंदगी बहुत बड़ी है।

तो मृत्यु एक अर्थ में सबसे बड़ा सत्य है, क्योंकि जैसा हम जी रहे हैं वह मरेगा, जो हम हैं वह भी मरेगा, जो हमने ढांचा बनाया है वह भी मरेगा, जिसे हमने सब कुछ समझ रखा है वह सब मरेगा—पत्नी मरेगी, पति मरेगा, बेटा मरेगा, बाप मरेगा, मित्र मरेगा, सब मरेंगे। और फिर भी मृत्यु एक असत्य है, क्योंकि बेटे के भीतर कोई है जो बेटा नहीं है, वह नहीं मरेगा; और बाप के भीतर कोई है जो बाप नहीं है, वह नहीं मरेगा। बाप मर जायेगा और कोई भीतर और भी है बाप के अतिरिक्त, बाप से भिन्न, संबंध से दूर, वह मरेगा। शरीर मरेगा और कोई है शरीर के भीतर जो नहीं मरता है। ये दोनों बातें एक ही साथ सत्य हैं। इसलिए मृत्यु को समझने में ये दोनों ही बातें स्‍मरण रखनी उचित है।

एक और मित्र पूछते हैं कि आपकी बातों से तो जिन चीजों को हम मिटा देना चाहते है, जिन—जिन चीजों को वहम की सुपरस्टीशन की अंधविश्वास की जिन जंजीरों को तोड़ देना चाहते हैं वे और मजबूत हो जाती है। आपकी बातों से पुनर्जन्म मालूम होता है प्रेत मालूम होते हैं देव मालूम होते हैं आत्मा का आवागमन मालूम होता है। तो फिर जिन अंधविश्वासों को मिटाना है वे तो और मजबूत हो जाएंगे।

इसमें दो बातें समझनी चाहिए। पहली तो यह कि अगर बिना किसी बात की खोज—बीन किए ही उसे अंधविश्वास मान लिया है, तो यह अंधविश्वास से भी बडा अंधविश्वास है। यह तो बहुत सुपरस्टीशस माइंड हुआ। जिसने बिना खोज—बीन किए.।

एक आदमी मानता है कि भूत —प्रेत हैं, हम उसे कहते हैं अंधविश्वासी है। और हम मान लेते हैं कि नहीं हैं, और हम बड़े ज्ञानी हो जाते हैं। लेकिन पूछना यह है कि अंधविश्वास का मतलब क्या होता है! जो कहता है कि भूत—प्रेत हैं, अगर उसने बिना खोजे मान लिया हो, तो वह अंधविश्वास है। और जो कहता है, नहीं हैं, उसने भी अगर बिना खोजे मान लिया हो, तो वह भी अंधविश्वास है। अंधविश्वास का मतलब है, जो हम नहीं जानते उसको मान लेना। अंधविश्वास का यह मतलब नहीं होता कि जो हमसे विपरीत है, वह अंधविश्वासी है।

ईश्वर को मानने वाला भी अंधविश्वासी हो सकता है, ईश्वर को न मानने वाला भी उतना ही अंधविश्वासी, उतना ही सुपरस्टीशस हो सकता है। अंधविश्वास की परिभाषा समझ लेनी चाहिए। अंधविश्वास का मतलब है, बिना जाने अंधे की तरह जिसने मान लिया हो। रूस के लोग अंधविश्वासी नास्तिक हैं, हिंदुस्तान के लोग अंधविश्वासी आस्तिक हैं। दोनों अंधविश्वासी हैं। न तो रूस के लोगों ने पता लगा लिया है कि ईश्वर नहीं है और तब माना हो, और न हमने पता लगा लिया है कि ईश्वर है और तब माना हो। तो अंधविश्वास सिर्फ आस्तिक का होता है, इस भूल में मत पड़ना। नास्तिक के भी अंधविश्वास होते हैं। बड़ा मजा तो यह है कि साइंटिफिक सुपरस्टीशन जैसी चीज भी होती है, वैज्ञानिक अंधविश्वास जैसी चीज भी होती है। जो कि बड़ा उलटा मालूम पड़ता है कि वैज्ञानिक अंधविश्वास कैसे होगा! वैज्ञानिक अंधविश्वास भी होता है।

अगर आपने युक्लिड की ज्यामेट्री के बाबत कुछ पढ़ा है, तो आप पड़ेंगे —बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं ज्यामेट्री तो युक्लिड कहता है—रेखा उस चीज का नाम है जिसमें लंबाई हो, चौड़ाई नहीं। इससे ज्यादा अंधविश्वास की क्या बात हो सकती है? ऐसी कोई रेखा ही नहीं होती, जिसमें चौड़ाई न हो। बच्चे पढ़ते हैं कि बिंदु उसको कहते हैं जिसमें लंबाई —चौड़ाई दोनों न हों। और बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी इसको मानकर चलता है कि बिंदु उसे कहते हैं जिसमें लंबाई —चौड़ाई न हो। जिसमें लंबाई—चौड़ाई न हो, वह बिंदु हो सकता है?

हम सब जानते हैं कि एक से नौ तक की गिनती होती है, नौ डिजिट होते हैं, नौ अंक होते’ हैं गणित के। कोई पूछे कि यह अंधविश्वास से ज्यादा है? नौ ही क्यों? कोई वैज्ञानिक दुनिया में नहीं बता सकता कि नौ ही क्यों? सात क्यों नहीं? सात से क्या काम में अड़चन आती है? तीन क्यों नहीं? ऐसे गणितज्ञ हुए हैं। लिबनीत्स एक गणितज्ञ हुआ है जिसने तीन से ही काम चला लिया। है।, उसका ऐसा है कि एक, दो, तीन, फिर आता है दस, ग्‍यारह, बारह, तेरह, फिर आता है बीस, इक्कीस, बाईस, तेईस। बस, ऐसी उसकी संख्या चलती है। काम चल जाता है, कौन सी अड़चन होती है! वह भी गिनती कर लेगा यहां बैठे लोगों की। और वह कहता है कि मेरी गिनती गलत, तुम्हारी सही, कैसे तुम कहते हो २: हम तीन से ही काम चला लेते हैं। वह कहता है, नौ की जरूरत क्या है? नौ कौन कहता है? आइंस्टीन ने बाद में कहा कि तीन भी फिजूल है, दो ही से काम चल जाता है। सिर्फ एक से नहीं चल सकता, बहुत मुश्किल होगी। दो से भी चल सकता है। नाइन डिजिट, नौ आकड़े होने चाहिए गणित में, यह एक वैज्ञानिक अंधविश्वास है। लेकिन गणितज्ञ भी पकडे हुए बैठा है कि इतने ही हो सकते हैं आकड़े। उससे कहो कि सात से काम चलेगा, तो वह भी मुश्किल में पड़ जाएगा। यह भी मान्यता है, इसमें कुछ और ज्यादा मतलब नहीं है।

हजारों चीजें वैज्ञानिक रूप से हम मानते हैं कि ठीक हैं, वे अंधविश्वास ही होती हैं। तो वैज्ञानिक अंधविश्वास भी होते हैं। इस युग में तो धार्मिक अंधविश्वास क्षीण होते जा रहे हैं, वैज्ञानिक अंधविश्वास मजबूत होते चले जा रहे हैं। फर्क इतना होता है कि अगर धार्मिक आदमी से पूछो कि भगवान का तुम्हें कैसे पता चला? तो वह कहेगा कि गीता में लिखा है। और अगर उससे यह पूछो कि तुम यह कह रहे हो कि गणित में नौ आकड़े होते हैं, यह तुम्हें कैसे पता चला है? तो वह कहेगा कि फलां गणितज्ञ की किताब में लिखा हुआ है। फर्क क्या हुआ इन दोनों में? एक गीता बता देता है, एक कुरान बता देता है, एक गणित की किताब बता देता है। फर्क क्या है?

मैं अंधविश्वास के एकदम विरोध में हूं। सब तरह के अंधविश्वास टूटने चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तोड्ने के लिए अंधविश्वासी हूं कि किसी भी चीज को तोडना चाहिए तो फिर बिना फिकिर उसको तोड्ने में लग जाने की जरूरत है। वह ठीक है या गलत, इसकी फिक्र छोड़ो, तोड़ो पहले, तोडना जरूरी है। फिर यह तोडना भी एक अंधविश्वास हो जाएगा।

इसका मतलब यह हुआ कि हमें समझ लेना चाहिए कि अंधविश्वास, सुपरस्टीशन का मतलब क्या है। सुपरस्टीशन का मतलब है कि जिसे हम बिना जाने मान लेते हैं। और हम बहुत—सी चीजें मान लेते हैं। और बहुत —सी चीजें बिना जाने इनकार कर देते हैं, यह भी अंधविश्वास है।

अब समझ लें कि गांव में एक आदमी को भूत लग गया हो, तो उस गांव के सभी पढ़े — लिखे लोग कहेंगे कि अंधविश्वास है, सुपरस्टीशन है। गैर पढे —लिखे लोग तो अंधविश्वासी हैं ही, इसको मान कर ही चला जाता है। इसलिए मान कर चला जाता है कि हमने उन पर थोप ही दिया है कि वे अंधविश्वासी हैं। क्योंकि वै बेचारे गैर पढ़े —लिखे होने की वजह से, जो भी मानते हैं उसके लिए दलील देने में असमर्थ हैं। पढ़े —लिखे सारे गांव के लोग कहते हैं कि यह जो प्रेत लगा हुआ है, यह बिलकुल झूठी बात है।

लेकिन उनको पता नहीं है कि अमरीका में हारवर्ड युनिवर्सिटी जैसे विश्वविद्यालय में एक विभाग है, जो भूत—प्रेत का ही अध्ययन करता है। और उस विभाग ने भूत—प्रेतों के चित्र भी लेकर प्रस्तावित कर दिए हैं। हमें पता नहीं है कि इस समय दुनिया के कुछ बड़े वैज्ञानिक भूत —प्रेत की खोज में इतने तल्लीन हैं और इतने नतीजों पर पहुंचे हैं कि आपको आज नहीं कल पता चलेगा कि पढ़ा—लिखा आदमी अंधविश्वासी था। और वह जो अंधविश्वासी था, वह जानता तो नहीं था, लेकिन वह जो कह रहा था, ठीक ही कह रहा था।

अगर आप राइन या ओलीवर लाज की किताबें पढ़ें तो आप दंग रह जाएंगे। ओलिवर लाज नोबुल प्राइज विनर वैज्ञानिक था और जिंदगी भर भूत —प्रेतों में संलग्न रहा। और मरते वक्त दस्तावेज कर— गया कि विज्ञान के भी सत्य जो मैंने खोजे हैं, वे उतने सत्य नहीं हैं जितने भूत—प्रेत सत्य हैं।

लेकिन हमें उनका कुछ पता नहीं है। क्योंकि हम पढ़ा—लिखा अंधविश्वास हैं। वह कभी यह फिक्र ही नहीं करता कि क्या हो —रहा है दुनिया में, कहां, क्या खोज हो रही है।

अगर यहां कोई आदमी कहेगा कि मैंने किसी दूसरे आदमी के मन की बात जान ली, तो हम कहेंगे कि यह अंधविश्वास है। सोवियत रूस में, जहां कि वे पक्के वैज्ञानिक अपने को मानते हैं, कच्चे भी नहीं, वहा एक आदमी है फयादेव। वह वैज्ञानिक है रूस का बड़ा। उसने मास्को में बैठकर एक हजार मील दूर बैठे हुए आदमी के दिमाग में विचार संप्रेषित कर दिया। और उसके वैज्ञानिक परीक्षण हो गए और वह सही पाया गया। एक हजार मील दूर तिफलिस में एक आदमी के दिमाग में उसने मास्को में बैठकर खयाल पहुंचा दिये, बिना किसी माध्यम के।

और वे इसलिए खोज —बीन में लगे हैं कि आज नहीं कल अंतरिक्ष की यात्रा में इसकी जरूरत पड़ेगी। क्योंकि अंतरिक्ष की यात्रा में अगर यंत्र बिगड़ गए— और यंत्रों का बिगड़ना सदा ही संभावित है—तो यान सदा के लिए खो जाएगा, फिर वह कभी नहीं लौट सकेगा, उस यान के यात्री फिर कभी भी न मिल सकेंगे। तो किसी भूल—चूक में अगर यत्र जबाब दे जायें, तो बिना यंत्रों के भी यान के यात्रियों से संबंध स्थापित किया जा सके, इसकी चिंता में वे टेलीपैथी की खोज में रूस में जोर से लगे हुए हैं। और इन नतीजों पर पहुंचे हैं जो हैरान करने वाले हैं।

फयादेव ने जो प्रयोग किया है मास्को में बैठकर। एक हजार मील दूर तिफलिस में एक आदमी….. फयादेव के मित्र एक झाड़ी में छिपे बैठे हैं। वायरलेस हाथ में लिये हुए हैं। पूरे वक्त खबरें हो रही हैं। फिर वे मित्र झाड़ी में छिपे हुए, फयादेव को कहते हैं कि दस नंबर की बेंच पर—एक बगीचे में यह प्रयोग हो रहा है—दस नंबर की बेंच पर एक आदमी आकर बैठा है। आप कृपा करके तीन मिनट के भीतर उसे सो जाने का संदेश भेजें कि वह सो जाए। वह आदमी मजे से गुनगुना रहा है, सिगरेट पी रहा है, उसके सोने की कोई उम्मीद नहीं है।

फयादेव ने तीन मिनट तक सुझाव भेजे उस आदमी को—जैसा मैं आपसे कहता हूं, शिथिल हो रहे हैं, शिथिल हो रहे हैं—फयादेव ने एक हजार मील दृr से भावना की कि सो जाओ, सो जाओ। और विचार में दस नंबर की बेंच की तरफ ध्यान किया और सो जाओ, सो जाओ के विचार भेजे। तीन मिनट, ठीक तीन मिनट में वह आदमी सो गया। उसके हाथ की सिगरेट नीचे गिर गई। लेकिन संयोग हो सकता है। कोई आदमी थका—मादा दस नंबर की बेंच पर बैठा हो, सो गया हो। यह कोई इतनी जल्दी मान लेने की बात नहीं है। तो मित्रों ने खबर दी कि सो तो गया है, लेकिन क्या पता, संयोग से सो गया हो। तो ठीक सात मिनट के भीतर उसे वापस उठा दो।

तो फयादेव उसे सुझाव भेजता है। ठीक सात मिनट पर वह आदमी आंख खोलकर उठकर बैठ जाता है। उसको कुछ भी पता नहीं है कि क्या हो रहा है। वह तो अपरिचित आदमी है जो बेंच पर आकर बैठ गया है।

वे मित्र उसको घेर लेते हैं और उससे पूछते हैं कि आपको कुछ मालूम तो नहीं पड़ा। उसने कहा, मालूम जरूर पड़ा। मैं बडा हैरान हुआ। मैं तो किसी की प्रतीक्षा के लिए यहां आकर बैठा हूं। और अचानक मुझे ऐसा लगा कि जैसे सारा शरीर सोया जा रहा है, मेरे वश के ही बाहर हो गया, मैं सो गया। और फिर ऐसा लगा कि जैसे कोई जोर से कह रहा है, उठ आओ, उठ आओ, ठीक सात मिनट में उठ आओ। मैं कुछ हैरान हूं कि क्या हुआ है यह।

अब इस आदमी को कुछ भी पता नहीं है। विचार—संप्रेषण, बिना किसी माध्यम के, वैज्ञानिक सत्य बन गया है। लेकिन हमारा पढ़ा—लिखा आदमी कहेगा कि कहां के अंधविश्वास की आप बात कर रहे हैं। यानी यह हो सकता है कि दूसरे गांव में आदमी बीमार हो और इस गाव से उसको ठीक किया जा सके, इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। यह हो सकता है कि किसी दूसरे गांव में सांप ने कांटा हो और हजार मील दूर से उसे झाड़ा जा सके, इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है।

लेकिन अंधविश्वास बहुत तरह के हैं। और ध्यान रहे कि गैर पढ़े —लिखे अंधविश्वास से पढ़ा—लिखा अंधविश्वास हमेशा खतरनाक होता है। क्योंकि पढ़ा—लिखा अंधविश्वास अपने अंधविश्वास को अंधविश्वास नहीं मानता। वह कहता है, यह तो हमारी बड़े विचार की बात है।

अब वह मित्र कहते हैं कि हमें कुछ जंजीरें तोड़नी हैं।

पहले पक्का पता लगा लें कि जंजीरें हैं! नहीं तो नाहक तोड्ने में हाथ—पैर न तोड़ डालना आदमी के। जंजीरें हों तो टूट सकती हैं, जंजीरें न हों तो? और यह भी ध्यान रहे कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिसे आप जंजीर समझकर तोड रहे हैं, वह आभूषण हो, और कल फिर बनाना पड़े। इस सबकी बहुत सोच—समझ की जरूरत है।

मैं अंधविश्वास के एकदम विरोध में हूं। सब तरह के अंधविश्वास टूटने चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तोड्ने के लिए अंधविश्वासी हूं कि किसी भी चीज को तोड़ना चाहिए तो फिर बिना फिकिर उसको तोड्ने में लग जाने की जरूरत है। वह ठीक है या गलत, इसकी फिक्र छोड़ो, तोड़ो पहले, तोड़ना जरूरी है। फिर यह तोड़ना भी एक अंधविश्वास हो जाएगा।

हर युग के अपने अंधविश्वास होते हैं। अंधविश्वास का भी फैशन होता है। ध्यान रहे, अंधविश्वास का फैशन होता है। हर युग में अंधविश्वास नए तरह के हो जाते हैं। पुराने अंधविश्वास से आदमी छूटता है और नए को पकड़ लेता है। लेकिन अंधविश्वास से कभी नहीं छूट पाता है। बदलाहट कर लेता है, फर्क कर लेता है, लेकिन हमें खयाल में नहीं आता।

समझ लें कि अगर एक जमाने में अंधविश्वास था कि सिर पर टीका लगाने वाला आदमी धार्मिक है। हालांकि सिर पर टीका लगाने का धार्मिक होने से क्या संबंध? लेकिन अगर यह खयाल था, तो आदमी टीका लगाता था और समझता था कि धार्मिक है। और जो नहीं लगाता था, उसे समझता था कि वह अधार्मिक है। यह पुराना अंधविश्वास है, यह चला गया। अब नए तरह के अंधविश्वास हैं। उनमें कोई फर्क नहीं है। अगर एक आदमी टाई बांधता है, तो हम समझते हैं कि प्रतिष्ठित आदमी है। और नहीं बांधता है, तो समझते हैं अप्रतिष्ठित आदमी है। वही का वही मामला है, इसमें कोई फर्क नहीं है

तिलक की जगह टाई आ गई है और आदमी वही का वही है। इसमें कोई फर्क नहीं है। क्या फर्क है? टाई तिलक से बेहतर तो नहीं है, बदतर हो भी सकती है। तिलक का कोई अर्थ भी हो सकता था, टाई का तो बिलकुल ही अर्थ नहीं है। इस मुल्क में तो बिलकुल ही नहीं है, किसी मुल्क में हो भी सकता है। किसी ठंडे मुल्क में टाई का कोई अर्थ हो सकता है कि सब गले को बांध लो। निश्चित ही उस मुल्क में जो आदमी अपने गले को नहीं बांध पाता है, वह गरीब आदमी है। निश्चित ही जो आदमी इतनी सुरक्षा नहीं जुटा पाता है कि अपने गले को बांधकर सर्दी जाने से रोक ले, वह आदमी गरीब है। जो सुविधा—संपन्न है, वह अपने गले को बांधकर सर्दी से बच जाता है। लेकिन गर्म मुल्क में भी आदमी टाई बांधे बैठा हुआ है, तब जरा खतरनाक मालूम पड़ता है कि यह आदमी या तो पागल है, सुविधा—संपन्न है या पागल है!

सुविधा—संपन्न होने का मतलब यह तो नहीं है कि गर्मी सहो, गले में बांध लो, फांसी लगा लो। वैसे टाई का मतलब फांसी ही होता है, टाई का मतलब होता है गांठ। ठंडे मुल्क में तो कुछ मतलब भी हो सकता है, गर्म मुल्क में बिलकुल मतलब नहीं है। लेकिन प्रतिष्ठा का खयाल वाला आदमी फांसी लगाए हुए खड़ा है। मजिस्ट्रेट है, फांसी लगाए हुए खडा है। वकील है, फांसी लगाए हुए खड़ा है। नेता है, वह फांसी लगाए हुए खड़ा है। और उससे पूछो तो वह कहेगा कि यह सब टीका—तिलक लगाने वाले सब अंधविश्वासी हैं। उससे पूछो कि यह तुम टाई कैसे बांधे हुए हो! यह अंधविश्वास नहीं है? यह तुमने कौन—सी वैज्ञानिक व्यवस्था से यह टाई बांध ली है?

लेकिन टाई इस युग का अंधविश्वास है, इसलिए चलेगा। टीका पुराने युग का अंधविश्वास है, इसलिए नहीं चलेगा। जैसा मैंने कहा कि ठंडे मुल्क में अर्थ भी हो सकता है टाई का, और कुछ लोगों को टीका लगाने का भी अर्थ हो सकता है। इसको बिना खोजे अगर हमने एकदम से अंधविश्वास कह दिया, तो खतरनाक है, गलत बात है।

अब आपने कभी सोचा भी नहीं. होगा कि टीका लगाने का क्या मतलब है। अधिक लोग तो अंधविश्वास की तरह ही लगाते रहे हैं। लेकिन जिन्होंने पहली दफा लगाया होगा, उसमें कुछ साइंस थी, कुछ विज्ञान था। असल में जहां टीका लगाया जाता है, वहां आशा —चक्र है। और जो लोग भी थोड़ा ध्यान करते हैं, वह स्थल गर्म हो जाता है। और उस पर अगर चंदन लगा दिया जाए तो वह ठंडा हो जाता है। और चंदन उस पर लगाना बहुत वैज्ञानिक प्रक्रिया है। लेकिन वह बात गई, उसके विज्ञान से कोई मतलब नहीं है। कोई भी चंदन लगाए हुए चला जा रहा है। जिसे आशा—चक्र का न कोई पता है, न जिसने कभी कोई ध्यान किया है।

वह टाई बांधे हुए हैं गर्म मुल्क में। टाई वैज्ञानिक हो सकती है ठंडे मुल्कों में। आशा—चक्र पर काम करने वाले आदमी को चंदन का टीका भी वैज्ञानिक हो सकता है, क्योंकि चंदन उसे ठंडक देता है। और जब कोई ध्यान की प्रक्रिया करता है आशा—चक्र पर, तो वहां उत्तेजना और गर्मी पैदा हो जाती है। उसको ठंडा करना जरूरी है, अन्यथा मस्तिष्क को नुकसान पहुंचेगा।

लेकिन अब अगर हम पक्का कर लें कि नहीं, टीका मिटा डालना है। तो जो व्यर्थ लगाए हुए हैं उनका तो मिटाएंगे ही हम, लेकिन जो बेचारा अपने किसी काम से लगाए हुए है, उसका भी पोंछ डालेंगे। वह नहीं पोंछेगा, तो कहेंगे अंधविश्वासी है।

मैं यह कह रहा हूं कि अंधविश्वास कोई ऐसी सुनिश्चित चीज नहीं है कि आपने पक्का कर लिया है कि यह रहा अंधविश्वास। असल में एक ही चीज किसी स्थिति में अंधविश्वास हो सकती है और किसी स्थिति में वैज्ञानिक हो सकती है। और एक ही चीज किसी स्थिति में वैज्ञानिक मालूम पड़े, ठीक दूसरी स्थिति में अवैज्ञानिक हो सकती है।

अब जैसे कि तिब्बत है, तिब्बत में वर्ष में एक दिन नहाने का नियम है और बिलकुल वैज्ञानिक है। वर्ष में एक दिन नहाना तिब्बत में बिलकुल वैज्ञानिक है। क्योंकि तिब्बत में न तो धूल होती है और न पसीना होता, जिसकी वजह से नहाने की जरूरत पड़ती है। पसीना ही नहीं होता, धूल भी नहीं होती। रोज नहाना सिर्फ नुकसान पहुंचाना है शरीर को। क्योंकि नहाने से शरीर की इतनी गर्मी निकल जाती है कि तिब्बत जैसे मुल्क में उतनी गर्मी शरीर से खोना महंगा है। उसको पूरा कहां से करोगे? उतनी गर्मी लाओगे कहां से फिर? तिब्बत में उघाड़े रहना बहुत महंगा है। अगर एक आदमी उघाडा रहे दिन भर, तो उसे चालीस प्रतिशत ज्यादा भोजन की जरूरत पड़ती है। क्योंकि उतनी गर्मी, उतनी कैलोरी गर्मी उसके शरीर से निकल जाती है।

तो हिंदुस्तान जैसे मुल्क में कोई आदमी उघाड़ा रहे, तो त्यागी मालूम पड़ता है। महावीर समझदार आदमी हैं, उघाड़े रहते हैं। क्योंकि हिंदुस्तान जैसे गर्म देश में जितनी गर्मी शरीर से बाहर निकल जाए, उतना शीतल हो जाता है भीतर। लेकिन अगर कोई महावीर का अनुयायी जाकर तिब्बत में नंगा खड़ा हो जाए, तो निपट पागलखाने में भर्ती करने के योग्य है। क्योंकि वहां वह बात बिलकुल अवैज्ञानिक हो गई, मूढ़तापूर्ण हो गई। लेकिन ऐसा ही होता है।

तिब्बती लामा हिंदुस्तान आता है, तो यहां भी नहीं नहाता। मैं तिब्बती लामाओं के पास बोध—गया में ठहरा था। वे इतनी बदबू देते हैं कि बड़ी घबराने वाली बात है। मैंने उनसे पूछा कि यह कर क्या रहे हैं? तो उन्होंने कहा, हमारा तो एक ही दफे नहाने का नियम है। मैं यही कहता हूं कि क्या अंधविश्वास है, क्या विज्ञान है। तिब्बत में विज्ञान है, यहां अंधविश्वास है। अब वह यहां बदबू छोड़ रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता नहीं कि यहां तो इतना पसीना आ रहा है, इतनी धूल आ रही है।

हमें खयाल ही नहीं होता कि कुछ मुल्क हैं जहां धूल होती ही नहीं। खुश्चेव जब पहली दफा हिंदुस्तान आया और जब आगरा ताजमहल देखने गया, तो बीच सड़क पर कार रुकवा ली उसने, क्योंकि जोर से गुब्बारा उड़ रहा था धूल का। और वह नीचे उतर कर धूल में खड़ा हो गया और उसने कहा, धन्य हैं मेरे भाग्य, मैंने ऐसा अनुभव कभी भी नहीं किया था। अब धूल में हम ऐसा कभी अनुभव न करेंगे कि धन्य हैं मेरे भाग्य। लेकिन जहां से वह आता है, वहां बर्फ जमी होती है, वहां धूल नहीं होती है। उसके लिए यह बड़ा अदभुत अनुभव है, जैसा हमें बर्फ में हो जाता है। जब हम हिमालय पर जाते हैं, तो बर्फ पर चलने में कैसा अदभुत आनंद मालूम होता है।

तो युग है, परिस्थिति है, प्रयोजन हैं, उन सबकी खोज—बीन किए बिना किसी चीज को जंजीर मानकर तोड्ने में मत लग जाना। और वैज्ञानिक बुद्धि मैं उसको कहता हूं जो हमेशा हेजीटेट करता है। वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी बहुत जल्दी निर्णय नहीं लेता कि यह गलत है, यह सही है। इतने जल्दी निर्णय नहीं लेता। वह हमेशा यह कहता है, शायद यह सही भी हो सकता है, मैं और खोजूं र मैं और खोजूं मैं और खोजूं। और वह अंतिम क्षण तक भी आखिरी निर्णय नहीं लेता कि वह फाइनली कह दे, अंतिम निर्णय कह दे कि यह गलत है, इसको तोड़ डालो। क्योंकि जीवन इतना रहस्यपूर्ण है कि कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

हम इतना ही कह सकते हैं कि इतना हम अभी तक जानते हैं, उसकी वजह से यह हमें अभी गलत मालूम पड़ता है, इतना ही। वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी यह कहेगा कि जो अब तक जानकारी है, उसको देखते हुए यह बात ठीक मालूम नहीं पडती है। लेकिन जानकारी कल बढ़ जाए तो यह ठीक भी हो सकती है। जो आज ठीक है वह कल गलत हो सकता है। वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी जल्दी से निर्णय नहीं लेता कि यह गलत है और यह सही है। वह हमेशा जिज्ञासु, विनम्र, हबल और खोज में संलग्न होता है।

लेकिन अंधविश्वास पकड़ने में भी एक मजा आता है, और अंधविश्वास तोड्ने में भी एक मजा आता है। अंधविश्वास पकड़ने में यह मजा आता है कि हम सोचने से बच जाते हैं, झंझट से बच जाते हैं। जो सभी मानते हैं, हम भी मान लेते हैं। हम पूछना भी नहीं चाहते कि क्या कारण है, क्यों है? कौन परेशानी में पड़े! जहां भीड़ चलती है, हम भी चलते चले जाते हैं। अंधविश्वास सुविधापूर्ण है, कन्वीनिएंट है।

फिर कुछ लोग अंधविश्वास को तोड्ने में लग जाते हैं, वह भी बड़ा सुविधापूर्ण है। क्योंकि जो तोड़ता है, वह विचारवान मालूम पड़ने लगता है—बिना विचारवान हुए। विचारवान होना इतना सस्ता मामला नहीं है। विचारवान होना बहुत मुश्किल मामला है और विचारवान की बड़ी मौत है। मौत इस अर्थ में है कि वह चीजों को इतने गौर से खोजता है कि बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। तय करना मुश्किल हो जाता है उसे कि क्या कहे! और जब भी वह कहता है, तो उसका कहना हमेशा कंडीशनल होता है, उसके कहने में हमेशा एक शर्त होगी। वह यह कहेगा कि ऐसी स्थिति में तिब्बत में ऐसा नहाना वैज्ञानिक है, ऐसी स्थिति में भारत में न नहाना बिलकुल अंधविश्वासपूर्ण है। तो वह इस भाषा में बोलेगा। लेकिन समाज—सुधारक को भाषा की फिक्र नहीं होती है, उसे तोड्ने की फिक्र होती है कि कुछ चीजें तोड डालनी हैं।

तो मैं आपसे निवेदन करता हूं कि जरूर तोड़े, बहुत चीजें तोड़ डालनी हैं। लेकिन पहली चीज जो तोड़ डालनी है, वह है अविचार। बिना विचारे कुछ करने की प्रवृत्ति, पहली चीज है जिसको तोड़ डालना है। यानी अगर बिना विचार किए तोड़ डाला, तो इस तोड्ने का कोई मूल्य नहीं है। विचार करने की प्रवृत्ति पैदा करनी है और बिना विचार किए मान लेने की प्रवृत्ति तोड़ देनी है। लेकिन इसके बड़े दूसरे संदर्भ होंगे, इसका बड़ा और अर्थ होगा। तब हम बहुत खोजबीन करेंगे, सोचेंगे, विचारेगे। हम देखेंगे कि क्या हो सकता है।

अब पश्चिम में साइकोअनालिसिस जोर से चलती है, मनोविश्लेषण जोर से चलता है। और मजा यह है कि मनोविश्लेषण वही काम कर रहा है, जो पुराना ओझा, पुराना गांव का झाड़ने वाला कर रहा था। अब इस समय फ्रांस में कुवे का एक पंथ है। और कुवे वही काम करता है, जो ताबीज बांधने वाला करता था। लेकिन कुवे वैज्ञानिक है! सिर्फ शब्दावली उनका वैज्ञानिक है, बाकी वही की वही बात है, उसमें कोई फर्क नहीं है।

यह जानकर आप हैरान होंगे कि एक गाव का साधु, एक साधारण सा गाव का आदमी, जो कुछ भी नहीं जानता, भगवान के नाम पर उठाकर राख दे देता है। और आप कहेंगे निपट अंधविश्वास है। लेकिन आदमी उससे भी उतने ही ठीक होते हैं, उसी मात्रा में, जिस मात्रा में एलोपैथी के इलाज से ठीक होते हैं। यह बड़े मजे की बात है। अनुपात वही है। अभी इस पर प्रयोग चलते थे।

एक बहुत बड़े अस्पताल में लंदन में एक वैज्ञानिक प्रयोग किया गया। एक ही बीमारी के सौ मरीजों पर प्रयोग किया गया। पचास मरीज एक तरफ, पचास मरीज दूसरी तरफ। पचास मरीजों को दवाओं के इंजेक्‍शन दिए गये, पचास को निपट पानी के।

और हैरानी की बात यह है कि ठीक होने वालों का प्रतिशत बराबर रहा। उस बीमारी से पानी का जिनको इंजेक्‍शन दिया गया था, वे भी उसी मात्रा में ठीक हो गए जिस मात्रा में जिनको दवा दी गई थी। तब बड़ा प्रश्न उठ गया कि मामला क्या है!

तो सोचना पड़ेगा, यह विचार करना पडेगा कि यह हुआ क्या। और तब यह समझ में आया कि दवा कम काम करती है, दवा दी जा रही है, यह बात ज्यादा काम करती है। दवा उतना काम नहीं करती है, जितना दवा दी जा रही है.। और दवा भी उतना काम नहीं करती, दवा दिया जाना भी उतना काम नहीं करता, कितनी महंगी दी जा रही है और कितना बड़ा डाक्टर दे रहा है, वह काम कर रहा है। छोटे डाक्टर से बड़ी मुश्किल है, उससे इलाज नहीं हो पाता। उसका कारण यह नहीं है कि वह नहीं जानता। उसका कारण यह है कि बेचारा छोटा डाक्टर है। बड़ा डाक्टर एकदम प्रभावी हो जाता है। यानी आप पर असर इसका बहुत कम पड़ता है कि वह जो दे रहा है, वह समझकर दे रहा है। उसकी वेशभूषा, उसका रोब—दाब, उसकी फीस, उसकी बड़ी कार, उसका बामुश्किल से मिलना, पंद्रह दिन के बाद का अप्याइंटमेंट, भीड़— भाड़, लाइन में खड़े रहना—आप इस बीच काफी प्रभावित हो गये होते हैं। सच बात यह है कि अच्छा डाक्टर बनने के लिए अच्छी चिकित्सा का शान बिलकुल जरूरी नहीं है। अच्छा डाक्टर बनने के लिए अच्छा एडवरटाइजिंग का ज्ञान आवश्यक है। कितने अच्छे ढंग से विज्ञापन किया जा सकता है, यह सवाल है। वह विज्ञापन ज्यादा फायदा करता है।

अभी फ्रांस में उन्होंने हिसाब लगाया तो करीब अस्सी हजार डाक्टर हैं और करीब एक लाख साठ हजार—दुगने—क्वेक डाक्टर हैं, जो डाक्टर हैं ही नहीं। लेकिन जब मरीज दवा करने वाले डाक्टरों से थक जाता है, तो उनसे ठीक हो जाता है, जो कुछ जानते ही नहीं, लेकिन दवा करने की तरकीब जानते हैं।

इसीलिए तो सब तरह की पैथी चलती है। कभी आपने सोचा है? कभी विज्ञान हो तो सब तरह की पैथी चल सकती है? नेचरोपैथी भी काम करती है। पेट पर पट्टी बांध दो मिट्टी की, वह भी काम करती है। पानी का एनीमा दे दो, वह भी काम करता है। झाड़ना, ताबीज बांधना भी काम करता है। होमियोपैथी भी काम करती है, जो सिर्फ शक्कर की गोलियां हैं, वह भी काम करती है। सब काम करता है। एलोपैथी भी काम करती है। और इसलिए बड़ी कठिनाई की बात है कि मरीज कैसे ठीक होता है।

तो अब अगर गांव में एक आदमी धूल की पुड़िया बांधकर दे देता हो, तो इस अंधविश्वास को तोड़ना या नहीं तोडना इस पर विचार करना पड़ेगा। इस पर फिक्र करनी पड़ेगी कि इसको तोड़ देना कि नहीं। क्योंकि वह जो आदमी गले में स्टेथिस्कोप टांगकर और कार पर आकर खड़ा हुआ है, वह आदमी भी विज्ञान से कम ठीक कर पा रहा है, वह भी मैजिकल प्रभाव है —उसकी कार का, स्टेथिस्कोप का।

मैं एक डाक्टर को जानता हूं, एक क्वेक डाक्टर को। जिनको बिलकुल भी किसी विश्वविद्यालय से उनको कोई डिग्री नहीं मिली है। लेकिन मैंने कई मरीजों को, जिनको मैंने उनके पास भेजा निश्चित ठीक होते पाया, जब कि कोई डाक्टर उनको ठीक नहीं कर पाया। क्योंकि वह आदमी बहुत कुशल है। वह आदमी को समझने में बहुत कुशल है। और असली डाक्टरी वही है। अगर आप उसके अस्पताल में चिकित्सा के लिए जाएंगे, तो आपका निदान, आपकी डायग्नोसिस इस ढंग से की जाएगी कि पहले तो निदान में ही आप आधे ठीक हो जाएंगे।

वह स्टेथिस्कोप से जांच नहीं करता है आदमी की छाती की। वह डाक्टर बहुत होशियार है। वह स्टेथिस्कोप से जांच नहीं करता, उससे तो कोई भी डाक्टर करता है। उसने स्टेथिस्कोप की जगह एक बड़ी टेबल बना रखी है। बड़ा ‘ गंभीर कमरा है, उस गंभीर कमरे में टेबल पर लिटाता है। और स्टेथिस्कोप जैसी एक चीज उसने लगा रखी है। और उसके ऊपर दो नलियों में, बड़ी लंबी नलियों में रंग भरा पानी लगा रखा है। जब यहां हृदय की छाती धड़कती है, तो उन नलियों में पानी छलांग लगाता है। और वह मरीज उसको देखता रहता है और वह समझता है कि किसी बड़े डाक्टर के पास आना हुआ है। ऐसा डाक्टर अभी तक नहीं देखा। स्टेथिस्कोप ही है वह, लेकिन वह उसको ऐसे कान में लगाकर जांच नहीं करता। वह नलियों में उसके पानी के उचकने को देखता है। और तब वह मरीज जानता है कि कोई साधारण आदमी नहीं है।

आपको पता है, एलोपैथी का डाक्टर दवाइयों का नाम इस तरह घसीटकर लिखता है कि आप पढ़ न पाएं। उसका कारण है। अगर आप पढ़ लें तो शायद आप समझें कि इसमें तो कुछ भी नहीं है, यह तो दो पैसे की चीज है, इसे तो हम भी खरीद लेते। इसलिए उसको इस ढंग से लिखना पड़ता है। लिखने की तरकीब बतानी पड़ती है कि कोई समझ न पाए। सच तो यह है कि जिस डाक्टर से आप लिखवाकर लाए हैं, अगर दोबारा चिट्ठी उसके पास ले जाएं, तो वह भी ठीक से पढ़ नहीं सकता कि उसने लिखा क्या है।

और दूसरी मजे की बात यह है कि जितनी भी दवाइयों के नाम हैं, वे लैटिन और ग्रीक में रखने पड़ते हैं। उसका कारण यह है कि अगर वह लिख दे साधारण अंग्रेजी में या हिंदी में या गुजराती में, तो आप कभी भी दस रुपए का, पंद्रह रुपए का इंजेक्‍शन लगवाने को राजी नहीं होंगे। क्योंकि उसमें लिखा हुआ है, अजवाइन। तो आप कहेंगे कि अजवाइन का इंजेक्‍शन दस रुपए का? आप कह क्या रहे हैं! लेकिन लिखा है लैटिन और ग्रीक में, जिससे आप कुछ भी नहीं समझते कि मामला क्या है।

ये सब मैजिकल तरकीबें हैं। यह सब वही बात है जो वह गांव का आदमी राख दे रहा है। लेकिन अगर गांव का आदमी राख देते वक्त साधारण आदमी है, तो असर नहीं करेगा। अगर उसने गेरुए वस्त्र पहने रखे हैं तो ज्यादा असर करेगा। गेरुए वस्त्र असर ज्यादा करेगा। अगर वह आदमी ईमानदार है, सच्चरित्र है, उसके बाबत हमें पता है कि सीधा है, सादा है, सच्चा है, तो और असर करेगा। अगर हमको यह भी पता चले कि वह आदमी पैसा नहीं लेता है, पैसा छूता ही नहीं, तो और भी ज्यादा असर करेगा। यह राख असर नहीं कर रही है, दूसरी चीजें असर कर रही हैं। और इन असरों को मिटाना है कि नहीं, यह सोचने जैसी बात है। क्योंकि इसको एक तरफ से मिटाओ तो दूसरी तरफ से फिर व्यवस्थित करना पड़ता है, यह मिटता नहीं।

तो आदमी को विचारपूर्ण बनाने की जरूरत है, ताकि वह अविचार से बीमार ही न हो। वह ऐसी बीमारियां न बुलाए, जो झूठी हैं। जब तक झूठी बीमारियां आती रहेंगी, तब तक झूठे डाक्टरों को पैदा होना पड़ेगा। पुराने को मिटाओगे, नए पैदा होंगे; नए को मिटाओगे, और नए को पैदा होना पड़ेगा। इतनी तरह की चिकित्साए हैं दुनिया में, लेकिन कोई निर्णय नहीं हो पाता है कि कौन ठीक है। क्योंकि वे सभी ठीक करती हैं। और सब दावेदार हैं कि हम ठीक करते हैं। और उनके दावे में गलती नहीं है, वे सब ठीक करती ही हैं।

जितना मनुष्य के मन को समझने की कोशिश की जाती है, उतना पता चलता है कि मनुष्य के मन में कहीं रोग है। और जब तक मनुष्य के मन में रोग है, तब तक उसके आस—पास उस रोग को मिटाने के लिए उतने ही झूठे उपाय भी जारी रहेंगे।

इसलिए मेरा ध्यान उपाय तोड्ने पर कम है, मेरा ध्यान आदमी के मन का रोग विलीन हो जाए इस पर ज्यादा है। अगर आदमी का रोग विलीन हो जाए मन का, अगर वहां वह जाग जाए, विवेकपूर्ण हो जाए, तो जो चारों तरफ उपद्रव घिर जाता है, वह घिरेगा नहीं। ऐसा नहीं है कि गाव में कोई आदमी राख बाटता है, इसलिए आरा लेने जाते हैं। नहीं, ऐसा है कि आप राख लेने को उत्सुक हैं, इसलिए किसी आदमी को बांटनी पड़ती है।

यह सवाल ऐसा नहीं है। इसको इस तरह से मत लेना आप। ऐसा नहीं है कि कोई आदमी आपका नेता बन जाता है। नहीं, आप बिना नेता के एक क्षण नहीं रह सकते, इसलिए किसी को नेता बन जाना पड़ता है। और एक नेता को हटाओ तो आप दूसरे को बना लोगे, दूसरे को हटाओ तो तीसरे को बना लोगे। असल में जब आप एक को हटाओगे, तो पहले पक्का कर लोगे कि दूसरा किसको बनाना है।

और इसलिए दुनिया भर के नेता इस बात को जानते हैं कि विरोधी पार्टियां बनाकर खड़े रहो। जब एक नेता से जनता ऊब जाएगी तब दूसरे को वह अपने आप बनाएगी, जब दूसरे से ऊब जाएगी तो फिर पहले को बनाएगी। इसलिए सारी दुनिया में दो पार्टियों की चालबाजी चलती है। वह सब चालबाजी है, वे सब एक जैसे लोग हैं।

पिछले चुनाव में मैं रायपुर गया। एक मित्र हार गए थे चुनाव। वे पहले एम. पी. थे। मेरे एक दूसरे मित्र जीत गए। वे बिलकुल नए—नए रायपुर गए थे। मैंने अपने पुराने मित्र से पूछा कि बड़े आश्चर्य की बात है, तुम तो जन्मों से यहां रह रहे हो और तुम पिछले दो —तीन बार से यहां एम. पी थे, तुम हार क्यों गए? और एक बिलकुल अपरिचित आदमी गांव में आकर जीत कैसे गया! उन्होंने कहा कि मामला बिलकुल साफ है, लोग मुझसे परिचित हो गए हैं, उससे परिचित नहीं हैं। परिचित हो जाने दो, घबराइए मत, वह भी हारेगा। और तब तक हमको प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। तब तक हम फिर अपरिचित हो जाएंगे, हम फिर हावी हो जाएंगे।

तो सवाल बहुत गहरे में यह नहीं है कि इस नेता को हटाए, उस नेता को हटाए। इस अंधविश्वास को मिटाएं, उस अंधविश्वास को मिटाएं, यह सवाल नहीं है। बुनियादी आदमी को बदलने का सवाल है। इसलिए वैज्ञानिक बुद्धि अंधविश्वास पर बहुत फिक्र नहीं करेगी। वह तो चलेगा, जब तक आदमी अंधेपन के लिए राजी है। अगर कोई आदमी आंख खोलने को राजी नहीं है, तो अंधापन चलेगा ही। और हममें से कौन आदमी आंख खोलने को राजी है, मैं पूछता हूं। हममें से कोई भी आंख खोलकर देखने को राजी नहीं है। क्योंकि आंख खोलकर ऐसे सत्य दिखाई पड़ते हैं, जो हम देखना नहीं चाहते। इसलिए आंख बंद करके जो हम देखना चाहते हैं, उसकी कल्पना कर लेते हैं।

कभी आपने गौर से देखा है आंख खोलकर जिंदगी को कि जिंदगी कैसी है? अपने को कभी आंख खोलकर देखा है? वह आप देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि तब वहां ऐसा —ऐसा दिखाई पड़ेगा जो कि घबराने वाला है।

एक आदमी अपने को बिलकुल पवित्र मानता है, महात्मा मानता है। वह अगर आंख खोल कर गौर से देखे, तो अपने भीतर बड़े से बड़े पापी को छिपा हुआ पाएगा। अब वह उसको देखना नहीं चाहता, क्योंकि उसको देखे तो फिर महात्मा रहना मुश्किल हो जाएगा उसका। वह उसको देखता ही नहीं, वह उसकी तरफ आंख बंद कर लेता है। उसकी तरफ आंख बंद करने में वह फिर उन सब लोगों का उपयोग करता है जो उसकी आंख बंद करवा सकते हैं। तो जो —जो उसको आकर कहते हैं कि आप बहुत बड़े महात्मा हैं, वह उन—उनको अपने पास इकट्ठा करता चला जाता है, शिष्यों को इकट्ठा करता चला जाता है। जो उसको अंधा बनाने में सहयोगी होते हैं, वह उनको इकट्ठा करता चला जाता है।

इकट्ठा करने की भी बहुत अदभुत तरकीबें हैं। उसका भी धोखा चलता है। और धोखा इतना अदभुत है कि अगर लोगों को इकट्ठा करना हो, तो उसमें एक तरकीब यह भी है कि चिल्ला—चिल्ला कर कहो कि मेरे पास कोई न आये, मैं किसी को इकट्ठा नहीं करना चाहता। यह भी एक तरकीब है। और लोग इससे बड़े प्रभावित होते हैं। वे कहते हैं, चलो। डंडे मारो, गालियां दो, तो लोग आएंगे। वे कहेंगे, महात्मा साधारण नहीं है, असाधारण है। क्योंकि साधारण महात्मा होता तो कहता, आइए, बैठिए। वह तो डंडा मारता है, उसको तो किसी से मतलब ही नहीं है।

मैंने सुना है, कैलिफोर्निया के बीच पर, समुद्र—तट पर एक आदमी था बहुत दिन से। वह आदमी एक खेल बन गया था। जो भी आदमी समुद्र—तट पर घूमने जाते — और हजारों लोग अमरीका में जाते है—तो वहा खबर थी कि वह आदमी इतना सरल है, इतना सीधा है कि जिसका हिसाब नहीं। और उसकी परीक्षा यह है कि उसके सामने तुम दस रुपए का नोट करो और दस पैसे का सिक्का करो, तो वह खुशी से, जल्दी से दस पैसे का सिक्का ले लेता है, दस का नोट छोड़ देता है। वइ इतना सरल आदमी है।

एक आदमी पांच —छह दफे वहां गया था, उस बीच पर। और उसने देखा कि उस आदमी के पास दिन भर भीड़ लगी रहती है। लोग यही खेल करते रहते हैं। लोग उससे कहते हैं, बाबा, क्या चाहिए, यह लेते हो कि यह? वह जल्दी से दस का पैसा ले लेता है। वह कहता है कि यह बहुत अच्छा है, यह चमकदार है। तो लोग उसको बड़ा सीधा आदमी मानते हैं। उस आदमी ने कहा, बीस साल हो गए इस आदमी को यही काम करते हुए, अब तक यह पहचान न पाया होगा दस का नोट! हद हो गई, इतनी सरलता भी मुश्किल मालूम होती है।

तो सांझ को जब कोई न रहा, तो उसके पास गया और उसने उससे पूछा कि आश्चर्य, मैं बीस साल से देख रहा हूं आपको, यह खेल चल रहा है, और अभी तक दस का नोट नहीं पहचान पाए! उसने कहा, वह हम पहले ही दिन से पहचानते हैं, लेकिन उसको पहचाना कि खेल बंद। और उसको न पहचानने से हमने कई हजार दस रुपये इकट्ठे कर लिये दस—दस पैसे से। और एक दिन हमने पहचान लिया कि खेल खतम। वह एक ही नोट हमारे हाथ में रह जाने वाला है, फिर नोट हमारे हाथ में नहीं आएगा।

इसलिए नोट इकट्ठे करने हों, तो धन को लात मारो, नोट चले आएंगे। तो उसने कहा, हम समझ गए हैं, हमारा काम बहुत अच्छा चल रहा है। दिन भर में हम दो चार पांच सौ रुपए तक भीड़ के दिन इकट्ठे कर लेते हैं, उसकी कोई चिंता नहीं, लेकिन वह चलेगा खेल। तो महात्मा भी जानता है। अगर उससे धन की बात करो, तो वह कहेगा नहीं, नहीं, हम छूते भी नहीं। तब महात्मा बड़ा हो जायेगा। तब उसका शिष्य पास में से रुपया लेकर खीसे में रख लेगा। महात्माजी तो पैसे छूते नहीं, जो तुमने बात कही, वह गलत है।

आदमी अंधा होने को राजी है, तो कोई क्या करेगा? कौन बेवकूफ है? जो जाकर जांच करवा रहे हैं। दस पैसा और दस रुपये का नोट रख कर जो जांच करवा रहे हैं। वह आदमी नहीं है उपद्रव। उपद्रव ये आदमी हैं। और इनके उपद्रव की वजह से उस बेचारे को यह काम करना पड़ रहा है। मैं यह कहता हूं कि वह नहीं करेगा तो कोई दूसरा करेगा। ये मूढ़ हैं, ये कहीं न कहीं जाकर यह काम करने वाले हैं। इनसे कोई पैसा छीने, यह इनकी आकाक्षा है। यह जारी रहेगी, इसमें कोई बचाव नहीं है। यह तभी टूट सकती है, जब मनुष्य की मूढ़ता को हम तोड़ना शुरू करें।

इसलिए अंधविश्वास की जंजीर तोड्ने की उतनी फिक्र मत करना। क्योंकि जिस आदमी ने जंजीर बांधी है, अगर वह वही रहा, तो वह नई जंजीर बना लेगा। क्योंकि बिना जंजीर के वह रह नहीं सकता है। वह जिस प्रकार का आदमी है, वह जंजीर निर्माण कर लेगा।

इसलिए सारे धर्म जंजीरें तोड्ने की कोशिश करते हैं और हर धर्म नई जंजीर बना देता है, कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्या फर्क पड़ता है? इतने धर्म दुनिया में आए, वे सब सुधारक की तरह आते हैं, और वे कहते हैं कि हम सब अंधविश्वास मिटा डालना चाहते हैं। मिटाइये! सारे अंधविश्वास मिटाने में सिर्फ इतना ही होता है कि कुछ मिटता नहीं है। ही, कुछ लोग जो पुराने अंधविश्वास से ऊब गए होते हैं, वे बदल कर लेते हैं, वे नया अंधविश्वास पकड़ लेते हैं। वे इसको पकड़ लेते हैं। और बड़े खुश हो जाते हैं कि हमने बदलाहट कर ली, क्योंकि नया अंधविश्वास पकड़ लिया।

असल में जो आदमी विचारवान है, वह पकड़ता ही नहीं है, अंधविश्वास क्या वह विश्वास भी नहीं पकडता। जो आदमी बुद्धिमान है, वह पकड़ता ही नहीं, वह बुद्धिपूर्वक जीता है, वह कुछ भी नहीं पकड़ता है। वह जंजीर—निर्माण नहीं करता है, क्योंकि वह जानता है कि स्वतंत्र रहने का आनंद है। जंजीर निर्मित मत करो।

तो प्रत्येक आदमी के भीतर इतनी चेतना जगाने का सवाल है कि स्वतंत्र होने की, विचारवान होने की, आत्मवान होने की, चेतनावान होने की आकांक्षा उसमें पैदा हो जाए। अनुयायी होने की, पीछे चलने की, किसी को मानने की, अंधे होने की प्रवृत्ति कम हो जाए, तो दुनिया से अंधविश्वास टूटेंगे। लेकिन तब ऐसा नहीं कि इस तरह के अंधविश्वास टूटेंगे और उस तरह के बच जाएंगे। सब टूटेंगे, एक साथ विदा होंगे, नहीं तो कभी विदा नहीं होंगे।

अंधविश्वास बदलती रही है अब तक मनुष्यता। और बदलने का करण यह है कि कोई भी आए वह एक बात कहता है, वह कहता है कि यह बात गलत है। अब अगर मैं कहूं किसी को कि गेरुआ वस्त्र पहनना गलत है…….।

मैं एक गांव में था, तो उस गांव का कलेक्टर मेरे पास आया और उसने आकर मुझे कहा कि मैं प्राइवेट, अकेले में कुछ मिलना चाहता हूं। तो ठीक है। द्वार बंद करके उसने मुझसे कहा कि अगर मैं आप जैसे वस्त्र पहनने लग तो इससे कुछ लाभ होगा?

क्या मतलब रहा! अब अगर मैं कहूं कि गेरुआ मत पहनो तो वह मुझसे पूछेगा कि ऐसा पहनें? यह भी गेरुआ बन जाएगा। इससे क्या फर्क पड़ने वाला है। असल में यह समझाना पड़ेगा कि वस्त्र की बदलाहट से कुछ भी नहीं होता। कोई भी पहनो, जो भी पहनना हो। जो मौज में आये पहनो। किसी को गेरुआ पहनने की मौज है, तो उसको क्यों रोको, क्या जरूरत है रोकने की! और किसी को काला पहनने की मौज है तो काला पहनने दो। लेकिन यह खयाल जग जाना चाहिए कि वस्त्रों की बदलाहट जीवन की बदलाहट नहीं है। तब वस्त्रों को छुड़वाने की भी कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जो आदमी वस्त्र छुड़वाका, वह नया वस्त्र फौरन पकड़ाका। क्योंकि उसकी बुद्धि भी वस्त्र वाली ही है। छुड़ाने वाली है माना, लेकिन वस्त्र वाली ही है। तो वह करेगा क्या! उससे वे आदमी पूछेंगे कि फिर नया वस्त्र बतलाइये।

गांधीजी के पास एक संन्यासी मिलने गए। संन्यासी गेरुआ वस्त्र पहने हुए थे। तो गांधीजी से उन्होंने जाकर कहा कि मैं कुछ सेवा करना चाहता हूं। मुझे कुछ सेवा करनी है। आपकी बातें मुझे कुछ ठीक लगती हैं। गांधीजी ने एक बड़े मार्के की बात उससे कही कि यह तो ठीक है, लेकिन पहले गेरुवे वस्त्र छोड़ दो। अगर सेवा करनी है, तो गेरुवे वस्त्र सेवा न करने देंगे। क्योंकि लोग गेरुवे वस्त्र की सेवा करते हैं, उससे करवाते नहीं हैं। तो तुम गेरुवे वस्त्र छोड़ दो।

यह बात बिलकुल ठीक मालूम पडी। लेकिन गेरुवे वस्त्र छुड़वा कर उन्होंने उसको खादी पहना दी। अब खादी वाले वही कर रहे हैं जो गेरुआ वस्त्र वालों ने कभी भी नहीं किया था। तो मैं यह पूछ रहा हूं कि क्या फर्क पड़ गया? अब खादी वाले सेवा ले रहे हैं। और गेरुआ वस्त्र वाले ने बेचारे ने इतनी सेवा कभी भी नहीं ली थी, जितनी खादी वाले ले रहे हैं। अब यह उस से महंगा पड़ गया। छुड़वा दिया गेरुआ, अब यह खादी पकड़ा दी उसको। अब वे संन्यासी बहुत प्रसन्न हुए कि एक अंधविश्वास छूट गया हमारा गेरुआ वस्त्र का। अब वे खद्दर पहने हुए हैं। अब खद्दर का अंधविश्वास पकड गया है उसे। क्या फर्क पड़ने वाला है?

सवाल यह नहीं है कि यह छुडाओ और दूसरा पकड़ा दो। सवाल यह है कि वह जो पकड़ने वाली बुद्धि है, उसकी समझ बढ़ाओ। तो गांधीजी ने उसकी कोई बुद्धि तो बढ़ाई नहीं, वह आदमी बुद्ध का बुद्ध रहा। सिर्फ कपड़े उसके बदल दिए। और वह बहुत खुश हुआ कपड़े बदल कर। पर उससे क्या फर्क पड़ता है।

हमेशा यह हुआ है। सारी दुनिया में पिछले पांच हजार वर्षों की कहानी यह है हमारे दुर्भाग्य की कि एक अंधविश्वास को तोड्ने की कोशिश में हम आदमी को तो बदलते नहीं हैं, सिर्फ अंधविश्वास को तोड़ते हैं। वह नया अंधविश्वास बना लेता है। हम उसे जो पकड़ाते हैं, वह उसे पकड़ लेता है। अच्छा, चलो यह सही, उसको छोड़ते हैं, इसको पकडते हैं। हम बड़े खुश होते हैं। क्योंकि हमारा अंधविश्वास पकड रहा है, तो हमको बड़ी प्रसन्नता होती है।

अब युवक मेरे पास आता था। वह दिन—रात शास्त्रों की बात करता था। उपनिषद, गीता, वेद कंठस्थ किए हुए था। मैंने कहा, यह बकवास बंद करो, इससे तुम्हें कुछ होगा नहीं। ये सब कंठस्थ कर—करके कुछ भी फायदा नहीं है। वह बहुत नाराज हुआ, लेकिन आता रहा। जो आदमी नाराज हो, वह आता जरूर रहता है। क्योंकि नाराजगी भी एक संबंध है। वह नाराज तो मुझ पर हो गया, लेकिन आता रहा, आता रहा, आता रहा।

फिर धीरे — धीरे बात सुनते —सुनते उसको बात जम गई। एक दिन आकर उसने मुझसे कहा कि मैंने सब गीता और उपनिषद और वेद, सब पोथियां बांधकर कुएं में फेंक दी हैं। मैंने कहा, यह मैंने तुमसे कब कहा था? उसने कहा, आला मुझे खाली करना पडा, आपकी किताबें मैंने उसमें रख दीं। अब मैं आपकी किताबों से बिलकुल राजी हो गया हूं। मैंने कहा, यह तो और मुश्किल हो गई। इसमें कोई फर्क न पड़ा। मैं तो तुमसे यह कह रहा था कि किताब से राजी मत होना, यह थोड़े ही कह रहा था कि उस किताब को छोड़ देना और मेरी किताब को पकड़ लेना। तो क्या फर्क पड़ा इससे?

लेकिन गुरु बड़े प्रसन्न होते हैं, उनके मार्के का अगर अंधविश्वास पकड़ा जाए तो वह प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए अंधविश्वास बदलते जाते हैं, आदमी अंधविश्वासी ही बना रहता है।

तो मैंने उससे कहा, इन किताबों को भी फेंक आओ उसी कुएं में। उसने कहा, यह कैसे हो सकता है? यह कभी नहीं हो सकता। फिर, मैंने कहा, बात वही की वही हो गई। अब यह तुम्हारी गीता बन गई। तो कृष्ण बेचारे की गीता क्या खराब थी। पकड़ना ही था, तो अच्छी थी, काम देती थी। मेरी किताब से तो ज्यादा ही मोटी थी, अच्छा वजन भी देती थी छाती पर, सिर पर भी ज्यादा बोझ देती थी। क्या फर्क पड़ गया अब? कृष्ण का क्या कसूर था? मैंने कब यह कहा था कि कृष्ण का कोई कसर है?

यह निरंतर हुआ है, यह निरंतर जारी है। होता सिर्फ इतना ही है कि आदमी वही का वही रह जाता है, सिर्फ उसके हाथ के खिलौने बदल जाते हैं। ही, मेरा खिलौना कोई पकड़ ले, तो मुझे बड़ी खुशी हो जाती है। मैं बड़ा प्रसन्न हो गया कि चलो, अच्छा हुआ, कम से कम मेरी बात तो पकड़ ली। मेरे अहंकार को बड़ी तृप्ति हो गई कि कृष्ण से ज्यादा मुझको मानने लगा। लेकिन इससे कोई मनुष्यता बदलने वाली नहीं है। इससे मनुष्यता का कोई हित नहीं होता, कोई हित हो ही नहीं सकता है। हमें तो मनुष्य के भीतर से उसकी पकड टूट जाए, उसकी क्लिगिंग टूट जाए, वह अंधापन टूट जाए, उसकी ब्लाइंडनेस टूट जाए, इसकी फिक्र करनी चाहिए।

तो मैं उन मित्र से निवेदन करूंगा कि अंधविश्वास मत तोड्ने जाइए, अंधविश्वासी चित्त, वह जो सुपरस्टीशस माइंड है —सुपरस्टीशस नहीं, सुपरस्टीशस माइंड—वह जो चित्त है जिससे अंध— विश्वास पैदा होते हैं, उस चित्त को बदलने का प्रयोग करिए, तो अच्छा आदमी पैदा हो सकता है।

लेकिन उसके लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। वह सस्ता काम नहीं है, साधारण काम नहीं है। उसके लिए बड़ा वैज्ञानिक विचार चाहिए। उसके लिए इतनी जल्दी से इनकार मत कर देना कि भूत नहीं हैं, प्रेत नहीं हैं। जितने आप हैं, उससे कहीं ज्यादा सत्यतर वे हैं। उनके होने में कोई असत्य नहीं है, लेकिन खोजना पड़ेगा। और कई बार ऐसा भी होता है कि भूत से डरनेवाले लोग भी कहने लगते हैं कि नहीं हैं, भूत नहीं हैं। इसका कारण कुछ ऐसा नहीं होता कि वे कोई बड़े ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। इसका कुल कारण इतना होता है कि यह उनका विश फुलफिलमेंट है, वे चाहते नहीं हैं कि भूत हों। क्योंकि अगर भूत हैं, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर अंधेरी गली से निकलना एक मुश्किल बात हो जाएगी। तो वह दोहरा रहे हैं, चिल्ला रहे हैं कि बिलकुल नहीं है, अंधविश्वास है, हम इसको तोड़ डालेंगे अंधविश्वास को। असल में वह यह कह रहे हैं कि हम बहुत डरते हैं। अगर भूत है, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। होने नहीं चाहिए। हो नहीं सकते हैं, इसका मतलब होने नहीं चाहिए। तो वह इस चित्त से थोड़े ही टूट जाएगा।

अगर भूत हैं, तो हैं। चाहे कोई माने, और चाहे कोई न माने, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो है, वह है। और जो है, उचित है कि उसकी खोज कर ली जाए। क्योंकि जो है, उससे हमारा कोई न कोई संबंध है। उससे हम संबंधित हैं ही, उससे हमारा संबंध होगा ही। तो उचित है कि हम समझ लें, पहचान लें, खोज लें, और उससे संबंध के रास्ते खोज लें, और उससे व्यवहार का उपाय खोज लें कि क्या करें। यह इतना सरल नहीं है मामला।

यह जो खाली जगह दिखाई पड़ती है आपके बीच में, जरूरी नहीं है कि खाली हो। कोई बैठा हो सकता है। आपको न दिखाई पड़े, यह दूसरी बात है। लेकिन डर लग सकता है कि खाली जगह में कोई बैठा तो नहीं है। इसलिए तो खाली जगह नहीं छोड़ते, बिलकुल सटकर बैठते हैं। खाली जगह का हमेशा डर होता है। इसलिए कमरे को फर्नीचर से भर लेते हैं, सब तरफ से कैलेंडर, फोटो, भगवान, सबसे भर लेते हैं। खाली न रह जाए, खाली जगह में डर लगता है, खाली मकान में डर लगता है। आदमियों से भरते हैं, आदमियों के सामान से भरते हैं, सब तरह से भर लेते हैं कि कहीं खाली जगह न रह जाए। लेकिन फिर भी बहुत खाली जगह है। और वह खाली जगह एकदम खाली नहीं है। और उसका अपना विज्ञान है। अगर उस दिशा में काम करना हो तो काम उस दिशा में किया जा सकता है। उसका अपना विज्ञान है, उसके अपने सूत्र हैं, उस पर काम करने की अपनी साइंस है, उस पर बराबर काम किया जा सकता है।

लेकिन काम करने के पहले न तो यह कहना कि हैं और न यह कहना कि नहीं हैं। यह कहना ही मत। अच्छा है अपने जजमेंट को सस्पेंड रखना। अपने निर्णय को अभी ठहरे रहने देना, कहना कि भाई मुझे पता नहीं है। यह तो वैज्ञानिक बुद्धि का लक्षण होगा कि आपसे कोई पूछे कि प्रेत हैं, तो आप कह सकें कि मुझे पता नहीं है। क्योंकि मैं इस खोज में अभी नहीं गया। और अभी मैं अपनी खोज नहीं कर पा रहा हूं, प्रेतों की खोज कैसे करूं! अभी अपना ही पता नहीं चल पाता है। लेकिन जल्दी से जवाब मत दे देना कि ही या ना। जो आदमी जल्दी से जवाब देता है, वह अंधविश्वासी होता है। सोचना, खोजना। असल में विचारवान आदमी बहुत मुश्किल से जवाब देगा।

आइंस्टीन से किसी ने पूछा था एक बार कि एक वैज्ञानिक और एक अंधविश्वासी आदमी में आप क्या फर्क मानते हैं? तो आइंस्टीन ने कहा कि अगर सौ सवाल अंधविश्वासी से पूछो, तो वह एक सौ एक जवाब देने की तैयारी दिखलाएगा। और वैज्ञानिक से अगर सौ सवाल पूछो तो वह अट्ठानबे के लिए तो कह देगा कि मैं बिलकुल नहीं जानता। दो के लिए कहेगा कि थोड़ा—सा जानता हूं लेकिन वह जानना अंतिम नहीं है, अल्टीमेट नहीं है। वह कल बदल सकता है।

ध्यान रहे, वैज्ञानिक चित्त ही एकमात्र सरल चित्त है। अंधविश्वासी चित्त सरल नहीं है। दिखाई उलटा पड़ता है। दिखाई ऐसा पड़ता है कि अंधविश्वासी बड़ा सरल है। बहुत जटिल है और बहुत चालाक है, सरल नहीं है। बड़ी चालाकी तो वह यह कर रहा है कि जिन चीजों का उसे पता ही नहीं है, उनके संबंध में हौ भर रहा है। दरवाजे के सामने पड़े हुए पत्थर का पता नहीं है कि यह क्या है और परमात्मा के संबंध में छुरेबाजी कर देगा कि हमारा परमात्मा ठीक है, तुम्हारा गलत है। और अभी पत्थर क्या है, यह भी बता नहीं सकता। और जब यह सिद्ध नहीं कर सकता कि पत्थर भी मुसलमान और हिंदू हो सकता है, तो ऐसे कैसे सिद्ध कर लेगा इतनी आसानी से कि परमात्मा हिंदू और मुसलमान हो सकता है? लेकिन उसमें छुरेबाजी कर देगा। और ध्यान रहे, जिन चीजों में हम छुरेबाजी करते हैं, उससे खबर मिलती है कि वे चीजें अंधविश्वास की होंगी।

ज्ञान की बात में छुरेबाजी कभी भी नहीं होती है, न हो सकती है। जहां —जहां झगड़ा होता है, वहां —वहां समझ लेना अंधविश्वास है। क्योंकि अंधविश्वासी झगड़े से सिद्ध करना चाहता है कि मैं ठीक हूं। और उसके पास कोई उपाय ही नहीं है ठीक करने का। अब एक आदमी मेरी छाती पर तलवार लेकर खड़ा हो जाए और कहे कि मैं ठीक हूं, कहो, नहीं तो गर्दन काट दूंगा। तो वह गर्दन काट सकता है, लेकिन ठीक नहीं हो जाता है। गर्दन काटने से कोई कभी ठीक नहीं हुआ है। चाहे सभी मुसलमान मिलकर सभी हिंदुओं को काट दें, तो ठीक नहीं हो जाएंगे। और चाहे सभी हिंदू मिलकर सभी मुसलमानों को काट दें, तो ठीक नहीं हो जाएंगे। सिर्फ गंवार सिद्ध होंगे और कुछ सिद्ध नहीं होने वाला है। क्योंकि तलवार से कहीं सिद्ध होना है कि क्या ठीक है! लेकिन अंधविश्वासी के पास और कोई उपाय नहीं है। उसके पास कोई विचार तो है नहीं, कोई प्रयोग तो है नहीं, कोई प्रमाण तो है नहीं, कोई आथेंटिक दिशा तो है नहीं उसके पास कि वह कह सके कि यह ठीक है। उसके पास तो एक बात है कि किसका लट्ठ मजबूत है। कौन किसकी खोपड़ी तोड़ सकता है, वह ठीक है।

अभी तक सब यही कर रहे हैं। सारी दुनिया में यह हो रहा है। ऐसा मत समझना कि मैं कह रहा हूं कि धर्मगुरु ऐसा कर रहे हैं। राजनेता भी ऐसा ही कर रहे हैं। रूस ठीक है कि अमरीका ठीक है, यह हाइड्रोजन बम से तय होगा। और तो तय करने का कोई उपाय नहीं है। यह भी वही की वही नासमझी है। कौन ठीक है, यह इससे तय होगा? मार्क्स ठीक है कि नहीं ठीक है, यह कैसे तय होगा? तलवार से तय होगा? हाइड्रोजन बम से तय होगा? किससे तय होगा? यह तय विचार से होना चाहिए, लेकिन विचार के लिए आदमी मुक्त नहीं हो पाया है, वह अंधविश्वास से घिरा है।

तो ध्यान रहे, मेरा जोर अंधविश्वास की जंजीरें तोड्ने में नहीं है, मेरा जोर अंधविश्वासी चित्त को तोड्ने में है, जो इन जंजीरों को पैदा करता है। अगर वह चित्त बना रहा तो तुम जंजीरें तोड़ो, कितना ही तोड़ो, वह नई जंजीरें बना लेगा। और ध्यान रहे, पुरानी जंजीरों से नई जंजीरें हमेशा ज्यादा मोहक, ज्यादा प्रीतिकर, ज्यादा जोर से पकड़ने जैसी होती हैं। और यह भी ध्यान रहे कि पुरानी जंजीर से नई जंजीर सदा मजबूत होती है, क्योंकि तब तक जंजीर बनाने का विज्ञान भी तो विकसित हो गया होता है। उसका विकास हो गया होता है। तो पुरानी जंजीर उतनी मजबूत नहीं होती, जरा—जीर्ण हो जाती है। नयी जंजीर मजबूत हो जाती है। कई बार मैं ऐसा सोचता हूं कि जो लोग अंधविश्वास तोड्ने का धंधा करते हैं, वे लोग सिर्फ जरा—जीर्ण अंधविश्वासों की जगह मजबूत अंधविश्वासों को परिपूरक, सब्‍स्‍टीट्यूट कर पाते हैं, और कुछ भी नहीं कर पाते हैं।

मेरा फर्क, मैं समझता हूं आपको खयाल में आ गया होगा। अंधविश्वासी चित्त को तोड़ना है। अंधविश्वासी न होने पर जोर देना होगा। यह उसकी जड़ बनेगी। विचारवान बनें और बनाएं। विचारवान बनने का मतलब है सोचें, खोजें, जिज्ञासा करें। और जो ठीक अनुभव में आए, तो कहें। और फिर भी यह कहें कि जरूरी नहीं है कि मेरा अनुभव ठीक ही हो। कल अनुभव और हो सकते हैं, मुझे ही और हो सकते हैं। और फिर यह भी पक्का नहीं है कि मेरा अनुभव भ्रम न् हो। तो जब तक और पच्चीस अनुभव इसको सही न कर दें, तब तक कुछ भी कहना उचित नहीं है।

इसलिए वैज्ञानिक एक प्रयोग करता है, हजार प्रयोग करता है, हजार लोगों से प्रयोग करवाता है, तब कहीं किसी नतीजे पर पहुंचता है। फिर भी अंतिम नतीजे पर कभी नहीं पहुंचता है। जिस आदमी को अंतिम नतीजे पर जल्दी पहुंचना है, वह आदमी कभी विचार नहीं कर सकता है। अंतिम नतीजे पर पहुंचने की जल्दी दिखाने वाला आदमी अंधविश्वास से भर ही जाता है। और हम सब जल्दी से भरे हुए हैं।

अब एक मित्र ने प्रश्न पूछा है। एक ही प्रश्न में सब—कुछ पूछ लेते हैं, जो कि पूरी मनुष्यता खोज रही है और पता नहीं चल पाया है। वे पूछते हैं कि ईश्वर है कि नहीं? जीवात्मा क्या है? मोक्ष कहां है? स्वर्ग किसने बनाया? नरक है कि नहीं? आदमी क्यों आया है दुनिया में? जीवन का लक्ष्य क्या है? एक ही कागज पर……!

वे इतनी जल्दी में हैं कि यह ‘सब उनको तुरंत पता चल जाना चाहिए। इतनी जल्दी में हैं तो यह आदमी, इस तरह की जल्दी वाला आदमी तो अंधविश्वासी हो ही जाएगा। धैर्य भी नहीं है! खोज के लिए बड़ा पेशंस, बहुत धीरज चाहिए, अत्यंत धैर्य चाहिए। कोई फिक्र नहीं है, जन्म बीत जाएगा, नहीं पा सकेंगे, कोई फिकिर नहीं है, खोजेंगे लेकिन।

असल में पाना महत्वपूर्ण नहीं है विचारवान के लिए, खोजना महत्वपूर्ण है। अंधविश्वासी के लिए पाना महत्वपूर्ण है, खोजना महत्वपूर्ण बिलकुल ही नहीं है। अंधविश्वासी उत्सुक है पाने के लिए कि जल्दी मिल जाए। ईश्वर कहां है? वह इसके लिए बहुत फिक्र में नहीं है कि है भी कि नहीं, इसको मैं खोजूं। खोज की सुविधा उसे नहीं है। वह कहता है, आप खोज लें और मुझे बता दें। तो इसलिए वह गुरु की तलाश में है।

जो भी आदमी गुरु की तलाश में है, वह आदमी अंधविश्वासी बनकर रहेगा, वह रुक नहीं सकता। असल में गुरु की तलाश का मतलब ही यह है कि तुमने खोज लिया! ठीक, हमें बता दो। अब जब तुमने खोज ही लिया, तो हमें खोजने की क्या जरूरत है? हम आपके पैर पकड़ लेते हैं, आप कृपा करके हमको दे दो।

तो लोग शक्तिपात करवा रहे हैं कि कोई दूसरा उनकी खोपड़ी पर हाथ रख दे, उनको ईश्वर का शान करा दे। मंत्र लेते फिर रहे हैं, कान फुंकवा रहे हैं, फीस चुका रहे हैं, चरण दाब रहे हैं, सेवा कर रहे हैं, इस आशा में कि किसी का मिला हुआ मेरा मिला हुआ बन जाए। यह कभी भी नहीं हो सकता है। यह अंधविश्वासी चित्त की पकड़ है।

किसी का मिला हुआ, आपका मिला हुआ नहीं हो सकता। उसने बेचारे ने खोजा है, आप मुफ्त में कब्जा करना चाहते हैं। और ध्यान रहे, अगर उसने खोजा है, तो उसे भी यह पता चल गया होगा खोजने में कि खोजने से मिलता है, मांगने से नहीं मिलता है। इसलिए वह शिष्य भी नहीं बनाएगा। शिष्य भी वे ही बना रहे हैं, जिन्हें खुद भी नहीं मिला है। किसी और गुरु को ऊपर वे पकड़े हुए हैं। ऐसी लंबी श्रृंखला है गुरुओं की। और वे सब इस आशा में हैं कि दूसरा दे दे, दूसरा दे दे, दूसरा दे दे। और कई गुरु तो मर चुके हैं, उनकी टांगें पकड़े हुए हैं कि वे दे दें। और उन मरे —मरे हुए गुरुओं की लंबी श्रृंखला है हजारों —लाखों साल की, और वे एक—दूसरे के पैर पकडे हुए हैं कि कोई दे दे। अंधविश्वासी चित्त की यह लक्षणा है।

खोजी चित्त की, विचारवान चित्त की यह लक्षणा है कि अगर है, तो मैं खोजूंगा। अगर मिलेगा तो मेरी पात्रता और अधिकार से मिलेगा। अगर मिलेगा तो मेरे जीवन—दान से मिलेगा। अगर मिलेगा तो मेरे तप, मेरे ध्यान से मिलेगा। अगर मिलेगा तो मेरे श्रम का फल होगा।

और ध्यान रहे, विचारवान व्यक्ति अगर मुफ्त में मिलता भी हो परमात्मा, तो ठुकरा देगा। वह कहेगा कि जो अपने श्रम से नहीं मिला, उसे लेना उचित भी नहीं है। वह कहेगा, मैं अपने श्रम से पाऊंगा। और ध्यान रहे, कुछ चीजें हैं, जो अपने ही श्रम से पाई जा सकती हैं। परमात्मा उन चीजों में से नहीं है, जो बाजार में बिकती हों, मिल जाती हों। सत्य उन चीजों में से नहीं है, जिसकी कोई दुकान हो, जहां से आप सत्य खरीद लायें।

लेकिन दुकानें खुली हुई हैं। दूकानें हैं, बाजार हैं, जहां लिखा हुआ है, असली सत्य यहीं मिलता है। सत्य में भी असली और नकली होता है! सदगुरु यहीं निवास करते हैं, बाकी सब असदगुरु हैं जो और जगह निवास करते हैं। यह दुकान पक्की है, यहां से ले जाओ। और एक बार सेवा का अवसर दें। यह सब दुकानों पर लिखा हुआ है। और जिस दुकान में प्रवेश कर गए, उसका मालिक उस दुकान में से बाहर जल्दी नहीं निकलने देना चाहता।

यह जो हमारा अंधविश्वासी चित्त है, यह पैदा कर रहा है सारे उपद्रव।

तो मैं आपसे कहना चाहता हूं, खोज पर निर्भर होना, भिक्षा पर नहीं। मांगने से नहीं मिलेगा, जानने से मिलेगा। और विश्वास मत करना। किसी को मिला होगा, जरूर मिला होगा। अविश्वास भी मत करना, क्योंकि वह भी अंधविश्वास है। विश्वास मत करना, अविश्वास मत करना। कोई कहे कि मुझे ईश्वर मिल गया है, तो कहना, बड़ी कृपा है आप पर भगवान की कि आपको मिल गया। लेकिन कृपा करके मुझ को न बताएं, मुझे भी खोजने दें, नहीं तो मैं लंगड़ा रह जाऊंगा। दूसरे के द्वारा चली गई मंजिल पर अगर आप पहुंचा दिए जाएं तो आप लंगड़े ही पहुंचेंगे, क्योंकि पैर तो चलने से मजबूत होते हैं। और मंजिल पर पहुंचना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यात्री का मजबूत होता जाना महत्वपूर्ण है। कुछ पा लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना पाने वाले का रूपांतरण महत्वपूर्ण है। यह ईश्वर या मोक्ष या ज्ञान कोई रेडीमेड चीजें नहीं हैं, सिलीसिलाई उपलब्ध नहीं होती हैं। ये कोई ऐसी चीजें नहीं हैं कि तैयार मिल जाएं। ये तो पूरे जीवन की आहुति और पूरे जीवन के श्रम और साधना का फल बनती हैं। यह तो अंतिम फूल है, जो आता है।

लेकिन बाजार में फूल लेने गए, तो कागज के फूल मिल जाते हैं। टिकते भी ज्यादा हैं। रोज धूल झाडू दो, तो बने भी रहते हैं। और धोखा भी देते हैं। लेकिन किसको? दूसरे को धोखा दे सकते हैं कागज के फूल। वह जो सड़क से गुजरता है, उसे धोखा हो सकता है कि आपकी खिड़की में जो फूल खिले हैं, वे कागज के हैं या असली हैं। लेकिन आपको तो धोखा नहीं हो सकता है जो कि खुद ही खरीद कर ले आए हैं। आप तो भलीभांति जानते हैं कि फूल कागज का है। असली फूल के लिए बीज बोने पड़ते हैं, मेहनत करनी पड़ती है, पौधा बड़ा करना पड़ता है, फिर फूल आते हैं। लाने नहीं पड़ते हैं। फिर फूल अपने से आते हैं।

परमात्मा का अनुभव फूल की तरह है, साधना पौधे की तरह है। पौधे को संभालें, फूल तो अपने आप आ जाएगा। लेकिन हम जल्दी में हैं, हम कहते हैं पौधे की फिक्र छोड़ो, आप तो फूल दे दें। छोटे बच्चे होते हैं न, जब स्कूल में परीक्षा देने जाते हैं, तो गणित तो हल नहीं करते, गणित की किताब के पीछे उत्तर लिखे होते हैं, उनको उलटा कर देख लेते हैं और लिख देते हैं। उत्तर बिलकुल सही है, लेकिन बिलकुल गलत। क्योंकि जो विधि से न गुजरा हो, उसका उत्तर सही कैसे हो सकता है। उसने उत्तर तो बिलकुल सही ही लिखा है—पांच ही लिखा है; और जिन्होंने विधि करके लिखा है, उन्होंने भी पांच ही लिखा है। लेकिन आप फर्क समझ रहे हैं कि जिन्होंने विधि करके लिखा है, उनके पांच में और जिसने किताब के पीछे से चुरा कर लिखा है—चाहे वह गीता के पीछे से लिखा हो, चाहे कुरान के पीछे से, इससे क्या फर्क पड़ता है —उन दोनों के उत्तर बिलकुल एक जैसे होते हुए भी एक जैसे नहीं हैं। बुनियादी फर्क है। क्योंकि असली सवाल उत्तर का नहीं है कि आप पांच के उत्तर पर पहुंच जाएं, असली सवाल यह है कि आपको जोड़ना आ जाए। और वह उसको नहीं आया, जिसने किताब के पीछे से पांच देख लिया। उसे गणित न आया, सिर्फ उत्तर आ गया।

तो अगर कहीं से सीखा, कहीं से पाया, किसी से सुना और पकडा तो परमात्मा किताब के पीछे से चुराया गया होगा—मुर्दा, मरा हुआ, बेकार, किसी काम का नहीं, जिंदा नहीं। जिंदा धर्म तो जीने से आता है। किसी किताब के पीछे लिखे हुए उत्तर से नहीं।

लेकिन हम सब चोर हैं। छोटे बच्चे को हम डाटते हैं कि चोरी मत करना। शिक्षक भी समझाता है उसको कि देखो, किताब के पीछे मत देखना। कोई कागज—पत्तर पर कोई उत्तर लिखकर तो नहीं लाए हो? खीसे में से निकालकर बाहर रख लेता है। लेकिन अगर खुद अपने से पूछे कि अपने सब उत्तर चुराये हुए तो नहीं हैं? तो सब उत्तर चुराए हुए मालूम पड़ेंगे। गुरु चोर, शिष्य चोर, शिक्षक चोर। जिंदगी के सब उत्तर चुराए हुए हैं। तो उन चुराए हुए उत्तरों से न तो शाति मिल सकती है, न आनंद। क्योंकि आनंद मिलता है उस प्रक्रिया से गुजरने से, जिसमें उत्तर के फूल लगते हैं, लगाए नहीं जाते।

कुछ और प्रश्न रह गए हैं, वह कल सुबह हम बात करेंगे।

अब हम रात के ध्यान के लिए बैठेंगे। जिन मित्रों को ध्यान में बैठना हो वे दूर—दूर हट जाएं, थोड़ी जगह कर लें। जिनको न बैठना हो वे बहुत चुपचाप चले जाएं और किसी तरह की बातचीत न करें। और जो भी यहां रुकता है, उसे दर्शक की भांति नहीं रुकना है, उसे प्रयोगकर्ता की भांति ही रुकना है।

बातचीत न करें। चुपचाप फासले पर हट जाए।


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–187

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नरक के द्वार: काम, क्रोध, लोभ—(प्रवचन—आठवां)

अध्‍याय—16

सूत्र—

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।

काम: क्रोधस्तथा लौभस्तस्मादैतन्त्रयं त्यजेत्।। 21।।

एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमद्धोरैस्प्रिभिर्नर:।

आचरत्यक्ष्मन: श्रेयस्‍स्‍ततो यति परां गतिम्।। 22।।

यः शास्त्रविश्वैमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।

न स सिद्धिमावाप्‍नोतिप्त न सुखं न परां गतिम्।। 23।।

तस्माच्‍छात्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्‍यवस्थितौ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्‍तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।। 24।।

 और हे अर्जुन, काम, क्रोध तथा लोभ, ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्‍मा का नाश करने वाले हैं अर्थात अधोगति में ले जाने वाले है, इससे इन तीनों को त्याग देना चाहिए। क्योंकि है अर्जुन, इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्‍त हुआ पुरूष अपने कल्याण का आचरण करता है। इससे वह परम गति को जाता है अर्थात मेरे को प्राप्त होता है।

और जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम गति को तथा न सुख को ही प्राप्त होता है।

इसलिए तेरे लिए हम कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र— विधि से नियत किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है।

पहले कुछ प्रश्न।

 

पहला प्रश्न : ईश्वर और धर्म यदि परम नियम के ही नाम हैं, उससे अन्यथा कुछ भी नहीं, तो प्रार्थना, भक्ति, आराधना, सब व्यर्थ हो जाते हैं। तब तो धर्म विज्ञान का पर्याय हो जाता है और उस परम नियम की खोज में निकलना मात्र धर्म रह जाता है। इस पर कुछ और प्रकाश डालें।

 

सा प्रश्न मन में उठेगा। यदि धर्म मात्र नियम है, तो स्वभावत: धर्म वितान ही हो गया। फिर प्रार्थना कैसी? किससे? आराधना कैसी और किसकी? पूजा, भक्ति सब व्यर्थ हो जाते हैं।

क्योंकि हमने अब तक ऐसा ही समझा है कि प्रार्थना तभी हो सकती है, जब व्यक्तिगत रूप से ईश्वर मौजूद हो। हमने अब तक ऐसा ही सुना और समझा है कि पूजा तभी हो सकती है, जब पूजा लेने वाला मौजूद हो। आराधना और भक्ति तभी सार्थक है, जब भगवान हो, कोई व्यक्ति की तरह मौजूद हो, जो स्वीकार करे, अस्वीकार करे, स्तुति से प्रसन्न हो, निंदा से नाराज हो। कोई प्रतिक्रिया करने वाला मौजूद हो, तो ही हमारे प्रेम की पुकार का कोई अर्थ है, कोई जबाब दे! हमने अब तक ऐसा ही समझा है, इसलिए प्रश्न उठता है।

लेकिन हमारी समझ भ्रांत है, हमारी समझ में भूल है।

प्रार्थना की उपादेयता परमेश्वर है, इससे जरा भी नहीं है। प्रार्थना करने का सारा का सारा विज्ञान प्रार्थना करने वाले से संबंधित है। भगवान हो या न हो, व्यक्ति की तरह कोई आकाश में बैठकर जीवन को चलाता हो या न चलाता हो, भक्ति का उससे कुछ लेना—देना नहीं है। भक्ति तो भक्त की अंतर्दशा है।

भक्त को कठिन होगा बिना भगवान के भक्तिपूर्ण होना, इसलिए सभी धर्मों ने भगवान की धारणा को पोषित किया है। यह सिर्फ भक्त को सहारा देने के लिए है। लेकिन अगर समझ हो, तो भक्ति अपने आप में पूरी है, भगवान की कोई भी जरूरत नहीं। प्रार्थना अपने आप में पूरी है, कोई उसे सुनता हो कि न सुनता हो; सुनने वाला आवश्यक नहीं। आराधना पर्याप्त है, आराध्य जरा भी आवश्यक नहीं है।

जब मैं यह कहता हूं तो क्या मेरा अर्थ होगा! क्योंकि बात कठिन लगेगी। आराधना हमारे लिए तभी समझ में आती है, जब आराध्य हो, पूजा तभी समझ में आती है, जब कोई पूज्य हो। लेकिन मैं आपको कहना चाहूंगा कि पूजा चित्त की एक दशा है। बुद्ध किसी भगवान को मानते नहीं, फिर भी उनकी आराधना में रत्तीभर कमी नहीं है। किसी परमेश्वर की उनके मन में कोई धारणा नहीं है, लेकिन बुद्ध से ज्यादा प्रार्थनापूर्ण हृदय आप खोज पाइएगा? एच .जी वेल्स ने लिखा है कि बुद्ध जैसा ईश्वररहित और ईश्वर जैसा व्यक्ति खोजना कठिन है—सो गॉडलेस एंड सो गॉड लाइक।

इसे हम थोड़ा—सा अंतर्मुखी हों, तो खयाल में आ सकेगा।

क्या आप प्रेमपूर्ण हो सकते हैं बिना प्रेमी के हुए? क्या प्रेमपूर्ण होना आपके जीवन का ढंग और शैली हो सकती है? क्या प्रेमपूर्ण होना आपकी भाव—दशा हो सकती है?

तो फिर आप उठेंगे भी तो प्रेम से, बैठेंगे भी तो प्रेम से, भोजन करेंगे तो भी प्रेम से, सोने जाएंगे तो भी प्रेम से। कोई प्रेमी नहीं होगा, लेकिन आप प्रेमपूर्ण होंगे। फिर जो भी आपके मार्ग पर आ जाएगा, वही आपको प्रेमी जैसा मालूम पड़ेगा। एक पक्षी भी उड़ जाएगा आपके अपान से और आप प्रेमपूर्ण होंगे, तो पक्षी प्रेमी हो जाएगा। कोई भी न होगा, सूना आकाश होगा आपके आगन का और आपका हृदय प्रेमपूर्ण होगा, तो सूना आकाश भी व्यक्तित्व ले लेगा।

व्यक्ति की जरूरत नहीं है, हृदय प्रेमपूर्ण हो, तो प्रेमपूर्ण हृदय जिस तरफ भी प्रकाश डालता है, वहीं व्यक्तित्व निर्मित हो जाता है। भगवान नहीं है, भक्त है। और भक्त का हृदय जहां भी देखता है, वहीं भगवान प्रकट हो जाता है।

इसे थोड़ा समझने की जरूरत है।

यह भक्त के हृदय की सृजनकला है कि वह जहां भी आंख डालता है, वहा भगवान पैदा हो जाता है। वह वृक्ष में देखेगा, तो वृक्ष में भगवान प्रकट हो जाएगा। यह आपकी आंख पर निर्भर है कि आप क्या पैदा कर लेते हैं। भगवान भक्त का सृजन है।

धर्म तो नियम है। धर्म कोई व्यक्ति नहीं है, धर्म तो शक्ति है। इसलिए भगवान शब्द ठीक नहीं है, भगवत्ता! डीइटी नहीं, डिविनिटी! कोई व्यक्ति की तरह बैठा हुआ पुरुष नहीं है ऊपर, जो चला रहा हो। लेकिन यह सारा जगत चल रहा है। चलने की घटना घट रही है; कोई चलाने वाला नहीं है। यह जो चलने का विराट उपक्रम चल रहा है, यह जो चलने की महान ऊर्जा है, यह जो शक्ति है, यह शक्ति ही भगवान हो जाती है, अगर हृदय में भक्ति हो। यह शक्ति ही प्रकृति मालूम पड़ती है, अगर हृदय में भक्ति न हो।

प्रकृति और परमात्मा दो तरह के हृदय की व्याख्याएं हैं। जिसके हृदय में कोई भक्ति नहीं, उसे चारों तरफ प्रकृति दिखाई पड़ती है, पदार्थ दिखाई पड़ता है। जिसके हृदय में भक्ति है, उसे चारों तरफ परमात्मा दिखाई पड़ता है, परमेश्वर दिखाई पड़ता है। परमेश्वर और प्रकृति एक ही विराट घटना की व्याख्याएं हैं। और आपके हृदय पर निर्भर है कि व्याख्या आप कैसी करेंगे। आप वही देख लेंगे, जो आपके हृदय में आविर्भूत हुआ है।

प्रार्थना, पूजा, आराधना भगवान के कारण नहीं हैं। लेकिन प्रार्थना, पूजा, आराधना के कारण जगत भगवान जैसा दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। भगवान है और इसलिए हम प्रार्थना करते हैं, ऐसा नहीं। हम प्रार्थना करते हैं, इसलिए भगवान हो जाता है।

लोग कहते हैं, भगवान ने आपको बनाया, और मैं आपको कहता हूं कि आपकी भक्ति भगवान को सृजित करती है। जहां आपकी भक्ति होगी, वहां भगवान प्रकट हो जाता है। जहां से आपकी भक्ति विदा हो जाएगी, वहीं भगवान विदा हो जाएगा। भगवान आपकी आंखों के देखने का ढंग है।

धर्म तो नियम है। लेकिन उस नियम में उतरना, आपको अपने को बदलना पड़े, तभी हो सकता है।

प्रार्थना आपको बदलने के लिए है। आमतौर से हम प्रार्थना करते हैं परमात्मा को बदलने के लिए। आप बीमार हैं, तो आप प्रार्थना करते हैं कि मुझे ठीक करो। परमात्मा का इरादा बदलने की चेष्टा है हमारी प्रार्थना। अगर आप बीमार हैं और सच में ही भक्त हैं, तो आपको स्वीकार करना चाहिए कि परमात्मा चाहता है कि मैं बीमार होऊं, इसलिए मैं बीमार हूं।

परमात्मा का दृष्टिकोण बदलने की चेष्टा हम करते हैं कि मुझे स्वस्थ कर; कि मैं गरीब हूं? मुझे अमीर कर; कि मैं दुखी हूं मुझे सुखी कर, अपनी दृष्टि बदल। हम परमात्मा का ध्यान आकर्षित करते हैं कि बदलो, जो चल रहा है, वह ठीक नहीं; मैं उससे राजी नहीं हूं।

और हम उसकी खुशामद करते हैं। क्योंकि हमने जीवन में सीखा है कि मनुष्य को हम खुशामद से प्रभावित कर सकते हैं, इसलिए हम सोचते हैं, जिस ढंग से आदमी प्रभावित होता है, उसी ढंग से परमात्मा भी प्रभावित होगा। तो हम स्तुति करते हैं; हम उसका गुणगान करते हैं। हम कहते हैं, तुम बहुत महान हो। लेकिन हमारी इस सारी चेष्‍टा में छिपा क्या? मन की आकांक्षा क्या?

यही कि तुम जो कर रहे हो, वह ठीक नहीं। और हमारी इस स्तुति में एक तरह की धमकी है कि अगर तुम यह बंद नहीं करोगे, तो यह स्तुति बंद हो जाएगी, तो यह प्रार्थना समाप्त हो जाएगी; फिर तुम्हें कोई पूजने वाला नहीं है। अगर पूजा जारी रखवानी है, तो हमारी मरजी के अनुसार थोड़ा कुछ करो।

हमारी सारी प्रार्थनाएं मांगें हैं, हम कुछ मांगते हैं। और हमारी मौलिक मांग यह है कि हम ठीक हैं और तुम गलत हो।

एक बहुत बड़े विचारक अल्डुअस हक्सले ने लिखा है कि परमात्मा से हम जब भी प्रार्थना करते हैं, हम चाहते हैं कि दो और दो चार न हों।

हमारी सारी प्रार्थनाओं का रूप यही है कि दो और दो चार न हों। हमने पाप किए हैं, उसके कारण हम दुख भोगते हैं। वह दो और दो चार हो रहे हैं। हम चाहते हैं, दुख हमें न मिले। पाप हमने किए हैं, क्षमा तुम कर दो।

जो भी हम भोग रहे हैं, वह हमारे कृत्यों का जोड़ है। लेकिन उसमें तुम बदलाहट कर दो। दो और दो तो चार होते हैं, लेकिन हम चाहते हैं, या तो तुम पांच करो या तुम तीन करो, चार भर न हो पाएं। हमारी सारी प्रार्थनाएं गणित को डगमगाने के लिए हैं, नियम को तोड्ने के लिए हैं। अन्यथा प्रार्थना का हमारा क्या प्रयोजन है?

इस प्रार्थना की अगर आप धारणा रखते हैं, तब तो बिना परमात्मा के प्रार्थना व्यर्थ हो जाएगी। क्योंकि अगर वहां कोई है ही नहीं, सिंहासन खाली है, तो आप सिर पटकते रहो, बेकार है। आप तभी तक सिर पटक सकते हो, जब तक भरोसा रहे कि सिंहासन पर कोई है, तो शायद हमारे सिर पटकने से बदलेगा।

और हम अपने मन को समझा लेते हैं, अगर कभी बदलाहट हो जाती है। हमारी प्रार्थनाओं के कारण कोई बदलाहट नहीं होती, न कोई परमात्मा बदलाहट करने वाला है। लेकिन जीवन के अनंत संयोगों में कभी—कभी हमारी प्रार्थना संयोगों से मेल खाती है बदलाहट हो जाती है, तो हम उसे धन्यवाद देते हैं। अगर बदलाहट नहीं होती, तो हम नाराजगी जाहिर करते हैं।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम तो छोड़ने की स्थिति में आ गए थे, कि यह धर्म—वर्म सब व्यर्थ है। लेकिन प्रार्थना पूरी हो गई, तब से आस्था बढ़ गई। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम थक गए प्रार्थना कर—करके, कभी कोई फल न आया; आस्था उठ गई।

आस्था किसी की भी नहीं है। प्रार्थना पूरी हो जाए, तो आस्था जमती है। प्रार्थना न पूरी हो, तो आस्था उखड़ जाती है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन रोज सुबह प्रार्थना करता था काफी जोर से। परमात्मा सुनता था कि नहीं, पड़ोस के लोग सुन लेते थे कि सौ रुपए से कम न लूंगा; निन्यानबे भी देगा, नहीं लूंगा। जब भी दे, सौ पूरे देना।

आखिर पड़ोसी सुनते—सुनते परेशान हो गए। एक पड़ोसी ने तय किया कि इसको एक दफा निन्यानबे रुपए देकर देखें भी तो सही। वह कहता है कि निन्यानबे कभी न लूंगा, सौ ही लूंगा। उसने एक दिन सुबह जैसे ही मुल्ला प्रार्थना कर रहा था, एक निन्यानबे की थैली उसके झोपड़े के आगन में फेंक दी।

मुल्ला ने पहला काम रुपए गिनने का किया। वह आधी प्रार्थना आधी रह गई; वह पूरी नहीं कर पाया, नमाज पूरी नहीं हो सकी। उसने जल्दी से पहले गिनती की। निन्यानबे पाकर उसने कहा, वाह रे परमात्मा, एक रुपया थैली का तूने काट लिया!

उसने निन्यानबे स्वीकार कर लिए।

हमारी बनाई हुई प्रार्थना; हमारी प्रार्थना; और हम हिसाब लगा रहे हैं। वहां कोई है या नहीं, इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। इसलिए अगर आपको पक्का हो जाए कि परमात्मा नहीं है, तो आपकी प्रार्थना टूट’ जाएगी, यह मैं जानता हूं। इसलिए प्रश्न सार्थक है। लेकिन जो प्रार्थना परमात्मा के न होने से टूट जाती है, वह प्रार्थना थी ही नहीं। प्रार्थना का कोई भी संबंध परमात्मा को बदलने से नहीं है, प्रार्थना आपको बदलने की कीमिया है। जब आप प्रार्थना करते हैं, तो वहां आकाश में बैठा हुआ परमात्मा नहीं रूपांतरित होता। जब आप प्रार्थना करते हैं, तो उस प्रार्थना करने में आप बदलते हैं।

तो प्रार्थना एक प्रयोग है, जिस प्रयोग से आप अपने अहंकार को तोड़ते हैं, अपने को झुकाते हैं। वहां कोई नहीं बैठा है, जिसके आगे आप अपने को झुकाते हैं। झुकने की घटना का परिणाम है। आप झुकते हैं। आपको कठिन है बिना परमात्मा के, इसलिए कोई हर्जा नहीं। आप मानते रहें कि परमात्मा है, लेकिन असली जो घटना घटती है, वह आपके झुकने से घटती है।

आप झुकना सीखते हैं, किसी के सामने समर्पित होना सीखते हैं। कहीं आपका माथा झुकता है, जो सदा अकड़ा हुआ है, वह कहीं जाकर झुकता है। कहीं आप घुटने के बल छोटे बच्चे की तरह हो जाते हैं; कहीं आप रोने लगते हैं, आंखों से आंसू बहने लगते हैं, हलके हो जाते हैं। और मैं कर सकता हूं यह धारणा प्रार्थना से टूटती है। तू करेगा! तू करेगा सवाल नहीं है; मैं कर सकता हूं, यह धारणा टूटती है। मैं नहीं कर सकूंगा, तभी हम प्रार्थना करते हैं। मुझसे नहीं हो सकेगा।

अगर इसके गहरे अर्थ को समझें, तो इसका अर्थ है, जहां भी आपको समझ में आ जाता है कि कर्ता मैं नहीं हूं वहीं प्रार्थना शुरू हो जाती है। यह कर्तृत्व को खोने की तरकीब है। वह जो कर्तृत्व है कि मैं करता हूं, वह जो अहंकार है, वह जो मेरी अस्मिता है कि करने वाला मैं हूं उसके टूटने का नाम प्रार्थना है।

जब आप घुटने टेक देते हैं, सिर झुका देते हैं और कहते हैं, मुझसे कुछ भी न होगा, अब तू ही कर, मेरे बस के बाहर है। तू ही उठा; अब मुझसे नहीं चलना हो सकेगा, तू ही चला। यह उससे इसका कोई संबंध नहीं है, वहा कोई है भी नहीं, जो इसको सुन रहा है। लेकिन यह कहने वाला हृदय अपने अहंकार को विसर्जित कर रहा है। और जो आनंद इस प्रार्थना से घटित होगा, वह किसी का दिया हुआ नहीं है; वह आपके ही अहंकार छोड़ने से आपको मिलता है।

धर्म तो एक नियम है। जो झुकता है, उसकी समृद्धि बढती चली जाती है, जो अकड़ता है, उसकी समृद्धि टूटती चली जाती है। जो जितना अकड़ जाता है, उतना मुर्दा हो जाता है। जो जितना झुक जाता है, जितना लोचपूर्ण हो जाता है, फ्लेक्सिबल हो जाता है, उतना ही जीवंत हो जाता है।

बच्चे में और के में वही फर्क है। के की हड्डी—हड्डी अकड़ गई है। अब वह झुक नहीं सकता। बच्चा लोचपूर्ण है।

प्रार्थना आपको लोच देती है, फ्लेक्सिबिलिटी देती है, आपको झुकना सिखाती है। जो प्रार्थना नहीं करता, वह अकड़ जाता है, असमय में का हो जाता है, असमय में मृत हो जाता है, जीते जी मुर्दा हो जाता है। और जो प्रार्थना करना जानता है, उसे मृत्यु भी नहीं मिटा पाती। मृत्यु के क्षण में भी वह लोचपूर्ण होता है, मृत्यु के क्षण में भी वह बच्चे जैसा जीवंत होता है।

जो व्यक्ति प्रार्थना की कला सीख लेता है, उसे परमात्मा से कोई संबंध नहीं। परमात्मा सिर्फ बहाना है, ताकि प्रार्थना हो सके। परमात्मा सिर्फ खूंटी है, जिस पर हम प्रार्थना के कोट को टांग सकें। असली बात प्रार्थना है।

इसलिए बुद्ध और महावीर जैसे महाज्ञानियों ने परमात्मा को बिलकुल इनकार ही कर दिया। लेकिन प्रार्थना को इनकार नहीं कर सके, प्रार्थना जारी रही। पूजा को इनकार नहीं कर सके, पूजा जारी रही। समर्पण को इनकार नहीं कर सके, समर्पण जारी रहा। इसलिए जैन धर्म बहुत ज्यादा जनता तक नहीं पहुंच सका, क्योंकि यह बात ही समझ में नहीं आती। अगर भगवान ही नहीं है, तो फिर कैसी आराधना? जब परमात्मा नहीं है, तो पूजा किसकी?

तो जैन विचार बहुत थोड़े लोगों की पकड़ में आया, ज्यादा लोग उसके साथ नहीं चल सके। और जो थोड़े—से लोग भी प्रथम दिन चले थे, वे ही समझदार थे। पीछे तो उनकी संतान सिर्फ अंधेपन के कारण चलती है। क्योंकि उनके मां—बाप जैन थे, वे भी जैन हैं। लेकिन उनकी भी समझ में नहीं आता।

और इसलिए उन्होंने फिर नए उपाय कर लिए। बिना परमात्मा के तो पूजा हो नहीं सकती, तो फिर महावीर को ही परमात्मा की जगह बिठा दिया; फिर पूजा जारी हो गई! अब कोई फर्क नहीं है जैन और हिंदू में। हिंदू प्रार्थना कर रहा है, राम से, कृष्ण से। जैन प्रार्थना कर रहा है, महावीर से, ऋषभ से, नेमीनाथ से। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

लेकिन परमात्मा के बिना प्रार्थना करना बड़ा कठिन है; जो कर पाए, उसके जीवन में बड़े फूलों की वर्षा हो जाती है। लेकिन आप न कर पाते हों, तो परमात्मा से शुरू करें; कोई हर्जा नहीं है। परमात्मा सिर्फ खिलौना है, असली चीज प्रार्थना घट जाए। जिस दिन प्रार्थना घट जाएगी, उस दिन तो आप खुद समझ जाएंगे कि परमात्मा के होने न होने का सवाल नहीं है।

धर्म नियम है, इसलिए मैंने कहा। और जो भी घटता है जीवन में, वह एक आत्यंतिक नियम के कारण घटता है। आपकी प्रार्थनाओं के कारण कुछ भी नहीं घटता। आपकी पूजा के कारण कुछ भी नहीं घटता। ही, अगर पूजा आपकी, प्रार्थना आपकी आपको बदल देती हो, तो आप नियम के अनुकूल बहने लगते हैं। उस नियम के अनुकूल बहने से घटना घटती है।

हम जीवन में करीब—करीब उन्हीं—उन्हीं भूलों को बार—बार दोहराते हैं। पिछले जन्म में भी आपने वही भूलें कीं, उसके पिछले जन्म में भी वही भूलें कीं, आज भी वही कर रहे हैं। और डर यह है कि शायद कल और आने वाले जन्म में भी वही भूलें करेंगे। हर पीढ़ी उन्हीं को दोहराती है; हर आदमी उन्हीं को दोहराता है।

बड़ी से बड़ी भूल जो है, वह यह है कि हम अंतरस्थ भावों को भी बिना आब्जेक्टिफाइ किए, बिना उनको वस्तु में रूपांतरित किए स्वीकार नहीं कर पाते। भाव तो भीतरी है, लेकिन उस भाव को भी सम्हालने के लिए हमें बाहर के सहारे की जरूरत पड़ती है। यह बुनियादी भूलों में से एक है।

अगर आप प्रसन्न हैं और कोई आपसे पूछे कि आप क्यों प्रसन्न हैं, तो आप यह नहीं कह सकते कि मैं बस, प्रसन्न हूं। क्यों का क्या सवाल है? आप कारण बताएंगे कि मैं इसलिए प्रसन्न हूं कि आज मित्र घर आया। इसलिए प्रसन्न हूं कि धन मिला। इसलिए प्रसन्न हूं कि लाटरी जीत गया। आप कोई कारण बताएंगे। आप इतनी हिम्मत नहीं कर सकते कि कह सकें कि मैं प्रसन्न हूं क्योंकि प्रसन्न होने में प्रसन्नता है।

और मूढ़ हैं, जो कारण खोजते हैं। क्योंकि कारण खोजने वाला बहुत ज्यादा प्रसन्न नहीं हो सकता। कितने कारण खोजिएगा? रोज कारण नहीं मिल सकते। और आज कारण मिल जाएगा, घड़ीभर बाद कारण चुक जाएगा। लाटरी मिल गई, एक धक्का लगा, खुशी आ गई। फिर? मित्र आज घर आ गया, कल कोई और घटना घट गई, अगर जिंदगी में कारण से प्रसन्नता आती हो, तो बहुत थोड़ी प्रसन्नता आएगी।

इसीलिए लोगों के जीवन में सुख बहुत कम है, दुख बहुत ज्यादा है। क्योंकि कारण से जब सुख मिलेगा, तब सुख; अन्यथा दुख ही दुख है। दुख अकारण हमने स्वीकार किया है, सुख के लिए हम कारण खोजते हैं।

और अगर आप प्रसन्न हैं बिना कारण के, तो लोग समझेंगे, आप पागल हैं। बिना कारण के प्रसन्न हैं! कोई कारण तो चाहिए। अगर आप प्रसन्न हो रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं, नाच रहे हैं, बिना किसी कारण के, न लाटरी मिली, न पत्नी मायके गई, कोई खुशी का कारण नहीं है, और आप प्रसन्न हो रहे हैं, तो लोग समझेंगे कि आप पागल हैं।

ये जो, जिनको हमने संत कहा है, उनके जीवन का रहस्य यही है कि उन्होंने बिना कारण प्रसन्न होने का रास्ता खोज लिया। संत और संसारी में यही भेद है। संसारी कारण खोजता है पहले। पहले सब प्रमाण मिल जाएं, तब वह प्रसन्न होगा। संत प्रसन्न होता है, प्रमाण का कोई आधार नहीं खोजता। क्या फर्क हुआ?

संत अंतरस्थ भाव में जीता है। बाहर आब्जेक्टिफिकेशन नहीं खोजता, बाहर वस्तु रूप में प्रमाण नहीं चाहता। तो संत कहता है, प्रार्थना काफी है, परमात्मा हो या न हो। हो तो ठीक, न हो तो भी उतना ही ठीक। इससे संत की प्रार्थना में कोई फर्क नहीं पड़ता। संत प्रेम करता है, प्रेमी की तलाश नहीं करता। प्रेम में ही इतना आनंद है कि अब प्रेमी का उपद्रव लेने की कोई जरूरत नहीं है। संत ध्यान करता है, लेकिन ध्यान के लिए कोई विषय नहीं खोजता। विषय से मुक्ति हो, वस्तु से मुक्ति हो, पदार्थ से मुक्ति हो और अंतर्भाव में रमण हो, तो जीवन की परम समाधि अपने आप सध जाती है।

लेकिन हमें सब जगह बाहर कुछ चाहिए। अगर बाहर हमें कुछ न मिले, तो हम बिलकुल खाली हो जाते हैं। क्योंकि भीतर हमने कभी फिक्र नहीं की। और हमने भीतर की जड़ें नहीं खोजी, जिनसे सारे जीवन के फूल खिल सकते हैं, बाहर की कोई भी जरूरत नहीं है। जब तक ऐसा समझ में न आए, तब तक बाहर का सहारा लेकर चलें। लेकिन ध्यान रखें कि वह सहारा सिर्फ सहारा है, वहां कोई है नहीं। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका क्या यह अर्थ हुआ कि मैं कह रहा हूं परमात्मा नहीं है?

नहीं, मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं जिस परमात्मा को आप सोचते हैं, वह नहीं है। जो परमात्मा आप निर्मित किए हैं, वह नहीं है। परमात्मा का तो एक ही अर्थ है, यह समग्र अस्तित्व, यह टोटेलिटी, यह जो पूर्णता है। ये जो वृक्ष हैं, पौधे हैं, पत्थर हैं, जमीन है, चांद—तारे हैं, मनुष्य हैं, पशु—पक्षी हैं, यह जो सारा फैलाव है, यह जो ब्रह्म है, यह जो विस्तार है, यह सब कुछ परमात्मा है। और जिस दिन आपको अपने में झुकने की कला आ जाएगी, आपका मस्तक झुक सकेगा, लोचपूर्ण होगा, हृदय आनंदित, प्रफुल्लित होगा, प्रार्थना के स्वर वहा गूंजते होंगे, पैरों में धुन होगी आराधना की, भक्त का भाव होगा, तब आप पाएंगे कि यह सब परमात्मा है। उस दिन आप देखेंगे, जीवन नियम से चल रहा है। और धर्म भी विज्ञान है। वस्तुत: धर्म परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है।

इस प्रश्न का दूसरा हिस्सा भी समझने जैसा है तब तो धर्म विज्ञान का पर्याय हो जाता है और उस परम नियम की खोज में निकलना मात्र धर्म रह जाता है।

निश्चित ही, उस परम नियम की खोज में निकलना ही धर्म है। लेकिन वह परम नियम अगर बाहर आप खोजते हैं, तो आप वैज्ञानिक हो जाते हैं। और अगर उस परम नियम को आप भीतर खोजते हैं, तो धार्मिक हो जाते हैं।

वैज्ञानिक भी धर्म ही खोज रहा है, लेकिन पदार्थ में खोज रहा है, बाहर खोज रहा है। और अगर आप भी धर्म को मंदिर में खोजते हैं, मस्जिद में खोजते हैं, तो आप भी बाहर खोज रहे हैं। आप में और वैज्ञानिक में बहुत फर्क नहीं है।

धार्मिक उसी नियम को भीतर खोजता है। क्योंकि धार्मिक व्यक्ति की यह प्रतीति है, जिसे मैं भीतर न पा सकूंगा, उसे मैं बाहर कैसे पा सकूंगा। क्योंकि भीतर मेरा निकटतम है, जब भीतर ही मेरे हाथ नहीं पहुंच पाते, तो बाहर मेरे हाथ कहां पहुंच पाएंगे? हाथ बड़े छोटे हैं।

अपने ही भीतर नहीं छू पाता उसे, तो फिर मैं आकाश में उसे कैसे छू पाऊंगा? और जो मेरे हृदय के भी पास है, और जो मेरे प्राणों से भी निकट है, जो मेरी धड़कन— धड़कन में समाया है, वहां नहीं सुन पाता उसे, तो बादलों की गड़गड़ाहट में कैसे सुन पाऊंगा? बहुत दूर हैं बादल। और जो ज्योति मेरे भीतर जल रही है, वहां उससे मेरा मिलन नहीं होता, तो सूरज, चांद, तारों की ज्योति में मैं उसे नहीं पहचान पाऊंगा।

जब सत्य इतना निकट हो और हम उसे वहां चूक जाते हों, तो हमारी दूर की सब यात्रा व्यर्थ है। भीतर मुझे वह दिखाई पड़ जाए, तो सब जगह मैं उसे पहचान लूंगा। निकट पहचान हो जाए तो दूर भी वह मुझे दिखाई पडने लगेगा। क्योंकि जिसे हम दूरी कहते हैं, वह भी निकटता का ही फैलाव है। पर पहली घटना, पहली क्रांति भीतर घटेगी।

वैज्ञानिक दृष्टि का मतलब है, सदा बाहर। धार्मिक दृष्टि का अर्थ है, सदा भीतर।

वैज्ञानिक दूर से शुरू करता है और निकट आने की कोशिश करता है। यह कभी भी नहीं हो पाएगा, क्योंकि वह दूरी अनंत है; जीवन बहुत छोटा है। अनेक— अनेक जन्म खोते जाएंगे, तो भी वह दूरी बनी रहेगी।

धार्मिक उसे भीतर से शुरू करता है और फिर बाहर की तरफ जाता है। और भीतर जिसने उसे छू लिया, वह तरंग पर सवार हो गया, उसने लहर पकड़ ली; उसके हाथ में नाव आ गई। अब कोई जल्दी भी नहीं है। वह दूसरा किनारा न भी मिले, तो भी कुछ खोता नहीं है। वह दूसरा किनारा कभी भी मिल जाएगा, अनंत में कभी भी मिल जाएगा, तो भी कोई प्रयोजन नहीं है। कोई डर भी नहीं है उसके खोने का। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। लेकिन आप ठीक नाव पर सवार हो गए।

जिसने अंतस में पहचान लिया, उसकी यात्रा कभी भी मंजिल पर पहुंचे या न पहुंचे, मंजिल पर पहुंच गई। वह बीच नदी में डूबकर मर जाए, तो भी कोई चिंता की बात नहीं है। अब उसके मिटने का कोई उपाय नहीं है। अब नदी का मध्य भी उसके लिए किनारा है।

धार्मिक व्यक्ति भीतर से बाहर की तरफ फैलता है। और जीवन का सभी विस्तार भीतर से बाहर की तरफ है। आप एक पत्थर फेंकते हैं पानी में; छोटी—सी लहर उठती है पत्थर के किनारे, फिर फैलना शुरू होती है। भीतर से उठी लहर पत्थर के पास, फिर दूर की तरफ जाती है। आपने कभी इससे उलटा देखा कि लहर किनारों की तरफ पैदा होती हो और फिर सिकुड़कर भीतर की तरफ आती हो!

एक बीज को आप बो देते हैं। फिर वह फैलना शुरू हो जाता है, फिर वह फैलता जाता है, फिर एक विराट वृक्ष पैदा होता है। और उस विराट वृक्ष में एक बीज की जगह करोड़ों बीज लगते हैं। फिर वे बीज भी गिरते हैं। फिर फूटते हैं, फिर फैलते हैं।

हमेशा जीवन की गति बाहर से भीतर की तरफ नहीं है। जीवन की गति भीतर से बाहर की तरफ है। यहां बूंद सागर बनती देखी जाती है, यहां बीज वृक्ष बनते देखा जाता है। धर्म इस सूत्र को पहचानता है। और आपके भीतर जहां लहर उठ रही है हृदय की, वहीं से पहचानने की जरूरत है। और वहीं से जो पहचानेगा, वही पहचान पाएगा।

लेकिन जैसा मैंने कहा कि हम नियमित रूप से बंधी—बधाई भूलें दोहराते हैं। आदमी बड़ा अमौलिक है। हम भूल तक ओरिजिनल नहीं करते, वह भी हम पुरानी पिटी—पिटाई करते हैं।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उस पर नाराज थी। बात ज्यादा बढ़ गई और पत्नी ने चाबियों का गुच्छा फेंका और कहा कि मैं जाती हूं। अब बहुत हो गया और सहने के बाहर है। मैं अपनी मां के घर जाती हूं और कभी लौटकर न आऊंगी।

नसरुद्दीन ने गौर से पत्नी को देखा और कहा कि अब जा ही रही हो, तो एक खुशखबरी सुनती जाओ। कल ही तुम्हारी मां तुम्हारे पिता से लड़कर अपनी मां के घर चली गई है। और जहां तक मैं समझता हूं वहां वह अपनी मां को शायद ही पाए।

एक वर्तुल है भूलों का। वह एक—सा चलता जाता है। एक बंधी हुई लकीर है, जिसमें हम घूमते चले जाते हैं। हर पीढ़ी वही भूल करती है, हर आदमी वही भूल करता है, हर जन्म में वही भूल करता है। भूलें बड़ी सीमित हैं।

धर्म की खोज की दृष्टि से यह बुनियादी भूल है कि हम बाहर से भीतर की तरफ चलना शुरू करते हैं। क्योंकि यह जीवन के विपरीत प्रवाह है, इसमें सफलता कभी भी मिल नहीं सकती। सफलता उसी को मिल सकती है, जो जीवन के ठीक प्रवाह को समझता है और भीतर से बाहर की तरफ जाता है।

दूसरा प्रश्न :

 

आप कहते हैं कि सभी द्वैत से ऊपर उठकर परम मुक्ति को उपलब्ध होने के लिए समस्त जीवेषणा की निर्जरा अनिवार्य है। आज के समय के अनुकूल मृत्यु—साधना की कोई सम्यक विधि बताएं?

जीवेषणा, लस्ट फार लाइफ का अर्थ ठीक से समझ लें। हम जीना चाहते हैं। लेकिन यह जीने की आकांक्षा बिलकुल अंधी है। कोई आपसे पूछे, क्यों जीना चाहते हैं, तो उत्तर नहीं है। और इस अंधी दौड़ में हम पौधे, पक्षियों, पशुओं से भिन्न नहीं हैं। पौधे भी जीना चाहते हैं, पौधे भी जीवन

की तलाश करते हैं।

मेरे गांव में मेरे मकान से कोई चार सौ कदम की दूरी पर एक वृक्ष है। चार सौ कदम काफी फासला है। और मकान में जो नल का पाइप आता है, वह अचानक एक दिन फूट पड़ा, तो जमीन खोदकर पाइप की खोजबीन करनी पड़ी कि क्या हुआ! चार सौ कदम दूर जो वृक्ष है, उसकी जड़ें उस पाइप की तलाश करती हुई पाइप के अंदर घुस गई थीं, पानी की खोज में।

वैज्ञानिक कहते हैं कि वृक्ष बड़े हिसाब से अपनी जडें पहुंचाते हैं—कहां पानी होगा? चार सौ कदम काफी फासला है और वह भी लोहे के पाइप के अंदर पानी बह रहा है। लेकिन वृक्ष को कुछ पकड़ है। उसने उतने दूर से अपनी जड़ें पहुंचाईं। और ठीक उन जड़ों ने आकर अपना काम पूरा कर लिया, कसते—कसते उन्होंने पाइप को तोड़ दिया लोहे के। वे अंदर प्रवेश कर गईं और वहां से पानी पी रही थीं; वर्षों से वे उपयोग कर रही होंगी।

वृक्ष को भी पता नहीं कि वह क्यों जीना चाहता है। अफ्रीका के जंगल में वृक्ष काफी ऊंचे जाते हैं। उन्हीं वृक्षों को आप यहां लगाएं, उतने ऊंचे नहीं जाते। ऊंचे जाने की यहां कोई जरूरत नहीं है। अफ्रीका में जंगल इतने घने हैं कि वैज्ञानिक कहते हैं, जिस वृक्ष को बचना हो, उसको ऊंचाई बढ़ानी पड़ती है। क्योंकि वह ऊंचा हो जाए, तो ही सूरज की रोशनी मिलेगी। अगर वह नीचा रह गया, तो मर जाएगा।

वही वृक्ष अफ्रीका में ऊंचाई लेगा तीन सौ फीट की। वही वृक्ष भारत में सौ फीट पर रुक जाएगा। जीवेषणा में यहां संघर्ष उतना नहीं है।

वैज्ञानिक कहते हैं, जेब्रा है, ऊंट है, उनकी जो गर्दनें इतनी लंबी हो गई हैं, वह रेगिस्तानों के कारण हो गई हैं। जितनी ऊंची गर्दन होगी, उतना ही जानवर जी सकता है, क्योंकि इतने ऊपर वृक्ष की पत्‍तियों को वह तोड़ सकता। सुरक्षा है जीवन में, तो गर्दन बड़ी होती चली गई है।

चारों तरफ जीवन का बचाव चल रहा है। छोटी—सी चींटी भी अपने को बचाने में, खुद को बचाने में लगी है। बड़े से बड़ा हाथी भी अपने को बचाने में लगा है। हम भी उसी दौड़ में हैं।

और सवाल यह है—और यहीं मनुष्य और पशुओं का फर्क शुरू होता है कि हमारे मन में सवाल उठता है—कि हम जीना क्यों चाहते हैं? आखिर जीवन से मिल क्या रहा है जिसके लिए आप जीना चाहते हैं?

जैसे ही पूछेंगे कि मिल क्या रहा है, तो हाथ खाली मालूम पड़ते हैं। मिल कुछ भी नहीं रहा है। इसलिए कोई भी विचारशील व्यक्ति उदास हो जाता है, मिल कुछ भी नहीं रहा है।

रोज सुबह उठ आते हैं, रोज काम कर लेते हैं; खा लेते हैं; पी लेते हैं; सो जाते हैं। फिर सुबह हो जाती है। ऐसे पचास वर्ष बीते, और पचास वर्ष बीत जाएंगे। अगर सौ वर्ष का भी जीवन हो, तो बस यही कम दौड़ता रहेगा। और अभी तक कुछ नहीं मिला, कल क्या मिल जाएगा?

और मिलने जैसा कुछ लगता भी नहीं है। मिलेगा भी क्या, इसकी कोई आशा भी बांधनी मुश्किल है। धन मिल जाए, तो क्या मिलेगा? पद मिल जाए, तो क्या मिलेगा? जीवन रिक्त ही रहेगा। जीवेषणा अंधी है, पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है। और इसलिए जीवेषणा से उठने का जो पहला प्रयोग है, वह आंखों के खोलने का प्रयोग है कि मैं अपने जीवन को देखूं कि मिल क्या रहा है! और अगर कुछ भी नहीं मिल रहा है, यह प्रतीति साफ हो जाए, तो जीवेषणा क्षीण होने लगेगी।

मैं जीना इसलिए चाहता हूं कि कुछ मिलने की आशा है। अगर यह स्पष्ट हो जाए कि कुछ मिलने वाला नहीं है, कुछ मिल नहीं रहा है, तो जीने की आकांक्षा से छुटकारा हो जाएगा, उसकी निर्जरा हो जाएगी।

‘पहली बात, आंख खोलकर देखना जरूरी है, सजग होना जरूरी है कि जीवन क्या दे रहा है!

फिर दूसरी बात, देखना जरूरी है कि मिल तो कुछ भी नहीं रहा और जीवन रोज मौत में उतरता जा रहा है। और आज नहीं कल मैं मरूंगा।

हालांकि कोई इसको सुनने के लिए राजी नहीं होता। हम सब यही सोचते हैं कि सदा दूसरे ही मरते हैं, मैं तो कभी मरता ही नहीं। !, जब भी कोई मरता है, और कोई मरता है, मैं तो कभी मरता नहीं। इसलिए भांति बनी रहती है कि मैं नहीं मरूंगा।

चीन का एक बहुत बड़ा कथाकार हुआ, स्लम। उसने एक छोटी—सी कहानी लिखी है। उसमें लिखा है कि एक युवक एक ज्योतिषी के पास ज्योतिष सीखता था। उसने अपने गुरु से एक दिन पूछा कि अगर मैं लोगों को सत्य—सत्य कह देता हूं उनकी हाथ की रेखाएं पढ़कर, तो पिटाई की नौबत आ जाती है। झूठ मैं कहना नहीं चाहता। झूठ कहता हूं तो लोग बड़े प्रसन्न होते हैं।

एक घर में बच्चे का जन्म हुआ। लोगों ने मुझे बुलाया। तो मैंने देखकर उनको बताया, झूठ बोला, कि महायशस्वी होगा। सभी मां—बाप को भरोसा होता है; सभी बच्चे प्रतिभाशाली की तरह पैदा होते हैं। सभी मां—बाप को भरोसा होता है कि इसका तो कोई मुकाबला नहीं।

महायशस्वी होगा, बड़ा प्रतिभाशाली है। धन्यभाग हैं तुम्हारे। वे लोग बड़े खुश हुए, उन्होंने काफी भेंट दी, शाल ओढ़ाई, भोजन कराया, सेवा की।

मगर मैं झूठ बोला था, तो उससे मेरे मन में चोट पड़ती रही। दूसरे घर में बच्चा पैदा हुआ, तो मैंने सत्य ही कह दिया कि बाकी तो और कुछ पक्का नहीं है, लेकिन यह एक दिन मरेगा, इतना भर पक्का है। तो मेरी वहां पिटाई हुई। लोगों ने मुझे मारा और कहा कि तुम ज्योतिष तो दूर, तुम्हें शिष्टाचार का भी पता नहीं!

तो उसने अपने गुरु से पूछा कि आप मुझे कुछ रास्ता बताएं। झूठ भी मुझे न बोलना पड़े और पिटाई की नौबत भी न आए। क्योंकि अब यह धंधा मैंने स्वीकार कर लिया है ज्योतिष का।

तो उसके गुरु ने कहा, अगर ऐसा अवसर आ जाए तो मैं तुम्हें अपना सार बता देता हूं जीवनभर का, जो मैं करता हूं। अगर झूठ भी न बोलना हो और पिटना भी न हो, तो तुम कहना, वाह—वाह, क्या बच्चा है! ही—ही—ही। तुम कुछ वक्तव्य मत देना, तो तुम झूठ बोलने से भी बचोगे और पिटाई भी नहीं होगी।

सभी होशियार ज्योतिषी आपको देखकर यही करते हैं।

जीवेषणा की तरफ अगर थोड़ी—सी भी ध्यान की प्रक्रिया लौटे, थोड़ा—सा आपका होश बढ़े, तो दूसरा सवाल साफ ही हो जाएगा कि यह जीवन कहीं नहीं ले जा रहा है सिवाय मौत के। यह कहीं नहीं जा रहा है सिवाय मौत के। जैसे सभी नदियां सागर में जा रही हैं, सभी जीवन मौत में जा रहे हैं।

तब दूसरा बोध स्पष्ट होना चाहिए कि जो जीवन मौत में ले जाता है, जो अनिवार्यरूपेण मौत में ले जाता है, अपरिहार्य जिसमें मृत्यु है, मृत्यु से बचने का जिसमें कोई उपाय नहीं, वह आकांक्षा के योग्य नहीं है, वह एषणा के योग्य नहीं है, वह कामना के योग्य नहीं है।

ये दो बातें अगर गहन होने लगें आपके भीतर, इनकी सघनता बढ़ने लगे, तो जीवेषणा की निर्जरा हो जाती है। और जिस दिन व्यक्ति जीने की आकांक्षा से मुक्त होता है, उसी दिन जीवन का द्वार खुलता है। क्योंकि जब तक हम जीवन की इच्छा से भरे रहते हैं, तब तक हम इस बुरी तरह उलझे रहते हैं जीवन में कि जीवन का द्वार हमारे लिए बंद ही रह जाता है, खुल नहीं पाता।

हम इतने व्यस्त होते हैं जीवित होने में, जीवित बने रहने में, कि जीवन क्या है, उससे परिचित होने का हमें न समय होता है, न सुविधा होती है। उस मंदिर के द्वार अटके ही रह जाते हैं, बंद ही रह जाते हैं।

जिन्होंने जीवेषणा छोड़ दी, उन्होंने जीवन का राज जाना। वे ही परम बुद्धत्व को प्राप्त हुए। और जिन्होंने जीवेषणा छोड़ दी, उन्होंने अमृत को पकड़ लिया, अमृत को पा लिया। जिन्होंने जीवेषणा पकड़ी, वे मौत पर पहुंचे।

इतना तो तय है कि जो जीवेषणा से चलता है, वह मृत्यु पर पहुंचता है। इससे उलटा भी सच है—लेकिन वह कभी आपका अनुभव बने तभी—कि जो जीवेषणा छोड़ता है, वह अमृत पर पहुंचता है। इसको हम निरपवाद नियम कह सकते हैं। अब तक इस जगत में जितने लोगों ने जीवेषणा की तरफ से दौड़ की, वे मृत्यु पर पहुंचते हैं। कुछ थोड़े—से लोग जीवेषणा को छोड्कर चले, वे अमृत पर पहुंचे हैं।

उपनिषद, गीता, कुरान, बाइबिल, धम्मपद, वे उन्हीं व्यक्तियों की घोषणाएं हैं जिन्होंने जीवेषणा छोड्कर अमृत को उपलब्ध किया है।

मृत्यु के पार जाना हो, तो जीवन की इच्छा को छोड़ देना जरूरी है। यह बड़ा उलटा लगेगा। जीवन बड़ा जटिल है। जीवन निश्चित ही काफी जटिल है और विरोधाभासी है, पैराडाक्सिकल है।

इसका मतलब यह हुआ कि जो जीवन को पकड़ता है, वह मृत्यु को पाता है। इसका यह अर्थ हुआ कि जो जीवन को छोड़ता है, वह महाजीवन को पाता है। यह बिलकुल विरोधाभासी लगता है, लेकिन ऐसा है। यह विरोधाभास ही जीवन का गहनतम स्वरूप है।

आप करके देखें। धन को पकड़े और आप दरिद्र रह जाएंगे। कितना ही धन हो, दखि रह जाएंगे। धन को छोड्कर देखें। और आप भिखमंगे भी हो जाएं, तो भी सम्राट आपके सामने फीके होंगे। आप शरीर को जोर से पकड़े। और शरीर से सिर्फ दुख के आप कुछ भी न पाएंगे। और शरीर से आप तादाक्य तोड़ दें, शरीर को पकड़ना छोड़ दें। और आप अचानक पाएंगे कि शरीर को पकड़ने की वजह से आप सीमा में बंधे थे, अब असीम हो गए।

यहां जो छीनने चलता है, उसका छिन जाता है। यहां जो देने चल पड़ता है, उससे छीनने का कोई उपाय नहीं। यह जो विरोधाभास है, यह जो जीवन का पैराडाक्स है, यह जो पहेली है, इसको हल करने की व्यवस्था ही साधना है।

दो काम करें। जीवन ने क्या दिया है, इसकी परख रखें। क्या मिला है जीवन से, क्या मिल सकता है, इसका हिसाब रखें। पाएंगे कि सब हाथ खाली हैं। आशा भी टूट जाएगी कि कल भी कुछ मिल सकता है। क्योंकि जो अतीत में नहीं हुआ, वह भविष्य में भी नहीं होगा। जो कभी नहीं हुआ, वह आगे भी कभी नहीं होगा। और फिर देखें कि सब जीवन मृत्यु के सागर में उंडलते चले जाते हैं। कोई आज, कोई कल। हम सब क्यू में खड़े हैं। आज नहीं कल, बारी आ जाती है और मृत्यु में उतर जाते हैं।

तो यह सारा जीवन मृत्यु में पूरा होता है, निश्चित ही यह मृत्यु का ही छिपा हुआ रूप है। क्योंकि अंत में वही प्रकट होता है, जो प्रथम से ही छिपा रहा हो। तो जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मौत है। और जीवेषणा को छोड़ेंगे, तो ही यह मौत छूटेगी। तब हमें उस जीवन का अनुभव होना शुरू होगा, जिसका मिटना कभी भी नहीं होता है।

उस जीवन को ही परमात्मा कहें, उस जीवन को मोक्ष कहें, उस जीवन को आत्मा कहें, उस जीवन को जो भी नाम देना हो, वह हम दे सकते हैं।

अब हम सूत्र को लें।

और हे अर्जुन, काम, क्रोध तथा लोभ, ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात अधोगति में ले जाने वाले हैं, इससे इन तीनों को त्याग देना चाहिए।

क्योंकि हे अर्जुन, इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हुआ पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता है अर्थात मेरे को प्राप्त होता है।

और जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम गति को तथा न सुख को ही प्राप्त होता है।

इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र—विधि से नियत किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है।

एक—एक शब्द को समझने की कोशिश करें। तीन शब्दों को कृष्ण नरक का द्वार कह रहे हैं : काम, क्रोध और लोभ। जिसको मैंने जीवेषणा कहा, वह इन तीन हिस्सों में टूट जाती है।

जीवेषणा का मूल भाव काम है, यौन है, कामवासना है। वैज्ञानिक, जीवशास्त्री कहते हैं कि आदमी में दो वासनाएं प्रबलतम हैं, एक भूख और दूसरा यौन।

भूख इसलिए प्रबलतम है कि अगर भूख का होश आपको न हो, तो आप मर जाएंगे, जी न सकेंगे। एक बच्चा पैदा हो और उसे भूख का पता न चलता हो, तो वह जी नहीं सकेगा। भूख उसके शरीर को बचाने के लिए एकदम जरूरी है। भूख इस बात की खबर है कि शरीर आपसे कहता है, अब मैं बच नहीं सकूंगा, शीघ्र मुझे कुछ दो, मेरी शक्ति खोती है।

तो भूख बचाती है स्वयं के शरीर को। लेकिन अगर भूख ही अकेली हो, तो भी आप कभी के खो गए होते, आप पैदा ही न होते। क्योंकि भूख आपको बचा लेगी, लेकिन आपके बच्चों को नहीं बचा सकेगी। और बच्चों को पैदा करने का कोई भाव नहीं पैदा होगा। भूख में वह कोई शक्ति नहीं है। इसलिए एक दूसरी भूख है, वह है यौन।

पेट की भूख से आप बचते हैं, यौन की भूख से समाज बचता है। ये दो भूखे हैं। और जैसे ही व्यक्ति का पेट भर जाता है, दूसरा जो खयाल आता है, वह सेक्स का है। भूखे आदमी को खयाल चाहे न आए। क्योंकि भूखा आदमी पहले अपने को बचाए, तब समाज को बचाने का सवाल उठता है, तब संतति को बचाने को सवाल उठता है। खुद ही न बचे, तो संतति कैसे बचेगी?

इसलिए धार्मिक लोगों ने सोचा कि उपवास करने से कामवासना से मुक्ति हो जाएगी। वह तरकीब सीधी है, बायोलाजिकल है। क्योंकि जब आदमी भूखा हो, तो वह खुद को बचाने की सोचेगा। भूखे आदमी को कामवासना पैदा नहीं होती। इसलिए अगर आप लंबा उपवास करें, तो कामवासना मर जाती है।

मरती नहीं, सिर्फ छिप जाती है। जब फिर पेट भरेगा, तब फिर कामवासना वापस आ जाएगी। इसलिए वह तरकीब धोखे की है, उससे कुछ हल नहीं होता। जैसे ही समाज समृद्ध होता है, वैसे ही कामवासना तीव्र हो जाती है।

लोग सोचते हैं, अमेरिका में बहुत सेक्यूअलिटी है। ऐसा कुछ भी नहीं है। अमेरिका का पेट भरा है, आपका पेट खाली है। जहां भी पेट भर जाएगा, वहां भूख का तो सवाल खत्म हो गया। इसलिए पूरे जीवन की ऊर्जा सिर्फ सेक्स में दौड़ने लगती है। आपकी दो में दौड़ती है, भूख में और सेक्स में। फिर अगर पेट बिलकुल ही भूखा हो, तो सेक्स में दौड़ना बंद हो जाती है, फिर भूख में ही दौड़ती है, क्योंकि भूख पहली जरूरत है। आप बचें, तो फिर आपके बच्चे बच सकते हैं। जैसे ही पेट भरा कि जो दूसरा खयाल उठता है, वह कामवासना का है।

जीवेषणा दो पहलुओं से चलती है, व्यक्ति बचे और संतति बचे। इसलिए कामवासना बहुत गहरे में पड़ी है। और उससे छुटकारा इतना आसान नहीं, जितना साधु—संत समझते हैं। उससे छुटकारा बड़ी आंतरिक वैज्ञानिक प्रक्रिया के द्वारा होता है, बच्चों का खेल नहीं है। नियम और व्रत लेने से कुछ हल नहीं होता, कसमें खाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक कि जीवन का रोआं—रोआं रूपांतरित न हो जाए, जब तक बोध इतना प्रगाढ़ न हो कि आप शरीर से अपने को बिलकुल अलग देखने में समर्थ न हो जाएं, तब तक कामवासना पकड़ती ही रहती है।

यह जो कामवासना है, अगर आप इसके साथ चलें, इसके पीछे दौड़े, तो जो एक नई वृत्ति पैदा होती है, उसका नाम लोभ है। लोभ कामवासना के फैलाव का नाम है। एक स्त्री से हल नहीं होता, हजार स्त्रिया चाहिए! तो भी हल नहीं होगा।

सार्त्र ने अपने एक उपन्यास में उसके एक पात्र से कहलवाया है कि जब तक इस जमीन की सारी स्त्रियां मुझे न मिल जाएं, तब तक मेरी कोई तृप्ति नहीं।

आप भोग न सकेंगे सारी स्त्रियों को, वह सवाल नहीं है; लेकिन मन की कामना इतनी विक्षिप्त है।

जब तक सारे जगत का धन न मिल जाए, तब तक तृप्ति नहीं है। धन की भी खोज आदमी इसीलिए करता है। क्योंकि धन से कामवासना खरीदी जा सकती है; धन से सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं, सुविधाएं कामवासना में सहयोगी हो जाती हैं।

लोभ कामवासना का फैलाव है। इसलिए लोभी व्यक्ति कामवासना से कभी मुक्त नहीं होता। यह भी हो सकता है कि वह लोभ में इतना पड़ गया हो कि कामवासना तक का त्याग कर दे। एक आदमी धन के पीछे पड़ा हो, तो हो सकता है कि वर्षों तक स्त्रियों की उसे याद भी न आए। लेकिन गहरे में वह धन इसीलिए खोज रहा है कि जब धन उसके पास होगा, तब स्त्रियों को तो आवाज देकर बुलाया जा सकता है। उसमें कुछ अड़चन नहीं।

यह भी हो सकता है कि जीवनभर उसको ख्याल ही न आए वह धन की दौड़ में लगा रहे। लेकिन धन की दौड़ में गहरे में कामवासना है।

सब लोभ काम का विस्तार है। इस काम के विस्तार में, इस लोभ में जो भी बाधा देता है, उस पर क्रोध आता है। कामवासना है फैलता लोभ, और जब उसमें कोई रुकावट डालता है, तो क्रोध आता है।

काम, लोभ, क्रोध एक ही नदी की धाराएं हैं। जब भी आप जो चाहते हैं, उसमें कोई रुकावट डाल देता है, तभी आप में आग जल उठती है, आप क्रोधित हो जाते हैं। जो भी सहयोग देता है, उस पर आपको बड़ा स्नेह आता है, बड़ा प्रेम आता है। जो भी बाधा डालता है, उस पर क्रोध आता है। मित्र आप उनको कहते हैं, जो आपकी वासनाओं में सहयोगी हैं। शत्रु आप उनको कहते हैं, जो आपकी वासनाओं में बाधा हैं।

लोभ और क्रोध से तभी छुटकारा होगा, जब काम से छुटकारा हो। और जो व्यक्ति सोचता हो कि हम लोभ और क्रोध छोड़ दें काम को बिना छोड़े, वह जीवन के गणित से अपरिचित है। यह कभी भी होने वाला नहीं है।

इसलिए समस्त धर्मों की खोज का एक जो मौलिक बिंदु है, वह यह है कि कैसे अकाम पैदा हो। उस अकाम को हमने ब्रह्मचर्य कहा है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, कैसे मेरे जीवन के भीतर वह जो दौड़ है एक विक्षिप्त और जीवन को पैदा करने की, उससे कैसे छुटकारा हो। कृष्ण कहते हैं, ये तीन नरक के द्वार हैं।

हमें तो ये तीन ही जीवन मालूम पड़ते हैं। तो जिसे हम जीवन कहते हैं, कृष्ण उसे नरक का द्वार कह रहे हैं।

आप इन तीन को हटा दें, आपको लगेगा फिर जीवन में कुछ बचता ही नहीं। काम हटा दें, तो जड़ कट गई। लोभ हटा दें, फिर क्या करने को बचा! महत्वाकांक्षा कट गई। क्रोध हटा दें, फिर कुछ खटपट करने का उपाय भी नहीं बचा। तो जीवन का सब उपक्रम शून्य हुआ, सब व्यवहार बंद हुए।

अगर लोभ नहीं है, तो मित्र नहीं बनाएंगे आप। अगर क्रोध नहीं है, तो शत्रु नहीं बनाएंगे। तो न अपने बचे, न पराए बचे, आप अकेले रह गए। आप अचानक पाएंगे, ऐसा जीवन तो बहुत घबड़ाने वाला हो जाएगा। वह तो नारकीय होगा। और कृष्ण कहते हैं कि ये तीन नरक के द्वार हैं! और हम इन तीनों को जीवन समझे हुए हैं।

हमें खयाल भी नहीं आता कि हम चौबीस घंटे काम से भरे हुए हैं। उठते—बैठते, सोते—चलते, सब तरफ हमारी नजर का जो फैलाव है, वह कामवासना का है।

अगर अभी एक हवाई जहाज गिर पड़े, आप उसके टूटे अस्थिपंजर के पास जाएं। उसमें जो यात्री मरे हुए पड़े होंगे, उन मरे हुए यात्रियों में भी आपको सबसे पहले जो चीज दिखाई पड़ेगी, वह यह कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष।

आप सब चीजें भूल जाते हैं। दस साल पहले कोई आपको मिला था। नाम भूल गया, शक्ल भूल गई, कुछ भी याद नहीं रहा। लेकिन यह आप कभी नहीं भूलते कि वह स्त्री थी कि पुरुष—यह कभी नहीं भूलते। आपको याद है कि आपको कभी ऐसा शक पैदा हुआ हो कि बीस साल पहले एक आदमी, एक व्यक्ति मिला था, वह स्त्री थी या पुरुष? यह शक आपको हो ही नहीं सकता। इसका मतलब क्या है?

इसका मतलब यह है कि आपके ऊपर गहरे से गहरा जो संस्कार पड़ता है, वह स्त्री और पुरुष होने का पड़ता है। उसका चेहरा कैसा था; भूल गया। उसका नाम क्या था, भूल गया। उसकी जाति क्या थी; भूल गई। वह लंबा था कि ठिगना था, सब भूल गया। लेकिन उसका सेक्स, वह आपको याद है। इसका मतलब यह है कि सबसे गहरी आपकी स्मृति इस बात को पकड़ती है। सबसे ज्यादा चेतना इसके आस—पास घूमती है।

यह जो हमारा काम है, यह कोई क्षण दो क्षण की बात नहीं कि कभी—कभी आपको पकड़ता है। यह चौबीस घंटे आपको घेरे हुए है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। शायद चौबीस घंटे आप काम हैं। फिर इसमें जहां—जहां सहयोग मिलता है, वहां—वहा लोभ पैदा होता है। वह इस काम की धारा में ही लोभ का वर्तुल है।

जैसे नदी बहती है, और उसमें छोटे—छोटे भंवर पैदा हो जाते हैं। तो आपकी काम की जो नदी बहती है, जिस—जिस से सहारा मिलता है, वह आपके लोभ का भंवर हो जाता है। और जिस—जिस से बाधा मिलती है, वह आपके क्रोध का भंवर हो जाता है। फिर उन दोनों की परतें हमारे ऊपर बैठ जाती हैं।

उठते—बैठते, चलते—फिरते, आप खयाल लेते हों, न लेते हों, व्यवहार करते, आपका लोभ और क्रोध काम करता है। आप रास्ते पर चलते आदमी से नमस्कार भी तभी करते हैं, जब कुछ लोभ उससे जुड़ा हो। कोई लोभ—अतीत में, आज या भविष्य में—कहीं न कहीं उससे कुछ लाभ मिल सकता होगा, तो ही आप नमस्कार करते हैं। नहीं तो आप नमस्कार करने वाले भी नहीं। हाथ जोड्ने तक का श्रम आप उठाएंगे नहीं।

और आपकी नजर जहां भी जाती है, वहां तत्क्षण मित्र और शत्रु को पहचानती है। जिससे भी थोड़ी—सी भी विरोध की संभावना है, या थोड़ी—सी भी बाधा पड़ सकती, थोड़ी प्रतियोगिता हो सकती है, उसके प्रति आपका क्रोध जलता ही रहता है। भभक सकता है, किसी भी क्षण मौका मिल जाए तो।

यह जो हमारा क्रोध, लोभ और मोह है, इन्हें आप सिद्धातों की तरह तो समझ ले सकते हैं, लेकिन जीवन व्यवहार में इनके स्वरूप को पहचानना असली सवाल है। और हम उसमें इतने लिप्त होते हैं कि उसे अपने जीवन में पहचानना अक्सर कठिन होता है।

मैंने सुना है कि एक कंजूस आदमी ने अपने बेटे को चश्मा दिलवाया। दूसरे दिन सुबह ही बेटा बाहर बैठा है अपनी किताबें वगैरह लिए। उसके बाप ने भीतर के कमरे से पूछा कि बेटे, क्या कुछ पढ़ रहे हो? उस लड़के ने कहा कि नहीं। तो बाप ने पूछा, तो क्या कुछ लिख रहे हो? उसके लड़के ने कहा, नहीं। तो बाप ने कहा, तो फिर चश्मा उतारकर क्यों नहीं रख देते! लगता है, तुम्हें फिजूलखर्ची की आदत पड़ गई है।

वह जो चश्मा आंख पर रखा है, जब लिख भी नहीं रहे, पढ़ भी नहीं रहे, तो उसका फिजूलखर्च हो रहा है, चश्मे का।

यह हमें हंसने योग्य लग सकता है। लेकिन लोभी आदमी की यह दृष्टि है। वह सब जगह बचा रहा है। और कई दफे ऐसा हो जाता है कि हम लोभ के नाम पर जो बचाते हैं, उसको भी हम अच्छे सिद्धात बता देते हैं।

फ्रायड ने एक बहुत अनूठी बात कही है, उसने कहा है कि आमतौर से जो लोग ब्रह्मचर्य में उत्सुक होते हैं, वे लोभी होते हैं, ग्रीडी होते हैं। वीर्य खो न जाए, इसकी कंजूसी उनको ब्रह्मचारी बना देती है।

यह बड़ी सोचने जैसी बात है। और इधर जैसा मैंने अनेक लोगों को अनुभव किया है, अक्सर यह बात सच है। सौ प्रतिशत सच नहीं है, क्योंकि ब्रह्मचर्य की दिशा में जाने वाला एक प्रतिशत वह आदमी भी होता है, जो कामवासना से मुक्त होकर ब्रह्मचर्य की तरफ जाता है। सौ में निन्यानबे तो वे लोग होते हैं, जो सिर्फ लोभ के कारण ब्रह्मचर्य की तरफ जाते हैं कि कहीं शक्ति खर्च न हो जाए।

आपने शायद इस दिशा से कभी सोचा न हो। और अक्सर आपके साधु—संन्यासी जो आपको समझाते हैं, वे समझाते हैं कि बचाओ अपनी शक्ति को। वीर्य का एक बिंदु खोने का मतलब है, न मालूम कितना सेर खून खो गया। वीर्य का एक बिंदु खो गया, तो न मालूम कितना नुकसान हो गया। वे जो समझा रहे हैं आपको, आपको डरवा रहे हैं; वे आपके लोभ को जगा रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि शक्ति खो न जाए।

इसलिए अक्सर जो मुल्क कंजूस होते हैं, वे ब्रह्मचर्य की बहुत चर्चा करते हैं। और जो जातियां निपट कंजूस होती हैं, वे ब्रह्मचर्य को बड़े जोर से पकड़ लेती हैं।

ये जो ब्रह्मचर्य की इस तरह की बात करने वाले निन्यानबे प्रतिशत लोग हैं, इनमें से अधिक लोग कब्जियत के शिकार होंगे। क्योंकि जैसा वे वीर्य को बचाना चाहते हैं, ऐसा वे सब चीजों को बचाना चाहते हैं। वे मल तक को इकट्ठा करना सीख जाते हैं।

अभी आधुनिक विज्ञान बड़ी महत्वपूर्ण बातें कहता है। वह कहता है, जो व्यक्ति भी कब्जियत का शिकार है, वह यह बता रहा है कि वह मल को भी छोड़ने को राजी नहीं है। उसकी चित्त की दशा सब चीजों को पकड़ लेने की है।

मनोवैज्ञानिक कई अनूठे नतीजों पर पहुंचे हैं, जो धर्म को और धर्म की खोज में जाने वाले लोगों को ठीक से समझ लेना चाहिए। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सब चीजें प्रतीकात्मक हैं। और एक बड़ी अनूठी बात है, जो एकदम से समझ में नहीं आती, लेकिन सही हो सकती है। वे कहते हैं, मल का जो रंग है, पीला रंग, वही सोने का रंग है। और सोने को जो लोग पकड़ते हैं, वे लोग कब्जियत के शिकार हो जाते हैं। वे मल को भी नहीं छोड़ सकते। और धन हाथ का मल ही है, वह मैल ही है, उससे ज्यादा है भी नहीं। लेकिन हर चीज को पकड़ लेना है, रोक लेना, कुछ भी छोड़ते नहीं बनता उनसे। जीवन उनका महारोग हो जाता है।

काम विक्षिप्तता लाता है। लोभ उस विक्षिप्तता को बढ़ाने के लिए दूसरों का सहारा मलता है, फैलाव मांगता है। क्रोध उस विक्षिप्तता में कोई भी बाधा डाले, उसको नष्ट करने को तैयार हो जाता है।

ये तीनों नरक के द्वार हैं। और हम जीवन में जितने दुख खड़े करते हैं, वह इनके द्वारा ही खड़े करते हैं। नरक कहीं कोई स्थान नहीं है, जहां द्वारों पर लिखा है कि काम, क्रोध, लोभ, कि यहां से भीतर मत जाइए। जहां—जहां ये तीन हैं, वहां—वहां नरक है, वहा—वहां जीवन दुख और संताप से भर जाता है। वहां—वहा जीवन की प्रफुल्लता कुम्हला जाती है, जीवन के फूल वहां नहीं लगते।

आपने कभी कंजूस आदमी को प्रसन्न देखा है? कंजूस प्रसन्न हो ही नहीं सकता। प्रसन्नता में भी उसे लगेगा, कुछ खर्च हो रहा है, कुछ नुकसान हुआ जा रहा है। वह प्रसन्नता तक को रोके रखता है। वह हृदयपूर्वक हंस नहीं सकता; वह कठिन है, मुश्किल है; वह उसके व्यक्तित्व का ढंग नहीं है। वह किसी चीज में शेयर नहीं कर सकता, भागीदार नहीं बना सकता।

इसलिए कंजूस कभी प्रेम नहीं कर सकता, किसी को प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम में उसे डर लगता है कि जिससे प्रेम किया 1 उसको कुछ बांटना पड़ेगा, कुछ साझेदारी करनी पड़ेगी।

कंजूस किसी चीज में बंटाव नहीं कर सकता। कंजूस अकेला जीता है, आइसोलेटेड। अपने में बंद हो जाता है, और उसके चारों तरह कारागृह खड़ा हो जाता है। और अपने चारों तरफ कारागृह खड़ा हो जाए; हम किसी चीज में साझेदारी न कर सकें, मुस्कुरा भी न सकें, बांट भी न सकें……।

जीवन के सब आनंद बंटने से जुड़े हुए हैं। जो आदमी जितना बांट सकता है, जो जितना अपने को फैला सकता है, जो जितना अपने को दूसरों को दे सकता है, उतना ही प्रफुल्लित होता है, उतना ही आनंदित होता है।

अगर परमात्मा परम आनंद है, तो उसका इतना ही अर्थ है कि परमात्मा ने अपने को पूरा का पूरा इस जगत को दे दिया है, इस पूरे अस्तित्व को अपने को दे दिया है। वह सब तरफ फैल गया है। उसे आप कहीं भी खोज नहीं सकते। आप अंगुली करके इशारा नहीं कर सकते कि यह रहा परमात्मा। क्योंकि वह एक जगह होता, तो कंजूस होता, कृपण होता, बंधा होता। वह सब जगह है।

इसलिए आप जहां भी कहें, वहां वह है। और जहां भी आप इशारा करें, वहीं आप पाएंगे कि मुश्किल है, वह सब जगह है। उसने अपने को सब तरह फैला दिया है। वह पूरा बंट गया है कि अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा है, अपने जैसा कुछ भी नहीं बचा है, इसलिए परम आनंद है, इसलिए सच्चिदानंद है।

मैंने सुना है कि नानक एक गांव में ठहरे। गांव बड़े भले लोगों का था, बड़े साधुओं का था, बड़े संत—सज्जन पुरुष थे। नानक के शब्द—शब्द को उन्होंने सुना, चरणों का पानी धोकर पीया। नानक को परमात्मा की तरह पूजा। और जब नानक उस गांव से विदा होने लगे, तो वे सब मीलों तक रोते हुए उनके पीछे आए और उन्होंने कहा, हमें कुछ आशीर्वाद दें। तो नानक ने कहा, एक ही मेरा आशीर्वाद है कि तुम उजड़ जाओ।

सदमा लगा। नानक के शिष्य तो बहुत हैरान हुए, कि यह क्या बात कही! इतना भला गांव। लेकिन अब बात हो गई और एकदम पूछना भी ठीक न लगा। सोचेंगे, विचार करेंगे, फिर पूछ लेंगे। फिर दूसरे गांव में पड़ाव हुआ। वह दुष्टों का गांव था। सब उपद्रवी जमीन के वहा इकट्ठे थे। उन्होंने न केवल अपमान किया, तिरस्कार किया, पत्थर फेंके, गालियां दीं, मार—पीट की नौबत खड़ी हो गई; रात रुकने भी न दिया।

जब गांव से नानक चलने लगे, तो वे तो आशीर्वाद मांगने वाले थे ही नहीं। शोरगुल मचाते, गालियां बकते नानक के पीछे गांव के बाहर तक आए थे। गांव के बाहर आकर नानक ने अपनी तरफ से आशीर्वाद दिया कि सदा यहीं आबाद रहो।

तब शिष्यों को मुश्किल हो गया। उन्होंने कहा कि अब तो पूछना ही पड़ेगा। यह तो हद हो गई। कुछ भूल हो गई आपसे। पिछले गांव में भले लोग थे, उनसे कहा, बरबाद हो जाओ! उजड़ जाओ! और इन गुंडे—बदमाशों को कहा कि सदा आबाद रहो, खुश रहो, सदा बसे रहो!

नानक ने कहा कि भला आदमी उजड़ जाए, तो बंट जाता है। वह जहां भी जाएगा, भलेपन को ले जाएगा। वह फैल जाए सारी दुनिया पर। और ये बुरे आदमी, ये इसी गांव में रहें, कहीं न जाएं। क्योंकि ये जहां जाएंगे, बुराई ले जाएंगे।

लेकिन बंटना बुरे आदमी का स्वभाव ही नहीं होता, अच्छा है यह। वह सिकुड़ता है, यह बड़ी कृपा है। भला आदमी बटता है। बांटना उसका स्वभाव है। दान उसके जीवन की व्यवस्था है। यह सवाल नहीं कि वह कुछ देता है कि नहीं देता है; यह उसके रहने—होने का ढंग है कि वह साझेदारी करता है, वह शेयर करता है। ये जो तीन हैं, काम, क्रोध, लोभ, ये सिकोड़ देते हैं। और सिकुड़ा हुआ आदमी नरक बन जाता है।

ये अधोगति में ले जाने वाले हैं, इन तीनों को त्याग देना चाहिए। क्योंकि हे अर्जुन, इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हुआ पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता है अर्थात मुझको प्राप्त होता है।

इन तीन से जो मुक्त हुआ पुरुष है, वही केवल कल्याण का आचरण करता है। कल्याण का अर्थ है, जिससे हित हो, मंगल हो; जिससे आनंद बढ़े, फैले।

लेकिन जो आदमी कामवासना से भरा है, लोभ और क्रोध से भरा है, उसका आचरण कल्याण का नहीं हो सकता। उसका आचरण अहंकार—केंद्रित होगा। वह अपने लिए सबको मिटाने की कोशिश करेगा। वह चारों तरफ विध्वंस फैलाएगा। उसकी आकांक्षा यही है किं सब मिट जाएं, मैं अकेला रहूं। क्योंकि जब तक दूसरा है, तब तक मैं चाहे बांटू या न बांटू वह इस जगत की संपत्ति में से बंटाव तो कर ही रहा है। जब तक दूसरा है, कम से कम श्वास तो ले ही रहा है। तो इतनी आक्सीजन जिस पर मैं कब्जा कर सकता था, वह कब्जा कर रहा है। तब तक सूरज की रोशनी तो पी ही रहा है, सूरज पूरा का पूरा मेरा हो सकता था, उसमें वह बंटाव कर रहा है। तब तक आकाश में पूर्णिमा का चांद निकलता है, तो वह भी प्रसन्न होता है। उतनी मेरी प्रसन्नता खो रही है।

वह जो आदमी काम, क्रोध, लोभ से भरा हुआ है, उसका मौलिक आधार जीवन का यह है कि मैं अकेला रहूं और सब मिट जाएं। वह नहीं मिटा पाता, यह दूसरी बात है। कोशिश पूरी कर रहा है। हजारों दफे उसने प्रयोग किए हैं कि वह सबको पोंछकर समाप्त कर दे, अकेला रहे। कल्याण तो उससे हो ही नहीं सकता।

कल्याण तो उसी व्यक्ति से हो सकता है, सब रहें, चाहे मैं मिट जाऊं। मैं चाहे खो जाऊं, चाहे मेरी कोई जगह न रह जाए, लेकिन शेष सब रहे। फूल और जोर से खिले, चांद और जोर से निकले, लोग और आनंदित हों, जीवन की बांसुरी बजती रहे, मेरे होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अगर मैं बाधा बनता हूं तो हट जाऊं। अगर सहयोग बन सकता हूं तो ही रहूं।

लेकिन ये तीन द्वार जब बंद हो जाएं, तभी कल्याण का जीवन शुरू होता है।

यह जो शब्द कल्याण है, मंगल है, यह बड़ा समझने जैसा है। इसका अर्थ दूसरे का सुख है। और दूसरे के सुख को अगर आप सोचना भी शुरू कर दें…..।

हम तो कंसीडर भी नहीं करते। दूसरा है, यह भी विचार नहीं करते। दूसरे के जीवन में भी सुख की कोई संभावना हो सकती है, दूसरे को भी सुख मिलना चाहिए, यह तो हमारे मन में कभी कौंधता ही नहीं।

महावीर ने कहा है, जैसे तुम जीना चाहते हो, वैसे ही सभी जीना चाहते हैं। जैसे तुम सुख पाना चाहते हो, वैसे सभी सुख पाना चाहते हैं। तो जो तुम अपने लिए चाहते हो, वह सबके लिए चाहो। जीसस ने कहा है, जो तू न चाहता हो कि लोग तेरे प्रति करें, वह तू कभी भूलकर भी दूसरे के प्रति मत करना। यह कल्याण का सूत्र हुआ। और जो तू चाहता हो कि लोग तेरे प्रति करें, वही तू उनके प्रति करना। क्योंकि जो तेरे भीतर जीवन की छिपी चाह है, वही दूसरों के भीतर भी जीवन की छिपी चाह है। और तेरे भीतर जो जीवन है और दूसरे के भीतर जो जीवन है, वह एक ही का विस्तार है।

कल्याण का अर्थ है कि मेरे भीतर और आपके भीतर जो है, वह एक ही चेतना का फैलाव है। और अगर मैं आपका सुख चाहता हूं तो वस्तुत: यही मैं अपने सुख का आधार रख रहा हूं। और अगर मैं आपका दुख चाहता हूं तो मैं अपने ही हाथ—पैर तोड़ रहा हूं, क्योंकि आप मेरे ही फैले हुए रूप हैं। अगर आपको मैं दुखी करता हूं तो मैं अपने ही दुख का इंतजाम कर रहा हूं। देर—अबेर यह दुख मुझे पकड़ लेगा। आपको सुख दे रहा हूं तो देर—अबेर यह सुख मेरे पास आ जाएगा।

एक बार जिस आदमी को यह समझ में आ गया कि इस जगत में अलग—अलग कटे —कटे लोग नहीं हैं; हम अलग—अलग आयलैंड नहीं हैं, द्वीप नहीं हैं, हम एक महाद्वीप हैं। और अगर हमारे बीच में फासला दिख रहा है, तो वह फासला भी बीच में आ गए पानी की दीवार का है। नीचे हम जुड़े हैं, नीचे जमीन एक है। और उस पानी की दीवार का कोई बहुत मूल्य नहीं है। पानी की भी कोई दीवार होती है?

यह जो मेरे और आपके बीच में दीवार है, यह पानी की भी नहीं, हवा की ही दीवार है। इस दीवार के दोनों तरफ जिस हवा से आप श्वास ले रहे हैं, उसी हवा से मैं श्वास ले रहा हूं हम दोनों जुड़े हैं। हम सब जुड़े हैं। इस संयुक्तता का बोध आ जाए, तो जीवन में कल्याण का भाव आता है।

और जो काम, क्रोध, लोभ से भरा है, उसे यह संयुक्तता का भाव नहीं आ सकता। उसके लिए सब दुश्मन हैं, सब प्रतियोगी हैं। जो चीजें वह छीनना चाह रहा है, वही दूसरे छीनना चाह रहे हैं। इसलिए दूसरों का सुख वह कैसे चाह सकता है! दूसरों के लिए आशीर्वाद उससे नहीं बह सकता। अभिशाप ही दूसरों के लिए उसके पास है।

और जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम गति को और न सुख को ही प्राप्त होता है।

इस बात को समझना बड़ा जरूरी है और गहरा है।

जो व्यक्ति शास्त्र की विधि को त्यागकर…..।

शास्त्र की विधि क्या है न: शास्त्र क्या है? इसे समझें।

शास्त्र का अर्थ है, सदियों—सदियों में, सनातन से जिन्होंने जाना है, उनका सार निचोड़। जिन्होंने जीवन के आनंद को अनुभव किया है, जीवन के वरदान की वर्षा जिन पर हुई है, उन्होंने जो कहा है, उसका जोड़।

आज कठिन हो गई है यह बात। ऐसी कठिन उस दिन बात न थी, जब कृष्ण ने यह कहा था। उस दिन हर कोई शास्त्र नहीं लिखता था। कोई सोच ही नहीं सकता था कि बिना जाने मैं लिखूं। वह सोचने के बाहर था। क्योंकि बिना जाने लिखने में कोई अर्थ

भी नहीं था। शास्त्रों पर किसी के नाम भी नहीं थे। वह कोई व्यक्तियों की संपदा भी नहीं थी। अनंत— अनंत काल में, अनंत—अनंत लोगों ने जो जाना है, उस जानने को लोग निखारते गए। शास्त्र संपदा थी सबके अनुभव की।

वेद हैं, वे किसी एक व्यक्ति के वचन नहीं हैं। अनंत—अनंत ऋषियों ने जो जाना है, वह सब संगृहीत है। उपनिषद हैं, वे किसी एक व्यक्ति के लिखे हुए विचार नहीं हैं। वह अनंत— अनंत लोगों ने जाना है, उनका सारभूत है। कुछ पक्का पता लगाना भी मुश्किल है कि किसने जाना है। व्यक्ति खो गए हैं, सिर्फ सत्य रह गए हैं। कृष्ण ने जब यह बात कही, तब शास्त्र का अर्थ था, जाने हुए लोगों के वचन। इन वचनों को त्यागकर जो अपनी इच्छा से बर्तता है, वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि एक व्यक्ति का अनुभव ही कितना है! एक व्यक्ति की छोटी—सी बुद्धि कितनी है! वह ऐसे ही है, जैसे सूरज निकला हो, और हम अपना टिमटिमाता दीया लेकर रास्ता खोज रहे हैं।

एक व्यक्ति का अनुभव बहुत छोटा है। एक व्यक्ति का होश बहुत छोटा है। अपने ही अनुभव से जो चलने की कोशिश करेगा, वह अनंत काल लगा देगा भटकने में। लेकिन जाने हुए पुरुषों का, जागे हुए पुरुषों का जो वचन है, उसका सहारा लेकर जो चलेगा, वह व्यर्थ के भटकाव से बच जाएगा।

रास्ता छोटा हो सकता है, अगर थोड़ा—सा नक्यग़ भी हमारे पास हो। शास्त्रों का अर्थ है, नक्यो। शास्त्रों को सिर पर रखकर बैठ जाने से कोई मंजिल पर नहीं पहुंचता। लेकिन वे नक्यो हैं, उन नक्यग़ें का अगर ठीक से उपयोग करना समझ में आ जाए, तो आप बहुत—सी भटकन से बच सकते हैं। जहां जो भूल—चूक जिन लोगों ने पहले की, उसको आपको करने की जरूरत नहीं है।

शास्त्र कोई बंधे—बंधाए उत्तर नहीं हैं; शास्त्र तो केवल मार्ग को खोजने के इशारे हैं। और उन इशारों को जो ठीक से समझ लेता है और उनके अनुसार चलता है, वह सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। और जो उनको त्याग देता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति को, औयन सुख को ही प्राप्त होता है। वह भटकता है।

यह आज के युग में बात और कठिन हो गई, क्योंकि आज शास्त्र बहुत हैं। कोई पांच हजार शास्त्र प्रति सप्ताह लिखे जाते हैं। पुस्तकें बढ़ती चली जाती हैं। और कुछ पक्का पता लगाना मुश्किल है, कौन लिख रहा है, कौन नहीं लिख रहा है। पागल भी लिख रहे हैं। उनको राहत मिलती है, केथार्सिस हो जाती है। उनका पागलपन निकल जाता है, किताब में रेचन हो जाता है। फिर उन पागलों की लिखी किताबों को दूसरे पागल पढ़ रहे हैं। उनका तो रेचन हो जाता है, इनकी खोपड़ी भारी हो जाती है। अब तय करना मुश्किल है। क्योंकि बहुत—से सूत्र खो गए।

पहला सूत्र तो यह खो गया कि बिना जागे कोई व्यक्ति न लिखे; बिना जागे कोई व्यक्ति न बोले, बिना जाग्रत हुए कोई किसी दूसरे को सलाह न दे। यह पुराने समय में सोचना ही असंभव था कि कोई बिना जागे हुए किसी को सलाह दे देगा।

लेकिन आज कठिन है। आज तो सोए आप कितने ही हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आप सलाह दे सकते हैं। सोया हुआ आदमी और भी उत्सुकता से सलाह देता है। वह चाहे अपने सपने में बड़बड़ा रहा हो, लेकिन उसको अनुयायी मिल जाते हैं। लोग उसके पीछे चलने लगते हैं। जितने जोर से कोई चिल्ला सकता हो, उतना ज्यादा पीछे अनुसरण करने वाले मिल जाते हैं।

आज कठिन है। लेकिन आज भी व्यक्ति अपनी ही खोजबीन से चले, तो बहुत समय व्यय होगा, बहुत जन्म खो जाएंगे। आज भी व्यक्ति को शास्त्र की खोज करनी चाहिए। लेकिन आज की कठिनाई को ध्यान में रखकर मैं कहूंगा कि आज शास्त्र से ज्यादा सदगुरु..।

कृष्ण ने जब कहा, तब शास्त्र सदगुरु का काम करता था, क्योंकि सिर्फ सदगुरुओं के वचन ही लिपिबद्ध थे। आज मुश्किल है। छापेखाने ने पागलखाने के द्वार खोल दिए हैं। कोई भी लिख सकता है, कोई भी किताबों का प्रचार कर सकता है, कुछ अड़चन नहीं है अब। आज शास्त्र उतना सहयोगी नहीं हो सकता। आज शास्त्र को भी पहचानना हो, तो भी सदगुरु के ही माध्यम से पहचाना जा सकता है।

एक बहुत पुरानी कहावत है, सतयुग में शास्त्र, कलियुग में गुरु। उसमें बड़ा अर्थ है। क्योंकि कलियुग में इतने शास्त्र हो जाएंगे कि यही तय करना मुश्किल हो जाएगा, कौन—सा शास्त्र है और कौन—सा शास्त्र नहीं है! और कौन आपको कहे? अब तो कोई निजी आत्मीय संबंध बन जाए आपका किसी जाग्रत पुरुष से, तो ही रास्ता बन सकता है। क्योंकि उसके माध्यम से शास्त्र भी मिल सकेगा। और जीवित पुरुष मिल जाए, तो शास्त्र की जरूरत भी नहीं रह जाती।

लेकिन शास्त्र का मतलब ही इतना है, जागे हुए पुरुषों के वचन, चाहे वे जिंदा हों, चाहे जिंदा न हों। अगर आपको जीवन की बहुत—सी अड़चन, भटकन, व्यर्थ खोजबीन से बचना हो, भूल—चूक में बहुत समय खराब न करना हो, तो जरूरी है कि जिसने जाना हो, उसकी बात समझें; जिसने पहचाना हो, उसकी बात समझें।

और आप कैसे पहचानेंगे किसी व्यक्ति को कि उसने जान लिया, पहचान लिया? एक ही कसौटी है कि जिस व्यक्ति को आप देखें कि उसकी कोई खोज नहीं अब, उसका कोई प्रश्न नहीं अब। अब उसको पाने का कुछ, आपको दिखाई में न पड़ता हो। कोई व्यक्ति लगता हो कि ऐसे जी रहा है, जैसे उसने सब पा लिया। जो सब तरफ से तृप्त हो, जिसकी तृप्ति का वर्तुल बंद हो गया हो, जो। कहीं से खुलता न हो अब। तो ऐसे व्यक्ति की सन्निधि खोजना जरूरी है। आपके लिए वही शास्त्र होगा। उसके माध्यम से आपको वेद, उपनिषद, कुरान और बाइबिल के द्वार भी खुल जाएंगे।

इससे तेरे लिए उस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र—विधि से नियत किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है।

अर्जुन क्षत्रिय है, योद्धा है। कृष्ण शास्त्र की बात कह रहे हैं, क्योंकि शास्त्र उस दिन तय किया था, समाज चार हिस्सों में विभाजित था। बड़ी कुशलता से विभाजित किया था। कुशलता अनूठी है। हिंदुओं की खोज बड़ी गहरी है।

आज पाच हजार साल हो गए। पांच हजार साल में दुनिया में बहुत तरह के लोगों ने मनुष्यों को बांटने की कोशिश की है, कि कितने प्रकार के मनुष्य हैं? अभी अत्याधुनिक कार्ल गुस्ताव वा की कोशिश है, पश्चिम के बड़े मनोवैज्ञानिक की। वह भी मनुष्यों को चार हिस्सों में ही बांट पाता है। इन पांच हजार सालों में दुनिया के कोने—कोने में अलग—अलग जातियों ने, अलग—अलग विचारकों ने खोज की है कि आदमी कितने प्रकार के हैं। वह हमेशा चार के ही आकड़े पर आ जाते हैं।

हिंदुओं ने बड़ी पुरानी खोज की थी कि व्यक्ति चार तरह के हैं। और उन चार तरह के व्यक्तियों को बांट दिया था। और न केवल ऊपर से बांट दिया था, बल्कि ऐसे समाज की संरचना की थी कि आप मर भी जाएं आज, तो कल आपकी आत्मा अपने ही टाइप की जाति को खोज ले। वह बड़ी गहरे व्यूह की रचना थी।

ब्राह्मण मरकर ब्राह्मण घर में जन्म ले सके और अनंत जन्मों में ब्राह्मण घरों में तैर सके, तो उसका ब्राह्मणत्व सिद्ध होता चला जाएगा। और किसी भी जन्म में, शास्त्र ने ब्राह्मण के लिए जो कहा है, वह उसका मार्ग होगा।

अर्जुन क्षत्रिय है। आज के क्षत्रिय को तय करना मुश्किल है। — आज कौन क्षत्रिय है, तय करना मुश्किल है। क्योंकि शास्त्र की वह व्यवस्था टूट गई। और समाज का वह जो ढंग था, चार विभाजन स्पष्ट कर दिए थे, जिनमें कोई लेन—देन नहीं था एक तरह का, जिनमें आत्माएं एक—दूसरे में प्रवेश नहीं कर पाती थीं, वह आज संभव नहीं है। आज सब अस्तव्यस्त हो गया है। और समाज—सुधार के नाम पर नासमझ लोगों ने बड़ी उपद्रव की बातें खड़ी कर दी हैं। उन्हें कुछ पता भी नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं।

लेकिन उस दिन जिस दिन अर्जुन से कृष्ण ने यह बात कही, सब स्थिति साफ थी।

अर्जुन क्या कह रहा है? अर्जुन ब्राह्मण की माग कर रहा है। वह इस ढंग का व्यवहार कर रहा है, जो ब्राह्मण को करना चाहिए। वह जो प्रश्न उठा रहा है, वे ब्राह्मण के हैं। यह हिंसा होगी, लोग मर जाएंगे, इस राज्य को पाकर क्या करूंगा; किसके लिए पाऊं; इससे तो बेहतर है, मैं सब छोड़ दूं और संन्यस्त हो जाऊं। वह प्रश्न उठा रहा है, जो ब्राह्मण—चरित्र के व्यक्ति के लिए उचित है। और अगर अर्जुन ब्राह्मण होता, तो कृष्ण ने यह गीता उससे नहीं कही होती।

कृष्ण यह गीता कहने को मजबूर हुए क्योंकि अर्जुन का जो टाइप था, उसके जो व्यक्तित्व का ढांचा था, वह क्षत्रिय का था। और वह कोई एक जन्म की बात न थी। अर्जुन अनंत जन्मों से क्षत्रिय था। बहुत—बहुत बार क्षत्रिय रह चुका था। क्षत्रिय होना उसका गहरा संस्कार था। वह उसके रोएं—रोएं में समाया था। उसकी आत्मा क्षत्रिय की थी।

इसलिए यह अगर ब्राह्मण भी बन जाए, तो इसका ब्राह्मण होना ऊपर—ऊपर होगा, धोखा होगा, पाखंड होगा। यह जनेऊ वगैरह पहन ले और चंदन—तिलक लगा ले और बैठ जाए तो भी यह जंचेगा नहीं। इसके भीतर जो ढंग है, वह योद्धा का है। यह ब्राह्मण होने के योग्य नहीं है। यह ब्राह्मण हो भी नहीं सकता। क्योंकि ब्राह्मण होना कोई एक क्षण की बात नहीं है। इसके अनंत जन्मों के संस्कार साफ करने होंगे, तब यह ब्राह्मण हो सकता है। यह कोई एक क्षण का निर्णय नहीं है कि हमने तय किया और हम हो गए।

जैसे आज आप तय कर लें कि स्त्री होना है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा आपके तय करने से। आप स्त्री के कपड़े पहन सकते हैं, चाल—ढाल थोड़ी सीख सकते हैं। लेकिन स्त्रियां भी आप पर हसेंगी। रहेंगे आप पुरुष ही। वह स्त्री होना ऊपर का पाखंड हो जाएगा और सिर्फ हंसी योग्य हो जाएंगे।

कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तू शास्त्र की तरफ देख, क्षत्रिय के लिए शास्त्र ने क्या कहा है! तू उससे यहां—वहा मत हट, क्योंकि वही तेरी सिद्धि है। क्षत्रिय होकर ही और क्षत्रिय के धर्म का ठीक—ठीक अनुसरण करके ही तेरा मोक्ष तुझे मिलेगा।

तो क्षत्रिय की क्या सिद्धि होगी? और क्या उसका मार्ग होगा?

कृष्ण कह रहे हैं, क्षत्रिय सोचता ही नहीं कि कोई मरता है; क्षत्रिय सोचता ही नहीं कि भविष्य में क्या होगा। क्षत्रिय सोचता ही नहीं। क्षत्रिय लड़ना जानता है। लड़ना उसका ध्यान है। वह युद्ध में ध्यानस्थ हो जाता है। वह न यह जानता है कि मैं मर रहा हूं कि दूसरा मर रहा है; वह युद्ध में निर्भय हो जाता है। युद्ध के क्षण में उसकी चित्त की दशा न तो मारने के, न तो मरने के विचार से डोलती। वह निश्चित खड़ा हो जाता है। कौन मरता है, यह गौण है। युद्ध उसके लिए एक खेल है, वह अभिनय है, वह उसके लिए कोई बहुत गंभीरता का प्रश्न नहीं है। वह दोपहर लड़ेगा, सांझ तक लड़ेगा, सांझ बात भी नहीं करेगा कि युद्ध में क्या हुआ। रात विश्राम करेगा। रात उसकी नींद में खलल भी नहीं पड़ेगी कि दिनभर इतना युद्ध हुआ, इतने लोग कटे। वह रात मजे से सोएगा। सुबह उठकर फिर युद्ध की तरफ चल पड़ेगा। युद्ध उसके लिए एक खेल और अभिनय है।

कृष्ण कह रहे हैं कि तू इस पूरे युद्ध को एक नाटक से ज्यादा मत जान। और तेरी जो शिक्षा है, तेरी जो दीक्षा है, तेरा जो संस्कार है, शास्त्र जो कहता है, तू उसके हिसाब से चुपचाप चल। तू अपना कर्तव्य पूरा कर। तू चिंता में मत पड़। यह चिंता तुझे शोभा नहीं देती। अगर इस चिंता में—यह करूं या वह करूं; हं। या न, अच्छा या बुरा—तू उलझ गया, तो तू अपने धर्म से च्‍यूत हो जाएगा। और तब तुझे अनंत जन्म लग जाएंगे। और यहां इस युद्ध के क्षण में इसी क्षण तू मुक्त हो सकता है। बस इतना ही तुझे करना है कि तू अपने कर्ता का भाव छोड़ दे।

क्षत्रिय वही है, जो कर्ता नहीं है।

जापान में क्षत्रियों का एक समूह है, समुराई। वह अब भी क्षत्रिय है। और अनेक पीढ़ियों से समुराई तैयार किए गए हैं। क्योंकि हर कोई समुराई नहीं हो सकता, बाप समुराई रहा हो, तो ही बेटा समुराई हो सकता है।

हम, जैसा कि फलों की फसल तैयार करते हैं, तो अच्छे फलों का बीज चुनते हैं। फिर और उनमें से अच्छे फल, फिर उनमें से अच्छे फल। फिर फल बड़ा होता जाता है, सुस्वादु होता चला जाता है।

तो अनेक पीढ़ियों में समुराई चुने गए हैं। वह क्षत्रियों की जाति है। समुराई का एक ही लक्ष्य है कि जब मैं युद्ध में लडूं? तो युद्ध तो हो, मैं न रहूं। मेरी तलवार तो चले, लेकिन चलाने वाला न हो। तलवार जैसे परमात्मा के हाथ में आ जाए, वही चलाए; मैं सिर्फ निमित्त हो जाऊं।

इसलिए कहते हैं कि अगर दो समुराई युद्ध में उतर जाएं, तो बड़ा मुश्किल हो जाता है कि कौन जीते, कौन हारे। क्योंकि दोनों ही अपने को मिटाकर लड़ते हैं। दोनों की तलवारें चलती हैं; लेकिन दोनों की तलवारें परमात्मा के हाथ में होती हैं। कौन हारे, कौन जीते।

समुराई—सूत्र है कि वही आदमी हार जाता है, जो थक जाता है जल्दी और वापस अपने अहंकार को लौट जाता है। जिसको भाव आ जाता है मैं का, वह हार जाता है। जो आदमी धैर्यपूर्वक परमात्मा पर छोड्कर चलता जाता है, उसके हारने का कोई भी उपाय नहीं है। कृष्ण कह रहे हैं, तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र—विधि से नियत किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है।

यह कर्तव्य और अकर्तव्य की व्याख्या कृष्ण ने की। क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है! क्या त्याग देना है, और क्या जीवन में बचा लेना है! कौन—से नरक के द्वार हैं, वे बंद हो जाएं, तो कैसे मोक्ष का द्वार खुल जाता है!

ये सारी बातें आपने सुनीं। ये बातें अर्जुन को कही गई हैं। इन पर आप सोचना। अगर आपकी चित्त—दशा अर्जुन जैसी हो, तो ये बातें आपके लिए बिलकुल सीधा मार्ग बन जाएंगी। अगर आपकी चित्त—दशा अर्जुन जैसी न हो, और आप कोई संबंध ही न जोड़ पाते हों अपने और अर्जुन में, तो आप इन बातों को अपने पर ओढ़ने की कोशिश मत करना। क्योंकि वह भूल हो जाएगी वही, जो अर्जुन कर रहा था।

इन बातों को समझना, सोचना, इनके साथ—साथ अपने स्वभाव को समझना और सोचना। दोनों को समानांतर रखना। अगर उनमें कोई मेल उठता हो, अगर दोनों में एक—सी धुन बजती हो, अगर दोनों में संयोग बनता हो, तो ये सूत्र आपके काम आ सकते हैं।

लेकिन गीता में करीब—करीब कृष्ण ने वे सारे सूत्र कह दिए हैं, जितने प्रकार के मनुष्य हैं। वे सारे सूत्र कह दिए हैं। इसलिए गीता इतनी लंबी चली। अर्जुन के बहाने कृष्ण ने पूरी मनुष्य जाति को उदबोधित किया है।

तो चाहे इस अध्याय में, चाहे किसी और अध्याय में, आपके लिए भी कहे गए वचन हैं। इतनी थोड़ी—सी मेहनत आपको करनी पड़ेगी कि अपने को थोड़ा समझें और अपने योग्य, अपने अनुकूल वचनों को थोड़ा पहचानें। और उचित ही है कि इतनी मेहनत आप करें। क्योंकि बिलकुल चबाया हुआ भोजन मिल जाए, तो आत्मघाती है। थोड़ा आप चबाएं और पचाएं। और यहां उत्तर बंधे हुए नहीं हैं, उत्तर खोजने पड़ेंगे।

मैंने सुना है, एक अदालत में मुकदमा चला एक आदमी पर, उसने हत्या की थी। और एक गवाह को मौजूद किया गया, गांव के एक किसान को। और उस गवाह से वकील ने पूछा कि जब रामू ने पंडित जी पर कुल्हाड़ी से हमला किया, तो तुम कितनी दूर खड़े थे? उसने कहा कि छ: फीट साढ़े छ: इंच; उस किसान ने कहा। वकील भी चौंका, अदालत भी होश में आ गई, मजिस्ट्रेट भी चौंका। और वकील ने कहा, तुमने तो इस तरह बताया है कि जैसे तुमने पहले से ही सब नाप—जोखकर रखा हो। छ: फीट साढ़े छ: इंच!

उस किसान ने कहा, मुझे पता था कि कोई न कोई मूर्ख आदमी यह सवाल मुझसे यहां जरूर पूछेगा; तो यहां आने के पहले पहला काम मैंने यह किया। बिलकुल नापकर आया हूं।

इस तरह बंधे हुए सवाल और उत्तर आपको गीता में नहीं मिल सकते। सब जवाब वहां मौजूद हैं, सब सवालों के जवाब मौजूद हैं। लेकिन पहले एक तो आपको अपना सवाल पहचानना पडेगा, फिर अपने सवाल को लेकर गीता में खोजना पड़ेगा। जवाब आपको मिल जाएगा। और वह जवाब जब तक न मिले, तब तक गीता को ऊपर से ओढने की कोशिश मत करना, क्योंकि वह खतरनाक हो सकती है।

गीता एक आदमी के लिए कही गई है, लेकिन एक आदमी के बहाने सब आदमियों से कही गई है। इसलिए उसमें बहुउत्तर हैं, अनंत उत्तर हैं, आपका उत्तर भी वहा है। और आप अपने को पहचानते हों, तो उस उत्तर को खोज ले सकते हैं। फिर वही उत्तर आपके जीवन की साधना बन सकता है।

आज इतना ही।

(गीता दर्शन—सातवां भाग समाप्‍त)


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गीता दर्शन–(भाग–8)

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गीता दर्शन—(भाग—आठ)

ओशो

(ओशो द्वारा श्रीमदभगवद्गीता के अध्‍याय सत्रह ‘श्रद्धात्रय—विभाग—योग’ एवं अध्‍याय अठारह ‘मोक्ष—संन्‍यास—योग’ पर दिए गये बत्‍तीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

 भूमिका:

(ओशो कृष्‍ण चेतना)

गीता एक महावाक्य, एक महाश्लोक, एक महाकाव्य है—किन शब्दों, किस भाषा में इसे परिभाषित किया जाए! जैसे अमृतमय, अव्याख्येय, अनूठे—अनमोल बोल कृष्ण ने गीता में बोले हैं वैसे बोल अन्य किसी देश में न तो कभी बोले गए और न कभी सुने गए। इसमें कविता है, संगीत है, सुगंध है। न जाने किस—किस प्रकार के रस अपने में समाए है यह गीता! रागी के लिए इसमें जगह है तो विरागी के लिए भी इसमें स्थान है। संन्यासी भी इसमें रस ले सकता है तो गृहस्थ भी इसमें डूब सकता है। लगता है कि गीता में कोई व्यक्ति नहीं, कोई समाज नहीं, कोई देश विशेष नहीं, समस्त अस्तित्व ही बोल रहा है। यह किसी जाति, किसी संप्रदाय का ग्रंथ नहीं, यह सार्वभौम शाश्वत वाणी है। वेद न रहे, कुरान न रहे, इंजील न रहे, बाइबिल न रहे तो कोई बात नहीं। यदि गीता है तो सारे ग्रंथ मौजूद हैं, सारे प्रज्ञा—पुरुष—महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट, मोहम्मद—सभी हमारे पास हैं। चिंतन के दर्शन के जितने आयाम हो सकते हैं वे सभी इस एक ग्रंथ में समाहित हो गए हैं। यह ग्रंथों का ग्रंथ है। भारतीय मनीषा के मानसर में खिला हुआ गीता वो नील कमल है जिसकी सुगंध, जिसकी रूपाभा शताब्दियां बीत जाने के बाद भी आज तक कम नहीं हुई है।

जीवन और जगत के इतने सारे आयाम एक साथ समेटने के लिए जिस विराट—चेतना की आवश्यकता है—वही कृष्ण—चेतना है। और इस कृष्ण—चेतना को ग्रहण करने के लिए जो समर्पण— भाव अपेक्षित है—वही अर्जुन है। लेकिन गीता के अनेक भाष्यकार समर्पण की इस मुद्रा तक पहुंच नहीं सके हैं। सभी ने मात्र पंडित बनकर इसकी व्याख्याएं की हैं, अर्जुन बनकर इसे आत्मा में उतारा नहीं है और कृष्ण होना तो बहुत दूर की बात है। सच तो ये है कि लोगों ने गीता की व्याख्या न करके अपनी—अपनी पूर्व—निर्धारित मान्यताओं को ही अपनी—अपनी वृत्ति के अनुसार निरूपित किया है। किसी ने इसमें भक्तियोग, किसी ने कर्मयोग, किसी ने ज्ञानयोग और किसी ने सांख्ययोग की तलाश इसमें की है। जितने मुसाफिर हैं उतनी ही मंजिलें हैं। ऐसा इसलिए भी संभव हो सका है कि गीता एक ऐसा महासागर है कि इसमें जो भी छलांग लगाएगा, उसे अवश्य ही कुछ न कुछ प्राप्त होगा, भले ही वो शंख हो, सीप हो या मोती।

कृष्ण—चेतना के नाम से आज संसार में कितने ही आंदोलन चल रहे हैं—लेकिन कृष्ण—चेतना का अर्थ न तो छापा—तिलक ही है और न भजन—संकीर्तन ही। वह वैश्विक चेतना है—अस्तित्व के साथ तदाकार की स्थिति। और अस्तित्व जिसका नाम है वह सर्वग्राही, सर्वांगी है—एकांगी नहीं। वहा राग और विराग, जय और पराजय, जन्म और मृत्यु, योग और भोग, भौतिकता और आध्यात्मिकता सभी का समन्वय है। कृष्ण ही वो चेतना हैं जहां बांसुरी और पाञ्चजन्य, मोरपंख और राजदंड, परिग्रह और अपरिग्रह सभी एकाकार हो गए हैं। वहा पग—पग पर समन्वय के साथ विरोध भी है। इसलिए कृष्ण—चेतना को समग्रत: ग्रहण करना अथवा उसके साथ एकाकार हो जाना अत्यंत दुष्कर है।

ओशो के रूप में युगों बाद संसार में वास्तविक कृष्ण—चेतना का जन्म हुआ है। उनकी मुस्कान—मुद्रा, उनकी प्रेम—मुद्रा, उनकी शान—मुद्रा, उनकी ध्यान—मुद्रा को यदि मिला दिया जाए तो लगेगा कि समस्त अस्तित्व ही जैसे ओशो—कृष्ण के रूप में मूर्तिमंत हो गया है। संत ज्ञानेश्वर, तिलक, गांधी—विनोबा आदि अनेक विद्वानों के गीता— भाष्य मैंने पढ़े हैं, लेकिन सभी ने गीता को देखा है एक विद्वान की तरह, एक टीकाकार की तरह—अर्जुन की तरह गीता को किसी ने भी आत्मसात नहीं किया है और न ही कोई कृष्ण—चेतना में प्रवेश पा सका है। गीता समझने—समझाने की चीज नहीं, वह तो आत्मा से पान किया जाने वाला अमृत है। ओशो ही एकमात्र वह व्यक्ति हैं जो एक साथ कौन्तेय—चेतना और कृष्ण—चेतना के स्वर्ण—सेतु पर आरूढ़ होकर गीता—रहस्य को उद्घाटित करते हैं। इसलिए आत्मा के जिस स्तर तक ओशो की गीता पहुंचती है वहा तक अन्य किसी भाष्य की गीता नहीं।

गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक ”धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे……. मामका: पाण्डवाश्चैव….. ” महाभारत की भूमिका है और इसका अंतिम अठारहवा अध्याय उपसंहार है। धृतराष्ट्र संजय से पूछता है— ”कुरुक्षेत्र जो धर्मक्षेत्र है उसमें युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए, हे संजय! मेरे तथा पांडु—पुत्रों ने क्या किया? ” सचमुच ही यह संसार कर्मक्षेत्र है और इसके द्वारा ही धर्म की प्राप्ति होती है। लेकिन जब अहंकार—ग्रस्त चेतना इसे मेरे और तेरे (मामका: पाण्डवाश्चैव) में बांटकर देखने लगती है तब द्वंद्व, संघर्ष और महाभारत का जन्म होता है। मेरे—तेरे में उलझा हुआ मन सत्य को नहीं, तथ्य को देखता है। शब्द के पीछे जो मौन है, गणना के पीछे जो शून्य है, रूप के पीछे जो अरूप, अनश्वर, अविनाशी आत्मा है, उस तक उसकी दृष्टि नहीं जाती। इसलिए ऐसी दृष्टि अंध—दृष्टि ही कही जाती है—तभी तो धृतराष्ट्र अंधा है।

समस्त जीवन—संग्राम, समस्त महाभारत इसी अंध—दृष्टि का ही परिणाम है। गीता इसी अहंकार—ग्रस्त अंध—दृष्टि से मोक्ष तक की महायात्रा है। अहंकार का विसर्जन ही मोक्ष है। इस महायात्रा के दौरान त्रिगुणात्मक प्रकृति के जाल में भी मनुष्य फंसता है। इससे छूटने का उपाय है संन्यास और संन्यास ही मोक्ष का मार्ग है। एक साधन है, एक साध्य। संसार की अन्य संस्कृतियां अर्थ से चलकर धर्म तक तो पहुंचीं, लेकिन मोक्ष की कल्पना भारतीय मनीषा की सर्वथा मौलिक और अनूठी कल्पना है। और यह मोक्ष भी संसार से भागकर नहीं, संसार में रहते हुए भी घटित हो सकता है। गीता का यही सार है।

गीता के सत्रहवें और अठारहवें अध्यायों में प्रकृति की सात्विक, राजस और तामस वृत्तियों को भिन्न—भिन्न आयामों और परिवेशों में रखकर ओशो ने जिस तरह देखा और परखा है और संन्यास तथा मोक्ष की अनेक सरणियों और रूपों की जो व्याख्या उन्होंने की है, वह इतनी सहज और सुगम है कि उसे सामान्य से सामान्य पाठक भी बड़ी सरलता से ग्रहण कर सकता है। यह उनकी वाणी का चमत्कार है। ओशो के बोल सचमुच ही अनूठे, अनुपम और अप्रतिम हैं।

गोपालदास ‘नीरज’

सुप्रसिद्ध महाकवि

जनकपुरी, मेरिस रोड

अलीगढ़ ( उ. प्र.)

इस युग को कृष्ण की जरूरत है

अहंकार पक गया है।

संकल्प प्रगाढ हुआ है।

मनुष्य के हाथ में बड़ी ऊर्जा है।

यह ऊर्जा नर्क ले जाएगी।

यह ऊर्जा पृथ्वी को हिरोशिमा और नागासाकी में बदल देगी।

अगर जल्दी ही इस ऊर्जा का रूपांतरण न हुआ,

अगर यह ऊर्ज। संकल्प से हटकर समर्पण की तरफ न बही,

तो यह रेगिस्तान में खो जाएगी, मरुस्थल में खो जाएगी।

इसके साथ आदमी। भी खो जाएगा। एक महा अग्‍नि होगी,

महा विस्फोट होगा। मनुष्य की प्रौढ़ता पकी है,

और कृष्ण के संदेश की ऐसे क्षण में जरूरत है।

ओशो


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–8)

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विचार नहीं, वरन् मृत्‍यु के तथ्‍य का दर्शन—(प्रवचन—आठवां)

मृत्यु के तथ्य का दर्शन करना है विचार नहीं।

मृत्यु अज्ञान का अनुभव है अमरत्व ज्ञान का अनुभव है।

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि मृत्यु के संबंध में हम सोचें ही क्यों? जीवन मिला है उसे जीएं। वर्तमान में जो है उसमें रहें। मृत्यु के विचार को ही हम क्यों बीच में आने दें?

उन्होंने ठीक बात पूछी है। लेकिन अगर इतना भी सोचा कि मृत्यु के विचार को क्यों बीच में आने दें? तो भी मृत्यु का विचार आ ही गया। और अगर इतना भी सोचा कि हम जीएं ही, हम मरने के संबंध में सोचें ही न, तो भी सोचना शुरू हो गया। मृत्यु इतना बड़ा तथ्य है कि उससे आंखें नहीं चुराई जा सकतीं। यद्यपि हम जीवन भर यही कोशिश करते हैं कि मृत्यु के संबंध में न सोचें, इसलिए नहीं कि मृत्यु न सोचने जैसी चीज है, बल्कि इसलिए कि सोचने से भी भय लगता है। यह विचार भी प्राणों को कंपा जाता है कि मैं मरूंगा। जब मरूंगा, तब तो कंपाएगा ही। यह विचार भी, बिना मरे ही यह विचार भी यदि मन को पकड़े कि मैं मरूंगा, तो सारे प्राण जड़ों से कैप जाते हैं।

आदमी निरंतर कोशिश करता रहा है कि मृत्यु को भुलाए, सोचे न। हमने सारी व्यवस्था ऐसी की है जीवन की कि मृत्यु न दिखाई पड़े। उसको झुठलाने की पूरी कोशिश की है। और आदमी ने जो इंतजाम किये हैं, वे सफल होते हुए दिखाई पड़े, लेकिन सफल होते नहीं हैं। क्योंकि मृत्यु है, उससे कैसे भागेंगे? कब तक भागेंगे? कहां भागेंगे? और भागते— भागते उसमें ही पहुंच जाना है। कहीं भी भागें, किसी भी दिशा में भागें, वहीं पहुंच जाएंगे। और वह रोज करीब आती चली जाती है, सोचें या न सोचें, भागें या बचें। लेकिन किसी भी तथ्य से भागा नहीं जा सकता है।

और मृत्यु कोई ऐसी बात नहीं है कि भविष्य में घटित होगी, इसलिए हम उसको क्यों सोचें। यह भी भ्रांति है। मृत्यु भविष्य में घटित नहीं होगी, मृत्यु प्रतिपल घटित हो रही है। पूर्ण होगी भविष्य में, घटित तो प्रतिपल हो रही है। यानी इस वक्त भी हम मर रहे हैं। यहां घंटे भर हम बैठेंगे तो घंटे भर मर जाएंगे। सत्तर साल लगेंगे पूरा मरने में, लेकिन उसमें यह एक घंटा भी सम्मिलित रहेगा। यह घंटा भर भी हम मरेंगे। ऐसा नहीं है कि अचानक कोई एक दिन सत्तर साल में मर जाता है। अचानक मौत नहीं आती है, मौत कोई आकस्मिक घटना नहीं है। ग्रोथ है, एक विकास है, जो जन्म के दिन से ही शुरू हो जाती है। असल में जन्म मृत्यु का पहला छोर है और मृत्यु अंतिम छोर है। यह यात्रा उसी दिन शुरू हो जाती है। जिसको हम जन्म दिन कहते हैं, वह मरने के दिन का पहला दिन है। यात्रा में जरा वक्त लगेगा, लेकिन चल पड़े।

जैसे कोई आदमी द्वारका से चल पड़े कलकत्ते के लिए, तो जो पहला कदम उठाएगा, वह भी कलकत्ते के लिए ही उठाया जा रहा है, अंतिम कदम उठाएगा, वह भी कलकत्ते के लिए ही उठाया जा रहा है। और अंतिम कदम जितना कलकत्ता में पहुंचाएगा, उतना ही पहला कदम भी पहुंचा रहा है। और अगर पहला नहीं पहुंचाएगा, तो अंतिम कभी पहुंचा नहीं सकता है। यानी जब मैंने द्वारका से कलकत्ता चलने के लिए पहला कदम उठाया, तभी मैं कलकत्ता पहुंचने लगा। कलकत्ता एक कदम पास आ गया और एक—एक कदम पास आता चला जाता है। हालांकि हो सकता है कि छह महीने बाद आप कहें कि अब कलकत्ता आया। लेकिन वह छह महीने पहले ही आना शुरू हो गया था, इसलिए छह महीने बाद आ सका।

इसलिए दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि मृत्यु भविष्य में है, ऐसा मत सोचना आप। मृत्यु प्रतिपल है। और भविष्य क्या है? हमारे सारे वर्तमान का जोड़ है। हम जोड़ते चले जा रहे हैं, जोड़ते चले जा रहे हैं, जोड़ते चले जा रहे हैं। पानी को कोई गर्म कर रहा है। पहली डिग्री पर पानी गर्म हो गया है, लेकिन अभी भाप नहीं बन गया है। दो डिग्री पर पानी गर्म हो गया है, अभी भाप नहीं बन गया है। भाप तो सौ डिग्री पर बनेगा। लेकिन पहली डिग्री पर भी भाप बनने के करीब पहुंचने लगा। दूसरी डिग्री पर, तीसरी डिग्री पर, निन्यानबे डिग्री पर भी पानी भाप नहीं बन गया है, सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। लेकिन क्या आपने खयाल किया है कि सौवीं डिग्री एक ही डिग्री है और पहली डिग्री भी एक ही डिग्री है। निन्यानबे से सौ तक जो यात्रा करनी पड़ी है, वही यात्रा एक से दो तक करनी पड़ी है। उसमें कोई फर्क नहीं है। इसलिए जो जानता है, वह पहली डिग्री पर ही कहेगा कि सावधान, पानी भाप बन जाएगा, हालाकि कहीं पानी भाप बनता हुआ दिखाई नहीं पड़ रहा है। हम कहेंगे, सिर्फ पानी गरम हो रहा है, भाप कहा बनता है? निन्यानबे डिग्री तक हम अपने को धोखा दे सकते हैं कि पानी अभी भाप नहीं बन रहा है। लेकिन सौवीं डिग्री पर पानी भाप बनेगा। और हर डिग्री सौवीं डिग्री को करीब लाती चली जाएगी।

इसलिए मृत्यु भविष्य में है, ऐसा कहकर बचने की, पोस्टपोन करने की कोशिश करनी व्यर्थ है। मृत्यु प्रतिपल है। हम रोज ही मर रहे हैं। असल में जिसको हम जीना कह रहे हैं, उसमें और मरने में कोई फर्क नहीं है। हम जिसको जीना कह रहे हैं, वह धीरे — धीरे मरने का नाम है। मैं नहीं कहता कि भविष्य के लिए सोचें। लेकिन जो हो ही रहा है, उसे देखें। और सोचने के लिए भी नहीं कहता।

उन मित्र ने पूछा है कि मृत्यु के संबंध में क्यों सोचें?

मैं नहीं कहता कि सोचें। सोचकर आप कुछ जान भी न पाएंगे। यह ध्यान रहे कि सोचने से किसी भी तथ्य को कभी नहीं जाना जा सकता है। असल में सोचने की तरकीब तथ्यों को झुठलाने की तरकीब है। अगर एक फूल खिला है और आप फूल के संबंध में सोचें, तो आप फूल को नहीं जान पाएंगे। क्योंकि जितना आप सोचने में चले जाएंगे, उतना ही फूल दूर छूट जाएगा। आप सोचने में आगे निकल जाएंगे, फूल वहीं पड़ा रह जाएगा। फूल को सोचने से क्या मतलब है! फूल एक तथ्य है। अगर फूल को जानना है तो सोचें मत, फूल को देखें।

देखने और सोचने में फर्क है। और यह फर्क महत्वपूर्ण है। पश्चिम सोचने पर बड़ा जोर देता है। इसलिए उन्होंने अपने विचारशास्त्र को फिलासफी का नाम दिया है। फिलासफी का मतलब है, विचार। हमने अपने सोचने के शास्त्र को दर्शन का नाम दिया है। दर्शन का अर्थ है, देखना। दर्शन का अर्थ सोचना नहीं है। जरा समझने जैसी बात है कि हमने दर्शन कहा है, उन्होंने फिलासफी कहा है। इसमें बुनियादी फर्क है। और जो लोग फिलासफी और दर्शन को पर्यायवाची कहते हैं, उन्हें कुछ भी पता नहीं है। ये दोनों पर्यायवाची नहीं हैं। इसीलिए इंडियन फिलासफी जैसी कोई चीज ही नहीं है और पाश्चात्य दर्शन जैसी कोई चीज नहीं है। पश्चिम में जो है, वह विचार शास्त्र है, मीमांसा है, तर्क है, विश्लेषण है। पूरब ने एक और ही फिक्र की है। पूरब ने यह अनुभव किया है कि कुछ तथ्यों को सोचने से जाना ही नहीं जा सकता। तथ्यों को देखना पड़ेगा, जीना पड़ेगा। सोचने और देखने में बड़ा फर्क है।

एक आदमी प्रेम के संबंध में सोचता है। तो हो सकता है, प्रेम के ऊपर शास्त्र लिख सके। लेकिन प्रेमी प्रेम को जीता है, देखता है। हो सकता है, शास्त्र न लिख सके। और प्रेमी से अगर कोई पूछने जाए कि प्रेम के संबंध में कुछ कहो, तो शायद आंखें उसकी बंद हो जाएं, आंसू बहने लगें। और वह कहे, मत कहो, मत कहो, कैसे कह सकता हूं! मत पूछो। प्रेम के संबंध में क्या कह सकता हूं! और जिसने प्रेम पर सोचा है, वह प्रेम पर घंटों समझाएगा, लेकिन प्रेम के कण भर का उसे पता न होगा। सोचना और देखना दो विभिन्न प्रक्रियाएं हैं।

तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मृत्यु के संबंध में सोचें। सोचेंगे तो आप मृत्यु को कभी न जान सकेंगे। देखना पड़ेगा। मैं यह कह रहा हूं कि मृत्यु तो यह खड़ी है, आपके भीतर खड़ी है, इसे देखना पड़ेगा। यह जिसे मैं ‘मैं’ कह रहा हूं, यह मर रहा है पूरे वक्त। इस मरने की घटना को देखना पड़ेगा इस मरने की घटना को जीना पड़ेगा, इस मरने की घटना को स्वीकार करना पड़ेगा कि मैं मर रहा हूं मैं मर रहा हूं मैं मर रहा हूं। झुठलाने की हम बहुत कोशिश करते हैं, हजार तरकीबें हमने निकाली हैं झुठलाने की। सफेद हो गए बाल को खिजाब लगा सकते हैं, लेकिन उससे मौत कुछ झुठला नहीं जाती, वह तो आती है। खिजाब लगे हुए बाल के भीतर भी बाल सफेद ही हैं। वह मौत आनी शुरू हो गई है। वह आएगी ही। उसे हम कैसे झुठलाके? उसे हम कितना ही झुठलाते चले जाएं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी गति चल रही है। ही, इतना ही फर्क पड़ सकता है कि हम उसे जानने से वंचित रह जाएँ।

और मैं यह कह रहा हूं कि जो अभी मृत्यु को ही न जान पाया, वह जीवन को कैसे जानेगा? मैं यह कह रहा हूं कि मृत्यु तो परिधि पर है, जीवन केंद्र पर है। अगर परिधि को ही न जाना, तो केंद्र को हम कैसे जानेंगे? और अगर परिधि से ही भाग खड़े हुए, तो केंद्र के पास तो कभी पहुंच ही न पाएंगे। क्योंकि जिस घर की बाहर की बाउंड्री की दीवाल से मैं डर गया और भाग खड़ा हुआ, उस घर के भीतर के भवन में कैसे प्रवेश करूंगा! मृत्यु है बाहर का घेरा और जीवन है मृत्यु के केंद्र में स्थापित मंदिर। उस बाहर के घेरे से हम भाग रहे हैं, तो हम जीवन से भी भाग जाते हैं। जो मृत्यु को जानेगा जानेगा, जानेगा, वह धीरे — धीरे, धीरे— धीरे मृत्यु के वस्त्रों को हटाकर जीवन को भी जानने लगेगा। मृत्यु द्वार है जीवन को जानने का। मृत्यु से बचे कि जीवन से भी बचे।

तो जब मैं कहता हूं कि मृत्यु को जानें, तथ्य को पहचानें, तो सोचने के लिए नहीं कह रहा हूं। और एक मजे की बात समझ लेनी चाहिए।

सोचने का मतलब है कि जिसे हम जानते हैं, उसको दोहराना। सोचना कभी भी मौलिक नहीं होता। आमतौर से हम कहते हैं कि फलां व्यक्ति के विचार बहुत मौलिक, बहुत ओरिजनल हैं। कोई विचार कभी मौलिक नहीं होता। विचार मौलिक हो ही नहीं सकते। दर्शन मौलिक हो सकता है। विचार तो सदा बासे होते हैं।

अगर आपसे मैं कहूं कि गुलाब के इस फूल के संबंध में सोचिए। आप क्या सोचेंगे? जो आपने गुलाब के संबंध में जाना हुआ है, पहचाना हुआ है, उसी को दोहराएंगे। करेंगे क्या? सोचने में कर क्या सकते हैं आप? क्या गुलाब के फूल के संबंध में एकाध भी अज्ञात, मौलिक दृष्टि आपके सोचने में आ सकती है? कैसे आएगी! सोचना तो विचार का दोहराना है। आप कहेंगे, बड़ा सुंदर है। यह कितनी बार नहीं सुना है, यह कितनी बार नहीं पढ़ा है। कहेंगे कि बिलकुल प्रेयसी के मुख की भांति है। यह भी कितनी बार नहीं सुना है, कितनी बार नहीं पढ़ा है। कहेंगे, बड़ा ताजा है, बड़ा आनंददायी है। लेकिन यह भी कितनी बार नहीं पढ़ा है, कितनी बार नहीं सुना है। क्या आप करेंगे विचार कर? विचार से आप कहां गुलाब के उस फूल में प्रवेश कर पाएंगे? विचार से आप गुलाब के फूल के संबंध में जो स्मृति में बैठा है, उसमें ही प्रवेश कर सकेंगे। अपने ही बासे को आप उघाडकर देखते रहेंगे। इसलिए विचार कभी भी मौलिक नहीं होता। मौलिक विचार जगत में होता ही नहीं। द्रष्टा मौलिक होते हैं।

अगर कोई व्यक्ति गुलाब के फूल को देखे, तो देखने का मतलब है पहली शर्त तो यह है कि विचार न करे। विचार को हटा दे, स्मृति को हटा दे, खाली हो जाए और गुलाब के फूल के साथ जीये। इधर हो गुलाब का फूल, उधर हो वह, बीच में कोई भी न हो। सुना हुआ, पढ़ा हुआ, जाना हुआ, कुछ भी बीच में न हो, अनुभव किया हुआ, कोई भी बीच में न हो। ज्ञात, नोन बीच में न हो। इधर रहूं मैं, उधर हो गुलाब। तब जो अननोन है, वह जो अशांत गुलाब के भीतर बैठा है, वह मेरे प्राणों में प्रवेश करने लगेगा। बीच में कोई बाधा न पाकर वह प्रवेश कर जाएगा। और तब ऐसा नहीं होगा कि ऐसा पता चलेगा कि गुलाब यह है, ऐसा पता चलेगा कि मैं और गुलाब अलग कहां! तब हम भीतर से गुलाब को जान पाएंगे। द्रष्टा भीतर प्रवेश कर जाता है, विचारक बाहर घूमता रहता है। इसलिए विचारक की कोई उपलब्धि नहीं है। जो उपलब्धि है वह द्रष्टा की है। द्रष्टा भीतर प्रवेश कर जाता है, क्योंकि उसके और उसके सामने जो है, उसके बीच कोई दीवाल नहीं रहती। दीवाल टूट जाती, दीवाल मिट जाती।

कबीर ने एक दिन अपने बेटे कमाल को कहा कि वह जाए और गाय— भैंस के लिए जंगल से थोड़ा घास काट लाए। तो कमाल घास काटने जंगल में गया। सुबह का निकला है, दोपहर होने लगी और वह नहीं लौटा। कबीर चिंतित हुए हैं। फिर दोपहर भी ढलने लगी और वह नहीं लौटा। बड़ी चिंता बढ़ गई। फिर सांझ होने लगी, सूरज ढलने के करीब आ गया, तो कबीर और उनके कुछ भक्त ढूँढने निकले कि कमाल गया कहां। जाकर देखते हैं कि जंगल में घनी घास के बीच में कमाल खड़ा है। आंखें बंद हैं और डोल रहा है। हवा के झोंके में जैसे घास डोल रही है वैसे ही कमाल भी डोल रहा है। जाकर उसको हिलाया और पूछा, यह क्या कर रहे हो? उसने आंख खोली और कहा, अरे! बड़ी भूल हो गई।

कबीर ने कहा, कितनी देर लगा दी, यह कर क्या रहे हो? उसने कहा, जब मैं यहां आया, तो बड़ी भूल हो गई। क्या भूल हो गई? उसने कहा कि मैं घास काटना छोड्कर घास को देखने लगा और देखते —देखते कब मैं घास हो गया, मुझे पता ही न रहा। फिर सांझ हो गई। और मुझे पता ही न था कि मैं हूं कमाल, जो घास काटने आया है। मैं तो घास ही हो गया। इतना आनंद था उस घास हो जाने में कि कमाल होने में कभी भी न पाया था। और तुम आ गए तो ठीक किया, अन्यथा पता नहीं. अब तो लौटना न हो पाता क्योंकि मुझे पता ही न था। हवाएं घास को नहीं हिला रही थीं, वे मुझे हिला रही थीं। और यह तो बात ही खतम हो गई थी, काटने वाला और कटने वाला समाप्त हो गया था। यह कमाल ने कहा कि बडी भूल हो गयी, मैं देखने में लग गया।

यह बड़ी भूल नहीं हो गयी, यह बड़ी अदभुत बात हो गयी। और जब भी कोई देखने में लग जाएतो बात एकदम बदल जाती है। हम कुछ भी नहीं देखते! कभी आपने अपनी पत्नी को देखा है? कभी अपने बेटे को देखा है? जिनके साथ आप बरसों से जी रहे हैं, कभी उन्हें देखा है? सोचा है सदा कि कल इस पत्नी ने क्या—क्या किया था, वह बीच में खड़ा रहा। सुबह दफ्तर जाते वक्त उसने कैसा झगड़ा किया था, वह बीच में खड़ा हुआ है। खाना खाते वक्त उसने क्या कहा था, वह बीच में खड़ा हुआ है। सोचा है सदा, देखा कभी भी नहीं। और इसलिए कोई भी संबंध नहीं है पति और पत्नी के बीच, बाप और बेटे के बीच कोई संबंध नहीं है, मां और बेटे के बीच कोई संबंध नहीं है। संबंध तो वहां होता है, जहां विचार विलीन होता है और दर्शन शुरू होता है। तब संबंध होता है, क्योंकि तब बीच में तोड्ने वाला कोई भी नहीं रह जाता।

ध्यान रहे, संबंध का मतलब ऐसा नहीं है कि दो को जोड्ने वाला कोई हो। जब तक जोड्ने वाला बीच में कोई होगा, तब तक तोड्ने वाला मौजूद है। क्योंकि जो जोड़ता है वह तोड़ता है। जिस दिन जोड्ने वाला भी बीच में कोई मौजूद नहीं रह जाता, दो ही रह जाते हैं, बीच में कोई नहीं रह जाता, उस दिन एक ही रह जाता है, उस दिन दो नहीं रह जाते। संबंध का मतलब ऐसा नहीं है कि जिससे हम जुड़े हैं। संबंध का मतलब यह है कि जिसके और हमारे बीच कुछ भी नहीं है, कोई है ही नहीं बीच में, जोड्ने तक को कोई नहीं है। वहां धाराएं विलीन हो जाती हैं और एक दूसरे में लीन हो जाती हैं। इसका नाम प्रेम है। दर्शन प्रेम में ले जाता है। प्रेम का सूत्र है दर्शन। और जिसने प्रेम नहीं किया उसने कभी कुछ नहीं जाना। चाहे किसी भी चीज को जानने गया हो, तो प्रेम से ही जाना है।

अब जब मैं कहता हूं कि मृत्यु को जानना है, तो मृत्यु से भी प्रेम करना पडेगा, मृत्यु का भी दर्शन करना पड़ेगा। और वह जो भयभीत है, वह भागा हुआ है, वह प्रेम कैसे करे? वह दर्शन कैसे करे? वह मृत्यु को देखे कैसे? मृत्यु सामने खड़ी हो जाए, तो वह पीठ फेरकर खड़ा हो जाता है। वह आंख बंद कर लेता है, वह —मृत्यु को कभी सामने नहीं आने देता है। वह भयभीत है, वह डरा हुआ है। इसलिए वह मृत्यु को कभी न देख पाता है, न प्रेम कर पाता है। और जो अभी मृत्यु को ही प्रेम न कर पाया, वह जीवन को कैसे प्रेम करेगा। क्योंकि मृत्यु तो बड़ी ऊपर की घटना है, जीवन बड़ी गहरे की घटना है। जो कुएं की पहली सीडी से लौट आया, वह कुएं के जल तक कैसे पहुंचेगा।

इसलिए मृत्यु को तो जीना पड़ेगा, जानना पड़ेगा, देखना पड़ेगा, प्रेम करना पडेगा, उसके साथ आंख मिलानी पड़ेगी। और जैसे ही कोई आंख मृत्यु से मिलाता है, जैसे ही कोई खड़े होकर उसे देखने लगता है, जैसे ही कोई उसमें प्रवेश कर जाता है, वह हैरान होता है। कितना बड़ा रहस्य छिपा है मृत्यु में कि जिसे हम मृत्यु जानकर भागते थे, उसके भीतर परम जीवन का स्रोत छिपा है। इसलिए मैं कहता हूं, मरें स्वेच्छा से, ताकि जीवन को पहुंच सकें।

जीसस का एक अदभुत वचन है। जीसस ने कहा है कि जो अपने को बचाएगा, वह मिट जाएगा; और जो अपने को मिटाएगा, उसको मिटाने वाला कोई भी नहीं है। जो अपने को खो देगा, वह पा लेगा, और जो अपने को बचाएगा, वह खो जाएगा।

एक बीज अगर अपने को बचाने में लग जाए, तो सिर्फ सडेगा और क्या होगा! और एक बीज अगर अपने को मिटा दे जमीन में और खो जाए, तो वृक्ष बन जाएगा। बीज की मृत्यु वृक्ष का जीवन बन जाती है। और बीज अगर अपने को बचाने लगे और कहे कि मैं डरता हूं, मैं मर नहीं सकता हू मैं खो नहीं सकता हूं मैं अपने को क्यों खोऊं? तो फिर बीज सडे—गा। फिर बीज भी न रह जाएगा वृक्ष होना तो बहुत दूर है। हम डरकर सिकुड़ जाते हैं, मौत से डर कर हम सिकुड़ जाते हैं।

मैं यहां एक बात और कहना चाहता हूं जो आपके खयाल में कभी न आई होगी। सिर्फ मृत्यु से डरे हुए आदमी में अहंकार होता है। क्योंकि अहंकार है सिकुड़ा हुआ व्यक्तित्व—ठोस गांठ। जो मौत से डरा, वह सिकुड़ जाता है, क्योंकि जो डरता है उसे सिकुड़ना पड़ता है, जो सिकुड़ता है वह गांठ बन जाता है भीतर, एक कांप्लेक्स बन जाता है। मैं का जो भाव है, वह मौत से डरे हुए आदमी का भाव है। और जो आदमी मौत में उतर जाता है, जो उससे डरता नहीं है, भागता नहीं है, उसको जीने लगता है, उसका मैं विलीन हो जाता है, उसका अहंकार विलीन हो जाता है। और जब अहंकार विलीन हो जाता है, तो जीवन ही रह जाता है, जीवन ही रह जाता है। इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सिर्फ अहंकार ही मरता है, आत्मा नहीं मरती है। और हम चूंकि अहंकार ही बने रहते हैं, इसलिए बड़ी मुश्किल हो जाती है। अहंकार ही मर सकता है, उसकी ही मृत्यु है, क्योंकि वह झूठ है। उसे मरना ही पड़ेगा। और हम उसी को पकड़े हुए हैं।

जैसे समझ लें कि सागर में एक लहर उठ रही है अभी। अभी पीछे सागर लहरें ले रहा है, उसमें एक लहर उठी। अगर लहर लहर की तरह बचना चाहे, तब तो नहीं बच सकती, मरेगी ही। लहर लहर की तरह कैसे बच सकती है! मरेगी ही। ही, एक रास्ता है कि बर्फ बन जाए, फ्रोजन हो जाए, सिकुड़ जाए, ठोस हो जाए, तो बच सकती है। अगर लहर बर्फ हो जाए तो बच सकती है, लेकिन उस बचने में भी लहर गई, बर्फ रह गई—बंद, टूटा हुआ।

ध्यान रहे, लहर टूटी नहीं है, सागर से एक है; लेकिन बर्फ टूट जाती है सागर से, वह अलग हो गई। बर्फ सख्त हो गयी, फ्रोजन हो गयी, सिकुड़ गयी, जम गयी। तो लहर तो सागर के साथ एक थी, लेकिन बर्फ का टुकड़ा अगर हो जाए, तो बच तो जाएगी, लेकिन सागर से टूट जाएगी। और कितनी देर बची रहेगी? जो जमा है, वह पिघलेगा। गरीब लहर जरा जल्दी पिघल जाएगी, अमीर लहर जरा देर से पिघलेगी और क्या फर्क होगा? जरा बडी लहर होगी, तो देर लगेगी सूरज की रोशनी को उसे पिघलाने में, छोटी लहर होगी, जल्दी पिघल जाएगी। इतना ही फर्क होगा। समय का ही फर्क हो सकता है। पिघलेगी, पिघलेगी। और रोकी, चिल्लाकी, क्योंकि जैसे ही पिघलेगी वैसे ही मिटेगी। लेकिन लहर अगर लहर की तरह अपने को खो ही दे और नीचे उतर कर जान ले कि सागर ही है, तो फिर लहर को मिटने का सवाल ही मिट जाता है.। फिर वह मिटे तो है, न मिटे तो है। क्योंकि वह जानती है कि मैं लहर नहीं हूँ? तब वह जानती है .कि मैं सागर हूं। जब सब लहर खो जाती हैं, तब भी वह है, तब वह विश्राम में है। और जब लहर उठती है, तब वह श्रम में है। और श्रम से विश्राम कम सुखद नहीं है। ज्यादा ही सुखद है।

एक श्रम का होना है, एक विश्राम का होना है। जिसे हम संसार कहते हैं, वह श्रम का होना है; और जिसे हम मोक्ष कहते हैं? वह विश्रामपूर्ण होना है। ऐसे ही जैसे लहर है, हवाओं से लड़ती है, टकराती है, परेशान है। और फिर लहर सो गई है। अब भी है —जो था, वह अब भी है—अब भी वह सागर में है, लेकिन विश्राम में है। लेकिन अगर कोई लहर—लहर की तरह अपने को मान ले, तो अंहकार से भर गई; और तब वह सागर से अपने को तोड़ना चाहेगी, क्योंकि जिसको ऐसा खयाल हो जाए कि मैं हूं, वह सबके साथ मिला हुआ कैसे रहे। मिला हुआ रहे, तो फिर मैं का पता नहीं चलता। इसलिए मैं कहता है) तोड़ लो सबसे अपने को। और कितना मजा है कि तोड़कर बड़ा दुःख होते है। इसलिए फिर मैं कहता है, जोड़ो सबसे अपने को। इतना चक्कर है मैं का। पहले वह कहता है तोड़ो सबसे अपने को, आइसोलेट करो, क्योंकि तुम अलग हो। तुम सबसे कैसे जुड़े रह सकते हो! तो मैं अपने को तोड़ लेता है। फिर तोड़ कर वह परेशानी में पड़ जाता है, क्योंकि टूटते ही दुख शुरू हो जाता है, क्योंकि टूटते ही मौत शुरू हो जाती है। लहर ने जैसे ही अपने को जाना कि सागर से अलग हूं उसका मरना शुरू हुआ, मौत आई। अब मौत से बचना पड़ेगा, अब वह संघर्ष में पड़ जाएगी। जब तक वह सागर से एक थी, मौत थी ही नहीं, क्योंकि सागर नहीं मरता है।

ध्यान रहे, सागर बिना लहर के भी हो सकता है, लहर बिना सागर के नहीं हो सकती है। आप लहर नहीं ला सकते हैं बिना सागर के। सागर आ ही जाएगा लहर में। लेकिन सागर बिना लहर के हो सकता है। सब लहरें शाति में हैं, विश्राम में हैं। लहर ने जैसे ही चाहा कि मैं बचाऊं अपने को अलग, वैसे ही कठिनाई शुरू हो गई और वह सागर से टूट गई और मौत शुरू हो गई।

और इसलिए मरने वाला प्रेम करना चाहता है। हम सब मरने वाले प्रेम के लिए इसीलिए इतने आतुर हैं कि प्रेम फिर जोड्ने का उपाय बनता है। इसलिए हम में से कोई भी बिना प्रेम के जीने में बड़े दुख में है। प्रेम चाहिए, कोई प्रेम ले, कोई प्रेम दे। और जिस व्यक्ति को प्रेम न मिले, उसकी बडी मुश्किल हो जाती है। मगर हमने कभी सोचा कि प्रेम का मतलब क्या है? यानी प्रेम का मतलब यह है कि वह जो हमने विराट से तोड़ दिया है नाता, अब उसको हम फिर टुकड़े—टुकड़े में जोड्ने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए एक प्रेम तो वह है जिसमें हम टुकड़े—टुकड़े से जोडने की कोशिश कर रहे हैं, उसका नाम प्रेम है। और एक प्रेम वह है, जहां हमने तोड्ने की कोशिश बंद कर दी है, उसका नाम प्रार्थना है।

इसलिए प्रार्थना जो है पूर्ण प्रेम का नाम है। उसका मतलब बहुत भिन्न है। उसका मतलब यह नहीं है कि हम एक—एक टुकड़े से जोड्ने की कोशिश कर रहे हैं। उसका मतलब है, हमने तोडना बंद कर दिया है। लहर ने कहा कि मैं सागर हूं, अब वह हर लहर से अपने को जोड्ने की कोशिश नहीं कर रही है। और ध्यान रहे, लहर खुद ही मरी जा रही है, पड़ोस की लहरें भी मरी जा रही हैं। अगर लहर ने लहर से संबंध जोड्ने की कोशिश की, तो मुश्किल में पड़ जाने वाली है।

इसलिए जिसको हम प्रेम कहते हैं, वह अत्यंत दुखदायी है, क्योंकि लहर लहर से संबंधित होने की कोशिश कर रही है। यह लहर भी मर रही है, वह लहर भी मर रही है। दोनों लहरें मर रही हैं। और दोनों लहरें इस आशा में दूसरे से जुड़ रही हैं कि शायद जुड़ने से हम बच जाएं। इसलिए प्रेम को हम सुरक्षा बना रहे हैं। इसलिए कोई अकेला रहने में डरता है। पत्नी चाहिए, पति चाहिए, बेटा चाहिए, मां चाहिए, भाई चाहिए, मित्र चाहिए, समाज चाहिए, संगठन चाहिए, राष्ट्र चाहिए। ये सब अहंकार की चेष्टाएं हैं। जिसने तोड़ लिया है, फिर वह जोड्ने की कोशिश में लगा हुआ है।

लेकिन सब जोड्ने की कोशिश मौत ला रही है। क्योंकि जिससे हम जुड़ रहे हैं, वह भी उतना ही मरण से घिरा हुआ है, उतना ही अहंकार से घिरा हुआ है। और मजे की बात यह है कि वह हमसे जुड़कर अमर होना चाहता है, हम उससे जुड़कर अमर होना चाहते हैं। और दोनों मरणधर्मा हैं, कैसे अमर हो सकते हैं? मौत दुगुनी हो सकती है, अमृत बिलकुल नहीं हो सकती है।

इसलिए दो प्रेमी कितनी आशा करते हैं कि प्रेम अमर हो जाए, दिन रात गीत गाते हैं, अनंतकाल से कविताएं लिख’ रहे हैं कि प्रेम अमर हो जाए। वह अमर होने की आकांक्षा दो मरणधर्मा मिलकर कैसे कर सकते हैं? दो मरणधर्मा मिलेंगे, तो सिर्फ मौत दुगुनी होती है और कुछ भी नहीं होता है। कैसे कुछ और हो सकता है? और दोनों पिघलते जा रहे हैं, और दोनों गिरते जा रहे हैं, और दोनों मिटते जा रहे हैं। इसलिए दोनों भयभीत हैं, चिंतित हैं।

लहरें अपने संगठन बनाए हुए हैं। वे कहती हैं, हमें बचना है। राष्ट्र बनाए हुए हैं, हिंदू— मुसलमान संप्रदाय बनाए हुए हैं। लहरें अपने संगठन बनाए हुए हैं। और सब संगठन मिट जाने वाले हैं, क्योंकि नीचे सागर ही एकमात्र संगठन है। और सागर का संगठन बिलकुल और बात है। उसका मतलब यह नहीं है कि लहर अपने ‘ से सागर को जोड़ लेती है, उसका यह मतलब है कि लहर जानती है कि मैं अलग ही नहीं हूं। इसलिए मैं कहता हूं कि धार्मिक व्यक्ति का कोई संगठन नहीं होता, न कोई परिवार होता है, न उसका कोई मित्र होता है, न उसका कोई पिता है, न कोई भाई है।

जीसस ने कुछ बड़े कठोर शब्द कहे हैं। असल में इतने कठोर शब्द भी केवल वे ही लोग कह सकते हैं, जो प्रेम को उपलब्ध हो गए हैं। जिनका प्रेम कमजोर है, वे कठोर शब्द भी तो नहीं कह सकते। एक दिन बाजार में जीसस के पास बहुत लोग भीड लगाए हुए खडे हैं और जीसस की मां मरियम उनसे मिलने आई है। तो भीड़ में लोग उसे रास्ता दे रहे हैं। और कोई चिल्ला रहा है, रास्ता दो, जीसस की मा आ रही है! रास्ता दो, जीसस की मां को भीतर आने दो। तो जीसस भीतर से चिल्लाते हैं कि अगर जीसस की मां को रास्ता दे रहे हो, तो देना ही मत, क्योंकि जीसस की कोई मां नहीं है। मरियम एकदम चौंक कर खडी हो गई। और जीसस घिरे हुए लोगों से कहते हैं कि जब तक तुम मां —बाप को न मिटा पाओ, तब तक मेरे पास न आ सकोगे। जब तक तुम्हारी मां है, जब तक तुम्हारे पिता हैं, जब तक तुम्हारे भाई हैं, तुम्हारी पत्नी है, तब तक तुम मेरे पास न आ सकोगे।

बड़ा कठोर है। हम सोच भी नहीं सकते कि जीसस जैसा प्रेम से भरा हुआ आदमी यह कहेगा कि कोई मेरी मां नहीं है, कौन मेरी मां है? मरियम चौंक कर खड़ी हो गई। और जीसस कहते हैं कि क्या तुम इस स्त्री को मेरी मां कहते हो? कोई मेरी मां नहीं है! और ध्यान रहे, अगर तुम्हारी मां हो अभी, तो तुम मेरे पास न आ सकोगे।

क्या मामला है! असल में जो लहर लहर से संगठित हो रही है, वह सागर के पास न जा सकेगी। असल में सागर से बचने के लिए ही लहर—लहर आपस में संगठन बनाती हैं। अकेली लहर को ज्यादा डर मालूम पड़ता है कि खो न जाऊं, खो न जाऊं। खो ही रही है लहर। तो दस—पांच लहरें इकट्ठी हो जाएं, तो थोड़ी हिम्मत बंधती है। थोडा संगठन हो गया, तो थोड़ी भीड़ हो गई।

इसलिए आदमी क्राउड में, भीड़ में जीना पसंद करता है, अकेले में घबड़ाता है। क्योंकि अकेले में बिलकुल अकेली लहर रह जाती है, जो दोनों तरफ से फिसल रही है, गिर रही है, मिट रही है, मिटने के करीब पहुंच रही है। इसलिए संगठन बनाता है, इसलिए श्रृंखला बनाता है। बाप कहता है कि मैं मिट जाऊंगा, कोई फिक्र नहीं, बेटे को छोड़ जाऊंगा। लहर कहती है, मैं मिट जाऊंगी, लेकिन मैं एक छोटी लहर उठाए जाती हूं। वह तो जारिगी, मेरी श्रृंखला रहेगी, मेरा नाम रहेगा। इसलिए बाप को बेटा न हो तो बड़ा दुख होता है, क्योंकि वह अमरत्व का कोई इंतजाम नहीं कर पाया। वह तो मिटेगा, लेकिन वह एक दूसरी लहर को पैदा न कर पाया जो आगे चलती चली जाए, जो कम से कम इतना तो कहे कि उस लहर से पैदा हुई थी। वह लहर मिट गई, कोई बात नहीं, लेकिन एक लहर पीछे छोड़ गई है।

इसलिए आपने ध्यान कभी दिया हो न दिया हो, जिन लोगों के जीवन में कोई सृजनात्मक गतिविधि होती है —जैसे कोई पेंटर, कोई चित्र बनाने वाला, कोई संगीतज्ञ, कोई कवि, कोई लेखक—उनको बेटा पैदा करने की उतनी फिक्र नहीं होती। इसका कुल कारण इतना है कि वे बेटे की सब्‍स्‍टीट्यूट को पा जाते हैं। उनकी पेंटिंग जिंदा रहेगी, उनकी कविता जिंदा रहेगी, उनकी मूर्ति जिंदा रहेगी, उनको बेटे की कोई फिक्र नहीं। इसलिए वैज्ञानिक, चित्रकार, मूर्तिकार, लेखक, कवि, उतनी फिक्र नहीं करते बेटे वगैरह की। उसका और कोई कारण नहीं है, उन्होंने एक दूसरा बेटा पा लिया है। उन्होंने एक लहर पैदा कर दी, जो जिंदा रहेगी। और आपसे ज्यादा देर तक टिकने वाला बेटा पा लिया है। क्योंकि जब आपके बेटे खो जाएंगे, तब भी उनकी किताब रहेगी।

इसलिए साहित्यकार बहुत फिक्र में नहीं रहता कि उसको बेटा हो जाए, उसको संतति हो जाए, उसकी चिंता नहीं है उसे। इसका मतलब यह नहीं है कि वह निश्चित है। इसका कुल मतलब इतना है कि उसको थोड़ी लंबी देर तक टिकने वाली लहर मिल गयी है। अब वह फिक्र छोड़ता है छोटी लहरों की। इसलिए परिवार में वह उत्सुक नहीं है। उसने और तरह का परिवार बना लिया है। वह भी उतनी ही अमरता की चेष्टा में लगा हुआ है। इसलिए साहित्यकार कहेगा कि धन खो जाएगा, संपत्ति खो जाएगी, लेकिन शास्त्र रहेगा। उसकी वही आकांक्षा है।

शास्त्र भी खो जाते हैं। कोई शास्त्र नहीं रह जाता। ही, थोड़ी ज्यादा देर तक रहता है। कितने शास्त्र खो गए, कितने शास्त्र रोज खोते चले जाएंगे। सब खो जायेगा। असल में लहरों की दुनिया में कितनी ही लंबी कोई लहर चली जाए, खोएगी ही। लहर होने का मतलब खोना है, लंबाई का कोई फर्क नहीं पड़ता।

इसलिए लहर हूं मैं, अगर ऐसा जाना, तो मौत से बचने की इच्छा रहेगी, डर रहेगा, घबड़ाहट रहेगी। मैं कह रहा हूं कि मौत को देखें, न बचें, न घबराएं, न भागें। देखें, और देखने से आपको लगेगा कि जो इस तरफ से मौत थी, वह थोड़े भीतर जाने से पता चलता है कि वही जीवन है। तब लहर सागर हो जाती है। तब मिटने का भय मिट जाता है। तब वह सख्त, फ्रोजन होकर बर्फ नहीं बनना चाहती। तब वह जितनी देर आकाश में नाचती है, सूरज की रोशनी में खुश है। और जब विश्राम करती है, तब विश्राम में खुश है। इसलिए वह जीवन में खुश है, और मृत्यु में खुश है। क्योंकि वह जानती है कि जो है, वह न तो जन्मता है, और न मरता है; जो है, वह है। रूप बदलते रहते हैं, रूप बदलते चले जाते हैं।

हम सब भी चेतना के सागर पर उठी हुई लहरें हैं। हममें से कुछ बर्फ हो गए हैं, अधिक बर्फ हो गए हैं। अहंकार बर्फ है, सख्त पत्थर की तरह। कितना आश्चर्य है कि पानी जैसी तरल चीज बर्फ जैसी, पत्थर जैसी कठोर हो सकती है! पानी जैसी तरल चीज पत्थर जैसी कठोर हो सकती है, अगर जमने की आकांक्षा पैदा हो जाए। तो चेतना जैसी सरल चीज, तरल चीज जमकर अहंकार, ईगो बन जाती है, अगर जमने की इच्छा पैदा हो जाए। और हम सब जमने की इच्छा से भरे हुए हैं, इसलिए हम बहुत तरह के उपाय करते हैं कि हम कैसे जम जाएं।

पानी के बर्फ बनने के नियम हैं। आदमी के अहंकार बनने के भी नियम हैं। पानी को बर्फ बनना पड़े, तो ठंडा होना पड़ता है। समझ रहे हैं आप, पानी को बर्फ बनना पड़े तो ठंडा होना पड़ता है, उष्णता खोनी पड़ती है, ठंडा, ठंडा, ठंडा हो जाना पड़ता है। जितना ही ठंडा हो जाता है, उतना ही सख्त होता चला जाता है। जिस आदमी को अहंकार बनना हो, उसको भी ठंडा होना पड़ता है, वार्म्‍थ खोनी पड़ती है, गर्मी खोनी पड़ती है। इसलिए आपने देखा कि हम कहते हैं हाट वेल्कम, गरम स्वागत। इसका मतलब आप समझते हैं! स्वागत हमेशा ही गरम होता है। कोल्ड वेल्कम का कोई मतलब ही नहीं होता है, ठंडे स्वागत का कोई मतलब नहीं होता है।

प्रेम का अर्थ ही गर्मी है, ठंडे प्रेम का कोई अर्थ नहीं होता। प्रेम ठंडा होता ही नहीं, उष्णता है उसमें। असल में जीवन में उष्णता है, मौत ठंडी है। इस फर्क को समझ लेना चाहिए। मौत बिलकुल ठंडी है। जीरो के नीचे, बर्फ उसके भीतर जमा हुआ है, जिंदगी सदा गरम है। इसलिए सूरज जीवन का प्रतीक है, वह गर्मी का प्रतीक है। सुबह वह उगता है, तो मौत बिदा हो जाती है। सब गर्म, उष्ण हो जाता है। फूल खिल जाते हैं, पक्षी गीत गाने लगते हैं। उष्णता जीवन का प्रतीक है, ठंडक मौत का।

तो जिसको अहंकार बनना हो, उसको ठंडा होना पड़ता है। और ठंडा होने के लिए वे सब चीजें खोनी पड़ती हैं, जो गर्म करती हैं। जो व्यक्तित्व को उष्मा देती हैं, उन सबको खोना पड़ता है। जैसे प्रेम ऊर्जा देता है, घृणा ठंडक देती है। तो प्रेम छोड़ना पड़ता है, घृणा पकड़नी पड़ती है। दया, सहानुभूति गर्मी लाती हैं, कठोरता, निर्दयता ठंडक लाती हैं।

जैसे पानी के जमने के नियम हैं, वैसे मनुष्य के मन के जमने के नियम हैं। नियम वही है कि ठंडे होते चले जाएं। हम कहते हैं न कभी किसी आदमी को कि बिलकुल ठंडा आदमी है। कोई उसमें गर्मी नहीं है। पत्थर की तरह हो जाता है वह।

ध्यान रहे कि जितना गर्म होता है, उतना तरल होता है, लिक्यीडिटी होती है, बहाव होता है जीवन में। तब वह दूसरों में भी प्रवेश कर जाता है, दूसरे उसमें प्रवेश कर जाते हैं। लेकिन ठंडा तो सख्त हो जाता है, फिर किसी में प्रवेश नहीं हो पाता, सब तरफ से क्लोजिंग हो जाती है, सब तरफ से बंद हो जाता है। न उसमें कोई प्रवेश कर सकता है, न उसका किसी में प्रवेश हो सकता है। अहंकार जमी हुई बर्फ है और प्रेम पिघल गया पानी, बह गया पानी है। मौत से जो डरेगा, मौत से जो भागेगा, यह बड़े मजे की बात है कि मौत से जो डरेगा और भागेगा, वह ठंडा होता चला जाएगा। क्योंकि यह डर कि मैं कहीं मर न जाऊं, कहीं टूट न जाऊं, मिट न जाऊं, सिकोडेगा, सख्त हो जाएगा, मजबूत हो जाएगा।

मैं एक मित्र के घर में कुछ दिन तक रहता था। वह बड़े धन वाले हैं, बहुत संपदा है। लेकिन एक बात जानकर मैं हैरान हुआ। वे कभी किसी से सीधे न बोलेंगे। ऐसे आदमी अच्छे हैं। जब मैं उनके घर रहा तो मैं बहुत हैरान हुआ कि भीतर से वे बहुत तरल हैं, बाहर से बहुत ठोस हैं। नौकर उनके सामने थरथराका, उनका बेटा उनके सामने कांपेगा, उनकी पत्नी उनके सामने डरेगी। कोई उनके घर जाने में दस दफे सोचेगा कि जाना कि नहीं जाना। द्वार पर भी खड़े होकर डर कर —ही घंटी बजाएगा कि भीतर प्रवेश करना कि नहीं।

जब मैं उनके करीब रहा और उन्हें निकट से जाना, तो मैंने कहा, यह क्या मामला है! आप आदमी तो बड़े तरल हैं। तो उन्होंने कहा, मुझे बड़ा डर लगता है। किसी से भी संबंध बनाना खतरनाक है, क्योंकि संबंध बनाओ कि आज नहीं कल, वह पैसा मांगना शुरू कर देता है। अगर पत्नी के सामने विनम्र रहो, प्रेमपूर्ण रहो, तो खर्च बढ़ जाता है। अगर बेटे के सामने अकड़े न रहो, तो उसका जेब—खर्च बढ़ता चला जाता है। अगर नौकर से ठीक से बोलो, तो वह भी मालिक बनने की कोशिश शुरू कर देता है। तो एक ठोस दीवाल चारों तरफ खड़ी करनी पड़ती है कोल्डनेस की, ठंडेपन की, जिससे पत्नी भी डरे, बेटा भी बाप के सामने जाने से डरे।

और कितने बाप ऐसा नहीं किए हुए हैं? सच तो यह है कि शायद ही किसी घर में ऐसा हो कि बाप और बेटे कभी बैठकर प्रेम से मिलते हों, शायद ही। बेटे को जब रुपए चाहिए तब वह बाप के पास जाता है, और बाप को जब कोई उपेदश देना हो तब वह बेटे को मिलता है, अन्यथा कोई मिलना नहीं होता। मिलन ही नहीं होता। बाप और बेटे के बीच कोई मिलन ही नहीं है। क्योंकि बाप डरा हुआ है, वह ठोस दीवाल खड़ी किए हुए है। बेटा भी भयभीत है। वह भी बचकर निकलता रहता है। कहीं कोई ताल—मेल नहीं होता। जितना जो व्यक्ति डरेगा, उतना वह ठोस हो जाएगा। जिसने सुरक्षा की, सिक्योरिटी की फिक्र की, वह ठोस हो जाएगा। क्योंकि तरल में बहुत डर है, इनसिक्योरिटी है।

इसलिए हम प्रेम करने में भी बड़ा डरते हैं। और बड़ा पक्का जांच —पड़ताल कर लेते हैं तब प्रेम करते हैं। यानी जिस आदमी से कोई डर नहीं, फिर उससे हम प्रेम करते हैं। इसीलिए तो हमने विवाह ईजाद किया कि पहले विवाह कर लो, पहले सब इंतजाम कर लो, फिर प्रेम करेंगे। क्योंकि प्रेम खतरनाक है। प्रेम तरल चीज है, कोई भी व्यक्ति में प्रवेश हो सकता है। राह चलते आदमी से प्रेम करना खतरनाक है, क्योंकि हो सकता है रात में सब सामान उठाकर ले जाए। इसलिए पहले पक्का पता लगा लो कि यह आदमी कौन है, क्या है, इसके मां —बाप कहां के हैं, इसका चरित्र कैसा है, इसमें गुण क्या हैं? सब इंतजाम कर लो, पूरी सामाजिक सुरक्षा कर लो, फिर घर में लाओ।

हम डरे हुए लोग, पहले सुरक्षा कर लेंगे। और जितनी हम सुरक्षा करते हैं, उतनी सख्त ठंडी दीवाल बर्फ की चारों तरफ खड़ी हो जाती है और वह सारे व्यक्तित्व को सिकोड़ देती है। हमारा परमात्मा से और कहीं संबंध—विच्छेद नहीं हुआ है। हम तरल नहीं हैं, लिक्विड नहीं हैं, सालिड हो गए हैं, बस इतना ही विच्छेद है। हम तरल नहीं हैं, ठोस हो गए हैं, हम पानी नहीं हैं, हम बर्फ हो गए हैं, इतना ही विच्छेद है। हम तरल हो जाएं, विच्छेद विलीन हो जाएगा।

लेकिन हम तरल तभी होंगे, जब हम मौत को देखने और जीने के लिए राजी हो जाएं। और हम स्वीकार कर लें कि मौत है। हम देख लें, पहचान लें कि मौत है, फिर क्या भय रह जाएगा। जब मौत ही है, जब लहर को यह पता ही है कि मिटना ही है, जब लहर को यह पता चल गया कि बनने में ही मिटना छिपा है, जब लहर को यह पता चल गया कि जब मैं बनी थी, तभी मिटना शुरू हो गया था, तो बात खतम हो गई। अब बर्फ बनने की क्या जरूरत है! जितनी देर लहर हूं लहर हूं, जितनी देर सागर हूं सागर हूं। बात समाप्त हो गई। तब सब स्वीकृत है। तो उस एक्सेप्टिबिलिटी से, उस स्वीकार से लहर सागर हो जाती है। तब सब चिंता मिट जाती है मिटने की, क्योंकि तब लहर जानती है कि मिटने के पहले भी मैं थी और मिटने के बाद भी मैं हूं। मैं की तरह नहीं, असीम सागर की तरह।

और लाओत्से ने कहा है मरते समय…..किसी ने लाओत्से से पूछा कि आप अपने जीवन के कुछ रहस्य बता दें। लाओत्से ने कहा कि पहला रहस्य तो यह है कि मुझे जिंदगी में कोई कभी हरा नहीं सका। शिष्य बड़े उत्सुक हो गए। उन्होंने कहा, यह तो आपने हमें कभी बताया नहीं। जीतना तो हम भी चाहते हैं। हमें तरकीब बताइए। लाओत्से ने कहा, तुम भूल कर गए। मैंने कुछ और कहा। मैंने कहा कि मुझे कोई हरा न सका, और तुम पूछते हो जीतना तो हमें भी है। ये दोनों बातें बिलकुल उलटी हैं। स्व—सी लगती हैं भाषाकोश में, शब्द की दुनिया में इनका एक ही अर्थ है कि जो नहीं हारा, मतबल जीता। लाओत्से ने कहा, तुम गलत समझ गए। मैंने इतना ही कहा कि मुझे कोई हरा नहीं सका। और तुम कहते हो कि जीतना हमें भी है। तुम भाग जाओ, तुम मेरी बात नहीं समझ सकोगे। शिष्यों ने कहा, फिर भी हमें समझाएं। तरकीब तो हमें बता दें, क्या तरकीब थी कि आप नहीं हारे? लाओत्से ने कहा, मुझे कोई हरा न सका, क्योंकि मैं सदा हारा हुआ था। हराने का उपाय ही न था, मुझे कोई हरा कैसे सकता था। लाओत्से ने कहा, मुझे कोई हरा न सका, क्योंकि मैंने कभी जीतना ही न चाहा। असल में मेरी लड़ाई ही खड़ी न हो सकी। मुझसे कोई लड़ने भी आया, तो मैं हारा ही हुआ था। उस आदमी को भी हराने में कोई मजा न आया, क्योंकि हराने में उसी को मजा आता है जो जीतना चाहता हो। जो जीतना ही नहीं चाहता, उसको हराने में क्या मजा आएगा!

असल में किसी के दूसरे के अहंकार को मिटाने में मजा आता है, क्योंकि उसको मिटाने में हमारा अहंकार मजबूत होता है। लेकिन अगर कोई मिटा ही हुआ है, तो उसको मिटाने में क्या मजा आएगा। हमारे अहंकार को उससे कोई स्‍फूर्ति नहीं मिलती। दूसरे के अहंकार को जितना हम तोड़ पाते हैं, उतना हमारा अहंकार मजबूत होता है। दूसरे का टूटा हुआ अहंकार हमारे अहंकार की मजबूती, स्ट्रेन्ध बनता है। लेकिन अब एक आदमी टूटा ही हुआ है। अगर समझ लें कि किसी को मैं हराने जाऊं, उसे गिराऊं उसके पहले वह लेट जाए। इसके पहले मैं उसको छाती पर बैठूं? वह मुझे बुलाकर बिठा ले। तब क्या हालत हो जाए? तब यह हालत हो जाए कि वहा से भागना पड़े। अब क्या किया जाएगा? और वह आदमी हंसने लगे और वह कहे कि बैठो, आराम से बैठो, कहां भागे जा रहे हो? तो मूढ़ कौन हो जाएगा! मूढ़ वह हो जाए जो छाती पर बैठ गया है और वह आदमी हंसता रहे और उसकी हंसी जिंदगी भर गूंजती रहे।

तो लाओत्से ने कहा, जब मुझे कोई हराने आया, मैं फौरन गिर गया और मैंने कहा, आओ, मेरे ऊपर बैठ जाओ। ऊपर ही बैठने आए हो न! तकलीफ न करो, परेशान मत होओ, मेहनत मत उठाओ, आओ ऊपर बैठ जाओ।

उसने अपने शिष्यों से कहा कि लेकिन तुम दूसरी बात पूछते हो, तुम पूछते हो कि ऐसी कोई तरकीब बताओ जिससे हम जीत जाएं। अगर तुमने जीतने की सोची, तो तुम हारोगे। जीतने की सोचने वाला हारता ही है। असल में जीतने की सोचने में ही हार शुरू हो गई।

और लाओत्से ने कहा, मेरा कभी कोई अपमान नहीं कर सका। तो एक शिष्य ने पूछा, इसका भी राज बताइए, क्योंकि अपमान हमें भी बहुत तकलीफ देता है। लाओत्से ने कहा, फिर भूल हुई जा रही है। मेरा कोई अपमान न कर सका, क्योंकि मैंने मान की कोई आकांक्षा न की। और तुम्हारा अपमान होता ही रहेगा, क्योंकि तुम मान की आकांक्षा से भरे हो।

लाओत्से ने कहा, मुझे कभी किसी जगह से निकाला नहीं जा सका। क्योंकि मैं हमेशा दरवाजे के बाहर, जहां लोग जूते उतारते हैं, वहीं बैठ जाता। मुझे कभी कहीं से नहीं हटाया गया, क्योंकि मैं आखिरी जगह ही खड़ा था, जहां से और आगे हटने का उपाय ही न था। तो लाओत्से नै कहा, हम बड़े आनंद में रहे, क्योंकि हम आखिर में खड़े रहे, किसी झंझट में ही नहीं पड़े। क्योंकि हमें तो न किसी ने हटाया, न किसी ने धक्का मारा, न किसी ने कहा कि हटो यहां से जगह खाली करो, क्योंकि वह आखिरी जगह थी। उसके आगे कोई जगह ही नहीं थी। उस जगह कोई आना ही नहीं चाहता था। हम अपनी जगह के बडे मालिक थे। लाओत्से ने कहा, हम अपनी जगह के सदा मालिक रहे। जहां हम खड़े थे, वहां से कभी कोई धक्का देने ही नहीं आया। क्योंकि हम उसी जगह खड़े थे जहां कोई आता ही न था, वह अंतिम थी।

जीसस ने भी कहा है, धन्य है वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। इसका मतलब क्या है? जैसे जीसस कहते हैं कि कोई आदमी तुम्हारे एक गाल पर एक चांटा मारे, तो तुम दूसरा उसके सामने कर देना। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि उसे इतनी तकलीफ भी मत देना कि तुम्हारे दूसरे गाल को सामने करने की मेहनत उसे उठानी पड़े, तुम्हीं कर देना। जीसस यह कहते हैं कि वह तुम्हें हराने आए, तो तुम हार जाना जल्दी से। और वह एक बाजी हराए, तो तुम दो बाजी हार जाना। और जीसस कहते हैं कि कोई तुम्हारा कोट छीने, तो तुम जल्दी से कमीज भी दे देना। क्यों? क्योंकि हो सकता है, संकोच में वह कमीज छीनने में संकोच कर जाए। और कोई तुमसे एक मील बोझ ढोने को कहे, तो तुम मील भर बाद पूछ लेना कि और आगे तो नहीं ले चलना है। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि जीवन के जो तथ्य हैं असुरक्षा के, हार के, पराजय के और अंत में मृत्यु के, क्योंकि यह सब मृत्यु की ही दिशा में ले जाने वाले तथ्य हैं। अंततः मृत्यु पूर्ण पराजय है। यानी बड़ी से बड़ी पराजय में भी मैं तो बच ही जाता हूं —हारा हुआ, लेकिन बच जाता हूं। लेकिन मृत्यु में मैं भी नहीं बचता हूं। मृत्यु सबसे बड़ी पराजय है। इसीलिए तो हम दुश्मन को मार डालना चाहते हैं। और कोई कारण नहीं है, मार डालने में कोई अर्थ नहीं है। दुश्मन को हम मार डालना चाहते हैं, क्योंकि मृत्यु अंतिम पराजय है। इसके बाद दुश्मन के जीतने का कोई सवाल ही नहीं उठता। दुश्मन को मार डालने की इच्छा, उसकी अंतिम, अल्टीमेट पराजय कर देने की इच्छा है कि अब इसके बाद उपाय ही नहीं उसके जीतने का, क्योंकि वह बचा ही नहीं है।

मृत्यु अंतिम पराजय है और हम सब उससे भागना चाहते हैं। और यह भी ध्यान रहे, जो अपनी मृत्यु से भागेगा, वह दूसरे की मृत्यु के लिए चेष्टा करता रहेगा। क्योंकि वह जितना दूसरों को मार सकेगा, उतना अपने जीवित होने का अनुभव कर सकेगा। इसलिए दुनिया में जो हिंसा पैदा होती है, जो वायलेंस है, उस हिंसा का कारण बहुत दूसरा है। उस हिंसा का कारण यह नहीं है जैसा कि लोग समझते हैं कि वह पानी छानकर नहीं पीता है, रात खाना खा लेता है, फला —ढिका, इससे हिंसक है, ऐसा नहीं है। हिंसा का मौलिक कारण यह है कि आदमी अपनी मृत्यु को भुलाने के लिए दूसरे को मारना चाहता है। दूसरे को मारने में उसे यह पता चलता है कि मुझे अब कोई भी न मार सकेगा। मैं तो खुद ही मार सकता हूं।

हिटलर या चंगेज या कोई भी इस तरह के लोग लाखों लोगों को मारकर आश्वस्त होना चाहते हैं कि पक्का हो गया कि मुझे कोई न मार सकेगा। मैं तो खुद ही लाखों को मार डालता हूं। दूसरे को मार कर हम अपनी मृत्यु से मुक्त हो रहे हैं, यह पक्का कर लेना चाहते हैं। क्योंकि जब हम ही मार सकते हैं तो हमको कौन मार सकेगा। यह बहुत गहरे में मृत्यु से बचाव है। हिंसक आदमी मृत्यु से बचने वाला आदमी है। और जो मृत्यु से बचना चाहता है, वह अहिंसक कभी भी नहीं हो सकता। अहिंसक सिर्फ वही हो सकता है, जो कहता है, मृत्यु स्वीकार है। क्योंकि मृत्यु जीवन का एक तथ्य है, वह है। उससे अस्वीकृति हो ही नहीं सकती। उससे भागोगे कहां? जाओगे कहां?

सूरज उगा है, उसी वक्त डूबना शुरू हो गया है। सूर्यास्त उतना ही सत्य है, जितना सूर्योदय, सिर्फ दिशाओं का फर्क है। सूर्यास्त में सूर्य वहीं पहुंच जाता है, जहां सूर्योदय में उठा था। सिर्फ दिशाओं का फर्क है। इधर पूरब था, उधर पश्चिम है। इधर जन्म था, उधर मौत है। एक उदय है, एक अस्त है। उदय के साथ ही अस्त छिपा है। उदय में ही अस्त छिपा है। जन्म में ही मृत्यु छिपी है। ऐसा जो जान लेता है, फिर अस्वीकार करने का उपाय ही नहीं रह जाता। उपाय का सवाल ही नहीं है। तब वह स्वीकार कर लेता है। जीता है, जानता है, देखता है, स्वीकार करता है।

स्वीकार करते ही क्रांति घटित हो जाती है। जिसको मैं कह रहा हूं मृत्यु पर विजय, उसका मतलब है कि जैसे ही किसी ने स्वीकार किया, वह हंसने लगता है, क्योंकि तब पता चलता है कि मृत्यु तो है ही नहीं। सिर्फ खोल थी ऊपर की, जो बनती थी और बिगड़ती थी। भीतर की धारा तो सदा थी। सागर सदा था, लहर बनती थी और मिटती थी। सौंदर्य सदा था, फूल बनते थे, बिखरते थे। प्रकाश सदा था, सूरज उगता था, डूबता था। लेकिन जो उगता था, डूबता था, वह उगने के पहले भी था और डूबने के बाद भी था। जिस दिन यह दिख जाता है.। लेकिन यह उसी दिन दिखेगा, जिस दिन हम मौत को देखेंगे, दर्शन करेंगे, उसका साक्षात्कार करेंगे। तभी यह दिखाई पड़ सकता है। उसके पहले नहीं दिखाई पड़ सकता है।

इसलिए जिन मित्र ने पूछा है कि मृत्यु के संबंध में हम सोचें ही क्यों? विचार ही क्यों करें? मृत्यु को हम छोड़ ही क्यों न दें? हम जीएं क्यों न? मैं उनसे कहता हूं कि मृत्यु को छोड्कर न कोई कभी जीया है, न जी सकता है। और जिसने मृत्यु को छोड़ा, उसने जीवन भी छोड़ दिया।

यह ऐसा ही है जैसे एक रुपये का सिक्का मेरे हाथ में हो और मैं कहूं कि मैं उलटा जो सिक्के का हिस्सा है, उसकी फिक्र ही क्यों करूं, उसको छोड़ क्यों न दूं। अगर मैं उलटे सिक्के को छोड़ दूं तो सीधा सिक्का भी मेरे हाथ से चला जाएगा, क्योंकि वह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा नहीं हो सकता है कि सिक्के का एक पहलू मैं बचा लूं और दूसरा फेंक दूं सड़क पर। ऐसा कैसे हो सकता है! दूसरा पहलू उसी के साथ बच जाएगा। और अगर एक को मैं फेंकूंगा, तो दोनों फिंक जाएंगे और एक को मैं बचाऊंगा, तो दोनों बच जाएंगे। असल में वे दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं, वह एक ही चीज की दो बाजुएं हैं। जन्म और मृत्यु एक ही जीवन के दो पहलू हैं, दो बाजुएं हैं। और जिस दिन यह दिखाई पड़ जाता है, उसी दिन मृत्यु का दंश चला जाता है, न मरने का विचार भी चला जाता है कि नहीं मरना चाहिए। तब हम जानते हैं कि जन्म भी है और मृत्यु भी, दोनों एक आनंद है।

सुबह जब हम उठते हैं और श्रम के लिए निकलते हैं। कोई गड्डा खोदता है, कोई और काम करता है, दिन भर पसीना बहाता है। सुबह उठना भी एक आनंद है, लेकिन क्या सांझ सो जाना आनंद नहीं है? किसने कहा? अगर कुछ पागल दुनिया में पैदा हो जाएं और लोगों को समझाएं कि सोना मत, तो फिर सुबह का जागना भी बंद हो जाएगा। क्योंकि जो नहीं सोएगा, वह जाग भी नहीं पाएगा। फिर जीवन ही बंद हो जाएगा। कोई सोने से डराने लगे और कहे कि देखो, सुबह जागने में इतना आनंद आता था, सोने में सब खराब हो जाएगा।

लेकिन हम जानते हैं कि सोना जागने का ही दूसरा हिस्सा है। जो ठीक से सोंका, वह ठीक से जागेगा। जो ठीक से जागेगा, वह ठीक से सोएगा। जो ठीक से जीएगा, वह ठीक से मरेगा। जो ठीक से मरेगा, वह ठीक से जीवन के आगे भी कदम उठाएगा। जो ठीक से मरेगा नहीं, वह ठीक से जीएगा नहीं। जो ठीक से जीएगा नहीं, वह ठीक से मरेगा नहीं। सब अस्तव्यस्त हो जाएगा, सब विकृत और कुरूप हो जाएगा। और इस सारी विकृति और कुरूपता में मौत का भय काम कर रहा है। सोने का भय अगर किसी को पकड़ जहर, तो है न कठिनाई!

मैं जानता हूं एक महिला को। जिसका बेटा उस वृद्धा को मेरे पास लेकर आया और उसने कहा, मेरी मां को सोने का भय पकड़ गया है। मैंने कहा, क्या हो गया? उसने कहा, इधर वह कुछ दिनों से बीमार है और उसे ऐसा लगता है कि मैं अगर कहीं सोऊं और सोते में ही मर जाऊं! तो वह सोने से डरने लगी है। वह कहती है, मैं कहीं सोऊं और उठूं ही न! तो वह रात भर जागने की कोशिश में लगी है। और उसके लड़के ने कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। इसकी बीमारी ठीक नहीं होती, क्योंकि रात भर जागती है। और इसको हम कहते हैं, तो वह कहती है, मुझे डर लगता है कि अगर मैं सोई, तो फिर मेरा कोई वश ही नहीं है। मैं सो गई और मौत आ गई तो फिर गई। तो वे मेरे पास लाए और कहा कि उसे किसी तरह सोने के भय से बचा दें, नहीं तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। उसकी बीमारी ठीक ही नहीं होती। क्योंकि जब वह सोएगी नहीं, तो उसकी बीमारी कैसे ठीक होगी।

जैसे सोने का भय है। सोना एक तरह से रोज मृत्यु है। दिन भर जीवन है, रात मृत्यु है। वह टुकड़े —टुकड़े की मृत्यु है। रोज थोड़ा—सा मरते हैं, भीतर डूबते हैं, सुबह फिर ताजे होकर वापिस लौट आते हैं। फिर सत्तर और अस्सी साल में पूरा शरीर थक जाता है, श्रम, श्रम, श्रम, शरीर थक जाता है। फिर पूरी मृत्यु पकड़ लेती है, फिर यह शरीर पूरा बदल जाता है। लेकिन उससे हम बहुत डरे हुए हैं। वह गहरी निद्रा ही है। लेकिन उससे हम बहुत डरे हुए हैं।

क्या आपने खयाल किया है कि शरीर सुबह भी रोज बदल जाता है! थोड़ा बदलता है, इसलिए आपको खयाल में नहीं आता। पूरा नहीं बदलता। पार्शियल ट्रासफामेंशन होता है। जब आप सांझ को थके —मांदे सोते हैं तो शरीर और हालत में होता है, और सुबह जब आप उठते हैं तो शरीर और हालत में होता है। सुबह शरीर ताजा हो गया होता है, नया हो गया होता है। फिर शक्ति आ गई होती है, फिर काम की दुनिया शुरू हो जाती है। आप अब फिर गीत गा सकते हैं। सांझ आप गीत नहीं गा सकते थे। थक गए थे, टूट गए थे। लेकिन कभी आपने खयाल नहीं किया कि इसमें डर का क्या कारण है। बल्कि आप खुश होते हैं, क्योंकि अंग ही बदलता है, अंश ही बदलता है। मृत्यु पूरे को बदल देती है। वह टोटल ट्रांसफामेंशन है।

पूरा शरीर व्यर्थ हो गया है, अब दूसरे शरीर को देने की जरूरत आ जाती है, मृत्यु दूसरा शरीर दे देती है। लेकिन मृत्यु से हम डरे हुए हैं। और उस डर के कारण जीवन पूरा का पूरा क्रिपिल्ड, पंगु हो गया है, सब तरफ से पंगु हो गया है। पूरे क्षण वही भय हमें पकड़े हुए है। पूरे क्षण वही डर हमें पकड़े हुए है। उस डर के कारण हमने ऐसे जीवन की, ऐसे परिवार की, ऐसे समाज की व्यवस्था की है, जो जीता कम है, मरने से डरता ज्यादा है। और जो मरने से डरता है, वह जी ही नहीं सकता है। ये दोनों बातें एक साथ संभव ही नहीं हैं। जो मरने के लिए बिलकुल सहज तैयार है, वही जीने के लिए भी तैयार है। ये दोनों एक ही चीज के पहलू हैं।

इसलिए मैं कहता हूं, मृत्यु को देखें। विचार करने को नहीं कहता हूं, क्योंकि विचार आप करेंगे तो आप धोखे में पड़ेंगे। क्या करेंगे विचार?

एक बहुत दुखी और पीड़ित आदमी है तो सोच सकता है कि मृत्यु में सब समाप्त हो जाता है। उसे यह विचार प्रीतिकर लगेगा। इसलिए नहीं कि यह सही है। और ध्यान रहे, जो आपको प्रीतिकर लगता है, इसलिए सही है, ऐसा कभी मत मान लेना। क्योंकि प्रीतिकर लगना सत्य पर निर्भर नहीं है, आपकी सुविधा पर निर्भर होता है। एक आदमी दुखी है, परेशान है, पीड़ित है, बीमार है, तो वह सोचता है कि मृत्यु में पूरा ही मर जाना चाहिए, कुछ न बचना चाहिए। क्योंकि कुछ भी बचेगा, तो मैं ही बचूंगा न—दुखी, बीमार।

एक मित्र ने पूछा है कि कुछ लोग आत्महत्या कर लेते हैं उनके बाबत आप क्या कहते हैं वे लोग क्या मृत्यु से नहीं डरते?

नहीं, मृत्यु से तो वे भी डरते हैं। लेकिन वे जीवन से मृत्यु से भी ज्यादा डर गए होते हैं। जीवन उनको मृत्यु से भी ज्यादा दुखद मालूम पड़ने लगता है। और तब वे समाप्त ही कर देना चाहते हैं। उस समाप्त करने में ऐसा नहीं है कि उनको जीवन का कोई आनंद है। जीवन मृत्यु से भी बदतर मालूम पड़ने लगा है। इसलिए मृत्यु को ही चुन लेना उचित है।

जो आदमी दुखी है, पीड़ित है, परेशान है, वह इस सिद्धात को मान लेगा कि आत्मा बिलकुल मर जाती है, कुछ नहीं बचता। क्योंकि वह अपना कुछ भी हिस्सा बचाना नहीं चाहता, क्योंकि बचाएगा तो दुखी रहेगा। जो आदमी मृत्यु से भयभीत है और अपने को बचाना चाहता है, वह यह सिद्धात स्वीकार कर लेता है कि आत्मा अमर है। ये सब कन्वीनिएंस हैं हमारी। इसमें हमारा ज्ञान नहीं है, हमारी सुविधा का ध्यान है। हमें जो सुविधापूर्ण लगता है।

इसलिए जिंदगी में कई दफे सिद्धात बदल जाते हैं। जवानी में आदमी नास्तिक होता है, बुढ़ापे में आस्तिक हो जाता है। अक्सर बदल जाते हैं। असल में सच तो यह है कि सिर में दर्द हो जाए, तो सिद्धात बदल जाते हैं। जब सिर ठीक रहता है, सिद्धात दूसरे रहते हैं। सिर में दर्द है, तब सिद्धात बदल जाते हैं। पक्का पता नहीं है कि आपके सिद्धांतों पर शास्त्रों का कितना असर होता है और लीवर का कितना असर होता है। लीवर का ज्यादा असर होता है। गुरुओं का कितना असर होता है, इसका कोई पक्का भरोसा नहीं है। लेकिन शरीर के भीतर क्या चल रहा है, उसका ज्यादा असर होता है। जब पेट खराब होता है तो नास्तिक होने की तबियत होती है, जब पेट बिलकुल ठीक होता है, आराम में होता है, तो आस्तिक होने की तबियत होती है। जब सिर में दर्द हो, तो आदमी कैसे माने कि ईश्वर है! ईश्वर है, तो सिरदर्द का मेल कहां बैठता है—ईश्वर के होने और सिरदर्द के होने में।

इस पर प्रयोग किए जा सकते हैं। पचास आदमियों को क्रानिक बीमारियां पकडाओ और पचास आदमियों को पूरा स्वस्थ रखो, उनका जीवन एक आनंद हो और पचास आदमियों का जीवन एक दुख हो। तो आप देखेंगे कि उन पचास आदमियों में नास्तिकता बढ़ती चली जाएगी, और उन पचास आदमियों में आस्तिकता बढ़ती चली जाएगी। ऐसा नहीं है कि आस्तिकता की वजह से आनंद मिलता है, अगर कोई आनंदित है तो आस्तिक हो जाता है। दुखी चित्त नास्तिक हो जाता है। इसलिए ध्यान रहे, अगर नास्तिकता बढ़ती हो दुनिया में, तो समझ लेना चाहिए कि दुख बढ़ रहा होगा। अगर आस्तिकता बढ़ती हो, तो समझ लेना चाहिए सुख बढ़ रहा होगा।

इसलिए मैं आपसे कहता हूं कि रूस की संभावना है पचास साल में आस्तिक हो जाने की, आपकी संभावना है पचास साल में और नास्तिक हो जाने की। सिद्धांतों से कुछ नहीं होता है कि रूस में मार्क्स की किताब चलती है और आपके यहां महावीर की किताब चलती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर और मार्क्स की किताब दो कौड़ी का फर्क नहीं ला सकतीं। रूस में अगर सुख बढ़ता चला जाए तो पचास साल में आस्तिकता वापस लौट आएगी। मंदिरों में घंटियां बजने लगेंगी, वह सुखी चित्त बजाता है। दीये जलने लगेंगे, वह सुखी चित्त जलाता है। प्रार्थनाएं होने लगेंगी, सुखी चित्त प्रार्थना करता है। भगवान को धन्यवाद दिया जाने लगेगा, सुखी चित्त किसी को धन्यवाद देना चाहता है। और किसको दे! क्योंकि भीतर के सुख के लिए कोई कारण दिखाई नहीं पड़ते, तब वह अज्ञात को धन्यवाद देता है कि उसी के कारण होगा। दुखी चित्त क्रोध प्रकट करना चाहता है और जब कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता, तो किस पर क्रोध प्रकट करे! तो वह अज्ञात के प्रति नाराजगी से भर जाता है। वह कहता है, वह जो अननोन है, वह जो अज्ञात है, परमात्मा, उसी की वजह से सब गड़बड़ है। या तो वह है ही नहीं या पागल हो गया है। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि हमारी आस्तिकता, हमारी नास्तिकता, हमारे सिद्धात, सब हमारी स्थितियों की सुविधाओं के फल हैं।

जो व्यक्ति मृत्यु से भागेगा, वह कोई सिद्धात पकड़ लेगा। जो मरना चाहेगा, वह कोई सिद्धात पकड़ लेगा। लेकिन इनमें से कोई भी मृत्यु को जानने के लिए उत्सुक और आतुर नहीं है। सुविधा और सत्य में बड़ा फर्क है। अपनी सुविधा का बहुत विचार मत करना। और विचार सदा सुविधा का ही होता है। दर्शन सत्य का होता है, विचार सुविधा का होता है।

अभी एक आदमी कम्युनिस्ट है और भारी शोरगुल मचाता है कि क्रांति होनी चाहिए और गरीब को संपत्ति मिलनी चाहिए और संपत्ति का विभाजन होना चाहिए। जरा कोशिश करें, उसको एक कार दे दें, एक बड़ा बंगला दे दें, एक अच्छी पत्नी दे दें, तो पंद्रह दिन बाद देखेंगे कि वह आदमी एकदम बदल गया है। वह कहता है कम्युनिज्म वगैरह सब बेकार की बातें हैं। क्या हो गया है इस आदमी को? इसको हो क्या गया! कन्वीनिएंस जो थी, वही विचार था। इसमें सुविधा थी उस दिन कि संपत्ति बंट जाए, अब इसमें असुविधा है कि संपत्ति बंट जाए। क्योंकि अब संपत्ति बटेगी तो यह कार भी बटेगी, यह बंगला भी बंटेगा। जिस व्यक्ति को सुंदर स्त्री नहीं मिली, वह कह सकता है कि स्त्रियों का भी कम्मुनिज्म चाहिए। सुंदर स्त्रियों पर कुछ लोग कब्जा क्यों करें? स्त्रियां सब की होनी चाहिए। इसका भी खयाल है लोगों को। इसका प्रस्तावना देने वाले लोग पृथ्वी पर हैं, जो कहते हैं, आज संपत्ति, कल स्त्री। और इसमें भूल भी नहीं है, क्योंकि स्त्री को संपत्ति आप मानते ही रहे हैं। वह संपत्ति तो है ही। अगर आज हम यह कहते हैं कि एक आदमी बड़े मकान में रहे यह गलत है और एक आदमी झोपड़े में रहे यह गलत है, तो कल इसमें कठिनाई क्या है कि हम यह कहें कि एक आदमी को सुंदर स्त्री मिल जाए और एक आदमी को सुंदर स्त्री न मिले, यह कैसे संभव है! विभाजन बराबर होना चाहिए। इसके खतरे हैं। इसके आज नहीं कल सवाल उठ जाने वाले हैं। जिस दिन संपत्ति वितरित हो जाएगी, उसी दिन स्त्री को बांटने का सवाल खड़ा हो जाने वाला है। मगर जिसके पास सुंदर स्त्री है, वह कहेगा, ऐसा कैसे हो सकता है! यह क्या बेहूदी बातें हैं, ये बिलकुल गलत बातें हैं।

सुविधा हमारा विचार बन जाती है। हम सब सुविधा से विचार बनाए हुए हैं। हमारे सब विचार हमारी सुविधा के पोषक होते हैं या हमारी असुविधा को मिटाने वाले होते हैं। दर्शन की बात और है। दर्शन का सुविधा से कोई संबंध नहीं है। इसलिए ध्यान रहे कि दर्शन एक तपश्चर्या है। तपश्चर्या का मतलब कि जहां सुविधा का ध्यान नहीं रखना पड़ता है; जहां जो है, उसे ही जानना पड़ता है, जैसा है, उसे ही जानना पड़ता है।

तो मृत्यु के तथ्य का दर्शन करना है, विचार नहीं। विचार तो आप अपनी सुविधा से कर लेंगे। जो आपको लगेगा सुविधापूर्ण, वह कर लेंगे। सुविधा नहीं है सवाल। मृत्यु क्या है, उसे जानना है, जैसी है। मेरी सुविधा—असुविधा कोई फर्क नहीं लाती। जैसा है, वही जानना पड़ेगा। और उसे जानते ही व्यक्ति के जीवन में क्रांति घटित हो जाती है, क्योंकि मृत्यु नहीं है। जानते ही पता चलता है कि नहीं है। जब तक नहीं जाना, तभी तक पता चलता है, है। मृत्यु अज्ञान का अनुभव है, अमरत्व ज्ञान का अनुभव है।

कुछ और प्रश्न हैं, वह हम रात बात कर सकेंगे, अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।

ध्यान यानी मृत्यु। ध्यान यानी उसमें जाना, जो है, जहां हम हैं। इसलिए मरने की तैयारी हो, तो ही कोई ध्यान में जाता है। नहीं तो कोई ध्यान में नहीं जाता।

थोडे फासले पर बैठ जाएं। थोड़े फासले पर बैठ जाएं.. जिन्हें लेटना हो, वे पहले से लेट जाएं। और बीच में भी किसी को लेटने का खयाल आ जाए तो उसे लेट जाना है। और थोड़े फासले पर बैठें, ताकि कोई लेटे, कोई गिर जाए, तो आपके ऊपर न गिर जाए।

आंख बंद कर लें. आंख ढीली छोड़ दें और पलक बंद कर लें. आंख को ढीला छोड़ दें और पलक बंद कर लें। शरीर को शिथिल छोड़े.. शरीर को ढीला छोड़े. शरीर को ढीला छोड़े.. शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे उसमें कोई प्राण नहीं हैं। एक दिन छूटेगा, अभी ही छोड्कर देखें। एक दिन बिलकुल छूट जाएगा, रखना भी चाहेंगे प्राण, तो नहीं रह सकेगा। तो उसको भीतर सरका लें…..प्राण को कहें, लौट आओ भीतर! शरीर को ढीला छोड़ दो।

शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ते जाएं। अब मैं सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है….. शरीर शिथिल हो रहा है…. शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है। ढीला छोड़ते जाएं, भाव करें, शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है….. शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर शिथिल होता जा रहा है…… मरता जा रहा है मरता जा रहा है। हम भीतर सरकते जा रहे हैं वहां, जहां जीवन है। छोड़ दें….. छोड़ दें…… लहर को छोड़ दें. सागर में हो जाएं। छोड़ दें शरीर को बिलकुल, अगर गिरता हो गिर जाए, उसकी चिंता न करें। रोकें नहीं.. पकड़ न रखें छोडे।

शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है…. शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है। छोड़ दें….. जैसे मर ही गया….. शरीर बिलकुल निष्प्राण हो गया है। हम भीतर सरक गए हैं…… चेतना भीतर सरक गई है….. शरीर बिलकुल खोल की तरह रह गया है। गिर जाए, गिर जाए। शरीर शिथिल हो गया है…… शरीर शिथिल हो गया है शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है।

श्वास शांत हो रही है…… श्वास शांत हो रही है। श्वास को भी ढीला छोड़ दें। श्वास शांत होती जा रही है…… श्वास शांत हो रही है। श्वास से भी पीछे हट जाएं, उससे भी शक्ति भीतर बुला लें। श्वास शांत होती जा रही है….. श्वास शांत हो रही है…… श्वास शांत हो रही है श्वास शांत हो रही है व श्वास शांत हो रही है…… शांत हो रही है। शिथिल छोड़ दें… श्वास को भी छोड़ दें… श्वास शांत होती जा रही है….. श्वास शांत होती जा रही है….. श्वास शांत हो गई है।

विचार को भी छोड़ दें…… उससे भी पीछे हट जाएं और पीछे हट जाएं। विचार शिथिल हो रहे हैं…… विचार शिथिल हो रहे हैं। भाव करते रहें, विचार शिथिल हो रहे हैं….. विचार शिथिल हो रहे हैं….. विचार शिथिल होते जा रहे हैं। विचार भी छूटते जा रहे हैं….. और पीछे हट गए….. और पीछे हट गए। विचार शांत होते जा रहे हैं….. विचार शांत होते जा रहे हैं…. विचार शांत होते जा रहे हैं, विचार शांत हो गए हैं।

अब दस मिनट के लिए भीतर जागे रह जाएं, होश से भर जाएं। भीतर जाग कर देखें, बाहर मौत घट गयी है। शरीर पड़ा है, करीब—करीब मृत, दूर…… हम पीछे हट गए हैं…… चेतना सिर्फ एक ज्योति की तरह जली रह गयी है। सिर्फ जान रहे हैं सिर्फ देख रहे हैं…… द्रष्टा रह जाएं…… दर्शन में ठहर जाएं। दस मिनट के लिए सिर्फ देखते रहें भीतर…… और कुछ न करें….. सिर्फ देखते रहें। भीतर और भीतर…… भीतर देखते रहें…… धीरे — धीरे गहरे में उतरना हो जाएगा। जैसे कोई किसी गहरे कुएं में गिरता जाए. गिरता जाए…… गिरता जाए। देखें.. दस मिनट के लिए सिर्फ देखते रह जाएं।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा……. भगवान श्री कुछ मिनट मौन रहकर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)

बिलकुल पकड़ छोड़ दें और भीतर चले जाएं और भीतर चले जाएं। सिर्फ जागे हुए देखते रहें? धीरे — धीरे, धीरे — धीरे सब शून्य हो जाएगा….. सिर्फ शून्य में जानने की एक ज्योति भर जलती रहेगी कि मैं जान रहा हूं. जान रहा हूं……, देख रहा हूं…… देख रहा हूं। छोड़ दें बिलकुल……. सारी पकड़ छोड़ दें….. गहरे में डूब जाएं और देखते रहें….. मन शांत होता चला जाएगा।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा…..)

मन शून्य होता जा रहा है मन शून्य होता जा रहा है….. बिलकुल छोड़ दें…… मिट जाएं……. मर ही जाएं। बाहर से बिलकुल मिट जाएं…. बाहर से बिलकुल छोड़ दें…… जैसे कोई लहर मिट जाए और सागर हो जाए। बिलकुल छोड़ दें. जरा भी पकड़ न रखें। मन शून्य होता जा रहा है…… मन शून्य होता जा रहा है मन शून्य होता जा रहा है।

मन बिलकुल शून्य हो गया है मन शून्य हो गया है…… मन शून्य हो गया है। सिर्फ एक ज्योति जली रह गई है…… जानने की….. देखने की…… दर्शन की। बाकी जैसे मृत्यु घटित हो गयी….. शरीर दूर पड़ा हुआ दिखाई पड़ेगा खुद का शरीर बहुत दूर दिखाई पड़ेगा….. खुद की श्वासें बहुत दूर मालूम पड़ेगी। भीतर….. और भीतर डूब जाएं…… बिलकुल छोड़ दें जरा भी पकड़ न रखें…… छोड़ दें…… छोड़ दें….. बिलकुल छोड़ दें।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा……)

बिलकुल छोड़ दें शरीर गिरता हो, गिर जाए.. बिलकुल छोड़ दें… शून्य हो जाएं… बिलकुल शून्य हो जाएं। मन शून्य हो गया है. मन शून्य हो गया है सिर्फ एक जानने की ज्योति भर भीतर रह गई है. और सब शून्य हो गया सब मिट गया।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा…..)

छोड़ दें बिलकुल छोड़ दें….. मरने की तैयारी दिखाएं बाहर से बिलकुल मर जाएं। शरीर निष्प्राण हो गया है हम बिलकुल भीतर सरक गए हैं….. बिलकुल भीतर सरक गये हैं….. सिर्फ हृदय के पास एक ज्योति जलती रह गई है। देख रहे हैं? जान रहे हैं…… और सब मिट गया है…… द्रष्टामात्र रह गए हैं मन बिलकुल शून्य हो गया है।

इस शून्य में गौर से देखें.. भीतर इस शून्य को गौर से देखें….. उसी शून्य में बड़े आनंद की किरणें फैल जाएंगी…… उसी शून्य में बड़े आनंद का प्रकाश भर जाएगा। जैसे कोई झरना फूट पड़े और आनंद ही आनंद बह जाए…… रग—रग, रेशे —रेशे में, कण—कण में फैल जाए। उस शून्य में गौर से देखें….. जैसे सूरज के निकलने पर फूल खिल जाए, ऐसा भीतर शून्य में देखने पर आनंद का झरना फूट जाता है सब तरफ आनंद ही आनंद छा जाता है। देखें…… भीतर देखें….. उस झरने को फूटने दें….. भीतर देखें जैसे फव्वारा फूट जाए और कण—कण में आनंद भर जाए।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा…..)

अब धीरे — धीरे दो —चार गहरी श्वास लें। श्वास बहुत दूर मालूम पड़ेगी…… धीरे — धीरे गहरी श्वास लें…… श्वास को देखते रहें…… मन और शांत हो जाएगा। धीरे— धीरे दो —चार गहरी श्वास लें…… धीरे — धीरे दो —चार गहरी श्वास लें…… धीरे — धीरे दो —चार गहरी श्वास लें। मन और शांत हो जाएगा…… मन और शांत हो जाएगा। फिर धीरे — धीरे आंख खोलें…… धीरे — धीरे आंख खोलें….. ध्यान से वापस लौट आएं।

जो लेटे हैं या गिर गए हैं, वे धीरे — धीरे गहरी श्वास लें…… फिर आंख खोलें…… और बहुत आहिस्ता उठें।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–188

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सत्‍य की खोज और त्रिगुण का गणित—(प्रवचन—पहला)

अध्‍याय—17

सूत्र—

(श्रीमद्भगवद्गीता अथ सप्तदशोऽध्याय)

अर्जन उवाच:

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धायान्विता।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण तत्त्वमाहो रजस्तम:।। 1।।

श्रॉभगवानवाच:

त्रिविधा भवति आ देहिनां आ स्वभावजा।

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।। 2।।

इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, जो मनुष्य शास्त्र— विधि को त्यागकर केवल श्रृद्धा मे युक्त हुए देवादिकों का पूजन करते है, उनकी स्थिति फिर कौन—सी है? क्या सात्विकी है अथवा राजसी है या तामसी है?

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री भगवान बोले हे अर्जुन, मनुष्यों की वह बिना शास्त्रीय संस्कारों से केवल स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रृद्धा सात्विकी और राजसी तथा तामसी, ऐसे तीनों कार की ही होती ह्रै उसको तू मेरे ते सुन।

त्य की खोज उतनी ही पुरानी है, जितना मनुष्य। शायद उससे भी ज्यादा पुरानी है। मेरे देखे ऐसा ही है, मनुष्य से भी ज्यादा पुरानी सत्य की खोज है। स्वभावत:, प्रश्न उठेगा कि मनुष्य से पुरानी यह खोज कैसे हो सकती है! खोजेगा कौन?

मनुष्य से पुरानी है खोज सत्य की, ऐसा जब मैं कहता हूं तो उसका अर्थ है कि सत्य को खोजने की आकांक्षा से ही मनुष्य का जन्म हुआ है। मनुष्य—मनुष्य है, क्योंकि सत्य को खोजता है। पशुओं में से जो चेतना निखरकर मनुष्य हुई है, वह सत्य की किसी अज्ञात खोज के कारण हुई है।

सभी पशु मनुष्य नहीं हो गए हैं; सभी पौधे मनुष्य नहीं हो गए हैं। अनंत आत्माएं हैं, उनमें से बड़ा छोटा—सा खंड मनुष्य हुआ है। यह मनुष्य कैसे हो गया है? यह सारा अस्तित्व क्यों मनुष्य नहीं हो गया है? छोटी—सी चेतना की धारा ऊपर उठी है। कौन इसे ऊपर उठा लाया है? सत्य की एक अनजानी खोज इसे ऊपर उठा लाई है। मनुष्य और पशुओं में यही भेद है। पशु तृप्त हैं; जी रहे हैं।

लेकिन जीवन क्या है, इसे जानने की अभीप्सा नहीं है। जीवन कहां से है, इसे जानने की कोई जिज्ञासा नहीं है। पशुओं के जीवन में जीवन तो है, चैतन्य का आविर्भाव नहीं; ध्यान नहीं जागा, समाधि की आकांक्षा नहीं जागी; सत्य को जानने की प्यास नहीं उठी। इसलिए कहता हूं र मनुष्य से भी ज्यादा पुरानी खोज है सत्य की।

मनुष्य के कारण तुम सत्य की खोज करते हो, ऐसा नहीं; सत्य की खोज करने के कारण तुम मनुष्य हुए हो, ऐसा। लेकिन मनुष्य हो जाने से सत्य की खोज पूरी नहीं हो जाती; बस शुरू होती है। जो अब तक अचेतन थी, वह चेतन बनती है, जो अब तक अनजानी थी, वह जानी—मानी बनती है, जिसे अभी तुम ऐसे अंधेरे में टटोलते थे, अब तुम उसे दीया जलाकर खोजते हो।

इसलिए मनुष्यों में भी केवल थोड़े से ही लोग मनुष्य हो पाते हैं; शेष मनुष्य होकर भी चूक जाते हैं। सभी मनुष्य भी सत्य के खोजी नहीं मालूम पड़ते। उनमें भी बड़ा न्यूनतम अंश सत्य की खोज पर निकलता है। कठिन है यात्रा; दुर्गम है मार्ग, फिसलने की, गिर जाने की अनंत संभावनाएं हैं, पहुंचने की बहुत कम।

लेकिन जो पहुंच जाते हैं, वे धन्यभागी हैं। वे जीवन के शिखर को उपलब्ध होते हैं। वे सत्य को ही नहीं पा लेते, वे सत्यरूप हो जाते हैं। वे परमात्मा को ही नहीं जान लेते, वे परमात्मा ही हो जाते

अर्जुन खोजती हुई मनुष्यता का प्रतीक है। अर्जुन पूछ रहा है। और पूछना किसी दार्शनिक का पूछना नहीं है। पूछना ऐसा नहीं कि घर में बैठे विश्राम कर रहे हैं और गपशप कर रहे हैं। यह पूछना कोई कुतूहल नहीं है, जीवन दाव पर लगा है। युद्ध के मैदान में खड़ा है। युद्ध के मैदान में बहुत कम लोग पूछते हैं। इसलिए तो गीता अनूठी किताब है।

वेद हैं, उपनिषद हैं, बाइबिल है, कुरान है; बड़ी अनूठी किताबें हैं दुनिया में, लेकिन गीता बेजोड़ है। उपनिषद पैदा हुए ऋषिओं के ख्यात कुटीरों में, उपवनों में, वनों में। जंगलों में ऋषिओं के पास बैठे हैं उनके शिष्य। उपनिषद का अर्थ है, पास बैठना। ऐसे पास बैठे शिष्यों से एकांत गुफ्तगू है। ऐसी दो चेतनाओं के बीच चर्चा है। लेकिन बड़ी विश्रामपूर्ण है। आसान है कि उपनिषदों में महाकाव्य भरा हो। उपनिषद पैदा हुए शांत गिल मौन एकांत में। लेकिन गीता अनूठी है; युद्ध के मैदान में पैदा हुई है। किसी शिष्य ने किसी गुरु से नहीं पूछा है; किसी शिष्य ने गुरु की एकांत कुटी में बैठकर जिज्ञासा नहीं की है। युद्ध की सघन घड़ी में, जहां जीवन और मौत दाव पर लगे हैं, वहां अर्जुन ने कृष्ण से पूछा है। यह दाव बड़ा महत्वपूर्ण है। और जब तक तुम्हारा भी जीवन दाव पर न लगा हो अर्जुन जैसा, तब तक तुम कृष्ण का उत्तर न पा सकोगे।

कृष्ण का उत्तर अर्जुन ही पा सकता है। इसलिए गीता बहुत लोग पढ़ते हैं, कृष्ण का उत्तर उन्हें मिलता नहीं। क्योंकि कृष्ण का उत्तर पाने के लिए अर्जुन की चेतना चाहिए।

इसलिए मैं नहीं चाहता कि मेरे संन्यासी भाग जाएं पहाड़ों में। जीवन के युद्ध में ही खड़े रहें, जहां सब दाव पर लगा है, भगोड़ापन न दिखाएं, पलायन न करें, जीवन से पीठ न मोडे; आमने—सामने खड़े रहें। और उस जीवन के संघर्ष में ही उठने दें जिज्ञासा को। तो तुम्हें किसी दिन कृष्ण का उत्तर मिल सकता है। पर अर्जुन की चेतना चाहिए; युद्ध चाहिए चारों तरफ।

और युद्ध है। तुम जहां भी हो—बाजार में, दुकान में, दफ्तर में, घर में—युद्ध है। प्रतिपल युद्ध चल रहा है, अपनों से ही चल रहा है। इसलिए कथा बड़ी मधुर है कि उस तरफ भी, अर्जुन के विरोध में जो खड़े हैं, वे ही अपने ही लोग हैं, भाई हैं, चचेरे भाई हैं, मित्र हैं, सहपाठी हैं, संबंधी हैं।

अपनों से ही युद्ध हो रहा है। पराया तो यहां कोई है ही नहीं। जिससे भी लड़ रहे हो, वह भी अपना ही है; दूर का, पास का, कोई नाता—रिश्ता है। सारा जीवन ही संबंधी है। यह पूरा जीवन ही परिवार है और परिवार ही बंटा है और लड़ रहा है। युद्ध दुश्मनों के बीच में नहीं है, युद्ध अपनों के ही बीच में है। युद्ध में तुम किसी और को न मारोगे, अपनों को ही मारोगे। युद्ध में तुम अपनों से ही मारे जाओगे।

पराए होते, कठिनाई न थी; दुश्मन होते, कठिनाई न थी। अर्जुन के मन में द्वंद्व खड़ा हो गया है, सब अपने हैं। और इनको मारकर क्या पाऊंगा? क्या मिलेगा?

अर्जुन भागना चाहता है। वह चाहता है, किसी ऋषि की कुटी में चला जाए; अरण्य में वास करे; शांत बैठे; ध्यान में डूबे। उसके मन में बड़ा विराग उठा है। लेकिन कृष्ण उसे खींचते हैं, भागने नहीं देते। उसके मन में विराग उठा है, वह जंगल जाना चाहता है। कृष्ण उसे युद्ध के मैदान में रोके रखते हैं।

कृष्ण का प्रयोजन क्या है? वे क्यों समझा रहे हैं कि तू रुक; भाग मत! क्योंकि जो भाग गया स्थिति से, वह कभी भी स्थिति के ऊपर नहीं उठ पाता। जो परिस्थिति से पीठ कर गया, वह हार गया। भगोड़ा यानी हारा हुआ। जीवन ने एक अवसर दिया है पार होने का, अतिक्रमण करने का। अगर तुम भाग गए, तो तुम अवसर खो दोगे।

भागों मत, जागो। भागो मत, रुको। ज्यादा जागरूक, ज्यादा सचेतन बनो; ज्यादा जीवंत बनो, ज्यादा ऊर्जावान बनो, ज्यादा विवेक, ज्यादा भीतर की मेधा उठे। तुम्हारी मेधा इतनी हो जाए कि समस्याएं नीचे छूट जाएं।

समस्याओं से भागकर तुम समस्याओं से छोटे रह जाओगे। उनसे लड़कर उठो। उनको सीढ़ियां बनाओ। जिनको तुमने पत्थर समझा है मार्ग का, वे पत्थर ही हैं, ऐसा मत समझो, वे सीढ़ियां भी बन सकते हैं। उन पर पैर रखो और तुम ऊंचाई पर पहुंचोगे।

कृष्ण चाहते हैं, अर्जुन युद्ध से निखरकर उठे। अर्जुन चाहता है, भाग जाए।

कृष्ण ने भागने न दिया अर्जुन को और जगत को संन्यास का पहला ठीक—ठीक संदेश दिया है। वैसा संदेश बुद्ध से भी नहीं मिला, महावीर से भी नहीं मिला; क्योंकि उन सब ने भागने वाले

को स्वीकार कर लिया। कृष्ण की व्यवस्था जटिल है, लेकिन बड़ी बहुमूल्य है।

और इसलिए मैं राजी हुआ गीता पर बोलने को, क्योंकि गीता में मनुष्य का भविष्य छिपा है। अब न तो महावीर का संन्यासी बच सकता है दुनिया में, न बुद्ध का संन्यासी बच सकता है। दुनिया ही न रही वह; भगोड़ों का उपाय ही न रहा। अब तो सिर्फ कृष्ण का संन्यासी बच सकता है दुनिया में। जो भागता नहीं है, जो पैर जमाकर खड़ा हो जाता है, जो हर परिस्थिति का उपयोग कर लेता है, विपरीत परिस्थिति का भी उपयोग कर लेता है, जो युद्ध के बीच में ध्यान को उपलब्ध होता है।

यही तो कला है। भागकर शांत हो जाने में कला भी क्या है? हिमालय पर बैठकर तो कोई भी शांत हो जाएगा, कोई भी। तुम्हारी विशिष्टता क्या है? लेकिन वह शाति हिमालय की है, तुम्हारी नहीं। और जब तुम लौटोगे, तुम पाओगे, तुम उतने ही अशांत हो, जितने तब थे, जब गए। बीच का समय व्यर्थ ही गंवाया। तीस साल बाद भी वापस आओगे, तुम पाओगे, वही राग, वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, सब बैठे हैं। हिमालय में मौका न मिला निकलने का, इसलिए सोए थे। लौटते ही समाज में, समूह में, भीड़ में मौका मिलेगा; जगने शुरू हो जाएंगे।

सुंदर स्त्री दिखाई पड़ेगी, वर्षों सोई हुई वासना उठ आएगी। धन दिखाई पड़ेगा, वर्षों सोया लोभ कुंडली खोलकर सर्प की तरह फैल जाएगा। कोई जरा सा अपमान कर देगा, वर्षों तक बेजान पड़ा क्रोध

एक झटके में जीवंत हो उठेगा।

नहीं; कोई भागकर कभी जीता नहीं। भागना तो हार की स्वीकृति है। वह तो तुमने मान ही लिया कि तुम जीत न सकोगे।

कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, रुक। इसलिए संदेश बड़ा अनूठा है। अर्जुन की जिज्ञासा भी अनूठी है। जीवन—मरण दांव पर लगा है। तुम्हारा भी अगर जीवन—मरण दाव पर लगा है, तो मैं तुमसे जो कहूंगा, वह भगवद्गीता हो जाएगी। तुम्हारा अगर जीवन—मरण दांव पर नहीं लगा है, तुम ऐसे ही चले आए हो, जैसे तुम ताश खेलने चले गए हो। किसी मित्र ने बुलाया; वर्षा के दिन हैं; फुरसत का समय है; तुम ताश खेल आए हो। कुछ दाव पर नहीं लगा है। नहीं; ऐसे न चलेगा। अगर ताश खेलने में भी तुमने पूरा जीवन दाव पर लगा दिया है, अगर तुम जुआरी भी हो, तो बात बदल जाती है। अगर तुमने सब कुछ दाव पर लगाया है, ती मैं तुमसे जो कहूंगा, वह तुम्हारे लिए भगवद्गीता हो जाएगी। अकेले मेरे कहने से न होगा। तुम्हें अर्जुन जैसी चेतना चाहिए।

मनुष्य की खोज मनुष्य से भी पुरानी है; वही खोज तुम्हें यहां ले आई है। और तुम भाग मत जाना। क्योंकि यही वह जगह है, जहां सत्य का अंतिम उदघाटन होगा—संसार में, भीड़ में, गहन में, बाजार में, उपद्रव में, युद्ध में। यही कुरुक्षेत्र है, जहां किसी दिन पांडव और कौरव इकट्ठे हो गए थे युद्ध को।

और ध्यान रखना, जिनसे तुम्हारा संघर्ष है, वे अपने ही हैं। और ध्यान रखना कि जिससे तुम्हें पूछना है, वह तुम्हारे कहीं बाहर नहीं, तुम्हारी चेतना का ही सारथी है।

यह प्रतीक बड़ा मधुर है। अशोभन भी लगता है सोचकर कि अर्जुन तो रथ में सवार था और कृष्ण सारथी थे! लेकिन बड़े पुराने नियमों के अनुसार सारी कथा को रूप दिया गया है। तुम्हारे भीतर तुम्हारा सारथी है। तुमने कभी उससे पूछा नहीं, तुमने कभी उस पर ध्यान ही न दिया। सारथियो पर कोई ध्यान देता है? अर्जुन अनूठा रहा होगा। क्योंकि बैठा तो ऊपर था, रथ में था, असली तो वही

था। सारथी तो सारथी ही था। घोड़ों की साज—सम्हाल कर लेता था, ठीक, रथ को चला लेता था, ठीक।

तुम्हें कभी जिज्ञासा उठ आए, तो कहीं तुम कोचवान से पूछते हो? लेकिन अर्जुन ने सारथी से पूछा।

तुम्हें खोजना होगा, तुम्हारे भीतर सारथी कौन है? रथ तो साफ है कि शरीर है। मालिक भी तुम्हें पक्का पता है कि तुम्हारा अहंकार है। सारथी कौन है? समस्त ज्ञानी कहते हैं, तुम्हारा विवेक, तुम्हारा बोध, साक्षी— भाव सारथी है। उससे ही पूछना होगा। तुम्हारे सारथी से ही उठेगी वह आवाज, जिससे तुम्हारे लिए गीता का प्रकाश साफ हो जाएगा और गीता का मार्ग साफ हो जाएगा। गीता क्या कहती है, तुम तब तक न समझ पाओगे, जब तक तुम्हारा सारथी तुम्हें मिला नहीं।

रथ तुम्हारे पास है; मालिक भी बने तुम बैठे हो; घोड़े भी इंद्रियों के भागे जाते हैं। इन सबके बीच सारथी जैसे खो ही गया है, उसे खोजो। सारी ध्यान की प्रक्रियाएं सारथी को खोजने के लिए हैं। मीठी कथा है महाभारत में कि युद्ध के पूर्व अर्जुन, दुर्योधन अपने सभी मित्रों, सगे —संबंधियों के घर गए प्रार्थना करने कि युद्ध में हमारी तरफ से सम्मिलित होना। सभी नाते—रिश्तेदार थे, सभी जुड़े थे, गृहयुद्ध था। अर्जुन भी पहुंचा कृष्ण के पास; दुर्योधन भी पहुंचा। दोनों एक ही समय पहुंच गए।

दोनों सदा ही एक समय पहुंचते हैं तुम्हारे भीतर भी। तुम्हारी बुराई और तुम्हारी भलाई सदा साथ—साथ खडी हैं। तुम्हारा असत रूप, तुम्हारा सत रूप सदा साथ—साथ खड़ा है। दोनों तुम्हीं से तो ऊर्जा लेते हैं; दोनों की शक्ति तो तुम्हीं हो; दोनों तुम्हीं से तो मांगते हैं और सदा साथ—साथ मांगते हैं।

जब भी तुम चोरी करने जाते हो, तब भी तुम्हारे भीतर का अचोर कहता है, मत करो। जब तुम झूठ बोलते हो, तुम्हारे भीतर वह स्वर भी रहता है, जो कहता है, नहीं, उचित नहीं है। जब तुम सत्य बोलते होते हो, तब भी कोई भीतर से कहता है कि लाभ न होगा, हानि होगी। जरा—सा झूठ बोल लेने में हर्ज भी क्या है? जीवन में थोड़ा—बहुत तो चलता ही है, ऐसे बिलकुल संन्यासी होकर तो लुट जाओगे। जब नहीं चोरी करते हो, तब भी मन कहता है कि क्या कर रहे हो? चूके जा रहे हो। उठा लो! कोई देखने वाला भी नहीं है। और चोरी तो तभी चोरी है, जब पकड़ी जाए। यहं। तो पकड़े जाने का कोई उपाय भी नहीं दिखता, कोई है भी नहीं आस—पास; उठा लो। चोर और अचोर साथ—साथ हैं; झूठ और सच साथ—साथ हैं।

अर्जुन और दुर्योधन साथ—साथ पहुंच गए हैं कृष्ण के पास। लेकिन स्वभावत: दोनों के पहुंचने में बुनियादी फर्क है। वही फर्क निर्णायक हो गया।

दुर्योधन तो बैठ गया सिर के पास। कृष्ण सोए थे; दोपहर का वक्त होगा, विश्राम करते होंगे। विश्राम में खलल देना उचित नहीं। दुर्योधन तो बैठ गया जाकर सिरहाने के पास, अर्जुन बैठ गया पैर के पास।

वहीं निर्णय हो गया। उस क्षण में सारी गीता का निर्णय हो गया। उस क्षण में सारा महाभारत जीत लिया गया, हार लिया गया। उसके बाद तो विस्तार है। बीज तो घट गया। अर्जुन के पैरों के पास बैठने में बीज घट गया।

अगर तुम्हें अपने साक्षी को खोजना है, तो विनम्र होना पड़ेगा। तुम्हें अगर अपने सारथी को खोजना है, तो विनम्र होना पड़ेगा। क्योंकि अहंकार ही तो धुंआ पैदा करता है और देखने नहीं देता। अहंकार ही तो अटकाता है, उलझाता है। अहंकार ही तो परदा बन जाता है सख्त।

दुर्योधन कैसे बैठ सकता है पैरों में? दुर्योधन! बात ही पैर में बैठने की उसके मन में न उठी होगी। वह सहज अपने स्वभाववश ही जाकर सिर के पास बैठ गया।

अहंकार सदा सिर के पास है। और जहां अहंकार है, वहीं चूक हो जाती है। फिर तुम अपने सारथी से नहीं मिल पाते। फिर सब मिल जाएगा, सारथी न मिलेगा।

अर्जुन बैठा है पैर के पास। वह विनम्र निवेदन है, वह निरअहंकार भाव है। साक्षी मिल ही जाएगा।

कृष्ण की आख खुली। कथा कहती है, स्वभावत: पहले अर्जुन दिखाई पड़ा।

विनम्र पर आख पड़ेगी साक्षी की, अहंकारी पर आख नहीं पडेगी। अहंकारी तो अपने में ऐसा अकड़ा है, वह तो सिर के पीछे बैठा है। वह सम्राट होकर बैठा है; वह कृष्ण से बडा होकर बैठा है, वह कृष्ण से ऊपर बैठा है।

तुम्हारा अहंकार रथ में सवार है। और सारथी से इतने ऊपर बैठ गया है कि सारथी भी अगर देखना चाहे, तो तुम दिखाई न पड़ोगे। और तुम तो अंधे हो, इसीलिए तुम सिर के पास बैठे हो। अगर थोड़ी भी आख होती, तो तुम पैर पकड़ लिए होते, तुम पैर के पास बैठे होता।

वहीं युद्ध जीत लिया गया। निर्णय तो सब हो ही गया उसी क्षण। फिर तो बाकी विस्तार की बातें हैं, वे छोड़ी भी जा सकती हैं। जो जानते हैं, उनके लिए कथा पूरी हो गई।

अर्जुन पर आख पड़ी, तो कृष्ण ने स्वभावत: पूछा, कैसे आए? जिस पर आख पड़ी, उससे पहले पूछा। तत्क्षण दुर्योधन बोला, मैं भी साथ ही आया हूं। मुझे न भूल जाएं; मैं भी यहां मौजूद हूं। अहंकार को बतलाना पड़ता है कि मैं मौजूद हूं। विनम्र, पता ही चल जाता है कि मौजूद है। और जब बतलाना पड़े, तो शोभा चली जाती है।

तो कृष्ण ने कहा, ठीक, तुम दोनों साथ ही आए हो। लेकिन मेरी। नजर अर्जुन पर पहले पड़ी, इसलिए पहले स्वभावत: मैं उससे पूछूंगा, कैसे आए हो? क्या मांगने आए हो?

दुर्योधन डरा, भयभीत हुआ। यह तो गलती हो गई। गलती इसलिए नहीं कि मैंने विनम्रता न दिखाई, गलती इसलिए हो गई कि यह तो लाभ का क्षण चूक गया।

अगर कभी अहंकारी विनम्र भी होना चाहता है, तो लोभ के कारण। विनम्रता उसका आधार नहीं होती। अगर अहंकारी कभी अक्रोधी भी होना चाहता है, तो कारण निरअंहकारिता या अक्रोध नहीं होता, कारण कुछ और ही होते हैं—लोभ, पद, प्रतिष्ठा, वासना, महत्वाकांक्षा।

डरा कि यह तो मुश्किल हो जाएगी। अर्जुन ने कहा कि मैं भी उसी लिए आया हूं; दुर्योधन भी उसी लिए आया है। हम मांगने आए हैं आपकी सहायता। युद्ध टाला नहीं जा सकता; युद्ध होकर रहेगा। हम प्रार्थना करने आए हैं कि हमारे साथ हों।

कृष्ण ने कहा, तुम दोनों आए हो, तो एक ही उपाय है कि एक मेरी फौजों को मांग ले और एक मुझे।

दुर्योधन कैप गया होगा कि अर्जुन निश्चित फौजों को मांग लेगा। क्योंकि कृष्ण को लेकर क्या करेंगे? इस अकेले को क्या करेंगे? खाएंगे कि पीएंगे? इस अकेले का मूल्य क्या है? विराट फौजें हैं इसकी! और पहला मौका अर्जुन को मिला है, मैं गया। यह तो बाजी चूक गया। अच्छा हुआ होता, चरणों में बैठ गया होता; अच्छा हुआ होता, चरण पकड़ लिए होते।

चौंका होगा दुर्योधन भी, जब अर्जुन ने निर्णय दिया। अर्जुन ने कहा कि अगर यही निर्णय है, तो मैं आपको मांग लेता हूं। छाती फूल गई होगी दुर्योधन की। सोचा होगा, ये मूढ़ ही रहे पांडव। अहंकारियों को विनम्र व्यक्ति मूढ़ ही मालूम पड़ते हैं। अज्ञानियों को ज्ञानी पागल मालूम पड़ते हैं। नासमझों को समझदार नासमझ मालूम पड़ते हैं। रोगियों को स्वस्थ लगता है कि कुछ महारोग से पीड़ित हैं। पीलिया के मरीज को सभी कुछ पीला दिखाई पड़ने लगता है। बहुत बुखार के बाद उठे आदमी को स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन भी तिक्त मालूम पड़ते हैं, स्वाद नहीं मालूम पड़ता; मिठाई में भी मिठास नहीं मालूम पड़ती।

दुर्योधन हंसा होगा, प्रसन्न हुआ होगा; हाथ में आई बाजी यह मूढ़ अर्जुन फिर हार गया! ऐसे ही ये सदा हारते रहे हैं। ऐसे ही वहां हारे थे, जब शकुनि ने दाव फेंके। ऐसे ही फिर हार गए। वहां तो मेरी चालाकी से हारे थे। यहां अपनी ही बुद्धिहीनता से हार गए। ये हारने को ही हैं; इनकी विजय का कोई उपाय नहीं। ऐसा शुभ अवसर चूक गया! मांग लेता फौजों को, कृष्ण को लेकर क्या करेगा? एक कृष्ण, अकेला कृष्ण किस मूल्य का है!

लेकिन यहीं निर्णय हो गया। एक कृष्ण एक तरफ, सारा संसार दूसरी तरफ, तो भी एक कृष्ण चुनने जैसा है। एक चुनने जैसा है। इक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए। एक को पकड़कर अर्जुन जीत गया।

लेकिन यह कोई जीतने के लिए एक को नहीं पकड़ा था, यह खयाल रखना। नहीं तो भूल हो जाएगी। तब तो फिर दुर्योधन और अर्जुन के गणित में कोई फर्क न रह जाएगा। यह जीतने के लिए एक को नहीं पकड़ा था। एक को पकड़ने के कारण जीत गया, यह बात और है। अपनी बुद्धि से भी पूछा होता, तो खुद की बुद्धि भी कहती कि चुन लो फौज—फाटा, वहां शक्ति है। लेकिन जो समझदार है, वह शक्ति नहीं चुनता, शांति चुनता है।

कृष्ण को चुनकर अर्जुन ने शाति चुन ली, साक्षी— भाव चुन लिया, बोध चुन लिया, बुद्धत्व चुन लिया। वही वक्त पर काम आया। अंधी फौजें, अंधी ऊर्जा को चुनकर दुर्योधन ने क्या पाया? नौकर—चाकर इकट्ठे कर लिए; मालिक खो गया।

तुम भी जीवन में ध्यान रखना, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर मैं भी देखता हूं कि तुम भी दुर्योधन के गणित से ही सोचते हो। फौज—फाटा चुनते हो। एक को छोड़ देते हो। रोज वही घटना घट रही है। वह एक तुम्हारे भीतर छिपा तुम्हारा विवेक है, उसे तुम छोड़ देते हो। कभी धन चुनते हो, कभी मकान चुनते हो, कभी पद चुनते हो, प्रतिष्ठा चुनते हो, हजार चीजें चुनते हो, फौज—फांटा। और एक को छोड़ देते हो।

तुम सोचते भी हो, उस एक में रखा भी क्या है! इतना विस्तार है संसार का, इसे पा लो। इतना बड़ा साम्राज्य है, उस एक को पाकर करोगे भी क्या? होगी आत्मा, होगी विवेक की अवस्था, होगा ध्यान, होगी समाधि, लेकिन एक ही है। और इतना विराट संसार पड़ा है अभी जीतने को; पहले इसे कर लो। फिर उस एक को देख लेंगे।

अगर तुम्हारे सामने यह सवाल उठे कि तुम एक परमात्मा को चुन लो या सारे संसार को, तुम क्या करोगे? सौ में निन्यानबे मौके पर तुम वही करोगे, जो दुर्योधन ने किया; और तुम प्रसन्न होओगे। वहीं तुम करते रहे हो। करोगे, यह कहना ही गलत है। तुम कर ही रहे हो।

लेकिन अर्जुन धन्यभागी हुआ। कृष्ण को पाकर सब पा लिया। मालिक को पा लिया, स्वामी को पा लिया। नौकर—चाकरों का क्या हिसाब है? घोड़े—रथों की क्या कीमत है? और वक्त पर यही एक काम आया। वक्त पर सदा एक काम आता है।

युद्ध के सघन मैदान में, जब अर्जुन के प्राण कंपने लगे, होश खोने लगा, गांडीव थरथराने लगा, पैर के नीचे की जमीन खिसक गई, कुछ सूझ न पड़े, सब तरफ अंधेरा हो गया। एक क्षण में सब शुरू हो जाने को है, योद्धा तत्पर हो गए, शंखनाद होने लगे, अर्जुन की प्रतीक्षा होने लगी कि देर क्यों हो रही है! और उसके गात शिथिल हो गए, उसका गांडीव मुरदा हो गया, उसकी ऊर्जा जैसे कहीं खो गई। अचानक उसने अपने को असहाय पाया। और इस क्षण में उस एक से ही ज्योति मिली। इस एक क्षण में वही सारथी काम आया।

खोजो भीतर, कौन है सारथी? ध्यान की खोज सारथी की खोज है। कौन है, जो तुम्हें वस्तुत: चलाता है? वही सारथी है। कौन है असली मालिक? अहंकार! तो तुम सिर के पास बैठे दुर्योधन हो। विवेक! तो तुम पैर के पास बैठे अर्जुन हो। वही काम आएगा जीवन के सघन युद्ध में।

अर्जुन बनो, तो कृष्ण की गीता तो सदा तुममें जन्म लेने को तत्पर है। तुम जरा गर्भ दो, तुम जरा जगह दो। तो जैसी गीता अर्जुन को मिली, वैसी ही तुम्हें भी मिल सकती है।

अर्जुन बोला, हे कृष्ण, जो मनुष्य शास्त्र—विधि को त्यागकर केवल श्रद्धा से युक्त हुए देवादिको का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन—सी है? सात्विकी अथवा राजसी अथवा तामसी?

इसके पहले कि हम इस सूत्र में प्रवेश करें, जीवन के गणित को समझ लेना जरूरी, उपयोगी है।

जिन्होंने भी जाना है कभी, अनंत काल में जो भी जागे हैं और बुद्ध हुए हैं, भगवत्ता पाई है, उन सब ने कुछ बातों पर सहमति दी है, अपने हस्ताक्षर की मोहर लगाई है। वे बातें बहुत थोड़ी हैं। बहुत—सी बातों में उनमें भेद है; भेद ही नहीं विरोध भी है। क्योंकि वे विभिन्न लोगों से बोले, इसलिए भेद है। क्योंकि वे विभिन्न समयों में बोले, इसलिए भिन्नता है। और क्योंकि वे विभिन्न दृष्टिओं से बोले, इसलिए विरोध भी है। सत्य बहुत बड़ा है, दृष्टि बड़ी छोटी है। विपरीत, दृष्टि में नहीं समाता, सत्य में समाता है।

तो कृष्ण बोले अर्जुन से, वह बात अलग, परिस्थिति अलग। महावीर बोले गौतम से, वह बात अलग, परिस्थिति अलग। गौतम भिन्न व्यक्ति है उतना ही जितने महावीर भिन्न हैं कृष्ण से, उतना ही गौतम भिन्न है अर्जुन से।

और सारी स्थिति भिन्न है। वन के एकांत में, सुबह पक्षियों की चहचहाहट में, महावीर से गौतम कुछ पूछता और महावीर बोलते। वृक्ष की छाया के तले आनंद बुद्ध से कुछ पूछता और बुद्ध बोलते। जीसस बोले, मोहम्मद बोले, परिस्थितियां भिन्न थीं, इसलिए बहुत बातें भिन्न हैं। लेकिन मूल सत्य भिन्न नहीं हो सकते।

उन कुछ मूल सत्यों में एक है, तीन का गणित। जीसस कहते हैं ट्रिनिटी, उस तीन के गणित को। वे कहते हैं, परमात्मा तीन हो गया। हिंदू कहते हैं, त्रिमूर्ति। वही ट्रिनिटी, परमात्मा तीन हो गया। ईसाइयों के नाम अलग हैं। हिंदू कहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश। ईसाई कहते हैं, परमात्मा पिता, बेटा जीसस और दोनों के बीच में पवित्र आत्मा, ऐसे तीन चेहरे हैं। लेकिन तीनों के भीतर छिपा है एक।

योगी कहते हैं, त्रिकुटी, जहां तीन मिलते हैं, वहां एक का अनुभव होता है। तांत्रिक कहते हैं, त्रिपुटी, जहां तीन तीन की तरह खो जाते हैं और एक समन्वय सधता है, वहीं परम का आविर्भाव होता है।

हिंदू जैन, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, सभी ने तीन की बात कही है। और इन सब में सर्वाधिक गहरी जिन्होंने तीन की चर्चा की है, वे हैं सांख्य दार्शनिक। उनका नाम ही सांख्य पड़ गया, क्योंकि उन्होंने पहली दफा जीवन के गणित की संख्या खोजी। सांख्य का अर्थ है संख्या। जिन्होंने पहली दफे गणित बिठाया। वह सबसे प्राचीन है। सबसे पहले उन्होंने तीन का राज प्रकट किया। उसकी वजह से वे सांख्य ही कहलाने लगे। उन्होंने जीवन के पूरे गणित को ठीक से पकड़ लिया।

उन्होंने कहा, एक से तीन होते हैं और फिर तीन से नौ होते हैं। और फिर नौ से अनंत—अनंत होते चले जाते हैं। और जब वापसी में यात्रा होती है, तो फिर अनंत घटकर नौ बनते हैं, नौ घटकर तीन बनते हैं; तीन घटकर एक हो जाता है। सारा संसार संख्या का विस्तार है, एक से तीन, तीन से नौ, नौ से इक्यासी, फिर इक्यासी गुणित इक्यासी, और आगे, और आगे। फिर ऐसे ही पीछे लौटना पड़ता है।

परसों रात एक इटालियन संन्यासिनी वापस लौटती थी नेपल्स। उसे मैंने नाम दिया है, कृष्ण—राधा। उसने कभी पूछा न था अब तक कि अर्थ क्या है। जाते समय मैंने उससे पूछा, कुछ पूछना है? उसने कहा कि और कुछ नहीं पूछना है, बड़ी तृप्त, शांत होकर जाती हूं। एक बात भर पूछनी है जो पहले दिन मैं पूछने से चूक गई, कृष्ण—राधा का अर्थ क्या है? आपने मुझे राधा क्यों पुकारा है? तो उसे मैंने जो कहा है, वह मैं तुमसे भी कहना चाहूंगा, क्योंकि इन सूत्रों से उसका बड़ा गहरा संबंध है।

उसे मैंने कहा कि पुराने शास्त्रों में राधा का कोई उल्लेख नहीं है। गोपियां हैं, सखियां हैं, सोलह हजार हैं। कृष्ण उनके साथ नाचते हैं; उनकी बांसुरी बजती है। और सारा वन—प्रांत आनंद से गूंज उठता है, रास की लीला चलती है। लेकिन राधा का कोई नाम पुराने शास्त्रों में नहीं है। सिर्फ इतना ही कहीं—कहीं उल्लेख है कि और सारी सखियों में, और सारी गोपियों में एक गोपी है, जो कृष्ण के बहुत निकट है, जो उनकी छाया की तरह है। लेकिन उसका कोई नाम नहीं है।

यह भी उचित ही है, क्योंकि कृष्ण के करीब नाम रहेगा, तो करीब ही न आ सकोगे। इसलिए पुराने शास्त्रों ने उसे कोई नाम नहीं दिया। छाया की तरह है, कृष्ण के निकट है।

अपनी तरफ से कृष्ण के निकट है, तो स्वभावत: कृष्ण की तरफ से भी निकटता है। क्योंकि भक्त जितना निकट भगवान के आ जाए, उतना ही निकट भगवान भक्त के आ जाता है। वह भक्त पर ही निर्भर है कि तुम कितने निकट भगवान को चाहते हो, उतने निकट तुम पहुंच जाओ। जो तुम भगवान से चाहते हो तुम्हारे प्रति, वही तुम भगवान के प्रति करो, यही तो सूत्र है।

तो शास्त्र कहते हैं कि निकट है, बहुत निकट है, छाया की तरह है। लेकिन किसी नाम का उल्लेख नहीं है। अच्छा किया। क्योंकि नाम—रूप खो जाए, तभी तो कोई कृष्ण के निकट आता है। इसलिए नाम क्या देना! लेकिन फिर हजारों साल तक नाम नहीं दिया गया। कुछ सात सौ वर्ष पहले अचानक राधा का नाम प्रकट हुआ। गीत गाए जाने लगे; महाकवियों ने परम रचनाएं रची; जयदेव ने गीतगोविंद गाया; राधा का आविर्भाव हुआ। राधा शब्द बहुमूल्य होने लगा। इतना बहुमूल्य हो गया कि अगर तुम अकेला अब कृष्ण कहो, तो आधा मालूम पड़ता है। राधा—कृष्ण ही पूरा मालूम पड़ता है। और न केवल महत्वपूर्ण हो गया, कृष्ण को पीछे हटा दिया; राधा आगे आ गई। कोई नहीं कहता, कृष्ण—राधा। लोग कहते हैं, राधा—कृष्ण।

यह भी बड़ा महत्वपूर्ण है। जब भक्त इतने निकट आ जाता है कि परमात्मा में एक हो जाता है, तो पहले तो भक्त परमात्मा की छाया होता है; फिर परमात्मा भक्त की छाया हो जाता है। राधा आगे आ गई।

गम कैसे खोज लिया यह जब नाम शास्त्रों में था ही नहीं? नाम की खोज अलग है। नाम की खोज के पीछे बड़ा गणित है, सांख्य का गणित है। राधा शब्द बनता है धारा शब्द को उलटा देने से। योगियों की खोज है कि धारा का अर्थ होता है, बहिर्गमन। जैसे गंगोत्री से गंगा की धारा निकलती है, तो स्रोत से दूर जाती है। स्रोत से दूर जाने वाली अवस्था का नाम है, धारा। और राधा धारा का उलटा शब्द है। उसका अर्थ है, जो स्रोत की तरफ वापस आती है। जब एक से तीन बनते हैं, तीन से नौ बनते हैं, नौ से इक्यासी बनते हैं, तो धारा। जब इक्यासी से नौ बनते हैं, नौ से तीन बनते हैं, तीन से एक बनता है, तो राधा।

राधा योगियों और सांख्य अनुभोक्ताओं के अनुभव से निकला —हुआ शब्द है। उन्होंने जाना कि जीवन की धारा बहिर्गामी है, बाहर जाती है, दूर जाती है, मूल से दूर जाती है, उत्स से दूर जाती है, उत्स की तरफ पीठ होती है, आंखें अनंत क्षितिज पर लगी होती हैं—यह धारा की अवस्था है। जब कोई लौटता है मूल उत्स की तरफ, स्रोत की तरफ, जब गंगा वापस लौटने लगती है गंगोत्री की तरफ, उलटी यात्रा शुरू होती है, अप—स्ट्रीम। अब धारा बाहर की तरफ नहीं जाती है, भीतर की तरफ आती है। बहिर्मुखता बंद होती है, अंतर्मुखता शुरू होती है; तभी तो कृष्ण के पास आती है राधा। धीरे — धीरे, धीरे— धीरे, गंगोत्री में गिर जाती है गंगा। गंगा विलीन हो जाती है, एक रह जाता है।

उस छाया की तरह घूमने वाली सखी को हजारों साल तक नाम न मिला। कोई सात सौ वर्ष पहले अचानक नाम का आविर्भाव। हुआ। और जिन्होंने नाम दिया, बड़े अदभुत लोग रहे होंगे। जिन्होंने नाम नहीं दिया, वे भी बड़े अदभुत लोग थे। और जिन्होंने नाम दिया, वे कुछ कम अदभुत लोग न थे। क्योंकि नाम उन्होंने ऐसा गहरा दिया कि उसमें सारे शास्त्र को समा दिया।

मैंने जो प्रतीक चुना है आश्रम के लिए, वह एक से तीन, तीन से नौ, इसका ही प्रतीक है। वह सृष्टि और प्रलय दोनों उसमें हैं। अगर धारा की तरह जाओ, तो एक से तीन, तीन से नौ और अनंत होता जाता है। अगर लौटने लगो, घर वापस आने लगो, तो नौ से तीन, तीन से एक हो जाता है।

इस संबंध में समस्त ज्ञानियों की सहमति है कि अस्तित्व का ढंग, सृष्टि का ढंग है, एक से अनेक। तीन पहला पड़ाव है। और फिर प्रलय, जब सृष्टि सिकुडती है और यात्रा समाप्त होती है, लीन होती है; सृष्टि की रात आती है, ब्रह्मा का दिन पूरा होता है, तब फिर एक पड़ाव है, आखिरी पड़ाव, तीन। पहला पड़ाव भी तीन है, आखिरी पड़ाव भी तीन है। इसलिए तीन बडा महत्वपूर्ण है—ट्रिनिटी, त्रिमूर्ति, त्रिकुटी, त्रिपुटी।

महावीर के त्रि—रत्न, बुद्ध की त्रि—शरण, लाओत्से के थी ट्रेजर्स, वह सब तीन पर उनका जोर है। क्योंकि वही पहला पड़ाव है, वही। अंतिम पड़ाव है। वहीं से तुम शुरू होते हो, वहीं तुम समाप्त होते हो। क्योंकि फिर एक में तो परमात्मा ही बचता है। जब तक एक है, तुम शुरू नहीं हुए; जब फिर एक हो गया, तुम न रहे। तीन से अहंकार शुरू होता है और तीन पर ही अहंकार समाप्त हो जाता है। ये जो सांख्यों ने तीन सूत्र खोजे, वे हैं, सत्य, रज, तम। इन तीन से, सांख्य कहते हैं, सारा अस्तित्व बना है। ये त्रिगुण, इन तीन का ही सारा खेल है। जिसने इन तीन को जान लिया, उसके हाथ में कुंजी आ गई; वह चाहे तो वापस लौट जाए, एक में लीन हो जाए। तो इन तीन के स्वभाव को हम थोड़ा समझ लें।

तम का अर्थ है, आलस्य। तम का अर्थ है, ठहरना। तम का अर्थ है, रुकना। तम बांधने वाली शक्ति है। अगर तम न हो, तो चीजें चलती ही जाएंगी और रुक न सकेंगी। तुम एक पत्थर उठाकर फेंकते हो, अगर तम न हो जगत में, कुछ रोकने की शक्ति न हो, अवरोध न हो जगत में, तो पत्थर फिर चलता ही जाएगा, चलता ही जाएगा, रुकेगा कैसे? तम है अवरोधक ऊर्जा।

तो तुम फेंकते हो पत्थर को, जब तुम फेंकते हो, तो तुम उसे रज की शक्ति देते हो। इसलिए तुम्हारा हाथ दुखता है, शक्ति हाथ से गई। तुमने कुछ गंवाया पत्थर को फेंकने में। और जितनी शक्ति तुमने दी, जितने जोर से फेंका, जितना गंवाया, जितनी ऊर्जा दे दी पत्थर को, उतनी दूर पत्थर जाता है। जैसे ही ऊर्जा खतम हो जाती है, तम की शक्ति उसे नीचे खींच लेती है।

जिसको न्यूटन ने ग्रेविटेशन कहा है, वह तम का ही एक स्थानीय उपयोग है, तम का ही एक रूप है। तम के और बहुत रूप हैं; लेकिन जिसको न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण कहा। क्योंकि वह बैठा है बगीचे में और एक फल को उसने गिरते देखा। और उसे सवाल उठा कि जब फल गिरता है वृक्ष से, तो ऊपर की तरफ क्यों नहीं जाता? बाएं क्यों नहीं जाता? दाएं क्यों नहीं जाता? नीचे ही क्यों आता है?

तम है नीचे की तरफ खींचने वाली शक्ति। तो जिससे तुम नीचे गिरते हो, वह तम है। जिससे तुम नरक में गिरते हो, वह तम है। जब तुम्हारे भीतर चोरी तुम करते हो, तो तम है, झूठ बोलते हो, तम है। जहां—जहां तुम नीचे उतरते हो, वहां तम है। तम है एक आलस्य, एक निद्रा।

गुरुत्वाकर्षण तम का एक रूप है, और आध्यात्मिक अंधापन भी तम का एक रूप है। जिन्होंने भी समाधि जानी, वे कहते हैं, हलके हो गए, जैसे पंख लग गए, आकाश में उड़ जाएं। जब तुम्हारे भीतर भी ध्यान थोड़ा गहरा होगा, तो तुम अचानक किसी दिन पाओगे बैठे—बैठे, जैसे शरीर जमीन से ऊपर उठ गया। आख खोलकर पाओगे, जमीन पर बैठा है। सोचोगे, भ्रांति हो गई, कल्पना हो गई। फिर आख बंद करोगे, फिर थोड़ी देर में पाओगे, शरीर ऊपर उठ गया। शरीर नहीं उठ रहा है, लेकिन तम की शक्ति कम हो रही है। इसलिए भीतर अनुभव होता है, जैसे शरीर ऊपर उठ गया, हलका हो गया।

जितना तमस होगा, उतना बोझ होगा। लोगों को चलते देखो, ऐसे चल रहे हैं, जैसे सिर पर बोझ रखे हों। बोझ बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता, वह तम का बोझ है। उसे तुम किसी तराजू पर न तौल सकोगे। वह आत्मिक बोझ है। वह चिंताओं का बोझ है, दुर्गुणों का बोझ है, गलत आदतों का बोझ है, गलत संस्कारों का बोझ है, गलत संबंधों का बोझ है, गलत निर्णयों का बोझ है, वह सब बोझ वहां है। वह सब तमस का फैलाव है।

तमस यानी जो रोकता, तमस यानी जो अटकाता, तमस यानी जो अवरोध बनता। तुम्हारे पैर अगर जमीन में गड़े हैं, तो वह तमस है। तुम अगर अपनी चेतना स्थिति में ऊपर नहीं उठ पाते, तो तमस का बहुत वजन है।

तमस जरूरी है, याद रखना। क्योंकि तमस के बिना जीवन न हो सकेगा। पर उसकी एक सीमा जरूरी है। जैसे नमक भोजन में जरूरी है, पर नमक ही नमक का भोजन करने मत बैठ जाना। और माना कि नमक के बिना भोजन बेस्वाद लगता है, लेकिन इससे तुम यह गणित मत बिठाना कि नमक ही नमक खाओगे, तो बहुत स्वाद आएगा। गणित सीधा है। नमक के बिना भोजन बेस्वाद लगता है, इसलिए स्वाद नमक में है। तो नमक ही नमक खाओ, स्वाद ही स्वाद मिलेगा!

तमस जरूरी है, अपरिहार्य है, लेकिन उसका एक निश्चित अंश। और जिस दिन कोई व्यक्ति उसके निश्चित अंश को पहचान लेता है, उस दिन तमस का भी उपयोग शुरू हो जाता है। फिर तमस तुम्हें रोकता नहीं है। फिर पत्थर सीढ़ियां बन जाती हैं, फिर तुम ऊपर जाने के लिए भी तमस का उपयोग करते हो। क्योंकि पत्थर पर भी तो पैर जमाना पड़ेगा!

एक सीढ़ी से तुम पैर उठाते हो, एक पैर उठाते हो; एक पैर को तो तुम जमाए रखते हो। और जब तुम एक पैर उठाते हो, तो दूसरे पैर को ठीक से जमाकर रखना पड़ता है। वह तमस का उपयोग है। फिर दूसरे को तुम ऊंची सीढ़ी पर जमा लोगे ठीक से, तब पहले पैर को उठाओगे। वह भी तमस का उपयोग है।

तमस नीचे ला सकता है, अगर अतिशय हो जाए। और तमस ऊर्ध्वारोहण बन सकता है, अगर समझपूर्वक उसका उपयोग किया जाए। कोई योगी तमस को काट नहीं डालता। सिर्फ तमस का सम्यक उपयोग सीखता है। अति मारता है; सम्यक उपयोग सदा सहयोगी है, साथी है।

वैज्ञानिक भी कहते हैं कि तमस के बिना अस्तित्व नहीं हो सकता। वैज्ञानिकों ने भी पदार्थ के अन्वेषण में इलेक्ट्रान, न्‍यूट्रान और पॉजिट्रान की विभाजना की है। और वे कहते हैं कि इनमें से एक रोकता है, अन्यथा परमाणु विस्फोट हो जाए। रोकने वाला तत्व चाहिए, जो बांधकर रखता है रस्सी की तरह।

दूसरा तत्व है, रजस। रजस है ऊर्जा, गति, त्वरा, तेजी। तुम जब एक पत्थर फेंकते हो, तो तुम रजस से फेंकते हो। वह तुम्हारी ऊर्जा है। आकाश में तारे घूमते हैं, पृथ्वी परिक्रमा लगाती है सूरज की, तुम सुबह उठते हो, वह रजस है। अगर तमस ही हो, तो तुम एक बार सोओगे, फिर कभी उठोगे नहीं। उठेगा कौन?

इसलिए जो आदमी सुबह उठने में देर करता है, उसको हम तामसी कहते हैं। उसको तमस पकड़ रहा है। रातभर सो लिया है, फिर भी बिस्तर नहीं छोड सकता। उठता भी है, तो ऐसी शिकायत से भरा उठता है। दिन का स्वागत नहीं है उसके मन में। सूर्योदय की प्रसन्नता नहीं है उसके मन में। पक्षियों के गीत उसे सुनाई नहीं पड़ते। वह एक ही सुख जानता है, अपनी दुलाई में दबा हुआ पड़े रहना और अपनी ही गंदी सांस को चलाते रहना, पीते रहना। वह एक ही सुख जानता है, मुरदे की भांति पड़े रहना।

यह आदमी आत्मघाती है। क्योंकि जीवन का क्या अर्थ है फिर? जीवन तो ऊर्जा है, जागना है; जीवन तो गति है। मृत्यु में तमस पूर्ण को घेर लेता है।

इसे समझ लो। मृत्यु में तमस इतना अति हो जाता है कि उसमें रज और सत्व दोनों डूब जाते हैं, तो आदमी मर गया।

जो आदमी सुबह उठने में मुश्किल पा रहा है, वह थोड़ा— थोड़ा मरा हुआ आदमी है, ठीक जिंदा आदमी नहीं है। उसके चेहरे पर तुम दिनभर मक्खियां उड़ते हुए पाओगे। उसके चेहरे पर एक उदासी, उसके चेहरे पर धूल जमी हुई मिलेगी, नींद की एक पर्त उसके चेहरे पर तुम पाओगे। उसकी आंखें ताजी नहीं होंगी; उसकी आंखों में स्फटिक मणि की चमक न होगी। उसकी आंखों पर धुंआ जमा होगा। वह किसी तरह ढो रहा है, वह राह देख रहा है सांझ की कि किस तरह बिस्तर पर फिर पड़ जाए।

ऐसा आदमी शराब पीएगा; क्योंकि शराब तमस को बढ़ा देती है। ऐसा आदमी धूम्रपान करेगा, क्योंकि धूम्रपान में छिपा हुआ निकोटिन तमस को बढ़ाता है। ऐसे आदमी की अगर तुम जीवन—विधि पहचानोगे, तो तुम पा जाओगे, कहा—कहा तमस है। तमस का एक रूप निकोटिन है, वह सिगरेट में है छिपा हुआ, तंबाकू में है छिपा हुआ। ऐसा आदमी तंबाकू चबाता रहेगा। और हद के लोग हैं! ऐसे आदमियों ने अगर शास्त्र लिखे, तो उनमें उन्होंने यह भी लिख दिया कि वैकुंठ में बैठे विष्णु भगवान तांबूल चर्वण करते हैं।

निकोटिन की तुमको जरूरत होगी, विष्णु भगवान को है, तो उनका विष्णु होना भी संदिग्ध है। वह तो शास्त्र पुराने जमाने में लिखे, नहीं तो पता नहीं वह सिगरेट पीते विष्णु भगवान या क्या करते! या हुक्का गुडगुडाते!

तामसी आदमी की जीवन व्यवस्था देखो! ज्यादा खाएगा; क्योंकि ज्यादा भोजन नींद लाता है, तमस बढ़ता है। अतिशय खाएगा; भर लेगा इस तरह कि सारी ऊर्जा पेट में चली जाए और मस्तिष्क की ऊर्जा खाली हो जाए, तो वह सो सके। इसलिए तो भरे पेट नींद अच्छी आती है। उपवास करो, रात नींद नहीं आती। अति भोजन तमस को बढ़ाता है।

ऐसे आदमी की आदतें गौर से देखो, तो तुम पाओगे, अगर उसे मौका मिले सोने का, तो वह बैठेगा नहीं। अगर बैठना ही पड़े, तो वह चलेगा नहीं, खड़ा नहीं होगा। अगर खड़ा ही होना पड़े, तो चलेगा नहीं। उसका सार यह है कि अगर उसको मरने का मौका मिले, तो वह मरना चाहेगा, जीएगा नहीं। ऐसे लोग आत्मघात कर लेते हैं। और अगर नहीं कर पाते, तो केवल इस कारण कि आलस्य की वजह से। इतना उपद्रव भी वे नहीं कर पाते, कौन जाए जहर खरीदने!

मुल्ला नसरुद्दीन एक घर में नौकर था। बड़ा घर था। बहुत नौकर—चाकर थे। और जैसा बड़ा घर था, शाही ठाठ—बाठ था, बड़े नौकर—चाकर थे, भयंकर आलस्य था नौकरों में। पता ही नहीं चलता कि कौन क्या करता है, कौन क्या नहीं करता। काम बड़ा अस्तव्यस्त था। मालिक चिंतित हुआ। सब उपाय कर लिए, लेकिन काम में कोई सुधार न हुआ। तो उसने एक इफिशिएसि एक्सपर्ट को बुलाया कि जो थोड़ी सलाह दे कि क्या करना।

उस विशेषज्ञ ने कहा, बुलाओ सब नौकरों को। सारे नौकर पंक्तिबद्ध खड़े किए गए। उस विशेषज्ञ ने कहा कि तुममें जो सबसे ज्यादा अलाल हो, वह बाहर निकल आए। क्योंकि मैं उसे ऐसा काम दे दूंगा, जिसमेँ ज्यादा काम करना ही न पड़े। लेकिन एक सड़ी मछली पूरी नदी को गंदा कर देती है। तो मुझे ऐसा लगता है कि तुममें कोई एक महा अलाल है, जो सब को खराब कर रहा है। वह बाहर निकल आए। हम उसे कोई दंड न देंगे; नौकरी न छुडाएंगे, आश्वासन पक्का है। हम उसे ऐसा ही काम दे देंगे, जिसमें कुछ करना ही ज्यादा न पड़े। पहरेदार की तरह स्कूल पर बैठा सोता रहे या मालिक की दुकान है कपड़े—लत्ते की, और कई दुकानें हैं, उसे ऐसी जगह बिठा देंगे। जैसे उदाहरण के लिए उसने कहा कि जहां मालिक के कपड़े की दुकान में पाजामे और नाइट ड्रेस और इस तरह की चीजें बेची जाती हैं, वहां बिठा देंगे कि वहा सोया रहे। और वहा तख्ती लिख देंगे कि हमारे कपड़े पहनने से ऐसी गहरी नींद आती है। कोई रास्ता निकाल लेंगे। बाहर आ जाए जो आदमी सब से ज्यादा अलाल है!

सब लोग बाहर आ गए सिर्फ मुल्ला नसरुद्दीन को छोड्कर। उस विशेषज्ञ ने पूछा कि नसरुद्दीन, मालिक को भी संदेह है और मुझको भी संदेह है कि तुम ही हो उपद्रवी। लेकिन तुम बाहर क्यों नहीं आए? उसने कहा, मालिक, जहां हम हैं, बड़े आनंद में हैं। दो पैर कौन चले!

अगर आलसी आत्महत्या नहीं करता, तो सिर्फ इसीलिए कि उसमें भी कुछ करना पड़ेगा, अन्यथा वह आत्मघाती की तरह जीता है।

रजस है ऊर्जा, त्वरा, शक्ति। रजस का अगर अति हो जाए, तो आदमी राजनीतिज्ञ हो जाता है, भागता है, महत्वाकांक्षा! या धन की दौड़ हो जाती है, या पद की दौड शुरू हो जाती है; वह रुक नहीं सकता। उसे रुकना मुश्किल है। उसे तुम हमेशा भागता हुआ पाओगे। वह कहां जा रहा है, इसका उसे पक्का पता न हो; लेकिन एक बात पक्की होती है कि वह तेजी से जा रहा है। उससे तुम यह मत पूछो कि कहां जा रहे हो। इतनी उसको फुरसत नहीं। इतना समय भी नहीं है रुककर सोचने का। गति!

पूरब में तमस ज्यादा है, इसलिए लोग गरीब हैं, भिखमंगे हैं, मूढ़ हैं। पश्चिम में रजस ज्यादा है, इसलिए लोग महत्वाकाक्षी हैं, तनाव से भरे हैं, परेशान हैं, पागल हैं। धन खूब पैदा कर लिया, बड़ी विशाल अट्टालिकाएं बना ली हैं, विज्ञान के बड़े साधन आविष्कृत कर लिए हैं और स्पीड को बढ़ाए चले जाते हैं रोज। उनसे पूछो, जा कहा रहे हो? पैदल जाओ कि जेट पर जाओ, लेकिन जाना कहां है? वे कहते हैं, जाने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन तेजी से जा रहे हैं। मंजिल का सवाल ही क्या है! जाने में मजा आ रहा है। पागलपन है पश्चिम में।

अगर रज ज्यादा हो जाए, तो आदमी को विक्षिप्त करता है। तुम जानते हो राजस आदमी को कि वह खाली नहीं बैठ सकता। उसे बैठना भी पड़े थोड़ी देर, तो पच्चीस दफे करवटें बदलता है। वह रात सो नहीं सकता, करवटें बदलता है। नींद में भी उसका रजस सक्रिय है। उसे कुछ न कुछ करने को चाहिए। कोई भी गोरखधंधा हो, तो भी वह करना चाहेगा, चाहे उसका कोई परिणाम न हो। खाली नहीं बैठ सकता। बैठने की कला उसे नहीं आती। तमस का ?तत्व थोड़ा कम है, रजस का तत्व थोड़ा ज्यादा है।

ऐसे आदमी ही दुनिया में उपद्रव करते हैं। चंगेजखा, तैमूरलंग, नादिरशाह, हिटलर, मुसोलिनी, माओत्से तुंग, इंदिरा, जयप्रकाश, सब—रजस ज्यादा है। अब के जयप्रकाश को खाली बैठना नहीं जमता। पूर्ण क्रांति करनी है! किसी ने कभी पूर्ण क्रांति की है? कभी पूर्ण क्रांति होती है? अगर पूर्ण क्रांति होगी, तो फिर बचेगा क्या? पूर्ण क्रांति तो प्रलय में ही हो सकती है। उपद्रव करना है।

उपद्रवी पैदा होते हैं, समाज—सुधारक पैदा होते हैं, समाज—सेवक पैदा होते हैं। तुम्हारे पैर भी न दुख रहे हों, तो भी वे दबाते हैं। तुम उनसे कितना ही कहो, संकोचवश तुम एकदम मना भी नहीं कर सकते। पर वे कहते हैं, हमें सेवा करनी है।

दुनिया में जितनी मिस्वीफ और जितना उपद्रव होता है, वह रजस गुणधर्मा व्यक्तियों का परिणाम है। तमस वाला आदमी अपने लिए कितना ही नुकसान करता हो, दूसरे को नहीं करता, यह उसकी खूबी है। आलसी कहां दूसरे को नुकसान करने जाए? तुम झगड़ा भी करो, तो वह कहता है कि झगड़े में हमें पड़ना नहीं। क्योंकि कुछ करना पड़े! तुम उसका कोट छीनो, तो वह कमीज भी दे देता है, कि तू ले जा, दोबारा न आना पड़े।

सारा उपद्रव संसार का, क्रांतिया, इतिहास, रजस, अति रजस से पीड़ित लोगों का परिणाम है, जिनको बुखार चढ़ा है। वे व्यस्तता चाहते हैं; कोई न कोई काम चाहिए। क्योंकि काम के बिना वे खाली नहीं बैठ सकते। खाली बैठते हैं, तो उन्हें बेचैनी मालूम पड़ती है, उनकी ऊर्जा उन्हें भगाती है, दौड़ाती है। फिर इससे कोई प्रयोजन नहीं है, कहां भागते हैं, कहा दौड़ते हैं। लेकिन दौड़ने में राहत मिलती है। ऐसे लोग खूब धन कमा लेते हैं। धन कमाने के बाद बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं कि अब इसका क्या करें? तो उस धन से और धन कमाते हैं। फिर खड़े होकर सोचते हैं, अब इसका क्या करें? तो उस धन से और धन कमाते हैं। और कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता।

शुरू में धन कमाने वाले लोग सोचते हैं कि जब धन कमा लेंगे, तो आराम करेंगे। लेकिन आराम वे कर नहीं सकते, क्योंकि आराम करने वाले लोग धन नहीं कमा सकते। आराम करने वाले पहले से ही आराम कर रहे हैं। जो सोचता है कि धन कमाकर आराम करूंगा, महल बन जाएगा, सब सुविधा होगी, नौकर—चाकर होंगे, बस, फिर आराम। उसको पता नहीं है कि इतना तुम जो करोगे, वह तुम्हारा रजस धर्म बढ़ेगा। और एक घड़ी ऐसी आएगी, जब सब तो होगा, लेकिन तुम पाओगे, आराम कैसे करें! वह तो भूल ही गए। आराम हो ही न सकेगा।

अति रज हो जाए, तो विक्षिप्तता में ले जाता है; जैसे अति तम हो जाए, तो आत्मघात में ले जाता है। पूरब आत्मघाती है, पश्चिम विक्षिप्त है।

लेकिन रजस की एक मात्रा चाहिए; उतनी मात्रा चाहिए, जितने से जीवन का संतुलन बन जाए। क्योंकि बुद्ध में भी उतना रजस तो है, अन्यथा कौन तपश्चर्या करेगा? उतना रजस तो है, अन्यथा कौन ध्यान करेगा? उतना रजस तो है, अन्यथा कौन साक्षी को खोजेगा? बस, उतना ही है। उतना तमस है, जितने से विश्राम हो जाता, उतना रजस है, जिससे जरूरी श्रम हो जाता।

और जिसने रज और तम की, दोनों की संतुलित मात्रा को उपलब्ध कर लिया, उसके जीवन में तीसरे तत्व का उदय होता है, वह है सत्व। सत्व का अर्थ है, संतुलन। संतुलन परम शुद्धि है। सत्व का अर्थ है, भीतर की सारी विक्षिप्तताएं शांत हो गईं; आलस्य शांत हो गया; कोई अति न रही। जिसको कबीर ने कहा निरति; कोई अति न रही। जब कोई अति नहीं रह जाती, तो सुरति जगती है।

वह सुरति ही सत्व है। तब तुम्हारे भीतर एक सात्विक भाव का जन्म होता है, एक कुंआरेपन का। तुम एक संगीत की तरह मधुर हो जाते हो। तुम्हारा तम भी उस संगीत का अंग है और तुम्हारा रज भी उस संगीत का अंग है, उन दोनों के तारों पर ही तुम्हारी सात्विकता की धुन उठती है। सात्विकता का अर्थ है, हार्मनी, लयबद्धता, कुछ भी ज्यादा नहीं, कुछ भी कम नहीं।

इसलिए सत्व संतोष लाता है और सत्व एक परितृप्ति देता है और सत्य तुम्हें योग्य बनाता है कि तुम इन तीनों के ऊपर जा सको। एक त्रिकोण बनाओ, एक ट्राएंगल; उसमें नीचे के दो आधार कोण तो हैं तम और रज के और ऊपर का शिखर कोण है सत्व का।

सत्व अंत नहीं है, सत्व तो केवल संतुलन की दशा है। इसलिए वह व्यक्ति सात्विक है, जिसके जीवन में अति नहीं है। जो न तो अति गृहस्थ ही है और न अति संन्यस्त ही है, जो न तो अति धन में लगा है, न अति त्याग में लगा है; जो न अति भोग में है, न अति विरोध में है, जो न अति राग में है, न अति विराग में है। जिसके जीवन में एक गहन शाति, जिसके भीतर लय सध गई, जिसने अपने भीतर के विरोधों में सामंजस्य खोज लिया। जिसने अपने तमस और रज को जीवन के रथ में जोत लिया, वे दोनों बैल हो गए और दोनों अब जीवन के रथ को खींचने लगे, साथ—साथ—विरोध में नहीं, एक—दूसरे की दुश्मनी में नहीं—स्व—दूसरे के गहन सहयोग में।

तम और रज का जहां सहयोग होता है, वहीं तीसरे का जन्म हो जाता है। जहां तम और रज का सहयोग होता है, वहा सत्व का जन्म हो जाता है। सत्व गौरीशंकर का शिखर है। वही अंत नहीं है, लेकिन छलांग के लिए आखिरी जगह है। वहां से छलांग एक में लगती है, आदमी तीन के पार हो जाता है।

उस एक को तुम समझ सकते हो इस ट्राएंगल, इस त्रिकोण के बीच का बिंदु। वह तीनों से बराबर दूरी पर है। इसलिए कोई चाहे तो तमस से भी उसकी तरफ जा सकता है, यद्यपि यात्रा बहुत कठिन होगी।

कोई वाल्मीकि तमस से भी सीधा चला जाता है, मरा—मरा जपकर राम को उपलब्ध हो जाता है। पक्के आलसी रहे होंगे और पक्के तमस से भरे रहे होंगे, अंधकार से भरे रहे होंगे। यह भी फिक्र न की पता लगाने की कि मरा—मरा जप रहा हूं यह ठीक भी मंत्र है या नहीं? डाकू हैं, लुटेरे हैं, हत्यारे हैं। गहन तमस रहा होगा, नीचे की तरफ प्रवाह रहा होगा। लेकिन यात्रा कर ली, सीधे उपलब्ध हो गए। कोई अंगुलीमाल सीधा उपलब्ध हो जाता है।

तो वह जो एक है, जो मूल उदगम है, वह इन त्रिकोणों के ठीक बीच का बिंदु है। तीनों कोने से बराबर फासला है—सत्व से, रज से, तम से।

लेकिन तम से यात्रा बहुत कठिन है, क्योंकि यात्रा करने का मन ही नहीं होता। यात्रा करे कौन?

रज से भी यात्रा करनी कठिन है, उतनी कठिन नहीं, जितनी तम से है, पर फिर भी कठिन है। यात्रा तो करनी हो जाती है, लेकिन रुकना नहीं आता। और उस परम में तो रुकना पड़ेगा। तम वाला आदमी ऐसे बैठा रहता है, जैसे मंजिल पर पहुंच गया, और रज वाला आदमी मंजिल के पास से भी गुजर जाता है, लेकिन समझता है, यह भी मार्ग है। क्योंकि उसे चलने की धुन है; वह रुक नहीं सकता।

तुमने कहानी सुनी होगी, एक जंगल में आग लग गई। और एक अंधा आदमी है, जो चल सकता है, लेकिन देख नहीं सकता। और एक लंगड़ा आदमी है, जो देख सकता है, लेकिन चल नहीं सकता। वह लंगड़ा है तमस का प्रतीक, वह अंधा है रजस का प्रतीक। अंधा चल सकता है, दौड़ सकता है, लेकिन देख नहीं वह मंजिल के पास से भी दौडता निकल जाएगा, मंजिल के से भी दौड़ता निकल जाएगा। चल सकता है, लेकिन देख नहीं सकता। और जो देख नहीं सकता वह रुकेगा कैसे?

और लंगड़ा है, जो देख सकता है, मंजिल दिखाई पड़ती रहेगी कि दूर आकाश में उतुंग— शिखर दिखाई पड़ते हैं, स्वर्ण कलश परमात्मा के। मगर वह लंगड़ा है, वह बैठा अपने वृक्ष के नीचे ही रहेगा; वह चल नहीं सकता है।

वह जो कहानी है, वह सांख्यों की कहानी है। उन दोनों का जोड़ चाहिए। सांख्यों ने जोड़ करवा दिया। वह बच्चों की कहानी नहीं है। तुम समझना मत कि बच्चों के लिए लिखी गई है। बच्चों की किताबों में है, बूढ़ों के लिए है। दोनों तो व्यर्थ थे, एक लयबद्धता चाहिए थी कि दोनों सहयोगी हो जाएं।

दोनों सहयोगी हो गए। समझी उन्होंने अपनी हालत। अंधे ने कहा कि मैं चल सकता हूं दौड़ सकता हूं पैर मेरे परिपूर्ण स्वस्थ हैं। मगर कहां जाऊं? कहां दौडूं? कैसे निकलूं बाहर इस आग के? कहां है मार्ग? कौन ऐसी जगह है, जहां लपटें न हों और मैं बाहर निकल जाऊं, यह मैं नहीं जानता। तो दौड़ तो मैं काफी रहा हूं लेकिन दौड़ने में उलटा मैं जल जाऊंगा, खतरा है।

उस लंगड़े ने कहा, मैं तुम्हारे काम आ सकता हूं। मैं देख रहा हूं कि कहां मार्ग है, कहां मंजिल है। पैर नहीं मेरे पास। तुम मुझे अपने कंधों पर ले लो। अंधे ने लंगडे को कंधे पर ले लिया, लय बंध गई। जिस दिन रजस के कंधे पर तमस बैठ जाता है, उसी दिन लय बंध जाती है। उसी दिन संगीत पैदा हो जाता है। अब मार्ग खोजने में कोई कठिनाई नहीं है। दोनों मिलकर सत्व की यात्रा पर निकल जाते हैं; सत्व दूर नहीं है।

तमस से भी यात्रा हो सकती है, हुई है, लेकिन अति कठिन है। अंधा भी कोशिश करे, तो निकल सकता है टटोल—टटोलकर, लेकिन बड़ा मुश्किल होगा। और लंगड़ा भी घसिट—घसिटकर बाहर हो सकता है, लेकिन बडा मुश्किल होगा। जो तमस से यात्रा करते हैं सीधे, उनकी घसिट—घसिटकर यात्रा होती है। जो रजस से यात्रा करते हैं, उनको अंधे की तरह टटोल—टटोलकर यात्रा करनी पड़ती है। संयोग है निकल जाएं तो, अन्यथा आग तो भस्मीभूत कर ही लेगी। जो समझदार हैं, वे दोनों का जोड़ बिठा लेते हैं। उनके जोड़ से संगीत पैदा होता है, वही सत्व है।

वह सत्व भी अंतिम नहीं है, लेकिन उस संगीत से फिर मध्य के बिंदु की तरफ सुगमता से यात्रा हो जाती है। जैसे कोई टहलता हुआ बाहर हो गटिहलता हुआ कहता हूं। खेल—खेल में बाहर हो जाए; कुछ श्रम नहीं पड़ता। सत्व से छलांग बडी आसान है। क्योंकि वहा पैर भी हैं, ऊर्जा भी है, आंखें भी हैं और बंधी हुई लयबद्धता में सब साफ दिखाई पड़ता है। जैसे झील शांत हो गई और कोई लहरें नहीं और झील दर्पण बन गई।

अर्जुन ने कृष्ण से पूछा……।

यह है श्रद्धात्रय—विभाग—योग। क्योंकि अगर तीन हैं, तो श्रद्धाएं भी तीन होंगी। तामसी की भी श्रद्धा होगी, आलसी की भी श्रद्धा तो होती है। राजसी की भी श्रद्धा होगी, सत्य को उपलब्ध व्यक्ति की भी श्रद्धा होगी।

तो अर्जुन ने कहा, हे कृष्ण, जो मनुष्य शास्त्र—विधि को त्यागकर केवल श्रद्धा से युक्त हुए देवादिको का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन—सी है? सात्विकी अथवा राजसी अथवा तामसी?

कृष्ण ने कहा, मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्विकी और राजसी तथा तामसी, ऐसी तीन प्रकार की होती है। इससे बड़ी हैरानी होगी, क्योंकि तुम तो सदा सोचते रहे होंगे कि श्रद्धा सदा सात्विक होती है। श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती है।

तमस से भरे हुए व्यक्ति की श्रद्धा कैसी होगी? तमस से भरा हुआ व्यक्ति अगर प्रार्थना भी करेगा, तो इसीलिए करेगा, ताकि उसे कुछ करना न पडे। वह परमात्मा पर भरोसा करेगा, तो इसीलिए करेगा, ताकि खुद करने से बच जाए। वह कहेगा, सब करने वाला वही है। बातें वह बड़ी शान की करेगा। कहता है, सब करने वाला वही है, देने वाला वही है। चलने—फिरने से क्या होगा? करने से क्या होगा? वह कहेगा, हम तो भाग्य में श्रद्धा करते हैं। वह कहेगा, जो होना है, वह हो ही जाता है। उसकी बिना आशा के तो पता भी नहीं हिलता। तो कहता है कि वह तो पशु—पक्षियों को पालता है, तो हमें न पालेगा?

बड़ी शान की बातें करता है आलसी भी। लेकिन छिपा रहा है तमस को। वह यह कह रहा है कि हम कुछ करना नहीं चाहते। असल में वह यह नहीं कह रहा है कि परमात्मा सब करता है, वह यह कह रहा है कि हम कुछ करना नहीं चाहते। परमात्मा की ओट में वह तमस को छिपा रहा है।

इस मुल्क में करोड़ों की संख्या है ऐसे लोगों की जिनकी श्रद्धा तमस की है, जो कुछ न करेंगे। लेकिन उनके जीवन में कोई परम संगीत भी बजता हुआ सुनाई नहीं पड़ता। जीवन तो उदास थका—मादा दिखाई पड़ता है। बातें बड़े शान की करते हैं वे कि उसकी मरजी के बिना क्या होगा? सब उसी पर छोड़ दिया है। छोड़ा उन्होंने कुछ भी नहीं है। कुछ कर नहीं सकते, कुछ करने की हिम्मत नहीं है, ऊर्जा नहीं है, और तमस से राग बना लिया है, रस बना लिया है। इसलिए बड़ी ऊंची बातें करते हैं।

अगर कोई दूसरा धन कमा रहा है, वह कह रहा है, क्या करोगे कमाकर भी? उसकी मरजी होगी, तो लंगड़े पहाड़ चढ़ जाते, अंधे पढ़ने लगते, बहरे सुनने लगते। और उसकी मरजी न होगी, तो दौड़ते रहो, क्या होगा? वह अपने को समझा लेता है। वह कहता है कि मैं संतोषी हूं। भीतर सब तरह की वासनाएं जलती हैं, भीतर सब तरह की महत्वाकांक्षाएं उठती हैं, सब सपने उठते हैं। लेकिन उन सपनों के लिए तो दाव लगाना पड़े, वह उसकी हिम्मत नहीं है। वह कहता है, मैं संतुष्ट हूं। जो दे दिया, ठीक है, काफी है, पर्याप्त है। मैं ज्यादा की माग नहीं करता। वह ज्ञानी का ढोंग करता है।

तुम ऐसे आदमी को देख सकते हो; उसे पहचानने में अड़चन न होगी। क्योंकि जिसका संतोष सात्विक है, तुम उसके संतोष की कथा उसकी आंखों, उसके चेहरे, उसके जीवन पर लिखी हुई पाओगे। तुम उसे आह्लादित पाओगे, तुम उसे विधायक रूप से प्रसन्न और उत्कुल्ल पाओगे। तुम उसमें फूल खिलते देखोगे, तुम उसके रोएं—रोएं में कोई बांसुरी बजती हुई पाओगे। तुम उसके पास बैठोगे, तो धन्य हो जाओगे, जैसे स्नान कर लिया। उसकी पवित्रता तुम्हें छुएगी।

लेकिन अगर उसका संतोष केवल आलस्य को ढांकने का, छिपाने का रेशनलाइजेशन है। वह कहता है कुछ करना न पड़े, इसलिए वह कहता है, जो होना है, वह होगा। तुम पाओगे, उसके चेहरे पर उदासी की पर्तें हैं। उसकी आंखों में तुम धुंध पाओगे, उज्ज्वल प्रकाश नहीं। उसके पास बैठकर तुम्हें नींद और जम्हाई आएगी, स्नान नहीं होगा। उसके पास बैठकर तुम थके हुए अनुभव करोगे, क्योंकि तामसी व्यक्ति दूसरे की शक्ति को चूसता है। इसलिए जब भी तुम तामसी व्यक्ति को मिलोगे, तुम पाओगे, तुम कुछ खोकर लौटे।

राजसी व्यक्ति अपनी शक्ति को देता है। इसलिए राजसी व्यक्ति के पास जाकर तुम पाओगे कि तुम्हारी भी महत्वाकांक्षा के दीए जलने लगे। वह तुम्हें भी रोग पकड़ा देगा। वह कहेगा, क्या कर रहे हो बैठे—बैठे! इस चुनाव में ही खड़े हो जाओ। बुद्ध से बुद्ध मंत्री हुए जा रहे हैं। तुम क्यों पीछे खड़े हो? कुछ न बनता हो, तो कम से कम तीन दिन का अनशन ही कर लो! कम से कम अखबारों में नाम तो छप जाएगा। तुम अपनी तरफ से आमरण अनशन करो, तुड़वाने की हम कोशिश करेंगे। नाम तो कर जाओ, ऐसे ही मर जाओगे! वह कुछ न कुछ उपद्रव सुझा देता है।

अगर राजसी व्यक्ति के पास बैठें, तो सम्हलकर बैठना। क्योंकि वह खुद उपद्रव से भरा है, वह बांटता है, वह देता है। उसके पास बैठकर तुम उपद्रव लेकर लौटोगे। किसी राजनेता की सभा से तुम लौटोगे, तो तुम्हारी तबियत होगी कि उठाकर पत्थर बस में ही मार दें। कोई कारण नहीं है, लेकिन वह राजनेता तुम्हें बीमारी दे गया। वे राजनेता कहे चले जाते हैं कि हम बिलकुल अहिंसात्मक हैं। हम किसी को हिंसा थोड़े ही सिखाते हैं। मगर वे सब हिंसा सिखाते हैं। उनका होने का ढंग हिंसात्मक है।

जयप्रकाश कितना ही कहें कि बिहार में जो उपद्रव हुआ, उसकी मेरी जिम्मेवारी नहीं……। किसी और की जिम्मेवारी नहीं है। वे कितना ही कहें कि मैं तो अहिंसा की बात करता हूं; अब अगर लोगों ने पत्थर फेंक दिए बसों पर और आग लगा दी पुलिस थानों में, इसका मैं क्या कर सकता हूं?

वे गलत बात कह रहे हैं। ऊपर से तुम अहिंसा की बात करते हो, लेकिन भीतर से तुम्हारे सारे जीवन की ऊर्जा जो है, वह रजस

की है। तुम लोगों को भड़काते हो, तुम लोगों को उकसाते हो। पहले भड़काते हो, फिर उनको कहते हो, शांत हो जाओ, अहिंसा का पालन करो। पहले भाग लगा देते हो, फिर पानी छिड़कते हो। पहले आग लगा देते हो, फिर बुझाने की कोशिश करते हो!

लोगों को भड्का दो, उनके भीतर का रजस जग जाए, उपद्रव करने को वे निकल पड़े, फिर तुम्हारे हाथ के बाहर है। हो सकता है, तुमने सोचा भी न हो कि वे मकानों में आग लगाएंगे, दुकानें जलाएंगे। तुम्हारे सोचने न सोचने का सवाल नहीं है। तुमने जो ऊर्जा उन्हें दी, वह ऊर्जा उपद्रवी है।

तामसी व्यक्ति तुम्हारी ऊर्जा को चूसता है, वह आलस्य से भरा हुआ है। वह तुम जब उसके पास जाते हो, तो वह शोषण करता है। उसके पास से तुम थके लौटोगे, उदास लौटोगे, हारे हुए लौटोगे। तुम्हारी भी तबियत सो जाने की होगी।

राजसी व्यक्ति भड़काता है। वह तुम्हें त्वरा से भरता है, बुखार से, कि कुछ कर गुजरो। उसके शब्द सुनकर दुनिया में उपद्रव होते हैं। उसके पास से आकर लोग झंझट में पड जाते हैं।

एक मित्र परसों ही मुझसे पूछे आकर। जयप्रकाश के साथी हैं। कहने लगे, मैं बड़ी मुसीबत में पड़ गया हूं र दुविधा खड़ी हो गई है। आपको क्या पढ़ा, एक झंझट हो गई। अब जयप्रकाश या आप? क्या करूं? क्या दोनों के बीच कोई समन्वय नहीं हो सकता?

मैंने कहा, तुम कोशिश करो समन्वय की; उसमें तुम पगला जाओगे। वह समन्वय हो नहीं सकता। क्योंकि दो अलग लोग, अलग आयाम।

वहां तुम्हें जयप्रकाश भड्का रहे हैं, यहां मैं तुम्हें शांत करने की कोशिश कर रहा हूं। तुम तालमेल कैसे बिठाओगे? वे कह रहे हैं, पूर्ण क्रांति, मैं कह रहा हूं पूर्ण शाति। इसमें तालमेल कैसे बिठाओगे? वे कहते हैं, संसार को बदलकर रहेंगे। मैं कहता हूं? तुम अपने को बदल लो, तो काफी है। इसमें कोई तालमेल हो नहीं सकता।

तो मैंने उनको कहा कि तुम मुझे भूल जाओ। इस झंझट में तुम पड़ो ही मत। किताबें वगैरह मेरी फेंक दो; मुझे भूल जाओ। और तुम जयप्रकाश के पीछे चलो। उन्होंने कहा, वह तो असंभव है। वह नहीं हो सकता अब। शक तो पैदा हो ही गया है। तो फिर मैंने कहा कि शक अगर पैदा हो गया है, तो जयप्रकाश को छोड़ दो। कहने लगे, लेकिन यह भी बड़ा मुश्किल है।

तो मरो, दुविधा में मरो। इसमें मैं क्या कर सकता हूं? कोई भी क्या कर सकता है? तो तुम्हारी बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत लो और चलो। दोनों को हाको। अस्थिपंजर टूट जाएंगे। घसिटोगे; पहुंचोगे कहीं भी नहीं।

क्योंकि मेरे लिए तो जयप्रकाश रुग्ण हैं, विक्षिप्त मन की दशा है, सभी राजनीतिज्ञ होते हैं। इसलिए जब मैं यह कह रहा हूं तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इंदिरा विक्षिप्त नहीं है। पद पर जो होते हैं, उनकी विक्षिप्तता दिखाई नहीं पड़ती। जो पद पर नहीं होते, उनकी विक्षिप्तता दिखाई पड़ती है। मोरारजी पद पर होते हैं, तब बड़े समझदार मालूम पड़ते हैं। जब पद के बाहर होते हैं, तब विक्षिप्त हो जाते हैं।

पद की समझदारी कोई समझदारी है? पद की समझदारी तो यह है कि जो अपने पास है, वह छूट न जाए, इसलिए उपद्रव से डरने लगता है आदमी। लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उसका तुम छुडाओगे क्या? नंगा नहाएगा, निचोड़ेगा क्या? तो वह कहता है, पूर्ण क्रांति करवा देंगे। उसका तो कुछ खोना नहीं है, इसलिए वह उपद्रवी हो जाता है।

पद पर बैठे हुए लोग उतने ही पागल हैं, जितने पद के बाहर। उनकी जमात एक है। उनकी भाषा एक है। उनकी दुनिया एक है। रजस वाले व्यक्ति के पास से तुम रोग लेकर लौटोगे।

सात्विक व्यक्ति न तो तुम्हें कुछ देता है, न तुम से कुछ लेता है। सात्विक व्यक्ति के पास बैठकर तुम तुम ही हो जाओगे। यही थोड़ी समझने की बात है। वह तुमसे कुछ नहीं लेता; वह तुम्हें कुछ देता भी नहीं। वह तुम्हें सिर्फ तुम्हारे होने का मौका देता है। उसकी छाया में बैठकर तुम तुम हो जाओगे, तुम जो हो। तुम्हें अपना सत्य सुनाई पड़ने लगेगा। तुम्हें अपने भीतर के संगीत की थोड़ी भनक पड़ने लगेगी।

सात्विक व्यक्ति कुछ देता नहीं, लेता नहीं; सिर्फ उसकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर एक रूपांतरण बनने लगती है। तुम उसकी मौजूदगी में शांत होने लगते हो। तुम उसकी मौजूदगी में भीतर के द्वंद्व को क्षीण करने लगते हो। तुम उसकी मौजूदगी के प्रकाश में एक भीतर के आतरिक सहयोग को उपलब्ध हो जाते हो। वह तुम्हें सामंजस्य देता है, कुछ देता नहीं, कुछ लेता नहीं। वह तुम्हें तुम्हारी सुध देता है, तुम्हें तुम्हारी थोड़ी—सी भनक देता है; वह तुम्हें तुम्हीं बनाना चाहता है।

सात्विक व्यक्ति वही है, जो तुम्हें तुम्हीं बनाना चाहे। इसलिए तुम्हारे बहुत—से महात्मा सात्विक नहीं हैं। तुम्हारे बहुत—से महात्मा राजसिक हैं। वे तुम्हें गति देते हैं कि छोड़ो। यह छोड़ो, वह छोड़ो।

यह व्रत ले लो, वह कसम ले लो। चलो, ब्रह्मचर्य की कसम खा लो। वह कुछ न कुछ उपद्रव तुम उनके पास से लेकर लौटोगे। वह महात्मा सात्विक नहीं है। उन्हें राजनीतिज्ञ होना था। वे गलती जगह फंस गए हैं।

कई दफा हो जाता है, आदमी गलती जगह फंस जाता है। कुछ महात्मा राजनीति में फंस जाते हैं, कुछ राजनीतिज्ञ महात्मा होने में फंस जाते हैं। तब बड़ी अड़चन होती है।

जो महात्मा तुम्हें बदलने की कोशिश करे, तुम्हें कुछ देने की कोशिश करे कि तुम ऐसे हो जाओ, तुम वैसे हो जाओ, जो तुम्हें आदर्श दे, वह महात्मा नहीं है, वह राजनीतिज्ञ है।

सात्विक व्यक्ति तुम्हें आदर्श देता ही नहीं, तुम्हारी स्वयंता देता है, तुम्हारी निजता देता है। तुम जो हो, बस वही। उसी के लिए तुम राजी हो जाओ। जैसा संगीत उसने अपने भीतर पाया, वैसा संगीत तुम्हारे भीतर भी हो जाए।

सात्विक व्यक्ति एक आशीष है बस, उपदेश नहीं; आदेश तो बिलकुल नहीं, सिर्फ एक आशीष। इसलिए पुरानी परंपरा है कि हम संतों के पास सिर्फ आशीर्वाद मांगने जाते हैं, और कुछ मांगने नहीं। और कुछ मायने की बात ही गलत है। और कुछ मांगना हो, तो राजसी के पास जाना चाहिए, तामसी के पास जाना चाहिए। सात्विक के पास तो सिवाय आशीष के और कुछ भी नहीं है। लेकिन उसके आशीष की छाया में परम रूपांतरण घटित होते हैं। उसके आशीष की छाया में अंधेरे घर प्रकाशित हो जाते हैं, बुझे दीए जल जाते हैं।

और जो सत्य को उपलब्ध हो जाता है—सत्य चट्टान है, जहां से एक में छलांग लगती है।

तामसी व्यक्ति की श्रद्धा आलस्य की होगी। वह अपने आलस्य को ही अपनी श्रद्धा बनाएगा। राजसी व्यक्ति की श्रद्धा राजस की होगी। वह अपने राजसीपन को ही अपनी श्रद्धा बनाएगा। वह कहेगा, कर्म—योग। वह राजसी व्यक्ति की श्रद्धा है।

लोकमान्य तिलक ने गीता—रहस्य लिखा। वह किताब राजसी व्यक्ति की लिखी गई किताब है। और उसका बड़ा प्रभाव हुआ। क्योंकि गीता में उन्होंने सिद्ध किया कि कर्म—योग ही गीता का प्रतिपाद्य विषय है।

इससे झूठी कोई बात नहीं हो सकती। इसमें लोकमान्य तिलक ने अपने को ही गीता में पढ़ लिया। वे राजसी व्यक्ति थे, राजनेता थे। वे खाली नहीं बैठ सकते थे। यह गीता—रहस्य भी खाली न बैठने के कारण लिखी गई। मंडाले के जेल में क्या करें? कुछ काम— धाम न रहा। खाली बैठ नहीं सकते। सात्विक व्यक्ति होता, तो ध्यान कर लेता। मंडाले का जेल महान समाधि बन जाता।। लेकिन अब यह राजसी व्यक्ति क्या करे? कुछ उपाय नहीं।

तो कोयले के टुकड़ों से दीवाल पर गीता—रहस्य की पहली टीकाएं लिखनी उन्होंने शुरू कीं। फिर कागज के टुकड़ों पर धीरे— धीरे टीका लिखी।

यह टीका राजसी व्यक्ति की टीका है, राजनेता की। फिर इसी टीका ने गांधी को प्रभावित किया विनोबा को प्रभावित किया। और वह गीता—रहस्य हिंदुस्तान के लिए पचास साल का पूरा इतिहास बन गई।

कर्म करो, तिलक ने कहा। और गांधी ने कहा, कर्म—योग ही असली योग है। सेवा करो, समाज सुधारो, अस्पताल बनाओ। गरीबों को मकान दो, जमीन दो। यह करो, वह करो। भूदान आया, सर्वोदय आया। वह सब गीता—रहस्य से सूत्रपात हुआ। लेकिन वह राजसी व्यक्ति की व्याख्या थी। सात्विक व्यक्ति की व्याख्या बडी भिन्न होगी।

सात्विक व्यक्ति की व्याख्या शाति की होगी, सेवा की नहीं। इसका यह अर्थ नहीं है कि शांत व्यक्ति सेवा नहीं कर सकता। लेकिन शांत व्यक्ति का सेवा लक्ष्य नहीं होता, उसकी शाति से निकलती है। इसका यह अर्थ नहीं कि शांत व्यक्ति कुछ भी नहीं करेगा। लेकिन करने की उसमें त्वरा नहीं होती, करने की आकांक्षा नहीं होती। जीवन जो करा ले, वह करता है। लेकिन करने के पीछे पागल नहीं होता। ऐसा नहीं है कि वह खाली नहीं बैठ सकता, इसलिए करता है। जरूरत हो, तो करता है, जरूरत नहीं होती, तो शांत बैठता है। कर्म उसके लिए कोई रोग नहीं है, कोई न्यूरोसिस नहीं है। कर्म उसके लिए जीवन—ऊर्जा का खेल है।

और जीता वह सदा अपने सत्व में है, अपनी शाति में है। कोई कर्म उसकी शांति को व्याघात नहीं कर पाता। आग लगी हो, तो वह बुझाका; बैठा नहीं रहेगा। लेकिन आग लग गई है, बुझाएगा। जरूर, लेकिन भीतर आग की कोई भी खबर न पहुंचेगी। भीतर की शाति अखंड रहेगी। आग भीतर की शाति को न जलाएगी। वह बेचैन न होगा। वह कर्म भी करेगा, वह विश्राम भी करेगा। वह जीवन के अनेक रंग—रूपों में रहेगा। लेकिन भीतर का स्वर संगीत का रहेगा, वह लयबद्धता कायम रहेगी।

सात्विक व्यक्ति की श्रद्धा क्या है? सात्विक व्यक्ति की श्रद्धा है भीतर की परम कुंवारी दशा, चैतन्‍य की शुद्धतम दशा को उपलब्ध हो जाना। वह अपने सारे जीवन के दर्शन को इस भांति सोचेगा, जैसे कि वह भी भाग्य की बात करेगा……।

अब यह थोड़ा समझ लेने जैसा है।

तामसी व्यक्ति भाग्य की बात करेगा, अपने को कर्म से बचाने के लिए। राजसी व्यक्ति भाग्य की बात करेगा, अपने को कर्म में डालने के लिए। वह कहेगा, भाग्य में जो लिखा है वह होगा। अब भाग्य में लिखा है कि मुझे प्रधानमंत्री होना है। मैं पूरी क्या कर सकता हूं? लिखा है, वह होकर रहेगा। जो भाग्य में लिखा है, उससे बचा कैसे जा सकता है? वह अपने कर्म को बचाएगा, भाग्य से।

सात्विक व्यक्ति भी भाग्य की बात करेगा, लेकिन उसके भाग्य में कोई बचाव नहीं होगा। वह कहेगा, जो होगा, वह होगा; जो होना है, वह होता है। इसलिए न तो वह करने को बेचैन होगा और न वह न—करने को पकड़ेगा। जीवन उसे जहां ले जाएगा—युद्ध के मैदान में, तो युद्ध के मैदान में खड़ा हो जाएगा, पहाड़ की कंदराओं में, तो पहाड़ कंदराओं में मौन होकर बैठ जाएगा। उसे सब स्वीकार है। और उसकी स्वीकृति तुम पहचान सकोगे, क्योंकि उसके चारों तरफ अहोभाव का नाद बजता रहेगा।

श्रीकृष्ण बोले, मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्विकी और राजसी तथा तामसी, ऐसी तीन प्रकार की होती है, उसको तू मुझसे सुन।

आज इतना ही।



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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–9)

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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं—(प्रवचन—नौवां)

आने वाले भविष्य में अगर मनुष्य को विक्षिप्त होने से पागल होने से बचाना हो तो पूरी जिंदगी को स्वीकार करना पड़ेगा। को के को। उसमें कोई खंड काटकर विरोध में खड़े नहीं करने पड़ेगे।

मेरे प्रिय आत्मन्।

 आज बहुत से सवाल जो बाकी रह गए हैं उन पर बात करनी है। एक मित्र ने पूछा है कि क्या मैं लोगों को मरने की बात सिखा रहा हूं? मृत्यु लिखा रहा हूं, सिखाना तो चाहिए जीवन।

उन्होंने ठीक ही पूछा है। मैं मृत्यु की बात ही सिखा रहा हूं। मैं मरने की कला है। सिखा रहा हूं। क्योंकि जो मरने की कला सीख लेता है, वह जीवन की कला में भी निष्णात हो जाता है। जो मरने के लिए राजी हो जाता है, वह परम जीवन का अधिकारी भी हो जाता है। सिर्फ वे ही जो मिटना जान लेते हैं, वे ही होना भी जान पाते है।

ये बातें उलटी दिखाई पड़ सकती हैं, क्योंकि हमने जीवन और मृत्यु को उलटा और विरोधी मान रखा है। वे विरोधी नहीं हैं और न ही उलटे हैं। लेकिन हमने उन्हें उलटा मान रखा है। हमने एक झूठा कंट्राडिक्यान, एक झूठा विरोध उनके बीच खड़ा कर रखा है। इसके बहुत घातक परिणाम हुए हैं। मनुष्य—जाति को जितनी हानि इस विरोध की वजह से हुई है, उतनी शायद और किसी बात से नहीं हुई। यह विरोध फिर बहुत तलों पर फैल गया है। जो चीजें इकट्ठी हैं, उन्हें अगर हम खंड—खंड, टुकड़े —टुकड़े में बांट दें और न केवल खंड में बांटे बल्कि विरोधी खंडों में बांट दें, तो इसका अंतिम परिणाम मनुष्य को सीजोफ्रेनिक, विक्षिप्त बनाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता।

समझ लें, अगर कोई ऐसी पागलों की बस्ती हो जहां वे ठंडे और गर्म को विरोधी और अलग— अलग चीजें मानते हों, तो उस बस्ती में बड़ी मुश्किल और परेशानी शुरू हो जाएगी। इसलिए परेशानी शुरू हो जाएगी कि ठंडा और गर्म दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज की मात्राएं हैं। ठंडक और गर्मी दो विरोधी चीजें नहीं हैं, एक ही चीज की मात्राएं हैं। और जो हमें ठंडे और गरम का अनुभव होता है, वह निरपेक्ष अनुभव नहीं है, बहुत सापेक्ष, बहुत रिलेटिव अनुभव है।

एक छोटा—सा प्रयोग करके देखें तो समझ में आ जाएगा। चूंकि कभी वैसा प्रयोग नहीं किया होगा, इसलिए यह पता नहीं चला होगा। हमेशा हम देखते हैं कि कोई चीज गर्म है, कोई चीज ठंडी है। और हम यह भी देखते हैं कि जो गरम है वह गरम है, जो ठंडी है वह ठंडी है। ठंडी और गरम दोनों एक कैसे हो सकती हैं!

घर लौटकर एक छोटा—सा प्रयोग करें। एक बर्तन में गरम पानी रख लें, एक बर्तन में बर्फ का ठंडा पानी रख लें, और एक बर्तन में साधारण पानी रख लें, न गरम न ठंडा। एक हाथ को आग से उबलते पानी में डाल दें और एक हाथ को बर्फीले ठंडे पानी में डाल दें। फिर दोनों हाथों को निकाल कर साधारण पानी में डाल दें। और तब दोनों हाथ अलग— अलग खबर देंगे। एक हाथ कहेगा कि यह पानी ठंडा है और एक हाथ कहेगा कि यह पानी गरम है। वह पानी ठंडा है या गरम? एक हाथ कहेगा कि पानी गरम है, एक हाथ कहेगा कि पानी ठंडा है। फिर वह पानी क्या है? और अगर एक ही साथ एक हाथ को पानी ठंडा और एक हाथ को गरम मालूम पड़ता है, तो हमें समझना पड़ेगा कि पानी न तो ठंडा है और न गरम है। हमारे हाथ के सापेक्ष, रिलेटीविटी में वह ठंडा और गरम मालूम होता है।

ठंडा और गरम एक ही चीज के अनुपात हैं। वे भिन्न—भिन्न चीजें नहीं हैं। उनमें जो भेद है, वह मात्रा का है। उनमें गुण का भेद नहीं है। बचपन में और बुढ़ापे में कैसा भेद है, आपने कभी सोचा है? आमतौर से हम समझते हैं कि बड़ी उलटी चीजें हैं। कहां बचपन और कहां बुढापा। लेकिन बचपन और बुढ़ापे में फर्क क्या है? सिर्फ वर्षों का, दिनों का ही फर्क है न! गुण का क्या फर्क है? सिर्फ मात्रा का ही फर्क है, क्वांटिटी का ही फर्क है। एक बच्चा पांच साल का है, चाहें तो हम कह सकते हैं कि यह पांच साल का बूढ़ा है। इसमें क्या कठिनाई है। सिर्फ हमारी भाषा की आदत है कि हम कहते हैं कि पांच साल का बच्चा है। हम चाहें तो कह सकते हैं कि पांच साल का बुढ़ा है। और अंग्रेजी में तो उसे कहते ही हैं, फाइव इयर्स ओल्ड। उसका मतलब यह है कि पांच साल का बूढ़ा है। फिर एक सत्तर साल का बूढ़ा है, एक पांच साल का बुढ़ा है, दोनों में फर्क क्या है? और चाहें तो सत्तर साल के बूढ़े को कह सकते हैं कि सत्तर साल का बच्चा है। क्या फर्क है? बच्चा ही तो बढ़ते —बढ़ते बूढ़ा हो जाता है। लेकिन हम देखते हैं जब दोनों को अलग— अलग रखकर तो लगता है कि दो विरोधी चीजें हैं। बचपन और बुढ़ापा उलटी चीजें हैं।

अगर बचपन और बुढ़ापा उलटी चीजें हैं, तो कोई बच्चा कभी बूढ़ा नहीं हो सकता है। कैसे होगा? उलटी चीजें कैसे हो जाएंगी? और कभी आपने पता लगाया है कि कोई बच्चा बूढ़ा किस दिन हो जाता है? किस रात? कैलेंडर पर कहीं लिख सकते हैं कि फलां दिन यह आदमी बच्चा था और फलां दिन यह आदमी का हो गया? कैलेंडर पर कहीं नहीं लिख सकते।

असल में कुछ कठिनाई ऐसी है कि जैसे सीढ़ियां हैं ऊपर छत पर चढ़ने की। नीचे की सीडी दिखाई पड़े, ऊपर की सीडी दिखाई पड़े और बीच की सीढ़ियां दिखाई न पड़े, तो हमें ऐसा लगेगा कि नीचे की सीडी और ऊपर की सीडी बड़ी दूर, बड़े फासले पर, अलग— अलग चीजें हैं। लेकिन जिसे पूरी सीढ़ियां दिखाई पड़े, वह कहेगा कि कोई फर्क नहीं है। नीचे की सीढ़ी और ऊपर की सीडी के बीच सिर्फ सीढ़ियों का ही फर्क है। जो नीचे की सीडी है, वही ऊपर की सीढ़ी से जुड़ी है। नरक और स्वर्ग में गुण का फर्क नहीं है, मात्रा का ही फर्क है। ऐसा मत सोच लेना कि नरक उलटा है और स्वर्ग उलटा है। नरक और स्वर्ग में वही फर्क है जो ठंडे और गर्म में, जो नीचे की सीडी में और ऊपर की सीडी में, जो बच्चे में और बूढ़े में है।

और जन्म में और मृत्यु में भी उतना ही फर्क है। नहीं तो कोई जन्मा हुआ व्यक्ति कभी नहीं मर पाएगा। अगर विरोध हो, तो जन्म मृत्यु पर पहुंच कैसे सकता है? हम पहुंच तो वहीं सकते हैं जो हमारा सहज विकास हो। जन्म बढ़ते—बढ़ते, बढ़ते —बढ़ते मृत्यु बन जाती है। इसका मतलब यह है कि जन्म और मृत्यु एक ही चीज के दो बिंदु हैं।

एक बीज को हम बोते हैं, वह बढ़ते —बढ़ते, बढ़ते —बढ़ते पौधा बन जाता है, फिर फूल बन जाता है। बीज में और फूल में विरोध माना है कभी? बीज से ही तो फूल निकलता है और फूल बन जाता है। बीज में विकास है, बीज में ग्रोथ है।

जन्म ही मृत्यु बन जाता है। लेकिन न मालूम कैसी नासमझी में, न मालूम किस दुर्दिन में आदमी को यह खयाल बैठ गया है कि जन्म और मृत्यु में विरोध है, जीवन और मौत अलग— अलग बातें हैं। हम जीना चाहते हैं, हम मरना नहीं चाहते। और हमें यह पता नहीं है कि जीने में मरना छिपा ही है। और जब हमने एक बार तय कर लिया कि हम मरना नहीं चाहते, तो उसी वक्त तय हो गया कि हमारा जीना कठिन और मुश्किल में पड़ जाएगा।

यह सारी मनुष्य—जाति सीजोफ्रेनिक हो गई है। उसका मस्तिष्क खंड—खंड में, डिसइटीग्रेटेड, टुकड़े —टुकड़े में टूट गया है। उसके टूटने का कारण है। हमने सारे जीवन को’ खंड —खंड में लिया है, और खंडों को विरोध में खड़ा कर दिया है। एक ही आदमी है, उस आदमी में हमने टुकड़े —टुकड़े कर दिए हैं, और टुकड़े —टुकड़े में विरोध तय कर दिया है कि ये विरोधी टुकड़े हैं। और हमने सब तरफ ऐसा किया है, सब तरफ ऐसा किया है। आदमी से कहते हैं, क्रोध मत करना, क्षमा करना। और खयाल भी नहीं है हमें कि क्षमा और क्रोध के बीच सिर्फ मात्रा का भेद है, क्रोध और क्षमा के बीच विरोध नहीं है, सिर्फ मात्रा का भेद है। वही डिग्री का भेद है जो ठंड और गरमी के बीच है, वही जो बचपन और बुढ़ापे के बीच है। ऐसा कह सकते हैं कि बहुत कम हो गई क्षमा का नाम क्रोध है, ऐसा कह सकते हैं कि बहुत कम हो गए क्रोध का नाम क्षमा है। उनमें विरोध नहीं है।

लेकिन मनुष्य की पुरानी सारी शिक्षाएं ऐसा सिखाती हैं कि क्रोध छोडो और क्षमा वरण करो, जैसे कि क्रोध और क्षमा विरोधी चीजें हैं। कि तुम क्रोध को काट डालो और क्षमा को बचा लो। इसका एक ही परिणाम हो सकता है कि आदमी खंड—खंड में टूट जाए और परेशानी में पड़ जाए, मुश्किल में पड़ जाए। पुराना सारा आधार कहता है कि काम, सेक्स और ब्रह्मचर्य उलटी चीजें हैं। इससे ज्यादा गलत कोई बात नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्य कम से कम हो गया सेक्स है। सेक्स ज्यादा से ज्यादा उतरता —उतरता, कम —कम होता हुआ ब्रह्मचर्य है। उन दोनों के बीच जो फासला है, वह दुश्मनी का और विरोध का नहीं है।

ध्यान रहे, जगत में विरोध जैसी कोई चीज ही नहीं है। असल में विरोध जैसी चीज जगत में हो ही नहीं सकती, नहीं तो दो विरोध को मिलाने का उपाय ही न रह जाएगा, मार्ग ही न रह जाएगा। अगर मृत्यु अलग हो और जन्म अलग हो, तो जन्म अपने रास्ते पर चलेगा, मृत्यु अपने रास्ते पर चलेगी, पैरलल, लेकिन मिलेंगे कहीं भी नहीं। जैसे दो समानांतर रेखाएं कहीं भी नहीं मिलती, ऐसे ही जन्म और मृत्यु की कहीं भी मुलाकात न हो पाएगी। यह कैसे संभव है!

जन्म और मृत्यु घुले—मिले हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। जब मैं यह कह रहा हूं तो मैं असल में यह कह रहा हूं कि आने वाले भविष्य में अगर मनुष्य को विक्षिप्त होने से, पागल होने से बचाना हो, तो पूरी जिंदगी को स्वीकार करना पड़ेगा। पूरे को, पूरे के पूरे को। उसमें कोई खंड काटकर विरोध में खड़े नहीं करने पड़ेंगे।

और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जो कहेगा कि काम, सेक्स ब्रह्मचर्य से उलटा है तो सेक्स को काट डालो, तो वह सेक्स को काट डालने की चेष्टा में ही नष्ट हो जाएगा, ब्रह्मचर्य को कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकता। सेक्स को काट डालने की चेष्टा में चित्त सेक्स पर ही अटका रह जाएगा, ब्रह्मचर्य कभी उपलब्ध होने वाला नहीं है। और उस व्यक्ति का चित्त अत्यंत तनाव में, परेशानी में पड़ जाएगा। उसकी मौत हो गई। उसकी जिंदगी दूभर हो जाएगी, वह बोझिल हो जाएगा, वह जी ही नहीं पाएगा। एक क्षण नहीं जी पायेगा। वह बड़ी कठिनाई में पड़ गया।

और अगर ऐसा समझा जाए जैसा मैं कह रहा हूं—और वैसा ही तथ्य है—कि सेक्स और ब्रह्मचर्य में नीचे की सीढ़ी और ऊपर की सीढ़ी का संबंध है। सेक्स पर ही कदम रखते—रखते, रखते —रखते, रखते —रखते, आदमी ब्रह्मचर्य में प्रविष्ट हो जाता है। वह सेक्स की ही कम से कम होती गई मात्रा है, कम से कम होती गयी मात्रा है। उस जगह जहां कि करीब—करीब ऐसा लगता है कि सब शून्य हो गया है, वह आखिरी छोर आ गया। तो फिर जीवन में विरोध नहीं होता, तनाव नहीं होता। फिर जीवन में अशांति नहीं होती, फिर हम जीवन को सहज जी सकते हैं।

मैं जो विचार आपसे कह रहा हूं, वह सहज जीवन को जीने का है, सब पहलुओं पर अत्यंत सहजता से। लेकिन हम कहीं भी उसको सहजता से नहीं जी पाते, क्योंकि हम उसे असहज बनाने की तरकीबें सीख गए हैं। अगर हम किसी आदमी को कह दें कि तू सिर्फ बाएं पैर से चलना, क्योंकि बायां पैर धर्म है और दायां पैर अधर्म है, दाएं से मत चलना। और अगर वह आदमी यह समझ ले और समझने वाले मिल सकते हैं, क्योंकि हर तरह की नासमझियों को समझने वाले सदा मिल गए हैं। ऐसे आदमी मिल जाएंगे, जो इस बात के लिए राजी हो जाएंगे कि बाएं पैर से चलना धर्म है और दाएं पैर से चलना अधर्म है, तब वे दाएं पैर को काटने लगेंगे और बाएं से चलने की कोशिश करने लगेंगे। वे कभी भी न चल पाएंगे।

दाएं और बाएं दोनों पैरों का मेल चलाता है, कोई एक पैर नहीं चलाता है। यद्यपि प्रति बार जब उठता है, तब एक ही पैर उठता है। यह भूल हो सकती है। क्योंकि जब भी आप उठाते हैं तो एक ही पैर उठाते हैं। इसलिए भूल हो सकती है इस बात की कि चलते हैं एक पैर से, क्योंकि जब उठाते हैं तो एक पैर उठाते हैं। लेकिन पता रहे, कि जब एक उठता है, तब उसके उठने में वह जो दूसरा खड़ा है, वह उतना ही सहयोगी है जितना उसका उठना। जो रुक गया है, जो ठहर गया है, वह उतना ही आधार है।

जिस दिन कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है, उस दिन ठहर गया सेक्स उतना ही आधार होता है, जितना बायां पैर जब उठता है और दायां खड़ा होकर उसका आधार होता है। अगर दायां न हो तो बायां उठ न पाएगा। ठहर गया सेक्स ब्रह्मचर्य के लिए कदम बनता है। और ब्रह्मचर्य का कदम उठ इसलिए सकता है कि सेक्स का कदम ठहरा हुआ है। लेकिन सेक्स के कदम को काट डालो जड से, तोड़ डालो, तो सेक्स कट जाएगा, पर ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं होगा और मनुष्य अधर में लटका हुआ रह जाएगा। जैसा कि सारी पुरानी शिक्षाओं ने मनुष्यता को अधर में लटका दिया है।

जिंदगी में जो हमें दिखायी पड़ रहा है, वे सब दाएं और बाएं कदम हैं, वे सब दाएं और बाएं पैर हैं। यहां जिंदगी में सब इकट्ठा है। एक ही बड़े संगीत के स्वर हैं। इसमें कुछ भी कांटा, तो कठिनाई हो जाएगी। कोई आदमी कह सकता है कि काला रंग बुरा है। लोग हैं कहने वाले कि काला रंग बुरा है, तो शादी में काली साड़ी न पहनने देंगे। और कोई मर जाएगा तो काला कपडा पहनेंगे। काले रंग को बुरा कहने वाले लोग हैं और सफेद रंग को पवित्र कहने वाले लोग हैं। ठीक है, प्रतीक की तरह बात हो भी सकती है। लेकिन अगर कोई कहे कि काले रंग को काट डालेंगे, मिटा डालेंगे दुनिया से, तो ध्यान रहे, काले रंग के मिटते ही सफेद रंग बहुत कम सफेद रह जाएगा। क्योंकि सफेद की बहुत सफेदी उसके चारों तरफ फैले हुए काले से ही आती है।

स्कूल में बोर्ड पर शिक्षक लिखता है, तो काले बोर्ड पर लिखता है सफेद खड़िया से। पागल है? सफेद दीवाल पर क्यों नहीं लिखता? लिखा जा सकता है। सफेद दीवाल पर लिखा जा सकता है, लेकिन पढ़ा नहीं जा सकता है। क्योंकि वह जो सफेदी उभरती है, वह पीछे के काले से उभरती है। असल में सफेदी के उभार में काले का हाथ है। और जिसने काले की दुश्मनी की, उसका सफेद फीका हो जाएगा, यह ध्यान रखना।

जिसने क्रोध का विरोध किया, उसकी क्षमा एकदम नपुंसक, इंपोटेंट हो जाएगी, फीकी हो जाएगी। क्योंकि क्षमा में जो बल है, वह क्रोध का है। वह जो क्रोध कर सकता है, उसमें ही क्षमा का बल है। जितना बड़ा क्रोध उसके भीतर जग सकता है, उतनी ही बडी क्षमा की यात्रा हो सकती है। और उसकी क्षमा में जो रौनक आएगी, वह रौनक आएगी क्रोध के तेज से। अगर क्रोध नहीं है, तो क्षमा बिलकुल बेरौनक हो जाएगी, एकदम मुर्दा और मरी हुई होगी। और अगर किसी व्यक्ति का सेक्स कट जाए—उसके काटने के उपाय हैं—लेकिन ध्यान रहे, तब वह ब्रह्मचारी नहीं हो सकेगा सिर्फ नपुंसक हो जाएगा। और इन दोनों बातों में बुनियादी फर्क है। सेक्स को काट डालने के उपाय हैं, लेकिन सेक्स को मिटाकर कोई ब्रह्मचारी नहीं हो सकता, सिर्फ इंपोटेंट होगा, सिर्फ नपुंसक होगा। ही, सेक्स को रूपांतरित करके, सेक्स को स्वीकार करके, उसकी ऊर्जा को आगे की यात्रा पर ले जाकर कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है। लेकिन ध्यान रहे, ब्रह्मचारी की आंखों में जो तेज है वह सेक्स की शक्ति का ही तेज है, है शक्ति वही, वही शक्ति रूपांतरित हो गई है।

तो मैं आपसे यह कह रहा हूं कि जीवन में जिनको हम विरोध कहते हैं, वे विरोध नहीं हैं। जीवन एक बहुत रहस्यपूर्ण व्यवस्था है। उस रहस्यपूर्ण व्यवस्था में विरोध खडे किए गए हैं ताकि चीजें हो सकें। कभी आपने देखा है, एक मकान बन रहा हो, उसके घर के सामने ईंटों का ढेर लगा हो। सब ईंटें एक जैसी हैं। फिर आर्किटेक्ट है, मकान बनाने वाला वह वास्तुशिल्पी है, इंजीनियर है, वह मकान पर एक आर्च बना रहा है, एक द्वार बना रहा है, एक गोल दरवाजा बना रहा है। वह ईंटों को विरोध में रख देता है। एक—सी ईंटें थीं। वह ईंटों को एक दूसरे के खिलाफ रख देता है दरवाजे पर और खिलाफ में रखी गई ईंटें एक दूसरे को संभाल लेती हैं। वे सब ईंटें एक जैसी थीं, उनमें कोई फर्क न था। और अगर उनको वह एक जैसा रख दे, तो आर्च न बनेगा, दरवाजा फौरन गिर जाएगा। क्योंकि एक जैसी ईंटों में कोई बल नहीं होता, क्योंकि रेसिस्टेंस नहीं होता। जहां विरोध हो जाता है, वहां बल आ जाता है। सब बल विरोध से पैदा होता है, सब ऊर्जा विरोध से पैदा होती है। जीवन में जो ऊर्जा पैदा हुई है, जो शक्ति पैदा हुई है, जो इनर्जी पैदा हुई है, उस का सूत्र है विरोध। लेकिन जो ईंटें हैं, वे बिलकुल एक जैसी हैं। उनको विरोध में रखा गया है।

वह जो परमात्मा है, वह जो आर्किटेक्ट है जीवन का, वह बहुत होशियार है। वह जानता है कि जीवन एकदम ठंडा हो जाएगा, एकदम विलीन हो जाएगा, अगर ईंटें विरोध में न रखी जा सकें। तो उसने ईंटें विरोध में रख दी हैं। क्रोध की ईंटें हैं, क्षमा की ईटं हैं, सेक्स की ईंटें हैं, ब्रह्मचर्य की ईंटें हैं, वे विरोध में रख दी गई हैं। और इन दोनों के विरोध से, रेसिस्टेंस से शक्ति और ऊर्जा पैदा हो गई है। वह ऊर्जा जीवन है। उसने जन्म और मृत्यु की ईंटों को जमा कर रख दिया है। और उन दोनों से मिलकर जीवन का द्वार बन गया है।

अब कुछ लोग हैं जो कहते हैं, हम जीवन की ईंट ही स्वीकार करेंगे, हम मृत्यु की ईंट स्वीकार नहीं करते। मत करो! न करोगे तो उसी वक्त मर जाओगे। क्योंकि तब एक—सी ईंटें रह जाएंगी जीवन—जीवन की ईंटें रह जाएंगी। वे उसी वक्त गिर जाएंगी।

यह भूल बहुत दोहराई जा चुकी है। इससे कोई दस हजार साल से आदमी बुरी तरह पीड़ित और परेशान है। वह कहता है, हम एक सी ईंटें रखेंगे। विरोधी ईंट नहीं चाहिए, विरोध को हटा दो। वह कहता है, या तो हम परमात्मा को मानेंगे तो परमात्मा को ही मानेंगे, फिर हम संसार को न मानेंगे। वह कहता है, परमात्मा है तो संसार है ही नहीं, हम संसार को मान ही नहीं सकते। वह कहता है, हम जंगल चले जाएंगे, हम बाजार में खड़े नहीं हो सकते, हम दुकान पर नहीं बैठ सकते, हम संन्यासी हो जाएंगे, क्योंकि हम परमात्मा को मानते हैं। और वह परमात्मा की ही ईंटों से संसार को बना ले……।

तो खयाल करें, अगर भूल—चूक से कभी दुनिया का दिमाग बिगड़ जाए और सारे लोग संन्यासी हो जाएं, तो क्या परिणाम होंगे? ठीक उसी दिन—ठीक उसी दिन, एक दिन भी आगे नहीं चलेगा मामला —उसी दिन पृथ्वी राख हो जाएगी।

असल में वह जो संन्यासी है, उसको पता नहीं है कि वह संन्यासी भी जिंदा है, उसका बायां कदम उठ रहा है, क्योंकि कोई दुकान पर बैठा हुआ संसारी काम चला रहा है। उधर एक पैर रुका हुआ है, इसलिए यह पैर उठ रहा है। संन्यासी के प्राण आ रहे हैं संसारी से। वह भ्रम में है कि वह अपने में जी रहा है। उसके सारे प्राण आ रहे हैं संसारी से। और वह संसारी को गाली दिए जा रहा है। और वह कह रहा है कि सब संसारी संसार छोड़ दो और संन्यासी हो जाओ। उसे पता नहीं कि वह आत्महत्या का उपाय करवा रहा है। उसमें वह भी मरेगा, उसमें वह भी नहीं बच सकता। उसमें वह भी मिट जाएगा। क्योंकि वह एक —सी ईंटें रखने के खयाल में है।

इससे उलटे लोग भी हैं। वे कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं है, संसार ही संसार है। हम तो सिर्फ पदार्थ को मानते हैं। उन्होंने भी एक दुनिया बनाने की कोशिश की, सिर्फ पदार्थ को मानकर बनाने की। उनकी भी बड़ी मुश्किल हो गई है। वे भी बड़े उपद्रव में पहुंच गए हैं। वे वहा पहुंच गए हैं, जहां आत्महत्या वहां भी हो जाएगी। क्योंकि अगर पदार्थ ही पदार्थ है और कोई परमात्मा नहीं है, तो जीवन से वह बात गई जो रस लाती है, जो खिंचाव लाती है, जो गति लाती है, जो उठने की अभीप्सा लाती है। वह बात गई। अगर कोई परमात्मा नहीं है और पदार्थ ही पदार्थ है, तो जीवन में अर्थ कहां है फिर? जीवन बिलकुल व्यर्थ हो गया।

इसलिए पश्चिम में मीनिगलेसनेस की बात चलती है —सार्त्र हैं, कामू हैं, काफ्का हैं, और सारे लोग हैं, मासेंल्स हैं—आज पश्चिम के सारे विचारकों का एक स्वर है कि जीवन जो है वह अर्थहीन है। शेक्सपीयर का एक वचन एकदम सार्थक हो गया है। अब वह सारे पश्चिम के विचारक यह दोहराते हैं जिंदगी के बाबत, ए टेल टोल्ड बाई एन ईडियट, फुल आफ क्यूरी ऐंड न्वायज सिग्नीफाइंग नथिंग। एक मूर्ख के द्वारा कही गई कहानी है यह जिंदगी, जिसमें शोर—गुल बहुत है, मतलब बिलकुल नहीं। मलतब हो भी नहीं सकता, अर्थ हो भी नहीं सकता। क्योंकि पदार्थ ही पदार्थ की ईंटें रख लीं तुमने, तो मतलब बिलकुल खो जाएगा। जैसे अकेले संन्यासी संसार से मतलब हटा देंगे, वैसे अकेले संसारी भी मतलब हटा देंगे।

यह बड़े मजे की बात है कि संसारी के ऊपर संन्यासी का पैर चलता है। और यह भी मजे की बात है कि संन्यासी के पैर के ऊपर संसारी का भी पैर चलता है। असल में बाएं पर दायां निर्भर है, दाएं पर बायां निर्भर है। और यह निर्भर विरोध मालूम पड़ता है, लेकिन गहरे में विरोध नहीं है। यह एक ही व्यक्तित्व के दोनों पैर हैं, जिन पर एक व्यक्तित्व सधता है और एक व्यक्तित्व चलता है। जीवन के इस विरोध को ठीक से समझे बिना कोई भी व्यक्ति जीवन के पूर्ण. सत्य को कभी अनुभव नहीं कर सकता है। और जो विरोध में कहेगा कि आधे को हम काट देंगे, वह अभी बहुत बुद्धिमानी को उपलब्ध नहीं हुआ है। आधे को कांटा जा सकता है, लेकिन आधे के कटते ही शेष आधा भी मर जाएगा। क्योंकि उस आधे का जीवन और प्राण इस आधे से अनिवार्य रूप से मिलता था—इसी से मिलता था।

मैंने सुना है, दो फकीर थे और उन दोनों फकीरों में एक विवाद था, बड़ा लंबा विवाद था। उनमें एक फकीर था, जो इस बात को मानता था कि कुछ पैसे वक्त—बेवक्त के लिए अपने पास रखना जरूरी है, उचित है। वह निरंतर, दूसरे मित्र से उसका निरंतर विवाद होता था। दूसरा मित्र कहता था, पैसे की क्या जरूरत है? पैसे रखने की क्या जरूरत है? हम संन्यासी हैं, हमें पैसे की क्या जरूरत है? पैसे तो वे रखते हैं, जो संसारी हैं। वे दोनों दलीलें देते थे और वे दोनों ठीक ही दलीलें देते थे, ऐसा मालूम पड़ता था।

इस जगत का बड़ा रहस्य यह है कि इस जगत के बड़े रहस्य में जो विरोध की ईंटें रखी गई हैं, उनमें से किसी भी एक ईंट के संबंध में पूरी दलीलें दी जा सकती हैं। और दूसरी ईंट के संबंध में भी उतनी ही दलीलें दी जा सकती हैं। और यह विवाद कभी अंत नहीं हो सकता, क्योंकि वे दोनों ईंटें लगी हुई हैं। कोई भी इशारा करके बता सकता है कि देखो, मेरी ईंटों से बना हुआ है यह। और दूसरा भी बता सकता है कि मेरी ईंटों से बना हुआ है। और जिंदगी इतनी बड़ी है कि बहुत कम लोग इतना विकास कर पाते हैं कि पूरे द्वार को देख पाएं। वह जो ईंटें उनको दिखाई पड़ती हैं, उतनी ही देख पाते हैं। वे कहते हैं, ठीक ही तो कहते हो, संन्यास से ही तो बना हुआ है; ठीक ही तो कहते हो, ब्रह्म से बना हुआ है, ठीक ही तो कहते हो, आत्मा से बना है। वह दूसरा कहता है, पदार्थ से बना है, मिट्टी से बना है। डस्ट अनटू डस्ट, सब मिट्टी का मिट्टी में गिर जाएगा—उसी से बना हुआ है, और कुछ भी नहीं है। वह भी ईंटें बता सकता है। इसलिए न आस्तिक जीतता है, न नास्तिक जीतता है। न पदार्थवादी जीतता है, न अध्यात्मवादी जीतता है। जीत भी नहीं सकते हैं, क्योंकि वे जिंदगी को आधा— आधा तोड़कर कह रहे हैं।

तो उन दोनों में बड़ा विवाद था। वह जो कहता था कि पैसे पास होना जरूरी है, एक जो कहता था कि पैसे की क्या जरूरत है। वे दोनों एक दिन सांझ एक नदी के किनारे भागे हुए पहुंचे हैं। रात उतरने के करीब है। माझी नाव बांध रहा है। नाव बांधते उस मांझी से उन्होंने कहा, नाव मत बांधो, हमें उस पार पहुंचा दो, रात उतरने को है, हमें उस पार जाना जरूरी है। उस मांझी ने कहा, अब तो मैं दिन भर का काम निपटा चुका और अपने गांव वापस लौट रहा हूं। अब सुबह उतार दूंगा। उन्होंने कहा, नहीं, सुबह तक हम प्रतीक्षा नहीं कर सकते। हमारा गुरु—उनका गुरु, उनका फकीर जिसके पास उन्होंने जीया, जाना, पहचाना जीवन को—वह मृत्यु के निकट है और खबर आई है कि सुबह तक उसके प्राण निकल जाएंगे। उसने हमें बुलावा भेजा है। हम रात नहीं रुक सकते। तो माझी ने कहा कि मैं पांच रुपए लूंगा, तो उतार दूंगा। तो जो फकीर कहता था कि रुपए पास रखना चाहिए, वह हंसा और उसने कहा, कहो दोस्त, अब क्या खयाल है? उस फकीर से कहा जो कहता था कि पैसे रखना बिलकुल व्यर्थ है। उससे उसने कहा, कहो मित्र, क्या खयाल है? पैसा रखना व्यर्थ है या सार्थक है? वह दूसरा आदमी सिर्फ हंसता रहा। फिर उसने पांच रुपए निकाले, मांझी को दिए। वह जीत गया है। फिर वे नाव पर सवार हुए और उस पार पहुंच गए। फिर उतर कर उसने कहा, कहो मित्र, आज नदी के पार न उतर पाते, अगर पैसे पास न होते। वह दूसरा खूब हंसने लगा। उसने कहा, हम पैसे पास होने की वजह से नदी पार नहीं उतरे हैं। तुम पैसे छोड़ सके, इसलिए नदी के पार उतरे हैं। पैसा होने से नहीं, पैसा छोड़ने से उतरे हैं नदी के पार। दलील फिर अपनी जगह खड़ी हो गई। उसने कहा, मैं सदा कहता हूं, पैसे छोड़ने की हिम्मत होनी चाहिए संन्यासी को। हम पैसे छोड सके, इसलिए पार आ गए। अगर तुम पकड लेते, न छोड़ते, तो कैसे पार आते?

अब बड़ी मुश्किल हो गई। वह दूसरा भी हंसा। वे दोनों अपने गुरु के पास गए और मरते हुए गुरु से उन्होंने पूछा कि क्या करें? बड़ी मुश्किल है! और आज तो घटना ऐसी घट गई है साफ—साफ। पहले वाले ने कहा कि पैसे थे, इसलिए हम उतरे हैं और दूसरा कहता है, पैसे छोड़े, इसलिए हम उतरे हैं। और हम अपने सिद्धातों पर अडिग हैं। और हमारे दोनों के सिद्धात ठीक मालूम पड़ते हैं। वह गुरु खूब हंसा। उसने कहा कि तुम दोनों पागल हो। तुम वही पागलपन कर रहे हो, जो आदमी बहुत जमाने से कर रहा है। क्या पागलपन है? उन्होंने पूछा। गुरु ने कहा, तुम एक सत्य के आधे हिस्से को देख रहे हो। यह सच है कि पैसे छोड़ने से ही तुम नाव से उतर सके, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि तुम पैसे इसलिए छोड़ सके कि पैसे तुम्हारे पास थे। और यह भी सच है कि पैसे पास होने से ही तुम नदी पार उतरे, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि अगर पास ही होते तो तुम नदी उतर न सकते थे। तुम पास से दूर कर सके, इसलिए तुम नदी उतरे। ये दोनों ही बातें सच हैं। और ये दोनों बातें ही इकट्ठा जीवन है और इनमें विरोध नहीं है।

जीवन के सारे तलों पर ऐसा ही विरोध हमने बांट कर रखा है। और हर विरोध का मानने वाला अपनी दलील दे सकता है। कठिनाई नहीं है। क्योंकि उसके पास भी आधी जिंदगी तो है ही। और आधी जिंदगी कोई कम बात है? बहुत है, दलील के लिए काफी है। इसलिए दलील से कुछ हल नहीं होता, खोजना पड़ेगा पूरी जिंदगी को।

मैं जरूर मृत्यु सिखाता हूं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं जीवन का विरोधी हूं। इसका मतलब ही यह है कि जीवन को जानने का, जीवन को पहचानने का द्वार ही मृत्यु है। इसका मतलब यह है कि मैं जीवन और मृत्यु को उलटा नहीं मानता। चाहे मैं उसको मृत्यु की कला कहूं, चाहे जीवन की कला कहूं दोनों बातों का एक ही मतलब होता है। यह किस तरफ से हम देखते हैं। तो आप पूछेंगे कि मैं उसे जीवन की कला क्यों नहीं कहता हूं? कुछ कारण हैं, इसलिए नहीं कहता हूं।

पहली तो बात यह है कि हम सब जीवन के प्रति अति मोह से भरे हुए हैं। वह अनबैलेंस्ट हो गया है मोह। अति मोह से भरे हुए हैं जीवन के प्रति। मैं जीवन की कला भी कह सकता हूं, लेकिन नहीं कहूंगा आपसे, क्योंकि आप जीवन के अति मोह से भरे हुए हैं। और जब मैं कहूंगा कि जीवन सीखने आयें, तो आप जरूर भागे हुए चले आएंगे, क्योंकि आप अपने जीवन के मोह को और परिपुष्ट करना चाहेंगे।

इसलिए मैं कहता हूं मृत्यु की कला। और इसलिए कहता हूं ताकि आप बैलेंस, संतुलन पर आ जाएं। आप मरना सीख लें, तो जन्म और मृत्यु बराबर खड़े हो जाएं, दाएं और बाएं पैर बन जाएं। तो आप परम जीवन को उपलब्ध हो जाएंगे। परम जीवन में न जन्म है, न मृत्यु है; लेकिन परम जीवन के दोनों पैर हैं, जिनको हम जन्म कहते हैं और मृत्यु कहते हैं।

ही, अगर कोई गांव ऐसा हो, जो सुसाइडल हो, ऐसा कोई गाव हो जहां सारे लोग मरने के मोही हों, जहां कोई आदमी जीना न चाहता हो, तो वहां मैं जाकर मृत्यु की कला की बात नहीं कहूंगा। वहां जाकर मैं कहूंगा कि जीवन की कला सीखें, आयें हम जीवन की कला सीखें। और उनसे मैं कहूंगा कि ध्यान जीवन का द्वार है, जैसा मैं आपसे कहता हूं कि ध्यान मृत्यु का द्वार है। उनसे मैं कहूंगा, आओ, जीना सीखो, क्योंकि अगर तुम जीना न सीख पाओगे तो मर भी न पाओगे। अगर तुम मरना चाहते हो, तो मैं तुम्हें जीवन की कला सिखाता हूं। क्योंकि तुम जीना सीख जाओगे तो मरना भी सीख जाओगे। तभी वे आयेंगे उस गांव के लोग।

आपका गांव उलटा है। आप दूसरे उलटे गांव के निवासी हैं, जहां कोई मरना नहीं चाहता, जहां सब जीना चाहते हैं और जीने को इतने जोर से पकड़ना चाहते हैं कि मृत्यु आए ही नहीं। तो इसलिए मजबूरी में आपसे मरने की बात करनी पड़ती है। यह सवाल मेरा नहीं है, आपकी वजह से मृत्यु की कला मैं कह रहा हूं। मैं निरंतर एक बात कहता रहा हूं।

बुद्ध ने एक दिन एक गांव में प्रवेश किया। सुबह ही सुबह है, अभी सूरज निकल ही रहा है। और एक आदमी उनसे मिलने आया और उसने कहा, सुनिए, मैं नास्तिक हूं, मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं। आपका क्या खयाल है, ईश्वर है? बुद्ध ने कहा, ईश्वर है! ईश्वर है ही नहीं, सिर्फ ईश्वर ही है, और कुछ भी नहीं। उस आदमी ने कहा, मैंने तो सुना था कि आप नास्तिक हैं। बुद्ध ने कहा, तुमने गलत सुना होगा। अब तो तुमने मुझसे सुन लिया न! मैं महा आस्तिक हूं। ईश्वर है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। वह आदमी बेचैन—सा वृक्ष के नीचे खडा रह गया। बुद्ध आगे बढ़े।

दोपहर को एक आदमी और आया और उस आदमी ने कहा कि मैं आस्तिक हूं, मैं परम आस्तिक हूं मैं नास्तिकों का दुश्मन हूं। मैं आपसे पूछने आया हूं कि ईश्वर के संबंध में आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहा, ईश्वर? न है, न हो सकता है। ईश्वर है ही नहीं। उसने कहा, क्या कह रहे हैं आप? मैंने तो सुना था कि एक धार्मिक आदमी गांव में आया है, तो मैं पूछने आया था कि ईश्वर है, और आप यह क्या कह रहे हैं? बुद्ध ने कहा, धार्मिक? आस्तिक? मैं महा नास्तिक हूं। वह आदमी बेचैन—सा खड़ा रह गया।

लेकिन इनकी बेचैनी तो ठीक थी। बुद्ध के साथ एक भिक्षु था आनंद। उसके तो प्राण संकट में पड़ गए। उसने दोनों बातें सुन ली थीं। अब वह बेचैन हुआ कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई, मामला क्या है? सुबह तक बात ठीक थी, दोपहर में बात मुश्किल हो गई। यह बुद्ध को हो क्या गया है? सुबह कहते हैं महा आस्तिक, दोपहर कहते हैं महा नास्तिक। सोचा, सांझ जब सब लोग चले जाएंगे, तो पूछ लूंगा। लेकिन सांझ को और मुश्किल हो गई।

एक आदमी और सांझ होते —होते आया और उसने बुद्ध से पूछा कि मुझे कुछ समझ में नहीं आता कि ईश्वर है या नहीं। वह आदमी एगनॉस्टिक रहा होगा, अज्ञेयवादी रहा होगा, जो कहते हैं हमें पता नहीं, ईश्वर है या नहीं। और किसी को पता नहीं, और कभी पता नहीं हो सकता। उसने कहा, कुछ पता ही नहीं है, है या नहीं। आप क्या कहते हैं? आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहा, जब तुम्हें भी पता नहीं है तो मुझे भी पता नहीं है। और अच्छा हो कि इस संबंध में हम चुप रह जाएं। वह आदमी भी हैरान रह गया। उसने कहा, मैंने तो सुना था कि आपको ज्ञान हो गया है, आपको पता हो गया। बुद्ध ने कहा, वह गलत सुना होगा। मैं तो परम अज्ञानी, मुझे कैसा ज्ञान?

आनंद की मुसीबत समझें आप, अपने को रख लें आनंद की जगह। कैसी मुश्किल में पड़ गया! रात हो गई, सब लोग चले गए। आनंद ने बुद्ध के पैर पकड़ लिये। उसने कहा, मेरी जान लेंगे आप? क्या करते हैं? मेरी फांसी लग गई। आज दिन भर से मैं इतना बेचैन हूं जितना जिंदगी में कभी भी नहीं था। आप कहते क्या हैं? आप कर क्या रहे हैं? आप होश में हैं? आप बोल क्या रहे हैं? सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। आपने तीन उत्तर दे दिए। बुद्ध ने कहा, तुझे तो मैंने कोई उत्तर नहीं दिया था। जिन्हें दिया था, उन्हें दिया था। तूने सुना क्यों? दूसरे की बात सुननी उचित है? मेरी उनसे बात हो रही थी, तूने सुना क्यों? उसने कहा, और मुश्किल देखिए! मैं मौजूद था, कान तो बंद नहीं किए हुए था, सुनाई पड़ गया। और आप बोलें और सुनने का मन न हो? होगा पाप, लेकिन आप बोलें तो सुनने का मन होता है, किसी से भी बोलें। बुद्ध ने कहा, तुझे मैंने कोई उत्तर न दिया था। आनंद ने कहा, न दिया होगा, लेकिन मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। मुझे उत्तर दें, अब दे दें। सच क्या है? और आपने ऐसी तीन बातें क्यों कहीं?

बुद्ध ने कहा, तीनों को संतुलन पर लाना था, बैलेंस पर। सुबह जो आदमी आया था, वह नास्तिक था और अकेला नास्तिक अधूरा है। क्योंकि जिंदगी विरोध से मिलकर बनी है।

यह समझ लेना आप कि जो सच में धार्मिक आदमी है, उसमें दोनों ही बातें होती हैं। वह एक तरफ से नास्तिक भी होता है, दूसरी तरफ से आस्तिक भी होता है। उसके दोनों ही पहलू होते हैं। और उन दोनों के विरोध के बीच वह सामंजस्य बना लेता है। उसी सामंजस्य में धर्म है। और जो सिर्फ आस्तिक है, वह अभी अधूरा धार्मिक है। अभी वह धार्मिक हुआ नहीं, अभी जिंदगी का संतुलन आया नहीं, अभी बैलेंस आया नहीं।

तो बुद्ध ने कहा, उसे बैलेंस में लाना था। उसका एक पलड़ा बहुत भारी हो गया था, इसलिए दूसरे पलड़े पर मुझे पत्थर रख देने पड़े। और फिर मैं उसे बेचैन भी कर देना चाहता था, क्योंकि वह कहीं निश्चित हो गया था कि बस नहीं है। उसके निश्चय को डिगा देना जरूरी था। क्योंकि जो निश्चित हो जाता है, वह मर जाता है। यात्रा जारी रहनी चाहिए जिज्ञासा की। दोपहर जो आदमी आया था, वह आस्तिक था। तो उससे मुझे कहना पड़ा कि मैं नास्तिक हूं। क्योंकि उसका पलड़ा भी बहुत भारी हो गया था, वह भी असंतुलित हो गया था। जिंदगी है संतुलन। बुद्ध ने कहा, संतुलन को जो पा लेता है, वह सत्य को पा लेता है।

आपसे जो मैं कह रहा हूं कि मृत्यु की कला सीखनी चाहिए, वह इसलिए कह रहा हूं कि जीवन का पलड़ा बहुत भारी हो गया है। जीवन के पलड़े पर आप बहुत जोर से बैठ गए हैं। उसकी वजह से सब पत्थर हो गया है, जड़ हो गया है, संतुलन खो गया है। इधर मृत्यु को भी निमंत्रित करें, उसे भी बुलाएं कि तू भी आ और मेहमान हो जा। हम साथ—साथ ही रहेंगे। और जिस दिन जीवन मृत्यु के साथ रहने को राजी हो जाता है, उस दिन जीवन परम जीवन बन जाता है। जिस दिन कोई मृत्यु को गले लगा लेता है, भेंट कर लेता है, आलिंगन कर लेता है मृत्यु को, उस दिन बात खतम हो गई। मृत्यु का दंश गया, क्योंकि मृत्यु का जो दंश था वह था मृत्यु से भागने में, भयभीत होने में था। और जब कोई आकर मृत्यु को गले लगा लेता है, तो मृत्यु हार जाती है, पराजित हो जाती है। क्योंकि मृत्यु को गले लगाने वाला मृत्युंजय हो जाता है। मृत्यु अब उसका कुछ भी नहीं कर सकती। अब क्या करेगी मृत्यु, वह खुद ही मिटने को तैयार हो गया है।

दो तरह के लोग हैं। एक वे जिन्हें मृत्यु खोजती है और एक वे जो मृत्यु को खोजते हैं। मृत्यु उन्हें खोजती है, जो मृत्यु से भागते हैं। उन्हें खोजती फिरती है, पकडती फिरती है। और एक वे हैं जो मृत्यु को खोजते हैं, मृत्यु उनसे भागती फिरती है। और वे अनंतकाल में खोज —फिरकर आ जाते हैं और मृत्यु को नहीं पाते।

किस तरह का आदमी बनना है आपको? मृत्यु से भागे हुए या मृत्यु को आलिंगन कर लेने वाले? मृत्यु से भागने वाला हारता ही जाएगा, हारता ही जाएगा। उसका सारा ‘जीवन पराजय का जीवन होगा। मृत्यु को भेंट लेने वाला जीत जाएगा उसी क्षण, ऊसके जीवन में पराजय मिट जाएगी। उसका जीवन विजय की यात्रा बन जाता है।

तो मैंने कहा, निश्चित ही ठीक पूछा है, मैं मृत्यु की कला ही सिखा रहा हूं। मैं मरना ही सिखा रहा हूं, ताकि जीवन उप्लब्ध हो सके। अंधेरे में जो जीना सीख लेता है और पूरे अंधेरे को जो स्वीकार कर लेता है, क्या आपको यह रहस्य पता है कि उसके लिए उसी दिन अंधेरा प्रकाश हो जाता है? जो जहर को पी लेता है प्रेम से, आनंद से, अमृत की भांति, क्या आपको पता है कि उसके लिए जहर अमृत हो जाता है?

अगर नहीं पता है, तो खोज करनी चाहिए। लेकिन जीवन के गहरे से गहरे सत्यों में एक सत्य यह है कि जिसने जहर को वरण कर लिया प्रेम से, उसके लिए जहर अमृत हो जाता है। और जिसने अंधकार को ही प्रेम से छाती से लगा लिया, वह अचानक पाता है कि अंधकार आलोक हो गया। और जिसने दुख को भेंट कर ली, उसने पाया कि दुख है ही नहीं, सुख ही शेष रह जाता है। और जो अशांति में भी राजी हो गया, उसके लिए शांति के द्वार खुल जाते हैं।

अब हमें यह उलटा लगता है। लेकिन ध्यान रहे, जो आदमी कहता है कि मुझे शांत होना है, वह आदमी कभी शांत नहीं हो सकेगा। क्योंकि मुझे शांत होना है, यह भी अशांति की तलाश है। इसलिए आदमी वैसे ही अशांत है और कुछ अशांत ऐसे भी हैं कि वे एक नई अशांति भी पाल लेते हैं। वे कहते हैं, हमें शांत होना है।

एक आदमी मेरे पास आया और उसने मुझे कहा कि मैं पांडिचेरी हो आया, रमण आश्रम गया, रामकृष्ण आश्रम गया, सब पाखंड है, कहीं भी कुछ भी नहीं है। मुझे शांति चाहिए, कहीं नहीं मिलती है। मैं दो साल से भटक रहा हूं। पाडिचेरी में मुझे किसी ने आपका नाम दे दिया, तो मैं सीधा वहीं से चला आ रहा हूं। मुझे शांति चाहिए। मैंने कहा, तुम सीधे उठो और दरवाजे के बाहर हो जाओ, नहीं तो मैं भी पाखंडी सिद्ध हो जाऊंगा। उसने कहा, क्या मतलब आपका? मैंने कहा, बस अब तुम बाहर जाओ। तुम अब लौटकर इस तरफ देखना ही मत। इसके पहले कि मैं पाखंडी सिद्ध हो जाऊं, मुझे अपने को बचा लेना उचित है। उसने कहा, लेकिन मैं शांत होने आया हूं। मैंने कहा, तुम बिलकुल ही चले जाओ, क्योंकि तुमसे मैं यह पूछता हूं कि तुम अशांत होने के लिए किसके पास पूछने गए थे? किस गुरु से तुमने अशांति की दीक्षा ली है? किस आश्रम में गए थे, जहां तुमने अशांति का पाठ सीखा? तब उसने कहा, मैं कहीं नहीं गया। तो मैंने कहा, तुम तो इतने होशियार आदमी हो कि अशांति तक पैदा कर लेते हो, तो मैं तुम्हें और क्या बताऊंगा! जिस ढंग से तुमने अशांति पैदा की है, उससे उलटे लौट जाओ, शांत हो जाओगे। मुझसे क्या लेना—देना है। भूल कर किसी से मत कहना कि तुम मेरे पास भी गए थे, क्योंकि मुझसे संबंध ही क्या है इस बात का। वह आदमी बोला, आप कुछ भी करके मुझे शांत होने का रास्ता बतलाइए। मैंने कहा, तुम और अशांत होने का रास्ता खोज रहे हो। शांत होने का सिर्फ एक ही रास्ता रहा है दुनिया में और वह यह है कि जो अपनी अशांति को भी शांति से स्वीकार क्ल लेता है, अशांति को भी जो उसकी परिपूर्णता में स्वीकार लेता है, और कहता है, आ जाओ, रही, तुम भी मेहमान बन जाओ इसी घर में, उसी दिन अचानक वह पाता है कि अशांति विदा हो गई। क्योंकि अशांति पैदा होती है वृत्ति से। जो अशांति को स्वीकार करता है, उसकी वृत्ति शांत हो गई, क्योंकि वह अशांति तक को स्वीकार कर लेता है। यह जो वृत्ति की शांति हो गई, तो अशांति वहां कैसे टिकेगी!

अशांति पैदा होती है अस्वीकार की वृत्ति से। फिर चाहे वह अस्वीकार अशांति का ही क्यों न हो। जो कहता है, अशांति को स्वीकार नहीं करेंगे, वह अशांत होता चला जाएगा। क्योंकि स्वीकार न करना ही तो अशांति की जड़ है। वह कहता है, हम अशांति स्वीकार न करेंगे, हम दुख स्वीकार नहीं कर सकते, हम मौत स्वीकार नहीं कर सकते, हम अंधेरा स्वीकार नहीं कर सकते। तो मत करो स्वीकार। जिसको तुम स्वीकार नहीं करोगे, उससे ही घिरते चले जाओगे। देखो उसको स्वीकार करके, जिसे कोई स्वीकार नहीं करता। और अचानक तुम पाओगे कि जिसे शत्रु जाना था, वह मित्र हो गया। शत्रु को कोई घर में मेहमान की तरह ठहरा ले, तो मित्र हो जाने के अतिरिक्त उपाय भी क्या है।

इसलिए मैंने इन दिनों में ये बातें कहीं —कि मृत्यु पर विजय की आकांक्षा से आप आए थे और आपने सोचा होगा कि शायद मैं कोई तरकीब बताऊंगा कि आप कभी न मर सको।

एक मित्र ने तो पत्र भी लिखा है पुष्कर जी के पास कि क्या वहां कायाकल्प किया जाएगा? कोई पारस—प्रयोग बताया जाएगा? तो फिर हम खर्च करके आएं भी।

हो सकता है, आप भी उसी खयाल में आए हों। लेकिन आप बड़े डिसअप्याइंट, बड़े निराश हुए होंगे, क्योंकि मैं इधर मृत्यु की कला सिखा रहा हूं। मैं कह रहा हूं, मर जाओ। मैं कहता हूं, मरना सीखो, भागते कहां हो मृत्यु से! अंगीकार कर लो। और ध्यान रहे, मैं मृत्यु की विजय का सूत्र ही आपको दे रहा हूं। मृत्यु की विजय का सूत्र कायाकल्प नहीं है। कितनी ही कायाकल्प करो, मरना ही पड़ेगा। काया मरेगी ही।

ही, कायाकल्प से इतना ही हो सकता है कि मौत लंबाई जा सकती है, यानी परेशानी और लंबी हो जाएगी। सत्तर साल में मर जाते, तो सात सौ साल में मर पाओगे। सत्तर साल में जो दुख विदा हो जाता, वह सात सौ साल तक चलेगा। और क्या होगा? सत्तर साल की परेशानी सात सौ साल तक चलेगी। और क्या होगा? सत्तर साल के झगड़े सात सौ साल तक चलेंगे। सत्तर साल की मुसीबतें सात सौ साल तक फैल जाएंगी, लंबा जाएंगी, अगणित हो जाएंगी। और क्या होगा?

आपको पता नहीं है इस बात का कि अगर सच में ही आपको कोई मिल जाए सात सौ साल करने वाला और कहे कि लो, यह दवा दिए देता हूं, हो जाओगे सात सौ साल तक जीने वाले, तो आप कहेंगे कि जरा ठहर जाओ, मैं विचार करूंगा। तो मैं नहीं समझता कि आपमें से कोई भी सात सौ साल वाली दवा लेने को राजी होगा। क्योंकि इसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब यही होता है कि जो मैं था, वह तो मैं ही रहूंगा और इसी ‘मैं’ को सात सौ साल जीना पड़ेगा। तो बहुत महंगा पड़ जाएगा, यह तो बहुत भारी पड़ जाएगा।

अगर किसी दिन वैज्ञानिकों ने ऐसी कोई खोज कर ली कि आदमी अनंत काल तक जी सके—और ऐसी खोज शायद हो सकेगी, इसमें कोई कठिनाई नहीं है—तो ध्यान रहे, जिस दिन अनंतकाल तक जीने की व्यवस्था हो जाएगी, उस दिन आदमी उन गुरुओं की तलाश करेगा, जो ऐसी तरकीबें बता दें, जिनसे जल्दी आदमी मर जाए। जैसे अभी कायाकल्प करनेवाले गुरुओं की तलाश चलती है, वैसे ही तब तलाश चलेगी कि कोई गुप्त रहस्य बता दे कि हम किस तरकीब से मर जाएं और वैज्ञानिक हमें बचा न पाएं। सरकार को किस तरह धोखा दे दें और खिसक जाएं। क्योंकि हमको खयाल ही नहीं है कि लंबाई हुई जिंदगी का कोई मतलब नहीं होता। जिंदगी का मतलब होता है जीने से। और कोई आदमी एक क्षण में इतना जी सकता है कि कोई आदमी अनंत जन्मों में न जी सके। वह जीने की बात है। और जी वही सकता है जिसका मृत्यु का भय चला गया है, नहीं तो जीएगा कैसे! भय की वजह से कंपता रहता है। खडा ही नहीं हो पाता, भागता ही रहता है।

क्या आपको खयाल में है यह बात कि दुनिया में निरंतर स्पीड बढ़ती चली जाती है। हर चीज में गति है। बैलगाड़ी से राकेट बड़ा अच्छा है एक लिहाज से। क्योंकि उससे कहीं भी हम जल्दी से पहुंच सकते हैं, वह ठीक है। लेकिन स्पीड का इतना आग्रह क्यों है?

यह आपको खयाल में भी न होगा कि सारी गति की चेष्टा मनुष्य की वह जहां है वहां से भागने की चेष्टा है। वह जहां है, इतना डरा हुआ है, इतना घबराया हुआ है कि वह कहता है, कहीं भी हों इससे अच्छे होंगे। भागों, जाओ कहीं। सारे यूरोप और— अमरीका में छुट्टी का दिन बहुत उपद्रव का दिन हो गया है। और छुट्टी के दिन जितने लोग थक जाते हैं, उतना कभी भी नहीं थकते हैं। क्योंकि भागो, अपनी— अपनी गाड़ियां लेकर भागो—पचास मील, सौ मील, दो सौ मील दूर—किसी पिकनिक स्पॉट पर, किसी पहाड़ पर, किसी हिल—स्टेशन पर, किसी समुद्र के तट पर भागो। जोर से भागों, क्योंकि और लोग जोर से भागे जा रहे हैं, पता नहीं वे कहीं पहले पहुंच जाएं, जहां हमें पहुंचना चाहिए। लेकिन पूछो, पहुंचना कहां है? तो इसका पक्का नहीं है कि पहुंचना कहां है। एक बात पक्की है कि जहां हैं, वहां से निकल जाएं—घर से निकल जाएं, पत्नी से भाग जाएं, दफ्तर से भाग जाएं, दुकान से भाग जाएं—जहां हैं, वहां से भाग जाएं।

आदमी नहीं जी पा रहा है, इसलिए इतनी भाग, इतनी दौड़ पैदा हुई है। और तेज करते जाओ वाहन को, ताकि भागने में गति आ जाए। लेकिन पूछें कि जा कहां रहे हैं? कहां पहुंचने का इरादा है? तो वह कहेगा, अभी फुर्सत नहीं है बताने की, मुझे जल्दी पहुंचना है। कि आप पहुंच कहा रहे हैं? जाना कहां है? इरादे क्या हैं? हमें चांद पर पहुंचना है, मंगल पर पहुंचना है।

हम भी जिंदगी भर भाग रहे हैं हर वक्त। किससे भाग रहे हैं? किस चीज से भाग रहे हैं? डर क्या है? एक डर है, जीवन को जी नहीं पाते और मौत का डर है कि मौत न आ जाए। और ये दोनों बातें जुड़ी हुई हैं। जो मौत से डरा है, वह जीवन को नहीं जी पाएगा, क्योंकि मौत कंपा देती है। क्या रास्ता है?

आप मुझसे पूछते हैं, रास्ता क्या है? मैं कहता हूं, इस मौत को स्वीकार कर लो। मौत से कहो, आ जाओ, जीएंगे पीछे, तुम पहले आ जाओ, तुमसे पहले निपट लें, यह बात खतम हो गई। तो फिर फुर्सत से जी लें। तुम आ जाओ, तुम्हें पहले ले लें, फिर सुविधा से, फुर्सत से बैठकर जीएंगे। और जो आदमी मौत को इस भांति ले लेता है —ध्यान उसी के लिए आमंत्रण है—जो मौत को इस भांति ले लेता है, वह तत्काल खड़ा हो जाता है। उसकी स्पीड, वह तेजी भागने की विलीन हो जाती है। कभी आपने देखा है! अगर आप साइकिल चलाते हैं, तो जिस दिन आप क्रोध में हों, पैडल जोर से चलता है। कार चलाते हैं, तो जिस दिन क्रोध में हों, उस दिन एक्सीलेटर जोर से दबता है। कभी खयाल किया है आपने? मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि जो ऐक्सीडेंट होते हैं, वे कार की खराबी की वजह से नहीं, रास्ते की खराबी की वजह से नहीं, वह जो कार का एक्सीलेटर दबा रहा है, उस आदमी के भीतर कुछ गड़बड़ है, वह तेजी से दबा रहा है। दात भींचे हुए है। किसी न किसी तरह वह चाह रहा है कि ऐक्सीडेंट हो जाए। वह इच्छा से भरा हुआ है कि हो जाए, कहीं टकरा जाए जोर से। क्योंकि जिंदगी बिलकुल बेकार मालूम पड रही है, इतना ही रस आ जाएगा कम से कम, टकराने का।

उतनी देर कम से कम थिल, थोड़ा कंपन होगा, थोड़ा अच्छा लगेगा। कुछ तो हुआ, अपनी जिंदगी बिलकुल बेकार न गई, कुछ हुआ तो।

आज अमरीका और यूरोप में अनेक हत्यारों ने अदालतों में यह बयान दिए हैं कि उस आदमी से हमारा कोई झगड़ा न था, हम सिर्फ अखबार में अपना नाम देखना चाहते थे। और कोई रास्ता नहीं था नाम छपने का। साधु का तो नाम अब छपता नहीं, अब तो सिर्फ हत्यारों का छपता है। हत्यारे दो तरह के हैं। एक तो प्राइवेट हत्या करने वाले लोग, निजी, अपनी— अपनी व्यक्तिगत हत्या करने वाले उनके छपते हैं। और एक सामूहिक हत्या करने वाले राजनीतिज्ञ, पोलीटिशियस, उनके छपते हैं। बाकी तो किसी का छपता नहीं। तो साधु होने का कोई उपाय नहीं। साधु हो भी जाओ, तब भी कोई नाम छपने वाला नहीं है, उससे कोई मतलब नहीं है। एक आदमी को छुरा भोंक दो, तो अखबार में कम से कम पहली हेडिंग में ऊपर छपता तो है कि फलां आदमी ने फलां आदमी को छुरा भोंक दिया। और वह कहता है अदालत में कि मेरी कोई दुश्मनी न थी, कोई मतलब भी न था, इस आदमी को मैंने कभी देखा भी न था। सिर्फ इसकी पीठ देखी और छुरा भोंक दिया। और पीठ अच्छी लगी और जब छुरा भोंका और खून का फव्वारा बहा, तो मुझको भी लगा कि मैंने भी जिंदगी बेकार नहीं गंवा दी, कुछ तो किया है, जिसकी चर्चा होगी। चर्चा हो रही है—अखबार चर्चा कर रहे हैं, अदालतें चर्चा कर रही हैं, बड़े —बड़े मजिस्ट्रेट काले चोगे पहनकर, और बड़े —बडे वकील काले चोगे पहनकर बड़ी गंभीरता से कार्य कर रहे हैं। मैंने भी कुछ किया है, कोई साधारण आदमी नहीं हूं।

मौत से भागा हुआ, डरा हुआ आदमी इतना निराश, उदास, इतना ऊब गया है कि वह कुछ भी कर रहा है, लेकिन एक काम नहीं कर रहा है कि वह मौत को स्वीकार कर ले कि आओ। और जैसे ही कोई उसे स्वीकार कर लेता है, उसके जीवन में नया द्वार खुल जाता है, .जहां प्रभु का निवास है। परमात्मा के मंदिर पर लिखा है, मरो! और परमात्मा के मंदिर में जीवन की रसधार बह रही है। मरो! इस साइनबोर्ड को देखकर लोग लौट जाते हैं। भीतर कोई जाता ही नहीं। बड़ी कुशलता की है, बड़ी होशियारी की है, नहीं तो बहुत भीतर भीड़ हो जाए और जीना मुश्किल हो जाए। तो जीवन का जहां मंदिर है, वहां लिखा है बाहर, मरो! वे जो डर गए, वे भाग जाते हैं। इसलिए मैंने कहा कि मरना सीखना पड़ता है।

और जीवन का सबसे बड़ा रहस्य यही है कि कैसे हम मरने को सीख लें और स्वीकार कर लें। रोज—रोज जो अतीत है? वह मर जाए, हम रोज ही मर जाएं। कल का मर जाए. हम नहीं मरने देते उसको। सत्तर साल का बुढ़ा आदमी हो गया, उसका बचपन अभी तक नहीं मरा। वह बैठकर कहता है कि वे दिन ही और थे, वह बात ही और थी, बड़े आनंद का था। अभी बचपन मरा नहीं उनका। अभी वह इरादे वही कर रहे हैं कि वही हो जाए सब जो था। के हो गए हैं, बिस्तर पर लगे हुए हैं लेकिन उनकी जवानी नहीं मरी है, वह विचार वही कर रहे हैं। जवानी में जो अभिनेत्रियां उन्हें दिखाई पड़ी होंगी—हालांकि अब वे कोई न रहीं—वह उनको देख रहे हैं। वे ही चित्र चल रहे हैं। मरा नहीं कुछ। कल मरता ही नहीं हमारा। हम मरने की हिम्मत ही नहीं जुटाते हैं। हम किसी चीज को मरने ही नहीं देते। बस वह सब इकट्ठा हो जाता है। सब मरा हुआ, जो मर चुका है, हम उसे मरने नहीं देते, बोझ की तरह इकट्ठा कर लेते हैं। उसके बोझ में हम जी नहीं पाते।

तो मरने की कला का एक सूत्र यह भी है कि वह जो मर गया है, उसे मर जाने दें।

जीसस एक झील के पास से गुजर रहे थे। एक बहुत मजेदार घटना घटी। सुबह है, सूरज निकलने को है, अभी— अभी लाली फैली है। एक मछुवे ने जाल फेंका है मछलियां पकड़ने को। मछिलयां पकड़कर वह जाल खींचता है। जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, मेरे दोस्त, क्या पूरी जिंदगी मछलियां ही पकड़ते रहोगे?

सवाल तो उसके मन में भी कई बार यह उठा था कि क्या पूरी जिंदगी मछलियां ही पकड़ता रहूं! किसके मन में नहीं उठता? हां, मछलियां अलग— अलग हैं, जाल अलग — अलग हैं, तालाब अलग— अलग हैं, लेकिन सवाल तो उठता ही है कि क्या जिंदगी भर मछिलयां ही पकड़ते रहें!

उसने लौटकर देखा कि कौन आदमी है, जो मेरा ही सवाल उठाता है। पीछे जीसस को देखा, उनकी हंसती हुई शांत आंखें देखीं, उनका व्यक्तित्व देखा। उसने कहा, और कोई उपाय भी तो नहीं है, और कोई सरोवर कहां है! और मछलियां कहां हैं! और जाल कहां फेंकूं! पूछता तो मैं भी हूं कि क्या जिंदगी भर मछिलयां ही पकड़ता रहूंगा। तो जीसस ने कहा कि मैं भी एक मछुवा हूं, लेकिन किसी और सागर पर फेंकता हूं जाल। इरादा हो तो आओ मेरे पीछे आ जाओ। लेकिन ध्यान रहे, नया जाल वही फेंक सकता है, जो पुराना जाल फेंकने की हिम्मत रखता हो। छोड़ दो पुराने जाल को वहीं।

मछुवा सच में हिम्मतवर रहा होगा। कम लोग इतने हिम्मतवर होते हैं। उसने जाल को वहीं फेंक दिया जिसमें मछलियां भरी थीं। मन तो किया होगा कि खींच ले, कम से कम इस जाल को तो खींच ही ले। लेकिन जीसस ने कही, वे ही नए जाल को फेंक सकते हैं नए सागर में, जो पुराने जाल को छोड़ने की हिम्मत रखते हैं। छोड़ दे उसे वहीं। उसने वहीं छोड़ दिया। उसने कहा, बोलो, कहां चलूं?

जीसस ने कहा, आदमी हिम्मत के मालूम होते हो, कहीं जा सकते हो। आओ। वे गांव के बाहर निकल रहे थे, तब एक आदमी भागता हुआ आया और उस मछुवे को पकड़कर कहा, पागल! तू कहां जा रहा है? तेरे बाप की मौत हो गई है जो बीमार थे। रात ज्यादा तबीयत खराब हो गयी थी। तू सुबह उठकर जल्दी चला आया था, उनकी मृत्यु हो गयी, तू गया कहां था? हम गए थे तालाब पर, पड़ा हुआ जाल देखा है वहां। तू कहां चला जा रहा है? उसने जीसस से कहा, क्षमा करें। दो—चार दिन की मुझे छुट्टी दे दें। मैं अपने पिता की अंत्येष्टि कर आऊं, अंतिम संस्कार कर आऊं। फिर मैं लौट आऊंगा। जीसस ने जो वचन कहा, वह बड़ा अदभुत है। उन्होंने कहा, पागल! लेट द डेड बरी द डेड। वह जो गांव में मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना लेंगे। तुझे क्या जाने की जरूरत है, तू चल। अब जो मर गया है, वह मर ही गया, अब दफनाने की भी क्या जरूरत है? यानी दफनाना भी और तरकीबें हैं उसको और जिलाए रखने की। अब जो मर गया, वह मर ही गया। और फिर गांव में काफी मुर्दे हैं, वे दफना लेंगे, तू चल। एक क्षण वह रुका, जीसस ने कहा कि फिर मैंने गलत समझा कि तू पुराने जाल छोड़ सकता है। एक क्षण वह रुका, और फिर जीसस के पीछे चल पड़ा। जीसस ने कहा, तू आदमी हिम्मत का है। तू मुर्दों को छोड़ सकता है, तो तू जीवंत को पा भी सकता है।

असल में वह जो पीछे मर गया है, उसे छोड़े। ध्यान में आप निरंतर बैठते हैं, लेकिन मुझसे आप आकर कहते हैं कि होता नहीं है, विचार आ जाते हैं। वह आ नहीं जाते। आपने उनको छोड़ा है कभी? उनको निरंतर पकड़े रहे हैं, उन विचारों का क्या कसूर है?

अगर कोई आदमी एक कुत्ते को रोज अपने घर में बांधे रहे और रोज खाना खिलाए और फिर एक दिन अचानक उसको घर के बाहर निकालने लगे, और कुत्ता चारों तरफ से घूमकर वापस आने लगे, तो कुत्ते का क्या कसूर है? अचानक आप ध्यान करने लगें और कुत्ते से कहें, हटो यहां से। और कल तक उसको रोटी दी, आज सुबह तक रोटी दी, आज सुबह तक चूमा, पुचकारा, उसकी पूंछ हिलाने से आनंदित हुए, घंटी बांधी गले में, पट्टा बांधा, घर में रखा—अचानक आपका दिमाग हो गया कि ध्यान करें। उस कुत्ते को क्या पता? वह बेचारा घूमकर लौट आता है वापिस। वह कहता है, कोई खेल हो रहा होगा। और जब आप उसको और भगाते हैं तो वह और खेल में आ जाता है। वह और रस लेने लगता है कि कोई मामला जरूर है। मालिक आज कुछ बड़े आनंद में मालूम पड़ते हैं। तब मुझसे आप आकर कहते हैं कि विचार नहीं जाते हैं।

वे जाएंगे कैसे? उन्हीं विचारों को पोसा है आपने, खून पिलाया है अपना। उनको बांधे फिरते हैं, उनके गले पर पट्टे बांधे हुए हैं अपने — अपने नाम के। आदमी से जरा कह दो कि यह जो तुम कह रहे हो, गलत है। वह कहता है, मेरा विचार और गलत रम मेरा विचार कभी गलत नहीं हो सकता। अब जिस पर आप पट्टा बांधे हुए हैं अपना, वह बिचारा लौटकर आ जाता है। उसे क्या पता है कि आप ध्यान कर रहे हैं। अब आप कहते हैं, हटो, भागो। ऐसे वह नहीं भागेगा।

विचार को हम पोस रहे हैं। अतीत के विचार को पालते चले जा रहे हैं, बांधते चले जा रहे हैं। अचानक एक दिन आप कहते हैं, हटो। एक दिन में नहीं हट जाएगा। उसका पोषण बंद करना पड़ेगा, उसको पालना बंद करना पड़ेगा।

ध्यान रहे, अगर विचार छोड़ने हों, तो मेरा विचार कहना छोड़ देना। क्योंकि जहां मेरा है, वहा कैसे छूटेगा। अगर विचार छोड़ने हों, तो विचार में रस लेना बंद कर देना। अगर रस लेंगे, तो वे कैसे छूटेंगे। उन्हें कैसे पता चलेगा कि आप बदल गए हैं और रस नहीं लेते हैं।

विचार अतीत की हमारी सारी स्मृतियां हैं। उनका जाल है, उनको हम पकड़े हुए हैं, उनको हम मरने नहीं देते हैं। उनको मरने दें, लेट द डेड बी द डेड। वह जो मर गया है, उसको मरा हुआ हो जाने दें, उसको अब जिंदा रखने की कोशिश मत करें।

लेकिन हम उसको जिंदा रखे हुए हैं। कल की दोस्ती भी जिंदा है, कल की दुश्मनी भी जिंदा है। बल्कि न केवल जिंदा है, अगर कल का दोस्त आज रास्ते पर नमस्कार न करे, तो हम कहते हैं रुको, क्या बात है? कल तो तुमने नमस्कार किया था! अगर पति आज सुबह पत्नी को प्रेम से न देखे तो वह कहती है, क्या मामला है? तीस साल तक तुमने मुझे प्रेम से देखा है! वह अतीत को इतने जोर से हम पकड़े हुए हैं कि हम कहते हैं, वैसे ही रहो, जैसे कल थे। दूसरे से भी यही मांग करते हैं कि जैसे कल थे, वैसे ही रहो। खुद से भी यही मांग करते हैं कि जैसे कल थे, वैसे ही रहेंगे। और सबको भरोसा दिलाए रखते हैं कि घबड़ाना मत। मैं वही का वही रहूंगा, कसिस्टेंस। जो मैं कल था वहीं रहूंगा। तो फिर मुर्दा कैसे मरेगा? और मुर्दा बोझिल होता चला जाता है।

मरने की कला का यह भी हिस्सा है। यह सूत्र भी ध्यान में रख लेंगे कि अगर मरने की कला सीखनी है, तो जो मर जाता है उसे मर जाने दें। जो अतीत हो गया है, उसे अतीत हो जाने दें। अब वह कहीं भी नहीं है, अब उसे जाने —पे। अब स्मृति में भी उसे संभालकर रखने की कोई जरूरत नहीं है। विदा कर दें, विदा हो जाने दें। कल कल हो —चुका, कल अब नहीं है, लेकिन वही पकड़े रहता है।

 

एक और छोटा सा प्रश्न है एक मित्र ने पूछा है कि कनक्फ्जन और क्लैरिटी वह भ्रम से भरा हुआ चित्त बहुत उलझा हुआ कनक्फूजन माइंड क्या है? क्लैरिटी आफ माइंड क्या है? और मन की सफाई ताजगी और स्वच्छ हो जाना क्या है?

से थोड़ा समझना जरूरी है। क्योंकि यह ध्यान के लिए उपयोगी होगा और यह मरने की कला में भी उपयोगी होगा। उनका पूछना कीमती है। वह यह पूछते हैं कि यह उलझा हुआ मन क्या है? लेकिन इसमें एक भूल हो जाती है। हम कहते हैं, उलझा हुआ मन, अशांत मन, कनफ्जड़ माइंड। यहां भूल हो जाती है। भूल क्या हो जाती है? भूल यह हो जाती है कि हम दो शब्दों का उपयोग कर रहे हैं, उलझा हुआ मन। सच बात ऐसी है कि उलझा हुआ मन नहीं होता। उलझे हुए होने की जो स्थिति है, उसका नाम मन है। कनक्यूज्‍ड माइंड नहीं होता, माईड इज कनफ्यूजन। ऐसा नहीं होता कि अशांत मन होता है, अशांति का नाम ही मन है। और जब अशांति नहीं रह जाती, तो ऐसा नहीं कि मन शांत हो जाता है। ऐसा है कि मन रह ही नहीं जाता।

समझ लें, तूफान आया हुआ है समुद्र पर, अशांत है सागर, तो आप कहते हैं कि अशांत तूफान। तो कोई आदमी कहेगा कि अशांत तूफान? आप कृपा करके इतना ही कहें कि तूफान है, क्योंकि अशांति का नाम ही तो तूफान है। फिर तूफान चला गया, तो क्या आप यह कहते हैं कि अब शांत तूफान चल रहा है? आप कहते हैं कि अब तूफान नहीं है।

मन को समझने में भी ध्यान रख लें कि मन अशांति का ही नाम है। और जब शांति आ जाती है, तो ऐसा नहीं है कि शांत मन रह जाता है, मन रह ही नहीं जाता। नो माइंड, अ—मन की स्थिति आ जाती है। और जब मन नहीं रह जाता है, तब जो रह जाता है, उसका नाम आत्मा है। जब तूफान नहीं रह जाता है, तब भी सागर रह जाता है। जब तूफान मिट जाता है, तब सागर रह जाता है। जब अशांति, मन, कनक्यूजन मिट जाता है, तो जो शेष रह जाता है, वह आत्मा है।

मन कोई चीज नहीं है। मन केवल अव्यवस्था का नाम है, अराजकता का नाम है। मन कोई फैकल्टी नहीं है, मन कोई वस्तु नहीं है। शरीर एक वस्तु है और आत्मा एक वस्तु है। और मन इन दोनों के बीच में अशांति का जो संबंध है उसका नाम है। और जब शांति हो जाती है, तो शरीर रह जाता है, आत्मा रह जाती है, लेकिन मन नहीं रह जाता।

शांत मन जैसी कोई चीज नहीं होती। लेकिन यह गलती इसलिए हो गई है कि हमने जो भाषा बनाई है, उसमें हम कहते हैं. अस्वस्थ शरीर, स्वस्थ शरीर। वह ठीक है। अस्वस्थ शरीर भी होता है, स्वस्थ शरीर भी होता है। अस्वास्थ्य मिट जाता है तो स्वस्थ शरीर शेष रह जाता है। लेकिन मन के संबंध में यह बात सच नहीं है। स्वस्थ मन, अस्वस्थ मन ऐसी बात नहीं होती। मन मात्र अस्वस्थ होता है। मन का होना ही कनफ्यूजन है। मन का होना ही अस्वास्थ्य है, बीमारी है।

इसलिए यह मत पूछें कि कनफ्यूज्‍ड माइंड को, उलझे हुए मन को हम शांत कैसे बनाएं। यह पूछें कि इस मन से हम मुक्त कैसे हो जाएं, यह मन मर कैसे जाए, इस मन को हम समाप्त कैसे कर दें, विदा कैसे कर दें, यह मन न रह जाए, ऐसा कैसे हो जाए।

ध्यान मन को समाप्त कर देने का, विदा कर देने का उपाय है। ध्यान का मतलब है, मन के बाहर चले जाना। ध्यान का मतलब है, मन से हट जाना। ध्यान का मतलब है, मन का न रह जाना। ध्यान का मतलब है, जहां हम उलझे हैं, उस उलझाव से हट जाना। उस उलझाव से हटने से वह उलझाव शांत हो जाता है। क्योंकि वह हमारी मौजूदगी से ही उलझाव बनता है। अगर हम वहां से हट जाते हैं, तो वह विदा हो जाता है।

अब समझ लें कि दो आदमी लड़ रहे हैं। आप मुझसे लड़ने आए हैं और लड़ाई चल रही है। अगर मैं उस लड़ाई से हट जाऊं तो लड़ाई कैसे चलती रहेगी? वह विदा हो जाएगी, क्योंकि वह मेरी मौजूदगी से ही चल सकती थी। मन के तल पर हम खड़े हुए है —जहां मन का सारा उपद्रव चल रहा है, हम वहीं खड़े हुए हैं। और वहां से हम जाना भी नहीं चाहते और हम कहते हैं कि इसको शांत करेंगे। यह शांत नहीं होने वाला है। आप कृपा करके हट जाएं, बस। आपके हटते ही शांत हो जाएगा। तो ध्यान जो है, वह मन को शांत करने की विधि नहीं है; मन से हट जाने की, जहां अशांति की लहरें बह रही हैं, वहा से सरक जाने की, वहा से पीछे लौट जाने की व्यवस्था है।

एक प्रश्न और एक मित्र ने पूछा है वह भी इससे संबंधित है। उसे भी समझ लेना उचित है उन्होंने पूछा है कि किया हुआ ध्यान ध्यान करना और ध्यान में होना इसमें क्या फर्क है? — टू बी इन मेडिटेशन एंड टु डू मेडिटेशन ध्यान करना और ध्यान में होना।

ही फर्क है जो मैं समझा रहा हूं। अगर कोई आदमी ध्यान कर रहा है तो वह अशांत मन को शांत करने की कोशिश कर रहा है। वह क्या करेगा? वह यह करेगा कि मन को शांत करने की कोशिश करेगा। और कोई आदमी अगर ध्यान में हो रहा है, तो वह मन को शांत करने की कोशिश नहीं कर रहा है, वह मन से सरका ही जा रहा है। बाहर धूप लग रही है, तो एक आदमी धूप में छाता वगैरह तानने का उपाय कर रहा है। और बाहर धूप में छाते ताने जा सकते हैं, उनमें कोई खड़ा भी हो सकता है और छाया में हो सकता है,। लेकिन मन में छाते ताने ही नहीं जा सकते, क्योंकि मन में सिर्फ विचार के ही छाते तन सकते हैं। उनसे कोई और फर्क नहीं पड़ सकता। यानी वह ऐसा है जैसे कि एक आदमी धूप में खड़ा है और आंख बंद करके सोच रहा है कि ऊपर एक छाता है और धूप अब नहीं लग रही है। लेकिन धूप लगती रहेगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह आदमी धूप को शांत करने की कोशिश कर रहा है। यह ध्यान करने की कोशिश कर रहा है। एक दूसरा आदमी है, बाहर धूप आ गई है, उठकर घर के भीतर चला गया है। जाकर घर में विश्राम करने लगा। यह आदमी धूप को शांत करने की कोशिश नहीं कर रहा है। धूप से हटा जा रहा है।

ध्यान करने का मतलब है, एफर्ट, प्रयास—मन को बदलने का। और ध्यान में होने का मतलब है, मन को बदलने का प्रयास नहीं, चुपचाप अपने में सरक जाना।

इन दोनों के फर्क को खयाल में ले लेना चाहिए। क्योंकि अगर आपने ध्यान करने की कोशिश की, तो ध्यान में आप कभी न जा पाएंगे। कोशिश अगर की, चेष्टा अगर की, अगर आप बैठ गए अकड़ कर और आपने कहा कि ध्यान बिलकुल करना ही है। और आपने कहा, आज कुछ भी हो जाए, मन को शांत करके रहेंगे। कौन कह रहा है, यह कौन करेगा, आप ही? आप अशांत हैं और अब आप शांत करेंगे! अब और एक मुसीबत आपने बांधी अपने चारों तरफ। अब आप अकड़े हुए बैठे हैं। आप कहते हैं, कुछ भी हो जाए। अब जितना आप अकड़ते जाते हैं, उतनी परेशानी में पड़ते जाते हैं, उतने स्ट्रेड, उतने टेंस होतै चले जाते हैं।

नहीं, ध्यान करने को…… इसलिए मैं कहता हूं, ध्यान है रिलेक्सेशन, कुछ न करें, शिथिल हो जाएं। समझ लें, एक छोटे से सूत्र से मैं समझा दूं र उसे अंतिम रूप से आप ध्यान में रखना।

एक आदमी नदी में तैरता है। तैर रहा है। वह कहता है, मुझे वहा पहुंचना है। नदी की तेज धार है, हाथ — पैर मार रहा है, तैर रहा है, थका जा रहा है, टूटा जा रहा है, लेकिन तैरता चला जा रहा है। यह आदमी प्रयास कर रहा है, एफर्ट कर रहा है तैरने का। तैरना एक प्रयास है। ध्यान करना भी एक प्रयास है। फिर एक दूसरा आदमी है, वह कहता है कि तैरते नहीं, जस्ट फ्लोटिंग, बह रहे हैं। उसने नदी में अपने को छोड़ दिया है। हाथ—पैर भी नहीं तड़फड़ाता है, नदी में पड़ा हुआ है। नदी बही चली जा रही है, वह भी बहा चला जा रहा है। वह तैर ही नहीं रहा है, वह सिर्फ बह रहा है। बहना प्रयास नहीं है, बहना एफर्ट नहीं है। फ्लोटिंग—सिर्फ बहना—अप्रयास, नो एफर्ट है।

मैं जिस ध्यान की बात कर रहा हूं वह फ्लोटिंग जैसा है, स्विमिंग जैसा नहीं—तैरने जैसा नहीं, बहने जैसा है। ध्यान रख लें कि एक आदमी तैरता है और एक पत्ता बह रहा है नदी में। देखें जरा एक तैरते हुए आदमी को और एक बहते हुए पत्ते को। पत्ते की मौज ही और है। न कोई तकलीफ, न कोई अड़चन। न कोई झगड़ा, न कोई झंझट। पत्ता बड़ा होशियार है। पत्ते की होशियारी क्या है? पत्ते की होशियारी यह है कि वह नाव पर सवार हो गया है, नदी को नाव बना लिया है उसने। वह कहता है, जहां चलो, हम वहीं चलने को राजी हैं, ले चलो। उसने नदी की सब ताकत तोड़ दी, क्योंकि नदी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, वह नदी के खिलाफ लड़ता भी नहीं है। वह विरोध में खड़ा ही नहीं होता, वह कहता है, हम बहते हैं। तो पत्ता बिलकुल राजा है। राजा क्यों है? क्योंकि राजा बनने की कोशिश ही नहीं कर रहा है, बस बहा चला जा रहा है। नदी जहां ले जा रही है, चला जा रहा है। इसको खयाल में ले लेना, एक पत्ते का बहना। क्या आप भी नदी में ऐसे बह सकते हैं? तैरने का खयाल भी न रह जाए, मन भी न रह जाए, भाव भी न रह जाए। क्या आप बह सकते हैं!

क्या आपने कभी देखा है कि जिंदा आदमी डूब सकता है, मुर्दा आदमी नदी के ऊपर आ जाता है! आपने कभी खयाल किया है कि मामला क्या है? जिंदा आदमी डूब जाता है और मुर्दा कभी नहीं डूबता है, फौरन नदी के ऊपर आ जाता है। फर्क क्या है? मुर्दा नो —एफर्ट में पहुंच जाता है। मुर्दा कहता है, अब हम कुछ नहीं करते। कर ही नहीं सकता। करना भी चाहे तो क्या करेगा! तो नदी के ऊपर आ जाता है, बहने लगता है। जिंदा आदमी डूब सकता है, क्योंकि जिंदा आदमी कोशिश करता है। कोशिश में थक जाता है, थकने में डूब जाता है। नदी नहीं डुबाती है, लड़ना डुबाता है। वह मुर्दे को बिलकुल नहीं डुबा सकती, क्योंकि वह लड़ता ही नहीं। वह लड़ेगा ही नहीं तो उसकी ताकत नष्ट होने का सवाल ही नहीं। नदी उसका कुछ बिगाड़ ही नहीं सकती। वह नदी में तैरने लगता है।

तो मैं जिस ध्यान की बात कर रहा हूं वह तैरने जैसा नहीं, बहने जैसा है। बह जाना है। तो इसलिए जब मैं यह कहता हूं कि शरीर को शिथिल छोड़ दें, तो उसका मतलब यह है कि शरीर से बहे हम। अब हम शरीर में कोई पकड़ नहीं रखते, शरीर के किनारे को नहीं पकड़ते। छोड दिया, बहने लगे। मैं कहता हूं कि श्वास को भी छोड़ दें। तो अब हम श्वास के किनारे को भी नहीं पकड़ते हैं, उसको भी छोड देते हैं। उससे भी बहने लगे। जाएंगे कहां? जब शरीर को छोड़ेंगे तो भीतर जाएंगे। और जब शरीर को पकड़ेंगे तो बाहर आएंगे। जब कोई किनारे को पकड़ेगा तो नदी में कैसे जाएगा? किनारे पर आ सकता है बाहर नदी के। जब कोई किनारे को छोड़ेगा, तो किनारे के बाहर तो आ ही नहीं सकता, नदी में ही जाएगा।

तो जीवन की एक धारा बह रही है भीतर, परमात्मा की धारा बह रही है भीतर, चेतना की। वह जो स्ट्रीम ऑफ काशसनेस है, वह भीतर बह रही है। हम पकड़े हुए हैं किनारे को—शरीर के किनारे को। छोड़ दो इसे, श्वास को भी छोड़ दो, विचार को भी छोड़ दो। सब किनारा छूट गया। अब आप कहां जाओगे? अब धारा में बहने लगोगे। और अगर कोई आदमी छोड़ दे धारा में अपने को, तो सागर में पहुंच जाता है।

इधर भीतर जो धाराएं बह रही हैं, वे नदियों की तरह हैं। और जब कोई उसमें बहने लगता है, तो वह सागर में पहुंच जाता है। ध्यान एक बहना है। और जो बहना सीख जाता है, वह परमात्मा में पहुंच जाता है। तैरना मत। जो तैरेगा, वह भटक जाएगा। जो तैरेगा, वह ज्यादा से ज्यादा इस किनारे को छोड़ेगा उस किनारे पहुंच जाएगा। और क्या करेगा? तैरने वाला कर क्या सकता है? इस किनारे से उस किनारे पहुंच जाएगा। यह किनारा भी नदी के बाहर ले जाता है, वह किनारा भी नदी के बाहर ले जाता है। गरीब आदमी बहुत तैरेगा तो अमीर आदमी हो जाएगा। इतना ही हो सकता है न। और क्या होगा! छोटी कुर्सीवाला बहुत तैरेगा तो दिल्ली की किसी कुर्सी पर बैठ जाएगा। और क्या होगा? लेकिन यह किनारा भी बाहर ले जाता है और वह किनारा भी बाहर ले जाता है। द्वारका का किनारा भी उतना बाहर और दिल्ली का किनारा भी उतना ही बाहर। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

नहीं, तैरनेवाला किनारों पर ही पहुंच सकता है। लेकिन बहने वाला? बहने वाले को कोई किनारा नहीं रोक सकता, क्योंकि उसने धार में अपने को छोड़ दिया है। धार उसे ले जाएगी, ले जाएगी, ले जाएगी, सागर में पहुंचा देगी।

सागर में पहुंच जाना ही लक्ष्य है। नदी सागर हो जाए और व्यक्ति की चेतना परमात्मा हो जाए; बूंद, एक —एक बूंद खो जाए उस में, तो जीवन का परम अर्थ और जीवन का परम आनंद और जीवन का परम सौंदर्य उपलब्ध हो जाता है।

मरने की कला बहने की कला है। यह अंतिम बात मरने की कला बहने की कला है। क्योंकि जो मरने को राजी है, वह तैरता ही नहीं; वह कहता है, ले जाओ जहां ले जाना है। हम तो राजी हैं। इन चार दिनों में इसी संबंध में मैंने सारी बात की है। कुछ मित्रों को ऐसा लगता रहा है कि मैं सिर्फ प्रश्नों के जवाब दे रहा हूं। तो उन्होंने बार —बार लिख कर भेजा है कि आप तो कुछ बोलिए, प्रश्नों का जबाब मत दीजिए। जैसे कि प्रश्नों का जवाब कोई और दे रहा है। लेकिन खूंटियां महत्वपूर्ण हो जाती हैं, कपड़े कम महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वे कहते हैं, आप तो कपड़े बताइए, आप खूंटियों पर क्यों टांग रहे हैं? लेकिन मैं खूंटियों पर क्या टांग रहा हूं? आपके प्रश्नों पर टागंगा भी क्या? वही, जो मैं बोलता! लेकिन हमारा मन ऐसा है।

मैंने सुना है, एक सर्कस था। उसमें एक बंदरों का मालिक था। वह रोज सुबह बंदरों को चार केले देता था। सांझ तीन केले देता था। एक दफा बाजार में सुबह केले कम मिले। तो उसने कहा, आज बंदरों तीन केले सुबह ले लो, चार केले सांझ को दे देंगे। तो बंदरों ने हड़ताल कर दी। उन्होंने कहा कि यह कभी भी नहीं हो सकता। चार केले सुबह चाहिए। उसने कहा, भाई चार शाम को दे देंगे, अभी तीन ले लो। उन्होंने कहा, यह कभी हुआ ही नहीं। सुबह हमेशा चार केले मिलते रहे हैं। वह चार केले अभी चाहिए। उसने कहा, तुम पागल हो गए हो क्या? कुल मिलाकर सात केले हो जाएंगे। उन्होंने कहा, इतना हिसाब हम नहीं जानते। हम तो चार केले अभी लेंगे। सुबह हमेशा चार केले मिलते रहे।

तो मुझे मित्र लिखते हैं बार—बार कि आप तो बोलिए, आप प्रश्नों का जवाब मत दीजिए। मैं बोलूंगा, क्या बोलूंगा? वह प्रश्न तो खूंटियां हैं। वह तो मुझे जो बोलना है, वह टांग दिया। मैं बोलूंगा या प्रश्नों के उत्तर दूंगा, इससे क्या फर्क पड़ता है! कौन देगा उत्तर? कौन बोलेगा? लेकिन हमें यह लगता है कि नहीं, आप बोलिए। क्योंकि हमको चार केले सुबह रोज मिलते रहे हैं। हर शिविर में चार प्रवचन होते थे और चार प्रश्नोत्तर होते थे और इस बार ऐसा हुआ कि आपने सभी प्रश्नोत्तर कर डाले। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। सात केले का हिसाब रखें। इकट्ठा जोड़ कर लें। ऐसा एक —एक गिनती मत करें कि चार सुबह कि तीन शाम, कि तीन सुबह कि चार शाम। सात! और सात केले मैंने दे दिए हैं। और गिनती की गड़बड़ में आप पड़ जाएंगे, तो कहीं निराश न चले जाएं। इसलिए मैंने अंत में यह कह दिया कि सात केले मैंने दे दिए हैं। जो मुझे बोलना था, वह मैंने बोल दिया है।

 

अब हम रात के ध्यान के लिए बैठें।

थोड़े फासले पर हो जाएं। बातचीत नहीं करेंगे। जिनको जाना हो वे चले जाएंगे, जिनको ध्यान करना हो वे बैठ जाएंगे। बातचीत न करें। जिन मित्रों को जाना है वे चुपचाप चले जाएं, और जिनको बैठना है वे चुपचाप बैठ जाएं। जिनको लेटना हो वे लेट जाएं। हां, जो लोग चले गए हैं तो अब बाकी जो लोग खड़े हैं, वे या तो बैठ जाएं या चले जाएं। दर्शक की तरह कोई भी न खड़ा रहे।

आंख बंद कर लें। देखिये, बहने की तैयारी करनी है, मरने की तैयारी करनी है। आंख बंद कर लें शरीर को ढीला छोड़ दें……. शरीर को ढीला छोड दें….. शरीर को ढीला छोड़े…… शकि्त को भीतर बहने दें….. और ऐसा समझें कि शरीर के किनारे को छोड़ दिया है। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ते जाएं। फिर मैं सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें।

शरीर शिथिल हो रहा है……. शरीर शिथिल हो रहा है……. शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है…….। भाव करें, शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है, जैसे कोई प्राण ही न हों। शरीर के किनारे को बिलकुल ही छोड़ देना है और भीतर चले जाना है। जैसे कोई नदी का किनारा छोड़ दे और फिर भीतर बह जाए धार में, ऐसे ही शरीर के किनारे को छोड़े। भाव करें, शरीर शिथिल हो रहा है……. शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है…….शरीर शिथिल हो रहा है……. शरीर शिथिल हो रहा है……. शरीर शिथिल हो रहा है……. छोड़ दें बिलकुल, चाहे गिरे तो गिर जाए शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें…….। शरीर शिथिल हो गया….. शरीर शिथिल हो गया है…… शरीर शिथिल हो गया है।

श्वास शांत हो रही है……. भाव करें, श्वास शांत हो रही है…… श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत होती जा रही है…..। श्वास को भी छोड़ दें……, उससे भी पीछे हट जाएं। श्वास शांत हो गयी है……. श्वास शांत हो गयी है……. श्वास शांत हो गयी है….. श्वास शांत होती जा रही है…..। छोड़ दें, और भीतर हट जाएं।

विचार भी शांत हो रहे हैं…… उन पर भी पकड़ छोड दें…… विचार शांत होते जा रहे हैं….. विचार शांत हो रहे हैं…. विचार शांत हो रहे हैं….. विचार शांत हो रहे हैं….., विचार शांत होते जा रहे हैं…… विचार शांत होते जा रहे हैं……। और भीतर और भीतर बिलकुल छोड़ दें, सारी पकड़ छोड़ दें शरीर पर श्वास पर, विचार पर। बिलकुल डूब जाएं और अपने को छोड़ दें….. जैसे कोई सूखा पत्ता नदी में बहने लगे। छोड़े…… छोड़े…….. शरीर शिथिल, श्वास शिथिल, विचार शांत हो गए हैं।

और अब दस मिनट के लिए भीतर जागते हुए देखते रहें, भीतर जागकर देखते रहें। जैसे कोई दीये की ज्योति भीतर जल रही हो और आप देख रहे हैं। सिर्फ ज्ञान मात्र रह जाए, देखना मात्र रह जाए। शरीर दूर पड़ा हुआ मालूम पड़ेगा। श्वास शांत हो गई है, वह भी दूर मालूम पड़ेगी। विचार भी अगर कोई अग़रगा तो बहुत दूर चक्कर लगाता हुआ मालूम पड़ेगा। फिर धीरे — धीरे चला जाएगा। देखते रहें, भीतर द्रष्टा हो जाएं। दस मिनट के लिए सिर्फ द्रष्टा होकर रह जाएं।

(भगवान श्री कुछ मिनट मौन रहकर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)

 

मन शांत हो गया है…… मन शांत हो गया है….. मन एकदम शांत हो गया है। और गहरे में अपने को छोड़ दें…… और भीतर. और भीतर……. जैसे कोई गहरे कुएं में उतरता जाए, ऐसा छोड दें। सारी पकड छोड़ दें। बस देखने वाले मात्र रह जाएं। भीतर हम देख रहे हैं। मन शांत और शून्य होता जा रहा है।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा……)

मन शांत और शून्य होता जा रहा है…… मन शांत होता जा रहा है…… मन शांत हो गया? मन शून्य हो गया। भीतर एक जानने की ज्योति भर जलती रहे—हम जान रहे हैं, देख रहे हैं।

ध्यान मन को समाप्त कर देने का, विदा कर देने का उपाय है। ध्यान का मतलब है, मन के बाहर चले जाना। ध्यान का मतलब है, मन से हट जाना। ध्यान का मतलब है, मन का न रह जाना। ध्यान का मतलब है, जहां हम उलझे हैं, उस उलझाव से हट जाना। उस उलझाव से हटने से वह उलझाव शांत हो जाता है। क्योंकि वह हमारी मौजूदगी से ही उलझाव बनता है। अगर हम वहां से हट जाते हैं, तो वह विदा हो जाता है।

 

(मौन, निर्जन, सन्नाटा..)

मन शांत हो गया…… और छोड़ दें, बिलकुल पकड़ छोड दें। भीतर देखें, शरीर दूर दिखाई पड़ेगा जैसे लाश पड़ी हो। बाहर जैसे सब मर गया है, भीतर जीवन रह गया है। जीवन की ज्योति भर भीतर रह गई है। उसे देखें, उस शून्य को, उस शांति को, उस ज्योति को देखें। उसे देखते —देखते एक आनंद की धार जैसे भीतर बहने लगी और कण —कण में, रोएं —रोएं में, श्वास—श्वास में आनंद प्रवाहित होने लगा। देखें जैसे कोई झरना फूट जाए आनंद का। भीतर देखते रहें, द्रष्टा बने रहें।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा….)

धीरे — धीरे, दो —चार गहरी श्वास लें……, धीरे — धीरे, दो —चार गहरी श्वास लें। श्वास बिलकुल दूर मालूम पड़ेगी, शरीर दूर मालूम पड़ेगा, और मन और शांत हो जाएगा। धीरे — धीरे, दो —चार गहरी श्वास लें। फिर धीरे — धीरे आंख खोलें। जो लोग लेटे हैं या गिर गए हैं, वे थोड़ी गहरी श्वास लेंगे, फिर आंख खोलेंगे, फिर आहिस्ता उठेंगे।

बहुत धीरे आहिस्ता उठें।


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जिन खोजा तिन पाइयां–ओशो

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जिन खोजा तिन पाइयां

ओशो

(कुंडलिनी—योग पर साधना—शिविर, नारगोल में ध्‍यान—प्रयोगों के साथ प्रवचन एवं मुंबई में प्रश्‍नोत्‍तर चर्चाओं सहित उन्‍नीस ओशो—प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

 भूमिका:

(मनुष्य का विज्ञान)

सुनता हूं कि मनुष्य का मार्ग खो गया है। यह सत्य है। मनुष्य का मार्ग उसी दिन खो गया, जिस दिन उसने स्वयं को खोजने से भी ज्यादा मूल्यवान किन्हीं और खोजों को मान लिया।

मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सार्थक वस्तु मनुष्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उसकी पहली खोज वह स्वयं ही हो सकता है। खुद को जाने बिना उसका सारा जानना अंतत: घातक ही होगा। अज्ञान के हाथों में कोई भी शान सृजनात्मक नहीं हो सकता, और जान के हाथों में अज्ञान भी सृजनात्मक हो जाता है।

मनुष्य यदि स्वयं को जाने और जीते, तो उसकी शेष सब जीते उसकी और उसके जीवन की सहयोगी होंगी। अन्यथा वह अपने ही हाथों अपनी कब्र के लिए गड्डा खोदेगा।

हम ऐसा ही गड्डा खोदने में लगे हैं। हमारा ही श्रम हमारी मृत्यु बन कर खड़ा हो गया है। पिछली सभ्यताएं बाहर के आक्रमणों और संकटों से नष्ट हुई थीं। हमारी सभ्यता पर बाहर से नहीं, भीतर से संकट है। बीसवीं सदी का यह समाज यदि नष्ट हुआ तो उसे आत्मघात कहना होगा; और यह हमें ही कहना होगा, क्योंकि बाद में कहने को कोई भी बचने को नहीं है। संभाव्य युद्ध इतिहास में कभी नहीं लिखा जाएगा। यह घटना इतिहास के बाहर घटेगी, क्योंकि उसमें तो समस्त मानवता का अंत होगा।

पहले के लोगों ने इतिहास बनाया, हम इतिहास मिटाने को तैयार हैं। और इस आत्मघाती संभावना का कारण एक ही है। वह है, मनुष्य का मनुष्य को ठीक से न जानना। पदार्थ की अनंत शक्ति से हम परिचित हैं—परिचित ही नहीं, उसके हम विजेता भी हैं। पर मानवीय हृदय की गहराइयों का हमें कोई पता नहीं। उन गहराइयों में छिपे विष और अमृत का भी कोई शान नहीं है। पदार्थाणु को हम जानते हैं, पर आत्माणु को नहीं। यही हमारी विडंबना है। ऐसे शक्ति तो आ गई है, पर शांति नहीं। अशांत और अप्रबुद्ध हाथों में आई हुई शक्ति से ही यह सारा उपद्रव है। अशांत और अप्रबुद्ध का शक्तिहीन होना ही शुभ होता है। शक्ति सदा शुभ नहीं। वह तो शुभ हाथों में ही शुभ होती है।

हम शक्ति को खोजते रहे, यही हमारी भूल हुई। अब अपनी ही उपलब्धि से खतरा है। सारे विश्व के विचारकों और वैज्ञानिकों को आगे स्मरण रखना चाहिए कि उनकी खोज मात्र शक्ति के लिए न हो। उस तरह की अंधी खोज ने ही हमें इस अंत पर लाकर खड़ा किया है।

शक्ति नहीं, शांति लक्ष्य बने। स्वभावत: यदि शांति लक्ष्य होगी, तो खोज का केंद्र प्रकृति नहीं, मनुष्य होगा। जड़ की बहुत खोज और शोध हुई, अब मनुष्य का और मन का अन्वेषण करना होगा। विजय की पताकाएं पदार्थ पर नहीं, स्वयं पर गाड़नी होंगी। भविष्य का विज्ञान पदार्थ का नहीं, मूलत: मनुष्य का विज्ञान होगा। समय आ गया है कि यह परिवर्तन हो। अब इस दिशा में और देर करनी ठीक नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि फिर कुछ करने को समय भी शेष न बचे।

जड़ की खोज में जो वैज्ञानिक आज भी लगे हैं, वे दकियानूसी हैं, और उनके मस्तिष्क विज्ञान के आलोक से नहीं, परंपरा और रूढ़ि के अंधकार में ही डूबे कहे जावेंगे। जिन्हें थोड़ा भी बोध है और जागरूकता है, उनके अन्वेषण की दिशा आमूल बदल जानी चाहिए। हमारी सारी शोध मनुष्य को जानने में लगे, तो कोई भी कारण नहीं है कि जो शक्ति पदार्थ और प्रकृति को जानने और जीतने में इतने अभूतपूर्व रूप से सफल हुई है, वह मनुष्य को जानने में सफल न हो सके।

मनुष्य भी निश्चय ही जाना, जीता और परिवर्तित किया जा सकता है। मैं निराश होने का कोई भी कारण नहीं देखता। हम स्वयं को जान सकते हैं और स्वयं के ज्ञान पर हमारे जीवन और अंतःकरण के बिलकुल ही नये आधार रखे जा सकते हैं। एक बिलकुल ही अभिनव मनुष्य को जन्म दिया जा सकता है।

अतीत में विभिन्न धर्मों ने इस दिशा में बहुत काम किया है, लेकिन वह कार्य अपनी पूर्णता और समग्रता के लिए विज्ञान की प्रतीक्षा कर रहा है। धर्मों ने जिसका प्रारंभ किया है, विज्ञान उसे पूर्णता तक ले जा सकता है। धर्मों ने जिसके बीज बोए हैं, विज्ञान उसकी फसल काट सकता है।

पदार्थ के संबंध में वितान और धर्म के रास्ते विरोध में पड़ गए थे, उसका कारण दकियानूसी धार्मिक लोग थे। वस्तुत: धर्म पदार्थ के संबंध में कुछ भी कहने का हकदार नहीं था। वह उसकी खोज की दिशा ही नहीं थी। विज्ञान उस संघर्ष में विजय हो गया, यह अच्छा हुआ। लेकिन इस विजय से यह न समझा जाए कि धर्म के पास कुछ कहने को नहीं है। धर्म के पास कुछ कहने को है, और बहुत मूल्यवान संपत्ति है। यदि उस संपत्ति से लाभ नहीं उठाया गया तो उसका कारण रूढ़िग्रस्त पुराणपंथी वैज्ञानिक होंगे। एक दिन एक दिशा में धर्म विज्ञान के समक्ष हार गया था, अब समय है कि उसे दूसरी दिशा में विजय मिले और धर्म और विज्ञान सम्मिलित हों। उनकी संयुक्त साधना ही मनुष्य को उसके स्वयं के हाथों से बचाने में समर्थ हो सकती है।

पदार्थ को जान कर जो मिला है, आत्मज्ञान से जो मिलेगा, उसके समक्ष वह कुछ भी नहीं है। धर्मों ने वह संभावना बहुत थोड़े लोगों के लिए खोली है। वैशानिक होकर वह द्वार सबके लिए खुल सकेगा। धर्म विज्ञान बने और विज्ञान धर्म बने, इसमें ही मनुष्य का भविष्य और हित है।

मानवीय चित्त में अनंत शक्तियां हैं, और जितना उनका विकास हुआ है, उससे बहुत ज्यादा विकास की प्रसुप्त संभावनाएं हैं। इन शक्तियों की अव्यवस्था और अराजकता ही हमारे दुख का कारण है। और जब व्यक्ति का चित्त अव्यवस्थित और अराजक होता है तो वह अराजकता समष्टि चित्त तक पहुंचते ही अनंत गुना हो जाती है।

समाज व्यक्तियों के गुणनफल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह हमारे अंतर्संबंधों का ही फैलाव है। व्यक्ति ही फैल कर समाज बन जाता है। इसलिए स्मरण रहे कि जो व्यक्ति में घटित होता है, उसका ही वृहत रूप समाज में प्रतिध्वनित होगा। सारे युद्ध मनुष्य के मन में लड़े गए हैं और सारी विकृतियों की मूल जड़ें मन में ही हैं।

समाज को बदलना है तो मनुष्य को बदलना होगा; और समष्टि के नये आधार रखने हैं तो व्यक्ति को नया जीवन देना होगा। मनुष्य के भीतर विष और अमृत दोनों हैं। शक्तियों की अराजकता ही विष है और शक्तियों का संयम, सामंजस्य और संगीत ही अमृत है।

जीवन जिस विधि से सौंदर्य और संगीत बन जाता है, उसे ही मैं योग कहता हूं।

जो विचार, जो भाव और जो कर्म मेरे अंतसंगीत के विपरीत जाते हों, वे ही पाप हैं; और जो उसे पैदा और समृद्ध करते हों, उन्हें ही मैंने पुण्य जाना है। चित्त की वह अवस्था जहां संगीत शून्य हो जाए और सभी स्वर पूर्ण अराजक हों, नर्क है; और वह अवस्था स्वर्ग है, जहा संगीत पूर्ण हो।

भीतर जब संगीत पूर्ण होता है तो ऊपर से पूर्ण का संगीत अवतरित होने लगता है। व्यक्ति जब संगीत हो जाता है, तो समस्त विश्व का संगीत उसकी ओर प्रवाहित होने लगता है।

संगीत से भर जाओ तो संगीत आकृष्ट होता है; विसंगति विसंगति को आमंत्रित करेगा। हम में जो होता है, वही हम में आने भी लगता है, उसकी ही संग्राहकता और संवेदनशीलता हम में होती है।

उस विज्ञान को हमें निर्मित करना है जो व्यक्ति के अंतर—जीवन को स्वास्थ्य और संगीत दे सके। यह किसी और प्रभु के राज्य के लिए नहीं, वरन इसी जगत और पृथ्वी के लिए है। यह जीवन ठीक हो तो किसी और जीवन की चिंता अनावश्यक है। इसके ठीक न होने से ही परलोक की चिंता पकड़ती है। जो इस जीवन को सम्यक रूप देने में सफल हो जाता है, वह अनायास ही समस्त भावी जीवनों को सुदृढ़ और शुभ आधार देने में भी समर्थ हो जाता है। वास्तविक धर्म का कोई संबंध परलोक से नहीं है। परलोक तो इस लोक का परिणाम है।

धर्मों का परलोक की चिंता में होना बहुत घातक और हानिकारक हुआ है। उसके ही कारण हम जीवन को शुभ और सुंदर नहीं बना सके। धर्म परलोक के लिए रहे और विज्ञान पदार्थ के लिए—इस भांति मनुष्य और उसका जीवन उपेक्षित हो गया। परलोक पर शास्त्र और दर्शन निर्मित हुए और पदार्थ की शक्तियों पर विजय पाई गई। किंतु जिस मनुष्य के लिए यह सब हुआ, उसे हम भूल गए।

अब मनुष्य को सर्वप्रथम रखना होगा। विज्ञान और धर्म दोनों का केंद्र मनुष्य बनना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि विज्ञान पदार्थ का मोह छोड़े और धर्म परलोक का। उन दोनों का यह मोह—त्याग ही उनके सम्मिलन की भूमि बन सकेगा।

धर्म और वितान का मिलन और सहयोग मनुष्य के इतिहास में सबसे बड़ी घटना होगी। इससे बहुत सृजनात्मक ऊर्जा का जन्म होगा। वह समन्वय ही अब सुरक्षा देगा। उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। उनके मिलन से पहली बार मनुष्य के विज्ञान की उत्पत्ति होगी और विज्ञान में ही अब मनुष्य का जीवन और भविष्य है।

ओशो


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जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–1)

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यात्रा कुंडलिनी की (साधना शिविर)—(प्रवचन—पहला)

मेरे प्रिय आत्मन्,

मुझे पता नहीं कि आप किस लिए यहां आए हैं। शायद आपको भी ठीक से पता न हो, क्योंकि हम सारे लोग जिंदगी में इस भांति ही जीते हैं कि हमें यह भी पता नहीं होता कि क्यों जी रहे हैं, यह भी पता नहीं होता कि कहां जा रहे हैं, और यह भी पता नहीं होता कि क्यों जा रहे हैं।

मूर्च्छा और जागरण:

जिंदगी ही जब बिना पूछे बीत जाती हो तो आश्चर्य नहीं होगा कि आपमें से बहुत लोग बिना पूछे यहां आ गए हों कि क्यों जा रहे हैं। शायद कुछ लोग जानकर आए हों, संभावना बहुत कम है। हम सब ऐसी मूर्च्छा में चलते हैं, ऐसी मूर्च्छा में सुनते हैं, ऐसी मूर्च्छा में देखते हैं कि न तो हमें वह दिखाई पड़ता जो है, न वह सुनाई पड़ता जो कहा जाता है, और न उसका स्पर्श अनुभव हो पाता जो सब ओर से बाहर और भीतर हमें घेरे हुए है।

मूर्च्छा में ही यहां भी आ गए होंगे। शात भी नहीं है; हमारे कदमों का भी हमें कुछ पता नहीं है; हमारी श्वासों का भी हमें कुछ पता नहीं है। लेकिन मैं क्यों आया हूं यह मुझे जरूर पता है; वह मैं आपसे कहना चाहूंगा।

बहुत जन्मों से खोज चलती है आदमी की। न मालूम कितने जन्मों की खोज के बाद उसकी झलक मिलती है— जिसे हम आनंद कहें, शांति कहें, सत्य कहें, परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें—जो भी शब्द ठीक मालूम पड़े, कहें। ऐसे कोई भी शब्द उसे कहने में ठीक नहीं हैं, समर्थ नहीं हैं। जन्मों—जन्मों के बाद उसका मिलना होता है।

और जो लोग भी उसे खोजते हैं, वे सोचते हैं, पाकर विश्राम मिल जाएगा। लेकिन जिन्हें भी वह मिलता है, मिलकर पता चलता है कि एक नये श्रम की शुरुआत है, विश्राम नहीं। कल तक पाने के लिए दौड़ थी और फिर बांटने के लिए दौड़ शुरू हो जाती है। अन्यथा बुद्ध हमारे द्वार पर आकर खड़े न हों, और न महावीर हमारी सांकल को खटखटाए, और न जीसस हमें पुकारें। उसे पा लेने के बाद एक नया श्रम।

सच यह है कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसे पाने में जितना आनंद है, उससे अनंत गुना आनंद उसे बांटने में है। जो उसे पा लेता है, फिर वह उसे बांटने को वैसे ही व्याकुल हो जाता है, जैसे कोई फूल खिलता है और सुगंध लुटती है, कोई बादल आता है और बरसता है, या सागर की कोई लहर आती है और तटों से टकराती है। ठीक ऐसे ही, जब कुछ मिलता है तो बंटने के लिए, बिखरने के लिए, फैलने के लिए प्राण आतुर हो जाते हैं।

मेरा मुझे पता है कि मैं यहां क्यों आया हूं। और अगर मेरा और आपका कहीं मिलन हो जाए, और जिस लिए मैं आया हूं अगर उस लिए ही आपका भी आना हुआ हो, तो हमारी यह मौजूदगी सार्थक हो सकती है। अन्यथा अक्सर ऐसा होता है, हम पास से गुजरते हैं, लेकिन मिल नहीं पाते। अब मैं जिस लिए आया हूं अगर उसी लिए आप नहीं आए हैं, तो हम पास होंगे, निकट रहेंगे, लेकिन मिल नहीं पाएंगे।

सत्य को देखने की आंख

कुछ जो मुझे दिखाई पडता है, चाहता हूं आपको भी दिखाई पड़े। और मजा यह है कि वह इतने निकट है कि आश्चर्य ही होता है कि वह आपको दिखाई क्यों नहीं पड़ता! और कई बार तो संदेह होता है कि जैसे जानकर ही आप आंख बंद किए बैठे हैं; देखना ही नहीं चाहते हैं, अन्यथा इतने जो निकट है वह आपके देखने से कैसे चूक जाता! जीसस ने बहुत बार कहा है कि लोगों के पास आंखें हैं, लेकिन वे देखते नहीं; कान हैं, लेकिन वे सुनते नहीं। बहरे ही बहरे नहीं हैं और अंधे ही अंधे नहीं हैं। जिनके पास आंख और कान हैं वे भी अंधे और बहरे हैं। इतने निकट है, दिखाई नहीं पड़ता! इतने पास है, सुनाई नहीं पड़ता! चारों तरफ घेरे हुए है, स्पर्श नहीं होता! क्या बात है? कहीं कुछ कोई छोटा सा अटकाव होगा, बड़ा अटकाव नहीं है।

ऐसा ही है, जैसे आंख में एक तिनका पड़ जाए और पहाड़ दिखाई न पड़े फिर, आंख बंद हो जाए। तर्क तो यही कहेगा कि पहाड़ को जिसने ढांक लिया, वह तिनका बहुत बड़ा होगा। तर्क तो ठीक ही कहता है। गणित तो यही कहेगा, इतने बड़े पहाड़ को जिसने ढांक लिया, वह तिनका पहाड़ से बड़ा होना चाहिए। लेकिन तिनका बहुत छोटा है, आंख बड़ी छोटी है। तिनका आंख को ढंक लेता है, पहाड़ ढंक जाता है।

हमारी भीतर की आंख पर भी कोई बहुत बड़े पहाड़ नहीं हैं, छोटे तिनके हैं। उनसे जीवन के सारे सत्य छिपे रह जाते हैं। और वह आंख……निश्चित ही, जिन आंखों से हम देखते हैं उस आंख की मैं बात नहीं कर रहा हूं। इससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। यह ठीक से खयाल में आ जाना चाहिए कि इस जगत में हमारे लिए वही सत्य सार्थक होता है, जिसे पकड़ने की, जिसे ग्रहण करने की, जिसे स्वीकार कर लेने की, भोग लेने की रिसेप्टिविटी, ग्राहकता हममें पैदा हो जाती है।

सागर का इतना जोर का गर्जन है, लेकिन मेरे पास कान नहीं हैं तो सागर अनंत—अनंत काल तक भी चिल्लाता रहे, पुकारता रहे, मुझे कुछ सुनाई नहीं पड़ेगा। जरा से मेरे कान न हों कि सागर का इतना बड़ा गर्जन व्यर्थ हो गया; आंखें न हों, सूर्य द्वार पर खड़ा रहे, बेकार हो गया, हाथ न हों और मैं किसी को स्पर्श करना चाहूं तो कैसे करूं?

परमात्मा की इतनी बात है, आनंद की इतनी चर्चा है, इतने शास्त्र हैं, इतने लोग प्रार्थनाएं कर रहे, मंदिरों में भजन—कीर्तन कर रहे, लेकिन लगता नहीं कि परमात्मा को हम स्पर्श कर पाते हैं; लगता नहीं कि वह हमें दिखाई पड़ता है; लगता नहीं कि हम उसे सुनते हैं, लगता नहीं कि हमारे प्राणों के पास उसकी कोई धड़कन हमें सुनाई पड़ती है। ऐसा लगता है, सब बातचीत है, सब बातचीत है। ईश्वर की हम बात किए चले जाते हैं। और शायद इतनी बात हम इसीलिए करते हैं कि शायद हम सोचते हैं बातचीत करके अनुभव को झुठला देंगे; बातचीत करके ही पा लेंगे। अब बहरे जन्मों—जन्मों तक बातें करें स्वरों की, संगीत की, और अंधे बातें करें प्रकाश की, तो जन्मों तक करें बातें तो भी कुछ होगा नहीं। ही, एक भ्रांति हो सकती है कि अंधे प्रकाश की बात करते— करते यह भूल जाएं कि हम अंधे हैं, क्योंकि प्रकाश की बहुत बात करने से उन्हें लगने लगे कि हम प्रकाश को जानते हैं।

जमीन पर बने हुए परमात्मा के मंदिर और मस्जिद इस तरह का ही धोखा देने में सफल हो पाए हैं। उनके आसपास उनके भीतर बैठे हुए लोगों को भ्रम के अतिरिक्त कुछ और पैदा नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा हम परमात्मा को मान पाते हैं, जान नहीं पाते। और मान लेना बातचीत से ज्यादा नहीं है; कनविनसिंग बातचीत है तो मान लेते हैं; कोई जोर से तर्क करता है और सिद्ध करता है तो मान लेते हैं, हार जाते हैं, नहीं सिद्ध कर पाते हैं कि नहीं है, तो मान लेते हैं। लेकिन मान लेना जान लेना नहीं है। अंधे को हम कितना ही मना दें कि प्रकाश है, तो भी प्रकाश को जानना नहीं होता है।

मैं तो यहां इसी खयाल से आया हूं कि जानना हो सकता है। निश्चित ही हमारे भीतर कुछ और भी केंद्र है जो निष्कि्रय पड़ा है—जिसे कभी कोई कृष्ण जान लेता है और नाचता है, और कभी कोई जीसस जान लेता है और सूली पर लटक कर भी कह पाता है लोगों से कि माफ कर देना इन्हें, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। निश्चित ही कोई महावीर पहचान लेता है, और किसी बुद्ध के भीतर वह फूल खिल जाता है। कोई केंद्र है हमारे भीतर—कोई आंख, कोई कान—जो बंद पड़ा है। मैं तो इसीलिए आया हूं कि वह जो बंद पड़ा हुआ केंद्र है, कैसे सक्रिय हो जाए।

यह बल्व लटका हुआ है। तो उससे रोशनी निकल रही है। तार काट दें हम, तो बल्व कुछ भी नहीं बदला, लेकिन रोशनी बंद हो जाएगी। विद्युत की धारा न मिले, बल्व तक न आए, तो बल्व अंधेरा हो जाएगा और जहां प्रकाश गिर रहा है वहां सिर्फ अंधेरा गिरेगा। बल्व वही है, लेकिन निष्‍क्रिय हो गया; वह जो धारा शक्ति की दौड़ती थी, अब नहीं शडुश है। और शक्ति की धारा न दौडती हो तो बल्व क्या करे?

दिव्य—दृष्टि के जागरण का केंद्र

हमारे भीतर भी कोई केंद्र है जिससे वह जाना जाता है, जिसे हम परमात्मा कहें। लेकिन उस तक हमारी जीवन— धारा नहीं दौड़ती तो वह केंद्र निष्‍क्रिय पड़ रह जाता है। आंखें हों ठीक बिलकुल, और आंखों तक जीवन की धारा न दौड़े, तो आंखें बेकार हो जाएं।

एक लड़की को मेरे पास लाए थे कुछ मित्र। उस युवती का किसी से प्रेम था और घर के लोगों को पता चला और प्रेम के बीच दीवाल उन्होंने खड़ी की। अब तक हम इतनी अच्छी दुनिया नहीं बना पाए जहां प्रेम के लिए दीवालें न बनानी पड़े। उन्होंने दीवाल खड़ी कर दी, उस युवती को और उस युवक को मिलने का द्वार बंद कर दिया। बड़े घर की युवती थी, बीच से छत से दीवाल उठा दी, आर—पार देखना न हो सके। जिस दिन वह दीवाल उठी, उसी दिन वह लड़की अचानक अंधी हो गई। उसे डाक्टरों के पास ले गए। उन्होंने कहा, आंख तो बिलकुल ठीक है, लेकिन लड़की को दिखाई कुछ भी नहीं पड़ता है! पहले तो शक हुआ, मां—बाप ने डांटा—डपटा, मारने—पीटने की धमकी दी। लेकिन डांटने—डपटने से अंधेपन तो ठीक नहीं होते। डाक्टरों को दिखाया। डाक्टरों ने कहा, आंख बिलकुल ठीक है। लेकिन फिर भी डाक्टरों ने कहा कि लड़की झूठ नहीं बोलती है, उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। साइकोलाजिकल ब्लाइंडनेस, उन्होंने कहा कि मानसिक अंधापन आ गया। तो उन्होंने कहा, हम कुछ न कर सकेंगे। लड़की की जीवन— धारा आंख तक जानी बंद हो गई है; वह जो ऊर्जा आंख तक जाती है, वह बंद हो गई है, वह धारा अवरुद्ध हो गई है। आंख ठीक है, लेकिन जीवन— धारा आंख तक नहीं पहुंचती है।

उस लड़की को मेरे पास लाए, मैंने सारी बात समझी। मैंने उस लड़की को पूछा कि क्या हुआ? तेरे मन में क्या हुआ है? उसने कहा कि मेरे मन में यह हुआ है कि जिसे देखने के लिए मेरे पास आंखें हैं, अगर उसे न देख सकूं तो आंखों की क्या जरूरत है? बेहतर है कि अंधी हो जाऊं। कल रात भर मेरे मन में एक ही खयाल चलता रहा। रात मैंने सपना भी देखा कि मैं अंधी हो गई हूं। और यह जानकर मेरा मन प्रसन्न हुआ कि अंधी हो गई हूं। क्योंकि जिसे देखने के लिए आंख आनंदित होती, अब उसे देख नहीं सकूंगी तो आंख की क्या जरूरत है, अंधा ही हो जाना अच्छा है।

उसका मन अंधा होने के लिए राजी हो गया, जीवन— धारा आंख तक जानी बंद हो गई है। आंख ठीक है, आंख देख सकती है, लेकिन जिस शक्ति से देख सकती थी वह आंख तक नहीं आती है।

हमारे व्यक्तित्व में छिपा हुआ कोई केंद्र है जहां से परमात्मा पहचाना, जाना जाता है; जहां से सत्य की झलक मिलती है; जहां से जीवन की मूल ऊर्जा से हम संबंधित होते हैं; जहां से पहली बार संगीत उठता है वह जो किसी वाद्य से नहीं उठ सकता जहां से पहली बार वे सुगंधें उपलब्ध होती हैं जो अनिर्वचनीय हैं; और जहां से उस सबका द्वार खुलता है जिसे हम मुक्ति कहें; जहां कोई बंधन नहीं, जहां परम स्वतंत्रता है; जहां कोई सीमा नहीं और असीम का विस्तार है, जहां कोई दुख नहीं और जहां आनंद, और आनंद, और आनंद, और आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। लेकिन उस केंद्र तक हमारी जीवन— धारा नहीं जाती, एनर्जी नहीं जाती, ऊर्जा नहीं जाती, कहीं नीचे ही अटककर रह जाती है।

इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि तीन दिन जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं इस ऊर्जा को, इस शक्ति को उस केंद्र तक पहुंचाने का ही प्रयास करना है, जहां वह फूल खिल जाए, वह दीया जल जाए, वह आंख मिल जाए—वह तीसरी आंख, वह सुपर सेंस, वह अतींद्रिय इंद्रिय खुल जाए—जहां से कुछ लोगों ने देखा है, और जहां से सारे लोग देखने के अधिकारी हैं। लेकिन बीज होने से ही जरूरी नहीं कि कोई वृक्ष हो जाए। हर बीज अधिकारी है वृक्ष होने का, लेकिन सभी बीज वृक्ष नहीं हो पाते। क्योंकि बीज की संभावना तो है, पोटेशियलिटी तो है कि वृक्ष हो जाए, लेकिन खाद भी जुटानी पड़ती है, जमीन में बीज को दबना भी पड़ता, मरना भी पड़ता, टूटना पड़ता, बिखरना पड़ता। जो बीज टूटने, बिखरने को, मिटने को राजी हो जाता है वह वृक्ष हो जाता है। और अगर वृक्ष के पास हम बीज को रखकर देखें तो पहचानना बहुत मुश्किल होगा कि यह बीज इतना बड़ा वृक्ष बन सकता है! असंभव! असंभव मालूम पड़ेगा। इतना सा बीज इतना बड़ा वृक्ष कैसे बनेगा!

ऐसा ही लगा है सदा। जब कृष्ण के पास हम खड़े हुए हैं, तो ऐसा ही लगा है कि हम कहां बन सकेंगे! तो हमने कहा तुम भगवान हो, हम साधारणजन, हम कहां बन सकेंगे। तुम अवतार हो, हम साधारणजन, हम तो जमीन पर ही रेंगते रहेंगे; हमारी यह सामर्थ्य नहीं। जब कोई बुद्ध और कोई महावीर हमारे पास से गुजरा है, तो हमने उसके चरणों में नमस्कार कर लिए हैं— और कहा कि तीर्थंकर हो, अवतार हो, ईश्वर के पुत्र हो, हम साधारणजन!

अगर बीज कह सकता, तो वृक्ष के पास वह भी कहता कि भगवान हो, तीर्थंकर हो, अवतार हो; हम साधारण बीज, हम कहा ऐसे हो सकेंगे! बीज को कैसे भरोसा आएगा कि इतना बड़ा वृक्ष उसमें छिपा हो सकता है? लेकिन यह बड़ा वृक्ष कभी बीज था, और जो आज बीज है वह कभी बड़ा वृक्ष हो सकता है।

अनंत संभावनाओं का जागरण

हम सबके भीतर अनंत संभावना छिपी है। लेकिन उन अनंत संभावनाओं का बोध जब तक हमें भीतर से न होने लगे तब तक कोई शास्त्र प्रमाण नहीं बनेगा। और कोई भी चिल्लाकर कहे कि पा लिया, तो भी प्रमाण नहीं बनेगा। क्योंकि जिसे हम नहीं जान लेते हैं, उस पर हम कभी विश्वास नहीं कर पाते हैं। और ठीक भी है, क्योंकि जिसे हम नहीं जानते उस पर विश्वास करना प्रवंचना है, डिसेपान है। अच्छा है कि हम कहें कि हमें पता नहीं कि ईश्वर है। लेकिन किन्हीं को पता हुआ है, और किन्हीं को केवल पता ही नहीं हुआ है, बल्कि उनकी सारी जिंदगी बदल गई, उनके चारों तरफ हमने फूल खिलते देखे हैं अलौकिक। लेकिन उनकी पूजा करने से वह हमारे भीतर नहीं हो जाएगा।

सारा धर्म पूजा पर रुक गया है। फूल की पूजा करने से नये बीज कैसे फूल बन जाएंगे? और नदी कितनी ही सागर की पूजा करे तो सागर न हो जाएगी। और अंडा पक्षियों की कितनी ही पूजा करे तो भी आकाश में पंख नहीं फैला सकता। अंडे को टूटना पड़ेगा। और पहली बार जब कोई पक्षी अंडे के बाहर टूटकर निकलता है तो उसे भरोसा नहीं आता; उड़ते हुए पक्षियों को देखकर वह विश्वास भी नहीं कर सकता कि यह मैं भी कर सकूंगा। वृक्षों के किनारों पर बैठकर वह हिम्मत जुटाता है। उसकी मां उड़ती है, उसका बाप उड़ता है, वे उसे धक्के भी देते हैं, फिर भी उसके हाथ—पैर कंपते हैं। वह जो कभी नहीं उड़ा, कैसे विश्वास करे कि ये पंख उड़ेंगे? आकाश में खुल जाएंगे, अनंत की, दूर की यात्रा पर निकल जाएगा।

मैं जानता हूं कि इन तीन दिनों में आप भी वृक्ष के किनारे पर बैठेंगे, मैं कितना ही चिल्लाऊंगा कि छलांग लगाएं, कूद जाएं, उड़ जाएं—विश्वास नहीं पड़ेगा, भरोसा नहीं होगा। जो पंख उड़े नहीं, वे कैसे मानें कि उड़ना हो सकता है? लेकिन कोई उपाय भी तो नहीं है, एक बार तो बिना जाने छलांग लेनी ही पड़ती है।

कोई पानी में तैरना सीखने जाता है। अगर वह कहे कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक उतरूंगा नहीं, तो गलत नहीं कहता है, ठीक कहता है, उचित कहता है, एकदम कानूनी बात कहता है। क्योंकि जब तक तैरना न सीखूं तो पानी में कैसे उतरूं! लेकिन सिखानेवाला कहेगा कि जब तक उतरोगे नहीं, सीख नहीं पाओगे। और तब तट पर खड़े होकर विवाद अंतहीन चल सकता है। हल क्या है? सिखानेवाला कहेगा, उतरो! कूदो! क्योंकि बिना उतरे सीख न पाओगे।

असल में, सीखना उतर जाने से ही शुरू होता है। सब लोग तैरना जानते हैं, सीखना नहीं पड़ता है तैरना। अगर आप तैरना सीखे हैं तो आपको पता होगा, तैरना सीखना नहीं पड़ता। सारे लोग तैरना जानते हैं, ढंग से नहीं जानते हैं—गिर जाते हैं पानी में तो ढंग आ जाता है; हाथ—पैर बेढंगे फेंकते हैं, फिर ढंग से फेंकने लगते हैं। हाथ—पैर फेंकना सभी को मालूम है। एक बार पानी में उतरे तो ढंग से फेंकना आ जाता है। इसलिए जो जानते हैं, वे कहेंगे कि तैरना सीखना नहीं है, रिमेंबरिग है—एक याद है, पुनर्स्मरण है।

इसलिए परमात्मा की जो अनुभूति है, जाननेवाले कहते हैं, वह स्मरण है। वह कोई ऐसी अनुभूति नहीं है जिसे हम आज सीख लेंगे। जिस दिन हम जानेंगे, हम कहेंगे, अरे! यही था तैरना! ये हाथ—पैर तो हम कभी भी फेंक सकते थे। लेकिन इन हाथ— पैर के फेंकने का इस नदी से, इस सागर से कभी मिलन नहीं हुआ। हिम्मत नहीं जुटाई, किनारे पर खड़े रहे। उतरना पड़े, कूदना पड़े। लेकिन कूदते ही काम शुरू हो जाता है।

वह जिस केंद्र की मैं बात कर रहा हूं वह हमारे मस्तिष्क में छिपा हुआ पड़ा है। अगर आप जाकर मस्तिष्कविदों से पूछें, तो वे कहेंगे, मस्तिष्क का बहुत थोड़ा सा हिस्सा काम कर रहा है; बड़ा हिस्सा निष्‍क्रिय है, इनएक्टिव है। उस बड़े हिस्से में क्या— क्या छिपा है, कहना कठिन है। बड़े से बड़ी प्रतिभा और जीनियस का भी बहुत थोड़ा सा मस्तिष्क काम करता है। इसी मस्तिष्क में वह केंद्र है जिसे हम सुपर—सेंस, अतींद्रिय—इंद्रिय कहें, जिसे हम छठवीं इंद्रिय कहें, या जिसे हम तीसरी आंख, थर्ड आई कहें। वह केंद्र छिपा है जो खुल जाए तो हम जीवन को बहुत नये अर्थों में देखेंगे—पदार्थ विलीन हो जाएगा और परमात्मा प्रकट होगा; आकार खो जाएगा और निराकार प्रकट होगा; रूप मिट जाएगा और अरूप आ जाएगा; मृत्यु नहीं हो जाएगी और अमृत के द्वार खुल जाएंगे। लेकिन वह देखने का केंद्र हमारा निष्‍क्रिय है। वह केंद्र कैसे सक्रिय हो?

मैंने कहा, जैसे बल्व तक अगर विद्युत की धारा न पहुंचे, तो बल्व निष्‍क्रिय पडा रहेगा; धारा पहुंचाएं और बल्व जाग उठेगा। बल्व सदा प्रतीक्षा कर रहा है कि कब धारा आए। लेकिन अकेली धारा भी प्रकट न हो सकेगी। बहती रहे, लेकिन प्रकट न हो सकेगी; प्रकट होने के लिए बल्व चाहिए। और प्रकट होने के लिए धारा भी चाहिए।

हमारे भीतर जीवन— धारा है, लेकिन वह प्रकट नहीं हो पाती; क्योंकि जब तक वह वहां न पहुंच जाए, उस केंद्र पर जहां से प्रकट होने की संभावना है, तब तक अप्रकट रह जाती है।

हम जीवित हैं नाम मात्र को। सांस लेने का नाम जीवन है? भोजन पचा लेने का नाम जीवन है? रात सो जाने का नाम, सुबह जग जाने का नाम जीवन है? बच्चे से जवान, जवान से के हो जाने का नाम जीवन है? जन्मने और मर जाने का नाम जीवन है? और अपने पीछे बच्चे छोड जाने का नाम जीवन है?

नहीं, यह तो यंत्र भी कर सकता है। और आज नहीं कल कर लेगा, बच्चे टेस्ट—टधूब में पैदा हो जाएंगे। और बचपन, जवानी और बुढ़ापा बड़ी मैकेनिकल, बड़ी यांत्रिक क्रियाएं हैं। जब कोई भी यंत्र थकता है, तो जवानी भी आती है यंत्र की, बुढ़ापा भी आता है। सभी यंत्र बचपन में होते हैं, जवान होते हैं, के होते हैं। घड़ी भी खरीदते हैं तो गारंटी होती है कि दस साल चलेगी। वह जवान भी होगी घड़ी, की भी होगी, मरेगी भी। सभी यंत्र जन्मते हैं, जीते हैं, मरते हैं। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह यांत्रिकता, मैकेनिकल होने से कुछ और ज्यादा नहीं है। जीवन कुछ और है।

उपलब्धि अनिर्वचनीय है

अगर इस बल्व को पता न चले विद्युत की धारा का तो बल्व जैसा है उसी को जीवन समझ लेगा। हवा के धक्के उसे धक्के देंगे तो बल्व कहेगा मैं जीवित हूं क्योंकि धक्के मुझे लगते हैं। बल्व उसी को जीवन समझ लेगा। और जिस दिन विद्युत की धारा पहली दफा बल्व में आती होगी, और अगर बल्व कह सके तो क्या कहेगा? कहेगा, अनिर्वचनीय है! नहीं कह सकता क्या हो गया! अब तक अंधेरे से भरा था, अब अचानक— अचानक सब प्रकाश हो गया है। और किरणें बही जाती हैं, सब तरफ फैली चली जाती हैं।

बीज क्या कहेगा जिस दिन वृक्ष हो जाएगा? कहेगा, पता नहीं यह क्या हुआ? कहने जैसा नहीं है! मैं तो छोटा सा बीज था, यह क्या हो गया? यह मुझसे हुआ है, यह भी कहना कठिन है।

इसलिए जिनको भी परमात्मा मिलता है, वे यह नहीं कह पाते कि हमने पा लिया है। वे तो यही कहते हैं कि हम.. .हम सोचते हैं कि जो हम थे, उससे, जो हमें मिल गया है कोई भी संबंध नहीं दिखाई पड़ता। कहां हम अंधकार थे, कहां प्रकाश हो गया है! कहां हम कांटे थे, कहां फूल हो गए हैं! कहां हम मृत्यु थे ठोस, कहां हम तरल जीवन हो गए हैं! नहीं—नहीं, हमें नहीं मिल गया है। वे कहेंगे, हमें नहीं मिल गया है। जो जानेंगे, वे कहेंगे, नहीं, उसकी कृपा से हो गया है—उसकी ग्रेस से, उसके प्रसाद से—प्रयास से नहीं।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि प्रयास नहीं है। जब उपलब्ध होता है तो ऐसा ही लगता है, उसके प्रसाद से मिला है, ग्रेस से। लेकिन उसके प्रसाद तक पहुंचने के लिए बड़े प्रयास की यात्रा है। और वह प्रयास क्या है? वह एक छोटा सा प्रयास है एक अर्थों में, बड़ा भी है दूसरे अर्थों में। इस अर्थों में छोटा है कि वे केंद्र बहुत दूर नहीं हैं। जहां शक्ति की ऊर्जा, जहां ऊर्जा संगृहीत है, वह स्थान, रिजर्वायर, और वह जगह जहा से जीवन को देखने की आंख खुलेगी, उनमें फासला बहुत नहीं है। मुश्किल से दो फीट का फासला है, तीन फीट का फासला है, इससे ज्यादा फासला नहीं है। क्योंकि हम आदमी ही पांच—छह फीट के हैं, हमारी पूरी जीवन—व्यवस्था पांच—छह फीट की है। उस पांच—छह फीट में सारा इंतजाम है।

जीवन—ऊर्जा का कुंड

जिस जगह जीवन की ऊर्जा इकट्ठी है, वह जननेंद्रिय के पास कुंड की भांति है। इसलिए उस ऊर्जा का नाम कुंडलिनी पड़ गया, जैसे कोई पानी का छोटा सा कुंड। और इसलिए भी उस ऊर्जा का नाम कुंडलिनी पड़ गया कि जैसे कोई सांप कुंडल मारकर सो गया हो। सोए हुए सांप को कभी देखा हो, कुंडल पर कुंडल मारकर फन को रखकर सोया हुआ है। लेकिन सोए हुए सांप को जरा छेड़ दो, फन ऊपर उठ जाता है, कुंडल टूट जाते हैं। इसलिए भी उसे कुंडलिनी नाम मिल गया कि हमारे ठीक सेक्स सेंटर के पास हमारे जीवन की ऊर्जा का कुंड है—बीज, सीड है, जहां से सब फैलता है।

यह उपयुक्त होगा खयाल में ले लेना कि यौन से, काम से, सेक्स से जो थोड़ा सा सुख मिलता है, वह सुख भी यौन का सुख नहीं है, वह सुख भी यौन के साथ वह जो कुंड है हमारी जीवन—ऊर्जा का, उसमें आए हुए कंपन का सुख है। थोड़ा सा वहां सोया सांप हिल जाता है। और उसी सुख को हम सारे जीवन का सुख मान लेते हैं। जब वह पूरा सांप जागता है और उसका फन पूरे व्यक्तित्व को पार करके मस्तिष्क तक पहुंच जाता है, तब जो हमें मिलता है, उसका हमें कुछ भी पता नहीं।

हम जीवन की पहली ही सीढी पर जीते हैं। बड़ी सीढ़ी है जो परमात्मा तक जाती है। वह जो हमारे भीतर तीन फीट या दो फीट का फासला है, वह फासला एक अर्थ में बहुत बड़ा है; वह प्रकृति से परमात्मा तक का फासला है, वह पदार्थ से आत्मा तक का फासला है; वह निद्रा से जागरण तक का फासला है, वह मृत्यु से अमृत तक का फासला है। वह बडा फासला भी है। ऐसे छोटा फासला भी है। हमारे भीतर हम यात्रा कर सकते हैं।

ऊर्जा जागरण से आत्मक्रांति

यह जो ऊर्जा हमारे भीतर सोई पडी है, अगर इसे जगाना हो, तो सांप को छेड़ने से कम खतरनाक काम नहीं है। बल्कि सांप को छेड़ना बहुत खतरनाक नहीं है। इसलिए खतरनाक नहीं है कि एक तो सौ में से सत्तानबे सांपों में कोई जहर नहीं होता। तो सौ में से सत्तानबे सांप तो आप मजे से छेड़ सकते हैं, उनमें कुछ होता ही नहीं। और अगर कभी उनके काटने से कोई मरता है तो सांप के काटने से नहीं मरता, सांप ने काटा है, इस खयाल से मरता है; क्योंकि उनमें तो जहर होता नहीं। सत्तानबे प्रतिशत सांप तो किसी को मारते नहीं। हालांकि बहुत लोग मरते हैं, उनके काटने से भी मरते हैं; वे सिर्फ खयाल से मरते हैं कि सांप ने काटा, अब मरना ही पड़ेगा। और जब खयाल पकड़ लेता है तो घटना घट जाती है।

फिर जिन सांपों में जहर है उनको छेड़ना भी बहुत खतरनाक नहीं है, क्योंकि ज्यादा से ज्यादा वे आपके शरीर को छीन सकते हैं। लेकिन जिस कुंडलिनी शक्ति की मैं बात कर रहा हूं उसको छेड़ना बहुत खतरनाक है; उससे ज्यादा खतरनाक कोई बात ही नहीं है, उससे बड़ा कोई डेंजर ही नहीं है। खतरा क्या है? वह भी एक तरह की मृत्यु है। जब आपके भीतर की ऊर्जा जगती है तो आप तो मर जाएंगे जो आप जगने के पहले थे और आपके भीतर एक बिलकुल नये व्यक्ति का जन्म होगा जो आप कभी भी नहीं थे। यही भय लोगों को धार्मिक बनने से रोकता है। वही भय—जो बीज अगर डर जाए तो बीज रह जाए। अब बीज के लिए सबसे बडा खतरा है जमीन में गिरना, खाद पाना, पानी पाना। सबसे बड़ा खतरा है, क्योंकि बीज मरेगा। अंडे के लिए सबसे बड़ा खतरा यही है कि पक्षी बड़ा हो भीतर और उड़े, तोड़ दे अंडे को। अंडा तो मरेगा।

हम भी किसी के जन्म की पूर्व अवस्था हैं। हम भी एक अंडे की तरह हैं, जिससे किसी का जन्म हो सकता है। लेकिन हमने अंडे को ही सब कुछ मान रखा है। अब हम अंडे को सम्हाले बैठे हैं।

यह शक्ति उठेगी तो आप तो जाएंगे, आप के बचने का कोई उपाय नहीं। और अगर आप डरे, तो जैसा कबीर ने कहा है, कबीर के बड़े.. .दो पंक्तियों में उन्होंने बड़ी बढ़िया बात कही है। कबीर ने कहा है

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।

मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ।।

कोई पास बैठा था, उसने कबीर से कहा, आप किनारे क्यों बैठे रहे? कबीर कहते हैं, मैं पागल खोजने गया, किनारे ही बैठ गया। किसी ने पूछा, आप बैठ क्यों गए किनारे? तो कबीर ने कहा

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।

मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ।।

मैं डर गई डूबने से, इसलिए किनारे बैठ गई। और जिन्होंने खोजा उन्होंने तो गहरे जाकर खोजा।

डूबने की तैयारी चाहिए, मिटने की तैयारी चाहिए। एक शब्द में कहें—शब्द बहुत अच्छा नहीं—मरने की हयात चाहिए। और जो डर जाएगा डूबने से वह बच तो जाएगा, लेकिन अंडा ही बचेगा, पक्षी नहीं, जो आकाश में उड़ सके। जो डूबने से डरेगा वह बच तो जाएगा, लेकिन बीज ही बचेगा, वृक्ष नहीं, जिसके नीचे हजारों लोग छाया में विश्राम कर सकें। और बीज की तरह बचना कोई बचना है? बीज की तरह बचने से ज्यादा मरना और क्या होगा!

इसलिए बहुत खतरा है। खतरा यह है कि हमारा जो व्यक्तित्व कल तक था वह अब नहीं होगा; अगर ऊर्जा जगेगी तो हम पूरे बदल जाएंगे—नये केंद्र जाग्रत होंगे, नया व्यक्तित्व उठेगा, नया अनुभव होगा, नया सब हो जाएगा। नये होने की तैयारी हो तो पुराने को जरा छोड़ने की हिम्मत करना। और पुराना हमें इतने जोर से पकड़े हुए है, चारों तरफ से कसे हुए है, जंजीरों की तरह बांधे हुए है कि वह ऊर्जा नहीं उठ पाती।

परमात्मा की यात्रा पर जाना निश्चित ही असुरक्षा की यात्रा है, इनसिक्योरिटी की। लेकिन जीवन के, सौंदर्य के सभी फूल असुरक्षा में ही खिलते हैं।

बाजी पूरी लगानी होगी

तो इस यात्रा के लिए दो—चार खास बातें आपसे कह दूं और दो—चार गैर—खास बातें भी।

पहली बात तो यह कि कल सुबह जब हम यहां मिलेंगे, और कल इस ऊर्जा को जगाने की दिशा में चलेंगे, तो मैं आपसे आशा रखूं कि आप अपने भीतर कुछ भी नहीं छोड़ रखेंगे जो आपने दांव पर न लगा दिया हो। यह कोई छोटा जुआ नहीं है। यहां जो लगाएगा पूरा, वही पा सकेगा। इंच भर भी बचाया तो चूक सकते हैं। क्योंकि ऐसा नहीं हो सकता कि बीज कहे कि थोड़ा सा मैं बच जाऊं और बाकी वृक्ष हो जाए। ऐसा नहीं हो सकता। बीज मरेगा तो पूरा मरेगा और बचेगा तो पूरा बचेगा। पार्शियल डेथ जैसी कोई चीज नहीं होती, आशिक मृत्यु नहीं होती। तो आपने अगर अपने को थोड़ा भी बचाया तो व्यर्थ मेहनत हो जाएगी। पूरा ही छोड़ देना। कई बार, थोड़े से बचाव से सब खो जाता है।

मैंने सुना है कि कोलरेडो में जब सबसे पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, तो सारा अमेरिका दौड़ पड़ा कोलरेडो की तरफ। खबरें आईं कि जरा सा खेत खरीद लो और सोना मिल जाए। लोगों ने जमीनें खरीद डालीं। एक करोड़पति ने अपनी सारी संपत्ति लगाकर एक पूरी पहाड़ी ही खरीद ली। बड़े यंत्र लगाए। छोटे—छोटे लोग छोटे—छोटे खेतों में सोना खोद रहे थे, तो पहाड़ी खरीदी थी, बड़े यंत्र लाया था, बड़ी खुदाई की, बड़ी खुदाई की। लेकिन सोने का कोई पता न चला। फिर घबड़ाहट फैलनी शुरू हो गई। सारा दांव पर लगा दिया था। फिर वह बहुत घबड़ा गया। फिर उसने घर के लोगों से कहा कि यह तो हम मर गए, सारी संपत्ति दांव पर लगा दी है और सोने की कोई खबर नहीं है! फिर उसने इश्तहार निकाला कि मैं पूरी पहाड़ी बेचना चाहता हूं मय यंत्रों के, खुदाई का सारा सामान साथ है।

घर के लोगों ने कहा, कौन खरीदेगा? सबमें खबर हो गई है कि वह पहाड़ बिलकुल खाली है, और उसमें लाखों रुपए खराब हो गए हैं, अब कौन पागल होगा?

लेकिन उस आदमी ने कहा कि कोई न कोई हो भी सकता है।

एक खरीददार मिल गया। बेचनेवाले को बेचते वक्त भी मन में हुआ कि उससे कह दें कि पागलपन मत करो; क्योंकि मैं मर गया हूं। लेकिन हिम्मत भी न जुटा पाया कहने की, क्योंकि अगर वह चूक जाए, न खरीदे, तो फिर क्या होगा? बेच दिया। बेचने के बाद कहा कि आप भी अजीब पागल मालूम होते हैं; हम बरबाद होकर बेच रहे हैं! पर उस आदमी ने कहा, जिंदगी का कोई भरोसा नहीं; जहां तक तुमने खोदा है वहां तक सोना न हो, लेकिन आगे हो सकता है। और जहां तुमने नहीं खोदा है, वहां नहीं होगा, यह तो तुम भी नहीं कह सकते। उसने कहा, यह तो मैं भी नहीं कह सकता।

और आश्चर्य—कभी—कभी ऐसे आश्चर्य घटते हैं— पहले दिन ही, सिर्फ एक फीट की गहराई पर सोने की खदान शुरू हो गई। वह आदमी जिसने पहले खरीदी थी पहाड़ी, छाती पीटकर पहले भी रोता रहा और फिर बाद में तो और भी ज्यादा छाती पीटकर रोया, क्योंकि पूरे पहाड़ पर सोना ही सोना था। वह उस आदमी से मिलने भी गया। और उसने कहा, देखो भाग्य! उस आदमी ने कहा, भाग्य नहीं, तुमने दांव पूरा न लगाया, तुम पूरा खोदने के पहले ही लौट गए। एक फीट और खोद लेते!

हमारी जिंदगी में ऐसा रोज होता है। न मालूम कितने लोग हैं जिन्हें मैं जानता हूं कि जो खोदते हैं परमात्मा को, लेकिन पूरा नहीं खोदते, अधूरा खोदते हैं; ऊपर—ऊपर खोदते हैं और लौटे जाते हैं। कई बार तो इंच भर पहले से लौट जाते हैं, बस इंच भर का फासला रह जाता है और वे वापस लौटने लगते हैं। और कई बार तो मुझे साफ दिखाई पड़ता है कि यह आदमी वापस लौट चला, यह तो अब करीब पहुंचा था, अभी बात घट जाती; यह तो वापस लौट पड़ा!

तो अपने भीतर एक बात खयाल में ले लें कि आप कुछ भी बचा न रखें, अपना पूरा लगा दें। और परमात्मा को खरीदने चले हों तो हमारे पास लगाने को ज्यादा है भी क्या! उसमें भी कंजूसी कर जाते हैं। कंजूसी नहीं चलेगी। कम से कम परमात्मा के दरवाजे पर कंजूसों के लिए कोई जगह नहीं। वहा पूरा ही लगाना पड़ेगा।

नहीं, ऐसा नहीं है कि बहुत कुछ है हमारे पास लगाने को। यह सवाल नहीं है कि क्या है, सवाल यह है कि पूरा लगाया या नहीं! क्योंकि पूरा लगाते ही हम उस बिंदु पर पहुंच जाते हैं जहां ऊर्जा का निवास है, और जहां से ऊर्जा उठनी शुरू होती है। असल में, क्यों पूरे का जोर है? जब हम अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं, तभी उस ताकत को उठने की जरूरत पड़ती है, जो रिजर्वायर है; तब तक उसकी जरूरत नहीं पड़ती। जब तक हमारे पास ताकत बची रहती है तब तक उससे ही काम चलता है। तो जो रिजर्व फोर्सेज हैं हमारे भीतर, उनकी जरूरत तो तब पड़ती है जब हमारे पास कोई ताकत नहीं होती। तब उनकी जरूरत पड़ती है। तो जब हम पूरी ताकत लगा देते हैं तब वह केंद्र सक्रिय होता है। अब वहां से शक्ति लेने की जरूरत आ जाती है। अन्यथा नहीं पड़ती जरूरत।

अब मैं आपसे दौड़ने को कहूं आप दौड़े। कहूं पूरी ताकत से दौड़े, आप पूरी ताकत से दौड़े। आप समझते हैं कि पूरी ताकत से दौड़ रहे हैं, लेकिन आप पूरी ताकत से नहीं दौड़ रहे। कल आपको किसी से प्रतियोगिता करनी है, काम्पिटीशन में दौड़ रहे हैं, तब आप पाते हैं कि आपकी दौड़ बढ़ गई है। क्या हुआ? यह शक्ति कहां से आई? कल तो आप कहते थे, मैं पूरी ताकत से दौड़ रहा हूं। आज प्रतिस्पर्धा में आप ज्यादा दौड़ रहे हैं—पूरी ताकत लगा रहे हैं।

लेकिन यह भी पूरी ताकत नहीं है। कल एक आदमी आपके पीछे बंदूक लेकर लग गया है। अब आप जितनी ताकत से दौड़ रहे हैं यह ताकत से आप कभी भी नहीं दौड़े थे। आपको भी पता नहीं था कि इतना मैं दौड़ सकता हूं। यह ताकत कहां से आ गई है? यह भी ताकत आपके भीतर सोई पड़ी थी। लेकिन इतने से भी काम नहीं होगा। जब कोई आदमी बंदूक लेकर आपके पीछे पड़ता है तब भी आप जितना दौड़ते हैं, वह भी पूरा दौड़ना नहीं है। ध्यान में तो उसने भी ज्यादा दांव पर लगा देना पड़ेगा। जहां तक, जहां तक आपको हो, पूरा लगा देना है। और जिस क्षण आप उस बिंदु पर पहुंचेंगे जहा आपकी पूरी ताकत लग गई, उसी क्षण आप पाएंगे कि कोई दूसरी ताकत से आपका संबंध हो गया, कोई ताकत आपके भीतर से कानी शुरू हो गई।

निश्चित ही उसके जागने का पूरा अनुभव होगा। जैसे कभी बिजली छुई हो तो अनुभव हुआ होगा, वैसा ही अनुभव होगा कि जैसे भीतर से, नीचे से, यौन—केंद्र से कोई शक्ति ऊपर की तरफ दौड़नी शुरू हो गई। गरम उबलती हुई आग, लेकिन शीतल भी। जैसे कांटे चुभने लगे चारों तरफ, लेकिन फूल जैसी कोमल भी। और कोई चीज ऊपर जाने लगी। और जब कोई चीज ऊपर जाती है तो बहुत कुछ होगा। उस सब में किसी भी बिंदु पर आपको रोकना नहीं है, अपने को पूरा छोड़ देना है, जो भी हो। जैसे कोई आदमी नदी में बहता है, ऐसा अपने को छोड़ दें।

नये जन्म के लिए साहस और धैर्य

तो दूसरी बात—पहला, अपने को पूरा दांव पर लगा देना है—दूसरी बात, जब दांव पर लग कर आपके भीतर कुछ होना शुरू हो जाए, तो आपको पूरी तरह अपने को छोड़ देना है—जस्ट फ्लोटिंग, अब जहां ले जाए यह धारा, हम जाने को राजी हैं। एक सीमा तक हमें पुकारना पड़ता है; और जब शक्ति जागती है तो फिर हमें अपने को छोड़ देना पड़ता है। बड़े हाथों ने हमें सम्हाल लिया, अब हमें चिंता की जरूरत नहीं है, अब हमें बह जाना पड़ेगा।

और तीसरी बात यह जो शक्ति का उठना होगा भीतर, इसके साथ बहुत कुछ घटनाएं घट जाएंगी तो घबडाइएगा नहीं, क्योंकि नये अनुभव घबडानेवाले होते हैं। बच्चा जब मां के पेट से जन्मता है तो बहुत घबड़ा जाता है। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि वह ट्रामैटिक एक्सपीरिएंस है, उससे फिर कभी मुक्त ही नहीं हो पाता। नये की घबड़ाहट बच्चे में मां के पेट से जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है। क्योंकि मां के पेट में वह बिलकुल सुरक्षित दुनिया में था नौ महीने तक—न कोई चिंता, न कोई फिक्र, न श्वास लेनी, न खाना खाना, न रोना, न गाना, न दुनिया, न कुछ— एकदम विश्राम में था। मां के पेट के बाहर निकल कर एकदम नई दुनिया आती है। तो पहला धक्का जीवन का और घबड़ाहट वहीं से पकड़ जाती है।

इसलिए सारे लोग नई चीज से डरे रहते हैं; पुराने को पकड़ने का मन रहता है, नये से डरे रहते हैं। वह हमारे बचपन का पहला अनुभव है कि नये ने बड़ी मुश्किल में डाल दिया; वह अच्छा था मां का पेट। इसलिए हमने बहुत से इंतजाम ऐसे किए हैं जो असल में मां के पेट जैसे ही हैं—हमारी गद्दियां, हमारे सोफे, हमारी कारें, हमारे कमरे, वे हमने सब मां के गर्भ की शक्ल में ढाले हैं। उतने ही आरामदायक बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन वह बन नहीं पाता।

मां के पेट से जो पहला अनुभव होता है वह नये की घबड़ाहट का। उससे भी बड़ा नया अनुभव है यह, क्योंकि मां के पेट से सिर्फ शरीर के लिए नया अनुभव होता है, यहां तो आत्मा के तल पर नया अनुभव होगा। इसलिए वह बिलकुल ही नया जन्म है। इसलिए उस तरह के लोगों को हम ब्राह्मण कहते थे। ब्राह्मण उसे कहते थे जिसका दूसरा जन्म हो गया—ट्वाइस बॉर्न। इसलिए उसे द्विज कहते थे—दुबारा जिसका जन्म हो गया।

तो जब वह शक्ति पूरी तरह उठेगी तो एक दूसरा ही जन्म होगा। उस जन्म में आप दोनों हैं—मां भी हैं और बेटे भी हैं; आप अकेले ही दोनों हैं। इसलिए प्रसव की पीडा भी होगी और नये की, असुरक्षित की अनुभूति भी होगी। इसलिए बहुत घबडानेवाला, डरानेवाला अनुभव हो सकता है। मां को जैसे प्रसव की पीड़ा होती है, उतनी पीड़ा भी आपको होगी, क्योंकि यहां मां और बेटे दोनों ही आप हैं। यहां कोई दूसरी मां नहीं है, और यहां कोई दूसरा बेटा नहीं है, आपका ही जन्म हो रहा है और आपसे ही हो रहा है। इसलिए प्रसव की बहुत तीव्र वेदना भी हो सकती है।

अब मुझे कितने ही लोगों ने आकर कहा कि कोई दहाड़ मारकर रोता है, चिल्लाता है, आप रोकते क्यों नहीं?

रोएगा, चिल्लाएगा। उसे रोने दें, चिल्लाने दें। उसके भीतर जो हो रहा है, वह वही जानता है। अब एक मां रो रही हो और उसको बच्चा पैदा हो रहा हो, और जिस स्त्री को कभी बच्चा पैदा न हुआ हो, वह जाकर उसको कहे, क्यों फिजूल परेशान होती हो? क्यों रोती हो? क्यों चिल्लाती हो? बच्चा हो रहा है तो होने दो, रोने की क्या जरूरत है?

ठीक है, जिसको बच्चा नहीं हुआ वह कह सकती है, बिलकुल कह सकती है। पुरुषों को कभी पता नहीं चल सकता न कि कैसे, जन्म में क्या तकलीफ स्त्री को झेलनी पड़ती होगी! सोच भी नहीं सकते, कोई उपाय भी नहीं है कि कैसे उसको पकड़े, कैसे उसको सोचें कि क्या होता होगा।

साधना के अनुभवों की गोपनीयता

लेकिन ध्यान में तो स्त्री और पुरुष सब बराबर हैं—स्ब मां बन जाते हैं एक अर्थ में, क्योंकि नया उनके भीतर जन्म होगा। तो पीड़ा को भी रोकने की जरूरत नहीं है, रोने को रोकने की जरूरत नहीं है; कोई गिर पडे और लोटने लगे और चिल्लाने लगे, तो रोकने की जरूरत नहीं है। जो जिसको हो रहा हो उसे पूरा होने देना है; बह जाना है, उसे रोकना नहीं है।

और भीतर बहुत तरह के अनुभव हो सकते हैं—किसी को लग सकता है कि जमीन से ऊपर उठ गए हैं, किसी को लग सकता है कि बहुत बड़े हो गए हैं, किसी को लग सकता है कि बहुत छोटे हो गए हैं। नये अनुभव बहुत तरह के हो सकते हैं, मैं उन सबके नाम नहीं गिनाऊंगा। पर बहुत कुछ हो सकता है। कुछ भी नया हो— और हर एक को अलग हो सकता है—तो उसमें कोई चिंता नहीं लेगा, भयभीत नहीं होगा। और अगर किसी को कहना भी हो तो मुझे आकर दोपहर में कह देगा। आपस में उसकी बात मत करिएगा। न करने का कारण है। कारण यही है कि जो आपको हो रहा है, जरूरी नहीं है कि दूसरे को भी हो। और जब दूसरे को नहीं हो रहा होगा तो या तो वह हंसेगा, वह कहेगा—क्या पागलपन की बात है! मुझे तो ऐसा नहीं हो रहा है। और हर आदमी के लिए खुद ही आदमी मापदंड होता है। ठीक यानी वह, और गलत यानी दूसरा। तो वह या तो आप पर हंसेगा। नहीं हंसेगा तो बहुत अविश्वासपूर्ण ढंग से कहेगा कि भई हमें तो नहीं हो रहा है।

यह अनुभूति इतनी निजी और वैयक्तिक है कि इसे दूसरे से बात न करें तो अच्छा है। पति भी पत्नी से न कहे, क्योंकि इस मामले में कोई निकट नहीं है। और इस मामले में कोई एक—दूसरे को इतनी आसानी से नहीं समझ सकता। इस संबंध में समझ बहुत मुश्किल है। इसलिए कोई भी आपको पागल कह देगा। लोग जीसस को भी पागल कहेंगे और महावीर को भी पागल कहेंगे। जिस दिन महावीर नग्न खड़े हो गए होंगे रास्तों पर, लोगों ने पागल कहा होगा। अब महावीर जानते हैं कि नग्न होने का उनके लिए क्या मतलब है। वे पागल हो जाएंगे। तो आप किसी और से न कहें तो अच्छा।

फिर जैसे ही आप किसी से कुछ कहते हैं तो इतनी समझदारी तो नहीं है कि दूसरा चुप रह जाए, कुछ न कुछ तो कहेगा ही। और वह जो कुछ भी कहेगा, वह आपकी अनुभूति में बाधक हो सकता है। उसके सजेशंस काम कर सकते हैं। वह आपको कुछ भी कह दे तो नई अनुभूति में बड़ी बाधा पड़ जाती है।

इसलिए मैं यह चौथी बात कहना चाहता हूं कि जो भी आपको हो, उसकी आपस में बात कतई नहीं करनी है। इसीलिए मैं यहां हूं कि आप मुझसे सीधे आकर बात कर लेंगे।

ध्यान में प्रवेश के पूर्व

सुबह जब हम ध्यान के लिए यहां आएंगे, तो कुछ भी लिकिड, कुछ भी तरल लेकर आना है, ठोस कोई चीज भोजन में सुबह न ले लें। कोई नाश्ता न करें, चाय—दूध कुछ भी तरल ले लें। जो बिना चाय—दूध के आ सकते हों, और अच्छा। क्योंकि उतनी ही सरलता से, शीघ्रता से काम हो सकेगा।

साढ़े सात बजे आने का मतलब है कि पांच मिनट पहले यहां आ जाएं। तो साढ़े सात से साढ़े आठ तक तो आपकी कुछ भी बात होगी करने की तो कर लेंगे। इसलिए मैंने यह बात करने का रखा है, क्योंकि प्रवचन बहुत इम्पर्सनल है, अवैयक्तिक है। उसमें किसी से नहीं बोलना पड़ता, हवाओं से बोलना पड़ता है। तो आप पास बैठेंगे मेरे, सुबह; दूर नहीं बैठेंगे, पास ही बैठेंगे। और कुछ भी, आज जो मैंने कहा है, उस संबंध में, कुछ और पूछना हो तो पूछ लेंगे। वह घंटे भर सुबह हम बात करेंगे। फिर साढ़े आठ से साढे नौ ध्यान पर बैठेंगे।

तो सुबह एक तो कोई ठोस चीज लेकर न आएं। दूसरा, भूखे आ सकें बिलकुल तो और अच्छा। लेकिन जबरदस्ती भूखे भी न आएं। किसी को न आना अच्छा लगता हो तो कुछ लेकर आए। लेकिन चाय या दूध, ऐसा कुछ लेकर आए।

वस्त्र ढीले से ढीले पहनकर आएं। स्नान करके तो आना ही है। बिना स्नान किए कोई न आए। स्नान तो करके आएं ही। और वस्त्र ढीले से ढीले पहनकर आएं, जितने ढीले वस्त्र हों, शरीर पर कहीं बंधे न हों। तो जो भी बांधनेवाले वस्त्र हों, कम पहनें। जितना ढीला वस्त्र पहन सकें उतना अच्छा। कमर पर तो कम से कम बांधने का दबाव हो। वह आप ध्यान रखकर आएं। और जब यहां बैठें तो ढीला करके बैठें।

शरीर के भीतर हमारे वस्त्रों ने भी बहुत उपद्रव किया हुआ है, बहुत तरह की बाधाएं उन्होंने खड़ी की हुई हैं। और अगर कोई ऊर्जा उठनी शुरू हो तो अनेक तलों पर रुकावट पड़नी शुरू हो जाती है।

मौन का महत्व

यहां आने के आधा घंटे पहले से ही चुप हो जाएं। कुछ मित्र जो तीनों दिन मौन रख सकें, बहुत अच्छा है, वे बिलकुल ही चुप हो जाएं। और कोई भी चुप होता हो, मौन रखता हो, तो दूसरे लोग उसे बाधा न दें, सहयोगी बनें। जितने लोग मौन रहें, उतना अच्छा। कोई तीन दिन पूरा मौन रखे, सबसे बेहतर। उससे बेहतर कुछ भी नहीं होगा। अगर इतना न कर सकते हों तो कम से कम बोलें—इतना कम, जितना जरूरी हो— टेलीग्रैफिक। जैसे तारघर में टेलीग्राम करने जाते हैं तो देख लेते हैं कि अब दस अक्षर से ज्यादा नहीं। अब तो आठ से भी ज्यादा नहीं। तो एक दो अक्षर और काट देते हैं, आठ पर बिठा देते हैं। तो टेलीग्रैफिक! खयाल रखें कि एक—एक शब्द की कीमत चुकानी पड़ रही है। इसलिए एक—एक शब्द बहुत महंगा है; सच में महंगा है। इसलिए कम से कम शब्द का उपयोग करें; जो बिलकुल मौन न रह सकें वे कम से कम शब्द का उपयोग करें।

और इंद्रियों का भी कम से कम उपयोग करें। जैसे आंख का कम उपयोग करें, नीचे देखें। सागर को देखें, आकाश को देखें, लोगों को कम देखें। क्योंकि हमारे मन में सारे संबंध, एसोसिएशस लोगों के चेहरों से होते हैं—वृक्षों, बादलों, समुद्रों से नहीं। वहां देखें, वहां से कोई विचार नहीं उठता। लोगों के चेहरे तत्काल विचार उठाना शुरू कर देते हैं। नीचे देखें, चार फीट पर नजर रखें— चलते, घूमते, फिरते। आधी आंख खुली रहे, नाक का अगला हिस्सा दिखाई पड़े, इतना देखें। और दूसरों को भी सहयोग दें कि लोग कम देखें, कम सुनें। रेडियो, ट्रांजिस्टर सब बंद करके रख दें, उनका कोई उपयोग न करें। अखबार बिलकुल कैंपस में मत आने दें।

जितना ज्यादा से ज्यादा इंद्रियों को विश्राम दें, उतना शुभ है, उतनी शक्ति इकट्ठी होगी; और उतनी शक्ति ध्यान में लगाई जा सकेगी। अन्यथा हम एग्झास्ट हो जाते हैं। हम करीब—करीब एग्झास्ट हुए लोग हैं, जो चुक गए हैं बिलकुल, चली हुई कारतूस जैसे हो गए हैं। कुछ बचता नहीं, चौबीस घंटे में सब खर्च कर डालते हैं। रात भर में सोकर थोड़ा—बहुत बचता है, तो सुबह उठकर ही अखबार पढना, रेडियो, और शुरू हो गया उसे खर्च करना। कंजरवेशन ऑफ एनर्जी का हमें कोई खयाल ही नहीं है कि कितनी शक्ति बचाई जा सकती है। और ध्यान में बड़ी शक्ति लगानी पड़ेगी। अगर आप बचाएंगे नहीं तो आप थक जाएंगे।

शक्ति का संचय ध्यान में सहयोगी

कुछ लोग मुझे कहते हैं कि घंटे भर ध्यान करने के बाद हम थक जाते हैं। उसके थकने का कारण ध्यान नहीं है, उसके थकने का कारण यह है कि आप एग्झास्ट प्याइंट पर जीते हैं, सब खर्च किए रहते हैं। हमें खयाल में नहीं है कि जब आप आंख उठाकर भी देखते हैं, तब भी शक्ति खर्च होती है, जब आप कान उठाकर सुनते हैं, तब भी शक्ति खर्च होती है; जब आप भीतर विचार करते हैं, तब भी शक्ति खर्च होती है, जब बोलते हैं, तब भी शक्ति खर्च होती है। हम जो भी कर रहे हैं उसमें शक्ति खर्च हो रही है। रात में इसीलिए थोड़ी सी बच जाती है कि बाकी काम बंद हो गए, इसलिए थोड़ी बच जाती है। सपने वगैरह में जितना खर्च करते हैं वह दूसरी बात, वैसे थोड़ी—बहुत बच जाती है। इसीलिए सुबह ताजा लगता है।

तो शक्ति को तीन दिन बचाएं, ताकि पूरी शक्ति लगाई जा सके। दोपहर के—ये सारी सूचनाएं इसलिए दे दे रहा हूं ताकि फिर तीन दिन मुझे आपको कोई सूचना न देनी पड़े—दोपहर जो घंटे भर का मौन है, उसमें कोई बात नहीं होगी। बातचीत से आपसे बात करता हूं उस घंटे भर मौन से ही बात करूंगा—तीन से चार। तो तीन बजे सारे लोग यहां उपस्थित हो जाएं। तीन के बाद कोई न आए। क्योंकि उसका आना फिर नुकसान पहुंचाता है। यहां मैं बैठा रहूंगा। तीन से चार आप क्या करेंगे?

दो काम तीन से चार आप खयाल में रख लें। एक तो सारे लोग ऐसी जगह बैठें जहां से मैं दिखाई पड़ता रहूं। देखना नहीं है मुझे, लेकिन दिखाई पड़ता रहूं ऐसी जगह बैठ जाएं। फिर आंख बंद कर लेनी है। खोलना चाहें, खोल रख सकते हैं; बंद करना चाहें, बंद रख सकते हैं। बंद रखें, अच्छा।

मौन संवाद का रहस्य

और एक घंटे चुपचाप किसी अनजान प्रतीक्षा में बैठना है—वेटिंग फॉर दि अननोन। कुछ पता नहीं कि कोई आनेवाला है, लेकिन कोई आनेवाला है; कुछ पता नहीं कि कुछ सुनाई पड़ेगा, लेकिन कुछ सुनाई पड़ेगा; कुछ पता नहीं कि कोई दिखाई पड़ेगा, लेकिन कोई दिखाई पड़ेगा। ऐसा चुपचाप जस्ट अवेटिंग! कोई अनजान, अपरिचित अतिथि को, जिससे कभी मिले नहीं, देखा नहीं, सुना नहीं, उसकी प्रतीक्षा में घंटे भर बैठे रहें। लेटना हो, लेट जाएं; बैठना हो, बैठे रहें। उस एक घंटे में सिर्फ रिसेप्टिविटी हो जाएं, आप एक ग्रहण करनेवाले, पैसिव व्यक्ति हैं, जो कुछ होगा, आ जाए! बस लेकिन अलर्ट होकर प्रतीक्षा करते रहें। उस घंटे भर में जो मौन से मुझे आपसे कहना है वह मैं कहने की कोशिश करूं। शब्दों से समझ में न आ सके तो शायद निःशब्द में समझ आ जाए।

रात्रि को फिर घंटे भर कुछ पूछना होगा वह बात हो जाएगी। फिर घंटे भर रात्रि हम ध्यान करेंगे। ऐसा तीन दिन में नौ बैठक। और कल सुबह से ही आपको पूरी ताकत लगा देनी है, ताकि नौवीं बैठक तक सच में पूरी ताकत लग जाए।

बाकी समय में आप क्या करेंगे?

मौन रहना है, बात नहीं करनी, तो बड़ा उपद्रव तो कट जाता है। समुद्र का तट है, उसके पास जाकर लेट जाएं, लहरों को सुनें। और रात भी अच्छा होगा कि जो लोग भी सो सकें, चुपचाप अपने बिस्तर को लेकर समुद्र—तट चले जाएं; वहां सो जाएं। सागर के पास सोए; रेत में सो जाएं; वृक्षों में सो जाएं। अकेले रहें, मित्र और मंडलियां न बनाएं। नहीं तो यहां भी मंडलियां बन जाएंगी, दों—चार लोग इकट्ठे घूमने लगेंगे, दो—चार मित्र बन जाएंगे। अलग रहें, अकेले रहें, आप अकेले हैं तीन दिन यहां, क्योंकि परमात्मा से मिलना हो तो कोई साथ नहीं जा सकता, बिलकुल अकेले ही, लोनली। आपको अकेले ही जाना पड़े। तो अकेले रहें—ज्यादा से ज्यादा अकेले।

स्वीकार से शांति

और ध्यान रखें, अंतिम सूचना. किसी तरह की शिकायत न करें। तीन दिन शिकायत छोड़ दें। खाना ठीक न मिले, न मिले; रात मच्छर काट जाएं, काट जाएं। तीन दिन जो भी हो, उसकी टोटल एक्सेप्टबिलिटी। मच्छरों को तो थोड़ा—बहुत फायदा होगा, आपको बहुत हो सकता है। भोजन थोड़ा अच्छा नहीं मिलेगा तो थोड़ा—बहुत नुकसान शरीर को होगा, लेकिन आपको उसकी शिकायत से बहुत नुकसान हो सकता है। उसके कारण हैं। क्योंकि शिकायत करनेवाला मन शांत नहीं हो पाता। शिकायतें बहुत छोटी होती हैं, जो हम गवां देते हैं वह बहुत ज्यादा होता है। शिकायत ही मत करें, तीन दिन के लिए मन में साफ कर लें कि कोई शिकायत नहीं—जो है, वह है; जैसा है, वैसा है। उसे बिलकुल स्वीकार कर लें।

ये तीन दिन अदभुत हो जाएंगे। अगर तीन दिन शिकायत के बाहर रहे आप और सब स्वीकार कर लिया जैसा है, और उसमें ही आनंदित हुए, तो आप तीन दिन के बाद कभी शिकायत न कर सकेंगे। क्योंकि आपको पता चलेगा कि बिना शिकायत के कैसी शांति, कैसा आनंद!

तीन दिन सब छोड़ दें! और फिर जो भी पूछना हो, वह आप कल सुबह से पूछेंगे। ध्यान रखेंगे पूछते समय कि सबके काम की बात हो, ऐसी कोई बात पूछेंगे। और जो भी हृदय में हो, मन में हो और जरूरी लगे, वह पूछ ले सकते हैं।

खाली झोली पसार

मैं किसलिए आया हूं वह मैंने आपसे कहा। मुझे पता नहीं, आप किसलिए आए हैं। लेकिन कल सुबह मैं इसी आशा से आपको मिलूंगा कि जिस लिए मैं आया हूं उस लिए आप भी आए हैं। वैसे हमारी आदतें बिगड़ गई हैं, अगर बुद्ध भी हमारे द्वार पर खड़े हों तो हमारा मन होता है कि आगे जाओ! हम सोचते हैं, सभी मांगने आते हैं। इसलिए हम भूल जाते हैं, जब कोई देने आता है तो हम उससे भी कहते हैं, आगे जाओ! और तब बडी भूल हो जाती है, बड़ी भूल हो जाती है। ऐसी भूल नहीं होगी, ऐसी आशा करता हूं।

तीन दिन में यहां की पूरी हवा को ऐसा करें कि कुछ हो सके। हो सकता है। और प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर है यहां की हवा, यहां के वातावरण को बनाना। तीन दिन में यह पूरा का पूरा सरू—वन चार्ब्द हो सकता है—बहुत अनजानी शक्तियों से, अनजानी ऊर्जाओं से। ये सारे वृक्ष, ये सारे रेत के कण, ये हवाएं, यह सागर—यह सब का सब एक नई प्राण—ऊर्जा से भर सकता है; हम सब उसे पैदा करने में सहयोगी हो सकते हैं। कोई उसमें बाधा न बने, यह ध्यान रखे। कोई दर्शक न रहे यहां। कोई दर्शक की तरह बैठा न रहे। और किसी तरह का संकोच, भय, कोई क्या कहेगा, कोई क्या सोचेगा, सब छोड़ दें! तो ही उस तक पहुंचना हो सकता है।

कबीर की तरह आपको न कहना पड़े। आप कह सकें कि नहीं, हम डरे नहीं और कूद गए।

मेरी बातें इतनी शांति और प्रेम से सुनीं, उससे अनुगृहीत हूं। और आप सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

 

हमारी रात की बैठक पूरी हुई।

 


Filed under: जिन खोजा तिन पाइयां--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–2)

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बुंद समानी समुंद में—(प्रवचन—दूसरा)

(कुंडलिनी—योग साधना शिविर)

नारगोल

 मेरे प्रिय आत्मन्!

र्जा का विस्तार है जगत और ऊर्जा का सघन हो जाना ही जीवन है। जो हमें पदार्थ की भांति दिखाई पड़ता है, जो पत्थर की भांति भी दिखाई पड़ता है, वह भी ऊर्जा, शक्ति है। जो हमें जीवन की भांति दिखाई पड़ता है, जो विचार की भांति अनुभव होता है, जो चेतना की भांति प्रतीत होता है, वह भी उसी ऊर्जा, उसी शक्ति का रूपांतरण है। सारा जगत—चाहे सागर की लहरें, और चाहे सरू के वृक्ष, और चाहे रेत के कण, और चाहे आकाश के तारे, और चाहे हमारे भीतर जो है वह, वह सब एक ही शक्ति का अनंत—अनंत रूपों में प्रगटन है।

ऊर्जामय विराट जीवन:

हम कहां शुरू होते हैं और कहां समाप्त होते हैं, कहना मुश्किल है।

हमारा शरीर भी कहां समाप्त होता है, यह भी कहना मुश्किल है। जिस शरीर को हम अपनी सीमा मान लेते हैं, वह भी हमारे शरीर की सीमा नहीं है। दस करोड़ मील दूर सूरज है, अगर ठंडा हो जाए, तो हम यहां अभी ठंडे हो जाएंगे। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे होने में सूरज पूरे समय मौजूद है, और हमारे शरीर का हिस्सा है; सूरज ठंडा हुआ कि हम ठंडे हुए; सूरज की गर्मी हमारे शरीर की गर्मी है।

चारों तरफ फैली हुई हवाओं का सागर है, वहां से प्राण हमें उपलब्ध होता है। वह न उपलब्ध हो, हम अभी मृत हो जाएं। तो जो श्वास हम ले रहे हैं, वह श्वास हमें भीतर से भी जोड़े है, हमें बाहर से भी जोड़े है।

कहां हमारे शरीर का अंत है?

यदि पूरी खोज करें तो पूरा जगत ही हमारा शरीर है। अनंत, असीम हमारा शरीर है। और ठीक से खोज करें तो सब जगह हमारे जीवन का केंद्र है, और सब जगह विस्तार है। लेकिन इसकी प्रतीति और इसके अनुभव के लिए हमें स्वयं भी अत्यंत जीवंत ऊर्जा, लिविंग एनर्जी बन जाना जरूरी है।

बुंद समानी समुंद में:

जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं वह हमारे भीतर ठहर गई, अवरुद्ध हो गई धाराओं को सब भांति मुक्त कर देने का नाम है। जब आप ध्यान में प्रविष्ट होंगे, तो आपके भीतर जो ऊर्जा छिपी है, जो एनर्जी छिपी है, वह इतने जोर से जागे कि बाहर की ऊर्जा से उसका संबंध स्थापित हो जाए। और जैसे ही बाहर की शक्तियों से उसका संबंध स्थापित होता है, वैसे ही हम एक छोटे से पत्ते रह जाते हैं अनंत हवाओं में कंपते हुए; हमारा अपना होना खो जाता है; हम विराट के साथ एक हो जाते हैं।

उस विराट के साथ एक होने पर क्या जाना जाता है, अब तक मनुष्य ने कहने की बहुत कोशिश की है, लेकिन नहीं कहा जा सका। कबीर कहते हैं, मैं खोजने गया था। खोजा बहुत, खोजते—खोजते मैं खुद ही खो गया। और मिला वह जरूर, लेकिन तब मिला जब मैं खो गया। और इसलिए अब कौन बताए कि क्या मिला? कैसे बताए?

पहली बार जब कबीर को अनुभूति हुई तो उन्होंने जो कहा था, फिर पीछे उसे बदल दिया। पहली बार जब उन्हें अनुभव हुआ तो उन्होंने कहा, ऐसा लगा कि जैसे बूंद सागर में गिर गई है। उनके वचन हैं

हेरत—हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।।

खोजते—खोजते कबीर खो गया, बूंद सागर में गिर गई, अब उसे कैसे वापस लौटाएं?

समुंद समाना बुंद में:

लेकिन फिर बाद में उन्होंने बदल दिया। और बदलाहट बड़ी मूल्यवान है। बाद में उन्होंने कहा कि नहीं—नहीं, कुछ गलती हो गई; बूंद समुद्र में नहीं गिरी, समुद्र ही बूंद में गिर गया। और बूंद समुद्र में गिरी हो तो वापस भी लौटा ले कोई, लेकिन अगर समुद्र ही बूंद में गिरा हो तब तो बड़ी कठिनाई है। और बूंद अगर समुद्र में गिरे तो बूंद कुछ बता भी सके, लेकिन अगर बूंद में ही समुद्र गिरे तब तो बहुत कठिनाई है। तो बाद में उन्होंने कहा

हेरत—हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।।

भूल हो गई थी पहली दफा कि कहा कि बूंद गिर गई सागर में।

ऊर्जा के सागर से मिलन:

और जब हम ऊर्जा के स्पंदन मात्र रह जाते हैं, तब ऐसा नहीं होता कि हम सागर में गिरते हैं, जब हम कंपते हुए जीवंत स्पंदन मात्र रह जाते हैं, तो अनंत ऊर्जा का सागर हममें गिर पड़ता है। निश्चित ही, फिर कहना मुश्किल है कि क्या होता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि जो होता है वह हमें पता नहीं चलता। ध्यान रहे, कहने और पता चलने में सदा सामंजस्य नहीं है। जो हम जान पाते हैं, वह कह नहीं पाते। जानने की क्षमता असीम है और शब्दों की क्षमता बहुत सीमित है। बड़े अनुभव दूर, छोटे अनुभव भी हम नहीं कह पाते। अगर मेरे सिर में दर्द है, तो वह भी मैं नहीं कह पाता। और अगर मेरे हृदय में प्रेम की पीड़ा है, तो वह भी नहीं कह पाता हूं। पर ये तो बड़े छोटे अनुभव हैं। और जब परमात्मा हम पर गिर पड़ता है, तब जो होता है उसे तो कहना बिलकुल ही कठिन है। लेकिन जान हम जरूर पाते हैं।

पर उस जानने के लिए हमें सब भांति शक्ति का एक स्पंदन मात्र रह जाना जरूरी है। जैसे एक आधी, एक तूफान, ऐसा शक्ति का एक उबलता हुआ झरना भर हम हो जाएं। हम इतने जोर से स्पंदित हों— हमारा रोआं—रोआं, हृदय की धड़कन— धड़कन, श्वास—श्वास उसकी प्यास, उसकी प्रार्थना, उसकी प्रतीक्षा से इस भांति भर जाए कि हम प्यास ही रह जाएं, प्रतीक्षा ही रह जाएं; हमारा होना ही मिट जाए। उस क्षण में ही उससे मिलन है। और वह मिलन कहीं बाहर घटित नहीं होता। जैसा मैंने रात कहा, वह मिलन हमारे भीतर ही घटित होता है। हमारे भीतर ही सोए हुए केंद्र हैं। हमारे सोए केंद्र से ही शक्ति उठेगी और ऊपर फैल जाएगी।

एक बीज पड़ा है। फिर एक फूल खिलता है। फूल और बीज को जोड्ने के लिए वृक्ष को तना बनाना पड़ता है, शाखाएं फैलानी पड़ती हैं। फूल छिपा था बीज में ही, कहीं बाहर से नहीं आता। लेकिन प्रकट होने के लिए बीज और फूल तक के बीच में जोड़नेवाला एक तना चाहिए। वह तना भी बीज से निकलेगा, वह फूल भी बीज से निकलेगा।

हमारे भीतर भी बीज—ऊर्जा, सीड—फोर्स पड़ी हुई है। उठेगी। तने की जरूरत है। वह तना भी हमारे भीतर उपलब्ध है। जिसे हम रीढ़ की तरह जानते हैं बाहर से, ठीक उसके निकट ही वह यात्रा—पथ है जहां से बीज—ऊर्जा उठेगी और फूल तक पहुंच जाएगी। वह फूल बहुत नामों से पुकारा गया है। हजार पंखुड़ियों वाले कमल की तरह जिन्हें उसका अनुभव हुआ है, उन्होंने कहा है, हजार पंखुड़ियों वाले कमल की तरह। जैसे हजार पंखुड़ियों वाला कमल खिल जाए, ऐसा हमारे मस्तिष्क में कुछ खिलता है, कुछ फ्लावर होता है। लेकिन उसके खिलने के लिए नीचे से शक्ति का ऊपर तक पहुंच जाना जरूरी है।

शक्ति जागरण का साहसपूर्वक स्वीकार:

और जब यह शक्ति ऊपर की तरफ उठना शुरू होगी, तो जैसे भूकंप आ जाएगा, जैसे अर्थकेक्क हो गया हो, ऐसा पूरा व्यक्तित्व कैप उठेगा। उस कंपन को रोकना नहीं है, उस कंपन में सहयोगी होना है, कोआपरेट करना है। साधारणत: हम रोकना चाहेंगे। अब मुझे कई लोग आकर कहते हैं कि डर लगता है कि पता नहीं क्या हो जाए!

अगर डरेंगे तो गति न हो पाएगी। भय से ज्यादा अधार्मिक और कोई वृत्ति नहीं है। भय से बड़ा और कोई पाप नहीं है। फियर जो है, शायद वह सबसे गहरा है। नीचे रखने में हमें, सबसे बड़ा पत्थर वही है। और भय बड़े अजीब हैं, और बड़े क्षुद्र हैं। कोई मुझे आकर कहता है कि ऐसा लगता है पास—पड़ोस के बैठे लोग क्या कहेंगे कि यह मुझे क्या हो रहा है!

पास—पड़ोस के लोगों का भय हमें परमात्मा से रोक ले सकता है। शिष्ट और सभ्य मनुष्य ने पूरी तरह हंसना बंद कर दिया, पूरी तरह रोना बंद कर दिया; ऐसी कोई वृत्ति, ऐसा कोई भाव नहीं जिसमें वह पूरा डूबे। वह हर चीज के बाहर खड़ा रह जाता है। त्रिशंकु की तरह लटका रह जाता है। हंसते हैं तो हम डरे हुए, रोते हैं तो हम डरे हुए। पुरुषों ने तो जैसे रोना छोड़ ही दिया। उनको खयाल ही नहीं है कि रोना भी कुछ आयाम है, वह भी कोई दिशा है।

हमारे खयाल में नहीं है कि जो नहीं रो सकता, उस व्यक्तित्व में कुछ बुनियादी कमी हो गई; उस व्यक्तित्व का कोई एक हिस्सा सदा के लिए कुंठित हो गया; और वह हिस्सा सदा पत्थर के बोझ की तरह उसके ऊपर अटका रहेगा।

जिन्हें ऊर्जा के जगत में प्रवेश करना है, उस सुप्रीम एनर्जी की यात्रा करनी है, उन्हें सब भय छोड़ देने पड़ेंगे। और सरल होकर, अगर शरीर कंपता हो, कंपित होता हो, गिरता हो, नाचने लगता हो……..

आंतरिक रूपांतरण की ध्यान—प्रक्रिया : योगविद्या का स्रोत:

यह जानकर आपको आश्चर्य होगा, लेकिन जान लेना जरूरी है कि जितने भी योगासन हैं, वे सब ध्यान की स्थितियों में आकस्मिक रूप से ही उपलब्ध हुए हैं। उन्हें किसी ने बैठकर, सोचकर निर्मित नहीं किया। उन्हें किसी ने बैठकर तैयार नहीं किया है। वह तो ध्यान की स्थिति में शरीर ने वैसी स्थितियां ले ली हैं और तब पता चला कि ये स्थितियां हैं। और तब धीरे— धीरे एसोसिएशन भी पता चला कि जब मन एक दशा में जाता है तो शरीर इस दशा में चला जाता है। तब फिर यह खयाल में आ गया कि अगर शरीर को इस दशा में ले जाया जाए तो मन उस दशा में चला जाएगा।

जैसे हमें पता है कि अगर भीतर रोना भर जाए तो आंख से आंसू आ जाते हैं। अगर आंख से आंसू आ जाएं तो भीतर रोना भर जाएगा। ये एक ही चीज के दो छोर हो गए। जैसे हमें क्रोध आता है तो किसी के सिर के ऊपर हमारा हाथ उसे मारने को उठ जाता है। जैसे हमें क्रोध आता है तो मुट्ठियां बंध जाती हैं; जैसे हमें क्रोध आता है तो दांत भिंच जाते हैं; जैसे हमें क्रोध आता है तो आंखें लाल हो जाती हैं। और जब प्रेम आता है तब तो मुट्ठियां नहीं भिचतीं, तब तो दांत नहीं भिंचते, तब तो आंखें लाल नहीं हो जातीं। जब प्रेम आता है तो कुछ और होता है— अगर मुट्ठियां भिंची भी हों तो खुल जाती हैं, अगर दांत भिंचे भी हों तो खुल जाते हैं, अगर आंख लाल भी हो तो शांत हो जाती है। प्रेम की अपनी व्यवस्था है। ऐसे ही ध्यान की प्रत्येक स्थिति में भी शरीर की अपनी व्यवस्था है।

इसको ऐसा समझें कि अगर शरीर की उस व्यवस्था में आपने बाधा डाली तो भीतर चित्त की व्यवस्था में बाधा पड़ जाएगी। जैसे अगर कोई आपसे कहे कि क्रोध करिए, लेकिन आंखें लाल न हों; क्रोध करिए, लेकिन मुट्ठी न भिंचे; क्रोध करिए, लेकिन दांत न भिंचे। तो आप क्रोध न कर पाएंगे; क्योंकि शरीर का यह जो आनुषांगिक हिस्सा है, इसके बिना आप कैसे क्रोध कर पाएंगे? अगर कोई कहे कि सिर्फ क्रोध करिए, और शरीर पर कोई परिणाम न हो, तो आप क्रोध न कर पाएंगे। अगर कोई कहे कि सिर्फ प्रेम करिए, लेकिन आपकी आंखों से अमृत न बरसे, और आपके हाथों में प्रेम की लहरें न दौड़े, और आपका हृदय न धड़कने लगे, और आपकी श्वास और तरह से न चलने लगे— आप सिर्फ प्रेम करिए, शरीर पर कुछ प्रकट मत होने दीजिए; तो आप कहेंगे, बहुत मुश्किल है, यह नहीं हो सकता।

योगासनों का जन्म:

तो जब ध्यान की स्थितियों में शरीर विशेष—विशेष रूप से मुड़ने लगे, घूमने लगे, तब अगर आप उसे रोकते हों, तो भीतर की स्थिति को भी उगप पंगु कर देंगे। वह स्थिति फिर आगे नहीं बढ़ेगी।

जितने योगासन हैं वे सब ध्यान की स्थितियों में ही उपलब्ध हुए; मुद्राओं का बहुत विस्तार हुआ। अनेक प्रकार की… आपने बुद्ध की मूर्तियां देखी होंगी बहुत मुद्राओं में। वे मुद्राएं भी मन की किन्हीं विशेष अवस्थाओं में पैदा हुईं। फिर तो मुद्राओं का एक शास्त्र बन गया। फिर तो बाहर से देखकर कहा जा सकता है, अगर आप झूठ न कर रहे हों और ध्यान में सीधे बह जाएं, तो आपकी जो मुद्रा बनेगी उसे देखकर भी बाहर से कहा जा सकता है कि भीतर आपके क्या हो रहा है।

उसको भी रोक नहीं लेना है।

नृत्य का जन्म ध्यान में:

मेरी अपनी समझ में तो नृत्य भी पहली बार ध्यान में ही जन्मा है। मेरी समझ में तो जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसके कहीं मूल स्रोत ध्यान से संबंधित हैं। मीरा कहीं नाचना सीखने नहीं गई। और लोग सोचते होंगे कि मीरा ने नाच—नाचकर भगवान को पा लिया, तो गलत सोचते हैं। मीरा ने भगवान को पा लिया इसलिए नाच उठी। बात बिलकुल दूसरी है। नाच—नाचकर कोई भगवान को नहीं पाता। लेकिन कोई भगवान को पा ले तो नाच सकता है। और जब समुद्र गिरे बूंद में, और बूंद नाचने न लगे तो क्या करे? और जब किसी भिखारी के द्वार पर अनंत खजाना टूट पडे, और भिखारी न नाचे तो क्या करे?

ध्यान से दमित व्यक्तित्व का विसर्जन:

लेकिन सभ्यता ने मनुष्य को ऐसा जकड़ा है कि वह नाच भी नहीं सकता। मेरी समझ में, दुनिया को अगर वापस धार्मिक बनाना हो तो हमें जीवन की सहजता को वापस लौटाना पडे।

तो यह हो सकता है कि जब ध्यान की ऊर्जा जगे आपके भीतर तो सारे प्राण नाचने लगें, उस वक्त आप शरीर को मत रोक लेना। अन्यथा बात वहीं ठहर जाएगी, रुक जाएगी; और कुछ होनेवाला था, वह नहीं हो पाएगा। लेकिन हम बड़े डरे हुए लोग हैं। हम कहेंगे कि अगर मैं नाचने लगू मेरी पत्नी पास बैठी है, मेरा बेटा पास बैठा है, वे क्या सोचेंगे, कि पिता जी और नाचते हैं! अगर मैं नाचने लगै तो पति पास बैठे हैं, वे क्या सोचेंगे, कि मेरी पत्नी पागल तो नहीं हो गई।

अगर ये भय रहे तो उस भीतर की यात्रा पर गति नहीं हो पाएगी।

और शरीर की मुद्राओं, आसनों के साथ—साथ और बहुत कुछ भी प्रकट होता है।

एक बड़े विचारक हैं। न मालूम कितने संन्यासी, साधुओं, आश्रमों, न मालूम कहां—कहां गए। इधर कोई छह महीने पहले मेरे पास आए। तो उन्होंने कहा, सब समझ में आता है, लेकिन मुझे कुछ होता नहीं।

फिर, मैंने उनसे कहा, आप होने न देते होंगे।

वे कुछ विचार में पड़ गए। उन्होंने कहा, यह मेरे खयाल में नहीं आया। शायद आप ठीक कहते हैं। लेकिन, एक बार आपके ध्यान में आया था, वहां मैंने किसी को रोते देखा, तो मैं तो बहुत सम्हलकर बैठ गया कि कहीं भूल—चूक से ऐसा मुझे न हो जाए, अन्यथा लोग क्या कहेंगे!

लोगों से प्रयोजन क्या है? ये लोग कौन हैं जो सबके पीछे पड़े हुए हैं? और लोग, जब मरेंगे तो बचाने न आएंगे; और लोग, जब आप दुख में होंगे तो दुख छीनने न आएंगे; और लोग, जब आप भटकेंगे अंधेरे में तो दीया न जलाएंगे। लेकिन जब आपका दीया जलने को हो, तब अचानक लोग आपको रोक लेंगे। ये लोग कौन हैं? कौन आपको रोकने आता है? आप ही अपने भय को लोग बना लेते हैं, आप ही अपने भय को फैला लेते हैं चारों तरफ।

वे मुझसे कहने लगे, हो सकता है; मैं तो डर गया जब मैंने किसी को रोते देखा और मैं सम्हलकर बैठ गया कि कहीं कुछ ऐसा मुझसे न हो जाए। मैंने उनसे कहा, आप एक महीने एकांत में चले जाएं; और जो होता हो होने दें। उन्होंने कहा, क्या मतलब? मैंने कहा कि अगर गालियां बकने का मन होता हो तो बके, चिल्लाने का मन होता हो तो चिल्लाएं; रोने का होता हो, रोएं; नाचने का होता हो, नाचे, दौड़ने का होता हो, दौड़े; पागल होने का मन होता हो तो महीने भर के लिए पागल हो जाएं। उन्होंने कहा, मैं न जा सकूंगा। मैंने कहा, क्यों? उन्होंने कहा कि आप जैसा कहते हैं, मुझे कई बार डर लगता है कि अगर मैं अपने को बिलकुल छोड़ दूं जैसा सहज आप कहते हैं, तो ठीक है कि मुझमें पागलपन प्रकट हो जाएगा।

तो मैंने उनसे कहा, आप दबाए रहेंगे, इससे कुछ फर्क तो नहीं पड़ता। प्रकट होगा तो निकल जाएगा, दबा रहेगा तो सदा आपके साथ रह जाएगा।

हम सबने बहुत कुछ सप्रेस किया है, दबाया है। न हम रोए हैं, न हम हंसे हैं, न हम नाचे हैं, न हम खेले हैं, न हम दौड़े हैं। हमने सब दबा लिया है, हमने अपने भीतर सब तरफ से द्वार बंद कर लिए हैं। और हर द्वार पर हम पहरेदार होकर बैठ गए हैं।

अब अगर हमें परमात्मा से मिलने जाना हो तो ये दरवाजे खोलने पड़ेंगे। तो डर लगेगा, क्योंकि जो—जो हमने रोका है वह प्रकट हो सकता है। अगर आपने रोना रोका है तो रोना बहेगा; हंसना रोका है, हंसना बहेगा।

उस सबको बह जाने दें, उस सबको निकल जाने दें।

यहां तो हम आए ही इसलिए इस एकांत में हैं कि यहां लोगों का भय न हो। और सरू के वृक्ष, बिलकुल ही उनका संकोच न करें, वे आपसे कुछ भी न कहेंगे, बल्कि वे बडे प्रसन्न होंगे। और सागर की लहरें भी आपसे कुछ न कहेंगी। वे किसी से भयभीत नहीं हैं। जब उन्हें शोर करना होता है, वे शोर करती हैं; जब उन्हें सो जाना होता है, वे सो जाती हैं। और आपके नीचे पड़े हुए रेत के कण भी कुछ न कहेंगे। यहां कोई कुछ न कहेगा।

ऊर्जा के साथ सहयोग करो:

आप अपने को पूरी तरह छोड़ दें और जो आपके भीतर होता है उसे होने दें—नाचना हो नाचे, चिल्लाना हो चिल्लाएं, दौड़ना हो दौड़े, गिरना हो गिरे—छोड़ दें सब भांति। और जब आप सब भांति छोड़ेंगे तब आप अचानक पाएंगे कि आपके भीतर वर्तुल बनाती हुई कोई ऊर्जा उठने लगी; कोई शक्ति आपके भीतर जगने लगी, सब तरफ द्वार टूटने लगे। उस वक्त भय मत करना। उस वक्त समग्र रूप से उस आंदोलन में, उस मूवमेंट में, जो आपके भीतर पैदा होगा, वह जो शक्ति आपके भीतर वर्तुल बनाकर घूमने लगेगी, उसके साथ एक हो जाना, अपने को उसमें छोड़ देना। तो घटना घट सकती है।

घटना घटना बहुत आसान है। लेकिन हम अपने को छोड़ने को तैयार नहीं होते। और कैसी छोटी चीजें हमें रोकती हैं, जिस दिन आप कहीं पहुंचेंगे उस दिन पीछे लौटकर बहुत हंसेंगे कि कैसी चीजों ने मुझे रोका था! रोकनेवाली बड़ी चीजें होतीं तो ठीक था, रोकनेवाली बहुत छोटी चीजें हैं।

कुछ पूछना हो, कुछ बात करनी हो, तो थोड़ी देर हम बात कर लें, और फिर ध्यान के लिए बैठें। कुछ भी पूछना हो तो पूछें।

जीना ही जीवन का उद्देश्य है:

प्रश्न:

 

ओशो आपने कल बताया था कि जीवन में उद्देश्य होना चाहिए। प्रकृति में सब कुछ निष्प्रयोजन है? निरुद्देश्य है। तो फिर हम ही क्यों उद्देश्य या प्रयोजन लेकर चलें?

 

निश्चित ही! वे मित्र पूछते हैं कि प्रकृति में सभी निरुद्देश्य है, तो हम ही क्यों उद्देश्य लेकर चलें?

अगर सब उद्देश्य छोड़ सको तो इससे बड़ा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता। अगर प्रकृति जैसे हो सको तो सब हो गया। लेकिन आदमी अप्राकृतिक हो गया है, इसलिए वापस लौटने के लिए, उसे प्रकृति तक जाने के लिए भी उद्देश्य बनाना पड़ता है। यह दुर्भाग्य है। वही तो मैं कह रहा हूं कि सब छोड़ दो। लेकिन अभी तो हमने इतना पकड़ लिया है कि छोड़ना भी हमें एक उद्देश्य ही होगा। वह भी हमें छोड़ना पड़ेगा। हमने इतने जोर से पकड़ा है कि हमें छोड़ने में भी मेहनत करनी पड़ेगी। हालांकि छोड़ने में कोई मेहनत की जरूरत नहीं है। छोड़ने में क्या मेहनत करनी होगी!

यह ठीक है कि कहीं कोई उद्देश्य नहीं है। क्यों नहीं है लेकिन? नहीं होने का कारण यह नहीं है कि निरुद्देश्य है प्रकृति; नहीं होने का कारण यह है कि जो है, उसके बाहर कोई उद्देश्य नहीं है।

एक फूल खिला। वह किसी के लिए नहीं खिला है; और किसी बाजार में बिकने के लिए भी नहीं खिला है; राह से कोई गुजरे और उसकी सुगंध ले, इसलिए भी नहीं खिला है, कोई गोल्ड मेडल उसे मिले, कोई महावीर चक्र मिले, कोई पद्यश्री मिले, इसलिए भी नहीं खिला है। फूल बस खिला है, क्योंकि खिलना आनंद है; खिलना ही खिलने का उद्देश्य है। इसलिए ऐसा भी कह सकते हैं कि फूल निरुद्देश्य खिला है। और जब कोई निरुद्देश्य खिलेगा तभी पूरा खिल सकता है, क्योंकि जहां उद्देश्य है भीतर वहां थोड़ा अटकाव हो जाएगा। अगर फूल इसलिए खिला है कि कोई निकले, उसके लिए खिला है, तो अगर वह आदमी अभी रास्ते से नहीं निकल रहा तो फूल अभी बंद रहेगा; जब वह आदमी आएगा तब खिलेगा। लेकिन जो फूल बहुत देर बंद रहेगा, हो सकता है उस आदमी के पास आ जाने पर भी खिल न पाए, क्योंकि न खिलने की आदत मजबूत हो जाएगी। नहीं, फूल इसीलिए पूरा खिल पाता है कि कोई उद्देश्य नहीं है।

ठीक ऐसा ही आदमी भी होना चाहिए। लेकिन आदमी के साथ कठिनाई यह है कि वह सहज नहीं रहा है, वह असहज हो गया है। उसे सहज तक वापस लौटना है। और यह लौटना फिर एक उद्देश्य ही होगा।

तो मैं जब उद्देश्य की बात करता हूं तो वह उसी अर्थों में जैसे पैर में कांटा लग गया हो, और दूसरे कांटे से उसे निकालना पड़े। अब कोई आकर कहे कि मुझे कांटा लगा ही नहीं है तो मैं क्यों कांटे को निकालूं? उससे मैं कहूंगा, निकालने का सवाल ही नहीं है, तुम पूछने ही क्यों आए हो? कांटा नहीं लगा है, तब बात ही नहीं है। लेकिन कांटा लगा है, तो फिर दूसरे कांटे से निकालना पड़ेगा।

वह मित्र यह भी कह सकता है कि एक कांटा तो वैसे ही मुझे परेशान कर रहा है, अब आप दूसरा कांटा और पैर में डालने को कहते हो!

पहला कांटा परेशान कर रहा है, लेकिन एक कांटे को दूसरे कांटे से ही निकालना पड़ेगा। हां, एक बात ध्यान रखनी जरूरी है कि दूसरे कांटे को घाव में वापस मत रख लेना—कि इस कांटे ने बड़ी कृपा की, एक कांटे को निकाला; तो अब इस कांटे को हम अपने पैर में रख लें। तब नुकसान हो जाएगा। जब कांटा निकल जाए तो दोनों कांटे फेंक देना।

जब हमारा जो हमने अप्राकृतिक जीवन बना लिया है, जब वह सहज हो जाए, तो अप्राकृतिक को भी फेंक देना और सहज को भी फेंक देना; क्योंकि जब सहज पूरा होना हो, तो सहज होने का खयाल भी बाधा देता है। फिर तो जो होगा, होगा। नहीं, मैं नहीं कहता हूं कि उद्देश्य चाहिए। इसलिए कहना पड़ता है उद्देश्य कि आपने उद्देश्य पकड़ रखे हैं, कांटे लगा रखे हैं, अब उन कांटों को कीटों से ही निकालना पड़ेगा।

जड और चेतन:

प्रश्न:

 

ओशो मन बुद्धि चित्त और अहंकार ये पृथक— पृथक वस्तुएं हैं, एन्टाइटीज है, या एक चीज है? और आत्मा इनसे भित्र है या इनके समूह को ही आत्मा कहा जाता है? और इनमें से जड़ कौन सी चीज है और चेतन कौन सी चीज है? और उनका विशिष्ट स्थान कौन सा है शरीर में?

मित्र पूछते हैं कि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, ये अलग—अलग हैं, अलग—अलग एन्टाइटीज हैं, अलग—अलग वस्तुएं हैं या एक ही हैं? और वे यह भी पूछते हैं कि ये आत्मा से अलग हैं या आत्मा के साथ ही एक हैं? और वे यह भी पूछते हैं कि ये जड़ हैं या चेतन हैं, या क्या जड़ है और क्या चेतन है? और उनका विशिष्ट स्थान कौन सा है शरीर में?

पहली बात तो यह, इस जगत में जड़ और चेतन जैसी दो वस्तुएं नहीं हैं। जिसे हम जड़ कहते हैं, वह सोया हुआ चेतन है; और जिसे हम चेतन कहते हैं, वह जागा हुआ जड़ है। असल में जड़ और चेतन जैसे दो पृथक अस्तित्व नहीं हैं, अस्तित्व तो एक का ही है। उस एक का नाम ही परमात्मा है, ब्रह्म है—कोई और नाम दें— और वह एक ही, जब सोया हुआ है तब जड़ मालूम होता है, और जब जागा हुआ है तब चेतन मालूम होता है।

इसलिए जड़ और चेतन के ऐसे दो भेद करके न चलें, कामचलाऊ शब्द हैं, लेकिन ऐसी कोई दो चीजें नहीं हैं। विज्ञान भी इस नतीजे पर पहुंच गया है कि जड़ जैसी कोई चीज नहीं है, मैटर जैसी कोई चीज नहीं है।

पदार्थ और परमात्मा:

यह बड़े मजे की बात है कि आज से पचास—साठ साल पहले नीत्शे ने यह घोषणा की कि ईश्वर मर गया है। और पचास साल बाद विज्ञान को यह घोषणा करनी पड़ी कि ईश्वर मरा हो या न मरा हो, लेकिन मैटर जरूर मर गया है, पदार्थ अब नहीं है। क्योंकि जैसे—जैसे पदार्थ के भीतर विज्ञान उतरा तो पाया कि पदार्थ के गहरे उतरो, गहरे उतरो— पदार्थ खो जाता है और सिर्फ एनर्जी, ऊर्जा रह जाती है।

अणु के विस्फोट पर जो बचता है—परमाणु, वह सिर्फ ऊर्जा—क्या है। परमाणु के विस्फोट पर जो इलेक्ट्रांस, पाजिट्रांस और न्‍यूट्रांन बचते हैं, वे केवल विद्युत—कण हैं। उन्हें कण कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि कण से पदार्थ का बोध होता है। इसलिए अंग्रेजी में एक नया शब्द ही खोजना पड़ा है—क्वांटा। क्वांटा का मतलब ही कुछ और होता है। कांटा का मतलब होता है जो दोनों है—कण भी और लहर भी—एक साथ। समझना ही मुश्किल पड़ जाता है कि कोई चीज कण और लहर एक साथ कैसे होगी? वह दोनों एक साथ है। ये दोनों उसके बिहेवियर हैं। वह कभी कण की तरह दिखाई पड़ती है और कभी लहर की तरह। अब लहर यानी ऊर्जा और कण यानी पदार्थ। और वह दोनों एक ही है।

विज्ञान गहरे गया तो उसने पाया कि सिर्फ ऊर्जा है, एनर्जी है। और अध्यात्म गहरे गया तो उसने पाया कि सिर्फ आत्मा है। और आत्मा एनर्जी है, आत्मा ऊर्जा है। इसलिए बहुत शीघ्र, बहुत जल्दी वह सिंथीसिस, वह समन्वय उपलब्ध हो जाएगा जहां विज्ञान और धर्म के बीच फासला तोड़ देना पड़ेगा। जब पदार्थ और परमात्मा के बीच का फासला झूठा सिद्ध हुआ, तो कितने दिन लगेंगे कि विज्ञान और धर्म के बीच के फासले को हम बचा सकें? अगर जड़ और चेतन दो नहीं हैं, तो धर्म और विज्ञान भी दो नहीं रह सकते। वे उसी भेद पर दो थे।

अस्तित्व अद्वैत है:

मेरी दृष्टि में, दो का अस्तित्व नहीं है, एक ही है। तब फिर यह सवाल नहीं उठता कि कौन जड़ है, कौन चेतन है। अगर आपको जड़ की भाषा पसंद है तो आप कहिए, सब जड़ है; अगर आपको चेतन की भाषा पसंद है तो कहिए, सब चेतन है। लेकिन मुझे चेतन की भाषा पसंद है। और क्यों पसंद है? क्योंकि भाषा सदा ऊपर की चुननी चाहिए, जिसमें संभावना ज्यादा हो, नीचे की नहीं चुननी चाहिए, उसमें संभावना कम हो जाती है।

जैसे कि हम यह कह सकते हैं कि वृक्ष हैं ही नहीं, बस बीज हैं। गलत नहीं है यह बात, क्योंकि वृक्ष सिर्फ बीज का ही रूपांतरण है। हम कह सकते हैं : बीज ही हैं, वृक्ष नहीं हैं। लेकिन खतरा है इसमें। इसमें खतरा यह है कि कुछ बीज कहें, जब बीज ही हैं तो हम वृक्ष क्यों बनें? वे बीज ही रह जाएं। नहीं, ज्यादा अच्छा होगा कि हम कहें : वृक्ष ही हैं, बीज नहीं हैं। तब बीज को वृक्ष बनने की संभावना खुल जाती है।

चेतन की भाषा’ मुझे पसंद है, वह इसलिए कि जो अभी सोया हुआ है वह जाग सके, वह संभावना का द्वार खोलती है। पदार्थवादी और अध्यात्मवादी में एक समानता है कि वे एक को ही स्वीकार करते हैं। असमानता एक है कि पदार्थवादी बहुत प्राथमिक चीज को मान लेता है, और इसलिए अंतिम से रुक सकता है। अध्यात्मवादी अंतिम को स्वीकार करता है, इसलिए पहला तो उसमें आ ही जाता है, वह कहीं जाता नहीं। मुझे अध्यात्म की भाषा प्रीतिकर है, और इसलिए कहता हूं कि सब चेतन है— सोया हुआ चेतन जड़ है; जागा हुआ चेतन चेतन है। समस्त चेतना है।

मन के विविध रूप : बुद्धि, चित्त, अहंकार:

दूसरी बात उन्होंने पूछी है कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार—यें क्या अलग—अलग हैं?

ये अलग—अलग नहीं हैं, ये मन के ही बहुत चेहरे हैं। जैसे कोई हमसे पूछे कि बाप अलग है, बेटा अलग है, पति अलग है? तो हम कहें कि नहीं, वह आदमी तो एक ही है। लेकिन किसी के सामने वह बाप है, और किसी के सामने वह बेटा है, और किसी के सामने वह पति है, और किसी के सामने मित्र है और किसी के सामने शत्रु है; और किसी के सामने सुंदर है और किसी के सामने असुंदर है, और किसी के सामने मालिक है और किसी के सामने नौकर है। वह आदमी एक है। और अगर हम उस घर में न गए हों, और हमें कभी कोई आकर खबर दे कि आज मालिक मिल गया था, और कभी कोई आकर खबर दे कि आज नौकर मिल गया था, और कभी कोई आकर कहे कि आज पिता से मुलाकात हुई थी, और कभी कोई आकर कहे कि आज पति घर में बैठा हुआ था, तो हम शायद सोचें कि बहुत लोग इस घर में रहते हैं—कोई मालिक, कोई पिता, कोई पति।

हमारा मन बहुत तरह से व्यवहार करता है। हमारा मन जब अकड़ जाता है और कहता है. मैं ही सब कुछ हूं और कोई कुछ नहीं, तब वह अहंकार की तरह प्रतीत होता है। वह मन का एक ढंग है; वह मन के व्यवहार का एक रूप है। तब वह अहंकार, जब वह कहता हैं—मैं ही सब कुछ! जब मन घोषणा करता है कि मेरे सामने और कोई कुछ भी नहीं, तब मन अहंकार है। और जब मन विचार करता है, सोचता है, तब वह बुद्धि है। और जब मन न सोचता, न विचार करता, सिर्फ तरंगों में बहा चला जाता है, अन—डायरेक्टेड…….। जब मन डायरेक्यान लेकर सोचता है—एक वैज्ञानिक बैठा है प्रयोगशाला में और सोच रहा है कि अणु का विस्फोट कैसे हो—डायरेक्टेड थिंकिंग, तब मन बुद्धि है। और जब मन निरुद्देश्य, निर्लक्ष्य, सिर्फ बहा जाता है— कभी सपना देखता है, कभी धन देखता है, कभी राष्ट्रपति हो जाता है—तब वह चित्त है, तब वह सिर्फ तरंगें मात्र है। और तरंगें असंगत, असंबद्ध, तब वह चित्त है। और जब वह सुनिश्चित एक मार्ग पर बहता है, तब वह बुद्धि है।

ये मन के ढंग हैं बहुत, लेकिन मन ही है।

मन और आत्मा : चेतना के दो रूप:

और वे पूछते हैं कि ये मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और आत्मा अलग हैं या एक हैं?

सागर में तूफान आ जाए, तो तूफान और सागर एक होते हैं या अलग? विक्षुब्ध जब हो जाता है सागर तो हम कहते हैं, तूफान है। आत्मा जब विक्षुब्ध हो जाती है तो हम कहते हैं, मन है, और मन जब शांत हो जाता है तो हम कहते हैं, आत्मा है।

मन जो है वह आत्मा की विक्षुब्ध अवस्था है, और आत्मा जो है वह मन की शांत अवस्था है। ऐसा समझें : चेतना जब हमारे भीतर विक्षुब्ध है, विक्षिप्त है, तूफान से घिरी है, तब हम इसे मन कहते हैं। इसलिए जब तक आपको मन का पता चलता है तब तक आत्मा का पता न चलेगा। और इसलिए ध्यान में मन खो जाता है। खो जाता है इसका मतलब? इसका मतलब, वे जो लहरें उठ रही थीं आत्मा पर, सो जाती हैं, वापस शांति हो जाती है। तब आपको पता चलता है कि मैं आत्मा हूं। जब तक विक्षुब्ध हैं तब तक पता चलता है कि मन है। विक्षुब्ध मन बहुत रूपों में प्रकट होता है—कभी अहंकार की तरह, कभी बुद्धि की तरह, कभी चित्त की तरह— वे विक्षुब्ध मन के अनेक चेहरे हैं।

आत्मा और मन अलग नहीं, आत्मा और शरीर भी अलग नहीं; क्योंकि तत्व तो एक है, और उस एक के सारे के सारे रूपांतरण हैं। और उस एक को जान लें तो फिर कोई झगड़ा नहीं है—शरीर से भी नहीं, मन से भी नहीं। उस एक को एक बार पहचान लें तो फिर वही है—फिर रावण में भी वही है, फिर राम में भी वही है। फिर ऐसा नहीं है कि राम को नमस्कार कर आएंगे और रावण को जला आएंगे; ऐसा नहीं। फिर नमस्कार दोनों को ही कर आएंगे, या दोनों को ही जला आएंगे; क्योंकि दोनों में वही है।

एक है तत्व, अनंत हैं अभिव्यक्तियां; एक है सत्य, अनेक हैं रूप, एक है अस्तित्व, बहुत हैं उसके चेहरे, मुद्राएं।

सत्य विचारणा नही, अनुभूति है:

लेकिन, इसे फिलासफी की तरह समझेंगे तो नहीं समझ में आ सकेगा, इसे अनुभव की तरह समझेंगे तो समझ में आ सकता है। तो यह तो मैंने समझाने के खयाल से कहा, लेकिन जब आप ही उतरेंगे उस एक में तभी आप जानेंगे कि अरे। जिसे जाना था शरीर की तरह, वह भी तू ही है! और जिसे जाना था मन की तरह, वह भी तू ही है! और जिसे जाना था आत्मा की तरह, वह भी तू ही है। जब जानते हैं तब सिर्फ एक ही रह जाता है। इतना ज्यादा एक रह जाता है कि जाननेवाला, और जो जानता है, और जो जाना जाता है, इनमें भी कोई फासला नहीं रह जाता। वहां जाननेवाला और जाना जानेवाला, दोनों एक ही रह जाते हैं।

उपनिषद का एक ऋषि पूछता है. कौन है वहां जानता? कौन है वहां जो जाना जाता? किसने वहां देखा? कौन है जो वहां देखा गया? कौन था जिसने अनुभव किया? कौन था जिसका अनुभव हुआ? नहीं, वहां इतना भी दो नहीं रह जाता। वहां अनुभव करनेवाला भी नहीं बचता है। सब फासले गिर जाते हैं।

लेकिन विचार तो फासले बनाए बिना नहीं चल सकता। विचार तो फासले बनाएगा; वह कहेगा—यह शरीर है, यह मन है, यह आत्मा है, यह परमात्मा है। विचार फासले बनाएगा। क्यों? क्योंकि विचार समग्र को एक साथ नहीं ले सकता, विचार बहुत छोटी खिड़की है; उससे हम टुकड़े—टुकड़े को ही देख पाते हैं। जैसे एक बड़ा मकान हो और उसमें एक छोटा छेद हो। और उस छोटे छेद से मैं देखूं। तो कभी कुर्सी दिखाई पड़े, कभी टेबल दिखाई पडे, कभी मालिक दिखाई पड़े, कभी फोटो दिखाई पड़े, कभी घड़ी दिखाई पड़े। छोटे छेद से सब टुकड़े—टुकड़े दिखाई पड़े, पूरा कमरा कभी दिखाई न पडे; क्योंकि वह छेद बहुत छोटा है। और फिर दीवाल गिराकर मैं भीतर पहुंच जाऊं, तो पूरा कमरा एक साथ दिखाई पड़े।

विचार बहुत छोटा छेद है जिससे हम सत्य को खोजते हैं। उसमें सत्य खंड—खंड होकर दिखाई पड़ता है। लेकिन जब विचार को छोड्कर हम निर्विचार में पहुंचते हैं, ध्यान में, तब समग्र, दि टोटल दिखाई पड़ता है। और जिस दिन वह पूरा दिखाई पड़ता है, उस दिन बड़ी हैरानी होती है कि अरे! एक ही था, अनंत होकर दिखाई पड़ता था! पर वह अनुभव से ही।

हां, कहिए!

प्रश्न: थोडा पर्सनल सवाल है।

कहिए—कहिए!

प्रश्न : आपको ध्यान में प्रवेश करने में कितने साल लगे?

ध्यान समयातीत है

ये मित्र पूछते हैं कि मुझे ध्यान में प्रवेश करने में कितने साल लगे?

ध्यान में प्रवेश तो एक क्षण में हो जाता है। हां, दरवाजे के बाहर कितने ही जन्म घूम सकते हैं। दरवाजे में प्रवेश तो एक ही क्षण में हो जाता है। क्षण भी ठीक नहीं, क्योंकि क्षण भी काफी बड़ा है, क्षण के भी हजारवें हिस्से में हो जाता है। वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्षण का हजारवा हिस्सा भी टाइम का ही हिस्सा है। असल में, ध्यान तो प्रवेश होता है टाइमलेसनेस में, समय रहता ही नहीं और प्रवेश हो जाता है।

इसलिए अगर कोई कहे कि ध्यान में प्रवेश में मुझे घंटा भर लगा, तो वह गलत कहता है; कहे कि साल भर लगा, तो वह गलत कहता है, क्योंकि जब ध्यान में प्रवेश होता है तो वहां समय नहीं होता। समय होता ही नहीं। हां, ध्यान का जो मंदिर है, उसके बाहर आप जन्मों तक चक्कर काटते रहें। लेकिन वह प्रवेश नहीं है।

तो चक्कर तो मैंने भी बहुत जन्म काटे, लेकिन वह प्रवेश नहीं है। लेकिन जब प्रवेश हुआ, तो वह प्रवेश बिना समय के ही हो गया, बिना किसी समय के हो गया। इसलिए यह सवाल बड़ा कठिन पूछ लिया आपने। अगर उस सब का हिसाब हम रखें जो मंदिर के बाहर घूमने में वक्त बिताया, तो वह अंतहीन हिसाब है, वह अनंत जन्मों का हिसाब है। उसको भी बताना मुश्किल है, क्योंकि बहुत लंबा है। उसकी भी कोई गणना नहीं की जा सकती। और अगर प्रवेश को ही ध्यान में रखें सिर्फ, तो उसे समय की भाषा में नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह दो क्षणों के बीच में घट जाती है घटना। एक क्षण गया, दूसरा अभी आया नहीं, और बीच में वह घटना घट जाती है। आपकी घड़ी में एक बजा, और फिर एक बजकर एक मिनट बजा, और बीच में जो गैप छूट गया, उस गैप में होती है वह घटना। वह सदा गैप में, इंटरवल में, दो मोमेंट के बीच में जो खाली जगह है, वहां होती है। और इसलिए उसको नहीं बताया जा सकता कि कितना समय लगा।

समय बिलकुल नहीं लगता, समय लग ही नहीं सकता, क्योंकि समय के द्वारा इटरनल में प्रवेश नहीं हो सकता। जो समय से बाहर है, उसमें समय के द्वारा जाना नहीं हो सकता।

तो आपकी बात मैं समझ गया हूं। मंदिर के बाहर जितना घूमना हो, घूम सकते हैं। वह चक्कर लगाना है। जैसे एक आदमी चक्कर लगा रहा है। एक हमने गोल घेरा खींच दिया है, एक सर्किल बना दिया है, और सर्किल के बीच में एक सेंटर है, और एक आदमी सर्किल पर चक्कर लगा रहा है। वह लगाता रहे, सर्किल पर अनंत जन्मों तक चक्कर लगाता रहे, तो भी सेंटर पर पहुंचने वाला नहीं है। वह सोचे कि और जोर से दौडूं, तो जोर से दौड़े; वह सोचे कि हवाई जहाज ले आऊं, तो हवाई जहाज ले आए; उसे जो भी करना हो वह करे, जितनी ताकत लगानी हो लगाए, अगर वह सर्किल पर ही दौड़ता है तो दौड़ता रहे, दौड़ता रहे, दौड़ता रहे, वह सेंटर पर नहीं पहुंच सकता। और सर्किल पर वह कहीं भी हो, सेंटर से दूरी बराबर होगी।

इसलिए वह कितना दौडा, बेमानी है; कहीं भी खड़ा हो जाए, उसकी सेंटर से दूरी उतनी ही है जितनी दौड़ने के पहले थी। वह अनंत जन्म दौड़ता रहे। और अगर सेंटर पर पहुंचना है तो सर्किल पर दौड़ना छोड़ना पड़े उसे, सर्किल ही छोड़ना पड़े; सर्किल को छोड्कर छलांग लगानी पड़े।

अगर फिर वह आदमी सेंटर पर पहुंच जाए, तो आप उससे पूछें कि सर्किल पर कितनी यात्रा करके तुम सेंटर पर पहुंचे? तो वह आदमी क्या कहे? वह आदमी कहे कि सर्किल पर तो बहुत यात्रा की, लेकिन उससे पहुंचे नहीं; वह तो सर्किल पर बहुत चले, लेकिन उससे पहुंचे ही नहीं। तो आप उससे पूछें, कितने मील चलकर पहुंचे? वह कहे कि नहीं, कितने ही मील चले, उससे पहुंचे नहीं; चले तो बहुत, लेकिन उससे पहुंचना न हुआ। और जब पहुंचे तब सर्किल से छलांग लगाकर पहुंचे। और वहां मील का सवाल नहीं है। ठीक ऐसी बात है। समय में नहीं घटना घटती है। और समय तो, हमने समय बहुत गंवाया है। समय तो हम सबने बहुत गंवाया है। जिस दिन आपको भी घटेगी उस दिन आप भी न बता सकेंगे कि कितनी देर में यह हुआ। नहीं, देरी का सवाल ही नहीं।

जीसस से किसी ने पूछा है कि तुम्हारे उस स्वर्ग में कितनी देर हम रुक सकेंगे? तो जीसस ने कहा, तुम बडा कठिन सवाल पूछते हो। देयर शैल बी टाइम नो लांगर। तुम पूछते हो, तुम्हारे उस स्वर्ग में कितनी देर हम रुक सकेंगे? बड़ी मुश्किल का सवाल पूछते हो, क्योंकि वहां तो समय न होगा। इसलिए देरी का हिसाब कैसे लगेगा?

समय मन की प्रतीति है:

यह समझने जैसा है कि समय जो है वह हमारे दुख से जुड़ा है। आनंद में समय नहीं होता। आप जितने दुख में हैं, समय उतना बड़ा होता है। रात घर में कोई खाट पर पड़ा है मरने के लिए, तो रात बहुत लंबी हो जाती है। घड़ी में तो उतनी ही होगी, कैलेंडर में उतनी ही होगी, लेकिन वह जो खाट के पास बैठा है, जिसका प्रियजन मर रहा है, उसके लिए रात इतनी लंबी, इतनी लंबी हो जाती है कि लगता है कि चुकेगी कि नहीं चुकेगी? यह रात खत्म होगी कि नहीं होगी? सूरज उगेगा कि नहीं उगेगा? यह रात कितनी लंबी होती चली जाती है! और घड़ी उतना ही कहती है। और तब देखनेवाले को लगेगा कि घड़ी आज धीरे चलती है या रुक गई है! कैलेंडर की पंखुड़ी उखड़ने के करीब आ गई है, सुबह होने लगी है, लेकिन ऐसा लगता है कि लंबा, लंबा…….।

बर्ट्रेड रसेल ने कहीं लिखा है कि मैंने अपनी जिंदगी में जितने पाप किए, अगर सख्त से सख्त न्यायाधीश के सामने भी मुझे मौजूद कर दिया जाए, तो मैंने जो पाप किए वे, और जो मैं करना चाहता था और नहीं कर पाया, वे भी अगर जोड़ लिए जाएं, तो भी मुझे चार—पांच साल से ज्यादा की सजा नहीं हो सकती। लेकिन जीसस कहते हैं कि नरक में अनंत काल तक सजा भोगनी पड़ेगी। तो यह न्याययुक्त नहीं है। क्योंकि, मैंने जो पाप किए, जो नहीं किए वे भी जोड़ लें, क्योंकि मैंने सोचे, तो भी सख्त से सख्त अदालत मुझे चार—पांच साल की सजा दे सकती है, और यह जीसस की अदालत कहती है कि अनंत काल तक, इटरनिटी तक नरक में सडुना पड़ेगा। यह जरा ज्यादती मालूम पड़ती है।

रसेल तो मर गए, अन्यथा उनसे कहना चाहता था कि आप समझे नहीं, जीसस का मतलब खयाल में नहीं आया आपके। जीसस यह कह रहे हैं कि नरक में अगर एक क्षण भी रहना पड़ा तो वह इटरनिटी मालूम पड़ेगा; दुख इतना ज्यादा है वहां कि उसका अंत ही नहीं मालूम पड़ेगा कि वह कभी समाप्त होगा, कभी समाप्त होगा।

दुख समय को लंबाता है, सुख समय को छोटा करता है। इसलिए तो हम कहते हैं सुख क्षणिक है। जरूरी नहीं है कि सुख क्षणिक है, सुख की प्रतीति क्षणिक होती है—कि वह आया और गया, क्योंकि टाइम छोटा हो जाता है। सुख क्षणिक है, ऐसा नहीं है, कि मोमेटरी है। सुख की भी लंबाइयां हैं। लेकिन सुख सदा क्षणिक मालूम पड़ता है, क्योंकि सुख में समय छोटा हो जाता है। प्रियजन मिला नहीं कि विदाई का वक्त आ गया; आए नहीं कि गए; इधर फूल खिला नहीं कि कुम्हलाया। वह सुख की प्रतीति क्षणिक है, क्योंकि सुख में समय छोटा हो जाता है। घड़ी फिर भी वैसे ही चलती है, कैलेंडर वही खबर देता है, लेकिन इधर हमारे मन में सुख समय को छोटा कर देता है।

आनंद में समय मिट ही जाता है, छोटा—मोटा नहीं होता। आनंद में समय होता ही नहीं। जब आप आनंद में होंगे तब आपके पास समय नहीं होगा। असल में, समय और दुख एक ही चीज के दो नाम हैं। टाइम जो है वह दुख का ही नाम है, समय जो है वह दुख का ही नाम है। मानसिक अर्थों में समय ही दुख है। और इसीलिए हम कहते हैं— आनंद समयातीत, कालातीत, बियांड टाइम, समय के बाहर है। तो जो समय के बाहर है, उसे समय के द्वारा नहीं पाया जा सकता।

मुक्ति अकाल है:

चक्कर तो मैंने भी लगाए हैं— उतने ही, जितने आपने। और मजा यह है कि इतना लंबा है हमारा चक्कर कि उसमें किसने कम लगाए, ज्यादा लगाए, बहुत मुश्किल है। महावीर पच्चीस सौ साल पहले पा गए उसे, बुद्ध पा गए, जीसस दो हजार साल पहले पा गए, शंकर हजार साल पहले उसे पा गए। लेकिन अगर कोई कहे कि शंकर ने हमसे हजार साल कम चक्कर लगाए, तो गलत कह रहा है, क्योंकि चक्कर इतने अनंत हैं…..जैसे कि उदाहरण के लिए कि आप बंबई थे, बंबई से आप नारगोल आए, तो सौ मील की आपने यात्रा की। लेकिन जो तारा अंतहीन दूरी पर हमसे है, उस तारे के खयाल से आपने कोई यात्रा ही नहीं की, आप वहीं के वहीं हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप बंबई से सौ मील इधर आ गए। उस तारे को खयाल में रखें तो आपने कोई यात्रा ही नहीं की। उस तारे से आपकी दूरी अब भी वही है, जो आपकी बंबई में थी। तो आप पृथ्वी पर कहीं भी चले जाएं, उस तारे से आपकी दूरी वही है; क्योंकि वह तारा इतनी दूरी पर है कि आपके ये फासले कोई अंतर नहीं लाते।

हमारे जन्मों की यात्रा इतनी लंबी है कि कौन पच्चीस सौ साल पहले, कौन पांच सौ साल पहले, कोई पांच दिन पहले, कोई पांच घंटे पहले, कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस दिन हम उस केंद्र पर पहुंचते हैं, हम देखते हैं, अरे! अभी बुद्ध आ ही रहे हैं, अभी महावीर घुस ही रहे हैं, अभी जीसस का प्रवेश ही हुआ है, और हम भी पहुंच गए! मगर वह जरा समझना कठिन है, क्योंकि हम जिस दुनिया में जीते हैं, वहां समय बहुत महत्वपूर्ण है। वहां समय बहुत महत्वपूर्ण है। और इसलिए स्वभावत: हमारे मन में सवाल उठता है कितनी देर?

बाहर चक्कर लगाना बंद करें:

 

लेकिन मत उठाएं इस सवाल को, देरी की बात ही मत करें; चक्कर लगाना बंद करें, चक्कर में देरी लग जाएगी; मंदिर के बाहर मत घूमें, भीतर चले जाएं। लेकिन डर लगता है मंदिर के भीतर जाने में—पता नहीं, क्या हो! मंदिर के बाहर सब परिचित है— मित्र हैं, प्रियजन हैं, पत्नी है, बेटा है, घर है, द्वार है, दुकान है—मदिर के बाहर सब अपना है। और मंदिर में एक शर्त है कि वहां अकेले ही भीतर प्रवेश होता है; वहां दो आदमी दरवाजे से एकदम जा नहीं सकते। तो इस सब—मकान को, पत्नी को, बच्चे को, धन को, तिजोड़ी को, यश को, पद—प्रतिष्ठा को—इस सबको लेकर घुस नहीं सकते भीतर, यह सब बाहर छोड़ना पड़ता है। इसलिए हम कहते हैं कि ठीक है, अभी थोड़ा बाहर और चक्कर लगा लें। फिर हम बाहर चक्कर लगाते रहें, हम उस क्षण की प्रतीक्षा में हैं कि जब दरवाजा जरा ज्यादा खुला हो, तब हम सब के सब एकदम से भीतर हो जाएंगे।

वह दरवाजा ज्यादा कभी नहीं खुलता, वहां से एक ही प्रवेश करता है। आप भी अपने पद को लेकर भी प्रविष्ट नहीं हो सकते, क्योंकि दो हो जाएंगे— आप और आपका पद। अपने नाम को लेकर भी प्रवेश नहीं कर सकते, क्योंकि दो हो जाएंगे— आप और आपका नाम। वहां कुछ भी लेकर.. .वहां तो बिलकुल टोटली नैकेड, एकदम नग्न और अकेले वहां प्रवेश करना पड़ता है। इसलिए हम बाहर घूमते रहते हैं, हम मंदिर के बाहर ही डेरा डाल देते हैं। हम कहते हैं कि भगवान के पास ही तो हैं, कोई ज्यादा दूर तो नहीं। लेकिन मंदिर के बाहर आप गज भर की दूरी पर हैं, कि हजार गज की दूरी पर हैं, कि हजार मील की दूरी पर हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता; मंदिर के बाहर हैं तो बस बाहर हैं। और भीतर जाना हो, तो एक क्षण के हजारवें हिस्से में मैं कह रहा हूं ठीक नहीं है वह कहना, बिना क्षण के भी भीतर प्रवेश हो सकता है।

ज्ञान की उपलब्धि निर्विचार में:

प्रश्न:

 

ओशो ज्ञान क्या निर्विचार अवस्था में ही रहता है मूत्र विचार की अवस्था में ज्ञान रहता है कि नहीं रहता है?

सको अंतिम प्रश्न मान लें, फिर कोई और प्रश्न हों तो रात कर लेंगे। आप पूछते हैं कि जो ज्ञान है वह निर्विचार अवस्था में ही रहता है और विचार में नहीं रहता क्या?

ज्ञान की उपलब्धि निर्विचार में होती है। और उपलब्धि हो जाए तो वह हर अवस्था में रहता है। फिर तो विचार की अवस्था में भी रहता है। फिर तो उसे खोने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन उपलब्धि निर्विचार में होती है। अभिव्यक्ति विचार से भी हो सकती है, लेकिन उपलब्धि निर्विचार में होती है। उसे पाना हो तो निर्विचार होना पड़े। क्यों निर्विचार होना पड़े? क्योंकि विचार की तरंगें मन को दर्पण नहीं बनने देतीं।

जैसे समझें, एक चित्र उतारना हो कैमरे से। तो उतारने में तो एक विशेष अवस्था का ध्यान रखना पड़े कि कैमरे में प्रकाश न चला जाए, कैमरा न हिल जाए। लेकिन एक दफा चित्र उतर गया, तो फिर खूब हिलाइए, और खूब प्रकाश में रखिए। उससे कोई फिर फर्क नहीं पड़ता। लेकिन उतारने के क्षण में तो कैमरा हिल जाए तो सब खराब हो जाए। एक दफा उतर जाए तो बात खतम हो गई। फिर खूब हिलाइए और नाचिए लेकर, तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

ज्ञान की उपलब्धि चित्त की उस अवस्था में होती है जब कुछ भी नहीं हिलता, सब शांत और मौन है। तब तो ज्ञान का चित्र पकड़ता है। लेकिन पकड़ जाए एक दफे, तो फिर खूब नाचिए, खूब हिलिए, कुछ भी करिए, फिर कोई फर्क नहीं पड़ता। ज्ञान की उपलब्धि निर्विचार में है। और विचार फिर कोई बाधा नहीं डालता। लेकिन अगर सोचते हों कि विचार से उपलब्धि कर लेंगे, तो कभी न होगी, विचार बहुत बाधा डालेगा। उपलब्धि में बहुत बाधा डालेगा, उपलब्धि के बाद विचार बिलकुल नपुंसक है। फिर उसकी कोई ताकत नहीं है। फिर वह कुछ भी नहीं कर सकता।

यह बहुत मजे की बात है कि शांति की जरूरत प्राथमिक है, ज्ञान को पाने में। ज्ञान पा लेने के बाद किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन वे बाद की बातें हैं। और बाद की बातें पहले कभी नहीं करनी चाहिए, नहीं तो नुकसान होता है।

नुकसान यह होता है कि हम सोचने लगते हैं कि जब बाद में कोई फर्क नहीं पड़ेगा तो अभी भी क्या हर्ज है!

तब नुकसान हो जाएगा। फिर हम कैमरा हिला देंगे, सब गड़बड़ हो जाएगा। चित्र तो हिला हुआ कैमरा भी उतारता है, लेकिन वह सत्य चित्र नहीं होता; वह टू नहीं होता। वह भी उतारता है; विचार में भी ज्ञान का ही पता चलता है, लेकिन वह ठीक नहीं होता, क्योंकि हिलता रहता है मन पूरे समय, कंपता रहता है। इसलिए कुछ का कुछ बन जाता है।

जैसे चांद निकला हो और सागर में लहरें हों, तो चांद का प्रतिबिंब तो बनेगा ही, लेकिन सागर में हजार चांद के टुकड़े टूटकर फैल जाएंगे। और अगर किसी ने आकाश का चांद न देखा हो तो सागर में देखकर पता न लगा पाएगा कि चांद कैसा है। हजार टुकड़े होकर चांद लहरों पर फैल जाएगा; चांदी बिखर जाएगी उसकी, लेकिन चांद का बिंब नहीं पकड़ में आएगा। एक दफा बिंब पकड़ में आ जाए कि चांद कैसा है, फिर तो सागर में बिखरी हुई लहरों में भी हम पहचान लेते हैं कि तुम ही हो। लेकिन एक बार हम उसे देख तो लें। एक बार उसकी शक्ल हमारे खयाल में आ जाए, फिर तो सभी शक्लों में वह मिल जाता है। लेकिन एक दफा पहचान ही न हो पाए, तो वह कहीं भी हमें नहीं मिलता है। मिलता है रोज, लेकिन हम रिकग्नाइज नहीं कर पाते, हम पहचान नहीं पाते कि यही है।

एक छोटी सी घटना से मैं कहूं फिर हम ध्यान के लिए बैठें।

साईं बाबा के पास एक हिंदू संन्यासी बहुत दिन तक था। हिंदू संन्यासी, और साईं तो रहते थे मस्जिद में। साईं बाबा का कुछ पक्का नहीं कि वे हिंदू थे कि मुसलमान। ऐसे आदमियों का कभी कुछ पक्का नहीं। लोग पूछते तो वे हंसते थे। अब हंसने से तो कुछ पता चलता नहीं! एक ही बात पता चलती है कि पूछनेवाला नासमझ है। हिंदू संन्यासी था, लेकिन वह तो मस्जिद में कैसे रुके साईं के पास! तो वह गांव के बाहर एक मंदिर में रुकता था। लगाव उसका था, प्रेम उसका था, रोज खाना बनाकर लाता था। साईं को खाना देता, फिर जाकर खाना खाता। साईं बाबा ने उससे कहा कि तू इतनी दूर क्यों आता है? हम तो कई बार वहीं से निकलते हैं, तब तू वहीं खिला दिया कर! उसने कहा, आप वहां से निकलते हैं? कभी देखा नहीं! तो साईं ने कहा कि जरा गौर से देखना; हम कई बार तेरे मंदिर के पास से निकलते हैं, वहीं खिला देना। कल हम आ जाएंगे, तू मत आना।

कल उस हिंदू संन्यासी ने बनाकर खाना रखा, अब देखता है, देखता है, देखता है। वे आते नहीं, आते नहीं, आते नहीं! वह घबड़ा गया, दो बज गए, तो उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई, वे भी भूखे होंगे और मैं भी भूखा बैठा हूं। फिर वह थाली लेकर भागा। साईं के पास पहुंचा, साईं से उसने कहा कि हम राह देखते रहे, आज आप आए नहीं। उन्होंने कहा कि आज भी आया था, रोज आता हूं लेकिन तूने तो दुत्कार दिया। उसने कहा, कहां दुत्कारा? सिर्फ एक कुत्ता आया था। तो साईं ने कहा कि वही मैं था। तब तो वह हिंदू संन्यासी बहुत रोया, बहुत दुखी हुआ। उसने कहा कि आप आए और मैं पहचान न पाया! कल जरूर पहचान जाऊंगा।

अगर कुत्ते की ही शक्ल में कल भी आते तो पहचान जाता। कल भी वे आए, लेकिन एक कोढ़ी था रास्ते पर मिला। उस संन्यासी ने कहा कि जरा दूर से! दूर से! मैं भोजन लिए हुए हूं साईं का, जरा दूर से निकलो! वह कोढ़ी हंसा भी। फिर दो बज गए, फिर भागा हुआ मस्जिद आया, उसने कहा कि आप आज आए नहीं, आज मैंने बहुत रास्ता देखा। तो साईं ने कहा कि मैं तो फिर भी आया था। लेकिन तेरे चित्त में इतनी तरंगें हैं कि रोज मैं वही तो दिखाई नहीं पड़ सकता! तू ही कैप जाता है। आज वह एक कोढ़ी आया था, तो तूने कहा, दूर हट। तो मैंने कहा, हद हो गई! मैं आता हूं तो तू भगा देता है और यहां आकर कहता है कि आप आए नहीं। तो वह संन्यासी रोने लगा, उसने कहा कि मैं आपको पहचान ही नहीं पाया। तो साईं ने उससे कहा था कि तू अभी मुझे ही नहीं पहचान पाया, इसलिए दूसरी शक्लों में मुझे कैसे पहचान पाएगा?

एक बार हम सत्य की झलक पा लें, तो फिर असत्य है ही नहीं। एक बार हम परमात्मा को झांक लें, तो परमात्मा के अतिरिक्त फिर कुछ है ही नहीं। लेकिन वह झांकना तब हो पाए जब हमारे भीतर सब शांत और मौन हो। फिर इसके बाद तो कोई सवाल नहीं, फिर तो विचार भी उसके हैं, वृत्तियां भी उसकी हैं, वासनाएं भी उसकी हैं—फिर तो सब उसका है। लेकिन प्राथमिक चरण में उसे झांकने और पहचानने के लिए सब का रुक जाना जरूरी है।

प्रयोग : कुंडलिनी जागरण और ध्यान का:

अब हम ध्यान के लिए बैठें।

फासले पर चले जाएं, दूर बैठ जाएं, ताकि लेटना पड़े तो लेट भी सकें। और कोई बात नहीं करेगा। चुपचाप हट जाएं। जिसे जहां हटना हो, हट जाएं।.. ….बातचीत नहीं। बातचीत बिलकुल नहीं करेंगे।….. .कोई किसी को छूता हुआ न बैठे, दूर हट जाएं। और इधर तो इतनी जगह है, इसलिए कंजूसी न करें जगह की। नाहक बीच में कोई आपके ऊपर गिर जाए, कुछ हो, तो सब खराब होगा। हट जाएं दूर—दूर…… .शीघ्रता से बैठ जाएं या लेट जाएं, जिसे जैसा करना हो वैसा कर ले। आंख बंद कर लें और जैसा मैं कहूं वैसा करें।

पहला चरण : तीव्र व गहरी श्वास की चोट:

आंख बंद कर लें, गहरी श्वास लेना शुरू करें। जितनी गहरी ले सकें लें और जितनी गहरी छोड़ सकें छोड़े। सारी शक्ति श्वास के लेने और छोड़ने में लगा देनी है। गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े। सिर्फ श्वास ही रह जाए। सारी शक्ति लगा देनी है। जितनी गहरी श्वास लेंगे—छोड़ेंगे, उतनी ही भीतर ऊर्जा के जगने की संभावना बढ़ेगी। गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े.. ….गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े। गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े। दस मिनट पूरी शक्ति से गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े।

बस आप श्वास लेनेवाले एक यंत्र ही रह जाएं, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। सिर्फ श्वास ले रहे हैं, छोड़ रहे हैं, दस मिनट तक। फिर मैं दूसरा सूत्र कहूंगा, पहले दस मिनट पूरा श्रम श्वास के साथ करें।

गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े.. .पूरी शक्ति लगाएं। सिर्फ श्वास लेने के एक यंत्र मात्र रह जाए—एक धौंकनी, जो श्वास ले रही, छोड़ रही।…. .एक—एक रोआं कैपने लगे….. .पूरी गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े….. .गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े.. .गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोडे। बस श्वास लेने का एक यंत्र मात्र रह जाएं….. .सारी शक्ति, सारा ध्यान श्वास लेने में ही लगा दें….. .गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े। और भीतर देखते रहें.. .श्वास भीतर गई, श्वास बाहर गई….. .श्वास भीतर गई, श्वास बाहर गई। साक्षी रह जाएं, देखते रहें—श्वास भीतर जा रही, श्वास बाहर जा रही….. .सारा ध्यान श्वास पर रखें और सारी शक्ति लगा दें।

अब मैं दस मिनट के लिए चुप हो जाता हूं। आप गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े और भीतर ध्यानपूर्वक देखते रहें—श्वास आई, श्वास गई। दूसरे की जरा भी फिकर न करें, अपनी फिकर करें…… .पूरी शक्ति लगा दें और दूसरे पर कोई ध्यान न दें, दूसरे से कोई संबंध नहीं है। गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े…… और भीतर देखते रहें—श्वास भीतर गई, श्वास बाहर गई। श्वास स्पष्ट दिखाई पड़ने लगेगी—यह श्वास भीतर गई, यह श्वास बाहर गई……पूरी शक्ति लगाएं, ताकि जिसे मैं शक्ति का कुंड कह रहा हूं वहां से ऊर्जा उठनी शुरू हो जाए….. .यह पूरा वातावरण श्वास लेता हुआ मालूम पड़ने लगे.. ….गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े…… और गहरी, और गहरी, और गहरी। सारा व्यक्तित्व कैप जाए, तूफान की तरह गहरी श्वास लें, छोड़े। गहरी श्वास लें और गहरी छोड़े। गहरी श्वास लें और छोड़े। गहरी श्वास.. ….गहरी श्वास…

(साधको को अनेक प्रकार की शारीरिक प्रक्रियाएं होने लगीं और उनके मुंह से अनेक तरह की आवाजें भी निकलने लगी. कुछ लोग ऊssss…. ऊsss….. ऊssss….. करने लगे।)

गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े। और भीतर देखते रहें—श्वास आई, श्वास गई.. ….श्वास आई, श्वास गई…… पूरी शक्ति लगाएं…… पूरी शक्ति लगाएं.. ….यह एक ही बात पर सारी शक्ति लगा दें, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े। और भीतर देखते रहें—श्वास आई, श्वास गई.. ….श्वास आ रही, श्वास जा रही। अपने को जरा भी न बचाएं, पूरी शक्ति लगाएं…

श्वास के गहरे कंपन भीतर किसी शक्ति को जगाने में शुरुआत करेंगे। गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े…… भीतर कोई सोई हुई ज्योति गहरी श्वास से गोगी….. गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े….. .गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े…..एक यंत्र मात्र…… .श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है…… पूरी शक्ति लगा दें.. …..पूरी शक्ति लगा दें……पूरी शक्ति लगा दें.. .दूसरे सूत्र पर जाने के पहले पूरी शक्ति लगाएं…… गहरी से गहरी श्वास लें और छोड़े…….सारा शरीर कैप जाए, सारी जड़ें कैप जाएं, सारा व्यक्तित्व कंप जाए…..एक आधी की तरह हालत पैदा कर दें…….श्वास ही रह जाए। पूरी शक्ति लगा दें.. .दूसरे सूत्र पर प्रवेश के पहले पूरी शक्ति लगाएं.. आपकी चरम स्थिति में ही दूसरे सूत्र पर प्रवेश होगा।

(चारों ओर साधकों को अनेक तरह की यौगिक प्रक्रियाएं हो रही हैं……तीव्रता के साथ उन्हें कत से योगासन प्राणायाम अनेक तरह की मुद्राएं और बंध आप ही आप हो रहे हैं. कई लोगों के मुंह से विचित्र तरह की आवाजें निकल रही हैं……. आवाजें ऊंउठऽ….. ऊंऽऽठठऽऽ….. आदि। ओशो का प्रोत्साहित करना जारी रहता है……..)

गहरी ताकत लगाएं….. .गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास…… अपने को बचाएं मत, पूरा लगा है.. …जरा भी न बचाएं। भीतर सोई हुई शक्ति को जगाना है.. पूरी शक्ति लगा दें….. .गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े….. गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े

छोड़ दें……पूरी ताकत लगाएं, अपने को रोकें नहीं। भीतर सोई हुई विद्युत के जागने के लिए जरूरी है गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े……शरीर का रोआं—रोआं जीवंत हो जाए…… शरीर का रोआं—रोआं कैपने लगे…… पूरी ताकत लगाएं— गहरी श्वास. गहरी श्वास……गहरी श्वास….. गहरी श्वास…..गहरी श्वास…… सारी ताकत लगा दें….. पूरी ताकत लगाएं। दो मिनट पूरी ताकत लगाएं तो हम दूसरे सूत्र में प्रवेश करें

यह पूरा वातावरण चार्ब्द हो जाए….. गहरी श्वास लें और छोड़े। यह सारा वातावरण विद्युत की लहरों से भर जाएगा……. गहरी श्वास लें और छोड़े….. गहरी श्वास लें और छोड़े…..गहरी लें, गहरी छोड़े….. पूरी शक्ति लगाएं…….गहरी श्वास……. और गहरी

श्वास… और गहरी श्वास.. और गहरी श्वास…… और गहरी श्वास….. और गहरी श्वास… और गहरी श्वास…..और गहरी गहरी.. और गहरी…… और गहरी… और गहरी…… और गहरी……. और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी गहरी.. और गहरी……. और गहरी

(अनेक तरह की आवाजें आ रही हैं लोग रो और चीख रहे हैं…….)

गहरी से गहरी श्वास लें.. .गहरी से गहरी श्वास लें….. .गहरी श्वास…… गहरी श्वास….. .गहरी श्वास….. .गहरी श्वास….. दूसरा सूत्र जोड़ना है। एक मिनट गहरी श्वास लें— पूरी गहरी श्वास……पूरी गहरी श्वास….. पूरी गहरी श्वास……. और गहरी गहरी…… और गहरी. किसी दूसरे पर ध्यान न दें, अपने भीतर सारी ताकत लगाएं— और गहरी…… और गहरी… और गहरी गहरी…… और दूसरा सूत्र जोड़ दें।

दूसरा चरण : तीव्र श्वास के साथ शारीरिक क्रियाएं

दूसरा सूत्र है, शरीर को पूरी तरह छोड़ देना है—गहरी श्वास लें और शरीर को छोड़ दें…… रोना आए, आने दें…… आंसू निकलें, बहने दें.. .हाथ—पैर कैंपने लगें, कंपने दें…… .शरीर डोलने लगे, घूमने लगे, घूमने दें…… शरीर खड़ा हो जाए, नाचने लगे, नाचने दें। पूरी गहरी श्वास लें और शरीर को छोड़ दें…….शरीर को जो होता हो, होने दें—गहरी श्वास……गहरी श्वास……. गहरी श्वास…… अब दस मिनट तक गहरी श्वास जारी रहेगी और शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें—जो मुद्राएं बनती हों, बनें, जो आसन बनते हों, बनें— शरीर लोटता हो लोटे, नाचता हो नाचे…… शरीर को छोड़ दें, सिर्फ द्रष्टा रह जाएं….. .शरीर को जरा भी रोकें नहीं—गहरी श्वास…….गहरी श्वास……गहरी श्वास…… और शरीर को बिलकुल छोड़ दें…….जो भी होता हो, होने दें—शरीर को जरा भी रोकें नहीं।

अब दस मिनट तक गहरी श्वास जारी रहेगी और शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें— शरीर को जो होता है, होने दें……कोई संकोच न लें……गहरी श्वास…… .गहरी श्वास.. गहरी श्वास…… आंसू आएं, आने दें……रोना निकले, निकले….. .जो भी होता हो, होने दें।

(चारों ओर साधकों का नाचना कूदना चिल्लाना और अनेक तरह की आवाजें निकालना। एक व्यक्ति के मुंह से लंबे सायरन की सी आवाज निकलने लगी…… ओशो का सुझाव देना जारी रहा……)

शरीर को बिलकुल छोड़ दें। शरीर अपने आप डोलने लगेगा, चक्कर खाने लगेगा। शक्ति भीतर उठेगी तो शरीर कंपेगा, कंपित होगा, डोलेगा। भीतर से शक्ति उठेगी तो शरीर आंदोलित होगा, उसे छोड़ दें……शरीर को बिलकुल छोड़ दें… गहरी श्वास जारी रखें और शरीर को छोड़ दें। शरीर को जो होता हो, होने दें……उसे जरा भी नहीं रोकें……गहरी श्वास…… और गहरी श्वास……. और गहरी श्वास.. और गहरी श्वास

(लोगों का चीखना, चिल्लाना मुंह से अनेक तरह की आवाजें निकालना तथा शरीर में विविध गतियों का होना…….)

 

गहरी श्वास…….गहरी श्वास.. ….गहरी श्वास……. और शरीर को छोड़ दें। ध्यान रहे, शरीर पर कहीं कोई रुकावट न रहे। जो शरीर को होना है, होने दें। उससे शक्ति के ऊपर पहुंचने में मार्ग बनेगा। छोड़ दें…… .शरीर को ढीला छोड़ दें, गहरी श्वास जारी रखें, उसे ढीला न करें.. ….श्वास गहरी चले, शरीर को शिथिल छोड़ दें…… .शरीर को जो होता है, होने दें.. ….बैठता हो बैठे, गिरता हो गिरे, खड़ा होता हो, हो जाए—जो होता है, होने दें…… .गहरी श्वास जारी रखें……

(अनेक आवाजों के साथ लोगों का तेजी से उछलना कूदना……)

गहरी……. और गहरी……. और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी……. और गहरी….. और गहरी (कुछ लोगों का तीव्र आवाज में हुंकारना…… अनेक शारीरिक प्रतिक्रियाएं चलती रही…….)

कुछ बचाएं न, सब दांव पर लगा दें……. .पूरी शक्ति दांव पर लगा दें। देखें, बचा रहे हैं। बहुत कुछ बचा लेते हैं। पूरा दांव पर लगा दें। गहरी श्वास, गहरी श्वास…… शरीर को छोड़े — जो होता है, होने दें……. छोड़े…… .हंसना आ जाए, आ जाने दें.. …..रोना आए, आने दें…… आवाज निकले, निकल जाने दें…… .उसकी कोई चिंता न लें, जरा न रोकें — बस आप गहरी श्वास लें और छोड़ दें…….

(लोगों का चीखना चिल्लाना नाचना कूदना हुंकार और चीत्कार करना…….)

छोड़े.. …..शक्ति उठ रही है.. ….छोड़े शरीर को…… .गहरी श्वास लें…… .गहरी श्वास लें….. .गहरी श्वास लें और शरीर को छोड दें। शरीर में कुछ जागेगा तो शरीर कंपित होगा, घूमेगा, नाच सकता है, रो सकता है, चिल्ला सकता है—छोड़ दें…… .शरीर को छोड़ दें….. .शरीर को बिलकुल छोड़ दें.. …..जरा संकोच न लें.. …..शरीर को बिलकुल छोड़ दें…

(अनेक साधकों के मुंह से पशुओं की आवाजें निकलना…… सेना चिल्लाना नाचना…… मुंह से कुत्ते की आवाज……. सिंह की गर्जना……. हाथ— पैर पीटना…… छटपटाना…….)

 

गहरी श्वास…… और गहरी…… अपनी शक्ति श्वास पर लगाएं और छोड़ दें— शरीर को जो होता है, होने दें.. ….जरा भी संकोच नहीं…… जरा भी न रोकें.. .दूसरे की फिकर न करें….. शरीर को छोड़े। शक्ति जगेगी तो बहुत कुछ होगा— रोना आ सकता है, शरीर कंपेगा, अंग हिलेंगे, मुद्राएं बनेंगी, शरीर खड़ा हो सकता है….. .छोड़ दें— जो होता है, होने दें…… आप अकेले हैं और कोई नहीं… छोड़े.. ….गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास….. .एक दो मिनट पूरी मेहनत करें…… तीसरे सूत्र पर जाने के पहले पूरी मेहनत लें—गहरी श्वास लें… गहरी श्वास लें….. .गहरी श्वास लें….. .गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें….. .गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें… और शरीर को छोड़ दें—जो होता है, होने दें…… शरीर को छोड़ दें…… जो होता है, होने दें…… जरा भी नहीं रोकेंगे। देखें कुछ मित्र रोक लेते हैं, रोकें मत, छोड़े…… पूरी शक्ति लगाएं और छोड़े…… छोड़े…… रोना है, पूरे मन से रोएं, रोकें नहीं। आवाज निकलती है, दबाएं नहीं…… निकल जाने दें। शरीर खड़ा होता है, सम्हाले न, हो जाने दें। नाचता है, नाचने दें। शरीर को पूरी तरह छोड़ दें, तभी सोई हुई शक्ति अपना मार्ग बना सकती है। छोड़े…… गहरी श्वास लें. …..गहरी श्वास… गहरी श्वास…… गहरी श्वास.. ….गहरी श्वास….. .गहरी श्वास…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी……

(कुछ लोगों का तीव्र हुंकार करना…. अनेक लोगों का सेना….. चीखना.. नाचना….. आदि….)

पूरी शक्ति लगाएं…… पूरी शक्ति लगाएं…… पूरी शक्ति लगाएं…… श्वास गहरी… और गहरी…… और गहरी…… कैप जाने दें पूरे व्यक्तित्व को, हिल जाने दें… जो होता है, होने दें…… छोड दें। गहरी शक्ति लगाएं, गहरी शक्ति लगाएं……. और गहरी श्वास लें…… और गहरी श्वास लें। पूरे शरीर में विद्युत दौड़ने लगेगी…… पूरे शरीर में विद्युत दौडने लगेगी… छोड़े… आखिरी एक मिनट, जोर से ताकत लगाएं, तीसरे सूत्र में जाने के लिए— गहरी श्वास… गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास……. और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… पूरी ताकत लगाएं, तीसरे चरण में गति हो सके……. और गहरी श्वास लें……. पूरी शक्ति लगा दें…… और गहरी श्वास लें… …और गहरी श्वास लें, और गहरा……. और गहरा…… और गहरा…

तीसरा चरण : पूछें—मैं कौन हूं?

और अब तीसरा सूत्र जोड़ दें! श्वास गहरी जारी रहेगी, शरीर की गति जारी रहेगी……. और तीसरा सूत्र— भीतर पूरी शक्ति से पूछने लगें…. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…… भीतर पूछें….. .श्वास—श्वास में एक ही प्रश्न भर जाए—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?….. .श्वास तेजी से जारी रहे और भीतर पूछें—मैं कौन हूं? शरीर की कंपन और गति जारी रहे और भीतर पूछें—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?….. .दो ‘ मैं कौन हूं?’ के बीच में जगह न रहे। पूरी शक्ति लगाएं….. .मैं कौन हूं?.. ….मैं कौन हूं?.. ….एक दस मिनट सारी शक्ति लगा दें— मैं कौन हूं?….. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरी ताकत लगाएं। प्राण भीतर एक ही गंज से भर जाएं—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? ताकत से पूछें। भीतर सारे प्राणों में एक गज उठने लगे—मैं कौन हूं? गहरी श्वास जारी रहे, शरीर को जो होना है होने दें। और पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक दस मिनट पूरी शक्ति लगा लें, फिर दस मिनट के बाद हम विश्राम करेंगे। लगाएं पूरी शक्ति.. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?

(अनेक आवाजों के साथ साधकों की तीव्र प्रतिक्रियाएं……)

पूरी शक्ति लगाएं। जरा भी रोकें नहीं। जोर से भीतर पूछें—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक आंधी उठा दें भीतर….. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं. .श्वास गहरी रहे, सवाल गहरा रहे—मैं कौन हूं? शरीर को जो होना है, होने दें….. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? यह पूरा वातावरण पूछने लगे, ये रेत के कण—कण पूछने लगें, यह आकाश, ये वृक्ष, ये सब पूछने लगें—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?….. .पूरा वातावरण मैं कौन हूं से भर जाए….. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?……

(चारों ओर से रोने की आवाजें…… तीव्र शारीरिक हलचल….. अनेक तरह की आवाजें……)

पूरी शक्ति लगाएं, फिर विश्राम करना है……. और जितनी शक्ति लगाएंगे, उतने ही विश्राम में प्रवेश होगा। जितनी ऊंचाई पर आधी उठेगी, उतनी ही गहरे ध्यान में गति होगी। चौथा सूत्र ध्यान का होगा। आप पूरी शक्ति लगाएं, क्लाइमेक्स पर, जितना आप कर सकते हों, लगा दें—कहने को न बचे कि मेरे पास कोई ताकत शेष रह गई थी…… .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? गहरी श्वास…… .गहरी श्वास…… भीतर पूछें— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरी ताकत से पूछें, बाहर भी निकल जाए फिकर न करें। पूछें भीतर—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरी ताकत लगाएं…… .पूरी ताकत लगाएं…… .पूरी ताकत लगाएं……. शरीर को जो होता है, होने दें…… .शरीर गिरे, गिर जाए…… .रोना निकले, निकले…… .पूरी ताकत लगाएं—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?

(रोने— चिल्लाने की अनेक आवाजें…….)

पूरी लगाएं….. .जरा भी रोकें नहीं….. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरी लगाएं, पूरी ताकत लगाएं—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? रोकें नहीं….. .रोकें नहीं…… .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरी शक्ति लगा दें…

(कुछ लोगों का रुक— रुककर हुंकार करना….. अनेक आवाजें….. रोना चीखना चिल्लाना पशुओं की आवाजें मुंह से निकालना…..)

 

मैं कौन हूं? पूरी शक्ति लगाएं। पांच मिनट ही बचे हैं, पूरी शक्ति लगा दें….. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? शरीर का रोआं—रोआं पूछने लगे—मैं कौन हूं? हृदय की धड़कन— धड़कन पूछने लगे—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरे क्लाइमेक्स पर, चरम पर अपने को पहुंचा दें…… आखिरी सीमा पर पहुंचा दें….. .बिलकुल पागल हो जाएं….. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? बिलकुल पागल हो जाएं पूछने में….. .सारी शक्ति लगा दें….. .पूरी शक्ति लगाएं…… आखिरी, पूरी शक्ति लगाएं….. .फिर तो विश्राम करना है….. .पूरी शक्ति लगाएं— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…… थका डालें अपने को.. ….मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? आधी उठा दें……. अब दो मिनट ही बचे हैं….. पूरी शक्ति लगाएं….. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? शरीर को जो होता है, होने दें…… .शक्ति पूरी लगा दें। दो मिनट तूफान उठा दें—मैं कौन हूं? मै कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक ही मिनट बचा है, पूरी शक्ति लगाएं, फिर विश्राम करना है. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? शरीर को जो होता है, होने दें। गहरी श्वास…… .गहरी श्वास…… .गहरी श्वास……. गहरी श्वास…… .गहरी श्वास…… .गहरी गहरी श्वास……. गहरी श्वास……..

(अनेक लोगों का तीव्र चीत्कार करना…… उछलना कूदना आदि……)

मैं कौन हूं?…… मैं कौन हूं?…… .शरीर कंपता है, शरीर नाचता है—छोड़ दें…… .मैं कौन हूं?…… .मैं कौन हूं? (साधको पर चल रही प्रतिक्रियाएं बड़ी तेजी पर हैं…..)

चौथे सूत्र पर जाने के लिए पूरी शक्ति लगा दें….. .मैं कौन हूं?…… .मैं कौन हूं?….. .लगाएं पूरी शक्ति……. .लगाएं पूरी जब तक आप पूरी न लगाके चौथे सूत्र पर नहीं चलेंगे.. .मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं…. कौन हूं? मैं…… कौन हू….. ” मैं कौन हूं….. . मैं कौन हूं… कौन हू….. ‘ कौन हू….. ‘ छ हू….. ‘कौन हू….. ‘कौन हू? ‘ कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरी शक्ति लगा दें……. मैं कौन हूं? फिर हम चौथे पर चलें… मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?

(अनेक लोगों का हुंकार चीत्कार आदि करना…….)

पूरी शक्ति लगाएं… छोड़े मत…… जरा भी न बचाएं, पूरी शक्ति लगाएं…… गहरी श्वास….. गहरी श्वास…… गहरी श्वास गहरी श्वास… गहरी श्वास….. मैं कौन हूं —….. मैं कौन हूं —…… मैं कौन हूं — मैं कौन हूं?…. मैं कौन हूं —…. मैं कौन हूं……

चौथा चरण : पूर्ण विश्राम—शांत, शून्य, जाग्रत, मौन, प्रतीक्षारत:

और अब सब छोड़ है. .चौथे सूत्र पर चले जाएं—विश्राम में। न पूछें, न गहरी श्वास लें—सब छोड़ दें। दस मिनट के लिए सिर्फ पड़े रह जाएं— जैसे मर गए; जैसे हैं ही नहीं, सब छोड़ दें। दस मिनट सिर्फ छोड्कर पड़े रह जाएं, उसकी प्रतीक्षा में। छोड़ दें—न पूछें, न श्वास गहरी लें, बस पड़े रह जाएं। सागर का गर्जन सुनाई पड़े, सुनते रहें, हवाएं वृक्षों में आवाज करें, सुनते रहें, कोई पक्षी शोर करे, सुनते रहें— दस मिनट मर गए…… .हैं ही नहीं….. .दस मिनट मर गए…… .हैं ही नहीं।

(समुद्र का गर्जन है….. पक्षियों की आवाजें. हवा की सरसराहट…… कहीं— कहीं किसी का कभी— कभी सुबकना…… हिचकी लेना.. ….कराहना.. शेष सब शांत है…… साधकों का क्रमश: शांत तथा निःशब्द होते चले जाना…… किसी का बीच में दो— चार तीव्र श्वास—प्रश्वास लेना और शांत हो जाना….. किसी साधक का शरीर की स्थिति में कुछ परिवर्तन करना….. फिर गहरी शांति तथा स्थिरता में चले जाना……)

धीरे— धीरे अब आंख खोल लें। आंख न खुलती हो तो दोनों आंखों पर हाथ रख लें। जो लोग गिर गए हैं, उनसे उठते न बने तो धीरे— धीरे गहरी श्वास लें और फिर उठें। जल्दी कोई न उठे। झटके से न उठे। बहुत आहिस्ता से उठ आएं। फिर भी किसी से उठते न बने तो थोड़ी देर लेटा रहे। धीरे— धीरे उठकर बैठ जाएं। आंख खोल लें। जिससे उठते न बने वह थोड़ी गहरी श्वास ले, फिर आहिस्ता से उठे।

दो एक छोटी सी सूचनाएं हैं। दोपहर तीन से चार मौन में बैठेंगे। मैं यहां बैठूंगा। तीन के पांच मिनट पहले ही आप सब आ जाएं। मैं ठीक तीन बजे आ जाऊंगा। बिलकुल भी बात यहां न करें। एक शब्द भी प्रयोग न करें। चुपचाप आकर बैठ जाएं। एक घंटे मैं चुपचाप यहां बैठूंगा। उस बीच किसी के भी मन में लगे कि मेरे पास आना है, तो वह दो मिनट के लिए आकर चुपचाप बैठ जाए और फिर अपनी जगह चला जाए। दो मिनट के बाद न रुके, ताकि दूसरे लोगों को आना हो तो वे आ सकें। एक घंटे चुपचाप बैठकर प्रतीक्षा करें।

इस बीच अगर आप कहीं भी घूमने जाते हैं— सागर के तट पर या कहीं भी एकांत में— तो कहीं भी अकेले में बैठकर ध्यान मैं ही रहें। ये तीन दिन सतत ध्यान में ही बिताने की कोशिश करें।

हमारी सुबह की बैठक पूरी हुई।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–10)

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अंधकार से आलोक और मूर्च्छा से परम जागरण की और—(प्रवचन—दसवां)

( ्यान मूल तत्व जिसकी तरलता जिसकी सघनता विरलता जिसका ठोसपन तय करता है कि आपको जाग्रत कहें या आपको सोया हुआ कहें। जागरण और मूर्च्छा के बीच जो तत्व यात्रा करता है, वह ध्‍यान है।)

 भगवान श्री सजग मृत्यु में प्रवेश की प्रक्रिया पर चर्चा करने के पहले मैं पूछना चाहूंगा कि और जागृति में क्या भेद है? बेहोशी चेतना की किस स्थिति को कहते हैं? अर्थात होश और बेहोशी में जीवात्मा की चेतना की कौन— सी स्थिति होती है?

मूर्च्छा और जागृति, इन दोनों को समझने के लिए पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि ये दोनों विपरीत अवस्थाएं नहीं हैं। साधारणत: दोनों विपरीत अवस्थाएं समझी जाती हैं। असल में जीवन को हम द्वैत में तोड़कर ही देखते हैं। अंधकार और प्रकाश को बांट लेते हैं और सोचते हैं, अंधकार और प्रकाश दो चीजें हैं। जैसे ही हमने यह समझा कि अंधकार और प्रकाश दो चीजें हैं, बुनियादी भूल हो गई। अब इस बुनियादी मूल के बाद जो भी चिंतन खड़ा होगा, वह भ्रांत होगा, वह ठीक कभी भी नहीं हो सकेगा। अंधकार और प्रकाश एक ही चीज की तारतम्यताएं हैं। अंधकार और प्रकाश एक ही चीज के रूप हैं, अंधकार और प्रकाश एक ही चीज की सीढ़ियां हैं।

जिसे हम अंधकार कहते हैं, उचित होगा कहें कि वह थोड़ा कम प्रकाश है। ऐसा प्रकाश, जिसे हमारी आंखें नहीं पकड़ पाती हैं। जिस प्रकाश को हमारी आंखें नहीं पकड़ पाती हैं, वह हमें अंधकार प्रतीत होता है। प्रकाश को हम कहें कि वह थोड़ा कम अंधकार है। ऐसा अंहग्कार, जिसे हमारी आंखें पकड़ पाती हैं। अंधकार और प्रकाश ऐसी दो विपरीत चीजें नहीं हैं जो अलग— अलग हैं। अंधकार और प्रकाश एक ही चीज की डिग्रीज हैं, मात्राएं हैं।

और जो अंधकार और प्रकाश के संबंध में सच है, वही जीवन के समस्त द्वंद्वों में सच है। मूर्च्छा और चेतना भी ऐसी ही बात है। मूर्च्छा को समझ लें अंधकार, चेतना को समझ लें प्रकाश। असल में मूर्च्छित से मूर्च्छित वस्तु भी बिलकुल मूर्च्छित नहीं है। पत्थर भी शइrच्छत नहीं है, वह भी चेतना की ही एक अवस्था है, लेकिन इतनी कम कि हमारी पकड़ के बाहर है।

एक आदमी सो रहा है, एक आदमी जाग रहा है। जागना और सोना दो चीजें नहीं हैं। एक ही आदमी सोने और जागने के बीच में यात्रा कर रहा है। जिसको हम सोना कहते हैं, वह भी बिलकुल सोना नहीं है। क्योंकि सोते वक्त हम जोर से बोलते हैं, राम! पांच सौ आदमी सोए हुए हैं तो चार सौ निन्यानबे आदमी नहीं सुनते हैं, जिसका नाम राम है, वह आंख खोलकर कहता है कि कौन मेरी नींद खराब कर रहा है, कौन मुझे बुला रहा है! यह आदमी अगर बिलकुल सोया था, तो इसे सुनाई नहीं पड़ना चाहिए था कि इसका नाम बुलाया गया। और यह आदमी अगर बिलकुल सोया था तो इसे यह पहचान में नहीं आना चाहिए था कि मेरा नाम राम है। इसकी यह नींद भी जागने की ही एक कम अवस्था थी। जागना थोड़ा फीका, मद्धिम हो गया था। जागना थोड़ा धुंधला हो गया था।

फिर एक आदमी के घर में आग लगी है। वह रास्ते से भागा चला जा रहा है। आप उसको नमस्कार करते हैं। वह आपको देखता है, फिर भी नहीं देखता। वह आपको सुनता है, फिर भी नहीं सुनता। दूसरे दिन आप उससे पूछते हैं कि कल मैंने नमस्कार किया, आपने उत्तर नहीं दिया। वह आदमी कहता है, मेरे मकान में आग लगी थी। मुझे उस वक्त सिवाय मकान के और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा था। मेरे मकान में आग लगी थी, मुझे सिवाय मकान के आसपास, मकान में आग लगी है, इस आवाज के सिवाय कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ रही थी। आपने नमस्कार किया होगा जरूर। आप मिले होंगे जरूर। लेकिन न मैं देख पाया, न मैं सुन पाया। यह आदमी जागा हुआ था या सोया हुआ था? यह आदमी सब अर्थों में जागा हुआ था। फिर भी इस आदमी के लिए करीब —करीब सोया हुआ था। उस आदमी से भी ज्यादा सोया हुआ था, जिसने नींद में सुन लिया था कि राम, यह उस आदमी से भी ज्यादा सोया हुआ था।

सोना और जागना क्या है? पहली बात मैं यह कहना चाहता हूं कि ये दो विपरीत चीजें नहीं हैं। पदार्थ और परमात्मा दो विपरीत चीजें नहीं हैं। नींद और जागरण दो विपरीत चीजें नहीं हैं। प्रकाश और अंधकार दो विपरीत चीजें नहीं हैं। शैतान और ईश्वर दो विपरीत चीजें नहीं हैं। बुरा और भला दो विपरीत चीजें नहीं हैं। लेकिन हमारी बुद्धि हर चीज को तत्काल दो में तोड लेती है। असल में बुद्धि ने सवाल उठाया कि उसने दो में तोड़ा नहीं। बुद्धि ने सोचा कि उसने दो में तोड़ा नहीं।

सोचना और दो में तोड़ना एक ही चीज के दो नाम हैं। जैसे ही तुम सोचोगे, तुम विभाजन करोगे। सोचना विभाजन की प्रक्रिया है। तुम तत्काल दो टुकड़े में कर लोगे। और जितना सोचने वाला आदमी होगा उतना ज्यादा टुकड़े करता जाएगा। फिर टुकड़े ही टुकड़े रह जाएंगे और वह जो द होल, वह जो पूरा है, वह खो जाएगा। और उस पूरे में ही हर सवाल का जवाब है।

इसलिए बुद्धि किसी सवाल का जवाब कभी भी नहीं खोज पाती। ही, बुद्धि हर जवाब में से पच्चीस सवाल जरूर खोज लेती है। कितना ही महत्वपूर्ण जवाब दिया गया हो, बुद्धि तत्काल उसमें से पच्चीस सवाल खोज लेगी, लेकिन बुद्धि कभी भी किसी चीज का जवाब नहीं खोज पाती। उसका कारण है। क्योंकि जवाब है पूरे में और बुद्धि की अपनी मजबूरी है, क्योंकि वह बिना तोड़कर चल नहीं सकती।

ऐसा ही हम समझें कि मैं यहां बैठा हूं, मैं बोल रहा हूं? मैं यहां मौजूद हूं? आप मुझे सुन भी रहे हैं, आप मुझे देख भी रहे हैं। जिसे आप देख रहे हैं और जो बोल रहा है वह दो आदमी नहीं है। लेकिन जहां तक आपका संबंध है—देख रहे हैं आप आंख से और सुन रहे हैं आप कान से। आपने मुझे दो हिस्सों में तोड़ लिया है। अगर आप मेरे पास बैठें और आपको मेरे शरीर की गंध आ रही है तो आपने मुझे तीन हिस्सों में तोड़ लिया। फिर आप इन तीन हिस्सों को जोड़कर मेरी प्रतिमा बना रहे हैं। वह मेरी प्रतिमा नहीं है, वह आपका जोड़ है। और वह जोड़ हमेशा भ्रांत होगा, क्योंकि किन्हीं भी अंशों को जोड़कर पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। पूर्ण तो वही है जो अंशों के तोड्ने के पहले था।

तो जैसे ही हम पूछते हैं जागृति और मूर्च्छा, वैसे ही हमने तोड़ना शुरू कर दिया। मैं मानता हूं कि एक ही है। लेकिन जब मैं कहता हूं, एक ही है, तब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जागृति ही मूर्च्छा है, मूर्च्छा ही जागृति है। यह मैं नहीं कह रहा हूं। जब मैं कहता हूं अंधकार और प्रकाश एक ही है, तब भी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अंधेरा है तो आप चले जाएं तो उसी तरह चले जाएंगे जिस तरह प्रकाश में जा सकते हैं। जब मैं कह रहा हूं कि अंधेरा और प्रकाश एक है, तो मैं यह कह रहा हूं कि अस्तित्व एक ही चीज की मात्राओं का है। कम और ज्यादा का फर्क है, होने और न होने का फर्क नहीं है। कम और ज्यादा का फर्क है।

यह कौन—सी चीज है जो कम —ज्यादा होकर मूर्च्छा बन जाती है और जागृति बन जाती है? अब मुझे समझना आसान हो जाएगा। यह कौन —सी चीज है जो ज्यादा होती है तो जागृति मालूम पड़ती है, और कम हो जाती है तो मूर्च्छा हो जाती है। इस एक तत्व का नाम ही ध्यान है, अटेंशन है। जितना ध्यान प्रगाढ़ और तीव्र होता है, उतनी जागृति हो जाती है, जितना ध्यान प्रगाढ़ और तीव्र नहीं होता, उतनी मूर्च्छा हो जाती है। मूर्च्छा और जागृति ध्यान की सघनताओं के नाम हैं, डेंसिटीज आफ अटेंशन। कितनी प्रगाढ़ है ध्यान की स्थिति, उतना जागरण हो जाएगा। कितनी विरल है ध्यान की स्थिति, उतनी मूर्च्छा हो जाएगी। असल में पत्थर और हमारे बीच जो फर्क है, वह इतना ही है कि पत्थर के पास किसी भी दिशा में सघन ध्यान नहीं है। जिस दिशा में सघन ध्यान हो जाता है, उस दिशा में जागृति हो जाती है। जिस दिशा में ध्यान की सघनता कम हो जाती है, उस दिशा में मूर्च्छा हो जाती है।

जैसे कि अगर हम किरणों को, सघन करनेवाले कांच के टुकड़े में से किरणों को निकालें तो तत्काल आग पैदा हो जाती है। प्रकाश सघन हो जाए तो आग बन जाता है। आग अगर विरल हो जाए तो प्रकाश रह जाती है। एक अंगारे में आग है, क्योंकि प्रकाश बहुत सघन है। जहां भी प्रकाश सघन हो जाता है, वहां आग पैदा हो जाती है। जहां प्रकाश विरल हो जाता है, उसकी डेंसिटी कम हो जाती है, वहां आग भी प्रकाश रह जाती है। और जितनी सघनता कम होती जाती है, उतना अंधकार बढ़ता जाता है। जितनी सघनता बढ़ती जाती है, उतना प्रकाश बढ़ता जाता है। अगर हम सूरज की तरफ यात्रा करें तो प्रकाश बढ़ता जाएगा, क्योंकि सूरज से आने वाली किरणें सूरज पर बहुत सघन हैं। जैसे ही हम सूरज से दूर हटते जाएंगे, वैसे—वैसे प्रकाश कम होता जाएगा। सूरज से बहुत बड़ी दूरी पर अंधकार रह जाएगा। वह अंधकार सिर्फ प्रकाश की सघनता के कम हो जाने के कारण है। ठीक ऐसे ही मैं मूर्च्छा और जागृति को लेता हूं। ध्यान है मूल तत्व, जिसकी तरलता, जिसकी सघनता, विरलता, जिसका ठोसपन तय करता है कि आपको जाग्रत कहें या आपको सोया हुआ कहें; आपको मूर्च्छित कहें कि आपको होश में कहें।

और जब भी हम इन शब्दों का प्रयोग करेंगे, तब ध्यान में रखना कि ये सारे शब्द रिलेटिव, सापेक्ष अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। जैसे हम जब कहते हैं कि कमरे में प्रकाश है तो उसका कुल मतलब इतना होता है कि बाहर जितना प्रकाश है उससे ज्यादा है। इतना ही मतलब होता है। अभी इस कमरे में प्रकाश है, क्योंकि बाहर अंधकार है। बाहर अगर सूरज निकला हो और तीव्र प्रकाश हो तो यह कमरा अंधेरा मालूम पड़ने लगेगा। तो जब हम कहते हैं कि कोई चीज जाग्रत है या कोई सोया है, तब भी हमारा मतलब इतना ही होता है कि किसी की तुलना में। लेकिन भाषा में बड़ी कठिनाई है। क्योंकि अगर हम बार—बार तुलना करें तो कहना बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए भाषा में हम शब्दों का प्रयोग एकोल्युट अर्थों में करते हैं, जो कि ठीक नहीं है। ठीक तो हमेशा रिलेटिविटी ही होती है। हम यहां इतने लोग बैठे हैं। एक अर्थ में हम सब जागे हुए हैं, लेकिन यह बात बहुत ठीक नहीं है। यहां जितने लोग बैठे हैं उतनी मात्राओं में लोग जागे हुए होंगे। यहां हर आदमी एक—सा जागा हुआ नहीं है। इसलिए हो सकता है कि तुम्हारा पड़ोसी तुम्हारे अर्थों में सोया हुआ हो और तुम्हारा दूसरा पड़ोसी तुम्हारी तुलना में जागा हुआ हो।

जागरण और मूर्च्छा के बीच जो तत्व यात्रा करता है, वह ध्यान है। इसलिााऊ हम ध्यान को समझ लें तो इन दोनों को भी हम समझ जाएंगे। ध्यान का मतलब है किसी चीज का बोध, अवेयरनेस, किसी चीज का पता चलना, किसी चीज का काशसनेस में प्रतिबिंब बनना। और यह प्रतिपल ऐसा ही है हमारा, कि ऐसा भी नहीं है कि चौबीस घंटे अगर कोई आदमी जागा हुआ है तो वह एक—सा जागा हुआ रहता है, ऐसा भी नहीं है।

आंख की पुतली के संबंध में थोड़ा समझना उचित होगा। जब तुम बाहर रोशनी में जाते हो तो आंख की पुतली सिकुड़ जाती है, छोटी हो जाती है, क्योंकि उतनी ज्यादा रोशनी भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं है। कम रोशनी से भी दिखाई पड़ सकेगा, तो आंख का फोकस छोटा हो जाता है। जब तुम प्रकाश से अंधेरे में आते हो तो आंख फैल जाती है, उसका फोकस बड़ा हो जाता है, क्योंकि अब अंधेरे में ज्यादा भीतर जायेगा तो ही तुम देख सकोगे। जैसे कैमरे में हम पूरे वक्त फोकस बदलते हैं कि कितना लेंस खुला रहे, ठीक ऐसे ही आंख पूरे वक्त प्रकाश और रोशनी की तारतम्यताओं में अपने को बदलती है।

जैसे हमारी आंख प्रतिपल फ्लेक्सिबल है, लोचपूर्ण है, ऐसे ही हमारा ध्यान भी प्रतिपल लोचपूर्ण है। तुम रास्ते पर चले जा रहे हो। अगर यह रास्ता परिचित है, तो तुम्हारा ध्यान विरल होगा। अगर यह रास्ता अपरिचित है, तो तुम्हारा ध्यान सघन होगा। अगर यह रास्ता रोज—रोज वाला है, जिस पर तुम रोज आते हो और जाते हो, तो तुम्हें जागने की कोई जरूरत नहीं, तुम मूर्च्छित ही गुजरोगे। अगर यह रास्ता बिलकुल अपरिचित है जिस पर तुम कभी भी नहीं गुजरे हो, तो तुम जागे हुए गुजरोगे। क्योंकि अपरिचित होने की वजह से तुम्हारे ज्यादा ध्यान की मांग होगी।

इसलिए जो आदमी जितनी सुरक्षा में जीएगा, उतना मूर्च्छित जीएगा। क्योंकि सुरक्षा में सब परिचित है। जो आदमी जितनी असुरक्षा में, इनसिक्योरिटी में जीएगा, उतना जागा हुआ जीएगा। इसलिए साधारणत: ऐसा समझें कि खतरे के क्षणों को छोड्कर हम कभी जागते नहीं हैं, हम सोए ही होते हैं। अगर मैं तुम्हारी छाती पर एक छुरा रख दूं अभी, तो तुम जाग जाओगे बहुत और अर्थों में, जैसे कि तुम अभी जागे हुए नहीं हो। क्योंकि तुम्हारी छाती पर छुरा रखा जाएगा तो इतनी इमरजेंसी, इतने संकट की अवस्था पैदा हो जाएगी, इतनी आपात्कालीन घड़ी होगी कि उस वक्त सोने को अफोर्ड नहीं किया जा सकता। नहीं, उस वक्त तुम सोए—सोए नहीं रह सकते, क्योंकि इतने खतरे में अगर सोए रहे तो मरने का डर हो जाएगा। इतने खतरे में तुम्हारा सारा प्राण सघन हो जाएगा, तुम्हारा सारा ध्यान सघन हो जाएगा। एक छुरा ही रह जाएगा तुम्हारे ध्यान में और तुम छुरे के प्रति पूरी तरह जाग जाओगे। हो सकता है यह एक ही सेकेंड को हो। खतरे के क्षणों में ही हमारा ध्यान साधारणत: सघन होता है। खतरा निकल जाता है, हम फिर वापस अपनी जगह पर लौट आते हैं, फिर सो जाते हैं।

शायद इसीलिए खतरे का आकर्षण भी है। खतरा हम उठाना चाहते हैं। एक जुआरी जुआ खेलता है। शायद ही हमें खयाल हो कि जुआरी के जुआ खेलने में कौन—सा रस है। खतरे का रस है। दाव के क्षण में वह जाग जाता है, जितना वह कभी जागा हुआ नहीं होता है। एक जुआरी ने लाख रुपये दांव पर रख दिये हैं, पांसे फेंकने को है, यह क्षण बड़े संकट का है। और इस क्षण में लाख इस तरफ या लाख उस तरफ हो जाने वाले हैं। इस क्षण में सोया हुआ नहीं रहा जा सकता है। इस क्षण में जागना ही पड़ेगा। एक क्षण को, दांव का जो क्षण है, वह ध्यान को प्रगाढ़ कर जाएगा। अब तुम हैरान होओगे कि मेरी समझ में जुआरी भी ध्यान खोज रहा है। उसे पता हो या न हो, यह दूसरी बात है।

एक आदमी विएवाह करके ले आया है। फिर जिस पत्नी से वह रोज—रोज परिचित हो जाता है, उसके प्रति सो जाता है। बंधा हुआ रास्ता है। उसी पर वह रोज—रोज आता—जाता है। पड़ोस की स्त्री एकदम आकर्षक मालूम होती है। कुछ और बात नहीं है। पड़ोस की स्त्री ध्यान को जगाती है। अपरिचित है। उसको देखते वक्त ध्यान को सघन होना पड़ता है। आंख का फोकस फौरन बदल जाता है। असल में पत्नी को देखने के लिए आंख में किसी फोकस की जरूरत ही नहीं होती, न पति को देखने में होती है। असल में पति, पत्नी को शायद ही कोई कभी देखता हो। ऐसा हम आंख बचाकर चलते हैं कि पत्नी, पति को दिखाई न पड़ जाए। इस तरह चलते हैं, इस तरह जीते हैं। वहा कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए दूसरी स्त्री में दूसरे पुरुष का जो आकर्षण है, मेरे हिसाब से ध्यान का ही आकर्षण है। उस एक क्षण में, पुलक में, एक क्षण को चित्त जागता है और जागना पड़ता है। हम किसी को देख पाते हैं।

पुराने मकान की जगह नए मकान की दौड़ है। पुराने कपड़ों की जगह नए कपड़ों की दौड़ है। पुराने पद की जगह नए पदों की दौड़ है। यह सारी की सारी दौड़ बहुत गहरे में ध्यान के सघन होने की आकांक्षा है। और जीवन में जितना भी आनंद है वह आनंद, ध्यान जितना सघन हो, इस पर निर्भर करता है। आनंद के क्षण ध्यान की सघनता के क्षण हैं। इसलिए जिन्हें आनंद पाना हो, उन्हें जागना अनिवार्य है। सोए—सोए आनंद नहीं पाया जा सकता।

धर्म भी ध्यान की तलाश है और जुआ भी। और जो आदमी युद्ध के मैदान में तलवार लेकर लड़ने गया है, वह भी ध्यान की तलाश में गया है। और जो आदमी जंगल में शेर का शिकार करने चला गया है, वह भी ध्यान की तलाश में गया है। और जो आदमी गुफा में बैठकर आंख बंद करके आशा चक्र पर श्रम कर रहा है, वह भी ध्यान की तलाश में गया हुआ है। ये तलाश शुभ और अशुभ हो सकती हैं, लेकिन यह तलाश एक है। कोई तलाश वांछनीय और कोई अवांछनीय हो सकती है, लेकिन तलाश एक है। और कोई तलाश असफल हो सकती है और कोई सफल हो सकती है, लेकिन तलाश की आकांक्षा एक है।

ध्यान का अर्थ है कि मेरे भीतर जो जानने की शक्ति है, वह पूरी प्रकट हो। उसमें कोई भी हिस्सा मेरे भीतर पोर्टेट न रह जाए, बीज—रूप न रह जाए। मेरे भीतर जितनी भी क्षमता है जानने की, वह पोटेंशियल न रह जाए, एक्‍चूअल हो जाए, वास्तविक हो जाए।

तो जिस क्षण में कोई व्यक्ति पूरी तरह जागता है, उस क्षण में वह पूरी तरह होता भी है। दोनों एक साथ घटनाएं घटती हैं। जैसे एक बीज है। एक बीज में वृक्ष छिपा हुआ है, लेकिन पोटेशियली, संभावना है सिर्फ। बीज बिना उसको प्रकट किए भी मर सकता है। जरूरी नहीं कि बीज से वृक्ष पैदा हो ही। हो सकता है। यह सिर्फ एक संभावना है, यह वास्तविकता नहीं है अभी। फिर बीज वृक्ष हो जाए, यह भी बीज की ही दूसरी अवस्था है, प्रकट। ऐसा कहें कि बीज जो है वह वृक्ष की अप्रकट अवस्था है, तो गलत न होगा। ऐसा कहें कि वृक्ष जो है वह बीज की प्रगट अवस्था है, तो गलत न होगा। क्योंकि वृक्ष में वही तो प्रकट हो गया है, जो बीज में छिपा था। तो यदि हम ऐसा कहें कि निद्रा जागृति की अप्रकट अवस्था है, तो गलत न होगा। मूर्च्छा जागृति की अप्रकट अवस्था है, तो गलत न होगा। या हम ऐसा कहें कि जागृति मूर्च्छा की प्रकट अवस्था है, तो गलत न होगा।

और कौन इसमें से यात्रा कर रहा है जो बीज में भी था और वृक्ष में भी? क्योंकि एक तो कोई होना चाहिए, नहीं तो बीज और वृक्ष को जोड़ेगा कौन! बीज अगर वृक्ष बनता है तो बीच में कोई सेतु होगा, और बीच में कोई यात्रा करनेवाला होगा, जो बीज में भी था और वृक्ष में भी है। वह मध्य का कौन है जो दोनों के बीच यात्रा कर रहा है? जो बीज में छिपा था और वृक्ष में प्रकट हुआ है, वह कौन है? वह न तो बीज हो सकता है, न वृक्ष हो सकता है।

इसको थोड़ा समझ लेना। वह जो तीसरी ताकत है जो बीज में छिपी थी और वृक्ष में प्रकट है, अगर वह बीज ही होती, तो कभी वृक्ष नहीं हो पाती। और अगर वृक्ष ही होती तो फिर बीज में कैसे होती? वह दोनों में थी। वह जो प्राण —शक्ति है, वह तीसरी है। तो जागना और मूर्च्छा तो दो स्थितियां हैं। इनके बीच जो यात्रा कर रहा है तत्व, उसका नाम ध्यान है। वह प्राण—शक्ति तीसरी है। तो तुम कितने ध्यानपूर्ण हो, उतने ही जागे हुए हो। और तुम कितने ध्यान—रिक्त हो, उतने ही सोए हुए हो।

पत्थर सोया हुआ परमात्मा है। पूरी तरह से सोया हुआ। बिलकुल बीज है। कहीं से भी अंकुर नहीं टूट रहा है। आदमी वृक्ष नहीं है, टूटा हुआ बीज है। थोड़ा—सा अंकुर टूट गया है। वृक्ष भी नहीं हो गया है, पत्थर भी नहीं है। दोनों के बीच में कहीं यात्रा पर है। आदमी यात्रा पर है, या और भी ठीक होगा कहना कि आदमी यात्रा है या आदमी यात्रा का एक पड़ाव है। बीज वृक्ष होने की यात्रा पर निकला है। बीच में वह अंकुर भी होता है। बस, आदमी अंकुर है, अंकुरित बीज है। जिसको हम जागना कह रहे हैं, वह भी अंकुरित ही है अभी। अत्यंत धूमिल है।

जिसे हम जागना कह रहे हैं, वह भी बहुत धूमिल है, वह भी बहुत सोया—सोया है, स्लीपी। करीब—करीब हम जागते हुए जैसा जीते हैं, सड़क पर चलते हैं, दफ्तर में काम करते हैं, वह सोमनाबुलिज्म से ज्यादा भिन्न बात नहीं है। जैसे कोई आदमी रात सपने में उठ आता है, चौके में जाकर पानी पी आता है, या अपनी टेबुल पर बैठकर एक पत्र लिख देता है और वापस सो जाता है। और सुबह कहता है, मुझे पता नहीं, मैं तो उठा नहीं। उसने रात सपने में ही यह सब किया। उसकी आंख खुली थी, वह रास्ता ठीक से गया, दरवाजा ठीक से खोला, उसने पत्र भी लिखा है। लेकिन फिर भी वह सोया हुआ था, सारा हिस्सा सोया हुआ था। कोई एक जरा—सा कोना जाग गया होगा। वह इतना छोटा कोना था कि उसकी स्मृति भी पूरे मन को पता नहीं चल पाई। इसलिए सुबह वह आदमी कहता है कि मुझे पता नहीं है।

हमारा जिसको हम जागना कहते हैं वह भी करीब—करीब ऐसा ही नींद में जाग कर काम करने वालों जैसा है। अगर मैं तुमसे पूछूं कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास में तुमने क्या किया था, तो तुम कुछ भी न कह सकोगे। तुम कहोगे, एक जनवरी उन्नीस सौ पचास हुई तो जरूर थी, कुछ किया भी था। लेकिन क्या किया था, कुछ भी पता नहीं। लेकिन तुम हैरान होओगे, अगर तुम्हें हिप्नोटाइज किया जा सके और तुम्हें अगर बेहोश किया जा सके और फिर तुमसे पूछा जाए कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को तुमने क्या किया, तो तुम सब बता दोगे, सब वापस दोहरा दोगे। तुम्हारे मन के किसी एक कोने ने तो संग्रह कर लिया, लेकिन तुमको भी पूरी तरह से पता नहीं है। तुम्हारे एक हिस्से ने तो रेकार्ड कर लिया, लेकिन तुम्हें भी खुद पता नहीं है पूरी तरह से। वह रेकार्ड हो गया और रख गया है। इसी तरह हमारे पिछले जन्मों की स्मृतियां भी रखी हुई हैं। हमें पूरी तरह से उनका भी पता नहीं है। हमारा कोई और हिस्सा पिछले जन्म में जागा रहा था, उस हिस्से ने काम कर लिया था। वह सो गया है, अब एक दूसरा कोना जाग रहा है। उसको कुछ पता नहीं है कि दृस्रा कोना जाग कर काम बहुत कर चुका है। एक अंकुर फूट चुका था बीज में पिछले जन्म में, फिर वह मर गया। अब दूसरा अंकुर फूट गया है। उसे कुछ पता नहीं कि इसमें पहले भी एक चेष्टा हो चुकी है। उसे कुछ पता नहीं कि अनंत चेष्टाएं हो चुकीं। और अगर पिछले जन्मों की स्मृतियों में जाओगे तो बहुत हैरान हो जाओगे।

पिछले जन्मों की स्मृतियां सिर्फ मनुष्य—जन्मों की स्मृतियां नहीं हैं। उनमें जाना तो बहुत आसान है, बहुत कठिन नहीं है। लेकिन मनुष्यों के कई जन्मों के पहले के जन्म पशुओं के भी थे। उनमें जाना जरा कठिन है, क्योंकि वे और भी गहन तल में छिप गए हैं। और पशुओं के पहले बहुत—से जन्म वृक्षों के भी थे। उनमें जाना और भी मुश्किल है, क्योंकि वे और भी गहन तल में छिप गए हैं। और वृक्षों के पहले बहुत—से जन्म पत्थरों के और खनिजों के भी थे। वे और भी गहरे छिप गए हैं। उनमें जाना और भी मुश्किल है।

अब तक जाति—स्मरण के जो भी प्रयोग हैं, वे ज्यादा से ज्यादा पशुओं तक जा सके। बुद्ध या महावीर ने भी जो प्रयोग किए, वे पशुओं से आगे नहीं जा सके। वृक्ष होने की स्मृति अभी जगायी जाने को है। और खनिज होने की स्मृति तो और दूर पर है, लेकिन वह सब संगृहीत है। लेकिन उसका संग्रह जरूर किसी तंद्रा की अवस्था में हुआ है, अन्यथा हमारे पूरे मन को पता होता।

हमें जो बातें याद रह जाती हैं, कभी तुमने खयाल न किया होगा कि जो बातें हमें कभी नहीं भूलतीं, क्यों नहीं भूलतीं? हो सकता है तुम पांच वर्ष की उम्र के थे और किसी ने तुम्हें एक चांटा मार दिया था, वह तुम्हें आज भी भलीभांति याद है और जिंदगी भर न भूल सकोगे। बात क्या है? जिस क्षण तुम्हें चांटा मारा गया, तुम्हारा अटेंशन बहुत जागा हुआ होगा। इसलिए वह बहुत गहरे तक पकड़ सका। असल में चांटा जब मारा जाएगा, तो स्वभावत: ध्यान पूरा जागा हुआ सघन होगा। इसलिए आदमी अपमान के क्षणों को कभी नहीं भूल पाता, दुख के क्षणों को कभी नहीं भूल पाता, सुख के क्षणों को कभी नहीं भूल पाता। ये सब तीव्र क्षण हैं। इन क्षणों में वह इतना होश से भरा होता है कि इनकी स्मृति उसकी पूरी चेतना में व्यापक हो जाती है। साधारण चीजों को वह भूलता चला जाता है।

यह जो ध्यान है, इसको हम कैसे समझें कि यह क्या है! अनुभव है, इसलिए थोड़ी कठिनाई तो है। अगर मैं तुम्हारे हाथ में एक आलपीन चुभाऊं, तो तुम्हारे भीतर क्या घटना घटती है? तत्काल तुम्हारे ध्यान की धाराएं उस आलपीन के बिंदु पर भागने लगती हैं। वह आलपीन का बिंदु एकदम महत्वपूर्ण हो जाता है। कहना चाहिए कि तुम्हारी सारी आत्मा उस आलपीन के बिंदु पर खड़ी हो जाती है। कहना चाहिए कि उस क्षण में तुम अपने शरीर में सिर्फ उसी बिंदु के प्रति जागे रह जाते हो जहां आलपीन चुभ रही है।

तुम्हारे भीतर कौन —सी घटना घटी? आलपीन नहीं चुभ रही थी, तब भी तुम्हारे शरीर का वह हिस्सा था। लेकिन तुम्हें पता नहीं था, तुम्हें होश नहीं था उस जगह का। तुम्हें खयाल भी नहीं था कि वैसी भी कोई जगह हाथ पर है। लेकिन अचानक एक आलपीन ने संकट पैदा कर दिया और तुम्हारे ध्यान की सारी किरणें उस बिंदु की तरफ दौड़ने लगीं जहां आलपीन चुभ रही है। तुम्हारे भीतर कौन—सी चीज दौड रही है? क्या हो रहा है तुम्हारे भीतर? क्या फर्क हो रहा है? घड़ी भर पहले इस बिंदु पर कौन —सी चीज नहीं थी और अब इस बिंदु पर कौन—सी चीज है? घड़ी भर पहले इस बिंदु पर चेतना नहीं थी, होश नहीं था। यह बिंदु है भी या नहीं, यह बराबर था। इसके होने न होने का कोई पता नहीं था। इसके होने न होने में कोई फासला न था। अचानक पता चला कि यह बिंदु भी है। और अब इसके होने और न होने में बड़ा फर्क है। अब यह है। अब इसका एक्सिस्टेंशियल, इसका अस्तित्व बोध तुम्हारे सामने खड़ा हो गया है। ध्यान जो है, वह बोध है, अवेयरनेस है। अब ध्यान के दो रूप हो सकते हैं। इसे समझ लेना जरूरी होगा। क्योंकि तुम्हारे सवाल को समझने में वह भी उपयोगी है।

ध्यान के दो रूप होते हैं। एक को जिसे हम कंसन्ट्रेशन कहें, एकाग्रता कहें। और एकाग्रता को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि जब एक बिंदु पर तुम्हारा ध्यान एकाग्र हो जाता है, तो शेष सारे बिंदुओं पर तुम सो जाते हो। अभी मैंने तुमसे कहा कि तुम्हारे हाथ में एक आलपीन चुभा दी गई है तो जब आलपीन जिस जगह पर चुभ रही है वहां तुम्हारी चेतना पहुंचेगी, तुम्हें शेष सारे शरीर का बोध भूल जाएगा। असल में बीमार आदमी सिर्फ उन्हीं अंगों में जीने लगता है जो बीमार होते हैं। बाकी उसका शरीर समाप्त हो जाता है। जिसका सिर दुख रहा है, वह सिर ही हो जाता है। बाकी उसका शरीर नहीं रह जाता। जिसका पेट दुख रहा है, वह पेट ही रह जाता है। जिसके पैर में कांटा चुभा है, उस कांटे की जगह ही उसका सब हो जाता है। यह ध्यान की एकाग्रता है।

तुमने अपनी सारी चेतना को एक बिंदु पर अटका दिया। स्वभावत: जब सारी चेतना एक बिंदु पर अटकती है और एक बिंदु की तरफ दौड़ती है, तो शेष सारे बिंदु शून्य हो जाते हैं, अंधेरे में हो जाते हैं। जैसा मैंने कहा कि एक आदमी के घर में आग लग गई है। बस, उसको अब एक ध्यान है कि आग लग गई है। बाकी की तरफ उसका सारा ध्यान समाप्त हो गया है। अब उसे और कुछ भी पता नहीं चल रहा है। सारी दुनिया की तरफ वह सो गया है। बस, एक मकान जिसमें आग लगी हुई है, वहीं उसका जागरण रह गया। तो ध्यान का एक रूप है एकाग्रता। लेकिन एकाग्रता में एक बिंदु पर तुम एकाग्र हो जाते हो और शेष अनंत बिंदुओं पर सो जाते हो। इसलिए एकाग्रता ध्यान की सघनता तो है, लेकिन साथ ही मूर्च्छा का फैलाव भी है। दोनों बातें एक साथ घट रही हैं।

ध्यान का दूसरा रूप है जागरूकता, एकाग्रता नहीं। जागरूकता, कंसन्ट्रेशन नहीं, अवेयरनेस। जागरूकता का मतलब है ऐसा ध्यान जिसका कोई बिंदु नहीं है। यह जरा समझना और थोड़ा कठिन है, क्योंकि बिंदु वाले ध्यान का हमें पता है। पैर में कांटा भी गड़ा है, सिर में दर्द भी हुआ है, मकान में आग भी लगी है, परीक्षा भी दी है, सब किया है। तो हमें पता है कि बिंदु वाला ध्यान क्या है। एकाग्रता का हम सबको पता है। लेकिन एक और ध्यान है जहां कोई बिंदु नहीं होता। क्योंकि जब तक बिंदु होगा ध्यान के लिए, तब तक शेष बिंदुओं पर मूर्च्छा होगी।

तो अगर हम समझें कि परमात्मा है, तो निश्चित ही परमात्मा जागा हुआ होगा, पूर्ण जागा हुआ होगा। लेकिन परमात्मा की पूर्ण जागृति का बिंदु क्या होगा? अगर उसकी जागृति का कोई बिंदु होगा तो शेष सबकी तरफ वह सो गया होगा। इसलिए परमात्मा की जागृति का कोई बिंदु, कोई आब्जेक्ट, कोई सेंटर नहीं हो सकता। अवेयरनेस विदाउट सेंटर। जागृति है, लेकिन कोई केंद्र नहीं है। तब जागृति अनंत हो जाती है, तब सब तरफ फैल जाती है।

यह जो सब तरफ फैल गई जागृति है, यह परम अवस्था है, ऊंची से ऊंची जो संभव है। इसलिए परमात्मा के स्वरूप की व्याख्या में जब हम सच्चिदानंद कहते हैं, तो उसमें चित शब्द का यह अर्थ है। चित का अर्थ चेतना नहीं। चित का अर्थ चेतना आमतौर से लोग समझ लेते हैं। क्योंकि चेतना तो होती ही किसी चीज की है। चेतना का मतलब ही होता है कि उसका कोई आब्जेक्ट होगा। कांशसनेस इज आलवेज स्काउट। अगर तुम कहो कि मैं चेतन हूं तो तुमसे पूछा जा सकता है, किस चीज के, किसके प्रति चेतन हो? चित का मतलब होता है, आब्जेक्टलेस कांशसनेस। किसी के प्रति नहीं, बस चेतन। इसलिए चित का अर्थ चेतना नहीं है। चित का अर्थ चैतन्य है।

फर्क समझ लेना। चेतना तो, सदा आब्जेक्ट सेंटर्ड होगी, कोई वस्तु केंद्रित होगी। और चैतन्य आत्मविकीर्ण होगा अनंत की ओर। कहीं रुकता नहीं, कहीं ठहरता नहीं, सब तरफ फैलता है। ऐसा कोई बिंदु नहीं है जहां इसके कारण मूर्च्छा पकड़नी पड़ती हो। यह परम अवस्था हुई। इसको कहें पूर्ण जागृति। इससे ठीक उलटी दूसरी अवस्था होगी जिसको कहें, पूर्ण सुषुप्ति, पूरा सोया होना। उसका मतलब यह है.. इसको भी समझ लेना जरूरी है।

एकाग्रता में एक बिंदु है, शेष बिंदुओं पर मूर्च्छा है। एक बिंदु पर जागृति है। पूर्ण जागरूकता में कोई बिंदु नहीं है जागरण का, सब तरफ जागृति है। या कहना चाहिए सिर्फ जागृति है, जस्ट अवेयरनेस, किसी चीज की नहीं है। आब्जेक्ट खो गया है पूर्ण जागरूकता में, सिर्फ सब्जेक्ट रह गया। सिर्फ जाननेवाला रह गया है और जो जाना जाता है, वह नहीं रह गया। जाननेवाला रह गया है और जानने की शक्ति अनंत में फैली रह गई है और जानने को कुछ भी शेष नहीं रहा है।

क्योंकि जहां भी कुछ जाना जाएगा, हमेशा किसी चीज की कीमत पर जाना जाएगा। अगर तुम्हें कुछ जानना है तो कुछ जानने से तुम्हें बचना पड़ेगा। ध्यान रखना, जानने की कीमत सदा अज्ञान से चुकानी पड़ती है। इसलिए आदमी जितनी चीजों को जानता जाता है उतनी बहुत—सी चीजों के प्रति उसे अज्ञानी होना पड़ता है। अब जैसे वैज्ञानिक सबसे ज्यादा जानने वाला आदमी है। लेकिन अगर वह केमिस्ट है तो उसे फिजिक्स का कोई भी पता नहीं हो सकता। अगर वह गणितज्ञ है तो उसे केमिस्ट्री का कोई पता नहीं हो सकता है। अगर गणित के संबंध में उसे बहुत जानना है तो उसे बहुत से संबंधों में न जानने को राजी होना पड़ेगा। यह चुनाव करना पड़ेगा। असल में अगर किसी चीज का इतनी बनना है तो बहुत चीजों के प्रति अज्ञानी होने के लिए हिम्मत रखनी पड़ेगी।

इसलिए महावीर और बुद्ध इन अर्थों में ज्ञानी नहीं थे। उनका ज्ञान स्पेशलाइज्‍ड नहीं है। उनका शान जो है, वे किसी चीज के एक्सपर्ट नहीं हैं। इसलिए एक तरफ हम कहते हैं कि महावीर सर्वज्ञ हैं, लेकिन साइकिल का पंक्चर जोड्ने की तरकीब भी नहीं बता सकते हैं। वह विशेषश नहीं हैं। क्योंकि जिसको साइकिल का पंक्चर जोड्ने की तरकीब बतानी हो, उसे बहुत —सी चीजों को जानने से बचना पड़ेगा। चेतना को केंद्रित होना पड़ेगा। बहुत—सी चीजें अंधेरे में छूट जाएंगी। साइंस का मतलब ही यह है कि कम से कम चीज के संबंध में ज्यादा से ज्यादा जानना। जितना ज्यादा जानना होने लगता है, उतना जानने का बिंदु कम से कम होने लगता है। आखिर में एक बिंदु ही जानने का रह जाता है, शेष सारी दिशाओं में अज्ञान भर जाता है।

इसलिए वैज्ञानिक तरह का आदमी, जो हो सकता है हाइड्रोजन बम बनाए, लेकिन बाजार में एक साधारण—सा दुकानदार उसको धोखा दे दे, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। क्योंकि वह इतनी थोडी —सी चीज के बाबत जानता है कि बाकी का उसे कुछ पता नहीं है। बाकी के संबंध में वह बिलकुल ग्रामीण है। ग्रामीण से भी ज्यादा गया बीता है। ग्रामीण बहुत—सी बातें जानता है। वह विशेषज्ञ नहीं है। इसलिए अक्सर पुराने ढंग का आदमी बहुत—सी चीजें जानता है। नए ढंग का आदमी बहुत—सी चीजें नहीं जानता है। उसे चुनाव करना पड़ा है। एक चीज के संबंध में बहुत जानने के लिए बहुत—सी चीजों के संबंध में जानने का त्याग करना पड़ा है।

ध्यान का अर्थ है कि मेरे भीतर जो जानने की शक्ति है, वह पूरी प्रकट हो। उसमें कोई भी हिस्सा मेरे भीतर पोस्टें न रह जाए, बीज—रूप न रह जाए। मेरे भीतर जितनी भी क्षमता है जानने की, वह पोटेंशियल न रह जाए, एक्चुअल हो जाए, वास्तविक हो जाए।

एकाग्रता का यह परिणाम होगा। आब्जेक्ट महत्वपूर्ण होता जाएगा और अनंत बिंदु उपेक्षा में पड़ जाएंगे। और एकाग्रता का यह भी परिणाम होगा कि जितना आब्जेक्ट, जितनी विषय—वस्तु महत्वपूर्ण हो जाएगी, उतना ही जाननेवाला गौण हो जाएगा। वैज्ञानिक बहुत कुछ जानता है, लेकिन कौन जानता है उसके भीतर से, उसको बिलकुल नहीं जानता है। आब्जेक्ट सेंटर्ड हो जाएगा। उससे किसी चीज के संबंध में पूछो तो वह बता देगा, उससे उसके संबंध में पूछो तो कई दफे दिक्कत में पड़ जा सकता है।

एक दफा तो ऐसा मजा हुआ कि एडीसन जिसने एक हजार आविष्कार किए, शायद इतने ज्यादा आविष्कार किसी आदमी ने नहीं किए। पिछले पहले महायुद्ध में अमरीका में राशनिंग हुई और ग्लीसन को भी राशन का कार्ड लेकर दुकान पर जाना पड़ा। कार्ड जमा कर दिए गए हैं। जब उसका नंबर आएगा……. वह क्यू में खड़ा है। और जब नाम पुकारा गया थामस ग्लीसन का, तो वह भी ऐसा देखने लगा चारों तरफ जैसे किसी दूसरे आदमी के लिए पुकारा गया है। कोई व्यक्ति भीड़ में उसे पहचानता था। उसने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, मैंने अखबारों में आपके फोटो देखे हैं, आप ही एडीसन मालूम पड़ते हैं। उसने कहा, तुमने अच्छी याद दिलाई। असल में तीस साल से मुझे अपने से मिलने का कोई मौका ही नहीं मिला, फुर्सत भी नहीं मिली। लेबोरेट्री में तीस साल इतने जोर से लगा था वह आदमी। और फिर वह इतना कीमती आदमी था कि उसका नाम लेकर तो कोई बुलाता नहीं था। वह अपना नाम भूल गया था। तीस साल से किसी ने उसका नाम लिया भी नहीं था उसके सामने।

चेतना का जो तीर है, अगर वह किसी वस्तु की तरफ बहुत तीव्रता से लग गया, तो कंसन्ट्रेशन होगा। लेकिन सारे जगत के प्रति अंधकार हो जाएगा और अपने प्रति भी अंधकार हो जाएगा।

आखिरी अवस्था की जो मैं बात कर रहा हूं वहां आब्जेक्ट खतम हो जाएगा, सारे बिंदुओं पर प्रकाश हो जाएगा और साथ ही उस बिंदु पर भी प्रकाश हो जाएगा, जो मैं हूं। यह अनफोकस्ट लाइट होगा। प्रकाश न कहें इसे हम, आलोक कहें।

प्रकाश और आलोक में इतना ही फर्क है। वे पर्यायवाची नहीं हैं। जब सूरज उग जाता है, तब जो होता है वह प्रकाश है; और जब रात खतम हो जाती है और सूरज नहीं उगा होता है, तब जो होता है वह आलोक है। अनफोकस्ट, अनसेंटर्ड, सिर्फ आभा है।

तो परमात्मा सिर्फ आभा है। या परम जागृति में पहुंची हुई स्थिति सिर्फ आभा की है। इससे ठीक उलटी स्थिति अंधकार की या पूर्ण सुषुप्ति की है। ऐसा समझें, पूर्ण जागृति में न तो जाननृए वाले का बिंदु बचता है, न जानी जाने वाली चीज का बिंदु बचता है, सिर्फ आभा रह जाती है अनंत, जो एक अर्थ में सब जानती है, लेकिन एक अर्थ में कुछ भी नहीं जानती। इस अर्थ में सब जानती है, क्योंकि अब कुछ भी नहीं बचा जो उसके प्रकाश के बाहर है। और एक अर्थ में कुछ भी नहीं जानती, क्योंकि कुछ भी ऐसा नहीं बचा, जिस पर उसने जानने की चेष्टा की हो। अगर वह जानने की चेष्टा करे तो बाहर दूसरी चीजें अनजानी छूट जाएं। वैज्ञानिक के अर्थों में यह ज्ञान नहीं होता है, यह कवि के अर्थों में ज्ञान होगा।

दूसरी साधारण अवस्था है एकाग्रता की, जब कि हम एक चीज को जानेंगे, सबको भूल जाएंगे अपने को भी भूल जाएंगे। और इससे भी पहली प्राथमिक अवस्था है, जब न तो हम वस्तु को जानेंगे और न अपने को जानेंगे, पूर्ण अंधकार होगा। न तो हम किसी चीज को जान रहे हैं, एकाग्रता भी नहीं है, न हम सबको जान रहे हैं, जागरूकता भी नहीं है; न हम अपने को जान रहे हैं। जानना अभी गर्भ में है, जानना अभी बीज में है, जानना अभी अप्रकट है, जानना अभी जड़ में छिपा है। यह पूर्ण सुषुप्ति की अवस्था होगी। वह पूर्ण जागृति की अवस्था होगी।

और इसके बीच में ध्यान के अनंत बिंदु होंगे और इनमें हम निरंतर डोलते रहेंगे। जब तुम दिन में जागते हो तब जागृति की तरफ तुम्हारा पेंडुलम थोड़ा—सा झूल जाता है। जब रात में तुम सोते हो, तब तुम्हारा सुषुप्ति की तरफ पेंडुलम झूल जाता है। असल में जब हम सोते हैं, तब हम पदार्थों के करीब पहुंच जाते हैं। जब हम जागते हैं, तब हम परमात्मा के करीब पहुंच जाते हैं। करीब, जरा—सा हम डोल जाते हैं। अगर यह डोलना हमारा जारी रहे, यह यात्रा हमारी बढ़ती चली जाए, तो एक घड़ी आ जाती है कि तुम सोते समय में भी पूरी तरह नहीं सोते। सोने को भी तुम जानने लगते हो। तब सोना एक शारीरिक विश्राम हो जाता है, आत्मिक अंधकार नहीं। तब तुम सोते भी हो और जानते भी हो कि सो रहे हो। तब तुम रात करवट भी बदलते हो तो जानते हो कि करवट बदल रहे हो। तब तुम्हारे भीतर जानने की अनवरत धारा बहने लगती है।

इससे उलटा भी हो जाता है। एक आदमी कोमा में पड़ गया है, एक आदमी मूर्च्छित पड़ा हुआ है, एक आदमी ने नशा कर लिया है। वह है, लेकिन न तो वह बाहर कुछ जान रहा है, न भीतर कुछ जान रहा है। ये दोनों खो गए हैं। जानने वाला भी खो गया है, जानी जाने वाली वस्तु भी खो गई है, लेकिन अंधकार में। दोनों खो जाएंगे परम अवस्था में भी, लेकिन प्रकाश में।

अगर मेरी बात तुम्हारे खयाल में आ जाए, तो वह यह हुई संक्षिप्त में कि ध्यान की एक यात्रा है। यह ध्यान की यात्रा पूर्ण सोने से लेकर पूर्ण जागने के बीच कई तलों पर बंटी है।

वृक्ष भी कुछ जानता है। हमें अब तक खयाल नहीं था बहुत दिनों तक कि वृक्ष कुछ जानता है। जिन लोगों ने पहली दफे ये बातें कही थीं, वह हमें कुछ काल्पनिक मालूम पड़ती थीं, कुछ पुराण— कथाएं मालूम पड़ती थीं, लेकिन अब वैज्ञानिक भी सबूत देता है कि वृक्ष जानता है। वृक्ष सुनता है, इसके भी सबूत देता है। कुछ वृक्षों की चमड़ी आंखें भी रखती हैँ, इसका भी सबूत मिलता है। हमारी जैसी आंख नहीं है, बाकी उसकी देखने की क्षमता है, सुनने की भी क्षमता है, अनुभव करने की भी क्षमता है।

अभी मैं आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में एक लेबोरेट्री है—डिलाबार लेबोरेट्री—उसके कुछ प्रयोग देख रहा था। उन्होंने कुछ हैरानी के अनुभव वैज्ञानिक व्यवस्था से सिद्ध किए हैं। एक जो बहुत हैरानी का अनुभव है, वह यह है कि एक ही पैकेट के आधे बीज एक गमले में बोये गए, उसी पैकेट के आधे बीज दूसरे गमले में बोए गए। और यह पचासों प्रयोगों के बाद कि एक गमले के ऊपर एक पवित्र पुरुष से, एक फकीर से प्रार्थना करवाई कि उसके बीज जल्दी अंकुरित हों, उनमें फूल आएं, उनमें फल आएं, वे पूर्णता को उपलब्ध हों और दूसरे गमले पर वह प्रार्थना नहीं करवाई। और बड़ी हैरानी की बात है कि दूसरे गमले ने बहुत देर लगायी। सारी सुविधा, सारी व्यवस्था एक जैसी रखी गई। उसमें इंच भर फर्क नहीं किया गया। मालियों को बताया नहीं गया कि इन दोनों में कोई फर्क है, या इन दोनों में कोई फर्क करना है। लेकिन जिस गमले पर प्रार्थना की गई थी, उसकी शान ही और थी। वह जल्दी अंकुरित हुआ, जल्दी फूलों को उपलब्ध हुआ, जल्दी फल लगे। उसके सारे बीज अंकुरित हुए। दूसरे गमले के सारे बीज अंकुरित नहीं हुए। अंकुरित हुए तो समय से हुए, धीरे हुए। उनके फूलों में भी फर्क था। उनके फलों में भी फर्क था।

ये बहुत से प्रयोग डिलाबार लेबोरेट्री ने किए। और हैरानी की बात हुई और यह अनुभव हुआ कि जैसे प्रार्थना भी संवेदित होती है, प्रार्थना भी पहुंचती है। और इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक जो प्रयोग वहां हुआ है, वह और हैरान करनेवाला है। वह यह है कि जिस फकीर से यह प्रार्थना करवाई गई—वह एक ईसाई फकीर था, जो अपने गले में एक क्रास लटकाये हुए था—और जब उसने आँख बंद करके दोनों हाथ फैला करके एक बीज के लिए प्रार्थना की, तब उस बीज का जो फोटोग्राफ लिया गया, वह इतना चमत्कारपूर्ण था जिसका हिसाब नहीं है। उस फोटोग्राफ में उसका क्रास और उसके फैले हुए हाथ का पूरा चिह्न आया है —बीज के फोटोग्राफ में। इसका क्या मतलब होता है? इसके इञ्जीकेशस बहुत बड़े हैं। मैं तो मानता हूं कि एटामिक थ्योरी से कहीं ज्यादा बड़े इसके प्रयोजन सिद्ध होंगे। बीज भी स्वीकार कर रहा है कुछ, बीज भी ग्रहण कर रहा है कुछ। बीज भी आत्मवान है। सोया है जरूर, मनुष्य के मुकाबले ज्यादा सोया हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन फिर भी उसके सोने में एक तरह का जागरण है।

पत्थर और भी ज्यादा सोया हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन उसके सोने में भी एक तरह का जागरण है। सभी पत्थर भी एकदम पत्थर नहीं हैं और सभी पत्थर भी एक—से सोए हुए नहीं हैं। उनके बीच भी व्यक्तित्व है। पत्थरों के व्यक्तित्व की खोज से ही प्रेसियस स्टोन खोजे गए, नहीं तो नहीं खोजे जा सकते थे। यह मत सोच लेना कि किसी भी पत्थर को कीमती समझ लिया गया है। और यह भी मत सोच लेना कि जैसा कि अर्थशास्त्र भ्रांति पैदा करता है कि सिर्फ न्यून होने से कुछ चीजें कीमती हो गई हैं। ऐसा भी नहीं है।

जैसे एक आदमी खड़ा हुआ है बुद्ध नाम का और एक साधारण आदमी खड़ा हुआ है बुद्ध के पड़ोस में। अगर मंगल ग्रह से कोई यात्री आए तो उन दोनों आदमियों में क्या फर्क मालूम पड़ेगा? न वह भाषा समझे हमारी, न आचरण समझे हमारा। वह मंगल ग्रह का यात्री अगर एक घंटे भर के लिए बुद्ध को और उनके पास खड़े हुए एक साधारण आदमी को देखकर वापस लौट जाए तो क्या वह कहेगा कि उन दोनों में कोई फर्क था? दोनों को श्वास लेते देखा, दोनों की आंखों की पलकें हिलते देखा, दोनों को उठते —बैठते देखा, दोनों को खाते —पीते देखा, दोनों को विश्राम करते देखा, दोनों को बातचीत करते देखा। वह घंटे भर बाद वापस लौट गया। वह कहेगा, दो आदमी मिले, जो बिलकुल एक जैसे थे। जब दो पत्थर को हम देखते हैं, हमारी हालत भी यही होती है। क्योंकि हम भी नहीं जानते कि उनका भी व्यक्तित्व है।

प्रेसियस स्टोन जो है, कीमती पत्थर जो है, वह बड़ी खोज है आदमी की। उस्में धीरे — धीरे, धीरे — धीरे जिनको अंदाज गहरा बैठता चला गया और जो संबंधित हो सके, उन्होंने जाना कि पत्थरों में भी कुछ पत्थर जागे हुए हैं, ज्यादा जागे हुए हैं। कुछ पत्थर ज्यादा सोए हुए हैं। और यह भी जाना कि कुछ पत्थर किन्हीं विशेष दिशाओं में जागे हुए हैं, इसलिए उन पत्थरों का उपयोग किन्हीं विशेष कारणों के लिए उपयोगी हो सकता है। जैसे कि कुछ पत्थर हो सकते हैं कि जिनको तुम अपने पास रख लो या अपनी ताबीज बना लो या गले का हार बना लो या अंगूठी बना लो, और उसके बाद तुम्हारी जिंदगी में कुछ घटनाएं घटने लगेंगी जो कल तक नहीं घटती थीं। क्योंकि वह उस पत्थर का भी अपना जीवन है। और उस पत्थर के साथ कुछ घटनाएं घटनी शुरू होंगी, क्योंकि तुमने उसके साथ सहजीवन शुरू किया है, जो कि उसके बिना नहीं घट सकती थीं।

ऐसे पत्थर हैं जिनकी दुर्भाग्यपूर्ण कथा है। वे पत्थर जिसके हाथ में पड़ गये, वह दिक्कत में पड़ गया और उसे छूटना मुश्किल हो गया। और जब भी वह पत्थर किसी दूसरे के हाथ में गया, दूसरा दिक्कत में पड़ा। जिनका सैकड़ों वर्षों का, बल्कि कुछ पत्थरों का हजारों वर्षों का इतिहास है कि वे जिसके पास गये उसको दिक्कत में डालते चले गए। वे पत्थर अभी भी जीवित हैं, वे अब भी अपना काम कर रहे हैं। वे जहां जिसके पास होंगे, उसे दिक्कत में डालते चले जाएंगे। कुछ पत्थर हैं, वे जिसके पास गए उसकी जिंदगी में सुख की संभावनाएं बढ़ गईं। और वे जिसके पास गये उसकी संभावनाएं बढ़ती चली .गईं। उन पत्थरों की कीमत बढ़ती चली गई। पत्थरों का भी व्यक्तित्व है, पौधों का भी व्यक्तित्व है।

इस जगत में प्रत्येक चीज का व्यक्तित्व है। और व्यक्तित्व निर्भर होता है उसके सोने और जागने की तारतम्यता से। वह कितना जागा हुआ है, वह कितना सोया हुआ है, ध्यान उसका कितना सक्रिय है। तो इसे ऐसे भी सोच सकते हो कि ध्यान की सक्रियता का नाम जागरूकता, ध्यान की निक्तियता का नाम निद्रा, मूर्च्छा। ध्यान की परम निष्कियता का नाम पदार्थ, ध्यान की परम सक्रियता का नाम परमात्मा।

इसी उत्तर के संबंध में एक प्रश्न है। आपने दो स्थितियां बताई पूर्ण मूर्च्छा की और पूर्ण जागृति की। तो पूर्ण मूर्च्छा से पूर्ण जागृति की ओर यात्रा होती है तो पूर्ण जागृति के बाद कहां पहुंच जाते हैं हम? और पूर्ण मूर्च्छा कहां से शुरू होती है कहां से आती है?

 

सल में जैसे ही पूर्ण शब्द का प्रयोग होता है, वैसे ही कुछ शर्तों को समझ लेना जरूरी है। जैसे जब हम पूछते हैं, पूर्ण कहां समाप्त होता है, तब हम गलत सवाल पूछते हैं। क्योंकि पूर्ण का मतलब ही है, जो कहीं समाप्त नहीं हो सकता। अगर कहीं समाप्त होगा तो अपूर्ण हो जाएगा, उसी सीमा पर बंध जाएगा, वहीं से अपूर्ण हो जाएगा।

जब हम पूछते हैं कि पूर्ण कहां से शुरू होता है, तब हम गलत बात पूछते हैं। क्योंकि पूर्ण का मतलब ही होता है जो शुरू नहीं होता। क्योंकि शुरू होगा तो पूर्ण नहीं हो सकता। पूर्ण सदा ही अनादि और अनंत होगा। न उसका पहले कोई छोर होगा, और न पीछे कोई छोर होगा। छोर हो सके तो पूर्ण नहीं रह जाएगा। इसलिए पूर्ण के आगे—पीछे हम सवाल नहीं पूछ सकते। पूछना हो तो पूर्ण के पहले ही पूछ लेना चाहिए। पूर्ण का अर्थ ही यह होता है कि जिसके आगे सवाल बेमानी हो जाएंगे।

और जब हमारे मन में यह सवाल उठता है कि कहां से यह मूर्च्छा आई? स्वाभाविक उठेगा, कहां से आई? क्यों आई? कब आई? कहां समाप्त होगी? क्यों समाप्त होगी? कब समाप्त होगी? जो अमूर्च्छा की दशा है, वह कहां अस्तित्व में है? और जो पूर्ण मूर्च्छा की दशा होगी, वह कहां अस्तित्व में होगी? यह सवाल बिलकुल ही संगत और फिर भी बिलकुल बेमानी है।

कोई चीज संगत होने से ही अर्थपूर्ण होती है, इस भ्रांति में नहीं पड़ना चाहिए। कसिस्टेंट हो सकती है, मीनिंगलेस हो सकती है। सवाल बिलकुल संगत है। और इन सवालों के जो भी जवाब दिए जाएंगे, वे भी बेमानी होंगे और उनसे कुछ हल न होगा। इसलिए हल न होगा कि जो सवाल हमने इस संबंध में पूछा है, उस सवाल का जो जवाब दिया जाएगा, उसके संबंध में भी वैसा ही पूछा जा सकता है। तब मैं तुमसे क्या कहना चाहूंगा?

मैं कहना चाहूंगा कि जैसे तुम वैज्ञानिक से नहीं पूछते कुछ बातें, तुम धार्मिक से क्यों पूछते हो? कुछ बातें वैज्ञानिक से कभी नहीं पूछी जातीं। वे धार्मिक से क्यों पूछी जाती हैं? और धार्मिक भी खूब नासमझ है कि वैज्ञानिक उनके उत्तर देने से इनकार कर देता है और धार्मिक उनके उत्तर देने की गलती में पड़ता है। सारे धर्म इसी गलती में पड़ते हैं। ऐसे प्रश्नों के उत्तर देकर फंस जाते हैं जिनके उत्तर नहीं हो सकते।

अब जैसे उदाहरण के लिए अगर तुम एक वैज्ञानिक से पूछो कि वृक्ष हरा क्यों है? तो वह कहेगा कि क्लोरोफिल के कारण। और तुम अगर यह पूछो कि वृक्ष में क्लोरोफिल क्यों होता है? तो वह कहेगा कि यह कोई सवाल नहीं हुआ। यह फैक्ट है, ऐसा होता है। वह यह कहेगा कि वृक्ष में क्लोरोफिल होता है, इसलिए वृक्ष हरा है। अगर आप यह पूछें कि ऐसा क्यों नहीं होता कि वृक्ष में क्लोरोफिल न हो? तो वह कहेगा कि मैं कोई स्रष्टा नहीं हूं और इसका कोई उत्तर नहीं है।

इसलिए विज्ञान नासमझियों से बच जाता है। क्योंकि वह तथ्य के ऊपर बात को छोड़ देता है कि ऐसा है, ऐसा तथ्य है। वह यह कहता है कि आक्सीजन और हाइड्रोजन को मिला देते हैं तो पानी बन जाता है। कोई उससे पूछने नहीं जाता कि ऐसा होता क्यों है कि आक्सीजन और हाइड्रोजन के मिलाने से पानी बनता है? ऐसा क्यों बनता है? वह कहेगा, यह नहीं है सवाल। हम इतना जानते हैं कि इनके मिलाने से बनता है। और इतना हम जानते हैं कि इनके नहीं मिलाने से नहीं बनता है। यह फैक्ट है। इसके आगे फिक्शन शुरू होगा।

अगर हम कोई जवाब दें कि ऐसा क्यों होता है, तो मैं तुमसे कहना चाहूंगा कि जगत में मूर्च्छा है और जागृति है। यह फैक्ट है, यह तथ्य है। और इन तथ्यों के आर —पार जाने का अब तक कोई उपाय नहीं खोजा गया है। और मैं नहीं सोचता हूं कि कभी भी खोजा जा सकता है। यह परम तथ्य है। जिसको कहना चाहिए अल्टीमेट फैक्ट।

इस छोर पर अंधकार है, उस छोर पर प्रकाश है। अंधकार भी अंततः अनंत में खो जाता है और उसके अंतिम छोर का पता नहीं चलता कि वह कहां शुरू हुआ। और प्रकाश भी अंततः अनंत में खो जाता है और पता नहीं चलता कि वह कहां खतम हो रहा है। और हम सदा बीच में हैं। हम दोनों तरफ थोड़ी दूर तक देख पाते हैं। इधर थोड़ी दूर तक देखते हैं तो एक बात पता चलती है कि अंधकार पीछे की तरफ बढ़ता जाता है, घना होता जाता है। आगे की तरफ देखते हैं तो पता चलता है कि अंधकार क्षीण होता जाता है, प्रकाश बढ़ता जाता है, घना होता जाता है। लेकिन न तो प्रकाश का कोई अंत दिखाई पड़ता है और न अंधकार का कोई अंत दिखाई पड़ता है। न तो अंधकार का कोई प्रारंभ दिखाई पड़ता है और न प्रकाश की कोई सीमा दिखाई पड़ती है। ऐसा हम बीच में खड़े हैं। और जितनी दूर तक दिखाई पड़ता है, उतनी दूर तक ऐसा ही दिखाई पड़ता है। दूर से दूर देखने वाले आदमी को इससे ज्यादा दिखाई नहीं पड़ा है।

लेकिन कठिनाई क्या हो जाती है? जब हम सवाल बना लेते हैं, तो कोई न कोई नासमझ मिल जाता है जो उनका उत्तर दे देता है। जब एक दफा सवाल बना लिया गया, तो उत्तर देने वाला भी मिल ही जाएगा, क्योंकि कोई न कोई उत्तर भी बना लेगा। और इसी तरह सारी फिलासफीज बनी हैं। नासमझ सवालों के दिए गए नासमझ जवाबों से सारी फिलासफीज बन गई हैं। और सवाल वही के वही हैं। जवाब अलग— अलग हो सकते हैं, क्योंकि जवाब अपने — अपने सोचने का है। कोई कहेगा कि परमात्मा ने पैदा किया। पर इससे क्या फर्क पड़ता है! हम पूछ सकते हैं, क्यों पैदा किया? और ऐसा ही क्यों पैदा किया? और परमात्मा पैदा करता ही क्यों है? तब बात वहीं की वहीं अटक जाएगी। हम कहेंगे कि नहीं, वह ऐसा करता है। जब ऐसा जवाब लेना ही है अंत में……. कोई कहेगा कि सब माया है, समझ के परे है। अब वह कह रहा है कि समझ के परे है, सब माया है। और जब वह कह रहा है, सब माया है, तो समझ के भीतर की बात कह रहा है। समझ कर कह रहा है। अच्छी तरह समझ लिया कि सब माया है। सब समझ के परे है। अगर समझ के परे है, तो चुप रह जाओ। मत कहो कि सब माया है। क्योंकि समझ के जब परे है, तो उत्तर कैसे हो सकता है। चुप रह जाओ, मत दो उसका उत्तर।

कोई कह रहा है कि परमात्मा ने आदमी को इसलिए बनाया ताकि आदमी परमात्मा को पा सके। क्या पागलपन है! अगर उस परमात्मा ने इसलिए आदमी को बनाया कि परमात्मा को पा सके, तो पहले से परमात्मा क्यों नहीं बना दिया। झंझट की, इतने उपद्रव की जरूरत क्या है। अब कोई कह रहा है कि पिछले जन्मों के कर्म —फल भोगने के लिए ऐसा सब चल रहा है। लेकिन पूछा जा सकता है कि कभी तो पहला जन्म हुआ होगा, जिसके पहले कोई जन्म न रहे होंगे। तो वह पहला जन्म किस कर्म —फल के भोग के लिए हुआ था? वह अकारण!

मेरे अपने देखे दुनिया के जो चरम प्रश्न हैं, उनका किसी दर्शन ने कोई उत्तर नहीं दिया है। और सब दर्शन अपनी बुनियाद में बेईमान हैं। बहुत गहरे में बेईमानी छिपी है। ही, एक दफा उनकी बुनियादी बेईमानी अगर आपकी नजर में न पड़ी, तो बाद का सब स्ट्रक्चर बिलकुल सही मालूम पड़ेगा। फिर कोई दिक्कत नहीं मालूम होगी। अगर आपने एक झूठ मान लिया—पहला झूठ—तो फिर आपको सब झूठ सच मालूम पड़ेंगे। अगर किसी ने यह मान लिया कि भगवान बनाने वाला है, फिर बात खतम हो गई। मगर यह हमें कैसे पता चल रहा है कि भगवान बनाने वाला है? अगर यह सवाल एक दफा भी उठ गया, तो बात कहीं भी खतम नहीं हुई, कहीं भी शुरू नहीं हुई, वहीं की वहीं रह गई। मेरी अपनी दृष्टि धर्म को भी विज्ञान की भांति देखने की है।

मुझे एक संस्मरण याद आता है। आइंस्टीन से मरने के कुछ दिन पहले एक आदमी ने पूछा कि आप एक वैज्ञानिक में और एक दार्शनिक में क्या फर्क करते हैं? तो आइंस्टीन ने कहा कि मैं वैज्ञानिक उस आदमी को कहता हूं कि अगर आप उससे सौ सवाल पूछे तो वह एक का जवाब देगा और निन्यानबे के संबंध में कह देगा कि मुझे पता नहीं। और जिस एक के संबंध में जवाब देगा, उस संबंध में भी यह शर्त रखेगा कि इतना अभी तक पता है। आगे जो पता होगा उससे कुछ बदलाहट हो सकती है। तो यह कोई आखिरी वक्तव्य नहीं है।

विज्ञान कोई आखिरी वक्तव्य नहीं देता। इसलिए विज्ञान में एक तरह की आनेस्टी, एक तरह की ईमानदारी है।

और आइंस्टीन ने कहा कि दार्शनिक जो है, फिलासफर जो है, उससे अगर सौ सवाल आप पूछें, तो वह डेड सौ जवाब देगा और हर जवाब ऐकल्युट है, जिसमें कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। जो कह दिया वह प्रमाण है, उसमें जो शक करता है, वह नर्क में जा सकता है, लेकिन सिद्धात कभी नहीं बदल सकता। सिद्धात अटल है।

मेरी जो दृष्टि है, वह ऐसी है कि अगर हम वैज्ञानिक और धार्मिक मस्तिष्क को एक साथ निर्मित कर सकें तो वैसी ही मेरी दृष्टि है। धर्म के संबंध में ही सारी बात कर रहा हूं, लेकिन मेरा खयाल सदा वैज्ञानिक दृष्टि का है। इसलिए परम प्रश्नों के मेरे पास कोई उत्तर नहीं हैं। और उत्तर हो भी नहीं सकते। और जिसका उत्तर हो जाएगा, समझ लेना, वह परम प्रश्न न रहा। वह फिर कोई बीच का प्रश्न है जिसका उत्तर हो गया। बात आगे फिर बढ़ जाएगी।

परम प्रश्न का अर्थ है, जो सब उत्तरों के बाद भी खडा रहेगा। अल्टीमेट क्वेश्चन का मतलब यह होता है कि तुम कितने ही प्रश्न खड़े करो, जब तुम प्रश्न के उत्तर देकर निपटोगे, तुम पाओगे प्रश्न पीछे फिर अपनी जगह वहीं का वहीं खड़ा हुआ है, क्येश्चन मार्क बना ही हुआ है। सिर्फ इतना ही हुआ कि एक सीडी पीछे जाकर लग गया वह। इधर से थोड़ा हटा दिया है तुमने धक्का देकर, वह पीछे फिर खड़ा हो गया।

वह जापानी गुड्डा तुमने देखा होगा, जिसको तुम कैसे भी फेंको, सीधा खड़ा हो जाता है। उस गड्डे का नाम दारूमा है। और वह एक फकीर के ऊपर निर्मित हुआ है। हिंदुस्तान से वह फकीर गया—बोधिधर्म। बोधिधर्म का जापानी नाम दारूमा, तो दारूमा डील। बोधिधर्म की वजह से वह गुड्डा बना। बोधिधर्म को तुम कितना ही उठाओ —पटको, वह वैसे ही खड़ा हो जाएगा। वह जहां था, वह वहीं हो जायेगा। उसकी नकल में वह गुड्डा बनाया गया है। उसको कैसे ही फेंको, उलटा पटको, नीचा करो, वह अपनी जगह पर खड़ा हो जाएगा।

जो परम प्रश्न हैं, वे दारूमा डील की तरह हैं, वे बोधिधर्म की तरह हैं। तुम कुछ भी करो, वे अपनी जगह खड़े हो जायेंगे। हा, इतना ही होगा, उनकी जगह बदल जाएगी। क्योंकि तुम्हारे फेंकने में इधर—उधर चले जाएंगे, दूसरी जगह खड़े हो जाएंगे। तुम वहां से उनको धक्का दोगे, वे तीसरी जगह खड़े हो जाएंगे। तुम जिंदगी भर धक्का देते रहो, तुम थक जाओगे, वह गुड्डा नहीं थकेगा। वह अपनी जगह खड़ा होता रहेगा।

परम प्रश्न हैं ये। जब हम पूर्ण के आगे और पीछे का सवाल उठाते हैं, तब हम सवाल के बाहर चले जाते हैं। वह बेमानी है, मीनिंगलेस है। इतना ही मैं तुमसे कह सकता हूं कि पीछे फैला हुआ अंधकार है, मूर्च्छा है, आगे फैला हुआ प्रकाश है, अमूर्च्छा है। इतना भी कह सकता हूं कि जितना अंधकार कम होता है, उतना आनंद बढ़ता है। इतना भी कह सकता हूं कि जितना अंधकार ज्यादा होता है, उतना दुख बढ़ जाता है। ये तथ्य हैं। दुख चुनने हों तो अंधकार और मूर्च्छा की तरफ जाया जा सकता है। आनंद चुनना हो तो प्रकाश और परम प्रकाश की तरफ जाया जा सकता है। और कहीं न जाना हो तो दोनों के बीच में खड़े होकर विचार किया जा सकता है कि पहले क्या था? आगे क्या है?

भगवान श्री द्वारका शिविर में आपने कहा है कि ध्यान और समाधि स्वेच्छा से सचेतन मृत्यु की स्थिति में प्रवेश है जिससे मृत्यु का भ्रम विसर्जित हो जाता है। तो प्रश्न उठता है कि मृत्यु का भ्रम किसको होता है? शरीर को होता है या चेतना को होता है? शरीर चूंकि उपकरण— मात्र है इसलिए शरीर को भ्रमरूपी बोध नहीं हो सकता है; और चेतना के भ्रमित होने का कोई कारण नहीं है फिर भ्रम की घटना का कारण आधार क्या है?

मृत्यु का बोध, यदि मरते क्षण में कोई जागा हुआ मर सके, तो मृत्यु विसर्जित हो जाती है। अर्थात यदि कोई मरते क्षण में होश कायम रख सके, तो वह पाता है कि मरा ही नहीं। मृत्यु भ्रम सिद्ध होती है, इसका मतलब यह नहीं है कि मृत्यु रहती है और भ्रम हो जाती है। मृत्यु भ्रम सिद्ध होती है, इसका मतलब यह कि मरते वक्त अगर कोई जागा रहे तो वह पाता है कि मरता ही नहीं। मृत्यु भ्रम सिद्ध होती है, इसका मतलब यह नहीं है कि भ्रम जैसी कोई मृत्यु बची रह जाती है। नहीं, जागा हुआ कोई मरे तो वह पाता है कि मृत्यु तो होती ही नहीं। मृत्यु असत्य हो जाती है।

लेकिन यह सवाल स्वाभाविक है कि फिर मृत्यु का भ्रम किसको होता है? यह भी ठीक है पूछना कि शरीर को तो हो नहीं सकता, क्योंकि शरीर तो जानेगा कैसे। आत्मा को हो नहीं सकता, क्योंकि आत्मा मरती नहीं है। फिर मृत्यु का भ्रम किसको होता है?

न आत्मा को होता है, न शरीर को होता है। असल में मृत्यु का भ्रम व्यक्ति को होता ही नहीं मृत्यु का भ्रम सोशल फेनामिना है। इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। मृत्यु का भ्रम सामाजिक घटना है, व्यक्तिगत घटना ही नहीं है।

एक आदमी को हम मरते हुए देखते हैं और मैं सोचता हू कि वह मर गया है। मैं मरा नहीं हूं इसलिए मुझे सोचने का वैसा कोई हक नहीं है। और मेरा निर्णय लेना बहुत ही नासमझी की बात है कि वह आदमी मर गया है। मुझे इतना ही कहना चाहिए कि जैसा मैं उसे जानता था अब तक, वैसा वह सिद्ध नहीं हो रहा है। इससे ज्यादा वक्तव्य देना खतरनाक है, सीमा के बाहर चले जाना है। मुझे कहना चाहिए कि कल तक वह बोलत था, अब बोलता नहीं। कल तक चलता था, अब चलता नहीं। कल तक जिसे मैंने समझा था उसकी जिंदगी, वह अब नहीं है। असल में इतना ही कहना चाहिए कि कल तक जो जिंदगी थी, वह अब नहीं रही। अगर उससे भी ज्यादा कोई जिंदगी है तो होगी और अगर नहीं है तो नहीं होगी। लेकिन यह कहना कि वह मर गया, जरा ज्यादा कहना है, सीमा के बाहर बढ़ जाना है। हमें इतना ही कहना चाहिए कि अब वह जिंदा न रहा। जिसको हम जिंदगी जानते थे, वह अब नहीं है।

इतना नकारात्मक वक्तव्य तो ठीक है कि जिसे हमने जिंदगी समझी थी कि लड़ता था, झगड़ता था, प्रेम करता था, खाता था, पीता था, वह अब नहीं है। लेकिन मर गया, यह तो बहुत पाजिटिव असर्सन है। इसमें जो था, वह नहीं है, इतना ही नहीं कह रहे हैं। हम कह रहे हैं, कुछ और भी हो गया है। मर गया। हम यह कह रहे हैं कि मरने की कोई घटना भी घट गई। सिर्फ पुरानी घटनाएं नहीं हो रही हैं, इतना कहें तो ठीक है। हम यह कह रहे हैं कि नहीं, एक नई घटना भी जुड़ गई, वह मर भी गया। यह हम कह रहे हैं। हम, जो नहीं मरे। हमें, जिन्हें मरने का कोई पता नहीं। हम चारों तरफ भीड़ लगाकर खडे हैं और एक आदमी मर गया है। और हम सारी भीड तय कर रहे हैं उस आदमी से बिना पूछे। उसकी कोई गवाही नहीं। अदालत में फैसला एकतरफा हो रहा है, वह दूसरा पक्ष मौजूद नहीं है। वह आदमी बेचारा कहने को नहीं है कि मैं नहीं मरा, कि मर गया। उसकी कोई गवाही नहीं है। और निर्णय वे कर रहे हैं जिनमें से कोई भी मरा नहीं। समझ रहे हैं मेरा मतलब? यह सामाजिक भ्रांति है। यह उस आदमी की भ्रांति नहीं है, यह सामाजिक भ्रांति है। उस आदमी की भ्रांति दूसरी है।

उस आदमी की भ्रांति मरने की नहीं है। उस आदमी की भ्रांति दूसरी है। और वह यह है कि वह जिंदगी में इतना सोया—सोया जीया है, इतना सोया—सोया जीया है कि मरते समय जागा कैसे रह सकता है। असल में जो आदमी दिन भर सोया—सोया रहा हो, वह नींद में जागा रह सकता है? जो जागने में ही सोया —सोया था, वह तो नींद में भरपूर सो जाएगा। सूरज की रोशनी में जिसको दिखाई नहीं पड़ रहा था, उसे रात के अंधेरे में दिखाई पड़ेगा? जो आदमी जिंदगी भर जाग कर जिंदगी को नहीं देख पाया कि क्या है, क्या तुम सोचते हो कि वह मरने को देख पाएगा कि क्या है! वह तो जैसे ही उसके हाथ से जिंदगी छूटेगी, वैसे ही गहरी नींद में खो जाएगा।

असल में बाहर हम समझ रहे हैं कि वह मर गया है, यह सामाजिक निर्णय और निष्कर्ष है, जो कि गलत है। क्योंकि इसमें से कोई भी गवाह के योग्य नहीं है। इसमें से कोई भी राइट विटनेस नहीं है, क्योंकि किसी ने भी उसको मरते नहीं देखा। आज तक दुनिया में कोई आदमी मरता नहीं देखा गया है। मरने की किया आज तक नहीं देखी गई है कि कोई मर गया। हमने इतना ही जाना कि अभी तक जी रहा था और अब नहीं जी रहा है। बस इसके आगे दीवाल है। अब तक किसी ने मरने की घटना नहीं देखी।

असल में कठिनाई क्या होती है कि बहुत —सी बातें प्रचलित रहते—रहते हम उन पर सोचना बद कर देते हैं। जैसे कि अगर मैं तुमसे कहूं कि आज तक किसी आदमी ने प्रकाश नहीं देखा है, तो तुम फौरन उस पर एतराज करोगे कि आप क्या बातें कर रहे हैं? लेकिन मैं कहता हूं कि आज तक किसी आदमी ने प्रकाश नहीं देखा है। हमने सिर्फ प्रकाशित चीजें देखी हैं। प्रकाश किसी ने नहीं देखा। इस कमरे में हम कहते हैं प्रकाश है, क्योंकि दीवाल दिखाई पड़ती है, आप दिखाई पड़ते हैं। प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता है। कोई चीज प्रकाश में प्रकाशित दिखाई पड़ती है। प्रकाश तो सदा ही अननोन सोर्स है। कुछ चीजें उसमें चमक जाती हैं। उनके चमकने की वजह से हम कहते हैं, प्रकाश है। जब वे चमकती नहीं हैं, हम कहते हैं अंधेरा है। न हमने अंधेरा देखा। जिन्होंने प्रकाश नहीं देखा, उन्होंने अंधेरा कैसे देखा होगा? यह तो हम सोच ही सकते हैं। कम से कम प्रकाश दिख जाता, तो समझ में भी आता। अंधेरा तो कैसे दिखेगा?

अंधेरे का मतलब सिर्फ इतना होता है कि हमें अब कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है। अंधेरे का हमारा भीतरी मतलब यह होता है कि अब हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है। अच्छा हो कि हम कहें कि हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है। यह तथ्य होगा। हम कहते हैं, अंधेरा है, यह बिलकुल ही गलत बात है। अंधेरे को हम एक चीज बना लेते हैं। उचित इतना ही है कहना कि मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन मुझे दिखाई नहीं पड़ता, इसका मतलब यह नहीं है कि अंधेरा है। मुझे नहीं दिखाई पड़ता है, इसका मतलब यह है कि वह जो स्रोत था जिसमें चीजें चमकती थीं, वह मंदा पड़ गया है। अब चीजें नहीं दिखाई पड़ रही हैं, इसलिए अंधेरा है।

जिस आदमी ने खुद भी अपनी जिंदगी में यही समझा हो —खाना, पीना, सोना, उठना, बैठना, लड़ना, झगड़ना, प्रेम, दोस्ती, दुश्मनी यही जिंदगी है—जब वह मरने लगेगा, अचानक उसको पता लगेगा, जिंदगी जा रही है। इसको उसने जिंदगी समझा था, यह जिंदगी न थी। ये सिर्फ जिंदगी के प्रकाश में दिखाई पड़ी चीजें थीं। जैसे कि प्रकाश में चीजें दिखाई पड़ती हैं। ऐसा जब उसके भीतर जिंदगी थी तो उसने कुछ चीजें देखी थीं। खाना खाया था, मित्रता की थी, दुश्मनी की थी, घर बनाए थे, धन कमाया था, पदों पर यात्रा की थी, वह सब जिंदगी के प्रकाश में दिखाई पड़ी चीजें थीं। अब वे सब खो रही हैं। अब वह सोचता है कि गया, मर गया, जिंदगी गई। और उसने भी दूसरे को मरते देखा था। उस आदमी ने भी दूसरों को मरते देखा था। वह सोशल इल्‍यूजन उसके दिमाग में भी है कि आदमी मरता है। अब वह कहता है कि मैं मरा। यह भी उसका निर्णय जो है, सामाजिक भ्रांति के हिस्से से आ रहा है। वह कह रहा है, जैसे और मर गए, अब मैं भी मरा।

अब वह चारों तरफ अपने प्रियजन—परिजनों को छाती पीटते देख रहा है। अब उसका इल्‍यूजन पक्का हुआ जा रहा है। इसका हिप्नोटिक असर हो रहा है उस पर। ये सारे लोग, अब ठीक घटना घट गई, डाक्टर मौजूद है, आक्सीजन का इंतजाम हो गया है, हाथ —पैर बांधे जा रहे हैं, घर की रौनक बदल गई है, लोगों की आंखों में आंसू हैं, अब उसने समझा कि मैं मरा। अब वह जो सामाजिक भ्रांति थी, वह उसको पकड़ी कि अब मैं मर रहा हूं। और यह सब आसपास मित्र, प्रियजन उसको सम्मोहित कर रहे हैं कि अब वह मरा। कोई उसकी नाड़ी देख रहा है, कोई गीता पढ़कर सुना रहा है, कोई कान में नमोकार मंत्र पढ़ कर सुना रहा है। अब वे उस आदमी को पक्का भरोसा दिला रहे हैं कि तुम मरे। क्योंकि जो —जो मरने वालों के साथ हुआ था, वह हम तुम्हारे साथ अब कर रहे हैं। छाती पीट रहे हैं। यह सोशल हिप्नोटिज्म है। अब उस आदमी को पक्का भरोसा आ गया है कि मैं मर रहा हूं, अब मैं मरा, मैं मरा, मैं मरा। इस मरने की हिप्नोसिस में वह बेहोश हो जाएगा, घबड़ा जाएगा, डर जाएगा, सिकुड़ जाएगा, कि अब मर ही रहा हूं, अब क्या करना। इस घबराहट में, इस भय में वह आंखें बंद कर लेगा। इस भय और घबराहट में वह मूर्च्छित हो जाएगा।

असल में मूर्च्छा एक तरकीब है हमारी। उन चीजों के खिलाफ हम प्रयोग करते हैं जिनसे हम डरते हैं। अगर तुम्हारे पेट में बहुत दर्द हो जाए, फिर इतना दर्द हो जाए कि तुम्हें असह्य हो जाए, तो तुम मूर्च्छित हो जाओगे। वह तुम्हारी ट्रिक है, वह मेंटल ट्रिक है दर्द को आफ करने की। वह तुम्हारी दिमागी तरकीब है कि अब दर्द इतना ज्यादा हो गया है कि हम चाहते हैं कि अब दर्द न हो। दर्द मिटता नहीं। तब दूसरा उपाय यह है कि हम न हो जाएं, हम आफ हो जाएं, हमें पता न चले कि दर्द हो रहा है। तो व्यक्तिगत इंतजाम है हमारा, अगर बहुत ज्यादा दर्द होगा। ध्यान रहे, असहनीय दर्द जैसी कोई चीज दुनिया में होती नहीं। सहनीय तक ही तुम्हें पता चलता है। असहनीय की सीमा आई कि तुम गए। असहनीय दर्द होता ही नहीं। अगर कोई आदमी कहे कि मुझे असह्य पीड़ा हो रही है, तो तुम भरोसा मत करना। क्योंकि अभी वह होश में है, असह्य हो नहीं सकता। अगर असहनीय होता, तो बेहोश हो गया होता। नेचरल ट्रिक काम कर गई होती और अब तक बेहोश हो जाता। सह्य की सीमा को पार करते ही आदमी मूर्च्छित हो जाता है।

तो जब छोटी—छोटी बीमारी में हम डर जाते हैं, घबरा जाते हैं, और बेहोश हो जाते हैं। तो मौत तो बड़ा खतरनाक खयाल लाती है। मौत का खयाल ही कि मरे, हमें मार डालता है। हम बेहोश हो जाते हैं। और उस बेहोशी में मौत की घटना घट जाती है।

इसलिए जब मैं कहता हूं कि मृत्यु भ्रम है, तो उस भ्रम को मैं न तो आत्मा का भ्रम कह रहा हूं, न शरीर का भ्रम कह रहा हूं। उसे मैं सामाजिक भ्रांति कह रहा हूं, जो हम अपने हर बच्चे में कल्टीवेट करवाते हैं। हर बच्चे को सिखा देते हैं कि तुम मरोगे और मरना ऐसा होता है। और मरने के सब सिप्टम्स जिंदगी भर में आदमी सीख लेता है। और जब उस पर खुद घटते हैं, तो वह आंख बंद करके मूर्च्‍छित हो जाता है। वह हिप्नोटाइब्द हो जाता है।

इसके खिलाफ ही सक्रिय ध्यान की व्यवस्था है कि मृत्यु में भी जागरूक रूप से कैसे जा सको। तिब्बत में उस प्रक्रिया का नाम बारदो है। मरते वक्त आदमी को जैसे हम हिप्नोटाइज कर रहे हैं, ऐसा वे एंटी—हिप्नोटाइज करते हैं। जब एक आदमी मर रहा है तब उसके सारे प्रियजन आसपास खड़े होकर उससे कहते हैं कि तुम मर नहीं रहे हो, क्योंकि कोई कभी नहीं मरा। यह एंटी—हिप्नोटिक सजेशन देते हैं उसको। कोई रोएगा नहीं, कोई चिल्लाएगा नहीं, कोई कुछ नहीं करेगा। सारे लोग इकट्ठे होकर, गांव का पुरोहित या भिक्षु या संन्यासी आकर उसको कहेगा कि तुम मर नहीं रहे हो, क्योंकि कोई कभी नहीं मरा। तुम जानते हुए, जागते हुए, विश्राम में बिदा हो जाओ। तुम मरोगे नहीं, क्योंकि कोई कभी मरता ही नहीं। अब वह आदमी आंख बंद कर लेता है और वह जो प्रक्रिया है पूरी की पूरी उसको कही जाती है कि अब तुम्हारा यह छूटेगा, अब तुम्हारा यह छूटेगा, अब तुम्हारा.. लेकिन तुम बचे ही रहोगे। अब तुम्हारे पैर छूट गए, अब तुम्हारे हाथ छूट गए, अब तुम्हारा यह छूट रहा है, अब तुम बोल नहीं सकते हो, लेकिन तुम हो। और यह चारों तरफ से उसको सुझाव देंगे। ये सुझाव सिर्फ एंटी—हिप्नोटिक हैं। यानी उसकी जो सामाजिक भ्रांति है, वह पकड़ न जाए कहीं कि मरा, उसको रोकने के लिए उससे उलटा, एंटीडोट का प्रयोग कर रहे हैं।

अगर दुनिया स्वस्थ हो जाएगी मृत्यु के बाबत तो बारदो की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन हम बड़े अस्वस्थ हैं। हम बड़ी भ्रांति में हैं। और उस भ्रांति की वजह से हमें उलटा प्रयोग भी करना अनिवार्य है।

मैं मानता हूं कि इस मुल्क में भी बारदो जैसे प्रयोग की व्यापक शुरुआत होनी चाहिए। कि जब भी कोई मरे तो उसके सारे प्रियजन उसकी यह भ्रांति तोड्ने की कोशिश करें कि तुम मर नहीं रहे हो। और अगर हम उसे सजग रख सकें, और एक —एक बिंदु पर उसको स्मरण दिला सकें, और उसके सारे बिंदु. क्योंकि जब चेतना शरीर से सिकुड़ती है, तो एक साथ सब नहीं मरता, एक —एक अंग छोड़ती है। एक—एक हिस्सा छोड़ती है। धीरे — धीरे भीतर की तरफ सिकुड़ती है। उसके सब चरण हैं। वे सब चरण याद दिलाए जा सकते हैं और उस आदमी को होश में रखने के उपाय किए जा सकते हैं।

उपाय बहुत तरह के हो सकते हैं। विशेष तरह की सुगधियां उसके होश को जगाए रख सकती हैं, जैसे कि विशेष तरह की सुगधियां मूर्च्छा ला सकती हैं। विशेष तरह की सुगधियां मूर्च्छा ला सकती हैं, विशेष तरह की सुगधियां उसके होश को जगा सकती हैं। लोबान और धूप और इन सब की ईजाद जागरण के लिए सहयोगी होने की वजह से खोजी गई थी। इस तरह का संगीत चारों तरफ पैदा किया जा सकता है जो उसको जगाए रख सके। ऐसा संगीत हो सकता है जो सुला सकता है। निद्रा लाने वाला संगीत है, जगाने वाला संगीत हो सकता है। ऐसे शब्दों, ऐसे मंत्रों का उच्चार किया जा सकता है जो जागरण में सहयोगी हों, जो सुलाएं न। उसके शरीर पर ऐसी चोटें की जा सकती हैं जो उसको सोने न दें, उसे होश में रखें। उसके शरीर को ऐसे विशेष आसन में बिठाया जा सकता है जिसमें कि वह सो न पाए, जिसमें वह जागा रहे।

एक झेन फकीर मर रहा था। मरते वक्त उसने अपने आसपास के फकीरों को कहा कि मैं तुमसे एक बात पूछने वाला हूं। अब मेरे मरने का वक्त है तो मैं सोचता हूं कि जैसे सभी मरते हैं वैसे मरने से क्या फायदा! उस तरह तो कई लोग मर ही चुके हैं। मैं तुमसे यह पूछता हूं कि तुमने कभी किसी आदमी को चलते हुए मरते देखा है कि वह चल रहा हो और मर गया हो? तो उन फकीरों ने कहा, ऐसा देखा तो नहीं है, लेकिन ऐसा सुना है। एक बार ऐसा एक फकीर चलता हुआ मरा था। तो उसने कहा, जाने दो। तुमने किसी फकीर को शीर्षासन लगा कर मरते हुए देखा है? तो उन्होंने कहा, देखा क्या, सोचा भी नहीं! सपना भी नहीं देख सकते कि कोई आदमी उलटा खड़ा है और मर जाए। तो उसने कहा कि फिर यही ठीक रहेगा। वह शीर्षासन लगाकर खडा हो गया और मर गया।

अब आसपास के लोग तो बहुत घबरा गए, क्योंकि शीर्षासन में कोई मुर्दा हो, तो उसे नीचे उतारने में भी डर लगेगा। अनजान मुर्दा भी डरा देता है। वह बड़ा खतरनाक आदमी है। वह शीर्षासन में मर गया है और खड़ा है सिर के बल। और किसी की हिम्मत नहीं पड़ती है कि उसको कौन लिटाए कौन अर्थी पर रखे। तब किसी ने कहा कि उसकी बहन भी भिक्षुणी है, वह पास की मोनास्ट्री में रहती है, उसको जरा बुला लाओ। जब भी यह कुछ उपद्रव करता था, तब वही आकर इसे ठीक करती थी। उसकी बड़ी बहन।

उसको खबर भेजी गई तो वह बहुत नाराज हुई। उसने कहा, उसकी सदा की यही आदत है। बूढ़ा हो गया, लेकिन उसकी आदत नहीं छूटी। मरते वक्त भी वह उपद्रव करेगा ही। वह अपनी लकडी उठाकर आई। वह नब्बे वर्ष की बूढ़ी थी और उसने आकर जोर से लकडी पटकी और कहा कि बंद करो यह शैतानी। मरना है तो ढंग से मरो। वह आदमी हंसा, नीचे उतर आया। और उसने कहा कि मैं जरा खेल ही कर रहा था; मैंने कहा कि देखें, ये लोग क्या करते हैं। अब मैं ठीक लेट कर मर जाता हूं, कन्वेंशनली। तो वह लेट कर मर गया। और उसकी बहन चली गई कि अब ठीक है, उसको निपटा दो। फिर उसने लौटकर नहीं देखा पीछे। उसने कहा, ठीक है, अब निपटा दो। हर चीज का एक ढंग होता है, उसकी बहन ने कहा, ढंग से काम करो। जो भी काम करना है, व्यवस्था से करो।

हमारी मृत्यु का भ्रम हमारी सामाजिक भ्रांति है। इसे तोड़ा जा सकता है। इसे तोड्ने की विधि और व्यवस्था है। और अगर कोई भी नहीं तोड़ रहा हो तो मरते वक्त प्रत्येक व्यक्ति, जिसने थोड़ा—बहुत भी ध्यान साधा है, वह खुद ही तोड़ लेता है। कोई जरूरत नहीं रहती है। अगर तुमने थोड़ा—सा भी ध्यान जाना है, अगर तुमने थोड़ा—सा भी यह सत्य जाना है कि मैं शरीर से अलग हूं, अगर तुम्हें एक बार भी इसकी झलक मिल गई है कि मैं अलग और शरीर अलग, एक क्षण को भी तुम्हारे मन में यह भाव गहरा चला गया कि मैं अलग हूं, तो फिर मरते वक्त मूर्च्छित न होना पड़ेगा। असल में तुम्हारी मूर्च्छा टूट चुकी है। अब तुम जानते हुए मर सकोगे। और जानते हुए मर सकना, कट्राडिक्शन इन टर्म्स है। जानते हुए कोई मर नहीं सकता है, क्योंकि वह जानता ही रहता है, मैं मर नहीं रहा हूं मैं मर नहीं रहा हूं। कुछ मर रहा है, मैं नहीं मर रहा हूं। वह जानता ही रहता है। आखिर में पाता है कि वह शरीर पड़ा रह गया, मैं अलग हो गया हूं। तब मृत्यु सिर्फ एक वियोग है, एक संयोग का टूट जाना। जैसे कि मैं इस घर के बाहर चला जाऊं। लेकिन अगर इस घर के रहने वाले लोगों को इस घर की दीवाल की बाहर की दुनिया का कोई पता ही न हो और वे मानते हों कि बाहर कोई दुनिया ही नहीं है। और दरवाजे से लौटकर मुझे नमस्कार करके रोते हुए वापस लौट आएं कि वह आदमी मर गया! ऐसी ही स्थिति है।

शरीर और चेतना का वियोग है मृत्यु। वियोग है, इसलिए मृत्यु कहना फिजूल है। सिर्फ एक संबंध का शिथिल होकर छूट जाना है, कपड़े बदल लेने से ज्यादा नहीं है, वस्त्रों का परिवर्तन है। इसलिए जो मरता है जानते हुए, वह तो मरता ही नहीं, इसलिए उसकी मृत्यु का तो कोई सवाल ही नहीं उठता कि मृत्यु क्या है। मृत्यु भ्रम है, ऐसा भी नहीं कहेगा वह। वह यह भी नहीं कहेगा कि कौन मरता है, कौन नहीं मरता है! वह इतना ही कहेगा कि जीवन एक संयोग था, जिसे कल तक हमने जीवन कहा। वह संयोग टूट गया, अब एक नया जीवन शुरू हुआ जो कि उन अर्थों में संयोग नहीं है। शायद वह नया संयोग है, नई यात्रा है।

तो जब मैंने कहा, मृत्यु को जो जानते हुए मरता है उसे मृत्यु भ्रम सिद्ध होती है, तो मेरा मतलब खयाल में आया? भ्रम का मतलब यह कि वह थी ही नहीं। वह एक सामाजिक धारणा थी और उन्होंने पैदा करवाई थी जो मरना नहीं जानते थे, जो मरे नहीं थे, जिन्हें मरने का कोई पता नहीं था। और वह अनंत काल से चल रही है और चलती रहेगी, क्योंकि न मरने वाले मरने वाले के बाबत निर्णय लेते रहेंगे। मरने वाला लौटकर कोई खबर नहीं देता।

सच बात तो यह है कि बहुत बार तो ऐसा होता है कि ध्यानस्थ व्यक्ति, जिसे थोड़े से भी ध्यान की संभावना बढ़ गई हो, जब मरता है तो उसे बहुत देर तक पता ही नहीं चलता कि वह मर गया। उसे तो अपने आसपास के लोगों को रोते देखकर हैरानी होती है कि वे क्यों रो रहे हैं। और उसके शरीर को जलाने की व्यवस्था, या उसके शरीर को कब्र में दफनाने की व्यवस्था, या उसे मरघट ले जाने की व्यवस्था, सिर्फ उसे याद दिलाने के लिए महत्वपूर्ण है कि तुम मर गए हो, तुम अब वह नहीं रहे जो तुम थे।

इसलिए इस मुल्क में संन्यासी को छोड्कर हम सबके शरीर को जलाते थे। उसका कारण कुल इतना था कि अगर उसका शरीर बचा लें तो वह हो सकता है महीने, पंद्रह—दिन, दों—चार महीने भ्रांति में घूमता रहे कि मैं मरा नहीं और इसी शरीर के आसपास चक्कर काटता रहे। क्योंकि उसको तो ऐसा ही लगता है कि मैं शरीर से किसी तरह बाहर हो गया हूं, भीतर वापस कैसे हो जाऊं। तो अगर यह शरीर यहां रहेगा तो उसकी नई यात्रा में थोड़ी बाधा पडेगी। वह व्यर्थ ही थोड़े चक्कर कांटेगा इसके। इसलिए तत्काल जला देने की व्यवस्था थी, ताकि वह जाकर मरघट पर देख ले कि मामला खतम हो गया। जिसको मैंने समझा था मेरा शरीर, अब वह है ही नहीं। अब इससे रास्ता ही टूट गया, सेतु गिर गया, अब उस तरफ जाने का कोई ब्रिज नहीं है, कोई सीडी नहीं है। मामला खतम हो गया, वह बात खतम हो गई.। जो मैं अपने को समझता था, वह मैं अब नहीं हूं।

तो तुम ध्यान रखो, यह मुर्दे को जलाने की जो व्यवस्था है, वह सिर्फ घर खाली करने की ही व्यवस्था नहीं है, उसमें और भी कीमती बातें हैं। वह असल में जो आदमी विदा हो गया है, उसको भरोसा नहीं आता कि मैं मर गया हूं। उसको आये भी भरोसा कैसे, क्योंकि वह अपने को बिलकुल वैसा ही पाता है जैसा था। उसमें कहीं कोई फर्क नहीं पड़ा।

सिर्फ संन्यासी के शरीर को हम नहीं जलाते थे, क्योंकि वह पहले ही जान चुका है कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए उसके शरीर की हम समाधि बना सकते थे। समाधि संन्यासी के शरीर की बना सकते थे, क्योंकि वह जानता ही था पहले से कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए उसके शरीर को बचाने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन साधारण आदमी के शरीर को बचाने में कठिनाई है, क्योंकि वह भटक सकता है, वह बहुत देर तक चक्कर लगा सकता है। वह सोच सकता है कि अभी तो मेरा शरीर मौजूद है, मैं किसी तरह भीतर प्रवेश कर जाऊं।

होशपूर्वक मरना तभी संभव हो सकता है जब तुम होशपूर्वक जीयो। अगर तुमने होशपूर्वक जीना सीख लिया, तो तुम जरूर होशपूर्वक मर सकोगे, क्योंकि मरना भी जीवन की एक घटना है। जीवन में ही घटती है, जीवन की ही एक घटना है। कहना चाहिए, जिसे तुमने जीवन समझा था, उसकी वह आखिरी घटना है, जीवन के बाहर नहीं। साधारणत: हम मृत्यु को ऐसा लेते हैं कि वह जीवन के बाहर कोई घटना है, या जीवन के विपरीत कोई घटना है। नहीं, वह जीवन की ही श्रृंखला की आखिरी घटना है।

एक वृक्ष पर एक फल लगा है। वह अभी हरा है। फिर पीला पड़ता जाता है, पीला पड़ता जाता है, फिर आखिर में बिलकुल पीला पड़ जाएगा और फिर वृक्ष से टूटकर गिर पड़ेगा। वह वृक्ष से टूटना उसके पीले होने के बाहर की घटना नहीं है, उसके पीले के ही परिपूर्ण होने की घटना है। वह वृक्ष से टूटना कोई बाह्य घटना नहीं है कि बाहर से आ गई। वह उसके भीतर ही जो पीला हो रहा था, पक रहा था, पक रहा था, पक रहा था, उसी की चरम अवस्था है। और जब वह हरा था तब? तब भी इसी की तैयारी चल रही थी। और जब वह अभी शाखा पर निकला ही नहीं था, शाखा के भीतर छिपा था तब? तब भी इसकी तैयारी चल रही थी। और वृक्ष पैदा नहीं हुआ था, बीज में था तब? तब भी इसकी तैयारी चल रही थी। जब यह बीज भी पैदा नहीं हुआ था और किसी दूसरे वृक्ष में छिपा था, तब भी तैयारी चल रही थी। वह घटना जो है उसी घटना की श्रृंखला का एक हिस्सा है। वह कुछ अंत नहीं है, सिर्फ एक वियोग है। एक संबंध, एक व्यवस्था समाप्त हो गई, दूसरा संबंध, दूसरी व्यवस्था शुरू होती है।

निर्वाण में मृत्यु की क्या स्थिति होती है?

निर्वाण का मतलब ही यह है कि जिस व्यक्ति ने मृत्यु होती ही नहीं, ऐसा परिपूर्ण रूप से जान लिया—एक। दूसरा, जिसे हम जीवन कहते हैं, उसमें कुछ मिलता ही नहीं, ऐसा भी जान लिया। निर्वाण का मतलब है दो सत्यों की जानकारी—जिसे हम मृत्यु हैं, मृत्यु नहीं है; और जिसे हम जीवन कहते हैं, वह जीवन नहीं है। मेरी बात समझ रहे हो न.

यह तो मैंने एक बात तुमसे कही कि मृत्यु को जो जानेगा, वह कि मृत्यु मृत्यु नहीं है। लेकिन इससे ही संयुक्त दूसरी घटना भी है कि जो जीवन को पूरा जागकर देखेगा, वह पाएगा कि जिसको दुनिया जीवन कह रही है, वह जीवन भी नहीं है। वह श्री एक सामाजिक भ्रांति है, जैसे मृत्यु एक सामाजिक भ्रांति है। निर्वाण का मतलब है, इन दोनों बातों का पूरी तरह अनुभव हो जाना।

मृत्यु अगर मृत्यु नहीं है, इतना ही तुमने जाना तो अभी और जीवन चलता रहेगा। अभी आधा ही जाना। अभी आकांक्षा रहेगी कि फिर जीये, फिर शरीर पकड़े, फिर जन्म लें। वह चलता रहेगा। जिस दिन दूसरा सत्य भी पूरी तरह जान लोगे कि जीवन भी जीवन नहीं है और मृत्यु भी मृत्यु नहीं है, उस दिन लौटना नहीं है। प्‍वाइंट आफ नो रिटर्न आ गया। फिर यहां लौटने का कोई मतलब नहीं है। मेरा मतलब समझे आप?

हमने एक आदमी को घर के बाहर विदा किया, घर के लोग समझते हैं कि बस, यह घर अंत था। वह आदमी भी जब तक घर के भीतर था, ऐसा ही समझता था कि यह घर अंत है। बाहर होकर वह दरवाजे खटखटाएगा कि मुझे भीतर आने दो। अगर इस घर की सीढ़ी टूट जाएगी, तो किसी दूसरे घर के दरवाजे खटखटाका कि मुझे भीतर आने दो। क्योंकि जीवन तो घर के भीतर है। वह फिर कोई घर में प्रवेश कर जाएगा। यह घर न मिला तो दूसरा घर मिला। ऐसे ही जब एक आदमी मरता है, जैसे ही मरता है, तत्काल, चूंकि उसने शरीर को ही जीवन समझा, वह तत्काल शरीर को पाने के लिए बेचैन होकर, तड़प कर भागने लगता है।

तुमने कभी खयाल न किया होगा कि रात जब तुम सोते हो तो तुम्हारा जो आखिरी विचार होता है, वह सुबह उठकर तुम्हारा पहला विचार होता है। उसे थोड़ा जांचना। आखिरी जो विचार होगा तुम्हारा सोते वक्त, सात घंटे के बाद सुबह तुम्हारा वह पहला विचार होगा। सात घंटे वह प्रतीक्षा करेगा कि आप कब जगें। वह दरवाजे पर बैठा रहेगा। जगो, कि काम शुरू करो। अगर रात किसी से लड़कर सोए हो, तो सुबह सबसे पहले उसी का खयाल आएगा। अगर रात प्रार्थना करके सोए हो, तो सुबह सबसे पहले प्रार्थना वापस लौटेगी। जो रात अंत था, वह सुबह प्रारंभ होगा।

तो जो आदमी मरते वक्त आखिरी क्षण में जो सोच रहा है, जो उसकी कामना और वासना है, मरते ही वह उसकी पहली वासना हो जाएगी। वह तत्काल यात्रा पर निकल जाएगा। अगर मरते वक्त वह यह कह रहा है कि मेरा शरीर नष्ट हुआ जा रहा है, मैं मरा जा रहा हूं, मेरा शरीर गया, मेरा शरीर गया, तो तत्काल मरते ही वह कहेगा, मुझे शरीर, मुझे शरीर, शरीर चाहिए, शरीर चाहिए। वह भागेगा, दौड़ेगा, जल्दी से खोज करेगा कि कहां उसे मार्ग मिल जाए कि वह जल्दी से शरीर को ग्रहण कर ले। तो जो तुम्हारी मरते वक्त आखिरी वासना है….. और आखिरी वासना, ध्यान रहे, तुम्हारे जीवन भर का निचोड़ होगी।

असल में रात का भी आखिरी खयाल तुम्हारे दिन भर का निचोड़ होता है। वह दिन भर का सार है, संक्षिप्त है। जैसे दिन भर एक आदमी दुकान करता है और रात खाते —बही में सार —संक्षिप्त लिखकर सो जाता है। तो दिन भर तुम जो कर रहे हो वह सार —संक्षिप्त तुम्हारा आखिरी विचार होता है। अगर कोई आदमी रात के अपने आखिरी विचारों को लिखता रहे, सिर्फ आखिरी विचार को लिखता रहे, तो जितनी अदभुत आत्मकथा वह लिख पाएगा, उतनी अदभुत आत्मकथा कोई भी नहीं लिख सकता। वह उसकी सार —संक्षिप्त कथा होगी। जिसमें सब एसेंशियल आ जाएगा और नान —एसेंशियल छूट जाएगा। अगर तुम रोज सुबह तुम्हारा पहला खयाल है उसे लिखते रहो, तो तुम्हारे पंद्रह दिन के पंद्रह खयालों को देखकर जिंदगी के बाबत सब कुछ कहा जा सकता है कि तुम क्या थे, क्या हो रहे हो, क्या होना चाह

जिंदगी का मरते वक्त जो विचार है, वह तुम्हारे पूरे सत्तर — अस्सी साल की जिंदगी का सार —संक्षिप्त है। अब वही सार—संक्षिप्त तुम्हारे अगले जीवन का पोटेंशियल होगा। वह तुम्हारी पूंजी होगी जिसको तुम अगले जीवन में लेकर चले जाओगे। उसे तुम कर्म कहो, उसे तुम वासना कहो, उसे तुम कुछ भी नाम दे सकते हो। संस्कार कहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तुम्हारी जिंदगी भर का सारा का सारा जिसको कहना चाहिए बिल्ट — इन —प्रोग्राम है, जो भविष्य में काम करेगा।

अब एक छोटे —से बीज को जब हम बोते हैं तो बडे मजे की बात है कि उस बीज में से बट वृक्ष ही क्यों पैदा होता है! बीज में जरूर बट वृक्ष का बिल्ट—इन—प्रोग्राम होना चाहिए, नहीं तो हो नहीं सकता। ब्‍लू प्रिंट होना चाहिए उसके पास, नहीं तो वह कैसे पत्ते निकालेगा, वह कैसे शाखाएं निकालेगा, और वे सभी शाखाएं बट वृक्ष की क्यों कर होंगी? उसके पास योजना होनी चाहिए न! उस छोटे से बीज में सारी की सारी योजना होनी चाहिए। अगर हम उस बीज के भविष्य की कोई कुंडली बना सकें, तो हम उसके पत्ते —पत्ते की खबर दे सकते हैं कि उसमें कितने पत्ते निकलेंगे, इसमें कितने फल लगेंगे, इसमें कितने बीज लगेंगे, यह कितना लंबा होगा, यह कितना चौड़ा होगा, इसकी शाखाएं कितनी बड़ी होंगी, कितनी बैलगाड़ियां इसके नीचे विश्राम कर सकेंगी। यह सब इस छोटे —से बीज में है, किसी दिन अगर हम इसको पूरा परख सकें! क्योंकि है तो इसमें सब छिपा हुआ। यह ब्‍लू प्रिंट है पूरी बिल्डिंग का। वह जो बनेगा उसका सब इसमें है।

मरते वक्त हम सब अपनी जिंदगी का सार —संक्षिप्त सिकोड़ लेते हैं, इकट्ठा कर लेते हैं। जो —जो हमने महत्वपूर्ण समझा, वह बचा लेते हैं; जो —जो हमने व्यर्थ समझा, वह छोड़ देते हैं। अब जिस आदमी ने लाख रुपए कमाए थे और हजार रुपए मंदिर बनाने में लगाए थे, ध्यान रखना, मरते वक्त हजार रुपए वाला मंदिर याद नहीं आएगा, निन्यानबे हजार रुपए वाली तिजोरी याद आएगी। जो सिग्नीफिकेट था वह बचाया जाएगा, जो नान —सिग्नीफिकेट था वह छोड़ दिया जाएगा। मरते क्षण में तुम्हारा सार— असार छंट जाएगा। जो बेकार था वह छूट जाएगा। जो सार था वह तुम एकदम इकट्ठा करके खींच लोगे जाते वक्त। वह तुम्हारी यात्रा बन जाएगी। वह तत्काल तुम्हें नया बिल्ट—इन—प्रोग्राम मिल जाएगा। अब तुम नई यात्रा पर निकल जाओगे। और वह जो तुम्हारे पास अब भविष्य की योजना है, उस योजना के अनुसार तुम्हारा नया जन्म होगा और नई यात्रा शुरू हो जाएगी, नया शरीर होगा। सारी नई व्यवस्था हो जाएगी। और यह उतने ही वैज्ञानिक ढंग से होता है जैसे कुछ और होता है।

निर्वाण का मतलब यह है कि एक आदमी ने यह भी जान लिया कि मृत्यु मृत्यु नहीं है, और यह भी जान लिया है कि जीवन जीवन नहीं है। जब उसने दोनों ही जान लिये, तो उसके पास अब कोई बिल्ट—इन—प्रोग्राम नहीं है। उसने प्रोग्राम छोड़ दिया। अब वह कहता है कि सार— असार दोनों छोड्कर जाते हैं। समझ रहे हैं न! जब वह मरता है तब वह कहता है, सार— असार दोनों छोड़े जाते हैं। अब हम अकेले जाते हैं—पंछी जाए अकेला। अब वह अकेला जा रहा है। अब वह सब छोडे जा रहा है। अब वह कह रहा है, तिजोरी भी रखो, मंदिर भी रखो। जो ऋण लिया था वह भी छोड़ जाते हैं, जो ऋण दिया था वह भी छोड़ जाते हैं। अच्छा किया था वह भी छोड़ देते हैं, जो बुरा किया था वह भी छोड़ देते हैं। असल में हम छोड्कर जा रहे हैं।

कबीर ने कहा है, ‘ज्यों की त्यों रख दीन्ही चदरिया, बड़े जतन से ओढ़ी!’ कि कहीं कोई हिसाब— किताब पीछे न रह जाए। कहीं न हो जाए मामला कि कुछ सार— असार मालूम पड़ने लगे। कुछ बचाने योग्य, कुछ छोड़ने पड़ने लगे। तो कबीर कहते हैं कि बहुत जतन से ओढ़ी और फिर ज्यों की त्यों रख दीन्ही चदरिया, जैसी की तैसी रख दी। तब कोई बिल्ट—इन—प्रोग्राम नहीं हो सकता आगे के लिए। क्योंकि सारा मामला ही वैसे का वैसा रखकर आदमी गया। उसमें से कुछ चुना नहीं, उसमें से कुछ बचाया नहीं। यह नहीं कहा कि एक चीज तो कम से कम ले चलें, इतनी जिंदगी भर कमाई की है। वह सब छोड़ दिया। इसलिए कबीर कहते हैं, हंसा जाई अकेला। अब वह अकेला जा रहा है हंसा, वह कुछ भी नहीं ले जा रहा है। न मित्र, न शत्रु—कोई भी नहीं। न अच्छा, न बुरा; न शास्त्र, न सिद्धात—कुछ भी नहीं।

निर्वाण का मतलब यह है कि जीवन भी जीवन नहीं था, ऐसा जाना, मृत्यु भी मृत्यु नहीं थी, ऐसा जाना। और जब हम यह जान लेते हैं कि जो —जो नहीं था, उसे जान लेते हैं; तो जो है, वह हमें दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।

फिर कल।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–189

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भक्‍ति और भगवान—(प्रवचन—दूसरा)

अध्‍याय—17

सूत्र—

सत्‍वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो वो यव्छुद्ध: स एव सः।। 3।।

यजन्ते सात्‍विका देवान्यक्षरक्षांति राजसाः।

प्रेतान्धूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: ।। 4।।

है भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरूष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है।

उनमें सात्‍विक पुरूष तो देवों को पूजते हैं और राजस परुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं तथा अन्य जो तामस मनुष्य है, वे ने और भूतगणों को पूजते हैं।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : भक्त जब भगवान को मिलता है, तब उसे पुलक और आनंद का अनुभव होता है। क्या भगवान को भी उस क्षण वैसी ही पुलक और आनंद का अनुभव होता है?

गवान कोई व्यक्ति नहीं जिसको भक्त जैसी पुलक और आनंद का अनुभव हो सके। भगवान तो पूरा ही अस्तित्व है। इसलिए पुलक और आनंद की घटना तो घटती है, लेकिन वहां कोई अनुभव करने वाला नहीं है। जैसे भक्त के छोटे—से हृदय में आनंद गज जाता है, वैसा कोई हृदय परमात्मा का नहीं है, जहां आनंद गंज जाए। परमात्मा तो पूरा अस्तित्व है, इसलिए पूरा अस्तित्व ही पुलक से भर जाता है। इतना फर्क है। पुलक तो घटेगी ही, क्योंकि भटका हुआ घर लौट आया। दूर गया पास आ गया। खो गया था, वापस मिल गया। अस्तित्व की तरफ जिसकी पीठ थी, उसने मुंह कर लिया। तो आनंद की घटना तो घटेगी ही। लेकिन भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, वहां कोई व्यक्ति के भीतर छिपा हुआ हृदय नहीं है। इसलिए जैसा अनुभव भक्त को होगा, वैसा कोई अनुभव करने वाला भगवान में नहीं है। वह तो परम शून्यता है।

पुलक होगी; वह पुलक बादलों में सुनी जाएगी; वह पुलक नदियों में गूंजेगी; वह पुलक फूलों से खिलेगी; वह पुलक चांद—तारों में ज्योति देगी। लेकिन कोई हृदय नहीं है, जो अनुभव करेगा। या तुम ऐसा कहो—वह भी कहना ठीक है—कि ह्रदय ही हृदय है; सारा अस्तित्व उसका हृदय है। सारा अस्तित्व एक सिहरन से, एक आनंद की मधुर घड़ी से भर जाएगा।

इसे भक्त ही जान पाएगा; तुम न पहचान पाओगे। तुम्हें भक्त का आनंद तो दिखाई पड़ेगा, क्योंकि भक्त तुम्हारे जैसा ही व्यक्ति है। उससे तुम्हारा ‘थोड़ा तालमेल है। वह कितना ही भिन्न हो गया हो, उसकी यात्रा बदल गई हो, उसने परमात्मा की तरफ मुंह कर लिया हो, तुमने पीठ कर रखी है, तो भी वह तुम्हारे जैसा है, व्यक्ति है। उसके हृदय में कुछ घटेगा; आंसू बहेंगे, तो तुम आंसुओ को पहचान सकते हो। वह नाचने लगेगा, तो तुम नाच को समझ सकते हो। उसके चेहरे पर अहोभाव की छाया पड़ेगी, तो पूरा न समझ सको, तो भी थोड़ा तो समझ ही लोगे। वह भाषा तुमसे परिचित है। लेकिन परमात्मा में जो पुलक घट रही है, वह तुम न देख पाओगे; वह तुम न समझ पाओगे।

इसलिए तो बहुत—सी कथाएं हैं, जो कथाएं जैसी मालूम होने लगी है; वे सत्य घटनाएं है। कि बुद्ध को परम ज्ञान हुआ और वृक्षों में फूल खिल गए, बिना ऋतु के। ये फूल दूसरों ने देखे हों, यह संदिग्ध है। ये फूल बुद्ध ने ही देखे होंगे। ये फूल साधारण फूल न थे, जो रोज ऋतु में खिलते हैं और गिरते हैं। ये तो वृक्ष के अंतर्भाव के फूल थे। इन्हें तुम बाजार में न बेच सकते थे, इन्हें तुम तोड़ भी न सकते थे, इन्हें तुम देख भी न सकते थे। ये तो अदृश्य के फूल थे, जो बुद्ध को दिखाई पड़े होंगे।

कहते हैं, मोहम्मद को जब ज्ञान हुआ, तो रेगिस्तान की तपती दुपहरियों में बादल उन्हें छाया देने लगे। मगर ये बादल किसी और को दिखाई न पड़े होंगे। ये बादल जो छतरियां बन गए और मोहम्मद के ऊपर मंडराने लगे, यह मोहम्मद ने ही खबर की होगी औरों को। तुम्हारी आंखें इतनी सूक्ष्म घटना को न देख पाएंगी। वस्तुत: कोई बादल बने भी, यह भी जरूरी नहीं है। लेकिन छाया मोहम्मद को मिलने लगी, यह पक्का है। तपती दुपहरी में भी सूरज जलाता नहीं, भयंकर रेगिस्तान में भी कंठ में प्यास नहीं जगती, ऐसी शीतलता मोहम्मद को मिलने लगी। एक संवाद शुरू हो गया अस्तित्व के साथ।

निश्चित ही, जब तुम प्यार से भरोगे अस्तित्व के प्रति, तो अस्तित्व भी अपने प्यार को तुम्हारी तरफ लुटाका। अस्तित्व जड़ नहीं है, यही तो मतलब है कहने का कि अस्तित्व परमात्मा है। अगर जड़ होता, तो तुम रोओ, तो पत्थर रोएगा नहीं; उसमें कोई संवेदना नहीं है। तुम हंसो, तो पत्थर हंसेगा नहीं। पत्थर से कोई प्रत्युत्तर न मिलेगा। यही तो मतलब है पत्थर होने का।

तो हम कभी कहते हैं कि उस आदमी का हृदय पाषाण है। उसका क्या मतलब होता है? इतना ही मतलब होता है। कहीं पाषाण के हृदय होते हैं! इतना ही मतलब होता है कि उसमें से प्रतिसवेदन नहीं उठता। वह तुम्हें दुखी देखकर दुखी न होगा। तुम्हारी गीली आंखें उसके हृदय को गीला न करेंगी। तुम्हारा नाच उसे छुएगा नहीं। तुम्हारे भाव तुम्हारे ही रहेंगे; वह कोई प्रत्युत्तर न देगा। उसका हृदय पाषाण है।

इस अस्तित्व को परमात्मा कहने का अर्थ है कि यहां पाषाण कुछ भी नहीं है। पाषाण झूठा शब्द है। यहां पत्थर भी आंदोलित होते हैं। क्योंकि सभी तरफ सचेतन, सभी तरफ चैतन्य का विस्तार है।

तो प्रतिसवेदना होगी। लेकिन इतनी सूक्ष्म है वह घटना कि भक्त ही जान पाएगा कि भगवान को क्या हो रहा है, साधारणजन न पहचान पाएंगे। क्योंकि वे करीब—करीब अंधे हैं, बहरे हैं। न तो उनके पास कान हैं उस अमृत—नाद को सुनने के, न उनके पास आंखें हैं उस अरूप को देखने की।

इसलिए तुम्हें मीरा नाचती हुई दिखाई पड़ेगी और तुम्हें मीरा थोड़ी पागल भी मालूम पड़ेगी। क्योंकि जिसके साथ वह नाच रही है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। मीरा तो अपने कृष्ण के साथ नाच रही है। वह कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है। हवाओं के झोंके में भी वही कृष्ण हैं; हवा छूती है मीरा को, तो कृष्ण के हाथ ही छूते हैं। और मैं तुमसे कहता हूं कि निश्चित जब तुम्हारे पास मीरा का हृदय होगा, तो हवा तुम्हें और ढंग से छुएगी। छूने—छूने में कितना फर्क है!

राह से तुम चलते हो और एक आदमी से शरीर छू जाता है; फिर तुम्हारी प्रेयसी तुम्हें छूती है या तुम्हारी मां तुम्हारे सिर को छूती है या तुम अपने बेटे को छूते हो। दोनों छूना एक—से हैं। अगर हम शरीरशास्त्री से पूछें कि जांच करके बताओ कि दोनों तरह के स्पर्श में कोई फर्क है?

वह कोई फर्क न बता पाएगा। वह कहेगा, दोनों स्थितियों में चमड़ी चमड़ी को छूती है। थोड़े—से ताप का आदान—प्रदान होता है। गरमी एक शरीर से दूसरे शरीर में थोड़ी—सी जाती है। बस, इतना ही। मां छुएगी, तो भी यही होता है। राह पर चलता राहगीर छू लेगा, तो भी इतना ही होता है। कोई प्रेम से थपथपाएगा, तो भी यही होता है। कोई क्रोध से मारेगा, तो भी यही होता है। जहां तक शरीरशास्त्री की पकड़ है, दोनों एक—सी घटनाएं हैं।

हवा का झोंका तुम्हें भी छूता है, मुझे भी छूता है, मगर तुम्हें ऐसे ही छूता है जैसे राह पर कोई अजनबी से धक्का लग गया। मीरा को भी छूता है, लेकिन वह प्रेमी का हाथ है। उस झोंके में कुछ आया है। उस झोंके में सिर्फ स्पर्श नहीं है, स्पर्श के पीछे छिपा हुआ राज है, एक भाव—दशा है।

वृक्षों में फूल तुम्हें भी खिलते हैं, तुम भी देख लेते हो उनके रंग—रूप को। मीरा भी देखती है, लेकिन वहां वृक्षों में उसका प्रेमी ही खिल रहा है। आषाढ़ आता है, मोर नाचते हैं। तुम भी देख लेते हो, पर मीरा के लिए उसका कृष्ण ही नाचता है। असल में मीरा के लिए सारा अस्तित्व कृष्ण—रूप हो गया.। इसलिए अब जो भी होता है, वह कृष्ण में ही हो रहा है। और पूरी भाषा बदल जाती है, पूरे अर्थ बदल जाते हैं।

अगर मनोवैज्ञानिकों को कहो कि मीरा के पदों का विश्लेषण करो, तो तुम बहुत धक्का खाओगे। क्योंकि मनोवैज्ञानिक जो बातें कहेंगे, उनका तुम्हें भरोसा भी न आएगा। चाहे भरोसा न आए, लेकिन तुम्हारा भी भीतर भरोसा वही है।

जब मीरा कृष्ण की बात कहती है और कहती है, सेज सजा ली है, फूल बिछा दिए हैं, अब तुम आओ। तो मनोवैज्ञानिक कहेगा, यह तो कुछ काम—दमन मालूम पड़ता है; यह तो सेक्स सप्रेशन है। यह तो कृष्ण में पति को ही खोज रही है। ऐसा लगता है, राणा से मन नहीं भर पाया। ऐसा लगता है, कुछ बात चूक गई; काम अतृप्त रह गया। वह जो शरीर की वासना थी, वह प्रकट नहीं हो पाई, वह दब गई। और अब वही शरीर की वासना नए भ्रम बन रही है। तो कृष्ण को पति मान रही है, सेज सजा रही है।

यह सेज का सजाना और बुलाना, यह कामवासना मालूम पड़ेगी मनसविद को। वह तो मनोवैज्ञानिकों ने अभी मीरा पर कृपा नहीं की है। उनको मीरा का ज्यादा पता नहीं है, क्योंकि मनोविज्ञान का जन्म पश्चिम में हो रहा है। यहां भी मनोवैज्ञानिक हैं, लेकिन वे अधकचरे हैं और वे, पश्चिम में जो होता है, उनके पीछे चलते हैं। वे सीधे कुछ करते नहीं।

लेकिन उन्होंने जीसस की काफी खोज—खबर ली है। और मीरा जैसी स्त्रियां पश्चिम में हुई हैं, उनकी उन्होंने काफी खोज—खबर ली है। संत थेरेसा हुई है पश्चिम में। मनोवैज्ञानिकों ने उसका विश्लेषण किया है। वह ठीक मीरा है पश्चिम की। और उसके प्रतीक तो सब कामवासना के हैं। करोगे भी क्या! मनुष्य के पास जितने भी मधुर शब्द हैं, सभी कामवासना के हैं। जब वह परम मधुरिमा घटती है, तो कौन से शब्दों का उपयोग करोगे?

दो ही तरह की भाषाएं हैं तुम्हारे पास। या तो बाजार की भाषा है, वह बहुत ही क्षुद्र है। उस भाषा में तो परमात्मा को पकड़ा नहीं जा सकता। और या फिर दो प्रेमियों की स्वात की भाषा है। वह जरा कम क्षुद्र है, लेकिन है तो क्षुद्र ही, क्योंकि वे प्रेमी भी बाजार के ही रहने वाले लोग हैं।

और जब मीरा जैसी घटना घटती है या थेरेसा जैसी, तो वह क्या करे? भाषा कहां से लाए? तुम्हारे बाजार की भाषा का उपयोग करे, तो बिलकुल ही व्यर्थ मालूम होती है। क्या कहे कि परमात्मा के झोंके में लाखों रुपये आ गए! क्या कहे कि पूरा रिजर्व बैंक उलटा दिया परमात्मा के झोंके में!

वह भी भद्दा लगेगा; वह भी कुछ सार्थक न मालूम पड़ेगा। तुम उसे भी न पकड़ पाओगे। ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि इनकम टैक्स आफिसर मीरा के पीछे पड़ जाएंगे कि कहां हैं? वे करोड़ों रुपये कहां हैं?

दूसरी भाषा प्रेम की है, जो प्रेमी एक—दूसरे से बोलते हैं। वह बड़ी निजी है। लेकिन उसमें कामवासना की धुन पकड़ में आती है। तड़पते हैं प्रेमी, राह देखते हैं, मिलन होता है, अहोभाव से भरते हैं। वही भाषा समझ में आती है। मीरा उसका उपयोग करती है, थेरेसा ने भी उसका उपयोग किया है।

पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने बड़ी छीछालेदर की है थेरेसा की। वही वे मीरा के साथ करेंगे। उनको मीरा का पता नहीं है। वे कहते हैं, यह तो कामवासना है। वे तो हर चीज में कामवासना खोज लेते हैं, क्योंकि दूसरी तो किसी चीज का पता ही नहीं है।

यह सेज सजी है, पिया घर नहीं आए। ये फूल बिछा रखे हैं, मैं तुम्हारी राह देखती हूं। तुम आओ, सुहागरात के लिए तैयारी है। अब यह सारी भाषा तो प्रेम की है। या तो हम कहेंगे कि मीरा का मन कामवासना से ग्रस्त है, इसलिए परमात्मा के नाम पर वही वासना निकल रही है। या हम समझेंगे, मीरा पागल है। क्योंकि हम मीरा की बिछी हुई सेज देख सकते हैं, पड़े हुए फूल देख सकते हैं, मीरा बैठकर रोती है, किसी की प्रतीक्षा करती है, यह भी देख सकते हैं। लेकिन वह कभी आता है? कभी आया है? कभी आएगा? उसकी हम द्वार पर दस्तक भी नहीं सुनते।

मीरा को फिर हम कभी रोते भी देखते हैं कि उसका विरह हो गया है और कभी नाचते भी देखते हैं कि मिलन हो गया। न तो हमें विरह के क्षण में कोई उसके घर से जाता दिखाई पड़ता, और न मिलन के क्षण में कोई घर आता दिखाई पड़ता।

मीरा पागल है। लोग खूब हंसे होंगे मीरा पर। इसलिए तो मीरा कहती है, सब लोक—लाज खोई। इज्जत सब चली गई। राणा ने जो बार—बार मीरा को जहर के प्याले भेजे, वह इसीलिए कि उसकी भी इज्जत इसके पीछे डूबती थी।

यह किस प्रेमी की बात कर रही है? यह किस कृष्ण के पीछे दीवानी है? लोग इसको तो पागल समझते या रुग्ण समझते या मनोविकार से ग्रस्त समझते। पति भी मुश्किल में पड़ा हुआ था। हमने जहर तो आते देखा, हमने मीरा को जहर पीते भी देखा, लेकिन मीरा पर हमने उस जहर का असर होते नहीं देखा। तब जरा हम बेचैन हुए। यह तो अनूठी बात है। यह कैसे असर न हुआ? अगर तुम मनसविद से पूछोगे, उसके पास इसके लिए भी व्याख्या है। वह कहता है, यह भी आत्म—सम्मोहन है। अगर मीरा को पक्का भरोसा है कि यह जहर नहीं है या परमात्मा की कृपा से यह अमृत हो जाएगा, तो इस भरोसे के कारण ही जहर शरीर में प्रवेश नहीं कर पाता। मनोवैज्ञानिक उसके लिए भी कुछ न कुछ तो व्याख्या खोजेगा!

हम परमात्मा से बचने को इस तरह आतुर हैं कि हम सब मान सकते हैं, व्यर्थ से व्यर्थ बात मान सकते हैं, परमात्मा को नहीं मान सकते।

मनोवैज्ञानिक कहता है कि यह तो मन का इतना प्रगाढ़ रूप से भाव है कि यह जहर नहीं है, इसलिए शरीर में जहर प्रवेश नहीं करता, मन के कारण ही। कोई कृष्ण थोड़े ही जहर को अमृत में बदल रहे हैं!

जहर भी अमृत में बदल जाए, तो भी हम अंधे हैं; तो भी हम कोई व्याख्या अपनी ही खोज लेंगे। इतनी बड़ी घटना भी हमें तृप्त नहीं कर पाएगी। उसका कारण है, हमें वह कृष्ण दिखाई नहीं पड़ता। और अनदेखे को हम कैसे मान लें? इतने मूढ़ हम कैसे हो जाएं?

घटना तो घटती है। जब भक्त भगवान को मिलता है, तो जितनी पुलक भक्त में घटती है, अगर तुम मुझ से ठीक पूछो, तो उससे अनंत गुना पुलक भगवान में घटती है। घटनी ही चाहिए; क्योंकि अनंत गुना है भगवान भक्त से। भक्त तो एक बूंद है, भगवान तो एक सागर है। अगर बूंद इतनी नाचती है, तो तुम सोचो, सागर कितना नाचता होगा!

लेकिन वह कोई व्यक्ति नहीं है। यह सारी समष्टि वही है। इसलिए वह सब रूपों में नाचता है, सब रूपों में हंसता है, सब रूपों में पुलकित होता है। हरियाली में और हरा हो जाता है। रंग में और रंगीन हो जाता है। इंद्रधनुष में और गहरा हो जाता है। लेकिन वह दिखाई पड़ता है उसी को, जिसके हृदय में अहोभाव भरा है, जो नाच रहा है आज। उसे परमात्मा साथ ही नाचता हुआ दिखाई पड़ता है।

यही तो अर्थ है कि सोलह हजार गोपियां नाचती हैं और प्रत्येक गोपी को लगता है कृष्ण उसके साथ नाच रहे हैं। कृष्ण अगर व्यक्ति हों, तो एक ही गोपी के साथ नाच सकते। कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं हैं। कृष्ण तो एक तत्व का नाम है। वह तत्व सर्वव्यापी है। जब तुम नाचते हो और तुम नाचने की क्षमता जुटा लेते हो, तब तुम अचानक पाते हो कि सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ नाच रहा है।

फिर अस्तित्व बहुत बड़ा है, वह दूसरों के साथ भी नाच रहा है। इसलिए भक्त को कोई ईर्ष्या पैदा नहीं होती। अन्यथा तुम सोच सकते हो कि सोलह हजार स्त्रियों ने क्या गति कर दी होती कृष्ण की! अगर यह बात साधारण संसार की बात हो, जैसा कि इतिहासविद मानते हैं.।

और यह कठिन नहीं है, सोलह हजार स्त्रियां हो सकती हैं; उस जमाने में हुआ करती थीं। अभी निजाम हैदराबाद मरा, तब उसकी पांच सौ स्त्रियां थीं। बीसवीं सदी में अगर पांच सौ हो सकती हैं, तो सोलह हजार कोई ज्यादा तो नहीं हैं। सिर्फ बत्तीस गुनी। कोई बहुत बड़ा गणित नहीं है। आज से पाच हजार साल पहले सोलह हजार स्त्रियां हो सकती थीं। सम्राटों के पास होती थीं। जितनी सुंदर स्त्रियां होतीं, वे सब इकट्ठी कर लेते पूरे राज्य से। यह कठिन नहीं है।

लेकिन सोलह हजार स्त्रियां! अगर तुम्हें एक भी स्त्री का अनुभव है, तो तुम समझ सकते हो। कृष्ण की हत्या कर दी होती, अगर कृष्ण कोई व्यक्ति हैं। सोलह हजार स्त्रियां कितनी भयंकर ईर्ष्या से न भर गई होतीं। और कृष्ण एक के साथ नाच सकते, कोई एक राधा हो जाती और बाकी पिछड़ जातीं। उपद्रव खड़ा होता। लेकिन कोई ईर्ष्या पैदा न हुई।

यह बड़ी मीठी कथा है कि गोपियों में कोई ईर्ष्या पैदा न हुई। उनका विरह भी साथ—साथ था, उनका मिलन भी साथ—साथ था। क्योंकि कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं हैं, तत्व की बात है। सारा अस्तित्व है, जहां भी तुम नाचो, अस्तित्व तुम्हें घेरे हुए है। कृष्ण के हाथ तुम्हारे गले में पड़े हैं। आलिंगन है—हवा में, धूप में।

सब तरफ से कृष्ण तुम्हें घेरे हुए हैं। वे तुम्हारे साथ नाचने को तैयार हैं। बस, तुम्हारे पैरों के उठने की कमी है। तुम जरा नाच सीख लो, परमात्मा नाचने को राजी है। तुम जरा हंसना सीख लो, परमात्मा हंसने को राजी है। तुम रोओगे, तो अकेले रोओगे; तुम हंसोगे, तो सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ हंसेगा। क्योंकि परमात्मा रो नहीं सकता। इसे थोड़ा समझ लो।

परमात्मा दुखी नहीं हो सकता। इसलिए जब मैं कहता हूं कि जब भक्त आनंदित होता है, तो पूरा अस्तित्व आनंदित होता है। लेकिन तुम यह मत सोचना कि जब भक्त रोता है, तो पूरा अस्तित्व रोता है। पूर्ण रोना जानता ही नहीं। पूर्ण की कोई पहचान ही रोने से, रुदन से, उदासी से नहीं है। पूर्ण का कोई संबंध ही दुख—पीड़ा से नहीं है। कहावत है कि जब तुम हंसते हो, तब सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ हंसता है। जब तुम रोते हो, तब तुम अकेले रोते हो। रोना निजी है, व्यक्तिगत है।

इसलिए तो जब तुम रोना चाहते हो, तो तुम अकेले होना चाहते। हो। द्वार—दरवाजा बंद कर लेते हो। तुम नहीं चाहते कोई आए। तुम। नहीं चाहते कि पत्नी भी भीतर आए। तुम चाहते हो, अकेला छोड़ दो, बिलकुल अकेला छोड़ दो। क्योंकि रोना निजी घटना है।

लेकिन जब तुम हंसते हो, तब तुम पास—पड़ोस के लोगों को बुला लेते हो। जब तुम हंसते हो, तब तुम निमंत्रण भेज देते हो। जब तुम आनंद में होते हो, तब तुम भोज का आयोजन कर लेते हो, कि आएं मित्र, पड़ोसी, संबंधी, हम सब साथ ही नाचे, हम सब साथ ही प्रसन्न हों।

प्रसन्नता निजी नहीं है, फैलती है, विस्तीर्ण होती है। दुख निजी है, सिकुड़ता है, सड्ता है। तुम अकेले ही दुखी रह जाते हो। और अचानक तुम पाते हो कि सारे जगत से तुम्हारा तालमेल टूट गया। जितने तुम ज्यादा दुखी हो, उतना ही परमात्मा से दूर। या उलटा चाहो तो उलटा कहो, जितने तुम परमात्मा से दूर, उतने ज्यादा दुखी। वे दोनों एक ही बातें हैं। जितने तुम परमात्मा के पास, उतने तुम सुखी। दूसरी बात भी सही है, जितने तुम सुखी, उतने तुम परमात्मा के पास।

इसलिए मेरी शिक्षा आनंद की है। मैं तुम्हें उदास नहीं बनाना चाहता कि तुम आंखें बंद करके ध्यान लगाकर उदास होकर, मुरदा होकर बैठ जाना लंबे चेहरे करके; कि तुम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो, कि तुम जैसे परमात्मा पर कोई अनुग्रह कर रहे हो, कि तुम्हारी बड़ी कृपा है कि घंटे भर तुम चेहरा बनाकर, हाथ में माला लेकर और पत्थर की तरह बैठे रहते हो। नहीं, पत्थर बहुत हैं। तुम्हारे और पत्थर होने की जरूरत नहीं है। तुम नाचो।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ये आपके ध्यान कैसे हैं? क्योंकि हम तो यही सोचते थे कि आख बंद करके पद्यासन जमाकर और शांत होकर बैठ जाना है। नाचना! संगीत! यह ध्यान कैसा?

मैं उनसे कहता हूं कि तुमने कभी परमात्मा को ऐसा बैठा देखा है उदास? चारों तरफ देखो, पक्षी गीत गा रहे हैं, हवा नाच रही है, वृक्षों की पुलक का क्या कहना! समारंभ चल रहा है, उत्सव चल रहा है। तुम इसके भागीदार होना चाहते हो? नाचो! नाचो कि मोर फीके पड़ जाएं। गाओ कि पक्षी चुप होकर सुनने लगें। पुलकित हो उठो कि हवाएं झेंप जाएं। तभी तुम परमात्मा के निकट आओगे। जो आनंदित है, वह निकट आ जाता है; जो निकट आ जाता, वह महा आनंद से भर जाता। जैसे—जैसे तुम निकट आते हो, वैसे—वैसे तुम पाते हो कि यह उत्सव तुम्हारा नहीं है, यह उत्सव तो सब का है।

धर्म उत्सव है। और मंदिर दुष्टों के हाथ में पड़ गए हैं; वे उदास लोगों के हाथ में पड़ गए हैं। कुछ कारण हैं।

उदास लोग आक्रामक हो जाते हैं। और आक्रामक लोग बकवासी हो जाते हैं। आक्रामक लोग दूसरों पर कब्जा करने लगते हैं। आक्रामक लोग दूसरों को रास्ता बताने लगते हैं। जो उदास हैं, वे दूसरों को उदास करने में रस लेने लगते हैं।

लेकिन महावीर उदास नहीं हैं, न बुद्ध उदास हैं। कृष्ण तो बिलकुल ही नहीं; उनके होंठों पर बांसुरी रखी है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं बुद्ध के होंठों पर भी बांसुरी रखी है। अदृश्य है, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। मैंने देखी है, इसलिए कहता हूं।

जब भी कोई बुद्ध हुआ है, होंठ पर बांसुरी जरूर रही है, दिखाई पड़े, न दिखाई पड़े। कृष्ण की बांसुरी दिखाई पड़ती है; बुद्ध की बांसुरी दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन उस बोधि—वृक्ष के नीचे भी वेणु बज रही है, गीत उठ रहा है। बुद्ध को तुमने शांत बैठे देखा है। वह तुम्हारी भांति है। तुम अगर गौर से देखते, तो तुम उस भीतर के नाच को देख लेते। जब भी कोई परमात्मा को पाया है, नाचा है। और जब भी कोई नाचा है, तो परमात्मा तो नाच ही रहा है, वह तत्‍क्षण तुम्हारे साथ हो जाता है; उसकी गलबहियां तुम्हारे कंधों पर पड़ जाती हैं।

लेकिन परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, इसे खयाल रखना। परमात्मा यानी समष्टि।

दूसरा प्रश्न :

 

गुरु शिष्य की निरंतर सहायता करता रहता है, पर वह कई मौकों पर बार —बार पूछने पर भी चुप रह जाता है। ऐसा क्यों कर घटित होता है?

भी जरूरी होता है कि चुप होने से ही सहायता की जा सकती है। कभी बोलकर सहायता की जा सकती है। कभी बोलकर नुकसान होगा। कभी चुप रहने में ही सहायता पहुंचेगी। कभी संदेश शब्दों में दिया जा सकता है, और कभी संदेश शब्दों में दिया नहीं जा सकता।

फिर कभी तुम तैयार होते हो, जो तुमने पूछा है, उसके लिए। और कभी तुम तैयार नहीं होते, और तुमने असमय में पूछ लिया होता है। और असमय में कुछ भी नहीं दिया जा सकता।

तुम्हें पता न हो, गुरु को पता होता है कि तुम जो मांग रहे हो, अभी उसके लेने के हकदार नहीं हो। अभी देना व्यर्थ होगा। अभी हीरे—मोती तुम्हें दे दिए जाएंगे, तुम कंकड़—पत्थरों में मिला लोगे। अभी तुम्हें हीरे—मोती का बोध नहीं है, अभी पारखी पैदा नहीं हुआ।

कभी इसलिए गुरु चुप रह जाता है कि अभी तुम तैयार नहीं हो। तुमने असमय में प्रश्न पूछा। और तुम्हारी जिद्द हो जाती है कि तुम उस प्रश्न में अटक जाते हो, तुम बार—बार पूछते हो। तुम लाख बार पूछो, तो भी असमय में उत्तर नहीं दिया जा सकता। तुम्हें पता न हो समय का, तुम्हें पता न हो परिपक्वता का, गुरु को तो पता है। वह उसी दिन उत्तर देगा, जिस दिन तुम तैयार हो जाओगे। तुम्हारे लाख पूछने का सवाल नहीं है। तुम न भी पूछो, जिस दिन तुम तैयार होगे, उत्तर दिया जाएगा। तुमने कभी न भी पूछा हो, तो भी।

तुम्हारी तैयारी पर उत्तर निर्भर करेगा, तुम्हारी जिज्ञासा पर निर्भर नहीं है बात। और तुम्हारी जिज्ञासा और तुम्हारी तैयारी में अक्सर तालमेल नहीं होता। तुम पूछते आकाश की हो, तुम खड़े होते जमीन पर हो। तुम पूछते प्रेम की हो, चित्त कामवासना से भरा होता है। अगर कुछ भी कहा जाएगा, तो तुम कामवासना के अर्थों में ही समझोगे। तुम पूछते परमात्मा की हो, आकांक्षा पद—प्रतिष्ठा की बनी होती है। परमात्मा भी तुम्हारे लिए एक तरह की पद—प्रतिष्ठा है। परम पद होगा, लेकिन है पद ही। परम संपदा होगी, लेकिन है संपदा ही।

जरूरी नहीं है कि तुम जब पूछो, तब तुम तैयार हो। गुरु उत्तर देता है तुम्हारी तैयारी से। इसलिए बहुत बार चुप रह जाएगा। चुप रह जाने में उसकी अनुकंपा है। क्योंकि गैर—समय में दिया गया उत्तर घातक हो जाता है। तुम समझोगे कि तुमने उत्तर पा लिया। और उत्तर तुम्हें मिला नहीं, क्योंकि अभी तो प्रश्न ही पैदा न हुआ था। तुम इस उत्तर को कंठस्थ कर लोगे। तुम इस उत्तर को दूसरों को भी देने लगोगे।

तुम्हें खुद भी कुछ पता नहीं है। तुम्हारी प्यास ही अभी न थी और पानी दे दिया गया। तुम उसे पीओगे कैसे? प्यास होगी, तो पीओगे, कंठ सूखेगा, तो पीओगे। और यह पानी तुम्हें मिल गया, तुम करोगे क्या? तुम दूसरों के गले में जबरदस्ती उतारोगे। तुम्हें ज्ञान मिल जाए असमय में, तो तुम पंडित हो जाओगे, ज्ञानी नहीं।

तो गुरु बहुत बार चुप रह जाता है। वह तुम से यह कह रहा है कि रुको, जल्दी मत करो। तुम लाख बार पूछो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि सवाल तुम्हारा है, तुम्हारे पूछने का नहीं है। गुरु तुम्हें देखता है, तुम क्या पूछते हो, यह गौण है। तुम न भी पूछो, तो भी वह तुम्हें देखता रहता है। तुम्हें जब जिस चीज की जरूरत है, वह कहेगा।। फिर बहुत बार तुम तैयार भी होते हो, लेकिन तुम्हारा प्रश्न ही! ऐसा होता है, जिसका उत्तर शब्दों में नहीं हो सकता, तब वह चुप रह जाता है। चुप रह जाने का मतलब यह नहीं है कि उसने उत्तर नहीं दिया; चुप रह जाने का मतलब है कि उसने चुप रहकर उत्तर दिया। चुप रहना एक उत्तर है।

एक नए नाटककार ने बर्नार्ड शा को अपना नाटक देखने आमंत्रित किया। बर्नार्ड शा गया। पर शुरू से उसने कोई एक—दो मिनट तो देखा और आख बंद करके वह घर्राटे लेने लगा। वह नाटककार बगल में बैठा बड़ा पीड़ित हुआ कि यह आदमी आया न आया बराबर। और इससे तो बेहतर न आता। यह भी कोई बात हुई! यह कोई शिष्टाचार हुआ! लेकिन के बर्नार्ड शा को उठाना भी ठीक नहीं। और वह आदमी जरा तेज और नाराज प्रकृति का था। इसलिए वह नाटककार नया—नया था, कुछ बोला भी नहीं कि ठीक है, अब जो हुआ; आया यही बहुत।

पूरा नाटक हो जाने पर बर्नार्ड शा ने आख खोली, उठकर चलने लगा। उस नाटककार ने पूछा, और आपका मंतव्य? आपने कुछ कहा नहीं! बर्नार्ड शा को चुप देखकर उस नाटककार ने कहा, मंतव्य आप देंगे भी कैसे? आप पूरे वक्त सोए रहे। बर्नार्ड शा ने कहा, सोए रहना मंतव्य है। कूड़ा—कर्कट है, सब बेकार है। सोए रहना मंतव्य है। मैंने कह दिया, जो कहना था। जान होती, तो मैं जागा रहता। जान ही न थी। मुरदा नाटक। घर्राटे ही ज्यादा बेहतर थे। मंतव्य मैंने दे दिया।

कभी सोना भी मंतव्य होता है, कभी चुप रहना उत्तर होता है। गुरु जो भी करे! बोले, तो गौर से सुनना। न बोले, तो और भी गौर से सुनना। क्योंकि बोलने को तो तुम कम गौर से सुनोगे, तो भी सुन लोगे, न बोलने को तो बहुत गौर से सुनोगे, तो ही सुन पाओगे। और जब तुम एक ही प्रश्न बहुत बार पूछते चले जाओ और गुरु हर बार चुप रह जाता हो, तब तो बात बहुत साफ है कि वह एक ही उत्तर बार—बार दोहरा रहा है और तुम बार—बार चूकते जा रहे हो।

गुरु के पास होना एक कला है, जो खोती गई है। बड़ी बारीक कला है। पूरब के मुल्कों ने उसे विकसित की थी, वह धीरे—धीरे क्षीण हो गई और खो गई। वह सूक्ष्मतम संवाद है दो व्यक्तियों के बीच। और शिष्य को जिद्द नहीं होनी चाहिए के मेरे प्रश्न का उत्तर मिले। उसे तो जो मिले उसमें अनुकंपा माननी चाहिए, तो ही उसकी पात्रता बढ़ेगी।

पश्चिम से लोग आते हैं, उनको गुरु—शिष्य के संबंध का कोई भी बोध नहीं है, इसलिए बड़ी अड़चन खड़ी होती है। एक लेखिका पश्चिम से आई। बड़ी लेखिका है, कई किताबें लिखी हैं, सो उपद्रव भी बहुत है उसके मन में, विचारों का बड़ा जाल है। उसने कुछ पूछा। मैं टाल गया। वह बड़ी नाराज वापस लौटी। वह कहकर गई संन्यासियों को कि मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला। मैं नाराज जा रही हूं। मैं बड़ी आतुरता से प्रश्न का उत्तर पाने आई थी।

थोड़ा समझने की कोशिश करो। जब तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता, तो तुम्हें चोट किस कारण लगती है? उत्तर नहीं मिला, इसलिए; या तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला, इसलिए।

और बड़े मजे की बात है कि दस दिन वह यहां थी; दस दिन एक भी दिन ऐसा नहीं था, जिस दिन मैंने उसके प्रश्न का उत्तर न दिया हो। एक भी दिन ऐसा नहीं था, जिस दिन उसके प्रश्न का उत्तर न दिया हो। सीधा नहीं दिया। वह चाहती थी कि मैं उसके प्रश्न का उत्तर सीधा दूं ताकि वह पकड़ पाए कि उसके प्रश्न का उत्तर मिला। प्रश्न मूल्यवान नहीं है, अहंकार मूल्यवान है। दस दिन मैंने निरंतर उसके प्रश्न का उत्तर दिया है, बहुत बहानों से दिया है। लेकिन वह उसकी पकड़ में न आया। प्रश्न उसका था ही नहीं मूल्यवान। प्रश्न अगर मूल्यवान होता, अगर प्यास लगी होती, तो रोज जो मैं पानी बहाए जा रहा था, उसने पी लिया होता।

लेकिन नहीं, प्रश्न तो मूल्यवान था ही नहीं। प्यास तो लगी ही न थी। प्रश्न तो एक बौद्धिक खुजलाहट की तरह था; कोई प्यास नहीं थी। एक खुजलाहट थी दिमाग में। और चाहती थी कि सीधा, जब वह पूछे, जिस भाषा में पूछे, उसको मैं उत्तर दूं। गहरे में आकांक्षा थी, उसको उत्तर दूं र उसके अहंकार को ध्यान दूं र उसका अहंकार तृप्त हो।

वह भूल मैं नहीं कर सकता। यहां मैं अहंकार तोड्ने को बैठा हूं। यहां अहंकार सजाने और संवारने का काम नहीं चल रहा है। यहां तो जो मिटने को राजी हैं, उनके ही टिकने की सुविधा है। यहां जो किसी तरह अपने को बचा रहे हैं, वर्षा होती रहेगी और वे प्यासे लौट जाएंगे।

शिष्य का अर्थ ही है, जिसने गुरु के हाथों में छोड दिया। वह जवाब दे, तो ठीक, वह न दे, तो और भी ठीक। वह बुलाए, उसकी कृपा; वह हटाए, और बड़ी कृपा। गुरु तभी गुरु है, जब शिष्य ने इतना छोड दिया हो कि उसकी आज्ञा सब हो जाए। वह कह दे, चुप रहो जिंदगीभर, तो वह चुप रह जाए; फिर पूछे ही न। इसलिए श्रद्धा मूल्यवान है।

लेकिन जैसा कि कृष्ण ने कहा, श्रद्धा तीन तरह की होगी। इस संबध में भी समझ लेना जरूरी है।

जब तुम पूछते हो, तब भी तुम्हारी श्रद्धा तीन तरह की होती है। एक तरह का पूछने वाला आता है, उसकी श्रद्धा तामसी है। तामसी श्रद्धा का अर्थ है कि वह चाहता है, गुरु सब करके दे दे; उसे कुछ करना न पड़े। वह सोया रहे, घर्राटे ले, और गुरु ध्यान करे, समाधि लगाए। और जब भोजन पक जाए, तो वह चबाने तक को राजी नहीं है। वह चाहता है कि तुम्हीं चबाकर भी दे दो। कोई तरकीब अगर हो कि ध्यान—समाधि को इंट्रावेनस इंजेक्शन की तरह दिया जा सके, तो वह कहेगा, बस, तुम लगा दो इंजेक्शन, लटका दो बोतल समाधि की, भर दो मुझे समाधि से। अब मुझसे तो हाथ—पैर भी नहीं हिलाया जाता!

एक तामसी व्यक्ति की श्रद्धा है, जो गुरु के पास आता है कि गुरु सब करे। और वह समर्पण भी करता है, तो इसीलिए करता है कि लो, अब सम्हालो। और वह सोचता है कि बड़ी अनुकंपा कर रहा है गुरु पर कि समर्पण कर दिया।

तुम्हारे पास था क्या समर्पण करने को? तुम्हारा अंधकार! तुम्हारी नींद! तुम्हारा अज्ञान! तुम समर्पण क्या कर रहे हो?

मेरे पास लोग आते हैं उस वर्ग के। वे कहते हैं कि सब आप पर समर्पित, अब आप ही जानो, अब आप जो करो। और अगर मैं उनको कहूं कि उठकर जरा इधर बैठ जाओ, तो वे नाराज हो जाते हैं। अगर मैं उनको कहूं कि जरा जाओ, मकान के चार चक्कर लगा आओ, तो वे नाराज होते हैं। वे कहते हैं, सब आप पर ही छोड़ दिया, अब आप हमसे यह क्यों करवा रहे हैं? जब आप पर ही छोड़ दिया, तो आप ही चक्कर लगाओ। जब सभी छोड़ दिया, हम बचे ही नहीं……! मगर यह छोड़ने का अर्थ होता है? यह तामसी की श्रद्धा है। वह छोड़ता है इसलिए, ताकि करने की झंझट से बचे।

फिर राजसी की श्रद्धा है। वह भी कहता है, छोड़ दिया, लेकिन छोड़ नहीं पाता। वह जारी रखता है, वह अपना करना जारी रखता है। वह कहता है, सब छोड़ दिया। छोड़ नहीं पाता। क्योंकि वह छोड्कर खाली नहीं बैठ सकता। वह कहता है, कुछ बताओ। वह हमेशा चाहता है, कुछ करने को बताओ। अगर तुम उससे कहो कि कुछ करने का नहीं है, बस, वहीं संबंध छूट जाता है। ध्यान अक्रिया है, संबंध छूट गया।

तामसी मानने को राजी है कि ध्यान अक्रिया है। अक्रिया का मतलब है अकर्मण्यता, उसकी भाषा में। अक्रिया अकर्मण्यता नहीं है। अक्रिया तो क्रिया का सूक्ष्मतम रूप है, श्रेष्ठतम रूप है। वह तो नवनीत है किया का। वह तो सूक्ष्मतम क्रिया है। अक्रिया का मतलब न करना नहीं है। अक्रिया का मतलब है इस भांति करना कि करने और न करने में फर्क न रह जाए। इस भांति उठना कि उठने वाला भीतर न हो, कर्ता न रहे। इस भांति चलना, जैसे कि शून्य चल रहा हो। कहीं भनक न पड़े, आवाज न हो, पगध्वनि न आए।

अक्रिया का अर्थ है, करना तो सब, लेकिन कर्ता न रह जाए। तो फिर कौन क्रिया कर रहा है? फिर परमात्मा ही कर रहा है। जिस दिन तुम्हारा कर्ता मिट जाता है और परमात्मा ही तुम्हारे भीतर कर्ता बन जाता है। करते तुम बहुत हो, लेकिन अब क्रिया नहीं होती। क्योंकि तुम ही नहीं, तो क्रिया कैसी होगी! अब तुम बांस की पोगरी हो; अब तुम नहीं गाते, गीत उसके हैं, तुम सिर्फ मार्ग देते हो, बस इतना। लेकिन आलसी, तमस श्रद्धा से भरा आदमी बिलकुल राजी है अक्रिया के लिए। लेकिन अक्रिया का उसका अर्थ है, अकर्मण्यता। वह कहता है, बिलकुल ठीक। यह जमती है बात। हम लेटे जाते हैं। वह ध्यान का अर्थ समझता है, नींद। वह ध्यान का अर्थ समझता है, कुछ न करना।

अगर राजसी श्रद्धा वाले व्यक्ति को कहो, अक्रिया, तो वह उसे जमती नहीं। अगर समझ में भी आ जाए थोड़ी, तो वह कहता है, अक्रिया करने के लिए क्या करें? अक्रिया करने के लिए क्या करें? कुछ करना बताओ, ताकि अक्रिया सध जाए! अक्रिया का मतलब ही है न करना, कर्ता को छोड़ देना। वह कर्ता को नहीं छोड़ पाता।

मेरे पास उस तरह के लोग आते हैं। उनको अगर मैं कहता हूं तुम शांत बैठो। और राजसी व्यक्ति को मैं निरंतर कहता हूं कि तुम शांत बैठो, क्योंकि वही उसको रजस के बाहर ले जाएगा। तामसी को कहता हूं नाचो, कूदो, उछलो, कुछ क्रिया करो, ताकि तुम तमस के बाहर आओ। तुम जहां हो; वहां से बाहर ले आना है।

राजसी को मैं कहता हूं कुछ मत करो, शांत बैठ जाओ। वह कहता है, यह न चलेगा। थोडा आलंबन, मंत्र कर सकते हैं? वह कह रहा है कि शांत हम बैठ नहीं सकते। राम—राम, राम—राम, अगर इतना भी सहारा हो, तो चलेगा। हम इसी को पगलापन बना देंगे, भीतर राम—राम, राम—राम इतने जोर से करेंगे कि सारा राजस इसमें लग जाए। कुछ करने को बता दो, माला फेरे? गीता का पाठ करें? योगासन करें? उपवास करें? करने की भाषा उसको समझ में आती है। न करने की बात उसको समझ में नहीं आती।

सत्य की श्रद्धा वाला ही ठीक से समझ पाता है कि अक्रिया क्या है। अक्रिया अकर्मण्यता नहीं है। अक्रिया अकर्म भी नहीं है। अक्रिया अकर्ता भाव है। अक्रिया बड़ी सूक्ष्म क्रिया है, शुद्धतम किया है। इतनी शुद्ध है कि वहां कर्ता की मौजूदगी से अशुद्धि पैदा होती है, इसलिए कर्ता शून्य है।

जैसे हवाएं बहती, आकाश में बादल तिरते, ऐसा ही सत्व को उपलब्ध या सत्य की श्रद्धा का व्यक्ति तिरता है, बहता है, नदी बहती है, ऐसा बहता है। लेकिन कोई भाव नहीं होता कि मैं बह रहा हूं। सागर पहुंच जाता है, लेकिन कोई यात्रा नहीं होती। यह नहीं सोचता कि सागर जा रहा हूं।

तुमने गंगा को देखा, टाइम—टेबल हाथ में लिए, नक्शा फैलाए, कि सागर जा रही हूं! न कोई टाइम—टेबल है, न कोई नक्शा है। इसीलिए तो ठीक समय पर पहुंच जाती है। अगर टाइम—टेबल हो, उसी में वक्त लग जाएगा। और सब गड़बड़ हो जाएगा।

एक स्टेशन पर मैं बैठा था कोई आठ घंटे से, ट्रेन लेट होती गई, लेट होती गई। पहले दो घंटा लेट थी, फिर चार घंटा, फिर छ: घंटा। मैंने जाकर स्टेशन मास्टर को पूछा कि समझ में आता है, दो घंटा लेट थी। लेकिन क्या ट्रेन पीछे की तरफ जा रही है! चार घंटा हो गई, अब छ: घंटा, अब आठ घंटा—मामला क्या है? अगर ऐसे ही चला, तो आएगी कैसे? फिर मैंने उसको कहा कि फिर यह टाइम—टेबल छापने की जरूरत क्या है?

उसने कहा, साहब, अगर टाइम—टेबल न हो, तो कैसे पता चलेगा कि कितनी लेट है? यह बात मुझको भी जंची। टाइम—टेबल का एक ही उपयोग है, उससे पता चलता है कि गाड़ी कितनी लेट है।

गंगा पहुंच जाती है ,समय पर। न कोई नक्‍शा है, कहां से जाना है। कोई लिए जाता है।

अनंत तुम्हें लिए ही जा रहा है। तुम नाहक ही शोरगुल मचाते हो। उस शोरगुल में तुम्हें देर हो जाती है, उससे तुम्हारा अनंत से संबंध टूट जाता है।

अक्रिया का अर्थ है, मैं जाने वाला नहीं हूं; मैं तेरे हाथ में हूं तू ले जाने वाला है। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कुछ न करूंगा। इसका मतलब है, तू जो करवाएगा करूंगा। इसका यह अर्थ नहीं कि अब तू कर, हम आराम करेंगे। इसका अर्थ है कि अब जो तू करवाएगा, हम करेंगे। न हमारा अब कोई आराम है और न हमारा अब कोई कर्म है। जब तू आराम करवाएगा, तब आराम करेंगे। जब तू कर्म करवाएगा, तब कर्म करेंगे। लेकिन हर घड़ी तू ही होगा, हम न होंगे।

यह हमारे न हो जाने की कला ही शिष्य होने की कला है। और तब बिना कुछ किए बहुत होता है। तब बिना मांगे बहुत मिलता है। तब बिना भटके यात्रा पूरी हो जाती है। बिना चले मंजिल भी मिलती है। तुम नाहक ही चल रहे हो, उस श्रम से तुम व्यर्थ ही दबे जा रहे हो।

शिष्य का अर्थ है, छोड़ा जिसने गुरु के हाथों में कि अब वह जो करवाएगा, करेंगे। और यह श्रद्धा तीन तरह की होगी। अगर यह सत्व की श्रद्धा हो, तो ही क्रांति घटेगी। आलस्य की हो, चूक जाओगे। रजस की हो, चूक जाओगे।

पूरब से जो लोग आते हैं…… भारत से जो लोग मेरे पास आते हैं, उनकी श्रद्धा अक्सर तमस की होती है। पश्चिम से जो लोग आते हैं, उनकी श्रद्धा अक्सर रजस की होती है। क्योंकि पूरब में शिक्षा बड़ी प्राचीन है आलस्य की, भाग्य की। उसको हमने अपना तमस बना लिया है। बड़े अच्छे शब्दों के जाल में हमने अपने आलस्य को, अकर्मण्यता को छिपा लिया है।

पश्चिम की सारी शिक्षा है रजस की, दौड़ो, पाओ; घर बैठे कुछ न मिलेगा; करना पड़ेगा। वे दौड़ने में इतने कुशल हो गए हैं कि जब उन्हें मंजिल भी मिल जाती है, तो रुक नहीं पाते; तब वे आगे की मंजिल बना लेते हैं। वे दौडते ही रहते हैं।

पूरब सो रहा है, पश्चिम भाग रहा है। तामसी सोता है, राजसी भागता है। दोनों चूक जाते हैं। सोया हुआ इसलिए चूक जाता है कि वह मंजिल तक चलता ही नहीं है। और भागने वाला इसलिए चूक जाता है कि कई बार मंजिल पास आती है, लेकिन वह रुक नहीं सकता। वह जानता ही नहीं कि रुके कैसे। एक जानता नहीं कि चले कैसे, एक जानता नहीं कि रुके कैसे।

सत्य का अर्थ है, संतुलन। सत्य का अर्थ है, जानना कब चलें, जानना कब रुके। जानना कि कब जीवन में गति हो, और जानना कि कब जीवन में विश्राम हो। जिसने ठीक—ठीक विश्राम जाना और ठीक—ठीक कर्म जाना, वह सत्व को उपलब्ध हो जाता है, सम्यकत्व को उपलब्ध हो जाता है। सम्यक गति और सम्यक विश्राम, ठीक—ठीक जितना जरूरी है, बस उतना, उससे रत्तीभर ज्यादा नहीं। इस ठीक की पहचान का नाम ही विवेक है।

और तुम अपने भीतर जांच करना, अक्सर तुम पाओगे, अति है। या तो एक अति होती है, नहीं तो दूसरी अति होती है। निरति चाहिए अति से मुक्ति चाहिए। श्रम भी करो, विश्राम भी करो। दिन श्रम के लिए है, रात्रि विश्राम के लिए है। और दोनों के बीच अगर एक सामंजस्य सध गया, तो तुम पाओगे, तुम न दिन हो और न तुम रात हो; तुम तो दोनों का चैतन्य हो, दोनों का साक्षी— भाव हो। वही सत्य में अनुभव होगा।

तीसरा प्रश्न :

 

कृष्ण ने गोपियों को समझाने के लिए उद्धव को वृंदावन भेजा था, पर वे सफल क्यों न हो पाए?

हो ही न सकते थे, बात ही संभव न थी। उद्धव थे ज्ञानी, और ज्ञान कब प्रेमियों को समझा पाया है? कृष्ण ने मजाक किया होगा। ज्ञानी को भेजकर मजाक किया। ज्ञानी कभी प्रेमी को नहीं समझा सकता, क्योंकि ज्ञानी के पास होते हैं शब्द कोरे। पंडित थे उद्धव; बड़े पंडित होगे, कुशल होंगे समझाने में। लेकिन उन्होंने जिनको समझाया होगा तब तक, वे गोपियां नहीं थीं, जिनको प्रेम का रस लग गया था।

पंडित तभी तक तुम्हें सार्थक मालूम होगा, जब तक तुम्हें प्रेम का रस नहीं लगा। प्रेम के काटे को पंडित नहीं झाडू सकता। पंडित उन्हीं को झाड़ सकता है, जो प्रेम के काटे नहीं हैं। पंडित उनके काम का है, जिनकी प्यास ही नहीं जगी। पंडित उनको बडा महापंडित मालूम होता है, कितनी जानकारी लाता है! लेकिन जिसको प्यास जग गई, और प्रेम की भनक पड़ गई, और जिसके हृदय में कोई धुन बजने लगी अशांत की, पंडित कूड़ा—कर्कट है। उद्धव व्यर्थ थे।

मेरी जो समझ है, वह यह है कि उन्होंने उद्धव को गोपियों को समझाने भेजा ही नहीं था; उद्धव को समझने भेजा था गोपियों को। ऐसा किसी ने कभी कहा नहीं, लेकिन मेरी यही समझ है। वह उद्धव को मूर्ख बनाया, उसको अकल दी, कि तू जरा जा! यहां तू बड़ा पंडित हुआ जा रहा है। क्योंकि जिनको तू समझा रहा है, उनको प्रेम का रस ही नहीं लगा है, उनकी प्यास ही नहीं जगी है। तो तू ज्ञान की बातें कर, वे सिर हिलाते हैं। जब प्रेमी मिलेगा, तब तुझे अड़चन आएगी, तब तेरी ज्ञान की बातें जरा भी काम न आएंगी। जिसको प्यास लगी है, तुम पानी का शास्त्र समझाओगे, क्या फल होगा? वे कहेंगे, पानी चाहिए।

गोपियों ने कहा, कृष्ण चाहिए, तुम किसलिए आए हो? उद्धव बड़े बुद्ध बने। जाना ही नहीं था, अगर थोड़ी अकल होती। लेकिन पंडित में अकल होती ही नहीं। पंडित से ज्यादा बेअकल आदमी नहीं होता। जाना ही नहीं था, पहले ही हाथ जोड़ लेना था, कि गोपियों के? मैं जाने वाला नहीं। क्योंकि वहां हम व्यर्थ ही सिद्ध होंगे।

वे कृष्ण को मांगती थीं, उद्धव को नहीं। संदेशवाहक नहीं चाहिए; चिट्ठी—पत्री लाने से क्या होगा! बुलाया था प्रेमी को, आ गया पोस्टमैन! इनसे क्या लेना—देना है? उन्होंने उद्धव को बैरंग भेज दिया वापस।

वह उद्धव को समझाने के लिए ही कृष्ण ने खेल किया होगा। इतना तो पक्का था कि गोपियां नहीं समझाई जा सकतीं, कृष्ण तो समझते हैं कि नहीं समझाई जा सकतीं। कृष्ण से कम पर वे राजी न होंगी।

प्रेमी का अर्थ है, परमात्मा से कम पर जो राजी न होगा। तुम परमात्मा के संबंध में समझाओ, प्रेमी कहेगा, क्यों व्यर्थ की बातें कर रहे हो? परमात्मा के संबंध में नहीं जानना है उसे। उसे परमात्मा को जानना है।

परमात्मा के संबंध में वेद क्या कहते हैं, उपनिषद क्या कहते हैं, शास्त्रों में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है! वह कहेगा, बंद करो यह बकवास। मुझे परमात्मा चाहिए। परमात्मा मिल गया, तो मुझे वेद मिल गए। परमात्मा ही मेरा वेद है।

लेकिन पंडित कहता है, वेद भगवान! पंडित वेद को भगवान! बतलाता है। प्रेमी को भगवान ही वेद है। और बड़ा फर्क है; जमीन—आसमान का फर्क है। तुम मांगते हो भगवान को, वह ले आता है वेद की पोथियों को। वह कहता है, सब इसमें लिखा है।

यह ऐसे ही है, जैसे कोई भूखा मर रहा हो और तुम जाकर पाक—शास्त्र का ग्रंथ सामने रख दो और कहो कि सब तरह के भोज—मिष्ठान्न, सब इसमें लिखे हैं। वह तुम्हारे पाक—शास्त्र को उठाकर फेंक देगा भूखा आदमी। ही, भरा पेट होगा, तो विश्राम से बैठकर पाक—शास्त्र को पड़ेगा। लेकिन भूखे को पाक—शास्त्र का क्या अर्थ है?

जिसको परमात्मा की भूख लग गई है, वेद व्यर्थ है, उपनिषद बकवास है, गीता असार है। वह परमात्मा को चाहता है; उससे कम पर वह राजी नहीं है। और गोपियां न केवल परमात्मा को चाहती थीं, बल्कि उनको परमात्मा का स्वाद भी लग गया था, वे परमात्मा को जान भी चुकी थीं।

हां, जिसने न जाना हो परमात्मा को, उसको प्यास भी लगी हो, तो शायद थोड़ी—बहुत देर पंडित उसको भरमा ले। क्योंकि उसके पास कोई कसौटी तो नहीं है अनुभव की। इसलिए अज्ञानी को पंडित भरमा लेता है। लेकिन जिसको ध्यान की जरा—सी भी भनक आ गई, फिर पंडित उसको नहीं भरमा सकता।

ये गोपिया कृष्ण के साथ नाच चुकी थीं; वह उनकी स्मृति में संजोया हुआ मंदिर था। वह स्मृति भूलती नहीं थी, बिसरती नहीं थी। वह तो निशि—वासर, दिन—रात भीतर कौंधती रहती थी। एक दफा जिसने चख लिया कृष्ण का साथ, नाच लिया कृष्ण के साथ वृक्षों के तले पूर्णिमा की रातों में, अब इसे पंडित धोखा नहीं दे सकता, भरमा नहीं सकता।

उद्धव खूब समझाए होंगे, ज्ञान की बातें की होंगी। गोपियों ने उनकी जरा भी न सुनी। बल्कि गोपिया नाराज हुईं कि कृष्ण ने यह कैसा मजाक किया! यह बरदाश्त के बाहर है। और प्रेमी परमात्मा से नाराज हो सकता है, सिर्फ प्रेमी! पंडित कभी नहीं नाराज हो सकता। पंडित तो डरता है। प्रेमी थोड़े ही डरता है, प्रेम तो अभय है। गोपियां नाराज हुईं। यह मजाक बरदाश्त के बाहर है। इस उद्धव को किसलिए भेजा? इससे क्या लेना—देना है? आना हो, कृष्ण आ जाएं; कम से कम पंडितों को तो न भेजें। परमात्मा चाहिए, शास्त्र नहीं; ज्ञान नहीं, अनुभव चाहिए। गोपिया बहुत नाराज हुईं। प्रेमी नाराज हो सकते हैं।

मैंने यहूदी फकीर झुसिया का जीवन पढ़ा है। वह प्रार्थना करने जाता—बड़ा फकीर था; बड़े उसके भक्त थे, अनूठा आदमी था—वह जब यहूदी मंदिर में प्रार्थना करता, तो कभी—कभी लोगों से कह देता, अब तुम बाहर हो जाओ, सुनने वालों से। इस परमात्मा के बच्चे को ठीक करना ही पड़ेगा। तुम बाहर हो जाओ। एक सीमा है बरदाश्त की।

लोग बाहर हो जाते, तब उसका झगड़ा शुरू होता। वह परमात्मा से सीधी—सीधी बातें करता। झगड़ा ऐसा होता कि मौका आ जाए, तो मार—पीट हो जाए। अगर गॉव में कोई भूखा मर रहा है, तो वह गुस्से में आ जाता। वह कहता कि तेरे रहते यह कैसे हो रहा है? तेरा प्रेमी भूखा मर रहा है, यह हम बरदाश्त नहीं कर सकते। हम तेरी सब पूजा—पत्री बंद कर देंगे।

कहते हैं, झुसिया जैसा आदमी यहूदी परंपरा में नहीं हुआ। कैसा उसका गहन प्रेम रहा होगा कि परमात्मा से लड़ने को राजी है। कलह हो जाए; कई दिन तक मंदिर ही न जाए फिर वह। कि पड़ा रहने दो उसको वहीं; कोई पूजा मत करो, कोई प्रार्थना मत करो। जब हमारी नहीं सुनी जा रही है, हम भी क्यों उसकी सुनें!

झुसिया ने कहा है अपनी प्रार्थनाओं में कि देख, तू एक बात ठीक से समझ ले; हमें तेरी जरूरत है, वह पक्का; तुझे भी हमारी जरूरत है! इसलिए तू यह मत समझ कि तू हम पर कोई अनुग्रह कर रहा है। हमारे बिना तू भगवान न होगा। भक्त के बिना भगवान कैसे होगा? माना कि हम भक्त न होंगे, वह भी ठीक। लेकिन तू भी भगवान न होगा। जितनी हमें तेरी जरूरत है, उतनी तुझे हमारी जरूरत है। इसका सदा खयाल रख; इसको भूल मत जा।

प्रेमी लड़ सकता है, प्रेमी ही लड़ सकता है, भय नहीं है। पंडित तो डरता है, कंपता है। पंडित तो देखता है, कहीं क्रियाकांड में कोई भूल न हो जाए; कि शास्त्र में जैसी विधि लिखी है, वैसी पूरी होनी चाहिए। उसमें कहीं भूल—चूक न हो जाए। पता नहीं परमात्मा नाराज हो जाए।

इसने परमात्मा को जाना नहीं। परमात्मा कहीं नाराज होता है? यह पहचाना ही नहीं। यह मूढ़ है। इसे पता ही नहीं कि परमात्मा नाराज होता ही नहीं। नाराज होने जैसी घटना परमात्मा में घटती ही नहीं। और उस घड़ी में, जब कोई झुसिया जैसा भक्त परमात्मा को कहता होगा कि बंद कर देंगे तेरी प्रार्थना, तो परमात्मा नाचता होगा कि जरूर कोई प्रेमी मौजूद है।

गोपियां बहुत नाराज हुईं उद्धव पर। और उन्होंने उनको बैरंग ही भेज दिया कि तुम जाओ, तुम्हें किसने बुलाया? और वे खूब हंसी उद्धव पर, उनकी ज्ञान की बातों पर। पंडित खूब बुद्ध बना होगा। पंडित सदा ही प्रेमी के पास आकर मुश्किल में पड़ जाएगा। यह कथा बड़ी प्रतीकात्मक है।

पंडित कभी भी सफल नहीं हो सकता प्रेमी के सामने। अगर वह सफल होता दिखाई पड़ता है, तो उसका कुल कारण इतना है कि प्रेमी मौजूद नहीं है; परमात्मा को कोई खोज नहीं रहा है। इसलिए पंडित तुम्हें सब तरफ सिंहासनों पर बैठे दिखाई पड़ते हैं।

तुम जिस दिन परमात्मा को खोजोगे, उसी दिन पंडित सिंहासनों से नीचे उतर जाएंगे; उनकी कोई जगह नहीं है। तब तो तुम उसे सिंहासन पर विराजमान करोगे, जो ज्ञान नहीं, अनुभव दे सकता है; जो तुम्हें परमात्मा के संबंध में नहीं बताता, जो तुम्हें परमात्मा बता सकता है। उसको ही हमने गुरु कहा है।

इसलिए कबीर कहते हैं, गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय। दोनों सामने खड़े हैं। बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं कबीर, किसके पैर लगै? क्योंकि अगर परमात्मा के पैर लगै, उचित न होगा। अगर गुरु के पैर लग, तो भी अड़चन मालूम पड़ती है। परमात्मा सामने खड़े थे, पहले मैं गुरु के पैर लगा! पद बड़ा मधुर है और उसके दो अर्थ हो सकते हैं।

गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपकी, जो गोविंद दियो बताय।।

इसके दो अर्थ संभव हैं। एक अर्थ तो यह है कि शिष्य को अड़चन में पड़ा देखकर गुरु ने गोविंद की तरफ इशारा कर दिया कि तू गोविंद के पैर लग।

यह अर्थ से मैं राजी नहीं। यह मुझे जंचता नहीं। मुझे तो दूसरा अर्थ जंचता है। वह दूसरा अर्थ कभी किया नहीं गया। वह दूसरा अर्थ मुझे यह लगता है कि—

गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागू पाय।

मुश्किल में पड़ गए हैं कबीर। किसके पैर पडूं? दोनों सामने खड़े हैं। तब वे गुरु के पैर पर गिर पड़े, क्योंकि उन्होंने जाना, सोचा—

बलिहारी गुरु आपकी, जो गोविंद दियो बताय।।। तुमने ही गोविंद बताया, नहीं तो गोविंद को हम देख ही कैसे पाते! इसलिए तुम्हारे पैर पहले छू लेते हैं।

गुरु का अर्थ है, जिसने जाना हो और जो तुम्हें जना दे। जिसने देखा हो और जो तुम्हें दिखा दे। जिसने चखा हो और जो तुम्हें चखा दे। शब्द यह न कर पाएंगे।

गुरु भी शब्दों का उपयोग करता है, लेकिन निशब्द की तरफ ले जाने के लिए; शास्त्र का सहारा लेता है, तुम्हें कभी बेसहारा कर देने के लिए; समझाता है, तुम्हारे मन को उस घड़ी में ले जाने के लिए, जहां सब समझ—नासमझ छूट जाती है। इसलिए गुरु के लिए शब्द अंत नहीं है, केवल साधन है। पंडित के लिए शब्द सब कुछ है, साधन भी, साध्य भी, उसके पार कुछ भी नहीं है।

उद्धव हारे। पंडित सदा हारता रहा है। और कृष्ण ने बिलकुल ठीक ही किया उद्धव को भेजकर, जो फजीहत करवाई। उससे उद्धव को कुछ समझ आ गई हो तो अच्छा, नहीं तो अभी तक भटक रहे होंगे।

अब सूत्र:

हे भारत, कृष्ण ने कहा, सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है। उसमें सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं और राजस पुरुष यक्ष और राक्षस को तथा अन्य जो तामस पुरुष हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।

नुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है…….।

तुम्हारा अंतःकरण तमस से भरा हो, तो तुम्हारी श्रद्धा सात्विक नहीं हो सकती। क्योंकि श्रद्धा तो तुममें उगती है, तुम्हारे अंतःकरण की भूमि में ही वह बीज टूटता है, तुम्हारी भूमि ही उसे रसदान देती है, पुष्टि देती है, वह पौधा तुम्हारा है। तो तुम्हारा अंतःकरण कैसा

है, वैसी ही तुम्हारी श्रद्धा होगी। अपने अंतःकरण की ठीक—ठीक पहचान तुम्हारी श्रद्धा की पहचान बन जाएगी।

इस सूत्र में कृष्ण साधक के लिए बड़ी महत्वपूर्ण बातें कह रहे हैं। एक तो यह जानना जरूरी है कि तुम्हारा अंतःकरण कैसी दशा में है। ऐसा मत सोचना कि जो लोग तामसिक हैं, वे बिलकुल। तामसिक हैं। शुद्ध तामसिक व्यक्ति हो ही नहीं सकता। शुद्ध। तामसिक वृत्ति का व्यक्ति हो ही नहीं सकता। क्योंकि इन तीन के जोड़ के बिना कोई भी नहीं हो सकता।

इसलिए जब हम कहते हैं तामसी, तो हमारा मतलब सापेक्ष होता है, रिलेटिव होता है। हमारा मतलब होता है कि तामसी ज्यादा, राजसी कम, सात्विक कम। तमस का अनुपात ज्यादा है, इतना ही अर्थ होता है। कोई व्यक्ति पूर्ण तामसी नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो टूट जाएगा। होने के लिए तीन ही आवश्यक हैं। इसलिए कोई व्यक्ति अगर तामसी होता है, तो समझो सत्तर

परसेंट तामसी है, उनतीस परसेंट राजसी, एक परसेंट सात्विक। पर एक परसेंट सात्विक भी होना जरूरी है। नहीं तो, जैसे तीन पैर की तिपाई में से एक पैर निकाल लो, तिपाई फौरन गिर जाए; ऐसा व्यक्ति जी नहीं सकता, जिसका एक पैर गिर गया हो।

तुम तिपाई हो, वे तीनों गुण चाहिए; मात्रा कम—ज्यादा हो सकती है। यह हो सकता है कि एक टल बिलकुल पतली हो तिपाई की, धागे जैसी हो, मगर उतनी जरूरी है। एक टांग बहुत मोटी हो, हाथी—पांव की बीमारी हो गई हो, यह हो सकता है। लेकिन टांगें तीन ही होंगी। तुम्हारी मुर्गी तीन टांग से ही चलती है, उससे कम में न चलेगा।

तामसिक वृत्ति का व्यक्ति गहन तमस से भरा होता है, लेकिन दूसरे तत्व भी मौजूद होते हैं।

यह पहली बात समझ लेना कि कोई पूर्ण तामसी नहीं है, कोई पूर्ण राजसी नहीं है, कोई पूर्ण सात्विक नहीं है। शुद्धतम व्यक्ति में भी, बुद्ध में भी, जब तक उनकी देह नहीं छूट जाती, तमस की टांग रहेगी। पतली होती जाएगी; उलटा हो जाएगा अनुपात, तुम्हारी तमस की टांग हाथी—पांव है, बुद्ध की तमस की टल, समझो मच्छड़ की टांग है। पर रहेगी; उतना अनुपात रहेगा। जब तक शरीर है, तब तक तीनों रहेंगे।

इसलिए बुद्ध ने निर्वाण की दो अवस्थाएं कही हैं। पहला निर्वाण, जब समाधि उपलब्ध होती है, लेकिन शरीर बचता है। वह पूर्ण निर्वाण नहीं है। जीवनमुक्त हो गया व्यक्ति, जंजीरें टूट गईं, लेकिन कारागृह मौजूद है। कैदी न रहा, जंजीरें नहीं हैं हाथ—पैर पर, यह भी हो सकता है कि जेलर प्रसन्न हो गया हो इस व्यक्ति से और इसने उसको कैदियों के ऊपर सुपरिनटेंडेंट या सुपरवाइजर बना दिया हो। बाकी है कारागृह के भीतर; अभी दीवालें मौजूद हैं। इतना प्रसन्न हो गया हो जेलर इसकी सात्विकता से कि इसको बाहर— भीतर आने की भी सुविधा हो गई हो; सब्जी खरीदने बाहर चला जाता हो, इसके भागने का डर न रहा हो। लेकिन इसे भी लौट आना पड़ता है। कभी—कभी घर के लोगों से भी मिल आता हो, गपशप भी कर आता हो, लेकिन फिर भी लौट आना पड़ता है।

अभी इसकी नाव भी शरीर के किनारे से’ ही बंधी रहेगी। इसकी स्वतंत्रता बढ़ गई, बहुत बढ़ गई। यह करीब—करीब ऐसा स्वतंत्र हो गया है, जैसा कि कारागृह के बाहर के लोग हैं; लेकिन करीब—करीब, एप्रॉक्सिमेट। जरा—सी बात तो अभी अटकी है, अभी शरीर से बंधा है। इसको हम जीवनमुक्त कहते हैं, क्योंकि यह निन्यानबे प्रतिशत मुक्त है। कुछ बचा नहीं, सब हो गया है। सिर्फ शरीर के गिरने की बात है।

इसलिए बुद्ध ने कहा, जब शरीर गिर जाता है, तब महापरिनिर्वाण, तब महासमाधि लगती है। जीवनमुक्त तब मोक्ष को उपलब्ध हो जाता, तब मुक्तत्व उसका स्वभाव हो जाता। अब दीवाल भी गिर गई, अब कारागृह न रहा; जंजीरें भी टूट गईं।

रजस से भरे व्यक्ति में भी तमस होता है, सत्य होता है। तीनों सभी में होते हैं। और तीनों सभी में होते हैं, इससे ही क्रांति की संभावना है। नहीं तो मुश्किल हो जाए। अगर कोई व्यक्ति पूरा ही तामसी हो, सौ प्रतिशत, चौबीस कैरेट तामसी हो, तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता, कोई उपाय न रहा। यह तो करीब—करीब लाश की तरह पड़ा रहेगा, कोमा में रहेगा, बेहोश रहेगा, क्योंकि होश के लिए भी थोड़ा रजस चाहिए। यह तो हाथ—पैर भी न हिलाएगा; यह तो आख भी न खोलेगा; इसका तो जीना भी जीना न होगा, यह तो मुरदे की भांति होगा, जीते जी मुरदा होगा। नहीं, इसकी फिर कोई संभावना क्रांति की न रह जाएगी।

दूसरे तत्व मौजूद हैं, उनसे ही क्रांति का द्वार खुला है, उन्हीं के सहारे एक से दूसरे में जाया जा सकता है। जैसे तुम अंधेरे कमरे में बैठे हो, लेकिन छपरैल से, खपड़ों की संध से एक छोटी—सी सूरज की किरण भीतर आ रही है। सब घना अंधकार है, पर एक छोटी किरण अंधकार में उतर रही है। वही द्वार है। तुम उसी किरण के सहारे चाहो तो सूरज तक पहुंच जाओगे, चाहे वह दस करोड़ मील दूर हो। तुम उसी का किरण का अगर मार्ग पकड़ लो, तो तुम सूरज के स्रोत तक पहुंच जाओगे। वह गहन अंधकार पीछे छूट सकता है, यात्रा संभव है। इसलिए तीनों तत्व सभी में हैं, पहली बात समझ लेनी जरूरी है।

दूसरी बात समझ लेनी’ जरूरी है कि तीनों तत्वों का अनुपात भी सदा थिर नहीं रहता। रात तमस बढ़ जाता है, दिन में रजस बढ़ जाता, संध्याकाल में सत्य बढ़ जाता है। इसलिए हिंदुओं ने संध्याकाल को प्रार्थना का क्षण समझा।

सुबह, जब रात जा चुकी और सूरज अभी नहीं उगा, वही ब्रह्ममुहूर्त है। उसको ब्रह्ममुहूर्त कहने का कारण है भीतर की गुण—व्यवस्था से। रात जा चुकी, पृथ्वी जाग गई, पक्षी बोलने लगे, वृक्ष उठ आए, लोग नींद के बाहर आने लगे, सारी पृथ्वी पर तमस का जाल सिकुड़ने लगा। सूरज करीब है क्षितिज के, जल्दी ही उसका किरण—जाल फैल जाएगा, जल्दी ही सब उठ बैठेगा, रजस पैदा होगा। सूरज के उगते ही काम— धाम की दुनिया शुरू होगी। अभी सूरज नहीं उगा, अभी रजस उगने को है। अभी रात गई, तमस जा चुका, मध्य की छोटी—सी घड़ी है, वह संध्या है।

संध्या का अर्थ है, बीच का काल, मध्य की घड़ी। उस मध्य की घड़ी में सत्व का प्रमाण ज्यादा होता है। वह दोनों के बीच की घड़ी है। इसलिए उस क्षण को ध्यान में लगाना चाहिए। क्योंकि अगर ध्यान सत्व से निर्मित हो, तो दूरगामी होगा। उस सत्व को अगर तुम ध्यान बनाओ, तो धीरे— धीरे तुममें सत्व बढ़ता जाएगा।

ऐसे ही सांझ को सूरज डूब गया, रजस का व्यापार बंद होने लगा, सूर्य ने समेट ली अपनी दुकान, द्वार—दरवाजे बंद करने लगा। रात आने को है, आती ही है, उसकी पहली पगध्वनिया सुनाई पड़ने लगीं। मध्य का छोटा—सा काल है, वह संध्या है। दुनिया के सभी धर्मों ने मध्य के काल चुने हैं। क्योंकि उस मध्य के काल में, जब दो तत्वों के बीच की थोड़ी—सी संधि होती है, तो सत्य का क्षण महत्वपूर्ण होता है।

तुम्हारे भीतर हो सकता है पचास प्रतिशत या साठ प्रतिशत तमस हो, तीस या चालीस प्रतिशत रजस हो, एक प्रतिशत सत्व हो, तो उस मध्यकाल में वह एक प्रतिशत प्रमुख होता है। और उसका अगर तुम उपयोग कर लो, तो ब्रह्ममुहूर्त का तुमने उपयोग कर लिया। इसलिए हिंदुओं के लिए तो प्रार्थना शब्द संध्या का पर्यायवाची हो गया। वे जब प्रार्थना करते हैं, तो वे कहते हैं, संध्या कर रहे हैं। वे भूल गए हैं कि उसका अर्थ क्या था!

इस्लाम में भी नियम है, सूरज उगने के समय, सूरज डूबने के समय, सूरज जब मध्य आकाश में हो, तब—ऐसी सूरज की पांच घड़ियां उन्होंने चुनी हैं। लेकिन दो घड़ियां वह। भी मौजूद हैं, सुबह

और सांझ। उन घड़ियों में सत्व तेज होता है। रात्रि तमस तेज हो जाता है, दिन रजस तेज हो जाता है।

तो तुम्हारे भीतर चौबीस घंटे अनुपात एक—सा नहीं रहता। इसलिए तो भिखारी सुबह—सुबह तुमसे भीख मांगने आते हैं। उस वक्त सत्व की थोड़ी—सी छाया होती है; तुम शायद दे सको। भिखारी दिनभर के बाद भीख मांगने नहीं आते। क्योंकि वे जानते हैं, रजस से थका आदमी चिड़चिड़ा हो जाता है, नाराज होता है। भिखारी को देखकर ही गुस्से में भर जाएगा; देने की जगह छीनने का मन होगा।

सुबह—सुबह तुम उठे हो और एक भिखारी द्वार पर आ गया है, इनकार करना जरा मुश्किल होता है। तुम्हीं हो, सांझ को भी तुम्हीं रहोगे, दोपहर भी तुम्हीं रहोगे। लेकिन सुबह जरा इनकार अटकता है, एकदम से कह देना नहीं, संभव नहीं मालूम होता। भीतर से कोई कहता है, कुछ दे दो। सत्व प्रगाढ़ है।

जो आदमी समझदार है, वह अपनी जीवन—विधि को इस तरह से बनाएगा कि वह इन गुणों का ठीक—ठीक उपयोग कर ले। अगर तुम्हें कोई शुभ कार्य करना हो, तो संध्याकाल चुनना; तो तुम्हारी गति ज्यादा हो सकेगी। अगर कोई अशुभ कार्य चुनना हो, तो मध्य—रात्रि चुनना, तो तुम्हारी गति ज्यादा हो सकेगी। हत्यारे, चोर, सब मध्य—रात्रि चुनते हैं।

सुबह भोर के क्षण में तो चोर को भी चोरी करना मुश्किल हो जाएगा, हत्यारे को भी हत्या करना मुश्किल हो जाएगा, उसकी जीवन— धारा भिन्न होगी। भरी दोपहर में सब दफ्तर और दुकानें खुलती हैं दुनिया की; ग्यारह बजे, वह रजस का व्यापार है। बाजार धूम में होता है, जब सूरज आकाश में होता है। फिर सब क्षीण हो जाता है। रात्रि लोग क्लबघरों में इकट्ठे होते हैं, शराब पीने, नाचने। वेश्याओं के घर—द्वार पर दस्तक देते हैं। तमस प्रगाढ़ है।

तुम कभी—कभी हैरान होओगे, सुबह जिसको तुमने भोर में प्रार्थना करते देखा, दोपहर में बाजार में तुम लोगों को लूटते देखोगे उसी आदमी को, उसी आदमी को रात तुम वेश्याघर में शराब पीते पाओगे। तुम बड़े हैरान होओगे कि बात क्या है! यह आदमी वही है?

तुम सोचोगे, इसकी प्रार्थना झूठी है। जरूरी नहीं। प्रार्थना सही रही हो। तुम सोचोगे, यह दुकान पर जो तिलक—चंदन लगाकर बैठता है, वह सब बकवास है। जब इसने तिलक—चंदन लगाया था, तब तिलक—चंदन का भाव रहा हो, झूठ मत समझना। तिलक—चंदन हटा नहीं, क्योंकि तिलक—चंदन तो चमड़ी पर लगा है। भीतर के तमस, रजस, सत्य का रूपांतरण हो गया।

तो दुकान पर यह आदमी बैठकर हरि बोल, हरि बोल भी करता रहता है और जेब भी काटता रहता है। जरूरी नहीं कि इसका हरि बोल सदा ही झूठ होता हो; कभी—कभी किन्हीं क्षणों में बिलकुल सच होता है। और यही आदमी रात वेश्याघर चला जाता है।

तुम भरोसा नहीं कर पाते, क्योंकि तुम्हें पता नहीं है, आदमी एक नहीं है, तीन है। हर आदमी के भीतर कम से कम तीन आदमी हैं। तेरह होंगे, वह दूसरी बात है। मगर तीन तो हैं ही। कहावत है, जब कोई आदमी बिलकुल भ्रष्ट हो जाता है, तो लोग कहते हैं, तीन तेरह हो गए। तीन तो हैं ही, लेकिन अब तेरह हो गए; अब मामला ही खराब हो गया, अब सब खंड—खंड हो गया।

ठीक से अगर तुम अपने जीवन का निरीक्षण करो, तो तुम बहुत—सी बातें समझ पाओगे। प्रत्येक समझपूर्वक जीने वाले आदमी को अपने जीवन की निरंतर निरीक्षणा करते रहनी चाहिए और देखना चाहिए, किन क्षणों में शुभ प्रगाढ़ होता है। उन क्षणों का शुभ के लिए उपयोग करो। और उन क्षणों को जितना बढ़ा सको, बढ़ाओ। तुम्हारी भोर जितनी बड़ी हो जाए, उतना अच्छा। तुम्हारी संध्या जितनी लंबी हो जाए उतना अच्छा। और जो तुमने शुभ क्षण में पाया है, उसकी सुवास को दूसरे क्षणों में भी खींचने की कोशिश करो। तो ही रूपांतरण होगा; नहीं तो रूपांतरण न होगा।

फिर दिन के चौबीस घंटे में ही यह बदलाहट होती हैं, ऐसा नहीं; जीवन की हर घड़ी में! बच्चे में सत्व का अनुपात ज्यादा होता है, क्योंकि वह जीवन की भोर है। जवान में रज का अनुपात ज्यादा होता है, क्योंकि वह जीवन की आपा— धापी, बाजार है। बूढ़े में रजस और सत्य दोनों क्षीण हो जाते हैं, तमस बढ़ जाता है; क्योंकि वह मौत का आगमन है। मौत यानी पूर्ण तमस में गिर जाना।

अब यह बड़े मजे की बात है, लेकिन सभी बूढ़े दूसरों को शिक्षा देते हैं। वे बच्चों को भी चलाने की कोशिश करते हैं। होना उलटा चाहिए कि के बच्चों के पीछे चलें। सांझ भोर का पीछा करे। इसलिए तो दुनिया उलटी है। यहां नाव नदी पर नहीं है, यहां नदी नाव पर है। के बच्चों को चला रहे हैं; गलत हो रहा है। सांझ सुबह को चलाए, गलत हो जाएगा। बुढो को बच्चों का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि बच्चे निर्दोष हैं।

जीसस ने कहा है, जो बच्चों की तरह भोले— भाले होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।

का आदमी तो चालाक हो जाता है। हो ही जाएगा, जीवनभर का अनुभव, जीवनभर की दाव—पेंच, कलाएं, राजनीति, चालबाजियां—धोखे जो दिए, धोखे जो खाए—सब का अनुभव। का आदमी निर्दोष हो, बड़ा मुश्किल है, हो जाए, तो संत।

बच्चा निर्दोष होता है, लेकिन संत नहीं। सभी बच्चे निर्दोष होते हैं, वह स्वाभाविक है। वह कोई गुण नहीं है। क्योंकि बच्चों का संतत्व सब खो जाएगा। चौदह वर्ष के होंगे, कामवासना जगेगी, रजस पैदा होगा। सब भूल जाएंगे, सब निर्दोषता बच्चों की खो जाएगी।

तुमने कभी सोचा, सभी बच्चे जब पैदा होते हैं, तो सुंदर मालूम होते हैं। कोई बच्चा कुरूप नहीं होता। और सभी लोग बड़े होते—होते कुरूप हो जाते हैं। शायद ही कोई आदमी सुंदर बचता है। क्या मामला है?

बच्चे सत्व को उपलब्ध होते हैं। अभी आ रहे हैं सीधे परमात्मा के घर से। अभी वह सुवास उनके शरीर को घेरे है। अभी—अभी पैदा हुए भोर का क्षण है, ब्रह्ममुहूर्त। बच्चे यानी ब्रह्ममुहूर्त। अभी प्रार्थना गंज रही है; अभी मंदिर की घंटियां बज रही हैं; अभी तिलक ताजा है, अभी हाथों में लगे चंदन में गंध है; अभी—अभी आते हैं मूल स्रोत से, उत्स से। खो जाएंगे कल।

अगर दुनिया कभी समझदार होगी, तो बूढ़े बच्चों का अनुसरण करेंगे, उनसे सीखेंगे। उनका बालपन संतत्व की कीमिया है। और जब कोई का आदमी बच्चे जैसा हो जाता है, तो इस जगत में अनूठी घटना घटती है। जब कोई का आदमी बच्चे जैसा हो जाता है, तो इस जगत में अपूर्व सौंदर्य घटता है।

ऐसे के आदमी के सौंदर्य की तुम कोई तुलना नहीं कर सकते, कोई जवान आदमी इतना सुंदर नहीं हो सकता। क्योंकि जवानी में बड़ा तनाव है, बेचैनी है, दौड़ है, उपद्रव है, आपा— धापी है। कैसे कोई जवान इतना सुंदर हो सकता है? तूफान है, आधी है। बुढ़ापे में सब शांत हो गया। आधी जा चुकी; तूफान विदा हो गया। तूफान के पीछे के क्षण हैं, जब सब शांत हो जाता है और एक सन्नाटा घेर लेता है।

अगर बूढ़े आदमी ने बचपन को फिर से पुनरुज्जीवित कर लिया, तो वह संत हो जाता है। नहीं तो वह महान तामसी हो जाता है। इसलिए के आदमी बहुत तामसी हो जाते हैं। उनका जीवन करीब—करीब मुरदे जैसा हो जाता है। चिड़चिड़े, नाराज, हर चीज उनके लिए की जाए, कुछ करने को तैयार नहीं! हर चीज की अपेक्षा और हर चीज से शिकायत। कोई चीज तृप्त नहीं करती। सारा जगत असार मालूम पड़ता है; व्यर्थ मालूम पड़ता है। और आकांक्षा मरती नहीं, महत्वाकांक्षा जगी रहती है। मल कायम रहती है। करना कुछ नहीं है, मल भारी है।

तो जीवन में भी घड़ियां बदलती हैं, जब अनुपात बदल जाता है। और जीवन का ही सवाल नहीं है। अनुपात रोज भी बदल जाता है। परिस्थिति भी अनुपात को बदल देती है।

तुम दोपहर बड़ी दौड़ में थे। अचानक एक शुभ—संवाद किसी ने दे दिया, तत्‍क्षण भीतर की मात्रा में भेद हो जाता है। किसी ने शुभ—संवाद दे दिया, तुम्हारी दौड़ ठिठक गई; किसी ने खुशी की एक खबर दे दी, तुम प्रसन्न हो गए, तुम्हारे भीतर की मात्रा बदल गई। तुम भोर में बड़े सात्विक थे और किसी ने खबर दी कि कोई मर गया, उदासी छा गई, तमस ने घेर लिया।

तो प्रति क्षण परिस्थिति भी बदलती है। लेकिन ये सारी बातें तुम्हें अपने भीतर ठीक से स्वाध्याय करनी चाहिए, ताकि तुम इनका ठीक—ठीक उपयोग कर सको। और जो व्यक्ति अपने अनुपात को न तो परिस्थिति से प्रभावित होने देता है, न समय की धारा से प्रभावित होने देता है, न जीवन की अवस्थाओं से प्रभावित होने देता है, वही व्यक्ति साधक है।

इसलिए साधना बड़ी कठिन मालूम पड़ती है। जो भरी दोपहरी में ऐसा होता है, जैसे ब्रह्ममुहूर्त में कोई हो, जो बुढ़ापे में ऐसा होता है, जैसे बचपन में कोई हो, तब साधना का सूत्र शुरू होता है। पहले ठीक से निरीक्षण करो। फिर निरीक्षण को ठीक से सोचकर अपने जीवन की गति को बदलो। और गति बदलनी है इस भांति कि अति न हो जाए। तीनों की मात्रा समान हो जाए।

एक तिहाई हो तमस, वह जरूरी है। इसलिए चौबीस घंटे में आठ घंटे सोना जरूरी है, वह एक तिहाई तमस है। उससे कम सोओगे, नुकसान होगा, उससे ज्यादा सोओगे, नुकसान होगा। आठ घंटा सोना जरूरी है। आठ घंटा जीवन की दौड़—धूप जरूरी है। रजस, भागो—दौड़ो; महत्वाकांक्षा का विस्तार है। उसको भी अनुभव करो। क्योंकि गैर अनुभव के गुजर गए, तो पकोगे नहीं, पार न होओगे, अतिक्रमण न होगा। आठ घंटा व्यापार, व्यवसाय, दौड़— धूप। आठ घंटा सत्व—प्रार्थना, पूजा, ध्यान। ऐसा एक तिहाई, एक तिहाई जीवन को बांट दो।

अगर तुम्हारा सारा समय एक तिहाई, एक तिहाई की मात्रा में बंट जाए, तुम धीरे— धीरे पाओगे, यह अनुपात घिर हो जाता है। तब न तो रात में यह बदलता, न दिन में बदलता, न जवानी में, न बुढ़ापे में। यह अनुपात धीरे— धीरे, धीरे— धीरे घिर हो जाता है। इस थिरता का नाम ही सत्व की उपलब्धि है। क्योंकि जब तीनों समान होते हैं, तब तुम्हारे भीतर एक संगीत बजने लगता है अनजाना, जिसे तुमने पहले कभी नहीं सुना।

इसलिए मैं कहता हूं हिमालय मत भागना, क्योंकि वह कोशिश है चौबीस घंटे सत्व में जीने की। वह भी अतिशय है। इसलिए मैं संन्यासी को भी कहता हूं, घर में रहना। आठ घंटा संन्यासी, आठ घंटा दुकानदार। आठ घंटा निद्रा में पडे हैं, न संन्यासी, न दुकानदार। विश्राम भी तो चाहिए, संन्यास से भी, दुकान से भी! चौबीस घंटे संन्यासी बनने की कोशिश में भारत ने बहुत गंवाया। कि न तो वे संन्यासी संन्यासी हो पाए, क्योंकि वे हो नहीं सकते। उन्होंने कोशिश की कि तिपाई के दो पैर तोड़ दें और एक ही पैर पर खड़े हो जाएं; लंगड़ा गए। तो भारत का संन्यास बुरी तरह लंगड़ा गया और बुरी तरह धूल— धूसरित होकर गिरा। गरिमा पैदा नहीं हुई। संन्यासी संतुलित न रहा।

और तुम तोड़ नहीं सकते दूसरे दो पैर, क्योंकि जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं। पीछे के द्वार से वे प्रवेश कर गए। तो संन्यासी बाहर से दिखाएगा, उसकी कोई धन में उत्सुकता नहीं है, और भीतर से धन जोड़ेगा। बाहर से दिखाएगा, उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, लेकिन विस्तार में मन लगा रहेगा। बाहर से दिखाएगा कि मेरे जीवन में कोई तमस नहीं है, लेकिन भीतर भयंकर तमस घिरा रहेगा।

भाग नहीं सकते, जीवन के नियम के विपरीत नहीं चल सकते। जीवन के नियम का उपयोग करो। समझदार वह है, जो जीवन के नियम का उपयोग करके जीवन के पार उठ जाता है। नासमझ वह है, जो जीवन के नियम को तोड़ने की कोशिश करके बाहर होना चाहता है। वह और उलझ जाता है।

संन्यास एक कला है संतुलन की।

हे भारत, सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है।

तुम्हारी श्रद्धा ही तुम हो। अगर तुम्हारी श्रद्धा आलस्य की है, तो तुम्हारा जीवन आलस्य की कहानी होगा। अगर तुम्हारी श्रद्धा रजस की है, महत्वाकांक्षा की है, दौड़ की है, तुम्हारा जीवन एक दौड़— भाग होगा। अगर तुम्हारी श्रद्धा सत्व की है, शांति की है, शून्य की है, शुभ की है, तो तुम्हारे जीवन में एक सुवास होगी, जो स्वर्ग की है, जो इस पृथ्वी की नहीं है। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम हो।

अपनी श्रद्धा को ठीक से पहचान लो, क्योंकि न पहचानने से बड़ी जटिलता बढ़ती है। आदमी तो होता है आलसी, अंतःकरण आलसी। और आकांक्षा करता है उन सुखों को पाने की, जो राजसी को मिलते हैं। तुम मुश्किल में पड़ोगे। तुम्हारी श्रद्धा तुम हो। आदमी तो होता है राजसी, दौड़— धूप में पड़ा। और चाहता है, वह शांति मिल जाए, जो सात्विक को मिलती है। यह हो नहीं सकता।

मेरे पास, एक राजनीतिज्ञ हैं, वे कभी—कभी आते हैं। वे कहते हैं, शांति चाहिए। तुम्हें शांति मिल नहीं सकती। इसमें किसी का कसूर नहीं है। राजनीति की दौड़— धूप, तुम शांत हो कैसे सकते हो! और तुम अगर शांत हो गए, तो जिस दौड़— धूप में तुम लगे हो कि किस तरह मंत्री, किस तरह मुख्यमंत्री, किस तरह यह हो जाएं, वह हो जाएं—यह फिर कौन करेगा? तुम अगर शांत हो गए, तो यह भी शांत हो जाएगी।

तो मैंने उनसे कहा, तुम दो में चुन लो। मैं तुम्हें शांत कर सकता हूं, लेकिन तब राजनीति जाएगी; यह दौड़— धूप न रह जाएगी; यह पागलपन न रह जाएगा। और अगर तुम्हें यह पागलपन पूरा करना है, तो शांति की बात मत करो। मेरे पास आओ ही मत। तो उन्होंने कहा, ऐसा करता हूं एक दो साल का समय दें। दो साल और कोशिश कर लूं।

मंत्री वे हो गए हैं एक राज्य में, अब मुख्यमंत्री होने की चेष्टा है। एक दो साल! फिर तो शांत होना ही है!

यह आदमी शायद ही शांत हो पाए क्योंकि दो साल में कुछ पक्का है कि मुख्यमंत्री हो जाओ? और मुख्यमंत्री होकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में जाने की आकांक्षा न उठे, इसका कुछ पक्का है? दौड़ के लिए तो सदा दौड़ कायम रहती है। और की आकांक्षा तो सदा और की बनी रहती है।

वे कभी नहीं आएंगे। क्योंकि जिसे आना है, वह अभी आता है। जिसको समझ आ गई, वह अभी आता है। जो कहता है, कल आएंगे, उसको समझ नहीं है, तभी तो कल के लिए टाल रहा है। कल का किसको भरोसा है? और जो आज कल के लिए टाल रहा है, वह कल भी कल के लिए टालेगा। उसकी कल पर टालने की आदत हो जाएगी।

अपनी श्रद्धा को ठीक से पहचानो और अपनी श्रद्धा से भिन्न मत मांगो। अगर भिन्न मांगना है, तो अपनी श्रद्धा को रूपांतरित करो। अन्यथा तुम बड़ी बिगचन में पड़ जाओगे, भीतर बड़ा बेबूझ हो जाएगा; एक पहेली हो जाओगे।

सभी लोग पहेली हो गए हैं। लोग ऐसा सुख चाहते हैं, जो राजसी को मिलता है; और ऐसी शांति चाहते हैं, जो सात्विक को मिलती है; और ऐसा विश्राम चाहते हैं, जिसको आलसी भोगता है। बड़ी मुश्किल है; वे सभी एक साथ चाहते हैं। कुछ भी उपलब्ध नहीं होता।

भीतर को ठीक से पहचानो, क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हारा जीवन है।

जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है। और अगर तुमने ठीक से भीतर को पहचाना, तो तुम जल्दी ही यह समझ जाओगे कि तृप्ति किसी एक से नहीं हो सकती। उन तीनों का संयोग चाहिए। और तीनों के संयोग में ही तृप्ति फलती है, परितोष झरता है। और तीनों के संयोग से ही एक की प्रतीति शुरू होती है। और तीनों का संयोग धीरे— धीरे— धीरे तुम्हें उस एक की तरफ ले जाता है, जो गुणातीत है।

पाना तो उसे ही है, जो त्रिगुण के बाहर है। उस एक की ही खोज करनी है। तीनों पैरों को तुम एक ही अनुपात का बना लो, एक ही बल का, और तुम पाओगे कि तिपाई सध गई। तिपाई सध गई, कि सब सध गया। अब तुम तिपाई पर पैर रख सकते हो और एक की तरफ यात्रा शुरू हो सकती है।

जो सात्विक हैं, वे देवों को पूजते हैं……।

ये प्रतीक हैं। इन्हें भी खयाल में ले लो। जो सात्विक है, उसके मन की पूजा सत्व की तरफ होती है, स्वभावत:। क्योंकि तुम जो हो, और तुम जो होना चाहते हो, उसी का तुम्हारे मन में आदर होता है। अगर तुम राजनेता आता है और उसके स्वागत के लिए स्टेशन पर पहुंच जाते हो, तो भला तुम राजनीति में न हो, लेकिन उसके स्वागत की खबर बताती है कि तुम राजसी हो। मौका न मिला होगा तुम्हें उपद्रव में पड़ने का, जिंदगी में उलझन होगी, पत्नी है, बच्चे हैं, काम—धंधा है और तुम नहीं पड़ पाते, लेकिन दर्शन करने तुम राजनीतिज्ञ का पहुंच जाते हो। तुम्हारी श्रद्धा! कि फिल्म अभिनेता आया है, उसके पास भीड़ लगा लेते हो—तुम्हारी श्रद्धा। कि संन्यासी आया, और तुम उसके दर्शन को पहुंच जाते हो—तुम्हारी श्रद्धा। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हें संचारित करती है।

सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, दिव्यता को पूजते हैं।

दिव्यता का अर्थ है, जिनके जीवन में संगीत बजने लगा तीनों की एकता का। अभी वे एक को उपलब्ध नहीं हुए हैं; अभी यात्रा बाकी है, लेकिन बड़ा पड़ाव आ गया, तिपाई सध गई। उनके जीवन में स्वर्ग का संगीत बजने लगा। बाकी तो प्रतीक हैं कि स्वर्ग में देवता रहते हैं। ऐसा स्वर्ग कहीं नहीं है। यहीं जमीन पर तुम्हारे आस—पास रहते हैं। लेकिन तुम्हारी सत्य की श्रद्धा होगी, तो दिखाई पड़ेंगे। सत्व की श्रद्धा न होगी, तो दिखाई न पड़ेंगे। क्योंकि श्रद्धा आख है।

तुम्हारे पास ही, हो सकता है कि तुम्हारे पड़ोस में कोई रहता हो; हो सकता है, तुम्हारे घर में रहता हो, हो सकता है, तुम्हारी पत्नी में हो; हो सकता है, तुम्हारे पति में हो। लेकिन सत्व की आख होगी, तो दिखाई पड़ेगा। नहीं होगी, तो नहीं दिखाई पड़ेगा। अगर पति सात्विक हो जाए और पत्नी की आख सत्व की न हो, तो उसे कुछ और दिखाई पड़ेगा।

मेरे पास कई स्त्रियां शिकायत लेकर आती हैं कि आप बरबाद मत करो, हमारे पति को मत उलझाओ इस ध्यान में। अभी तो बाल—बच्चे बड़े हो रहे हैं। और अभी तो काम— धंधा शुरू ही हुआ है। और अगर वे ध्यान में उलझ गए, तो क्या होगा?

पति में अगर सत्व पैदा हो रहा है, तो पत्नी को दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उसकी श्रद्धा अभी रजस की है; वह कहती है, अभी थोड़े और गहने चाहिए। वह पति के ध्यान की कुर्बानी के लिए राजी है, अपने और थोडे गहनों की कुर्बानी के लिए राजी नहीं है। वह कहती है, अभी तो मकान बहुत छोटा है, थोड़ा मकान तो बड़ा हो जाने दो। अभी बैंक में बैलेंस है ही क्या! बुढ़ापे में क्या होगा? अगर कल पति को कुछ हो जाए, तो हम क्या करेंगे?

न तो पति की आत्मा से कोई मतलब है, न पति के जीवन से कोई मतलब है। अगर पति को कुछ हो जाए, इसकी चिंता है। तो बैंक में बैलेंस होना चाहिए, चाहे पति रहे, चाहे जाए। श्रद्धा रजस की है।

तो पति ध्यान करने बैठे, तो पत्नियां बाधा डालती हैं। अगर पत्नी में श्रद्धा पैदा हो जाए सत्व की, तो पति बेचैन हो जाता है। पति मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, यह आपने क्या कर दिया! एक उपद्रव खड़ा कर दिया। अब पत्नी को ज्यादा रस नहीं है कामवासना में। वह ध्यान में लगी रहती है! हम कहां जाएं? हमारी कामवासना तो मर नहीं गई! तो कृपा करें। अभी तो मैं जवान हूं वे कहते हैं। ये तो बुढ़ापे की बातें हैं। पचास साल के बाद आप इसको सिखाते ध्यान, तो ठीक था।

जो श्रद्धा होती है, वह दिखाई पड़ता है। ध्यान जैसी घटना घट रही हो, उसमें भी सौभाग्य नहीं मालूम पड़ता। पत्नी शांत हो रही है, इसमें भी पीड़ा लगती है।

तुम चकित होओगे, लोगों ने मुझसे आकर कहा है, पत्नियों ने कहा है कि पति अब क्रोध नहीं करते, इससे हमें हैरानी होती है। वे पहले क्रोध करते थे, तो ठीक था। अब ऐसा लगता है कि उन्हें उपेक्षा हो गई है। अक्रोध में उपेक्षा दिखती है। अक्रोध में एक घटना नहीं दिखती कि इस आदमी के जीवन में एक फूल खिला है, हम आनंदित हों। अक्रोध में दिखता है कि इस आदमी को अब रस नहीं रहा; इसलिए हम गाली भी दें, तो यह सुन लेता है। क्योंकि इसको कोई मतलब ही नहीं है। उपेक्षा से भर गया है यह आदमी।

और ध्यान रखना, लोग उपेक्षा पसंद नहीं करते, चाहे गाली दो, वे उसके लिए भी राजी हैं, कम से कम इतना रस तो रखते हो कि गाली देते हो। उपेक्षा बहुत काटती है। तटस्थ हो गए! उदासीन हो गए! पत्नी घबडाती है कि यह तो हाथ के बाहर चला आदमी। ऐसे उदास होते—होते एक दिन घर से भाग जाएगा; फिर हम क्या करेंगे? वह चाहती है कि पति नाराज हो, लड़े, मारे—पीटे, तो भी चलेगा, ध्यान न करे।

सत्य की श्रद्धा हो, तो ही सत्व दिखाई पड़ता है।

देवता का अर्थ है, जिनके जीवन में संतुलन आ गया, जिनके जीवन में सत्व ने ऐसी संतुलन की सुगंध दे दी कि जो अब करीब—करीब मुक्ति के किनारे खड़े हैं। स्वर्ग वह सीमा है, जहां से आदमी मोक्ष में छलांग मार ले। थोड़े अटके हैं, अटकाव यह है कि उनको अभी संगीत से ही रस पैदा हो गया है; इसको भी बड्वे की हिम्मत करनी पड़ेगी। यह सोने की जंजीर है, बड़ी प्यारी लगती है।

इसलिए हम देवताओं को मुक्त पुरुष नहीं कहते। और जब कोई बुद्ध पुरुष पैदा होते हैं, तो हमारे’ पास कथाएं हैं कि देवता उन्हें सुनने आते हैं कि हमें मुक्ति का मार्ग दें। उनको आना पड़ेगा, क्योंकि अब वे सत्व के सुख से बंध गए हैं। स्वर्ग भी बंधन है। बड़ा प्यारा बंधन है, बड़ी मिठास है उसमें, लेकिन है काटा। कितनी ही मीठी पीड़ा देता हो, उसे भी निकाल देना होगा।

जिनकी सत्य की श्रद्धा है, वे देवों को पूजते हैं। वे जहां भी दिव्यता को पाएंगे, वहा उनका सिर झुक जाएगा।

जिनकी राजस श्रद्धा है, वे यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं.। राक्षस का अर्थ है, जिसके जीवन में रजस प्रगाढ़ हो गया। सत्व और तम दोनों दब गए, बस रजस प्रगाढ़ हो गया।

बड़े राजनेता यानी राक्षस। तुम उस तरह सोचते नहीं अब, क्योंकि तुम इन प्रतीकों का अर्थ भूल गए। तुम सोचते हो, रावण राक्षस था। किसलिए? सफल से सफल राजनीतिज्ञ था! स्वर्ण की लंका बसा दी थी। और क्या चाहिए सफल राजनीतिज्ञ के लिए? तुम्हारे सफल राजनीतिज्ञ मिट्टी के घर भी तो नहीं बसा पाते हैं लोगों के लिए; भूखा मरता है समाज। लेकिन लंका में स्वर्ण का बसा दिया था नगर। और कैसा सफल राजनीतिज्ञ चाहिए?

रावण सफल से सफल राजनीतिज्ञ था, कुशल से कुशल कूटनीतिज्ञ था; प्रगाढ़ शक्तिशाली था। दौड़ उसकी महान थी। कथा तो यह है कि अगर उसे न हटाया गया होता स्वयंवर से, तो उसने सीता को जीत लिया होता; राम खाली हाथ घर वापस लौटे होते। उसे हटाया गया। डर था। क्योंकि वह इतना कुशल राजनीतिज्ञ था और इतना शक्तिशाली था कि एक सिर नहीं था उसके; उसके दस सिर थे। सभी राजनीतिज्ञों के होते हैं। एक चेहरा नहीं, दस!

सभी राजनीतिज्ञ दशानन हैं। उनका कुछ पक्का नहीं है कि वे कौन—सा चेहरा तुम्हें दिखा रहे हैं। जब जैसी जरूरत हो, वे वैसा चेहरा दिखाते हैं। जब वोट मांगनी हो, तो मुस्कुराते हैं—एक चेहरा। जब वोट मिल गई, तब वे ऐसा देखते हैं, जैसे तुम्हें पहचानते ही नहीं—दूसरा चेहरा। जब वे ताकत में हैं, तब एक चेहरा; जब वे ताकत में नहीं, तब उनके कैसे हाथ जुड़े हैं और सिर झुका है, कि आपके चरणों के सेवक हैं। दशानन! उनके दस चेहरे हैं। और एक काटो, तत्‍क्षण दूसरा पैदा हो जाता है। इसलिए राजनीतिज्ञ को मारना मुश्किल है।

स्वयंवर भरा था, तो कथा यह है कि यह देखकर देवताओं ने कि रावण बाजी मार ले सकता है..। कई कारण थे, एक तो वह शिव का भक्त था।

तुम राजनीतिज्ञों को सदा पाओगे किसी न किसी का भक्त। कोई जा रहा है सत्य सांईबाबा। कोई नहीं तो दिल्ली में बहुत ज्योतिषी बैठे हैं, उनकी ही भक्ति में लगा है। हनुमान चालीसा पढ़ रहा है, इलेक्शन जीतना है!

इस रावण ने अपने सिर चढ़ा—चढ़ाकर, कहते हैं, शिव को भी राजी कर लिया था। शिव का भक्त था और वह धनुष भी शिव का था। यह तोड़ देता; और यह आदमी बलशाली था।

तो कथा यह है कि देवताओं ने यह देखकर कि यह तो खतरा हो जाएगा। और राम तो विनम्र व्यक्ति हैं, वे आगे आकर खड़े भी न होंगे, यह रावण तो उछलकर खड़ा हो जाएगा और धनुष तोड़ देगा। राम को शायद मौका ही न मिले; शायद कोई पूछे ही न कि राम भी आए थे। और राम तो पीछे खड़े रहेंगे। राम के होने का अर्थ ही है कि जो पीछे खड़ा रहे, जिसको आगे आने की दौड़ न हो; जो महत्वाकांक्षी न हो।

लक्ष्मण भी ज्यादा महत्वाकांक्षी था राम से। वह दो—चार दफा उठ आया बीच—बीच में। और उसने कहा कि भाई, अगर मुझे आज्ञा दें, तो अभी इस धनुष—बाण को तोड़ दूं। उसको रोकना पड़ा, कि तू बैठ, तू थोड़ा तो ठहर। वह भी तोड्ने को बहुत तत्पर था। वह भी महत्वाकांक्षी था; वह भी राजनीतिज्ञ था।

रावण को हटाया। देवताओं ने जोर से शोरगुल किया आकर स्वयंवर के आस—पास, कि रावण तू यहां क्या कर रहा है? लंका में आग लग गई है! और जब लंका में आग लगी हो.।

यह भी बड़ा सोचने जैसा है। राजनीतिज्ञ प्रेम की कुर्बानी दे सकता है; राजधानी में आग लगी हो, इसकी कुर्बानी नहीं दे सकता। भागा लंका की तरफ, भूल गया सीता और सब और यह प्रेम और यह सब उपद्रव। क्योंकि राजनीतिज्ञ प्रेम की कुर्बानी दे सकता है, पद की कुर्बानी नहीं दे सकता। इसलिए तुम राजनीतिज्ञों को हमेशा पाओगे कि अगर उनको पत्नी का त्याग करना पड़े, वे तैयार हैं। अगर विवाह न कर पाएं, तो तैयार। लेकिन उनका स्वयंवर पद से है।

अन्यथा रावण ने कहा होता, हो जाए; जल जाए लंका। अगर सच में ही प्रेम होता सीता के प्रति। लेकिन हृदय होता ही नहीं राजनीतिज्ञ के पास, प्रेम कहां से होगा! वह तो जीतने आया था। इसको भी एक जीत बनाने आया था। इसको भी, अपने जीत के जो हजार चांद थे, उसमें एक चांद और जोड़ देना था, कि सीता को भी जीत लाया। जैसे— लोग ट्राफी जीत लाते हैं। सीता एक ट्राफी थी, जिसको वह बैंड—बाजे बजाकर लंका में ले जाता और कहता कि देखो, इसको भी जीत लाया। रानियां उसके पास और भी बहुत थीं। कुछ रानियों की कमी न थी। कोई सीता से सुंदर कम थीं, ऐसा भी न था। भरा—पूरा रनिवास था। कोई सीता से लेना—देना न था। अन्यथा वह कहता कि ठीक।

भाग गया। वह देवताओं की साजिश थी, सत्व का षड्यंत्र था कि इस राजसी व्यक्ति को हटा लिया जाए। सीता राम के योग्य थी, राम के लिए थी। सत्व का सत्व से मिलन हो सके, इसलिए देवताओं ने व्यवस्था की।

यह रावण राक्षस है। इससे तुम यह मत समझना कि राक्षस कोई जाति है मनुष्यों की। राक्षस गुण है, वह राजनीतिज्ञ का नाम है; पद—लोलुप का नाम है।

राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं…….।

वे उनको पूजते हैं, जिनके पास शक्ति है, या जिनके पास पद है, या जिनके पास धन है। कुबेर यक्ष है। कुबेर का अर्थ है, जिसके पास सब से बड़ा धन है सारे जगत में। जो खजांची है स्वर्ग के देवताओं का, ट्रेजरर, कुबेर, वह यक्ष है। तो या तो धन की पूजा है या पद की पूजा है। लेकिन दोनों ही पूजा के पीछे शक्ति की पूजा है।

अगर ऐसा व्यक्ति देवी—देवताओं की भी पूजा करता है, तो भी शक्ति के लिए ही करता है। वह मलता है, और दो शक्ति! ऐसी शक्ति दो कि सब को पराजित कर दूं! मैं पराजित न हो पाऊं, अपराजेय हो जाऊं! राजस शक्ति की मांग करता है।

और अन्य जो तामस पुरुष हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं। फिर तीसरा वर्ग है तमस से भरे लोगों का। उनकी आकांक्षा इतनी ही है कि उनका आलस्य अखंडित रहे। कोई उन्हें जगाए न; उनकी आकांक्षाएं कोई और पूरा कर दे; वे पड़े रहें। वे अपनी मूर्च्छा में सोए रहें, वे शराब पीए रहें, वे नींद में डूबे रहें, वे प्रमाद में रहें; कोई और पूरा कर दे उनकी जरूरतों को। तो भूत और प्रेत।

भूत—प्रेत से अर्थ है, ऐसे लोग जो खुद भी तमस—प्रधान हैं. ऐसी आत्माएं जो खुद भी तमस—प्रधान हैं। वे इनकी पूर्ति करती रहती हैं। इस तरह के लोग हैं। तुम्हें वेश्या के घर ले जाने वाला एक एजेंट भी होता है, वह भूत—प्रेत है। तुम्हें धन की ओर लगाने वाला, जुआ खिलाने वाला भी होता है। तुम्हें लाटरी में दाव लगाने की उत्सुकता पैदा करवाने वाला, टिकट बेचने वाला भी होता है। वे तुम्हारे आलस्य को’ बढ़ाते हैं। वे कहते हैं, हम कर देंगे; तुम मजे से सोए रहो, तुम जरा—सा इतना सहारा दे दो, सब ठीक हो जाएगा।

ठीक वैसी ही व्यवस्था आत्माओं की भी है। जैसे ही शरीर छोड़ती हैं आत्माएं…। तीन तरह की आत्माएं हैं, क्योंकि तीन तरह के गुण हैं। प्रेत को तुम राजी कर सकते हो।

तुममें से बहुत—से प्रेत को ही राजी करने को उत्सुक हैं। कोई तुम्हें ताबीज दे दे, जिससे बीमारी ठीक हो जाए; कोई तुम्हें भभूत दे दे, जिससे खजाना मिल जाए। तुम्हारी आकांक्षा ऐसी है, तुम्हें कुछ न करना पड़े, तुम ऐसे आलस्य में पड़े रहो, खजाने तुम्हारी तरफ आते जाएं। प्रेत उत्सुक कर लेते हैं ऐसे लोगों को। वे जीवित भी हैं, शरीर में भी हैं, और शरीर के बाहर भी हैं।

तुम्हारी श्रद्धा तुम्हें ले जाती है। तुम जाते हो साधु—संतों के पास, लेकिन हो सकता है, तुम साधु—संतों के पास जा ही न रहे हो। तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर है। हो सकता है, तुम साधु के पास जा रहे हो कि उसके पास जाने से धन की वर्षा हो जाएगी।

एक आदमी, मैं दिल्ली से बंबई आ रहा था, हवाई जहाज पर मुझे मिल गए। मेरे पास ही बैठे थे। उन्होंने कहा कि बड़ी कृपा हो गई, यह मौका मिल गया, संयोग। बस, आपका आशीर्वाद चाहिए। मैंने कहा कि ठीक; इसमें भी क्या कोई नहीं करता है, आशीर्वाद देने में।

पंद्रह दिन बाद वे जबलपुर पहुंचे मुझसे मिलने। पैर पर गिर पड़े, और कहने लगे, गजब हो गया आपके आशीर्वाद से। मैंने कहा, क्या हुआ? मुझको मत फंसाना। वह आशीर्वाद मैंने तुम्हें दिया, यह भी पक्का नहीं है। सिर्फ न कहना भद्दा लगेगा, इसलिए मैं चुप रहा। हुआ क्या?

उसने कहा, अब आप कुछ भी कहो। मैं मुकदमा जीत गया। दस लाख रुपए मुकदमे में जीतने से मिल रहे हैं। और सच बात यह है कि जीतना मुझे था नहीं; नियमानुसार मुझे हारना चाहिए था। वह दावा मेरा गलत था, लेकिन आपकी कृपा! मैंने कहा कि तुम मुझे मत फंसाओ!

अब यह आदमी आशीर्वाद मांग रहा है; एक गलत मुकदमा है, वह जीतने की आकांक्षा है। यह आदमी संत के पास पहुंच ही नहीं सकता। यह जहां भी जाएगा, इसकी श्रद्धा ही इसको खराब करती रहेगी।

लोग मुझसे आशीर्वाद तब से मलते हैं, तो मैं पूछता हूं पहले बता दो, तुम्हारा इरादा क्या है? तुम किसी भूत—प्रेत की तलाश में तो नहीं हो? नहीं तो पीछे तुम मुझे फसाओगे।

क्या है तुम्हारी आकांक्षा? किसलिए आशीर्वाद चाहते हो? तुम क्या मांगते हो, वह तुम्हारे अंतःकरण की श्रद्धा से उपजता है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसे तीन तरह के लोग हैं। तुम जरा अपनी खोज करना, तुम किस तरह के हो।

तुम्हें भीड़ दिखाई पड़ेगी साईंबाबा के पास। वह भीड़ उनकी है, जो भूत—प्रेत की तलाश कर रहे हैं। क्योंकि ऐसे ही लोग चमत्कृत हो सकते हैं इस बात से कि हाथ से घड़ी निकल आई। तुम किसी जादूगर को खोज रहे हो, मदारी को खोज रहे हो कि संत को खोज रहे हो? कि हाथ से राख गिर गई और हाथ बिलकुल खाली था; कि हाथ से शंकरजी की पिंडी निकल आई। तुम पागल हो गए हो! और कितनी ही पिंडी निकल आएं शंकरजी की, क्या होगा?

और कितनी घड़िया निकालते हैं! और बड़े मजे की बात है, स्विस मेड घड़ियां निकलती हैं। दो ही उपाय हैं। या तो बाजार से खरीदी जाती हैं। नहीं तो स्वर्ग मेड होतीं! स्विस मेड! और या फिर भूत—प्रेत लगा रखे हैं, जो चोरी करके ले आते हैं। दोनों हालत में नाजायज बात है।

सब घड़िया बाजार से खरीदी जा रही हैं।

साईंबाबा एक घर में बंबई मेहमान होते थे, पारसी घर में। वह महिला मेरे पास आई। और उसने कहा, मेरी आंखें खुल गईं। लेकिन अब मैं दूसरों को समझाती हूं वे मेरी सुनते नहीं। मेरे ही घर में रुकते थे और मैंने ही दूसरे पारसियों में उनका नाम प्रचारित किया। और जिनमें मैंने नाम प्रचारित किया, वे भी मेरी अब नहीं सुनते हैं।

मैंने पूछा, हुआ क्या? उसने कहा, बड़ी उलझन की बात हो गई। पिछली बार जब वे जाने लगे, तो एक बैग भूल से छूट गया, उसमें सात सौ घड़ियां थीं। तब मेरी आख खुली कि घड़ियां कहां से निकलती हैं! अब मैं लोगों को समड़ाती हूं तो साईंबाबा ने उन लोगों को कह दिया है कि मेरे विपरीत अशुभ शक्तियां काम कर रही हैं। उन्होंने उसका मन भ्रष्ट कर दिया है। अशुभ शक्तियां, शैतान काम कर रहा है। और उसी शैतान ने वह बैग और घड़ियां घर में रख दीं, ताकि उसकी श्रद्धा उठ जाए। और लोग मानते हैं कि साईंबाबा ठीक कह रहे हैं और यह बुढ़िया गलत कह रही है।

लोगों की श्रद्धा, लोग मानना चाहते हैं, इसलिए मानते हैं। लोग चमत्कार चाहते हैं, क्योंकि उनकी वासना चमत्कार से ही तृप्त हो सकती है। आलसी हैं। घड़ी पानी हो सौ रुपये की, तो कौन—सी मुश्किल है! थोड़ी—सी मेहनत करो और सौ रुपये की घड़ी मिल जाती है। उसके लिए सत्य साईंबाबा के होने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। लेकिन आलसी उतनी मेहनत भी नहीं करना चाहता। वह चाहता है, कोई पैदा कर दे घड़ी।

फिर भरोसा भी आता है कि जो घड़ी पैदा करता है, अगर चाहे तो घड़ियाल भी पैदा कर सकता है। जो इतनी सी चीज पैदा कर देता है, वह बड़ी भी चीज पैदा कर सकता है। है तो चमत्कारी, अब कृपा की जरूरत है। तो आज घड़ी पैदा की, कल घड़ियाल पैदा करेगा; आज जरा—सी राख दी, कल देखना अमृत दे देगा। आकांक्षा बढ़ती चली जाती है।

तुम जब तक मांगते हो, तब तक तुम संत के पास न आ सकोगे।

देवों की पूजा वे लोग करते हैं, जो धन्यवाद देने आते हैं; जो अहोभाव प्रकट करने आते हैं; जो कहते हैं, इतना मिला है वैसे ही कि उसका धन्यवाद देने आए हैं। संतों के निकट वे ही लोग पहुंच पाते हैं, जो सिर्फ अहोभाव प्रकट करने आते हैं। नहीं तो तुम राजसी पुरुषों के पास पहुंचोगे या तुम तामसी पुरुषों के पास पहुंचोगे।

कहां तुम जाते हो, ठीक से पहचानना। अगर तुम्हें हिंदुस्तान भर के तामसी इकट्ठे देखने हों, तो सत्य साईंबाबा के पास मिल जाएंगे। अलग— अलग खोजने की जरूरत नहीं है। तुम अकारण कहीं नहीं जाते हो। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हें कहीं ले जाती है।

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--8 (ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–3)

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ध्यान है महामृत्यु—(प्रवचन—तीसरा)

(कुंडलिनी—योग साधना शिविर)

नारगोल

महामृत्यु : द्वार अमृत का:

प्रश्‍न:

 एक मित्र पूछ रहे हैं कि ओशो कुंडलिनी जागरण में खतरा है तो कौन सा खतरा है? और यदि खतरा है तो फिर उसे जाग्रत ही क्यों किया जाए?

तरा तो बहुत है। असल में, जिसे हमने जीवन समझ रखा है, उस पूरे जीवन को ही खोने का खतरा है। जैसे हम हैं, वैसे ही हम कुंडलिनी जाग्रत होने पर न रह जाएंगे; सब कुछ बदलेगा—सब कुछ—हमारे संबंध, हमारी वृत्तियां, हमारा संसार; हमने कल तक जो जाना था वह सब बदलेगा। उस सबके बदलने का ही खतरा है।

लेकिन अगर कोयले को हीरा बनना हो, तो कोयले को कोयला होना तो मिटना ही पड़ता है। खतरा बहुत है। कोयले के लिए खतरा है। अगर हीरा बनेगा तो कोयला मिटेगा तो ही हीरा बनेगा। शायद यह आपको खयाल में न हो कि हीरे और कोयले में जातिगत कोई फर्क नहीं है; कोयला और हीरा एक ही तत्व हैं। कोयला ही लंबे अरसे में हीरा बन जाता है। हीरे और कोयले में केमिकली कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं है। लेकिन कोयला अगर हीरा बनना चाहे तो कोयला न रह सकेगा। कोयले को बहुत खतरा है। और ऐसे ही मनुष्य को भी खतरा है—परमात्मा होने के रास्ते पर कोई जाए, तो मनुष्य तो मिटेगा।

नदी सागर की तरफ दौड़ती है। सागर से मिलने में बड़ा खतरा है। नदी मिटेगी; नदी बचेगी नहीं। और खतरे का मतलब क्या होता है? खतरे का मतलब होता है, मिटना।

तो जिनकी मिटने की तैयारी है, वे ही केवल परमात्मा की तरफ यात्रा कर सकते हैं। मौत इस बुरी तरह नहीं मिटाती जिस बुरी तरह ध्यान मिटा देता है। क्योंकि मौत तो सिर्फ एक शरीर से छुडाती है और दूसरे शरीर से जुड़ा देती है। आप नहीं बदलते मौत में। आप वही के वही होते हैं जो थे, सिर्फ वस्त्र बदल जाते हैं। इसलिए मौत बहुत बड़ा खतरा नहीं है। और हम सारे लोग तो मौत को बड़ा खतरा समझते हैं। तो ध्यान तो मृत्यु से भी ज्यादा बड़ा खतरा है; क्योंकि मृत्यु केवल वस्त्र छीनती है, ध्यान आपको ही छीन लेगा। ध्यान महामृत्यु है।

पुराने दिनों में जो जानते थे, वे कहते ही यही थे ध्यान मृत्यु है; टोटल डेथ। कपड़े ही नहीं बदलते, सब बदल जाता है। लेकिन जिसे सागर होना हो जिस सरिता को, उसे खतरा उठाना पड़ता है। खोती कुछ भी नहीं है, सरिता जब सागर में गिरती है तो खोती कुछ भी नहीं है, सागर हो जाती है। और कोयला जब हीरा बनता है तो खोता कुछ भी नहीं है, हीरा हो जाता है। लेकिन कोयला जब तक कोयला है तब तक तो उसे डर है कि कहीं खो न जाऊं, और नदी जब तक नदी है तब तक भयभीत है कि कहीं खो न जाऊं। उसे क्या पता कि सागर से मिलकर खोएगी नहीं, सागर हो जाएगी। वही खतरा आदमी को भी है।

और वे मित्र पूछते हैं कि फिर खतरा हो तो खतरा उठाया ही क्यों जाए?

यह भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। जितना खतरा उठाते हैं हम, उतने ही जीवित हैं; और जितना खतरे से भयभीत होते हैं, उतने ही मरे हुए हैं। असल में, मरे हुए को कोई खतरा नहीं होता। एक तो बड़ा खतरा यह नहीं होता कि मरा हुआ मर नहीं सकता है अब। जीवित जो है वह मर सकता है। और जितना ज्यादा जीवित है, उतनी ही तीव्रता से मर सकता है।

एक पत्थर पड़ा है और पास में एक फूल खिला है। पत्थर कह सकता है फूल से कि तू नासमझ है! क्यों खतरा उठाता है फूल बनने का? क्योंकि सांझ न हो पाएगी और मुरझा जाएगा। फूल होने में बड़ा खतरा है, पत्थर होने में खतरा नहीं है। पत्थर सुबह भी पड़ा था, सांझ जब फूल गिर जाएगा तब भी वहीं होगा। पत्थर को ज्यादा खतरा नहीं है, क्योंकि पत्थर को ज्यादा जीवन नहीं है। जितना जीवन, उतना खतरा है।

इसलिए जो व्यक्ति जितना जीवंत होगा, जितना लिविंग होगा, उतना खतरे में है।

ध्यान सबसे बड़ा खतरा है, क्योंकि ध्यान सबसे गहरे जीवन की उपलब्धि में ले जाने का द्वार है।

नहीं, वे मित्र पूछते हैं कि खतरा है तो जाएं ही क्यों? मैं कहता हूं र खतरा है इसलिए ही जाएं। खतरा न होता तो जाने की बहुत जरूरत न थी। जहां खतरा न हो वहां जाना ही मत, क्योंकि वहां सिवाय मौत के और कुछ भी नहीं है। जहां खतरा हो वहां जरूर जाना, क्योंकि वहां जीवन की संभावना है।

लेकिन हम सब सुरक्षा के प्रेमी हैं, सिक्योरिटी के प्रेमी हैं।

इनसिक्योरिटी, असुरक्षा है, खतरा है, तो भागते हैं भयभीत होकर, डरते हैं, छिप जाते हैं। ऐसे—ऐसे हम जीवन खो देते हैं। जीवन को बचाने में बहुत लोग जीवन खो देते हैं। जीवन को तो वे ही जी पाते हैं जो जीवन को बचाते नहीं, बल्कि उछालते हुए चलते हैं। खतरा तो है। इसीलिए जाना, क्योंकि खतरा है। और बड़े से बड़ा खतरा है। और गौरीशंकर की चोटी पर चढ़ने में इतना खतरा नहीं है। और न चांद पर जाने में इतना खतरा है। अभी यात्री भटक गए थे, तो बड़ा खतरा है। लेकिन खतरा वस्त्रों को ही था। शरीर ही बदल सकते थे। लेकिन ध्यान में खतरा बड़ा है, चांद पर जाने से बड़ा है।

पर खतरे से हम डरते क्यों हैं? यह कभी सोचा कि खतरे से हम इतने डरते क्यों हैं? सब तरह के खतरे से डरने के पीछे अज्ञान है। डर लगता है कि कहीं मिट न जाएं। डर लगता है कहीं खो न जाएं। डर लगता है कहीं समाप्त न हो जाएं। तो बचाओ, सुरक्षा करो, दीवाल उठाओ, किला बनाओ, छिप जाओ। अपने को बचा लो सब खतरों से।

मैंने सुनी है एक घटना। मैंने सुना है कि एक सम्राट ने एक महल बना लिया। और उसमें सिर्फ एक ही द्वार रखा था कि कहीं कोई खतरा न हो। कोई खिड़की—दरवाजे से आ न जाए दुश्मन। एक ही दरवाजा रखा था, सब द्वार—दरवाजे बंद कर दिए थे। मकान तो क्या था, कब बन गई थी। एक थोड़ी सींकमी थी कि एक दरवाजा था। उससे भीतर जाकर उससे बाहर निकल सकता था। उस दरवाजे पर भी उसने हजार सैनिक रख छोड़े थे।

पड़ोस का सम्राट उसे देखने आया, उसके महल को। सुना उसने कि सुरक्षा का कोई इंतजाम कर लिया है मित्र ने, और ऐसी सुरक्षा का इंतजाम किया है जैसा पहले कभी किसी ने भी नहीं किया होगा। तो वह सम्राट देखने आया। देखकर प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि दुश्मन आ नहीं सकता, खतरा कोई हो नहीं सकता। ऐसा भवन मैं भी बना लूंगा।

फिर वे बाहर निकले। भवन के मालिक ने बड़ी खुशी विदा दी। और जब मित्र सम्राट अपने रथ पर बैठता था तो उसने फिर दुबारा—दुबारा कहा बहुत सुंदर बनाया है, बहुत सुरक्षित बनाया है; मैं भी ऐसा ही बना लूंगा; बहुत—बहुत धन्यवाद। लेकिन सड़क के किनारे बैठा एक भिखारी जोर से हंसने लगा। तो उस भवनपति ने पूछा कि पागल, तू क्यों हंस रहा है?

तो उस भिखारी ने कहा कि मुझे आपके भवन में एक भूल दिखाई पड रही है। मैं यहां बैठा रहता हूं यह भवन बन रहा था तब से। तब से मैं सोचता हूं कि कभी मौका मिल जाए आपसे कहने का तो बता दूं : एक भूल है। तो सम्राट ने कहा, कौन सी भूल? उसने कहा, यह जो एक दरवाजा है, यह खतरा है। इससे और कोई भला न जा सके, किसी दिन मौत भीतर चली जाएगी। तुम ऐसा करो कि भीतर हो जाओ और यह दरवाजा भी बंद करवा लो, ईटं जुड़वा दो। तुम बिलकुल सुरक्षित हो जाओगे। फिर मौत भी भीतर न आ सकेगी।

उस सम्राट ने कहा, पागल, आने की जरूरत ही न रहेगी। क्योंकि अगर यह दरवाजा बंद हुआ तो मैं मर ही गया; वह तो कब बन जाएगी। उस भिखारी ने कहा, कब तो बन ही गई है, सिर्फ एक दरवाजे की कमी रह गई है। तो तुम भी मानते हो, उस भिखारी ने कहा कि एक दरवाजा बंद हो जाएगा तो यह मकान कब हो जाएगा? उस सम्राट ने कहा, मानता हूं। तो उसने कहा कि जितने दरवाजे बंद हो गए, उतनी ही कब्र हो गई है; एक ही दरवाजा और रह गया है।

उस भिखारी ने कहा, कभी हम भी मकान में छिपकर रहते थे। फिर हमने देखा कि छिपकर रहना यानी मरना। और जैसा तुम कहते हो कि अगर एक दरवाजा और बंद करेंगे तो कब हो जाएगी, तो मैंने अपनी सब दीवालें भी गिरवा दीं, अब मैं खुले आकाश के नीचे रह रहा हूं। अब—जैसा तुम कहते हो, सब बंद होने से मौत हो जाएगी—सब खुले होने से जीवन हो गया है। मैं तुमसे कहता हूं कि सब खुले होने से जीवन हो गया है। खतरा बहुत है, लेकिन सब जीवन हो गया है।

खतरा है, इसीलिए निमंत्रण है; इसीलिए जाएं। और खतरा कोयले को है, हीरे को नहीं, खतरा नदी को है, सागर को नहीं, खतरा आपको है, आपके भीतर जो परमात्मा है उसको नहीं। अब सोच लें अपने को बचाना है तो परमात्मा खोना पड़ता है, और परमात्मा को पाना है तो अपने को खोना पड़ता है।

जीसस से किसी ने एक रात जाकर पूछा था कि मैं क्या करूं कि उस ईश्वर को पा सकूं जिसकी तुम बात करते हो? तो जीसस ने कहा, तुम कुछ और मत करो, सिर्फ अपने को खो दो, अपने को बचाओ मत। उसने कहा, कैसी बातें कर रहे हैं आप! खोने से मुझे क्या मिलेगा? तो जीसस ने कहा, जो खोता है, वह अपने को पा लेता है; और जो अपने को बचाता है, वह सदा के लिए खो देता है।

कोई और सवाल हों तो हम बात कर लें।

संकल्प की कमी से विकास अवल्ल:

पूछा जा रहा है कि ओशो कुंडलिनी जाग्रत हो तो कभी— कभी किन्हीं केंद्रों पर अवरोध हो जाता है? रुक जाती है। तो उसके रुक जाने का कारण क्या है? और गति देने का उपाय क्या है?

कारण कुछ और नहीं सिर्फ एक है कि हम पूरी शक्ति से नहीं पुकारते और पूरी शक्ति से नहीं जगाते। हम सदा ही अधूरे हैं और आशिक हैं। हम कुछ भी करते हैं तो आधा—आधा, हाफ हाटेंडली करते हैं। हम कुछ भी पूरा नहीं कर पाते। बस इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। अगर हम पूरा कर पाएं तो कोई बाधा नहीं है।

लेकिन हमारी पूरे जीवन में सब कुछ आधा करने की आदत है। हम प्रेम भी करते हैं तो आधा करते हैं। और जिसे प्रेम करते हैं उसे घृणा भी करते हैं। बहुत अजीब सा मालूम पड़ता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे घृणा भी करते हैं। और जिसे हम प्रेम करते हैं और जिसके लिए जीते हैं, उसे हम कभी मार डालना भी चाहते हैं। ऐसा प्रेमी खोजना कठिन है जिसने अपनी प्रेयसी के मरने का विचार न किया हो। ऐसा हमारा मन है, आधा—आधा। और विपरीत आधा चल रहा है। जैसे हमारे शरीर में बायां और दायां पैर है, वे दोनों एक ही तरफ चलते हैं, लेकिन हमारे मन के बाएं—दाएं पैर उलटे चलते हैं। वही हमारा तनाव है। हमारे जीवन की अशांति क्या है? कि हम हर जगह आधे हैं।

अब एक युवक मेरे पास आया, और उसने मुझे कहा कि मुझे बीस साल से आत्महत्या करने का विचार चल रहा है। तो मैंने कहा, पागल, कर क्यों नहीं लेते हो? बीस साल बहुत लंबा वक्त है। बीस साल से आत्महत्या का विचार कर रहे हो तो कब करोगे? मर जाओगे पहले ही, फिर करोगे? वह बहुत चौंका। उसने कहा, आप क्या कहते हैं? मैं तो आया था कि आप मुझे समझाएंगे कि आत्महत्या मत करो। मैंने कहा, मुझे समझाने की जरूरत है? बीस साल से तुम कर ही नहीं रहे हो! और उसने कहा कि जिसके पास भी मैं गया वही मुझे समझाता है कि ऐसा कभी मत करना। मैंने कहा, उन समझाने वालों की वजह से ही न तो तुम जी पा रहे हो और न तुम मर पा रहे हो; आधे—आधे हो गए हो। या तो मरो या जीओ। जीना हो तो फिर आत्महत्या का खयाल छोड़ो, और जी लो। और मरना हो तो मर जाओ, जीने का खयाल छोड़ दो।

वह दो—तीन दिन मेरे पास था। रोज मैं उससे यही कहता रहा कि अब तू जीवन का खयाल मत कर, बीस साल से सोचा है मरने का तो मर ही जा। तीसरे दिन उसने मुझसे कहा, आप कैसी बातें कर रहे हैं? मैं जीना चाहता हूं। तो मैंने कहा, मैं कब कहता हूं कि तुम मरो। तुम ही पूछते थे कि मैं बीस साल से मरना चाहता हूं।

अब यह थोडा सोचने जैसा मामला है. कोई आदमी बीस साल तक मरने का सोचे, तो यह आदमी मरा तो है ही नहीं, जी भी नहीं पाया है। क्योंकि जो मरने का सोच रहा है, वह जीएगा कैसे? हम आधे—आधे हैं। और हमारे पूरे जीवन में आधे—आधे होने की आदत है। न हम मित्र बनते किसी के, न हम शत्रु बनते, हम कुछ भी पूरे नहीं हो पाते।

और आश्चर्य है कि अगर हम पूरे भी शत्रु हों तो आधे मित्र होने से ज्यादा आनंददायी है।

असल में, पूरा होना कुछ भी आनंददायी है। क्योंकि जब भी व्यक्तित्व पूरा का पूरा उतरता है, तो व्यक्तित्व में सोई हुई सारी शक्तियां साथ हो जाती हैं। और जब व्यक्तित्व आपस में बंट जाता है, स्जिट हो जाता है, दो टुकड़े हो जाता है, तब हम आपस में भीतर ही लड़ते रहते हैं। अब जैसे कुंडलिनी जाग्रत न हो, बीच में अटक जाए, तो उसका केवल एक मतलब है कि आपके भीतर जगाने का भी खयाल है, और जग जाए, इसका डर भी।

आप चले भी जा रहे हैं मंदिर की तरफ, और मंदिर में प्रवेश की हिम्मत भी नहीं है। दोनों काम कर रहे हैं। आप ध्यान की तैयारी भी कर रहे हैं और ध्यान में उतरने का, ध्यान में छलांग लगाने का साहस भी नहीं जुटा पाते हैं। तैरने का मन है, नदी के किनारे पहुंच गए हैं, और तट पर खड़े होकर सोच रहे हैं। तैरना भी चाहते हैं, पानी में भी नहीं उतरना चाहते! इरादा कुछ ऐसा है कि कहीं कमरे में गद्दा—तकिया लगाकर, उस पर लेटकर हाथ—पैर फड़फड़ाकर तैरने का मजा मिल जाए तो ले लें।

नहीं, पर गद्दे—तकिए पर तैरने का मजा नहीं मिल सकता। तैरने का मजा तो खतरे के साथ जुड़ा है।

आधापन अगर है तो कुंडलिनी में बहुत बाधा पड़ेगी। इसलिए अनेक मित्रों को अनुभव होगा कि कहीं चीज जाकर रुक जाती है। रुक जाती है तो एक ही बात ध्यान में रखना, और कोई बहाने मत खोजना। बहुत तरह के बहाने हम खोजते है—कि पिछले जन्म का कर्म बाधा पड़ रहा होगा, भाग्य बाधा पड़ रहा होगा, अभी समय नहीं आया होगा। ये हम सब बातें सोचते हैं ये सब बातें कोई भी सच नहीं हैं। सच सिर्फ एक बात है कि आप पूरी तरह जगाने में नहीं लगे हैं। अगर कहीं भी कोई अवरोध आता हो, तो समझना कि छलांग पूरी नहीं ले रहे हैं। और ताकत से कूदना, अपने को पूरा लगा देना, अपने को समग्रीभूत छोड़ देना। तो किसी केंद्र पर, किसी चक्र पर कुंडलिनी रुकेगी नहीं। वह तो एक क्षण में भी पार कर सकती है पूरी यात्रा, और वर्षों भी लग सकते हैं। हमारे अधूरेपन की बात है। अगर हमारा मन पूरा हो तो अभी एक क्षण में भी सब हो सकता है।

कहीं भी रुके तो समझना कि हम पूरे नहीं हैं, तो पूरा साथ देना, और शक्ति लगा देना। और शक्ति की अनंत—अनंत सामर्थ्य हमारे भीतर है। हमने कभी किसी काम में कोई बड़ी शक्ति नहीं लगाई है। हम सब ऊपर—ऊपर जीते हैं। हमने अपनी जड़ों को कभी पुकारा ही नहीं। इसीलिए बाधा पड़ सकती है। और ध्यान रहे, और कोई बाधा नहीं है।

कोई और सवाल हो तो पूछें।

प्रभु की प्यास का अभाव:

एक मित्र पूछते हैं कि ओशो जन्म के साथ ही भूख होती है नीदं होती है प्यास होती है लेकिन प्रमु की प्यास तो होता है?

स बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। प्यास तो प्रभु की भी जन्म के साथ ही होती है, लेकिन पहचानने में बड़ा समय लग जाता है। जैसे उदाहरण के लिए बच्चे सभी सेक्स के साथ पैदा होते हैं, लेकिन पहचानने में चौदह साल लग जाते हैं। काम की, सेक्स की भूख तो जन्म के साथ ही होती है, लेकिन चौदह—पंद्रह साल लग जाते हैं उसकी पहचान आने में। और पहचान आने में चौदह—पंद्रह साल क्यों लग जाते हैं? प्यास तो भीतर होती है, लेकिन शरीर तैयार नहीं होता। चौदह साल में शरीर तैयार होता है, तब प्यास जग पाती है। अन्यथा सोई पड़ी रहती है।

परमात्मा की प्यास भी जन्म के साथ ही होती है, लेकिन शरीर तैयार नहीं हो पाता। और जब भी शरीर तैयार हो जाता है तब तत्काल जग जाती है। तो कुंडलिनी शरीर की तैयारी है। लेकिन आप कहेंगे कि यह अपने आप क्यों नहीं होता?

कभी—कभी अपने आप होता है। लेकिन—इसे समझ लें— मनुष्य के विकास में कुछ चीजें पहले व्यक्तियों को होती हैं, फिर समूह को होती हैं। जैसे उदाहरण के लिए, ऐसा प्रतीत होता है कि पूरे वेद को पढ़ जाएं, ऋग्वेद को पूरा देख जाएं, तो ऐसा नहीं लगता कि ऋग्वेद में सुगंध का कोई बोध है। ऋग्वेद के समय के जितने शास्त्र हैं सारी दुनिया में, उनमें कहीं भी सुगंध का कोई भाव नहीं है। फूलों की बात है, लेकिन सुगंध की बात नहीं है। तो जो जानते हैं, वे कहते हैं कि ऋग्वेद के समय तक आदमी की सुगंध की जो प्यास है वह जाग नहीं पाई थी। फिर कुछ लोगों को जागी।

अभी भी सुगंध मनुष्यों में बहुत कम लोगों को ही अर्थ रखती है, बहुत कम लोगों को। अभी सारे लोगों में सुगंध की इंद्रिय पूरी तरह जाग नहीं पाई है। और जितनी विकसित कौंमें हैं, उतनी ज्यादा जाग गई है, जितनी अविकसित कौमें हैं, उतनी कम जागी है। कुछ तो कबीले अभी भी दुनिया में ऐसे हैं जिनके पास सुगंध के लिए कोई शब्द नहीं है। पहले कुछ लोगों को सुगंध का भाव जागा, फिर वह धीरे— धीरे गति की और वह कलेक्टिव माइंड, सामूहिक मन का हिस्सा बना।

और भी बहुत सी चीजें धीरे— धीरे जागी हैं, जो कभी नहीं थीं, एक दिन था कि नहीं थीं। रंग का बोध भी बहुत हैरान करनेवाला है। अरस्तू ने अपनी किताबों में तीन रंगों की बात की है। अरस्तू के जमाने तक यूनान में लोगों को तीन रंगों का ही बोध होता था। बाकी रंगों का कोई बोध नहीं होता था। फिर धीरे— धीरे बाकी रंग दिखाई पड़ने शुरू हुए। और अभी भी जितने रंग हमें दिखाई पड़ते हैं, उतने ही रंग हैं, ऐसा मत समझ लेना। रंग और भी हैं, लेकिन अभी बोध नहीं जगा। इसलिए कभी एल एस डी, या मेस्कलीन, या भांग, या गांजा के प्रभाव में बहुत से और रंग दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, जो हमने कभी भी नहीं देखे हैं। और रंग हैं अनंत। उन रंगों का बोध भी धीरे— धीरे जाग रहा है।

अभी भी बहुत लोग हैं जो कलर ब्लाइंड हैं। यहां अगर हजार मित्र आए हों, तो कम से कम पचास आदमी ऐसे निकल आएंगे जो किसी रंग के प्रति अंधे हैं। उनको खुद पता नहीं होगा। उनको खयाल भी नहीं होगा। कुछ लोगों को हरे और पीले रंग में कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता। साधारण लोगों को नहीं, कभी—कभी बड़े असाधारण लोगों को, बर्नार्ड शॉ को खुद कोई फर्क पता नहीं चलता था हरे और पीले रंग में। और साठ साल की उम्र तक पता नहीं चला कि उसको पता नहीं चलता है। वह तो पता चला साठवीं वर्षगांठ पर किसी ने एक सूट भेंट किया। वह हरे रंग का था। सिर्फ टाई देना भूल गया था, जिसने भेंट किया था। तो बर्नार्ड शॉ बाजार टाई खरीदने गया। वह पीले रंग की टाई खरीदने लगा। तो उस दुकानदार ने कहा कि अच्छा न मालूम पड़ेगा इस हरे रंग में यह पीला। उसने कहा कि क्या कह रहे हैं? बिलकुल दोनों एक से हैं। उस दुकानदार ने कहा, एक से! आप मजाक तो नहीं कर रहे? क्योंकि बर्नार्ड शॉ आमतौर से मजाक करता था। सर, आप मजाक तो नहीं कर रहे? इन दोनों को एक रंग कह रहे हैं आप! यह पीला है, यह हरा है। उसने कहा, दोनों हरे हैं। पीला यानी? तब बर्नार्ड शॉ ने आंख की जांच करवाई तो पता चला पीला रंग उसे दिखाई नहीं पड़ता; पीले रंग के प्रति वह अंधा है।

एक जमाना था कि पीला रंग किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। पीला रंग मनुष्य की चेतना में नया रंग है। तो बहुत से रंग नये आए हैं मनुष्य की चेतना में। संगीत सभी को अर्थपूर्ण नहीं है, कुछ को अर्थपूर्ण है। उसकी बारीकियों में कुछ लोगों को बड़ी गहराइयां हैं। कुछ के लिए सिर्फ सिर पीटना है। अभी उनके लिए स्वर का बोध गहरा नहीं हुआ है। अभी मनुष्य—जाति के लिए संगीत सामूहिक अनुभव नहीं बना। और परमात्मा तो बहुत ही दूर, आखिरी, अतींद्रिय अनुभव है। इसलिए बहुत थोड़े से लोग जाग पाते हैं। लेकिन सबके भीतर जागने की क्षमता जन्म के साथ है।

लेकिन जब भी हमारे बीच कोई एक आदमी जाग जाता है, तो उसके जागने के कारण भी हममें बहुतों की प्यास जो सोई हो वह जागना शुरू हो जाती है। जब कभी कोई एक कृष्ण हमारे बीच उठ आता है, तो उसे देखकर भी, उसकी मौजूदगी में भी हमारे भीतर जो सोया है वह जागना शुरू हो जाता है।

धर्म विरोधी मूर्च्छित समाज:

म सबके भीतर है जन्म के साथ ही वह प्यास भी, वह भूख भी, लेकिन वह जाग नहीं पाती। बहुत कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यही है…….सबसे बडा कारण तो यही है कि जो बड़ी भीड़ है हमारे चारों तरफ, उस भीड़ में वह प्यास कहीं भी नहीं है। और अगर किसी व्यक्ति में उठती भी है तो वह उसे दबा लेता है, क्योंकि वह उसे पागलपन मालूम होती है। चारों तरफ जहां सारे लोग धन की प्यास से भरे हों, यश की प्यास से भरे हों, वहां धर्म की प्यास पागलपन मालूम पड़ती है। और चारों तरफ के लोग संदिग्ध हो जाते हैं कि कुछ दिमाग तो नहीं खराब हो रहा है! आदमी अपने को दबा देता है। उठ नहीं पाती, जग नहीं पाती सब तरफ से दमन हो जाता है। और जो हमने दुनिया बनाई है, उस दुनिया में हमने परमात्मा को जगह नहीं छोड़ी, क्योंकि जैसा मैंने कहा बड़ा खतरनाक है परमात्मा को जगह छोड़ना, हमने वह जगह नहीं छोड़ी है।

पत्नी डरती है कि कहीं पति के जीवन में परमात्मा न आ जाए। क्योंकि परमात्मा के आने से पत्नी तिरोहित भी हो सकती है। पति डरता है, कहीं पत्नी के जीवन में परमात्मा न आ जाए। क्योंकि अगर परमात्मा आ गया तो पति परमात्मा का क्या होगा? यह सब्‍स्‍टियूट परमात्मा कहां जाएगा? इसकी जगह कहां होगी?

हमने जो दुनिया बनाई है, उसमें परमात्मा को जगह नहीं रखी है। और परमात्मा वहां डिस्टरबिंग साबित होगा। वह अगर वहां आता है तो वहां गड़बड़ होगी। गड़बड़ सुनिश्चित है। वहां कुछ न कुछ अस्तव्यस्त होगा। वहां नींद टूटेगी, कहीं कुछ होगा कहीं कुछ चीजें बदलनी पड़ेगी। हम ठीक वही तो नहीं रह जाएंगे जो हम थे। तो इसलिए हमने उसे घर के बाहर छोड़ा है। लेकिन कहीं वह जग ही न जाए उसकी प्यास, इसलिए हमने झूठे परमात्मा अपने घरों में बना लिए—कि अगर किसी को जगे भी, तो यह रहे भगवान। एक पत्थर की मूर्ति खड़ी है, उसकी पूजा करो। ताकि असली भगवान की तरफ प्यास न चली जाए। तो सब्‍स्‍टियूट गॉड्स हमने पैदा किए हुए हैं। यह आदमी की सबसे बड़ी कनिंगनेस, सबसे बड़ी चालाकी, सबसे बड़ा षड्यंत्र है। परमात्मा के खिलाफ जो बड़े से बड़ा षड्यंत्र है, वह आदमी के बनाए हुए परमात्मा हैं।

इनकी वजह से जो प्यास उसकी खोज में जाती, वह उसकी खोज में न जाकर मंदिरों और मस्जिदों के आसपास भटकने लगती है, जहां कुछ भी नहीं है। और जब वहां कुछ भी नहीं मिलता तो आदमी को लगता है कि इससे तो अपना वह घर ही बेहतर; इस मंदिर और मस्जिद में क्या रखा हुआ है! तो मंदिर—मस्जिद हो आता है, घर लौट आता है। उसे पता नहीं कि मंदिर— मस्जिद बहुत धोखे की ईजाद हैं।

मैंने तो सुना है कि एक दिन शैतान ने लौटकर अपनी पत्नी को कहा कि अब मैं बिलकुल बेकार हो गया हूं अब मुझे कोई काम ही न रहा। उसकी पत्नी बहुत हैरान हुई, जैसे कि पत्‍निया हैरान होती हैं अगर कोई बेकार हो जाए। उसकी पत्नी ने कहा, आप और बेकार! लेकिन आप कैसे बेकार हो गए? आपका काम तो शाश्वत है! लोगों को बिगाड़ने का काम तो सदा चलेगा; यह बंद तो होनेवाला नहीं। यह कैसे बंद हो गया? आप कैसे बेकार हो गए? उस शैतान ने कहा, मैं बेकार बड़ी मुश्किल से हो गया, बड़े अजीब ढंग से हो गया। अब मेरा जो काम था वह मंदिर और मस्जिद, पंडित और पुजारी कर देते हैं; मेरी कोई जरूरत नहीं है। आखिर भगवान से ही लोगों को भटकाता था। अब भगवान की तरफ कोई जाता ही नहीं! बीच में मंदिर खड़े हैं, वहीं भटक जाता है। हम तक कोई आता ही नहीं मौका कि हम भगवान से भटकाएं।

परमात्मा की प्यास तो है। और बचपन से ही हम परमात्मा के संबंध में कुछ सिखाना शुरू कर देते हैं, उससे नुकसान होता है; जानने के पहले यह भ्रम पैदा होता है कि जान लिया। हर आदमी परमात्मा को जानता है! प्यास पैदा ही नहीं हो पाती और हम पानी पिला देते हैं। उससे ऊब पैदा हो जाती है और घबड़ाहट पैदा हो जाती है। परमात्मा अरुचिकर हो जाता है हमारी शिक्षाओं के कारण; कोई रुचि नहीं रह जाती। और इतना ठूंस देते हैं, दिमाग को ऐसा स्टफ कर देते हैं—गीता, कुरान, बाइबिल से, महात्माओं से, साधुओं—संतों से, वाणियों से इस बुरी तरह सिर भर देते हैं कि मन यह होता है कि कब इससे छुटकारा हो। तो परमात्मा तक जाने का सवाल नहीं उठता।

हमने जो व्यवस्था की है वह ईश्वर—विरोधी है, इसलिए प्यास बड़ी मुश्किल हो गई। और अगर कभी उठती है तो आदमी फौरन पागल मालूम होने लगता है। तत्काल पता चलता है कि यह आदमी पागल हो गया है, क्योंकि वह हम सबसे भिन्न हो जाता है। वह और ढंग से जीने लगता है; वह और ढंग से श्वास लेने लगता है; सब उसका तौर—तरीका बदल जाता है। वह हमारे बीच का आदमी नहीं रह जाता, वह स्ट्रेजर हो जाता है, वह अजनबी हो जाता है।

हमने जो दुनिया बनाई है, वह ईश्वर—विरोधी है। बड़ा पक्का षड्यंत्र है। और अभी तक हम सफल ही रहे हैं। अभी तक हम सफल ही हुए चले जा रहे हैं। हम ईश्वर को बिलकुल बाहर कर दिए हैं। उसकी ही दुनिया से हमने उसे बिलकुल बाहर किया हुआ है। और हमने एक जाल बनाया है जिसके भीतर उसके घुसने के लिए हमने कोई दरवाजा नहीं छोड़ा है। तो प्यास कैसे जगे? लेकिन, प्यास भला न जगे, प्यास का भला पता न चले, लेकिन तड़पन भीतर और गहरी घूमती रहती है जिंदगी भर। यश मिल जाता है, फिर भी लगता है कुछ खाली रह गया; धन मिल जाता है और लगता है कि कुछ अनमिला रह गया; प्रेम मिल जाता है और लगता है कि कुछ छूट गया जो नहीं मिला, नहीं पाया जा सका।

वह क्या है जो हर बार छूट गया मालूम पड़ता है?

एक दिशाहीन प्यास:

ह हमारे भीतर की एक प्यास है, जिसको हमने पूरा होने से, बढ़ने से, जगने से सब तरह से रोका है। वह प्यास जगह— जगह खड़ी हो जाती है, हमारे हर रास्ते पर प्रश्नचिह्न बन जाती है। और वह कहती है इतना धन पा लिया, लेकिन कुछ मिला नहीं; इतना यश पा लिया, लेकिन कुछ मिला नहीं, सब पा लिया, लेकिन खाली हो तुम। वह प्यास जगह—जगह से हमें कोंचती है, कुरेदती है, जगह—जगह से छेदती है। लेकिन हम उसको झुठलाकर फिर अपने काम में और जोर से लग जाते हैं, ताकि यह आवाज सुनाई न पड़े। इसलिए धन कमानेवाला और जोर से कमाने लगता है, और जोर से कमाने लगता है। यश की दौडवाला और तेजी से दौड़ने लगता है। वह अपने कान बंद कर लेता है कि सुनाई न पड़े कि कुछ भी नहीं मिला।

हमारा सारा का सारा इंतजाम प्यास को जगने से रोकता है। अन्यथा….. .एक दिन जरूर पृथ्वी पर ऐसा होगा कि जैसे बच्चे भूख और प्यास लेकर, और सेक्स और यौन लेकर पैदा होते हैं, ऐसे ही वे डिवाइन थर्स्ट, परमात्मा की प्यास लेकर भी पैदा होते हुए मालूम पड़ेंगे। वह दुनिया कभी बन सकती है, बनाने जैसी है। कौन बनाए उसे?

बहुत प्यासे लोग जो परमात्मा को खोजते हैं, उस दुनिया को बना सकते हैं। लेकिन जैसा अब तक है, उस सारे षड्यंत्र को तोड़ देने की जरूरत है, तब ऐसा हो सकता है।

प्यास तो है। लेकिन आदमी कृत्रिम उपाय कर ले सकता है। अब चीन में हजारों साल तक स्त्रियों के पैर में लोहे का जूता पहनाया जाता था, कि पैर छोटा रहे। छोटा पैर सौंदर्य का चिह्न था। जितना छोटा पैर हो, उतने बड़े घर की लड़की थी। तो स्त्रियां चल ही नहीं सकती थीं, पैर इतने छोटे रह जाते थे। शरीर तो बड़े हो जाते, पैर छोटे रह जाते। वे चल ही न पातीं। जो स्त्री बिलकुल न चल पाती, वह उतने शाही खानदान की स्त्री! क्योंकि गरीब की स्त्री तो अफोर्ड नहीं कर सकती थी, उसको तो पैर बड़े ही रखना पड़ता था, उसको तो चलना पड़ता था, काम करना पड़ता था। सिर्फ शाही स्त्रियां चलने से बच सकती थीं। तो कंधों पर हाथ का सहारा लेकर चलती थीं। अपंग हो जाती थीं, लेकिन समझा जाता था कि सौंदर्य है। अपंग होना था वह।

आज चीन की कोई लड़की तैयार न होगी, कहेगी पागल थे वे लोग। लेकिन हजारों साल तक यह चला। जब कोई चीज चलती है तो पता नहीं चलता। जब हजारों लोग, इकट्ठी भीड़ करती है तो पता नहीं चलता। जब सारी भीड़ पैरों में जूते पहना रही हो लोहे के, तो सारी लड़कियां पहनती थीं। जो नहीं पहनती, उसको लोग कहते कि तू पागल है। उसे अच्छा, सुंदर पति न मिलता, संपन्न परिवार न मिलता, वह दीन और दरिद्र समझी जाती। और जहां भी उसका पैर दिख जाता वहीं गंवार समझी जाती— अशिक्षित, असंस्कृत। क्योंकि तेरा पैर इतना बड़ा! पैर सिर्फ बड़े गंवार के ही चीन में होते थे, सुसंस्कृत का पैर तो छोटा होता था।

तो हजारों साल तक इस खयाल ने वहां की स्त्रियों को पंगु बनाए रखा। खयाल भी नहीं आया कि हम यह क्या पागलपन कर रहे हैं! लेकिन वह चला। जब टूटा तब पता चला कि यह तो पागलपन था।

ऐसे ही सारी मनुष्यता का मस्तिष्क पंगु बनाया गया है, ईश्वर की दृष्टि से। ईश्वर की तरफ जाने की जो प्यास है, उसे सब तरफ से काट दिया जाता है; उसको पनपने के मौके नहीं दिए जाते। और अगर कभी उठती भी हो, तो झूठे सब्स्‍टियूट खड़े कर दिए जाते हैं और बता दिया जाता है— परमात्मा चाहिए? चले जाओ मंदिर में! परमात्मा चाहिए? पढ़ लो गीता, पढ़ो कुरान, पढ़ो वेद— मिल जाएगा।

वहां कुछ भी नहीं मिलता, शब्द मिलते हैं। मंदिर में पत्थर मिलते हैं। तब आदमी सोचता है कि कुछ भी नहीं है, तो शायद अपनी प्यास ही झूठी रही होगी। और फिर प्यास ऐसी चीज है कि आई और गई। जब तक आप मंदिर गए तब तक प्यास चली गई। जब तक आपने गीता पढ़ी तब तक प्यास चली गई। फिर धीरे— धीरे प्यास कुंठित हो जाती है। और जब किसी प्यास को तृप्त होने का मौका न मिले तो वह मर जाती है। वह धीरे— धीरे मर जाती है।

अगर आप तीन दिन भूखे रहें, तो बहुत जोर से भूख लगेगी पहले दिन; दूसरे दिन और जोर से लगेगी, तीसरे दिन और जोर से लगेगी, चौथे दिन कम हो जाएगी, पांचवें दिन और कम हो जाएगी, छठवें दिन और कम हो जाएगी; पंद्रह दिन के बाद भूख लगनी बंद हो जाएगी। महीने भर भूखे रह जाएं, फिर पता ही नहीं चलेगा कि भूख क्या है। कमजोर होते चले जाएंगे, क्षीण होते चले जाएंगे, रोज वजन कम होता चला जाएगा, अपना मांस पचा जाएंगे, लेकिन भूख लगनी बंद हो जाएगी; क्योंकि अगर महीने भर तक भूख को मौका न दिया बढ़ने का, तो मर जाएगी।

मैंने सुना है, काफ्का ने एक छोटी सी कहानी लिखी है। उसने एक कहानी लिखी है कि एक बड़ा सर्कस है, और उस बड़े सर्कस में बहुत तरह के लोग हैं, और बहुत तरह के खेल तमाशे हैं। उस सर्कसवाले ने एक फास्ट करनेवाले को, उपवास करनेवाले को भी इकट्ठा कर लिया है। वह उपवास करने का प्रदर्शन करता है। उसका भी एक झोपड़ा है। सर्कस में और बहुत चीजों को लोग देखने आते हैं— जंगली जानवरों को देखते हैं, अजीब—अजीब जानवर हैं। इस अजीब आदमी को भी देखते हैं। यह महीनों बिना खाने के रह जाता है। वह तीन—तीन महीने तक बिना खाने के रहकर उसने दिखलाया है। निश्चित ही, उसको भी लोग देखने आते हैं। लेकिन कितनी बार देखने आएं? एक गांव में सर्कस छह—सात महीने रुका। महीने—पंद्रह दिन लोग उसको देखने आए। फिर ठीक है, अब भूखा रहता है तो रहता है। कब तक लोग देखने आएंगे?

सर्कस है, साधु—संन्यासी हैं, इसलिए इनको गांव बदलते रहना चाहिए। एक ही गांव में ज्यादा दिन रहे तो बहुत मुश्किल हो। वे कितने दिन तक लोग आएंगे? इसलिए दों—तीन दिन में गांव बदल लेने से ठीक रहता है। दूसरे गांव में फिर लोग आ जाते हैं। दूसरे गांव में फिर लोग आ जाते हैं।

उस गांव में सर्कस ज्यादा दिन रुक गया। लोग उसको देखने आना बंद कर दिए। उसकी झोपड़ी की फिकर ही भूल गए। वह इतना कमजोर हो गया था कि मैनेजर को जाकर खबर भी नहीं कर पाया, उठ भी नहीं सकता था, पड़ा रहा, पड़ा रहा, पड़ा रहा—बड़ा सर्कस था, लोग भूल ही गए। चार महीने, पांच महीने हो गए, तब अचानक एक दिन पता चला कि भई, उस आदमी का क्या हुआ जो उपवास किया करता था?

तो मैनेजर भागा कि वह आदमी मर न गया हो। उसका तो पता ही नहीं है! जाकर देखा तो वह जिस घास की गठरी में पड़ा रहता था वहां घास ही घास था, आदमी तो था नहीं। आवाज दी! उसकी तो आवाज नहीं निकलती थी। घास को अलग किया तो वह बिलकुल हड्डी—हड्डी रह गया था। आंखें उसकी जरूर थीं।

मैनेजर ने पूछा कि भई, हम भूल ही गए, क्षमा करो! लेकिन तुम कैसे पागल हो, अगर लोग नहीं आते थे, तो तुम्हें खाना लेना शुरू कर देना चाहिए था! उसने कहा कि लेकिन अब खाना लेने की आदत ही छूट गई है; भूख ही नहीं लगती। अब मैं कोई खेल नहीं कर रहा हूं अब तो खेल करने में फंस गया हूं। कोई खेल नहीं कर रहा, लेकिन अब भूख ही नहीं है। अब मैं जानता ही नहीं कि भूख क्या है। भूख कैसी चीज है वह मेरे भीतर होती ही नहीं।

क्या हो गया इस आदमी को? लंबी भूख व्यवस्था से की जाए तो भूख मर जाती है। परमात्मा की भूख को हम जगने नहीं देते। क्योंकि परमात्मा से ज्यादा डिस्टरबिग फैक्टर कुछ और नहीं हो सकता है। इसलिए हमने इंतजाम किया हुआ है। हम बड़ी व्यवस्था से, प्लान से रोके हुए हैं सब तरफ से कि वह कहीं से भीतर न आ जाए। अन्यथा हर आदमी प्यास लेकर पैदा होता है। और अगर उसे जगाने की सुविधा दी जाए, तो धन की प्यास, यश की प्यास तिरोहित हो जाएं, वही प्यास रह जाए।

आत्मिक प्यास से क्रांति:

र भी एक कारण है कि या तो परमात्मा की प्यास रहे और या फिर दूसरी प्यासे रहें, सब साथ नहीं रह सकतीं। इसलिए इन प्यासों को— धन की, यश की, काम की—इन प्यासों को बचाने के लिए परमात्मा की प्यास को रोकना पड़ा है। अगर उसकी प्यास जगेगी, तो वह सभी को तिरोहित कर लेगी, अपने में समाहित कर लेगी। वह अकेली ही रह जाएगी।

परमात्मा बहुत ईर्ष्यालु है। वह जब आता है तो बस अकेला ही रह जाता है, फिर वह किसी को टिकने नहीं देता वहां। जब वह आपको अपना मंदिर बनाएगा तो वहां छोटे—मोटे देवी—देवता और न टिकेंगे, कि कई रखे हुए हैं हनुमान जी भी वहीं विराजमान हैं, और देवी—देवता भी विराजमान हैं, ऐसा परमात्मा न टिकने देगा। जब वह आएगा तो सब देवी—देवताओं को बाहर कर देगा। वह अकेला ही विराजमान हो जाता है। बहुत ईर्ष्यालु है।

कर्ता होने का भ्रम:

प्रश्न : ओशो व्यक्ति जो कार्य करता है? वह परमात्मा ही द्वारा नहीं होता है क्या?

ह सवाल ठीक पूछा है कि व्यक्ति जो कार्य करता है, वह परमात्मा ही द्वारा नहीं होता है क्या?

जब तक करता है, तब तक नहीं होता। जब तक व्यक्ति को लगता है—मैं कर रहा हूं तब तक नहीं होता। जिस दिन व्यक्ति को लगता है—मैं हूं ही नहीं, हो रहा है—उस दिन परमात्मा का हो जाता है। जब तक डूइंग का खयाल है कि कर रहा हूं तब तक नहीं। जिस दिन हैपनिंग हो जाती है—कि हो रहा है। हवाओं से पूछें कि बह रही हो? हवाएं कहेंगी, नहीं, बहाई जा रही हैं। वृक्षों से पूछो, बड़े हो रहे हो? वे कहेंगे, नहीं, बड़े किए जा रहे हैं। सागर की लहरों से पूछो, तुम्हीं तट से टकरा रही हो? वे कहेंगी, नहीं, बस टकराना हो रहा है। तब तो परमात्मा का हो गया। आदमी कहता है, मैं कर रहा हूं! बस वहीं से द्वार अलग हो जाता है; वहीं से आदमी का अहंकार घेर लेता है; वहीं से आदमी अपने को अलग मानकर खड़ा हो जाता है।

जिस दिन आदमी को भी पता चलता है कि जैसे हवाएं बह रही हैं, और जैसे सागर की लहरें चल रही हैं, और वृक्ष बड़े हो रहे हैं, और फूल खिल रहे हैं, और आकाश में तारे चल रहे हैं, ऐसा ही मैं चलाया जा रहा हूं; कोई है जो मेरे भीतर चलता है, और कोई है जो मेरे भीतर बोलता है; मैं अलग से कुछ भी नहीं हूं; बस उस दिन परमात्मा ही है।

कर्ता होने का हमारा भ्रम है। वही भ्रम हमें दुख देता है, वही भ्रम दीवाल बन जाता है। जिस दिन हम कर्ता नहीं हैं, उस दिन कोई भ्रम शेष नहीं रह जाता; उस दिन वही रह जाता है।

अभी भी वही है। ऐसा नहीं है कि आप कर्ता हैं तो आप कर्ता हो गए हैं। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। जब आप समझ रहे हैं कि मैं कर्ता हूं तो सिर्फ आपको भ्रम है। अभी भी वही है। लेकिन आपको उसका कोई पता नहीं है। हालत बिलकुल ऐसी है जैसे आप रात सो जाएं आज नारगोल में और रात सपना देखें कि कलकत्ता पहुंच गए हैं। कलकत्ता पहुंच नहीं गए हैं, कितना ही सपना देखें, हैं नारगोल में ही, लेकिन सपने में कलकत्ता पहुंच गए हैं। और अब आप कलकत्ते में पूछ रहे हैं कि मुझे नारगोल वापस जाना है, अब मैं कौन सी ट्रेन पकडूं? अब मैं हवाई जहाज से जाऊं, कि रेलगाड़ी से जाऊं, कि पैदल चला जाऊं? मैं कैसे पहुंच पाऊंगा? रास्ता कहां है? मार्ग कहां है? कौन मुझे पहुंचाएगा? गाइड कौन है? नक्‍शे देख रहे हैं, पता लगा रहे हैं। और तभी आपकी नींद टूट गई है। और नींद टूटकर आपको पता लगता है कि मैं कहीं गया नहीं, मैं वहीं था। फिर आप नक्‍शे वगैरह नहीं खोजते। फिर आप गाइड नहीं खोजते। फिर अगर कोई आपसे कहे भी कि क्या इरादा है, कलकत्ते से वापस न लौटिएगा? तो आप हंसते हैं, आप कहते हैं, कभी गया ही नहीं; कलकत्ता कभी गया नहीं, सिर्फ जाने का खयाल हुआ था।

आदमी जब अपने को कर्ता समझ रहा है तब भी कर्ता है नहीं, तब भी खयाल ही है, सपना ही है कि मैं कर रहा हूं। सब हो रहा है। यह सपना ही टूट जाए, तो जिसे ज्ञान कहें, जिसे जागरण कहें, वह घटित हो जाए। और जब हम ऐसा कहते हैं कि वह मुझसे करवा रहा है, तब भी भ्रम जारी है, क्योंकि तब भी मैं फासला मान रहा हूं—मैं मान रहा हूं कि मैं भी हूं वह भी है; वह करवाने वाला है, मैं करनेवाला हूं। नहीं, जब आपको सच में ही आप जागेंगे, तो आप ऐसा नहीं कहेंगे कि ही, मैं अभी—अभी कलकत्ते से लौट आया हूं। ऐसा नहीं कहेंगे, आप कहेंगे, मैं गया ही नहीं था। जिस दिन आप इस नींद से जागेंगे जो कर्ता होने की है, अहंता की, ईगो की नींद है, उस दिन आप ऐसा नहीं कहेंगे कि वह करवा रहा है और मैं करनेवाला हूं। उस दिन आप कहेंगे. वही है, मैं हूं कहां! मैं कभी था ही नहीं; एक स्वप्न देखा था जो टूट गया है।

और स्वप्न हम जीवन—जीवन तक देख सकते हैं; अनंत जन्मों तक देख सकते हैं। स्वप्न के देखने का कोई अंत नहीं है। कितने ही स्वप्न देख सकते हैं। और स्वप्नों का बड़े से बड़ा मजा तो यह है कि जब आप स्वप्न देखते हैं तब वह बिलकुल सत्य मालूम होता है। आपने बहुत बार सपने देखे हैं। रोज रात देखते हैं। और रोज सुबह जानते हैं कि सपना था, झूठा था। फिर आज रात देखेंगे जब, तब खयाल न आएगा कि सपना है, झूठा है। तब फिर जंचेगा कि बिलकुल ठीक है। फिर सुबह कल जागकर कहेंगे कि झूठा था। कितनी कमजोर है स्मृति! सुबह उठकर कहते हैं, सब सपने झूठे थे! रात फिर सपने देखते हैं। और सपने में वे फिर सच हो जाते हैं। वह सारा बोध जो सुबह हुआ था, फिर खो गया। निश्चित ही वह कोई गहरा बोध न था, ऊपर—ऊपर हुआ था। गहरे में फिर वही भांति चल रही है।

ऐसे ऊपर—ऊपर हमें बोध हो जाते हैं। कोई किताब पढ़ लेता है, और उसमें पढ़ लेता है कि सब परमात्मा करवा रहा है। तो एक क्षण को ऊपर से एक बोध हो जाता है कि मैं करनेवाला नहीं हूं परमात्मा करवा रहा है। लेकिन अभी भी वह कहता है—मैं करनेवाला नहीं, परमात्मा करवा रहा है। लेकिन वह मैं अभी जारी है। वह अभी कह रहा है कि मैं करनेवाला नहीं। वह एक क्षण में खो जाएगा। एक जोर से धक्का दे दें उसे, और वह क्रोध से भर जाएगा और कहेगा कि जानते नहीं मैं कौन हूं? वह भूल जाएगा कि अभी वह कह रहा था कि मैं करनेवाला नहीं, मैं नहीं हूं मैं कोई नहीं हूं परमात्मा ही है। एक जोर से धक्का दे दें, सब भूल जाएगा; एक क्षण में सब खो जाएगा। वह कहेगा, मुझे धक्का दिया, जानते नहीं मैं कौन हूं? वह परमात्मा वगैरह एकदम विदा हो जाएगा! मैं वापस लौट आएगा।

मैंने सुना है, एक संन्यासी हिमालय रहा तीस वर्षों तक। शांति में था, स्वात में था। भूल गया, अहंकार न रहा। अहंकार के लिए दूसरे का होना जरूरी है। क्योंकि वह दि अदर अगर न हो तो अहंकार खड़ा कहां करो? तो दूसरे का होना जरूरी है। दूसरे की आंख में जब अकड़ से झांको, तब वह खड़ा होता है। अब दूसरा ही न हो तो किस की अकड़ से झांकोगे? कहां कहो कि मैं हूं! क्योंकि तू चाहिए। मैं को खड़ा करने के लिए एक और झूठ चाहिए, वह तू है। उसके बिना वह खड़ा नहीं होता। झूठ के लिए एक सिस्टम चाहिए पड़ती है बहुत से खो की, तब एक झूठ खड़ा होता है। सत्य अकेला खड़ा हो जाता है, झूठ कभी अकेला खड़ा नहीं होता। झूठ के लिए और शो की बल्लियां लगानी पड़ती हैं। मैं का झूठ खड़ा करना हो तो तू वह, वे, इन सबके झूठ खड़े करने पडते हैं, तब मैं बीच में खड़ा हो पाता है।

वह आदमी अकेला था जंगल में, पहाड़ पर था, कोई तू न था, कोई वह न था, कोई वे न थे, कोई हम न था, भूल गया मैं। तीस साल लंबा वक्त था, शांत हो गया। नीचे से लोग आने लगे। फिर लोगों ने प्रार्थना की कि एक मेला भर रहा है, पहाड़ ऊंचा है, बहुत लोग यहां तक न आ सकेंगे, और प्रार्थना हम करते हैं कि आप नीचे चलकर दर्शन दे दें।

सोचा कि अब तो मेरा मैं रहा नहीं, अब चलने में हर्ज क्या है!

ऐसा बहुत बार मन धोखा देता है। अब तो मेरा मैं न रहा, अब चलने में हर्ज क्या है! आ गया। नीचे बहुत भीड़ थी, लाखों लोगों का मेला था। अपरिचित लोग थे, उसे कोई जानता न था। तीस साल पहले वह आदमी गया था। उसको लोग भूल भी चुके थे। जब वह भीड़ में चला, किसी का जूता उसके पैर पर पड़ गया। जूता पैर पर पड़ा, उसने उसकी गरदन पकड़ ली और कहा कि जानता नहीं मैं कौन हूं? वे तीस साल एकदम खो गए, जैसे एक सपना विदा हो गया। वे तीस साल—वह पहाड़, वह शांति, वह शून्यता, वह मैं का न होना, वह परमात्मा होना—सब विदा हो गया। एक सेकेंड में, वह था ही नहीं कभी, ऐसा विदा हो गया। गरदन पर हाथ कस गए और कहा कि जानता नहीं मैं कौन हूं?

तब अचानक उसे खयाल आया कि यह मैं क्या कह रहा हूं! मैं तो भूल गया था कि मैं हूं। यह वापस कैसे लौट आया? तब उसने लोगों से क्षमा मांगी, और उसने कहा कि अब मुझे जाने दो। लोगों ने कहा, कहां जा रहे हैं? उसने कहा, अब पहाड़ न जाऊंगा, अब मैदान की तरफ जा रहा हूं। उन्होंने कहा, लेकिन यह क्या हो गया? उसने कहा कि जो तीस साल पहाड़ के एकांत में मुझे पता न चला, वह एक आदमी के संपर्क में पता चल गया। अब मैं मैदान की तरफ जा रहा हूं वहीं रहूंगा; वहीं पहचानूंगा कि मैं है या नहीं है। सपना हो गया तीस साल; समझता था सब खो गया; सब वहीं के वहीं है, कहीं कुछ खोया नहीं है।

तो भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। लेकिन भ्रांतियों से काम नहीं चल सकता है।

अब हम ध्यान के लिए बैठें, क्योंकि कल से तो फर्क हो जाएगा। कल से सुबह सिर्फ ध्यान करेंगे और रात सिर्फ चर्चा करेंगे। लेकिन आज तो आज के हिसाब से। थोड़े— थोड़े फासले पर हो जाएं, लेकिन बहुत फासले पर न जाएं; क्योंकि मैंने सुबह अनुभव किया कि जो लोग बहुत दूर चले गए, वह जो यहां एक साइकिक एटमॉसफिअर होता है, उसके फायदे से वंचित रह गए। इसलिए बहुत दूर न जाएं। फासले पर हो जाएं, लेकिन बहुत दूर न जाएं, बीच में बहुत जगह न छोड़े। अन्यथा यहां जो एक वातावरण निर्मित होता है, आप उसके बाहर पड़ जाते हैं और उसका फायदा नहीं उठा पाते। तो बहुत दूर से पास आ जाएं। बस फासला इतना कर लें। जिनको लेटना हो वे अपनी जगह बना लें, लेट जाएं; जिनको बैठना हो वे बैठें; लेकिन बहुत दूर भी न जाएं। और बातचीत बिलकुल न करें।

बातचीत जरा भी न करें। बिना बातचीत के जो काम हो सके, उसमें बातचीत क्यों करें!

क्या बात है?

पत्थर मारा गया है।

पत्थर था वह? चलो कोई बात नहीं, सम्हालकर रखो, किसी ने प्रेम से फेंका होगा।

हां, जो लोग इधर पीछे कुछ लोग बात कर रहे हैं, वे बात न करें, या तो बैठते हों तो चुपचाप बैठ जाएं या फिर चले जाएं। कोई भी दर्शक की हैसियत से न बैठे। और दर्शक की हैसियत से ही बैठे तो कम से कम चुप बैठे। किसी को किसी के द्वारा बाधा न हो। और कोई मित्र, मालूम होता है, पत्थर फेंकते हैं। दों—तीन पत्थर फेंके हैं। तो पत्थर फेंकने हों तो मेरी तरफ फेंकने चाहिए, बाकी किसी की तरफ नहीं फेंकने चाहिए।

 

ठीक है, बैठ जाएं। जो जहां है वहीं बैठ जाए। आंख बंद कर लें।

 

पहला चरण :

एक घंटे पूरी ताकत लगानी है। आंख बंद कर लें, आंख बंद कर लें। गहरी श्वास लेना शुरू करें। देखें, सागर इतने जोर से, इतने जोर से श्वास लेता है, सरूवन इतने जोर से श्वास लेता है। जोर से श्वास लें। पूरी श्वास भीतर ले जाएं, पूरी श्वास बाहर निकालें। एक ही काम रह जाए दस मिनट तक— श्वास ले रहे, छोड़ रहे, श्वास ले रहे, छोड़ रहे। और भीतर साक्षी बन जाएं, भीतर देखते रहें— श्वास भीतर आई, बाहर गई। दस मिनट श्वास लेने की प्रक्रिया में गहरे उतरें। शुरू करें! गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े.. गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े.. .गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े.. .गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े। पूरी शक्ति लगाएं।

यह रात हमें मिली, यह मौका हमें मिला— फिर मिले, न मिले। पूरी शक्ति लगाएं। कुछ हो सकता है तो पूरी शक्ति से होगा। एक इंच भी बचाएंगे, नहीं होगा।….. .पूरी गहरी श्वास लें….. .बस एक यंत्र रह जाए शरीर, श्वास ले रहा है। यंत्र की भांति श्वास ले रहा है। एक यंत्र मात्र रह गए हैं। और देखें, संकोच न करें और दूसरे की फिकर न करें, अपनी फिकर करें….. गहरी श्वास लें….. .एक यंत्र मात्र रह जाएं। शरीर एक यंत्र है।

एक दस मिनट तक गहरी से गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े, बस श्वास लेनेवाले ही रह जाएं.. .श्वास ले रहे हैं, छोड़ रहे हैं……ले रहे हैं, छोड़ रहे हैं। और देखते रहें भीतर— साक्षी मात्र। देख रहे हैं— श्वास भीतर आई, श्वास बाहर गई….. श्वास भीतर आई, श्वास बाहर गई। लगाएं….. .शक्ति लगाएं।

दस मिनट मैं चुप होता हूं आप पूरी शक्ति लगाएं। ऐसा नहीं कि मैं कहूं तब आप एक—दो श्वास गहरी लें और फिर धीमी लेने लगें। दस मिनट पूरी ताकत लगाएं. श्वास में पूरी शक्ति लगा दें—गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े। सारा शरीर कैप जाए, रोआं—रोआं कैप जाए। सारे शरीर में विद्युत जग जाएगी, भीतर कोई शक्ति उठने लगेगी, रोएं—रोएं में फैलने लगेगी…… छोड़े, पूरी ताकत लगाएं— गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे…… गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे…… गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे….. गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे…… गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे…… गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे…… गहरी से गहरी लें….. गहरी श्वास ले रहे, गहरी श्वास छोड़ रहे…… गहरी श्वास ले रहे, गहरी श्वास छोड़ रहे…… पूरा एक यंत्र रह जाए शरीर, सिर्फ श्वास लेने का एक यंत्र रह जाए…… सागर के गर्जन में एक हो जाएं, हवाओं की लहरों में एक हो जाएं….. सिर्फ श्वास ले रहे हैं…… और कुछ भी नहीं करना है— गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे……. गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे…… गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे…… गहरी श्वास ले रहे, छोड़ रहे… और भीतर साक्षी बने रहें

शक्ति पूरी लगाएं। स्मरणपूर्वक गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े…… गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े….. गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े… स्मरणपूर्वक गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े….. भीतर जागकर देखते रहें— श्वास भीतर आई, श्वास बाहर गई… श्वास भीतर आई, श्वास बाहर गई. अपने को जरा भी बचाएं न…… अपने को बचाएं न, पूरा लगा दें — गहरी श्वास, और गहरी, और गहरी, और गहरी। श्वास लेने और छोड़ने के अतिरिक्त और कुछ भी न बचे…… श्वास लेने—छोड़ने के अतिरिक्त और कुछ भी न बचे…… गहरी श्वास, और गहरी….. और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…..

देखें, कहने को न बचे कि हमने कम किया, मुझसे कहने को न रहे कि हम पूरा नहीं किए। कहीं बात रुके न, पूरी शक्ति लगाएं। दूसरे सूत्र पर जाने के पहले अपने को थका डालें…… पूरी ताकत लगाएं…… गहरी श्वास, गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास.. ….गहरी श्वास.. श्वास ही रह गई है, बस श्वास ही हो गए हम, श्वास ही हैं सिर्फ.. गहरी श्वास.. .गहरी श्वास… गहरी श्वास… गहरी श्वास… गहरी श्वास…… गहरी श्वास… गहरी श्वास… गहरी श्वास….. गहरी श्वास…… गहरी श्वास.. .गहरी श्वास…… और भीतर देखते रहें— श्वास आई, श्वास गई— साक्षी बने रहें। श्वास आती दिखाई पड़ेगी, श्वास जाती दिखाई पड़ेगी। भीतर देखते रहें, देखते रहें…… तीव्र.. और तीव्र…… और तीव्र……

(लोगों का नाचना कंपना आवाजें निकालना……)

दूसरे सूत्र पर जाने के लिए और तीव्र! जब आप पूरी तीव्रता में होंगे, तब ही मैं दूसरे सूत्र पर ले जाऊंगा…… .पूरी शक्ति लगाएं….. पूरी शक्ति लगाएं…… पूरी शक्ति लगाएं…… सब तरह से अपनी सारी शक्ति लगा दें…… गहरी श्वास….. गहरी श्वास. श्वास…… गहरी श्वास…… बस श्वास ही रह गई, श्वास ही है, और कुछ भी नहीं — सारी शक्ति लगा दें… और गहरा और गहरा… और गहरा… और गहरा……

(रोने चिल्लाने की आवाजें…… )

और गहरा लगा सकते हैं, रोकें मत। और गहरा….. और गहरा….., और गहरा…… और गहरा लगा सकते हैं कंपने दें शरीर…… डोलता है, डोलने दें.. घूमता है, घूमने दें…… गहरी श्वास लें….. गहरी से गहरी श्वास लें…. .गहरी श्वास…. .गहरी श्वास। दूसरे सूत्र में प्रवेश करना है. …..गहरी श्वास… एक आखिरी मिनट, गहरी श्वास…….

(अनेक तरह की आवाजें……)

गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… आखिरी मिनट, पूरी शक्ति लगाएं…… गहरी श्वास, गहरी श्वास…… पूरे क्लाइमेक्स पर ही बदलाहट ठीक होती है…… पूरी शक्ति लगाएं एक मिनट…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास.. गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… और गहरी….. और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… श्वास ही रह जाए, श्वास ही रह जाए। सारी शक्ति श्वास में डोलने लगे…… श्वास ही रह गई…… श्वास ही रह गई…..

दूसरा चरण :

अब दूसरे सूत्र में प्रवेश करना है। श्वास गहरी रखें और शरीर को जो करना हो—छोड़ दें, करने दें। शरीर मुद्राएं बनाए, आसन बनाए, शरीर कंपने लगे, घूमने लगे, रोने लगे—छोड़ दें शरीर को। शरीर को पूरी तरह छोड़ देना है—श्वास गहरी रहेगी और शरीर को छोड़ देना है.. …..शरीर गिरे, गिर जाए….. .उठे, उठ जाए.. नाचने लगे, चिंता न करें—शरीर को छोड़ दें। शरीर को पूरी तरह छोड़ दें….. .श्वास गहरी रहेगी और शरीर को पूरी तरह छोड़ दें.. ….शरीर को जो करना हो, करने दें…… .जरा भी रोकेंगे नहीं, सहयोग करें। शरीर जो करना चाहता है, कोआपरेट करें, उसके साथ सहयोगी हो जाएं—शरीर घूमता है, घूमे….. .डोलता है, डोले….. .गिरता है, गिर जाए.. .रोता है, रोए….. .हंसता है, हंसे—छोड़ दें—जो भी होता है, होने दें….. .श्वास गहरी रहे और शरीर को छोड़ दें। श्वास गहरी रहे और शरीर को छोड़ दें।

(लोगों का सेना चीखना चिल्लाना नाचना और शरीर की अनेक तीव्र क्रियाएं करना जारी रहा…..)

एक दस मिनट के लिए शरीर को पूरी तरह छोड़ दें। गहरी श्वास….. .गहरी श्वास…… और शरीर को छोड़ दें— रोता हो रोए, चिल्लाता हो चिल्लाए…… आप कोई नियंत्रण न करें और शरीर को सहयोग करें—शरीर जो भी कर रहा है, करने दें…… जो भी हो रहा है, होने दें— मुद्राएं बनेंगी, शरीर चक्कर लेगा…… भीतर शक्ति जगेगी तो शरीर में बहुत कुछ होगा— आवाज निकल सकती है, रोना निकल सकता है…… कोई चिंता न करें…… छोड़े…… शरीर को छोड़ दें…

आज पूरा थका डालना है। सोने के पहले पूरा श्रम ले लेना है। शरीर को छोड़े, सहयोग करें… गहरी श्वास… गहरी श्वास.. .गहरी श्वास.. .गहरी श्वास…… गहरी श्वास… …गहरी श्वास….. .गहरी श्वास… गहरी श्वास…… गहरी श्वास….. .गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास….. .गहरी श्वास……. गहरी श्वास…….

(इसके बाद टेप रेकॉर्डर पर धक्का लगने से वह बंद हो गया लेकिन ओशो का सुझाव देना और ध्यान—प्रयोग जारी रहा। दूसरे दस मिनट साधक गहरी श्वास लेते रहे…… तथा शरीर में हो रही प्रतिक्रियाओं को सहयोग देकर उसकी तीव्रता बढाते रहे।)

फिर तीसरे चरण में दस मिनट तक तेज श्वास जारी रही शरीर नाचता— चिल्लाता— गाता रहा इसके साथ ही साधकों को तीव्रता से मन में ‘ मैं कौन हूं? : ‘ मैं कौन हूं?’ लगातार पूछते रहने का सुझाव दिया गया साधकों को सहज ही हो रही अनेक यौगिक क्रियाओं में तीव्रता आती चली गई। उसका चरम बिंदु आ गया।

चौथे दस मिनट में सब छोड्कर केवल विश्राम करने को कहा गया न गहरी श्वास न ‘ मैं कौन हूं?’ पूछना। बस विश्राम शांति मौन शून्यता— जैसे मर गए हैं ही नहीं। सैकड़ों साधकों का गहरे ध्यान में प्रवेश हो गया पूरा सरूवन ध्यान की तरंगों से भर गया सारे साधक जैसे विराट प्रकृति से एक हो गए हो ऐसा लगने लगा।

(चालीस मिनट पूरे होते ही ध्यान की बैठक विसर्जित कर दी गई फिर भी अनेक साधक बहुत देर तक अपने अंदर ही डूबे हुए पड़े रहे— किसी अज्ञात अंतर्जगत में उनकी गति होती रही। धीरे— धीरे लोग अपने निवास स्थान की ओर लौट पड़े— कई साधक आधे घंटे एक घंटे दो घंटे तक ध्यान में ही पड़े रहे……. बाद में उठकर धीरे— धीरे प्रस्थान किया।)



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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–11)

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संकल्यवान—हो जाता है आत्‍मवान—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

(वापस लौटना सदा आसान मालूम पड़ता है। क्यों? क्योंकि जहां हम लौट रहे हैं वह परिचित भूमि है। आगे बढ़ना हमेशा खतरनाक मालूम पड़ता है क्योंकि जहां हम जा रहे हैं वहां का हमें कोई भी पता नहीं है।)

भगवान श्री,

 द्वारका शिविर में आपने कहा है कि सब साधनाएं झूठी हैं क्योंकि परमात्मा से हम कभी बिछुड़े ही नहीं हैं तो क्या झूठी है? शरीर और मन का विकास झूठा है? संस्कारों की निर्झर? झूठी है? स्थूल से सूक्ष्म की ओर की साधना हठी है? प्रथम शरीर से सातवें शरीर की यात्रा का आयोजन झूठा है? क्या कुंडलिनी साधना की लंबी प्रक्रिया हठ है? इन बातों को समझाने की कृपा करें।

हली बात तो यह कि जिसे मैं असत्य कहता हूं, झूठ कहता हूं? उसका मतलब यह नहीं होता है कि वह नहीं है। असत्य भी होता तो है ही। अगर न हो तो असत्य भी नहीं हो सकता। झूठ का भी अपना अस्तित्व है, स्वप्न का भी अपना अस्तित्व है। जब हम कहते हैं, स्वप्न झूठ है, तो उसका यह मतलब नहीं होता है कि स्वप्न का अस्तित्व नहीं है। उसका केवल इतना ही मतलब होता है कि स्वप्न का अस्तित्व मानसिक है, वास्तविक नहीं है। मन की तरंग है, तथ्य नहीं है। जब हम कहते हैं, जगत माया है, तो उसका मतलब यह नहीं होता है कि जगत नहीं है। क्योंकि अगर नहीं है, तो किससे कह रहे हैं? कौन कह रहा है? किसलिए कह रहा है? जब कोई जगत को माया कहता है, तब इतना तो मान ही लेता है कि कहने वाला है, सुनने वाला है। इतना भी मान लेता है कि किसी को समझाना है, किसी को समझना है। इतना तो सत्य हो ही जाता है। नहीं, लेकिन जब हम जगत को माया कहते हैं तो यह मतलब नहीं होता है कि जगत नहीं है। केवल इतना ही अर्थ होता है जगत को माया कहने का कि जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं है। एपीयरेंस है, जैसा है, वैसा दिखाई नहीं पड़ता। और जैसा नहीं, वैसा दिखाई पड़ता।

जैसे एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है। सांझ है, अंधेरा हो गया है। और एक रस्सी पड़ी हुई दिखाई पड़ गई है और वह सांप समझकर डर कर भाग खड़ा हुआ है। कोई उससे कहता है कि सांप असत्य था, झूठ था। तुम व्यर्थ ही भागे। तब इसका क्या मतलब हुआ? सांप झूठ था, इसका यह मतलब तो नहीं हुआ कि उसे सांप दिखाई नहीं पड़ा। अगर उसे नहीं दिखाई पड़ता तो वह भागता नहीं। उसे तो दिखाई पड़ा। जहां तक दिखाई पड़ने का संबंध है, उसके लिए सांप था। और जब उसे दिखाई पड़ा तो रस्सी अगर न होती तो खाली जगह में दिखाई भी नू पड़ता। रस्सी ने सांप के भ्रम को सहारा भी दिया। उसे भीतर कुछ दिखाई पड़ा, बाहर कुछ और था। रस्सी का टुकड़ा पड़ा था और उसे लगा कि सांप है। रस्सी रस्सी की तरह न दिखाई पड़ी जो वह थी, रस्सी सांप की तरह दिखाई पड़ी जो वह नहीं थी। जो था, वह नहीं दिखाई पड़ा; और जो नहीं था, वह दिखाई पड़ा। लेकिन जो था उसके ऊपर ही जो नहीं था वह आरोपित हुआ है।

तो जब असत्य, झूठ, भ्रम, माया, इल्‍यूजन, एपीयरेंस, इन शब्दों का प्रयोग होता है तो एक बात खयाल रख लेना। इसका यह मतलब नहीं कि नहीं है। अब समझ लो कि जो आदमी भाग खड़ा हुआ है सांप देखकर, हम उसे बहुत समझाते हैं कि वहां सांप नहीं है, लेकिन वह कहता है कि मैं कैसे मानूं! मैंने सांप देखा है। हम उससे कहते हैं, तू वापस जाकर देख। वह कहता है कि एक लकड़ी मेरे हाथ में दे दो, तो मैं जा भी सकता हूं। अब मुझे पता है कि सांप वहा नहीं है, लकड़ी ले जाना बेकार है। लेकिन उसे पता है कि सांप वहां है और लकड़ी ले जाना सार्थक है। मैं उसे एक लकड़ी देता हूं। तुम मुझसे कहोगे कि जब सांप नहीं है तो आप लकड़ी क्यों दे रहे हैं। तब तो आप भी मान रहे हैं कि सांप है। फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि सांप नहीं है, सांप झूठा है। लेकिन तुम्हें दिखाई पड़ा है और तुम्हारे जाने की हिम्मत नहीं है। तुम्हारे लिए तो सच ही है। मैं तुम्हें एक लकड़ी देता हूं कि यह ले जाओ। अगर सांप हो तो मार डालना, अगर न हो तब तो कोई सवाल ही नहीं है।

मनुष्य को जो दिखाई पड़ रहा है जीवन में, वह जीवन का सत्य नहीं है। वह पूरी तरह जागकर देखा जाए तभी सत्य दिखाई पड़ेगा। जिस मात्रा में हम मूर्च्छित हैं, उसी मात्रा में सत्य के भीतर झूठ का मिश्रण है। जिस मात्रा में हम सोए हुए हैं, उसी मात्रा में जो हम देख रहे हैं वह विकृत है, परवटेंड है। वह वही नहीं है, जो है—एक।

लेकिन जो सोया हुआ है, उससे हम कहते हैं कि नहीं, सब असत्य है, सब माया है। लेकिन वह कहता है कि कैसे मानूं कि माया है। मेरा लडका बीमार पड़ा है। मैं कैसे मानूं कि माया है! मैं भूखा हूं। मैं कैसे मानूं कि माया है! क्योंकि मुझे मकान चाहिए। मैं कैसे मानूं कि ये सब बातें माया हैं! क्योंकि शरीर है। पत्थर मारता हूं शरीर पर, तो खून निकलता है और दर्द भी होता है।

तब इसके लिए क्या किया जाए।

इसे जगाने के लिए कोई उपाय खोजना पड़ेगा। और जो उपाय होंगे वे लकड़ी की भांति होंगे। और जिस दिन यह जाग जाएगा उस दिन उन उपायों के साथ वही व्यवहार करेगा जो कि हमने जिस आदमी को लकड़ी दे दी है वह जब सांप के पास जाएगा, पाएगा रस्सी है, तो हंसेगा और लकड़ी फेंक देगा। और कहेगा सांप तो झूठ था ही, लकड़ी को ढोना भी नाहक व्यर्थ हुआ। और शायद वह लौट कर मुझ पर नाराज भी होगा कि आपने इतनी देर लकड़ी दी रखने के लिए, नाहक ढोना पड़ा वहां तक, वहा सांप नहीं था।

जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं या जिसको कुंडलिनी कह रहा हूं या जिसे साधना की प्रक्रिया कह रहा हूं वह असल में उसकी तलाश है, जो नहीं है। और जिस दिन तुम उसे देख लोगे ठीक से जाकर कि नहीं है, उस दिन सब प्रक्रिया बेकार हो जाएगी। सब बेमानी हो जाएगी। उस दिन तुम कहोगे, बीमारी भी झूठ थी, इलाज भी झूठ था।

असल में झूठी बीमारी का सही इलाज नहीं हो सकता। या कि हो सकता है? अगर बीमारी झूठ है तो सही इलाज कभी भी नहीं हो सकता। लेकिन झूठी बीमारी के लिए झूठा इलाज चाहिए। झूठी बीमारी झूठे इलाज से ठीक हो सकती है। दो झूठ भी एक दूसरे को काट देते हैं। इसलिए जब मैं कहता हूं कि समस्त साधना की प्रक्रियाएं इस अर्थ में असत्य हैं —असत्य इस अर्थ में हैं कि जिसे हम खोज रहे हैं, उसे हमने कभी खोया नहीं।

रस्सी पूरे वक्त रस्सी है। वह एक क्षण को भी सांप नहीं बनी है। रस्सी हमने खो दी है लेकिन। सामने रस्सी पड़ी है, लेकिन हमने खो दी है। वह एक क्षण को सांप नहीं बनी है, लेकिन हमारे लिए सांप है। ऐसा सांप जो एक क्षण को भी नहीं है। अब एक बड़ी जिच, एक बड़ी उलझाव की स्थिति है। है रस्सी, दिखता सांप है। सांप को मारना है, रस्सी को खोजना है। बिना सांप को मारे रस्सी को खोजना मुश्किल है, बिना रस्सी को खोजे सांप का मरना मुश्किल है। अब कुछ करना पड़े। और जो कुछ भी हम करेंगे, होगा क्या उससे? इतना ही होगा न कि जो नहीं था, दिखाई पड़ जाएगा नहीं है। जो है, दिखाई पड़ जाएगा जो है। और जिस दिन हम जानेंगे उस दिन क्या हम कहेंगे कि हमने कुछ उपलब्ध किया? क्या उस दिन हम कह सकेंगे कि सांप हमने खोया और रस्सी हमने पाई? क्योंकि सांप तो था ही नहीं जिसे खोया जाए और रस्सी सदा थी। पाने की कोई जरूरत ही न थी। वह थी ही वहां, वह मौजूद ही थी।

इसलिए बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और पहली सुबह जब लोग उनके पास आए और उनसे पूछने लगे कि आपको क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा, यह मत पूछो, मिला मुझे कुछ भी नहीं। तो उन लोगों ने कहा, इतने दिन की मेहनत बेकार गई? आप बरसों से तपस्या करते हैं, खोज करते हैं! बुद्ध ने कहा, अगर मिलने की भाषा में पूछते हो तो बेकार गई, क्योंकि मिला कुछ भी नहीं। लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि तुम भी गुजरो उसी रास्ते से, तुम भी करो वही। उन लोगों ने कहा, आप पागल तो नहीं हैं! क्योंकि जो बेकार ही गया, उसको हम क्यों करें! बुद्ध ने कहा, मिला तो कुछ नहीं, लेकिन खोया जरूर। वह जो नहीं था उसे खोया। जो था ही नहीं और जिसे मैं समझता था है, उसे खोया। और जो सदा से मिला ही हुआ था, पाया ही हुआ था, जिसे पाना ही नहीं था, लेकिन जिसे झूठ के पर्दे के बीच मैंने समझा था कि नहीं है, उसे पाया।

अब इसका क्या मतलब हुआ? जो मिला ही हुआ था वह फिर मिला। कैसे कहें इसको! जो पाया ही हुआ था, उसको पाया! जिसे कभी पाया ही नहीं था, उसको खोया!

तो जब मैं कह रहा हूं कि सारी साधना की प्रक्रिया असत्य है, तो इसका यह मतलब नहीं है कि मत करना। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि तुम इतने गहरे असत्य में घिरे हो कि सिवाय उसके विपरीत असत्य के और कोई काटने का उपाय नहीं है। तुम इतने झूठ की तरफ चले गए हो कि तुम लौटोगे तो इतना रास्ता तुम्हें झूठ का ही पार करना पड़ेगा, जितना तुम झूठ में चले गए हो।

समझो कि मैं इस कमरे में दस कदम अंदर चला गया। अब मुझे कमरे के बाहर जाना है। तो मुझे कम से कम दस कदम तो कमरे में वापस चलना ही पड़ेगा। दस कदम इसी कमरे में मुझे चलने पड़ेंगे। और हो सकता है जब मुझे कोई समझाए कि आप कमरे में चले गए हैं, अब आप बाहर लौट आइए, और मुझसे कहे कि दस कदम चलिए, तो मैं कहूं कि यह तो आप बड़ी गड़बड़ बातें कर रहे हैं। दस कदम कमरे में चलने से ही तो मैं अंदर चला गया हूं। अब अगर और कमरे में चला, तो और बीस कदम भीतर चला जाऊंगा। अब तो मुझे कोई ऐसी तरकीब बताइए कि मैं बाहर निकल आऊं और कमरे में न चलना पड़े। लेकिन कमरे में दस कदम चलना ही पड़ेगा। ही, रुख अलग होगा दिशा अलग होगी, चेहरा बदल गया होगा। जहां पहले मुंह था, अब वहा पीठ होगी। और जहां पहले पीठ थी, अब वहां मुंह होगा।

झूठ में हम जी रहे हैं। साधना में तो सिर्फ चेहरा बदलेगा। जीना तो झूठ में ही पड़ेगा, जहां पीठ थी वहा मुंह हो जाएगा, जहां मुंह था वहां पीठ हो जाएगी। लेकिन जितना हम झूठ में उतर गए हैं, उतना हमें वापस लौटना पड़ेगा। जिस दिन हम वापस लौट आएंगे, उस दिन हम पाएंगे कि बड़े मजे की बात हो गई है।

यह ऐसा ही है जैसे किसी आदमी को गलत दवा दे दी गई हो तो ऐंटीडोट देना पड़े। अब ऐंटीडोट देने की कोई जरूरत न थी, लेकिन गलत दवा दे दी गई है। अगर गलत दवा न दी गई होती, तो उसे यह ऐंटीडोट भी नहीं देना पड़ता। अब गलत दवा, उसका जहर उसके शरीर में चला गया है। उससे उलटा जहर उसके भीतर फेंकना पड़ेगा। फिर भी ध्यान रहे कि यह भी जहर है। क्योंकि सिर्फ जहर ही काट सकता है जहर को। अगर वह पहला जहर था तो यह भी जहर है। सिर्फ इसका रुख और पीठ अलग है। यह उलटा है उससे, लेकिन है तो जहर ही। तो अगर डाक्टर आपसे यह कहे कि तुम्हें शरीर में जहर हो गया है, अब हम तुम्हें और जहर देते हैं, तो तुम घबड़ा ही जाओगे। कहोगे, हम वैसे ही मरे जा रहे हैं जहर से, अब आप और जहर देते हैं! वह कहता है कि यह ऐंटीडोट है। है तो जहर ही, लेकिन यह उससे उलटा जहर है।

तो जब मैं कह रहा हूं कि संसार झूठ है, तो साधना सत्य नहीं हो सकती। क्योंकि झूठे संसार को काटने के लिए सच्ची साधना से कैसे काटोगे। झूठे प्रेत को मारने के लिए सच्ची तलवार चलाओगे, तो खुद ही को चोट लग जाएगी। झूठे प्रेत को काटना हो, तो झूठी तलवार ही हाथ में रखना। स्वभावत: झूठे प्रेत को काटने के लिए अगर असली बंदूक लेकर चले गए, तो झंझट हो जाएगी। असली बंदूक नुकसान पहुंचा सकती है। क्योंकि प्रेत वहां है नहीं। इसलिए अगर झूठे प्रेत को भगाना हो, तो ताबीज बांध लेना। वह अच्छा रहेगा, क्योंकि ताबीज जो है, वह न बंदूक है, न तलवार है। वह झूठा इलाज है। वह ऐंटीडोट है। वह भी झूठ का पक्का उससे उलटा झूठ है।

समस्त साधना चूंकि संसार के बाहर निकलने की है, इसलिए संसार को चूंकि मैं भ्रम कहता हूं— भ्रम इस अर्थों में कि जैसा हम समझ रहे हैं वैसा नहीं है—तो उसे काटने लिए हम क्या करें? जितने गहरे भ्रम में चले गए हैं उतने वापस लौटें। और यह मैं क्यों याद दिलाना चाहता हूं? यह इसलिए याद दिलाना चाहता हूं कि एक बड़ा खतरा है। साधक के सामने सदा एक खतरा है। वह खतरा यह है कि भूत से बचाने के लिए हम ताबीज बांध दें, फिर भूत से तो बच जाता है, लेकिन ताबीज को संभालकर रखता है। जिस भूत से बचाया ताबीज ने, वह इस ताबीज को हमेशा छाती के पास रखता है। और जितना पहले भूत के होने से डरता था, अब ताबीज के खोने से डरता है। स्वभावत:, क्योंकि जिस ताबीज ने बचाया, अब वह इसको खोए कैसे! तो भूत से तो छूटा, लेकिन ताबीज से जकड़ गया है। तो इसलिए इसको याद दिलाना जरूरी है कि भूत भी झूठा था और ताबीज भी झूठा है। अब भूत कट गया, अब तुम कृपा करके ताबीज फेंक दो।

तो मैं साधक को निरंतर यह स्मरण रखवाना चाहता हूं कि जो साधना वह कर रहा है, वह एक गहरे झूठ में उतर जाने का ऐंटीडोट है। और झूठ का ऐंटीडोट झूठ ही होगा। जहर को जहर ही काटेगा। सिर्फ विपरीत रुख होगा। लेकिन यह याद दिलाना जरूरी है, नहीं तो संसार तो छूटेगा, संन्यास पकड़ जाएगा। संसार तो छूट जाएगा और संन्यास पकड़ जाएगा। और दुकान तो छूट जाएगी, मंदिर पकड़ जाएगा। धन तो छूट जायेगा, ध्यान पकड जाएगा। और पकड़ना कुछ भी खतरनाक है। क्योंकि जो भी पकड़ जाएगा, वह बंधन बन जाएगा। वह चाहे धन हो, और चाहे ध्यान हो। ठीक साधना उस दिन जानना जिस दिन ध्यान की जरूरत न रह जाए, जिस दिन ध्यान बेकार हो जाए।

स्वभावत:, जो आदमी छत पर पहुंच गया है उसके लिए सीढ़ी बेकार हो जानी चाहिए। और अगर वह अब भी कहता है कि मेरे लिए सीढ़ी बड़े काम की है, तो समझना कि अभी छत पर नहीं पहुंचा। अभी कहीं सीडी पर ही खड़ा होगा। और हो सकता है कि सीडी के आखिरी चरण पर पहुंच जाये, आखिरी सोपान पर पहुंच जाए, और फिर भी अगर सीढ़ी को पकड़े रहे, तो ध्यान रखना छत से वह अभी भी उतना ही दूर है जितना सीडी के पहले सोपान पर था। छत पर नहीं पहुंचा। दोनों हालत में छत से दूर है। तुम सीढ़ी पूरी भी चढ़ जाओ, लेकिन अगर आखिरी चरण पर रुक जाओ, तो भी तुम पहुंचे कहां! हो तो तुम वहीं। सीडी पर फर्क पड़ गया। पहले तुम पहले सोपान पर थे सीडी के, अब सौवें सोपान पर हो। लेकिन हो सीडी पर। और जो सीडी पर है, वह छत पर नहीं है। छत पर होने के लिए दो काम करने पड़े, सीढ़ी चढ़नी पड़े और सीडी छोड़नी भी पड़े।

इसलिए मैं कहता हूं ध्यान का उपयोग भी है और साथ में कहता हूं कि ध्यान ऐंटीडोट से ज्यादा नहीं। इसलिए मैं कहता हूं, साधना करना भी और कहता हूं छोड़ना भी। और जब दोनों बातें मुझे कहनी हैं तो कठिनाई तो इसमें शुरू होगी ही, क्योंकि तुम सोचोगे ही स्वभावत: कि साधना के लिए इतनी बातें करते हैं आप कि यह करो, वह करो, और फिर कह देते हैं कि यह सब झूठा है। तो हमारे मन में होता है कि जब झूठा है तो करें ही क्यों! हमारा तर्क यह है कि जब सीडी से उतरना ही पड़ेगा तो हम चढ़े ही क्यों? लेकिन ध्यान रहे, अगर सीडी पर नहीं चढ़े, तब भी सीडी के बाहर रहोगे, और जो सीढ़ी पर चढ़कर छत पर उतर गया है, वह भी सीडी के बाहर हो गया है; लेकिन तुम दोनों के प्लेन अलग होंगे। वह छत पर होगा और तुम जमीन पर होओगे। तुम भी सीढ़ी पर नहीं हो, वह भी सीढ़ी पर नहीं है, लेकिन तुम दोनों में बुनियादी फर्क है। तुम सीढ़ी पर चढ़े नहीं, इसलिए सीडी के बाहर हो; वह सीडी पर चढ़ा और उतरा, इसलिए सीढ़ी के बाहर है।

और जिंदगी बड़ा राज है। उसमें कुछ चीजें चढ़नी भी पड़ती हैं और उतरनी भी पड़ती हैं। उसमें कभी कुछ पकड़ना भी पड़ता है और कभी कुछ छोड़ना भी पड़ता है। लेकिन हमारा मन कहता है कि अगर पकड़ना है तो फिर बिलकुल पकड़ो, अगर छोड़ना है तो बिलकुल छोड़ो। यह तर्क खतरनाक है। इससे जिंदगी में कभी कोई गति नहीं हो सकती।

तो चूंकि दोनों ही बातें मेरे खयाल में हैं और मैं देख रहा हूं कि ऐसी कठिनाई हो गई है कि कुछ लोगों ने धन को पकड़ा है, कुछ लोगों ने धर्म को पकड़ा हुआ है, कुछ लोगों ने संसार को पकड़ा है, किन्हीं ने मोक्ष को पकड़ा है, लेकिन पकड़ नहीं छूटती। और मुक्त वही है जिसकी कोई पकड़ नहीं है। और सत्य को वही जानेगा जिसकी कोई क्लिगिंग, कोई अटकाव, कोई रुकाव, जिसका कोई आग्रह नहीं है। सत्य को वही जानेगा जिसकी कोई शर्त नहीं है, जिसकी कोई कंडीशन नहीं है। अगर तुम्हारी इतनी भी शर्त है कि मैं मंदिर में ही रहूंगा, मैं दुकान पर न जाऊंगा, तो तुम सत्य को न जान सकोगे। तुम उसी सत्य को जान सकोगे जो मंदिर के झूठ के साथ पैदा होता है। अगर तुम्हारी इतनी भी शर्त है कि मैं इस भांति से ही जीऊंगा, संन्यासी की तरह जीऊंगा, अगर यह भी तुम्हारी शर्त है, तो तुम सत्य को न जान पाओगे।

तुम सीडी तो चढ़े, लेकिन आखिरी सोपान पर खड़े होकर तुमने सीडी पकड़ ली। कई दफे मन में होता भी है कि जिस सीडी ने इतनी दूर तक चढ़ाया, उसे एकदम छोड़ कैसे दें! उसे पकड़ लेने का मन हो जाता है। आम तौर से तभी तरफ यह होता है।

एक आदमी धन कमाना शुरू करता है। वह धन कमाता है इसलिए कि आराम से जीयेगे। फिर वर्षों लग जाते हैं धन कमाने में। और धन कमाने में सब आराम खोना पड़ता है, नहीं तो कमायेगा कैसे? सोचा था कि धन कमाएंगे, आराम से जीएंगे। लक्ष्य था आराम से जीएंगे और आराम से जीना हो तो बिना धन के तो जी नहीं सकते। तो धन कमाने में लगा था और धन कमाना हो तो आराम तो नहीं किया जा सकता। आराम छोड़ना पड़ेगा, तब धन कमाया जा सकता है। तो वर्षों तक वह आदमी, समझ लो बीस—पच्चीस वर्ष तक सब आराम छोड्कर धन कमा लेता है। अब वह धन तो कमा लेता है, लेकिन आराम करने की आदत छूट गई है। न आराम करने की आदत पकड़ गई।

अब बड़ी मुश्किल हो गई। पच्चीस साल का अभ्यास हो गया। अब उसको आप कहो कि घर बैठो, तो वह कहता है, घर कैसे बैठें! उसके चपरासी पहुंचते हैं दफ्तर में नौ बजे, वह आठ बजे पहुंच जाता है। उसके क्लर्क भाग जाते हैं पांच बजे, वह सात बजे लौटता है। अब वह यह भूल ही गया है कि जो सीडी एक दिन चढने के लिए पकड़ी थी, वह उतरने के लिए ही पकड़ी थी। किसी तल पर जाकर आराम करने उतर जाना था। किसी जगह जाकर जहां धन हो जाए, वहां फिर चुपचाप खिसक जाना था, क्योंकि वह चाहता यही था कि धन से आराम कर सकें।

अब बड़ी मुश्किल हो गई। धन कमाने में आराम खोया, आराम खोने में न— आराम की आदत बन गई। अब न— आराम की आदत पकड़ गई। अब वह सोचता है कि आराम कर कैसे सकता हूं। अब वह धन कमाए जाता है। अब वह सीडी पर ही चढ़े जाता है। अब इह सीढ़ी से उतरता ही नहीं। अब उसकी छत कभी आती ही नहीं। अब वह चढ़ता ही जाता है। सीढ़ी पर सीडी बनाए चला जाता है, बनाए चला जाता है। उसे अब तुम कितना ही कहो, बस अब बहुत सीडी बन चुकी, अब उतर आओ। वह कहता है, यह कैसे हो सकता है! अगर आराम करना है, तो सीडी बनानी ही पड़ेगी। अब वह बनाता जाता है।

लेकिन यह धन के साथ ही होता होता तो बहुत दिक्कत न थी। यह धर्म के साथ भी यही होता है। हमारा मन वही है। हमारा मन वही का वही है।

अब एक आदमी धर्म की दुनिया में उतरता है, त्याग करना शुरू करता है। तो वह इसीलिए त्याग करना शुरू करता है कि एक ऐसी जगह आ जाए कि मन पर कोई पकड़ न रह जाए। क्योंकि जहां तक पकड़ है, वहां तक बंधन होगा। तो वह कहता है, सब छोड़ दो। जिस—जिस का बंधन हो, उसको छोड़ दो। तो वह छोड़ना शुरू करता है। यह हुई सीढ़ी। अब वह छोड़ता जाता है। वह मकान छोड़ता है, दुकान छोड़ता है, परिवार छोड़ता है, धन छोड़ता है, कपड़े छोड़ता है, वह छोड़ता चला जाता है।

अब बीस—पच्चीस साल में उसकी छोड़ने की आदत इतनी मजबूत हो जाती है कि अब वह इस छोड़ने की आदत को नहीं छोड़ पाता। अब यह जड़ पत्थर की तरह उसकी छाती पर बैठ जाती है। अब वह कोई न कोई तरकीब निकालता रहता है कि और क्या छोड़े। अब वह सीडी उसकी चल पड़ी। अब वह कहता है कि खाना छोड़ दें, पानी छोड़ दें, कि नमक छोड़े, कि घी छोड़े, कि शक्कर छोड़े। अब वह इसमें तरकीबें निकालता जाता है। अब वह कहता है कि नींद छोड़े, कि स्नान छोड़े। अब वह छोड़ने की ही तरकीबें निकालता चला जाता है। आखिरी दम वह वहां तक भी पहुंच जाता है कि शरीर छोड़े। हत्या करें, आत्महत्या करें, कि क्या करें। वह सब करता चला जाता है, संथारा कर लें।

ये दोनों एक ही तरह के आदमी हैं। एक ने छोड़ने की तरफ सीढ़ियां पकड़ ली हैं, एक ने पकड़ने की तरफ सीढ़ियां पकड़ ली हैं। लेकिन सीढ़ियों से कोई भी उतरने को राजी नहीं है। और मेरी दृष्टि में सत्य वहा है, जहां सीढ़ियां समाप्त हो जाती हैं और तुम समतल पर आ जाते हो; न जहां चढ़ना है, न जहां उतरना है। सत्य वहां है, जहां तुम्हारी पकड़ छूट जाती है, जहां तुम्हारी शर्त छूट जाती है। सत्य वहां है, जहां तुम अभ्यासित चित्त से चीजों को नहीं देखते, अभ्यास—शून्य चित्त से चीजों को देखने लग जाते हो।

शायद जीसस का यही मतलब है। जीसस से कोई पूछता है कि सत्य किसको मिलेगा। तो वे कहते हैं, उनको जो बच्चों की भांति हैं। अब इसका क्या मतलब हो सकता है—बच्चे की भांति! मतलब, जिसकी कोई शर्त नहीं है, जो ऐसे ही देख रहा है। अगर तुमने बच्चों को चीजों को देखते देखा है, तो तुम हैरान होओगे। हमारे और उनके देखने में फर्क है। हमारा जो देखना है, वह सदा किसी चीज का देखना है। हम कुछ खोज रहे हैं। बच्चा बस देख रहा है। किसी चीज की कोई खोज नहीं है। जो है, जो दिखाई पड़ जाए। बस, उसकी आख घूम रही है, वह देख रहा है। उसकी कोई पकड़ नहीं है कि फलानी चीज देखनी है। उसकी यह भी पकड़ नहीं है कि वह दिखाई पड़े तो इस भांति दिखाई पड़े। जो है सो वह देख रहा है। अगर ठीक से कहें तो उसका देखना प्रयोजन —रहित है। उसका कोई परपज नहीं है। वह किसी प्रयोजन से नहीं देख रहा है।

इसलिए बच्चे की आख में जो भोलापन है, वह बड़े की आख में खो जाता है। क्योंकि बड़े की आख में प्रयोजन आ जाता है। वह पूरे वक्त प्रयोजन से देख रहा है। अगर आपकी जेब भरी है तो वह और तरह से देखता है, जेब खाली है तो और तरह से देखता है। अगर आदमी आप सुंदर हैं तो और तरह से देखता है, आदमी अगर आप सुंदर नहीं हैं तो और तरह से देखता है। अगर आपसे उसे कोई मतलब है तो और तरह से देखता है, अगर कोई मतलब नहीं है तो और तरह से देखता है या देखता ही नहीं। उसका प्रयोजन है, वह परपजिव है। वह अगर देखेगा भी, तो देखने तक में प्रयोजन घुस गया है।

और जब देखने में प्रयोजन घुस जाता है तो रस्सी सांप दिखाई पड़ने लगती है —रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। असल में जिसको रस्सी में सांप दिखाई पड़ रहा है, अगर तुम खयाल करोगे कि उसे क्यों दिखाई पड़ रहा है सांप रस्सी में। यह उसका प्रोजेक्शन है। वह आदमी भयभीत है। उसके देखने में भय है। यानी जब भी वह चीजों को देखता है तो भय से देखता है कि खतरा कहां है। अंधेरा रास्ता है। अब वह भय को खोज रहा है। रास्ते पर कोई चीज सरकती दिख गई है, लेटी हुई दिख गई है। फौरन उसने माना कि सांप है, क्योंकि वह भय को खोज रहा है। उसका एक प्रयोजन है भीतर। उसके अनकांशस में वह खोज रहा है कि कहीं अंधेरे में सांप तो नहीं है! तो रस्सी में सांप दिख गया।

एक बच्चे को नहीं दिख सकता रस्सी में सांप। अक्सर तो यह हो सकता है कि अगर सांप हिल—डुल न रहा हो, तो बच्चे को रस्सी दिखाई पड़ सकती है। वह जाकर उसको उठा ले। बजाय रस्सी में सांप देखने के यह भी हो सकता है कि एक सांप अगर हिल—डुल न रहा हो तो वह जाकर उसको उठा ले और समझ ले कि रस्सी है।

हम जो देख रहे हैं, अगर उसमें कहीं भी कोई प्रयोजन है, कहीं भी कोई आकांक्षा है, कहीं भी कोई भय है—ठीक से समझें कि अगर हमारे देखने में कहीं भी मन है, तो हम विकृत कर देंगे। तो क्या बिना मन के देख सकते हैं? बिना मन के देखना ही परम स्थिति है। सीइंग विदाउट द माइंड। और द माइंड, वह जो मन है हमारा, वह संगृहीत है। सब प्रयोजन, सब भय, सब इच्छाएं, सब वासनाएं उसमें इकट्ठी हैं।

चेखव की एक छोटी—सी कहानी है। दो पुलिस के सिपाही एक रास्ते से गुजर रहे हैं। एक छोटी—सी होटल है। वहां बड़ी भीड़ है। एक आदमी ने एक कुत्ते की टांग पकड़ रखी है। और वह कह रहा है, इसको मार ही डालेंगे। इसने मुझे काटा है, यह औरों को भी काट चुका है। और भीड़ में सब मजा ले रहे हैं, वे कह रहे हैं, मार ही डालो। वे पुलिस वाले भी दोनों जाकर खड़े हो गए हैं। और पुलिस वालों को भी कुत्ते सताते हैं। पुलिस वालों पर कुत्ते विशेष ध्यान रखते हैं। तो उन कुत्तों से वे पुलिस वाले भी परेशान थे। उन्होंने कहा, यह बहुत अच्छा कर रहे हो, यह काम करने योग्य ही था। इस कुत्ते को मार ही डालो, यह हमें भी रात में हैरान करता है।

तभी बगल वाले पुलिस वाले ने कहा कि जरा खयाल रखना, यह तो मुझे ऐसा लगता है कि अपने बड़े साहब का कुत्ता है। तो वह पहला सिपाही जो कह रहा था कि मार ही डालो, उसने फौरन उस आदमी की गर्दन पकड ली जो कुत्ते को पकड़े था। उसने कहा, बदमाश। ट्राफिक में भीड इकट्ठी की है तूने? और यहां यह उपद्रव मचा रहा है? थाने चल! और दूसरे पुलिस वाले ने जल्दी से उस कुत्ते को उठाया और कंधे पर ले लिया और पुचकारने लगा। और जब उसने उसको पुचकारा और जब उस आदमी को पकड़ लिया, सारी भीड़ हैरान हो गई कि क्या हो गया। अभी यह कह रहा था, मार डालो!

लेकिन दूसरे ही क्षण उस कुत्ते को गौर से देखकर दूसरे साथी ने कहा, नहीं, यह तो साहब वाला कुत्ता नहीं मालूम पड़ता। तो उस सिपाही ने जल्दी से कुत्ते को नीचे पटका और उस आदमी को कहा, पकड़ इस कुत्ते को, मार डाल इसको। यह कुत्ता बड़ा खतरनाक है। लेकिन जब तक उस आदमी ने उस कुत्ते को पकड़ा, उस पहले सिपाही ने फिर उससे कहा कि भई, कुछ पक्का नहीं कहा जा सकता है। यह दिखता तो बिलकुल मालिक का ही कुत्ता है।

तो ऐसी वह कहानी चलती है और उस कुत्ते के बाबत कई दफा रुख बदलता है, क्योंकि कई दफे प्रयोजन बदल जाता है। कुत्ता वही है, आदमी वही है, सिपाही वही है, सब वही है। चीजें जैसी हैं वे बिलकुल वैसी हैं, लेकिन कहानी दो —चार दफे रुख बदल लेती है, क्योंकि हर बार प्रयोजन बदल जाता है। कभी वह मालिक का कुत्ता हो जाता है, कभी नहीं रह जाता है। जब वह नहीं रह जाता तो व्यवहार एकदम बदलना पड़ता है। जब वह मालिक का हो जाता है, तब उसको एकदम पुचकारना पड़ता है और व्यवहार बदलना पड़ता है।

हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। मन है, तो हम ऐसे ही जीएंगे। तो जो मैं कह रहा हूं कि साधना… साधना है क्या? साधना है इस मन से छुटकारा। लेकिन जब छुटकारा हो जाएगा, तो फिर साधना का क्या करोगे? इसी मन के साथ उसको भी दफना देना पड़ेगा। यह मन जाएगा उसी के साथ। उससे कहना पड़ेगा, इस साधना को भी लेते जाओ, यह तुम्हारी ही वजह से है। तुम्हारे कारण ही यह साधना पकड़नी पड़ी थी, अब तुम्हीं जा रहे हो तो कृपा करके इसको ले जाओ।

और जब कोई आदमी मन और साधना दोनों से मुक्त हो जाता है, बीमारी और औषधि दोनों से। ध्यान रहे, अगर सिर्फ बीमारी से मुक्त होता है और औषधि जारी रहती है, तब अभी मुक्ति मत समझना। और कई दफे बीमारी उतनी खतरनाक सिद्ध नहीं होती है जितना औषधि का पकड़ जाना खतरनाक सिद्ध होता है। क्योंकि बीमारी दुखद है, उसे छोड़ना आसान पड़ता है। औषधि सुखद है, उसे छोड़ने का मन ही नहीं होता। पर औषधि क्या कुछ बड़ी वांछनीय चीज है! बीमार के लिए है। स्वस्थ के लिए औषधि का कोई अर्थ होता है? स्वस्थ के लिए कोई भी अर्थ नहीं होता। चूंकि तुमने बीमार होने की जिद की है, इसलिए औषधि भी लेने की मजबूरी झेलनी पड़ती है। लेकिन अगर बीमार होने की जिद नहीं कर रहे हो, तो औषधि बेमानी है।

और बीमारी और औषधि दोनों एक ही तल की चीजें हैं। दोनों में भेद नहीं है। हो भी नहीं सकता, नहीं तो काम नहीं करेंगी। जिस तल पर बीमारी जीती है, उसी तल पर औषधि जीती है। जो कीटाणु बीमारी के होते हैं, उनसे विपरीत कीटाणु औषधि के होते हैं। जो तल बीमारी का होता है, वही तल औषधि का होता है। औषधि और बीमारी एक दूसरे की तरफ पीठ किए खड़ी होती हैं, यह सच है, लेकिन उनका तल एक ही होता है।

तो मैं न केवल बीमारी के खिलाफ कह रहा हूं, मैं औषधि के भी खिलाफ कह रहा हूं। क्योंकि मेरा अनुभव यह है कि इधर हजारों साल में बीमारी के खिलाफ तो बहुत बातें कही गईं और तब बीमारी तो छूट गई पर औषधि पकड़ गई। और जिन लोगों ने औषधि को पकड़ा, वे बीमारों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हुए।

इसलिए दोनों ही बातें खयाल में रखनी जरूरी हैं। बीमारी छोड़नी है और औषधि भी छोड़नी है। मन छोड़ना है, ध्यान भी छोड़ना है। संसार छोड़ना है, धर्म भी छोड़ना है। और एक ऐसी जगह आ जाना है, जहां न कुछ छोड़ने को बचता है, न कुछ पकड़ने को बचता है। तब वही रह जाता है, जो है। और इसलिए यह सारी की सारी जिन प्रक्रियाओं की मैं बात करता हूं —चाहे कुंडलिनी की, चाहे चक्रों की, सप्त शरीरों की, यह सारा का सारा स्वप्न का ही हिस्सा है। लेकिन स्वप्न में तुम हो और जब तक तुम स्वप्न को ठीक से न समझ लो, तुम स्वप्न के बाहर नहीं आ सकते हो।

स्वप्न के बाहर आने के लिए भी स्वप्न को ठीक से समझ लेना जरूरी है। और स्वप्न का भी अपना अस्तित्व है, और झूठ का भी अपना अस्तित्व है। वह है जगत में। और उससे छूटने के लिए भी उपाय हैं। मगर दोनों ही अंततः छोड़ने योग्य हैं, इसलिए मैं कहता हूं कि दोनों ही असत्य हैं। अगर मैं इनमें से एक को सत्य कहूंगा, तो फिर तुम उसे छोड़ोगे कैसे? फिर तुम उसे छोड़ोगे नहीं। सत्य कहीं छोड़ा जाता है? सत्य तो सदा पकड़ा जाता है। इसलिए तुम कुछ भी न पकड़ पाओ, तुम्हारी कुछ भी क्लिगिंग न हो पाए, तुम कहीं भी किसी ग्रंथि में, किसी बंधन में न पड़ पाओ, इसलिए मैं कहता हूं कि न तो संसार सत्य है और न साधना सत्य है। संसार के असत्य को काटने के लिए साधना का असत्य है। जब दोनों असत्य समतल होकर कट जाते हैं तब जो शेष रह जाता है वह सत्य है। वह न संसार का है, न साधना का। वह दोनों के बाहर, या दोनों के पीछे, या दोनों के पार, या दोनों को अतिक्रमण करता हुआ है। जब दोनों नहीं रह जाएंगे।

इसलिए मैं एक तीसरे तरह के आदमी की तुमसे बात कर रहा हूं जो न संसारी है, न संन्यासी है। जब मुझे कोई पूछता है कि क्या आप संन्यासी हैं, तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाता हूं। क्योंकि अगर मैं अपने को संन्यासी कहूं, तो मैं उसी द्वंद्व के भीतर अपने को बांधता हूं जो संसारी और संन्यासी के बीच है। जब कोई पूछता है कि क्या आप संसारी हैं, तब भी मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। क्योंकि अगर मैं अपने को संसारी कहूं तो मैं फिर उसी द्वंद्व में खड़ा हो जाता हूं, जो संन्यासी और संसारी के बीच है। तो या तो मैं कहूं कि मैं दोनों हूं एक साथ, जो कि बिलकुल बेमानी हो जाता है, मीनिगलेस हो जाता है। क्योंकि अगर संसारी और संन्यासी दोनों हूं एक साथ, तो मतलब ही खो गया, क्योंकि मतलब द्वंद्व में था, मतलब विरोध में था। संसार छोड़ने का अर्थ संन्यास था, संन्यास न ग्रहण करने का अर्थ संसार था। अब अगर मैं कहूं कि दोनों ही हूं, तो शब्द अर्थ खो देते हैं। या कहूं? दोनों ही नहीं हूं, तब भी बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है, क्योंकि दो के बाहर तीसरे का हमें कोई खयाल ही नहीं है कि कोई तीसरा भी हो सकता है। कहते हैं आप, यहां या वहां। या तो कहिए जिंदा हैं, या कहिए मर गए हैं। दोनों नहीं हैं, ऐसा कैसे चलेगा! ऐसा नहीं चल सकता। हम द्वंद्व में बांटकर, काटकर जीते हैं सारी चीजों को कि या यह कहिए या यह कहिए।

कहिए अंधेरा है, कहिए प्रकाश है। संध्या के रंग का हमारे पास कोई स्थान नहीं है, जो दोनों नहीं होता। ‘से ‘ की हमारी जिंदगी में कोई जगह नहीं है। या तो हम सफेद में तोड़ देते हैं या काले में तोड़ देते हैं। बल्कि सचाई ग्रे की ही ज्यादा है। ग्रे ही जरा सघन हो जाता है तो काला हो जाता है और जरा विरल हो जाता है तो सफेद हो जाता है। मगर उसकी कोई जगह नहीं है। या तो कहिए मित्र हैं, या कहिए शत्रु हैं, दोनों के बीच तीसरी कोई जगह नहीं है। असल में तीसरी ही असली जगह है। लेकिन उसका कोई स्थान नहीं है हमारी भाषा में, हमारे सोचने में, हमारे ढंग में।

आप मुझसे पूछते हैं कि मेरे मित्र हैं या शत्रु हैं। अगर मैं कहूं दोनों हूं, तो मुश्किल हो जाती है। क्योंकि फिर समझ मुश्किल हो जाती है कि दोनों कैसे हो सकते हैं। या मैं कहूं दोनों नहीं हूं, तो भी बेमानी हो जाती है। क्योंकि फिर कोई मतलब नहीं रहा। और सचाई यह है कि जब आदमी पूरी तरह स्वस्थ होगा, तो या तो दोनों होगा या दोनों नहीं होगा। यह दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तब न तो वह शत्रु होगा, न मित्र होगा। और मेरा खयाल यह है कि तभी वह ठीक अर्थों में मनुष्य होगा। उसकी कोई शत्रुता नहीं, उसकी कोई मित्रता नहीं। उसका कोई संन्यास नहीं, उसका कोई संसार नहीं। तीसरे आदमी के लिए ही मेरी तलाश है। और जो सारी बातें मैं कह रहा हूं वे सिर्फ स्वप्न को तोड्ने के लिए हैं। और अगर स्वप्न टूट ही गया है, तो उन बातों का कोई भी अर्थ नहीं है।

एक कहानी तुमसे कहूं। एक झेन फकीर हुआ। सुबह उठा…….और उस फकीर का स्वप्नों के विश्लेषण पर बड़ा भरोसा था। हैं भी स्वप्न बड़े काम के। वे आदमी के संबंध में बड़ी खबरें लाते हैं। और चूंकि आदमी झूठा है, इसलिए स्वप्न से खबर मिल सकती है, झूठी चीजों से खबर मिल सकती है।

आदमी के चेहरे को दोपहर में जब तुम भरे बाजार में देखते हो, तब वह उतना सच्चा नहीं होता है, जितना रात के सपने में वह सच्चा होता है—सपना जो कि बिलकुल झूठा है। अगर दोपहर में तुमने उसे अपनी पत्नी को हाथ जोड़ते हुए और यह कहते देखा है कि तुझसे सुंदर कोई भी नहीं है, तो उसके सपने में पता लगाओ। उसकी पत्नी शायद ही उसके सपने में आती हो। और दूसरी स्त्रियां जरूर आती हैं। उसका सपना ज्यादा ठीक खबर देगा उसके बाबत—सपना जो कि झूठ है।

लेकिन आदमी झूठ है, इसलिए झूठ से ही पता लगाना पड़ेगा। अगर आदमी सच्चा होता, तो उसको जिंदगी सामने ही बता देती। सपने में जाने की कोई जरूरत नहीं थी, उसका चेहरा बता देता। वह अपनी पत्नी से कह देता कि तू बहुत ज्यादा सुंदर नहीं, पड़ोस की स्त्री बहुत सुंदर मालूम पड़ती है। वह दूसरी बात है, वैसा आदमी नहीं है। वैसा आदमी अगर हो, तो उसके सपने बंद हो जाएंगे। जो पति अपनी पत्नी से कह सकता है कि आज तो तेरे प्रति मेरे मन में कोई प्रेम नहीं उठता है, उस सड़क से जो औरत जा रही है, वह मेरे प्रेम को खींचे लेती है। इतनी सरलता से जो कह सकता है, उसके सपने बंद हो जाएंगे, क्योंकि उसके सपने में उस औरत को आने की कोई जरूरत नहीं है, उसने दिन में ही बात समाप्त कर ली है। बात रफा—दफा हो गई, सपना बचा नहीं।

सपना जो है, वह लिंगरिंग है। जो चीज नहीं हो पाई दिन में, जो नहीं कह पाया, नहीं जी पाया, वह भीतर बैठा है, वह रात में जीने की कोशिश करेगा। दिन भर झूठा रहा, इसलिए रात सपने में झूठ सचाइयां बनकर प्रकट होने लगेगा। इसलिए पूरा मनोविज्ञान आज का, चाहे फ्रायड हो, चाहे का हो, चाहे एडलर हो, सारा का सारा मनोविज्ञान सपने का विश्लेषण है।

यह बड़ी हैरानी की बात है कि आदमी को जानने के लिए सपने का विश्लेषण करना पड़ रहा है। ड्रीम एनालिसिस आदमी को जानने का रास्ता है। सोचो, इसका क्या मतलब होता है? आज अगर तुम एक मनोविश्लेषक के पास जाते हो, मनोवैज्ञानिक के पास जाते हो, मनोचिकित्सक के पास जाते हो, तो वह तुम्हारी फिक्र ही नहीं करता, वह कहता है, अपने सपने बताओ। क्योंकि तुम तो आदमी झूठे हो, तुम्हारे बाबत कुछ पूछना बेकार है, जरा तुम्हारे सपनों से पूछ लें। क्योंकि तुम झूठे आदमी हो, उन झूठे सपनों में बिलकुल साफ—साफ प्रकट हो जाते हो। वहां तुम्हारा रिफ्लेक्शन है, वहां तुम्हारी असली तस्वीर बनती है। हम तुम्हारे सपनों में झांकना चाहते हैं। सारा मनोविज्ञान सपने के विश्लेषण पर खड़ा हुआ है।

उस फकीर का भी सपने में बड़ा रस था। और वह अपने शिष्यों से, साधकों से सपने पूछा करता था। क्योंकि हो सकता है, एक साधक आकर तो यह कहे कि मुझे भगवान को खोजना है, और रात सपने देखे हीरे की खदान खोजने का। इसका भगवान से कोई मतलब नहीं है। हो सकता है, यह भगवान को भी इसीलिए खोज रहा हो कि अगर भगवान मिल जाएं, तो जरा हीरे की खदान का पता पूछ लें। क्योंकि इसका सपना इसकी खबर दे रहा है कि इसकी असली खोज क्या है।

तो वह फकीर अपने साधकों के सपनों की डायरी रखवाता था कि डायरी लिखो। सच में अगर लोग अपनी आत्मकथाओं में जागने का समय छोड़ दें, सिर्फ नींद के समय की आत्मकथाएं लिखें तो दुनिया ज्यादा अच्छी हो सकेगी। और हम आदमियों के बाबत ज्यादा सच्ची बातें जान सकेंगे। दिन तो बड़ी झूठी दुनिया है। क्योंकि झूठा आदमी उसे बिलकुल आयोजित करता है। सपने में फिर भी एक सचाई है, क्योंकि वह अनआयोजित है, अनप्लांड है, अपने आप होता है। उसकी एक सचाई है। अगर हम सारी दुनिया के महात्माओं के सपनों को पकड़ लें, तो इतने महात्मा हमें दुनिया में दिखाई न पड़े, जितने दिखाई पड़ते हैं। इनमें से अधिक हिस्सा अपराधियों का मिलेगा। ही, ऐसे अपराधियों का, जो बाजार में जाकर अपराध नहीं करते, मन में कर लेते हैं।

तो वह फकीर अपने साधकों को पूछता रहता था। एक दिन सुबह वह उठा, उठकर बैठा ही था अपने बिस्तर पर कि उसका एक फकीर साधक वहां से निकल रहा था। उसने कहा कि रुक, रात मैंने एक सपना देखा, जरा व्याख्या कर। करेगा व्याख्या? उस साधक ने कहा, जरा रुके, मैं व्याख्या ले आऊं। उसने कहा, व्याख्या ले आऊं! फिर भी वह रुका। वह फकीर भीतर गया और वहा से एक पानी का जग लेकर आ गया। उसने कहा, जरा थोड़ा हाथ —मुंह धो डालें। जब टूट ही गया है, तो अब क्या व्याख्या! हाथ—मुंह धो डालें, जिससे कि जो भ्रम भी रह गया है थोड़ा —सा सपने का, सपने का जो थोड़ा—सा स्वर भी रह गया है, वह साफ हो जाए।

उस फकीर ने कहा, बैठ जा! तेरी व्याख्या जंचती है। फिर दूसरा फकीर गुजर रहा था। उसने उसको बुलाया और कहा, सुन, रात मैंने एक सपना देखा है। इसने कुछ थोड़ी व्याख्या की है, यह पानी का जग रखा है। तू व्याख्या करेगा? उसने कहा, अभी आया, दो क्षण रुके। वह भागा हुआ गया और एक चाय का कप ले आया। उसने कहा, आप एक कप चाय पी लें और बात खतम। क्योंकि जब नींद ही खुल गई, हाथ—मुंह ही धो डाला गया, तब मुझे क्यों फंसाते हैं? उस फकीर ने कहा, बैठ तेरी बात जंचती है। लेकिन अगर आज तुमने व्याख्या की होती, तो आश्रम के बाहर कर देता। तुम बच गए, बाल—बाल बच गए, अगर आज तुमने व्याख्या की होती तो आश्रम के बाहर कर देता। क्योंकि जब सपना टूट ही चुका तो क्या व्याख्या करनी है!

लेकिन जब तक सपना चल रहा है, तब तक व्याख्या करनी है। मेरी सब व्याख्याएं सपने की

व्याख्याएं हैं। और सपने की व्याख्याएं सच नहीं हो सकतीं। मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम! सपने की व्याख्या क्या खाक सच होगी, जब सपना ही सच नहीं होता! लेकिन सपने की व्याख्या सपने के तोड्ने में सहयोगी हो सकती है। और वही टूट जाए तो तुम जाग जाओगे। जिस दिन तुम जागोगे, उस दिन तुम नहीं कहोगे कि सपना सच था, नहीं कहोगे कि व्याख्या सच थी। तुम कहोगे, एक खेल था जो समाप्त हुआ। और उस खेल के दो पहलू थे। सपने में रमने का एक पहलू था, सपने को तोड्ने का एक पहलू था। सपने में रमने का नाम संसार है, सपने को तोड्ने वाली व्याख्याओं का नाम संन्यास है—बाकी हैं सब दोनों सपने के भीतर की बातें। सपने में रमने का नाम संसार है, सपने को तोड्ने की चेष्टा संन्यास है, लेकिन हैं दोनों सपने की बातें। और जब सपना टूट जाएगा, तो न संसार होगा, न संन्यास होगा। तब जो होगा, वह सत्य है।

भगवान श्री साधना प्राकृतिक विकास है अथवा प्रकृति के विकास— क्रम से बाहर छलांग उसका अतिक्रमण है? यदि साधना सहज विकास का अतिक्रमण और छलांग नहीं है तो क्या सृष्टि के विकास— क्रम में सारी मनुष्य— जाति आप ही आप आध्यात्मिक ऊंचाइयों को पहुंच सकती है? यदि विकास— क्रम आगे ही आगे बढ़ता है तो प्राचीन श्रेष्ठतम आध्यात्मिक संस्कृतियां क्यों विकास— क्रम से पीछे हट गईं?

समें बहुत—सी बातें हैं। पहली बात तो यह है कि जैसे ही हम मनुष्य को जगत से तोड़ कर देखते हैं अलग, वैसे ही ये सवाल उठने शुरू हो जाते हैं। उदाहरण के लिए हम पानी को सौ डिग्री तक गरम करें, तो सौ डिग्री पर पानी छलांग लगाकर भाप बन जाता है। पानी का भाप बनना एक प्राकृतिक घटना है। पानी का गरम होना भी एक प्राकृतिक घटना है, अप्राकृतिक घटना नहीं है। पानी का गरम होना भी प्राकृतिक घटना है, पानी का छलांग लगाकर भाप बनना भी प्राकृतिक घटना है। अगर प्रकृति में यह नियम न होता कि सौ डिग्री पर पानी छलांग लगाकर भाप बन सके, तो पानी के पास कोई उपाय न था कि वह भाप बन जाए। अगर प्रकृति में यह उपाय न होता कि पानी सौ डिग्री तक गरम हो सके, तो भी पानी की कोई सामर्थ्य न थी कि वह सौ डिग्री तक गरम हो जाए। फिर भी पानी के पास अगर चेतना है, तो पानी अपने को आग से बचा सकता है। और पानी के पास अगर चेतना है, तो वह अपने को आग पर चढ़ा सकता है। और यह भी प्राकृतिक घटना है कि वह अपने को बचाना चाहे या चढ़ाना चाहे—दोनों। यानी मेरा मतलब यह हुआ कि इस जगत में अप्राकृतिक कुछ भी नहीं घट सकता। असल में जो नहीं घट सकता, उसी का नाम अप्राकृतिक है।

इस जगत में जो भी घटता है वह प्राकृतिक ही होता है। अप्राकृतिक के होने का कोई उपाय ही नहीं है। जो भी होता है वह प्राकृतिक होता है। और मनुष्य अगर आध्यात्मिक विकास कर रहा है, तो वह उसकी प्रकृति की संभावना है। अगर छलांग लगा रहा है, तो प्रकृति की संभावना है। लेकिन चुनाव भी प्रकृति की संभावना है कि वह छलांग लगाने की दिशा में चले या छलांग न लगाने की दिशा में चले। वह भी प्राकृतिक संभावना है। इसका मतलब यह हुआ कि प्रकृति में अनंत संभावनाएं हैं, मल्टी पोटेशियलिटीज हैं। असल में जब हम प्रकृति शब्द का उपयोग करते हैं, तो हमें लगता है कि एक संभावना है। उससे भूल हो जाती है।

प्रकृति है अनंत संभावनाओं का संघट। इसमें सौ डिग्री पर पानी गरम होता है, यह भी प्राकृतिक घटना है। और शून्य डिग्री के नीचे बर्फ बनती है, यह भी प्राकृतिक घटना है। इसमें सौ डिग्री पर गरम होकर भाप बनने वाली प्राकृतिक घटना का खंडन नहीं होता, शून्य डिग्री पर बर्फ बनने वाली घटना से। एक प्राकृतिक, एक अप्राकृतिक, ऐसा नहीं है; दोनों प्राकृतिक हैं। इसमें ऊपर भी प्राकृतिक है, इसमें प्रकाश भी प्राकृतिक है। इसमें नीचे उतरना भी प्राकृतिक है, इसमें ऊपर जाना भी प्राकृतिक है। इसमें अनंत संभावनाएं हैं। हम सदा एक चौराहे पर खड़े हैं, जिसके अनंत मार्ग हैं। और मजा यह है कि हम जो चुनाव करेंगे, हमारी चुनाव की क्षमता भी प्रकृति की ही दी हुई क्षमता है। लेकिन हम अगर गलत रास्ता चुनें तो प्रकृति हमें उस गलत रास्ते की पूर्णता तक पहुंचा देगी।

प्रकृति बड़ी सहयोगी है। अगर हम नरक का रास्ता चुनें, तो वह उसी को साफ करने लगेगी कि आओ। वह इनकार नहीं करेगी। अगर हमें पानी का बर्फ बनाना है, तो प्रकृति क्यों इनकार करेगी कि तुम भाप बनाओ; वह बर्फ बनाएगी। अगर आपको नरक जाना है, तो वह नरक का रास्ता साफ करने लगेगी। अगर आपको स्वर्ग जाना है, तो वह स्वर्ग का रास्ता साफ करने लगेगी। अगर आपको जीना है, तो जीने का रास्ता साफ करेगी। अगर आपको मरना है, तो मरने का रास्ता साफ करेगी।

जीना भी प्राकृतिक घटना है और मरना भी प्राकृतिक घटना है और आपकी चुनाव की क्षमता भी प्राकृतिक है। इसको अगर मल्टी डाशमेंशनल, प्रकृति का बहु आयामी होना समझ में आ जाए, तो कठिनाई नहीं रह जाएगी।

दुख भी प्राकृतिक है, सुख भी प्राकृतिक है। अंधे की तरह जीना भी प्राकृतिक है, आख खोलकर जीना भी प्राकृतिक है। जागना भी प्राकृतिक है, सोना भी प्राकृतिक है। प्रकृति में अनंत संभावनाएं हैं। और मजा यह है कि हम कोई प्रकृति से बाहर नहीं हैं, हम प्रकृति के हिस्से हैं। और चुनाव भी प्रकृति की क्षमता है। पर जितना चेतन होता जाता है व्यक्ति, उतनी चुनाव की क्षमता प्रगाढ़ होती जाती है। जितना अचेतन होता है, उतनी चुनाव की क्षमता प्रगाढ़ नहीं होती। जैसे पानी अगर धूप में रखा है और उसको भाप नहीं बनना है, ऐसा उपाय नहीं है उसके पास। वह कठिनाई में पड़ेगा। उसे बनना है कि नहीं बनना है, इसका निर्णय वह नहीं कर सकता है। अगर धूप में पड़ा है तो भाप बनेगा और अगर सर्दी में पड़ा है तो बर्फ बनेगा। यह उसे भोगना पड़ेगा। भोगने का भी उसे पता नहीं चलेगा, क्योंकि चेतना क्षीण है, या नहीं है, या सोई हुई है।

एक वृक्ष अफ्रीका का वृक्ष सैकड़ों फुट ऊपर चला जाएगा। वह धूप की तलाश कर रहा है। अफ्रीका का वृक्ष लंबा हो जाएगा। हिंदुस्तान का वृक्ष उतना लंबा नहीं होगा, क्योंकि उतने घने जंगल नहीं हैं। जब घना जंगल होता है तो वृक्ष को अपनी जिंदगी बचाने के लिए ऊंचाई—ऊंचाई—ऊंचाई खोजनी पड़ती है, ताकि दूसरे वृक्षों के पार जाकर वह सूरज की रोशनी ले सके। अगर वह नहीं खोजता ऊंचाई, तो मर जाएगा। वह उसकी जिंदगी का सवाल है।

तो वृक्ष थोड़ा—सा चुनाव कर रहा है। घना जंगल होगा, तो वृक्ष चौड़े कम होने लगेंगे, लंबे ज्यादा होने लगेंगे, कोनीकल हो जाएंगे। क्योंकि चौड़ा होना खतरनाक है, चौड़े में मर जाएंगे, इधर—उधर के वृक्षों में उलझ जाएंगी शाखाएं और सूरज तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। अब सूरज तक पहुंचना है तो शाखाएं मत निकालो, अब तो एक ही पीड़ को लंबा करो। यह भी चुनाव है। यह भी वृक्ष चुन रहा है। इसी वृक्ष को अगर तुम ऐसे मुल्क में ले आओ जहां घने जंगल नहीं हैं, तो उसकी लंबाई कम हो जाएगी।

कुछ वृक्ष थोड़ा—बहुत सरकते भी हैं। साल में दस—पांच फीट सरक जाते हैं। उसका मतलब है, वह कुछ जड़ों को चलाते हैं पैरों की तरह। जिस तरफ उनको जाना है उस तरफ की जड़ों को मजबूत करके पकड़ लेते हैं, और जहां से छोड़ना है वहां की जड़ों को ढीला करके छोड़ देते हैं, तो थोड़ा सा सरक जाते हैं। दलदली जमीन हो तो उनको आसानी मिल जाती है। थोड़ा—सा सरकने लगते हैं।

कुछ वृक्ष और तरह की भी तैयारियां करते हैं, पक्षियों को लुभाते हैं, क्योंकि कुछ वृक्ष मांसाहारी हैं। तो पक्षियों को लुभाते हैं, फंसाते हैं और पक्षी आ जाएं, तो फौरन पत्ते बंद कर लेते हैं। और पक्षियों को लुभाने के उन्होंने बड़े इंतजाम किए हुए हैं। उनके ऊपर थालियों जैसे पत्ते होंगे। थालियों में बड़ा सुगंधित रस होगा। वह रस अपनी थालियों में भरे रहेंगे। स्वभावत: उनका रस दूर—दूर से सुगंध की वजह से पक्षियों को खींचेगा। पक्षी उस रस को पीने आकर बैठे नहीं कि चारों तरफ के पत्ते उस थाली पर बंद होकर पक्षी को दबा लेंगे। उसका खून पी जाएगा वृक्ष। अब नहीं कहा जा सकता कि यह चुनाव नहीं कर रहा है। यह चुनाव कर रहा है। यह अपनी तरफ से कुछ इंतजाम भी कर रहा है। यह अपनी तरफ से कुछ खोज भी कर रहा है।

पशु और भी ज्यादा चुनाव कर रहे हैं, भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं। लेकिन इन सबके चुनाव मनुष्य के चुनाव की दृष्टि से बहुत साधारण हैं।

मनुष्य के सामने और बड़े चुनाव हैं, क्योंकि उसकी चेतना और भी विकसित हो गई है। अब वह शरीर से ही नहीं चुनता है, अब वह मन से भी चुनता है। और अब वह जगत में पृथ्वी की यात्रा ही नहीं चुनता, पृथ्वी के ऊपर वर्टिकल यात्रा भी चुनता है। वह भी उसका चुनाव है। लेकिन है हाथ में सदा।

अब इस संबंध में अभी खोजबीन होनी बाकी है, लेकिन मुझे लगता है कि जिस दिन भी खोजबीन होगी, यह बात पाई जा सकेगी। कुछ वृक्ष हो सकते हैं, जो सुसाइडल हों, जो जीना न चुनें और जहां घना जंगल है, वहां भी छोटे रह जाएं और मर जाएं। अब यह खोजबीन होनी बाकी है। आदमी में तो हमें साफ दिखाई पड़ता है कि कुछ लोग सुसाइडल हैं। वे जीने को नहीं चुनते, मरने को चुनते रहते हैं। उनको जहां भी कांटा दिखाई पड़े, वह बिलकुल दीवाने की तरह काटे की तरफ जाते हैं। फूल दिखाई पड़े, तो उन्हें जंचते ही नहीं। उन्हें जहां हार दिखाई पड़े, वहा वह बिलकुल हिप्नोटाइज होकर सरकते हैं। जहां जीत दिखाई पड़े, वहा वे पच्चीस बहाने बनाते हैं। जहां विकास की संभावना हो, उसके खिलाफ वे हजार तर्क इकट्ठे कर लेते हैं। जहां पतन का सुनिश्चित विश्वास हो उनको, वहां वे बिलकुल बेधड़क बढ़े चले जाते हैं।

यह सब चुनाव है। और यह चुनाव जितना मनुष्य जागरूक होता चला जाएगा उतना ही यह चुनाव आनंद की ओर अग्रसर होने लगेगा। जितना मूर्च्छित होगा, उतना दुख की तरफ अग्रसर होता रहेगा।

तो जब मैं कहता हूं कि चुनना ही पड़ेगा। भाप बनने के उपाय हैं, लेकिन भाप की जगह तुम्हें

पहुंचना पड़ेगा। बर्फ बनने के उपाय हैं, बर्फ की जगह तुम्हें पहुंचना पड़ेगा। जिंदा रहने के उपाय हैं, लेकिन जिंदगी की व्यवस्था खोजनी पड़ेगी। मरने के उपाय हैं, मरने की व्यवस्था खोजनी पड़ेगी। चुनाव तुम्हारा है। और तुम और प्रकृति दो नहीं हो। तुम ही प्रकृति हो।

अब इसका मतलब हुआ कि प्रकृति की जो मल्टी—डायमेशनलिटी है, वह दो तरह की है। महावीर ने एक शब्द का प्रयोग किया है, वह समझने जैसा है। महावीर का एक शब्द है, अनंत अनंत—इनफिनिट इनफिनिटीज। यानी एक तो अनंत शब्द है हमारे पास। अनंत का मतलब होता है, एक दिशा में अनंत। अनंत अनंत का अर्थ होता है अनंत दिशाओं में अनंत। यानी ऐसा नहीं है कि दो दिशाओं पर ही अनंतता है, सभी दिशाओं में अनंतता है। सभी अनंतताओं में अनंतताएं हैं। तो यह जगत जो है इनफिनिट नहीं है, कहना चाहिए इनफिनिट इनफिनिटीज है।

तो यहां मैंने कहा कि एक तो अनंत दिशाएं हैं। और प्रकृति सबका मौका देती है। अनंत चुनाव हैं, उनका भी मौका देती है। और अनंत व्यक्ति हैं, जो प्रकृति के ही अनंत हिस्से हैं। और सबको अपना — अपना स्वतंत्र मौका है कि यह चुने या न चुने। और इन सबका नियोजन ऊपर से नहीं हो रहा है, इन सबका नियोजन भीतर से हो रहा है। यानी यह जो अनंतता है —कहना चाहिए, अनंत अनंतता है—यह भी इस तरह नहीं है जैसे कि एक बैल को कोई आदमी गले में रस्सी बांधकर आगे से खींच रहा हो। इस तरह नहीं है। या कोई उस बैल को पीछे से कोड़े मारकर किसी रास्ते पर धका रहा हो, इस तरह भी नहीं है। यह अनंत अनंतता इस तरह है, जैसे कोई झरना अपनी भीतरी ताकत से फूट पड़ा है और बह रहा है। न उसे कोई आगे से खींच रहा है, न उसे कोई कोड़े मार रहा है, न उसे कोई पुकार रहा है, न कोई उससे कह रहा है कि तुम जाओ। लेकिन उसमें शक्ति है, ऊर्जा है। और ऊर्जा क्या करे? ऊर्जा फूट रही है, ऊर्जा बह रही है। यह इनर एक्सपैंशन है।

अनंत आयाम, अनंत चुनाव, अनंत चुनाव करने वाले अंश और इन सबके ऊपर ऊपर से कोई नियोजन नहीं है, कोई ऊपर नियंता जैसा परमात्मा नहीं है। कोई ऊपर बैठकर मार्गदर्शन देने वाला प्रभु नहीं, कोई इंजीनियर नहीं, बल्कि भीतर की अनंत ऊर्जा ही एकमात्र आधार है, जिसके आधार पर सब फैलता जाता है।

इसमें तीन तल हैं। एक तल, जहां मूर्च्छा है। मूर्च्छा के कारण जो होता है, होता है। चुनाव नहीं के बराबर है। दूसरा तल, जहां चुनाव है —मनुष्य का तल, चेतना का तल। जहां जो भी होता है, हमारे चुनाव से होता है। हम किसी दूसरे को रिस्पासिबल नहीं ठहरा सकते। अगर मैं चोर हूं तो भी मेरा चुनाव है, अगर मैं ईमानदार हूं तो भी मेरा चुनाव है। मैं जो भी हूं, वह अंततः मेरा चुनाव है। यह मनुष्य का तल, जहां जो भी होता है, वहां चुनाव है। क्योंकि अर्द्ध मूर्च्छा है, अर्द्ध जागृति है। और इसलिए कभी—कभी हम ऐसी बातें भी चुन लेते हैं जो हम नहीं चुनना चाहते हैं।

अब यह बड़ी मजेदार घटना है न! यह वाक्य बडा उलटा है। ऐसा कहना कि कभी—कभी हम ऐसी बातें चुन लेते हैं जो हम नहीं चुनना चाहते। लेकिन हम रोज चुनते हैं। तुम क्रोध नहीं करना चाहते हो, लेकिन क्रोध करते हो। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि क्रोध तुम्हारे मूर्च्छित हिस्से से आ रहा है। और क्रोध के संबंध में जो विचार हैं, वह तुम्हारे जाग्रत हिस्से से आ रहे हैं। जाग्रत हिस्सा तुम्हारा कहता है, क्रोध नहीं करना है। मूर्च्छित हिस्सा क्रोध करता ही चला जा रहा है। तुम दो हिस्से में बंटे हुए हो। आधा हिस्सा नीचे की दुनिया से जुड़ा हुआ है, जहां पत्थर, पहाड़ों की दुनिया है, जहां सब मूर्च्छा है। आधा हिस्सा जागरूक हो गया है, होश से भर गया है और आगे की दुनिया से जुड़ा हुआ है, पूर्णता की, परमात्मा की दुनिया से, जहां कि सब जागा हुआ है। और आदमी बीच में है। और इसलिए आदमी एक तनाव में है।

कहना चाहिए कि आदमी एक तनाव है। तनाव ही है आदमी, खिंचाव है —इधर आधा, उधर आधा। इसलिए आदमी कोई—ठीक से हम कहें—तो प्राणी नहीं है, अर्द्ध प्राणी है। या कहें कि ठीक से उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है, क्योंकि उसमें दोहरे व्यक्तित्व हैं। रात वह सो जाता है और प्रकृति का हिस्सा हो जाता है, सुबह जग जाता है और परमात्मा की यात्रा करने लगता है। क्रोध में होता है तो अंधा हो जाता है, गणित करता है तो बड़े होश में करता है। गणित में कभी कोई आदमी यह कहता हुआ नहीं दिखाई पड़ता है कि मैं दो —दो चार जोड़ना चाहता था, फिर भी मैंने पांच जोड़ा। ऐसा कोई आदमी गणित में कहता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। क्या मामला है? लेकिन क्रोध में वह कहता है, मैं क्रोध नहीं करना चाहता था, फिर भी मैंने क्रोध किया। जरूर क्रोध और गणित के फासले हैं। गणित शायद उस हिस्से का हिस्सा है जहां जागरण है, और क्रोध वहा का हिस्सा है जहां निद्रा है।

इसलिए आदमी निरंतर एंग्जाइटी में है —एक चिंता, तनाव, एंग्विश—वह पूरे वक्त संतापग्रस्त है। वह जो कर रहा है, वह नहीं करना चाहता, फिर भी कर रहा है। जो करना चाहता है, वह कर नहीं पा रहा है। वह पूरे वक्त खिंचा हुआ है। वह पूरे वक्त डोल रहा है घड़ी के पेंडुलम की तरह—कभी बाएं, कभी दाएं। उसका भरोसा करने योग्य नहीं है कि तुम उसे बाएं देख गए थे, तो घड़ी भर बाद आओ तो उसे बाएं पाओ। यह कोई पक्का नहीं है, क्योंकि वह घड़ी के पेंडुलम की तरह डोल रहा है।

आगे मनुष्य के पूर्ण जागृति का जगत है, तीसरा तल। वहां भी कोई चुनाव नहीं है। मगर वहां के न चुनाव में और पहले तल के न चुनाव में फर्क है। पहले तल पर मूर्च्छा है, इसलिए चुनने वाला मौजूद नहीं है, चुनने का सवाल नहीं है। एक सोया हुआ आदमी क्या चुनेगा? सोया रहेगा। घर में आग लग जाए, तो भी वह नहीं चुन सकेगा कि बाहर जाऊं कि भीतर रहूं, जब तक जाग न जाए। मूर्च्‍छित जगत जो है, वहा चुनाव नहीं है, क्योंकि चुनाव करने वाला सोया हुआ है।

अमूर्च्छित, जाग्रत जो जगत है, जिसको मैं परमात्मा कह रहा हूं, प्रकृति का जागा हुआ रूप। पूर्ण जागा हुआ जहां जगत है, उसमें जैसे ही कोई व्यक्ति प्रवेश करता है, वहां भी चुनाव नहीं है। वहा इसलिए चुनाव नहीं है कि व्यक्ति पूरी तरह जागा हुआ है। तो जो ठीक है, वह उसे दिखाई ही पड़ता है। इसलिए चुनने का मौका नहीं होता है। चुनने का मौका तभी होता है, जब धुंधला दिखाई पड़ता हो। यानी मुझे ऐसा लगता हो कि यह करूं कि यह करूं, जब कि इदर आर मालूम पड़ता हो। जब मुझे लगता हो कि यह करूं कि यह करूं, इसका मतलब यह है कि मुझे साफ नहीं दिखाई पड़ रहा है, धुंधला दिखाई पड़ रहा है। दोनों करने योग्य भी लग रहे हैं, दोनों नहीं करने योग्य भी लग रहे हैं। इसलिए चुनाव है, इसलिए च्वाइस है।

अगर मुझे बिलकुल ठीक दिख रहा है कि यह करने योग्य है और यह नहीं करने योग्य है, तो चुनाव कहां है फिर। चुनाव खतम हो गया। फिर जो करने योग्य है करता हूं, जो नहीं करने योग्य है नहीं करता हूं। इसलिए उस तल पर कोई यह नहीं कह सकता कि मैं जो नहीं करना चाहता था, वह मैंने कर लिया, वह कोई सवाल उठता नहीं। वह यह भी नहीं कह सकता कि मैंने जो किया, उसके लिए मैं पश्चात्ताप करता हूं, क्योंकि वह भी सवाल उठता नहीं। वह यह भी नहीं कह सकता कि मैंने

भूल की, नहीं करनी थी, यह भी सवाल उठता नहीं। पूरा जागा हुआ आदमी जो करता है, उसमें चुनाव नहीं होता है। वह वही करता है, जो उसे दिखाई पड़ता है, करने योग्य है। वहां करना चाहिए, ऐसा कोई भाव नहीं होता। वहां जो करने योग्य है, वह होता है।

तो न तो पूर्ण जाग्रत तल पर कोई चुनाव है, न पूर्ण मूर्च्‍छित तल पर कोई चुनाव है। चुनाव है मनुष्य के तल पर, जहां आधी मूर्च्छा है और आधा जागरण है। अब यहां तुम्हारे हाथ में निर्भर है कि तुम दोनों तरफ जा सकते हो। बीच सेतु पर, ब्रिज पर खड़े हों—वापस लौट सकते हो, आगे बढ़ सकते हो।

वापस लौटना सदा आसान मालूम पड़ता है। क्यों? क्योंकि जहां हम लौट रहे हैं, वह परिचित भूमि है। वहां से हम आए हैं, वहां डर नहीं है ज्यादा। हमें पता है कि वहा क्या है, क्या नहीं है। आगे बढ़ना हमेशा खतरनाक मालूम पड़ता है, क्योंकि जहां हम जा रहे हैं, वहां का हमें कोई भी पता नहीं है।

इसलिए आदमी शराब पीकर पीछे लौट जाता है। नशा कर लेता है, पीछे लौट जाता है। इन सबमें वह मनुष्य होना छोड़ रहा है। असल में वह यह कह रहा है कि हम यह झंझट चुनाव की छोड़ते हैं। हम तो वहां जाते हैं, जहां कोई चुनाव करना ही नहीं पड़ता। पड़े रहते हैं—नाली में पड़े हैं तो पड़े हैं, सड़क पर पड़े हैं तो पड़े हैं, गाली बक रहे हैं तो बक रहे हैं, नहीं बक रहे हैं तो नहीं बक रहे हैं। जो हो रहा है सो हो रहा है। जहां हमें नहीं चुनना पड़ता। यह चुनाव का तनाव और बोझ हमारे सिर पर जहां नहीं रह जाता है, हम वहां जाते हैं। इसलिए सब नशे आदमी को सेतु से वापस लौटा लेते हैं कि आ जाओ वापस, वहीं ठीक थे।

अगर आगे जाना है तो जागृति बढ़ानी पड़ेगी। क्योंकि जैसे —जैसे आगे बढ़ते हो सेतु पर, वैसे —वैसे ज्यादा जाग्रत होओगे तो ही आगे बढ़ सकते हो। आगे बढ़ने का एक ही मतलब है, और जागो, और जागो, और जागो।

यह भी चुनाव है और तुम्हारे हाथ में है और प्रत्येक के हाथ में है कि क्या चुनते हो। और किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हो। क्योंकि कोई ऊपर बैठा नहीं है जिससे तुम कह सको कि तुमने गलत चुनाव करवा दिया। वहां कोई है नहीं। आकाश खाली है। वहां कोई देवी—देवता, कोई ईश्वर बैठा हुआ नहीं है जिसको तुम किसी दिन अदालत में खड़ा कर सको कि हम तो ठीक रास्ते पर जा रहे थे, तुमने जरा भटका दिया। कि उससे तुम कह सकोगे कि अगर तुम्हीं कृपा कर देते तो सब ठीक हो जाता। वहां ऐसा कोई मिलेगा नहीं कभी।

इसलिए उसका कोई उपाय ही नहीं है। व्यक्ति अल्टीमेटली रिस्पासिबल है। अंततः हम ही जिम्मेवार हैं —बुरा होगा तो जिम्मेवार, भला होगा तो जिम्मेवार। कोई नहीं है जो उत्तरदायी ठहराया जा सके कि तुम उत्तर दो, ऐसा क्यों हुआ? ऐसा कोई है नहीं।

जो आगे चले गए हैं वे जरूर चिल्ला—चिल्ला कर कहते हैं कि घबड़ा कर लौट मत जाना, क्योंकि आगे बहुत आनंद है। डर कर लौट मत आना, क्योंकि आगे बहुत आनंद है। सब चिंताएं समाप्त हो जाती हैं, सब अशांति समाप्त हो जाती है, सब दुख समाप्त हो जाता है। वह चिल्ला— चिल्ला कर कहते हैं। लेकिन उनकी आवाज भी हमें बड़ी अपरिचित मालूम पड़ती है। क्योंकि जिस जगह से वे बोलते हैं, वह जगह हमें अपरिचित है। हम कहते हैं कि आनंद हो ही कैसे सकेगा। जब यहां तक बढ़े, तो इतना दुख हो गया, और आगे बढे तो कहीं और दुख न हो जाए। तो फिर पीछे लौट चलें, वहां दुख नहीं था।

हर आदमी कहता है, बचपन में दुख नहीं था। अगर लौट सकता हो आदमी, फौरन लौट जाए। वह तो लौट नहीं सकता है, इसलिए रुका रह जाता है। कहता है बचपन में दुख नहीं था। अगर उसका वश चले तो वह कहे कि मां के गर्भ में बिलकुल दुख नहीं था। अगर लौट सके तो लौट जाए, लेकिन लौट नहीं सकता। फिर आगे बढ़ता जाता है। लेकिन जीवन के चुनाव में हम पीछे लौट सकते हैं। हम मूर्च्छा में लौट सकते हैं। हम तरकीबें खोज सकते हैं कि हम मूर्च्छित हो जाएं।

और वह जो दूर से आवाजें आती हैं, उन आवाजों के शब्द भी हमारी समझ में नहीं आते। क्योंकि आनंद हम जानते नहीं कि किस चीज का नाम है! कौन —सी चिड़िया है जिसको आनंद कहें! दुख हम जानते हैं, अच्छी तरह जानते हैं। और हम यह भी जानते हैं कि जितना सुख पाने की कोशिश की, उतना दुख पाया। अब यह भी डर लगता है कि आनंद पाने की कोशिश में कहीं और झंझट में न पड़ जाएं। जितना सुख पाने की कोशिश की उतना दुख पाया, तो यह आनंद हमें सुख का निकटतम मालूम पड़ता है कि कुछ सुख की ही गहन अनुभूति होगी। मगर झंझट से भी डरते हैं, क्योंकि सुख पाने की जितनी कोशिश की उतना दुख पाया, कहीं आनंद पाने की कोशिश में और भी मुसीबत न हो जाए, कहीं कोई महा दुख न मिल जाए। इसलिए सुन लेते हैं, हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लेते हैं। उस पार के लोगों को कहते हैं, तुम भगवान हो, तुम अवतार हो, तीर्थंकर हो, बड़े अच्छे हो। हम तुम्हारी पूजा करेंगे, लेकिन हमें पीछे लौटना है।

अज्ञात का भय मालूम पड़ता है। जो थोड़े —बहुत सुख हमने जमा रखे हैं, कहीं वे भी न छूट जाएं। वे सब छूटते मालूम पड़ते हैं आगे बढ़ो तो। क्योंकि हमने उसी सेतु पर जो कि सिर्फ पार होने के लिए था, घर बना लिया है, वहीं रहने लगे हैं। वहीं हमने सब इंतजाम कर लिया है। अपना बैठकखाना जमा लिया है उसी सेतु पर। अब कोई हमें कहता है, आगे आ जाओ, तो हमें डर लगता है कि इस सब का क्या होगा! यह सब छोड़ कर जाना पड़ेगा आगे! तो हम कहते हैं, जरा वक्त आने दो, बूढ़े होने दो, मौत करीब आने दो। जब यह सब छूटने लगेगा, तब हम एकदम से आ जाएंगे, क्योंकि फिर कोई डर नहीं रहेगा।

लेकिन जितनी मौत करीब आती है, उतनी पकड़ गहरी होती है। क्योंकि जितनी मौत करीब आती है उतना डर लगता है कि छूट न जाए, तो मुट्ठी जोर से कसते हैं। इसलिए बूढ़ा आदमी निपट कृपण हो जाता है, जवान आदमी उतना कृपण नहीं होता। उसकी कृपणता बढ़ जाती है बूढ़े की सब तरफ से। वह एकदम जोर से पकड़ता है। वह कहता है, अब जाने का वक्त हुआ, कहीं सब छूट न जाए। अगर ढीला पड़ा, कहीं हाथ न छूट जाए, इसलिए जोर से पकड़ लेता है। यह जोर की पकड़ ही बूढे आदमी को कुरूप कर जाती है, अन्यथा बूढ़े आदमी के सौंदर्य का कोई मुकाबला न हो। हम सुंदर बच्चे जानते हैं, फिर उनसे कम सुंदर जवान जानते हैं, और सुंदर के तो बहुत कम हैं। कभी—कभी घटना घटती है। क्योंकि जैसे—जैसे कृपणता बढ़ती है और पकड़ बढ़ती है, वैसे —वैसे सब कुरूप होता जाता है।

खुले हाथ सुंदर हैं, बंधी हुई मुट्ठी कुरूप हो जाती है। मुक्ति सौंदर्य है और बंधन गुलामी। सोचता तो है कि छोड़ देंगे कल, जब मौका छोड़ने के लिए आ जाएगा तब छोड़ देंगे। लेकिन जो आदमी उस

मौके की प्रतीक्षा करता है कि वह जब उससे छीना जायेगा तब छोड़ेगा, वह आदमी छोड़ना ही नहीं चाहता। और जब छीना जाता है तब पीड़ा आती है, और जब छोडा जाता है तो पीड़ा नहीं आती।

अब यह जो आगे बढ़ने का मामला है, यह चुनाव ही है हमारा। और इस चुनाव के लिए गति दी जा सकती है। इसके भी नियम हैं। सेतु तैयार है। वह भी प्राकृतिक है। मेरी बात खयाल में आ रही है न? आगे जाने के लिए भी सेतु तैयार है, वह कहता है, आओ। यह भी प्रकृति है। पीछे जाने के लिए भी तैयार है। वह कहता है, आओ। यह भी प्रकृति है। प्रकृति तुम्हें हर हालत में स्वागत करने को तैयार है। उसके सब दरवाजे पर वेलकम लिखा हुआ है। यही खतरा भी है। यानी किसी दरवाजे पर यह नहीं लिखा हुआ है कि मत आओ। सब दरवाजे पर, द्वार—द्वार पर—स्वागतम।

इसलिए चुनाव तुम्हारे हाथ में है। और यह प्रकृति की अनुकंपा ही है कि किसी भी द्वार पर तुम्हें इनकार नहीं है, तुम जहां आना चाहो, आ जाओ। मगर नरक के द्वार पर भी लगा हुआ है, स्वर्ग के द्वार पर भी लगा हुआ है। चुनाव अंततः हमारा होगा कि हमने कौन—सा स्वागतम चुना। इसमें हम प्रकृति को जिम्मेवार नहीं ठहरा सकेंगे कि तुमने स्वागतम क्यों लगाया? उसने तो सभी जगह लगा दिया था, उसमें कोई सवाल ही नहीं था, उसने कहीं भी रुकावट न डाली थी।

स्वतंत्रता इस का अर्थ है, स्वागतम का। यानी प्रकृति जो है, वह परम स्वतंत्र है भीतर से। और हम उसके हिस्से हैं, हम परम स्वतंत्र हैं। हम जो करना चाहते हैं, कर रहे हैं। इस करने में सब चीजों में उसका सहारा है। लेकिन चुनाव हमारा ही है। और जब मैं कहता हूं, हमारा ही, तो भ्रांति में मत पड़ जाना। क्योंकि हम भी प्रकृति के हिस्से ही हैं।

अगर इसे परम शब्दों में कहा जाए तो मतलब यह होगा कि प्रकृति की ही अनंत संभावनाएं हैं, प्रकृति के ही अनंत द्वार हैं, प्रकृति ही अपने अनंत द्वारों पर अपने ही अनंत अंशों से खोजती है, चुनती है, भटकती है, पहुंचती है। पर यह बहुत गोल हो जाता है। यह बात जो है बहुत गोल हो जाती है, इसमें कोने नहीं रह जाते।

और कठिनाई यह है कि प्रकृति के सब रास्ते गोल हैं, सरकुलर हैं। उसका कोई भी रास्ता कोने वाला नहीं है। चौखटा कोई रास्ता नहीं है उसका। उसके सब तारे, चांद, ग्रह, उपग्रह, गोल हैं। उन चांद—तारों की परिक्रमाएं गोल हैं। प्रकृति की सारी नियम —व्यवस्था वर्तुलाकार है।

इसलिए बहुत से धार्मिक प्रतीकों में वर्तुल का प्रयोग हुआ है, सर्किल का प्रयोग हुआ है। वह गोल है। और तुम कहीं से भी चलो, कहीं से भी चलकर कहीं भी पहुंच सकते हो। चुनाव सदा तुम्हारा है।

यह अगर खयाल में आ जाए कि चुनाव सदा मेरा है, तो फिर प्रकृति के नियमों का ठीक उपयोग किया जा सकता है। जैसे कि जब मैं रास्ते पर चलता हूं तब भी मैं ग्रेविटेशन के नियम का ही उपयोग करता हूं। अगर जमीन में कशिश न हो, आकर्षण न हो, गुरुत्वाकर्षण न हो, तो तुम चल न सकोगे जमीन पर। क्योंकि जब तक तुम दूसरा पैर उठाते हो, अगर पहला पैर जमीन पर न रह जाए और अपने आप उठ जाए, तो तुम कहां टिकोगे? कहां खड़े रहोगे? जब तुम बायां पैर उठाते हो, तब दायां पैर जमीन पकड़े रखती है। इसलिए तुम बायां पैर उठा पाते हो। तुम्हारे बाएं के उठाने में जमीन की दाएं की पकड़ है। अगर दायां भी उसी वक्त उठ जाए, तो तुम गए। वह दाएं को पकड़े रखती है, तब तक तुम बायां उठा लेते हो। जब तुम बाएं को रखते हो, प्रकृति उसे संभाल लेती है, तब तुम दायां उठा लेते हो। ग्रेविटेशन काम करता है।

लेकिन एक आदमी अपनी छत पर से कूद पड़ता है, उस वक्त भी ग्रेविटेशन काम करता है। उस वक्त भी जमीन इसको खींच लेती है कि आ जाओ। जैसे वह बाएं और दाएं पैर को खींचती थी, इसको भी खींच लेती है। अब हड्डी पड़ जाती है उसके ऊपर। हड्डी टूट जाती है। हम कहते हैं, ऐसी कैसी है प्रकृति, हमारी हड्डी तोड़ दी! प्रकृति अपना जैसा काम कर रही है। वह कहती है, स्वागत है, आओ, हड्डी तुडूवाओ।

वह नियम काम कर रहा है। वही ग्रेविटेशन हड्डी तोड़ देगा। जो ग्रेविटेशन जमीन पर चलाता था, वही लंगड़ा बना देगा। लेकिन फिर भी तुम उसको जिम्मेवार न ठहरा सकोगे, उसने सिर्फ अपना काम किया है। उसका काम बिलकुल परफेक्ट है। उसमें कहीं कोई कमी नहीं है। उसमें भूल —चूक नहीं होती। चाहे तुम पैर चलाओ, चाहे तुम गर्दन तोड़ो। तुम जो भी करना चाहो, उसका नियम अपनी तरह काम करता है। उस नियम को देखकर तुम्हें चुनाव करना है कि तुम हड्डी तोड़ना चाहते हो तो छत पर से कूदो, जमीन पर चलना चाहते हो तो पैर ढंग से उठाओ। तुम्हें ध्यान रखना है कि प्रकृति के नियम के प्रतिकूल तुम न पड़ जाओ।

विज्ञान का मेरी दृष्टि में एक ही अर्थ है। विज्ञान का यह अर्थ नहीं है कि हमने प्रकृति को जीत लिया। प्रकृति को जीतने का कोई उपाय नहीं है। विज्ञान का एक ही अर्थ है कि हमने प्रकृति के अनुकूल चलने की कुछ तरकीबें खोज लीं। और कुछ मतलब नहीं है। जीत तो क्या सकेंगे! जीतेगा कौन किसको? प्रकृति के अनुकूल चलने की हमने तरकीबें खोज ली हैं।

यह प्रकृति तो बहुत दिन पहले से पंखा चलाने को तैयार थी। हम अपने पंखे को ठीक जगह पर न लगा पाए थे। मेरी बात समझे न तुम? हवाएं तो बाहर की हमेशा से बहने को तैयार थीं, लेकिन हमने दीवाल बना रखी थी। हमने कोई खिड़की न बनाई थी। जब हम खिड़की बना लेते हैं, तब क्या तुम कहोगे कि हमने हवाओं पर विजय पा ली? हमने सिर्फ हवाओं के रास्ते खुले छोड़ दिए। हवाएं तो बहने को सदा तैयार हैं। अगर हम बिजली से पंखा चला रहे हैं और प्रकाश जला रहे हैं तो हमने कोई प्रकृति पर विजय नहीं पा ली। हमने सिर्फ प्रकृति के अनुकूल होने का ढंग पा लिया। अब हम अपने बल्व को इस अनुकूलता से लगाते हैं, अपनी बटन को इस अनुकूलता से लगाते हैं, अपने तार को इस अनुकूलता से फैलाते हैं कि बिजली उनमें से बह सकती है। वह तो सदा से बहने को तैयार थी। हम सिर्फ खिड़की खोल रहे हैं।

विज्ञान है प्रकृति की, बाह्य प्रकृति की अनुकूलता के नियमों की खोज। और धर्म है प्रकृति के अंतस नियमों की अनुकूलता की खोज। जैसे बाहर के जगत में प्रकृति के नियम हैं और उनके अनुकूल अगर हम चलें तो प्रकृति सहयोगी हो जाती है, प्रतिकूल चलें तो असहयोगी हो जाती है। प्रकृति सहयोगी होती है या असहयोगी होती है, यह कहना एक अर्थ में गलत है। हम प्रकृति से सहयोग ले पाते हैं कि नहीं ले पाते हैं, यही कहना उचित है। यानी इसे ऐसा कहना चाहिए कि हम अगर इस ढंग से खड़े हों कि प्रकृति सहयोगी हो सके, तो हम प्रकृति से फायदा उठा लेते हैं। हम अगर इस ढंग से खडे हों कि प्रकृति सहयोगी न हो सके, तो हम नुकसान उठा लेते हैं।

अगर तुम छाता लेकर चलते हो और हवा तुम्हारी तरफ बह रही हो और छाता तुम आगे झुका लेते हो तो ठीक है, और छाता पीछे की तरफ तुम कंधे पर कर लेते हो तो हवा उसको उलटा डालती

है। इसमें प्रकृति को तुम कहीं दोष देने न जा सकोगे। तुमने छाता अनुकूल नहीं रखा। बस इतना ही जिम्मा तुम्हारा ही होगा। प्रकृति दोनों वक्त वही काम कर रही है। जब तुम छाता आगे रखते हो, तब भी छाते को दबा रही है, लेकिन तुम्हारी तरफ दबा रही है। जब तुम छाते को कंधे पर रख लेते हो, तब भी दबा रही है, तब वह तुमसे उलटा दबा रही है। इसमें तुम्हारे छाता रखने की बात है।

ऐसे ही प्रकृति के आतरिक नियम भी हैं। अब जो आदमी क्रोध के ढंग से जीता है, वह छाते को कंधे पर रख रहा है। अब वह झंझट में पड़ेगा। उसके भीतरी छाते सब टूट जाएंगे। और जो आदमी प्रेम को फैला रहा है, वह छाते को आगे की तरफ रख रहा है। वह प्रकृति के अनुकूल हो रहा है। तो जो आदमी प्रेम करना सीख लेता है, असल में उसने भीतरी विज्ञान का एक नियम सीखा। उसने यह सीखा कि प्रेम जो है, वह भीतरी जीवन में अनुकूलता ला देता है; और क्रोध जो है, वह भीतरी जीवन के लिए प्रतिकूलताए पैदा कर देता है। यह भी ग्रेविटेशन जैसा ही मामला है। क्रोध में टांग टूट जाती है, प्रेम में जुड जाती है। प्रकृति दोनों वक्त काम करने को तैयार है कि तुम क्या कर रहे हो। क्रोध में आदमी छत से कूद रहा है।

जो अंतस जीवन की अंतिम अनुकूलता है, वह ध्यान है। अंतिम अनुकूलता, जिसे कहें गहरी से गहरी अनुकूलता। ध्यान का मतलब यह है कि भीतर से आदमी अब जीवन के परम नियम के अनुकूल खड़ा हो गया। इसलिए लाओत्से ने उसे जो शब्द दिया है ताओ, वह प्रीतिकर है। ताओ का मतलब होता है, नियम। या वेद के ऋषियों ने जो नाम दिया है, वह ठीक है। वह है ऋत। ऋत का अर्थ होता है, दि ला। ऐसे ही धर्म का मतलब भी यही होता है, नियम। धर्म का मतलब होता है, स्वभाव, दि ला। धर्म का मतलब है कि जैसा तुम करोगे…… ऐसा नियम कि अगर वैसा तुम करोगे तो तुम सुख को उपलब्ध हो जाओगे। अधर्म का मतलब है, ऐसा करना जो कि नियम के प्रतिकूल पड़ेगा तो तुम दुख को उपलब्ध हो जाओगे।

यह आंतरिक विज्ञान की बात है। और ध्यान अंतिम अर्थों में, भीतरी अर्थों में अनुकूल होना है। अनुकूलन कहना चाहिए। सब भांति जो अनुकूल है। जो जीवन से कहीं भी लड़ता नहीं है, जो जीवन से कहीं भी विभाजित नहीं होता। जो सब भांति से जीवन के समस्त नियमों के अनुकूल हो गया है, वह परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है, परम जीवन को, परम आनंद को, परम मुक्ति को।

और हम भी उसी नियम के नीचे खड़े हैं, लेकिन हम उसी नियम के विपरीत लड—लडकर परम बंधन को उपलब्ध हो जाते हैं। उसी नियम के विपरीत लड़ —लड़कर। यानी मामला कुछ ऐसा है कि कुछ लोग हैं जो सोने को समझ जाते हैं, तो आभूषण गढ़ लेते हैं। कुछ लोग हैं जो सोने को नहीं समझ पाते, वे जंजीरें गढ़ लेते हैं। सोने का नियम एक है। गढ़ने का नियम एक है। ढालने का नियम एक है। अब तुम आभूषण गढ़ते हो कि जंजीर गढ़ते हो, यह बिलकुल तुम पर निर्भर है।

प्रकृति के नियम के साथ जो पूरी तरह अपना अनुकूलन साध लेता है आंतरिक, वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है। जो बाहर साध लेता है अनुकूलन पूरी तरह, वह विज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। ये शब्द भी बड़े अच्छे हैं, समझने जैसे हैं।

धर्म से जो मिलता है, उसे हम शान कहते हैं। साइंस से जो मिलता है, उसे हम विज्ञान कहते हैं। ये दोनों शब्द बड़े अर्थपूर्ण हैं। ज्ञान में हम कोई विशेष प्रत्यय नहीं लगा रहे हैं, कोई विशेषण नहीं लगा रहे हैं। विज्ञान का मतलब है, विशेष ज्ञान। और ज्ञान का मतलब है, बस सहज ज्ञान, कोई विशेष नहीं। तो धर्म का अर्थ है, जो जीवन की आंतरिक प्रकृति है, उसके साथ सहज एक हो जाने की समझ। इसलिए सिर्फ ज्ञान है वह। जस्ट नोइंग, स्पेशलाइब्ड नालेज नहीं। विज्ञान जो है, वह स्पेशलाइब्ड नालेज है। विज्ञान है विशेष ज्ञान। क्योंकि एक—एक दिशा में हमें खोजना पड़ता है कि इसके नियम का क्या अनुकूलन होगा, उसके नियम का क्या अनुकूलन होगा। करोड़ों नियम हैं बाहर।

स्वभावत:, जितने भीतर जाएंगे, उतना एक नियम रह जाएगा। जितना बाहर जाएंगे, उतने ज्यादे नियम होते चले जाएंगे। ऐसे ही जैसे हम एक बिंदु के चारों तरफ एक बिंदु से रेखाएं खींचना शुरू करें बाहर की तरफ जाती हुई। तो बिंदु पर तो सभी रेखाएं एक होंगी, पर बिंदु से दूर होते —होते ज्यादा होने लगेंगी। जितनी दूर होती जाएंगी, उतनी ज्यादा और फासले पर होती जाएंगी। जैसे सूरज की किरणें फैल जाती हैं चारों तरफ। सूरज पर तो वे एक होती हैं, पर सूरज से दूर हटते दो होने लगती हैं, चार होने लगती हैं, हजार, करोड़, अरब होने लगती हैं, फैलती चली जाती हैं। फिर उनका फासला बड़ा होता चला जाता है।

विज्ञान जो है, वह विशेष ज्ञान है। एक —एक किरण का ज्ञान है, इसलिए स्पेशलाइब्ड है। कोई एक किरण को पकड़ लेगा विज्ञान की तो फिर उसी किरण को जान लेगा। जैसा मैं कल कह रहा था….. टु नो मोर अबाऊट लेस ऐंड लेस। तो थोड़े और थोड़े और थोड़े के संबंध में, ज्यादा, ज्यादा, जानता चला जाएगा। लेकिन तब किरण और बारीक होती जाएगी, जितना दूर जाएगा और बारीक होती जाएगी, और बारीक होती जाएगी। इसलिए विज्ञान बारीक होता जाएगा, नैरो होता जाएगा, संकीर्ण होता जाएगा। धर्म विस्तीर्ण होता जाएगा, विराट होता जाएगा, निराकार होता जाएगा। अंत में अद्वैत रह जाएगा। वहा कोई दो नहीं रह जाएंगे।

इसलिए मैं कहता हूं, विज्ञान बहुत हो सकते हैं, धर्म बहुत नहीं हो सकते। धर्म एक ही हो सकता है, क्योंकि वह ज्ञान है, विशेष ज्ञान नहीं है।

यह खयाल में आ जाए तो इसका मतलब यह हुआ कि नियम मौजूद हैं, हम मौजूद हैं, अब हम उन नियमों के साथ और अपने साथ क्या करते हैं, इसकी चुनाव की क्षमता भी मौजूद है। जो हम करेंगे उसको भोगने की क्षमता भी मौजूद है। यह स्थिति है। इसमें जो बुद्धिमान है, वह आनंद की दिशा को क्रमश: बढ़ाता चला जाता है। जिसने बुद्धिहीनता के चुनाव लेने का तय कर रखा है, वह आनंद की क्षमता को निरंतर कम करता चला जाता है। और ऊपर कोई जिम्मेवार नहीं है। सारा दायित्व मनुष्य का है।

इसलिए साधना पर मेरा जोर है। और इसलिए तुमसे कहता हूं निरंतर कि लगो, छलांग लो, नियम पक्के हो गए हैं। तुम बिलकुल जंपिंग बोर्ड पर खड़े हो, लेकिन वहीं खड़े हो। नीचे सागर लहरा रहा है। छलांग तुम लगा सकते हो। भारी धूप है, सूरज तप रहा है, पसीना चू रहा है, नीचे शीतल सागर लहरा रहा है। तुम छलांग लगा सकते हो। अभी तुम शीतलता में पहुंच जाओगे। जंपिंग बोर्ड पर खड़े हो। तुम जरा छलांग लो कि बोर्ड भी तुमको छलांग देने में सहयोग देगा। उसमें स्थिंग जड़े हैं। वे तुमको फेंक देंगे उछाल कर।

लेकिन तुम खड़े हो। तो धूप में पसीना बह रहा है। जंपिंग बोर्ड नीचे रो रहा है। उसके स्टिंग रो रहे हैं कि तुम जल्दी छलांग लो, तो वे तुम्हारा साथ दें। लेकिन तुम नहीं ले रहे हो तो जंपिंग बोर्ड शात है। नीचे शीतल सागर है। वह देख रहा है कि पसीना चू रहा है तुम्हारा।

यह सब स्थिति है। इसमें तुम्हें निर्णायक रूप से चुनाव करना पड़े। तुम्हें तय करना पड़े। और मैं मानता हूं कि तुम्हें रुकना है तो रुको, हर्जा नहीं है। लेकिन यह भी चुनाव करके रुको कि मैं रुकता हूं। नहीं शीतलता में मैं आना चाहता हूं। मुझे धूप चाहिए, मुझे पसीना चाहिए। मैं नहीं कूदना चाहता हूं मैं यहीं रुकूंगा। यह तुम चुनाव करके रुको। तो मैं मानता हूं कि तो भी तुम्हारा विकास हुआ। तुमने एक निर्णय तो लिया।

लेकिन हमारी अजीब हालत है। हम कहते हैं, नहीं, कूदना तो है सागर में, जाना तो है शीतलता में। लेकिन क्या करें, पसीना बह रहा है, धूप में खड़े हैं, कूद नहीं सकते अभी। कूदना तो चाहते हैं, छलांग तो लेनी है, लेकिन जरा रुके, इतनी जल्दी कैसे कर सकते हैं। कल करेंगे, परसों करेंगे। तब तुम्हारा विकास नहीं होता, धीरे — धीरे तुम जड़ हो जाते हो इसी जगह में। इस पसीने के भी आदी हो जाते हो, इस धूप के भी आदी हो जाते हो और इस बकवास के भी आदी हो जाते हो कि कूदना तो जरूर है, लेकिन कल कूदेंगे। कल भी तुम यही कहोगे कि कूदना तो जरूर है, कल कूदेंगे। फिर तुम इसके आदी हो जाओगे। फिर तुम यही कहते रहोगे और प्रकृति के सब नियम प्रतीक्षा करेंगे। सूरज धूप देता रहेगा, कहता है स्वागत है तुम्हारा। धूप लेनी है मजे से लो। हम पसीना गिराते रहेंगे। सागर बुलाता रहेगा कि मौज तुम्हारी, आना हो तो आ जाओ, शीतलता तैयार है। जंपिंग बोर्ड कहता रहेगा, हम उछालने को तैयार हैं, लेकिन तुम चुनाव तो करो, उछलो। बस ऐसी स्थिति है।

मैं मानता हूं कि नुकसान इससे ज्यादा नहीं है कि तुम दुख झेल रहे हो। नुकसान इससे ज्यादा है कि तुम दुख निर्णयपूर्वक नहीं झेल रहे हो। निर्णयपूर्वक झेलो—डिसीसिवली—यह भी तुम्हारा डिसीजन होना चाहिए। अगर मुझे चोरी करनी है तो मैं डिसीसिवली चोर होकर करूंगा। मैं कहूंगा कि मुझे चोर ही होना है। और मैं सब साधुओं को कह दूंगा कि अपनी बकवास बंद रखो। तुम्हारी बात मेरे किसी काम की नहीं है। मेरे किसी मतलब की नहीं हैं तुम्हारी बातें। तुम्हें साधु होना है, तुम साधु होओ। मैंने चोर होने का निर्णय किया है।

तो ध्यान रहे, जो साधु बिना निर्णय के साधु हो गया है, उसके मुकाबले जो चोर निर्णयपूर्वक चोर है, वह श्रेष्ठतर जीवन—स्थिति को उपलब्ध हो जाएगा। क्योंकि निर्णय उसकी कांशसनेस को बढ़ाता है, डिसीजन उसके व्यक्तित्व को वजन देता है, डिसीजन उसकी रिस्पासिबिलिटी को बढ़ाता है। जब वह निर्णय लेता है तो दायित्व बनता है। जब वह निर्णय लेता है तो वह स्वयं निर्णायक होने की वजह से, स्वयं का निर्णय और चुनाव होने की वजह से, संकल्प पैदा होता है। और जब संकल्प पैदा होता है तो चेतना जगती है, सोई हुई नहीं रह सकती।

जब तुम निर्णय लोगे तो मूर्च्छा टूटेगी। क्योंकि निर्णय मूर्च्छित के साथ जुड़ नहीं सकता। जब तुम निर्णय न लोगे, ड्रिफ्ट होते रहोगे, ऐसे ही बहते रहोगे इधर—उधर कि जहां ले जाएं धक्के समाज के—बाप एक स्कूल में भेज दे, तो वहां पढ़ना है। मां एक दफ्तर में नौकरी करवा दे, तो वहां नौकरी करनी है। पत्नी शीर्षासन लगाने को कह दे, तो शीर्षासन लगाना है। बस, फिर बच्चे तुमको घेर लेंगे तुम घिरते चले जाओगे। पूरी तरह चारों तरफ धक्के हैं, वह तुम खाते रहना और तुम इनडिसीसिव तो तुम्हारी जिंदगी में मूर्च्छा ही मूर्च्छा घनी हो जाएगी। निर्णय लेना, गलत के लिए ही सही, तो कोई हर्जा नहीं है।

मेरी दृष्टि में एक ही गलती है, निर्णय न लेना। और मेरी दृष्टि में एक ही शुभ है, निर्णायक होना। तो तुम निर्णय लेना। चोर होने का लेना हो, तो भी हर्जा नहीं है, मगर लेना पूरे मन से। तो तुम बहुत जल्दी चोर न रह जाओगे। क्योंकि जो पूरे मन से निर्णय ले सकता है, वह इतनी चेतना को उपलब्ध हो जाता है कि चोरी नहीं कर सकता। वह इतनी समझ को उपलब्ध हो जाता है कि चोरी उसे नामसझी मालूम होने लगती है।

लेकिन हम अगर साधु भी होते हैं तो वह भी धक्का ही है। किसी की पत्नी मर गई है, वह साधु हो गया है, यह भी धक्का है। किसी का पति गुजर गया है, वह साध्वी हो गई है, यह भी धक्का है। किसी का दिवाला निकल गया है, वह भी साधु हो गया है। किसी का बाप साधु हो रहा है और अब बेटे के लिए कोई उपाय नहीं है, तो उसने उसको भी दीक्षा दे दी।

इसका कोई अर्थ नहीं है, इसमें कोई प्रयोजन नहीं है। निर्णय होना चाहिए। और जो आदमी प्रतिपल निर्णय लेकर जी रहा है, चेतना उसकी प्रतिपल बढ़ती रहेगी। और छोटी—छोटी चीजों में निर्णय लेना और अपने निर्णय पर रुकना सीखना। बहुत छोटे—से निर्णय में।

एक छोटी—सी बात, फिर आखिरी बात करें। गुरजिएफ एक छोटी—सी प्रक्रिया करवाता था। बड़ी छोटी —सी प्रक्रिया। लेकिन चेतना को बढ़ाने में बड़ी अदभुत सिद्ध होती थी। उस प्रक्रिया का नाम था स्टाप एक्सरसाइज। जैसे हम यहां इतने लोग बैठे हैं, और गुरजिएफ यहां बोलता रहेगा और बीच में एकदम से कहेगा, स्टाप। उसका मतलब यह है कि अब जो जहां जैसा है, वैसा ही रुक जाए। अगर तुम्हारी आख ऐसी थी, तो ऐसी ही रुक जाए। अगर तुम्हारा हाथ ऐसा था, तो ऐसे ही रुक जाए। अगर किसी की गर्दन ऐसी थी, तो वैसी ही रह जाए। आप यहां सब मूर्तियां हो जाएं। और वह देखता रहेगा, कोई जरा भी हिला, तो वह कहेगा तुम्हारा संकल्प बड़ा कमजोर है। इतना—सा भी तुम संकल्प नहीं साध पाते कि इतनी देर ऐसे ही रह जाओ।

एक दिन ऐसा हुआ कि वह तिफलिस में कुछ साधकों को लेकर प्रयोग कर रहा था। गांव के बाहर एक तंबू में ठहरा हुआ था। और तंबू के पास से ही एक नहर बहती थी। नहर अभी सूखी थी, उसमें पानी अभी चला नहीं था। तीन साधक नहर पार कर रहे थे। अचानक वह तंबू के भीतर से चिल्लाया, स्टाप। तो वे तीनों नहर में खडे हो गए। फिर किसी ने नहर का पानी खोल दिया। अब नहर में पानी आ रहा है, गुरजिएफ तंबू के भीतर है। नहर में जब तक पानी कमर तक था, तब तक साधकों ने हिम्मत बांधी। जब कमर के ऊपर बढ़ने लगा पानी, तो साधकों ने कहा, यह तो मौत हो गई। बोल भी नहीं सकते, क्योंकि चुप हैं, स्टाप रहना है। बोले तो स्टाप टूट जाएगा। गुरजिएफ तंबू के भीतर है, उसको कुछ पता नहीं है कि नहर खुल गई है। उसे शायद यह भी पता नहीं कि कोई नहर में भी है। अब क्या करना है! फिर भी गले तक उन्होंने हिम्मत रखी। फिर जब गले के ऊपर पानी बढ़ने लगा, तब एक ने कहा, यह तो नासमझी है। वह छलांग लगाकर बाहर हो गया। दूसरे ने अभी भी हिम्मत रखी। उसने सोचा कि शायद वह छोड़ दे स्टाप एक्सरसाइज कि खतम करो। तो उसने मुंह और नाक तक प्रतीक्षा की, फिर उसने सोचा कि अब खतरा हुआ जाता है। वह भी छलांग लगाकर बाहर हो गया। तीसरा युवक खड़ा ही रहा। पानी उसके सिर पर से बह गया।

गुरजिएफ तंबू से भागा हुआ बाहर आया, कूदा, उस आदमी को बाहर निकाला। और उस आदमी से पूछा, तेरे भीतर क्या हुआ? उसने कहा, जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी वह हो गया। लेकिन हुआ तब जब मैं निर्णय पर अटल रहा। जब ऊपर मेरे सिर पर से पानी बहा, उस वक्त मैंने जिस चेतना को उपलब्ध कर लिया, बस वह परम है। अब मुझे कुछ और सीखना नहीं है। क्योंकि निर्णय डिसीसिव हो गया। आखिरी क्षण मौत के भी मुकाबले उसने निर्णय को कायम रखा। गुरजिएफ ने कहा, यह सब आयोजित था। नहर मैंने खुलवाई थी और देखता था कि हाथ—पैर में ही स्टाप करने को सीखे हो या कुछ और भी कर सकते हो। उन दो को फौरन भगा दिया उसने और कहा कि यहां लौटकर मत देखना, लौट कर देखना ही मत। तुम्हारा यहां क्या काम है?

संकल्प की जितनी गहरी चोट, निर्णय का जितना गहरा भाव हो, उतनी चेतना पूर्ण हो जाती है। अगर तुम पूर्ण संकल्प कर सको एक क्षण के लिए भी, तो तुम उसी क्षण पूर्ण चेतना को उपलब्ध हो जाओगे। सब तैयारी उस पूर्ण चेतना की है और उस पूर्ण संकल्प की तैयारी है।

और इसलिए मैं मानता हूं कि चुनाव है, यह अच्छा है। अगर परमात्मा लोगों को ग्गुड्डे —गुड्डियों की तरह नया रहा है —किसी को पापी बना रहा है, किसी को पुण्यात्मा बना रहा है—तो सब फिजूल हो जाता है मामला। और मामला तो फिजूल होता ही होता है, वह परमात्मा भी बड़ा नासमझ सिद्ध होता है। यह क्या पागलपन कर रहा है? अगर वही सब निर्णायक है और वही किसी को अच्छा बनाता है, किसी को बुरा, किसी को राम, किसी को रावण, तो फिर इसमें अर्थ ही क्या है, सेंस क्या है? तब तो सब नान—सेंस हो गया। सारी बात नासमझी की हो गई। इसमें कोई अर्थ ही नहीं रहा। नहीं, निर्णायक व्यक्ति है। कोई ऊपर से तुम पर थोप नहीं रहा है। भीतर से तुम्हारे निर्णय के जागने के क्षण हैं। इसलिए जो आदमी साधक है, वह चौबीस घंटे इस खोज में रहेगा कि कब मैं छोटे —मोटे भी निर्णय ले सकूं। छोटे —मोटे सही, इससे कोई सवाल नहीं है। छोटे —मोटे निर्णय, बहुत छोटे —से निर्णय की तलाश में रहना चाहिए। चौबीस घंटे सुबह से उठकर इस फिक्र में रहो कि कब मैं कोई निर्णय कर सकूं। और जब भी कोई छोटा —सा भी दिन भर मौके हैं, हर बात के मौके हैं, हर क्षण मौके हैं तुम्हें, अगर तुम प्रतिपल निर्णय का उपयोग करते रहो, तो तुम कुछ ही दिनों में पाओगे कि तुम्हारे भीतर तीर की तरह एक चेतना बढनी शुरू हो गई है। वह रोज बढ़ती जा रही है, रोज स्पीड पकड़ती जा रही है, उसमें गति आती जा रही है। और यह बहुत छोटी—छोटी चीजों से।

जिनको हमने त्याग, तप और न मालूम कहौ —कहां के नासमझी के शब्द दिए हैं, वे सब नासमझी के हैं। उनकी सार्थकता अगर कहीं थी कभी और किसी ने उनको सार्थक रूप से प्रयोग किया था, तो उनकी सार्थकता संकल्प में थी।

एक आदमी ने तय किया कि आज खाना नहीं खाएंगे। इसका जो मूल्य है, वह खाना नहीं खाने में उतना नहीं है, जितना इसके संकल्प में है। लेकिन उसने अगर मन में भी एक दफा खाना खा लिया, तो बात खतम हो गई, बेकार हो गया सब मामला। खाना नहीं खाएंगे, उसका मतलब ही यही है कि खाना नहीं ही खाएंगे, मन में भी नहीं। अगर दिन भर एक आदमी बारह घंटे भी मनपूर्वक बिना खाना खाए रह गया, तो उसने एक बड़ा संकल्प पार किया। इस खाना नहीं खाने का कोई मूल्य नहीं है, यह तो सिर्फ खूंटी है जिस पर उसने संकल्प को टांगा। लेकिन बारह घंटे के बाद इस आदमी की क्वालिटी बदल जाएगी।

और जब मैं देखता हूं कि एक आदमी वर्षों से उपवास कर रहा है, उसकी कोई क्वालिटी नहीं बदली, तो मैं जानता हूं कि वह मन में खाता रहा होगा। क्यालिटी तो बदलनी चाहिए थी। जिंदगी हो गई इसको खाना नहीं खाते, यह उपवास करता है, वह उपवास करता है, लेकिन इसके गुण में कहीं भी कोई अंतर नहीं पड़ा है। यह आदमी वही का वही है। ताला लगाकर जाता है और फिर लौटकर ताला हिला कर देखता है कि बंद है या नहीं।

एक आदमी को मैं जानता हूं। मेरे घर के सामने ही वे रहते हैं। वे उपवास करते हैं, पूजा—पाठ करते हैं, लेकिन संकल्प के ऐसे कमजोर हैं कि मैंने उन्हें कई दफा देखा है कि वे ताला लगाकर गए, दस कदम से वापस लौटे, फिर उन्होंने उसे हिलाया। तो मैंने उनसे पूछा कि आप क्या करते हैं! आप ही ताला लगा कर गए। वे कहते हैं, मुझे कभी—कभी शक हो जाता है कि पता नहीं, मैंने देखा कि नहीं, जरा और देख लें। एक दफा देखने में हर्जा क्या है। उन्होंने कहा, एक दफा लौटकर देख लेने में हर्ज क्या है। मैंने कहा, और दूसरी दफा खयाल नहीं आता कि पता नहीं मैंने एक दफा लौटकर देखा कि नहीं। उन्होंने कहा, आपको यह कैसे पता चला? आता तो है मुझे, लेकिन मैं संकोच के वश लौटता नहीं हूं। मुझे दूसरी दफे क्या, तीसरी दफे भी खयाल आता है कि मैंने देखा कि नहीं।

अब यह एक आदमी है। यह उपवास कर रहा है, यह सब कर रहा है, लेकिन इसे पता ही नहीं है कि उपवास का मतलब क्या था। उसका मतलब इतना ही था कि एक डिसीसिवनेस आ जाए, एक निर्णायक शक्ति आ जाए। आदमी निर्णय ले सके और लौटे नहीं। और जो आदमी भी ऐसा निर्णय ले सकता है, जो प्वाइंट आफ नो रिटर्न सिद्ध हो, जिससे लौटना नहीं होता, तो उस आदमी की जिंदगी में कुछ भी नहीं बचता जो सोया हुआ रह जाए, सब जाग ही जाता है।

शेष कल।


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जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–4)

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ध्‍यान पंथ ऐसो कठिन—(प्रवचन—चौथा)

प्रभु—कृपा और साधक का प्रयास

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि ओशो क्या ध्यान प्रभु की कृपा से उपलब्ध होता है?

स बात को थोड़ा समझना उपयोगी है। इस बात से बहुत भूल भी हुई है। न मालूम कितने लोग यह सोचकर बैठ गए हैं कि प्रभु की कृपा से उपलब्ध होगा तो हमें कुछ भी नहीं करना है। यदि प्रभु—कृपा का ऐसा अर्थ लेते हैं कि आपको कुछ भी नहीं करना है, तो आप बड़ी भ्रांति में हैं। दूसरी और भी इसमें भांति है कि प्रभु की कृपा सबके ऊपर समान नहीं है।

लेकिन प्रभु—कृपा किसी पर कम और ज्यादा नहीं हो सकती। प्रभु के चहेते, चूज़न कोई भी नहीं हैं। और अगर प्रभु के भी चहेते हों तो फिर इस जगत में न्याय का कोई उपाय न रह जाएगा।

प्रभु की कृपा का तो यह अर्थ हुआ कि किसी पर कृपा करता है और किसी पर अकृपा भी रखता है। ऐसा अर्थ लिया हो तो वैसा अर्थ गलत है। लेकिन किसी और अर्थ में सही है। प्रभु की कृपा से उपलब्ध होता है, यह उनका कथन नहीं है जिन्हें अभी नहीं मिला, यह उनका कथन है जिन्हें मिल गया है। और उनका कथन इसलिए है कि जब वह मिलता है, तो अपने किए गए प्रयास बिलकुल ही इररेलेवेंट, असंगत मालूम पड़ते हैं। जब वह मिलता है, तो जो हमने किया था वह इतना क्षुद्र और जो मिलता है वह इतना विराट कि हम कैसे कहें कि जो हमने किया था उसके कारण यह मिला है?

जब मिलता है तब ऐसा लगता है हमसे कैसे मिलेगा? हमने किया ही क्या था? हमने दिया ही क्या था? हमने सौदे में दांव क्या लगाया था? हमारे पास था भी क्या जो हम करते? था भी क्या जो हम देते? जब उसकी अनंत—अनंत आनंद की वर्षा होती है तो उस वर्षा के क्षण में ऐसा ही लगता है कि तेरी कृपा से ही, तेरे प्रसाद से ही, तेरी ग्रेस से ही उपलब्ध हुआ। हमारी क्या सामर्थ्य, हमारा क्या वश!

लेकिन यह बात उनकी है जिनको मिला। यह बात अगर उन्होंने पकड़ ली जिनको नहीं मिला, तो वे सदा के लिए भटक जाएंगे। प्रयास करना ही होगा। निश्चित ही, प्रयास करने पर मिलने की जो घटना घटती है वह ऐसी है, जैसे किसी का द्वार बंद है, सूरज निकला है, और घर में अंधेरा है। वे द्वार खोलकर प्रतीक्षा करें, सूरज भीतर आ जाएगा। सूरज को गठरियों में बांधकर भीतर नहीं लाया जा सकता, वह अपनी ही कृपा से भीतर आता है।

यह मजे की बात है, सूरज को हम भीतर नहीं ला सकते अपने प्रयास से, लेकिन अपने प्रयास से भीतर आने से रोक जरूर सकते हैं। द्वार बंद करके, आंख बंद करके बैठ सकते हैं। तो सूरज की महिमा भी हमारी बंद आंखों को पार न कर पाएगी। सूरज की किरणों को हम द्वार के बाहर रोक सकते हैं। रोक सकने में समर्थ हैं, ला सकने में समर्थ नहीं। द्वार खुल जाए, सूरज भीतर आ जाता है। सूरज जब भीतर आ जाए तो हम यह नहीं कह सकते कि हम लाए; हम इतना ही कह सकते हैं, उसकी कृपा, वह आया। और हम इतना ही कह सकते हैं कि हमारी अपने पर कृपा कि हमने द्वार बंद न किए।

आदमी सिर्फ एक ओपनिंग बन सकता है उसके आगमन के लिए। हमारे प्रयास सिर्फ द्वार खोलते हैं, आना तो उसकी कृपा से ही होता है। लेकिन उसकी कृपा हर द्वार पर प्रकट होती है। लेकिन कुछ द्वार बंद हैं, वह क्या करे? बहुत द्वारों पर ईश्वर खटखटाता है और लौट जाता है; वे द्वार बंद हैं। मजबूती से हमने बंद किए हैं। और जब वह खटखटाता है, तब हम न मालूम कितनी व्याख्याएं करके अपने को समझा लेते हैं।

एक छोटी सी कहानी मुझे प्रीतिकर है, वह मैं कहूं।

एक बड़ा मंदिर, उस बड़े मंदिर में सौ पुजारी, बड़े पुजारी ने एक रात स्वप्न देखा है कि प्रभु ने खबर की है स्वप्न में कि कल मैं आ रहा हूं। विश्वास तो न हुआ पुजारी को, क्योंकि पुजारियों से ज्यादा अविश्वासी आदमी खोजना सदा ही कठिन है। विश्वास इसलिए भी न हुआ कि जो दुकान करते हैं धर्म की, उन्हें धर्म पर कभी विश्वास नहीं होता। धर्म से वे शोषण करते हैं, धर्म उनकी श्रद्धा नहीं है। और जिसने श्रद्धा को शोषण बनाया, उससे ज्यादा अश्रद्धालु कोई भी नहीं होता।

पुजारी को भरोसा तो न आया कि भगवान आएगा, कभी नहीं आया। वर्षों से पुजारी है, वर्षों से पूजा की है, भगवान कभी नहीं आया। भगवान को भोग भी लगाया है, वह भी अपने को ही लग गया है। भगवान के लिए प्रार्थनाएं भी की हैं, वे भी खाली आकाश में— जानते हुए कि कोई नहीं सुनता— की हैं। सपना मालूम होता है। समझाया अपने मन को कि सपने कहीं सच होते हैं! लेकिन फिर डरा भी, भयभीत भी हुआ कि कहीं सच ही न हो जाए। कभी—कभी सपने भी सच हो जाते हैं; कभी—कभी जिसे हम सच कहते हैं, वह भी सपना हो जाता है, कभी—कभी जिसे हम सपना कहते हैं, वह सच हो जाता है।

तो अपने निकट के पुजारियों को उसने कहा कि सुनो, बड़ी मजाक मालूम पड़ती है, लेकिन बता दूं। रात सपना देखा कि भगवान कहते हैं कि कल आता हूं। दूसरे पुजारी भी हंसे; उन्होंने कहा, पागल हो गए! सपने की बात किसी और से मत कहना, नहीं तो लोग पागल समझेंगे। पर उस बड़े पुजारी ने कहा कि कहीं अगर वह आ ही गया! तो कम से कम हम तैयारी तो कर लें! नहीं आया तो कोई हर्ज नहीं, आया तो हम तैयार तो मिलेंगे।

तो मंदिर धोया गया, पोंछा गया, साफ किया गया, फूल लगाए गए, दीये जलाए गए; सुगंध छिडकी गई, धूप—दीप सब; भोग बना, भोजन बने। दिन भर में पुजारी थक गए; कई बार देखा सड़क की तरफ, तो कोई आता हुआ दिखाई न पड़ा। और हर बार जब देखा तब लौटकर कहा, सपना सपना है, कौन आता है! नाहक हम पागल बने। अच्छा हुआ, गांव में खबर न की, अन्यथा लोग हंसते।

सांझ हो गई। फिर उन्होंने कहा, अब भोग हम अपने को लगा लें। जैसे सदा भगवान के लिए लगा भोग हमको मिला, यह भी हम ही को लेना पड़ेगा। कभी कोई आता है! सपने के चक्कर में पड़े हम, पागल बने हम— जानते हुए पागल बने। दूसरे पागल बनते हैं न जानते हुए, हम…….हम जो जानते हैं भलीभांति कभी कोई भगवान नहीं आता। भगवान है कहां? बस यह मंदिर की मूर्ति है, ये हम पुजारी हैं, यह हमारी पूजा है, यह व्यवसाय है। फिर सांझ उन्होंने भोग लगा लिया, दिन भर के थके हुए वे जल्दी ही सो गए।

आधी रात गए कोई रथ मंदिर के द्वार पर रुका। रथ के पहियों की आवाज सुनाई पड़ी। किसी पुजारी को नींद में लगा कि मालूम होता है उसका रथ आ गया। उसने जोर से कहा, सुनते हो, जागो! मालूम होता है जिसकी हमने दिन भर प्रतीक्षा की, वह आ गया! रथ के पहियों की जोर—जोर की आवाज सुनाई पड़ती है!

दूसरे पुजारियों ने कहा, पागल, अब चुप भी रहो; दिन भर पागल बनाया, अब रात ठीक से सो लेने दो। यह पहियों की आवाज नहीं, बादलों की गड़गड़ाहट है। और वे सो गए, उन्होंने व्याख्या कर ली।

फिर कोई मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ा, रथ द्वार पर रुका, फिर किसी ने द्वार खटखटाया, फिर किसी पुजारी की नींद खुली, फिर उसने कहा कि मालूम होता है वह आ गया मेहमान जिसकी हमने प्रतीक्षा की! कोई द्वार खटखटाता है!

लेकिन दूसरों ने कहा कि कैसे पागल हो, रात भर सोने दोगे या नहीं? हवा के थपेडे हैं, कोई द्वार नहीं थपथपाता है। उन्होंने फिर व्याख्या कर ली, फिर वे सो गए।

फिर सुबह वे उठे, फिर वे द्वार पर गए। किसी के पद—चिह्न थे, कोई सीढ़ियां चढ़ा था, और ऐसे पद—चिह्न थे जो बिलकुल अशात थे। और किसी ने द्वार जरूर खटखटाया था। और राह तक कोई रथ भी आया था। रथ के चाको के चिह्न थे। वे छाती पीटकर रोने लगे। वे द्वार पर गिरने लगे। गांव की भीड़ इकट्ठी हो गई। वह उनसे पूछने लगी, क्या हो गया है तुम्हें? वे पुजारी कहने लगे, मत पूछो। हमने व्याख्या कर ली और हम मर गए। उसने द्वार खटखटाया, हमने समझा हवा के थपेडे हैं। उसका रथ आया, हमने समझी बादलों की गड़गड़ाहट है। और सच यह है कि हम कुछ भी न समझे थे, हम केवल सोना चाहते थे, और इसलिए हम व्याख्या कर लेते थे।

तो वह तो सभी के द्वार खटखटाता है। उसकी कृपा तो सब द्वारों पर आती है। लेकिन हमारे द्वार हैं बंद। और कभी हमारे द्वार पर दस्तक भी दे तो हम कोई व्याख्या कर लेते हैं।

पुराने दिनों के लोग कहते थे, अतिथि देवता है। थोड़ा गलत कहते थे। देवता अतिथि है। देवता रोज ही अतिथि की तरह खड़ा है। लेकिन द्वार तो खुला हो! उसकी कृपा सब पर है।

इसलिए ऐसा मत पूछें कि उसकी कृपा से मिलता है। लेकिन उसकी कृपा से ही मिलता है, हमारे .प्रयास सिर्फ द्वार खोल पाते हैं, सिर्फ मार्ग की बाधाएं अलग कर पाते हैं, जब वह आता है, अपने से आता है।

प्रथम तीन चरणों में ध्यान की तैयारी:

एक दूसरे मित्र ने पूछा है? उन्होंने पून है : ओशो ध्यान की चार सीढ़ियों की बात की है; उन चारों का पूरा— पूरा अर्थ बताएं।

हली बात तो यह समझ लें कि तीन सिर्फ सीढ़ियां हैं, ध्यान नहीं, ध्यान तो चौथा ही है। द्वार तो चौथा ही है, तीन तो सिर्फ सीढ़ियां हैं। सीढ़ियां द्वार नहीं हैं, सीढ़ियां द्वार तक पहुंचाती हैं। चौथा ही द्वार है— विश्राम, विराम, शून्य, समर्पण, मर जाना, मिट जाना, द्वार तो वही है। और तीन जो सीढ़ियां हैं वे उस द्वार तक पहुंचाती हैं। वे तीन सीढ़ियों का मौलिक आधार एक है कि यदि विश्राम में जाना हो तो पूरे तनाव में जाने के बाद बहुत आसान हो जाता है।

जैसे कोई आदमी दिन भर श्रम करता है तो रात सो पाता है। जितना श्रम, उतनी गहरी नींद। अब कोई पूछ सकता है कि श्रम करने से नींद तो उलटी चीज है। तो जिसने दिन भर श्रम किया है उसे तो नींद आनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि श्रम और विश्राम उलटी चीजें हैं। विश्राम तो उसे आना चाहिए जो दिन भर बिस्तर पर पड़ा रहा और विश्राम करता रहा!

लेकिन दिन भर जो बिस्तर पर पड़ा रहा, वह रात सो ही न सकेगा। इसलिए दुनिया में जितनी सुविधा बढ़ती है, जितना कम्‍फर्ट बढ़ता है, उतनी नींद विदा होती जाती है। दुनिया में जितना आराम बढ़ेगा, उतनी नींद मुश्किल हो जाएगी। और मजा यह है कि आराम हम इसीलिए बढ़ा रहे हैं कि चैन से सो सकें। न, आराम बढ़ा कि नींद गई। क्योंकि नींद के लिए श्रम जरूरी है। जितना श्रम, उतनी गहरी नींद।

चरम तनाव से चरम विश्राम:

ठीक ऐसे ही, जितना तनाव, अगर चरम हो सके, क्लाइमेक्स हो सके, उतना गहरा विश्राम!

तो वे जो तीन सीढ़ियां हैं, बिलकुल उलटी हैं। ऊपर से तो दिखाई पड़ेगा कि इन तीन में तो हम बहुत श्रम में पड़ रहे हैं—शक्ति लगा रहे, बहुत तनाव पैदा कर रहे, अपने को थका रहे, तूफान में डाल रहे, विक्षिप्त हुए जा रहे— और फिर इनसे कैसे विश्राम आएगा?

इनसे ही आएगा। जितने ऊंचे पहाड़ से गिरेंगे, उतनी गहरी खाई में चले जाएंगे। ध्यान रहे, सब पहाड़ों के पास गहरी खाइयां होती हैं। असल में, पहाड बनता ही नहीं बिना गहरी खाई को बनाए। जब पहाड़ उठता है तो नीचे गहरी खाई बन जाती है। जब आप तनाव में जाते हैं तो उसी के किनारे विश्राम की शक्ति इकट्ठी होने लगती है। जितने ऊंचे उठते हैं आप तनाव में.. .इसलिए मैं कहता हूं कि पूरी ताकत लगा दें, कुछ बचे न, पूरे चुक जाएं, सब भांति सब लगा दें, सब हार जाएं, तो जब गिरेंगे उस ऊंचाई से तो गहरी अतल खाई में डूब जाएंगे। वह विराम और विश्राम होगा। उसी विश्राम के क्षण में ध्यान फलित होता है। मूल आधार तो आपको पूरे तनाव में ले जाना और फिर तनाव को एकदम से छोड़ देना है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि अगर हम यह तनाव का कार्य न करें, तो सीधा विश्राम नहीं हो सकता?

नहीं होगा। नहीं होगा; और अगर होगा तो बहुत शैलो, बहुत उथला होगा। गहरे कूदना हो पानी में, तो ऊंचे चढ़ जाना चाहिए। जितने ऊंचे तट से कूदेंगे, उतने पानी में गहरे चले जाएंगे।

ये वृक्ष हैं सरू के, चालीस फीट ऊंचे होंगे। इतनी ही इनकी जड़ें नीचे चली गईं। जितना ऊपर जाना हो वृक्ष को उतनी जड़ें नीचे चली जाती हैं। जितनी जड़ें नीचे जाती हैं, उतना ही वृक्ष ऊपर चला जाता है। अब यह सरू का वृक्ष पूछ सकता है कि छह ही इंच जड़ें भेजें तो कोई हर्जा तो नहीं है? हर्जा कुछ भी नहीं है, छह ही इंच ऊंचे भी जाएंगे। मजे से भेजें, छह इंच भी क्यों भेजते हैं, भेजें ही मत, तो बिलकुल ही ऊंचे नहीं जाएंगे।

नीत्शे ने कहीं लिखा है और बहुत अंतर्दृष्टि का वाक्य लिखा है कि जिन्हें स्वर्ग की ऊंचाई छूनी हो, उन्हें नरक की गहराई भी छूनी पडती है।

बहुत अंतर्दृष्टि की बात है : जिन्हें स्वर्ग की ऊंचाई छूनी हो, उन्हें नरक की गहराई भी छूनी पड़ती है। इसलिए साधारण आदमी कभी भी धर्म की ऊंचाई नहीं छू पाता, पापी अक्सर छू लेते हैं। क्योंकि जो पाप की गहराई में उतरता है, वह पुण्य की ऊंचाई में भी चला जाता है।

यह जो विधि है, एक्सट्रीम्स, अतियों से परिवर्तन की है। सब परिवर्तन अति पर होते हैं। एक अति, और तब परिवर्तन होता है। घड़ी का पेंडुलम देखा आपने? वह जाता है, जाता है—बाएं, बाएं, बाएं! और फिर गिरता है और दाएं जाने लगता है। आपने कभी खयाल न किया होगा, जब घड़ी का पेंडुलम बाईं तरफ जाता है, तब वह दाईं तरफ जाने की शक्ति अर्जित कर रहा है। जा रहा है बाईं तरफ और ताकत इकट्ठी कर रहा है दाईं तरफ जाने की। जितना बाईं तरफ जाएगा ऊंचा, उतना ही दाईं तरफ डोल सकेगा। तो आपके चित्त के पेंडुलम को जितने तनाव में ले जाया जा सके, फिर जब विराम का क्षण आएगा, उतने ही गहरे विराम में उतर जाएगा। अगर आप तनाव में न ले गए तो विराम में भी नहीं जाएगा।

और लोग बहुत अजीब—अजीब बातें पूछते हैं। ऐसा लगता है कि वे वृक्ष नहीं लगाना चाहते, सिर्फ फूल तोड़ना चाहते हैं। ऐसा लगता है, फसल नहीं बोना चाहते, सिर्फ फल काटना चाहते हैं।

अब एक मित्र आए, वे बोले कि अगर शरीर न हिलाएं, न कंपन हो शरीर में, तो कोई कठिनाई तो नहीं है?

कठिनाई कुछ भी नहीं है। कठिनाई तो कुछ भी न करें तो कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन शरीर के कंपन से इतने भयभीत हो रहे हैं, तो जब भीतर के कंपन उठेंगे तो क्या होगा? शरीर के कंपने को रोकना चाहते हैं, तो जब भीतर शक्ति की ऊर्जा कंपेगी तब क्या होगा?

नहीं, वे चाहते हैं कि भीतर कुछ हो जाए, और बाहर सभ्य, सुसंस्कृत, शिष्ट, जैसी शक्ल उन्होंने बनाई है, जो मूर्ति खड़ी कर ली है अपनी, वे वैसे ही मोम के बने खड़े रहें और भीतर कुछ हो जाए। वह नहीं होगा। वह जब भीतर ऊर्जा उठेगी तो यह सब मोम का पुतला बह जाएगा बिलकुल। यह हटेगा, इसको जगह देनी पड़ेगी।

तनाव अति पर पहुंच जाए, इसकी चेष्टा करें, ताकि फिर विश्रांति अति पर हो सके। विश्रांति फिर अपने आप हो जाएगी। तनाव आप कर लें, विश्रांति प्रभु की कृपा से हो जाएगी। तनाव आप उठा लें, फिर तो लहर गिरेगी और शांति छा जाएगी। तूफान के बाद जैसी शांति होती है वैसी कभी नहीं होती। तूफान उठना जरूरी है। और तूफान के बाद जो शांति होती है वह जिंदा होती है, क्योंकि वह तूफान से पैदा होती है। तो एक जिंदा शांति के लिए जरूरी है, जो मैं कह रहा हूं उसमें कोई चरण छोड़ा नहीं जा सकता। इसलिए मुझसे कोई आकर बार—बार न पूछे कि यह हम छोड़ दें, यह हम छोड़ दें; शरीर को न हिलाएं, सिर्फ श्वास लें; श्वास न चलाएं, सिर्फ ‘मैं कौन हूं?’ यह पूछें। नहीं, वे तीनों चरण बहुत व्यवस्थित रूप से, वैज्ञानिक ढंग से तनाव की एक अति से दूसरी अति पर ले जाने के लिए हैं।

और इसीलिए मैं कहता हूं एक चरण जब पूरी अति पर पहुंचे तब दूसरे में बदला जा सकता है। जैसे कार के गेयर आप बदलते हैं। अगर पहले गेयर में गाड़ी आपने चलाई है तो गति में लानी पडती है। जब पहले गेयर पर गाड़ी पूरी गति में आती है, तब आप उसे दूसरे गेयर में डालते हैं। दूसरे गेयर पर वह मंदी गति में हो तो आप तीसरे गेयर में नहीं डाल सकते हैं गाड़ी को। सब परिवर्तन तीव्रता में होते हैं। चित्त का परिवर्तन भी तीव्रता में होता है।

तीव्र श्वास की चोट का रहस्य:

र तीनों का क्या अर्थ है, वह भी समझ लेना चाहिए। पहला चरण, जो कि पूरे समय जारी रहेगा, श्वास को गहरी और तीव्रता से लेने का है। गहरी भी लेना है, डीप भी, और तीव्रता से भी, फास्ट भी। जितनी गहरी जा सके उतनी गहरी लेनी है और जितनी तेजी से यह लेने और छोड़ने का काम हो सके, यह करना है। क्यों? श्वास से क्या होगा?

श्वास मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक रहस्यपूर्ण तत्व है। श्वास के ही माध्यम से, सेतु से आत्मा और शरीर जुड़े हैं। इसलिए जब तक श्वास चलती है, हम कहते हैं, आदमी जीवित है। श्वास गई और आदमी गया।

अभी मैं एक घर में गया जहां नौ महीने से एक स्त्री बेहोश पड़ी है। वह कोमा में आ गई है। और चिकित्सक कहते हैं कि अब वह कभी होश में नहीं आएगी। लेकिन कम से कम तीन साल जिंदा रह सकती है अभी और। अब उसको बेहोशी में ही दवा और इंजेक्‍शन और ग्लूकोज दे—देकर किसी तरह से जिंदा रखे हुए हैं। वह बेहोश पड़ी है। नौ महीने से उसे कभी होश नहीं आया। मैं उनके घर गया, उस स्त्री की मां को मैंने पूछा कि अब यह तो करीब—करीब मर गई। उन्होंने कहा कि नहीं, जब तक श्वास तब तक आस। उस की औरत ने कहा, जब तक श्वास है तब तक आशा है। अब चिकित्सक कहते हैं, लेकिन कौन जाने! चिकित्सक किसी को कहते हैं कि नहीं मरेगा और वह मर जाता है। कौन जाने, एक दफा होश आ जाए, अभी श्वास तो है। श्वास तो है, अभी सेतु गिरा नहीं, अभी ब्रिज है। अभी वापसी लौटना हो सकता है।

शरीर और श्वास से तादात्म्य विच्छेद:

श्वास हमारी आत्मा और शरीर के बीच जोड़नेवाला सेतु है। श्वास को जब आप बहुत तीव्रता में लेते हैं और बहुत गहराई में लेते हैं, तो शरीर ही नहीं कंपता, भीतर के आत्म—तंतु भी कैप जाते हैं। जैसे एक बोतल रखी है। और उसमें बहुत दिनों से कोई चीज भरी रखी है, कभी किसी ने हिलाई नहीं। तो ऐसा पता नहीं चलता कि बोतल और भीतर भरी चीजें दो हैं। बहुत दिनों से रखी है, मालूम होता है एक ही है। बोतल हिला दें जोर से! बोतल हिलती है, भीतर की चीज हिलती है, बोतल और भीतर की चीज के पृथक होने का स्पष्टीकरण होता है।

तो जब श्वास को आप समग्र गति से लेते हैं, तो एक झंझावात पैदा होता है, जो शरीर को भी कंपा जाता है और भीतर आत्मा के तंतुओं को भी कंपा जाता है। उस कंपन के क्षण में ही अहसास होता है दोनों के पृथक होने का।

अब आप मुझसे आकर कहते हैं कि न लें गहरी श्वास तो कोई हर्ज तो नहीं?

हर्ज कुछ भी नहीं। हर्ज इतना ही है कि आप कभी न जान पाएंगे कि शरीर से पृथक हैं। इसीलिए उसमें एक सूत्र और जोड़ा हुआ है कि गहरी श्वास लें और भीतर देखते रहें कि श्वास आई और श्वास गई। जब आप श्वास को देखेंगे कि श्वास आई और श्वास गई, तो न केवल शरीर अलग है, यह पता चलेगा, बल्कि यह भी पता चलेगा कि श्वास भी अलग है; मैं देखनेवाला हूं अलग हूं। शरीर की पृथकता का पता तो गहरी श्वास के लेने से भी चल जाएगा, लेकिन श्वास से भी भिन्न हूं मैं, इसका पता श्वास के प्रति साक्षी होने से चलेगा। इसलिए पहले चरण में ये दो बातें हैं। ये दोनों अंतिम चरण तक जारी रहेंगी तीसरे चरण तक।

दूसरे चरण में मनोग्रथियों का विसर्जन:

दूसरे चरण में शरीर को छोड़ देने के लिए मैं कहता हूं। श्वास गहरी ही रहेगी। शरीर को इसलिए छोड़ देने को कहता हूं कि उसके तो बहुत से इंप्लीकेशंस हैं, दो—तीन की बात आपसे करूंगा।

पहली तो बात यह है कि शरीर में हजारों तनाव इकट्ठे आपने कर रखे हैं, जिनका आपको पता ही नहीं है। सभ्यता ने हमें इतना असहज किया है कि जब आपको किसी पर क्रोध आता है तब भी आप मुस्कुराते रहते हैं। शरीर को कुछ पता नहीं है; शरीर तो कहता है कि गर्दन दबा दो इसकी, मुट्ठियां बंधती हैं। लेकिन आप मुस्कुराते रहते हैं, मुट्ठी नहीं बांधते। तो शरीर के जो स्नायु मुट्ठी बांधने के लिए तैयार हो गए थे, वे बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है। एक बहुत ही बेचैन स्थिति शरीर में पैदा हो जाती है। मुट्ठी बंधनी चाहिए थी। अभी जो लोग क्रोध के संबंध को बहुत गहराई से समझते हैं, वे कहेंगे, मैं आपसे कहूंगा, अगर आपको क्रोध आए, तो बजाय इसके कि आप झूठे मुस्कुराते रहें, टेबल के नीचे जोर से पांच मिनट मुट्ठियां बांधें और छोड़े। और तब आपको जो हंसी आएगी, वह बहुत और तरह की होगी।

शरीर को कुछ भी पता नहीं कि आदमी सभ्य हो गया है। शरीर का सारा काम तो बिलकुल यंत्रवत है। लेकिन आदमी ने सब पर रोक लगा दी है। उस रोक के कारण शरीर में हजारों तनाव इकट्ठे हो गए हैं। और जब बहुत तनाव इकट्ठे हो जाते हैं, तो कांप्लेक्स पैदा होते हैं, ग्रंथियां पैदा होती हैं। तो जब मैं आपसे कहता हूं शरीर को पूरी तरह छोड़ दें, तो आपकी हजारों ग्रंथियां जो आपने बचपन से इकट्ठी की हैं, वे सब बिखरनी शुरू होती हैं, पिघलनी शुरू होती हैं। उनका पिघल जाना जरूरी है। अन्यथा आप कभी भी बॉडीलेसनेस, देहातीत न हो पाएंगे। देह जब फूल की तरह हलकी हो जाएगी, सब ग्रंथियों से मुक्त…।

महावीर का एक नाम शायद आपने सुना हो। महावीर का एक नाम है, निर्ग्रंथ। नाम बड़ा अदभुत है। उसका मतलब है, कांप्लेक्स—लेस। निर्ग्रंथ का मतलब है, जिसकी सारी ग्रंथियां और गांठें खो गईं, जिसमें अब कोई गांठ नहीं भीतर; जो बिलकुल सरल हो गया, निर्दोष हो गया।

तो यह शरीर की जो ग्रंथियों का जाल है हमारे भीतर, वह मुक्त होना चाहे तो आप छोड़ते नहीं। आपकी सभ्यता, शिष्टता, संस्कार, संकोच, किसी का स्त्री होना, किसी का बड़े पद पर होना, किसी का कुछ, किसी का कुछ होना, वह इस बुरी तरह से पकड़े हुए है कि वह छोड़ता नहीं।

अब आज एक महिला ने मुझे आकर कहा कि उसे यही डर लगा रहता है कि कोई का हाथ उसको न लग जाए! तो वह बेचारी दूर जाकर बैठी होगी आज। मगर कोई दो—चार करवट लेकर उसके पास पहुंच गया। तो उसका फिर गड़बड़ हो गया। वह मुझे पूछने आई थी कि क्या मैं और बहुत दूर जाकर बैठूं?

मैंने कहा, भेजनेवाला वहां भी भेज दे सकता है किसी को। वह अच्छा ही है कि कोई आता ही है। वहां भी आ जाएगा कोई। तुम जहां बैठती हो, वहीं बैठो। किसी का हाथ लग जाएगा तो क्या हो जाएगा?

स्त्रियों की हालत तो ऐसी है कि अगर परमात्मा भी मिले तो वे ऐसी साड़ी बचाकर निकल जाएंगी। वह भी कहीं छू न जाए। उनका सारा का सारा बॉडी, स्त्रियों का तो पूरा शरीर ग्रंथि—ग्रस्त है। बचपन से उसका सारा प्रशिक्षण ऐसा है कि शरीर उनका एक रोग है। शरीर स्त्रियां ढो रही हैं, शरीर में जी नहीं रहीं। वह एक खोल है जिसको पूरे वक्त सुरक्षित करके और ढोए चली जा रही हैं। और कुछ भी बचाने जैसा नहीं है उसमें। तो यह छोटा—छोटा आग्रह हमारा बहुत कुछ रोक…

अब कोई बहुत पढ़े—लिखे हैं तो अब उनको ऐसा लगता है.. .कोई आज मुझसे एक सज्जन कह रहे थे कि यह इमोशनल लोगों को हो जाता होगा, भावुक लोगों को। इंटेलेक्चुअल को कैसे होगा?

अब कोई दो—चार क्लास पढ़ गया तो वह इंटेलेक्चुअल हो गया! उसकी मां मरेगी तो रोका कि नहीं वह? उसका किसी से प्रेम होगा कि नहीं होगा? वह इंटेलेक्चुअल हो गया! वह चार क्लास पढ़ गया, उसने युनिवर्सिटी से सर्टिफिकेट ले लिया है। तो अब वह प्रेम करेगा तो वह सोचकर करेगा कि चुंबन लेना कि नहीं, कितने कीटाणु ट्रांसफर हो जाते हैं! वह किताब पढ़ेगा, वह जाकर हिसाब—किताब लगाएगा कि इमोशनल होना कि नहीं होना।

इंटेलेक्ट भी बीमारी की तरह हो गई है। इंटेलेक्ट कुछ हमारा सौरभ नहीं बन पाई है। बुद्धि हमारी कोई गरिमा नहीं बनी है, रोग बन गई है। कोई सोचता है कि हम इंटेलेक्यूअल हैं, हम बुद्धिवादी हैं; यह हमको नहीं हो सकता। यह तो उनको हो रहा है जो जरा भावुक हैं।

भाव की पहुंच बुद्धि से गहरी:

लेकिन भावुक होना कुछ बुरा है? जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह भाव से आता है। बुद्धि से किसी श्रेष्ठता का कोई जन्म न कभी हुआ और न कभी हो सकता है। हां, गणित का हिसाब लगता है, खाते—बही जोड़े जाते हैं, यह सब होता है। लेकिन जो भी श्रेष्ठ है, और आश्चर्य की बात यह है कि वितान, जिसको हम समझते हैं सबसे बड़ी बौद्धिक प्रक्रिया है, उसमें भी जो श्रेष्ठतम आविष्कार हैं, वे भी भाव से होते हैं, वे भी बुद्धि से नहीं होते।

अगर आइंस्टीन से कोई जाकर पूछे कि कैसे तुमने रिलेटिविटी खोजी? वह कहेगा, मुझे पता नहीं; आ गई। यह बड़ी धार्मिक भाषा है कि आ गई। इट हैपेंड।

अगर क्यूरी से कोई पूछे कि कैसे तुमने यह रेडियम खोज निकाला? तो वह कहेगी, मुझे कुछ पता नहीं, ऐसा हुआ है; हो गया है; मेरे वश की बात नहीं है। अगर बड़े वैज्ञानिक से जाकर पूछें तो वह भी कहेगा, हमारे वश के बाहर हुआ है कुछ; हमारी खोज से नहीं हुआ, हमसे कहीं ऊपर से कुछ हुआ है; हम सिर्फ माध्यम थे, इंस्ट्रमेंट थे। बड़ी धर्म की भाषा है।

भाव बहुत गहरे में है, बुद्धि बहुत ऊपर है। बुद्धि बहुत कामचलाऊ है। बुद्धि वैसे ही है, जैसे कि गवर्नर की गाड़ी निकलती है और आगे एक पायलट निकलता है। उस पायलट को गवर्नर मत समझ लेना। बुद्धि पायलट से ज्यादा नहीं है। वह रास्ता साफ करती है, लोगों को हटाती है, हिसाब रखती है कि रास्ते पर कोई टक्कर न हो जाए। लेकिन मालिक बहुत पीछे है वह इमोशन है। जीवन में जो भी सुंदर है, श्रेष्ठ है, वह भाव से जन्मता और पैदा होता है।

लेकिन कुछ लोग पायलट को नमस्कार कर रहे हैं। वे कहते हैं, हम इंटेलेक्चुअल हैं, हम बुद्धिवादी हैं; हम पायलट को ही गवर्नर मानते हैं। मानते रहें, पायलट भी खड़ा होकर हंस रहा है।

बुद्धिवादियों की आत्मवंचना:

कुछ लोगों को खयाल है कि कमजोर लोगों को हो जाता है। हम शक्तिशाली हैं, हमको बहुत मुश्किल है।

उनको पता नहीं, उन्हें कुछ भी पता नहीं। शक्तिशालियो को होता है, कमजोर खड़े रह जाते हैं। क्योंकि एक घंटे तक संकल्पपूर्वक किसी भी स्थिति में होना, बहुत स्ट्रांग विल्ड के लिए संभव है, कमजोरों के लिए नहीं। कमजोर तो दो मिनट गहरी श्वास लेते हैं, फिर बैठ जाते हैं। अब वे दूसरे जो उनको हो रहा है, वे कहते हैं, कमजोरों को हो रहा है। वे घंटे भर गहरी श्वास भी नहीं ले सकते, वे दस मिनट ‘मैं कौन हूं?’ यह भी नहीं पूछ सकते। इस खयाल में आप मत पड़ना।

लेकिन ये हमारे रेशनलाइजेशस हैं। ये हमारी बौद्धिक तरकीबें हैं, जिनसे हम अपने को बचाते हैं। हम कहते हैं, जो कमजोर हैं, उनको हो रहा है। हम बहुत ताकतवर हैं; हमको कैसे होगा?

बड़े आश्चर्य की बात है। इस दुनिया में सब चीजें ताकतवरों से होती हैं, कमजोरों से कुछ भी नहीं होता। और ध्यान? ध्यान तो अंतिम ताकत मांगता है। वे कहेंगे यह कि कमजोर को हो रहा है; और उनको इसलिए नहीं हो रहा है कि यह बगलवाला आदमी जोर से रो रहा है, इसलिए उनको नहीं हो पा रहा। और जिसको हो रहा है, वह रोने का उसे पता नहीं, कौन देख रहा है उसे पता नहीं, कौन सोच रहा है, क्या सोच रहा है, पता नहीं। वह अपनी धुन में पूरा लगा है। उतनी धुन का सातत्य बड़ी शक्ति है। कमजोरों को नहीं होता।

इसलिए अपने अहंकार को व्यर्थ बचाने की कोशिश में मत लगना कि हम ताकतवर हैं, स्ट्रांग विल्ड हैं, हम इंटेलेक्वुअल हैं, हमको नहीं होगा। नहीं होगा, इतना ही जानें। नहीं होने के लिए यह और शक्कर क्यों चढ़ा रहे हैं ऊपर से? इससे न होना भी मीठा लगने लगेगा। और फिर होना हमेशा के लिए असंभव हो जाएगा। इतना ही जानें कि मुझे नहीं हो रहा। नहीं हो रहा, तो कहीं कोई कमजोरी है। उस कमजोरी को पहचानें, समझें और हल करें। उसको बहादुरी न समझें कि हमको नहीं हो रहा तो हम ताकतवर हैं।

अब एक मित्र आए, उन्होंने कहा कि यह तो हिस्टेरिक है। किसी को हिस्टीरिया जैसा हो जाता है।

उन्हें पता नहीं कि जीवन में, जीवन के भीतर क्या—क्या छिपा है! हिस्टेरिक कहकर वे अपने को बचा लेंगे। अब वे समझ लिए कि यह तो ये कुछ विक्षिप्त लोग हैं, जिनको होगा। हम, हम तो विक्षिप्त नहीं हैं। हमको नहीं होगा। तो फिर बुद्ध भी विक्षिप्त थे, और महावीर भी, और जीसस, और सुकरात, और रूमी, और मंसूर—सब विक्षिप्त थे। तो इन विक्षिप्तों की जात में शामिल होना, आप स्वस्थों की जात में शामिल होने से बेहतर है। इन पागलों की जमात में ही शामिल हो जाइए। क्योंकि इन पागलों को जो मिला वह बुद्धिमानों को नहीं मिला।

जब शक्ति बहुत तीव्रता से भीतर उठेगी, तो सारे व्यक्तित्व में तूफान आ जाएगा। वह विक्षिप्तता नहीं है, क्योंकि विक्षिप्तता हो, तो फिर शांत नहीं हो सकती। और जब तीनों चरण के बाद एक क्षण में हम शांत हो जाते हैं, तो हिस्टेरिक नहीं है। क्योंकि हिस्टीरियावाले से कहो कि शांत हो जाओ, अब विश्राम करो, वह उसके वश के बाहर है। जो भी हो रहा है, वह हमारे वश के भीतर हो रहा है; हम कोआपरेट कर रहे हैं, सहयोग कर रहे हैं, इसलिए हो रहा है। इसलिए जिस क्षण अपने सहयोग को अलग कर लेते हैं, वह विदा हो जाता है।

सभ्य लोगों की आंतरिक विक्षिप्तता:

विक्षिप्तता और स्वास्थ्य का एक ही लक्षण है जिसकी मालकियत हाथ में हो उसको स्वास्थ्य समझना, और जिसकी मालकियत हाथ में न हो उसको विक्षिप्तता समझना। अब यह बड़े मजे का क्राइटेरियन है। अब जो हो रहा है जिनको, जब मैं कहता हूं शांत हो जाएं, वे तत्काल शांत हो गए हैं। और वे जो स्वस्थ बैठे हैं, उनसे मैं कहूं कि अपने विचारों को शांत कर दो, वे कहते हैं, होता ही नहीं; हम कितना ही करें, वे नहीं होते। विक्षिप्त हैं आप, पागल हैं आप। जिस पर आपका वश नहीं है, वह पागलपन है; जिस पर आपका वश है, वह स्वास्थ्य है। जिस दिन आपके विचार ऑन—ऑफ कर सकेंगे आप—कि कह दें मन को कि बस, तो मन वहीं ठहर जाए—तब आप समझना कि स्वस्थ हुए। और आप कह रहे हैं बस, और मन कहता है, कहते रहो; हम जा रहे हैं जहां जाना है, जो कर रहे हैं, कर रहे हैं। सिर पटक रहे हैं, लेकिन वह मन जो करना है, कर रहा है। आप भगवान का भजन कर रहे हैं और मन सिनेमागृह में बैठा है तो वह कहता है—बैठेंगे, यही देखेंगे, करो भजन कितना ही!

लेकिन आदमी बहुत चालाक है और वह अपनी कमजोरियों को भी अच्छे शब्दों में छिपा लेता है और दूसरे की श्रेष्ठताओं को भी बहुत बुरे शब्द देकर निश्चिंत हो जाता है। इससे बचना। सच तो यह है कि दूसरे के संबंध में सोचना ही मत। किस को क्या हो रहा है, कहना बहुत मुश्किल है। जीवन इतना रहस्यपूर्ण है कि दूसरे के संबंध में सोचना ही मत। अपने ही संबंध में सोच लेना, वही काफी है—कि मैं तो पागल नहीं हूं इतना सोच लेना। मैं कमजोर हूं ताकतवर हूं क्या हूं अपने बाबत सोचना। लेकिन हम सब सदा दूसरों के बाबत सोच रहे हैं कि किस को क्या हो रहा है? गलत है वह बात।

शरीर को पूरी तरह छोड़ देने में, एक तो मैंने कहा, ग्रंथि—रेचन, वे जो रुके हुए अवरोध हैं, वे सब बह जाते हैं। दूसरा, जब शरीर अपनी गति से चलता है— आप नहीं चलाते, अपनी गति से चलता है—तब शरीर की पृथकता बहुत स्पष्ट होती है। क्योंकि आप देख रहे हैं, और शरीर घूम रहा है; आप देख रहे हैं, और शरीर खड़ा हो गया है, आप देख रहे हैं, और हाथ कैप रहा है, आप देख रहे हैं कि मैं नहीं कंपा रहा हूं और हाथ कैप रहा है; तब आपको पहली दफा पता चलता है कि मेरा होना और शरीर का होना कुछ अलग मामला है। तब आपको यह भी पता चल जाएगा कि जवान भी मैं नहीं हुआ, शरीर हुआ है, बूढ़ा भी शरीर होगा, मैं नहीं होऊंगा। और अगर यह गहरा आपको पता चला तो पता चलेगा मरेगा भी शरीर, मैं नहीं मरूंगा। इसलिए शरीर की पृथकता बहुत गहरे में दिखाई पड़ेगी जब शरीर यंत्रवत घूमने लगेगा। उसे पूरी तरह छोड़ देना, तभी पता चलेगा।

‘मैं कौन हूं?’ का तीर:

र तीसरा सवाल जो हम पूछते हैं, ‘मैं कौन हूं?’ क्योंकि यह पता चल जाए कि शरीर नहीं हूं यह भी पता चल जाए कि श्वास नहीं हूं तब भी यह पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं। यह निगेटिव हुआ—शरीर नहीं हूं श्वास नहीं हूं। यह तो निगेटिव हुआ। लेकिन पाजिटिव? यह अभी पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं। इसलिए तीसरा कदम है, जिसमें हम पूछते हैं कि मैं कौन हूं। किस से पूछते हैं? किसी से पूछने को नहीं है। खुद से ही पूछ रहे हैं। अपने को ही पूरी तरह से सवाल से भर रहे हैं कि मैं कौन हूं। जिस दिन यह सवाल पूरी तरह आपके भीतर भर जाएगा, उस दिन आप पाएंगे— उत्तर आ गया, आपके ही भीतर से। क्योंकि यह नहीं हो सकता कि गहरे तल पर आपको पता न हो कि आप कौन हैं। जब हैं, तो यह भी पता होगा कि कौन हैं। लेकिन वहां तक सवाल को ले जाना जरूरी है।

जैसे कि जमीन में पानी है। ऊपर हम खड़े हैं प्यासे, और जमीन में पानी है, लेकिन बीच में तीस फीट की खुदाई करनी जरूरी है। वह तीस फीट खुद जाए तो पानी निकल आए। हमें प्रश्न है कि मैं कौन हूं? जवाब भी कहीं तीस फीट गहरे हममें है, लेकिन बीच में बहुत सी पर्तें हैं जो कट जाएं तो उत्तर मिल जाए। तो वह जो ‘मैं कौन हूं?’ वह कुदाली का काम करता है। ‘मैं कौन हूं?’ उसे जितनी गति से पूछते हैं, खुदाई होती है।

लेकिन पूछ नहीं पाते। कई दफे बड़ी अदभुत घटना.. .एक मित्र को सुबह एक अदभुत घटना दो दिन से घटती है। वह बहुत समझने जैसी है। वे बड़ी ताकत से पूछते हैं, वे पूरा श्रम लगाते हैं। उनके श्रम में कोई कमी नहीं है। उनके संकल्प में कोई कमी नहीं है, लेकिन मन की कितनी पर्तें हैं! ऊपर से पूछते जाते हैं, ‘मैं कौन हूं?’ इतने जोर से पूछते हैं कि उनका ऊपर भी निकलने लगता है कि ‘ मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?’ और इसमें बीच—बीच में एक—एक दफा यह भी आवाज आती है—इससे क्या होगा, इससे क्या होगा। ‘मैं कौन हूं?’ यह भी पूछते चले जाते हैं, और बीच में कभी—कभी यह भी मुंह से निकलता है, ‘ इससे क्या होगा। ‘ यह कौन कह रहा है? ‘मैं कौन हूं?’ पूछ रहे हैं; ‘इससे क्या होगा’, यह कौन कह रहा है? यह मन की दूसरी पर्त कह रही है। वह कह रही है कुछ भी न होगा। क्यों पूछ रहे हो? चुप हो जाओ। मन की एक पर्त पूछ रही है, मैं कौन हूं? दूसरी पर्त कह रही है, कुछ भी न होगा, चुप हो जाओ, क्या पूछ रहे हो!

अगर मन में खंड—खंड रह गए तो फिर भीतर न घुस पाएंगे। इसलिए मैं कहता हूं—पूरी ताकत लगाकर पूछना है। ताकि पूरा मन धीरे— धीरे इनवाल्वड हो जाए, और पूरा मन ही पूछने लगे कि मैं कौन हूं? जिस क्षण प्रश्न ही रह जाएगा—सिर्फ प्रश्न, तीर की तरह भीतर उतरता—उस दिन उत्तर आने में देर न लगेगी। उत्तर आ जाएगा। उत्तर भीतर है।

तीन चरण आप करेंगे, चौथा होगा:

जान भीतर है। हमने कभी पूछा नहीं, हमने कभी जगाया नहीं, वह जगने को तैयार है। इसलिए ये तीन चरण। लेकिन ये तीन दरवाजे के बाहर की बातें हैं; दरवाजे तक छोड़ देती हैं। दरवाजे के भीतर तो प्रवेश चौथे चरण में होगा। लेकिन जो तीन सीढ़ियां नहीं चढ़ा वह दरवाजे में प्रवेश भी नहीं कर सकेगा।

इसलिए ध्यान रखें, कल तो अंतिम दिन है हमारा, कल पूरी ताकत लगानी जरूरी है। इन तीन चरणों में पूरी ताकत लगाएं, तो चौथा चरण घटित हो जाएगा। वह चौथा आप करेंगे नहीं, वह होगा, तीन आप करेंगे, चौथा होगा।

प्रश्न: चौथा चरण हो जाने के बाद पहले तीन चरण छूट जाएंगे?

फिर कोई सवाल नहीं है। चौथा हो जाए, फिर कोई सवाल नहीं है। फिर जैसा जरूरी लगेगा वह दिखाई पड़ेगा। करने जैसा लगेगा तो जारी रहेगा, नहीं करने जैसा लगेगा तो छूट जाएगा। लेकिन वह भी पहले से नहीं कहा जा सकता। और इसलिए नहीं कहा जा सकता है कि पहले से यह सवाल जब हम पूछते हैं कि जब चौथा हो जाएगा तो वे तीन छूट जाएंगे न? तो अभी भी हमारा मन उन तीन को नहीं करना चाह रहा, इसलिए पूछता है। उन तीन से छूटने की बड़ी इच्छा है!

तो मैं नहीं कहूंगा कि छूट जाएंगे। क्योंकि अगर मैं यह कह दूं कि छूट जाएंगे, तो अभी ही नहीं पकड़ पाएंगे उनको आप। छूट जाएंगे, लेकिन वह चौथे के बाद की बात है, पहले बात नहीं उठानी चाहिए।

हमारा मन बहुत तरह से डिसीव करता है, वंचना करता है। जब पूछ रही हो तो तुम्हें खयाल नहीं है कि तुम क्यों पूछ रही हो। बिलकुल इसलिए पूछ रही हो कि ये तीन से किस तरह छुटकारा हो। इन तीन से छुटकारा अगर होगा तो चौथा पैदा ही नहीं होनेवाला! और इन तीन का भय क्यों है? इनका भय है। और वही भय मिटाने के लिए तो वे तीन हैं।

दमित वृत्तियों के रेचन का साहस:

नका भय है कि शरीर कुछ भी कर सकता है। शरीर कुछ भी कर सकता है। तो कहीं ऐसा कुछ न कर दे। पर क्या करेगा शरीर? नाच सकती हो, रो सकती हो, चिल्ला सकती हो, गिरोगी।

असल कठिनाई यह है कि पहले चरण पर श्वास जारी करो। दूसरे चरण पर श्वास जारी रखो और शरीर को ढीला छोड़ दो। श्वास से और शरीर के ढीले छोड़ने में कोई बाधा नहीं है, किसी तरह की बाधा नहीं है। श्वास गहरी रहेगी, शरीर.. .तुम्हें करना थोड़े ही है कि तुम नाचो। अगर तुम नाचो तो फिर श्वास में बाधा पड़ेगी। लेकिन अगर नाचना हो जाए तो श्वास में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। तुम्हें नहीं नाचना है। नाचना हो जाए तो हो जाए। वह जो होता हो, हो जाए।

हमारी कठिनाई यह है कि या तो हम रोकेंगे या हम करेंगे, होने हम न देंगे। दो में से हम कुछ भी करने को राजी हैं. या तो हम नाचने को रोक लेंगे या फिर हम नाच सकते हैं। लेकिन हम होने न देंगे। इसका भी डर है, बहुत डर है। आदमी की पूरी सभ्यता सप्रेसिव है। हमने बहुत चीजें दबाई हुई हैं और हमें डर है कि वे सब निकल न आएं। हम बहुत भयभीत हैं। हम ज्वालामुखी पर बैठे हैं। बहुत डर है हमें। नाचने का ही सवाल नहीं है। डर बहुत गहरे हैं।

हमने खुद को इतना दबाया है कि हमें बहुत पता है कि क्या—क्या निकल सकता है उसमें। बेटे ने बाप की हत्या करनी चाही है। डरा हुआ है कि कहीं यह खयाल न निकल आए। पति ने पत्नी की गर्दन दबा देनी चाही है। हालांकि गर्दन जब दबाना चाह रहा था, तब भी वह कहता रहा कि तेरे बिना मैं एक क्षण नहीं जी सकता। और उसकी गर्दन भी दबा देनी चाही थी। वह उसने दबाया हुआ है भीतर, उसे डर लगता है कि किसी क्षण में यह निकल न आए।

गुरजिएफ एक फकीर था, और इस जमाने में कुछ कीमती लोगों में से एक था। उसके पास आप जाते, तो पहला काम वह यह करता कि पंद्रह दिन तो आपको शराब पिलाता, रात—रात आपको शराब पिलाता। और जब तक पंद्रह दिन आपको वह शराब पिला—पिलाकर आपकी स्टडी न कर लेता, तब तक वह आपको साधना में न ले जाता। क्योंकि पंद्रह दिन वह शराब पिला—पिला कर आपके सब दमित रोगों को निकलवा लेता, और पहचान लेता कि आदमी कैसे हो, क्या—क्या दबाया है, तब वह इसके बाद साधना में लगाता। और अगर कोई कहता कि नहीं, यह पंद्रह दिन हम शराब पीने को राजी नहीं, तो वह कहता दरवाजा खुला है, एकदम बाहर हो जाओ।

शायद ही दुनिया में किसी फकीर ने शराब पिलाई हो। लेकिन वह समझदार था, उसकी समझ कीमती थी; और वह ठीक कर रहा था। क्योंकि हमने बहुत दबाया है; हमारे दमन का कोई हिसाब नहीं है; कोई अंत नहीं है हमारे दमन का।

उस दमन की वजह से हम डरते हैं कि कहीं कुछ प्रकट न हो जाए, कहीं मुंह से कोई बात न निकल जाए; कहीं ऐसा न हो जाए कि जो बात नहीं कहनी थी, नहीं बतानी थी, वह आ जाए।

अब किसी ने चोरी की है, तो वह पूछने से डरेगा कि मैं कौन हूं। क्योंकि मन कहेगा कि तुम चोर हो। यह जोर से निकल सकता है कि चोर हो, बेईमान हो, काला—बाजारी हो। यह कहीं न निकल जाए। तो वह तो कहेगा कि पूछना कि नहीं? जरा धीरे— धीरे पूछो कि मैं कौन हूं! क्योंकि पता तो है कि मैं कौन हूं! मैं चोर हूं। तो वह दबा रहा है उसे। तो वह डर रहा है, वह धीरे— धीरे पूछ रहा है कि यह बगलवाले को कहीं सुनाई न पड़ जाए! कहीं यह मुंह से निकल जाए कि मैंने चोरी की है! यह निकल सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है बहुत।

तो हमारे कारण हैं, हमारे पूछने के कारण हैं कि हम क्यों पूछते हैं कि ये जल्दी छूट जाएं, न करने पड़े। लेकिन नहीं, छूटने से नहीं। करने ही पड़ेंगे। छूट सकते हैं, करने से छूटेंगे। और भीतर से जो आता है उसे आने दें। वहां बहुत गंदगी छिपी है, वह बाहर आएगी। हमने एक चेहरा ऊपर बनाया है, वह हमारा असली चेहरा नहीं है। तो हम डरते हैं।

नकली चेहरों का प्रकटीकरण:

ब एक आदमी अपना चेहरा लीप—पोत कर किसी तरह बनाकर बैठा हुआ है। अब वह डरता है कि अगर छोड़ा तो चेहरा कुरूप हो जाता है। तो वह डरता है कि यह कुरूप चेहरा कोई देख न ले। क्योंकि वह तो कितना आईने में तैयार होकर आया है घर से। अब वह डरता है कि कहीं मैंने चेहरा बिलकुल छोड़ दिया तो चेहरा कुरूप भी हो सकता है। और जब छोडूंगा तो पाउडर और लिपिस्टिक उस पर काम नहीं पड़ेंगे, वे एकदम गड़बड़ हो जाएंगे। असली चेहरा निकल सकता है। तो वह डरेगा वह कहेगा कि नहीं, और सब छोड़ा जा सकता है, लेकिन चेहरे को नहीं छोड़ा जा सकता। उसको किसी तरह बनाकर… और हमारे सब चेहरे मेकअप के चेहरे हैं, असली चेहरे नहीं हैं। और ऐसा मत सोचना कि जो पाउडर नहीं लगाते, उनके मेकअप के नहीं हैं। मेकअप बहुत गहरा है, बिना पाउडर के भी चलता है।

तो असली चेहरा निकल आएगा। अब असली चेहरा निकल आए तो घबड़ाहट हो सकती है, कोई देख न ले। इसलिए हमारे डर हैं। लेकिन ये डर खतरनाक हैं। इन डरो को लेकर भीतर नहीं जाया जा सकता है। ये डर छोडने पडेंगे।

शक्तिपात और अहंशून्य माध्यम:

क अंतिम सवाल एक मित्र पूछते हैं कि ओशो शक्तिपात है? क्या कोई शक्तिपात कर सकता है?

कोई कर नहीं सकता, लेकिन किसी से हो सकता है। कोई कर नहीं सकता। और अगर कोई कहता हो कि मैं शक्तिपात करता हूं तो फिर सब धोखे की बातें हैं। कोई कर नहीं सकता, लेकिन किसी क्षण में किसी से हो सकता है। अगर कोई बहुत शून्य व्यक्ति है, सब भांति समर्पित, सब भांति शून्य, तो उसके सान्निध्य में शक्तिपात हो सकता है। वह कंडक्टर का काम कर सकता है—जानकर नहीं। परमात्मा की विराट शक्ति उसके माध्यम से किसी दूसरे में प्रवेश कर सकती है।

लेकिन कोई जानकर कंडक्टर नहीं बन सकता, क्योंकि कंडक्टर बनने की पहली शर्त यह है कि आपको पता न हो; ईगो न हो। नहीं तो नॉन—कंडक्टर हो जाते हैं फौरन। जहां ईगो है बीच में, वहां आदमी नॉन—कंडक्टर हो गया, फिर वहां से शक्ति प्रवाहित नहीं होती। तो अगर ऐसे व्यक्ति के पास जो समग्र भांति भीतर से शून्य है, और जो कुछ नहीं करना चाहता आपके लिए— कुछ करता ही नहीं वह—उसके वैक्यूम से, उसके शून्य से, उसके द्वार से, उसके मार्ग से परमात्मा की शक्ति आप तक पहुंच सकती है; और गति बहुत तीव्र हो सकती है। कल दोपहर के मौन में इसको खयाल में लें।

तो कल के लिए दो सूचनाएं भी मैं इसके साथ दे दूं।

शक्तिपात का अर्थ है कि परमात्मा की शक्ति आप पर उतर गई। शक्ति दो तरह से संभव है—या तो आपसे शक्ति उठे और परमात्मा तक मिल जाए, या परमात्मा से शक्ति आए और आप तक मिल जाए। बात एक ही है, दो तरफ से देखने के ढंग हैं। वह वैसे ही, जैसे कोई गिलास में आधा गिलास पानी भरा रखा हो, और कोई कहे कि आधा गिलास खाली, और कोई कहे आधा गिलास भरा। और अगर पंडित हों तो विवाद करें, और तय न हो पाए कभी भी कि क्या मामला है! क्योंकि दोनों ही बातें सही हैं।

ऊपर से भी शक्ति उतरती है और नीचे से भी शक्ति जाती है। और जब उनका मिलन होता है, जहां आपके भीतर सोई हुई ऊर्जा विराट की ऊर्जा से मिलती है, तब एक्सप्लोजन, विस्फोट हो जाता है। उस विस्फोट के लिए कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। उस विस्फोट से क्या होगा, यह भी नहीं कहा जा सकता। उस विस्फोट के बाद क्या होगा, यह भी नहीं कहा जा सकता। वैसे उस विस्फोट के बाद, दुनिया में जिन लोगों को भी वह विस्फोट हुआ है, वे जिंदगी भर यही चिल्लाते रहे कि आओ और तुम भी उस विस्फोट से गुजर जाओ। कुछ हुआ है जो अनिर्वचनीय है।

शक्तिपात का अर्थ है, ऊपर से शक्ति आ जाए। आ सकती है। रोज आती है। और किसी ऐसे व्यक्ति के माध्यम को ले सकती है वह शक्ति जो सब भांति शून्य हो। तो वह कंडक्टर हो जाता है, और कुछ भी नहीं। लेकिन अगर अहंकार थोड़ा भी है इतना भी कि मैं कर दूंगा शक्तिपात, तो नॉन—कंडक्टर हो गया वह आदमी, उससे शक्ति नहीं प्रवाहित होगी।

खड़े होकर प्रयोग करने से गति तीव्रतम:

सुबह के लिए और सांझ के लिए दो सूचनाएं खयाल में ले लें। कल आखिरी दिन है, और बहुत कुछ संभव हो सकता है। और बहुत संभावनाओं से भरकर ही कल सुबह प्रयोग करना है।

एक तो, जिन लोगों को कुछ भी हो रहा है, कल सुबह वे खड़े होकर प्रयोग करेंगे। जिनको कुछ भी हो रहा है, जिनको थोड़ा भी शरीर में कहीं भी कुछ हो रहा है, कल वे सुबह खड़े होकर प्रयोग करेंगे, क्योंकि खड़े होकर तीव्रतम गति संभव होती है। यह आपको पता न होगा कि महावीर ने सारा ध्यान खड़े होकर किया। खड़ी हालत में तीव्रतम प्रवाह होता है। मैं आपको इसलिए अब तक खड़े होने के लिए नहीं कहा कि आप बैठे की ही हिम्मत नहीं जुटा पाते तो खड़े की हिम्मत कैसे जुटा पाएंगे। खड़े होने पर बहुत जोर से शक्ति का आघात होता है। तो वह जो मैं कह रहा हूं कि नाच उठ सकते हैं, बिलकुल पागल होकर नाच सकते हैं, वह खड़े होने में संभव हो जाता है।

तो कल चूंकि आखिरी दिन है, और कुछ दस—पच्चीस मित्रों को तो बहुत गहराई हुई है, तो वे तो कल खड़े हो जाएं। मैं नाम नहीं लूंगा, अपने आप आप खड़े हो जाएं। और शुरू से ही खड़े होकर करना है। कुछ लोग, जिनको बीच में लगेगा, वे भी खड़े हो जाएंगे। और खड़े होकर जो भी होता हो, होने देना है।

और दोपहर के लिए, कल दोपहर के मौन में जब हम बैठेंगे, तो मेरे पास थोड़ी ज्यादा जगह छोड़ना। और मेरे पास जो लोग भी आएंगे, जब मैं उनके सिर पर हाथ रखूं तब उनको जो भी हो, तब उन्हें उसमें भी होने देना है। अगर उनके मुंह से चीख निकल जाए, हाथ—पैर हिलने लगें, वे गिर पड़े, खड़े हो जाएं; उन्हें जो भी हो वह होने देना है। जो हम सुबह ध्यान में कर रहे हैं, वह दोपहर के मौन में, जो मुझसे मिलने आएंगे, मेरे हाथ रखने पर उनको जो कुछ भी हो, उन्हें हो जाने देना है। इसलिए मेरे पास थोड़ी कल दोपहर ज्यादा जगह छोड्कर बैठेंगे।

और सुबह, जिनको भी हिम्मत हो उनको खड़े होकर ही सुबह का प्रयोग करना है। मेरे आने के पहले ही आप चुपचाप खड़े रहें। कोई सहारा लेकर खड़ा नहीं होगा, कि आप कोई वृक्ष से टिककर खड़े हो जाएं, कोई सहारा लेकर खड़ा नहीं होगा, सीधे आप खड़े रहेंगे।

शक्तिपात की बात आपने पूछी है। खड़ी हालत में बहुत लोगों को शक्तिपात की स्थिति हो सकती है। और वातावरण बना है, उसका पूरा उपयोग किया जा सकता है। तो कल, चूंकि आखिरी दिन होगा शिविर का, कल पूरी शक्ति लगा देनी है।

इस प्रयोग का शारीरिक व मानसिक परिणाम:

प्रश्न: ओशो जो तीन चरण अभी आपने कहे उनका बॉडी के ऊपर हार्ट के ऊपर नर्वस सिस्टम और ब्रेन के ऊपर फिजिकल और मेटल क्या असर होता है?

 

हुत से असर पड़ते हैं।

प्रश्न: हार्टफेल तो नहीं हो जाएगा?

हार्टफेल हो जाए तो मजा ही आ जाए, फिर क्या है! वही तो फेल नहीं होता, उसे हो जाने दें। हो जाने दें, हार्ट फेल हो जाए, फिर तो मजा ही है, फिर क्या है। उसको बचाए फिरिका, फिर होगा तो फेल। मत बचाइए, हो जाने दीजिए। और इतना तो आनंद रहेगा कि भगवान के रास्ते पर हुआ। उतना काफी है।

वे मित्र पूछते हैं कि क्या—क्या परिणाम होंगे?

बहुत, परिणाम तो बहुत होंगे। ध्यान के, जिस प्रयोग को मैं कह रहा हूं ध्यान, उससे शरीर पर बहुत फिजियोलाजिकल परिणाम होंगे। शरीर की बहुत सी बीमारियां विदा हो सकती हैं, शरीर की उम्र बढ़ सकती है, केमिकल बहुत परिवर्तन होंगे। शरीर में बहुत सी ग्रंथियां हैं जो करीब—करीब मृतप्राय पड़ी रहती हैं, वे सब सक्रिय हो सकती हैं।

जैसे हमें खयाल नहीं है, अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं, फिजियोलाजिस्ट भी कहते हैं, कि क्रोध में शरीर में विशेष तरह के विष छूट जाते हैं। लेकिन अभी तक मनोवैज्ञानिक और फिजियोलाजिस्ट यह नहीं बता पाते कि प्रेम में क्या होता है। क्रोध में तो विशेष प्रकार के केमिकल शरीर में छूट जाते हैं, विष छूट जाते हैं। सारा शरीर विषाक्त हो जाता है। प्रेम में भी अमृत छूटता है। लेकिन चूंकि मुश्किल से कभी छूटता है, इसलिए फिजियोलाजिस्ट की लेबोरेटरी में अभी वह आदमी नहीं पहुंचा, इसलिए उसे पता नहीं चल पाता।

अगर ध्यान का पूरा परिणाम हो, तो शरीर में जैसे क्रोध में विष छूटता है, ऐसे प्रेम के अमृत रस छूटने शुरू हो जाते हैं। केमिकल परिणाम और भी गहरे होते हैं। जैसे कि जो लोग भी ध्यान में थोड़े गहरे उतरते हैं उन्हें अदभुत रंग दिखाई पड़ते हैं अदभुत सुगंधें मालूम पड़ने लगती हैं, अदभुत ध्वनियां सुनाई पड़ने लगती हैं, प्रकाश की धाराएं बहने लगती हैं, नाद सुनाई पड़ने लगते हैं। ये सबके सब केमिकल परिणाम हैं। ऐसे रंग जो आपने कभी नहीं देखे, दिखाई पड़ने लगते हैं। शरीर की पूरी केमिस्ट्री बदलती है। शरीर और ढंग से देखना, सोचना, पहचानना शुरू कर देता है। शरीर के भीतर बहनेवाली विद्युत— धारा की सारी धाराएं बदल जाती हैं। उन विद्युत— धाराओं के सारे सर्किट बदल जाते हैं।

बहुत कुछ होता है शरीर के भीतर। मानसिक तल पर भी बहुत कुछ होता है। लेकिन वह विस्तार की बात है। वे जो मित्र पूछते हैं, उनसे कभी अलग से बात कर लूंगा। बहुत कुछ संभावनाएं हैं।

गहरी श्वास का रासायनिक प्रभाव:

प्रश्न: ओशो डीप ब्रीदिंग का ब्रेन के ऊपर और नर्वस सिस्टम के ऊपर क्या असर पडता है?

 

जैसे ही शरीर में डीप ब्रीदिंग शुरू करेंगे तो कार्बन डाइआक्साइड और आक्सीजन की मात्राओं का जो अनुपात है, वह बदल जाएगा। जो मात्रा हमारे भीतर कार्बन डाइआक्साइड की है और आक्सीजन की है, उसका अनुपात बदलेगा सबसे पहले। और जैसे ही कार्बन डाइआक्साइड का अनुपात बदलता है वैसे ही सारे मस्तिष्क और सारे शरीर और खून और स्नायुओं में, सब में परिवर्तन शुरू हो जाएगा। क्योंकि हमारे व्यक्तित्व का सारा आधार आक्सीजन और कार्बन डाइआक्साइड के विशेष अनुपात हैं। उनके अनुपात में परिवर्तन सारा परिवर्तन ले आएगा।

तो इसीलिए मैंने कहा कि वह अलग से आप आ जाएं, वह तो टेक्यिकल बात है, उस सबको उसमें कोई रस नहीं भी हो सकता, तो आपसे बात कर लूंगा।

ध्यान का प्रयोग और आत्म—सम्मोहन:

र एक मित्र ने इधर पूछा है कि ओशो यह जो ध्यान की बात है? यह कहीं आटो— हिमोसिस आत्म— सम्मोहन तो नहीं? आत्म—सम्मोहन से बहुत दूर तक मेल है, आखिरी बिंदु पर रास्ता अलग हो जाता है। हिप्नोसिस से बहुत दूर तक संबंध है। सारे तीनों चरण हिप्नोसिस के हैं, सिर्फ साक्षी— भाव हिप्नोसिस का नहीं है। वह जो पीछे पूरे समय विटनेसिंग चाहिए—कि मैं जान रहा हूं देख रहा हूं कि श्वास आई और गई; मैं जान रहा हूं देख रहा हूं कि शरीर कंपित हो रहा है, घूम रहा है। मैं जान रहा हूं देख रहा हूं—यह जो भाव है, वह सम्मोहन का नहीं है। वही फर्क है। और वह बहुत बुनियादी फर्क है। बाकी तो सारा सम्मोहन की प्रक्रिया है।

सम्मोहन की प्रक्रिया बड़ी कीमती है, अगर वह साक्षी— भाव से जुड़ जाए तो ध्यान बन जाती है; और अगर साक्षी— भाव से अलग हो जाए तो मूर्च्छा बन जाती है। अगर सिर्फ हिम्मोसिस का उपयोग करें तो बेहोश हो जाएंगे; अगर साक्षी— भाव का भी साथ में उपयोग करें, तो जाग्रत हो जाएंगे। फर्क दोनों में बहुत है, लेकिन रास्ता बहुत दूर तक एक सा है, आखिरी बिंदु पर अलग हो जाता है।

और कुछ प्रश्न रह गए, वह कल रात हम बात कर लेंगे।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–190

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सुख नहीं, शांति खोजो—(प्रवचन—तीसरा)

अध्‍याय—17

सूत्र:

अशास्‍त्रविहितं धीरं तप्यन्ते ये तपो जना:।

दम्भाहंकारसंयुक्‍ता: कामरागबलान्त्तिता:।। 5।।

कर्शयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस:।

मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्‍विद्धय्यासुरीनश्चयान्।। 6।।

और है अर्जुन, जो मनुष्य शास्त्र— विधि से रहित केवल मनोकल्‍पित घोर तप को तपते हैं तथा दंभ और अहंकार से युक्‍त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्‍त हैं तथा जो शरीररूप से स्थित भूत— समुदाय को और अंत:करण में स्थित मुझे अंतर्यामी को भी कृश: करने वाले है, उन अज्ञानियों को तू आसुरी स्वभाव वाला जान।

पहले कुछ प्रश्न।

 

पहला प्रश्न : भक्त के सामने साक्षात भगवान हैं, फिर भी विरह कम क्यों नहीं हो रहा है?

 

जैसे—जैसे भगवान की प्रतीति होती है, विरह बढ़ता है। जैसे—जैसे निकट आते हैं, वैसे—वैसे दूरी खलती है। जितने पास आते हैं, उतनी ही पीड़ा होती है। क्योंकि पास आने पर ही पहली दफा पता चलता है कि अब तक सारा जीवन व्यर्थ ही गंवाया। और पास आने पर ही पता चलता है कि इतनी थोड़ी—सी दूरी भी अब बहुत दूरी है।

जिसे स्वाद लग गया, उसे ही तो पीड़ा होती है। जिसे स्वाद ही न लगा, उसे पीड़ा भी कैसे होगी? तुमने जिसे थोड़ा जान लिया, उसी को तो जानने की प्यास पैदा होती है। जिसे तुमने बिलकुल नहीं जाना, उसकी खोज भी कैसे पैदा होगी?

जब तुम्हें परमात्मा बिलकुल सामने दिखाई पड़ने लगे, तभी तुम्हारी विरह की अग्नि अपनी प्रगाढ़ता में जलेगी। इसलिए तो भक्त रोते हैं, अभक्त थोड़े ही रोते हैं! अभक्त तो प्रफुल्लित दिखाई पड़ते हैं। संसार में, बाजार में, दुकान पर, तुमने अभक्तों को रोते देखा? वे तो तुम्हें हंसते हुए मुस्कुराते हुए मिल जाएंगे। उन्हें तो उस पीड़ा का कोई पता ही नहीं, जो परमात्मा के द्वार पर अनुभव होती है।

प्रेमियों को रोते देखा जाता है, अप्रेमियों को नहीं। प्रेम रुलाता है, क्योंकि प्रेम निखारता है। और आंसुओ को दुर्भाग्य मत समझना, वे सौभाग्य के लक्षण हैं। और परमात्मा की पीड़ा जब तुम्हें जलाने लगे, मंथने लगे, मारने लगे, तब समझना कि सौभाग्य की आखिरी घड़ी करीब आ गई। क्योंकि परमात्मा जब तुम्हें मार ही डालेगा तुम्हारे विरह में, तभी तुम्हारे भीतर उसका प्रवेश हो सकेगा। जब तुम अपनी ही विरह की अग्नि में पूरे जलकर भस्मीभूत हो जाओगे, तभी उस भस्म से नए का आविर्भाव होगा। वह फिर तुम्हारे भीतर भी भगवान का रूप है।

भक्त मिटता है, तो भगवान पूरी तरह उपलब्ध होता है। तुम्हारे मिटने में ही संभावना है।

लेकिन स्वभावत: प्रश्न उठता है कि भगवान सामने हो, तो विरह समाप्त हो जाना चाहिए। लेकिन विरह भगवान के सामने होने से समाप्त नहीं होता। जब तुम भगवान को पी ही जाओगे, जब वह सामने न होगा, तुम्हारे भीतर हो जाएगा। जैसे कोई प्यासा नदी के किनारे आ गया। किनारे पर खड़े होने से थोड़े ही प्यास बुझती है, नदी में उतरना पड़ेगा। नदी में उतरने से भी प्यास नहीं बुझती, नदी को अपने भीतर उतारना पड़ेगा।

तो जैसे—जैसे नदी दिखाई पड़ने लगेगी, वैसे—वैसे प्यास प्रगाढ़ होने लगेगी। अब तक तो किसी तरह सम्हाला, अब सम्हाले भी न सम्हलेगी। जैसे—जैसे नदी पास आने लगेगी, वैसे—वैसे तुम्हारा कंठ और भी जोर से आकुल होने लगेगा। पानी को पास देखकर दबी हुई प्यास उभरकर उठ आएगी। पानी को पास देखकर अब तक किसी तरह मन को समझाया था, अब समझाया न जा सकेगा। अब तक किसी तरह बांध—बूंधकर चल लिए थे, अब सब व्यवस्था टूट जाएगी। अब तो पागल की तरह दौड़ शुरू होगी।

लेकिन ठीक किनारे पर भी आकर तो प्यास नहीं बुझती। नदी में खड़े होकर भी तो प्यास नहीं बुझती। जब तक कि परमात्मा और तुम एक ही न हो जाओ, कि पानी तुम्हारे खून में न बहने लगे; कंठ में नहीं, तुम्हारे हृदय में न उतर जाए, तब तक प्यास नहीं बुझती। परमात्मा और तुम्हारे बीच जब तक इंचभर का भी फासला है, तब तक तुम जलोगे। उतना फासला भी अनंत फासला है। और पास आकर ही दूरी पता चलती है। तुम इसे विरोधाभास मत समझना। दूरी जब रहती है, तब तो पता ही नहीं चलती। क्योंकि तुम्हें यही पता नहीं कि कोई परमात्मा है, किसी की खोज करनी है। रोओगे किसके लिए?

रोने के पहले थोड़ा स्वाद लग जाना जरूरी है, थोड़ी भनक पड़ जानी जरूरी है। रोने के पहले उसकी याद आ जानी जरूरी है।

लेकिन याद कैसे आएगी अगर उसे बिलकुल न जाना हो? दूर से ही देखी हो उसकी छवि, लेकिन तुम्हारे सपनों में समा जानी चाहिए। फिर तुम सो न सकोगे; फिर तुम जाग न सकोगे, फिर दिन और रात बेचैनी से भर जाएंगी।

कबीर ने कहा है कि वह परमात्मा का प्यासा निशि—बासर जागे। वह न सो सकता है, न जाग सकता है। उसकी बेचैनी का हिसाब नहीं है। विरह की अग्नि भयंकर हो जाती है। एक ही पुकार उठने लगती है। सारा प्राण एक ही पुकार से भर जाता है। प्यास कंठ में ही नहीं होती, रोएं—रोएं में समा गई होती है।

इसलिए भक्तों को ही रोते देखा गया है, परम भक्तों को ही विरह से जार—जार देखा गया है। लेकिन वह सौभाग्य का क्षण है। उन आंसुओ को तुम दुर्भाग्य समझ लोगे, तो भूल हो जाएगी। उन आंसुओ की गलत व्याख्या मत कर लेना, क्योंकि बहुत गलत व्याख्या करके वापस भी लौट जाते हैं। क्योंकि ऐसी नदी से क्या लेना—देना, जिसके पास जाकर प्यास बढ़ती हो। हम तो इसी खयाल से नदी के पास आए थे कि प्यास बुझ जाएगी। ऐसे जल को क्या करना; जिसके पास आने से आग बढ़ती हो। भय पकड़ ले सकता है। और भय यह भी कह सकता है कि जिस जल के पास आने से प्यास बढ़ रही है, उसे भूलकर पी मत लेना। नहीं तो लपटें ही लपटें हो जाएंगी। भाग जाओ।

बहुत लोग परमात्मा के द्वार से लौट गए हैं। उन्होंने आंखें बंद कर लीं। उन्होंने अपने को किसी तरह सम्हाल लिया। गिरने को ही थे, मिलने को ही थे, जरा—सा ही फासला था, एक कदम काफी हुआ होता, लेकिन वे लौट गए। फिर जन्मों—जन्मों तक भटकते हैं। इसलिए ठीक—ठीक व्याख्या बड़ी अर्थपूर्ण है, जब कोई घटना घटे। और गुरु का मूल्य इन्हीं सब आयामों में है कि वह तुम्हें ठीक व्याख्या दे सकेगा। जब तुम्हारे पैर उखड़ रहे होंगे, तब वह उन्हें जमा सकेगा। जब तुम भागने की तैयारी कर लोगे, वह तुमसे कहेगा, जरा और, और सुबह होने के करीब है। मंजिल पास है, और तू भागा जा रहा है!

उस वक्त जरा—सा सहारा चाहिए कि कोई तुम्हें पकड़ ले, कोई तुम्हारे पैरों को रोक दे। लौट न पड़ो तुम कहीं। कहीं तुम गलत व्याख्या न कर लो।

और तुमसे गलत व्याख्या की ही संभावना है। सही व्याख्या तुम कर कैसे सकोगे? तुम्हारा तर्क तो यही कहेगा कि हट जाओ ऐसी जगह से। जहां पास जाने से आग बढ़ती हो, यहां से दूर ही हो जाओ।

मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते हैं, इतनी अशांति ध्यान के पहले न थी!

अशांति का भी पता तभी चलता है, जब तुम थोड़े शांत होने लगते हो। अशांति को जानेगा कौन? सारी दीवाल काली हो, तो जरा—सी भी सफेद रेखा खींच दो, तो सफेद रेखा भी उभरकर दिखाई पड़ती है और दीवाल भी उभरकर दिखाई पड़ती है। क्योंकि विपरीत में प्रतीति होती है।

तुम अशांत ही रहे हो, अशांति तुम्हारा स्वभाव हो गई है, अशांति के अतिरिक्त तुमने कभी कुछ जाना नहीं, इसलिए अशांति को भी कैसे जानोगे? विपरीत चाहिए। कंट्रास्ट चाहिए। कुछ और तुम जानी, तो तुलना हो सके। इसलिए ध्यान करते ही अशांति बढ़ती है।

लोग चकित होते हैं, क्योंकि वे ध्यान की खोज में आए थे सोचकर कि शांति बढ़ेगी। शांति नहीं बढ़ती, शुरू में तो अशांति बढ़ती है। कहना ठीक नहीं है कि अशांति बढ़ती है। अशांति तो थी, पहले उसका पता न चलता था, अब पता चलता है। और जैसे—जैसे शांति बढ़ेगी, वैसे—वैसे पता चलेगा। जैसे—जैसे तुम जागोगे, वैसे—वैसे पता चलेगा कि कितने सोए रहे!

सोए आदमी को पता ही नहीं चलता कि वह सो रहा है, जागे को पता चलता है। सुबह जिसकी नींद टूटने लगी, जो करवट बदलने लगा, और जिसे भनक पड़ने लगी आस—पास की जागती दुनिया की—बरतन बजने लगे, दूध वाले दूध बेचने लगे, सड़क चलने लगी—जिसे थोड़ी भनक भी पड़ने लगी, अब जो सोया भी नहीं है, जागा भी नहीं है, जो बीच में खड़ा है, संध्याकाल आ गया, उसे पता चलता है कि रातभर सोए रहे।

जागते क्षण में पता चलता है नींद का, शांत होने पर पता चलता है अशांति का। आनंद जब उतरने के करीब होगा, तब तुम जानोगे कि कैसे महादुख से तुम आए हो। स्वर्ग के द्वार पर तुम्हें पता चलेगा कि अब तक की यात्रा नरक में हुई। स्वर्ग के द्वार पर ही पता चलेगा। उसके पहले पता न चलेगा; क्योंकि विपरीत जरूरी है।

परमात्मा के करीब पहुंचकर तुम्हें अपने सारे अस्तित्व का सारा संताप सघनीभूत होकर पता चलता है; इसलिए विरह बढ़ता है। उस विरह में गलत व्याख्या मत करना। वह सौभाग्य है। उस सौभाग्य के क्षण को, उन आंसुओ को, विरह को आंनदभाव से, अहोभाव से स्वीकार करना। रोना, लेकिन नाचना बंद मत करना।

आंसू टपके, लेकिन पैर नाचे। आंखें विरह से भरी हों, लेकिन हृदय मिलन की आकांक्षा से, मिलन की आशा से। कंठ में प्यास हो, लेकिन हृदय में भरोसा हो कि नदी करीब आ गई। क्षणभर की देर और है।

और जब इतनी प्रतीक्षा कर ली, तो यह क्षण भी बीत जाएगा। अनंत कल्प बीत गए, सृष्टियां बनीं और उजड़ी और तुम प्यासे बने रहे, उतना सह लिया, जन्मों—जन्मों इतनी यात्रा की, मंजिल कभी करीब न आई; भटकते ही रहे, वह सब हो गया, अब क्षणभर के लिए क्या घबड़ाहट है! हृदय आश्वासन से भरा रहे। वहीं तुम्हारी आस्था काम आएगी; वहीं तुम्हारी श्रद्धा का पता चलेगा। क्योंकि उस क्षण में बहुत लोग भाग गए हैं।

गुरु के बिना इसीलिए कठिनाई है। गुरु के बिना भी कभी—कभी कोई उपलब्ध हो जाता है, पर कभी—कभी। उसको हम अपवाद मान ले सकते हैं। अन्यथा गुरु के बिना कोई उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि ऐसे पड़ाव आते हैं, जहां कौन तुम्हें भरोसा दे? ऐसे पड़ाव आते हैं, जहां कौन तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हें रोक ले? ऐसे पड़ाव आते हैं, जहां कि क्षणभर भी अगर ठीक व्याख्या न मिले, तो अनंत काल के लिए भटकाव पुन: शुरू हो जाएगा। और जो व्यक्ति एक बार परमात्मा के मंदिर से वापस लौट आता है, वह सदा—सदा के लिए उस मंदिर की यात्रा को बंद कर देता है। उस तरफ जाने से भय लगता है।

मेरी अपनी प्रतीति यही है कि इस संसार में जिनको तुम नास्तिक मानते हो, वे वे ही लोग हैं, जो कभी परमात्मा के मंदिर के पास से वापस लौट गए हैं। अब वे नास्तिक हो गए हैं। अब वे कहते हैं, परमात्मा है ही नहीं। वे किसी और को नहीं समझा रहे हैं; वे अपने को ही समझा रहे हैं। वह जो उपद्रव उन्होंने परमात्मा के पास अनंत काल की यात्रा में कभी जाना होगा, वह जो विरह, उसने उन्हें इतना घबड़ा दिया है कि उस घबड़ाहट में अब सिर्फ एक ही बचाव है कि वे अपने को समझा लें कि परमात्मा है ही नहीं, इसलिए खोज किसकी करनी है? उसका मंदिर है कहां? यही संसार सब कुछ है। कहीं जाना नहीं है।

वे दूसरों को नहीं समझा रहे हैं। जब नास्तिक तर्क देता है और कहता है कि ईश्वर नहीं है, तो वह तुम्हें नहीं समझा रहा है, वह अपने को समझा रहा है कि कहीं पैर फिर से उस रास्ते पर न मुड़ जाएं। वह डरा हुआ है अपने से कि कहीं फिर कोई वह आग न जला दे, कहीं फिर कोई छू न दे उस घाव को पुन:, फिर कहीं वह विरह न पैदा हो जाए; और फिर कहीं मैं उस तरफ न चल पडुं जहां से भाग आया हूं।

रवींद्रनाथ की एक छोटी—सी कविता है, कि मैं खोजते —खोजते एक दिन परमात्मा के द्वार पर पहुंच गया। अनंत काल तक खोजा। जब तक नहीं पाया था, तब तक बड़ी खोज थी। कितना भटका, कितने श्रम किए, कितने साधन किए! और फिर आज जब द्वार पर खड़ा हो गया, तो मन एकदम उदास हो गया। हाथ में सांकल उठा ली थी, बजाने को था, दस्तक देने को ही था कि तत्क्षण खयाल आया, फिर क्या करोगे? जब परमात्मा मिल जाएगा, फिर क्या करोगे?

भय पकड़ गया, रोआं—रोआं कैप गया। फिर क्या करेंगे? अपना अब तक जो भी करने का जाल था, वह सब व्यर्थ हो जाएगा। अपनी यात्रा समाप्त हो गई। फिर करोगे क्या? फिर कुछ करने को बचता नहीं। परमात्मा का अर्थ है वैसी दशा, जिसके पार पाने को कुछ नहीं, करने को कुछ नहीं, होने को कुछ नहीं। परमात्मा का अर्थ है, पूर्ण विराम।

मन घबड़ा गया। वही मन, जो खोजता था, खोजने के लिए राजी था। क्योंकि काम—धंधा था, व्यस्तता थी और अहंकार को एक तृप्ति भी थी कि खोज रहा हूं परमात्मा को। और दूसरे तो मूढ़ हैं, धन को खोज रहे हैं। दूसरे नासमझ हैं, पद को खोज रहे हैं। दूसरे अज्ञानी हैं, व्यर्थ को खोज रहे हैं, असार को खोज रहे हैं। मैं सार की खोज पर निकला हूं; मैं परम गुह्य की खोज पर निकला हूं; मैं रहस्यों के लोक में जा रहा हूं। अहंकार बड़ा तृप्त था, संतुष्ट था।

द्वार पर खड़े होकर परमात्मा के घबड़ाहट आ गई, पैर कंप गए कि यह तो खतरा है! खोज समाप्त हो जाएगी! करने को कुछ बचेगा नहीं! अहंकार के लिए कोई जमीन न रह जाएगी खड़े होने को! रवींद्रनाथ ने बड़ा अदभुत गीत लिखा है, किसी ने कभी नहीं लिखा। इसलिए रवींद्रनाथ में बड़ी अनुभूतियां थीं, बड़ी सूझें थीं। यह आदमी असाधारण था। यह आदमी सिर्फ कवि नहीं था; यह आदमी ऋषि था। जैसे उपनिषद के ऋषि हैं।

रवींद्रनाथ के वचन वैसे ही समझे जाने चाहिए, जैसे उपनिषद के वचन। रवींद्रनाथ नया उपनिषद है। उनको साधारण कवि मत समझ लेना, जो कवि सम्मेलनों में कविता कर रहा है और तालियां सुन रहा है। उनको तुम कोई काका हाथरसी मत समझ लेना। वे ऋषि हैं। बड़े गहरे प्रगाढ़ अनुभव से उनकी प्रतीति निकली है।

रवींद्रनाथ ने कहा है कि यह देखकर मैं भाग खड़ा हुआ। मैं इतना डर गया कि मैंने सांकल भी धीरे से छोड़ी कि कहीं अनजान में बज न जाए। और मैं इतना डर गया कि मैंने जूते, जिनको पहने हुए मैं मंदिर की सीढ़िया चढ़ गया था, हाथ में ले लिए; कि कहीं पदचाप भीतर सुनाई न पड़ जाए; कहीं वह द्वार खोल ही न दे और कहे, आओ। कहीं वह आलिंगन कर ही ले, तो मिटे। फिर कोई बचाव न रहेगा। और फिर उसको सामने खड़ा देखकर भागना भी अशोभन मालूम होगा।

गीत का आखिरी पद कहता है कि उस दिन से जो भागा हूं, तो बस उस मंदिर की राह को छोड्कर सब राहों पर घूमता हूं। फिर मेरी खोज जारी है। लोगों को कहता हूं परमात्मा खोज रहा हूं योग कर रहा हूं ध्यान कर रहा हूं। और मुझे पक्का पता है कि वह कहां है। उस जगह को भर छोड्कर सब जगह खोजता हूं।

नास्तिक मेरे लिए वही आदमी है, जिसको कोई बहुत गहन पीड़ा का अनुभव किसी जन्म में हो गया। वह पीड़ा इतनी भयंकर थी कि वह दोबारा उसको पुनरुक्त नहीं करना चाहता। वह अपने को समझाता है, परमात्मा है ही नहीं। वह अपने को तर्क देता है। वह अपने चारों तरफ तर्क का एक जाल निर्मित करता है। वह अपने ही खिलाफ षड्यंत्र रचता है। वह किसी दूसरे का धर्म बिगाड़ने को नहीं है, न तुमसे उसे कुछ मतलब है।

अन्यथा तुम सोचो, ऐसे नास्तिक हैं जो जीवनभर, ईश्वर नहीं है, यह सिद्ध करने में समय व्यतीत करते हैं। है ही नहीं जो, उसके लिए तुम अपना जीवन क्यों खराब कर रहे हो? तुम कुछ और कर लो। ईश्वर तो है ही नहीं, बात खतम हो गई। लेकिन जीवनभर व्यतीत करते हैं!

मेरी अपनी प्रतीति यह है कि कभी—कभी भक्तों को भी वे मात कर देते हैं। भक्त भी इतनी संलग्नता से जीवन व्यतीत नहीं करता परमात्मा के लिए, जितना नास्तिक करते हैं। लिखते हैं, सोचते हैं, तर्क जुटाते हैं, समझाते हैं, शास्त्र लिखते हैं बड़े—बड़े कि ईश्वर नहीं है।

इस सब के पीछे कुछ मनोविज्ञान होना चाहिए। जो है ही नहीं, उसकी कौन फिक्र करता है? कोई तो सिद्ध नहीं करता कि आकाश—कुसुम नहीं होते। कोई तो सिद्ध नहीं करता कि गधे को सींग नहीं होते। इसको क्या सिद्ध करना है! और जो सिद्ध करे, वह गधा। क्योंकि इसको क्या प्रयोजन है? गधे को सींग नहीं होते, यह जाहिर बात है, खतम हो गई। इसको कोई भी सिद्ध करने की जरूरत नहीं है।

लेकिन ईश्वर नहीं है, अगर ईश्वर भी ऐसा है जैसे कि गधे के सींग नहीं हैं, तो क्या पागलपन कर रहे हो! किसको सिद्ध कर रहे हो? किसके लिए लड़ रहे हो? क्या प्रयोजन है? सिद्ध भी कर लोगे, तो क्या सार है? जो था ही नहीं, उसको तुमने सिद्ध कर लिया कि वह नहीं है, क्या पाया? कहीं और जीवन ऊर्जा को लगाते, कहीं और खोजते।

लेकिन नास्तिक के पीछे एक ग्रंथि है। वह ग्रंथि यह है कि अगर वह सिद्ध न करे कि ईश्वर नहीं है, तो डर है कि कहीं फिर कदम उसी तरफ न उठने लगें। यह बड़ी अचेतन प्रक्रिया है। यह उसके अनकांशस में है। उसे भी पता नहीं है।

इसलिए जब भी कोई नास्तिक मेरे पास आ जाता है, तो मैं उसमें रस लेता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं यह कभी करीब तक पहुंचा हुआ आदमी है। इसकी यात्रा बस पूरे होने के करीब थी। यह दया के योग्य है। इस पर नाराज मत होना। यह करुणा के योग्य है। और यह वहां पहुंचा है, जहां बहुत—से आस्तिक कभी नहीं पहुंचे हैं। एक छलांग, एक क्षण और, और सुबह हो गई होती। इस पर श्रम करने जैसा है। यह लड़ने जैसा नहीं है। इसका विरोध करने जैसा नहीं है। इसकी आलोचना करने जैसी नहीं है। इसे तो पूरे प्रेम में ले लेने जैसा है। किसी भांति इसे फिर से याद आ जाए, तो एक क्षण में यह फिर वहीं खड़ा हो सकता है, जहां से भागा था।

क्योंकि जो भी हमने अनंत जन्मों में पाया है, उसे हम भूल जाएं, खो नहीं सकते। वह जीवन का नियम ही नहीं है। जो तुमने जान लिया है, उसे तुम भूल सकते हो, खो नहीं सकते। उसकी विस्मृति कर सकते हो, उसे छिपा सकते हो भीतर गहन में, गहन अचेतन में दबा सकते हो कि तुम्हें भी दिखाई न पड़े, तुम ऐसा छिपा सकते हो कि भीतर रोशनी भी लेकर जाओ, तो उसका पता न चले। लेकिन तुम उसे मिटा नहीं सकते। जो जान लिया गया, वह जान लिया गया। वह चेतना का अमिट अंग हो जाता है।

इसलिए नास्तिक क्षणभर में आस्तिक हो सकता है। आस्तिक को आस्तिक होने में बहुत समय लगता है। अभी इसे ईश्वर का भय तो समाया ही नहीं। अभी यह कुतूहल में ही है। एक जिज्ञासा उठी है कि शायद ईश्वर हो; शायद ईश्वर से आनंद मिलता हो। नास्तिक ऐसा आदमी है, जिसके बाबत गांव में प्रचलित कहावत सही है कि दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंककर पीता है। वह दूध का जला है, अब वह छाछ भी फूंक—फूंककर पी रहा है। आस्तिक ऐसा आदमी है, जो छाछ ही पीता रहा है। वह गर्म दूध को भी, जलते—उबलते दूध को भी छाछ की तरह पी जाएगा। जलेगा, तभी उसे पता चलेगा। फिर शायद वह भी छाछ को भी फूंक—फूंककर पीने लगे।

इसलिए भगवान के जैसे—जैसे तुम करीब आओगे, जैसे—जैसे तुम भक्त बनोगे।

भक्त का अर्थ मेरे लिए यही है, जो भगवान के करीब आने लगा, जिसे विरह की पीड़ा सताने लगी, जिसका रोआं—रोआं जलने लगा। जो अब ज्वरग्रस्त है, जिसे प्रेम का बुखार है। जो अब विक्षिप्त है, जिसे प्रेम की विक्षिप्तता ने पकड़ लिया।

इसलिए तो कबीर अपने को कहते हैं, कहे कबीर दीवाना। पागल! सारी दुनिया के लिए पागल। कोई उसकी बात सुनने को राजी नहीं। लोग समझते हैं मतवाला। और लोग उसकी पीड़ा भी नहीं समझ सकते। लोग उसके आंसू भी नहीं समझ सकते। लोग तो दूर, वह खुद ही नहीं समझ पाता कि क्या हो रहा है।। अघट घटता है, अनहोना होता है, अनजान से संबंध बनते हैं। सारा जाना—माना जाल टूट जाता है।

नहीं, इसमें कुछ विरोध नहीं है। भक्त के सामने जब साक्षात भगवान होते हैं, तभी विरह पहली दफा जगता है। उस समय चाहिए गुरु, कि रोक ले, हाथ पकड़ ले, सहारा दे, भरोसा दे। कहीं तुम भाग न जाओ मंदिर से। थोड़ी ही देर की बात है। और एक बार तुम कूद गए नदी में और नदी को ले लिया तुमने अपने में, यात्रा पूरी हो गई। और तभी मिलन के आनंद की वर्षा होती है। पहले तो विरह की पीड़ा है, विरह का रेगिस्तान है, फिर मिलन की वर्षा है। और यह भी तुमसे मैं कह दूं कि जितनी बड़ी होगी तुम्हारी विरह की जलन, उतनी ही गहन होगी तुम्हारी मिलन की शांति और मिलन का आनंद। इसलिए अगर तुम्हें कोई शार्टकट बताता हो, कि कहता हो कि हम ऐसा रास्ता बताते हैं कि बिना विरह के तुम पहुंच जाओगे। कोई तुम्हें कहता हो कि नदी जाने की क्या जरूरत! हम पाइप लाइन बिछाए देते हैं, तुम्हारे घर में ही टोंटी से पानी टपकने लगेगा परमात्मा का। तुम उसकी मत सुनना। क्योंकि बिना विरह के अगर परमात्मा मिल जाए. मिल नहीं सकता, यह आदमी धोखा दे रहा है।

लेकिन इसका धोखा धंधा बन सकता है। पंडित, पुरोहित, पुजारी वही कर रहे हैं। वे कहते हैं, हम सस्ता रास्ता बताए देते हैं। तुम क्यों विरह में मरते हो? तुम घर बैठो। हम तुम्हारे लिए पूजा करते हैं। वे कहते हैं, तुम्हें कोई यज्ञ करने की जरूरत नहीं है। हम कर देंगे; तुम सिर्फ पैसा चुका दो। तुम चिंता मत करो; हम जो कहते हैं, वैसा करो। बाकी सब फिक्र हम कर लेंगे। ये मध्यस्थ जो हैं, वे यह कह रहे हैं कि हम तुम्हें पीड़ा से बचा देंगे विरह की। हम तुम्हारे लिए रो लेंगे, हम तुम्हारे लिए हंस लेंगे, तुम घर बैठे रहो; तुम अपना धंधा करते रहो।

भूलकर भी इस भांति में मत पड़ना। क्योंकि वह अगर ऐसा हो भी जाए—जो हो नहीं सकता, मान लें हो जाए—तो वह ऐसा ही होगा, जैसे बिना भूख लगे किसी आदमी के पेट में हम भोजन डाल दें। कोई तृप्ति न होगी। तृप्ति तो नहीं, उलटे वमन हो जाएगा, उलटी हो जाएगी। जिसे प्यास न लगी हो, उसके कंठ में हम पानी उंडेल दें। उससे पेट की भले सफाई हो जाए, लेकिन तृप्ति न होगी।

यह तो ऐसे ही है कि जिसने कभी विरह नहीं जाना, उसके द्वार पर अगर प्रेम भी आकर खड़ा हो जाए, तो वह कैसे पहचानेगा? विरह की आंखें चाहिए। जितनी पीड़ा भूख की, उतनी ही तृप्ति, उतना ही स्वाद का रस। अगर तुम्हारी भूख की पीड़ा इतनी गहन हो कि उससे आगे पीड़ा में जाना संभव न हो, तो रूखी रोटी तुम खाओगे और उपनिषद के वचन तुम्हारे हृदय में गंज जाएंगे, अन्न ब्रह्म! अन्न ब्रह्म है! अगर भूख इतनी गहरी हो, तो भोजन परमात्मा हो जाएगा। प्यास गहरी हो, तो जल के कणों में, साधारण से जल में, अमृत की छाया पड़ने लगेगी।

जो साधारण जीवन में घटता है, वही उस असाधारण जीवन में भी घटता है। नियम तो वही है।

परमात्मा के लिए रोओ, ताकि कभी तुम उसके आनंद से हंस भी सकी। उसके लिए आंसुओ को गिरने दो, तभी तुम्हारे पैर शर बांधकर किसी दिन नाच भी सकेंगे। विरह का जितना गहन तीर तुम्हारे हृदय में छिदेगा, उतना ही अमृत का झरना फूटेगा। विरह का अनुपात ही मिलन के आनंद का अनुपात है।

इसलिए तुम घाटे में न रहोगे। रोने से डरना मत। आंसुओ को रोकना मत। पीड़ा को झेलना, पीड़ा से बचने के उपाय मत करना। पीड़ा से बचने के बहुत उपाय हैं। लेकिन जो पीड़ा से बच गया, वह फिर परमात्मा से भी बच जाएगा। वह फिर आनंद से भी बच जाएगा।

अगर तुम इस सूत्र को ठीक से खयाल में रख सकोगे, तो जब विरह आएगा, तब तुम सौभाग्य समझोगे। तुम समझोगे कि परमात्मा निकट है, इसलिए विरह आया। उसकी छाया कहीं मेरे ऊपर पड़ने लगी। वह कहीं आस—पास है। अन्यथा ये आंसू कैसे बहते? यह हृदय कैसे रोता? यह मेरा रोआं—रोआं कैसे तड़फता? यह आग कैसे जलती?

दूसरा प्रश्न :

 

अहंकार के पूर्ण विसर्जन के लिए आपने शरणागति को अत्यंत आवश्यक बताया और स्वयं अहंकार इस यात्रा के लिए राजी नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें उसकी मृत्यु निहित है। फिर बताएं कि शरणागति की यात्रा किसके द्वारा होती है?

रणागति कोई यात्रा नहीं है। अहंकार नहीं रह जाता, शरणागति फलित होती है। दीया जलाते हो तुम घर में, घर में जो घिरा हुआ अंधकार था, क्या वह द्वार—दरवाजों से बाहर जाता है? उसकी कोई यात्रा होती है? तुमने कभी अंधेरे को बाहर निकलते देखा? कि घर में दीया जल गया, अंधेरा बाहर जा रहा है! खड़े रहो द्वार पर, अंधेरा बाहर जाता न दिखाई पड़ेगा।

अंधेरा कुछ है थोड़े ही, जो बाहर जाता है। अंधेरा तो अभाव है, दीए के न होने की अवस्था है, अनुपस्थिति है। अंधेरा कुछ है थोड़े ही। अंधेरा है ही नहीं; उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

अहंकार अंधेरा है। उसे कहीं जाना थोड़े ही है। वह जा नहीं सकता। उसका कोई अस्तित्व नहीं है। वह कोई तत्व थोड़े ही है! इसलिए तो हम उसे झूठ कहते हैं, सपना कहते हैं। असली सवाल है, दीए का जल जाना।

शरणागति कोई यात्रा नहीं है। क्योंकि यात्रा अगर होगी, तो अहंकार मौजूद रहेगा। शरणागति छलांग है, यात्रा नहीं; एक क्षण में घटी घटना है। शरणागति सडेन, तल्ला घटी घटना है! जैसे दीया जला, प्रकाश हुआ, अंधेरा मिटा। एक क्षण की देरी नहीं होती। शरणागति की यात्रा कौन करता है?

यात्रा तो है ही नहीं, पहली बात। जैसे ही अहंकार गिरता है, वैसे ही शरणागति हो जाती है, उसी क्षण।

अहंकार के भीतर छिपे तुम जो हो, तुम अहंकार ही अगर होते, तो परमात्मा से मिलने का कोई उपाय न था। परमात्मा से तुम मिल सकते हो, क्योंकि तुम परमात्मा से ही हो। समान ही समान से मिल सकता है। तुम परमात्मा से मिल सकते हो, क्योंकि किसी अर्थ में तुम अभी भी परमात्मा हो। पता न हो। विपरीत का तो मिलन कैसे होगा! अहंकार के गिरते ही तत्‍क्षण तुम पाते हो, मिल गए। यात्रा नहीं होती, मंजिल आ जाती है।

तो असली सवाल है, अहंकार कैसे गिरे?

तुम्हारी चेष्टा से न गिरेगा, क्योंकि सभी चेष्टाएं अहंकार की हैं। यही जटिल जाल है। तुम अगर कोशिश करोगे, तो अहंकार ही कोशिश करेगा, गिरेगा नहीं। यह भी हो सकता है कि तुम ठोंक—ठाककर अपने को विनम्र बना लो। तो भीतर से अहंकार नई घोषणा करेगा कि मुझसे ज्यादा विनम्र कोई भी नहीं। देखो, मेरी विनम्रता। कैसे फूल लगे हैं विनम्रता के! दुनिया में हैं और लोग, लेकिन मुझसे ज्यादा विनम्र कोई भी नहीं। बस, मैं आखिरी हूं विनम्रता में, चोटी पर हूं।

यही तो अहंकार है, जो चोटी पर होने की घोषणा करता है। पहले धन के आधार पर करता था, पद के आधार पर करता था, बल के आधार पर करता था। अब त्याग के आधार पर करता है, विनम्रता के आधार पर करता है, साधुता के आधार पर करता है, संतत्व के आधार पर करता है। घोषणा वही है।

चेष्टा से अहंकार न जाएगा। अहंकार जाता है अहंकार को देखने से। चेष्टा नहीं, सिर्फ जांचने से, परखने से, पहचानने से, साक्षी— भाव से।

साक्षी— भाव का परिणाम है शरणागति। तुम सिर्फ देखते रहो अहंकार का खेल, कुछ करो मत। करने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि भीतर जो तुम्हारे छिपा है, वह कर्ता है ही नहीं, वह साक्षी है। तुम सिर्फ देखो। तुम जरा अहंकार के खेल देखो; लीला देखो। कैसी लीला रचता है! और कैसी सूक्ष्म लीला रचता है!

रास्ते पर तुम जा रहे हो अकेले, और देखा कि पास के मकान से दो आदमी निकल आए। भीतर कुछ बदल गया। परखो इसे, जांचो दूर खड़े, क्या हुआ?

अभी ये दो आदमी रास्ते पर नहीं थे, तो तुम और ढंग से चल रहे थे। कोई देखने वाला न था, तो तुम्हारा चेहरा और था, तुम एक गीत गुनगुना रहे थे; एक मस्ती थी, सरल थे, छोटे बच्चे की तरह थे। अचानक दो आदमी पास के मकान से निकल आए, कोई चीज भीतर बदल गई। अकड़ गए, बचपना चला गया, सरलता खो गई, चाल बदल गई, अहंकार आ गया।

तुम घर में अकेले बैठे हो, कोई नहीं है, तब तुम और हो। नौकर कमरे से गुजर गया। पता भी नहीं चलता, शरीर हिलता भी नहीं, और भीतर सब हिल जाता है। जांचो, परखो।

कोई आदमी आया, कहने लगा, आप जैसा बुद्धिमान आदमी कभी नहीं देखा। भीतर एक छलांग लग गई। तुम एक पहाड़ की चोटी पर चढ़ गए। जरा भीतर देखते रहो, क्या हो रहा है! इस आदमी ने चार शब्द कहे। शब्दों में क्या है? हवा में उठे बबूले हैं। इसने कहा कि तुम बड़े सुंदर, कि तुम बड़े बुद्धिमान, कि आप जैसा त्यागी नहीं देखा। भीतर एक छलांग लग गई। अभी खड़े थे जमीन पर, अचानक एवरेस्ट पर पहुंच गए। गौरीशंकर विजय कर लिया! एक आदमी आया, आलोचना करने लगा, निंदा करने लगा; कहने लगा, तुमसे ज्यादा निम्न और बेईमान कोई भी नहीं है। भयंकर चोट लग गई, घाव हो गया। अहंकार तड़फने लगा बदला लेने को। क्रोध में आ गए। इस आदमी को अब तक मित्र समझा था, यह दुश्मन हो गया। कहा कि बाहर निकल जाओ, अन्यथा उठवाकर फिंकवा दूंगा। धक्का देकर इस आदमी को बाहर कर दिया।

जांचते रहो! अनेक—अनेक रूपों में, अनेक—अनेक परिस्थितियों में, अनेक—अनेक घटनाओं में सिर्फ देखते रहो, क्या हो रहा है खेल! कब अहंकार बनता, कब चोट खाता, कब गिर पड़ता, कब उठकर खड़ा हो जाता; किस—किस ढंग से यह खेल चलता है। तुम सिर्फ देखो। बस, द्रष्टा होना काफी है।

अगर तुम्हारी दृष्टि किसी दिन सध जाएगी.। और सधते— सधते ही सधेगी। कोई अचानक तुम न देख पाओगे। क्योंकि देखना बड़ी से बड़ी कला है।

इसलिए तो जिन्होंने जान लिया, उनको हमने द्रष्टा कहा है, देखने वाले कहा है। जिन्होंने जान लिया, उनके वचनों को हमने दर्शन कहा है कि उन्होंने देख लिया, जान लिया। क्या देख लिया? देख लिया, अहंकार का खेल।

जिस दिन देखना पूरा हो जाता है, अहंकार तल्ला गिर जाता है। उसी क्षण शरणागति हो जाती है। उसी क्षण तुम बचे ही नहीं। समर्पण करना नहीं होता, होता है। समर्पण करोगे, तो झूठा रहेगा। वह करने वाला हमेशा अहंकार रहेगा।

जो समर्पण किया गया है, उसे तुम वापस भी ले सकते हो। उसका मूल्य ही क्या है? लेकिन जो समर्पण होता है, उसे तुम वापस न ले सकोगे। लेने वाला नहीं बचा, करने वाला नहीं बचा, सिर्फ देखने वाला बचा है। तुम सिर्फ देखोगे कि ऐसा हो रहा है। शरणागति देखी जाती है कि हो गई।

अहंकार को देखते—देखते—देखते अचानक एक दिन तुम पाते हो कि उस दर्शन के प्रवाह में ही, उस दर्शन की ज्योति में ही अहंकार का अंधकार खो गया। तुम अपने को पाते हो, मिट गए शून्य हो गए। समर्पण हो गया, शरणागति हो गई। उतर गए तुम नदी की धार में, उतर गई नदी की धार तुममें। अब तुममें और परमात्मा में कोई फासला न रहा। उतने ही अहंकार का फासला था। कर्ता है परमात्मा और जान लिया था तुमने अपने को कर्ता, वही दूरी थी। एक मात्र कर्ता है परमात्मा, वही कर रहा है, सब करना उसका है। तुमने अपने को कर्ता मान लिया था, यही आति थी। वह भांति छूट गई।

जैसे—जैसे तुम जांचोगे, भीतर भांति छूटती जाएगी। तुम पाओगे, तुम कुछ भी तो नहीं कर रहे हो, सब हो रहा है। भूख लगती है, प्यास लगती है, तो पानी की खोज शुरू हो जाती है। नींद आती है, तो बिस्तर तैयार होने लगता है। जवानी आती है, तो कामवासना घेर लेती है। बुढ़ापा आता है, कामवासना धुएं की तरह दूर निकल जाती है।

छोटे बच्चे थे, पता न था काम का। तितलियों के पीछे दौड़ते थे, फूलों को पकड़ते थे, कंकड़—पत्थर बीन लाते थे घर में। घर के लोग कहते थे, फेंको। तुम बड़ा मूल्यवान समझते थे। वह भी हो रहा था। फिर जवानी आई, नया पागलपन आया। अब तुम साधारण तितलियों के पीछे नहीं भागते। अब भी तितलियों के पीछे भागते हो, लेकिन अब उन तितलियों का नाम स्त्री है, धन है, पद है। अभी भी कंकड़—पत्थर इकट्ठा करते हो, पुराने नहीं। अब उनका नाम कोहिनूर है, हीरे—जवाहरात हैं, उनको इकट्ठे करते हो। खेल जारी है। कोई करवा रहा है। और तुम पूरे वक्त सोच रहे हो कि मैं कर रहा हूं।

क्रोध होता है। तुमने कभी किया? प्रेम होता है। तुमने कभी किया? तुम पैदा हुए हो या कि तुमने अपने को पैदा कर लिया है? तुम मरोगे या कि तुम अपने को मारोगे? जो आत्महत्या करते हैं, वे भी अपने को नहीं मारते; वह भी घटती है। वे भी बच नहीं सकते। वह भी होता है। क्या करोगे? आत्महत्या का विचार पकड़ लेता है। वह तुमने थोड़े ही पैदा किया है।

अगर तुम ठीक से विश्लेषण करोगे, तो तुम पाओगे, सब हो रहा है। और अकारण ही तुमने कर्ता को बना लिया कि मैं कर्ता हूं। बस, देखने की क्षमता आ जाए, कर्ता— भाव खो जाता है। करने वाला एक है।

साक्षी शरणागति है। साक्षी समर्पण है। साक्षी तुम्हारा विसर्जन है। और जहां तुम नहीं हो, वहां परमात्मा है।

आखिरी प्रश्न :

 

आपको देखकर बहुत खुशी होती है, आपकी आलोचना सुनकर बहुत दुख। फिर महीने में चार—पांच बार आपकी तस्वीर के सामने कहता हूं? मुझे आनंद नहीं दे सकता, तो मुझे मार ही डाल। इतना दुख क्यों देता है? थोड़ी देर मैं पछताता हूं! झुसिया भगवान से लड़ता था। पर उसकी भाव—दशा पवित्र रही होगी। मुझमें तमस बहुत है। ध्यान कछ समय चलता है, फिर रूक जाता है, फिर चलता है। मेरी तमस, मेरी विक्षिप्तता कैसे दूर हो?

गर मुझे देखकर खुशी होगी, तो मुझे न देख पाओगे, तो दुख होगा। अगर मेरी कोई स्तुति करेगा, प्रसन्नता होगी, तो फिर जब कोई मेरी निंदा करेगा, आलोचना करेगा, तो दुख होगा। सुख और दुख साथ—साथ हैं। अगर एक को चुना, तो दूसरे से बच न सकोगे। अगर दूसरे से बचना हो, तो दोनों को छोड़ देना पड़ेगा।

उ तो मुझे देखकर खुश मत होओ, शांत होओ। मुझे देखकर खुश होओगे, तो जब मुझे न देख पाओगे, तो दुख होगा। सुख अपने साथ दुख ले आता है। इसलिए मुझे देखकर शांत बनो। क्योंकि सुख एक उत्तेजना है। सुख कोई बहुत अच्छी अवस्था नहीं है। एक तनाव है। इसलिए सुख से भी आदमी ऊब जाता है।

तुमने कभी खयाल किया कि ज्यादा देर तुम सुखी नहीं रह सकते। क्योंकि थक जाता है आदमी। ज्यादा देर सुखी रहना मुश्किल है। दुख विश्राम है। अगर सुखी होओगे, थक जाओगे, तब दुख में विश्राम लेना पड़ेगा। सुख दिन जैसा है, दुख रात जैसा है।

अगर दुख से बचना हो, तो ध्यान रखना, सुख से बचना होगा। सुख की उत्तेजना तुमने पाल ली, तो फिर दुख की उत्तेजना कौन सहेगा? वह भी तुम्हीं को सहनी पड़ेगी। वह विपरीत है, पर इसी का दूसरा अति छोर है।

दुख से तो हम बचना चाहते हैं, बच कहा पाते हैं? सुख हम पाना चाहते हैं, मिल कहं। पाता है? इस बोध को जो उपलब्ध हो जाता है कि सुख के साथ दुख जुड़ा है, एक ही सिक्के दो पहलू हैं, वह पूरे सिक्के को फेंक देता है। उस सिक्के को फेंकने में शांति है। तुम जब मेरे पास आओ, तो सुख की भाव—दशा को मत बनाओ। कोई उत्तेजना मत पालो। आओ, शांत बनो। अगर तुम मेरे पास शांत रहोगे, तो तुम मुझसे दूर भी शांत रहोगे। क्योंकि शांति कोई उत्तेजना नहीं है। शांति एक स्वाभाविक दशा है। शांति में कोई तनाव नहीं है। इसलिए कोई व्यक्ति शांत रह सकता है अनंत काल तक।

इसलिए बुद्ध ने मोक्ष में सिर्फ शांति को ही जगह दी है, सुख को कोई जगह नहीं दी। आनंद शब्द का भी प्रयोग नहीं किया। क्योंकि आनंद में भी तुम्हें सुख की छाया पड़ती है, तुम्हें लगता है, आनंद महासुख है, ऐसा सुख जो कभी अंत न होगा। लेकिन ऐसा कोई सुख होता ही नहीं, जो कभी अंत न हो।

तो बुद्ध ने निर्वाण को शांति कहा है। इतनी गहरी शांति कि उसमें तुम भी नहीं हो, बस शांति है। वह अनंत काल तक रह सकती है, उसका कोई अंत नहीं आता है।

सुख तो है संगीत जैसा, कि कोई रविशंकर वीणा बजा रहा है। प्रीतिकर है, लेकिन कितनी देर तुम रविशंकर की वीणा सुन सकते हो? घड़ी दो घड़ी बहुत, अगर रातभर रविशंकर तार ठोंकता रहे, तुम पुलिस में खबर करोगे कि यह आदमी तो जान ले लेगा। अगर वह माने ही न और तुम्हारे पीछे—पीछे ही सितार बजाता घूमे, तो तुम पगला जाओगे दो—चार दिन में। इससे ज्यादा नहीं लगेगी देर।

बड़ा सुख था वीणा में घड़ी दो घड़ी, फिर पीड़ा हो गई, फिर पागलपन आने लगा। क्योंकि उत्तेजना है संगीत भी, चोट है, आघात है। कितना ही मधुर हो, है तो चोट ही। तार पर पड़ी चोट, शब्द की पड़ी चोट, कान पर झनकार है, हृदय पर भी झनकार है। कितनी ही प्रीतिकर हो, चोट करती है। बाजार का शोरगुल कितना ही अप्रीतिकर हो, रेलवे स्टेशन पर चलती खटर—पटर कितनी ही अप्रीतिकर हो, वह भी चोट करती है। उसे तुम क्षणभर भी नहीं सुनना चाहते। रविशंकर की वीणा को तुम थोड़ी देर सुनना चाहोगे।

लेकिन एक ऐसा संगीत भी है, जो अनाहत है, जो आघात से पैदा नहीं होता। उस संगीत में कोई स्वर नहीं है। उसी को हमने ओंकार कहा है। इसलिए ओंकार को अनाहत नाद कहा है। न तो अंगुलियां हैं, न तार हैं, न कोई चोट है। वह संगीत कैसा है? वह संगीत शून्य का है, मौन का है। उसमें तुम अनंत काल तक रह सकते हो, तुम कभी न थकोगे।

सुख से आदमी थकता है, दुख से भी थकता है। और इसलिए बदलाहट चलती रहती है, सुख से दुख में, दुख से सुख में; रात से दिन, दिन से रात। श्रम करता है, विश्राम; विश्राम करता है, श्रम। द्वंद्व जारी रहता है। अशांति जारी रहेगी द्वंद्व के साथ। शांति निर्द्वंद्व हो जाना है।

जब तुम मेरे पास आओ, तो सुख को मत जन्मने दो। क्या करोगे? सिर्फ देखते रहो। अगर तुम जागकर मेरे पास रहे, सुख जन्मेगा ही नहीं। वह नींद में ही जन्मता है। तुम शांत रहो। तुम बैठो मेरे पास ध्यानस्थ। तब तुम पाओगे कि मेरे पास या मुझसे दूर, सब बराबर है।

बुद्ध का मरण दिन आया, तो आनंद छाती पीट—पीटकर रोने लगा। और भी भिक्षु थे, उसमें एक भिक्षु था महाकाश्यप। वह अपने वृक्ष के नीचे बैठा था। खबर पहुंची, किसी ने कहा कि बुद्ध का अंतिम दिन आ गया। उन्होंने कहा है आज मैं विसर्जित हो जाऊंगा। उसने सुना या नहीं सुना, वैसा ही बैठा रहा। आनंद रोने लगा।

बुद्ध ने कहा, आनंद तू क्यों रोता है? तू महाकाश्यप की तरफ क्यों नहीं देखता? उसको भी खबर मिली है, लेकिन वह चुप बैठा है। जैसे कुछ नहीं हुआ है। जैसे लहर ही नहीं आई। कोई बात ही नहीं हुई। जैसे किसी ने कहा ही नहीं कि बुद्ध मरने को हैं।

आनंद ने महाकाश्यप की तरफ देखा। उसने कहा, बेबूझ है बात। मेरी समझ नहीं पड़ती। आपके रहते इतना सुख था, आपके जाते महादुख होगा।

बुद्ध ने कहा, तू महाकाश्यप को पूछ। महाकाश्यप से पूछा। महाकाश्यप ने कहा, उनके रहते बड़ी शांति थी, उनके न रहते भी बड़ी शांति होगी। क्योंकि शांति भीतर की बात है। उसका उनके रहने न रहने से संबंध नहीं। उनके सहारे भीतर को साध लिया, सध गया। बुद्ध न होंगे, तो भी शांति होगी। बुद्ध थे, तो भी शांति थी। आनंद, तू सुख के पीछे पड़ा है। इसलिए मुश्किल में उलझा है। सुख को छोड़। शांत!

शांत रस को पकड़ने की कोशिश करो। अन्यथा मैं कितने दिन तुम्हारे पास रहूंगा! फिर तुम दुखी होओगे। तो मैंने तुम्हें जितना सुख दिया, उससे ज्यादा दुख तुम्हें दे दूंगा। क्योंकि रहना तो थोड़ी देर है, न रहना बहुत लंबा होगा।

बुद्ध अस्सी साल रहे। फिर अब ढाई हजार साल बीत गए। और जिन्होंने बुद्ध के साथ सुख पाया होगा, वे अभी भी दुख पा रहे होंगे, ढाई हजार साल! अब वे जनम—जनम तक दुख पाएंगे। वह पीड़ा बनी ही रहेगी। जिसने बुद्ध के साथ सुख पाया, अब बिना बुद्ध के कैसे सुख पाएगा!

नहीं, तुम वह भूल करना ही मत। यह जो आनंद की भूल है, इससे बचना। महाकाश्यप गुणी है। वह राज समझ गया है कि क्या साधना है। जब तक बुद्ध मौजूद हैं, शांति को साध लो।

और अगर तुमने शांति साधी, तो तुम हैरान होओगे, कोई मेरी स्तुति करे तो और कोई मेरी निंदा करे तो, बराबर हो जाएगी। तुम्हें चोट क्यों लगती है जब कोई मेरी निंदा करता है? तुम्हें अच्छा क्यों लगता है जब कोई मेरी स्तुति करता है?

तुम्हें समझ नहीं है। जब कोई मेरी स्तुति करता है, तुम्हारे अहंकार को बढ़ावा मिलता है, तुम ठीक आदमी के साथ हो। जब मेरी कोई निंदा करता है, तुम्हारे अहंकार को घाव लगता है, चोट लगती है, कि तुम गलत आदमी के साथ हो।

इससे मेरा कुछ लेना—देना नहीं है। न तो स्तुति करने वाला मेरी स्तुति कर सकता है, न निंदा करने वाला निंदा कर सकता है। वे दोनों ही नासमझ हैं। दोनों को मेरा कोई पता नहीं है। स्तुति करने वाले को एक हिस्सा पता है, निंदा करने वाले को दूसरा हिस्सा पता है; पूरे का उन दोनों को पता नहीं है, अन्यथा वे चुप हो जाते। क्योंकि जो भी मुझे पूरा समझेगा, वह मेरे संबंध में चुप हो जाएगा। क्योंकि पूरे को जब भी तुम समझोगे, तब तुम पाओगे, न तो वह स्तुति में समा सकता है और न निंदा में समा सकता है।

जो नहीं समझते, उनमें से कुछ निंदा करते हैं; जो नहीं समझते, उनमें से कुछ स्तुति क्तते हैं। जैसे मित्र स्तुति करता है, क्योंकि वह प्रेम करता है। शत्रु निंदा करता है, क्योंकि वह घृणा करता है। लेकिन मित्र कल शत्रु हो सकते हैं, शत्रु कल मित्र हो सकते हैं। इसमें कुछ अड़चन नहीं है।

तुम्हें चोट लगती है निंदा से, क्योंकि तुम्हारा अहंकार अड़चन में पड़ जाता है। तुम्हें प्रसन्नता होती है, कोई स्तुति करता है, क्योंकि तुम्हारा अहंकार फूल जाता है। इसे गौर से देखो। इसे तुम मुझ से बांधो ही मत। इससे मेरा कुछ लेना—देना नहीं है। अपने भीतर पहचानो।

और अगर तुम मेरे पास शांति को साधोगे, तो तुम्हारी दृष्टि निर्मल होती जाएगी। सिर्फ शांति में ही दृष्टि निर्मल और निर्दोष होती है। तब तुम हंस पाओगे। स्तुति करने वाले को भी देखकर तुम शांत रहोगे; निंदा करने वाले को देखकर भी तुम शांत रहोगे। और तब मैं तुमसे कहता हूं कि तुम उन दोनों को बदलने में भी समर्थ हो जाओगे।

अगर कोई मुझे गालियां देता है और तुम चुपचाप सुन लो, और तुम वैसे ही बने रहो, जैसे पानी पर किसी ने लकीर खींची, खींच भी न पाया और मिट गई, लौटकर देखे, वहां कोई लकीर नहीं है; ऐसे तुम बने रहो, तो शायद निंदा करने वाले को पुन: सोचना पड़े कि जिसकी वह निंदा कर रहा है, उस आदमी के पास रहकर अगर इस आदमी को ऐसा कुछ हो गया है, तो एक बार फिर सोच लेना जरूरी है।

लेकिन किसी ने निंदा की और तुम दुखी और परेशान हो गए, बेचैन हो गए, क्रोधित हो गए या तुम मेरी रक्षा करने लगे। कैसे तुम मेरी रक्षा करोगे? या तुम तर्क देने लगे, विवाद में पड़ गए, तो तुम दूसरे आदमी को जो एक मौका दे सकते थे बदलने का, उसे चूक गए।

कोई किसी को विवाद से थोड़े ही कभी राजी कर पाता है। तर्क ने कभी किसी को बदला है? उस भ्रांति में पड़ो ही मत। तुम लाख तर्क दो, ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि तुम्हारे तर्क उस आदमी का मुंह बंद कर दें। लेकिन उसके हृदय को न बदल पाएंगे। वह खोज में रहेगा कि और मजबूत तर्कों को लाकर, सिद्ध करके तुम्हें दिखा दे कि तुम गलत हो। क्योंकि तुमने उसे एक चुनौती दे दी, उसके अहंकार को चोट पहुंचा दी। वह बदला लेकर रहेगा।

तर्क से कुछ सार नहीं है। विवाद में कुछ रस नहीं है। तुम्हें देखकर कुछ घटना घट सकती है। कोई मुझे गाली देता आए और तुम चुपचाप सुन लो, ऐसे कि कुछ भी न हुआ। वह आदमी गंभीर होकर लौटेगा। तुम्हारी शांति उसका पीछा करेगी। तुम उसकी नींद में उतरोगे। तुम उसके सपनों में छा जाओगे। वह बेचैन होगा। उसका आने का मन बार—बार होगा कि फिर तुम्हारे पास आए। मामला क्या है? गाली दी थी, उत्तर आना चाहिए था! इस आदमी को कुछ हो गया है!

और कौन नहीं चाहता कि ऐसी दशा उसकी भी हो जाए कि कोई गाली दे और चोट न पड़े! तुमने इस आदमी को जकड़ लिया, पकड़ लिया। यह आदमी भाग न सकेगा। और यह घटना मेरे पास आने से घटी है; तुमने मेरी तरफ इस आदमी को पहुंचने के लिए पहला उपाय बता दिया। इस आदमी के लिए तुमने दरवाजा खोल दिया।

धक्का मत दो, सिर्फ दरवाजा खोलो। धक्का देकर तुम उसे भीतर न ला पाओगे। धक्का देकर कहीं कोई भीतर आया है? सिर्फ चुपचाप द्वार खोल दो कि उसे पता भी न चले। यह आज नहीं कल आएगा; इसे आना ही पड़ेगा। तुम्हारी शांत मूर्ति इसका पीछा करेगी। शांत हो जाओ। सुख को मत पकड़ो।

और तुम कहते हो मेरी तस्वीर के सामने कि मुझे आनंद नहीं दे सकता, तो मुझे मार ही डाल।

वह भी सुख की ही तलाश है। तुम मरने को राजी हो, लेकिन खुद को छोड़ने को राजी नहीं हो। मैं तुमसे कहता हूं मरने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ अहंकार को मरने दो। तुम काफी मजे से जीयो। तुम्हारे जीने से कहीं कोई अड़चन नहीं है। लेकिन तुम कहते हो, मैं मरने को राज़ी हूं,लेकिन वह जो कहा रहा है कि मैं मरने को राज़ी हूं वह मैं छूटने को राजी नहीं है।

आत्महत्या करते वक्त भी तुम मैं ही बने रहोगे कि मैं आत्महत्या कर रहा हूं मैं कुर्बानी दे रहा हूं। जैसे तुम शिकायत कर रहे हो पूरे परमात्मा से, पूरे अस्तित्व से कि लो, अगर आनंद नहीं, तो मैं जीवन छोड़ता हूं। लेकिन यह छोड़ने वाला अहंकार है।

पकड़ने वाला, छोड़ने वाला, दोनों अहंकार हैं। तुम जागो। पकड़ने—छोड़ने से कुछ न होगा।

आनंद क्यों मांगते हो खर आनंद को तो तुमने सदा से मांगा है और इसीलिए तुम इतने दुखी हो। जागो! शांति, शून्य तुम्हारा स्वर बने। और तब आनंद तुम्हें मिलेगा। आनंद मांगने से नहीं मिलता, शून्य होने से बरसता है। आनंद कोई भिखारी को नहीं मिलता, सिर्फ सम्राटों को मिलता है। और सम्राट मैं उसे कहता हूं, जिसकी मांग बंद हो गई। जो मांगता है, वह भिखारी है।

तुमने अगर कहा, आनंद, तुम्हें कभी न मिलेगा। तुम सिर्फ शांत हो जाओ। और शांत होते ही तुम पाओगे, चारों तरफ से स्रोत आनंद के बहे आ रहे थे, अपनी अशांति के कारण तुम देख न पाए। खजाना सामने पड़ा था, तुम्हारी आख अंधी थी। द्वार खुले थे, तुमने आख उठाकर देखा ही नहीं। तुम चूक रहे थे अपने कारण। अस्तित्व क्षणभर को भी तुम्हें चुकाने को उत्सुक नहीं है।

पूरा अस्तित्व सहारा दे रहा है कि आ जाओ, द्वार खुले हैं, खजाना तुम्हारा है। लेकिन तुम भिक्षा—पात्र लिए खड़े हो। और भिक्षा—पात्र में यह खजाना नहीं समा सकता। यह खजाना भिक्षा—पात्रों से बहुत बड़ा है। भिक्षा—पात्र छोड़ना पडेगा।

अहंकार भिक्षा—पात्र है। मत मांगो आनंद। सिर्फ शांत हो जाओ और आनंद मिलेगा। आनंद सदा मिलता है उनको, जो शांत हो गए। जो मांगते हैं, उन्हें दुख मिलता है। फिर दुख और पीड़ा में तुम कहते हो, आत्महत्या तक कर लूंगा; मार डालो, मर जाऊं।

इससे कुछ हल नहीं है। तुम मर भी जाओगे, तो तुम तुम ही रहोगे। फिर पैदा हो जाओगे। फिर आनंद मांगने लगोगे। यही तो तुम करते रहे हो। यह गोरखधंधा बहुत पुराना है। तुम कोई नए थोड़े ही हो। तुम बड़े प्राचीन पुरुष हो। कितनी ही बार तुमने यही किया, मांगा, नहीं मिला। मरे, फिर मांगा। लेकिन मांग को न मरने दिया।

तुम मत मरो, माग को मरने दो, तुम जीओ। तुम तो शाश्वत हो, तुम मर भी नहीं सकते। तुम मारोगे कैसे? कैसे मिटाओगे अपने को? तुम बनाए नहीं अपने को, मिटाने वाले तुम कैसे हो सकते हो? जिसने बनाया, वही मिटा सकता है। और बनाया किसी ने भी तुम्हें नहीं है। तुम ही हो सार इस सारे अस्तित्व के। तुम सदा से हो, सदा रहोगे, अनादि, अनंत। ऐसा कभी न था कि तुम न थे और ऐसा कभी न होगा कि तुम न रहोगे।

मिटाने से क्या होगा? मिट—मिटकर तुम होते रहोगे। उस बात को ही छोड़ो। आनंद मत मांगो, शांति। और मजा यह है कि आनंद मांगना पड़ता है, शांति को मांगने की जरूरत नहीं। शांत तुम ही हो सकते हो। आनंदित तुम कैसे होओगे? मुझे कहो, आनंदित होने का तुम्हारे हाथ में क्या उपाय है? लेकिन शांत तुम हो सकते हो। जो तुम हो सकते हो, वही करो; शेष अपने से होगा।

जैसे वर्षा होती है; पहाड़ खाली रह जाते हैं, क्योंकि पहले से भरे हैं; गड्डे झीलें बन जाते हैं, क्योंकि खाली थे। तुम खाली हो जाओ। शांति यानी खाली हो जाना, गड्डा हो जाना। आनंद बरस रहा है, भर देगा तुम्हें। तुम झील हो जाओगे आनंद की।

झुसिया भगवान से लड़ता था, पूछा है, पर उसकी भाव—दशा पवित्र रही होगी। मुझमें तमस बहुत है।

किसको यह समझ है? कौन कह रहा है कि मुझमें तमस बहुत है? निश्चित ही, सत्व बोल रहा होगा। क्योंकि तमस कभी स्वयं को स्वीकार नहीं करता। तमस का तो लक्षण है, वह अस्वीकार करता है कि मैं और आलसी? तो आलसी भी तलवार लेकर लड़ने खड़ा हो जाता है कि किसने कहा? मैं और आलसी? मैं और तामसी? तो तामसी भी तमस छोड्कर लड़ने को खड़ा हो जाता है। तुम आलसी को भी आलसी नहीं कह सकते। वह भी लकड़ी उठा लेगा। तमस तो स्वीकार ही नहीं करता अपने को।

कौन सोच रहा है? कौन देख रहा है कि मैं तामसी हूं? यही तो सत्व का स्वर है। तुम इस स्वर को ठीक से पहचानो। और तुम इस स्वर की तरफ थोडे ज्यादा झुको। संतुलन भर बदलना है, कुछ बदलना नहीं है। ऊर्जा एक ही है। एक ही ऊर्जा है जो सत्व में, रज में, तम में प्रवाहित होती है।

जो आदमी सो रहा है, यही आदमी तो जागेगा; जो ऊर्जा सो रही है, वही जाग जाएगी, कोई दूसरी ऊर्जा थोड़े ही जागेगी। जो तमस है, वही तो रज बनेगा। जो रज है, वही तो सत्य बनेगा। धारा तो एक ही है, ऊर्जा तो एक ही है, शक्ति एक ही है। ये तीन तो उसके निष्कासन के उपाय हैं।

अभी पूरी की पूरी धारा या ज्यादा ज्यादा धारा सत्व नहीं बह रही है, तमस से बह रही है, रजस से बह रही है। लेकिन थोड़ी—सी बूंदें सत्व से भी बह रही हैं। उन बूंदों का मार्ग पकड़ो। शेष धारा को भी उसी तरफ झुकाओ। थोड़ा संतुलन बदलना है। बस, तीनों पाए बराबर हो जाएं; सत्व, रज, तम, तीनों में बराबर ऊर्जा बहने लगे एक तिहाई, एक तिहाई, एक तिहाई, अचानक तुम पाओगे, संगीत बजने लगा, अनाहत नाद शुरू हो गया। जहां तीनों बराबर हो जाते हैं, तीनों एक—दूसरे को काट देते हैं और वहीं से गुणातीत आयाम का प्रारंभ होता है।

यह कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं सारा गुणत्रय—विभाग, ताकि वह गुणातीत हो जाए।

तुम्हारा स्वभाव गुणातीत है। तुम तीन में बंटे हो, क्योंकि तुम सोए हो, तुम्हें पता नहीं। और सोई दशा में अधिक ऊर्जा तमस से बहेगी, क्योंकि सोई दशा तमस की दशा है। जब तुम महत्वाकांक्षा से भरकर दौड़ोगे पद— धन की तलाश में, तब अधिक ऊर्जा रजस से बहेगी। क्योंकि गति, महत्वाकांक्षा, दौड़ रजस का धर्म है। जब तुम शांत बनोगे, ध्यान और समाधि खोजोगे, मौन, निर्विकल्प, निर्विचार दशा को खोजोगे, तब सत्य से बहने लगेगी यही ऊर्जा। क्योंकि ध्यान, निर्विकल्पता, निर्विचार दशा, सत्व के गुण हैं।

और जब तीनों किसी एक दिन, किसी क्षण संयोग में बैठ जाते हैं, तीनों का स्वर लयबद्ध हो जाता है, उसी त्रिवेणी में एक का जन्म होता है। इसीलिए तो लोग त्रिवेणी जाते हैं तीर्थयात्रा करने। वह तीर्थ तुम्हारे भीतर है। जहां इन तीनों का मिलन होगा, वहीं त्रिवेणी बन जाएगी, वहीं प्रयागराज बन गया, वहीं हो गया तीर्थ, वहीं से एक का अनुभव होगा।

घबड़ाओ मत, चिंतित मत होओ। सब साज—सामान मौजूद है, थोड़ी—सी व्यवस्था जमानी है। सूफी कहते हैं, आटा मौजूद है, पानी मौजूद है, नमक मौजूद है, शाक—सब्जी मौजूद है, लकड़ियां पड़ी हैं, माचिस तैयार है, मगर भोजन तैयार नहीं है।

सब तैयार है। जरा— सा इंतजाम बिठाना है कि लकड़ियों में आग लगा दो, कि चूल्हा तैयार कर लो, कि आटे में थोड़ा पानी मिलाओ, कि थोड़ा नमक; कि आटा गूंथ लो, कि रोटियां पका लो; कि भूख मिट जाएगी, तृप्ति हो जाएगी।

परमात्मा मौजूद है, सिर्फ थोड़ा—सा संयोग बिठाना है। वह तुम्हारे तीन गुणों में मौजूद है, उनको थोड़ा—सा संयोजित करना है। धर्म संयोजन की कला है, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं। फिर तुम्हारे भीतर एक का जन्म हो जाता है। जहां तीन मिलते हैं, वहा एक का जन्म हो जाता है। इसलिए त्रिवेणी तीर्थ है।

अब सूत्र :

और हे अर्जुन, जो मनुष्य शास्त्र—विधि से रहित केवल मनोकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा जो दंभ और अहंकार से युक्त हैं, कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं तथा जो शरीररूप से स्थित भूत—समुदाय को और अंतःकरण में स्थित मुझ अंतर्यामी को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को आंसुरी स्वभाव वाला जान।

कौन है आंसुरी स्वभाव वाला? कौन है तामसी?

कृष्ण कहते हैं, जो मनुष्य शास्त्र—विधि से रहित केवल मनोकल्पित घोर तप करते हैं…।

मैं वर्षों तक लोगों से कहता रहा कि न तो गुरु की कोई जरूरत है, न शास्त्र की कोई जरूरत है। उस बात में जरा भी भूल न थी। लेकिन मुझे लगा, बात में बिलकुल भूल नहीं है, लेकिन सुनने वाले पर परिणाम बड़ी भूल का हो रहा है।

बात बिलकुल सही है। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा है। शास्त्र क्या समझाएंगे तुम्हें? सिर्फ आख भीतर खोलनी है। वेद कंठस्थ करके क्या होगा? अपनी तरफ आख खोलनी है, स्वाध्याय करना है। शास्त्र—अध्याय से क्या होगा? और गुरु की क्या जरूरत है? क्योंकि जिसे खोजना है, वह तुम्हें मिला ही हुआ है। जब जरा गरदन झुकाई..! गरदन झुकाने के लिए भी गुरु की जरूरत है? उतनी सी समझ भी तुममें नहीं है? और अगर उतनी ही समझ नहीं है, तो गुरु भी क्या करेगा? शास्त्र भी क्या करेंगे?

बात बिलकुल सही है। लेकिन धीरे—धीरे मुझे अनुभव होना शुरू हुआ, मेरी तरफ से सही है, सुनने वाले की तरफ से बिलकुल गलत है। मैंने पाया कि सौ लोग अगर सुनते हों, तो उसमें से एक को बात सही वैसी ही पहुंचती है, जैसी मैंने कही है। वह सत्वगुणी है। और सत्वगुणी पर क्या परिणाम होते थे, जब मैं यह कह रहा था?

उस पर परिणाम ये नहीं होते थे कि वह शास्त्र को छोड़ देता था, नहीं। या गुरु को छोड़ देता था, नहीं। न तो वह शास्त्र छोड़ता था, न वह गुरु छोड़ता था। सिर्फ पकड़ता नहीं था। यह सत्वगुणी पर परिणाम होता था, पकड़ता नहीं था, सिर्फ पकड़ छोड़ता था। न तो शास्त्र छोड़ता था; न गुरु छोड़ता था; सिर्फ पकड़ छोड़ता था। वह समझ लेता था कि बात क्या है, पकड़ छोड़ देनी है। और जब वह पकड़ छोड़ देता था, तो शास्त्र भी सहयोगी हो जाता था, गुरु भी सहयोगी हो जाता था।

पकड़ के कारण शास्त्र भी बाधा बन जाता है, गुरु भी बाधा बन जाता है। क्योंकि तुम एक आग्रह से भर जाते हो, एक आसक्ति से, एक मोह से। मेरा शास्त्र—वेद हिंदू का, कुरान मुसलमान का। मेरा गुरु—महावीर जैन का, मोहम्मद मुसलमान का। वह मेरा—पन छोड़ देता था, वह जो एक प्रतिशत सत्वगुणी मनुष्य था।

और बड़े मजे की बात यह है कि जैसे ही वह मेरा—पन छोड़ता था, वह वेद का तो लाभ ले ही लेता था, कुरान का भी ले लेता था। वह महावीर के पीछे चलकर तो शांति का मजा ले ही लेता था, वह बुद्ध के पीछे चलकर भी ले लेता था। जब पकड़ ही न रही, तो सभी गुरु हो जाते थे।

सत्वगुणी की व्याख्या यह थी कि जब पकड़ ही नहीं, कोई गुरु नहीं, तो सभी गुरु हो गए। और जब कोई पकड़ ही नहीं, कोई शास्त्र ही नहीं, तो सभी शास्त्र अपने हो गए। बंधन छूट जाता था। वह निर्मुक्त भाव से जीने लगता था। सबसे सीखता था।

सत्वगुणी यह सुनकर कि न गुरु की जरूरत है, न शास्त्र की, गुरु को नहीं पकड़ता था, शास्त्र को नहीं पकड़ता था, लेकिन शिष्यत्व उसका गहरा हो जाता था। पर वह घटता था एक प्रतिशत लोगों में।

फिर मैंने देखा कि नौ प्रतिशत रजोगुणी लोग हैं। उन पर क्या परिणाम होता था? वर्षों उनका अध्ययन करके मुझे समझ में आया कि यह सुनकर कि न शास्त्र को पकड़ना है, न गुरु को पकड़ना है, वे शास्त्र को छोड़ने में लग जाते थे, गुरु को छोड़ने में लग जाते थे। समझ पैदा नहीं होती थी, छोड़ने की दौड़ पैदा होती थी। रजोगुण का वह लक्षण है कि हर चीज में से दौड़ निकाल लेता है।

तो एक रजोगुणी मेरे पास आया, उसने मेरी बात समझी, वह घर गया; कुछ छोटी—मोटी मूर्तियां घर में थीं, शास्त्र थे, सब बांधकर कुएं में फेंक आया। फिर पछताया रात में। फिर डरा कि यह तो बड़ी गड़बड़ हो गई; कहीं नाराज न हो जाएं देवी—देवता! उनकी पूजा करता रहा था। मेरी बात सुन ली; तब तक पूजा में लगा था वह, और गहन पूजा करने वाला था। घंटों, छ: —छ:, आठ—आठ घंटे वर्षों से यह कर रहा था। मेरी बात सुनी; रजोगुण ने नई दौड़ पकड़ी। पुरानी से थक चुका होगा, कुछ परिणाम भी नहीं हो रहा था। बात समझ में आ गई, तो फिर एक क्षण रुका नहीं।

अब देवी—देवता क्या बिगाड़ते थे? घर में रहे आते। कोई हर्जा न था। और कभी सुबह—सांझ एक फूल भी उन पर रख देते, तो भी कोई हर्जा न था। सजावट थे, घर की रौनक थे, रहने देते। शास्त्र घर में रखे थे, कोई अड़चन न थी। पकड़ना नहीं था, छोड़ने का सवाल नहीं था। मगर रजोगुणी छोड़ने को उत्सुक हो जाता है। वह गया, उसने सब बांधकर देवी—देवताओं का बोरिया—बिस्तर और शास्त्र, सब कुएं में फेंक आया। अब रात सो न सका।

रजोगुणी वैसे ही कठिनाई पाता है रात सोने में। क्योंकि दिनभर जो दौड़ता है, भागता है, चिंता करता है, यह पाना है, वह पाना है, सपने रात भी दौड़ते रहते हैं।

रात घबड़ाया; आधी रात वह मेरे घर आया। अब उनको फेंक चुका कुएं में, वहां जा भी नहीं सकता। और शास्त्र तो गल गए होंगे और अब मुहल्ले वालों से कहे कि निकालना है, लोगों को पता चले, तो और बदनामी होगी कि तुम क्या नास्तिक हो गए!

वह आधी रात मेरे पास आया। कंप रहा था। मैंने पूछा, क्या हुआ? उसने कहा कि मैं बड़ी झंझट में पड़ गया। आपने ही डाला। किस दुर्भाग्य के क्षण में आपको सुनने आ गया! और बात जंच गई। और मैं तो धुनी आदमी हूं। जब जंच गई, तो क्षणभर रुका नहीं कि थोड़ा सोच तो लेता। और अब सो नहीं सकता और घबड़ाहट लगती है, कि वर्षों के देवी—देवता थे! कुल—देवता थे! बाप ने पूजे, बाप के बाप ने पूजे। इतनी पुरानी परंपरा थी घर में, और मैंने सब खंडन कर दिया, पता नहीं नाराज हो जाएं!

रजोगुणी सदा डरता है कि कहीं देवी—देवता नाराज न हो जाएं, नहीं तो महत्वाकांक्षा में बाधा डाल देंगे। रजोगुणी पूजा ही इसलिए करता है कि और धन मिल जाए, और पद मिल जाए। उसने कहा, कहीं नाराज हो गए! और शास्त्र भी फेंक आया, अब मैं क्या करूं?

मैंने देखा कि मुल्क में ऐसे बहुत—से लोग थे, जो समझे नहीं, जिन्होंने शास्त्र पर पकड़ तो न छोड़ी, शास्त्र को छोड़ने की दौड़ में पड़ गए; शास्त्र को छोड़ने की दौड़ पकड़ ली। पकड़ना जारी रहा, मुट्ठी न खुली; सिर्फ जरा एक कदम पीछे हट गई पकड़, और गहरी हो गई।

फिर नब्बे प्रतिशत लोग हैं, जो तमोगुणी हैं, जो कि विराट मनुष्य जाति का समुदाय है। वे वैसे ही किसी गुरु और शास्त्र में उलझे न थे। क्योंकि इतना भी उपद्रव वे लेने को राजी नहीं। वे अपने आलस्य में पडे थे। वे तो शास्त्रों से वैसे ही थके थे, क्योंकि शास्त्र कहते हैं, उठो! जागो! शास्त्रों से वैसे ही नाराज थे, कि नींद हराम करते हैं! गुरुओं के पीछे वे कभी गए नहीं थे, क्योंकि उतना चलने की भी उनमें इच्छा नहीं जगी थी, उतना आलस्य भी छोड़ने की हिम्मत न थी। उन्होंने अपनी नींद में ही मुझे सुना।

उन्होंने कहा, बड़ा धन्यवाद! तो हम बिलकुल ठीक थे कि हम तो पहले ही से न पकड़े थे। न किसी शास्त्र को पकड़ा, न किसी गुरु को पकड़ा, न किसी की झंझट में पड़े। हम तो पहले ही से विश्राम कर रहे थे। आपने हमें निश्चित कर दिया। उन्होंने करवट ली, वे सो गए।

ऐसा पंद्रह वर्ष निरंतर मुल्क में लाखों लोगों के साथ देखकर मुझे लगा कि कुछ करना पड़ेगा। मैं भला सच कह रहा हूं इससे कुछ हल नहीं है। मुझे सोचना पड़ेगा कि सुनने वाले पर क्या हो रहा है।

कृष्णमूर्ति ने अब तक नहीं सोचा कि सुनने वाले पर क्या हो रहा है। वे कहते ही चले गए हैं, जो ठीक है। इसलिए कृष्णमूर्ति के पास सिर्फ एक प्रतिशत सत्वगुणी को तो कुछ लाभ होता है, बाकी निन्यानबे प्रतिशत लोगों को भयंकर हानि होती है। और नब्बे प्रतिशत जो आलसी हैं, उनका तो कहना ही क्या। वे बिलकुल अपनी नींद में ही अपने को मुक्त मान लेते हैं कि बात खतम हो गई। हम तो कुछ पकड़े ही नहीं हैं; पहले ही से नहीं पकड़ा था। यह कृष्णमूर्ति ने तो बाद में बताया, हम तो पहले ही से इसी ज्ञान में जी रहे हैं। तो हम बिलकुल ठीक हैं, जैसे हैं। वे अपनी तंद्रा में गहन हो जाते हैं।

तो कृष्णमूर्ति ने नब्बे प्रतिशत लोगों के लिए नींद की सुविधा बना दी। नौ प्रतिशत लोगों के लिए दौड़ की सुविधा बना दी, शास्त्र छोड़ना है, गुरु छोड़ना है; वे उस दौड़ में लगे हैं। वह छूटता नहीं। क्योंकि कहीं छोड़ने से कुछ छूटा है? यह जानने से कि पकड़ व्यर्थ है, छूटना अपने आप हो जाता है। जब तुम छोड़ने की कोशिश करते हो, तो उसका मतलब है कि तुम पकड़े तो हो ही।

अब जैसे मैंने मुट्ठी बांध ली, और कोई मुझे समझाए कि मुट्ठी खोलो, तो मुट्ठी खोलने के लिए कुछ करना पड़ेगा! मुट्ठी खोलने के लिए कुछ करना ही नहीं पड़ता; सिर्फ बांधो मत, मुट्ठी अपने आप खुल जाती है। मुट्ठी खुलती है जब तुम नहीं बाधते। क्योंकि खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है। लेकिन ऐसे लोग हैं, जो मुट्ठी को बांधे हुए हैं और अब खोलने की भयंकर चेष्टा कर रहे हैं। उनकी खोलने की चेष्टा से मुट्ठी और जकड़ती है, क्योंकि खोलने से कोई मुट्ठी नहीं खुलती।

तुमने कभी किसी सम्मोहन करने वाले, हिप्नोटिस्ट को देखा है? वह लोगों को एक छोटा—सा खेल दिखाता रहता है। तुम खुद भी करोगे, तो चकित हो जाओगे। वह कह देता है, दोनों मुट्ठियां बांध लो। एक हाथ में दूसरे हाथ की अंगुलियों को गूंथ लो। और वह तुमसे कहता है कि आख बंद कर लो। और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम लाख उपाय करो, यह मुट्ठी खुल न सकेगी। और वह कहता है, यह मुट्ठी जकड़ती जा रही है।

जैसे ही वह कहता है, मुट्ठी जकड़ती जा रही है, तुम अपने मन में सोचते हो, यह हो ही कैसे सकता है। मुट्ठी मेरी कैसे जकड़ जाएगी? मैं खोल लूंगा। तुम भीतर खिंचने लगे। तुम खोलने की तैयारी करने लगे। और वह कहता जा रहा है, मुट्ठी जकड़ती जा रही है, तुम लाख उपाय करो, खुलेगी नहीं।

पांच मिनट बाद वह तुमसे कहेगा, अब करो उपाय, लगा दो पूरी ताकत। और तुम पूरी ताकत लगाओगे और तुम चकित हो जाओगे कि तुम्हारी मुट्ठी, तुम्हारे हाथ, जकड़ गए, खुलते नहीं हैं।

मनसविद इसको कहते हैं, ली आफ दि रिवर्स इफेक्ट। इसको वे कहते हैं, विपरीत परिणाम का नियम। अगर तुम बहुत खोलने में उत्सुक हो गए, तो तुम यह बात ही भूल गए कि बांधी तुमने थी,. खोलने का सवाल ही न था। जब तुम खोलने में उलझ गए, तो तुमने पहली बात तो स्वीकार ही कर ली कि बंधी है। बस, वहीं भूल हो गई। अब बंधी है, यह स्वीकार हो गया। और तुम्हारे शरीर ने स्वीकार कर लिया कि यह बंधी है, और तुम उसके विपरीत लड़ने लगे। तुम खोल न पाओगे। तुम खोल नहीं सकते।

तुम जिससे बचना चाहोगे, उसी में उलझ जाओगे। कभी तुमने साइकिल चलानी सीखी शुरू—शुरू में! साठ फीट चौड़ा सुपर—हाईवे हो, कोई न हो रास्ते पर। तुम अकेले साइकिल चलाने वाले हो, सिखाने वाले ने तुम्हें बिठा दिया। थोड़ी दूर साथ चला और फिर तुम्हें छोड़ दिया। दिखाई लाल पत्थर पड़ता है तुम्हें किनारे पर। साठ फीट चौड़ा रास्ता है। और वह लाल पत्थर वहा गणेश जी जैसा शांत बैठा है; कुछ बीच में आएगा नहीं। मील का पत्थर है। तुम घबडाए कि कहीं पत्थर से न टकरा जाएं! बस शुरुआत हो गई।

अब कहीं पत्थर से न टकरा जाएं, यह कोई सवाल था साठ फीट चौड़े रास्ते पर! निशाना लगाने वाला भी अगर निशाना लगाकर जाए, तो ही टकरा सकता है; उसके भी चूक जाने का डर है। मगर यह नया सिक्सडू नहीं चूकने वाला है। जैसे ही इसको खयाल आया कि कहीं टकरा न जाएं, अब इसको रास्ता नहीं दिखाई पड़ता। अब इसकी आख लाल पत्थर पर जमी है, और इसने बचना शुरू कर दिया, इसका हैंडल घूमने लगा, कि टकराए! मरे! अब इसने बचना शुरू किया कि यह गया।

यह उस चीज से बच रहा है, जिससे बचने का कोई सवाल न था। यह टकराएगा! वह लाल पत्थर हिप्नोटिक हो जाएगा। वह खींच लेगा। यह जाकर भड़ाम से उस पर गिरेगा। और यह कहेगा, हम पहले से ही जानते थे कि यह होगा।

मगर यह साठ फीट चौड़ा रास्ता खाली पड़ा था। तुम इसमें से निकल न सके! कुछ कारण है भीतर। तुम जिससे बचना चाहते हो, तुमने स्वीकार कर लिया कि बचना असंभव है। तुम जिससे बचना चाहते हो, तुमने मान लिया कि फंस गए। तुम्हारी मान्यता में ही सारा सम्मोहन है।

तो जिनको कृष्णमूर्ति कहते हैं, छोड दो, छोड़ दो। चालीस साल से वह कहते आ रहे हैं; वे कह रहे हैं, बचो पत्थर से, लाल पत्थर है। वे सिक्खड जो साइकिल पर सवार हैं, जितना तुम उनसे

कहो कि बची, लाल पत्थर है, लाल पत्थर से बचना, अब वे

मुश्किल में पड़े। अब वह लाल पत्थर ही दिखाई पड़ता है जागते, सोते, सपने में, बच नहीं सकते। वे उसी पत्थर पर गिरेंगे।

और जब गिरेंगे, तो कहेंगे कि कृष्णमूर्ति ठीक ही कह रहे थे। पहले ही से बेचारे समझा रहे थे कि इससे बचो, नहीं तो उलझ जाओगे। अब उलझ गए। अब उनकी हिम्मत टूट जाएगी साइकिल पर चढ़ने की। क्योंकि जब भी वे चढ़ेंगे, सब जगह लाल पत्थर हैं सरकार की कृपा से। जहां जाओ, लाल पत्थर हैं। सब जगह मंदिर हैं, मस्जिद हैं, शास्त्र हैं, गुरु हैं, सब तरफ लाल पत्थर हैं। कहीं भी गए, फंसे।

और वे जो नब्बे प्रतिशत हैं, वे कहते हैं कि बिलकुल ठीक, तुम्हें बाद में पता चला कृष्णमूर्ति, हमें पहले ही मालूम है। इसलिए हम झंझट में पड़े ही नहीं; हम पहले ही से सो रहे हैं! जो ज्ञानी हैं, वे पहले ही से विश्राम कर रहे हैं।

कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, जो मनुष्य शास्त्र—विधि से रहित…….।

शास्त्र क्या है? शास्त्र की परिभाषा क्या है? शास्त्र किसे कहते हैं? शास्त्र कहते हैं शास्ताओं के वचन को। शास्ता कहते हैं जिसने शासन दिया, अनुशासन दिया, डिसिप्लिन दी; जिसने चलने का मार्ग, व्यवस्था दी। जो चला, जो पहुंचा और जिसने पहुंचकर खबर दी कि थोड़े—से सूचक हैं, तुम्हारे रास्ते पर उपयोगी हो जाएंगे। बुद्ध को हम शास्ता कहते हैं, महावीर को शास्ता कहते हैं। उनके वचनों को हम शास्त्र कहते हैं। और उनके वचनों में जो कहा गया है, उसको हम शासन या अनुशासन कहते हैं।

जिन्होंने जाना, उनके वचनों का संग्रह है शास्त्र। अगर तुम समझदार हो, तो खूब लाभ ले सकते हो। नासमझ हो, तो तुम किसी भी चीज से लाभ नहीं ले सकते, नुकसान ही लोगे। शास्त्र का कसूर नहीं है। कसूर होगा तो तुम्हारा होगा। शास्त्र कोई सिर पर रखकर ढोने की चीज नहीं है; न चंदन—तिलक लगाकर पूजा करने की चीज है। शास्त्र उपयोग करने की चीज है; उसकी उपयोगिता है।

शास्त्र में संगृहीत हैं वचन, जानने वालों के। तुम जरा होशपूर्वक समझने की कोशिश करोगे, तो शास्त्र से तुम्हें बड़े रहस्य उपलब्ध हो जाएंगे। पकड़ना मत उनको। उनको तरल रहने देना, उनको ठोस नियम मत बना लेना। क्योंकि समय बदलता, परिस्थिति बदलती, चेतना भिन्न होती। तो तुम बिलकुल रूढ़ की तरह मत चलने लगना, लकीर के फकीर मत हो जाना, कि शास्त्र में ऐसा लिखा है, तो ऐसा ही करेंगे।

शास्त्र संकेत देते हैं, उपदेश नहीं। और वह रहस्य ऐसा है कि उसे ठीक—ठीक पूरा का पूरा बांधा नहीं जा सकता। सिर्फ इशारे किए जा सकते हैं। इशारे का मतलब होता है, समझने की कोशिश करना इशारे को, उसका उपयोग करने की कोशिश करना। लेकिन उसके लकीर के फकीर होकर अंधे अनुयायी मत हो जाना।

कृष्ण कहते हैं कि शास्त्र—विधि से जो रहित हैं.।

और बहुत—से लोग शास्त्र का उपयोग न करना चाहेंगे, क्योंकि वह भी उनके अहंकार के विरोध में है। उनके रहते कोई दूसरा ज्ञानी कैसे हो गया पहले? उनके रहते वेद लिख लिए गए? यह हो ही नहीं सकता। वेद तो वे ही लिख सकते हैं। और अभी वे ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए!

अज्ञानी शास्त्रों को मानने को राजी नहीं होता; इशारे भी लेने को राजी नहीं होता। वह यह ही नहीं मान सकता कि मेरे सिवाय कोई और भी मुझसे पहले ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। वही तो अहंकार की पकड़ है, प्रमाद है। तो वह मनोकल्पित साधनाएं करता है, शास्त्रों की नहीं सुनता।

उनमें संकेत हैं, सावधानियां हैं, हिफाजतें हैं; जो चले हैं, उन्होंने रास्ते के कंटकों के संबंध में बताया है। जंगली जानवरों के हमले का डर है, बीहड़ रास्ते हैं, भटक जाने की संभावना है। स्वात पगडंडियां हैं, जिन पर कोई यात्री भी न मिलेगा, जो तुम्हें बताए कि तुम भूल गए, या ठीक हो, या गलत हो। उस अनजान के संबंध में कुछ सूचनाएं शास्त्रों में संगृहीत हैं। वे बहुमूल्य हैं। उनको समझकर—शास्त्र को पकड़कर नहीं—उनको समझकर तुम्हें अपनी यात्रा पर जाना है।

बुद्ध ने कहा है, हम मार्ग बता सकते हैं, लेकिन तुम्हारे लिए चल तो नहीं सकते। चलना तुम्हें ही होगा; पहुंचना भी तुम्हें होगा। तुम हमारी बात को सुन लेना, पकड़ मत लेना। बात को समझ लेना, फिर अपने ही बोध और अपनी ही साक्षी—चेतना और अपने ही ध्यान से गति करना। अंतिम रूप में तो तुम्हीं निर्णायक रहोगे। लेकिन अगर तुमने हमें सुना है, तो कम से कम तुम उन भूलों से बच जाओगे, जो हमने कीं।

इस बात को ठीक से समझ लो। शास्त्र तुम्हें सत्य तक नहीं पहुंचा सकते, लेकिन बहुत—से असत्यों से बचा सकते हैं। उनका उपयोग नकारात्मक है। वे तुम्हें सत्य तक नहीं पहुंचा सकते, लेकिन सत्य के मार्ग पर बहुत—सी भ्रांतिया जो हो सकती हैं, उनसे तुम्हें बचा सकते हैं। तुम्हारा बहुत—सा भटकाव बच सकता है, अगर तुम उनका उपयोग करना जान लो।

लेकिन तुम्हारी हालत ऐसी है, जैसे मैं देखता हूं कई लोगों को, कार में रखे हुए हैं नक्‍शा, लेकिन बस वह रखा रहता है। उस नक्‍शो का न तो उन्हें उपयोग पता है कि कैसे? क्योंकि नक्‍शो को देखना आना चाहिए। नक्‍शो की भाषा आनी चाहिए।

नक्‍शा तो संकेत है, संकेत लिपि है, उसका कोड है। रास्ता तो मीलों का है, नक्‍शो पर इंचभर का है। नक्‍शो को समझना आना चाहिए, नक्‍शो को सीधा रखकर पढ़ना आना चाहिए, नक्‍शो की संकेत लिपि मालूम होनी चाहिए। और नक्‍शा तो केवल सूचक है, वह कोई फोटोग्राफ थोड़े ही है। उसमें कोई सारी चीजें थोड़े ही आ गई हैं। सारी आ भी नहीं सकतीं। और सारी आ जाएं, तो तुम कार में लेकर कैसे चलोगे! वह तो सिर्फ प्रतीक है। जरा से चिह्न हैं। अगर नक्‍शो का तुम ठीक उपयोग करो, तो एक बात पक्की है कि तुम कम भटकोगे। कई मार्ग, जिन पर तुम जा सकते थे, न जाओगे।

शास्त्र का उपयोग नकारात्मक है, गुरु का उपयोग विधायक है। क्योंकि शास्त्र मुरदा है वह विधायक नहीं हो सकता, वह नकारात्मक है। पर उसका मूल्य है। इतना ही क्या कम है कि सौ भूलें होती हों, निन्यानबे हुईं। उतना समय बचा; उतना जीवन बचा। और कौन जानता है, निन्यानबे भूलें करके तुम इतने थक जाते, हताश हो जाते, कि यात्रा ही छोड़ देते।

शास्त्र बचाता है भूल करने से, गुरु संभालता है सही करने की तरफ। शास्त्र और गुरु का उपयोग ऐसा है, जैसे कभी तुमने कुम्हार को घड़ा बनाते देखा हो। चाक पर चढ़ा देता है घड़े को, एक हाथ भीतर कर लेता है, और एक हाथ घड़े के बाहर कर लेता है। बाहर के हाथ से थपकी देता है, घड़े की दीवार बनाता है। भीतर के हाथ से सम्हालता है भीतर के शून्य को। दोनों हाथ घड़े को बनाने में समर्थ हो जाते हैं। बाहर के हाथ से चोट करता जाता है, भीतर के हाथ से सम्हालता रहता है।

शास्त्र बाहर से सम्हालते हैं, गुरु भीतर से। एक दिन तुम्हारा घड़ा पककर तैयार हो जाता है। जब तक तुम कच्चे हो, तब तक सम्हालने वाले की जरूरत है। जब तक तुम आग से नहीं गुजर गए, तब तक तुम अपने ही बल से चलने की कोशिश करोगे, तो पहुंचना करीब—करीब असंभव है।

मनोकल्पित तप करते हैं।

क्योंकि उनका अहंकार यह नहीं मान सकता कि वे किसी का सहारा लें।

दंभ और अहंकार से युक्त हैं, कामना, आसक्ति, बल और अभिमान से युक्त हैं।

अहंकार लक्षण है तामसी व्यक्ति का। अहंकार लक्षण है राजसी व्यक्ति का भी। अहंकार शेष रहता है सात्विक व्यक्ति में भी। लेकिन तीनों में अहंकार की प्रक्रियाएं अलग हो जाती हैं।

तामसी व्यक्ति में अहंकार होता है सोया हुआ। राजसी व्यक्ति में अहंकार होता है दौड़ता हुआ, गतिमान, गत्यात्मक, डायनैमिक। सात्विक व्यक्ति में अहंकार होता है जागा हुआ, लेकिन होता है। साधु में भी अहंकार होता है, जागा हुआ। अभी मिट नहीं गया है। बड़ा विनम्र हो गया है, सूक्ष्म हो गया है, पारदर्शी हो गया है, आर—पार देख सकते हो, लेकिन अभी परदा मौजूद है।

अहंकार मिटता तो है जब तीनों ही शून्य हो जाते हैं। एक एक को जब उपलब्ध होता है, तभी पूरा जाता है।

तामसी वृत्ति का व्यक्ति अपने ही ढंग सोचता रहता है, उलटे—सीधे काम करता रहता है। न शास्त्र की सुनता, न गुरु की, सिर्फ अहंकार की सुनता है।

तथा जो शरीररूप से स्थित भूत—समुदाय को और अंतःकरण में स्थित मुझ अंतर्यामी को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को आंसुरी स्वभाव वाला जान।

ऐसे लोग कई उलटे—सीधे काम करते हैं। कृष्ण बड़ी अनूठी बात कह रहे हैं। कहते हैं कि न केवल वे शरीर को सताते हैं—उपवास करेंगे, भूखे मरेंगे, शरीर को कसेंगे, जलाएंगे, काटेंगे। क्योंकि अहंकार सदा लड़ना चाहता है, या तो दूसरे से लड़े या खुद से लड़े। बिना लड़े अहंकार बच नहीं सकता।

तो जो लोग दूसरों से नहीं लड़ते। दुनिया में दो तरह के लड़ने वाले लोग हैं। एक, जो बाजार में लड़ रहे हैं दूसरों से, प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा। और एक वे हैं, जो जंगलों में चले गए हैं, आश्रमों में बैठ गए हैं, और लड़ रहे हैं अपने से। मगर लड़ाई जारी है।

कृष्ण कहते हैं कि न केवल ऐसे अहंकारी तामसी व्यक्ति अपने शरीर से लड़ने लगते हैं, अपने शरीर को काटने और मारने लगते हैं, बल्कि मुझ अंतर्यामी को, जो उनके भीतर छिपा हूं मुझको भी कृश करते हैं, मुझे भी सताते हैं।

एक बात ध्यान रखना, सताने से कुछ होगा नहीं, वह हिंसा है। शरीर की सुरक्षा करना और भीतर के अंतर्यामी की भी। सुरक्षा का अर्थ यह नहीं है कि तुम सुख और भोग में डूबे रहना। क्योंकि सुख और भोग में डूबा हुआ भी शरीर को नष्ट करता है और भीतर के अंतर्यामी को सताता है। भोगी भी सताते हैं, एक ढंग से, त्यागी भी सताते हैं, दूसरे ढंग से।

तुम मध्य में रहना, निरति। तुम संतुलन साधना। न तो बहुत भोजन देना, क्योंकि बहुत भोजन से भी शरीर को कष्ट होता है। न भूखा रखना, क्योंकि भूखा रखने से भी कष्ट होता है। न तो अति श्रम करना, क्योंकि अति श्रम से कष्ट होता है। न बिस्तर पर ही पड़े रहना, क्योंकि अति विश्राम भी शरीर को गलाता और नष्ट करता है। तुम सदा मध्य में होना, अति मत करना। तो तुम अपने शरीर और अपने भीतर छिपे अंतर्यामी, दोनों को एक शांत समरसता का मार्ग बता सकोगे।

मुझ अंतर्यामी को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को आंसुरी स्वभाव वाला जान।

वे असुर हैं। तमस से घिरे हैं।

अहंकार तमस का गहनतम रूप है, वह अमावस है अंधेरी रातों में। रजस से भरा हुआ व्यक्ति सप्तमी—अष्टमी का चांद है, आधा अंधेरा, आधा ज्योति। सत्व से भरा व्यक्ति पूर्णिमा की रात है, पूरे प्रकाश से भरा। लेकिन रात है। तीनों के जो बाहर आ गया, उसका सूर्योदय होता है; उसके जीवन में सुबह होती है।

अमावस को बदलो धीरे—धीरे आधी रोशनी, आधी अंधेरी रात में। आधी अंधेरी, आधी रोशनी से भरी रात को धीरे— धीरे बदलो पूर्णिमा की रात में। तब तुम्हें वह मार्ग मिल जाएगा, जो सुबह तक ले आता है।

सुबह बहुत दूर नहीं है, थोड़ी—सी समझ और भीतर का थोड़ा—सा नया समायोजन, बस इतना ही चाहिए।

 

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–191

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संदेह और श्रद्धा—(प्रवचन—चौथा)

अध्‍याय—17

सूत्र—

आहारस्थ्यपि सर्वस्य प्रिविधो भवति प्रिय:।

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदीममं श्रृणु।। 7।।

और है अर्जुन, जैसे श्रृद्धा तीन प्रकार की होती है, वैसे ही भोजन भी सबको अपनी—अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी सात्विक, राजसिक और तामसिक, ऐसे तीन— तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस न्यारे— न्यारे भेद को तू मेरे से मन।

 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न :

आप कहते हैं कि पदार्थ की खोज में जो स्थान संदेह का है, धर्म की खोज में वही स्थान श्रद्धा का है। और पदार्थ की खोज में मैंने इतनी लंबी यात्रा की है कि संदेह मेरा दूसरा स्वभाव बन गया है; वह मेरी चमड़ी में ही नहीं, मांस—मज्जा में समाया है। इस हालत में अपने मूल स्वभाव यानी श्रद्धा को उपलब्ध होने के लिए मैं क्या करूं?

संदेह पर संदेह करें, तभी संदेह पूरा होता है। अभी संदेह की यात्रा पूरी नहीं हुई। एक संदेह करने को बाकी रह गया है। वह है, संदेह पर संदेह। और यह आश्चर्य की बात है कि जो लोग हर चीज पर संदेह करते हैं, वे संदेह पर संदेह क्यों नहीं करते? दीया तले अंधेरा रह जाता है। जिस दिन तुम संदेह पर भी संदेह कर सकोगे, उसी दिन श्रद्धा का सूत्रपात हो जाएगा। संदेह को दबाने से श्रद्धा नहीं आती, संदेह को पूरा कर लेने से ही आती है।

संदेह के विपरीत नहीं है श्रद्धा, संदेह से आगे है, संदेह से ऊपर है। संदेह की यात्रा को भरपूर पूरा कर लो, उसे अधूरा मत छोड़ना। उससे अगर बचकर चले, अधूरा छोड़ा, कुछ बचा रहा, तो वह लौट—लौटकर श्रद्धा को खंड करेगा, भग्न करेगा।

जो भी अनुभव अधूरा रह जाएगा, वह अनेक—अनेक रूपों में वापस लौटता है। अनुभव को पूरा किए बिना कोई उपाय नहीं है। डरो मत।

मैं उन आस्तिकों जैसा नहीं हूं जो तुमसे कहते हैं, संदेह मत करो। मैं तुमसे कहता हूं, पूरा संदेह कर लो। क्योंकि मेरी श्रद्धा संदेह से टूटती नहीं, नष्ट नहीं होती। श्रद्धा विराट है। तुम्हारे संदेह से श्रद्धा को कोई भी भय नहीं है। तुम कर ही डालों उसे पूरा। और तुम पाओगे, जैसे—जैसे संदेह पूरा होता है, वैसे—वैसे एक जीवंत प्रकाश श्रद्धा का तुम्हारे भीतर आना शुरू हो जाता है।

संदेह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं है। संदेह है इसलिए, क्योंकि तुम भयभीत हो। संदेह भय का लक्षण है। कैसे भरोसा करें? कहीं दूसरा धोखा न दे दे! कहीं दूसरा कोई चालबाजी न करता हो! कहीं कोई षड्यंत्र न चल रहा हो तुम्हारे चारों तरफ! कोई तुम्हें धोखा देने, डुबाने की, मिटाने की कोशिश में न लगा हो! संदेह का अर्थ है, भयभीत आदमी की सुरक्षा। जितना भयभीत आदमी होता है, उतना संदेह करता है, जितना कायर आदमी होता है, उतना ज्यादा संदेह करता है। इसलिए संदेह कोई बहुत बलशाली बात नहीं है, वह तो कमजोर का लक्षण है।

पर तुम संदेह कर लो और संदेह करके तुम देख लो ठीक तरह कि संदेह से कोई सुरक्षा नहीं होती। संदेह से भला तुम दूसरे से बच जाते हो, लेकिन संदेह ही तुम्हें खा जाता है। तुम दूसरे से संदेह कर लेते हो, तो हो सकता है, दूसरा तुम्हें नुकसान न पहुंचा सके।

लेकिन दूसरा नुकसान क्या पहुंचा सकता था? हो सकता था, तुम्हारी जेब काट लेता, पांच पैसे लेने थे, वहां दस पैसे ले लेता। हो सकता था, तुम सड़क के भिखारी हो जाते, अगर तुम लोगों पर भरोसा करते। और अभी तुम महल में बैठे हो। लेकिन तुम यह भूले जा रहे हो कि संदेह तुमसे कुछ छीने ले रहा है, जो बहुत मूल्यवान है। रक्षक भक्षक हुआ जा रहा है। वह तुमसे तुम्हारी आत्मा छीने ले रहा है, वह तुमसे तुम्हारी परमात्मा की संभावना छीने ले रहा है। बचा रहे हो दो कौड़ी, खो रहे हो सब कुछ।

जब तुम पूरा संदेह करोगे, तब तुम्हें यह भी दिखाई पड़ेगा। तब तुम संदेह से भी सावधान हो जाओगे, कि संदेह भी कुछ छीने ले रहा है, मिटाए डाल रहा है।

जीवन में जो भी मूल्यवान है, संदेह सभी को मिटा देता है। तुम प्रेम नहीं कर सकते संदेह के साथ। तुम मित्रता नहीं कर सकते संदेह के साथ। संदेह करने वाले का कहीं कोई मित्र होता है? कैसे हो सकता है? कहीं संदेह करने वाला किसी को प्रेम कर सकता है? कैसे कर सकता है? संदेह की दीवाल सदा बीच में खड़ी रहेगी। संदेह करने वाला डरा हुआ, कंपता हुआ जीएगा। संदेह नरक है। उसमें तुम भयभीत ही रहोगे, उसमें कभी तुम अभयपूर्वक खड़े न हो सकोगे। न तुम्हारे जीवन में मित्रता की गंध आएगी, न प्रेम का प्रकाश आएगा। तुम्हारा जीवन कीड़े—मकोड़े की तरह होगा। संदेह से छिपे हो अपनी खोल में, डरे हो, कंप रहे हो, बाहर निकल नहीं सकते, फैल नहीं सकते।

कछुए को देखा है! भयभीत हो जाता है, तो सब हाथ—पैर सिकोड़कर भीतर छिप जाता है। ऐसे ही तुम सिकुड़ गए हो अपनी देह में, जैसे कछुआ अपनी देह में छिप जाता है। और देह में जो छिप गया है, वह कैसे परमात्मा को जानेगा? वह कैसे स्वयं को जानेगा? भयभीत के लिए कोई ज्ञान नहीं है। भयभीत लाख उपाय करे, तो भी ज्ञान को न जान सकेगा। ज्ञानियों ने अभय को ज्ञान का पहला कदम माना है। जो व्यक्ति अभय को उपलब्ध हो जाता, उसके ही जीवन में सुबह होती है, अन्यथा रात घिरी रहेगी। रात संदेह की है, सुबह श्रद्धा की।

रात से पार हो जाओ, रात के अंधेरे को छिपाकर मत बैठे रहो। बहुत—से लोग यही कर रहे हैं। संदेह तो मौजूद है और ऊपर से श्रद्धा कर लिए हैं, इससे बड़ी दुविधा में पड़ गए हैं। ऊपर—ऊपर श्रद्धा है, भीतर— भीतर संदेह है। हाथ जोड़कर मंदिर में खड़े हैं, हाथ झूठे जुड़े हैं, क्योंकि हृदय में संदेह सरक रहा है। प्रार्थना कर रहे हैं, आकाश की तरफ चेहरा उठाया हुआ है। बस, चेहरा ही उठा है, आत्मा नहीं उठी है। क्योंकि भीतर तो संदेह है। पक्का है नहीं कि परमात्मा है।

लोग कहते हैं, पिता कहते हैं, मां कहती है, पूर्वज कहते हैं, शास्त्र कहते हैं, गुरु कहते हैं, जब इतने कहते हैं, तो होगा। लेकिन तुम्हारी कोई प्रतीति नहीं है, तुम्हारा कोई भरोसा नहीं है। और जब इतने लोग कहते हैं, तो पूजा कर लेनी ठीक ही है। कौन झंझट में पड़े; कहीं हो ही। कहीं बाद में पता चले कि है।

तो तुम बड़ी कुशलता कर रहे हो। तुम परमात्मा के साथ भी गणित से चल रहे हो। तुम्हारा प्रेम भी हिसाब—किताब है। तुम्हारी प्रार्थना भी खाते—बही में लिखी है। तुम कर क्या रहे हो?

तुम यह कर रहे हो कि कहीं मरने के बाद पता चला कि परमात्मा है, तो यह तो कह सकूंगा कि मैंने श्रद्धा की थी, मंदिर गया था, मस्जिद—गुरुद्वारा, तेरी पूजा—प्रार्थना की थी।

लेकिन परमात्मा न तुम्हारी पूजा—प्रार्थना से राजी होता है, न तुम्हारे मंदिर—मस्जिद जाने से। जिस दिन श्रद्धा का मंदिर तुम्हारे भीतर उठता है, जिस दिन श्रद्धा का कलश तुम्हारे भीतर उठता है, बस उसी दिन परमात्मा राजी होता है। उसके पहले तो तुम कुछ और कर रहे थे। तुमने न तो प्रेम किया, न तुमने परमात्मा को चाहा, न पुकारा।

झूठी है तुम्हारी श्रद्धा, अगर संदेह के ऊपर तुमने उसको रंग—रोगन की तरह लगा लिया है। किससे छिपा रहे हो? किससे बचा रहे हो? अगर संदेह है, तो मैं कहता हूं उसे तुम मवाद की तरह समझो, उसे निकल जाने दो। उसके निकल जाने से तुम स्वस्थ हो जाओगे।

झूठे आस्तिक मत बनना। सच्चा नास्तिक झूठे आस्तिक से बेहतर है। कम से कम सच्चा तो है, कम से कम यह तो कहता है कि मुझे भरोसा नहीं है, तो मैं कैसे प्रार्थना करूं? इतनी प्रामाणिकता तो है। कहता है, मैंने किसी परमात्मा को जाना नहीं, तो मैं कैसे हाथ जोडू? किसके लिए हाथ जोडूं? मुझे कोरे आकाश के अतिरिक्त कोई दिखाई नहीं पड़ता। मंदिर जाता हूं तो पत्थर की मूर्तियां दिखाई पड़ती हैं।

झुकने की झूठी बात नास्तिक नहीं कर पाता। और मैं तुमसे कहता हूं नास्तिक ही कभी ठीक अर्थों में आस्तिक हो पाते हैं। झूठे आस्तिक तो झूठे ही बने रहते हैं। आस्तिक तो होना ही मुश्किल है उनके लिए, अभी वे नास्तिक भी नहीं हुए!

नास्तिकता यानी संदेह, आस्तिकता यानी श्रद्धा। नास्तिक आस्तिक के विपरीत नहीं है, जैसे संदेह श्रद्धा के विपरीत नहीं है। आस्तिक नास्तिक के आगे है, जैसे श्रद्धा संदेह के आगे है। जहां संदेह समाप्त होता है, वहा श्रद्धा शुरू होती है। जहां नास्तिकता समाप्त होती है, वहा आस्तिकता शुरू होती है। लेकिन नास्तिकता से गुजरना जरूरी है।

दुनिया में इतना अधर्म है, वह इसीलिए है कि यहां झूठे धार्मिक हैं। यहां सच्चे नास्तिक भी नहीं हैं। यहां प्रार्थना भी पाखंड है। यहां प्रेम भी ऊपर की बकवास है। यहां पूजा भी ढोंग है। यहां सारा व्यवहार पाखंड है, हिपोक्रेसी है, धोखा है।

और तुम जानते हो भलीभांति। क्योंकि तुम तो जानोगे ही कि तुमने जब हाथ जोड़े थे, तो भीतर तुम्हारी आत्मा नहीं जुड़ी थी। और तुमने जब सिर झुकाया था, तो तुम नहीं झुके थे। और जब तुमने कहा था कि हा, भरोसा करता हूं तब तुम्हारी बुद्धि तो कह रही थी, तुम्हारा हृदय अनम्य था, नहीं झुका था, जरा भी पिघला नहीं था। ऊपर—ऊपर तुमने श्रद्धा ओढी थी, वस्त्रों की भांति थी; आत्मा तो तुम्हारी संदेह से भरी थी।

मैं तुम्हें आस्तिक बनने को नहीं कहता। क्योंकि आस्तिक तो तुम बन कैसे सकोगे? वह तो ऊपर की सीढ़ी है। कम से कम नास्तिक तो बन जाओ। पहली सीढ़ी तो पार कर लो। ऊपर की सीढ़ी तो अपने आप आ जाती है। जिस दिन नीचे की सीढ़ी पूरी होती है, अचानक द्वार खुल जाता है, ऊपर की सीढ़ी आ गयी।

संदेह करो, परिपूर्ण आत्मा से संदेह करो। संदेह मार्ग है। लेकिन अधूरे में मत रुक जाना, संदेह पूरा कर लेना। जिस दिन तुम संदेह पूरा करोगे, एक नई विधा खुलती है, वह हैं, संदेह पर संदेह। और संदेह पर संदेह ही संदेह को काट देता है, जैसे कांटे को काटा निकाल लेता है। संदेह ही संदेह को काट देता है। और जिस दिन दोनों कांटे बाहर हो जाते हैं, अचानक तुम पाते हो कि श्रद्धा की बाढ़ आ गई।

और जब श्रद्धा की बाढ़ आती है, तो उसका यह अर्थ नहीं होता कि तुम परमात्मा में भरोसा करते हो; उसका इतना ही अर्थ होता है कि तुम भरोसा करते हो। उसका यह अर्थ नहीं होता कि तुम मंदिर की मूर्ति में भरोसा करते हो, उसका इतना ही अर्थ होता है कि भरोसा पैदा हुआ। अब मस्जिद में भी भरोसा है, मंदिर में भी भरोसा है, कुरान में भी, वेद में भी; चोर में भी, साधु में भी।

बड़ी प्रकांड क्रांति है श्रद्धा की। उससे बड़ी कोई क्रांति नहीं है। तुम श्रद्धा करते हो। अब तुम जानते हो कि संदेह कर—करके देख लिया, कुछ पाया नहीं, कुछ बचा नहीं, सिर्फ गंवाया, कौड़िया इकट्ठी कीं, हीरे खो दिए। अब तुम पूरी तरह बदल जाते हो। अब तुम कहते हो, कौड़िया जिनको ले जानी हों, वे ले जाएं। हम कौड़ियों को पकड़ने में अब हीरों को न खोएंगे। अब तुम कहते हो, हम श्रद्धा का हीरा बचाएंगे।

जिसको मीरा या कबीर कहते हैं, ऐ री मैंने राम—रतन धन पायो। वह श्रद्धा का नाम है, राम—रतन धन। अब सब भ्रम टूट गया, सब संदेह टूटा; राम—रतन धन पाया। मिला है, कोहिनूर हीरा मिल गया, अब कौन कंकड़—पत्थर बीनता है!

और जब तुम्हारी आस्तिकता नास्तिकता का अतिक्रमण होगी, ट्रांसेंडेंस होगी, और जब तुम्हारी श्रद्धा संदेह को पूरा जीने से आएगी, तब तुम्हारी श्रद्धा को कोई भी न तोड़ सकेगा। तोड्ने की संभावनाएं तो तुम पहले ही पार कर चुके। अब तुम्हारी नास्तिकता दोबारा नहीं आ सकती। तुम उसे जी लिए, तुमने उसे चुका दिया, तुम उसे मरघट तक पहुंचा आए, तुम उसे चिता पर जला आए। अब वह बची ही नहीं, राख हो गई। अब तुम्हारी आस्तिकता को कोई डांवाडोल न कर सकेगा। हजार नास्तिक इकट्ठे हों और हजार—हजार तर्क दें, तो भी आस्तिक का रोआं नहीं कंपता।

लेकिन अभी तो तुम डरे हुए हो। और तुम जिन धर्मों में पले हो, पाले गए हो, वे धर्म तक डरे हुए हैं। वे तुम्हें समझाते हैं कि नास्तिक को सुनना मत, कान बंद कर लेना।

तुमने एक आदमी की कहानी सुनी होगी, घंटाकर्ण की, कि उसने अपने कानों में घंटे लटका लिए थे। क्योंकि वह राम का भक्त था और गांव के लड़के शैतानी करते थे, आवारा लड़के। और धीरे— धीरे पूरा गांव उसका मजा लेने लगा। तो लोग उसके कान के पास आकर कृष्ण का नाम ले देते।

पुरानी कहानी है, नहीं तो मोहम्मद का लेते। वह और घबड़ा जाता। कृष्ण से भी घबड़ाता था। क्योंकि वह राम का भक्त था और कृष्ण का नाम पड़ जाए, गलत नाम पड़ गया! श्रद्धा बड़ी कमजोर रही होगी। इतनी छोटी श्रद्धा कि राम में चुक जाए और कृष्ण तक भी न पहुंचे।

ऐसी छोटी श्रद्धा से कहीं पार होओगे? ऐसी छोटी डोंगी से भवसागर पार करना चाहते हो? महायान चाहिए। श्रद्धा ऐसी चाहिए कि सब मंदिर—मस्जिद समा जाएं। राम, कृष्ण, बुद्ध, सब उसमें पड़ जाएं और छोटे हो जाएं और श्रद्धा का आकाश बड़ा हो, सबके लिए खुली जगह हो। हजार—हजार राम उठे और करोड़—करोड़ कृष्ण, तो भी श्रद्धा के आकाश में कमी न पड़े।

श्रद्धा कोई आयन थोड़े ही है तुम्हारा कि उसके आस—पास चारदीवारी है। श्रद्धा खुला आकाश है, नीला आकाश है, जिसकी कोई सीमा नहीं।

घंटाकर्ण घबड़ा गया कि यह रोज—रोज गाव मजाक करता है; इनकी तो मजाक है, मेरी जान मुसीबत में है। ऐसा दुश्मन का नाम सुन—सुनकर भ्रष्ट हो जाऊंगा। और कृष्ण का नाम सुनते ही से श्रद्धा डगमगाती है कि पता नहीं, कृष्ण ठीक हों।

अब कृष्ण और राम बड़े विपरीत प्रतीक हैं। सत्य में दोनों समाए हैं, क्योंकि सत्य में सभी विरोधाभास समा जाते हैं। लेकिन अगर तुम राम और कृष्ण को सीधा—सीधा सोचो, तो बड़े विपरीत हैं। कहां राम, मर्यादा! और कहां कृष्ण, इनसे ज्यादा अमर्यादा तुम कहीं खोज पाओगे! कहां राम, एक पत्नी व्रती। और कहां कृष्ण, जिनकी गोपियों की कोई संख्या नहीं; जो दूसरों की स्त्रियां भी चुरा लाए। कहां राम, जिनके वचन का भरोसा किया जा सकता है। कहां कृष्ण, जिनके वचन का कोई भरोसा नहीं किया जा सकता। कहें कुछ, करें कुछ! कहा था कि युद्ध में भाग न लेंगे। फिर युद्ध के मैदान पर उतर पड़े। धोखा दे दिया; वचनभंग हो गया। कहं। राम…….!

तुम सोच सकते हो राम को कि स्त्रियों के कपड़े चुराकर झाड़ पर बैठे हैं! असंभव है। यह बात ही सोच में नहीं आती। लेकिन कृष्ण को कोई अड़चन नहीं है। कृष्ण को कोई अड़चन ही नहीं है, कोई मर्यादा नहीं है, कोई नियम नहीं है। कृष्ण पूरे अराजक, राम अनुशासित। वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। और कृष्ण को अगर नाम देना हो, तो वह अमर्यादा पुरुषोत्तम हैं। कोई नियम नहीं मानते, कोई व्रत नहीं मानते, कोई संयम नहीं मानते। वे बाढ़ की तरह हैं। राम तो नहर हैं, सीमा में बंधे, लकीर में चलते हैं। कृष्ण तो गंगा में आई बाढ़ हैं, सब कूल—किनारा तोड़ देते हैं।

तो स्वाभाविक था कि घंटाकर्ण घबड़ाता हो कृष्ण के नाम से। यह घबड़ाने वाला है। सभी धार्मिकों को घबड़ाना चाहिए इस नाम से। यह नाम खतरनाक है। यह तो अराजक नाम है। इससे बड़ा कोई अनार्किस्ट कभी हुआ? इससे बड़ा कोई अराजकतावादी नहीं हुआ। इससे ज्यादा समाज, तंत्र, व्यवस्था, राज्य का कोई विरोधी नहीं हुआ।

तो इन दोनों का कोई ताल—मेल तो नहीं बैठता। लेकिन खुले आकाश में दोनों साथ—साथ हैं। और जिन्होंने खुला आकाश देखा है, वे कहते हैं, ये दोनों ही एक के ही अवतार हैं। राम—आशिक, सीमा—बद्ध। कृष्ण—पूर्ण, सीमा तोड़कर।

लेकिन जो राम में सीमा में प्रकट हुआ है, वही क्या की असीमा में प्रकट हुआ है। जो गंगा का जल नहर में बह रहा है, वही बाढ़ में आया है। और स्वभावत:, बाढ़ का जल खतरनाक है; सभी के काम का नहीं है। खेतों को उजाड़ देगा, घरों को मिटा देगा।

इसलिए कृष्ण के साथ तो खतरे का संबंध है। काम तो नहर से ही लिया जाएगा; वह सींचेगी, खेतों को भरपूर करेगी, लोगों की प्यास बुझाकी। राम की उपयोगिता है। कृष्ण के साथ तो जिनको खतरे का अभियान करना हो, वे जाएं। लेकिन अधिक लोग तो कृष्ण के साथ न जा सकेंगे। अधिक लोगों को तो राम के साथ ही जाना पड़ेगा।

घंटाकर्ण घबड़ा गया होगा कि यह तो अराजकतत्व लोग चिल्लाने लगे। और इनकी तो मजाक है, मेरी जान मुसीबत में है। इनका खेल है और मैं मर मिला। ये मेरी श्रद्धा को डगमगाते हैं। तो उसने दोनों कान में घंटे बांध लिए। घंटे बजते रहते, लोग लाख चिल्लाएं कृष्ण का नाम, आवाज भीतर न पहुंचती।

जैसा मैं देखता हूं ऐसा किसी आदमी ने कभी किया हो या न किया हो, लेकिन सौ में से निन्यानबे आस्तिकों के कानों में घंटे लटके देखता हूं। वे घंटाकर्ण हैं; वे डरे हुए लोग हैं। भीतर भी भय है, बाहर भी भय है। संदेह से पीड़ित हैं। और नास्तिक की बात से डरते हैं। नास्तिक उन्हें कंपा देता है, घबड़ा देता है, क्योंकि उनके भीतर ही संदेह है। नास्तिक उन्हें जगा देता है, उकसा देता है। जैसे किसी ने राख को हिला दिया हो और अंगारा बाहर आ गया। ऐसा नास्तिक उन्हें उकसा देता है। वे डरते हैं; वे दूसरे का शास्त्र नहीं पढ़ते, वे दूसरे की किताब नहीं सुनते, वे दूसरे का वचन नहीं सुनते। वे अपने गुरु की ही सुनते हैं। और कानों में घंटे लटकाए हुए हैं।

जैन हिंदू की सुनने नहीं जाता, हिंदू जैन की सुनने नहीं जाता; मुसलमान गीता नहीं पढ़ता, हिंदू कुरान नहीं पढ़ता। बड़ा डर है। कैसी आस्तिकता है? नपुंसक आस्तिकता है।

आस्तिक तो विराट है, वह सब को सुन सकता है; कोई उसे हिला नहीं सकता। लेकिन यह तो तभी होगा, जब तुम नास्तिकता को पार कर चुके होओ। अगर नास्तिकता भीतर रह गई, तो डर रहेगा।

ऐसा ही समझो कि एक छोटा बच्चा है; खेल—खिलौनों में इसको रस है। इसका शरीर तो बड़ा हो गया, लेकिन इसकी बुद्धि बचकानी रह गई। अब यह सम्हालकर चलता है कि कहीं खेल—खिलौने दिखाई न पड़ जाएं! क्योंकि दिखाई पड़ जाएं, तो यह लोभ संवरण न कर सकेगा। और तब बड़ी हंसी होगी कि लोग कहेंगे, जवान आदमी और तू गुड़िया लिए फिर रहा है!

तो इसने गुड़ियों को छिपा दिया है घर में। दूसरे भी गुड़िया लिए इसके आस—पास घूमें, छोटे बच्चे भी, तो यह घबड़ाता है। क्योंकि इसका रस तो अभी भी गुड़िया में है। अभी भी यह चाहता है कि गुड़िया का विवाह रचा ले। अब भी यह चाहता है कि फिर खेल खेल ले। भीतर यह बचकाना रह गया है, भीतर का बच्चा समाप्त नहीं हुआ। यह प्रौढ़ हुआ ही नहीं है, सिर्फ शरीर से दिखाई पड़ रहा है, ऊपर से दिखाई पड़ रहा है। भीतर! भीतर बाल—बुद्धि है।

तुम भीतर तो नास्तिक हो, संदेह से भरे हो और ऊपर से तुम आस्तिक हो। तुम्हारी प्रौढ़ता सही नहीं है। तुम डरे हुए हो, कहीं कोई यह न कह दे कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि तुम्हें भी शक तो है ही। कहीं कोई यह न कह दे कि पत्थर की मूर्ति को क्या पूज रहे हो? यहां क्या है? डरे तो तुम हो ही।

दयानंद के जीवन में घटना है। उस घटना को इस भांति तो कभी समझा नहीं गया है। घटना है कि वे पूजा को बैठे हैं। उन्होंने जो मिष्ठान्न चढ़ाए हैं मूर्ति के सामने, एक चूहा ले भागा। एक चूहा! हो सकता है गणेशजी की मूर्ति रही हो। और चूहा तो उनका वाहन है। या शंकरजी की मूर्ति रही हो, वे गणेशजी के पिता हैं; थोड़ा दूर का संबंध है चूहे से।

चूहा मिष्ठान्न ले भागा। दयानंद के मन में संदेह पैदा हो गया कि जो भगवान अपनी रक्षा चूहे से नहीं कर सकता, वह मेरी रक्षा क्या करेगा? उन्होंने मूर्ति—बूर्ति फेंक दी। उसी दिन से वे अमर्तिवादी हो गए। उस चूहे के द्वारा मिठाई का ले जाना ही आर्यसमाज का जन्म है, उसी दिन आर्यसमाज पैदा हुआ।

लेकिन थोड़ा सोचने जैसा है कि मूर्ति में दयानंद का भरोसा था क्या? अगर भरोसा था, तो एक चूहा भरोसे को तोड़ सकता है? तो चूहा दयानंद से ज्यादा बड़ा महर्षि मालूम होता है।

एक चूहा दयानंद की श्रद्धा को तोड़ दिया। श्रद्धा थी? अगर श्रद्धा होती, तो कौन तोड़ सकता है? श्रद्धा थी ही नहीं, पहले स्थान पर। ऐसे ही झूठी पूजा चल रही थी। लेकिन दयानंद को यह दिखाई नहीं पड़ा कि मेरी श्रद्धा झूठी थी। दयानंद को दिखाई पड़ा, मूर्ति व्यर्थ है। इसे थोड़ा सोचने जैसा है।

अगर दयानंद निश्चित ही आत्म—खोजी होते, तो उनको यह दिखाई पड़ता कि एक चूहे ने श्रद्धा तोड़ दी। मेरे पास श्रद्धा ही नहीं है। और हो सकता है, वह शरारत गणेशजी की ही रही हो कि चूहा ले जा मिठाई, इसकी झूठी श्रद्धा तोड़।

लेकिन उस दिन से वे मूर्ति—विरोधी हो गए। वे मूर्ति के प्रेमी कब थे? उनका मूर्ति—विरोध तो समझ में आता है। लेकिन वे प्रेमी कब थे, यह मेरी समझ में नहीं आता। प्रेमी इतनी जल्दी छोड़ देता है प्रेम? प्रेम इतना कमजोर और कच्चा धागा है? प्रेम कोई कच्चे कांच की चूड़ी है? कि ऐसे चूहा गिरा दे और तोड़ दे!

अगर दयानंद की जगह सच में कोई आस्तिक हुआ होता, तो उसने राणेशजी में तो भगवान देखा ही था, चूहे में भी भगवान देखा होता। श्रद्धा का आकाश बड़ा है। और उसने कहा होता, अरे, चूहा भगवान! तो तुम मिठाई ले चले। तो जिसको चढ़ाई थी, पहुंच गई। हम तो सोचते थे, मूर्ति मुरदा है। लेकिन मूर्ति मुरदा नहीं है। मूर्ति ने चूहे की तरफ से हाथ फैलाया और मिठाई ले ली।

अगर श्रद्धा होती, तो ऐसा दिखता। और तब यह मुल्क आर्यसमाज के दुर्भाग्य से बच जाता। लेकिन वह नहीं हो सका। चूहा आर्यसमाज को पैदा करवा गया। संदेह था भीतर।

दयानंद तर्कवादी हैं, आस्तिक नहीं हैं। और कभी आस्तिक नहीं हो पाए। तर्क ही रहा; श्रद्धा कभी न हो पाई। तर्क का ही सब जाल रहा। मरते दम तक भी श्रद्धा पैदा नहीं हो सकी। वे पहले कदम पर ही चूक गए।

उस दिन उन्हें तय करना था कि मेरी नास्तिकता अभी मरी नहीं है, मेरा संदेह अभी मरा नहीं, अभी मैं पूजा के योग्य नहीं। उन्होंने समझा कि यह शंकरजी या गणेशजी पूजा के योग्य नहीं। जानना था कि मैं अभी पूजा का अधिकारी नहीं। अभी इस मंदिर में प्रवेश के मैं योग्य नहीं हुआ; अभी मुझे श्रद्धा खोजनी पड़ेगी।

अगर ठीक आख होती, तो चूहे ने बता दिया होता कि तुम्हारी श्रद्धा ऊपर—ऊपर है, पतले कागज की तरह चढ़ी है; भीतर संदेह विराजमान है तुम्हारे मंदिर में। चूहा कुछ पैदा कर सकता है जो तुम्हारे भीतर नहीं?

सब संदेह चूहों की तरह तुम्हें कुतर देते हैं, क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा कपड़ों जैसी है, वह तुम्हारी आत्मा नहीं है। इसलिए फिर तुम डरते हो कि कहीं कोई ऐसी बात न कह दे, जिससे तुम्हारी श्रद्धा डगमगा जाए।

मैं ग्‍वालियर की महारानी के घर मेहमान था। उन्होंने पहले मुझे कभी सुना नहीं था। पता नहीं किस भूल—चूक से मुझे बुला लिया। सुनकर वे घबड़ा गईं, बहुत बेचैन हो गईं। साधारण श्रद्धालु जन, जिनकी श्रद्धा में कोई बल नहीं है, कोई बुनियाद नहीं है। शिष्टाचारवश, उनकी आने की भी हिम्मत मेरे पास न रही। उनके ही महल में मैं मेहमान हूं लेकिन शिष्टाचारवश..। शिष्टाचार वाली महिला हैं।

वे दूसरे दिन मुझे मिलने आईं और कहा कि मेरी हिम्मत नहीं रही आने की आपके पास। जो सुना, उससे मैं तो घबड़ा गई। आप तो हमारी श्रद्धा नष्ट कर देंगे!

मैंने कहा, जो श्रद्धा तुम्हारी मेरे बोलने से नष्ट हो जाए उसका तुम मूल्य कितना आंकती हो? शब्दों से जो श्रद्धा मिट जाए, वह पानी के बबूलों जैसी कमजोर होगी। शब्द हवा में बने बबूले हैं। मैंने कुछ कहा, तुम्हारी श्रद्धा टूट गई! श्रद्धा है या मजाक कर रखा है? उन्होंने कहा, जो भी हो, लेकिन अब आप और कुछ मत कहें। मेरा लड़का भी आपसे मिलने आना चाहता था। लेकिन मैंने उसे रोक दिया। क्योंकि वह तो अभी जवान है। हो सकता है, आप उसको बिलकुल डगमगा दें।

अब यह मां न तो यह देख पा रही है कि इसकी श्रद्धा दो कौड़ी की है। और न यह देख पा रही है कि जिस दो कौड़ी की श्रद्धा पर यह अपने बेटे को बचा रही है, उसका कितना मूल्य हो सकता है! उससे तुम नाव बनाओगे? उससे तुम भवसागर पार करोगे?

सोना आग से गुजरता है, तो डरता नहीं; कचरा गुजरता है, तो डरता है। कचरा जुलेगा।

मैं तुमसे कहता हूं कि संदेह से गुजरकर जो बच जाए, वही श्रद्धा है। संदेह में जो मर जाए, तुम उसे कचरा समझना, वह सोना था ही नहीं। अच्छा हुआ मर गया। संदेह को धन्यवाद देना। क्योंकि संदेह ने तुम्हें कचरे को बचाने से बचाया, कचरे को सम्हालने से बचाया, नहीं तुम कचरे को तिजोड़ी में रखे बैठे रहते।

इस अस्तित्व में कुछ भी व्यर्थ नहीं है, श्रद्धा भी सार्थक है, संदेह भी सार्थक है। जो जानता है, वह संदेह को भी स्वीकार करता है। लेकिन संदेह पर ही अटक नहीं जाता, आगे जाता है। संदेह महत्वपूर्ण है, सब कुछ नहीं है। एक अंग और है जीवन का, जो श्रद्धा है।

जैसे दो पंखों से पक्षी उड़ता है, जैसे दो पैरों से तुम चलते हो, जैसे दो आंखों से तुम देखते हो, ऐसे ही संदेह और श्रद्धा दोनों आंखें हैं, दोनों से देखा जाता है। और संदेह की आख से जब तुम सब देख लेते हों—सबका मतलब है, जब संदेह भी देख लेते हो—तब दूसरी आख खुलती है। अब तुम श्रद्धा के योग्य हुए पात्र बने। संदेह तुम्हें निखारता है, संदेह तुम्हें जलाता है, शुद्ध करता है। संदेह सहयोगी है, मित्र है।

नास्तिकता मेरे लिए आस्तिक की दुश्मन नहीं है। नास्तिकता मेरे लिए आस्तिक की तैयारी है; वह आस्तिक का विद्यापीठ है। वहां आस्तिक निर्मित होता है। और जब कोई धर्म संदेह से डरने लगता है, तब समझ लेना कि वह धर्म मुरदा है।

जब महावीर जिंदा होते हैं, तो वे संदेह से भयभीत नहीं करते अपने शिष्यों को। वे कहते हैं, लाओ तुम्हारे संदेह; पूछो, प्रश्न उठाओ, जो भी तुम्हारे भीतर छिपा है, प्रकट करो; क्योंकि मैं मौजूद हूं जला दूंगा।

बुद्ध जब जिंदा होते हैं, तो वे किसी के होंठ को बंद नहीं करते, होंठ को सीते नहीं। वे कहते हैं, पूछो, जिज्ञासा करो, संदेह करो! क्योंकि कैसे तुम आगे बढ़ोगे! मैं मौजूद हूं मैं तुम्हें तुम्हारे संदेह के पार ले चलूंगा।

यही मैं भी तुमसे कहता हूं। तुम्हारे पास जितने संदेह हों, सब ले आओ।

तुम्हारा कोई संदेह श्रद्धा का दुश्मन न है, न हो सकता है। संदेह जैसी चीज कहीं श्रद्धा की दुश्मन हो सकती है! संदेह तो अंधेरे जैसा।

तुमने देखा, अंधेरा कितना ही घना हो, एक छोटे—से दीए को भी बुझा नहीं सकता है। अंधेरे की ताकत क्या? तुमने कभी सोचा यह कि अंधेरा गिर पड़े पहाड़ की तरह और छोटे—से दीए को बुझा दे। असंभव! सारी पृथ्वी पर अंधकार भरा हो और तुम्हारे घर में एक छोटा दीया जलता हो, तो अंधकार उसे बुझा नहीं सकता। अंधेरे की, अंधकार की ताकत क्या?

लेकिन अगर झूठा दीया जला हो, जला ही न हो, आख बंद करके तुम सोच रहे हो कि दीया जला है, तो फिर दीया बुझाया जा सकता है। जो जला ही नहीं है, वह बुझ जाएगा; वह बुझा ही हुआ था। आख बंद करके तुम सपना देख रहे थे।

दयानंद को जिस दिन चूहे ने डगमगा दिया, खाक दयानंद रहे होंगे! उस दिन वे किसी अंधेरे में दीए के होने की कल्पना कर रहे थे। वह चूहे ने फूंक मार दी, दीया बुझा दिया।

और फिर उनकी चूहे पर ऐसी श्रद्धा हो गई कि वह कभी न मिटी। फिर दोबारा उन्हें कभी संदेह चूहे पर न आया, न अपने पर आया। जिंदगीभर फिर उसी भरोसे में रहे, वह जो उस दिन उदघाटन हो गया; जैसे वह कोई बुद्धत्व था। और आर्यसमाजी सोचते हैं कि उस दिन बड़े ज्ञान की घटना घट गई जगत में।

दयानंद पंडित थे, पंडित ही रहे। और चूहे से जिस श्रद्धा का भ्रम टूट गया था, उस संदेह को मिटाने के लिए उन्होंने कभी फिर कुछ न किया। फिर वे तर्कनिष्ठ ही बने रहे। कितना ही विचार उन्होंने वेदों का किया, उपनिषदों का किया, लेकिन उस सब विचार में तर्क ही आधार रहा।

इसलिए तुम आर्यसमाजियों को पाओगे बड़े कुतर्की। उनसे बकवास करोगे, तो मुश्किल में पड़ोगे, बकवासी हैं। क्योंकि पूरा ही आंदोलन बकवासियों का है। उसका धर्म से कोई लेना—देना न रहा।

धर्म का तर्क से कोई संबंध नहीं है। धर्म का संबंध श्रद्धा से है। और अगर तुम संदेह से भरे हो, तो तुम धर्म से भी जो संबंध बनाओगे, वह भी तर्क का होगा। तब तुम सिद्ध करोगे तर्क से कि वेद सही हैं। और तब ऐसे—ऐसे तर्क उठाओगे…….। लेकिन वेद सही हैं, यह तुम्हारे हृदय की श्रद्धा का आविर्भाव न होगा; यह तर्क ही होगा। और तर्क से ही तुम अपने को समझाते रहोगे।

तर्क का अर्थ ही यह है कि संदेह भीतर मौजूद है, जिसे तुम तर्क से झुठला रहे हो। श्रद्धा का कोई तर्क नहीं है। श्रद्धा स्वयं—सिद्ध है। यह उसका स्वभाव है। इसके लिए किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। वह स्वत: प्रमाण है, सेल्फ—एविडेंट है, वह कोई गवाह नहीं मांगती।

इसलिए तुम आस्तिक को गलत कर ही नहीं सकते। क्योंकि जिस ढंग से तुम उसे गलत कर सकते हो, उस ढंग से सही होने का वह दावा ही नहीं करता। उसके सही होने का दावा ही और है।

वह यह नहीं कहता कि मैंने किन्हीं प्रमाणों से जान लिया कि परमात्मा है। वह कहता है कि मैंने देख लिया। वह कहता है कि मैं हो गया। वह कहता है, मैंने चख लिया। अब तुम लाख कहो कि परमात्मा नहीं है, मैं कैसे मानूं! मेरी प्यास बुझ गई और तुम कहते हो, पानी है नहीं। और मैं देखता हूं कि तुम प्यास में तड़प रहे हो। और तुम कहते हो, पानी है नहीं। और मेरी प्यास बुझ गई। मैं कैसे मानूं कि परमात्मा नहीं है! तुम्हें मैं दुख में देखता हूं और तर्क में देखता हूं संदेह में देखता हूं। मेरा दुख मिट गया, मेरे भीतर आनंद बरस गया। मैं कैसे मानूं कि आनंद नहीं है!

तुम किसी और को डिगा सकते हो। जिसके भीतर आनंद न बरसा हो, तुम उसमें संदेह पैदा कर सकते हो। मुझमें तुम संदेह पैदा नहीं कर सकते। कोई उपाय ही न रहा। एक ही उपाय है कि किसी भांति अगर तुम मेरा आनंद छीन लो, तो शायद संदेह पैदा हो सके।

लेकिन कोई किसी का आनंद कहीं छीन सकता है? तुम मेरा शरीर मुझसै छीन सकते हो, मेरी आत्मा तो नहीं छीन सकते! तुम मुझे मार डाल सकते हो, लेकिन भीतर तो कोई है, जहां शस्त्र छिदते नहीं, जहां आग जाती नहीं, उसे तुम छू भी न पाओगे। तो शरीर को काट देने से कुछ प्रमाणित न होगा, बल्कि मैं जो कहता था वही प्रमाणित होगा, कि मैं फिर भी हूं। तुम मेरे शरीर को काटकर भी इतना ही सिद्ध कर पाओगे। जो मेरी श्रद्धा थी, उसी को सिद्ध कर पाओगे।

श्रद्धा को खंडित करने का उपाय नहीं है, क्योंकि वह अनुभव है। इसलिए मैं कहूंगा, संदेह को पूरा करो। इतना पूरा करो कि संदेह पर संदेह आ जाए। फिर संदेह लड़खड़ाकर खुद ही गिर पड़ता है। उसके गिर जाने पर, उसके गिर जाने पर ही पहली दफा श्रद्धा का उन्मेष होता है, तुम्हारे भीतर तरंग उठती है।

श्रद्धा एक अनुभव है, बुद्धि की मान्यता नहीं। श्रद्धा कोई मान्यता, धारणा नहीं है, एक अनुभव है। जैसे प्रेम, ऐसी ही श्रद्धा है।

तुम्हारा लड़का है, वह एक लड़की के प्रेम में पड़ गया है। तुम लाख समझाते हो कि नासमझ, पहले गौर से तो देख, इसका बाप चरित्रवान नहीं है। वह लड़का कहता है, बाप से लेना—देना क्या?

तुम कहते हो, इसके घर में पैसा नहीं है। वह कहता है, पैसे के थोड़े ही मैं प्रेम में पड़ा हूं! तुम कहते हो, इसके कुल का तो विचार कर। वह लड़का कहता है, कुल से थोड़े ही विवाह करके आना है। बाप कहता है, यह लड़की काली—कलूटी है, दुबली है, बीमार है; हजार तर्क खोजता है। लेकिन वह लड़का कहता है, मेरी आख से जरा देखने की कोशिश करें। मुझे इससे सुंदर कोई दिखाई ही नहीं पड़ता।

प्रेम के लिए तुम किसी भी तर्क से खंडित नहीं कर सकते। और अगर कर लो, तो समझना प्रेम था नहीं। अगर लड़का मान जाए कि बात तो ठीक है, घर में धन नहीं है, दहेज क्या खाक मिलेगा! तो वह लड़का प्रेम में था ही नहीं। असल में वह लड़का लड़का ही नहीं है। वह लड़का होने के पहले बाप हो गया। यह जिंदगी से चूकेगा। यह बूढ़ा हो चुका है।

सिर्फ का आदमी सोचता है पैसे की। जवान आदमी पैसे की सोचे, उसकी जवानी संदिग्ध है। जवान को भरोसा होना चाहिए—दहेज पर थोड़े ही, अपने पर—कि कमा लेंगे, पैदा कर लेंगे। लेकिन जवान आदमी भी सोचता है, दहेज कितना? वह जवान न रहा। वह गणित में पड़ गया; वह हिसाब लगा रहा है; वह तर्क की दुनिया में उलझ गया, उसे प्रेम का कोई पता ही नहीं है। और श्रद्धा तो महा प्रेम है, वह तो प्रेम है अस्तित्व के साथ, वह तो बड़ा पागलपन है। और पागलों को कहीं तुम तर्क से समझा सकते हो?

दयानंद जैसे लोग पागल कभी हुए नहीं। कभी नाचे नहीं मस्ती से। बस बैठकर तर्क जुटाते रहे, टीकाएं लिखते रहे वेद की और सिद्ध करते रहे कि वेद भगवान है।

और भगवान को सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। न वेद को सिद्ध करने का कोई उपाय है। सिद्ध करने की बात ही संदेह की दुनिया की बात है। भगवान सिद्ध है, श्रद्धा का आविर्भाव होते ही दिखाई पड़ता है, आख खुलते ही उसका सूरज उगा हुआ मिलता है। बस, आख खोलने की बात है।

अंधे को कोई तर्क देने की जरूरत नहीं कि प्रकाश है; उससे इतनी ही प्रार्थना करनी है कि आख खोल ले। और वह कहता है, अभी आख कैसे खोलूं! भीतर बहुत सपने देख रहा हूं; बड़ा मजेदार सपना चल रहा है। तो हम उससे कहते हैं, खूब देख ले। जितना बन सके, सपना देख ले। इतनी गौर से सपने को देख कि तुझे खुद ही दिखाई पड़ जाए कि यह सपना है। तो धीमा—धीमा मत देख; पूरी प्रगाढ़ता से देख, गौर से देख, आख गड़ाकर देख।

क्योंकि जब तेरा सपना भीतर टूटेगा, आख तू खोलेगा, तभी तुझे सूरज का प्रकाश अनुभव हो सकता है।

दूसरा प्रश्न :

 

सुबह बहुत दूर नहीं है, ऐसा सभी गुरु सदा से कहते आए हैं। पर अपनी ओर देखकर तो सुबह सदा दूर ही दिखाई देती है। क्या अब अपनी ओर देखना बंद करने से सुबह जल्दी आ जाएगी?

पनी ओर तुम देखोगे, तो सुबह दूर दिखाई देगी ही। कारण यह नहीं है कि तुमने अपनी ओर देखा, कारण यह है कि तुम अभी जानते ही नहीं कि अपनी ओर कैसे देखें। और जिसको तुम समझ रहे हो अपनी ओर देखना, वह अहंकार की ओर देखना है, वह अपनी ओर देखना नहीं है। और अहंकार तो अंधकार है।

अगर अपनी ही ओर देख लो, तो वहीं तो सुबह हो जाती है। पर जिसको तुम समझ रहे हो अपना होना, वह तुम्हारी भांति है। तुम समझ रहे हो कि किसी का बेटा हूं कि किसी का बाप हूं कि किसी का पति हूं कि किसी की पत्नी हूं कि गरीब हूं कि अमीर हूं कि सुंदर हूं कि कुरूप हूं रुग्ण हूं स्वस्थ हूं जवान हूं बूढ़ा हूं। ये सब अहंकार की ही परिभाषाएं हैं। तुम नहीं हो यह।

इन सब से जो गुजरता है, वह हो तुम। जो कभी बच्चा होता है, कभी जवान हो जाता है, कभी का हो जाता है। न तुम बचपन हो, न तुम जवानी हो, न तुम बुढ़ापा हो। वह जो इन तीनों से गुजरता है, वह हो तुम। जो कभी गरीब और कभी अमीर, और कभी सुखी और कभी दुखी, और कभी दीन और कभी दानी, कभी भिखारी और कभी सम्राट—दोनों के बीच जो जाता है, वह हो तुम। कभी जन्मते हो, कभी मरते हो। लेकिन जो न कभी जन्मता है और न कभी मरता है, जो जन्म में जन्मता भी है, मरने में मरता भी है, फिर भी न तो जन्मता है और न मरता है, वह हो तुम।

लेकिन उस तरफ तुम नहीं देख रहे हो। तुम देख रहे हो अहंकार की तरफ। तुम देख रहे हो अपने परिचय की तरफ, जो लोग तुमसे कहते हैं, तुम हो। कोई तुमसे कहता है कि तुम बड़े सुंदर हो, और तुमने मान लिया। कोई तुमसे कहता है कि सुंदर नहीं हो, और तुम पीड़ित हो गए। तुम लोगों के मंतव्य इकट्ठे कर रहे हो अपने संबंध में। तुमने सीधा अपने को देखा ही नहीं।

सब मंतव्य हटा दो। क्योंकि दूसरे तुम्हें बाहर से देखते हैं। तुम तो स्वयं को भीतर से देख सकते हो। दूसरों के देखने को क्या इकट्ठा कर रहे हो!

यह तो ऐसा ही पागलपन हुआ कि मैं घर के भीतर बैठा हूं और पड़ोसियों से पूछने जाता हूं अपने घर के संबंध में। तो उनमें से कोई कहता है कि तुम्हारा मकान बहुत सुंदर है। उन्होंने बाहर से ही मकान देखा। रंग—रोगन अच्छा है। उन्होंने बाहर से ही मकान देखा। या कोई पसंद नहीं करता बाहर की दीवालों को और कहता है, चूना झड्ने लगा है; मकान गंदा हुआ जा रहा है। उनमें से भीतर के कक्षों को तो किसी ने भी नहीं देखा। वहां तो केवल मैं ही देखता हूं।

तुम्हारे भीतर तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं जा सकता। भीतर का अर्थ ही है, जहां तुम ही जा सको और कोई न जा सके। जहां तक दूसरा जा सकता है, वहा तक बाहर की सीमा है। बाहर का मतलब ही इतना है, जहां दूसरे जा सकते हैं। भीतर यानी जहां केवल तुम जा सकते हो। तुम्हारी प्रेयसी भी नहीं जा सकती। तुम्हारा निकट मित्र भी नहीं जा सकता। जिस मित्र के लिए तुम मरने को तैयार हो, वह भी नहीं जा सकता। जहां तुम ही जा सकते हो।

और जरा गौर से देखो! तुम्हारा शरीर भी जहां नहीं जा सकता, क्योंकि वह भी बाहर है। तुम्हारे विचार भी जहां नहीं जा सकते, क्योंकि वे भी सतह पर हैं। सिर्फ तुम, तुम्हारी शुद्धि में जहां जा सकते हो। उस निर्विचार शुद्धि को जिस दिन तुम देखोगे, उस खुले आकाश को जहां कोई विचार का बादल भी नहीं है, उस दिन तुमने अपनी तरफ देखा।

उस दिन सभी गुरु तुम्हें सही मालूम पड़ेंगे। अभी तुम्हें गुरु गलत मालूम पड़ेंगे। उनकी बात सुनोगे, तो लगेगा, सुबह करीब है। परमात्मा मिला ही हुआ है, जरा एक कदम उठाना है। जरा—सी बात है। आख में छोटी—सी किरकिरी पड़ी है, उसको निकाल देना है। कोई बहुत बड़ा मामला नहीं है। गुरुओं की बात सुनोगे, तो लगेगा कि अब पहुंचे? अब पहुंचे; किनारे पर ही हैं, जरा—सा ही हाथ फैलाना है, जरा—सा मुड़ना है।

लेकिन जब तुम अपनी तरफ देखोगे, तो अंधकार भयंकर मालूम होगा, रात घनी मालूम होगी, अमावस, जिसका कोई अंत नहीं मालूम होता। सुबह आएगी कैसे? भरोसा नहीं बैठता।

तुमने अपने गलत होने की तरफ देखा। तुमने अपने स्वभाव की तरफ न देखा, तुमने अपने संग्रह की तरफ देखा। तुमने स्मृतियों की तरफ देखा, तुमने अपने बोध की तरफ न देखा। साक्षी— भाव को न देखा, द्रष्टा को न देखा, दृश्य को देखते रहे। और दृश्य के संग्रह का नाम अहंकार है। तो स्वभावत: ऐसा होगा। तो क्या करो तुम?

एक काम तो यह है कि पहचानने की कोशिश करो कि तुम कौन हो? और उस सबको काटते जाओ, जो तुम नहीं हो। जो अप्रासांगिक है, उसे काटो। उपनिषद इस प्रक्रिया को नेति—नेति कहते हैं, दि मेथड आफ इलिमिनेशन। जो भी तुम्हें लगता है, गौण है, जिसके बिना तुम हो सकते हो, उसे काटो; वह तुम नहीं हो।

तुम्हारे पास धन है, तो तुम अकड़कर चलते हो, इस अकड़ को छोड़ो। क्योंकि धन के बिना भी तुम हो सकते हो; धन अनिवार्य नहीं है। कल सरकार बदल जाए, या इसी सरकार की बुद्धि बदल जाए कल कम्युनिस्ट आ जाएं, तो धन चला जाएगा, तुम रहोगे। जिसके बिना तुम रह सकते हो, वह तुम नहीं हो। अन्यथा तुम बचते कैसे?

रूप है, सौंदर्य है। आज है, कल नहीं हो सकता है। चेचक निकल आए, बीमार हो जाओ, शरीर रुग्ण हो जाए, चमड़ी पर कोढ़ फैल जाए। तो वह रूप तुम नहीं हो। क्योंकि फिर भी तुम रहोगे। शरीर जब कृश हो जाएगा, चेचक के दाग चेहरे पर पड़ जाएंगे, कोई तुम्हारी तरफ न देखेगा, कोई देखेगा भी तो ऐसे देखेगा जैसे दया कर रहा हो, कोई तुम्हारे सौंदर्य का गुणगान न करेगा, फिर भी तुम तो तुम ही रहोगे। छोड़ो! जिसके बिना तुम हो सकते हो, उसको अपने हिसाब में मत लो।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम जाकर और चेचक की बीमारी मोल ले लो। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि जाकर अस्पताल में बीमार पड़ जाओ। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि अपने धन को सरकार को दे दो कि दान कर दो। मैं यह कुछ नहीं कह रहा हूं। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि जिसके बिना तुम हो सकते हो, उसको तुम अपने होने के हिसाब में मत लो, वह तुम्हारा होना नहीं है। वह तुमसे बाहर—बाहर है। है तो ठीक, नहीं है तो ठीक। तुम उस पर निर्भर नहीं हो। वह तुम्हारी बुनियाद नहीं है।

धीरे— धीरे ऐसा इलिमिनेट करो, नेति—नेति कहो, यह भी नहीं, यह भी नहीं। हटते जाओ, हटते जाओ। एक घड़ी ऐसी आती है चैतन्य की, जहं। तुम पाओगे, अब और हटना संभव नहीं है। यह मैं हूं। क्योंकि अगर यह भी हट गया, तो मैं ही नहीं बचता। प्याज के छिलके की तरह छीलते जाओ अपने तादात्म्य को। एक—एक छिलके को अलग करते जाओ। जिस दिन वही बच जाए..।

क्या बचेगा? आखिर में क्या बचेगा? उसी को हमने आत्मा कहा है, चैतन्य कहा है, होश कहा है, भान, बोध, बुद्धत्व, और हजार नाम हैं।

क्या बचेगा भीतर? आखिरी, जब सारे प्याज के छिलके छीलकर तुम फेंक दोगे, नेति—नेति, सारी प्याज नेति—नेति हो जाएगी, तब तुम पाओगे, बस एक चीज बची, कांशसनेस, होश बचा, भान बचा, चैतन्य बचा। इसको तुम न काट पाओगे। क्योंकि इसको काटकर फिर तुम नहीं बच सकते; इसको छोड्कर फिर तुम नहीं बच सकते; फिर तुम गए।

जिसके न होने से तुम न हो जाओगे, वही है तुम्हारा होना। उसको खोजते रहो। यही ध्यान की प्रक्रिया है। सतत खोजते रहो। और गलत से, व्यर्थ से, असार से—जो तुम्हारा स्वभाव नहीं, जो पर— भाव है—उससे अपने को तोड़ते चले जाओ। जैसे—जैसे यह पर— भाव छूटेगा, स्वभाव उभरेगा, जैसे—जैसे पर— भाव से संबंध शिथिल होंगे, वैसे—वैसे स्वभाव पंख फैलाएगा। तुम पाओगे, एक मुक्ति फलित होने लगी।

आखिर में बच रहता है, सच्चिदानंद। तुम होते हो परम चैतन्य, तुम होते हो परम सत्य, तुम होते हो परम आनंद; वह स्वभाव है। सारे धर्म की प्रक्रिया बस नेति—नेति में समाई है। इन दो शब्दों से ज्यादा कुछ भी नहीं चाहिए; न यह, न वह; काटते जाओ। कैंची लेकर अपने पीछे पड़ जाओ।

अगर तुमने हिम्मत से खोज की, तो धीरे— धीरे तुम पाओगे कि अब तुम्हारी दृष्टि अपनी तरफ हुई। अभी तुम किसी और की तरफ देख रहे थे और सोचते थे, अपनी तरफ देख रहा हूं।

ठीक से समझो, अपनी तरफ तुम देखोगे कैसे? जिसकी तरफ भी तुम देखोगे, वह दूसरा होगा। अपनी तरफ तुम देखोगे कैसे? कौन देखेगा? किसको देखेगा? वहा तो देखने वाला और दृश्य एक ही हो जाता है। इसलिए अभी तुम जिसकी भी तरफ देख रहे हो कि तुम कहते हो कि मैं पुरुष हूं धनवान हूं जवान हूं पंडित हूं ज्ञानी हूं इतनी डिग्रियां हैं, जिसको भी तुम देख रहे हो, यह तुम नहीं हो। काटते जाओ।

एक दिन तुम अचानक पाओगे, ऐसी घड़ी आ गई, जिसको योगी कहते हैं, संगम। ऐसी घड़ी आ गई, जहां दृश्य, द्रष्टा और देखने वाला एक ही बचा। अब तुम बांट नहीं सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं देख रहा हूं। तुम यही कह सकते हो कि मैं ही देख रहा हूं मैं ही देखने वाला हूं मैं ही दिखाई पड़ रहा हूं। त्रिपुटी आ गई; तीन मिल गए। सत्य, रज, तम, तीनों समतुल हो गए। और तुम तीनों के पार—गुणातीत। जीवन का सूरज उग गया। सुबह करीब है।

जब मैं तुम्हारी तरफ देखता हूं तो तुमसे कहता हूं सुबह करीब है। अपनी तरफ ही देखकर नहीं कह रहा हूं कि सुबह करीब है, तुम्हारी तरफ भी देखकर कह रहा हूं कि सुबह करीब है। लेकिन जब मैं तुम्हें गौर से देखता हूं तो पाता हूं तुम अपनी तरफ नहीं देख रहे हो। तुम कहीं और देख रहे हो। वहां अंधेरी रात है। वहा अनंत अमावस है, जिसका न कोई आदि है और न अंत। वहां तुम अंधेरे में भटकते ही रहोगे।

आख को लौटाना है अपनी तरफ। बस, जरा—सी बात है। बहुत बड़ी मालूम पड़ती है। कितना जाल धर्मों का खड़ा है उतनी सी छोटी—सी बात पर! वह तुम्हारी वजह से बड़ी मालूम पड़ती है। क्योंकि तुम अंधेरे में ही रहे हो। और तुम्हारा अंधेरे पर इतना भरोसा हो गया है कि तुम मान ही नहीं सकते कि सुबह हो सकती है। मेरे पास लोग आते हैं। कल ही रात कोई मुझसे कह रहा था कि बड़ा आनंद अनुभव हो रहा है। कहीं यह कल्पना तो नहीं है?

तुम दुख में इतने रहे हो कि अगर ध्यान की थोड़ी—सी किरण भी टूटती है और आनंद का थोड़ा—सा सुर बजता है, तो तुम्हें भरोसा नहीं आता। तुम्हें शक होता है।

जिस सज्जन ने मुझे यह कहा, मैंने उनसे पूछा, तुम जब दुख में थे, तब तुमने कभी सोचा कि यह कहीं कल्पना तो नहीं? उन्होंने कहा, यह तो खयाल कभी नहीं आया!

जब दुख में थे, तब यथार्थ; तब शक भी पैदा न हुआ कि कहीं यह दुख कल्पना तो नहीं है! लेकिन अब थोड़ी—सी ध्यान में गति बढ़ी है, थोड़ी नाव किनारे से हटी है, थोड़ी पतवार उठी है, तो संदेह पैदा हो रहा है कि कहीं यह आनंद कल्पना तो नहीं है।

वह मन कह रहा है, लौट आओ किनारे पर। कहा जा रहे हो? यह सागर सब कल्पना है। अपनी पुरानी जगह ठीक, वह पुराना तादात्म्य ठीक। किसकी खोज में निकले हो? यह आत्मा—परमात्मा सब कल्पना है, लौट आओ! दुख सच है, नर्क सच है, स्वर्ग कल्पना है, शैतान सच है, परमात्मा कल्पना है।

संदेह का अर्थ है, गलत श्रद्धा। संदेह का अर्थ है, गलत पर श्रद्धा। और जब तुम गलत पर श्रद्धा रखते हो, तो संदेह मिटेगा कैसे? इसलिए संदेह तुम्हें गलत से नहीं छूटने देना चाहता, क्योंकि वहा तो संदेह बचा रह सकता है। सही का आविर्भाव होगा, संदेह की मृत्यु हो जाएगी। तो संदेह उठता है मन में कि कहीं यह कल्पना तो नहीं।

मैं तुमसे कहता हूं सच्चिदानंद कसौटी है। तुम इस पर कस लेना। अगर कोई भी चीज आनंद दे, वह परमात्मा के करीब है, तभी आनंद देगी। अगर किसी चीज में यथार्थ का बोध हो, किसी चीज में भीतरी गरिमा हो सत्य होने की, ऐसी गहरी प्रतीति होती है कि इस पर संदेह भी करना मुश्किल हो जाए, तो जानना कि वह परमात्मा के करीब है। और जिससे भी चैतन्य बढ़ता हुआ मालूम पड़े, रोशनी बढ़ती मालूम पड़े भीतर, तो समझना कि वह परमात्मा के करीब है।

सच्चिदानंद निकष है। तुम उस पर कसते रहना। और जो—जो इससे विपरीत मालूम पड़े, समझना कि उतनी ही दूर है। इस कसौटी को लेकर अगर तुम चले, तो एक दिन मंजिल पर पहुंच जाओगे। और मैं फिर कहता हूं मंजिल दूर नहीं; एक कदम का फासला है। इसलिए तुमसे कहता हूं, चलने का सवाल नहीं है, छलांग भी ले सकते हो। एक कदम चलने में क्या सार है? यह तो छलांग से भी हो सकता है।

इसलिए दुनिया में एक अनूठी घटना भी घटती है, छलांग भी घटती है। कुछ लोग छलांग से परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं। जिनको समझ आ जाती है, दिखाई पड़ जाती है बात, खयाल पकड़ जाता है, जिनका संदेह मर चुका होता है, जो भरोसे को उपलब्ध हो जाते हैं, एक छलांग में, एक इशारे में, एक आवाज में, और तुम बाहर आ जाते हो। हजारों—हजारों जन्मों की रात टूट जाती है। सुबह करीब है। अपनी तरफ भी देखकर कहता हूं तुम्हारी तरफ भी देखकर कहता हूं सुबह करीब है। लेकिन तुम अपनी तरफ नहीं देख रहे हो, यह भी मुझे दिखाई पड़ता है।

उसी के लिए सारे ध्यानों का आयोजन है कि तुम अपनी तरफ देखने में समर्थ हो जाओ। समर्थ तुम हो सकते हो। कितनी ही कठिन मालूम पड़े यह बात, असंभव नहीं है। और जिस दिन हो जाएगी, उस दिन तुम हंसोगे और तुम कहोगे, कठिन भी नहीं थी। तुम हंसोगे भी और रोओगे भी। तुम रोओगे कि इतने दिन कैसे यह संभव रहा कि मैं भटकता रहा! और तुम हंसोगे कि जो इतने करीब था कि हाथ भर बढ़ाने की बात थी।

जब जरा गर्दन झुकाई……..

दिल के आईने में है तस्वीरे—यार

जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।

उतनी ही। मगर गर्दन सख्त हो गई है, लकवा लग गया है।

हजारों साल से झुकी नहीं है, तो तुम भूल ही गए हो, कैसे झुकाएं। थोड़ी मालिश करो। ध्यान वही मालिश है। सामायिक कहो, पूजा कहो, प्रार्थना, अर्चना, नमाज, थोड़ी—सी मालिश है गर्दन पर। थोड़ी गर्दन झुक जाए, लोचपूर्ण हो जाए, बस। और तुम देख लोगे, तस्वीरे—यार सदा भीतर है।

तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे भीतर है। तुम्हारी खोज तुम्हारे भीतर है। खोजने वाले में छिपी है मंजिल। कहीं परमात्मा बाहर होता, तो मुश्किल होता, कठिन होता; वह तुम्हारे भीतर ही है।

थोड़ा रुको, बैठो, काटो नेति—नेति से अपने गलत तादात्म को। और अचानक तुम पाओगे, सूरज उग आया। उगा ही था। कभी डूबा ही न था, रात कभी हुई न थी। बस, तुमने आंखें बंद कर रखी थीं।

अब सूत्र :

और हे अर्जुन, जैसे श्रद्धा तीन प्रकार की होती है, वैसे ही भोजन भी सब को अपनी—अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी सात्विक, राजस और तामस, ऐसे तीन—तीन प्रकार के होते हैं। उनके इन न्यारे—न्यारे भेद को तू मुझसे सुन।

श्रद्धा के शास्त्र को कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं। वह शास्त्र सभी अर्जुनों को सर्व कालों में उपयोगी है, क्योंकि वह शास्त्र तुम्हारी ही व्याख्या और विश्लेषण है। और जब तक तुम अपनी ठीक से व्याख्या को न समझ पाओगे और ठीक से विश्लेषण को, तब तक तुम विज्ञान को न समझ पाओगे, जो तुम्हें त्रिगुणातीत बना दे, गुणातीत बना दे। इसलिए तुम्हें पहले इन तीनों गुणों की अलग—अलग व्यवस्था और तुम्हारे जीवन में इनके ढंग और ढांचे और इनकी शैली को समझ लेना जरूरी है। वह तुम्हारा सारा अस्तित्व है अभी।

तो कृष्ण कहते हैं कि श्रद्धा न केवल तुम्हारी परमात्मा की तरफ यात्रा में भिन्न—भिन्न मार्ग पकड़ा देती है तुम्हें, श्रद्धा न केवल तुम्हारे आचरण को भिन्न—भिन्न कर देती है, महत्वपूर्ण बातों में ही नहीं, जीवन की क्षुद्रतम बातों में भी तुम्हारी श्रद्धा तुम्हें रंगती है। छोटे से छोटा तुम्हारी श्रद्धा की सूचना देता है।

तो कृष्ण कहते हैं, भोजन भी इन तीन श्रद्धाओं के अनुसार तीन प्रकार का होता है। और लोग अपनी—अपनी श्रद्धा के अनुसार भोजन की रुचि रखते हैं।

तामसी वृत्ति का व्यक्ति है, तुम उसके भोजन का अध्ययन करके भी समझ सकते हो कि वह तामसी है। तामसी वृत्ति के व्यक्ति को बासा भोजन प्रिय होता है, सड़ा—गला उसे स्वाद देता है। घर का भोजन उसे पसंद नहीं आता। बाजार का सड़ा—गला, जिसका कोई भरोसा नहीं कि वह कितना पुराना है और कितना प्राचीन है। होटलों में दो—चार दिन पहले की सब्जी से बने हुए पकोड़े और समोसे उसे प्रिय होते हैं। बासा! सात्विक व्यक्ति को जो कूड़ा—करकट जैसा मालूम पड़े, जिसे वह अपने मुंह में न ले सके, उसी पर तामसी की लार टपकती है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन होटल में गया। जाकर बैठ गया टेबल पर। और उसने कहा कि भोजन ले आओ। पहली ही दफा इस होटल में आया था। जब बैरा भोजन लेने जाने लगा, तो उसने कहा कि यहां सब ठीक—ठाक है न? बैरे ने उसे तृप्त करने को कहा कि महानुभाव, ठीक—ठाक पूछते हैं; बिलकुल आपके घर जैसा भोजन है!

नसरुद्दीन उठकर खड़ा हो गया। उसने कहा, क्षमा करें, घर के भोजन से बचने को तो यहां आए थे। तो फिर कोई और होटल जाना पड़ेगा।

तामसी व्यक्ति का भोजन हमेशा अतिशय होगा, वह ज्यादा खाएगा। वह इतना खाएगा कि नींद के अतिरिक्त और कुछ करने को शेष न बचे। इसलिए तामसी व्यक्ति भोजन करके ही सुस्त होने लगेगा। उसका भोजन एक तरह का नशा है।

भोजन का एक नशा है। अगर तुम जरूरत से ज्यादा भोजन कर लो, तो भोजन अल्कोहलिक है। वह मादक हो जाता है, उसमें शराब पैदा हो जाती है। उसमें शराब पैदा होने का कारण है। जैसे ही तुम ज्यादा भोजन कर लेते हो, तुम्हारे पूरे शरीर की शक्ति निचुड़कर पेट में आ जाती है। क्योंकि उसको पचाना जरूरी है। तुमने शरीर के लिए एक उपद्रव कर दिया, एक अस्वाभाविक स्थिति पैदा कर दी। तुमने शरीर में विजातीय तत्व डाल दिए। अब शरीर की सारी शक्ति इसको किसी तरह पचाकर और बाहर फेंकने में लगेगी। तो तुम कुछ और न कर पाओगे; सिर्फ सो सकते हो। मस्तिष्क तभी काम करता है, जब पेट हलका हो। इसलिए भोजन के बाद तुम्हें नींद मालूम पड़ती है। और अगर कभी तुम्हें मस्तिष्क का कोई गहरा काम करना हो, तो तुम्हें भूख भूल जाती है।

इसलिए जिन लोगों ने मस्तिष्क के गहरे काम किए हैं, वे हमेशा अल्पभोजी लोग हैं। और धीरे— धीरे उन्हीं अल्पभोजियों को यह पता चला कि अगर मस्तिष्क बिना भोजन के इतना सक्रिय हो जाता है, तेजस्वी हो जाता है, तो शायद उपवास में तो और भी बड़ी घटना घट जाएगी। इसलिए उन्होंने उपवास के भी प्रयोग किए। और उन्होंने पाया कि उपवास की एक ऐसी घड़ी आती है, जब शरीर के पास पचाने को कुछ भी नहीं बचता, तो सारी ऊर्जा मस्तिष्क को उपलब्ध हो जाती है। उस ऊर्जा के द्वारा ध्यान में प्रवेश आसान हो जाता है।

जैसे भोजन अतिशय हो, तो नींद में प्रवेश आसान हो जाता है। नींद ध्यान की दुश्मन है; मूर्च्छा है। भोजन बिलकुल न हो शरीर में, तो शरीर को पचाने को कुछ न बचने से सारी ऊर्जा मुक्त हो जाती है पेट से, सिर को उपलब्ध हो जाती है। ध्यान के लिए उपयोगी हो जाता है।

लेकिन उपवास की सीमा है, दो—चार दिन का उपवास सहयोगी हो सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति उपवास की अतिशय में पड़जाए तो फिर मस्तिष्क को ऊर्जा नहीं मिलती। क्योंकि ऊर्जा बचती ही नहीं। इसलिए उपवास तो किसी ऐसे व्यक्ति के पास ही करने चाहिए जिसे उपवास की पूरी कला मालूम हो। क्योंकि उपवास पूरा शास्त्र है। हर कोई, हर कैसे उपवास कर ले, तो नुकसान में पड़ेगा।

और प्रत्येक व्यक्ति के लिए गुरु ठीक से खोजेगा कि कितने दिन के उपवास में संतुलन होगा। किसी व्यक्ति को हो सकता है पंद्रह दिन, इक्कीस दिन का उपवास उपयोगी हो। अगर शरीर ने बहुत चर्बी इकट्ठी कर ली है, तो इक्कीस दिन के उपवास में भी उस व्यक्ति के मस्तिष्क को ऊर्जा का प्रवाह मिलता रहेगा। रोज—रोज बढ़ता जाएगा। जैसे—जैसे चर्बी कम होगी शरीर पर, वैसे—वैसे शरीर हलका होगा, तेजस्वी होगा, ऊर्जावान होगा। क्योंकि बढ़ी हुई चर्बी भी शरीर के ऊपर बोझ है और मूर्च्छा लाती है।

लेकिन अगर कोई दुबला—पतला व्यक्ति इक्कीस दिन का उपवास कर ले, तो ऊर्जा क्षीण हो जाएगी। उसके पास रिजर्वायर था ही नहीं; उसके पास संरक्षित कुछ था ही नहीं। उनकी जेब खाली थी। दुबला—पतला आदमी बहुत से बहुत तीन—चार दिन के उपवास से फायदा ले सकता है। बहुत चर्बी वाला आदमी इक्कीस दिन, बयालीस दिन के उपवास से भी फायदा ले सकता है। और अगर अतिशय चर्बी हो, तो तीन महीने का उपवास भी फायदे का हो सकता है, बहुत फायदे का हो सकता है। लेकिन उपवास के शास्त्र को समझना जरूरी है।

तुम तो अभी ठीक विपरीत जीते हो, दूसरे छोर पर, जहां खूब भोजन कर लिया, सो गए। जैसे जिंदगी सोने के लिए है। तो मरने में क्या बुराई है! मरने का मतलब, सदा के लिए सो गए।

तो तामसी व्यक्ति जीता नहीं है, बस मरता है। तामसी व्यक्ति जीने के नाम पर सिर्फ घिसटता है। जैसे सारा काम इतना है कि किसी तरह खा—पीकर सो गए। वह दिन को रात बनाने में लगा है; जीवन को मौत बनाने में लगा है। और उसको एक ही सुख मालूम पड़ता है कि कुछ न करना पड़े। कुल सुख इतना है कि जीने से बच जाए जीना न पड़े। जीने में अड़चन मालूम पड़ती है। जीने में उपद्रव मालूम पड़ता है। वह तो अपना चादर ओढ़कर सो जाना चाहता है।

ऐसा व्यक्ति अतिशय भोजन करेगा। अतिशय भोजन का अर्थ है, वह पेट को इतना भर लेगा कि मस्तिष्क को ध्यान की तो बात दूर, विचार करने तक के लिए ऊर्जा नहीं मिलती। और धीरे— धीरे उसका मस्तिष्क छोटा होता जाएगा; सिकुड़ जाएगा। उसका तंतु—जाल मस्तिष्क का निम्न तल का हो जाएगा।

अभी कुछ दिन पहले बंगला देश में ढाका में एक आदमी पकड़ा गया, जो मरे हुए मुरदों की लाश ही खाकर जी रहा था वर्षों से। उनकी लाश को फाड़ लेता और उनके कलेजे को खा जाता और सोया रहता। और मरघट पर ही नौकर था, कब्रिस्तान पर, इसलिए किसी को संदेह भी न हुआ। और मुसलमान तो जलाते नहीं। तो वे दबाकर गए। घर के लोग घर नहीं पहुंच पाए कि वह कब से खोद लेता आदमियों को, फाड़ देता—हाथ से, नाखूनों से—और कच्चा कलेजे को चबा जाता। मरे हुए आदमी का कलेजा!

कृष्ण को अगर इस आदमी की खबर होती, तो वे कहते, यह तमस का आखिरी लक्षण है। इससे पार और जाना मुश्किल है। मरा हुआ आदमी! बासा भोजन ही नहीं, बासा आदमी! जिसमें लड़ने की प्रक्रिया शुरू हो गई।

और वह कोई भोजन न करता। जरूरत न थी। कभी—कभी लाश न आती, तो जरूर वह गांव में आता। और वह भी इसी तलाश में आता, कोई भिखमंगा मर गया हो, कोई आवारा मर गया हो, जिसकी लाश को कोई लाने वाला न हो! तो वह बड़ी सेवा— भाव दिखलाता मुरदों को ले जाने में, आवारा मुरदों को। अस्पतालों में चला जाता, कि किसी की लाश का कोई लेने…..। सब लोग समझते थे, बड़ा सेवाभावी आदमी है!

लेकिन धीरे—धीरे लोगों को संदेह हुआ कि वह भोजन वगैरह कब करता है? कहां करता है? तो किसी ने छिपकर देखने की कोशिश की तो पाया कि वह तो बड़ा खतरनाक आदमी है।

पकड़ा गया। उसकी जांच—पड़ताल हुई। तो पाया गया, उसका मस्तिष्क बिलकुल सिकुड़ गया है, उसका बुद्धिमाप बिलकुल नीचे गिर गया है। जिसको आई क्यू….. कहते हैं मनोवैज्ञानिक, इंटेलिजेंस कोसिएंट, बुद्धि अंक, वह बिलकुल नीचे गिर गया है। उससे नीचे बुद्धि— अंक का आदमी खोजना मुश्किल है।

तो ध्यान के लिए तो शक्ति मिलना मुश्किल ही है, विचार तक के लिए नहीं मिलती। शांत होना तो दूर है, अभी अशांत होने लायक तक शक्ति मस्तिष्क में नहीं जाती। मस्तिष्क खो ही जाता है। वह आदमी शरीर की तरह जी रहा है।

तामसी आदमी शरीर की तरह जीता है। इसे सूत्र समझ लें। उसकी श्रद्धा शरीर में है, मुरदे में, मृत्यु में है, जीवन में नहीं। तुम उसके चेहरे पर मौत को लिखा हुआ पाओगे। तुम उसके चेहरे पर एक कालिमा पाओगे। तुम उसके व्यक्तित्व के आस—पास मृत्यु की पदचाप सुनोगे।

वैसा आदमी अगर तुम्हारे पास बैठेगा, तो तुम्हें जम्हाई आने लगेगी। वैसा आदमी तुम्हारे पास बैठेगा, तो तुम भी शिथिलगात होने लगोगे। तुम्हें भी ऐसा लगेगा कि नींद मालूम पड़ती है। वैसा आदमी अपने चारों तरफ तरंगें पैदा करता है तमस की।

जहां भी तुम्हें कहीं ऐसा लगे कि कोई आदमी ऐसा कर रहा है, हट जाना तत्‍क्षण; क्योंकि वह आदमी तुम्हें चूसता है। वह तुम्हारी ऊर्जा के लिए गड्डे का काम करता है। वह खुद तो गड्डा हो ही गया है। उसका शिखर तो खो गया है। वह तुम्हारे शिखर को भी चूस लेता है।

तामसी व्यक्ति ज्यादा भोजन करेगा और गलत तरह का भोजन करेगा, जिससे बोझ बढ़े, जिसे पचाना मुश्किल हो, जो अपाच्‍य हो, जो ज्यादा देर पेट में रहे, जल्दी पच न जाए। शाक—सब्जी उसे पसंद न आएंगी। फल उसे पसंद न आएंगे। शाकाहारी होने में उसे मजा न मालूम होगा।

एक डाक्टर थे, मैं वर्षों जबलपुर था, वे मेरे सामने ही रहते थे। ऐसे भले आदमी थे, बंगाली थे। बस, मछलियां ही उनका एक राग—रंग थीं। कभी मेरी तबियत को कुछ गड़बड़ होती, तो वे मुझे देखते थे।

एक बार मुझे बुखार आया, वे देखने आए तो मैंने उनसे पूछा कि मेरे भोजन में कोई तबदीली तो नहीं करनी है? तो वे हंसने लगे, कि आपका भोजन? यह भी कोई भोजन है? घास—पात! इसमें बदलाहट की अब क्या जरूरत है और! आप तो पहले ही से मरीज का भोजन कर रहे हैं, बीमार आदमी का। भोजन हम करते हैं। उनके चेहरे पर भी मछलियों की गंध थी। उनके घर जाना बहुत मुश्किल मालूम पड़ता था। मगर मेरा भोजन उनके लिए घास—पात मालूम होगा, स्वभावत:। फल, शाक, सब्जी, यह कोई भोजन है? यह इतना सुपाच्‍य है कि निद्रा पैदा नहीं करता। और भोजन की परिभाषा यही है तामसी व्यक्ति को कि उससे तमस बढ़े, मूर्च्छा बढ़े, नींद आ जाए, खो जाए वह, शरीर में खो जाए, आत्मा का बिलकुल पता न चले, बुद्धि में कोई प्रखरता न रहे, शरीर में डूब जाए, शरीर की अंधकारपूर्ण रात्रि में डूब जाए।

तमस शब्द का अर्थ होता है, अंधकार। तो अंधकार में डूबने की प्रवृत्ति होगी उसकी। उसे दिन पसंद न आएगा। उसे रात पसंद आएगी। वह निशाचर होगा, तमस से भरा हुआ व्यक्ति निशाचर होगा। दिन में सोएगा, रात जागेगा।

रात तुम उसको क्लब में देखोगे, ताश खेलते देखोगे, जुआ खेलते देखोगे, शराब पीते देखोगे। दिन तुम उसे घर्राटे लेते देखोगे। जब सारी दुनिया जागेगी, तब वह सोएगा।

कृष्ण ने योगी की परिभाषा की है कि योगी तब जागता है जब सारी दुनिया सोती है, तब भी जागता है। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी—जब सब सोए हैं, तब भी योगी जागता है।

भोगी, उसकी परिभाषा उन्होंने नहीं की, वह मैं कर देता हूं कि जब सब जागते हैं, तब वह सोता है। तमस उसका लक्षण है, अंधकार उसका प्रतीक है। रात जरा उनमें जीवन मालूम पड़ता है। जैसे—जैसे तमस बढ़ता है किसी संस्कृति में, उसकी रात घटने लगती है। बारह, दो बजे रात तक राग—रंग चलता है। पश्चिम में तमस बढ़ा, तो लोग रात को दो बजे तक जग रहे हैं। वही जीवन मालूम पड़ता है। पश्चिम से यहां लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि भारत में कोई रात्रि का जीवन नहीं, नाइट—लाइफ बिलकुल नहीं है।

थोड़ी—बहुत बंबई में है। बाकी भारत के अगर गांव में जाएंगे, तो रात्रि—जीवन जैसी कोई चीज ही नहीं है। न कोई नाइट क्लब है, न कोई रात का उपद्रव है, न बिजली है, लोग सांझ हुई कि विश्राम को चले गए।

भारत की उलटी संस्कृति थी। यहां लोग सुबह जल्दी उठते थे, तीन बजे। अब पश्चिम में लोग तीन बजे तक जग रहे हैं। यहां तीन बजे उठते थे। उठने का वक्त आ गया। प्रकृति के साथ एक तल्लीनता थी। जब सूरज जाग रहा है, तब तुम जागो। जब सूरज डूब गया, तब तुम डूब जाओ। लयबद्धता थी।

तामसी वृत्ति का व्यक्ति प्रकृति से लयबद्धता छोड़ देता है। वह अपने में बंद हो जाता है। वह अपना अलग ही ढांचा बना लेता है। वह टूट जाता है इस विस्तार से। तो जब पक्षी गीत गाते हैं, तब वह गा नहीं सकता। जब सूरज उगता है, तब वह जाग नहीं सकता। विंसटन चर्चिल ने लिखा है……।

वे निश्चित ही तामसी रहे होंगे, उनकी शक्ल—सूरत से भी तामसी मालूम पड़ते हैं। जीवन का सारा ढंग भी तामसी है। वे दस बजे सुबह के पहले कभी सोकर नहीं उठे। सिर्फ एक बार उठे। लेकिन एक बार उठकर उन्हें जो दुख अनुभव हुआ, फिर उन्होंने दोबारा ऐसी भूल नहीं की।

लिखा है विंसटन चर्चिल ने कि बस, एक दफा! बहुत सुनी थी बकवास कि सुबह बड़ा सुंदर; एक दफा उठकर देख लिया। दिनभर उदासी बनी रही। और दिनभर सब चीजें अस्तव्यस्त हो गईं और गड़बड़ हो गईं। और सांझ जल्दी नींद आने लगी। दिनभर ही नींद आती रही। बस, फिर दोबारा उन्होंने भूल नहीं की!

वे दस बजे तुक सोए रहते। रात कितनी ही देर तक जग जाएं। अब ऐसे व्यक्ति में तमस तो हो ही जाएगा।

लार्ड वेबल ने वाइसराय के संस्मरणों में लिखा है कि चर्चिल ने, लार्ड वेबल जब भारत आया और यहां से रिपोर्ट भेजी गांधी के संबंध में और आंदोलन के संबंध में, तो चर्चिल ने एक तार किया। तार बड़ा अजीब है। वेबल को तार किया, व्हाय दिस गांधी इज स्टिल अलाइव? व्हाय नाट ही इज डेड यट? यह गांधी अभी तक जिंदा क्यों है? यह अभी तक मर क्यों नहीं गया? बस, इतना ही तार किया।

ये तामसी व्यक्ति के लक्षण हैं। चर्चिल का चले, तो गांधी को मरवा दे। मगर भाव तो है भीतर मारने का, मिटाने का, नष्ट करने का। यह किस तरह का तार है कि गांधी अब तक जिंदा क्यों हैं? जैसे—वेबल ने लिखा है अपने संस्मरणों में—कि जैसे मैं जिम्मेवार हूं गांधी के जिंदा रहने के लिए! या मेरा कोई कसूर है! अब गांधी क्यों जिंदा हैं, इसके लिए मैं क्या करूं? जब तक जिंदा हैं, जिंदा हैं।

लेकिन तुम इससे बहुत प्रसन्न मत होना। क्योंकि जो काम चर्चिल जैसा तामसी न कर सका, वह एक हिंदू ने कर दिया। तो हिंदू भी बड़ी गहरी अंधेरी रात में मालूम होते हैं। चर्चिल ने तो सिर्फ सोचा; गोडसे ने कर दिया, एक हिंदू ब्राह्मण ने। हिंदू भी अब कोई सत्व—प्रधान जाति नहीं मालूम पड़ती। मुसलमान न कर सके, अंग्रेज न कर सके, जिनको करना खेल था; हिंदू ने किया। बड़ी मजे की बात है।

ताकत अंग्रेजों के हाथ में थी, गांधी को मारने में क्या अड़चन थी! कोई अड़चन न थी। किसी को पता भी न चलता। जेल में, बीमारी में, दवा देकर मार सकते थे। लेकिन जैसे ही गांधी बीमार पड़ते थे, अंग्रेज तत्‍क्षण उनको जेल के बाहर कर देते थे कि कहीं यह मर जाए बुड्डा, तो कोई न कोई संदेह करेगा कि हमने मार डाला, कि हम पर यह जिम्मा न आए। कोई यह कहने को न हो कि हमने इसको मारा।

मुसलमान न मार सके, जिन्हें मारना हाथ का खेल है। फिर हिंदुओं ने मारा और अपने ही राज्य में मारा। गांधी के ही शिष्य हुकूमत में थे और न बचा सके। और जो लोग खोज—बीन करते हैं, उनको शक है कि उनका भी हाथ था, शिष्यों का भी हाथ था। मारने में साथ न दिया हो, लेकिन बचाने में जरा हिचक की। वह भी साथ है। कोई जरूरी थोड़े ही है कि गोली से ही मारो, तब तुम किसी को मारते हो। उतनी देर को पुलिस वाले को हटा लो या उतनी देर को बिजली की लाइट बंद करवा दो, तो भी मारते हो।

तमस का भरोसा मृत्यु में है। वह खुद भी मरता है, दूसरे को भी मारता है।

तामसी वृत्ति का व्यक्ति इस तरह जीता है, इस तरह भोजन करता है, जैसे भोजन से कोई जीवन के सोपान नहीं चढ़ने हैं, कि भोजन से कोई सात्विक ऊर्जा लेनी है, बस, इस तरह कि किसी तरह ढो लेना है, जीवन एक बोझ है। तामसी वृत्ति का व्यक्ति आत्मघाती होता है। ज्यादा भोजन करेगा, गलत भोजन करेगा, व्यर्थ चीजें खाएगा। और खाने में उसका केंद्र होगा। भोजन उसका केंद्र होगा जीवन का। उसके वर्तुल में वह घूमेगा। वही सब कुछ है।

राजस प्रकृति का व्यक्ति भिन्न तरह के भोजन में रस लेता है। ऐसे भोजन में, जिससे ऊर्जा मिले, गति मिले, दौड़ मिले। क्योंकि राजस प्रकृति का व्यक्ति महत्वाकांक्षी है, उसे दौड़ना है। वह मांसाहारी होगा। इसलिए सारे क्षत्रिय मांसाहारी हैं।

और तुम सोचते हो कि शूद्र को लोग चूंकि बासा भोजन देते हैं, इसलिए वे करते हैं। इससे उलटी बात कहीं ज्यादा सच है। वे बासा भोजन चाहते हैं, इसलिए शूद्र हैं। हजारों साल में उनकी आत्माएं छन—छनकर शूद्र की योनि में पहुंच गई हैं। उनको बासा, फेंका, व्यर्थ हो गया, उच्छिष्ट भोजन प्रिय है। वह आत्माओं ने रास्ता खोज लिया है।

हिंदुओं ने जो वर्ण की व्यवस्था की, वह बड़ी वैज्ञानिक है। वह कितनी ही विकृत हो गई हो, पर उसके पीछे बड़ा गहरा विज्ञान है। उन्होंने तीन खंड कर दिए! और ध्यान रखना मौलिक खंड तीन ही होंगे। क्योंकि अगर तीन ही गुण हैं, तो चार वर्ण नहीं हो सकते। तो चौथा जो वर्ण है वैश्य का, वह वर्ण नहीं है, वह खिचड़ी है। मेरे देखे, वह वर्ण नहीं है।

शूद्र का अर्थ है, तमस—प्रधान। शूद्र का अर्थ है, जो भोजन के लिए जी रहा है। जो जीने के लिए भोजन नहीं करता, जो जीता ही भोजन करने के लिए है, तमस से घिरा हुआ। वह थोड़ा—बहुत कर लेगा, जितने से भोजन मिल जाए। शूद्र आलसी होगा, वह ज्यादा काम नहीं करेगा। क्योंकि करना क्या है काम से! बस, आज का भोजन मिल गया, काफी है। इसलिए शूद्र दरिद्र रहेगा।

और ऐसा नहीं कि हिंदुस्तान में ही वह दरिद्र है, वह जहां भी होगा। क्योंकि शूद्र तो भीतर का गुण है, जाति से उसका कोई संबंध नहीं है। सारी दुनिया में शूद्र हैं, वे इतना कमा लेते हैं, जितना खा लें। बस, इससे ज्यादा वे फिर हाथ नहीं हिलाते। भोजन मिल गया, शराब मिल गई, वे सो गए; बात खतम हो गई। कल का कल देखेंगे। वे दरिद्र रहेंगे, दीन रहेंगे और भोजन के आस—पास उनकी सारी वृत्ति घूमती रहेगी।

क्षत्रिय है राजस। सैनिक, महत्वाकांक्षी लोग, दौड़ है जिनके जीवन में, कुछ पाना है, बड़ी महत्वाकांक्षा का उन्मेष हुआ है, वे दूसरे तरह का भोजन पसंद करेंगे, जो ऊर्जा दे, ऊर्जा दे और बोझिलता न दे; ऊर्जा दे और सुस्ती न दे; शक्ति दे और नींद न दे। क्योंकि नींद आ जाएगी तो महत्वाकांक्षा कैसे पूरी करेगा? कौन पूरी करेगा?

राजस व्यक्ति सोने में अड़चन अनुभव करता है। तामसव्यक्ति गहरी नींद सोता है, जोर से घुर्राता है। राजस व्यक्ति को अक्सर नींद की तकलीफ हो जाएगी; वह सो न पाएगा। उसको अक्सर अनिद्रा की बीमारी सताएगी।

वह दौड़ कोई भी हो, चाहे वह दौड़ धन की कर रहा हो, चाहे पद की कर रहा हो, राजनीति में लगा हो या किसी और उपद्रव में लगा हो, लेकिन उसे दुनिया को कुछ करके दिखलाना है। उसको अहंकार प्रकट करना है कि मैं कुछ हूं मैं कोई साधारण व्यक्ति नहीं हूं असाधारण। उसे हस्ताक्षर करने हैं इतिहास पर, उसे लकीर छोड़नी है अपने पीछे, कि लोग हजारों साल तक याद रखें कि कोई था, कोई मूल्यवान था। ऐसा व्यक्ति तामसी भोजन नहीं करेगा। तुम चकित होओगे जानकर, अगर तुम हिटलर के भोजन के संबंध में जान लो, तो तुम बहुत हैरान होओगे। हिटलर न तो शराब पीता था, न सिगरेट पीता था, न अति भोजन करता था। शाकाहारी था। और इतना दुष्ट सिद्ध हुआ। महत्वाकांक्षी था। यह सब तो व्यवस्था महत्वाकांक्षा के लिए थी, ताकि ऊर्जा तो उपलब्ध हो, लेकिन सुस्ती न आए।

तो दुनिया में सारे क्षत्रिय अल्पभोजी होंगे। इसलिए क्षत्रियों की देहयष्टि देखने में सुंदर होगी। जापान के समुराई, या भारत के क्षत्रिय, जिनको लड़ना है युद्ध के मैदान पर, वे कोई बड़े—बड़े पेट लेकर युद्ध के मैदान पर नहीं जा सकते। उनके पास सिंह जैसे पेट होंगे, सिंह जैसी छाती होगी। अल्पभोजी होंगे, तभी सिंह जैसा पेट हो सकता है। मांसाहारी होंगे, लेकिन अल्पभोजी होंगे।

और यह जानकर तुम हैरान होओगे कि जिन्हें अल्प भोजन करना हो, उनके लिए मांसाहार जमता है। क्योंकि मांस पचा—पचाया भोजन है। थोड़ा—सा ले लिया, काफी शक्ति देता है। अगर शाक—सब्जी खानी हो, तो थोड़ी—सी शाक—सब्जी खाने से काफी शक्ति नहीं मिल सकती, काफी शाक—सब्जी खानी पड़ेगी, तब मिलेगी। इसलिए तो शाकाहारी जानवर दिनभर चरते रहते हैं। गाय बैठी है, चर रही है। घास चरती है। इससे ज्यादा शुद्ध अहिंसक और शाकाहारी खोजना मुश्किल है। महावीर भी इसको नमस्कार करेंगे। इसलिए तो हिंदुओं ने इसको गौ माता मान लिया; शुद्ध शाकाहारी है। इसकी आंखें देखो, कैसी हल्की और शांत! मगर चरती है दिनभर।

बंदर बैठे हैं, चर रहे हैं अपने— अपने झाडू पर। दिनभर चलता है यह कम। क्योंकि सब्जी से या पत्तियों से या फलों से बहुत थोड़ी ऊर्जा मिलती है, मात्रा उसकी बहुत कम है।

इसलिए तुम देखोगे कि दिगंबर जैन मुनि हैं, उनके बड़े—बड़े पेट हैं। यह होना नहीं चाहिए। क्योंकि ये तो उपवासी लोग हैं। इनके बड़े—बड़े पेट क्यों हैं? ये एक ही बार भोजन करते हैं। इनके बड़े—बड़े पेट क्यों हैं?

इनको एक ही बार में इतना करना पड़ता है कि चौबीस घंटे के लायक ऊर्जा मिल जाए। इसलिए काफी कर लेते हैं। पेट बड़े हो जाते हैं।

हिंदू संन्यासी का पेट बड़ा है, वह समझ में आता है, कि वह खीर—पकवान पर जीता है। लेकिन जैन संन्यासी का पेट क्यों बड़ा है? शाकाहारी शरीर है; अति भर लेता है।

अगर दुनिया में ठीक शाकाहार कभी हुआ प्रचलित, तो लोग कम से कम तीन या चार या पांच बार भोजन करेंगे, थोड़ा— थोड़ा, लेकिन फैलाकर करेंगे। क्योंकि शाकाहार थोड़ी—सी मात्रा देता है। बड़ी शुद्ध मात्रा देता है, लेकिन वह मात्रा थोड़ी है। और थोड़ी मात्रा का काम पूरा हो जाए जब चार घंटे बाद, तब फिर थोड़ी मात्रा। एक फल ले लिया, चार घंटे बाद दूसरा फल ले लिया। एक ग्लास दूध ले लिया, चार घंटे के बाद फिर थोड़ी सब्जी ले ली। मात्रा थोड़ी, लेकिन लंबे फैलाव पर होनी चाहिए। नहीं तो पेट खराब हो जाएगा।

राजसी व्यक्ति अक्सर मांसाहारी होंगे, लेकिन अल्पाहारी होंगे। तामसी व्यक्ति अत्यधिक भोजन करेगा। राजसी व्यक्ति उतना भोजन नहीं करेगा। उसे बहुत करना है, दौड़ना है, लड़ना है, जीना है। क्षत्रिय उसका वर्ग है।

फिर ब्राह्मण का वर्ग है, सत्व। ध्यान रखना, तामसी व्यक्ति अति भोजन करेगा; राजसी व्यक्ति जरूरत से कम करेगा, सत्व को उपलब्ध व्यक्ति सम्यक भोजन करेगा। न तो तामसी की भांति ज्यादा और न राजसी की भांति कम। उसका भोजन संतुलित होगा, संगीतपूर्ण होगा। वह उतना ही करेगा, जितना जरूरी है। वह वही करेगा, जितना आवश्यक है। उससे न रत्तीभर ज्यादा, न रत्तीभर कम।

इसलिए बुद्ध और महावीर दोनों ने सम्यक आहार पर जोर दिया है। वह सत्व का लक्षण है। जब बीमार होगा, उपवास कर लेगा। क्योंकि बीमारी में भोजन घातक है। जब स्वस्थ होगा, थोड़ा ज्यादा लेगा, जब उतना स्वस्थ न होगा, थोड़ा कम लेगा, उसका मापदंड रोज बदलता रहेगा। उसका प्राण हमेशा दिशासूचक यंत्र की तरह बताता रहेगा उसे कि कब कितना.। कभी वह थोडा ज्यादा लेगा, कभी थोड़ा कम लेगा।

सत्व को उपलब्ध व्यक्ति अनुशासन से नहीं जीते। तामसी व्यक्ति सदा ज्यादा लेगा, राजसी व्यक्ति सदा कम लेगा। सात्विक व्यक्ति संतुलित लेगा। लेकिन उसका संतुलन रोज बदलेगा। थोड़ा इसे समझ लेना चाहिए।

क्योंकि संतुलन रोज बदलना है, जिंदगी रोज बदल जाती है। तुम पैंतीस साल के हो; अभी तुम जितना भोजन करते हो, चालीस साल में उतना करोगे तो नुकसान होगा। पचास साल में उतना करोगे, तो भयंकर बीमारी हो जाएगी। पैंतीस साल पर जीवन—ऊर्जा उतरनी शुरू हो जाती है। अब मौत की तरफ यात्रा शुरू हो गई। आखिरी शिखर छू लिया। सत्तर साल में मरना है, तो पैंतीस साल में शिखर आ गया। अब उतार शुरू हुआ।

जैसे—जैसे उतार शुरू हुआ, सात्विक व्यक्ति का भोजन कम होता जाएगा। उसकी नींद भी कम होती जाएगी, भोजन भी कम होता जाएगा। सात्विक व्यक्ति मरते समय नींद से भी मुक्त हो जाएगा, भोजन से भी मुक्त हो जाएगा। सात्विक व्यक्ति की मृत्यु उपवास में होगी, अनिद्रा में होगी। तामसी व्यक्ति अक्सर नींद में मरेंगे। राजसी व्यक्ति संघर्ष में मरेंगे। सात्विक व्यक्ति उपवास में, शांति में, संगीत में मृत्यु को लीन होगा।

ब्राह्मण सात्विक का वर्ग है। सात्विक व्यक्ति जीने के लिए भोजन करता है, भोजन करने के लिए नहीं जीता। और सात्विक व्यक्ति के जीवन में कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, कोई एंबीशन नहीं है। इसलिए वह किसी दौड के लिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं करता। वह उतनी ही ऊर्जा चाहता है, जो आज जीवन के फूल के खिलने में सहयोगी हो जाए। वह कल की उसकी कोई दौड नहीं है, उसका कोई भविष्य नहीं है।

सात्विक व्यक्ति का भोजन अत्यल्प होगा, शुद्धतम होगा, मौलिक रूप से शाकाहारी होगा। कभी उसके शरीर पर इतना बोझ न होगा भोजन का कि मस्तिष्क को नुकसान पहुंचे। ही, बहुत बार वह भोजन लेगा ही नहीं, ताकि ऊर्जा शुद्ध हो जाए, शांत हो जाए और ध्यान में लीन हो जाए।

संसार में जितने लोगों ने भी परम समाधि पाई है, वे सभी लोग उपवास के प्रेमी थे। महावीर, बुद्ध, जीसस, मोहम्मद, सभी ने उपवास किया है। और सभी ने उपवास की ऊर्जा का लाभ लिया है। परम समाधि का क्षण उपवास के क्षण में ही आता है। तब विचार भी बंद हो जाते हैं; शरीर से भी संबंध बहुत दूर का हो जाता है, और ऊर्जा इतनी शुद्ध होती है, इतनी पवित्र होती है, इतनी कुंवारी होती है, कि उस पर सवार होकर कोई भी समाधि की उड़ा अवस्था को उपलब्ध हो जाता है।

भोजन करते हुए सविकल्प समाधि संभव है। भोजन करते हुए निर्विकल्प समाधि संभव नहीं है। अगर निर्विकल्प समाधि कभी भी संभव होती है, तो वह ऐसे ही क्षणों में संभव होती है, जब तुम्हारी स्थिति उपवास की है। यह भी हो सकता है, तुम उपवास न कर रहे हो।

जैसे जिस रति बुद्ध को ज्ञान हुआ है, उस रात उन्होंने भोजन लिया था, उपवासे वे नहीं थे। रात उन्होंने भोजन लिया था, सुबह वे ज्ञान को उपलब्ध हुए।

लेकिन सुबह आते— आते शरीर की अवस्था उपवास की हो जाती है। अंग्रेजी का शब्द अच्छा है नाश्ते के लिए, ब्रेकफास्ट। उसका मतलब होता है, उपवास तोड़ना। शरीर की अवस्था उपवास की हो जाती है। छ: घंटे में, जो तुमने खाया है, वह लीन होने लगता है। आठ घंटे में करीब—करीब लीन हो जाता है। आठ घंटे और बारह घंटे के बीच उपवास की अवस्था आ जाती है, तब भोजन किया, नहीं किया बराबर होता है।

जिनको भी जब भी कभी ज्ञान उपलब्ध हुआ है, ऐसी ही घड़ी में हुआ है, जब शरीर उस अवस्था में था, जिसको हम उपवास कहें। भोजन नहीं। शरीर भोजन नहीं पचा रहा था। भोजन जो किया था, वह पच गया था या किया ही नहीं था। शरीर बिलकुल सम्यक हालत में था। कोई काम नहीं चल रहा था। शरीर का कारखाना बिलकुल बंद पड़ा था। तभी तो सारी ऊर्जा मिल पाती है ध्यान को और ध्यान गति कर पाता है।

ये तीन वर्ण—शूद्र का, क्षत्रिय का, ब्राह्मण का—तमस, रजस, सत्व के वर्ण हैं। वैश्य का वर्ण तीनों का जोड़ है। तो वैश्य में तीनों तरह के लोग तुम पाओगे। शूद्र भी पाओगे, क्षत्रिय भी पाओगे, ब्राह्मण भी पाओगे। वैश्य मिश्रित वर्ग है। और तुमसे मैं यह बता दूं कि वैश्य दुनिया का सब से बड़ा वर्ग है।

ब्राह्मण तो कभी—कभी तुम्हें एकाध मिलेगा। जितने लोग ब्राह्मण की तरह जाने जाते हैं, उनको तुम ब्राह्मण मत समझ लेना। वे ब्राह्मण घर में जन्मे हैं। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता। ब्राह्मण तो ब्रह्म को जानने से कोई होता है। जिनके जीवन के तीनों गुण संयुक्त हो गए, सम—स्वर हो गए, समवेत हो गए और जिन्होंने तीनों के पार एक को जान लिया, वे ही ब्राह्मण हैं। या उस जानने के मार्ग पर गतिमान हैं, वे ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता।

दुनिया में सब से बड़ा वर्ग वैश्य का है, सौ में से पंचानबे प्रतिशत लोग वैश्य हैं। शूद्र भी धंधा कर रहा है। वह भी धन इकट्ठा करने में लगा है। क्षत्रिय भी धन इकट्ठा कर रहा है। हो सकता है, सैनिक का धंधा कर रहा है क्षत्रिय। लेकिन धन ही इकट्ठा कर रहा

है। ब्राह्मण भी हो सकता है पुजारी का धंधा कर रहा है, पुरोहित का धंधा कर रहा है, पंडित का धंधा कर रहा है, लेकिन धंधा ही कर रहा है। पंचानबे प्रतिशत लोग वैश्य हैं दुनिया में। चार प्रतिशत लोग शूद्र हैं दुनिया में, गहन तमस में पड़े हैं। और एक प्रतिशत मुश्किल से लोग ब्राह्मण हैं।

अगर तुम इन तीनों गुणों को ठीक से अपने भीतर समझोगे,

अपने आचरण में, व्यवहार में, वस्त्र में, भोजन में, उठने—बैठने में, सब तरफ से तुम धीरे— धीरे तमस को कम करोगे, रजस को कम करोगे, ताकि उन दोनों की ऊर्जा सत्य को मिल जाए, वे बराबर समतुल हो जाएं, तराजू एक—सा हो जाए, पलड़े एक तल पर आ जाएं, तो तुम्हारे भीतर ब्राह्मण का जन्म होगा।

कोई ब्राह्मण के घर में पैदा नहीं होता; ब्राह्मण तुम्हारे भीतर पैदा होता है। तुम ब्राह्मण में पैदा नहीं होते। ब्रह्म का बोध ब्राह्मण का लक्षण है।

और जैसा भोजन के संबंध में सच है, वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन ही तरह के होंगे। सभी कुछ तीन तरह का होगा।

तामसी व्यक्ति यज्ञ करेगा, तो इसलिए करेगा कि जो उसके पास है, वह खो न जाए।

इसे ठीक से समझ लो। तामसी व्यक्ति हमेशा इस चिंता में रहेगा कि जो उसके पास है, वह खो न जाए; उसे वह पकड़कर रखता है। वह अगर यश करेगा, तो इसलिए कि जो उसके पास है, वह बचा रहे।

राजसी को इसकी चिंता नहीं है, जो उसके पास है। उसको चिंता है, जो उसके पास नहीं है, वह उसे मिल जाए। इसलिए अगर राजसी यश करेगा, तो इसलिए, ताकि जो नहीं है, वह मिल जाए। वह कुछ पाने के लिए यज्ञ करेगा। तामसी बचाने के लिए यश करेगा।

और सात्विक व्यक्ति अगर यज्ञ करेगा, तो सिर्फ उत्सव के लिए। न कुछ बचाने के लिए, न कुछ पाने के लिए; जो मिला ही हुआ है, जो सदा मिल ही रहा है, उसके अहोभाव, उसके आनंद के लिए, उसके उत्सव के लिए। उसका यज्ञ एक नृत्य है; उसका यज्ञ एक गीत है, परमात्मा की तरफ गाया गया। उसका यज्ञ एक धन्यवाद है।

तामसी जाएगा मंदिर में, तो कहेगा कि जो मेरे पास है, छीन मत लेना। राजसी जाएगा, तो कहेगा कि जो मेरे पास नहीं है, उसे मेरे लिए जुटा। सात्विक जाएगा मंदिर में, तो धन्यवाद देने कि जो है, वह जरूरत से ज्यादा है। जो चाहिए, उससे बहुत ज्यादा है। मैं धन्यवाद देने आया हूं।

प्रार्थना तीनों की अलग—अलग होगी। ऐसे ही तीनों का तप अलग—अलग होगा। ऐसे ही तीनों का दान भी अलग—अलग होगा। तामसी अगर दान देगा, तो वह इसीलिए देगा कि वह जो उसने लूट—खसोट की है, वह बचे। लाख रुपया चोरी करेगा, दस रुपया दान करेगा। लाख रुपया बचा लेगा सरकार से टैक्स में, तो हजार रुपए का एक ट्रस्ट खड़ा कर देगा। वह यह दिखाना चाहता है कि दानी आदमी कहीं टैक्स बचाने वाला हो सकता है? कभी नहीं। वह चाहेगा कि समाज में खबर फैले कि वह बड़ा दानी है। अखबार में फोटो छपवाएगा कि अस्पताल बना दिया।

अभी तो मैं देखकर चकित हुआ। किसी ने यहां पूना में दस लाख रुपया दान दिया किसी अस्पताल को। चकित हुआ देखकर मैं यह कि अखबारों ने शायद यह खबर छापी न होगी, तो इसका विज्ञापन छपा अखबार में। विज्ञापन! एडवरटाइजमेंट! कि इतना—इतना दान फलां—फलां परिवार ने अस्पताल को दिया है। यह भी उसी परिवार की तरफ से छपा हुआ विज्ञापन!

दान का विज्ञापन करेगा। क्योंकि उससे उसको कुछ छिपाना है, कुछ बचाना है, कुछ ढांकना है। जो है, वह खो न जाए, इसलिए वह थोड़ा—सा दान भी देगा। ताकि परमात्मा भी ध्यान रखे, समाज भी ध्यान रखे, लोग भी खयाल रखें। चोर अक्सर दानी होते हैं। मगर उनका दान तामसी होता है। वे देते हैं इसलिए ताकि किसी को खयाल न आए कि इन्होंने इतना छीना होगा।

राजसी भी दान देगा। वह दान देगा इसलिए ताकि जो नहीं मिला है, वह मिले। उसका दान ऐसा है, जैसे कि मछली को पकड़ने वाला काटे पर आटा लगाता है। वह कोई मछली को आटा देने के लिए नहीं, मछली को पकड़ने के लिए है। वह दान देता है, ताकि उसकी महत्वाकांक्षा के लिए रास्ता बने।

अब किसी को कल्पना भी नहीं थी…..। महात्मा गांधी का पूरा आंदोलन भारत के धनपतियों के दान से चला। गांधी ने कभी सोचा भी न होगा कि धनपति यों ही नहीं देता। वे सारे धनपति हावी हो गए कांग्रेस पर। दान उन्होंने दिया था, फिर उन्होंने खूब उसका भोग भी लिया। अब भी वे देते हैं।

अब यह बड़े मजे की बात है, चाहे इंदिरा को इलेक्शन लड़ना हो, तो उन्हीं से पैसा मिलना है। चाहे मोरारजी को लड़ना हो, तो उन्हीं से पैसा मिलना है। और चाहे जयप्रकाश को पूर्ण क्रांति करनी हो, उनको भी उन्हीं से पैसा मिलना है।

पूंजीपति बड़ा कुशल है। वह सबको देता है। जो भी आएगा, उससे ही वसूल कर लेगा। वह कोई फिक्र नहीं करता। उसका कोई पक्ष नहीं है। महत्वाकांक्षी का क्या पक्ष! उसको कोई मतलब नहीं है कि तुम जनसंघी हो, कि तुम कम्युनिस्ट हो, कि तुम कांग्रेसी हो, कोई मतलब नहीं है। तुम कोई भी हो, लो रुपया।

ध्यान रखना, अगर कभी ताकत में आओ, तो भूल मत जाना। और भूलोगे कैसे? क्योंकि ताकत में आना ही थोड़े ही काफी है। फिर ताकत में बने रहने की जरूरत है। तब फिर पैसा चाहिए।

बहुत कठिन है धनपति से बच जाना। क्योंकि हर एक को वही देगा। सब को वही दे रहा है। इसलिए मजे का खेल यह है कि राजनीतिज्ञ करीब—करीब शतरंज के मोहरे हैं। खेलने वाले कोई और ही हैं। उनके चेहरे भी दिखाई नहीं पड़ते कि कौन खेल रहा है।

बिड़ला के पास, हिंदुस्तान आजाद हुआ, तब केवल तीस करोड़ रुपए थे। अब तीन सौ तीस करोड़ रुपए हैं। यह कैसे हुआ? बिड़ला ने गांधी को अपने घरों में ठहराया सब जगह। जिंदगीभर गांधी बिड़ला के घरों में ठहरे। मरे भी बिड़ला के घर में। सारे राजनीतिज्ञ बिड़ला से पलते—पुसते रहे। तीस करोड़ की संपत्ति तीन सौ तीस करोड़ हो गई। और बढती चली जाती है।

और दान की कोई कमी नहीं है। कितने मंदिर बिड़ला बनाते हैं। हर जगह मंदिर बनता है, सब तरह का दान करते हैं। उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। असल में वह दान तो आटा है, जो काटे पर लगाया जाता है।

तो राजसी भी दान देता है, वह उसको पाने के लिए देता है, जो उसके हाथ में नहीं है। तामसी देता है उसको बचाने के लिए, जो उसके पास है।

सात्विक व्यक्ति दान देता है अहोभाव से, प्रेम से, न कुछ बचाने को है, न कुछ पाने को है। जो है, वह बांटने को है। जो है, उसमें दूसरे को भी साझीदार बनाना है। वह इतना आनंदित है कि तुम्हें अपने आनंद में भी मित्र बनाना चाहता है, कि तुम आओ। जो भई है उसके पास—रूखा—सूखा है तो, बहुत बहुमूल्य है तो, झोपड़ा है तो, महल है तो—वह तुम्हें बुलाता है कि निकट आओ, जो मेरे पास है, हम बांटें, हम साझीदार बनें। वह भी दान देता है, लेकिन उसका दान बेशर्त है।

तीनों पर ध्यान रखना। अपने भीतर धीरे— धीरे खोज करना। यह विश्लेषण का सूत्र है कि तुम तामसी हो, कि राजसी हो, कि सात्विक हो। और किसी को धोखा देना नहीं है, इसलिए ठीक—ठीक जांच—परख करना।

विश्लेषण ठीक कर लोगे, तो उससे तुम्हारा रास्ता साफ होगा। और तब धीरे— धीरे तुम ऊर्जा को रूपांतरित कर सकते हो। जो ऊर्जा तमस में जा रही है, उसे रजस में ला सकते हो। जो ऊर्जा रजस में जा रही है, उसे सत्य में ला सकते हो।

शास्त्र की परिणति है, जब तीनों की ऊर्जाएं समतुल हो जाएंगी, वे तीनों एक —दूसरे को काट देते हैं चेतना गुणातीत हो जाती है। गुणातीत हो जाते ही तुम भी कह सकोगे, अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं!

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--8 (ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–5)

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कुंडलिनी, शक्तिपात व प्रभु प्रसाद—(प्रवचन—पांचवां)

अंतिम ध्यान प्रयोग

मेरे प्रिय आत्मन्!

हुत आशा और संकल्प से भर कर आज का प्रयोग करें। जानें कि होगा ही। जैसे सूर्य निकला है, ऐसे ही भीतर भी प्रकाश फैलेगा। जैसे सुबह फूल खिले हैं, ऐसे ही आनंद के फूल भीतर भी खिलेंगे। पूरी आशा से जो चलता है वह पहुंच जाता है, और जो पूरी प्यास से पुकारता है उसे मिल जाता है।

जो मित्र खड़े हो सकते हों, वे खड़े होकर ही प्रयोग को करेंगे। जो मित्र खड़े हैं, उनके आसपास जो लोग बैठे हैं, वे थोड़ा हट जाएंगे.. .कोई गिरे तो किसी के ऊपर न गिर जाए। खड़े होने पर बहुत जोर से क्रिया होगी—शरीर पूरा नाचने लगेगा आनंदमग्न होकर। इसलिए पास कोई बैठा हो, वह हट जाए। जो मित्र खड़े हैं, उनके आसपास थोड़ी जगह छोड़ दें—शीघ्रता से। और पूरा साहस करना है, जरा भी अपने भीतर कोई कमी नहीं छोड देनी है।

 

पहला चरण:

आंख बंद कर लें……गहरी श्वास लेना शुरू करें—गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े…… और भीतर देखते रहें— श्वास आई, श्वास गई। गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े।

(प्रयोग शुरू करते ही चारों तरफ अनेक स्त्री और पुरुष साधक रोने चिल्लाने और चीखने लगे। कत लोगों का शरीर कंपने लगा और अनेक तरह की क्रियाएं होने लगीं।)

……गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े…….

(बहुत से साधक अनेक तरह से नाचने कूदने उछलने रोने चीखने और चिल्लाने लगे साथ ही अनेक मंह से अनेक प्रकार की आवाजें निकलने लगीं। ओशो का सुझाव देना चलता रहा…….)

गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े…….गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े. .शक्ति पूरी लगाएं। दस मिनट के लिए गहरी श्वास लें और गहरी श्वास छोड़े।…….गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े…… .गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े। पूरी शक्ति लगाएं.. ;;;.गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े— और भीतर देखते रहें…….

(चीत्कार…… चीख…… इत्यादि)

गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े… गहरी श्वास लें, गहरी श्वास छोड़े……. और भीतर देखते रहें— श्वास आ रही, श्वास जा रही।……. शक्ति पूरी लगा दें……. और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… श्वास में पूरी शक्ति लगा दें। एक दस मिनट पूरी शक्ति लगा दें।.. ….गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास…

(लोगों का चीखना चिल्लाना हंसना……)

गहरी श्वास….. गहरी श्वास……. गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास…… भीतर देखते रहें — श्वास आई, श्वास गई……. शक्ति पूरी लगा दें। कुछ भी बचाएं नहीं, शक्ति पूरी लगा दें। गहरी श्वास… गहरी श्वास……. गहरी श्वास… गहरी श्वास…… गहरी श्वास। शरीर एक ऊर्जा का पुंज मात्र रह जाएगा। श्वास ही श्वास रह जाएगी। शरीर एक विद्युत बन जाएगा। गहरी श्वास

(लोगों का चीखना इत्यादि…..)

गहरी श्वास.. गहरी श्वास.. .गहरी श्वास… गहरी श्वास.. …..गहरी श्वास.. .कोई पीछे न रहे, पूरी शक्ति लगा दें। गहरी गहरी श्वास…… गहरी श्वास

(साधको का हंसना, बड़बड़ाना, हुंकार करना, चीखना नाचना कूदना…….)

गहरी श्वास… …गहरी श्वास… गहरी श्वास…… पांच मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं….. फिर हम दूसरे सूत्र में प्रवेश गहरी श्वास….. गहरी श्वास….. गहरी श्वास……. गहरी श्वास….. गहरी श्वास…… गहरी श्वास……

(बीच— बीच में अनेक साधकों का चीखना उछलना और मुंह से अनेक तरह की आवाजें निकालना……)

शरीर सिर्फ एक यंत्र रह जाए, श्वास लेने का यंत्र मात्र रह जाए…… सिर्फ श्वास ही रह जाएं….. .गहरी श्वास…… गहरी….. . गहरी श्वास… गहरी श्वास…… पूरी शक्ति लगा दें…… गहरी श्वास….. .पूरी शक्ति लगा दें…… गहरी श्वास… गहरी…. . सिर्फ श्वास ही रह गई है, सिर्फ श्वास ही रह गई है…… कमजोरी न करें, रुके न, ताकत पूरी लगा दें……. कुछ बचाएं न, ताकत पूरी लगा दें….. शक्ति पूरी लगा दें.. …..शक्ति पूरी लगा दें. .शक्ति पूरी लगा दें……

(साधको का तीव्र आवाजें निकालना और हांफना…… चिल्लाना उछलना कूदना…….)

शक्ति पूरी लगा दें…… .पीछे न रुके….. .पीछे न रुके…… .यह पूरा वातावरण चार्ज्‍ड हो जाएगा। शक्ति पूरी लगा दें….. .घटना घटेगी ही। शक्ति पूरी लगा दें….. गहरी श्वास…… और गहरी श्वास… और गहरी श्वास… और गहरी श्वास…… और गहरी श्वास….. और गहरी श्वास….. .शक्ति पूरी लगाएं…. .देखें, रुके न। मैं आपके पास ही आकर कह रहा हूं—शक्ति पूरी लगा दें। पीछे कहने को न हो कि नहीं हुआ…….

पूरी शक्ति लगाएं… पूरी शक्ति लगाएं….. पूरी शक्ति लगाएं… पूरी शक्ति लगाएं……. गहरी श्वास… और गहरी……. और गहरी…… जितनी गहरी श्वास होगी, सोई हुई शक्ति के जगने में सहायता मिलेगी……. कुंडलिनी ऊपर की ओर उठने लगेगी। गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें…

(कुछ लोगों का जोर से सेना चीखना……)

कुंडलिनी ऊपर की ओर उठनी शुरू होगी…… .गहरी श्वास लें…… .शक्ति ऊपर उठने लगेगी….. .गहरी श्वास लें…… .गहरी श्वास (एक साधक का तीव्रतम आवाज में चीत्कार करना— काऽऽऽऽ:.. काऽऽऽऽऽ.. चारों ओर साधक अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं में संलग्न हैं किसी को योगासन हो रहे है, किसी को अनेक प्रकार के प्राणायाम हो रहे है? किसी को अनेक मुद्राएं हो रही हैं कई हंस रहे है, कई रो रहे हैं। चारों ओर एक अजीब सा दृश्य उपस्थित हो गया है ओशो कुछ देर चुप रहकर फिर साधकों को प्रोत्साहन देने लगते हैं……)

दो मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं….. .गहरी श्वास… गहरी श्वास….. कुंडलिनी उठने लगेगी… गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें…… गहरी श्वास लें…… जितनी गहरी ले सकें लें। दो मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं। फिर हम दूसरे सूत्र में प्रवेश करेंगे.. .गहरी श्वास….. .गहरी श्वास…… भीतर कुछ उठ रहा है, उसे उठने दें… गहरी श्वास….. .गहरी श्वास… गहरी श्वास… गहरी श्वास…… गहरी श्वास….. .गहरी श्वास…

(कुछ साधकों का चीखना अनेक तरह की आवाजें निकालना और नाचना…..)

एक मिनट बचा है, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम दूसरे सूत्र में जाएंगे…… गहरी श्वास……. ताकत पूरी लगा दें…… ताकत पूरी लगा दें… ताकत पूरी लगा दें……. भीतर शक्ति उठ रही है, छोड़े नहीं अपने को… ताकत पूरी लगा दें…. .गहरी… और गहरी…… और गहरी… और गहरी…… कूद पड़े, पूरी ताकत लगा दें….. .सारी शक्ति लगा दें… गहरी… गहरी… गहरी श्वास… गहरी श्वास… गहरी श्वास… गहरी श्वास.. .श्वास की चोट होने दें भीतर, सोई हुई शक्ति उठेगी…… गहरी श्वास…… गहरी श्वास.. गहरी श्वास…… गहरी श्वास….. गहरी श्वास.. अब दूसरे सूत्र में जाना है….. गहरी श्वास….. और गहरी— आपसे ही कह रहा हूं….. ताकत पूरी लगा दें…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी…… और गहरी……

दूसरा चरण:

दूसरे सूत्र में प्रवेश कर जाएं। श्वास गहरी रहेगी। शरीर को छोड़ दें। शरीर को जो भी होता है, होने दें। शरीर रोए, रोने दें…… .हंसे, हंसने दें….. .चिल्लाए, चिल्लाने दें….. .शरीर नाचने लगे, नाचने दें—शरीर को जो होता है, होने दें। शरीर को छोड दें अब….. .शरीर को जो होता है, होने दें

(अनेक तरह की आवाजें निकलना और शरीर की प्रक्रियाओं में विविध गतियों में तीव्रता का आना।)

शरीर को छोड़ दें बिलकुल— जो होता है, होने दें। शरीर के अंगों में जो होता है, होने दें….. .शरीर को छोड़ दें….. .दस मिनट के लिए शरीर को होने दें जो होता है।

(शरीर की गतियां और चीखना— चिल्लाना चलता रहा. और ओशो सुझाव देते रहे—……)

शरीर को छोड़ दें, पूरी तरह छोड़ दें शरीर नाचेगा, कूदेगा, छोड़ दें भीतर शक्ति भीतर शक्ति उठेगी. शरीर नाचेगा, कूदेगा…छोड़ दें—शरीर को बिलकुल छोड़ दें…जो होता है, होने दें…

(कुछ लोग अट्टहास कर रहे हैं कुछ ताली बजा रहे हैं कई रो रहे हैं कई हंस व नाच रहे हैं..एक महिला तीव्रआवाज से चीत्कार करने लगती है..अनेक लोगों के मुंह से विचित्र आवाजें निकल रही हैं..एक व्यक्ति का तीव्रता से चिल्लाना आऽऽऽsssss—..आऽऽऽsssss……)

 

शरीर को छोड़ दें…… .श्वास गहरी रहे….. .शरीर को छोड़ दें… भीतर शक्ति जागेगी….. .शरीर नाचने लगेगा, कूदने लगेगा, कैपने लगेगा—जो भी होता है, होने दें। शरीर लोटने लगे, चीखने लगे, हंसने लगे—छोड़ दें….. .शरीर को पूरी तरह छोड़ दें… ताकि अलग दिखाई पड़ने लगे—मैं अलग हूं शरीर अलग है। शरीर को छोड़े….. .शरीर को छोड़े.. .शरीर को बिलकुल छोड़ दें। छोड़े…… .शरीर को छोड़ दें। शरीर एक विद्युत का यंत्र भर रह गया है। शरीर नाच रहा है, शरीर कूद रहा है, शरीर कैप रहा है….. .शरीर को छोड़ दें। शरीर रो रहा है, शरीर हंस रहा हैं—शरीर को छोड़ दें। आप शरीर से अलग हैं, शरीर को छोड़ दें, शरीर को जो होता है, होने दें…

(आवाजें….. चीखे…. रुदन….. हिचकियां…..)

छोड़े……. छोड़े…… शरीर को बिलकुल छोड़ दें। रोकें नहीं…… कुछ मित्र रोक रहे हैं, रोकें नहीं.. .छोड़ दें। जरा भी न रोकें, जो होता है, होने दें…… शरीर को बिलकुल थका डालना है, सहयोग करें। शरीर को छोड़ दें, सहयोग करें, जो होता है, होने दें…….

(अनेक तरह की आवाजें.. चीखना चिल्लाना फूट— फुटकर रोना। रेचन की प्रक्रिया अति तीव्र हो गई। सेना हंसना आवाजें करना चीखना चिल्लाना खूब जोरों से होने लगा; ओशो का सुझाव देना जारी रहा……)

शरीर को थका डालना है, छोड़ दें…… बिलकुल छोड़ दें— जो होता है, होने दें। छोड़े….. .छोड़े… रोकें नहीं। देखें, कोई रोके नहीं, छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें। शरीर को जो होता है, होने दें…… होने दें.. ….होने दें….. छोड़ दें……

(चारों तरफ अनेक तरह की धीमी और तीव्र आवाजों का संयोग एक शोरगुल सा पैदा कर रहा है……)

छोड़ दें…… पांच मिनट बचे हैं, शरीर को पूरी तरह छोड़ दें— सहयोग करें…… शरीर को जो हो रहा है, कोआपरेट करें…… शरीर जो कर रहा है, उसे करने दें— रोना है रोए, हंसना है हंसे। रोकें नहीं। शरीर नाचने लगेगा, नाचने दें। शरीर उछलने लगे, उछलने दें……

(अनेक तीव्र आवाजें कराहना चीखना चिल्लाना रोना हंसना भागना— दौड़ना……)

छोड़े. .पूरी तरह छोड़े.. .सहयोग करें… भीतर शक्ति उठ रही है, उसे छोड़ दें.. .पांच मिनट बचे हैं, पूरी तरह छोड़े। शरीर को पूरी तरह छोड़े……

(कई चीखे चीत्कार और शरीर की तीव्र प्रतिक्रियाएं…… अचानक माइक काम करना बंद कर देता है। व्यवस्था करनेवाले व्यक्ति सब ध्यान में हैं। लाउडस्पीकर का आपरेटर भी ध्यान कर रहा है। कुछ देर बाद उसे किसी के द्वारा झकझोर कर सामान्य अवस्था में लाया गया शांत किया गया तब उसने माइक की खराबी खोजनी शुरू की…… ओशो बिना माइक के ही बोलते रहे…….)

 

छोड़े…… .पूरी तरह छोड़े…… .छोड़े…… .पूरी तरह से छोड़े……. शरीर को जो हो रहा है होने दें। पूरी शक्ति से छोड़े….. छोड़े……. दो मिनट बचे हैं, पूरी तरह छोड़ दें.. .दो मिनट बचे हैं, शरीर को पूरी तरह छोड़ दें। शरीर अलग है, आप अलग हैं। शरीर को जो होना है, होने दें…… आप अलग हैं…… दो मिनट के लिए पूरी तरह छोड़े; फिर हम दूसरे सूत्र में चलेंगे.. …..छोड़े.. .छोड़े….. .बिलकुल छोड़ दें……. शरीर को थका डालें……. छोड़े… छोड़े… छोड़े… गहरी श्वास लें…… शरीर को छोड़ दें… शरीर नाचता है, नाचने दें। बिलकुल छोड़ दें…… आप अलग हैं… तीसरे सूत्र में चलने के पहले पूरी शक्ति लगा दें… शरीर को छोड़े…… .छोड़े…… एक मिनट बचा है, पूरी तरह छोड़े…… पूरी तरह छोड़े… पूरी तरह छोड़े……

(एक साधक का तीव्रता से चिल्लाना…….. आऽऽऽऽऽऽ…….)

जो होता है, होने दें…….एक मिनट बचा है, पूरी तरह छोड़े…….पूरी तरह छोड़ दें….. .जो होता है, होने दें…….एक मिनट के लिए सब छोड़ दें……

(लंबी रेंकने की सी आवाज….. रुदन.. ….अट्टहास….. हंसी…..)

छोड़े, बिलकुल छोड़ दें। शरीर को बिलकुल नाचने दें, छोड़ दें…… चिल्लाने दें… रोने दें…… हंसने दें — छोड़ दें….. शरीर जो कर रहा है, करने दें… साफ दिखाई पड़ेगा — आप अलग हैं, शरीर अलग है। पूरी तरह छोड़े….. फिर तीसरे सूत्र में प्रवेश करेंगे…… छोडे…… छोडे… छोडे…… सहयोग करें…… शरीर को छोड़ दें……

तीसरा चरण:

और अब तीसरे सूत्र में प्रवेश कर जाएं! भीतर पूछें—मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. …..मैं कौन हूं?. .मैं कौन हूं?.. …..मैं कौन हूं….. .दस मिनट तक शरीर नाचता रहे, श्वास गहरी रहे और भीतर पूछें— मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?…

(लोगों का अनेक क्रियाओं को करते हुए सेना….. चिल्लाना….. कराहना….. हिचकियां लेना….. हांफना….. एक साधक का जोर से लगातार चिल्लाना— कौन हूं?… कौन हूं?… ओशो सुझाव देते रहे…..)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .पूरी ताकत लगा दें.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?…….

(अनेक तरह की आवाजें लोगों के मुंह से निकलना….. हिचकियों के साथ रोना…… चिल्लाना.. नाचना. एक व्यक्ति का असाधारण तीव्रता से चिल्लाना— क्याऽठठऽऽ.. क्याऽठऽठठऽऽ.. क्याऽऽऽऽठऽठऽ.. )

 

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?..

(आवाजें….. चिंघाड़ना….. अट्टहास करना…. एक साधक का कराहपूर्वक चिल्लाना— आउठऽऽऽ आऽऽऽऽऽ आठऽऽठठू.. ओशो सुझाव देते रहे…..)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?. .मैं कौन हूं? पूरी तरह.. .पूरी ताकत से पूछें—मैं कौन हूं—. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?…….

(रोना चीखना तड़फना नाचना आदि.. …मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? की अनेक आवाजें……)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?. .मैं कौन हूं?.. .शक्ति पूरी लगा शक्ति पूरी लगा दें.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?. .मैं कौन हूं?. .शक्ति पूरी लगाएं….. .मैं कौन हूं?

 

(अनेक लोगों की चीत्कार…… चिंघाड़…… पछाड़ खाकर सेना….. गिरना…… रेत पर लोटना.. उछलना….. कूदना…..)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?… मैं कौन हूं?…

(एक व्यक्ति की कराह के साथ आवाज— आऽऽऽऽऽऽ:. आऽऽऽठऽउर..)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं? पांच मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम विश्राम करेंगे.. .शरीर को छोड़ दें.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .पूरी शक्ति लगाएं….. .पूरी शक्ति लगाएं…….

(एक लंबी चीत्कार. …..और अनेकों का सेना चीखना चिल्लाना……)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .पूरी शक्ति लगाएं.. .पूरी शक्ति लगाएं.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?… तीन मिनट बचे हैं, फिर हम विश्राम करेंगे… अपने को थका डालें… भीतर शक्ति उठ रही है..

(रोना चीखना उछलना कूदना भागना— दौडना……)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?… मैं कौन हूं?. .शक्ति पूरी लगाएं.. .मैं कौन हूं?.. .दो मिनट बचे हैं, शक्ति पूरी लगाएं.. .मैं कौन हूं?… मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?

(शरीर की क्रियाएं…… शोरगुल…… आवाजें…… एक तीव्र आवाज— काउऽऽऽऽ.. काऽऽठऽऽऽर..)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. मैं कौन हूं?.. आखिरी दो मिनट बचे हैं, शक्ति पूरी लगाएं.. .फिर हम विश्राम करेंगे.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .शक्ति भीतर जाग रही है, शरीर को नाच जाने दें.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. मैं कौन हूं?. .शक्ति भीतर पूरी जग जाने दें. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .बिलकुल पागल हो जाएं.. मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?

(एक व्यक्ति का जोर से चिल्लाना— बाऽठऽऽ:…… बाठऽऽऽऽ.. …बाठठठऽठू…….)

मैं कौन हूं?. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .थका डालें अपने को, फिर विश्राम करना है.. .मैं कौन हूं?… .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?…… .एक मिनट और—मैं कौन हूं?… .शरीर नाचता है, नाच जाने दें.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?…

( साधकों की तीव्रतम गतियां…… तीव्र चीत्कार रुदन……)

मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं? पूरी ताकत लगा दें.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं? हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?

…..फिर विश्राम में जाना है, पूरी ताकत लगा दें… आखिरी क्षण में मैं कौन हूं?… अवसर न खोए, पूरी ताकत लगा दें.. .

मैं कौन मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन ‘?.. .मैं कौन हूं?.. .आखिरी ताकत, फिर विश्राम में जाना है.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?.. .मैं कौन हूं?

चौथा चरण:

बस.. …..सब छोड़ दें…… सब छोड़ दें….. .पूछना छोड़ दें….. .श्वास लेना छोड़ दें—जो जहां पड़ा है, पड़ा रह जाए.. जो जहां खड़ा है, खड़ा रह जाए। गिरना हो गिर जाएं.. लेटना हो लेट जाएं.. .बैठना हो बैठे रह जाएं….. .सब शांत, सब शून्य हो जाने दें। न कुछ पूछें, न कुछ करें, बस पड़े रह जाएं, जैसे मर गए, जैसे हैं ही नहीं। तूफान चला गया, भीतर शांति छूट जाएगी….. .सब मिट गया.. .सब शांत हो गया। तूफान गया.. .पड़े रह जाएं, दस मिनट बिलकुल पड़े रह जाएं।

इस शांति में, इस शून्य में ही उसका आगमन होता है, जिसकी खोज है.. .पड़े रह जाएं.. .सब छोड़ दें…… .सब छोड़ दें….. .न श्वास जोर से लेनी है, न प्रश्न पूछना है, न कुछ करना है। शरीर को भी छोड़ दें। खड़े हैं, खड़े रह जाएं; गिर गए हैं, गिरे रह जाएं; पड़े हैं, पड़े रह जाएं। दस मिनट के लिए मर जाएं— हैं ही नहीं.. .तूफान गया.. .सब शांत हो गया.. .सब मौन हो गया

(चारों ओर सब साधक शांत और स्थिर हो गए हैं। बीच— बीच में कोई कराह उठता है? कोई हिचकियां लेने लगता है? कोई सुबकने लगता है और फिर शांत व चुप हो जाता है।)

इस शून्य में ही कुछ घटित होगा— कोई फूल खिलेंगे.. .कोई प्रकाश फैल जाएगा. .कोई शांति की धारा फूट पड़ेगी… कोई आनंद का संगीत सुनाई पड़ेगा। इस शून्य में ही प्रभु निकट आता है। प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें.. .पड़े रह जाएं, खड़े रह जाएं। प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें। बस प्रतीक्षा करें। सब थक गया…… .सब शून्य हो गया…..

(कराह की कुछ आवाजें।)

प्रतीक्षा करें…… .प्रतीक्षा करें……. अब मैं चुप हो जाता हूं। दस मिनट चुपचाप…….

(पक्षियों की सुरीली आवाजें.. किसी का हिलना—डुलना किसी का सुबकना श्वास लेना। एक साधक का जोर से चिल्लाना— प्रभुऽठऽठऽ मने माफ कर….. प्रत्येक गुनाह बदल मने शिक्षा कर….. हे प्रभु.. किसी— किसी का हूंऽठठठऽर हूंऽऽऽऽऽर हूंऽठऽऽऽ करना। कराहने की आवाजें। एक व्यक्ति का जोर से चीखना— पाऽऽऽऽ पी.. कुछ देर बाद दूर कोने से एक साधक के मुंह से आवाज निकलती है— ‘ कौन कहता है पापी हूं?’…… पुन: किसी का कराहना— ऊं… ऊं—.. ऊं—.. करना। कौवों का काव— काव करना सरूवन में हवा की सरसराहट.. सागर का गर्जन.. सब तरफ सन्नाटा जैसे सरूवन बिलकुल निर्जन हो। एक महिला का सेना हिचकियां लेना……)

जैसे मर ही गए। जैसे मिट ही गए। एक शून्य मात्र रह गए। सब मिट गया। सब शांत हो गया। सब मौन हो गया। इस मौन में ही उसका आगमन है…… .इस शून्य में ही उसका द्वार है। प्रतीक्षा करें…… .प्रतीक्षा करें…

(एक महिला का सुबक— सुबककर सेना….. एक व्यक्ति का हूं—….. हूं—….. हूं:….. की आवाज करना। दूर कोने से एक साधक का तीव्रता से श्वास लेना— छोड़ना करना। कुछ लोगों का कराहना.. फुसफुसाना…… एक व्यक्ति का पुन: चीख उठना— पाऽऽऽऽऽ पीऽऽठऽऽ.. …किसी का बड़बड़ाना.. माइक अब सुधर पाया.. …माइक पर ओशो बोलते हैं…..)

 

जैसे मर ही गए। जैसे मिट ही गए। तूफान गया, शांति छूट गई। प्रतीक्षा करें.. .प्रतीक्षा करें.. .इसी क्षण में कुछ घटित होता है। मौन प्रतीक्षा करें, मौन प्रतीक्षा करें। शून्य हो गया…… .सब शून्य हो गया. .प्रतीक्षा करें. .प्रतीक्षा करें…… .प्रतीक्षा करें…। जैसे मर ही गए, लेकिन भीतर कोई जागा हुआ है। सब शून्य हो गया, लेकिन भीतर कोई ज्योति जागी हुई है—जो जानती है, देखती है, पहचानती है। आप तो मिट गए, लेकिन कोई और जागा हुआ है। भीतर सब प्रकाशित है। भीतर आनंद की धारा बहने लगी है। परमात्मा बहुत निकट है। प्रतीक्षा करें.. .प्रतीक्षा करें.. .प्रतीक्षा करें…

(एक व्यक्ति काफुसफुसाना—पापीचारा पापीचारा पापीचारा…… एक साधक का सोए—सोए ही कह उठना—यह साधना चालू रखें यह साधना चालू रखें.. ….कहीं से दोनों हथेलियों को तेजी से पीटने की आवाज—पटु पट पट…… एक साधक की तीव्र चीत्कार—बचाऽऽ…ठऽऽ ओउऽऽऽऽठ…..)

जैसे मर गए। जैसे मिट गए। जैसे मर ही गए। जैसे मिट गए। जैसे बूंद सागर में गिरकर खो जाती है, ऐसे खो गए…… .प्रतीक्षा करें…… .इस खो जाने में ही उसका मिल जाना है। प्रतीक्षा करें.. …..प्रतीक्षा करें…… भीतर शांत—मौन प्रकाश फैल गया है। गहरा आनंद झलकना शुरू होगा। गहरा आनंद उठना शुरू होगा। भीतर आनंद की धारा बहने लगेगी। प्रतीक्षा करें……. प्रतीक्षा करें….. .प्रतीक्षा करें…

(प्रभु प्रभु हे प्रभु की आवाज…….)

 

भीतर आनंद बहने लगेगा। भीतर उसका प्रकाश उतरने लगेगा….. प्रतीक्षा, प्रतीक्षा, प्रतीक्षा.. .जैसे मर ही गए, जैसे मिट ही गए, सब शून्य हो गया…… .इसी शून्य में उसका दर्शन है। इसी शून्य में उसकी झलक है। इसी शून्य में उसकी उपलब्धि है। प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें.. .देखें, भीतर कोई प्रवेश कर रहा है…… .देखें, भीतर कोई जाग गया है……. देखें, भीतर कोई आनंद प्रकट हो गया है। आनंद, जो कभी नहीं जाना। आनंद, जो अपरिचित है। आनंद, जो अज्ञात है। प्राण के पोर—पोर में कुछ भर गया है। प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें

(पक्षियों की आवाजें…. शुरू वृक्षों की सरसराहट…… सब शांत है…….)

आनंद ही आनंद शेष रह जाता है। प्रकाश ही प्रकाश शेष रह जाता है। शांति ही शांति शेष रह जाती है। प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें। इन्हीं मौन क्षणों में आगमन है उसका। इन्हीं मौन क्षणों में मिलन है उससे। प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें…….

(एक साधक का तीव्र श्वास—प्रश्वास लेना. एक व्यक्ति का कराहना……)

जिसकी खोज है, वह बहुत पास है। जिसकी तलाश है, इस समय बहुत निकट है। जिसकी खोज है, वह बहुत पास है। जिसकी तलाश है, वह बहुत निकट है। प्रतीक्षा करें, प्रतीक्षा करें…….

अब धीरे— धीरे आनंद के इस जगत से वापस लौट आएं। धीरे— धीरे प्रकाश के इस जगत से वापस लौट आएं। धीरे— धीरे भीतर के इस जगत से वापस लौट आएं। बहुत आहिस्ता—आहिस्ता आंख खोलें। आंख न खुलती हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, फिर धीरे— धीरे खोलें। और जल्दी कोई भी नहीं करे। जो गिर गए हैं, उठ न सकें, वे धीरे— धीरे दों—चार गहरी श्वास लें, फिर आहिस्ता—आहिस्ता उठें। बिना बोले, बिना आवाज किए चुपचाप उठ आएं। जो खड़े हैं, वे चुपचाप बैठ जाएं। धीरे— धीरे आंख खोल लें, वापस लौट आएं।

(एक महिला का हिचकी ले— लेकर सेना……)

हमारी सुबह की बैठक पूरी हुई।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–12)

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नाटकीय जीवन के प्रति साक्षी चेतना का जागरण—(प्रवचन—बाहरवां)

(रुक जाएं और एक क्षण को किसी भी क्षण को, जागने का क्षण बना लें और क्या हो रहा है। आप साक्षी रह जाए सिर्फ।)

भगवान श्री मृत्यु में भी जागे रहने के लिए या ध्यान में सचेतन मृत्यु की घटना को सफलतापूर्वक आयोजित करने के लिए शरीर— प्रणाली श्वास— प्रणाली श्वास की स्थिति प्राणों की स्थिति ब्रह्मचर्य मनशक्ति आदि के संबंध में क्या— क्या तैयारियां साधक की होनी चाहिए इस पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें।

मृत्यु में जागे हुए रहने के लिए सबसे पहली तैयारी दुख में जागे रहने की करनी पडती है। साधारणत: जो दुख में ही मूर्च्छित हो जाता है, उसकी मृत्यु में जागे रहने की संभावना नहीं है। और दुख में मूर्च्‍छित होने का क्या अर्थ है, यह समझ लेना जरूरी है। तो दुख में जागे रहने का अर्थ भी समझ में आ जाएगा।

जब भी हम दुख में होते हैं तो मूर्च्छित होने का अर्थ होता है, दुख के साथ आइडेंटिफिकेशन, दुख के साथ तादात्म्य। जब आपका सिर दुखता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर कहीं दुख रहा है और आप जान रहे हैं। ऐसा लगता है कि मैं ही दुख रहा हूं। जब आप को बुखार होता है और शरीर उत्तप्त होता है, तब ऐसा नहीं लगता है कि कहीं दूर शरीर गर्म हो गया है। ऐसा लगने लगता है कि मैं ही गर्म हो गया हूं। यह है आइडेंटिफिकेशन, यह है तादात्म्य। जब पैर में चोट लगती है और घाव हो जाता है, तो पैर में चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा नहीं मालूम पड़ता है। मुझे चोट लगी है और घाव हो गया है, ऐसा मालूम पड़ता है।

असल में शरीर के साथ हमारा कोई फासला नहीं, कोई डिस्टेंस नहीं। शरीर के साथ हम एक ही होकर जीते हैं। जब भूख लगती है, तो हम ऐसा नहीं कहते कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। हम ऐसा ही कहते हैं कि मुझे भूख लगी है। सचाई यह नहीं है। सचाई यह है कि शरीर को भूख लगी है और मुझे पता चल रहा है। मैं तो बोध का बिंदु हूं। मुझे तो निरंतर पता चल रहा है। पैर में कांटा गड़ा है तो मुझे पता चल रहा है, सिर में दर्द है तो मुझे पता चल रहा है, पेट में भूख है तो मुझे पता चल रहा है। मैं तो चेतना हूं जिसे पता चल रहा है। मैं भोक्ता नहीं हूं, सिर्फ ज्ञाता हूं। यह तो सत्य है।

लेकिन हमारी जो मनःस्थिति है वह ज्ञाता की नहीं, भोक्ता की है। जब ज्ञाता भोक्ता बन जाता है, जब वह जानता ही नहीं, बल्कि किया के साथ एक हो जाता है, जब वह दूर साक्षी नहीं रहता, भागीदार बन जाता है, तब आइडेंटिफिकेशन हो जाता है। तब वह एक हो जाता है। यह एक हो जाना ही जागने नहीं देता। क्योंकि जागने के लिए दूरी चाहिए, डिस्टेंस चाहिए, स्पेस चाहिए।

अगर मैं आपको देख पा रहा हूं तो इसीलिए कि आपके और मेरे बीच में दूरी है। अगर मेरे और आपके बीच की पूरी दूरी अलग कर दी जाए, तो मैं आपको देख नहीं पाऊंगा। आपको देख पाता हूं, क्योंकि मेरे और आपके बीच में जगह है, स्पेस है। अगर बीच का सारा स्थान अलग कर दिया जाए, तो फिर मैं आपको देख न पाऊंगा। इसीलिए तो मेरी आंखें आपको देख लेती हैं, लेकिन खुद मेरी ही आंखों को मेरी आंखें नहीं देख पातीं। अगर मुझे स्वयं को भी देखना है, तो एक दर्पण में दूसरा बनना पड़ता है और अपने से फासला पैदा करना पड़ता है तब देख पाता हूं। दर्पण का मतलब है कि मेरा चित्र अब मेरे से फासले पर है और अब मैं उसे देख लूंगा। दर्पण कुछ भी नहीं करता, दर्पण सिर्फ इतना करता है कि आपके चित्र को आपसे दूरी पर उपस्थित कर देता है। दूरी पर उपस्थित होने की वजह से बीच में स्पेस हो जाती है और आप देख लेते हैं।

दर्शन के लिए दूरी जरूरी है। और जो व्यक्ति अपने शरीर के साथ एक ही होकर जी रहा है या जो समझ रहा है कि मैं शरीर ही हूं, उसके और शरीर के बीच में कोई दूरी नहीं रह जाती।

एक मुसलमान फकीर हुआ फरीद। और एक दिन सुबह एक आदमी ने आकर उससे यही बात पूछी जो तुम मुझसे पूछ रहो हो। उस आदमी ने फरीद से आकर कहा कि मैंने सुना है कि जीसस को जब सूली लगी तब वे रोए नहीं, चिल्लाए नहीं, दुखी नहीं हुए। और मैंने यह भी सुना है कि जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मंसूर हंस रहा था। यह कैसे हो सकता है? यह असंभव है!

फरीद कुछ भी नहीं बोला, हंसता रहा। और पास में पड़े हुए एक नारियल को जो भक्त उसके पास चढा जाते थे, उसने उस आदमी को दिया और कहा कि तू जरा इस नारियल को ले जा, यह कच्चा नारियल है तो इसे तोड़कर ले आ। और ध्यान रखना, गिरी न टूट पाए। ऊपर की खोल अलग कर देना और गिरी को साबित ले आना।

उस आदमी ने कहा, यह न हो सकेगा। क्योंकि कच्चा है नारियल, गिरी और उसकी खोल के बीच फासला नहीं है। मैं उसकी खोल को तोडूगा, भीतर की गिरी टूट जाएगी।

फरीद ने कहा, फिर इसको छोड़ दे। यह दूसरा नारियल है, इसको ले जा। यह सूखा नारियल है। इसकी गिरी में और खोल में फासला है। क्या तू वायदा करता है कि इसकी खोल को तोड़ लाएगा, गिरी को साबित बचा लेगा?

उस आदमी ने कहा, यह कौन सी कठिन बात है। मैं खोल को तोड़े लाता हूं, गिरी साबित बच जाएगी। फरीद ने पूछा, लेकिन बात क्या है, इसकी गिरी क्यों बच जाएगी साबित? उसने कहा, नारियल सूखा हुआ है। गिरी और खोल के बीच फासला है। फरीद ने कहा, अब तोड्ने की फिक्र न कर। इस नारियल को भी यहीं रख दे। तुझे अपना जबाब मिल गया कि नहीं मिल गया?

उस आदमी ने कहा, मैं कुछ पूछ रहा था और आप कहा नारियल की बातों में मुझे उलझा दिये। मैं पूछता हूं कि जीसस को जब सूली लगी तो जीसस चिल्लाए क्यों नहीं, रोए क्यों नहीं? और जब मैसूर के हाथ—पैर काटे गए तो मैसूर तड़फा क्यों नहीं? हंसा क्यों, मुस्कुराया क्यों?

फरीद ने कहा कि वे सूखे नारियल थे और हम गीले नारियल हैं, इससे ज्यादा और कोई कारण नहीं है। और जीसस को जब सूली दी जा रही थी तो जीसस को नहीं दी जा रही थी। जीसस देख रहे थे कि शरीर को सूली दी जा रही है और देखने में वे उतने ही फासले पर थे, जितना जीसस के बाहर खड़े हुए लोग फासले पर थे। जैसा बाहर खड़ा हुआ कोई आदमी नहीं चिल्लाया, कोई आदमी नहीं रोया कि मुझे मत मारो। क्यों? क्योंकि जीसस के शरीर से उन देखने वालों का फासला था। जीसस का भी—जो भीतर देखने वाला तत्व है —उसका और जीसस के शरीर का फासला था। इसलिए जीसस भी नहीं चिल्लाए कि मुझे मत मारो।

मैसूर के हाथ —पैर काटे गए और मैसूर हंसता रहा। और जब किसी ने पूछा कि तुम हंस क्यों रहे हो? तुम्हारे हाथ—पैर काटे जा रहे हैं! तो मैसूर ने कहा, अगर मुझे कांटा जाता तो मैं रोता। लेकिन मुझे नहीं कांटा जा रहा है। और जिसे तुम काट रहे हो नासमझों, वह मैं नहीं हूं। और मैं तुम पर इसलिए हंस रहा हूं कि जब तुम मेरे शरीर को मंसूर समझकर काट रहे हो, तो तुम दुखी होकर ही मरोगे, क्योंकि तुम अपने शरीर को भी स्वयं ही समझते रहोगे कि तुम वही हो। तुम मेरे साथ जो कर रहे हो, वह तुम्हारी अपने साथ की गई गलती की ही पुनरुक्ति है। अगर तुम्हें पता चल गया होता कि तुम शरीर से अलग हो, तो शायद तुम मेरे शरीर को काटने की कोशिश न करते। क्योंकि तुम जानते कि मैं तो कुछ और हूं? शरीर कुछ और है; और शरीर को काटने से मंसूर नहीं कटता।

तो सबसे बड़ी तैयारी मृत्यु में जागे हुए प्रवेश करने की, दुख में जागे हुए प्रवेश करना है। क्योंकि मृत्यु तो बार—बार नहीं आती, रोज नहीं आती। मृत्यु तो एक बार आएगी। आप तैयार होंगे तो तैयार होंगे, नहीं तैयार होंगे तो नहीं तैयार होंगे। मृत्यु का कोई रिहर्सल नहीं हो सकता। उसकी कोई पूर्व अभिनय की तैयारी नहीं हो सकती। लेकिन दुख रोज आता है, पीड़ा रोज आती है। पीड़ा और दुख में हम तैयारी कर सकते हैं। और ध्यान रहे, अगर पीड़ा और दुख में तैयारी हो गई तो मृत्यु में वह तैयारी काम आ जाएगी।

इसलिए दुख को सदा ही साधक ने स्वागत से स्वीकार किया है। उसका और कोई कारण नहीं है। उसका कारण यह नहीं है कि दुख शुभ है। उसका कारण सिर्फ यह है कि दुख उसे अवसर बनता है, स्वयं को साधने का। इसलिए साधक ने सदा ही दुख के लिए परमात्मा को धन्यवाद ही दिया है। क्योंकि दुख के क्षणों में वह अपने शरीर से दूर होने के लिए एक अवसर पाता है, एक मौका पाता है।

और ध्यान रहे, सुख के क्षण में यह साधना जरा मुश्किल है, दुख के क्षण में जरा आसान है। क्योंकि सुख के क्षण में तो हमारा मन ही नहीं करता है कि शरीर से जरा भी दूर हो जाएं। शरीर तो सुख के क्षण में बहुत प्यारा मालूम पड़ता है। शरीर से तो सुख के क्षण में मन होता है कि हम शरीर से इंच भर के फासले पर भी न हों! सुख के क्षण में हम शरीर के बहुत निकट सरक आते हैं। इसलिए सुख का खोजी अगर शरीर वादी हो जाता है तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और निरंतर सुख की खोज में लगा हुआ व्यक्ति अगर अपने को शरीर ही समझने लगता है तो भी कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि सुख के क्षण में वह सूखे नारियल की जगह गीला नारियल होने लगता है। फासला कम होने लगता है।

दुख के क्षण में तो मन होता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा है। जब सिर में दर्द होता है और जब पैर में चोट होती है और शरीर दुखता है, तो साधारणत: जो आदमी अपने को शरीर ही मानता है, वह भी एक क्षण सोच लेता है कि हम शरीर न होते तो अच्छा। यह जो फकीर दुनिया भर के कहते रहे हैं अगर ठीक होता तो अच्छा कि हम शरीर न होते। उस वक्त उसका मन भी तैयार होता है कि किसी तरह यह पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं। इसलिए दुख का क्षण साधना का क्षण बन सकता है, बनाया जा सकता है।

लेकिन हम क्या करते हैं? साधारणत: हम दुख के क्षण में दुख को भूलने की कोशिश करते हैं। एक आदमी को तकलीफ है तो शराब पी लेगा। एक आदमी को दुख है तो सिनेमा में जाकर बैठ जाएगा। एक आदमी को दुख है तो भजन—कीर्तन करके भुलाने की कोशिश करने लगेगा। ये अलग— अलग तरकीबें हैं। कोई शराब पीता है, कहना चाहिए कि यह एक तरकीब है। कोई सिनेमा देखता

है, तो यह दूसरी तरकीब है। कोई जाकर संगीत सुनने बैठ जाता है, यह तीसरी तरकीब है। कोई झांझ—मंजीरा पीटकर भजन में लीन हो जाता है, यह चौथी तरकीब है। हजार तरकीबें हो सकती हैं; धार्मिक हो सकती हैं, अधार्मिक हो सकती हैं, सेक्यूलर हो सकती हैं, रिलीजस हो सकती हैं। यह सवाल बड़ा नहीं है। लेकिन भीतर बुनियादी बात एक ही है कि आदमी अपने दुख को भूलना चाह रहा है। फारगेटफुलनेस की कोशिश में लगा है। विस्मरण हो जाए।

और जो आदमी दुख को विस्मरण करेगा, वह आदमी दुख के प्रति जाग नहीं सकता। क्योंकि जिस चीज को हम भुला देते हैं, उसके प्रति जागेंगे कैसे। जाग सकते ‘हैं उस चीज के प्रति, जिसके प्रति हमारा दृष्टिकोण रिमेंबरिंग का है, स्मरण का है।

इसलिए दुख के प्रति स्मरण ही दुख को जगाता है। जब आप दुख में हों, तो इसको एक अवसर समझें। और अपने दुख के प्रति पूरी स्मृति से भर जाएं। बड़े अदभुत अनुभव होंगे। जब आप दुख के प्रति पूरी स्मृति से भरेंगे और दुख को देखेंगे, भागेंगे नहीं दुख से। जैसे, पैर में दर्द है, चोट लग गई है, गिर गए हैं आप। तब आख बंद करके जरा भीतर दर्द को खोजने की कोशिश करें कि वह कहां है। उसे पिन स्काइट, उसे ठीक एक जगह पकड़ने की कोशिश करें कि वह दर्द है कहां। क्योंकि आप बड़े हैरान होंगे कि जितनी जगह दर्द होता है, उससे बहुत ज्यादा बड़ी जगह में आप उसे फैला लेते हैं। उतनी जगह होता नहीं।

आदमी अपने दुख को बहुत एक्जेगरेट करता है। आदमी अपने दुख को बहुत अतिशय मान लेता है। आदमी अपने दुख को बहुत बढ़ा—चढ़ा कर स्वीकार करता, जितना होता नहीं। इसके पीछे भी वही शरीर को एक मानना कारण है। दुख तो होता है दीये की तरह, जैसे दीये की फ्लेम होती है, लेकिन अनुभव हम करते हैं प्रकाश की तरह। जैसे दीये का प्रकाश सब तरफ फैल जाता है। होता है दुख फ्लेम की तरह, ज्योति की तरह, एक बहुत छोटी जगह में, पर हम अनुभव करते हैं प्रकाश की तरह बहुत दूर तक फैला हुआ।

 

आदमी अपने दुख को बहुत एक्जेगरेट करता है। आदमी अपने दुख को बहुत अतिशय मान लेता है। आदमी अपने दुख को बहुत बढ़ा—चढ़ा कर स्वीकार करता है, जितना होता नहीं। इसके पीछे भी वही शरीर को एक मानना कारण है। दुख तो होता है दीये की तरह, जैसे दीये की फ्लेम होती है, लेकिन अनुभव हम करते हैं प्रकाश की तरह। जैसे दीये का प्रकाश सब तरफ फैल जाता है। होता है दुख फ्लेम की तरह, ज्योति की तरह, एक बहुत छोटी जगह में, पर हम अनुभव करते हैं प्रकाश की तरह बहुत दूर तक फैला हुआ।

तो जब आप अपने दुख को आख बंद करके भीतर से खोजने की कोशिश करेंगे। और ध्यान रहे हमने शरीर को, अपने शरीर को भी सदा बाहर से ही जाना है, भीतर से नहीं जाना है। अगर हम अपने शरीर को भी जानते हैं, तो ऐसा जैसे दूसरे जानते हों। अगर मैंने इस हाथ को भी देखा है कभी, तो बाहर से ही देखा है। इस हाथ का भीतरी हिस्सा भी है। जैसे इस मकान को मैं बाहर से देखकर चला जाऊं, तो यह मकान का बाहरी हिस्सा है। इस मकान की दीवालों का भीतरी हिस्सा भी है। दर्द की घटना घटती है भीतरी हिस्सों पर। दर्द का बिंदु होता है भीतरी हिस्सों पर। और दर्द के फैलाव का विस्तार होता है बाहरी हिस्सों पर। दर्द की ज्योति तो होती है भीतर और दर्द का प्रकाश होता है बाहर।

चूंकि हम अपने शरीर को बाहर से ही देखते रहे हैं, इसलिए दर्द बहुत फैला हुआ मालूम पड़ता है। शरीर को भीतर से देखने की चेष्टा बड़ी अदभुत बात है। आख बंद कर लें और शरीर को भीतर से फील और एहसास करने की कोशिश करें कि शरीर भीतर से कैसा है। इस शरीर की भीतरी दीवाल भी है और इस शरीर का भीतरी खोल भी है। इस शरीर का भीतरी छोर भी है। उस भीतरी छोर को आख बंद करके निश्चित ही अनुभव किया जा सकता है। आपने अपने हाथ को उठते हुए देखा है। आख बंद करके हाथ को नीचे से ऊपर तक ले जाएं, तब आप हाथ के भीतर जो उठने की किया हो रही है, उसको देख पाएंगे। आपने भूख को बाहर से अनुभव किया है। आख बंदकर लें और भूख को भीतर से अनुभव करें, तब आप उसे पहली दफे भीतर से पकड़ पाएंगे।

शरीर के दुख को भीतर से पकड़ते ही दो घटनाएं घटती हैं। एक तो जितना बड़ा मालूम पड़ता था, उतना बडा नहीं रह जाता। तत्काल छोटे —से बिंदु पर केंद्रित हो जाता है। और जितने जोर से इस बिंदु पर आप एकाग्रता करेंगे, उतना ही पाएंगे कि यह बिंदु और छोटा होता जा रहा है, और छोटा होता जा रहा है, और छोटा होता जा रहा है। और एक बड़े आश्चर्य की घटना घटती है। जब बिंदु बहुत छोटा हो जाता है, तो अचानक आप पाते हैं कि कभी वह खो गया, कभी दिखाई पड़ने लगा, कभी खो गया, कभी दिखाई पड़ने लगा। बीच में गैप पड़ने शुरू हो जाते हैं। और जब वह खो जाता है, तब आप बहुत हैरान होते हैं कि दर्द अब कहां है। वह कई दफा मिस हो जाता है। वह इतना छोटा हो जाता है बिंदु कि कई बार चेतना जब उसे खोजती है, तो पाती है कि नहीं है।

जैसे मूर्च्छा में दर्द फैलता है, वैसे चेतना में दर्द सिकुड़ कर छोटा हो जाता है। एक तो यह अनुभव होगा कि दर्द हमने जितने अनुभव किए, हमने जितने दुख भोगे, उतने दुख थे नहीं। जितने दुख हमने भोगे हैं, उतने दुख थे नहीं। हमने दुखों को बहुत बड़ा करके भोगा है। ठीक यही बात सुख के संबंध में भी सच है कि जितने सुख हमने भोगे हैं, वे भी थे नहीं। सुखों को भी हमने बहुत बड़ा करके भोगा है।

अगर हम सुख को भी स्मरणपूर्वक भोगें, तो हम पाएंगे कि वह भी बहुत छोटा हो जाता है। अगर हम दुख को भी स्मरणपूर्वक भोगें, तो पाएंगे कि वह भी बहुत छोटा हो जाता है। जितना होश हो, उतना सुख और दुख सिकुड़ कर बहुत छोटे हो जाते हैं। इतने छोटे हो जाते हैं कि बहुत गहरे अर्थों में मीनिगलेस हो जाते हैं। असल में उनका अर्थ उनके विस्तार मै है। वह पूरी जिंदगी को घेरे हुए मालूम पड़ते हैं, लेकिन जब बहुत बोधपूर्वक उनको देखा जाए, तो छोटे होते —होते इतने अर्थहीन हो जाते हैं कि जिंदगी से उनका कुछ लेना—देना नहीं रह जाता है।

और दूसरी जो घटना घटेगी वह यह कि जब आप दुख को बहुत गौर से देखेंगे, तो आपके और दुख के बीच एक फासला पैदा हो जाएगा, एक डिस्टेंस पैदा हो जाएगा। असल में किसी भी चीज को हम देखें, तो फासला पैदा होता है। दर्शन फासला है। किसी भी चीज को हम देखें, तो फासला बनना तत्काल शुरू हो जाता है। अगर आप अपने दुख को गौर से देखेंगे, तो आप पाएंगे कि आप अलग हैं और दुख अलग है। क्योंकि सिर्फ वही देखा जा सकता है जो अलग हो। वह तो देखा ही नहीं जा सकता है जो एक हो।

तो जो आदमी अपने दुख के प्रति सचेतन बोध से भरता है, कांशसनेस से भरता है, रिमेंबरिंग से भरता है, वह अनुभव करता है कि दुख कहीं और है, मैं कहीं और हूं। और जिस दिन यह पता चलता है कि दुख कहीं और, और मैं कहीं और हूं, मैं जान रहा हूं और दुख कहीं और घटित हो रहा है, वैसे ही दुख की मूर्च्छा टूट जाती है। और जैसे ही यह पता चलता है कि शरीर के दुख कहीं और घटित होते हैं, सुख भी कहीं और घटित होते हैं, हम सिर्फ जानने वाले हैं, वैसे ही शरीर के प्रति हमारा

जो तादात्म्य, जो आइडेंटिटी है, वह टूट जाती है। तब हम जानते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं।

यह पहली तैयारी है। अगर यह तैयारी पूरी हो गई तो मृत्यु में जागे हुए प्रवेश करना आसान है। आसान क्या, हो ही जाएगा। क्योंकि मृत्यु का डर नहीं है हमारे मन में। आखिर डरने के लिए भी मृत्यु को जानना तो जरूरी है। जिसे हम जानते ही नहीं हैं, उससे डरेंगे कैसे। मृत्यु का भय नहीं है हमारे मन में। हमारे मन में मृत्यु एक बहुत बड़ी बीमारी की तरह बैठी हुई है, हमारे खयाल में। छोटी—छोटी बीमारियां जब इतनी तकलीफ दे जाती हैं—पैर दुखता है, इतनी तकलीफ होती है, और सिर दुखता है, इतनी तकलीफ होती है—तो जब पूरा ही शरीर दुखेगा और टूटेगा, तो कितनी तकलीफ होगी! मृत्यु का जो डर है हमारे मन में, वह बीमारियों का जोड़ है। जब कि मृत्यु कोई बीमारी नहीं है। मृत्यु का बीमारी से कोई लेना—देना नहीं है। मृत्यु का बीमारी से कोई संबंध नहीं है। यह दूसरी बात है कि बीमारियां उसके पहले गुजरती हों, लेकिन कोई कार्य —कारण नहीं है। यह दूसरी बात है कि बीमारी के बाद एक आदमी मर जाता हो, लेकिन बीमारी से कोई मरता है, इस गलती में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। सचाई शायद उलटी है।

चूंकि कोई आदमी मरने के करीब पहुंच जाता है, इसलिए बीमारी को पकड़ लेता है। बीमारी से कोई नहीं मरता। मरने की वजह से बीमारियां पकड़ना शुरू कर देता है। मरना करीब आ रहा है, तो वह कमजोर हो जाता है। मौत करीब आ रही है, तो उसकी बीमारियों को पकड़ने की रिसेप्टिविटी बढ़ जाती है। ग्राहक हो जाता है वह, बीमारियों को खोजने लगता है। यही आदमी अगर जिंदगी के करीब होता, तो यही बीमारी इसको प्रभावित न कर पाती। हो सकता था, इसको पकड़ भी न पाती।

क्या आपको पता है कि आपके मन के क्षण होते हैं, जब आप बीमारियों के लिए ज्यादा ग्रहणशील होते हैं, और ऐसे क्षण होते हैं, जब आप ग्रहणशील नहीं होते? उदासी, निराशा में आदमी बीमारी के प्रति ग्रहणशील हो जाता है। आशा से भरा हुआ आदमी बीमारी के प्रति अग्रहणशील हो जाता है। बीमारी भी आपके बिना स्वीकार किए एकदम प्रवेश नहीं कर पाती। आपकी आंतरिक स्वीकृति चाहिए।

इसलिए जिनके चित्त सुसाइडल हैं, जिनके चित्त आत्मघाती हैं, उनको कितनी ही औषधियां दी जाएं, उनको स्वस्थ नहीं किया जा सकता। क्योंकि औषधियों को उनका चित्त ग्रहण नहीं करता और बीमारियों की उनका चित्त खोज करता है। निमंत्रण दे आता है बीमारियों को कि आओ और औषधियों के लिए बहुत सख्त दरवाजे बंद कर लेता है।

नहीं, बीमारी के कारण कोई भी कभी नहीं मरता है। मरने के कारण बीमारी के प्रति ग्रहणशील हो जाता है। इसलिए बीमारी पहले घटती है और मौत पीछे आती है। तो हमने सोच रखा है कि जो पहले घटता है, वह होता है कॉज़ और जो पीछे आता है, वह होता है इफैक्ट। इसलिए गलती हो रही है। कॉज बीमारी नहीं है, कॉज़ मौत ही है। कारण मौत ही है, बीमारी तो सिर्फ इफैक्ट है।

मृत्यु का डर हमारे मन में बीमारी का डर है। हम सारी बीमारियों को जोड़कर मृत्यु के डर को निर्मित करते हैं—एक। दूसरा, हमने जितने लोगों को मरते देखा है, उन सबको हमने मरते नहीं देखा, हमने सिर्फ बीमार होते देखा। मरते तो हम किसी को देख भी कैसे सकते हैं?

मरने की घटना तो अत्यंत आंतरिक है। उसमें कोई भी गवाह नहीं हो सकता। अगर आप कभी गवाही दें कि मैंने फलां आदमी को मरते देखा, तो थोड़ा सोच कर देना। क्योंकि मरते देखना बहुत मुश्किल मामला है। आज तक पृथ्वी पर यह हुआ नहीं। किसी ने किसी को मरते देखा नहीं। इतना ही देखा है कि आदमी बीमार हुआ, बीमार हुआ, बीमार हुआ, और पता चला कि अब जीता नहीं है। पर मरता हुआ किसी ने नहीं देखा कि वह अब मर गया। किस क्षण में मर गया। और मरने की प्रक्रिया में क्या हुआ, हमें कुछ पता नहीं।

हमने सिर्फ जीवन से छूटते देखा है। हमने एक नाव को दूसरे तट से लगते नहीं देखा। सिर्फ एक तट से छूटते देखा है। हमने जीवन के तट से एक चेतना को हटते देखा है। और एक सीमा के बाद वह चेतना हमें दिखाई नहीं पड़ती। और वह जो शरीर रह जाता है हमारे हाथ में, वह वैसा नहीं रह जाता जैसा कल तक जीवित था। तो हम सोचते हैं, मर गया। मरना एक अनुमान है, इनफरेंस है। वह एक घटना नहीं है, जो प्रत्यक्ष हुई हो।

अब यह जो हमने सबमें बीमारी देखी है, मरते समय एक आदमी की पीड़ा देखी है, उसके हाथ—पैर का सिकुड़ना देखा है, उसकी आंखों का चढ़ना देखा है, उसके चेहरे का विकृत होना देखा है, उसके शरीर की तड़पन देखी है, उसके होंठों का बंद हो जाना देखा है, उसके दांतों का भिंच जाना देखा है, देखा है कि शायद वह कुछ कहना चाहता था, नहीं कह पाता है, वह सब हमने देखा है। उस सबका जोड़ है हमारे पास। वह हमारे कलेक्टिव माइंड का हिस्सा हो गया है। हजारों—लाखों वर्ष में हमने मरता हुआ जो कुछ होता है, वह सब इकट्ठा कर लिया है। उसी से हम भयभीत हैं।

हम भी भयभीत हैं कि मैं जब मरूंगा तो यही सब मुसीबतें होंगी। और इसलिए आदमी ने बड़ी होशियारी की तरकीबें निकाली हैं। उसने मृत्यु के तथ्य को जीवन के विचार के बाहर कर दिया है। मरघट हम गांव के बाहर इसीलिए बनाते हैं कि उसकी हमें बार—बार याद न आए, अन्यथा होना चाहिए गांव के बीच में। क्योंकि जीवन में जितनी सर्टेंटी मौत की है, उतनी और किसी चीज की है नहीं। बाकी सब चीजें अनिश्चित हैं। हो भी सकती हैं, न भी हों। एक ही चीज निश्चित है जिसके बाबत भरोसा किया जा सकता है, वह है मौत। जो सबसे जदा सटेंन है, जिस पर डाउट नहीं खड़ा किया जा सकता है।

ईश्वर पर संदेह किया जा सकता है, आत्मा पर संदेह किया जा सकता है, जीवन पर संदेह किया जा सकता है, लेकिन मृत्यु पर संदेह करने का कोई उपाय नहीं है, वह है। जो एकदम सुनिश्चित है, उसे हमने गांव के बाहर किया हुआ है। अगर रास्ते से कोई अर्थी निकलती हो, तो मां अपने बेटों को भीतर बुला लेती है कि भीतर आ जाओ, कोई मर गया है। जब कोई मर गया हो तब सबको बाहर ले आना चाहिए, क्योंकि जीवन का एक बड़े से बड़ा तथ्य बाहर से गुजर रहा है। यह सबकी जिंदगी से गुजरेगा। इसे झुठलाने की कोई जरूरत नहीं है।

लेकिन हम इतने भयभीत हैं मौत से कि वह बात ही नहीं उठनी चाहिए।

मैंने सुना है कि एक संन्यासी के पास एक की औरत मिलने आई और वह स्त्री उनसे बात करने लगी और कहने लगी, आत्मा तो निश्चित ही अमर है।

के लोग अक्सर आत्मा की अमरता की बातें करने लगते हैं। मरने के डर के कारण, और कोई कारण नहीं होता। बूढ़ा आदमी अक्सर मंदिर, मस्जिद, गिरजे में जाने लगता है। मौत के डर के कारण, और कोई कारण नहीं होता। मंदिर, मस्जिद, गिरजों में वृद्धों की संख्या का और कोई कारण नहीं है कि वहां वृद्ध ही क्यों इकट्ठे होते हैं, युवा क्यों नहीं जाते, बच्चे क्यों उत्सुक नहीं हैं। अभी जरा देर है इनकी मौत की खबर इनको मिलने में। अभी जरा वक्त है। अभी ये मौत को झुठला सकते हैं, भुला सकते हैं। लेकिन बूढ़ा आदमी कैसे भुलाए। अब उसे रोज खबर मिलने लगी है। कभी पैर चलने से इनकार करता है, कभी आख देखने से इनकार करती है, कभी कान सुनने से इनकार करता है। सब तरफ से खबरें मिलने लगी हैं कि एक—एक अंग मौत के हाथ में जाता हुआ मालूम पड़ता है। अब वह चर्च की तरफ, मंदिर की तरफ, मस्जिद की तरफ जाने लगा है। उसे कोई ईश्वर से मतलब नहीं है। वह इतना पक्का भरोसा वहां करने जा रहा है कि जिसको मैंने अब तक जीवन समझा, वह तो खतम होता है, मैं तो खतम नहीं हो जाऊंगा!

यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आत्मा को अमर मानने वाली कौमें जितनी मौत से डरती हैं, उतनी आत्मा को अमर न मानने वाली कौमें नहीं डरती। हमारा मुल्क है, हजारों —लाखों साल से आत्मा की अमरता मान रहे हैं। हमसे ज्यादा कायर और हमसे ज्यादा मरे हुए लोग दुनिया में नहीं हैं। एक हजार साल तक गुलामी झेलता है वह मुल्क, जो कहता है आत्मा अमर है। जो मुल्क कहता है, आत्मा अमर है, और उसके पास चालीस करोड़ आत्माएं हों, वह तीन करोड़ आत्माओं के हाथ में गुलामी भोग सकता है? जब कि आत्मा अमर है, जो मर ही नहीं सकती! उसको क्या गुलामी का डर है और क्या उसको लड़ने का भय है? उसको फांसी की क्या घबराहट है! उसे बंदूकें और तोपें क्या डरा सकती हैं?

नहीं, लेकिन बात कुछ और है। यह आत्मा की अमरता को मानना, आत्मा की अमरता को जानना नहीं है। यह मानना तो भय को ही मिटाने की, झुठलाने की तरकीब है। जैसे गांव के बाहर कब बनायी, ऐसे ही आत्मा की अमरता के सिद्धात को रोज सुबह पोथी खोलकर पढ़ लेते हैं। ताकि पक्का भरोसा रहे कि मरना नहीं है, ताकि मन में आशा बनी रहे कि नहीं, जीएंगे! कोई फिक्र नहीं, शरीर तो मर जाएगा, लेकिन फिर भी हम तो जीएंगे। और आप कौन हैं, जो शरीर के अलावा हैं? उसका कोई भी पता नहीं है। और कहते हैं कि मैं तो जीऊंगा, शरीर चाहे मर जाए। और शरीर के अलावा आपको पता ही नहीं कि आप कौन हैं। कौन जीएगा? शरीर के अलावा अगर सोचेंगे कि मैं कौन हूं तो पता चलेगा कि कुछ भी पता नहीं चलता है। शरीर ही हूं।

तो उस बूढ़ी औरत ने उस संन्यासी के पास आकर कहा कि मैं तो आत्मा को अमर मानती हूं। आत्मा निश्चित ही अमर है। आप क्या कहते हैं? उस संन्यासी ने आत्मा की अमरता की बात तो न की। उसने बूढ़ी की तरफ देखा और कहा, तेरा जरा हाथ देखें। उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया और कहा कि मरने के बाबत क्या खयाल है? ज्यादा देर नहीं है। उस बूढ़ी औरत ने कहा, कैसी अपशकुन की बातें करते हैं। ऐसी बातें मत कीजिए। ऐसी बातें कहीं की जाती हैं? और संन्यासी होकर, इतने भले आदमी होकर ऐसी अपशकुन की बातें करते हैं! उस संन्यासी ने कहा, जब आत्मा अमर है, तो मरना अपशकुन कैसे हो सकता है? अपशकुन तभी तक हो सकता है मरना, जब तक आत्मा अमर न हो। लेकिन उस स्त्री ने कहा, छोड़िए! और दूसरी बातें कीजिए। परमात्मा की बातें कीजिए, मोक्ष की बातें कीजिए। मैं आपके पास ये बातें सुनने नहीं आई हूं।

असल में संन्यासी के पास कोई सुनने ही उन बातों को जाता है, जो उसके भय को, उसके फियर को किसी तरह का सहारा मिल जाए। उसके भयों को किसी तरह के आधार मिल जाएं। और कोई उसे बता दे कि नहीं, तुम मरोगे नहीं। कोई उसे बता दे कि तुम पापी नहीं हो, आत्मा तो नित्य शुद्ध—बुद्ध है। चोरी करते हों—कोई चोर नहीं है। ब्लैक मार्केट करते हो—कोई ब्लैक मार्केट नहीं है। क्योंकि आत्मा कहीं ब्लैक मार्केट कर सकती है?

इसलिए सब ब्लैक मार्केट करनेवाले उन संन्यासियों के आस—पास इकट्ठे हो जाएंगे, जो कहेंगे कि आत्मा शुद्ध—बुद्ध है, निरंतर से शुद्ध है, वह कभी अशुद्ध होती ही नहीं। और उनके सामने बैठा हुआ आदमी जो कि सब जमाने की चोरी कर रहा है, वह सिर हिला कर कह रहा है, बिलकुल ठीक कह रहे हैं महाराज! सत्य वचन महाराज! वह यह मानना ही चाहता है। वह यह मानना चाहता है कि कोई उसे भरोसा दिला दे कि आत्मा बिलकुल शुद्ध है, तो शुद्ध होने की झंझट भी मिटी, अशुद्ध होने की फिक्र भी मिटी, भय भी मिटा।

यह जो सारी की सारी हमारी मनोदशा है, यह मनोदशा जिस मूल तथ्य पर खड़ी है, उसे हम ठीक से समझ लें। मृत्यु से हम भयभीत नहीं हैं, बीमारी से भयभीत हैं। और जिसे हम जीवन समझते हैं, उसके छूटने से हम भयभीत हैं।

इस मकान के बाहर आप मुझे धक्का देते हैं। मुझे पता नहीं कि मकान के बाहर और बड़ा महल है, जंगल है, वीरान है, मरुस्थल है—क्या है? मुझे कुछ पता नहीं। जरूरी नहीं है कि इस मकान के बाहर पहुंचकर मैं दुखी ही हो जाऊंगा या सुखी ही हो जाऊंगा। मुझे कुछ पता नहीं है। अननोन है, अज्ञात है, दरवाजे के बाहर जो है। लेकिन फिर भी इस मकान को छोड़ने का डर तो मुझे दुख देता ही है। यह सुनिश्चित था, ज्ञात था, परिचित था। इस परिचित को छोड्कर अपरिचित में जाने में डर लगता है। वह डर अपरिचित का डर नहीं है, क्योंकि अपरिचित का तो मुझे पता ही नहीं है। वह डर सिर्फ परिचित को छोड़ने का डर है।

और आप हैरान होंगे कि यहां तक हमारा मन परिचित के साथ ग्रस्त होता है कि परिचित बीमारी तक को छोड़ने में मुश्किल हो जाती है। परिचित दुख को भी छोड़ना मुश्किल पड़ता है। अधिकतर डाक्टर आपकी बीमारी को शायद ही ठीक करते हों, सिर्फ आपको बीमारी छोड़ने के लिए राजी करते हैं। अधिकतम दवाएं आपकी बीमारी को कुछ भी नहीं करतीं, सिर्फ आपकी बीमारी को छोड़ने का साहस आपको देती हैं।

अभी एक बहुत बड़े वैज्ञानिक ने बहुत से प्रयोग किए हैं। और वह प्रयोग यह है कि अगर बीस मरीज हैं एक ही बीमारी के तो दस मरीजों को सिर्फ पानी दिया जा रहा है और दस मरीजों को दवा दी जा रही है। और बड़े मजे की बात है कि पानी वाले भी सात ठीक हो जाते हैं और दवा वाले भी सात ठीक हो जाते हैं।

तो मतलब क्या हुआ? अगर पानी वाले भी सात ठीक हो जाते हैं और दवा वाले भी सात ठीक हो जाते हैं, तो मतलब क्या होता है? मतलब सिर्फ इतना होता है कि सवाल न दवा का है, न पानी का है, बड़ा सवाल उस आदमी को बीमारी छोड़ने के लिए राजी करने का है। अगर पानी राजी कर लेता है, तो उससे भी ठीक हो जाता है। अगर होम्योपैथी की शक्कर की गोली राजी कर लेती है तो उससे भी ठीक हो जाता है। अगर ताबीज राजी कर देता है तो उससे भी ठीक हो जाता है। अगर फकीर की राख पर भरोसा आ जाए तो उससे भी ठीक हो जाता है। गंगा माई का पानी भी ठीक कर देता है। सब चीजें ठीक करती हैं।

अरस्तू जैसे बहुत बुद्धिमान आदमी ने भी ऐसी दवाइयां सुझायी हैं कि आज हंसी आती है। और अरस्तू तो कहना चाहिए तर्कशास्त्र का पिता था। उसने न मालूम कैसी—कैसी दवाइयां सुझायी हैं। लेकिन अरस्तू सुझा नहीं सकता अगर वे काम न करती रही हों। वे दवाएं काम करती थीं। उसने लिखा है कि किसी स्त्री को अगर बच्चा पैदा होते वक्त दर्द हो रहा है, तो उसके पेट पर घोड़े की लीद बांध दो। दर्द बिलकुल ठीक हो जाएगा। अरस्तु जैसा होशियार और बुद्धिमान आदमी कहता है कि पेट पर घोड़े की लीद बांधने से उस स्त्री के पेट का दर्द ठीक हो सकता है। लेकिन दर्द ठीक होता रहा।

दर्द इसलिए ठीक होता रहा कि स्त्री के पेट में असल में दर्द होता ही नहीं, सिर्फ स्त्री ही वह दर्द पैदा करती है बच्चे पैदा करते वक्त। जितना स्त्री अपने बच्चे पैदा होने से भयभीत होती है, उतना दर्द होता जाता है। और जितना भयभीत होती है कि दर्द होगा, उतना वह अपने पूरे के पूरे यंत्र को सिकोड़ती है। बच्चा उसके यंत्र के बाहर जा रहा है, शरीर के बाहर, और वह अपने यंत्र को सिकोड़ रही है। दोनों के बीच में कांफ्लिक्ट पैदा हो जाती है। काफ्लिक्ट दर्द ले आती है।

इसलिए अधिकतर बच्चों को रात में जन्म लेना पड़ता है—सत्तर प्रतिशत बच्चों को—क्योंकि दिन में मां लेने नहीं देती जन्म। वह दिन में तो होश से संभाले रखती है। वह रोकती है। तो रात में जन्म लेना पड़ता है। जब मां सोई होती है, जब उसको पता नहीं होता, तब बच्चे जन्म लेते हैं। इसलिए सत्तर प्रतिशत बच्चे बेचारे प्रकाश में पैदा नहीं हो पाते, अंधेरे में पैदा होना पड़ता है।

अभी एक आदमी है लावेन। वह स्त्रियों को सिखाता है कि तुम कोआपरेट करो। जब तुम्हारा बच्चा हो रहा है, तब तुम सहयोगी बन जाओ। और उसने हजारों स्त्रियों को बिना किसी दर्द के बच्चे पैदा करवा दिये हैं। न लीद बांधता है, न इंजेक्शन लगाता है, न ताबीज बांधता है, न गुरु का प्रसाद लाता है, कुछ भी नहीं करता। सिर्फ स्त्री को राजी करता है कि कोआपरेट करो। यह जो बच्चा पैदा हो रहा है इसको रोको मत, इसके साथ सहयोगी हो जाओ। और पूरे मन से इसको जन्म देने की भावना से भर जाओ। बस काफी है, दर्द —वर्द नहीं होगा। जंगली जातियों में सैकड़ों जातियां हैं, जिनकी स्त्रियों को कोई दर्द नहीं होता। खेत में काम करती रहेगी वह स्त्री और बच्चा हो जाएगा। वह बच्चे को टोकरी में रखकर वापिस खेत में काम करने लगेगी।

आदमी अपनी बीमारियां तक, जो परिचित हैं, उनको भी नहीं छोड़ता, उनको भी जोर से पकड़ता है। जंजीरों तक का आग्रह पैदा हो जाता है।

फ्रेंच क्रांति में, वहां उनके मुल्क में एक बड़े कारागृह में, जहां उन्होंने बड़े खतरनाक कैदी रखे हुए थे, ऐसे कैदी जो आजीवन कैदी रहेंगे और जिनके हाथ की जंजीर कभी खुलेगी नहीं। वह जंजीर सदा के लिए बंधी है। जब वे मर जाएंगे, तभी जंजीर निकाल दी जाएगी। फ्रांस के क्रांतिकारियों ने उस कारागृह की दीवालें तोड़ दीं और बंद कोठरियों से उन लोगों को बाहर निकाला, जिन्होंने बाहर निकलने के सब खयाल छोड़ दिए थे।

कोई बीस साल से बंद था, कोई तीस साल से बंद था, और कोई पचास साल से भी बंद था। उनकी आंखें करीब—करीब अंधी हो गई थीं और उनके हाथ और पैर की जंजीरें करीब—करीब उनके शरीर का हिस्सा हो गई थीं। उनको शरीर से अलग नहीं कहा जा सकता था। उनमें कोई स्पेस नहीं रही थी। पचास साल जिस आदमी के हाथ में जंजीर रही हो, आप समझते हैं उसको वह अलग रह जाती है? वह उसके हाथ का हिस्सा हो जाती है। वह यह भूल ही जाता है कि यह अलग है। वह उसकी भी उसी तरह साज—संभाल करता है, जैसे अपने हाथ की करता है। अगर उस जंजीर पर कचरा लग जाए, तो उसको भी साफ करता है, जैसे हाथ पर से करता है। रोज सुबह उठकर जंजीर की भी सफाई करता है, चमकाता है, जैसे अपने शरीर को चमकाता है। और जो जिंदगी भर साथ रहनी है, बात ही खतम हो गई।

जब उन कैदियों की क्रांतिकारियों ने जंजीरें तोड़ी, तो उनमें से अनेक कैदियों ने इनकार कर दिया कि आप यह क्या कर रहे हैं? हमें बाहर अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन क्रांतिकारी जिद्दी होते हैं। और अभी तक क्रांतिकारियो को बुद्धि नहीं आई दुनिया में कि आदमी के साथ जिद्द से कुछ. भी नहीं किया जा सकता। वह फिर नई तरह की जंजीरें डाल लेगा, अगर जबर्दस्ती तोड़ दोगे तुम। उन्होंने उनकी जंजीरें जबर्दस्ती तोड़ दीं और कैदियों को जेलखाने के बाहर कर दिया।

यह इतनी आश्चर्य की घटना है कि सांझ होते —होते आधे से अधिक कैदी वापस लौट आए। और उन्होंने कहा कि बाहर हमें अच्छा नहीं लगता और बिना जंजीरों के तो हमें ऐसा लगता है कि जैसे हम नंगे घूम रहे हैं। स्वभावत:, जिस स्त्री ने बहुत—से सोने के गहने पहने हों, उसके गहने उतार लें, तो उसको लगेगा, वह नग्न घूम रही है, शरीर में वजन ही नहीं है। ऐसा लगेगा कि उसके पास कुछ है नहीं, शरीर में कुछ कमी हो गई। उन्होंने कहा, हमारी जंजीरें हमें वापस दे दो, हम दोपहर को सो भी नहीं सके, क्योंकि उन जंजीरों के बिना सो कैसे सकते हैं।

नींद में उनकी आवाज भी उनके मन का हिस्सा हो गई। करवट लेते वक्त उनका बोझ भी उनके मन का हिस्सा हो गया। आदमी परिचित से ऐसा बंध जाता है कि जंजीर तक तोड्ने में मन दुखता है। तो परिचित जिसको हमने जीवन समझा है, उसकी गिरफ्त में हैं। उस गिरफ्त के कारण हम मौत से भयभीत हैं। मौत का हमें कोई पता नहीं है। और जागने के लिए पहला सूत्र, दुख के प्रति बोध है। ताकि शरीर का अलगाव पता चल सके और ज्ञात हो सके कि मैं भिन्न हूं —एक। और दूसरी बात है, जीवन में साक्षी होने की सामर्थ्य, विटनेसिंग की सामर्थ्य।

हमें खयाल ही नहीं है। हमें खयाल ही नहीं है कि कभी रास्ते पर चलते हुए बीच बाजार में एकदम से झटका दें और दो मिनट के लिए खड़े हो जाएं और सिर्फ देखें और कुछ न करें। सिर्फ साक्षी हो जाएं। तो उस सड़क पर जब आप साक्षी होकर खड़े हो जाएंगे, तो अचानक आप उस सड़क की दुनिया से टूट जाएंगे और बाहर हो जाएंगे। जिस चीज के आप साक्षी होते हैं, उससे तत्काल ट्रांसेंड कर जाते हैं, उसके बाहर हो जाते हैं।

लेकिन सड़क पर खड़ा होना और साक्षी होना तो बहुत मुश्किल है। फिल्म देखने हम जाते हैं, वहां तक साक्षी नहीं रहते। फिल्म में एक आदमी है…….। सिनेमा हाल में अंधेरा होता है, इससे बड़ी सुविधा होती है। कोई रो रहा है और अपने आंसू पोंछ रहा है। अगर सिनेमा हाल से निकले हुए लोगों के रूमालों की जांच की जाए, तो पता चलेगा कि क्या—क्या वहां हो गया, कितने लोग रोए। अब हम भलीभांति जानते हैं कि पर्दे पर कुछ भी नहीं है, सिर्फ पर्दा है। और यह भी हम भलीभांति जानते हैं कि जो दिखाई पड़ रहा है वह सिर्फ दिखाई पड़ रहा है। वहां कुछ है नहीं। वह सिर्फ विद्युत की छाया और धूप का खेल है। वह सिर्फ पीछे से फेंकी गई किरणों का जाल है। वह सिवाय चित्रों के और कुछ भी नहीं है।

लेकिन नहीं, सब कुछ हो जाता है उस पर्दे पर। और हम उस पर्दे के भी साक्षी नहीं रह जाते। हम भी उस पर्दे में हिस्सेदार हो जाते हैं। इस भ्रांति में मत रहना आप कि जब आप फिल्म देखते हैं, तो आप देखने वाले होते हैं। इस भूल में मत रहना। आप भी हिस्सेदार होते हैं, भागीदार होते हैं, पाटासिपेंट होते हैं। आप फिल्म के बाहर नहीं रह जाते। टाकीज के भीतर होने के थोड़ी देर बाद आप फिल्म के भी भीतर हो जाते हैं। कोई आपको पसंद पड़ने लगता है, कोई नापसंद पड़ने लगता है। किसी की कथा आपके हृदय को दुख देने लगती है। और किसी की बात आपके हृदय को सुख देने लगती है। और आप थोड़ी देर में आइडेंटीफाइड हो जाते हैं। आप हिस्सेदार हो जाते हैं।

फिल्म में भी हम साक्षी नहीं रह पाते हैं, तो जिंदगी में साक्षी रहना कठिन पड़ेगा। वैसे जिंदगी भी फिल्म से बहुत ज्यादा नहीं है। और अगर बहुत गहरे में देखें, तो जिंदगी भी पर्दे से बहुत ज्यादा नहीं है। और अगर बहुत गहरे में देखें तो जिस भांति किरणों का जाल फिल्म के पर्दे पर प्रकट होता है, उसी तरह विद्युत का जाल जिंदगी में भी प्रकट हुआ है। यह सब भी सघन विद्युत का जाल है। यह सब भी इलेक्ट्रांस का बड़ा खेल है।

अगर आपके शरीर को सब तरह से तोड़—फोड़ कर पता लगाया जाए, तो आखिर में सिवाय विद्युत कण के और कुछ मिलता नहीं। अगर इस दीवाल को तोड़ —फोड़ कर आखिरी इसको बनाने वाला तत्व खोजा जाए, तो विद्युत के सिवाय कुछ बचता नहीं। तो बहुत फर्क क्या है? फिल्म के पर्दे में और इसमें फर्क क्या है। फिल्म के पर्दे पर भी विद्युत के कणों का खेल है।

ही, वह जरा टू डाइमेंशनल है, तो यह श्री डाइमेंशनल हो गया। उसमें ऐसी कोई बहुत तकलीफ नहीं है। उसमें और कुछ डाइमेंशस की कमी है, तो वह पूरी हो जाएगी। जिस भांति आप दिखाई पड़ रहे हैं मुझे, ठीक इसी भांति किसी दिन फिल्म के पर्दे पर भी दिखाई पड़ सकेंगे। और इसमें भी क्या बहुत देर, अड़चन लगेगी कि फिल्म के पर्दे से एक ऐक्टर उतर कर हाल में घूम जाए। इसमें बहुत देर नहीं लगेगी। टेकनीक के विकास की थोड़ी—सी बात है, इसमें बहुत ज्यादा अड़चन नहीं है। क्योंकि जब थी डाइमेंशनल आदमी पर्दे पर घूम सकता है, तो थोड़ा दस फुट पर्दे के नीचे उतरकर घूम जाए, यह सिर्फ टेक्योलाजी के थोड़े —से विकास की बात है। और आपसे जरा हाथ मिला जाए और एक फिल्म अभिनेत्री नीचे उतरकर और आपको जरा थपथपा जाए, इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। अभी उलटा हो रहा है। फिल्म अभिनेत्री नहीं आती पर्दे से, आप ही पर्दे के भीतर चले जाते हैं और थपथपा आते हैं। इस कष्ट से आपको बचाया जा सकेगा। इतनी मेहनत आपसे करवानी उचित नहीं है। पैसा भी दें और इतनी यात्रा भी करें। आप कुर्सी पर ही बैठे रहें।

बाकी जिंदगी में भी क्या है! जब मैं आपके हाथ को अपने हाथ में लेता हूं, तो क्या घटता है? जब मैं आपके हाथ को अपने हाथ में लेकर दबाता हूं तो आप कहते हैं, बहुत प्रेम किया जा रहा है या बहुत दुश्मनी की जा रही है। व्याख्याओं की बात है। हाथ दोनों में दबाए जाते हैं। सिर्फ इटरप्रिटेशस का फर्क है। और कहना मुश्किल है कि जब हाथ दबाया जा रहा है, तो एक सेकेंड के भीतर दोनों बातें भी हो सकती हैं कि दबाते वक्त शुरू किया गया था प्रेम से और आखिर में दुश्मनी से अलग किया गया। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। एक क्षण में इतना सब बदलता है। जब मैं आपका हाथ दबा रहा हूं तो आप कहते हैं प्रेम कर रहा हूं। लेकिन हो क्या रहा है? वस्तुत: क्या हो रहा है? अगर हमारे दोनों हाथों की जांच की जाए तो हो क्या रहा है? विद्युत के कुछ कण विद्युत के दूसरे कणों पर दबाव डाल रहे हैं।

और मजे की बात यह है कि आपका और मेरा हाथ कभी भी स्पर्श नहीं कर पाते हैं। बीच में फासला बना ही रह जाता है। स्पेस बनी ही रह जाती है। कम हो जाती है। दूर होती तो दिखाई पड़ती है, कम होने लगती है तो दिखाई नहीं पड़ती है। बहुत कम हो जाती है तो दिखाई नहीं पड़ती। जब दो हाथ एक—दूसरे को दबा रहे हैं, तब भी दोनों हाथ के बीच में खाली जगह होती है। उसी खाली जगह पर दबाव पड़ता है। आपके हाथ पर दबाव नहीं पड़ता है। उस खाली जगह का दबाव आपके हाथ पर पड़ता है। खाली जगह के दबाव को प्रेम और दुश्मनी समझी जा रही है।

व्याख्याएं हैं। अगर इसको हम साक्षी की तरह देख सकें तो बड़ी अदभुत घटना घटती है। जब कोई आपका हाथ दबा रहा है, तो जल्दी से एकदम प्रेम और दुश्मनी मत देखें। सिर्फ हाथ के दबाने के साक्षी हो जाएं। तो आप अपनी चेतना में एक आमूल ट्रांसफामेंशन पाएंगे। और जब कोई आपके ओंठ पर ओंठ रख रहा है, तब आप एक क्षण को प्रेम इत्यादि को भूल जाएं और एक क्षण को सिर्फ साक्षी हो जाएं। तो आपकी चेतना में एक अजीब ही अनुभव होगा जो आपको कभी नहीं हुआ। तब हो सकता है, आप अपने ऊपर हंस सकें। जब तक हम दूसरों पर हंसते हैं, तब तक हम साक्षी नहीं हैं। जिस दिन हम अपने पर हंस पाते हैं, उस दिन हम साक्षी हो जाते हैं, उस दिन हम साक्षी होने लगते हैं।

इसलिए सारी दुनिया के लोग दूसरों पर हंसते हैं। संन्यासी सिर्फ अपने पर हंसता है। और जो अपने पर हंस सकता है, उसे कुछ दिखाई पड़ना शुरू हो गया।

दूसरी बात है, साक्षी होना जीवन में, कहीं भी, किसी भी क्षण। भोजन कर रहे हैं, तब अचानक एक सेकेंड के लिए सिर्फ साक्षी हो जाएं। हाथ को भोजन उठाते देखें। मुंह को भोजन चबाते देखें। पेट में भोजन को जाते देखें। दूर खड़े हो जाएं और सिर्फ देखने लगें। तब अचानक आप पाएंगे कि स्वाद खो गया। तब अचानक आप पाएंगे कि अर्थ और ही हो गया। तब अचानक आप पाएंगे कि भोजन यह आप नहीं कर रहे हैं, आप देख रहे हैं और भोजन किया जा रहा है।

एक बहुत अदभुत कहानी है। कहानी है कि कृष्ण के गांव के बाहर एक संन्यासी का आगमन हुआ। बरसा के दिन थे। नदी पूर पर थी। संन्यासी उस पार था। गांव की स्त्रियां जाने लगीं भोजन कराने, तो राह में उन्होंने कृष्ण से पूछा कि कैसे हम नदी पार करें! भारी है पूर, नाव अब लगती नहीं। संन्यासी भूखा है। दो —चार दिन हो गए। खबरें भर आती हैं। उस पार खड़ा है। उस पार तो घना जंगल है। भोजन पहुंचाना जरूरी है। कोई तरकीब बताओ कि कैसे हम नदी पार करें।

तो कृष्ण ने कहा कि तुम जाकर नदी से कहना कि अगर संन्यासी ने जीवन में कभी भी भोजन न किया हो, सदा उपवासा रहा हो, तो नदी राह दे दे। कृष्ण ने कहा था तो स्त्रियों ने मान लिया। वे गईं और उन्होंने नदी से कहा कि हे नदी, राह दे दे। अगर संन्यासी जीवन भर का उपवासा है, तो हम भोजन लेकर उस पार चली जाएं।

कहानी कहती है कि नदी ने राह दे दी। नदी को पार करके उन स्त्रियों ने संन्यासी को भोजन कराया। वे जितना भोजन लाई थीं वह बहुत ज्यादा था। लेकिन संन्यासी सारा भोजन खा गया। अब जब वे लौटने लगीं, तब अचानक उन्हें खयाल आया कि हमने लौटने की कुंजी तो पूछी नहीं। अब मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि तब तो कह दिया था नदी से कि अगर संन्यासी जीवन भर का उपवासा हो! मगर अब तो किस मुंह से कहें कि संन्यासी जीवन भर का उपवासा हो! उपवासा कहना तो मुश्किल है, भोजन भी साधारण करने वाला नहीं है। सारा भोजन कर गया है। जो भी वे लाई थीं, वह सब साफ कर गया है। वे बिलकुल खाली हाथ हैं। उस संन्यासी ने उन्हें मनाने की भी तकलीफ न दी कि वे दोबारा उससे कहें कि और ले लो, और ले लो। और बचा ही नहीं है। अब वे बहुत घबरा गई हैं।

उस संन्यासी ने पूछा कि क्यों इतनी परेशान हो, बात क्या है? तो उन्होंने कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, हम सिर्फ आने की कुंजी लेकर आए थे, लौटने की कुंजी हमें पता नहीं। संन्यासी ने पूछा, आने की कुंजी क्या थी? उन्होंने कहा, कृष्ण ने कहा था कि नदी पार करना तो नदी से कहना कि राह दे दो अगर संन्यासी उपवासा हो। उस संन्यासी ने कहा, तो फिर इसमें क्या बात है? यह कुंजी फिर भी काम करेगी। जो कुंजी ताला बंद कर सकती है, वह खोल भी सकती है, जो खोल सकती है, वह बंद कर सकती है। फिर उपयोग करो।

उन्होंने कहा, लेकिन अब कैसे उपयोग करें, आपने भोजन कर लिया। वह संन्यासी खिलखिला कर हंसा। उस नदी के तट पर उसकी हंसी बड़ी अदभुत थी। वे स्त्रियां बहुत परेशानी में पड़ गईं। उन्होंने कहा, आप हमारी परेशानी पर हंस रहे हैं। उसने कहा, नहीं, मैं अपने पर हंस रहा हूं। तुम फिर से कहो, नदी मेरी हंसी समझ गई होगी। तुम फिर से कहो।

और उन स्त्रियों ने बड़े डर, बड़े संकोच और बड़े संदेह से उस नदी से कहा कि अगर यह संन्यासी जीवन भर का भूखा रहा हो……। उनका मन ही कह रहा था कि बिलकुल गलत है यह बात। लेकिन नदी ने रास्ता दे दिया। वे तो बड़ी मुश्किल में पड़ गईं। लौटते वक्त जितना बड़ा चमत्कार हुआ था, वह जाते वक्त भी नहीं हुआ था।

उन्होंने कृष्ण से जाकर कहा कि हद हो गई। हम तो सोचते थे, चमत्कार तुमने किया है, लेकिन चमत्कार उस संन्यासी ने किया है। जाते वक्त तो बात ठीक थी, ठीक है, हो गई। लौटते वक्त भी वही बात हमने कही और नदी ने रास्ता दे दिया! तो कृष्ण ने कहा कि नदी रास्ता देगी ही, क्योंकि संन्यासी वही है, जो भोजन नहीं करता है। उन्होंने कहा, लेकिन हमने अपनी आंखों से उसको भोजन करते देखा है। तो कृष्ण ने कहा, जैसे तुमने उसे भोजन करते देखा है, ऐसे ही वह संन्यासी भी अपने को भोजन करते देख रहा था। इसलिए वह कर्ता नहीं है।

यह कहानी है। किसी नदी के साथ ऐसा करने की कोशिश मत करना। नहीं तो नाहक किसी संन्यासी को फंसा देंगे आप। कोई नदी रास्ता देगी नहीं।

लेकिन बात यह ठीक ही है। अगर हम अपने को भी अपनी क्रियाओं में कर्ता की तरह नहीं द्रष्टा की तरह देख पाएं—सारी क्रियाओं में—तों मरना भी एक किया है और वह आखिरी किया है। और अगर तुम जीवन की क्रियाओं में अपने को दूर रख पाए, तो मरते वक्त भी तुम अपने को दूर रख पा सकते हो। तब तुम देखोगे कि मर रहा है वही, जो कल भोजन करता था; मर रहा है वही, कल जो दुकान करता था; मर रहा है वही, जो कल रास्ते पर चलता था; मर रहा है वही, जो कल लड़ता था, झगड़ता था, प्रेम करता था। तब तुम इस एक क्रिया को और देख पाओगे। क्योंकि यह मरने की क्रिया है, वह प्रेम की थी, वह दुश्मनी की थी, वह दूकान की थी, वह बाजार की थी। यह भी एक क्रिया है। अब तुम देख पाओगे कि मर रहा है वही।

एक मुसलमान फकीर हुआ, सरमद। सरमद के जीवन में एक बड़ी मीठी घटना है। सरमद पर, जैसा कि सदा होता है, उस जमाने के मौलवियों ने एक मुकदमा चलवाया। पंडित सदा से ही संत के विरोध में रहा है। सरमद पर एक मुकदमा चलवाया, सम्राट के दरवाजे पर सरमद को बुलवाया गया। मुसलमानों में एक सूत्र है। वह सूत्र यह है कि एक ही अल्लाह है और कोई अल्लाह नहीं उसके सिवाय, और एक ही पैगंबर है उसका, मुहम्मद। लेकिन सूफी फकीर इसमें से आधा हिस्सा छोड़ देते हैं। वे पहला हिस्सा तो कहते हैं कि एक परमात्मा के सिवाय और कोई परमात्मा नहीं है। दूसरा हिस्सा कि उसका एक ही पैगंबर है मुहम्मद, यह वे छोड़ देते हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि उसके बहुत पैगंबर हैं। इसलिए सूफियों के खिलाफ सदा से ही. मुस्लिम थियोलाजी जो है वह सदा से सूफियों के खिलाफ रही है। सरमद तो और भी खतरनाक था। वह सूफियों के इस पूरे सूत्र को भी पूरा नहीं कहता था। इसमें से भी आधा उसने छोड़ दिया था। सूत्र है कि एक ही परमात्मा के सिवाय कोई परमात्मा नहीं। वह सिर्फ इतना ही कहता था, कोई परमात्मा नहीं— आखिरी हिस्से को।

अब यह तो हद हो गई। मुहम्मद को छोड़ दो चलेगा। तब तक भी आदमी नास्तिक नहीं हो जाता। सिर्फ इतना ही है कि मुसलमान नहीं रह जाता। और मुसलमान न रह जाने से कोई धार्मिक नहीं रह जाता, ऐसी कोई बात नहीं है। लेकिन इस सरमद के साथ क्या करोगे? यह कहता है, कोई परमात्मा नहीं।

तो सरमद को दरबार में ले जाया गया। और सम्राट ने पूछा, सरमद, क्या तुम ऐसी बात कहते हो कि कोई परमात्मा नहीं? सरमद ने कहा, कहता हूं। और उसने जोर से दरबार में कहा, कोई परमात्मा नहीं। सम्राट ने कहा, तुम नास्तिक हो क्या? उसने कहा, नहीं, मैं नास्तिक नहीं हूं। लेकिन अभी तक मुझे किसी परमात्मा का कोई पता नहीं चला, तो मैं कैसे कहूं। जितना मुझे पता चला है, उतना ही कहता हूं। इस सूत्र में मुझे आधे का ही पता है अभी कि कोई परमात्मा नहीं। आधे का मुझे कोई पता नहीं। जिस दिन पता हो जाएगा, उस दिन कह दूंगा। और जब तक पता नहीं है, तब तक झूठ कैसे बोलूं! और धार्मिक आदमी झूठ तो नहीं बोल सकता। बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। आखिर उसको फांसी की सजा दी गई। और दिल्ली की जामा मस्जिद के सामने उसकी गरदन काटी गई।

यह कहानी नहीं है। पहली बात मैंने कही, कहानी है। यह कहानी नहीं है। हजारों —लाखों लोगों ने उस भीड़ में उसकी फांसी को देखा। उसकी गरदन काटी गई मस्जिद के दरवाजे पर और मस्जिद की सीढ़ियों से उसकी गरदन नीचे गिरी और उसके कटे हुए सिर से आवाज निकली, एक ही परमात्मा है, उसके सिवाय कोई परमात्मा नहीं।

तो जो लाखों लोग भीड़ में उसके प्यार करने वाले खड़े थे, उन्होंने कहा, पागल सरमद, अगर इतनी ही बात पहले कह दी होती! पर सरमद ने कहा, जब तक गरदन न कटे, तब तक उसका पता कैसे चले। जब पता चला, तब मैं कहता हूं कि परमात्मा है, उसके सिवाय कोई परमात्मा नहीं। लेकिन जब तक मुझे पता नहीं था, तब तक मैं कैसे कह सकता था।

कुछ सत्य हैं जो हमें गुजर कर ही पता चलते हैं। मृत्यु का सत्य तो हमें मृत्यु से गुजर कर ही पता चलेगा। लेकिन उसका पता चल सके, इसकी तैयारी हमें जिंदगी में ही करनी पड़ेगी। मरने की तैयारी भी जिंदगी में करनी पड़ती है। और जो आदमी जिंदगी में मरने की तैयारी नहीं कर पाता, वह बड़े गलत ढंग से मरता है। और गलत ढंग से जीना तो माफ किया जा सकता है, गलत ढंग से मरना कभी माफ नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह चरम बिंदु है, वह अल्टीमेट है, वह आखिरी है, वह जिंदगी का सार है, निष्कर्ष है। अगर जिंदगी में छोटी —मोटी भूलें यहां —वहा की हों तो चल सकता है, लेकिन आखिरी क्षण में तो भूल सदा के लिए थिर और स्थायी हो जाएगी।

और मजा यह है कि जिंदगी की भूलों के लिए पश्चात्ताप किया जा सकता है और जिंदगी की भूलों के लिए माफी मांगी जा सकती है और जिंदगी की भूलों को सुधारा जा सकता है, लेकिन मौत के बाद तो सुधारने का उपाय नहीं रहता और भूल का पश्चात्ताप भी नहीं रहता, रिपेंटेंस भी नहीं कर सकते, क्षमा भी नहीं मांग सकते, सुधार भी नहीं कर सकते। वह तो आखिरी सील लग जाती है। इसलिए गलत ढंग से जिंदगी माफ भी कर दी जाए, गलत ढंग से मरना माफ नहीं किया जा सकता।

और ध्यान रहे, जो आदमी गलत ढंग से जीया है, वह ठीक ढंग से मर कैसे सकता है। जिंदगी ही तो मरेगी, जिंदगी ही तो उस बिंदु पर पहुंचेगी जहां से वह विदा होगी। तो जो मैं जिंदगी भर था, वही तो मैं अपने अंतिम क्षण में समग्र रूप से इकट्ठा होकर हो जाऊंगा। वह अकुमलेटिव होगा। आखिरी क्षण में मेरी सारी जिंदगी का सब कुछ इकट्ठा होकर मेरे साथ खड़ा हो जाएगा। मेरी पूरी जिंदगी मैं मरते क्षण में होऊंगा। अगर हम इसको ऐसा कहें कि जिंदगी फैली हुई घटना है, मौत सघन है। अगर हम इसको ऐसा कहें कि जिंदगी बहुत लंबे फैलाव का विस्तार है और मृत्यु सारे विस्तार का इकट्ठा, संक्षिप्त संस्कार है—इकट्ठा हो जाना है। मृत्यु बहुत एटामिक है। एक कण में सब इकट्ठा हो गया।

इसलिए मृत्यु से बड़ी घटना नहीं है, पर मृत्यु एक ही बार घटेगी। इसका मतलब यह नहीं है कि आप और पहले नहीं मरे हैं। नहीं, वह बहुत बार घटी है। लेकिन एक जिंदगी में एक ही बार घटती है। और एक जिंदगी में अगर आप सोए—सोए जीए, तो वह नींद में ही घट जाती है। फिर दूसरी जिंदगी में वह नयी होती है। फिर एक ही बार घटती है।

और ध्यान रहे, जो आदमी इस जिंदगी में होशपूर्वक मर सकता है—कांशस डेथ—वह आदमी दूसरी जिंदगी में होशपूर्वक जन्म लेता है। वह उसका दूसरा हिस्सा है। और जो होशपूर्वक मरता है और होशपूर्वक जन्म लेता है, उसकी जिंदगी किसी और तल पर चलने लगी। वह पहली दफे ठीक से, होशपूर्वक जिंदगी के पूरे अर्थ को, प्रयोजन को, जिंदगी की गहराई और ऊंचाई को पकड़ पाता है। जिंदगी का पूरा सत्य उसके हाथ में आ पाता है।

तो दो बातें मैंने कहीं। मृत्यु में होशपूर्वक विदा होने के लिए एक तो दुख के प्रति जागना, स्मरणपूर्वक। दुख से भागना मत, दुख से पलायन मत करना। और दूसरी बात मैंने कही कि अनायास जिंदगी के काम में चलते—फिरते चौंककर खड़े हो जाना, एक क्षण को साक्षी हो जाना। फिर अपने रास्ते पर चल पड़ना। अगर चौबीस घंटे में ऐसे दो —चार क्षण के लिए भी आप साक्षी हो जाएं, तो आप अचानक पाएंगे कि जिंदगी बड़ा भारी पागलखाना है, जिसमें आप साक्षी होते से ही बाहर हो जाते हैं।

जब कोई आदमी आपको गाली दे रहा हो, तब आप इतने जल्दी भोक्ता बन जाते हैं कि आप उस गाली देने वाले को देख ही नहीं पाते। उसने उधर गाली दी नहीं कि इधर आपको मिली नहीं। असल में वह दे भी नहीं पाता है कि आपको मिल जाती है। वह आधी दे पाता है कि आप पूरी ले लेते हैं। वह जितनी देता है उससे दुगनी ले लेते हैं। वह भी चौंकता है कि इतनी गाली तो मैंने दी ही नहीं थी जितनी आपने ले ली है। तो आप देख ही नहीं पाते कि क्या हो रहा है। अगर आप देख पाएं……। जब कोई गाली दे रहा हो तो, एकाध दफे साक्षी होकर देखें, भोक्ता न बनें, बस खड़े होकर देखें कि कोई गाली दे रहा है। और तब जो हंसी आपको अपने पर आएगी, वह बड़ी मुक्तिदाई होगी। तब आप जिंदगी भर जो भोक्ता बन गए गाली पर, आज उस पर हंसी आएगी। और हो सकता है उस आदमी को आप धन्यवाद देकर अपने घर चले जाएं और मुसीबत में डाल दें। क्योंकि यह उसकी समझ के बाहर होगा। यह वह समझ ही नहीं पाएगा कि क्या हुआ।

चौबीस घंटे जो भी हो रहा है—क्रोध में, घृणा में, प्रेम में, मित्रता में, शत्रुता में, काम में, विश्राम में—जो भी हो रहा है उसे कभी एक क्षण के लिए, ज्यादा नहीं कहता हूं, बस एक क्षण के लिए एक झटका अपने को दें और जाग कर देखें कि क्या हो रहा है। और उस वक्त भोक्ता न रहें, उस वक्त जो हो रहा है उसके सिर्फ देखने वाले रह जाएं। इतना सन्नाटा छा जाएगा उस क्षण में और उस क्षण में आप इतना जान सकेंगे! क्योंकि उस क्षण में आप ध्यान से भर जाएंगे। वह जो जागने का क्षण है वह ध्यान का क्षण है।

ये दो प्रयोग अगर चलें तो तुमने जो बाकी बातें पूछी हैं, वे इनके पीछे आएंगी। जैसे तुमने पूछा है कि ब्रह्मचर्य साधक साधे तो मृत्यु में सहयोगी होगा? वह जाग सकेगा? असल में ब्रह्मचर्य वही साध सकता है, जो साक्षी बने, अन्यथा नहीं साध सकता। भोक्ता कामी रहेगा ही। भोक्ता का अर्थ ही कामी होता है, वह भोगना चाहता है। अगर साक्षी बने, तो धीरे— धीरे उसके जीवन से काम और सेक्स विदा हो जाएंगे। अगर कोई संभोग के क्षण में साक्षी बन सके, तो शायद दुबारा संभोग में नहीं जा सकेगा। क्योंकि चीजें ऐसी बेमानी और व्यर्थ हो जाएंगी। इतना बचकाना और चाइल्डिश सब हो जाएगा कि लगेगा, यह सब क्या हो रहा है! यह क्या किया जा रहा है! यह है क्या? यह मैं अब तक कैसे कर रहा हूं? यह सब मुझे कैसे पकड़े हुए है!

लेकिन नहीं, हम साक्षी नहीं हो पाते हैं, इसलिए फिर दोहरा लेते हैं। असल में भूल के दोहराने को अगर जारी रखना हो, तो कभी भी साक्षी मत बनना। हर भूल फिर दोहरती रहेगी। हर भूल का भी फिर अपना सीजन होता है, वह भूल दोहरती रहती है। अगर आप दो —चार महीने का अपना रेकार्ड रख सकें सारी बातों का, तो आप फौरन पता लगा लेंगे कि आप भी उसी तरह हैं जैसे कुछ लोग पीरियाडिकल पागल होते हैं।

मेरे एक मित्र हैं। आज ही दोपहर उनकी चिट्ठी आई है। वे छह महीने पागल रहते हैं, छह महीने ठीक रहते हैं। वे मुझसे हमेशा कहते हैं कि मुझे ऐसा क्यों होता है? मैंने कहा, तुम्हें सिर्फ पता चल जाता है, क्योंकि तुम्हारे पीरियड बड़े साफ और बंटे हुए हैं। दूसरे लोगों के पीरियड इतने साफ बंटे हुए नहीं हैं। वे दिन में छह दफे पागल होते हैं, छह दफे ठीक होते हैं। इसलिए उनकी पकड़ में नहीं आता। तुम छह महीने इकट्ठे सालिड पागल हो जाते हो और छह महीने एकदम ठीक हो जाते हो, तो तुम्हारा कंट्रास्ट बहुत साफ है। बाकी आम आदमी दिन में दस दफे पागल होता है, दस दफे ठीक होता है। उसको खुद भी पता नहीं चलता, दूसरों को भी पता नहीं चलता कि कब वह पागल है और कब वह ठीक है।

लेकिन अगर हम दो—चार महीने का अपना पूरा का पूरा ब्योरा रख सकें, तो हम फौरन पकड़ लेंगे उस ब्योरे में कि सब चीजें दोहरती हैं। करीब—करीब क्रोध का क्षण बराबर ठीक समय पर दोहरता है। आपको ठीक समय पर भूख ही नहीं लगती, ठीक समय पर क्रोध भी लगता है। इसका हिसाब रखें तो पता चल सकेगा। ठीक ग्‍यारह बजे भूख लग आती है, घड़ी में ग्यारह बजा और भूख लग आती है। बारह बजे भूख लग आती है कि एक बजे भूख लग आती है। जब आप रोज भोजन करते हैं, भूख लग आती है। शरीर कह देता है, भूख लगी है। ठीक ऐसे ही क्रोध भी लगता है, ठीक ऐसे ही काम भी लगता है, ठीक ऐसे ही प्रेम भी लगता है, ये सब लगते हैं। ये भूखे हैं। इन सबका वक्त बंधा हुआ है।

और यह भूल, बार—बार वही भूल दोहरती चली जाती है, क्योंकि कभी हमने इसे पकड़ने की कोशिश नहीं की है कि यह एक मेकेनिकल रूटीन है, यह यंत्रवत सब हो रहा है। इसलिए कभी—कभी बड़ी कठिनाई होती है। जैसे आपको भूख लगी हो और घर में खाना न हो, तभी आपको पता चलता है कि भूख लगी है। भूख लगी हो और खाना मिल जाए, तो भूख का पता नहीं चलता। निपट जाती है बात। ऐसे ही जब आपको क्रोध लगे और आसपास कोई न मिले, तब आपको पता चल सकता है। लेकिन कोई न कोई मिल ही जाता है। ऐसा तो हो भी जाता है कि भूख लगे और भोजन न मिले ऐसा मुश्किल से हो पाता है कि क्रोध लगे और क्रोध करने को कोई न मिले। यहां तक कि आदमी जिनको हम निर्जीव चीजें कहते हैं, उन चीजों के साथ भी क्रोध का व्यवहार करता है। और कोई न मिले तो फाउंटेनपेन को जोर से गाली देकर पटक देता है। इस आदमी को अगर कभी भी खयाल आ जाए, तो क्या सोचेगा! क्या सोचेगा यह आदमी!

अभी अमरीका में वे इसकी खोजबीन करते हैं कि गाड़ियों के जो ऐक्सीडेंट होते हैं, उनमें कितना मानसिक कारण है। तो बड़ी भारी मात्रा में दिखाई पड़ता है। क्योंकि क्रोध में आदमी जोर से ऐक्सीलेटर दबा देता है, उसे पता नहीं रहता। हो सकता है, वह पत्नी का सिर दबा रहा हो, कि बेटे की गरदन दबा रहा हो। मगर ऐक्सीलेटर पर पैर है उसका इस वक्त। ऐक्सीलेटर किसी के इमेज का काम कर रहा’ है। अब वह दबाए चला जा रहा है। अब वह भूल गया है कि कार चला रहा है। अब वह क्रोध चला रहा है। मगर किसी को तो पता नहीं कि वह क्या कर रहा है। वह क्रोध चला रहा है। खतरा होने ही वाला है। क्योंकि कार को क्रोध से कोई लेना—देना नहीं है, कार को क्रोध का कोई पता नहीं है। और कार में कोई बिल्ट—इन ऐसी व्यवस्था हम अभी तक नहीं कर पाए हैं कि जब आदमी क्रोध करे तो कार चलने से इनकार कर दे। कार का ऐक्सीलेटर दबाते हैं, कार समझती है कि जोर से चलाना है। कार को पता नहीं है कि इस वक्त धीमे चलने की जरूरत है। इस वक्त यह आदमी खतरे की हालत में है। इसको इस वक्त कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है।

चौबीस घंटे में हमारे क्रोध के क्षण लौट रहे हैं, काम के क्षण लौट रहे हैं। और एक बंधी हुई व्यवस्था है जिसमें हम डोलते रहते हैं मशीन की भांति। जब आप जागकर देखेंगे, तब आपको दिखाई पड़ेगा कि यह मैं जी रहा हूं कि सिर्फ कोल्‍हू के बैल की तरह घूम रहा हूं!

निश्चित ही जीना कोल्‍हू के बैल की तरह घूमना नहीं हो सकता है। कोल्ह के बैल की तरह घूमने में जिंदगी कहां है? एक यांत्रिकता, एक मेकेनिकल इंतजाम है, वह चल रहा है। कभी आपने सोचा है?

अभी मैं एक किताब पढ़ता था। एक बहुत अदभुत आदमी है और उसने एक अनूठा प्रयोग किया है। उसने यह समझने की कोशिश की कि रास्ते पर एक आदमी मिलता है और आपसे पूछता है कि कहिए कैसे हैं? आप कहते हैं, बिलकुल ठीक। आपने कभी खयाल न किया होगा कि उस आदमी को आपने जो उत्तर दिया, वह उसने सुना ही नहीं। न उसने उस उत्तर को सुनने के लिए आप से प्रश्न पूछा था। वह तो उसे कुछ और पूछना होगा, यहां से शुरुआत की थी। और कहीं से एकदम से शुरुआत करना जरा अजीब मालूम पड़े। तो वह शुरू करता है, कहिए कैसे हैं? फोन पर भी बात करता है तो कहता है, आपकी तबीयत कैसी है? और आपकी तबीयत से उसको कोई मतलब नहीं है, कभी नहीं रहा, न कभी रहेगा। इसलिए आप जो उत्तर देते हैं, वह उसको सुनने वाला नहीं है। बस, वह उसको आगे लांघकर दूसरी बात करेगा।

तो उस आदमी ने सोचा कि यह प्रयोग करने जैसा है। सुबह उसने प्रयोग किया। उसको किसी ने फोन किया। और उसने पूछा, कहिए, आप कैसे हैं? उसने कहा कि गाय अच्छा दूध दे रही है। उसने कहा कि बहुत अच्छा, बड़ा अच्छा है। आपकी पत्नी कैसी है? तब उसे पता चला कि कोई सुन नहीं रहा है। चीजें हम ले रहे हैं बिलकुल यंत्रवत।

एक दूसरे आदमी की मैं अभी जीवनी पढ़ता था। वह सारी दुनिया घूमा हुआ है। तो जिस मुल्क में भी जाओ, वहीं पच्चीस तरह के फार्म भरने पड़ते हैं। तो वह परेशान हो गया था कि वह फार्म किस लिए भरवाते हैं। उसमें उसने अनर्गल बातें भरी। लेकिन उसने सारी दुनिया के सब फार्म अनर्गल भर आया, किसी सरकार ने उसको रोका नहीं। उम्र में लिखता है पांच हजार साल, और कोई नहीं रोकने वाला है। कौन पढ़ता है! किसको मतलब है! किसको प्रयोजन है! किसी को कोई मतलब नहीं है। जिंदगी बिलकुल सोई—सोई यंत्रवत चल रही है। सब यांत्रिक उत्तर हैं। दूसरा पूछ रहा है, कैसे हैं? आप भी कह रहे हैं, ओ के, बिलकुल ठीक हैं। ये काम कंप्यूटर भी कर सकते हैं। एक कंप्यूटर पूछे, कैसे हैं? तो दूसरा कंप्यूटर कहे, ओ के। ऐसे ही चल रहा है। इसमें कोई चेतना, इसमें कोई होश, इसमें कोई जागृति—कुछ भी नहीं है। इसके प्रति थोड़ा जागने की जरूरत है। इसके प्रति साक्षी, इसके प्रति विटनेसिंग की जरूरत है।

रुक जाएं और एक क्षण को, किसी भी क्षण को, जागने का क्षण बना लें और चौंक कर देखें चारों तरफ कि क्या हो रहा है। आप साक्षी रह जाएं सिर्फ।

ये दो तैयारियां अगर चलें, तो आप पाएंगे कि आपके जीवन से क्रोध कम होने लगा है। क्योंकि साक्षी चेतना क्रोध नहीं कर सकती। क्रोध करने के लिए आइडेंटिटी चाहिए ही, मूर्च्छा चाहिए ही। साक्षी चेतना ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होने लगेगी, क्योंकि साक्षी चेतना कामवासना से ग्रसित नहीं हो सकती। साक्षी चेतना ज्यादा भोजन नहीं कर सकती है। इसलिए उसे कोई कसम और व्रत नहीं लेना पडेगा कि मैं अब थोड़ा कम भोजन करूंगा।

हमें पता नहीं है कि हम अगर भोजन भी ज्यादा करते हैं, तो उसका कारण बहुत गहरा होता है, भोजन नहीं होता है। अब जैसे समझें थोड़ा—सा इस बात के लिए कि एक आदमी ज्यादा भोजन कर रहा है। उसे पता भी नहीं होता कि वह क्यों ज्यादा भोजन कर रहा है। कभी आपने सोचा कि जब आप क्रोध में होते हैं, तो ज्यादा भोजन कर जाते हैं? कभी इसका रेकार्ड रखा? कभी आपने सोचा कि जब आपको जीवन में प्रेम की कमी अखरती है, तब आप ज्यादा भोजन कर जाते हैं? इसका कोई रेकार्ड रखा? इसका कभी होशपूर्वक खयाल किया है कि जब जीवन में प्रेम भरा—पूरा होता है, तो आदमी ज्यादा भोजन नहीं करता? अगर किसी प्रेमी से मिलना हो जाए, तो भोजन की भूख ही मर जाती है। प्रेम के क्षण में भूख मर जाती है। लेकिन प्रेम न हो जिंदगी में तो आदमी भोजन करने लगता है जोर से। लेकिन क्यों? इसके पीछे बड़ी मेकेनिकल व्यवस्था है। बड़ी दूर से हमारे मन की कंडीशनिंग है।

मां से बच्चे को प्रेम और भोजन दोनों मिलते हैं। और बच्चे के लिए जो पहला अनुभव है प्रेम का, वह भोजन का ही अनुभव है। अगर मां उसको भोजन न दे तो अप्रेम का पता चलता है, और भोजन दे तो प्रेम का पता चलता है। पहले अनुभव में भोजन और प्रेम दो चीजें नहीं हैं—बच्चे के पहले अनुभव में— भोजन और प्रेम, यानी एक चीज। बच्चे का पहला अनुभव प्रेम और भोजन का एक ही है। तो अगर मां बच्चे को बहुत प्रेम करती है, तो वह कम दूध पीता है। क्योंकि वह सदा आश्वस्त है कि कभी भी दूध मिल सकता है। कोई भय नहीं है भविष्य का। इसलिए पेट को ज्यादा भर लेने की कोई जरूरत नहीं है। तो जो मां बच्चे को ज्यादा प्रेम करती है, उसका बच्चा कम दूध पीएगा। जो मां बच्चे को प्रेम नहीं करती, जो दूध जबर्दस्ती पिलाती है, किसी तरह पिलाती है, हटाने की कोशिश में लगी रहती है, वह बच्चा ज्यादा दूध पीने लगेगा। क्योंकि आश्वासन नहीं है। हो सकता है, घड़ी भर बाद मां फिर उसको दूध दे, न दे। फिर दो घंटे चार घंटे कितनी देर भूखा रहना पड़े।

तो प्रेम की कमी उसे भोजन ज्यादा लेने को कहती है और प्रेम का ज्यादा भाव उसको भोजन कम लेने को कहता है। फिर यह उसके मन की कंडीशनिंग का हिस्सा हो जाता है। जब भी उसकी जिंदगी में प्रेम बहता है, तब वह भोजन कम करता है। और जब प्रेम रुक जाता है, तब वह भोजन ज्यादा करने लगता है। हालांकि उसे अब इससे कोई संबंध नहीं है। लेकिन अब वह यंत्रवत बहाव है।

इसलिए जिन लोगों की जिंदगी में प्रेम कम है, वे ज्यादा भोजन करने लगेंगे। लेकिन अगर इसके प्रति होश आ जाए, तो तुम बहुत हैरान हो जाओगे कि जब तुम ज्यादा भोजन कर रहे हो, तो सवाल यह नहीं है कि तुम कम भोजन करने की कसम खाओ। सवाल यह है कि तुम्हारी जिंदगी में प्रेम जैसी घटना नहीं घटी है। तब तुम रूट कॉजेज को पकड़ पाते हो कि कहां बुनियादी गड़बड़ है? कहां तकलीफ है? असली बात क्या है?

अब एक आदमी है। वह ज्यादा भोजन करता है। वह जाकर मंदिर में किसी मुनि, किसी संन्यासी के सामने कसम खा लेता है कि अब हम एक ही दफा भोजन करेंगे। वह एक दफे में दो —तीन दफे का भोजन करने लगता है। तीन दफे का भोजन करने लगता है एक दफे में और दिन भर भूखा मरता है। और दिन भर भोजन की सोचता है। फिर वह मेनिआक हो जाता है। फिर वह भूखा नहीं रह जाता, वह विक्षिप्त हो जाता है। भूख की विक्षिप्तता पैदा हो जाती है। फिर वह चौबीस घंटे भोजन में ही जीता है। अब हमारे मुल्क में इतने हजारों साधु —संन्यासी हैं, जो चौबीस घंटे भोजन की चिंता में ही जीते हैं। ये मेनिआक हैं, ये विक्षिप्त हैं। इनको पता नहीं कि इन्होंने क्या कर लिया है। यह क्या पागलपन कर लिया है। पूरे वक्त भोजन का ही चिंतन रह गया है। जैसे कि भोजन ही कुछ चितना का विषय है जगत में, जैसे भोजने के संबंध में ही सोचते रहना जीवन का लक्ष्य है। सुबह से लेकर सांझ तक। अगर उन्होंने भोजन का सारा इंतजाम कर लिया है, जैसा वे चाहते हैं वैसा कर लिया है, तो सब हल हो गया।

विवेकानंद ने अमरीका में कहा था कि मेरा मुल्क बर्बाद न होता, लेकिन मेरे मुल्क का सारा धर्म किचन का धर्म हो गया है, चौके का धर्म हो गया है, इसलिए मर गया मेरा मुल्क। और धर्म जब चौके का हो जाए, तो क्या धर्म रह जाता है?

इसके पीछे कारण है कि हम जागकर अपने भीतर की पूरी व्यवस्था नहीं देख पाते कि हम कब क्या करते हैं।

अब एक आदमी है। शराब पीए जा रहा है। और हम सब भिड़े हुए हैं कि वह शराब छोड़े। वह भी कोशिश करता है कि मैं शराब छोडूं। लेकिन वह कभी नहीं फिक्र करता कि बात क्या है? आखिर वह शराब क्यों पीए जा रहा है? आखिर बेहोश होने की इच्छा उसमें क्यों पैदा हो रही है? जरूर इसकी जिंदगी में कुछ है जिसे वह भूल जाना चाहता है; जिंदगी में कुछ है जो याद करने से बचना चाहता है; जिंदगी में कुछ है जिस पर पर्दा डाल देना चाहता है। इसके प्रति अगर वह जागे, तो कुछ हल हो जाए। लेकिन इसके प्रति न जागकर वह उलटा पर्दा डालता चला जाएगा। फिर वह पर्दों पर पर्दे डालना चाहेगा। फिर इस पर्दे पर भी पर्दा डालना चाहेगा, क्योंकि इस पर्दे के पीछे कुछ छिपा रखा है। वह पता न चल जाए। फिर यह जिंदगी एक दौड़ हो जाएगी पर्दा डालने की और सब झूठा हो जाएगा। और एक दिन उसी आदमी को पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि मैंने किस लिए भूलना शुरू किया था। वह खुद ही भूल चुका होगा। उसे खुद ही पता न रह जाएगा कि कब मैंने शराब पीनी शुरू की थी और क्यों शुरू की थी।

अब एक आदमी सिगरेट फूंके जा रहा है, दिन भर सिगरेट फूंक रहा है। कोई पूछ सकता है कि बड़ी अजीब बात है कि एक आदमी धुएं को भीतर ले जाता है, बाहर निकालता है, इसकी बात क्या हो सकती है? कारण क्या हो सकता है? इस धुएं को बाहर और भीतर निकालने की प्रक्रिया में राज जरूर होना चाहिए। क्योंकि सारी दुनिया के इतने अधिक लोग बिलकुल ही व्यर्थ सिगरेट पी रहे हों, ऐसा नहीं हो सकता। और एक सिगरेट पीने वाला भी अगर गौर करे, तो पता लगा सकता है कि कब सिगरेट पीता है। जब भी वह लोनली अनुभव करता है, जब भी अकेला अनुभव करता है, जब कोई कंपनी नहीं होती, तभी वह तत्काल सिगरेट पीने लगता है। अब वह सिगरेट से साथी का काम ले रहा है। और सिगरेट सस्ता साथी है। झंझट भी नहीं है उससे, खीसे में डालो, जहां चाहो ले जाओ। अकेले बैठो। जब चाहो, तब उसके साथ काम शुरू कर दो। वह आकुपेशन है। और एक अर्थ में निर्दोष है। निदोंष व्यर्थता है। इनोसेंट आकुपेशन है। आप किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ रहे हैं। अगर बिगाड़ रहे हैं तो अपना थोड़ा—बहुत बिगाड़ रहे हैं। धुआं निकाल रहे हैं, धुआं फेंक रहे हैं। कुछ कर नहीं रहे हैं, पर व्यस्त हैं।

मैं एक ट्रेन में था। तो ट्रेन में तो मेरी आदत है कि चुपचाप सो जाऊं और जितनी देर सो सकूं सोया रहूं। साथ में एक सज्जन थे। वे बड़े परेशान थे। उन्होंने मुझे कई दफा जगाने की कोशिश की। जब कोई छह घंटे बाद मैं उठा और स्नान करके फिर सोने लगा, तो उन्होंने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं! मैं अपने एक ही अखबार को दस बार पढ़ चुका हूं। इस खिड़की को खोलता हूं उसको बंद करता हूं। और आप हैं कि सो रहे हैं। मैं तो सोचता था, कुछ कंपेनियनसिप होगी, कोई बात होगी कोई चीत होगी। और इतनी सिगरेट मैंने कभी नहीं पी, जितनी मैं अभी पी चुका हूं। अब आप उठ आइए।

वे ठीक कह रहे हैं। आदमी अकेला है, इतनी भीड़ में भी। इतनी भीड़— भाड़ हमें दिखाई पड़ती है—पत्नी है, बेटे हैं, बेटियां हैं, पिता हैं, मां हैं, घर है, परिवार है—इतना भीड़— भड़क्का है, सब कुछ है, लेकिन फिर भी आदमी अकेला है। अभी हम आदमी के अकेलेपन को नहीं मिटा पाए। और वह अकेलेपन को मिटाने के लिए कुछ—कुछ कर रहा है। कभी सिगरेट पी रहा है, कभी ताश खेल रहा है। दूसरे के साथ छोड़िए, खुद के साथ खेल रहा है। दोनों तरफ से बाजियां चल रहा है। तब तो पागलपन की हद हो जाती है न! कि एक आदमी दोनों तरफ की बाजियां बिछाये हुए है। उधर से भी चलता है, इधर से भी चलता है। बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी यह काम करते मिल जाएगा। तो हमारा बुद्धिमान भी बहुत बुद्धिमान है, ऐसा मालूम नहीं पड़ता। कारण क्या है?

इसके प्रति जागना पड़े। इसके प्रति साक्षी होना पड़े। अगर यह आदमी जो दोनों तरफ ताश की बाजियां चल रहा है, खुद ही अगर एक क्षण को होश से भर जाए और साक्षी होकर देखे, तो जैसे आप इस पर हंसे हैं, क्या ऐसे ही यह अपने पर नहीं हंस पाएगा? कि हंस पाएगा! वह देखेगा, यह क्या हो रहा है! यह मैं कर क्या रहा हूं जिंदगी के साथ!

और यह अगर दिखाई पड़ जाए, तो कसम नहीं लेनी पड़ती, व्रत नहीं लेना पड़ता, कुछ छोड़ना नहीं पड़ता। चीजें जो व्यर्थ हैं, छूटती हैं। और उनके मूल कारण को पकड़ कर अगर हम उस कारण के प्रति और गहरे में सजग होते चले जाएं, तो वह धीरे — धीरे, धीरे — धीरे हमें उस जगह पहुंचा देता है जहां से जड़ें उखाड़कर फेंक दी जा सकती हैं बिना किसी कष्ट के।

और ध्यान रहे, अगर आपने किसी वृक्ष के पत्ते काटने शुरू किए, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। क्योंकि एक पत्ता काटो, तो चार पैदा होते हैं, क्योंकि वृक्ष समझता है कि आप कलम कर रहे हैं। और वृक्ष की कोई गलती नहीं है। वह सोचता है कि आपको चार पत्ते की जरूरत होगी, इसलिए एक काट रहे हैं, तो वह चार पैदा कर देता है। जब चार हो जाते हैं, तो आप घबड़ाकर चार काटते हैं, तो सोलह हो जाते हैं।

नहीं, जड़ों से चीजें उखाड़ी जाती हैं, पत्तों से नहीं काटी जातीं। हम जिंदगी भर पत्तों से खेलते रहते हैं और जड़ों का हमें कोई पता नहीं। कोई कहता है कि ब्रह्मचर्य की कसम ले लो..।

कलकत्ते में एक घर में मैं मेहमान था। एक मेरे मित्र भी साथ थे। जिन बूढ़े के घर मैं मेहमान था वह बहुत ईमानदार आदमियों में से एक थे। सत्तर साल उनकी उम्र हो गई। उन्होंने मुझसे कहा कि अब मैं क्या करूं आप ही बताइए, मैं जिंदगी में तीन बार ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुका। उन्होंने यह कहा यह तो ठीक था, इससे भी आश्चर्यजनक घटना यह थी कि मेरे मित्र जो थे वे बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कहा कि तीन बार! मैंने कहा कि तुम समझो भी तो कि तीन बार का मतलब क्या होता है! मैंने उन वृद्ध से पूछा कि चौथी बार क्यों नहीं लिया? क्या तीसरी बार लिया हुआ सफल हो गया? उन्होंने कहा कि नहीं, तीसरी बार मेरी हिम्मत ही टूट गई। इसलिए लिया नहीं।

वे ईमानदार आदमी थे। तीन बार जो व्रत लेगा उसका मतलब ही यह है कि हर बार टूटेगा। और तीन बार व्रत टूटेगा, लेकिन तीन बार व्रत के टूटने की निराशा तो सघन होगी। और तीन बार व्रत टूटेगा तो तीन बार की हताशा तो सघन होगी। तीन बार व्रत टूटेगा तो तीन बार के आत्म —विश्वास के टूटने की स्थिति तो गहरी हो जाएगी। चौथी दफे हिम्मत न रह जाएगी व्रत लेने की। तो मैंने उनसे कहा कि जिस साधु ने आपको यह व्रत दिलवाया है वह आपका दुश्मन था। आपने समझा कि मित्र है। उसने आपकी हिम्मत ही तोड़ दी। अब सत्तर साल की उम्र में भी ब्रह्मचर्य का व्रत लेने की हिम्मत नहीं है आपमें अब। पर कारण क्या है? पत्ते! एक पत्ता कांटा तीन पैदा हो गए।

ब्रह्मचर्य के व्रत लिए जाते हैं? ब्रह्मचर्य के व्रत नहीं होते, सिर्फ कामवासना की समझ होती है। कामवासना की जागरूकता होती है। कामवासना की जागरूकता ब्रह्मचर्य का फल बन जाती है। जब कोई आदमी अपनी कामवासना के प्रति जागता है, समझता है, खोजता है, जीता है, पहचानता है, तो अचानक पाता है कि वह किस खेल में लगा हुआ है। यह खेल भी उस पत्ते बिछाने से ज्यादा नहीं है। यह सब खेल पत्ते बिछाने का खेल चल रहा है। जब पूरी तरह होश से उसके भीतर प्राणों की गहराई में तीर की तरह यह बात पहुंच जाती है, तो वह अचानक पाता है कि ब्रह्मचर्य फलित हो गया। ब्रह्मचर्य कोई व्रत नहीं है।

ध्यान रहे, धर्म का व्रत से कोई भी संबंध नहीं है। और व्रती कभी धार्मिक नहीं होते। हो भी नहीं सकते। धार्मिक आदमी वह है, जिसके जीवन में व्रत के फल लगते हैं, कान्सीक्येन्स की तरह, परिणाम की तरह। वह जितना ही जिंदगी को देखता है उतना ही पाता है कि कुछ चीजें बदलती जा रही हैं, कुछ चीजें बदलती जा रही हैं।

एक आदमी के हाथ में कंकड—पत्थर हैं। हम उससे चिल्ला रहे हैं कि छोड़ो यह कंकड़—पत्थर। लेकिन उसको रंगीन हीरे दिखाई पड़ रहे हैं और हैं रंगीन पत्थर। चमक है उनमें। वह आदमी समझता है, हीरे हैं। वह कैसे छोड़ दे। वह आदमी कहता है कि जिन्होंने छोड़ा, उनको हम भगवान मानते हैं लेकिन हम साधारण आदमी हैं, हम न छोड़ सकेंगे। लेकिन यह आदमी हीरे की खदान पर पहुंच गया है और हीरे सामने दिखाई पड़ने लगे हैं। फिर क्या इसको समझाना पड़ेगा कि कंकड़ —पत्थर छोड़ दो? इसको पता ही नहीं चलेगा कि कब कंकड़—पत्थर छोड़ दिए और दौड़ पड़ा और कब इसने हीरों से हाथ भर लिये। और इससे अगर बाद में आप पूछेंगे कि उन कंकड़—पत्थरों का क्या हुआ जो पहले तुम हाथ में लिये रहते थे? तो यह कहेगा कि अच्छी याद दिलाई। मैं भूल ही गया था कि उनका क्या हुआ। वे कहां गए, मुझे पता नहीं। वे कब गिर गए, मुझे पता नहीं है। क्योंकि जब हीरे दिखाई पड़ जाएं, तो हाथ तत्काल खाली करने पड़ते हैं।

जीवन एक विधायक चढ़ाव है, एक निषेधात्मक उतार नहीं। जीवन एक पाजिटिव अचीवमेंट है, एक निगेटिव रिनंशियेसन नहीं। जीवन एक त्याग नहीं है, जीवन एक उपलब्धि है। और जितनी साक्षी चेतना गहरी होती है, उतने परम आनंद के नए तल दिखाई पड़ने लगते हैं। उतने दुख के तल छूटने लगते हैं, उतना कचरा फिंकने लगता है। पत्थर फिंकने लगते हैं। हीरे हाथ में आने लगते हैं। तो जिन और बातों के तुमने प्रश्न पूछे हैं, वे सारी बातें इन दो घटनाओं के साथ चलेंगी। तुम्हारा दुख—बोध तीव्र हो। तुम दुख—बोध में तादात्म्य छोड़ो। तुम दुख—बोध में शरीर के साथ एक न रहो। और जीवन की समस्त क्रियाओं, प्रक्रियाओं में तुम साक्षी बनो, भोक्ता न रहो। एक छोटी—सी घटना से मैं तुम्हें और समझाऊं, निरंतर मुझे प्रीतिकर रही है।

अभी— अभी शायद जन्म—तिथि गुजरी है ईश्वरचंद विद्यासागर की। वे एक नाटक को देखने गए थे। चल रहा है नाटक और उसमें एक विलेन है। उस नाटक में एक आदमी है, जो एक स्त्री को सताने के लिए उसके पीछे पड़ा हुआ है। वह सब तरह से उसको परेशान कर रहा है। अब ईश्वरचंद बड़े आदमी थे, बुद्धिएमान आदमी थे। पहली ही कुर्सी पर, नंबर एक की कुर्सी पर देखने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया था। वे बैठकर देख रहे थे। सज्जन आदमी थे। उनका संयम टूट गया। इतने क्रोध में आविष्ट हो गए कि वे यह भूल गए कि नाटक है। निकाला जूता पैर से..। और आखिरी क्षण था, क्लाइमेक्स था उस नाटक का। कि आखिर एक घने जंगल में अंधेरी रात में वह खलनायक, वह अभिनेता, वह पात्र उस स्त्री को पकड़ लेता है। अंधेरी रात है, सन्नाटा है। कोई भी आसपास नहीं है। वह स्त्री चिल्लाती है, लेकिन उसकी चिल्लाहट सन्नाटे में गूंजती है। बस ईश्वरचंद ने निकाला जूता,

छलांग लगाकर मंच पर चढ़ गए और लगे उसे मारने, उस अभिनेता को मारने लगे।

अभिनेता ने उनका जूता अपने हाथ में ले लिया, सिर से लगाया। अभिनेता ने जितनी समझ दिखलाई उतनी ईश्वरचंद नहीं दिखला पाए। और उसने लोगों से कहा कि इतना बड़ा पुरस्कार मुझे जीवन में कभी नहीं मिला। ईश्वरचंद जैसा बुद्धिमान आदमी नाटक को सत्य समझ ले, तो अभिनेता की कुशलता नहीं तो और क्या है! तो उसने कहा, इस जूते को मैं संभालकर रखूंगा विद्यासागर जी, इसको वापस नहीं करता। यह मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार है।

ईश्वरचंद विद्यासागर जैसा आदमी नाटक को सत्य समझ ले, तो हम जैसे साधारण आदमी, जिसको हम सच कहते हैं, उसको नाटक कैसे समझ पाएंगे। लेकिन अगर साक्षी होने के थोड़े प्रयोग करें, तो समझ पाएंगे। वह नाटक दिखाई पड़ने लगेगा। और यह हो जाए, तो मृत्यु में जागे हुए प्रवेश किया जा सकता है।

कल फिर बात करेंगे।


Filed under: मैं मृत्‍यु सिखाता हूं--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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