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मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–42)

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संन्यास का निर्णय और ध्यान में छलांग—(प्रवचन—बयालीसवां)

‘नव—संन्यास क्या?':

से संकलित प्रवचनांश

गीता—ज्ञान—यज्ञ पूना।

दिनांक 26 नवम्बर 1971

क्या संन्यास ध्यान की गति बढ़ाने में सहायक होता है?

संन्यास का अर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र ध्यान होगा। और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंद्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा—ऐसे निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है—इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह शइक्त की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु—मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।

तो जो व्यक्ति ध्यान को जीवन के और कामों में एक काम की तरह करता है। चौबीस घंटों में बहुत कुछ करता है, घंटेभर ध्यान भी कर लेता है—निश्रित ही उस व्यक्ति के बजाय जो व्यक्ति अपने चौबीस घंटे के जीवन को ध्यान को समर्पित करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रास्ते पर चलेगा तो ध्यानपूर्वक, रात सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह में बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक—ऐसे व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी—जो ध्यान को अपने चौबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर गया है।

निश्‍चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति देगा। और ध्यान संन्यास के लिए गति देता है। ये संयुक्त घटनाएं हैं। और मनुष्य के मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। वह निर्णय ही परिवर्तन के लिए ‘क्रिस्टलाइजेशन’, समग्रीकरण बन जाता है।

कभी बैठे—बैठे इतना ही सोचें कि चोरी करनी है तो तत्काल आप दूसरे आदमी हो जाते हैं—तत्काल! चोरी करनी है इसका निर्णय आपने लिया कि चोरी के लिए जो मददरूप है. वह मन आपको देना शुरू कर देता है—सुझाव कि क्या करें, क्या न करें, कैसे कानून से बचें, क्या होगा, क्या नहीं होगा! एक निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरू कर देता है। मन आपका गुलाम है। आप जो निर्णय ले लेते हैं, मन उसके लिए सुविधा शुरू कर देता है कि अब जब चोरी करनी ही है तो कब करें, किस प्रकार करें कि फंस न जाएं मन इसका इंतजाम जुटा देता है।

जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं संन्यास लेता हूं कि मन संन्यास के लिए भी सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल में निर्णय न लेनेवाला आदमी ही मन के चक्कर में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है— ‘इनडिसीसिवनेस इज माइंड’। निर्णय की क्षमता, डिसीसिवनेस, ही मन से मुक्ति हो जाती है। वह जो निर्णय है, संकल्प है, बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछे चलेगा। लेकिन जिसके पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं है, उसके पास सिर्फ मन होता है। और उस मन से हम बहुत पीड़ित और परेशान होते हैं। संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है, संन्यास के बाद तो होगा ही—निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है।

और ध्यान रहे, आदमी बहुत अनूठा है। उसका अनूठापन ऐसा है कि कोई अगर आपसे कहे कि दो हजार, या दो करोड़ या अरब तारे है तो आप बिलकुल मान लेते हैं। लेकिन अगर किसी दीवार पर नया पेंट किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब तक उंगली खराब न हो जाए तब तक मन नहीं मानता। सूरज को बिना सोचे मान लेते हैं और दीवार पर पेंट नया हो तो छूकर देखने का मन होता है। जितनी दूर की बात हो उतनी बिना दिक्कत के आदमी मान लेता है। जितनी निकट की बात हो उतनी दिक्कत खड़ी होती है।

संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट की और कोई बात नहीं है। अगर जो विवाह करेंगे तो वह भी दूर की बात है। क्योंकि उसमें दूसरा सम्मिलित है, इनव्हॉल्क है। आप अकेले नहीं हैं। संन्यास अकेली घटना है जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर बड़ी कठिनाई होती है मन को।

जितनी बड़ी भीड़ हो हम उतना जल्दी निर्णय ले लेते हैं। अगर दस हजार आदमी एक मस्जिद को जलाने जा रहे हैं तो हम बिलकुल मजे से उसमें चले जाते हैं। यदि दस हजार आदमी मंदिर में आग लगा रहे हैं तो हम बराबर सम्मिलित हो जाते हैं। दस हजार लोग हैं, रिस्पासिबिलिटी, जिम्मेवारी, फैली हुई है, आप अकेले जिम्मेवार नहीं हैं—दस हजार आदमी साथ हैं। अगर कल बात हुई तो आप कहेंगे कि इतनी बडी भीड़ थी, मेरा होना, न होना, बराबर था। नहीं भी होता मैं तो भी मंदिर जलनेवाला ही था। मैं तो खड़ा था, चला गया। जिम्मेवारी मालूम नहीं पडती।

लेकिन संन्यास ऐसी घटना है जिसमें सिर्फ तुम ही जिम्मेवार हो, और कोई नहीं, ओनली यू आर रिस्पांसिबल, नो वन ऐल्‍स। इसलिए निर्णय करने में बड़ी मुश्किल होती है। अकेले ही हैं, किसी दूसरे पर जिम्मेवारी डाली नहीं जा सकती। किसी से आप यह नहीं कह सकते कि भीड़ की वजह से, तुम्हारी वजह से मैं लेता हूं। इसलिए निर्णय को हम टालते चले जाते हैं। अकेला आदमी जिस दिन निर्णय लेने में समर्थ हो जाता है उसी दिन आत्मा की शक्ति जागनी शुरू होती है, भीड़ के साथ चलने से कभी कोई आत्मा की शक्ति नहीं जगती।

दूसरी मजे की बात है कि लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत तो मेरा मन तैयार है संन्यास लेने के लिए, दस प्रतिशत नहीं है, तो जब पूरा हो जाएगा मेरा सौ प्रतिशत मन तब मैं संन्यास ले लूंगा। लेकिन इस आदमी ने कभी विवाह करते समय नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! चोरी करते वक्त नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! क्रोध करते वक्त नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! गाली देते समय नहीं सोचा कि सौ प्रतिशत मन तैयार है! सिर्फ संन्यास के समय यह कहता है कि सौ प्रतिशत मन तैयार होगा तब! यह अपने को धोखा दे रहा है। यह भली— भांति जानता है कि सौ प्रतिशत मन कभी तैयार नहीं होगा इसलिए बचाव की सुविधा बनाता है। अगर यही धारणा है कि सौ प्रतिशत मन जब तैयार होगा तभी कुछ करेंगे, तो ध्यान रखना, आपका सब करना आपको बंद करना पड़ेगा। सौ प्रतिशत मन आपका कभी किसी चीज में तैयार नहीं होता है। लेकिन बाकी सब काम आदमी जारी रखता है।

और यह भी मजे की बात है कि जब आप तय करते हैं कि नब्बे प्रतिशत मन तो कहता है, दस प्रतिशत अभी नहीं कहता है; तो आप को पता नहीं है कि आप संन्यास नहीं ले रहे हैं तो आप दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय लेते हैं, नब्बे प्रतिशत को इनकार करते हैं। असल में न लेने में ऐसा लगता है कि जैसे कोई बात ही नहीं हुई। संन्यास न लेना भी निर्णय है। दस प्रतिशत के पक्ष में निर्णय लेते हैं, नब्बे प्रतिशत को छोड़ देते हैं तो आपकी जिंदगी बहुत दुविधा में भरी जिंदगी हो जाएगी। अगर निर्णय लेना है तो इक्यावन प्रतिशत भी हो तो निर्णय ले लेना चाहिए, उनचास प्रतिशत को छोड़ देना चाहिए। लेकिन हम ऐसे हैं कि अगर हमें एक प्रतिशत भी गलत कोई बात मन कहता है तो निन्यान्नबे को छोड़कर एक प्रतिशत वाला काम कर लेते हैं और निन्यान्नबे प्रतिशत भी कोई ठीक बात मन कहता हो तो एक प्रतिशत वाली बात पर निर्णय लेते हैं।

ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद आदमी आनंद चाहता ही नहीं। कहता जरूर है कि आनंद चाहते हैं, शांति चाहते है, लेकिन शायद आदमी आनंद चाहता ही नहीं। क्योंकि बातें वह आनंद के चाहने की करता है, लेकिन जो कुछ भी वह करता है उससे दुख ही मिलता है, उस सबसे दुख ही मिलता है। उपाय सब दुख के करता है, बातें आनंद की करता है। और कभी गौर से नहीं देखता है कि मेरा दुख, मैं जो कर रहा हूं उन्हीं उपायों पर निर्भर है।

संन्यास आनंद का निर्णय है। अब मैं आनंद चाहता हूं—इतना ही नहीं, आनंद को पाने के लिए कुछ करूंगा भी। संन्यास इस बात का निर्णय है कि अब मैं सिर्फ आनंद की चाह ही नहीं करूंगा, उस चाह को पूरा करने के लिए जीवन दांव पर भी लगाऊंगा। संन्यास इस बात की भी अपने प्रत्यक्ष, अपने सामने घोषणा है कि अब मैं दुख से बचने की कोशिश ही नहीं करूंगा, दुख जिन—जिन चीजों से पैदा होता है उनको छोड़ने का सामर्थ्य और साहस भी जुटाऊंगा।

यह निर्णय लेते ही आपकी जिंदगी नये केंद्र पर रूपांतरित होती है और स्वभावत: ध्यान फैलना शुरू हो जाता है। क्योंकि ध्यान तो सिर्फ एक विधि है। जिसने भी धर्म की ओर जाना शुरू किया, उसे ध्यान की विधि के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह जाता है। लेकिन हम ऐसे लोग हैं कि दौड़ते है हम धन की तरफ और ध्यान की विधि का उपाय करना चाहते है। बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि धन को पाने के लिए ध्यान बाधा बन सकता है, सहयोगी नहीं। क्योंकि धन के पाने के लिए जो—जो भी करना पड़ता है, ध्यान जैसे गहरा होगा, उस सब में अड़चनें पड़ने लगेंगी, मुश्किल पड़ने लगेगा।

मुझसे कोई पूछता है कि क्या हम ध्यान कर सकते है और रिश्वत भी ले सकते है? मैं उनसे कहता हूं कि मजे से रिश्वत लो और ध्यान किए जाओ। क्योंकि जैसे ही ध्यान का बीज थोड़ा—सा भी टूटेगा, रिश्वत लेना मुश्किल हो जाएगा, कठिन होता जाएगा और एक घड़ी आएगी कि पांच रुपए लेते वक्त अमूल्य ध्यान को छोड़ने की क्षमता न रह जाएगी, मुश्किल हो जाएगा।

संन्यास इस बात की घोषणा है जगत के प्रति, और अपने प्रति भी, कि मैं अब परमात्मा की तरफ जाने का सचेतन निर्णय लेता हूं। निश्रित ही उस निर्णय को लेने के बाद उस यात्रा में जाने के लिए जो साधन है उसको करना आसान हो जाता है। इधर मैंने देखा है सैकंड़ों व्यक्तियों को कि संन्यास लेते ही उनमें रूपांतरण हो जाता है। जब कुछ करेंगे तब की तो बात अलग, निर्णय लेते ही बहुत कुछ बदल जाता है। लेकिन यह लेना भी बहुत कुछ करना है। एक निर्णय पर पहुंचना, एक दाव लगाना, एक साहस जुटाना, एक छलांग की तैयारी भी छलांग है। आधी छलांग तो तैयारी में ही लग जाती है।

तो निश्रित ही ध्यान की गहराई बढ़ेगी संन्यास से। संन्यास की गहराई बढ़ती है ध्यान से। वे अन्योन्याश्रित है।

‘नव—संन्यास क्या?':

से संकलित प्रवचनांश

गीता—ज्ञान—यज्ञ पूना।

दिनांक 26 नवम्बर 1971

 

(समाप्‍त)


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–176

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समर्पण की छलांग—(प्रवचन—चौथा)

अध्‍याय—15

सूत्र—

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्‍जानं वा गुणान्यितम्।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचमुष:।। 10।।

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यज्यात्मन्यवस्थितम्।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यक्यधेतस:।। 11।।

परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी ज्ञानीजन नहीं जानते है केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।

क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए हस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी हम आत्मा को नहीं जानते हैं।

पहले कुछ प्रश्न।

 

पहला प्रश्न : किसे समर्पण करें? किसे समर्पण करना चाहिए, इसकी कैसे तसल्ली हो? और तब तक क्या जारी रखें?

 

सल्ली कभी भी न होगी। क्योंकि जो मन तसल्ली मांगता है, तृप्त होना उसका स्वभाव नहीं। वह भूल—चूक खोज ही लेगा।

आप बुद्ध के पास से भी गुजरे हैं, कृष्ण के पास से भी, महावीर के पास से भी। आप पहली दफा पृथ्वी पर नहीं हैं। तसल्ली कोई आपको दे नहीं पाया। अगर किसी ने भी तसल्ली दी होती, तो आप यहां होते नहीं।

भूलें आपने सब में खोज ली हैं। इसलिए नहीं कि भूलें थीं। इसलिए कि भूल खोजने में आप पारंगत हैं, कुशल हैं। जहां भूल न हो, वहा भी आप देख ले सकते हैं। फिर व्याख्या आपके ऊपर निर्भर है। तथ्य तो केवल उन्हें दिखाई पड़ते हैं, जिनका मन खो गया। आप तो तथ्य की व्याख्या करते हैं। और आपको वही दिखाई पड़ता है, जो आप देखना चाहते हैं, जो आप देख सकते हैं।

मेरे एक मित्र हाईस्कूल में ड्राइंग के शिक्षक थे। किसी कारण से उनको जेल हो गई। जब वे वापस लौटे और मैं गांव गया, तो मैंने उनसे पूछा कि जेल का जीवन कैसा रहा? उन्होंने कहा, और तो सब ठीक था, लेकिन जेल की मेरी जो कोठरी थी, उसके कोने नब्बे डिग्री के नहीं थे।

ड्राइंग का शिक्षक! उन्हें बड़ी तकलीफ रही होगी। वे जो दीवार के कोने थे, नब्बे डिग्री के नहीं थे!

आप पर निर्भर होता है, आप क्या देखेंगे। आप पर निर्भर है, आप कैसी व्याख्या करेंगे।

‘महावीर के पास से आप गुजरें, हो सकता है उनका नग्न खड़ा होना आपको कठिनाई में डाल दे। शायद आपको लगे कि नग्न खड़ा आदमी भला कैसे हो सकता है? भले आदमी तो सदा अपने को वस्त्र से ढाके हुए हैं। इस पर भरोसा न आएगा, तसल्ली न आएगी।

जीसस के पास से आप गुजरें, और यह जीसस दावा करता है कि मैं परमात्मा का पुत्र हूं। आपके अहंकार को चोट लगेगी कि आपके अतिरिक्त और कोई कैसे परमात्मा का पुत्र होने का दावा कर सकता है! जरूर यह धोखेबाज है, बेईमान है। और फिर जब जीसस को सूली लगेगी, तब भी आप व्याख्या करेंगे। आप कहेंगे, न मालूम किन कर्मों का फल भोग रहा है यह आदमी! और अगर सच में ईश्वर का पुत्र है, तो अब सूली पर चमत्कार दिखाना चाहिए। कोई चमत्कार नहीं हुआ।

मोहम्मद के पास से आप गुजरेंगे, तो भी अपनी व्याख्या ही आप करेंगे। मोहम्मद ने नौ स्त्रियों से शादी कर ली थी। तसल्ली आपको न होगी। आप अपने को ही बेहतर समझेंगे, कम से, एक से ही निबटारा कर रहे हैं। यह आदमी नौ स्त्रियों से शादी कर लिया है। महाकामी मालूम पड़ता है!

तसल्ली आपको कोई भी न दे सकेगा। कृष्ण तो आपको बिलकुल तसल्ली न दे सकेंगे। आप में से एक भी तसल्ली उनके द्वारा नहीं पा सकेगा। इतनी सखियां हैं! इतना राग—रंग है! नाच है, युद्ध है, धोखाधड़ी है, बेईमानी है, झूठ बोलना है। सब उनमें है। अगर आप तसल्ली की तलाश में हैं, तो आपके समर्पण का कोई उपाय नहीं है। सच तो यह है कि तसल्ली की खोज समर्पण से बचने का ढंग है। जिन्हें समर्पण करना है, वे पत्थर को भी समर्पण कर सकते हैं।

और समझ लेने की बात यह है कि वह आदमी समर्पण के योग्य था या नहीं, यह बात ही व्यर्थ है। आपने समर्पण किया, आपको फल मिल जाएगा। वह आदमी गलत भी रहा हो, वह आदमी ठीक न भी रहा हो, योग्य भी नहीं था कि उसके चरणों में आप झुकें। लेकिन उस आदमी का सवाल भी नहीं है। आप झुके, आप झुक सके, आप बदल जाएंगे। और अगर समर्पण की तलाश स्वयं को बदलने के लिए है, तो तसल्ली की बात ही मत सोचो।

फिर एक और बात समझ लेने की है। अगर कोई व्यक्ति सच में ही आपको पूरी तसल्ली दे दे, तो आपके झुकने का अर्थ क्या रह जाएगा? अगर परमात्मा आपके सामने खड़ा हो और सब भांति आपको तसल्ली हो जाए, तब आपका सिर झुके, तो आपका अहंकार नहीं झुक रहा है। अगर सब तरह तसल्ली ही हो गई, तो सिर को झुकना ही पड़ रहा है, इसमें गुण क्या है? इसका मूल्य क्या है? इससे कोई आत्मक्रांति घटित न होगी।

इसलिए बहुत—से संत तो इस भांति जीते हैं, ताकि आपको तसल्ली न हो सके। उनके पूरे जीवन की व्यवस्था यह है कि आपको तसल्ली न होने देंगे।

गुरजिएफ के पास एक महिला थी, अलेक्वेंड्रा डि साल्‍जमन। एक बड़ी संगीतज्ञ की पत्नी थी। और गुरजिएफ की आदत थी कि जब भी कोई व्यक्ति उसके पास आए, तो पहले वह उससे कहता था, सारा रुपया—पैसा, जेवर, जायदाद, जो भी हो, मुझे दे दो। कई तो इसीलिए भाग जाते थे कि हम यहां धर्म की तलाश में आए, और यह आदमी सारा धन, जेवर पहले मांगता है!

यह डि साल्‍जमन और उसकी पत्नी बड़े भक्त थे। और जब गुरजिएफ ने उनसे कहा कि तुम अपना सब जेवर पहले मेरे पास छोड़ दो, तुम खाली हाथ हो जाओ, क्योंकि तब ही मैं तुम्हें भर सकूंगा। तो साल्‍जमन, पति तो राजी हो गया। लेकिन जैसा स्त्रियों का मन होता है, साल्‍जमन की पत्नी का मोह अपने कुछ हीरे—जवाहरातों में था। बड़े परिवार की महिला थी। एक हीरे में तो उसका बहुत ही लगाव था।

तो उसने अपने पति को कहा कि मैं क्या करूं? उसके पति ने कहा, तेरे लिए दो ही उपाय हैं। या तो तू सब दे दे। वह एक हीरा नहीं बचाने देंगे। और या कुछ भी मत दे। लेकिन तब तू निर्णय कर ले। क्योंकि मैं तो सब छोड़कर उसके चरणों में जा रहा हूं। अगर तू गुरजिएफ को छोड़ती है, तो मुझे भी छोड़ दे।

उसकी पत्नी ने हिम्मत की। अपना हीरा, अपने सब जवाहरात, अपने सब गहने—लाखों रुपए के थे—वे सब एक पोटली में बांधे और गुरजिएफ के चरणों में जाकर रख दिए। दूसरे दिन गुरजिएफ ने बुलाया और पूरी पोटली उसे वापस कर दी।

कोई पंद्रह दिन बाद एक दूसरी महिला आई और गुरजिएफ ने उससे भी कहा कि तू सारे अपने जेवर मुझे दे दे। उसने साल्‍जमन की पत्नी को पूछा कि क्या करना चाहिए? साल्‍जमन की पत्नी ने कहा, मैं नहीं जानती। मैंने दिए थे, वे मुझे वापस मिल गए। तो उसने सोचा, जब वापस ही मिल जाना है, तो डरना क्या? वह गुरजिएफ को दे आई। उसने कभी वापस न किए।

अब यह जो गुरजिएफ है, इसे कोई प्रयोजन हीरे और जवाहरात से नहीं है; लेकिन उस मन से तो प्रयोजन है, जो पकड़ता है, छोड नहीं सकता। जो छोड़ सकता है, उसके वापस लौटाए जा सकते हैं। जो छोड नहीं सकता, उसके वापस लौटाने असंभव हैं।

और गुरजिएफ यहां से पैसा लेता और दूसरी जगह बांट देता। एक से मांगता और दूसरे को दे देता। उसके व्यवहार से लगेगा कि पैसे पर उसकी पकड़ है।

और गुरजिएफ ने अपने शिष्यों को कहा है कि मैं सब भांति अपने में अविश्वास पैदा करवाने की कोशिश करवाता हूं। और उसके बाद भी अगर कोई विश्वास कर ले, तो समर्पण है; तो उसका अहंकार उसी वक्त खो जाता है।

इसलिए जिनको आप साधारणत: संत पुरुष समझते हैं, जो सब भांति आपके मापदंड में साधु हैं, उनके पास आपके जीवन में कोई क्रांति कभी घटित नहीं होने वाली। आप सब भांति कसौटी पर कसकर उनको समर्पण करते हैं। समर्पण आप करते ही नहीं। क्योंकि समर्पण तो वही कर सकता है, जो जानता है, मेरी योग्यता क्या कि मैं कसौटी पर कसूं!

जो आपकी कसौटी पर खरा उतरा और उस पर आपने समर्पण किया, तो आपने समर्पण किया ही नहीं, आपकी कसौटी जिंदा है। यह आदमी आपसे छोटा है। आपने सब भांति इसे परख लिया। और आपका मन राजी हो गया कि बिलकुल ठीक, तब आपने समर्पण किया। समर्पण की कोई क्रांति घटित नहीं होगी।

समर्पण की क्रांति तो तब ही घटित होती है, जब मन डांवाडोल है, जब मन डरता है, जब मन भरोसा भी नहीं कर पाता है। और जब अहंकार सब तरह के सुझाव देता है कि भाग जाओ, हट जाओ, तब भी आप साहस करते हैं और छलांग लगाते हैं। उसी छलांग में अहंकार की मृत्यु हो जाती है। पक्के भरोसे के साथ, तसल्ली के साथ जब आप समर्पण करते हैं, तो समर्पण झूठा है। समर्पण है ही नहीं। वहा कोई छलांग ही नहीं है।

आपने सब भांति परख कर ली कि रास्ता साफ—सुथरा है; यहां कोई गड्डे नहीं हैं। और यहां कोई छलांग का खतरा नहीं है; यहां किसी खाई में गिर जाने का डर नहीं है। रास्ता है पक्का पटा हुआ, हाई—वे है। उस पर आप चल रहे हैं।

वे ही संत पुरुष आपके समर्पण में सफल हो पाते हैं, आपको समर्पण करवाने में, जो आपकी कसौटी पर बंधने को राजी नहीं हैं। लेकिन एक बड़े मजे की घटना घटती है, कि जैसे ही वैसा संत पुरुष चल बसता है, उसके जीवन का ढंग उसके भक्तों के लिए आगे आने वाले दिनों में फिर कसौटी बन जाता है।

महावीर नग्न खड़े हैं। यह नग्नता उस वक्त अड़चन की बात थी। और जिन्होंने इस नंगे आदमी को समर्पण किया, वे क्रांतिकारी लोग थे। उन्होंने बड़ी हिम्मत जुटाई होगी। लेकिन उसके बाद, महावीर की मृत्यु के बाद, उन क्रांति पुरुष, जो उनके भक्त बने थे, उनके बच्चे और बेटे, उनकी कोई क्रांति नहीं है। उनको अगर आप बुद्ध के पास ले जाएं, तो वे देखते हैं और सोचते हैं कि यह आदमी कपड़े पहने हुए है, इसलिए संत नहीं हो सकता। इसलिए उनका समर्पण बुद्ध के लिए नहीं होगा।

इसलिए अगर जैन को आप राम के मंदिर में ले जाएं, तो सिर नहीं झुका सकता। क्योंकि यह कैसा भगवान, जो गहनों से सजा हुआ खड़ा है! और यह कैसा भगवान, जिसकी सीता पास में है! यह असंभव है। तसल्ली नहीं होती है।

इसलिए जैन राम को भगवान नहीं मान सकता है। कोई उपाय नहीं उसके मन में मानने का। उसकी अपनी कसौटी है। और कसौटी उसने महावीर से ले ली है। लेकिन महावीर खुद अत्यंत क्रांतिकारी व्यक्ति थे। और जो लोग उनसे राजी हुए थे, उन्होंने समर्पण किया था।

इसलिए हर बुद्ध पुरुष के पास समर्पित लोग इकट्ठे होते हैं, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद परंपरा बन जाती है, लीक बन जाती है। फिर लीक से लोग चलते चले जाते हैं। फिर सबके पास अपनी धारणाएं, मापदंड होते हैं।

आपका कोई मापदंड होगा, इसलिए पूछते हैं, तसल्ली कैसे करें? क्या है आपके पास मापदंड? कोई यंत्र नहीं है, जिससे जाना जा सके कि कौन व्यक्ति जाग गया, कौन प्रबुद्ध हुआ, किसका शान प्रज्वलित हुआ। कौन हो गया कृष्ण, कौन हो गया क्राइस्ट, कोई जांचने का उपाय नहीं है, कोई व्यवहार की कसौटी नहीं है। क्योंकि दुनिया में सैकड़ों बुद्ध पुरुष हुए हैं, सबका व्यवहार अलग—अलग है, सबकी निजता है, सबका व्यक्तित्व है।

हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध नाराज हों। लेकिन क्राइस्ट नाराज होते हैं। तो जिसने बुद्ध को कसौटी मान लिया, वह क्राइस्ट को नाराज देखकर समझेगा कि यह आदमी योग्य नहीं है, इसको अभी ज्ञान नहीं हुआ।

क्राइस्ट इतने नाराज हो गए कि उन्होंने अपना कोड़ा हाथ में रूप। लिया, और यहूदियों के मंदिर में प्रवेश कर गए। और उन्हों। पुरोहितों को चोट मारी और जो ब्याज लेने वाले दुकानदार वहां बैर! थे, उनके तख्ते उलट दिए, और उनको खदेड़कर बाहर कर दिया। जो बुद्ध को मानता है आधार, वह कहेगा, यह आदम। क्रांतिकारी हो सकता है; लेकिन अभी शांत नहीं हुआ है।

लेकिन जिसने क्राइस्ट को आधार माना है और उनके प्रेम में जो जीया है और जिसने उनको समर्पण किया है, वह बुद्ध को देखकर कहेगा, यह शांति निर्जीव है, यह आदमी नपुंसक है। जहां इतनी कठिनाई है समाज में, वहां यह चुपचाप वृक्ष के नीचे बैठा हुआ है! जहां इतनी पीड़ा, इतना दुख, इतनी दरिद्रता है, वहां इसकी शांति में कुछ भी क्रांति पैदा नहीं होती, तो इसकी शांति का कोई भी मूल्य नहीं है।

कैसे कसौटी खोजिएगा? क्या रास्ता है? महावीर लात मार देते हैं धन पर, जनक साम्राज्य में सिंहासन पर बैठे हैं। दोनों बुद्ध पुरुष हैं।

प्रत्येक बुद्ध पुरुष अनूठा है, इसलिए कोई कसौटी बनती नहीं। कोई सार निचोड़ा नहीं जा सकता है कि कैसे हम नापे! और नापने वाला कभी नहीं सोचता कि मैं कहां हूं? कैसे मैं नापूंगा?

किनारे पर आप खड़े हैं, और हिंद महासागर की गहराई को नापने की कोशिश कर रहे हैं! उस गहराई में उतरना पड़ेगा। जमीन पर आप बैठे हैं, और एवरेस्ट की ऊंचाई नापने की कोशिश कर रहे हैं! उस ऊंचाई पर चढ़ना पड़ेगा।

बुद्ध हुए बिना बुद्धों को पहचानने का कोई उपाय नहीं। तसल्ली कैसे होगी? तसल्ली कभी किसी को नहीं हुई है। अगर आप तसल्ली के लिए रुके हैं, तो सदा ही रुके रहेंगे।

हिम्मत करें। और जहां थोड़ा—सा भी आकर्षण मालूम होता हो, मत रुके कि जब सौ प्रतिशत तसल्ली होगी, तब छलांग लेंगे। वैसा कभी भी नहीं होगा। तो जहां मन आकर्षित होता हो और जिस व्यक्ति के द्वार से आपको किसी अज्ञात की हवा का हलका—सा झोंका भी लगता हो; जिसकी उपस्थिति में आपके भीतर ऊंचाइयों के द्वार खुलते हों; नए स्वप्न गाते हों, जिसकी मौजूदगी आपको बदलती हो; जिसके पास स्वाद आता हो किसी अनजान, अज्ञात का; वहा साहस करें और तसल्ली की फिक्र मत करें। गणित मत बिठाएं।

यह काम जोखम का है। इसलिए मैं अक्सर कहता हूं कि दुकानदार धर्म में असफल रहते हैं, जुआरी जीत जाते हैं। यह काम कोई हिसाब—किताब का नहीं है कि आप पूरा पक्का पता लगा लेंगे कि एक रुपया लगा रहे हैं, तो कितनी बचत होगी? कि नहीं होगी? यह दाव है। इसमें सब खो सकता है, सब मिल सकता है। इसमें छोटे हिसाब से नहीं चलेगा।

और जिंदगी बड़ी बेबूझ है, गणित की तरह नहीं है, पहेली की तरह है। यह पहेली की तरह जो जिंदगी है, इसमें अगर आप बहुत हिसाबी—किताबी हैं, तो धर्म आपके लिए नहीं है, फिर व्यवसाय आपके लिए है।

यह बिलकुल जोखम का काम है। यहां कोई पक्की गारंटी नहीं है कि आप किसी को समर्पण करेंगे, तो वह योग्य होगा ही। भूल हो सकती है। पर भूल से कोई खतरा नहीं है। क्योंकि समझने की बात यह है, जिसको आप समर्पण करते हैं, उसकी योग्यता से क्रांति घटित नहीं होती; समर्पण से क्रांति घटित होती है।

इसलिए एक वृक्ष के नीचे रखे हुए पत्थर को आप समर्पण कर दें और क्रांति घटित हो जाएगी। असली सवाल आपके झुकने, अपने को मिटाने का है। किसके बहाने मिटाया, यह बात गौण है। और मैं आपसे कहता हूं, ऐसा अक्सर हुआ है कि अज्ञानी गुरुओं के पास भी कई बार शिष्य ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं।

यह बिलकुल उलटा लगेगा, क्योंकि यह गणित नहीं समझ में आएगा। जब तक गुरु शानी न हो, तब तक कैसे शिष्य शान को उपलब्ध हो सकता है? शानी गुरुओं के पास भी शिष्य वर्षों रहे हैं और अज्ञानी रहे हैं!

इसलिए मैं कहता हूं; जीवन पहेली जैसा है। क्योंकि ज्ञानी गुरु के पास भी आप बैठे रहें बिना समर्पित, तो शानी गुरु कुछ भी नहीं कर सकता। उसकी आंखें आपके काम नहीं आ सकतीं, और न उसका हृदय आपके लिए धड़क सकता है, न उसकी अनुभूति आपकी अनुभूति बन सकती है। और अज्ञानी गुरु भी कभी काम आ सकता है, अगर आप समर्पण कर दें। क्योंकि समर्पण करना ही घटना है, गुरु तो सिर्फ बहाना है।

जैसे आप कमरे में आते हैं; कोट निकालते हैं; खूंटी पर टल देते हैं। खूंटी तो सिर्फ बहाना है। कोई भी खूंटी काम दे जाएगी। लाल रंग की है, कि हरे रंग की है, कि पीले रंग की है, कि बेरंग की है; कि छोटी है, कि बड़ी है, कि लकड़ी की है, कि लोहे की है, कि सोने की है; इसकी तसल्ली करने की बहुत जरूरत नहीं।

खूंटी है; कोट टांगा जा सकता है। कोट टैग जाएगा। कोट होना चाहिए टांगने को आपके पास।

समर्पण चाहिए, तैयारी चाहिए अपने को खोने और मिटाने की, तो कोई भी गुरु काम दे देगा।

मगर यह जो सवाल है, यह सबके मन में उठता है, कि जब तक तसल्ली न हो…। तो आप भटकेंगे। तसल्ली कभी भी न होगी। यह मन ऐसा है कि तसल्ली होने ही नहीं देगा। मन की सारी प्रक्रिया अविश्वास पैदा करवाने की है। इसे समझ लें।

मन का ढांचा संदेह जन्माने का है। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे मन में संदेह लगते हैं। तो मन में कभी श्रद्धा तो लगती ही नहीं; वह उस वृक्ष के बीज में ही नहीं है। कोई व्यक्ति मन के द्वारा श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता, मन के द्वारा सिर्फ संदेह को उपलब्ध होता है। मन यानी संदेह।

तो जिस मन से आप खोजने जाएंगे, उसमें आपको संदेह मिलते चले जाएंगे। और जब संदेह आपको मिलेगा, तो कैसे समर्पण कर सकते हैं? समर्पण तो वे ही लोग कर सकते हैं, जो अपने मन से थक गए हैं।

तसल्ली के कारण नहीं किसी पर, अपने मन पर जिनकी श्रद्धा उठ गई है, जो अपने मन से ऊब गए हैं और परेशान हो गए हैं, और जिन्होंने मन के सब रास्ते टटोल लिए हैं; मन के साथ सब मार्गों पर चलकर देख लिया है, मन की सब बातें मान लीं और फिर भी कहीं कोई आनंद नहीं पाया; जो अपने मन से ऊब गए हैं, जो अपने मन से विषाद से भर गए; वे लोग समर्पण करते हैं।

मन को छोड़ना समर्पण है। क्योंकि मन को छोड़ा कि श्रद्धा का जन्म हुआ। जहां आपको कल संदेह दिखाई पड़ते थे, वहीं श्रद्धा दिखाई पड़ने लगेगी। जहां कल आपको तसल्ली पैदा नहीं होती थी, वहां अचानक तसल्ली हो जाएगी, ट्रस्ट हो जाएगा। एक गहरा भाव पैदा हो जाएगा और आप मार्ग पर चलना शुरू कर देंगे। कौन मांगता है तसल्ली? आप! अगर आप कहीं पहुंच गए हैं, तो तसल्ली की कोई जरूरत नहीं, समर्पण की कोई जरूरत नहीं। अगर कहीं नहीं पहुंचे हैं…….।

तो धार्मिक व्यक्ति और अधार्मिक व्यक्ति में एक ही फर्क है। अधार्मिक व्यक्ति सब पर संदेह करता है, अपने को छोड़कर। और धार्मिक व्यक्ति अपने पर संदेह करता है, सब को छोड़कर।

जो अपने पर संदेह करता है, उसको गुरु जल्दी मिल जाएगा, क्योंकि वह तसल्ली कर सकता है। जो दूसरे पर संदेह करता है, उसे गुरु कभी भी नहीं मिल सकता। क्योंकि वह कहीं भी जाए, अपने पर उसका भरोसा है, जिसने कहीं भी नहीं पहुंचाया है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन बहुत नाराज था; उछल—कूद रहा था, क्रोध में आगबबूला हो रहा था। उसके मित्र पंडित रामचरणदास उसके पास बैठे थे। वे उससे पूछ रहे थे कि नाराजगी क्या है? तो वह कह रहा था, मेरी पत्नी ने मुझे धोखा दिया! बेईमान है, दुश्चरित्र है। घर से निकाल देने योग्य है।

तो उसके मित्र ने पूछा कि आखिर क्या तुम्हारे पास प्रमाण है? किस आधार पर कहते हो कि पत्नी दुश्चरित्र है? किस आधार पर इतने नाराज और पागल हुए जा रहे हो?

नसरुद्दीन ने कहा, मेरे पास प्रमाण है। कल पूरी रात वह घर से गायब रही। और सुबह जब आई और मैंने पूछा, तो उसने मुझे धोखा दिया है। वह कहती है कि मैं अपनी सहेली तारा के घर पर रात रुक गई। यह बात सरासर झूठ है। तो पंडित रामचरणदास ने पूछा कि इसका तुम्हारे पास प्रमाण है कोई? तो उसने कहा, पूरा प्रमाण है। क्योंकि तारा के घर तो रातभर मैं रुका था।

मन पूरे समय दूसरे पर संदेह कर रहा है। मन अपने पर लौटता ही नहीं।

तो अगर आप इस मन को लेकर खोजने चले हैं, तो गुरु से आपका मिलना कभी भी नहीं हो सकता। अगर इस मन से थक गए हैं या न थके हों, तो और थोड़ी मेहनत करें, और थक जाएं। जब थक जाएं, तो गुरु से मिलना हो जाएगा।

और गुरु को खोजने कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। गुरु हो सकता है आपके घर में मौजूद हो। लेकिन आपका मन उससे संबंध न जुड्ने देगा।

आपका मन हट जाए, तो आंखें साफ हो जाएंगी, खोज सरल हो जाएगी। और शायद आपको खोजने भी न जाना पड़े। वह व्यक्ति आपको खोजता आ जाए। लेकिन तसल्ली की खोज वाला मन कभी भी नहीं खोज पाता है।

और पूछा है, तब तक क्या करें?

तब तक इस मन के दुख जितने भोग सकें, भोगें। कोई और उपाय नहीं है। और जहां—जहां यह मन ले जाए और भटकाए, भटकें। इस मन से पूरी तरह थक जाना है। थक जाएं।

यह मन उसी तरह का है, जैसे एक छोटे बच्चे को कहें कि बैठ जाओ एक कोने में, शांत बैठो, हिलो—डुलो मत! तो बडी मुश्किल में हो जाता है बच्चा। क्योंकि सब शक्ति उसकी ऊर्जा भागती है।

वह कुछ करना चाहता है। उसको बिठा देना कष्टपूर्ण है। उसके। बिठाने का एक ही उपाय है कि पहले उससे कहो कि घर के दस चक्कर लगा। और जितनी तेजी से बन सके, उतनी तेजी से लगा। और जब वह थक जाए और हाथ—पैर जोड्ने लगे कि अब मैं नत। दौड़ सकता; अब बस! तब उससे कहो कि बैठ जा।

इस मन को पहले दौड़ा लें। यह आधा— आधा दौडा हुआ होगा। तो यह कहीं रुकने न देगा। जहां भी आप जाएंगे, यह आपके दौड़ के लिए कारण खोज लेगा। इसे दौड़ा ही लें अच्छी तरह।

जितना संदेह करना है, संदेह कर लें। जितने तर्क करने हैं, तर्क कर लें। जितना विचार करना है, विचार कर लें। कुनकुने नहीं, पूरे उबल जाएं। भाप बनने दें इसे। बड़ा कष्ट होगा, नर्क। :। जाएगा खड़ा।

यही अड़चन है। न तो समर्पण करते हैं कि सब शांत हो जाए; और न उबलते हैं पूरे कि सब तरह से भाप पैदा हो जाए। कुछ भी नहीं करते। बीच में कुनकुनाते रहते हैं। यह जो कुनकुनापन है, यह : आदमी का दुख है।

संदेह ही करना है, तो पूरा कर लें। पूरा संदेह भी श्रद्धा पर ले जाएगा। नर्क से गुजरना पड़ेगा। बडी पीड़ा होगी। लेकिन उस पीड़ा से गुजरकर एक बात हाथ में आ जाएगी कि यह मन सिवाय दुख के और कहीं भी नहीं ले जाता है। यह द्वार है दुख का। यह प्रतीति हो जाएगी, तो आप इस मन के द्वारा तसल्ली नहीं खोजेंगे। अल्प इस मन को हटा देंगे और सीधा संपर्क साधेंगे। फिर समर्पण आसान है।

जब तक समर्पण न होता हो, तसल्ली खोजने का मन जारी रहता हो, तब तक इसका दुख पूरी तरह भोगें। और धीमे — धीमे नहीं। होमियोपैथी के डोज मत लें। पूरा जहर इकट्ठा पी लें। या इस पार या उस पार। दो में से कहीं भी पार हो जाएं। बीच में मत उलझे रहें। तो मैं यहां देखता हूं, अनेक लोग थोडी तसल्ली भी करते है। थोड़ी नहीं भी करते हैं। यह उनकी स्थिति है, नपुंसकता की स्थिति है। इससे इंपोटेंस पैदा होती है। इससे कहीं जा नहीं सकते। मेरे पास कोई आता है और वह कहता है कि थोड़ा आप पर विश्वास आता है, थोड़ा नहीं भी आता।

मैं कहता हूं, दो में से तू कुछ भी चुन। यह थोड़ा विश्वास भी छोड़ दे, तो मुझसे छुटकारा हो। इस थोड़े विश्वास की वजह से तू मेरे से दूर भी नहीं जा सकता। अकारण समय खराब कर रहा है। और थोडा अविश्वास है, उसकी वजह से मेरे पास भी नहीं आ सकता। थोडा अविश्वास है, तो मुझसे संबंध भी नहीं बनता। और थोड़ा विश्वास है, तो मुझसे संबंध टूटता भी नहीं। यह बड़ी दुविधा की स्थिति है। मुझसे संबंध टूटे, तो किसी और से बन सके। हो सकता है, कहीं और विश्वास घटित हो जाए। वहां भी जाना नहीं हो पाता, क्योंकि थोड़ा विश्वास यहां है।

यह ऐसी हालत है, जैसे किसी वृक्ष की हम आधी जड़ें बाहर निकाल लें और आधी जमीन में रहने दें। तो न तो वृक्ष में फूल लगें, न फल आएं, न पत्तों में हरियाली रहे और न वृक्ष मरे।

कभी आप अस्पतालों में जाएं; हिंदुस्तान के अस्पतालों में भी अब वैसी हालत आती जाती है। यूरोप और अमेरिका में तो बहुत है। लोग सौ वर्ष के हो गए हैं, सवा सौ वर्ष के हो गए हैं, और लटके हैं अस्पतालों में। उनको मरने नहीं दिया जाता और जीने का उनका कोई उपाय नहीं रहा है। तो किसी को आक्सीजन दी जा रही है, किसी के हाथ—पैर उलटे बांधे हुए हैं, उनको दवाइयां पिलाई जाती हैं।

वे मुरदा जिंदा हैं। न तो मर सकते हैं, क्योंकि ये डाक्टर मरने न देंगे। और न जी सकते हैं, क्योंकि डाक्टरों के हाथ के बाहर है उनको जीवन देना। जीवन उनके भीतर से बह चुका है। पर मौत को भी नहीं आने दिया जा रहा है।

इस अधूरी अवस्था में लटके लोग पश्चिम में आवाज उठा रहे हैं अथनासिया की। वे कहते हैं कि हमें मरने का हक होना चाहिए। और जब हम लिखकर दे दें कि हम मरना चाहते हैं, तो हमें बचाने की कोशिश बंद हो जानी चाहिए। लेकिन अभी तक कोई राज्य इतनी हिम्मत नहीं कर पाता कि मरने का हक दे।

डाक्टर भी जानते हैं कि यह आदमी मर जाए तो अच्छा। लेकिन फिर भी उसे दवाइयां दिए जाते हैं जिंदा रखने के लिए; क्योंकि उनको उनके अंतःकरण की पीड़ा है। अगर हम दवा न दें और यह आदमी मरे, तो उनको जिंदगीभर लगेगा कि हमने मारा।

जो व्यक्ति थोड़ा—सा विश्वास करता है और थोड़ा—सा अविश्वास, वह अस्पतालों में लटके हुए इन व्यक्तियों की भांति हो जाता है, न जी सकता है, न मर सकता है; न दूर जा सकता है, न पास आ सकता है।

तो या तो छलांग लगा लें; या समझें कि यह खाई आपके लिए नहीं है। कहीं और कोई खाई होगी। तो इस खाई से हट जाएं।

निर्णायक होने की जरूरत है। अपना निर्णय लेने की जरूरत है। गलत निर्णय भी बुरा नहीं है, लेकिन अनिर्णय बुरा है। क्योंकि गलत निर्णय भी बल देता है। कुछ तो तय हुआ। उस तय होने के साथ आपके भीतर इंटीग्रेशन पैदा होता है, अखंडता आती है। लेकिन अनिर्णय, कुछ भी तय नहीं, इनडिसीसिवनेस, तो आप धीरे—धीरे भीतर बिखर जाते हैं। भीतर आत्मा संगृहीत नहीं हो पाती, खंड—खंड हो जाती है। यह खंडित स्थिति छोड़े।

तो जब तक, पहली तो बात, तसल्ली की खोज बंद कर दें। न बंद कर सकते हों, तो खोज को पूरा करें। समर्पण कर दें। न समर्पण होता हो, तो असमर्पण का पूरा दुख भोग लें। मध्य में मत रहें। मध्य से कोई कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ है। छलांग केवल अति से ही लग सकती है।

दूसरा प्रश्न :

 

दूसरों के अनुभव काम नहीं आते, ऐसा आपने कहा। फिर आप जैसे पुरुषों के बोलने में सार्थकता क्या है कि जिसके लिए लोक प्रार्थना करता है?

 

दूसरों के अनुभव काम नहीं आते, इसका अर्थ है कि दूसरों के अनुभव आपके अनुभव नहीं बन सकते हैं, दूसरे की प्रतीति आपकी प्रतीति नहीं बन सकती है। लेकिन दूसरे का संपर्क संक्रामक हो सकता है। दूसरे की सन्निधि संक्रामक हो सकती है। अगर आप दूसरे के प्रति खुले हों, तो जैसे बीमारियां पकड़ सकती हैं आपको, वैसे ही स्वास्थ्य भी पकड़ सकता है।

अनुभव दूसरे के काम नहीं आते। अगर आप कृष्ण के पास हों, तो कृष्ण के अनुभव आपके अनुभव नहीं बन सकते। लेकिन कृष्ण की मौजूदगी में अगर आप समर्पित हों, तो आपके अपने जीवन का विकास शुरू हो जाता है। उस विकास में कभी अनुभव घटित होंगे। वे अनुभव कोई दूसरा आपको नहीं दे सकता, लेकिन दूसरे की मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट का काम कर सकती है। उससे स्फुरणा हो सकती है। वह प्रेरणा बन सकती है। उससे धक्का लग सकता है।

लेकिन उसके लिए जरूरी है कि आप खुले हों। आपका हृदय बंद न हो; आपके मस्तिष्क पक्षपात से न घिरे हों। आप राजी हों अनजान में जाने के लिए, अपरिचित में उतरने के लिए; जिसको आपने कभी नहीं जाना है, उस रास्ते पर किसी के पीछे चलने के लिए। अनहोना घटित हो सकता है। अनचाहा घटित हो सकता है। उस जोखम को उठाने की तैयारी भीतर हो।

इसीलिए तो हम अपने को बंद रखते हैं कि कहीं कोई जोखम न हो जाए।

एक मित्र मेरे पास आए। और उन्होंने मुझे कहा कि मैं शिविर में आने से डरता हूं कि कहीं कुछ सच में ही हो न जाए। बच्चे हैं, पत्नी है, घर—द्वार है। और अभी इन सबको बड़ा करना है, सम्हालना है। अभी संसार का दायित्व है, उसे पूरा निभाना है। डर लगता है कि कहीं जाएं और कहीं कुछ हो ही न जाए!

उनका डर ऐसे स्वाभाविक है। और ठीक भी है। मगर इस डर के कारण वे बंद हैं। तो मैंने उनसे कहा, मेरे पास भी क्यों आए हो? क्योंकि आना फिजूल है। यहां भी डर तो भीतर होगा ही। उस डर की आडू से अगर तुम मुझसे मिलोगे, तो मिलन हो ही न पाएगा। वह डर भीतर बैठा है, कहीं कुछ हो न जाए। तो जब डर चला जाए, तब ही आना।

और जल्दी कुछ भी नहीं है। समय अनंत है। और इतने जन्म आपके हुए हैं; और इतने ही जन्म हो जाएंगे; कोई जल्दी नहीं है। मगर डर की दीवार अगर भीतर हो, तो फिर आप किसी के भी पास जाएं, जाने से कुछ न होगा। अकेली पार्थिव मौजूदगी कुछ भी नहीं कर सकती है। मेरा जो अनुभव है, वह मैं आपको दे नहीं सकता। लेकिन अगर आप खुले हों, अगर आप मेरे साथ बहने को राजी हों, तो आपके अनुभव घटने शुरू हो जाएंगे। वे आपके ही होंगे।

लेकिन मैं आपका हाथ पकड़कर कहीं ले चलूं, कहूं कि आओ मकान के बाहर सूरज निकला है, और फूल खिले हैं, और आकाश में बड़ी रंगीनी है! तो मैं आपका हाथ पकड़कर बाहर ले जा सकता हूं, लेकिन जब आप आंख खोलेंगे और सूरज को देखेंगे, तो वह अनुभव आपका ही होगा, वह मैं आपको नहीं दे सकता। इस कमरे में बैठा हुआ मैं आपको वह अनुभव नहीं दे सकता। मैंने कितना ही सूरज देखा हो, और कितने ही फूल खिले देखे हों, और कितना ही आकाश रंगीन हो, यहां बैठकर मैं आप से आकाश की बात कर सकता हूं, सूरज की बात कर सकता हूं? लेकिन अनुभव नहीं दे सकता।

शब्द अनुभव नहीं हैं। और अगर आप मेरे शब्दों से राजी हो जाएं, तो मैं आपका दुश्मन हूं। क्योंकि आप समझ लें कि शब्द सूरज सूरज है, आकाश शब्द आकाश है, तो फिर आप बाहर जाना, खोजना, आकाश की तलाश ही बंद कर देंगे। यहीं बैठे सब मिल गया।

लेकिन मैं यहां आपके भीतर प्यास जगा सकता हूं अनुभव नहीं दे सकता। या मेरी मौजूदगी को अगर आप देखें, तो प्यास जग सकती है। और अगर मेरे साथ दो कदम चलने को राजी हों, तो बाहर भी पहुंच सकते हैं। फिर जो आप देखेंगे, वह आपका ही अनुभव होगा।

अनुभव निजी है और कभी भी हस्तांतरित नहीं हो सकता। इसलिए मैंने कहा कि अनुभव, दूसरे के अनुभव काम नहीं आते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आप दूसरों से सीख नहीं सकते हैं। अनुभव नहीं सीख सकते, लेकिन कैसे वे अनुभव तक पहुंचे, वे सारी विधियां, वे सारे मार्ग आप सीख सकते हैं।

इसलिए बुद्ध पुरुष सिद्धात नहीं देते, केवल विधियां देते हैं। निष्पत्ति नहीं देते, केवल मार्ग देते हैं। क्या होगा वहां पहुंचकर, यह नहीं बताते, कैसे वहां पहुंच सकोगे, इतना ही बताते हैं।

बुद्ध ने कहा है, मैं मार्ग बताता हूं; चलना तुम्हें है, पहुंचना तुम्हें है, जानना तुम्हें है। मैं सिर्फ मार्ग बता सकता हूं।

जो उस मार्ग से गुजरे हैं, उस मार्ग की खबर आपको दे सकते हैं। उनके अनुभव काम नहीं आते, लेकिन उनकी मौजूदगी, उनका व्यक्तित्व, उनका प्रकाश, उनका मौन, अगर आप खुले हों, तो संक्रामक हो जाता है। जैसे मलेरिया पकड़ता है, वैसे ही बुद्धत्व भी पकड़ता है।

लेकिन मलेरिया के लिए हम खुले होते हैं, तैयार होते हैं। अभी यहां एक आदमी खांस दे, दस—पंद्रह आदमी खांसेंगे। उसके लिए हम तैयार हैं। रोग के लिए हम तैयार हैं! लेकिन अभी यहां एक आदमी शांत हो जाए, तो दस—पंद्रह आदमी शांत नहीं हो जाएंगे। दुख के प्रति हम संवेदनशील हैं। आनंद के प्रति ऐसी ही संवेदनशीलता का नाम समर्पण है।

तीसरा प्रश्न :

 

इस विराट विश्व के संदर्भ में अपनी तुच्छता का बोध आदमी में हीनता की ग्रंथि को मजबूत बनाकर उसे पंगु बना सकता है। और हीनता— भाव निरअहंकारिता नहीं है। कृपया बताएं कि हीनता से बचकर अहंकार—विसर्जन के लिए क्या किया जाए?

 

हली बात, हीनता की ग्रंथि, इनफीरिआरिटी काप्लेक्स अहंकार का ही हिस्सा है। अहंकार के कारण ही हमें हीनता मालूम होती है।

यह जरा कठिन लगेगा। अगर आप में अहंकार न हो, तो आप में हीनता हो ही नहीं सकती। हीनता इसलिए मालूम होती है कि आप समझते तो अपने को बहुत बड़ा हैं और उतने बड़े आप अपने को पाते नहीं। जितना बड़ा आप अपने को समझते हैं, उतना बड़ा पाते नहीं हैं। वास्तविक जगत में आप पाते हैं, छोटे हैं। उससे हीनता पैदा होती है।

अहंकार जितना बड़ा होगा, उतनी ज्यादा हीनता मालूम होगी। अहंकार जितना कम होगा, हीनता उतनी ही कम होगी। अहंकार नहीं होगा, हीनता खो जाएगी। हीनता और अहंकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

इसलिए जो आदमी विनम्र है, वह हीन नहीं होता। उसको हीनता पकड़ ही नहीं सकती। जो आदमी दंभी है, उसको ही हीनता पकड़ती है।

मेरे पास न मालूम कितनी बार तरह—तरह के लोग आते हैं। कोई आकर कहता है कि मेरा आत्म—विश्वास ज्यादा कैसे हो? मुझमें बडा आत्म—अविश्वास है, कोई आकर कहता है। कोई कहता है कि मुझमें हीनता की ग्रंथि है, तो यह कैसे मिटे? ठीक बीमारी को नहीं पकड पा रहे हैं वे, केवल लक्षण को पकड़ रहे हैं।

अगर आत्म—अविश्वास है, तो इसे स्वीकार कर लें कि यह मेरा हिस्सा हुआ। जैसे आपकी छ: फीट ऊंचाई है या पांच फीट ऊंचाई है, तो आप क्या करते हैं? स्वीकार कर लेते हैं कि मैं पांच फीट ऊंचा हूं।

लेकिन आप सोचते हैं कि छ: फीट होना था। कोई दूसरा छ: फीट है। तो फिर हीनता शुरू हुई। एक फीट आप कम हैं, अब इसको किसी तरह पूरा करना जरूरी है। तब आप पंजे के बल खड़े होकर चलना शुरू करेंगे। उससे कष्ट पाएंगे, उससे बड़ी पीड़ा होगी।

सारी दुनिया में स्त्रियां बड़ी एड़ी का जूता पहनती हैं। वह सिर्फ पुरुष की ऊंचाई पाने की चेष्टा है। उससे बड़ा कष्ट होता है, क्योंकि चलने में वह आरामदेह नहीं है। जितनी ऊंची एड़ी हो, उतनी ही कष्टपूर्ण हो जाएगी। लेकिन फिर धीरे— धीरे उसी कष्ट की आदत हो जाती है। फिर हड्डियां वैसी ही जकड़ जाती हैं; फिर सीधे पैर से जमीन पर चलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन स्त्री के मन में थोड़ा—सा संकोच है। पुरुष से थोड़ी उसकी ऊंचाई कम है।

पूरब की स्त्रियों ने इतनी फिक्र नहीं की ऊंची एड़ी के जूतों की। क्योंकि उनमें अभी भी पुरुष के साथ बहुत प्रतिस्पर्धा नहीं है। लेकिन पश्चिम में भारी प्रतिस्पर्धा है।

दूसरा बड़ा है, उससे कष्ट शुरू होता है। लेकिन कष्ट की क्या बात है! आप छ: फीट के हैं, मैं पांच फीट का हूं। न तो एक फीट बड़े होने से कोई बड़ा होता है, न एक फीट छोटे होने से कोई छोटा होता है। कि आप बहुत अच्छा गा सकते हैं, मैं नहीं गा सकता हूं। तो अड़चन कहां खड़ी होती है!

यह सब मुझमें भी होना चाहिए। यह मेरा अहंकार मान नहीं सकता कि कुछ है, जो मुझमें कम है। फिर जीवन में अनुभव होता है, बहुत कम है। तो हीनता आती है, आत्म—अविश्वास आता है। फिर इससे दूर होने के लिए हम उपाय करते हैं और एड़ियों वाले जूते पहनते हैं, उनसे और कष्ट पैदा होता है, और सारा जीवन विकृत हो जाता है।

इन सारे रोगों से मुक्त होने का एक ही उपाय है, आप जैसे हैं, वैसे अपने को स्वीकार करें। आपके पास दो आंखें हैं, तो आपने स्वीकार किया। आंखों का रंग काला है या हरा है, तो आपने स्वीकार किया। किसी की नाक लंबी है, किसी की छोटी है, तो उसने स्वीकार किया। ये तथ्य हैं; उन्हें स्वीकार कर लें कि ऐसा मैं हूं। और जो मैं हूं इस मेरी स्थिति से क्या उपलब्धि हो सकती है, उसकी चेष्टा, उस पर सृजनात्मक श्रम।

लेकिन दूसरे से स्पर्धा हो, तो आप पागल हो जाएंगे। और करीब—करीब सारे लोग पागल हो गए हैं। स्पर्धा विक्षिप्तता लाती है। और ऐसा तो कभी भी नहीं होगा…..।

ऐसी हालत है करीब—करीब। मैं एक यात्रा पर था। एक मेरे मित्र खुद ही ड्राइव कर रहे थे। तो जैसे ही कोई गाड़ी उनको आगे दिखाई पड़ती रोड पर, वे अपनी गाड़ी तेज कर देते। कोई गाड़ी उनसे आगे कैसे हो सकती है! मैं थोड़ी देर तो देखता रहा कि जैसे ही उनको गाड़ी दिखाई पड़ती कोई आगे कि वे पगला जाते। वे गाड़ी तेज करके जब तक उसको पीछे न कर दें, तब तक उनको बेचैनी रहती।

मैंने उनसे पूछा कि क्या तुम सोचते हो इस रास्ते पर कभी ऐसी हालत आएगी कि आगे कोई गाड़ी न हो? तुम पगला जाओगे। रास्ते पर कोई न कोई गाड़ी आगे होगी ही।

तुम अपनी रफ्तार से चलो। तुम्हें अपनी मंजिल पर पहुंचना है, उसके हिसाब से चलो। मगर कोई भी गाड़ी आगे हो, तो उसे पार करने की क्या तकलीफ है?

कोई बहुत गहरी हीनता की ग्रंथि होगी कि मैं किसी दूसरे से पीछे कैसे रह सकता हूं! और ऐसा जीवन के रास्ते पर भी यही है। आप इसकी फिक्र में नहीं होते कि आपको कहां जाना है। इसकी भी कोई चिंता नहीं कि कहीं पहुंचना है। लेकिन कोई आपके आगे न हो! वह चाहे नरक जा रहा हो, तो भी आपको उसको पीछे करना है!

मैंने सुना है कि अमेरिका का एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक ओपेनहेमर अमेरिकी प्रेसिडेंट को सलाह दिया कि जल्दी करें, क्योंकि रूसी चांद पर पहुंचने में हमसे आगे हैं। शुरू में वे थे भी। तो ओपेनहेमर ने कहा अमेरिका के प्रेसिडेंट को कि हम जल्दी करें, नहीं तो वे चांद पर हमसे पहले पहुंच जाएंगे। प्रेसिडेंट ने ऐसे ही कहा कि लेट देम गो टु हेल—जाने दो उनको नरक, जाने दो उनको दोजख। ओपेनहेमर ने कहा कि अगर इस रफ्तार से गए, तो वहा भी वे हमसे पहले पहुंच जाएंगे। और यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता!

तो कौन कहां जा रहा है, यह बड़ा सवाल नहीं है आपको, आप से आगे भर न जा पाए।

आपकी जिंदगी में कई बार आपके रास्ते इसीलिए बदल गए कि संयोग से आगे एक आदमी मिल गया, जो कहीं और जा रहा था।

आपको खयाल में नहीं है। अगर आप विश्लेषण करेंगे, तो आपको साफ दिखाई पड़ेगा कि आप चले जा रहे थे और एक आदमी और अच्छी कार में चला जा रहा था, आपकी जिंदगी बदल गई। क्योंकि आपको उससे अच्छी कार चाहिए। आप चले जा रहे थे, किसी से मित्रता हो गई, जिसके पास आपसे बड़ा मकान था। अब आप मुश्किल में पड़ गए; आपके पास उससे बड़ा मकान होना चाहिए।

और आप भूल ही जाते हैं कि आप कहां जाना चाहते हैं? क्या होना चाहते हैं? यह अहंकार बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई मुझसे आगे हो; इससे हीनता अनुभव होती है। और कोई न कोई आगे होगा। जीवन के रास्ते पर कभी किसी आदमी ने अनुभव नहीं किया कि मैं सबके आगे हूं।

नेपोलियन सब कुछ जीत ले, तो भी छोटी—छोटी चीजों में दुखी हो जाता था। एक दिन उसकी घड़ी बिगड़ गई, तो उसे सुधारने की कोशिश में उसने हाथ बढ़ाया। उसकी ऊंचाई ज्यादा नहीं थी, पांच ही फीट थी। तो उसका हाथ नहीं पहुंचा घडी तक, तो उसका जो अर्दली था, वह छ: फीट लंबा जवान था। उसने जल्दी से आकर ठीक कर दिया। नेपोलियन ने अपनी डायरी में लिखा है कि मुझे इतनी पीड़ा हुई कि जैसे मैं सारा संसार हार गया। अर्दली! और उसका हाथ पहुंच गया और मेरा नहीं पहुंचा!

आप थोड़ा सोचें, नेपोलियन की जगह आप भी होते, तो ऐसी ही पीड़ा होती। रोज यही पीड़ा हो रही है।

हीनता अनुभव होने लगती है, क्योंकि बडा अहंकार है। अगर नेपोलियन स्वीकार करता कि मैं पांच फीट का हूं; ठीक है। और यह छ: फीट का है। तो इसका हाथ पहुंचेगा, मेरा नहीं पहुंचा। यह तथ्य की बात है; इसमें अड़चन क्या है? और हाथ पहुंच जाने से कौन—सी ऊंचाई सिद्ध हो गई? तब फिर कोई हीनता नहीं है।

और जब हम निरंतर जोर देते हैं समर्पण के लिए, शून्य होने के लिए, तो हीनता पैदा करने के लिए नहीं, विनम्रता पैदा करने के लिए। और विनम्रता हीनता से बिलकुल उलटी बात है। क्योंकि विनम्रता तब पैदा होती है, जब अहंकार जाता है। और जब अहंकार जाता है, तो हीनता अपने आप चली जाती है, वह उसकी छाया है। आप विनम्र आदमी को तो कभी हीन कर ही नहीं सकते।

लाओत्से ने कहा है कि मुझे कभी कोई हरा नहीं पाया, क्योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ हूं। और मेरा कभी कोई अपमान नहीं कर सका, क्योंकि मैंने कभी सम्मान चाहा नहीं।

कहा जाता है, लाओत्से किसी सभा में जाता—अगर वह यहां आता सुनने, तो वह बिलकुल अंत में, जहां जूते उतारे जाते हैं, वहा बैठता। क्योंकि वह कहता, वहां से कभी कोई उठा नहीं सकता। आप लाओत्से को हीन नहीं कर सकते। कोई उपाय नहीं है उसे हीन करने का। और ध्यान रखें, जो आदमी अंतिम बैठने में समर्थ है, उसके पास बड़ी आत्मा चाहिए। वह इतना आश्वस्त है अपने होने से कि अंतिम बैठने से अंतिम नहीं होता हूं।

और जो आदमी पहले बैठने की कोशिश कर रहा है, वह आश्वस्त नहीं है। वह डरा हुआ है। वह जानता है कि अगर मैं पहला बैठा नहीं, तो लोग समझेंगे कि मैं पहला नहीं हूं। उसे अपने पर भरोसा नहीं है। जिसे अपने पर भरोसा है, वह कहीं भी बैठे, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।

विनम्रता हीनता नहीं है। विनम्रता अहंकार का विसर्जन है। विनम्रता इस बात की घोषणा है कि मैं जैसा हूं, वैसा हूं। और मेरी किसी दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं है। और अगर मुझे विकास करना है, तो वह मेरा विकास है, वह दूसरे से संबंधित नहीं है। वह दूसरे की तुलना और कपेरिजन में नहीं है।

जैसे ही यह बोध आना शुरू हो जाता है, कि मैं मैं हूं तुम तुम हो। तुम जैसे हो, तुम्हारे लिए भले हो, मैं जैसा हूं, मेरे लिए भला हूं। न तुमसे कोई स्पर्धा है, न तुम्हारी जगह लेने की कोई आकांक्षा है। मेरी अपनी जगह है; परमात्मा ने मुझे मेरी जगह दी है। मुझे मेरी जगह पर अंकुरित होना है। और जैसे ही व्यक्ति दूसरों से प्रतिस्पर्धा छोड़ देता है, वैसे ही परमात्मा में उसका विकास शुरू हो जाता है। और जब तक व्यक्ति दूसरों से उलझता रहता है, तब तक परमात्मा के जगत में उसका कोई विकास नहीं हो पाता। क्योंकि उसका ध्यान दूसरों पर लगा है, परमात्मा पर तो ध्यान ही नहीं है उसका।

अगर तुम मंदिर में भी जाते हो, तो भी तुम इस बात की फिक्र करते हो कि प्रार्थना उस जगह पर बैठकर करो जो नंबर एक है! प्रार्थना का क्या संबंध नंबर एक से! मंदिर में भी कतारें हैं। वहा भी अहंकारी आगे बैठा है! वह दूसरे को आगे नहीं बैठने देगा।

अभी कुंभ का मेला भरने को है, वहा अहंकारी पहले स्नान करेंगे। उस पर दंगा—फसाद हो जाता है, हत्याएं हो जाती हैं, लट्ठ चल जाते हैं। और चलाने वाले संन्यासी हैं। क्योंकि वे कहते हैं, पहले हमारा हक है, पहले हम स्नान करेंगे।

धर्म का क्या संबंध है पहले से? धर्म का संबंध अगर कुछ है, तो अंतिम से है। आखिरी होने के लिए जो राजी है, वह परमात्मा का प्यारा हो जाता है।

प्रथम होने की जो दौड़ में है, वह परमात्मा से लड़ रहा है। प्रथम होने की दौड़ नदी में उलटी धारा में तैरने की कोशिश है। अंतिम होने के लिए राजी होने का मतलब है, धारा में बह जाना, धारा के साथ एक हो जाना। जहां नदी ले जाए, हम वहीं जाने को राजी हैं। समर्पण बहने की कला है। और यह पूरा अस्तित्व परमात्मा है। इसमें जो बहने की कला सीख लेता है, मंदिर उसके लिए दूर नहीं है। मंदिर में वह पहुंच ही गया है।

अब हम सूत्र को लें।

परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।

शरीर छोड़कर जाते हुए को……।

जब शरीर छूटता है, और आपका बहुत बार छूटा है, लेकिन वह घड़ी चूक—चूक जाती है। क्योंकि शरीर छूटने के पहले ही आप बेहोश हो जाते हैं। जब भी कोई मरता है, मरने के पहले ही बेहोश हो जाता है। तो मौत का अनुभव नहीं हो पाता और मृत्यु की जो रहस्यमय घटना है, वह अनजानी रह जाती है।

मरने के पहले आदमी मूर्च्छित हो जाता है। इसलिए मृत्यु में जो भेद घटित होता है, शरीर अलग होता है, आत्मा अलग होती है, इंद्रियों के फूल पीछे पड़े रह जाते हैं, सुगंध, सूक्ष्म वासनाएं, संस्कार आत्मा के इर्द—गिर्द सुगंध की तरह लिपटे हुए नई यात्रा पर निकल जाते हैं। यह घटना हमारी समझ में नहीं आ पाती, क्योंकि हम ग्रच्छइrत होते हैं। मूर्च्छित हम क्यों हो जाते हैं मरते क्षण में?

एक जीवन की व्यवस्था है कि दुख एक सीमा तक झेला जा सकता है। जहां दुख असह्य हो जाता है, वहीं मूर्च्छा आ जाती है। इसलिए जब आप कभी—कभी कहते हैं कि मैं असह्य दुख में हूं तो आप गलत कहते हैं। क्योंकि असह्य दुख में आप होश में नहीं रह सकते, आप बेहोश हो जाएंगे। तभी तक होश रहता है, जब तक सहने योग्य हो।

इसलिए जब भी कोई पीड़ा बहुत हो जाएगी, आप बेहोश हो जाएंगे। कोई भी आघात गहरा होगा, आप बेहोश हो जाएंगे।

मूर्च्छा दुख का असह्य हो जाना है। और मृत्यु सब से बड़ा दुख है, हमारे लिए। हम डरते हैं मिटने से, इसलिए। मृत्यु के कारण नहीं है दुख, मिटने से डरते हैं इसलिए; कि मैं मिट जाऊंगा, मैं मिटा! इससे जो भय, पीड़ा और संताप पैदा होता है, उसके धुएं में चित्त बेहोश हो जाता है।

लेकिन जिन लोगों ने जीवन में ही समर्पण की कला साधी हो, मृत्यु उन्हें बेहोश नहीं कर पाएगी। क्योंकि मिटने के लिए वे पहले से ही तैयार हैं। वे तलाश कर रहे हैं। वे मिटने का ही विज्ञान खोज रहे हैं। जिन्होंने योग साधा हो, तंत्र साधा हो, जिन्होंने ध्यान के कोई प्रयोग किए हों, प्रार्थना की हो कभी, उनकी तलाश एक ही है कि मैं कैसे मिट जाऊं, क्योंकि मेरा होना पीड़ा है। मृत्यु के क्षण में ऐसे लोग सहर्ष मृत्यु के लिए राजी होंगे।

संत अगस्तीन एक चर्च बनवा रहा था। उसने एक बहुत बड़े चित्रकार को बुलाया और कहा कि इस चर्च के प्रथम द्वार पर मृत्यु का चित्र अंकित कर दो। क्योंकि जो मृत्यु को नहीं समझ पाता, वह मंदिर में प्रवेश भी कैसे कर पाएगा!

अगस्तीन ने चर्च के द्वार पर मृत्यु का चित्र बनवाया। जब चित्र बन गया, तो अगस्तीन उसे देखने आया। पर उसने कहा कि और तो सब ठीक है, लेकिन यह जो मृत्यु की काली छाया है, इसके हाथ में तुमने कुल्हाड़ी क्यों दी है?

चित्रकार ने मृत्यु की काली छाया बनाई है, एक भयंकर विकराल रूप और उसके हाथ में एक कुल्हाड़ी दी है।

उस चित्रकार ने कहा, यह प्रतीक है कि मृत्यु की कुल्हाडी सभी को काट डालती है, तोड़ डालती है। अगस्तीन ने कहा, और सब ठीक है, कुल्हाड़ी अलग कर दो और हाथ में चाबी दे दो।

चित्रकार ने कहा, कुछ समझ में नहीं आया! चाबी से क्या लेना—देना? अगस्तीन ने कहा, जो हमारा अनुभव है, वह यह है कि मृत्यु सिर्फ एक नया द्वार खोलती है, किसी को मिटाती—करती नहीं। इसलिए चाबी! नया द्वार खोलती है।

लेकिन नया द्वार उनके लिए खोलती है, जो होशपूर्वक मरते हैं। जो बेहोशी से मरते हैं, उनकी तो गरदन ही काटती है। उनके लिए तो मृत्यु के हाथ में कुल्हाड़ी ही है।

शरीर छोड़कर जाते हुए को हम नहीं जान पाते, क्योंकि हम बेहोश होते हैं। और हम तभी जान पाएंगे, जब मृत्यु में होश सधे। इसका अभ्यास करना होगा। इसका इतना अभ्यास करना होगा कि यह चेतन से उतरते—उतरते अचेतन में चला जाए। और जब तक यह अचेतन में न चला जाए अभ्यास.।.

इसलिए योग दो शब्दों का उपयोग करता है, वैराग्य और अभ्यास। बस, प्रक्रिया पूरी उन दो में समाई हुई है। वैराग्य की हमने बात की, क्या है वैराग्य। और दूसरा है कि उसका गहन अभ्यास, रोज—रोज साधना। ताकि मरने के पहले आपके भीतर इतना उतर जाए कि मृत्यु उसको हिला न सके।

मेरे एक मित्र हैं। मिलिट्री में मेजर हैं। उनकी पत्नी मेरे पड़ोस में रहती थीं। वे तो कभी—कभी आते थे। जगह—जगह उनकी बदलिया होती रहती थीं। पत्नी उनकी एक कालेज में प्रोफेसर थीं।

जब भी मित्र आते, तो पत्नी थोड़ी परेशान हो जाती। क्योंकि और तो सब ठीक था, बहुत प्यारे आदमी हैं, लेकिन रात में धुर्राते बहुत थे। और पत्नी अकेली रहने की आदी हो गई थी वर्षों से। तो जब भी साल में महीने, दो महीने के लिए आते, तो उसकी नींद हराम हो जाती थी।

उसने मुझे एक दिन कहा कि बड़ी अजीब हालत है। कहते भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता; वे कभी आते हैं। लेकिन मेरी नींद मुश्किल हो जाती है। या मैं यह कहूं कि मैं दूसरे कमरे में सोऊ, तो भी अशोभन मालूम पड़ता है, इतने दिन के बाद पति घर आते हैं। और रात में तो सो ही नहीं पाती।

मैंने उनसे पूछा कि मुझे पूरा ब्यौरा दो।

तो उसने कहा कि जब भी वे बाएं सोते हैं, तो घुर्राते हैं। जब दाएं बदल लेते हैं करवट, तो ठीक सो जाते हैं। पर रात में उनको सोते में करवट कौन बदलवाए! और वजनी शरीर है, भारी, सैनिक हैं। और बदलाओ उनको करवट, तो नींद टूट जाएगी।

तो मैंने उसको कहा कि मैं तुझे एक मंत्र देता हूं; उनके कान में अभ्यास करना। दूसरे दिन उसने अभ्यास करके मुझे कहा कि अदभुत मंत्र है!

छोटा—सा मंत्र था। मैंने कहा, उनके कान में कहना राइट टर्न। मिलिट्री के आदमी। जिदगीभर का अभ्यास। मंत्र काम कर गया। जैसे ही उसने कहा राइट टर्न, उन्होंने नींद में अपनी करवट बदल ली।

मौत के क्षण में तो आप तभी होश रख पाएंगे, जब जिंदगीभर अभ्यास किया हो। और वह इतना गहरा हो गया हो कि मौत भी सामने खड़ी हो, तो भी चित्त बेहोश न हो। अचेतन तक, अनकांशस तक पहुंच जाना जरूरी है।

इसलिए समर्पण का जितना से जितना प्रयोग हो सके, जितना ज्यादा प्रयोग हो सके, जिन—जिन स्थितियों में आप अपने को खो सकें, खोए। अपने को सम्हाले मत। क्योंकि वह खोना इकट्ठा होता जाएगा। रत्ती—रत्ती इकट्ठा होते—होते उसका पहाड़ बन जाएगा। और जब मौत आएगी, तो आप होशपूर्वक जा सकेंगे।

और जो व्यक्ति होशपूर्वक मर गया, उसका दूसरा जन्म होशपूर्वक होता है। क्योंकि जन्म और मृत्यु एक ही द्वार के दो हिस्से है इस तरफ से जब हम प्रवेश करते है, तो मृत्यु; और जब उसी

दरवाजे से उस तरफ निकलते है, तो जन्म। जैसे एक ही दरवाजे पर लिखा होता है, भीतर। तो बाहर से जब हम प्रवेश करते हैं, तो भीतर, वह बाहर जब हम खड़े थे दरवाजे के। लेकिन जैसे ही दरवाजे के भीतर गए, दूसरा जगत शुरू हो गया।

मृत्यु, इस शरीर से बाहर; और जन्म, दूसरे शरीर में भीतर। लेकिन प्रक्रिया एक ही है। अगर आप होशपूर्वक मर सकते हैं, तो आपका जन्म होशपूर्वक होगा। और तब आपको पिछले जन्म की याद रहेगी। और तब पिछले जन्म के अनुभव व्यर्थ नहीं जाएंगे। उनका निचोड़ आपके हाथ में होगा। और तब आपने जो भूलें पिछले जन्म में कीं, वे आप इस जन्म में न कर सकेंगे। अन्यथा हर बार वही भूल है। और यह चक्र दुष्टचक्र है, विशियस सर्किल है। हर बार भूल जाते हैं; फिर वही भूल करते हैं।

ऐसा आप बहुत बार कर चुके हैं। यही काम जो आप आज कर रहे हैं, इसको आप अनंत बार कर चुके हैं। यही शादी, यही बच्चे, यही धन, यही पद—प्रतिष्ठा, यही लड़ाई—झगड़ा, कलह, अदालत,

दुकान; यह आप बहुत बार कर चुके हैं।

काश, आपको एक दफे भी याद आ जाए कि यह आप बहुत बार कर चुके हैं, तो इसमें जो आज आप इतना रस ले रहे हैं, वह एकदम खो जाएगा। यह पागलपन मालूम पड़ेगा। आप एकदम ठहर जाएंगे।

मृत्यु में जो होशपूर्वक मरे, वह जन्म में भी होशपूर्वक पैदा होता है। और जो मृत्यु और जन्म में होशपूर्वक रह जाए, वह जीवन में होशपूर्वक रहता है। क्योंकि मृत्यु और जन्म छोर हैं; बीच में जीवन है। और हम तीनों में बेहोश हैं।

इसलिए हम कितना ही सुनें कि शरीर नहीं है, आत्मा है, यह बात बैठती नहीं है। कितना ही कोई कहे कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं, मान भी लें, तो भी यह बात भीतर उतरती नहीं। क्योंकि हमारा अनुभव नहीं है। लगता तो ऐसे ही है कि शरीर ही होंगे। यह आत्मा हवा मालूम पड़ती है, हवाई बात मालूम पड़ती है।

कृष्ण कहते हैं, परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं। क्योंकि मूर्च्छा सतत है। केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व को जानते हैं।

कौन—सा है ज्ञान—नेत्र जो ज्ञानियों को मिल जाता है? उसको ही मैं अमूर्च्छा कह रहा हूं। होशपूर्वक घटनाओं को घटने देना, मृत्यु को, जन्म को, जीवन को। ये तीन घटनाएं हैं। अगर ये तीनों होशपूर्वक घट जाएं, तो आपके पास ज्ञान—नेत्र उपलब्ध हो गया। जहां आप हैं, वहीं से शुरू करना पड़ेगा। जन्म तो पीछे छूट गया। मौत आगे आ रही है। वह अभी दूर है। जीवन अभी है। जीवन के साथ शुरू करना जरूरी है कि हम जीएं, तो ज्ञानपूर्वक जीएं। जो भी करें, होशपूर्वक करें। बार—बार होश छूट जाएगा, फिर उसे पकड़े।

रास्ते पर चलें, तो होश से। भोजन करें, तो होश से। किसी से बात करें, तो होश से। एक बात सतत बनी रहे कि मेरे द्वारा मूर्च्छा में कुछ न हो। कोई गाली दे, तो पहले होश को सम्हाले, फिर उत्तर दें।

आप चकित हो जाएंगे, होश सम्हल जाए तो उत्तर निकलेगा नहीं। और होश न सम्हला हो, तो जो आप नहीं करना चाहते, वह भी हो जाता है, वह भी निकल जाता है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक यात्रा पर गया। दो मित्र साथ थे। तीनों बैलगाडी से यात्रा कर रहे थे। तीनों ने चिटें डालकर तय किया कि भोजन कौन बनाएगा। एक का नाम आ गया। पर उसमें भी एक शर्त थी। वह शर्त यह थी कि जिसका नाम आ जाएगा, वह भोजन बनाएगा; लेकिन बाकी दो में से कोई भी भोजन की शिकायत न कर सकेगा। और जिसने शिकायत की, उसी दिन से भोजन उसको बनाना पड़ेगा।

मुल्ला बड़ी मुश्किल में पड़ गया। नाम तो दूसरे का आया, इससे प्रसन्न हुआ। लेकिन भोजन उसने इतना रही बनाना शुरू किया कि वह खाया न जाए और शिकायत कर नहीं सकते। शिकायत की, तो खुद बनाना पड़े।

एक दिन, दो दिन, तीन दिन, फिर उसने होश खो दिया। तीसरे दिन उसने कहा कि इट टेस्ट्स लाइक हार्स शिट—घोड़े की लीद जैसा इसका स्वाद है। लेकिन तभी उसको खयाल आया, तो उसने कहा, बट डिलीशियस—पर बड़ा स्वादिष्ट है। क्योंकि कंप्लेंट नहीं करनी है, शिकायत नहीं करनी है।

अगर आप खयाल रखेंगे, तो चौबीस घंटे ऐसे मौके आपको आएंगे, जब आधा वाक्य बेहोशी में निकलेगा, और तब आपको खयाल आएगा; आधा तब आप पीछे से कहेंगे, बट डिलीशियस।

जीवन है हाथ में अभी, और अभी ही कुछ किया जा सकता है। वाणी, विचार, आचरण, सब पहलुओं पर होश की साधना। जो भी मैं कहूं जो भी मैं सोचूं जो भी मैं करूं, वह होशपूर्वक हो, इतना भर काफी है। तो धीरे—धीरे आप पाएंगे कि बेहोशी टूटने लगी। और बेहोशी के टूटने के साथ ही दुख टूटने शुरू हो जाते हैं। बेहोशी के कारण ही दुखों को हम निमंत्रण देते हैं। और बेहोशी के कारण ही हम वे क्षण चूक जाते हैं जिनसे आनंद उपलब्ध हो सकता था।

मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक गधा था। और गधे को अक्सर सर्दी लग जाती, तो वह कंपने लगता, बुखार आ जाता। तो वह लेकर गया उसको एक जानवरों के डाक्टर के पास।

उस डाक्टर ने जांच—पड़ताल की और उसको दो गोलियां दीं और एक पोली नली दी। और कहा कि नली में गोलियों को रखना और एक छोर गधे के मुंह में डालना और दूसरे से फूंक मार देना, तो गोलियां इसके पेट में चली जाएंगी। गोलियां बहुत गरम हैं, एक ही दिन में ठीक हो जाएगा।

शाम को ही नसरुद्दीन लौटा, तो वह लट्ठ लिए हुए था। उसने जाकर दरवाजे पर लट्ठ मारा और कहा, कहां है वह डाक्टर का बच्चा? डाक्टर भी डरा, क्योंकि उसकी आंखें लाल, चेहरा सुर्ख, पसीने से भरा हुआ।

डाक्टर ने पूछा कि क्या हुआ?

उसने कहा, तूने पूरी बात क्यों न बताई?

कौन—सी पूरी बात?

नसरुद्दीन ने कहा, गधे ने पहले फूंक मार दी; गोलियां मेरे पेट में चली गईं!

उस डाक्टर ने पूछा, तुम करने क्या लगे?

उसने कहा, मैं जरा दूसरे सोच में पड़ गया, जरा देर हो गई। गोली रखकर, मुंह में नली लगाकर मैं बैठा और कुछ दूसरा खयाल आ गया।

उतने खयाल में तो बेहोशी हो जाएगी।

हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। कुछ कर रहे हैं, कुछ खयाल आ रहा है। कुछ करना चाहते हैं, कुछ हो जाता है। कुछ सोचा था, कुछ परिणाम आते हैं। कभी भी वही नहीं हो पाता, तो हम चाहते हैं। वह होगा भी नहीं, क्योंकि वह केवल तभी हो सकता है, जब होश पूरा हो।

जिसका होश पूरा है, उसके जीवन में वही होता है, जो होना चाहिए। उससे अन्यथा का कोई उपाय नहीं है। जिसका जीवन मूर्च्छा में चल रहा है, वह शराबी की तरह है। जाना चाहता था घर, पहुंच गया कहीं और। क्योंकि पैर का उसे कोई पता नहीं कि कहा जा रहे हैं। वह शराबी की तरह है। करना चाहता था कुछ और, हो गया कुछ और।

मैं पड़ता था एक शराबी के संस्मरणों को। वह एक रात ज्यादा पीकर लौटा। पत्नी से बचने के लिए कि पत्नी को पता न चले..। और ज्यादा पी गया, तो रास्ते पर कई जगह गिरा था। तो चेहरे पर कई जगह खरोंच और चोट लग गई। तो वह बाथरूम में गया और उसने मलहम की पट्टियां अपने चेहरे पर लगाई। जाकर चुपचाप बिस्तर में सो गया। और बड़ा प्रसन्न हुआ कि पत्नी को पता भी नहीं चला; शोरगुल भी नहीं हुआ; खरोंच वगैरह भी सुबह तक काफी ठीक हो जाएगी; पता भी नहीं चलेगा। बात निपट गई।

लेकिन सुबह ही उसकी पत्नी चिल्लाती बाथरूम से बाहर आई कि तुमने बाथरूम का दर्पण क्यों खराब किया है? पति ने पूछा, कैसा दर्पण!

क्योंकि वह रात बेहोशी में जो मलहम—पट्टी चेहरे पर लगानी थी, दर्पण पर लगा आया था। होश न हो, तो यही होगा। करेंगे कुछ, हो जाएगा कुछ। और शराबी को होना बिलकुल आसान है। क्योंकि चेहरा दिखाई दर्पण में पड़ रहा था, वहीं उसने पट्टिया लगा दीं।

कृष्ण कह रहे हैं कि केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।

केवल वे ही, जो होश से जगे हुए हैं और प्रतिपल जिनका ज्ञान जाग्रत है, वे ही जन्म में, मृत्यु में, जीवन में, भीतर के तत्व को पूरी तरह पहचानते हैं।

क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं। और जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी इस आत्मा को नहीं जानते हैं।

यत्न ही काफी नहीं है। यत्न जरूरी है, पर्याप्त नहीं है। प्रयास तो करना होगा सघन, लेकिन अकेला प्रयास काफी नहीं है, हृदय की शुद्धि भी चाहिए।

यहां थोड़ा—सा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है कि लोग सिर्फ प्रयास ही करते रहते हैं, बिना इस बात की फिक्र किए कि भाव शुद्ध नहीं है, हृदय शुद्ध नहीं है। तो उसके परिणाम भयानक हो सकते हैं। कोई आदमी हृदय को शुद्ध न करे और एकाग्रता को साधे, कनसनट्रेशन को साधे। साध सकता है।

बुरे से बुरा आदमी भी एकाग्रता साध सकता है। एकाग्रता से बुराई का कोई लेना—देना नहीं है, बल्कि बुरा आदमी शायद एकाग्रता ज्यादा आसानी से साध सकता है। क्योंकि बुरे आदमी का एक लक्षण होता है कि वह जिस काम में भी लग जाए, पागल की तरह लगता है। और बुरा आदमी जिद्दी होता है, क्योंकि बुराई बिना जिद्द के नहीं की जा सकती। तो बुरे आदमी के लिए हठयोग बिलकुल आसान है। उसको पकड़ भर जाए उसके खयाल में भर आ जाए। और बुरा आदमी दुष्टता कर सकता है, दूसरों के साथ भी, अपने साथ भी। दुष्टता करने में उसे अड़चन नहीं है।

अगर आप हठयोग साधेंगे, तो ऐसा लगेगा कि क्यों सताओ इस शरीर को! क्यों इतना आसन लगाकर बैठो! पैर दुखने लगते हैं; आंख से आंसू झरने लगते हैं। दुष्ट आदमी इनकी फिक्र नहीं करता। वह दूसरे को भी सता सकता है, उतनी ही मात्रा में खुद को भी सता सकता है।

इसलिए आप हैरान होंगे जानकर कि आपके तथाकथित योगियों में, महात्माओं में आधे से ज्यादा तो दुष्टजन हैं। पर उनकी दुष्टता दूसरों की तरफ नहीं है। इतनी भी उनकी बड़ी कृपा है। अपनी ही तरफ किए हुए हैं। इससे समाज को उनसे कोई हानि नहीं है। अगर हानि है, तो उनको खुद को है।

अगर एक दुष्ट हत्यारा एकाग्रता साधे, तो साध सकता है। लेकिन उसकी एकाग्रता से खतरा होगा। क्योंकि एकाग्रता से शक्ति आएगी, और हृदय शुद्ध नहीं है। उस शक्ति का दुरुपयोग होगा। आपने दुर्वासा ऋषि की कहानियां पढ़ी हैं। बस, वह इस तरह का आदमी दुर्वासा हो जाएगा। उसके पास शक्ति होगी; क्योंकि अगर वह कुछ भी कह दे, तो उसका परिणाम होगा।

अगर कोई व्यक्ति बहुत एकाग्रता साधा हो, तो उसके वचन में एक शक्ति आ जाती है, जो सामान्यत: दूसरों के वचन में नहीं होती। उसका वचन आपके हृदय के अंतस्तल तक प्रवेश कर जाता है। वह जो भी कहेगा, उसके पीछे बल होगा। हमारी जो कथाएं हैं, वे झूठी नहीं हैं, उन कथाओं में सच है।

अगर एकाग्रता साधने वाला आदमी कह दे कि तुम कल मर जाओगे, तो बचना बहुत मुश्किल है। इसलिए नहीं कि उसके कहने में कोई जादू है, बल्कि उसके कहने में इतना बल है कि वह बात आपके हृदय में गहरे तक प्रवेश कर जाएगी। उसका तीर गहरा है, एकाग्र है, और उसने वर्षों तक अपने को साधा है। वह एक विचार पर अपनी पूरी शक्ति को इकट्ठा कर लेता है। तो उसका विचार आपके लिए सजेशन बन जाएगा।

वह कह देगा, कल मर जाओगे! तो उसकी आंखें, उसका व्यक्तित्व, उसका ढंग, उसकी एकाग्रता, उसकी अखंडता, उस विचार को तीर की तरह आपके हृदय में चुभा देगी। अब आप लाख कोशिश करो, उस विचार से छुटकारा मुश्किल है। वह आपका पीछा करेगा। कल आने तक, वह कल आने के पहले ही आपको आधा मार डालेगा। कल आप मर जाएंगे।

अभिशाप इसलिए लागू नहीं होता कि परमात्मा अभिशाप पूरा करने को बैठा है, कि दुर्वासाओं का रास्ता देख रहा है कि अभिशाप दें, और परमात्मा पूरा करे। लेकिन दुर्वासा ने एकाग्रता साधी है वर्षों तक; पर हृदय शुद्ध नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सिर्फ यत्न काफी नहीं है। अगर अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, तो यत्न करते हुए भी अज्ञानीजन आत्मा को नहीं जानते हैं।

इसलिए दो बातें हैं। प्रयत्न चाहिए और साथ—साथ हृदय की शुद्धि चाहिए।

तो बुद्ध और महावीर जैसे साधकों ने तो हृदय की शुद्धि को पहले रखा है, ताकि भूल—चूक जरा भी न हो पाए। आहार शुद्धि, शरीर शुद्धि, आचरण शुद्धि, सब तरह से शुद्ध हो जाए व्यक्ति, फिर वे कहते हैं, यत्न करो। नहीं तो खतरा है।

ऐसे खतरे कोई अतीत में कहानियों में घटे हैं, ऐसा ही नहीं है। अभी इस सदी के प्रारंभ में रूस में एक बहुत अदभुत व्यक्ति था, रासपुतिन। अनूठी प्रतिभा का आदमी था। ठीक उसी हैसियत का आदमी था, जिस हैसियत के आदमी गुरजिएफ या रमण। लेकिन एक खतरा था कि हृदय की शुद्धि नहीं थी।

रासपुतिन गहन साधना किया था। और पूरब की जितनी पद्धतिया हैं, सब पर काम किया था। ठेठ तिब्बत तक उसने खोजबीन की थी, और अनूठी शक्तियों का मालिक हो गया था। लेकिन हृदय साधारण था। साधारण आदमी का हृदय था। इसलिए जो चाहता, वह हो जाता था। लेकिन जो वह चाहता, वह गलत ही चाहता था। वह ठीक तो चाह नहीं सकता था।

पूरे रूस को डुबाने का कारण रासपुतिन बना, क्योंकि उसने जार को प्रभावित कर लिया। खासकर जार की पत्नी जारीना को प्रभावित कर लिया। उसमें ताकत थी।

और ताकत सच में अदभुत थी। उसके दुश्मनों ने भी स्वीकार किया। क्योंकि जब उसको मारा, हत्या की गई उसकी, तो उसको पहले बहुत जहर पिलाया, लेकिन वह बेहोश न हुआ। एकाग्रता इतनी थी उसकी। उसको जहर पिलाते गए, वह बेहोश न हुआ। जितने जहर से कहते हैं, पांच सौ आदमी मर जाते, उनसे वह सिर्फ बेहोश ही नहीं हुआ, मरने की तो बात ही अलग रही।

फिर उसको गोलिया मारी, तो कोई बाईस गोलिया उसके शरीर में मारी, तो भी नहीं मरा! तो फिर उसको बांधकर और पत्थरों से लपेटकर वोलग़ के अंदर उसको डुबो दिया। और जब दो दिन बाद उसकी लाश मिली, तो उसने पत्थरों से अपने को छुड़ा लिया था। बंधन काट डाले थे। और डाक्टरों ने कहा कि वह पत्थरों की वजह से नहीं मरा है; उसके दो घंटे बाद मरा है।

अंदर भी वोल्‍गा में वह इतना सारा—इतना नशा, इतनी जहर, इतनी गोलियां, पत्थर बंधे—फिर भी उसने अपने पत्थर छोड़ लिए थे और अपने बंधन भी अलग कर डाले थे। हो सकता था, वह निकल ही आता। गहन शक्ति का आदमी था। लेकिन सारा प्रयोग उसकी शक्ति का उलटा हुआ।

रूस की क्रांति में लेनिन का उतना हाथ नहीं जितना रासपुतिन का है। क्योंकि रासपुतिन ने रूस को बरबाद करवा दिया। जार के ऊपर उसका प्रभाव था। उसने जो चाहा, वह हुआ। सारा उपद्रव

हो गया। उस उपद्रव का फल लेनिन ने उठाया। क्रांति आसान हो गई। आधा काम रासपुतिन ने किया, आधा लेनिन ने।

अगर हृदय शुद्ध न हो, तो शक्ति तो यत्न से आ सकती है। लेकिन उससे आत्मा नहीं आ जाएगी। यह रासपुतिन के पास इतनी ताकत है, लेकिन आत्मा नहीं है। यह शक्ति भी मन और शरीर की है।

हृदय की शुद्धि का अर्थ है, भावों की निर्मलता। बच्चे जैसा हृदय हो जाए। कठोरता छूटे, क्रोध छूटे, अहंकार छूटे, ईर्ष्या—द्वेष छूटे, घृणा—वैमनस्य छूटे और हृदय शुद्ध हो; और साथ में योग का यत्न हो। यत्न और शुद्ध भाव।

इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सिर्फ योगी होना काफी नहीं है, भक्त होना भी जरूरी है। सिर्फ योगी खतरनाक है, सिर्फ भक्त कमजोर है।

भक्त निर्बल है। वह सिर्फ दीनता—हीनता की प्रार्थना कर सकता है कि तुम पतित—पावन हो और मैं पापी हूं मुझे मुक्त करो। यह सब कह सकता है। लेकिन निर्बल है। उसके पास कोई शक्ति नहीं है। योगी के पास बड़ी शक्ति इकट्ठी हो सकती है, लेकिन उसके पास भाव नहीं है।

जहां भक्त और योगी का मिलन होता है, जहां भाव और यत्न दोनों संयुक्त हो जाते हैं, वहां आत्मा उपलब्ध होती है।

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--7(ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

मन ही पूजा मन ही धूप–(संत रैदास) प्रवचन–10

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आओ और डूबो—(प्रवचन—दसवां)

प्रश्न—सार:

1—ओशो, संन्‍यास लेने के बाद वह याद आती है—

जू—जू दयारे—इश्‍क में बढ़ता गया।

तोमतें मिलती गई, रूसवाइयां मिलती गई।

 2—ओशो, आज तक दो प्रकार के खोजी हुए है। जो अंतर्यात्रा पर गए उन्‍होंने बाह्म जगत से अपने संबंध न्‍यूनतम कर लिए। जो बहार की विजय—यात्राओं पर निकले उन्‍हें अंतर्जगत का कोई बोध ही नहीं रहा। आपने हमें जीनें का नया आयाम दिया है। दोनों दिशाओं में हम अपनी यात्रा पूरी करनी है। ध्‍यान और सत्‍संग से जो मौन और शांति के अंकुर निकलते है, बाहर की भागा—भागी में वे कुचल जाते है। फिर बाहर के संघर्षों में जिस रूगणता और राजनीति का हमें अभ्‍यास हो जाता है, अंतर्यात्रा में वे ही कड़ियां बन जाती है।

प्रभु, दिशा—बोध देने की अनुकंपा करे।

 

      3—ओशो, साक्षीभाव और लीनता परस्‍पर—विरोधी दिखाई देती है। क्‍या वे सचमुच विरोधी है?

 

      4—ओशो,आपका मूल संदेश?

 

पहला प्रश्न:

 

ओशो, संन्‍यास लेने के बाद वह याद आती है—

जू—जू दयारे—इश्‍क में बढ़ता गया।

तोमतें मिलती गई, रूसवाइयां मिलती गई।

 

नंद मोहम्मद, प्रेम—पंथ ऐसो कठिन! सरल भी, कठिन भी। प्रेम स्वभावत: तो सरल है। फूल ही फूल खिलने चाहिए। संगीत की ही वर्षा होनी चाहिए। लेकिन चूंकि हमें जो भी सिखाया, पढ़ाया, समझाया गया है, वह सब प्रेम—विरोधी है। हमारे सारे संस्कार अप्रेम के हैं। हमारी सभ्यताएं, संस्कृतियां, समाज, सब घृणा पर खड़े हैं। उनकी बुनियाद में युद्ध है। और सदियों—सदियों तक हमने मनुष्य के खून में जहर घोला है। इसलिए प्रेम कठिन हो जाता है।

प्रेम अपने में तो सरल है, लेकिन हम कठिन हैं। इसलिए जो व्यक्ति प्रेम के रास्ते पर चलेगा उसे शुरू—शुरू में अड़चनें तो आएंगी— अड़चनें वैसी ही जैसे कोई कुआ खोदे। भूइम के नीचे जल की धार है— जीवनदायी! लेकिन जल की धार और तुम्हारे बीच में बहुत पत्थर हैं, चट्टानें हैं, मिट्टी है, कूड़ा— करकट है। कुआ खोदोगे तो एकदम से जलधार हाथ नहीं लगेगी; पहले तो कूड़ा—कचरा मिलेगा, कंकड़—पत्थर मिलेंगे, मिट्टी मिलेगी, चट्टानें मिल सकती हैं, तब कहीं जाकर— इन सारी कठिनाइयों को पार किया तो, धैर्य रखा, भाग नहीं गए, बीच से ही छोड़ नहीं दिया तो— जलधार मिलेगी।

जलालुद्दीन रूमी एक दिन अपने शिष्यों को लेकर एक खेत पर गया। शिष्य बड़े चकित थे कि खेत पर किसलिए ले जाया जा रहा है! सूफी फकीर अक्सर ऐसा करते हैं—शिक्षा देते हैं किसी स्थिति के सहारे, किसी परिस्थिति को आधार बनाते हैं। जलालुद्दीन ले गया उन्हें खेत में और उसने कहा कि देखो खेत की हालत! देख कर वे भी चकित हुए, खेत पूरा बरबाद हो गया था। और बरबादी का कारण यह था कि खेत का मालिक कुआ खोदना चाहता था।

अब कुआ खोदने से खेत बर्बाद नहीं होते; कुआ खोदने से तो खेत हरे— भरे होते हैं। लेकिन खेत का मालिक बडा अधीर था। एक कुआ खोदा, आठ हाथ, दस हाथ गहरा गया और फिर छोड़ दिया, सोचा यहां जलधार नहीं मिलेगी, कंकड़ ही पत्थर, कंकड़ ही पत्थर, यहां कहां जलधार! कुछ आसार भी तो होने चाहिए। सोचा होगा—पूत के लक्षण पालने में! ये कंकड़—पत्थर शुरू से ही हाथ लग रहे हैं, आगे और बड़ी—बड़ी चट्टानें होंगी, पहाड़ होंगे। तर्क तो ठीक था। दूसरा कुआ खोदा। वह आठ—दस हाथ जो कुआ खोदा था, उसका कूड़ा—करकट सब खेत में भर गया, फिर दूसरा कुआ खोदा, बस आठ—दस हाथ फिर, फिर तीसरा—ऐसे उसने दस कुएं खोद डाले, सारा खेत खोद डाला। और सारा खेत कचरा, मिट्टी, पत्थर से भर गया, फसल जो पहले भी लगती थी हाथ, अब उसका भी लगना मुश्किल हो गया।

जलालुद्दीन ने कहा देखते हो इस खेत के मालिक का अधैर्य! काश, इसने इतनी खुदाई की ताकत एक ही कुएं पर लगाई होती! दस कुएं दस—दस हाथ खोदे, सौ हाथ यह खोद चुका! और ऐसे अगर खोदता रहा तो जिंदगी भर खोदता रहेगा और जलधार नहीं पाएगा। अगर एक ही जगह सतत सौ हाथ की खुदाई की होती तो आज यह खेत हरा— भरा होता, फलों—फूलों से लदा होता।

शिष्यों ने कहा लेकिन यह हमें आप क्यों दिखाते हैं?

जलालुद्दीन ने कहा इसलिए कि इसी तरह के काम में मैं तुम्हें लगाए हुए हूं। भीतर खोदना है कुआ और पहले तो कंकड़—पत्थर ही हाथ लगेंगे।

आनंद मोहम्मद, तुम ठीक कहते हो। मैं तुम्हारी बात से राजी हूं—

‘जू जू दयारे—इश्क में बढ़ता गया

तोहमतें मिलती गईं, रुसवाइयां मिलती गईं।’

यह तो शुरुआत है। अच्छे लक्षण हैं। कुआ खुदना शुरू हो गया। कंकड़—पत्थर हाथ लगने लगे। नाचो! खुशी मनाओ! लेकिन खुदाई मत छोड़ देना। यही कहीं खोदते रहे, खोदते रहे, तो परमात्मा भी मिलेगा। क्योंकि प्रेम में खोद कर ही परमात्मा पाया गया है, और तो परमात्मा को पाने का उपाय ही नहीं है। प्रेम की भूइम में ही छिपी है जलधार। यह हो सकता है कहीं पचास हाथ खोदो तो मिलेगी, कहीं साठ हाथ खोदो तो मिलेगी, कहीं सत्तर हाथ खोदो तो मिलेगी, मगर एक बात पक्की है कि अगर खोदते ही रहे तो मिलेगी ही मिलेगी।

तदबीर ही तेरी नाकिस थी, तकदीर को तू इलजाम न दे

कर सब जरा, कारे—मुश्किल सब वक्त पर आसा होते हैं

किस्मत को दोष मत देना। अगर न मिले परमात्मा तो अपने प्रयास की कमी समझना, अपनी प्रार्थना का अधूरापन समझना। और धैर्य रखना! कहते हैं पलटू काहे होत अधीर! अनंत धैर्य रखना। अनंत को पाने चले हो, अनंत धैर्य के बिना न पा सकोगे।

और स्मरण रखना, सब चीजें अपने समय पर आसान हो जाती हैं। जो बात किसी और मौसम में नहीं हो सकती, वह वसंत में होगी। जो बात गर्मी में नहीं हो सकती, वह वर्षा में होगी। जो वर्षा में नहीं हो सकती, वह किसी और ऋतु में होगी। इतनी ऋतुएं हैं इसीलिए तो कि जगत विभिन्न अभिव्यक्तियों से भर जाए! लेकिन जो बात एक ऋतु में संभव है, वह दूसरी ऋतु में संभव नहीं है। इसलिए बीज बोना ठीक समय पर और फिर प्रतीक्षा करना, ठीक समय पर टूटेंगे, निश्चित टूटेंगे!

तदबीर ही तेरी नाकिस थी

कोशिश ही कमजोर थी, नपुंसक थी।

तदबीर ही तेरी नाकिस थी, तकदीर को तू इलजाम न दे

कर सब जरा, कारे—मुश्किल

थोड़ा धीरज, थोड़ा धीरज, थोड़ा और धीरज— कठिन से कठिन काम भी—

……..सब वक्त पर आसा होते हैं

कोई नहीं जानता किस वक्त पर ठीक घड़ी आ जाएगी— पकने की घड़ी।

यह मनुष्य कोई ऐसा वृक्ष नहीं है जिसके संबंध में भविष्यवाणियां की जा सकें। और एक—एक मनुष्य इतना भिन्न है कि एक के संबंध में कही गई बात किसी दूसरे पर लागू नहीं होगी। कोई वसंत में खिल जाएगा, कोई वसंत में नहीं खिलेगा। पतझड़ में भी खिलने वाले वृक्ष हैं, जो पतझड़ में ही खिलेंगे। ऐसे भी वृक्ष हैं, जब सूरज से आग बरसेगी तभी उनमें फूल आएंगे; और किसी तरह से उनमें फूल नहीं आएंगे, और किसी मौसम में फूल नहीं आएंगे। ऐसे फूल हैं जो पूरब की गर्मी में ही पैदा होंगे, पश्चिम की सर्दी में नहीं। और ऐसे फूल हैं, जो गर्मी में पैदा होंगे तो ही उनमें सुगंध होगी।

इसलिए पश्चिम के फूलों में सुगंध नहीं होती। गुलाब तो पश्चिम में भी होता है, मगर उसमें सुगंध नहीं होती। सुगंध तो पूरब के गुलाब में होती है। सुगंध के लिए गर्मी में तपना पड़ता है, गर्मी की तपश्चर्या से गुजरना पड़ता है। पश्चिम का गुलाब कागजी मालूम पड़ता है। फूल तो बहुत होते हैं, लेकिन सब गंधहीन, गंधशून्य। और फूल हो गंधहीन तो क्या खाक फूल हुआ!

कठिनाई तुम्हारी मैं समझता हूं। तुम भी मेरी बात समझो।

कफस में और नशेमन में रह के देख लिया

कहीं भी चैन मुझे जेरे— आस्मां न मिला

बगीचों में भी रह कर देख लिया, बहारों में भी रह कर देख लिया, पतझड़ों में भी रह कर देख लिया, कारागृहों में भी रह कर देख लिया।

कहीं भी चैन मुझे जेरे— आस्मां न मिला

इस आकाश के नीचे कहीं भी चैन नहीं मिला।

चैन तो मिलता है भीतर! चैन तो मिलता है अंतर्तम की अनुभूति में। तुम अभी भी प्रेम को बहिर्मुखी बनाए हो। अभी भी तुम सोच रहे हो कि प्रेम कहीं बाहर से आएगा, कोई देगा। फिर वह चाहे तुम्हारी पत्नी हो, चाहे पति, चाहे बेटा, चाहे पिता और चाहे परमात्मा, लेकिन तुम्हारी प्रेम की दृष्टि यह है कि कोई देगा। और वहीं भूल हो रही है। प्रेम दिया नहीं जाता। कोई देता नहीं। प्रेम बांटा जाता है। तुम्हें उसे विकीर्णित करना होता है। जैसे दीये से रोशनी झरती है, ऐसे तुमसे प्रेम झरना चाहिए। और तुमसे झरे प्रेम तो अनंत होकर लौटता है। मगर हमारी सोचने की प्रक्रिया गलत है। हमारी पूरी तर्कसरणी भ्रांत है। हम हमेशा यह सोचते हैं कोई मुझे प्रेम दे! मुझे प्रेम क्यों नहीं देते हैं लोग! इस भाषा में सोचना छोड़ो। संन्यासी को नई भाषा सीखनी होगी। संन्यास नई भाषा है। तुम्हें सीखना होगा प्रेम देना। मांगे तो चूके। भिखमंगे बने कि भटके। प्रेम तो मालिकों का है, भिखमंगों का नहीं। दोगे तो मिलेगा, बहुत मिलेगा; मगर कहीं भी मन के किसी कोने—कातर में पाने की आकांक्षा मत रखना, उतनी आकांक्षा भी जहर घोल देगी। और एक बूंद जहर भी पर्याप्त है मार डालने को।

प्रेम नाजुक चीज है, कोमल चीज है। देने से, बांटने से बढ़ता है; मांगने से, राह देखने से घटता है। और जिससे भी तुम प्रेम चाहोगे, वही सिकुड़ जाएगा, वही तुमसे दूर हट जाएगा। और जिसको भी तुम प्रेम दोगे— बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के — वही तुम्हारे निकट आ जाएगा और तुम्हारे हृदय को अनंत— अनंत संपदाओं से भर देगा।

हैं जाहिर उस पे चमन की हकीकतें जिसने

शगुफ्ता लाला—ओ—गुल का मआल देखा है

नहीं है दिल में तमन्नाए—वस्त तक बाकी

फिराके—यार में इतना मलाल देखा है

इस जगत में इतना दुख तुमने देखा, परमात्मा के बिना इतना दुख देखा, उसकी प्रतीक्षा में, उसकी इतजारी में इतना दुख देखा, लेकिन फिर भी तुम कुछ सीखे नहीं! एक बात सीखनी थी—

नहीं है दिल में तमन्नाए—वस्त तक बाकी

फिराके—यार में इतना मलाल देखा है

प्यारे की प्रतीक्षा में कि प्यारा मुझे मिले, इतना दुख देखा है कि अब उससे मिलन की तमन्ना तक भी मन में बाकी नहीं रही। मिलन की तमन्ना के कारण ही दुख देखा है। वही आकांक्षा दुख का बीज है। वही वासना है, जो दुम्र है। वही तृष्णा है, जिसे न कभी कोई भर पाया है और न भर सकेगा।

छोड़ो आकांक्षा! कल की तो बात ही मत उठाओ, कि कल यह मिले वह मिले। संन्यास लेकर भी तुम संन्यासी की भाषा नहीं सीखते, भाषा संसारी की ही जारी रहती है। संसार की भाषा क्या है— यह मिले, वह मिले, और मिले, और ज्यादा मिले! संन्यास की भाषा क्या है— जो है वह जरूरत से ज्यादा है, जितना मिला है उतनी भी मेरी पात्रता नहीं है, मैं धन्यवादी हूं! फिर तुम कमाल देखोगे, चमत्कार देखोगे! विस्मय—विमुग्ध हो जाओगे! झुक जाओगे— आनंद से, अनुग्रह से!

बाहर ही आंखें भटकती रहीं तो द्वंद्व में ही पड़े रहोगे।

चमन वालों को या रब तूने यह किस फेर में डाला

कभी फस्ले—खिजां आई, कभी फस्ले—बहार आई

यह कैसा द्वंद्व कि कभी पतझड़— कि पात—पात गिर जाते, कि वृक्ष रूखे और नग्न हो जाते! और कभी वसंत—मधुमास— नये अंकुर निकल आते, नये पत्ते, नई हरियाली, नये गीत फूट पड़ते! नये फूलों से हवाएं सुगंधित हो जातीं! कभी दुख कभी सुख! कभी दिन कभी रात! कभी जन्म कभी मृत्यु!

चमन वालों को या रब तूने यह किस फेर में डाला

कभी फस्ले—खिजां आई, कभी फस्ले—बहार आई

यहां सब बदलता ही रहता है। यहां द्वंद्व है। बाहर देखोगे तो द्वंद्व है। इसलिए बाहर देखने के लिए आदमी के पास दो आंखें हैं। दो आंखें यानी द्वंद्व को देखने वाली भाषा। और भीतर देखने वाली एक आंख है, इसलिए उसको हमने तीसरा नेत्र कहा है।

तुमने शायद सोचा न हो कि जब बाहर देखने की दो आंखें हैं तो भीतर भी देखने के लिए दो आंखें क्यों नहीं हैं! भीतर देखने के लिए एक आंख। दो आंखों से द्वंद्व पैदा होता है; एक आंख से द्वंद्वातीत अवस्था आती है। फिर न वहां दुख है न सुख। फिर न वहां दिन है न रात। फिर वहां एक ही शेष रह जाता है, जिसे कोई भी नाम नहीं दिया जा सकता। वही तुम हो! तत्वमसि! अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि! इन महाउदघोषों में उसी एक की घोषणा है!

और फिर कोई तकलीफ नहीं है। फिर यह जो अड़चन आनंद मोहम्मद, आज मालूम होती है, अड़चन नहीं मालूम होगी।

आशिया में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ

सब बराबर हैं तबीयत अगर आजाद रहे

फिर न तो अपने घर में कोई फर्क पड़ता है और न कारागृह में। नीड़ हो अपना तो ठीक और हाथों में जंजीर हों और कैद हो तो ठीक।

आशिया में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ

सब बराबर हैं तबीयत अगर आजाद रहे

और तबीयत कब आजाद होती है?

जब तुम निर्द्वंद्व हो जाते हो। जब तुम साक्षी रह जाते हो द्वैत के! जब इन दो आंखों के पार तुम एक आंख को पकड़ लेते हो, पहचान लेते हो!

उसी एक आंख की तलाश संन्यास है, ध्यान है।

घबड़ाओ मत; बहुत बार उभरोगे, बहुत बार डूबोगे। यह शुरू—शुरू में स्वाभाविक है। पुराना एकदम पीछा नहीं छोड़ देता। तुम लाख उपाय करो, जिसके साथ इतने पुराने संबंध बनाए हैं, जन्मों—जन्मों से जिससे दोस्ती बांधी है, वह एकदम नहीं छोड़ देगा, उसने जड़ें तुम्हारे प्राणों तक पहुंचा दी हैं।

फिर बढ़ चला तलातुमे—तूफाने— आरजू

हालांकि डूब कर अभी उभरा नहीं हूं मैं

एक तूफान से उभर नहीं पाते कि फिर तूफान उठने लगता है। और तूफान किस बात का है? आरजू का, आकांक्षा का!

फिर बढ़ चला तलातुमे—तूफाने—आरजू

यह उठी आधी फिर, यह उठा अंधड़, यह उठा तूफान! फिर समुंदर विक्षिप्त होने लगा— आकांक्षाओं का; वासनाओं का।

फिर बढ़ चला तलातुमे—तूफाने—आरजू

हालांकि डूब कर अभी उभरा नहीं हूं मैं

अभी पहले तूफान से ही डूब कर उभर नहीं पाए थे और यह दूसरा तूफान चला आया। तूफानों की कतार लगी है, क्यू बंधा है। संसार छोड़ दिया, संन्यासी हो गए। सोचते होओगे, संन्यासी होते ही सब ठीक हो जाएगा।

काश, इतना आसान होता! संन्यास भी होते—होते ही होगा, बनते—बनते ही बात बनेगी। यह जीवन—शैली भी आते— आते ही आती है। आहिस्ता—आहिस्ता परदे उठते हैं, घूंघट सरकता है। धीरे— धीरे शनैः—शनै: आत्म—साक्षात्कार होता है। पहले तो किरणें, झलकें; फिर सूरज।

घबड़ाओ मत, सम्हल कर चलना होगा। और प्रेम का रास्ता, संतों ने कहा, खड्ग की धार है। इसलिए तो कहा : प्रेम—पंथ ऐसो कठिन! इधर गिरे कुआ, उधर गिरे खाई। और दोनों के बीच में चलना है; जैसे कोई नट चलता हो रस्सी पर, एक—एक पग सम्हाल कर रखना है।

तवज्जोह सर्फ करता वाकई गर नाखुदा अपनी

तो क्यों साहिल से टकरा के किश्ती डूबती अपनी

माझी ने थोड़ा होश रखा होता, तवज्जोह, थोड़ा ध्यान दिया होता!

तवज्जोह सर्फ करता वाकई गर नाखुदा अपनी

अगर माझी ने थोड़ा ध्यान दिया होता, थोड़ा होश रखा होता!

तो क्यों साहिल से टकरा के किश्ती डूबती अपनी

और तूफानों से तो लोग बच जाते हैं, साहिल से टकरा जाते हैं। क्यों साहिल से टकरा जाते हैं? क्योंकि तूफानों में तो होश रहता है— इतना खतरा चारों तरफ हो, आदमी सोना भी चाहे तो कैसे सोए! मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे सुबह बोली कि रात भयंकर आधी उठी, अनेक मकान गिर गए अपना भी छप्पर उड़ गया। कई लोग मर गए, आधा गांव बरबाद हो गया है। ऐसी बिजली ऐसे बादल ऐसा गर्जन कि मुर्दे भी कब्रों से उठ आएं!

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा अरे तो मुझे क्यों नहीं उठाया? ऐसा अवसर मैं देखने से चूक ही गया! जरा मुझे भी उठा देती।

कुछ लोग हैं जो ऐसे सो रहे हैं। उनकी तो बात छोड़ो। लेकिन आनंद मोहम्मद, तुम उन लोगों में से नहीं हो। जागने की आकांक्षा तो आई है, प्यास तो है, तभी तो संन्यस्त हुए हो। ऊब गए हो अब तूफानों से, साहिल की तलाश कर रहे हो। लेकिन एक खतरा है। तूफान में तो आदमी थोड़ा होश रखता है, रखना ही पड़ता है— नाव डूबी, अब डूबी तब डूबी होती है। सम्हल कर चलना पड़ता है। लेकिन जैसे—जैसे किनारा करीब आता है वैसे—वैसे होश खोने लगता है— अब क्या फिकर, अब तो पहुंच ही गए; अब पहुंचे तब पहुंचे! अब तो थोड़ी झपकी ले लो। अब तो थोड़ा आराम कर लो। अब तो थोड़ा विश्राम कर लो। और इस तूफान के बाद विश्राम करना ठीक भी लगता है, मौजूं भी मालूम पड़ता है जरूरी भी, स्वाभाविक भी। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि तूफान में बहुत कम लोग डूबते हैं, कश्तिया तो साहिल से टकरा कर ही डूबती हैं। क्योंकि जब भी कोई सो जाता है तभी टकराहट हो जाती है।

इसलिए मैं नहीं कहता कि संसार से भागो। मैं तो कहता हूं,हो संसार में ही, ताकि तूफान तुम्हें सोने न दे। जागरण तो लाना है। और संसार से जगाने वाली जगह और कहां होगी! यहां मुर्दे उठ आएं कब्रों से। और तुम संन्यास को साहिल मत बना लेना। संन्यास साहिल नहीं है। तूफान में ही जागना है। किसी सुरक्षित स्थान की खोज नहीं है संन्यास— असुरक्षा को ही सुरक्षा में रूपांतरित करने की कला है, कीमिया है।

धीरज रखो, होगा। वह अपूर्व भी घटित होगा, जब प्रेम में परमात्मा मिलता है। लेकिन उसके पहले बहुत कांटे मिलेंगे, तब कहीं तुम गुलाब तक पहुंच पाओगे। लेकिन गुलाब तक पहुंचना निश्चित है। और जिस दिन पहुंच जाओगे उस दिन कांटे बिलकुल भूल जाएंगे, शायद तुम कीटों को धन्यवाद भी दो, क्योंकि न होते कांटे तो शायद तुम गुलाब तक कभी पहुंचते भी नहीं। कीटों की ही तो सीढ़ियां बनानी हैं।

दूसरा प्रश्न:

ओशो, आज तक दो प्रकार के खोजी हुए है। जो अंतर्यात्रा पर गए उन्‍होंने बाह्म जगत से अपने संबंध न्‍यूनतम कर लिए। जो बहार की विजय—यात्राओं पर निकले उन्‍हें अंतर्जगत का कोई बोध ही नहीं रहा। आपने हमें जीनें का नया आयाम दिया है। दोनों दिशाओं में हम अपनी यात्रा पूरी करनी है। ध्‍यान और सत्‍संग से जो मौन और शांति के अंकुर निकलते है, बाहर की भागा—भागी में वे कुचल जाते है। फिर बाहर के संघर्षों में जिस रूगणता और राजनीति का हमें अभ्‍यास हो जाता है, अंतर्यात्रा में वे ही कड़ियां बन जाती है।

प्रभु, दिशा—बोध देने की अनुकंपा करे।

नंद अरुण, मनुष्य का अतीत जिन बहुत सी भूलों में उलझा रहा है, उनमें सबसे बड़ी भूल यही थी कि हमने अंतर्यात्रा और बहिर्यात्रा को बांटा, कि हमने उनको दो यात्रा कहा। अंतर और बाहर को बांटा नहीं जा सकता, वे संयुक्त हैं, उन्हें वियुक्त करने का कोई उपाय नहीं है।

जैसे तुम्हारी देह और आत्मा। तुम्हारी देह तुम्हारी आत्मा का प्रकट रूप है और तुम्हारी आत्मा तुम्हारी देह की अप्रकट शक्ति है; बस इतना ही भेद है प्रकट और अप्रकट का, लेकिन दोनों संयुक्त हैं। तुम भोजन करते हो, जाता तो देह में है, लेकिन आत्मा भी सबल होती है। और तुम ध्यान करते हो, ध्यान घटता तो आत्मा में है, मगर देह पर भी ओज फैल जाता है। संयुक्त है।

परमात्मा और यह सृष्टि, स्रष्टा और उसकी सृष्टि अलग— अलग नहीं हैं— एक हैं। लेकिन अतीत में यह हुआ, शायद होना ही था, क्योंकि कुछ भूलें करके ही तो आदमी सीखता है, बिना भूलें किए सीखने का उपाय भी तो नहीं है। एक भूल हुई— बड़ी से बड़ी भूल— कि हमने बाहर और भीतर को बांट दिया। बाहर की यात्रा पर निकले लोगों को हमने कहा सांसारिक; और भीतर की यात्रा पर निकले लोगों को हमने कहा धार्मिक, आध्यात्मिक।

लेकिन जो भीतर की यात्रा पर गया है, अगर बाहर की यात्रा बिलकुल ही अवरुद्ध कर ले, तो उसकी अंतर्यात्रा निष्प्राण हो जाएगी, निर्वीर्य हो जाएगी, अधूरी रह जाएगी। और अधूरे सत्य असत्यों से भी बदतर होते हैं। एकांगी हो जाएगी उसकी यात्रा। वह शांत तो हो जाएगा, लेकिन उसकी शांति में एक गहन उदासी होगी।

यही हुआ, सदियों—सदियों में तुम्हारे संत उदास हुए। उदासीनता उनका लक्षण ही हो गई। शांति तो मिली, लेकिन उत्सव न हुआ। सन्नाटा तो आया, लेकिन ऐसा सन्नाटा नहीं जो गुनगुनाता है, जो गीत बन जाता है! नाचता हुआ सन्नाटा नहीं, मरघट की शांति मिली उन्हें, बगिया की शांति नहीं—जहां फूल खिलते हैं, सुगंध बिखरती है, पक्षी गीत गाते हैं!

कल देखा, रैदास कह रहे थे कि तू है जैसे आकाश में घिरे हुए बादल और मैं हूं जैसे नाचता हुआ मोर! जब तक तुम्हारा ध्यान नाचे नहीं तब तक तुम्हारे ध्यान में कुछ अनिवार्य कमी है; तुम्हारा ध्यान जड़ है। ध्यान के पैरों में घुंघरू बंधने ही चाहिए, तब समग्रता से सत्य का अनुभव होता है।

तो जो भीतर गए उन्होंने बाहर से आंख मोड़ ली। वे अपने में बंद हो गए। वे एक तरह की कुंठा में घिर गए। बातें तो उन्होंने बहुत कीं अहंकार को छोड़ने की, मगर अहंकार की ही चारदीवारी के भीतर बंद हो गए। बातें तो उन्होंने बहुत कीं कि मैं को छोड़ना है— शायद इसीलिए कीं, क्योंकि मैं उन्हें इतना सताने लगा, मैं ही बचा, तू को तो छोड़ ही दिया, तू से तो पीठ मोड़ ली, बस मैं ही मैं बचा।

इसलिए तुम्हारे साधु—संत अगर दुर्वासा बन गए तो आश्चर्य नहीं। जहां मैं बचेगा वहां दुर्वासा पैदा होगा। तुम्हारे साधु—संत, तुम्हारे ऋषि—मुनि अभिशाप देने में कुशल हो गए तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य ऐसे होता है कि ऋषि—मुनि और अभिशाप! जरा—जरा सी बातों पर लोगों का एकाध जन्म नहीं, आगे के जन्म भी बिगाड़ दें, इनको तुम ऋषि—मुनि कहते हो! एक जन्म बिगाड़े उसको अपराधी कहते हो और जो तुम्हारे जन्म—जन्म बिगाड़ दें, इनको ऋषि—मुनि कहते हो! यह तो महापाप हो गया। और इतना क्रोध इनमें कहां से आ रहा है? क्रोध बिना अहंकार के पैदा —नहीं होता। क्रोध तो अहंकार का ही बेटा है। क्रोध तो अहंकार की संतति है। क्रोध तो अहंकार का ही विस्तार है।

सब तरफ से बाहर से अपने को खींच कर भीतर बंद कर लिया, सब चुनौतियों से भाग गए अपने में बंद, कुंठित हो गए, रुग्ण हो गए, तोड लिया अपने को सबसे और सोचने लगे— सबसे तोड़ कर अपने को परमात्मा से जोड़ लेंगे! परमात्मा तो सबमें व्याप्त था। अगर परमात्मा से ही जोड़ना था तो सबसे अपने को जोड़ना था। जितना तुमने अपने को दूसरों से तोड़ लिया उतने ही तुम परमात्मा से टूट गए— रह गए अकेले, एकांगी, एकाकी। बचा सिर्फ तुम्हारा अहंकार। मनोविज्ञान इस तरह की मनोवृत्ति को कहता है— नासासिज्म। यूनानी कथा है नार्सीसस की, उसके आधार पर यह शब्द बना।

नार्सीसस एक बहुत सुंदर युवक हुआ। वह इतना सुंदर था कि एक झील में अपने ही प्रतिबिंब को देख कर मोहित हो गया। मगर तुम उसकी मुसीबत समझ सकते हो जैसे ही झील में उतरे, झील कंप जाए, प्रतिबिंब खो जाए; किनारे पर बैठे, झील शांत हो जाए, लहरें विलीन हो जाएं, फिर प्रतिबिंब दिखाई पड़ने लगे। वह वहीं झील के किनारे बैठा—बैठा मर गया। उसकी याददाश्त में नदियों और झीलों के किनारे उगने वाले एक पौधे का नाम नार्सीसस रख दिया गया है। वह पौधा झील और नदी के किनारे ही उगता है और सदा झील की तरफ झुका रहता है और झील के दर्पण में अपने को देखता रहता है। वह पौधा भी!

मनोविज्ञान कहता है. नार्सीसस जैसा जो हो जाएगा, वह विक्षिप्त हो गया, रुग्ण हो गया। और तुम्हारा जो अंतर्यात्रा का अब तक का ढंग रहा, रवैया रहा, वह नार्सीसस का है— बस अपने में बंद हो जाओ। तुम्हीं सब कुछ हो, तुम्हारे बाहर कुछ भी नहीं है। सब द्वार—दरवाजे बंद कर लो, न आए सूरज, न आएं हवाएं, न आए चांद, न झांकें तारे, बाहर की कोई आवाज भी न सुनाई पड़े— कान बंद कर लो आंख बंद कर लो! कहानियां हैं कि संतों ने अपनी आंखें फोड़ लीं कि कहीं रूप से आकर्षित न हो जाएं कि अपने कान फोड़ लिए कि कहीं संगीत प्रभावित न कर दे।

ये तो विक्षिप्तता के लक्षण हुए और इसका एक स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि बहुत थोड़े से लोग ही इस तरह के धर्म में उत्सुक हुए। जो विक्षिप्त थे वे ही उत्सुक हुए। उनको अपनी विक्षिप्तता के लिए एक तर्क मिल गया, क्योंकि विक्षिप्तता आध्यात्मिक मालूम होने लगी।

यह बात तुम्हें हैरान करेगी, लेकिन स्मरण दिलाने योग्य है कि पश्चिम के देशों में, जहां धर्म का प्रभाव कम हो गया है, अधिक लोग पागल होते हैं। इससे भारतीय अहकारियों को मौका मिल जाता है कहने को कि देखो, यद्यपि हम गरीब हैं, हमारे पास विशान नहीं, टेक्यालॉजी नहीं, धन नहीं, रोटी नहीं, रोजी नहीं, कपड़ा नहीं, छप्पर नहीं, बीमारियां हैं, अकाल पड़ते हैं, बाढ़े आती हैं, सब मुसीबतें हैं— फिर भी हमारे देश में इतने लोग पागल नहीं होते! जरूर हमारे अध्यात्म का प्रभाव है।

बात कुछ और है। बात सिर्फ इतनी है कि हमारे मुल्क में भी उतने ही लोग पागल होते हैं जितने पश्चिम में, लेकिन हमारे मुल्क में जब कोई पागल होता है तो वह अध्यात्म की चदरिया ओढ़ लेता है। वह पागल मालूम ही नहीं होता, वह तो आध्यात्मिक मालूम होने लगता है। पश्चिम में वही आदमी पागलखाने में भर्ती किया जाएगा। पूरब में उसी आदमी की पूजा की जाएगी। इस तरह के लोगों को यहां परमहंस कहा जाता है, जो बैठ कर खाना खा रहे हैं, उसी थाली में कुत्ते भी खा रहे हैं, उसी थाली में वे भी खा रहे हैं। इनको हम परमहंस कहते हैं। पश्चिम इनको पागल कहेगा कि इनको अब बुद्धि भी नहीं रही, विवेक भी नहीं रहा, थोड़ा भेद भी नहीं कर सकते। वहीं पाखाना कर लेंगे, वहीं बैठ कर भोजन कर रहे हैं— इनको हम परमहंस कहते हैं! इनको दुनिया में कहीं भी परमहंस नहीं कहा जाएगा। इनको स्किजोफ़ेनिक पश्चिम में कहा जाएगा कि इनका व्यक्तित्व खंडित है, टूटा हुआ है। ये दो व्यक्ति हैं—एक व्यक्ति ने पाखाना किया, दूसरा खाना खा रहा है। ये एक व्यक्ति होते तो यह असंभव था करना। इनका व्यक्तित्व विभाजित हो गया है, दो खंडों में टूट गया है।

और मैं मानता हूं कि पश्चिम की दृष्टि इस संबंध में ज्यादा सत्य के करीब है, लेकिन अध्यात्म ओढ़ लिया जाए…….।

मैं एक सज्जन को जानता हूं मेरे पड़ोस में ही रहते थे। उनको लोग बड़ा धार्मिक मानते थे। जब मैं उस जगह गया पहली दफा रहने तो लोगों ने मुझसे कहा कि हमारे पड़ोस में एक अदभुत व्यक्ति रहते हैं, बड़े धार्मिक हैं! मैंने कहा, उनकी धार्मिकता के संबंध में कुछ विस्तार से मुझे कहो, क्योंकि मैं इतने धार्मिक लोगों को जानता हूं और जब उनका विस्तार पता चलता है तो बड़ी हैरानी होती है।

उनकी धार्मिकता की प्रसिद्धि का कुल कारण इतना था कि वे सुबह नल पर जब पानी भरने जाते थे तो अगर कोई स्त्री दिखाई पड़ जाए तो फिर से बर्तन मलते, फिर धोते, फिर पानी भरते, इस बीच फिर कोई स्त्री दिखाई पड़ जाए तो फिर बर्तन मलते। कभी—कभी दस दफा, कभी—कभी बीस दफा, कभी तीस दफा! पानी भर कर चले आ रहे हैं रास्ते पर और फिर कोई स्त्री दिख गई। अब स्त्रियां ही स्त्रियां हैं सब तरफ। इससे उनकी बड़ी ख्याति थी कि अहा, यह है ब्रह्मचर्य!

अब यह आदमी ब्रह्मचारी है या पागल?

एक महिला को मैंने कहा कि मैं तुझे दस रुपये दूंगा, तू आज इनके पीछे ही पड़ जा। तेरा दिन भर का काम इतना ही है कि उसी नल के आस—पास चक्कर लगाती रह, जहां ये पानी भरते हैं। आज सांझ तक इनको पानी भरने नहीं देना है।…… .दस दफा, बीस दफा, पच्चीस दफा, तीस दफा, फिर आखिर उनको आग जलने लगी, क्रोध आने लगा कि यह तो स्त्री शरारत कर रही है। मतलब वही की वही स्त्री आ जाती है बार—बार!

और मालूम है उन्होंने क्या किया? उन्होंने अपना जो बर्तन था, जो मटका था, वह उस स्त्री के सिर पर दे मारा। उस स्त्री को अस्पताल ले जाना पड़ा। उसने मुझसे कहा कि दस रुपये में आपने मंहगा काम करवाया।

मैंने कहा तू फिकर मत कर, मगर एक आदमी का अध्यात्म तो समाप्त हुआ, एक आदमी का अध्यात्म से छुटकारा हुआ! मोहल्ले भर के लोगों ने कहा कि यह कैसा आदमी है! भाई तुम्हें अपना बर्तन धोना है धोओ, मगर किसी के सिर पर तो नहीं मार सकते।

अब तक इसको वहां तक नहीं खींचा गया था जहां दुर्वासा प्रकट हो जाता है, क्योंकि कभी कोई एक स्त्री निकल गई तो ठीक है, उसने धो लिया अपना बर्तन। और इससे उसको प्रतिष्ठा मिल रही थी, इसलिए इसमें रस भी था। जिस दिन कोई स्त्री न गुजरती होगी उस दिन उसे मजा भी नहीं आता होगा। मगर एक सीमा है हर चीज की।

मैंने उन सज्जन को जाकर कहा कि उस स्त्री पर नाराज न हों, नाराज होना हो तो मुझ पर हों। मैंने ही आयोजन किया था, देखना था कि अध्यात्म किस तरह का है। और स्त्री को देख कर तुम्हारा जल अपवित्र हो जाता है! तुम्हारा बर्तन अपवित्र हो जाता है! देखते तुम हो कि बर्तन देखता है? अगर स्त्री को देख कर कुछ अपवित्र होता है तो तुम स्नान किया करो, बर्तन क्यों मलते हो? बर्तन बेचारे के पास आंखें भी नहीं हैं! और पानी को क्यों बदलते हो, पानी का क्या कसूर है? और जिस नदी से यह पानी आ रहा है, उसमें स्त्रियां नहा रही हैं, स्त्रियां ही नहीं, भैंसें किल्लोल कर रही हैं, क्रीड़ा कर रही हैं। और यह नल जिससे तुम पानी भर कर आते हो, यह नालियों में से गुजर रहा है, जमाने भर की गंदगियों में से गुजर रहा है, कहां—कहां से होकर चला आ रहा है— वह सब ठीक!

और मैंने उनसे पूछा कि जब तुम पैदा हुए थे तो स्त्री से पैदा हुए कि पुरुष से? नौ महीने मां के पेट में रहे कि नहीं? तब क्या करते रहे? कैसे गुजारे नौ महीने? फिर मां का दूध पीकर बड़े हुए, उसकी शुद्धि कैसे करोगे? तुम जाओ अस्पताल में और सारा खून बदलवा लो। सब खून निकलवा कर नया खून डलवा लो। मगर ध्यान रखना, नया खून भी ऐसे आदमी से डलवाना जो स्त्री से पैदा न हुआ हो, और ऐसे आदमी का डलवाना जो स्त्री से पैदा न हुआ हो। बेहतर तो यह हो कि तुम खून निकलवा लो, पानी भरवा लो— शुद्ध, गंगाजल!

मगर उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। जब मैं वहां रहने लगा तो कुछ ही दिनों में वे छोड़ कर चले गए उस इलाके को। मैंने कहा तुम भाग न सकोगे, तुम जिस इलाके में जाओगे वहीं मैं आ जाऊंगा। वे तो गांव ही छोड़ दिए। उनका पता ही नहीं चला वे कहां गए। वे किसी दूसरी जगह परमहंस हो गए होंगे। तुम किसको अब तक साधु कहते रहे, संत कहते रहे— भगोड़ों को, पलायनवादियों को? और कारण कुल इतना था कि हमने बाहर और अंतर को तोड़ दिया। तो एक तरफ थोथा धार्मिक आदमी पैदा हुआ, जो करीब—करीब विक्षिप्त है, और दूसरी तरफ भोगी पैदा हुआ, वह भी बेचारा विक्षिप्त है। क्योंकि वह सोचता है कि मैं तो बाहर की यात्रा पर लगा हूं मैं कैसे भीतर जाऊं! तो वह भीतर जाने की चेष्टा नहीं करता। फिर उसे डर भी है कि भीतर जाएगा तो बाहर की सारी की सारी व्यवस्था तोड़नी पड़ेगी; वह वह तोड़ना नहीं चाहता, उसके बड़े न्यस्त स्वार्थ हो गए हैं।

तुम्हारे तथाकथित धर्म ने कुछ लोगों को भीतर की विक्षिप्तता दे दी और कुछ लोगों को बाहर अटका दिया। मैं यह सारा जाल तोड़ देना चाहता हूं। इसलिए मुझसे सांसारिक भी नाराज होंगे और धार्मिक भी नाराज होंगे। मेरी उदघोषणा है कि बाहर और भीतर संयुक्त हैं, इनको अलग नहीं किया जा सकता। अलग करने की कोशिश करना भी मत, क्योंकि इन दोनों से मिल कर ही पूर्ण सत्य निर्मित होता है।

इसलिए अरुण, जैसे श्वास कभी भीतर आती है और कभी बाहर जाती है— ऐसे जीओ। अब कोई आदमी कहे कि जो श्वास भीतर गई, अब हम बाहर न जाने देंगे, हम तो भीतर ही सम्हालेंगे! अरे क्यों अपने भीतर की संपदा को बाहर जाने दें! तो कर लो नाक बंद और रोक लो श्वास को भीतर, ज्यादा देर न जीओगे। या कि जो बाहर गई, गई! जो बाहर जाती है बार—बार, ऐसी भ्रष्ट श्वास को फिर क्या भीतर लेना। नमस्कार कर लो और भीतर मत लो, तो भी मरोगे।

कभी तुम श्वास में यह भेद नहीं करते; न तुम्हारे संन्यासियों ने किया अब तक, न तुम्हारे ऋषियों ने किया अब तक। श्वास का एक पहलू है भीतर जाना और दूसरा पहलू है बाहर जाना। श्वास ताजी रहती है जितनी बाहर— भीतर जाए; क्योंकि भीतर जाकर जो भी प्राणप्रद है श्वास में, वह तुम ले लेते हो और जो भी व्यर्थ है वह बाहर वापस चला जाता है। फिर बाहर से शुद्ध होकर श्वास भीतर चली आती है। यह जो एक संतुलन है बाहर और भीतर का श्वास—प्रश्वास का, ऐसा ही संतुलन जीवन का चाहिए।

मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम कहते हो कि अगर भीतर जाते हैं तो मौन और शांति के अंकुर निकलते हैं, जो बाहर की भागा— भागी में कुचल जाते हैं।

कोई फिकर नहीं, कुचल जाने दो। एक बार कुचलेंगे, दो बार कुचलेंगे, धीरे— धीरे मजबूत होंगे। मजबूत होने की यही कला है, यही ढंग है। ऐसे ही दंड—बैठक लगता रहेगा। ऐसे ही तुम धीरे— धीरे मजबूत होओगे। ऐसे ही तुम्हारा ध्यान मजबूत होगा। फिर बाहर जाने से, बाहर की आपा— धापी से तुम्हारे अंकुर कुचले नहीं जाएंगे, बल्कि तुम एक चमत्कार देखोगे कि बाहर जाना तुम्हारे ध्यान के अंकुरों के लिए खाद बन जाएगा।

और अभी तुम कहते हो कि बाहर जाते हैं तो रूग्‍णता और राजनीति का अभ्यास हो जाता है, वह भीतर जाने में बाधा बनता है।

वह भी बाधा नहीं बनेगा। वह भी इसलिए बाधा बनता है कि अभी तुम ध्यान को ठीक से समझ नहीं पा रहे। अभी तुम साक्षीभाव नहीं पैदा कर पा रहे। नहीं तो बाहर के जगत में साक्षी होकर जीओ। फिर आदतें पीछा नहीं करेंगी तुम्हारा। भूल जाते हो साक्षीभाव को, इसलिए बाहर के उपद्रव और झगड़े—झांसे फिर भीतर चले आते हैं।

इसी कारण तो अतीत में यह भूल हो गई कि लोगों ने देखा, अगर बाहर के काम में लगो तो भीतर गड़बड़ होती है; अगर भीतर की शांति सम्हालों तो फिर बाहर जाने में डर लगता है, कहीं शांति नष्ट न हो जाए! इसलिए बांट ही लो कुछ लोग भीतर रहें, वे ऋषि—महर्षि, अधिक लोग बाहर रहें, क्योंकि रहना ही पड़ेगा अधिक लोगों को! ऋषि—महर्षियों को भी तो भोजन चाहिए! वह कहां से पाएंगे, अगर सभी लोग ऋषि. महर्षि हो जाएं?

जरा सोचो तो कि सभी लोग महावीर हो गए, सब खड़े नंग— धड़ंग, किससे भिक्षा मांगोगे? किससे भोजन लेने जाओगे? कौन निमंत्रण देगा कि महाराज, आज हमारे घर से भोजन ग्रहण करें! एक महावीर को जिंदा रखना हो तो कम से कम दस आदमियों को बाहर उलझे रहना पड़ता है। तुम भाग जाओ बाहर से, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, तुम उन्हीं पर तो निर्भर हो! तुम उन पर निर्भर हो जो बाहर जी रहे हैं। और वे जो बाहर जी रहे हैं, वे भी तो बार—बार महावीर के चरणों में आते हैं, बुद्ध के चरणों में आते हैं कि थोड़ी सी अंतर्वाणी सुनाई पड़ जाए। वे भी तृप्त नहीं हैं, वहां भी कुछ कमी है।

संसारी खोजता है किसी सत्संग को। क्यों? क्योंकि उसे लगता है कि कुछ है जो मैं चूक रहा हूं। धन भी है, पद भी है, प्रतिष्ठा भी है, मगर आत्म—बोध नहीं है, आत्म— अनुभव नहीं है, भीतर का तो कोई संगीत ही सुनाई नहीं पड़ता, रोशनी नहीं दिखाई पड़ती! तो जाऊं उनके पास, बैठूं थोड़ी देर—जिनको भीतर की रोशनी मिल गई। वह भी उनकी तलाश करता है जो भीतर पहुंच गए हैं, या कम से कम भीतर पहुंचने का जिनका उसे खयाल है, पहुंचे हों या न पहुंचे हों। और जो भीतर गए हैं, वे भी उसकी तलाश करते हुए आते हैं, जो बाहर के काम में लगा है, क्योंकि उन्हें भी रोटी चाहिए, छप्पर चाहिए, ठहरने को जगह चाहिए। दोनों एक—दूसरे पर निर्भर हैं। दोनों एक—दूसरे से मुक्त नहीं हैं।

बजाय इस तरह करने के, क्यों नहीं तुम स्वयं ही दोनों को एक साथ साध लेते? यह मेरी प्रक्रिया है। क्यों दूसरों पर निर्भर रहो? समझो कि अगर बाहर रहना पाप है तो जो भी बाहर रह रहे हैं उनका भोजन ग्रहण करना पाप है। अगर चोरी पाप है और कोई चोर आकर महावीर को दान करे तो महावीर को मना करना चाहिए कि चोरी पाप है, मैं कैसे दान लूं? और यह भी हो सकता है, चोर ने सिर्फ दान देने के लिए ही चोरी की हो, क्योंकि महावीर को देने का मजा वह भी लेना चाहता है, वह भी चाहता है यश, वह भी चाहता है कि लोगों को पता चल जाए कि मैं भी दाता हूं! उसने चोरी की हो महावीर को दान देने के लिए, तो जिम्मेवार कौन होगा फिर? इसकी चोरी में भागीदार कौन होगा?

एक सज्जन मेरे पास आए। ख्यातिनाम साधु हैं। हिमालय में उनकी बड़ी ख्याति है। वे पैसा नहीं छूते। वह उनकी ख्याति का खास कारण है। ख्यातियां भी अजीब! जहां विक्षिप्तताएं प्रचलित हों वहां किन—किन बातों से ख्यातिया मिलती हैं, यह भी सोचने जैसा मामला है! वह पैसा नहीं छूते। मैंने उनसे कहा कि पैसा क्यों नहीं छूते? उन्होंने कहा मिट्टी है। मैंने कहा मिट्टी तो तुम मजे से छूते हो! अगर पैसा मिट्टी है तो छुओ। मिट्टी को छूने में क्या हर्जा है? तुम्हारा न छूना ही बता रहा है कि पैसा मिट्टी नहीं है। वे जरा मुश्किल में पड़ गए, सिर खुजलाने लगे। मैंने कहा मिट्टी को छूने में तुम एतराज नहीं करते। मिट्टी पर बैठते हो, चलते हो। पैसा ही छूने में क्या एतराज है? पैसा भी है तो आखिर धातु ही! और अब तो धातु भी कहां, अब तो कागज! किताब छूते हो कि नहीं? गीता छूते हो कि नहीं?

उन्होंने कहा गीता क्यों नहीं छूऊंगा! मैंने कहा गीता से ज्यादा अच्छे कागज पर नोट छपा है; स्याही भी बेहतर है, कागज भी सुंदर है। इसे छूने में क्या एतराज आ रहा है? चूंकि इस पर दस रुपया लिखा है सिर्फ इसलिए? तो मैं एक कागज पर दस रुपया लिख दूं छुओगे कि नहीं?

उन्होंने कहा आप भी कैसी बातें करते हैं!

मैंने उनसे कहा कि कल सुबह ध्यान का प्रयोग होने को है, आप उसमें आ जाना।

उन्होंने कहा यह जरा मुश्किल है। मैंने आपको कहा कि मैं पैसा नहीं छूता, तो मुझे एक आदमी पर निर्भर रहना पड़ता है। वह आदमी जब मेरे साथ आए तो ही मैं आ सकता हूं क्योंकि पैसा वह रखता है, वही चुकाता है टैक्सी वाले को। और वह कल नहीं आ सकेगा, कल उसे अदालत जाना है।

मैंने कहा लोग आपको पैसा वगैरह भेंट करते हैं, वह कहां जाता है? कहा वह वही आदमी रखता है। मैंने कहा, यह चालबाजी थोड़ा सोचो तो! एक आदमी को साथ रखना पड़ता है, वह पैसा सम्हाल कर रखता है। जैसे कि रईस मुनीम रखते हैं, यह मुनीम हुआ तुम्हारा। और यह तो बड़ी गुलामी हो गई! कल तुम्हें आना है, लेकिन तुम नहीं आ सकते, क्योंकि मुनीम को अदालत जाना है। अरे तुम्हारे खीसे में क्या खराबी है? उसके खीसे में हाथ डाल कर निकालते हो न! उसका ही हाथ है, उसका ही खीसा है, मगर निकालता तुम्हारे लिए है। पैसा भी तुम्हीं को भेंट मिलता है, रखता वह है। उसको क्या देते हो तनख्वाह?

पहले तो वे जरा इधर—उधर…। मैंने कहा कि मुझसे तुम झूठ नहीं बोलना, नहीं तो जन्म—जन्म भुगतोगे। बात सच्ची कह देना।

कहने लगे, अब आपसे क्या छिपाना! तीन सौ रुपये महीने उसको देना पड़ता है और फिर भी उस पर निर्भर रहना पड़ता है!

यह सब क्या खेल चल रहा है! मगर उनकी प्रसिद्धि यह है कि वे पैसा नहीं छूते।

आचार्य विनोबा भावे को अगर नोट दिखा दो, वे जल्दी से आंख बंद कर लेते हैं। जरूर नोट में बहुत रस होगा। इतना क्या रस? क्या आंख से लार टपकती है? क्या मामला क्या है? यह तो एक तरह का रोग हुआ। जैसे किसी आदमी को नोट दिखा दो, वह एकदम से आंख बंद कर ले। नोट में तो बड़ा जादू मालूम होता है! और किसी चीज को देख कर वे आंख बंद नहीं करते, नोट को देख कर आंख बंद कर लेते हैं। यह तो नोट से बड़ा भय हुआ। कहीं कोई भीतर रूग्‍ण लगाव रह गया है।

यह वजह, इसकी मौलिक वजह यही है अरुण कि हमने बाहर और भीतर को दो हिस्सों में तोड़ दिया। इससे बड़े उपद्रव पैदा हुए। झूठे पाखंडी साधु पैदा हुए और दीन—हीन भोगी पैदा हुए। भोगी सोचते हैं, हमसे क्या होगा, हम तो भोगी हैं! हम तो सेवा ही कर लें साधु—संन्यासियों की, उतना ही बहुत है, उतना ही पुण्य काफी है। कभी अगले जन्म में प्रभु की कृपा होगी, पुण्य का प्रभाव होगा, तो अंतर्यात्रा पर भी जाएंगे; लेकिन अभी तो बहिर्यात्रा पर हैं, अभी तो यह यात्रा पूरी करनी है, अभी तो अंतर्यात्रा पर हम जा नहीं सकते।

उनको अंतर्यात्रा पर न जाने का बहाना मिल गया और जो अंतर्यात्रा पर गए हैं उनकी अंतर्यात्रा नपुंसक है, क्योंकि उनको उन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है जिनकी बहिर्यात्रा है। इतना क्यों उपद्रव खड़ा करना? क्यों न सीधी—सादी जिंदगी जीओ? रोटी कमानी है कमाओ। मगर रोटी कमाने की, बाजार—दुकान चलाने की आदतों में न घिर जाओ। जब दुकान बंद करके आओ तो वे आदतें भी दुकान में ही बंद कर आओ, उनको घर मत लाओ। जब दफ्तर से लौटो तो खाली होकर लौटो। और जब घर में बैठो तो प्रीति में डूबो, ध्यान में डूबो। घर का और अर्थ क्या? नहीं तो घर आए किसलिए? लेकिन चले आए दफ्तर सिर में लिए, तो घर आए काहे को? दफ्तर में ही रहते। घर चले आए दफ्तर को सिर में लिए तो घर तो तुम आए ही नहीं।

यही अरुण, तुम कह रहे हो अड़चन है कि फिर बाहर की आदतें पकड़ लेती हैं!

आदतें तुम्हें नहीं पकड़ती, तुम्हीं आदतों को पकड़ते हो। पहले तुम्हीं पकड़ते हो, शुरुआत तुम्हीं करते हो।

नदी में बाढ़ आई हुई थी। वर्षा के दिन। पहली—पहली बाढ़। मुल्ला नसरुद्दीन और कुछ लोग नदी के किनारे खड़े बाढ़ को बढ़ता देख रहे थे, तभी एक आदमी चिल्लाया. अरे देखते हो, कंबल बहा जा रहा है!

मुल्ला को तो लालच आ गया। आव देखी न ताव, कूद पड़ा। ज्यादा दूर भी नहीं था, एक पांच—सात हाथ के ही फासले पर था। कंबल को पकड़ लिया। फिर चिल्लाया, बचाओ! तो लोगों ने किनारे से कहा. इसमें बचाना क्या है? अगर कंबल नहीं खींच सकते हो तो छोड़ दो। उसने कहा अब मुश्किल है मामला। यह भालू है, कंबल नहीं है। अब इसने भी मुझे पकड़ लिया।

पहले तुम पकड़ते हो। मगर हमेशा पहले तुम पकड़ते हो, खयाल रखना। फिर कभी—कभी भालू मिल जाते हैं। दिख रही होगी पीठ कंबल जैसी सुंदर। जिंदा था भालू वह बहा जा रहा था। अब मुश्किल पड़ी। अब चिल्ला रहे हैं कि बचाओ।

तुम आदतों को पहले पकड़ते हो, फिर धीरे— धीरे उनका अभ्यास तुम्हीं करते हो। और बहुत अभ्यास के बाद वे तुम्हें पकड़ लेती हैं। फिर तुम पूछते हो, कैसे बचें?

पकड़ो मत आदतों को! उपयोग करो। मस्तिष्क का उपयोग करो। बुद्धि का उपयोग करो। तर्क का उपयोग करो। गणित का उपयोग करो। लेकिन बस उपयोग कर दिया और सरका कर रख लिया। चौबीस घंटे उनसे घिरे रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर घर में ध्यान में डूबो, प्रेम में डूबो, नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ। लेकिन इस उत्सव और शांति और आनंद और प्रेम में भी पकड़ जाने की जरूरत नहीं है, कि फिर दफ्तर पहुंच गए नाचते हुए, तो फिर दफ्तर के लोग पुलिस में खबर करेंगे! क्योंकि रोओ अगर दफ्तर में तो क्षमा भी कर दें वे, अगर हंसों तो क्षमा नहीं कर सकते। रोने वाले लोग हंसने वाले लोगों को कैसे क्षमा कर सकते हैं! इतने दुख से भरे लोग आनंदित व्यक्ति को क्षमा नहीं कर सकते।

तो समझ का थोड़ा उपयोग करो, इसी को विवेक कहते हैं। घर में अपनी मौज से जीओ; दफ्तर दफ्तर है, उसकी अपनी दुनिया है। वहां उसी दुनिया में जीओ।

जैसे रास्ते पर बाएं चलने का नियम है कि बाएं चलो। अब यह कोई शाश्वत नियम नहीं है, कोई ऐसा नहीं है कि तुम दाएं चलोगे तो नरक भेज दिए जाओगे। मगर बस के नीचे आ जाओगे। कोई ऐसा नहीं है कि दाएं चलने में पाप है। न मनुस्मृति में लिखा है और न किसी और शास्त्र में कि दाएं चलना पाप है। और अमरीका में तो लोग दाएं चलते ही हैं, जैसे भारत में बाएं चलते हैं। यह इंग्लैंड ने सिखा दिया भारत को बाएं चलना। इंग्लैंड में बाएं चलने का रिवाज है, अमरीका में दाएं चलने का रिवाज है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अमरीका जाने की तैयारी कर रहा था। बहुत दिन हो गए, एक दिन पता चला कि अस्पताल में भर्ती किया गया है, कई फ्रैक्चर हो गए हैं! मैं उसे देखने गया। पट्टियां ही पट्टियां बंधी हैं— मुंह पर, चेहरे पर, खोपड़ी पर, हाथ में, पैर में! मैंने कहा नसरुद्दीन हुआ क्या? उसने कहा ऐसी की तैसी अमरीका की! मैंने कहा : अमरीका का इसमें क्या लेना—देना है? अभी तो तुम गए ही नहीं! उसने कहा अरे बिना गए ही यह हालत हो गई। मैं अमरीका जाने का अभ्यास कर रहा था कि वहां क्या—क्या नियम, क्या—क्या विधियां—पता चला कि वहां दाएं चलना पड़ता है, सो कार दाएं चला रहा था, कि अभ्यास तो कर लूं! चम्मच—छुरी से खाने का अभ्यास कर रहा था। और सब तो ठीक रहा, यह दाएं चलाना कार झंझट आ गई। आ गई बस एक और बस बच गए, इतना ही बहुत है!

मैंने कहा बहुत तकलीफ होती होगी, इतने घाव! उसने कहा हां, होती है जब हंसता हूं। मैंने कहा हंसते काहे के लिए हो? उसने कहा, हंसता इसलिए हूं कि अच्छे बुद्ध अपने शांति से रह रहे थे, अमरीका जाने की सनक सवार हुई। अब भूल कर नहीं जाऊंगा। अब कहीं जाना ही नहीं है। अपने घर में ही रहेंगे। बिना ही गए इतनी झंझट हो गई, अमरीका में क्या हालत हो रही होगी लोगों की!

लेकिन अमरीका में कोई गड़बड़ नहीं हो रही। सभी लोग उसी नियम को मान कर चल रहे हैं, तो वह नियम कारगर हो जाता है। बाएं सब लोग मान कर चलते हैं तो बाएं चलना ठीक हो जाता है, दाएं मान कर चलते हैं तो दाएं चलना ठीक हो जाता है। मगर कोई एक नियम मान कर चलना होता है। यह नियम केवल औपचारिक है। इन नियमों की कोई शाश्वतता नहीं है। इनमें कोई पारमार्थिक तत्व नहीं है, कोई पारलौकिक तत्व नहीं है— कामचलाऊ हैं, व्यावहारिक हैं।

तो मैं जानता हूं कि अरुण लोगों के साथ रहोगे तो थोड़ी राजनीति बरतनी होगी, क्योंकि लोग राजनीति से भरे हैं, थोड़े मुखौटे भी लगाने होंगे, क्योंकि लोगों से अगर वैसा ही कह दो सच—सच जैसा है, तो बस अस्पताल में दिखाई पड़ोगे। और फिर दर्द होगा जब हंसोगे!

तो लोग रास्ते पर मिल जाते हैं, भीतर तो कहते हैं कि हे भगवान, आज बचाना, कहां से इस शैतान की सुबह से ही शकल दिखाई पड़ गई! लेकिन उससे ऐसा नहीं कहते, उससे कहते हैं; धन्यभाग कि आप सुबह ही सुबह मिल गए! अरे कितने दिनों से लालसा थी। बड़े मुश्किल से दर्शन हुए, बड़े दुर्लभ दर्शन हैं आपके! और भीतर यही कह रहे हैं कि हे प्रभु, अब बचाना! अब ये चौबीस घंटे किसी तरह गुजर जाएं तो ठीक है। यह सुबह ही सुबह कहां से अपशकुन हो गया! मगर वे भीतर की बातें भीतर, बाहर की बातें बाहर।

मैं जानता हूं कि बाहर की जिंदगी है तो वहां मुखौटे भी हैं और वहां राजनीति भी है, क्योंकि बाकी सारे लोग राजनीति से भरे हैं और मुखौटों से भरे हैं। मगर मुखौटा ओढ़ कर जाओ तो उसको फिर कोई घर लगाए रखने की जरूरत नहीं है, घर आकर निकाल कर रख दिया। घर अपने असली चेहरे में आ गए। इसीलिए घर है।

घर को मंदिर बनाओ! यही मेरी सारी शिक्षा का सार है— घर को मंदिर बनाओ! क्योंकि वह प्रेम का स्थल है। वहां पूजा के दीप जलाओ! वहां जलने दो धूप! वहां सब मुखौटे एक तरफ रख दिया करो। वहां सारी राजनीति छोड़ दिया करो।

मगर पत्नी के साथ भी राजनीति चल रही है, पति के साथ भी राजनीति चल रही है। बच्चों के साथ राजनीति चल रही है! छोटे—छोटे बच्चों को भी तुम धोखा दे रहे हो! उनसे भी झूठी बातें कह रहे हो! फिर अड़चन हो जाती है। लेकिन जिम्मा तुम्हारा है। बहिर्यात्रा का जिम्मा नहीं है। यह तुम्हारी भ्रांति है। यह तुम्हारे विवेक की कमी है। घर आते ही सब जाल—जंजाल दरवाजे पर रख दिया; जहां जूते उतारते हो वहीं सब उतार कर रख दिया। घर निपट सहज मानव हो गए। जब बाहर गए, फिर जूते पहन लिए, फिर मुखौटे पहन लिए। खेल समझो इसको! और बाहर— भीतर अगर तुम खेल समझ कर आओ—जाओ तो साक्षी का जन्म हो जाए।

उसी साक्षी को मैं संन्यास कहता हूं। न तो संन्यास अंतर्यात्रा है और न संन्यास बहिर्यात्रा है— बहिर्यात्रा—अतर्यात्रा दोनों के बीच साक्षी का जग जाना। भीतर भी जाओ और बाहर भी जाओ; फिर भी अलग— थलग बने रहो, दोनों से अस्पर्शित रहो, दोनों से मुक्त, तादात्म्य न हो। उस साक्षीभाव को मैं संन्यास कहता हूं।

सत्य है रवि, सत्य रवि की दीप्त किरणें भी

पर मनोहर बादलों की श्यामली माया

सत्य है व्यवधान अंतर, सत्य तुम मैं भी

किंतु फिर भी यह निलय का भाव घिर आया

क्योंकि दोनों सत्य हैं तम भी उजेला भी

मैं तुम्हारे साथ भी हूं प्रिय! अकेला भी।

ऐसा साधो—

मैं तुम्हारे साथ भी हूं प्रिय! अकेला भी!

क्योंकि दोनों सत्य हैं. तम भी उजेला भी।

अंतर्जगत भी सत्य है— उतना ही जितना बहिर्जगत सत्य है, जरा भी कम—ज्यादा सत्य नहीं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; एक ही वर्तुल के दो आधी फांकें। आधा चांद भीतर, आधा चांद बाहर; दोनों से मिल कर पूर्णिमा होगी। और जिसके जीवन में पूर्णिमा हो गई वही मुक्त है।

संन्यास को मैं नये अर्थ दे रहा हूं नई भाव— भंगिमा दे रहा हूं। इसलिए तुम्हें अड़चन होती है, तुम भूल जाते हो। संन्यास की तुम पुरानी ही परिभाषा में उलझ जाते हो।

बहुत दिनों के बाद

आज फिर हवा चली है फागुन की! मेरे कुर्ते का छोर

तुम्हारी साड़ी का पल्ला

साथ—साथ लहराता है

मन जाने किन—किन अनजान दिशाओं में

बह जाता है

बहुत दिनों के बाद!

बहुत दिनों के बाद

आज फिर खुला आसमान

सूरज की किरन चमकती है

अंधियारे कमरे की बंदी

मेरी अनुभूति

पंख लगा कर उड़ती है

बहुत दिनों के बाद!

बहुत दिनों के बाद

आज फिर फूला पलाश है

सेमल की डालों से अंगारे झड़ते हैं

अमलताश के पत्तों से मेरे शब्द

अर्थ खोजते

धरती से आसमान तक उड़ते हैं

बहुत दिनों के बाद

आज फिर हवा चली है फागुन की!

मैं एक नई हवा ला रहा हूं। मैं किसी बंधी—बधाई पुरानी लीक, किसी परिपाटी को नहीं पीट रहा हूं। जैसा कभी नहीं हुआ है आज तक, वैसा कुछ करने को तुमसे कह रहा हूं। इसलिए अड़चन तो होगी। समझने में ही अड़चन होगी; करने में तो और भी अड़चन होनी है। मगर काश तुम कर सके तो हम एक नये मनुष्य को पृथ्वी पर जन्म दे सकते हैं! और उसकी बहुत जरूरत है। बिना नये मनुष्य के अब पृथ्वी का कोई भविष्य नहीं है। अतीत सड़—गल गया। अतीत में हमने जो भी किया था, काम नहीं आया। बुद्ध भी होते रहे, सिकंदर भी होते रहे, चंगीज खां भी होते रहे, तैमूरलंग भी होते रहे; महावीर भी होते रहे, जीसस भी होते रहे। लेकिन मनुष्य आत्मवान नहीं हो पाया। कहीं—कहीं कभी—कभी दीये जलते रहे, लेकिन अधिकतर तो अमावस की रात रही।

और अब ऐसी घड़ी आ गई है कि यदि हम एक बिलकुल ही सर्वाग नये मनुष्य को जन्म न दे सके तो पृथ्वी का कोई भविष्य नहीं है। संन्यास की मेरी चेष्टा उसी नये मनुष्य को जन्म देने की चेष्टा है। इसलिए पुराने संन्यासी मुझसे नाराज हैं—फिर वे जैन हों, हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, वे सब मुझसे नाराज हैं। उनकी नाराजगी का कारण यह है कि मैं उनकी लीक तोड़ रहा हूं उनकी परंपरा तोड़ रहा हूं।

और वे ही मुझसे नाराज होते तो आश्चर्य न था, मुझसे सांसारिक लोग भी नाराज हैं। वे इसलिए नाराज हैं कि मैं उनकी भी लीक तोड़ रहा हूं। मैं संन्यासियों को संसार में प्रवेश करवा रहा हूं।

मैं सारी सीमाओं को तोड़ देना चाहता हूं। मैं बांध तोड़ देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मनुष्य बाहर और भीतर दोनों में जीने में समर्थ हो जाए। पदार्थ के साथ भी उतना ही कुशल हो, उतना ही वैज्ञानिक हों—जितना धार्मिक, जितना आत्मा के साथ कुशल हो। चुनाव की जरूरत नहीं है। यह कोई विकल्प नहीं है कि हम ईश्वर को चुनें कि संसार को।

पुराना सूत्र है ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। ऐसा संन्यासी कहते रहे कि ईश्वर सत्य है और संसार झूठ। और संसारी मानते रहे कि संसार सत्य है, ईश्वर झूठ। भला मंदिर भी गए, मस्जिद भी गए, पूजा भी की, पाठ भी किया, लेकिन उनका पूरा जीवन कहता रहा यह, उनका पूरा व्यवहार कहता रहा कि ये सब बातें करने की हैं, असलियत तो यह है कि संसार सत्य है। उनका सारा व्यवहार तो संसार के सत्य की घोषणा करता रहा और परमात्मा को झूठ सिद्ध करता रहा।

मैं तुमसे कहता हूं ब्रह्म भी सत्य है और जगत भी सत्य है। होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि जिस ब्रह्म से जगत पैदा हुआ हो, सत्य से असत्य कैसे पैदा हो सकता है? फिर इसी जगत में ही तो ब्रह्म का अनुभव होता है! असत्य में सत्य का अनुभव कैसे हो सकता है? जगत पैदा होता है ब्रह्म से और जगत में ही फिर ब्रह्म का अनुभव पैदा होता है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

इसलिए मुझसे बहुत लोग नाराज होंगे। और मुझे समझना जटिल होगा, कठिन होगा। और समझना तो एक तरफ, जब तुम इसे जीवन—व्यवहार में लाना शुरू करोगे तो बहुत अड़चनें आएंगी। मगर अड़चनें उठानी हैं। बिना अड़चनें उठाए तुम पकोगे नहीं, परिपक्व नहीं होओगे।

मौसम के जूड़े को देर तक टटोलूंगा

एक—एक गांठ को उम्र—उम्र खोलूंगा

गांठ—गांठ खोलनी है जीवन की!

मौसम के जूड़े को देर तक टटोलूंगा

एक—एक गांठ को उम्र—उम्र खोलूंगा

शायद हो गंध कहीं उन आदिम फूलों की

धुंधली तस्वीर कहीं तीर पर बबूलों की

भूलें वे जिनको नित टोक कर, हिकार कर

कुढ़ी—कुढ़ी नजरें हों बूढ़े उसूलों की।

शबनम के कूड़े को देर तक बटोरूंगा

एक—एक कतरे को जन्म—जन्म टोलूंगा

शायद हो छंद कोई चंदा की फांक सा

मिल जाए मन कोई घुट कर छटांक सा

पलकें वे जिनको नित ताक कर, निहार कर

सूरज हो पड़ा कहीं काजली सलाख सा

संयम के पलड़े को देर तक झिझोडूगा

एक—एक खतरे को बार—बार मोका

लो खतरे जितने ले सको, एक—एक खतरा लेने जैसा है! और मैं जो संन्यास तुम्हें दे रहा हूं वह इस जगत में सबसे बड़ा खतरा है। बाहर— भीतर एक साथ जीना सबसे बड़ा खतरा है। बाहर— भीतर जीना तुम्हारी बुद्धि के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। मगर उसी चुनौती से तो तुम्हारे प्राणों पर धार आएगी, तुम्हारी आत्मा में चमक आएगी। सदियों—सदियों की जमी हुई जंग उसी चुनौती से गिर सकती है, और कोई उपाय नहीं है।

मैं तुम्हें एक कंटकाकीर्ण मार्ग पर आमंत्रित कर रहा हूं। एक दूर की यात्रा पर ले चलने का मेरा आह्वान है। शिखर चढ़ने हैं! गौरीशंकर को छूना है! मुश्किलें तो होंगी, लेकिन हर मुश्किल को सीढ़ी बना लेना है। और उसकी कला तुम्हें सिखा रहा हूं।

जैसे—जैसे तुम्हारा ध्यान गहरा होगा वैसे—वैसे तुम पाओगे बाहर और भीतर दोनों तरफ जीने का मजा आने लगा; बाहर— भीतर दोनों समान हो गए; तुम तीसरे हो गए; तुम दोनों से मुक्त हो गए, दोनों से अतिक्रमित हो गया तुम्हारा व्यक्तित्व, अतिक्रमण हो गया; तुम दोनों के पार हो गए। तुम देखोगे अपने को कभी बाहर के अभिनय के जगत में और कभी देखोगे भीतर की परम शांति में, मगर तुम जानोगे न तो मैं बाहर हूं न मैं भीतर हूं; मैं दोनों हूं और दोनों के पार भी।

तीसरा प्रश्न:

ओशो, साक्षीभाव और लीनता परस्‍पर—विरोधी दिखाई देती है। क्‍या वे सचमुच विरोधी है?

 

गदीश दवे, वे बस विरोधी दिखाई देते हैं— विरोधी नहीं हैं, उलटे सहयोगी हैं, परिपूरक हैं। हां, अगर तुम दोनों को साथ—साथ साधोगे तो शायद तुम्हें अड़चन अनुभव होगी। तुम एक को साधो और दूसरा अपने से आ जाएगा।

ऐसा समझो कि पहाड़ की चोटी पर जाने के लिए बहुत से रास्ते हैं। वे विरोधी नहीं हैं, क्योंकि वे सभी एक ही चोटी पर पहुंचा देते हैं, इसलिए सहयोगी हैं। मगर तुम दो रास्तों पर एक साथ चलने की कोशिश मत करना, अन्यथा तुम चोटी पर कभी न पहुंच सकोगे। दो कदम भाग कर इस पर चलोगे, फिर भाग कर दो कदम दूसरे रास्ते पर चलोगे, फिर लौट कर इस पर चलोगे, फिर लौट कर उस पर चलोगे।

यह बार—बार लौटना तुम्हें वहीं का वहीं रखेगा, तुम पहुंच ही न पाओगे। मंजिल तो बहुत दूर, रास्ते का क ख ग भी पूरा नहीं हो पाएगा। वहीं के वहीं अटके रहोगे।

इसलिए मेरा कहना है, एक में से कोई भी चुन लो। अगर साक्षीभाव को चुनोगे तो एक दिन तुम पाओगे जैसे—जैसे साक्षी सघन होगा वैसे—वैसे तल्लीनता आने लगी। तल्लीनता साक्षीभाव की सुगंध की तरह आएगी। और बड़ी अदभुत अवस्था है तब— साक्षी भी और तल्लीन भी! जैसे कमल में जल, जल में कमल! डूबा भी है और नहीं भी डूबा है। पानी में है और पानी छूता नहीं।

सुबह—सुबह तुमने कमल के पत्तों पर जमी ओस की बूंदें देखीं, कैसी मोती सी चमकती हैं! मगर पत्ते को नहीं छूती। पत्ते पर हैं— और नहीं भी, और पत्ता जल पर है— और नहीं भी। कमल में जल हो या जल में कमल हो, अस्पर्शित रहते हैं। ऐसा ही साक्षीभाव में लीनता भी आ जाती है और फिर भी तुम साक्षी बने रहते हो।

मगर यह हुई अनुभव की बात, इसे मैं तुम्हें समझा न सकूंगा। समझने की कोशिश करोगे तो विरोधाभासी मालूम पड़ेगी; तुम कहोगे, एक कुछ हो सकता है। और मैं तुम्हारी बात समझा। साक्षीभाव साधोगे तो लगेगा तल्लीनता कैसे होगी? तल्लीनता का तो अर्थ है डूब जाओ, बिलकुल भूल जाओ अपने को। और साक्षीभाव का अर्थ है स्मरण रखो अपना, बोध रखो अपना; जरा भी भूलो मत, एक क्षण को विस्मरण न करो, आत्म—बोध बना रहे, सम्यक स्मृति बनी रहे, सुरति बनी रहे।

साक्षीभाव ध्यानी का मार्ग है— महावीर का, बुद्ध का, लाओत्सु का। साक्षी का मार्ग झेन मार्ग का सार—सूत्र है। लेकिन तल्लीनता आती है, गहन तल्लीनता आती है। मगर तल्लीनता आती है अंत में। रास्ता जब पूरा हो जाता है, तुम साक्षी में थिर हो जाते हो, तब अचानक तुम पाते हो अरे यह कैसी सुवास उठने लगी तल्लीनता की!

या तल्लीनता साधो। वह प्रेमी का मार्ग है, भक्त का मार्ग है—मीरा का, चैतन्य का, रैदास का। डूबो! और डूबोगे शुरू—शुरू में तो कई बार खयाल आएगा कि फिर क्या होगा, साक्षी का क्या होगा? घबड़ाना मत! डूबते जाना, डूबते जाना— जिस दिन बिलकुल डूब जाओगे, मैं— भाव नहीं बचेगा, उसी क्षण साक्षी उभर आएगा। मगर वह सुगंध की तरह आएगा तब।

यह कैसे संभव हो पाता है? यह अदभुत, यह विरोधाभास कैसे संभव हो पाता है? इसके संभव होने का गणित मैं तुमसे कहूं। अभी तो सिर्फ तुमसे कहूंगा, तुम सुनोगे, लेकिन किसी दिन जब अनुभव होगा तब पूरी बात समझ में आ जाएगी। इसके पीछे गणित है— गणित सीधा है, साफ है, छोटा है। गणित है, मैं— भाव का खो जाना। साक्षी में भी मैं— भाव खो जाता है और तल्लीनता में भी मैं— भाव खो जाता है। अलग—अलग प्रक्रियाओं से खोता है, लेकिन दोनों हालत में मैं— भाव खो जाता है, अहंकार खो जाता है। और वही बाधा है।

जैसे—जैसे तुम साक्षी बनोगे, तुम चकित हो जाओगे जब साक्षी बनना शुरू हुए थे तो ऐसा लगता था, मैं साक्षी हूं! और जैसे—जैसे साक्षी घना होगा वैसे—वैसे लगेगा, मैं तो पिघलने लगा, बहने लगा, उड़ने लगा, वाष्पीभूत होने लगा! जब साक्षीभाव पूरा होगा, तुम अचानक पाओगे साक्षी तो है, मैं कोई भी नहीं। भीतर बोध तो है, लेकिन मैं का कोई भाव नहीं। इसलिए तल्लीनता आ जाएगी। जब मैं ही न

बचा तो अब अतल्लीन कैसे रहोगे? जब मैं ही न बचा तो अब बिना डूबे कैसे बचोगे? मैं ही तो था जो रोक रहा था, जो दीवाल बना था। दीवाल ही गिर गई तो आकाश मिल गया। आंगन टूट गया, दीवाल गिर गई, आंगन आकाश हो गया। यही तल्लीनता है!

और अगर तल्लीनता से शुरू करोगे तो पहले ऐसा लगेगा, मैं तल्लीन हो रहा हूं। अहा, कैसी तल्लीनता में उतर रहा हूं मैं! शुरू—शुरू में लगेगा मैं तल्लीन हो रहा हूं लेकिन जब तक मैं है, क्या खाक तल्लीन हो रहे हो! भुला रहे हो अपने को, समझा रहे हो अपने को। लेकिन मैं लौट—लौट आएगा। धीरे— धीरे जैसे तल्लीनता बढ़ेगी, मैं पिघलेगा। फिर तल्लीनता रह जाएगी। डूबे तो रहोगे, लेकिन कोई बचेगा नहीं जो डूबा है। मैं— भाव गया। और जहां मैं— भाव गया वहां साक्षी पैदा हो जाता है, साक्षी बच नहीं सकता।

इसलिए जगदीश दवे, दो में से कोई एक चुन कर चल पड़ो। और खयाल रखो, यह प्रश्न बौद्धिक नहीं है, यह प्रश्न अस्तित्वगत है। अनुभव से ही राज खुलेगा, अनुभव से ही खुलता रहा है। कितना ही कहो, कितना ही समझाओ, कहने और समझाने की बातें नहीं हैं। दो में से कोई एक चुन लो, जो प्रीतिकर लगे। अपने को पहचानो थोड़ा; अपने लगाव, अपने रुझान परखों थोड़ा। और जो प्रीतिकर लगे…। अगर तुम्हें साक्षीभाव में मजा आता हो तो ठीक, अगर तुम्हें तल्लीनता में मजा आता हो तो ठीक। साक्षीभाव है बुद्ध, महावीर, लाओत्सु का मार्ग, झेन का मार्ग, ध्यान का मार्ग।

‘झेन’ शब्द ध्यान से ही आया है। बुद्ध तो संस्कृत नहीं बोलते थे, इसलिए ‘ ध्यान ‘ शब्द का उन्होंने उपयोग नहीं किया। वे तो बोलते थे पाली। पाली में ध्यान नहीं है, ध्यान की जगह शब्द है ‘ झान।’ चूकि बुद्ध पाली बोलते थे और ध्यान को झान कहते थे, इसलिए जब बौद्ध भिक्षु चीन पहुंचे तो वे झान शब्द को ले गए। चीन में झान शब्द लिखा नहीं जा सकता था, ठीक झान। झ लिखने का चीनी में कोई उपाय नहीं। पहले तो चीनी में कोई वर्णमाला नहीं होती, चित्र होते हैं। और झ जैसा कोई शब्द नहीं है। जैसे अंग्रेजी में बहुत से शब्द नहीं हैं—जैसे ध अंग्रेजी में नहीं है। हमारी भाषा में बावन वर्ण हैं, अंग्रेजी में छब्बीस हैं, आधे से काम चलता है।

चीन में झ लिखना संभव नहीं था, इसलिए जो शब्द लिखा गया— जो करीब से करीब आ सकता था झान के— वह था ‘ चान।’ इसलिए चीन में बुद्ध का ध्यान चान कहा जाता है।

फिर चीन से बात जापान पहुंची। और जापानी बौद्ध साधक, जो चीन से ले गए इस महत्वपूर्ण मार्ग को, वे बड़ी झंझट में थे कि क्या करें— झान कहें कि चान? उनकी एक अड़चन और थी कि उनकी भाषा में झान लिखा जाए तो वह झेन जैसा पढ़ा जाएगा। इसलिए जापान में जाकर वह झेन हो गया। मगर है वह ध्यान का ही रूपांतरण।

तो या तो झेन का मार्ग है— ध्यान का मार्ग। वहां साक्षी होना ही एकमात्र उपाय है। तल्लीनता आती है।

एक झेन फकीर के संबंध में यह कहानी है कि जब वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ तो एक शराब की बोतल बगल में दबा कर बाजार में पहुंच गया। झेन फकीर जो न करें सो थोड़ा! और इसीलिए मेरा उनसे खूब लगाव है। उनसे मेरी पटती है, उनसे मेरी जमती है। क्या प्यारा आदमी रहा होगा! बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ, दबाई एक शराब की बोतल, पहुंच गया बाजार में।

लोगों ने पूछा? आप और शराब की बोतल! आप बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, शराब की बोतल आपको शोभा नहीं देती।

उस फकीर ने कहा यह खबर देने के लिए अब यह बोतल मुझे सदा साथ रखनी होगी। यह पीने के लिए नहीं है, यह इस बात की खबर देने के लिए है कि जब कोई परिपूर्ण साक्षी हो जाता है तो वैसी ही मस्ती आ जाती है जैसी शराब पीने से। यह बोतल मैं अब सदा साथ रखूंगा, ताकि तुम्हें पता रहे। साक्षी से चला था और तल्लीनता पर पहुंच गया— ऐसी तल्लीनता जैसी केवल शराब में आती है, तुम्हारे अनुभव में तो सिर्फ शराब में ही आती है। चला तो था साक्षी होने और लौटा हूं पियक्कड़ होकर। सोचा तो था कि मंदिर में जा रहा हूं पहुंच गया मधुशाला!

इसकी बात प्यारी है। जिंदगी भर वह बोतल अपने साथ ही रखे रहा। हो सकता है बोतल में सिर्फ पानी ही हो। मगर झेन फकीर के हाथ में पानी भी शराब हो जाता है।

जीसस के संबंध में तो प्यारी कहानी है कि जब वे समुद्र के तट पर गए तो उन्होंने सारे समुद्र को शराब में बदल दिया। ईसाई इसको नहीं समझा पाते। पंडित—पुरोहितों से ज्यादा मूढ़ इस दुनिया में कोई भी नहीं, क्योंकि अनुभव तो उनका कुछ है नहीं। जीसस ने तो और गजब कर दिया— अब क्या खाक बोतल लेकर चलना, पूरे समुद्र को ही शराब में बदल दिया!

जो व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो जाएगा, उसके लिए सारा अस्तित्व मदमस्त हो जाता है, सारा अस्तित्व शराब बन जाता है।

एक ईसाई पादरी मुझसे बात कर रहे थे। मैंने कहा, आप इसको कैसे समझाते हैं?

उन्होंने नीचे नजरें झुका लीं। उन्होंने कहा कि मुझे बड़ी अड़चन होती है जब भी कोई ऐसे सवाल पूछता है। बात तो ठीक नहीं है। शराब कोई चीज तो अच्छी नहीं है। जीसस ने क्यों सारे सागर को शराब में बदल दिया!

मैंने उनसे कहा कि आपको पता है, इंग्लैंड के स्कूल में परीक्षा हो रही थी— बाइबिल की क्लास की परीक्षा। और शिक्षक ने यह सवाल पूछा कि लिखो सब निबंध कि जीसस जब सागर के तट पर गए तो उन्होंने सारे सागर को शराब में बदल दिया।

एक बच्चे ने तो मिनट में उत्तर लिखा और खड़ा हो गया कि यह मेरा उत्तर पूरा हो गया। शिक्षक ने कहा इतने जल्दी! यह इतना कठिन सवाल है कि बड़े—बड़े पंडित और बड़े—बड़े शास्त्रज्ञ सदियों से सिर मारते रहे हैं और इसका हल नहीं कर पाए। देखूं तेरा उत्तर!

लेकिन उसे पता नहीं था वह बच्चा कौन है; भविष्य उसका क्या था, उसे पता नहीं था। उस बच्चे ने एक छोटा सा, एक वाक्य लिखा था। उसने एक छोटा सा वाक्य लिखा था. दि सी सा हर मास्टर एंड ब्लश्ड! सागर ने अपने मालिक को देखा, अपने प्यारे को देखा और शरमा गया! इसलिए लाली छा गई। शराब—वराब नहीं। इसी बात को कहने के लिए यह कहानी गढ़ी गई। वह बच्चा बाद में बायरन बना— इंग्लैंड का महाकवि! लक्षण दे दिया उसने काव्य का वहीं। बड़े—बड़े पंडित जो व्याख्या नहीं कर सके थे, उसने एक वाक्य में व्याख्या कर दी।

अंग्रेजी में सागर स्त्रैण है, इसलिए और बात जमी कि सागर ने अपने मालिक को देखा, अपने प्रेमी को—जैसे प्रेयसी और शरमा जाए और सिर झुका ले और उसके चेहरे पर लाली दौड़ जाए अपने प्रेमी को देख कर! और जितनी लंबी प्रतीक्षा रही हो, उतनी ही लाली दौड़ जाए। सदियों—सदियों में जीसस जैसा मालिक पृथ्वी पर चलता है! एक वाक्य में व्याख्या हो गई।

मेरा भी कहना यही है। सागर को कोई शराब में नहीं बदल दिया जीसस ने, लेकिन सारा अस्तित्व शराबमय हो गया, अलमस्ती छा गई।

साक्षी से चलोगे तो अलमस्ती छा जाएगी एक दिन। हवा की लहर—लहर में शराब! सूरज की किरण—किरण में शराब! फूल के रंग—रंग में शराब! और अगर तुम्हें प्रीतिकर लगता हो तल्लीनता का मार्ग—मीरा का, कबीर का, रैदास का—लगता हो प्रीतिकर कि डूबूं, तल्लीन हो जाऊं, नाचूं और गाऊं और खो दूं अपने को! अगर तुम्हें सूफियों और बाउलों का मार्ग अच्छा लगता हो…

वह पागलों का मार्ग है, इसलिए बाउल नाम चल पड़ा। बंगाल में जो प्रेमी भक्त हुए हैं, उनका नाम बाउल है। बाउल यानी बावला, पागल। ऐसे मस्त थे— नाचते हुए, गाते हुए! कुछ खास उनके पास नहीं— इकतारा और डुग्गी! बस इतना काफी है। न मंदिर की जरूरत, न मूर्ति की, न पूजा की। इकतारा बजेगा और डुग्गी पिटेगी और बाउल नाचेगा! और उसका नृत्य ही उसका ध्यान है। नृत्य ही उसकी अर्चना, पूजा। मन ही पूजा मन ही धूप! उसके भीतर ही सब घटित हो रहा है। तल्लीनता का मार्ग चुन लो, एक दिन साक्षी हो जाओगे।

मगर दोनों मार्ग एक साथ चलने की चेष्टा मत करना, उसमें विभाजन होगा, अड़चन होगी। और उसमें शायद कहीं भी न पहुंच पाओ, और बड़ी बिगचन में, विडंबना में उलझ जाओ।

आखरी प्रश्न :

 

ओशो, आपका मूल संदेश?

हजानंद, छोटा है मेरा संदेश, बड़ा भी बहुत! आणविक है मेरा संदेश, मगर अणु—विस्फोट भी उससे हो सकता है।

शबाब आ रहा है, शबाब आ रहा है

दहकता हुआ आफताब आ रहा है

हैं अठखेलियों पर चमन की हवाएं

नए सिरे से फिर इंकलाब आ रहा है

यह सूरज है मशरिक में या मैकदे में

कोई ले के जामे—शराब आ रहा है

यह कौसे—कुजह है कि बज्ये—फलक से

मुगन्नी उठाए रबाब आ रहा है

कंवल खिल रहा है कि हौजे—चमन से

उभरता हुआ आफताब आ रहा है

शराब लेकर आया हूं तुम्हारे लिए! एक गीत लेकर आया हूं तुम्हारे लिए! पीओ और गाओ! तुम्हें शराब में डुबोने, तुम्हें गीतों में भिगोने!…… तुम्हें कोई उपदेश देने में मेरी उत्सुकता नहीं है। मैं कोई उपदेशक नहीं हूं— एक दीवाना हूं। मेरे साथ जुडो तो तुम भी दीवाने हो जाओ। उपदेशकों से तो तुम्हें बचाना चाहता हूं; उन्होंने ही तुम्हें विकृत किया है।

आपकी जिद ने मुझे और पिलाई हजरत

शेखजी इतनी नसीहत भी बुरी होती है

वे समझाते रहे उपदेशक— ऐसा न करो, वैसा न करो। और जो—जो वे समझाते रहे, वही—वही लोग और—और करते रहे। क्योंकि जितना कहा जाए मत करो, उतना ही लगता है कि कुछ बात करने योग्य जरूर होगी। निषेध में निमंत्रण है। इसलिए मैं तुमसे नहीं कहता—यह न करो, वह न करो। मैं तो कहता हूं तुम जैसे हो, मुझे स्वीकार है। अगर परमात्मा को तुम स्वीकार हो तो मुझे क्यों तुम अस्वीकार होओगे! तुम जैसे हो मुझे स्वीकार हो। तुम जैसे हो वैसे ही कहता हूं : आओ और डूबो! मैं तो उपदेशकों को भी कहता हूं कि तुम भी आओ और डूबो!

पी लोगे तो ऐ शेख जरा गर्म रहोगे

ठंडा ही न कर दें कहीं जन्नत की हवाएं

इतना ही छोटा सा मेरा संदेश है। जरा पीने का अंदाज सीखो— प्रेम को पीओ, ध्यान को पीओ परमात्मा को पीओ! और परमात्मा बेशर्त उपलब्ध है। कोई शर्त नहीं है कि पहले तुम इतनी पात्रता अर्जित करो, तब परमात्मा उपलब्ध होगा। तुम हो, जीवित हो— बस इतनी पात्रता काफी है। सिर्फ जीवित हो जाओ, यह मेरा संदेश है। क्योंकि तुम में बहुत हैं, जो मुर्दा हैं, जो काफी समय पहले मर चुके हैं, अब मरे—मरे चल रहे हैं। उनमें फिर से पुन: जीवन की झनकार जगाना चाहता हूं। उनमें एक इंकलाब लाना चाहता हूं एक अंतर—क्रांति— कि उनके भीतर पुन: यह होश आए कि जीवन एक परम अवसर है। परम क्योंकि इसमें परमात्मा पाया जा सकता है। न जाओ काबा, न काशी।

 

मन ही पूजा मन ही धूप!

 

आज इतना ही।

(समाप्ति)


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–177

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एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि—(प्रवचन—पांचवां)

अध्‍याय—15

सूत्र—

यदादित्यगतं तेजो जगद्यासयतेऽखिलम्।

यच्‍चन्द्रमलि यचाग्नौ तत्तेजो विद्धि मांक्कम्।। 12।।

गामांविश्य च भूतानि धारयाथ्यमोजसा।

पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।। 13।।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमांश्रित:।

प्राणायानसमांयुक्त: पचाम्यन्‍नं चतुर्विधम्।। 14।।

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत: स्मृतिज्ञनिमयहेनं च।

वेदैश्च सवैंरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदीवदेव चाहम्।। 15।।

 और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थ्ति हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थ्ति है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान।

और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्‍ति से सब भतों को धारण करता हूं और रस—स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अश्निरूप होकर प्राण और अपान मे स्थ्ति हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं।

और मैं ही सब प्राणियों के ह्रदय में अंतर्यामीरूय से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय—विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न :

 

कल आपने रासपुतिन की जो घटना कही, वह विस्मयजनक है। हमने तो अब तक यही सुना था कि शक्ति जब जागती है—उसे चाहे कुंडलिनी कहें या त्रिनेत्र—तो उसकी अग्नि में मनष्य के सभी मैल, सभी कलुष जल जाते हैं, और वह शुद्ध और पवित्र हो जाता है!

 

स संबंध में कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं।

एक, शक्ति स्वयं में निष्पक्ष और निरपेक्ष है। शक्ति न तो शुभ है और न अशुभ। उसका शुभ उपयोग हो सकता है; अशुभ उपयोग हो सकता है।

दीए से अंधेरे में रोशनी भी हो सकती है, और किसी के घर में आग भी लगाई जा सकती है। जहर से हम किसी के प्राय भी ले सकते हैं, और किसी मरणासन्न व्यक्ति के लिए जहर औषधि भी बन सकता है।

शक्ति सभी— भौतिक या अभौतिक—निष्पक्ष और निरपेक्ष है। क्या उपयोग करते हैं, इस पर परिणाम निर्भर होंगे।

शुद्ध अंतःकरण न हुआ हो, तो भी शक्ति उपलब्ध हो सकती है। क्योंकि शक्ति की कोई शर्त भी नहीं कि शुद्ध अंतःकरण हो, तो ही उपलब्ध होगी। अशुद्ध अंतःकरण को भी उपलब्ध हो सकती है। और अक्सर तो ऐसा होता है कि अशुद्ध अंतःकरण शक्ति को पहले उपलब्ध कर लेता है। क्योंकि शक्ति की आकांक्षा भी अशुद्धि की ही आकांक्षा है।

शुद्ध अंतःकरण शक्ति की आकांक्षा नहीं करता, शांति की आकांक्षा करता है। अशुद्ध अंतःकरण शक्ति की आकांक्षा करता है, शांति की नहीं। शुद्ध अंतःकरण को शक्ति मिलती है, वह प्रसाद है, वह परमात्मा की कृपा है, अनुकंपा है। वह उसने मांगा नहीं है, वह उसने चाहा भी नहीं है। वह उसने खोजा भी नहीं है। वह उसे सहज मिला है।

अशुद्ध अंतःकरण को शक्ति मिलती है, वह उसकी वासना की मांग है। वह प्रभु का प्रसाद नहीं है। वह उसने चाहा है, यत्न किया है, और उसे पा लिया है। शक्ति की चाह ही हमारे भीतर इसलिए पैदा होती है कि हम कुछ करना चाहते हैं। शक्ति के बिना न कर सकेंगे।

शुद्ध अंतःकरण कुछ करना नहीं चाहता। शक्ति की कोई जरूरत भी नहीं है। अशुद्ध अंतःकरण बहुत कुछ करना चाहता है। वासनाओं की पूर्ति करनी है; महत्वाकांक्षाएं भरनी हैं; मन की पागल दौड़ है, उस दौड़ के लिए सहारा चाहिए ईंधन चाहिए। तो शक्ति की मांग होती है।

और शक्ति मिलती है न तो शुद्धि से, न अशुद्धि से। शक्ति मिलती है यत्न, प्रयत्न, साधना से। अगर कोई व्यक्ति अपने चित्त को एकाग्र करे, तो शुभ विचार पर भी एकाग्र कर सकता है, अशुभ विचार पर भी।

इस संबंध में महावीर की अंतर्दृष्टि बडी गहरी है। महावीर ने ध्यान के दो रूप कर दिए हैं। एक को वे धर्म— ध्यान कहते हैं; एक को अधर्म— ध्यान। ऐसा भेद मनुष्य जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया। यह भेद बड़ा कीमती है। हमें तो लगेगा कि सभी ध्यान धार्मिक होते हैं। लेकिन महावीर दो हिस्से करते हैं, अधर्म—ध्यान और धर्म—ध्यान।

तो ध्यान अपने आप में धार्मिक नहीं है। शुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो ही धार्मिक है, अशुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो अधार्मिक है।

आपको भी अनुभव हुआ होगा। धार्मिक ध्यान का तो अनुभव शायद न हुआ हो, लेकिन अधार्मिक ध्यान का आपको भी अनुभव हुआ है।

जब आप क्रोध में होते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। जब कामवासना से भरते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। परमात्मा पर मन को लगाना हो, तो यहां—वहा भटकता है। एक सुंदर स्त्री मन में समां जाए, तो भटकता नहीं है, सुंदर स्त्री में रुक जाता है। परमात्मा की मूर्ति पर ध्यान को लगाएं, तो बडी मेहनत करनी पड़ती है तो भी नहीं रुकता। एक नग्न स्त्री का चित्र सामने रखा हो, तो मन एकदम रुक जाता है; कहीं जाता नहीं। पास शोरगुल भी होता रहे, तो भी मन विचलित नहीं होता।

इसे महावीर अधर्म—ध्यान कहते हैं। यह भी ध्यान तो है ही। क्योंकि ध्यान का तो मतलब है, मन का ठहर जाना। वह कहां ठहरता है, यह सवाल नहीं है।

जब आप क्रोध में होते हैं, तब मन ठहर जाता है। इसलिए आपको अनुभव होगा कि क्रोध में आपकी शक्ति बढ़ जाती है। साधारणत: हो सकता है आपमें इतनी शक्ति न हो, लेकिन जब क्रोध में आप होते हैं, तो अनंत गुना शक्ति हो जाती है। क्रोध की अवस्था में लोगों ने ऐसे पत्थरों को हटा दिया है, जिनको सामान्य अवस्था में वे हिला भी नहीं सकते। क्रोध की अवस्था में अपने से दुगुने ताकतवर आदमियों को लोगों ने पछाड़ दिया है, जिनको साधारण अवस्था में वे देखकर भाग ही खड़े होते।

क्रोध में मन एकाग्र हो जाता है, शक्ति उपलब्ध होती है। वासना के क्षण में मन एकाग्र हो जाता है, शक्ति उपलब्ध होती है। एकाग्रता शक्ति है। कहां एकाग्र कर रहे हैं, यह बात एकाग्रता के लिए आवश्यक नहीं है कि वह शुभ हो या अशुभ हो।

रासपुतिन जैसे व्यक्ति बड़ी एकाग्रता को साधते हैं। लेकिन हृदय अशुद्ध है, तो उस एकाग्रता का अंतिम परिणाम अशुभ होता है। रासपुतिन ने अपनी शक्तिओं का जो उपयोग किया…….।

जार का एक ही लड़का था, रूस के सम्राट का एक ही लड़का था। और सम्राट और सम्राज्ञी दोनों ही उस लड़के के लिए बड़े चिंतातुर थे। वह बचपन से ही बीमांर था, अस्वस्थ था। रासपुतिन की किसी ने खबर दी कि वह शायद ठीक कर दे। रासपुतिन ने उसे ठीक भी कर दिया। रासपुतिन ने उसके सिर पर हाथ रखा और वह बच्चा पहली दफा ठीक स्वस्थ अनुभव हुआ।

लेकिन तब से सम्राट के पूरे परिवार को रासपुतिन का गुलाम हो जाना पड़ा। क्योंकि रासपुतिन दो दिन के लिए कहीं चला जाए, तो वह बच्चा अस्वस्थ हो जाए। रासपुतिन का रोज राजमहल आना जरूरी है। और यह बात थोड़े दिन में साफ हो गई कि रासपुतिन अगर न होगा, तो बच्चा मर जाएगा। इलाज तो कम हुआ, इलाज बीमांरी बन गया! पहले तो कुछ चिकित्सकों का परिणाम भी होता था, अब किसी का भी कोई परिणाम न रहा। अब रासपुतिन की मौजूदगी नियमित चाहिए।

और उस लड़के के आधार पर रासपुतिन जितना शोषण कर सकता था जार का और ज़ारीना का, उसने किया। उसने जो चाहा, वह करवाया। मुल्क का प्रधानमंत्री भी नियुक्त करना हो, तो रासपुतिन जिसको इशारा करे, वह प्रधानमंत्री हो जाए। क्योंकि वह लड़के की जान उसके हाथ में हो गई। जिस व्यक्ति ने चित्त को बहुत एकाग्र किया हो, यह बड़ा आसान है। वह बच्चा सम्मोहित हो गया। वह बच्चा हिम्मोटाइब्द हो गया। अब यह सम्मोहित अवस्था उस बच्चे की, शोषण का आधार बन गई।

जीसस ने भी लोगों को स्वस्थ किया है। जीसस ने भी लोगों के सिर पर हाथ रखकर उनकी बीमांरियां अलग कर दी हैं। रासपुतिन के पास भी ताकत वही है, जो जीसस के पास है। रासपुतिन भी बीमांरी दूर कर सकता है। लेकिन रासपुतिन बीमांरी को रोक भी सकता है, जीसस वह न कर सकेंगे। रासपुतिन बीमांरी का शोषण भी कर सकता है, जीसस वह न कर सकेंगे।

हृदय शुद्ध हो, तो वही शक्ति सिर्फ चिकित्सा बनेगी। हृदय अशुद्ध हो, तो वही शक्ति शोषण भी बन सकती है।

कठिनाई हमें समझने में यह होती है कि अशुद्ध हृदय एकाग्र कैसे हो सकता है! कोई अड़चन नहीं है। एकाग्रता तो एक कला है; मन को एक जगह रोकने की कला है। इसलिए अगर दुनिया में बुरे लोगों के पास भी शक्ति होती है, तो उसका कारण यही है कि उनके पास भी एकाग्रता होती है।

हिटलर के पास बड़ी एकाग्रता है। जर्मन जैसी बुद्धिमान जाति को इतने बड़े पागलपन में उतार देना सामान्य व्यक्ति की क्षमता नहीं है। हिटलर ने जो भी कहा, वह जर्मन जाति ने स्वीकार कर लिया। उसकी आंखों में जादू था। उसके कहने में बल था। उसके खड़े होते से सम्मोहन पैदा हो जाता।

जर्मनी की पराजय के बाद जिन लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय अदालत में वक्तव्य दिए—उसमें बड़े बुद्धिमान लोग थे, प्रोफेसर थे, युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे—उन्होंने यही कहा कि हम अब सोच भी नहीं पाते कि हमने यह सब कैसे किया! जैसे कोई शक्ति हमसे करवा रही थी।

दुनिया में बुरे आदमी के पास भी ताकत होती है, भले आदमी के पास भी ताकत होती है। ताकत एक ही है। बुरे आदमी के पास हृदय का यंत्र बुरा है। वही ताकत उसके बुरे यंत्र को चलाती है।

यह बिजली दौड़ रही है। इससे बिजली भी चल रही है, पंखा भी चल रहा है। पंखा खराब हो, बिजली वही दौड़ती रहेगी, लेकिन पंखे में खड़—खड़ शुरू हो जाएगी। पंखा बहुत खराब हो, तो टूटकर गिर भी सकता है, और किसी के प्राण भी ले सकता है। कसूर बिजली का नहीं है।

मनुष्य तो एक यंत्र है। शक्ति तो सभी परमात्मा की है, चाहे बुरे आदमी में हो, चाहे भले आदमी में हो। शक्ति का स्रोत तो एक ही है। राम में भी वही स्रोत है, रावण में भी वही स्रोत है। रावण के लिए कोई अलग मांर्ग नहीं है शक्ति को पाने का। उसी महास्रोत से रावण भी शक्ति पाता है, जिस महास्रोत से राम शक्ति पाते हैं।

शक्ति के स्रोत में कोई भी फर्क नहीं है, लेकिन दोनों के हृदय में फर्क है। एक के पास शुद्ध हृदय है, एक के पास अशुद्ध हृदय है। उस अशुद्ध हृदय में से शक्ति विनाशक हो जाती है। शुद्ध हृदय से शक्ति निर्मात्री, सृजनात्मक हो जाती है। शुद्ध से जीवन बहने लगता है, अशुद्ध से मृत्यु बहने लगती है। शुद्ध से प्रकाश बन जाता है, अशुद्ध से अंधकार बन जाता है।

लेकिन शक्ति का स्रोत एक है। दो स्रोत हो भी नहीं सकते, दो स्रोत का कोई उपाय भी नहीं है। कितना ही बुरा आदमी हो, परमात्मा उसके भीतर वही है।

इसलिए जो सदगुरु वस्तुत: सैकड़ों लोगों पर साधना के प्रयोग किए हैं, करवाए हैं, उन्होंने अनिवार्यरूप से कुछ व्यवस्था की है जिससे कि अंतःकरण शुद्ध हो। या तो साधना के साथ शुद्ध हो या साधना के पूर्व शुद्ध हो; शक्ति की घटना घटने के पहले अंतःकरण शुद्ध हो जाए। अन्यथा हित की जगह अहित की संभावना है।

आप सोचें, अगर आपको अभी शक्ति मिल जाए, तो आप क्या करेंगे? अगर आपको एक शक्ति मिल जाए कि आप चाहें तो किसी को जीवन दे सकें और चाहे तो किसी को मृत्यु दे सकें, तो आपके मन में सब से पहले क्या खयाल उठेगा?

शायद यह आपके मन में खयाल उठे कि मित्र को मैं शाश्वत बना दूं। लेकिन शत्रु को नष्ट कर दूं यह खयाल पहले उठेगा। वह जो अंतःकरण भीतर है, जैसा है, वैसे ही खयाल देगा।

अगर आपको यह शक्ति मिल जाए कि आप अदृश्य हो सकते हैं, तो आपको यह खयाल शायद ही आए कि अदृश्य होकर जाऊं और लोगों के पैर दबाऊं, सेवा करूं। मैं नहीं सोचता कि यह खयाल भी आ सकता है। अदृश्य होने का खयाल आते ही से, किसकी पत्नी को आप ले भागें, किसकी तिजोरी खोल लें, जहा कल तक आप प्रवेश नहीं कर सकते थे, वहां कैसे प्रवेश कर जाएं, वही खयाल आएगा।

सोचने भर से कि आपको अगर अदृश्य होने की शक्ति मिल जाए, तो आप क्या करेंगे? एक कागज पर आप बैठकर आज ही रात लिखना, तो आपको खयाल में आ जाएगा कि. अभी शक्ति मिल नहीं गई है, सिर्फ खयाल है, लेकिन मन सपने संजोना शुरू कर देगा कि क्या करना है।

और शक्ति अशुद्ध को भी मिल सकती है। इसलिए शक्ति के स्रोत छिपाकर रखे गए हैं। सीक्रेसी, योग, तंत्र और धर्म के आस—पास इतनी गुप्तता का कुल कारण यही है। क्योंकि शक्ति का स्रोत गलत आदमी को भी मिल सकता है; खतरनाक आदमी को भी मिल सकता है। और जब भी कोई वितान—कोई भी विज्ञान, चाहे आंतरिक, चाहे बाह्य—ऊंचाइयों पर पहुंचता है, तो खतरे शुरू हो जाते हैं।

अभी पश्चिम में विचार चलता है कि विज्ञान की जो नई खोजें हैं, वे गुप्त रखी जाएं, अब उनको प्रकट न किया जाए। क्योंकि विज्ञान की नई खोजें अब खतरे की सीमां पर पहुंच गई हैं। वे बुरे आदमी के हाथ में पड़ सकती हैं। पड़ ही रही हैं; क्योंकि राजनीतिज्ञ के हाथ में पड़ जाती है सारी खोज।

आइंस्टीन, जिसने हाथ बंटाया अणु शक्ति के निर्माण में, उसने कभी सोचा भी नहीं था कि हिरोशिमां और नागासाकी में एक—एक लाख लोग जलकर राख हो जाएंगे मेरी खोज से।

आइंस्टीन से मरने के पहले किसी ने पूछा कि तुम अगर दुबारा जन्म लो तो क्या करोगे? तो उसने कहा, मैं एक प्लंबर होना पसंद करूंगा बजाय एक वैज्ञानिक होने के। क्योंकि वैज्ञानिक होकर देख लिया कि मेरे मांध्यम से, मेरे बिना जाने, मेरी बिना आकांक्षा के, मेरे विरोध में, मेरे ही हाथों से जो काम हुआ, उसके लिए मैं रोता हूं।

क्योंकि शक्ति तो खोजता है वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ के हाथ में पहुंच जाती है। और राजनीतिज्ञ शुद्ध रूप से अशुद्ध आदमी है। वह पूरा अशुद्ध आदमी है। क्योंकि उसकी दौड़ ही शक्ति की है। उसकी चेष्टा ही महत्वाकांक्षा की है। दूसरों पर कैसे हावी हो जाए! तो आइंस्टीन ने अपने अंतिम पत्रों में अपने मित्रों को लिखा है कि भविष्य में अब हमें सचेत हो जाना चाहिए। और हम जो खोजें, वह गुप्त रहे।

यह खयाल पश्चिम को अब आ रहा है। लेकिन हिंदुओं को यह खयाल आज से तीन हजार साल पहले आ गया।

पश्चिम में बहुत लोग विचार करते हैं कि हिंदुओं ने, जिन्होंने इतनी गहरी चितना की, उन्होंने विज्ञान की बहुत—सी बातें क्यों न खोजी!

चीन को आज से तीन हजार साल पहले यह खयाल आ गया कि विज्ञान खतरनाक है। चीन में सबसे पहले बारूद खोजी गई। लेकिन चीन ने बम नहीं बनाए; फुलझड़ी—फटाके बनाए। बारूद वही है, लेकिन चीन ने फुलझड़ी—फटाके बनाकर बच्चों का खेल किया, इससे ज्यादा उनका उपयोग नहीं किया।

यह तो बिलकुल साफ है कि जो फुलझड़ी—फटाके बना सकता है, उसको साफ है कि इससे आदमी की हत्या की जा सकती है। क्योंकि कभी—कभी तो फुलझड़ी—फटाके से हत्या हो जाती हैं। हर साल दीवाली पर न मालूम कितने बच्चे इस मुल्क में मरते हैं; अपंग हो जाते हैं; आंख फूट जाती है, हाथ जल जाते हैं।

तो तीन हजार साल पहले चीन को फटाके बनाने की कला आ गई। बम बड़ा फटाका है। लेकिन चीन ने उस कला को उस तरफ जाने ही नहीं दिया, उसको खेल बा दिया। जैसे ही यूरोप में बारूद पहुंची कि उन्होंने तत्काल बम बना लिया। बारूद की ईजाद पूरब में हुई और बम बना पश्चिम में।

हिंदुओं को, चीनिओं को तीन हजार साल पहले बहुत—से विज्ञान के सूत्रों का खयाल हो गया। और उन्होंने वे बिलकुल गुप्त कर दिए। वे सूत्र नहीं उपयोग करने हैं।

न केवल विज्ञान के संबंध में, बल्कि धर्म के संबंध में भी हिंदुओं को, तिब्बतिओं को, चीनिओं को, पूरे पूरब को कुछ गहन सूत्र हाथ में आ गए। और यह बात भी साफ हो गई कि ये सूत्र गलत आदमी के हाथ में जाएंगे, तो खतरा है। तो उन सूत्रों को अत्यंत गुप्त कर दिया। जब गुरु समझेगा शिष्य को इस योग्य, तब वह उसके कान में दे देगा। सीक्रेसी, अत्यंत गुप्तता और गुह्यता है। और वह तब ही देगा, जब वह समझेगा कि शिष्य इस योग्य हुआ कि शक्ति का दुरुपयोग न होगा।

इसलिए जो भी महत्वपूर्ण है, वह शास्त्रों में नहीं लिखा हुआ है। शास्त्रों में तो सिर्फ अधूरी बातें लिखी हुई हैं। कोई भी गलत आदमी शास्त्र के मांध्यम से कुछ भी नहीं कर सकता। शास्त्र में मूल बिंदु छोड़ दिए गए हैं। जैसे सब बता दिया गया है, लेकिन चाबी शास्त्र में नहीं है। महल का पूरा वर्णन है। भीतर के एक—एक कक्ष का वर्णन है। लेकिन ताला कहा लगा है, इसकी किसी शास्त्र में कोई चर्चा नहीं है। और चाबी का तो कोई हिसाब शास्त्र में नहीं है। चाबी तो हमेशा व्यक्तिगत हाथों से गुरु शिष्य को देगा।

जिसको हम मंत्र कहते रहे हैं और दीक्षा कहते रहे हैं, वह गुप्तता में, जो जानता है उसके द्वारा उसको चाबी दिए जाने की कला है, जिससे खतरा नहीं है, जो दुरुपयोग नहीं करेगा; और चाबी को सम्हालकर रखेगा, जब तक कि योग्य आदमी न मिल जाए। और अगर योग्य आदमी न मिले, तो हिंदुओं ने तय किया कि चाबी को खो जाने देना, हर्जा नहीं है। जब भी योग्य आदमी होंगे, चाबी फिर खोजी जा सकती है। लेकिन गलत आदमी के हाथ में चाबी मत देना। वह बड़ा खतरा है। और एक बार गलत आदमी के हाथ में चाबी चली जाए तो अच्छे आदमी के पैदा होने का उपाय ही समाप्त हो जाता है।

तो ज्ञान चाहे खो जाए लेकिन गलत को मत देना। यह जो हिंदुओं ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की व्यवस्था की, उस व्यवस्था में यह सारा का सारा खयाल था। ब्राह्मण के अतिरिक्त चाबी किसी को न दी जाए।

शूद्र के हाथ तक तो पहुंचने न दी जाए। शूद्र से कोई मतलब उस आदमी का नहीं, जो शूद्र घर में जन्मा है। हिंदुओं का हिसाब बहुत अनूठा है। हिंदुओं का हिसाब यह है कि पैदा तो हर आदमी शूद्र ही होता है। शूद्रता तो जन्म से सभी को मिलती है। इसलिए ब्राह्मण को हम द्विज कहते हैं। उसका दुबारा जन्म होना चाहिए। वह गुरु के पास फिर से उसका जन्म होगा। मां—बाप ने जो जन्म दिया, उसमें तो शूद्र ही पैदा होता है। उससे कोई कभी ब्राह्मण पैदा नहीं होता है। और जो अपने को मां—बाप से पैदा होकर ब्राह्मण समझ लेता है, उसे कुछ पता ही नहीं है।

ब्राह्मण तो पैदा होगा गुरु की सन्निधि में। वह दुबारा उसका जन्म होगा, वह ट्वाइस बॉर्न होगा। इसलिए हम उसे द्विज कहते हैं, जिसका दूसरा जन्म हो गया। और दूसरे जन्म के बाद वह अधिकारी होगा कि गुरु उसे जो गुह्य है, जो छिपा है, वह दे। जो नहीं दिया जा सकता सामान्य को, वह उसे दे। वह उसकी धरोहर होगी।

इसलिए बहुत सैकड़ों वर्ष तक हिंदुओं ने चेष्टा कि उनके शास्त्र लिखे न जाएं, कंठस्थ किए जाएं। क्योंकि लिखते ही चीज सामान्य हो जाती है, सार्वजनिक हो जाती है। फिर उस पर कब्जा नहीं रह जाता। फिर नियंत्रण रखना असंभव है।

और जब लिखे भी गए शास्त्र, तो मूल बिंदु छोड़ दिए गए हैं। इसलिए आप शास्त्र कितना ही पढ़ें, सत्य आपको नहीं मिल सकेगा। सब शास्त्र पढकर आपको अंततः गुरु के पास ही जाना पड़ेगा।

तो सभी शास्त्र गुरु तक ले जा सकते हैं, बस। और सभी शास्त्र आप में प्यास जगाके और बेचैनी पैदा करेंगे, और चाबी कहां है, इसकी चिंता पैदा होगी। और तब आप गुरु की तलाश में निकलेंगे, जिसके पास चाबी मिल सकती है।

आध्यात्मिक विज्ञान तो और भी खतरनाक है। क्योंकि आपको खयाल ही नहीं कि आध्यात्मिक विज्ञान क्या कर सकता है। अगर कोई व्यक्ति थोड़ी—सी भी एकाग्रता साधने में सफल हो जाए, तो वह दूसरे लोगों के मनों को बिना उनके जाने प्रभावित कर सकता है। आप छोटे—मोटे प्रयोग करके देखें, तो आपको खयाल में आ जाएगा।

रास्ते पर जा रहे हों, किसी आदमी के पीछे चलने लगें; कोई तीन—चार कदम का फासला रखें। फिर दोनों आंखों को उसकी चेथी पर, सिर के पीछे थिर कर लें। एक सेकेंड भी आप एकाग्र नहीं हो पाएंगे कि वह आदमी लौटकर पीछे देखेगा। आपने कुछ किया नहीं; सिर्फ आंख।

लेकिन ठीक रीढ़ के आखिरी हिस्से से मस्तिष्क शुरू होता है। मस्तिष्क रीढ़ का ही विकास है। जहा से मस्तिष्क शुरू होता है, वहां बहुत संवेदनशील हिस्सा है। आपकी आंख का जरा—सा भी प्रभाव, और वह संवेदना वहा पैदा हो जाती है; सिर घुमांकर देखना जरूरी हो जाएगा।

और अगर आप दस—पांच लोगों पर प्रयोग करके समझ जाएं कि यह हो सकता है, तो उस संवेदनशील हिस्से से कोई भी विचार किसी व्यक्ति में डाला जा सकता है।

बहुत बार ऐसा होता है, आपको पता भी नहीं होता है कि बहुत—से विचार आप में किस भांति प्रवेश कर जाते हैं। बहुत बार ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति के पास आप जाते हैं और आपके विचार तत्काल बदलने लगते हैं; बुरे या अच्छे होने लगते हैं।

संतों के पास अक्सर अनुभव होगा कि उनके पास जाकर आपके विचारों में एक झोंका आ गया; कुछ बदलाहट हो गई। बुरे आदमी के पास जाकर भी एक झोंका आता है, कुछ बदलाहट हो जाती है। संत किसी भावना में जीता है। उस भावना में वह इतनी सघनता से जीता है कि जैसे ही आप उसके पास जाते हैं, आपके मस्तिष्क में उसकी चोट पड़नी शुरू हो जाती है। वहा एक सतत वातावरण है। बुरा आदमी भी एक भावना में जीता है। वह उसकी एकाग्रता है। उसके पास आप जाते हैं कि चोट पड्नी शुरू हो जाती है।

भीड़ में जब भी आप जाते हैं, तभी आप लौटकर अनुभव करेंगे कि मन उदास हो गया, थक गया, जैसे आप कुछ खोकर लौटे हैं। क्योंकि भीड़ एक उत्पात है; उसमें कई तरह के मस्तिष्क हैं, कई तरह की एकाग्रताएं हैं। वे सब एक साथ आपके ऊपर हमला कर देती हैं।

इसलिए सदियों से साधक स्वात की तलाश करता रहा है। एकांत की तलाश, आप जानकर हैरान होंगे, जंगल और पहाड़ के लिए नहीं है। एकांत की तलाश आपसे बचने के लिए है। वह कोई जंगल की खोज में नहीं जा रहा है, न पहाड़ की खोज में जा रहा है। वह आपसे दूर हट रहा है। वह आपसे बच रहा है। नकारात्मक है खोज। पहाड़ क्या दे सकते हैं! पहाड़ कुछ नहीं दे सकते। लेकिन आप बहुत कुछ छीन सकते हैं।

पहाडों के पास कोई मस्तिष्क नहीं है। इसलिए पहाड़ों के पास आप निश्चित रह सकते हैं। वे न तो बुरा देंगे, न भला देंगे। जो आपके भीतर है, वही होगा। लेकिन आदमियों के पास आप निश्चित नहीं रह सकते। क्योंकि पूरे समय उनके विचार आप में प्रवाहित हो रहे हैं—वे न भी बोलें तो भी, वे न भी चाहें तो भी। उनका कचरा आप में बह रहा है; आपका कचरा उनमें बह रहा है। तो जब भी आप भीड़ में जाते हैं, आप कचरे से भरकर लौटते हैं। एक कनफ्यूजन, एक भीतर भीड़ पैदा हो जाती है।

अगर आपको थोड़ी सी भी एकाग्रता अनुभव हो जाए, तो आप किसी के भी विचार बदल सकते हैं। बड़ी ताकत है विचार बदलने में। तर्क करने की जरूरत नहीं है। विवाद करने की जरूरत नहीं है।

सिर्फ एक विचार सतत किसी की तरफ फेंकने की जरूरत है। उसके विचार बदलने शुरू हो जाते हैं।

और अगर आप कोई अशुभ काम करवाना चाहें, तो कोई अड़चन नहीं है। उसकी जेब में हाथ डालकर उसके नोट निकालने की जरूरत नहीं है। उससे ही कहा जा सकता है कि निकालो नोट और सड़क पर गिरा दो। वह खुद ही रूमाल निकालने के बहाने रूमाल के साथ नोट भी गिरा देगा। और वह सोचेगा कि भूल से गिर गया।

जीवन के गहन में प्रवेश किया जा सकता है एकाग्रता के सेतु से। शुभ भी किया जा सकता है, अशुभ भी किया जा सकता है। इसलिए एकाग्रता की कला किसी शास्त्र में लिखी हुई नहीं है। और जो भी लिखा हुआ है, उसको आप वर्षों करते रहें, तो भी एकाग्र न होंगे।

इसलिए बहुत लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि हम वर्षों से एकाग्रता साध रहे हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है! वे किताब पढ़कर साध रहे हैं। कभी होगा भी नहीं। थोड़े दिन में थक जाएंगे। किताब भी फेंक देंगे, एकाग्रता को भी भूल जाएंगे।

वह एकाग्रता तभी कोई उनको बता सकेगा, जब पाया जाएगा कि उनका हृदय उस शुद्धि में है कि अब वे किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। बच्चों के हाथ में तलवार नहीं दी जा सकती। और जो दे, वह आदमी मंगलदायी नहीं है।

रासपुतिन या दुर्वासा, या उस तरह के लोग शक्तिशाली लोग हैं। अदम्य उनके पास ऊर्जा है, लेकिन हृदय की शुद्धि नहीं है। रासपुतिन जैसे लोग कैसे सूत्र खोज लेते हैं? रासपुतिन भटका है। जैसे गुरजिएफ सूफी फकीरों, लामांओं, ईरान, तिब्बत, भारत, मिल, सब जगह जैसे गुरजिएफ भटका कोई बीस साल तक सूत्रों की तलाश में, वैसे ही रासपुतिन भी भटका है। और आज की नैतिकता इतनी कमजोर है कि जिनको आप साधारणत: साधु भी कहते हैं, वे भी खरीदे जा सकते हैं। और छोटी—मोटी बातें लीक आउट हो जाती हैं।

रासपुतिन भटका तलाश में कि कहां से सूत्र मिल सकते हैं। और उसने जरूर कहीं से सूत्र खरीद लिए। उसने अथक मेहनत की। और वर्षों के श्रम के बाद उसने कुछ रास्ते निकाल लिए। कुछ छोटी—मोटी कुंजिया उसके हाथ में आ गईं। और उसने उनका उपयोग किया।

आज भी कुछ लोगों के पास छोटे—मोटे सूत्र हैं। अनेक कारणों से गलत लोगों के पास भी सूत्र पहुंच गए हैं। कभी मोह के कारण पहुंच जाते हैं; कभी भूल—चूक से भी पहुंच जाते हैं। कभी बाप मरता है और सिर्फ मोह के कारण कुछ जानता है, वह बेटे को दे जाता है। बेटा योग्य नहीं भी होता है तो भी। कभी गुरु मरता है और सिर्फ इस आशा में दे जाता है कि आज नहीं कल शिष्य योग्य हो जाएगा। कई बार सूत्रों की चोरी भी हो जाती है। धन की ही चोरी नहीं हो सकती, सूत्रों की भी चोरी हो सकती है।

हिंदुस्तान में बहुत दिन तक वैसा हुआ। बौद्धों के पास कुछ सूत्र थे, जो हिंदुओं के पास नहीं थे। तो हिंदू बौद्ध भिक्षु बनकर वर्षों तक बौद्ध गुरुओं की शरण में रहे, ताकि कुछ सूत्र वहा से पाए जा सकें। कुछ सूत्र हिंदुओं के पास थे, जो जैनों या बौद्धों के पास नहीं थे। तो जैन और बौद्ध, हिंदू बनकर वर्षों तक हिंदू गुरुओं की शरण में रहे, ताकि कहीं से कुछ पाया जा सके। और जैसे ही उन्होंने पा लिया, वह दूसरी परंपरा को दे दिया गया।

हजारों साल से खोज चलती है। उस खोज में ठीक और गलत सब तरह के लोग लगे हुए हैं।

रासपुतिन ने भी सूत्र खोज लिए। और मनुष्य तो शक्तिशाली था। क्योंकि सूत्रों से ही कुछ नहीं होता। आपको अगर कुंजी भी दे दी जाए, तो आप इतने कमजोर हैं कि कुंजी हाथ में रखे बैठे रहेंगे, ताले तक भी कुंजी नहीं पहुंचाएंगे। या भरोसा ही न करेंगे कि कुंजी खोल भी सकती है कुछ। या कुंजी को कुछ और समझते रहेंगे। या जहा ताला नहीं है, वहा कुंजी लगाते रहेंगे।

लेकिन रासपुतिन अथक चेष्टा किया, और उसने कुछ पाया। और उसे पाकर उसने श्रम भी किया उस पर। और एक बडी अनूठी क्षमता बुराई की उसने पैदा कर ली। रासपुतिन प्रतीक बन गया इस सदी में बुरे से बुरे आदमी का। लेकिन बड़ा शक्तिशाली था।

ध्यान रहे, हृदय की शुद्धि अत्यंत अपरिहार्य है।

इसलिए बुद्ध ने तो अपने शिष्यों को पहले चार ब्रह्मविहार साधने को कहा है। जब तक ये चार ब्रह्मविहार न सध जाए—ब्रह्मविहार, जब तक ब्रह्म में इनके द्वारा विहार न होने लगे—तब तक कोई योगिक साधना नहीं करनी है। तो करुणा पहले सध जाए; मैत्री पहले सध जाए; मुदिता पहले सध जाए; उपेक्षा पहले सध जाए।

ये चार : करुणा, मैत्री, मुदिता, उपेक्षा। क्योंकि जिसकी करुणा गहन है, वह किसी को नुकसान न पहुंचा सकेगा। जिसकी मैत्री की भाव—दशा है, उसके लिए कोई शत्रु न रह जाएगा। और मुदिता का ‘अर्थ है, प्रफुल्लता, प्रसन्नता। जो प्रसन्न है और प्रफुल्ल है, वह किसी को दुखी नहीं करना चाहता। सिर्फ दुखी आदमी ही दूसरे को दुखी करना चाहता है।

तो जब भी आप किसी को दुखी करना चाहते हों, समझना कि आप दुखी हैं। आनंदित आदमी किसी को दुखी नहीं करना चाहता। आनंदित आदमी चाहता है, सभी आनंदित हो जाएं। आनंदित आदमी आनंद को बांटना और फैलाना चाहता है। जो हमारे पास है, वही हम बांटते हैं; उसी को हम फैलाते हैं।

इसलिए बुद्ध ने मुदिता को अनिवार्य कहा। क्योंकि जब तक तुम प्रसन्नचित्त न हो जाओ, तब तक तुम खतरनाक हो।

दुखी आदमी खतरा है। वह किसी को सुखी नहीं देखना चाहेगा। दुखी आदमी चाहता है कि सब लोग मुझसे ज्यादा दुखी हों, तभी उसको लगता है कि मैं थोड़ा सुखी हूं? तुलना में।

और चौथा बुद्ध ने कहा, उपेक्षा, इनडिफरेंस। बुद्ध ने कहा, जब ऐसी उपेक्षा सध जाए कि जीवन हो या मृत्यु, बराबर मालूम पड़े। सुख हो या दुख, समान मालूम पड़े। हानि हो या लाभ, सफलता हो या विफलता, कोई चिंता न रह जाए। इन चार ब्रह्मविहारो के सध जाने के बाद साधक योग में प्रवेश करे।

इसलिए पतंजलि ने भी आठ यम—नियम की पहले ही व्यवस्था दी है। और इसके पहले कि धारणा, ध्यान और समाधि के अंतिम तीन चरण आएं, पांच चरणों में हृदय का पूरा रूपांतरण है। वे जो पांच प्राथमिक चरण हैं, जब तक उनसे हृदय का रूपांतरण न होता हो, तब तक तीन चरण, पतंजलि राजी नहीं हैं।

अभी पश्चिम में पूरब से कई कुंजियां पहुंच रही हैं। जैसे महेश योगी ध्यान की एक पद्धति पश्चिम ले गए। तो उन्होंने बाकी सारे यम—नियम अलग कर दिए। सिर्फ मंत्र—योग। उसका परिणाम होता है, लेकिन खतरनाक है। आग के साथ खेलना है। और लोग जल्दी उत्सुक होते हैं, क्योंकि न कोई नियम है, न कोई साधना है। बस, एक बीस मिनट बैठकर एक मंत्र—जाप कर लेना है; पर्याप्त है। तुम चोर हो, तो अंतर नहीं पड़ता; तुम बेईमान हो, तो अंतर नहीं पड़ता। तुम हत्यारे हो, तो अंतर नहीं पड़ता। बीस मिनट मंत्र—जाप कर लेना है।

उस मंत्र—जाप से शांति मिलती है, क्योंकि मंत्र मन को संगीत से भर देता है। लेकिन ध्यान रहे, हत्यारे को शांति मिलनी उचित नहीं है। क्योंकि हत्यारे की पीड़ा क्या है? कि उसने हत्या की है! यह उसकी पीड़ा है; यह अपराध उसके ऊपर है। इसको अगर शांति मिल जाए, यह दूसरी हत्या करेगा। इसको अशांत होना उचित है, यह इसके कर्म का सहज परिणाम है। और यह अशांत रहे, पीड़ा भोगे, तो शायद हत्या से बचेगा।

चोर को शांति मिलनी उचित नहीं है। उसके हृदय की धड़कन बढ़ी ही रहनी चाहिए। क्योंकि जैसे ही उसको शांति मिलती है, वह दुबारा चोरी करेगा। और करेगा क्या? बुरे आदमी को शांति मिलनी उचित नहीं है। यह ऐसे ही है, जैसे बुरे आदमी को स्वास्थ्य मिलेगा, तो वह करेगा क्या?

जीसस के जीवन में एक बड़ी प्यारी कथा है। और वह यह है कि जीसस एक गांव से गुजरे। उन्होंने एक आदमी को एक वेश्या के पीछे भागते हुए देखा। तो उन्होंने उस आदमी को रोका, क्योंकि चेहरा उसका पहचाना हुआ मालूम पड़ा। और जीसस ने कहा कि अगर मैं भूलता नहीं हूं तो जब मैं पहली दफा आया, तुम अंधे थे। और मेरे ही स्पर्श से तुम्हारी आंखें वापस लौटीं। और अब तुम आंखों का क्या कर रहे हो! वेश्या के पीछे भाग रहे हो?

उस आदमी ने कहा, हे प्रभु, मैं तो अंधा था। तुमने ही मुझे आंखें दीं। अब मैं इन आंखों का और क्या करूं? आंखें रूप देखने के लिए हैं। और अगर मैं तुम्हारे पास आंखें मांगने आया था, तो इसीलिए मांगने आया था कि आंखों से रूप देख सकूं।

जीसस ने सोचा भी नहीं होगा कि जिसको आंखें दी हैं, वह आंखों का क्या करेगा। सभी आदमी आंखों का एक ही उपयोग नहीं कर सकते। उपयोग तो आदमियों पर निर्भर होगा। आंखें तो उपकरण हैं।

तो अगर मंत्र—जाप से बेईमान को शांति मिले, तो वह बेईमानी में और कुशल हो जाएगा। खतरनाक है यह बात। और मंत्र—जाप से अगर धन की दौड़ में कोई आदमी लगा है, उसको शांति मिले, तो उसकी धन की दौड़ और कुशल हो जाएगी; और क्या होगा! और महेश योगी से लोग पूछते हैं, तो वे कहते हैं, बिलकुल ठीक है। तुम जहा भी जा रहे हो, तुम जो भी कर रहे हो, उसमें ध्यान से सफलता मिलेगी।

निश्चित सफलता मिलेगी। लेकिन तुम कहां जा रहे हो, यह पूछ लेना जरूरी है। तुम क्या कर रहे हो, यह पूछ लेना जरूरी है। सभी सफलताएं सफलताएं नहीं हैं। बुरे काम में विफल हो जाना बेहतर है। बुरे काम में सफल हो जाना बेहतर नहीं है। तो सफलता अपने आप में कोई मूल्य नहीं है।

लेकिन यह परिणाम पश्चिम में घटित होगा, क्योंकि कोई भी यम और नियम के लिए तो राजी नहीं है। लोग चाहते हैं, जैसे वे

इंस्टैंट काफी बना लेते हैं, वैसा इंस्टैंट मेडिटेशन हो! एक पांच मिनट में काम किया, और उस काम के लिए भी कुछ करना नहीं है। आप हवाई जहाज में उड़ रहे हों, तो भी मंत्र—जाप कर सकते

हैं। कार में चल रहे हों, तो भी मंत्र—जाप कर सकते हैं। ट्रेन में बैठे हों, तो भी मंत्र—जाप कर सकते हैं। उसमें कोई कुछ आपको बदलना नहीं है। सिर्फ एक तरकीब है, जिसका उपयोग करना है। वह तरकीब आपको भीतर शांत करेगी। वह शांति आत्मज्ञान नहीं बन सकती। वह शांति अक्सर तो आत्मघात बनेगी। क्योंकि आपके पास जो व्यक्तित्व है, वह खतरनाक है। वह उस शांति का उपयोग करेगा।

इसलिए अगर पतंजलि और बुद्ध और महावीर ने ध्यान के पूर्व कुछ अनिवार्य सीढ़ियां रखी हैं, तो अकारण नहीं रखी हैं। गलत आदमी के पास शक्ति न पहुंचे, इसलिए। और गलत आदमी अगर चाहे, तो पहले ठीक होने की प्रक्रिया से गुजरे। और उसके हाथ में चाबी तभी आए, जब कोई दुरुपयोग, अपने लिए या दूसरों के लिए, वह न कर सके।

यही सवाल नहीं है कि दूसरों के लिए आप हानि पहुंचा सकते हैं, खुद को भी पहुंचा सकते हैं। गलत आदमी खुद को भी पहुंचाएगा।

सच तो यह है कि बिना खुद को हानि पहुंचाए, कोई दूसरे को हानि पहुंचा ही नहीं सकता। इसका कोई उपाय ही नहीं है। इसके पहले कि मैं आपको आग लगाऊं, मुझे खुद जलना पड़ेगा। इसके पहले कि मैं आपको जहर पिलाऊं, मुझे खुद पीना पड़ेगा। जो मैं दूसरों के साथ करता हूं वह मुझे अपने साथ पहले ही कर लेना पड़ता है।

दूसरा प्रश्न :

 

साधन तत्व को अभ्यास और वैराग्य, ऐसे दो भागों में बांटने का क्या कारण है? क्या वे एक ही चीज के दो छोर नहीं हैं? क्या सम्यक साधना पद्धति के अभ्यास से वैराग्य का उदय अवश्यंभावी नहीं है? और वैराग्य क्या स्वयं एक साधन पद्धति नहीं है?

भ्यास और वैराग्‍य बड़ी भिन्न बातें हैं। वैराग्‍य तो एक भाव है; और अभ्यास एक प्रयत्न, एक यत्न है। वैराग्य तो आपको कई बार अनुभव होता है। लेकिन उसकी हल्की झलक आती है। उसको अगर आप अभ्यास न बना सकें, तो वह खो जाएगा। अभ्यास का अर्थ है कि जिस वैराग्य की झलक मिली है, वह झलक न रह जाए, उसकी गहरी लकीर हो जाए आपके भीतर।

जैसे कि आप धन के लिए दौड़ते थे। और धन आपको मिल गया। धन के मिलने के बाद आपके मन में विषाद आएगा। क्योंकि आप पाएंगे कि कितनी आशा की थी, आशा तो कुछ पूरी न हुई! कितने सपने संजोए थे, वे सब सपने तो धूल में मिल गए! धन हाथ में आ गया। कितना नहीं सोचा था आनंद मिलेगा; वह आनंद तो कुछ मिला नहीं!

तो जो भी धन को पा लेगा, उसके पीछे एक छाया आएगी, जहा वैराग्य का अनुभव होगा। उसे लगेगा, धन बेकार है। लेकिन अगर इसे अभ्यास न बनाया, तो यह झलक खो जाएगी। और मन फिर कहेगा कि आनंद इसलिए नहीं मिल रहा है, क्योंकि धन आनंद के लिए पर्याप्त नहीं है, और चाहिए। दस हजार ही हैं, दस लाख ही हैं, करोड़ चाहिए।

करोड़ भी मिल जाएंगे एक दिन, कुछ अड़चन नहीं है। तब फिर वैराग्य का उदय होगा। फिर लगेगा कि वे सब इंद्रधनुष खो गए। वह सब मृग—मरीचिका हाथ नहीं आई। फिर खाली के खाली हैं। और इतना जीवन गया मुफ्त! क्योंकि धन कोई ऐसे ही नहीं मिलता, जीवन से खरीदना पड़ता है। खुद को बेचो, तो धन मिलता है। जितना खुद को मिटाओ, उतना धन इकट्ठा होता है।

तो आत्मा नष्ट होती जाती है, सोने का ढेर लगता जाता है। फिर विषाद पकड़ेगा; फिर वैराग्य लगेगा; लेकिन उसकी झलक ही आएगी। मन फिर जोर मारेगा कि छोड़ो भी, एक करोड़ से कहीं दुनिया में सुख मिला है! यह वही मन है, जो दस लाख पर कहता था, करोड़ से मिलेगा। यह वही मन है, जो दस हजार पर कहता था, दस लाख पर मिलेगा। यह वही मन है, जो दस पैसे पर कहता था, दस हजार पर मिलेगा।

जब तक कोई पूरा अध्ययन न करे अपने जीवन की घटनाओं का; और वैराग्य की जो झलकें आती हैं, उनको पकड़ न ले, और फिर उन वैराग्य की झलकों का अभ्यास न करे..। अभ्यास का मतलब है, उनकी पुनरुक्ति, उनका बार—बार स्मरण, उनकी चोट निरंतर भीतर डालते रहना। और जब भी मन पुराना धोखा दे, तो वैराग्य का स्मरण खड़ा करना।

तो एक घटना बनेगी। जब वैराग्‍य पानी पर खींची लकीर न होगा, पत्थर पर खींची लकीर हो जाएगा। और उसी वैराग्य के सहारे मन का अंत होगा, नहीं तो मन का अंत नहीं होगा। एक—एक बूंद वैराग्य इकट्ठा करना होगा। उसका नाम अभ्यास है।

यह बड़े मजे की बात है कि वैराग्य तो सभी को आता है; ऐसा आदमी ही खोजना मुश्किल है, जिसको वैराग्य न आता हो। हर संभोग के बाद वैराग्‍य आता है। हर संभोग के बाद ब्रह्मचर्य की आकांक्षा उठती है। हर बार ज्यादा खा लेने के बाद उपवास की सार्थकता दिखाई पड़ती है। हर बार क्रोध करके पश्चात्ताप उठता है। हर बार बुरा करके न करने की प्रतिज्ञा मन में आती है। पर क्षणभर को रहती है, यह बात। मन प्रबल है, क्योंकि मन का अभ्यास जन्मों—जन्मों का है।

तो दो तरह के अभ्यास हैं जगत में। एक मन का अभ्यास और एक वैराग्य का अभ्यास। तो आप मन का अभ्यास तो पूरी तरह करते हैं। वैराग्य मन का विपरीत है। वैराग्य का मतलब यह है कि मन का एंटीडोट। वह मन जब भी नया धोखा खड़ा करे, तब आपको वैराग्य की स्मृति खड़ी करनी है। यह तो मैं पहले भी सुन चुका, यह तो मैं पहले भी कर चुका; यह तो मेरा अनुभव है और परिणाम क्या हुआ?

निरंतर परिणाम का चिंतन पुराने अनु_भव की स्मृति है, और पुरानी झलकों का संग्रह है। इसको जब कोई साधता ही चला जाता है, तो धीरे— धीरे मन के विपरीत एक नई शक्ति का निर्माण होता है। जो मन के लिए नियंत्रण बन जाता है, और मन के लिए साक्षी बन जाता है; और मन की जो पताल दौड़ है, उसे तोड्ने में सहयोगी हो जाता है। कई बार मन आपको पकड लेगा फिर—फिर। लेकिन अगर वैराग्य का थोड़ा—सा संग्रह है, तो पुन: स्मरण आ जाएगा और आप रुक सकेंगे।

अभ्यास का केवल इतना ही अर्थ है, जीवन में जो सहज वैराग्‍य की झलक आती है, उसको संजो लेना है, इकट्ठा कर लेना है; उसकी शक्ति निर्मित कर लेनी है। और अभ्यास के उपाय हैं।

मृत्यु तो आपको कई दफा अनुभव होती है, लेकिन हमने ऐसी व्यवस्था कर ली है कि उसके अनुभव की हमें चोट नहीं लगती।

कोई कहता है, कोई मर गया। अगर वह कोई बहुत निकट का नहीं है, तो हम कहते हैं, बुरा हुआ। बात समाप्त हो गई। उसके बाद हमारे मन में कुछ भी नहीं होता। कोई बहुत निकट का मर गया, तो दिन दो दिन खयाल में रहता है। कोई बहुत ही निकट का मर गया—कि पत्नी चल बसी, कि बेटा, कि पति, कि पिता—तो थोड़ी चोट लगती है कुछ दिन। यह हमने इंतजाम किया है।

यह इंतजाम ऐसा ही है, जैसे ट्रेन में बफर लगे होते हैं। दो रेल के डब्बों के बीच में बफर लगे रहते हैं, ताकि धक्का बफर पी जाएं और यात्रियों को धक्का न लगे। कार में स्टिंग लगे रहते हैं कि गड्डा आए, तो स्टिंग गड्डे के धक्के को पी जाएं, भीतर बैठे यात्री को धक्का न लगे।

तो हमने अपने चारों तरफ बफर लगा रखे हैं। चोट आए, तो बफर पी जाए। तो अगर मुसलमान मर गया, तो हिंदू के लिए बफर है कि ठीक है, मुसलमान था, मर गया तो क्या हर्ज है! पहले ही मर जाना चाहिए था। आदमी बुरा था। और होने से कोई लाभ भी नहीं था। हिंदू मर गया, तो मुसलमान के लिए बफर है। नीग्रो मर जाए, तो अमेरिकी को फिक्र नहीं। अमेरिकी मरे, तो नीग्रो को प्रसन्नता है। ये हमने बफर पैदा किए हैं। शत्रु मर जाए, तो ठीक। इन सब बफर के बाद दो—चार लोग ही बचते हैं हमारे आस—पास, जिनकी मौत से हमको थोड़ी—बहुत चोट पहुंचेगी। नहीं तो हर एक की मौत से चोट पहुंचती है। क्योंकि कौन मरता है, इससे क्या फर्क पड़ता है। मौत घटती है। और मौत की चोट पहुंचती है, और वैराग्य का उदय होता है। लेकिन हमने तरकीबें बना रखी हैं।

फिर जो हमारे बिलकुल निकट हैं, उनसे भी बचने के लिए हमने बफर बना रखे हैं। अगर पत्नी भी मर जाए, तो भी हम कहते हैं, जल्दी ही मिलना होगा, स्वर्ग में मिलेंगे। थोड़े ही दिन की बात है। और आत्मा अमर है, इसलिए पत्नी कुछ मरी नहीं है। यह तो सिर्फ शरीर छूट गया है। कोई रास्ता हम खोज लेते हैं।

बेटा मर जाए, तो हम कहते हैं, परमात्मा, जो प्यारे लोग हैं, उनको जल्दी उठा लेता है। यह बफर है। इससे हम अपने को राहत देते हैं, कसोलेशन देते हैं। इससे सांत्वना बना लेते हैं कि ठीक है, परमात्मा के लिए प्यारा होगा, इसलिए बेटे को उठा लिया। आपका बेटा परमात्मा को प्यारा होना ही चाहिए! सिर्फ गलत लोग ज्यादा जीते हैं। अच्छे लोग तो जल्दी मर जाते हैं। कि अपना कोई कर्म होगा, जिसकी वजह से दुख भोगना पड़ रहा है।

मौत को बचाते हैं; कुछ और चीजें बीच में ले आते हैं। कर्म का फल है, इसलिए भोगना पड़ रहा है। अब फल है, तो भोगना पड़ेगा। तो मौत को हटा दिया, डायवर्शन पैदा हो गया। अब हम कर्म की बात सोचने लगे। लड़का, मौत, अलग हट गई। थोड़े दिन में सब भूल जाएगा, हम अपने काम— धंधे में लग जाएंगे।

इस तरह हमने बफर हर चीज में खड़े कर रखे हैं और वैराग्य उदय नहीं हो पाता।

अभ्यास का अर्थ है, बफर का तोड़ना। और हर जगह से, जहा से भी सूरज की किरण मिल सके, वैराग्य की किरण मिल सके, वहा से उसे भीतर आने देना। सब तरफ खुले होना।

बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे, मरघट पर जाओ। पहला ध्यान मरघट पर। और तीन महीने मरघट पर रहो। भिक्षु कहते, लेकिन मरघट पर जाने की क्या जरूरत है? ध्यान यहीं कर सकते हैं! बुद्ध कहते, यहां न होगा। तुम मरघट पर ही बैठो दिन—रात। चिताएं जलेंगी, लोग आएंगे—जाएंगे; तुम वहीं ध्यान करना।

तीन महीने जो मरघट पर बैठकर ध्यान कर लेता, उसके मौत के संबंध में जितने बफर होते, सब टूट जाते। तब वह यह नहीं देखता, कौन मरा। मौत दिखाई पड़ती। कौन का कोई संबंध नहीं रह जाता। और चौबीस घंटे मरघट पर बैठे—बैठे यह असंभव है तीन महीने में कि आपको यह समझ में न आ जाए कि यह देह आज नहीं कल जलेगी। यह असंभव है कि आपको सपने न आने लगें कि आप जलाए जा रहे हैं चिता पर, तीन महीने मरघट में रहने पर। यह असंभव है कि मौत इतनी प्रगाढ़ न दिखाई पड़ने लगे कि जीवन का रस खो जाए।

तो मौत का अभ्यास हो जाएगा मरघट पर। अभ्यास से वैराग्य उदय होगा, घना होगा। जीवन के साथ जो हमारे राग के, लगाव के संबंध हैं, वे क्षीण और शिथिल हो जाएंगे।

अगर बुद्ध के जमाने में एक्सरे रहा होता, तो वे कहते कि अपनी पत्नी का एक्सरे अपने साथ रखो। और जब भी पत्नी की याद आए एक्सरे देखो, तो समझ में आएगा कि देह कितनी सुंदर है। लोग फोटो रखते हैं। फोटो रखना ठीक नहीं है। एक्सरे की कापी रख लेना एकदम अच्छा है। और जब भी मन में आ जाए तो फिर—फिर उसको देख लेना उचित है।

तो एक्सरे की फोटो अभ्यास बन जाएगी। उससे वैराग्य का जन्म होगा; सघन होगा। फिर धीरे— धीरे पत्नी को भी देखेंगे, तो आपके पास एक्सरे वाली आंखें हो जाएंगी। तो उसकी सुंदर चमड़ी के पीछे हड्डियां दिखाई पड़ने लगेंगी। जब उसको छाती से लगाएंगे, तो आपको अस्थिकंकाल छूता हुआ मालूम पड़ेगा।

ये बफर तोड्ने हैं और वैराग्य को जन्माना है। और उसका निरंतर अभ्यास चाहिए। क्योंकि मन का पुराना अभ्यास है। और मन से संघर्ष है। मन को काटना है। मन बहुत सबल है। आपने ही उसको सबल किया है।

अब हम सूत्र को लें।

और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान।

और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस—स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त अन्न को पचाता हूं। और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय—विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।

कुछ बातें। पहली बात, कृष्ण के ये सारे सूत्र अर्जुन का समर्पण संभव हो सके, इसके लिए हैं। कृष्ण ये सारी बातें कह रहे हैं उस एक केंद्र की ओर इशारा करने को, जो सबका आधार है।

और अगर वह आधार हमें दिखाई पड़ने लगे, तो हम उस आधार की शरण सहज ही जा सकेंगे। अगर हमारी बुद्धि को उसकी झलक भी मिलने लगे, तो हम अपने होने का आग्रह, और अपने आपको कुछ समझने का आग्रह, अस्मिता और अहंकार की आति हमारी छूटनी शुरू हो जाएगी।

तो कृष्ण जब बार—बार यह कहते हैं कि मैं यह हूं मैं यह हूं मैं यह हूं तो बहुत—से पढ़ने वालों को गीता में ऐसा लगता है कि कृष्ण बड़े अहंकारी हैं। यह आदमी अजीब है। यह क्यों कहे चला जाता है कि सभी चांद—सूरज की रोशनी मैं हूं! कि सभी रसों में छिपा हुआ रस मैं हूं! कि सभी प्राणों में धड़कता प्राण मैं हूं!

आज के जमाने में तो गीता जैसी किताब लिखनी बड़ी मुश्किल हो जाए; कहनी भी मुश्किल हो जाए। फौरन पत्थर पड़ जाएं। क्योंकि लोग कहें कि दिमाग खराब है आपका! सभी कुछ आप हैं?

और अगर हिंदुओं को गीता पढ़ते वक्त यह खयाल नहीं आता, तो बफरों के कारण। उनको लगता है, कृष्ण भगवान हैं, इसलिए ठीक है। लेकिन मुसलमान जब गीता पढ़ता है, तो उसे फौरन खयाल आता है कि यह आदमी ठीक नहीं मालूम पड़ता। जैन जब पढ़ता है, तो उसे फौरन समझ में आता है कि यह आदमी अहंकारी है।

हिंदू सोच लेता है कि भगवान हैं, ठीक है। बाकी अगर वह भी विचार करेगा, तो उसको भी लगेगा कि यह बात क्या है? कृष्ण क्यों इतना जोर देते हैं कि मैं ही सब कुछ हूं?

और आपको अगर ऐसा लगे कि कृष्ण अहंकारी हैं, इतना जोर अपने मैं पर देते हैं, तो समझना कि यह चोट आपके अहंकार को लग रही है। यह आपका अहंकार क्रुद्ध हो रहा है।

कृष्ण का क्या प्रयोजन होगा? कृष्ण क्यों इतना जोर दे रहे हैं स्वयं पर? कृष्ण के जोर का कारण आप समझ लें।

कृष्ण का जोर स्वयं पर नहीं है; कृष्ण का जोर अर्जुन मिट जाए, इस पर है। पर इसके लिए एक ही उपाय है कि अर्जुन का केंद्र अर्जुन के बाहर हट जाए। अर्जुन का केंद्र अर्जुन के भीतर न हो, कहीं बाहर हो जाए। कृष्ण की यह सारी चेष्टा इसीलिए है कि अर्जुन देख पाए कि उसके भीतर जो मैं की आवाज है, वह व्यर्थ है; और वह संपूर्ण के केंद्र पर समर्पित हो जाए।

अर्जुन ने कहीं भी यह सवाल नहीं उठाया कि आप इतने अहंकार की बातें क्यों कर रहे हैं! यह भी जरा आश्चर्यजनक है। क्योंकि अर्जुन बुद्धिमान है; जैसा सोफिस्टिकेटेड होना चाहिए, उतना है। सुशिक्षित है, सुसंस्कारी है। उस समय के प्रतिभावान व्यक्तियों में एक है। मेधावी है। नहीं तो कृष्ण की मित्रता का कोई अर्थ भी न था। और कृष्ण जिसके सारथी बनने को राजी हो गए हैं, वह कोई साधारण गंवार नहीं है। पर अर्जुन एक बार भी नहीं कहता कि आप क्यों अपने अहंकार की घोषणा किए जा रहे हैं!

कृष्ण अर्जुन से कह सके, क्योंकि अर्जुन का एक प्रेम, एक सतत प्रेम कृष्ण के प्रति है। और जहा प्रेम हो, वहां हम समझ पाते हैं कि यह जो कहा जा रहा है इसमें कोई अहंकार नहीं है। और प्रेम हो, तो यह भी हम समझ पाते हैं कि यह मेरे लिए कहा जा रहा है। तो अर्जुन को पूरे समय यह लगा है कि मैं मिट जाऊं, इसकी चेष्टा के लिए कृष्ण अपने मैं को बड़ा कर रहे हैं। वे अपने मैं को खड़ा कर रहे हैं, ताकि मेरा मैं उस बड़े मैं में खो जाए। वे अपने मैं के विराट रूप को मुझे दे रहे हैं, ताकि मैं एक बूंद की तरह उस सागर में खो जाऊं।

यह सिर्फ एक उपाय है। अर्जुन मिट सके, राजी हो सके मिटने को, इसके लिए यह सिर्फ एक सहारा है।

प्रत्येक गुरु अपने शिष्य को यह सहारा देगा ही। जिस दिन शिष्य मिट जाएगा, उस दिन गुरु हंसकर उससे भी कह देगा कि तुम भी नहीं हो, मैं भी नहीं हूं।

लेकिन उसके पहले यह नहीं कहा जा सकता। यह बड़ी अड़चन की बात है। क्योंकि गुरु अगर यह कह दे, मैं भी नहीं हूं तुम भी नहीं हो, तो शिष्य यह तो मान लेगा कि तुम नहीं हो, यह नहीं मान सकता कि मैं नहीं हूं। क्योंकि यह मानना बहुत कठिन बात है। यह तो कोई भी मान लेगा कि तुम नहीं हो, बिलकुल ठीक है, सच है। यह तो हम पहले ही जानते थे। इसलिए जो गुरु कहे, मैं नहीं हूं? शिष्य बिलकुल राजी होगा।

कृष्णमूर्ति के पास वैसी घटना रोज घट रही है। कृष्णमूर्ति उलटा प्रयोग कर रहे हैं, ठीक कृष्ण से उलटा। लेकिन वह प्रयोग सफल नहीं हो रहा है। वह सफल नहीं हो सकता। उस सफलता के लिए तो अर्जुन से भी श्रेष्ठ शिष्य चाहिए, जो कि बड़ा मुश्किल मामला है।

कृष्णमूर्ति कहते हैं, न मैं गुरु हूं न मैं अवतार हूं; मैं कोई भी नहीं हूं। वे जो शिष्य बैठकर सुनते हैं, वे बड़े प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, बिलकुल ठीक है। लेकिन इससे यह खयाल नहीं आता उनको कि हम भी नहीं हैं। अपने मैं से भरकर लौटते हैं, घटकर नहीं।

और एक खतरा हो जाता है कि अब जहा भी कृष्ण मिल जाएंगे उनको, और कृष्ण कहेंगे कि मैं हूं प्राणों का प्राण; मैं हूं ज्योतियों की ज्योति। वे कहेंगे, आपका दिमाग खराब है। क्योंकि कृष्णमूर्ति ने कहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। ज्ञानी तो सदा यह कहते हैं कि मैं कुछ भी नहीं हूं।

ज्ञानी सदा जानते हैं कि वे कुछ भी नहीं हैं। लेकिन अज्ञानियों से बात करना जोखम का काम है।

कृष्ण इतने जोर से कह रहे हैं कि मैं यह हूं ताकि अर्जुन को प्रतीति होने लगे कि वह कुछ भी नहीं है।

यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि एक बड़ी प्रसिद्ध घटना है, जो आपने सुनी होगी कि अकबर ने एक लकीर खींच दी दीवाल पर और अपने दरबारियों को कहा कि इसे बिना छुए छोटा कर दो। वे नहीं कर पाए क्योंकि बुद्धि सीधी कहेगी कि बिना छुए कैसे छोटी होगी? हाथ लगाना पड़े, पोंछना पड़े। लेकिन बीरबल ने एक बड़ी लकीर उसके पास खींची। उस लकीर को नहीं छुआ, लेकिन वह छोटी हो गई।

ये कृष्ण इतना ही कर रहे हैं कि अर्जुन की लकीर के पास एक बहुत बड़ी लकीर खींच रहे हैं, कृष्ण की लकीर। वह अर्जुन का मैं है, छोटा—सा टिमटिमाता दीया; और कृष्ण कह रहे हैं, सूर्यों का सूर्य मैं हूं। तू इधर देख, तू इस तरफ मुड़, तू कहां छोटे—से दीए

की टिमटिमाती लौ! और मिट्टी का तेल—वह भी मिलना मुश्किल—उसमें तू कब तक टिमटिमाता रहेगा, इस तरफ देख। और अर्जुन का प्रेम है इतना कृष्ण के प्रति, वह देख सकता है। इतना भरोसा है कि यह आदमी कह रहा है, तो कोई सूरज होगा उसमें। और सूरज सबके भीतर छिपा है, इसलिए अड़चन कुछ भी नहीं है। अगर अर्जुन भाव से देख ले, तो कृष्ण के भीतर का सूरज दिख जाएगा। और जिस दिन कृष्ण के भीतर का सूरज दिखेगा, वह अपने टिमटिमाते दीए को छोड़ देगा।

टिमटिमाता दीया छूट जाए तो अपने भीतर का सूरज भी दिखेगा। लेकिन यह गुरु जो है, वाया मीडिया है। अपने ही भीतर के सूरज को देखना अति कठिन है। क्योंकि अपनी नजर तो अपने दीए पर ही लगी है। इस दीए का बुझना जरूरी है। यह गुरु के सहारे बुझ जाएगा। और एक बार बुझ जाए, तो गुरु के सूरज को देखने की कोई जरूरत नहीं है, अपना सूरज भी दिखाई पड़ने लगेगा।

हम दीए से आविष्ट होकर बैठे हैं। हमारी हालत ऐसी है, सूरज निकला है खुले मैदान में, हम अपना दीया रखे उस पर आंख गड़ाए बैठे हैं। इतने जन्मों से आंख गड़ाए हैं कि हिप्‍नोटाइज्‍ड हो गए हैं। वह दीया ही दिखाई पड़ता है। और दीया देखते—देखते आंखें भी इतनी छोटी हो गई हैं कि अगर एक दफे सूरज की तरफ देखें, तो अंधेरा ही दिखाई पड़ेगा।

कृष्ण का सहारा सिर्फ इतना है कि आहिस्ता से अर्जुन को उसके दीए से हटा लें। और एक बार वह सूरज कृष्ण का देख ले, तो वह कृष्ण का सूरज नहीं है, वह सभी का सूरज है; वह सभी के भीतर बैठा है। इसे खयाल में रखें।

और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान। और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण किए हूं और रस—स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।

सोम दो अर्थ रखता है। एक तो सोम का अर्थ है, चंद्रमा। हिंदुओं का जो रस—विज्ञान है, उसमें औषधियों को जो पुष्टि मिलती है, वह चंद्रमा से मिलती है। सूर्य उनको प्राण देता है। सूर्य के बिना औषधियां बड़ी नहीं होंगी, वनस्पतिया बड़ी नहीं होंगी; वृक्ष बड़े नहीं होंगे। सूरज उन्हें प्राण देता है। लेकिन जो रस है, जो उनमें जीवनदायी तत्व है, वह उन्हें चांद से मिलता है; वह चांद के द्वारा मिलता है।

यह बात काल्पनिक समझी जाती थी आज तक कि आयुर्वेद और हिंदुओं की यह जो रस—विद्या है, यह काव्य है, प्रतीक है। लेकिन इधर पचास वर्षों में जो खोजबीन हुई है, उससे सिद्ध हो रहा है कि चांद निश्चित ही प्राण देने वाला है।

और सूरज जो कुछ भी देता है, उसमें एक उत्तेजना है, और चांद जो भी देता है, उसमें एक शांति है। इसलिए जितनी शांत औषधियां हैं, उन सब में चांद छिपा है। और जो सर्वाधिक शांतिदायी औषधि थी, इसी कारण—वह दूसरा अर्थ है सोम का—उसे हम सोम—रस कहते थे।

पश्चिम में वैज्ञानिक बड़ी खोज में लगे हैं कि वेदों ने जिसको सोम—रस कहा है, वह क्या है? पच्चीसों प्रस्ताव किए गए हैं, पच्चीसों दावे किए गए हैं कि यह वनस्पति सोम—रस होनी चाहिए। कुछ लक्षण मिलते हैं, लेकिन पूरे लक्षण किसी वनस्पति से नहीं मिलते। संभावना इस बात की है कि वह वनस्पति पृथ्वी से खो गई। या हिंदुओं ने उसे विलुप्त कर दिया।

काफी काम इस समय विज्ञान में चलता है। बड़े ग्रंथ लिखे जाते हैं, बड़ी शोध की जाती है सोम की खोज के लिए। क्यों? क्योंकि पश्चिम में इधर तीस वर्षों में वनस्पति के द्वारा, औषधि के द्वारा, रसायन के द्वारा समाधि कैसे प्राप्त की जाए, इस संबंध में बड़ा आंदोलन है। तो एल. एस डी., मारिजुआना, मेस्कलीन, इन सब की बड़ी पकड़ है। और सारी गवर्नमेंट्स डर गई हैं, सारी दुनिया में रुकावट लगा दी गई है कि कोई भी इन चीजों को न ले।

और यह बड़े मजे की बात है कि शराब सबसे ज्यादा खतरनाक है, लेकिन शराब सब जगह प्रचलित है! और ये औषधियां शराब जैसी खतरनाक नहीं हैं, लेकिन इन पर भारी रोक है। और डर इस बात का है कि ये औषधियां व्यक्ति में ऐसे क्रांतिकारी फर्क ले आती हैं कि आज का जो समाज है, वह उस व्यक्ति का उपयोग नहीं कर सकेगा।

जैसे अगर युवक एल. एस डी, मारिजुआना, और इस तरह की चीजों का उपयोग करने लगें, तो उनको युद्ध पर नहीं भेजा जा सकता। वे इतने शांत हो जाएंगे कि उनको युद्ध पर नहीं भेजा जा सकता। उनसे दंगे, उपद्रव नहीं करवाए जा सकते। उन्हें रस ही नहीं रह जाएगा लड़ने का।

इन सारी औषधियों के कारण पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक अल्डुअस हक्सले ने घोषणा की थी कि इस सदी के पूरे होते—होते हम सोम का पता लगा लेंगे। क्योंकि सोम इन्हीं sए मिलती—जुलती कोई चीज होनी चाहिए। इनसे बहुत श्रेष्ठ, लेकिन इनसे मिलती—जुलती। क्योंकि वेद में जो वर्णन है सोम का कि ऋषि सोम को पी लेते हैं और समाधिस्थ हो जाते हैं, और परमात्मा के आमने—सामने उनकी चर्चा और बातचीत होने लगती है। इस लोक से रूपांतरित हो जाते हैं; किसी और आयाम में प्रविष्ट हो जाते हैं।

हो सकता है, सोम इस तरह का रासायनिक रस रहा हो कि समाज को उसे विलुप्त कर देना पड़ा हो। क्योंकि समाज उसके सहारे नहीं चल सकता। अगर लोग बहुत आनंदित हो जाएं, नाचने—गाने लगें और तल्लीन रहने लगें, तो समाज नहीं चल सकता है। समाज के लिए थोड़े दुखी, परेशान लोग चाहिए; वे ही चलाते हैं। उनके बिना नहीं चल सकता।

अगर सभी लोग प्रसन्न हों, तो बहुत मुश्किल है काम। किसको लगाइएगा दौड़ में कि तू फैक्टरी चला। वह कहेगा, ठीक है, रोटी मिल जाती है। किसको दौड़ में लगाइएगा कि तू दिल्ली जा! वह कहेगा, हम पागल नहीं हैं। हम जहा हैं, वहीं दिल्ली है। हम मजे में हैं।

यह जो इतनी दौड़ चलती है, अर्थ की, राजनीति की, सब तरह की विक्षिप्तता की, इसके लिए दुखी लोग चाहिए। युद्ध चलते हैं, संघर्ष चलता है, और चैन नहीं है एक क्षण को, इसके लिए बेचैन लोग चाहिए।

हिप्पियों से अमेरिका डरा हुआ है। क्योंकि अगर सारे लड़के और लड़किया हिप्पियों जैसे हो जाएं, तो अमेरिका डूबेगा। इस अर्थ—तंत्र में उसकी कोई जगह न रह जाएगी।

इनको लड़वाया नहीं जा सकता है। ये लड़ने से इनकार करते हैं। और यह परिणाम है एल एस. डी. और मांरिजुआना और मेस्कलीन का, तो सोम का क्या परिणाम रहा होगा!

सोम अदभुततम रस है। हिंदू धारणा से सभी वनस्पतियों में चांद उतरता है। लेकिन सोम नाम की जो वनस्पति है, उसमें चांद पूरा उतरता है। वह चांद की पूरी शांति को पी जाती है। उसके पत्ते—पत्ते में, उसके फूल में, उसकी जड़ों में चांद छिप जाता है। और उसका अगर विधिवत उपयोग किया जाए, तो समाधि फलित होती है। निश्चित ही, उस पर रोक लगाई गई होगी; उसको छिपाया गया होगा या नष्ट कर दिया गया होगा। इसलिए बहुत खोज करके हिमालय में भी सोम वनस्पति उपलब्ध नहीं होती।

लेकिन कृष्ण यहां कह रहे हैं कि मैं वही सोम हूं। चांद भी मैं हूं, सूरज भी मैं हूं। इस जगत में जो तेज है, वह भी मेरा है, और इस जगत में जो शांति है, सन्नाटा है, वह भी मेरा है। इस जगत में जो तरंगें हैं, वे भी मेरी हैं। इस जगत में जो मौन है, वह भी मेरा है। इस जगत का जो ताप—उत्तप्त व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं; और इस जगत का जो शांत समाधिस्थ व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं।

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त हुआ अन्न को पचाता हूं। और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं।

यह काफी महत्वपूर्ण बात है, सभी प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं।

आपके भीतर कहां अंतर्यामी है? अगर आप अपने अंतर्यामी को पकड़ लें, तो क्या के चरण हाथ में आ गए। कौन—सा तत्व है आपके भीतर जो अंतर्यामी है? कैसे उस तत्व को पकड़े?

अंतर्यामी का अर्थ होता है, भीतर का जानने वाला। भीतर जो छिपा है जानने वाला। तो जिस तत्व को आप जान नहीं सकते और जो सबको जानता है, धीरे— धीरे उसकी गहराई में डूबना है।

शरीर को मैं जानता हूं। शरीर को देखता हूं। तो जिसे मैं जानता हूं और देखता हूं वह अलग हो गया, पृथक हो गया, वह मेरा ज्ञाता न रहा, ज्ञेय हो गया, वह आब्जेक्ट हो गया। वह संसार का हिस्सा हो गया।

भीतर आंख बंद करता हूं तो हृदय की धड़कन भी मैं सुनता हूं? अपने हृदय की धड़कन भी सुनता हूं। तो यह हृदय की धड़कन मेरी न रही; यंत्रवत हो गई, शरीर की हो गई। मैं देखने वाला इसके पीछे खड़ा हूं। इसको भी मैं सुनता हूं; इससे मैं अलग हो गया, फासला हो गया।

आंख बंद करता हूं विचारों की बदलियां घूमती हैं। उनको भी मैं देखता हूं कि यह विचार जा रहा है, यह अच्छा, यह बुरा; यह क्रोध, यह लोभ। इन विचारों के पार मैं देखने वाला हो गया।

समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं इतनी ही चेष्टा करती हैं कि तुम्हें यह समझ में आना शुरू हो जाए कि तुम क्या—क्या नहीं हो। नेति—नेति; यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं। काटते जाओ। जो भी दिखाई पड़ जाए, जो भी ज्ञेय बन जाए जो भी आब्जेक्ट बन जाए, उसे छोड़ते जाओ; इलिमिनेट करो, नकार करो। और उस जगह ही रुको, जहा सिर्फ जानने वाला ही रह जाए। वह अंतर्यामी है। वह जो भीतर छिपा और सब जानता है, और किसी के द्वारा कभी जाना नहीं जाता। क्योंकि उसके पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। वह सबसे पीछे है। वह अंत है। वह मूल है। वह उत्स है।

अगर हम अपने भीतर के अंतर्यामी को पकड़ लें, वही हम हैं, अगर उसमें हम खडे हो जाएं और ठहर जाएं, तो हम कृष्ण में खड़े हो गए। और तब हम भी कह सकेंगे कि यह सूरज मेरी ही रोशनी है, और यह चांद मुझसे ही चमकता है, औषधियां मुझसे ही बड़ी होती हैं; और इस जगत में जो सोम बरस रहा है, वह मैं ही हूं।

अंतर्यामी को आप पकड़ लें, तो यही घोषणा जो कृष्ण की है, आपकी घोषणा हो जाएगी। और तभी आप समझ पाएंगे कि कृष्ण अहंकार के कारण यह घोषणा नहीं कर रहे हैं, यह एक आतरिक अनुभव के कारण कर रहे हैं।

और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, जान और अपोहन, संशय—विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदात का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।

मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन।

तीन शब्दों का कृष्ण ने उपयोग किया है, स्मृति, ज्ञान और अपोहन। अपोहन का अर्थ है, संशय—विसर्जन। यह बड़ी समझने की बात है। अपोहन शब्द याद रखने जैसा है।

आपके भीतर सदा ऊहापोह चलता है। ऊहापोह का मतलब है, यह ठीक कि वह ठीक! यह भी ठीक, वह भी ठीक! कुछ समझ नहीं पड़ता, क्या ठीक। संशय! मन डोलता रहता है घड़ी के पेंडुलम की तरह, बाएं —दाएं; कहीं ठहरता नहीं मालूम पड़ता। यह ऊहापोह की अवस्था है।

अपोहन का अर्थ है, इससे विपरीत अवस्था। जहा कोई ऊहापोह नहीं, जहा संशय चला गया; जहा असंशय आप खड़े हो गए। जहा पेंडुलम घूमता नहीं है; खड़ा हो गया है घिर। जहा कोई कंपन नहीं है। जहा यह ठीक या वह ठीक, ऐसा भी कोई सवाल नहीं है। जहा आप सिर्फ खड़े हैं, जहा चुनाव न रहा। जिसको कृष्णमूर्ति च्चाइसलेसनेस कहते हैं, वह अपोहन है। जहा सब चुनाव शांत हो गए; जहा मुझे चुनना नहीं कि यहां जाऊं कि वहा जाऊं। जहा आप बिना चुनाव चुपचाप खड़े हैं, जहा चित्त थिर है।

कृष्ण कहते हैं, स्मृति मैं हूं। क्योंकि आपके भीतर जिसको आप स्मृति कहते हैं, उसको कृष्ण स्मृति नहीं कह रहे हैं। जिसको आप मेमोरी कहते हैं, वह नहीं। कि आपको पता है कि आपका नाम क्या है, आपकी तिजोरी में कितना रुपया जमां है, आपकी दुकान कहां है, इससे प्रयोजन नहीं है स्मृति का। स्मृति से इस बात का प्रयोजन है कि मैं कौन हूं। सेल्फ रिमेंबरिग। मेमोरी नहीं, आत्म—बोध, कि मैं कौन हूं!

आप दुकानदार हैं, यह आत्म—बोध नहीं है। क्योंकि दुकानदार होना सांयोगिक है; कोई आपका स्वभाव नहीं है।

लेकिन हम उसको भी स्वभाव की तरह पकड़ लेते हैं। दुकानदार को दुकान से हटाओ, उसको लगता है, उसकी आत्मा जा रही है। नेता को पद से हटाओ, उसको लगता है, मरे; गए। पद के बिना वह कुछ भी नहीं है।

मैंने सुना है, एक गाव से चार चोर निकलते थे। उन्होंने देखा कि एक नट छलांग लगाकर बड़ी ऊंची रस्सी पर चढ़ गया। और रस्सी पर नाचने के कई तरह के करतब दिखाने लगा। उन चोरों ने कहा, यह आदमी तो काम का है! इसको उड़ा ले चलें। हमें बड़ी मेहनत पड़ती है मकानों में चढ़ने में रात। यह तो गजब का आदमी है! एक इशारा करो कि दूसरी मंजिल पर पहुंच जाए।

उस नट को उन्होंने उड़ा लिया। रात उन्होंने बड़े से बड़ा जो नगर का सेठ था, उसकी हवेली चुनी; जिसको वे अब तक नहीं चुन पाए थे, क्योंकि हवेली बड़ी थी, चढ़ने में अड़चन थी।

नट को लेकर वे पहुंचे। बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने नट से कहा, अब तू देर न कर भाई। एक, दो, तीन, छलांग लगा, ऊपर चढ़। लेकिन नट वहीं खड़ा रहा। उन्होंने फिर दुबारा कहा; नट वहीं फिर खड़ा रहा। उन्होंने फिर तीसरी बार कहा। तीसरी बार एक चोर बिलकुल नाराज हो गया, उसने कहा, अभी तू खड़ा क्यों है? चढ़! हमारे पास ज्यादा समय नहीं है।

नट ने कहा, पहले नगाड़ा बजाओ। बिना नगाड़े के कैसे नट चढ़ सकता है! नगाड़ा जब बजे, तब उसने कहा, मैं. नहीं तो मेरे पैर में गति ही नहीं है। हम खड़े नहीं हैं, कोई उपाय ही नहीं है। अब चोर नगाड़ा तो बजा नहीं सकता। पर नट ठीक कह रहा था। लेकिन उसको भी खयाल नहीं है कि अगर वह छलांग लगा सकता है, तो नगाड़े से कुछ लेना—देना नहीं है।

दुकानदार होना आपका, कि डाक्टर होना, कि मजदूर होना, कि स्त्री होना, कि पुरुष होना, सांयोगिक है। वह कोई आपका स्वभाव नहीं है। और आप वह नहीं रहेंगे, तो सब मिट गया, ऐसा कुछ नहीं है। कुछ नहीं मिटता। उसकी जो स्मृति है, उसको कृष्ण नहीं कह रहे हैं कि वह मैं हूं नहीं तो आप सोचें कि कृष्ण.।

कृष्ण कह रहे हैं, आत्म—स्मरण मैं हूं सेल्फ रिमेंबरेंस मैं हूं। जिस दिन आप स्मरण करेंगे इन सब संयोगों से हटकर आपका जो स्वभाव है, आप कौन हैं! मैं कौन हूं!

ये सारी सांयोगिक बातें हैं। मेरा नाम, मेरा घर, पता, ये सब कुछ मूल्य के नहीं हैं। मेरा न कोई नाम है, और न मेरा कोई घर है, और न मेरा कोई रूप है। मेरी वह जो अरूप और अनाम स्थिति है, उसको कृष्ण कहते हैं, वह स्मृति है।

स्मृति शब्द बाद में बिगड़ा और कबीर और दादू के समय में सुरति हो गया। नानक और दादू और कबीर सुरति का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, सुरति जगाओ। सुरति का मतलब है, जगाओ उसको, जो आपके भीतर परमात्मा है।

और जब रमण कहते हैं, जानो कि तुम कौन हो—हू एम आई; तो वे इसी कृष्ण के पीछे पड़े हैं। यही कह रहे हैं कि पीछे पहचानो। वह जो सब संयोगों के पार है, सब स्थितियों के पार है, सभी स्थितियों से गुजरता है, फिर भी किसी स्थिति के साथ एक नहीं है, सभी अवस्थाओं से गुजरता है.।

कभी आप बच्चे हैं; कभी जवान हैं; कभी के हैं; लेकिन आपके भीतर कोई है, जो न बच्चा है, न जवान है, न का है; जो तीनों से गुजरता है। जैसे तीन स्टेशनें हों और आपकी ट्रेन तीनों से गुजर जाए। वह जो यात्री भीतर बैठा है, जो सदा चल रहा है, कहीं भी ठहरता नहीं है, किसी भी अवस्था के साथ एक नहीं हो जाता है; सदा अवस्था—मुक्त है, उसकी स्मृति को कृष्ण कहते हैं, मैं हूं। शान! यहां ज्ञान से अर्थ नालेज का नहीं है। विश्वविद्यालय ज्ञान देते हैं। कृष्ण उस ज्ञान की बात नहीं कर रहे हैं। शिक्षक ज्ञान देते हैं! स्मृति इकट्ठी कर लेती है ज्ञान को। संग्रह हो जाता है आपके पास, बड़ी सूचनाएं इकट्ठी हो जाती हैं। कृष्ण उसको ज्ञान नहीं कह रहे हैं।

ज्ञान से अर्थ नालेज नहीं है। शान से अर्थ प्रज्ञा है। ज्ञान से अर्थ विजडम है। बड़ी अलग बात है। क्योंकि यह हो सकता है, आप कुछ न जानते हों और ज्ञानी हों। और यह भी हो सकता है, बहुत कुछ जानते हों और निपट अज्ञानी हों। आपके जानने से कोई संबंध नहीं है।

एक आदमी बहुत कुछ जान सकता है। सब शास्त्र कंठस्थ हों; तोते की तरह कंठस्थ हो सकते हैं, जरा भी भूल न करे। यंत्रवत स्मृति हो। और फिर भी जीवन में व्यवहार जो करे, वहां अज्ञानी सिद्ध हो।

आपको वेद कंठस्थ हों, सारी बातें याद हों, और गीता आपकी जबान पर बैठी हो; और आपको मालूम है बिलकुल कि न तो शस्त्रों से छिदता हूं न अग्नि मुझे जला सकती है। और जरा—सा दुख आ जाए और आप छाती पीटकर रो रहे हैं! सब गीता वगैरह रखी रह जाती है! वहा पता चलता है कि यह प्रज्ञा है या नहीं। प्रज्ञा आपके अनुभव में काम आती है। और शान केवल बुद्धि की बातचीत है। और बुद्धि की बातचीत तो हम कुछ भी इकट्ठी कर ले सकते हैं।

मैं एक प्रोफेसर के घर मेहमान था। ऐसे अचानक मेरे कान में पति—पत्नी की बात पड़ गई। मैं अपने कमरे में बैठा था, जहा उनके घर में रुका था। पति बाहर से आए। पत्नी से कहा—कुछ जोर से ही कहा, बड़े प्रसन्न थे—कि आज रोटरी क्लब में रात मेरा व्याख्यान है तिब्बत के ऊपर। पत्नी ने कहा, तिब्बत? लेकिन तुम तिब्बत तो कभी गए नहीं! पति ने कहा, छोड़ो भी। सुनने वाले ही कौन से तिब्बत होकर आए हैं!

यह मैं सुन रहा था। तब मुझे पता चला कि शान के लिए तिब्बत जाने की कोई जरूरत नहीं है, न सुनने वाले को, न बोलने वाले को। अक्सर अध्यात्म के नाम पर ऐसे ही तिब्बत के यात्री चलते रहे हैं। न सुनने वाले को कुछ पता है कि ब्रह्म क्या, न बोलने वाले को कुछ पता है। जब दोनों को पता नहीं, तो कोई अड़चन ही नहीं है। यहां जो कृष्ण कह रहे हैं ज्ञान, तो विजडम, प्रज्ञा से उसका संबंध है। अनुभव में जिसके, जीवन में जिसका बोध सधा हुआ है, कैसी भी अवस्था हो, जिसके बोध को डिगाया नहीं जा सकता, वह मैं हूं। स्मृति, ज्ञान और अपोहन, सब वेदों द्वारा जानने योग्य। ये ही तीन बातें हैं। सारा वेदांत इन्हीं तीन की खोज करता है। और न केवल सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं वरन वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।

सारे वेद मुझे ही खोजते हैं। और सारे वेद मेरे ही अनुभव से निकलते हैं।

सारे वेदों की खोज क्या है? कि वह अंतर्यामी मिल जाए। वह जो भीतर छिपा हुआ राजों का राज है, वह मिल जाए। लेकिन वेद निकलते कहां से हैं?

जिनको वह मिल जाता है, उनकी वाणी वेद बन जाती है। जो उसे पा लेते हैं, उनकी सुगंध वेद बन ‘जाती है। जो वहां तक पहुंच जाते हैं उस अंतर्यामी तक, फिर वे जो भी कहते हैं, वही वेद बन जाता है। वे न कहें, तो मौन उनका वेद हो जाएगा। वे चलें—फिरें, उठें, तो उनकी गतिविधि वेद हो जाएगी।

अगर बुद्ध को चलते हुए भी देख लो, तो भी उस चलने में समाधि है; उसमें भी इशारा है। अगर कृष्ण को बांसुरी बजाते हुए देख लो, तो उस बांसुरी में वेद है; उसमें सारा वेदांत है, उसमें सारा इशारा है।

कृष्ण कहते हैं कि मैं ही सबकी खोज, और मैं ही सब का मूल उत्स। और यह जो मैं है, तुम्हारे भीतर छिपा हुआ अंतर्यामी है। कृष्ण बाहर से बोल रहे हैं, लेकिन जिसकी तरफ इशारा कर रहे हैं, वह अर्जुन के भीतर है।

गुरु सदा बाहर से बोलता है, लेकिन जिस तरफ इशारा करता है, वह शिष्य के भीतर है। इसलिए दो पड़ाव हैं यात्रा के। एक तो बाहर का गुरु, वह पहला पड़ाव है। और फिर भीतर का गुरु, वह अंतिम पड़ाव है।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–178

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पुरूषोत्‍तम की खोज—(प्रवचन—छठवां)

अध्‍याय—15

सूत्र—

द्वाविमौ पुरूषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।

क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्‍यते।। 16।।

उत्तम: पुरूषस्‍त्‍वन्य: परमात्मेत्युदाह्वत:।

यो लस्केत्रयमाविश्य बिभर्त्सव्यय ईश्वर:।। 17।।

यस्मात्‍क्षरमर्तोतोऽहमक्षरादीप चोत्तम:।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।। 18।।

हे अर्जुन, हम संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्‍मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है।

तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण—पोषण करता है, एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्‍मा, ऐसे कहा गया है।

क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर, अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं इसलिए लम्बे में और वेद में पुरूषोत्तम नाम मे प्रसिद्ध हूं।

 

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न :

 

कल एकाग्रता का आपने भारी मूल्य बताया है, पर आप अपने ध्यान प्रयोगों में एकाग्रता की अपेक्षा साक्षी— भाव पर अधिक जोर देते हैं। ऐसा किस कारण है?

काग्रता शक्ति को उपलब्ध करने की विधि है। साक्षी— भाव शांति को उपलब्ध करने की विधि है। शक्ति उपलब्ध करने से जरूरी नहीं है कि शांति उपलब्ध हो। लेकिन शांति उपलब्ध करने से शक्ति अनिवार्यरूपेण उपलब्ध हो जाती है।

जो व्यक्ति शक्ति की खोज में हैं, उनका रस एकाग्रता में होगा। जैसे सूरज की किरणें इकट्ठी हो जाएं, तो अग्नि पैदा हो जाती है। वैसे ही मन के सारे विचार इकट्ठे हो जाएं, तो शक्ति पैदा हो जाती है। थोड़े से प्रयोग करें, तो समझ में आ सकेगा।

जब भी मन एकजुट हो जाता है, तब आपके जीवन की पूरी ऊर्जा एक दिशा में बहने लगती है। और जितना संकीर्ण प्रवाह हो, उतनी ही शक्तिशाली हो जाती है। जितने विचार बिखरे हों, ऊर्जा उतने अनेक मार्गों से बहती है; तब क्षुद्र शक्ति हाथ में रह जाती है। जिस विचार के प्रति भी आप एकाग्र हो जाते हैं, वह विचार शीघ्र ही यथार्थ में परिणत हो जाएगा। जिस विचार में मन डांवाडोल होता है, उसके यथार्थ में परिणत होने की कोई संभावना नहीं है।

एकाग्रता तो सांसारिक मनुष्य भी चाहता है। और सांसारिक मनुष्य को भी अगर कहीं सफलता मिलती है, तो एकाग्रता के कारण ही मिलती है। वैज्ञानिक भी एकाग्रता के माध्यम से ही खोज कर पाता है। संगीतज्ञ भी एकाग्रता के माध्यम से ही संगीत की गहरी कुशलता को उपलब्ध होता है। लेकिन साक्षी— भाव में केवल धार्मिक व्यक्ति उत्सुक होता है।

सांसारिक व्यक्ति की साक्षी— भाव में कोई भी उत्सुकता नहीं होती। और अगर साक्षी— भाव उसे कहीं रास्ते पर पड़ा हुआ भी मिल जाए, तो भी वह उसे चुनना पसंद न करेगा। क्योंकि साक्षी— भाव का परिणाम शांति है। और साक्षी— भाव का परिणाम शून्य हो जाना है। साक्षी— भाव का परिणाम मिट जाना है। वह महामृत्यु जैसा है। एकाग्रता से तो आपका ही मन मजबूत होता है और अहंकार प्रबल होगा। साक्षी— भाव से मन शांत होता है, समाप्त होता है, अंततः मिट जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। साक्षी— भाव मन के पीछे छिपी आत्मा की अनुभूति है। और एकाग्रता मन की ही बिखरी शक्तियों को इकट्ठा कर लेना है।

इसलिए एकाग्रता को उपलब्ध व्यक्ति जरूरी नहीं है कि धार्मिक हो जाए। लेकिन साक्षी— भाव को उपलब्ध व्यक्ति अनिवार्यरूपेण धार्मिक हो जाता है।

एकाग्रता परमात्मा तक नहीं ले जाएगी। और अगर आप परमात्मा की खोज एकाग्रता के माध्यम से कर रहे हों, तो एक न एक दिन आपको एकाग्रता भी छोड़ देनी पड़ेगी। क्योंकि परमात्मा तभी मिलता है, जब आप ही बचे। इसे थोड़ा समझ लें।

अगर दो मौजूद हों, आप और आपका परमात्मा, तो परमात्मा की उपलब्धि नहीं होने वाली है। जब आप ही बचे, तब ही परमात्मा की उपलब्धि होने वाली है। या परमात्मा ही बचे, आप न बचें, तो उसकी उपलब्धि हो सकती है।

एकाग्रता में तो सदा दो बने रहते हैं। एक आप, जो एकाग्र हो रहा है; और एक वह, जिसके ऊपर एकाग्र हो रहा है। एकाग्रता में द्वैत नहीं नष्ट होता; दुई ‘तो बनी ही रहती है। साक्षी— भाव में द्वैत नष्ट होता है, अद्वैत की उपलब्धि होती है।

इसलिए मेरा जोर तो साक्षी— भाव पर ही है। और अगर कोई व्यक्ति एकाग्रता में उत्सुकता भी रखता है, तो भी मैं उसे साक्षी— भाव की तरफ ही ले जाने की कोशिश करता हूं।

एकाग्रता के माध्यम से भी साक्षी— भाव की तरफ जाया जा सकता है। क्योंकि जिसका मन बिखरा है, उसे साक्षी— भाव भी साधना कठिन होगा। जिसका मन एकजुट है, उसे साक्षी— भाव भी साधना आसान हो जाएगा। इसलिए कुछ धर्मों ने भी एकाग्रता का उपयोग साक्षी— भाव की पहली सीढ़ी की तरह किया है। लेकिन वह सीढ़ी ही है, साधन ही है, साध्य नहीं है।

और ध्यान रहे, साक्षी— भाव साधन भी है और साध्य भी। साक्षी— भाव साधना भी है और साक्षी— भाव पाना भी है। साक्षी— भाव के पार कुछ भी नहीं है। इसलिए साक्षी— भाव की साधना पहले चरण से ही मंजिल की शुरुआत है।

एकाग्रता मंजिल की शुरुआत नहीं है। वह एक साधन है, एक रास्ता है। वह रास्ता वहां तक पहुंचा देगा, जहां से असली रास्ता शुरू होता है। और वह भी तभी पहुंचाएगा, जब आपको ध्यान में हो। अन्यथा खतरा है। एकाग्रता में भटक जाने की पूरी सुविधा है। ऐसा हुआ, विवेकानंद एकाग्रता की साधना करते थे। शक्तिशाली व्यक्ति थे और मन को इकट्ठा कर लेना शक्तिशाली व्यक्तियों के लिए बड़ा आसान है। सिर्फ कमजोरी के कारण ही हम मन को इकट्ठा नहीं कर पाते हैं। कमजोरी के कारण ही मन यहां —वह। भागता है, हम उसे खींच नहीं पाते। हाथ कमजोर हैं, लगाम कमजोर है, घोड़े कहीं भी भागते हैं। और इसलिए कमजोरी में हमसे सब भूलें होती हैं।

एक आदमी पर मुकदमा चल रहा था। उसने पहले एक आदमी को मारा, फिर दूसरे आदमी को धक्का देकर छत से नीचे गिरा दिया और तीसरे आदमी की हत्या कर दी। एक पंद्रह मिनट के भीतर तीन काम उसने किए।

जज उससे पूछ रहा था कि तू इतने भयंकर काम पंद्रह मिनट में कैसे कर पाया? उस आदमी ने कहा, क्षमा करें, कमजोरी के क्षण में ऐसा हो गया। कमजोरी के क्षण में, मोमेंट्स आफ वीकनेस। आप जिनको कमजोरी के क्षण कहते हैं, वहीं आपकी ताकत दिखाई पड़ती है। आपकी ताकत गलत में ही दिखाई पड़ती है। और गलत में इसलिए दिखाई पड़ती है कि वहां आपको ताकत दिखानी नहीं पड़ती, मन ही आपको खींचकर ले जाता है। मन के विपरीत जहां भी आपको ताकत दिखानी पड़े, वहीं आप कमजोर हो जाते हैं। वहीं फिर आपसे कुछ बनता नहीं।

अगर आपसे कोई कहे कि पांच मिनट शांत होकर बैठ जाएं, तो बड़ी कठिन हो जाती है बात। पचास साल अशांत रह सकते हैं; उसमें जरा भी अड़चन नहीं है। पाच क्षण शांत होना कठिन है। जन्मों—जन्मों तक विचारों की भीड़ चलती रहे, आपको कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन एक विचार पर मन को क्षणभर को लाना हो, तो बस कठिनाई हो जाती है।

पर विवेकानंद शक्तिशाली व्यक्ति थे। एकाग्रता के प्रयोग करते थे। एकाग्रता सध भी गई। जैसे ही एकाग्रता सधी, जो खतरा होना चाहिए, वह हुआ। क्योंकि एकाग्रता के सधते ही आपको लगता है कि मैं महाशक्तिशाली हो गया।

रूस में एक महिला है, जो पांच मिनट तक अपने को एकाग्र कर लेती है, तो फिर आस—पास की वस्तुओं को प्रभावित कर सकती है। बीस फीट के घेरे में पत्थर पड़ा हो, तो वह उसको अपने पास खींच ले सकती है, सिर्फ विचार से। टेबल रखी हो, तो सिर्फ विचार से हटा दे सकती है। टेबल पर सामान रखा हो, तो सिर्फ विचार से नीचे गिरा दे सकती है।

रूस में उसके बड़े वैज्ञानिक परीक्षण हुए हैं। और उन्होंने अनुभव किया कि जब विचार बिलकुल एकाग्र हो जाता है, तो जैसे विद्युत के धक्के लगते हैं वस्तुओं को, ऐसे ही विचार के धक्के भी

लगने शुरू हो जाते हैं। उसके फोटोग्राफ भी लिए गए हैं, और उसके वैज्ञानिक प्रयोग भी किए गए हैं। और सभी प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ कि उस स्त्री से कोई वैद्युतिक शक्ति प्रवाहित होती है, जो वस्तुओं को हटा देती है या पास खींच लेती है।

पंद्रह मिनट के प्रयोग में उस स्त्री का तीन पाउंड वजन कम हो जाता है। इतनी शक्ति प्रवाहित होती है कि उसका तीन पाउंड शरीर से वजन नीचे गिर जाता है।

तो दिखाई न पड़ती हो, लेकिन फिर भी शक्ति भौतिक है। नहीं तो तीन पाउंड वजन कम होने का कोई कारण नहीं है। अदृश्य हो, लेकिन मैटीरियल है, पदार्थगत है। इसलिए तीन पाउंड शरीर का वजन नीचे गिर जाता है। और वह स्त्री कोई एक सप्ताह तक अस्वस्थ अनुभव करती है। एक सप्ताह के बाद फिर प्रयोग कर सकती है, उसके पहले नहीं।

जब भी कोई चित्त को एकाग्र करता है, तो बड़ी शक्ति प्रकट होती है। अगर उसका उपयोग किया जाए, शक्ति क्षीण हो जाती है। अगर उसका उपयोग न किया जाए और सिर्फ उसका साक्षी रहा जाए, तो वह शक्ति स्वयं में लीन हो जाती है। और वह जो स्वयं में शक्ति की लीनता है, वह साक्षी का आधार बनने लगती है।

विवेकानंद ने एकाग्रता साधी और जैसा सभी को होगा, उनको भी हुआ, लगा कि मैं परम शक्तिशाली हो गया हूं। और कोई भी काम करना चाहूं, तो केवल विचार से हो सकता है।

रामकृष्ण के आश्रम में एक बहुत सीधा—सादा आदमी था। कालू उसका नाम था, कालीचरण। वह भक्त आदमी था। अपने छोटे—से कमरे में उसने कम से कम नहीं तो सौ—पचास देवी—देवता रख छोडे थे। सब तरह के देवी—देवताओं को नमस्कार करना…! उसको कोई तीन घंटे से लेकर छ: घंटे तक पूजा में लग जाते। क्योंकि सभी को थोड़ा— थोड़ा राजी करना पड़ता। इतने देवी—देवता थे।

और विवेकानंद उससे अक्सर कहते थे, क्योंकि विवेकानंद का मन वस्तुत: नास्तिक का मन था। शुरुआत से ही विचार और तर्क उनकी पकड़ थी। तो उस पर वे हंसते थे और उससे कहते थे, कालीचरण, फेंक। यह क्या कचरा इकट्ठा कर रखा है! और इन पत्थरों के पीछे तू तीन—तीन, छ: —छ: घंटे खराब करता है!

जैसे ही उनको एकाग्रता का पहला अनुभव हुआ, उनको खयाल आया कालीचरण का, कि वह पूजा कर रहा है बगल के कमरे में। तो उन्होंने अपने मन में ही सोचा कि कालीचरण, बस, अब बहुत हो गया। सारे देवी—देवताओं को एक कपड़े में बांध और गंगा में फेंक आ।

कालीचरण पूजा कर रहा था; अचानक उसे भाव आया कि सब बेकार है। सारे देवी—देवता उसने कपड़े में बांधे और गंगा की तरफ चला।

रामकृष्ण अपने कमरे में बैठे थे। उन्होंने कालीचरण को बुलाया कि कहां जा रहे हो? उसने कहा, सब व्यर्थ है; कर चुके पूजा—पाठ बहुत; इससे कुछ होता नहीं। ये सब देवी—देवताओं को गंगा में फेंकने जा रहा हूं। कालीचरण को रामकृष्ण ने कहा, एक दो मिनट रुक। और आदमी भेजा कि विवेकानंद को उनकी कोठरी से निकालकर बाहर ले आओ। कालीचरण को कहा कि यह तू नहीं जा रहा है।

विवेकानंद घबडाए हुए आए। रामकृष्ण ने कहा कि देख, यह तूने क्या किया! और अगर यही करना है एकाग्रता से, तो तेरी कुंजी सदा के लिए मैं रखे लेता हूं। अब मरने के तीन दिन पहले ही तुझे कुंजी वापस मिलेगी।

विवेकानंद मरने के तीन दिन पहले तक फिर एकाग्रता न साध सके।

विवेकानंद जैसा व्यक्ति भी अगर शक्ति का ऐसा क्षुद्र उपयोग करने को तैयार हो जाए, तो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए तो बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए एकाग्रता पर मेरा जरा भी जोर नहीं है। पहले आपको एकाग्रता सधवाई जाए, फिर चाबी रखी जाए, इस सब अड़चन में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है।

साक्षी— भाव सहज मार्ग है। और चूंकि शक्ति सीधी उपलब्ध नहीं होती, बल्कि शांति उपलब्ध होती है। जैसे—जैसे साक्षी सधता है, वैसे—वैसे आप परम शांत होते जाते हैं। उस परम शांति के कारण ऐसे उपद्रवी खयाल आपमें उठेंगे ही नहीं। और दूसरे को कुछ करके दिखाना है, दूसरे के साथ कुछ करना है अपनी शक्ति से, ऐसी वासना नहीं जगेगी।

अन्यथा सभी तरह की शक्तियां भटकाव बन जाती हैं। धन की शक्ति से ही लोग बिगड़ते हैं, ऐसा मत सोचना आप, सभी तरह की शक्ति से बिगड़ते हैं। पद की शक्ति से लोग बिगड़ते हैं, ऐसा आप मत सोचना, सभी तरह की शक्ति से बिगड़ते हैं। सचाई तो यह है कि बिगड़ने की तो आपकी मनोदशा सदा ही है, सिर्फ आप कमजोर हैं और बिगड़ने के लायक आपके पास शक्ति नहीं है। मेरे पास अक्सर लोग आते हैं। वे कहते हैं, फला आदमी इतना भला था, सेवक था, भूदान में काम करता था; गरीबों के चरण दबाता था; मरीजों का इलाज करता था, विधवाओं के लिए आश्रम खोलता था। वह जब से राजपद पर चला गया है, कि मिनिस्टर हो गया है, तब से बिलकुल बदल गया है! शक्ति ने उसे खराब कर दिया।

शक्ति क्यों खराब करेगी? उस आदमी के भीतर खराबी के सारे मार्ग थे, लेकिन उन पर बहने की हिम्मत न थी, और कोई उपाय न था। जैसे ही हिम्मत मिली, उपाय मिला, साधन जुटे, वह आदमी बिगड़ गया।

लोग कहते हैं, फलां आदमी कितना भला था जब गरीब था। जब से उसके पास पैसा आया है, तब से वह पागलपन कर रहा है। पागलपन सभी करना चाहते हैं, लेकिन पागलपन करने को भी तो सुविधा चाहिए। पाप सभी करना चाहते हैं, लेकिन पाप करने के लिए भी तो सुगमता चाहिए। बुरा सभी करना चाहते हैं, लेकिन आपकी सामर्थ्य भी तो बुरा करने की होनी चाहिए। जब भी सामर्थ्य मिलती है, बुराई तत्‍क्षण पकड़ लेती है।

पर मैं आपसे कहता हूं कि धन और पद की ही शक्तियां नहीं, एकाग्रता की शक्ति भी बुराई के रास्ते पर ले जाएगी। क्योंकि बुरे तो आप होना ही चाहते हैं। वे बीज वहा पड़े हैं, वर्षा की जरूरत है। शक्ति की वर्षा हो जाए, अंकुर फूट आएंगे। और जो बीज आप में छिपे हैं, वे प्रकट होने लगेंगे। और हम सब जहर के बीज लिए चल रहे हैं।

इसलिए मेरी पूरी चेष्टा रहती है निरंतर कि आपको शक्ति की दिशा में जाने का खयाल ही न पकड़े। आप मौन, शांति और शून्यता की दिशा में जाएं। क्योंकि जैसे—जैसे आप शांत होंगे, वे जो जहर के बीज आपके भीतर पड़े हैं, उनके अंकुरित होने का कोई उपाय न रहेगा। आपके शांत होते—होते वे बीज दग्ध होने लगेंगे, जल जाएंगे। शक्ति आपको भी उपलब्ध होगी, लेकिन वह तभी उपलब्ध होगी, जब शांति इतनी घनी हो जाएगी कि सारे रोग के बीज जल चुके होंगे, तब आपको शक्ति उपलब्ध होगी। लेकिन उसका फिर कोई दुरुपयोग नहीं हो सकता है।

और उस शक्ति का, सच पूछिए तो, आप उपयोग भी नहीं करेंगे। और जब कोई व्यक्ति शक्तिशाली हो जाता है और उपयोग नहीं करता, तब परमात्मा उस शक्ति का उपयोग करता है। इस कीमिया को ठीक से समझ लें।

जब तक आप उपयोग करने वाले हैं, तब तक परमात्मा आपका उपयोग नहीं करता। जब तक आप कर्ता हैं, तब तक परमात्मा के लिए आप उपकरण नहीं बनते, निमित्त नहीं बनते। जैसे ही आपको खयाल ही मिट जाता है कि कुछ करना है और शक्ति आपके पास होती है, उस शक्ति का उपयोग परमात्मा के हाथ में चला जाता है। कृष्ण का पूरा जोर गीता में अर्जुन से यही है कि तू कर्तापन छोड़ दे। और जैसे ही तेरा कर्तापन छूट जाएगा, वैसे ही परमात्मा तेरे भीतर से प्रवाहित होने लगेगा, तब तू निमित्त—मात्र है।

तो साक्षी का मार्ग और एकाग्रता का मार्ग बड़े भिन्न—भिन्न हैं। पर आपकी आकांक्षा क्या है? अगर आप अपने अहंकार को और बड़ा करना चाहते हैं, उसको और महिमाशाली करना चाहते हैं, तो साक्षी की बात आपको न जमेगी। तब आप चाहेंगे कि एकाग्रता, कनसनट्रेशन, सिद्धियां, शक्तियां आपको उपलब्ध हो जाएं। पर ध्यान रहे, वैसी खोज धार्मिक नहीं है। जहां भी आपको यह खयाल होता है कि मैं कुछ हो जाऊं, आप धर्म से हट रहे हैं। इस बात को आप कसौटी बना लें।

यह भावना आपकी रोज गहरी होती जाए कि मैं मिट रहा हूं; मैं ना—कुछ हो रहा हूं। और अंततः मुझे उस जगह जाना है, जहां मैं खो जाऊंगा, जहां बूंद को खोजने से भी न खोजा जा सकेगा, बूंद पूरी सागर में एक हो गई होगी। तो मुझे शक्ति की जरूरत भी क्या है? शक्ति परमात्मा की है और मैं परमात्मा में खो जाऊंगा, तो सारा परमात्मा मेरा है। मुझे अलग से शक्ति की खोज की जरूरत क्या है! अलग से शक्ति की खोज का अर्थ है, आप अपने अहंकार को बचाने में लगे हैं। और अहंकार ही संसार है।

दूसरा प्रश्न :

 

सबको शास्त्र पढ़कर गुरु की खोज में निकलना पड़ता है। क्या शास्त्रों को पढ़ने की कष्ट—साध्य प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य है? क्या सीधे ही गुरु की खोज में नहीं निकला जा सकता है?

संभव है; क्योंकि गुरु की खोज शास्त्र की असफलता से शुरू होती है। जब आप शास्त्र में खोजते हैं, खोजते हैं, खोजते हैं और नहीं पाते हैं, तभी गुरु की खोज शुरू होती है। जहां बाइबिल, कुरान, गीता और वेद हार जाते हैं, वहीं से गुरु की खोज शुरू होती है। क्यों? और सीधे गुरु की तलाश में जाना क्यों असंभव है?

पहली बात, शास्त्र मुर्दा है। उससे आपके अहंकार को चोट नहीं लगती। गीता को सिर पर रखना बिलकुल आसान है। कुरान पर सिर झुकाना बिलकुल आसान है। लेकिन किसी जीवित व्यक्ति को सिर पर रखना बहुत कठिन है; और किसी जीवित व्यक्ति के चरणों में सिर रखना बहुत मुश्किल है।

किताब तो मुर्दा है। मरे हुए से आपके अहंकार को कोई खतरा नहीं है। एक जिंदा व्यक्ति खतरनाक है। और उसके चरणों में सिर झुकाते वक्त पीड़ा होती है। आपका अहंकार बल मारता है। इसलिए पहले व्यक्ति शास्त्र से खोज करता है कि अगर किताब से मिल जाए, तो क्यों झंझट में पड़ना!

फिर किताब आप खरीद सकते हैं, गुरु आप खरीद नहीं सकते। किताब दुकान—दुकान पर मिल जाती है। गुरु को बेचने वाली कोई दुकानें नहीं हैं। किताब के अर्थ आप अपने मतलब से निकालेंगे। किताब की व्याख्या करने के आप ही मालिक होंगे, क्या मतलब निकालते हैं, यह आप पर ही निर्भर होगा। और हमारा जो अचेतन है, वह अपने ही हिसाब से अर्थ निकालता है।

इसलिए कोई किताब आपको बदल नहीं सकती। कोई किताब आपको रूपांतरित नहीं कर सकती। क्योंकि किताब का अर्थ कौन करेगा? आप गीता पढ़ेंगे, माना; लेकिन उस गीता से जो मतलब निकालेंगे, वे आपके ही होंगे, वह आपका ही अहंकार होगा; उसका ही प्रक्षेपण होगा।

और हम किताब से वही निकाल लेते हैं, उस पर ही हमारा ध्यान जाता है, जो हमारी चित्त—दशा होती है।

मैंने एक घटना सुनी है। पता नहीं सच है या झूठ। बंगला देश में याह्या खान ने अपनी सारी ताकतें लगा दीं। और रोज—रोज सूर्यास्त होने लगा। तो वह बहुत घबड़ाया हुआ था। और उसने अमेरिकी राजदूत को बुलाया कि हमें और शस्त्रास्त्रों की जरूरत पडेगी। इसके पहले कि अमेरिकी राजदूत आए, उसने बाइबिल पलटनी शुरू की इस खयाल से कि कुछ बाइबिल से दों—चार वचन याद कर ले, तो अमेरिकी राजदूत को बाइबिल के आधार पर प्रभावित करना आसान होगा।

उसने किताब पलटी। जिस वाक्य पर पहली उसकी नजर पड़ी, तो वह थोड़ा धक्का खाया। पहला वचन जो उसने देखा, वह था, और जुदास ने अपने आपको फांसी लगा ली। उसकी हालत उस वक्त वही थी, फांसी लगाने जैसी। तो वह थोड़ा डरा। उसने जल्दी से पन्ना पलटा।

दूसरे पन्ने पर उसकी नजर पड़ी, एक वचन था कि और तुम भी उसी का अनुसरण करो। तब तो वह बहुत घबड़ा गया। उसने जल्दी से तीसरा पन्ना उलटा, उसकी नजर पड़ी कि समय क्यों खराब कर रहे हो? देर क्या है? सोच—विचार क्या है? इस पर शीघ्र अमल करो। उसने घबड़ाकर बाइबिल बंद कर दी।

इस आधार पर कि आपका अचेतन काम करता है, चीन में एक किताब है, आई चिंग। यह दुनिया की अनूठी से अनूठी किताब है। और लाखों लोग हजारों वर्षों से इस किताब का उपयोग कर रहे हैं। आई चिंग ज्योतिष की अनूठी किताब है। और आपका कोई भी प्रश्न हो, आई चिंग में उसके उत्तर हैं। बस, आप अपना प्रश्न तैयार कर लें और आई चिंग को उलटे। और उसके उलटने के हिसाब हैं। पासे फेंकने का हिसाब है, उससे उसका पन्ना उलट लें। और आपको उत्तर मिल जाएगा।

आई चिंग बड़ी अदभुत किताब है। क्योंकि एक तो चीनी भाषा में है। उसका अनुवाद भी हुआ है, तो भी चीनी भाषा अनूठी है, उसमें एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। क्योंकि शब्द होता नहीं, सिर्फ चित्र होते हैं। और आई चिंग ऐसी रहस्यपूर्ण किताब है कि कोई भी वचन साफ नहीं है। किसी वचन का कोई साफ मतलब नहीं है; धुंधला— धुंधला है।

ऐसे ही जैसे कि आप आकाश में देखें, बादल घिरे हैं; और बादलों में जो भी चित्र आप देखना चाहें, देख लें। आपको घोड़ा बनाना हो, तो घोड़ा बन जाए; हाथी बनाना हो, तो हाथी बन जाए। जो भी आपको बनाना हो। क्योंकि बादल तो—न वहां हाथी है, न वहां घोड़ा है—सिर्फ धुआं है उड़ता हुआ। रेखाएं प्रतिपल बदल रही हैं। आप उनमें कोई भी कल्पना कर लें, वह आपको दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा।

चांद पर बच्चे देखते हैं कि बुढ़िया चरखा चला रही है। वह उनको दिखाई पड़ने लगता है। एक बार खयाल में आ जाए, फिर दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।

आई चिंग को लोग पढ़ते हैं; उनका जो अपना प्रश्न है, उसके हिसाब से वे उत्तर निकाल लेते हैं। उत्तर उसमें मिल जाते हैं। लोग सोचते हैं, बड़ी अनूठी किताब है। अनूठी सिर्फ इसलिए है कि जिसने भी रची, वह आदमी मिस्टिफिकेशन में, चीजों को धुंधला करने में महान कारीगर रहा होगा। कोई भी चीज का साफ रेखा में उत्तर नहीं है। इतना धुंधला है उत्तर कि आप जो भी मतलब निकालना चाहें, निकल सकता है। तो हर आदमी अपने मतलब का मतलब निकाल लेता है।

सभी शास्त्र धुंधले हैं। उसका कारण है। इसलिए नहीं कि धुंधले लोगों ने रखे हैं। लेकिन जिस सत्य की चर्चा है, शब्दों में आकर वह सत्य धुंधला हो जाता है। सत्य को शब्द के माध्यम में डालते ही धुंधलापन पैदा हो जाता है।

फिर शास्त्र से अर्थ आप अपना निकालते हैं। तो जो आदमी पढ़ता है, वही आदमी अपने को ही शास्त्र के माध्यम से पढ़ रहा है। इसलिए कोई शास्त्र आपको आपके ऊपर नहीं ले जा सकते, आपके भीतर ही रखेंगे। आपसे ज्यादा कोई शास्त्र आपको नहीं दे सकता। शास्त्र की हालत वैसी है, मैंने सुना है, एक आदमी, का आदमी, गाव का ग्रामीण, आंख के डाक्टर के पास गया। आंखों से उसको दिखना करीब—करीब बंद हो गया था। तो डाक्टर ने कहा, लेकिन आंखों में कोई मूलभूत खराबी नहीं है, चश्मा लगाने से सब ठीक हो जाएगा।

तो उस के आदमी ने कहा, क्या आंखें इतनी ठीक हो जाएंगी कि मैं लिख—पढ़ भी सकूं? डाक्टर ने कहा, बिलकुल। तुम लिख सकोगे, पढ़ सकोगे। तो उसने कहा, तब तो जल्दी करो, क्योंकि लिखना—पढ़ना मुझे आता नहीं।

अब जिसको लिखना—पढ़ना नहीं आता, वह चश्मा लगाने से भी लिख—पढ़ नहीं सकेगा। क्योंकि चश्मा उतना ही बता सकता है, जितना आपको आता हो, उससे ज्यादा नहीं।

शास्त्र में आप वह कैसे पढ़ सकते हैं, जो आपको आता ही नहीं। आप वही पढ़ सकते हैं, जो आपको आता है। इसलिए शास्त्र व्यर्थ हैं। शास्त्र आपको आपसे ज्यादा में नहीं ले जा सकता है, कोई आत्म— अतिक्रमण नहीं हो सकता है।

पर शास्त्र सुविधापूर्ण है। आप जो भी मतलब निकालना चाहें, निकालें। शास्त्र झगड़ा भी नहीं करता। वह यह भी नहीं कह सकता कि आप गलत अर्थ निकाल रहे हैं, कि यह मेरा भाव नहीं है, कि ऐसा मैंने कभी कहा नहीं है। शास्त्र कोई आज्ञा भी नहीं देता। सब आप पर निर्भर है।

इसलिए पहले अहंकार शास्त्र में खोजने की कोशिश करता है। और जब नहीं पाता.। और अभागे हैं वे लोग, जो सोचते हैं कि उनको शास्त्र में मिल गया। सौभाग्यशाली हैं वे लोग, जिनमें कम से कम इतनी बुद्धि है कि वे पहचान लेते हैं कि शास्त्र में हमें नहीं मिला। यह बुद्धिमान का लक्षण है।

अनेक तो बुद्धिहीन सोच लेते हैं कि उन्हें मिल ही गया। शास्त्र के शब्द कंठस्थ कर लेते हैं, और सोचते हैं, बात पूरी हो गई।

शास्त्र से जो असफल हो जाता है, उसकी नजर व्यक्तियों की तलाश में जाती है। क्योंकि अब अहंकार एक पराजय झेल चुका। और अब वह जीवित व्यक्ति में तलाश करेगा।

जीवित व्यक्ति के साथ अड़चनें हैं। पहली तो अड़चन यह है कि उसके सामने झुकना कठिन है। और बिना झुके सीखने का कोई उपाय नहीं है।

दूसरी अड़चन यह है कि आप अपना अर्थ न निकाल सकेंगे। वह जीवित व्यक्ति अपना ही अर्थ, अपने ही अर्थ पर आपको चलाने की कोशिश करेगा। जीवित आदमी को धोखा नहीं दिया जा सकता। अपनी मरजी उस पर थोपी नहीं जा सकती। और वह जीवित आदमी आपको आपके बाहर और आपसे ऊपर ले जाने में समर्थ है।

शास्त्र के द्वारा आत्म—क्रांति करने की कोशिश ऐसे है, जैसे कोई अपने जूते के बंधों को पकड़कर खुद को उठाने की कोशिश करे। आप ही पढ़ रहे हैं; आप ही अर्थ निकाल रहे हैं; आप ही साधना कर रहे हैं! अपने ही जूते के बंध पकड़े हैं और उठाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे कुछ परिणाम नहीं है। लेकिन एक परिणाम हो सकता है कि इससे थक जाएं और गुरु की तलाश शुरू हो जाए। इसलिए शास्त्रों की एक ही उपयोगिता है कि वे गुरु तक आपको पहुंचा दें। मृत जीवित तक आपको पहुंचा दे, तो काफी काम है। और आप सोचते हों कि शास्त्र से बचकर हम गुरु तक पहुंच जाएं, तो बहुत कठिन है। क्योंकि वह असफलता जरूरी है। वह शास्त्र में भटकने की चेष्टा जरूरी है। वहां विषाद से, दुख से भर जाना जरूरी है।

दोनों तरह के लोग मेरे पास आ जाते हैं। ऐसा व्यक्ति भी आता है, जो शास्त्र से थक गया है। तो मैं पाता हूं उसके साथ काम बहुत आसान है। क्योंकि वह व्यर्थ से ऊब चुका है। अब उसकी व्यर्थ में बहुत उत्सुकता नहीं है। अब वह सार की ही बात जानना चाहता है, जो की जा सके। अब वह व्यावहारिक है। अब वह शास्त्रीय नहीं है। अब उसकी बौद्धिक चिंता नहीं है बहुत। अब उसकी साधनागत चिंता है। शास्त्र से वह छूट चुका। अब साधना की प्यास उसमें जगी है।

जो लोग बिना शास्त्र को जाने आ जाते हैं, उनकी जिज्ञासा शास्त्रीय होती है। वे पूछते हैं, ईश्वर है या नहीं? संसार किसने बनाया? यह काम तो शास्त्र ही निपटा देता, इनके लिए मेरे पास आने की जरूरत नहीं है। आत्मा कहां से आई? ब्रह्म कहां है? यह सब बकवास तो शास्त्र ही निपटा देता। इस सबके लिए किसी जीवित आदमी की कोई जरूरत नहीं है। और कोई जीवित गुरु इस तरह की व्यर्थ की बातों में पड़ेगा भी नहीं, क्योंकि समय खराब करने को नहीं है।

तो जो लोग शास्त्र से नहीं गुजरे हैं, उनके साथ तकलीफ यह होती है कि उनकी जिज्ञासाएं शास्त्रीय होती हैं और वे व्यर्थ समय जाया करते हैं।

शास्त्र से गुजर जाना अच्छा है। आपकी जो बचपनी, बच्चों जैसी जिज्ञासाएं हैं, उनका या तो हल हो जाएगा या आपको समझ में आ जाएगा कि वे व्यर्थ हैं; उनका कोई मूल्य नहीं है। और आप जीवन में बदलाहट कैसे हो सके, इसकी प्यास से भर जाएंगे। यह प्यास बड़ी अलग है।

और शास्त्रों को आपने समझा हो, तो गुरु को समझना आसान हो जाएगा। क्योंकि जो—जो शास्त्र में छूट गया है, वही—वही गुरु में है। गुरु परिपूरक है। जहां—जहां इशारे थे, थोड़ी दूर तक यात्रा थी और फिर मार्ग छूट जाता था, वहीं से गुरु शुरू होता है। वह परिपूरक है। क्योंकि जहां तक शब्द ले जा सकते हैं, उसके आगे ही गुरु का काम है।

महावीर के जीवन में उल्लेख है, बड़ी हैरानी का उल्लेख है। बुद्ध के जीवन में भी वही उल्लेख है। और सांयोगिक नहीं मालूम होता। महावीर के जो बड़े शिष्य थे ग्यारह, वे ग्यारह के ग्यारह महापंडित ब्राह्मण थे।

महावीर ब्राह्मणों के शत्रु हैं, एक लिहाज से। क्योंकि वे एक नए धर्म की उदभावना कर रहे थे, जो ब्राह्मण और पुरोहित के विरोध में थी। वे मंदिर, पुराने शास्त्र, वेद, उन सब का खंडन कर रहे थे। ईश्वर, उसका इनकार कर रहे थे। खुद क्षत्रिय थे, लेकिन उनके जो ग्यारह गणधर हैं, जो उनके ग्यारह विशेष शिष्य, जिनके आधार पर सारा जैन धर्म खड़ा हुआ, वे सब के सब महापंडित ब्राह्मण हैं। यह जरा हैरानी की बात है।

बुद्ध के साथ भी ठीक यही हुआ। बुद्ध क्षत्रिय हैं। उनके जो भी महाशिष्य हैं, वे सभी ब्राह्मण हैं। और साधारण ब्राह्मण नहीं, असाधारण पंडित हैं।

जब सारिपुत्त बुद्ध के पास आया, तो पांच सौ ब्राह्मण उसके शिष्य थे, उसके साथ आए थे। जब मौदगल्यायन बुद्ध के पास आया, तो उसके साथ पाच हजार उसके शिष्य थे। वह पाच हजार शिष्यों का तो स्वयं गुरु था।

ठीक ऐसा ही महावीर के जीवन में उल्लेख है। गौतम जब आया, सुधर्मा जब आया, तो ये सब बड़े—बड़े पंडित थे। और इनके साथ बड़े शिष्यों का समूह था।

महावीर जिंदा गुरु हैं। ये ग्यारह जो उनके गणधर हैं, ये सब शास्त्र जान चुके थे। ये सब वेद के ज्ञाता थे। पारंगत विद्वान थे। ये महावीर को समझ सके तत्क्षण, क्योंकि जो—जो शास्त्र में छूट रहा था, वह—वह महावीर में मौजूद था। इनको पकड़ फौरन आ गई। ये महाकाश्यप, सारिपुत्त, मौदगल्यायन, ये सब के सब महापंडित थे। इन्होंने सब शास्त्र तलाश लिए थे। शास्त्र में कहीं भी कुछ नहीं बचा था, जो इन्होंने न खोजा हो। फिर भी सब जगह बात अधूरी थी। बुद्ध को देखते ही सब बातें पूरी हो गईं। इस आदमी की मौजूदगी से शास्त्र में जो कमी थी, वह तत्काल भर गई। जहां—जहां शास्त्र का पात्र अधूरा था, वहां—वहा बुद्ध को देखकर पूरा हो गया। जिस तरफ शास्त्रों ने इशारा किया था, यह वही आदमी था।

तो अपने से विपरीत के प्रति भी समर्पण में कठिनाई नहीं आई। ये ग्यारह पंडित महावीर के चरणों में सिर रख दिए। इन्होंने अपने शास्त्रों में आग लगा दी। इन्होंने कहा, अब उनकी कोई जरूरत नहीं। क्योंकि जिंदा आदमी मिल गया, जिसकी हम तलाश करते थे।

नक्‍शो की तभी तक जरूरत है, जब तक घर न मिल गया हो जिसकी आप खोज कर रहे हैं। फिर आप नक्‍शो को फेंक देते हैं। फिर आप कहते हैं, मिल गई वह जगह, जिसकी ओर नक्‍शो में इशारा था, जहां हम चल रहे थे।

तो महावीर ने जब इन गणधरों से कहा कि छोड़ दो वेद। उन्होंने कहा, आपको देखकर ही छूट गए; छोड़ने को अब कुछ बचा नहीं है।

जब बुद्ध ने कहा महाकाश्यप को कि छोड़ दो स्ब—कोई शास्त्र, कोई वेद, कोई ईश्वर। तो उसने कहा, छूट गया! आपको देखते से ही छूट गया। आपकी मौजूदगी काफी है। आप उस सब के सिद्ध प्रमाण हैं, जिसको हम खोजते थे। अब तक पकड़ा था उसको, क्योंकि उसके सहारे खोज चलती थी। अब खोज पूरी हो गई, अब उसकी हमें कोई जरूरत नहीं।

तो आप जानकर चकित होंगे कि शास्त्र अगर ठीक से समझा जाए, तो उसे छोड़ने में जरा भी कठिनाई नहीं आती। जिन्होंने ठीक से नहीं समझा है, उन्हीं को कठिनाई आती है। जिनको शास्त्र पचता नहीं है, उन्हीं की कठिनाई है। वे उसे पकड़े रहते हैं। जिनको शास्त्र पच जाता है, उन्हें छोड़ने में क्या अड़चन है! छूट ही गया, पचने में ही समाप्त हो गया। शास्त्र का काम पूरा हो गया। और जहां शास्त्र पूरा होता है, वहां गुरु की तरफ आंख उठनी शुरू होती है। और गुरु के बिना कोई उपाय नहीं है। शास्त्र से तो कुछ होने वाला नहीं है। इतना ही हो जाए तो काफी है। इतना हो सकता है, पर वह भी आपकी बुद्धिमत्ता पर निर्भर है। आप अगर अपने अर्थ निकालते रहें, तो शायद यह भी न हो पाए।

मुल्ला नसरुद्दीन गुजर रहा था एक मंदिर के पास से। अपने बैलों को लिए जा रहा था। मंदिर में पूजा हो रही थी; आरती चल रही थी; ढोल बज रहे थे, घंटे का नाद हो रहा था। बैल बिचक गए। मुल्ला बहुत नाराज हुआ। वह अंदर पहुंचा। और उसने कहा, यहां क्या हो रहा है? यह क्या कर रहे हो? तो लोगों ने कहा, हम आरती उतार रहे हैं। तो नसरुद्दीन ने कहा, चढ़ाई ही क्यों, जब उतारना नहीं आता?

यह अर्थ उसने निकाला! अर्थ तो बिलकुल साफ है कि जब उतारना ही नहीं आता, इतना धूम—धड़ाका कर रहे हो, उपद्रव कर रहे हो, उतर नहीं रही, तो चढ़ाई किसलिए? पहले उतारना सीख लो, फिर चढ़ाओ।

आप शास्त्र पड़ेंगे, क्या अर्थ निकालेंगे, वह अर्थ आपके भीतर से आएगा। नसरुद्दीन को पता ही नहीं था कि आरती चढ़ाना क्या है, आरती उतारना क्या है। का समझा, कोई चीज चढ़ा दी, चढ़ गई है, अब उतर नहीं रही है। अब ये इतना शोरगुल मचा रहे हैं, कूद—फांद रहे हैं, और इनसे उतर नहीं रही है।

शब्द कभी भी पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि शब्द कोई वस्तु तो नहीं है। शब्द तो सिर्फ संकेत है। संकेत पूरा नहीं हो सकता। संकेत का अर्थ ही है कि वह सिर्फ इशारा है। वहां कुछ है नहीं, वहां सिर्फ तीर जाते’ हैं।

सड़क के किनारे पत्थर लगा हुआ है, दिल्ली की तरफ। उस पर लिखा है दिल्ली और एक तीर लगा है। वहां दिल्ली नहीं है। नसरुद्दीन वहीं ठहर सकते हैं, कि आ गई दिल्ली; पत्थर पर लिखा हुआ है।

आप भी अगर शास्त्र को देखकर समझते हों, आ गई दिल्ली, तो भूल में पड़ रहे हैं। वह सिर्फ पत्थर है, जहां एक तीर लगा हुआ है कि यात्रा आगे की तरफ चलती है। अभी और आगे जाना है।

जब दिल्ली सच में आएगी, तो पत्थर पर शून्य बना होगा, वहां तीर नहीं होगा, जीरो होगा। और जिस दिन आपके भीतर भी जीरो आ जाए, शून्य आ जाए, समझना कि दिल्ली आ गई! उस दिन आप पहुंच गए; मुकाम आ गया। शून्य के पहले मुकाम नहीं है।

शास्त्र में खोजें। अगर समझ हो, तो शास्त्र बड़े प्यारे हैं। क्योंकि जिनसे वे निकले हैं, वे अनूठे लोग थे। उनमें उनकी थोड़ी सुवास तो है ही। जिस शब्द का उपयोग बुद्ध ने कर लिया, उसमें बुद्ध की थोड़ी सुवास तो आ ही गई। जो उनके होंठों पर रह लिया, जो इस योग्य समझा गया कि बुद्ध ने उसका अपनी वाणी से उपयोग कर लिया, उसमें बुद्ध थोड़े समा तो गए ही।

अगर आप में थोड़ी समझ हो, तो उतनी झलक उस शब्द से आपको आ सकती है। लेकिन उसके लिए बड़ा हल्का, बड़ा शांत और बुद्धिमत्तापूर्ण हृदय चाहिए। अत्यंत सहानुभूति से भरा हुआ हृदय चाहिए। तब उस शब्द में से थोड़ी—सी गंध आपको पता चलेगी। अगर जोर से झपट्टा मारकर शब्द को पकड़ लिया और कंठस्थ कर लिया, तो वह मर गया।

शब्द बहुत कमजोर हैं। उनकी गर्दन पकड़ने की जरूरत नहीं है। फूल की तरह हैं। तो जैसा कवि शब्दों का उपयोग करता है, वैसा ही जब कोई शास्त्र को पढ़ने वाला शब्दों का उपयोग करने लगता है; आहिस्ते चलता है, धीमे से स्पर्श करता है, शब्द को फुसलाता है, ताकि उससे अर्थ निकल आए। शब्द को निचोड़ता नहीं, पकड़कर उसकी गर्दन ही नहीं दबा देता कि इसकी जान निकालकर देख लें।

बहुत लोग वैसे ही हैं। आपने कहानी सुनी होगी, पुरानी यूरोप में प्रचलित कथा है। ईसप की कहानियों में एक है। कि एक आदमी के घर में एक मुर्गी थी, जो रोज एक सोने का अंडा दे देती थी। फिर लोभ पकड़ा। पति—पत्नी ने विचार किया कि ऐसे हम कब तक जिंदगीभर, एक—एक अंडा रोज मिलता है। और जब अंडा

एक—एक रोज मिलता है, तो इस मुर्गी के भीतर अंडे भरे हैं। तो हम एक दफा इकट्ठे ही निकाल लें। यह रोज की चिंता, फिक्र, आशा, सपना, फिर बाजार जाओ, फिर बेचो—क्या फायदा?

उन्होंने मुर्गी मार डाली। एक भी अंडा न निकला उससे। तब बहुत पछताए, रोएं— धोए; लेकिन फिर कोई अर्थ न था। क्योंकि मुर्गी में कोई अंडे इकट्ठे नहीं हैं। मुर्गी अगर जीवित हो, तो एक—एक अंडा निकल सकता है। अंडा रोज बनता है।

शास्त्रों में जो शब्द हैं, वे भी आपकी सहानुभूति से जीवित हो सकते हैं। और उनमें अर्थ भरा हुआ नहीं है कि आपने निचोड़ लिया और पी गए। वह कोई फलों का रस नहीं है कि आपने निचोड़ा और पीया! शब्द से अर्थ निकल सकता है, अगर सहानुभूति और प्रेम से आपने शब्द को समझा, शब्द को फुसलाया, राजी किया।

इसलिए हिंदुस्तान में हम शास्त्रों का अध्ययन नहीं करते, पाठ करते हैं। पाठ और अध्ययन में यही फर्क है। अध्ययन का मतलब होता है, निचोड़ो; तर्क से, विश्लेषण से अर्थ निकाल लो। पाठ का अर्थ होता, सिर्फ गाओ; भजो। गीत की तरह उपयोग करो, जल्दी नहीं है कुछ अर्थ की। शब्दों को भीतर उतरने दो, डूबने दो, तुम्हारे खून में मिल जाएं, तुम्हारे अचेतन में उतर जाएं। तुम उनके साथ एकात्म हो जाओ। तब शायद मुर्गी अंडा देने लगे।

अति सहानुभूति से, सिम्पैथी से शास्त्र का थोड़ा—सा अर्थ आपको मिल सकता है। और वह अर्थ आपको गुरु की तरफ ले जाने में सहयोगी होगा। क्योंकि वह अर्थ यह कहेगा कि यह तो शास्त्र है; जिनसे शास्त्र निकला है, अब उनकी खोज करो। क्योंकि जब शास्त्र में इतना है, तो जिनसे निकला होगा, उनमें कितना न होगा!

बुद्ध के वचन पढ़े, धम्मपद पढ़ा। तो धम्मपद बड़ा प्यारा है, लेकिन कितना ही प्यारा हो, इससे बुद्ध की क्या तुलना है! इससे बुद्ध का अनुमान भी नहीं लगता कि बुद्ध क्या रहे होंगे! धम्मपद प्यारा है, तो अब बुद्ध की खोज करो।

और बुद्ध कोई ऐसी बात थोड़े ही हैं कि एक दफा होकर नष्ट हो गए। रोज बुद्ध होते रहते हैं। अनेक लोगों में बुद्धत्व की घटना घटती है। इसलिए कभी पृथ्वी खाली नहीं होती। बुद्ध सदा मौजूद होते हैं। तो जरूरत नहीं है कि पच्चीस सौ साल पीछे अब जाओ, तब कहीं बुद्ध मिलेंगे। धम्मपद वाले बुद्ध न मिलें, तो कोई और बुद्ध मिल जाएगा। उसी को हम गुरु कहते हैं।

धम्मपद पढ़ा; गीता पढ़ी। गीता पढ़कर रस आया, तो अब कृष्ण की तलाश करो। कृष्ण सदा मौजूद हैं। वही गुरु का अर्थ है।

गुरु का अर्थ है, अब हम उसको खोजेंगे, जिनसे ऐसे शास्त्र निकले हैं। अब हम, जो निकला है, उससे राजी नहीं रहेंगे। अब हम गंगोत्री की तलाश करेंगे, जहां से गंगा निकलती है।

लोग गंगोत्री की यात्रा पर जाते हैं। पूरी गंगा का चक्कर लगाकर गंगोत्री तक पहुंचते हैं। ऐसे ही शास्त्रों की पूरी यात्रा करके गुरु तक पहुंचना होता है।

गुरु का अर्थ है, जहां से शास्त्र निकलते हैं। गुरु का अर्थ है, जिसने जाना, जिसने जीया सत्य को, और अब जिससे सत्य बहता है।

और गुरु से कभी पृथ्वी खाली नहीं होती। कहीं न कहीं कोई न कोई बुद्ध है ही। कहीं न कहीं कोई न कोई कृष्ण है ही। कहीं न कहीं कोई न कोई क्राइस्ट है ही।

तकलीफ हमारी यह है कि आप पुराने लेबल से जीते हैं, कि उस पर कृष्ण लिखा हुआ हो। वह नहीं मिलेगा। कि उस पर महावीर लिखा हो, तो हम मानेंगे। महावीर जिस पर लिखा था, वह एक दफा हो चुका। अब गुरु तो मिल सकता है, लेकिन पुराने नाम से नहीं मिलेगा।

नाम भर मिटते हैं। नाम बदलते चले जाते हैं। और अगर शास्त्र को सहानुभूति से समझा हो, उसकी कविता को भीतर पच जाने दिया हो, उसका गीत आपमें गंजने लगा हो, तो आप समझ जाएंगे कि नामों का कोई मूल्य नहीं है। तो फिर क्या को पकड़ लेना कहीं भी आसान है।

और गीता अगर कृष्ण तक न ले जाए, तो गीता का कोई भी सार नहीं है। इसीलिए सदियों—सदियों तक गीता की, वेद की, कुरान की, बाइबिल की हम चर्चा करते हैं। वह चर्चा इसीलिए है। वह एक तरह का जाल है।

मुझसे लोग पूछते हैं कि आप क्यों गीता पर बोल रहे हैं?

वह एक तरह का जाल है। जो मैं गीता पर बोल रहा हूं, वह सीधे ही बोल सकता हूं क्योंकि मैं ही बोल रहा हूं, गीता सिर्फ बहाना है। आखिर गीता का बहाना लेने की जरूरत भी क्या है?

तुम्हारी वजह से वह मुसीबत उठानी पड़ रही है। वह मैं सीधे ही बोल सकता हूं। लेकिन तुम्हें पुराने नाम का मोह है; कृष्ण का मोह है। अगर कृष्ण मार्का लगा हो, तो तुम को लगेगा कि ठीक है। बात ठीक होनी चाहिए।

जो मैं कह रहा हूं वह मैं कह रहा हूं। कृष्ण को किनारे रखकर कह सकता हूं। क्या अड़चन है! कृष्ण को भी बीच में लूं, तो भी जो मुझे कहना है, वही मैं कहूंगा। कृष्ण उसमें कुछ उपद्रव खड़ा नहीं कर सकते। पर उनके नाम का उपयोग तुम्हारी वजह से है। तुम्हें पुराने जालों का मोह है; और मुझे मछलियों से मतलब है। तुम पुराने में फंसते हो कि नए में, इससे क्या! तुम्हारा अगर पुराने जाल से ही मोह है, तो ठीक है।

गीता पर, कुरान पर, बाइबिल पर, ताओ तेह किंग पर, जो हजारों वर्ष तक चर्चा चलती है, उसका प्रयोजन यही है कि लोग पुराने के मोह में हैं। ठीक है। उनको कष्ट भी न हो और धीरे—धीरे उनको जब समझ में आ जाएगा, तो पुराने का मोह भी छूट जाएगा। शास्त्र से गुरु, और गुरु से स्वयं—ऐसी यात्रा है। शास्त्र ले जाएगा गुरु तक, और गुरु पहुंचा देगा स्वयं तक। और जब तक स्वयं का शून्य न आ जाए, तब तक समझना कि अभी मंजिल नहीं आई।

अब हम सूत्र को लें।

हे अर्जुन, इस संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है। तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण—पोषण करता है एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसा कहा गया है।

क्योंकि मैं नाशवान जड्वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं।

यह सूत्र पुरुषोत्तम की व्याख्या है। पुरुषोत्तम शब्द हमें परिचित है। लेकिन कृष्ण का अर्थ खयाल में लेने जैसा है।

कृष्ण कह रहे हैं कि तीन स्थितियां हैं। एक विनाशशील जगत है। उस विनाशशील जगत के भीतर छिपा हुआ एक अविनाशी तत्व है। और इस अविनाशी और विनाशी दोनों के पार, दोनों को अतिक्रमण करने वाला एक तीसरा तत्व है।

इसे हम ऐसा कहें शरीर, संसार, आत्मा और परमात्मा। शरीर क्षर है, प्रतिपल विनष्ट हो रहा है, प्रतिपल बह रहा है, परिवर्तन है। शरीर के भीतर छिपी हुई आत्मा अविनाशी है। इन दोनों के पार क्या कहते हैं, मैं हूं; जो पुरुषोत्तम है। ये दो पुरुष, एक क्षर और एक अक्षर, और दोनों के पार मैं हूं।

जो लोग भी दार्शनिक चिंतन करते हैं, उनको सवाल उठता है कि दोनों से काम हो जाता है, तीसरे की क्या जरूरत है? जैनों की यही मान्यता है। वे कहते हैं, संसार है और आत्मा है। बात खतम हो गई। जीव है और अजीव है। क्षर है और अक्षर है। यह तीसरे की क्या जरूरत है! इन दो से काम हो जाता है। दोनों अनुभव के हिस्से हैं। इसलिए जैन विचार द्वैत पर पूरा हो जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं तीसरा हूं। जैन विचार में इसलिए परमात्मा की कोई जगह नहीं है, क्योंकि तीसरे की कोई जगह नहीं है।

कृष्ण का यह जोर तीसरे के लिए क्यों है, यह समझना जरूरी है। क्योंकि अगर दो ही हैं, तो दोनों बराबर मूल्य के हो जाते हैं। दोनों का संतुलन हो जाता है। जैसे एक तराजू है, उस पर दो पलवे लगे हैं। और अगर एक तीसरा काटा नहीं, जो दोनों का अतिक्रमण करता हो, तो तराजू बिलकुल व्यर्थ हो जाता है।

एक कांटा चाहिए जो दोनों का अतिक्रमण करता है। और चूंकि दोनों के पार है, इसलिए हिसाब भी बता सकता है कि किस तरफ बोझ ज्यादा है और किस तरफ बोझ कम है। तौल संभव हो सकती है।

अगर पदार्थ है और आत्मा है, और इन दोनों के पार कुछ भी नहीं है, तब बडी अड़चन है। क्योंकि तब पदार्थ और आत्मा के बीच न तो कोई जोड्ने वाला है, न कोई तोड्ने वाला है। पदार्थ और आत्मा के बीच जो संघर्ष है, उससे पार जाने का भी उपाय नहीं है। इसलिए जैन चिंतन में एक पहेली सुलझती नहीं। जैन विचारकों से पूछा जाता रहा है कि आत्मा इस संसार में उलझी क्यों? तो उनकी बड़ी कठिनाई है। वे कैसे बताएं कि उलझी। अगर वे कहें कि पदार्थ ने खींच ली, तो पदार्थ ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। और अगर पदार्थ ज्यादा शक्तिशाली है, तो तुम मुक्त कैसे होओगे?

अगर वे कहते हैं, आत्मा खुद ही खिंच आई अपनी मरजी से, तो सवाल यह उठता है कि कल हम मुक्त भी हो गए, फिर भी आत्मा खिंच आए, तो क्या करेंगे? क्योंकि कभी आत्मा अपने आप खिंच आई बिना किसी कारण के, तो मुक्ति फिर शाश्वत नहीं हो सकती। मोक्ष में भी पहुंचकर क्या भरोसा, दस—पाच दिन में ऊब जाएं और आत्मा फिर खिंच आए! इतनी मेहनत करें—तप, उपवास, तपश्चर्या, ध्यान, साधना—मोक्ष में जाकर पंद्रह दिन में ऊब जाएं, और आत्मा फिर पदार्थ में खिंच आए।

फिर पूछा जाता है, इन दोनों के बीच नियम क्या है? किस नियम से दोनों का मिलना और हटना चलता है?

तीसरे को चूंकि वे स्वीकार नहीं करते, इसलिए बड़ी अड़चन है। और ध्यान रहे, गणित या तर्क की कोई भी चीज उलझ जाएगी, अगर दो के बीच तीसरी न हो। इसलिए हिंदू ईसाई, मुसलमान, दो की जगह त्रैत में विश्वास करते हैं, ट्रिनिटी में, त्रिमूर्ति में।

जहां दो हैं वहा तीसरा भी मौजूद रहेगा। क्योंकि दो को जोड़ना हो, तो तीसरे की जरूरत है; दो को तोड़ना हो तो, तीसरे की जरूरत है। दो के पार जाना हो, तो तीसरे की जरूरत है। दो के बीच जो नियम है, जो शाश्वत व्यवस्था चल रही है, उसके लिए भी तीसरे की जरूरत है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं तीसरा हूं। और गहरे अनुभव से भी यही सिद्ध होता है।

एक तो शरीर है, जो दिखाई पड़ता है हमें। एक हमारा मन है, हमारी तथाकथित चेतना है, जो हमने अभी तक नहीं देखी। लेकिन अगर हम थोड़ा भीतर पीछे हटें और शांत हों, तो हमें मन भी दिखाई पड़ने लगेगा। और जब मन भी दिखाई पड़ेगा, तब हम तीसरे हो जाएंगे। तब एक तो शरीर होगा पदार्थ से निर्मित, और एक मन होगा चेतन कणों से निर्मित, और एक हम होंगे। और यह हमारा होना सिर्फ साक्षी का भाव होगा, द्रष्टा का भाव होगा। हम सिर्फ देखने वाले होंगे। ये दोनों का खेल चल रहा होगा, हम सिर्फ देखने वाले होंगे।

यह जो तीसरा है, यह पुरुषोत्तम है। यह पुरुषोत्तम प्रत्येक में छिपा है। पर्त शरीर की ऊपर है, फिर पर्त मन की ऊपर है। इन दोनों परतों को हम तोड़ दें, तो यह पुरुषोत्तम हमें उपलब्ध हो सकता है। अब हम कृष्ण के सूत्र को खयाल में लें।

इस संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है। तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो कि तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण—पोषण करता है एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसा कहा गया है।

क्योंकि मैं नाशवान जडवर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं।

ये तीन परतें दार्शनिक सिद्धात नहीं हैं। ये तीन परतें आपके भीतर अनुभव की परतें हैं। जैसे—जैसे आप भीतर जाएंगे, वैसे—वैसे पर्त उघड़नी शुरू हो जाएगी।

अधिक लोग पहली पर्त पर ही रुके हैं, जो अपने को मान लेते हैं कि मैं शरीर हूं। जिस व्यक्ति ने अपने को मान लिया कि मैं शरीर हूं, वह अपने भीतरी खजानों से अपने ही हाथ से वंचित रह जाता है। उसका तर्क ही गलत नहीं है, उसका पूरा जीवन ही अधूरा अधकचरा हो जाएगा। क्योंकि जो वह हो सकता था, जो उसके बिलकुल हाथ के भीतर था, वह उसने ही द्वार बंद कर दिए। जैसे अपने ही घर के बाहर आप बैठे हैं ताला लगाकर, और कहते हैं कि यही घर है। बाहर की जो छपरी है, उसको घर समझे हुए हैं। पोर्च में जी रहे हैं, उसको घर समझे हुए हैं।

नास्तिक की, शरीरवादी की भूल तार्किक नहीं है, जीवनगत है, एक्सिस्टेंशियल है। और एक दफा आप पक्का जड़ पकड़ लें कि यही मेरा घर है, तो खोज बंद हो जाती है। फिर आप डरते हैं, फिर आप आंख भी नहीं उठाते, फिर प्रयत्न भी नहीं करते।

आस्तिक के साथ संभावना खुलती है। क्योंकि आस्तिक कहता है, तुम जहां हो, उतना ही सब कुछ नहीं है और भीतर जाया जा सकता है। इसलिए नास्तिक बंद हो जाता है। आस्तिक सदा खुला है। और खुला होना शुभ है।

अगर आस्तिक गलत भी हो, तो भी खुला होना शुभ है, क्योंकि खोज हो सकती है। जो छिपा है, उसको हम प्रकट कर सकते हैं। नास्तिक अगर ठीक भी हो, तो भी गलत है, क्योंकि खोज ही बंद हो गई, आदमी जड़ हो गया। उसने मान लिया कि जो मैं हूं बस, यह बात समाप्त हो गई।

जैसे एक बीज समझ ले कि बस, बीज ही सब कुछ है, तो फिर अंकुरण होने का कोई कारण नहीं है। फिर अंकुरित हो, जमीन की पर्त को तोड़े, कष्ट उठाए, आकाश की तरफ उठे, सूरज की यात्रा करे—यह सब बंद हो गया। बीज ने मान लिया कि मैं बीज हूं। जो व्यक्ति मान ले कि मैं शरीर हूं उसने अपने ही हाथ से अपने पैर काट लिए। पोर्च भी हमारा है, लेकिन घर के और भी कक्ष हैं। और जितने भीतर हम प्रवेश करते हैं, उतने ही सुख, उतनी ही शांति, उतने ही आनंद में प्रवेश होता है। क्योंकि उतने ही हम घर में प्रवेश होते हैं। उतने ही विश्राम में हम प्रवेश होते हैं।

कृष्ण कहते हैं, शरीर, वह क्षर; आत्मा, वह अविनाशी, शरीर के साथ जुड़ा हुआ; और इन दोनों के पार साक्षी— आत्मा है, दोनों से मुक्त।

आत्मा और साक्षी— आत्मा में इतना ही फर्क है। वे दो नहीं हैं। एक ही चेतना की दो अवस्थाएं हैं।

आत्मा का अर्थ है, शरीर से जुड़ी हुई। आत्मा का अर्थ है, जिसे खयाल है मैं का। आत्मा शब्द का भी अर्थ होता है, मैं, अस्मिता। जिस आत्मा को खयाल है शरीर से जुड़े होने का, उसको खयाल होता है मैं का।

शरीर से मैं भिन्न हूं, तो मैं भी खो जाता है। और मैं के खोते ही सिर्फ शुद्ध चैतन्य रह जाता है। वहा यह भी खयाल नहीं है कि मैं हूं। उस शुद्ध चैतन्य का नाम पुरुषोत्तम है।

ये आपके ही जीवन की तीन परतें हैं। और पहली पर्त से तीसरी पर्त तक यात्रा करनी ही सारी आध्यात्मिक खोज और साधना है। और तीसरी का लक्षण है कि वह दोनों के पार है। न तो वह देह है, न वह मन है। न वह पदार्थ है, न अपदार्थ है। वह दो से भिन्न, तीसरा है।

आप अपने भीतर कभी—कभी उसकी झलक पाते हैं। और चेष्टा करें, तो कभी—कभी उसकी झलक आयोजन से भी पा सकते हैं। भोजन कर रहे हैं, तब एक क्षण को देखने की कोशिश करें। भोजन शरीर में जा रहा है, भोजन क्षर है और क्षर में जा रहा है। लेकिन जो उसे शरीर में पहुंचा रहा है, वह आत्मा है। और आत्मा मौजूद न हो, तो शरीर भोजन न तो कर सकेगा, न पचा सकेगा। भूख शरीर में लगती है, लेकिन जिसको पता चलता है, वह आत्मा है। आत्मा न हो, तो शरीर को भूख लगेगी नहीं, पता भी नहीं चलेगी। भूख शरीर में पैदा होती है, लेकिन जिसको एहसास होता है, वह आत्मा है।

भूख, भूख की प्रतीति, ये दो हुए तल। क्या आप तीसरे को भी खोज सकते हैं, जो देख रहा है दोनों को कि शरीर में भूख लगी और आत्मा को भूख का पता चला और मैं दोनों को देख रहा हूं। इस तीसरे की थोड़ी— थोड़ी झलक पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए।

कोई भी अनुभव हो, उसमें तीनों मौजूद रहते हैं। इन तीन के बिना कोई भी अनुभव निर्मित नहीं होता। लेकिन तीसरा छिपा है पीछे। इसलिए अगर आप बहुत संवेदनशील न हों, तो आपको उसका पता नहीं चलेगा। वह गुप्ततम है।

वह जो पुरुषोत्तम है, वह गुप्ततम भी है। जितनी संवेदना आपकी बढ़ेगी, धीरे— धीरे उसकी प्रतीति होनी शुरू होगी।

कोई आदमी आपको गाली दे रहा है। तत्‍क्षण गाली देने वाला और आप गाली सुनने वाले, गाली और आप, दो हो गए। अगर थोड़ी संवेदना को जगाए, तो आपको वह भी भीतर दिखाई पड़ जाएगा जो दोनों को देख रहा है। गाली दी गई, तो गाली भौतिक है; कान पर चोट पड़ी, मस्तिष्क में शब्द घूमे, मस्तिष्क ने व्याख्या की; यह सब भौतिक है। मस्तिष्क ने कहा, यह गाली बुरी है।

मुल्ला नसरुद्दीन को उसका पड़ोसी एक दिन कह रहा था कि तुम्हारा लड़का जो है फजलू बहुत भद्दी और गंदी गालियां बकता है। नसरुद्दीन ने कहा, बड़े मियां, कोई फिक्र न करो; छोटा है, बच्चा है, नासमझ है। जरा बड़ा होने दो, अच्छी— अच्छी गालियां भी बकने लगेगा।

व्याख्या की बात है। कभी—कभी गाली अच्छी भी लगती है, जब मित्र देता है। सच में मित्रता की कसौटी यह है कि गाली अच्छी लगे। अगर मित्र एक—दूसरे को गाली न दें, तो समझते हो कि कोई मित्रता में कमी है, मिठास नहीं है।

शत्रु भी गाली देते हैं, वही गाली; मित्र भी गाली देते हैं, वही गाली, शत्रु के मुंह से सुनकर बुरी लगती है, मित्र के मुंह से सुनकर भली लगती है, प्यारी लगती है। तो नसरुद्दीन एकदम गलत नहीं कह रहा है। अच्छी गालियां भी हैं ही। व्याख्या पर निर्भर है।

शरीर पर चोट पड़ती है, कान पर झंकार जाती है, मस्तिष्क व्याख्या करता है। यह सब भौतिक घटना है। व्याख्या जो करता है, वह चेतना है। इसलिए वझई गाली भली भी लग सकती है कभी, वही गाली बुरी भी लग सकती है कभी। वह जो व्याख्या करने वाली है, वह चेतना है।

क्या आपके पास कोई तीसरा तत्व भी है, जो दोनों को देख सके? इस घटना को भी देखे, इस बड़े यंत्र की प्रक्रिया को—गाली, कान में जाना, मस्तिष्क में चक्कर, शब्दों का व्याघात, ऊहापोह; फिर आत्मा का अर्थ निकालना। और क्या इनके पीछे दोनों को देख रहा हो कोई, ऐसी कभी आपको प्रतीति होती है? तो वही पुरुषोत्तम है। न प्रतीति होती हो, तो उसकी तलाश करनी चाहिए। और हर अनुभव में क्षणभर रुककर उसकी तरफ खयाल करना चाहिए।

लेकिन हमारी मुसीबत यह है कि जब भी कोई अनुभव होता है, हम बाहर दौड़ पड़ते हैं। किसी ने गाली दी; व्याख्या की, हम बाहर गए। उस आदमी पर नजर पड़ जाती है, जिसने गाली दी। क्यों दी गाली? या उसको कैसे हम बदला चुकाएं? तो जब हमें भीतर जाना था और तीसरे को खोजना था, तब हम बाहर चले गए। वह क्षणभर का मौका था, खो गया। रोज ऐसे अवसर खो जाते हैं।

तो जब भी आपके भीतर कोई घटना घटे, बाहर न दौड़कर भीतर दौड़ने की फिक्र करें। तत्‍क्षण! ध्यान बाहर न जाए, भीतर चला जाए। और भीतर अगर ध्यान जाए, तो आप पाएंगे साक्षी को खड़ा हुआ। और अगर साक्षी आपके खयाल में आ जाए, तो पूरी स्थिति बदल जाएगी, पूरी स्थिति का अर्थ बदल जाएगा।

किसी ने गाली दी हो, आत्मा व्याख्या करती है कि बुरा है या भला है, कोई प्रतिक्रिया करती है। अगर उसी वक्त तीसरा भी दिखाई पड़ जाए, तो भी आत्मा फिर व्याख्या करेगी। अब यह तीसरे की व्याख्या करेगी जो भीतर छिपा है। और हो सकता है, आपको हंसी आ जाए। शायद आप खिलखिलाकर हंस पड़े।

वह जो बाहर गाली आई थी, वह भी मस्तिष्क में आई, उसकी व्याख्या आत्मा ने की। फिर आपने पीछे लौटकर देखा और साक्षी का अनुभव हुआ, यह भी अनुभव मस्तिष्क में आएगा और आत्मा इसकी भी व्याख्या करेगी।

अगर आपको साक्षी दिखाई पड़ जाए, तो आपकी मुस्कुराहट धीरे— धीरे सतत हो जाएगी। हर अनुभव में आप हंस सकेंगे। क्योंकि हर अनुभव लीला मालूम पड़ेगा। और हर अनुभव एक गहरी मजाक भी मालूम पड़ेगी कि यह क्या चल रहा है! क्या हो रहा है! और इतनी क्षुद्र बातों को मैं इतना मूल्य क्यों दे रहा हूं! मैंने सुना है कि एक स्त्री ने अपने घर के भीतर झांककर अपने पति को कहा कि बाहर एक आदमी पड़ा है। पागल मालूम होता है। सामने सड़क पर लेटा है। पति ने भीतर से ही पूछा, लेकिन उसे पागल कहने का क्या कारण है? पत्नी ने कहा, पागल कहने का कारण यह है कि एक केले के छिलके पर फिसलकर वह गिर पड़ा है। उठ नहीं रहा है, केले को पड़ा—पड़ा गाली दे रहा है।

कोई भी सामान्य आदमी होता, तो पहला काम वह यह करता है कि किसी ने देख तो नहीं लिया! कपड़े झाड़कर, जैसे कुछ भी नहीं हुआ। केले को गाली भी देगा, तो भीतर और बाद में।

पत्नी ने कहा, आदमी बिलकुल पागल मालूम होता है। लेटा है वहीं, जहां गिर गया है; और सामने केले का छिलका पड़ा है, उसको गाली दे रहा है!

पति ने कहा, एक बात तय है, पागल हो या न हो, सामान्य नहीं है। मैं आया। वह बाहर जाकर देख रहा है। वह आदमी गाली भी दे रहा है, मुस्कुरा भी रहा है। तो उसने आदमी को पूछा कि यह क्या कर रहे हो? उसने कहा, बाधा मत दो।

वह एक सूफी फकीर था। वह केले पर से गिर पड़ा है। एक घटना घटी, एक भौतिक घटना। उसके मस्तिष्क में खबर पहुंची, जो सामान्य आदमी के सभी के पहुंचेगी। और जो केले पर नाराजगी आएगी, वह भी आई। लेकिन वहां से भागा नहीं वह। क्योंकि वह चूक जाएगा क्षण। वह वहीं लेट गया। क्योंकि यह मौका खो देने जैसा नहीं है।

एक केले का छिलका क्या कर रहा है? भीतर क्या हो रहा है? तो मस्तिष्क जो भी करना चाहता है, वह गाली भी दे रहा है। लेकिन एक तीसरी घटना वहा घट रही है। वह इन दोनों को देख भी रहा है, अपनी इस पागलपन की अवस्था को, इस पड़े हुए छिलके को। इस पूरी घटना में वह पीछे है, और धीमे—धीमे मुस्कुरा भी रहा है। इसलिए अक्सर संत पागल भी मालूम पड़ सकते हैं। एक बात तो पक्की है कि वे सामान्य नहीं हैं। एबनार्मल तो हैं ही। असाधारण तो हैं ही। क्योंकि आप यह नहीं कर सकेंगे। मगर अगर कर सकें, तो जो हंसी आएगी भीतर से……..।

आप कभी एक बात को सोचते हैं कि जब दूसरा आदमी कुछ करता है, उसमें आपको हंसी आती है। जैसे एक आदमी केले के छिलके से फिसला और गिर पड़ा। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसको देखकर हंसी न आ जाए। अगर दूसरे को देखकर आपको इतनी हंसी आती है, कभी आपने खुद फिसलकर गिरकर और फिर हंसकर देखा? तब आपको तीसरे तत्व का थोड़ा—सा अनुभव होगा। क्योंकि उस वक्त गिरने वाले आप होंगे, गिरने वाले की जो प्रतिक्रिया है, वह भी आप होंगे, और देखने वाले भी आप होंगे। दूसरे को गिरते देखकर आप हंसते हैं, क्योंकि स्थिति पूरी की पूरी मजाक जैसी मालूम पड़ती है। पर कभी आपने इस पर विचार किया है कि ऐसा होता क्यों है? आखिर केले में, उसके छिलके पर से गिर जाने में ऐसा क्या कारण है जिससे हंसी आती है? इसमें हंसने योग्य क्या है?

मनोवैज्ञानिक बड़ी खोज करते हैं। क्योंकि इसमें हंसी सभी को आती है, सारी दुनिया में आती है। इसका कारण क्या है? इसमें ऐसी कौन—सी बात है जिसको देखकर हंसी आती है?

मेरी जो दृष्टि है, मुझे जो कारण दिखाई पड़ता है, वह यह है कि आदमी के अहंकार को केले का छिलका भी गिरा देता है, उसे देखकर हंसी आती है।

वह आदमी अकड़कर चला जा रहा था, हैट—वैट लगाए था, टाई वगैरह सब। ऐसा बिलकुल शक्तिशाली आदमी, अचानक एक केले का छिलका उसको जमीन पर चारों खाने चित्त कर देता है। उसकी सब सामर्थ्य खो जाती है। अकड़ खो जाती है। क्षणभर में पाता है कि दीन है, सड़क पर पड़ा है। इस दीनता से एकदम हंसी आती है। आदमी की इस असहाय अवस्था पर। उसके अकड़पन की स्थिति और फिर एकदम जमीन पर पड़े होने में इतना अंतराल है, इतना फर्क है, कि यह आप पहचान ही नहीं सकते थे कि यह आदमी केले के छिलके से गिरने वाला है। गिरने वाला नहीं है। यह सम्राट हो सकता है।

इसलिए आप खयाल रखें, अगर एक भिखारी गिरेगा, कम हंसी आएगी। अगर एक सम्राट गिरेगा, ज्यादा हंसी आएगी। आप सोचें, एक भिखारी गिर पड़े, आप कहेंगे, ठीक है। एक छोटा बच्चा गिरेगा, तो शायद हंसी न भी आए। क्योंकि बच्चे को हम समझते हैं, बच्चा ही है, इसकी अकड़ ही क्या है अभी! लेकिन अगर एक सम्राट गिरेगा, तो आप बिलकुल पागल हो जाएंगे हंस—हंसकर।

जिस—जिस स्थिति में हंसी आती है आपको देखकर, कभी—कभी उस स्थिति में अपने को देखें। तब भी एक हंसी आएगी; और वह हंसी ध्यान बन जाएगी; और उस हंसी से आपको साक्षी की झलक मिलेगी।

कोई भी अनुभव हो, तीसरे को पकड़ने की कोशिश करें। पुरुषोत्तम की तलाश जारी रखें। और हर अनुभव में वह मौजूद है। इसलिए न मिले, तो समझना कि अपनी ही कोई भूल—चूक है। मिलना चाहिए ही। क्षुद्र अनुभव हो कि बड़ा अनुभव हो, कैसा भी अनुभव हो, पुरुषोत्तम भीतर खड़ा है।

स्वामी राम को कुछ लोगों ने गाली दी, तो वे हंसते हुए वापस लौटे। लोगों ने कहा, इसमें हंसने की क्या बात है? लोगों ने अपमान किया है! राम ने कहा कि मैं देख रहा था। और जब राम को गाली पड़ने लगीं, और राम भीतर— भीतर कुनमुनाने लगा, तो मुझे हंसी आने लगी। मैं भीतर कहने लगा कि ठीक हुआ, अब भुगतो राम! अब भोगो फल!

यह जो भीतर से अपने को भी दूर खड़े होकर देखना है, यही पुरुषोत्तम तत्व है। और जिस व्यक्ति को यह धीरे—धीरे सध जाए, उसकी मा ने आंख बंद कर लीं। उसके चेहरे पर एक समाधि का भाव आ गया। उसने कहा, बेटे, अगर सोलह साल की हो जाऊं, तो फिर कुछ चाहने को बचता भी नहीं है। उतना काफी है। उतना बहुत है, फिर कुछ चाहने को बचता नहीं है।

जैसे ही किसी को भीतर के पुरुषोत्तम का स्वर सुनाई पड़ता है, फिर कुछ चाहने को बचता नहीं है। वह पा लेना सब पा लेना है। लेकिन उसकी तलाश करनी होगी। पास ही है बहुत, फिर भी खोदना पड़ेगा। और जितनी त्वरा से खोदेंगे, जितनी तीव्रता से, उतना ही निकट उसे पाएंगे। अगर तीव्रता परिपूर्ण हो, सौ प्रतिशत हो, तो बिना खोदे भी मिल सकता है।

धीरे— धीरे बेमन से खोदेगे, तो बहुत दूर है। ऐसे ही खोदेंगे कि चलो देख लें, शायद हो, कभी न मिलेगा। क्योंकि खोदने की भावना क्या है, इस पर सब निर्भर है। अगर कोई तीव्रता से, पूर्ण तीव्रता से चाहे, तो किसी भी क्षण उसके द्वार खुल जाते हैं।

और हमें अगर जन्मों—जन्मों से नहीं मिला पुरुषोत्तम, तो उसका कारण यह नहीं है कि वह दूर है। उसका एक कारण है कि एक तो हमने खोजा ही नहीं। कभी खोजा भी, तो बेमन से खोजा। कभी गहरी प्यास से न पुकारा। कभी पुकारा भी, तो ऐसा कि लोगों को दिखाने के लिए पुकारा। प्रार्थना भी की, तो वह हार्दिक न थी; ऊपर—ऊपर थी, शब्दों की थी।

अगर इतना स्मरण रहे, तो उसे किसी भी क्षण पाया जा सकता है। हाथ बढ़ाने भर की बात है।

आज इतना ही।


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पोनी एक कुत्‍ते की आत्‍मकथा–(अध्‍याय–2)

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मनुष्‍य का पहला स्‍पर्श

मेरा जन्म दिल्ली कि अरावली पर्वत श्रृंखला के घने जंगल मैं हुआ, जो तड़पती दिल्ली के फेफडों ताजा हवा दे कर उसे जीवित रखे हुऐ है। कैसे आज भी अपने को पर्यावरण के उन भूखे भेडीयों से घूंघट की ओट मे एक छुई—मुई सी दुल्हन बन कर करवह अपने आप को बचाए हुऐ है। यहीं नहीं सजाने संवारने के साथ—साथ इठलाती मस्त मुस्कराती सी प्रतीत होती है। ये भी एक चमत्कार से कम नहीं है, वरना उसके अस्तित्व को खत्म करने के लिए लोग बेचैन, बेताब, इंतजार कर रहे है। आज भी इसके अंदर गहरे बरसाती नाले, सेमल, रोझ, कीकर, बकाण, अमलतास, ढाँक और अनेक जंगली नसल के पेड़ों की भरमार है। कितने पशु पक्षी आज भी इसकी शरण में विचरण करते ही नहीं इठलाते से दिखते है, गिदड़..खरगोश, जंगली गाय, निलगाय, मोर…तीतर…उदबिलाव, सांप…बिच्‍छू…ओर न जाने कितने ही। सर्दी में झाड़ियाँ, कीकर, ढाँक के छोटे बड़े पेड़ सभी अपने पत्तों को गिरा, कैसे एक दूसरे मे समा जाना चाहते हैं। कैसे दूर से देखने में वह समभाव खड़े नजर आते है। जब तक कोई बहुत जानकार नहीं हो तो कहां पहचान पाता है। कि यह रौंझ है या रौझी….किकर है या बबुल…कैर है या गुगल…।

रात भर ठिठुरन के बाद सुबह की पहली किरण उपर की फूलगिंयों को छुई नहीं की नीचे कि कोमल अमराई तक सिहर उठती है। रात भर कण—कण कर नहलाई ओस की एक—एक बूँदों को सूर्य की किरणें फैली नहीं की वो उसे कैसे दूर छिटक देना चाहती हैं। पूरी प्रकृति रात मैं कैसे अल साई सी, सिहरी सी, एक अवचय सी अनिकटता साथ लिए होती हैं। उसके पास से गूजरों तो कैसे छटांक,सिहर सिमट जाना चाहती हैं। और वही डाल दिन के उजाले मैं कैसे आपके अंग—संग को छूकर—पकड़ कर मानो कुछ कहना चाह रही हो की आपको छुंवन और अनंतरता से मुग्ध हो लहराता परितोष भरी मुस्कराती—खिलखिलाती सी प्रतीत होती दिखाई देगी। प्रसन्‍नता आपके अंदन तक समा जायेगी।

उसी अरावली की कंदरा में झाड़—झंखाड़ से ढकी एक गहरी खाई मैं मेरा जन्म हुआ। जिसके किनारे एक बहुत बड़ा सेमल का पेड़ था। परन्तु शरद ऋतु के कारण वो पत्ते विहीन खड़े भी अपनी गौरव लीला कह रहा था। पत्थरों की उबड़—खाबड़ और गहराई के कारण सूर्य का प्रकाश पुर्ण यौवन पर आने के बाद ही कुछ देर वहाँ जा पाता था। फिर भी भेड़—बकरी चराते गडरियों को इसकी भनक मिल ही गई।मनुष्‍य कि भेदती निगाह इन कंटकी किंकरों को भी भेद गई , शायद मेरी मां को आते जाते उन लोगो ने देख लिया होगा, फिर मनुष्‍य तो मनुष्‍य ही है पुरी पृथ्‍वी का सर्वोपरि प्राणी, मेरी माँ इतनी सतर्क और चपल होने पर भी उनकी आँखो मै धूल झोंक नही पाई। उन्होंने मेरी माँ को दुध या कुछ खाने का लालच देकर उसकी सतर्कता को कम कर दिया। शायद वो भूख से बेहाल रही होगी, हम पाँच—पाँच पिल्ले उसे दिन रात नोचते जो रहते थे।

क्या हम अपने नजदीक वालों पर अघिक विश्वास नहीं करते है, या उसके हाथों अपनी सुरक्षा के कवच को ढीला छोड़ देते है। इस शब्‍द जहर के वास (विश+वाश) का मैंने पहला फल चखा, और मैं अपनी मां की छत्र छाया से दूर हो गया। और उधर मेरी माँ ने मुझे और मेरी बहन को खो कर भी कोई सबक नहीं सूखा होगा। शायद फिर इसी क्रम को बार—बार दोहराया होगा। मेरी माँ बार—बार धोखा खाकर भी। इसकी जड़ लाचारी या लालच मे दबी होगी कहीं। माँ के मुलायम थनों से एक दूसरे पर चढ़ कर दूध पीना, कितना सुखद स्पर्श लगता एक दूसरे का। सर्दी मे जो अलसाया पन छितरा पडा था हवाओं मे, वो हमे कैसे अन्दर तक आह्लादित कर देती है। पुरी प्रकृति ठिठुरती,नवयौवना सी कैसे सिहर—सिहर कर इठलाती प्रतीत होती है। कैसे हम एक दूसरे मे गुंथे लिपटे सोते थे। कैसे प्रेम एक दूसरे पर लिहाज का काम करता था।

फिर अचानक एक दिन किन्हीं कठोर हाथों ने मुझे दबोच लिया, ये मेरा किसी मनुष्य का पहला स्पर्श था। भय कि लकीर मेरे सारे शरीर मे दौड़ गई, मैने आंखे खोल कर देखना चाहा, मेरे मुँह से प्यांऊ..ऊँ..उ…प्‍यां….ऊ…..की धवनि के साथ एक दर्द भरी चीख निकल गई। मुझे और मेरी बहन को उन्होंने अपने हाथों मे उठा लिया था। मेरे चीखने यानि पि..या……ऊ, पि…..या की आवाज से शायद वो घबरा गये और तेजी से भागे, मैने समझने की कोशिश की, परन्तु मेरा नन्हा सा मस्तिष्क अभी इस के लिए तैयार नही था। अच्छा हुआ मेरी आवाज मेरी माँ के कानों तक नही गई वरना शायद ये लोग उसको भी घायल कर देते, ये तीन—चार थे, फिर इनके हाथों मे बड़े—बड़े डंडे भी थे। वो हमे लेकर तेजी से भागे, मैं अपनी नन्हीं आँखो से जो देख रहा था। वो मेरे मस्‍तिष्‍क के लिए एकदम नया अनुभव था।

परंतु कही अचेतन ये जान गया की अब जीवन खतरे में है। ये प्रकृति के देन ही हो सकती है जो प्रत्‍येक प्राणी को उसने सहज रूप प्रदान की है। जीवन रक्षण के लिए। कैसे हर चीज़ पीछे दौड़ती जा रही है। पेड़, झाड़ियाँ सबको जेसे कोई पीछे धकेल रहा हो, मानो उन्होंने अपने को पृथ्वी की पकड़ से मुक्त कर लिया, और वो अब बिना पंखों के दौड़ते चले जो रहे है। चल हम खुद रहे होते है परन्तु मन को कैसे धोखा होता है चीजें पीछे भागी जा रही है। मेंने इस भ्रम—सत्य को पहली बार देखा।

मेरा रंग भूरा मटियाला और बादामी था। मेरी बहन एक दम शाह काली, काले चमकते रंग पर उसकी सलेटी नीली आंखे बहुत सुन्दर लगती थी। मेरी आंखे मेरे शरीर के रंग की भूरी थोड़ा काला पन लिए थी। परन्तु उनके ऊपर काले घने बालों के गुच्छे दो आँखो का भ्रम पैदा कर रहे थे। पारिवारिक प्यार का सुख,स्नेह और संग—साथ हम केवल महीना भर जी पाये। मेरे दूसरे भाई—बहन का क्या हुआ,मेरी माँ ने हम दोनो बहन—भाई को ढूंढने की कोशिश जरूर की होगी पर वो यहाँ तक कैसे आती, हम उसकी पकड़ पहुँच से कितनी दुर, एक अनजान लोक मे आ गये थे। एक तो हम इतने छोटे अबोध, इस दुनियाँ से अनजान —अपरिचित भाषा, तो हमे किस्मत के भरोसे छोड़ दिया होगा।

मेरी समझ मे नहीं आ रहा था ये लोग हमारा क्या करेंगे,कहाँ हमे लिए जा रहे है। हर पाणी पे मोत जीवन मे एक ही बार घटती है, फिर वो पहले से ही उससे क्यो भय भीत रहता है। शायद अनन्त से हमारा अनुभव होना चाहिए, वरना तो इस भय का कोई ही नहीं। हम अनन्त बार इस प्रक्रिया से गूजरें होगें। मारे भय के शरीर सूखे पत्ते कि तरह कांप रहा था। स्पर्श का दूसरा अनुभव भी बहुत जल्दी हुआ,जब उन्होने मुझे दूसरे हाथों मे सौंप दिया। उनकी भाषा तो मेरी समझ मे नहीं आ रही थी। डरे सहमते कांपते मैने उनके हिलते हाथों से समझने की कोशिश जरूर की,परन्तु मे समझ कुछ भी नहीं पाया। जेसे ही उन्होने मुझे दूसरे हाथों मे दिया, वो एक महिला थी। मेरे कांपते शारीर में मधुर शीतलता दौड़ गई,मेरा कांपना भी अचानक बन्द हो गया। क्या सारे भय की तरंगें उन कुरूर हाथों से बह कर मेरे शारीर मे प्रवेश कर रही थी ?

उस महिला के हाथों में जाते ही मैं प्रेम की सिहरन से मेरा शरीर पुलकित हो गया। प्रेम मेरे शरीर के रेशे—रोंए मे नये जीवन का संचार भर गया।जीवन में फिर एक जीने का नया अंकुर फूटा,एक कोमल पत्ते ने अँगडाई ली, मैने नये जीवन को निहारना चाहा,अचानक नरम—मुलायम होठों ने मुझे चूम लिया। उनकी आँखो से बहते प्रेम से मैं अन्दर तक डूब गया। अब इतना भरा तालाब किनारे तोड़ कर बह जाना चाह रहा था। मुझे भी लगा मैं इन हाथों से मुक्त हो,जमीन पर भागू और अनन्त के उस छोर को छू आउ। शायद मेरी बात को वो समझ गई और सीढ़ियाँ चढ़ कर उन्होंने मुझे छत पर छोड़ दिया। मैं आजाद मुक्त सा, गर्व कर, दो कदम पीछे हट कर लगा भौंकने।

मेरे भौंकने की आवाज़ सुन एक लम्बा चौड़ा पुरूष जिसकी बहुत घनी लम्बी दाढ़ी, कन्धे तक झूलते लम्बे बाल मैं उन्हे देख कर इतना घबरा गया मेरा मुहँ खुला का खुला रह गया मानो मेरी मछली बहार निकल गई हो और मजेदार बात तो ये कि मैं अपने चिर परिचित हथियार भौंकने को ही भूल गया। उसने उठा कर मुझे अपने हाथ पर खड़ा कर लिया, मुझे लगा गुलीवर की कथा फिर दोहराई जा रही है। मैं उनके के बीचों बीच समा गया। फिर उन्होने दूसरे हाथ से मेरे शरीर पर बड़े प्यार से हाथ फेरना शुरू किया। मेरे शरीर के रोंए—रोंए मे शान्ति की लहर दौड़ गई। मेरी आंखे अपने आप बन्द होने लगी और शरीर से मेरी पकड ढीली पकने लगी। उस नींद,तंद्रा, मदहोशी का रस मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं।

सच वो चमत्कार जैसा लगता है मुझे। अगर मुझे ना सम्हाला होता तो मैं उनके हाथ से नीचे अवश्य ही गिर जाता। मैंने अपनी नन्हों जीभ से उस विशाल हाथ की एक उंगली को चाटा। मेरी नन्हों लाल मुलायम जीभ के स्पर्श में धन्यवाद का जो भाव छिपा था शायद उन तक पहुंच गया। उनकी बडी चमकदार आँखो से दो आंसू लुढक कर मेरे सामने गिर गये, मैने उन्हे चाट लिया, कैसा कसेला, नमकीन अजीब था उसका स्वाद।मैं थका और भूखा था, मेरे हाव—भाव देख कर वो समझ गये,एक छोटी सी कटोरी मे दूध मेरे सामने रखा। मुझे तो माँ के थन से दूध पीने की आदत थी, जीब को मरोड कर थन के चारो तरफ़ गोल—गोल लपेट कर चूसन की। अब मजबूरी मे मैने दूसरा हथियार निकाला जीब से चटक कर पीने का। पेट तो भरा, परन्तु पीछे कुछ छूट गया, चूसने की सरसता। चटक कर पीने में एक हिंसा का प्रवेश हो गया। कुदरत हम शाकाहारी—मांसाहारी प्राणिकों को बचपन मे एक समान दूध पीने की प्रवर्ती देती है। चटखने —चूसने का विभाजन बाद मे हमारे स्वभाव का बदलाव है शायद। बड़े होने पर सभी शाकाहारी पानी चूस कर पीते है और हम मांसाहारी चटक कर पीते हैं। दोनो की गुणवत्ता मे भेद है। क्या ये पर्वती हमे हिंसात्मक नहीं बना देती ?

शायद मनुष्य भी अपना स्वभाव भूल गया, इसलिए क्या वो हिंसा—तमक नहीं होता जा रहा ? माँ का दूध कितने दिन मैं पी पाया,फिर भी वो अनमोल है, अस्मरणीय है। अब भी गहरे मे जाता हूं तो माँ का चेहरा आँखो के सामने खड़ा पाता हूं। दूध पीकर मैं थोड़ा खेला, फिर अचानक घर की याद आई, मैं कु..कु.. करके रोने लगा। तभी माँ जी ने मुझे एक नरम कपड़े मे लपेट कर अपनी गोद मे छुपा लिया। मेरे पूरे शारीर मे थकान भरी थी मैं लेटते ही सो गया। कितनी देर सोया मुझे भास नहीं, मेरे आस पास कुछ फुसफुसाहट हुई तो मेरी आँख खुली। तीन चेहरे मेरे उपर झुके और बड़ी—बड़ी छह आंखे मुझे घूर रही थी। बहुत देर तक मेरी समझ में नहीं आया कि मेरे साथ क्‍या हुआ और मैं कहाँ पर हुं, जिस तरह से अचानक गहरी नींद में हमारा मस्तिष्क चेतना शुन्य हो जाता हैं। दूर विचारों का तंतु जाल उसमे पीछे बुना जाता होता है। इसी तरह से में एक गहरे भय के तंतु जाल में उलझा जा रहा महसूस कर रहा था।

धीरे—धीरे एक—एक चित्र मेरी आँखो के सामने घूमने लगा। कि मैं कहाँ हूं और क्या मेरे साथ घटा हैं। मैं जैसे ही उठने लगा, हलकी सी चीख के साथ वो चारो आँख दूर भाग गई। मैं इतना छोटा भी किसी को डरा सकता हूं, यकीन नहीं हो रहा था। वो इस छोटे से परिवार के तीन नन्हे—मुन्ने सदस्य थे, मणि दीदी, वरूण और हिमांशु भैया। उम्र क्रमश: 11, 8 और 5 वर्ष होगी। उनमें सबसे छोटे बच्चे ने पास आकर मेरे थूथन को पकड़ कर हिलाया, मैं झटपट खड़े हो उसके पीछे भागा। वो तीनों उर के मारे चीख मार कर पलंग पर चढ़ कर खड़े हो गये। मैं नीचे खड़े हो कर लगा उन्‍हें भौंकने, यहीं मेरा पहला परिचय था उन तीनों से। बाद मैं हमारी दोस्ती और प्रेम चिर स्मरणीय बन गया। धीरे—धीरे मैं भी उस परिवार का सदस्य बन गया, फिर भी मनुष्य और हमारे रहन—सहन विकास क्रम मै बहुत फर्क हैं, ताल—मेल बिठाने मे दिक्कत आ रही थी। रह—रह कर अपने आप को अकेला पाता था।

कभी—कभी जब ज्‍यादा अकेला पन महसूस होता तो अपनों की बहुत याद आ जाती। मन में रह—रह कर बस यही विचारे कौंधता की कहाँ होगी मेरी वो बहन जो मेरे साथ आई थी! मेरी माँ ने हमें ढूंढा अवश्यक होगा परन्तु वो लाचार, असहाय, अबला सी केवल तड़पती और रोती रह गई होगी। जो अपनी पीड़ा अपनी ममत्व किसी को दिखा भी नपाई होगी और उस समय कैसा खाली—खाली सा लगता होगा दुध पिलाना, वह रह—रह कर हमें बारी—बारी से कैसे चाटती थी। रोती बिलखती अपने मन को मसोस कर रह गई होगी बेचार। किसके सामने अपनी पीड़ा, संताप दिखाए, मेरा मन माँ करता की किसी तरह एक बार मां सामने आ जाए बस मैं उसी संग लिपट—बस जाऊँ, उसके मुँह को चाटू, उसके आस—पास भागू और कु.. कु..करके खूब रोंऊ।

अपनों से दूर होकर जब तड़पते हैं तो वो कितना पास आ जाता हैं। मनुष्य के संग रह के जितना थोड़ा सा मैंने जाना हैं, वो इतना बूरा नहीं लगता जितना हम उसके बारे में सोचते है। मेरी बहन जहाँ भी होगी जरूर खुश होगी शायद मेरे से भी जादा मेज़ मैं हो, भगवान उसके साथ ऐसा ही करे। सबसे ज्‍यादा अकेला पन सोने के समय महसूस होता, छोटा बच्चा कितना असहाय और लाचार होता हैं, माँ के बिना। कैसे अपने को माँ का अंग—संग समझता हैं, कैसे अपने को अपूर्ण महसूस करता हैं। कैसे सोते में अपने शरीर को मां के शरीर से सटा कर उसकी गर्मी में वह लवरेज हो उस में अपने को सूरक्षित समझ सारे जहां को सारे भय को कैसे भूल जाता है।

ये प्रकीर्ति का कितना कुरूप और भद्दा मजाक था मेरे साथ। परन्तु प्रेम के रंग मैं रँगना भी एक कला है एक खेल हैं। प्रेम की छाया की इसमें इतनी निर्मलता, एक अतुलनीय आसकती है वरना तो जीवन क्रम कभी का रूक गया होता। हम जिसे शरीर में होते है उसके साथ उसी तरह का प्रेम महसूस कर पाते है। परंतु मनुष्‍य के साथ एक अनोखी घटना घटी है वह मन से विकसित हो गया है इस लिए उसके मन के जितने आयाम है प्रेम के उससे भी अधिक आयाम महसूस होते है। उसके इस प्रेम को समझना मेरे बूते के बहार की बात थी। मैं केवल शरीर का या अंदर से मां की बहती उर्जा के समझने में सामर्थ्य था। परंतु यहां तो अनेक के साथ महसूस कर रहा था की प्रेम भी भिन्‍न है। ये बातें उनके स्‍पर्श से उनके संग से महसूस कर पा रहा था। और अपने को छला सा महसूस कर रहा था। इसमें मनुष्य कुछ भिन्न हैं, उसने विज्ञान से प्रात सुविधा को अपने जीवन मैं समाहित कर लिया हैं। यहीं उसका गौरव है,गरिमा है। यहीं उसके ना होने पर होने की विजय हैं।

और यहीं मनुष्‍य की सबसे बड़ी हार है जो प्रकृति से दूर होता जा रहा है। एक मशीन बनता जा रहा है। लेकिन देख रहा था वह कितना खुश है…अपने ही विनाश से।

भू…भू….भू….(आज इतना ही)

 

 


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पोनी एक कुत्‍ते की अात्‍मकथा–

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इस कथा को लिखने के लिए अगर मुझे किसी ने प्रेरित किया तो वह था पोनी। जब वह अंतिम बिदाई ले रहा था, अपनी मृत्‍यु के कुछ ही मिनट पहले। तब उसने मेरे हाथ में अपना सर रख कर किसी अंजान सी ध्‍वनि में मुझसे कुछ कहने की कोशिश की। मुझे पता था उसके चला चली का समय है। इस लिए दुकान पर जाने से पहले मैं हमेशा उससे मिल कर आता था उसने अपने अंतिम दिन छत के उस खुबसूरत प्रागांण में गुजारे….परंतु यह उसकी मजबूरी थी क्‍यों कि उसकी आंखें इतनी कमजोर हो गई थी की वह दूर का देख नहीं पाती थी। शरीर इतना जरजर चार कदम भी नहीं चल पाता था। इस लिए हमने उसका बिसतरा छत वाले उस कम लगा दिया उसके लिए कूलर था और पास ही एक टेपरिकार्ड…क्‍यों उसे ओशो के प्रवचन बहुत प्रिय थे।

सुबह जब अंतिम दिन मैं और मेरी बेटी बोधिउनमनी और बेटा प्रमोद मेरे साथ थे। उसने कम से कम 20 मिनट तक मुझसे कुछ कहने की कोशिश की। ऊ….ऊ…ओ….ओ….ओर मैं उसके सर पर हाथ फेरता रहा। तब वह थक कर लेट गया और मैंने ओशो का प्रवचन लगा दिया। बस मैं दूकान तक ही पहूंचा था कि खबर आई की पोनी तो चला गया….शायद उसे पता चल रहा था की वह जा रहा है। एक कुत्‍ता होकर भी उसने जैसे जीवन जिया….जिस तरह से वह प्रेम और उनमाद से भर कर जिया। ये बहुत गर्व की बात है। मैं सोचता हूं किसी—किसी को मनुष्‍य शरीर नहीं मिलता तो भी वह कितना भाग्‍य शाली होता है। जैसे रमण महार्षी की गाय…पोनी भी बहुत भाग्‍य शाली था। उसने अपने जीवन को पशु के पार की उन उच्‍चाईयों को छूआ है। अपनी चेतना के तल को पशु से उन उत्‍तंग उंच्‍चाईयों तक ले कर गया है। जो उसे मनुष्‍य की चेतना के अति नजदिक ले गया था। अंतिम समय पर तो वह जब ध्‍यानके कमरे में होता तो कुत्‍ते भोंकते या और कोई शोर होता तो वह भौंकता नहीं था। और कुत्‍ते के स्‍वभाव के पार की बात है।

एक अंदरूणी खुशी है….मैंने पोनी की चेतना को पल—पल विकास करते देखा। ये मेरा ध्‍यान भी था। और मेरी संवेदना को भी इसने विकसित किया। मैं पोनी के जीवन को इतने नजदीक से देख पाया। असल में ये एक अति सत्‍य घटना ही नहीं एक सत्‍य जीवन है। घटना तो हमारे जीवन को खोल होती है….जो उपर से पहन लेते है। और जीवन तो हमारी श्‍वास…हमारी मास मज्‍जा…..हमारे भाव ही होते है।

अगर मेरी लिखी इस आत्‍म कथा को पढ़ कर जरा भी कुत्‍तो के प्रति थोड़ी भी संवेदना जग जाये। आप उसके जीवन के रहस्‍य को देख पाये तो मेरा लिखना सफल होगा। सच कुत्‍ता पूरी पृथ्‍वी पर एक मात्र प्राणी है। जो मनुष्‍य की परछाई बन गया है। ये कोई अकशमात नहीं है। उसकी करोड़ों साल की महन और अपनी चेतना के तल को विकास क्रम का फल है। मनुष्‍य जिस तरह से अपनी चेतना के तल विकसित कर रह है…ठीक इसी तरह कुत्‍ता मनुष्‍य के कंधे से कंधा मिला कर प्रयास रत है।

मेरा नमन है उस पोनी को नहीं उसकी हजारों करोड़ो पिढ़ीयों को जो न जाने कितने पोनी रोज पैदा कर रही है।

स्‍वामी आनंद प्रसाद मनसा


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–179

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प्‍यास और धैर्य—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—15

सूत्र—

यो मामैवमसंमूढो जानति पुरुषोत्तमम्।

स सर्वोविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।। 19।।

इति गुह्यतमं शास्त्रीमदमुक्‍तं मयानघ।

एतदबद्ध्वा बुद्धिमान्‍स्‍यत्‍कृतकृत्‍यश्‍च भारत।। 20।।

है भारत, हस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार मे निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है।

है निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्‍त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, हमको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

पहले कुछ प्रश्न।

 

पहला प्रश्न : कल आपने कहा कि बिना शास्त्रों को पढे गुरु की तलाश नहीं करनी चाहिए, मगर मैंने कभी शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया और आपको पहली बार सुनकर ही गुरु मान लिया है। तो क्या मेरा रास्ता गलत है? कल से मुझे सूझ नहीं पड़ता; क्या मैं सदा ही भटकता रहूंगा?

हुत—सी बातें समझनी जरूरी हैं। पहली बात, यह जन्म आपका पहला नहीं है। आप जमीन पर नए नहीं हैं। बहुत बार हुए हैं, बहुत बार खोजा है, बहुत बार शास्त्रों में भी खोजा है, बहुत बार गुरुओं के चरणों में भी बैठे हैं। सारे जन्मों का सार—संचित आपके साथ है।

यदि कभी ऐसा घटित होता हो कि किसी के निकट गुरु— भाव पैदा हो जाता हो, तो उसका केवल एक ही अर्थ है कि पिछले जन्मों की अनंत यात्रा में गुरु के प्रति समर्पित होने की पात्रता अर्जित की है। अगर वैसा न हो, तो गुरु— भाव पैदा होना संभव नहीं है।

जैसे फूल तो तभी लगेंगे वृक्ष पर, जब वृक्ष बड़ा हो गया हो, शाखाएं फैल गई हों, पत्ते लग गए हों, और फूल लगने का समय आ गया हो। बीज से सीधे फूल कभी नहीं लगते।

तो पहली बात तो यह खयाल रखनी चाहिए कि यदि सच में गुरु— भाव पैदा हुआ हो, तो शास्त्रों की खोज पूरी हो गई होगी। वह चाहे शांत न भी हो; चाहे आपके चेतन मन को उसका पता भी न हो।

और अगर गुरु—भाव भ्रांत हो, मिथ्या हो, सिर्फ खयाल हो, पैदा न हुआ हो, तो ज्यादा देर टिकेगा नहीं। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे फूल को किसी ने बीज के ऊपर रख दिया हो; बीज से निकला न हो।

यदि गुरु— भाव वस्तुत: पैदा हुआ है, तो जीवन बदलना शुरू हो जाएगा। वही लक्षण है कि गुरु— भाव वास्तविक है या नहीं। क्योंकि गुरु— भाव एक बड़ी क्रांतिकारी घटना है। किसी के प्रति समर्पण की भावना जीवन को आमूल बदलना शुरू कर देती है। समर्पित होते ही आप दूसरे होने शुरू हो जाते हैं। वह जो व्यक्ति समर्पित हुआ था, मर ही जाता है। नए व्यक्ति का ही उदभव हो जाता है।

अगर समर्पण की, शरण जाने की भावना वास्तविक हो—और वास्तविक का अर्थ यह है कि पिछले जन्मों के अनुभव से निकली हो—तो आपके जीवन में क्रांति शुरू हो गई। वह अनुभव आने लगेगी।

आपकी वृत्तियों में फर्क होगा, आपके लोभ में, क्रोध में, काम में फर्क होगा। आपकी करुणा गहन होगी, मैत्री बढेगी। सुख—दुख के प्रति उपेक्षा आनी शुरू होगी। भविष्य बहुत मूल्यवान नहीं मालूम होगा, वर्तमान ज्यादा मूल्यवान मालूम होगा। और जो दिखाई पड़ता है, उससे भी ज्यादा, जो नहीं दिखाई पड़ता है, उसकी तरफ आंखें उठनी शुरू हो जाएंगी। ऐसे जीवन में सब तरफ से फर्क पड़ने शुरू होंगे।

अगर गुरु— भाव, गुरु के प्रति समर्पण का भाव, अतीत के अनुभवों से निकला हो, तो पहचानने में अंतर नहीं पड़ेगा, कठिनाई नहीं पड़ेगी। लेकिन अगर ऐसे ही पैदा हो गया हों—ऐसे भी कभी पैदा हो जाता है—तब आपमें गुरु के प्रति भाव पैदा नहीं होता, गुरु के प्रभाव में आपके ऊपर फूल रख जाता है।

प्रभावशाली व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व में प्रभाव हो सकता है; उनकी वाणी में प्रभाव हो सकता है, उनके अस्तित्व में प्रभाव हो सकता है। उस प्रभाव की छाया में आपको लग सकता है कि आप समर्पित हो रहे हैं। लेकिन वह ज्यादा देर टिकेगा नहीं। वह सम्मोहन से ज्यादा नहीं है। जल्दी ही वर्षा, एक वर्षा भी उसे धुला देने के लिए काफी होगी।

तो यही कसौटी है कि अगर समर्पण आपको बदल रहा हो, टिकता हो और धीरे— धीरे स्थिर भाव बनता हो, तो समझना कि शास्त्रों की कोई जरूरत नहीं है, शास्त्रों का काम पूरा हो चुका होगा। अगर समर्पण— भाव कई बार आता हो, अनेक के प्रति आता हो, टिकता न हो; आता हो, चला जाता हो; जरा—सा पानी और सब बह जाता हो; तो समझना कि वह व्यक्तियों के प्रभाव में आपको लगता है कि समर्पण हो रहा है।

वह समर्पण आपका नहीं है। उससे कोई रद्दोबदल, कोई क्रांति कभी भी नहीं होगी। आप जैसे थे, आप वैसे ही रहेंगे। नुकसान भी हो सकता है। क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं बिना बदले प्रभावित हो जाता है, उसके जीवन की सारी व्यवस्था ऊपर—ऊपर, सतह पर होने लगती है। वह किसी से भी प्रभावित हो सकता है। वह जहां जाएगा, वहीं प्रभावित हो जाएगा। लेकिन प्रभाव होगा ऊपर लहरों पर, उसके प्राणों की गहराई में कुछ भी नहीं होगा।

प्राणों की गहराई में तो जो घटना घटती है, वह आपके ही अनुभव से घटती है। आपका अनुभव तैयार हो और गुरु का मिलन हो जाए तो समर्पण, शरणागति पैदा होती है।

आपका अनुभव भीतर न हो और गुरु का मिलना हो जाए, तो प्रभाव पैदा होता है। लेकिन प्रभाव क्षण में आता है, क्षण में चला जाता है, उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। वह वैसे ही है, जैसे आप चित्र देखने गए; फिल्म देखी और थोड़ी देर को प्रभावित हो गए हैं। और बाहर निकलते ही बात समाप्त हो गई है।

यह भी हो सकता है कि फिल्म देखते क्षण में करुणा उमड़ आई हो, आंख आंसुओ से भर गई हो। लेकिन जैसे ही परदे पर प्रकाश होता है, घंटी बजती है, स्मरण आ जाता है कि सिर्फ फिल्म थी, प्रकाश—छाया का खेल था; रोने जैसा कुछ भी न था; और आप हंसते हुए बाहर आ जाते हैं। हो सकता है अभी भी आंखें गीली हों, लेकिन वह सब ऊपर—ऊपर था; भीतर उसके कोई परिणाम नहीं है। मुझे सुनकर भी प्रभाव हो सकता है। मेरी बात अच्छी लग सकती है, तर्कयुक्त मालूम हो सकती है। मेरी बात का काव्य मन को पकड़ ले सकता है। लेकिन उसका बहुत मूल्य नहीं है; मनोरंजन से ज्यादा मूल्य नहीं है। बाहर आप जाएंगे, वह सब खो जाएगा; धुआं—धुआं उड़ जाएगा।

लेकिन अगर आपके भीतर अनुभव भी पका हो और फिर मेरी बात का उससे मेल हो जाए; बीज भी पड़ा हो जमीन में और वर्षा हो, तो अंकुरण होगा। बीज आपको अपने साथ लाना है।

कोई भी गुरु आपको अनुभव नहीं दे सकता। गुरु वर्षा बन सकता है। अनुभव का बीज भीतर हो, तो अंकुरित हो सकता है। गुरु की मौजूदगी माली का काम कर सकती है। लेकिन कोई भी गुरु बीज नहीं बन सकता आपके लिए। उसका कोई उपाय नहीं है।

इसकी भी जांच निरंतर रखनी चाहिए कि हम केवल प्रभावों से तो नहीं जीते? अपने भीतर भी खोज करते रहना चाहिए कि हम सिर्फ सम्मोहित तो नहीं हैं? हमारे भीतर कुछ अंतर हो रहा है या नहीं? रोज लोग मंदिर में जाते हैं। मंदिर में उनके चेहरे देखें; भक्ति— भाव से भरे हुए मालूम पड़ते हैं! मंदिर से बाहर निकलते ही चेहरे बदल जाते हैं। उस मंदिर को वे जन्मों से जा रहे होंगे, लेकिन मंदिर कहीं भी उनको बदल नहीं पाता। वे वही के वही हैं। मंदिर में जाकर एक चेहरा ओढ़ लेते हैं। उसकी भी आदत हो गई है! तो मंदिर में प्रवेश करते ही से भक्ति का भाव धारण कर लेते हैं।

लेकिन धारण किए हुए भाव का कोई मूल्य नहीं है। भाव भीतर से आना चाहिए। और अगर भीतर से आएगा, तो मंदिर में ही क्यों, मंदिर के बाहर भी रहेगा, मंदिर के भीतर भी रहेगा।

तो जब आप मुझे सुनते हैं, तभी अगर ऐसा लगता हो कि समर्पण कर दें, उसका बहुत मूल्य नहीं है। जब मुझे सुनकर चले जाते हैं, और अगर वह भाव आपके भीतर गूंजता ही रहता हो, उठते—बैठते, सोते—जागते, उसकी धुन आपके भीतर बजती रहती हो, वह आपका पीछा करता हो, न केवल पीछा करता हो, बल्कि उसकी मौजूदगी के कारण आपके जीवन में फर्क पड़ता हो, कि आप किसी की जेब में हाथ डालकर रुपया निकालने ही वाले थे, कि वह जो भाव आपके भीतर उठा था, वह आपको रोक देता हो, कि गाली बस निकलने को ही थी मुंह से, कि वह जो भाव भीतर उठा है, बाधा बन जाता हो; कि कोई गिर पड़ा था, उसको उठाने के लिए हाथ बढ़ जाता हो, वह भाव कृत्य बनता हो; तो समझना कि वह आपके भीतर है।

अगर भाव कृत्य बनने लगे, तो उसका अर्थ है कि वह आचरण को बदलेगा। अगर भाव कृत्य न बने, तो आप तो वही रहेंगे। हो सकता है, बुद्धि में थोड़ी अच्छी बातें संगृहीत हो जाएं। अच्छी बातों का कोई भी मूल्य नहीं है। अच्छी बातें अच्छे सपनों जैसी हैं। सपना कितना ही अच्छा हो, तो भी सपना है। और सपने में आप सम्राट भी हो जाएं, तो सुबह आप पाते हैं कि आप भिखारी हैं। उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता।

तो मैं अगर कहूं कि आप स्वयं ब्रह्म हैं, और भीतर छिपा है अविनाशी अंतर्यामी; और मेरी बात सुनकर आपको लगे कि ठीक, और इससे जीवन में, कृत्य में कहीं कोई अंतर न पड़ता हो, तो इसका कोई भी मूल्य नहीं है; और इसे आप धोखा समझना। और इस धोखे से जितने जल्दी आप बाहर हो जाएं, उतना अच्छा है।

क्योंकि इस धोखे में आपने न मालूम कितना समय गंवाया होगा। लोग हैं, जो एक गुरु से दूसरे गुरु की यात्रा करते रहते हैं; एक आश्रम से दूसरे आश्रम में चलते रहते हैं। कोई आश्रम उनको बदल नहीं पाता। और तब वे क्या सोचते हैं, कि सभी आश्रम बेकार हैं; कहीं कोई सार नहीं है। कोई गुरु उनको नहीं बदल पाता। तब वे सोचते हैं कि सब गुरु बेकार हैं, सदगुरु कोई है ही नहीं।

कठिनाई सदगुरु की नहीं है, कठिनाई आपकी है। आप बदलने को तैयार हों, तो एक छोटा बच्चा भी आपको बदल दे सकता है। और आप बदलने को तैयार न हों; तो खुद कृष्ण भी आपके पास खड़े रहें, तो कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं।

इसे खयाल रखें। जो भी प्रभाव हो, वह आपका कृत्य बनने लगे, इसका स्मरण रखें। और मौका दें कि वह कृत्य बने। जहां भी अवसर मिले, तत्क्षण जो आपका भाव है, उसे कर्म में रूपांतरित होने दें। जब भी कोई भाव कर्म बनता है, तो उसकी लकीर आपके भीतर गहरी हो जाती है।

जो आप सोचते हैं, उसका बहुत मूल्य नहीं है। जो आप करते हैं, उसी का बहुत मूल्य है। क्योंकि जो आप करते हैं, वह आपके अस्तित्व से जुड़ता है। जो आप सोचते हैं, वह बुद्धि में भटकता रहता है।

बहुत लोग हैं जिनके पास अच्छे— अच्छे विचार हैं। उन अच्छे विचारों का कोई भी मूल्य नहीं है। समय पर काम नहीं आते। और जो वे करते हैं, उस करने से उनके विचारों का कोई संबंध नहीं जुड़ता।

मैं जो भी आपसे बोलता हूं, उसका प्रयोजन आपको प्रभावित करना नहीं है। बच्चों का खेल है प्रभावित करना। आप तो मदारी से प्रभावित हो जाते हैं, इसलिए उसका कोई मूल्य भी नहीं है। सड़क पर एक मदारी डमरू बजा रहा है। आप वहीं खड़े हो जाते हैं। तो आपको प्रभावित करने का कोई मूल्य नहीं है, न कोई अर्थ है। आप तो किसी से भी प्रभावित हो जाते हैं!

आपके भीतर जीवन का संचरण शुरू हो जाए! आपकी जीवन— धारा नई गति ले ले!

तो न शास्त्रों की फिक्र करें, न प्रभावों की फिक्र करें; फिक्र इस बात की करें कि आपके भीतर क्या घटित हो रहा है। इसका सतत निरीक्षण चाहिए। और आपके भीतर जो घटित होगा, वही संपदा बनेगी।

मरते क्षण में न तो आप शास्त्र ले जा सकेंगे, न गुरु को साथ ले जा सकेंगे; न गुरु के वचन काम आएंगे; न आपने जो प्रभाव इकट्ठे किए हैं, वे काम आएंगे। मरते क्षण में, आपने क्या किया जीवनभर, वही बस आपके साथ होगा। मरते क्षण में आपके कृत्यों का सार—निचोड़ आपके साथ यात्रा पर निकलेगा। मरते क्षण में सिर्फ आप ही बचेंगे; और आपके अपने सारे कृत्यों का संग्रह, जो—जो आपने किया, उसकी सब लकीरें आपके ऊपर हैं।

तो निरंतर यह सोचें कि आपके जीवन की धारा कैसी चल रही है। वही पहचान है।

दूसरा प्रश्न :

 

इतने दिन से आपको बड़ी उत्कंठा से सुनकर भी मैं अपने आपको वहीं या रहा हूं जहां मैं था! फिर मैं क्या आशा रख सकता हूं?

 

किससे आप आशा रख रहे हैं, मुझसे या अपने से? प्रश्न से ऐसा लगता है कि मुझसे कुछ आशा रख रहे हैं। जैसे मुझे सुनकर आप वहीं के वहीं हैं, तो कसूर मेरा है! मैंने कहा कब आपको कि आप सुनकर कुछ और हो जाएंगे? काश, इतना आसान होता कि लोग सुनकर बदल जाते, तो इस दुनिया में बदलाहट कभी की हो गई होती!

लोग सुनकर नहीं बदलते हैं, यह तो साफ ही है। और सच तो यह है कि जितना ज्यादा सुनते हैं, उतना ही जड़ हो जाते हैं। क्योंकि सुनने की उनको आदत हो जाती है। तो पहली दफे सुनकर शायद थोड़ी—बहुत उनकी बुद्धि में गति भी आई हो, बार—बार सुनने से उतनी गति भी खो जाती है! फिर सुनने के आदी हो जाते हैं! फिर उनको लगता है, यह तो सब परिचित ही है। फिर सुनना भी एक नशा हो जाता है। तो उसकी तलब होती है।

अगर आप मुझे सुनते हैं उत्कंठा से और कोई फर्क नहीं हो रहा, तो आठ बजे कि आप चले। वह तलब है। वह जैसे किसी को

सिगरेट पीने की तलब है, कि आठ बजे और सिगरेट न पीए, तो उसको तकलीफ होती है। तो यह एक व्यसन हुआ, नशा हुआ। नशे का एक मजा है। करो, तो कुछ मिलता नहीं; न करो, तो तकलीफ होती है। जाओ सुनने, कुछ फायदा नहीं; न जाओ, तो बेचैनी होती है! जब भी ऐसा हो, तो समझना कि यह व्यसन हो गया। यह रोग है। इस रोग से कुछ उपलब्धि होने वाली नहीं है।

पर निराश किससे होना है? यह सोचकर सुनना बंद कर दें, तो भी कुछ फर्क नहीं हो जाएगा। सुनने से नहीं हुआ, तो सुनना बंद करने से कैसे होगा! फर्क करने को कुछ आपको अपनी तरफ। सोचना पड़ेगा। सुनने में बड़ी सुगमता है, क्योंकि आपको कुछ करना ही नहीं है, सिर्फ बैठे हैं!

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आपकी किताब पढ़ने से तो आपको सुनने में ज्यादा आनंद आता है! क्योंकि पढ़ने में कम से कम आपको थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है, पढ़ना पड़ता है, उतना कष्ट! सुनने में वह भी कष्ट नहीं है। और सुनने में मन लीन हो जाता है, तो उतनी देर को आपको शांति भी मिलती है। उतनी देर को कम से कम दूसरे उपद्रव आप नहीं कर पाते। कम से कम उतनी देर को आपका मन व्यस्त हो जाता है। तो मन की जो निरंतर की चलती धारा है, वह नहीं चल पाती।

यह सब ठीक है, लेकिन इससे आप बदल नहीं जाएंगे। और अगर कोई सोचता हो कि सुनने से बदल जाएंगे, तो गलती सोचता है। वह तो कभी बदलेगा ही नहीं। अगर बदलना है, तो सुनने से सूत्र खोजे जा सकते हैं, जो बदलने के काम आ जाएं। सिर्फ सुनने से कोई नहीं बदलेगा।

वह करीब—करीब बात, पुरानी कहावत है, कि आप घोड़े को जाकर पानी दिखा सकते हैं, पिला नहीं सकते। घोड़े को ले जाकर नदी के किनारे खड़ा कर सकते हैं। पिलाके कैसे? पानी तो घोड़े को ही पीना पड़ेगा। वही मैं कर सकता हूं घोड़े को नदी के किनारे खड़ा कर सकता हूं; पिला नहीं सकता।

अब आप कहें कि घोड़े की तरह मैं खड़ा हूं इतने दिन से और प्यास मेरी अभी तक नहीं बुझी!

नदी बह रही है, घोड़ा खड़ा है। अब क्या करना है? और करना किसको है? वह जो घोड़े को नदी तक ले आया है, उसको कुछ करना है कि घोड़े को कुछ करना है?

जन्मों तक खड़े रहें। नदी बहती रहेगी। नदी हर पल बह रही है। लेकिन थोड़ा झुकना पड़ेगा घोड़े को। थोड़ी गर्दन झुकाकर पानी। तक मुंह को ले जाना पड़ेगा।

तो मैं जब बोल रहा हूं कुछ कह रहा हूं, तो नदी आपके पास बह रही है। आप बैठे रहें किनारे पर। कितने ही दिन तक बैठे रहें। नदी को देखने का मजा लेते रहें! नदी के बहने की ध्वनि आ रही है, उसका संगीत सुनते रहें। नदी पर सूरज की किरणें बिछी हैं, नदी सुंदर है, उसके सौंदर्य को देखते रहें। नदी के पास पक्षी उड़ रहे हैं, वृक्ष खड़े हैं, उनको देखते रहें। लेकिन प्यास न बुझेगी।

और नदी कुछ भी नहीं कर सकती आपकी प्यास बुझाने को। आप झुकें, चुल्ल से पानी भरें और पीए। और आपकी तैयारी हो, तो पीने की क्या बात है, नदी में डूब सकते हैं, नदी के साथ एक हो सकते हैं। लेकिन सिर्फ नदी की मौजूदगी से यह नहीं हो जाएगा; आपको कुछ करना पड़ेगा।

आप कहते हैं. यहां सुनते हैं, उत्कंठा से सुनते हैं।

यह कुछ करना नहीं है। इस नदी की धारा में से कुछ चुनना पड़ेगा, जो आप पीए। कोई विचार जो आपको लगता है सार्थक है, तो उसको सार्थक ही मत लगने दें, उसको सार्थक बनाएं। कोई विचार आपको लगता है कीमती है, तो सिर्फ ऐसा सोचते ही मत रहें कि कीमती है। अगर कीमती है, तो उसका उपयोग करें, उसको चर्खे, उसका स्वाद लें। उसको पी जाएं; कि वह आपके खून में बहने लगे, आपकी हड्डियों के साथ एक हो जाए।

अगर विचार इतना प्रीतिकर लगता है, तो जिस दिन वह आपका अंतस बन जाएगा, उस दिन कितनी मधुरिमा पैदा होगी, इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। जो मैं कह रहा हूं अगर वह प्रीतिकर लगता है, तो जहां से वह कहना निकलता है, उस स्रोत पर जब आप डूब जाएंगे, एक हो जाएंगे, तो आपके जीवन में प्रकाश ही प्रकाश हो जाएगा।

लेकिन खतरा यही है कि बात अच्छी लगे, तो हम उसे स्मरण कर लेते हैं, वह हमारी बुद्धि में समा जाता है। उसका हम उपयोग भी करते हैं, तो एक ही उपयोग, किसी और से बात करने के लिए उपयोग कर सकते हैं। किसी और को बता देंगे, किसी और को समझा देंगे, बस इतना ही उपयोग है।

तो जो सुना है, उसे आप ज्यादा से ज्यादा अगर कुछ करेंगे, तो वाणी बना लेंगे। वह आपका जीवन नहीं बनेगा। और जीवन न बने, तो सुनने का कोई सार नहीं। वह व्यर्थ ही गया।

तो अगर आपको लगता हो कि सुनते हैं और कहीं जा नहीं रहे—कैसे जाएंगे? जाना आपको पड़ेगा। जाना शुरू करें।

और एक कदम भी उठाएं, तो भी बड़ा है। क्योंकि पहला कदम उठ जाए, तो दूसरे के उठने में आसानी हो जाती है। और एक कदम से ज्यादा तो एक समय में कोई उठा नहीं सकता। एक कदम उठा लिया, तो पूरी मंजिल भी एक अर्थ में हल हो गई। क्योंकि एक—एक ही कदम उठाकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। लेकिन कदम उठाएं।

इसे नियम बना लें कि जो प्रीतिकर लगे, उसके अनुभव की कोशिश करें। जो मन को आच्छादित कर ले, उसके अनुभव की कोशिश करें। फिक्र करें कि इसे मैं भी जानने की कोशिश करूं, क्या!

मेरे पास एक युवक आते थे। ध्यान पर बड़ी उत्सुकता रखते थे। ध्यान के शिविरों में भी आते थे। लेकिन कभी मैंने उनको ध्यान करते नहीं देखा। दो—चार शिविर में देखा, अनेक बार मुझसे मिलने आए; अनेक प्रश्न लेकर आए। प्रश्न भी अच्छे लाते थे। सुनते भी बड़ी उत्सुकता से थे।

मैंने पूछा कि कर क्या रहे हो? उन्होंने कहा, मैं ध्यान पर शोध कर रहा हूं, रिसर्च कर रहा हूं। एक थीसिस लिखनी है।

तो यह व्यक्ति ध्यान को समझने की बड़ी चेष्टा कर रहा है, लेकिन ध्यान से इसे कोई प्रयोजन नहीं है। ध्यान से इसका निजी कोई संबंध नहीं है। थीसिस लिखकर बात समाप्त हो जाएगी। कोई युनिवर्सिटी इसको डिग्री दे देगी। बात खतम हो गई! ध्यान एक विषय है, जिस पर एक बौद्धिक व्यायाम करना है। लेकिन प्रयोग नहीं करना है।

यह करीब—करीब ऐसी हालत है, जैसे कहीं अमृत का सरोवर भरा हो, और कोई आदमी उस सरोवर के आस—पास खोज—बीन करता रहे कि अमृत पर उसको एक थीसिस लिखनी है और उसे पीए न! तो उस आदमी को हम महामूढ़ कहेंगे। क्योंकि थीसिस लिखने का काम तो पीकर भी हो सकता था; और पीकर ज्यादा ढंग से होता। क्योंकि जिसे खुद नहीं जाना, उसके संबंध में हम क्या कहेंगे! जो भी कहेंगे, वह उधार होगा। और जो भी कहेंगे, वह बासा और बाहर—बाहर का होगा। वह भीतर की प्रतीति नहीं है।

एक वैज्ञानिक हुआ मैक्स प्लांक, उसने अपना एक संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है कि वह जीवशास्त्र का अध्ययन कर रहा था और मनोविज्ञान का भी अध्ययन कर रहा था, और कोशिश कर रहा था कि मनोविज्ञान में और जीवशास्त्र में क्या भीतरी संबंध है। और ‘जब मन प्रभावित होता है, तो शरीर कैसा प्रभावित होता है।

एक युवती से उसका प्रेम था। लेकिन एक दिन युवती एकदम झटके के साथ खड़ी हो गई। उसके पास बैठी थी, चांद था आकाश में, वे दोनों बड़े प्रेम की बातें कर रहे थे। अचानक वह झटके से खड़ी हो गई। और उसने कहा कि क्षमा करो; यह बात खतम; अब मुझसे दुबारा मत मिलना। मैक्स प्लांक ने कहा, बात क्या है? उसने कहा कि मैं कई दिन से अनुभव कर रही हूं कि जब भी तुम मुझसे प्रेम की बातें करते हो, तो तुम अपना हाथ मेरी नाड़ी पर रखते हो।

वह जांच करता था कि जब मैं प्रेम की बात करता हूं तो उसकी नाड़ी में कोई फर्क पड़ता है कि नहीं! प्रेम भी थीसिस की बात थी! उसे कुछ प्रेम में उतरने का कोई कारण नहीं था, सिर्फ जांच रहा था कि जब मन प्रभावित होता है, तो शरीर प्रभावित होता है कि नहीं!

होता तो जरूर है। क्योंकि जब आप गहरे प्रेम में हों, तो आपकी नाड़ी तेजी से चलेगी। जिसको आप प्रेम करते हैं, जब आप उसके पास होते हैं, तो आपका पूरा शरीर ज्यादा ज्वलंत हो जाता है। खून तेजी से बहता है। नाड़ी तेजी से चलती है। हृदय तेजी से धड़कता है। आप जीवित हो जाते हैं। और जब आपका प्रेमी आपसे दूर हटता है, तो आप मुर्दा हो जाते हैं, कुम्हला जाते हैं; सब चीजें शिथिल हो जाती हैं।

यह तो ठीक है। लेकिन उस लड़की ने ठीक ही किया। उसने कहा, यह बात खतम हो गई। क्योंकि प्रेम कोई वैज्ञानिक जिज्ञासा की बात नहीं है। और उसने कहा कि शक तो मुझे कई बार होता था। क्योंकि तुम बात करते—करते कुछ और भी कर रहे हो। लेकिन आज मैंने बिलकुल साफ देख लिया कि तुम मेरी नाड़ी पकड़े बैठे हो। पहले वह लड़की समझती रही होगी कि मेरा हाथ प्रेम से पकड़े हुए है, और वह उसकी नाड़ी की जांच कर रहा है!

अब यह आदमी जरूर ही खोज लेगा संबंध मन के और शरीर के, लेकिन एक अनूठे अनुभव से वंचित रह जा सकता है। प्रेम से वंचित रह जा सकता है।

आप ध्यान में उत्सुक हो सकते हैं, एक बौद्धिक ऊहापोह की तरह। तब आप छिलके लेकर लौट आए जहां कि आपको फल मिल सकते थे।

मेरी बात जब आप सुनते हैं और आपको अच्छी लगती है, और प्रीतिकर लगती है, और उत्कंठा जगती है; इतना काफी नहीं है। इतना जरूरी तो है, क्योंकि इसके बाद कुछ और हो सकता है; लेकिन इतना काफी नहीं है। यह केवल प्राथमिक है। दूसरा कदम उठाएं। विचार से अनुभव की तरफ चलें।

विचार पर मत ठहर जाएं। नहीं तो आप सोचते ही रहेंगे, सोचते ही रहेंगे और समाप्त हो जाएंगे। और सोचने पर जो समाप्त हो गया, उसने जीवन को जाना ही नहीं। एक अपूर्व संपदा पास थी, वह उसे खो दिया अपने ही हाथों से। और विधि आपके पास भी रखी रही, तो भी आप उपयोग न कर सके!

एक रात मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर वापस लौटा, बदहवास, पसीने से तरबतर, घबड़ाया हुआ। जल्दी से भीतर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया।

पत्नी ने कहा, इतने घबडाए हुए हो! बात क्या है? कहां से आ रहे हो? उसने कहा कि दुकान से ही लौट रहा हूं। लेकिन एक बदमाश मिल गया। उसने मेरा चश्मा भी छीन लिया; फाउंटेन पेन भी खीसे से निकाल ली, रुपए भी खीसे से ले लिए; कोट भी उतार लिया। यहां तक कि मेरे जूते उतार लिए।

उसकी पत्नी ने कहा, और तुम तो पिस्तौल रखे हुए हो! तो नसरुद्दीन ने कहा, वह तो भाग्य की बात कहो कि बदमाश की नजर पिस्तौल पर नहीं पड़ी; नहीं तो क्या वह छोड़ देता!

अब पिस्तौल किस लिए रखे हुए है वह!

आपको ध्यान की विधि पता है। वह रखी रह जाएगी ऐसे ही जैसे पिस्तौल रखी है। उसको भी बचाने में लग जाएंगे और उसका उपयोग तो कभी कर ही न पाएंगे। आप क्या जानते हैं इसका मूल्य नहीं है, क्योंकि जाना हुआ तो पड़ा रह जाएगा। जिस—जिस ज्ञान को आपने जीवन बना लिया, वही बस आपके हाथ है।

मैंने सुना है, एक बहुत पुरानी यहूदी कथा है, कि परमात्मा ने जब संसार बनाया, तो उसने हिंदुओं के नेता से पूछा—शायद कृष्ण से पूछा हो—कि कुछ नियम हैं मेरे पास। ये उपयोगी होंगे। अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हें नियम दे दूं। तो कृष्ण ने, या हिंदुओं के नेता ने पूछा कि जरा नमूने के लिए; कौन से नियम हैं? तो उसने कहा कि जैसे, व्यभिचार पाप है। तो हिंदुओं के नेता ने कहा, यह बात तो ठीक होगी, लेकिन संसार से सब रस चला जाएगा। कोई उत्सुकता न दिखाई नियम लेने की।

मुसलमानों के नेता से पूछा—शायद मोहम्मद से पूछा होगा—उन्होंने भी कहा, लेकिन पहले मैं जान लूं कि कौन से नियम हैं, फिर लूं। तो ईश्वर ने यह सोचकर कि पहला नियम तो पसंद नहीं किया गया, तो उसने दूसरा नियम बताया कि हत्या मत करो। तो मोहम्मद ने कहा, यह बात तो बिलकुल ठीक है। लेकिन अगर हत्या बिलकुल न की जाए, तो दूसरे हमारी हत्या कर देंगे। और दुष्टों के हाथ में संसार चला जाएगा। और फिर बिना युद्ध के शांति कैसे स्थापित हो सकती है?

ऐसा ईश्वर घूमता रहा। आखिर में वह मूसा को मिला, यहूदियों के नेता को मिला। और जैसे कि यहूदी होते हैं, व्यापारी; ईश्वर भी चौंका। क्योंकि उसने और लोगों से पूछा था, सब ने नमूने मागे। मूसा ने पूछा, हाऊ मच इट कॉस्ट्स, इसकी कीमत कितनी है? वह जो नियम आप देते हो, उसका मूल्य कितना है?

ईश्वर भी चौंका; क्योंकि वह यह पूछ ही नहीं रहा है कि नियम क्या है! वह कहता है, मूल्य कितना है! तो ईश्वर ने कहा, मूल्य तो बिलकुल नहीं है; मुफ्त दे रहे हैं! तो उसने कहा, देन आई विल टेक टेन। मूसा ने कहा, तो फिर हम दस ले लेंगे। जब मुफ्त ही दे रहे हैं, तो क्या दिक्कत है। इसलिए टेन कमाडमेंट्स, दस आशाएं ईश्वर की! मगर वे किताब में रखी हैं।

आप भी मुक्त कुछ मिल रहा हो, तो एक की जगह दस ले लेंगे। कुछ करना न पड़ रहा हो, कुछ आपके जीवन में रूपांतरण न होता हो, कोई क्रांति न होती हो, बैठे—ठाले कुछ मिल जाता हो, तो एक की जगह दस ले लेंगे। लेकिन वह किताब में रखा रह जाएगा; उसका कोई मूल्य नहीं है।

आप यहां बैठकर सुन रहे हैं। आपको कुछ करना नहीं पड़ रहा है। बल्कि घंटे, डेढ़ घंटे के लिए कुछ करना पड़ता, उससे भी आप बच गए। राहत है! सुख लगता है।

इस सुख को आप व्यसन मत बना लें। अगर सुख लगता है बातों में, तो जहां से बातें आती हों, उस दिशा में यात्रा शुरू करें। और जो मैं कह रहा हूं वह अगर आपको भी किसी दिन दिखाई पड़ सके, तभी रुके, तभी समझें कि मंजिल आई। उसके पहले रुकना उचित नहीं है। और यह मैं न कर सकूंगा; यह आपको खुद ही करना पड़ेगा।

कोई दूसरा आपके लिए नहीं चल सकता। कोई दूसरा आपके लिए देख नहीं सकता। कोई दूसरा आपके लिए अनुभव नहीं कर सकता। और अच्छा ही है कि कोई दूसरा नहीं कर सकता। अन्यथा आप सदा के लिए वंचित रह जाते, आप पंगु रह जाते।

अगर दूसरा आपके लिए चले, तो आपके पैर नष्ट हो जाएंगे। और दूसरा आपके लिए अनुभव करे, तो आपका हृदय नष्ट हो जाएगा। और दूसरा आपके लिए देख सके, तो आपकी आंखों की कोई जरूरत नहीं। और दूसरा अगर आपके लिए आत्म— अनुभव कर सके, तो आपकी आत्मा सदा के लिए खो जाएगी।

इसलिए परमात्मा के गहरे नियमों में से एक नियम यह है कि दूसरा आपके लिए, जो भी मूल्यवान है, वह नहीं कर सकता। वह आपको ही करना पड़ेगा। क्योंकि करने से ही विकास होता है। करने से ही आप निर्मित होते हैं। करने से ही आपका वास्तविक जीवन और जन्म होता है।

तीसरा प्रश्न :

 

आपने कहा कि प्राण यदि प्रभु के लिए समग्ररूपेण आतुर हो जाएं, तो एक क्षण में मिलन घटित हो सकता है। और आप यह भी कहते हैं कि इस मिलन के लिए अनंत धैर्य अपेक्षित है। ये दोनों अति स्थितियां हैं!

हीं; ये दोनों एक ही स्थिति के दो रूप हैं। या एक ही स्थिति के दो चरण हैं।

समझें! निरंतर मैं कहता हूं कि उसे पाने के लिए अनंत धैर्य चाहिए। और निरंतर यह भी कहता हूं कि उसे एक क्षण में पाया जा सकता है। दोनों बातें विपरीत मालूम पड़ती हैं। क्योंकि अगर उसे एक ही क्षण में पाया जा सकता है, तो अनंत धैर्य की जरूरत क्या? तब तो क्षणभर भी धैर्य रखने की जरूरत नहीं है। जिसे एक क्षण में ही पाया जा सकता है, उसे हम अभी ही पा ले।

और जब मैं कहता हूं कि उसको अनंत धैर्य रखो, तो पा सकेंगे, तब आपको लगता है कि अनंत धैर्य रखने का मतलब ही यह हुआ कि एक क्षण में पाना तो संभव नहीं, अनंत जन्म में भी पा लें, तो जल्दी पाया।

दोनों बातें विपरीत लगती हैं, पर ये दोनों बातें विपरीत नहीं हैं। और जीवन का गणित पहेली जैसा है। ये दोनों बातें परिपूरक हैं। समझने की कोशिश करें!

उसे एक क्षण में पाया जा सकता है, अगर आप में अनंत धैर्य हो। और अगर आप में धैर्य की कमी हो, तो उसे अनंत काल में भी नहीं पाया जा सकता। क्योंकि आपका धैर्य ही उसे पाने की योग्यता है। तो जितना धैर्य हो, उतने जल्दी वह घटित होता है।

अनंत धैर्य का अर्थ है, एक ही क्षण में घटित हो जाएगा। क्योंकि कोई कमी नहीं रही; आप पूरा धैर्य रखे हुए हैं। अनंत धैर्य का अर्थ है कि अगर वह कभी भी न घटे, तो भी मैं धीरज खोने वाला नहीं हूं। अनंत धैर्य का मतलब यह है कि वह कभी भी न घटे—कभी भी—तो भी मैं प्रतीक्षा करूंगा। ऐसा जिसका मन हो, उसके लिए इसी क्षण घट जाएगा। क्योंकि इसको अब प्रतीक्षा कराने का कोई प्रयोजन ही न रहा। बात ही खतम हो गई। यह तैयार है।

और जो इतने धैर्य के लिए तैयार है, क्या वह अशांत होगा? क्योंकि अशांत तो अधैर्य के साथ जुड़ा है। इतना धैर्य वाला व्यक्ति तो परिपूर्ण शांत होगा, तभी इतना धैर्य रख सकेगा। और जो इतने

धैर्य के लिए राजी है, क्या वह दुखी होगा? क्योंकि दुखी तो अधीर होता है।

दुखी जल्दी में होता है। सिर्फ जो आनंद में है, वह धीरे चलता है। सम्राट जब चलता है, तो तेजी से नहीं चलता। सम्राट अगर तेजी से चले, तो उससे पता चलता है कि सम्राट होने की कला उसे नहीं आती।

तेजी से तो वह भागता है, जिसको कुछ पाना है। जिसके पास सब है, वह क्यों भागे? भाग—दौड़ कमी की खबर देती है। अनंत धैर्य का अर्थ है कि मेरे पास सब है, जल्दी कुछ भी नहीं है। अगर प्रभु भी मिलेगा, तो वह अतिरिक्त है। इसे थोडा समझ लें।

मेरे पास सब था और अगर प्रभु मिलेगा, तो वह अतिरिक्त है। वह न मिलता तो कोई कमी न थी। वह मिल गया, तो मैं पूरे से भी ज्यादा पूरा हो जाऊंगा। लेकिन पूरा मैं था, क्योंकि मुझे कोई जल्दी न थी, न कोई प्रयोजन था; न कोई भाग—दौड़ थी।

पूरे धैर्य का अर्थ यह होता है कि आप जैसे हैं, उससे राजी हैं। वह तथाता की घड़ी है। आप पूरी तरह राजी हैं कि ठीक, सब ठीक है। और यह सब ठीक किसी सांत्वना के लिए नहीं कि अपने को समझाने के लिए। ठीक तो कुछ भी नहीं है, लेकिन अपने को समझा रहे हैं कि सब ठीक है। जानते हैं, ठीक कुछ भी नहीं है। लेकिन कह रहे हैं कि सब ठीक है, ताकि मन माना रहे।

नहीं, वैसा सब ठीक नहीं। कुछ भी गैर—ठीक मालूम नहीं होता। सब ठीक है। कहीं कोई असंतोष नहीं है। और कुछ पाने की दौड भी नहीं है। और प्रभु जब मिले, तब उसकी मरजी पर हम छोड़ सकते हैं समय को। हमारी तरफ से समय हम देते नहीं। आज न मिले, तो हम सांझ को पश्चात्ताप न करेंगे, रोके न, धोएंगे न, चिल्लाएंगे न, कि दिन निकल गया और आज तक। एक दिन खराब हुआ।

कल फिर राह देखेंगे। उस राह में कहीं भी धूमिलता न आएगी, उस प्रतीक्षा में हम कहीं भी चाह को न जुड़ने देंगे, जल्दबाजी न जुड्ने देंगे, अधैर्य न जुड्ने देंगे। ऐसा अनंत धैर्य हो, तो परमात्मा क्षणभर में मिल जाता है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, आप कहते हैं क्षणभर में मिल जाता है, लेकिन मिलता क्यों नहीं?

उनका जो कहना है, मिलता क्यों नहीं? वही बाधा है। अगर क्षणभर में मिल जाता है, तो अभी मिलना चाहिए! और जो इतनी जल्दी में है कि अभी मिलना चाहिए, उसका मन इतने तनाव से भरा है, वह इतने दुख से भरा है, वह इतने असंतोष से भरा है, इतनी अशांति से भरा है कि परमात्मा से मिलना हो कैसे सके?

और जो कहता है, अभी मिलना चाहिए, वह परमात्मा को बहुत मूल्य भी नहीं दे रहा है। वह कह रहा है, मिलना हो तो अभी मिल जाओ, नहीं तो दूसरे काम हजार पड़े हैं; और अगर देरी हो, तो पहले हम उनको निपटा लें। परमात्मा उसके लिए कोई बहुत मूल्य की बात नहीं कि वह उसके लिए समय देने को तैयार हो!

जितनी मूल्यवान चीज हो, आप उतना ज्यादा समय देने को तैयार होते हैं। मौसमी फूल हम लगाते हैं, तो वे महीनेभर में आ जाते हैं, लेकिन महीनेभर में समाप्त भी हो जाते हैं।

अगर आकाश को छूने वाले वृक्ष हमें लगाने हैं, तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है वर्षों तक। एक पीढ़ी लगाती है, दूसरी पीढ़ी उनके फल पाती है। अगले जन्म में आपको फल मिलेगा, इस जन्म में नहीं मिल सकता। बड़ा वृक्ष है!

परमात्मा का जिनकी नजर में मूल्य है, वे तो कभी भूलकर भी यह न कहेंगे कि अभी मिल जाए। क्योंकि वे जानते हैं, यह बात ही बेहूदी है। यह बात ही मुंह से निकालनी अधार्मिक है। यह सोचना भी कि अभी मिल जाए अधार्मिक है।

इतनी बड़ी घटना, इतना विराट विस्फोट, प्रतीक्षा से होगा। और जब इतनी बड़ी घटना है, तो जब भी घटेगी, मानना कि वह जल्दी घटी, क्योंकि देर का तो कोई कारण नहीं है। जब भी घटे, तभी भक्त कहेगा कि जल्दी घट गई; अभी मेरी पात्रता न थी और घट गई। इतनी बड़ी घटना, इतनी जल्दी घट गई! अपात्र कहता है, अभी घटे। और अभी नहीं घटती, तो फिर छोड़ो।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, शाम की ट्रेन से हम जा रहे हैं। कुछ ऐसा बता दें कि बस, जीवन बदल जाए।

पता नहीं जीवन का क्या मूल्य समझते हैं! कोई मूल्य भी है जीवन का या नहीं है! भागे हुए हैं! और ऐसा पूरा जीवन खो जाएगा, कुछ भी उनको मिलेगा नहीं।

बुद्ध के पास कोई आता, तो बुद्ध कहते थे, एक साल तो बिना पूछे मेरे पास बैठ जाओ। एक साल बाद तुम पूछना शुरू करना। जो जल्दी में होता, वह कहता, तो फिर मैं एक साल बाद ही आ जाऊं! बुद्ध कहते, तब तुझे दो साल बिठाऊंगा। क्योंकि एक साल तो यह जो तूने गंवाया, और एक तो बाकी रहा ही।

झेन फकीर रिंझाई के पास कोई आया। और उसने कहा कि मेरा पिता बूढ़ा है; और ज्यादा समय मेरे पास नहीं है। मैं अकेला ही बेटा हूं और बाप बूढ़ा है; उसकी सेवा करनी जरूरी है। लेकिन ध्यान मुझे सीखना है। रिंझाई ने कहा कि कोई तीस साल लगेंगे, क्योंकि तुम इतनी जल्दी में हो! वह युवक कुछ समझ नहीं पाया। उसने कहा, जल्दी में हूं तो जल्दी करवाइए, कि तीस साल! मेरे पिता चल ही बसे होंगे।

उस युवक ने कहा कि अगर मैं दुगुनी मेहनत करूं, तो क्या होगा? रिंझाई ने कहा, तब साठ साल लग जाएंगे। क्योंकि मैं तो यह मानता था कि तू पहले ही पूरी मेहनत करने को तैयार है। तू कह रहा है, दुगुनी करूंगा, मतलब तूने आधी पहले ही बचा रखी थी। तू आदमी भी बेईमान है। वह तीस तो मैंने सोचकर बताए थे कि तू अगर पूरी मेहनत करे। तू कहता है, अगर मैं दुगुनी मेहनत करूं। साठ लग जाएंगे।

उस युवक ने कहा कि अब मैं आगे नहीं पूछता। क्योंकि यही ठीक है, साठ ही ठीक है। पता नहीं, तुम एक सौ बीस कर दो! और वह युवक रुक गया। तीन वर्ष तक वह रिंझाई के पास था। रिंझाई ने उससे फिर पूछा ही नहीं कि तुम कैसे आए? क्या सीखना है?

कई दफा उस युवक को भी खयाल उठा कि क्या करना? क्या नहीं करना? साल निकले जा रहे हैं! बाप बूढ़ा हुआ जा रहा है। और अभी तो कुछ शुरू भी नहीं हुआ! पर उसने कहा कि पूछना खतरनाक है। यह आदमी तो बड़ा उपद्रवी है! अगर पूछा और कहीं यह कहने लगे कि सौ साल लगेंगे! इसलिए उसने कहा कि चुप ही रहो। देखें, क्या होता है।

तीन साल बाद उसने कहा, अब तेरा पहला पाठ शुरू होता है—रिंझाई ने कहा—और तू योग्य है। अगर तू तीन साल में पूछता, तो मैंने तेरे एक सौ बीस साल कर दिए थे। फिर मुझसे यह काम पूरा होने वाला नहीं था। क्योंकि मैं भी बूढ़ा हो रहा हूं। आधा ही मैं करता, आधा मेरे शिष्य करते। लेकिन तूने तीन साल नहीं पूछा; अब मैं काम शुरू करता हूं।

पांचवें वर्ष रिंझाई का शिष्य समाधि को उपलब्ध हो गया। जब वह समाधि को उपलब्ध हुआ, तो उसने रिंझाई को कहा, इतने जल्दी! मैं तो सोच भी नहीं सकता था! रिंझाई ने कहा, चूंकि तू साठ के लिए राजी हो गया। वह तेरा राजीपन साठ साल के लिए, तेरी प्रतीक्षा की तैयारी थी।

साठ साल का मतलब होता है, पूरा जीवन गंवाने की तैयारी। वह युवक कम से कम पच्चीस साल का था, जब आया था। साठ साल का मतलब है कि मरेगा अब, अब लौटने का कोई उपाय नहीं है।

साठ साल के लिए तेरी तैयारी……।

अनंत प्रतीक्षा का अर्थ ही यह होता है कि हमारी तैयारी इतनी है कि कभी भी न घटे, तो भी हम शिकायत न करेंगे। भक्त का अर्थ ही यह होता है, जो शिकायत न करे। और जिसकी शिकायत है, वह भक्त नहीं है।

पर आप हैरान होंगे, नास्तिक तो मिल जाएंगे आपको जिनकी कोई शिकायत नहीं है, आस्तिक खोजना मुश्किल है बिना शिकायत के। और आस्तिक का लक्षण यह है कि उसकी कोई शिकायत न हो।

तो दुनिया में दो तरह के नास्तिक हैं। एक तो नास्तिक हैं, जो घोषणा किए हैं कि ईश्वर नहीं है। इसलिए शिकायत करने का उपाय भी नहीं है, किससे शिकायत करें? इसलिए जो है, ठीक है। दूसरे नास्तिक वे हैं, जो माने हुए हैं कि ईश्वर है। लेकिन माने सिर्फ इसीलिए हैं, ताकि शिकायत करने को कोई हो। बस, उनका ईश्वर सिर्फ शिकायत के लिए है, कि वे कह सकें कि देखो यह नहीं हो रहा, यह नहीं हो रहा, यह करो, यह क्यों नहीं किया? इतनी देर क्यों हो रही है? बिना ईश्वर के किससे शिकायत करिएगा?

आपका ईश्वर सिर्फ आपकी शिकायतों का पुंजीभूत रूप है। और भक्त का शिकायत से कोई संबंध नहीं है।

यह जो मैं कहता हूं अनंत प्रतीक्षा, यह शिकायत—शून्य, शर्तरहित धैर्य है। इसे जरा सोचें। अगर ऐसी आपके पास चित्त की दशा हो, तो कोई कारण नहीं है कि अभी क्यों घटना न घट जाए। अनंत धैर्य खुले आकाश की तरह हो जाता है। फिर हृदय के कहीं कोई द्वार, सीमाएं कुछ भी न रहीं। सब खुला है, कुछ बंद न रहा। अब और ज्यादा परमात्मा को उतरने के लिए चाहिए भी क्या? इतना ही चाहिए।

इसलिए इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, पहली बात। ये दोनों एक ही साधना के हिस्से हैं।

रह गई दूसरी बात, निश्चित ही ये दोनों अतियां हैं, एक्सट्रीम्स हैं। लेकिन एक ही रेखा की दो अतियां हैं। और इस जगत में कोई भी रेखा रेखा नहीं है सीधी। सभी रेखाएं वर्तुलाकार हैं। सभी रेखाएं बड़े वर्तुल का हिस्सा हैं।

यूक्लिड कहता था, जिसने ज्यामिति खोजी, कि सीधी रेखा होती है। लेकिन फिर आइंस्टीन और बाद के खोजियों ने सिद्ध किया कि सीधी रेखा होती नहीं, स्ट्रेट लाइन होती ही नहीं। क्योंकि जिस

जमीन पर आप बैठे हैं, वह गोल है, आप उस पर कोई भी रेखा खींचें, अगर उसको बढ़ाए चले जाएं, तो वह पूरी जमीन को घेर लेगी, बड़े वर्तुल का हिस्सा हो जाएगी।

तो सभी रेखाएं किसी बहुत बड़े वर्तुल का हिस्सा हैं। इसलिए कोई रेखा सीधी नहीं है। सभी रेखाएं तिरछी हैं, घूमती हुई हैं, वर्तुल का अंग हैं। सीधी रेखा जैसी कोई चीज है ही नहीं जगत में।

इसलिए सभी चीजें गोल घूमती हैं। चांद, पृथ्वी, तारे, सूरज, मौसम, आदमी का जीवन, सब वर्तुलाकार घूमता है। और जब दो अतियां एक रेखा की करीब आती हैं, तो वर्तुल पूरा होता है। किसी भी रेखा को, उसकी अतियों को पास ले आएं; जहां दोनों अतियां मिलती हैं, वहीं वर्तुल पूरा होता है।

अनंत धैर्य रेखा का एक कोना है। और क्षण में घट सकती है घटना, सडेन, यह रेखा का दूसरा कोना है। जहां ये दोनों कोने मिलते हैं, वहा वर्तुल पूरा होता है। और इन दोनों के बीच जरा—सा भी फासला नहीं है। ये अतियां जरूर हैं, लेकिन अतियां मिलती हुई अतियां हैं।

और यह भी ध्यान रहे कि जीवन में जो भी छलांग लगती है, वह हमेशा अति से लगती है, मध्य से नहीं लगती। इस कमरे के बाहर जाना हो, तो या तो इस तरफ की खिड़की खोजनी पड़े या उस तरफ की खिड़की खोजनी पड़े। लेकिन यहां कमरे के मध्य में खडे होकर बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। मध्य से कोई द्वार जाता ही नहीं। मध्य का मतलब ही यह हुआ कि द्वार से दूरी है। परिधि पर जाना पड़ेगा। अति को पकड़ना पड़ेगा।

इसलिए दुनिया की सभी साधना—पद्धतियां अतियां हैं। अति का मतलब है, आखिरी छोर। वहा से छलांग लग सकती है। मध्य से कहां कूदिएगा? कमरे में ही उछलते रहेंगे। किनारे पर जाना पड़े। एक अति है कि क्षण में घटना घट सकती है। सडेन एनलाइटेनमेंट को मानने वाला वर्ग है। विशेषकर जापान में झेन फकीर, तत्‍क्षण मानते हैं कि घटना घट सकती है, एक क्षण में घट सकती है। और इसी के लिए तैयार करते हैं साधक को कि वह एक क्षण के लिए तैयार हो। तैयारी में वर्षों लगते हैं। घटना एक ही क्षण में घटती है, लेकिन तैयारी में वर्षों लगते हैं; कभी—कभी जन्म भी लगते हैं।

ऐसे ही जैसे हम पानी को गरम करते हैं, तो पानी भाप तो एक क्षण में बन जाता है, सौ डिग्री पर पहुंचा कि भाप बनना शुरू हुआ। लेकिन सौ डिग्री तक पहुंचने में घंटों लग जाते हैं। और इस पर

निर्भर करता है कि कितना ताप नीचे है, कितनी आग नीचे है।

अगर आप राख रखे बैठे हों, तो कभी नहीं पहुंचेगा। अंगारे हों, लेकिन राख से ढंके हों, तो बड़ी देर लगेगी। ज्वलित अग्नि हो, भभकती हुई लपटें हों, तो जल्दी घटना घट जाएगी।

तो कितनी त्वरा है भीतर, कितनी अभीप्सा है, कितनी आग है घटना को घटाने की, उतने जल्दी घट जाएगी। लेकिन घटना एक ही क्षण में घटेगी।

पानी गरम होता रहेगा, गरम होता रहेगा, निन्यानबे डिग्री पर भी पानी—पानी ही है। अभी भाप नहीं बना। एक सेकेंड में सौ डिग्री, पानी छलांग लगा लेगा। छलांग कीमती है। जब तक पानी था, पानी नीचे की तरफ बहता है। जैसे ही भाप बना, ऊपर की तरफ उठना शुरू हो जाता है। सारी दिशा बदल जाती है।

जब तक पानी था, तब तक दिखाई पड़ता था, पदार्थ था। जैसे ही छलांग लगती है, अदृश्य हो जाता है, वायवीय हो जाता है, आकाश में खो जाता है। जब तक दिखाई पड़ता था, जमीन उसको नीचे की तरफ खींच सकती थी। गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव था। जैसे ही भाप बना, गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाता है; आकाश की तरफ उठने लगता है। कोई दूसरे जगत के नियम काम करने शुरू कर देते हैं। एक क्षण में घटना घटती है, लेकिन तो भी झेन फकीरों को जन्मों—जन्मों तक और एक जीवन में भी वर्षों तक गरमी पैदा करने के उपाय करने पड़ते हैं।

दूसरे फकीर हैं, सूफियों का एक समूह है इस्लाम में, वे अनंत प्रतीक्षा में मानते हैं। वे क्षण की बात ही नहीं करते हैं। वे कहते हैं, अनंत प्रतीक्षा करनी है। बैठे रहो, प्रतीक्षा करो। जागते रहो, प्रतीक्षा करो। कभी अनंत जन्म में घटेगी।

अब यह बड़े मजे की बात है। ये दोनों बिलकुल विपरीत साधना—पद्धतियां हैं, अतिया हैं। लेकिन झेन फकीर भी पहुंच जाता है और सूफी फकीर भी पहुंच जाता है। और मजे की बात यह है कि झेन फकीर जब पहुंचता है, तो उसको भी वर्षों तक श्रम करके क्षणभर की घटना पर पहुंचना पड़ता है। और जब सूफी फकीर पहुंचता है, तो वह भी अनंत प्रतीक्षा करके क्षणभर की घटना पर पहुंचता है। घटना तो वही है।

तो दो बातें हो गईं। पानी को हम गरम करते हैं, सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है; एक। और पानी को गरम करना पड़ता है; दो। इनमें से जिस पर आप जोर देना चाहें।

अगर आपको गरमी पर जोर देना है, तो आप कह सकते हैं, लंबी यात्रा है। बड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। पानी गरम होगा, गरम होगा, गरम होगा; कभी अंत में भाप बनेगा। प्रोसेस, प्रक्रिया पर जोर दें। और अगर अंत पर जोर देना हो, तो कहें कि पानी कभी भी भाप बने, कितनी ही देर लगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, भाप तो क्षणभर में बन जाती है। पानी छलांग लगा लेता है।

पर ये दोनों एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं। इसलिए मैं दोनों को जोड़कर इकट्ठा कहता हूं। अनंत हो प्रतीक्षा, तो क्षणभर में घट जाता है। क्षण में घटाना हो, तो अनंत की तैयारी चाहिए। और इनमें विरोध नहीं है।

चौथा प्रश्न :

 

क्या गुरु के जाल में फंसना, तड़पना, मर जाना, रूपांतरण की प्रक्रिया के अनिवार्य अंग हैं?

निश्चित ही। फंसना पड़े, तड़पना भी पड़े और मरना भी पड़े। लेकिन जिस अर्थ में आपने— पूछा है, उस अर्थ में नहीं। पूछने वाले को तो ऐसा लगता है, बेचैनी है, भय है; फंसने से भय है, डर है।

डर किस बात का है? डर किसको है? वह जो अहंकार है हमारे भीतर, सदा डरता है कि कहीं फंस न जाएं। और यह जो अहंकार है, कहीं भी नहीं फंसने देता। लेकिन तब हम पूरे जीवन से वंचित रह जाते हैं।

एक युवक ने मुझे आकर कहा कि प्रेम तो मुझे करना है, लेकिन फंसना नहीं है। कोई झंझट में नहीं पड़ना चाहता हूं।

प्रेम करना हो, तो फंसना ही पड़े। क्योंकि वह प्रेम घटेगा ही तब, जब आप डूबेंगे। आप ऐसे दूर अपने को सम्हालकर खड़े रहे संतरी की तरह, तो वह घटना ही घटने वाली नहीं है।

और बचेगा भी क्या! बचाने को है भी क्या आपके पास? यह जो बचने की तलाश चल रही है, यह कौन है जो बचना चाहता है? यह जो इतना डरा हुआ प्राण है, इसको बचाकर भी क्या करिएगा? इसको स्वतंत्र रखकर भी क्या प्रयोजन है? और जो स्वतंत्रता इतनी भयभीत हो, वह स्वतंत्रता है भी नहीं।

मुल्ला नसरुद्दीन एक रात देर से घर लौटा। पत्नी ने शोरगुल शुरू कर दिया। और उसने कहा कि फिर देर से आए? और हजार बार कह दिया कि देर से आना बंद हो!

कहां थे? तो नसरुद्दीन ने कहा कि समझदार पत्नियां इस तरह के प्रश्न नहीं पूछतीं।

पत्नी आगबबूला थी, उसने कहा, और समझदार पति…….।

वह आगे कुछ कहे, उसके पहले ही नसरुद्दीन बोला कि ठहर! समझदार पति सदा कुंआरे रहते हैं।

वह जो डरा हुआ है, वह कितना ही समझदार मालूम पड़ता हो, लेकिन जीवन के अनुभव से वंचित रह जाएगा।

प्रेम एक अनुभव है। और उसमें उतरने से ही पता चलता है। और उसका फंसना उपयोगी है। क्योंकि उस फंसने के भीतर भी अगर तुम बिना फंसे रह सको, तो तुम्हारे जीवन में अमृत बरस जाएगा। उस कारागृह में प्रवेश करके भी तुम्हारी मुक्ति नष्ट न हो, तुम्हारी भीतरी मुक्ति तुम कायम रख सको, वही कला है।

तो एक तो प्रेम है जीवन में। गुरु और शिष्य का संबंध भी प्रेम का आखिरी संबंध है। वह और भी बड़ा फंसाव है। क्योंकि पत्नी के साथ रहकर स्वतंत्र रहना आसान है, गुरु के साथ रहकर स्वतंत्र रहना और भी मुश्किल है, और भी जटिल है, क्योंकि उसका जाल और भी बड़ा है। वह हृदय तक ही नहीं जाता, उसका जाल आत्मा तक चला जाता है। पर वहां भी स्वतंत्र रहने की संभावना है। और मजा यही है कि वहा जितने पूरे मन से कोई अपने को छोड़ देगा, उतना ही स्वतंत्र रहेगा।

परतंत्रता पैदा इसलिए होती है कि तुम छोड़ नहीं पाते। अगर तुम छोड़ दो, तो परतंत्र रहने का कोई अर्थ ही नहीं है। जेलखाना जेलखाना मालूम पड़ता है, क्योंकि तुम जेलखाने में रहना नहीं चाहते। और अगर तुम जेलखाने में रहना ही चाहते हो, तब? तब जेलखाना समाप्त हो गया। फिर अगर जेल के लोग तुम्हें बाहर निकालने लगें, तो वह परतंत्रता होगी। जिस बात से हमारा प्रतिरोध है, विरोध है, रेसिस्टेंस है, वहीं फंसना मालूम होता है।

अगर एक युवक एक युवती को सच में ही प्रेम करता है, तो फंसना मालूम होता ही नहीं। युवती अगर सच में प्रेम करती है, तो फंसना मालूम नहीं होता; तब प्रेम मुक्ति मालूम होता है। और अगर प्रेम न हो, डर हो, भय हो, बचाव की चेष्टा हो, तो फंसना मालूम होता है, तो बंधन और कारागृह मालूम होता है।

मैं यह कह रहा हूं आपसे कि वहीं आपको बंधन मालूम होता है, जहां आप लड़ते हैं।

भूमिदान आंदोलन असफल हुआ, तो सारे मुल्क में भूमि हथियाओ आंदोलन चला। तो मैंने एक घटना सुनी है कि उसकी नकल पर एक गांव में—निश्चित ही गांव गुजरात में रहा

होगा—पत्नियां हथियाओ आंदोलन लोगों ने चला दिया। और उन्होंने कहा कि समाजवाद में जब कि सभी के पास एक—एक पत्नी नहीं है, तो कुछ लोगों के पास दो—दो हैं, यह नहीं हो सकता। यह बर्दाश्त के बाहर है।

तो जिन युवकों के पास पत्नियां नहीं थीं, उन्होंने एक जुलूस निकाला और कहा कि पत्नियां हथियाओ। जिनके पास दो हैं, उनसे

एक छीनो, और उनको दो जिनके पास एक भी नहीं है। और यह समाजवाद के लिए बिलकुल जरूरी है।

मुल्ला नसरुद्दीन बाहर गया था; उसकी दो पत्नियां थीं। वह घर पहुंचा, तो हाय—तोबा मची थी। जुलूस उसकी एक पत्नी को लेकर आगे बढ़ गया था। मुल्ला भाग।; जाकर नेता के हाथ पकड़ लिए और कहा कि अन्याय मत करो। उस नेता ने कहा, अन्याय कौन कर रहा है? तुम अन्याय कर रहे हो जनता पर कि हम? जब कि गाव में सौ आदमी मौजूद हैं जिनके पास एक भी पत्नी नहीं, और तुम दो—दो पर कब्जा जमाए बैठे हो? तुम दो—दो का सुख ले रहे हो? और ज्यादा हमारे पास समय नहीं। अभी हमें और कोई पचास पत्नियां हथियानी हैं। उसने घड़ी देखी, उसने कहा, हटो रास्ते से। नसरुद्दीन ने फिर भी हाथ पकड़ लिया और बिलकुल कंपने लगा और कहा कि नहीं, ऐसा अन्याय मत करो। भीड को भी दया आ गई और नेता ने कहा, मर्द जैसे मर्द होकर भी इस तरह रिरिया रहे हो औरतों की तरह! ले जा अपनी पत्नी को! नसरुद्दीन एकदम जमीन पर गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए और कहा कि आप समझे नहीं; दूसरी को भी लेते जाइए।

बंधन! जहां प्रेम समाप्त हुआ, वहा विवाह बंधन बन जाता है, परतंत्रता बन जाता है। जहां श्रद्धा खो गई, वहां गुरु जेलखना हो जाता है।

श्रद्धा हो, तो गुरु मुक्ति है। प्रेम हो, तो प्रेम का संबंध स्वतंत्रता है। और प्रेमी एक—दूसरे को और स्वतंत्र कर देते हैं, जितने अकेले होकर वे कभी भी नहीं हो सकते थे। क्योंकि दो स्वतंत्रताएं मिलती

और गुरु तो परम मुक्त है। उसके मोक्ष से जब आपका मिलना होता है या उसके जाल में जब आप फंसते हैं, तो अगर आपका विरोध न हो तो आप परम मुक्त हो जाएंगे। और अगर विरोध हो, तो ही आपको लगेगा कि जाल में फंसे हैं। जाल में फंसा हुआ होना जाल के कारण नहीं लगता; मुझे फंसना नहीं है, इसलिए लगता है। नदी में एक आदमी तैर रहा है, तो उसको लगता है, नदी मेरे खिलाफ बह रही है! क्योंकि वह नदी से उलटा जाने की कोशिश कर रहा है। उसको लगता है, नदी मेरी दुश्मन है। और एक आदमी नदी में बह रहा है, जहां नदी जा रही है, उसी में बह रहा है। उसको लगता है, नदी मेरी मित्र है, नदी मेरी नाव है। और नदी मुझे ले जा रही है, जरा भी श्रम नहीं करना पड़ रहा है।

अगर गुरु के साथ आप उलटी धारा में बह रहे हों, तो फंसना लगेगा। और अगर गुरु के साथ बह रहे हों, तो मुक्ति अनुभव होगी। आप पर निर्भर है, शिष्य पर निर्भर है कि गुरु परतंत्रता बन जाएगा कि स्वतंत्रता।

तड़पना भी पड़ेगा। क्योंकि यह खोज बड़ी है और यह खोज गहन है। और मिलने के पहले बहुत पीड़ा है। पानी मिले, उसके पहले गहन प्यास से गुजरना होगा। और जैसे ही आप किसी गुरु के पास पहुंचेंगे, आपकी तड़प बढ़ेगी, घटेगी नहीं। अगर घट जाए, तो समझना कि यह गुरु आपके काम का नहीं है। क्योंकि घटने का मतलब यह हुआ कि आग ठंडी हो रही है।

गुरु के पास पहले पहुंचकर तो प्यास बढ़ेगी, क्योंकि गुरु को देखकर आपको पहली दफा पता चलेगा कि पानी पीए हुए लोग किस आनंद में हैं! पहली दफा तुलना पैदा होगी, तकलीफ पैदा होगी। पहली दफा तृषा गहन होगी। पहली दफा लगेगा कि ऐसा मैं भी कब हो जाऊं? कैसे हो जाऊं? यह मुझे भी कब हो?

आनंद की पहली झलक आपके दुख को बहुत गहन कर जाएगी। ऐसे ही जैसे रास्ते से आप गुजर रहे हों, अंधेरे रास्ते से, लेकिन अंधेरे में ही गुजर रहे हों, तो अंधेरे में भी दिखने लगता है। फिर एक कार गुजर जाए तेज प्रकाश को करती हुई, तो कार के गुजरने के बाद रास्ता और भी भयंकर अंधकार मालूम होता है। तुलना पैदा होगी।

गुरु के पास आकर पहली दफा तुलना पैदा होगी। पहली दफा आपको लगेगा, आप कहां हैं! किस नरक में हैं! किस पीड़ा में हैं! तो तड़प तो पैदा होगी। और गुरु की कोशिश होगी कि और जोर से तड़पाए। क्योंकि जितने जोर से आप तड़पें, उतनी ही आग पैदा होगी, उतना ही उबलने का बिंदु करीब आएगा। और जितने आप तड्पें, उतनी ही खोज जारी होगी, सरोवर के निकट पहुंचना आसान होगा। अगर आप पूरी तरह तड़प उठें, तो सरोवर उसी क्षण प्रकट हो जाता है।

इसलिए तड़पना भी होगा और मरना भी होगा। क्योंकि वह आखिरी है। गुरु का काम ही वही है। गुरु यानी मृत्यु। जो आपको मार न सके, वह गुरु नहीं; जो आपको मिटा न सके, वह गुरु नहीं। वह आपको काटेगा ही। और जब आप बिलकुल समाप्त हो जाएंगे, तभी आपको छोड़ेगा कि बस, अब काम पूरा हुआ। बिना

मिटे परमात्मा को पाने की कोई व्यवस्था नहीं है। बिना खोए उसकी खोज पूरी नहीं होती।

इसलिए पुराने सूत्रों में कहा है कि आचार्य, गुरु मृत्यु है। और वह जो कठोपनिषद में नचिकेता को भेजा है यम के पास, वह गुरु के पास भेजा है। यम गुरु का प्रतीक है। वहा जाकर आप मर जाएंगे। इसलिए गुरु से लोग बचते हैं। पच्चीस तरह की युक्तियां खोजते हैं कि कैसे बच जाएं; रेशनलाइजेशन खोजते हैं कि कैसे बच जाएं। गुरु को सुन भी लेते हैं, तो कहते हैं, बात अच्छी है, लेकिन अभी अपना समय नहीं आया! करेंगे कभी जब समय आएगा! हजार तरकीब आदमी करता है अपने को बचाने की।

जैसे आप मृत्यु से बचते हैं, वैसे ही आप गुरु से बचते हैं। और जिस दिन आप ठीक से समझ लेंगे। गुरु के पास जाने का मतलब ही यह है कि मैं गलत हूं और गलत को जला डालना है। और मैं भ्रांत हूं और भ्रांत को मिटा देना है। और मैं जैसा अभी हूं मरणधर्मा हूं; इस मरणधर्मा को मर जाने देना है, ताकि अमृत का उदय हो सके।

मृत्यु द्वार है अमृत का। और जो मिटने को राजी है, वह उसको उपलब्ध हो जाता है, जो कभी नहीं मिटता है। एक तरफ गुरु मारेगा और दूसरी तरफ जिलाएगा। वह मृत्यु भी है और पुनर्जन्म भी, नव—जीवन भी।

क्या गुरु के जाल में फंसना, तड़पना, मर जाना, रूपांतरण की प्रक्रिया के अनिवार्य अंग हैं?

बिलकुल अनिवार्य अंग हैं। और इसके पहले कि फंसो या तो भाग खड़े होना चाहिए; फिर लौटकर नहीं देखना चाहिए। गुरु खतरनाक है। जरा भी रुके, तो डर है कि फंस जाओगे। और फंस गए, फिर तड़पना पड़ेगा। तड़पे, कि फिर मरना पड़ेगा। वे एक ही मार्ग की सीढ़ियां हैं।

लेकिन जो व्यक्ति स्वयं का रूपांतरण चाहता है, वह चाहता क्या है? वह चाहता यही है कि मैं गलत हूं जैसा हूं। जो मुझे होना चाहिए, वह मैं नहीं हूं। और जो मुझे नहीं होना चाहिए, वह मैं हूं। तो वह मिटने के लिए तैयार है, वह बिखरने के लिए तैयार है, वह शून्य होने को राजी है। और जो व्यक्ति शून्य होने को राजी है, उसी का गुरु से मिलन हो पाता है।

अब हम सूत्र को लें।

हे भारत, इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है।

हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

एक—एक शब्द समझें।

इस प्रकार से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है। जिसको भी यह स्मरण आ गया कि परिधि पर शरीर है, मध्य में चेतना है और अंत में केंद्र पर अंतर्यामी पुरुषोत्तम है, जिसको भी यह स्मरण आ गया कि केंद्र परमात्मा है, फिर उसकी परिधि भी परमात्मा के ही गुणगान करने लगती है। फिर उसकी परिधि पर भी परमात्मा का ही स्वर गूंजने लगता है। फिर उसके बाहर भी वही प्रकट होने लगता है, जो भीतर है। फिर वह उठता भी है, तो परमात्मा में, बैठता भी है, तो परमात्मा में। फिर परमात्मा उसके लिए कुछ पृथक नहीं रह जाता, उसके अपने होने का अभिन्न अंग हो जाता है। फिर वह जो भी करता है, वह सब परमात्मा में ही घटित होता है। जैसे मछली सागर में होती है, ऐसा फिर वह परमात्मा में होता है। भजने का यही अर्थ है।

भजने का यह अर्थ नहीं कि आप बैठे हैं, कभी—कभी राम—राम, राम—राम कर लिया। भजने का यह अर्थ है कि आपके जीवन की कोई भी गतिविधि परमात्मा से शून्य न हो। आप जो भी करें, जो भी न करें, सब में परमात्मा का स्मरण सतत भीतर बना रहे। आपके जीवन के कृत्य माला के मनके हो जाएं और परमात्मा आपके भीतर का धागा हो जाए। हर मनके में दिखाई पड़े या न दिखाई पड़े, वह धागा भीतर समाया रहे। सभी मनके उसी धागे से बंध जाएं, भजन का यह अर्थ है।

पर हम तो हर चीज को विकृत कर लेते हैं। तो हम काम करते जाते हैं और सोचते हैं, भीतर राम—राम करते जाओ। लोग अभ्यास कर लेते हैं उसका। तो वे कार ड्राइव करते रहेंगे और भीतर राम—राम करते रहेंगे! वह अभ्यस्त हो जाता है।

मन जो है, आटोमैटिक किया जा सकता है। तो मन स्वचालित यंत्र बन जाता है। आप अपना काम करते रहें, वहां राम—राम, राम—राम, राम—राम चलता रहे। उसका कोई मूल्य नहीं है। वह मन का एक कोना दोहराता रहता है।

भजन का अर्थ है, अपने जीवन में डूब जाए स्मृति परमात्मा की। कैसे यह हो?

किसी मित्र की आंख में झांकें, तब आपको मित्र तो दिखाई पडे, वह परिधि रहे, लेकिन उसमें पुरुषोत्तम भी दिखाई पड़े, तो वह भजन हो जाएगा। फूल को देखें, फूल तो परिधि रहे और फूल में जो सौंदर्य प्रकट हुआ है, वह जो खिलावट, वह जो जीवन की अभिव्यक्ति हुई है, वह जो पुरुषोत्तम वहां मौजूद है, उसका स्मरण आ जाए। चाहे फूल देखें, चाहे आंख देखें, चाहे आकाश देखें, जो भी देखें वहां आपको पुरुषोत्तम की स्मृति बनी रहे।

ऐसा नहीं कि फूल देखें, तो भीतर राम—राम, राम—राम करने लगें। उसमें तो फूल भी चूक जाएगा। राम—राम करने की शाब्दिक बात नहीं है। फूल के अनुभव में पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे। भोजन करें, पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे। स्नान करें, पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे।

लोग नदी में स्नान करने जाते हैं। मेरे गांव में नियम से लोग सुबह नदी में स्नान करने जाते हैं। सर्दी के दिनों में भी जाते हैं। सर्दी के दिनों में वे ज्यादा भजन करते हैं। और राम—राम, जय शिव शंकर…….!

पानी में ठंड लगती है, भुलाने के लिए वे जोर से भगवान का नाम लेते हैं। इधर मन भगवान के नाम में लग जाता है, एक डुबकी लगाई और बाहर निकल आए। फिर वे भगवान का नाम नहीं लेते। जैसे ही बाहर हुए, वे भूले। तो वे जब भगवान का नाम ले रहे हैं, ऐसा लगेगा सुबह नदी के किनारे कि बड़े भक्त आए हुए हैं। वह सिर्फ ठंड से बचने का उपाय है।

वह वैसे ही जैसे आप अकेले गली में जा रहे हों, तो जोर से सीटी बजाने लगें, उससे ऐसा लगता है कि अकेले नहीं हैं। सीटी सुनाई पड़ती है, अपनी ही सीटी! जो नहीं हैं धार्मिक, वे फिल्मी गाना गाकर भी स्नान कर लेते हैं। उसमें भी फर्क नहीं पड़ता।

भजन का अर्थ कोई शब्दों से राम की स्मृति नहीं है। क्योंकि वह धोखा भी हो सकती है; दुख से बचने का उपाय हो सकती है; ठंड से बचने का उपाय हो सकती है, अकेलेपन से बचने का उपाय हो सकती है। वह एक तरह की व्यस्तता हो सकती है।

नहीं, भगवान को अनुभव में जानना है, अनुभव से पलायन करके नहीं। उससे बचना नहीं, उससे भागना नहीं। जैसा भी जीवन है, जहां भी जीवन ले जाए, वहां मेरी आंख परिधि पर ही न रहे, केंद्र पर सदा पहुंचती रहे। जो भी मैं देखूं, उसमें मुझे केंद्र की प्रतीति बनी रहे, वह धारा भीतर बहती रहे कि पुरुषोत्तम मौजूद है। ऐसी अगर प्रतीति हो जाए, तो आपका पूरा जीवन भजन हो जाएगा। वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को भजता है। तभी निरंतर भजन हो सकता है। अगर राम—राम जपेंगे, तो निरंतर तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि दो राम के बीच में भी जगह छूट जाएगी। एक दफा कहा राम, दूसरी दफा कहा राम, बीच में खाली जगह छूट गई, तो निरंतर तो हो ही नहीं पाया।

फिर कब तक कहिए! जब तक होश रहेगा कहिए, रात नींद लग जाएगी, वह चूक जाएगा। कोई डंडा सिर पर मार देगा, क्रोध आ जाएगा; वह निरंतर का चूक जाएगा, निरंतर नहीं रह पाएगा। कितनी ही तेजी से कोई राम—राम जपे, तो भी दो राम के बीच में जगह छूटती रहेगी, उतनी खाली जगह में परमात्मा चूक गया। निरंतर तो तभी हो सकता है कि जो भी हो रहा हो, उसी में परमात्मा हो। जो डंडा मार रहा है सिर पर, अगर उसमें भी पुरुषोत्तम दिखे, तो भजन निरंतर हो सकता है। और जो राम—राम के बीच में खाली जगह छूट जाती है, उस खाली जगह में भी पुरुषोत्तम दिखे, तभी पुरुषोत्तम निरंतर हो सकता है।

और जब तक भजन निरंतर न हो जाए, सतत न हो जाए, तब तक ऊपर—ऊपर है, तब तक चेष्टित है, तब तक वह हमारी सहज आत्मा नहीं बनी है।

हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्यमय—रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

कृष्ण निरंतर अर्जुन को निष्पाप कहते हैं। कहे चले जाते हैं, निष्पाप! क्योंकि यह हिंदू धारणा है और बड़ी मूल्यवान है कि निष्पापता हमारा स्वभाव है। उससे वंचित होने का उपाय नहीं है। पाप करके भी आपके निष्पाप होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। यह हिंदू विचार की बड़ी गहन धारणा है।

पश्चिम, विशेषकर ईसाइयत इसको समझने में बिलकुल असमर्थ होती है। क्योंकि जब पाप किया, तो निष्पाप कैसे रहे? पाप किया, तो पापी हो गए।

यहीं हिंदू चिंतन बड़ा कीमती है। हिंदू चिंतन कहता है, क्या तुम करते हो, यह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। जो तुम हो, उसे तुम्हारा कोई भी करना नष्ट नहीं कर पाता। तुम्हारी निर्दोषता तुम्हारा स्वभाव है। तो जिस दिन भी तुम यह समझ लोगे कि कृत्य से मैं दूर हूं? उसी दिन तुम पुन: अपनी निष्पाप स्थिति को उपलब्ध हो जाओगे। उसे तुमने कभी खोया नहीं है, चाहे तुम भूल गए हो।

तो ज्यादा से ज्यादा संसार एक विस्मरण है। ज्यादा से ज्यादा पाप अपनी निष्पाप दशा का विस्मरण है। हमने उसे खोया नहीं है; हम उसे खो भी नहीं सकते। हमारी निर्दोषता, हमारी जो इनोसेंस है, वह हमारी सहज अवस्था है, वह सांयोगिक नहीं है। उसे नष्ट करने का उपाय नहीं है।

जैसे आग गरम है, ऐसे हम निष्पाप हैं। चेतना का निष्पाप होना धर्म है। अर्जुन को इसीलिए कृष्ण निष्पाप कहते हैं। हे निष्पाप अर्जुन!

अर्जुन को स्मरण नहीं है इस निष्पाप स्थिति का, इसलिए वह भयभीत है। वह डरा हुआ है कि पाप हो जाएगा। युद्ध मैं लडूंगा, काटूंगा, मारूंगा—पाप हो जाएगा। फिर इस पाप के पीछे भटकूगा अनंत जन्मों तक। और कृष्ण कह रहे हैं, तू निष्पाप है।

जैसे ही कोई व्यक्ति पहली पर्त से पीछे हटेगा, वैसे ही निष्पापता की धारा शुरू हो जाती है। और तीसरी पर्त पर सब निष्पाप है।

इसे मैं ऐसा समझ पाता हूं। पहली पर्त पर सभी पाप है। शरीर के पर्त पर सभी पाप है। वह शरीर का स्वभाव है। पुरुषोत्तम के पर्त पर सभी निष्पाप है। वह पुरुषोत्तम का स्वभाव है, केंद्र का स्वभाव है। और दोनों के बीच में हमारा जो मन है, वहा सब मिश्रित है, पाप, निष्पाप, सब वहां मिश्रित है। इसलिए मन सदा डांवाडोल है। वह सोचता है, यह करूं न करूं? पाप होगा कि पुण्य होगा? अच्छा होगा कि बुरा होगा?

अर्जुन वहीं खड़ा है, दूसरे बिंदु पर। कृष्ण तीसरे बिंदु से बात कर रहे हैं। अर्जुन दूसरे बिंदु पर खड़ा है। भीम और दूसरे, पहले बिंदु पर खड़े हैं। उनको सवाल भी नहीं है।

उस महाभारत के युद्ध में तीन तरह के लोग मौजूद हैं। पहली पर्त पर सभी लोग खड़े हैं। वह पूरे युद्ध में जो सैनिक जुटे हैं, योद्धा इकट्ठे हुए हैं, वे पहली पर्त में हैं। उनको सवाल ही नहीं है कि क्या ‘ गलत और क्या सही! इतना भी उनको विचार नहीं है कि जो हम कर रहे हैं, वह ठीक है या गलत है! वह शरीर के तल पर कोई विचार होता भी नहीं। शरीर मूर्च्छित है, वहा सभी पाप है।

अर्जुन बीच में अटका है। उसके मन में संदेह उठा है। उसके मन में चितना जग गई है; विमर्ष पैदा हुआ है। वह सोच रहा है। सोचने से दुविधा में पड़ गया है। वे जो पहली पर्त में खड़े लोग हैं, उनकी कोई दुविधा नहीं है, स्मरण रखें। वे निसंदिग्ध लड़ने को खड़े हैं।

उनके मन में कोई संदेह, कोई सवाल नहीं है। लड़ने आए हैं, लड़ना उनका धर्म है, लड़ना नियति है, उसमें कोई विचार नहीं है।

अर्जुन दुविधा में पड़ा है। उसकी बुद्धि अड़चन में है। बुद्धि सदा अड़चन में होगी, क्योंकि वह मध्य में खड़ी है। वह पाप के जगत की तरफ भी जा सकती है और निष्पाप के जगत की ओर भी जा सकती है। वह दोनों की तरफ देख रहा है। और पीछे कृष्ण हैं, वे पुरुषोत्तम हैं, वहां सभी निष्पाप है।

एक बात मजे की है कि जो पाप के तल पर खड़े हैं, उन्हें भी कोई संदेह नहीं। जो निष्पाप के तल पर खड़ा है, उसे भी कोई संदेह नहीं। क्योंकि वहा सभी निष्पाप है। कुछ पाप हो ही नहीं सकता। जो पाप के तल पर खड़े हैं, उसे निष्पाप का कोई पता ही नहीं है, इसलिए तुलना का कोई उपाय नहीं है। अर्जुन मध्य में खड़ा है।

अर्जुन शब्द का अर्थ भी बड़ा कीमती है। अर्जुन शब्द बनता है ऋजु से। ऋजु का अर्थ होता है, सीधा। अऋजु का अर्थ होता है, तिरछा, डांवाडोल, कंपता हुआ। अर्जुन का अर्थ है, कंपता हुआ, लहरों की तरह डांवाडोल, इरछा—तिरछा। कुछ भी सीधा नहीं है। और दोनों तरफ उसके कंपन हैं। वह तय नहीं कर पा रहा है।

कृष्ण निष्पाप पुरुषोत्तम हैं। वहा कोई कंपन नहीं है। इसलिए अर्जुन कृष्ण से पूछ सकता है और इसलिए कृष्ण अर्जुन को उत्तर दे सकते हैं। कृष्ण की पूरी चेष्टा यह है कि अर्जुन पीछे सरक आए, निष्पाप की जगह खड़ा हो जाए; वहां से युद्ध करे। यही गीता का पूरा का पूरा सार है। कैसे अर्जुन सरक आए निष्पाप की दशा में और वहा से युद्ध करे!

दो हालतों में युद्ध हो सकता है। एक तो अर्जुन सरक जाए शरीर के तल पर, जहां भीम और दुर्योधन खड़े हैं, वहा; वहां युद्ध हो सकता है। और या वह कृष्ण के तल पर सरक आए, तो युद्ध हो सकता है।

पहले तल पर सरक जाए, तो युद्ध साधारण होगा। जैसा रोज होता रहता है। तीसरे तल पर सरक जाए तो युद्ध असाधारण होगा। असाधारण होगा, जैसा कभी—कभी होता है, सदियों में कभी कोई एक आदमी तीसरे तल पर खड़े होकर युद्ध में उतरता है। और अगर वह बीच में खड़ा रहे, तो वह कुछ भी न कर पाएगा; युद्ध होगा ही नहीं। वह सिर्फ दुविधा में नष्ट हो जाएगा। वह संदेह में डूबेगा और समाप्त हो जाएगा। अधिक लोग संदेह में ही डूबते—उतराते रहते हैं।

हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

सुनकर नहीं; क्योंकि सुन तो अर्जुन ने लिया। अगर सुनकर ही होता होता, तो अर्जुन कहता कि बात खतम हो गई, कृतार्थ हो गया। सुन आपने भी लिया……।

तत्व से जानकर! ऐसा जो कृष्ण ने कहा है, जब अर्जुन ऐसा स्वयं जान ले; जब यह उसकी अनुभूति बन जाए; जब उसकी प्रतीति हो जाए; जब वह कह सके, ही, पुरुषोत्तम मैं हूं तो कृतार्थ हो जाता है। तो फिर जीवन में अर्थ आ जाता है। फिर प्रत्येक किया अर्थवान हो जाती है। फिर व्यक्ति जो भी करता है, सभी में फल और फूल लग जाते हैं। फिर व्यक्ति जो भी, जिस भांति भी जीता है, सभी तरह के जीवन से सुगंध आनी शुरू हो जाती है। उस व्यक्ति में पुरुषोत्तम के फल लगने शुरू हो जाते हैं, पुरुषोत्तम के फूल आने शुरू हो जाते हैं।

और कृष्ण कहते हैं, इस रहस्यमय गोपनीय शास्त्र को मैंने तुझसे कहा।

यह रहस्यमय तो बहुत है, और गोपनीय भी है। रहस्यमय इसलिए है कि जब तक आपने नहीं जाना, इससे बड़ी कोई पहेली नहीं हो सकती कि पाप करते हुए कैसे निष्पाप! संसार में खड़े हुए कैसे पुरुषोत्तम! दुख में पड़े हुए कैसे अमृत का धाम! इससे ज्यादा पहेली और क्या होगी? स्पष्ट उलझन है। इसलिए रहस्यमय।

और गोपनीय इसलिए कि इस बात को, कि तुम पुरुषोत्तम हो, कि तुम निष्पाप हो, अत्यंत गोपनीय ढंग से ही कहा जाता रहा है। क्योंकि पापी भी इसको सुन सकता है। और पापी यह मान ले सकता है कि जब निष्पाप हैं ही, तो फिर पाप करने में हर्ज क्या है? और जब पाप करने से निष्पाप होने में कोई अंतर ही नहीं पड़ता, तो किए चले जाओ।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, गोपनीय भी, गुप्त रखने योग्य भी। हम सब इसी तरह के लोग हैं। हम अपने मतलब का अर्थ निकाल ले सकते हैं। हम सोच सकते हैं, जब निष्पाप हैं, तो बात खत्म हो गई। अब हम चोरी करें, बेईमानी करें, डाका डालें, हत्या करें, कोई हर्ज नहीं। क्योंकि भीतर का निष्पाप तो निष्पाप ही बना रहता है; पुरुषोत्तम को तो कोई अंतर पड़ता नहीं है!

इसलिए बात गोपनीय है। उन्हीं से कहने योग्य है, जो सोचने को, बदलने को तैयार हुए हों। उन्हीं को समझाने योग्य है, जो उसे ठीक से समझेंगे; जो उसे सम्यकरूपेण समझेंगे; जो उसका

विपरीत अर्थ निकालकर अपने को नष्ट न कर लेंगे। क्योंकि सभी कुंजिया ज्ञान की खतरनाक हैं। उनसे आप नष्ट भी हो सकते हैं। जरा—सा गलत उपयोग, और जो अग्नि आपके जीवन को बदलती, वही अग्नि आपको भस्मीभूत भी कर दे सकती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह गोपनीय है शास्त्र, रहस्यमय है। क्योंकि जब तक तू अनुभव न कर ले, तब तक यह पहेली बना रहेगा। और इसको तत्व से जानकर ही मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

सुनकर नहीं, समझकर नहीं; अनुभव करके।

आपने भी सुना। उसमें से थोड़ा कुछ सोचना, पकड़ना, थोड़ा—सा, एक रंचमात्र। और उस रंचमात्र के आस—पास जीवन को ढालने की कोशिश करना। एक छोटा—सा बिंदु भी इसमें से पकड़कर अगर आपने जीवन को बसाने की कोशिश की, तो वह छोटा—सा बिंदु आपके पूरे जीवन को बदल देगा।

छोटी—सी चिंगारी पूरे पर्वत को जला डालती है। चिंगारी असली हो, चिंगारी जीवंत हो। चिंगारी शब्द नहीं जंगल को नहीं जला देगा, चिंगारी जलाएगी।

बहुत—सी चिंगारियां कृष्ण ने अर्जुन को दी हैं। अगर मनपूर्वक सहानुभूति से समझा हो, तो उसमें से कोई चिंगारी आपके मन में भी बैठ सकती है, आग बन सकती है।

लेकिन सिर्फ मुझे सुन लेने से यह नहीं होगा। करने का खयाल मन में जगाए।

जल्दी परिणाम न आएं, घबडाएं मत। आपने शुरू किया, इतना ही काफी है। परिणाम आएंगे; परिणाम सदा ही आते हैं। परमात्मा की तरफ उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता।

आज इतना ही।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–ओशो

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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं

(ओशो)

प्रसतावना:

जीवन के गर्भ में क्‍या छुपा है उसकी शुन्‍य अंधेरी तलहेटी की जड़े किस स्‍त्रोत की और बह रही है…..कहां से और किन छुपे रहस्‍यों से उनको पोषण मिल रहा है….ये कुदरत का एक अनुठाओर अनसुलझा रहस्‍य है। और यही तो है जीवन का आंनद….लेकिन न जाने क्‍या हम इस रहस्‍य को जानना चाहते है, कभी ज्‍योतिष के माध्‍यम से, कभी दिव्‍य दृष्‍टी या और तांत्रिक माध्‍यमों से परंतु सब नाकाम हो जाते है। और कुदरत अपने में अपनी कृति को छपाये ही चली आ रही है।

ठीक इसी तरह कभी नहीं सूलझाया जा सकता उस रहस्‍य का नाम परमात्‍मा है। परंतु कृति के परे प्रकृति और कही दूर अनछुआ सा कर्ता जो पास से भी पास और दूर से भी दूर। परंतु जब कृति जब प्रकृति में उतपति ओर लवलीन होती है, तब हम ठगे से सोचते है ये क्‍या इस बीज में कैसे हो सकता है इतना विशाल वृक्ष….कोई बुद्धि मानने को तैयार नहीं होती। लेकिन बीज जैसे ही मिटता है, उस अंधेरे के गर्भ में मिटना और उत्‍पति युगपत घटित होती है…दूसरी और एक वृक्ष की उत्‍पति होती है। वो कोमल पत्‍ते जब धरा से अपना मुख मंडल पहली बार बहार निकालते है और देखते है उस आसमान को सूर्य की चमक को उन रहस्‍यमय बादलो को…चारों और फैले पशु पक्षियों के कलरव को चाँद तारों को तब उसे खुद अपने पर यकिन नहीं होता….ओह…..निरंजन….इतना रहस्‍य। ठीक इस तरह से प्रत्‍येक मनुष्‍य का जीवन चल रहा होता है। और एक दिन मेरे जीवन में वह रहस्‍य का पल आ गया।

जब मेरे बीज को किसी ने अंधकार भरे रहस्‍यों में छूपा दिया और और प्रेम के उस उत्‍ताप से जब उसमें से कोमल अंकूरो को बहार निकलते देखा तो मैं मानने को तैयार नहीं था। इतना सब मेरे ही आस पास घटित हो रहा था। और मैं उसे कभी महसूस क्‍यों नहीं कर पाय, क्‍यों उस देख नहीं पाया….क्‍यों उस मधुर राग के ताल और सूरोंसे अनभिक रह गया। क्‍या मेरे पास कान, आँख आरे समझ नहीं थी। परंतु मैं क्‍या कोई भी प्राणी ये मानने को तैयार नहीं होता की वह कुछ नहीं जानता।

जानना ही हमारा भ्रम है, बुद्धि से हम क्‍या जान सकते है….उसकी सीमा होती है। लेकिन जब कोई अपने को पहली बार जानता है कि मैं कुछ नहीं जानता….तब ही पहला कदम उठता है जानने के लिए।

ओशो के 1985 में भारत आने के समय मेरा व्‍यवसाय बहुत अच्‍छा चल रहा था। जीवन में वो सब मैं पा रहा था जिसका मैंने सपना भी नहीं देखा था। लाखों में खेल रहा था। एक अति साधारण परिवार में जन्‍म लेने के बाद इस तरह से इतनी जल्‍दी मेरा काम इतना फैल जायेगा मैंने सोचा भी नहीं था। बोधिउनमनि (मेरी लड़कीजो उस समय पाँच साल की थी) को स्‍कूल का होम वर्क करने के लिए एक टीचर आता था। वह ओशो को पढ़ता था। एक दिन वह एक ओशो की कोई पुस्‍तक लिए उसने लाख कहा की भाई साहब ये पुस्‍तक पढ़ो….परंतु न जाने क्‍या ये मन वो सब नहीं करता जिसमें इसकी मोत हो। ये कैसे जानता था की इस आदमी ने अगर ओशो को पढ़ लिए तो यह वहीं आदमी नहीं रहेगा। यही तो मन का खेल है। बिना कुछ जाने बिना किसी कारण के। मैंने वह पुस्‍तक नहीं पढ़ी……..समय बदल गया….राज से रंक हो गया…..बात करीब, सब खत्‍म हो गया।

लेकिन समय की गति रूकती कहां है। वह चलती रहती है। आप तो उसके चक्र में केवल उलझ सकते हो। मेरी दोस्‍त जो फिल्‍मों और नाटको में करती थी…..एक दिन मैं उसके घर गया हुआ था, उसका एक दोस्‍त जो आलइंडिया रेडियों में काम करता था…शायद उसका नाम ओझा था। वह ओशो को पढ़ता था। कई बार मुझे तर्क वितर्क भी करता था और उसे हरा देता था। जब मैं उसके घर पर गया तो वहां पर एक वाकमेन रखा था। मैंने उसे कानों से लगा कर चला दिया…..ओशो जी आवाज कितनी मधुर और कितनी कोमल….परंतु न जाने मेरे प्राण कांप गये…मेरे शरीर से पसीना छूट गया और मैंने जल्‍दी से वह वाकमैन वहीं पर रखा और उठ कर चल दिया वह बैचारी चाय का कप हाथ में लिए आवाज मारती रह गयी…..कहां जा रहे है….चाय तो बन गई। लेकिन मैंने मूड कर नहीं देखा और घर पर आकर लेट गया पूरी रात एक अजीब सी हालत थी। न कोई बेचेनी…एक अजीब सी सिहरन एक नाजुक सी टीस जो मधुरता के साथ एक विशाद भी साथ लिए थी।

दिल्‍ली पब्‍लिक लाईब्रेरी का मैं छोटी उम्र से ही सदस्‍य था। क्‍योंकि किताबे मेरी दोस्‍त थी। और इससे अच्‍छी जगह कहीं और नहीं थी। एक दिन यूं ही किताब देखते—देखते एक पुस्‍तक मेरे सामने आई….’मैं मृत्‍यु सिखाता हूं’ और जी दोनों हाथ आसमान की और उठाये हुए थे। नीले रंग का चोगा हल्‍कि होती नीली पटीयों में से ओशो ऐसे लग रहे थे जैसे आसमान पर दूज का चाँद निकल आया है। एक तरफ तो देख कर अति प्रसन्‍नता हुई…..लेकिन दूसरे ही क्षण प्राण कांप गये। मन ने कहा इसे नहीं पढ़ना। दूसरे ही क्षण मन के दूसरे तल से एक और आवाज आई हजारों किताबें पढ़ी है तब इस किताब में ऐसा क्‍या है कि नहीं पढ़ना। इस पढ़ना है। ये सब युगपत ही हुआ….मन के दोनों तलों को मैंने एक साथ देखा….जिसे हम अच्‍छा या बुरा भी कह सकते है।

किताबें लाकर रख दी फिर भी नहीं पढ़ी…..मेरी वह दोस्‍त अपने घर इंदोर जा रही थी। उसने वह किताब देखी और कहने लगी की मैं इसे ले जा रही हूं….मुझे कुछ राहत मिली चलों ये कुछ दिन के लिए तो मुझसे दूर रहेगी….इसे नपढ़ने की गिलानी से तो बच जाऊंगा। और एक महीने बाद जब वह आई तो वह किताब मेरे हाथ पर रखते हुए अपनी बड़ी—बड़ी नीली आंखों से देखते हुए कहने लगी सूना….ये किताब तुमने पढ़नी है। एक हुक्‍म….उसकी वह सुंदर गहरी आंखें….एक खास प्रकार का तेज लिए हुए थी। और मैंने गर्दन नीची कर ली।

श्‍याम के समय मैंने उस पुस्‍तक का उठाया। उस पर पहले तो अख़बार का कवर लगया ताकि कोई यह देख न ले कि मैं ओशो की पुस्‍तक पढ़ रहा हूं। और मैं उसे खोल कर पढ़ना शुरू किया….अरे ये क्‍या….एक दो, तीन…..नो दस। ही लाईने पढ़ी और मेरी आंखें बद हो गई। लगा मैंने वह सब जान लिए जिसको मैं जानना चाहता था। घंटों मेरी वही अवस्‍था रही। उन दस लाईनों में मुझे ऐसा कुछ मिल गया जो हजारों पुस्‍तकों को पढ़ कर नहीं मिला था। मानों मेरा चलना रूक गया…मेरी मंजिल मुझे मिल गई।

सुबह सब दूकान का काम करने के बाद….मैंने अदविता (अपनी पत्‍नी) को कहां की मुझे कुछ पैसे दे दों उसने मेरी आंखों में देखा और उसके चेहरे पर एक अजीब सी खुशी लोट आई और वह अंदर जाकर 2500/— रूपये ले आई। लेकिन उसने नहीं पूछा की तुम कहां जा रहे हो। शायद वह जानती थी। और मैं सीधा ‘राज योग’ सफदजंग चला गया। और वहां जाकर किताब निकालने लगा। वहां के संचालक श्री ओम प्रकाश सरसवती जी थी। वह उठ कर आये और मुझे इस तरह सक किताबे निकालते देख कर कहने लगे कि पहले तुम्‍हें नहीं देखा….क्‍या दिल्‍ली के ही रहने वाले हो। मैंने कहा हां….उस समय कितबों बहुत सस्‍ती थी, 60, 70 रूपये से अधिक कोई पूस्‍तक नहीं थी। इस तरह से आप जान सकते है 2500, रूपये में कितनी किताबें आ सकती थी।

ओम प्रकाश जी मेरी और देखा और मैंने अपनी जेब से सभी पैसे निकाल कर मेज पर रख दिये और कहां की इसमें जितनी भी पुस्‍तके आये वह मुझे दे दो। मेरी यह बात सून कर स्‍वामी जी रो पड़े और मुझे अपने गले से लगा लिया…मैं भी फफक…कर उनसे चिपट कर रो रहा था….हम कितनी ही देर इस अवस्‍था में रहे हमे पता नहीं। तब स्‍वामी जी ने कहां की जब वह पूना से चल रहे थे और ने उन्‍हें कहा था कि तुम दिल्‍ली जाकर मेरा काम करो। तब मेरे पास जितने पैसे थे उन सब के फूड पास खरीदे और बुकशाप में ले जाकर रख दिये कि इनमें जितनी भी किताबें आये वह मुझे दे।

और आज स्‍वामी जी नहीं है लेकिन उनके होनहार सपूत्र उनके काम को बढ़ा रहे है…ओशो वर्ड के नाम से। ये पुस्‍तक मेरे लिए अनमोल है….जब यह मेरे हाथ में आई तो मैं अपनी पुरानी यादों में खो गया। कैसे यादें सामने आकार खड़ी हो जाती है….समय के इस अंतराल में मानों अभी कल ही की तो बाद है…..हाथ बढ़ाया और छू लिया। ये पुस्‍तक विरल है। आप इसको बढ़े गहरे में डूब को पढ़ना शायद मृत्‍यु के पार ले जाये…..

स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘मनसा’



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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–1)

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योजित मृत्यु अर्थात ध्यान और समाधि के प्रायोगिक रहस्य—(प्रवचन—पहला)

यह शरीर एक बीज है और जीवन चेतना और आत्मा का एक अंकुर भीतर है। जब वह अंकुर फूटता है तो मनुष्य का बीज होना समाप्त होता है और मनुष्य वृक्ष बनता है।

संकल्प हम करें तीव्रता से, टोटल, समग्र, कि मैं वापस लौटता हूं अपने भीतर। सिर्फ आधा घंटा भी कोई इस बात का संकल्प करे कि मैं वापस लौटना चाहता हूं, मैं मरना चाहता हूं? मैं डूबना चाहता हूं अपने भीतर, मैं अपनी सारी ऊर्जा को सिकोड़ लेना चाहता हूं, तो थोड़े ही दिनों में वह इस अनुभव के करीब पहुंचने लगेगा कि ऊर्जा सिकुड़ने लगी है भीतर। शरीर छूट जाएगा बाहर पड़ा हुआ। एक तीन महीने का थोड़ा गहरा प्रयोग, और आप शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं।

मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन क्या है, मनुष्य इसे भी नहीं जानता है। और जीवन को ही हम न जान सकें, तो मृत्यु को जानने की तो कोई संभावना ही शेष नहीं रह जाती। जीवन ही अपरिचित और अज्ञात हो, तो मृत्यु परिचित और ज्ञात नहीं हो सकती है। सच तो यह है कि चूंकि हमें जीवन का पता नहीं, इसलिए ही मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन को जानते ‘हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है। जगत में कुछ शब्द बिलकुल ही झूठे हैं, उन शब्दों में कुछ भी सत्य नहीं है। उन्हीं शब्दों में मृत्यु भी एक शब्द है, जो नितांत असत्य है। मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं घटती। लेकिन हम लोगों को तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई मालूम होती है। गांव—गांव में मरमट हैं। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होगा कि जहां—जहां हम खड़े हैं, वहां —वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अर्थी जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, उस भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके हैं।

करोड़ों —करोड़ों लोग मरे हैं, रोज मर रहे हैं, और अगर मैं यह कहूं कि मृत्यु जैसा झूठा शब्द नहीं है मनुष्य की भाषा में, तो आश्चर्य होगा। एक फकीर था तिब्बत में मारपा। उस फकीर के पास कोई गया और पूछने लगा कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में कुछ पूछने आया हूं। मारपा बहुत हंसने लगा और उसने कहा, अगर जीवन के संबंध में पूछना हो, तो जरूर पूछो, क्योंकि जीवन का मुझे पता है। रही मृत्यु, तो मृत्यु से आज तक मेरा कोई मिलना नहीं हुआ, मेरी कोई पहचान नहीं है। मृत्यु के संबंध में पूछना हो, तो उनसे पूछो जो मरे ही हुए हैं या मर चुके हैं। मैं तो जीवन हूं मैं जीवन के संबंध में बोल सकता हूं, बता सकता हूं। मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं।

यह बात वैसी ही है जैसी आपने सुनी होगी कि एक बार अंधकार ने भगवान से जाकर प्रार्थना की थी कि यह सूरज तुम्हारा, मेरे पीछे बहुत बुरी तरह पड़ा हुआ है। मैं बहुत थक गया हूं। सुबह से मेरा पीछा होता है और सांझ मुश्किल से मुझे छोड़ा जाता है। मेरा कसूर क्या है? दुश्मनी कैसी है यह? यह सूरज क्यों मुझे सताने के लिए मेरे पीछे दिन —रात दौड़ता रहता है? और रात भर में मैं दिन भर की थकान से विश्राम भी नहीं कर पाता हूं कि फिर सुबह सूरज द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है। फिर भागो! फिर बची! यह अनंत काल से चल रहा है। अब मेरी धैर्य की सीमा आ गई और मैं प्रार्थना करता हूं? इस सूरज को समझा दें।

सुनते हैं, भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम अंधेरे के पीछे क्यों पड़े हो? क्या बिगाड़ा है अंधेरे ने तुम्हारा? क्या है शत्रुता? क्या है शिकायत? सूरज कहने लगा, अंधेरा! अनंत काल हो गया मुझे विश्व का परिभ्रमण करते हुए, लेकिन अब तक अंधेरे से मेरी कोई मुलाकात नहीं’ हुई। अंधेरे को मैं जानता ही नहीं। कहां है अंधेरा? आप उसे मेरे सामने बुला दें, तो मैं क्षमा भी मांग लूं और आगे के लिए पहचान लूं कि वह कौन है ताकि उसके प्रति कोई भूल न हो सके।

इस बात को हुए भी अनंत काल हो गए। भगवान की फाइल में यह बात वहीं की वहीं पड़ी है। वह अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं बुला सके हैं। नहीं बुला सकेंगे। यह मामला हल नहीं होने का है। सूरज के सामने अंधकार कैसे बुलाया जा सकता है? अंधकार की कोई सत्ता ही नहीं है, कोई एग्झिस्टेंस नहीं है। अंधकार की कोई पॉजिटिव, कोई विधायक स्थिति नहीं है। अंधकार तो सिर्फ प्रकाश के अभाव का नाम है। वह तो प्रकाश की गैर मौजूदगी है, वह तो एबसेस है, वह तो अनुपस्थिति है। तो सूरज के सामने ही सूरज की अनुपस्थिति को कैसे बुलाया जा सकता है?

नहीं! अंधकार को सूरज के सामने नहीं लाया जा सकता है। सूरज तो बहुत बड़ा है, एक छोटे से दीये के सामने भी अंधकार को लाना मुश्किल है। दीये के प्रकाश के घेरे में अंधकार का प्रवेश मुश्किल है। दीये के सामने मुठभेड़ मुश्किल है। प्रकाश है जहां, वहां अंधकार कैसे आ सकता है! जीवन है जहां, वहां मृत्यु कैसे आ सकती है! या तो जीवन है ही नहीं, और या फिर मृत्यु नहीं है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।

हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश! हम उस जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा—सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं हैं जो हम हैं, और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं हैं। उस प्रकाश से हम परिचित नहीं हो पाते जो हमारा प्राण है, जो हमारा जीवन है, जो हमारी सत्ता है; और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं, जो हम नहीं हैं।

मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। समस्त जीवन अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आख ही नहीं उठाते हैं। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।

मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंभव है बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन शात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। या तो हमें पता है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं। लेकिन हम सारे लोग तो मृत्यु से भयभीत हैं।

मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है —जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है —श्वास—श्वास में, कण—कण में, चारों ओर, भीतर—बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हों। इसका ‘एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है, अचेतन है, अनकाशस है, बेहोश है।

एक आदमी सोया हो तो उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूं? क्या हूं? कहां से हूं? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता कि मैं हूं भी या नहीं हूं? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था, नींद में तो इसका भी पता नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया, उसे यह भी पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर यह पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका यह अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है, सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था, लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं। जरूर मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता है कि मैं हूं या नहीं हूं? या क्या हूं।

इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसलिए उसे जीवन का ही पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।

नहीं, लेकिन हम इनकार करेंगे। हम कहेंगे, कैसी आप बात करते हैं? हमें पूरी तरह पता है कि जीवन क्या है। हम जीते, हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, सोते हैं।

एक शराबी भी चलता है, उठता है, बैठता है, चलता है, श्वास लेता है, आख खोलता है, बात करता है। एक पागल भी उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, बात करता है, जीता है। लेकिन इससे न तो शराबी होश में कहा जा सकता है और न पागल सचेतन है, यह कहा जा सकता है।

एक सम्राट की सवारी निकलती थी एक रास्ते पर। एक आदमी चौराहे पर खड़ा होकर पत्थर फेंकने लगा और अपशब्द बोलने लगा और गालियां बकने लगा। सम्राट की बड़ी शोभायात्रा थी। उस आदमी को तत्काल सैनिकों ने पकड़ लिया और कारागृह में डाल दिया। लेकिन जब वह गालियां बकता था और अपशब्द बोलता था, तो सम्राट हंस रहा था। उसके सैनिक हैरान हुए, उसके वजीरों ने कहा, आप हंसते क्यों हैं? उस सम्राट ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, उस आदमी को पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जहां तक मैं समझता हूं वह आदमी नशे में है। खैर, कल सुबह उसे मेरे सामने ले आएं। कल सुबह वह आदमी सम्राट के सामने लाकर खड़ा कर दिया गया। सम्राट उससे पूछने लगा, कल तुम मुझे गालियां देते थे, अपशब्द बोलते थे, क्या था कारण उसका? उस आदमी ने कहा, मैँ! मैं और अपशब्द बोलता था! नहीं महाराज, मैं नहीं रहा होऊंगा, इसलिए अपशब्द बोले गए होंगे। मैं शराब में था, मैं बेहोश था, मुझे कुछ पता— नहीं कि मैंने क्या बोला, मैं नहीं था।

हम भी नहीं हैं। नींद में हम चल रहे हैं, बोल रहे हैं, बात कर रहे हैं, प्रेम कर रहे हैं, घृणा कर रहे हैं, युद्ध कर रहे हैं। अगर कोई दूर के तारे से देखे मनुष्य—जाति को, तो वह यही समझेगा कि सारी मनुष्य—जाति इस भांति व्यवहार कर रही है जिस तरह नींद में, बेहोशी में कोई व्यवहार करता हो। तीन हजार वर्षों में मनुष्य—जाति ने पंद्रह हजार युद्ध किए हैं। यह जागे हुए मनुष्य का लक्षण नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी कथा, चिंता की, दुख की, पीड़ा की कथा है। आनंद का एक क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। आनंद का एक कण भी नहीं मिलता है जीवन में। खबर भी नहीं मिलती कि आनंद क्या है। जीवन बीत जाता है और आनंद की झलक भी नहीं मिलती। यह आदमी होश में नहीं कहा जा सकता है। दुख, चिंता, पीड़ा, उदासी और पागलपन—सारे जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा है।

लेकिन शायद हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे ही सोए हुए लोग हैं। और कभी अगर एकाध जागा हुआ आदमी पैदा हो जाता है, तो हम सोए हुए लोगों को इतना क्रोध आता है उस जागे हुए आदमी पर कि हम बहुत जल्दी ही उस आदमी की हत्या कर देते हैं। हम ज्यादा देर उसे बर्दाश्त नहीं करते।

जीसस को हम इसीलिए सूली पर लटका देते हैं कि तुम्हारा कसूर है कि तुम जागे हुए आदमी हो। हम सोए हुए लोगों को तुम्हें देखकर बहुत अपमानित होना पड़ता है। हम सोए हुए आदमियों के लिए तुम एक अपमानजनक चिह्न बन जाते हो कि तुम सोए हुए लोग हो। तुम्हारी मौजूदगी हमारी नींद में बाधा डालती है। हम तुम्हारी हत्या कर देंगे। हम सुकरात को जहर पिलाकर मार डालते हैं, हम मैसूर की गरदन काट डालते हैं। हम जागे हुए आदमियों के साथ वही व्यवहार करते हैं, जो पागलों की बस्ती में उस आदमी के साथ होगा, जो पागल नहीं है। आपको इसका अंदाज नहीं है।

मेरे एक मित्र पागल थे। और वह एक पागलखाने में बंद कर दिए गए। पागलपन में उन्होंने फिनाइल की एक बाल्टी, जो पागलखाने में रखी थी, वह पी गए। उसके पी जाने से उनको इतनी उल्टियां हुईं, इतने दस्त लगे कि पंद्रह दिन तक सारा शरीर रूपांतरित हो गया। उनकी सारी गर्मी जैसे शरीर से निकल गई और वह ठीक हो गए। लेकिन उन्हें छह महीने के लिए पागलघर में भेजा गया था। वह ठीक हो गए और उन्होंने मुझसे कहा कि जब मैं पागल था तब, और जब मैं ठीक हो गया उस पागलपन से और तीन महीने तक ठीक होकर जब मैं पागलघर में रहा, तब जो पीड़ा मैंने अनुभव की, उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। जब तक मैं पागल था, तब तक कोई कठिनाई न थी, क्योंकि और सब भी मेरे जैसे लोग थे। जब मैं ठीक हो गया, तब मुझे लगा कि मैं कहौ हूं! क्योंकि मैं सो रहा हूं और दो आदमी मेरी छाती पर सवार हो गए हैं। मैं चल रहा हूं और कोई मुझे धक्के मार रहा है। उस सबका मुझे पहले कुछ भी पता नहीं चला था, क्योंकि मैं भी पागल था। मुझे यह भी पता नहीं चला था कि ये लोग पागल हैं जब तक मैं पागल था। जब मैं पागल न रहा तो मुझे पता चला कि ये सारे लोग पागल हैं। और जैसे ही मैं पागल न रहा, मैं उन सारे पागलों का शिकार बन गया। और मेरी कठिनाई यह थी कि मुझे सब समझ में आ रहा था कि अब मैं बिलकुल ठीक हूं और अब क्या होगा और क्या नहीं होगा, और अब मैं कैसे बाहर निकलूं! और अगर मैं चिल्लाकर कहता कि मैं पागल नहीं हूं तो सभी पागल यही चिल्लाकर कहते हैं कि हम पागल नहीं हैं, कोई डाक्टर मानने को राजी नहीं था।

हमारे चारों तरफ सोए हुए लोगों की भीड़ है, और इसलिए हमें पता नहीं चलता कि हम सोए हुए आदमी हैं। और जागे हुए आदमी की हम जल्दी से हत्या कर देते हैं, क्योंकि वह आदमी हमें बहुत कष्टपूर्ण मालूम होने लगता है, बहुत डिस्टर्बिंग, बहुत विम्नकारक मालूम होने लगता है।

एक अंग्रेज विद्वान कैनेथ वाकर ने एक किताब लिखी है और उस किताब को एक फकीर गुरजिएफ को समर्पित किया है। समर्पण में, डेडीकेशन में उसने जो शब्द लिखे हैं, वे बड़े अदभुत हैं। उसने डेडीकेशन में, समर्पण में लिखा है ‘टु जार्ज गुरजिएफ, दि डिस्टर्बर आफ माई स्लीप’, मेरी नींद तोड्ने वाले जार्ज गुरजिएफ को समर्पित।

थोड़े —से लोग हुए हैं जमीन पर, जो लोगों की नींद तोड्ने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर आप किसी की नींद तोड्ने की कोशिश करेंगे, तो निश्चित ही वह आपसे बदला लेगा। किसी सोते हुए आदमी को जगाने की कोशिश करिए, वह आपकी गरदन पकड़ लेगा। आज तक मनुष्य को आध्यात्मिक नींद से जिन्होंने जगाने की कोशिश की है, हमने उनकी भी गरदनें पकड़ ली हैं। हमारे बीच हमें पता नहीं चलता इसीलिए कि हम सब एक जैसे नींद में सोए हुए लोग हैं।

एक गांव के संबंध में मैंने सुना है कि वहां एक दिन एक जादूगर आ गया था और उस गांव के कुएं में उसने एक पुड़िया डाल दी थी और कहा था कि इस कुएं का पानी जो भी पीएगा, वह पागल हो जाएगा। एक ही कुआं था उस गांव में। एक कुआं और था, लेकिन वह गांव का कुआं न था, वह राजा के महल में था। सांझ होते —होते तक गांव के हर आदमी को पानी पीना पड़ा। चाहे पागलपन की कीमत पर भी पीना पड़े, लेकिन मजबूरी थी। प्यास तो बुझानी पड़ेगी, चाहे पागल ही क्यों न हो जाना पड़े। गांव के लोग अपने को कब तक रोकते, उन्होंने पानी पीया। सांझ होते —होते पूरा गांव पागल हो गया।

सम्राट बहुत खुश था, उसकी रानियां बहुत खुश थीं, महल में गीत और संगीत का आयोजन हो रहा था। उसके वजीर खुश थे कि हम बन गए, लेकिन सांझ होते —होते उन्हें पता चला कि गलती में हैं वे, क्योंकि सारा महल सांझ होते —होते गांव के पागलों ने घेर लिया। पूरा गांव हो गया था पागल। राजा के पहरेदार और सैनिक भी हो गए थे पागल। सारे गांव ने राजा के महल को घेर कर आवाज लगाई कि मालूम होता है कि राजा का दिमाग खराब हो गया है। हम ऐसे पागल राजा को सिंहासन पर बर्दाश्त नहीं कर सकते। महल के ऊपर खड़े होकर राजा ने देखा कि बचाव का अब कोई उपाय नहीं है। राजा अपने वजीर से पूछने लगा कि अब क्या होगा? हम तो सोचते थे कि भाग्यवान हैं हम कि हमारे पास अपना कुआं है। आज यह महंगा पड़ गया है। सभी राजाओं को एक न एक दिन अलग कुआं महंगा पड़ता है। सारी दुनिया में पड़ रहा है। जो अभी भी राजा हैं, कल उनको भी कुआं महंगा पड़ेगा। अलग कुआं खतरनाक है।

लेकिन तब तक खयाल नहीं था। वजीर से राजा कहने लगा, क्या होगा अब? वजीर ने कहा, अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं है। आप भागे पीछे के द्वार से, और गांव के उस कुएं का पानी पीकर जल्दी लौट आएं। अन्यथा यह महल खतरे में है। सम्राट ने कहा, उसे कुएं का पानी! क्या तुम मुझे पागल बनाना चाहते हो? वजीर ने कहा, अब पागल बने बिना बचने का कोई उपाय नहीं है।

राजा भागा, उसकी रानियां भागी। उन्होंने जाकर उस कुएं का पानी पी लिया। उस रात उस गांव में एक बड़ा जलसा मनाया गया। सारे गांव के लोगों ने खुशी मनाई, बाजे बजाए, गीत गाए और भगवान को धन्यवाद दिया कि हमारे राजा का दिमाग ठीक हो गया है। क्योंकि राजा भी भीड़ में नाच रहा था और गालियां बक रहा था। अब राजा का दिमाग ठीक हो गया।

चूंकि हमारी नींद सार्वजनिक है, सार्वभौमिक है, क्योंकि हम जन्म से ही सोए हुए हैं, इसलिए हमें पता नहीं चलता है। इस नींद में हम क्या समझ पाते हैं जीवन को? इतना ही कि यह शरीर जीवन है। इस शरीर के भीतर जरा भी प्रवेश नहीं हो पाता। यह समझ वैसी ही है, जैसे किसी राजमहल के बाहर दीवाल के आसपास कोई घूमता हो और समझता हो कि यह राजमहल है। दीवाल पर, बाहर की दीवाल पर, चारदीवारी पर, परकोटे पर, परकोटे के बाहर कोई घूमता हो और सोचता हो कि राजमहल है। और परकोटे की दीवाल से टिक कर सो जाता हो और सोचता हो कि महलों में विश्राम कर रहा हूं। शरीर के आसपास जिनके जीवन का बोध है, वह उसी नासमझ आदमी की तरह हैं जो महल की दीवाल के बाहर खड़े होकर समझता है कि महल का मेहमान हो गया हूं।

शरीर के भीतर हमारा कोई प्रवेश नहीं है, हम शरीर के बाहर जीते हैं। बस शरीर की पर्त, बाहर की पर्त……। शरीर की, भीतर की पर्त तक का कोई पता हमें नहीं चलता। बस दीवाल के बाहर का हिस्सा… दीवाल के भीतर का हिस्सा ही पता नहीं चलता, महल तो बहुत दूर है। दीवाल के बाहर के हिस्से को ही महल समझते हैं, दीवाल के भीतर के हिस्से तक से परिचय नहीं हो पाता।

हम अपने शरीर को अपने से बाहर से जानते हैं, हमने कभी भीतर खड़े होकर भी शरीर को नहीं देखा है — भीतर से, फ्राम विदिन। जैसे मैं इस कमरे के भीतर बैठा हूं, आप इस कमरे के भीतर बैठे हैं। हम इस कमरे को भीतर से देख रहे हैं। एक आदमी बाहर घूम रहा है। वह इस मकान को बाहर से देख रहा है। आदमी अपने शरीर के घर में अपने को भीतर से भी देखने में समर्थ नहीं हो पाता है, बाहर से ही जानता है। और तब मौत पैदा हो जाती है। क्योंकि जिसे हम बाहर से जानते हैं, वह केवल खोल है। वह केवल बाहरी वस्त्र है। वह केवल मकान के बाहर की दीवाल है, घर का मालिक नहीं। घर का मालिक भीतर है। उस भीतर के मालिक से तो पहचान ही हमारी नहीं हो पाती। भीतर की दीवाल तक से पहचान नहीं हो पाती तो भीतर के मालिक से कैसे पहचान होगी?

यह जो जीवन का अनुभव है फ्राम विदाउट, बाहर से, यह जीवन का अनुभव ही मृत्यु का अनुभव बनता है। यह जीवन का अनुभव जिस दिन हाथ से खिसक जाता है. क्योंकि जिस दिन इस घर को छोड़ कर भीतर के प्राण सिकुड़ते हैं और बाहर की दीवाल से चेतना भीतर चली जाती है, उसी दिन बाहर के लोगों को पता चलता है कि मर गया यह आदमी। और उस आदमी को भी लगता है कि मरा, मरा, मरा। क्योंकि जिसे वह जीवन समझता था, वहां से चेतना भीतर सरकने लगती है। जिस तल पर उसे शात था कि यह जीवन है, उस तल से चेतना भीतर सरकने लगती है नई यात्रा की तैयारी में। और उसके प्राण चिल्लाने लगते हैं कि मरा! गया! सब डूबता है! क्योंकि जिसे वह समझता था कि मैं जीवन हूं वह डूब रहा है, वह छूट रहा है। बाहर के लोग समझते हैं कि यह आदमी मर गया और वह आदमी भी मरते क्षण में, इस मरने के क्षण में, इस बदलाहट के क्षण में समझता है कि मैं मरा, मैं मरा, मैं मरा, मैं गया।

यह जो देह है हमारी, यह जो शरीर है, यह शरीर हमारा वास्तविक होना नहीं है। यह हमारी आथेंटिक बीइंग नहीं है। गहराई में इससे बहुत भिन्न और बिलकुल दूसरे प्रकार का हमारा व्यक्तित्व है। इस शरीर से बिलकुल विपरीत और उलटा हमारा जीवन है।

एक बीज को हम देखते हैं। बीज— के ऊपर की खोल होती है बहुत सख्त ताकि भीतर जो छिपा हुआ जीवन का अंकुर है कोमल, डेलीकेट, वह उसकी रक्षा कर सके। भीतर का अंकुर तो होता है बहुत कोमल और उसकी रक्षा के लिए बहुत कठोर दीवाल, एक घेरा, एक खोल बीज के ऊपर चढ़ी होती है। वह जो खोल है, वह बीज नहीं है। और जो उस खोल को ही बीज समझ लेगा, वह कभी भी उस जीवन के अंकुर से परिचित नहीं हो पाएगा जो भीतर छिपा है। वह खोल को ही लिये रह जाएगा और अंकुर कभी पैदा नहीं होगा।

नहीं, खोल बीज नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि बीज जब पैदा होता है तो खोल को मिट जाना पड़ता है, टूट जाना पड़ता है, बिखर जाना पड़ता है, मिट्टी में गल जाना पड़ता है। जब खोल गल जाती है, तब बीज भीतर से प्रकट होता है।

यह शरीर एक बीज है। और जीवन, चेतना और आत्मा का एक अंकुर भीतर है। लेकिन हम इस खोल को ही बीज समझकर नष्ट हो जाते हैं और वह अंकुर पैदा भी नहीं हो पाता है, वह अंकुर फूट भी नहीं पाता है। जब वह अंकुर फूटता है, तो जीवन का अनुभव होता है। जब वह अंकुर फूटता है, तो मनुष्य का बीज होना समाप्त होता है और मनुष्य वृक्ष बनता है। जब तक मनुष्य बीज है, तब तक वह सिर्फ एक पोटेंशियलिटी है, एक संभावना है। और जब उसके भीतर वृक्ष पैदा होता है जीवन का, तब वह वास्तविक बनता है। उस वास्तविकता को कोई आत्मा कहता है, उस वास्तविकता को कोई परमात्मा कहता है।

मनुष्य है बीज परमात्मा का। मनुष्य सिर्फ बीज है। जीवन का पूर्ण अनुभव तो वृक्ष को होगा, बीज को क्या हो सकता है? बीज क्या जान सकता है वृक्ष के आनंद को? बीज क्या जान सकता है कि आएंगे पत्ते हरे, जिन पर सूरज की किरणें नाचेगी? बीज क्या जान सकता है कि हवाएं बहेंगी पत्तियों और शाखाओं से और प्राण संगीत में गूंजेंगे? बीज कैसे जान सकता है कि खिलेंगे फूल और आकाश के तारों को मात कर देंगे? बीज कैसे जान सकता है कि पक्षी गीत गाएंगे और यात्री छाया में विश्राम करेंगे? बीज कैसे जान सकता है? वृक्ष के अनुभव को बीज कैसे जान सकता है? बीज को तो कुछ भी पता नहीं। वह तो सपना भी नहीं देख सकता उसका, जो वृक्ष होने पर संभव होगा। वह तो वृक्ष होकर ही जाना जा सकता है।

आदमी जीवन को नहीं जानता है, क्योंकि उसने बीज को ही अपनी परिपूर्णता समझ ली है। वह तो जीवन को तभी जानेगा, जब भीतर के जीवन का पूरा वृक्ष प्रकट हो। लेकिन भीतर के जीवन का वृक्ष प्रकट होना तो दूर, भीतर कुछ है शरीर से भिन्न और अलग, इसका हमें कोई बोध ही नहीं हो पाता। इसकी हमें कोई स्मृति, इसका कोई स्मरण, इसकी कोई रिमेंबरिंग ही पैदा नहीं हो पाती कि अलग भी कुछ है शरीर से भिन्न। जीवन की समस्या, जो भीतर है, उसके अनुभव की समस्या है। जो भीतर है, उसके अनुभव की समस्या है जीवन की समस्या। और हम जीवन को मान लेते हैं वह, जो कि बाहर विस्तीर्ण है।

एक वृक्ष से मैंने पूछा, तेरा जीवन कहां है? वह वृक्ष कहने लगा, उन जड़ों में जो दिखाई नहीं पड़ती। जड़ें दिखाई नहीं पड़ती, वहां जीवन है। वृक्ष जो दिखाई पड़ता है, वह वहां से जीवन लेता है जो अदृश्य है।

माओत्से तुंग ने अपने बचपन की एक घटना लिखी है कि मेरी मां की झोपड़ी के पास एक बगिया थी। उसने जीवन भर उस बगिया को संभाला था। उसके फूल इतने बड़े और प्यारे होते थे कि दूर—दूर के गांव के लोग देखने आते थे। और बगिया के पास से गुजरता हुआ ऐसा कठोर आदमी कभी नहीं देखा गया जो दो क्षण ठहर न गया हो उन फूलों को देख कर! मां की हो गई और बीमार पड़ गई। माओ छोटा था, पर उसने अपनी मां को कहा कि फिक्र मत करो —घर में और बडा तो कोई था नहीं—उसने कहा, फिक्र मत करो, तुम चिंता मत करो पौधों की, मैं उनकी फिक्र कर लूंगा।

पंद्रह दिन बाद मां उठी। माओ दिन भर बगीचे में मेहनत करता रहता, दिन—रात, सुबह से लेकर आधी रात तक। मां निश्चित थी। लेकिन जिस दिन पंद्रह दिन बाद उठकर वह बगीचे में आई तो देखा बगिया पूरी कुम्हला गई है। फूल तो जा चुके कभी के, पत्ते भी मुर्दा हो गए हैं, सारे वृक्ष उदास खड़े हैं। ऐसा ही लगा होगा उस बुढ़िया को जैसा कि आज अगर किसी के पास आंखें हो, तो सारी मनुष्य की बगिया को देखकर लगेगा—सब फूल गिर गए, सब पत्ते कुम्हला गए, सब वृक्ष उदास खड़े हैं।

वह तो छाती पीटकर रोने लगी कि यह तूने क्या किया! और तू सुबह से सांझ तक करता क्या था?

माओ भी रोने लगा। उसने कहा कि मैंने बहुत कुछ किया जो मैं कर सकता था। एक—एक फूल की धूल झाड़ता था, एक —एक पते की धूल झाड़ता था। एक—एक फूल को अता था, एक—एक फूल पर पानी छिड़कता था। पता नहीं लेकिन क्या हुआ! इतना श्रम! और सारे वृक्ष कुम्हला गए हैं।

उसकी मां रोने में भी हंसने लगी। उसने कहा, पागल! शायद तुझे पता नहीं कि वृक्षों के प्राण पत्तों और फूलों में नहीं होते। वृक्षों के प्राण जड़ों में होते हैं, जो दिखाई नहीं पड़ती। तू फूल और पत्तों को पानी देगा, तू फूल और पत्तों को चूमेगा और प्रेम करेगा, तो सब निरर्थक है। फूल—पत्ते की फिक्र

ही मत कर। अगर अदृश्य जड़ें शक्तिशाली होती चली जाती हैं, तो फूल—पत्ते अपने से निकल आते हैं, उनकी चिंता नहीं करनी पडती है।

लेकिन आदमियों ने जीवन को समझा है बाहर का सारा का सारा फूल—पत्ते का जो फैलाव है वह, और भीतर की जड़ें बिलकुल उपेक्षित हैं, निग्लेक्टेड हैं। आदमी के भीतर की जड़ें बिलकुल ही उपेक्षित पड़ी हैं। स्मरण भी नहीं कि भीतर भी मैं कुछ हूं। और जो भी है वह भीतर है। सत्य भीतर है, शक्ति भीतर है, जीवन की सारी क्षमता भीतर है। वहा से वह प्रकट हो सकती है बाहर। बाहर प्रकटीकरण होता है, होना भीतर है। बीइंग भीतर है, बिकमिंग बाहर होती है। वह जो वास्तविक है, वह भीतर है। जो फैलता है और अभिव्यक्त होता है, मैनीफेस्टेशन जो है वह बाहर है। बाहर है अभिव्यक्ति, आत्मा तो भीतर है।

और बाहर की अभिव्यक्ति को ही जो जीवन समझ लेते हैं, उनका सारा जीवन मृत्यु के भय से आक्रांत होता है। वे जीते हैं तो भी मरे —मरे और डरे हुए कि कभी भी मर जाएंगे, किसी भी क्षण मर जाएंगे। और यही मरने से डरे हुए लोग किसी की मौत पर रोते और परेशान होते हैं। ये किसी और की मौत पर रोते और परेशान नहीं हो रहे हैं, हर मौत इन्हें इनकी मौत की खबर ले आती है। हर मौत इन्हें खबर लाती है इनकी मौत की। और जो अपने हैं, बहुत निकट हैं, उनकी मौत तो बहुत जोर से खबर लाती है अपनी मौत की। और तब प्राण भीतर कैप जाते हैं, तब भय पकड़ लेता है, तब कंपन पकड़ लेता है। और उस कंपन मैं, उस भय में आदमी अच्छी— अच्छी बातें सोचता है—आत्मा अमर है, हम तो भगवान के अंश हैं, हम तो ब्रह्म के स्वरूप हैं। ये सब बकवास की बातें हैं। और यह अपने को धोखा देने से ज्यादा नहीं है, सेल्फ डिसेपान है।

एक वृक्ष से मैंने पूछा, तेरा जीवन

कहां है? वह वृक्ष कहने लगा,

उन जडों में जो दिखाई नहीं

पड़ती। जड़ें दिखाई नहीं पड़ती,

वहां जीवन है। वृक्ष जो दिखाई

पड़ता है, वह वहां से जीवन लेता

है ने अदृश्य है!

यह मौत से डरा हुआ आदमी अपने को मजबूत करने के लिए दोहराता है कि आत्मा अमर है। वह यह कह रहा है कि नहीं, नहीं, मुझे नहीं मरना पड़ेगा, आत्मा अमर है। लेकिन भीतर प्राण कैप रहे हैं और वह ऊपर से कह रहा है कि आत्मा अमर है। जो आदमी जानता है कि आत्मा अमर है, उसे एक बार भी यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि आत्मा अमर है। क्योंकि वह जानता है, बात खतम हो गई।

लेकिन यह मौत से डरने वाले लोग मौत से डरते हैं, जीवन को जान नहीं पाते हैं, और फिर बीच में एक नई तरकीब और एक नया धोखा पैदा करते हैं कि आत्मा अमर है।

इसीलिए तो आत्मा को अमर मानने वाले लोगों से ज्यादा मौत से डरनेवाली कौम खोजनी कठिन है। इस देश में ही यह दुर्भाग्य घटित हुआ है। इस देश में आत्मा की अमरता माननेवाले सर्वाधिक लोग हैं पृथ्वी पर, और इस देश में मौत से डरने वाले कायरों की संख्या भी सर्वाधिक है। ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो गईं?

जो जानते हैं कि आत्मा अमर है, उनके लिए तो मृत्यु हो गई समाप्त, उनके लिए तो भय हो गया विसर्जित, उन्हें तो अब कोई मार नहीं सकता। उन्हें तो अब कोई नहीं मार सकता। और दूसरी बात भी ध्यान में ले लेना न उन्हें कोई मार सकता है और न अब वे इस भ्रम में हो सकते हैं कि मैं किसी को मार सकता हूं। क्योंकि मारने की घटना ही खतम हो गई। और इस राज को थोडा समझ लेना जरूरी है। जो लोग कहेंगे आत्मा अमर है, वे मौत से डरे हुए हैं और दोहरा रहे हैं कि आत्मा अमर है। और साथ ही ऐसे मौत से डरने वाले लोग अहिंसा की भी बहुत बात करेंगे। इसलिए नहीं कि वे किसी को न मारे, बल्कि इसलिए कि बहुत गहरे में कोई उन्हें मारने को तैयार न हो जाए। दुनिया अहिंसक होनी चाहिए! क्यों? कहेंगे तो वे यही कि किसी को भी मारना बुरा है, लेकिन बहुत गहरे में वे यह कह रहे हैं कि कोई मुझे मार न डाले। किसी को भी मारना बुरा है! लेकिन अगर उन्हें पता चल गया है कि मृत्यु होती ही नहीं, तो न मरने का डर है, न मारने का डर है और न ये बातें अर्थपूर्ण रह गईं।

कृष्ण ने कहा अर्जुन से कि तू भयभीत मत हो, क्योंकि तू जिन्हें सामने खडा देख रहा है, वे बहुत बार रहे हैं पहले भी। तू भी था, मैं भी था, हम सब बहुत बार थे और हम सब बहुत बार होंगे। जगत में कुछ भी नष्ट नहीं होता। इसलिए न मरने का डर नहीं है, न मारने का डर है। सवाल है जीवन को जीने का। और जो मरने और मारने दोनों से डरते हैं, वे जीवन की दृष्टि में एकदम नपुंसक और इंपोटेंट हो जाते हैं। जो न मर सकता है, न मार सकता है, वह जानता ही नहीं कि जो है वह न मारा जा सकता है, न मर सकता है

कैसी होगी वह दुनिया जिस दिन सारा जगत जानेगा भीतर से कि आत्मा अमर है! उस दिन मृत्यु का सारा भय विलीन हो जाएगा! उस दिन मरने का भय भी विलीन हो जाएगा, मारने की धमकी भी विलीन हो जाएगी। उसी दिन युद्ध विलीन होंगे, उसके पहले नहीं।

जब तक आदमी को लगता है कि मारा जा सकता है, मर सकता हूं र तब तक दुनिया से युद्ध विलीन नहीं हो सकते। चाहे गांधी समझाएं अहिंसा, और चाहे बुद्ध और चाहे महावीर। चाहे सारी दुनिया में अहिंसा के कितने ही पाठ पढ़ाए जाएं। जब तक मनुष्य को भीतर से यह अनुभव पैदा नहीं हो जाता कि जो है, वह अमृत है, तब तक दुनिया में युद्ध बंद नहीं हो सकते। वे, जिनके हाथों में तलवारें दिखती हैं, यह मत समझ लेना कि वे बहुत बहादुर लोग हैं। तलवार सबूत है कि यह आदमी भीतर से डरपोक है, कायर है, कावर्ड है। चौरस्तों पर जिनकी मूर्तियां बनाते हैं तलवारें हाथ में लेकर, वे कायरों की मूर्तियां हैं। बहादुर के हाथ में तलवार की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि मरना और मारना दोनों बच्चों की बातें हैं।

लेकिन एक अदभुत प्रवंचना आदमी पैदा करता है। जिन बातों को वह नहीं जानता है, उन बातों को भी वह दिखाने की इस भांति कोशिश करता है कि जैसे हम जानते हैं। भय के कारण, भीतर है भय, भीतर वह जानता है कि मरना पड़ेगा, लोग रोज मर रहे हैं। भीतर वह देखता है कि शरीर क्षीण हो रहा है, जवानी गई, बुढ़ापा आ रहा है। देखता है कि शरीर जा रहा है। लेकिन भीतर दोहरा रहा है कि आत्मा अजर— अमर है। वह अपना विश्वास जुटाने की कोशिश कर रहा है, हिम्मत जुटाने की कोशिश कर रहा है कि मत घबराओ। मत घबराओ। मौत तो है, लेकिन नहीं, नहीं, ऋषि—मुनि कहते हैं कि आत्मा अमर है। मौत से डरने वाले लोग ऐसे ऋषि—मुनियों के आस—पास इकट्ठे हो जाते हैं और भीड़ कर लेते हैं, जो आत्मा की अमरता की बातें करते हैं।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं है। मैं यह कह रहा हूं कि आत्मा की अमरता का सिद्धांत मौत से डरने वाले लोगों का सिद्धांत है। आत्मा की अमरता को जानना बिलकुल दूसरी बात है। और यह भी ध्यान रहे कि आत्मा की अमरता को वे ही जान सकते हैं, जो जीते जी मरने का प्रयोग कर लेते हैं। उसके अतिरिक्त कोई जानने का उपाय नहीं। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

मौत में होता क्या है? प्राणों की सारी ऊर्जा जो बाहर फैली हुई है, विस्तीर्ण है, वह वापस सिकुड़ती है, अपने केंद्र पर पहुंचती है। जो ऊर्जा प्राणों की सारे शरीर के कोने —कोने तक फैली हुई है, वह सारी ऊर्जा वापस सिकुड़ती है, बीज में वापस लौटती है। जैसे एक दीये को हम मंदा करते जाएं, धीमा करते जाएं, तो फैला हुआ प्रकाश सिकुड़ आएगा, अंधकार घिरने लगेगा। प्रकाश सिकुड़ कर फिर दीये के पास आ जाएगा। अगर हम और धीमा करते जाएं और धीमा करते जाएं, तो फिर प्रकाश बीज —रूप में, अनुरूप में निहित हो जाएगा, अंधकार घेर लेगा।

प्राणों की जो ऊर्जा फैली हुई है जीवन की, वह सिकुड़ती है, वापस लौटती है अपने केंद्र पर। नई यात्रा के लिए फिर बीज बनती है, फिर अणु बनती है। यह जो सिकुड़ाव है, इसी सिकुडाव से, इसी संकुचन से पता चलता है कि मरा! मैं मरा! क्योंकि जिसे मैं जीवन समझता था, वह जा रहा है, सब छूट रहा है। हाथ—पैर शिथिल होने लगे, श्वास खोने लगी, आंखों ने देखना बंद कर दिया, कानों ने सुनना बंद कर दिया। ये सारी इंद्रियां, यह सारा शरीर तो किसी ऊर्जा के साथ संयुक्त होने के कारण जीवंत था। ऊर्जा वापस लौटने लगी है। देह तो मुर्दा है, वह फिर मुर्दा रह गई। घर का मालिक घर छोड़ने की तैयारी करने लगा, घर उदास हो गया, निर्जन हो गया। लगता है कि मरा मैं। मृत्यु के इस क्षण में पता चलता है कि जा रहा हूं? डूब रहा हूं? समाप्त हो रहा हूं।

और इस घबराहट के कारण कि मैं मर रहा हूं, इस चिंता और उदासी के कारण, इस पीड़ा, इस एंग्विश के कारण, यह एंग्झायटी कि मैं मर रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं यह इतनी ज्यादा चिंता पैदा कर देती है मन में कि वह उस मृत्यु के अनुभव को भी जानने से वंचित रह जाता है। जानने के लिए चाहिए शाति। हो जाता है इतना अशात कि मृत्यु को जान नहीं पाता।

बहुत बार हम मर चुके हैं, अनंत बार, लेकिन हम अभी तक मृत्यु को जान नहीं पाए। क्योंकि हर बार जब मरने की घड़ी आई है, तब फिर हम इतने व्याकुल और बेचैन और परेशान हो गए हैं कि उस बेचैनी और परेशानी में कैसा जानना, कैसा ज्ञान? हर बार मौत आकर गुजर गई है हमारे आस—पास से, लेकिन हम फिर भी अपरिचित रह गए हैं उससे।

नहीं, मरने के क्षण में नहीं जाना जा सकता है मौत को। लेकिन आयोजित मौत हो सकती है। आयोजित मौत को ही ध्यान कहते हैं, योग कहते हैं, समाधि कहते हैं। समाधि का एक ही अर्थ है कि जो घटना मृत्यु में अपने आप घटती है, समाधि में साधक चेष्टा और प्रयास से सारे जीवन की ऊर्जा को सिकोड़ कर भीतर ले जाता है, जानते हुए। निश्चित ही अशात होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह प्रयोग कर रहा है भीतर ले जाने का, चेतना को सिकोड़ने का। वह शात मन से चेतना को भीतर सिकोड़ता है। जो मौत करती है, उसे वह खुद करता है। और इस शांति में वह जान पाता है कि जीवन—ऊर्जा अलग बात है, शरीर अलग बात है। वह जो बल्‍ब, जिससे बिजली प्रगट हो रही है, अलग बात है, और वह जो बिजली प्रकट हो रही है वह अलग बात है। बिजली सिकुड़ जाती है, बल्‍ब निर्जीव होकर पड़ा रह जाता है।

शरीर बल्ब से ज्यादा नहीं है। जीवन वह विद्युत है, वह ऊर्जा है, वह इनर्जी, वह प्राण है, जो शरीर को जीवित किए हुए है, गर्म किए हुए है, उत्तप्त किये हुए है। समाधि में साधक मरता है स्वयं, और चूंकि वह स्वयं मृत्यु में प्रवेश करता है, वह जान लेता है इस सत्य को कि मैं हूं अलग, शरीर है अलग। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, तो मृत्यु समाप्त हो गई। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, तो जीवन का अनुभव शुरू हो गया। मृत्यु की समाप्ति और जीवन का अनुभव एक ही सीमा पर होते हैं, एक ही साथ होते हैं। जीवन को जाना कि मृत्यु गई, मृत्यु को जाना कि जीवन हुआ। अगर ठीक से समझें तो यह एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं। यह एक ही दिशा में इंगित करने वाले दो इशारे हैं।

धर्म को इसलिए मैं कहता हूं, धर्म है मृत्यु की कला। वह है आर्ट आफ डेथ। लेकिन आप कहेंगे, कई बार मैं कहता हूं धर्म है जीवन की कला, आर्ट आफ लिविंग। निश्चित ही दोनों बात मैं कहता हूं, क्योंकि जो मरना जान लेता है वही जीवन को जान पाता है। धर्म है जीवन और मृत्यु की कला। अगर जानना है कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है, तो आपको स्वेच्छा से शरीर से ऊर्जा को खींचने की कला सीखनी होगी, तभी आप जान सकते हैं, अन्यथा नहीं। और यह ऊर्जा खींची जा सकती है। इस ऊर्जा को खींचना कठिन नहीं है। इस ऊर्जा को खींचना सरल है। यह ऊर्जा संकल्प से ही फैलती है और संकल्प से ही वापस लौट आती है। यह ऊर्जा सिर्फ संकल्प का विस्तार है, विल फोर्स का विस्तार है।

संकल्प हम करें तीव्रता से, टोटल, समग्र, कि मैं वापस लौटता हूं अपने भीतर। सिर्फ आधा घंटा भी कोई इस बात का संकल्प करे कि मैं वापस लौटना चाहता हूं, मैं मरना चाहता हूं? मैं डूबना चाहता हूं अपने भीतर, मैं अपनी सारी ऊर्जा को सिकोड़ लेना चाहता हूं, तो थोड़े ही दिनों में वह इस अनुभव के करीब पहुंचने लगेगा कि ऊर्जा सिकुड़ने लगी है भीतर। शरीर छूट जाएगा बाहर पड़ा हुआ। एक तीन महीने का थोड़ा गहरा प्रयोग, और आप शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं। अपना ही शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं। सबसे पहले तो भीतर से दिखाई पड़ेगा कि मैं अलग खड़ा हूं भीतर—एक तेजस, एक ज्योति की तरह और सारा शरीर भीतर से दिखाई पड़ रहा है जैसा कि यह भवन है। और फिर थोड़ी और हिम्मत जुटाई जाए, तो वह जो जीवंत—ज्योति भीतर है, उसे बाहर भी लाया जा सकता है। और हम बाहर से देख सकते हैं कि शरीर अलग पड़ा है।

एक अदभुत अनुभव मुझे हुआ, वह मैं कहूं। अब तक उसे कभी कहा नहीं। अचानक खयाल आ गया कहता हूं। कोई सत्रह— अट्ठारह साल पहले बहुत रातों तक मैं एक वृक्ष के ऊपर बैठकर ध्यान करता था। ऐसा बार—बार अनुभव हुआ कि जमीन पर बैठकर ध्यान करने पर शरीर बहुत प्रबल होता है। शरीर बनता है पृथ्वी से और पृथ्वी पर बैठकर ध्यान करने से शरीर की शक्ति बहुत प्रबल होती है। वह जो ऊंचाइयों पर, हाइट्स पर, पहाड़ों पर, और हिमालय जाने वाले योगियों की चर्चा है, वह अकारण नहीं है, बहुत वैज्ञानिक है। जितनी पृथ्वी से दूरी बढती है शरीर की, उतना ही शरीरतत्व का प्रभाव भीतर कम होता चला जाता है। तो एक बड़े वृक्ष पर ऊपर बैठकर मैं ध्यान करता था रोज रात। एक दिन ध्यान में कब कितना लीन हो गया, मुझे पता नहीं और कब शरीर वृक्ष से गिर गया, वह मुझे पता नहीं। जब नीचे गिर पड़ा शरीर, तब मैंने चौंक कर देखा कि यह क्या हो गया। मैं तो वृक्ष पर ही था और शरीर नीचे गिर गया —कैसा हुआ अनुभव कहना बहुत मुश्किल है।

मैं तो वृक्ष पर ही बैठा था और शरीर नीचे गिरा था और मुझे दिखाई पड़ रहा था कि वह नीचे गिर गया है। सिर्फ एक रजत —रज्‍जु, एक सिलवर कार्ड नाभि से मुझ तक जुड़ी हुई थी। एक अत्यंत चमकदार शुभ्र रेखा। कुछ भी समझ के बाहर था कि अब क्या होगा रूम कैसे वापस लौटूंगा?

कितनी देर यह अवस्था रही होगी, यह पता नहीं, लेकिन अपूर्व अनुभव हुआ। शरीर के बाहर से पहली दफा देखा शरीर को और शरीर उसी दिन से समाप्त हो गया। मौत उसी दिन से खतम हो गई। क्योंकि एक और देह दिखाई पड़ी जो शरीर से भिन्न है। एक और सूक्ष्म शरीर का अनुभव हुआ। कितनी देर यह रहा, कहना मुश्किल है। सुबह होते —होते दो औरतें वहां से निकलीं दूध लेकर किसी गांव से, और उन्होंने आकर पड़ा हुआ शरीर देखा। वह मैं सब देख रहा हूं ऊपर से कि वे करीब आकर बैठ गई हैं। कोई मर गया! और उन्होंने सिर पर हाथ रखा और एक क्षण में जैसे तीव्र आकर्षण से मैं वापस अपने शरीर में आ गया और आख खुल गई।

तब एक दूसरा अनुभव भी हुआ। वह दूसरा अनुभव यह हुआ कि स्त्री पुरुष के शरीर में एक कीमिया और केमिकल चेंज पैदा कर सकती है और पुरुष स्त्री के शरीर में एक केमिकल चेंज पैदा कर सकता है। यह भी खयाल हुआ कि उस स्त्री का छूना और मेरा वापस लौट आना, यह कैसे हो गया। फिर तो बहुत अनुभव हुए इस बात के और तब मुझे समझ में आया कि हिंदुस्तान में जिन तांत्रिकों ने समाधि पर और मृत्यु पर सर्वाधिक प्रयोग किए थे, उन्होंने क्यों स्त्रियों को भी अपने साथ बांध लिया था। गहरी समाधि के प्रयोग में अगर शरीर के बाहर तेजस शरीर चला गया, सूक्ष्म शरीर चला गया, तो बिना स्त्री की सहायता के पुरुष के तेजस शरीर को वापस नहीं लौटाया जा सकता है। या स्त्री का तेजस शरीर अगर बाहर चला गया तो बिना पुरुष की सहायता के उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता। स्त्री और पुरुष के शरीर के मिलते ही एक विद्युत वृत्त, एक इलेक्ट्रिक सर्किल पूरा हो जाता है और वह जो बाहर निकल गई है चेतना, तीव्रता से भीतर वापस लौट आती है।

फिर तो छह महीने में कोई छह बार यह अनुभव हुआ निरंतर, और छह महीने में मुझे अनुभव हुआ कि मेरी उम्र कम से कम दस वर्ष कम हो गई। कम हो गई मतलब, अगर मैं सत्तर साल जीता तो साठ साल ही जी सकूंगा। छह महीने में अजीब— अजीब से अनुभव हुए। छाती के सारे बाल मेरे सफेद हो गए छह महीने के भीतर। मेरी समझ के बाहर हुआ कि यह क्या हो रहा है।

और तब यह भी खयाल में आया कि इस शरीर और उस शरीर के बीच के संबंध में व्याघात पड़ गया है, उन दोनों का जो तालमेल था वह टूट गया है। और तब मुझे यह भी समझ में आया कि शंकराचार्य का तैंतीस साल की उम्र में मर जाना या विवेकानंद का छत्तीस साल की उम्र में मर जाना कुछ और ही कारण रखता है। अगर इन दोनों का संबंध बहुत तीव्रता से टूट जाये, तो जीना मुश्किल है। और तब मुझे यह भी खयाल में आया कि रामकृष्ण परमहंस का बहुत बीमारियों से घिरे रहना और रमण का कैंसर से मर जाने का भी कारण शारीरिक नहीं है, उस बीच के तालमेल का टूट जाना ही कारण है।

लोग आमतौर से कहते हैं कि योगी बहुत स्वस्थ होते हैं, लेकिन सचाई बिलकुल उलटी है। सचाई आज तक यह है कि योगी हमेशा रुग्ण रहा है और कम उम्र में मरता रहा है। और उसका कुल कारण इतना है कि उन दोनों शरीरों के बीच जो एडजेस्टमेंट चाहिए, जो तालमेल चाहिए, उसमें विघ्न पड़ जाता है। जैसे ही एक बार वह शरीर बाहर हुआ, फिर ठीक से पूरी तरह कभी भी पूरी अवस्था में भीतर प्रवष्टि नहीं हो पाता है। लेकिन उसकी कोई जरूरत भी नहीं रह जाती, उसका कोई प्रयोजन भी नहीं रह जाता, उसका कोई अर्थ भी नहीं रह जाता।

संकल्प से भीतर खींची जा सकती है ऊर्जा। सिर्फ संकल्प से, सिर्फ यह धारणा, सिर्फ यह भावना कि मैं अंदर वापस लौट आऊं, वापस लौट आऊं, वापस लौट आऊं —इसकी तीव्र पुकार, इसका तीव्र आंदोलन, पूरे प्राण इससे भर जाएं कि मैं भीतर वापिस लौट आऊं—मैं केंद्र पर वापिस लौट आऊं, मैं वापस लौट आऊं, मैं वापस लौट आऊं। इसकी इतनी तीव्र पुकार कि यह सारे कण—कण में शरीर के गज जाए, श्वास—श्वास को पकड़ ले। और किसी भी दिन यह घटना घट जाती है कि एक झटके के साथ आप भीतर पहुंच जाते हैं और पहली दफा फ्राम विदिन शरीर को देखते हैं।

यह जो हजारों नाड़ियों की बात की है योग ने, वह फिजियोलॉजी को जानकर नहीं की है। शरीर—शास्त्र से उसका कोई संबंध नहीं है। वे नाडिया जानी गई हैं भीतर से। और इसलिए आज जब फिजियोलॉजी उन पर विचार करती है तो पाती है कि वे नाडिया कहां हैं? ये जो सात चक्र बताए हैं, ये कहां हैं? वे कहीं भी नहीं हैं शरीर में! शरीर में वे कहीं भी नहीं हैं, क्योंकि शरीर को हम बाहर से जांच रहे हैं, वे कही नहीं मिलेंगे। एक और जांच है, शरीर को भीतर से जानना, इनर —फिजियोलॉजी। वह बहुत सटल फिजियोलॉजी है, वह बहुत सूक्ष्म शरीर —शास्त्र है। वहां से जानने पर जो नाडिया जानी गई हैं और जो केंद्र जाने गए हैं, वे बिलकुल अलग हैं। इस शरीर में खोजने से वे कहीं भी नहीं मिलेंगे। वे केंद्र इस शरीर और उस भीतर की आत्मा के काटेक्ट फील्ड्स हैं, जहां ये दोनों मिलते हैं।

सबसे बड़ा काटेक्ट फील्ड, सबसे बड़ा संपर्क का स्थल नाभि है। इसलिए आपको खयाल होगा कि अगर आप कार चला रहे हों और एकदम से एक्सीडेंट होने लगे, तो सबसे पहले नाभि प्रभावित हो जाएगी। एकदम नाभि अस्तव्यस्त हो जाएगी, क्योंकि वहां सबसे ज्यादा गहरा उस आत्मा और इस शरीर के बीच संबंध का क्षेत्र है। वह सबसे पहले अस्तव्यस्त हो जाएगा मौत को देख कर। जैसे ही मौत सामने दिखाई पड़ेगी कि नाभि अस्तव्यस्त हो जाएगी सारे शरीर के केंद्र से। और —शरीर की एक आतरिक व्यवस्था है, जो उस अंतस शरीर और इस शरीर के बीच संपर्क से स्थापित हुई है। जिन चक्रों की बात है, वे उनके संपर्क —स्थल हैं। निश्चित ही एक बार भीतर से शरीर को जानना एक बिलकुल ही दूसरी दुनिया को जान लेना है, जिसका हमें कोई भी पता नहीं है। मेडिकल साइंस जिसके संबंध में एक शब्द भी नहीं जानती और नहीं जान सकेगी अभी।

एक बार यह अनुभव हो जाए कि मैं अलग और यह शरीर अलग, तो मौत खतम हो गई। मृत्यु नहीं है फिर। और फिर तो शरीर के बाहर आकर खड़े होकर देखा जा सकता है। यह कोई फिलासफिक विचार नहीं है, यह कोई दार्शनिक तात्विक चिंतन नहीं है कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है। जो लोग इस पर विचार करते हैं, वे दो कौड़ी का भी फल कभी नहीं निकाल पाते। यह तो है एक्सिस्टेंशियल एप्रोच, यह तो है अस्तित्ववादी खोज। जाना जा सकता है कि मैं जीवन हू र जाना जा सकता है कि मृत्यु मेरी नहीं है। इसे जीया जा सकता है, इसके भीतर प्रविष्ट हुआ जा सकता है।

लेकिन जो लोग केवल सोचते हैं कि हम विचार करेंगे कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है, वे लाख विचार करें, जन्म—जन्म विचार करें, उन्हें कुछ भी पता नहीं चल सकता है। क्योंकि हम विचार करके विचार करेंगे क्या? केवल उसके संबंध में विचार किया जा सकता है जिसे हम जानते हों। जो नोन है, जो शात है, उसके बाबत विचार हो सकता है। जो अननोन है, जो अज्ञात है, उसके बाबत कोई विचार नहीं हो सकता। आप वही सोच सकते हैं, जो आप जानते हैं।

कभी आपने खयाल किया कि आप उसे नहीं सोच सकते हैं, जिसे आप नहीं जानते। उसे सोचेंगे कैसे? हाउ टु कन्सीव इट? उसकी कल्पना ही कैसे हो सकती है? उसकी धारणा ही कैसे हो सकती है जिसे हम जानते ही नहीं हैं? जीवन हम जानते नहीं, मृत्यु हम जानते नहीं। सोचेंगे हम क्या? इसलिए दुनिया में मृत्यु और जीवन पर दार्शनिकों ने जो कहा है, उसका दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है। फिलासफी की किताबों में जो भी लिखा है मृत्यु और जीवन के संबंध में, उसका कौड़ी भर मूल्य नहीं है। क्योंकि वे लोग सोच —सोच कर लिख रहे हैं। सोच कर लिखने का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ योग ने जो कहा है जीवन और मृत्यु के संबंध में, उसके अतिरिक्त आज तक सिर्फ शब्दों का खेल हुआ है। क्योंकि योग जो कह रहा है वह एक एक्सिस्टेंशियल, एक लिविंग, एक जीवंत अनुभव की बात है।

आत्मा अमर है, यह कोई सिद्धांत, कोई थ्योरी, कोई आइडियोलाजी नहीं है। यह कुछ लोगों का अनुभव है। और अनुभव की तरफ जाना हो तो ही. अनुभव हल कर सकता है इस समस्या को कि क्या है जीवन, क्या है मौत। और जैसे ही यह अनुभव होगा, शात होगा कि जीवन है, मौत नहीं है। जीवन ही है, मृत्यु है ही नहीं।

फिर हम कहेंगे, लेकिन यह मृत्यु तो घट जाती है। उसका कुल मतलब इतना है कि जिस घर में हम निवास करते थे, उस घर को छोड्कर दूसरे घर की यात्रा शुरू हो जाती है। जिस घर में हम रह रहे थे, उस घर से हम दूसरे घर की तरफ यात्रा करते हैं। घर की सीमा है, घर की सामर्थ्य है। घर एक यंत्र है, यंत्र थक जाता है, जीर्ण हो जाता है, और हमें पार हो जाना होता है।

अगर विज्ञान ने व्यवस्था कर ली, तो आदमी के शरीर को सौ, दो सौ, तीन सौ वर्ष भी जिलाया जा सकता है। लेकिन उससे यह सिद्ध नहीं होगा कि आत्मा नहीं है। उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि आत्मा को कल तक घर बदलने पड़ते थे, अब विज्ञान ने पुराने ही घर को फिर से ठीक कर देने की व्यवस्था कर दी है। उससे यह सिद्ध नहीं होगा, इस भूल में कोई वैज्ञानिक न रहे कि हम आदमी की उम्र अगर पांच सौ वर्ष कर लेंगे, हजार वर्ष कर लेंगे, तो हमने सिद्ध कर दिया कि आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं है। नहीं, इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मैकेनिजम शरीर का जो था, उसे आत्मा को इसीलिए बदलना पड़ता था कि वह जराजीर्ण हो गया था। अगर उसको रिप्लेस किया जा सकता है, हृदय बदला जा सकता है, आख बदली जा सकती है, हाथ—पैर बदले जा सकते हैं, तो आत्मा को शरीर बदलने की कोई जरूरत न रही। पुराने घर से ही काम चल जाएगा। रिपेयरमेंट हो गया। उससे कोई आत्मा नहीं है, यह दूर से भी सिद्ध नहीं होता।

और यह भी हो सकता है कि कल विज्ञान टेस्ट — टयूब में जन्म दे सके, जीवन को पैदा कर सके। और तब शायद वैज्ञानिक इस भ्रम में पडूगा कि हमने जीवन को जन्म दे लिया, वह भी गलत है। यह भी मैं कह देना चाहता हूं कि उससे भी कुछ सिद्ध नहीं होता।

मां और बाप मिलकर क्या करते हैं? एक पुरुष और एक स्त्री मिलकर क्या करते हैं स्त्री के पेट में? आत्मा को जन्म नहीं देते। दे जस्ट क्रियेट ए सिचुएशन, वे सिर्फ एक अवसर पैदा करते हैं जिसमें आत्मा प्रविष्ट हो सकती है। मां का और पिता का अणु मिलकर एक अपरचुनिटी, एक अवसर, एक सिचुएशन पैदा करते हैं जिसमें आत्मा प्रवेश पा सकती है। कल यह हो सकता है कि हम टेस्ट —टयूब में यह सिचुएशन पैदा कर दें। इससे कोई आत्मा पैदा नहीं हो रही है। मां का पेट भी तो एक टेस्ट—टयूब है, एक यांत्रिक व्यवस्था, वह प्राकृतिक है। कल विज्ञान यह कर सकता है कि प्रयोगशाला में जिन—जिन रासायनिक तत्वों से पुरुष का वीर्याणु बनता है और स्त्री का अणु बनता है, उन —उन रासायनिक तत्वों की पूरी खोज और प्रोटोप्लाज्म की पूरी जानकारी से यह हो सकता है कि हम टेस्ट —टयूब में रासायनिक व्यवस्था कर लें। तब जो आत्माएं कल तक मां के पेट में प्रविष्ट होती थीं, वे टेस्ट—टयूब में प्रविष्ट हो जाएंगी। लेकिन आत्मा पैदा नहीं हो रही है, आत्मा अब भी आ रही है। जन्म की घटना दोहरी घटना है —शरीर की तैयारी और आत्मा का आगमन, आत्मा का उतरना।

आत्मा के संबंध में आने वाले दिन बहुत खतरनाक और अंधकारपूर्ण होने वाले हैं, क्योंकि विज्ञान की प्रत्येक घोषणा आदमी को यह विश्वास दिला देगी कि आत्मा नहीं है। इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी के भीतर जाने का जो संकल्प था, वह क्षीण होगा। अगर आदमी को यह समझ में आने लगे कि ठीक है, उम्र बढ़ गई, बच्चे टेस्ट—टयूब में पैदा होने लगे, अब कहां है आत्मा? इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी का जो प्रयास चलता था अंतस की खोज का, वह बंद हो जाएगा। और यह बहुत दुर्भाग्य की घटना घटने वाली है, जो आने वाले पचास वर्षों में घटेगी। इधर पिछले पचास वर्षों में उसकी भूमिका तैयार हो गई है।

दुनिया में आज तक पृथ्वी पर दीन लोग रहे हैं, दरिद्र लोग रहे हैं, दुखी लोग रहे हैं, बीमार लोग रहे हैं, उनकी उम्र कम थी, उनके पास भोजन न था अच्छा, कपड़े न थे अच्छे। लेकिन आत्मा की दृष्टि से दरिद्र लोगों की संख्या जितनी आज है, उतनी कभी भी नहीं थी। और उसका कुल एक ही कारण है कि भीतर कुछ है ही नहीं, तो भीतर जाने का सवाल क्या है। एक बार अगर मनुष्य—जाति को यह विश्वास आ गया कि भीतर कुछ है ही नहीं, तो वहां जाने का सवाल खतम हो जाता है।

आने वाला भविष्य अत्यंत अंधकारपूर्ण और खतरनाक हो सकता है। इसलिए हर कोने से इस संबंध में प्रयोग चलते रहने चाहिए कि ऐसे कुछ लोग खड़े होकर घोषणा करते रहें —सिर्फ शब्दों की और सिद्धातों की नहीं, गीता, कुरान और बाइबिल की पुनरुक्ति की नहीं, बल्कि घोषणा कर सकें जीवत—कि मैं जानता हूं कि मैं शरीर नहीं हूं। और न केवल यह घोषणा शब्दों की हो, यह ड़नके सारे जीवन से प्रकट होती रहे, तो शायद हम मनुष्य को बचाने में सफल हो सकते हैं। अन्यथा विज्ञान की सारी की सारी विकसित अवस्था मनुष्य को भी एक यंत्र में परिणत कर देगी। और जिस दिन मनुष्य—जाति को यह खयाल आ जाएगा कि भीतर कुछ भी नहीं है, उस दिन से शायद भीतर के सारे द्वार बंद हो जाएंगे। और उसके बाद क्या होगा, कहना कठिन है।

आज तक भी अधिक लोगों के भीतर के द्वार बंद रहे हैं, लेकिन कभी —कभी कोई एक साहसी व्यक्ति भीतर की दीवालें तोड़ कर घुस जाता है। कभी कोई एक महावीर, कभी कोई एक बुद्ध, कभी कोई एक क्राइस्ट, कभी कोई एक लाओत्से तोड़ देता है दीवाल और भीतर घुस जाता है। उसकी संभावना भी रोज—रोज कम होती जा रही है। हो सकता है, सौ दौ सौ वर्षों के बाद, जैसा मैंने आपसे कहा कि मैं कहता हूं, जीवन है, मृत्यु नहीं है, सौ दो सौ वर्षों बाद मनुष्य कहे कि मृत्यु है, जीवन नहीं है। इसकी तैयारी तो पूरी हो गई है। इसको कहने वाले लोग तो खड़े हो गये हैं। आखिर मार्क्स क्या कह रहा है! मार्क्स यह कह रहा है कि मैटर है, माइंड नहीं है। मार्क्स यह कह रहा है कि पदार्थ है, परमात्मा नहीं है। और जो तुम्हें परमात्मा मालूम होता है वह भी बाई —प्रोडक्ट है मैटर का। वह भी पदार्थ की ही उत्पत्ति है, वह भी पदार्थ से ही पैदा हुआ है। मार्क्स यह कह रहा है कि जीवन नहीं है, मृत्यु है। क्योंकि अगर आत्मा नहीं है और पदार्थ ही है तो फिर जीवन नहीं है, मृत्यु ही है।

मार्क्स की इस बात का प्रभाव बढ़ता चला गया है, यह शायद आपको पता नहीं होगा। दुनिया में ऐसे लोग रहे हैं हमेशा, जिन्होंने आत्मा को इनकार किया है, लेकिन आत्मा को इनकार करने वालों का धर्म आज तक दुनिया में पैदा नहीं हुआ था। मार्क्स ने पहली दफा आत्मा को इनकार करने वाले लोगों का धर्म पैदा कर दिया है। नास्तिकों का अब तक कोई आर्गनाइजेशन नहीं था। चार्वाक थे, बृहस्पति थे, एपीकुरस था। दुनिया में अदभुत लोग हुए जिन्होंने यह कहा कि नहीं है आत्मा, लेकिन उनका कोई आर्गनाइजेशन, उनका कोई चर्च, उनका कोई संगठन नहीं था। मार्क्स दुनिया में पहला नास्तिक है जिसके पास आर्गनाइजड चर्च है और आधी दुनिया उसके चर्च के भीतर खड़ी हो गई है। और आने वाले पचास वर्षों में बाकी आधी दुनिया भी खडी हो जाएगी।

आत्मा तो है, लेकिन उसको जानने और पहचानने के सारे द्वार बंद होते जा रहे हैं। जीवन तो है, लेकिन उस जीवन से संबंधित होने की सारी संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं। इसके पहले कि सारे द्वार बंद हो जाएं, जिनमें थोड़ी भी सामर्थ्य और साहस है, उन्हें अपने ऊपर प्रयोग करना चाहिए और चेष्टा करनी चाहिए भीतर जाने की, ताकि वे अनुभव कर सकें। और अगर दुनिया में सौ दो सौ लोग भी भीतर की ज्योति को अनुभव करते हों, तो कोई खतरा नहीं है। करोडों लोगों के भीतर का अंधकार भी थोड़े से लोगों की जीवन—ज्योति से दूर हो सकता है और टूट सकता है। एक छोटा—सा दीया और न मालूम कितने अंधकार को तोड देता है।

अगर एक गांव में एक आदमी भी है, जो जानता है कि आत्मा अमर है, तो उस गांव का पूरा वातावरण, उस गांव की पूरी की पूरी हवा, उस गांव की पूरी की पूरी जिंदगी बदल जाएगी। एक छोटा —सा फूल खिलता है और दूर —दूर के रास्तों पर उसकी सुगंध फैल जाती है। एक आदमी भी अगर इस बात को जानता है कि आत्मा अमर है, तो उस एक आदमी का एक गांव में होना पूरे गांव की आत्मा की शुद्धि का कारण बन सकता है।

लेकिन हमारे मुल्क में तो कितने साधु हैं और कितने चिल्लाने और शोरगुल मचानेवाले लोग हैं कि आत्मा अमर है। और उनकी इतनी लंबी कतार, इतनी भीड़ और मुल्क का यह नैतिक चरित्र और मुल्क का यह पतन! यह साबित करता है कि यह सब धोखेबाज धंधा है। यहां कहीं कोई आत्मा —वात्मा को जानने वाला नहीं है। यह इतनी भीड़, इतनी कतार, इतनी मिलिटरी, यह इतना बड़ा सर्कस साधुओं का सारे मुल्क में —कोई मुंह पर पट्टी बांधे हुए एक तरह का सर्कस कर रहे हैं, कोई डंडा लिये हुए दूसरे तरह का सर्कस कर रहे हैं, कोई तीसरे तरह का सर्कस कर रहे हैं —यह इतनी बड़ी भीड़ आत्मा को जानने वाले लोगों की हो और मुल्क का जीवन इतना नीचे गिरता चला जाए, यह असंभव है।

और मैं आपको कहना चाहता हूं कि जो लोग कहते हैं कि आम आदमी ने दुनिया का चरित्र बिगाड़ा है, वे गलत कहते हैं। आम आदमी हमेशा ऐसा रहा है। दुनिया का चरित्र ऊंचा था, कुछ थोड़े से लोगों के आत्म— अनुभव की वजह से। आम आदमी हमेशा ऐसा था। आम आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ गया है। आम आदमी के बीच कुछ लोग थे जीवंत, जो समाज और उसकी चेतना को सदा ऊपर उठाते रहे, सदा ऊपर खींचते रहे। उनकी मौजूदगी, उनकी प्रजेंस, कैटेलेटिक एजेंट का काम करती रही है और आदमी के जीवन को ऊपर खींचती रही है। और अगर आज दुनिया में आदमी का चरित्र इतना नीचा है, तो जिम्मेवार हैं साधु, जिम्मेवार हैं महात्मा, जिम्मेवार हैं धर्म की बातें करने वाले झूठे लोग। आम आदमी जिम्मेवार नहीं है। उसकी कभी कोई रिस्पासबिलिटी नहीं है। पहले भी नहीं थी, आज भी नहीं है।

अगर दुनिया को बदलना हो, तो इस बकवास को छोड़ दें कि हम एक —एक आदमी का चरित्र सुधारेंगे, कि हम एक —एक आदमी को नैतिक शिक्षा का पाठ देंगे। अगर दुनिया को बदलना चाहते हैं, तो कुछ थोड़े से लोगों को अत्यंत इंटेंस इनर एक्सपेरिमेंट में से गुजरना पड़ेगा। जो लोग बहुत भीतरी प्रयोग से गुजरने को राजी हैं। ज्यादा नहीं, सिर्फ एक मुल्क में सौ लोग आत्मा को जानने की स्थिति में पहुंच जाएं तो पूरे मुल्क का जीवन अपने आप ऊपर उठ जायेगा। सौ दीये जीवित और सारा मुल्क ऊपर उठ सकता है।

तो मैं तो राजी हो गया था इस बात पर बोलने के लिए सिर्फ इसलिए कि हो सकता है कि कोई हिम्मत का आदमी आ जाए, तो उसको मैं निमंत्रण दूंगा कि मेरी तैयारी है भीतर ले चलने की, तुम्हारी तैयारी हो तो आ जाओ। तो वहां बताया जा सकता है कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत —बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–180

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दैवी संपदा का अर्जन—(प्रवचन—पहला)

अध्‍याय—16

सूत्र—

(श्रीमद्भगवद्गीता)

 श्रीभगवानवाच:

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।

दानं दमश्च यज्ञश्‍च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।। 1।।

उसके उपरांत श्रीकृष्‍ण भगवान फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरूषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक—पृथक कहता हूं। दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरूष के लक्षण हैं :

अभय, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से शुद्धी, ज्ञान— योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय तथा तय एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।

नुष्य एक दुविधा है, एक द्वैत। मनुष्य के पास इकहरा व्यक्तित्व नहीं है, जो भी है, बंटा हुआ और द्वंद्व में है। जैसे प्रकाश और अंधेरा साथ—साथ मनुष्य में जुड़े हों। पशु और परमात्मा मनुष्य में साथ—साथ मौजूद हैं। मनुष्य जैसे एक सीढ़ी है, एक छोर नरक में और दूसरा छोर स्वर्ग में है; और यात्रा दोनों ओर हो सकती है। और प्रत्येक के हाथ में है कि यात्रा कहां होगी, कैसे होगी, क्या अंतिम परिणाम होगा।

यात्रा के रुख को किसी भी क्षण बदला भी जा सकता है, क्योंकि सिर्फ रुख बदलने की बात है, दिशा बदलने की बात है। नरक जाने में जो शक्ति लगती है, वही शक्ति स्वर्ग जाने के लिए कारण बन जाती है। बुरे होने में जितना श्रम उठाना पड़ता है, उतने ही श्रम से भलाई भी फलित हो जाती है। शैतान होना जितना आसान या कठिन, उतना ही संत होना भी आसान या कठिन है।

और एक बात ठीक से समझ लें, एक ही ऊर्जा दोनों दिशाओं में यात्रा करती है। ऐसा मत सोचें कि बुरा आदमी तपश्चर्या नहीं करता। बुरे आदमी की भी तपश्चर्या है, उसकी भी बड़ी साधना है; उसे भी बड़ा श्रम उठाना पड़ता है। शायद भले आदमी की साधना से उसकी साधना ज्यादा दुस्तर है, क्योंकि मार्ग में दोनों को कष्ट मिलते हैं। भले आदमी को अंत में आनंद भी मिलता है, जो बुरे आदमी को अंत में नहीं मिलता। मार्ग दोनों बराबर चलते हैं; भला कहीं पहुंचता है, बुरा कहीं पहुंच भी नहीं पाता।

एक अर्थ में बुरे आदमी की साधना और भी कठिन है। जितनी बड़ी बुराई हो, उतना ही ज्यादा दुख है।

ऊर्जा एक, यात्रा की लंबाई एक, समय और जीवन का व्यय एक जैसा; फिर अंतर क्या है? अंतर केवल दिशा का है। इस जगह तक आने के लिए भी आप उसी रास्ते को चुनकर आए हैं, लौटते समय भी उसी रास्ते से लौटेंगे। उतना ही फासला होगा, सिर्फ आपकी दिशा बदली होगी। यहां आते समय मुंह मेरी तरफ था, जाते समय पीठ मेरी तरफ होगी। बस, इतना ही फर्क होगा। यात्रा वही की वही है।

जिसे हम शुभ कहते हैं, वह परमात्मा की तरफ मुंह करके चलने वाली यात्रा है। जिसे हम अशुभ कहते हैं, वह परमात्मा की तरफ पीठ करके चलने वाली यात्रा है। वे ही पैर चलते हैं, वे ही प्राण चलते हैं; जरा भी यात्रा में भेद नहीं है।

और यात्रा के ये जो दो पथ हैं, ये अगर आपके बाहर होते, तो बहुत आसानी हो जाती। ये दोनों पथ आपके भीतर हैं। चलने वाले भी आप हैं, जिस रास्ते से चलेंगे, वह भी आप हैं, और जिस मंजिल पर पहुंचेंगे, वह भी आप हैं।

आपके भीतर मूर्ति को बनाने वाला, मूर्ति बनने वाला पत्थर, मूर्ति को निखारने वाली छेनी, सभी कुछ आप हैं। इसलिए दायित्व भी बहुत गहन है। और दोष किसी और को दिया नहीं जा सकता। जो भी फल होगा, सिवाय आपके अकेले के कोई और उसके लिए जिम्मेवार नहीं है।

इसके पहले कि हम कृष्ण के सूत्र में प्रवेश करें, दो—तीन बातें खयाल में ले लें।

पहली बात, जिन नरकों की चर्चा है शास्त्रों में, जिन स्वर्गों का उल्लेख है, वे दो भौगोलिक स्थितियां नहीं हैं, मानसिक दशाएं हैं। नरक भी प्रतीक है, स्वर्ग भी प्रतीक है।

शास्त्रों में भगवान और शैतान की जो चर्चा है, वे केवल आपके ही दो छोर हैं। न तो शैतान कहीं खोजने से मिलेगा और न भगवान कहीं खोजने से मिलेगा। भगवान आपसे अलग होता, तो खोजने से मिल सकता था। शैतान भी अलग होता, तो खोजने से मिल जाता। वे दोनों ही आपकी संभावनाएं हैं। चाहें तो शैतान हो सकते हैं, कोई भी रुकावट नहीं है; और चाहें तो भगवान हो सकते हैं, कोई भी रुकावट नहीं है। और जिस दिन आप शैतान हो जाएंगे, तो कोई शैतान आपको नहीं मिलेगा, आप ही अपने को मिलेंगे।

जिस दिन आप भगवान हो जाएंगे, तो भी कोई साक्षात्कार नहीं समग्रता से ही डूबना जरूरीहै। जब तक कोई ऐसा न घुल जाए कि गए होंगे।

शैतान और भगवान आपकी संभावनाएं हैं। और जो बुरे से बुरा आदमी है, उसके भीतर परमात्मा की संभावना उतनी ही सतेज है, जितनी भले से भले आदमी के भीतर शैतान होने की संभावना है। परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है। विपरीत भी सही है, परम असाधु के लिए क्षणभर में क्रांति घटित हो सकती है। क्योंकि दोनों बातें दूर नहीं हैं, हमारे भीतर मौजूद हैं।

जैसे हमारे दो हाथ हैं और जैसे हमारी दो आंखें हैं, ऐसे ही हमारे दो यात्रा—पथ हैं। और उन दोनों के बीच हम हैं, हमारा फैलाव है। दूसरी बात, शास्त्र को समझते समय ध्यान रखना जरूरी है कि शास्त्र कोई विज्ञान नहीं है, शास्त्र तो काव्य है। वहां गणित नहीं है, वहा प्रतीक हैं, उपमाएं हैं। और अगर आप गणित की तरह शास्त्र को पकड़ लेंगे, तो आति होगी, भटकेंगे। काव्य की तरह समझने की कोशिश करें।

इसलिए इस ग्रंथ को श्रीमद्भगवद्गीता कहा है। यह एक गीत है भगवान का, यह एक काव्य है। टीकाकारों ने उसे विज्ञान समझकर टीकाएं की हैं।

कविता और विज्ञान में कुछ बुनियादी फर्क है। विज्ञान में तथ्यों की चर्चा होती है, शब्द बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते; शब्द के पीछे तथ्य महत्वपूर्ण होता है। काव्य में तथ्यों की चर्चा नहीं होती; काव्य में अनुभूतियों की चर्चा होती है। अनुभूतियां हाथ में पकड़ी नहीं जा सकतीं, तराजू पर तौली नहीं जा सकतीं, कसौटी पर कसी नहीं जा सकतीं।

विज्ञान के तथ्य तो प्रयोगशाला में पकड़े जा सकते हैं। कोई कहे, आग जलाती है, तो हाथ डालकर देखा जा सकता है। लेकिन प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है; क्या करें? इस तथ्य को कैसे पकड़े? प्रार्थना को हाथ में पकड़ने का उपाय नहीं, जांचने का उपाय नहीं, कोई कसौटी नहीं।

लेकिन प्रार्थना है। प्रार्थना काव्य का सत्य है, अनुभूति का सत्य है। अनुभूति के सत्य के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

एक, जब तक आपको अनुभव न हो, तब तक बात हवा में रहेगी; तब तक कोई लाख सिर पटके और समझाए, आपकी समझ में आएगी नहीं। स्वाद मिले, तो ही कुछ बने; और स्वाद अकेली बुद्धि की बात नहीं है। स्वाद के लिए तो हृदय से, वरन अपनी प्रार्थना न हो जाएं, तब तक प्रार्थना समझ में न आएगी।

प्रार्थना कोई कृत्य नहीं है कि आपने कर लिया और मुक्त हुए। प्रार्थना तो एक जीवन की शैली है। एक बार जो प्रार्थना में गया, वह गया; फिर लौटने का कोई मार्ग नहीं है। और गहरे तो जाना हो सकता है, लौटने की कोई सुविधा नहीं है।

और जिस दिन प्रार्थना पूरी होगी, जिस दिन भक्ति परिपूर्ण होगी, उस दिन आप भक्त नहीं होंगे, आप भक्ति होंगे। उस दिन आप प्रार्थी नहीं होंगे, आप प्रार्थना ही होंगे। उस दिन आप ध्यानी नहीं होंगे, आप ध्यान हो गए होंगे। उस दिन आपको योगी कहने का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि योग कोई किया नहीं है, आप योग हो गए होंगे। योग एक अनुभव है। और अनुभव ऐसा, जहां अनुभोक्ता खो जाता है और एक हो जाता है।

गीता काव्य है। इसलिए एक—एक शब्द को, जैसे काव्य को हम समझते हैं वैसे समझना होगा। कठोरता से नहीं, काट—पीट से नहीं, बड़ी श्रद्धा और बड़ी सहानुभूति से। एक दुश्मन की तरह नहीं, एक प्रेमी की तरह। तो ही रहस्य खुलेगा और तो ही आप उस रहस्य के साथ आत्मसात हो पाएंगे।

जो भी कहा है, वे केवल प्रतीक हैं। उन प्रतीकों के पीछे बड़े लंबे अनुभव का रहस्य है। प्रतीक को आप याद कर ले सकते हैं, गीता कंठस्थ हो सकती है। पर जो कंठ में है, उसका कोई भी मूल्य नहीं। क्योंकि कंठ शरीर का ही हिस्सा है। जब तक आत्मस्थ न हो जाए। जब तक ऐसा न हो जाए कि आप गीता के अध्येता न रह जाएं, गीता कृष्ण का वचन न रहे, बल्कि आपका वचन हो जाए। जब तक आपको ऐसा न लगने लगे कि कृष्ण मैं हो गया हूं और जो बोला जा रहा है, वह मेरी अंतर—अनुभूति की ध्वनि है; वह मैं ही हूं वह मेरा ही फैलाव है। तब तक गीता पराई रहेगी, तब तक दूरी रहेगी, द्वैत बना रहेगा। और जो भी समझ होगी गीता की, वह बौद्धिक होगी। उससे आप पंडित तो हो सकते हैं, लेकिन प्रज्ञावान नहीं। अब इस सूत्र को समझने की कोशिश करें।

उसके उपरात श्रीकृष्ण फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक—पृथक कहता हूं।

दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं : अभय, अंतःकरण की अच्छे प्रकार से शुद्धि, ज्ञान—योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और दान तथा इंद्रियों का दमन, यश, स्वाध्याय तथा तप एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।

कृष्ण दो संपदाओं की बात करते हैं, दो तरह के धन मनुष्य के पास हैं। धन का, संपदा का अर्थ होता है, शक्ति। धन का अर्थ होता है, जिसे हम उपयोग में ला सकें, जिससे हम कुछ खरीद सकें, जिससे हम कुछ पा सकें। धन का अर्थ है, विनिमय. का माध्यम, मीडियम आफ एक्सचेंज।

आपके खीसे में एक नोट पडा है। नोट एक प्रतीक है। नोट को न तो आप खा सकते हैं, न पी सकते हैं। लेकिन नोट से विनिमय हो सकता है। नोट से खाने की चीज खरीदी जा सकती है, पीने की चीज खरीदी जा सकती है। नोट भोजन बन सकता है, नोट जहर बन सकता है। नोट से कुछ खरीदा जा सकता है। नोट एक शक्ति है विनिमय की।

कृष्ण कहते हैं, मनुष्य के पास दो तरह की संपदाएं हैं, विनिमय के दो माध्यम हैं। एक से आदमी खरीद सकता है और शैतान हो सकता है। और एक से आदमी खरीद सकता है और परमात्मा हो सकता है।

और जब तक उन दोनों संपदाओं को हम ठीक से न समझ लें, तब तक बड़ी आति रहेगी। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है, जिस संपदा से केवल शैतान खरीदा जा सकता है, उससे हम परमात्मा को खरीदने निकल पड़ते हैं। तब हम धोखा खाएंगे। तब जो भी हम खरीदकर लाएंगे, वह शैतान ही होगा।

जैसे, जिस धन से हम संसार में सब कुछ खरीदते—बेचते हैं, उसी धन से हम धर्म को भी खरीदने चल पड़ते हैं। तो कोई सोचता है, एक बड़ा मंदिर बनाए, धर्मशाला बनाए, दान कर दे, तो धर्म उपलब्ध हो जाएगा।

लेकिन संसार जिससे खरीदा जाता है, उससे अध्यात्म के खरीदने का कोई उपाय नहीं। उनके मार्ग ही अलग हैं, बाजार अलग हैं। जो धन संसार में चलता है, वह धन अध्यात्म में नहीं चलता; उस जगत से उसका कोई संबंध नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, दो संपदाएं हैं। एक को वे कहते हैं, आसुरी संपदा; और एक को वे कहते हैं, दैवी संपदा। दैवी संपदा से अर्थ है, जिससे दिव्यता खरीदी जा सके।

तो ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि मैं जिस संपदा का उपयोग कर रहा हूं र उससे दिव्यता खरीदी भी जा सकती है? नहीं तो मैं श्रम भी करूंगा, भटकूंगा भी, समय भी व्यय होगा और कहीं पहुंचूंगा भी नहीं।

इन दोनों का विभाजन बहुत जरूरी है। बहुत बार आप आसुरी संपदा से दिव्यता को खरीदने निकलते हैं। और न केवल आपको भांति हो सकती है, आपको देखने वालों तक को भ्रांति हो सकती है।

इधर मेरा अनुभव है कि अगर कोई क्रोधी व्यक्ति है, तो उसके क्रोध का उपयोग बडी शीघ्रता से साधना में किया जा सकता है। क्रोधी व्यक्ति जल्दी से साधक हो जाता है। क्योंकि क्रोध का लक्षण है, नष्ट करना, तोडना, कब्जा करना, मालकियत जमाना। क्रोध दूसरे पर निकलता है, अपने पर भी निकल सकता है; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप दूसरे का सिर तोड़ सकते हैं, अपना सिर भी दीवार में मार सकते हैं। क्रोधी व्यक्ति खुद को सताने में लग जाता है। उसे वह साधना समझता है।

तो कांटो पर सोए हुए लोग हैं, धूप में खड़े हुए लोग हैं; उपवास करके भूख से मरते हुए लोग हैं। और आपको भी लगेगा कि बड़ी तपश्चर्या हो रही है। तपश्चर्या निश्चित हो रही है, लेकिन जानना जरूरी है कि तपश्चर्या के पीछे संपदा कौन—सी है? नहीं तो हम जानते हैं दुर्वासा और उस तरह के ऋषियों को। उनकी तपश्चर्या बड़ी थी, फिर भी तपश्चर्या की मौलिक संपदा आसुरी रही होगी। तप के पीछे जो अग्नि है, वह आसुरी रही होगी। इसलिए तप अभिशाप बन गया, तप हिंसा बन गया।

अक्सर दिखाई पड़ेगा तपस्वी की आंखों में एक तरह का अहंकार। तपस्वी में एक तरह की अकड़, न झुकने का भाव, स्वयं को कुछ समझने की वृत्ति। तप तो विनम्र करेगा, तप तो मिटा देगा, तप तो सारी अकड़ को जला देगा। लेकिन दिखाई पड़ता है कि तपस्वी की अकड़ बढ़ती है, तो निश्चित ही संपदा आसुरी उपयोग की जा रही है।

एक आदमी धन इकट्ठा करता है, तो पागल की तरह इकट्ठा करता है, जैसे जीवन बस धन इकट्ठा करने को है। फिर यह भी हो सकता है कि धन के इस लोभी को किसी दिन त्याग का खयाल आ जाए। त्याग के खयाल का एक ही अर्थ होगा कि इसको त्याग का लोभ पकड़ जाए। यह कहीं शास्त्र में पढ़ ले, किसी गुरु से सुन ले कि जब तक धन न छोड़ेगा तब तक स्वर्ग न मिलेगा। तो यह सौदा कर सकता है, यह धन छोड़ सकता है। लेकिन छोड़ेगा लोभ के कारण ही।

तो यह सारे धन को लात मारकर सडक पर नग्न भिखारी की तरह खडा हो जाए, लेकिन अगर धन इसने लोभ के लिए छोड़ा है, स्वर्ग पाने को छोड़ा है, तो जिस संपदा का यह उपयोग कर रहा है, वह आसुरी है। आसुरी संपदा से स्वर्ग का कोई संबंध नहीं है। इसे ठीक से समझ लें। क्योंकि आपकी अच्छी से अच्छी चर्या के पीछे भी आसुरी संपदा हो सकती है, तो सब विकृत हो जाएगा। तो आप महल तो बनाएंगे, लेकिन रेत पर उसकी नींव होगी। और वह महल गिरेगा और आपको भी गिराएगा और डुबाएगा।

मेरा निरंतर अनुभव है कि गलत तरह का आदमी बड़ी शीघ्रता से अच्छे काम करने में लग सकता है। जो पागलपन गलत के करने में था, वही अच्छे में लग सकता है। लेकिन उसकी मौलिक संपदा नहीं बदलती। उसका क्रोध, उसका लोभ, उसका मान नहीं बदलता, नया नियोजन हो जाता है। मौलिक स्वर पुराना ही रहता है।

इसलिए इसके पहले कि साधक यात्रा पर निकले, उसे ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि क्या आसुरी है, क्या दैवी है। स्पष्ट विभाजन भीतर साफ हो, तो यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है। क्योंकि गलत साधन से ठीक साध्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। अकेली आपकी मरजी काफी नहीं है, आकाक्षा काफी नहीं है, प्रार्थना काफी नहीं है, ठीक साधन ही ठीक साध्य तक पहुंचाएगा। और ठीक साधन का अर्थ है, दैवी संपदा का उपयोग।

दोनों संपदाएं प्रत्येक के पास हैं। उन्हें कमाना नहीं पड़ता, उन्हें हम लेकर ही पैदा होते हैं। जन्म के साथ ही हम दोनों संपदाएं लेकर पैदा होते हैं। और प्रत्येक व्यक्ति बराबर लेकर पैदा होता है। उस अर्थ में बिलकुल साम्यवाद है, उस अर्थ में जरा भी भेद नहीं है। गरीब से गरीब, अमीर से अमीर, बुद्धिमान या मूढ़, बराबर लेकर पैदा होते हैं। प्रकृति सबको समान देती है। और अगर इस जगत में इतने भेद दिखाई पड़ते हैं, तो हम उनका कैसा उपयोग करते हैं, इस पर निर्भर करते हैं।

अगर इस जगत में साधु दिखाई पड़ता है और दुष्ट दिखाई पड़ता है, तो प्रकृति किसी को साधु नहीं बनाती और दुष्ट नहीं बनाती। परमात्मा बिलकुल कोरा चेक ही आपको देता है, उस पर कुछ आंकड़े लिखे नहीं होते। लिखना हम करते हैं; और जो हम लिखते हैं, वह हम बन जाते हैं।

ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति बराबर संपदा लेकर पैदा होता है और दोनों संपदाएं बराबर लेकर पैदा होता है। इसलिए बच्चे इतने भोले मालूम पड़ते हैं। बच्चे के भोलेपन का राज यही है कि वह दोनों संपदाएं बराबर लेकर पैदा होता है। बराबर होने के कारण न तो वह साधु होता है, न असाधु होता है। दोनों संतुलित होती हैं। इसलिए बच्चा भोला होता है।

बच्चे के भोलेपन में और साधु के भोलेपन में बड़ा फर्क है। बच्चे का भोलापन अज्ञान से भरा हुआ है, साधु का भोलापन ज्ञान से भरा हुआ है। साधु का भोलापन दैवी संपदा का पूरा उपयोग है। बच्चे का भोलापन अनुपयोग है, अभी उसने कुछ उपयोग किया नहीं, अभी स्लेट खाली है। पर दोनों अक्षर लिखे जा सकते हैं, दोनों की क्षमता लेकर वह पैदा हुआ है।

इसलिए परम साधु की आंखें बच्चों जैसी हो जाती हैं। एक पुनर्जन्म हो जाता है। फिर से सब सरल हो जाता है। लेकिन यह सरलता बड़ी गहरी है, बच्चे की सरलता बड़ी उथली है।

बच्चे की सरलता दो विपरीत शक्तियों का संतुलन है, दोनों बराबर मात्रा में हैं और अभी यात्रा नहीं हुई है। जल्दी ही यात्रा शुरू होगी, और बच्चा एक तरफ झुकना शुरू हो जाएगा। जैसे—जैसे झुकेगा, वैसे—वैसे जटिलता बढ़ेगी। जैसे—जैसे झुकेगा, वैसे—वैसे भीतर कलह स्वभावत: टूटेगा, निर्मित होगा, दो हिस्से होने शुरू हो जाएंगे। और जो भी फिर बच्चा करेगा, दो आवाजें होंगी। चोरी करेगा, तो दो आवाजें होंगी; किसी को दान देगा, तो दो आवाजें होंगी। दोनों संपदाएं पुकारेंगी।

हर क्षण, जब भी आप कुछ निर्णय लेते हैं, दोनों शक्तियां आवाज देती हैं, कि मेरी तरफ। चोरी करने जाएं, तो कोई भीतर से कहता है, बुरा है; मत करो। और प्रार्थना करने जाएं, तो कोई भीतर से कहता है, क्यों फिजूल समय खराब कर रहे हो! इतनी देर में कुछ कमा लेते! अच्छा करें, तो भीतर से कोई कहता है, रुको। बुरा करें, तो भीतर से कोई कहता है, रुको। भीतर दो आवाजें हैं।

बच्चे की दोनों आवाजें अभी शांत हैं। अभी बच्चे ने चुनाव नहीं किया है। इसलिए बच्चा निर्दोष है। लेकिन यह निर्दोषता टिकेगी नहीं; टूटेगी ही। क्योंकि आज नहीं कल ये आवाजें उठेंगी। आज नहीं कल बच्चा संसार में जाएगा, विकल्प खड़े होंगे, चुनाव करना पड़ेगा। इसलिए बच्चा तो विकृत होगा।

साधु या परम साधु का अर्थ यह है कि वह सारी विकृतियों को पार करके संतुलन को उपलब्ध हुआ है। यह संतुलन किसी अज्ञान के कारण नहीं है; यह संतुलन परिपूर्ण जानकारी और परिपूर्ण होश में साधा गया है।

बच्चा भोला है, बिना अपने कारण। यह भोलापन कोई उपलब्धि नहीं है। इसलिए सभी बच्चे भोले हैं। यह जानकर हैरानी होगी कि सभी बच्चे प्यारे लगते हैं; कुरूप बच्चा वस्तुत: होता ही नहीं। जो भी बच्चा है, प्यारा लगता है।

लेकिन सारे प्यारे बच्चे फिर कहां खो जाते हैं! मुश्किल से कोई सुंदर आदमी बाद में बचता है। सभी बच्चे सुंदर पैदा होते हैं; बच्चों को देखकर सभी को सौंदर्य का भाव होता है। लेकिन फिर यही सारे बच्चे बड़े होते हैं, फिर बड़ी कुरूपता प्रकट होती है। शायद ही कभी कोई बच पाता है, जो बाद में भी सुंदर होता है। कहा खो जाती हैं सारी बातें?

बच्चे का सौंदर्य भी उसी संतुलन के कारण था। जैसे ही चुनाव हुआ, सौंदर्य खोना शुरू हो जाता है।

फिर परम संत को एक सौंदर्य उपलब्ध होता है, जिसके खोने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि वह उपलब्धि है, वह स्वयं पाई गई बात है। वह प्रकृति का दान नहीं, अपनी अर्जित क्षमता है। और जो आपने कमाया है, वही केवल आपका है; जो आपको मिला है, वह आपका नहीं है।

ये दोनों संपदाएं बराबर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर हैं।

उसके उपरात कृष्ण बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक—पृथक कहता हूं।

लक्षण इसीलिए ताकि आप पहचान सकें, ताकि अर्जुन पहचान सके। और यह पहचान अत्यंत बुनियादी है।

दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण : अभय, फियरलेसनेस। अभय शब्द सुनते ही हमें जो खयाल उठता है, वह उठता है निर्भयता का। लेकिन अभय निर्भयता नहीं है, क्योंकि निर्भय तो आसुरी संपदा वाले लोग भी होते हैं; अक्सर ज्यादा निर्भय होते हैं। अपराधी हैं, निर्भय हैं, नहीं तो अपराध करना मुश्किल था। और एक दफा जेल से लौटते हैं, तो भी भयभीत नहीं होते; दुबारा और तैयारी करके अपराध में उतरते हैं।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि कारागृह से तो किसी अपराधी को कभी ठीक किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि उसकी निर्भयता और बढ़ती है। उसने यह भी देख लिया, वह इससे भी गुजर गया; यह तकलीफ भी बहुत ज्यादा नहीं है। यह भी सही जा सकती है। इसलिए जो आदमी एक बार कारागृह जाता है, वह फिर बार—बार जाता है। दुनिया में जितने कारागृह बढ़ते हैं, उतने अपराधी बढ़ते चले जाते हैं। जितनी ज्यादा हम सजा देते हैं, उतना अपराधी निर्भय होता है। यह थोड़ा समझ लेने जैसा है।

बहुत—से लोग इसीलिए अपराधी नहीं हैं, क्योंकि उनमें निर्भयता की कमी है; और कोई कारण नहीं है। अपराध तो वे भी करना चाहते हैं; भयभीत हैं। चोरी आप भी करना चाहते हैं, लेकिन भय पकड़ता है। चोरी के लोभ से ज्यादा चोरी का जो परिणाम हो सकता है—कारागृह हो सकता है, बदनामी होगी, प्रतिष्ठा खो जाएगी, पकड़े जाएंगे—वह भय ज्यादा मजबूत है। लोभ से भय बड़ा है; वही आप पर अंकुश है। हत्या आप भी करना चाहते हैं, कई बार मन में सोचते हैं, सपने देखते हैं; कई बार तो हत्या मन में कर ही देते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने जीवन में दो—चार बार मन में किसी की हत्या न कर दी हो।

मनसविद कहते हैं कि हर आदमी अपने लंबे जीवन में, अगर वह सौ साल जीए तो कम से कम दस बार खुद की आत्महत्या करने का विचार करता है, औसत। करते नहीं हैं आप, उसका कारण यह नहीं है कि आप करना नहीं चाहते हैं। उसका कारण सिर्फ इतना है कि उतना निर्भय भाव नहीं जुटा पाते हैं। भय पकड़े रहता है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बड़ा नाराज था पत्नी से, और कलह कुछ ज्यादा ही बढ़ गई, तो आधी रात उठा और उसने कहा, बहुत हो चुका; जितना सह सकता था, सह लिया। हर चीज की सीमा आती है; और सीमा आ गई। मैं मरने जा रहा हूं इसी समय, झील में डूबकर। दरवाजा खोलकर बाहर निकलता था, पत्नी ने कहा, लेकिन नसरुद्दीन, तैरना तो तुम जानते ही नहीं! तो वह वापस लौट आया, उदास बैठ गया। उसने कहा, तो फिर मुझे कोई और उपाय सोचना पड़ेगा।

वे मरने जा रहे थे झील में, लेकिन तैरना नहीं आता तो कोई और उपाय सोचना पड़ेगा!

करना आप भी वही चाहते हैं, जो अपराधी करता है, लेकिन फर्क शायद निर्भयता का है।

कृष्ण अभय को दैवी संपदा का पहला लक्षण गिनाते हैं। और सिर्फ कृष्ण नहीं, महावीर भी अभय को बुनियादी आधार बनाते हैं; बुद्ध भी। महावीर ने कहा है कि अहिंसक तो कोई हो ही नहीं सकता, जब तक अभय न हो, क्योंकि भय से हिंसा पैदा होती है। लेकिन ध्यान रहे, हिंसक निर्भय हो सकता है, होता है। आखिर युद्ध के मैदान में जाता हुआ सिपाही निर्भय तो होता ही है, लेकिन हिंसक होता है। और महावीर कहते हैं, अभय का अंतिम परिणाम अहिंसा है। तो हमें निर्भयता और अभय में थोड़ा फर्क समझ लेना चाहिए।

निर्भय का अर्थ है, जिसके भीतर भय तो है, लेकिन उस भय से जो भयभीत नहीं होता और टिका रहता है। कायर वह है, उसके भीतर भी भय है, लेकिन वह भय से प्रभावित होकर भाग खड़ा होता है। कायर में और बहादुर में फर्क भय का नहीं है, भय दोनों में है। बहादुर भय के बावजूद भी खड़ा रहता है। कायर भय के पकड़ते ही भाग खड़ा होता है। भय दोनों के भीतर है, लेकिन कायर भय को स्वीकार कर लेता है और जिसको हम बहादुर कहते हैं, वह अस्वीकार करता है। लेकिन भय भीतर मौजूद है।

निर्भयता का अर्थ है, भय तो भीतर है, लेकिन हम उसे स्वीकार नहीं करते, हम उसके विपरीत खड़े हैं। अभय का अर्थ है, जिसके भीतर भय नहीं। इसलिए अभय को उपलब्ध व्यक्ति न तो कायर होता है और न बहादुर होता है, वह दोनों नहीं हो सकता। दोनों के लिए भय का होना एकदम जरूरी है। भय हो, तो आप कायर हो सकते हैं या बहादुर हो सकते हैं। भय न हो, तो आप अभय को उपलब्ध होते हैं।

अभय को कृष्ण कहते हैं पहला लक्षण दैवी संपदा का। क्यों? अगर अभय दैवी संपदा का पहला लक्षण है, तो भय आसुरी संपदा का पहला लक्षण हो गया।

भय किस बात का है? और जब आप निर्भयता भी दिखाते हैं, तो किस बात की दिखाते हैं? थोड़ा—सा ही सोचेंगे तो पता चल जाएगा कि मृत्यु का भय है। बहाना कोई भी हो, ऊपर से कुछ भी हो, लेकिन भीतर मृत्यु का भय है। मैं मिट न जाऊं, मैं समाप्त न हो जाऊं। दूसरी चीजों में भी, जिनमें मृत्यु प्रत्यक्ष नहीं है, वहा भी गहरे में मृत्यु ही होती है।

आपका धन कोई छीन ले, तो भय पकड़ता है। मकान जल जाए, तो भय पकड़ता है। पद छिन जाए, तो भय पकड़ता है। लेकिन वह भय भी मृत्यु के कारण है; क्योंकि पद के कारण जीवित होने में सुविधा थी; पद सहारा था। धन पास में था, तो सुरक्षा थी। धन पास में नहीं, तो असुरक्षा हो गई। मकान था, तो साया था; मकान जल गया, तो खुले आकाश के नीचे खडे हो गए।

जिन—जिन चीजों के छिनने से भय होता है, उन—उन चीजों के छिनने से मौत करीब मालूम पड़ती है। और जिन—जिन चीजों को हम पकड़ रखना चाहते हैं, वे वे ही चीजें हैं, जिनके कारण मौत और हमारे बीच में परदा हो जाता है। धन का ढेर लगा हो, तो हमारी आंखों में धन दिखाई पड़ता है, मौत उस पार छूट जाती है।

प्रतिष्ठा हो, पद हो, तो शक्ति होती है पास में, हम लड़ सकते हैं। बीमारी आए, मौत आए, तो कुछ उपाय किया जा सकता है। पास कुछ ची न् ले, ते कोई उपाय नहीं है, हम असुरक्षित मौत के हाथ में पड़ जाते हैं।

भय तो मृत्यु का है, सभी भय मृत्यु से उदभूत होता है। इसलिए उसको हम बहादुर कहते हैं, जो मौत के सामने भी अकड़कर खड़ा रहता है। कोई बंदूक लेकर आपकी छाती पर खड़ा हो, भाग खड़े हुए, तो लोग कायर कहते हैं; पीठ दिखा दी!

पश्चिम में युवकों का आंदोलन है, हिप्पी। हिप्पी शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। हिप्पी शब्द का वही मतलब होता है, जो रणछोड़दास का होता है, जिसने हिप दिखा दिया, जिसने पीठ दिखा दी, जो भाग खड़ा हुआ। जो युवक हिप्पी कहे जा रहे हैं पश्चिम में, लेकिन उनका फलसफा है, उनका एक दर्शन है। वे कहते हैं, लड़ना फिजूल है। और लड़ना किसलिए? और लड़ने से मिलता क्या है? इसलिए पीठ दिखाई है जान—बूझकर।

ये जो बहादुर और कायर हैं, इन दोनों की समस्या एक है। कायर पीठ दिखाकर भाग जाता है। बहादुर पीठ नहीं दिखाता, खड़ा रहता है, चाहे मिट जाए। लेकिन दोनों के भीतर भय है।

अभय उस व्यक्ति को हम कहेंगे, जिसके भीतर भय नहीं है। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब मृत्यु के संबंध में हमारी समस्या हल हो गई हो। जब हमें किसी भांति यह प्रतीति हो गई हो कि मृत्यु है ही नहीं; जब हमने किसी अनुभव से यह रस पहचान लिया हो कि भीतर अमृत छिपा है, कि मैं मरणधर्मा नहीं हूं।

आत्मभाव जगा हो, तो अभय पैदा होगा। इसलिए अभय आत्मा का नाम है। जिसने आत्मा को जरा—सा भी पहचाना, उसके जीवन में अभय हो जाएगा।

इसे कृष्ण पहला आधार बना देते हैं। क्यों? सत्य की यात्रा पर, ब्रह्म की यात्रा पर, दिव्यता के आरोहण में अभय पहला आधार क्यों?

अभय की संभावना बनती है, अमृत की थोड़ी—सी प्रतीति हो तो। और अमृत की प्रतीति हो, तो आदमी छलांग ले सकता है ब्रह्म में; नहीं तो छलांग नहीं ले सकता। अगर भीतर डर समाया हो कि मैं मिट तो न जाऊंगा, तो ब्रह्म तो मृत्यु से भी ज्यादा भयानक है। क्योंकि मृत्यु में तो शायद शरीर ही मिटता होगा, आत्मा बच जाती होगी। ब्रह्म में आत्मा भी नहीं बचेगी। महामृत्यु है। उस विराट में तो मैं ऐसे खो जाऊंगा, जैसे बूंद सागर में खो जाती है, कोई नाम—रूप नहीं बचेगा।

तो जिसको हम मृत्यु कहते हैं, यह तो अधूरी मृत्यु है। आत्मा बच जाएगी, नए शरीर ग्रहण करेगी, नई यात्राओं पर निकलेगी। लेकिन जो व्यक्ति ब्रह्म—ज्ञान को उपलब्ध हुआ, फिर उसकी कोई यात्रा नहीं है, फिर वह महाशून्य में खो गया। इसलिए हम कहते हैं, परम ज्ञानी वापस नहीं आता।

बुद्ध से लोग बार—बार पूछते हैं, कि मृत्यु के बाद बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति का क्या होता है? तो बुद्ध कहते हैं, जैसे दीए की ज्योति को कोई फूंककर बुझा दे, तो फिर तुम पूछते हो या नहीं कि दीए की ज्योति का क्या हुआ, कहां गई? ऐसा ही बुद्ध पुरुष खो जाता है; जैसे दीए को कोई फूंककर बुझा दे, ऐसे ही बुद्ध पुरुष खो जाता है।

तो बुद्धत्व तो महामृत्यु हुई। हमारी ज्योति तो थोड़ी—बहुत बचेगी, नए दीए में जलेगी, और नए दीए खोजेगी; नए घर, नए शरीर ग्रहण करेगी। लेकिन बुद्ध की ज्योति? दीया भी मिट गया, ज्योति भी खो गई।

कृष्ण अभय को पहला आधार बनाते हैं दैवी संपदा का। क्योंकि दिव्यता में जिसे भी प्रवेश करना हो, उसे अपने को पूरी तरह मिटाने का साहस चाहिए। कौन अपने को पूरा मिटा सकता है? वही जिसको पूरा भरोसा है कि मिटने का कोई उपाय नहीं। यह बात विपरीत मालूम पड़ेगी, विरोधाभासी लगेगी।

वही व्यक्ति अपने को मिटा सकता है, जिसे भरोसा है कि मिटने का कोई उपाय नहीं है; वह सहजता से छलांग ले सकता है। वह अग्नि में उतर सकता है, क्योंकि वह जानता है कि अग्नि जलाएगी नहीं। वह शस्त्रों से छिद सकता है, क्योंकि वह जानता है कि शस्त्र छेदेंगे नहीं। इस आस्था पर ही अभय विकसित होगा।

अभय, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से शुद्धि।

अंतःकरण के साथ बड़ी भ्रांतियां जुड़ी हैं। समाज ने अंतःकरण का बड़ा उपयोग किया है। समाज की पूरी धारणा ही अंतःकरण के शोषण पर निर्भर है। समाज सिखा देता है बचपन से ही हर बच्चे को, क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है। और इस बात को इतने जोर से स्थापित करता है, हृदय में इस बात को इतनी बार पुनरुक्त किया जाता है कि कंडीशनिंग, संस्कारबद्ध धारणा बैठ जाती है। फिर जब भी आप उसके विपरीत जाने लगते हैं, कि समाज का सिखाया हुआ अंतःकरण फौरन विरोध खड़ा करता है। इसलिए हर समाज के पास अलग—अलग तरह के अंतःकरण हैं। अगर आप एक शाकाहारी घर में पैदा हुए हैं, तो उस घर ने आपको शाकाहारी का अंतःकरण दिया। अगर मांस आपके सामने आ जाए, तो आप सिर्फ ग्लानि से भरेंगे। आपकी जीभ से पानी और रस नहीं बहेगा, सिर्फ ग्लानि; वमन हो सकता है, उल्टी आ सकती है।

यही मांस किसी दूसरे के सामने, जो मांसाहारी घर में पैदा हुआ है, बड़े स्वाद को जगा सकता है। इसी मांस को देखकर उसकी सोई हुई भूख जग सकती है; भूख न भी हो, तो भी भूख लग सकती है। एक दूसरे शाकाहारी घर में पैदा व्यक्ति को इसी मांस को देखकर बड़ी जुगुप्सा, बड़ी घृणा पैदा होती है।

निश्चित ही, यह अंतःकरण असली अंतःकरण नहीं है। यह अंतःकरण सिखाया हुआ, शिक्षित अंतःकरण है। यह समाज ने उपयोग किया हुआ है। गलत और सही का सवाल नहीं है। समाज को एक बात समझ में आ गई है कि अगर व्यक्तियों को नियंत्रण में रखना हो, व्यवस्था में रखना हो, तो इसके पहले कि उनका वास्तविक अंतःकरण बोलना शुरू हो, हमें जो—जो धारणाएं डालनी हों, उनमें डाल देनी चाहिए।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सात वर्ष की उम्र तक आपका आधा मस्तिष्क निर्मित हो जाता है। आधा, पचास प्रतिशत, सात वर्ष में! फिर पूरी जिंदगी में शेष पचास प्रतिशत निर्मित होता है। और यह जो पचास प्रतिशत सात वर्ष में निर्मित होता है, यह आधार है। इसके विपरीत जाना कठिन है। फिर पूरी जिंदगी इसके अनुकूल ही ले जाना आसान है। और अगर इसके विपरीत आप ले गए, तो बड़ी दुविधा और बड़ी कलह में जिंदगी बीतेगी।

इसलिए सभी तथाकथित धार्मिक संप्रदाय बच्चों का शीघ्रता से शोषण करने को उत्सुक होते हैं। जो धर्म भी अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा नहीं देता, फिर बाद में आशा नहीं रख सकता। सात वर्ष के पहले ही धारणाएं प्रविष्ट हो जानी चाहिए। धारणाएं मजबूत भीतर बैठ जाएं, तो वास्तविक अंतःकरण की आवाज सुनाई ही नहीं पड़ती; समाज के द्वारा दिया गया अंतःकरण ही बीच में बोलता रहता है।

कृष्ण जब कहते हैं, अंतःकरण की अच्छे प्रकार से शुद्धि, तो वे यही कह रहे हैं कि समाज ने जो धारणाएं दी हैं, उनसे जब तक छुटकारा न हो अंतःकरण का, तब तक वास्तविक आपकी आत्मा बोल न पाएगी। हिंदू बोल सकता है भीतर से, मुसलमान बोलेगा, जैन बोलेगा, ईसाई बोलेगा, आस्तिक—नास्तिक बोलेगा। लेकिन आप जो लेकर पैदा हुए हैं, वह जो दैवी स्वर आपके भीतर है, वह

छिपा रहेगा। उसके प्रकट होने के लिए अंतःकरण की सारी परतें अलग हो जानी चाहिए।

क्यों कृष्ण अर्जुन से ऐसा कह रहे हैं? क्योंकि अर्जुन जो ज्ञान की बातें कर रहा है, वे उसके अंतःकरण से नहीं आ रही हैं; वे सामाजिक धारणाएं हैं। वह कह रहा है, ये मेरे गुरु हैं, तो जिस गुरु के मैंने चरण छुए, उसकी मैं हत्या कैसे करूं! कि ये मेरे सगे भाई हैं, कि मेरे बंधु—बांधव हैं, ये मेरे मित्र, प्रियजन हैं। ये जो उस तरफ खड़े हैं युद्ध में, इसमें अनेक मेरे संबंधियों के संबंधी या संबंधी हैं। भीष्म पितामह उस तरफ हैं, वे मेरे आदर योग्य हैं। इन सबके साथ मैं कैसे युद्ध करूं? ये मेरे अपने हैं, ये सगे—संबंधी हैं।

कौन आपका अपना है?

जीसस एक भीड़ में खड़े थे। और उन्होंने एक बड़ा कठोर वचन उपयोग किया है, जिसकी निरंतर आलोचना की गई है। क्योंकि जीसस जैसे व्यक्ति से ऐसे शब्द की आशा नहीं थी। किसी ने भीड में आवाज दी कि जीसस, तुम्हारी मां मरियम तुमसे मिलने बाहर आई है। तो जीसस ने कहा, मेरी न कोई मां है, न मेरा कोई पिता है।

कठोर वचन है। और जीसस जैसे अत्यंत करुणावान, महा करुणावान व्यक्ति से ऐसी बात की आशा नहीं है। निश्चित ही, उनका प्रयोजन कुछ भिन्न है।

जीसस यह कह रहे हैं कि कौन मां है! कौन पिता है! जहां तक शुद्ध अंतःकरण का सवाल है, न कोई पिता है, न कोई माता है। न कोई भाई है, न कोई बंधु है। जहां तक समाज के द्वारा दिए गए अंतःकरण का संबंध है, मां है, पिता है, भाई—बंधु हैं। ये सब सिखावन हैं, से सब संस्कार हैं।

अर्जुन कह रहा है, यह बुरा है। और कृष्ण यह कह रहे हैं कि यह तेरे अंतःकरण की आवाज नहीं; तुझे जो—जो बुरा बताया गया है, उसे—उसे तू बुरा कह रहा है। यह तेरी अपनी प्रतीति नहीं है, तेरी अंतःप्रज्ञा नहीं है, तेरा बोध नहीं है। यह तू नहीं कह रहा है, तेरे भीतर से समाज की धारणाएं बोल रही हैं।

और जब तक समाज की धारणाओं को हम हटा न सकें, तब तक शुद्ध अंतःकरण का कोई पता नहीं चलता। शुद्ध अंतःकरण का मतलब यह नहीं है कि भले आदमी का अंतःकरण। क्योंकि जिसको हम भला आदमी कहते हैं, वह तो समाज की ही मान्यताओं को मानकर चलने वाला आदमी है; उसको हम भला कहते हैं। बुरा हम उसको कहते हैं, जो समाज की मान्यताएं नहीं मानता।

मगर यह धारणा रोज बदल जाती है। क्योंकि जीसस जिस जमाने में पैदा हुए, लोगों ने उन्हें बुरा कहा, क्योंकि जिस यहूदी समाज में वे पैदा हुए, उसकी मान्यताएं उन्होंने नहीं मानी। तो जीसस को लोगों ने आवारा, उपद्रवी, अपराधी समझा, इसलिए यहूदियों ने जीसस को सूली लगाई। सूली लगाते वक्त उन्होंने खयाल रखा कि जीसस को अपराधियों के साथ सूली लगाई जाए। तो दोनों तरफ दो चोरों को सूली पर लटकाया, बीच में जीसस को, ताकि समाज समझ ले कि एक अपराधी की तरह हम जीसस को सजा दे रहे हैं। इस आदमी ने समाज की धारणाओं का विरोध किया, यह बुरा आदमी है।

लेकिन फिर जीसस के मानने वाले लोगों का समाज धीरे— धीरे निर्मित हुआ और जीसस उनके लिए सबसे अच्छे आदमी हो गए। तो जीसस से कोई अच्छा आदमी हुआ ही नहीं ईसाइयों के लिए। बड़ी कठिनाई है। यहूदियों के लिए यह आदमी बुरा है, सूली लगाने योग्य है। ईसाइयों के लिए यह आदमी भला है, परमात्मा का इकलौता बेटा है, पूजने योग्य है। यही एकमात्र सहारा है मुक्ति का। यही मार्ग है, द्वार है; इसके बिना कोई द्वार नहीं है।

इतनी भिन्न धारणा!

अंतःकरण का सवाल नहीं है। यहूदी के पास एक सामाजिक धारणा है, उससे तौलता है। ईसाई के पास दूसरी सामाजिक धारणा है, उससे तौलता है।

इस मुल्क में ऐसा निरंतर हुआ है, हर मुल्क में होगा, हर मुल्क में होता रहा है। जो आज हमें बुरा दिखाई पड़ता है, कल भला हो सकता है। समाज की धारणा बदल जाए, तो मापदंड बदल जाता है। जो आज हमें अच्छा लगता है, वह कल बुरा हो सकता है। धारणा बदल जाए, तराजू बदल जाता है, तौलने के उपाय बदल जाते हैं।

अंतःकरण की शुद्धि से अर्थ अच्छे आदमी का अंतःकरण नहीं है। अंतःकरण की शुद्धि का अर्थ है, शुद्ध अंतःकरण। शुद्ध अंतःकरण का अर्थ अच्छा नहीं है। शुद्ध अंतःकरण का अर्थ है, जिसमें कुछ और मिलाया हुआ नहीं है।

और ध्यान रहे, दो शुद्ध चीजें भी मिल जाएं, तो अशुद्धि पैदा होती है। शुद्ध पानी और शुद्ध दूध को मिला दें, तो दोहरी शुद्धि पैदा नहीं होती। पानी भी अशुद्ध हो जाता है, दूध भी अशुद्ध हो जाता है। अशुद्ध का मतलब है, कुछ अन्य मिला दिया गया, कुछ विजातीय मिला दिया गया। शुद्ध का अर्थ है, कुछ भी मिलाया नहीं, खालिस, जैसा था वैसा।

जैसा अंतःकरण हम लेकर पैदा हुए हैं, जो किसी ने हमें दिया नहीं, समाज ने जिसे निर्मित नहीं किया, जो हमारी भीतरी संपदा है, उस शुद्ध अंतःकरण को, कृष्ण कहते हैं, अगर हम निखार लें, समाज की धारणाओं के रूखे—सूखे पत्ते अलग कर दें, भीतर छिपी पानी की धार नजर में आ जाए, तो दैवी संपदा का दूसरा लक्षण है। फिर उसके ही सहारे, उस अंतःकरण के सहारे दिव्यता तक पहुंचा जा सकता है।

जिसको आप अभी अच्छा और बुरा कहते हैं, वह सिर्फ सामाजिक मान्यता है। किसी दूसरे समाज में मान्यताएं बदल जाती हैं, तो दूसरी मान्यताएं हो जाती हैं। जमीन पर कोई हजारों तरह के समाज हैं। ऐसी कोई मान्यता नहीं है, जो किसी न किसी समाज में अच्छी न मानी जाती हो, और ऐसी भी कोई मान्यता नहीं है, जो किसी न किसी समाज में बुरी न मानी जाती हो। सब तरह की बातें अच्छी मानी जाती हैं, सब तरह की बातें बुरी मानी जाती हैं।

ऐसे समाज हैं, जहां सगी बहन से विवाह करना अच्छा माना जाता है। जहां पिता मर जाए, तो ऐसे समाज हैं, जहां बड़े बेटे को मां से विवाह करना अच्छा माना जाता है। ऐसे समाज हैं, जहां पिता का हो जाए, वृद्ध हो जाए, तो जीवित पिता को अग्निसंस्कार दे देना बड़े बेटे का कर्तव्य माना जाता है। और इन सबकी अपनी धारणाएं हैं, और अपनी धारणाओं के तर्क हैं। और अगर उनके तर्क को सहानुभूति से समझें, तो उनकी बात भी सही मालूम पड़ सकती है। जिन समाजों में भाई और बहन का विवाह प्रचलित है, अफ्रीका के कुछ कबीले, उनका कहना यह है कि भाई और बहन ही पति और पत्नी बन सकते हैं। क्योंकि उनमें इतना सामीप्य है, इतनी निकटता है, उन दोनों के पास एक—सा स्वभाव है। किसी भी दूसरी स्त्री से विवाह करना, दो विपरीत संस्कारों में पले, दो विपरीत परिवारों में पले व्यक्तियों को कठिनाई होगी,. अड़चन होगी, उपद्रव होगा। और भाई और बहन के बीच एक स्वाभाविक नैसर्गिक प्रेम है, इसी प्रेम को रूपांतरित किया जाए।

उनकी बात में भी बल मालूम पड़ता है। जिन मुल्कों में विरोध है, उनकी बात में भी बल मालूम पड़ता है। क्योंकि वे कहते हैं, अगर भाई और बहन में विवाह हो, तो फिर भाई और बहन के बीच प्रारंभ से ही कामुक संबंधों को रोकने का कोई उपाय नहीं। तो परिवार प्राथमिक रूप से ही कामुक संबंधों में उलझ जाएगा। कामुक संबंध अगर बचपन से इस भांति खुले छोड़ दिए जाएं, तो जीवन प्राथमिक आधार से विलास की ओर बढेगा और प्रेम की एक पवित्र धारणा विकसित न हो पाएगी। और प्रेम का एक पवित्र रूप भी है, जहां यौन का कोई संबंध नहीं है। अगर भाई—बहन में वह विकसित न हुआ, तो फिर कहां विकसित होगा? उस पवित्र प्रेम की लकीर फिर सदा के लिए खो जाएगी। उनकी बात में भी बल है।

कह मैं यह रहा हूं कि जिस समाज ने भी जो धारणा मानी है, उसके कारण हैं, उसके ऐतिहासिक विकास में आधार है; कुछ वजह से मानी है। उस धारणा को ही मानकर जो चलता है, वह अच्छा आदमी तो हो सकता है, बुरा आदमी हो सकता है। लेकिन जिसको शुद्ध अंतःकरण का आदमी कहें, वह उन धारणाओं को मानकर कोई नहीं हो सकता।

इसका यह अर्थ नहीं कि शुद्ध अंतःकरण का आदमी सारी धारणाओं को तोड़ दे, समाज का दुश्मन हो जाए। यह अर्थ नहीं कि समाज की बगावत करे, उच्छृंखल हो जाए। शुद्ध अंतःकरण का आदमी अपने भीतर अंतःकरण को धारणाओं से मुक्त करने में लग। और उस बिंदु पर अपने अंतःकरण को ले आएगा, जहां समाज की कोई छाप नहीं है, जहां उसका अंतःकरण दर्पण की भांति शुद्ध है, जैसा वह जन्म के साथ लेकर पैदा हुआ था, जब समाज ने कुछ भी लिखा नहीं था, खाली, शून्य।

उस अंतःकरण के माध्यम से ही दैवी संपदा को खोजा जा सकता है, दिव्यता को खोजा जा सकता है। क्योंकि उस अंतःकरण में जो स्वर उठते हैं, वे दिव्यता के स्वर हैं। जिस अंतःकरण को हम अंतःकरण मानते हैं, उसमें जो स्वर उठते हैं, वे समाज के स्वर हैं। ज्ञान—योग में निरंतर दृढ़ स्थिति.।

ज्ञान—योग में निरंतर दृढ़ स्थिति! एक तो हमारा जीवन है, जिसे हम मूर्च्छा में दृढ़ स्थिति कह सकते हैं। जो भी हम करते हैं, सोए हुए करते हैं। हमें कुछ पक्का पता नहीं, हम क्यों कर रहे हैं; क्यों हमने क्रोध किया, क्यों हमने प्रेम किया, क्यों हमने जीवन ऐसा बिताया, जैसा हमने बिताया, कुछ साफ नहीं है।

एक अंधेरे में शराब पीए हुए जैसे कोई आदमी चलता हो, और कहीं भी पहुंच जाए; न रास्ते का कुछ पता है, न दिशा का कोई पता है; यह भी हो सकता है कि गोल घेरे में चक्कर ही लगाता रहे और सोचे कि बड़ी यात्रा हो रही है। ऐसी हमारी दशा है। मूर्च्छा में हमारी दृढ़ स्थिति है।

ज्ञान—योग में दृढ़ स्थिति का अर्थ है, जागरूकता में दृढ़ स्थिति, अवेयरनेस में, होश में। उठुं बैठूं? चलूं जो भी व्यवहार हो, आचरण हो, जो भी परिणमन हो, वह मेरे पूरे होश में हो। मेरे ज्ञान का दीया जलता रहे। क्यों कर रहा हूं? इसकी मुझे पूरी प्रतीति हो। बिना गहरे प्रत्यक्ष होश के कुछ भी मुझसे न निकले।

जिसको कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, महावीर ने जिसको सम्यक ज्ञान कहा है, बुद्ध ने जिसको सम्यक स्मृति कहा है, कबीर, नानक, दादू जिसको सुरति—योग कहते हैं, ज्ञान—योग में दृढ़ स्थिति का वही अर्थ है। मूर्च्छित न हो व्यवहार; अचेतन शक्तियां मुझसे कुछ न करवा लें; मेरा कृत्य चेतन हो, काशस हो।

किसी आदमी ने आपको धक्का दिया। इधर धक्का नहीं दिया कि उधर से क्रोध की लपट भभक उठती है। यह क्रोध का भभकना वैसे ही है, जैसे किसी ने बटन दबाई और बिजली जली। बटन दबाने के बाद बिजली का बल्‍ब सोचता नहीं कि जलूं या न जलूं। यह भी नहीं सोचता कि इस आदमी ने जलाया, तो मैं कोई परवश तो नहीं हूं; चाहूं तो जलूं? चाहूं तो न जलूं! न, कोई उपाय नहीं है। यंत्रवत, यंत्र ही है। तो बिजली का बल्‍ब जल जाता है।

जब कोई आपको धक्का देता है, तो क्रोध भी आप में अगर ऐसा ही पैदा होता हो, जैसे बटन दबाने से बल्‍ब जलता है, तो आप भी यंत्रवत हो गए। तो जिस आदमी ने आपको धक्का दिया, उसने आपको परिचालित कर लिया, वह आपका मालिक हो गया, स्वामित्व उसके हाथ में चला गया, उसने आप में क्रोध पैदा करवा लिया।

और शायद आप कई दफा कसमें खा चुके हैं कि अब क्रोध न करूंगा, कई दफा निर्णय लिया है कि क्रोध दुख देता है! शास्त्र के शब्द स्मरण हैं कि क्रोध अग्नि है, जहर है। वह सब है। लेकिन किसी ने धक्का दिया, तो वह सब एकदम हट जाता है। भीतर से क्रोध उठ आता है। यह क्रोध भूच्छइrत है।

बुद्ध को कोई धक्का दे, तो क्रोध ऐसे ही नहीं उठता, क्रोध उठता ही नहीं। बुद्ध धक्के को देखते हैं कि धक्का दिया गया, और अपने भीतर देखते हैं कि धक्के से क्या हो रहा है, और निर्णय करते हैं कि मुझे क्या करना है। आपका धक्का निर्णायक नहीं है। आपके धक्के के बाद भी बुद्ध ही निर्णायक हैं, वे निर्णय करते हैं कि मुझे क्या करना है।

आप जब क्रोध करते हैं, तो निर्णय आपका नहीं है। दूसरा आपसे निर्णय करवा लेता है। एक खुशामदी आ जाता है और आपकी प्रशंसा करता है और आपसे काम करवा लेता है। आप भी जानते हैं कि यह खुशामदी है और आप भी जानते हैं कि किसी की

स्तुति में पड़ना ठीक नहीं। लेकिन बस, कोई स्तुति करता है, तो फिर स्मरण नहीं रहता; फिर भीतर कुछ बल्‍ब जल जाते हैं। फिर भीतर कुछ काम शुरू हो जाता है, जो दूसरे ने चालित किया।

जो व्यक्ति अपने निर्णय से प्रतिपल नहीं जी रहा है, जिससे दूसरे लोग निर्णय करवा रहे हैं, जिसे दूसरे लोग धक्के दे रहे हैं, मैनिपुलेट कर रहे हैं, जो दूसरों से परिचालित है, ऐसा व्यक्ति मूर्च्छा में दृढ़ ठहरा हुआ है।

होश में ठहरे हुए व्यक्ति का लक्षण है कि वह स्वयं चल रहा है, स्वयं उठ रहा है; और जो भी कर रहा है, वह उसका अपना निर्णय है, वह उसने सचेतन रूप से लिया है! कोई अचेतन शक्तियों ने उससे निर्णय नहीं करवाया है।

चौबीस घंटे आपके भीतर बड़ा हिस्सा अचेतन है, जिसको फ्रायड ने बड़ी कोशिश की विश्लेषण करने की। फ्रायड के हिसाब से, जैसे हम बरफ के टुकड़े को पानी में डाल दें, तो नौ हिस्सा पानी में डूब जाता है और एक हिस्सा ऊपर होता है, ऐसा आपका एक हिस्सा केवल होशपूर्ण है, नौ हिस्से नीचे डूबे हुए हैं पानी में और उनका आपको कुछ भी पता नहीं है। और वे नौ हिस्से आपसे चौबीस घंटे काम करवा रहे हैं। वे काम आपको करने ही पड़ते हैं। और आप निर्णय भी ले लें कि नहीं करूंगा, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि निर्णय एक हिस्सा लेता है, उससे नौ गुनी ताकत के मन के विचार भीतर दबे पड़े हैं, वे उसकी सुनते भी नहीं।

आप तय कर लेते हैं, सुनते हैं ब्रह्मचर्य पर एक व्याख्यान, पढ़ते हैं कोई किताब, जंचती है बात बुद्धि को, वह जो एक हिस्सा पानी के ऊपर तैर रहा है, आप तय कर लेते हैं। लेकिन वे नौ हिस्से, जो पानी के नीचे दबे हैं, उनको आपकी किताब का कोई पता नहीं, ब्रह्मचर्य का कोई पता नहीं; उन्होंने कोई यह बात सुनी नहीं कभी, वे अपनी धारणा से चल रहे हैं। वे मिले हैं नौ हिस्से आपको जन्मों—जन्मों की लंबी यात्रा में। अनंत संस्कारों, पशुओं, पौधों, वृक्षों से गुजरकर उनको आपने इकट्ठा किया है। वे अब भी वही हैं। उनको कुछ पता भी नहीं है। वे अपने ही ढंग से चलते हैं; उनकी ताकत नौ गुनी ज्यादा है।

जब भी कामना मन को पकड़ेगी, तो वह जो एक हिस्सा है, नपुंसक सिद्ध होगा। वे जो नौ गुने ताकतवर हैं, वे शक्तिशाली सिद्ध होंगे और वे आपको मजबूर कर लेंगे। और उनकी मजबूरी इतनी शक्तिशाली है कि वे आपके इस एक हिस्से को भी तर्क देंगे और यह एक हिस्सा भी रेशनलाइज करेगा। यह भी कहेगा कि छोड़ो, यह सब ब्रह्मचर्य वगैरह में कुछ सार नहीं है। और यह भी कहेगा कि ब्रह्मचर्य साधना है, तो जल्दी क्या है, अभी जिंदगी बहुत पड़ी है!

हजार तर्क! वे नौ हिस्से धक्के देकर एक हिस्से को राजी करवा लेंगे। जब वे नौ हिस्से अपना काम पूरा करवा लेंगे, तब फिर एक हिस्सा बातें सोचने लगेगा भली— भली। फिर ब्रह्मचर्य वापस लौटेगा। लेकिन यह हमेशा कमजोर सिद्ध होगा नौ के मुकाबले। यह अड़चन है प्रत्येक मनुष्य की। जो भी मनुष्य थोड़ा जीवन को बदलने की कोशिश में लगा है, उसकी यह कठिनाई है कि वह तय करता है, लेकिन पूरा नहीं हो पाता।

कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदा तभी सक्रिय होगी, जब कोई व्यक्ति ज्ञान—योग में निरंतर दृढ़ स्थित हो।

होश इतना सधा हुआ हो…। जितना ज्यादा होश सधता है, उतना ही पानी के ऊपर बर्फ आना शुरू हो जाता है। जितना ज्यादा आप होश का प्रयोग करते हैं, उतना ज्यादा आपका अचेतन कम होने लगता है, चेतन बढ़ने लगता है। और एक ऐसी स्थिति भी है टोटल अवेयरनेस की, परिपूर्ण प्रज्ञा की, जब आपका पूरा का पूरा मन प्रकाशित होता है, होश से भरा होता है।

उस स्थिति में जो भी निर्णय लिए जाते हैं, उनका कोई विरोध नहीं है। उस स्थिति में जो भी आप तय करते हैं, वह होगा ही, क्योंकि उससे विपरीत आपके भीतर कोई स्वर नहीं है। उस स्थिति में जो भी जीवन है, वह। कोई पश्चात्ताप नहीं है। उस जीवन में सभी कुछ आनंद है और सभी कुछ अद्वैत है।

सारी साधना प्रक्रियाएं ज्ञान—योग में दृढ़ स्थिति के ही उपाय हैं। सारे ध्यान, सारी प्रार्थनाएं, सारी विधियां, कैसे आप ज्यादा से ज्यादा होश में जीने लगें, मूर्च्छा टूटे, अमूर्च्छा बढ़े.।

और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय तथा तप एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।

दान, देने का भाव, बहुत आधारभूत है। आसुरी संपदा है लेने का भाव, छीनने का भाव। जो दूसरे के पास है, वह मेरा कैसे हो जाए। सारा सब मेरा कैसे हो जाए पजेशन, सारी दुनिया का मैं मालिक कैसे हो जाऊं। और दैवी संपदा देने की भावना है। जो भी मेरे पास है, वह बंट जाए। जो भी मैं हूं उसे मैं साझेदारी कर लूं। जो मेरे पास है, वह दूसरा भी उसमें रस ले पाए वह दूसरे का भी हो सके।

कृष्ण यह नहीं कहते, क्या दान—कि धन का दान, कि संपत्ति का दान, कि भूमि का दान—यह सवाल नहीं है। सिर्फ दान! भाव!

तो महावीर अपने ज्ञान को बाट रहे हैं, कि बुद्ध अपनी करुणा को बांट रहे हैं, कि जीसस अपनी सेवा को। यह सवाल नहीं है कि क्या! बहुत गहरे में जो भी मैं हूं वह मेरा न रहे, वह सबका हो जाए। जो भी मैं हूं मैं बिखर जाऊं और सबमें चला जाऊं, मेरा अपना कुछ बचे न। इसके स्वाभाविक बड़े गहरे परिणाम होंगे। जितना ही मैं छीनने का सोचता हूं उतना ही मेरा अहंकार बढ़ता है। इसलिए जितनी मेरे पास संपदा होगी, जितनी मेरे पास सुविधा—साधन होंगे, उतना अहंकार होगा। जितना ही मैं बटता हूं उतना ही मैं पिघलता हूं। जितनी ही मैं साझेदारी करता हूं जितना ही मेरा अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व में लीन होता है, उतना ही मेरा अहंकार शून्य होगा।

दैवी संपदा के पास अस्मिता नहीं बचेगी, और आसुरी संपदा के पास सिर्फ अस्मिता ही बचेगी। अहंकार शैतान की आखिरी उपलब्धि है। निरअहंकारिता परमात्म— भाव है।

तो दान का अर्थ है, देना, और देने की वृत्ति को विकसित करना; और उस घड़ी की प्रतीक्षा करना, जब मेरे पास कुछ भी न होगा देने को। इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके पास कुछ भी न होगा। सब कुछ होगा; जितना आप देंगे, उतना बढ़ेगा। जितना आप बाटेंगे, उतना ज्यादा होगा। जितना आप अपने को शून्य करेंगे, उलीचेंगे, उतना ही पाएंगे कि साम्राज्य बड़ा होता जाता है। देने का अर्थ यह नहीं है कि आपके पास कुछ बचेगा नहीं, लेकिन देने का भाव कि कुछ भी न बचे।

दान, प्रेम का सार है। छीनना, घृणा का आधार है। तो अगर प्रेम में भी आप दूसरे से कुछ लेना चाहते हैं, तो वह प्रेम नहीं है। वहा सिर्फ प्रेम के नाम पर शोषण है। जहां मांग है, वहा प्रेम की कोई संभावना नहीं है। प्रेम निपट दान है, बेशर्त। वह कुछ पाने की आकाक्षा से नहीं है, देना ही आनंद है। और जिसने लिया, उसके प्रति अनुग्रह है।

दान तथा इंद्रियों का दमन।

दान और इंद्रियों के दमन को कृष्ण ने एक साथ कहा। यह भी थोड़ा विचारणीय है। क्योंकि जितना ही आप देंगे, उतनी ही इंद्रियां अपने आप विसर्जित हो जाती हैं। जितना ही आप लेंगे, इकट्ठा करेंगे, उतनी ही इंद्रियां मजबूत होती चली जाती हैं। इंद्रियां छीनना चाहती हैं; और जो देने को राजी है, उसकी इंद्रियां धीरे—धीरे शून्य हो जाती हैं। इंद्रियों का दमन इंद्रियों से लड़कर नहीं उपलब्ध होता है। इंद्रियों का दमन स्वयं की निजता को पूरी तरह बाट देने से उपलब्ध होता है। जो अपने भीतर अपने लिए बचाता नहीं, उसकी इंद्रियां अपने आप शात हो जाती हैं।

यह जो इंद्रियों की शांति है, जो दान से या प्रेम से फलित होती है, इस शाति में और इंद्रियों को दबा लेने में बड़ा फर्क है, बुनियादी विरोध है। कोई व्यक्ति अगर इंद्रियों को जोर से दबा ले, तो भीतर अशांति पैदा होगी, शाति पैदा नहीं होगी।

आप किसी भी इंद्रिय को दबाकर देखें। और आप पाएंगे कि उस दबाने से और अशांति पैदा होती है, क्योंकि इंद्रिय निकलना चाहती है, बाहर आना चाहती है, भोग में जाना चाहती है। इंद्रिय आपको कहीं ले जाना चाहती है।

जो दबाएगा, वह तो और अशात हो जाएगा। लेकिन अगर कोई अपने को बांटने को राजी है, तो उसकी इंद्रियां अपने आप शात होती चली जाएंगी।

इस फर्क को आप ऐसा समझें। आप उपवास करें एक दिन। तो क्या करेंगे? उपवास करेंगे, तो दबाएंगे भूख को। भूख रोज लगी है, आज भी लगेगी; उसे दबाएंगे। दबाएंगे तो भूख और फैलेगी रोएं—रोएं में भीतर। और चौबीस घंटे सिर्फ भोजन का स्मरण आपका स्मरण होगा।

लेकिन घर में एक मेहमान आया है। और घर में इतना ही भोजन है कि या तो आप कर लें या मेहमान को करा दें। और आप प्रसन्न हैं कि मेहमान घर में आया, और आप आनंदित हैं। तो आपने मेहमान को भोजन कराया। यह उपवास बड़े और ढंग का होगा। इस उपवास में एक खुशी होगी, एक प्रफुल्लता होगी। भूख अब भी लगी है, लेकिन आपने भूख को दबाया नहीं, आपने भोजन को बांटा, आपने दान किया।

इसलिए मां, अगर बेटा भूखा हो, तो उसे खिला देगी, खुद भूखी सो जाएगी। इस उपवास का मजा और है। इस उपवास में जो आनंद है, वह किसी साधारण साधु के, संन्यासी के उपवास में नहीं हो सकता। क्योंकि वह केवल भूख को दबा रहा है। इसने भूख को दबाया नहीं है, भोजन को बांटा है। यहा बुनियादी फर्क है। यहां किसी और की भूख को पूरा किया है। और उसकी भूख को पूरा किया है, जिसके प्रति प्रेम है।

दान, अगर जीवन के सब पहलुओं में समा जाए, तो सभी इंद्रियां अपने आप शात हो जाती हैं। और दान से ही दमन आए, तो दमन में एक उत्सव है। बिना दान के दमन आए—लोभ से भी दमन आता है—तब एक तरह की विकृति और कुरूपता है।

यह फर्क बारीक है, नाजुक है। और इसको आप प्रयोग करेंगे, तो ही खयाल में आ सकता है। अपने को वंचित करना किसी को देने के लिए, तब उस वंचित करने में एक सुख है। और सिर्फ अपने को वंचित. करना बिना किसी को देने के खयाल से, उसमें कोई रस नहीं है, कोई सुख नहीं है। उसमें पीड़ा होगी।

तो आप भूखे रह सकते हैं, और जो पैसा बचे, वह बैंक में जमा कर सकते हैं। उस भूख में सिर्फ भूख ही होगी।

भूखे रहना प्राथमिक न हो, किसी का पेट भरना प्राथमिक हो। और अगर उसके पीछे भूखे रहना पड़े, तो भूखे रहने की स्वीकृति हो।

दान से सारी इंद्रियां रूपांतरित हो सकती हैं। आप नग्न खड़े हो जाएं सड़क पर, यह एक बात है। यह नग्नता अधूरी है, और इस नग्नता में अहंकार है। लेकिन कोई नग्न खड़ा हो और अपने वस्त्र उसको ओढ़ा दें, उस नग्नता का रस और है। उस नग्नता में न अहंकार है, न तप का कोई भाव है। उस नग्नता की पवित्रता और पूर्णता और है। उसका गुणधर्म और है।

लेकिन अक्सर यह हुआ कि जो भी धर्म दान के माध्यम से जीवन को रूपांतरित करने को पैदा हुए, दान तो भूल गया, वह जो दान का आधा हिस्सा था, वह भीतर रह गया। उस आधे हिस्से का कोई अर्थ नहीं है।

आप खूब उपवास कर सकते हैं, लेकिन आपका उपवास किसी के पेट भरने का हिस्सा होना चाहिए। आप बिलकुल दरिद्र हो सकते हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है। आपकी दरिद्रता किसी को समृद्ध करने का हिस्सा होना चाहिए, तब बात पूरी होती है। और तब जीवन में इंद्रियों का उत्पात जिस भांति शांत होता है, उस भांति कोई भी दमन करके कभी उन्हें शात नहीं कर पाया।

यज्ञ, स्वाध्याय, तप, शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।

यज्ञ एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का नाम है। उसके बाह्य रूप से तो हम परिचित हैं। लेकिन बाह्य रूप तो सिर्फ प्रतीक है। बाहर के प्रतीक से कुछ भीतर की बात कहने की कोशिश की गई है। यज्ञ एक तकनीक है, एक विधि है, कि भीतर कैसे अग्नि प्रज्वलित हो, और उस अग्नि में मैं कैसे भस्मीभूत हो जाऊं।

सारा जीवन अग्नि का खेल है। आप भी अग्नि के एक रूप हैं। भोजन पच रहा है, खून बन रहा है, खून दौड़ रहा है, हृदय गति करता है, श्वास चलती है, सब अग्नि का खेल है। शरीर से अग्नि

खो जाए, सब खो जाता है। आप ठंडे हुए, कि मौत आ गई। मौत सदा ठंडी है। जीवन सदा गर्म है। जीवन एक उष्णता है। हिंदुओं ने इस उष्णता के बड़े गहरे प्रयोग किए हैं। उन गहरे प्रयोगों का नाम यज्ञ है।

यह जो जीवन की उष्णता है, जिससे साधारण काम चल रहा है, भोजन पच रहा है। आप सोच भी नहीं सकते, वैज्ञानिक भी अभी तक राज को पूरा खोल नहीं पाए। इस छोटे—से शरीर में बड़ा विराट कार्य चल रहा है। भोजन आप करते हैं, पचता है, खून बनता है, मांस—मज्जा बनती है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर एक आदमी के शरीर के भीतर जितना काम होता है—एक रोटी को हम डालते हैं, खून और मांस—मज्जा बन जाती है। अभी तक रोटी को मशीन में डालकर खून, मांस—मज्जा बनाने की कोई हम व्यवस्था नहीं खोज पाए हैं। वैज्ञानिक सोचते हैं कि कभी यह संभव होगा—पक्का नहीं कहा जा सकता कब, लेकिन कभी संभव होगा—तो एक आदमी का शरीर जितना काम करता है, इतना काम करने के लिए कम से कम चार वर्ग मील की यांत्रिक व्यवस्था करनी पड़ेगी। इतनी बड़ी फैक्टरी चार वर्ग मील के क्षेत्र पर फैले, तब हम आदमी के शरीर के भीतर जो काम चल रहा है पूरा, इतना काम उसमें कर पाएंगे। बड़ा अदभुत काम चल रहा है, और बड़े चुपचाप चल रहा है।

लेकिन सबके भीतर—जैसा हिंदुओं की धारणा, योग की धारणा है—सबके भीतर एक अग्नि प्रज्वलित है, अग्नि सारा काम कर रही है। प्रदीप्त अग्नि है भीतर। श्वास हम लेते हैं, वह भी अग्नि ही है। दीया जलता है, वह भी अग्नि ही है। वैज्ञानिक उसको आक्सीडाइजेशन कहते हैं।

एक दीया जल रहा हो, और जोर से हवा का झोंका आए, आप डर जाएंगे कि कहीं बुझ न जाए; बर्तन से ढंक दें, कांच के बर्तन से ढंक दें। थोड़ी देर, क्षणभर तो जलता रहेगा, फिर बुझ जाएगा। तूफान शायद न बुझा पाता, लेकिन ढंके हुए बर्तन में बुझ जाएगा, क्योंकि प्रतिपल जलने के लिए आक्सीजन चाहिए। वह जितनी आक्सीजन भीतर है, उतनी देर जल जाएगा, फिर बुझ जाएगा।

चौबीस घंटे हम श्वास ले रहे हैं, उससे आक्सीजन भीतर जा रही है, वह अग्नि है, सूक्ष्म अग्नि है। श्वास बंद हुई कि आदमी मरा। श्वास ठीक से न ली, तो जीवन क्षीण हो जाता है।

तो योग की प्रक्रियाओं के द्वारा भीतर की इस अग्नि को धूं— धूं करके प्रज्वलित करने की प्रक्रियाएं हैं। उनका नाम यज्ञ है। और जब यह धूं— धूं करके भीतर की अग्नि पूरी जलती है, तो इससे सिर्फ भोजन ही नहीं पचता, शरीर ही नहीं चलता, जीवन के साधारण दैनंदिन कार्य ही नहीं होते, धू— फर जब अग्नि जलती है, तो उसमें हमारा अहंकार जल जाता है। और उस अग्नि से गुजरकर ही हमें पहली दफा पूरी दिव्यता का अनुभव होता है। और अहंकार के जलते ही कचरा जल जाता है, स्वर्ण निखरकर बाहर आता है। स्वाध्याय का अर्थ है, अपना सदा अध्ययन करते रहना। स्वाध्याय का अर्थ गीता पढ़ना नहीं है, वह गौण अर्थ है। वेद पढ़ना नहीं है, वह गौण अर्थ है। स्वाध्याय का अर्थ है, स्वयं का निरंतर अध्ययन, स्वयं को निरंतर देखते रहना। एक—एक छोटी—छोटी गतिविधि को पहचानते रहना, परखते रहना, विश्लेषण करते रहना। क्या मैं कर रहा हूं र क्यों कर रहा हूं क्या छिपे कारण है—उन सबकी पूरी जांच—परख करते रहना। स्वयं को एक अध्ययन की जीवंत प्रक्रिया बना लेना। स्वप्न भी भीतर पैदा हो, तो उसका भी अध्ययन करना कि वह क्यों घटा!

कोई स्वप्न ऐसे ही नहीं घटता। आप रात स्वप्न देखते हैं, किसी की हत्या कर देते हैं। ऐसे ही हत्या नहीं होती। स्वप्न में भी ऐसे ही नहीं होती। कहीं कुछ छिपा राज है, कुछ होना चाहता है, स्वप्न में उसको अभिव्यक्ति मिली है। स्वप्न से लेकर कृत्यों तक सभी कुछ अध्ययन करते रहना। स्वयं को एक शास्त्र बना लेना और उससे सीखना कि क्या हो रहा है। लिए गए परिणाम और नतीजों पर आगे उपयोग करने का नाम तप है।

स्वाध्याय तथा तप…….।

जो स्वयं के अध्ययन से निष्कर्ष हों, उन निष्कर्षों के अनुसार चलने का नाम तप है। तप का मतलब इतना नहीं है कि अपने को अकारण सताना, परेशान करना, कि अपने को दुख देना। तप का अर्थ है, जो मेरे अध्ययन से नतीजे निकले हैं, उन नतीजों के अनुसार जीवन को चलाना।

कठिन होगा, और दुख झेलना पड़ेगा, संकल्प का उपयोग करना पड़ेगा। क्योंकि पुरानी आदतें हैं, वे सुगम हैं। चाहे उनसे दुख मिलता हो अंत में, लेकिन वे सुगम हैं। उन्हें बदलना दुर्गम होगा, दुख उठाना पड़ेगा। लेकिन एक बार वे बदल जाएं, तो आनंद की मंजिल उनसे उपलब्ध होती है। सम्यकरूप से स्वयं के निरीक्षण से जो नतीजे हाथ आए हों, उन नतीजों को लिखकर रख देना नहीं, वरन उनके अनुसार जीवन को चलाना तपश्चर्या है।

और शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।

और जीवन के सब पहलुओं पर जटिलता की बजाय सरलता को जगह देना। जो भी जटिल हो, उससे बचने की कोशिश करना। जो भी सरल हो, उसको स्थापित करना।

आमतौर से हम उलटा करते हैं। जो भी जटिल हो, वह हमें आकर्षित करता है। अगर एक पहेली सामने रखी हो, जो बहुत उलझन वाली हो, तो हम पच्चीस काम छोड्कर उसको हल करने में लग जाते हैं। जटिल हमें आकर्षित करता है। जटिल क्यों आकर्षित करता है?

एवरेस्ट है वहा, तो आदमी का मन चढ़ने का होता है। एडमंड हिलेरी से किसी ने पूछा कि तुम एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए इतने पागलपन से क्यों भरे रहे? तो उसने कहा, चूंकि एवरेस्ट है, इसलिए चढ़ना ही पड़ेगा; चुनौती है।

तो जितनी जटिल हो चीज…….। अब चांद पर जाने की कोई जरूरत नहीं है, पर जाना पड़ेगा। मंगल पर भी जाने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन जाना पड़ेगा, क्योंकि मंगल है और हमारा मन बेचैन है। हालाकि आप चांद पैर पहुंच जाएं कि मंगल पर, आप ही रहेंगे! जो उपद्रव आप यहां कर रहे हैं, वहा करेंगे! मंगल आप में कोई फर्क ला नहीं सकता। और यहा दुखी हैं, तो वहा दुखी होंगे! पहुंचकर कुछ भी होगा नहीं।

लेकिन जटिल आकर्षित करता है, क्योंकि जटिल में चुनौती है। चुनौती से अहंकार भरता है। तो जितना कठिन काम हो, उतना करने जैसा लगता है। जितना सरल काम हो, उतना करने जैसा नहीं लगता, क्योंकि सरलता से कोई अहंकार को भरती नहीं मिलती। कृष्ण कहते हैं, शरीर, इंद्रियों और अंतःकरण की सभी आयामों में सरलता।

जो सरल हो, उसको चुनें। और धीरे— धीरे आप पाएंगे, आपका अहंकार जाने लगा। जो कठिन है, उसको चुनें। और आप पाएंगे, आपका अहंकार बढ़ने लगा।

आदमी खुद भी अपने लिए कठिनाइयां पैदा करता है। क्योंकि कठिनाइयां पैदा करके जब उनको वह पार कर लेता है, तो वह दुनिया को कह सकता है, देखो, इतनी कठिनाइयों को मैंने पार किया! सरलता को आप किसको बताने जाइएगा कि पार किया! उसमें पार करने जैसा कुछ था ही नहीं।

अगर आप जीवन में सरलता को नियम बना लें और जब भी कोई विकल्प सामने हो, तो सरल को चुनें…….। बहुत कठिन है यह, सरल को चुनना, क्योंकि अहंकार को इसमें कोई रस नहीं आता।

सिर के बल खड़े हो जाएं रास्ते पर, पचास लोग भीड़ लगाकर खड़े हो जाते हैं। आप दोनों पैर के बल खड़े हों, फिर कोई भीड़ लगाकर खड़ा नहीं होता। सिर के बल खड़े होते से ही भीड़ लग जाती है, क्योंकि आप कुछ कर रहे हैं, जो कठिन है। हालांकि सिर के बल खड़े होने से कुछ मिलता नहीं, लेकिन भीड़ इकट्ठी होती है। और भीड़ इकट्ठी हो, तो हमें रस आता है।

काफ्का, एक बहुत प्रसिद्ध कथाकार, उसने एक छोटी—सी कहानी लिखी है। एक आदमी उपवास करता था, उपवास का प्रदर्शन करता था। वह चालीस दिन तक उपवास कर लेता था। लोग बड़े प्रभावित होते थे। गांव—गांव वह जाता था और चालीस दिन के उपवास करता था। फिर एक सरकस गांव में थी जहां वह उपवास कर रहा था, तो सरकस वाले लोगों को जंच गई बात, उन्होंने उसको सरकस में ले लिया। सरकस में भी उसको देखने बड़ी भीड़ इकट्ठी होती थी। लेकिन यह धीरे— धीरे…..।

अगर आप रोज ही सिर के बल खड़े रहें, तो फिर भीड़ इकट्ठी नहीं होगी। फिर लोग कहते हैं, वह खड़ा ही रहता है, ठीक है। वह जो आदमी उपवास करता था, वह करता ही था। तो पहले तो लोगों को कठिन लगा, चालीस दिन! इधर करता, तो कोई कठिन भी नहीं लगता हमको। हमारे मुल्क में कई लोग कर ही रहे हैं। जर्मनी में कर रहा था, तो बहुत कठिन बात थी; चालीस दिन बहुत बड़ी बात है। पर धीरे— धीरे लोगों को लगा, यह करता ही है, अभ्यासी है। लोगों ने उसकी झोपड़ी का टिकट लेना बंद कर दिया। फिर सरकस के लोगों को लगा, अब कोई ज्यादा उसकी टिकट भी नहीं खरीदता, तो फिजूल उसको क्यों ढोना! तो उन्होंने उससे कहा कि अब तुम जाओ। पर उसने कहा कि अब मैं जा नहीं सकता, क्योंकि मैं बिना उपवास किए रह नहीं सकता। मुझे रहने दो। तो उन्होंने सबसे पीछे जहां जंगली जानवरों के कुछ कटघरे थे, वहा उसका भी एक कटघरा बना दिया।

लोग आते थे फिर भी, कोई शेर को देखने आता, कोई हाथी को देखने आता, तो उसके कटघरे से निकलते थे। वह इससे भी रस लेता था। वह अपने मन में यह सोचता था कि चलो, मुझे देखने आते हैं। हालाकि उसको लगता था कि अब यहां मुझे देखने कोई आता नहीं।

जब चालीस दिन का कोई परिणाम न रहा, तो उसने घोषणा की कि अब मैं सदा के लिए उपवास कर रहा हूं। कोई अस्सी दिन वह टिक गया। जब अस्सी दिन की खबर पहुंची, तो लोग आने शुरू हुए। नब्बे दिन के करीब पहुंच गया, तो एक पत्रकार ने उसके कान के पास जाकर पूछा, क्योंकि उसकी आवाज अब बिलकुल क्षीण हो गई थी, कि तू यह किसलिए कर रहा है? तो उसने बिलकुल क्षीण आवाज में कहा कि मैं सब रिकार्ड तोड़ देना चाहता हूं; मर जाऊं भला, मगर रिकार्ड तोड़ देना है। मुझसे ज्यादा बड़ा उपवास करने वाला दुनिया में कभी भी नहीं हुआ!

जटिल में एक रस है, रिकार्ड तोड्ने का रस। सरल में कोई रिकार्ड ही नहीं है, सभी लोग उसको करते ही रहे हैं।

कृष्ण कहते हैं, दिव्यता की तरफ जिसे जाना है, उसे सरलता का चुनाव जीवन के सब पहलुओं पर…….।

जब भी चुनाव हो, तो सरल का, सरलतम का। और आप धीरे— धीरे पाएंगे, अहंकार बचा ही नहीं जिसको मिटाना है। और अहंकार खो जाए, तो आसुरी संपदा की जड़ कट गई। निरअहंकारिता आ जाए, तो दैवी संपदा का द्वार खुल गया।

आज इतना ही।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–2)

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आध्यात्मिक विश्व आंदोलन—ताकि कुछ व्‍यक्‍ति प्रबुद्ध हो सकें—(प्रवचन—दूसरा)

जिनके भीतर भी पुकार है उनके ऊपर एक बड़ा दायित्व है आज जगत के लिए। आज तो जगत के कोने— कोने में जाकर कहने की यह बात है कि कुछ थोड़े से लोग बाहर निकल आएं और सारे जीवन को समर्पित कर दें ऊंचाइयां अनुभव करने के लिए।

मेरे प्रिय आत्मन्।

कल संध्या की चर्चा में कुछ बातें मैने कही हैं। उस संबंध में स्पष्टीकरण के लिए कुछ प्रश्न आए हैं। एक मित्र ने पूछा है कि यदि मां के पेट में पुरुष और स्त्री आत्मा के जन्मने के लिए अवसर पैदा करते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि आत्माएं अलग— अलग हैं और सर्वव्यापी आत्मा नहीं है। उन्होने यह भी पूछा है कि मैने तो बहुत बार कहा है कि एक ही सत्य है एक ही परमात्मा है एक ही आत्मा है फिर ये दोनों बातें तो कंट्राडिक्टरी विरोधी मालूम होती हैं।

ये दोनों बातें विरोधी नहीं हैं। परमात्मा तो एक ही है, आत्मा तो वस्तुत: एक ही है, लेकिन शरीर दो प्रकार के हैं। एक शरीर जिसे हम स्थूल शरीर कहते हैं, जो हमें दिखाई पड़ता है, एक शरीर जो सूक्ष्म शरीर है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है। एक शरीर की जब मृत्यु होती है, तब स्थूल शरीर तो गिर जाता है, लेकिन जो सूक्ष्म शरीर है, वह जो सटल बाडी है, वह नहीं मरती है। आत्मा दो शरीरों के भीतर वास कर रही है, एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर। मृत्यु के समय स्थूल शरीर गिर जाता है। यह जो मिट्टी —पानी से बना हुआ शरीर है, यह जो हड्डी—मांस —मज्जा की देह है, यह गिर जाती है। फिर अत्यंत सूक्ष्म विचारों का, सूक्ष्म संवेदनाओं का, सूक्ष्म वायब्रेशंस का, सूक्ष्म तंतुओं का शरीर शेष रह जाता है।

वह तंतुओं से घिरा हुआ शरीर आत्मा के साथ फिर यात्रा शुरू करता है और फिर नए जन्म के लिए स्थूल शरीर में प्रवेश करता है। जब एक मां के पेट में नई आत्मा का प्रवेश होता है, तो उसका अर्थ है सूक्ष्म शरीर का प्रवेश। मृत्यु के समय सिर्फ स्थूल शरीर गिरता है, सूक्ष्म शरीर नहीं। लेकिन परम मृत्यु के समय—जिसे हम मोक्ष कहते हैं —उस परम मृत्यु के समय स्थूल शरीर के साथ ही सूक्ष्म शरीर भी गिर जाता है। फिर आत्मा का कोई जन्म नहीं होता, फिर वह आत्मा विराट में लीन हो जाती है। वह जो विराट में लीनता है, वह एक ही है। जैसे एक बूंद सागर में गिर जाती है।

तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। आत्मा का तत्व एक है। उस आत्मा के तत्व के संबंध में आकर दो तरह के शरीर सक्रिय होते हैं—एक स्थूल शरीर और एक सूक्ष्म शरीर। स्थूल शरीर से हम परिचित हैं, सूक्ष्म शरीर से योगी परिचित होता है। और योग के भी जो ऊपर उठ जाते हैं, वे उससे परिचित होते हैं जो आत्मा है।

सामान्य आंखें देख पाती हैं स्थूल शरीर को। योग —दृष्टि, ध्यान देख पाता है सूक्ष्म शरीर को। लेकिन ध्यानातीत, बियांड योग, सूक्ष्म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि में अनुभव होता है। ध्यान से भी जब व्यक्ति ऊपर उठ जाता है, तो समाधि फलित होती है। और उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्मा का अनुभव है।

साधारण मनुष्य का अनुभव शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्मा का अनुभव है। परमात्मा एक है, सूक्ष्म शरीर अनंत हैं, स्थूल शरीर अनंत हैं। वह जो सूक्ष्म शरीर है, वह है कॉजल बाडी। वह जो सूक्ष्म शरीर है, वही नए स्थूल शरीर ग्रहण करता है। हम यहां देख रहे हैं कि बहुत से बल्‍ब जले हुए हैं। विद्युत तो एक है, विद्युत बहुत नहीं है। वह ऊर्जा, वह शक्ति, वह इनर्जी एक है, लेकिन दो अलग बल्बों से वह प्रकट हो रही है। बल्‍ब का शरीर अलग — अलग है, उसकी आत्मा एक है। हमारे भीतर से जो चेतना झांक रही है, वह चेतना एक है। लेकिन उस चेतना के झांकने में दो उपकरणों का, दो वेहिकल्स का प्रयोग किया गया है। एक सूक्ष्म उपकरण है, सूक्ष्म देह; और दूसरा उपकरण है, स्थूल देह।

हमारा अनुभव स्थूल देह तक ही रुक जाता है। यह जो स्थूल देह तक रुक गया अनुभव है, यही मनुष्य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कुछ लोग सूक्ष्म शरीर पर भी रुक सकते हैं। जो लोग सूक्ष्म शरीरों पर रुक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि आत्माएं अनंत हैं। लेकिन जो सूक्ष्म शरीर के भी आगे चले जाते हैं, वे कहेंगे, परमात्मा एक है, आत्मा एक है, ब्रह्म एक है।

मेरी इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। मैंने जो आत्मा के प्रवेश के लिए कहा, उसका अर्थ है वह आत्मा जिसका अभी सूक्ष्म शरीर गिर नहीं गया है। इसलिए हम कहते हैं कि जो आत्मा परम मुक्ति को उपलब्ध हो जाती है, उसका जन्म —मरण बंद हो जाता है। आत्मा का तो कोई जन्म —मरण है ही नहीं, वह तो न कभी जन्मी है और न कभी मरेगी। वह जो सूक्ष्म शरीर है, वह भी समाप्त हो जाने पर कोई जन्म —मरण नहीं रह जाता है। क्योंकि सूक्ष्म शरीर ही कारण बनता है नए जन्मों का।

सूक्ष्म शरीर का अर्थ है, हमारे विचार, हमारी कामनाएं, हमारी वासनाएं, हमारी इच्छाएं, हमारे अनुभव, हमारा शान, इन सबका जो संग्रहीभूत, जो इंटिग्रेटेड सीड है, इन सबका जो बीज है, वह हमारा सूक्ष्म शरीर है। वही हमें आगे की यात्राओं पर ले जाता है। लेकिन जिस मनुष्य के सारे विचार नष्ट हो गए, जिस मनुष्य की सारी वासनाएं क्षीण हो गईं, जिस मनुष्य की सारी इच्छाएं विलीन हो गईं, जिसके भीतर अब कोई भी इच्छा शेष न रही, उस मनुष्य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्म की कोई वजह नहीं रह जाती।

रामकृष्ण के जीवन में एक अदभुत घटना है। रामकृष्ण को जो लोग बहुत निकट से जानते थे, उन सबको यह बात जानकर अत्यंत कठिनाई होती थी कि रामकृष्ण जैसा परमहंस, रामकृष्ण जैसा समाधिस्थ व्यक्ति भोजन के संबंध में बहुत लोलुप था। रामकृष्ण भोजन के लिए बहुत आतुर होते थे और भोजन के लिए इतनी प्रतीक्षा करते थे कि कई बार उठकर चौके में पहुंच जाते और पूछते शारदा को, बहुत देर हो गई, क्या बन रहा है आज? ब्रह्म की चर्चा चलती और बीच में ब्रह्म —चर्चा छोड्कर पहुंच जाते किचन में और पूछने लगते, क्या बना है आज? और खोजने लगते। शारदा ने भी उन्हें कहा कि आप क्या करते हैं ऐसा? लोग क्या सोचते होंगे कि ब्रह्म की चर्चा छोड्कर एकदम अन्न की चर्चा पर आप उतर आते हैं! रामकृष्ण हंसते और चुप रह जाते। उनके शिष्यों ने भी उन्हें बहुत बार कहा कि इससे बहुत बदनामी होती है। लोग कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति क्या ज्ञान को उपलब्ध हुआ होगा, जिसकी अभी रसना, जिसकी अभी जीभ इतनी लालायित होती है भोजन के लिए!

एक दिन शारदा ने —रामकृष्ण की पत्नी ने —बहुत कुछ भला —बुरा कहा तो रामकृष्ण ने कहा कि पागल, तुझे पता नहीं, जिस दिन मैं भोजन के प्रति अरुचि प्रकट करूं, तू समझ लेना कि अब मेरे जीवन की यात्रा केवल तीन दिन और शेष रह गई। बस तीन दिन से ज्यादा फिर मैं जीऊंगा नहीं। जिस दिन भोजन के प्रति मेरी उपेक्षा हो, तू समझ लेना कि तीन दिन बाद मेरी मौत आ गई है। शारदा कहने लगी, इसका अर्थ? रामकृष्ण कहने लगे, मेरी सारी वासनाएं क्षीण हो गई हैं, मेरी सारी इच्छाएं विलीन हो गई हैं, मेरे सारे विचार नष्ट हो गए हैं, लेकिन जगत के हित के लिए मैं रुका रहना चाहता हूं। मैं एक वासना को जबर्दस्ती पकडे हुए हूं, जैसे किसी नाव की सारी जंजीरें खुल गई हों और एक जंजीर से नाव अटकी रह गई हो, और एक जंजीर और छूट जाए तो नाव अपनी अनंत यात्रा पर निकल जाएगी। मैं चेष्टा करके रुका हुआ हूं।

उस दिन किसी की समझ में शायद यह बात नहीं आई। लेकिन रामकृष्ण की मृत्यु के तीन दिन पहले शारदा थाली लगाकर रामकृष्ण के कमरे में गई। वे बैठे हुए देख रहे थे। उन्होंने थाली देखकर आंखें बंद कर लीं, लेट गए, और पीठ कर ली शारदा की तरफ। उसे एकदम से खयाल आया कि उन्होंने कहा था कि तीन दिन बाद मौत हो जाएगी, जिस दिन भोजन के प्रति अरुचि प्रकट करूं। उसके हाथ से थाली झन्नाकर नीचे गिर पड़ी, वह छाती पीट कर रोने लगी। रामकृष्ण ने कहा, रोओ मत! तुम जो कहती थीं वह बात भी अब पूरी हो गई। ठीक तीन दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु हो गई। एक छोटी —सी वासना को प्रयास करके वे रोके हुए थे। उतनी छोटी —सी वासना जीवन —यात्रा का आधार बनी थी, वह वासना भी चली गई तो जीवन—यात्रा का सारा आधार समाप्त हो गया।

जिन्हें हम तीर्थंकर कहते हैं, जिन्हें हम बुद्ध कहते हैं, जिन्हें हम ईश्वर के पुत्र कहते हैं, जिन्हें हम अवतार कहते हैं, उनकी भी एक ही वासना शेष रह गई होती है। और उस वासना को वे शेष रखना चाहते हैं करुणा के हित, सर्वमंगल के हित, सर्व लोक के हित। जिस दिन वह वासना भी क्षीण हो जाती है, उसी दिन जीवन की यह यात्रा समाप्त और अनंत की अंतहीन यात्रा शुरू हो जाती है। उसके बाद जन्म नहीं है, उसके बाद मरण नहीं है, उसके बाद उसके बाद न एक है, न अनेक है। उसके बाद तो जो शेष रह जाता है, उसे संख्या में गिनने का कोई उपाय नहीं है।

इसलिए जो जानते हैं, वे यह भी नहीं कहते हैं कि ब्रह्म एक है, परमात्मा एक है। क्योंकि एक कहना व्यर्थ है जब कि दो की गिनती न बनती हो। एक कहने का कोई अर्थ नहीं, जब कि दो और तीन न कहे जा सकते हों। एक कहना तभी तक सार्थक है जब तक कि दो तीन चार भी सार्थक होते हैं। संख्याओं के बीच ही एक की सार्थकता है। इसलिए जो जानते हैं, वे यह भी नहीं कहते कि ब्रह्म एक है, वे कहते हैं, ब्रह्म अद्वैत, नानडुअल है, दो नहीं है। बहुत अदभुत बात कहते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा दो नहीं है। वे यह कहते हैं कि परमात्मा को संख्या में गिनने का उपाय नहीं है, एक कहकर भी हम संख्या में गिनने की कोशिश करते हैं, वह गलत है। लेकिन उस तक पहुंचना तो दूर, अभी तो हम स्थूल शरीर पर खड़े हैं, उस शरीर पर, जो अनंत है, अनेक है। उस शरीर के भीतर हम प्रवेश करेंगे, तो एक और शरीर उपलब्ध होगा, सूक्ष्म शरीर। उस शरीर को भी पार करेंगे, तो वह उपलब्ध होगा, जो शरीर नहीं है, अशरीर है, जो आत्मा है।

मैंने जो कल कहा, उसमें जरा भी विरोध नहीं है, उसमें कोई विरोधाभास नहीं है।

एक और मित्र ने पूछा है आत्मा शरीर के बाहर चली जाए तो क्या दूसरे मृत शरीर में भी प्रवेश कर सकती है?

कर सकती है। लेकिन दूसरे मृत शरीर में प्रवेश करने का कोई अर्थ और प्रयोजन नहीं रह जाता। क्योंकि दूसरा शरीर इसीलिए मृत हुआ है कि उस शरीर में रहने वाली आत्मा अब उस शरीर में रहने में असमर्थ हो गई थी। वह शरीर व्यर्थ हो गया था, इसीलिए छोड़ा गया है। कोई प्रयोजन नहीं है उस शरीर में प्रवेश का। लेकिन इस बात की संभावना है कि दूसरे शरीर में प्रवेश किया जा सके।

लेकिन यह प्रश्न पूछना मूल्यवान नहीं है कि हम दूसरे के शरीर में कैसे प्रवेश करें, अपने ही शरीर में हम कैसे बैठे हुए हैं, इसका भी हमें कोई पता नहीं। हम दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की व्यर्थ की बातों पर विचार करने से क्या फायदा उठा सकते हैं? हम अपने ही शरीर में कैसे प्रविष्ट हो गए हैं, इसका भी हमें कोई पता नहीं। हम अपने ही शरीर में कैसे जी रहे हैं, इसका भी कोई पता नहीं। हम अपने ही शरीर से पृथक होकर अपने को देख सकें, इसका भी कोई अनुभव नहीं। दूसरे के शरीर में प्रवेश का प्रयोजन भी नहीं है।

लेकिन वैज्ञानिक रूप से यह कहा जा सकता है कि दूसरे के शरीर में प्रवेश संभव है। क्योंकि शरीर न दूसरे का है, न अपना है। सब शरीर दूसरे हैं। जब मां के पेट में एक आत्मा प्रविष्ट होती है, तब भी वह शरीर में ही प्रवेश हो रही है। बहुत छोटे शरीर में प्रवेश हो रही है, एटामिक बाडी में प्रवेश हो रही है, लेकिन शरीर तो है।

वह जो पहले दिन अणु बनता है मां के पेट में, वह अणु आपके पूरे शरीर की रूपाकृति अपने में छिपाए हुए है। पचास साल बाद आपके बाल सफेद हो जाएंगे, यह संभावना भी उस छोटे —से बीज में छिपी हुई है। आपकी आख का रंग कैसा होगा, यह संभावना भी उस बीज में छिपी हुई है। आपके हाथ कितने लंबे होंगे, आप स्वस्थ होंगे कि बीमार, आप गोरे होंगे कि काले, कि बाल घुंघराले होंगे, ये सारी बातें उस छोटे —से बीज में पोटेंशियली छिपी हुई हैं। वह छोटी देह है, एटामिक बाडी है, अणु शरीर है, उस अणु शरीर में आत्मा प्रविष्ट होती है। उस अणु शरीर की जो संरचना है, उस अणु शरीर की जो स्थिति है, जो सिचुएशन है, उसके अनुकूल आत्मा उसमें प्रवष्टि होती है।

और दुनिया में जो मनुष्य —जाति का जीवन और चेतना रोज नीचे गिरती जा रही है, उसका एक मात्र कारण है कि दुनिया के दंपति श्रेष्ठ आत्माओं के जन्म लेने की सुविधा पैदा नहीं कर रहे हैं। जो सुविधा पैदा की जा रही है, वह अत्यंत निकृष्ट आत्माओं के पैदा होने की सुविधा है। आदमी के मर जाने के बाद जरूरी नहीं है कि उस आत्मा को जल्दी ही जन्म लेने का अवसर मिल जाए। साधारण आत्माएँ जो न बहुत श्रेष्ठ होती हैं, न बहुत निकृष्ट होती हैं, तेरह दिन के भीतर नए शरीर की खोज कर लेती हैं। लेकिन बहुत निकृष्ट आत्माएं भी रुक जाती हैं, क्योंकि उतना निकृष्ट अवसर मिलना मुश्किल होता है। उन निकृष्ट आत्माओं को ही हम प्रेत और भूत कहते हैं। बहुत श्रेष्ठ आत्माएं भी रुक जाती हैं, क्योंकि उतने श्रेष्ठ अवसर का उपलब्ध होना मुश्किल होता है। उन श्रेष्ठ आत्माओं को ही हम देवता कहते हैं।

पहली पुरानी दुनिया में भूत—प्रेतों की संख्या बहुत ज्यादा थी और देवताओं की संख्या बहुत कम। आज की दुनिया में भूत —प्रेतों की संख्या बहुत कम हो गई है और देवताओं की संख्या बहुत। क्योंकि देव पुरुषों को पैदा होने का अवसर कम हो गया है, भूत—प्रेतों को पैदा होने का अवसर बहुत तीव्रता से उपलब्ध हुआ है। तो जो भूत—प्रेत रुके रह जाते थे मनुष्य के भीतर प्रवेश करने से, वे सारे के सारे मनुष्य —जाति में प्रविष्ट हो गए हैं। इसीलिए आज भूत—प्रेतों का दर्शन मुश्किल हो गया है, क्योंकि उसके दर्शन की कोई जरूरत नहीं। आप आदमी को ही देख लें और उसके दर्शन हो जाते हैं। और देवता पर हमारा विश्वास कम हो गया है, क्योंकि देव पुरुष ही जब दिखाई न पड़ते हों, तो देवता पर विश्वास करना बहुत कठिन है।

एक जमाना था कि देवता उतनी ही वास्तविकता थी, उतनी ही एक्चुअलटी थी जितना कि, हमारे जीवन के और दूसरे सत्य हैं। अगर हम वेद के ऋषियों को पढ़ें, तो ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि वे देवताओं के संबंध में जो बात कह रहे हैं, वह किसी कल्पना के देवता के संबंध में बात कह रहे हों। नहीं, वे ऐसे देवता की बात कर रहे हैं जो उनके साथ गीत गाता है, हंसता है, बात करता है। वे ऐसे देवता की बात कर रहे हैं जो जैसे पृथ्वी पर चलता है, उनके अत्यंत निकट है। हमारा देव लोक से सारा संबंध विनष्ट हुआ है, क्योंकि हमारे बीच ऐसे पुरुष नहीं जो सेतु बन सकें, जो ब्रिज बन सकें, जो देवताओं और मनुष्यों के बीच में खड़े होकर घोषणा कर सकें कि देवता कैसे होते हैं। और इसका सारा जिम्मा मनुष्य—जाति के दांपत्य की जो व्यवस्था है, उस पर निर्भर है। मनुष्य—जाति की दापत्य की सारी की सारी व्यवस्था कुरूप, अग्ली और परवटेंड है।

पहली तो बात यह है कि हमने हजारों साल से प्रेमपूर्ण विवाह बंद कर दिये हैं और विवाह हम बिना प्रेम के कर रहे हैं। जो विवाह बिना प्रेम के होगा, उस दंपति के बीच कभी भी वह आध्यात्मिक संबंध उत्पन्न नहीं होता जो प्रेम से संभव था। उन दोनों के बीच कभी भी वह हार्मनी, कभी भी वह एकरूपता और संगीत पैदा नहीं होता, जो एक श्रेष्ठ आत्मा के जन्म के लिए जरूरी है। उनका प्रेम केवल साथ रहने की वजह से पैदा हो गया साहचर्य होता है। उनके प्रेम में वह आत्मा का आंदोलन नहीं होता, जो दो प्राणों को एक कर देता है। प्रेम के बिना जो बच्चे पैदा होते हैं पृथ्वी पर, वे बच्चे प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते, वे देवता जैसे नहीं हो सकते। उनकी स्थिति भूत—प्रेत जैसी ही होगी, उनका जीवन घृणा, क्रोध और हिंसा का ही जीवन होगा। जरा सी बात फर्क पैदा करती है। अगर व्यक्तित्व की बुनियादी हार्मनी, अगर व्यक्तित्व की बुनियादी लयबद्धता नहीं है तो अदभुत परिवर्तन होते हैं।

शायद आपको पता न होगा, स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती हैं। शायद आपको खयाल न होगा, स्त्री के व्यक्तित्व में एक राउंडनेस, एक सुडौलता क्यों दिखाई पड़ती है। वह पुरुष के व्यक्तित्व में क्यों नहीं दिखाई पड़ती? शायद आपको खयाल में न होगा कि स्त्री के व्यक्तित्व में एक संगीत, एक नृत्य, एक इनर डास, एक भीतरी नृत्य क्यों दिखाई पड़ता है, जो पुरुष में दिखाई नहीं पड़ता। एक छोटा —सा कारण है, बहुत बड़ा कारण नहीं है। एक छोटा —सा, इतना छोटा है कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इतने छोटे से कारण पर व्यक्तित्व का इतना भेद पैदा हो जाता है।

मां के पेट में जो बच्चा, पहला अणु निर्मित होता है, उस पहले अणु में चौबीस जीवाणु पुरुष के होते हैं और चौबीस जीवाणु स्त्री के होते हैं। अगर चौबीस —चौबीस के दोनों जीवाणु मिलते हैं तो अड़तालीस जीवाणुओं का पहला सेल निर्मित होता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है, वह स्त्री का शरीर बन जाता है। उसके दोनों बाजू चौबीस—चौबीस सेल के होते हैं बैलेंस्ट, संतुलित। पुरुष का जो जीवाणु होता है, वह सैंतालिस जीवाणुओं का होता है। एक तरफ चौबीस होते हैं, एक तरफ तेईस। बस यह बैलेंस टूट गया वहीं से व्यक्तित्व का। संतुलन टूट गया, हार्मनी टूट गई। स्त्री के दोनों पलड़े व्यक्तित्व के बराबर संतुलन के हैं। उससे सारा स्त्री का सौंदर्य, उसकी सुडौलता, उसकी कला, उसके व्यक्तित्व का रस, उसके व्यक्तित्व का काव्य पैदा होता है।

और पुरुष के व्यक्तित्व में जरा सी कमी है। उसका एक तराजू चौबीस जीवाणुओं से बना हुआ है। मां से जो जीवाणु मिलता है, वह चौबीस का बना हुआ है और पुरुष से जो मिलता है, वह तेईस का बना हुआ है। पुरुष के जीवाणुओं में दो तरह के जीवाणु होते हैं, चौबीस कोष्ठधारी और तेईस कोष्ठधारी। तेईस कोष्ठधारी जीवाणु अगर मां के चौबीस कोष्ठधारी जीवाणु से मिलता है, तो पुरुष का जन्म होता है। इसलिए पुरुष में एक बेचैनी जीवन भर बनी रहती है, एक इंटेंस डिसकटेंट बना रहता है। क्या करूं, क्या न करूं, एक चिंता, एक बेचैनी, यह कर लूं? वह कर लूं? यह कर लूं। पुरुष की जो बेचैनी है, वह एक छोटी—सी घटना से शुरू होती है और वह घटना है कि उसके एक पलड़े पर एक अणु कम है। उसका व्यक्तित्व का बैलेंस कम है। स्त्री का बैलेंस पूरा है, स्त्री की हार्मनी पूरी है, उसकी लयबद्धता पूरी है।

इतनी सी घटना इतना फर्क लाती है। हालांकि इससे स्त्री सुंदर तो हो सकी, लेकिन स्त्री विकासमान नहीं हो सकी। क्योंकि जिस व्यक्तित्व में समता है, वह विकास नहीं करता, वह ठहर जाता है। पुरुष का व्यक्तित्व विषम है। विषम होने के कारण वह दौड़ता है, विकास करता है। एवरेस्ट पर चढ़ता है, पहाड़ पार करता है, चांद पर जाएगा, तारों पर जाएगा,, खोज—बीन करेगा, सोचेगा— विचारेगा, ग्रंथ लिखेगा, धर्म —निर्माण करेगा। स्त्री यह कुछ भी नहीं करेगी। न वह एवरेस्ट पर जाएगी न वह चांद —तारों पर जाएगी, न वह धर्मों की खोज करेगी, न ग्रंथ लिखेगी, न विज्ञान की शोध करेगी वह कुछ भी नहीं करेगी। उसके व्यक्तित्व में एक संतुलन है, वह संतुलन उसे पार होने के लिए तीव्रता से नहीं भरता है।

पुरुष ने सारी सभ्यता विकसित की, एक छोटी सी बात के कारण कि उसमें एक अणु कम है और स्त्री ने सारी सभ्यताएं विकसित नहीं की, उसमें एक अणु पूरा है। इतनी छोटी—सी घटना इतने व्यक्तित्व का भेद ला सकती है! मैं इसलिए यह कह रहा हूं कि यह तो बायलॉजिकली है, यह तो जीव—शास्त्र कहेगा कि इतना सा फर्क इतने भिन्न व्यक्तित्वों को जन्म दे देता है। और भी गहरे फर्क हैं, और इनर डिफरेंस हैं।

दो पुरुष और स्त्री के मिलने पर जिस बच्चे का जन्म होता है, वह उन दोनों व्यक्तियों में कितना गहरा प्रेम है, कितनी आध्यात्मिकता है, कितनी पवित्रता है, कितने प्रेयरफुल, कितने प्रार्थनापूर्ण हृदय से वे एक—दूसरे के पास आए हैं, इस पर निर्भर करेगा कि कितनी ऊंची आत्मा उनकी तरफ आकर्षित होती है। कितनी विराट आत्मा उनकी तरफ आकर्षित होती है, कितनी महान दिव्य चेतना उस घर को अपना अवसर बनाती है, यह इस पर निर्भर करेगा।

मनुष्य —जाति क्षीण और दीन और दरिद्र और दुखी होती चली जा रही है। उसके बहुत गहरे में कारण मनुष्य के दांपत्य का विकृत होना है। और जब तक हम मनुष्य के दांपत्य जीवन को सुकृत सुसंस्कृत नहीं कर लेते, जब तक उसे हम स्पिचुलाइज नहीं कर लेते, तब तक हम मनुष्य के भविष्य को सुधार नहीं सकते हैं। और इस दुर्भाग्य में उन लोगों का भी हाथ है, जिन लोगों ने गृहस्थ जीवन की निंदा की है और संन्यासी जीवन का बहुत ज्यादा शोरगुल मचाया है। उनका हाथ है। क्योंकि एक बार जब गृहस्थ जीवन कंडेम्ह हो ‘गया, निंदित हो गया, तो उस तरफ हमने विचार करना छोड़ दिया। नहीं, मैं आपसे कहना चाहता हूं संन्यास के रास्ते से बहुत थोड़े से लोग ही परमात्मा तक पहुंच सकते हैं। बहुत थोड़े से लोग, कुछ विशिष्ट तरह के लोग, कुछ अत्यंत भिन्न तरह के लोग, संन्यास के रास्ते से परमात्मा तक पहुंचते हैं ‘ अधिकतम लोग गृहस्थ के रास्ते से और दांपत्य के रास्ते से ही परमात्मा तक पहुंचते हैं। और आश्चर्य की बात है यह कि गृहस्थ के मार्ग से पहुंच जाना अत्यंत सरल और सुलभ है, लेकिन उस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। आज तक का सारा धर्म संन्यासियों के अति प्रभाव से पीड़ित है। आज तक का पूरा धर्म गृहस्थ के लिए विकसित नहीं हो सका। और अगर गृहस्थ के लिए धर्म विकसित होता, तो हमने जन्म के पहले क्षण से विचार किया होता कि कैसी आत्मा को आमंत्रित करना है, कैसी आत्मा को पुकारना है, कैसी आत्मा को प्रवेश देना है जीवन में।

अगर धर्म की ठीक —ठीक शिक्षा हो सके और एक—एक व्यक्ति को अगर धर्म की दिशा में ठीक विचार, कल्पना और भावना दी जा सके, तो बीस वर्षों में आनेवाली मनुष्य की पीढ़ी को बिलकुल नया बनाया जा सकता है।

वह आदमी पापी है जो आदमी आने वाली आत्मा के लिए प्रेमपूर्ण निमंत्रण भेजे बिना भोग में उतरता है। वह आदमी अपराधी है, उसके बच्चे नाजायज हैं—चाहे उसने बच्चे विवाह के द्वारा पैदा किये हों —जिन बच्चों के लिए उसने अत्यंत प्रार्थना और पूजा से और परमात्मा को स्मरण करके नहीं बुलाया है। वह आदमी अपराधी है, सारी संततियों के सामने वह अपराधी रहेगा।

कौन हमारे भीतर प्रविष्ट होता है, इस पर निर्भर करता है सारा भविष्य। हम शिक्षा की फिक्र करते हैं, हम वस्त्रों की फिक्र करते हैं, हम बच्चों के स्वास्थ्य की फिक्र करते हैं, लेकिन बच्चों की आत्मा की फिक्र हम बिलकुल ही छोड़ दिये हैं। इससे कभी भी कोई अच्छी मनुष्य —जाति पैदा नहीं हो सकती।

इसलिए यह बहुत फिक्र न करें कि दूसरे के शरीर में कैसे प्रवेश करें। इस बात की फिक्र करें कि आप इस शरीर में ही कैसे प्रवेश कर गए हैं।

इस संबंध में भी एक मित्र ने पूछा है कि क्या हम अपने अतीत जन्मों को जान सकते हैं?

निश्चित ही जान सकते हैं। लेकिन अभी तो आप इस जन्म को भी नहीं जानते हैं, अतीत के जन्मों को जानना तो फिर बहुत कठिन है। निश्चित ही मनुष्य जान सकता है अपने पिछले जन्मों को, क्योंकि जो भी एक बार चित्त पर स्मृति बन गई है, वह नष्ट नहीं होती। वह हमारे चित्त के गहरे तलों में, अनकाशस हिस्सों में सदा मौजूद रहती है। हम जो भी जानते हैं, उसे कभी नहीं भूलते हैं।

अगर मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ पचास में एक जनवरी को आपने क्या किया था? तो शायद आप कुछ भी नहीं बता सकेंगे। आप कहेंगे कि मुझे क्या याद है, मुझे कुछ भी याद नहीं। एक जनवरी उन्नीस सौ पचास, कुछ भी खयाल नहीं आता कि मैंने कुछ किया।’

लेकिन अगर आपको सम्मोहित किया जा सके, हिप्नोटाइज किया जा सके—और सरलता से किया जा सकता है—और आपको बेहोश करके पूछा जाए कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को आपने क्या किया? तो आप सुबह से सांझ तक का ब्यौरा इस तरह बता देंगे जैसे अभी वह एक जनवरी आपके सामने से गुजर रही है। आप यह भी बता देंगे कि एक जनवरी को सुबह जो मैंने चाय पी थी उसमें शक्कर थोड़ी कम थी। आप यह भी बता देंगे कि जिस आदमी ने मुझे चाय दी थी, उस आदमी के शरीर से पसीने की बदबू आ रही थी। आप इतनी छोटी बातें बता देंगे कि जो जूता मैं पहने हुआ था, वह मेरे पैर में काट रहा था।

सम्मोहित अवस्था में आपके भीतर की स्मृति को बाहर लाया जा सकता है। मैंने उस दिशा में बहुत—से प्रयोग किए हैं, इसलिए आपसे कहता हूं। और जिस मित्र को भी इच्छा हो अपने पिछले जन्मों में जाने की, उसे ले जाया जा सकता है। लेकिन पहले उसे इसी जन्म में पीछे लौटना पडेगा।

इस जन्म की ही स्मृतियों में पीछे लौटना पड़ेगा। वहा तक पीछे लौटना पड़ेगा, जहां वह मां के पेट में कंसीव हुआ, गर्भ — धारण हुआ। और उसके बाद फिर दूसरे जन्मों की स्मृतियों में प्रवेश किया जा सकता है।

लेकिन ध्यान रहे, प्रकृति ने पिछले जन्मों को भुलाने की व्यवस्था अकारण नहीं की है। कारण बहुत महत्वपूर्ण हैं। और पिछले जन्म तो दूर हैं, अगर आपको एक महीने की भी सारी बातें याद रह जाएं, तो आप पागल हो जाएंगे। एक दिन की भी अगर सुबह से शाम तक की सारी बातें याद रह जाएं, तो आप जिंदा नहीं रह सकेंगे।

तो प्रकृति की सारी व्यवस्था यह है कि आपका मन कितने तनाव झेल सकता है, उतनी ही स्मृति आपके भीतर शेष रहने दी जाती है। शेष सब अंधेरे गर्त में डाल दी जाती है। जैसे घर में एक कबाडू—घर होता है पीछे। बेकार चीजें आप कबाड—घर में डालकर दरवाजा बंद कर देते हैं, वैसे ही स्मृति का एक कलेक्टिव हाउस है, एक अनकाशस घर है, एक अचेतन घर है, जहां स्मृति में जो बेकार होता चला जाता है, जिसे चित्त में रखने की जरूरत नहीं है, वह सब संगृहीत होता रहता है। वहां जन्मों—जन्मों की स्मृतियां संगृहीत हैं। लेकिन अगर कोई आदमी अनजाने, बिना समझे हुए उस घर में प्रविष्ट हो जाए, तो तत्क्षण पागल हो जाएगा। इतनी ज्यादा हैं वे स्मृतियां।

एक महिला मेरे पास प्रयोग करती थी। उनको बहुत इच्छा थी कि वह पिछले जन्मों को जानें। मैंने उन्हें कहा कि यह हो सकता है, लेकिन आगे की जिम्मेवारी समझ लेनी चाहिए। क्योंकि हो सकता है पिछले जन्म को जानने से आप बहुत चिंतित और परेशान( हो जाएं। उन्होंने कहा कि नहीं, मैं क्यों परेशान होऊंगी? पिछला जन्म तो हो चुका है, अब क्या फिक्र की बात! उन्होंने प्रयोग शुरू किया। वे एक कालेज में प्रोफेसर थीं, बुद्धिमान थीं, समझदार थीं, हिम्मतवर थीं। उन्होंने प्रयोग शुरू किया और जिस भांति मैंने कहा, उन्होंने गहरे से गहरे मेडीटेशन किये, गहरे से गहरा ध्यान किया। धीरे — धीरे स्मृति के नीचे की पर्तों को उधाडुना शुरू किया। और एक दिन, जिस दिन पहली बार उन्हें पिछले जन्म में प्रवेश मिला, वह भागती हुई आईं, उनके हाथ —पैर कैप रहे थे, आख से आसू बह रहे थे, वे एकदम छाती पीट—पीटकर रोने लगीं और कहने लगीं कि मैं भूलना चाहती हूं उस बात को जो मुझे याद आ गयी। मैं उस पिछले जन्म में अब आगे नहीं जाना चाहती। मैंने कहा कि अब मुश्किल है, जो याद आ गयी उसे भूलने में फिर बहुत वक्त लग जाएगा। लेकिन इतनी घबड़ाहट क्या है? उन्होंने कहा कि नहीं, नहीं, पूछिये ही मत! मैं तो सोचती थी कि मैं बहुत पवित्र हूं, बहुत सचरित्र हूं? लेकिन पिछले जन्म में एक मंदिर में वेश्या थी दक्षिण के। मैं देवदासी थी। और मैंने हजारों पुरुषों के साथ संभोग किया और मैंने अपने शरीर को बेचा। नहीं, मैं उसे भूलना चाहती हूं, मैं उसे एक क्षण भी याद नहीं रखना चाहती हूं। मैंने कहा कि अब यह इतना आसान नहीं है। याद करना बहुत आसान है, भूलना बहुत मुश्किल है।

पिछले जन्म में जाया जा सकता है। और जिसकी भी मर्जी हो, उसके रास्ते हैं, मेथडोलाजी है। महावीर और बुद्ध दोनों मनुष्यों ने मनुष्य —जाति को जो बड़े से बड़ा दान दिया है, वह उनकी अंहिसा—वंहिसा का सिद्धांत नहीं है। वह सबसे बडा दान है, जाति—स्मरण का सिद्धांत। वह है, पिछले जन्मों की स्मृति में उतरने की कला। महावीर और बुद्ध दोनों ही पहले आदमी हैं पृथ्वी पर, जिन्होंने प्रत्येक साधक के लिए यह कहा कि तब तक तुम आत्मा से परिचित नहीं हो सकोगे, जब तक तुम पिछले जन्मों में नहीं उतरते हो। और उन्होंने प्रत्येक साधक को पिछले जन्म में ले जाने की फिक्र की।

और एक बार कोई आदमी अपने पिछले जन्मों की स्मृतियों में जाने की हिम्मत जुटा ले, वह दूसरा आदमी हो जाएगा। क्योंकि उसे पता चलेगा कि जिन बातों को मैं हजारों बार कर चुका हूं, उन्हीं को फिर कर रहा हूं। कैसा पागल हूं! कितनी बार मैंने संपत्ति इकट्ठी की है, कितनी बार मैंने करोड़ों के अंबार लगा दिए, कितनी बार मैंने महल खड़े किए, कितनी बार इज्जत, शान और पद और कितनी बार दिल्ली के सिंहासनों की यात्रा कर ली है। कितनी बार, कितनी अनंत बार किया! और फिर मैं वही कर रहा हू। और हर बार वह यात्रा असफल हो गई है, वह यात्रा इस बार भी असफल हो जाएगी। तत्‍क्षण उसकी संपत्ति की दौड़ बंद हो जाएगी तत्‍क्षण उसके पदों का मोह नष्ट हो जाएगा। वह आदमी जानेगा कि मैंने हजारों —हजारों वर्षों में कितनी स्त्रियां भोगीं, स्त्री जानेगी कि मैंने हजारों —हजारों वर्षों में कितने पुरुष भोगे, और न किसी पुरुष से तृप्ति मिली और न किसी स्त्री से तृप्ति मिली! और अब भी मैं यही सोच रहा हूं कि इस स्त्री को भोग र उस स्त्री. को पश्तो र इस पुरुष को भोग र उस पुरुष को भोग। यह करोड़ बार हो चुका है।

एक बार स्मरण आ जाए इसका, तो फिर यह दोबारा नहीं हो सकता। क्योंकि इतनी बार जब हम कर चुके हों और कोई फल न पाया हो, तो फिर आगे उस दोहराए जाने का कोई उपाय नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। बुद्ध और महावीर दोनों ने जाति—स्मरण के गहरे प्रयोग किए, स्मृति के, अतीत जन्मों की स्मृति के। और जो साधक एक बार उस स्मृति से गुजर गया, वह आदमी दूसरा हो गया, ट्रासफार्म हो गया, बदल गया।

जिन मित्र ने पूछा है, मैं उनको जरूर कहूंगा कि अगर उनकी इच्छा हो तो उन्हें पिछली स्मृति में ले जाया जा सकता है। लेकिन बहुत सोच—समझकर ही उस प्रयोग में जाया जा सकता है। इस जिंदगी की चिंताएं ही काफी हैं, इस जिंदगी की परेशानियां ही बहुत हैं। इस जिंदगी को भूलने के लिए आदमी शराब पीता है, सिनेमा देखता है, ताश खेलता है, जुआ खेलता है। इस जिंदगी को भी भूलने के लिए, दिन भर को भूलने के लिए रात शराब पी लेता है। जो आदमी आज के दिन भर को याद नहीं रख सकता, इतना साहस नहीं है कि जिंदगी को फेस कर ले, वह आदमी कैसे पिछले जन्मों को याद करने की हिम्मत जुटा पाएगा?

यह जानकर आपको हैरानी होगी कि सारे धर्मों ने शराब का विरोध किया है। और ये साधारण, बिलकुल न समझने वाले नेतागण जो दुनिया को समझाते हैं कि शराब का इसलिए विरोध किया है कि उससे चरित्र नष्ट हो जाता है, कि उससे घर की संपत्ति नष्ट हो जाती है, कि आदमी लड़ने —झगड़ने लगता है, ये सब बेवकूफी की बातें हैं। धर्मों ने शराब का विरोध सिर्फ इसलिए किया है कि जो आदमी शराब पीता है, वह अपने को भुलाने का उपाय कर रहा है। और जो आदमी अपने को भुलाने का उपाय कर रहा है, वह अपनी आत्मा से कभी भी परिचित नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा से परिचित होने के लिण्व्यू तो अपने को जानने का उपाय करना है। इसलिए शराब और समाधि दो विरोधी चीजें बन गईं। उनका इससे कोई मतलब नहीं है। क्योंकि सच तो यह है और यह बात बहुत समझ लेने जैसी है। आमतौर से लोग समझते हैं कि शराबी आदमी बुरा होता है। मैं शराबियों को भी जानता हूं और उनको भी जो शराब नहीं पीते हैं। मैंने आज तक हजारों अनुभव में यह पाया है कि शराब पीने वाला न पीने वाले से कई अर्थों में अच्छा होता है। मैंने शराब पीने वालों में जितनी दया और करुणा देखी, उतनी मैंने शराब न पीने वालों में नहीं देखी। मैंने शराब पीने वाले में जितनी विनम्रता देखी, जितनी ह्यमिलिटी, उतनी मैंने शराब नहीं पीने वाले में नहीं देखी। जितनी अकड़ मैंने देखी शराब न पीने वाले में, उतनी अकड़ शराब पीने वाले में दिखाई नहीं पड़ी।

लेकिन इन सारी बातों से नहीं किया है विरोध धर्म ने। और ये जो साधारण नेतागण समझाते फिरते हैं कि इसलिए विरोध किया है, इसलिए विरोध नहीं किया है। विरोध किया है इसलिए कि जो आदमी अपने को भूलने का उपाय करता है, वह आदमी अपने साहस को छोड़ रहा है याद करने के, रिमेंबरिग के, स्मृति के। और जो आदमी इसी जन्म को भूलने की फिक्र में लगा है, वह पिछले जन्मों को याद कैसे कर सकेगा? और जो पिछले जन्मों को याद नहीं कर सकता, वह इस जन्म को बदलेगा कैसे?

फिर एक अंधा रिपीटीशन चलता रहेगा। जो हमने बार—बार किया है वही हम बार—बार करते चले जाएंगे। अंतहीन है यह प्रक्रिया और जब तक हमें स्मरण नहीं होगा, हम बार —बार जन्मेंगे और उन्हीं बेवकूफियों को बार —बार करेंगे, जिन्हें हमने बार —बार किया है। और इसका कोई अंत नहीं है। इस बोर्डम का, इस श्रृंखला का कोई अंत नहीं है। क्योंकि बार—बार हम फिर मर जाएंगे, फिर भूल जाएंगे, फिर वही शुरू हो जाएगा। एक सर्किल की तरह, कोल्ह के बैल की तरह हम घूमते रहेंगे। जिन लोगों ने इस जीवन को संसार कहा है. संसार का आप मतलब समझते हैं? संसार का मतलब है हील, एक घूमता हुआ चाक। जिसमें स्पोक जो हैं, आरे जो हैं, वे फिर ऊपर चले जाते हैं, फिर नीचे आ जाते हैं, फिर ऊपर चले जाते हैं, फिर नीचे आ जाते हैं।

वह जो हिंदुस्तान के राष्ट्रीय ध्वज पर हील बना हुआ है, वह पता नहीं हिंदुस्तान के सोचने — समझने वालों ने किस वजह से वहां रख दिया। शायद उनको पता नहीं है, वे न मालूम क्या सोचते होंगे। अशोक ने उस चक्र को इसलिए खुदवाया था अपने स्तूपों पर, ताकि आदमी को पता रहे कि जिंदगी एक घूमता हुआ चाक है, कोस्कू का बैल है। उसमें हर चीज घूमकर फिर वहीं आ जाती है। फिर अनी शुरू हो जाती है। वह जो हील है, संसार का प्रतीक है। वह हील किसी विजय—यात्रा का प्रतीक नहीं है। वह जिंदगी के रोज—रोज हार जाने का प्रतीक है। वह इस बात का प्रतीक है कि जिंदगी जो है, वह एक रिपीटीटिव बोर्डम है, वह बार—बार दोहर जाने वाला चाक है। लेकिन हर बार हम भूल जाते हैं, इसलिए दोबारा फिर बड़े रसलीन होकर दोहराने लगते हैं।

एक युवक एक युवती की तरफ बढ़ रहा है प्रेम करने को। उसे पता नहीं कि वह कितनी बार बढ़ चुका है, कितनी युवतियों के पीछे दौड़ चुका है! लेकिन अब वह फिर बढ़ रहा है और सोचता है कि जिंदगी में पहली दफा यह घटना घट रही है। यह अदभुत घटना है। यह अदभुत घटना बहुत दफे घट चुकी है। और अगर उसे पता चल जाए तो उसकी हालत वैसी हो जाएगी जैसी किसी आदमी की एक ही फिल्म को दस—पच्‍चीस दफा देख कर हो जाती है। अगर आप आज फिल्म देखने गए हैं तो बात और है, कल भी आपको ले जाया जाए तो आप बर्दाश्त कर लेंगे। तीसरे दिन आप कहने लगेंगे, क्षमा करिए, अब मैं नहीं जाना चाहता हूं। लेकिन आपको मजबूर किया जाए, कि पुलिस वाले पीछे लगे हैं, ये आपको ले ही जाएंगें और पंद्रह दिन वही फिल्म, तो सोलहवें दिन आप गर्दन दबाकर मरने की कोशिश करेंगे कि अब इस फिल्म को मैं नहीं देखना चाहता हूं। यह हद हो गई, पंद्रह दिन देख चुका हूं? अब कब तक देखता रहूंगा? लेकिन वह पुलिस वाले पीछे लगे हैं कि नहीं, यह तो देखनी ही पड़ेगी। लेकिन अगर रोज फिल्म देखने के बाद अफीम खिला दी जाए और भूल जाएं आप कि मैंने फिल्म देखी थी, तो दूसरे दिन फिर आप टिकट लेकर उसी फिल्म में मौजूद हो सकते हैं और बड़े मजे से देख सकते हैं।

आदमी हर बार जब शरीर को बदलता है, तब उस शरीर में संजोई गई स्मृतियों का द्वार क्लोज हो जाता है, बंद हो जाता है। फिर नया खेल शुरू हो जाता है। फिर वही खेल, फिर वही बात, फिर सब वही जो बहुत बार हो चुका है। जाति—स्मरण से यह स्मरण आता है कि यह तो बहुत बार हो चुका है, यह कहानी तो बहुत बार देखी जा चुकी है, यह गीत तो बहुत बार गाए जा चुके हैं, यह तो बर्दाश्त के बाहर हो गई है बात।

जाति—स्मरण से पैदा होती है विरक्ति, जाति —स्मरण से पैदा होता है वैराग्य। और किसी तरह वैराग्य उत्पन्न नहीं होता। वैराग्य उत्पन्न होता है जाति—स्मरण से, रिमेंबरिंग आफ द पास्ट, वह जो बीत गए जन्म हैं उनकी स्मृति से। और इसीलिए दुनिया में वैराग्य कम हो गया है, क्योंकि पिछले जन्मों का कोई स्मरण नहीं, कोई उपाय नहीं।

जिन मित्र ने पूछा है, उनको मैं कहूंगा कि मेरी तैयारी पूरी है। मैं जो भी कह रहा हूं, उसे सिर्फ इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मेरे लिए वह कोई सिद्धांत है। मैं जो भी कह रहा हूं, एक—एक शब्द पर जिद के साथ प्रयोग करने की मेरी तैयारी है। और कोई भी आदमी की तैयारी हो, तो मुझे बहुत खुशी होगी। कल मैंने निमंत्रण दिया था कि जो लोग संकल्प करने की हिम्मत रखते हैं। दो —चार मित्रों के पत्र आए और मुझे बड़ी खुशी हुई। उन्होंने खबर दी है कि हम बहुत उत्सुक हैं और हम प्रतीक्षा में थे कि कोई हमें बुलाए। और आपने पुकार दी, तो हम राजी हैं। वे राजी हैं तो मुझे बहुत खुशी है और मेरा द्वार उनके लिए खुला है। मैं उन्हें जितनी दूर ले चलना चाहूं, वे जितनी दूर चलना चाहें, उतनी दूर उन्हें ले जाया जा सकता है। इस बार जरूरत पड़ गई है दुनिया को कि कम से कम थोड़े से लोग प्रबुद्ध हो सकें। अगर थोड़े —से लोग भी प्रबुद्ध हो सकें, तो हम मनुष्य —जाति के सारे अंधकार को तोड़ सकते हैं।

हिंदुस्तान में दो प्रयोग चलते थे पिछले पचास सालों में। शायद आपको खयाल में भी नहीं होगा कि हिंदुस्तान में दो विपरीत ढंग के प्रयोग पचास सालों में चले। एक प्रयोग गांधी ने किया, एक प्रयोग श्री अरविंद करते थे। गांधी ने एक प्रयोग किया, एक —एक मनुष्य के चरित्र को ऊपर उठाने का। उसमें गांधी सफल होते हुए दिखाई पड़े, लेकिन बिलकुल असफल हो गए। और गांधी के पीछे जिन लोगों को गांधी ने सोचा था कि इनका चरित्र मैंने उठा लिया, वे बिलकुल मिट्टी के पुतले साबित हुए। जरा—सा पानी गिरा और सब रंग—रोगन बह गया। बीस साल में उनका रंग —रोगन बह गया, वह हम सब देख रहे हैं। दिल्ली में उनके नंगे शरीर खड़े हैं, उनका सब रंग—रोगन बह गया। कहीं कोई रंग—रोगन नहीं रहा अब। वह जो गांधी ने पोतपात कर तैयार किया था, वह सब वर्षा में बह गया। जब तक पद की वर्षा नहीं हुई थी, तब तक उनकी शकलें बहुत शानदार मालूम पड़ती थीं, और उनके खादी के कपड़े बहुत धुले हुए दिखाई पड़ते थे, और उनकी टोपियां ऐसी लगती थीं कि मुल्क को ऊपर उठा लेंगी। लेकिन आज वे ही टोपियां इस योग्य हो गई हैं कि गांव—गांव में उनकी होली जलाई जाए। क्योंकि वह बुर्जुआ, क्योंकि वह मुल्क के भ्रष्टाचार की प्रतीक बन गई हैं। गांधी ने एक प्रयोग किया था जिसमें मालूम हुआ कि वे सफल हो रहे हैं, लेकिन बिलकुल असफल हो गए। गांधी जैसा प्रयोग बहुत बार किया गया और हर बार असफल हो गया।

श्री अरविंद एक प्रयोग करते थे, जिसमें वह सफल होते हुए नहीं मालूम पड़े, नहीं सफल हो सके, लेकिन उनकी दिशा बिलकुल ठीक थी। वे यह प्रयोग कर रहे थे कि क्या यह संभव है कि थोड़ी—सी आत्माएं इतने ऊपर उठ जाएं कि उनकी मौजूदगी, उनकी प्रेजेंस दूसरी आत्माओं को ऊपर उठाने लगे और पुकारने लगे और दूसरी आत्माएं ऊपर उठने लगें। क्या यह संभव है कि एक मनुष्य की आत्मा ऊपर उठे तो उसके साथ पूरी मनुष्य —जाति की आत्मा का स्तर ऊपर उठ जाए?

यह न केवल संभव है, बल्कि केवल यही संभव है। दूसरी आज कोई बात सफल नहीं हो सकती। आज आदमी तो इतना नीचे गिर चुका है कि अगर हमने यह फिक्र की कि हम एक—एक आदमी को बदलेंगे, तो शायद यह बदलाहट कभी नहीं होगी। बल्कि जो आदमी उनको बदलने जाएगा, उनके सत्संग में उसके खुद के बदल जाने की संभावना ज्यादा है। उसके बदल जाने की संभावना ज्यादा है कि वह भी उनके साथ भ्रष्ट हो जाए।

आप देखते हैं, जितने जनता के सेवक जनता की सेवा करने जाते हैं, थोडे दिन में पता चलता है कि वे ही जनता की जेब काटनेवाले सिद्ध हो रहे हैं। वे गए थे सेवा करने, वे गए थे लोगों को सुधारने, थोड़े दिन में पता चलता है कि लोग उनको सुधारने का विचार कर रहे हैं। नहीं, यह नहीं हो सकता है।

दुनिया का मनुष्य—जाति की चेतना का इतिहास यह कहता है कि दुनिया की चेतना किन्हीं कालों में एकदम ऊपर उठ गई। आपको शायद अंदाज न हो, पच्चीस सौ वर्ष पहले हिंदुस्तान में बुद्ध हुए, महावीर हुए, प्रबुद्ध कात्यायन हुआ, मक्खली गोशाल हुआ, संजय वेलट्ठीपुत्र हुआ। यूनान में सुकरात हुआ, प्लेटो हुआ, अरस्तु हुआ, प्लेटिनस हुआ। चीन में लाओत्से हुआ, कंफ्यूशियस हुआ, च्चांगत्से हुआ। पच्चीस सौ साल पहले सारी दुनिया में कुछ दस —पंद्रह लोग इतनी कीमत के हुए कि उन सौ वर्षों में दुनिया की चेतना एकदम आकाश छूने लगी। सारी दुनिया का स्वर्णयुग आ गया, ऐसा मालूम हुआ। इतनी प्रखर आत्मा मनुष्य की कभी प्रकट नहीं हुई थी।

महावीर के साथ पचास हजार लोग दीयों की तरह जल गए और गांव—गांव घूमने लगे। बुद्ध के साथ हजारों भिक्षु खड़े हो गए और उनकी रोशनी और उनकी ज्योति गांव—गांव को जगाने लगी। जिस गांव में बुद्ध अपने दस हजार भिक्षुओं को लेकर पहुंच जाते, तीन दिन के भीतर उस गांव की हवा के अणु बदल जाते। जिस गांव में वे दस हजार भिक्षु बैठ जाते, जिस गांव में वे दस हजार भिक्षु प्रार्थना करने लगते, उस गांव से जैसे अंधकार मिट जाता, जैसे उस गांव में प्रार्थना छा जाती, जैसे उस गांव के हृदय में कुछ फूल खिलने लगते जो कभी नहीं खिले थे।

कुछ थोड़े —से लोग उठे ऊपर और उनके साथ ही नीचे के लोगों की आंखें ऊपर उठीं। नीचे के लोगों की आंखें तभी ऊपर उठती हैं जब ऊपर देखने जैसा कुछ हो। ऊपर देखने जैसा कुछ भी नहीं है, नीचे देखने जैसा बहुत कुछ है 1 जो आदमी जितना नीचे उतर जाता है, उतना बड़ा मकान बना लेता है। ‘जो आदमी जितना नीचे उतर जाता है, उतनी बड़ी तिजोरी बना लेता है। जो आदमी जितना नीचे उतर जाता है, वह उतनी बढ़िया केडिलक खरीद लाता है। तो नीचे देखने जैसा बहुत कुछ है। दिल्ली बिलकुल गड्डे में बस गई है, बिलकुल नीचे। वहां नीचे देखो पाताल में, तो दिल्ली है। तो जिसको भी दिल्ली पहुंचना हो, उसको पाताल में उतरना चाहिए; नीचे, नीचे, नीचे, उतरते जाना चाहिए।

ऊपर देखने जैसा कुछ भी नहीं है। किसकी तरफ देखो? कौन है ऊपर? और इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि ऊपर देखने जैसी आत्माएं नहीं हैं! जिनकी तरफ देखकर प्राणों में आकर्षण उठता है, जिनकी तरफ देखकर प्राणों में पुकार उठती है, जिनकी तरफ देखकर प्राण धिक्कारने लगते हैं अपने को कि यह दीया तो मैं भी हो सकता था, यह फूल तो मेरे भीतर भी खिल सकते थे, यह गीत तो मैं भी गा सकता था। यह बुद्ध और यह महावीर और यह कृष्ण और क्राइस्ट तो मैं भी हो सकता था। एक बार यह खयाल आ जाए कि मैं भी हो सकता था यह—लेकिन कोई हो तो जिसे देखकर यह खयाल आ जाए—तो प्राण ऊपर की यात्रा शुरू कर देते हैं। और स्मरण रहे कि प्राण हमेशा यात्रा करते हैं, अगर ऊपर की नहीं करते हैं तो नीचे की करते हैं। प्राण रुकते कभी नहीं हैं, या तो ऊपर जाएंगे या नीचे, रुकाव जैसी कोई चीज नहीं है। ठहराव जैसी कोई चीज नहीं है, स्टेशन जैसी कोई जगह नहीं है चेतना के जगत में कि जहां आप रुक जाएं और विश्राम कर लें, या ऊपर या नीचे। जीवन प्रति क्षण गतिमान है। ऊपर की तरफ चेतनाए खड़ी करनी हैं।

मैं सारी दुनिया में एक आंदोलन चाहता हूं। बहुत ज्यादा लोगों का नहीं, थोड़े से हिम्मतवर लोगों का, जो प्रयोग करने को राजी हों। अगर सौ लोग हिंदुस्तान में प्रयोग करने को राजी हों और सौ लोग कश्त कर लें इस बात को कि हम अब आत्मा को उन ऊंचाइयों तक ले जाएंगे जहां तक आदमी का जाना संभव है, तो बीस वर्ष में हिंदुस्तान की पूरी शकल बदल सकती है। विवेकानंद ने मरते वक्त कहा था कि मैं पुकारता रहा सौ लोगों को, सौ लोग आ जाओ, लेकिन वे सौ लोग नहीं आए और मैं हारा हुआ मर रहा हूं। सिर्फ सौ लोग आ जाते, तो मैं पूरे देश को बदल देता।

लेकिन विवेकानंद पुकारते रहे, सौ लोग नहीं आए। और मैंने यह तय किया है कि मैं पुकारूंगा नहीं, गांव—गांव में खोजूंगा, आख— आख में झाकूंगा कि वह कौन आदमी है। जो आदमी अगर पुकारने से नहीं आता है, तो उसे खींचकर लाना पड़ेगा। अगर सौ लोगों को भी लाया जा सके, तो यह मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि उन सौ लोगों की उठती हुई आत्माएं एक एवरेस्ट की तरह, एक गौरीशंकर की तरह खड़ी हो जाएंगी। और पूरे मुल्क के प्राण उस यात्रा पर आगे बढ़ सकते हैं। तो जिन मित्रों को मेरी चुनौती ठीक लगती हो और जिनको साहस और बल मालूम पडता हो कि जाने की हिम्मत है उस रास्ते पर, जो बहुत अनजान है, जो बहुत अपरिचित है, उस रास्ते पर, उस समुद्र में, जिसका कोई नक्यग़ नहीं है हमारे पास, तो उसमें जाने की जिसकी भी हिम्मत हो, जिसका भी साहस हो, उसे समझ लेना चाहिए कि उसमें इतनी हिम्मत और साहस सिर्फ इसलिए है कि बहुत गहरे में परमात्मा ने उसको पुकारा होगा, नहीं तो इतना साहस और इतनी हिम्मत नहीं हो सकती थी। मिश्र में कहा जाता था कि जब कोई परमात्मा को पुकारता है तो उसे जान लेना चाहिए कि उससे बहुत पहले परमात्मा ने उसे पुकार लिया होगा, अन्यथा पुकार ही पैदा नहीं होती।

जिनके भीतर भी पुकार है, उनके ऊपर एक बड़ा दायित्व है आज जगत के लिए। आज तो जगत के कोने —कोने में जाकर कहने की यह बात है कि कुछ थोड़े से लोग बाहर निकल आएं और सारे जीवन को समर्पित कर दें ऊंचाइयां अनुभव करने के लिए। जीवन के सारे सत्य, जीवन के आज तक के सारे अनुभव असत्य हुए जा रहे हैं। जीवन की आज तक की जितनी ऊंचाइयां थीं, जो छुई गई थीं, वह सब काल्पनिक हुई जा रही हैं, पुराण—कथाएं हुई जा रही हैं। सौ, दो सौ वर्ष बाद बच्चे इनकार कर देंगे कि बुद्ध और महावीर और क्राइस्ट जैसे लोग नहीं हुए, ये सब कहानियां हैं।

एक आदमी ने तो पश्चिम में एक किताब लिखी है और उसने कहा है कि क्राइस्ट जैसा आदमी कभी नहीं हुआ। यह सिर्फ एक पुराना ड्रामा है जो धीरे — धीरे लोग भूल गए कि ड्रामा है और लोग समझने लगे कि हिस्ट्री है।

अभी हम रामलीला खेलते हैं। हम समझते हैं कि राम कभी हुए और इसलिए हम रामलीला खेलते हैं। सौ वर्ष बाद बच्चे कहेंगे कि रामलीला खेली जाती रही और लोगों को भ्रम पैदा हो गया कि राम कभी हुए। रामलीला पहले है, राम पीछे। या रामलीला एक नाटक रहा होगा, बहुत दिनों से चलता रहा। क्योंकि जब हमारे सामने राम और बुद्ध और क्राइस्ट जैसे आदमी दिखाई पड़ने बंद हो जाएंगे, तो हम कैसे विश्वास कर लें कि ये लोग कभी हुए!

फिर आदमी का मन कभी यह मानने को राजी नहीं होता कि उससे ऊंचे आदमी भी हो सकते हैं। आदमी का मन यह मानने को कभी राजी नहीं होता कि मुझसे ऊंचा भी कोई है। हमेशा उसके मन में यह मानने का मन होता है कि मैं सबसे ऊंचा आदमी हूं। अपने से ऊंचे आदमी को तो बहुत मजबूरी में मानता है, नहीं तो कभी मानता नह(ईं है। हजार कोशिश करता है खोजने की कि कोई भूल मिल जाए, कोई खामी मिल जाए, तो बता दूं कि यह आदमी भी नीचा है। तृप्त हो जाऊं कि नहीं, यह बात गलत थी। कोई पता चल जाए तौ जल्दी से घोषणा कर दूं कि पुरानी मूर्ति खंडित हो गई, वह पुरानी मूर्ति अब मेरे मन में नहीं रही, वह खंडित हो गई। क्योंकि यह आदमी, अरे! इस आदमी में यह गलती मिल गई। खोज इसी की चलती है कि कोई गलती मिल जाए। नहीं मिल जाए, तो ईजाद कर लो। ताकि तुम निश्चित हो जाओ अपनी मूढ़ता में और —तुम्हें लगे कि मैं बिलकुल ठीक हूं।

आदमी धीरे — धीरे सबको इनकार कर देगा, क्योंकि उनके प्रतीक, उनके चिह्न कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते। पत्थर की मूर्तियां कब तक बताएंगी कि बुद्ध हुए थे और महावीर हुए थे! और कागज पर लिखे गए शब्द कब तक समझाएंगे कि क्राइस्ट हुए थे! और कब तक तुम्हारी गीता बता पाएगी कि कृष्ण थे!

नहीं, ज्यादा दिन यह नहीं चलेगा। हमें आदमी चाहिए, जीसस जैसे, कृष्ण जैसे, बुद्ध जैसे, महावीर जैसे। अगर हम वैसे आदमी आने वाले पचास वर्षों में पैदा नहीं करते हैं, तो मनुष्य—जाति एक अत्यंत अंधकारपूर्ण युग में प्रविष्ट होने को है। उसका कोई भविष्य नहीं है।

जिन लोगों को भी लगता हो कि जीवन के लिए वे कुछ कर सकते हैं, उनके लिए एक बड़ी चुनौती है। और मैं तो गांव—गांव यह चुनौती देता हुआ घूमूंगा। और जहां भी मुझे कोई आंखें मिल जाएंगी कि लगेगा कि यह दीया बन सकती हैं, इनमें ज्योति जल सकती है, तो मैं अपना पूरा श्रम करने को तैयार हूं। मेरी तरफ से पूरी तैयारी है। देखना है कि मरते वक्त मैं भी कहीं यह न कहूं कि सौ आदमियों को खोजता था, वे मुझे नहीं मिले।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

 


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–181

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दैवीय लक्षण—(प्रवचन—दूसरा)

अध्‍याय—16

सूत्र—

अहिंसा सत्‍यमक्रोधस्‍त्‍याग: शान्‍तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्‍वलोलुप्‍त्‍वं मार्दवं ह्ररिचापलम्।। 2।।

तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता ।

भवन्ति संपदं दैवीमीभिजातस्य भारत।। 3।।

दैवी संयदायुक्‍त पुरुष के अन्य लक्षण हैं : अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव; तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु— भाव का न होना और अपने में पूज्‍यता के अभिमान का अभाव— ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरूष के लक्षण हैं।

 

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : आश्चर्य है कि जब आप बोलते हैं, तभी वाणी के माध्यम से हमें आपका शिखर थोड़ा दिखाई पड़ता है। ऐसा क्यों?

स्‍वभावत:, शब्द समझ में आते हैं; मौन समझ में नहीं आता। शब्द तो बुद्धि से भी पकड़ लिए जाते हैं, मौन को पकड़ने के लिए तो हृदय चाहिए। बुद्धि का शिक्षण है आपके पास, बुद्धि की धारणाओं की, बुद्धि के तर्क की, बुद्धि की भाषा की पकड़ है। मौन, शून्य, ध्यान की कोई पकड़ नहीं है।

जिसे आप समझ सकते हैं, उसे आप समझ लेते हैं। उसे भी पूरा समझते हैं, कहना कठिन है। क्योंकि जो केवल शब्द को ही समझता है और शून्य को नहीं, वह शब्द को भी पूरा नहीं समझ पाएगा। साधारण बोलचाल के शब्द, साधारण जीवन और काम और चर्या के शब्द तो वस्तुओं के प्रतीक हैं। शास्त्रों के शब्द अनुभूतियों के प्रतीक हैं। और अनुभूतियां तो बड़ी सूक्ष्म हैं, आकार में उन्हें बांधा नहीं जा सकता, नाम देना संभव नहीं है, परिभाषाएं बनती नहीं हैं, फिर भी शब्द आपको सुनाई पड़ते हैं और सुनाई पड़ने से आपको लगता है कि समझ में आ गया।

थोड़ी—सी झलक मिलती है, तो उससे मुझसे संबंध बनता है। अगर मैं चुप बैठा हूं, तो फिर कोई संबंध नहीं बनता, सेतु खो जाता है। फिर जब मैं चुप बैठा हूं तब आप अपनी ही बातों को सोचते हैं; मुझसे संबंध नहीं बनता, आपका अपने से ही संबंध रहता है। जब मैं बोल रहा हूं, तब थोड़ी देर को आपका मन बंद हो जाता है। आपका अपने मन से संबंध टूट जाता है और मुझसे संबंध जुड़ जाता है।

इसलिए सुनकर आपको जितनी शांति मिलती है, उतनी अगर मैं शांत बैठा हूं तो मेरे पास शांत बैठकर न मिलेगी। मिलनी चाहिए ज्यादा। क्योंकि जब मैं मौन हूं तब आप मेरे पास हैं ही नहीं। तब आप अपने पास हैं। आपका मन भीतर चल रहा है। आपका जो निरंतर का उपद्रव है, उसमें आप डूबे हैं। जब मैं बोल रहा हूं तब बीच—बीच में आपका मन छिटक जाता है, आप थोड़े मेरे पास आ जाते हैं। उस क्षण में कुछ प्रतीतियां आपको हो सकती हैं।

लेकिन ध्यान रहे, जो मैं कह रहा हूं वह, शब्द में कहा जाने योग्य नहीं है। इसलिए शब्द से ही जो मुझे समझेंगे, वे नहीं समझ पाएंगे। और उनकी समझ अधकचरी होगी; नासमझी ज्यादा होगी उससे, समझदारी कम। मौन में भी मुझे समझने की कोशिश करनी होगी। स्वभावत:, शब्द की तैयारी है, जीवनभर शब्द आपने सीखा है, मौन आपने कभी सीखा नहीं। उसे भी सीखना होगा, उसके प्रशिक्षण से भी गुजरना होगा। ध्यान उसी का प्रशिक्षण है।

इसलिए आधा जोर मेरा मैं आपसे बोलता हूं उस पर है, और आधा जोर मेरा इस पर है कि आपके भीतर बोलने की प्रक्रिया बंद हो, आप ध्यानस्थ हों। जैसे—जैसे आप ध्यानस्थ होंगे, वैसे—वैसे ही मेरा न बोलना आपकी ज्यादा समझ में आएगा। और बोलने में भी जो आप समझेंगे, वह शब्दों के पार है, उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाएगी।

शब्द भी शून्य के संकेत बन जाते हैं, लेकिन उसके लिए हृदय की तैयारी चाहिए। और हम एक ही तरह का संबंध जानते हैं, एक ही कम्युनिकेशन, एक ही संवाद का रास्ता जानते हैं कि बोलें। भाषा के अतिरिक्त हमारे बीच कोई संबंध नहीं है। भाषा न हो, हमारे सब संबंध खो जाएं।

पश्चिम के मनसविद पति—पत्नियों को सलाह देते हैं कि जैसा प्राथमिक क्षणों में पति और पत्नी ने एक—दूसरे से प्रेम के शब्द बोले थे, उनको जारी रखना चाहिए।

स्वभावत:, पति—पत्नी उन्हें छोड़ देते हैं। उनकी जरूरत नहीं रह जाती। जब आप पहली बार किसी के प्रेम में पड़ते हैं, तो कुछ शब्द बोलते हैं, जो कि निरंतर साथ रहने पर, विवाहित हो जाने पर, फिजूल मालूम पड़ेंगे।

लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, उन्हें दोहराते रहना चाहिए, अन्यथा प्रेम समाप्त हो जाएगा। क्योंकि शब्द ही हमारा कुल संबंध है। तो पति चाहे वह बीस वर्ष से पत्नी के साथ हो, तो भी उसे रोज दोहराना चाहिए कि मैं तेरे प्रेम में पागल हूं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, चाहे यह सत्य न भी मालूम पड़े, चाहे यह प्रतीति न भी होती हो, लेकिन प्रेम की भाव— भंगिमा, प्रेम के शब्द, प्रेम की मुद्राएं जारी रखनी चाहिए, अन्यथा संबंध टूट जाएगा।

अधिक पति—पत्नियों का जीवन उदास और ऊब से भर जाता है। उसका बहुत कारण यह नहीं है कि उनके जीवन का प्रेम समाप्त हो गया। प्रेम था, तो समाप्त होता भी नहीं। शब्द थे पहले, अब वे शब्द छूट गए। और निरंतर उन्हीं शब्दों को दोहराना बेहूदा मालूम पड़ता है। शब्द छूट गए, संबंध छूट गया।

मौन को तो कोई समझता नहीं। अगर कोई आपको प्रेम करता हो और कहे न, तो आप पकड़ ही न पाएंगे कि प्रेम करता है। किसी तरह प्रकट न करे—भाव— भंगिमा से, आख के इशारे से, शब्दों से, ये सभी शब्द हैं—चुप रहे, तो आप कभी भी न पहचान पाएंगे कि कोई आपको प्रेम करता है। कहना पड़ेगा, प्रकट करना पड़ेगा।

और तब एक बड़े मजे की घटना घटती है। प्रेम न भी हो और अगर कोई कुशल हो प्रकट करने में, तो आपको लगेगा कि प्रेम है। बहुत बार, जो अभिव्यक्ति में कुशल है, वह प्रेमी बन जाता है। जरूरी नहीं है कि प्रेम हो। क्योंकि प्रेम को आप समझते नहीं, आप सिर्फ शब्दों को समझते हैं।

पति—पत्नी उदास होने लगते हैं, क्योंकि उन्हीं—उन्हीं शब्दों को क्या बार—बार कहना! फिर उनमें कुछ रस नहीं मालूम पड़ता। लेकिन शब्दों के खोते ही संबंध खो जाता है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक नौकरी के लिए इंटरव्यू दे रहा था। और इंटरव्यू लेने वाले अफसर ने कहा कि क्या आप शादीशुदा हैं? उसने कहा कि नहीं, मैं वैसे ही दुखी हूं।

शादीशुदा आदमी की शक्ल दूर से ही पहचानी जा सकती है। एक ऊब घेर लेती है। और इस ऊब का कुल कारण इतना है कि जिन शब्दों के कारण प्रेम प्राथमिक रूप से संवादित हुआ था, वे शब्द आपने छोड़ दिए।

प्रेम भी समझ में नहीं आता शब्द के बिना, तो प्रार्थना तो कैसे समझ में आएगी, परमात्मा तो कैसे समझ में आएगा! क्योंकि प्रेम पहला चरण है, प्रार्थना दूसरा चरण है, परमात्मा अंतिम चरण है। फिर और गहरे चरण हैं; प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा एक से ज्यादा गहरे हैं। परमात्मा को तो समझना बहुत ही कठिन है। उसके लिए भी हमें शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है।

इसलिए जब मैं बोलता हूं तब आपको किसी शिखर की प्रतीति हो सकती है, लेकिन वह शिखर वास्तविक शिखर नहीं है। जिस दिन मैं चुप बैठा हूं आपके पास और आपको कुछ अनुभूति हो, उसी दिन जानना कि किसी वास्तविक की प्रतीति का पहला, पहला आघात, पहला संघात हुआ, पहली बिजली आपके भीतर क्रोधी। मेरे बोलने का सारा प्रयोजन ही इतना है कि कुछ लोगों को उस घड़ी के लिए तैयार कर लूं, जब मैं न बोलूं, तब भी वे समझ पाएं। और अगर कुछ लोग उसके लिए तैयार नहीं हो पाते, तो बोलना व्यर्थ गया जानना चाहिए।

बोलने की अपनी कोई सार्थकता नहीं है, सार्थकता तो मौन की ही है। बोलना ऐसे ही है, जैसे छोटे बच्चे को हम सिखाते हैं, ग गणेश का। ग का गणेश से कुछ लेना—देना नहीं है। ग गधे का भी उतना ही है। गणेश प्रतीक हैं; उसके सहारे हम ग को समझाते हैं। फिर समझ जाने के बाद गणेश को याद रखने की जरूरत नहीं है। और जब भी आप ग पढ़ें, तो बार—बार दोहराने की जरूरत नहीं कि ग गणेश का। और अगर यह दोहराना पड़े, तो आप पढ़ ही न पाएंगे। तब तो कुछ पढ़ना संभव न होगा; तब आप पहली कक्षा के बाहर कभी जा ही न पाएंगे।

तो जो भी मैं कह रहा हूं वह ग गणेश का है। सब कहा हुआ प्रतीक है। तैयारी इसकी करनी है कि वह छूट जाए और आप चुप होने में समर्थ हो जाएं, तब जो दर्शन होगा, वह दर्शन वास्तविक शिखर का है।

दूसरा प्रश्न :

 

रात आपने कहा कि प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शैली है। क्या इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश डालेंगे? धर्म—साधना में प्रार्थना का क्या स्थान है?

प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है, शायद यह कहना बिलकुल ठीक नहीं है। ज्यादा ठीक होगा कहना कि प्रार्थना परमात्मा बना देती है। प्रार्थना करते—करते ऐसा नहीं होता कि आप परमात्मा को पा लेते हैं; प्रार्थना करते—करते ऐसा होता है कि आप खो जाते हैं और परमात्मा बचता है।

प्रार्थना की परिपूर्ण उपलब्धि आपके भीतर परमात्मा का आविष्कार है। प्रार्थना एक विधि है, जिससे हम अपने भीतर को निखारते हैं, वह एक छेनी है, जिससे हम पत्थर को तोड़ते हैं। और पत्थर में मूर्ति छिपी है। सिर्फ व्यर्थ पत्थर को तोड़कर अलग कर देना है, मूर्ति प्रकट हो जाएगी।

मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं, केवल उघाड्ता है। अनगढ़ पत्थर में छिपी जो पडी थी, मूर्तिकार उसे बाहर ले आता है। अनगढ़ पत्थर में जो—जो अंग व्यर्थ थे, गैर—जरूरी थे, उनको अलग करता है। इसे थोड़ा ठीक से समझें।

मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं है, केवल उघाड़ता है, निर्वस्त्र करता है, वह जो ढंका था, उसे अनढंका कर देता है। मूर्ति तो थी ही, उस पर कुछ अनावश्यक भी जुड़ा था, उस अनावश्यक को तोड़ता है।

प्रार्थना आप में जो अनावश्यक है, उसको तोड़ती है; जो अनिवार्य है, उसको बचाती है। जो आत्यंतिक है, वही शेष रह जाता है, और जो भी सांयोगिक है, वह हट जाता है।

आपके जीवन के सारे संबंध सांयोगिक हैं, कि आप पिता हैं, कि पति हैं, या पत्नी हैं, या बेटे हैं, कि आप अमीर हैं कि गरीब हैं, कि आप बच्चे हैं, कि जवान हैं, कि के हैं; सब सांयोगिक है। यह आपका होना वास्तविक होना नहीं है, कि आप गोरे हैं, कि काले हैं, सुंदर हैं, कुरूप हैं। यह सब सांयोगिक है, यह ऊपर—ऊपर है, यह आपकी वास्तविकता नहीं है। यह सब छांट देगी प्रार्थना। केवल वही बच जाएगा, जो नहीं छांटा जा सकता। केवल वही बच जाएगा, जो आप जन्म के साथ हैं। केवल वही बच जाएगा, जो मृत्यु के बाद भी आपके साथ रहेगा।

तो प्रार्थना मृत्यु की तरह है। वह आपके भीतर सब छांट डालेगी, जो व्यर्थ है, कचरा है, जो संयोग था, जो स्वभाव नहीं है।

ये दो शब्द समझ लेने जैसे हैं, संयोग और स्वभाव। संयोग वह है, जो आपको रास्ते में मिल गया है। एक दिन आपके पास नहीं था, आज है, एक दिन फिर नहीं होगा। स्वभाव वह है, जो आपको रास्ते में नहीं मिला, जिसको लेकर ही आप रास्ते पर उतरे हैं। जो जीवन के पहले था, वह स्वभाव है, जीवन के बाद भी होगा, वह स्वभाव है। जो जन्म और मृत्यु के बीच में मिलता है, वह संयोग है। प्रार्थना की कला संयोग को काटना, स्वभाव को बचाना है।

जापान में झेन फकीर अपने शिष्यों को कहते हैं, एक ही चीज खोजने जैसी है, वह है ओरिजनल फेस, तुम्हारा मौलिक चेहरा। शिष्य सदियों से पूछते रहे हैं गुरुओं से, कि क्या अर्थ है आपका? मौलिक चेहरे का क्या अर्थ है? तो गुरुओं ने कहा है, जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम्हारा जो चेहरा था, या जब तुम मर जाओगे, तब जो शेष बचेगा, वह तुम्हारा मौलिक चेहरा है, वह स्वभाव है, वह ओरिजनल है।

प्रार्थना उसको बचा लेती है। और वही परमात्मा है। जो स्वभाव है, वही परमात्मा है। जिसे हमने कभी पाया नहीं, जिसे हमने कभी अर्जित नहीं किया और जिसे हम चाहें भी, तो खो न सकेंगे, जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है, जो मेरी निजता है, जो मेरा होना है, मेरा बीइंग है, वही परमात्मा है और प्रार्थना उसकी तलाश है।

इसलिए मैंने कहा कि प्रार्थना परमात्मा को पहुंचने का मार्ग है। और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शैली है।

निश्चित ही, प्रार्थना कोई एक कोने में नहीं हो सकती। ऐसा नहीं हो सकता कि सुबह आप प्रार्थना कर लें और फिर भूल जाएं। ऐसा नहीं हो सकता कि एक दिन रविवार को चर्च में प्रार्थना कर लें, कि धार्मिक उत्सव के दिन प्रार्थना कर लें, और फिर विस्मरण कर दें। प्रार्थना कोई खंड नहीं हो सकती, प्रार्थना जीवन की शैली हो सकती है।

जीवन की शैली का अर्थ यह है कि आप प्रार्थनापूर्ण होंगे, तो आपके चौबीस घंटे प्रार्थनापूर्ण होंगे। प्रार्थना अगर होगी, तो श्वास जैसी होगी। आप ऐसा नहीं कह सकते कि सुबह श्वास लूंगा, दोपहर विश्राम करूंगा, कि जब फुरसत होगी तब श्वास ले लेंगे, बाकी काम बहुत हैं।

प्रार्थना श्वास जैसी बन जाए, तो शैली बनी। उसका अर्थ यह हुआ कि प्रार्थना करने की बात न हो, प्रार्थना आपके होने का ढंग हो जाए। उठें तो प्रार्थनापूर्ण हों; बैठें तो प्रार्थनापूर्ण हों; भोजन करें तो प्रार्थनापूर्ण हों।

हिंदू सदियों से भोजन के पहले ब्रह्म को स्मरण करता रहा है। वह भोजन को प्रार्थनापूर्ण बनाना है। स्वयं को भोजन दे, इसके पहले परमात्मा को देता रहा है। उसका अर्थ है कि संयोग के पहले स्वभाव स्मरणीय है। मैं गौण हूं; मेरे भीतर जो छिपा, सबके भीतर छिपा जो परमात्मा है, वह प्रथम है। तो सबसे पहले उसका स्मरण। आप पूछेंगे कि उठना—बैठना कैसे प्रार्थनापूर्ण हो सकता है?

एक महाकवि रिल्के का जीवन मैं पढ़ता था। रिल्के के जीवन में उनके मित्रों ने उल्लेख किया है कि रिल्के अपना जूता भी उतारता था, तो इतने मैत्री— भाव से, कि आप अगर देखते, तो लगता कि रिल्के अपने जूते के साथ प्रेम में है। वह अपने कपड़े भी उतारता, तो इस भाव से, जैसे कपड़े जीवंत हों, जैसे कपड़ों की आत्मा हो। ऐसा नहीं कि कपड़े उतारे और फेंक दिए। वह कपड़ों को सम्हालता। वह घर में पैर रखता, तो ऐसे जैसे कि जीवंत घर में प्रवेश कर रहा हो; जैसे जरा भी बेहूदे ढंग से चलेगा, तो घर को चोट पहुंचेगी।

रिल्के फूल को पौधे से तोड़ नहीं सकता था। फूलों का प्रेमी था। फूलों के पास जाता, उनसे दो शब्द कहता, उनसे नमस्कार कर लेता, उनसे दो बातें भी कर लेता, लेकिन तोड़ना असंभव था। हमें यह आदमी पागल लगेगा, क्योंकि जूते को क्या सदव्यवहार की जरूरत है! हम पूछेंगे कि जूते को क्या सदव्यवहार की जरूरत है! जूते को उतारकर फेंका जा सकता है। मकान में प्रवेश करते समय मंदिर में प्रवेश कर रहे हों, ऐसे भाव रखने की क्या जरूरत है! मकान मकान है, मंदिर मंदिर है।

लेकिन ध्यान रहे, हम जो भी करते हैं, वह हमें निर्मित करता है। और जिंदगी में बड़े—बड़े काम ज्यादा नहीं हैं। चौबीस घटे तो छोटे—छोटे काम हैं। जूता उतारना है, भोजन करना है, कपड़े पहनना है, स्नान करना है, मकान में आना है, दुकान में जाना है। मंदिर तो आप कभी—कभी जाते हैं।

और ध्यान रहे, जो अपने मकान में निरंतर गैर—प्रार्थनापूर्ण ढंग से गया है, वह मंदिर में लाख कोशिश करे, प्रार्थनापूर्ण ढंग से नहीं जा सकेगा, उसकी आदत नहीं है। और जिसने अपने मकान को मकान समझा है, वह मंदिर को भी मकान से ज्यादा कैसे समझ सकता है! वस्तुत: मंदिर भी मकान ही है, नाम भर मंदिर है।

अगर मंदिर को मंदिर बनाना हो, तो हर मकान को मंदिर बनाना होगा, तभी यह संभव है। तब मकान मिट जाएंगे, तब सभी मंदिर हो जाएंगे। और जब आप हर मकान में मंदिर की तरह प्रवेश करेंगे, यह प्रवेश आपकी वृत्ति को बदलेगा। यह प्रवेश आपके भाव को बदलेगा। यह प्रवेश आपको निर्मित करेगा। फिर आप जहां भी जाएंगे, वह मंदिर हो, कि मस्जिद हो, कि गुरुद्वारा हो, कि साधारण मकान हो, कि एक झोपड़ा हो, कि महल हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सवाल मकानों का नहीं है, सवाल आपका है। सवाल कहां आप प्रवेश करते हैं, इसका नहीं; कौन प्रवेश करता है, इसका है।

अगर आपने जूते प्रेम से उतारे हैं, कपड़े सदभाव से रखे हैं, वस्तुओं से भी मैत्री का व्यवहार किया है, यह सारा व्यवहार आपको रूपांतरित करेगा। यह आपकी शैली बन जाएगी।

जीवन के प्रति प्रेम का जो व्यवहार है, उस शैली को मैं प्रार्थना कहता हूं। और अगर हम चौबीस घंटे उसमें डूब सकें, तो ही, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। इसलिए प्रार्थना कोई खंड नहीं है, कोई अंश नहीं है, कि आपने किया और निपट गए।

लोग प्रार्थना कर रहे हैं, पर उनके जीवन में प्रार्थना का कोई सुर सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि प्रार्थना को उन्होंने एक काम बना लिया है। वे सुबह पांच मिनट बैठकर प्रार्थना कर लेते हैं। अगर जल्दी हो, तो पांच मिनट की प्रार्थना वे दो मिनट में कर लेते हैं। अगर फुरसत हो, कोई काम न हो, तो दस मिनट भी कर लेते हैं। लेकिन प्रार्थना उनके जीवन की आधारशिला नहीं है, हजार कामों में एक काम है।

और अगर प्रार्थना हजार कामों में एक काम है, तो प्रार्थना हो ही नहीं सकती। और परमात्मा अगर हजार खोजों में एक खोज है, तो उस खोज का कोई उपाय नहीं है। जिस दिन प्रार्थना ही जीवन की विधि हो जाए..।

कबीर को किसी ने पूछा है कि अब तुम सिद्ध हो गए, अब तुम यह कपड़ा बुनना बंद कर दो। क्योंकि कबीर जुलाहे थे और जुलाहे बने रहे। और तुम कपड़ा बुनने में लगे रहते हो, फिर कपड़ा बुन कर बेचने जाते हो बाजार में, तुम्हें समय कहां मिलता है? प्रार्थना—पूजा…..!

तो कबीर ने कहा कि जो भी मैं कर रहा हूं वह प्रार्थना है; जो भी मैं कर रहा हूं वह पूजा है! जब मैं कपड़ा बुनता हूं तो मैं परमात्मा को बुन रहा हूं। जब मैं कपड़ा बेचता हूं तो मैं परमात्मा को बेच रहा हूं। जब मैं बाजार जा रहा हूं तो मैं राम की तलाश में जा रहा हूं जिसको कपड़े की जरूरत है। इसलिए अलग से प्रार्थना करने का क्या अर्थ है!

जब तक अलग से प्रार्थना करनी पड़े, तब तक जानना, प्रार्थना का स्वाद आपको लगा नहीं। जिस दिन प्रार्थना जीवन की शैली हो जाए; आप जो करें, वह प्रार्थनापूर्ण हो, प्रेयरफुल हो; जो करें, उसमें से परमात्मा की तरफ आपका बहाव हो; जो करें, उसमें परमात्मा का स्मरण हो; कुछ न भी कर रहे हों, तो उस न—होने के क्षण में भी परमात्मा की मौजूदगी हो। ऐसी सुरति से जो जीएगा, वह एक दिन परमात्मा तक पहुंच जाता है, ऐसा नहीं, एक दिन परमात्मा हो जाता है।

यह प्रार्थना का सतत प्रवाह, जैसे पानी गिरता हो प्रपात से, पत्थरों को काट देता है। कोमल सा जल, सख्त से सख्त पत्थर को तोड़ देता है और बहा देता है। ऐसे ही कोमल—सी प्रार्थना सतत बहती रहे जीवन में, तो आपका जो भी पथरीला हिस्सा है, वह जो भी व्यर्थ है, सांयोगिक है, वह जो भी कूड़ा—कर्कट जन्मों—जन्मों में इकट्ठा किया है, वह चाहे कितना ही कठोर हो, पाषाणवत हो, वह सब प्रार्थना की धार उसे बहा देगी। और केवल वही बच रहेगा. जो आपकी वास्तविकता है, जो आपकी आत्मा है। इसे पा लेना ही परमात्मा को पा लेना है।

तीसरा प्रश्न :

 

रात आपने कहा कि परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है, लेकिन आपने यह भी कहा है कि अस्तित्व में पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। क्या इसे स्पष्ट करिएगा?

द्वैत स्थिति से पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है, द्वैत स्थिति से पीछे लौटने का सदा उपाय है। अद्वैत स्थिति अस्तित्व की स्थिति है; द्वैत स्थिति माया की स्थिति है। इसे थोड़ा समझ लें।

साधु हम किसे कहते हैं? वह जो असाधु से उलटा है। साधु की परिभाषा कौन करेगा? साधु की परिभाषा असाधु से होगी। अगर असाधु हिंसक है, तो साधु अहिंसक है। अगर असाधु चोर है, तो साधु अचोर है। अगर असाधु बुरा है, तो साधु भला है। अगर जगत में कोई असाधु न हो, तो साधु के होने की कोई जगह नहीं है। असाधु चाहिए साधु होने के लिए, द्वंद्व जरूरी है।

इसलिए साधुता, असाधुता दोनों ही माया के अंग हैं। अच्छा आदमी भी माया से भरा है, बुरा आदमी भी। दोनों ही अंधे हैं, क्योंकि दोनों ने एक हिस्से को चुना है दूसरे के विपरीत। और जिसके विपरीत हम लड़े हैं, उसमें गिर जाने का डर सदा है।

अगर आपके भीतर चोरी है. सबके भीतर चोरी है; सबके भीतर छीनने का मन है; सबके भीतर उसके मालिक हो जाने का मन है, जिसके हम मालिक नहीं हैं। तो चोरी की भावना सबके भीतर है; सबके भीतर चोर छिपा है। इस चोर से अगर आप राजी हो जाएं, इस चोर के साथ चलें, तो आप असाधु हो जाएंगे। इस चोर से आप लड़े, इसकी आप न मानें, इसके विपरीत आप चलें, इससे उलटा चलना ही आपका ढंग हो जाए तो आप साधु हो जाएंगे।

अगर आप साधु हो जाएंगे, तो भी चोर आपके भीतर छिपा है, मिट नहीं गया। सिर्फ आपने उसे दबाया है, उसकी मानी नहीं है। अगर आप चोर हो गए, तो भी आपके भीतर अचोर छिपा है।

जो क्या कह रहे हैं दैवी संपदा, आसुरी संपदा, वे दोनों आपके भीतर हैं। तो जो चोरी कर रहा है, उसके भीतर भी अचोर छिपा है, वह भी नष्ट नहीं हो गया है, उसने उसे दबाया है। जब—जब चोर चोरी करने गया है, तब—तब उसके भीतर छिपे साधु ने कहा है, मत कर, बुरा है, पाप है। छोड; इससे बच। लेकिन इन आवाजों को उसने अनसुना किया है; इन आवाजों के प्रति वह अपने को बधिर बना लिया है; इन आवाजों को उसने दबाया है, इन आवाजों की उसने उपेक्षा की है। पर ये वहां भीतर मौजूद हैं।

जो साधु हो गया है, अचोर हो गया है चोर को दबाकर, उसके भीतर भी चोर मौजूद है। वह भी कह रहा है कि कहां तू उलझा है! क्या तू कर रहा है! जीवन हाथ से जा रहा है। यह आत्मा—परमात्मा का पक्का नहीं है। स्वर्ग है या नहीं, निश्चित नहीं है। मृत्यु के बाद कोई बचता है, किसी ने लौटकर कहा नहीं है। यह सब कपोल—कल्पित हो सकता है। यह सब एक जागतिक गप्प हो सकती है। जिन्होंने कहा है, उन्होंने भी जीते—जी कहा है कि आत्मा अमर है। मरकर लौटकर उन्होंने भी नहीं कहा है। उनकी बात का भरोसा क्या है? और उनकी बातों में उलझकर तू जीवन का रस खो रहा है। ये लाख रुपए सामने पड़े हैं, कोई देखने वाला नहीं है, इन्हें तू उठा ले, इन्हें तू भोग ले।

साधु के भीतर भी चोर खड़ा है, असाधु के भीतर साधु खड़ा है; ये मिट नहीं गए हैं। और जो गणित की बात समझने की है, जो गहरे विज्ञान की बात समझने की है, वह यह कि जिसका हमने उपयोग किया है, वह थक जाता है। जैसे मेरे दो हाथ हैं; अगर मैं बाएं हाथ का उपयोग करूं दिनभर, तो बायां हाथ थक जाएगा; और दायां हाथ दिनभर विश्राम करेगा, ज्यादा शक्तिशाली होगा। किसान जानते हैं कि अगर हमने इस वर्ष फसल एक जमीन पर ले ली है, तो वह थक गई जमीन। जो जमीन बंजर पड़ी रही, जिसका हमने उपयोग नहीं किया, वह थकी नहीं है, वह ऊर्जा से भरी है।

तो अगर आपने अपने भीतर के साधु का उपयोग किया है, तो असाधु शक्तिशाली है, साधु थक गया है। जिसका उपयोग करेंगे, वह थकेगा। जो नहीं थका है, जो बैठा विश्राम कर रहा है, वह शक्तिशाली है।

इसलिए मैं कहता हूं कि परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है, परम असाधु एक क्षण में परम साधु हो सकता है। दोनों तरह की घटनाएं घटती रही हैं। घटने का पीछे विज्ञान है। क्योंकि जिसको आपने पकड़ा है, वह थक गया, ऊब गया। उससे आप बेचैन हो गए हैं। उसको कर—करके भी कुछ बहुत पाया नहीं है।

इसलिए बड़े मजे की बात है, भले लोग रात सपने बुरे देखते हैं, बुरे लोग बुरे सपने नहीं देखते, भले सपने देखते हैं। जो थका है, वह रात सोता है, जो नहीं थका, वह सक्रिय होता है। ब्रह्मचारी रात कामुकता के सपने देखता है; कामी रात सपने देखता है कि उसने बुद्ध से दीक्षा लेकर वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गया है, वह संन्यस्त हो रहा है!

आपका सपना बताएगा आपको कि कौन—सा हिस्सा अनथका है, जो नींद में भी नहीं सोता। उसका मतलब है, बहुत सजग है। तो जो सजग है, शक्तिशाली है, उसका खतरा है, वह किसी भी क्षण में आपको पकड़ ले सकता है।

लेकिन निरंतर मैं कहता हूं अस्तित्व से लौटने की कोई विधि, कोई व्यवस्था नहीं है। कोई पीछे नहीं लौटते। अस्तित्व में। माया में तो पीछे लौटता है, क्योंकि द्वंद्व है।

इसलिए हमारे पास एक और शब्द है, वह शब्द साधु का पर्यायवाची नहीं है। वह शब्द है, संत। संत का अर्थ है, जो न साधु है न असाधु। जिसने दोनों का ही उपयोग करना बंद कर दिया है, जो दोनों में से किसी को भी नहीं चुनता; जो चुनावरहित, च्चाइसलेस है। जो न बाएं को चुनता है, न दाएं को। जो दोनों का साक्षी मात्र है। उसके भीतर चोर भी बोलता है, तो उसको भी सुनता है। उसके भीतर साधु बोलता है, उसको भी सुनता है। मानता किसी की भी नहीं। द्वंद्व को खड़ा नहीं होने देता। क्योंकि जब आप एक की मानेंगे, तो द्वंद्व खड़ा होगा। जब आप दोनों की सुनते हैं, मानते किसी की भी नहीं; जब आप दोनों के साक्षी बने रहते हैं, विटनेस बने रहते हैं; और आप कहते हैं, दोनों द्वंद्व खेल है, और ये दोनों की साजिश है, और ये दोनों साथी हैं…।

मैंने सुना है, एक सड़क पर एक आदमी बर्तन बेच रहा था। जो बर्तन बाजार में दो रुपए में मिलते हैं, वह उनके चार—चार रुपए दाम मांग रहा था। एक ठेले पर जोर से आवाज लगा रहा था कि बिलकुल सस्ते लुटा दिए, चार रुपए में। कोई आ भी नहीं रहा था। तभी अचानक बगल की गली से एक दूसरा आदमी आया एक ठेले पर बर्तन लिए और उसने कहा, क्यों लूट रहे हो लोगों को! चार रुपया? बर्तन तीन रुपए के हैं।

लोग ठहर गए। एक चिल्ला रहा था, चार रुपए! दूसरा कह रहा था कि लूटो मत; बर्तन तीन रुपए के हैं। भीड तीन रुपए वाली दुकान पर लग गई। सब बर्तन थोड़ी ही देर में खाली हो गए। दूसरा चिल्ला रहा है कि तू अपने समव्यवसायी को धोखा दे रहा है। तू क्यों मेरे पीछे पड़ा है? तू क्यों मेरे ग्राहक बिगाड़े दे रहा है?

थोड़ी ही देर बाद जब दूसरे के बर्तन समाप्त हो गए, वह ठेले को लेकर अंदर एक गली में’ चला गया। दूसरा भी पहुंचा और उसने कहा, तूने तो कमाल कर दिया भाई। फिर जिसके बर्तन बिलकुल नहीं बिके थे, आधे— आधे फिर उन्होंने ठेले पर रख लिए। वे दोनों सहयोगी हैं, साझेदार हैं। फिर दूसरी सड़क पर वही शुरू हो गया शोरगुल। एक चार रुपए चिल्ला रहा है। दूसरा कह रहा है कि तीन रुपए! मत लूटो लोगों को। वे तीन रुपए वाले बर्तन बिक रहे हैं। बाजार में दाम दो रुपए हैं।

वह जो आपके भीतर चोर है और जो आपके भीतर अचोर है, उन दोनों की कास्पिरेसी है, दोनों साझीदार हैं। उनमें से किसी भी एक की आपने सुनी, तो दूसरे के जाल में भी आप गिरे।

यह जरा समझना कठिन है। और यहीं से धर्म की यात्रा शुरू होती है। नीति और धर्म का यही फर्क है।

नीति कहती है, भीतर जो साधु है, उसकी सुनो। धर्म कहता है, दोनों की मत सुनो; सुनो भी, तो साक्षी रहो। दोनों की मानो मत, क्योंकि उन दोनों की सांठ—गांठ है। वे दोनों एक ही धंधे में साझीदार हैं। एक की सुनी, तो दूसरे के चक्कर में तुम पड़े। जब तक एक तुम्हें चूसेगा, तब तक दूसरा विश्राम करेगा। जब तुम एक से थक जाओगे, दूसरा तुम पर हावी हो जाएगा। और ये दिन और रात की तरह अनंत जन्मों तक चल सकती है यह प्रक्रिया। यह रोज चल रही है।

सुबह आप भले आदमी होते हैं, दोपहर बुरे आदमी हो जाते हैं, सांझ भले आदमी हो जाते हैं। आप गलती में हैं अगर आप सोचते हैं कि दुनिया में साधु कटे हैं और असाधु अलग हैं। ऐसा नहीं है। सभी के साधु क्षण हैं, सभी के असाधु क्षण हैं।

सुबह—सुबह आप उठे हैं, तब साधु क्षण आप पर भारी होता है, भोर होती है, जीवन ताजा होता है, रातभर का विश्राम होता है, उपद्रव इतनी देर शांत रहे होते हैं, साधु क्षण होता है। भिखमंगे सुबह भीख इसीलिए मांगने आते हैं। सांझ को कोई उन्हें भीख देने वाला नहीं है। सुबह साधु क्षण को फुसलाया जा सकता है।

सुबह—सुबह एक आदमी उठा है, उसके सामने कोई भीख मांगता है, तो इनकार करना मुश्किल है। सांझ एक आदमी दिनभर दुकान में बेईमानी करके लौटा है। उससे दया पाने की आशा करनी कठिन है।

आपके भी क्षण होते हैं। दिन में आप कई बार साधु और कई बार असाधु होते हैं। और यह रूपांतर चलता रहता है। इस द्वंद्व के बाहर जाने का एक ही उपाय है कि हम दोनों में चुनना बंद कर दें।

संतत्व अस्तित्व है, साधुता, असाधुता माया है। संतत्व से कोई पीछे नहीं गिरता। क्योंकि जिसका साक्षी सध गया, उसके पीछे कुछ बचता ही नहीं, जहां गिर सके। द्वंद्व खो गया; स्वप्न टूट गया। वह जो षड्यंत्र था द्वैत का, वह शेष न रहा। गिरने की कोई जगह नहीं है। संत को गिरने की कोई जगह नहीं है। कुछ बचा नहीं, जहां वह गिर सके।

साधु गिर सकता है, इसलिए साधुता कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। खेल से ज्यादा नहीं है। संतत्व उपलब्धि है, लेकिन बड़ी दूभर है। क्योंकि पहली ही शर्त, चुनना नहीं। पहली ही शर्त, ज्ञान में ठहरना, जागरूकता में रुकना। पहली ही शर्त, साक्षी हो जाना। अब हम सूत्र को लें।

दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु— भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव—यें सब तो, हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।

एक—एक लक्षण को समझें।

अहिंसा…..।

अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख पहुंचाने की वृत्ति का त्याग। हम सबको दूसरे को दुख पहुंचाने में रस आता है। दूसरे को दुखी देखकर हममें सुख का जन्म होता है। यह जरा कठिन लगेगा, क्योंकि हम कहेंगे, नहीं, ऐसा नहीं। दूसरे में दुख देखकर हममें सहानुभूति जन्मती है। लेकिन अगर आप अपनी सहानुभूति को भी थोड़ा—सा खोजेंगे, तो पाएंगे, उसमें रस है।

किसी के मकान में आग लग गई है, तब आप अपना स्वाध्याय करना। जब आप जाकर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं कि बहुत बुरा हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिए तब अपना आप निरीक्षण करना कि भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि अपना मकान नहीं जला, दूसरे का जला! भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि हम सहानुभूति बताने की स्थिति में हैं और तुम सहानुभूति लेने की स्थिति में हो! कि अच्छा मौका मिला कि आज हमारा हाथ ऊपर है!

और वह आदमी अगर आपकी सहानुभूति न ले, तो आपको पता चल जाएगा। वह कह दे, कुछ हर्जा नहीं, बड़ा ही अच्छा हुआ कि मकान जल गया, सर्दी के दिन थे, और ताप मिल रहा है; बड़ा आनंद आ रहा है। तो आप दुखी घर लौटेंगे, क्योंकि उस आदमी ने आपको मौका नहीं दिया ऊपर चढ़ने का। एक मुफ्त अवसर मिला था, जहां आप दान कर लेते बिना कुछ दिए; जहां बिना कुछ बांटे आप सहानुभूति का सुख ले लेते, वह मौका उस आदमी ने नहीं दिया। आप उस आदमी के दुश्मन होकर घर लौटेंगे।

ध्यान रहे, अगर आप किसी को सहानुभूति दें और वह आपकी सहानुभूति न ले, तो आप सदा के लिए उसके दुश्मन हो जाएंगे, आप उसको कभी माफ न कर सकेंगे।

इसको पहचानना हो, तो दूसरे छोर से पहचानना आसान है। सभी को लगता है कि नहीं, यह बात ठीक नहीं। दूसरे के दुख में हमें दुख होता है। इसे छोड्कर दूसरे छोर से पहचानें, दूसरे के सुख में क्या आपको सुख होता है?

अगर दूसरे के सुख में सुख होता हो, तो ही दूसरे के दुख में दुख हो सकता है। और अगर दूसरे के सुख में पीड़ा होती है, तो गणित साफ है कि दूसरे के दुख में आपको सुख होगा, पीड़ा नहीं हो सकती। अगर दूसरे का सुख देखकर आप जलते हैं, तो दूसरे का दुख देखकर आप प्रफुल्लित होते होंगे। चाहे आपको भी पता न चलता हो, चाहे आप अपने को भी धोखा दे लेते हों, लेकिन भीतर आपको मजा आता होगा।

अखबार सुबह से उठाकर आप देखते हैं। अगर कोई उपद्रव न छपा हो, कहीं कोई हत्या न हुई हो, गोली न चली हो, तो आप थोड़ी देर में उसको ऐसा उदास पटक देते हैं। कहते हैं, कुछ भी नहीं है, कोई खबर ही नहीं! आप किस चीज की तलाश में हैं? आप कहीं दुख खोज रहे हैं, तो आपको लगता है, यह समाचार है, कुछ खबर है। जब भी आप दुखी आदमी को देखते हैं, तो तुलनात्मक रूप से आप अनुभव करते हैं कि आप सुखी हैं। और न केवल साधारणजन, बल्कि नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अगर तुम्हारा एक पैर टूट गया है, तो दुखी मत होओ। देखो, ऐसे लोग भी हैं, जिनके दो पैर टूटे हुए हैं। उनको देखो! तो निश्चित ही अगर आपका एक पैर टूट गया है, तो दो पैर टूटे आदमी को देखकर आपके जीवन में अकड़ आ जाएगी। आपको लगेगा कि कुछ हर्जा नहीं, ऐसा कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ गया है; दुनिया में और भी बुरी हालतें हैं।

नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अपने से पीछे देखो; अपने से ज्यादा दुखी को देखो, तो तुम हमेशा सुखी अनुभव करोगे। अपने से सुखी को देखोगे, तो हमेशा दुखी अनुभव करोगे।

पर यह बात ही बुरी है। इसका मतलब हुआ कि दूसरे को दुखी देखकर आपको कुछ सुख मिल रहा है। यह कोई बड़ी नैतिक शिक्षा न हुई। और यह कोई भला संदेश न हुआ।

कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदायुक्त व्यक्ति का लक्षण होगा अहिंसा। अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख न पहुंचाने की वृत्ति। और यह तभी हो सकता है, जब दूसरे के दुख में हमें सुख न हो। और यह तभी होगा, जब दूसरे के सुख में हमें सुख की थोड़ी—सी भाव—दशा बनने लगे।

तो अहिंसा कहां से शुरू करिएगा? पानी छांनकर पीजिएगा, तो अहिंसा शुरू होगी? मांसाहार छोड़ने से अहिंसा शुरू होगी? ये सब गौण बातें हैं। छोड़ दें तो अच्छा है, लेकिन उतने से अहिंसा शुरू नहीं होती।

अहिंसा शुरू होती है, जब कोई सुखी हो, तो वहां सुख अनुभव करें। दूसरे के सुख को अपना उत्सव बनाएं। और जब कोई दुखी होता हो, तो दुख अनुभव करें, और दूसरे के दुख में समानुभूति में उतरें। दूसरे की जगह अपने को रखें, चाहे सुख हो, चाहे दुख।

दूसरे की जगह स्वयं को रखने की कला अहिंसा है। कोई सुखी है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके सुख को अनुभव करें, और प्रफुल्लित हो जाएं। कोई दुखी है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके दुख में लीन हो जाएं, जैसे वह दुख आप पर ही टूटा हो। तब आप पाएंगे कि जीवन में अहिंसा आनी शुरू हुई।

पानी छानकर पीना और मांसाहार छूट जाना बड़ी सरल बातें हैं, जो इस भाव—दशा के बाद अपने आप घट जाएंगी। लेकिन कोई कितना ही पानी छानकर पीए सात बार छानकर पीए तो भी अहिंसा नहीं होने वाली। मांसाहार बिलकुल न करे, तो भी अहिंसा होने वाली नहीं। ये सिर्फ आदतें हो जाती हैं। आदतों का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। बोधपूर्वक अहिंसा के सार— तत्व को पकडने की बात है।

मैं रोज देखता हूं तो बड़ा जीवन विरोधों से भरा हुआ मालूम पड़ता है।

एक क्वेकर साधु पुरुष था। क्वेकर ईसाइयों का एक संप्रदाय है, जो अहिंसा में पक्का भरोसा करता है। जैनों जैसा संप्रदाय है ईसाइयों का। किसी को मारना नहीं। तो क्वेकर अपने हाथ में बंदूक या अस्त्र—शस्त्र भी नहीं रखते, अपने घर में भी नहीं रखते। लेकिन यह क्वेकर्स की मान्यता है कि जब किसी को मरना है, किसी की घड़ी आ गई, तो परमात्मा उसे खुद उठा लेगा, किसी को उसे मारने की जरूरत नहीं है। अगर अपनी घड़ी मरने की आ गई, तो परमात्मा हमें उठा लेगा। तो अस्त्र—शस्त्र का क्या प्रयोजन है!

लेकिन यह साधु पुरुष जब भी चर्च जाता—चर्च दूर था इसके गांव से—तो वह एक पिस्तौल लेकर जाता। और वह जाहिर अहिंसक था। तो मित्रों ने पूछा कि तुम भाग्य को मानते हो, अहिंसा को मानते हो, तुम किसी को मारना भी नहीं चाहते, तुम यह भी जानते हो कि जब तक परमात्मा की मरजी न हो, तब तक तुम्हें कोई मार नहीं सकता, तो तुम पिस्तौल लेकर किसलिए जा रहे हो?

उस क्वेकर ने क्या कहा! उसने कहा कि मैं अपने बचाव के लिए पिस्तौल लेकर नहीं जा रहा हूं। लेकिन इस पिस्तौल से अगर परमात्मा को किसी को मारना हो, तो यह मौजूद रहनी चाहिए। अगर मेरा उपयोग करना हो परमात्मा को।

इस क्वेकर के घर में एक रात एक चोर घुस गया, तो उसने अपनी पिस्तौल उठा ली। चोर एक कोने में दबा हुआ खड़ा है। उस कोने की तरफ धीमा—सा प्रकाश है; रात का नीला प्रकाश थोड़ा—सा, पांच कैंडल का बल्‍ब है। वह कोने में छिपा खड़ा है। इसने कोने की तरफ पिस्तौल की और कहा कि मित्र, तुम्हें मैं नहीं मार रहा हूं; लेकिन जहां मैं गोली चला रहा हूं, तुम वहीं खड़े हो!

लेकिन यह हमें हंसी योग्य बात लगती है, लेकिन सारी दुनिया के अहिंसक इसी तरह के तर्क। क्योंकि हिंसा तो बदलती नहीं, ऊपर से आचरण थोप लिया जाता है!

क्वेकर पक्के अहिंसक हैं। दूध भी नहीं पीते। कहते हैं, दूध खून है, आधा खून है, इसलिए पाप है। दूध से बनी कोई चीज नहीं लेते। क्योंकि वह एनिमल फुड है।

ये जो सोचने के ढंग हैं, इनमें से तरकीबें निकल आती हैं। अंडा खाते हैं, क्वेकर अंडा खाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, अंडा, जब तक बच्चा उसके बाहर नहीं आ गया, तब तक उसमें कोई जीवन नहीं है। अंडे को खाने में कोई पाप नहीं है। दूध पीने में पाप है, क्योंकि वह खून है।

और जीवन की सारी व्यवस्था हम इस ढंग की कर ले सकते हैं कि ऊपर से लगे कि सब अहिंसा है और भीतर सारी हिंसा जारी रहे। जैनों ने अहिंसा का बड़ा प्रयोग किया, लेकिन उनकी सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में जुट गई। तो उन्होंने खेती—बाड़ी छोड़ दी, क्योंकि उसमें हिंसा है। पौधा काटेंगे, तो हिंसा होगी; इसलिए जैनों ने खेती—बाड़ी छोड़ दी। क्षत्रिय होने का उपाय न रहा उनका, क्योंकि वहा युद्ध में हिंसा होगी।

तो उनके व्यक्तित्व की सारी हिंसा, जो युद्ध में निकल सकती थी, खेती—बाडी में निकल सकती थी।

आप जानकर हैरान होंगे कि किसान, माली भले लोग होते हैं, क्योंकि उनकी हिंसा निकल जाती है। एक किसान दिनभर काट रहा है जंगल में, लकड़ी काट रहा है, पौधे उखाडू रहा है, तो उसकी जितनी क्रोध की वृत्ति है, वह सब इस उखाड़ने, तोड्ने में, मिटाने में निकल जाती है। वह भला आदमी होता है। किसान सरल आदमी होता है।

क्षत्रिय भी सरल आदमी होता है, क्योंकि युद्ध के मैदान पर लड़ लेता है। कुछ भी बचता नहीं, सब निकल जाता है। इसलिए क्षत्रिय भोले होते हैं। क्षत्रिय को आप जितनी आसानी से धोखा दे सकते हैं, दुकानदार को नहीं दे सकते, बनिया को नहीं दे सकते। होना चाहिए था उलटा, क्योंकि वह हिंसक है, दुष्ट है, उसको धोखा देना मुश्किल होना चाहिए। लेकिन ऐसी बात नहीं है। उसको धोखा देना बिलकुल आसान है।

मैंने सुना है, राजस्थान की एक कथा है, कि एक गांव का एक क्षत्रिय राजपूत बड़ा अकडीला आदमी था। वह अपने गांव में किसी को मूंछ सीधी नहीं करने देता था, सिर्फ अकेली अपनी मूंछ सीधी रखता था। दूसरा अगर उसके घर के सामने दूसरे गांव का भी आदमी निकले, तो कहता था, मूंछ नीची कर। इससे झगड़े, दंद—फंद हो जाते थे, तलवारें खिंच जाती थीं।

एक नया बनिया गांव में आया, जवान था। और वह भी मूंछ सीधी रखने का शौकीन था। क्षत्रिय के घर के सामने से निकला। उस क्षत्रिय ने कहा, मूंछ सीधी नहीं चल सकती। इस गांव में एक ही मूंछ सीधी रह सकती है, दो तलवारें स्व म्यान में नहीं चलेंगी, तू मूंछ नीची कर ले। बनिये ने कहा, क्यों? मूंछ नीची नहीं होगी! तलवारें खिंच गईं।

बनिये ने कहा, एक दो मिनट रुक जा। क्योंकि मैं घर लौटकर जाकर अपने बच्चे और पत्नी को समाप्त कर आऊं, हो सकता है, मैं मर जाऊं; मेरे कारण मेरे बच्चे और पत्नी भूखे मरें, यह मुझे बरदाश्त के बाहर है। और मैं तुझे भी सलाह देता हूं? तू भी घर जा, बच्चे और पत्नी को खतम कर आ। क्योंकि हो सकता है, तू मर जाए।

क्षत्रिय ने कहा, बात बिलकुल ठीक है। वह घर गया। वह साफ करके आ गया। बनिया घर गया, वापस लौटकर उसने कहा, मैंने इरादा बदल दिया, मैंने मूंछ नीची कर ली।

यह जो बनिया है, हिंसक तो नहीं है, लेकिन इसकी हिंसा चालाकी बन जाएगी।

तो जैनों की सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में लगी; सब उपाय बंद हो गए। और धन सबसे सुविधापूर्ण साधन है दूसरे को दुख देने का। इससे ज्यादा आसान कोई तरकीब नहीं है। किसी की छाती में छुरा मारो, वह भी उपद्रव है, क्योंकि उसमें खुद को भी छुरा भोंका जाए, इसका डर सदा है। लेकिन धन चूस लो, दूसरा वैसे ही मर जाता है बिना छुरा मारे। और दूसरे को इससे ज्यादा दुखी करने की कोई सुविधापूर्ण व्यवस्था नहीं है कि तुम धन इकट्ठा कर लो। तुम धन इकट्ठा करते जाओ, दूसरा निर्धन होता जाए। वह मरता जाता है अपने आप। वह उसे इकट्ठा जहर देने की जरूरत नहीं है। एक—एक बूंद उसमें जहर उतरता जाता है। चारों तरफ सब सूख जाता है। सारा जीवन तुम शोषित कर लेते हो।

तो जैन बड़ी अहिंसा साधा। लेकिन वह अहिंसा चूंकि ऊपर—ऊपर थी, नैतिक थी; वह अहिंसा मौलिक आधार से नहीं जन्मी। वह महावीर की अहिंसा नहीं थी। इस जैन की, पीछे चलने वाले की अपने मन की, गणित की, अपनी बुद्धि की खोज थी। तो जटिल हो गया। और शोषण के रूप में अहिंसा दब गई और हिंसा व्यापक हो गई।

अहिंसा लक्षण है इस अर्थ में कि आप अपने मन से दूसरे को दुख देने का भाव विसर्जित कर दें। शुरू करना होगा दूसरे के सुख में सुख लेना। क्योंकि सुख लेना आसान है, दुख लेना कठिन है।

अपना ही दुख झेलना मुश्किल होता है, दूसरे का दुख झेलना तो और मुश्किल हो जाएगा। आप अपने ही दुख से काफी परेशान हैं, अगर हर एक का दुख लेने लगें और हर एक का दुख झेलने लगें; हर घर में आदमी मरेगा, अगर आप हर घर में बैठकर रोने लगे, जैसे आपका कोई मर गया हो—यह कठिन होगा। इससे शुरुआत नहीं हो सकती।

इसलिए शुरुआत का सूत्र है, दूसरे के सुख से शुरू करें। जब दूसरे के जीवन में फूल खिले, तो आपके जीवन में नाच आए। यह आसान होगा। हालांकि बहुत कठिन लगेगा, क्योंकि अभी हमें सुख देखकर तो बड़ी पीड़ा होती है; दुरूहतम मालूम होगा। लेकिन साधना दुरूह है। वह ऊंचे पहाड़ चढ़ने जैसा प्रयोग है। और यह ऊंचे से ऊंचा पहाड़ है, दूसरे के सुख में सुख अनुभव करना। तो आपका जीवन एक तरफ उत्सव से भर जाएगा।

और तब दूसरा प्रयोग है, दूसरे के दुख में दुख अनुभव करना, तब आपके जीवन में अंधकार भी भर जाएगा, प्रकाश और अंधकार दोनों। लेकिन चूंकि दूसरे के दुख में आप दुखी हो रहे हैं और दूसरे के सुख में आप सुखी हो रहे हैं, आपका साक्षी— भाव दोनों में निर्मित हो सकेगा। आप दोनों अनुभव में डूबकर भी बाहर रह सकेंगे।

जब आपका खुद का दुख आता है, तो आप एकदम भीतर हो जाते हैं, आप उस दुख में लीन हो जाते हैं। जब आप दूसरे के दुख में डूबेंगे, तो आप कितने ही लीन हो जाएं, आपका आंतरिक आत्यंतिक हिस्सा बाहर खड़ा देखता रहेगा। जब आप पर सुख आता है, तो आप उसमें उत्तेजित हो जाते हैं। दूसरे के सुख में आप कितने ही डूबे, उत्तेजित न हो पाएंगे। वह एक धीमा, सौम्य उत्सव होगा, और आपके भीतर का साक्षी जगा रहेगा।

और ध्यान रहे, जो व्यक्ति दूसरे के सुख—दुख में साक्षी हो गया, वह धीरे— धीरे अपने सुख—दुख में भी साक्षी हो सकेगा। क्योंकि थोडे ही समय में उसे पता चलेगा, सुख—दुख न तो मेरे हैं, न दूसरे के हैं। सुख—दुख घटनाएं हैं, जिनका मेरे और तेरे से कुछ लेना—देना नहीं है। सुख—दुख बाहर परिधि पर घटते हुए धूप—छाया के खेल हैं, जो मेरे आंतरिक केंद्र को छूते भी नहीं, जिनसे मैं अस्पर्शित रह जाता हूं।

सत्य……।

सत्य से इतना ही अर्थ नहीं है कि सच बोलना। सत्य से अर्थ है, प्रामाणिक होना, आथेंटिक होना। सत्य से अर्थ है, जैसे आप भीतर हैं, वैसे ही बाहर होना। लेकिन लोग सत्य का यह अर्थ नहीं लेते। लोग सत्य का अर्थ लेते हैं, सच बोलना। वह सिर्फ गौण हिस्सा है।

और सच बोलना…..हमारा मन जैसा चालाक है, उसमें हम सच बोलने का भी दुरुपयोग कर लेते हैं। हम तब सच बोलते हैं, जब सच से दूसरे को चोट पहुंचती हो। और अगर दूसरे को चोट पहुंचाने का मौका हो, तो हम कहते हैं, हम झूठ कैसे बोल सकते हैं! सच बोलना ही पड़ेगा। खुद पर चोट पहुंचती हो, तो हमारे तर्क बदल जाते हैं।

मैंने सुना है, एक सुबह मुल्ला नसरुद्दीन अपनी छपरी में बैठा हुआ है। अचानक वर्षा का झोंका आया। गांव का जो मौलवी है, वह पानी की बूंदें पड़ी तो तेजी से भागा। नसरुद्दीन ने कहा, रुको, यह परमात्मा का अपमान है। मौलवी भी घबड़ा गया; क्योंकि नसरुद्दीन वजनी आदमी था। और गाव में खबर हो जाए। और उससे कह रहा था, तो उसका कुछ मतलब होगा। उसने कहा, क्या मतलब? तो उसने कहा, जब परमात्मा वर्षा कर रहा है, तो तुम उसका अपमान कर रहे हो भागकर। धीमे— धीमे जाओ। मौलवी को भी बात समझ में आई। बेचारा धीरे— धीरे घर तक गया, भीग गया वर्षा में। बूढ़ा आदमी था, बुखार आ गया।

वह तीसरे दिन अपने बिस्तर में बुखार में बैठा हुआ था, तब उसने खिड़की से देखा कि वर्षा का फिर झोंका आया और नसरुद्दीन बाजार से भागा जा रहा है। तो उसने कहा, रुक, नसरुद्दीन! भूल गया? तो नसरुद्दीन रुका नहीं, भीतर भागता हुआ घर में आया और उसने कहा कि नहीं, भूला नहीं। इसीलिए भाग रहा हूं कि परमात्मा पानी गिरा रहा है, उसके पानी पर कहीं मेरे नापाक पैर न पड़ जाएं। गंदा आदमी हूं, नहाया भी नहीं। ये गंदे पैर उसके पानी पर न पड़ जाएं, इसीलिए तो भाग रहा हूं। भूला नहीं हूं।

बस, यही हमारे सबके तर्क हैं। जब खुद पर चोट पड़ती हो, तो हम झूठ को सच बना लेते हैं। जब दूसरे पर चोट पड़ती हो, तो हम सच का भी झूठ की तरह उपयोग करते हैं, हिंसक उपयोग करते हैं। कुछ लोग सच बोलने में बडा रस लेते हैं, क्योंकि सच से काफी चोट पहुंचाई जा सकती है। तब मजे की बात यह है कि झूठ बोलकर भी हम दूसरे को नुकसान पहुंचाते हैं और सच बोलकर भी नुकसान पहुंचाते हैं। हमारा लक्ष्य सदा एक है; हिंसा हमारा लक्ष्य है।

इसलिए सत्य का अर्थ केवल सच बोलना नहीं है। सत्य का अर्थ है, प्रामाणिक होना। सत्य का अर्थ है कि जैसा मैं भीतर हूं? वैसा ही बाहर होना, परिस्थिति की बिना फिक्र किए कि क्या होगा परिणाम। इसे थोड़ा समझ लें।

जो व्यक्ति परिणाम की चिंता करता है, वह सत्य नहीं हो सकता। क्योंकि कई बार अच्छे परिणाम झूठ से आ सकते हैं। कम से कम जहां तक हमें दिखाई पड़ता है, वहां तक आ सकते हैं।

एक आदमी को फांसी लग रही है, आप झूठ बोल दें, बच सकता है वह आदमी। झूठ बोलने से, आपके देखने में तो जहां तक मनुष्य की बुद्धि जाती है, यह परिणाम हो रहा है कि एक आदमी का जीवन बच रहा है। अगर परिणाम की आप चिंता करेंगे, तो सौ में निन्यानबे मौकों पर लगेगा कि झूठ से अच्छे परिणाम आ सकते हैं, सत्य से बुरे परिणाम आ सकते हैं।

सत्य का अर्थ है कि परिणाम की चिंता ही मत करना। जैसा हो, उसे बेशर्त, बिना आगे—पीछे देखे, वैसा ही रख देना। भविष्य को सोचना ही मत, फल को सोचना ही मत।

कृष्ण का बहुत जोर है इस बात पर कि जो फल को सोचेगा, वह भटक जाएगा। जैसा हो, वैसा उसे प्रकट कर देना, अपने को बाहर— भीतर एक—सा कर देना, अपने को उघाड़ देना, सत्य है। और वह दैवी संपदा का अनिवार्य हिस्सा है।

अक्रोध…….।

साधारणत: आप सोचते हैं कि कभी—कभी आप क्रोध करते हैं। यह बात झूठ है, यह बात बिलकुल ही झूठ है। आप चौबीस घंटे क्रोध में रहते हैं। कभी—कभी क्रोध उबलता है और कभी—कभी कुनकुना रहता है, बस। कुनकुने की वजह से पता नहीं चलता। क्योंकि उसकी आपको आदत है। उतने में तो आप जी ही रहे हैं सदा से।

आप अपने को पहचानें, निरीक्षण करें, तो आपको समझ में आएगा कि चौबीस घंटे आप में हल्का—सा क्रोध बना रहता है। कभी इस चीज के प्रति, कभी उस चीज के प्रति। कभी कोई भी कारण न हो, तो अकारण। अगर आपको चौबीस घंटे कमरे में बंद कर दिया जाए, जहां कोई कारण न दे आपको क्रोधित होने का, तो भी आप क्रोधित होंगे। तो आप इस पर ही क्रोधित होने लगेंगे कि कुछ भी नहीं हो रहा है, कोई भी नहीं है! कि मैं यहां बैठा क्या कर रहा हूं! कि मुझे यहां क्यों बिठाया गया है! अकेले में क्यों छोड़ा गया है!

क्रोध आपकी दशा है। हम सब सोचते हैं कि क्रोध घटना है। इसलिए हम सोचते हैं, क्रोध कभी—कभी आता है, यह कोई ऐसी बात नहीं है कि सदा है। लेकिन क्रोध सदा है। कभी—कभी कोई चिनगारी डाल देता है, तो आपकी बारूद भभक उठती है। लेकिन बारूद सदा है। बारूद न हो, तो चिनगारी डालने से भी भभकेगी नहीं।

अक्रोध का अर्थ है, चौबीस घंटे एक शांत स्थिति। यह तभी हो सकता है, जब आप दूसरे को दोष देना बंद कर दें।

क्रोध का तर्क क्या है? क्रोध का तर्क एक ही है कि दूसरा भूल—चूक कर रहा है, दूसरा गलत कर रहा है। दूसरा ऐसा कर रहा है, जैसा उसको नहीं करना चाहिए। इससे आप भभकते हैं।

अक्रोध की भाव—दशा तब निर्मित होगी, जब आप समझेंगे कि दूसरा जो कर रहा है, वह वही कर सकता है। दूसरा उसको इससे अन्यथा करने का उपाय नहीं है। अगर एक आदमी आपको गाली दे रहा है, तो आप सोचते हैं, इसे गाली नहीं देनी चाहिए। यह आदमी गलती कर रहा है, बुरा कर रहा है। इसलिए क्रोध भभकता है।

अगर आप इस आदमी का पूरा अनंत जीवन जानते हों अतीत का, तो आप कहेंगे, यह गाली इसमें ऐसे ही लग रही है, जैसे किसी पौधे में फूल लगते हैं। वे बीज में ही छिपे थे। बढ़ते—बढ़ते—बढ़ते वृक्ष बड़ा होता है, फिर फूल आते हैं। वे फूल कड़वे होते हैं, कि सुगंधित होते हैं, कि सुंदर होते हैं, कि कुरूप होते हैं, यह बीज में ही छिपे थे।

ये गालियां इस आदमी में लग रही हैं, इसका मुझसे कुछ लेना—देना नहीं है। यह इस आदमी का स्वभाव है, यह इस आदमी के जीवन का ढंग है, यह इसकी उपलब्धि है कि गालियां बक रहा है। मैं सिर्फ बहाना हूं। अगर मैं यहां न होता, तो कोई दूसरा इसकी गाली खाता, वह भी नहीं होता, तो कोई तीसरा गाली खाता; कोई भी नहीं होता, तो यह शून्य में गाली देता, लेकिन गाली देता। यह गाली इसके कर्मों की अभिव्यक्ति है।

अक्रोध तब पैदा होगा, जब आप समझेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति में चल रहा है। आपसे कुछ लेना—देना नहीं है। आपसे रास्ते पर मिलना हो जाता है, इससे आप अकारण परेशान न हों।

एक झेन फकीर हुआ, रिंझाई। वह अपने शिष्यों को नाव में ले जाता था। और जब वह नाव को ले जाता, तो एक किनारे पर उसने एक मल्लाह रख छोड़ा था। एक झाड़ी की आडू में वह मल्लाह एक नाव को छिपाए रखता। जब इसकी नाव निकलती, तो खाली नाव को वह झाड़ी के भीतर से धक्का देता। वह खाली नाव आकर रिंझाई की नाव को टकरा जाती। कोई भी कुछ नहीं बोलता, क्योंकि खाली नाव से क्या गाली बकनी, क्या झगड़ा करना। शिष्य भी हिल—डुलकर बैठकर रह जाते। फिर दुबारा कभी वह मल्लाह नाव में बैठकर और टक्कर देता, तब वे सारे शिष्य उबल पड़ते।

तो रिंझाई कहता कि एक दफे पहले भी यह हुआ था, जब नाव हमसे टकरा गई थी, तुम सब चुप रहे थे। वे कहते, तब यह आदमी उसमें नहीं था। और खाली नाव को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। खाली नाव से क्या कहना! संयोग की बात है। लेकिन यह आदमी बैठा है, यह रिस्पासिबल है, यह जिम्मेवार है, इससे झगड़ा किया जा सकता है। लेकिन रिंझाई कहता कि आदमी बैठा हो, या न बैठा हो, यह संयोग की बात है कि नाव टकरा गई। और तुम दोनों स्थितियों में एक—सा व्यवहार करो, तो अक्रोध जन्मेगा!

कोई व्यक्ति क्या कर रहा है, वह उसकी अपनी नियति है। तुम अकारण उसे अपने ऊपर मत लो। तुम व्यर्थ ही मत समझो कि सारी दुनिया तुम पर हंस रही है; कि सारी दुनिया तुम्हारे संबंध में ही फुस—फुस कर रही है; कि सारे लोग तुम्हारे संबंध में सोच रहे हैं, कि तुम्हें कैसे बरबाद कर दें; कि सब तुम्हारे दुश्मन हैं। किसी को तुम्हारे लिए इतनी फुरसत नहीं है। सब अपने—अपने गोरखधंधे में लगे हैं। तुम अकारण बीच में खड़े हो। तुम व्यर्थ ही बीच में चीजें झेल लेते हो।

जैसे ही कोई व्यक्ति इस बात को ठीक से देखने लगता है कि हर व्यक्ति अपने ढंग से जा रहा है, और जो भी उसमें हो रहा है, वही उसमें हो सकता है, तब एक स्वीकृति पैदा होती है; तब क्रोध नहीं जन्मता, तब तथाता का भाव निर्मित होता है। तब हम कहते हैं कि जो होना था, वह हुआ है। इस व्यक्ति से जो हो सकता था, इसने किया है। तब अक्रोध।

अक्रोध बहुमूल्य है; दैवी संपदा में बड़ा मूल्यवान है। और ये दैवी संपदा के जो सूत्र हैं, इनमें से एक सध जाए, तो दूसरे अपने आप सध जाते हैं। इसलिए ऐसा मत सोचना कि एक—एक को साधना पड़ेगा। एक भी सध जाए, तो उसके पीछे दूसरे गुण अपने आप चले आते हैं, क्योंकि वे सब गुण संयुक्त हैं।

जो आदमी अक्रोध साधेगा, उसकी अहिंसा अपने आप सध जाएगी। जो आदमी अक्रोध साधेगा, वह अभय हो जाएगा। क्योंकि जो क्रोध ही नहीं करता, अब उसको भयभीत कौन कर सकता है? अगर वह भयभीत हो सकता था, तो क्रोधित होता। क्योंकि क्रोध भयभीत हो जाने के बाद अपनी रक्षा का उपाय है, वह डिफेंस मेजर है। उसके द्वारा हम अपना बल जगाते हैं और तत्पर हो जाते हैं कि आ जाओ, हम निपट लें। वह भय की सुरक्षा है।

और जो आदमी अक्रोध को उपलब्ध हो गया, जो कहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति से चल रहा है, मैं भी अपनी नियति से चल रहा हूं वह क्यों छिपाका कुछ! किससे छिपाना है? परमात्मा के सामने मैं उघड़ा हुआ हूं। और यहां किससे क्या छिपाना है! किसी से कुछ लेना—देना नहीं है। तब वह आदमी खुली किताब की तरह हो जाएगा।

ये सब गुण संयुक्त हैं। चर्चा के लिए अलग—अलग ले लिए हैं। इससे आप ऐसा मत समझना कि ये .अलग—अलग हैं। और आपको इतने गुण साधने पड़ेंगे! आप नाहक घबड़ा जाएंगे। आप सोचेंगे, इतने गुण! अपने बस के बाहर है। और इतनी छोटी जिंदगी! यह होने वाला नहीं है। इनमें से एक साध लें, और आप पाएंगे कि बाकी उनके पीछे आने शुरू हो गए हैं।

त्याग…….।

एक तो रस है भोग का, जिसे हम जानते हैं। एक और रस है त्याग का, जिसे हम नहीं जानते हैं। या शायद कभी—कभी कोई क्षण में हम जानते हैं। कभी आपने देखा, जब आप किसी को कुछ देते हैं, तो एक खुशी आपको पकड़ लेती है। किसी को सहारा दे देते हैं, कोई रास्ते पर गिर रहा हो और आप हाथ बढ़ा देते हैं; एक अहोभाव, एक आनंद की थिरक आप में समा जाती है। हृदय में कुछ संगीत बजने लगता है।

जब भी आप कुछ छोड़ते हैं, तभी आपके भीतर कुछ फैलता है। आप थोड़े से विराट हो जाते हैं। इसकी झलकें सबको मिलती हैं। उन झलकों को अगर हम समाहित करते जाएं, उन झलकों को अगर हम धीरे— धीरे विकसित करते जाएं, उनका अभ्यास गहन होने लगे, वे झलकें हमारे जीवन का पथ बन जाएं, तो उस पथ का नाम त्याग है।

त्याग का अर्थ है, देने का सुख, छोड़ने का सुख। और यह कोई कल्पना नहीं है, यह कोई दार्शनिक बात नहीं है। छोड़ते ही सुख मिलता है। पर हम एक ही सुख जानते हैं, पकड़ने का सुख। और मजे की बात यह है कि हमने कभी दोनों की तुलना भी नहीं की है। दो फकीरों के संबंध में मैंने सुना है। उनमें बड़ा विवाद था। विवाद एक छोटी—सी बात को लेकर था कि एक फकीर कुछ पैसे पास रखता था, और एक फकीर कुछ भी पैसे पास नहीं रखता था। जो पास पैसे नहीं रखता था, वह कहता था, छोड़ने में आनंद है, पकड़ने में दुख है। जो पास पैसे रखता था, वह कहता था कि थोड़ा तो पकड़ना ही पड़े, नहीं तो बड़ा दुख होता है।

फिर वे एक नदी के किनारे पहुंचे। सांझ ढल गई, माझी नाव छोड़ने को था, उसने पैसे मांगे। इस तरफ रुकना खतरनाक था, जंगली जानवरों का डर था, उस तरफ जाना जरूरी था। तो जिसके पास पैसे थे, और जो पैसे का आग्रही था, उसने कहा, अब बोलो; के गीता अब तुम्हारा त्याग चलाओ! अब तुम्हारे पास जो त्याग की संपदा है, उसका उपयोग करो, हमें उस तरफ जाना है। पैसे मेरे पास हैं, अगर तुमसे कुछ न बन पड़े, तो मैं पैसे देता हूं, हम उस तरफ हो जाते हैं।

फकीर मुस्कुराता रहा, वह जो त्याग का पक्षपाती था। फिर जिसके पास पैसे थे, उसने पैसे दिए, वे नदी पार किए। नदी पार करके जिसके पास पैसे थे, उसने कहा, अब बोलो!

उस पहले फकीर ने कहा, लेकिन त्याग से ही हम पार हुए। तुम पैसे छोड़ सके, तुम पैसे दे सके, इसीलिए हम पार हुए हैं। पैसे होने से हम पार नहीं हुए हैं, पैसा छोड़ने से ही पार हुए हैं। और अगर मैं पार नहीं हो रहा था, तो उसका कारण यह नहीं था कि मेरा त्याग बाधा था, मेरे पास और त्याग की सुविधा न थी, और छोड़ने को नहीं था; बस। तकलीफ मेरे त्याग की नहीं थी, त्याग मेरा कम पड़ रहा था, और मेरे पास छोड़ने को नहीं था, थोड़ा और त्याग करने की जरूरत थी। तुम कर सके। लेकिन सही मैं ही हूं। हम छोड़ने से इस पार आए।

लेकिन हमें एक ही अनुभव है, इकट्ठा करने का। जैसा मैं देखता हूं। देखता हूं, जैसे—जैसे लोगों का धन बढ़ता है, वे दुखी होते जाते हैं। तब वे सोचते हैं कि शायद धन में दुख है। और तब शास्त्रों में उनको सहारा भी मिल जाता है कि धन से कोई सुख नहीं मिलता।

मेरी धारणा बिलकुल भिन्न है। धन से सुख मिल सकता है, अगर धन त्यागने की क्षमता हो। धन से दुख मिलता है, अगर पकड़े बैठे रहो। धन से कोई दुख नहीं पाता, कंजूसी से लोग दुख पाते हैं। धन क्यों दुख देगा? लेकिन धन छोड़ नहीं पाते।

और मजबूरी यह है कि जितना ज्यादा हो, उतना ही छोड़ना मुश्किल हो जाता है। जिसके पास एक पैसा है, वह एक पैसा दान दे सकता है; लेकिन जिसके पास एक करोड़ रुपया हो, वह एक करोड़ दान नहीं दे सकता। हालांकि दोनों के दान बराबर हैं। क्योंकि एक पैसा उसकी कुल संपदा है। औसत बराबर है। एक करोड़ दूसरे की कुल संपदा है। लेकिन जिसके पास एक पैसा है, वह पूरा दान दे सकता है; जिसके पास एक करोड़ रुपया है, वह पूरा दान नहीं दे सकता।

जितना ज्यादा धन हो, उतनी ही पकड़ने की वृत्ति बढ़ती है। जितना हम पकड़ लेते हैं, उतना ही और पकड़ना चाहते हैं। फिर दुखी होते हैं। अगर आज अमेरिका दुखी है, तो धन के कारण नहीं, धन की पकड़ के कारण।

इस फर्क को आप ठीक से समझ लेना। धन से कोई दुखी नहीं होता। और थोड़ी अकल हो, तो धन से आदमी सुखी हो सकता है। और बेअकल आदमी हो, तो निर्धन होकर भी दुखी होता है, धनी होकर भी दुखी होता है।

निर्धन का दुख समझ में आता है। मगर मजे की बात यह है कि निर्धन का भी दुख निर्धनता का दुख नहीं है। उसका भी दुख यही है कि पकड़ने को कुछ भी नहीं है। हाथ खाली है। धनी का दुख यह है कि हाथ भर गए हैं, छोड़ने की हिम्मत नहीं है।

जो भी छोड़ने की कला सीख लेता है—त्याग उस कला का नाम है—जीवन के आनंद के द्वार उसके लिए निरंतर खुलते जाते हैं। जितना ज्यादा छोड़ सकता है, उतना ही ज्यादा हलका होता जाता है। जितना छोड़ सकता है, उतनी ही आत्मा विकसित होती है। क्योंकि जितना हम पकड़ते हैं, उतने पदार्थ हम पर इकट्ठे होते जाते हैं, उसमें हम दब जाते हैं। धीरे— धीरे, धीरे— धीरे ढेर लग जाता है वस्तुओं का; हमारा कुछ पता ही नहीं रहता कि हम कहां हैं!

त्याग दैवी संपदा का हिस्सा है।

शांति और किसी की भी निदादि न करना…..।

शांत होना हम भी चाहते हैं। लेकिन हम तभी शांत होना चाहते हैं, जब हम अशांत होते हैं।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, बड़े अशांत हैं; शांति का कुछ रास्ता बताइए। ये लोग वे हैं, जिनके घर में जब आग लग जाए तब वे कुआ खोदना शुरू करते हैं। इनका घर बचेगा नहीं। कुआ पहले खोदना पड़ता है।

जब आप पूरी तरह अशांत हैं, तब शांत होना बहुत मुश्किल है। लेकिन जब आप अशांत नहीं हैं, तब शांत होना बहुत आसान है। और जब आप अशांत नहीं हैं, तब अगर आप शांत होना सीख लें, तो अशांत होने की कोई जरूरत ही न होगी। घर में कुआ हो, तो शायद आग लगेगी ही नहीं। लग भी जाए, तो बुझाई जा सकती है। तो आप जब अशांत हो जाएं, तब शांति की तलाश मत करें। यह तलाश ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जब बुखार आ जाए, तब आप चिकित्सक की खोज पर चले जाते हैं। अब तो चिकित्साशास्त्री भी कहते हैं कि यह ढंग गलत है, आदमी जब बीमार हो जाए, तब उसका इलाज करना, बड़ी देर कर दी।

तो रूस में उन्होंने एक नई व्यवस्था ईजाद की है, वह यह कि डाक्टरों को तनख्वाह मिलती है बीमारों का इलाज करने के लिए नहीं, अपने मरीजों को बीमार न पड़ने देने के लिए। रूस में उन्होंने व्यवस्था बदली और सारी दुनिया में वह व्यवस्था आज नहीं कल हो ही जानी चाहिए।

तो हर डाक्टर के हिस्से में मरीज हैं। मरीज का मतलब वे बीमार नहीं हैं, लेकिन उनको बीमार नहीं होने देना है। तो उनको चेक करते रहना है, उनकी फिक्र करते रहना है, बीमारी के पहले इलाज कर देना है। क्योंकि बीमारी के बाद इलाज करना अत्यंत जटिल हो जाता है। बीमारी अलग परेशान करती है, इलाज अलग परेशान करता है।

कुछ लोग बीमारी से मरते हैं, ज्यादा लोग डाक्टरी से मरते हैं। किसी तरह बीमारी से बच गए, तो फिर डाक्टर से बचना बहुत मुश्किल है। औषधियां! फिर जहर को काटना हो, तो और जहर डालना पड़ता है। सारी औषधियां जहर हैं। फिर दो जहरों की लड़ाई आपके भीतर होती है, और आप केवल कुरुक्षेत्र हो जाते हैं। आप कुछ नहीं रह जाते फिर, दो जहर लड़ते हैं। फिर आपकी जो मट्टी पलीद उन दो जहरों के लड़ने में होती है, आप स्वस्थ भी हो जाएंगे, तो भी कभी स्वस्थ नहीं हो पाएंगे। बीमारी भी चली जाएगी, तो आपको मुर्दा छोड़ जाएगी। आप मरे हुए जीएंगे।

जब आप अशांत हो जाते हैं, तब शांत होना कठिन है। लेकिन इतनी देर रुकने की जरूरत क्या है? शांति तो साधी जा सकती है। शांति को तो जीवन का उठते—बैठते, रोजमर्रा का भोजन बनाया जा सकता है।

इसको ध्यान रखें कि आपको शांत रहना है। घर लौटे हैं, तो दरवाजे पर दो क्षण रुक जाएं, क्योंकि पत्नी कुछ कहेगी। वह दिनभर से अशांत है, वह अशांति आप पर फेंकेगी। दो क्षण रुक जाएं, तैयार हो जाएं। तैयारी का मतलब यह कि मैं शांत रहूंगा, चाहे पत्नी कुछ भी कहे, मैं इसको नाटक से ज्यादा नहीं समझूंगा। दया करूंगा, क्योंकि बेचारी परेशान है।

मुल्ला नसरुद्दीन की लड़की का विवाह हुआ। तो लड़की दहाड़ मार—मारकर, छाती पीट—पीटकर रो रही थी। सब समझा रहे थे, वह सुन नहीं रही थी। फिर मुल्ला उसके पास गया। उसने कहा, बेटी, तू मत रो, तुझे ले जाने वाले रोके। तू मेरी बेटी है; तू बिलकुल मत घबड़ा; थोड़ी देर की बात है। थोड़ा धैर्य रख!

जीवन में चारों तरफ विक्षिप्त लोग हैं, दुखी लोग हैं। वे अपने दुख और विक्षिप्तता को फेंक रहे हैं। फेंकने के सिवाय उनके पास जीने का कोई ढंग नहीं है, उपाय नहीं है। फेंकते हैं, तो थोड़ा जी लेते हैं। यह उनकी कैथार्सिस है। अगर आप उसके शिकार हो जाते हैं, अगर आप उससे उद्विग्न होते हैं, अशांत होते हैं, तो फिर आपके जीवन में शांति का स्वर कभी भी नहीं बज पाएगा।

क्योंकि चारों तरफ अशांत लोग हैं, तो आपको शांति साधनी होगी, और आपको सजग रहना होगा। चारों तरफ बीमार लोग हैं, आपको अपने चारों तरफ एक कवच निर्मित करना होगा, एक मिस्थू एक वातावरण आपके चारों तरफ, कि चाहे कोई कुछ भी फेंके, आप अपनी शांति में घिर रहेंगे। थोड़े से होश की जरूरत है। यह हो जाता है।

इसे थोड़ा प्रयोग करके देखें। जब पत्नी नाराज हो रही हो, तब आप खड़े होकर देखें कि आप नाटक देख रहे हैं। इससे वह और भी नाराज होगी, यह भी ध्यान रखना। मगर तब आप और प्रसन्न होकर उसको देखना।

अगर दो व्यक्तियों में एक व्यक्ति क्रोधित हो रहा हो और दूसरा नाटक की तरह देखता रहे, तो यह नाटक ज्यादा देर चल नहीं सकता। यह बढ़ेगा, उबलेगा, लेकिन फूट जाएगा, बिखर जाएगा, क्योंकि इसे बढ़ाने के लिए दोनों तरफ से सहारा चाहिए। समझदार पति—पत्नी निर्णय कर लेते हैं कि जब एक उपद्रव करेगा, तो दूसरा शांत रहेगा।

मुल्ला नसरुद्दीन किसी को कह रहा था कि मेरे घर में कभी झगड़ा नहीं होता। दूसरे ने कहा कि यह मानने योग्य नहीं है। यह असंभव है कि घर हो और झगड़ा न हो! घर यानी झगड़ा। तुम झूठ बोल रहे हो। नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, हमने पहले ही दिन एक बात तय कर ली, और वह बात यह तय कर ली कि सब छोटे—छोटे मसले पत्नी तय करेगी, बड़े—बड़े मसले मैं तय करूंगा। बडे—बड़े मसले आज तक आए नहीं और कभी आएंगे भी नहीं, क्योंकि पहले ही पत्नी तय कर देती है कि सब छोटे मसले हैं। तो वही तय कर रही है।

इंग्लैड में एक आदमी एक सौ बीस वर्ष तक जीया। तो उसकी एक सौ बीसवीं वर्षगांठ पर लोगों ने उससे पूछा कि कैसे तुम इतने स्वस्थ हो?

उसने कहा कि हमने एक निर्णय कर लिया शादी के वक्त कि जब भी पत्नी नाराज होगी, मैं घर के बाहर चला जाऊंगा। तो यह अस्सी साल की घर के बाहर की जिंदगी, यह मेरे स्वास्थ्य का कारण है! क्योंकि मैं अक्सर बाहर ही घूमता रहा हूं। घर तो कभी—कभी भीतर जाता हूं फिर ज्यादातर मुझे बाहर ही, आउट डोर!

चारों तरफ विक्षिप्तता है सभी संबंधों में। और अगर आप अपने को सम्हालकर नहीं चल रहे हैं, तो इतनी विक्षिप्त दुनिया में आप शांत नहीं रह सकते। और दूसरे को जिम्मेवार मत समझें। दूसरा जिम्मेवार है नहीं; वह अपने से परेशान है। कोई आपको परेशान करना नहीं चाह रहा है; वह अपने से परेशान है। परेशानी कोई कहा फेंके! जो निकट हैं, उन्हीं पर फेंकी जाती है।

तो जो व्यक्ति बिना अशांत हुए, सारी उपद्रवों की स्थिति में एक सूत्र ध्यान रखता है कि मुझे शांत रहना है चाहे कुछ भी हो, वह थोड़े ही दिनों में इस कला में पारंगत हो जाता है।

किसी की भी निंदादि न करना…।

बड़ा रस आता है किसी की निंदा करने में, क्योंकि किसी की निंदा परोक्ष में अपनी प्रशंसा है। जब भी आप कहते हैं, फला आदमी बुरा है, तो आप भीतर से यह कह रहे हैं कि मैं अच्छा हूं। जब आप सिद्ध कर देते हैं कि फलां आदमी चोर है, आपने सिद्ध कर लिया कि मैं अचोर हूं।

और अक्सर चोर दूसरों को चोर सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं, क्योंकि यही उपाय है उनके पास। अगर यहां कोई किसी की जेब काट ले, तो जेबकतरे को बचने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि वह सबसे ज्यादा शोरगुल मचाए कि बहुत बुरा हुआ; चोरी नहीं होनी चाहिए; पकड़ो, किसने चोरी की! यह सबसे अच्छा उपाय है। उसको तो आप भूल ही जाएंगे कि यह आदमी चोरी कर सकता है।

जितने बुरे लोग हैं, वे दूसरे की निंदा में संलग्न हैं। वे इतना शोरगुल मचा रहे हैं दूसरे की बुराई का कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये बुरे हो सकते हैं। इसलिए साधु भी जब दूसरे की निंदा कर रहा हो, तब समझना कि साधुता खोटी है।

निंदा का एक ही प्रयोजन है, वह अपनी बुराई को छिपाना है। दूसरे की बुराई को हम जितना बड़ा करके बताते हैं, उतनी अपनी बुराई छोटी मालूम पड़ती है। अगर आपको पता चल जाए कि सब बेईमान हैं, तो आपको लगता है, फिर अपनी बेईमानी भी स्वीकार योग्य है। इसमें हम कुछ नया नहीं कर रहे हैं, हम कुछ ज्यादा बुरे नहीं हैं, दूसरों से हम बेहतर हैं।

दूसरे की निंदा का इसीलिए इतना रस है। जहां भी चार आदमी मिलते हैं, बस, चर्चा का एक ही आधार है। उन चार में से भी एक चला जाएगा, तो वे तीन, जो चला गया उसकी निंदा शुरू कर देंगे। और वे तीन फिर भी नहीं सोचते कि हममें से कोई गया यहां से, कि बाकी दो हटते ही से यही काम करने वाले हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपके मित्र जो आपके संबंध में पीठ पीछे कहते हैं, उस सबका आपको पता चल जाए, तो दुनिया में एक भी मित्र खोजना मुश्किल है। आपके मित्र आपकी पीठ पीछे जो कहते हैं, अगर आपके सामने कह दें, आपको पता चल जाए, तो दुनिया में मित्रता असंभव है!

लेकिन पता तो चल ही जाता है। और मित्रता सच में ही असंभव हो गई है। मित्र होना मुश्किल है। जो आदमी भी निंदा में रस लेता है, उसका इस जगत में कोई भी मित्र नहीं हो सकता। जो दूसरे को ओछा करने में, नीचा करने में, बुरा करने में शक्ति लगाता है, वह भला अपने मन में सोच रहा हो कि अपने को अच्छा सिद्ध कर रहा है, वह इस कोशिश में ही बुरा होता जा रहा है।

भले आदमी का लक्षण दूसरे में भलाई को खोजना है। और हम जितनी भलाई दूसरे में खोज लेते हैं, उतना ही हमारे भले होने के आधार निर्मित होते हैं।

सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव।

जो भी शास्त्र में कहा गया है, जो भी समाज की प्रचलित व्यवस्था है, उस व्यवस्था में जहां तक दखल न बने। जब तक कि आत्मा का ही कोई सवाल न हो, जब तक आपके आत्मिक जीवन पर ही कोई आघात न पड़ता हो, तब तक समाज और शास्त्र की जो व्यवस्था है, उसको खेल का नियम मानकर चलना उचित है।

खेल के नियम का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे रास्ते पर बाएं चलो, कोई दाएं चलने में पाप नहीं है। क्योंकि कुछ मुल्कों में लोग दाएं चलते हैं, तो वहा बाएं चलना कठिन है। तो बाएं चलो या दाएं चलो, यह कोई मूल्य की बात नहीं है। लेकिन एक नियम, खेल का नियम है। बाएं चलने में सुविधा है, आपको भी, दूसरों को भी। अगर सभी लोग अपना नियम बना लें, तो रास्ते पर चलना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि कोई नियम शाश्वत नहीं, सब सापेक्ष हैं, सबकी उपयोगिता है।

इस बड़े जगत में, जहां बहुत लोग हैं, मैं अकेला नहीं हूं किसी व्यवस्था को चुपचाप मानकर चलना उचित है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह व्यवस्था कोई शाश्वत सत्य है, इसका केवल इतना अर्थ है कि हमने एक खेल का नियम तय किया है, उस नियम को हम पालन करके चलेंगे।

और ध्यान रहे, खेल नियम पर निर्भर होता है, नियम हटा कि खेल गड़बड़ हो जाता है। अगर आप ताश के पत्ते खेल रहे हैं, तो नियम है। चार खिलाड़ी खेल रहे हैं, तो नियम है। उनमें एक भी नियम के विपरीत करने लगे, या कहने लगे कि मेरा अपना अलग नियम है, खेल खराब हो गया।

यह समाज भी पूरा का पूरा एक खेल है। वह ताश के पत्ते से कोई बड़ा खेल नहीं है। उसमें सब नियम हैं। कोई पति है, कोई पत्नी है; कोई बेटा है, कोई बाप है, कोई छोटा है, कोई बड़ा है; कोई पूज्य है, कोई शिष्य है, कोई गुरु है—वे सारे खेल हैं। उस खेल को मानकर चलना दैवी संपदा का लक्षण है। लक्षण इसलिए कि अकारण ऐसा व्यक्ति उलझन में नहीं पड़ता, न दूसरों को उलझन में डालता है।

कुछ लोग व्यर्थ ही उलझन में पड़ते हैं, उनका कोई सार भी नहीं है। आप अगर बाएं को छोड्कर दाएं चलने लगें, तो कोई बड़ी क्रांति नहीं हो जाएगी, सिर्फ आप मूढ़ सिद्ध होंगे।

आसुरी वृत्ति का जो व्यक्ति होता है, उसको हमेशा नियम तोड्ने में रस आता है, उच्छृंखल होने में रस आता है, विद्रोह में रस आता है। उसे लगता है, जब भी वह कुछ तोड़ता है, तब उसका अहंकार सिद्ध होता है। उसे आशा मानना कठिन है, आज्ञा तोड़ना आसान है। उससे अगर कोई काम करवाना हो, तो उलटी बात कहनी उचित है। उससे अगर कहना हो कि सीधे बैठो, तो उससे कहना चाहिए कि सिर के बल बैठो, तो वह सीधा बैठ जाएगा।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा है कि यह मत कर, वह मत कर। बेटा सुनता नहीं। वह नसरुद्दीन का ही बेटा है! आखिर नसरुद्दीन उससे परेशान आ गया और उससे बोला, अच्छा, अब तुझे जो करना हो कर। अब मैं देखूं, तू कैसे मेरी आता का उल्लंघन करता है! जो तुझे करना हो कर, यह मेरी आशा है। अब मैं देखता हूं कि तू कैसे मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है! वह जो आसुरी वृत्ति का व्यक्तित्व है, उसे तोड्ने का रस है। आप कुछ कहें, वह उसको तोड़ेगा। जो आपको न करवाना हो, उससे कहें कि करो, तो वह नहीं करेगा।

दैवी संपदा का व्यक्ति व्यर्थ उलझन में नहीं पड़ेगा। जो कामचलाऊ है, उसे स्वीकार कर लेगा, ही भर देगा। खेल के नियम हैं, उनको मान लेगा। जब तक कि उसके जीवन का ही कोई सवाल न हो, जब तक कि उसकी आत्मा का कोई सवाल न हो, तब तक उसमें विद्रोह का स्वर नहीं होगा।

और ध्यान रहे, जो छोटी—छोटी बातों में न कहता है, उसके पास न कहने की शक्ति बचती नहीं कि बड़े मौके पर न कह सके। जो छोटी—छोटी बातों में हूां भरता है, जब जरूरत हो, तो उसके पास न कहने की शक्ति होती है। तो वह कह सकता है, नहीं। फिर उसकी नहीं को तोड़ा नहीं जा सकता।

इसलिए जिसको वस्तुत: क्रांतिकारी होना हो, उसको विद्रोही नहीं होना चाहिए; उसे व्यर्थ के नियम तोड्ने में नहीं लगना चाहिए, जिसे अगर जीवन का कोई वास्तविक अतिक्रमण करना हो।

तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु— भाव का न होना, अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव—यें सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।

इन सारे लक्षणों में गहन भाव है, अहंकार—शून्यता। मैं पूज्य हूं दूसरे मुझे प्ले, दूसरे मुझे आदर दें, ऐसा सबके मन में होता है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि अहंकार इसके सहारे ही निर्मित होगा और रक्षित होगा। मैं दूसरे को लूं? यह कठिन है। गुरु होना एकदम आसान है, शिष्य होना बहुत कठिन है। क्योंकि शिष्य होने का अर्थ है, किसी और की पूजा, किसी और के सामने समर्पण।

इसलिए अगर आपसे कोई दिल से पूछे कि ठीक दिल की बात बता दें, कि आप गुरु होना चाहते हैं कि शिष्य? तो भीतर से आवाज आएगी, गुरु होना चाहते हैं। और यह आवाज अगर भीतर है, तो आप शिष्य कभी भी नहीं हो सकते। तो अगर आप किसी के चरणों में भी झुकेंगे, तो भी झूठा होगा। और तरकीबें आप ऐसी करेंगे कि किसी भांति गुरु को ही झुका लें। कोई उपाय, कि किसी दिन गुरु आपके प्रति झुक जाए!

अहंकार का स्वाभाविक लक्षण है कि सारा जगत मुझे पूजे। और कठिनाई यह है कि जब तक अहंकार हो, तब तक कोई आपको पूजेगा नहीं। पूजा हो सकती है, पर वह सदा निरहंकार भाव की है। जिस दिन अहंकार मिट जाएगा, उस दिन शायद सारा जगत पूजे, लेकिन आपकी वह आका्ंक्षा नहीं है। और जगत पूजे या न पूजे, आपका समभाव होगा।

मैं मिटुं ऐसा जिसका लक्ष्य है, वह व्यक्ति दैवी संपदा को उपलब्ध हो जाता है। मैं बनूं मैं रहूं मैं बचूं; चाहे सारा जगत मिट जाए मेरे मैं के बचाने में, तो भी मैं मैं को बचाऊंगा, ऐसा व्यक्ति आसुरी संपदा को उपलब्ध हो जाता है।

आज इतना ही।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–3)

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जीवन के मंदिर में द्वार है मृत्‍यु का—(प्रवचन—तीसरा)

 मृत्‍यु से न तो मुक्‍त होना है और न मृत्‍यु को जीतना है।

मृत्‍यु को जानना है। जानना ही मुक्‍ति बन जाता है। जानना ही जीत जाता है।

मरने से हम इतने डरे हुए लोग हैं कि मरते वक्त हम स्वेच्छा से ही बेहोश हो जाते हैं। मरने के थोड़ी देर पहले ही बेहोश हो जाते हैं। बेहोशी में ही मरते हैं, फिर बेहोशी में ही नया जन्म हो जाता है। न हम मृत्यु को देख पाते हैं, न जन्म को देख पाते हैं। और इसलिए हम कभी भी नहीं समझ पाते हैं कि जीवन शाश्वत है। मृत्यु और जन्म बीच में आए हुए पड़ाव से ज्यादा नहीं हैं, जहां हम वस्त्र बदल लेते हैं।

मेरे प्रिय आत्मन्!

जिसे हम जान लेते हैं, उससे हम मुक्त हो जाते हैं। और जिसे हम जान लेते हैं, उसे हम जीत भी लेते हैं। हमारी हार और पराजय हमारे अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अंधकार है, इसलिए पराजय है। प्रकाश हो तो पराजय असंभव है। प्रकाश विजय बन जाएगा।

मृत्यु के संबंध में पहली बात आपसे यह कहना चाहूंगा कि मृत्यु से अधिक असत्य और कुछ भी नहीं है। लेकिन मृत्यु ही सत्य मालूम होती है। न केवल सत्य मालूम होती है, बल्कि जीवन का केंद्रीय सत्य भी वही मालूम होती है। और ऐसा प्रतीत होता है कि सारा जीवन मृत्यु से घिरा हुआ है। और चाहे हम भूल जाते हों, भुला देते हों, लेकिन फिर भी मृत्यु चारों तरफ निकट ही खड़ी रहती है। अपनी छाया से भी ज्यादा अपने पास मृत्यु है।

जीवन का जो रूप हमने दिया है, वह भी मृत्यु के भय के कारण ही दिया है। मृत्यु के भय ने समाज बनाया है, राष्ट्र बनाए हैं, परिवार बनाए हैं, मित्र इकट्ठे किये हैं। मृत्यु के भय ने धन इकट्ठे करने की दौड़ दी है, मृत्यु के भय ने पदों की आकांक्षा दी है, और सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि मृत्यु के भय ने ही हमारे भगवान और हमारे मंदिर भी खड़े कर दिए हैं। मृत्यु से भयभीत घुटने टेक कर प्रार्थना करते हुए लोग हैं। मृत्यु से भयभीत आकाश की तरफ, परमात्मा की तरफ हाथ जोड़े हुए लोग हैं। और मृत्यु से ज्यादा असत्य कुछ भी नहीं है। इसीलिए मृत्यु को सत्य मानकर हमने जो भी जीवन की व्यवस्था की है, वह सब भी असत्य हो गई है।

लेकिन मृत्यु का असत्य हमें कैसे पता चले? यह हम कैसे जान पाएं कि मृत्यु नहीं है? और जब तक हम यह न जान पाएं, तब तक हमारा भय भी विलीन नहीं होगा। और जब तक हम यह न जान पाएं कि मृत्यु असत्य है, तब तक जीवन हमारा सत्य नहीं हो सकता है। जब तक मृत्यु का भय है, तब तक जीवन सत्य नहीं हो सकता है। और जब तक मृत्यु से हम डरे हुए कैप रहे हैं, तब तक जीवन को जीने की क्षमता भी हम नहीं जुटा सकते।

जीवन को केवल वही जी सकता है, जिसके सामने से मृत्यु की छाया विदा और विलीन हो गई है। कंपता हुआ मन कैसे जीएगा? डरा हुआ मन कैसे जीएगा? और मौत जब प्रतिपल आती हुई मालूम पड़ती हो तो हम कैसे जीएं? हम कैसे जी सकते हैं?

और हम कितना ही भुलाए रखें मृत्यु को, वह भूली नहीं रहती। मरघट हम गांव के बाहर बनाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वह दिखाई पड़ ही जाता है। रोज कोई न कोई मरता है, रोज कहीं न कहीं मृत्यु घटित होती है और हमारे जीवन की सारी की सारी नींव हिल जाती है। और प्रत्येक बार जब भी मृत्यु घटती हुई दिखाई पडती है, तभी हम जानते हैं कि मैं भी मरूंगा। जब हम किसी की मृत्यु पर रोते है, तब हम सिर्फ उसकी मृत्यु पर ही नहीं रोते, अपनी मृत्यु की खबर पर भी रोते हैं। और जब हम दुखी और पीड़ित होते हैं दूसरे की मृत्यु देखकर, तब हम दूसरे की मृत्यु को देखकर ही दुखी और पीड़ित नहीं होते, उसमें हमारे मरने की संभावना भी प्रकट हो गई होती है।

हर मृत्यु हमारी मृत्यु भी है। और ऐसे जब तक हम घिरे रहें, तब तक हम कैसे जी सकेंगे? तब तक जीना असंभव है। तब तक हमें जीवन का पता भी नहीं चल सकता, न उसके आनंद का, न उसके सौंदर्य का, न उसके रस का। तब तक जीवन का जो परम सत्य है—परमात्मा, उसके मंदिर के द्वार पर भी हम नहीं पहुंच सकते।

मृत्यु के भय ने एक तरह के मंदिर निर्मित किए हैं, वे परमात्मा के मंदिर नहीं हैं। और मृत्यु के भय से एक तरह की प्रार्थनाएं निर्मित हुई हैं, वे भी परमात्मा की प्रार्थनाएं नहीं हैं। परमात्मा के मंदिर पर तो वह पहुंचता है, जो जीवन के आनंद से परिपूरित हो जाता है। और परमात्मा की सीढ़ियां जीवन के सौंदर्य और जीवन के रस से भरी हुई हैं। और परमात्मा के द्वार की घंटियां सिर्फ उनके लिए बजती हैं, जो सब तरह के भय से मुक्त होकर अभय हो जाते हैं।

तब तो बडी कठिनाई मालूम पड़ती है। हम मृत्यु से भरे हुए जीना चाहते हैं। ऐसा कभी भी नहीं हो सकता है। दो में से एक ही बात सत्य हो सकती है। ध्यान रहे, यदि जीवन सत्य है, तो मृत्यु सत्य नहीं हो सकती, और अगर मृत्यु सत्य है, तो जीवन सिर्फ एक सपना होगा—एक झूठ। वह सत्य नहीं हो सकता है। ये दोनों बातें एक साथ होनी असंभव हैं।

लेकिन हमने इन दोनों बातों को एक साथ पकड़ रखा है। ऐसा भी लगता है कि हम जीते हैं, और ऐसा भी लगता है कि हम मरेंगे।

मैंने सुना है कि किसी दूर पहाड़ की तलहटी के पास एक फकीर का निवास था। बहुत लोग उसके पास बहुत—सी बातें पूछने चले जाते थे। एक बार एक आदमी उससे पूछने गया कि हमें जीवन और मृत्यु के संबंध में कुछ बताएं। उस फकीर ने कहा, अगर जीवन के संबंध में जानना हो तो स्वागत है तुम्हारा, आओ द्वार खुले हैं। लेकिन अगर मृत्यु के संबंध में जानना हो तो कहीं और जाओ, क्योंकि मैं न तो कभी मरा हूं और न कभी मर सकता हूं। मृत्यु का मुझे कोई अनुभव नहीं है। अगर मृत्यु के संबंध में जानना है तो उनसे पूछो जो मर चुके हैं, उनसे पूछो जो मर गए हैं। लेकिन तब वह फकीर हंसने लगा और उसने कहा कि उनसे तुम पूछोगे कैसे जो मर ही चुके हैं! उनसे पूछने का भी तो कोई उपाय नहीं है। और उस फकीर ने यह भी कहा कि अगर तुम मुझसे यह पूछो कि किसी मरे हुए का पता—ठिकाना दे दूं र तो भी मैं नहीं दे सकता। क्योंकि जब से मुझे यह पता चला है कि मैं नहीं मर सकता हूं, तब से मुझे यह भी पता चल गया है कि कोई कभी नहीं मरता है। कोई मरा ही नहीं है, उस फकीर ने कहा।

कैसे हम मानें उसकी बात? हम तो रोज किसी को मरते देखते हैं। रोज मृत्यु घटित होती है। मृत्यु बड़ा सत्य है, प्राणों को छेद कर दिखाई पड़ता है। आंखें बंद करें कितनी ही, तो भी दिखाई पड़ता है! कितना ही भागें और बचें, वह तो हमें घेर ही लेती है। इस सत्य को कैसे झुठला दें?

कुछ लोग झुठलाने की कोशिश भी करते हैं। कुछ लोग मृत्यु से भय के कारण ही यह मान लेते हैं कि आत्मा अमर है—सिर्फ भय के कारण। जानते नहीं हैं, सिर्फ मान लेते हैं। कुछ लोग रोज सुबह उठकर यह दोहरा रहे हैं—मंदिरों में बैठकर, मस्जिदों में बैठकर—कि आत्मा अमर है, आत्मा कभी नहीं मरती, आत्मा अमर है। और वे इस भ्रम में हैं कि शायद बार—बार दोहराने से आत्मा अमर हो जाएगी। और शायद वे इस खयाल में हैं कि बार—बार दोहराने से मौत को झूठा किया जा सकता है। मौत झूठी नहीं होती है दोहराने से। मौत तो सिर्फ जानने से झूठी हो सकती है।

ध्यान रहे, यह बहुत आश्चर्य की बात है कि हम जिस बात को दोहराते हैं, उससे विपरीत को हम सदा स्वीकार करते हैं। जब एक आदमी कहता है कि मैं अमर हूं, आत्मा अमर है, और इसको दोहराता है, तब वह इस बात का पता देता है कि भीतर वह जानता है कि मैं मरूंगा, मुझे मरना पड़ेगा। अगर वह यह जानता ‘है कि मैं मरूंगा नहीं, तो अब इस बात को दोहराने की कोई भी जरूरत नहीं है। इसे सिर्फ दोहराता वही है, जो डरा हुआ है।

और इसलिए यह दिखाई पड़ेगा कि जो देश, जो समाज, आत्मा की अमरता की बातें करते हैं, उनसे ज्यादा मौत से डरनेवाले लोग खोजने कठिन हैं। यह हमारा ही देश है जो आत्मा की अमरता की बात करते थकता नहीं है, लेकिन फिर भी हमसे ज्यादा मौत से कोई डरता है इस पृथ्वी पर? हमसे ज्यादा मौत से कोई भी नहीं डरता है।

इन दोनों बातों में कैसे तालमेल बैठेगा? आत्मा को जो अमर मानते हैं, उनके गुलाम होने की कभी संभावना है? वे मर सकेंगे। मरने के लिए तैयार रहेंगे। क्योंकि वे जानते हैं कि मृत्यु है ही नहीं। जो जानते हैं कि जीवन अमर है, आत्मा अमर है, वे पहले चांद पर उतरेंगे। वे पहले एवरेस्ट पर चढ़ेंगे। वे पहले प्रशांत महासागर की गहराइयों में उतरेंगे।

नहीं, हम उनमें से नहीं हैं। न हम एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ते हैं, न हम चांद पर उतरते हैं, न हम पैसेफिक महासागर की गहराइयों में जाते हैं, और हम आत्मा को अमर माननेवाले लोग हैं। हम असल में इतना डरते हैं मृत्यु से कि उसी डर के कारण हम आत्मा अमर है, इसको भी दोहराते रहते हैं। और हमें यह भ्रम है कि शायद बार—बार दोहरा लेने से, जो हम दोहरा रहे हैं वह सच हो जाएगा। दोहराने से कोई भी बात सच नहीं हो सकती है। मृत्यु नहीं है, ऐसा दोहराने से मृत्यु नहीं नहीं हो जाएगी। मृत्यु को जानना पड़ेगा कि क्या है, मृत्यु का साक्षात्कार करना पड़ेगा कि मृत्यु क्या है। मृत्यु को आंखों के सामने खड़ा करना पड़ेगा, देखना पड़ेगा, जीना पड़ेगा, मृत्यु से पहचान करनी पड़ेगी।

और हम सब तो मृत्यु की तरफ पीठ करके भागते रहते हैं, तो मृत्यु को देख कैसे सकेंगे। हम तो सब मृत्यु की तरफ आख बंद कर लेते हैं। बाहर कोई मरता हो, रास्ते पर किसी की लाश निकलती हो, तो मां अपने बेटे को घर के भीतर बंद कर लेती है और कहती है कि बाहर मत जाओ, कोई मर गया है। मरघट इसीलिए गांव के बाहर बनाते हैं ताकि वह बार—बार दिखाई न पड़े। मौत आमने — सामने न आ जाए। अगर किसी से मरने की बात करो तो वह कहेगा, ये बातें मत करिए।

एक संन्यासी के साथ मैं कुछ दिन तक ठहरा हुआ था। वे संन्यासी रोज—रोज आत्मा की अमरता की बात चलाते थे। मैंने उनसे कहा, कभी आप यह भी सोचते हैं कि आपके मरने का दिन करीब आ रहा है? उन्होंने कहा कि ऐसी अपशकुन की बातें मत करिए। यह बात ही मत करिए। यह बात करनी ठीक नहीं है। मैंने उनसे कहा, जो आदमी कहता है, आत्मा अमर है, उसे मृत्यु की बात में अपशकुन दिखाई पड़े, तब तो बडी गड़बड़ हो गई। मृत्यु की बात में तो उसे कोई भी भय, और कोई भी अपशकुन और कोई भी बुराई नहीं दिखाई पड़नी चाहिए। क्योंकि मृत्यु तो उसके लिए है ही नहीं। उन्होंने कहा कि ही, आत्मा अमर है। और फिर भी मैं मृत्यु के बाबत कुछ बात करने की इच्छा नहीं रखता हूं। ऐसी बेकार की बातें नहीं करनी चाहिए, ऐसी खतरनाक बातें नहीं करनी चाहिए।

हम सब भी यही कर रहे हैं। और मृत्यु की तरफ पीठ करके भागे हुए हैं।

मैंने सुना है कि एक गांव में एक बार एक आदमी को एक बड़ा पागलपन सवार हो गया। वह एक रास्ते से गुजर रहा था। भरी दोपहरी थी, अकेला रास्ता था, निर्जन था। तेजी से चल रहा था कि निर्जन में कोई डर न हो जाए।

हालाकि डर वहां हो भी सकता है, जहां कोई और हो, जहां कोई भी नहीं है, वहां डर का क्या उपाय हो सकता है! लेकिन हम वहां बहुत डरते हैं, जहां कोई भी नहीं होता है। असल में हम अपने से ही डरते हैं। और जब हम अकेले रह जाते हैं, तो बहुत डर लगने लगता है। हम अपने से जितना डरते हैं, उतना किसी से भी नहीं डरते। इसलिए कोई साथ हों—कोई भी साथ हो —तो भी डर कम लगता है। और बिलकुल अकेले रह जाएं, तो बहुत डर लगने लगता है।

वह आदमी अकेला था और डर गया और भागने लगा। और सन्नाटा था, सुनसान था, दोपहर थी, कोई भी न था। जब वह तेजी से भागा, तो उसे अपने ही पैरों की आवाज पीछे से आती हुई मालूम पड़ी। और वह डरा कि शायद कोई पीछे है। फिर उसने डरे हुए, चोरी की आख से पीछे झांककर देखा, तो एक लंबी छाया उसका पीछा कर रही थी। वह उसकी अपनी ही छाया थी। लेकिन यह देखकर कि कोई लंबी छाया पीछे पड़ी हुई है, वह और भी तेजी से भागा। फिर वह आदमी कभी रुक नहीं सका मरने के पहले। क्योंकि वह जितनी तेजी से भागा, छाया उतनी ही तेजी से उसके पीछे भागी। फिर वह आदमी पागल हो गया।

लेकिन पागलों को पूजनेवाले भी मिल जाते हैं। जब वह गांव से भागता हुआ निकलता और लोग देखते कि वह भागा जा रहा है, तो लोग समझते कि वह बड़ी तपश्चर्या में रत है। वह कभी रुकता नहीं था। वह सिर्फ रात के अंधेरे में रुकता था, जब छाया खो जाती थी। तब वह सोचता था कि अब कोई पीछे नहीं है। सुबह हुई और वह भागना शुरू कर देता था। फिर तो बाद में उसने रात में भी रुकना बंद कर दिया। उसे ऐसा समझ में आया कि जब तक मैं विश्राम करता हूं? मालूम होता है, जितना दूर भागकर दिन भर में मैं दूर निकलता हूं, उतनी देर में छाया फिर वापस आ जाती है, सुबह फिर मेरे पीछे हो जाती है।

तब उसने रात में भी रुकना बंद कर दिया। फिर वह पूरा पागल हो गया। फिर वह खाता भी नहीं, पीता भी नहीं। भागते हुए लाखों की भीड़ उसको देखती, फूल फेंकती। कोई राह चलते उसके हाथ में रोटी पकड़ा देता, कोई पानी पकड़ा देता। उसकी पूजा बढ़ती चली गई। लाखों लोग उसका आदर करने लगे।

लेकिन वह आदमी पागल होता चला गया। और अंततः वह आदमी एक दिन गिरा और मर गया। गांव के लोगों ने, जिस गांव में वह मरा था, उसकी कब्र बना दी एक वृक्ष के नीचे छाया में। और उस गांव के एक बूढ़े फकीर से उन्होंने पूछा कि हम इसकी कब्र पर क्या लिखें? तो उस फकीर ने एक लाइन उसकी कब पर लिख दी।

किसी गांव में, किसी जगह, वह कब्र अब भी है। हो सकता है, कभी आपका उस जगह से निकलना हो, तो पढ़ लेना। उस कब्र पर उस फकीर ने लिख दिया है कि यहां एक ऐसा आदमी सोता है, जो जिंदगी भर अपनी छाया से भागता रहा है, जिसने जिंदगी छाया से भागने में गंवा दी। और उस आदमी को इतना भी पता नहीं था, जितना उसकी कब को पता है। क्यौंकि कब्र छाया में है और भागती नहीं, इसलिए कब्र की कोई छाया ही नहीं बनती है। इसके भीतर जो सोया है उसे इतना भी पता नहीं था, जितना उसकी कब को पता है।

हम भी भागते हैं। हमें आश्चर्य होगा कि कोई आदमी छाया से भागता था। हम सब भी छायाओं से ही भागते रहते हैं। और जिससे हम भागते हैं, वही हमारे पीछे पड़ जाता है। और जितनी तेजी से हम भागते हैं, उसकी दौड़ भी उतनी ही तेज हो जाती है, क्योंकि वह हमारी ही छाया है।

मृत्यु हमारी ही छाया है। और अगर हम उससे भागते रहे तो हम उसके सामने कभी खड़े होकर पहचान न पाएंगे कि वह क्या है। काश, वह आदमी रुक जाता और पीछे लौटकर देख लेता, तो शायद अपने पर हंसता और कहता, कैसा पागल हूं, छाया से भागता हूं।

अब छाया से कोई भागे, तो कभी भी भाग नहीं सकता। और छाया से कोई लड़े, तो कभी भी जीत नहीं सकता। इसका यह मतलब नहीं है कि छाया बहुत ताकतवर है, उससे हम जीत नहीं सकते। इसका केवल इतना ही मतलब है कि छाया है ही नहीं, उससे जीतने की कोई बात ही नहीं उठती। जो नहीं है, उससे जीता नहीं जा सकता है।

इसीलिए लोग मृत्यु से हारते चले जाते हैं, क्योंकि मृत्यु केवल जीवन की छाया है। जब जीवन चलता है, तो छाया भी चलती है उसके पीछे। वह जीवन के पीछे बननेवाली शैडो है, और हम कभी लौटकर नहीं देखना चाहते कि वह क्या है। तो हम कई बार दौड़—दौड़ कर, थक— थक कर गिर चुके हैं बहुत बार। इस तट पर आप पहली ही बार आए होंगे, ऐसा नहीं है। और बहुत बार भी आ चुके होंगे। यह तट न रहा होगा, कोई और तट रहा होगा। यह शरीर न रहा होगा, कोई और शरीर रहा होगा। लेकिन दौड़ यही रही होगी, पैर यही रहे होंगे, भाग यही रही होगी।

वही मृत्यु से डरते हुए हम अनेक जीवन जी लेते हैं, और फिर भी पहचान नहीं पाते और देख नहीं पाते। और हम इतने भयभीत और इतने डरे हुए लोग हैं कि जब मौत सामने आती है, जब वह पूरी छाया हमें घेरती है, तब हम डर के कारण बेहोश हो जाते हैं।

कोई भी आदमी साधारणत: मरते क्षण होश में नहीं रहता। अगर होश में एक बार रह जाए, तो फिर मृत्यु का भय उसके लिए सदा के लिए विलीन हो जाए। अगर वह एक दफा देख ले कि मरना यानी क्या, मरने में होता क्या है, तो फिर दुबारा उसे मृत्यु का भय न रहे, क्योंकि मृत्यु ही न रहे। और ऐसा नहीं है कि वह मृत्यु पर विजय पा ले। विजय तो हम उस पर पाते हैं जो हो। सिर्फ जानने से ही मृत्यु मिट जाती है। विजय पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता है।

लेकिन हम भी बहुत बार मरे हैं। लेकिन जब भी मरे हैं, तब बेहोश हो गए हैं। जैसा कि डाक्टर या सर्जन आपरेशन करता है, तो आपरेशन के पहले बेहोशी की दवा दे देता है, ताकि आपको पता न चले कि तकलीफ हो रही है, पीड़ा हो रही है। मरने से हम इतने डरे हुए लोग हैं कि मरते वक्त हम स्वेच्छा से ही बेहोश हो जाते हैं। मरने के थोड़ी देर पहले ही बेहोश हो जाते हैं। बेहोशी में ही मरते हैं, फिर बेहोशी में ही नया जन्म हो जाता है। न हम मृत्यु को देख पाते हैं, न जन्म को देख पाते हैं। और इसलिए हम कभी भी नहीं समझ पाते हैं कि जीवन शाश्वत है। मृत्यु और जन्म बीच में आए हुए पड़ाव से ज्यादा नहीं हैं, जहां हम वस्त्र बदल लेते हैं या घोड़े बदल लेते हैं।

पुराने जमाने में रेलगाड़ियां न थीं, लोग घोड़ों की गाडियों से यात्रा करते थे। तो एक गांव से दूसरे गांव जाते थे, फिर वहां घोड़े बदल लेते थे, क्योंकि घोड़े थक जाते थे। घोड़े बदल कर वापस कर देते, दूसरे घोड़े उस सराय से ले लेते थे। फिर आगे के गांव में घोड़े बदल लेते थे। लेकिन उन घोड़े बदलनेवालों को ऐसा नहीं लगता था कि हम मर गए, हमारा फिर जन्म हुआ है। क्योंकि वे होश में बदलते थे।

लेकिन कभी—कभी ऐसा भी होता था कि कोई घोड़ेवाला शराब पीकर यात्रा करता था। तो जब घोड़े तो बदल जाते थे, जैसे ही घोड़ा बदलता था, जब वह फिर गौर से देखता था तो वह कहता था, अरे! यह सब बदल गया, यह सब दूसरा हो गया।

मैंने सुना है कि कभी कोई शराब पीने वाले घुड़सवार ने यह भी कहा था कि कहीं मैं भी तो नहीं बदल गया! यह वह घोड़ा नहीं है, यह वह घोड़ा नहीं मालूम होता है जिस पर मैं था, तो मैं कहीं दूसरा आदमी तो नहीं हो गया हूं।

जन्म और मृत्यु सिर्फ वाहन बदलने के स्थान हैं, जहां पुराना वाहन छोड़ दिया जाता है। थके घोड़े छोड़ दिए जाते हैं और ताजे घोड़े ले लिये जाते हैं। लेकिन ये दोनों कृत्य हमारी बेहोशी में हो जाते हैं। और जिसका जन्म और मृत्यु बेहोशी में है, उसका जीवन भी होश में नहीं हो सकता है। उसका जीवन भी करीब—करीब अर्द्ध —बेहोशी में, अर्द्ध —मूर्च्छित ही रह जाता है।

तो मैं क्या कहना चाहता हूं? मैं यह कहना चाहता हूं कि मृत्यु को देखना जरूरी है, जानना जरूरी है, उसे पहचानना जरूरी है। लेकिन यह तो जब मरेंगे, तब हो सकता है। मैं जब मरूंगा, तब देख सकूंगा। फिर अभी क्या उपाय है? और जब कोई मरेगा, तब अगर देख सकेगा तो फिर समझना कि उपाय ही नहीं है। क्योंकि वह बेहोश ही हो जाएगा मरते वक्त।

हौ, अभी एक उपाय है। अभी हम स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश का प्रयोग कर सकते हैं। और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि ध्यान या समाधि और कुछ भी नहीं है। ध्यान और समाधि स्वेच्छा से मृत्यु के अनुभव में प्रवेश है। जो शरीर के छूटने पर एक दिन अपने आप घटित होगी घटना, वह हम अभी भी अपनी स्वेच्छा से शरीर को भीतर छोड्कर हट जा सकते हैं और जान सकते हैं कि मृत्यु हो गई, मृत्यु गुजर गई। हम मृत्यु का आज भी, इस रात भी साक्षात्कार कर सकते हैं। क्योंकि मृत्यु की घटना का कुल इतना मतलब है कि हमारा शरीर और हमारी आत्मा एक उस यात्रा पर भेद को अनुभव कर लें, जहां बैलगाड़ी छूट जाती है और यात्री आगे निकल जाता है।

मैंने सुना है, शेख फरीद के पास कभी एक आदमी गया। और उस आदमी ने पूछा कि सुनते हैं हम कि जब मसूर के हाथ काटे गये, पैर काटे गये, तो मंसूर को कोई तकलीफ न हुई, लेकिन विश्वास नहीं आता। पैर में काटा गड़ जाता है, तो तकलीफ होती है। हाथ —पैर काटने से तकलीफ न हुई होगी? यह सब कपोल—कल्पित कहानियां मालूम होती हैं। और उस आदमी ने कहा, यह भी हम सुनते हैं कि जब जीसस को सूली पर लटकाया गया, तो वे जरा भी दुखी न हुए। और जब उनसे कहा गया कि अंतिम कुछ प्रार्थना करनी हो तो कर सकते हो। तो सूली पर लटके हुए, काटो से छिदे हुए, हाथों में खीलों से बिंधे हुए, लहू बहते हुए उस नंगे जीसस ने अंतिम क्षण में जो कहा वह विश्वास के योग्य नहीं है, उस आदमी ने कहा। जीसस ने यह कहा कि क्षमा कर देना इन लोगों को, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

यह वाक्य आपने भी सुना होगा। और सारी दुनिया में जीसस को मानने वाले लोग निरंतर इसको दोहराते हैं। यह वाक्य बड़ा सरल है। जीसस ने कहा कि इन लोगों को क्षमा कर देना परमात्मा, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। आमतौर से इस वाक्य को पढनेवाले ऐसा समझते हैं कि जीसस ने यह कहा कि ये बेचारे नहीं जानते कि मुझ अच्छे आदमी को मार रहे हैं, इनको पता नहीं है।

नहीं, यह मतलब जीसस का न था। जीसस का मतलब यह था कि इन पागलों को यह पता नहीं है कि जिसको ये मार रहे हैं, वह मर ही नहीं सकता है। इनको माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं। ये एक ऐसा काम कर रहे हैं, जो असंभव है। ये मारने का काम कर रहे हैं, जो असंभव है।

उस आदमी ने कहा कि विश्वास नहीं आता कि कोई मारा जाता हुआ आदमी इतनी करुणा दिखा सकता हो। उस वक्त तो वह क्रोध से भर जाएगा।

फरीद खूब हंसने लगा। और उसने कहा कि तुमने अच्छा सवाल उठाया। लेकिन सवाल का जवाब मैं बाद में दूंगा, एक छोटा—सा मेरा काम कर लाओ। पास में पड़ा हुआ एक नारियल उठाकर दे दिया उस आदमी को, और कहा कि इसे फोड़ लाओ। लेकिन ध्यान रहे, इसकी गिरी को पूरा बचा लाना, गिरी टूट न जाये। लेकिन वह नारियल था कच्चा। उस आदमी ने कहा, माफ करिए, यह काम मुझसे न हो सकेगा। नारियल बिलकुल कच्चा है। और अगर मैंने इसकी खोल तोड़ी, तो गिरी भी टूट जाएगी। तो उस फकीर ने कहा, उसे रख दो। दूसरा नारियल उसने दिया जो कि सूखा था और कहा कि अब इसे तोड़ लाओ। इसकी गिरी तो तुम बचा सकोगे? उस आदमी ने कहा, इसकी गिरी बच सकती है।

तो उस फकीर ने कहा कि मैंने तुम्हें जवाब दिया, कुछ समझ में आया? उस आदमी ने कहा, मेरी कुछ समझ में नहीं आया। नारियल से और मेरे जवाब का क्या संबंध है? मेरे सवाल का क्या संबंध है? उस फकीर ने कहा, यह नारियल भी रख दो, कुछ फोड़ना—फाड़ना नहीं है। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि एक कच्चा नारियल है, जिसकी गिरी और खोल अभी आपस में जुड़ी हुई है। अगर तुम उसकी खोल को चोट पहुचाओगे तो उसकी गिरी भी टूट जाएगी। फिर एक सूखा नारियल है। सूखे नारियल और कच्चे नारियल में फर्क ही क्या है? एक छोटा—सा फर्क है कि सूखे नारियल की गिरी सिकुड़ गई है भीतर और खोल से अलग हो गई है। गिरी और खोल के बीच में एक फासला, एक डिस्टेंस हो गया है, एक दूरी हो गई है। अब तुम कहते हो कि इसकी हम खोल तोड़ देंगे तो गिरी बच सकती है। तो मैंने तुम्हारे सवाल का जवाब दे दिया।

उस आदमी ने कहा, मैं फिर भी नहीं समझा। तो उस फकीर ने कहा, जाओ, मरो और समझो। इसके बिना तुम समझ नहीं सकते। लेकिन तब भी तुम समझ नहीं पाओगे, क्योंकि तब तुम बेहोश हो जाओगे। खोल और गिरी एक दिन अलग होंगे, लेकिन तब तुम बेहोश हो जाओगे। और अगर समझना है, तो अभी खोल और गिरी को अलग करना सीखो। अभी, जिंदा में। और अगर अभी खोल और गिरी अलग हो जाएं, तो मौत खतम हो गई। वह फासला पैदा होते से ही हम जानते हैं कि खोल अलग, गिरी अलग। अब खोल टूट जाएगी तो भी मैं बचूंगा, तो भी मेरे टूटने का कोई सवाल नहीं है, तो भी मेरे मिटने का कोई सवाल नहीं है। मृत्यु घटित होगी, तो भी मेरे भीतर प्रवेश नहीं कर सकती है, मेरे बाहर ही घटित होगी। यानी वही मरेगा, जो मैं नहीं हूं। जो मैं हूं, वह बच जाएगा।

ध्यान या समाधि का यही अर्थ है कि हम अपनी खोल और गिरी को अलग करना सीख जाएं। वे अलग हो सकते हैं, क्योंकि वे अलग हैं। वे अलग—अलग जाने जा सकते हैं, क्योंकि वे अलग हैं। इसलिए ध्यान को मैं कहता हूं स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश, वालेंटरी एन्ट्रेस इनटू डेथ, अपनी ही इच्छा से मौत में प्रवेश। और जो आदमी अपनी इच्छा से मौत में प्रवेश कर जाता है, वह मौत का साक्षात्कार कर लेता है कि यह रही मौत और मैं अभी भी हूं।

सुकरात मर रहा है, आखिरी क्षण है। जहर पीसा जा रहा है उसे मारने के लिए। और वह बार—बार पूछता है कि बड़ी देर हो गई, जहर कब तक पिस पाएगा! उसके मित्र रो रहे हैं और कह रहे हैं कि आप पागल हो गए हैं। हम तो चाहते हैं कि थोड़ी देर और जी लें। तो हमने जहर पीसने वाले को रिश्वत दी है, समझाया—बुझाया है कि थोड़े धीरे — धीरे पीसना। वह सुकरात बाहर उठकर पहुंच जाता है और जहर पीसनेवाले से पूछता है कि बड़ी देर लगा रहे हो, बड़े अकुशल मालूम होते हो, नए —नए पीस रहे हो? पहले कभी नहीं पीसा? पहले किसी फांसी की सजा दिए हुए आदमी को तुमने जहर नहीं दिया है?

वह आदमी कहता है, जिंदगी भर से दे रहा हूं। लेकिन तुम जैसा पागल आदमी मैंने नहीं देखा। तुम्हें इतनी जल्दी क्या पड़ी है? और थोड़ी देर सांस ले लो, और थोड़ी देर जी लो, और थोड़ी देर जिंदगी में रह लो। तो मैं धीरे पीस रहा हूं। और तुम खुद ही पागल की तरह बार —बार पूछते हो कि बड़ी देर हुई जा रही है। इतनी जल्दी क्या है मरने की?

सुकरात कहता है कि बड़ी जल्दी है, क्योंकि मैं मौत को देखना चाहता हूं। मैं देखना चाहता हूं कि मौत क्या है। और मैं यह भी देखना चाहता हूं कि मौत भी हो जाए और फिर भी मैं बचता हूं या नहीं बचता हूं। अगर नहीं बचता हूं, तब तो सारी बात ही समाप्त हो जाती है। और अगर बचता हूं तो मौत समाप्त हो जाती है। असल में मैं यह देखना चाहता हूं कि मौत की घटना में कौन मरेगा, मौत मरेगी कि मैं मरूंगा। मैं बचूंगा या मौत बचेगी, यह मैं देखना चाहता हूं। तो बिना जाए कैसे देखूं।

फिर सुकरात को जहर दे दिया गया। सारे मित्र छाती पीटकर रो रहे हैं, वे होश में नहीं हैं, और सुकरात क्या कर रहा है? सुकरात उनसे कह रहा है कि मेरे पैर मर गए, लेकिन अभी मैं जिंदा हूं। सुकरात कह रहा है, मेरे घुटने तक जहर चढ़ गया है, मेरे घुटने तक के पैर बिलकुल मर चुके हैं। अब अगर तुम इन्हें काटो, तो भी मुझे पता नहीं चलेगा। लेकिन मित्रो, मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पैर तो मर गए हैं, लेकिन मैं जिंदा हूं। यानी एक बात पक्की पता चल गई कि मैं पैर नहीं था। मैं अभी हूं मैं पूरा का पूरा हूं। मेरे भीतर अभी कुछ भी कम नहीं हो गया है। फिर सुकरात कहता है कि अब मेरे पूरे पैर ही जा चुके, जांघों तक सब समाप्त हो चुका है। अब अगर तुम मेरी जांघों तक मुझे काट डालो, तो मुझे कुछ भी पता नहीं चलेगा, लेकिन मैं हूं! और वे मित्र हैं कि रोए चले जा रहे हैं।

और सुकरात कह रहा है कि तुम रोओ मत, एक मौका तुम्हें मिला है, देखो। एक आदमी मर रहा है और तुम्हें खबर दे रहा है कि फिर भी वह जिंदा है। मेरे पैर तुम पूरे काट डालो तो भी मैं नहीं मरा हूं? मैं अभी हूं। और फिर वह कहता है कि मेरे हाथ भी ढीले पड़े जा रहे हैं, हाथ भी मर जाएंगे। आह, मैंने कितनी बार अपने हाथों को स्वयं समझा था, वे हाथ भी चले जा रहे हैं, लेकिन मैं हूं। और वह आदमी, वह सुकरात मरता हुआ कहता चला जाता है। वह कहता है, धीरे — धीरे धीरे — धीरे सब शात हुआ जा रहा है, सब डूबा जा रहा है, लेकिन मैं उतना का ही उतना हूं। और सुकरात कहता है, हो सकता है थोड़ी देर बाद मैं तुमको खबर देने को न रह जाऊं, लेकिन तुम यह मत समझना कि मैं मिट गया। क्योंकि जब इतना शरीर मिट गया और मैं नहीं मिटा, तो थोड़ा शरीर और मिट जाएगा, तब भी मैं क्यों मिटूगा! हो सकता है, मैं तुम्हें खबर न दे सकूं, क्योंकि खबर शरीर के द्वारा ही दी जा सकती है। लेकिन मैं रहूंगा। और फिर वह आखिरी क्षण कहता है कि शायद आखिरी बात तुमसे कह रहा हूं। जीभ मेरी लड़खड़ा गई है। और अब इसके आगे मैं एक शब्द नहीं बोल सकूंगा, लेकिन मैं अभी भी कह रहा हूं कि मैं हूं। वह आखिरी वक्त तक यह कहता हुआ मर गया है कि मैं हूं।

ध्यान में भी धीरे— धीरे ऐसे ही भीतर प्रवेश करना पड़ता है। और धीरे— धीरे एक —एक चीज छूटती चली जाती है, एक—एक चीज से फासला पैदा होता चला जाता है। और फिर वह घड़ी आ जाती है कि लगता है कि सब दूर पड़ा है—जैसे तट पर किसी और की लाश पड़ी होगी, ऐसा लगेगा—और मैं हूं। और शरीर वह पड़ा है और फिर भी मैं हूं —अलग और भिन्न और बिलकुल दूसरा।

जैसे ही यह अनुभव हो जाता है, हमने मृत्यु का साक्षात्कार कर लिया जीते हुए। फिर अब मृत्यु से हमारा कोई संबंध कभी नहीं होगा। मृत्यु आती रहेगी, लेकिन तब वह पड़ाव होगी, वस्त्र का बदलना होगा, जहां हम नए घोड़े ले लेंगे और नए शरीरों पर सवार हो जाएंगे और नई यात्रा पर निकलेंगे, नए मार्गों पर, नए लोकों में। लेकिन मृत्यु हमें मिटा नहीं जाएगी।

इस बात का पता साक्षात्कार से ही हो सकता है, एनकाउंटर से ही हो सकता है। हमें जानना ही पड़ेगा, हमें गुजरना ही पडेगा। और मरने से हम इतना डरते हैं, इसीलिए हम ध्यान भी नहीं कर पाते। मेरे पास कितने लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम ध्यान नहीं कर पाते हैं। अब मैं उनसे क्या कहूं कि उनकी असली तकलीफ और है। असली तकलीफ, उनके मरने का डर है। और ध्यान मरने की एक प्रक्रिया है। ध्यान में हम वहीं पहुंच जाते हैं, पूरे ध्यान में, जहां मरा हुआ आदमी पहुंचता है। फर्क सिर्फ एक होता है कि मरा हुआ आदमी बेहोश पहुंचता है, हम होश में पहुंच जाते हैं। बस इतना ही फर्क होता है। मरे हुए आदमी को पता नहीं होता है कि क्या हो गया, खोल कैसे टूट गई और गिरी बच गई। और हमें पता होता है कि गिरी अलग हो गई है और खोल अलग हो गई।

जो लोग भी ध्यान में नहीं जा पाते हैं, उनके न जाने का बुनियादी कारण मृत्यु का भय है, और कोई भी कारण नहीं है। और जो व्यक्ति भी मृत्यु से डरे हुए हैं, वे कभी समाधि में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। समाधि अपने हाथ से मृत्यु को निमंत्रण है। मृत्यु को आमंत्रण है कि आओ, मैं मरने को तैयार हूं मैं जानना चाहता हूं कि मौत हो जाएगी, मैं बचूंगा कि नहीं बचूंगा? और अच्छा है कि मैं होशपूर्वक जान लूं क्योंकि बेहोशी में यह घटना घटेगी तो मैं कुछ भी न जान पाऊंगा।

इसलिए पहली बात आज की रात आपसे यह कहता हूं कि मृत्यु से जब तक आप भागेंगे, तब तक आप मृत्यु से हारते रहेंगे। और जिस दिन खड़े होकर मृत्यु के आमने—सामने खड़े हो जाएंगे, उसी दिन मौत विदा हो जाएगी, आप शेष रह जाएंगे।

इधर इन आने वाले तीन दिनों में मृत्यु के आमने —सामने आप कैसे खड़े हो सकते हैं, उसकी ही प्रक्रिया पर मैं सारी बात करूंगा। इन तीन दिनों में आशा करूंगा कि बहुत—से लोग मरना जान लेंगे मर सकेंगे। और अगर यहां मर सकें—इस तट पर—और यह तट बहुत अदभुत है, इस तट पर उस आदमी के पैर पड़े हैं जिसने किसी युद्ध में यह कहा था.. अर्जुन को कहा था कृष्ण ने कि तू फिक्र मत कर और डर मत। तू मरने—मारने से मत डर, क्योंकि मैं तुझसे कहता हूं कि न कोई मरता है, न कोई मारता है। न कोई कभी मरा है, न कोई कभी मर सकता है। और जो मरता है और जो मर सकता है, वह मरा ही हुआ है। और जो नहीं मरता है और नहीं मर सकता है, उसके मारने का कोई उपाय नहीं है, वही जीवन है।

इस तट पर उस कृष्ण के पैर पड़े हैं, इस पर हम अचानक आज इकट्ठे हो गए हैं। इस रेत ने उस कृष्ण को आते और जाते देखा। लोगों ने समझा होगा, कृष्ण मर गये हैं, मर ही गए। हम सब जो मरने को ही सत्य मानते हैं, उनके लिए सब मर जाते हैं। इस सागर ने, इस रेत ने नहीं जाना कि वे मर गए। इस आकाश ने, चांद—तारों ने नहीं जाना कि वे मर गए। जीवन में कहीं भी मृत्यु की कोई लहर ही नहीं है, लेकिन हम सब ने यही जाना कि वे मर गए। और हम सब इसीलिए ऐसा जान लेते हैं क्योंकि हमको अपने ही मरने का खयाल सवार है।

और हमें अपने मरने का इतना खयाल क्यों सवार है? हम अभी तो जी रहे हैं, लेकिन हम मरने से इतने भयभीत क्यों हैं? हम मरने से इतने डरे हुए क्यों हैं? असल में इसके पीछे एक राज है। वह हमें समझ लेना चाहिए।

एक गणित है और वह गणित बड़े मजे का है। हमने अपने को तो मरते कभी नहीं देखा है, लेकिन हम दूसरों को मरते देखते हैं। और दूसरों को मरते देखकर हमको धीरे — धीरे यह धारणा मजबूत हो जाती है कि मुझे भी मरना पड़ेगा।

अब एक बूंद है, और हजार बूंदों के बीच में पड़ी है। सूरज की किरण आई और उस एक बूंद पर जोर से पड़ी और वह बूंद भाप बनकर उड़ गई। आसपास की बूंदों ने समझा कि वह मर गई, वह खतम हो गई। और ठीक ही सोचा उन बूंदों ने, क्योंकि उन्हें दिखाई पqा कि अब तक थी, अब नहीं है। लेकिन वह बूंद अब भी बादलों में है। यह वे बूंदें कैसे जानें जो खुद भी बादल न हो जाएं। या बूंद अब सागर में जाकर फिर बूंद बन गई होगी, यह भी बूंदें कैसे जानें, जब तक कि वे खुद उस यात्रा पर न निकल जाएं।

हम सब आसपास जब किसी को मरते देखते हैं तो हम समझते हैं कि गया, एक आदमी मरा। हमें पता नहीं कि वह इवोपरेट हुआ, वह वाष्पीभूत हुआ। वह फिर सूक्ष्म में गया और फिर नई यात्रा पर निकल गया। वह बूंद भाप बनी और फिर बूंद बनने के लिए भाप बन गई। यह हमें कैसे दिखाई पड़े? हम सबको लगता है कि एक व्यक्ति और खो गया, एक व्यक्ति और मर गया। और ऐसे रोज कोई मरता जाता है, और रोज कोई बूंद खोती चली जाती है, और धीरे— धीरे हमें भी पक्का हो जाता है कि मुझे भी मर जाना पड़ेगा। मैं भी मर जाऊंगा। और तब एक भय पकड़ लेता है कि मैं मर जाऊंगा! दूसरों को देखकर यह भय पकड़ लेता है। दूसरों को देखकर ही हम जीते हैं, इसलिए हमारी बड़ी कठिनाई है।

कल रात ही मैं कुछ मित्रों को कह रहा था। एक यहूदी फकीर हुआ। वह फकीर अपने दुखों से बहुत परेशान हो गया है। कौन परेशान नहीं हो जाता है? हम सब अपने दुखों से परेशान हैं। और हमारे दुख की परेशानी में सबसे बड़ी परेशानी दूसरों के सुख हैं। दूसरे सुखी दिखाई पड़ते हैं और हम दुखी होते चले जाते हैं। और इसमें बड़ा गणित है, वही गणित, जिसकी मैंने आपसे मौत के संबंध में बात की। हमें अपना दुख दिखाई पड़ता है और दूसरों के चेहरे दिखाई पड़ते हैं। उनके भीतर का दुख तो दिखाई पड़ता नहीं, उनकी आंखों की, उनके होंठों की मुस्कुराहटें दिखाई पड़ती हैं। और कभी अगर हम अपने बाबत भी समझें तो हम समझ लेंगे कि हम भी भीतर दुखी होते हैं, तब भी हम बाहर मुस्कुराए चले जाते हैं। असल में दुख को छिपाने की मुस्कुराहट एक तरकीब है।

कोई अपने को दुखी नहीं दिखाना चाहता है। अगर सुखी न हो सके, तो भी कम से कम सुखी हो गया है, ऐसा तो दिखाना ही चाहता है। क्योंकि अपने को दुखी दिखाना बड़ी दीनता और हार की और पराजय की बात है। इसलिए हम बाहर एक मुस्कुराता हुआ चेहरा बना लेते हैं —नाटक, अभिनय। और भीतर हम जो हैं, वह रहते हैं। भीतर आसू इकट्ठे होते चले जाते हैं, बाहर मुस्कुराहट का अभ्यास कर लेते हैं। फिर जब बाहर से कोई हमें देखता है तो हमारी मुस्कुराहट दिखाई पड़ती है, और अपने भीतर देखता है तो दुख दिखायी पड़ता है, तब वह मुश्किल में पड़ जाता है। वह सोचता है, सारी दुनिया सुखी है, एक मैं ही दुखी हूं।

उस फकीर को भी ऐसा ही हुआ। उसने एक दिन रात परमात्मा को कहा कि मैं तुझसे यह नहीं कहता कि मुझे दुख न दे, क्योंकि अगर मैं दुख देने योग्य हूं तो मुझे दुख मिलेगा ही, लेकिन इतनी प्रार्थना तो कर सकता हूं कि इतना ज्यादा मत दे। दुनिया में सब लोग हंसते दिखाई पड़ते हैं, लेकिन मैं भर एक रोता हुआ आदमी हूं। सब खुश नजर आते हैं, मैं भर दुखी हूं। सब प्रसन्न दिखाई पड़ रहे हैं, एक मैं ही उदास, अंधेरे में खो गया हूं। आखिर मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है? एक कृपा कर, मुझे किसी भी दूसरे आदमी का दुख दे दे और मेरा दुख उसे दे दे, बदल दे किसी से भी, तो भी मैं राजी हो जाऊंगा।

रात वह सोया और उसने एक सपना देखा। सपने में उसने देखा, एक बहुत बड़ा भवन है और उस भवन में लाखों खूंटियां लगी हैं। और लाखों लोग चले आ रहे हैं। और प्रत्येक आदमी अपनी— अपनी पीठ पर दुखों की एक गठरी बांधे हुए है। दुखों की गठरी देखकर वह बहुत डर गया, क्योंकि उसे बड़ी हैरानी मालूम पड़ी। जितनी उसकी गठरी है दुखों की—वह भी अपनी दुखों की गठरी टागे हुए है—सबके दुखों की गठरियों का जो आकार है, जो साइज है, वह बिलकुल बराबर है।

मगर वह बड़ा हैरान हुआ। यह पड़ोसी तो उसका रोज मुस्कुराता दिखता था! और सुबह जब उससे पूछता था कि कहो कैसे हाल हैं, तो वह कहता था कि बड़ा आनंद है, ओं के, सब ठीक है। यह आदमी भी इतने ही दुखों का बोझ लिये चला आ रहा है। उसमें नेता भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं। अनुयायी भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं। उसमें गुरु भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं। शिष्य भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं। उसमें सभी उतना बोझ लिये हुए चले आ रहे हैं। ज्ञानी और अज्ञानी, और अमीर और गरीब, और बीमार और स्वस्थ, सबके बोझ की गठरी बराबर है।

वह बहुत हैरान हो गया। आज पहली दफा गठरियां दिखाई पड़ी। अब तक तो चेहरे दिखाई पड़ते थे। फिर उस भवन में एक जोर की आवाज गंजी कि सब लोग अपने — अपने दुखों को खूंटियों पर टांग दें। इसने भी जल्दी से अपना दुख खूंटी पर टल दिया। सारे लोगों ने जल्दी की है अपना दुख टांगने की। कोई एक क्षण अपने दुख को अपने ऊपर रखना नहीं चाहता। टांगने का मौका मिले, तो हम जल्दी से टांग ही देंगे। और तभी एक दूसरी आवाज गंजी कि अब जिसको जिसकी गठरी चुनना हो, वह चुन ले।

तो हम सोचेंगे कि उस फकीर ने जल्दी से किसी और की गठरी चुन ली होगी। नहीं, ऐसी भूल उसने नहीं की। वह भागा घबरा कर अपनी ही गठरी को उठाने के लिए कि कहीं और कोई पहले न उठा ले, अन्यथा मुश्किल में पड़ जाये, क्योंकि गठरियां सब बराबर थीं। अब उसने सोचा कि अपनी गठरी ही ठीक है, कम से कम परिचित दुख तो हैं उसके भीतर। दूसरे की गठरियों के भीतर पता नहीं कौन से अपरिचित दुख हैं। परिचित दुख फिर भी कम दुख है—जाना—माना, पहचाना। घबराहट में दौड़कर अपनी गठरी उठा ली कि कोई और दूसरा मेरी न उठा ले।

लेकिन जब उसने घबराहट में उठाकर चारों तरफ देखा तो उसने देखा कि सारे लोगों ने दौड़कर अपनी ही उठा ली है, किसी ने भी किसी की नहीं उठाई। उसने पूछा कि इतनी जल्दी क्यों कर रहे हो अपनी उठाने की? तो उन्होंने कहा कि हम डर गए। अब तक हम यही सोचते थे कि सारे लोग सुखी हैं, हम ही दुखी हैं। उसने जिससे पूछा उस भवन में, उसने यही कहा कि हम यही सोचते थे कि सारे लोग सुखी हैं। हम तो तुम्हें भी सुखी समझते थे, तुम भी तो रास्ते पर मुस्कुराते हुए निकलते थे। हमने कभी सोचा न था कि तुम्हारे भीतर भी इतनी गठरियों के दुख हैं। उस फकीर ने पूछा, अपने — अपने क्यों उठा लिए, बदल क्यों न लिए? उन्होंने कहा, हम सबने प्रार्थना की थी भगवान से आज रात कि हम अपनी गठरियां बदलना चाहते हैं दुखों की। मगर हम डर गए। हमें खयाल भी न था कि सब के दुख बराबर हो सकते हैं। फिर हमने सोचा अपना ही उठा लेना अच्छा है। पहचान का है, परिचित है। और नए दुखों में कौन पड़े। पुराने दुख, धीरे — धीरे हम आदी भी तो हो जाते हैं उनके।

उस रात किसी ने भी किसी की गठरी न .चुनी। फकीर की नींद टूट गई। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तेरी बड़ी कृपा है कि मेरा ही दुख मुझे वापस मिल गया। अब मैं कभी ऐसी प्रार्थना न करूंगा।

असल में एक गणित है —दूसरों के चेहरे हमें दिखाई पड़ते हैं और अपनी असलियत दिखाई पड़ती है। और तब बड़ी भूल हो जाती है। जिंदगी और मृत्यु के संबंध में भी वही भूल का गणित काम कर रहा है। दूसरे मरते दिखाई पड़ते हैं, आपने अपने को तो मरते कभी नहीं जाना। दूसरों की मृत्यु दिखाई पड़ती है और भीतर उनके कुछ बचता है या नहीं बचता, हमें कुछ पता नहीं चलता। और जब हम मरते हैं, तब हम बेहोश हो जाते हैं, इसलिए मृत्यु अपरिचित रह जाती है।

इसलिए जरूरी है कि हम अपनी स्वेच्छा से मृत्यु में उतरें। और एक बार जो मृत्यु के दर्शन कर लेता है, वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है, मृत्यु का विजेता हो जाता है। विजेता कहना बेकार है, क्योंकि कुछ बचता ही नहीं है जीतने को, मृत्यु असत्य हो जाती है। मृत्यु रहती ही नहीं।

जैसे कोई आदमी दो और दो जोड़कर पांच लिख दे और फिर कल उसको समझ में आ जाए कि दो और दो चार हैं, तो वह क्या यह कहेगा कि मैंने पांच को जीतकर चार बना दिया है? वह कहेगा कि जीत का सवाल ही न था, पांच थे ही नहीं, पांच मेरी भूल थी, मेरा भ्रम था। गलत था मेरा हिसाब। हिसाब तो चार ही था, मैं पांच समझ रहा था, वह मेरी भूल थी। भूल दिख गई, बात खतम हो गई। फिर क्या वह आदमी यह कहेगा कि मैं पांच से कैसे छुटकारा पाऊं? क्योंकि अब दो और दो चार हो रहे हैं, लेकिन पांच मैंने जोड़े थे, अब मैं उससे कैसे मुक्त होऊं? वह आदमी पूछने नहीं आएगा मुक्ति के लिए, क्योंकि जैसे ही यह दिख गया कि दो और दो चार हैं, बात खतम हो गई। पाच रहे ही न, मुक्त किससे होना है?

मृत्यु से न तो मुक्त होना है और न मृत्यु को जीतना है। मृत्यु को जानना है। जानना ही मुक्ति बन जाता है, जानना ही जीत बन’ जाता है। इसलिए मैंने पहले कहा कि शान शक्ति है, ज्ञान मुक्ति है, ज्ञान विजय है। मृत्यु का शान मृत्यु को विलीन कर देता है, तब अनायास ही हम पहली बार जीवन से संबंधित हो पाते हैं।

इसलिए ध्यान के संबंध में एक बात मैंने यह कही कि ध्यान स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश है। और दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि जो स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश करता है, वह अनायास ही जीवन में प्रविष्ट हो जाता है। वह जाता तो है मृत्यु को खोजने, लेकिन मृत्यु को तो नहीं पाता है, वहां परम जीवन को पा लेता है। वह जाता तो है मृत्यु के भवन में खोज करने, लेकिन पहुंच जाता है जीवन के मंदिर में। और जो मृत्यु के भवन से भागता है, वह जीवन के मंदिर में नहीं पहुंच पाता है।

क्या मैं आपसे कहूं कि जीवन का जो मंदिर है, उसकी दीवालों पर मृत्यु की छायाओं के चित्र खुदे हैं! क्या मैं आपसे कहूं कि जीवन का जो मंदिर है, उसकी दीवालों पर मौत के नक्यो बने हैं! और हम मौत से भागने की वजह से जीवन के मंदिर से भी भागते रहते हैं। क्योंकि जब हम मौत के लिए राजी हो जाएं तो हम दीवालों के लिए राजी हों, भीतर प्रवेश करें तो हम जीवन के मंदिर में पहुंच जाएं। जीवन का तो देवता है और मृत्यु की दीवालें हैं। जीवन का तो मंदिर है और मृत्यु के द्वार—दरवाजों पर सब तरफ चित्र खुदे हैं। हम उन्हीं को देखते और भागते रहे हैं।

अगर आप कभी खजुराहो गए हैं, तो एक अदभुत बात आपको दिखाई पड़ेगी। दिखाई पड़ेगा कि खजुराहो के मंदिरों में, चारों तरफ मंदिर के सेक्स की, मैथुन की प्रतिमाएं खुदी हैं। नग्न और अश्लील दिखाई पड़ती हैं। अगर कोई आदमी उनको देखकर ही भाग जाए, तो भीतर के मंदिर के परमात्मा तक नहीं पहुंच पाएगा। भीतर परमात्मा की प्रतिमा है और बाहर काम की, वासना की, मैथुन की सारी प्रतिमाएं खुदी हैं।

वे बड़े अदभुत लोग थे, जिन्होंने खजुराहो के मंदिर बनाए होंगे। उन्होंने जीवन की एक गहरी बात खोद दी। उन्होंने कहा कि बाहर दीवाल पर तो सेक्स है और अगर दीवाल से ही भाग गए तो ब्रह्मचर्य को कभी उपलब्ध न होओगे, क्योंकि ब्रह्मचर्य भीतर है। और अगर दीवालों के भीतर प्रवेश कर गए तो ब्रह्मचर्य को भी उपलब्ध हो जाओगे। और बाहर की दीवालों पर तो संसार है। और अगर संसार से ही भागते रहे, तो परमात्मा तक कभी न पहुंच पाओगे, क्योंकि संसार की दीवालों के भीतर जो बैठा है, वह परमात्मा है।

ठीक वही मैँ आपसे कहता हूं। कहीं न कहीं हमें किसी गांव में एक मंदिर बनाना चाहिए, जिसकी दीवालों पर तो मौत हो और भीतर जीवन का देवता बैठा हो। ऐसा ही सत्य है। लेकिन हम मौत से भागते हैं, तो जीवन के देवता से भी वंचित रह जाते हैं।

तो मैं ये दोनों बातें एक साथ कहता हूं. स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश ध्यान है, और जो स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश करता है, वह जीवन को उपलब्ध हो जाता है। यानी जो मृत्यु का साक्षात्कार करने जाता है, अंततः पाता है कि मृत्यु तो विलीन हो गई है और जीवन से आलिंगन हो गया है। बडी उलटी बातें हैं, बड़ा उलटा मालूम पड़ता है—मृत्यु को खोजने जाएं और जीवन मिल जाए। लेकिन उलटा नहीं है।

मैं वस्त्र पहने हुए हूं। अगर मुझे खोजने आएंगे, तो पहले तो मेरे वस्त्र ही मिलेंगे। वस्त्र मैं नहीं हूं। और अगर मेरे वस्त्रों से ही डर गए और भाग गए, तो मेरा कभी भी पता नहीं चल पाएगा। लेकिन अगर मेरे वस्त्रों से न डरे और निकट आए, और निकट आए, तो मेरे वस्त्रों के भीतर मेरा शरीर है, वह मिल जाएगा। लेकिन शरीर भी और गहरे अर्थों में वस्त्र है। और अगर मेरे शरीर से ही दूर भाग गए, तो फिर मेरे शरीर के भीतर जो बैठा है, वह न मिल सकेगा। और अगर शरीर से भी न डरे और शरीर को भी वस्त्र मानकर और भीतर यात्रा की, तो भीतर वह बैठा हुआ है, जिससे मिलन की सबको आकांक्षा है।

कैसा मजा है! शरीर की दीवाल है और आत्मा का देवता भीतर विराजमान है। मैटर, पदार्थ की दीवाल है और भीतर परमात्मा, चेतना विराजमान है। ये उलटी बातें हैं—दीवाल पदार्थ की और देवता जीवन का! अगर इसे ठीक से समझ लें, तो मृत्यु की दीवाल है और जीवन का देवता है।

ऐसे ही जैसे कई बार चित्रकार चित्र बनाता है। अगर सफेद रंग उभारना हो, तो काले रंग की चारों तरफ पृष्ठभूमि दे देता है। काले रंग की पृष्ठभूमि में सफेद रेखाएं उभरकर दिखाई पड़ने लगती हैं। अगर कोई काले से डर जाए, तो वह सफेद तक पहुंच ही न पाए। लेकिन उसे पता नहीं कि काला सफेद को उभार जाता है।

जैसे कि गुलाब में काटे लगे हुए हैं और फूल खिला हुआ है। अगर कोई कीटों से डर जाए, तो फूल तक कभी भी न पहुंच पाएगा। भागता रहे काटो से, तो फिर फूल से भी वंचित रह जाएगा। लेकिन जो काटो के लिए राजी हो जाए और पास पहुंच जाए और डर छोड़ दे, वह हैरान हो जाता है कि कांटे सिर्फ फूल की रक्षा हैं, सिर्फ उसके बाहर की दीवाल बना रहे हैं —रक्षा की दीवाल। बीच में फूल खिला है, और काटे —फूल में दुश्मनी नहीं है। फूल भी काटे के अंग हैं। काटे भी फूल के अंग हैं। एक ही पौधे की रस— धार से दोनों का आना हुआ है।

जिसे हम जीवन कह रहे हैं, वह जीवन; और जिसे हम मृत्यु कह रहे हैं, वह मृत्यु; दोनों एक ही महाजीवन के अंग हैं। दोनों एक ही महाजीवन के अंग हैं। मैं श्वास ले रहा हूं। एक श्वास बाहर जाती है, एक श्वास भीतर आती है। जो श्वास बाहर आती है, वही फिर थोड़ी देर में भीतर जाती है; जो भीतर जाती है, वही थोड़ी देर में बाहर हो जाती है। श्वास का आना जीवन हैं, श्वास का जाना मृत्यु है। लेकिन दोनों एक ही महाजीवन के कदम हैं—दायां और बायां, और दोनों साथ —साथ चलते रहते हैं। जन्म एक कदम है, मृत्यु दूसरा कदम है। लेकिन अगर हम देख पाएं, उतर पाएं भीतर, तो महाजीवन का दर्शन हो जाता है।

इधर इन तीन दिनों में ध्यान का जो प्रयोग हम करने जा रहे हैं, वह मृत्यु में प्रवेश का प्रयोग है। उसके बहुत से पहलुओं के संबंध में मैं आपसे बात करूंगा। अभी आज रात, पहले दिन के जो हम प्रयोग में बैठेंगे, उस संबंध में थोड़ी—सी बातें समझा दूं।

मेरी दृष्टि आपके खयाल में आ गई है कि हमें उस जगह जाना है, जहां मरने का कोई उपाय नहीं रह जाता है — भीतर, भीतर और भीतर। और बाहर की वह सारी परिधि छोड़ देनी है, जो मृत्यु में छूट जाती है।

मृत्यु में शरीर छूट जाता है, भाव छूट जाते हैं, विचार छूट जाते हैं, मित्रता छूट जाती है, शत्रुता छूट जाती है। सब छूट जाता है। बाहर की दुनिया का सब छूट जाता है। रह जाते हैं सिर्फ अकेले हम, सिर्फ मैं रह जीता हू, सिर्फ चेतना रह जाती है ऊपर।

तो ध्यान में भी हमें सब छोड्कर मर जाना है। और सिर्फ उतना ही रह जाए—मैं जानता हुआ, द्रष्टा मात्र रह जाऊं भीतर—तो मृत्यु, घटित हो जाएगी। और इन तीन दिनों के निरंतर प्रयोग में अगर अपने को छोड़ा और मरने की हिम्मत दिखाई, तो वह घटना घट जाएगी, जिसको समाधि कहते हैं।

यह ध्यान रहे, समाधि शब्द बड़ा अदभुत है। ध्यान की परिपूर्णता को भी समाधि कहते हैं और कोई आदमी मर जाता है, तो उसकी कब को भी समाधि कहते हैं। यह कभी खयाल किया? इन दोनों को समाधि कहते हैं! असल में इन दोनों में राज है, रहस्य है, मिला हुआ अर्थ है।

असल में जो आदमी समाधि को उपलब्ध होता है, उसका शरीर कब्र ही रह जाता है और कुछ नहीं रह जाता है। फिर वह जानता है कि भीतर कोई और ही है, बाहर तो सिर्फ घेरा है। जैसे कोई आदमी मर जाता है, हम उसकी कब्र बना देते हैं और कहते हैं, समाधि है। लेकिन वह समाधि दूसरे बनाएंगे। और इसके पहले कि दूसरे हमारी समाधि बनाएं, अगर हम ही अपनी समाधि बना सकें, तो जीवन में वह घटना घट जाती है, जिसके लिए हम प्यासे हैं। दूसरों को समाधि बनाने का मौका तो मिलेगा ही, लेकिन यह हो सकता है, हम अपनी समाधि न बना पाएं।

अगर हम अपनी समाधि बना लें, तो फिर सिर्फ शरीर ही मरेगा, मेरे मरने का कोई सवाल ही नहीं है। मैं कभी भी न मरा हूं, न मर सकता हूं। कोई भी कभी नहीं मरा है, न मर सकता है। लेकिन इसे जानने को मृत्यु की सारी सीढ़ियां उतरनी पड़ेगी।

तो तीन सीढ़ियां मैं आपको बताना चाहता हूं। अभी हम प्रयोग भी करेंगे। कौन जाने इस तट पर वह घटना घट जाए कि आपकी समाधि बन जाए! वह समाधि नहीं, जो दूसरे बनाते हैं, वह समाधि, जो आप स्वेच्छा से अपनी निर्मित कर लेते हैं।

तीन चरण हैं। पहला चरण तो है शरीर की शिथिलता, शरीर का रिलेक्योसन। शरीर को इतना शिथिल छोड़ देना है कि ऐसा लगने लगे कि वह दूर ही पड़ा रह गया है, हमारा उससे कुछ लेना—देना नहीं है। शरीर से सारी ताकत को भीतर खींच लेना है। हमने शरीर में ताकत डाली हुई है। जितनी ताकत हम शरीर में डालते हैं, उतनी पड़ती है; जितनी हम खींच लेते हैं, उतनी खिंच जाती है।

आपने कभी खयाल किया है कि किसी से झगडा हो जाए, तो आपके शरीर में ज्यादा ताकत कहौ से आ जाती है! और आप इतना बड़ा पत्थर उठाकर फेंक सकते हैं क्रोध की हालत में, जितना बड़ा पत्थर आप शांति की हालत में हिला भी न सकते थे। कभी आपने सोचा, यह ताकत कहां से आ गई है? शरीर आपका है, यह ताकत कहां से आ गई? यह ताकत आप डाल रहे हैं। जरूरत पड़ गई है, खतरा है, मुसीबत है, दुश्मन सामने खड़ा है। पत्थर को हटाना है नहीं तो जिंदगी खतरे में पड़ जाएगी। तो आप अपनी सारी ताकत डाल देते हैं शरीर में।

एक बार ऐसा हुआ कि एक आदमी दो वर्षों से पैरेलाइब्द था, लकवा लग गया था। और पड़ा था अपनी खाट पर, उठ नहीं सकता, हिल नहीं सकता। डाक्टर इलाज करके परेशान हो गए। आखिर उन्होंने कह दिया कि अब जिंदगी भर पक्षाघात ही रहेगा। फिर अचानक एक रात उस आदमी के घर में आग लग गई। सारे लोग घर के बाहर भागे। बाहर जाकर उन्हें खयाल आया कि अपने परिवार के प्रमुख को तो भीतर छोड़ आए हैं—बूढ़े को। वह तो भाग भी नहीं सकता, उसका क्या होगा? लेकिन तब उन्होंने देखा कि—अंधेरे में कुछ लोग मशालें लेकर आए—तो देखा कि बूढ़ा उनके पहले बाहर निकल आया है। उन सब ने उससे पूछा, आप चल कर आए क्या? उसने कहा, अरे! वह वहीं पक्षाघात खाकर फिर गिर पड़ा। उसने कहा कि मैं तो चल ही कैसे सकता हूं? यह कैसे हुआ? लेकिन चल चुका था वह, हुआ का सवाल ही न था।

आग लग गई थी घर में, सारा घर भाग रहा था। एक क्षण को वह भूल गया कि मैं लकवा का बीमार हूं। सारी शक्ति वापस शरीर में उसने डाल दी। लेकिन बाहर आकर जब मशाल जली और लोगों ने देखा कि आप! आप बाहर कैसे आए? उसने कहा, अरे! मैं तो लकवे का बीमार हूं। वह वापस गिर पड़ा, उसकी शक्ति फिर पीछे लौट गई।

अब उसकी ही समझ के बाहर है कि यह कैसे घटना घटी। अब उसे सब समझा रहे हैं कि तुम्हें लकवा नहीं है, क्योंकि तुम इतना तो चल सके और अब तुम जिंदगी भर चल सकते हो। लेकिन वह कहता है कि मेरा तो हाथ भी नहीं उठता है, मेरा तो पैर भी नहीं उठता है। यह कैसे हुआ, मैं भी नहीं कह सकता। पता नहीं कौन मुझे बाहर ले आया!

कोई उसे बाहर नहीं ले आया। वह खुद ही बाहर आया। लेकिन उसे पता नहीं कि उसने खतरे की हालत में उसकी आत्मा ने सारी शक्ति उसके शरीर में डाल दी। और यह भी उसका भाव है कि उसने शक्ति फिर वापिस अपने भीतर खींच ली, और अब वह फिर लकवे का मरीज हो गया। और ऐसा लकवे के एकाध मरीज के साथ हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऐसी सैकड़ों घटनाएं पृथ्वी पर घटी हैं, जब कि लकवे का आदमी बाहर आ गया है। आग लगने की हालत में या किसी खतरे की हालत में और भूल गया है, खतरे में भूल गया है कि मैं किस हालत में हूं।

मैं आपसे यह कह रहा हूं कि शरीर में हमारी शक्ति हमारी डाली हुई है, लेकिन निकालने का हमें कोई पता नहीं कि हम वापस कैसे निकालें। रात इसीलिए हमें आराम मिल जाता है कि अपने आप शक्ति वापस चली जाती है भीतर और शरीर शिथिल होकर पड़ जाता है। सुबह हम ?? ताजे हो जाते हैं। लेकिन कुछ लोग रात को भी अपनी शक्ति बाहर नहीं निकाल पाते हैं, शरीर में शक्ति रह ही जाती है। तब नींद मुश्किल हो जाती है। इनसोमेनिया या नींद का न आना सिर्फ एक ही बात का लक्षण है कि शरीर में डाली गई ताकत पीछे लौटने का रास्ता नहीं जानती है।

पहला तो ध्यान के लिये, मृत्यु में प्रवेश का जो पहला चरण है, वह शरीर से सारी शक्ति को निकाल लेना है।

अब यह बड़े मजे की बात है कि सिर्फ भाव करने से शक्ति अंदर वापस लौट जाती है। अगर थोड़ी देर तक कोई मन में यह भाव करता रहे कि मेरी शक्ति अंदर वापस लौट रही है और शरीर शिथिल होता जा रहा है, तो वह पाएगा कि शरीर शिथिल हो गया है, शिथिल हो गया है, शिथिल हो गया है। और शरीर उस जगह पहुंच जाएगा कि खुद ही अपना हाथ उठाना चाहे तो नहीं उठा सकेगा, सब शिथिल हो जाएगा। यह हमारा भाव है, जो हम शरीर से वापस खींच सकते हैं।

तो पहली तो बात है, शरीर से सारे प्राण का भीतर वापस पहुंच जाना। तो शरीर खोल की तरह पड़ा रह जाएगा और बराबर ऐसा दिखाई पड़ेगा कि नारियल में फासला पड़ गया है। हम अलग हो गए हैं और शरीर की खोल बाहर पड़ी है, वस्त्रों की भांति।

फिर दूसरी बात है, श्वास को शिथिल छोड़ना। श्वास और गहरे में हमारे प्राणों को पकड़े हुए है। इसलिए श्वास के टूटते ही आदमी मर जाता है। श्वास और गहरे में हमें शरीर से जोड़े हुए है। श्वास शरीर और आत्मा के बीच सेतु है, वहीं से हम बंधे हैं। इसलिए श्वास को हम प्राण कहते हैं। वह गई कि प्राण गया। लेकिन बहुत प्रयोग इस संबंध में होते हैं। और अगर कोई व्यक्ति अपनी श्वास को पूरा शिथिल छोड़ दे, पूरा शिथिल छोड़ दे, शात छोड दे, तो धीरे — धीरे, धीरे— धीरे श्वास उस जगह आ जाती है कि भीतर पता ही नहीं चलता है कि श्वास चल रही है कि नहीं चल रही है। कई बार शक हो जाता है कि कहीं मैं मर तो नहीं गया। यह श्वास चल नहीं रही, हुआ क्या है! श्वास इतनी शात हो जाती है कि पता ही नहीं चलता कि चल रही है कि नहीं चल रही है।

और अगर एक क्षण के लिए भी श्वास ठहर जाती है? ठहराना नहीं है। क्योंकि जिसने ठहराया, उसकी श्वास कभी नहीं ठहरेगी। यदि ठहराया, तो श्वास बाहर निकलने की कोशिश करेगी। अगर बाहर रोका, तो भीतर जाने की कोशिश करेगी।

इसलिए मैं कह रहा हूं, अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करना है, सिर्फ शिथिल छोड़ते जाना है, शात, शात, शांत। धीरे— धीरे श्वास एक बिंदु पर जाकर ठहर जाती है। और एक क्षण को भी ठहर जाए, तो उसी क्षण में आत्मा और शरीर के बीच अनंत फासला दिखाई पड़ जाता है। उसी मोमेंट में वह फासला दिखाई पड़ जाता है। जैसे बिजली चमक जाए अभी और मुझे आप सबके चेहरे दिखाई पड़ जाएं एक क्षण में। फिर बिजली खो जाए, लेकिन फिर मैंने आपके चेहरे देख लिये। ठीक एक क्षण को जब श्वास बिलकुल मध्य में ठहर जाती है, तो एक क्षण के लिए बिजली कौंध जाती है पूरे व्यक्तित्व में और दिखाई पड जाता है कि शरीर अलग, मैं अलग। मृत्यु घटित हो गई। तो दूसरे तल पर श्वास को शिथिल छोड़ना है।

और तीसरे तल पर मन को शिथिल छोडना है। क्योंकि अगर श्वास भी शिथिल हो जाए और मन शिथिल न हो पाए, तो बिजली भी कौंध जाएगी, लेकिन आपको दिखाई नहीं पड़ पायेगा कि क्या हुआ। क्योंकि मन तो अपने विचारों में उलझा रहेगा। अगर यहां बिजली चमक जाए और मैं अपने खयालों में खोया रहूं? तो बिजली चमक जाएगी, तब मुझे पता चलेगा कि अरे! कुछ हो गया। लेकिन तब तक बिजली चमक चुकी है और मैं अपने विचारों में खोया रह गया हूं। बिजली तो चमक जाएगी श्वास के ठहरते ही, लेकिन उस पर ध्यान तभी जाएगा जब विचार भी बंद हो गए हों। नहीं तो ध्यान नहीं जाएगा और मौका चूक जाएगा। इसलिए तीसरी चीज है विचार को शिथिल छोड़ देना।

ये तीन चरण हम प्रयोग करेंगे और चौथे चरण में हम दस मिनट के लिए चुपचाप बैठे रहेंगे। कोई चाहे तो लेट जा सकता है, कोई चाहे तो बैठा रह सकता है। लेटना ही सरल पड़ेगा। और इतना अच्छा तट है, इसका ठीक उपयोग किया जा सकता है।

तो सारे लोग जगह बना लें और लेट सकें.. किसी को बैठना ठीक लगे, वह बैठा रह सकता है। लेकिन बैठा हुआ व्यक्ति अगर बाद में गिरने लगे, तो अपने को रोकेगा नहीं। क्योंकि जब शरीर बिलकुल शिथिल होगा तो आप गिर सकते हैं, और अगर उसे रोकने में लग गए तो शरीर पूरा शिथिल नहीं हो पाएगा।

तो ये तीन चरण में हम ध्यान करेंगे और फिर दस मिनट के लिए मौन में पड़े रहेंगे। उस मौन में, इन तीन दिनों में मृत्यु अवतरित हो जाए, मृत्यु का दर्शन हो जाए, उसकी चेष्टा रहेगी।

तो मैं आपको सुझाव दूंगा कि आप भाव करें कि शरीर शिथिल हो रहा है, श्वास शिथिल हो रही है, मन शिथिल हो रहा है। फिर मैं चुप हो जाऊंगा, यहां अंधेरा कर दिया जाएगा, फिर आप अपनी जगह दस मिनट चुपचाप पड़े रह जाएंगे। जो भी भीतर हो रहा हो, उसे देखते हुए मौन में ठहर जाएंगे।

तो इतनी जगह बना लें कि कोई अगर गिरे बाद में तो किसी के ऊपर न गिरे। और जिनको लेट जाना हो, वे अपनी जगह बनाकर लेट जाएं।

उचित यही होगा कि चुपचाप रेत पर लेट जाएं कोई बात नहीं करेगा, कोई बीच में उठकर नहीं जाएगा. ही, बैठ जाएं….. जो जहां हैं वहीं बैठ जाएं या लेट जाएं.. आख बंद कर लें। आख बंद कर लें….. आख बंद कर लें और शरीर को शिथिल छोड़ दें, ढीला छोड़ दें। फिर मैं सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें। जैसे —जैसे अनुभव करेंगे, शरीर और शिथिल होता जाएगा, और शिथिल होता जाएगा। फिर शरीर बिलकुल शिथिल होकर पड़ जाएगा, जैसे उसमें कोई प्राण न रहे।

अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है. और ढीला छोड़ते जाएं….. ढीला छोड़ते जाएं। शरीर को ढीला छोड़ते जाएं और अनुभव करें कि शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है….. अनुभव करें…… पूरा अंग— अंग ढीला छोड़ दें.. और भीतर अनुभव करें शरीर शिथिल हो रहा है। मेरी शक्ति भीतर वापस लौट रही है. शरीर से शक्ति भीतर वापस लौट रही है…… शक्ति वापस लौट रही है। शरीर शिथिल होता जा रहा है…. शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है….. शरीर शिथिल हो रहा है…..। छोड दें बिलकुल, जैसे कोई प्राण न रह गए हों। गिरता हो, गिर जाए। बिलकुल ढीला छोड़ दें शरीर शिथिल हो गया है… शरीर शिथिल हो गया है… शरीर शिथिल हो गया है….. शरीर शिथिल हो गया है. छोड़ दें…… छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है। शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है, जैसे उसमें प्राण ही न हों। शरीर की सारी शक्ति भीतर पहुंच गई है.. शरीर शिथिल हो गया है….. शरीर शिथिल हो गया है…… शरीर शिथिल हो गया है.. शरीर शिथिल हो गया है.. शरीर शिथिल हो गया है…..। छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें, जैसे शरीर रहा ही नहीं, हम भीतर सरक गए हैं। शरीर शिथिल हो गया है…… शरीर शिथिल हो गया है. शरीर शिथिल हो गया है…..।

 

तो ध्यान में भी हमें सब छोड्कर मर जाना है। और सिर्फ उतना ही रह जाए—मैं जानता हुआ, द्रष्टा मात्र रह जाऊं भीतर—तो मृत्य घटित हो जाएगी। औंर इन तीन दिनों के निरंतर प्रयोग में अगर अपने को छोड़ा और मरने की हिम्मत दिखाई, तो वह घटना घट जाएगी, जिसको समाधि कहते हैं।

श्वास शात होती जा रही है…… श्वास को भी ढीला छोड़ दें……. बिलकुल ढीला छोड़ दें……. अपने आप आए—जाए…… ढीला छोड़ दें. रोकना नहीं है, धीमी नहीं करनी है। सिर्फ शिथिल छोड़ दें। जितनी आए, आए…… जितनी जाए, जाए…… श्वास शिथिल हो रही है…… श्वास शांत हो रही है…… ऐसा भाव करें. श्वास शांत होती जा रही है….. श्वास शांत और शिथिल होती जा रही है. श्वास शांत और शिथिल होती जा रही है श्वास शिथिल होती जा रही है?……. श्वास शांत होती जा रही है…… श्वास शांत हो गई है……. श्वास शांत हो गई है. श्वास शांत हो गई है…… श्वास शांत हो गई है?..।

अब मन को भी शिथिल छोड़ दें और भाव करें कि विचार शांत होते जा रहे हैं….. .विचार शांत होते जा रहे हैं. विचार शांत होते जा रहे हैं…… विचार शात हो गये हैं।

(साधक बिना हिले —डुले लेटे हैं, बैठे हैं. वृक्षों से टिके हैं रात्रि का गहन सन्नाटा है……. सागर के तट से टकराती लहरों का गर्जन है।. सारी प्रकृति शांत और मौन है। जैसे आसपास कोई भी प्राणी या मनुष्य न हो।. साधक बिलकुल मरे हुए से पड़े हैं।…… श्वास उनकी बिलकुल धीमी हो गई है. चेहरे पर शांति का भाव गहन हो उठा है.. और उनके प्राण किसी गहन अंतर्यात्रा के लिए मानों भीतर सिकुड़ गए हैं।

शरीर, श्वास और विचार शून्यवत हो गए हैं…… मानों वे हैं ही नहीं, अस्तित्व मात्र शेष रह गया है…… होश मात्र रह गया है. व्यक्ति विसर्जित हो गया है, चेतना मात्र रह गई है।

दस—पंद्रह मिनट साधक इस स्थिति में डूबे रहे फिर धीरे — धीरे उन्हें ध्यान से वापस लौटने का सुझाव दिया गया. आंखें धीरे से खोलने को कहा गया…… और रात्रि की इस ध्यान की बैठक की समाप्ति की घोषणा की गई। साधक धीरे — धीरे अपने निवास की ओर लौटने लगे हैं……. अनेक साधक अभी ध्यान में डूबे ही हुए हैं।)

आज इतना ही।

 



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गीता दर्शन-(भाग–7) प्रवचन–182

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आसुरी संपदा—(प्रवचन—तीसरा)

अध्‍याय—16

सूत्र:

दम्भो दयोंऽभिमानश्च क्रोध: पारूष्‍यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्म पार्थ संपदमासुशँम्।। 4।।

दैवी संयद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।

मा शुचः संपदं दैवीमीभजातोऽसि पाण्डव।। 5।।

द्वौ भूतसगौं लस्कैऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।

दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे मृणु।। 6।।

और है पार्थ, पाखंड, घमंड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।

उन दोनों कार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्‍ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के मानी गई है। इसलिए है अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

और हे अर्जुन, हम लोक में भूतों के स्वभाव दो कार के बताए गए हैं। एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सून।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न :

 

कल आपने कहा, पूरा अशांत होने पर शांति की साधना कठिन हो जाती है। लेकिन आप यह भी कहते रहे हैं कि विपरीत ध्रुवीयता के नियम के अनुसार अति पर पहुंचकर ही बदलाहट संभव होती है। इसे समझाएं।

त्म—रूपांतरण, आत्यंतिक क्रांति तो अति पर ही संभव होती है। जब तक हम जीवन की एक शैली के आखिरी छोर पर न पहुंच जाएं, जब तक हम उसकी पीड़ा को पूरा न भोग लें, उसके संताप को पूरा न सह लें, तब तक रूपांतरण नहीं होता।

अशांत अगर कोई पूरा हो जाए, तो छलांग लग सकती है शांति में। लेकिन पूरा अशांत हो जाए, यह शर्त खयाल रहे। आधी अशांति से नहीं चलेगा। और हममें से कोई भी पूरा अशांत नहीं होता; हम थोड़े अशांत होते हैं। जब हम समझते हैं कि हम बहुत अशांत हैं, तब भी हम थोड़े ही अशांत होते हैं। जब हम सोचते हैं कि असहनीय हो गई है दशा, तब भी सहनीय ही होती है, असहनीय नहीं होती। क्योंकि असहनीय का तो अर्थ है कि आप बचेंगे ही नहीं।

जिसको आप असहनीय अशांति कहते हैं, उसे भी आप सह तो लेते ही हैं। प्रियजन मर जाता है, बेटा मर जाता है, मां मर जाती है, पत्नी मर जाती है, पति मर जाता है, असहनीय दुख हम कहते हैं, लेकिन उसे भी हम सह लेते हैं; और हम बच जाते हैं उसके पार भी। दो—चार महीने में घाव भर जाता है, हम फिर पुराने हो जाते हैं; फिर जिंदगी वैसी ही चलने लगती है। हमने कहा था असहनीय, लेकिन वह सहनीय था। अशांति पूरी न थी।

अशांति पूरी होती, तो दो घटनाएं संभव थीं। या तो आप मिट जाते, बचते न, और अगर बचते, तो पूरी तरह रूपांतरित होकर बचते। हर हालत में आप जैसे हैं, वैसे नहीं बच सकते थे। या तो आत्मघात हो जाता, या आत्मा—रूपांतरण हो जाता; पर आप जैसे हैं, वैसे ही बच नहीं सकते थे।

लेकिन देखा जाता है कि सब दुख आते हैं और चले जाते हैं, और आपको वैसा ही छोड़ जाते हैं जैसे आप थे, उसमें रत्तीभर भी भेद नहीं होता। आप वही करते हैं फिर, जो पहले करते थे—वही जीवन, वही चर्या, वही ढंग, वही व्यवहार। थोड़ा—सा धक्का लगता है, फिर आप सम्हल जाते हैं। फिर गाड़ी पुरानी लीक पर चलने लगती है।

आत्महत्या हो जाएगी और या आत्म क्रांति हो जाएगी, दोनों ही स्थिति में आप मिट जाएंगे। अति पर क्रांति घटित होती है। यदि कोई पूरा अशांत हो जाए, तो उसका अर्थ हुआ कि अब और अशांत होने की जगह न बची। अब इसके आगे अशांति में जाने का कोई मार्ग न रहा। आखिरी पड़ाव आ गया। अब गति का कोई उपाय नहीं। इस क्षण क्रांति घट सकती है; इस क्षण आप इस व्यर्थता को समझ सकते हैं। यह अशांत होने का सारा रोग व्यर्थ मालूम पड़ सकता है।

और ध्यान रहे, कोई और तो आपको अशांत करता नहीं, आप ही अशांत होते हैं। यह आपका ही अर्जन है, यह आपका ही लगाया हुआ पौधा है, आपने ही सींचा और बड़ा किया है। ये जो अशांति के फल और फूल लगे हैं, ये आपके ही श्रम के फल हैं। और अगर आप पूरे अशांत हो गए, तो आपको दिखाई पड़ जाएगा कि सब व्यर्थ था, यह पूरा श्रम आत्मघाती था। आप इसे छोड़ दे सकते हैं। कोई और आपको पकड़े हुए नहीं है, और कोई आपको अशांत नहीं कर रहा है।

एक क्षण में जीवन अशांति के मोड़ से शांति की दिशा में गति करता है। एक तो उपाय यह है। लेकिन जब मैंने कल कहा कि जब आप अशांत हैं तब शांत होना मुश्किल होगा, उसका प्रयोजन दूसरा है।

पहली तो बात यह कि जब आप अशांत हैं, तो मेरा अर्थ पूरी अशांति से नहीं है। आप आधे—आधे हैं। जैसे पानी को हम गरम करें; वह पचास डिग्री पर गरम हो, तो न तो वह भाप बन पाता है और न बर्फ बन पाता है। पानी ही रहता है। सिर्फ गरम होता है। या तो सौ डिग्री तक गरम हो जाए, तो रूपांतरण हो सकता है, पानी छलांग लगा ले, भाप बन जाए। और या शून्य डिग्री के नीचे गिर जाए, तो भी रूपांतरण हो सकता है, पानी समाप्त हो जाए, बर्फ बन जाए। दोनों हालत में पानी खो सकता है, लेकिन अतियों से।

तो जब मैंने कल कहा कि जब आप अशांत हैं तब शांत होना मुश्किल होगा, उसका मतलब इतना ही है कि जब पानी गरम है, तो बर्फ बनानी मुश्किल होगी। पानी को ठंडा करना होगा, तो बर्फ बन सकती है।

लेकिन दो उपाय हैं। या तो पानी को पूरा गरम कर लें, तो भी पानी खो जाएगा, आप एक नए जगत में प्रवेश कर जाएंगे। या फिर पानी को पूरा ठंडा हो जाने दें, तो भी पानी खो जाएगा और नई यात्रा शुरू हो जाएगी।

अशांति से कूदने के दो उपाय हैं। या तो बिलकुल शांत क्षण आ जाए और या बिलकुल अशांत क्षण आ जाए। आप जहां हैं, वहा से छलांग नहीं लग सकती। या तो पीछे लौटें और अपने को शांत करें या आगे बढ़े और पूरे अशांत हो जाएं।

दोनों की सुविधाएं और दोनों के खतरे हैं। शांत होने की सुविधा तो यह है कि कोई विक्षिप्तता का डर नहीं है। इसलिए अधिक धर्मों ने शांत होने के छोर से ही छलांग लगाने की कोशिश की है। संन्यासियों को कहा गया है, घर—द्वार छोड़ दें, गृहस्थी छोड़ दें, काम—काज छोड़ दें।

यह सब शांत होने की व्यवस्था है। उन परिस्थितियों से हट जाएं, जहां पानी गरम होता है। चले जाएं दूर हिमालय में, जहां कोई गरम करने को न होगा, धीरे— धीरे आप ठंडे हो जाएंगे। हट जाएं उन—उन स्थितियों से, जहां आप उबलने लगते हैं। बार—बार उबलने लगते हैं, उबलने की आदत बन जाती है। हट जाएं उन व्यक्तियों से, जिनके संपर्क में आपको ठंडा होना मुश्किल हो रहा है।

अधिक धर्मों ने, जहां आप हैं—मध्य में, अशांति में खड़े, अधूरी अशांति में—वहां से पीछे लौटने की सलाह दी है। खतरा उसमें कम है। लेकिन कठिनाई भी है उसकी। क्योंकि आप परिस्थितियों से हट सकते हैं, लोगों से हट सकते हैं, दुकान—बाजार छोड़ सकते हैं, लेकिन आपका मन आपके साथ हिमालय चला जाएगा। और जो मन यहां अशांत हो रहा था, वह मन तो आपके साथ होगा, सिर्फ अशांत करने वाली परिस्थितियां साथ न होंगी।

तो हो सकता है कि आप थोड़े शांत होने लगें, लेकिन वह शांति धोखा भी सिद्ध हो सकती है। बीस साल हिमालय पर रहकर वापस लौटें, और जैसे ही नगर में आएं, अशांति वापस पकड़ सकती है। क्योंकि परिस्थिति से हट गए थे, आप शांत नहीं हुए थे, जहां अशांति होती थी, उस जगह से हट गए थे। तो खतरा भी है, सुविधा भी है।

दूसरा उपाय कुछ धर्मों की विशेष शाखाओं ने किया है। जैसे बुद्ध—धर्म की झेन शाखा ने अशांत करने का पूरा प्रयोग किया है। इस्लाम की सूफी शाखा ने अशांत करने का पूरा प्रयोग किया है। वे कहते हैं, भागने से कुछ भी न होगा। चित्त को उसकी पूरी दौड़ में चले जाने दें, उसको हो लेने दें जितना पागल होना है। उसको उसके पूरे पागलपन को छू लेने दें और वहीं से छलांग लें।

इसके खतरे हैं, इसके लाभ हैं। खतरा तो यह है कि आप क्रमश: पाएंगे कि आप और भी पागल होते जा रहे हैं। खतरा यह है कि अगर आप पूरे छोर तक न पहुंचे, नब्बे डिग्री पर कहीं रुक गए, तो आप विक्षिप्त हालत में रह जाएंगे। बहुत—से संन्यासी विक्षिप्त अवस्था में रह जाते हैं।

सौ डिग्री तक पहुंचें, तो पानी भाप बन जाएगा, लेकिन जरूरी नहीं है कि आप पहुंच पाएं। अगर निन्यानबे डिग्री पर भी रह गए, तो आप सिर्फ पागल होंगे, उन्मत्त हो जाएंगे। उस उन्मत्तता की अवस्था में न तो पीछे लौटना आसान होगा, न आगे जाना आसान होगा।

वह दुर्घटना घटती है। अगर बीच में अटके, तो कठिनाई बढ़ जाएगी। और आप इस हालत में होंगे उबलने की कि फिर आप कुछ भी न कर पाएंगे। इसलिए यह जो दूसरा मार्ग है, अनिवार्यरूपेण किसी गुरु के पास ही साधा जा सकता है।

पहला मार्ग अकेला भी साधा जा सकता है, क्योंकि शांत होने की प्रक्रिया है, कोई खतरा नहीं है। दूसरे मार्ग में खतरा है। कोई चाहिए, जो आपको सौ डिग्री तक पहुंचा दे। क्योंकि पचास—साठ डिग्री के बाद आपका होश आपके काम नहीं आएगा। आप इतनी उबलती हालत में होंगे कि फिर आप अपने नियंत्रण में नहीं होंगे। कोई और चाहिए, जो आपको आगे ले जाए। और आखिरी क्षणों में, जब सौ डिग्री पर आप पहुंचते हैं, तब तो गुरु भी चाहिए ऐसा स्थान चाहिए, जहां और भी साधक आस—पास हों, जहां का पूरा वातावरण आपको सौ डिग्री तक पहुंचा दे और टूटने न दे।

इसलिए ग्रुप, एक समूह, स्कूल, संप्रदाय, आश्रम, इसका उपयोग है। जहां बहुत—से लोग उस शांत अवस्था को पहुंच गए हैं, जहां बहुत—से लोग इस उबलती हुई अवस्था को पार कर गए हैं, जहां बहुत—से लोगों ने सौ डिग्री का ताप और पागलपन जाना है, उनकी मौजूदगी आपको सम्हालेगी। और कई बार महीनों तक, वर्षों तक यह विक्षिप्त अवस्था बनी रह सकती है। उस वक्त कोई चाहिए, जो आपको देखे और सम्हाले।

पश्चिम के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पश्चिम के पागलखानों में बहुत—से ऐसे पागल बंद हैं, जो पागल नहीं हैं, जो सिर्फ उन्माद की अवस्था में हैं। लेकिन पश्चिम में उनको सम्हालने वाला कोई नहीं है।

ईसाइयों ने, मुसलमानों ने, हिंदुओं ने, बौद्धों ने मोनेस्ट्रीज खड़ी की थीं। आज भी ईसाइयों की कुछ मोनेस्ट्रीज पश्चिम में हैं, जहां व्यक्ति प्रवेश करता है एक बार, तो फिर मरने के पहले वापस नहीं निकलता है। बीस वर्ष, तीस वर्ष, चालीस वर्ष। जो व्यक्ति एक बार द्वार के भीतर गया, वह फिर आश्रम के बाहर नहीं आता, जब तक कि वह अतिक्रमण न कर जाए। जब तक गुरु आज्ञा न दे, तब तक दुनिया से उसका कोई वास्ता नहीं है। और पूरा समूह सहयोगी होता है। इन मोनेस्ट्रीज में अनेक लोग विक्षिप्त अवस्था में वर्षों तक रहते हैं।

तो दूसरे मार्ग का खतरा है, सुविधा भी है। सुविधा यह है कि धोखे का कोई उपाय नहीं है। एक बार पार कर गए, तो पार कर गए; फिर लौटकर गिरना नहीं होगा। फिर यह सारी दुनिया भी आपको अशांत नहीं कर सकती। फिर आप कहीं भी हों, आपको नरक में भी डाल दिया जाए, तो भी आप स्वर्ग में ही होंगे। आपके स्वर्ग को छीना नहीं जा सकता। यह तो सुविधा है।

खतरा यह है कि बड़ी व्यवस्था चाहिए, योग्य निरीक्षण चाहिए, समर्पण का पूरा भाव चाहिए। क्योंकि अपने को पागल करने देना और किसी को शक्ति देना कि वह आपको पागलपन की तरफ ले जाए, पूरा उद्विग्न कर दे, बड़े समर्पण के बिना नहीं हो सकेगा। पूरा समर्पण चाहिए और अंधा अनुकरण चाहिए, तभी आप पागल हो सकेंगे। और एक बार आप पूरी तरह जल जाएं भीतर, तो छलांग लग जाएगी। अति से ही रूपांतरण होता है।

कृष्ण पहले मार्ग की बात कर रहे हैं, जो व्यक्ति अकेला भी साध सकता है। इसलिए मैंने कहा कि जब आप अशांत हैं, तब शांत होना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए जब आप शांत हैं, तभी शांति को साधें, ताकि अशांत होने का मौका न आए। और शांति आपके जीवन का आधार बन जाए। धीरे— धीरे वह इतना सुदृढ़ हो जाए कि आप पानी को भाप बनाकर क्रांति में न जाएं, वरन पानी को बर्फ बनाकर क्रांति में जाएं।

पानी से तो हटना है। जहां आप हैं, वहां से तो चलना है। ये चलने के दो उपाय हैं। ज्यादा सुगम—अकेले भी चला जा सके, विक्षिप्तता का भय न हो—पहला मार्ग है। ज्यादा तीव्र, ज्यादा प्रामाणिक, जिससे लौटकर गिरने का कोई डर नहीं है, लेकिन ज्यादा खतरनाक, दुस्साहस का, दूसरा मार्ग है। और प्रत्येक व्यक्ति को तय करना होता है कि उसका कितना साहस है, कितनी क्षमता है, कितना दाव पर लगाने की हिम्मत है।

अगर दुकानदार का मन हो, तो पहला मार्ग ठीक है; अगर जुआरी का मन हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है। अगर का चित्त हो, तो पहला मार्ग ठीक है, अगर युवा चित्त हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है। अगर स्त्री का चित्त हो, तो पहला मार्ग ठीक है; अगर पुरुष का चित्त हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है।

पर प्रत्येक को समझना होता है कि उसकी अपनी जीवन—दशा कैसी है। जहां वह खड़ा है, जैसा वह है, क्या उसके लिए सुगम होगा। क्योंकि आप अगर कुछ अपने से विपरीत मार्ग चुन लें, तो आपका समय, शक्ति अपव्यय होगी। और इसीलिए गुरु की उपादेयता हो जाती है। क्योंकि न केवल वह मार्ग दे सकता है, बल्कि वह यह भी परख दे सकता है कि आपके लिए क्या उचित होगा।

इसलिए पुराने दिनों में एक—एक साधक को गुरु उसके कान में ही उसकी साधना का सूत्र देता रहा है; उसके कान में ही मंत्र देता रहा है। वह उसके लिए निजी था। वह उस व्यक्ति के लिए विशेष था। वह उसका मार्ग, पथ था। उस मंत्र को किसी को कहना भी नहीं है.। क्योंकि आप नहीं जानते, वह किसी और के काम आ सकता है कि नहीं आ सकता है। और आपको पता नहीं है कि वह किसी को नुकसान भी पहुंचा सकता है; किसी के लिए कल्याणकारी हो सकता है।

तो वह जो अतिक्रमण कर गया है जीवन की सारी स्थितियों को, जो लौटकर देख सकता है सारे विस्तार को, जो आपके अंतःकरण में प्रवेश कर सकता है, जो आपके मन की आज की दशा जान सकता है, जो आपके अतीत संस्कारों को ठीक से पहचान सकता है और जो निर्णय ले सकता है कि भविष्य आपके लिए कौन—सा सुगम होगा, उसके बिना मार्ग पर बढ़ जाना सदा ही जोखम का काम है।

दूसरा प्रश्न :

 

कृष्ण ने गीता में लोक और शास्त्र के विरूद्ध आचरण का निषेध किया है। लेकिन इस नियम से तो समाज लकीर का फकीर होकर रह जाएगा। शायद यही कारण है कि हिंदू समाज सदियों —सदियों से यथास्थिति में पड़कर सड रहा है। इस प्रवृत्ति से तो दकियानूसीपन ही बढ़ेगा तथा सुधार, परिवर्तन और क्रांति असंभव हो जाएंगे! इस पर प्रकाश डालें।

से समझना जरूरी है।

पहली बात, कृष्ण जो भी कह रहे हैं गीता में, वह कोई समाज—सुधार का आयोजन नहीं है, वह कोई समाज—सुधार की रूप—रेखा नहीं है। वह प्रस्तावना व्यक्ति की आत्मक्रांति के लिए है। और ये दोनों बातें बड़ी भिन्न हैं।

अगर व्यक्ति को आत्मक्रांति की तरफ जाना हो, तो यही उचित है कि वह व्यर्थ के उपद्रवों में न पड़े। क्योंकि शक्ति सीमित है, समय सीमित है, और जीवन और समाज के प्रश्न तो अनंत हैं। उनकी कभी कोई समाप्ति होने वाली नहीं है।

हजारों वर्षों से समाज है, हजारों रूपांतरण किए गए हैं, हजारों सामाजिक क्रांतिया हो चुकी हैं, लेकिन समाज फिर भी सड़ रहा है। एक चीज बदल जाती है, तो दूसरी खड़ी हो जाती है। दूसरी बदल जाती है, तो तीसरा सवाल खड़ा हो जाता है। एक समस्या का हम समाधान करते हैं, तो समाधान से ही दस समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। समस्याओं का समाज के लिए कभी कोई अंत आने वाला नहीं है।

हिंदू इस बात को बड़े गहरे से समझ गए कि समाज बहता रहेगा, समस्याएं बनी रहेंगी। क्यों? क्योंकि समाज बनता है करोड़ों—करोड़ों, अरबों—अरबों लोगों से। और वे अरब— अरब लोग अज्ञान से भरे हैं, वे अरब— अरब लोग पागलपन से भरे हैं, वे अरब—अरब लोग विक्षिप्त हैं। उन अरबों लोगों का जो समाज है, वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता। बीमार होना उसका लक्षण ही रहेगा, जब तक कि ये सारे लोग प्रबुद्ध पुरुष न हो जाएं।

बुद्धों का कोई समाज हो, तो समस्याओं के पार होगा। हमारा समाज समस्याओं के पार कभी हो नहीं सकता। और हम जो भी करेंगे। एक तरफ हम सुधारेंगे, तो दस तरफ हम बिगाड़ कर लेते हैं।

आज से दो सौ साल पहले दुनियाभर के विचारकों का खयाल था, अगर शिक्षा बढ़ जाए जगत में, तो स्वर्ग आ जाएगा। अब शिक्षा बढ़ गई है। अब सारा जगत शिक्षा के मार्ग पर गतिमान हुआ है। अधिकतम लोग शिक्षित हैं। लेकिन अब शिक्षा के कारण जो परेशानियां आ रही हैं, वह दो सौ साल पहले के समाज—सुधारकों को उनका कोई पता भी नहीं था।

अब शिक्षा के कारण ही उपद्रव है। और बड़े विचारक, डी एच लारेंस जैसा विचारक, यह सुझाव दिया कि सौ साल तक हमें सारे विश्वविद्यालय बंद कर देने चाहिए, सौ साल तक सारी शिक्षा बंद कर देनी चाहिए, तो ही हमारी समस्याओं का हल होगा, नहीं तो हल नहीं हो सकता।

आज हमारे सारे पागलपन और उपद्रव का गढ़ विश्वविद्यालय बन गया है। सब उपद्रव वहां से पैदा हो रहे हैं। सोचा था, शिक्षा स्वर्ग ले आएगी। लेकिन जिनको हमने शिक्षित किया है, वे समाज को और नरक बनाए दे रहे हैं! सोचा था कि शिक्षा से लोग सत्य, धर्म, नीति की तरफ बढ़ेंगे। लेकिन शिक्षा सिर्फ लोगों को बेईमान और चालाक बना रही है।

शिक्षित आदमी के ईमानदार होने में कठिनाई हो जाती है, क्योंकि वह गणित बिठालने लगता है, चालाक हो जाता है। बुद्धि बढ़ेगी, तो चालाकी भी बढ़ेगी। चालाकी बढ़ेगी, तो दूसरे का शोषण करने में ज्यादा कुशल हो जाएगा। शिक्षा बढ़ेगी, तो महत्वाकांक्षा बढ़ेगी, एंबीशन बढ़ेगी। महत्वाकांक्षा बढ़ेगी, तो वह संघर्ष करेगा। तृप्ति कम हो जाएगी, असंतोष घना हो जाएगा।

वह देखता है कि दूसरा आदमी अगर एम ए. पास है और चीफ मिनिस्टर हो गया है और मैं भी एम ऐं. पास हूं तो मैं क्यों क्लर्क रहूं! और यह भी हो सकता है कि थर्ड क्लास एम .ए. मिनिस्टर हो गया है और फर्स्ट क्लास एम ए. क्लर्क है, तो वह कैसे बरदाश्त करे! तो उपद्रव खड़ा होगा।

लोग सोचते थे, गरीबी कम हो जाएगी, तो समाज में सुख आ जाएगा। अमेरिका से गरीबी काफी मात्रा में तिरोहित हो गई। कम से कम आधे वर्ग की तो तिरोहित हो गई। लेकिन वह जो आधा वर्ग आज गरीबी के बिलकुल पार है, वह बड़े महान दुख में पड़ा हुआ है।

अब तक हम सोचते थे कि धन होगा, तो सुख होगा। अब जिनके पास धन है, उनका सुख इस बुरी तरह खो गया है, जितना किसी गरीब का कभी नहीं खोया था। गरीब को एक आशा थी कि कभी धन होगा, तो सुख मिल जाएगा। जिनके पास आज धन है, उनकी यह आशा भी खो गई है। धन है, और सुख नहीं मिला। अब भविष्य बिलकुल अंधकार है। कुछ पाने योग्य भी नहीं है। और फिर जीने की कोई आशा भी नहीं रह गई है।

तो अमेरिका सर्वाधिक आत्मघात कर रहा है। अधिकतम लोग अपने को मिटाने की हालत में हैं। जीकर भी क्या करें? गरीबी मिट जाए, अशिक्षा मिट जाए हम सोचते हैं, बीमारी मिट जाए, सभी लोग स्वस्थ हो जाएं। पर स्वस्थ होकर भी आदमी क्या करेगा?

मैंने सुना है, तैमूरलंग ने एक ज्योतिषी को बुलाया। तैमूरलंग को काफी नींद आती थी। तो उसने ज्योतिषी से पूछा कि बात क्या है? क्या मेरे तारों में, क्या मेरे भाग्य में, क्या मेरी जन्मकुंडली में कुछ ऐसी बात है कि मुझे बहुत नींद आती है? रातभर भी सोता हूं तो भी दिनभर मुझे नींद आती है। और यह तो बुरा लक्षण है। क्योंकि शास्त्रों में कहा है, इतना आलस्य तामसी प्रवृत्ति का सूचक है। उस ज्योतिषी ने कहा कि महाराज, इससे ज्यादा स्वागत—योग्य कुछ भी नहीं है। आप चौबीस घंटे सोए। यह बिलकुल शुभ लक्षण है। शास्त्र गलती पर हैं।

तैमूरलंग को भरोसा नहीं आया। उसने कहा कि शास्त्र गलत नहीं हो सकते, तुम यह क्या कह रहे हो! उसने कहा कि शास्त्रों ने आपके संबंध में लिखा ही नहीं है। आप जैसा आदमी चौबीस घंटे सोए, यही सुखद है। आप जितनी देर जगते हैं, उतना ही उपद्रव होता है। आपसे उपद्रव के सिवाय कुछ हो ही नहीं सकता। तो परमात्मा की बड़ी कृपा है कि आप सोए रहें। आपका जीवित होना खतरनाक है। आपका मर जाना शुभ है।

आदमी पर निर्भर है। अगर आप, जिसको आप कह रहे हैं कि सारा जगत स्वस्थ हो जाए, ये सारे उपद्रवी लोग अगर स्वस्थ हो जाएं, तो आप यह मत सोचना कि शांति आएगी दुनिया में। वह जो बीमार था, एक पत्नी से राजी था, वह जब स्वस्थ हो जाएगा, दस पत्नियों से भी राजी होने वाला नहीं। वह बीमार था, तो वह कभी बरदाश्त भी कर लेता था, सह भी लेता था, समझा लेता था अपने को। वह स्वस्थ हो जाएगा, तो वह तलवार लेकर कूद पड़ेगा, वह सह भी नहीं सकेगा, बरदाश्त भी नहीं करेगा।

आदमी अगर गलत है, तो उसका स्वस्थ होना खतरनाक है। आदमी अगर गलत है, तो उसका शिक्षित होना खतरनाक है। आदमी अगर गलत है, तो उसका धनी होना खतरनाक है। और आदमी गलत हैं, समाज गलत आदमियों का जोड़ है। हमारे हिसाब से समाज सदा ही गलत आदमियों का जोड़ रहेगा। क्योंकि जो भी आदमी ठीक हो जाता है, हिंदुओं के गणित से, वह वापस नहीं लौटता।

कृष्ण या बुद्ध या महावीर, जैसे ही शुभ हो जाते हैं, यह उनका आखिरी जीवन है। फिर इस जीवन में वे वापस नहीं आते। तो शुभ आदमी तो जीवन से तिरोहित हो जाता है, अशुभ आदमी लौटता आता है।

यह कारागृह, जिसको हम संसार कहते हैं, वह बुरे आदमी की जगह है। उसमें से भला तो अपने आप छिटककर बाहर हो जाता है। बुरा उसमें वापस लौट आता है, और भी निष्णात होता जाता है, और भी कुशल होता जाता है बुराई में। जितनी बार लौटता है, उतना निष्णात होता जाता है।

इसलिए समाज कभी शुभ हो नहीं सकेगा। यह बात निराशाजनक लग सकती है, लेकिन तथ्य यही है।

और कृष्ण या बुद्ध या महावीर या जीसस की उत्सुकता समाज में नहीं है, उत्सुकता व्यक्ति में है। क्योंकि वही बदला जा सकता है। और व्यक्ति को अगर जीवन—क्रांति करनी है, तो उचित है कि वह व्यर्थ की बातों में न पड़े। कि दहेज की प्रथा मिटानी है, इसमें लग जाए; आदिवासियों को शिक्षित करना है, इसमें लग जाए; हरिजनों का सुधार करना है, इसमें लग जाए; कोढ़ी की सेवा करना है, इसमें लग जाए। कुछ भी बुरे नहीं हैं ये काम, सब अच्छे हैं। लेकिन आपके पास जिंदगी कितनी है? और आप इसमें लग जाएं, तो आप समाप्त हो जाएंगे। न हरिजन मिटता है, न कोढ़ी मिटता है, न बीमार मिटता है, आप मिट जाएंगे। नए तरह के हरिजन पैदा हो जाएंगे।

रूस ने लाख उपाय किए क्रांति कर डाली। पुराना मजदूर मिट गया, नया मजदूर पैदा हो गया। पहले अमीर आदमी था, गरीब आदमी था; अब सरकारी आदमी है और गैर—सरकारी आदमी है। फर्क उतना ही है। तब भी कोई छाती पर बैठा था और कोई जमीन पर पड़ा था; अब भी कोई जमीन पर पड़ा है और कोई छाती पर बैठा है। नाम बदल जाते हैं, बीमारी कायम रहती है।

जिस व्यक्ति को आत्म—क्रांति में लगना है, उसे व्यर्थ के उपद्रव से अपने को बचाना चाहिए, यह कृष्ण का अर्थ है। तो वे कहते हैं, शास्त्र और समाज का जो नियम है, उसमें वह जो दैवी संपदा का व्यक्ति है, वह व्यर्थ की अड़चन नहीं डालता। उसे खेल का नियम मानकर पूरा कर देता है। वह कहता है, बाएं चलना है तो हम बाएं चल लेते हैं। वह इस पर झगड़ा खड़ा नहीं करता कि नहीं, दाएं चलेंगे। इस पर जीवन नहीं लगा देता। इसका कोई मूल्य भी नहीं है। और ऐसा व्यक्ति अपने जीवन का, अपनी ऊर्जा का सम्यक उपयोग कर पाता है।

और बड़े मजे की बात, विरोधाभासी दिखे तो भी बड़े मजे की बात यह है कि ऐसे व्यक्ति के जीवन के द्वारा समाज में कुछ घटित भी होता है। लेकिन वह प्रत्यक्ष नहीं होता घटित। वह सीधा समाज को बदलने नहीं जाता, वह अपने को बदल लेता है। लेकिन उसकी बदलाहट के परिणाम समाज में भी प्रतिध्वनित होते हैं।

हजारों क्रांतिकारी जो फर्क समाज में नहीं कर पाते, वह एक आत्मा को उपलब्ध व्यक्ति कर पाता है। लेकिन वह उसकी इच्छा नहीं है, वह उसके लिए कोशिश में भी नहीं लगा है। उसकी मौजूदगी, उसके जीवन का प्रकाश अनेकों को बदलता है। लेकिन वह बदलाहट बड़ी सौम्य है। वह कोई क्रांति नहीं है। वह बहुत सौम्य विकास है। उसका कोई शोरगुल भी नहीं है। वह चुपचाप घटित होता है। वह मौन ही घट जाता है।

बुद्ध कोई क्रांति नहीं करते हैं समाज में, लेकिन बुद्ध के बाद दुनिया दूसरी हो जाती है। बुद्धों की मौजूदगी, उनके ज्ञान की घटना, मनुष्य की चेतना को कहीं गहरे में रूपांतरित कर जाती है, किसी को पता भी नहीं चलता। यह ऐसे हो जाता है, जैसे चुपचाप कोई फूल खिलता है और उसकी सुगंध हवाओं में फैल जाती है। न कोई बैड बजता, न कोई नगाड़े बजते; कोई शोरगुल नहीं होता, चुपचाप सुगंध हवाओं में भर जाती है। फूल खो भी जाता है, तो सुगंध तिरती रहती है। सदियों—सदियों तक उस सुगंध से लोग आप्लावित होते हैं, रूपांतरित होते हैं।

लेकिन ये रुख यात्रा के बिलकुल अलग—अलग हैं। जो व्यक्ति समाज की तरफ उत्सुक हो जाएगा कि समाज को बदलना है, वह व्यक्ति अपने को बदलने में उत्सुक नहीं होता। अगर गहरे से समझना चाहें, तो असल में हम दूसरे को बदलने में इसलिए उत्सुक होते हैं, क्योंकि हम अपने को बदलना नहीं चाहते। यह एक तरह का पलायन है, यह एक तरकीब है।

तो हम देखते हैं, कहां—कहां दुनिया में भूल—चूक है, उसको बदलना है। सिर्फ अपने में कोई भूल—चूक नहीं देखते। और अपने में भूल—चूक दिखाई भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि दुनिया में काफी भूल—चूके हैं।

और अगर मैंने यह तय कर लिया कि जब तक दुनिया न बदल जाए, तब तक मैं अपनी तरफ ध्यान न दूंगा, तो मैं अनंत जन्मों तक लगा रहूं तो भी मुझे अपने पर ध्यान देने का समय नहीं मिलेगा। यह दुनिया कभी पूरी बदल जाने वाली नहीं है।

इसलिए समाज को चुपचाप स्वीकार कर लेना दकियानूसीपन नहीं है, एक बहुत बुद्धिमत्ता का कृत्य है। और इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ऐसे व्यक्ति से क्रांति घटित नहीं होती। ऐसे ही व्यक्ति से क्रांति घटित होती है। लेकिन वह क्रांति परोक्ष है। वह क्रांति लेनिन और मार्क्स और माओ जैसी क्रांति नहीं है। वह क्रांति महावीर, कृष्ण और बुद्ध की क्रांति है। वह बड़ी चुपचाप घटित होती है।

और इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, वह चुपचाप घटित होता है। और जो भी व्यर्थ है, कचरा—कूड़ा है, वह काफी शोरगुल करता है। इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, इतिहास उसको अंकित ही नहीं कर पाता। इस जगत में जो भी उपद्रव, उत्पात है, इतिहास उसको अंकित करता है।

एक यहूदी फकीर के संबंध में मैं पढ़ता था। वह अक्सर लोगों से कहता था कि मैं सिर्फ दो किताबें पढ़ता हूं, एक भगवान की और एक शैतान की। अनेक बार लोग उससे पूछते कि भगवान की किताब तो हम समझते हैं कि तालमुद यहूदियों का धर्मग्रंथ है, वह आप पढ़ते होंगे। लेकिन शैतान की किताब? यह इसका नाम क्या है? तो वह हंसता और टाल जाता।

जब उसकी मृत्यु हुई, तो पहला काम उसके शिष्यों ने यह किया कि उसकी कोठरी खोलकर देखा कि वह शैतान की किताब! उसके वहां दो तख्तियां लगी थीं : एक तरफ भगवान की किताब—वहा तालमुद रखी थी, और शैतान की किताब—वहां रोज का अखबार। वहा कोई किताब नहीं थी, वह जो रोज का अखबार है! बस, दो ही किताबें वह पढ़ता था।

अखबार इतिहास बन जाएगा। अगर जीसस के समय कोई अखबार होता, तो उसने जीसस की खबर छापी भी नहीं होती। किसी किताब में जीसस का कोई उल्लेख नहीं है। सिवाय जीसस के शिष्यों ने जो थोड़ा—सा लिखा है, बस वही बाइबिल, अन्यथा कोई उल्लेख नहीं है।

महावीर का इतिहास की किताबों में कोई उल्लेख नहीं है। वह जो महान घटना है, इतिहास के जैसे बाहर घटती है! इतिहास उसकी चिंता ही नहीं लेता। क्योंकि वह इतनी सौम्य है, उसकी कोई चोट नहीं पड़ती। न किसी की हत्या होती है, न गोली चलती है, न हड़ताल होती है, न घेराव होता है। कोई उपद्रव होता ही नहीं उसके आस—पास, इसलिए वह घटना चुपचाप घट जाती है। लेकिन उसके परिणाम सदियों तक गूंजते रहते हैं।

इतिहास कचरा है।

अमेरिकी अरबपति हेनरी फोर्ड कभी—कभी बड़ी कीमत की बातें कहता था। कभी—कभी छोटे—छोटे वचन, लेकिन बड़ी कीमत की बातें कहता था। उसका एक बहुत प्रसिद्ध छोटा—सा वचन है। उसने कहा है, हिस्ट्री इज बैक—बिलकुल कूड़ा—कर्कट है। और जो भी महत्वपूर्ण है, वह इतिहास के बाहर है, वह समय के बाहर घट रहा है, वह चुपचाप घटित हो रहा है।

तो ऐसा नहीं है कि ऐसे व्यक्ति से क्रांति घटित नहीं होती, ऐसे ही व्यक्ति से घटित होती है, लेकिन वह मौन क्रांति है।

तीसरा प्रश्न :

 

गीता में दैवी संपदा को प्राप्त व्यक्ति के लक्षण या गुण बताए गए हैं। क्या उन्हें अलग— अलग साधने से दिव्यता उपलब्ध होती है? या दिव्यता की उपलब्धि पर उसके फूल की तरह ये गुण चले आते हैं?

दोनों ही बातें एक साथ सच हैं। दोनों बातें एक साथ घटती हैं, युगपत।

प्रश्न ऐसा ही है, जैसे कोई पूछे कि मुर्गी पहले होती है कि अंडा। और सदियों से दार्शनिक विवाद करते रहे हैं। सवाल बचकाना लगता है, लेकिन जटिल है, और अब तक कुछ तय नहीं हो पाया कि पहले अंडा या पहले मुर्गी। क्योंकि कुछ भी तय करें, तो गलत मालूम होता है। कहें कि मुर्गी पहले होती है, तो गलत मालूम पड़ता है, क्योंकि मुर्गी बिना अंडे के कैसे हो जाएगी! कहें कि अंडा पहले होता है, तो गलत मालूम होता है, क्योंकि अंडा हो कैसे जाएगा जब तक मुर्गी उसे रखेगी नहीं! तो क्या करें? प्रश्न में कहीं कोई भूल है, इसलिए उत्तर नहीं मिल पाता है। और जब प्रश्न गलत हो, तो सही उत्तर खोजना बिलकुल असंभव है। कहां गलती है?

मुर्गी और अंडा को दो मानने में गलती है। अंडा मुर्गी की एक अवस्था है, मुर्गी अंडे की दूसरी अवस्था है। दोनों दो चीजें नहीं हैं। अंडा ही फैलकर मुर्गी होता है, मुर्गी फिर सिकुड़कर अंडा होती है।

बीज से वृक्ष होता है, वृक्ष में फिर बीज लग जाते हैं; तो बीज और वृक्ष दो चीजें हैं नहीं। बीज का फैलाव वृक्ष है, वृक्ष का फिर से सिकुडाव बीज है। एक रिदम है। चीजें फैलती हैं और सिकुड़ती हैं। बीज सिकुड़ा हुआ वृक्ष है, वृक्ष फैला हुआ बीज है। और जैसे दिन के बाद रात है और रात के बाद दिन है, ऐसा फैलाव के बाद सिकुडाव है, सिकुडाव के बाद फैलाव है। जन्म के बाद मृत्यु है, मृत्यु के बाद जन्म है। ये दो घटनाएं नहीं हैं; एक वर्तुल है।

तो मुर्गी अंडा दो चीज नहीं है, अंडा छिपी हुई मुर्गी है और मुर्गी प्रकट हो गया अंडा है। और दोनों एक साथ हैं। इसलिए इस प्रश्न को अगर किसी ने सोचना शुरू किया कि कौन पहले, तो वह पागल भला हो जाए सोचते—सोचते, वह इसका उत्तर नहीं पा सकेगा।

और ऐसे बहुत—से प्रश्न हैं। यह प्रश्न भी वैसा ही है कि ये जो लक्षण हैं, इनके साधने से दिव्यता सधती है; या दिव्यता सध जाए, तो ये लक्षण फूल की भांति खिल जाते हैं।

ये दो बातें अलग नहीं हैं। लक्षण सध जाएं, तो दिव्यता सध गई, क्योंकि उन लक्षणों में दिव्यता छिपी है। दिव्यता सध जाए, तो लक्षण आ गए, क्योंकि दिव्यता बिना उन लक्षणों के आ नहीं सकती। लक्षण और दिव्यता दो बातें नहीं हैं। लक्षण दिव्यता के अनिवार्य अंग हैं।

तो आप कहीं से भी यात्रा करें। आप मुर्गी खरीद लाएं, तो घर में अंडे आ जाएंगे। आप अंडा ले आएं, तो मुर्गी बन जाएगी। पर बैठकर सोचते ही मत रहें कि क्या लाएं। कुछ भी ले आएं। दो में से कुछ भी लाएं। कहीं ऐसा न हो कि आप सोचते ही रहें, मुर्गी भी खो जाए, अंडा भी खो जाए। आप लक्षण साध लें, आप पाएंगे, उनके साथ ही साथ दिव्यता खिलने लगी। आप छोडे लक्षणों की चिंता। आप दिव्यता को साधने में लग जाएं।

दोनों संभावनाएं हैं। जो लोग लक्षणों को साधने चलते हैं, उन्हें आचरण से अपने को बदलना शुरू करना पड़ता है। आचरण आपकी बहिर परिधि है। आप क्या करते हैं, उसमें बदलाहट करेंगे, तो लक्षण सध जाएंगे। जो लोग दिव्यता साधना चाहते हैं, उन्हें अंतःकरण बदलने से शुरू करना पड़ता है। अंतःकरण आपका केंद्र है। आप बदल जाएंगे, आपका आचरण बदल जाएगा।

जहां से आपको सुगमता लगती हो, अगर आप बहिर्मुखी व्यक्ति हैं……।

मनसविद दो विभाजन करते हैं व्यक्तियों के बहिर्मुखी, एक्सट्रोवर्ट, और अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट। अगर आप बहिर्मुखी व्यक्ति हैं, कि आपको बाहर की चीजें ज्यादा दिखाई पड़ती हैं, तो आपके लिए उचित होगा कि आप लक्षण साधें। क्योंकि भीतर का आपको कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। अगर आपसे कोई कह भी दे कि आख बंद करो और भीतर देखो, तो आप कहेंगे, भीतर क्या है देखने को? देखने को तो सब बाहर है। अगर भीतर आख भी बंद कर लें, तो भी बाहर की ही याद आएगी। मित्र दिखाई पड़ेंगे, मकान दिखाई पड़ेंगे, घटनाएं दिखाई पड़ेंगी, वह सब बाहर है।

वैज्ञानिक है, वह बहिर्मुखी है। क्षत्रिय है, वह बहिर्मुखी है। कवि है, चित्रकार है, वह अंतर्मुखी है। उसे सब भीतर है।

प्रसिद्ध डच चित्रकार हुआ, वानगाग। उसके चित्र बिक नहीं सके, क्योंकि उसके चित्र बिलकुल समझ के बाहर थे। वह वृक्ष बनाएगा, तो इतने बड़े, कि आकाश तक चले जाएं। चांद वगैरह बनाएगा, तो छोटे—छोटे लटका देगा, और वृक्ष चांद के ऊपर चले जा रहे हैं! वृक्षों को ऐसे रंग देगा, जैसे वृक्षों में होते ही नहीं रंग। वृक्ष हरे हैं, उसके वृक्ष लाल भी हो सकते हैं।

तो लोग कहते, यह तुम क्या करते हो! वह कहता, जब मैं आख बंद करता हूं तो जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं.। क्योंकि जब भी मैं देखता हूं तो मुझे वृक्ष पृथ्वी की आका्ंक्षाएं मालूम पड़ते हैं, आकाश को छूने की आका्ंक्षाए। जब भी मैं आख बंद करता हूं तो मैं देखता हूं पृथ्वी कोशिश कर रही है वृक्षों के द्वारा आकाश को छूने की, इसलिए मेरे वृक्ष आकाश तक चले जाते हैं। जो काम पृथ्वी नहीं कर पाती, वह मैं करता हूं। पर वृक्षों को मैं ऐसे ही देखता हूं। यह एक अंतर्मुखी व्यक्ति की, जिसका जगत भीतर है……। यह अंतर्मुखी व्यक्ति अगर कोई हो, तो उसे दिव्यता से शुरू करना

पडेगा। बहिर्मुखी व्यक्ति कोई हो तो उसे आचरण से शुरू करना पड़ेगा।

तो आप लक्षण से शुरू करें या दिव्यता से; शुरू करें! दूसरी घटना अपने आप घट जाएगी। आचरण को बदलते—बदलते आप भीतर आने लगेंगे। क्योंकि आचरण की जड़ें तो भीतर हैं, सिर्फ शाखाएं बाहर हैं। अगर आप आचरण को बदलने लगे, तो आज शाखाएं बदलेंगे, कल आप जड़ों को पकड़ लेंगे, जड़ें भीतर हैं। अगर आप अंतःकरण को बदलते हैं, तो अंतःकरण में जड़ें तो भीतर हैं, लेकिन शाखाएं बाहर हैं। आप जड़ों से शुरू करेंगे, यात्रा करते—करते आज नहीं कल बाहर पहुंच जाएंगे।

बाहर और भीतर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न तो बाहर अलग है भीतर से, न भीतर अलग है बाहर से। बाहर और भीतर एक का ही विस्तार है। कहीं से भी शुरू करें, दूसरा छोर प्रकट हो जाएगा। लेकिन शुरू करें। जो शुरू नहीं करता…… बहुत लोग हैं, जो सोचते ही रहते हैं।

आज ही एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा, मैं सोचता हूं सोचता हूं और सोचने में इतना खो जाता हूं कि निर्णय तो कुछ कर ही नहीं पाता। और जो भी निर्णय करता हूं उससे विपरीत भी मेरी समझ में आता है कि ठीक है। और जब तक तय न हो जाए, तब तक निर्णय कैसे करूं! और तय कुछ होता नहीं। और जितना सोचता हूं उतना ही तय होना मुश्किल होता जाता है।

अगर आप ज्यादा सोचेंगे, तो कठिनाई खड़ी होगी। अगर आप सोचते ही रहेंगे, तो धीरे— धीरे सारी ऊर्जा सोचने में ही व्यतीत हो जाएगी। उसका कोई कृत्य नहीं बन पाएगा। और ध्यान रहे, जीवन की संपदा कृत्य से उपलब्ध होती है, सिर्फ विचार से नहीं!

विचार सपनों की भांति हैं। जैसे समुद्र पर झाग और फेन उठती है, ऐसे चेतना की झाग और फेन की भांति विचार है। उनका कोई मूल्य नहीं है। समुद्र की लहर पर लगता है, जैसे शिखर आ रहा है फेन का; लगता है, हाथ में ले लेंगे। लेकिन हाथ में पकड़ते हैं, तो पानी के बबूले फूट जाते हैं, कुछ हाथ आता नहीं। ऐसा ही फेन और झाग है विचार आपकी चेतना का। वह लहर पर दूर से बड़ा कीमती दिखाई पड़ता है। सूरज की किरणों में बड़ी चमक मालूम होती है। घर में तिजोरी में सम्हालकर रखने जैसा लगता है। लेकिन हाथ में लेते ही पता चलता है, वहा कुछ भी नहीं है, पानी के बबूले हैं।

इस झाग से थोड़ा नीचे उतरना जरूरी है। उस लहर को पकड़ना जरूरी है जिस पर यह झाग है। और लहर के नीचे छिपे सागर को पकड़ना जरूरी है, जिसकी यह लहर है। और तभी जीवन में कोई रूपांतरण, कोई क्रांति संभव है।

अब हम सूत्र को लें।

और हे पार्थ, पाखंड, घमंड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

और हे अर्जुन, इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गए हैं, एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन।

पाखंड, हिपोक्रेसी…….।

पाखंड का अर्थ है, जो आप नहीं हैं, वैसा स्वयं को दिखाना। जो आपका वास्तविक चेहरा नहीं है, उस चेहरे को प्रकट करना। हम सबके पास मुखौटे हैं। जरूरत पर हम उन्हें बदल लेते हैं। सुबह से सांझ तक बहुत बार हमें नए—नए चेहरों का उपयोग करना पड़ता है। जैसी जरूरत हो, वैसा हम चेहरा लगा लेते हैं। धीरे— धीरे यह भी हो सकता है कि इस पाखंड में चलते—चलते आपको भूल ही जाए कि आप कौन हैं।

यही हो गया है। अगर आप अपने से पूछें कि मैं कौन हूं तो कोई उत्तर नहीं आता। क्योंकि आपने इतने चेहरे प्रकट किए हैं, आपने इतने रूप धरे हैं, आपने इतनी भांति अपने को प्रचारित किया है, कि अब आप खुद भी दिग्भ्रम में पड़ गए हैं कि मैं हूं कौन! क्या है सच मेरा! मेरी कोई सचाई है, या बस मेरा सब धोखा ही धोखा है! सुबह से सांझ तक, हम जो नहीं हैं, वह हम अपने को प्रचारित कर रहे हैं।

कृष्ण ने दैवी संपदा में गिनाया, सत्य, प्रामाणिकता, आथेंटिसिटी, व्यक्ति जैसा है, बस वही उसका होने का ढंग है, चाहे कोई भी परिणाम हो। आसुरी संपदा में उसके अनेक चेहरे हैं।

हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद आपको अर्थ पकड़ में नहीं आया होगा। कि रावण दशानन है, उसके दस चेहरे हैं। राम का एक ही चेहरा है। राम आथेंटिक हैं, प्रामाणिक हैं। उन्हें आप पहचान सकते हैं, क्योंकि कोई धोखा नहीं है। रावण को पहचानना मुश्किल है। उसके बहुत चेहरे हैं। दस का मतलब, बहुत। क्योंकि दस आखिरी संख्या है। दस से बडी फिर कोई संख्या नहीं है। फिर

सब संख्याएं दस के ऊपर जोड़ हैं।

दस चेहरे का मतलब है, बस आखिरी। उसका असली चेहरा कौन है, यह पहचानना मुश्किल है। रावण असुर है। और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती है, तब तक हमारे भी बहुत चेहरे होते हैं। हम भी दशानन होते हैं। इससे हम दूसरे को धोखा देते हैं, वह तो ठीक है, इससे हम खुद भी धोखा खाते हैं। क्योंकि हमें खुद ही भूल जाता है कि हमारा स्वरूप क्या है।

पाखंड का अर्थ है, दूसरे को धोखा देना और अंततः उस धोखे से खुद को भी धोखे में डाल लेना।

झूठ का स्वभाव है, एक झूठ को बचाना हो, तो फिर हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। फिर इतनी अनंत श्रृंखला है झूठों की कि हमें याद भी नहीं रहता कि पहला झूठ क्या था, जो हमने बोला था।

झूठ का एक दूसरा स्वभाव है, अगर बार—बार उसे पुनरुक्त किया जाए, तो निरंतर पुनरुक्ति के कारण हम आटो—हिप्‍नोटाइज्‍ड हो जाते हैं, हम सम्मोहित हो जाते हैं। और हमें खुद ही लगने लगता है कि यह ठीक है। आप एक झूठ बार—बार दोहराते रहें, फिर आपको खुद ही शक होने लगेगा कि यह सच है या झूठ है! क्योंकि आपने इतनी बार दोहराया है कि उसकी छाप आपके ऊपर पड़ गई। मैं पढ़ रहा था, एक आदमी ने हत्या की थी, और उस पर मुकदमा चल रहा था। वर्षों तक कार्यवाही चली। बड़ा जटिल उलझा हुआ मामला था। वकीलों के बयान हुए, गवाहों के बयान हुए, अदालत चलती रही। अंत में मजिस्ट्रेट भी थक गया, क्योंकि सब स्थिति बिलकुल कनफ्यूज्‍ड थी। कुछ साफ नहीं होता था। कोई दो वक्तव्यों में मेल नहीं होता था। कोई दो गवाहों का बयान मिलता नहीं था। कुछ निर्णय होना मुश्किल था। आखिर जज ने थककर उस हत्यारे को पूछा कि तू कृपा कर और तू स्वयं कह दे कि बात क्या है?

तो उसने कहा कि जब शुरू—शुरू में मैं आया था, तब मुझे भी साफ था। अब मुश्किल है। मैं भी कनफ्यूज्‍ड हो गया हूं। अब मैं साफ—साफ कह नहीं सकता कि मैंने की हत्या या नहीं की। क्योंकि जब मैं अपने वकील की दलीलें सुनता हूं तो मुझ को भी भरोसा आता है कि मैंने की नहीं। यह कुछ गलती हो गई। या मैंने कोई सपना देखा। इसलिए अब मेरी बात का कोई मूल्य नहीं है। अब तो आप ही तय कर लें।

यह स्थिति है। आप भी अगर एक झूठ कई वर्ष तक बोलते रहें, तो आपको पीछे पक्का होना मुश्किल हो जाता है कि आप झूठ बोले थे कि यह सच है। झूठ का यह दूसरा स्वभाव है कि उसको आप पुनरुक्त करें, तो वह सच जैसा मालूम होने लगता है। और हर झूठ को और झूठों की जरूरत है।

मैंने काशी में एक दुकान पर एक तख्ती लगी हुई देखी। घी की दुकान थी। उस पर तख्ती लगी है, असली घी की दुकान। नीचे लिखा है, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब का शुद्ध देशी घी यहां मिलता है। नकली सिद्ध करने वाले को पांच सौ रुपया नकद इनाम। और उसके नीचे लिखा है लाल अक्षरों कि इस तरह के इनाम यहां कई बार बांटे जा चुके हैं।

ऐसी हमारे चित्त की दशा हो जाती है।

पाखंड का अर्थ है, आप कुछ हैं, कुछ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जो आप हैं, वह आपकी सब कोशिश के भीतर से भी झांकता रहेगा। आप उसे बिलकुल छिपा भी नहीं सकते। उसे बिलकुल मिटाया नहीं जा सकता, वह आपके भीतर छिपा है। इसलिए भला आपको न दिखाई पड़े, दूसरों को दिखाई पड़ता है। अक्सर यह होता है कि आपके संबंध में दूसरे लोग जो कहते हैं, वह ज्यादा सही होता है, बजाय उसके, जो आप अपने संबंध में कहते हैं। नब्बे प्रतिशत मौका इस बात का है कि दूसरे जो आप में देख पाते हैं, वह आप नहीं देख पाते। क्योंकि आप अपने धोखे में इस भांति लीन हो गए हैं। लेकिन दूसरा आपको देखता है, तो आपकी जो झीनी पर्त है धोखे की, उसके पीछे से आपका असली हिस्सा भी दिखाई पड़ता है।

पाखंडी व्यक्ति की कई परतें हो जाएंगी। जितना पाखंडी होगा, उतनी परतें हो जाएंगी। और इन सारी परतों का कष्ट है। और हर पर्त को बचाने के लिए नई परतें खडी करनी पड़ेगी।

सत्य की एक सुविधा है, उसे याद रखने की जरूरत नहीं, उसको स्मरण रखने की जरूरत नहीं। झूठ को याद रखना पड़ता है। झूठ के लिए काफी कुशलता चाहिए। सत्य तो सीधा आदमी भी चला लेता है, क्योंकि याद रखने की कोई जरूरत नहीं। सत्य सत्य है। उससे दस साल बाद पूछेंगे, वह कह देगा। लेकिन झूठ आदमी को दस साल तक याद रखना पड़ेगा कि उसने एक झूठ बोला, फिर उसको सम्हालने के लिए कितने झूठ बोले।

तो झूठ के लिए बड़ी स्मृति चाहिए। इसलिए छोटी—मोटी बुद्धि के आदमी से झूठ नहीं चलता। झूठ चलाने के लिए काफी फैलाव चाहिए। इसलिए जितना आदमी शिक्षित हो, तार्किक हो, गणित का जानकार हो, उतना ज्यादा झूठ बोलने में कुशल हो सकता है।

दुनिया में जितनी शिक्षा बढ़ती है, उतना झूठ बढ़ता है इसीलिए, क्योंकि लोगों की स्मृति की कुशलता बढ़ती है। वे याद रख सकते हैं, वे मैनिपुलेट कर सकते हैं, वे नए झूठ गढ़ सकते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे से कह रहा है, तेरे झूठ को अब हम बरदाश्त ज्यादा नहीं कर सकते। तू गजब के झूठ बोल रहा है! उस लड़के ने कहा, मैं और झूठ! नसरुद्दीन ने सिर्फ उसको दिखाने के लिए, मित्र एक साथ खड़ा था, तो उसको कहा कि अच्छा तू एक झूठ अभी बोलकर बता, यह एक रुपया तुझे इनाम दूंगा। उसके लड़के ने कहा, पांच रुपए कहा था!

वह कह रहा है, एक रुपया तुझे दूंगा, तू झूठ बोलकर बता। वह लड़का कह रहा है, पांच रुपया कहा है आपने! झूठ बोलने की आगे कोई जरूरत नहीं है।

यह जो हमारी चित्त की स्थिति है, इस स्थिति में अगर आप परमात्मा को खोजने निकले, तो खोज असंभव है। अगर परमात्मा भी आपको खोजने निकले, तो भी खोज असंभव है। क्योंकि आपको खोजेगा कहां? आप जहां—जहां दिखाई पड़ते हैं, वहां—वहां नहीं हैं। जहां आप हैं, उस जगह का आपको भी पता नहीं है। और किसी को आपने पता बताया नहीं।

यहूदियों में एक सिद्धात है कि आदमी तो परमात्मा को खोजेगा कैसे? कमजोर, अज्ञानी! यहूदी मानते हैं, परमात्मा ही आदमी को खोजता है। यहूदी फकीर बालशेम से किसी ने पूछा कि यह सिद्धात बड़ा अजीब है। अगर परमात्मा आदमी को खोजता है, तो अभी तक हमें खोज क्यों नहीं पाया? हम खोजते हैं, नहीं खोज पाते, यह तो समझ में आता है। परमात्मा खोजता है, तो हम अभी तक क्यों भटक रहे हैं?

बालशेम ने कहा कि तुम्हें खोजे कहा? तुम जहां भी बताते हो कि तुम हो। वहां पाए नहीं जाते। वहा जब तक वह पहुंचता है, तुम कहीं और! वह तुम्हारा पीछा कर रहा है। लेकिन तुम पारे की तरह हो, तुम छिटक—छिटक जाते हो। तुम्हारा कोई पता—ठिकाना नहीं है, कोई आइडेंटिटी नहीं है। तुम्हारी कोई पहचान नहीं है। तुम्हें कैसे पहचाना जाए?

मैंने सुना है, एक बैंक में बड़े कैशियर की जगह खाली थी। बहुत—से लोगों ने इंटरव्यू दिए। बड़ी पोस्ट थी, बड़ी तनख्वाह थी पोस्ट की। और बड़े दायित्व का काम था, बहुत बड़ी बैंक थी। फिर जब डायरेक्टर्स की बैठक हुई और उन्होंने मैनेजिंग डायरेक्टर को पूछा कि किस आदमी को चुना है? तो जिस आदमी को खड़ा किया, सारे डायरेक्टर परेशान हुए। उसकी दोनों आंखें दो तरफ जा रही थीं, दात बाहर निकले हुए थे, नाक तिरछी थी, चेहरा भयानक था, लंगड़ाकर वह आदमी चलता था।

उन्होंने पूछा, तुम्हें कोई और आदमी नहीं मिला? उसने कहा कि यही बिलकुल ठीक है। क्योंकि कभी भी यह भागे, तो इसको पकड़ने में दिक्कत नहीं होगी। चीफ कैशियर! यह बिलकुल ठीक है। इसकी आइडेंटिटी कहीं भी, दुनिया के किसी कोने में भी जाए, इसे हम पकड़ लेंगे।

आपकी कोई आइडेंटिटी नहीं है। परमात्मा भी पकड़ना चाहे, तो आपको कहां पकड़े!

पाखंड का जो सबसे बड़ा उपद्रव है, वह यह है कि आपकी पहचान खो जाती है, प्रत्यभिज्ञा मुश्किल हो जाती है। और आसुरी व्यक्ति का वह पहला लक्षण है।

घमंड और अभिमान……।

यह थोड़ा सोचकर मुश्किल होगी, क्योंकि हम तो घमंड और अभिमान का एक—सा ही उपयोग करते हैं। घमंड और अभिमान का एक ही अर्थ लिखा है शब्दकोशों में। पर कृष्ण उनका दो उपयोग करते हैं।

घमंड उस अभिमान का नाम है, जो वास्तविक नहीं है। और अभिमान उस घमंड का नाम है, जो वास्तविक है। लेकिन दोनों पाप हैं और दोनों आसुरी हैं। मतलब यह कि एक आदमी, जो सुंदर नहीं है और अपने को सुंदर समझता है और अकड़ा रहता है। सुंदर है नहीं, सुंदर समझता है, अकड़ा रहता है। यह घमंड है। दूसरा आदमी सुंदर है, सुंदर समझता है और अकड़ा रहता है। वह अभिमान है। पर दोनों ही आसुरी हैं।

पहला तो हमें समझ में आ जाता है, क्योंकि वह गलत है ही; लेकिन दूसरा हमें समझ में नहीं आता, वह सही होकर भी गलत है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप सुंदर हैं या नहीं! असली फर्क इससे पड़ता है कि आप अपने को सुंदर समझते हैं। जो आदमी बुद्धिमान है, वह अगर अकड़े कि मैं बुद्धिमान हूं तो उतना ही पाप हो रहा है, जितना बुद्ध अकड़े और सोचे कि मैं बुद्धिमान हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि असली बात अकड़ की है।

और एक और खतरा है कि वह जो गलत ढंग से, जो है नहीं बुद्धिमान, अपने को बुद्धिमान समझ रहा है, वह तो शायद किसी दिन चेत भी जाए; लेकिन वह जो बुद्धिमान है और अपने को बुद्धिमान समझ रहा है, उसका चेतना बहुत मुश्किल है। क्योंकि आप उसको गलत भी सिद्ध नहीं कर सकते। उसका खतरा भारी है। और खतरा तो यही है कि मैं अपने को कुछ समझूं और उसमें अकड़ जाऊं।

आसुरी वृत्ति का व्यक्ति सदा अपने को कुछ समझता है, समबडी। वह हो या न हो। रावण का घमंड घमंड नहीं है, अभिमान है। क्योंकि वह आदमी कीमती है, इसमें कोई शक नहीं है। उस जैसा पंडित खोजना मुश्किल है। उसकी अकड़ झूठ नहीं है। उसकी अकड़ में सचाई है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! अकड़ में सचाई है, तो अकड़ और मजबूत हो गई। और अकड़ के कारण ही आदमी परमात्मा से मिलने में असमर्थ हो जाता है।

रावण का संघर्ष हो गया राम से। ये तो प्रतीक हैं, क्योंकि अकड़ का संघर्ष हो ही जाएगा परमात्मा से। जहां भी अकड़ है, वहा आप राम से संघर्ष में पड़ जाएंगे।

जहां अकड़ गई, वहां आप तरल हो जाते हैं। फिर आपकी लहर पिघल जाती है, उस पिघलेपन में आपका सागर से मिलन हो जाता है।

तो यह आप मत सोचना कभी कि मेरी अकड़ सही है या गलत है। अकड़ गलत है। उस अकड़ के दो नाम हैं। अगर वह गलत हो तो घमंड, अगर सही हो तो अभिमान। पर कृष्ण कहते हैं, दोनों ही आसुरी संपदा के लक्षण हैं।

क्रोध और कठोर वाणी……।

संयुक्त हैं, क्योंकि कठोर वाणी क्रोध का ही रूप है। भीतर क्रोध हो, तो आपकी वाणी में एक कठोरता, एक सूखापन प्रवेश हो जाता है। भीतर प्रेम हो, तो आपकी वाणी में एक माधुर्य, एक मिठास फैल जाती है।

वाणी आपसे निकलती है और आपके भीतर की खबरें ले आती है। वाणी आपके भीतर से आती है, तो आपके भीतर की हवाएं और गंध वाणी के साथ बाहर आ जाती हैं।

कठोर वाणी का केवल इतना ही अर्थ है कि भीतर पथरीला हृदय है, भीतर आप कठोर हैं। मधुर वाणी का इतना ही अर्थ है कि जहां से हवाएं आ रही हैं, वहां शीतलता है, वहां माधुर्य है।

क्रोध लक्षण होगा आसुरी व्यक्ति का, वह हमेशा क्रुद्ध है, हर चीज पर क्रुद्ध है। नाराज होना उसका स्वभाव है। उठेगा, बैठेगा, तो वह क्रोध से उठ—बैठ रहा है। जहां भी देखेगा, वह क्रोध से देख रहा है। वह सिर्फ भूल की तलाश में है कि कहीं भूल मिल जाए, कोई बहाना मिल जाए, कोई खूंटी मिल जाए, तो अपने क्रोध को टांग दे। अगर उसे कोई बहाना न मिले, तो वह बहाना निर्मित कर लेगा। अगर उसे कोई भी क्रोध करने को न मिले, तो वह अपने पर भी क्रोध करेगा। लेकिन क्रोध करेगा और उसकी वाणी में उसके क्रोध की लपटें बहती रहेंगी। वह जो भी बोलेगा, वह तीर की तरह हो जाएगा, किसी को चुभेगा और चोट पहुंचाएगा।

क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।

अज्ञान का अर्थ ठीक से समझ लेना। अज्ञान का अर्थ यह नहीं है कि वह कम पढ़ा—लिखा होगा। वह खूब पढ़ा—लिखा हो सकता है। अज्ञान का यह मतलब नहीं है कि वह पंडित नहीं होगा। वह पंडित हो सकता है। रावण पंडित है, महापंडित है। जानकारी उसकी बहुत हो सकती है। लेकिन बस, वह जानकारी होगी, ज्ञान न होगा। ज्ञान का अर्थ है, जो स्वयं अनुभूत हुआ हो। जानकारी का अर्थ है, जो दूसरों ने अनुभव की हो और आपने केवल संगृहीत कर ली हो।

ज्ञान अगर उधार हो, तो पांडित्य बन जाता है। ज्ञान अगर अपना, निजी हो, तो प्रज्ञा बनती है।

अज्ञान का यहां अर्थ है कि वह चाहे जानता हो ज्यादा या न जानता हो, लेकिन स्वयं को नहीं जानेगा। सब जानता हो, सारे जगत के शास्त्रों का उसे पता हो, लेकिन स्वयं की उसे कोई पहचान न होगी, आत्म—ज्ञान न होगा।

और जो भी वह जानता है, वह सब उधार होगा। उसने कहीं से सीखा है, वह उसकी स्मृति में पड़ा है। लेकिन उसके माध्यम से उसका जीवन नहीं बदला है। वह उस ज्ञान में जला और निखरा नहीं है। उस ज्ञान ने उसको तोड़ा और नया नहीं किया। वह ज्ञान उसकी मृत्यु भी नहीं बना और उसका जन्म भी नहीं बना। वह ज्ञान धूल की तरह उस पर इकट्ठा हो गया है। उस ज्ञान की पर्त होगी उसके पास, लेकिन वह ज्ञान उसके हृदय तक नहीं पहुंचा है। वह ज्ञान को ढोएगा, लेकिन ज्ञान उसका पंख नहीं बनेगा कि उसको मुक्त कर दे। उसका ज्ञान वजन होगा, उसका ज्ञान निर्भार नहीं है।

अज्ञान का यहां अर्थ है, अपने को न जानना, अपने स्वभाव से अपरिचित होना।

उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए है और आसुरी संपदा बंधन के लिए मानी गई है।

आसुरी संपदा बांधेगी, आपको बंद करेगी। जैसे कोई कारागृह में पड़ा हो। और यह कारागृह ऐसा नहीं कि किसी दूसरे ने आपके लिए निर्मित किया है। कारागृह ऐसा, जो आपने ही अपने लिए बनाया है।

दैवी संपदा मुक्त करेगी; दीवारें गिरेंगी, खुला आकाश प्रकट होगा। पंख आपके पास हैं, लेकिन पंखों पर अगर आपने बंधन बांध रखे हैं, तो उड़ना असंभव है। और अगर बहुत समय से आप उड़े नहीं हैं, तो आपको खयाल भी मिट जाएगा कि आपके पास पंख हैं।

चील बड़े ऊंचे वृक्षों पर अपने अंडे देती है। फिर अंडों से बच्चे आते हैं। वृक्ष बड़े ऊंचे होते हैं। बच्चे अपने नीड़ के किनारे पर बैठकर नीचे की तरफ देखते हैं, और डरते हैं, और कंपते हैं। पंख उनके पास हैं। उन्हें कुछ पता नहीं कि वे उड़ सकते हैं। और इतनी नीचाई है कि अगर गिरे, तो प्राणों का अंत हुआ। उनकी मां, उनके पिता को वे आकाश में उड़ते भी देखते हैं, लेकिन फिर भी भरोसा नहीं आता कि हम उड़ सकते हैं।

तो चील को एक काम करना पड़ता है.। इन बच्चों को आकाश में उड़ाने के लिए कैसे राजी किया जाए! कितना ही समझाओ—बुझाओ, पकड़कर बाहर लाओ, वे भीतर घोंसले में जाते हैं। कितना ही उनके सामने उड़ो, उनको दिखाओ कि उडने का आनंद है, लेकिन उनका साहस नहीं पड़ता। वे ज्यादा से ज्यादा घोंसले के किनारे पर आ जाते हैं और पकड़कर बैठ जाते हैं।

तो आप जानकर हैरान होंगे कि चील को अपना घोंसला तोड़ना पड़ता है। एक—एक दाना जो उसने घोंसले में लगाया था, एक—एक कूड़ा—कर्कट जो बीन—बीनकर लाई थी, उसको एक—एक को गिराना पड़ता है। बच्चे सरकते जाते हैं भीतर, जैसे घोंसला टूटता है। फिर आखिरी टुकड़ा रह जाता है घोंसले का। चील उसको भी छीन लेती है। बच्चे एकदम से खुले आकाश में हो जाते हैं। एक क्षण भी नहीं लगता, उनके पंख फैल जाते हैं और आकाश में वे चक्कर मारने लगते हैं। दिन, दो दिन में वे निष्णात हो जाते हैं। दिन, दो दिन में वे जान जाते हैं कि खुला आकाश हमारा है, पंख हमारे पास हैं।

हमारी हालत करीब—करीब ऐसी ही है। कोई चाहिए, जो आपके घोंसले को गिराए। कोई चाहिए, जो आपको धक्का दे दे। गुरु का वही अर्थ है।’

कृष्ण वही कोशिश अर्जुन के लिए कर रहे हैं। सारी गीता अर्जुन का घर, घोंसला तोड्ने के लिए है। सारी गीता अर्जुन को स्मरण दिलाने के लिए है कि तेरे पास पंख हैं, तू उड़ सकता है। यह सारी कोशिश यह है कि किसी तरह अर्जुन को धक्का लग जाए और वह खुले आकाश में पंख फैला दे।

इन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

अर्जुन को भरोसा दिला रहे हैं कि तू घबडा मत, तू दुख मत कर, तू चिंता मत कर। तू दैवी संपदा को उपलब्ध हुआ है। बस, पंख खोलने की बात है, खुला आकाश तेरा है।

क्यों अर्जुन को वे कह रहे हैं कि तू दैवी संपदा को उपलब्ध हुआ है?

अर्जुन की जिज्ञासा दैवी है। यह भाव भी अर्जुन के मन में आना कि क्यों मारूं लोगों को, क्यों हत्या करूं, क्यों इस बड़े हिंसा के उत्पात में उतरूं! यह खयाल मन में आना कि इससे राज्य मिलेगा, साम्राज्य मिलेगा, बडी पृथ्वी मेरी हो जाएगी, पर उसका सार क्या है! लोभ के प्रति यह विरक्ति, साम्राज्य के प्रति यह उपेक्षा, हिंसा और हत्या के प्रति मन में ग्लानि!

अर्जुन कहता है, मैं यह सब छोड्कर जंगल चला जाऊं, संन्यस्त हो जाऊं, वही बेहतर है। अर्जुन कहता है, ये सब मेरे अपने जन हैं इस तरफ, उस तरफ। इन सबको मारकर, मिटाकर अगर मैंने राज्य भी पा लिया, तो वह खुशी इतनी अकेले की होगी कि खुशी न रह जाएगी, क्योंकि खुशी तो बांटने के लिए होती है। जिनके लिए मैं राज्य पाने की कोशिश कर रहा हूं जो मुझे राज्य पाया हुआ देखकर आनंदित और प्रफुल्लित होंगे, उनकी लाशें पड़ी होंगी। तो जिस सुख को मैं बांट न पाऊंगा, जो सुख मेरे अपने जो प्रियजन हैं उनके साथ साझेदारी में नहीं भोगा जा सकेगा, उसके भोगने का अर्थ ही क्या है?

यह भाव दैवी है। लेकिन इन दैवी भावों के पीछे जो कारण वह दे रहा है, वे अज्ञान से भरे हैं। स्वाभाविक है, क्योंकि पहली बार जब दैवी आकांक्षा जगती है, तो उसकी जड़ें तो हमारे अज्ञान में ही होती हैं। हम अज्ञानी हैं। इसलिए हममें अगर दैवी आका्ंक्षा भी जगती है, तो उस दैवी आकांक्षा में हमारे अज्ञान का हाथ होता है। उस दैवी आका्ंक्षा में हमारे अज्ञान की छाया होती है।

लेकिन कृष्ण पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह भरोसे से भर जाए; वह अज्ञान को भी छोड़ दे। वह जिन कारणों को बता रहा है, उनको भी गिरा दे। क्योंकि वे कारण अगर सही हैं, तो अर्जुन कठिनाई में पड़ जाएगा। क्योंकि वह यह कह रहा है कि मेरे प्रियजन हैं, इसलिए इनको मारने से मैं डरता हूं। यह आधी बात तो दैवी है और आधी अज्ञान और आसुरी से भरी है।

दैवी तो इतनी बात है कि हिंसा के प्रति उनके मन में उपेक्षा पैदा हुई है, हिंसा में रस नहीं रहा। लेकिन कारण है, क्योंकि ये मेरे हैं। अगर ये पराए होते, तो अर्जुन उनको, जैसे किसान खेत काट रहा हो, ऐसे काट देता। वह कोई नया नहीं था काटने में। जीवन में कई बार उसने हत्याएं की थीं और लोगों को काटा था। काटना उसे सहज काम था। कभी उसने सोचा भी नहीं था कि आत्मा का क्या होगा, स्वर्ग, मोक्ष—कुछ सवाल न उठे थे। लेकिन वे अपने नहीं थे, ये सब अपने लोग हैं। उस तरफ गुरु खड़े हैं, भीष्म खड़े हैं, सब चचेरे भाई—बंधु हैं। ये मेरे हैं!

यह ममत्व अज्ञान है। न काटू? यह तो बड़ी दैवी भावना है। हिंसा न करूं, यह तो बड़ा शुभ भाव है। लेकिन मेरे हैं, इसलिए न करूं, यह अशुभ से जुड़ा हुआ भाव है। वह अशुभ मिट जाए, फिर भी अर्जुन दिव्यता की तरफ बढ़े, यह कृष्ण की पूरी चेष्टा है।

वह भाव मेरे का पाप है। तो कौन मेरा है, कौन मेरा नहीं है? या तो सब मेरे हैं, या कोई भी मेरा नहीं है! फिर अर्जुन कहता है, इनको मारूं, यह उचित नहीं है, यह बात तो दैवी है। लेकिन मैं इनको मार सकता हूं यह बात अज्ञान से भरी है। यह थोड़ा जटिल है।

मैं किसी को न मारूं, यह भाव तो अच्छा है, लेकिन मैं किसी को मार सकता हूं, आत्मा की हत्या हो सकती है, यह भाव अज्ञान से भरा है। मैं चाहूं तो भी मार नहीं सकता, ज्यादा से ज्यादा आपकी देह को नुकसान पहुंचा सकता हूं। और देह को क्या नुकसान पहुंचाया जा सकता है! देह तो मुरदा है। उसको मारने का कोई उपाय नहीं। वह तो मिट्टी है। उसको काटने से कुछ कटता नहीं। देह के भीतर जो छिपा है, उस चिन्मय को तो काटा नहीं जा सकता। वह तो कोई मिट्टी नहीं है। उस अमृत को तो मारने का कोई उपाय नहीं है।

अर्जुन कहता है कि हिंसा बुरी है। लेकिन क्या हिंसा हो सकती है? यह भाव अज्ञान से भरा है। हिंसा तो हो ही नहीं सकती, हिंसा का कोई उपाय नहीं है। हिंसा का भाव किया जा सकता है, हिंसा नहीं की जा सकती। हिंसा का भाव पापपूर्ण है। हिंसा की जा सकती है, यह भाव अज्ञान से भरा है।

अर्जुन में दिव्यता का जागरण हुआ है, लेकिन वह दिव्यता अभी आसुरी बिस्तर पर ही लेटी है। आख खुली है, करवट बदली है, लेकिन बिस्तर अभी उसने छोडा नहीं है। वह बिस्तर भी छूट जाए,

यह घोंसला भी हट जाए और अर्जुन खुले आकाश में मुक्‍त होकर उड़ सके…….।

हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है। और हे अर्जुन इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गए हैं, एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया है, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन।

दो स्वभाव, एक ही चेतना के। एक आदमी बंधन में पड़ा है, हाथ में जंजीरें हैं, पैर में बेड़ियां हैं। फिर हम इसके बंधन काट देते हैं; हाथ की बेड़ियां छूट जाती हैं, पैर की जंजीरें गिर जाती हैं, अब यह मुक्त खड़ा है। क्या यह आदमी दूसरा है या वही? क्षणभर पहले बेडिया थीं, जंजीरें थीं; अब जंजीरें नहीं, बेड़ियां नहीं। क्षणभर पहले एक कदम भी उठाना इसे संभव न था। अब यह हजार कदम उठाने के लिए मुक्त है। क्या यह आदमी वही है या दूसरा है?

एक अर्थ में यह आदमी वही है, कुछ भी बदला नहीं। क्योंकि बेडियां इस आदमी का स्वभाव न थीं, इसके ऊपर से पड़ी थीं। हाथ से बेड़ियां हट जाने से इसका हाथ तो नहीं बदला। इसकी पैर से जंजीरें टूट जाने से इसका व्यक्तित्व नहीं बदला। यह आदमी तो वही है।

एक अर्थ में आदमी वही है, दूसरे अर्थ में आदमी वही नहीं है। क्योंकि जंजीरों के गिर जाने से अब यह मुक्त है। यह चल सकता है, यह दौड़ सकता है, यह अपनी मरजी का मालिक है। अब इसकी दिशा कोई तय न करेगा। अब इसे कोई रोकने वाला नहीं है। अब एक स्वतंत्रता का जन्म हुआ है।

ये दोनों स्थितियां एक ही आदमी की हैं। ठीक वैसे ही स्वभाव की दो स्थितियां हैं। आसुरी, कृष्ण उसे कह रहे हैं, जो बांधती है; दैवी उसे कह रहे हैं, जो मुक्त करती है। ये दोनों ही एक ही चेतना की अवस्थाएं हैं। और हम पर निर्भर है कि हम किस अवस्था में रहेंगे।

यह बात सदा ही समझने में कठिन रही है कि हम अपने ही हाथ से बंधन में पड़े हैं। यह कठिन इसलिए रही है कि हम में से कोई भी चाहता नहीं कि बंधन में रहे। हम सब स्वतंत्र होना चाहते हैं। तो यह बात समझना मन को मुश्किल जाती है कि हमने बंधन अपने निर्मित खुद ही किए हैं। लेकिन थोड़ा समझना जरूरी है।

हम चाहते तो स्वतंत्र होना हैं, लेकिन हमने कभी गहराई से खोजा नहीं कि स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है। एक तरफ हम चाहते हैं, स्वतंत्र हों; और एक तरफ भीतर से हम चाहते हैं कि परतंत्र बनें। क्योंकि परतंत्रता के कुछ सुख हैं; उन सुखों को हम छोड़ नहीं पाते हैं। परतंत्रता की कोई सुरक्षा है।

कारागृह में जितना आदमी सुरक्षित है, कहीं भी सुरक्षित नहीं है। बाहर दंगा भी हो रहा है, बलवा भी हो रहा है, हिंदू—मुसलमान लड़ रहे हैं, गोली चल रही है, पुलिस है, सरकार है—सब उपद्रव बाहर चल रहा है। कारागृह में कोई उपद्रव नहीं है। वहां जो आदमी हथकड़ी में बैठा है, वहा न कोई दुर्घटना होती है, न मोटर एक्सिडेंट होता है, न हवाई जहाज गिरता है, न ट्रेन उलटती है, कुछ नहीं होता। वहां वह बिलकुल सुरक्षित है। कारागृह की एक सुरक्षा है, जो बाहर संभव नहीं है।

सुरक्षा हम सब चाहते हैं। सुरक्षा के कारण हम कारागृह बनाते हैं। स्वतंत्रता का खतरा है, क्योंकि खुला जगत जोखम से भरा है। स्वतंत्रता हम चाहते हैं, लेकिन खतरा उठाने की हमारी हिम्मत नहीं है।

एक बहुत बड़े पश्चिम के विचारक इरिक फोम ने एक किताब लिखी है, फिअर आफ फ्रीडम। बड़ी कीमती किताब है।

एक भय है स्वतंत्रता का। हम सबके भीतर है; हम सब डरते हैं। हम कहते हैं कि स्वतंत्रता हम चाहते हैं, लेकिन हम डरते हैं, हम कंपते हैं। हम भी अपने घोंसले को वैसे ही पकड़ते हैं, जैसे चील का बच्चा पकड़ता है। उसको लगता है कि मर जाएंगे, इतना लंबा खड्ड है, इतना बड़ा आकाश, हम इतने छोटे हैं; अपने पर भरोसा नहीं आता।

इसलिए हम सब तरह की परतंत्रताएं खोजते हैं। परिवार की, देश की, जाति की, समाज की परतंत्रताएं खोजते हैं। हम किसी पर निर्भर होना चाहते हैं। कोई हमें सहारा दे दे। हम किसी के कंधे पर हाथ रख लें। कोई हमारे कंधे पर हाथ रख दे। हो सकता है, हम दोनों ही कमजोर हों और एक—दूसरे का सहारा खोज रहे हों। लेकिन दोनों को भरोसा आ जाता है कि कोई साथ है; हम अकेले नहीं हैं।

स्वतंत्रता को हम अपने ही हाथ से खोते हैं, परतंत्रता को हम अपने ही हाथ से खोजते हैं।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी में एक दिन विवाद चल रहा था। और पत्नी बहुत नाराज हो गई, तो उसने कहा कि तुमसे कहा किसने था कि तुम मुझसे विवाह करो! मैं तुम्हारे पीछे नहीं दौड़ रही थी। नसरुद्दीन ने कहा, वह तो जाहिर है, क्योंकि चूहे को पकड़ने वाला पिंजड़ा कभी चूहे के पीछे नहीं दौड़ता। चूहा खुद ही उसमें आता है, वह तो साफ है। पिंजड़े को कभी किसी ने चूहे के पीछे भागते तो देखा नहीं!

जिंदगी में जितने पिंजड़े हैं आपके, वे कोई आपके पीछे नहीं भागे। आप खुद ही उनकी तलाश किए हैं। और कोई कारण है, जिसकी वजह से पिंजड़ा अच्छा लगता है। कुछ सुरक्षा है उसमें। भय वहा कम है, सहारा वहा ज्यादा है, खतरा वहां कम है, जोखम वहां बिलकुल नहीं है। एक बंधा हुआ जीवन है। एक परिधि है, उस परिधि के भीतर प्रकाश है, परिधि के बाहर अंधकार है। उस अंधकार में जाने में भय लगता है। फिर अपने ही पैरों पर खड़ा होना होगा। स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने ही पैरों पर खड़ा होना। और स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने निर्णय खुद ही लेना।

दुनिया में जो इतने उपद्रव चलते हैं, उन उपद्रवों के पीछे भी कारण यही है कि बहुत—से लोग गुलामी खोजते हैं। सौ में निन्यानबे लोग ऐसे होते हैं कि बिना नेता के नहीं रह सकते। कोई नेता चाहिए। इस मुल्क में, सारी जमीन पर सब जगह नेता की बड़ी जरूरत है! नेता की जरूरत क्या है?

नेता की जरूरत यह है कि कुछ लोग खुद अपने पैरों से नहीं चल सकते। कोई आगे चल रहा हो, तो फिर उन्हें फिक्र नहीं है। फिर वह कहीं गड्डे में ले जाए, और हमेशा नेता गड्डों में ले जाते रहे हैं। लेकिन पीछे चलने वाले को यह भरोसा रहता है कि आगे चलने वाला जानता है। वह जहां भी जा रहा है, ठीक है। और कम से कम इतना तो पक्का है कि जिम्मेवारी हमारी नहीं है। हम सिर्फ पीछे चल रहे हैं।

दूसरे महायुद्ध के बाद जर्मनी के जो नेता बच गए, हिटलर के साथी, उन पर मुकदमे चले। तो जिस आदमी ने लाखों लोगों को जलाया था, आकमंड, जिसने वहा भट्टियां बनाईं, जिसमें हजारों लोग जलाए गए। कोई तीन करोड़ लोगों की हत्या का जिम्मा उसके ऊपर था, आकमंड के ऊपर।

पर आकमंड बहुत भला आदमी था। अपनी पत्नी को छोड्कर कभी किसी दूसरी स्त्री की तरफ देखा नहीं। रविवार को नियमित चर्च जाता था, बाइबिल का अध्ययन करता था। शराब की आदत नहीं, सिगरेट पीता नहीं था। रोज ब्रह्ममुहूर्त में उठता था। कोई बुराई नहीं थी। मांसाहारी नहीं था। हिटलर में भी यही खूबियां थीं, मांसाहार नहीं करता था, शराब नहीं पीता था, सिगरेट नहीं पीता था। भले आदमी के सब लक्षण उसमें थे।

आकमंड पर जब मुकदमा चला, तो लोग चकित थे कि इस आदमी ने कैसे तीन करोड़ लोगों की हत्या का इंतजाम किया! जब उससे पूछा गया, तो उसने कहा कि मैं सिर्फ अनुयायी हूं और आज्ञा का पालन करना मेरा कर्तव्य है। जिम्मेवारी मुझ पर है ही नहीं। ऊपर से आज्ञा दी गई, मैंने पूरी की। मैं सिर्फ एक अनुयायी हूं एक सिपाही हूं।

दुनिया में लोगों की कमजोरी है कि उनको नेता चाहिए। फिर नेता कहां ले जाता है, इसका भी कोई सवाल नहीं है। नेता को भी कुछ पता नहीं कि वह कहा जा रहा है। अंधे अंधों का नेतृत्व करते रहते हैं। बस, नेता और अनुयायी में इतना ही फर्क है कि अनुयायी को कोई चाहिए जो उसके आगे चले, और नेता को कोई चाहिए जो उसके पीछे चले।

नेता भी निर्भर है पीछे चलने वाले पर। अगर पीछे कोई न चले, तो नेता को लगता है कि भटक गया। जब तक लोग पीछे चलते रहते हैं, उसे लगता है, सब ठीक चल रहा है। अगर मैं ठीक न होता, तो इतने लोग पीछे कैसे होते? जैसे ही पीछे से लोग हटते हैं, नेता का विश्वास चला जाता है। जैसे ही अनुयायी हट जाते हैं, नेता की आत्म— आस्था खो जाती है। उसे लगता है, बस, कहीं भूल हो रही है। अन्यथा लोग मेरे पीछे चलते। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान नेता हैं, उनकी तरकीब अलग है।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने गधे पर भागा जा रहा है। कुछ मित्रों ने उसे रोका और पूछा कि कहां जा रहे हो इतनी तेजी से? उसने कहा, मुझसे मत पूछो, गधे से पूछो। क्योंकि मैं इसको चलाने की कोशिश करता हूं तो यह अड़चन डालता है, और चार आदमियों के सामने बाजार में भद्द होती है। मैं इसको कहता हूं बाएं चलो। तो यह चलेगा नहीं; दाएं जाएगा। तो लोग समझते हैं, इसका गधा भी इसकी नहीं मानता! तो मैंने एक तरकीब निकाली, गधा जहां जाता है, मैं उसके साथ ही जाता हूं। इससे इज्जत भी बनी रहती है और गधे को भी यह खयाल नहीं आता कि मालिक का विरोध कर सकता है।

सभी नेताओं की कुशलता यही है। वे हमेशा देखते रहते हैं, अनुयायी कहा को जा रहा है, अनुयायी कहां जाना चाहता है, इसके पहले नेता मुड़ जाता है। तो ही नेता अनुयायी को बचा सकता है, नहीं तो अनुयायी भटक जाएगा, अलग हो जाएगा।

सब नेता अपने अनुयायियों के अनुयायी होते हैं, एक विसियस सर्किल है। तो नेता तापमान देखता रहता है कि अनुयायी क्या चाहते हैं। अनुयायी समाजवाद चाहते हैं, तो समाजवाद। अनुयायी चाहते हैं गरीबी मिटे, तो गरीबी मिटे। अनुयायी जो चाहते हैं, वह कहता है। और अनुयायी सुनते हैं अपनी ही आवाज को उसके मुंह से, सोचते हैं कि ठीक है। अनुयायी पीछे चलते हैं।

कुछ लोग हैं, जब तक उनके आगे कोई न चले, तब तक वे चल नहीं सकते। कुछ लोग हैं, जब तक कोई उनके पीछे न चले, तब तक वे नहीं चल सकते। दोनों निर्भर हैं।

स्वतंत्र व्यक्ति वह है, जो न आगे देखता है और न पीछे देखता है, जो अपने पैर से चलता है। पर बड़ी कठिन है बात, क्योंकि तब किसी दूसरे पर भरोसा नहीं खोजा जा सकता, किसी दूसरे पर जिम्मेवारी नहीं डाली जा सकती। सब जिम्मेवारी अपनी है।

इतना जिसका साहस हो, वही केवल स्वतंत्र हो पाता है। नै नेता स्वतंत्र होते हैं, न अनुयायी स्वतंत्र होते हैं। स्वतंत्रता इस जगत में सबसे बड़ा जोखम है।

कृष्ण कहते हैं, जो आसुरी संपदा है वह बंधन के लिए और जो दैवी संपदा है वह मुक्ति के लिए मानी गई है। और हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है।

आज इतना ही।

 


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–4)

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सजग मृत्‍यु और जाति—स्‍मरण के रहस्‍यहों में प्रवेश—(प्रवचन—चौथा)

जितनी घनी अंधेरी रात हो, तारे उतने ही चमकते दिखाई पड़ते है। और जितने काले बादल हों, बिजली की चमक चाँदी बन जाती है। जब मृत्‍यु पूरी तरह चारों तरफ खड़ी हो जाती है, तब वह जीवन का जो बिंदु है, वह पूरी चमक में प्रकट होता है, उसके पहले कभी प्रकट नहीं होता है।

 मेरे प्रिय आत्मन्। कल रात की चर्चा के संबंध में कुछ प्रश्न पूछे गए हैं। एक मित्र ने पूछा है, होश से मरा तो जा सकता है लेकिन होश मे जन्मा कैसे जा सकता है?

असल में मृत्यु और जन्म दो घटनाएं नहीं हैं, एक ही घटना के दो छोर हैं। इसलिए एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। अगर सिक्के का एक पहलू हाथ मैं आ जाए, तो दूसरा पहलू अपने — आप हाथ में आ जाएगा। ऐसा नहीं होता कि सिक्के का एक पहलू मेरे हाथ में हो, तो दूसरे को कैसे हाथ में लूं। वह दूसरा अपने — आप हाथ में आ जाता है। मृत्यु और जन्म एक ही घटना के दो छोर हैं। मृत्यु अगर होशपूर्ण हो जाए, तो जन्म अनिवार्य रूप से होशपूर्ण हो जाता है। मृत्यु यदि बेहोश हो, तो जन्म भी बेहोश होता है। अगर कोई मरते क्षण में होश से भरा रहे, तो अपने नए जन्म के क्षण में भी पूरे होश से भरा रहता है। मरते क्षण में बेहोश हो, तो नये जन्म के क्षण में भी बेहोश होता है।

हम सब बेहोश ही मरते हैं और बेहोश ही जन्मते हैं, इसलिए हमें पिछले जन्मों का कोई स्मरण नहीं रह जाता है। लेकिन पिछले जन्मों की पूरी स्मृति हमारे मन के किसी कोने में सदा उपस्थित रहती है। और यदि हम चाहें, तो इस स्मृति को जगाया जा सकता है।

दूसरी बात, जन्म के संबंध में सीधा कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो कुछ भी किया जा सकता है, वह मृत्यु के संबंध में ही किया जा सकता है। क्योंकि मर जाने के बाद कुछ भी करना संभव नहीं है। मरने के पहले ही कुछ भी किया जा सकता है। अब एक व्यक्ति बेहोश मर गया, तो यह बेहोश व्यक्ति अब जन्मने के पहले तक तो कुछ भी नहीं कर सकता है। कोई उपाय नहीं है। यह बेहोश ही रहेगा।

इसलिए जन्म तो अगर आप बेहोश मरे हैं, तो बेहोशी में ही लेना पड़ेगा। जो कुछ भी किया जा सकता है, वह मृत्यु के संबंध में किया जा सकता है। क्योंकि मृत्यु के पहले हमें बहुत मौका है, एक पूरे जीवन का अवसर है। और इस जीवन के पूरे अवसर में जागने का प्रयास हो सकता है। फिर अगर कोई मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे कि मरते वक्त जाग जाएंगे, तो वह बड़ी भूल में है। मरते वक्त नहीं जाग सकते हैं। जागने की साधना तो मरने के बहुत पहले शुरू कर देनी पड़ेगी। उसकी तो तैयारी करनी पड़ेगी। क्योंकि अगर तैयारी नहीं है, तो बेहोशी आ ही जाएगी। बेहोशी हितकर है, अगर तैयारी न हो तो।

काशी नरेश के पेट का एक आपरेशन हुआ 1915 के करीब। वह पहला आपरेशन था पूरी पृथ्वी पर, जो बिना बेहोशी की दवा दिए किया गया। पहले तो डाक्टरों ने इनकार कर दिया। तीन अंग्रेज डाक्टर थे। उन्होंने इनकार कर दिया कि यह संभव नहीं है। क्योंकि किसी आदमी के पेट का आपरेशन हो, और दो घंटे, डेढ़ घंटे तक उसका पेट खुला रहे, बड़ा आपरेशन हो और उसे बेहोश न किया जाए, तो पूरा खतरा है। खतरा यह है कि इतनी पीड़ा हो कि वह आदमी चिल्लाने लगे, उछलने लगे, कूदने लगे, गिर पड़े। कुछ भी हो सकता है। इसलिए डाक्टर राजी नहीं थे।

लेकिन काशी नरेश का कहना यह था कि मैं जितनी देर ध्यान में रहूं, उतनी देर कोई चिंता नहीं है, और मैं डेढ़ घंटे, दो घंटे ध्यान में रह सकूंगा। काशी नरेश राजी नहीं थे बेहोशी की दवा लेने को। वे कहते थे कि मैं होश में ही आपरेशन कराना चाहता हूं। और डाक्टर होश में करने को राजी नहीं थे। क्योंकि होश में उतनी पीड़ा से गुजरना खतरनाक हो सकता है।

लेकिन और कोई रास्ता न देखकर फिर उन्होंने पहले तो प्रयोगात्मक रूप से नरेश को ध्यान में जाने को कहा और कुछ हाथ पर छुरी चलाई ताकि वे पता लग सकें कि हाथ में कंपन होता है या नहीं। लेकिन कंपन भी नहीं हुआ और दो घंटे के बाद ही नरेश कह सके कि मेरे हाथ में दर्द हो रहा है। दो घंटे तक तो कुछ पता नहीं चला। तब फिर आपरेशन किया गया।

वह पहला आपरेशन था पृथ्वी पर, जिसमें पेट पर डेढ़ घंटे तक डाक्टर काम ‘करते रहे पेट खोलकर और किसी तरह की बेहोशी की दवा नहीं दी गई थी। नरेश पूरे होश में था।

लेकिन इतने होश में होने के लिए गहरे ध्यान की जरूरत है। इतने ध्यान की जरूरत है, जहां कि यह पूरा पता हो कि शरीर अलग है और मैं अलग हूं। इसमें रत्ती भर भी संदेह न हो। इसमें रत्ती भर भी संदेह रहा कि मैं शरीर हूं, ऐसा जरा भी खयाल रहा, तो खतरा हो सकता है।

तो मृत्यु तो बहुत बड़ा आपरेशन है, बहुत बड़ा सर्जिकल आपरेशन है। इतना बड़ा आपरेशन किसी डाक्टर ने कभी नहीं किया है जितना बड़ा मृत्यु है। क्योंकि मृत्यु में प्राणों को एक शरीर से पूरा का पूरा निकालकर दूसरे शरीर में प्रवेश करवाने का उपाय है। इतना बड़ा कोई आपरेशन नहीं हुआ है और न हो सकता है अभी। एकाध अंग हम काटते हैं, एकाध हिस्से को हम बदलते हैं। यहां तो पूरे प्राण की शक्ति को, पूरी ऊर्जा को, एक शरीर से हटाकर दूसरे शरीर में प्रवेश कराना है।

तो प्रकृति ने पहले से इंतजाम कर रखा है कि आप बेहोश हो जाएं। यह हितकर है। क्योंकि उतनी पीड़ा को शायद झेला ही न जा सके। और यह भी हो सकता है कि चूंकि उतनी पीड़ा नहीं झेली जा सकती, इसलिए ही हम बेहोश हो जाते हैं।

लेकिन हितकर तो है, एक गहरे अर्थों में अहितकर भी है। क्योंकि फिर हमें स्मरण नहीं रह जाता कि पीछे क्या हुआ। और करीब—करीब हर जन्म में हम वही नासमझी दोहराए चले जाते हैं जो हमने पिछले जन्म में दोहराई होगी। यदि याद आ जाए कि पिछले जन्म में हमने क्या किया, तो शायद हम उन्हीं गड्डों में दुबारा नहीं उतरेंगे जिनमें हम पिछले जन्म में उतरे थे। और अगर याद आ जाए कि हमने पिछले सारे जन्मों में क्या किया है, तो हम यही आदमी नहीं हो सकेंगे, जो हम हैं।

यह असंभव है कि हम यही आदमी हो सकें। क्योंकि हमने बहुत बार धन इकट्ठा किया है और हर बार मृत्यु ने सारे इकट्ठे धन को व्यर्थ कर दिया है, तो शायद आज धन इकट्ठे करने की उतनी पागल दौड़ हमारे भीतर न रह जाए। हमने हजार बार प्रेम किया है और सब प्रेम व्यर्थ हो गया है, तो शायद प्रेम करने और प्रेम पाने की पागल दौड़ विलीन हो जाए। हमने हजार—हजार बार महत्वाकाक्षा की है, अहंकार किया है, यश पाया है, पद पाए हैं और सब व्यर्थ हो गए हैं, सब धूल में मिल गए हैं। अगर यह स्मरण आ जाए, तो शायद आज हमारी महत्वाकांक्षा एकदम क्षीण हो जाए। हम वही आदमी नहीं हो सकते हैं, जो हम हैं।

अहित यह हो जाता है कि हमें पिछले का कोई स्मरण नहीं रह जाता है। इसलिए करीब—करीब एक चक्कर में आदमी घूमता रहता है। उसे पता ही नहीं कि इस चक्कर से मैं बहुत बार गुजर चुका हूं। और इस बार भी वह उसी आशा से गुजरता है, जिस आशा से पहले भी बहुत बार गुजरा है। और फिर मौत आकर सब आशाएं व्यर्थ कर देती है। फिर चक्कर शुरू हो जाएगा। कोल्ह के बैल की तरह आदमी घूमता रहता है।

अहित यह है। इस अहित से बचा जा सकता है, लेकिन उसके लिए काफी जागरूक प्रयोग चाहिए। और एकदम से मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती है, क्योंकि इतने बड़े आघात में, इतने बड़े आपरेशन में, एकदम से नहीं जागा जा सकता है। हमें धीरे — धीरे प्रयोग करने पड़ेंगे, धीरे — धीरे छोटे दुखों पर प्रयोग करने पड़ेंगे कि हम छोटे दुखों में जाग सकें। सिर में दर्द है, तभी जागरण मिट जाता है और ऐसा लगता है कि मुझे दर्द हो रहा है। ऐसा नहीं लगता कि सिर को दर्द हो रहा है। तो सिर के छोटे दर्द में प्रयोग करके सीखना पड़ेगा कि दर्द हो रहा है सिर को, मैं जान रहा हूं।

स्वामी राम अमरीका गए तो वहां के लोग उनकी बात समझने में बड़ी कठिनाई में पडे शुरू—शुरू में। अमरीका का प्रेसिडेंट उनसे मिलने आया था तो वह भी बड़ी मुश्किल में पड़ा और उसने कहा, आप कैसी भाषा बोलते हैं? क्योंकि राम थर्ड पर्सन में बोलते थे। वह ऐसा नहीं कहते थे कि मुझे भूख लगी है। वह कहते थे कि राम को बड़ी भूख लगी है—। वह ऐसा नहीं कहते थे कि मेरे सिर में दर्द हो रहा है। वह कहते थे, राम के सिर में बहुत दर्द हो रहा है। तो पहले तो लोग बड़ी मुश्किल में पड़े कि वह कह क्या रहे हैं। वह कहते थे कि रात राम को बड़ी सर्दी लगती रही। तो कोई उनसे पूछता कि किसकी आप बात कर रहे हैं? किसके संबंध में कह रहे हैं? तो वह कहते कि राम के संबंध में। वे पूछते, कौन राम? तो वह कहते, यह राम। इसको रात बड़ी सर्दी लगती रही और हम बडे हंसते रहे कि देखो राम, कैसी सर्दी झेल रहे हो। और वह कहते कि रास्ते पर राम जा रहे थे, कुछ लोग गालियां देने लगे, तो हम खूब हंसने लगे कि देखो राम, कैसी गालियां पड़ी। मान खोजने निकलोगे तो अपमान होगा ही। लोग कहते, लेकिन आप बात किसकी कर रहे हैं? किसके संबंध में कह रहे हैं? कौन राम? तो वह कहते, यह राम।

छोटे—छोटे जीवन के दुखों से प्रयोग शुरू करना पड़ेगा। जीवन में रोज छोटे दुख आते हैं, रोज प्रतिपल वे खड़े हैं। और दुख ही क्यों, सुख से भी प्रयोग करना पड़ेगा। क्योंकि दुख में जागना उतना कठिन नहीं है, जितना सुख में जागना कठिन है। यह अनुभव करना बहुत कठिन नहीं है कि सिर अलग है और उसमें दर्द हो रहा है। लेकिन यह अनुभव करना और भी कठिन है कि शरीर अलग है और स्वास्थ्य का जो रस आ रहा है, वह भी अलग है, वह भी मैं नहीं हूं। सुख में दूर होना और भी कठिन है, क्योंकि सुख में हम पास होना चाहते हैं, और पास होना चाहते हैं; दुख में तो हम दूर होना ही चाहते हैं। यानी कि दुख में तो यह पक्का पता चल जाए कि दुख दूर है, तो यह हमारी इच्छा भी है कि दुख दूर हो। तो हम को यह पता चल जाए तो दुख से हमारा छुटकारा हो जाए।

तो दुख में भी जागने के प्रयोग करने पड़ेंगे और सुख में भी जायाने के प्रयोग करने पड़ेंगे। और इन प्रयोगों में जो उतरता है, वह कई बार स्वेच्छा से दुख वरण करके भी प्रयोग कर सकता है। सारी तपश्चर्या का मूल रहस्य इतना ही है। वह स्वेच्छा से दुख को वरण करके किया गया प्रयोग है।

जैसे एक आदमी उपवास कर रहा है, भूखा खड़ा है। वह यह जानने की कोशिश कर रहा है भूख के उस प्रयोग में आमतौर से जो लोग उपवास करते हैं, उन्हें खयाल भी नहीं है कि क्या कर रहे हैं वे। वे सिर्फ भूखे हैं और कल खाना खाना है, उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

लेकिन उपवास का जो मौलिक प्रयोग है, वह यह है कि भूख है और भूख मुझसे दूर है, इसका अनुभव करना है, मैं भूखा नहीं हूं। तो भूख को अपने हाथ से पैदा करके यह जानने की भीतर चेष्टा चल रही है कि भूख वहां है, राम को भूख लगी है। मैं भूखा नहीं हूं। मैं जान रहा हूं कि भूख लगी है। और इसे जानना है, जानना है, जानना है. और उस घडी पर पहुंच जाना है, जहां भूख और मेरे बीच एक फासला हो, मैं भूखा न रह जाऊं। भूख में भी, मैं भूखा न रह जाऊं। शरीर भूखा रहे और

मैं जानूं। मैं सिर्फ जानने वाला रह जाऊं। तब तो उपवास का बड़ा गहरा अर्थ हो जाता है। उसका अर्थ सिर्फ भूखा रहना नहीं है।

और आमतौर से जो आदमी उपवास करते हैं, वे चौबीस घंटे यह दोहराते रहते हैं कि मैं भूखा हूं, आज खाना नहीं खाया है। और कल खाना खाने की योजना में चित्त रमा रहता है। और कल क्या खाना है, उसकी भी योजना बनती रहती है। तब उपवास व्यर्थ हो गया, तब वह सिर्फ अनशन रहा। अनशन और उपवास का यही फर्क है। अनशन का मतलब है, न खाना। उपवास का मतलब है, और निकट, और निकट निवास करना। किसके? उपवास का मतलब है, और निकट, और निकट निवास करना। किसके निकट निवास करना? अपने! शरीर से फासले पर, स्वयं के करीब आना। उपवास का मतलब ही यही है। उपवास के मतलब से?. उपवास में कहीं भी भूखा रहने का सवाल ही नहीं है। उपवास शब्द में भी भूखा रहने का कोई प्रश्न नहीं है। उपवास का मतलब है, आवास—निकट, और निकट। किसके? किसके पास? अपने पास। अपने पास रहना और शरीर से दूर। तब फिर यह भी हो सकता है कि एक आदमी भोजन किए हुए भी उपवासा हो। क्योंकि अगर भोजन करते हुए भी वह जानता हो कि भोजन दूर हो रहा है और मैं कहीं और हूं, तो उपवास है, और यह भी हो सकता है कि एक आदमी भोजन न किए हुए भी उपवासा न हो, क्योंकि वह जानता हो कि मैं भूखा हूं। मैं भूखा मरा जा रहा हूं। उपवास तो एक मनोवैज्ञानिक बोध है, भूख से भिन्नता का।

तो ऐसे और दुख भी पैदा किए जा सकते हैं स्वेच्छा से भी। लेकिन स्वेच्छा से पैदा किये गये दुख बहुत गहरा प्रयोग है। एक आदमी काटे पर भी लेट सकता है सिर्फ यह जानने के लिए कि कांटे मुझे नहीं चुभ रहे हैं, काटे कहीं और छिदे हुए हैं और मैं कहीं और हूं। मैं कहीं और हूं, यह अनुभव करने के लिए दुख आमंत्रित भी किया जा सकता है। लेकिन अभी तो अन— आमंत्रित दुख ही काफी हैं। उन्हें और आमंत्रित करने जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुख हमेशा ही बहुत हैं। अभी उनसे ही प्रयोग शुरू करना चाहिए। दुख ऐसे ही चले आते हैं। आए हुए दुख में भी अगर यह बोध रखा जा सके कि मैं भिन्न हूं मैं दूर हूं, तो दुख साधना बन जाता है।

आए हुए सुख में भी साधना करनी पड़ेगी। क्योंकि दुख में तो हो सकता है हम अपने को धोखा भी दे दें। क्योंकि मन मानने को करता है कि दुख मैं नहीं हूं, लेकिन सुख को तो मन मानने को करता है कि मैं सुख हूं। इसलिए सुख में साधना और मुश्किल हो जाती है। असल में सुख से दूर अनुभव करना सबसे बडा दुख है। सुख से अपने को दूर अनुभव करना बहुत दुख है। क्योंकि वहा तो मन होता है कि डूब जाओ पूरे और भूल जाओ कि मैं अलग हूं। सुख डुबाता है, दुख तो वैसे ही तोड़ता है और अलग करता है। दुख को तो हम मजबूरी में ही साथ है, ऐसा मान पाते हैं, लेकिन सुख को तो हम पूरे प्राणों से अंगीकार कर लेना चाहते हैं।

आए हुए दुख में जागे, आए हुए सुख में जागे, और कभी—कभी प्रयोग के लिए आमंत्रित दुख में भी जागे। क्योंकि आमंत्रित दुख में थोडा फर्क है। क्योंकि जिसे हम बुलाते हैं, जिसे हम न्योता देते हैं, उसके साथ हम रहे कभी नही डूब सकते। क्योंकि वह बुलाया हुआ है, निमंत्रित है, यह बोध भी फासला पैदा करता है। अतिथि कभी भी हम नहीं हो सकते। घर में आया हुआ अतिथि हमसे अलग ही है। जब हम दुख को अतिथि की तरह बुला लेते हैं कभी, तब वह अलग ही होता है, क्योंकि हमने उसे बुलाया है।

रास्ते पर चलते वक्त पैर में काटा लग गया है, यह एक दुर्घटना है और दुख डुबा लेगा। लेकिन आप काटा लाए हैं और पैर में चुभाया है और जाना है प्रतिपल कि मैं काटा चुभा रहा हूं और देख रहा हूं कि दुख कहां है। इस घटना में थोड़ा फर्क है। लेकिन मैं नहीं कहता हूं कि आप अभी दुख आमंत्रित करने जाएं, दुख वैसे ही बहुत हैं। उनको जीएं और उनके बीच जागे। और फिर सुख को जीएं और उसके बीच जागे। तब कभी आपको लग सकता है कि कभी किसी दुख को बुलाकर भी देखें कि कितनी दूर हम खड़े रह सकते हैं।

और ध्यान रहे, दुख को बुलाना एक बहुत महत्वपूर्ण प्रयोग है। क्योंकि सुख को सब बुलाना चाहते हैं, दुख को कोई भी बुलाना नहीं चाहता। और मजे की बात यह है कि जिस दुख को हम नहीं बुलाना चाहते हैं, वह आता है; और जिस दुख को हम बुलाते हैं, वह आ ही नहीं पाता है। आ भी जाता है, तो द्वार के बाहर ही खड़ा रह जाता है। जिस सुख को हम बुलाते हैं, वह कभी नहीं आता; और जिस सुख को हम नहीं बुलाते हैं, वह आ जाता है। तो दुख को जब बुलाने की क्षमता कोई जुटा लेता है, तब उसका मतलब यह है कि वह इतना सुखी हो गया है कि अब दुख बुला सकता है। वह इतने आनंद में जी रहा है कि अब दुख को बुलाने में कोई भी कठिनाई नहीं है। अब दुखों को कहा जा सकता है कि आओ और ठहर जाओ।

पर वह गहरे प्रयोग की बात है। उसके पहले तो जो दुख आ रहे हैं, उनमें ही जागने का प्रयोग करना चाहिए। और अगर दुखों के प्रति हम जागते चले जाएं, तो वह क्षमता आ जाएगी मृत्यु के क्षण तक कि हम मृत्यु में भी जाग सकेंगे और प्रकृति भी हमें छूट दे देगी कि जागे रही। क्योंकि प्रकृति ने भी अनुभव कर लिया है कि यह व्यक्ति दुखों में जाग सकता है, तो अब मृत्यु में भी जाग सकता है। लेकिन अनायास मृत्यु में कोई भी नहीं जाग सकता है।

अभी एक आदमी मरा पी डी आस्पेंस्की। वह रूस का एक बड़ा गणितज्ञ था। और मृत्यु के संबंध में इस सदी में सबसे ज्यादा प्रयोग उसी आदमी ने किए हैं। मरने के समय, जब कि वह बुरी तरह बीमार है और चिकित्सकों ने कहा है कि वह बिस्तर से न उठे, तब तीन महीने तक इतना श्रम उसने किया है कि जो अकल्पनीय है। रात—रात भर सोता नहीं है, सफर करता है, चलता रहता है, दौड़ता रहता है, भागता रहता है, और चिकित्सक हैरान हैं। वे कहते हैं, उसे पूर्ण आराम करना चाहिए। उसने अपने सारे निकट मित्रों को बुला लिया है और उसने सब बातचीत बंद कर दी है, लेकिन वह श्रम में लगा हुआ है। और जो मित्र उसके साथ मरते समय तीन महीने रहे हैं, उनका कहना यह है कि हमने अपनी आंखों के सामने पहली दफे मृत्यु को जागे हुए किसी आदमी को लेते हुए देखा। और जब उससे उन्होंने कहा कि चिकित्सक कहते हैं आराम करो, तुम आराम क्यों नहीं कर रहे हो? तो उसने कहा कि मैं सारे दुख देख लेना चाहता हूं। कहीं ऐसा न हो जाए कि मरते वक्त दुख इतना बड़ा हो कि मैं सो जाऊं, बेहोश हो जाऊं। तो मैं उसके पहले वह सब दुख देख लेना चाहता हूं जो कि वह क्षमता पैदा कर दे, वह स्टेमिना दे दे, वह ऊर्जा दे दे कि मृत्यु के समय मैं होश में मर सकूं। तो सब तरह के दुख उसने तीन महीने तक झेलने की कोशिश की।

उसके मित्रों ने लिखा है कि हम जो पूर्ण स्वस्थ थे, हम उसके साथ थक जाते थे, लेकिन उसे हमने थकते नहीं देखा। और चिकित्सक कह रहे हैं कि उसको बिलकुल ही विश्राम करना चाहिए, नहीं तो बहुत नुकसान हो जाएगा। जिस रात वह मरा है, पूरी रात टहलता रहा है। एक पैर उठाने की

उसकी ताकत नहीं है। डाक्टर उसकी जांच करके कहते हैं कि एक पैर उठाने की ताकत उसमें नहीं है, लेकिन वह रात भर चलता रहा है। वह कहता है कि मैं चलते —चलते ही मरना चाहता हूं। कहीं बैठे हुए मरूं और बेहोश न हो जाऊं, कहीं सोया हुआ मरूं और बेहोश न हो जाऊं। और चलते —चलते चलते उसने खबर दी है अपने मित्रों को कि बस इतनी देर और। यह दस कदम मैं और उठा पाऊंगा, बस। डूबा जा रहा है सब। लेकिन आखिरी कदम भी मैं उठाऊंगा, क्योंकि मैं आखिरी क्षण तक कुछ करते ही रहना चाहता हूं ताकि मैं पूरा जागा रहूं। ऐसा न हो कि मैं विश्राम में सो जाऊं।

वह आखिरी कदम चलते हुए मरा है। कम ही लोग चलते हुए मरे हैं जमीन पर। वह चलता हुआ ही गिरा है। यानी वह गिरा ही तब है, जब मौत आ गई। और आखिरी कदम के पहले उसने कहा है कि बस अब यह आखिरी कदम है और अब मैं गिर जाऊंगा। लेकिन मैं तुम्हें कहे जाता हूं कि शरीर छूट गया है बहुत पहले। अब तुम देखोगे कि शरीर छूट रहा है, लेकिन मैं बहुत देर से देख रहा हूं कि शरीर छूट गया है और मैं हूं। संबंध टूट गए हैं और मैं भीतर हूं। इसलिए अब शरीर ही गिरेगा, मेरे गिरने का कोई उपाय नहीं है। और मरते क्षण में उसकी आंखों में जो चमक, उसमें जो शांति, उसमें जो आनंद, उसमें जो दूसरी दुनिया के द्वार पर खड़े हो जाने का प्रकाश है, वह उसके मित्रों ने अनुभव किया है।

लेकिन इसकी तैयारी करनी पड़ेगी। इसकी निरंतर तैयारी करनी पड़ेगी। और अगर यह तैयारी पूरी हो जाती है, तो मृत्यु की घटना अदभुत घटना है। उससे कीमती कोई घटना नहीं है। क्योंकि उसमें जो हम जान सकते हैं, वह हम और कभी नहीं जान सकते हैं। तब मृत्यु मित्र मालूम होने लगती है। क्योंकि मृत्यु की घटना में ही, हम जीवन हैं, इसका अनुभव हो सकता है, उसके पहले अनुभव नहीं हो सकता है।

ध्यान रहे, जितनी घनी अंधेरी रात हो, तारे उतने ही चमकते दिखाई पड़ते हैं। और जितने काले बादल हों, बिजली की चमक चांदी बन जाती है। जब मृत्यु पूरी तरह चारों तरफ खड़ी हो जाती है, तब वह जीवन का जो बिंदु है, वह पूरी चमक में प्रकट होता है, उसके पहले कभी प्रकट नहीं होता है। मृत्यु अंधेरा बन जाती है चारों तरफ और बीच में वह जो जीवन का बिंदु है, जिसे हम आत्मा कहें, वह पूरे प्रकाश में चमक उठता है। चारों तरफ घिरा अंधेरा उसे चमकाने का काम करता है। लेकिन हम उस वक्त बेहोश हो जाते हैं। आत्मा को जानने का जो क्षण हो सकता था मृत्यु, उस वक्त हम बेहोश हो जाते हैं।

इसकी तैयारी करनी पड़ेगी। ध्यान इसकी तैयारी है।

ध्यान, धीरे — धीरे कैसे मरा जाता है, स्वेच्छा से, उसका प्रयोग है। कैसे हम भीतर सरकते हैं और कैसे हम शरीर को छोड़ते चले जाते हैं, उसका प्रयोग है। और ध्यान की तैयारी चले और चलती रहे, तो मृत्यु के क्षण में पूर्ण ध्यान उपलब्ध हो जाएगा। और यह जो मृत्यु होगी जागे हुए, ऐसे व्यक्ति की आत्मा फिर जागी हुई ही जन्म लेती है। और तब उसका पहला दिन जन्म के बाद का, अज्ञान का नहीं होता, तब शान का ही होता है। तब प्रतिपल गर्भ में भी वह पूरे होश से भरा हुआ है। और एक बार जो जागकर मरा है, उसका फिर एक ही जन्म हो सकता है। उसके फिर ज्यादा जन्म नहीं हो सकते हैं। जाग कर मरे हुए व्यक्ति का एक ही जन्म और होता है, फिर दुबारा कोई जन्म नहीं हो सकता है। क्योंकि जिसे इतना अनुभव हो गया है कि मृत्यु क्या है, जन्म क्या है और जीवन क्या है, उसके लिए परम मुक्ति उपलब्ध हो जाती है।

यह जो एक जन्म है जागे हुए व्यक्ति का, ऐसे ही व्यक्तियों को हम अवतार, तीर्थंकर, बुद्ध, जीसस और कृष्ण कहते रहे हैं, ऐसे ही लोगों को। ऐसे लोगों को हम आदमी से अलग गिनते रहे हैं। उसका कोई और कारण नहीं है। उसका कुल इतना ही कारण है कि वे निश्चित हमसे बहुत अलग हैं। फर्क इतना ही है कि हम सोये हुए हैं और वे जागे हुए हैं। और यह उनकी अंतिम यात्रा है इस पृथ्वी पर। और इसलिए कुछ उनमें है, जो हममें नहीं है; और कुछ उनमें है, जो हम तक पहुंचाने की वे अथक चेष्टा करते रहेंगे। फर्क उनमें और हममें इतना ही है कि उनका यह जन्म और पिछली मृत्यु जाग्रत हुई है, इसलिए यह पूरा जीवन जागा हुआ है।

तिब्बत में बारदो करके एक छोटा—सा ध्यान का प्रयोग है। कीमती प्रयोग है। वह मरते क्षण ही करवाया जाता है। जब कोई मर रहा होता है, तब चारों तरफ, जो जानते हैं, इकट्ठे होकर बारदो करवाते हैं। लेकिन बारदो भी उसको ही करवाया जा सकता है, जिसने जीवन में ध्यान किया हो। जिसने ध्यान न किया हो, उसे बारदो नहीं करवाया जा सकता है। जैसे ही कोई व्यक्ति मरता है, तो बारदो के प्रयोग में उसे पूरा जागने के लिए बाहर से सूचनाएं दी जाती हैं कि वह जागा रहे। और उसे यह सब बताया जाता है कि अब क्या—क्या होगा, वह देखता रहे। क्योंकि बहुत बार ऐसी घटनाएं घटती हैं कि जिन्हें वह समझ ही नहीं सकता। नई घटनाओं को एकदम से समझा भी नहीं जा सकता है।

मरने के बाद अगर कोई आदमी जागा रहे, तो पहले तो बहुत देर तक उसे पता ही नहीं चलेगा कि मैं मर गया हूं। उसे तो पता ही तब चलेगा जब उसकी लाश लोग उठाने लगेंगे और उसको मरघट पर जलाने लगेंगे, तब उसे पक्का पता चलेगा कि मैं मर गया हूं। क्योंकि भीतर तो कुछ मरता ही नहीं, सिर्फ एक फासला हो जाता है। लेकिन फासले का जिंदगी में कभी अनुभव नहीं किया। वह अनुभव इतना नया है कि उसको समझने की कोई पुरानी परिभाषा नहीं है उसके पास। तो उसे सिर्फ इतना ही लगता है कि कुछ अलग — अलग हो गया है। लेकिन कुछ मर गया है, यह उसकी समझ में तभी आता है, जब चारों तरफ लोग रोने—चिल्लाने लगते हैं, और उसकी लाश के आस—पास गिरने लगते हैं और उसको उठाकर ले जाने लगते हैं।

लाश को जल्दी से मरघट पहुंचा देने का कारण है। लाश को जितनी जल्दी हो सके दफना देने का, आग लगा देने का कारण है। उतनी ही जल्दी उस आत्मा को पक्का पता चल जाए कि शरीर गया, जल गया। लेकिन अगर आदमी मूर्च्‍छित है, तो यह भी उसे पता नहीं चल पाता है। यह भी होश में जाए तो ही पता चल पाता है। अपने शरीर को जलता हुआ देखना—इसके लिए बारदो में वे सुझाव देते हैं कि अपने शरीर को ठीक से जलते हुए देख लेना, भाग मत जाना, जल्दी हट मत जाना। मरघट पर और लोग ही तुम्हें पहुंचाने न जाएं, तुम भी वहां मौजूद रहना। अपने शरीर को ठीक से जलते हुए देख लेना, ताकि अगली बार यह शरीर का मोह पकड़े न। क्योंकि जो जलता हुआ देख लिया गया हो, उसका मोह विलीन हो जाता है।

लेकिन दूसरे लोग तो देख ही लेंगे जलते हुए। वह आदमी नहीं देख पाएगा। आमतौर से हजार में नौ सौ निन्यानबे मौकों पर वह बेहोश होता है, उसे पता ही नहीं होता है। और अगर कभी एक मौके पर वह होश में भी होता है तो अपने जलते हुए शरीर को देखकर भाग जाता है, हट जाता है वहां से, मरघट पर नहीं पहुंचता है, जहां सब जाते हैं। तो बारदो में वे उससे कहते हैं कि देख, इस मौके को मत छोड़ देना। अपने शरीर को जलते हुए देखना। उसे जलते हुए देख ही लेना, जो तू समझता था कि मैं हूं। उसे मिटते हुए पूरी तरह देख ही लेना। उसको भस्मीभूत होते हुए, राख में विलीन होते हुए देख ही लेना, ताकि अगले जन्म में तुझे खयाल रहे कि तू कौन है।

जैसे ही व्यक्ति मरता है, वैसे ही एक नए लोक में उसका पदार्पण होता है, जिसका हमें कोई अनुभव नहीं होता। वह लोक हमें इतना घबड़ा भी सकता है, डरा भी सकता है, भयभीत भी कर सकता है। वह लोक हमारी किसी भी अनुभूति के अनुकूल—प्रतिकूल नहीं है। उससे हमारा कोई संबंध ही नहीं है। जैसे कि हम एक व्यक्ति को बिलकुल ही अनजान देश में प्रवेश करवा दें जहां की वह भाषा नहीं जानता है, जहां लोगों के चेहरे नहीं जानता है, जहां लोगों के ढंग नहीं जानता है, तो जैसा घबड़ा जाए, उससे भी बड़ी घबड़ाहट है। क्योंकि चाहे कैसा भी मनुष्य हो, कैसी भी भाषा बोलता हो, कैसे भी ढंग हों उसके जीने के, फिर भी वह मनुष्य है और हमारे और उसके बीच एक संबंध है। हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, वह शरीर की दुनिया है। उसके छूटते ही अशरीर की दुनिया शुरू होती है। और अशरीरी प्राणों का अनुभव हमें बिलकुल नहीं है। उस अशरीरी जीवन के, अशरीरी—योनि में प्रवेश करते ही हम इतने भयभीत और डरे हुए हो जा सकते हैं कि जिसका कोई हिसाब न रहे।

तो आमतौर से तो हम बेहोश ही गुजरते हैं, इसलिए कोई पता नहीं रहता है। लेकिन होश में जो जाता है, वह बहुत मुश्किल में पड़ जाता है। तो बारदो में उसे समझाने की कोशिश करते हैं कि क्या—क्या होगा, कैसा जगत होगा, कैसे व्यक्तित्व होंगे, तुम कहां प्रवेश कर गए हो। लेकिन यह प्रयोग उनको ही करवाया जा सकता है, जो ध्यान के गहरे प्रयोग से गुजरते रहे हों, अन्यथा नहीं करवाया जा सकता है।

इधर मैं निरंतर सोचता हूं कि जो मित्र ध्यान के प्रयोग से गुजर रहे हैं, उन्हें किसी न किसी रूप में बारदो का प्रयोग करवाया जा सके। लेकिन वह तभी करवाया जा सकता है जब वे पहले ध्यान में गहरे गुजर जाएं, अन्यथा वे सुन भी न पाएंगे। मरते क्षण में उन्हें सुनाई भी नहीं पड़ेगा कि क्या कहा जा रहा है। उन्हें कौन—सी बात बताई जा रही है, वह उनके खयाल में भी नहीं आएगी। उसके लिए अत्यंत शांत और शून्य चित्त होना जरूरी है, तभी वे बातें खयाल में आ सकती हैं। और जब चेतना डूबती चली जाती है, डूबती चली जाती है, विलीन होती चली जाती है, इस जगत से संबंध टूटने लगते हैं, तो इस जगत से दिए गए कोई भी संदेश अत्यंत शांत मन में ही सुने जा सकते हैं, अन्यथा नहीं सुने जा सकते।

और यह ध्यान रहे कि मृत्यु— के साथ हम कुछ कर सकते हैं, जन्म के साथ कुछ भी नहीं कर सकते। लेकिन मृत्यु के साथ जो हमने किया, वह हमारे जन्म के साथ भी हो जा सकता है। हो ही जाता है। जैसे हम मरते हैं, वैसे ही हम जन्मते हैं। जागा हुआ व्यक्ति अपने गर्भ के चुनाव में भी मुक्त हो जाता है। यानी वह अंधे की तरह कुछ भी नहीं चुन लेता है, बेहोश की तरह कुछ भी नहीं चुन लेता है। जागा हुआ व्यक्ति अपने मां और पिता का वैसे ही चुनाव करता है, जैसे कि कोई समृद्ध व्यक्ति अपने रहने के मकान का चुनाव करता है। लेकिन गरीब आदमी अपने रहने के मकान का चुनाव नहीं कर पाता है। चुनाव करने के लिए सामर्थ्य चाहिए। मकान खरीदने की सामर्थ्य चाहिए। गरीब आदमी अपने मकान का चुनाव नहीं करता। कहना चाहिए कि मकान ही गरीब आदमी को चुनता है। गरीब मकान, गरीब आदमी को चुन लेता है। अमीर आदमी अपने मकान का निर्णय करता है कि मैं कहां रहूं, कैसा बगीचा हो, द्वार कहां हो, दरवाजा कहां हो, सूरज की रोशनी पूरब से आए कि पश्चिम से, हवाएं कैसी आएं, कितना खुला हो—वह सब चुनाव करता है।

जाग्रत व्यक्ति अपने गर्भ का चुनाव करता है। वह उसकी च्वाइस है। महावीर या बुद्ध जैसे व्यक्ति हर कहीं पैदा नहीं हो जाते हैं। वे सारी संभावनाओं को देखकर ही पैदा होते हैं। कैसा शरीर मिलेगा, किस मां—बाप से, कैसी शक्ति मिलेगी, कैसी सामर्थ्य मिलेगी, कैसी सुविधा मिलेगी, क्या मिलेगा, वह सब देखकर पैदा होते हैं। उनके सामने चुनाव है स्पष्ट कि वह किसको चुनें, कहां जाएं। और इसलिए उनका जीवन पहले दिन से ही अपना चुना हुआ जीवन होता है। अपने चुने हुए जीवन का आनंद ही दूसरा है, क्योंकि वहां से स्वतंत्रता का प्रारंभ है। और मिले हुए जीवन का वह आनंद कभी भी नहीं हो सकता है, क्योंकि वह एक परतंत्रता है। हम ढकेल दिए गए हैं, एक धक्का दे दिया गया है. और जो भी हो गया है, वह हो गया है। उसमें हमारा कोई हाथ नहीं है।

यह जो जागरण संभव हो सके तो चुनाव बिलकुल ही किया जा सकता है। और अगर जन्म ही हमारा चुनाव हो, तो पूरा जीवन हमारा चुनाव हो जाता है। तब हम एक जीवन—मुक्त की तरह जीते हैं। जिस व्यक्ति की मृत्यु जागे हुए होती है, उसका जन्म जागा हुआ होता है, और फिर उसका जीवन मुक्त होता है।

जीवन—मुक्त शब्द को हम सुनते हैं बार—बार, लेकिन हमें खयाल में नहीं होगा कि जीवन —मुक्त का क्या अर्थ है। जीवन—मुक्त का अर्थ है, जिसका जन्म जागा हुआ हो। वही जीवन—मुक्त हो सकता है। अन्यथा मुक्ति की चेष्टा कर सकता है, अगला जीवन उसका मुक्त हो सकता है, लेकिन यह जीवन मुक्त नहीं हो पाएगा। इस जीवन के मुक्त होने के लिए पहले दिन से ही अपनी स्वतंत्रता का चुनाव होना चाहिए। और वह हम तभी कर सकते हैं, जब हमने पिछली मृत्यु के जागरण का उपाय किया हो।

अब वह तो सवाल न रहा। यह जीवन हमारे पास है। अभी मृत्यु नहीं आई है। आएगी, आना सुनिश्चित है। मृत्यु से ज्यादा सुनिश्चित कुछ भी नहीं है। सब संबंध में संदेह हो सकता है, मृत्यु के संबंध में कोई भी संदेह नहीं है। परमात्मा के संबंध में संदेह करने वाले लोग हैं, आत्मा के संबंध में संदेह करने वाले लोग हैं, लेकिन ऐसा आदमी आपने नहीं सुना होगा जो मृत्यु के संबंध में संदेह करता हो। वह असंदिग्ध है। वह आएगी ही। आ ही रही है। उसका आना हो ही रहा है, प्रतिपल निकट होती चली जा रही है। ये जो क्षण हमारे और उसके बीच में बचे हैं, इनका हम जागने के लिए उपयोग कर सकते हैं। ध्यान उसकी ही प्रक्रिया है। वह इन तीन दिनों में मैं आपको कोशिश करूंगा कि खयाल में आ जाए कि ध्यान उसकी ही प्रक्रिया है।

एक और मित्र ने पूछा है कि ध्यान की विधि और जाति— स्मरण में क्या संबंध है?

जाति—स्मरण का अर्थ है, पिछले जन्मों के स्मरण की विधि। पहले जो हमारा होना हुआ है, उसके स्मरण की विधि। ध्यान का ही एक रूप है जाति—स्मरण। ध्यान का ही एक प्रयोग है। स्पेसिफिक, एक खास प्रयोग है ध्यान का। जैसे नदी है, और कोई पूछे कि नहर क्या है? तो हम कहेंगे कि नदी का ही एक विशेष प्रयोग है —सुनियोजित, नदी का ही, पर नियंत्रित, व्यवस्थित। नदी है अव्यवस्थित, अनियंत्रित। नदी भी पहुंचेगी कहीं, लेकिन पहुंचने की कोई मंजिल का पक्का नहीं है। लेकिन नहर सुनिश्चित है कि कहां पहुंचानी है।

तो ध्यान तो बड़ी नदी है। पहुंचेगी सागर तक। पहुंच ही जाएगी। परमात्मा तक पहुंचा ही देगा ध्यान। लेकिन ध्यान के और अवांतर प्रयोग भी हैं। ध्यान की छोटी—छोटी शाखाओं को नियोजित करके नहर की तरह भी बहाया जा सकता है। जाति—स्मरण उनमें एक है। ध्यान की शक्ति को हम अपने पिछले जन्मों की तरफ भी प्रवाहित कर सकते हैं। ध्यान का तो मतलब है सिर्फ अटेंशन। ध्यान का मतलब है, ‘ ध्यान’। किस चीज पर ध्यान देना है, उसके बहुत प्रयोग हो सकते हैं। उसका एक प्रयोग जाति—स्मरण है, कि मेरे पिछले जन्मों की स्मृति कहीं पड़ी है।

स्मृतियां मिटती नहीं, ध्यान रहे। कोई स्मृति कभी नहीं मिटती है, सिर्फ स्मृति दबती है या उभरती है। दबी हुई स्मृति, मिटी हुई मालूम पड़ती है। अगर मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ पचास की एक जनवरी को आपने क्या किया था? तो ऐसा तो नहीं है कि आपने कुछ भी न किया होगा, लेकिन बता आप कुछ भी न पाएंगे कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को क्या किया। एकदम खाली हो गया है एक जनवरी उन्नीस सौ पचास का दिन। पर खाली न रहा होगा जिस दिन बीता होगा, उस दिन भरा हुआ था। लेकिन आज खाली हो गया है। आज का दिन भी कल इसी तरह खाली हो जाएगा। दस साल बाद आज के दिन का भी कोई पता नहीं चलेगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास नहीं था। न इसका यह मतलब है कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को आप नहीं थे। न इसका यह मतलब है कि चूंकि आप स्मरण नहीं कर पाते हैं, इसलिए उस दिन को हम कैसे मानें। वह था और उसे जानने का भी उपाय है। ध्यान को उसकी तरफ भी ले जाया जा सकता है। और जैसे ही ध्यान का प्रकाश उस पर पड़ेगा, आप हैरान हो जाएंगे, वह उतना ही जीवंत वापस दिखाई पड़ने लगेगा, जितना जीवंत उस दिन भी न रहा होगा। जैसे कि कोई टार्च को लेकर एक अंधेरे कमरे में आए और घुमाए। तो वह बाईं तरफ देखे, तो दाईं तरफ अंधेरा हो जाता है, लेकिन दाईं तरफ मिट नहीं जाता। वह टार्च को घुमाए और दाईं तरफ ले आए, तो दाईं तरफ फिर जीवित हो जाता है लेकिन बाईं तरफ छिप जाता है।

ध्यान का एक फोकस है और अगर विशेष दिशा में प्रवाहित करना हो तो टार्च की तरह प्रयोग करना पड़ता है ध्यान का। और अगर परमात्मा की तरफ ले जाना हो, तो दीये की तरह प्रयोग करना पड़ता है ध्यान का। इसको ठीक से समझ लें।

दीये का कोई फोकस नहीं होता, दीया अनफोकस्‍ड है। दीया सिर्फ जलता है। चारों तरफ रोशनी उसकी फैल जाती है। रोशनी किसी एक दिशा में नहीं बहती है, बस बहती है, चारों तरफ एक—सी। दीये का कोई मोह नहीं कि यहां बहे वहां बहे, यहां जाए वहां जाए। इसलिए जो भी है वह दीये की रोशनी में प्रकट हो जाता है। लेकिन टार्च दीये का फोकस के रूप में प्रयोग है। उसमें हम सारी रोशनी को बांधकर एक तरफ बहाते हैं। इसलिए यह हो सकता है कि दीये के कमरे में जलने पर चीजें साफ दिखाई न पड़े; दिखाई पड़े, लेकिन साफ दिखाई न पड़े। साफ दिखाई पड़ने के लिए दीये की रोशनी को हम एक ही जगह बांधकर डालते हैं, वह टार्च बन जाती है। तब फिर एक चीज पूरी तरह साफ

दिखाई पड़ती है। लेकिन एक चीज पूरी साफ दिखाई पड़ती है, तो शेष सब चीजें दिखाई पड़नी बंद हो जाती हैं। असल में एक चीज को अगर साफ देखना हो, तो सारे ध्यान को एक ही दिशा में बहाना पड़ेगा, शेष सब तरफ अंधेरा कर लेना पड़ेगा।

तो जिसे सीधे जीवन के सत्य को ही जानना है, वह तो दीये की तरह ध्यान को विकसित करेगा। अन्य कोई प्रयोजन नहीं है उसे। और सच तो यह है कि दीये का प्रयोजन इतना ही है कि दीया अपने को ही देख ले, बस इतना ही प्रकाशित हो जाए तो काफी है। बात खतम हो गई। लेकिन अगर कोई विशेष प्रयोग करने हों, जैसे पिछले जन्मों के स्मरण का, तो फिर ध्यान को एक दिशा में प्रवाहित करना होगा। और उस दिशा में प्रवाहित करने के दो —तीन सूत्र आपसे कहता हूं। पूरे सूत्र नहीं कहता हूं? क्योंकि शायद ही किसी को प्रवाहित करने का खयाल हो। जिनको खयाल हो, वे मुझसे अलग से मिल ले सकते हैं। लेकिन दो —तीन सूत्र कहता हूं। समझ में भर बात आ जाये। उतने से आप प्रयोग न कर सकेंगे, लेकिन बात भर समझ सकेंगे। और सबके लिए प्रयोग करना शायद उचित भी नहीं है, इसलिए पूरी बात नहीं कहूंगा। क्योंकि कई बार प्रयोग आपको खतरे में उतार दे सकता है।

एक घटना मैं आपसे कहूं। उससे खयाल आ जाए। एक प्रोफेसर महिला कोई दो —तीन वर्ष तक ध्यान के संबंध में मेरे निकट में रही। उसका अति आग्रह था कि जाति—स्मरण का प्रयोग करना है, पिछला जन्म जानना है। तो उसे मैंने जाति—स्मरण के प्रयोग करवाए। मैंने उससे बहुत कहा भी कि यह प्रयोग अभी न करो तो अच्छा है। क्योंकि ध्यान पूरा विकसित हो जाए, तब तो जाति—स्मरण के प्रयोग से कोई खतरा नहीं होता है। लेकिन पूरा विकसित न हो, तो खतरे हो सकते हैं। क्योंकि एक ही जीवन की स्मृतियों को झेलना भी बहुत बोझिल है। दो —चार जीवन की स्मृतियां एकदम से द्वार तोड़ कर भीतर आ जाएं, तो आदमी पागल भी हो सकता है। और इसीलिए प्रकृति ने व्यवस्था की है कि आप भूलते चले जाएं। जानने से ज्यादा भूलने की व्यवस्था की है। जितना आप स्मरण करते हैं, उससे ज्यादा विस्मरण करवा दिया जाता है, ताकि आपके चित्त के ऊपर ज्यादा बोझ कभी भी न हो जाए। चित्त की सामर्थ्य बढ़ जाए, तो ज्यादा बोझ झेला जा सकता है। लेकिन सामर्थ्य न बढ़े और बोझ आ जाए, तो कठिनाई शुरू हो जाती है। पर उनका आग्रह था, वह नहीं मानीं और उन्होंने प्रयोग किये।

जिस दिन उनको पहले दिन पिछले जन्म की स्मृति की धारा टूटी, उस दिन रात के कोई दो बजे वह भागी हुई मेरे पास आईं। एकदम हालत उनकी खराब थी। बहुत ही मुश्किल और कठिनाई में पड गई थीं वह। उन्होंने कहा, अब किसी तरह इसको बिलकुल बंद हो जाना चाहिए, मैं उस तरफ कुछ देखना ही नहीं चाहती। लेकिन इतना आसान नहीं है कुछ नहर को बुला लेना और फिर एकदम से बंद कर देना। इतना आसान नहीं है। द्वार टूट जाए तो उसे एकदम से बंद करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि द्वार खुलता नहीं, टूटता है। वक्त लगा कोई पंद्रह दिन, तभी वह स्मृतियों की धारा बंद हो सकी। कठिनाई क्या आ गई?

उन देवी को अत्यंत पवित्र, चरित्रवान होने का खयाल था। और पिछले जन्म की स्मृति आई कि वह वेश्या थी। और जब वेश्या होने के सारे चित्र उभरने शुरू हुए, तो उनके प्राण कैप गए। और इस जीवन की जो सारी नैतिकता थी, वह सब डावांडोल हो गई। और वह स्मृति ऐसी नहीं आती कि कोई और वेश्या थी। ऐसी नहीं है वह स्मृति। यही जो अब चरित्रवान है, वही वेश्या थी। और अक्सर ऐसा होता है कि पिछले जन्म में जो वेश्या हो, वह इस जन्म में बहुत सती हो जाए। वह पिछले जन्म की प्रतिक्रिया है, पिछले जन्म का दुख भाव है। वह पिछले जन्म की पीड़ादायक स्मृति है, जो उसे सती बना देती है।

इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि पिछले जन्म के गुंडे इस जन्म में महात्मा हो जाते हैं, इस जन्म के महात्मा अगले जन्म में गुंडे हो जाते हैं। इसलिए महात्माओं और गुंडों में बड़ा गहरा संबंध है। अक्सर यह प्रतिक्रिया हो जाती है। उसका कारण यह है कि जो हम जान लेते हैं, उससे हम पीड़ित हो जाते हैं, उससे हम विपरीत चले जाते हैं। चित्त का जो पेंडुलम है, वह बिलकुल विपरीत घूमता रहता है। बाएं को छू लेता है, फिर दाएं की तरफ जाना शुरू हो जाता है। दाएं को छू नहीं पाता है कि फिर बाएं की तरफ जाना शुरू हो जाता है। जब घड़ी के पेंडुलम को आप बाईं तरफ जाते देखें, तो आप समझ लेना कि वह दाईं तरफ जाने की तैयारी कर रहा है। बाईं तरफ जब वह जा रहा है तब वह दाईं तरफ जाने की शक्ति जुटा रहा है। और जितनी दूर तक बाएं जाएगा, उतनी ही दूर तक दाएं जाएगा। और इसलिए जीवन में अक्सर ऐसा होता रहता है, बुरा अच्छा बन जाता है, अच्छा बुरा बन जाता है। निरंतर यह होता रहता है। प्रत्येक जीवन में यह डावांडोलपन होता रहता है।

इसलिए आमतौर से ऐसा मत सोचना कि जो आदमी इस जन्म में महात्मा बन गया है, वह पिछले जन्म में भी महात्मा रहा हो। ऐसा जरूरी नहीं है। जरूरी इससे उलटा कहीं ज्यादा है। पिछले जन्म में जो उसने जाना है, उसकी पीड़ा ने उसे भर दिया है।

मैंने सुना है कि एक पड़ोस में एक साधु है और सामने एक वेश्या है। वे दोनों मरे हैं एक ही दिन। वेश्या स्वर्ग की तरफ जा रही है और साधु नर्क की तरफ जा रहा है। और वे जो उसे लेने आए हैं यमदूत, वे बड़े हैरान हैं। और यमदूत आपस में पूछते हैं कि यह क्या गड़बड़ हो गई है, कुछ भूल तो नहीं हो गई? क्योंकि इस साधु को हम नर्क क्यों ले जा रहे हैं? यह साधु साधु था। तो उनमें जो जानता है, वह कहता है कि वह साधु जरूर था, लेकिन वेश्या के प्रति निरंतर ईर्ष्या से भरा था। और निरंतर यह सोचता था कि पता नहीं कौन—सा राग —रंग वहां चल रहा है! कौन—सा सुख वहां मिल रहा है! वेश्या के घर से आते हुए वीणा के स्वर उसके प्राणों को बहुत कंपा देते थे, और वेश्या के घर से बजते हुए थर की आवाज उसे इतना आंदोलित कर देती थी जितना वेश्या के सामने बैठे हुए लोग आंदोलित नहीं होते थे। और उसका चित्त वहीं लगा रहता था। वह भगवान की पूजा भी करता था, तो भी उसके हाथ वेश्या की तरफ ही जुड़े रहते थे। और वह वेश्या निरंतर सोचती थी कि साधु न मालूम किस आंतरिक आनंद में जी रहा है, मैं कैसी गर्त में पड़ गई हूं। मैं न मालूम कैसे दुख में पड़ गई हूं। और जब वह साधु को सुबह पूजा के फूल लिये हुए जाते देखती थी, तो सोचती थी कि कब ऐसा संभव होगा कि मैं भी प्रभु के मंदिर में पूजा के फूल ले जाने के योग्य हो जाऊंगी। लेकिन मैं तो इतनी अपवित्र हूं कि मंदिर में जाने का साहस भी नहीं जुटा सकती हूं। और जब साधु के घर में पूजा का धुआ उठता था और पूजा के दीप जलते थे और पूजा की घंटियां बजती थीं, तो वेश्या किसी ध्यान में खो जाती थी, जैसा साधु कभी नहीं खो पाता था। और ऐसा उलटा होता रहा। और वेश्या ने निरंतर अर्जन कर लिया था साधु होने का और साधु ने अर्जन कर लिया था वेश्या होने का। उनकी यात्राएं, जो बिलकुल विपरीत थी, बिलकुल विपरीत हो गई थीं। जो बिलकुल उलटी मालूम होती थीं, वह बिलकुल बदल गई थीं। अक्सर ऐसा होता है। इसके होने के नियम हैं।

तो उन देवी को जब पूर्वजन्म का स्मरण आया, तो उन्हें बहुत पीड़ा हुई। पीड़ा यह हुई कि उनका सारा अहंकार गल गया और टूट गया। जो उन्होंने जाना, वह कंपा देने वाला सिद्ध हुआ। अब उसे भुलाना चाहती हैं। मैंने उनको कहा था कि इसे याद करना, करने की तैयारी रखनी चाहिए। अगर तैयारी न हो तो याद नहीं करना चाहिए।

इसलिए मैं आपको दो —तीन सूत्र कहता हूं, जिनसे आप जाति—स्मरण का अर्थ पूछा है वह समझ सकें। लेकिन उससे प्रयोग आपसे नहीं हो सकेगा। जिन्हें करना हो उन्हें अलग से ही सोचना पडेगा।

पहली तो बात यह है कि अगर जाति—स्मरण में उतरना हो, अतीत जन्म को जानना हो, तो पहली जो जरूरत है चित्त की, वह भविष्य की तरफ से चित्त को मोड़ना पड़ता है। हमारा चित्त भविष्यगामी है। हमारा चित्त जो है वह फ्यूचर सेंटर्ड है आमतौर से, अतीतगामी नहीं है। चित्त आमतौर से भविष्य की तरफ गति करता है। चित्त की जो धारा है, वह भविष्य की तरफ उन्‍मुख है। और जीवन के हित में यही है कि भविष्य की तरफ चित्त उन्मुख हो, अतीत की तरफ उन्‍मुख न हो। क्योंकि अतीत से अब क्या लेना—देना है, वह गया, वह जा चुका। अभी जो आने को है उसकी तरफ हम उत्सुक हैं।

इसीलिए तो हम ज्योतिषियों के पास पूछते फिरते हैं कि कल क्या होने वाला है? भविष्य में क्या होने वाला है? भविष्य के प्रति हम उत्सुक हैं कि क्या होने वाला है। अब जिस व्यक्ति को अतीत स्मरण करना हो, उसे भविष्य की उत्सुकता बिलकुल छोड़ देनी पड़ती है। क्योंकि चित्त का जो फोकस है, उसकी जो धारा है, अगर भविष्य की तरफ बह रही है उसके टार्च की धारा, तो अतीत की तरफ नहीं बह सकती है।

तो पहला तो काम यह करना पड़ता है कि भविष्य उन्‍मुखता बिलकुल तोड़ देनी पड़ती है कुछ महीनों के लिए, एक निश्चित समय के लिए। छह महीने के लिए भविष्य को नहीं सोचूंगा, भविष्य का खयाल आ जाएगा, तो उसको नमस्कार कर लूंगा। भविष्य का भाव आएगा, तो मैं उस तरफ नहीं बहुंगा। भविष्य है ही नहीं, ऐसा छह महीने मानकर चलूंगा। सिर्फ अतीत ही है और पीछे की तरफ बहुंगा। पहली बात।

और जैसे ही भविष्य टूटता है, चित्त की धारा पीछे की तरफ मुड़नी शुरू हो जाती है। फिर पीछे की तरफ पहले तो इसी जन्म में पीछे की तरफ लौटना पड़ेगा। एकदम पिछले जन्म में नहीँ लौटा जा सकता है। इसी जन्म में पीछे की तरफ लौटना पड़ेगा। तो उसके प्रयोग हैं कि इस जन्म में हम पीछे की तरफ कैसे लौटें।

जैसे कि मैंने कहा एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को आपने क्या किया, इसका आपको कोई पता नहीं है। तो इसका प्रयोग है, इसे जाना जा सकता है।

जैसे मैं ध्यान के लिए कहता हूं, ऐसा ध्यान करें और दस मिनट के बाद जब ध्यान में चित्त चला जाए, शरीर शिथिल हो जाए, श्वास शिथिल हो जाए, मन शांत हो जाए, तब एक ही बात चित्त में रह जाए कि एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को क्या हुआ? बस यह एक ही बात चित्त में रह जाए, सारा चित्त इस पर घूमने लगे—स्व जनवरी उन्नीस सौ पचास को क्या हुआ? एक जनवरी उन्नीस सौ पचास को क्या हुआ? बस चित्त के चारों तरफ गूंजता हुआ यह एक ही स्वर रह जाए। तो आप दो —चार दिन में पाएंगे कि अचानक एक दिन जैसे पर्दा उठ गया और एक जनवरी आ गई और सुबह से सांझ तक एक—एक चीज दौड़ गई। और आपने इस तरह एक जनवरी देखी, जैसी आपने उस दिन भी न देखी होगी, क्योंकि इतना होश आपने उस दिन भी न रखा होगा। जिस दिन एक जनवरी गुजरी थी, इतना होश उस दिन भी न रहा होगा।

तो पहले इसी जन्म में पीछे लौट कर प्रयोग करना पड़ेगा। फिर पांच वर्ष तक प्रयोगों को ले जाना बहुत सरल है। पांच वर्ष की उम्र तक पीछे लौटना बहुत सरल है, बहुत कठिन नहीं है। लेकिन पांच वर्ष के बाद बड़ी बाधा पड़ती है। इसलिए आमतौर से हमारी स्मृति पांच वर्ष की उम्र के पहले की नहीं होती। पीछे से पीछे की स्मृति करीब पांच वर्ष के करीब की होती है। ही, कुछ लोगों को तीन वर्ष तक हो सकती है, लेकिन तीन वर्ष से पहले तो बहुत ही मुश्किल बात हो जाती है। वहां एकदम द्वार अटक जाता है, जैसे सब बंद —हो गया है वहा तक।

लेकिन जो व्यक्ति इसमें समर्थ हो जाएगा, पांच वर्ष की उम्र तक की किसी भी दिन की स्मृति को पूरा जगाने लगेगा… और वह पूरी तरह जगने लगती है। और फिर उसको इस तरह जांच कर लेनी चाहिए। जैसे आज का दिन गुजर रहा है, तो आज के दिन की कुछ बातें नोट करके ताले में बंद कर दें। दो साल बाद आज के दिन को याद करें। वह सब खो जाएगा आज का दिन। और तब स्मरण करें, और स्मरण करके फिर ताला तोड़े, और फिर मेल करें कि वह बात मेल खा गई कि नहीं। और आप हैरान होंगे.. आप हैरान होंगे कि जितनी बातें आपने लिखी थीं, उनसे बहुत ज्यादा बातें और भी याद आई हैं जो आप उस दिन भी नोट नहीं कर पाए थे। वे तो सब बातें याद आ ही जाएंगी।

इसको बुद्ध ने नाम दिया है, आलय—विज्ञान। मनुष्य के मन का एक कोना है, जिसको उन्होंने आलय—विज्ञान कहा है। आलय—विज्ञान का मतलब होता है, स्टोर हाउस आफ काशसनेस। जैसे घर में एक कबाड़खाना होता है, जहां हम सब बेकार हो गई चीजों को डालते चले जाते हैं। ऐसा चित्त की स्मृतियों को संग्रह करने वाला एक स्टोर हाउस है, जहां सब चीजें संगृहीत होती चली जाती हैं जन्मों—जन्मों की। वे कभी वहां से हटती नहीं हैं, क्योंकि कब जरूरत पड़ जाए उनकी, इसलिए वे वहा संगृहीत होती हैं। शरीर बदल जाता —है, लेकिन वह स्टोर हाउस हमारे साथ चलता है। वह कब जरूरत पड़ जाएगी उसकी, कुछ कहा नहीं जा सकता है। और जिंदगी में जो —जो हमने किया है, जो—जो हमने जीया है, जो—जो भोगा है, जो —जो जाना है, जो —जो जीया है, वह सब वहां संग्रहीत है।

तो फिर जिस व्यक्ति —को यह पाच वर्ष तक स्मरण आने लगे, वह पाच वर्ष के पीछे उतर सकता है। कठिनाई नहीं है बहुत। प्रयोग यही रहेगा पांच वर्ष के पीछे उतरने का। पाच वर्ष के पीछे फिर एक दरवाजा है, जो वहां तक ले —जाएगा जहां तक जन्म हुआ, पृथ्वी पर आना हुआ। फिर एक कठिनाई मालूम होती है, क्योंकि मां के पेट की स्मृतियां भी हैं, वे भी मिटती नहीं हैं। उसमें भी प्रवेश किया जा सकता है। और तब उस क्षण तक पहुंचा जा सकता है, जिस क्षण कंसेप्शन होता है, जिस क्षण मां और पिता के अणु मिलते हैं और आत्मा प्रवेश करती है। और वहां तक पहुंच जाने के बाद ही फिर पिछले जन्मों में उतरा जा सकता है। सीधे नहीं उतरा जा सकता है। इतनी यात्रा पीछे करनी पडे, तब पिछले जन्म में भी सरका जा सकता है।

पिछले जन्म में सरकने पर पहला स्मरण जो आएगा, वह अंतिम घटना का आएगा। ध्यान रहे जैसे कि हम किसी फिल्म को उलटा चलाएं, तो समझ में नहीं आएगी एकदम से। अगर किसी फिल्म की रील को उलटा चलाएं तो समझ में नहीं आएगी, या कोई आदमी किसी उपन्यास को उलटा पढ़े तो समझ में बिलकुल नहीं आएगा, बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा। इसलिए पहली दफा पीछे की तरफ लौटने में कुछ भी समझ में नहीं आएगा, क्योंकि यह बिलकुल उलटा है। घटना के घटने का जो कम था, उससे यह बिलकुल उलटा कम है।

अगर आप पीछे लौटेंगे, तो जन्म पहले आएगा इस जन्म का, और मृत्यु बाद में आएगी पिछले जन्म की। मृत्यु पहले आएगी, बुढ़ापा पहले आएगा, फिर जवानी आएगी, फिर बचपन आएगा, फिर जन्म आएगा। तो उलटा कम होगा और उलटे कम में पहचानना बहुत मुश्किल होगा।

इसलिए पहली दफा स्मरण आ जाने पर बड़ी बेचैनी और तकलीफ शुरू होती है, क्योंकि पहचानना मुश्किल होता है कि यह क्या हो रहा है। जैसे कि कोई आदमी तय कर ले कि मैं उपन्यास को उलटा पढूंगा या फिल्म को उलटा देखूंगा, तो बहुत कठिनाई में पड़ जाएगा। दस—पच्चीस दफे देखकर शायद वह ठीक जमा पाए कि यह इस तरह घटना घटी होगी।

इसलिए पिछले जन्म की स्मृति का जो सबसे बडा कठिन श्रम है, वह है कि उलटे में देखना पड़ेगा उसको जो सीधे में घटा था। और सीधा—उलटा क्या है, हमारे आने —जाने का सवाल है।

बीज को हम बोते हैं, आखिर में फूल आता है। अगर उलटा लौटना पड़े तो पहले फूल आ जाएगा, फिर कली आएगी, फिर पौधा आएगा, फिर पत्ते आएंगे, फिर सिकुड़ कर छोटा अंकुर रह जाएगा, फिर बीज आएगा। और इस उलटे कम का हमें कोई बोध नहीं होता। इसलिए पिछले जन्म की स्मृति को आ जाने पर भी व्यवस्थित करने में बहुत समय लग जाता है—साफ—साफ व्यवस्थित करने में कि कैसी घटना घटी होगी, उसका क्या तारतम्य रहा होगा। अब यह बहुत अजीब बात है न कि मृत्यु पहले आएगी, फिर बुढापा आएगा, फिर बीमारी आएगी, फिर जवानी आएगी, चीजें उलटी घटेंगी। यानी किसी से अगर हमने शादी की होगी और तलाक दिया होगा, तो तलाक पहले आएगा, फिर प्रेम होगा, फिर शादी होगी। तो इस उलटे कम में उसको समझ पाना एकदम मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि हमारे चित्त के समझने का कम एक तरफ है, एक दिशा में है, वन डायमेंशनल है। चित्त के समझने का जो आयाम है, वह एक दिशा में है। और उलटा देखना बहुत ही कठिन मामला है। और कभी हमें उलटे का कोई अनुभव नहीं होता है, सीधे ही हम जीते हैं। लेकिन प्रयास किया जाए, तो उलटे देखकर भी समझा जा सकता है। लेकिन यह बहुत अदभुत अनुभव होगा।

और अगर हम उलटा देख सकें, तो हम बहुत हैरान होंगे। क्योंकि तलाक अगर पहले घट जाए, फिर प्रेम हो, फिर विवाह हो, तो हमको चीजें पहली दफा दिखाई पड़ेगी कि यह तो बहुत हैरानी की बात है। तब हमें दिखाई पड़ेगा कि तलाक घटना तो बिलकुल अनिवार्य था। जिस तरह का प्रेम हुआ था, उसमें तलाक होने ही वाला था। और जिस तरह का विवाह हुआ था, उसकी तलाक ही परिणति थी। लेकिन जब हमने विवाह किया था, तब हमने सोचा भी न था कि इसमें तलाक घट सकता है। लेकिन तलाक उसी विवाह का फल था। और जब हम इस बात को पूरी तरह देख लेंगे, तो आज प्रेम करना बहुत और हो जाएगी बात, क्योंकि उसमें तलाक हमें पहले से दिखाई पड़ सकता है। उसमें मित्रता करने के पहले शत्रुता का आगमन दिखाई पड़ सकता है।

जो मैं कह रहा हूं कि पिछले जन्म की स्मृति इस जन्म को अस्त—व्यस्त कर देगी एकदम से, क्योंकि आप फिर उसी तरह से नहीं जी सकेंगे जैसा आप पिछले जन्म में जीए थे। उस बार ऐसा लगा था, और अभी भी ऐसा लग रहा है. अभी भी ऐसा लग रहा है कि धन इकट्ठा करते जा रहे हैं, धन इकट्ठा करते जा रहे हैं, धन इकट्ठा करते जा रहे हैं. तो बड़ी सफलता मिल जाएगी, बड़ा आनंद मिल जाएगा। उसमें उलटा दिखाई पड़ेगा। उसमें दिखाई पड़ेगा कि दुख मिला और फिर धन इकट्ठा कर रहे हैं… और धन इकट्ठा कर रहे हैं। दुख मिलना पहले दिखाई पड़ जाएगा और धन इकट्ठा करना पीछे दिखाई पड़ेगा। और तब यह साफ दिखाई पड़ जाएगा कि वह धन इकट्ठा करना सुख में ले जाने का आधार नहीं था, वह ले गया दुख में। मित्र बनाना शत्रु बनाने में ले गया। जिसे हम प्रेम करना कहते थे वह घृणा में ले गया है। जिसे हम मेल कहते थे, वह विरह में ले गया है। तब चीजें अपने पूरे अर्थ में प्रकट होंगी और वह अर्थ हमारे इस जीवन के जीने को एकदम बदल देगा। एकदम बदल देगा, क्योंकि तब बड़ी अन्यथा बात हो जाएगी।

एक फकीर के संबंध में मैंने सुना है। कोई आदमी उसके पास गया है और उसने उससे कहा है कि बड़ी कृपा होगी, मैं आपका अनुयायी बनना चाहता हूं। तो उस फकीर ने कहा, अब अनुयायी न बनाऊंगा। उस आदमी ने पूछा, क्यों न बनाएंगे? उसने कहा, पिछले जन्म में बनाए थे, लेकिन जिनको अनुयायी बनाया था, वे ही पीछे दुश्मन बन गए। अब मैं देख चुका हूं घटना को और अब मैं जानता हूं कि अनुयायी बनाना यानी दुश्मन बनाना। मित्र तय करना यानी शत्रुता के बीज बोना। तो उसने कहा, अब मैं शत्रु किसी को नहीं बनाना चाहता हूं, इसलिए मित्र भी नहीं बनाता हूं। और अब किसी को दुश्मन नहीं बनाना है, इसलिए मैत्री भी नहीं करता हूं। अब मैंने जान लिया है कि अकेला होना ही काफी है। दूसरे को पास लाना, दूसरे को दूर ले जाने का उपाय है।

बुद्ध ने कहा है, प्रिय के मिलने से खुशी होती है, अप्रिय के बिछुड़ने से खुशी होती है। प्रिय के बिछुड़ने से दुख होता है, अप्रिय के मिलने से दुख होता है। ऐसा देखा था, ऐसा समझा था। लेकिन यह बहुत बाद में समझ में आया है कि जिसे हम प्रिय कहते हैं, वही अप्रिय बन जाता है; और जिसे हम अप्रिय कहते हैं, वही प्रिय भी बन सकता है।

लेकिन अगर पिछले स्मरण आ जाएं, तो ये स्थितियां बहुत बदल जाएंगी, बहुत भिन्न हो जाएंगी। यह स्मरण संभव है, आवश्यक नहीं। संभव है, अनिवार्य नहीं। और कभी—कभी तो ध्यान करते —करते आकस्मिक रूप से भी टूट पड़ता है, कोई प्रयोग बिना किए भी। और अगर ध्यान करते —करते आकस्मिक रूप से प्रकट भी हो जाये, तो भी उसमें बहुत रस मत लेना, देख लेना और साक्षी — भाव ही रखना। क्योंकि साधारणत: चित्त की इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि इतने उपद्रवों को, इतने अनंत उपद्रवों को एक साथ झेल सके। उस झेलने में विक्षिप्त हो जाने की पूरी संभावना है।

एक लड़की को मेरे पास लाया गया था। उसकी उम्र कोई बारह वर्ष थी। उसे तीन जन्मों का स्मरण था, आकस्मिक रूप से ही। कोई प्रयोग नहीं किया है उसने। कई बार आकस्मिक रूप से, कुछ कारणों से यह भूल हो जाती है। यह भूल ही है प्रकृति की, यह कोई कृपा नहीं है उसके ऊपर।

इसमें प्राकृतिक रूप से कुछ गलती हो गई है। जैसे किसी व्यक्ति को तीन आंखें आ जाए या चार हाथ आ जाएं, वह भूल है। और चार हाथ दो हाथ से कम ताकतवर होते हैं। और चार हाथ उतना काम नहीं कर पाते जितना दो हाथ कर पाते हैं। चार हाथ कमजोर कर जाते हैं शरीर को, शक्तिशाली नहीं कर जाते। मेरे पास लायी गयी थी, बारह वर्ष उम्र होगी उसकी। उसको तीन जन्मों का स्मरण है।

इस संबंध में बहुत खोज—बीन हुई। पिछले जन्म में वह, जहां मैं रहता हूं वहां से कोई अस्सी मील दूर जिस घर में थी, उस घर में वह चालीस वर्ष की होकर ‘ मरी। उस घर के लोग अब मेरे ही गांव में रहते हैं। तो वह उन सबको पहचान सकी। अपने भाई को, अपनी लड़कियों को, अपनी लड़कियों के बच्चों को, अपने दामादों को, उन सबको वह हजारों लोगों की भीड़ में भी खड़ा करने पर पहचान सकी थी। वह दूर—दूर के रिश्तेदारों को पहचान सकी और ऐसी बहुत सी बातें वह उनसे कह सकी जो कि वे भी भूल गए थे। उसका बड़ा भाई अभी जिंदा है। उसके सिर पर थोड़ी सी चोट का निशान है। तो मैंने उस लड़की से पूछा कि उस चोट के संबंध में तुम्हें कुछ पता है? वह लड़की हंसी, उसने कहा कि भाई को भी पता न होगा। भाई ही बता दे कि यह चोट कब लगी और कैसे लगी। भाई खुद ही याद नहीं कर पाया कि चोट कब लगी। उसने कहा कि मुझे खयाल ही नहीं है। तो उस लड़की ने कहा कि जब मेरे भाई की शादी हुई और वह घोड़े पर बैठा था, तो घोड़े से गिर पड़ा। लेकिन तब उसकी उम्र केवल दस साल थी। और यह घोड़े से गिरने से शादी के वक्त चोट लग गई थी। और इसको गांव के बडे —बूढ़ी ने भी कन्‍फर्म किया कि यह बात ठीक है कि यह लड़का घोड़े से गिरा था। लेकिन वह व्यक्ति खुद ही भूल चुका था। फिर तो उसने घर में गड़ा हुआ खजाना भी बताया जो वह गड़ा गई थी। वह भी उसने खोज कर बताया। ठीक जगह पर उसने वह जगह भी खोदकर बता दी।

पिछले जन्म में वह चालीस वर्ष की होकर मरी। और उससे पहले वह आसाम के किसी गांव में पैदा हुई थी, जहां वह सात वर्ष की होकर मरी। उस गांव का वह पता नहीं बता पाई, नाम भी नहीं बता पाई। लेकिन सात वर्ष की लड़की जितनी आसामी भाषा बोलती है, उतनी वह बोल सकती थी। और सात वर्ष की लड़कियां जिस तरह नाच सकती हैं, गाना गा सकती हैं आसामी का, उतना भी वह कर सकती थी। बहुत ही खोजबीन की, लेकिन उस परिवार का कोई पता नहीं चल सका।

अब उसको सैंतालीस वर्ष का तो पिछला अनुभव है और बारह वर्ष का यह। तो उसकी आंखों में आप बराबर पैंसठ —सत्तर साल की स्त्री की झलक देख सकते हैं, और है वह बारह साल की। उसके चेहरे पर पैंसठ—सत्तर साल की स्त्री का भाव है। न तो वह खेल खेल सकती है किसी बच्चे के साथ, क्योंकि वह बूढी है। स्मृति तो सत्तर साल पुरानी है, तो उसको सत्तर साल के होने का खयाल है। उसकी उस तो बारह साल है। वह स्कूल में पढ़ नहीं सकती, क्योंकि वह अपने शिक्षक को बेटा कह सकती है। उसकी जो स्मृति है वह सत्तर साल की है, उसका व्यक्तित्व सत्तर साल का है। और उसका शरीर बारह साल का है। वह खेल नहीं सकती, वह कोई रस नहीं ले सकती। वह गंभीर बातों में जैसा कि बूढी स्त्रियां बातें करती हैं, उनमें ही रस ले सकती है और किसी बात में रस नहीं ले सकती। और उसमें इतना तनाव है और इतनी परेशानी है, क्योंकि शरीर उसका बारह साल का है और स्मृति सत्तर साल की है। इनमें कोई तालमेल नहीं बैठता है। एकदम उदास और पीड़ित और परेशान है।

तो मैंने उसके मां और पिता को कहा कि उसे मेरे पास ले आएं, मैं उसकी स्मृति को भुला दूं। क्योंकि जो स्मृति को याद करने का रास्ता है, उससे उलटा जाने से स्मृतियां भूल भी जाती हैं। उसकी स्मृतियां भुला दें……। लेकिन वे तो रस में थे, उनको तो आनंद आ रहा था, भीड़— भाड़ होती थी, लाखों लोग आते थे। लड़की की पूजा शुरू हो गई थी। उन्होंने कहा कि भुलवाएंगे क्यों! मैंने उनको कहा, लड़की पागल हो जाएगी। लेकिन वे नहीं माने और आज लड़की की हालत करीब—करीब पागल जैसी हो गई है। क्योंकि वह उतनी स्मृतियों को झेल नहीं सकती है। और उसकी कठिनाई यह हो गई है कि अब उसका विवाह कैसे हो! वह ऐसा ही सोचती है कि वह सत्तर साल की बूढ़ी औरत है और अब विवाह करने का सोच रही है। तो उसके मन का कहीं तालमेल ही नहीं है किसी बात का। शरीर उसका जवान है और मन बूढ़ा है, तो बहुत कठिनाई हो गई। उसे जीने में बहुत कठिनाई हो रही है।

पर यह आकस्मिक है। आप प्रयोग से भी यह धारा तोड़ सकते हैं। लेकिन उस धारा को तोड्ने की दिशा में जाना कोई बहुत आवश्यक नहीं है। किन्हीं को उसकी उत्सुकता हो, तो प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन उन प्रयोगों से पहले ध्यान में काफी गहरे प्रयोग जरूरी हैं, ताकि मन इतना शांत और शक्तिशाली हो जाए कि कोई भी चीज जब टूट पड़े, तो आप उसको साक्षी— भाव से देख सकें। और अगर कोई व्यक्ति साक्षी— भाव में विकसित हो जाता है, तब पुराने जन्म देखे गये सपनों से ज्यादा नहीं मालूम पड़ते हैं। तब उनसे कोई पीड़ा नहीं होती। तब ऐसा ही लगता है, जैसे ये सपने हमने देखे हैं। सपनों से ज्यादा उनका अर्थ नहीं रह जाता। और जब हमें पुराने दो —चार जन्म याद आ जाते हैं और सपनों की तरह मालूम पड़ते हैं, तो यह जन्म भी तत्काल सपने की तरह मालूम पड़ने लगता है।

तो जिन लोगों ने इस जगत को माया कहा है, उनके माया कहने का और कोई बुनियादी कारण नहीं है, फिर और सब तो कुछ भी बातें होती हैं। उसका बुनियादी कारण जाति—स्मरण ही है। जिन्होंने भी पिछले स्मरण किए हैं, सब मामला माया हो गया है। एकदम इलूजन, सपना हो गया है। क्योंकि कहां हैं वे मित्र, जो पिछले जन्म में थे? कहां हैं वे मकान? कहां है वह पत्नी? कहां हैं वे बेटे? कहां गई वह दुनिया जो पिछले जन्म में थी? कहां गया वह सब, जिसको हमने इतना सत्य मान रखा था कि वह है? कहां गईं वे चिंताएं जिनके लिए हम रात भर नहीं सोए थे? कहां गए वे दुख, वे पीड़ाएं जिनको हमने पहाड़ समझ रखा था और ढोया था? कहां गए वे सुख जिनके लिए हमने आकांक्षा की थी? कहां गया वह सब जिसके लिए हम दुखी, पीड़ित, परेशान हुए थे? अगर पिछला जन्म याद आ जाए और सत्तर वर्ष आप जीए हों, तो उन सत्तर वर्षों में जो देखा गया था वह एक सपना मालूम पड़ेगा या सत्य? एक सपना ही मालूम पड़ेगा, जो आया और गया।

मैंने सुना है, एक सम्राट अपने बेटे के पास बैठा है। उसका बेटा मरने के करीब है। और एक ही बेटा है। आठ रातें हो गई हैं, और वह न तो बचाया जा सकता है, न मृत्यु आ रही है, बहुत मुश्किल हो गयी है। अब यह खुद ही सोचने लगा है कि इतनी पीड़ा है कि मर ही जाए। मन कहता है कि बच जाए, लेकिन एक मन कहता है कि इतना दुख, इतनी पीड़ा है कि मर ही जाए तो भी ठीक है। आठ रात से सम्राट सोया नहीं है। कोई चार बजे होंगे रात के और सम्राट को झपकी लग गई है। और उस झपकी में वह सपना देखने लगता’ है। और सपने अक्सर हम वही देखते हैं, जो जिंदगी में कमी रह जाती है।

एक ही बेटा था और वह भी मरने के करीब पहुंच रहा है। तो उसने सपना देखा है कि उसके बारह बेटे हैं। और वे बड़े सुंदर हैं, उनकी स्वर्ण जैसी काया है, बड़े —बड़े महल हैं, बड़ा साम्राज्य है, सारी पृथ्वी का वह मालिक है और बड़े आनंद में है। और वह यह सपना देख ही रहा था …. क्योंकि

सपना देखने में बहुत देर नहीं लगती है। सपने का टाइमिंग जो है वह हमारी जिंदगी के समय की धारा से बिलकुल भिन्न है। तो हम क्षण में वर्षों का सपना देख सकते हैं। एक क्षण झपकी लगे, आप इतना बड़ा सपना देख सकते हैं कि वर्षों तक फैल जाए और जागकर आपको मुश्किल मालूम पड़े कि इन कुछ क्षणों में वर्षों का सपना कैसे देख लिया! असल में समय की गति सपने में बहुत तीव्र है। कहीं एक क्षण में वर्षों पार किए जा सकते हैं। तो उस एक क्षण में उसने सपना देख लिया है, बारह लड़के हैं, उनकी सुंदर स्त्रियां हैं, बड़े सुंदर भवन हैं, बड़ा राज्य है। और तभी उसका वह बाहर का लड़का मर गया। पत्नी चीख मारकर चिल्लायी है तो सम्राट की नींद खुल गयी। नींद टूटी तो वह एकदम से चौंका हुआ उठा। पत्नी ने समझा कि शायद वह घबरा गया है। उसने पूछा, इतने घबरा क्यों गये हो, आंखों में आंसू भी नहीं हैं! कुछ बोलते भी नहीं हो! सम्राट ने कहा, नहीं, मैं घबरा नहीं गया हूं, बड़ी मुश्किल में पड गया हूं। मैं यह सोचता हूं कि मैं किसके लिए रोऊं। अभी बारह लड़के थे, वे खो गये, उनके लिए रोऊं। या एक लड़का यह खो गया है, इसके लिए रोऊं! मैं इस चिंता में पड गया हूं कि कौन मरा है। और मजा यह है कि जब मैं उन बारह लड़कों के बीच में था, तो इस लड़के का मुझे कोई पता नहीं था, यह था ही नहीं। यह खो गया था, तू खो गई थी, यह महल खो गया था। अब यह महल है, तू है, यह लड़का है; लेकिन वे महल खो गए, वे लड़के खो गए। कौन सत्य है? यह सत्य है या वह? और मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं।

अगर एक बार पिछले जन्मों का स्मरण आ जाए, तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे कि जो अभी देख रहा हूं, वह सत्य है? क्योंकि ऐसा तो बहुत बार देखा है, लेकिन सब मिट गया है, सब खो गया है। तो एक सवाल उठ जाएगा कि जो हम देख रहे हैं वह, वह भी उतना ही सच है जितना वह था। वह भी एक सपने की तरह दौड़ जाएगा और मिट जाएगा। और जैसे सब सपने अंत तक पहुंच गए, वैसे ही यह सपना भी अंत तक पहुंच जायेगा।

लेकिन जब हम फिल्म बैठकर देखते हैं, तब फिल्म भी सच मालूम होने लगती है। जब पर्दा उठता है, अंधेरा मिट जाता है, और जब हम हाल के बाहर जाने लगते हैं, तब भी दो —चार क्षण लग जाते हैं वापस लौटने में। आंख मीचते —मीचते हाल के बाहर आते हैं, तब जरा होश आता है कि वह सब एक सपना है। एक नाटक था, जो देखा। लेकिन वहां रो भी लिए, आंसू भी पोंछ लिए। सच तो यह है कि चौबीस घंटे जो लोग नहीं रो पाते, वे अपना रोना वहां जाकर निकाल लेते हैं फिल्म देखने के बहाने। और बड़ा अच्छा हुआ। रोते तो हैं वे, तो कोई दूसरा बहाना खोजना पड़ता, यह बहाना बहुत मुक्त कर सकता है। वहां रो लेते हैं, हंस लेते हैं। न दिन में हंसते हैं न रोते हैं। वहा एक उपाय मिल जाता है।

तो बाहर आकर एकदम चौंकते हैं, और जो पहला खयाल आता है वह यह आता है कि बडे दुख में पड़ गए। लेकिन कोई रोज—रोज ऐसा सिनेमा देखता रहे, तो फिर धीरे— धीरे यह धोखा साफ होने लगता है। लेकिन पिछले सिनेमा की स्मृति भूल जाती है बार—बार। जब फिर दुबारा देखने जाते हैं, तो फिर वह सच मालूम होने लगता है।

यदि पिछले जन्मों की. स्मृतियां आ जाएं, तो जो जन्म अभी चल रहा है, वह भी सब सपने जैसा मालूम पड़ेगा। ये हवाएं कितनी दफे नहीं चलीं! लेकिन अब वे हवाएं कहां हैं जो चलीं? और ये आकाश में बादल कितने दफे नहीं घिरे! लेकिन अब वे बादल कहां हैं जो घिरे? वे सब खो गए, ये सब भी खो जाएंगे। ये सब भी खोने के कम में ही लगे हुए हैं।

यह अगर बोध हो जाए, तो माया का अनुभव होगा। लेकिन इसके साथ ही दूसरा भी अनुभव होगा किं चीजें बड़ी असत्य हैं, घटनाएं बड़ी असत्य हैं, आती हैं और खो जाती हैं, लेकिन एक चीज बिलकुल नहीं खोती—मैं। मैं बिलकुल नहीं खोता। एक सपना आता है, दूसरा सपना आता है, तीसरा सपना आता है। लेकिन वह जिसको सपने आते हैं, वह बचा ही रहता है। वह यात्री जो एक शरीर से निकलता है, दूसरे शरीरों में चला जाता है। एक देह मिट जाती है, दूसरी मिट जाती है, तीसरी खो जाती है, लेकिन वह यात्री चलता चला जाता है।

तो एक ही साथ दो अनुभव होते हैं—एक अनुभव कि जगत माया है, और द्रष्टा सत्य है; दृश्य असत्य है और द्रष्टा सत्य है, यह एक ही साथ दोनों अनुभव होते हैं। दृश्य तो रोज बदल जाते हैं, हर बार बदल गए हैं, लेकिन द्रष्टा, वह देखने वाला, वही है, वही है, वही है। और ध्यान रहे, जब तक दृश्य सत्य मालूम होते हैं, तब तक द्रष्टा पर ध्यान नहीं जाता है। जब दृश्य एकदम असत्य हो जाते हैं, तब द्रष्टा पर ध्यान जाता है।

इसलिए मैं कहता हूं, उपयोगी तो है, लेकिन उपयोगी उनके लिए है जो थोड़े ध्यान में गहरे जाएं और प्रयोग करें। ध्यान में गहरे उतरें, तो फिर जीवन को सपने की तरह देखने की क्षमता आ जाए। जैसे महात्मा होना उतना ही सपना है, जितना चोर होना सपना है। और सपने अच्छे भी देखे जा सकते हैं और बुरे भी देखे जा सकते हैं। और मजे की बात यह है कि चोर होने का सपना जरा जल्दी टूट भी सकता है, लेकिन महात्मा होने का सपना जरा देर से टूटता है, क्योंकि वह बड़ा सुखद मालूम पड़ता है। इसलिए महात्मा होने का सपना, चोर होने के सपने से ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि वहा बड़ा सुख मालूम पड़ता है। ऐसा लगता है सपना चलता ही रहे। सुखद सपने होते हैं और दुखद सपने भी होते हैं। सुखद सपने में यह खराबी होती है कि उसको चलाये रखने का मन होता है। दुखद सपने में जहां छाती पर कोई चढ़ गया है और प्राण संकट में पड़े हैं और पहाड़ पर से गिर गये हैं—अपने आप ही टूटने का मन होने लगता है कि टूट जाये, घबड़ाहट इतनी ज्यादा है।

इसलिए बहुत बार यह हो जाता है कि पापी पहुंच जाते हैं परमात्मा के पास, पुण्यात्मा नहीं पहुंच पाते। क्योंकि पापी का सपना बड़ा दुखद है। महात्मा का सपना बहुत सुखद है। गेरुवे वस्त्रों में लिपटे हुए सपनों को बचाने का बड़ा मन होता है। वे बड़े प्रीतिकर हैं।

ये थोड़ी—सी बातें मैंने आपको जाति—स्मरण के संबंध में कहीं, लेकिन इसके लिए तो प्रयोग में उतरना पड़ेगा। लेकिन अभी आज से ही हम भीतर उतरना शुरू करें, तभी पीछे भी उतर सकते हैं। भीतर ही कोई न उतरना चाहे तो मुश्किल है।

जैसे कि कोई बड़ा मकान है और उसके नीचे तलघरे हैं। और आदमी मकान के बाहर खड़ा है और वह कहता है कि मुझे तो मेरे तलघरों तक जाना है। तो हम उसे कहेंगे कि पहले अपने मकान के भीतर तो घुसो। क्योंकि तलघरों के भीतर जाने का रास्ता मकान के भीतर से होकर जाता है, मकान के बाहर से नहीं। और वह आदमी कहता है, मैं अपने मकान के बाहर खड़ा हूं और मुझे तलघरों तक जाना है। वह आदमी तलघरों तक नहीं जा सकता। तलघरों तक जाया जा सकता है, लेकिन पहले उसे मकान के भीतर घुसना पड़ेगा।

जिंदगी जो बीत गई है वह हमारा तलघरा हो गई है। जो जीवन हो चुके हैं वह हमारे तलघरे हैं। उन खंडों में हम कभी जीए थे, हमने उन खंडों को छोड़ दिया है। हम दूसरे खंडों में जी रहे हैं। लेकिन हम खंडों में नहीं जी रहे हैं, अभी हम मकान के बाहर खड़े हैं, हम अपने बाहर खड़े हैं। और हम पीछे नहीं उतर सकते जब तक हम भीतर न उतर जाएं। पीछे उतरने की पहली शर्त है कि पहले भीतर उतर जाएं। और जो भीतर उतर जाता है तो उसे पीछे जाने में न कोई कठिनाई है, न कोई खतरा है, न कोई उपद्रव है।

एक मित्र ने पूछा है कि उनके कोई मित्र हैं वे योगी हैं और कहते हैं कि पिछले जन्म में वे चिड़िया थे तो क्या आदमी पशु भी हो सकता है?

आदमी कभी पशु हो सकता है, लेकिन दुबारा पशु नहीं हो सकता। पीछे लौटना नहीं होता, पीछे लौटना असंभव है। तो यह तो हो सकता है कि पीछे की योनि में से आगे आना हो, लेकिन यह नहीं हो सकता कि आगे की योनि में से पीछे लौटना पड़े। इस जगत में पीछे लौटना होता ही नहीं, पीछे लौटने का उपाय ही नहीं है। दो ही उपाय हैं —या तो आगे बढ़े, या जहां हैं वहां ही रुक जाएं। पीछे नहीं लौट सकते। जैसे स्कूल में बच्चा पहली कक्षा में पढ़ता है। वह उत्तीर्ण हो जाए तो दूसरी कक्षा में चला जाए, और अनुत्तीर्ण हो जाए तो पहली कक्षा में ही रह जाए, लेकिन पहली कक्षा से उसे निकालने का कोई उपाय नहीं है। जब दूसरी कक्षा में कोई असफल हो जाए, तो उसे पहली कक्षा में उतारने का भी कोई उपाय नहीं। तो जिस योनि में हम होते हैं, हम या तो उस योनि में टिक सकते हैं बहुत लंबे समय तक, या हम आगे जा सकते हैं, लेकिन पीछे नहीं लौट सकते।

तो इसकी कोई बहुत कठिनाई नहीं है कि कोई पीछे पशु योनि में रहा हो। रहा ही है। कितने जन्मों तक रहा है, यह दूसरी बात है। इसमें जरा भी कठिनाई नहीं है। और अगर हम अपने पिछले जन्मों में उतरेंगे, तो हमें याद आएंगे वह सब जन्म, जब हम चिड़िया भी रहे होंगे, पशु भी रहे होंगे, स्त्री भी रहे होंगे, पक्षी भी रहे होंगे। और— और नीचे, और— और नीचे, इतनी जड़ता रही होगी जहां कि चेतना का कोई सूत्र ही खोजना मुश्किल है।

पहाड़ भी जीवन है। वहां भी जीवन है, लेकिन चेतना न के बराबर है। निन्यानबे प्रतिशत जड़ता है, एक प्रतिशत चेतना है। निरंतर चेतना बढ़ती चली जाती है और जड़ता कम होती चली जाती है। परमात्मा है, वह सौ प्रतिशत चेतन है। पदार्थ और परमात्मा में प्रतिशत का अंतर है। पदार्थ और परमात्मा में कोई क्वालिटी का अंतर नहीं है, क्वांटिटी का अंतर है। कोई गुण का अंतर नहीं है, मात्रा का अंतर है। इसलिए पदार्थ परमात्मा हो सकता है।

तो यह बहुत हैरानी या कठिनाई की बात नहीं है कि कोई आदमी पिछले जन्मों में पशु रहा हो। बड़ी कठिनाई तो तब होती है, जब कुछ लोग आदमी होते हुए भी पशु ही होते हैं। यह तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं है, पिछले जन्मों में कभी न कभी हम सभी पशु रहे होंगे। लेकिन आदमी होते हुए भी हमारी चेतना इतनी क्षीण हो सकती है कि सिर्फ देह के तल पर हम आदमी मालूम हो सकते हैं। अगर हम अपनी वृत्तियों को खोजने जायें, तो हमें ऐसा ही लगेगा कि हम पशु तो नहीं रहे हैं, लेकिन आदमी भी नहीं हो गए हैं। कहीं बीच में अटक गये हैं। और इसलिए जब भी मौका आता है, तो हम फिर से पशु हो जाने में देर नहीं लगाते।

जैसे कि कोई आदमी आकर आपको एक धक्का मार जाए। आप बड़े भले आदमी की तरह चले जा रहे हैं और एक आदमी ने आपको घूंसा मार दिया और एक गाली दे दी। और आप अचानक पाते हैं कि जो आपका भला आदमी था वह एकदम तिरोहित हो गया है और आप वहां खड़े हो गये हैं, जहां आप किसी पिछले जन्म में रहे होंगे। आप पशु हो गये। हमारी आदमियत बहुत स्‍किन डीप है। जरा—सा हम खरोंच दें तो भीतर का पशु निकल आता है। और वह निकल इसीलिए आता है क्योंकि हम वह रहे हैं। क्योंकि वह जो ग्रोथ है हमारी, वह जो आदमी होना है, वह ऊपर से तो आ गया, लेकिन भीतर अभी भी पशु मौजूद है। और इसलिए उसको खोदने में देर नहीं लगती। हिंदुओं को कह दो कि हिंदू धर्म खतरे में है, खुद जाता है। मुसलमान को कह दो कि मुसलमान धर्म खतरे में है, खुद जाता है। कहीं गहरे नहीं जाना पड़ता। गुजराती आदमी भी, जो बिलकुल भला दिखाई पड़ता है, सफेद कपड़े पहने हुए, खादी पहने हुए, वह भी वही है। वह भी सब स्किन डीप है। जरा सा खरोंच दो तो भीतर का पशु निकल आये। और जब पशु निकलता है, तो इतने जोर से प्रकट होता है कि ऐसा लगता है कि यह आदमी कभी आदमी रहा होगा, यह भी संदिग्ध है।

यह जो हमारी स्थिति है, उसमें हमारा वह सब मौजूद है, जो हम कभी रहे होंगे। उसकी परतें हैं भीतर, और अगर जरा खोदा जाए तो भीतर की परतों तक हम पहुंच सकते हैं। हम पत्थर की परत पर भी पहुंच जा सकते हैं, वह भी हमारी परत है। क्योंकि बहुत गहरे अंतःकरण में हम अब भी पत्थर हैं। और इसलिए अगर वहां तक हमें खरोंचा जाये, तो हम पत्थर की तरह भी व्यवहार करते हैं, कर सकते हैं। पशु की तरह भी व्यवहार करते हैं, कर सकते हैं। और आगे की हमारी सिर्फ संभावनाएं हैं, वे हमारी परतें नहीं हैं। इसलिए कभी —कभी छलांग लगाकर छूते हैं, लेकिन फिर जमीन पर वापस लौट आते हैं। वह हमारी संभावनाएं हैं। देवता भी हम हो सकते हैं, लेकिन हम कभी रहे नहीं। परमात्मा हम कभी हो सकते हैं, लेकिन… जो हम रहे हैं, वह हमारी स्थिति है।

तो ये दो बातें हैं कि अगर हमारे अंदर थोड़ा खोदा जाए, तो हमारे भीतर की स्थितियां मिल जाएंगी; और अगर हमें और आगे फेंका जाए, तो हमारी आगे की स्थितियों का अनुभव होता है। लेकिन जैसे कोई आदमी जमीन पर छलांग लगाए, तो एक सेकेंड को जमीन के बाहर हो जाता है, आकाश में होता है, लेकिन फिर वापिस जमीन पर खड़ा होता है। ऐसे ही हम छलांग लगा—लगाकर आदमी होते रहते हैं। हम कभी —कभी आदमी होते हैं, बाकी हम पीछे खड़े हो जाते हैं। अगर बहुत गौर से देखें, तो चौबीस घंटे में हम कभी—कभी किसी क्षण में ठीक आदमी होते हैं। हम सब जानते भी हैं।

भिखमंगे आपने देखे हैं। वह सुबह भीख मांगने आते हैं, शाम नहीं आते। क्योंकि शाम तक आदमी होने की संभावना कम हो जाती है। सुबह—सुबह ताजा आदमी होता है, रात भर का विश्राम किया हुआ। न कोई झगड़ा, न कोई कलह, न गाली, न गलौज, न उपद्रव। सुबह उठता है, ताजा—ताजा होता है। भिखारी सामने आ जाता है, तो आशा होती है कि वह थोड़ी आदमियत का व्यवहार करेगा। लेकिन सांझ ऐसी आशा नहीं होती है। इसलिए सांझ भिखारी नहीं आता है। वह जानता है कि दिन भर की खरोंच ने आदमी के भीतर की परतों को जगा दिया होगा—दफ्तर ने, दुकान ने, बाजार ने, दंगा—फसाद ने, अखबार ने, नेताओं ने गड़बड़ कर दिया होगा। और वह भीतर की जो परतें हैं, वे जग गई होंगी। सांझ को कोई भिखमंगा भीख मांगने नहीं आता, क्योंकि सांझ को आदमी थक गया होता है, जानवर हो गया होता है।

इसलिए रात को जो क्लब पैदा होते हैं, उनमें जानवरियत दिखाई पड़ती है। इसका और कोई कारण नहीं है। रात के क्लब, नाइट क्लब, जरूर वह पशुओं की प्रवृत्तियों के हो जाते हैं। वह दिन भर का थका हुआ आदमी आदमियत से थक जाता है। वह कहता है, हमें पशु चाहिए, शराब चाहिए, जुआ चाहिए, नाच चाहिए, नंगापन चाहिए, हो —हुल्लड़ चाहिए। तो रात के जो क्लब हैं, वे आदमी की पशुता के इर्द—गिर्द निर्मित होते हैं। इसलिए प्रार्थना करनी हो, तो सुबह ही अच्छा है। सांझ जरा शक है कि प्रार्थना संभव हो पाए। इसीलिए मंदिर सुबह घंटियां बजा देते हैं। रात में क्लबों के द्वार खुल जाते हैं, ज़ुआघर खुल जाते हैं, शराबखाने खुल जाते हैं। वेश्या सुबह—सुबह नहीं आमंत्रण दे पाती, रात में ही आमंत्रण दे पाती है।

दिन भर का थका हुआ आदमी जानवर हो जाता है। इसलिए रात के अलग धंधे हैं और सुबह की अलग दुनिया है। ये चर्च सुबह, ये मस्जिद सुबह अजान दे देती है, मंदिर सुबह घंटी बजा देते हैं। थोड़ी—सी आशा है कि सुबह का जागा हुआ आदमी शायद परमात्मा की तरफ थोड़ी आंख उठा ले। सांझ को थके हुए आदमी से कम आशा रह जाती है। और इसीलिए बच्चों से ज्यादा आशा होती है कि वे परमात्मा की तरफ झुक जाएं। बूढ़ों से कम आशा होती है, क्योंकि वह सांझ है जिंदगी की। वह जिंदगी भर ने उनका सब उघाड़ दिया होगा, सब उखाड़ दिया होगा। इसलिए जितनी जल्दी हो सके, जितनी सुबह हो सके, उतनी जल्दी यात्रा पर निकल जाना चाहिए। सांझ आ ही जाएगी। इसके पहले कि सांझ आए अगर हम सुबह यात्रा पर निकल गए हों, तो यह भी हो सकता है कि सांझ भी हमें मंदिर में पाए।

तो वह मित्र ठीक पूछते हैं। यह संभव है कि कोई आदमी पशु रहा हो, पक्षी रहा हो। ध्यान यह रखना चाहिए कि अब भी तो पशु और पक्षी नहीं हैं। उसका स्मरण रखना जरूरी है।

कुछ एक—दो प्रश्न और हैं, वह रात में या कल सुबह बात कर लेंगे। अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठें।

दो—तीन बातें समझ लें। एक तो पूरी तरह छोड़ देना है अपने को। अगर हमने थोड़ा भी अपने को पकड़ रखा तो वह पकड़ ही ध्यान में बाधा बन जाएगी। और इस भांति छोड़ देना है, जैसे हम मर ही रहे हों, मर ही गए हों; इस भांति छोड़ देना है। और मृत्यु को स्वीकार ही कर लेना है कि आ गई है मौत, सब मर गया है और हम पीछे डूबते चले जा रहे हैं। अब तो वही बचेगा, जो बच ही जाएगा; बाकी हम सभी छोड़ देंगे, जो मर सकता है।

इसलिए मैंने कहा कि यह मृत्यु का ही प्रयोग है।

इस प्रयोग के तीन हिस्से हैं। पहला, शरीर की शिथिलता। दूसरा, श्वास की शिथिलता। और फिर तीसरा, विचार की शिथिलता। तीनों को छोड़ते चले जाना है। तो थोड़े — थोड़े फासले पर बैठ जाएं। और हो सकता है कोई गिर जाए। इसलिए थोड़ा फासला कर लें। कुछ पीछे हट जाएं, कुछ आगे हट आयें।

हां, थोड़े फासले पर हो जायें। कोई किसी को छूता हुआ न हो, नहीं तो फिर पूरे वक्त अपने को संभाल कर बैठना पड़ता है कि किसी पर गिर न जाएं। या किसी पर गिर जाएं, तो उसकी मुसीबत हो जाती है। और शरीर जब ढीला छूटता है, तो कोई भरोसा नहीं, आगे गिर सकता है, पीछे गिर सकता है। जब तक आप संभाले हुए हैं, तभी तक भरोसा है। जब आप संभालना छोड़ देते हैं, तब शरीर गिर ही जाएगा। आपकी जब पकड़ छूटेगी भीतर से, तो शरीर को कौन संभालेगा? वह गिर ही सकता

है। और अगर उसको संभालने के लिए समय लगाना पड़ा, शक्ति लगानी पड़ी, तो वहीं अटक जाएंगे, पीछे न जा सकेंगे। इसलिए शरीर जब गिरता हो, तब उसे सौभाग्य समझना। उसे एकदम छोड़ देना, उसे रोकना मत, क्योंकि उसे रोकने पर वहीं रुकना हो जाएगा, उससे फिर भीतर जाना नहीं होगा। और अगर कोई आपके ऊपर भी गिर जाये, तो परेशान मत होना। गिर गया तो गिर गया। थोड़ी देर उसका सिर आपकी गोद में पड़ा रह गया तो कुछ परेशानी की बात नहीं है, उसे पड़ा रहने दें।

पहली बात, आंख बंद कर लें.. आंख बंद कर लें… आंख बंद कर लें। किसी से बात नहीं करनी है। आंख बंद कर लें…… शरीर को ढीला छोड़े… शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें जैसे उसमें कोई प्राण ही नहीं है। अपनी सारी शक्ति भीतर ले जायें… शरीर के तल से अपनी सारी शक्ति भीतर ले जायें। शक्ति भीतर जा रही है… शरीर शिथिल होता जाएगा। अब मैं सुझाव देता हूं कि शरीर शिथिल हो रहा है.. ऐसा अनुभव करें। और जैसे —जैसे अनुभव करेंगे, शरीर शिथिल होगा.? शिथिल होगा… शिथिल होगा, फिर बिलकुल लाश की तरह पड़ा रहा जाएगा —झुक जाए, गिर जाए—जों हो, हो। आप छोड़ दें।

शरीर शिथिल हो रहा है, अनुभव करें अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है। छोड़ दें। बिलकुल भीतर हट जाएं। जैसे कोई व्यक्ति अपने घर के भीतर चला जाए, ऐसे अपने भीतर हट जाएं। हटें, सरकें, भीतर हट जाएं। शरीर शिथिल हो रहा है.. शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है। छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें, बिलकुल निर्जीव, जैसे कोई प्राण न रह गए हों। शरीर शिथिल हो गया है. शरीर शिथिल हो गया है…… शरीर शिथिल हो गया है. शरीर शिथिल हो गया है….. शरीर शिथिल हो गया है. शरीर शिथिल हो गया है… शरीर शिथिल हो गया है शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है..।

अब मैं मान लूं कि आपने बिलकुल शिथिल छोड़ दिया है—सारी पकड छोड़ दी, शरीर गिरता हो, गिर जाए; आगे झुके, झुक जाए; जो होना हो, हो; आप छोड़ दें। आपकी कहीं पकड़ न रह जाए। भीतर देख लें कि मेरी कोई पकड़ शरीर पर नहीं है, अब मैं पकड़े हुए नहीं हूं अब मैंने छोड़ दिया है।

शरीर शिथिल हो गया है…… शरीर शिथिल हो गया है। श्वास शांत हो रही है, श्वास शांत हो रही है। अनुभव करें—श्वास शांत हो रही है.. श्वास शांत हो रही है…… श्वास शांत हो रही है… श्वास शांत होती जा रही है…… श्वास शांत हो रही है, बिलकुल छोड़ दें। श्वास को भी छोड़ दें। अपनी पकड़ ही छोड़ दें। श्वास शांत हो रही है.. श्वास शांत हो रही है.., श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत हो रही है….., श्वास शांत हो रही है…… श्वास शांत हो रही है…… श्वास शांत हो रही है…… श्वास भी शांत हो गई, श्वास शांत हो गई……।

श्वास शांत हो गई है… विचार भी शांत होते जा रहे हैं। अनुभव करें, विचार शांत हो रहे हैं… विचार शांत हो रहे हैं… विचार शांत हो रहे हैं… विचार शांत हो रहे हैं.. विचार शांत हो रहे हैं.. विचार शांत होते जा रहे हैं। छोड़ दें, शरीर छोड़ दिया, श्वास छोड़ दी, विचार भी छोड़ दें। हट जाएं, बिलकुल भीतर हट जाएं, विचार से भी पीछे हट जाएं।

सब शांत हो गया…… सब शांत हो गया है…… जैसे मर ही गए। बाहर सब मर गया। सब मर गया सब मर गया। बिलकुल सब शांत हो गया.., भीतर सिर्फ चेतना रह गई?…… एक दीया जलता रह गया चेतना का, बाकी सब मर गया। छोड़ दें, छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें—जैसे हैं ही नहीं। बिलकुल छोड़ दें…… शरीर जैसे मर गया…… शरीर है ही नहीं. श्वास गई. विचार गये……. मृत्यु जैसे आ गई। और हट जाएं, बिलकुल भीतर हट जाएं। छोड़ दें। सब कुछ छोड़ दें। बिलकुल छोड़ दें, कोई पकड़ न रखें। मर ही गए हैं।

अनुभव करें, जैसे सब मर गया….. .सब मर गया……. भीतर सिर्फ एक ज्योति जली रह गई और सब मर गया….. सब मिट गया…… सब मिट गया। दस मिनट के लिए शून्य में खो जायें। साक्षी बने रहें… इस मृत्यु को देखते रहें। सब कुछ चारों तरफ मिट गया। शरीर भी छूट गया है दूर… दूर रह गया है….. हम हट गये हैं। अब देखते रहें, द्रष्टा बने रहें। दस मिनट के लिए सिर्फ भीतर देखते रहें……। (मौन सन्नाटा, सागर का गर्जन, पक्षियों की आवाजें, हवा की सरसराहट, हृदय की धड़कनें…… सब मौन, सब स्थिर हो गया है।)

 

( भगवान श्री कुछ मिनट मौन रहकर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)

भीतर देखते रहें.. बाहर सब मृत हो जाएगा। छोड़ दें… बिलकुल मृत. देखते रह जाएं….. द्रष्टा मात्र रह जाएं… सब छोड़ दें… जैसे मर ही गए हैं…… शरीर बाहर मर गया है। शरीर थिर….. विचार थिर… सिर्फ ज्योति रह गई भीतर देखती हुई, सिर्फ द्रष्टा भर रह गया, साक्षी भर रह गया। छोड़ दें….. छोड़ दें बिलकुल छोड़ दें….।

 

(मौन, निर्जन, सन्नाटा…..)

जो होता है होने दें… बिलकुल छोड़ दें… सिर्फ भीतर देखते रह जाएं और सब छोड़ दें…… सारी पकड़ छोड़ दें…..।

मन शांत और शून्य हो गया है…… मन बिलकुल शून्य हो गया है मन शांत और शून्य हो गया है… मन बिलकुल शून्य हो गया है……। थोड़ी सी पकड़ रखी हो तो उसे भी छोड़ दें बिलकुल छोड दें…. मिट जाएं.. जैसे हैं ही नहीं। मन शून्य हो गया है.. मन शांत और शून्य हो गया है.. मन बिलकुल शून्य हो गया है.। भीतर देखें, भीतर होश से देखें—सब शांत हो गया है….. शरीर दूर रह गया है.. मन दूर रह गया है….. सिर्फ एक ज्योति जलती रह गई है। चेतना का एक दीया रह गया है, प्रकाश रह गया है…।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा…)

अब धीरे— धीरे दो —चार गहरी श्वास लें। श्वास को भी देखते रहें। प्रत्येक श्वास के साथ शांति और गहरी होगी. धीरे — धीरे दो —चार गहरी श्वास लें और भीतर देखते रहें, श्वास के भी द्रष्टा रहें। मन और भी शांत हो जाएगा.. धीरे — धीरे दो—चार गहरी श्वास लें…… फिर धीरे — धीरे आंख खोलें। कोई गिर गया हो तो पहले गहरी श्वास लें, फिर धीरे — धीरे उठें, उठते न बने तो जल्दी न करें। आंख खोलने में भी अगर किसी को कठिनाई हो, तो जल्दी न करें, पहले गहरी श्वास लें, फिर धीरे — धीरे आंख खोलें…… बहुत आहिस्ता से उठें, झटके से कुछ भी न करे—न तो उठें, न आंख खोलें..।

हमारी सुबह की ध्यान की बैठक समाप्त हुई।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–5)

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स्‍व है द्वार—सर्व का—(प्रवचन—पांचवां)

 जो अपने भीतर प्रवेश करता हे, वह भीतर पहुंचते ही पाता है कि वह सबके भीतर पहुंच गया है। क्‍योंकि बाहर से हम सब भिन्‍न–भिन्‍न नहीं है।

मेरे प्रिय आत्मन्।

 एक मित्र ने पूछा है कि मैने सत्य को या परमात्मा को पाने की जो विधि बताई है— सबका निषेध कर के और स्वयं को जानने की— क्या इससे उलटा नहीं हो सकता है कि हम सबमें ही परमात्मा को जानने का प्रयास करें? सर्व में वही है यह भाव करें?

से थोड़ा समझना उपयोगी होगा। जो व्यक्ति स्वयं में परमात्मा को नहीं जानता है, वह सर्व में उसे कभी भी नहीं जान सकता है। जो अभी स्वयं में भी उसे नहीं पहचान पाया, वह और किसी में उसे नहीं पहचान पा सकता है। स्वयं का मतलब है, जो मेरे निकटतम है। और फिर तो कोई भी होगा तो मुझसे थोड़ा दूर और दूर और दूर ही होगा। और निकटतम मैं हूं, उसमें भी मुझे परमात्मा दिखाई न पड़ता हो, तो:. मुझसे जो दूर हैं, उनमें तो कभी भी नहीं दिखाई पड सकता है।

पहले तो स्वयं में ही जानना होगा। पहले तो जानने वाले में ही जानना होगा। वह निकटतम द्वार है। लेकिन ध्यान रहे, यह बहुत मजे की बात है कि जो व्यक्ति स्वयं के द्वार में प्रवेश करता है, वह अचानक सर्व में प्रविष्ट हो जाता है। स्वयं का द्वार सर्व का ही द्वार है। जो अपने भीतर प्रवेश करता है, वह भीतर पहुंचते ही पाता है कि वह सबके भीतर पहुंच गया है। क्योंकि बाहर से हम सब भिन्न—भिन्न हैं, लेकिन भीतर से हम भिन्न—भिन्न नहीं हैं।

अगर कोई व्यक्ति एक वृक्ष के एक—एक पत्ते को बाहर से खोजने जाए तो सभी पत्ते अलग — अलग हैं। और अगर एक पत्ते के भीतर भी प्रविष्ट हो जाए, तो वह उस वृक्ष की भूल धारा में पहुंच जाएगा, जहां, सभी पत्ते इकट्ठे हैं। एक—एक पत्ते को अलग से देखेगा तो एक—एक पत्ता अलग — अलग है, लेकिन किसी भी पत्ते को भीतर से जान ले, तो वृक्ष की उस मूल धारा में पहुंच जाएगा, जहां, से सारे पत्ते निकलते हैं और जहां, सब पत्ते विलीन हो जाते हैं।

यदि हम अपने भीतर उतर जाएं, तो हम सर्व के भीतर भी उतर जाते हैं। जब तक हम अपने भीतर नहीं उतरे हैं, तभी तक मैं और तू का भेद है, और जिस दिन हम मैं के भीतर उतर जाएंगे, उस दिन मैं भी मिट जाता है, और तू भी। उस दिन सर्व ही शेष रह जाता है।

असल में सर्व का मतलब ऐसा नहीं है कि मैं और तू के जोड़ का नाम सर्व है। ऐसा नहीं। सर्व का अर्थ मैं और सब तू का जोड़ नहीं है। सर्व का मतलब है जहां, मैं न रह गया, तू न रह गया। फिर जो शेष रह जाता है, उसका नाम सर्व है। और अगर मेरा मैं अभी नहीं मिटा है, तो मैं सर्व का जोड़ ही कर सकता हूं, लेकिन वह जोड़ सत्य न होगा। सारे पत्तों को भी मैं जोड़ लूं र तो भी वृक्ष नहीं बनता है, यद्यपि वृक्ष में सारे पत्ते जुड़े हैं। वृक्ष सारे पत्तों के जोड़ से ज्यादा है। असल में जोड़ से कोई संबंध ही नहीं है, जोड़ना ही गलत है। जोड्ने में हमने अलग— अलग मान ही लिया है। वृक्ष अलग — अलग है ही नहीं। जैसे ही हम मैं में उतर जाएं, वैसे ही मैं विलीन हो जाता है। स्वयं में उतरते ही जो सबसे पहली चीज मिटती है, वह स्वयं का होना है। और जहां, स्वयं मिट गया, वहां, तू भी मिट गया, पराया भी मिट गया। फिर जो शेष रह जाता है, वह सर्व है।

उसे सर्व कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्व शब्द पुराने मैं की ही भाषा है। इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सर्व भी न कहेंगे। क्योंकि वे कहेंगे, किसका जोड़? कौन सब? तब वे कहेंगे, एक ही बच जाता है। लेकिन शायद वे एक कहने में भी हिचकेंगे, क्योंकि एक कहने से दो का खयाल पैदा होता है। क्योंकि ऐसा लगता है कि अगर एक बच जाता है, तो एक का कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। दो हो, तो ही एक होता है। इसलिए जो और समझ पाते हैं, वे यह भी नहीं कहते कि एक ही बच जाता है। वे कहते हैं, अद्वैत बच जाता है।

बहुत मजे की बात है। वे यह कहते हैं कि दो नहीं बचते। वे यह नहीं कहते कि एक बच जाता है, वे कहते हैं, दो नहीं बचते। इसलिए अद्वैत। अद्वैत का मतलब है, जहां, दो नहीं हैं। यह उलटे कहने की क्या जरूरत है, सीधा कहो न कि एक है। लेकिन एक कहने में खतरा है। क्योंकि एक से दो का खयाल पैदा होता है। और जब हम कहते हैं, जहां, दो नहीं हैं, वहां, तीन भी नहीं हैं, वहा एक भी नहीं है, वहां, अनेक भी नहीं हैं, वहां, सर्व भी नहीं है।

असल में वह जो हमारे देखने की दुनिया थी मैं के रहते, उसकी वजह से विभाजन पैदा हुआ था। अब अविभाज्य, जो भी है, अविभाजित, इनडिवीजिबल, वह शेष रह जाता है। लेकिन उसे जानने के लिए अगर कोई ऐसा करे—जैसा मेरे मित्र ने पूछा है—कि ऐसा अगर करे कि सब में परमात्मा की कल्पना करे! लेकिन वह कल्पना ही होगी। और कल्पना सत्य नहीं है।

मेरे पास एक फकीर को लाया गया था बहुत दिन हुए। जो लोग उन्हें लाए थे, उन्होंने मुझे कहा कि उन फकीर को सब जगह परमात्मा के दर्शन होते हैं। आज तीस वर्षों से निरंतर उन्हें प्रत्येक चीज में परमात्मा के दर्शन होते हैं। फूल में, पौधे में, पत्थर में, सब में। मैंने उन फकीर से पूछा कि आपको ये दर्शन किसी अभ्यास से तो नहीं हुए? अगर अभ्यास से हुए हैं, तो दर्शन बड़े झूठे हैं। उन्होंने कहा, मैं समझा नहीं। मैंने उनसे कहा, क्या आपने कभी सब में परमात्मा को देखने की कल्पना और कामना तो नहीं की थी? तो उन्होंने कहा कि निश्चित ही! तीस वर्ष पहले मैंने वह साधना शुरू की थी कि मैं प्रत्येक चीज में परमात्मा को देखने का प्रयास करता था—पत्थर में भगवान, पौधे में भगवान, पहाड़ में भगवान, सब में भगवान। इसको मैं देखने का प्रयास करता था। फिर मुझे भगवान दिखाई पड़ने लगे। तो मैंने उनसे कहा, तीन दिन मेरे पास रुक जाएं और तीन दिन कृपा करके प्रयास न करें, सबमें भगवान है, इसका प्रयास न करें।

वे मेरे पास रुक गए हैं, और दूसरे दिन सुबह उन्होंने मुझसे कहा कि आपने तो मुझे बड़ा नुकसान पहुंचाया। बारह घंटे ही मैंने प्रयास नहीं किया है तो मुझे पत्थर पत्थर दिखाई पड़ने लगा है और पहाड़ पहाड़ दिखाई पड़ने लगा। आपने तो मेरा भगवान छीन लिया। आप कैसे आदमी हैं? आपने तो मुझे बड़ा नुकसान पहुंचा दिया। मैंने उनसे कहा कि जो भगवान बारह घंटे अभ्यास छोड़ने से छूट जाता हो, वह भगवान नहीं था, सिर्फ अभ्यास का प्रतिफलन था। जैसे कोई आदमी किसी चीज को जोर—जोर से दोहराता रहे, दोहराता रहे, दोहराता रहे, तो एक भ्रम पैदा कर लेता है। नहीं, पत्थर में भगवान देखने नहीं हैं। उस स्थिति में पहुंचना है जहां, पत्थर में भगवान के सिवाय कुछ और देखने को शेष ही नहीं रह जाता है। ये दोनों भिन्न बातें हैं।

पत्थर में भगवान को देखने की कोशिश से पत्थर में भगवान दिखाई पड़ने लगेंगे, लेकिन वे भगवान प्रोजेक्शन से ज्यादा नहीं हैं। वे आपकी ही कल्पना को पत्थर पर आरोपित किया गया है। आपने ही थोप दिया है पत्थर के ‘ऊपर भगवान को। वे भगवान बिलकुल आपके बनाए हुए हैं। वे भगवान बिलकुल आपकी कल्पना का विस्तार हैं। वे भगवान आपके सपने से ज्यादा नहीं हैं। और आप दोहरा —दोहरा कर सपने को मजबूत करते रहेंगे, वे बराबर दिखाई पड़ते रहेंगे। लेकिन यह भ्रमजाल में जीना है, यह किसी सत्य में उतर जाना नहीं है।

हां,, एक दिन ऐसा जरूर होता है जब स्वयं मिट जाता है व्यक्ति, तब सिवाय भगवान के और कोई दिखाई नहीं पड़ता। तब ऐसा नहीं होता कि पत्थर में भगवान है, तब ऐसा होता है कि पत्थर कहां, है, भगवान ही है। मेरा फर्क समझ रहे हैं आप? तब ऐसा नहीं होता है कि पत्थर में, पौधे में भगवान हैं। पौधा भी है और उसमें भगवान भी है, ऐसा नहीं होता है। तब ऐसा होता है कि पौधा कहां, गया, पत्थर कहां, गया, पहाड़ कहां, गया? क्योंकि जो शेष रह गया है, वह भगवान ही है। और तब आपके अभ्यास पर निर्भर नहीं है वह बात। आपके अनुभव पर निर्भर है।

और सबसे बड़ा खतरा जो है साधना की दुनिया में, वह कल्पना का खतरा है। सबसे बडा खतरा जो है वह यह है कि हम उन सत्यों की कल्पना भी कर सकते हैं, जिन सत्यों का अनुभव होना चाहिए। अनुभव और कल्पना में भेद है। एक आदमी ने दिन भर खाना नहीं खाया है। रात सपने में भोजन कर लेता है। जहां, तक भोजन सपने में करने का संबंध है, सपने में बड़ी तृप्ति मिल जाती है भोजन करने की। शायद जागते में इतना आनंद नहीं आता है जितना सपने में भोजन करने में आता है। क्योंकि जितना चाहे और जैसा चाहे वैसा भोजन कर लेता है। लेकिन सुबह उठकर उस भोजन से पेट नहीं भर जाता है, न उस भोजन से खून बनता है। और अगर सपने के भोजन पर कोई आदमी जिंदा रहने लगे, तो आज नहीं कल मरेगा, जिंदा नहीं रह सकता है। क्योंकि सपने का भोजन कितनी ही तृप्ति देता हो, फिर भी भोजन नहीं है। और न रक्त बन सकता है, न मांस बन सकता है, न हड्डी—मांस—मज्जा बन सकता है। सपने में सिर्फ धोखा बन सकता है।

सपने के भोजन ही नहीं होते, सपने के भगवान भी होते हैं। और सपने का मोक्ष भी होता है। और सपने की शांति भी होती है। और सपने के सत्य भी होते हैं। आदमी के मन की सबसे बड़ी क्षमता जो है, वह यह है कि वह खुद को धोखा दे लेने की क्षमता है। लेकिन उस तरह के धोखे में पड़ने से कोई कभी भी आनंद को, मुक्ति को उपलब्ध नहीं हो सकता है।

इसलिए मैं आपसे यह नहीं कहता हूं कि आप सबमें भगवान देखना शुरू करें। मैं आपसे सिर्फ यह कहता हूं कि आप भीतर देखना शुरू करें कि वहां, क्या है। और जब आप भीतर देखना शुरू करेंगे कि वहां, क्या है, तो सबसे पहले जो व्यक्ति विदा हो जाएगा, वह आप हैं। आप सबसे पहले विदा हो जाएंगे। आप नहीं बचेंगे वहा भीतर। पहली दफा आप पाएंगे कि यह मेरे होने का बड़ा भ्रम था कि मैं हूं। यह तो खो गया, यह तो विदा हो गया। भीतर झांकते ही मैं पहले विदा हो जाता है, अहंकार पहले विदा हो जाता है। असल में हमने झांककर नहीं देखा है, तभी तक मालूम होता है कि मैं हूं। और शायद इसीलिए हम भीतर झांककर देखने में डरते भी हैं कि भीतर झांक कर देखें तो कहीं खो न जाएं।

कभी आपने देखा होगा, कोई आदमी एक मशाल हाथ में ले ले और जोर से घुमाने लगे, तो एक फायर सर्किल बन जाता है, एक अग्नि—वृत्त बन जाता है। दिखाई पड़ने लगता है कि आग का एक गोल घेरा है। गोल घेरा कहीं भी नहीं है, सिर्फ एक मशाल है जो जोर से घूम रही है। अगर आप पास जाकर गौर से देखें, तो गोल घेरा मिट जाएगा, रह जाएगी मशाल। लेकिन तेजी से घूमने की वजह से मशाल गोल घेरा मालूम होती है आग का। दूर से देखने पर लगता है कि आग का वृत्त है, गोल घेरा है। है कहीं भी नहीं, लेकिन दिखाई पड़ता है। लेकिन अगर निकट जाकर पहचानें, तो पता चलेगा कि जोर से घूमती हुई मशाल है। वृत्त झूठ है, अग्नि—वृत्त झूठ है। ऐसे ही ये भीतर अगर हम गौर से जाकर देखेंगे, तो पता चलेगा कि मैं बिलकुल ही झूठ है। तेजी से घूमती हुई चेतना के कारण मैं का भ्रम पैदा हो जाता है, जैसे तेजी से घूमती हुई मशाल के कारण वृत्त का भ्रम पैदा हो जाता है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है, जो समझ लेना चाहिए।

शायद आपको खयाल भी न हो कि हमारे जीवन के सारे भ्रम तेजी से घूमने के भ्रम हैं। दीवाल ठोस दिखाई पड़ती है, पत्थर पड़ा है पैर के नीचे, कितना साफ और ठोस है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि ठोस पत्थर जैसी कोई चीज है ही नहीं। तब तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। क्या आपको पता है कि वैज्ञानिक मैटर के, पदार्थ के जितने ही पास गया, उतना ही पदार्थ विलीन हो गया। जब तक दूर था, तो समझता था कि पदार्थ है। और सबसे ज्यादा वैज्ञानिक ही घोषणा करता था कि पदार्थ ही सत्य है। लेकिन अब वैज्ञानिक ही कहता है कि पदार्थ तो है ही नहीं। तेजी से घूमते हुए विद्युत—क्या इतनी तेजी से घूम रहे हैं कि उनकी तेजी से घूमने की वजह से ठोसपन का भ्रम पैदा होता है। ठोसपन कहीं भी नहीं है।

जैसे बिजली का पंखा जोर से घूमता है तो उसकी तीन पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़ती हैं। फिर कोई गिनकर बता नहीं सकता है कि पंखुड़ियां कितनी हैं। और तेजी से घूमे, और तेजी से घूमे तो फिर हमें लगेगा कि एक टीन का गोल चक्कर घूम रहा है। फिर पंखुड़ियां दिखाई ही नहीं पड़ेगी। इतने तेजी से भी घुमाया जा सकता है उसे कि आप उसके ऊपर बैठ जाएं और आपको ऐसा पता न लगे कि पंखुड़ियां बीच से आ रही हैं, जा रही हैं। आपको ऐसा ही लगेगा कि मैं किसी ठोस चीज पर बैठा हुआ हूं। अगर इतनी तेजी से घूमे कि एक पंखुड़ी जाए, उसके पहले दूसरी पंखुड़ी आपके नीचे आ जाए, तो आपको कभी पता नहीं चलेगा कि आपके बीच —बीच में खड्डे भी आते हैं। पंखा इतनी तेजी से घूमे तो आपको पता नहीं चलेगा।

पदार्थ में उतनी ही तेजी से घूम रहे हैं उसके कण। और कण पदार्थ नहीं है, कण सिर्फ विद्युत ऊर्जा है, इलेक्ट्रिक इनर्जी है, वह तेजी से घूम रही है। घूमने की वजह से ठोसपन का भाव दे रही है। सारा पदार्थ सिर्फ तेजी से घूमती हुई ऊर्जा का फल है। दिखाई पड़ता है, है कहीं भी नहीं। ठीक ऐसे ही चित्त की ऊर्जा, इनर्जी आफ काशसनेस इतनी तेजी से घूम रही है कि मैं का भ्रम पैदा होता है।

दो भ्रम हैं जगत में, एक पदार्थ का भ्रम, मैटर का भ्रम और दूसरा मैं का भ्रम, ईगो का, अहंकार का भ्रम। ये दोनों भ्रम एकदम ही झूठे हैं, लेकिन इनके पास जाने से पता चलता है कि ये नहीं हैं। विज्ञान पदार्थ के पास गया तो पदार्थ विलीन हो गया। और धर्म मैं के पास गया, तो मैं विदा हो गया। धर्म की खोज है कि मैं नहीं है और विज्ञान की खोज है कि पदार्थ नहीं है। जितने निकट जाते हैं, उतना ही भ्रम टूट जाता है।

तो इसलिए मैं कहता हूं कि भीतर जाएं, निकट करीब से भीतर देखें, वहा कोई मैं है? और मैं नहीं कहता कि— ऐसा मान लें कि मैं नहीं हूं। अगर मान लिया तो झूठ हो जाएगा। मैं नहीं कहता हूं। मेरी बात अगर मानकर आप चल गए और आप ऐसा सोचने लगे कि मैं नहीं हूं, अहंकार झूठ है, मैं तो आत्मा हूं, मैं तो ब्रह्म हूं अहंकार नहीं है, तो आप गड़बड़ में पड़ गए। क्योंकि आप यह दोहरा रहे हैं तो फिर यह झूठ ही दोहराएंगे आप। मैं यह नहीं कहता हूं कि आप ऐसा दोहराएं। मैं यह कहता हूं कि आप भीतर जाएं, देखें, पहचानें। जो पहचानता है, देखता है, वह पाता है कि मैं नहीं हूं। फिर कौन है? जब मैं नहीं हूं कोई तो है। मेरे न होने से कोई भी नहीं है, ऐसा नहीं। क्योंकि भ्रम को जानने के लिए भी कोई तो चाहिए। भ्रम भी पैदा हो जाए, इसके लिए कोई तो चाहिए।

मैं नहीं हूं, फिर कौन है? फिर जो शेष रह जाता है, उसका अनुभव ही परमात्मा का अनुभव है। लेकिन उसका अनुभव एकदम विस्तीर्ण हो जाता है। मेरे गिरते ही तू भी गिर जाता है, वह भी गिर जाता है, फिर एक सागर ही रह जाता है चेतना का। उस स्थिति में दिखाई पड़ेगा कि परमात्मा ही है। तब तो शायद यह कहना भी गलत मालूम पड़े कि परमात्मा ही है। क्योंकि यह कहना भी पुनरुक्ति है। जब हम कहते हैं गाड इज, ईश्वर है, तो हम पुनरुक्ति कर रहे हैं। पुनरुक्ति इसलिए कर रहे हैं कि जो है, उसी का दूसरा नाम ईश्वर है। है का ही दूसरा नाम ईश्वर, है। इसलिए ईश्वर है, ऐसा एक ही चीज को दोहराना है, यह टोटॉलाजी है। एक ही बात को दोबारा कहना है। ठीक नहीं है यह बात।

ईश्वर है का क्या मतलब? हम है उस चीज को कहते हैं जो नहीं है भी हो सकती हो। हम कहते हैं, टेबिल है, क्योंकि कल टेबिल नहीं हो सकती है और कल टेबिल नहीं थी। जो चीज नहीं थी, फिर नहीं हो सकती है, उसको है कहने का कोई मतलब है। लेकिन ईश्वर न तो ऐसा है कि कभी नहीं था और न ऐसा हो सकता है कि कभी नहीं होगा। उसे है कहने का कोई भी मतलब नहीं। वह है हां, असल में जो है, उसका ही वह दूसरा नाम है। होने का ही दूसरा नाम परमात्मा है। एक्सिस्टेंस, अस्तित्व का ही दूसरा नाम परमात्मा है।

मेरी दृष्टि में, अगर हमने इस जो है, इस पर अपने परमात्मा को थोपा तो हम झूठ में उतर जाएंगे। और ध्यान रहे, परमात्मा भी अपने — अपने ट्रेड मार्क के अलग— अलग हैं। हिंदू का अपना है थोपने के लिए, मुसलमान का अपना है, ईसाई का अपना है, जैन का अपना है, बौद्ध का अपना है। सबके अपने— अपने शब्द हैं, अपने — अपने परमात्मा हैं। परमात्मा का भी बड़ा गृह उद्योग खुला हुआ है। अपने — अपने घर में परमात्मा को डाला जा सकता है। होम इंडस्ट्री है उसकी। अपने — अपने घर में ढालो, अपने — अपने परमात्मा का निर्माण करो।

और फिर ये परमात्माओं को ढालने वाले वैसे ही बाजार में लड़ते हैं, जैसे सभी अपने — अपने घर में सामान डालने वाले बाजार में, दुकानों पर लड़ते हैं। ऐसे बाजार में वे भी लड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। एक —दूसरे का परमात्मा भी भिन्न पड़ जाता है। असल में जब तक मैं हूं तब तक मैं जो भी करूंगा वह आपसे भिन्न होगा। जब तक मैं हूं, मेरा धर्म भिन्न होगा, मेरा ईश्वर भिन्न होगा, क्योंकि वे मेरे मैं के निर्माण होंगे। मैं भिन्न हूं इसलिए मेरा सब भिन्न होगा।

अगर दुनिया में ठीक—ठीक धर्म —निर्माण करने की स्वतंत्रता हो तो जितने आदमी हैं, उतने ही धर्म होंगे। इससे कम नहीं हो सकते। वह तो ठीक—ठीक स्वतंत्रता नहीं है।

हिंदू बाप अपने बेटे को इसके पहले कि वह स्वतंत्र हो जाए, हिंदू बना डालता है। मुसलमान बाप अपने बेटे को इसके पहले कि उसमें बुद्धि आए, मुसलमान बना देता है। क्योंकि बुद्धि आने पर न कोई हिंदू बनेगा, न कोई मुसलमान बनेगा। इसलिए बुद्धि आने के पहले ही सब नासमझिया अंदर डाल देने की जरूरत है। इसलिए सब बाप उत्सुक हैं कि बेटा जब छोटा है, तभी से धर्म की शिक्षा हो जानी चाहिए उसकी। क्योंकि कल वह जवान हो जाए, सोचने लगे, तो फिर दिक्कत देगा। विचार आ जाएगा, तो पच्चीस प्रश्न खड़े करेगा और पच्चीस प्रश्नों के उत्तर नहीं हो पाएंगे। और फिर वह ऐसी बातें करेगा कि जिनको हल करना मुश्किल होगा। इसलिए सब बाप उत्सुक हैं कि उनके बेटे और उनकी बेटियों को जन्म लेते ही उनकी घुटी में धर्म पिला दिया जाए, उनके खून में धर्म डाल दिया जाए। तब होश नहीं रहता, समझ नहीं रहती, कुछ भी नासमझी सिखा दो, वह सीख लेता है। एक

आदमी मुसलमान हो जाता है, एक हिंदू एक जैन, एक बौद्ध, जो भी सिखाओ, वह आदमी हो जाता है। बुद्धि होती नहीं पास में

इसलिए धार्मिक जिसको हम आदमी कहते हैं, वह अक्सर बुद्धिहीन पाया जाता है। उसमें बुद्धि होती ही नहीं। क्योंकि जिसको हम धर्म कहते हैं, वह बुद्धि होने के पहले ही पकड़ ली गई चीज है। बुद्धि आने पर भी वह जकड़े रहती है, फिर वह पंजा पकड़ लेती है हमारे भीतर से। हिंदू मुसलमान लड़ता हुआ देखा जाता है, ईश्वर के नाम पर लड़ता हुआ देखा जाता है, मंदिर—मस्जिद के नाम पर लड़ता हुआ देखा जाता है। आश्चर्य की बात है।

क्या ईश्वर भी बहुत प्रकार के हैं? हिंदू का ईश्वर अलग ढंग का है। और मूर्ति तोड़ दी जाए तो हिंदू के ईश्वर का अपमान हो जाता है। और मुसलमान का ईश्वर और प्रकार का है। और अगर मस्जिद तोड़ दी जाए, आग लगा दी जाए, तो उसके ईश्वर का अपमान हो जाता है।

ईश्वर तो उसका नाम है जो है। मस्जिद में भी वह उतना ही है जितना मंदिर में। बूचड़खाने में भी वह उतना ही है जितना मंदिर में। और शराब घर में भी उतना ही है जितना मस्जिद में। चोर के भीतर वह उतना ही है, जितना महात्मा के भीतर है। रत्ती भर कम नहीं है। हो भी नहीं सकता। आखिर चोर के भीतर कौन होगा, अगर परमात्मा न होगा? वह राम के भीतर उतना ही है, जितना रावण के भीतर। रत्ती भर कम नहीं हो सकता रावण के भीतर। वह हिंदू के भीतर भी उतना ही है, जितना मुसलमान के भीतर।

लेकिन वह जो हमारा गृह उद्योग है भगवान बनाने का, उस गृह उद्योग को बड़ा धक्का लग जाएगा अगर हम यह मान लें कि सभी के भीतर वही है। तो हमें अपना— अपना ईश्वर थोपे चले जाना चाहिए। अगर एक फूल में हिंदू भी ईश्वर देखे और मुसलमान भी, तो भी झगड़ा हो सकता है, क्योंकि उस फूल में हिंदू अपना ईश्वर ढालेगा, मुसलमान अपना ईश्वर ढालेगा। हिंदू—मुसलमान तो जरा दूर की बातें हैं, पास—पास की दुकानों में भी झगड़े होते हैं। ये दुकानें तो जरा फासले पर हैं। काशी और मक्का में काफी फासला है, लेकिन काशी में राम के और कृष्ण के मंदिर में इतना फासला नहीं है। वहा भी झगड़ा इतना ही है।

मैंने सुना है, एक बड़े संत को—और बड़े सिर्फ इसलिए कहता हूं कि लोग कहते हैं और संत भी सिर्फ इसलिए कहता हूं कि लोग कहते हैं—वे राम के भक्त थे, उनको कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया तो उन्होंने हाथ जोड्ने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, कृष्ण के मंदिर में मैं हाथ नहीं जोड़ सकता। मंदिर की मूर्ति के सामने खड़े होकर उन्होंने कहा कि अगर धनुष—बाण अपने हाथ में लो, तो मैं सिर झुका सकता हूं। इस बांसुरी लिये हुए हाथ को सिर झुकाना मेरे वश के बाहर है।

भगवान पर भी भक्त शर्त लगाता है कि इस पोजीशन में, इस ढंग से खड़े हो जाओ, तो हम नमस्कार करेंगे। यानी नमस्कार करने के पहले तुम नाचो हमारे इशारे पर, तब हम नमस्कार करेंगे। हमारी नमस्कार पीछे होगी, पहले तुम नमस्कार करो हमको, धनुष—बाण हाथ में लो या बांसुरी हाथ में लो। किस आसन में बैठो, किस ढंग से खड़े हो, यह भक्त प्रिस्काइब करता है भगवान के लिए। वह बताता है कि ऐसा—ऐसा करो, तब हम तुम्हें नमस्कार कर सकते हैं। भक्त भी शर्त लगाता है, कंडीशन लगाता है।

अब आश्चर्य की बात है कि भगवान को भी मुझे निर्धारित करना है, आपको निर्धारित करना है! लेकिन अब तक जिसको हम भगवान कहते रहे हैं, वह आदमियों के द्वारा निर्धारित भगवान है। और जब तक आदमियों के द्वारा निर्धारित भगवान बीच में खड़ा है, तब तक हम उसको न जान सकेंगे जो हमारे द्वारा निर्धारित नहीं है। जिसके द्वारा हम निर्धारित हैं, उसे हम कभी भी न जान सकेंगे। इसलिए आदमियों के भगवान से मुक्त होना है अगर उस भगवान को जानना हो जो कि है। लेकिन बड़ा कठिन है, अच्छे से अच्छे आदमी को भी कठिन है। जिसको हम अच्छा आदमी कहते हैं, वह और भी मुश्किल से छूट पाता है। वह भी पकड़े रहता है, वह भी नहीं छोड़ता। वह भी बुनियादी नासमझियों को उतना ही जकड़कर पकड़ता है, जितना नासमझ आदमी। नासमझ माफ किया जा सकता है, लेकिन समझदार को माफ करना एकदम मुश्किल है।

अभी खान अब्‍दुलगफ्फार खां आए हैं। वे सारे मुल्क को समझाते फिरते हैं हिंदू —मुस्लिम एकता की बात, लेकिन वे पक्के मुसलमान हैं, उसमें रत्ती भर कमी नहीं है। उनके पक्के मुसलमान होने में रत्ती भर कमी नहीं है। उनके मस्जिद में नमाज पढ़ने में कोई सवाल नहीं उठता उनको। वे पक्के मुसलमान हैं और हिंदू—मुसलमान की एकता समझा रहे हैं। गांधीजी पक्के हिंदू थे और हिंदू — मुसलमान की एकता समझा रहे थे। जैसे गुरु थे वैसे उनके शिष्य हैं। वे पक्के हिंदू थे, उनके शिष्य पक्के मुसलमान हैं। और जब तक दुनिया में पक्के हिंदू और पक्के मुसलमान हैं, तब तक एकता हो कैसे सकती है। इनको थोड़ा कच्चा करना जरूरी है, तभी एकता हो सकती है। ये पक्के होकर एकता नहीं हो सकती। ये ही झगड़े की जड़ हैं। लेकिन ये झगड़े की जड़ें दिखाई नहीं पड़ती हैं। ये समझा रहे हैं लोगों को कि सबको एक हो जाना चाहिए। लेकिन ये नहीं जानते कि एक हो कैसे सकते हैं।

जब तक भगवान अलग— अलग हैं और जब तक मंदिर अलग— अलग हैं, और जब तक प्रार्थनाएं अलग — अलग हैं और सत्य के शास्त्र अलग — अलग हैं, और किसी का कुरान पिता है और किसी की गीता माता है, तब तक यह उपद्रव बंद नहीं हो सकता। लेकिन इस को तो हमने पकड़ लिया है कि ये बिलकुल सच्ची बातें हैं। और हम कहते हैं कि कुरान की आयत पढ़ो और लोगों को समझाओ कि एक हो जाओ। गीता के वचन पढ़ो और लोगों को समझाओ कि एक हो जाओ। लेकिन हमें पता नहीं है कि गीता के वचन और कुरान की आयत झगड़े की जड़ें हैं।

किसी गाय की पूंछ कट जाए तो हिंदू—मुस्लिम में दंगा हो जाएगा। तो हम कहेंगे कि गुंडों ने दंगा कर दिया। और बड़े मजे की बात है कि किसी गुंडे ने नहीं समझाया है कि गऊ जो है वह माता है। यह समझा रहे हैं महात्मा कि गऊ माता है। और गऊ माता है जब समझा रहे हैं तब झगड़े का आरोपण कर रहे हैं। किसी दिन पूंछ कट जाएगी, तो गऊ की पूंछ थोडे ही कटती है, माता की पूंछ कट गई। और जब माता की पूंछ कट जाएगी, तो झगड़ा शुरू होगा। और गुंडे फंस जाएंगे पीछे कि गुंडों ने झगड़ा करवा दिया। सब झगड़े की जड़ में जिनको हम महात्मा कहते हैं, वे लोग हैं। और अगर महात्मा झगड़े की जड़ से हट जाएं, तो गुंडे बहुत निरीह हैं, कोई झगड़ा—वगड़ा करने की उनकी सामर्थ्य नहीं है। महात्माओं का बल चाहिए पीछे, तब गुंडों में जान आती है, नहीं तो गुंडों में कोई जान नहीं आती।

लेकिन महात्मा बच जाता है, क्योंकि हमें खयाल ही नहीं है कि महात्मा झगड़े की जड़ में हो सकता है। और झगड़े की जड़ क्या है? झगड़े की जड़ है, वह घर—घर में पैदा किया गया परमात्मा। आप अपने घर के परमात्मा से बचने की कोशिश करना। आपके घर में आप परमात्मा नहीं डाल सकते। और ढाला हुआ निपट धोखा होगा।

तो मैं नहीं कहता हूं कि आप परमात्मा का आरोपण करें। आप क्या करेंगे? परमात्मा के नाम से करेंगे क्या आरोपण? अगर कृष्ण का भक्त, देखेगा तो सीधे कहेगा कि झाडू में बांसुरी बजाने वाले भगवान छिपे हैं। और धनुर्धारी भगवान वाला धनुर्धारी को देखेगा। और कोई कुछ और देखेगा, कोई कुछ और देखेगा। यह जो देखना है, यह हमारी ही इच्छाओं, हमारे ही विचारों को थोपना है। ऐसा भगवान नहीं है। हमारे विचार, इच्छाओं को थोपने से उसका पता नहीं चल सकता है। हमें तो मिटना ही पड़ेगा। अपने सब विचार, अपने सब आरोपण लेकर डूब ही जाना पड़ेगा। हमें तो खत्म ही होना पड़ेगा। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती हैं। मेरे रहते भगवान का अनुभव असंभव है। मुझे विदा होना ही पड़ेगा, तभी उसका अनुभव हो सकता है। ये दोनों एक साथ नहीं होगा। मैं, मैं रहते हुए, भगवान के द्वार पर प्रवेश नहीं पा सकता हूं।

मैंने एक कहानी सुनी है कि एक आदमी सब कुछ छोड्कर भगवान के द्वार पर पहुंच गया। सब कुछ छोड़कर—धन छोड्कर, पत्नी छोड्कर, मकान छोड्कर, बच्चे छोड्कर, समाज छोड़कर—सब छोड्कर भगवान के द्वार पर पहुंच गया। लेकिन द्वारपाल ने हाथ से उसे रोक लिया और कहा कि अभी भीतर मत आ जाना। जाओ, पहले छोड़ कर आओ। उस आदमी ने कहा, मैं सब छोड्कर आ रहा हूं। द्वारपाल ने कहा, मैं को तो कम से कम जरूर साथ ले आए हो। और सबसे हमें कोई मतलब नहीं है, हमें सिर्फ मैं से मतलब है। तुम कहते हो, मैं सब छोड्कर आ रहा हूं। हमें इन सब से कोई मतलब नहीं है, हमें तो मैं से मतलब है। जाओ मैं छोड्कर आओ। वह आदमी कहता है कि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। मेरी झोली बिलकुल खाली है, न धन है, न पत्नी है, न बच्चे, कोई भी मेरे पास नहीं है। वह द्वारपाल कहता है, कम से कम तुम्हारी झोली में तुम तो हो। उसे छोड्कर आओ। यह द्वार बंद है उनके लिए, जो मैं को लेकर आते हैं। वह द्वार सदा से बंद है।

लेकिन मैं को हम कैसे छोड़ दें। अगर हम छोड़ने की कोशिश करेंगे तो मैं कभी भी छूटने वाला नहीं है। क्योंकि मैं कैसे छोडूंगा। मैं को मैं कैसे छोडूंगा? मैं ही मैं को कैसे छोडूंगा? यह तो हो नहीं सकता। यह तो ऐसे ही है जैसे कोई अपने जूते के बंदों से अपने को उठाने की कोशिश करे। तो मुश्किल में पड़ जाएगा। मैं मैं को कैसे छोडूंगा। सब छोड़ने के पीछे मैं फिर बच जाऊंगा। तो यहां, तक हो सकता है कि एक आदमी कहने लगे कि मैंने सब अहंकार छोड़ दिया। मेरे पास अहंकार ही नहीं। मगर इसके पास भी मैं है। अहंकार छोड़ने का भी अपना अहंकार है। तो क्या करे आदमी, बहुत मुश्किल की बात है। मुश्किल की बात नहीं है। मैं छोड़ने को नहीं कहता हूं। मैं आपसे कुछ भी करने को नहीं कहता हूं, क्योंकि सब करने से मैं ही मजबूत होता है। मैं तो सिर्फ भीतर जाकर जानने को कहता हूं कि देखें, मैं कहां, है। अगर होगा, तो छोड़ने का कोई उपाय नहीं है। है हां, तो छोड़ेंगे क्या? और अगर नहीं है, तब भी छोड़ने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जो नहीं है, उसको छोड़ेंगे कैसे।

तो भीतर जाएं और देखें, खोजें वहां, मैं है या नहीं। और इतना मैं कहता हूं कि जो भीतर जाकर देखता है, वह एकदम हंसने लगता है। वह कहता है, मैं तो हूं ही नहीं। तब कौन रह जाता है? तब जो रह जाता है, उसका नाम परमात्मा है। और जो मेरे न होने पर रह जाता है, क्या वह आपसे अलग होगा? जब मैं ही न रहा, तो अलग करनेवाला कौन होगा? मेरा मैं ही तो आपको मुझसे अलग करता है, मुझे आपसे अलग करता है।

यह घर की हमारी दीवाल है। घर की दीवाल आकाश को दो हिस्सों में विभाजित करती है, ऐसा दीवालों को भ्रम होता है। हालाकि आकाश दो हिस्सों में विभाजित होता नहीं। आकाश अविभाजित है। चाहे कितनी ही सख्त दीवाल बनाओ, कितनी ही ठोस, लेकिन मकान के भीतर का आकाश और मकान के बाहर का आकाश दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज है। कितनी ही बड़ी दीवाल उठाओ, तो भी मकान के भीतर का आकाश और बाहर का आकाश दो नहीं हो जाते। लेकिन मकान के भीतर रहने वाले आदमी को लगता है कि आकाश के हमने दो हिस्से कर दिए—स्व मेरे घर के भीतर का आकाश, एक घर के बाहर का आकाश। लेकिन कल अगर दीवाल गिर जाए, तो वह आदमी कैसे पता लगाएगा कि कौन मेरे घर के भीतर का आकाश है, कौन मेरे घर के बाहर का आकाश है। कैसे पता लगाएगा? तब तो आकाश ही रह जाएगा।

ऐसे ही हमने चेतना को मैं की दीवालें उठाकर खंड —खंड किया है। और जब मैं की दीवाल गिर जाएगी तो फिर ऐसा नहीं है कि मुझे आपमें परमात्मा दिखाई पड़ने लगेगा। नहीं, तब मुझे आप दिखाई नहीं पड़ेंगे, और परमात्मा दिखाई पडने लगेगा। इसको ठीक से समझ लेना, इस बारीक फर्क को। ऐसा नहीं है कि मैं आपमें परमात्मा देखने लगूंगा, यह गलत बात है। ऐसा कि आप नहीं दिखाई पड़ेंगे और परमात्मा दिखाई पडेगा। ऐसा नहीं है कि वृक्ष में परमात्मा दिखाई पडने लगेगा। नहीं, ऐसा कि वृक्ष नहीं दिखाई पड़ेगा और परमात्मा दिखाई पड़ने लगेगा। जब कोई कहता है, कण—कण में परमात्मा है, तो वह बिलकुल गलत कहता है। क्योंकि कण —कण भी उसे दिखाई पड़ रहा है और परमात्मा भी दिखाई पड रहा है। ये दोनों बातें एक साथ दिखाई नहीं पड़ सकतीं। सच बात यह है कि कण—कण परमात्मा ही है। यानी ऐसा नहीं है कि कण—कण में परमात्मा है। कोई परमात्मा अलग से भीतर उनके बैठा हुआ है, कण कोई बाहर से उसे घेरे हुए हैं, ऐसा नहीं है। जो है, वह परमात्मा है। जो है, इसका ही प्रेम में दिया गया नाम परमात्मा है। जो है, उसका ही नाम सत्य है। प्रेम में हम उसे परमात्मा कहते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।

इसलिए मैं आपको नहीं कहता हूं कि आप सबमें परमात्मा देखना शुरू करें। मैं आपसे कहता हूं कि आप अपने में देखना शुरू करें। देखते ही आप मिट जाएंगे। आपके मिटते ही जो दिखाई पड़ेगा, वह परमात्मा है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि यदि ध्यान से समाधि में जाया जा सकता है और समाधि से परमात्मा को जाना जा सकता है तो फिर आजकल के मंदिरों में जाना व्यर्थ है? और उन्हें हटा देना चाहिए?

मंदिरों में जाना तो व्यर्थ है, हटाने की कोशिश भी उतनी ही व्यर्थ है। जिनमें भगवान है ही नहीं, उनको हटाने की झंझट में भी किसी को नहीं पड़ना चाहिए। वे बेचारे जहां, हैं, हैं। उन्हें हटाने का क्या सवाल है? और अक्सर यह दिक्कत होती है। जैसे कि मोहम्मद ने लोगों को कहा कि मूर्ति में परमात्मा नहीं है। तो मुसलमानों ने सोचा कि मूर्तियों को मिटा डालना चाहिए। और तब एक बड़े मजे का काम शुरू हुआ दुनिया में—स्व तरफ मूर्तियों को बनाने वाले पागल हैं और दूसरी तरफ मूर्तियों को मिटाने वाले पागलों की जमात खड़ी हो गई। अब मूर्ति को बनाने वाला मूर्ति को बनाने में परेशान है और मूर्ति को मिटाने वाला दिन—रात इस उधेड़बुन में लगा है कि मूर्ति को कैसे मिटा दें।

अब कोई पूछे कि मोहम्मद ने यह कब कहा था कि मूर्ति के तोड़ देने में भगवान है। मूर्ति में न होगा, लेकिन मूर्ति के तोड़ देने में है, यह किसने कहा। और अगर मूर्ति के तोड़ देने में भगवान है तो फिर मूर्ति के होने में भी क्या कठिनाई है? उसमें भी भगवान हो सकता है। अगर न होगा, तो तोड्ने में कैसे हो जाएगा।

मैं नहीं कहता हूं कि मंदिरों को हटा देना चाहिए। मैं यह कहता हूं कि इस सत्य को जानना चाहिए कि वह सब जगह है। और जब हम इस सत्य को जानेंगे, तो सब कुछ ही उसका मंदिर हो जाएगा। तब मंदिर और गैर—मंदिर को अलग करना मुश्किल होगा। तब जहां, हम खड़े होंगे वहां, उसका मंदिर होगा, जहां, आंख उठाएंगे वहां, उसका मंदिर होगा, जहां, बैठेंगे वहां, उसका मंदिर होगा। तब दुनिया में तीर्थ न रह जाएंगे, क्योंकि पूरी दुनिया उसका तीर्थ होगी। तब उसकी अलग— अलग मूर्तियां डालना व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि तब जो भी है, उसकी ही मूर्ति होगी। मैं जो कह रहा हूं वह यह नहीं कह रहा हूं कि जाकर मंदिर मिटाने में लगें, या मंदिर हटाने में लगें, या किसी को समझाने जाएं कि मंदिर मत जाओ। क्योंकि मैंने यह कभी नहीं कहा कि मंदिर में भगवान नहीं है। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि जो मंदिर में ही देखता है, उसे भगवान का कोई पता नहीं है।

जिसे भगवान का पता होगा, उसे तो सब जगह भगवान होगा। मंदिर में भी, नहीं मंदिर हैं वहा भी। तब वह फर्क कैसे करेगा कि कौन—सा मंदिर है और कौन—सा मंदिर नहीं है। क्योंकि मंदिर हम उसे कहते हैं, जहां, भगवान है। और जब सब जगह भगवान है, तो सभी जगह मंदिर है। फिर अलग से मंदिर बनाने की जरूरत न रह जाएगी। और मंदिर तोड्ने की भी कोई जरूरत न रह जाएगी।

अक्सर यह भूल हो जाती है। अक्सर यह भूल होती है कि चीजों को समझने की जगह हम उलटी चीज को समझने की कोशिश शुरू कर देते हैं। बजाय इसके कि हम समझें कि मैं क्या कह रहा हूं, किसको हटाना है, किसको तोड़ना है, किसको मिटाना है, इसमें हम ज्यादा उत्सुक हो जाते हैं। क्या है, उसे समझने की…….और यह निरंतर भूल होती रही है।

आदमी ने जो बुनियादी भूलें की हैं, उनमें एक यह है कि जब भी उसे कुछ कहा जाता है तब वह तत्काल न मालूम क्या सुन लेता है, जो कहा ही नहीं गया था। अब मुझे कोई मंदिर का दुश्मन समझ सकता है। लेकिन मुझसे ज्यादा मंदिर को प्रेम करने वाला आदमी पाना मुश्किल है। यह मैं क्यों कहता हूं? यह मैं इसलिए कहता हूं कि मैं तो सारी पृथ्वी को ही मंदिर देखा जा सके, सब कुछ मंदिर हो सके, इसकी फिक्र में लगा हूं। लेकिन मेरी बात सुनकर कोई यह समझ सकता है कि वे जो छोटे —छोटे मंदिर बने हैं, उनको मिटा दो तो सब काम पूरा हो जाएगा। उनको मिटा देने से काम पूरा नहीं हो जाएगा, सारे जीवन को मंदिर बना लेने से काम पूरा होगा।

और ये दोनों आदमी गलत हैं। जो मंदिर में ही भगवान को देख रहा है, वह यह गलती कर रहा है कि शेष में वह किसको देख रहा है। मंदिर से बाहर किसको देख रहा है? मंदिर उसका बड़ा छोटा है और भगवान बड़ा विराट है, और इसलिए छोटे —छोटे मंदिरों में समा नहीं सकता है। और फिर दूसरा आदमी मंदिरों को तोड्ने में लग जाए कि मंदिरों को हटाओ, मंदिरों को मिटाओ, तब भगवान को देख सकेंगे। इतने छोटे —छोटे मंदिर न तो भगवान का आवास बन सकते हैं और न इतने छोटे—छोटे मंदिर भगवान को देखने में बाधा बन सकते हैं। ध्यान रखें, उनका छोटा होना इतना छोटा है कि न तो वह उसका घर बन सकते हैं और न उसका कारागृह बन सकते हैं कि उनको मिटाओ तो भगवान मुक्त हो जाएगा। समझने की आवश्यकता है, मैं क्या कह रहा हूं।

मैं यह कह रहा हूं कि अगर हम ध्यान में प्रवेश करते हैं रु तो ही हम मंदिर में प्रवेश करते हैं। क्योंकि ध्यान ही एक मंदिर है, जिसकी कोई दीवाल नहीं है। और ध्यान ही एक मंदिर है, जहां, प्रवेश पाते ही व्यक्ति मंदिर में प्रविष्ट हो जाता है। और ध्यान में जो जीने लगता है, वह चौबीस घंटे मंदिर में ही जीने लगता है। और जो ध्यान में नहीं जीता है, वह मंदिर में भी जाकर क्या करेगा? जिसको हम मंदिर कहते हैं, वहां, भी क्या करेगा? कोई इतना आसान तो नहीं है मामला कि दुकान पर बैठे —बैठे आप एकदम मंदिर में चले जाएं। हां, शरीर को ले जाना बहुत आसान है। शरीर बेचारा बड़ा सरल है। उसको कहीं भी ले जाओ। मन इतना सरल नहीं है। एक दुकानदार बैठा हुआ दुकान कर रहा है और गिनती कर रहा है रुपयों की। वह चाहे तो उठकर फौरन शरीर को मंदिर में ले जा सकता है। लेकिन शरीर मंदिर में चला जायेगा और मन..! शरीर मंदिर में चला जाएगा और वह धोखे में पडेगा कि मैं मंदिर में आ गया। लेकिन अपने मन में थोड़ा झांककर देखेगा, तो बहुत हैरान हो जाएगा कि मन अब भी दुकान पर बैठा हुआ है और रुपयों की गिनती कर रहा है।

मैंने सुना है, एक आदमी अपनी पत्नी से बहुत परेशान था। ऐसे तो सभी आदमी परेशान रहते हैं। वह बहुत परेशान था। धार्मिक आदमी था और पत्नी बड़ी अधार्मिक थी। यह बड़ा उल्टा मामला है, होता अक्सर उलटा है। पत्नी धार्मिक होती है और पति अधार्मिक होते हैं। लेकिन सब संभव है। वह आदमी तो धार्मिक था, पत्नी अधार्मिक थी। और मेरी समझ में ऐसा आता है कि दो में से एक ही धार्मिक हो सकता है। असल में दोनों एक साथ हो ही नहीं सकते। एक कुछ हो जाएगा, तो दूसरा उसके विपरीत हो जाएगा। शायद पति पहले धार्मिक हो गया, तो पत्नी धार्मिक होने से बच गई। लेकिन पति रोज कोशिश करता था पत्नी को धार्मिक बनाने की।

धार्मिक आदमी में एक बुनियादी खराबी होती है—अरे को भी अपने जैसा बनाने की। यह बड़ी खतरनाक बात है। यह हिंसा की बात है। किसी को अपने जैसा बनाने की चेष्टा बड़ी बुरी है। किसी को हम अपनी बात समझा दें, इतना काफी है। लेकिन किसी को हम अपने जैसा बनाने के लिए उसकी गर्दन पकड़ लें, तो यह बहुत तरकीब है दबाने की, सताने की—जिसको कहें कि एक आध्यात्मिक प्रकार की हिंसा है। और सभी गुरु यही काम करते हैं। इसलिए गुरुओं से ज्यादा हिंसात्मक आदमी खोजने मुश्किल हैं। किसी की गर्दन पकड़कर वे उसको डालने की कोशिश करते हैं कि ऐसा कपड़ा पहनो, ऐसा बाल रखो, ऐसा सिर घुटाओ, यह करो, वह करो। सब कुछ बिलकुल थोप देते हैं कि यह खाओ, वह पीओ, ऐसे सोओ, ऐसे उठो। वह सब थोप कर उस आदमी को मार डालते हैं।

तो पति भी बड़ा उत्सुक था। असल में दूसरे को धार्मिक बनाने में मजा भी बहुत आता है। खुद धार्मिक बनना तो बड़ी क्रांति की बात है। लेकिन दूसरे को धार्मिक बनाने में बड़ा संतोष मिलता है। क्योंकि दूसरे को धार्मिक बनाने में हम तो धार्मिक पहले से ही स्वीकृत हो जाते हैं। अब दूसरे को बनाने की बात रह जाती है। लेकिन पत्नी थी कि सुनती ही न थी। तो उसने अपने गुरु को कहा कि मेरी पत्नी को बदल दें। एक दिन मेरे घर आयें और मेरी पत्नी को समझायें। तो सुबह ही सुबह पांच बजे होंगे कि उसका गुरु उसकी पत्नी को समझाने उसके घर पर आया। पत्नी बुहारी लगाती थी। घर के बाहर सीढियां साफ कर रही थी। गुरु ने उसे वहीं रोका और कहा कि मैंने सुना है, तुम्हारे पति कहते हैं कि तुम बड़ी अधार्मिक हो, पूजा नहीं करती हो, प्रार्थना नहीं करती हो, घर में मंदिर बनाया है पति ने, उसमें जाती नहीं हो। सुबह पांच बजे हैं। पति मंदिर में बैठे हुए हैं जाकर। पत्नी बाहर साफ कर रही है बुहारी से। उस पत्नी ने कहा, मेरे पति ही कभी मंदिर में गए हों, ऐसा मुझे याद ही नहीं आता। पति मंदिर में था। यह आग भड़क गई।

धार्मिक आदमी को आग बहुत जल्दी भड़कती है। और मंदिर में जो बैठे हैं, उनकी आग भड़काना तो इतना आसान है कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। पता नहीं वे आग छिपाने के लिए वहां, बैठे रहते हैं या क्या करते हैं। धार्मिक आदमी इतना क्रोधी हो जाता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। एक आदमी घर में धार्मिक हो जाए, सारे घर में उपद्रव हो जाता है। उसकी आग भड़क गई। अपना मंत्र अभी पूरा ही कर रहा था, तो उसने जल्दी —जल्दी पूरा किया कि यह क्या सरासर झूठ हो रहा है। मैं मंदिर में हूं और मेरी पत्नी द्वार के बाहर मेरे गुरु से कह रही है कि वह कभी मंदिर में गए हों, ऐसा मुझे मालूम नहीं।

गुरु ने कहा, क्या कहती हो! वह तो निरंतर मंदिर में जाते हैं। तो पति ने वहां, जोर—जोर से राम—राम की रट लगाई ताकि गुरु बाहर सुन लें। गुरु ने कहा, देखो, वह इतनी जोर से राम—राम की रट लगा रहा है। उसकी पत्नी ने कहा कि इस रट से आप भी धोखे में आते हैं। हद हो गई। जहां, तक मैं समझती हूं —रट तो वे लगा रहे हैं—लेकिन जहां, तक मैं समझती हूं, मंदिर वे नहीं गए हैं। वे चमार की एक दुकान पर गए हुए हैं और जूते खरीद रहे हैं।

पति की तो हद हो गई। गुस्से की सीमा के बाहर हो गई बात। मंत्र—वंत्र छोड्कर बाहर दौड़ा हुआ आया और कहा कि क्या सरासर झूठ हो रहा है। मैं मंदिर में बैठा प्रार्थना कर रहा हूं। उसकी पत्नी ने कहा, थोड़ा और गौर से देखें। सच में आप प्रार्थना कर रहे थे? जूते की दुकान पर जूता नहीं खरीद रहे थे? झगड़ा नहीं हो गया था जूते वाले से? पति एकदम हैरान हुआ। बात यही थी। उसने कहा, लेकिन तुझे यह कैसे पता चला? पत्नी ने कहा, रात आप जब सोए, तब मुझसे यही कहते सोए थे रात सोते वक्त कि कल सुबह जाकर जूता खरीदना है। और बड़े महंगे दाम बता रहा है, तो बिना जूता के ही बहुत दिन से काम चला रहा हूं। कल सुबह जूता खरीदना ही है। तो पत्नी ने कहा कि मेरा अनुभव यह है कि रात सोते वक्त जो आखिरी खयाल होता है, सुबह उठते वक्त वह पहला खयाल होता है। मैंने सिर्फ अंदाज से कहा है कि इस वक्त जूते की दुकान पर होना चाहिए। पति ने कहा कि अब मैं कुछ कह नहीं सकता और बात यही सच है। मैं जोर—जोर से राम —राम कह रहा था, लेकिन जब इसने कहा कि मैं जूते की दुकान पर था और जूता फिर महंगा बता रहा था चमार, तो मैंने उसकी गर्दन पकड़ ली, झगड़ा हो गया था। और उस झगड़े में और जोर—जोर से राम—राम राम —राम कह रहा था। वह भीतर जो झगड़ा चल रहा था। यह ठीक ही कहती है। शायद यह ठीक ही कहती है; मैं मंदिर में कभी नहीं गया हूं।

मंदिर जाना इतना आसान तो नहीं है कि आप एक दीवाल के भीतर चले गए और मंदिर में पहुंच गए। हो सकता है, मंदिर में शरीर पहुंच गया हो, पर मन? मन का क्या भरोसा कि वह कहां, है। और जिस दिन मन मंदिर में चला जाता है, उस दिन शरीर की क्या फिक्र कि वह मंदिर में गया है कि नहीं गया है! क्योंकि जिस दिन मन मंदिर में चला जाता है, उस दिन तो आप अचानक पाते हैं कि उसका बड़ा मंदिर चारों तरफ से घेरे हुए है। उसके मंदिर के बाहर जाना संभव कहां, है? कहां, जाइएगा कि उसके मंदिर के बाहर चले जाएंगे? चांद पर चले जाओ, अभी चांद पर आर्मस्ट्राग चला गया, तो क्या उसके मंदिर के बाहर चला गया? उसके मंदिर के बाहर जाने का उपाय कहां, है? क्योंकि उसके मंदिर के बाहर कोई जगह कहां, है, जहां, हम जा सकेंगे? लेकिन जो लोग सोच लेते हैं कि यह रहा उसका मंदिर, वे सोचते हैं कि इसके मंदिर के बाहर उसका मंदिर नहीं है। वे भी गलती में हैं। और जो सोचते हैं कि इस मंदिर को मिटा देंगे क्योंकि इसमें वह नहीं है, वे भी उतनी ही गलती में हैं।

उस मंदिर का बेचारे का क्या कसूर है? मंदिर बड़े सुंदर भी हो सकते हैं। अगर यह भ्रम हमारा मिट जाए कि वहीं भगवान है, तो मंदिर बड़े सुंदर हो सकते हैं, बड़े प्रेमपूर्ण हो सकते हैं, बड़े आनंदपूर्ण हो सकते हैं। असल में एक गांव बड़ा अधूरा लगता है, अगर उसमें एक मंदिर न दिखाई पड़ता हो। मंदिर का होना बड़ा आनंदपूर्ण हो सकता है। लेकिन हिंदू का मंदिर आनंदपूर्ण नहीं हो सकता है, मुसलमान का मंदिर आनंदपूर्ण नहीं हो सकता है, ईसाई का मंदिर आनंदपूर्ण नहीं हो सकता है। परमात्मा का मंदिर आनंदपूर्ण हो सकता है। लेकिन हिंदू मुसलमान, ईसाई की राजनीति इतनी गहरी है कि वह परमात्मा के मंदिर का प्रतीक भी नहीं बनने देती। और इसलिए अब हिंदू का मंदिर और मुसलमान की मस्जिद तो बडी कुरूप मालूम पड़ती है, बहुत अग्ली। भला आदमी उनकी तरफ देखने में भी सकुचाता है। वहां, बहुत दुष्टों का अड्डा जमा हुआ है। वहां, उपद्रव की, मिस्वीफ की सारी की सारी योजनाएं रची जाती हैं। और यह भी जरूरी नहीं है कि जो योजनाएं रचते हों, बहुत जानकर रचते हों। क्योंकि मैं समझता हूं कि उपद्रव की योजना कोई भी जानकर नहीं रचता है, सिर्फ अज्ञान में ही रची जाती हैं। तो सारी पृथ्वी को उन्होंने इस हालत में डाल दिया है।

अगर पृथ्वी से कभी मंदिर मिटेंगे तो नास्तिकों के कारण नहीं, पृथ्वी से अगर कभी मंदिर मिटेंगे तो तथाकथित आस्तिकों के कारण। करीब—करीब मिट ही गए हैं, मिटे जा रहे हैं। पृथ्वी पर अगर मंदिर को बचाना हो, तो बड़े मंदिर को पहले देखना जरूरी है। फिर छोटे मंदिर उसमें अपने आप बच जाते हैं। तब वे प्रतीक रह जाते हैं। जैसे कि मैंने प्रेम में आपको एक रूमाल भेंट कर दिया। तो रूमाल चार आने का है, लेकिन आप उसे संभाल कर तिजोरी में रखते हैं।

मैं एक गांव में गया। स्टेशन पर लोग मुझे विदा करने आए थे। किसी ने फूलमाला मेरे गले में डाली। मैंने उसे उतार कर पास में एक लड़की खड़ी थी, उसको दे दी। छह साल बाद उस गांव में गया—तों उस लड़की ने मुझे कहा कि आपकी फूलमाला को बड़ा संभाल कर मैंने रखा है। फूलमाला तो सूख गई। दूसरों को उसमें सुगंध नहीं आती, लेकिन मुझे अब भी आती है— आपने जो दी थी। उसके घर मैं गया हूं। उसने एक बड़ी सुंदर पेटी में उस फूलमाला को संभाल कर रखा हुआ है। न अब फूल बचे हैं, सब सूख गए हैं, न अब कोई सुगंध है। और कोई भी देखकर कहेगा तो कहेगा कि इस कचरे को इतनी खूबसूरत पेटी में क्यों रखा हुआ है? कोई भी देखकर कहेगा तो कहेगा इस कचरे को इतनी खूबसूरत पेटी में रखने की जरूरत? यह पेटी तो बहुत कीमती है, और यह कचरा तो बिलकुल बेकीमती है। लेकिन वह लड़की पेटी को फेंक सकती है, उस कचरे को नहीं। उस कचरे में उसे कुछ और दिखाई पड़ता है। वह एक प्रतीक है, एक सिंबल है। उस कचरे में किसी प्रेम की याददाश्त है। वह सारी दुनिया के लिए कचरा होगा, उसके लिए कचरा नहीं है।

अगर मंदिर, मस्जिद और गिरजे किसी दिन प्रभु की तरफ उठती हुई आकांक्षा की सिर्फ याददाश्त रह जाएं…… और सच बात तो यही है, देखें गिरजे की उठती हुई मीनार, मस्जिद की उठती हुई मीनार, मंदिर का गुंबद, आकाश को छूते हुए कलश। वह मनुष्य के भीतर जो ऊपर उठने की आकांक्षा है, उस परमात्मा की तलाश के लिए जो यात्रा है, वे उसके सिर्फ प्रतीक हैं, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। उसके सिर्फ प्रतीक हैं कि मनुष्य सिर्फ मकान से राजी नहीं है, मनुष्य मंदिर भी बनाना चाहता है। मनुष्य सिर्फ पृथ्वी से राजी नहीं है, आकाश की तरफ उठना भी चाहता है।

इसलिए मंदिरों में दीये जल रहे हैं। कभी सोचा है कि वे दीये किसलिए जल रहे हैं? घी के दीये जल रहे हैं। कभी सोचा है, वे घी के दीये किसलिए जल रहे हैं? कभी सोचा कि दीया भर एक चीज है जमीन पर, जो नीचे की तरफ कभी नहीं जाता, सदा ऊपर की तरफ ही जाता है। नीचे की तरफ ले जा नहीं सकते दीये को। अगर दीये को हम उलटा कर दें, तो भी ज्योति ऊपर की तरफ ही भागती रहेगी। ज्योति नीचे की तरफ भगाई जा नहीं सकती। दीया निरंतर ऊपर जा रहा है। तो वह दीये की जो जलती हुई ज्योति है, वह जो निरंतर ऊपर भाग रही है, वह प्रतीक है मनुष्य की आकांक्षाओं का। पृथ्वी पर हम रहते होंगे, लेकिन आकाश को भी अपना घर बनाना चाहते हैं। बंधे हम होंगे जमीन से, लेकिन हम खुले आकाश में मुक्त भी हो जाना चाहते हैं।

और देखा है कभी कि वह दीये की ज्योति कितनी शीघ्र उठ रही है और विलीन हो रही है! कभी यह देखा कि ज्योति उठी और विलीन हुई! फिर खोजने से भी पता न चलेगा कि कहां, गई। वह भी प्रतीक है इस बात का कि जो ऊपर की तरफ जाएगा, वह विलीन हो जाएगा। दीया बहुत ठोस है और ज्योति बड़ी तरल है, और जरा उठी नहीं है ऊपर कि खो गई है। जो ऊपर की तरफ उठेगा, वह मिट जाएगा। वह उसकी भी प्रतीक है, वह उसकी भी खबर है।

फिर आदमी अपने प्रेम में घी का दीया जला रहा है। कोई हर्जा नहीं कि मिट्टी का तेल का जलाए। भगवान उसको मना करने नहीं आएगा। लेकिन हमारे भाव, हमारे भाव ये हैं कि ऊपर की तरफ वही जा सकता है जो नीचे घी की तरह पवित्र हो। ऊपर की तरफ जाने की संभावना तभी है। ऐसे तो मिट्टी के तेल का दीया भी ऊपर की तरफ जाएगा और मिट्टी के तेल में घी से कुछ कमी नहीं है। लेकिन हमारे भाव के प्रतीक हैं। और प्रतीक यह है कि घी की तरह पवित्र ऊपर जा सकेगा, ऊपर की यात्रा हो सकेगी।

मंदिर भी ऐसे ही प्रतीक हैं, मस्जिदें भी ऐसे ही प्रतीक हैं, गिरजे भी वे बड़े प्यारे हो सकते थे। बहुत एस्थैटिक हैं, बहुत सौंदर्य के प्रतीक हैं। बडे अदभुत चित्र हैं जो आदमी ने बनाए। लेकिन बड़े कुरूप हो गए हैं, क्योंकि उनके साथ बहुत बेहूदगियां जुड़ गई हैं। मंदिर मंदिर नहीं रहा, हिंदू का मंदिर हो गया। हिंदू का भी नहीं रहा, वैष्णव का हो गया। वैष्णवों का भी नहीं रहा, फलाने का हो गया। टूटते—टूटते —टूटते सारे मंदिर राजनीति के अड्डे हो गए हैं, जहां, से संगठन और संप्रदाय प्राण पाते हैं और खतरे में ले जाते हैं। और धीरे — धीरे वे सब दुकानें हो गए हैं, जहां, शोषण चलता है और जहां, न्यस्त स्वार्थ हैं।

तो मैं आपसे यह नहीं कहता कि मंदिर मिटा देना, मैं आपसे यह कहता हूं कि मंदिर से जुड़ा हुआ जो भी व्यर्थ है, उसको जरूर मिटाना है। न्यस्त स्वार्थ मिटाना है, मंदिर को दुकान होने से बचाना है। मंदिर को संगठनों और संप्रदायों से बचाना है। वह निपट परमात्मा की याद रह जाए, वह प्रतीक रह जाए, भागता हुआ आकाश की तरफ, तो मंदिर तो बड़ा सुंदर है।

और मैं आपसे यह कहता हूं कि जब तक मंदिर राजनीति के अड्डे हैं. और राजनीति के अड्डे ही हैं मंदिर अब। जब कोई मंदिर हिंदू का है, तो वह राजनीति का अड्डा हो गया। क्योंकि राजनीति यानी संगठन, और धर्म यानी जिसका संगठन से कोई संबंध नहीं। धर्म यानी साधना और राजनीति यानी संगठना। इतना खयाल रखना, धर्म का साधना से तो संबंध हो सकता है, संगठना से कोई भी नहीं। और राजनीति संगठन पर जीती है। संगठन घृणा पर जीता है, घृणा खून पर जीती है। और वह सब उपद्रव चलता रहता है।

मंदिर को नहीं मिटा देना है, मंदिर का प्रतीक अपवित्र हो गया है, वह अपवित्रता उससे झाड़ देनी है। तब बड़े सौंदर्य का प्रतीक रह जाएगा वह। अगर गांव में एक मंदिर रह जाए जो न हिंदू का है, न मुसलमान का, न ईसाई का, तो वह गांव बड़ा सुंदर हो जाएगा। वह मंदिर उस गांव का आभूषण बन जाएगा। वह गांव के बीच असीम की एक याद बन जाएगा। और तब उस मंदिर में जानेवाले ऐसा न समझेंगे कि मंदिर में जाकर हम भगवान के पास पहुंच गए और बाहर थे तो भगवान के पास नहीं थे। उस मंदिर में जानेवाले सिर्फ इतना ही समझेंगे कि मंदिर एक जगह है, जहां, हम अपने भीतर उतरने के लिए सुविधा, सौंदर्य, शांति, एकांत उपलब्ध करने के लिए हैं और कुछ भी नहीं। तब मंदिर भगवान के पास जाने का नहीं, ध्यान में जाने के लिए सिर्फ एक उपयुक्त स्थल रह जाएगा। और ध्यान परमात्मा में ले जाने का मार्ग बन जाता है।

हर आदमी अपने घर को इतना शांत नहीं बना सकता, मुश्किल है। लेकिन कम से कम गांव मिलकर तो एक घर ऐसा बना सकता है जो शांत हो। हर आदमी अपने घर में एक शिक्षक लगाकर अपने बच्चों को नहीं पढ़ा सकता। और अगर पढ़ाए भी, तो स्कूल जैसा भवन नहीं दे सकता, बगीचा नहीं दे सकता, मैदान नहीं दे सकता। एक—एक आदमी एक—एक स्कूल बनाए, अपने बच्चों के लिZn शिक्षक लाए, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर थोड़े से ही बच्चे दुनिया में शिक्षित हो सकेंगे। हम गांव में एक स्कूल बना लिये हैं। जो घर में उपलब्ध नहीं है, वह हमने स्कूल में जुटा दिया है। इतना मैदान नहीं है खेलने को, इतने सुंदर स्वच्छ कमरे नहीं हैं बैठने को, इतने शिक्षक नहीं हैं समझाने को, तो गांव का एक स्कूल है उसमें सारे बच्चे इकट्ठे हो जाते हैं।

तो गांव के पास साधना का भी एक स्थल होना चाहिए। इतना ही मंदिर का अर्थ है, मस्जिद का अर्थ है, और कोई अर्थ नहीं है। लेकिन अब वे साधना के स्थल नहीं रह गए हैं। अब वे उपद्रव के स्थल हो गए हैं, जहां, से झगड़े और आग फैलती है।

तो मंदिर को नहीं मिटा देना है। मंदिर उपद्रव न रह जाए, इसकी जरूर फिक्र. करनी है। और मंदिर धर्म के हाथ में आ जाए, हिंदू—मुसलमान के हाथ में न रह जाए, इसकी भी जरूर फिक्र करनी है। और जिस गांव के बच्चे उतनी ही सरलता से मस्जिद में जा सकते हों जितनी सरलता से मंदिर में, उतनी ही सरलता से गिरजे में जा सकते हों जितनी सरलता से किसी और शिवालय में, वह गांव धार्मिक गांव है। उस गांव के लोग भले हैं। उस गांव के मां —बाप अपने बच्चों के दुश्मन नहीं हैं। उस गांव के मां —बाप अपने बच्चों को प्रेम करते हैं। और उस गांव के मां —बाप एक बुनियाद रख रहे हैं कि उनके बच्चे कभी नहीं लड़ेंगे। उस गांव के मां—बाप कहते हैं, मस्जिद भी उसका घर है, मंदिर भी उसका घर है, जाओ जहां, तुम्हें शांति मिले वहां, बैठो, वहां, उसे खोजो। घर तो सब कुछ उसका ही है, लेकिन एक दफा उसकी झलक मिल जाए, उसके लिए भीतर जाओ, कहीं भी जाओ। उस दिन दुनिया में ठीक—ठीक मंदिर बन सकेगा। अब तक वह नहीं बन सका है।

इसलिए मैं कोई मंदिर मिटाने वालों में से नहीं हूं। मैं तो यह कह रहा हूं कि मंदिर मिटा दिए गए हैं। और जो मंदिर के रक्षक मालूम हो रहे हैं, वे ही मंदिर के मिटाने वाले हैं। लेकिन कब हमें यह दिखाई पड़ेगा, कहना कठिन है। और तब कई दफे उलटा खयाल हो जाता है। ऐसा खयाल हो जाता है कि मैं कोई मंदिर को मिटाने वाले लोगों में से हूं। मुझे मंदिर को मिटाने से क्या प्रयोजन हो सकता है? हां, मंदिर के पास जो—जो गैर मंदिर जैसा इकट्ठा हो गया है, वह विदा जरूर हो जाना चाहिए। उसकी चेष्टा में जरूर रत होना उचित है।

एक अंतिम प्रश्न और फिर हम ध्यान के लिए बैठेगें एक मित्र ने सुबह की चर्चा के बाद पूछा है कि क्या कुछ आत्माएं शरीर छोड़ने के बाद भटकती रह जाती हैं?

 

कुछ आत्माएं निश्चित ही शरीर छोड़ने के बाद एकदम से दूसरा शरीर ग्रहण नहीं कर पाती हैं। उसका कारण? उसका कारण है। और उसका कारण शायद आपने कभी न सोचा होगा कि यह कारण हो सकता है। दुनिया में अगर हम सारी आत्माओं को विभाजित करें, सारे व्यक्तित्वों को, तो वे तीन तरह के मालूम पड़ेंगे। एक तो अत्यंत निकृष्ट, अत्यंत हीन चित्त के लोग; एक अत्यंत उच्च, अत्यंत श्रेष्ठ, अत्यंत पवित्र किस्म के लोग; और फिर बीच की एक भीड़ जो दोनों का तालमेल है, जो बुरे और भले को मेल —मिलाकर चलती है। जैसे कि अगर डमरू हम देखें, तो डमरू दोनों तरफ चौड़ा है और बीच में पतला होता है। डमरू को उलटा कर लें। दोनों तरफ पतला और बीच में चौड़ा हो जाए तो हम दुनिया की स्थिति समझ लेंगे। दोनों तरफ छोर और बीच में मोटा—डमरू उलटा। इन छोरों पर थोड़ी—सी आत्माएं हैं।

निकृष्टतम आत्माओं को भी मुश्किल हो जाती है नया शरीर खोजने में और श्रेष्ठ आत्माओं को भी मुश्किल हो जाती है नया शरीर खोजने में। बीच की आत्माओं को जरा भी देर नहीं लगती। यहां, मरे नहीं, वहां, नई यात्रा शुरू हो गई। उसके कारण हैं। उसका कारण यह है कि साधारण, मीडियाकर मध्य की जो आत्माएं हैं, उनके योग्य गर्भ सदा उपलब्ध रहते हैं।

मैं आपको कहना चाहूंगा कि जैसे ही आदमी मरता है, मरते ही उसके सामने सैकड़ों लोग संभोग करते हुए, सैकड़ों जोड़े दिखाई पड़ते हैं, मरते ही। और जिस जोड़े के प्रति वह आकर्षित हो जाता है वहां, वह गर्भ में प्रवेश कर जाता है। लेकिन बहुत श्रेष्ठ आत्माएं साधारण गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकतीं। उनके लिए असाधारण गर्भ की जरूरत है, जहॉं असाधारण संभावनाएं व्यक्तित्व की मिल सकें। तो श्रेष्ठ आत्माओं को रुक जाना पड़ता है। निकृष्ट आत्माओं को भी रुक जाना पडता है, क्योंकि उनके योग्य भी गर्भ नहीं मिलता। क्योंकि उनके योग्य मतलब अत्यंत अयोग्य गर्भ मिलना चाहिए वह भी साधारण नहीं।

श्रेष्ठ और निकृष्ट, दोनों को रुक जाना पड़ता है। साधारण जन एकदम जन्म ले लेता है, उसके लिए कोई कठिनाई नहीं है। उसके लिए निरंतर बाजार में गर्भ उपलब्ध हैं। वह तत्काल किसी गर्भ के प्रति आकर्षित हो जाता है।

सुबह मैंने बारदो की बात की थी। बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी से यह भी कहा जाता है कि अभी तुझे सैकड़ों जोड़े भोग करते हुए, संभोग करते हुए दिखाई पड़ेंगे। तू जरा सोच कर, जरा रुक कर, जरा ठहर कर, गर्भ में प्रवेश करना। जल्दी मत करना, ठहर, थोड़ा ठहर! थोड़ा ठहर कर किसी गर्भ में जाना। एकदम मत चले जाना।

जैसे कोई आदमी बाजार में खरीदने गया है सामान। पहली दुकान पर ही प्रवेश कर जाता है। शो रूम में जो भी लटका हुआ दिखाई पड़ जाता है, वही आकर्षित कर लेता है। लेकिन बुद्धिमान ग्राहक दस दुकान भी देखता है। उलट—पुलट करता है, भाव—ताव करता है, खोज—बीन करता है, फिर निर्णय करता है। नासमझ जल्दी से पहले ही जो चीज उसकी आंख के सामने आ जाती है, वहीं चला जाता है।

तो बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी से कहा जाता है कि सावधान! जल्दी मत करना। जल्दी मत करना। खोजना, सोचना, विचारना, जल्दी मत करना। क्योंकि सैकड़ों लोग निरंतर संभोग में रत हैँ। सैकड़ों जोड़े उसे स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। और जो जोड़ा उसे आकर्षित कर लेता है, और वही जोड़ा उसे आकर्षित करता है जो उसके योग्य गर्भ देने के लिए क्षमतावान होता है।

तो श्रेष्ठ और निकृष्ट आत्माएं रुक जाती हैं। उनको प्रतीक्षा करनी पड़ती है कि जब उनके योग्य गर्भ मिले। निकृष्ट आत्माओं को उतना निकृष्ट गर्भ दिखाई नहीं पड़ता, जहां, वे अपनी संभावनाएं पूरी कर सकें। श्रेष्ठ आत्मा को भी नहीं दिखाई पड़ता।

निकृष्ट आत्माएं जो रुक जाती हैं, उनको हम प्रेत कहते हैं। और श्रेष्ठ आत्माएं जो रुक जाती हैं, उनको हम देवता कहते हैं। देवता का अर्थ है, वे श्रेष्ठ आत्माएं जो रुक गईं। और प्रेत का अर्थ है, भूत का अर्थ है, वे आत्माएं जो निकृष्ट होने के कारण रुक गईं। साधारण जन के लिए निरंतर गर्भ उपलब्ध है। वह तत्काल मरा और प्रवेश कर जाता है। क्षण भर की भी देरी नहीं लगती। यहा समाप्त नहीं हुआ, और वहां, वह प्रवेश करने लगता है।

उन्होंने यह भी पूछा है कि ये जो आत्माएं रुक जाती हैं क्या वे किसी के शरीर में प्रवेश करके उसे परेशान भी कर सकती हैं?

 

सकी भी संभावना है। क्योंकि वे आत्माएं, जिनको शरीर नहीं मिलता है, शरीर के बिना बहुत पीड़ित होने लगती हैं। निकृष्ट आत्माएं शरीर के बिना बहुत पीड़ित होने लगती हैं। श्रेष्ठ आत्माएं शरीर के बिना अत्यंत प्रफुल्लित हो जाती हैं। यह फर्क ध्यान में रखना चाहिए। क्योंकि श्रेष्ठ आत्मा शरीर को निरंतर ही किसी न किसी रूप में बंधन अनुभव करती है और चाहती है कि इतनी हलकी हो जाए कि शरीर का बोझ भी न रह जाए। अंततः वह शरीर से भी मुक्त हो जाना चाहती है, क्योंकि शरीर भी एक कारागृह मालूम होता है। अंततः उसे लगता है कि शरीर भी कुछ ऐसे काम करवा लेता है, जो न करने योग्य हैं। इसलिए वह शरीर के लिए बहुत मोहग्रस्त नहीं होता। निकृष्ट आत्मा शरीर के बिना एक क्षण भी नहीं जी सकती। क्योंकि उसका सारा रस, सारा सुख, शरीर से ही बंधा होता है।

शरीर के बिना कुछ आनंद लिये जा सकते हैं। जैसे समझें, एक विचारक है। तो विचारक का जो आनंद है, वह शरीर के बिना भी उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि विचार का शरीर से कोई संबंध नहीं है। तो अगर एक विचारक की आत्मा भटक जाए, शरीर न मिले, तो उस आत्मा को शरीर लेने की कोई तीव्रता नहीं होती, क्योंकि विचार का आनंद तब भी लिया जा सकता है। लेकिन समझो कि एक भोजन करने में रस लेने वाला आदमी है, तो शरीर के बिना भोजन करने का रस असंभव है। तो उसके प्राण बड़े छटपटाने लगते हैं कि वह कैसे प्रवेश कर जाए। और उसके योग्य गर्भ न मिलता हो, तो वह किसी कमजोर आत्मा में—कमजोर आत्मा से मतलब है ऐसी आत्मा, जो अपने शरीर की मालिक नहीं है—उस शरीर में वह प्रवेश कर सकता है, किसी कमजोर आत्मा की भय की स्थिति में।

और ध्यान रहे, भय का एक बहुत गहरा अर्थ है। भय का अर्थ है जो सिकोड़ दे। जब आप भयभीत होते हैं, तब आप सिकुड़ जाते हैं। जब आप प्रफुल्लित होते हैं, तो आप फैल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति भयभीत होता है, तो उसकी आत्मा सिकुड जाती है और उसके शरीर में बहुत जगह छूट जाती है, जहां, कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सकती है। एक नहीं, बहुत आत्माएं भी एकदम से प्रवेश कर सकती हैं। इसलिए भय की स्थिति में कोई आत्मा किसी शरीर में प्रवेश कर सकती है। और करने का कुल कारण इतना होता है कि उसके जो रस हैं, वे शरीर से बंधे हैं। वह दूसरे के शरीर में प्रवेश करके रस लेने की कोशिश करती है। इसकी पूरी संभावना है, इसके पूरे तथ्य हैं, इसकी पूरी वास्तविकता है। इसका यह मतलब हुआ कि एक तो भयभीत व्यक्ति हमेशा खतरे में है। जो भयभीत है, उसे खतरा हो सकता है। क्योंकि वह सिकुड़ी हुई हालत में होता है। वह अपने मकान में, अपने घर के एक कमरे में रहता है, बाकी कमरे उसके खाली पड़े रहते हैं। बाकी कमरों में दूसरे लोग मेहमान बन सकते हैं।

कभी—कभी श्रेष्ठ आत्माएं भी शरीर में प्रवेश करती हैं, कभी—कभी। लेकिन उनका प्रवेश बहुत दूसरे कारणों से होता है। कुछ कृत्य हैं करुणा के, जो शरीर के बिना नहीं किए जा सकते। जैसे समझें कि एक घर में आग लगी है और कोई उस घर को आग से बचाने को नहीं जा रहा है। भीड़ बाहर घिरी खड़ी है, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती कि आग में बढ़ जाए। और तब अचानक एक आदमी बढ़ जाता है और वह आदमी बाद में बताता है कि मुझे समझ में नहीं आया कि मैं किस ताकत के प्रभाव में बढ़ गया। मेरी तो हिम्मत न थी। वह बढ़ जाता है और आग बुझाने लगता है और आग बुझा लेता है। और किसी को बचा कर बाहर निकल आता है। और वह आदमी खुद कहता है कि ऐसा लगता है कि मेरे हाथ की बात नहीं है यह, किसी और ने मुझसे यह करवा लिया है। ऐसी किसी घडी में जहां, कि किसी शुभ कार्य के लिए आदमी हिम्मत न जुटा पाता हो, कोई श्रेष्ठ आत्मा भी प्रवेश कर सकती है। लेकिन ये घटनाएं कम होती हैं।

निकृष्ट आत्मा निरंतर शरीर के लिए आतुर रहती है। उसके सारे रस उनसे बंधे हैं। और यह बात भी ध्यान में रख लेनी चाहिए कि मध्य की आत्माओं के लिए कोई बाधा नहीं है, उनके लिए निरंतर गर्भ उपलब्ध हैं।

इसीलिए श्रेष्ठ आत्मायें कभी—कभी सैकड़ों वर्षों के बाद ही पैदा हो पाती हैं। और यह भी जानकर हैरानी होगी कि जब श्रेष्ठ आत्माएं पैदा होती हैं, तो करीब—करीब पूरी पृथ्वी पर श्रेष्ठ आत्माएं एक साथ पैदा हो जाती हैं। जैसे कि बुद्ध और महावीर भारत में पैदा हुए आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले। बुद्ध, महावीर दोनों बिहार में पैदा हुए। और उसी समय बिहार में छह और अदभुत विचारक थे। उनका नाम शेष नहीं रह सका, क्योंकि उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए। और कोई कारण न था, वे बुद्ध और महावीर की ही हैसियत के लोग थे। लेकिन उन्होंने बड़े हिम्मत का प्रयोग किया। उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए। उनमें एक आदमी था प्रबुद्ध कात्यायन, एक आदमी था अजित केसकंबल, एक था संजय विलट्ठीपुत्र, एक था मक्सली गोशाल, और लोग थे। उस समय ठीक बिहार में एक साथ आठ आदमी एक ही प्रतिभा के, एक ही क्षमता के पैदा हो गए। और सिर्फ बिहार में, एक छोटे — से इलाके में सारी दुनिया के। ये आठों आत्माएं बहुत देर से प्रतीक्षारत थीं। और मौका मिल सका तो एकदम से भी मिल गया।

और अक्सर ऐसा होता है कि एक श्रृंखला होती है अच्छे की भी और बुरे की भी। उसी समय यूनान में सुकरात पैदा हुआ थोड़े समय के बाद, अरस्तू पैदा हुआ, प्लेटो पैदा हुआ। उसी समय चीन में कंक्यूशियस पैदा हुआ, लाओत्से पैदा हुआ, मेन्शियस पैदा हुआ, च्चांगत्से पैदा हुआ। उसी समय सारी दुनिया के कोने —कोने में कुछ अदभुत लोग एकदम से पैदा हुए। सारी पृथ्वी कुछ अदभुत लोगों से भर गई।

ऐसा प्रतीत होता है कि ये सारे लोग प्रतीक्षारत थे, प्रतीक्षारत थीं उनकी आत्माएं और एक मौका आया और गर्भ उपलब्ध हो सके। और जब गर्भ उपलब्ध होने का मौका आता है, तो बहुत से गर्भ एक साथ उपलब्ध हो जाते हैं। जैसे कि फूल खिलता है एक। फूल का मौसम आया है, एक फूल खिला और आप पाते हैं कि दूसरा खिला और तीसरा खिला। फूल प्रतीक्षा कर रहे थे और खिल गए। सुबह हुई, सूरज निकलने की प्रतीक्षा थी और कुछ फूल खिलने शुरू हुए। कलियां टूटी, इधर फूल खिला उधर फूल निकला। रात भर से फूल प्रतीक्षा कर रहे थे, सूरज निकला और फूल खिल गए।

ठीक ऐसा ही निकृष्ट आत्माओं के लिए भी होता है। जब पृथ्वी पर उनके लिए योग्य वातावरण मिलता है, तो एक साथ एक श्रृंखला में वे पैदा हो जाते हैं। जैसे हमारे इस युग में भी हिटलर और स्टैलिन और माओ जैसे लोग एकदम से पैदा हुए। एकदम से ऐसे खतरनाक लोग पैदा हुए, जिनको हजारों साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी होगी। क्योंकि स्टैलिन या हिटलर या माओ जैसे आदमियों को भी जल्दी पैदा नहीं किया जा सकता। अकेले स्टैलिन ने रूस में कोई साठ लाख लोगों की हत्या की—अकेले एक आदमी ने। और हिटलर ने —अकेले एक आदमी नें—कोई एक करोड़ लोगों की हत्या की।

हिटलर ने हत्या के ऐसे साधन ईजाद किए, जैसे पृथ्वी पर कभी किसी ने नहीं किए। हिटलर ने इतनी सामूहिक हत्या की, जैसी कभी किसी आदमी ने नहीं की। तैमूरलंग और चंगेजखां सब बचकाने सिद्ध हो गए। हिटलर ने गैस चेंबर्स बनाए। उसने कहा, एक—एक आदमी को मारना तो बहुत महंगा है। एक—एक आदमी को मारो, तो गोली बहुत महंगी पड़ती है। एक—एक आदमी को मारना महंगा है, एक—एक आदमी को कब्र में दफनाना महंगा है। एक—एक आदमी की लाश को उठाकर गांव के बाहर फेंकना बहुत महंगा है। तो कलेक्टिव मर्डर, सामूहिक हत्या कैसे की जाए! लेकिन सामूहिक हत्या भी करने के उपाय हैं। अभी अहमदाबाद में कर दी या कहीं और कर दी, लेकिन ये बहुत महंगे उपाय हैं। एक—एक आदमी को मारो, बहुत तकलीफ होती है, बहुत परेशानी होती है, और बहुत देर भी लगती है। ऐसे एक —एक को मारोगे, तो काम ही नहीं चल सकता। इधर एक मारो, उधर एक पैदा हो जाता है। ऐसे मारने से कोई फायदा नहीं होता।

हिटलर ने गैस चेंबर बनाए। एक—एक चेंबर में पांच—पांच हजार लोगों को इकट्ठा खड़ा करके बिजली का बटन दबाकर एकदम से वाष्पीभूत किया जा सकता है। बस, पांच हजार लोग खड़े किए, बटन दबा और वे गए। एकदम गए और इसके बाद हाल खाली। वे गैस बन गए। इतनी तेज चारों तरफ से बिजली गई कि वे गैस हो गए। न उनकी कब्र बनानी पड़ी, न उनको कहीं मार कर खून गिराना पड़ा।

खून—जून गिराने का हिटलर पर कोई नहीं लगा सकता जुर्म। अगर पुरानी किताबों से भगवान चलता होगा, तो हिटलर को बिलकुल निर्दोष पाएगा। उसने खून किसी का गिराया ही नहीं, किसी की छाती में उसने छुरा मारा नहीं, उसने ऐसी तरकीब निकाली जिसका कहीं वर्णन ही नहीं था। उसने बिलकुल नई तरकीब निकाली, गैस चेंबर। जिसमें आदमी को खड़ा करो, बिजली की गर्मी तेज करो, एकदम वाष्पीभूत हो जाए, एकदम हवा हो जाए, बात खतम हो गई। उस आदमी का फिर नामोल्लेख भी खोजना मुश्किल है, हड्डी खोजना भी मुश्किल है, उस आदमी की चमड़ी खोजना मुश्किल है। वह गया। पहली दफा हिटलर ने इस तरह आदमी उड़ाए जैसे पानी को गर्म करके भाप बनाया जाता है। पानी कहां, गया, पता लगाना मुश्किल है। ऐसे सब खो गए आदमी। ऐसे गैस चेंबर बनाकर उसने एक करोड़ आदमियों को अंदाजन गैस चेंबर में उड़ा दिया।

ऐसे आदमी को जल्दी गर्भ मिलना बड़ा मुश्किल है। और अच्छा ही है कि नहीं मिलता। नहीं तो बहुत कठिनाई हो जाए। अब हिटलर को बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी फिर। बहुत समय लग सकता है हिटलर को दोबारा वापस लौटने के लिए। बहुत कठिन है मामला। क्योंकि इतना निकृष्ट गर्भ अब फिर से उपलब्ध हो। और गर्भ उपलब्ध होने का मतलब क्या है? गर्भ उपलब्ध होने का मतलब है, मां और पिता, उस मां और पिता की लंबी श्रृंखला दुष्टता का पोषण कर रही है—लंबी श्रृंखला। एकाध जीवन में कोई आदमी इतनी दुष्टता पैदा नहीं कर सकता है कि उसका गर्भ हिटलर के योग्य हो जाए। एक आदमी कितनी दुष्टता करेगा? एक आदमी कितनी हत्याएं करेगा? हिटलर जैसा बेटा पैदा करने के लिए, हिटलर जैसा बेटा किसी को अपना मां—बाप चुने इसके लिए सैकड़ों, हजारों, लाखों वर्षों की लंबी कठोरता की परंपरा ही कारगर हो सकती है। यानी सैकड़ों, हजारों वर्ष तक कोई आदमी बूचड़खाने में काम करते ही रहे हों, तब नस्ल इस योग्य हो पाएगी, वीर्याणु इस योग्य हो पाएगा कि हिटलर जैसा बेटा उसे पसंद करे और उसमें प्रवेश करे।

ठीक वैसा ही भली आत्मा के लिए भी है। लेकिन सामान्य आत्मा के लिए कोई कठिनाई नहीं है। उसके लिए रोज गर्भ उपलब्ध हैं। क्योंकि उसकी इतनी भीड़ है और उसके लिए चारों तरफ इतने गर्भ तैयार हैं और उसकी कोई विशेष मांगें भी नहीं हैं। उसकी मांगें बड़ी साधारण हैं। वही खाने की, पीने की, पैसा कमाने की, काम— भोग की, इज्जत की, आदर की, पद की, मिनिस्टर हो जाने की, इस तरह की सामान्य इच्छाएं हैं। इस तरह की इच्छाओं वाला गर्भ कहीं भी मिल सकता है, क्योंकि इतनी साधारण कामनाएं हैं कि सभी की हैं। हर मां —बाप ऐसे बेटे को चुनाव के लिए अवसर दे सकता है। लेकिन अब किसी आदमी को एक करोड़ आदमी मारने हैं, किसी आदमी को ऐसी पवित्रता से जीना है कि उसके पैर का दबाव भी पृथ्वी पर न पड़े, और किसी आदमी को इतने प्रेम से जीना है कि उसका प्रेम भी किसी को कष्ट न दे पाए, उसका प्रेम भी किसी के लिए बोझिल न हो जाए, तो फिर ऐसी आत्माओं के लिए तो प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।

इस संबंध में एक—दो प्रश्न और हैं, वह कल सुबह हम बात कर सकेंगे। आपके जो भी और प्रश्न हों वह आप लिखकर दे देंगे’।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।

तो दो —तीन बातें समझ लें। एक तो मैं अनुभव करता हूं कि आप पास—पास ही बैठे रहते हैं। तो फिर परिणाम यह होता है कि प्रत्येक व्यक्ति को संभल कर बैठा रहना पड़ता है कि कहीं वह किसी पर गिर न जाए। तो इतना संभल कर बैठने से गहराई में न जा सकेंगे। इसलिए पहला काम तो यह करें कि फासले पर हो जाएं। धूल में बैठना उतना बुरा नहीं है जितना पास में बैठना, धूल में बैठ जाएं उसका कोई हर्ज नहीं। ऊपर दहलान में चले जाएं। लेकिन आवाज न करें, चुपचाप हट जाएं……। बातचीत न करें। सारा वातावरण फिर पुन: आप खराब कर देते हैं। घंटे — भर की बात के बाद सारे वातावरण को खराब कर लेते हैं। चुपचाप हट जाएं। हटने में बातचीत का कोई सवाल ही नहीं है। हटने से बातचीत का क्या संबंध है? पैर से काम ले लें और हट जाएं।

हां, और जिन मित्रों को जाना हो वे बिलकुल मजे से चले जाएं, वापिस बीच में कोई नहीं जाएगा। और कल के जो मित्र हों अगर वे बदल कर आए हों तो ठीक है, नहीं तो वे चुपचाप विदा हो जाएं। हां, जिन्हें जाना है वे जल्दी चले जाएं ताकि जिन्हें बैठना है उनके लिए जगह भी हो सके। और दर्शक की तरह न कोई बैठेगा और न कोई खड़ा रहेगा, दर्शक की यहां, कोई जरूरत नहीं है। हां, ये जो बच्चे ऊपर सीढ़ियों पर बैठे हैं, ये पास से हटें वहां, से, अलग— अलग बैठ जाएं। दूरी पर बैठें, यहां, बैठने का ऐसा कोई फायदा नहीं होगा। फासले पर बैठें नीचे, इकट्ठे मत बैठें। और पास बैठने में तुम्हारा खतरा भी है, तुम बात करोगे। थोड़ा हटो वहां, से।

हां, जिनको लेटना है वे पहले ही चुपचाप लेट जाएं ताकि पीछे किसी पर गिर न सकें। चुपचाप लेट जाएं। अभी सब अंधेरा हो जाएगा, अपनी जगह बना लें और लेट जाएं। और बाद में भी किसी को गिरने जैसा लगे, तो वह अपने को रोके नहीं, बिलकुल छोड दे और गिर जाए।

पहली बात है, आंख बंद कर लें. आंख बंद कर लें…… आंख बंद कर लें……. शरीर को ढीला छोड़ दें…… शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर है ही नहीं। शरीर की सारी शक्ति भीतर आ रही है, ऐसा भाव करें शरीर से हम भीतर वापिस लौट रहे हैं। अपनी सारी शक्ति को भीतर सिकोड़ लेना है, अपनी सारी शक्ति को भीतर बुला लेना है। तो मैं तीन मिनट तक सुझाव दूंगा कि शरीर शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है। वैसा ही अनुभव करेंगे। अनुभव करेंगे और शरीर को ढीला छोड़ते जायेंगे, ढीला छोड़ते जाएंगे। धीरे — धीरे ऐसा लगेगा कि जैसे शरीर गया। और जब शरीर गिर जाए या गिरने लगे, तो रोकेंगे नहीं, बिलकुल छोड़ देंगे और गिर जाने देंगे। आगे झुके, आगे झुके जाए, पीछे गिरे, पीछे गिर जाए। अपनी तरफ से कोई पकड़ शरीर पर नहीं रखनी है। सब पकड़ छोड़ देनी है, यह पहला चरण है। अब मैं तीन मिनट सुझाव देता हूं। फिर श्वास के लिए, फिर विचार के लिए कहूंगा। और अंत में दस मिनट के लिए हम मौन में खो जायेंगे।

शरीर शिथिल हो रहा है, ऐसा अनुभव करें….. शरीर शिथिल हो रहा है……. शरीर शिथिल हो रहा है….. शरीर शिथिल हो रहा है……. शरीर शिथिल हो रहा है…… छोड़ दें, जैसे शरीर है ही नहीं। अपनी सारी पकड़ छोड़ दें। शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर बिलकुल शिथिल हो रहा है। छोड़ दें, शरीर पर से सारी शक्ति छोड़ दें….. जैसे शरीर मर ही गया, कोई प्राण न रहा, हम तो भीतर सरक गए, शरीर में प्राण कैसे रह जाएंगे। हम तो भीतर सरक आए, शरीर बिलकुल खोल की तरह रह गया है।

शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथित्न हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल होता जा रहा है. शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है। छोड़ दें….. बिलकुल लगेगा कि गया, गया, गया। गिर जाए तो गिर जाने दें। शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल होता रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है। जैसे मर ही गए, जैसे शरीर है ही नहीं.. शरीर बिलकुल न रहा, शरीर बिलकुल मिट गया।

श्वास भी शिथिल छोड़ दें। श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत हो रही है…… अनुभव करें कि श्वास शांत होती जा रही है…… श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत होती जा रही है। अनुभव करें, श्वास शांत होती जा रही है… श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत हो गई है श्वास बिलकुल शांत हो गई है। छोड़ दें, शरीर को भी, श्वास को भी। छोड़ दें। श्वास शांत हो गई है।

विचार भी शांत होते जा रहे हैं….. विचार शांत होते जा रहे हैं…… विचार शांत हो रहे हैं….. अनुभव करें, विचार बिलकुल शांत होता जा रहा है….. विचार शांत हो रहे हैं. विचार शांत हो रहे हैं….. विचार शांत हो रहे हैं…… भीतर भाव करें, विचार शांत होता जा रहा है….। शरीर शिथिल हो गया, श्वास शांत हो गई, विचार शांत हो गये……।

भीतर सब शून्य हो गया…… इस शून्य में हम डूब रहे हैं, डूब रहे हैं, डूब रहे हैं, जैसे कोई गहरे कुएं में गिरता जाए, गिरता जाए, गिरता जाए। और गिरता ही जाए. गिरता ही जाए….. और नीचे तक न पहुंचे और गिरता ही जाए। ऐसे ही हम भीतर शून्य में गिरते जा रहे हैं…… भीतर गिरते जा रहे हैं। छोड़ दें अपने को, बिलकुल पकड़ छोड़ दें! इस शून्य में डूबते जाएं, डूबते जाएं, डूबते जाएं! फिर भीतर सिर्फ चेतना रह जाएगी, एक ज्योति की तरह जली, जो देख रही है, भीतर जान रही है, जो सिर्फ द्रष्टा है, साक्षी है।

अब सिर्फ साक्षी भाव रखें। देखते रहें भीतर। बाहर सब मर गया है, शरीर बिलकुल मृत हो गया है श्वास शांत हो गई, विचार बंद हो गए, हम भीतर गिरते जा रहे हैं शून्य में। देखते रहें…… देखते रहें. देखते रहें। देखते ही देखते और गहरी शांति और गहरा शून्य प्रकट हो जाएगा। उसी देखते —देखते में मैं भी खो जाएगा.. बस सिर्फ एक प्रकाश, एक ज्योति भर शेष रह जाएगी। — अब दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं, आप खो जाएं…… भीतर…… और भीतर… और भीतर! सब छोड़ दें, पकड़ छोड़े। सिर्फ देखते रह जाएं। दस मिनट के लिए द्रष्टा भाव में, साक्षी भाव में रह जाएं।

 

( भगवान श्री कुछ मिनट मौन रहकर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)

मन शांत होता जा रहा है….. देखते रहें.. भीतर देखें….. भीतर देखें। सिर्फ देखना मात्र भीतर रह जाए। मन शांत होता जा रहा है। शरीर दूर पड़ा दिखाई पड़ने लगेगा? जैसे किसी और का शरीर पड़ा हो.. शरीर से दूर हट जाएंगे, जैसे शरीर से बहुत दूर चले गए हैं… श्वास सुनाई पड़ती है बहुत दूर जैसे कोई और लेता हो। और भीतर?. और भीतर हट जाएं… देखते रहें.. देखते रहें और मन शून्य में उतर जाता है।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा…..)

मन शांत होता जा रहा है। और गहरे डूब जाएं, और गहरे डूब जाएं….. देखते रहें भीतर….. मन शांत हो रहा है…… मन शांत हो रहा है …… मन शांत हो रहा है…… मन बिलकुल शांत हो गया है।

शरीर तो दूर रह गया है….. शरीर जैसे मर ही गया है….. हम शरीर से दूर हट गए हैं…… छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें, जरा भी पकड़ न रखें भीतर, जैसे मर ही गए.। बिलकुल छोड़ दें ….बिलकुल छोड़ दें….. मन और शून्य होता जा रहा है……।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा.)

शरीर बिलकुल छूट गया है। देखें भीतर, शरीर दूर पड़ा रह गया है….., हम शरीर से बहुत दूर निकल आए हैं. …..मन बिलकुल शांत हो गया है…..। देखें भीतर, मैं तो बिलकुल मिट गया हूं……. मैं बिलकुल मिट गया…… शेष रह गई है चेतना, सिर्फ जानना शेष रह गया है और सब मिट गया है…..।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा…..)

धीरे— धीरे दो —चार गहरी श्वास लें…… मन बिलकुल शांत हो गया है। धीरे — धीरे दों—चार गहरी श्वास लें। प्रत्येक श्वास को देखते रहें, मन और शांत मालूम होगा। धीरे — धीरे श्वास लें, श्वास को भी देखते रहें। श्वास भी अलग मालूम पड़ेगी, स्वयं से बहुत दूर मालूम पड़ेगी……. धीरे — धीरे श्वास लें…… देखें, श्वास भी कितनी दूर है……. श्वास भी कितनी अलग है।

धीरे— धीरे दो —चार गहरी श्वास लें…… फिर धीरे — धीरे आंख खोलें…… धीरे — धीरे आंख खोलें। न तो कोई जल्दी उठे, और अगर आंख न खुलती हो तो भी जल्दी न खोले। दो —चार गहरी श्वास लें… फिर धीरे— धीरे आंख खोलें और एक मिनट आंख खोलकर बाहर देखते रहें…….।

आज की बैठक समाप्‍त।


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गीता दर्शन–(भाग–7)–प्रवचन–183

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आसुरी व्‍यक्‍ति की रूग्‍णताएं—(प्रवचन—चौथा)

अध्‍याय—16

सूत्र—

प्रवृत्तिं च निवृत्ति च जना न विदरासरा:।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।। 7।।

असत्यमप्रितष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।

अपरस्थरसंभूतं किमन्यत्काकैक्कुम्।। 8।।

एंता दृष्टिमवष्टथ्य नष्टमानोऽल्पबुद्धय:।

प्रभवन्‍ज्युक्कर्माण: क्षयाय जगतीऽहिता:।। 9।।

और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य—कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य—कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर—भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है।

तथा वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत आश्रयरहित है और सर्वथा झूठा है एवं बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री—पुरुष के संयोग से उत्पन्‍न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए ही है। इसके सिवाय और क्या है?

हम प्रकार इस मिथ्या—ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सब का अहित करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्‍न होते हैं।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : आश्चर्य की बात है कि पशुओं में पाखंड या मिथ्याचरण नाममात्र भी नहीं है और आदिवासियों में भी अत्यल्प है, जब कि तथाकथित शिक्षित व सभ्य समाज में सर्वाधिक है। तो क्या बर्बरता से सभ्यता की ओर मनुष्य की लंबी व कठिन यात्रा व्यर्थ ही गई? और तब क्या आदिवासी व्यवस्था वरेण्य नहीं है?

शुओ में मिथ्याचरण नहीं है, पाखंड नहीं है, इसलिए नहीं कि पशुओं की कोई उपलब्धि है, बल्कि इसलिए कि पशु असमर्थ हैं, पाखंडी हो नहीं सकते, होने का उपाय नहीं है, बुरे होने की कोई सुविधा नहीं है; पतित होने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन चूंकि पशु पतित नहीं हो सकते, पशु दिव्यता का आरोहण भी नहीं कर सकते। जो गिर नहीं सकता, वह ऊपर भी उठ नहीं सकता। और जिसके जीवन में पाप की संभावना नहीं है, उसके जीवन में परमात्मा की संभावना भी नहीं है।

पशु मूर्च्छित है; प्रकृति उससे जैसा कराती है, वह करता है। यंत्रवत उसकी यात्रा है। उसकी कोई स्वेच्छा नहीं है। इसलिए बुरा भी पशु कर नहीं सकता, भला भी नहीं कर सकता। प्रकृति जो कराती है, वही करता है। पशु की अपनी कोई निजता नहीं है। इसलिए पशु न तो असाधु हो सकता है न साधु, न महापापी हो सकता है न महा संत। पशु पशु ही रहेगा।

पशु पूरा का पूरा पैदा होता है। उसकी कोई स्वतंत्रता नहीं है कि अपने को बदल ले, रूपांतरित कर ले। स्वभावत:, पशु पाखंडी नहीं है, लेकिन पशु को यह भी स्मरण नहीं हो सकता कि वह पाखंडी नहीं है। और पाखंड को छोड़ने से जो जीवन में गरिमा आती है, वह भी पशु को नहीं हो सकती।

मनुष्य की गरिमा यही है कि वह पाप कर सकता है, चाहे तो पाप करना छोड़ सकता है। छोड़ने की खूबी है, क्योंकि करने की सुविधा है। जहां आप कर ही न सकते हों, वहा छोड़ने का कोई अर्थ नहीं है। नपुंसक ब्रह्मचारी हो, इसकी कोई सार्थकता नहीं है। ब्रह्मचर्य की सार्थकता तभी है, जब काम में उतरने की क्षमता हो। तो मनुष्य के लिए संभावना है कि गिर सके, और मनुष्य के लिए संभावना है कि उठ सके; दोनों द्वार खुले हैं। मनुष्य परिपूर्ण स्वतंत्रता है। इसीलिए जिम्मेवारी आपकी है। अगर आप गिरते हैं, तो आप यह नहीं कह सकते कि प्रकृति ने मुझे गिराया। आप चाहते तो न गिरते। आप चाहते तो रुक जाते। आप चाहते तो जिस शक्ति से आपने पतन की यात्रा पूरी की, वही आपके स्वर्ग का मार्ग भी बन सकती थी। इसलिए मनुष्य स्वतंत्र है, और साथ ही जिम्मेवार है। पश्चिम का बहुत बड़ा आधुनिक विचारक सार्त्र मनुष्य के लिए दो शब्दों का उपयोग करता है, एक है फ्रीडम, और दूसरा है रिस्पासिबिलिटी। एक है परिपूर्ण स्वतंत्रता, और दूसरा है परिपूर्ण गहन दायित्व। जो स्वतंत्र है, उसका दायित्व भी है। जो स्वतंत्र नहीं, उसका कोई दायित्व भी नहीं है।

हम किसी पशु को अच्छा नहीं कह सकते, बुरा नहीं कह सकते। जो पशु की दशा है, वही छोटे बच्चों की भी दशा है। जो पशु की दशा है, उससे ही मिलती—जुलती दशा आदिवासियों की है। वे कितने ही भले हों, उनके भलेपन में बहुत गौरव नहीं है। वे चोर न हों, तो भी हम उन्हें अचोर नहीं कह सकते। क्योंकि अचोर वे तभी हो सकते हैं, जब चोरी करने की उनको क्षमता हो, सुविधा हो, चोरी

करने का खयाल हो!

जीवन का जो विकास है, वह आंतरिक संयम से संभव होता है। आप एक सपाट जमीन पर चलते हैं। तो कोई भीड़ आपको देखने इकट्ठी नहीं होती, न ही लोग ढोल बजाकर आपका स्वागत करते हैं, न तालियां पीटते हैं। लेकिन आप दो छतों के बीच में एक रस्सी बांधें, फिर उस रस्सी पर चलें, तो सारा गांव इकट्ठा हो जाएगा। चलने में कोई भी फर्क नहीं है। जैसा आप जमीन पर चलते थे, उन्हीं पैरों से, उसी ढंग से रस्सी पर भी चलेंगे। लेकिन यह भीड़ देखने इकट्ठी किसलिए हो गई? क्योंकि अब गिरने की संभावना है। आप गिर सकते हैं। चलना कठिन है, गिरना आसान है। और गिरने की जो यह संभावना है कि हड्डी—पसली टूट जाए, कि जीवन भी समाप्त हो जाए, इस खतरे को लेकर आप जब रस्सी पर चलते हैं, तो इस चलने में गौरव और गरिमा आ जाती है।

मनुष्य चौबीस घंटे रस्सी पर है, पशु सदा समतल भूमि पर है। सभ्यता की खूबी यही है कि वह आपको मौका देती है, गिरने का भी, उठने का भी। तो आदिवासी भले हैं, लेकिन कोई बुद्ध तो आदिवासी पैदा नहीं कर पाते। कोई रावण भी पैदा नहीं होता, कोई राम भी पैदा नहीं होता। दोनों का उपाय नहीं है।

सभ्यता सुविधा है, नरक और स्वर्ग दोनों तरफ जाने की। जितना सभ्य समाज हो, उतनी सुविधा बढ़ती जाती है। यह दूसरी बात है कि आप सुविधा का उपयोग नरक जाने के लिए ही करते हैं। यह आपका निर्णय है।

पर शायद स्वर्ग जाने के लिए नरक जाना भी जरूरी है। नरक की पीड़ा का अनुभव न हो, तो स्वर्ग के आनंद का भी स्मरण नहीं आता। नरक की अंधेरी पृष्ठभूमि में ही स्वर्ग की शुभ रेखाएं खिंचती हैं, उभरती हैं और दिखाई पड़ती हैं। वह जो पीड़ा को भोगता है, उसे आनंद की खोज भी पैदा होती है।

इसलिए जिनको हम साधारणत: भले आदमी कहते हैं, उनके जीवन में कुछ नमक नहीं होता; उनके जीवन में कुछ स्वाद नहीं होता। स्वाद तो उस आदमी के जीवन में होता है, जिसने बुरा होना भी जाना है, और फिर भला होना भी जाना है। उसके जीवन में एक संगीत होता है, एक गहराई होती है, एक ऊंचाई होती है।

साधारणत: कोई आदमी भला है, न उसने कभी कुछ बुरा किया है, न कभी कोई पाप किया है, न कभी अपराध में उतरा है, न कभी भटका है रास्ते से, उस आदमी के जीवन में बहुत संगीत नहीं होता। उस आदमी के जीवन में इकहरा स्वर होता है। उसमें न रस होता है, न रहस्य होता है, न गहराई होती है, न ऊंचाई होती है।

उपन्यासकार कहते हैं कि साधारण अच्छे आदमी के जीवन पर कोई कहानी नहीं लिखी जा सकती। अच्छे आदमी की कोई कहानी होती ही नहीं। कहानी के लिए बुरा आदमी चाहिए। और कहानी गहरी हो जाती है, अगर बुरा आदमी बुराई को पार करके अच्छाई में उतर जाए। तब कहानी बड़ी रहस्यपूर्ण हो जाती है; और कहानी में एक स्वाद आ जाता है, एक चुनौती, एक उड़ा ऊंचाई, एक पुकार दूर की।

पापी के जीवन में कथा होती है। और अगर पापी संत हो जाए, तो उससे ज्यादा जटिल और रहस्यपूर्ण कथा फिर किसी के जीवन में नहीं होती

थामसमन ने एक अदभुत किताब लिखी है। किताब का नाम है, दि होली सिनर, पवित्र पापी।

तो जहां पवित्रता और पाप दोनों घट जाते हैं, उस तनाव में, रस्सी जैसे दो खाइयों के बीच खिंच जाती है, और उस रस्सी पर जो संतुलन को साध पाता है, वह गौरव के योग्य है। सभ्यता सुविधा देती है गिरने की, सभ्यता सुविधा देती है उठने की।

नहीं, आदिवासीपन वरेण्य नहीं है, वरेण्य तो सभ्यता ही है। लेकिन सभ्यता विकल्प देती है। सभ्यता वरेण्य है, और फिर सभ्यता के विकल्पों में स्वर्ग की तरफ जाने की यात्रा वरेण्य है। अगर आप साधारण भले आदमी हैं, तो आप यह मत समझना कि जीवन आपकी कोई उपलब्धि बन रहा है। आप कुनकुने— कुनकुने जी रहे हैं। जीवन में कोई अति नहीं है। और अति न होगी, तो जीवन में कोई आनंद की पुलक, कोई इक्सटैसी, कोई समाधि की दशा भी पैदा नहीं होगी।

नीत्से ने एक बहुत महत्वपूर्ण वचन लिखा है। उसने लिखा है, जिस वृक्ष को आकाश की ऊंचाई छूनी हो, उसे अपनी जड़ें पाताल की गहराई तक भेजनी पड़ती हैं। अगर वृक्ष डरता हो कि अंधेरी जमीन में कहां जड़ों को भेजूं तो फिर उसकी शाखाएं भी आकाश में न जा सकेंगी। जितनी ऊंचाई वृक्ष की ऊपर होती है, उतनी नीचाई वृक्ष की नीचे होती है; समान होता है। जड़ें उतनी ही गहरी जानी जरूरी हैं, जितना वृक्ष को ऊपर उठना हो। जो वृक्ष चार—चार सौ फीट ऊपर उठते हैं आकाश को छूने की आकांक्षा से, वे चार सौ फीट नीचे जमीन में अपनी जड़ों को भी भेजते हैं।

यही नियम मनुष्य का भी है। जितने दूर तक गिरने का रास्ता है, उतने ही दूर तक उठने का उपाय है। गिरने के रास्ता का यह अर्थ नहीं है कि आप गिरे ही। पर वह संभावना रहनी चाहिए। गिर सकते हैं। गिर सकते हैं, यह संभावना आपको संतुलन देगी। आप प्रतिपल अपने को सम्हालेंगे। उस सम्हालने में ही आपकी आत्मा का जागरण है। गिर ही न सकते हों, तो फिर सो जाएंगे, फिर न कोई चुनौती है, न कोई जागरण है।

दूसरा प्रश्न : रात आपने बड़ी निराशाजनक बात कही कि संसार शायद सदा के लिए अज्ञान, दुख व संताप में जीने के लिए अभिशप्त है। तो क्या धर्म विरले व्यक्तियों के लिए संसार छोड्कर परमात्मा या शून्य में विलीन होने के लिए निमंत्रण मात्र है?

निराशाजनक मालूम हो सकती है, निराशाजनक है नहीं। अगर कोई कहे कि अस्पताल सदा ही बीमारों से भरा रहेगा, तो इसमें निराशाजनक बात क्या है? अस्पताल है ही इसलिए। निराशाजनक तो बात तब होगी, जब अस्पताल में हम स्वस्थ आदमियों को भरने लगें। और जैसे ही कोई व्यक्ति स्वस्थ हो जाएगा, अस्पताल से मुक्त होना पड़ेगा। अस्पताल का प्रयोजन यही है कि बीमार वहां हो। इसमें निराशा की कौन—सी बात है? इसमें अस्पताल की निंदा नहीं है। अस्पताल चिकित्सा की जगह है। वहा बीमार के लिए स्थान है, वहां स्वस्थ का कोई प्रयोजन नहीं है। और जैसे ही कोई स्वस्थ हुआ कि अस्पताल से बाहर हो जाएगा।

संसार को भारत अस्पताल से भिन्न नहीं मानता, वह अस्वस्थ चित्त की जगह है। वहां आत्मा हमारी बीमार है, इसलिए हम हैं। जैसे ही आत्मा स्वस्थ होगी, हमें संसार से बाहर हो जाना पड़ेगा। इसलिए यह कोई अभिशाप नहीं है कि संसार सदा ही विक्षिप्त रहेगा। जब तक विक्षिप्त आत्माएं हैं, तब तक संसार रहेगा, यह बात पक्की है। जब तक बीमार हैं, तब तक अस्पताल रहेगा। बीमार नहीं होंगे, अस्पताल खो जाएगा।

यह संसार के लिए कोई अभिशाप नहीं है, यह संसार का स्वभाव है; यह संसार की नियति है। हम गलत हैं, इसलिए हम वहां हैं। वह एक बड़ा शिक्षण का स्थल है, एक बड़ा विश्वविद्यालय है। वहां जैसे—जैसे हम ठीक होंगे, वैसे—वैसे हम बाहर फेंक दिए जाएंगे। जैसे—जैसे संतत्व उभरेगा, आप संसार में होकर भी संसार में नहीं होंगे। फिर जैसे—जैसे संतत्व पूर्णता को पहुंचेगा, आप पाएंगे कि अब संसार में होना आपका स्‍वप्‍नवत रह गया। अगर इस पूर्णता को उपलब्ध करके आप मर गए, मरेंगे, शरीर छूटेगा, तो फिर दुबारा लौटने का उपाय न रह जाएगा।

इसलिए बुद्ध पुरुष बुद्धत्व के बाद वापस नहीं लौट सकता। एक जन्म, जब वह बुद्धत्व को प्राप्त करता है, तब टिकेगा, लेकिन नए शरीर को ग्रहण करने का उपाय नहीं है। नए शरीर को ग्रहण करने का अर्थ होता है, संसार में वापस लौटने का उपाय। वह वाहन है, जिससे हम संसार में वापस आते हैं। उसका कोई प्रयोजन न रहा, क्योंकि शरीर से जो सीखा जा सकता था, सीख लिया गया। और संसार में जो जाना जा सकता था, वह जान लिया गया, और संसार में कुछ पाने को न बचा।

इसको ऐसा समझें कि विश्वविद्यालय अशिक्षित लोगों के लिए है। यह कोई अभिशाप नहीं है। क्योंकि जैसे ही कोई शिक्षित होगा, विश्वविद्यालय के बाहर हो जाएगा। अशिक्षित ही विश्वविद्यालय में होगा। जैसे ही शिक्षा पूरी हुई कि विश्वविद्यालय का अर्थ खो जाता है। और अगर किसी विद्यार्थी को बार—बार विश्वविद्यालय में लौटना पड़ता है, तो उसका अर्थ ही यह है कि वह उत्तीर्ण नहीं हो पा रहा है।

निराशाजनक बात नहीं, संसार का तथ्य यही है।

दूसरी बात, तो क्या धर्म संसार छोड्कर परमात्मा या शून्य में विलीन होने के लिए कुछ विरले व्यक्तियों के लिए निमंत्रण मात्र है? नहीं, सभी के लिए निमंत्रण है, विरले उसको स्वीकार करते हैं, यह दूसरी बात है। निमंत्रण सार्वजनिक है। धर्म सभी के लिए है। स्वस्थ होने की संभावना सभी के लिए है। लेकिन जो स्वस्थ होने की प्रक्रिया से गुजरेंगे, जो साधना का पथ लेंगे, वे विरले मुक्त हो पाएंगे।

तीसरी बात, धर्म कोई पलायन नहीं है और न संसार को छोड्कर शून्य में खो जाना है। धर्म की दृष्टि में तो संसार शून्य है, स्वप्‍नवत है, पानी का बबूला है। इस शून्यवत को छोड्कर सत्य में प्रवेश कर जाने का निमंत्रण है।

लेकिन अगर हम बीमार आदमी से कहें कि जब तक तू सारी बीमारियां न छोड़ देगा, तब तक अस्पताल से बाहर न जाने देंगे। तो वह कहेगा आप मुझे शून्य होने के लिए मजबूर कर रहे हैं! सभी बीमारियां छोडनी पडेंगी? तो फिर मेरे पास बचेगा क्या? तो मैं शून्य हो जाऊंगा?

बीमार के पास बीमारियों के सिवाय और कोई संपदा नहीं है; उसने स्वास्थ्य कभी जाना नहीं है। निश्चित ही, बीमारियां छूटें, तो स्वास्थ्य का जन्म होगा।

धर्म की भाषा लगती है शून्यवादी है। क्योंकि धर्म कहता है, यह छोड़ो, यह छोड़ो, यह छोड़ो। क्योंकि हम बीमारियां पकड़े हुए हैं, इसलिए छोड़ने पर इतना जोर है, त्याग की इतनी उपादेयता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम शून्य में खो जाएंगे। बीमारियां शून्य में खो जाएंगी; हम तो पूर्ण को उपलब्ध हो जाएंगे। और जिस दिन आप सब छोड़ देते हैं वह जो गलत था, उस दिन जो सही है, उसका आपके भीतर उदय होता है। उस दिन दीया जलता है।

उस दिन आप यह न कहेंगे कि अंधेरा छोड़ दिया, अब शून्य हो गए। अंधेरा छोड़ा, प्रकाश जला। वह जो प्रकाश का जलना है, वह उपलब्धि है।

लेकिन जिसने अंधेरा ही जाना हो, वह शायद यही समझेगा कि सब छूट गया, सब खो गया, सब नष्ट हो गया, कुछ भी न बचा। हाथ में लकड़ी थी, अंधेरे में टटोलते थे, वह भी छूट गई, अंधेरा भी छूट गया। टकराते थे—उस टकराने को लोग जिंदगी समझते हैं—जगह—जगह ठोकर खाते थे। अब कोई ठोकर नहीं लगती; जगह—जगह टकराते नहीं। हाथ की लकड़ी छूटी, अंधेरा छूटा, सब छूट गया।

प्रकाश की जो उपलब्धि हुई है, वह धीरे से समझ में आएगी, कि जो छूटा, वह छूटने योग्य था, छोड़ने योग्य था, छोड़ ही देना था कभी का उसे। इतने दिन खींचा यही आश्चर्य है।

लेकिन प्राथमिक रूप से लगेगा कि धर्म शून्य में ले जाता है। जो आपके पास है, उसे छीनता है, इसलिए लगता है कि शून्य में ले जाता है। और जिसका आपको पता नहीं है, उस शून्यता से उस पूर्ण का उदय होता है।

धर्म आपको खाली करता है, ताकि आप परमात्मा से भर सकें। आपको मिटाता है, ताकि आपके भीतर जो नहीं मिटने वाला तत्व है, केवल वही शेष रह जाए। आपको जलाता है, ताकि कचरा जल जाए, केवल स्वर्ण बचे। आपकी मृत्यु में ही आपके परमात्म—स्वरूप का जन्म है।

और ध्यान रहे, यह निमंत्रण विरले लोगों के लिए नहीं है! निमंत्रण सबके लिए है, लेकिन विरले इसे स्वीकार करते हैं। क्योंकि निमंत्रण बड़ा कठिन है। यात्रा दुरूह है, बड़ी लंबी है। उतनी

देर तक सातत्य को बनाए रखना, धैर्य को रखना, बहुत थोड़े लोगों की क्षमता है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि कितने दिन ध्यान करें तो आत्मा उपलब्ध हो जाएगी?

कितने दिन! और ऐसा लगता है उनकी बात से कि काफी कृपा कर रहे हैं! कितने दिन? और दो —चार दिन कोई ध्यान कर लेता है, तो वह मुझे लौटकर कहता है कि अभी तक परमात्मा के दर्शन नहीं हुए!

विरले स्वीकार कर पाते हैं, क्योंकि धैर्य की कमी है। और सातत्य थोड़े दिन भी बनाए रखना मुश्किल है। आज करते हैं, कल छूट जाता है। दो—चार दिन करते हैं, हजार बहाने मन खोज लेता है न करने के। और दो—चार दिन में मन कहने लगता है, इतना समय नष्ट कर रहे हो! इतने में तो न मालूम कितना कमाया जा सकता था। न मालूम क्या—क्या कर लेते। यह प्रार्थना, यह पूजा, यह ध्यान, यह समय का अपव्यय मालूम होता है।

हमारी दशा उन छोटे बच्चों जैसी है, जो आम की गुठली को जमीन में गड़ा देते हैं। फिर घडीभर बाद जाकर उघाड़कर देखते हैं, पौधा आया या नहीं? फिर घडीभर बाद जाकर खोदकर देखते हैं। अगर हर घड़ी गुठली को खोदकर देखा गया, तो पौधा कभी भी न आएगा। क्योंकि गुठली को मौका ही नहीं मिल रहा है कि वह जमीन के साथ एक हो जाए, टूट जाए, मिट जाए, खो जाए। गुठली मिटे, तो पौधे का जन्म हो।

और जो उसे हर घड़ी खोदकर देख रहा है, वह मौका ही नहीं दे रहा है। गुठली गुठली ही बनी रहेगी। और तब उसका तर्क कहेगा, फिजूल है यह बात। महीनों से देख रहा हूं गुठली गड़ा रहा हूं उखाड़ रहा हूं? कुछ पौधा—वौधा आता नहीं। झूठी हैं ये बातें। ये कृष्ण और बुद्ध और क्राइस्ट जो कहते हैं, सब कपोल—कल्पित है। यह गुठली पत्थर है, इसमें कुछ पौधा है नहीं, इससे पौधा कभी आ नहीं सकता।

और तब यह तर्क ठीक भी मालूम पड़ता है। क्योंकि महीनों का अनुभव यह कहता है कि रोज तो देख रहे हैं, कहीं से जरा—सी भी तो अंकुर के फूटने की कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती। गुठली वैसी की वैसी है। यह पत्थर है। न कोई आत्मा है भीतर, न कोई पौधा है, न कोई फूल छिपे हैं। तब हम गुठली को फेंक देते हैं। धीरज की जरूरत है। और जब आम की गुठली के लिए महीनों की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, तो आपकी गुठली तो जन्मों—जन्मों से सख्त है। वह पथरीली हो गई है। उसे पिघलाने में वक्त लगेगा, श्रम लगेगा, सतत चोट करनी पड़ेगी। और तभी आपको पता चलेगा कि कृष्ण और बुद्ध कल्पना की बात नहीं कर रहे हैं, वह उनका अनुभव है। उनकी गुठली टूटी और उन्होंने वृक्ष को बढ़ता हुआ देखा। उस वृक्ष की सुगंध उन्होंने अनुभव की, उस वृक्ष के फूल उन्होंने पाए। उनका जीवन कृतकृत्य हुआ है।

लेकिन चूंकि बहुत थोड़े लोग इतनी दूर तक जाने को राजी होते हैं, इसलिए धर्म विरले लोगों के लिए रह जाता है। आमंत्रण सभी के लिए है।

तिब्बत में एक बहुत प्राचीन कथा है। एक दूर पहाड़ों में छिपा हुआ नया आश्रम निर्मित हुआ। तो जिस प्रधान आश्रम से उस आश्रम का संबंध था, उस लामासरी का संबंध था, उस लामासरी ने सौ लोगों का चुनाव किया जो जाकर उस आश्रम को सम्हालेंगे। तो एक युवक शिष्य ने पूछा, लेकिन सौ की वहां जरूरत नहीं है। वहां तो पांच से काम चल जाएगा। तो गुरु ने कहा, सौ को बुलाओ, तो दस तो आते हैं। दस को भेजो, तो पांच पहुंच पाते हैं। और इतने भी पहुंच जाएं, तो भी काफी है।

धर्म तो सभी को बुलाता है। लेकिन सौ को बुलाओ, तो नब्बे को तो सुनाई ही नहीं पड़ता निमंत्रण। क्योंकि हमें वही सुनाई पड़ता है, जिसे सुनने को हम आतुर हैं। हमें सभी चीजें सुनाई नहीं पड़ती।

अभी मैं यहां बोल रहा हूं। यदि आप मुझमें आतुर हैं, तो मैं जो कह रहा हूं वह सुनाई पड़ता है। लेकिन और बहुत—सी आवाजें चारों तरफ चल रही हैं, वे आपको सुनाई नहीं पड़ती। टेप रिकार्डर उनको भी पकड़ लेगा, क्योंकि टेप रिकार्डर का कोई चुनाव नहीं है। जब आप टेप सुनेंगे, तब आप हैरान होंगे कि ये इतनी आवाजें—कोई पक्षी बोला, कुत्ता भौंका, हवाई जहाज गया, ट्रेन आई—यह सब पकड़ रहा है। उसका कोई चुनाव नहीं है। और अगर आप भी सब पकड़ रहे हैं, तो उसका मतलब यह है कि आप भी चुन नहीं रहे हैं।

जो हम चुनते हैं, वह हमें सुनाई पड़ता है; जो हम चुनते हैं, वह हमें दिखाई पड़ता है। अगर आप चोर हैं, तो रास्ते से गुजरते वक्त आपको कुछ और दिखाई पड़ेगा, जो साहूकार को दिखाई नहीं पड़ सकता। अगर आप चमार हैं, तो रास्ते से गुजरते वक्त आपको लोगों के जूते दिखाई पड़ेंगे, उनकी टोपियां दिखाई नहीं पड़ सकतीं। अगर आप दर्जी हैं, तो उनके कपड़े दिखाई पड़ेंगे, उनके चेहरे दिखाई नहीं पड़ सकते। आपकी जो रुझान है, वही दिखाई पड़ता है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ घटनाएं घट रही हैं, उनमें से हम केवल दो को पकड़ते हैं, अट्ठानबे छूट जाती हैं। उनसे हमारा कुछ लेना—देना नहीं है। हमारा कोई प्रयोजन नहीं है।

आप एक रास्ते से गुजरें; सैकड़ों वृक्ष लगे हैं। एक चित्रकार गुजरे उसी रास्ते से, तो उसे हर वृक्ष की हरियाली अलग दिखाई पड़ती है। क्योंकि हर वृक्ष अलग ढंग से हरा है। हरा कोई एक रंग नहीं है, हरे में हजार रंग हैं। पर वह सिर्फ चित्रकार को दिखाई पड़ता है, जिसको रंगों की सूझ है, जिसको रंगों में झुकाव है, जिसे रंगों में रस है। आपको सब वृक्ष एक जैसे हरे हैं।

आपको वही दिखाई पड़ता है, जो आप देखने चले हैं। जो आप खोजने निकले हैं, उसकी पुकार आपको सुनाई पड़ जाती है।

एक रास्ते से दो फकीर गुजर रहे थे। चर्च में घंटियां बजने लगीं। तो एक फकीर ने कहा..। बाजार था, बड़ा शोरगुल था। चीजें ली जा रही हैं, खरीदी जा रही हैं, बेची जा रही हैं, गाड़ियों से उतारी जा रही हैं, चढ़ाई जा रही हैं। बड़ा शोरगुल था वहा; चर्च की घंटी का सुनाई पड़ना मुश्किल था। एक फकीर ने चर्च की घंटी सुनते ही कहा, हम जल्दी चलें, प्रार्थना का समय हो गया, घंटी बज रही है। उस दूसरे फकीर ने कहा, तुम भी अदभुत हो, इस शोरगुल में, इस उपद्रव में तुम्हें चर्च की घंटी सुनाई पड़ गई! यहां किसी को सुनाई नहीं पड़ रही है। उसने कहा, यहां भी कुछ चीजें सुनाई पड़ती हैं। उसने एक रुपया खीसे से निकाला और सड़क पर गिरा दिया। खन्न की आवाज हुई, पूरा बाजार देखने लगा।

वे सब रुपए को सुनने को आतुर लोग हैं। चर्च की घंटी बज रही थी, किसी के कान पर चोट न पड़ी। सब चौंक गए; सब ने आस—पास देखा। वे सब रुपए की तलाश में निकले हुए लोग हैं। रुपए की आवाज सुनाई पड़ जाएगी, चर्च की घंटी खो जाएगी। चाहे चर्च की घंटी जोर से बज रही हो, तो भी खो जाएगी।

एक मां सो रही हो, रात तूफान हो, बादल गरज रहे हों, उसे सुनाई नहीं पड़ेगा। उसका छोटा—सा बेटा रात जरा—सा कुनमुना दे, जरा—सा रो दे, वह जग जाएगी।

सौ को बुलाओ, नब्बे को सुनाई नहीं पड़ता। जिन दस को सुनाई पड़ता है, उनमें से भी शायद पाच समझ न पाएंगे। सुन भी लेंगे, तो भी पकड़ न पाएंगे। सुन भी लेंगे, तो भी उनकी आत्मा के भीतर कोई झंकार पैदा न होगी, कोई प्रतिध्वनि न होगी। सुनेंगे कान से, बात खो जाएगी; कोई चोट न पड़ेगी कि जो सुना है, वह उन्हें रूपांतरित कर दे। पांच सुनेंगे, समझेंगे। शायद उनमें से एक, जो

उसने सुना है और समझा है, उसे करेगा भी। चार सुन लेंगे, समझ लेंगे, पंडित हो जाएंगे। सौ के साथ मेहनत करो, कभी कोई एक यात्रा पर जा पाता।

धर्म का निमंत्रण सबके लिए है, लेकिन विरले उसे सुन पाते हैं।

तीसरा प्रश्न : गीता कहती है कि दैवी संपदा मुक्त करती है और आसुरी संपदा बांधती है। इस संदर्भ में क्या बताएंगे कि बंधन क्या है और मुक्ति क्या है?

चित्त की ऐसी दशा, जहां कोई संताप न हो, जहां कोई सीमा का अनुभव न हो, जहां कोई सीमांत न आता हो; चित्त की ऐसी दशा, जैसे खुला आकाश हो, कोई दीवारें चारों तरफ से घेरने को नहीं, कोई पीड़ा की रेखा नहीं, क्योंकि सब पीड़ा की रेखाएं घेरती हैं, बंद करती हैं; आनंद खोलता है, फैलाता है, जहां चित्त की दशा फैलती हो।

हमारा जो शब्द है, इस देश में जो हम उपयोग करते हैं परम स्थिति के लिए, वह ब्रह्म है। ब्रह्म का अर्थ होता है, जो फैलता ही चला जाता है, एक्सपैंडिंग, इनफिनिटली एक्सपैंडिंग, जो फैलता ही चला जाता है, विस्तार जिसका गुणधर्म है।

एक कंकड़ को फेंक दें पानी में, लहर उठती है, फैलती चली —जाती है। अगर पानी असीम हो, तो वह लहर फैलती ही चली जाएगी; किनारा होगा, तो टूट जाएगी, किनारे पर जाकर बिखर जाएगी। अगर कोई किनारा न हो, तो फैलती ही चली जाएगी। आनंद का कोई किनारा नहीं है, क्योंकि इस अस्तित्व का कोई किनारा नहीं है।

यह जो आकाश हमें दिखाई पड़ता है, यह कहीं है नहीं, यह सिर्फ हमारी आंखों की देखने की क्षमता कम है। जहां तक आंखें देख पाती हैं, वहीं आकाश हमें बंद होता मालूम होता है, अन्यथा आकाश कहीं भी नहीं है। आकाश का अर्थ है, जो है ही नहीं। अनंत फैलाव है। इस फैलाव की कोई सीमा नहीं है।

जब चेतना ऐसी अवस्था में होती है कि उसमें उठते हुए आनंद की तरंगें फैलती ही चली जाती हैं, कहीं कोई किनारा नहीं है, तब मुक्त क्षण है, तब मुक्ति है। और जब चेतना तड़फड़ाती है, और एक भी लहर नहीं फैल पाती, और सब तरफ दीवारें आ जाती हैं; जहां बढ़ते हैं, वहीं बंधन आ जाता है, वहीं लगता है पैर में जंजीरें हैं, आगे नहीं जा सकते, उस दशा का नाम बंधन है।

कई प्रकार से हमें बंधन का अनुभव होता है। कितने ही प्रसन्‍न होते हों हम, शरीर की सीमा बंधी है। शरीर कभी स्वस्थ है, कभी अस्वस्थ है, कभी जवान है, कभी बूढ़ा है, कभी प्रफुल्लित है, कभी उदास है। उसकी सीमा आपके ऊपर बंधी है। अगर शराब डाल दी जाए शरीर में, तो आपकी चेतना भी उसी के साथ बेहोश हो जाती है। शरीर से रक्त निकाल लिया जाए, तो उसी के साथ आपकी चेतना भी दीन—हीन हो जाती है। शरीर जीर्ण—जर्जर, का हो जाए, उसी के साथ आप भी भीतर झुक जाते हैं और टूट जाते हैं। शरीर की सीमा खड़ी है।

दूर जरा आगे देखें, तो मौत की सीमा खड़ी है। मरना होगा, मिटना होगा। और प्रतिपल हजार तरह की सीमाएं हैं। क्रोध की, घृणा की, मोह की, लोभ की सीमाएं हैं। सब तरफ से बांधे हुए हैं। यह जो अवस्था है, यह बंधन की अवस्था है।

कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा का अर्थ है, इस तरह की संपत्ति को बढ़ाना और इकट्ठा करना, जिसमें हम बंधते हैं, जिसमें हम खुलते नहीं, उलटे उलझते हैं। दैवी संपदा का अर्थ है, ऐसी संपदा, जो इन बंधनों को तोड़ती है।

ध्यान करें, अगर आप लोभ से भरे हैं, तो आपको हर जगह सीमा मालूम पड़ेगी। कितना ही धन आपके पास हो, लगेगा कम है। लोभी मन को कभी ऐसा लग ही नहीं सकता कि मेरे पास ज्यादा है।

सोचें इसको आप, लोभी मन को कभी लग ही नहीं सकता कि मेरे पास ज्यादा है; उसे सदा लगेगा, मेरे पास कम है। कितना ही हो, तो लोभ सीमा बन जाएगी। अरब रुपए आपके पास हों, तो भी लगेगा कम हैं, क्योंकि दस अरब हो सकते थे।

अलोभ की कोई सीमा नहीं है। क्योंकि अलोभी व्यक्ति को सदा लगेगा कि जो भी मेरे पास है, वह भी ज्यादा है, वह भी न हो, तो भी कुछ हर्ज न था। अगर अलोभ पूरा हो जाए, तो आपकी सीमा मिट गई।

तो लोभ आसुरी संपदा है, अलोभ दैवी संपदा है।

क्रोधी व्यक्ति को प्रतिपल सीमा है; जहां देखेगा, वहीं से क्रोध पकड़ता है। जो करेगा, वहीं उपद्रव, झगड़ा और कलह खड़ा हो जाता है। अक्रोधी व्यक्ति के लिए कोई सीमा नहीं है। वह जहां से भी गुजरता है, वहीं मैत्री पैदा हो जाती है। तो क्रोध आसुरी हो जाएगा, अक्रोध दैवी हो जाएगा।

भयभीत व्यक्ति को हर पल खतरा है।

मैं एक गांव में रहता था। तो मेरे सामने एक सुनार रहता था, बहुत भयभीत आदमी। मैं अक्सर अपने दरवाजे पर बैठा रहता, तो उसको बड़ी अड़चन होती। क्योंकि शाम को वह घर से निकलता, अकेला ही था, तो ताला लगाएगा; हिलाकर ताले को देखेगा दो—चार बार। चूंकि मैं सामने बैठा रहता, तो उसको बड़ा संकोच लगता। तो मैं आंख बंद कर लेता। वह हिलाकर देखेगा। फिर वह दस कदम जाएगा, फिर लौटेगा। पसीना—पसीना हो जाएगा : क्योंकि उसको लग रहा है कि मैं देख रहा हूं। फिर आएगा, फिर ताले को खटखटाका।

मैंने उससे पूछा कि तू एक दफे इसको ठीक से खटखटाकर देखकर क्यों नहीं जाता? कभी दो दफा, कभी तीन दफा! वह कहता, शक आ जाता है। दस कदम जाता हूं, फिर यह होता है, पता नहीं, मैंने ठीक से हिलाकर देखा कि नहीं देखा!

अब यह भयभीत आदमी है। यह बाजार भी चला जाएगा, तो भी बाजार पहुंच नहीं पाएगा, इसका मन इसके ताले में अटका है। जो चार दफा लौटकर देखता है हिलाकर, वह कितनी ही बार देख जाए, क्योंकि जो संदेह एक बार हिलाने के बाद आ गया, वह दुबारा क्यों न आएगा? तिबारा क्यों न आएगा?

यह जो भयभीत चित्त है, यह न रात सो सकता है, न दिन ठीक से जग सकता है। यह चौबीस घंटे डरा हुआ है, सारा जगत दुश्मन है।

तो भय आसुरी संपदा है, बांधती है। अभय मुक्त करता है, तो वह दैवी संपदा है।

मुक्त करने से केवल इतना ही अर्थ है कि जिससे आप पर सीमा न पड़ती हो, आप खुले आकाश में पक्षी की तरह उड़ सकते हों।

जिन—जिन चीजों से आपके चित्त पर सीमा पड़ती है, वहीं से आपका कारागृह निर्मित होता है। और हम ऐसे पागल हैं कि हम उनकी जड़ों को सींचते हैं, हम मजबूत करते हैं। क्योंकि जो जंजीरें हैं, शायद हम सोचते हैं कि वे आभूषण हैं। हम उन्हें बचाते हैं। कोई अगर तोड़ना चाहे, तो हम नाराज होंगे। कोई हमारी जंजीरें हटाना चाहे, तो हम उसे दुश्मन समझेंगे। क्योंकि उन्हें हमने जंजीरें कभी समझा नहीं; वे कीमती आभूषण हैं, जो हमने बड़ी कठिनाई से अर्जित किए हैं।

जब तक कोई व्यक्ति अपनी जंजीरों को आभूषण समझता है, तब तक उसकी मुक्ति का द्वार बंद ही रहेगा। जब आप अपने आभूषणों को भी बंधन समझने लगेंगे, तभी मुक्ति के द्वार पर पहली चोट पड़ती है।

तो प्रत्येक व्यक्ति को निरीक्षण करते रहना चाहिए, उठते—बैठते, सुबह—सांझ, कौन—सी चीज मेरी सीमा बन रही है। सीमा के अतिरिक्त और कोई आपका दुश्मन नहीं है और असीम के अतिरिक्त कोई और आपका मित्र नहीं है। तो अपने को असीम बनाने की चेष्टा ही ध्यान है; असीम बनाने की चेष्टा ही प्रार्थना है, असीम बनाने की चेष्टा ही साधना है।

शरीर बांधता है, तो साधक अपने को शरीर से मुक्त करता है। तो वह निरंतर अनुभव करने की कोशिश करता है, क्या मैं शरीर हूं? क्या सच में ही मैं शरीर हूं या शरीर से भिन्न हूं?

धीरे— धीरे, निरंतर चोट से यह अनुभव होना शुरू हो जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं। जिस दिन यह पता चलता है, मैं शरीर नहीं हूं फिर शरीर जवान हो, का हो; जिंदा हो, मरे, स्वस्थ हो, अस्वस्थ हो; तो बंधन नहीं बांधता। जो मैं नहीं हूं उससे मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है। और जैसे ही यह स्मरण आ गया कि मैं शरीर नहीं हूं वैसे ही आपकी आत्मा इस खुले आकाश के साथ एक हो गई। फिर कोई परदा न रहा।

मन बांधता है। तो साधक खोजता है, क्या मैं मन हूं? और निरंतर एक ही तलाश में लगा रहता है कि मन से संबंध कैसे टूट जाए! वह संबंध टूट जाता है। क्योंकि जो हमारे भीतर साक्षी है, वह न तो शरीर है, न मन है, न भाव है। हम इन सब के साक्षी हो सकते हैं। शरीर को भी देख सकते हैं अलग अपने से, मन को भी देख सकते हैं; विचार को भी देख सकते हैं। और जिसको हम देख सकते हैं, वह हमसे अलग हो गया, हम द्रष्टा हो गए।

जिसको भी मैं देख सकता हूं—यह गणित है—वह मैं नहीं हूं। मैं स्वयं को कभी भी नहीं देख सकता हूं। मैं सदा देखने वाला ही रहूंगा। दृश्य बनने का कोई उपाय नहीं है, मैं द्रष्टा ही रहूंगा। द्रष्टा होना मेरा स्वभाव है। इसलिए मैं अपने आपको अपने सामने रखकर देख नहीं सकता। सब देख लूंगा मैं, सिर्फ मेरा होना पीछे रह जाएगा। और जब मैं सब देखी जाने वाली चीजों को छोड़ दूंगा, सिर्फ वही बच रहेगा जो देखने वाला है, उस क्षण मेरी कोई सीमा न होगी, उस क्षण मैं मुक्त हो जाऊंगा।

बंधन वाला चित्त हर चीज से अपने को जोड़ता है। वह कहता है, यह शरीर मैं हूं; सीमा खड़ी कर ली। वह कहता है, यह धन मैं हूं; धन की सीमा खड़ी हो गई। अमीर ही नहीं बंधते, भिखमंगे भी धन से बंधे होते हैं।

एक रास्ते से मैं गुजर रहा था, अचानक एक भिखमंगे की आवाज मेरे कानों में पड़ी। बात ही कुछ ऐसी थी कि मैं रुक गया, और सुनने जैसी बात थी। एक सज्जन गुजर रहे थे, भिखमंगा उनसे भीख देने का आग्रह कर रहा था कि कुछ भी दे जाओ, दो पैसे सही। भले आदमी थे, खीसे में हाथ डाला, लेकिन घूमने निकले थे शाम को, कोई पैसे खीसे में थे नहीं। तो कहा, माफ करना, पैसे खीसे में हैं नहीं; दुबारा जब आऊंगा, तो खयाल से पैसे ले आऊंगा। तो उस भिखमंगे ने कहा, मार जा, तू भी मार जा मेरे पैसे! इसी तरह वायदा कर—करके लोग लाखों रुपए मार चुके हैं।

भिखमंगा है! वह कह रहा है, लाखों रुपए लोग मार चुके हैं इसी तरह वायदा कर—करके कि फिर आ जाएंगे, फुटकर पैसे नहीं हैं, अभी छुट्टे पैसे नहीं हैं, अभी कुछ खीसे में नहीं है। वह जो लाखों उसके पास कभी नहीं रहे हैं, वह उनका दुख है उसको कि लोग मार गए हैं उससे।

अमीर धन से बंधा हो, समझ में आ जाता है। गरीब भी धन से बंधा है। और धन से हम ऐसे चिपट जाते हैं, जैसे वह हमारी आत्मा है। फिर इसी भाति हम सब तरह की चीजों से जुड़ जाते हैं, तादात्म्य, आइडेंटिटी बना लेते हैं, यह मैं हूं। और जिससे भी हम जुड़ जाते हैं, वह हमारी सीमा बन गया।

तो अपने को जितनी ज्यादा चीजों से कोई जोड़ेगा, उतने बंधन में होगा; और जितना चीजों से अपने को तोजो, उतना मुक्त होगा। और जिस दिन सिर्फ यही अनुभव रह जाएगा कि मैं किसी से भी बंधा नहीं हूं कुछ भी मेरा नहीं है, सिर्फ मैं ही हूं, मेरा स्वभाव ही बस मेरा होना है, उस दिन मुक्ति है।

दैवी संपदा उस जगह ले जाती है, जहां आप अकेले बचते हैं। आसुरी संपदा वहां ले जाती है, जहां आपको छोड्कर और सब कुछ बच जाता है।

अब हम सूत्र को लें।

और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य—कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य—कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर— भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है।

तथा वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत आश्चर्यरहित और सर्वथा झूठा है एवं बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री—पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए ही है। इसके सिवाय और क्या है?

इस प्रकार इस मिथ्या—ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अहित करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं।

बहुत—सी बातें इस सूत्र में समझने जैसी हैं और गहरे में जाने जैसी हैं।

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य में प्रवृत्त होने और अकर्तव्य से निवृत्त होने को नहीं जानते हैं…….।

क्या करने जैसा है, क्या करने जैसा नहीं है, इसका उन्हें कुछ भेद नहीं होता, वे जो आसुरी संपदा वाले लोग हैं। क्या कर्तव्य है? कर्तव्य की क्या परिभाषा है? किसे हम कहें कि यह करने जैसा है? योग कर्तव्य की परिभाषा करता है, जिससे भी आनंद बढ़ता हो, वही कर्तव्य है। और मजे की बात यह है कि जिससे हमारा आनंद बढ़ता है, उससे हमारे आस—पास जो हैं, उनका भी आनंद बढ़ता है। जिससे हमारे आस—पास जो हैं, उनका आनंद बढता है, उससे हमारा भी आनंद बढ़ता है। आनंद एक संयुक्त घटना है।

दुख भी संयुक्त घटना है। जिससे हमारा दुख बढता है, उससे हमारे आस—पास भी दुख बढ़ता है। जिससे हमारे आस—पास दुख बढ़ता है, उससे हमारा दुख भी बढ़ता है। दुख भी एक संयुक्त घटना है।

आप किसी दूसरे को दुखी करके सुखी नहीं हो सकते। चाहे क्षणभर को आप अपने को धोखा दें कि मैं सुखी हो रहा हूं? लेकिन यह असंभव है। यह नियम नहीं है। यह हो नहीं सकता। आप दूसरे को दुखी करके सिर्फ दुखी ही हो सकते हैं।

यह तो हो भी सकता है कि आप दूसरे को दुखी करें और वह दुखी न हो; लेकिन आप तो दुखी होंगे ही। क्योंकि अगर वह आदमी जानी हो, बोधपूर्ण हो, बुद्ध पुरुष हो, तो आपके दुखी करने से दुखी नहीं होगा। लेकिन आपकी दुखी करने की जो चेष्टा है, वह आपको तो निश्चित ही दुखी कर जाएगी।

जगत एक प्रतिध्वनि है। हम जो करते हैं, वह हम ही पर आकर बरस जाता है, चाहे थोड़ी देर—अबेर हो जाती हो। उसी देर—अबेर के कारण ही हम इस भाति में पड़ जाते हैं कि इससे कोई संबंध नहीं है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि हम कुछ भी बुरा नहीं कर रहे हैं, फिर भी दुखी हैं।

उनकी गलती है। यह असंभव है। वे जरूर कुछ कर रहे हैं; वे जरूर कुछ करते रहे हैं। शायद वे सोचते हैं कि वह बुरा नहीं है, जो वे कूर रहे हैं।

एक पिता मेरे पास आए। अपने बेटे से दुखी हैं। और कहते हैं कि मैं तो बेटे के भले के लिए सब—कुछ कर रहा हूं पर वह मुझे दुख दे रहा है। सारी कथा मैंने जानी। तो पिता ठीक कहते हैं कि भले के लिए कर रहे हैं; इसमें कुछ झूठ नहीं है। लेकिन करने का जो ढंग है, वह ऐसा है कि वे बंद ही कर दें यह भला काम करना, तो अच्छा है। करने का ढंग इतने दंभ से भरा है, करने का ढंग ऐसा है कि खुद को वे देवता और बेटे को शैतान समझते हैं। करने का ढंग इतना अहंकारपूर्ण है कि बेटे के अहंकार को चोट लगती है। चाहते वे भला करना हैं, लेकिन बुरा हो रहा है।

और इतने दंभ से जब कोई दूसरे व्यक्ति को बदलने की कोशिश करता है, तो दूसरे पर चोट पहुंचती है। वह चोट संघातक हो जाती है; उस चोट से बदला लेने की वृत्ति पैदा होती है। और करने में उनको जो मजा आ रहा है, वह मजा यह नहीं है कि वे बेटे का भला कर रहे हैं। वह मजा यह है कि मैं भला बाप हूं और बेटे के लिए सब कुर्बान कर रहा हूं। वह भी अहंकार का ही मजा है।

मैंने उनसे कहा कि कभी आपने यह सोचा कि अगर बेटा सच में ही भला हो जाए, तो आप दुखी हो जाएंगे! उन्होंने कहा, आप क्या कहते हैं! कभी नहीं। तो मैंने कहा, आप बैठें आंख बंद करके और सोचें। आपका तो सारा जीवन का अर्थ ही खो जाएगा। एक ही अर्थ है, वह बेटे को ठीक करना। आप बिलकुल अनआकुपाइड हो एकदम, कोई काम न बचेगा; मरने के सिवाय कुछ काम न बचेगा। वह बेटा आपको काम दे रहा है, रस दे रहा है। चौबीस घंटे आप उसी के पीछे पड़े हैं, उसी की कथा कह रहे हैं, और जगह—जगह प्रचार कर रहे हैं कि आप इतना कर रहे हैं और बेटा आपको दुख दे रहा है। अगर बेटा सच में आज भला हो जाए, तो आपको कल मरने के सिवाय कोई काम नहीं है।

थोड़े चौंके, धक्का खाया, लेकिन फिर सोचा। और कहने लगे कि शायद बात ठीक ही हो!

अगर आप दुख पाते हैं, तो आपको जान लेना चाहिए कि आप दुख दे रहे हैं। अगर आपको आनंद की कोई भी किरण मिलती है, तो जान लेना चाहिए कि जाने या अनजाने आपने कुछ आनंद दिया है, बांटा है। जो हम बांटते हैं, वही हमें मिलता है।

कर्तव्य क्या है? कर्तव्य निर्भर होगा लक्ष्य से। लक्ष्य तो एक है सभी का कि जीवन आनंद से भरपूर हो जाए। तो जिससे भी आनंद बढ़े, वही कर्तव्य है। और जिससे आनंद घटे, वही अकर्तव्य है। आनंद को हम कसौटी बना सकते हैं। जैसे सोने को पत्थर पर कसकर देख लेते हैं कि सही या गलत, शुद्ध या अशुद्ध, वैसे आनंद पर आप कसकर देखते रहें आपने कर्मों को।

और जिस कर्म से आनंद बढ़ता हो, समझना वह कर्तव्य है। फिर उसको ज्यादा सींचे, बढ़ाए, जीवन की सारी ऊर्जा उसमें लग जाने दें। जिस कर्म से दुख मिलता हो, उसे छोड़े, उससे अपने को हटाए, उसकी तरफ जीवन की ऊर्जा को मत बहने दें।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति जानता ही नहीं कि क्या करने योग्य है, न जानता है कि क्या करने योग्य नहीं है। न कर्तव्य में उसकी प्रवृत्ति है, न अकर्तव्य से निवृत्ति है। वह अंधे आदमी की तरह कुछ भी किए चला जाता है। उस सब कनफ्यूजन, उस सब उपद्रव को जैसे वह अपने जीवन में खड़ा कर लेता है। कभी बाएं, कभी दाएं भागता है; कभी सीधा, कभी उलटा।

मैंने सुना है, दक्षिण में एक कथा है। दक्षिण का एक कवि हुआ, तेनालीराम। कुछ उलटी खोपड़ी का आदमी रहा होगा। कवि अक्सर होते हैं। पर भक्ति का भी भाव था। तो उसने बड़ी साधना की। काली का पूजक था। बड़ी साधना की। वर्षों के बाद काली का दर्शन हुआ, अनंत हाथों वाली, अनंत मुख वाली। सालों की मेहनत के बाद तेनालीराम ने पूछा क्या!

उसने पूछा कि बस, मुझे यही पूछना है; एक नाक हो, सर्दी हो जाए, तो आदमी पोंछ— पोंछकर थक जाता है। तुम्हारी क्या गति होती होगी?

काली भी चौंकी होगी। कहते हैं, काली ने कहा कि तुम्हें, तेनालीराम, आज से विकट कवि कहा जाएगा। यह तुम्हारा नाम हुआ; और यही मेरा उत्तर है। तेनालीराम ने सुना तो उसने कहा कि बिलकुल ठीक। यह बिलकुल मुझसे मेल खाता है। विकट कवि को उलटा पढ़ो या सीधा, एक—सा है। और मैं उलटा खड़ा होऊं या सीधा, बिलकुल एक —सा है।

यह वर्षों की साधना बस, इस चर्चा पर समाप्त हो गई!

अगर मन उलझा हो, क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है, इसका बोध भी न हो, तो आपके सामने परमात्मा भी खड़ा हो, तो भी हल न होगा। आप स्वर्ग में भी पहुंच जाएं, तो कोई न कोई उपद्रव खड़ा कर लेंगे। आप जहां भी होंगे, वहा गलती अनिवार्य है।

सवाल यह नहीं है कि आप कहा हैं। सवाल यह है कि आपके पास देखने की दृष्टि तीक्ष्ण, स्पष्ट है; विवेकपूर्ण है, बांट सकती है या नहीं कि क्या सार है, क्या असार है; क्या कर्तव्य है, क्या अकर्तव्य है।

अक्सर लोग जीवनभर दौड़ते रहते हैं, बिना इसका ठीक से उनको पक्का पता हुए कि वे कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं। अगर लोग थोड़ी देर रुक जाएं इसके पहले कि कदम उठाएं, चलें, सोच लें कि कहा जाना है और सारी जीवन ऊर्जा को वहां नियोजित कर दें, तो जीवन में फल लग सकते हैं।

अधिक लोग बेफल मर जाते हैं, निष्फल मर जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि श्रम कम करते हैं। श्रम बहुत करते हैं। आसुरी संपदा वाले लोग दैवी संपदा वाले लोगों से ज्यादा श्रम करते हैं। बुद्ध ने क्या श्रम किया है! जो श्रम हिटलर और तैमूरलंग और चंगेज खां करते हैं! बुद्ध का श्रम क्या है! एक झाडू के नीचे बैठे हैं, यही श्रम है!

तैमूरलंग को देखें, लंगड़ा है। वह लंग लंगड़े का ही हिस्सा है। तैमूर दि लेम। लंगड़ा है, लेकिन सारी जमीन को जीतने की कोशिश में लगा है। और कोई आधी जमीन उसने जीत भी डाली। कितने लाखों लोग उसने काट डाले। श्रम उसका भारी है, लेकिन परिणाम क्या है? हिटलर के श्रम को कोई कम नहीं कह सकता। फल क्या है?

ठीक साफ न हो कि क्या कर्तव्य है, क्या मैं करूं, क्यों करूं, और इसका क्या अंत होगा, इसकी ठीक—ठीक रूप—रेखा साफ न हो, तो आदमी करता बहुत है और पाता कुछ भी नहीं।

आसुरी वृत्ति के लोग बड़ा श्रम उठाते हैं, पर उनकी सब साधना निष्फल जाती है।

इसलिए उनमें न तो बाहर— भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है, और न सत्य भाषण ही।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति शुद्धि का विचार ही नहीं करता। वह उसके चिंतन में ही कभी नहीं आता, कि शुद्धि का भी कोई रस है, कि शुद्धि का भी कोई सुख है। जीवन उसका एक घोलमेल है, उसमें सभी कुछ मिला—जुला है। वह प्रार्थना भी करता रहेगा, दुकान की बात भी सोचता रहेगा। वह मंदिर में भी बैठा रहेगा, और वेश्याघर उसे पहुंच जाना है शीघ्रता से, उसकी योजना बनाता रहेगा। उसके जीवन में शुद्धि नहीं है। उसके जीवन में सब मिला हुआ है, कचरे की तरह सब इकट्ठा है। कोई एक स्वर नहीं है। बहुत स्वर हैं, विपरीत स्वर हैं।

शुद्धि का अर्थ इतना ही है कि जीवन की धारा एक स्वर से भरी हो, एक समस्वरता हो। और जब भी मैं जो कर रहा हूं, उस करने में मेरी निष्ठा इतनी पूरी हो कि दूसरा स्वर बीच में डावाडोल न करता हो।

अगर व्यक्ति का जीवन एक—एक क्षण भी इस भांति शुद्ध होने लगे, तो परमात्मा का मंदिर ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन आप कुछ भी कर रहे हों, एक काम कभी भी नहीं कर रहे हैं, हजार काम साथ कर रहे हैं! कुछ भी सोच रहे हों, एक विचार कभी नहीं है, हजार विचार विक्षिप्त की तरह भीतर दौड़ रहे हैं। आप एक बाजार हैं, एक भीड़। और भीड़ भी पागल। इस स्थिति का नाम अशुद्धि है।

कृष्ण कह रहे हैं, उसमें न तो बाहर की शुद्धि है, न भीतर की। न श्रेष्ठ आचरण है, न सत्य भाषण है। तथा वे आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य कहते हैं, जगत आश्चर्यरहित है।

यह वचन बड़ा क्रांतिकारी है।

आसुरी वृत्ति वाला व्यक्ति मानता है कि जगत में कोई रहस्य नहीं है; मानता है कि जगत एक तथ्य है, जिसमें न कोई आश्चर्य है, न कोई रहस्य है, कोई मिस्ट्री नहीं है। अगर हम विचार करें, तो बहुत—सी बातें साफ हो सकती हैं।

धार्मिक और अधार्मिक व्यक्ति में यही फासला है। धार्मिक व्यक्ति जीवन को एक रहस्य की भांति अनुभव करता है। यहां जो प्रकट है, वह सिर्फ सतह है, इस सतह के पीछे अप्रकट छिपा है। और वह अप्रकट ऐसा है कि कितना ही प्रकट होता जाए, तो भी शेष रहेगा।

रहस्य का अर्थ होता है, जिसे हम पूरा कभी न जान पाएंगे, जिसका अंतस्तल सदा ही अनजाना रहेगा। हम कितना ही जान लें, हमारी सब जानकारी बाहर ही बाहर रहेगी। भीतर की अंतरात्मा सदा अनजानी छूट जाएगी।

अगर इसे ठीक से खयाल में लें, तो विज्ञान आसुरी मालूम पड़ेगा। क्योंकि विज्ञान मानता है, जगत में सभी कुछ जाना जा सकता है—कम से कम मानता था। अभी नए कुछ वैज्ञानिक, आइंस्टीन के बाद, इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते। अन्यथा विज्ञान की दृष्टि थी, सभी कुछ जाना जा सकता है। जो हमने जान लिया वह, और जो नहीं जाना है, वह भी अशेय नहीं है, अननोएबल नहीं है। अज्ञात है, उसको भी हम कल जान लेंगे, परसों जान लेंगे। समय की बात है। सौ, दो सौ वर्षों में हम सब जान लेंगे, या हजार, दौ हजार वर्षों में। लेकिन धारणा यह थी विज्ञान की कि जगत पूरा का पूरा जाना जा सकता है।

अगर पूरा का पूरा जाना जा सकता है, तो परमात्मा की कोई जगह नहीं बचती। क्योंकि जिस दिन आप परमात्मा को भी जान लें प्रयोगशाला में और पदार्थों की भांति, जैसा आक्सीजन और हाइड्रोजन को जानते हैं, ऐसा परमात्मा को जान लें; जैसे आक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाकर पानी बनाते हैं, ऐसा परमात्मा का विश्लेषण कर लें, मेल—जोल करके टधूब में उसको तैयार कर दें, जिस दिन आप परमात्मा को जान लेंगे पदार्थ की तरह—विज्ञान की यही धारणा है कि सभी कुछ हम जान लेंगे—उस दिन जानने को कुछ भी शेष नहीं बचेगा।

कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति जगत में कोई रहस्य नहीं मानता। और दैवी संपदा वाला व्यक्ति मानता है कि जगत एक अनंत रहस्य है, एक पहेली, जिसे हम हल करने की कितनी ही कोशिश करें, हम हल न कर पाएंगे।

और वह जो सदा हल के बाहर छूट जाता है, वही परमात्मा है। वह जो हमारी सब कोशिश के बाद भी अज्ञेय, अननोएबल रह जाता है, जिसके पास जाकर हम अवाक हो जाते हैं, जिसके पास जाकर हमारा हृदय ठक से रुक जाता है, जिसके पास जाकर हमारे विचार की परंपरा एकदम टूट जाती है, जिसके पास हम अपना सुध—बुध खो देते हैं, जिसके पास हम मस्ती से तो भर जाते हैं, लेकिन जानकारी बिलकुल खो जाती है, उस तत्व का नाम ही परमात्मा है। वही है मिस्टीरियम, रहस्यमय।

तो कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति मानता है, कोई रहस्य नहीं है। जगत तथ्यों का एक जोड़ है, सब जाना जा सकता है।

इसलिए आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को न तो जीवन में कोई काव्य दिखाई पड़ता, न कोई सौंदर्य दिखाई पड़ता, न कोई प्रेम दिखाई पड़ता; क्योंकि ये सभी तत्व रहस्यपूर्ण हैं। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति जीवन को गणित से नापता है, सभी चीजों को नापता—तौलता है। और सभी चीजों को पदार्थ की तरह व्यवहार करता है। इस जगत में उसे कोई व्यक्तित्व नहीं दिखाई पड़ता। यह जगत जैसे एक मिट्टी का जोड़ है, पदार्थ का जोड़ है। और यहां जो भी घट रहा है, यह सांयोगिक है, एक्सिडेंटल है।

पश्चिम के एक बड़े नास्तिक दिदरो ने लिखा है कि जगत का न तो कोई बनाने वाला है, न जगत के भीतर कोई रचना की प्रक्रिया है, न इस जगत का कोई सृजनक्रम है। जगत एक संयोग, एक एक्सिडेंट है। घटते—घटते, अनंत घटनाएं घटते—घटते यह सब हो गया है। लेकिन इसके होने के पीछे कोई राज नहीं है।

अगर दिदरो की बात सच है, उसका तो अर्थ यह हुआ कि अगर हम कुछ ईंटों को फेंकते जाएं, तो कभी रहने योग्य मकान दुर्घटना से बन सकता है। सिर्फ फेंकते जाएं! या एक प्रेस को हम बिजली से चला दें और उसके सारे यंत्र चलने लगें, तो केवल संयोग से गीता जैसी किताब छप सकती है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति देखता है कि जगत में एक रचना—प्रक्रिया है। जगत के पीछे चेतना छिपी है। और जगत के प्रत्येक कृत्य के पीछे कुछ राज है। और राज कुछ ऐसा है कि हम उसकी तलहटी तक कभी न पहुंच पाएंगे, क्योंकि हम भी उस राज के हिस्से हैं; हम उसके स्रोत तक कभी न पहुंच पाएंगे, क्योंकि हम उसकी एक लहर हैं।

मनुष्य कुछ अलग नहीं है इस रहस्य से। वह इस विराट चेतना में जो लहरें उठ रही हैं, उसका ही एक हिस्सा है। इसलिए न तो वह इसके प्रथम को देख पाएगा, न इसके अंतिम को देख पाएगा। दूर खड़े होकर देखने की कोई सुविधा नहीं है। हम इसमें डूबे हुए हैं। जैसे मछली को कोई पता नहीं चलता कि सागर है। और मछली सागर में रहती है, फिर भी सागर का क्या रहस्य जानती है! वैसी ही अवस्था मनुष्य की है।

जितना ही ज्यादा दैवी संपदा की तरफ झुका हुआ व्यक्ति होगा, उतना ही तर्क पर उसका भरोसा कम होने लगेगा, उतना ही काव्य पर उसकी निष्ठा बढ़ने लगेगी, उतना ही वह जगत में सब तरफ उसे रहस्य की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगेगी। फूल खिलेगा, तो उसे परमात्मा का इंगित दिखाई पड़ेगा।

वैज्ञानिक के सामने भी फूल खिलता है, तो वैज्ञानिक उसमें कुछ तथ्यों की खोज करता है। वह देखता है कि फूल में जरूर कोई कारण है! क्यों खिला है? तो फूल की केमिकल परीक्षा करता है, जांच—पड़ताल करता है, उसके रसों की जांच—पड़ताल करता है, और एक नियम तय करता है कि इसलिए खिला है।

धार्मिक व्यक्ति, दैवी संपदा का व्यक्ति फूल का विश्लेषण नहीं करता, लेकिन फूल का जो संकेत है, जो सौंदर्य है, फूल का जो खिलना है, वह जो जीवन का प्रकट होना है, उस इशारे को पकड़ता है। और तब एक फूल उसके लिए परमात्मा का प्रतीक हो जाता है। तब एक छोटी—सी हिलती हवा में पत्ती भी उसके लिए परमात्मा का कंपन हो जाती है। तब यह सारा जगत परमात्मा का नृत्य हो जाता है।

परमात्मा से अर्थ है, रहस्य। परमात्मा से आप यह मत सोचना कि कहीं आकाश में कोई बैठा हुआ व्यक्ति। परमात्मा का अर्थ है, यह जगत रहस्यपूर्ण है। और जैसे ही यह जगत रहस्यपूर्ण होता है, वैसे ही हमारे हृदय में एक नया स्पंदन शुरू होता है।

आज अगर दुनिया में इतनी ऊब, इतनी उदासी, इतनी बोर्डम है, तो उसका कारण आसुरी संपदा वाली विचार—धारा का प्रभाव है। क्योंकि जीवन में जब कोई रहस्य न हो, तो रस भी न होगा। और जब सब चीजें मिट्टी—पत्थर का जोड़ हों..।

अगर दो व्यक्तियों में प्रेम हो जाए, वैज्ञानिक से पूछें, बायोलाजिस्ट से पूछें, तो वह कहता है कि कुछ खास बात नहीं, सिर्फ हार्मोन्स की ही बात है। इन दोनों व्यक्तियों में जो भीतर शरीर में हार्मोन्स बन रहे हैं, वह जो रासायनिक प्रक्रिया हो रही है, उसमें आकर्षण है। उस आकर्षण की वजह से इनको प्रेम वगैरह का खयाल पैदा हो रहा है। प्रेम सिर्फ खयाल है, असली चीज हार्मोनल आकर्षण है।

विज्ञान सभी चीजों को समझा देता है। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि हम इस मुल्क में विज्ञान को अविद्या कहते थे। पुराने दिनों में ऋषियों ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं, विद्या और अविद्या। विद्या उस जान को कहा है, जो दैवी संपदा की तरफ ले जाता है। और अविद्या उस ज्ञान को कहा है, जो आसुरी संपदा की तरफ ले जाता है।

विज्ञान अविद्या है। जानना तो वहा बहुत होता है, लेकिन फिर भी जानने का जो परम लक्ष्य है, वह चूक जाता है।

अगर हम वैज्ञानिक को कहें, भीतर आदमी के आत्मा है। तो वह शरीर को काटने को तैयार है, वह काटकर शरीर को देखने को तैयार है। काटने पर आत्मा मिलती नहीं। यह वैसे ही है, जैसे कि पिकासो का एक सुंदर चित्र हो, और हम कहें, बहुत सुंदर है। और वैज्ञानिक उसको काटकर, प्रयोगशाला में ले जाकर, सब रंगों को अलग करके, विश्लिष्ट करके और कह दे कि ये सब रंग अलग—अलग रखे हुए हैं, सौंदर्य कहीं भी नहीं है।

चित्र को काटकर सौंदर्य नहीं खोजा जा सकता। क्योंकि चित्र का सौंदर्य चित्र की परिपूर्णता में है, वह उसकी होलनेस में था, वह रंगों के जोड़ में था। जैसे ही तोड़ लिया, जोड़ समाप्त हो गए, सौंदर्य खो गया।

आदमी की आत्मा उसके अंग—अंग को काटकर नहीं पकड़ी जा सकती। वह उसकी समग्रता में है, वह सौंदर्य की तरह उसकी समग्रता में छिपी है। उसकी समग्रता अखंडित रहे, तो ही आत्मा को पहचाना जा सकता है। उसकी खंडित स्थिति हो, आत्मा खो गई। यह जगत अखंडता है। इस अखंडता के भीतर जो छिपा हुआ रहस्य है, उसका नाम परमात्मा है।

आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं, जगत आश्चर्यरहित और सर्वथा झूठा है और बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री—पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए है। इसके सिवाय और क्या है!

अगर कोई रहस्य नहीं, तो फिर कोई गंतव्य नहीं। अगर कोई छिपी हुई नियति नहीं, तो पहुंचने का कोई अर्थ नहीं, कहीं जाने को नहीं। फिर आप यहां हैं, और इस क्षण जिस बात में भी सुख मिलता हुआ मालूम पड़े, उसको कर लेना उचित है।

चार्वाकों ने कहा है कि उधार लेकर भी अगर घी पीना पड़े, तो चिंता मत करना, उधार लेना। क्योंकि मरने के बाद न लेने वाला बचता है, न देने वाला। तब चोरी में कोई बुराई नहीं, अगर सुख मिलता हो। तब किसी से छीनकर कोई चीज भोग लेने में कुछ हर्ज नहीं, अगर सुख मिलता हो। क्योंकि जीवन की कोई परम गति नहीं है और न कोई परम नियंत्रण है, और न जीवन का कोई अर्थ है, जो आपको आगे की तरफ खींचना है। इस क्षण जो भोगने योग्य लगता हो, उसे पागल की तरह भोग लेना ही आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन का ढंग और शैली होगी।

इस सारी दौड़ के पीछे दौड़ता हुआ कोई सूत्र नहीं है। जैसे एक माला हम बनाते हैं, उसमें मनके हैं और भीतर हर मनके के दौड़ता हुआ एक धागा है। वह धागा दिखाई नहीं पड़ता, मनके दिखाई पड़ते हैं। वह धागा सब मनकों को बांधे है, पर अदृश्य है।

दैवी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक कृत्य एक मनका है। और प्रत्येक मनके को वह भीतर के एक प्रयोजन से बांधे हुए है, एक लक्ष्य, एक जीवन की दिशा, एक जीवन की परिपूर्ण कृतकृत्यता का भाव। जीवन कहीं जा रहा है, एक नियति, वह उसका धागा है। तो वह जो भी कर रहा है, हर मनके को उस धागे में बांधता जा रहा है। कृत्य मनकों की तरह अलग—अलग हैं और उसका जीवन .एक धागे की तरह सारे मनकों को सम्हाले हुए है, एक इंटीग्रेशन।

आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन में कोई धागा नहीं है। हर कृत्य टूटा हुआ मनका है। दो मनकों में कोई जोड़ नहीं है। इसलिए आसुरी संपदा वाला व्यक्ति करीब—करीब विक्षिप्त की तरह जीता है। उसकी न कोई दिशा है, न कोई गंतव्य है। बस, हर क्षण जहां हवाएं ले जाएं, जो सूझ जाए वासना को, जो भीतर का धक्का आ जाए, या परिस्थिति जिस तरफ झुका दे, या लोभ जिस तरफ आकर्षित कर ले, बस वह वैसा दौड़ता चला जाता है।

जैसे आपके सामने एक सितार रखा हो और आप उसको ठोंकते जाएं, तार खींचते जाएं; और आपको सितार के शास्त्र का कोई भी ज्ञान न हो, संगीत की कोई प्रतीति न हो, दो स्वरों के बीच जोड़ का कोई अनुभव न हो, स्वरों का एक प्रवाह बनाने की कोई कला न हो, स्वरों की सरिता निर्मित न कर सकते हों, तो आप सिर्फ एक उपद्रव मचाएंगे। शोरगुल होगा बहुत, संगीत नहीं हो सकता। क्योंकि संगीत तो सभी सुरों को मनके की तरह जब आप धागे में बांधते हैं, तब पैदा होता है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति जीवन में संगीत निर्मित करने की चेष्टा में लगा रहता है। वह जो काम भी करता है, सोचता है कि यह मेरे पूरे जीवन में कहां बैठेगा, यह मेरे पूरे जीवन को क्या रंग देगा, इससे मेरा आज तक का जीवन किस मोड़ पर मुड़ जाएगा, यह मेरे पूरे जीवन को मिलकर कौन—सा नया अर्थ, अभिव्यक्ति देगा। इसलिए प्रत्येक कृत्य एक अर्थ, एक अभिप्राय, एक प्रयोजन और एक नियति के साथ मेल बनाता है।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति इस क्षण में उसे जो सूझता है, कर लेता है। उसका कृत्य टूटा हुआ है, आणविक है। और उसका लक्ष्य सिर्फ इतना है, आज भोग लूं, कल का क्या भरोसा है!

उमर खय्याम की रुबाइयात, अगर उसके गहरे सूफी अर्थ आपको पता न हों, तो आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का वक्तव्य मालूम पड़ेगा। उमर खय्याम की रुबाइयात में बड़ी मधुर कल्पना है। अगर आपको उसका सूफी रहस्य पता हो, तब तो वह एक अदभुत ग्रंथ है। सूफी रहस्य का पता न हो, तो आपको लगेगा, भोग का एक आमंत्रण है।

उमर खय्याम सुबह—सुबह ही पहुंच गया मधुशाला के द्वार पर। अभी कोई जागे भी नहीं; रात थके—मांदे नौकर सो गए हैं। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में, अभी सूरज भी नहीं निकला, वह दरवाजा खटखटा रहा है। भीतर से कोई आवाज देता है कि अभी मधुशाला के खुलने में देर है।

तो वह कहता है, लेकिन देर तक प्रतीक्षा करना संभव नहीं। एक क्षण के बाद का भरोसा नहीं। और यह क्षण चूक जाए पीने का, तो कौन आश्वासन देता है कि अगले क्षण मैं बर्न और पीने की मुझे सुविधा रहेगी! इसलिए द्वार खोलो। देर मत करो। सूरज निकलने के करीब हो गया। और सूरज ने अपनी किरणों का जाल फेंक दिया जगत पर। और जब किरणों का जाल जगत पर सूरज फेंक देता है, तो संध्या होने में ज्यादा देर नहीं।

वह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, उसे मृत्यु लगती है, बस आ रही है। क्षणभर हाथ में है, इसे भोग लूं? निचोड़ लूं? पी लूं। भोग ही लक्ष्य हो जाता है; योग बिलकुल खो जाता है।

ध्यान रहे, योग का अर्थ ही है, दो मनकों को जोड़ देना। जब जीवन के सारे मनके जुड़ जाएं, तो आप योगी हैं। और जीवन के मनकों का ढेर लगा हो, कोई धागा न हो जोड्ने वाला, तो आप भोगी हैं।

भोगी और योगी दोनों के पास मनके तो बराबर होते हैं। लेकिन योगी ने एक संगति बना ली, योगी ने सब मनकों को जोड़ डाला। उसके सब अक्षर जीवन के एक संयुक्त काव्य बन गए एक कविता बन गए। भोगी अक्षरों का ढेर लगाए बैठा है। उसके पास भाषाकोश है। सब अक्षरों का ढेर लगा हुआ है। लेकिन दो अक्षरों को उसने जोड़ा नहीं, इसलिए कोई कविता का जन्म नहीं हुआ है। और जीवन के अंत में, वह जो हमने धागा निर्मित किया है, वही हमारे साथ जाएगा, मनके छूट जाते हैं। मनके सब यहीं रह जाते हैं। इस प्रकार इस मिथ्या—ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अहित करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं।

इस मिथ्या—ज्ञान का अवलंबन करके—कि भोग ही सब कुछ है, योग जैसा कुछ भी नहीं, साधना कुछ भी नहीं है, पहुंचना कहीं भी नहीं है, जीवन का कोई गंतव्य, लक्ष्य नहीं है, जीवन एक संयोग है, एक दुर्घटना है, जिसके पीछे कोई अर्थ पिरोया हुआ नहीं है, शब्दों की एक भीड़ है, कोई सुसंगत काव्य नहीं—ऐसा जिसका मिथ्या—ज्ञान है और इसका अवलंबन करके नष्ट हो गया स्वभाव जिसका……।

इस तरह की धारणाओं में जो जीएगा, वह अपने स्वभाव को अपने हाथ से तोड़ रहा है, क्योंकि स्वभाव तो परम संगीत को उपलब्ध करने में ही छिपा है। स्वभाव तो परम नियति को प्रकट कर लेने में छिपा है। स्वभाव तो इस जगत का जो आत्यंतिक रहस्य है, उसके साथ एक हो जाने में छिपा है। मैं अपने स्वभाव को तभी उपलब्ध होऊंगा, जब मैं बिलकुल शून्य होकर, शांत होकर इस जगत के पूरे अस्तित्व के साथ अपने को एक कर लूं।

स्वभाव यानी परमात्मा। स्वभाव मिथ्या धारणाओं में नष्ट हो जाएगा, खो जाएगा।

और मंद हो गई है बुद्धि जिसकी…….।

और इस तरह की बातें जिस पर बहुत प्रभाव करेंगी, उसकी बुद्धि धीरे— धीरे मंद हो जाएगी। मंद होने का यह मतलब नहीं है कि उसका तर्क क्षीण हो जाएगा। अक्सर तो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति बड़ा तार्किक होता है, बड़ी प्रखर उसके पास तर्क की व्यवस्था होती है।

लेकिन फिर भी कृष्ण कहते हैं, मंद हो गई है बुद्धि जिसकी..। क्योंकि तर्क को हमने इस देश में कभी बुद्धि नहीं माना। तर्क को हमने बच्चों का खेल माना है। बुद्धि से तो हमारा प्रयोजन उस क्षमता से है, जो जीवन को आर—पार देख लेती है; जो जीवन के छिपे हुए रहस्य—परतों में उतर जाती है; जो जीवन के अंतःस्तल को स्पर्श कर लेती है, उसे हम बुद्धि कहते हैं।

आधुनिक युग में जिसे हम बुद्धि कहते हैं, वह केवल तर्क की व्यवस्था है। अगर कोई व्यक्ति काफी तर्क कर सकता है, आर्ग्यू कर सकता है, विवाद कर? सकता है, तो हम कहते हैं, बड़ा बुद्धिमान है।

तुर्गनेव ने एक छोटी कहानी लिखी है। उसने लिखा है, एक गांव में एक मूढ़ आदमी था, निपट गंवार था, और सारा गांव उस पर हंसता था। उस गांव में एक फकीर का आगमन हुआ। तो उस मूढ़ आदमी ने फकीर से कहा कि मुझ पर सारा गांव हंसता है, लोग मुझे मूर्ख समझते हैं। मुझे कुछ रास्ता बताओ। थोड़ी बुद्धि मुझे दो। फकीर ने कहा, यह तो जरा कठिन काम है तुझे बुद्धि देना, लेकिन तुझे एक तरकीब बता देता हूं जिससे तू बुद्धिमान हो जाएगा। उसने कहा, वही दे दो बस, और मुझे कुछ चाहिए नहीं। तो उस फकीर ने उसके कान में कुछ मंत्र दिया, और कहा, बस, तू इसका उपयोग कर।

एक सप्ताह के भीतर गांव में ही नहीं, गांव के आस—पास, दूर—दूर तक, राजधानी तक खबर पहुंच गई कि वह आदमी बड़ा बुद्धिमान है। फकीर ने उससे क्या कहा? फकीर ने उससे कहा कि एक छोटा—सा सूत्र याद रख! अगर कहीं कोई कह रहा हो कि बाइबिल महान पुस्तक है, तो तू कहना, कौन कहता है, बाइबिल महान पुस्तक है! दो कौड़ी की है, उसमें कुछ भी नहीं है। अगर कोई कहे, यह चित्र बड़ा सुंदर है; तो तू कहना, क्या है इसमें, रंगों का पोतना, सौंदर्य कहीं भी नहीं है। कहां है? दिखाओ मुझे सौंदर्य!

जोर से कहना और इनकार करना, कोई कुछ भी कह रहा हो। वह हर चीज का खंडन करने लगा। और बड़ा मुश्किल है। आप कहें, यह चांद सुंदर है। मूढ़ आदमी भी खड़ा होकर कह दे कि सिद्ध करो! कैसे सिद्ध करिएगा कि चांद सुंदर है? क्या उपाय है? कोई उपाय नहीं है। अब तक दुनिया में कोई सिद्ध नहीं कर सका कि चांद सुंदर है। वह तो हम सुन लेते हैं चुपचाप, लोग कहते हैं। अगर आप न सुनें, बस कठिन हो गया काम।

उस आदमी ने सबको गलत सिद्ध करना शुरू कर दिया। क्योंकि जो भी कुछ कहे, ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं थी, मंत्र सीधा था। सिर्फ इनकार करना है तुझे, और तू कुछ सिद्ध करने की फिक्र ही मत करना। जो दूसरा कह रहा हो, उसको भर कहना कि सिद्ध करो।

न सौंदर्य सिद्ध होता है, न सत्य सिद्ध होता है, न परमात्मा सिद्ध होता है, सिद्ध तो कुछ किया नहीं जा सकता। लेकिन लोग समझे कि यह आदमी महान विद्वान हो गया है। इसकी बुद्धि बड़ी प्रखर है। हम इस युग में इसी तरह के बुद्धओं को बुद्धिमान कहते हैं। कृष्ण उनको बुद्धिमान नहीं कहते। कृष्ण उसको बुद्धिमान कहते हैं, जिसने अपनी चेतना—ऊर्जा में, जीवन के परम रहस्य में प्रवेश का मार्ग खोज लिया है। जिसने अपनी चेतना को मार्ग बना लिया है, वही बुद्धिमान है।

मिथ्या धारणाओं का अवलंबन करके नष्ट हो गया स्वभाव जिनका, मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे व्यक्तियों को कृष्ण ने कहा कि वे आसुरी संपदा वाले हैं।

इसकी अपने भीतर तलाश करना। और जहां भी आसुरी संपदा का थोड़ा—सा भी झुकाव मिले, उसे उखाड़कर फेंक देना।

मजे की बात यह है कि जैसे कोई लान लगाए दूब लगाए घर में, तो उसमें व्यर्थ का कूड़ा—कचरा भी पैदा होना शुरू होता है। उसे उखाड़—उखाड़कर फेंकना पड़ता है। मजे की बात यह है कि दूब लगाते हैं आप, कूड़ा—कचरा अपने आप आता है। और अगर दूब को आप न बचाएं तो वह मर जाएगी। और अगर कूड़े—कचरे को न फेंकें, तो वह बिना मेहनत किए बढ़ता जाएगा। धीरे—धीरे वह सारी दूब पर छा जाएगा, दूब को खा जाएगा। कूड़ा—कचरा ही रह जाएगा। आसुरी संपदा बड़ी सरलता से बढ़ती है। बढ़ने का कारण है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है। ऊपर चढ़ाना हो, तो पंप करने की व्यवस्था बिठानी पड़ती है, मेहनत करनी पड़ती है। नीचे अपने आप जाता है।

वह जो आसुरी संपदा है, नीचे की तरफ उतरना है। उसमें चढ़ाव नहीं है, इसलिए श्रम नहीं पड़ता। हम सब उसमें ढलकते हैं अपने आप। और जब तक हम सचेत न हों, तब तक रुकना बहुत मुश्किल है। सचेत हों।

तो ध्यान रखना, जब भी नीचे उतरने का मन हो, तब अपने को रोकना। चाहे श्रम भी पड़े, तो भी दैवी संपदा की तरफ कदम रखना। वह पहाड़ की चढ़ाई है। पसीना उसमें आएगा, थकान भी होगी। लेकिन उसके मधुर फल हैं। और उसका अंतिम फल मोक्ष की मधुरता है।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–7) प्रवचन–184

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शोषण या साधना—(प्रवचन—पांचवां)

अध्‍याय—16

सूत्र—184

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता:।

मोहाङ्गाहींत्त्वीसद्ग्राहागर्क्तन्‍तेउशुचिव्रता:।। 10।।

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुयश्रिता:।

कामोयभोगपरमा एतावदिति निश्चिता: ।। 11।।

आशापाशशातैर्बद्धा: कामक्रोधयरायणा ।

ईहन्‍ते कामभोगार्थमन्यायेनार्श्रसंचयान्।। 12।।

और वे मनुष्य दंभ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह से मिथ्‍था सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्‍त हुए संसार में बर्तते हैं।

तथा वे मरणपर्यत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय— भोगों को भोगने के लिए तत्‍पर हुए, इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।

इसलिए आशारूप सैंकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम— क्रोध के परायण हुए विषय—भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत— से पदार्थो को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।

 

पहले कुछ प्रश्न।

 

पहला प्रश्न : कल के सूत्र में कहा गया कि आसुरी संपदा वाले कहते हैं कि जगत आश्चर्यरहित है और सर्वथा झूठा है। विज्ञान यह अवश्य सोचता था कि जगत में कुछ रहस्य नहीं है, लेकिन यह तो वह नहीं कहता कि जगत झूठा है। इसे समझाएं।

सुरी संपदा वाले लोग जगत को रहस्यशून्य और झूठा मानते हैं, ऐसा कहने का कृष्ण का प्रयोजन काफी गहरे से समझेंगे, तो ही समझ में आ सकेगा। साधारणत: तो धार्मिक, दैवी संपदा वाले पुरुष जगत को माया कहते हैं, जगत को झूठा कहते हैं। इसलिए बात थोड़ी उलझी हुई है। लेकिन दोनों के प्रयोजन अलग हैं।

शंकर या दूसरे अद्वैतवादी जब जगत को माया या असत्य कहते हैं, तो उनका प्रयोजन केवल इतना ही है कि इस जगत से भी सत्यतर कुछ और है। यह एक सापेक्ष वक्तव्य है। यह जगत ही सत्य नहीं है, इस जगत से ज्यादा सत्यतर कुछ और है। और उस सत्यतर की खोज की तरफ हम अग्रसर हो सकें, इसलिए वे इस जगत को झूठा कहते हैं। इस जगत को झूठा सिद्ध करने का इतना ही प्रयोजन है, ताकि हम इसी को सत्य मानकर इसी की खोज में न उलझ जाएं। सत्य कहीं और छिपा है। और इसे हम असत्य समझेंगे, तो ही उस सत्य की खोज में जा सकेंगे।

लेकिन कृष्ण यहं। कह रहे हैं कि आसुरी संपदा वाले लोग इस जगत को झूठा कहते हैं। इस वक्तव्य का प्रयोजन बिलकुल दूसरा है। आसुरी संपदा वाले लोग इस जगत को झूठा इसलिए नहीं कहते कि कोई और जगत है, जो सत्य है। वे कहते हैं, सत्य है ही नहीं। इसलिए जो भी है, वह झूठ है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। शंकर कहते हैं, यह जगत मिथ्या है, असत्य है, माया है। क्योंकि सत्य कहीं और है और उस सत्य की तुलना में यह झूठा है। आसुरी संपदा वाले लोग कहते हैं, यह संसार झूठा है, क्योंकि सत्य कुछ है ही नहीं। यह किसी तुलना में असत्य नहीं है, क्योंकि सत्य है ही नहीं है, इसलिए जो भी है, वह असत्य है। उनका ऐसा मानने और कहने का प्रयोजन समझने जैसा है।

जगत को असत्य अगर कह दिया जाए, और कोई सत्य हो न, तो फिर जीवन में कोई मूल्य, जीवन में कोई लक्ष्य, कोई गंतव्य नहीं रह जाता, फिर बुरे और भले का कोई भेद नहीं रह जाता।

आप स्वप्न में देखें कि आप साधु हैं या स्वप्न में देखें कि असाधु हैं, क्या फर्क पड़ता है! दोनों ही स्वप्न हैं। स्वप्न में किसी की हत्या करें या स्वप्न में किसी को बचाएं, क्या फर्क पड़ता है! दोनों ही स्वप्न हैं। दो स्वप्नों के बीच कोई मूल्य का भेद नहीं हो सकता। सत्य और स्वप्न के बीच मूल्य का भेद हो सकता है। लेकिन अगर दोनों ही स्वप्न हैं, तो फिर कोई भी भेद नहीं।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति मानता है, यह सब असत्य है। सब असत्य का उसके कहने का प्रयोजन इतना ही है कि यह जगत एक संयोग है। यह जगत एक रचना—प्रक्रिया नहीं है। इस जगत के पीछे कोई प्रयोजन अंतर्निहित नहीं है। यह जगत कहीं जा नहीं रहा है। इस जगत की कोई मंजिल नहीं है। हम सिर्फ दुर्घटनाएं हैं। न कुछ पाने को है यहां, न कुछ खोने को है। हमारे होने का कोई मूल्य नहीं है। हमारा होना मीनिंगलेस है, सर्वथा मूल्यरहित है।

अगर जगत में थोड़ा भी सत्य है, तो मूल्य पैदा हो जाएगा; तब चुनाव करना होगा, असत्य को छोड़ना होगा, सत्य को पाना होगा। फिर असत्य और सत्य के बीच हमें यात्रा करनी पड़ेगी; साधना—पथ निर्मित होगा। लेकिन अगर सभी कुछ असत्य है, कुछ पाने योग्य नहीं, कुछ खोने योग्य नहीं; बुरा आदमी भी, भला आदमी भी, असाधु, साधु, संत, अज्ञानी या ज्ञानी सब बराबर हैं—फिर कोई भेद नहीं है।

और अगर बुरे और भले का भेद मिट जाए, तो आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को जो सुख मिलता है, वह किसी और तरह से नहीं मिलता। क्योंकि आसुरी संपदा वाले व्यक्ति की यही पीड़ा है कि कहीं ऐसा न हो कि मैं जो कर रहा हूं वह गलत हो। कहीं ऐसा न हो कि जिस धारा के मैं विपरीत चल रहा हूं उस धारा में ही सत्य छिपा हो! कहीं ऐसा न हो कि प्रार्थना में, पूजा में, परमात्मा में कोई सत्य छिपा हो! मैं जैसा जीवन को चला रहा हूं यह अगर असत्य है, तो फिर मैं कुछ खो रहा हूं।

लेकिन अगर सभी कुछ असत्य है, तो फिर खोने—पाने का कोई सवाल नहीं है। तब महावीर कुछ पा नहीं रहे हैं, बुद्ध को कुछ मिल नहीं रहा है, वे भी भ्रम में हैं। जो धन कमाकर इकट्ठा कर रहा है, वह भी भ्रम में है। वह जो स्त्रियों के पीछे दौड़ रहा है, वह भी भ्रम में है। जो परमात्मा के पीछे दौड़ रहा है, वह भी भ्रम में है।

आसुरी संपदा वाला यह कहता है कि जो भी यहां मंजिल खोज रहा है, जो भी यहां जीवन में निहित किसी प्रयोजन की तलाश कर रहा है, जो भी सोचता है कि यहां कोई सत्य मिल जाएगा, अमृत मिल जाएगा, जीवन मिल जाएगा, कोई परम उपलब्धि होगी, कोई मोक्ष मिल जाएगा, वह भांति में है। यह पूरा जगत असत्य है। यहां कुछ पाने जैसा नहीं है।

एक बार यह साफ हो जाए कि सभी कुछ असत्य है, तो जीवन में साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता। साधना में अर्थ आता है तभी, जब जीवन में कुछ चुनने को हो। कुछ गलत हो, जो छोड़ा जा सके, कुछ सही हो, जो पकड़ा जा सके। कोई दिशा भ्रांत हो, जिस तरफ पीठ की जा सके, कोई दिशा सही हो, जिस तरफ मुख किया जा सके। कहीं पहुंचने की कोई मंजिल हो, कोई गंतव्य हो, कोई तारा हो—कितने ही दूर—लेकिन जिस तरफ हम चल सकें।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति कहता है, यहां चलने का कोई उपाय नहीं है। तुम यहां हो एक दुर्घटना की तरह। यह एक आकस्मिक घटना है। जगत को न कोई चला रहा है, न कोई जगत को सोच रहा है, न जगत के पीछे कोई चेतना है। जगत एक सांयोगिक घटना है। सांयोगिक घटना का अर्थ यह होता है कि इसमें कुछ भी प्रयोजन खोजना व्यर्थ है। प्रयोजन नहीं है, अर्थ नहीं है, कोई मूल्य नहीं है, इस बात की घोषणा करने के लिए आसुरी संपदा वाला व्यक्ति कहता है, जगत झूठा है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति भी जगत को मिथ्या कहता है। यहां यह बात खयाल में लेनी जरूरी है कि कभी—कभी हमारे एक से वक्तव्य भी बड़े भिन्न अर्थ रखते हैं। वक्तव्य का बहुत कम मूल्य है। वक्तव्य कौन देता है, इसी का मूल्य ज्यादा है। वही वक्तव्य राम के मुंह से अलग अर्थ रखेगा, वही वक्तव्य रावण के मुंह से अलग अर्थ रखेगा। वक्तव्य बिलकुल एक जैसे हो सकते हैं, लेकिन वक्तव्य के पीछे नजर क्या है?

अगर राम कहते हैं, जगत मिथ्या है, तो इसका अर्थ यह है कि इस पर रुको मत; सत्य कहीं और है, उसे खोजो। रावण अगर कहे, जगत मिथ्या है, तो वह यह कहता है कि कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं, सत्य है ही नहीं, इसलिए यहां जो मिला है, उसे भोग लो। यह क्षणभर का भोग है, न इसके पीछे कुछ है, न इसके आगे कुछ है। और परिणाम की बिलकुल चिंता मत करो। क्योंकि परिणाम केवल सत्य जगत में ही घटित हो सकते हैं; असत्य जगत में कोई परिणाम घटित नहीं होते।

मैंने सुना है, एक आदमी ने रात स्वप्न देखा। फिर सुबह वह जब बाजार की तरफ चला, तो बड़ा उदास था। किसी मित्र ने उसे पूछा कि इतने उदास हो, बात क्या है? उसने कहा, मैंने एक स्वप्न देखा है। और स्वप्न में मैंने देखा कि मुझे बीस हजार रुपए पड़े हुए रास्ते पर मिल गए हैं। तो मित्र ने कहा, इसमें भी उदास होने की क्या बात है! यह तो सपना है। सपने के रुपयों की क्या चिंता करनी, क्या उदासी! उस आदमी ने कहा, उससे मैं परेशान नहीं हूं। मैंने यह पत्नी को बता दिया और वह सुबह से ही रो—पीट रही है। वह कहती है, उसी वक्त बैंक में जमा क्यों न कर दिए?

स्वप्न में भी मोह तो हमारा पकडता है। वह जो झूठ है, उसमें भी आसक्ति बनती है। वह जो नहीं है, उसको भी हम सम्हाल लेना चाहते हैं।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति यह कह रहा है कि ये स्वप्न में जो रुपए मिले हैं, इनको जमा कर ही देना। क्योंकि ये रुपए भी झूठ हैं, जमा करना भी झूठ है, बैंक भी झूठ है, जमा करने वाला भी झूठ है। स्वप्न ही झूठ नहीं है, जिसने स्वप्न देखा, वह भी झूठ है। जमा करने का मजा ले लेना। यद्यपि वह झूठ है; लेकिन नहीं जमा कर पाए, उसका दुख लेने की बजाय बेहतर है। दोनों झूठ हैं। यहां सुख भी झूठ है, दुख भी झूठ है। इसलिए क्षणभर की बात है; जो रुचिकर लगे, वह कर लेना।

इस भेद को खयाल में ले लें।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति कहता है, जो सुखपूर्ण मालूम पड़े, वह कर लेना, झूठ तो सभी कुछ है। दैवी संपदा वाला व्यक्ति कहता है कि सुख—दुख की फिक्र मत करना; जो सत्य हो, उसकी फिक्र करना, जो असत्य हो, उसको छोड़ना।

दैवी संपदा वाले के लिए सत्य कसौटी है। आसुरी संपदा वाले के लिए सुख कसौटी है। झूठ तो सभी है, इसलिए यह तो कोई उपाय ही नहीं है इसमें तौलने का कि कौन सा सच है, कौन सा झूठ है। एक ही उपाय है कि जिससे सुख मिलता हो।

नास्तिकों ने सदा एक दलील दी है, आस्तिक भी उस दलील का उपयोग करते हैं; पर दोनों के प्रयोजन बड़े भिन्न हैं। आस्तिक कहता है, यह कहा तुम दौड़ रहे हो स्त्री के पीछे, धन के पीछे, पद—प्रतिष्ठा के पीछे; ये सब झूठ हैं। नास्तिक भी कहता है कि ये सब झूठ हैं। लेकिन कहीं और दौड़ने को कोई जगह भी नहीं है। इस झूठ को भी छोड़ दें, तो कोई सत्य तो है नहीं, जिसको हम पकड़ लें। झूठ को हम खो सकते हैं, लेकिन सत्य को पा नहीं सकते—नास्तिक की दृष्टि में।

इसलिए खोने का भी क्या अर्थ है? सपना भी अगर मधुर देखा जा सकता है, तो देख लेना चाहिए। सिर्फ सपना होने से ही छोड़ने योग्य नहीं है। क्योंकि सत्य अगर कहीं होता, तो हम सपने को छोड़ भी देते। लेकिन सत्य कहीं है ही नहीं। इसलिए दो तरह के सपने हैं, सुखद और दुखद। जो सुखद सपनों को खोज लेता है, वह होशियार है। जो दुखद सपनों में पड़ा रहता है, वह नासमझ है। और सपने के अतिरिक्त कोई सत्य नहीं है। यह आसुरी संपदा वाले की वृत्ति है।

विज्ञान निश्चित ही आसुरी संपदा वाले से राजी है। दोनों कारणों से राजी है। एक तो इस कारण राजी है कि जगत में कोई रहस्य नहीं है, जगत में कोई छिपा हुआ राज नहीं है। जगत एक खुली किताब है। और अगर हम न पढ़ पाते हों, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि हमें पढ़ने की कुशलता और बढ़ानी चाहिए।

विज्ञान जगत को दो हिस्सों में तोड़ता है, नोन और अननोन, ज्ञात और अज्ञात। वह जो अज्ञात है, वह कल ज्ञात हो जाएगा; जो आज ज्ञात है, वह भी कल अज्ञात था। एक दिन ऐसा आएगा, जब सब ज्ञात हो जाएगा; अज्ञात की कोटि नष्ट हो जाएगी।

धर्म जगत को तीन हिस्सों में तोड़ता है, ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय—नोन, अननोन और अननोएबल। वह जो अननोएबल है, अज्ञेय है, वह धर्म की विशिष्ट कोटि है। अज्ञात ज्ञात हो जाएगा; ज्ञात फिर अज्ञात हो सकता है। क्योंकि बहुत—से सत्य आदमी को ज्ञात हो गए, फिर खो गए।

अभी काबुल के करीब कोई पंद्रह वर्ष पहले एक छोटा—सा यंत्र मिला। समझना ही मुश्किल हुआ कि वह यंत्र क्या है। बहुत खोजबीन करने पर पता चला कि वह विद्युत पैदा करने की बैटरी है, और कोई पांच हजार वर्ष पुराना है। पांच हजार वर्ष पहले विद्युत पैदा करने का उपाय किन्हीं ने खोज लिया था, वह शांत हो गया था, फिर वह खो गया।

कुछ तीस वर्ष पहले पेरिस की एक लाइब्रेरी में सात सौ वर्ष पुराने पृथ्वी के नक्‍शे मिले। उन नक्यग्नें में पृथ्वी गोल बताई गई है, और उन नक्शों में अमेरिका भी अंकित है। तो यह खयाल गलत है कि कोलंबस ने अमेरिका खोजा। कोलंबस से बहुत साल पहले अमेरिका नक्‍शे पर अंकित है।

न केवल यही, बल्कि वह जो नक्शा मिला है सात सौ वर्ष पुराना, वह और भी अनूठा है। वह ऐसा है कि बिना हवाई जहाज के वह बन ही नहीं सकता। जब तक बहुत ऊंचाई से पृथ्वी न देखी जाए, तब तक पृथ्वी का वैसा नक्शा बनाने का कोई उपाय ही नहीं है।

तो न केवल वह नक्शा सिद्ध करता है कि अमेरिका पहले खोजा जा चुका था, फिर खो गया, वह यह भी सिद्ध करता है कि मनुष्य के पास वायुयान थे। तभी वह नक्शा बन सकता है। उसके बनने का कोई और रास्ता ही नहीं है। और वह नक्शा नब्बे प्रतिशत वैसा ही है, जैसा हम आज बनाते हैं। उसमें जरा—सा ही भेद है।

तो पहले तो यह खयाल था कि भेद भूल—चूक की वजह से हो गए होंगे। कुछ वैज्ञानिकों की धारणा है कि हो सकता है कि पृथ्वी में, जब वह नक्‍शा बनाया गया—क्योंकि सात सौ साल पहले जिसने बनाया, उसने उस पर नोट लिखा है कि वह किसी पुराने नक्‍शे की नकल कर रहा है—तो इस बात की संभावना ज्यादा है कि पृथ्वी में फर्क हो गए हैं, जब वह नक्‍शा बना होगा। इसलिए थोड़े से भेद हैं। लेकिन इतना तो बिलकुल ही स्पष्ट है कि वह बिना हवाई जहाज के, पृथ्वी का चक्कर न लगाया गया हो, तो उस नक्‍शे को बनाया ही नहीं जा सकता।

हिंदू तो बहुत समय से सोचते रहे हैं कि उनके पास पुष्पक विमान थे। और दुनिया की हर जाति के पास आकाश में उड़ने की कथाएं हैं।

जो ज्ञात है, वह अज्ञात हो जाता है; जो अज्ञात है, वह ज्ञात होता

रहता है। दिन और रात की तरह यह बदलाहट नोन और अननोन में होती रहती है। लेकिन धर्म कहता है, एक और चीज है, जो दोनों के पार है, वह अज्ञेय है। वह कभी ज्ञात भी नहीं होता, कभी अज्ञात भी नहीं होता।

हम परमात्मा को वही तत्व कहते हैं। वह सदा अज्ञेय ही बना रहता है। हम उसे जान भी लेते हैं, तब भी हम उसे पूरा जान नहीं पाते। और जो उसे जान लेता है, वह दावा नहीं कर पाता कि मैंने जान लिया। क्योंकि उसके जानने की एक अनिवार्य शर्त है कि जानने वाला उसे जानने में ही खो जाता है। इसलिए दावा करने को कोई पीछे बचता नहीं।

उपनिषदों ने कहा है, जो कहे कि मैं जानता हूं जानना कि उसे अभी कुछ पता नहीं। जानने वाले की शर्त ही यही है कि वह कह नहीं सकेगा कि मैं जानता हूं। क्योंकि वहां कोई मैं नहीं बचता। कबीर ने कहा है कि मैं खोजता था; और बहुत खोजा और तू न मिला। और जब तू मिला तब बड़ी अड़चन हुई, क्योंकि तब तक मैं खो चुका था।

अगर ठीक से समझें, तो मनुष्य और परमात्मा का मिलन कभी भी नहीं होता। क्योंकि जब तक मनुष्य होता है, तब तक परमात्मा से मिलना नहीं हो पाता। और जब परमात्मा प्रकट होता है, तब तक मनुष्य पिघलकर उसमें लीन हो गया होता है। इसलिए मिलन की घटना नहीं घटती दो के बीच। या तो मनुष्य होता है, या परमात्मा होता है।

एक अमेरिकी विचारक एलन वाट एक झेन फकीर के पास साधना कर रहा था। उस झेन फकीर ने एलन वाट को पूछा कि तुम क्या खोज रहे हो? ध्यान तुम कर रहे हो किस लिए? तो एलन वाट ने कहा कि परमात्मा की तलाश के लिए। तो वह झेन फकीर हंसने लगा। उसने कहा कि तुम बड़े अजीब काम में लगे हो। यह काम पूरा हो नहीं पाएगा।

एलन वाट हैरान हुआ। उसने कहा कि हम तो सोचते थे कि पूरब के लोग मानते हैं कि यही काम करने योग्य है। और तुम यह क्या कह रहे हो! उसने कहा कि यह नहीं होगा; या तो तुम न बचोगे या परमात्मा न बचेगा। मगर मिलन नहीं हो सकता। या तो तुम खो जाओगे, तो परमात्मा बचेगा, या परमात्मा खो जाएगा, तो तुम बचोगे।

जो उसे जानते हैं, वे जानने में ही शून्य हो जाते हैं। जितना जानते हैं, उतने ही शून्य हो जाते हैं। इसलिए दावा करने को कोई बचता नहीं। इसलिए वह तत्व सदा ही अज्ञेय बना रहता है, अननोएबल बना रहता है। जाना भी जाता है, फिर भी जाना नहीं जाता। जान भी लिया जाता है, फिर भी ज्ञान का हिस्सा नहीं बनता, जानकारी नहीं बन पाती।

इसीलिए तो हम विज्ञान की शिक्षा दे सकते हैं, लेकिन धर्म की कोई शिक्षा नहीं दे सकते।

एडिसन एक सत्य को जान लेता है, या न्यूटन एक सत्य को जान लेता है, या आइंस्टीन एक थिअरी खोज लेता है, एक सिद्धात खोज लेता है, फिर हर एक को खोजने की जरूरत नहीं है। एक दफा एक आदमी ने खोज लिया, फिर वह किताब में लिख गया, फिर उसे बच्चे पढ़ते रहेंगे। जिस काम को करने में आइंस्टीन को वर्षों लगेंगे, उसे कोई भी व्यक्ति दो घंटे में समझ लेगा, घंटे में समझ लेगा। फिर साधारण बच्चे, जिनमें बुद्धि नहीं है, वे भी उसे समझ लेंगे और परीक्षा देकर उत्तीर्ण होते रहेंगे। फिर दुबारा उसे खोजने की जरूरत नहीं। एक दफा विज्ञान जो जान लेता है, वह ज्ञान का हिस्सा हो जाता है।

लेकिन धर्म के मामले में बड़ी अजीब बात है। हजारों लोगों ने परमात्मा को जाना, फिर भी हम किताब में लिखकर उसको दूसरे को नहीं जना सकते। कृष्ण ने जाना होगा, बुद्ध ने जाना होगा, क्राइस्ट ने जाना होगा, मोहम्मद ने जाना होगा। लेकिन फिर उस जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आप सिर्फ पढ़कर नहीं जान सकते। आपको भी जानना है, तो उसी जगह से गुजरना होगा, जहां से कृष्ण गुजरते हैं। और जब तक आप कृष्ण जैसे न हो जाएं कृष्ण—चैतन्य का जन्म न हो आपके भीतर, तब तक आप न जान सकेंगे।

आइंस्टीन की थिअरी आफ रिलेटिविटी समझने के लिए आइंस्टीन होना जरूरी नहीं है, न आइंस्टीन की बुद्धि चाहिए। कोई आवश्यकता नहीं है। एक दफा सिद्धात जान लिया गया, वह ज्ञान का हिस्सा हो गया। लेकिन धर्म के सत्य जाने भी जाते हैं, तो भी कभी ज्ञान के हिस्से नहीं होते। वे सदा ही अज्ञेय बने रहते हैं।

इसलिए विज्ञान आसुरी संपदा वाले व्यक्ति से राजी है। या हम ऐसा कह सकते हैं कि अभी जो विज्ञान है, वह आसुरी संपदा के ही वर्तुल में काम कर रहा है। मनुष्य अगर और विकसित होगा, तो हम दैवी संपदा वाले विज्ञान को भी विकसित करेंगे। तब विज्ञान एक नए आयाम में गति करेगा।

और दूसरी बात में भी विज्ञान राजी है आसुरी संपदा वाले व्यक्ति से। क्योंकि विज्ञान भी मानता है कि जगत में कोई प्रयोजन नहीं है, कोई परपज नहीं है। यह सिर्फ घटनाओं का जोड़ है। इसलिए यहां प्रार्थना—पूजा व्यर्थ है। यहां ध्यान करने से कुछ भी न होगा। यहां प्रार्थना किससे करिएगा? यहां कोई है नहीं, जो प्रार्थना सुनेगा। और मनुष्य केवल संघात है, कुछ वस्तुओं का जोड़ है। अगर उन वस्तुओं को हम अलग कर लें, तो पीछे कोई आत्मा बचेगी नहीं। विज्ञान जैसा आज तक विकसित हुआ है, वह आसुरी संपदा के अंतर्गत ही विकसित हुआ है। भविष्य में द्वार खुल सकता है; दैवी संपदा का वितान भी विकसित हो सकता है। या आप ऐसा समझ सकते हैं कि आसुरी संपदा की जो विद्या है, उसका नाम विज्ञान है। और दैवी संपदा की जो विद्या है, उसका नाम धर्म है।

धर्म विज्ञान है अंतर्जगत का, उस रहस्य लोक का, जिसे प्रयोगशाला में नहीं परखा जा सकता, जिसे हम अपने ही भीतर खोज सकते हैं। वह भीतर की डुबकी है।

विज्ञान पदार्थों की खोज है और धर्म परमात्मा की खोज है।

दूसरा प्रश्न :

 

प्रज्ञावान पुरुष को हमारे जीवन का जो आसुरीपन दिखाई देता है, वह हमें भी दिखे, इसके लिए हम क्या करें?

 

प्रश्न महत्वपूर्ण है; सभी के काम का है। जिन्हें भी जीवन में थोड़ा—बहुत रूपांतरण करना हो, उन्हें इस पर काफी सोच—विचार करना होगा।

प्रज्ञावान पुरुष को हमारे जीवन का आसुरीपन दिखाई पड़ता है, हमें भी दिखाई पड़े, इसके लिए हम क्या करें?

पहला काम तो यह है कि प्रज्ञावान पुरुष का सानिध्य खोजें। शास्त्र काफी नहीं है, क्योंकि शास्त्र मुर्दा है। शास्त्र बहुमूल्य है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। और शास्त्र में आप वही पढ़ लेंगे, जो आप पढ़ सकते हैं। शास्त्र को आप धोखा दे सकते हैं, शास्त्र आपको रोक नहीं सकता। शास्त्र की आप व्याख्या कर सकते हैं, वह व्याख्या आपकी अपनी होगी। शास्त्र यह नहीं कह सकता कि यह व्याख्या गलत है। और अर्थ और व्याख्या तो आप करेंगे। तो शास्त्र तो आपके हाथ में आप ही जैसा हो जाता है। कितना ही कीमती शास्त्र हो, पढ़ने वाले के हाथ में पड़ते ही पढ़ने वाले के ढंग का हो जाता है।

आप बाइबिल पढ़ेंगे, तो बाइबिल में जो अर्थ निकलेगा, वह आपकी ही मनोदशा का होगा। गीता पड़ेंगे, जो अर्थ निकलेगा, वह अर्थ आपका होगा, कृष्ण का नहीं हो सकता। तो शास्त्र में कितना ही छिपा हो, वह आपको प्रकट नहीं होगा।

प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजें। इसलिए गुरु का इस पूर्वीय परंपरा में इतना मूल्यवान स्थान रहा है। उसका केवल इतना अर्थ है कि आप जीवंत सत्य को खोजें। क्योंकि उसे आप धोखा न दे सकेंगे, और उसकी आप व्याख्या अपने हिसाब से न कर सकेंगे। वह आपको रोक सकेगा। जहां भूल होगी, वहा चेता सकेगा।

प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि का नाम ही सत्संग है। उसका केवल इतना अर्थ है कि जो जानता है, उसके पास होना। क्योंकि बहुत—सी चीजें हैं, जो केवल संक्रमण से ही अनुभव में आती हैं, उन्हें कोई दे भी नहीं सकता। वे कोई भौतिक वस्तुएं नहीं कि उठाकर कोई आपको दे दे। चुपचाप पास होने पर धीरे— धीरे उनका संक्रमण होता है।

तो पहली बात तो आपको भी कैसे आसुरीपन दिखाई पड़े, उसके लिए जरूरी है कि आप सन्निधि खोजें प्रज्ञावान पुरुष की, तो धीरे— धीरे उसकी आंखों से आपको भी देखने का मौका मिलेगा। उसके साथ उठते—बैठते, चलते—फिरते आपको एक नए जीवन की प्रतीति होनी शुरू होगी। तभी तुलना पैदा होती है। नहीं तो तुलना भी कैसे पैदा हो! आप जहां जी रहे हैं, जिनके बीच जी रहे हैं, जिनके साथ जी रहे हैं, वे सब एक से हैं। इसलिए पहचानना बहुत मुश्किल है।

एक पागलखाने में सभी पागल हैं, वहा कोई पागल यह कभी भी नहीं समझ सकता कि मैं पागल हूं। वहां सारे पागल उसके ही जैसे हैं। अगर एक पागलखाने में ठीक आदमी पहुंच जाए, तो उस ठीक आदमी को लगेगा कि मुझे कुछ गड़बड़ हो, क्योंकि भीड़ और बहुमत पागलों का होगा।

ऐसा अक्सर हुआ है। इसलिए हमने बुद्ध को, क्राइस्ट को, सुकरात को पागल कहा है। वह हमारे पागलों की भीड़ में एक आदमी अगर ठीक हो जाए, तो हमें उस पर शक आता है बजाय हम पर शक आने के। हम काफी हैं; हमारी संख्या बड़ी है। और संख्या हमें बड़ी सत्य मालूम पड़ती है। हम सभी चीजों को संख्या से तौलते हैं। करोड़—करोड़ लोग जिस बात को मानते हैं, वही हमें ठीक मालूम पड़ती है। तो हमने जीसस को सूली पर लटका दिया, सुकरात को जहर दिया, यही सोचकर कि ये पागल हो गए हैं, विक्षिप्त हो गए हैं।

इस भीड़ में आपको पहचान ही नहीं हो पाएगी, क्योंकि तुलना कैसे पैदा हो! कहते हैं, ऊंट जब तक पहाड़ के नीचे न जाए, तब तक उसे पता ही नहीं चलता कि मुझसे ऊंचा भी कुछ है, तब तक ऊंट पहाड़ है।

आप जब तक अपने से बिलकुल भिन्न जीवन चेतना के करीब न जाएं, तब तक आपको अपना आसुरीपन दिखाई पड़ेगा नहीं। उसके पास जाते ही आपको झलक होनी शुरू हो जाएगी, क्योंकि विपरीत पृष्ठभूमि में आप दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे।

तो प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजें।

दूसरी बात, प्रज्ञावान पुरुषों ने जो—जो कहा है—गीता है, उपनिषद हैं, लाओत्से का ताओ तेह किंग है, महावीर के वचन हैं, बुद्ध का धम्मपद है, और हजारों—हजारों वक्तव्य हैं सारी जमीन पर फैले हुए—प्रज्ञावान पुरुषों ने जो कहा है, उस पर तर्क मत करें, उस पर प्रयोग करें। वही तर्क है। उस पर सोच—विचार मत करें, क्योंकि सोच—विचार करने का कोई उपाय नहीं है। जिस बात की आपको कोई प्रतीति नहीं है, आप सोच—विचार भी कैसे करिएगा? उस पर प्रयोग करें, और प्रयोग करके देखें।

प्रयोग ही तर्क है। क्योंकि प्रयोग से आपको लगेगा कि वे ठीक कह रहे हैं। उसका स्वाद आएगा, तो ही लगेगा कि वे ठीक कह रहे हैं। और जब तक आपको आपसे अन्यथा कोई चीज ठीक न लगने लगे, तब तक आप अपने को गलत न मान पाएंगे। गलत के लिए तुलना चाहिए।

सुना है मैंने कि अकबर के समय में एक धार्मिक व्यक्ति तीर्थयात्रा पर गया। उन दिनों बड़े खतरे के दिन थे। संपत्ति को पीछे छोड़ जाना और अकेला ही आदमी था, बच्चे—पत्नी भी नहीं थे, काफी संपदा थी। तो एक मित्र के पास रख गया, जिस पर भरोसा था। और कहा कि अगर जीवित लौट आया, तो मुझे लौटा देना, अगर जीवित न लौटूं, तो इसका जो भी सदुपयोग बन सके कर लेना। यात्रा कठिन भी थी पुराने दिनों में, तीर्थ से बहुत लोग नहीं भी लौट पाते थे।

वह लंबी मानसरोवर तक की यात्रा पर गया था। पर भाग्य से जीवित वापस लौट आया। मित्र ने तो मान ही लिया था कि लौटेगा नहीं। लेकिन जब वह लौट आया, तो अड़चन हुई। संपत्ति काफी थी और देना मित्र को भी मुश्किल हुआ। मित्र नट गया। उसने कहा कि रख ही नहीं गए! कैसी बातें करते हो? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया कोई गवाह भी नहीं था। वह बात अकबर की अदालत तक पहुंची। एक भी गवाह नहीं, उपाय भी नहीं कोई। यह आदमी कहता है, रख गया। और दूसरा आदमी कहता है, नहीं रख गया। अब कैसे निर्णय हो?

अकबर ने बीरबल से सलाह ली। बीरबल ने, जो आदमी रुपए रख गया था, उससे कहा कि कोई भी तो गवाह हो! उसने कहा, गवाह तो कोई भी नहीं है; सिर्फ जिस वृक्ष के नीचे बैठकर मैंने इसे संपत्ति दी थी, वह वृक्ष ही गवाह है। बीरबल ने कहा, तब काम चल जाएगा। तुम जाओ, वृक्ष को कहो कि बुलाया है अदालत ने। लगा तो उस आदमी को कि यह पागलपन का मामला है, लेकिन कोई और उपाय भी नहीं है। सोचा, पता नहीं इसमें कुछ राज. हो। उसने कहा, मैं जाता हूं प्रार्थना करूंगा।

वह आदमी गया। दूसरा, जिसके पास रुपए जमा थे, वह बैठा रहा, बैठा रहा। बड़ी देर हो गई। तो बीरबल ने कहा, बड़ी देर हो गई, यह आदमी लौटा क्यों नहीं! तो उस आदमी ने कहा कि जनाब, वह वृक्ष बहुत दूर है। तो बीरबल ने कहा, मामला हल हो गया। तुमने रुपए लिए हैं, अन्यथा तुम्हें उस वृक्ष का पता कैसे चला कि वह कितने दूर है!

हमारे भीतर भी हमें पता चलने के लिए कुछ संकेत चाहिए, परोक्ष। प्रत्यक्ष तो कोई उपाय नहीं है। प्रत्यक्ष तो आप जैसे हैं, उससे भिन्न होने का कोई उपाय नहीं है। परोक्ष कोई उपाय चाहिए।

प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि में आपको परोक्ष झलकें मिलना शुरू होंगी और लगेगा कि आप गलत हैं। क्योंकि जैसे ही आपको लगेगा कि प्रज्ञावान पुरुष सही है, वैसे ही आपको लगेगा कि मैं गलत हूं।

और यहां एक बड़ी महत्वपूर्ण बात समझ लेनी जरूरी है। अगर आप बहुत चालाक हैं, तो आप प्रज्ञावान पुरुष के पास भी बैठकर यही सोचते रहेंगे कि वह गलत है। क्योंकि अपने को बचाने का वही एक उपाय है, और कोई उपाय नहीं है।

इसलिए लोग गुरुओं के पास भी जाते हैं और गुरुओं की गलती देखकर वापस लौट आते हैं। उन्होंने अपनी सुरक्षा कर ली। क्योंकि दो ही रास्ते थे। अगर गुरु ठीक था, तो उनको गलत होना पड़ता। और अगर उनको ठीक ही बने रहना है जैसे वे हैं, तो गुरु को गलत सिद्ध कर लेना जरूरी है।

लेकिन गुरु को गलत सिद्ध करने से गुरु का तो कुछ भी खोता नहीं; आपको एक परोक्ष मौका मिला था—सोचने का, विमर्श का, तुलना का—वह खो गया।

अगर प्रज्ञावान जीवित पुरुष मिल सके, तो भाग्यशाली हैं। और प्रज्ञावान पुरुषों की कभी भी कमी नहीं है। अगर नहीं मिलता, तो आप आंख बंद किए हैं, इसलिए नहीं मिलता। अगर नहीं मिलता, तो आप कुछ चालाकी अपने साथ कर रहे हैं, कुछ धोखा कर रहे हैं, इसलिए नहीं मिलता। अन्यथा प्रज्ञावान पुरुष की कोई भी कमी नहीं है। उनकी एक निश्चित मात्रा हमेशा पृथ्वी पर है। उस मात्रा में कोई अंतर नहीं पड़ता। एक प्रज्ञावान पुरुष खोता है, तो तत्‍क्षण दूसरा प्रज्ञावान पुरुष उसकी जगह हो जाता है।

एक यहूदी फकीर मेरे पास आया। वह बड़ा चिंतित और परेशान था। और बहुत जगह घूमकर आया था, और अनेक लोगों को कुछ कहना चाहता था, लेकिन कोई उसे मिला नहीं जिससे वह कहे या कोई उसका भरोसा करेगा! उसने मुझसे संन्यास लिया, दीक्षा ली, ध्यान में लगा। फिर बाद में एक दिन उसने कहा कि अब मैं आपसे कह सकता हूं।

उस यहूदी ने मुझे कहा कि मुझे धर्म में कोई भी रुचि न थी और मैं धार्मिक आदमी भी न था। इतना ही नहीं, बल्कि मेरा स्पष्ट विरोध भी रहा है। तो मैं कभी यहूदियों के मंदिर में, सिनागाग में कभी गया नहीं। मैंने कभी तालमुद पढ़ी नहीं। और कभी कोई धर्म की बात करे, तो मुझे सिर्फ ऊब ही पैदा होती थी। किसी रबाई, किसी फकीर को मैंने कभी सुना नहीं।

यहूदियों के उत्सव का दिन था एक, धार्मिक उत्सव का दिन, और यह युवक लौट रहा था बाजार से घर की तरफ अचानक उसे एकदम बेचैनी हुई, और उसे लगा कि मुझे सिनागाग जाना चाहिए। उसे खुद भी हैरानी हुई। कुछ ऐसा लगा, जैसे कोई खींचता हो, जैसे परवश हो गया। भाग। हुआ घर गया, अपनी प्रार्थना की शाल उठाई, जिसको सिर पर डालकर यहूदी प्रार्थना करते हैं…।

यह प्रार्थना की शाल यहूदियों की बड़ी कीमती है। दूसरे धर्मों के लोगों को भी इसका उपयोग करना चाहिए। पूरे शरीर को ढंक लेते हैं एक चादर से और भीतर प्रार्थना की धुन, आप चाहें ओंकार की धुन या कोई भी धुन को भीतर पैदा करते हैं। वह धुन न केवल शरीर के भीतर गूंजती है, बल्कि उस चादर के भीतर भी एक वातावरण निर्मित करती है, और शरीर के चारों तरफ एक ऑरा निर्मित हो जाता है। और वह धुन शरीर को चारों तरफ से घेर लेती है और आप जगत के साधारण वातावरण से बिलकुल कट जाते हैं। उस प्रार्थना की शाल के भीतर जितनी आसानी से प्रार्थना में लीन हुआ जा सकता है, उतनी आसानी से बिना अपने को ढंके लीन होना कठिन है।

भागा हुआ घर गया, प्रार्थना की शाल उठाई, जाकर सिनागाग पहुंचा। लेकिन उत्सव का दिन था और उस उत्सव के दिन नास्तिक से नास्तिक यहूदी भी मंदिर आता है। बिलकुल भरा हुआ था। कोई आशा नहीं थी उसे कि भीतर जगह मिल जाएगी। लेकिन वह चकित हुआ कि द्वार पर ही उसका स्वागत किया गया और उसे ले जाकर विशिष्ट अतिथियों के स्थान पर बिठाया गया। वह और भी हैरान हुआ कि यह क्या हो रहा है! उसने अपनी चादर ओढ ली और चादर ओढ़ते ही उसे सुनाई पड़ा..।

अभी कोई बीस साल पहले की घटना है, जब उसे सुनाई पड़ा। सालभर पहले आकर उसने मुझे सारा ब्योरा दिया।

उसे सुनाई पड़ा कि तू चुना गया है! छत्तीस में से एक मर गया है, उसकी जगह तुझे चुना गया है। वह कई लोगों से बताना चाहता है कि क्या मामला है! छत्तीस कौन हैं! कौन मर गया है! मुझे किस लिए चुना गया है! लेकिन बस, उस आवाज के बाद उसका जीवन बदल गया।

यहूदियों में पुराना एक नियम है। छत्तीस यहूदी सदा ही प्रज्ञावान पुरुष होंगे। उनमें से जब भी एक समाप्त होगा, तब तत्क्षण बाकी पैंतीस एक व्यक्ति को चुन लेंगे। तो छत्तीस की संख्या उनकी सदा पूरी रहेगी।

सभी धर्मों के भीतर उस तरह के अंतर्वतुल हैं, इनर सीक्रेट सर्किल्स हैं। उनकी संख्याओं में कभी कोई कमी नहीं होती। वे हमेशा मौजूद हैं। और जब भी कहीं कोई साधक उनको खोजने को तैयार हो, तब वे खुद उस साधक की तलाश में आ जाते हैं।

तो जरूरत भी नहीं कि आप हिमालय जाएं। अगर आकांक्षा प्रबल हो, तो जहां आप हैं, वहीं जिस प्रज्ञावान पुरुष से आपको सन्निधि चाहिए, वह मौजूद होगा; वह वहीं चला. आएगा।

लेकिन हम अपने ही हाथ से दरिद्र बने रहते हैं। हम हाथ भी नहीं फैलाते। अगर स्वर्ण की वर्षा भी हो रही हो, तो हमारी झोली बंद रहती है।

यह जो प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजने की बात है, इसके लिए हमें अपनी सुरक्षा की, बचाव की पुरानी आदतें छोड़ना जरूरी हैं, अपने को थोड़ा खोलना जरूरी है। जोखिम तो है, खतरा तो है। लेकिन बिना खतरे के जीवन में कोई क्रांति भी नहीं होती।

फिर प्रज्ञावान पुरुषों का साहित्य है, उनके वचन हैं, जिनको हम वेद कहते हैं। वेद कोई किताब नहीं है; सभी प्रज्ञावान पुरुषों के वचन वेद हैं। इन वचनों को अगर हम मनन करें, विचार नहीं! और विचार और मनन का फर्क ठीक से समझ लेना चाहिए।

विचार का तो मतलब होता है, मैं अपनी बुद्धि लगाऊं कि क्या ठीक है, क्या गलत है; पक्ष—विपक्ष में सोचूं। मेरे पास बुद्धि ही होती, तो फिर क्या था! और मैं जानता कि क्या ठीक है और क्या गलत है, तो वेद की कोई जरूरत न थी। फिर मैं खुद ही प्रज्ञावान था। वह मेरे पास नहीं है।

मनन! मनन बड़ी अलग बात है। मनन का अर्थ है, प्रज्ञावान पुरुष के वचन को अपने हृदय में उतार लेना, उसका रस चूसना, उसका स्वाद लेना। सोचना नहीं कि ठीक है कि गलत है। उसको पीना। इसको हम पाठ कहते हैं।

इसलिए एक आदमी रोज गीता का पाठ करता है। पश्चिम के लोग पूछते हैं कि यह क्या पागलपन है! एक दफा किताब पढ़ ली, बात खतम हो गई। और किताब को दुबारा पढ़ने का क्या अर्थ है! तिबारा पढ़ने का क्या अर्थ है! और फिर जिंदगीभर रोज सुबह उठकर पढ़ने का तो कोई भी अर्थ नहीं है। वही किताब है, उसको बार—बार पढ़कर क्या फायदा? इससे तो बुद्धि और जड़ हो जाएगी!

उनकी बात थोड़ी दूर तक सही है। अधिक लोगों की बुद्धि जड़ हो गई है। लेकिन जड़ हो जाने का कारण है कि उन्हें पाठ का रहस्य मालूम नहीं है। गीता रोज सुबह पढ़ने का अर्थ पढ़ना है ही नहीं। वह तो जैसे रोज आदमी भोजन करता है, पानी पीता है, श्वास लेता है, ऐसे रोज सुबह प्रज्ञावान पुरुष के वचनों को आत्मसात करना है, अपने में डुबाना है, उनको अपने में फेंकना है, उलीचना है। क्योंकि वे वचन बीज की तरह भीतर पड़ जाएंगे और किसी सम्यक क्षण में—और हम नहीं जानते वह सम्यक क्षण कब आएगा, इसलिए रोज करना है—किसी भी दिन वह सम्यक क्षण आ जाएगा, तो बीज ठीक जगह पहुंच जाएंगे। उनसे अंकुरण होगा। और उस अंकुरण में हमको पहली बार दिखाई पड़ना शुरू होगा कि क्या आसुरी है, क्या दैवी है। उसके पहले दिखाई नहीं पड़ सकता।

तो दो उपाय हैं। अगर हिम्मत हो, तो जीवित प्रज्ञावान पुरुष की शरण में चले जाना चाहिए। अगर कमजोर आदमी हो, हिम्मत न हो, तो शास्त्र की शरण में चले जाना चाहिए। आपको उलटा लगेगा। आप अक्सर सोचते हैं कि जो ताकतवर है, वह किसी की शरण में नहीं जाता। और मैं आपसे कह रहा हूं कि ताकत हो, तो शरण में चले जाना चाहिए।

कमजोर शरण में जा ही नहीं सकता, क्योंकि वह डरता है कि शरण में गए तो दूसरा कब्जा कर लेगा। वह कमजोरी का डर है। शक्तिशाली चला जाता है। शक्तिशाली ही समर्पण करता है। कमजोर तो सदा डरता है, भयभीत रहता है कि कहीं किसी के हाथ में अपने को सौंप दिया, फिर पता नहीं, क्या हो। सिर्फ शक्तिशाली सौंपने की हिम्मत करता है कि सौंप दिया, अब जो भी हो।

और ध्यान रहे, जो सौंपने की हिम्मत जुटाता है, उसके पास प्रज्ञावान पुरुष अनिवार्य रूप से प्रकट हो जाते हैं। अगर तुमने गलत आदमी के भी चरणों में अपने को सौंपा और सौंपना बेशर्त रहा, तो गलत आदमी हट जाएगा और ठीक आदमी प्रकट हो जाएगा। और अगर तुम ठीक आदमी के पास भी अपने को सिकोड़कर बैठे रहे, बचाते रहे, तो ठीक आदमी भी तुम्हारे लिए गलत आदमी ही है।

यह न हो सके, मन बहुत कमजोर हो, निर्बल हो, तो फिर शास्त्र खोजना चाहिए। गुरु शक्तिशाली के लिए, शास्त्र कमजोर के लिए। मगर हिम्मत तो वहा भी जुटानी पड़ेगी। क्योंकि वहा भी शास्त्र को मौका देना होगा कि आपके भीतर जा सके, रोएं—रोएं में डूब जाए, उतर जाए, श्वास—श्वास में समा जाए, जगह—जगह आपके कण—कण में उसकी ध्वनि गूंजने लगे।

स्वामी राम अमेरिका से वापस लौटे, तो पंजाब के एक बहुत बड़े विचारक सरदार पूर्णसिंह उनके साथ थे। तो एक ही कोठरी में एक रात हिमालय में सोए थे। चारों तरफ सन्नाटा था, हिमालय का सन्नाटा। न कोई पास गांव, न कोई आवाज, न कोई शोरगुल।

अचानक पूर्णसिंह को लगा कि कोई राम—राम की रट लगाए हुए है। तो नींद न आए। उठकर वे बाहर गए बराडे में चारों तरफ घूमकर देखा, सन्नाटा है। कोई नहीं है वहा। हैरानी तो तब हुई कि जब बाहर गए, तो आवाज कम आने लगी। और जरा दूर जाकर बराडे में घूमे, तो और कम आने लगी। नीचे के कंपाउंड में उतरकर दरवाजे तक गए तो आवाज बिलकुल खो गई। फिर जैसे वापस लौटे करीब, आवाज बढ़ने लगी। कोठरी में आए, तो आवाज फिर सुनाई पड़ने लगी। तब वे चकित हुए। क्योंकि सिवाय राम और उनके कोई नहीं है। राम तो सो रहे हैं।

तो राम की खाट के पास गए। जैसे पास गए, तो आवाज और बढ़ने लगी। तब उन्हें खयाल आया कि यह तो कुछ अनूठा घट रहा है! राम के शरीर के अंग—अंग से राम की आवाज निकल रही है। तो पैर के पास कान रखकर देखा, तो आवाज; हाथ के पास कान रखकर देखा, तो आवाज; सिर के पास कान रखकर देखा, तो आवाज।

जब कोई व्यक्ति ठीक से स्मरण करता है, पाठ करता है, वेद के वचन को अपने में डूब जाने देता है, तो रोएं—रोएं से वही प्रतिध्वनित होने लगता है। उस प्रतिध्वनि के क्षण में आपको समझ आएगा, क्या आसुरी है, क्या दैवी है। उसके पहले समझ नहीं आ सकता।

ये दो उपाय हैं। हिम्मत हो, तो जीवित पुरुष खोज लेना चाहिए; हिम्मत कमजोर हो, तो प्रज्ञावान पुरुषों के मरे हुए वचन शास्त्रों में संगृहीत हैं, उनकी शरण चले जाना चाहिए।

लेकिन फिर भी दोनों में हिम्मत की तो जरूरत है ही, क्योंकि शरण जाए बिना कोई भी उपाय नहीं है। कहीं अपने को खोना होगा, छोड़ना होगा; कहीं अपनी अस्मिता को हटाकर रख देना होगा। तब जैसे बिजली कौंध जाए और अंधेरे में रास्ता दिखाई पड़ने लगे, ठीक ऐसे ही, क्या दैवी है, क्या आसुरी है, उसकी प्रतीति होने लगती है।

और ध्यान रखें, जैसे ही प्रतीत होता है कि यह आसुरी और यह दैवी, वैसे ही जीवन में परिवर्तन शुरू हो जाता है। क्योंकि जिसको प्रतीत हो जाए कि यह आसुरी वृत्ति है, फिर उस वृत्ति में रहना असंभव है।

हम तभी तक आसुरी वृत्ति में रह सकते हैं, जब तक हमें लगता हो कि यह दैवी वृत्ति है। हम तभी तक असत्य में जी सकते हैं, जब तक हमें लगता हो कि यह सत्य है। और हम तभी तक दुख में जी सकते हैं, जब तक हमने दुख को सुख माना हो।

दुख दुख दिखाई पड़े, छुटकारा शुरू हो गया। असत्य असत्य मालूम पड़े, क्रांति शुरू हो गई। आसुरी है हमारी संपदा, ऐसा बोध हो जाए, उस संपदा से हमारे हाथ अलग होने लगे। हम उसे ही पकड़ते हैं, जिसे हम ठीक समझते हैं। वह गलत हो, पर हमारी समझ में ठीक है, तो हम पकड़ते हैं। जैसे ही समझ आ जाती है कि गलत है, छूटना शुरू हो जाता है।

सुकरात का प्रसिद्ध वचन है, नालेज इज वर्च्‍यू, ज्ञान सदाचरण !

जैसे ही कोई जान लेता है कि ठीक क्या है, ठीक करना शुरू हो जाता है। जब तक हम सोचते हैं कि हमें पता है कि ठीक क्या है; फिर भी क्या करें, हम गलत करते हैं! तब तक जानना कि हमें पता ही नहीं है कि ठीक क्या है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें मालूम है कि क्रोध बुरा है; पर क्या करें, मजबूरी है, क्रोध हो जाता है। तो मैं उनसे कहता हूं तुम गलती कर रहे हो, तुम पूरी बात को ही उलटा समझ रहे हो। तुम्हें मालूम ही नहीं कि क्रोध बुरा है। यह तुमने सुना है, और तुम सोचते हो, सुना हुआ तुम्हारा ज्ञान हो गया। तुम्हें पता हो जाए कि क्रोध बुरा है, तो जैसे आग में हाथ डालना मुश्किल है, वैसे ही क्रोध में भी हाथ डालना मुश्किल हो जाएगा। शायद ज्यादा मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि आग तो केवल शरीर को जलाती है, क्रोध तो भीतर तक झुलसा देता है।

आखिरी प्रश्न :

 

मंजिल पर पहुंचकर प्रज्ञावान पुरुष को यही पता चलता है कि स्वयं को जानना असंभव है, क्योंकि वहां ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान सब एक हो जाते हैं। इस हालत में वे हमें क्यों समझाते हैं कि स्वयं को जानो? इसमें उनका अभिप्राय क्या है?

 

निश्चित ही, उस परम अवस्था में ज्ञाता भी खो जाता है, ज्ञान भी खो जाता है, ज्ञेय भी खो जाता है। यह जो त्रिवेणी है, यह खोकर एक ही धारा बन जाती है। गंगा, यमुना, सरस्वती तीनों खो जाती हैं, सागर ही रह जाता है। वह जो खोजने चला था, वह भी नहीं बचता; जिसे खोजने चला था, वह भी नहीं बचता। फिर भी कुछ बचता है। और जो बचता है, वह तीनों से बड़ा है। जो बचता है, वह तीनों से ज्यादा है। जो खो जाता है, वह तो कचरा था। जो बचता है, वही सार है।

फिर भी प्रज्ञावान पुरुष आपसे कहते हैं, स्वयं को जानो। क्या मिटाने के लिए आमंत्रण देते हैं?

अगर मिटना ही मिटना होता और कुछ पाना न होता, तो यह आमंत्रण न दिया जाता। एक तरफ से मिटना है और दूसरी तरफ से होना है। जो आप हैं, वह खो जाएगा। और जो आपका वास्तविक होना है, वह बचेगा। जो आपका झूठा—झूठा होना है, वह तिरोहित हो जाएगा। और जो आपकी शाश्वत सत्ता है, जो आपका सनातन स्वरूप है, वह बचेगा। आप खो जाएंगे, जैसा आप अपने को अभी समझते हैं। और जैसा आपने कभी अपने को नहीं समझा, लेकिन आप हैं, वह बच रहेगा।

तो प्रज्ञावान पुरुष आपको बुलाते हैं कि मिटो, ताकि हो सको। खो जाओ, ताकि बच सको। वे कहते हैं, बूंद सागर में गिर जाए, खो जाएगी। अगर आप बूंद की तरफ से देखें, तो खो जाएगी। लेकिन खोएगी कहां? खोना हो कैसे सकता है? जो भी है, वह खोएगा कैसे? अगर होने की तरफ से देखें, तो बूंद खोएगी नहीं, सागर हो जाएगी। एक तरफ से बूंद का क्षुद्रपन चला जाएगा, दूसरी तरफ से सागर की विराटता उसमें उतर आएगी।

कबीर ने कहा है कि पहले तो मैं सोचता था जब मिलन हुआ कि बूंद सागर में गिर गई और खो गई। प्रथम तो ऐसा ही अनुभव हुआ कि बूंद सागर में गिरकर खो गई। बाद में समझ में आया कि यह तो उलटा कुछ हुआ है, सागर बूंद में गिरकर खो गया।

ये दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं। चाहे हम एक बूंद को सागर में गिराएं, चाहे एक सागर को बूंद में गिराएं; दोनों हालतों में घटना एक ही घटती है। तो चाहे आप कहें कि आप खो गए और चाहे आप कहें कि परमात्मा आप में खो गया, एक ही बात है। सिर्फ दो कोने से कहने की बात है।

बुद्ध ने पहली बात पसंद की। उन्होंने कहा, तुम खो जाओगे, निर्वाण हो जाएगा, सब शून्य हो जाएगा। शंकर ने दूसरी बात पसंद की,. ब्रह्म हो जाओगे, कुछ खोएगा नहीं, सब कुछ पा लिया जाएगा। चाहे कहो शून्य, चाहे कहो पूर्ण। शून्य का अर्थ है, बूंद खो गई। पूर्ण का अर्थ है, सागर बूंद में उतर आया। पर दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। एक विधेय का ढंग है, एक निषेध का ढंग है; जो भी प्रीतिकर हो।

प्रज्ञावान पुरुष बुलाते हैं कि मिटो, क्योंकि उन्होंने अपनी तरफ से अनुभव किया है कि जब तक वे मिटे नहीं, तभी तक दुख में रहे। जब वे मिटे, तब आनंद हो गया।

आपका होना ही कष्ट है। आप ही काटा हो, जो चुभता है। और जब तक आप हो, काटा चुभता ही रहेगा। आप लाख उपाय करो सुख की व्यवस्था के, वे असफल होंगे, क्योंकि काटा आप हो। आप कितना ही सुखद बिस्तर तैयार कर लो और सुंदर भवन बना लो, लेकिन वह काटा चुभता ही रहेगा।

महल बड़े होते जाते हैं, दुख नष्ट नहीं होता। संपत्ति के ढेर लगते जाते हैं, दुख नष्ट नहीं होता। संपदा, यश, कीर्ति मिलती जाती है, दुख नष्ट नहीं होता, बल्कि काटा चुभता ही चला जाता है। शायद और जोर से चुभता है। जितना सुख का आप इंतजाम करते हैं, कांटा उतने जोर से चुभता है। क्योंकि सुख में पृष्ठभूमि बन जाती है, और काटा और भी ज्यादा पीड़ादायी मालूम होता है।

एक गरीब आदमी के पैर में कांटा उतना नहीं चुभता; पैर उसके आदी है। अमीर आदमी के पैर में काटा बुरी तरह चुभता; पैर उसके आदी नहीं हैं। जैसे—जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे—वैसे दुख एक घाव, एक नासूर भीतर हृदय में बनता चला जाता है।

प्रज्ञावान पुरुष बुलाते हैं आपको कि मिट जाओ, कहते हैं कि स्वयं को जान लो। क्योंकि स्वयं को जानते ही आप मिट जाओगे। यह जरा उलटा लगेगा, विरोधाभासी। क्योंकि जब हम कहते हैं, स्वयं को जान लो, तो हमें ऐसा लगता है कि अपने को हम बचा लेंगे।

स्वयं को जानने की शर्त ही यह है कि जब तक आप हो, तब तक आप स्वयं को जान न सकोगे। आप बाधा हो। वह जो अहंकार है कि मैं हूं, वही रुकावट है। वह मिटेगा, तो स्वयं का जानना हो जाएगा। स्वयं का मिटना ही स्वयं का ज्ञान है। और उसके साथ ही काटा खो जाता है।

बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो उन्होंने पहला उदघोष किया कि अब मुझे दुख में कोई भी डाल न सकेगा। अब मुझे दुख में डालने का कोई उपाय न रहा। तो कथा है कि ब्रह्मा ने उनको पूछा कि आप ऐसा क्यों कहते हैं? तो बुद्ध ने कहा, चूंकि अब मैं हूं ही नहीं। मुझे दुःख में डालने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि अब मैं हूं ही नहीं। जब तक मैं था, तब तक मुझे दुख में डाला जा सकता था।

बुद्ध शून्य की भाषा पसंद करते हैं। अगर आपको पूर्ण की भाषा पसंद हो, तो समझें पूर्ण की तरफ से। शून्य की भाषा पसंद हो, तो शून्य की तरफ से। लेकिन सिर्फ भाषा में मत खोए रहें, कुछ करें। या तो बूंद को मिटाएं सागर में या सागर को बुलाएं बूंद में। जब तक यह महामिलन न हो, तब तक दुख बना ही रहता है।

अब हम सूत्र को लें।

और वे मनुष्य दंभ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं।

तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय— भोगों के भोगने में तत्पर हुए इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।

इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम—क्रोध के परायण हुए विषय— भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत—से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।

आसुरी संपदा वाले व्यक्तियों के लक्षणों में कृष्ण और भी प्रवेश करते हैं।

दंभ, मान और मद से युक्त।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति सदा ही अपने को ठीक मानता है, सदा ही दूसरे को गलत मानता है। दूसरे का दूसरा होना ही उसकी गलती है। यह सवाल नहीं है कि सही क्या है, गलत क्या है। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को उसका स्वयं का वक्तव्य सही है, दूसरे का वक्तव्य गलत है।

कभी—कभी आपको भी खयाल आता होगा कि अगर दूसरा व्यक्ति वही बात कह रहा हो, जो कल आप कह रहे थे, तो भी आप विवाद करते हैं। क्योंकि सवाल यह है नहीं कि क्या सही है। सवाल तो यह है कि आप सही हैं और दूसरा गलत है। हमेशा आप इस कोशिश में होते हैं कि मैं सही हूं।

दुनिया में जो इतने विवाद चलते हैं, उन विवादों में सत्य की कोई तलाश नहीं है। उन विवादों में सिर्फ अहंकार की घोषणा है। चाहे कोई कुछ भी कहे, सही मैं ही हूं। और इस मैं के सही होने को हम हजार तरह से सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का यह आंतरिक लक्षण है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति, इसके पहले कि दूसरे को गलत कहे, अपने को गलत सोचने की चेष्टा करता है। और इसीलिए दैवी संपदा वाला व्यक्ति सीख पाता है, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति सीख नहीं पाता। क्योंकि सीखना तो तभी संभव है, जब हम गलत हों, दूसरा सही हो। जब हम सदा ही सही होते हैं और दूसरा गलत होता है, तो सीखने की कोई गुंजाइश नहीं है। शिष्यत्व, डिसाइपलशिप पैदा ही नहीं हो सकती।

इसलिए आसुरी संपदा का व्यक्ति कभी भी शिष्य नहीं बनता। हालांकि कहेगा वह यही कि कोई गुरु है ही नहीं। मिले कोई गुरु, तो हम शिष्यत्व ग्रहण करें। लेकिन वह शिष्यत्व ग्रहण नहीं कर सकता। वह बुद्ध के पास से भी कुछ भूल—चूक निकालकर आगे बढ़ जाएगा।

शिष्यत्व के लिए झुकना जरूरी है। और मैं गलत हूं दूसरा सही होगा, इसकी प्रतीति जरूरी है। मैं अज्ञानी हूं और दूसरा जानता होगा, इसकी प्रतीति जरूरी है। और जो व्यक्ति को ऐसा भाव हो कि मैं अज्ञानी हूं, वह एक छोटे —से बच्चे से भी सीख लेता है। वह पौधों, पक्षियों से भी सीख लेता है। उसके लिए सारा जगत गुरु हो जाता है।

और जो व्यक्ति सोचता है, मैं सही हूं उसके लिए इस जगत में सीखने का कोई उपाय नहीं। वह अटका रह जाता है, ठहरा रह जाता है। उसका हृदय पत्थर की तरह हो जाता है; फूल की तरह वह कभी भी खिल नहीं पाता है।

आप भी सोचें कि जब आप विवाद करते हैं कि यह ठीक है, तब सच में ही आपको सत्य की तलाश होती है? या आपका वक्तव्य है, तो उसके साथ आपका अहंकार जुड़ गया। वक्तव्य टूटेगा, तो अहंकार टूटेगा। तो आप लड—मर सकते हैं, विवाद कर सकते हैं, तर्क कर सकते हैं, हजार तर्क खोज ले सकते हैं। लेकिन उन तर्कों से आप कभी बदलेंगे नहीं। क्योंकि वे तर्क सत्य के लिए दिए ही नहीं गए।

सत्य का तलाशी हमेशा तैयार है कि वह गलत हो सकता है। और जो व्यक्ति जितना तैयार है अपनी गलती स्वीकार करने को, उसके जीवन में विकास की उतनी ही ज्यादा संभावना है। वह जीवन के अंतिम क्षण तक सीखता रहेगा, मरते क्षण तक सीखता रहेगा। उसके सीखने का कोई अंत नहीं है; उसके ज्ञान का कोई पारावार नहीं होगा।

आसुरी संपदा वाला अज्ञानी रह जाता है, क्योंकि सीख नहीं सकता। दैवी संपदा वाला सीखता चला जाता है, उसके पास सागर जैसा ज्ञान हो जाता है।

किसी भी प्रकार न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर…।

और आसुरी संपदा वाला व्यक्ति अपने जीवन की गति को उन वासनाओं के सहारे चलाता है, जिनका कभी कोई अंत नहीं है; जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं, जो कभी पूरी हुई नहीं हैं, जिनका स्वभाव पूरा होना नहीं है।

बुद्ध ने कहा है, कामनाएं दुष्‍पूर हैं, उनको भरा ही नहीं जा सकता। इसलिए नहीं कि आपकी ताकत कम है, इसलिए भी नहीं कि जीवन का समय कम है, इसलिए भी नहीं कि दूसरे लोग बाधा डाल रहे हैं, बल्कि इसलिए कि उनका स्वभाव ही दुष्‍पूर है। वासना का स्वभाव दुष्‍पूर है; उसे पूरा नहीं किया जा सकता।

क्या कारण होगा कि वासना का स्वभाव दुष्‍पूर है? अगर आप वासना को पूरा न करें, दमन करें, दबाएं, तो वासना धक्के मारती है कि मुझे पूरा करो! और सदा धक्के मारती रहेगी जन्मों—जन्मों तक। अगर आप वासना को पूरा करें, तो हर बार पूरा करें, तो वासना की आदत बनती है। और जितनी आदत बनती है, उतनी मांग बढ़ती है।

बड़ी कठिनाई है, बड़ी दुविधा है। अगर वासना को दबाएं, तो पीछा करती है; अगर पूरा करें, तो आदत बनती है। दोनों स्थितियों में वासना उलझा देती है। और तीसरे का हम कभी प्रयोग नहीं करते, कि हम वासना को सिर्फ देखें; न तो दबाएं, न पूरा करें; न तो उससे लड़े, और न उसके गुलाम बनकर उसके पीछे चलें।

दो पंथ हैं जगत में। एक पंथ है वासना पूरे करने वालों का; उनको ही आसुरी संपदा वाले लोग कहा है। एक पंथ है वासनाओं से लड़ने वालों का, उनको दैवी संपदा वाले लोग नहीं कहा है, वे भी आसुरी संपदा वाले लोग हैं। फर्क इतना ही है कि कुछ आसुरी संपदा वाले लोग सीधे पैर के बल खड़े हैं; कुछ आसुरी संपदा वाले लोग सिर के बल खड़े हैं, शीर्षासन कर रहे हैं।

एक तीसरा वर्ग है दैवी संपदा वाले व्यक्ति का। वह लड़ता ही नहीं, वह वासना का सिर्फ साक्षी होता है। और जितना गहरा साक्षी— भाव होता है, वासना उसी तरह जड़—मूल से जलकर नष्ट हो जाती है। न तो उसे दबाना पड़ता है, न उसे पूरा करना पड़ता है।

दोनों हालतों में कठिनाई है। और ये दोनों पंथ खड़े हैं और आप सब भी इन दोनों पंथों में डांवाडोल होते रहते हैं। सुबह सोचते हैं कि गलत, सांझ सोचते हैं सही। आज सोचते हैं, वासना पूरी कर लें; कल वासना से लड़कर दमन करते हैं। और ऐसा डोलते रहते हैं और जीवन नष्ट होता चला जाता है।

हमारी अवस्था ऐसी है। मैंने सुना है, एक गांव में एक साधु का आगमन हुआ। वह अद्वैतवादी साधु था। गांव में एक गरीब सीधा आदमी था। इस साधु ने उसे पकड़ लिया; रास्ते से जा रहा था। वह सीधा आदमी अपने खेत जा रहा था, सो उसे पकड़ लिया और कहा कि रुको, क्या जिंदगी खेत में ही गंवा दोगे? कुछ स्मरण करो! यह जगत माया है। उस सीधे आदमी ने कहा, अब आपने शिक्षा ही दी, तो कुछ रास्ता बता दें। तो साधु ने उसे एक मंत्र दिया। मंत्र था सोहम्? कि सदा सोहम्—सोहम् का जाप करते रहो; मैं वही हूं आई एम दैट, सोहम्। कुछ दिनों बाद वह गरीब सीधा आदमी सोहम् का जाप करता रहा।

गांव में दूसरे साधु का आगमन हुआ। लोगों ने उस दूसरे साधु को बताया कि हमारे गांव में एक सीधा—सादा किसान है, लेकिन सोहम् का जाप करता है, और बड़ा प्रसन्न रहता है। साधु ने कहा, बिलकुल गलत। उसे बुलाकर ले आओ। उससे कहा कि यह बिलकुल गलत है। यह साधु द्वैतवादी था। सोहम् अद्वैतवादी का मंत्र है। इसने कहा, यह बिलकुल गलत है; यह पाठ ठीक नहीं है। इससे तुम भटक जाओगे।

उस गरीब सीधे आदमी ने कहा, आप सुधार कर दें। उस साधु ने कहा, दासोहम्? ” तेरा दास हूं यह पाठ करो। सोहम् नहीं, दासोहम्। उसमें दा और जोड़ दो। उस गरीब आदमी ने दा जोड़ दिया।

दो—चार महीने बाद फिर एक अद्वैतवादी साधु का गांव में आगमन हुआ। लोगों ने खबर दी। उसने कहा कि बिलकुल गलत है। द्वैत तो आना ही नहीं चाहिए मंत्र में। यह दासोहम् ठीक नहीं है। तुम इसमें एक स और जोड़ दो, सदा सोहम्? सदा मैं वही हूं। गरीब आदमी ने कहा, अब जैसी आपकी मरजी!

थोड़ी—बहुत शांति पहले मिली थी, दूसरे में उससे भी कम हो गई। अब तीसरे में वह बहुत उलझ गया। वह भी कम हो गई। लेकिन अब साधु ने कहा, तो वह सदा सोहम् करने लगा।

कुछ ही दिन बाद फिर एक द्वैतवादी साधु का गांव में आगमन हुआ। उसने कहा कि यह बिलकुल गलत है। अद्वैत की बात ही गलत है। तुम इसमें एक दा और जोड़ दो, दास दासोहम्। तो उस गरीब ने कहा कि मैं बिलकुल पागल हो जाऊंगा। थोड़ी—बहुत शांति मिलना शुरू हुई थी, सब नष्ट हो गई। और अब कब अंत होगा इसका!

मनुष्य की अवस्था करीब—करीब ऐसी है। वहा दो वर्ग हैं हमारे जीवन में। चारों तरफ दोनों वर्गों में बंटे हुए लोग हैं। कुछ हैं, जो भोग की तरफ धक्का दे रहे हैं। कुछ हैं, जो दमन की तरफ धक्का दे रहे हैं। कुछ हैं, जो जीवन के विषाद से भरे हैं और कह रहे हैं, सब तोड़ डालो। और कुछ हैं, जो जीवन के उत्साह से भरे हैं और कह रहे हैं, सब भोग डालो। और उन दोनों के बीच में मनुष्य विक्षिप्त हुआ जाता है।

और इन दोनों को अगर आप रोज बदलते रहे, तो एक कनफ्यूजन, चित्त का खंड—खंड हो जाना, एक स्कीजोफ्रेनिक, खंडित चित्त की दशा पैदा होती है। जहां फिर कुछ भी नहीं सूझता, जहां कुछ ठीक नहीं मालूम पड़ता, कुछ गलत नहीं मालूम पड़ता। और कहा जाएं, और कहां न जाएं! एक पैर बाएं चलता है, दूसरा दाएं चलता है। एक आगे जाता है, दूसरा पीछे जाता है। जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है।

लेकिन हमारी भी अडचन है। और वह अडचन यह है कि इन दो के अतिरिक्त तीसरे का हमें कोई स्वर सुनाई नहीं पड़ता।

तीसरा एक स्वर है। और वह है वासनाओं की प्रक्रिया का जागरूक साक्षी— भाव से दर्शन। भोगी और त्यागी दोनों ही बंध जाते हैं, सिर्फ साक्षी मुक्त होता है।

यह जो आसुरी संपदा से भरा हुआ व्यक्ति है, वह कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर चलता है, इसलिए सदा दुखी होता है। क्योंकि जो पूरा नहीं होने वाला, उसके साथ चलने वाला दुख पाएगा ही। और सदा अतृप्ति, सदा असंतोष, और सदा अनुभव करता है, कुछ पाया नहीं; और दौड़ो, और दौड़ो। और वह कहीं भी पहुंच जाए, वह जो और की आवाज है, वह चलती ही रहेगी।

मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं। तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय— भोगों के भोगने में तत्पर हुए, इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।

जो भी छोटा—मोटा उच्छिष्ट मिल जाता है, इस भाग—दौड़ में, असंतोष में, दुख में जो थोड़ी—बहुत सुख की आभास जैसी झलक मिल जाती है, बस, आसुरी संपदा वाला मानता है, इतना ही आनंद है, यही सब कुछ है।

आप भी सोचें, इतने दिन आप जीए हैं, कम से कम इस जीवन के दिन का तो आपको स्मरण है ही। और जीवनों में जीए हैं, उसे छोड़ दें। इस सारे जीवन में आपको कोई सुख मिला है?

अगर खोजबीन करेंगे, तो बड़ी मुश्किल होगी। जितनी सचेतता से खोजबीन करेंगे, उतना ही खोजना मुश्किल होगा कि कोई सुख मिला है। कभी—कभी शायद कोई झलक मिली हो, आभास लगा हो, इंद्रधनुष जैसा कुछ दूर दिखाई पड़ा हो। हाथ में तो पकड़ते से खो जाता है इंद्रधनुष। बस दूर से थोड़ा दिखाई पड़ा हो, तो उतना ही सुख है, ऐसा मानकर हम अपने जीवन को ढोते हैं।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति इतने सस्ते में राजी नहीं होता। साधारणत: लोग कहते हैं कि दैवी संपदा वाला व्यक्ति संतुष्ट होता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, दैवी संपदा वाला व्यक्ति पहले तो बहुत असंतुष्ट होता है। वह इतना असंतुष्ट होता है कि आसुरी संपदा वाले व्यक्ति भी उसके सामने संतुष्ट मालूम पड़ेंगे। क्योंकि आसुरी संपदा वाला कहता है, इतना ही सुख है; इस पर ही राजी होता है। दैवी संपदा वाला कहता है, इसमें सुख कुछ भी नहीं है। यह दूर दिखाई पड़ने वाला इंद्रधनु है। और हाथ में आते ही पानी की बूंदें हाथ लगती हैं, कुछ भी हाथ नहीं लगता। यहां सुख बिलकुल नहीं है।

तो आसुरी संपदा वाला तो किसी तरह असंतोष में भी थोड़ा—सा संतोष खोज लेता है। दैवी संपदा वाला इसमें पूरी तरह असंतोष पाता है। और इसी असंतोष के कारण वह किसी नए आयाम में, एक नई दिशा में, एक नए क्षितिज की खोज में निकलता है। वासनाओं में पाता है कि कुछ नहीं मिला। आभास भी झूठे थे। तो फिर निर्वासना में, वासना के अतीत, अतिक्रमण में उसकी यात्रा शुरू होती है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति पहले तो संसार से पूर्ण असंतुष्ट हो जाता है, क्योंकि वही उसकी परमात्मा की खोज का आधार है, वही स्रोत है। लेकिन आसुरी संपदा वाला मानता है कि ठीक है, यह जो थोडा—सा सुख मिल रहा है, बस यही सुख है, इससे ज्यादा जीवन में पाने योग्य है भी नहीं, मिल भी नहीं सकता।

आपको मैं याद दिलाना चाहूं अनेक बार मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम संतुष्ट हैं। और वे सोचते हैं कि बड़ी कीमती बात मुझसे कह रहे हैं। जो भी भगवान ने दिया है, हम उससे राजी हैं। भगवान ने दिया क्या है उनको? लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, सब ठीक है। पत्नी है, बच्चा है, सब ठीक चल रहा है। काम भी ठीक है, पैसा भी निकल आता है, रोटी—रोजी चल जाती है; हम संतुष्ट हैं।

ऐसे व्यक्ति यह सोचकर मुझसे ये बातें कहते हैं कि मैं शायद उनकी प्रशंसा करूंगा; कहूंगा कि बड़े धार्मिक व्यक्ति हैं। पर यह आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का लक्षण है। वह कहता है कि इतना ही सुख है बस, इससे ज्यादा तो कुछ है भी नहीं।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति तो प्रखर आंखों से जीवन को देखता है और पूरी तरह असंतुष्ट हो जाता है। अगर यही जीवन है, तो वह इसी समय मरने को तैयार है। कुछ सार नहीं है।

लेकिन जैसे ही कोई व्यक्ति यह देखने में समर्थ होता है कि यह सब व्यर्थ है, उसकी .आंखों का रस इस जगत से अलग हो जाता है, उसकी आंखें मुक्त हो जाती हैं। और वह दूसरे जगत में अपनी आंखों को फैलाने के लिए समर्थ हो जाता है। ध्यान, जो इस जगत में लिप्त था, हट आता है। और फिर ध्यान को दूसरे जगत में ले जाना आसान हो जाता है। परिपूर्ण असंतुष्ट चेतना ही परमात्मा के परम संतोष को खोज सकती है।

इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम—क्रोध के परायण हुए विषय— भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत—से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।

और जो व्यक्ति भी अपने को नहीं खोज रहा है, वह जाने—अनजाने पदार्थ खोजेगा। खोज तो जारी रखनी ही पड़ेगी। खोज से बचना असंभव है। कुछ न कुछ तो आप खोजेंगे ही। अगर स्वयं को न खोजेंगे, तो कुछ और खोजेंगे। और जो स्वयं को नहीं खोजेगा, उसके पास सिवाय पदार्थों की खोज के कुछ भी नहीं बचता।

इस जगत में दो ही आयाम हैं। या तो मैं चेतना को खोजूं या पदार्थ को खोजूं। बस, दो ही इस जगत के तल हैं, पदार्थ है, चेतना है। अगर आप चेतना की खोज में नहीं हैं, तो क्या करेंगे? तो फिर पदार्थ का संग्रह। आपकी जीवन—ऊर्जा फिर धन इकट्ठा करने में, बड़े पद पर पहुंच जाने में, बड़ा साम्राज्य निर्मित करने में संलग्न हो जाएगी। यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, वह फिर पदार्थ इकट्ठे करने में लग जाता है। और पदार्थ का संग्रह समझ लेने जैसा है। उसके कुछ आधारभूत नियम हैं।

पहला, जो व्यक्ति पदार्थ का संग्रह करने में लगा हो, वह न्याय—अन्याय का विचार नहीं कर सकता। क्योंकि पदार्थ किसी का भी नहीं है। जिस जमीन को आज आप अपना कह रहे हैं, कल वह किसी और की थी, परसों किसी और की थी। अगर आप यह बैठकर सोचें कि जो मेरा नहीं है, उस पर मैं कैसे कब्जा करूं! तो फिर आप पदार्थ पर कब्जा कर ही नहीं सकते।

इसलिए पदार्थ को इकट्ठा करने वाला तो येन केन प्रकारेण, कैसे भी हो, इकट्ठा करने में लग जाता है। और पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे से छीनना पड़ता है। परिग्रह शोषण के बिना संभव नहीं है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे को वंचित करना पड़ता है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो हिंसा करनी ही होगी, सूक्ष्म, स्थूल, लेकिन हिंसा करनी ही होगी। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दान, दया और करुणा से अपने को बचाना होगा। चाहे चोरी करनी पड़े, चाहे भीख मांगनी पड़े, कुछ भी उपाय करना पड़े।

एक दिन एक स्टेशन पर मैं बैठा था, एक ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। और एक भिखारी ने मुझसे आकर भीख मांगी। चेहरे से वह आदमी पढ़ा—लिखा, ढंग से सुसंस्कृत मालूम होता था। तो मैंने उससे कहा कि बैठो, कुछ अपने संबंध में मुझे बताओ। तो काफी प्रसन्न हो गया। मैं एक किताब रखे हुए बैठा पढ़ रहा था। ट्रेन लेट थी।

तो उसने कहा, आप किताब पढ़ रहे हैं, तो आपसे मैं बात कर सकता हूं। मैं भी कभी एक लेखक था, मैंने भी एक किताब लिखी थी। मैंने उससे पूछा कि कौन—सी किताब लिखी थी? उसने बताया कि जीविका कमाने के बीस ढंग। मैं थोड़ा चौंका और मैंने उससे पूछा कि फिर भी तुम भीख मांग रहे हो! उसने कहा, ही, क्योंकि यह इक्कीसवी ढंग है, जो मैंने बाद में खोजा। और वे बीस तो असफल हो जाएं, मगर यह इक्कीसवी कभी असफल नहीं होता। यह बिलकुल रामबाण है।

एक आदमी चोरी कर रहा है, वह भी जो दूसरे का है, छीन रहा है। एक आदमी भीख मांग रहा है, वह भी चोरी का ही एक ढंग है, लेकिन ज्यादा कुशल ढंग है। वह दूसरे को इस तरह से फीस रहा है कि दूसरा अगर न दे, तो आत्मग्लानि पैदा हो, अगर दे, तो दुख पाए।

तो आप यह मत सोचना कि जब भिखमंगा आपसे भीख मांगता है और आप उसे भीख दे देते हैं, तो वह समझता है कि आप बड़े दानी हैं। वह यही समझता है कि वह होशियार था, आप बुद्ध थे। जब आप भीख नहीं देते और बच जाते हैं, तभी वह सोचता है कि यह भी आदमी कुशल है। उसके मन में इज्जत आपकी तभी होती है, जब आप नहीं देते। देते हैं, तब तो वह जानता है कि ठीक है। लेकिन वह स्थिति ऐसी पैदा करता है कि आपको अड़चन हो जाए, और दो पैसे के लिए उस अड़चन से निकलने को आप दो पैसा देना ही उचित समझेंगे।

चोर भी छीन रहा है, भिखारी भी छीन रहा है। जिसको हम व्यवसायी कहते हैं, जो दोनों के बीच है, वह भी छीन रहा है। और सबकी आका्ंक्षा एक है, संपदा का ढेर लग जाए।

संपदा का कितना भी ढेर लग जाए, अंततः वह संपदा आपकी कब्र बनती है, अंततः सिवाय उसके नीचे दबकर मर जाने के और कुछ प्रयोजन नहीं है।

लेकिन एक नियम समझने का है कि मनुष्य की जीवन—ऊर्जा बिना खोज के नहीं रह सकती। वह जीवन—ऊर्जा का स्वभाव है—खोज, सर्च। अगर आप कुछ भी नहीं खोज रहे हैं आंतरिक, तो आपको बाहर कुछ न कुछ खोजना ही पड़ेगा।

यह खोज तो तभी बाहर की बंद हो सकती है, जब भीतर की खोज शुरू हो जाए। जैसे ही भीतर की तरफ चेतना मुड़नी शुरू होती है, बाहर की खोज अपने आप खो जाती है। खो जाती है इसलिए कि अब आपको बड़ी संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है इसलिए कि अब असली संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है इसलिए कि आपको खुद हंसी आएगी, मैं भी किन बच्चों के खेल में उलझा था!

धन बच्चों के खेल से ज्यादा नहीं है। लेकिन चूंकि के भी उसे खेल रहे हैं, हमें खयाल नहीं आता। खयाल नहीं आता, क्योंकि के भी हमारे बच्चों से ज्यादा नहीं हैं। सिर्फ शरीर से का हो जाना कोई बहुत. मूल्य नहीं रखता। वृत्ति तो बचपन की ही बनी रहती है। बच्चे डाक की टिकटें इकट्ठी कर रहे हैं, तितलियां इकट्ठी कर रहे हैं, कंकड़—पत्थर जोड़ रहे हैं। के हंसते हैं कि क्या पागलपन कर रहे हो! लेकिन डाक की टिकट में और हजार रुपए के नोट में कोई फर्क है? दोनों ही छापाखाने का खेल है। और दोनों पर लगी मुहर केवल सामाजिक स्वीकृति है।

बच्चे टिकटें इकट्ठी कर रहे हैं, या सिगरेट के लेबल इकट्ठे कर रहे हैं, के नोट इकट्ठे कर रहे हैं! बाकी फर्क नहीं है। यह जो बूढ़ा नोट इकट्ठे कर रहा है, यह बस शरीर से का हो गया है; भीतर इसका बचकानापन कायम है; भीतर यह अभी भी जुवेनाइल है, अभी भी बाल—बुद्धि है।

यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, इसकी बाल—बुद्धि नष्ट होती नहीं। यह मरते वक्त भी बाल—बुद्धि का ही मरता है। मरते वक्त भी उसकी चिंता पदार्थ के लिए होती है। जो समझदार है, वह शीघ्र ही पदार्थ की व्यर्थ दौड़ से अपने को मुक्त कर लेता है और परमात्मा की खोज में निकल जाता है।

पदार्थ की खोज बाहर, परमात्मा की खोज भीतर। पदार्थ की खोज दूसरों से छीनकर, परमात्मा की खोज अपने को निखारकर। पदार्थ की खोज में दूसरे का शोषण, परमात्मा की खोज में आत्मा की साधना।

और दो ही खोज हैं। और यह ध्यान रहे कि दोनों खोज कोई सोचता हो कि मैं एक साथ साधू तो वह गलती में है। इसका यह मतलब नहीं है कि आप संसार को छोड्कर भाग जाएं, तो ही परमात्मा को खोज सकते हैं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप परमात्मा को खोजें, तो आप दीन—दरिद्र, भिखारी ही हो जाएंगे। यह कोई मतलब नहीं है।

लेकिन जो परमात्मा को खोजता है, पदार्थ पर उसकी पकड़ नहीं रह जाती। पदार्थ उसके पास भी पड़ा हो, तो भी उसकी पकड़ नहीं रह जाती। पदार्थ उससे छिन भी जाए, तो वह छाती पीटकर रोता नहीं है। पदार्थ हो तो ठीक; पदार्थ न हो तो ठीक। वह उसका लक्ष्य नहीं है। और अगर भीतर की खोज के लिए सब छोड़ना पड़े, तो वह तैयार है। भीतर की खोज के लिए सब खो जाए, तो भी वह तैयार है। वह पूरा दाव बाहर के जगत का भीतर के लिए लगाने के लिए सदा उत्सुक है। उस क्षण की प्रतीक्षा में है, जब वह सब गंवा देगा, स्वयं को बचा लेगा।

जीसस ने कहा है, जो स्वयं को बचाना चाहते हों, उन्हें सब गंवाने की तैयारी चाहिए। और जो सब बचाने को उत्सुक हैं, वे स्मरण रखें कि सब तो बच जाएगा, लेकिन स्वयं खो जाएंगे।

जगत में एक सौदा है, या तो आप पदार्थ बचा लें अपने को बेचकर। तो आप जो भी कमाते हैं, वह अपने को बेच—बेचकर कमाते हैं। आत्मा के टुकड़े निकाल—निकालकर बेच देते हैं। तिजोरी भरती जाती है, आत्मा खाली होती जाती है। एक दिन तिजोरी पास में होती है, आप नहीं होते। यही समृद्ध व्यक्ति की दरिद्रता है, यही समृद्ध व्यक्ति की भीतरी दीनता है, भिखमंगापन है।

मैंने सुना है, एक भिखारी एक दिन अमेरिका के एक अरबपति एण्ड्रू कार्नेगी के पास गया। सुबह ही सुबह जाकर उसने बड़ा शोरगुल मचाया।

तो एण्ड्रू कार्नेगी खुद बाहर आया और उसने कहा कि इतना शोरगुल मचाते हो! और भीख मांगनी हो तो वक्त से मांगने आओ! अभी सूरज भी नहीं निकला है, अभी मैं सो रहा था।

उस भिखारी ने कहा, रुकिए; अगर मैं आपके व्यवसाय के संबंध में कोई सलाह दूं आपको अच्छा लगेगा? एण्ड्रू कार्नेगी ने कहा कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा। तुम सलाह दे भी क्या सकते हो मेरे व्यवसाय के संबंध में! तुम्हारा कोई अनुभव नहीं है।

उस भिखारी ने कहा, आप भी मत दें सलाह। आपको भी कोई अनुभव नहीं है। जब तक हम उत्पात न करें, तब तक कोई देता है? वक्त से आने पर आपसे मिलना ही मुश्किल था। सेक्रेटरी होता, पहरेदार होते। अभी बेवक्त आया हूं तो सीधा आपसे मिलना हो गया। सलाह आप मुझको मत दें, मेरा पुराना धंधा है, और बपौती है, बाप—दादे भी यही करते रहे हैं।

एण्ड्रू कार्नेगी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं खुश हुआ उस आदमी की बात से। मैंने उससे कहा कि तुम क्या चाहते हो? उस आदमी ने कहा कि मैं ऐसे मुफ्त कभी किसी से कुछ लेता नहीं। मैं कोई भिखारी नहीं हूं। लेकिन एक काम मैं कर सकता हूं जो आप नहीं कर सकते। और अगर कुछ दाव पर लगाने की इच्छा हो, तो बोलिए!

एण्ड्रू कार्नेगी ने लिखा है कि मुझे भी रस लगा कि वह क्या कह रहा है। कौन—सा काम है, जो वह कर सकता है और मैं नहीं कर सकता! तो मैंने उससे कहा, अच्छा, सौ डालर दाव पर। वह कौन—सा काम है? उसने कहा कि मैं एक सर्टिफिकेट ला सकता हूं कि मैं भिखारी हूं पर आप सर्टिफिकेट नहीं ला सकते।

एण्ड्रू कार्नेगी ने अपने संस्मरण में लिखा है, सौ डालर मैंने उसे दिए, लेकिन फिर मैं सोचता रहा कि सर्टिफिकेट मैं ला सकूं या न ला सकुं भिखारी तो मैं भी हूं। अरबों रुपए मेरे पास हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है! भीख तो जारी है, अभी भी मांग तो जारी है, अभी भी मैं खोज तो रहा ही हूं। कोई मुझे सर्टिफिकेट नहीं देगा, क्योंकि अगर मैं भिखारी हूं तो इस जगत में कोई भी समृद्ध नहीं है।

दस अरब रुपए एण्ड्रू कार्नेगी छोड्कर मरा है। पर उसने लिखा है कि भिखारी तो मैं हूं उस आदमी ने बात तो ठीक ही कही है। क्योंकि अभी भी मेरी मांग है, आका्ंक्षा है। मेरा भिक्षा का पात्र अभी भी हाथ में है। अभी भी मुझे कुछ मिल जाए तो मैं सब खोने को तैयार हूं कुछ मिल जाए तो अपने को और लगाने को तैयार हूं।

एण्ड्रू कार्नेगी जब मरा, तो मरने के दो दिन पहले जो आदमी उसकी जीवन—कथा लिख रहा था, उससे उसने पूछा कि अगर तुम्हें परमात्मा यह मौका दे, तो तुम एण्ड्रू कार्नेगी के सेक्रेटरी होकर उसकी आत्म—कथा लिखना पसंद करोगे? या तुम एण्ड्रू कार्नेगी बनना पसंद करोगे और एण्ड्रू कार्नेगी तुम्हारी आत्मकथा लिखे? तो उस सेक्रेटरी ने कहा, क्षमा करें, आप बुरा न मानें; एण्ड्रू कार्नेगी बनना मैं कभी पसंद नहीं करूंगा। मैं ठीक हूं कि आपकी आत्म—कथा लिख रहा हूं। तो एण्ड्रू कार्नेगी ने कहा, इसका क्या कारण है?

तो उसने कहा कि देखें, मैं आता हूं ग्यारह बजे; पांच बजे मेरी छुट्टी हो जाती है। आपके दफ्तर के क्लर्क आते हैं दस बजे, पांच बजे उनकी छुट्टी हो जाती है। चपरासी आता है नौ बजे, पाच बजे उसकी भी छुट्टी हो जाती है। आपको मैं सुबह सात बजे से दफ्तर में रात ग्यारह बजे तक देखता हूं। चपरासी से गई बीती हालत आपकी है। एण्ड्रू कार्नेगी भगवान मुझे कभी न बनाए। वह मैं नहीं होना चाहता।

एण्ड्रू कार्नेगी ठीक ही कह रहा है कि मैं भी भिखारी तो हूं ही। सब पाकर भी अगर आत्मा न मिले, तो भिखमंगेपन का अनुभव होगा। और सब खो जाए, आत्मा बच जाए, तो भीतर के सम्राट का पहली दफा अनुभव होता है।

आज इतना ही।


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मैं कहता हूं आंखन देखी–(प्रवचन–6)

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निद्रा, स्‍वप्‍न, सम्‍मोहन और मूर्च्‍छा से जागृति की और—(प्रवचन—छठवां)

निद्रा में भी हम वहीं पहुंचते हैं जहां ध्यान में पहुंचते हैं लेकिन फर्क इतना ही है कि निद्रा में हम बेहोश होते हैं और ध्यान में हम जाग्रत होते हैं। अगर कोई निद्रा में भी जाग्रत होकर पहुंच जाए तो वही हो जाएगा जो ध्यान में होता है।

मेरे प्रिय आत्मन्!

 एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान या साधना से मृत्यु पर विजय मिल सकती है तो क्या वही स्थिति निद्रा में नहीं होती है? और यदि होती है तो निद्रा से मृत्यु पर विजय क्यों नहीं मिल सकती?

हली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि मृत्यु पर विजय मिल सकती है, इसका यह अर्थ नहीं है कि मृत्यु है और हम उसे जीत लेंगे। मृत्यु पर विजय मिल सकती है, इसका इतना ही अर्थ है कि मृत्यु नहीं है, ऐसा हम जान लेंगे। मृत्यु का न होना जान लेना ही मृत्यु पर विजय है। मृत्यु कोई है नहीं जिसे जीत लेना है। मृत्यु नहीं है, ऐसा जानते ही वह जो मृत्यु से हमारी हार चल रही है, बंद हो जाती है। कुछ तो ऐसे शत्रु हैं, जो हैं। और कुछ ऐसे शत्रु हैं, जो नहीं हैं, सिर्फ प्रतीत होते हैं। मृत्यु उन शत्रुओं में से है, जो नहीं है और प्रतीत होता है।

इसलिए विजय का अर्थ ऐसा नहीं ले लेना कि कोई मृत्यु कहीं है और उसे हम जीत लेंगे। जैसे कोई आदमी अपनी छाया से लड़ने लगे और पागल हो जाए। और फिर हम उसे कहें कि गौर से देखो, छाया है ही नहीं! और वह छाया को देखे और हंसने लगे और जाने कि मैंने छाया को अब जीत लिया। छाया को जीतने का केवल इतना ही अर्थ है कि छाया इतनी भी न थी कि उससे लड़ा जाए। जो लड़ेगा, वह पागल हो जाएगा। जो मृत्यु से लड़ेगा, वह हार जाएगा। और जो मृत्यु को जान लेगा, वह जीत जाएगा।

इसका दूसरा मतलब यह भी हुआ कि अगर मृत्यु नहीं है, तो वस्तुत: हम कभी मरते ही नहीं हैं। चाहे हम जानते हों और चाहे न जानते हों। ऐसा नहीं है कि दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक वे जो मरते हैं और एक वे जो नहीं मरते हैं, ऐसा नहीं है। दुनिया में कोई भी कभी नहीं मरता है। लेकिन दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक वे जो जानते हैं कि नहीं मरते हैं, और एक वे जो नहीं जानते हैं। इतना ही फर्क है।

निद्रा में भी हम वहीं पहुंचते हैं, जहां ध्यान में पहुंचते हैं। लेकिन फर्क इतना ही है कि निद्रा में हम बेहोश होते हैं और ध्यान में हम जाग्रत होते हैं। अगर कोई निद्रा में भी जाग्रत होकर पहुंच जाए, तो वही हो जाएगा जो ध्यान में होता है। जैसे किसी बगीचे में किसी आदमी को हम क्लोरोफार्म देकर ले जाएं, स्ट्रेचर पर रखकर—बेहोश। स्ट्रेचर पर बेहोश पडा आदमी है, उसको हम बगीचे में ले जाएं। बगीचे में फूल होंगे, कोई बेहोश आदमी की वजह से फूल मिट नहीं जाएंगे, हवाएं होंगी, सुगंध होगी, सूरज निकला होगा, पक्षी गीत गाते होंगे, लेकिन उस आदमी को कुछ भी पता नहीं चलेगा। फिर हम उस बेहोश आदमी को बगीचे में घुमाकर वापस लौट आएं। वह आदमी जब होश में आए और हम उससे कहें कि देखा बगीचा? जाना बगीचा? वह कहेगा, कैसा बगीचा? फिर उस आदमी को हम कहें कि तब तुम होश में चलो। तो वह आदमी कहे कि होश में बगीचे में ही पहुंचूंगा न! तो फिर बेहोशी में पहुंचने में और होश में पहुंचने में फर्क क्या है? तब हम उससे कहेंगे कि फर्क इतना है कि होश में तुम जान सकोगे कि कहां पहुंचे, क्या देखा—फूल, सुगंध, पक्षियों के गीत, सुबह का सूरज। बेहोशी में तुम नहीं देख सकोगे। पहुंचोगे तो बेहोशी में भी उतना ही, जितना कि होश में पहुंचे थे। लेकिन बेहोशी में पहुंचा हुआ आदमी ऐसे ही रहता है, जैसे न पहुंचा हो। बेहोशी में पहुंचने का मतलब न पहुंचना ही है।

हम नींद में भी वहीं पहुंचते हैं जहां ध्यान में कोई पहुंचता है। नींद में भी उसी बगीचे: में प्रवेश कर जाते हैं, उसी जीवन के बगीचे में, जहां ध्यान में कोई प्रवेश करता है। लेकिन नींद में हम होते हैं बेहोश। रोज पहुंचते हैं और वापस लौट आते हैं।

हां, इतनी बात पक्की है कि चाहे कोई आदमी बेहोश बगीचे में गया हो, सुबह की ताजी हवाओं ने उसके शरीर को तो छुआ ही होगा, सुगंध उसके नासापुटों तक तो गई ही होगी, पक्षियों के गीत उसके कान तक तो गंजे ही होंगे। वह नहीं जान सका, लेकिन बगीचे से बेहोश लौट आने पर भी शायद जगने पर वह कहे कि आज बड़ा अच्छा लग रहा है, बड़ी शाति मालूम हो रही है। नींद के बाद सुबह आप रोज कहते हैं कि नींद आ गई तो बड़ा अच्छा लग रहा है। क्या लग रहा है अच्छा? नींद आने से क्या अच्छा हो गया? जरूर नींद में आप कहीं गए हैं, जहां कुछ हुआ है, लेकिन उसका कोई पता नहीं। सिर्फ छोटी—सी खबर रह गई है पीछे कि अच्छा लग रहा है, सुबह जागकर अच्छा लग रहा है। तो जो आदमी रात गहरी नींद में पहुंच जाता है, वह सुबह ताजा होकर लौट आता है। वह किसी ताजगी के स्रोत तक गया है, लेकिन बेहोश। और जो आदमी रात नहीं सो पाता, वह सुबह और भी थका—मादा होता है, जितना सांझ को थका—मादा नहीं था। और अगर एक आदमी कुछ दिन तक न सो पाए, तो जीवन दूभर हो जाता है, क्योंकि जीवन के स्रोत से उसके संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं। वह वहां तक नहीं पहुंच पाता है, जहां तक पहुंचना अत्यंत जरूरी है।

दुनिया में कठिन से कठिन अगर कोई सजा हो सकती है, तो वह मौत की नहीं है। मौत की सजा तो सरल है, क्षण भर में हो जाती है। सबसे बड़ी सजाएं जिन लोगों ने ईजाद की थीं, वह सजाएं थीं नींद न आने देने की। किसी व्यक्ति को नींद न आने देना सबसे बड़ी सजा है। तो आज भी चीन में या रूस में या हिटलर के जर्मनी में निरंतर कैदियों को जगाए रखने का उपाय किया जाता है। पंद्रह दिन किसी कैदी को न सोने दिया जाए, तो उसकी जो पीड़ादायक स्थिति हो जाती है, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वह करीब—करीब विक्षिप्त हो जाता है और वह वे सब बातें बोलने लगता है जिन्हें उसने रोकने की कोशिश की थी, जिन्हें कि उसके दुश्मन जानना चाहते हैं। वह अपने — आप बोलने लगता है, अनर्गल उसके मुंह से सब निकलने लगता है। उसे होश ही नहीं रह जाता है कि अब क्या हो रहा है।

तो चीन में तो पूरे व्यवस्थित उपाय बनाए हुए हैं कि छह—छह महीने तक कैदियों को न सोने देंगे। उनकी स्थिति बिलकुल विक्षिप्त हो जाएगी। वे भूल ही जाएंगे कि वे कौन हैं, उनका नाम क्या है, उनका धर्म क्या है, उनकी जाति क्या है, वे किस गांव के रहने वाले हैं, किस देश के रहने वाले हैं, वे सब भूल जाएंगे। क्योंकि निद्रा न आने से अराजक, अस्तव्यस्त उनका चित्त हो जाएगा। फिर उनको जो भी सिखाना है वह उनको सिखाया जाएगा।

तो अमेरिका के जो सैनिक कोरिया के युद्ध में चीन में पकडे गए थे, उन सबको उन्होंने जगा—जगा कर ऐसी हालत कर दी कि जब वे वापस लौटे, तो वे अमेरिका को गाली देते हुए लौटे और कम्युनिज्म की प्रशंसा करते हुए लौटे। क्योंकि उनको पहले सोने नहीं दिया गया, इसके बाद जब उनका चित्त अस्तव्यस्त हो गया तब उनको कम्युनिज्म का दिन —रात पाठ पढाया गया। पहले उनकी आइडेंटिटी—वे कौन हैं—इसको अस्तव्यस्त कर दिया, फिर उनको बताया कि तुम कौन हो। उनको बताया कि तुम तो कम्मुनिस्ट हो! वे बेचारे यही सीखकर वापस लौटे। उन सैनिकों को देखकर अमेरिका के मनोवैज्ञानिक हैरान हुए कि इनको क्या हो गया है।

नींद न आने दी जाए, तो व्यक्ति अपने जीवन—स्रोत से असंबंधित हो जाता है। दुनिया में नास्तिकता बढ़ती जाएगी जिस मात्रा में नींद कम होती चली जाएगी। जिन मुल्कों में नींद जितनी कम हो जाएगी, उन मुल्कों में नास्तिकता उतनी ही ज्यादा हो जाएगी। जिन मुल्कों में नींद जितनी गहरी होगी, आस्तिकता उतनी ही ज्यादा होगी। लेकिन यह आस्तिकता—नास्तिकता बिलकुल अनजानी है, परिचित नहीं है, बेहोशी की है। क्योंकि जो आदमी गहरा सोता है, वह दिन भर शांति से जीता भी है। और जो आदमी गहरा नहीं सोता है, वह दिन भर बेचैन और परेशान जीता है। बेचैन और परेशान मन ईश्वर को स्वीकार करने की किस हालत में व्यवस्था बनाए? पीड़ित, अतृप्त, क्रोध से भरा मन इनकार करता है, अस्वीकार करता है।

पश्चिम में जो निरंतर बढ़ती हुई नास्तिकता है, उसके बुनियाद में विज्ञान नहीं है, उसके बुनियाद में नींद का अस्तव्यस्त हो जाना है। आज न्यूयार्क में तीस प्रतिशत लोग हैं कम से कम, जो बिना दवा लिये नहीं सो सकते हैं। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सौ साल अगर ऐसी स्थिति रही, तो न्यूयार्क जैसे नगर में कोई भी व्यक्ति बिना दवा लिये नहीं सो सकेगा।

नींद एकदम खो गई है। और यह हो सकता है कि जो आदमी, जिसकी नींद खो जाती है, वह यह विश्वास न कर सके। अगर वह आपसे पूछे कि आप कैसे सोते हैं, आपके सोने की तरकीब क्या है? और आप कहें कि कोई तरकीब नहीं है। मैं तो बिस्तर पर सिर रखता हूं और सो जाता हूं? कोई तरकीब है ही नहीं। सोने की तरकीब है आपके पास! बस, सिर रखते हैं और सो जाते हैं। तो वह कहेगा, क्यों झूठ बोलते हैं, असंभव है यह बात। जरूर कोई तरकीब होगी, जो मुझे पता नहीं। क्योंकि सिर तो मैं भी रखता हूं तकिये पर, लेकिन सो नहीं पाता। तो झूठ कहते हैं आप।

और एक वक्त आ सकता है आज से हजार दो हजार वर्ष बाद—भगवान न करे ऐसा वक्त आए, लेकिन लगता है ऐसा वक्त आ जाएगा—जब कि स्वाभाविक नींद सभी की खो गई होगी। और तब लोग यह विश्वास न कर सकेंगे कि आज से हजार दो हजार साल पहले लोग रात को बस बिस्तर पर सिर रखते थे और सो जाते थे। और वे कहेंगे, ये कपोलकल्पित, पुराण की बातें मालूम होती हैं। ये बातें सच नहीं हैं। यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि जो हमें नहीं होता है, वह किसी को कैसे हो सकता है? यही कठिनाई है।

मैं आपको यह इसलिए कह रहा हूं कि आज से तीन या चार हजार वर्ष पहले लोग इसी तरह आंख बंद करते थे और ध्यान में चले जाते थे, जितनी सरलता से आज आप सो जाते हैं। और दो हजार वर्ष बाद या आज भी न्यूयार्क में सोना मुश्किल है। बंबई में भी मुश्किल होता चला जा रहा है। आज नहीं कल द्वारका में भी मुश्किल होगा। यह वक्त के फासले की बात है और कोई कठिनाई नहीं है इसमें। तो आज हम विश्वास नहीं कर सकते हैं कि एक जमाना ऐसा भी रहा होगा कि आदमी ने सोचा कि ध्यान में जाऊं, बैठा, आंख बंद की और ध्यान में चला गया। हम कहेंगे, यह कैसे हो सकता है! क्योंकि हम भी तो आंख बंद करके बैठते हैं, कहीं नहीं जाते हैं। विचार तो चक्कर ही लगाए रहते हैं। हम तो जा ही नहीं पाते।

ध्यान भी प्रकृति के निकट आदमी के लिए इतना ही सरल था, जितनी नींद प्रकृति के निकट जो आदमी है, उसको सरल है। पहले ध्यान गया, अब नींद जाएगी। क्योंकि पहले वे चीजें जाती हैं जो चेतन हैं, फिर वे चीजें जाती हैं जो अचेतन हैं। और ध्यान चला गया तो दुनिया करीब—करीब अधार्मिक हो गई है और नींद चली जाएगी तो दुनिया पूरी तरह अधार्मिक हो जाएगी। नींद से रिक्त पृथ्वी पर धर्म की कोई संभावना नहीं रह जाने वाली है।

यह आप कभी सोच ही नहीं सकते कि नींद से इतना संबंध हो सकता है। नींद से इतने गहरे संबंध हैं, जिनका हिसाब लगाना मुश्किल है। व्यक्ति कैसा सोता है, इस पर पूरा निर्भर है कि वह कैसा जीएगा। अगर वह नहीं सो पाता है तो उसका सारा जीवन अस्तव्यस्त हो जाएगा, सारे जीवन के संबंध उलझ जाएंगे, सब विषाक्त हो जाएगा, सब क्रोध से भर जाएगा। अगर व्यक्ति गहरा सोता है, तो उसके जीवन में एक ताजगी, एक शाति, एक आनंद का भाव बहता रहेगा। उसके संबंध में, उसके प्रेम में, उसकी सारी चीजों में एक शाति बनी रहेगी। लेकिन अगर नींद खो गई, तो उसका परिवार, उसकी पत्नी, उसका पति, उसका बेटा, उसकी मां, उसका पिता, उसका शिक्षक, विद्यार्थी, सब अस्तव्यस्त हो जाएंगे। क्योंकि नींद हमें अचेतन में वहां ले जाती है, जहां हम परमात्मा के भीतर डूब जाते हैं। ज्यादा देर को नहीं डूबते। स्वस्थ से स्वस्थ आदमी भी सिर्फ गहरे में दस मिनट के लिए पहुंचता है, पूरी रात की आठ घंटे की नींद में। दस मिनट के लिए ऐसा क्षण आता है, जब आप पूरी तरह डूब जाते हैं, जब सपना भी नहीं होता है।

जब तक सपना चल रहा है, तब तक नींद पूरी नहीं है। तब तक जागने और नींद के बीच में आप भटक रहे हैं। सपना जो है, वह अर्द्ध निद्रा, अर्द्ध जाग्रत स्थिति है। सपने का मतलब है कि आंख तो बंद है, लेकिन आप सो नहीं गए हैं। बाहर की दुनिया के प्रभाव अभी काम कर रहे हैं। दिन में जिनसे मिले थे, अभी रात में भी सपने में उनसे मिलना जारी है। सपना बीच की जगह है। और हममें से बहुत लोग नींद से तो टूट गए हैं, सपने में ही हैं, नींद तक पहुंचते ही नहीं। यह दूसरी बात है कि सुबह आपको याद न रह जाता हो कि रात भर सपना देखा।

लेकिन अभी अमेरिका में उन्होंने कोई दस बड़ी प्रयोगशालाएं स्थापित की हैं, जिनमें कोई हजार आदमी आज दस वर्षों से निरंतर प्रयोगशालाओं में सो रहे हैं जाकर रातभर। उनका अध्ययन किया जा रहा है कि नींद क्या है? अमेरिका की उत्सुकता इस समय नींद में इतनी है और इसीलिए ध्यान में भी है। इसलिए कोई महर्षि योगी या कोई भी जाते हैं, जिनका ध्यान से कोई भी संबंध नहीं है, वे लोग भी अमेरिका में जाकर कुछ भी ट्रिक्स की बातें कर दें कि राम—राम राम—राम जपो, तो लाखों लोग सुनने को उत्सुक हैं।

वह नींद टूट गई है, इसलिए वे ध्यान में भी उत्सुक हैं। वे सोचते हैं, शायद इससे भी नींद आ जाए, शाति आ जाए। इसलिए ध्यान उनको एक तरह का टैंरक्येलाइजर से ज्यादा नहीं है। जब विवेकानंद ने पहली दफा अमेरिका में ध्यान की बात की, तो एक डक्टर ने आकर विवेकानंद को कहा कि मुझे तो आपके ध्यान से बड़ा आनंद आया। यह तो बिलकुल नान मेडिसनल ट्रैंक्येलाइजर है —बिना दवा की नींद की दवा—नान मेडिसनल टैंरक्येलाइजर। दवा भी नहीं है और नींद भी आ जाती है। यह तो बहुत ही अच्छा है।

अमेरिका में जो आपके योगियों का प्रभाव पड़ रहा है, उसका कारण योगी नहीं हैं, उसका कारण वहा नींद का खो जाना है। और कोई कारण नहीं है। वहा नींद एकदम खराब हो गई है। और नींद खराब हो गई, तो पूरा जीवन बोझिल और उदास और तनाव से भर गया है। इसलिए टैंरक्येलाइजर का बढ़ता हुआ रूप निरंतर सामने आ रहा है—किसी तरह नींद कैसे लाई जा सके। करोड़ों— अरबों रुपए ट्रैंक्येलाइजर पर अमेरिका खर्च कर रहा है प्रति वर्ष।

दस बड़ी लेबोरेट्रीज बना कर वहा हजारों लोगों को निरंतर सुलाया जा रहा है। सोने के पैसे दिए जा रहे हैं। सोने का रात भर का उनको पैसा होता है, क्योंकि रात भर उनकी नींद को कई तरह की तकलीफें दी जाती हैं। सब तरफ इलेक्ट्रोड लगे रहते हैं बिजली के, पूरे हजारों वायर लगे रहते हैं शरीर में। सब तरफ से जांच चलती रहती है कि उनके भीतर क्या हो रहा है।

एक सबसे अदभुत घटना जो उन प्रयोगों में सामने आई है वह यह है कि करीब—करीब आदमी रात भर सपने देखता है। वह आदमी भी, जो सुबह कहता है कि मैंने कोई सपना नहीं देखा। फर्क स्मृति का है। जो आदमी कहता है सुबह कि मैंने सपना देखा, उसकी स्मृति थोड़ी ठीक है। और जो आदमी कहता है कि मैंने रात सपना नहीं देखा, उसकी स्मृति थोड़ी कमजोर है। और कोई फर्क नहीं है। सारे लोग रात भर सपना देख रहे हैं। हां, यह अनुभव हुआ है कि दस मिनट के लिए पूर्ण स्वस्थ आदमी सपने से मुक्त हो जाता है।

सपने अब जांचे जा सकते हैं। क्योंकि हमारे मस्तिष्क की जो नसें हैं, वे चलती रहती हैं। जब सपना बंद होता है तो वे बंद हो जाती हैं। उनके बंद हो जाने से मशीन खबर दे देती है कि गैप आ गया। अब यह आदमी सपना भी नहीं देख रहा है। यह भीतर विचार भी नहीं कर रहा है, सपना भी नहीं देख रहा है। यह आदमी कहीं खो गया है।

यह बड़े मजे की बात है कि उन यंत्रों से जो उन्होंने जांच—पड़ताल की है, उस जांच —पड़ताल से तब तक तो पता चलता है कि आदमी क्या कर रहा है जब तक सब सपने चलते हैं। जैसे ही सपने गए कि मशीन गैप बता देती है कि अब गैप हो गया। आदमी कहौ गया, पता नहीं। आप समझ रहे हैं न! गहरी नींद का मतलब है कि आदमी कहीं ऐसी जगह चला जाता है जो मशीन नहीं पकड़ पाती। उसी गैप में आदमी परमात्मा में प्रवेश कर जाता है। वह जो अंतराल है, बीच की जो खाली जगह है, जो मशीन नहीं पकड़ती है। मशीन इतनी खबर देती है कि यहां तक पकड़ा, फिर इसके बाद गैप, फिर आदमी कहीं खो गया। फिर दस मिनट के बाद पकड़ शुरू होगी। दस मिनट आदमी कहा था, यह बताना मुश्किल है। इसलिए आज अमेरिका के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि नींद सबसे बड़ा रहस्य है। असल में परमात्मा के बाद नींद ही रहस्य है और कोई रहस्य नहीं है, सबसे ज्यादा मिस्टीरियस।

आप रोज सोते हैं, लेकिन आपको कुछ भी पता नहीं है कि नींद क्या है। जिंदगी भर से सो रहे हैं, लेकिन इससे कुछ फर्क नहीं पडता। यह मत सोचना कि हम जिंदगी भर से सो रहे हैं तो हमको पता है कि नींद क्या है। नींद का आपको बिलकुल पता नहीं है, क्योंकि नींद तब होती है जब आप नहीं होते हैं। ध्यान रखना, जब तक नींद नहीं होती, तब तक आप होते हैं। इसलिए आपको वहीं तक पता है जहां तक मशीन को पता है। जहां तक मशीन बताती है कि ही, अभी सपना चल रहा है, वहां तक आपको भी पता हो सकता है। क्योंकि उस गैप में, उस रिक्त स्थान में जहां मशीन चुप हो जाती है और कह देती है, बस, हमारे वश के बाहर हो गयी है यह बात, यह आदमी कहीं चला गया है, जहां हम नहीं पहुंचते, वहां आप भी नहीं पहुंचते। क्योंकि आप भी एक मशीन से ज्यादा नहीं हैं। उस गैप में आप भी नहीं पहुंचते। इसलिए नींद एक रहस्य है, जहां हमारी कोई पहुंच नहीं है। इसलिए पहुंच नहीं है कि हम ही मिट जाते हैं, तभी नींद आती है। और इसलिए जितना अहंकार बढ़ता जाता है, उतनी नींद कम होती चली जाती है। अहंकारी आदमी की नींद खतम हो जाती है। क्योंकि अहंकार कहता है कि ‘मैं’, चौबीस घंटे कहता है, ‘मैं’। उठता है तो कहता है, ‘मैं’, चलता है तो कहता है, ‘मैं ‘, सड़क पर निकलता है तो कहता है, ‘मैं’। वह चौबीस घंटे ‘मैं’ इतना ज्यादा कहता है कि जब नींद के वक्त ‘मैं ‘ छोडने का समय आता है, तब वह ‘मैं’ को नहीं छोड़ पाता है और नींद मुश्किल हो जाती है। नींद असंभव है। ‘मैं ‘ के रहते नींद असंभव है। और मैंने कल आपसे कहा कि ‘मैं’ के रहते परमात्मा में प्रवेश असंभव है।

नींद और परमात्मा में प्रवेश बिलकुल एक—सी बात है, फर्क इतना ही है कि नींद बेहोशी में प्रवेश है और ध्यान होश में प्रवेश है। लेकिन यह फर्क बहुत बड़ा है। हजारों जन्मों तक नींद में आप परमात्मा में प्रवेश करते रहेंगे, लेकिन इससे आपको परमात्मा का कोई पता नहीं चलेगा। लेकिन एक क्षण भी अगर आप ध्यान में प्रवेश कर गए परमात्मा में, उस जगह पहुंच गए जहां नींद में हजारों बार पहुंचे हैं, लाखों बार पहुंचे हैं, तो आपकी जिंदगी पूरी बदल जाएगी। और मजे की बात यह है कि जो व्यक्ति एक बार ध्यान में प्रवेश कर जाता है—उस शून्य में, जहां नींद ले जाती है —उसके बाद वह नींद में भी कभी बेहोश नहीं रहता।

वह जो कृष्ण ने गीता में कहा है कि जब सब सोते हैं तब भी योगी जागता है, उसका यह अर्थ है। जब सब सो जाते हैं तब भी वह जागता है, इसका मतलब यह नहीं कि योगी नहीं सोता है। योगी से बढ़िया कोई भी नहीं सोता है। योगी जैसा सोता है वैसा कोई सोता ही नहीं। लेकिन फिर भी उसकी निद्रा की उस गहराई में भी उसका एक तत्व, जो ध्यान में प्रवेश हो गया है उसका, वह जागा रहता है। और वह जागता हुआ रोज नींद में प्रवेश करता है। तब उसके लिए ध्यान और नींद एक ही बात हो जाती है, कोई फर्क ही नहीं रह जाता। तब वह नींद में भी होश से ही प्रवेश करता है। एक बार ध्यान से कोई भीतर चला जाए, फिर वह कभी भी नींद में बेहोश नहीं है।

बुद्ध के पास आनंद वर्षों तक रहा। वर्षों तक बुद्ध के पास सोया। एक दिन बुद्ध से सुबह—सुबह उसने पूछा कि मैं बड़ा हैरान हूं। आज वर्षों हो गए हैं, मैं आपको देखता हूं कि आप एक ही करवट सोते हैं रात— भर। जैसे सोते हैं, रात— भर वैसे ही सोए रहते हैं। पैर जहां होते हैं सांझ, वह सुबह वहीं होते हैं। मैंने कई बार रात में जागकर भी देखा। कुछ रातें मैंने पूरे बैठकर भी देखा। आपका हाथ भी नहीं हिलता। जहां हाथ रख लेते हैं, बस वह वहीं रहता है, जहां पैर रख लेते हैं, वहीं रहता है। करवट भी नहीं लेते। क्या रात भर भी हिसाब रखते हैं सोने का भी? बुद्ध ने कहा, हिसाब रखने की जरूरत नहीं है। होश में ही सोता हूं। तो करवट बदलने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती। जरूरत मालूम हो, तो बदल सकता हूं। बुद्ध ने कहा, तुम जो रात भर करवट बदलते हो, वह कोई नींद की जरूरत नहीं है, वह तुम्हारे बेचैन चित्त की जरूरत है। वह बेचैन चित्त एक जगह रात में भी नहीं टिक सकता, दिन की तो बात ही अलग है। रात सोते में भी शरीर पूरे वक्त बेचैनी जाहिर करता रहता है।

एक आदमी को अगर रात भर सोते हुए देखें —और जो प्रयोग कर रहे हैं वे हैरान हुए—रात भर बेचैनी जाहिर है, जारी है। जितना दिन में हाथ चलता है, उतना रात में भी चल रहा है। रात में भी जैसे कोई दिन में दौड़ता हो तो सांस भर जाए, ऐसा सपने में दौड़ना चल रहा है। सांस भर जाती है, थक जाता है आदमी। दिन में भी लड़ रहा है, रात में भी लड़ रहा है। दिन में भी क्रोध कर रहा है, रात में भी क्रोध कर रहा है। दिन में भी वासना से भरा है, रात भी वासना से भरा है। दिन और रात में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। सिर्फ इतना ही फर्क है कि थक कर पड़ा हुआ है, बेहोश हो गया है, बाकी सब चल रहा है। बुद्ध ने कहा कि मुझे बदलना हो तो बदल लूं र लेकिन कोई जरूरत नहीं है।

पर हमें खयाल नहीं है। देखें, एक आदमी कुर्सी पर बैठा है तो पूरे वक्त टांगें हिला रहा है। कोई उससे पूछे कि ये टांगें किसलिए हिल रही हैं? चलते वक्त हिले, समझ में आता है। ये कुर्सी पर बैठकर टांगें क्यों हिल रही हैं? कहते से ही बंद हो जाएगा एकदम। एक सेकेंड नहीं हिलायेगा फिर, लेकिन बता नहीं सकेगा कि क्यों हिल रही हैं। भीतर बेचैनी कंपा रही है, वह सब तरफ से सारे शरीर को कंपा रही है। भीतर बेचैन चित्त है। वह एक क्षण एक स्थिति में नहीं रह सकता। पैर चलाएगा, सिर हिलाएगा। बैठे —बैठे भी करवट बदलना चल रहा है।

इसीलिए तो दस मिनट ध्यान में बैठना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि हजार शरीर के हिस्से कहने लगते हैं, यह करो, पैर को यहां करो, सिर को यहां करो, इसको ऐसा करो, इसको वैसा करो। वह तो पूरे वक्त करवाते रहते हैं, हमको खयाल नहीं है। लेकिन ध्यान में हम खयाल से बैठते हैं तो मालूम होता है कि यह शरीर कैसा है कि एक सेकेंड एक जगह नहीं रहना चाहता पूरे वक्त। वह मन की ही उलझन, तनाव और मन की ही उत्तेजना, मन की ही तरंगें शरीर तक प्रवाहित होती हैं।

नींद में कोई दस मिनट के लिए सब खो जाता है। वे दस मिनट पूर्ण स्वस्थ और शांत आदमी को उपलब्ध होते हैं, सभी को नहीं। कोई पांच मिनट, कोई चार मिनट, कोई तीन मिनट, कोई दो मिनट, कोई एक मिनट। अधिकतम लोगों को दो मिनट या एक मिनट ही उपलब्ध होता है। उतने ही एक मिनट पर हम चौबीस घंटे चलाते हैं। उस एक मिनट में जो रस मिल जाता है जड़ों में उतर कर, तो उससे ही हम चौबीस घंटे के जीवन को चला लेते हैं। उतनी देर में दीया जो तेल पा जाता है, उससे ही चौबीस घंटे जल लेता है। इसलिए तो दीया बहुत मंद—मंद जलता है। उतना तेल ही नहीं इकट्ठा हो पाता है जीवन का कि दीया तेजी से जल सके, कि दीया मशाल बन सके। वह नहीं हो पाता।

ध्यान धीरे — धीरे, धीरे — धीरे जीवन के स्रोत पर खड़ा कर देता है। फिर ऐसा नहीं है कि हम उसमें से चुल्लू भर— भर कर लाते हैं। फिर हम स्रोत में ही खड़े हो जाते हैं। फिर ऐसा नहीं है कि हम तेल दीये में भरते हैं, फिर तो तेल का सागर ही उपलब्ध हो जाता है। फिर हम उसमें ही जीने लगते है। और वैसा जीना नींद को विलीन कर देता है। इस अर्थ में नहीं कि आदमी नहीं सोता है, इस अर्थ में कि सोते हुए भी भीतर कोई जागा ही रहता है और तब सपने बिलकुल खो जाते हैं।

योगस्थ व्यक्ति जागता है, सोता है, लेकिन सपने नहीं देखता है। सपने बिलकुल खो जाते हैं। और जब सपने खो जाते हैं तो विचार खो जाते हैं। जागरण में जिसे हम विचार कहते हैं, उसे ही निद्रा में स्वप्न कहते हैं। स्वप्न और विचार में फर्क नहीं है, फर्क थोड़ा—सा ही है। विचार थोड़े सभ्य हो गए सपने हैं और सपने थोड़े आदिम, एबओरीजनल विचार हैं। असल में बच्चे या पुरानी आदिम जातियां चित्रों में ही सोच सकती हैं, शब्दों में नहीं।

मनुष्य का पहला जो सोचना है, वह चित्रों में ही होता है। जैसे एक बच्चे को भूख लगी है, तो बच्चा शब्दों में नहीं सोचता कि मुझे भूख लगी है। बच्चा मां के स्तन को देख सकता है। स्तन को पीते हुए चित्र देख सकता है। स्तन मिलना चाहिए, ऐसी आकांक्षा से भर सकता है। शब्द नहीं बना सकता। शब्द तो बहुत बाद में बनने शुरू होते हैं, पहले तो चित्र ही होते हैं। और अगर हमें भाषा न आती हो, तो हम भी चित्रों का उपयोग करते हैं। आप कहीं परदेश चले जाएं, जहां की भाषा आपको नहीं आती हो और पानी पीना हो, तो आप दोनों हाथ मुंह के पास करके कहेंगे कि मुझे पानी पीना है। क्योंकि जब शब्द नहीं हैं, तब चित्र की जरूरत पड़ जाती है। और मजे की बात यह है कि शब्दों की भाषाएं अलग हैं, चित्रों की भाषाएं अलग नहीं हैं। दुनिया के किसी कोने में चले जाएं और हाथ चुल्लू बनाकर मुंह के पास करके कहें, कोई भी समझ लेगा कि पानी पीना है। क्योंकि चित्र की भाषा प्रत्येक आदमी की एक है।

शब्द हमने अलग—अलग ईजाद किए हैं, लेकिन चित्र हमारी ईजाद नहीं हैं। चित्र तो मनुष्य के मन की भाषा है। इसलिए दुनिया की किसी भी चित्रावली को, किसी भी पेंटिंग को कहीं भी समझा जा सकता है। चाहे कोई लियोनार्डो पेंटिंग बनाए और चाहे खजुराहो के मूर्तिकार मूर्तियां बनाएं, इनको समझने के लिए किसी भाषा का फर्क करने की जरूरत नहीं। खजुराहो की मूर्तियां को एक फ्रेंच, एक जर्मन, एक चीनी आकर समझ लेगा उतना ही जितना आप समझते हैं। और आप अगर लूब्र में, फ्रांस में जाकर उनके म्यूजियम में खड़े हो जाएं चित्रों के, तो आप भी चित्रों को समझ लेंगे। उनके शीर्षक नहीं समझेंगे, शीर्षक तो फ्रेंच भाषा में हैं, लेकिन आप चित्र समझ लेंगे कि चित्र क्या है। चित्र की भाषा सबकी है।

अभी शब्द की भाषा हमारे दिन में तो काम आ जाती है, लेकिन रात में काम नहीं आती। रात में हम फिर जंगली हो जाते हैं। नींद में हम फिर खो जाते हैं। हमारी सब शिक्षा, डिग्री, एजुकेशन, युनिवर्सिटी सब खो जाती है। हम वहीं खड़े हो जाते हैं जहां मौलिक आदमी खड़ा हुआ है। इसलिए रात में चित्र उठते हैं। दिन में शब्द, रात में चित्र।

और इसलिए दिन में अगर हमें किसी को प्रेम करना है, तो हम प्रेम करने की भाषा में सोच सकते हैं— भाषा में। लेकिन रात में अगर प्रेम करना है, तो सिवाय चित्रों के और कोई उपाय नहीं रह जाता, चित्र ही रह जाते हैं। इसलिए सपने बड़े जीवंत मालूम पड़ते हैं, उतना विचार जीवंत नहीं मालूम होता है। सपने बहुत जीवंत मालूम होते हैं। पूरा चित्र खड़ा हो जाता है। और इसीलिए अगर आप एक उपन्यास पढ़ें, तो आपको उतना आनंद नहीं आता। उसी उपन्यास की फिल्म बन जाए, तो बहुत आनंद आता है देखने में। उसका कुल कारण इतना है कि फिल्म जो है वह चित्रों की भाषा में है और उपन्यास जो है वह शब्दों की भाषा में है। इसलिए अगर मुझे आप सामने देखकर सुन रहे हैं तो आपको सुनने में ज्यादा आनंद आता है। मेरी यही बात आप टेप से सुनेंगे, तो उतना आनंद नहीं आएगा। क्योंकि यहां चित्र भी मौजूद है, वहां सिर्फ शब्द मौजूद हैं। चित्र हमारे निकट की भाषा है—प्राकृतिक। तो रात में शब्द चित्र बन जाते हैं, बस इतना ही फर्क है।

जिस दिन स्वप्न खोते हैं, उसी दिन विचार खो जाते हैं; और जिस दिन विचार खोते हैं, उसी दिन स्वप्न खो जाते हैं। दिन विचार से खाली हो जाए, तो रात सपनों से खाली हो जाएगी। और ध्यान रहे, सपने भी सोने नहीं देते और विचार जगने नहीं देते। इन दोनों बातों को समझ लेना—सपने सोने नहीं देते और विचार जगने नहीं देते। अगर सपने खो जाएं तो नींद पूरी हो जाए और अगर विचार खो जाएं तो जागरण पूरा हो जाए। और अगर जागरण पूरा हो जाए और निद्रा पूरी हो जाए, तो निद्रा और जागरण में कोई फर्क नहीं रह जाता है, सिर्फ आंख खुले होने और बंद होने का फर्क रह जाता है। शरीर के विश्राम करने और श्रम करने का फर्क रह जाता है। और कोई फर्क नहीं रह जाता। जो व्यक्ति पूरा जाग गया है, वह पूरा सोता है, लेकिन जागने में और नींद में उसकी चेतना में कोई फर्क नहीं पड़ता। चेतना एक ही होती है, सिर्फ शरीर में फर्क पड़ता है। जागने में शरीर श्रम में होता है और सोने में विश्राम में होता है। इतना ही फर्क होता है।

तो जिन मित्र ने पूछा है कि निद्रा में क्यों परमात्मा उपलब्ध नहीं हो जाता, उनसे मेरा यह कहना है कि हो सकता है, अगर निद्रा में भी जाग सकें। और ध्यान का इतना ही मतलब है। इसलिए मेरे ध्यान की जो प्रक्रिया है, वह असल में सोने की ही प्रक्रिया है, जागते हुए सोने की। जागते हुए नींद में जाने की। इसलिए शरीर को शिथिल करने को कहता हूं, श्वास को छोड़ देने को कहता हूँ, मन को शांत करने को कहता हूं। यह नींद की तैयारी है। और इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि ध्यान में न जाकर कुछ मित्र नींद में चले जाते हैं। अक्सर ऐसा हो जाता है, क्योंकि यह तैयारी नींद की ही है। इस तैयारी को करते —करते वे कब सो जाते हैं, उन्हें पता नहीं चलता है। इसलिए तीसरी बात निरंतर कहता हूं कि भीतर जागे रहें, भीतर होश से भरे रहें। शरीर बिलकुल शिथिल छूट जाए और श्वास बिलकुल शिथिल हो जाए, जितनी नींद में होती है उससे भी ज्यादा हो जाए। लेकिन भीतर जागे रहें भीतर होश दीये की तरह जलता रहे, ताकि नींद न आ जाए।

ध्यान और नींद की प्रारंभिक शर्तें एक जैसी हैं। अंतिम शर्त में फर्क है। पहली शर्त यही है कि शरीर शिथिल हो। अगर डाक्टर के पास जायेंगे और कहेंगे कि नींद नहीं आती, तो वह आपको रिलैक्सेशन सिखाएगा, वह कहेगा कि शरीर को शिथिल करें। जो मैं आपसे कह रहा हूं, वही आपसे कहेगा कि शरीर को शिथिल छोड़े, रिलैक्स करें, शरीर पर तनाव न रखें, सारे शरीर को ऐसा छोड़ दें जैसे रूई का फाहा बिलकुल ढीला छूटा है, ऐसा छोड़ दें। वह आपको कहेगा कि देखें एक बिल्ली को सोते हुए।

कभी बिल्ली को सोते देखा है? कुत्ते को सोते देखा है? वे कैसे सोते हैं? जैसे हैं ही नहीं। एकदम…… एक छोटे बच्चे को सोते देखा है? कैसा सोता है? जैसे सब मिट गया है, कहीं कोई तनाव नहीं है। सब हाथ—पैर ऐसे ढीले पड़ गए हैं कि जिसका हिसाब नहीं। एक आदमी को सोते देखें, एक जवान आदमी को, एक बूढ़े आदमी को सोते देखें, सब खिंचा हुआ है।

तो डाक्टर कहेगा, चिकित्सक कहेगा कि बिलकुल ढीला छोड़ दें। नींद की भी शर्त वही है कि श्वास शिथिल और गहरी हो जाए, शांत हो जाए। क्योंकि आपने ध्यान किया होगा कि अगर दौड़ना पड़े, तो श्वास तेज हो जाएगी। दौड़ना पडे तो श्वास तेज हो जाएगी। शरीर को श्रम करना पड़ता है तो श्वास को तेज होना पड़ेगा, खून की गति बढ़ेगी। और अगर सोना है, तो खून की गति शिथिल हो जानी चाहिए, ठीक दौड़ने से उलटी हालत हो जानी चाहिए, तो श्वास शिथिल हो जाएगी। इसलिए दूसरी शर्त है श्वास शिथिल कर लें।

अगर विचार तेजी से चल रहे हैं, तो मस्तिष्क में खून को तेजी से दौड़ना पड़ता है। और खून तेजी से सिर में दौड़े, तो नींद असंभव है। नींद की शर्त है कि खून की दौड़ सिर में कम हो जाए। इसलिए आप तकिया रखते हैं। आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि तकिया क्यों रखते हैं। तकिया खून की गति को कम करने के लिए रखते हैं। अगर तकिया न रखें तो सिर शरीर के सतह पर होता है। सतह पर होने से खून की गति पूरी होती है। सिर से पैर तक बराबर होती है। सिर को ऊंचा कर लेते हैं, तो सिर पर खून को चढ़ने में मुश्किल हो जाती है। तो सिर में कम चढ़ता है, पूरे शरीर में गति करता है। सिर में गति कम हो जाती है। इसलिए जिनको जितनी मुश्किल से नींद आती है, उनको उतना तकिया बढ़ाते जाना पड़ेगा, एक, दो, तीन. बढ़ते जाएंगे। क्योंकि सिर ऊंचा होना चाहिए। और सिर ऊंचे होने का कुल इतना मतलब है कि वहां खून कम जाए। वहां खून कम जाएगा तो नींद जल्दी आ जाएगी, क्योंकि वहां गति न होगी तो मस्तिष्क शिथिल हो जाएगा।

अगर विचार तेजी से चलेंगे तो भी खून की गति होती रहेगी, क्योंकि विचार को चलने के लिए भी खून का ही वाहन पकड़ना पड़ता है। मस्तिष्क की नसें तेजी से चलती रहेंगी। कभी आपने देखा होगा, क्रोध में आ जाते हैं तो सब नसें फूल जाएंगी। वे फूल गई हैं इसलिए कि खून को इतनी तेजी से दौड़ना पड़ रहा है कि नसों की इतनी सामर्थ्य नहीं है इतनी तेजी से दौड़ाने की, इसलिए नसें फूल गई हैं। इसलिए क्रोधी आदमी की नसें फूली हुई ही हो जाएंगी। शांत हो जाएगा, नसें कम हो जाएंगी, क्योंकि खून की गति कम हो जाएगी।

आपने देखा होगा, क्रोध में चेहरा लाल हो जाएगा, आखें लाल हो जाएंगी। उसका और कोई कारण नहीं है। खून की गति तेज हो गई है। विचार इतनी तेजी से दौड़ रहे हैं कि खून को बहुत तेजी से दौड़ना पड़ता है। श्वास तेज हो जाएगी। कभी जब वासना मन को पकड़ लेगी तो आप पाएंगे कि श्वास तेज हो जाएगी, एकदम तेज हो जाएगी। सेक्स श्वास को एकदम तेज कर देगा, खून को तेज कर देगा, पसीना छूट जाएगा शरीर से। क्योंकि इतना तेज विचार चलेगा, तो मन इतना तेज चलेगा, तो मस्तिष्क के सारे स्नायु तेज खून फेकेंगे।

तो इसलिए शर्तें वही हैं, जो नींद की हैं। शरीर को शिथिल छोड़ दें, श्वास को शिथिल छोड़ दें, विचार को छोड़ दें। नींद की भी शर्तें यही हैं, ध्यान की भी शर्तें यही हैं। प्रारंभिक शर्तें एक सी हैं, अंतिम शर्त में फर्क है। नींद का है कि अब सो जाएं, और ध्यान का है कि अब जागे। ये तीनों शर्तें पूरी हो जाएं, आप जागे रहें, बस।

इसलिए जिन मित्र ने पूछा है, ठीक ही पूछा है। नींद और ध्यान में बड़े गहरे संबंध हैं। समाधि और सुषुप्ति में बड़े गहरे संबंध हैं। लेकिन एक फर्क है जो बहुत कीमती है। वह फर्क है, जागे हुए और मूर्च्छित होने का। नींद मूर्च्छा है, ध्यान जागृति है।

एक और मित्र ने पूछा है कि जिसे आप ध्यान कह रहे हैं उसमें और आटो— हिम्नोसिस में आत्म— सम्मोहन में क्या फर्क है?

वही फर्क है, जो नींद में और ध्यान में है। इस बात को भी समझ लेना उचित है। नींद है प्राकृतिक रूप से आई हुई, और आत्म —सम्मोहन भी निद्रा है प्रयत्न से लाई हुई। इतना ही फर्क है। हिप्नोसिस में—हिप्नोस का मतलब भी नींद होता है—हिप्नोसिस का मतलब होता है तंद्रा, उसका मतलब होता है सम्मोहन। एक तो ऐसी नींद है जो अपने — आप आ जाती है, और एक ऐसी नींद है जो कल्टीवेट करनी पड़ती है, लानी पड़ती है।

अगर किसी को नींद न आती हो, तो फिर उसको लाने के लिए कुछ करना पड़ेगा। अब एक आदमी अगर लेट कर यह सोचे कि नींद आ रही है, नींद आ रही है, नींद आ रही है मैं सो रहा हूं? मैं सो रहा हूं मैं सो रहा हूं. तो यदि यह भाव उसके प्राणों में घूम जाए, घूम जाए, घूम जाए, उसका मन पकड़ ले कि मैं सो रहा हूं, नींद आ रही है, तो शरीर उसी तरह का व्यवहार करना शुरू कर देगा। क्योंकि शरीर कहेगा कि नींद आ रही है तो अब शिथिल हो जाओ। नींद आ रही है तो श्वासें कहेंगी कि अब शिथिल हो जाओ। नींद आ रही है तो मन कहेगा कि अब चुप हो जाओ।

नींद आ रही है, इसका वातावरण पैदा कर दिया जाए अगर भीतर, तो शरीर उसी तरह व्यवहार करने लगेगा। शरीर को इससे कोई मतलब नहीं है। शरीर तो बहुत आज्ञाकरी है। अगर आपको रोज

ग्यारह बजे भूख लगती है, रोज आप खाना खाते हैं ग्यारह बजे और आज घड़ी में चाभी नहीं भर पाए हैं और घड़ी रात में ही ग्‍यारह बजे रुक गई है और अभी सुबह के आठ ही बजे हैं और आपने देखी घड़ी और देखा कि ग्यारह बज गए, तो एकदम पेट कहेगा भूख लग आई। अभी ग्‍यारह बजे नहीं हैं, अभी तीन घंटे हैं बजने में। लेकिन घड़ी कह रही है कि ग्‍यारह बज गए हैं, तो पेट एकदम से खबर कर देगा कि भूख लग आई है। क्योंकि पेट की तो यांत्रिक व्यवस्था है। ग्‍यारह बजे रोज भूख लगती है। तो ग्‍यारह बज गए तो भूख लग आयी है, पेट खबर कर देगा। पेट बिलकुल खबर देगा कि.,। अगर रोज रात आप बारह बजे सोते हैं और अभी दस ही बजे हैं और घड़ी ने बारह के घंटे बजा दिए, तो घड़ी के घंटे देखकर आप फौरन पाएंगे कि तंद्रा उतरनी शुरू हो गई। क्योंकि शरीर कहेगा कि बारह बज गये, सो जाना चाहिए।

शरीर बहुत आज्ञाकारी है। और जितना स्वस्थ शरीर होगा, उतना ज्यादा आज्ञाकारी होगा। स्वस्थ शरीर का मतलब ही यही होता है कि आज्ञाकारी शरीर। अस्वस्थ शरीर का मतलब होता है, जिसने आज्ञा मानना छोड़ दिया। अस्वस्थ शरीर का और कोई मतलब नहीं होता। इतना ही मतलब होता है कि आप आशा देते हैं, वह नहीं मानता है। आप कहते हैं, नींद आ रही है; वह कहता है, कहा आ रही है। आप कहते हैं, भूख लगी है; वह कहता है, बिलकुल नहीं लगी है। आज्ञा छोड़ दे, वह शरीर अस्वस्थ हो जाता है। आशा मान ले, वह शरीर स्वस्थ है, क्योंकि वह हमारे अनुकूल चलता है, हमारे पीछे चलता है, छाया की तरह अनुगमन करता है। जब वह आज्ञा छोड़ देता है, तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है।

तो हिप्नोसिस का मतलब, सम्मोहन का मतलब सिर्फ इतना है कि शरीर को आज्ञा देनी है और उसको आज्ञा में ले आना है।

हमारी बहुत—सी बीमारियां ऐसी हैं, जो झूठी हैं, जो सच्ची नहीं हैं। सौ में से अंदाजन पचास बीमारियां बिलकुल झूठी हैं। दुनिया में जो इतनी बीमारियां बढ़ती जाती हैं, उसका कारण यह नहीं है कि बीमारियां बढ़ती जाती हैं। उसका कारण यह है कि आदमी का झूठ बढ़ता जाता है, तो झूठी बीमारियां बढ़ती चली जाती हैं। इसको ठीक से खयाल में ले लें। तो रोज बीमारियां बढ़ रही हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि बीमारियां बढ़ती जाती हैं। बीमारियों को क्या मतलब है कि आप शिक्षित हो गए हैं तो बीमारियां बढ़ जाएं, कि गरीबी कम हो गई तो बीमारियां बढ़ जाएं। कम होनी चाहिए बीमारियां। नहीं, आदमी के झूठ बोलने की क्षमता बढ़ती चली जाती है। तो आदमी दूसरे से ही झूठ नहीं बोलता है, अपने से भी झूठ बोल लेता है। वह बीमारियां भी पैदा कर लेता है।

अगर समझ लें कि एक आदमी को बाजार जाने में कठिनाई है, दिवाला निकलने के करीब है। और उसका मन यह मानने को राजी नहीं होता है कि वह दिवालिया हो सकता है। और बाजार में जाने की हिम्मत नहीं होती, दुकान पर कैसे जाए। जो देखता है, वही पैसे मांगता है। अचानक वह आदमी पाएगा कि उसको ऐसी बीमारी ने पकड़ लिया है, जिसने उसे बिस्तर पर लगा दिया है। यह क्रिएटेड बीमारी है। यह उसके चित्त ने पैदा कर ली है। इस बीमारी के पैदा होने से दोहरे फायदे हो गए। एक फायदा यह हो गया कि अब वह कह सकता है कि मैं बीमार हूं इसलिए नहीं आता हूं। उसने अपने को भी समझा लिया और दूसरों को भी समझा लिया। अब इस बीमारी को किसी इलाज से ठीक नहीं किया जा सकता है। क्योंकि यह बीमारी होती तो इलाज काम करता। यह बीमारी नहीं है, इसलिए इसको जितनी दवाइयां दी जाएंगी, यह और बीमार पड़ता जाएगा।

अगर कभी दवाइयां देने से आपकी बीमारी ठीक न हो, तो आप जान लेना कि बीमारी दवाइयों वाली नहीं है। बीमारी कहीं और है, जिसका दवाई से कोई संबंध नहीं है। आप दवाई को गाली देंगे और कहेंगे कि सब डाक्टर मूर्ख हैं, इतनी चिकित्सा कर रहे हैं और मेरा इलाज नहीं होता। और आयुर्वेद से लेकर नेचरोपैथी तक, और एलोपैथी से लेकर होम्योपैथी तक चक्कर लगाएंगे, कहीं भी कुछ न होगा। कोई डाक्टर आपके काम नहीं पड़ सकता, क्योंकि डाक्टर आथेंटिक बीमारी, प्रामाणिक बीमारी को ही ठीक कर सकता है। झूठी बीमारी पर उसका कोई वश नहीं है। और मजा यह है कि जो झूठी बीमारी है, उसको पैदा करने में आप रसलीन हैं। आप चाहते हैं कि वह रहे।

स्त्रियों की बीमारियां पचास प्रतिशत से भी ऊपर झूठी हैं। क्योंकि स्त्रियों को बचपन से एक नुस्‍खा पता चल गया है कि जब वे बीमार होती हैं, तभी प्रेम मिलता है, और कभी प्रेम मिलता ही नहीं। जब बीमार होती हैं, तब पति दफ्तर छोड़ कर उनके पास कुर्सी लगाकर बैठ जाता है। मन में कितनी ही गालियां देता हो, लेकिन बैठ जाता है। और पति को जब भी उन्हें बिस्तर के पास बिठा रखना हो, तब उनका बीमार हो जाना एकदम जरूरी है। इसलिए स्त्रियां बीमार ही रही आई हैं। कोई मौका ही नहीं जब वे बीमार न हों, क्योंकि बीमारी में ही वे कब्जा कर लेती हैं, सब पर वे हावी हो जाती हैं। बीमार आदमी सारे घर का डिक्टेटर हो जाता है, बीमार आदमी तानाशाह हो जाता है। वह कहता है, इस वक्त सब रेडियो बंद, तो सब रेडियो बंद करना पड़ता है। वह कहता है, सब सो जाओ, तो सबको सोना पड़ता है। वह कहता है, आज घर के बाहर कोई नहीं जाएगा, सब यहीं बैठे रहो, तो सबको बैठना पड़ता है। तो तानाशाही प्रवृत्ति जितनी होगी, उतना आदमी बीमारी खोज रहा है। क्योंकि बीमार आदमी को कौन दुखी करे! अब वह जो कहता है, मान लो। जब ठीक हो जाएगा, तब ठीक है। लेकिन बड़ा खतरा है। हम इस तरह उसकी बीमारी को उकसावा दे रहे हैं।

अच्छा है कि पत्नी जब स्वस्थ हो, तब पति पास में बैठे। यह समझ में आता है। बीमार हो, तब तो कृपा करके दफ्तर चला जाए। क्योंकि उसकी बीमारी को उकसावा न दे। महंगा है यह। बच्चा जब बीमार पड़े तो मां को उसकी बहुत फिक्र नहीं करनी चाहिए, नहीं तो बच्चा जिंदगी भर जब भी फिक्र चाहेगा, तभी बीमार पड़ेगा। जब बच्चा बीमार पड़े, तब उसकी फिक्र कम कर देनी चाहिए एकदम। ताकि बीमारी और प्रेम में संबंध न जुड़ पाए, एसोसिएशन न हो पाए। यानी बच्चे को ऐसा न लगे कि जब मैं बीमार होता हूं तब मां को मेरे पैर दबाने पड़ते हैं, सिर दबाना पड़ता है। जब बच्चा खुश हो, प्रसन्न हो, तब उसके पैर दबाओं, सिर दबाओ, ताकि खुशी से प्रेम का संबंध जुड़े।

हमने दुख से प्रेम का संबंध जोड़ा है। और यह बहुत खतरनाक है। तब उसका मतलब यह है कि जब भी प्रेम की कमी होगी, तब दुख बुलाओ। तो दुख आएगा तो प्रेम भी पीछे से आएगा। इसलिए जिसको भी प्रेम कम हो जाएगा, वह बीमार हो जाएगा, क्योंकि बीमारी से फिर उसको प्रेम मिलता है।

लेकिन बीमारी से कभी प्रेम नहीं मिलता है। ध्यान रहे, बीमारी से दया मिलती है। और दया बहुत अपमानजनक है। प्रेम बात और है। लेकिन वह हमारे खयाल में नहीं है।

तो मैं आपसे यह कह रहा हूं कि शरीर तो हमारे सुझाव पकड़ लेता है। अगर हमें बीमार होना है, तो बेचारा शरीर बीमार हो जाता है। ऐसी बीमारियों को दूर करने के लिए हिप्नोसिस उपयोगी है,

सम्मोहन उपयोगी है। उसका मतलब यह है कि झूठी बीमारी है, झूठी दवा से काम होगा। सच्ची दवा काम नहीं करेगी। तो अगर हमने मान लिया है कि हम बीमार हैं तो अगर इससे विपरीत हम मानना शुरू कर दें कि हम बीमार नहीं हैं, तो बीमारी कट जाएगी। क्योंकि बीमारी हमारे मानने से पैदा है

इसलिए हिप्नोसिस बड़ी कीमती चीज है। और आज तो विकसित मुल्कों में ऐसा कोई बड़ा अस्पताल नहीं है, जहां एक हिप्नोटिस्ट न हो, जहां एक सम्मोहन करने वाला व्यक्ति न हो। अमेरिका के या ब्रिटेन के बड़े अस्पतालों में डाक्टरों के साथ एक हिप्नोटिस्ट भी रख दिया है। क्योंकि बीमारियां पचासों ऐसी हैं जिनके लिए डाक्टर बिलकुल बेकार है, उनके लिए हिप्नोटिस्ट काम में आता है। वह उनको बेहोश करना सिखाता है कि तुम बेहोश हो जाओ और यह भाव करो कि तुम ठीक हो रहे हो, ठीक हो रहे हो।

क्या आपको पता है कि दुनिया में सौ सांपों में से सिर्फ तीन प्रतिशत सांपों में जहर होता है, सत्तानबे प्रतिशत सांपों में कोई जहर ही नहीं होता। लेकिन कोई भी सांप कांटे, आदमी मर जाएगा। बिना जहर वाले सांप से भी आदमी मर जाता है। इसीलिए मंत्र—तंत्र काम कर पाते हैं। मंत्र—तंत्र यानी झूठा इलाज। अब एक आदमी को ऐसे सांप ने कांटा है जिसमें जहर है ही नहीं। अब इसको सिर्फ इतना विश्वास दिलाना जरूरी है कि सांप उतर गया। बस, काफी है! सांप उतर जाएगा। सांप चढ़ा ही नहीं था! और अगर उसको यह विश्वास न आए तो यह आदमी मर सकता है। अगर उसको यह पक्का विश्वास बना रहे कि सांप ने मुझे कांटा है, तो यह मरेगा। सांप ने मुझे कांटा है, इससे मरेगा, सांप के काटने से नहीं।

मैंने सुना है, एक बार ऐसी घटना घटी कि एक आदमी एक सराय से गुजरा। और रात उस सराय में उसने खाना खाया और सुबह चला गया, जल्दी उठकर चला गया। साल भर बाद वापस लौटा उस रास्ते से, उसी सराय में ठहरा। तो सराय के मालिक ने कहा कि आप सकुशल हैं? हम तो बडे डर गए थे। उसने कहा, क्या हो गया? जिस रात आप यहां ठहरे थे, जो खाना बना था, उसमें एक सांप गिर गया था। तो चार आदमियों ने खाया और वे चारों मर गए। एक आप थे, जो आप जल्दी उठकर चले गए। आपके लिए हम बड़े चिंतित थे। मगर आप जिंदा हैं? उस आदमी ने कहा, सांप? और वह आदमी वहीं गिर पड़ा और मर गया, साल भर बाद। कहा कि सांप खा गया हूं, उसके हाथ पैर कंपे और वह वहीं गिर गया। उस सराय के मालिक ने कहा, घबराइये नहीं, अब तो कोई सवाल ही नहीं! पर वह आदमी तो गया, जा चुका।

इस तरह की बीमारी के लिए हिप्नोसिस बहुत उपयोगी है। लेकिन हिप्नोसिस का मतलब ही इतना है कि जो हमने व्यर्थ ही, झूठा ही अपने चारों तरफ जोड़ लिया है, उसे हम दूसरे झूठ से काट सकते हैं। ध्यान रहे, अगर झूठा कांटा किसी के पैर में लगा हो, तो असली कांटे से कभी मत निकालना। झूठे कांटे को असली कांटे से निकालने में बड़ा खतरा होगा। एक तो झूठा कांटा न निकलेगा और असली कांटा और पैर में छिद जाएगा। झूठे कांटे को झूठे कांटे से ही निकालना होता है।

ध्यान में और हिप्नोसिस में क्या संबंध है? इतना ही संबंध है कि जहां तक झूठे कांटे गड़े हैं, वहां तक हिप्नोसिस का उपयोग किया जाता है। जैसे कि मैं आपसे कहता हूं कि यह भाव करें कि शरीर शिथिल हो रहा है, यह हिप्नोसिस है, यह सम्मोहन है, यह आत्म—सम्मोहन है।

असल में आपने ही यह भाव कर रखा है कि शरीर शिथिल नहीं हो सकता है। उसको काटने के लिए इसकी जरूरत है, और कोई जरूरत नहीं है। अगर आपको यह पागलपन न हो, तो आप एक ही दफे खयाल करें कि शरीर शिथिल हो गया, शरीर शिथिल हो जाएगा। शरीर को शिथिल करने के लिए यह काम नहीं हो रहा है। आपकी जो धारणाएं हैं कि शरीर शिथिल होता ही नहीं, उसको काटने के लिए आपके मन में यह धारणा बनानी पड़ेगी कि शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है। आपकी झूठी धारणा को इस दूसरी झूठी धारणा से काट दिया जाएगा। और जब शरीर शिथिल हो जाएगा तो आप जानेंगे कि ही, शरीर शिथिल हो गया है। और शरीर का शिथिल होना बिलकुल स्वाभाविक धर्म है। लेकिन हम इतने तनाव से भर गए हैं और तनाव हमने इतना पैदा कर लिया है कि अब उस तनाव को मिटाने के लिए भी हमें कुछ करना पड़ेगा।

तो हिप्नोसिस का इतना उपयोग है। जब आप भाव करते हैं, शरीर शिथिल हो रहा है, श्वास शांत हो रही है, मन शांत हो रहा है, तो यह हिप्नोसिस है। लेकिन यहीं तक। इसके बाद ध्यान शुरू होता है। यहां तक ध्यान है ही नहीं। ध्यान इसके बाद शुरू होता है, जब आप जागते हैं। जब आप द्रष्टा हो जाते हैं। जब आप देखने लगते हैं कि ही, शरीर शिथिल पड़ा है, श्वास शांत चल रही है, विचार बंद हो गए हैं या विचार चल रहे हैं। जब आप देखने लगते हैं, बस आप सिर्फ देखने लगते हैं, वह जो द्रष्टा भाव है, वही ध्यान है। उसके पहले तक तो हिप्नोसिस ही है। और हिप्नोसिस का मतलब है लाई गई निद्रा, और कोई मतलब नहीं है। नहीं आती थी, हमने लाई है। प्रयास किया है, उसे बुलाया है, आमंत्रित किया है। निद्रा आमंत्रित की जा सकती है। अगर हम तैयार हो जाएं और अपने को छोड़ दें, तो वह आ जाती है। लेकिन ध्यान और हिप्नोसिस एक ही चीज नहीं हैं। मेरी बात समझ लेना खयाल से।

मैंने कहा कि यहां तक हिप्नोसिस है, यहां तक सम्मोहन है, जहां तक सब भाव कर रहे हैं। जब भाव करना बंद किया और जाग गए, अवेयरनेस जहां से शुरू हुई, वहां से ध्यान शुरू हुआ। जहां से द्रष्टा, साक्षी— भाव शुरू हुआ, वहां से ध्यान शुरू हुआ। और इस हिप्नोसिस की इसलिए जरूरत है कि आप उलटी हिप्नोसिस में चले गए हैं। यानी इसको अगर वैज्ञानिक भाषा में कहना पड़े, तो यह हिप्नोसिस न होकर डि—हिप्नोसिस है। यह सम्मोहन न होकर, सम्मोहन तोड़ना है। सम्मोहित हम हैं और हमें पता नहीं। क्योंकि जिंदगी में हम सम्मोहित हो गए हैं। हमें पता ही नहीं, हमको खयाल ही नहीं कि हमने कितने तरह के सम्मोहन कर लिये हैं, और हमने किस—किस तरकीब से सम्मोहन को पैदा कर लिया है।

हमारी पूरी जिंदगी का बड़ा हिस्सा सम्मोहन का है। और जब हम सम्मोहित होना चाहते हैं, तो हम खयाल ही नहीं रखते कि हम यह क्या कर रहे हैं। जैसे उदाहरण के लिए?….. हम जिंदगी भर ऐसे ही जीते हैं। वह हमें खयाल में आ जाए, तो सम्मोहन टूट जाए। सम्मोहन टूटे, तो भीतर प्रवेश हो सकता है, क्योंकि सम्मोहन असत्य की दुनिया है। जैसे समझें कि एक आदमी साइकिल चलाना सीख रहा है। बड़ा रास्ता है, साठ फीट चौड़ा है। और एक पत्थर पड़ा हुआ है किनारे पर, एक मील का पत्थर लगा हुआ है। अब वह आदमी साठ फीट चौड़े रास्ते पर अगर आंख बंद करके भी साइकिल चलाए, तो बहुत कम मौके हैं कि उस पत्थर से टकराए। आंख बंद करके भी चलाए तो भी साठ फीट चौड़े रास्ते पर जरा सा एक पत्थर लगा हुआ है, उससे टकराने की क्या जरूरत है? लेकिन उस आदमी को अभी साइकिल चलाना नहीं आता है। उसे रास्ता पहले नहीं दिखाई पड़ता है, पहले उसे पत्थर दिखाई पड़ता है। पहले उसे यह डर है कि टकरा न जाऊं।

बस, उसको जैसे ही यह डर हुआ कि टकरा न जाऊं कि वह हिप्नोटाइज हुआ। यानी हिप्नोटाइज होने का मतलब यह हुआ कि रास्ता दिखना बंद हुआ और पत्थर दिखना शुरू हुआ। अब उसे पत्थर दिखने लगा। अब वह डर रहा है, उसका हैंडिल घूमने लगा पत्थर की तरफ। वह जितना हैंडिल घूमता है, उतना ही वह डर रहा है। और जहां ध्यान है, वहीं तो हैंडिल जाएगा। और ध्यान उसका पत्थर पर है। और ध्यान इसलिए है कि टकरा न जाऊं। टकरा न जाऊं पत्थर से, तो रास्ता मिट गया, पत्थर ही रह गया। अब वह पत्थर की तरफ सम्मोहित चला जा रहा है। और जितना जाता है, उतना घबराता है; जितना घबराता है, उतना जाता है। वह आदमी पत्थर से टकरा जाता है। सिक्खड़ आदमी को बड़ी हैरानी होती है कि इतना बड़ा रास्ता था, मैं इस पत्थर से कैसे टकरा गया?

वह बच कर क्यों नहीं निकल सका? वह हिप्नोटाइज हो गया। उसने ध्यान दिया पत्थर पर कि कहीं टकरा न जाऊं। फिर पत्थर दिखाई पडने लगा। फिर जब पत्थर दिखाई पड़ने लगा, तब हाथ ने वहीं मोड़ लिया। क्योंकि शरीर उसी तरफ जाता है, जहां ध्यान जाता है। शरीर वहीं चला जाता है, जहां ध्यान जाता है। शरीर तो अनुगामी है ध्यान का। और वह चल पड़ा। और जितना वह डरा, उतना ही पत्थर का ध्यान रखना पड़ा कि कहीं टकरा न जाऊं, तो पत्थर को देखता रहूं। तो जिसको उसने देखा, उससे वह हिप्नोटाइज हो गया, सम्मोहित हो गया, वह चला गया, वह पत्थर से टकरा गया। तो जिंदगी में हम जिन भूलों से बहुत सचेत होकर बचना चाहते हैं, अक्सर उन्हीं से टकरा जाएंगे, उनसे ही हम सम्मोहित हो जाएंगे।

एक आदमी क्रोध से डरता है कि कहीं क्रोध न आ जाए, और वह दिन में चौबीस घंटे में चौबीस बार पाएगा कि क्रोध आ गया। और जितना वह डरेगा कि क्रोध न आ जाए, क्रोध पर सम्मोहित हो जाएगा। फिर चौबीस घंटे क्रोध खोजने लगेगा। जो आदमी स्त्री से डरेगा कि कोई सुंदर स्त्री न दिखाई पड़ जाए नहीं तो वासना उठ आएगी, उसको चौबीस घंटे सुंदर स्त्रियां दिखाई पड़ेगी। धीरे — धीरे कुरूप स्त्रिया भी सुंदर हो जाएंगी, धीरे— धीरे पुरुष भी स्त्रियां मालूम होने लगेंगे। पीछे से कोई साधु दिख जाए, तो वह चक्कर लगाकर देखकर आएगा कि कौन है। बड़े बाल हों तो उसको शक हो जाएगा कि कहीं स्त्री तो नहीं है। फिर उसको चित्रों में भी स्त्रियां दिखाई पड़ने लगेंगी। एक पोस्टर लगा हुआ है, वह उससे भी सम्मोहित हो जाएगा। पोस्टर पर क्या है, सिर्फ कुछ रंग फेंका हुआ है, लेकिन पोस्टर भी सम्मोहित कर लेगा। वह एक नंगे चित्र को उठाकर भी. वह गीता में छिपा कर, कुरान में छिपाकर एक नंगे चित्र को देखेगा स्त्री के। और सोचेगा भी नहीं कि सिर्फ रेखाएं खिंची हैं, इसमें इतना सम्मोहित क्यों हुआ जा रहा हूं। वह स्त्री से बचना चाहता रहा है, वह घबरा गया है। अब स्त्री के सिवाय उसे कोई दिखाई ही नहीं पड़ता। अब वह मंदिर में चला जाए, मस्जिद में चला जाए, कहीं भी चला जाए, स्त्री ही दिखाई पड़ती है। यह भी सम्मोहन है।

जो समाज सेक्स—विरोधी होगा, वह समाज सेक्सुअल हो जाता है। जो समाज काम—विरोधी होगा और जो काम की निंदा करेगा, उस समाज का पूरा चित्त कामुक हो जाएगा। क्योंकि जिसकी वह निंदा करेगा, उससे ही सम्मोहित हो जाएगा, उस पर ही ध्यान चला जाएगा। जितनी ही ब्रह्मचर्य की बातें होंगी, उतने ही गंदे और व्यभिचारी लोग उस समाज में पैदा होंगे। क्योंकि वह ब्रह्मचर्य की अति चर्चा कामुकता पर चित्त को केंद्रित कर देती है। यह सब हमारी हिप्नोसिस है और हम इसमें जी रहे हैं। सारी दुनिया इसमें उलझी हुई है। और इसको तोड़ना मुश्किल पड़ता है, क्योंकि तोड्ने के लिए हम जो करते हैं, उससे हिप्नोसिस बढ़ती है।

इसी तरह हमने बहुत सी जिंदगी के न मालूम क्या—क्या हिप्नोसिस बना रखे हैं। और उनको हम पैदा किए चले जाते हैं और फिर उन्हीं में जीते रहते हैं। इनको तोड़ना जरूरी है ताकि हम जाग सकें। मगर तोड्ने के लिए भी चूंकि यह झूठा सब जाल है, ठीक झूठे कांटे ही खोजने पड़ते हैं।

इसलिए सब साधना एक अर्थ में झूठ को निकालने के लिए है और इसलिए झूठ है। सब साधना, सब मेथड, दुनिया भर में सब प्रयोग जिनसे हम परमात्मा की तरफ जाने की कोशिश करते हैं, झूठे हैं। क्योंकि परमात्मा से दूर हम कभी गए ही नहीं हैं। सिर्फ हम खयाल में चले गए हैं।

जैसे एक आदमी रात सोये द्वारका में और सपने में कलकत्ता पहुंच जाए। अब वह घबराने लगे रात में कि मेरी तो पत्नी बीमार है घर पर और मुझे द्वारका पहुंचना है और मैं कलकत्ता आ गया, अब मैं किस ट्रेन से जाऊं, किस टाइम—टेबिल को देखूं, किस हवाई जहाज को पकडूं? किस बस को पकडुं कैसे जाऊं? पूछने लगे लोगों से कि मैं द्वारका कैसे जाऊं? तो अगर उसको कोई बताये कि तुम फलां —फलां स्टेशन पर जाकर ट्रेन पकड़ लो, तो वह मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि पहली तो बात यह है कि वह कलकत्ते में नहीं है। कलकत्ते में वह होता, तो ट्रेन पकड़कर द्वारका आ सकता था। वह कलकत्ता गया ही नहीं है कभी, सिर्फ कलकत्ता पहुंच गया है सपने में, कल्पना में, हिप्नोसिस में। उसको जो भी रास्ता बताया जाएगा, वह सब मुश्किल में डाल देने वाला है।

कोई रास्ता किसी मतलब का नहीं, सब रास्ते झूठे होंगे। और वह द्वारका लौटेगा तो सच्चे रास्ते से लौट ही नहीं सकता, क्योंकि सच्चा रास्ता हो ही नहीं सकता। वह कलकत्ता कभी पहुंचा ही नहीं है कि वहां से कोई रास्ता पकड़ ले। अगर वह किसी ट्रेन में बैठकर द्वारका आएगा, तो वह ट्रेन उतनी ही झूठी होगी जितना झूठा कलकत्ता था। और अगर कलकत्ता के हावड़ा स्टेशन से पकड़ेगा गाड़ी तो वह हावड़ा स्टेशन उतना ही झूठा होगा जितना कलकत्ता था। और टिकट अगर खरीदेगा, तो उतनी ही झूठी होगी। और रास्ते में अगर टिकट चैकर वगैरह आयेंगे, तो वे सब झूठे होंगे। जो स्टेशन वगैरह पड़ेंगे, वे सब झूठे होंगे। फिर वह द्वारका आ जाएगा, फिर वह प्रसन्न होकर उठ आएगा। तब हैरान होगा कि बड़े आश्चर्य की बात है, मैं तो अपनी खाट पर सोया हुआ हूं। मैं कहीं गया नहीं था, तो मैं लौटा कैसे। जाना भी झूठ था, लौटना भी झूठ है।

परमात्मा के बाहर कोई कभी गया ही नहीं है, जा भी नहीं सकता है। क्योंकि वही है, उसके बाहर जाने का उपाय नहीं है। इसलिए जाना भी झूठ है, लौटना भी झूठ है। लेकिन जब जा चुके हैं तो लौटना पड़ेगा, कोई उपाय नहीं है। जब जा ही चुके हैं, तब लौटना पड़ेगा। इसलिए लौटने के लिए उपाय पकड़ने पड़ेंगे। लेकिन जब आप लौट आएंगे, तब आप पाएंगे कि सब मेथड झूठ थे, सब साधना झूठी थी। साधना करनी पड़ी इसलिए कि हम चले गए थे सपने में, इसलिए लौटना पड़ा। अगर यह समझ में आ जाए तो शायद कुछ भी न करना पड़े और आप अचानक पाएंगे कि लौट गए हैं। लेकिन यह समझ में आना मुश्किल है, क्योंकि आप पहुंच गए हैं। आप कहते हैं कि यह तो आप ठीक कहते हैं, लेकिन कलकत्ते में हूं मैं, लौटूं कैसे, यह बताइए।

अभी एक मित्र ने और पूछा हुआ है कि क्या आपको ईश्वर मिल गया है? अब वे इसी तरह की बात पूछ रहे हैं। मैं उनसे पूछता हू कि क्या आपको ईश्वर खो गया है? अगर मैं कहूं कि मिल गया है, तो मैंने यह मान लिया कि वह खो गया था। वह मिला ही हुआ है। जब हमें लगता है कि खो गया है, तब भी मिला हुआ है। तब भी हम सिर्फ एक सम्मोहन में खो गए हैं और लगता है कि खो गया है। इसलिए जो आदमी कहे कि ही, मुझे ईश्वर मिल गया है, वह आदमी अभी गलती में है। अभी उसको यह खयाल समझ में नहीं आया है कि वह खोया ही नहीं था। इसलिए जो जान लेते हैं, वे ऐसा नहीं कहेंगे कि ईश्वर मिल गया है, वे कहेंगे, उसे खोया ही नहीं था।

जिस दिन बुद्ध को शान हुआ और गांव के लोग इकट्ठे हो गए और उन्होंने पूछा कि आपको क्या मिल गया है? बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो खोया ही नहीं था, वही दिखाई पड़ गया है। जो खोया ही नहीं था, जो प्राप्त ही था, वही प्राप्त हो गया है। तो गाव के लोगों ने कहा, मतलब कि कुछ फायदा नहीं हुआ, बेकार मेहनत गई! बुद्ध ने कहा, ही उस अर्थ में कोई फायदा नहीं हुआ, लेकिन अब मेहनत करने की कोई जरूरत न रह गई, इतना फायदा हो गया। उस अर्थ में तो कोई फायदा न हुआ, लेकिन अब मेहनत करने की जरूरत न रह गई। अब मैं कभी खोजने न जाऊंगा, अब मैं कभी कुछ न पाने निकलूंगा, अब मैं किसी यात्रा पर न जाऊगा, बस इतना फायदा हो गया है। क्योंकि अब मैं जानता हूं कि जहां हूं? वहीं हूं सदा से। सिर्फ सपने में हम बाहर चले जाते हैं, कहीं और चले जाते हैं, जहां हम नहीं हैं। इसलिए सब धर्म एक अर्थ में झूठ हैं। इस अर्थ में झूठ हैं कि वे लौटने की प्रक्रियाएं हैं। और सब साधनाएं झूठ हैं और सब योग झूठ है, क्योंकि वे लौटने की प्रक्रियाएं हैं। लेकिन बड़े उपयोगी हैं।

अब जिसको सांप ने काट खाया है —चाहे झूठे सांप ने ही सही—गाव का ओझा बड़ा उपयोगी है, जो मंत्र फूंककर, झाडू मारकर सांप का जहर अलग कर देता है। इसकी बड़ी जरूरत है, यह गांव में रहना चाहिए। यह नहीं रहेगा तो लोग मर जाएंगे, उस सांप से कटकर जो कि है ही नहीं।

मैं जिस जगह रहता हूं मेरे पड़ोस में एक आदमी रहते थे। अब वे गुजर गए। उनके पास हिंदुस्तान से दूर—दूर से लोग सांप झड़वाने आते थे। वे बड़े होशियार आदमी थे। उन्होंने दस—पांच सांप पाल रखे थे। उनके घर में सांप सब पले हुए थे। जब कोई आदमी आता, तो उसकी झाडू —फूंक करते और कहते कि कैसा सांप था? क्या था? कहां कांटा था? मरा तो नहीं? वे सब जांच—पड़ताल कर लेने के बाद फिर वे सांप को बुलाते। वह भी सांप कहां आने वाला था! उनके घर के बंधे हुए जो सांप थे, वे निकल आते। वह सब उनकी ट्रिक थी कि वह कैसे क्या करेंगे तो कौन से नंबर का सांप चला आएगा। उसका ताला खुलवा देंगे। वह सांप घंटा आध—घटा में फन फुफकारता हुआ दरवाजे से अंदर प्रवेश करेगा। जैसे ही वह प्रवेश करेगा, चमत्कार हो गया।

अब जिसको सांप काटता है, वह ठीक से देख भी तो नहीं पाता —किसने कांटा, कैसा था, क्या नहीं था? वह तो कांटे जाने की झंझट में पड़ जाता है —मर गया! झंझट में पड़ जाता है, सांप

तो कहीं खो जाता है। और अगर सांप मर जाये, यानी मार डाला गया हो, तो फिर उसकी आत्मा को बुलाएंगे, फिर उसकी आत्मा उनके सांप में आएगी। और जब वह सांप सामने आ जाएगा, तो उसको बहुत डाटेंगे, डपटेंगे। वह सांप क्षमा मांगेगा, सिर पटकेगा। और उस आदमी का विष उतरना शुरू हो जाएगा। और वे कहेंगे, ठीक है, वापिस इसका जहर पी लो। उसके घाव पर वह सांप मुंह लगाएगा। और वह आदमी ठीक हो गया, वह आदमी गया।

दुर्भाग्य से उनके लडके को सांप ने काट खाया, तब बड़ी मुश्किल हो गई, क्योंकि उनकी दवा बिलकुल काम न की। वे मेरे पास भागे हुए आए। उन्होंने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, आप कुछ रास्ता बताइये, मेरे लड़के को सांप ने काट खाया है। और वह जानता है कि सारे सांप घर में बंधे हैं। यह सब चालबाजी है। अब मैं क्या करूं? यह तो मर जाएगा लड़का, अब कुछ मैं कर ही नहीं सकता। मैंने कहा, आप तो इतने बड़े झाडूने वाले हैं, आपके पास लोग दूर—दूर से आते हैं। उन्होंने कहा, यह सब ठीक है। मुझको काट खाये, तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊं। और मुझको अगर काट खाये तो मुझे बचाना मुश्किल है, क्योंकि हर झाडूने वाला मुझे चालाक मालूम पड़ेगा कि कुछ न कुछ गड़बड़ कर रहा होगा। और सांप ने काट खाया है और बचना बहुत मुश्किल है। उनका लड़का नहीं बच सका। वे अपने लडके को न बचा सके।

ध्यान धीरे— धीरे, धीरे — धीरे जीवन के स्रोत पर खड़ा कर देता है। फिर ऐसा नहीं है कि हम उसमें से चुल्लू भर— भर कर लाते हैं। फिर हम स्रोत में ही खडे हो जाते हैं। फिर ऐसा नहीं है कि हम तेल दीये में भरते हैं, फिर तो तेल का सागर ही उपलब्ध हो जाता है। फिर हम उसमें ही जीने लगते हैं। और वैसा जीना नींद को विलीन कर देता है। इस अर्थ में नहीं कि आदमी नहीं सोता है, इस अर्थ में कि सोते हुए भी भीतर कोई जागा ही रहता है। और तब सपने बिलकुल खो जाते हैं।

झूठ को मिटाने के लिए झूठ के उपाय हैं। लेकिन उनकी सार्थकता है। सार्थकता इसलिए कि हम झूठ में चले गए हैं। इसलिए इस भाषा में पूछें ही मत, सम्मोहन ही है शुरू में तो। प्रारंभिक चरण सम्मोहन के निद्रा के हैं, अंतिम चरण ही ध्यान का है। वही कीमती है। लेकिन उसके लिए यह भूमिका अत्यंत आवश्यक है। जिस झूठ में आप चले गए हैं, वहां से लौट आना आवश्यक है।

और इस भाषा में भी कभी न पूछें कि ईश्वर मिल गया है कि नहीं मिल गया है। यह बात ही गलत है। किसको मिलेगा? कौन मिलेगा? जो है, वह है। जिस दिन आप जागेंगे, उस दिन आप पाएंगे कि न कुछ खोया है, न कहीं गए हैं, न कुछ मिटा है, न कुछ मरा है; जो है, वह है। तब उस दिन सब यात्रा, सब जाना बंद हो जाता है।

आवागमन से मुक्ति का क्या मतलब होता है? आवागमन से मुक्ति का मतलब यह नहीं होता है कि यहां पैदा नहीं होंगे। आवागमन से मुक्ति का मतलब होता है, तब कोई आना—जाना न रहा। कहीं भी, किसी तल पर भी आना—जाना न रहा। वह कमिंग और गोआ गई। तब हम वहीं रह गए, जहां हैं। और जिस दिन हम वहीं रह जाते हैं, जहां हैं, उसी दिन आनंद के झरने फूट पड़ते हैं। क्योंकि जहां हम नहीं हैं, वहा हम आनंदित कभी नहीं हो सकते, जहां हम हैं, वहीं आनंदित हो सकते हैं। जो हम हैं, वही होकर आनंदित हो सकते हैं, जो हम नहीं हैं, वह हम होकर कभी भी आनंदित नहीं हो सकते हैं।

इसलिए आवागमन का मतलब है कि हम कहीं और भटक रहे हैं, जहां हम नहीं हैं। हम कहीं और खो गए हैं, जहां हम कभी भी नहीं गए। हम कहीं ऐसी जगह पर घूम रहे हैं, जहां हमारा कभी होना ही नहीं है। और जहां हम हैं, वहा से हम चूक गए हैं। आवागमन से मुक्ति का मतलब है, वहां आ जाना, जहां हम हैं।

परमात्मा में आने का मतलब है, वही हो जाना जो हम हैं। कोई ऐसा नहीं है कि किसी दिन परमात्मा मिल जाएगा कहीं खड़ा हुआ और आप नमस्कार करेंगे और कहेंगे कि धन्यवाद, आप मिल गए। ऐसा कहीं कोई परमात्मा नहीं है। और अगर ऐसा कहीं दिख जाये, तो समझना कि सब हिप्नोसिस चल रही है। यह भी क्रियेटेड है। यह भगवान भी अपने ही बनाए हुए हैं। इनकी मुलाकात भी उतनी ही झूठी है। जितना इनका खोना झूठा था उतना ही इनका मिलना झूठा है। कहीं ऐसा कोई भगवान नहीं मिल जाने वाला है।

इसलिए यह हमारी भाषा हमको धोखा देती रहती है, क्योंकि भाषा में हमको लगता है ईश्वर—साक्षात्कार, ईश्वर—दर्शन। ये शब्द बड़े गलत हैं। इन शब्दों से ऐसा लगता है कि कहीं कोई मिल जाएगा जिसका दर्शन कर लेंगे, साक्षात्कार हो जाएगा, गले मिल लेंगे, भेंट हो जाएगी। सब झूठी बात है। अगर ऐसा कभी कोई परमात्मा मिल जाए, तो फौरन सावधान हो जाना। यह परमात्मा बिलकुल आपके ही मन का निर्माण होगा। यह हिप्नोसिस होगी।

सब हिप्नोसिस से लौट जाना है वापस। उस जगह खड़े हो जाना है जहां कोई निद्रा नहीं, जहां कोई सम्मोहन नहीं, जहां हम पूरे जागे हुए, जो हैं वह खड़े रह गए हैं। उस जगह जो अनुभव होगा, वह समस्त जीवन की एकता का अनुभव है, वह समग्र के एक होने का अनुभव है। उस अनुभूति का नाम परमात्मा है।

अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठें। कुछ और मैं रात बात कर लूंगा।

थोड़े — थोड़े फासले पर हो जाएं। और बातचीत न करें, चुपचाप फासले पर हो जाएं। जगह बना लें। जिन्हें लेटना हो, वे लेट जाएं, वे लेटने लायक जगह बना लें। और बीच में भी किसी की गिरने जैसी हालत हो जाए तो उसे गिर जाना है, उसे अपने को रोकना नहीं है।

हां, ऊपर दहलान पर चले जाएं, लेकिन जगह बना लें। क्योंकि पीछे किसी के ऊपर गिर जाएं तो आपको भी तकलीफ मालूम पडे और दूसरे का ध्यान भी बंट जाए। तो हट जाएं…..। ही, यहां नीचे आ जाएं……।

आंख बंद कर लें…… कोई बच्चे बात नहीं करेंगे, चुपचाप बैठेंगे दस मिनट… आंख बंद कर लें शरीर को ढीला छोड़ दें…… शरीर को शिथिल छोड़ दें। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर में कोई प्राण ही नहीं हैं। सारी शक्ति को भीतर चले जाने दें…. शक्ति शरीर की भीतर जा रही है… भीतर बही जा रही है भीतर हम सिकुड़े जा रहे हैं। और शरीर एक खोल की तरह बाहर टंगा रह जाएगा. चाहे गिर जाए…… चाहे अटका रह जाए….. लेकिन बाहर एक कपड़े के खोल की तरह रह जाएगा। भीतर सरक जाएं…… और शरीर को शिथिल छोड़ दें। फिर मैं सुझाव देता हूं मेरे साथ अनुभव करें।

अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर शिथिल हो रहा है….. शरीर शिथिल हो रहा है। भाव करें, और शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। शरीर बिलकुल आज्ञाकारी है; जब पूरा भाव करेंगे, शरीर एकदम मुर्दा हो जाएगा। भाव करें, शरीर शिथिल हो रहा है……. शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है। छोड़ दें….. सारी पकड़ छोड़ दें.. शरीर को भीतर से पकड़े न रहें, बिलकुल छोड़ दें. अपनी सारी पकड़ सरका लें। जैसे अपना शरीर ही नहीं है….. अब जो होगा, होगा. गिरेगा, गिरेगा….. खोएगा, खोएगा…. बिलकुल हट जाएं पीछे. भाव को हटा लें।

शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है… शरीर शिथिल हो रहा है.. शरीर शिथिल हो रहा है… शरीर शिथिल हो रहा है…… शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर शिथिल हो गया है…… छोड़ दें… शरीर पर सब पकड़ छोड़ दें. गिरे, गिर जाए! शरीर शिथिल हो गया है… जैसे बिलकुल मुर्दा हो गया….. जैसे बिलकुल मृत हो गया। मर ही जाएं….. शरीर के तल पर बिलकुल मर जाएं….. जैसे शरीर गया। शरीर अब नहीं है…… हम अलग हो गए हैं…… हम दूर हट गए हैं।

श्वास शांत हो रही है. भाव करें, श्वास शांत होती जा रही है. श्वास शांत हो रही है… श्वास शांत हो रही है…..? श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत हो रही है श्वास शांत हो रही है….. श्वास शांत होती जा रही है. श्वास शांत होती जा रही है। छोड़ दें….. श्वास को भी छोड़ दें.. और भीतर हट जाएं। श्वास शांत हो गई है.. श्वास शांत हो गई है श्वास शांत हो गई है….. श्वास शांत हो गई है। श्वास से भी पीछे हट गए हैं… श्वास शांत हो गई है।

विचार भी शांत हो रहे हैं… विचार भी शांत हो रहे हैं…… विचार भी शांत हो रहे हैं। विचार से भी हट जाएं… विचार को भी छोड़ दें। विचार शांत होते जा रहे हैं….. विचार शांत हो रहे हैं… विचार शांत हो रहे हैं….. विचार शांत हो रहे हैं.. विचार शांत हो रहे हैं… विचार शांत हो रहे हैं। विचार भी छोड़ दें… विचार शांत हो रहे हैं….. विचार शांत हो रहे हैं…… विचार शांत हो रहे हैं…… विचार शांत हो रहे हैं।

शरीर शिथिल हो गया है विचार शांत हो गए हैं दस मिनट के लिए भीतर जागे हुए रह जाएं….. दस मिनट के लिए भीतर जागे हुए रह जाएं। दस मिनट के लिए सब मर गया है, हम भीतर एक ज्योति की तरह जागे हुए रह गए हैं। शरीर दूर पड़ा रह गया है…… श्वास दूर सुनाई पड़ रही है… विचार शांत हो गए हैं…… भीतर हमारी चेतना जागी हुई देख रही है। सो नहीं जाना है, भीतर जागे रहना है।

भीतर जागते रहें…… भीतर देखते रहें. देखते रहें….. द्रष्टा हो जाएं। और एकदम गहराई शुरू होगी….. सन्नाटा शुरू होगा शून्य शुरू होगा। अब दस मिनट के लिए चुप…. भीतर देखते रह जाएं। ( भगवान श्री कुछ मिनट मौन रहकर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)

मन शांत हो गया है… मन बिलकुल शांत हो गया है। और गहरे डूब जाएं…… जैसे कोई गहरे कुएं में गिरता हो.. गिरते जाएं….. गिरते जाएं…..। भीतर जागे रहें और शून्य होते चले जाएं। भीतर होश रखें जागे रहें.. देखते रहें। और सब मर गया है…… शरीर बिलकुल दूर रह गया है… श्वास दूर छूट गई है? विचार खो गए हैं…… हम ही रह गए हैं। बस जागे देखते रहें… देखते रहें… मन और शून्य होता चला जाएगा।

(मौन, निर्जन, सन्नाटा…….।)

(कुछ मिनट बाद भगवान श्री साधकों को धीरे— धीरे गहरी श्वास लेने एवं ध्यान से वापस लौटने का सुझाव देते हैं……. और बहुत धीरे — धीरे उन्हें आंख खोलने को कहते हैं…… और सुबह की इस बैठक की समाप्ति की घोषणा करते हैं।)

आज की बैठक यहीं समाप्‍त होती है।


Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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