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जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–6)

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गहरे पानी पैठ—(प्रवचन—छठवां)

(समापन प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

तीन दिनों में बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं और इसलिए आज बहुत संक्षिप्त में जितने ज्यादा प्रश्नों पर बात हो सके, मैं करना चाहूंगा।

 कितनी प्यास?

एक मित्र ने पूछा है कि ओशो विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा कि क्या आपने ईश्वर देखा है? तो रामकृष्ण ने कहा लूं जैसा मैं तुम्हें देख रहा हूं ऐसा ही मैने परमात्मा को भी देखा है। तो वे मित्र पूछते हैं कि जैसा विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा क्या हम भी वैसा आपसे पूछ सकते हैं?

हली तो बात यह, विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछते समय यह नहीं पूछा कि हम आपसे पूछ सकते हैं या नहीं पूछ सकते हैं। विवेकानंद ने पूछ ही लिया। और आप पूछ नहीं रहे हैं, पूछ सकते हैं या नहीं पूछ सकते हैं, यह पूछ रहे हैं। विवेकानंद चाहिए वैसा प्रश्न पूछनेवाला। और वैसा उत्तर रामकृष्ण किसी दूसरे को न देते। यह ध्यान रहे, रामकृष्ण ने जो उत्तर दिया है वह विवेकानंद को दिया है, वह किसी दूसरे को न दिया जाता।

अध्यात्म के जगत में सब उत्तर नितांत वैयक्तिक हैं, पर्सनल हैं। उसमें देनेवाला तो महत्वपूर्ण है ही, उससे कम महत्वपूर्ण नहीं है जिसको कि दिया गया है, उसमें समझनेवाला उतना ही महत्वपूर्ण है। न मालूम कितने लोग मुझसे आकर पूछते हैं कि विवेकानंद को रामकृष्ण के छूने से अनुभूति हो गई, तो आप हमें छू दें, और हमें अनुभूति हो जाए! वे यह नहीं पूछते कि विवेकानंद के सिवाय रामकृष्ण ने हजारों लोगों को छुआ है, उनको अनुभूत नहीं हुई। उस छूने में जो अनुभूति हुई है उसमें रामकृष्ण पचास प्रतिशत महत्वपूर्ण हैं, पचास प्रतिशत विवेकानंद हैं। वह अनुभुति आधी—आधी है। और ऐसा भी जरूरी नहीं है कि विवेकानंद को भी किसी दूसरे दिन छुआ होता तो बात हो जाती। एक खास क्षण में वह घटना घटी।

आप चौबीस घंटे भी वही आदमी नहीं होते हैं; चौबीस घंटे में आप न मालूम कितने आदमी होते हैं। किसी खास क्षण में अब विवेकानंद पूछ रहे हैं, ‘ ईश्वर को देखा है?’ ये शब्द बड़े सरल हैं। हमें भी लगता है कि हमारी समझ में आ रहे हैं कि विवेकानंद क्या पूछ रहे हैं।

नहीं समझ में आ रहे हैं। ईश्वर को देखा है? ये शब्द इतने सरल नहीं हैं। ऐसे तो पहली कक्षा भी जो नहीं पढ़ा, वह भी समझ लेगा। सरल शब्द हैं ‘ ईश्वर को देखा है?’ बहुत कठिन हैं शब्द! और विवेकानंद के प्रश्न का उत्तर नहीं दे रहे हैं रामकृष्ण, विवेकानंद की प्यास का उत्तर दे रहे हैं। उत्तर प्रश्नों के नहीं होते, प्यास के होते हैं। इस प्रश्न के पीछे वह जो आदमी खड़ा है प्रश्न बनकर, उसका उत्तर दिया जा रहा है।

बुद्ध एक गांव में गए हैं। और एक आदमी ने पूछा, ईश्वर है? बुद्ध ने कहा, नहीं। और दोपहर दूसरे आदमी ने पूछा कि मैं समझता हूं ईश्वर नहीं है, आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहा, है। और सांझ एक तीसरे आदमी ने पूछा कि मुझे कुछ पता नहीं, ईश्वर है या नहीं? बुद्ध ने कहा कि चुप ही रहो तो अच्छा है— न हां, न ना।

जो साथ में था भिक्षु वह बहुत घबड़ा गया, उसने तीनों उत्तर सुन लिए। रात उसने बुद्ध से कहा, मैं पागल हो जाऊंगा! सुबह आपने कहा, हां; दोपहर आपने कहा, नहीं; सांझ आपने कहा, न ही, न नहीं, मैं क्या समझूं? बुद्ध ने कहा, तुझे तो मैंने एक भी उत्तर नहीं दिया, जिनको दिए थे उनसे बात है; तुझसे कोई संबंध नहीं। तूने सुना क्यों? तूने जब पूछा ही नहीं था, तो तुझे उत्तर कैसे दिया जा सकता है? जिस दिन तू पूछेगा उस दिन तुझे उत्तर मिल जाएगा। पर उस आदमी ने कहा, मैंने सुन तो लिया! बुद्ध ने कहा, वे उत्तर दूसरों को दिए गए थे, और दूसरों की जरूरतों के अनुसार दिए गए थे। सुबह जिस आदमी ने कहा था कि ईश्वर है? वह आस्तिक था और चाहता था कि मैं भी उसकी ही में हां भर दूं। उसे कुछ पता नहीं ईश्वर के होने का, लेकिन सिर्फ अपने अहंकार को तृप्त करने आया था कि बुद्ध भी वही मानते हैं जो मैं मानता हूं। वह बुद्ध से भी अपनी स्वीकृति लेने, कनफमेंशन लेने आया था। तो मैंने उससे कहा, नहीं। मैंने उसकी जड़ों को हिला दिया। और उसे कुछ पता नहीं था, अन्यथा मुझसे पूछने क्यों आता? जिसे पता हो गया है वह कनफमेंशन नहीं खोजता। सारी दुनिया भी इनकार करे तो वह कहता है, इनकार करो, वह है; इनकार का कोई सवाल नहीं है। अभी वह पूछ रहा है, अभी वह पता लगा रहा है कि है? तो मुझे कहना पड़ा कि नहीं है। उसकी खोज रुक गई थी, वह मुझे शुरू कर देनी पड़ी। दोपहर जो आदमी आया था, वह नास्तिक था। वह मानता था कि नहीं है, उसे मुझे कहना पड़ा कि है। उसकी भी खोज रुक गई थी; वह भी मुझसे स्वीकृति लेने आया था अपनी नास्तिकता में। सांझ जो आदमी आया था, वह न आस्तिक था, न नास्तिक, उसे किसी भी बंधन में डालना ठीक न था, क्योंकि हां भी बांध लेता है, नहीं भी बांध लेता है। तो उससे कहा कि तू चुप रह जाना— न हां, न ना; तो पहुंच जाएगा। और तेरा तो सवाल ही नहीं है, उस भिक्षु से कहा, क्योंकि तूने अभी पूछा नहीं है।

धर्म बड़ी निजी बात है— जैसे प्रेम। और प्रेम में अगर कोई अपनी प्रेयसी को कुछ कहता है तो वह बाजार में चिल्लाने की बात नहीं है, वह नितांत वैयक्तिक है; और बाजार में कहते ही अर्थ उसका बेकार हो जाएगा। ठीक, धर्म के संबंध में कहे गए सत्य भी इतने ही पर्सनल, एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति से कहे गए हैं, हवा में फेंके गए नहीं हैं।

इसलिए विवेकानंद बन जाएं तो जरूर पूछने आ जाना। लेकिन विवेकानंद पूछने नहीं आते कि पूछें या न पूछें।

मैं अभी एक गांव में गया, एक युवक आया और उसने कहा कि मैं आपसे पूछने आया हूं मैं संन्यास ले लूं? तो मैंने उससे कहा, जब तक तुझे पूछने जैसा लगे तब तक मत लेना, नहीं तो पछताएगा। और मुझे क्यों झंझट में डालता है? तुझे लेना हो ले, न लेना हो न ले। जिस दिन तुझे ऐसा लगे कि अब सारी दुनिया रोकेगी तो भी तू नहीं रुक सकता, उस दिन ले लेना, उसी दिन संन्यास आनंद बन सकता है, उसके पहले नहीं।

तो उसने कहा, और आप?

मैंने कहा, मैं किसी से कभी पूछने नहीं गया। अपनी इस जिंदगी में तो किसी से पूछने नहीं गया। क्योंकि पूछना ही है तो अपने ही भीतर पूछ लेंगे, किसी से पूछने क्यों जाएंगे? और कोई कुछ भी कहे, उस पर भरोसा कैसे आएगा? दूसरे पर कभी भरोसा नहीं आ सकता। लाख उपाय करें, दूसरे पर भरोसा नहीं आ सकता।

अगर मैं कह भी दूं कि हां, ईश्वर है, क्या फर्क पड़ेगा? जैसा आपने किताब में पढ़ लिया कि रामकृष्ण ने कहा कि हां, है! और जैसा मैं तुझे देखता हूं उससे भी ज्यादा साफ उसे देखता हूं। क्या फर्क पड़ गया आपको? एक किताब और लिख लेना आप कि आपने पूछा था और मैंने कहा, हां है! और जैसा मैं आपको देखता हूं उससे भी ज्यादा साफ उसे देखता हूं। क्या फर्क पड़ेगा? एक किताब, दो किताब, हजार किताब में लिखा हो कि है, बेकार है, जब तक कि भीतर से न उठे कि है, तब तक कोई उत्तर दूसरे का काम नहीं दे सकता। ईश्वर के संबंध में उधारी न चलेगी। और सब संबंध में उधारी चल सकती है, ईश्वर के संबंध में उधारी नहीं चल सकती।

इसलिए मुझसे क्यों पूछते हैं? और मेरे हां और न का क्या मूल्य? अपने से ही पूछें। और अगर कोई उत्तर न आए तो समझ लें कि यही भाग्य है कि कोई उत्तर नहीं; फिर चुप होकर प्रतीक्षा करें, उसके साथ ही जीएं; अनुत्तर के साथ जीएं। किसी दिन आ जाएगा; किसी दिन उतर आएगा। और अगर पूछना ही आ जाए— ठीक पूछना आ जाए, राइट क्रेश्चनिंग आ जाए—तो सब उत्तर हमारे भीतर हैं; और ठीक पूछना न आए, तो हम सारे जगत में पूछते फिरे, कोई उत्तर काम का नहीं है।

और जब विवेकानंद जैसा आदमी रामकृष्ण से पूछता है, तो रामकृष्ण जो उत्तर देते हैं, वह रामकृष्ण का उत्तर थोडे ही विवेकानंद के काम पड़ता है। विवेकानंद इतनी प्यास से पूछते हैं कि जब वह रामकृष्ण का उत्तर आता है तो वह रामकृष्ण का नहीं मालूम पड़ता, वह अपने ही भीतर से आया हुआ मालूम पड़ता है। इसीलिए काम पड़ता है, नहीं तो काम नहीं पड़ सकता। जब हम बहुत गहरे में किसी से पूछते हैं, इतने गहरे में कि हमारा पूरा प्राण लग जाए दांव पर, तो जो उत्तर आता है, फिर वह हमारा अपना ही हो जाता है, वह दूसरे का नहीं होता; दूसरा फिर सिर्फ एक दर्पण हो जाता है। अगर रामकृष्ण ने यह कहा कि हां है, तो यह उत्तर रामकृष्‍ण का नहीं है। यह आथेंटिक बन गया, विवेकानंद को प्रामाणिक लगा, क्योंकि रामकृष्ण एक दर्पण से ज्यादा न मालूम पड़े; अपनी ही प्रतिध्वनि, बहुत गहरे अपने ही प्राणों का स्वर वहां सुनाई पड़ा।

विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछने के पहले एक आदमी से और पूछा था। रवींद्रनाथ के दादा थे देवेंद्रनाथ। वे महर्षि देवेंद्रनाथ कहे जाते थे। वे बजरे पर रहते थे रात। बजरे पर एकांत में साधना करते थे। आधी रात अमावस की, विवेकानंद पानी में कूदकर, गंगा पार करके बजरे पर चढ़ गए। बजरा कंप गया। अंदर गए, धक्का देकर दरवाजा खोल दिया। अटका था दरवाजा। भीतर घुस गए। अंधेरा है। देवेंद्रनाथ आंख बंद किए कुछ मनन में बैठे हैं। जाकर झकझोर दिया उनका कालर पकड़कर कोट का। आंखें खुलीं तो वे घबड़ा गए कि इतनी रात, पानी से तरबतर, कौन नदी में तैरकर आ गया है! सारा बजरा कैप गया है। जैसे ही उन्होंने आंख खोलीं, विवेकानंद ने कहा, मैं पूछने आया हूं—ईश्वर है? देवेंद्रनाथ ने कहा, जरा बैठो भी। झिझके। ऐसी आधी रात, अंधेरे में गंगा पार करके, कोई ऐसा छाती पर छुरा लगाकर पूछे, ईश्वर है? तो उन्होंने कहा, जरा रुको भी, बैठो भी, कौन हो भाई? क्या बात है? कैसे आए? बस विवेकानंद ने कालर छोड़ दिया, वापस नदी में कूद पड़े। उन्होंने चिल्लाया कि युवक, रुको! विवेकानंद ने कहा, झिझक ने सब कुछ कह दिया, अब मैं जाता हूं।

झिझक ने सब कुछ कह दिया! इतने झिझक गए कि असली सवाल ही छोड़ दिया! कहते, है या नहीं।

फिर देवेंद्रनाथ बाद में कहे कि मैं सच में ही घबड़ा गया था, क्योंकि मुझसे कभी ऐसा आउट ऑफ दि वे, आउटलैंडिश, ऐसा कोई अचानक गर्दन पकड़कर कभी पूछा नहीं था। सभा में, मीटिंग में, मंदिर में, मस्जिद में देवेंद्रनाथ से लोग पूछते थे, ईश्वर है? तो वे समझाते थे उपनिषद, गीता, वेद। ऐसा किसी ने पूछा ही न था। तो जरूर घबड़ा गए। उन्होंने कहा, मैं जरूर घबड़ा गया था और मुझे कुछ भी नहीं सूझा था। और वह युवक कूदकर चला गया था और मुझे भी मेरी झिझक से पहली दफा पता चला— अभी मुझे भी मालूम नहीं है।

पूछें जरूर। जिस दिन पूछने की तैयारी हो उस दिन जरूर पूछें। पर पूछने की तैयारी लेकर आ जाएं। क्योंकि फिर उत्तर पर बात खतम न हो गई। रामकृष्ण का उत्तर, फिर वह विवेकानंद नहीं था जो पूछने आया था, वह था नरेंद्रनाथ, रामकृष्ण के उत्तर के बाद हो गया विवेकानंद। पूछें जरूर, लेकिन फिर जिंदगी पूरी बदलने की तैयारी चाहिए। उत्तर तो मिल सकता है। फिर वह नरेंद्रनाथ नरेंद्रनाथ की तरह घर वापस नहीं लौटा। क्योंकि वह जो रामकृष्ण ने कहा—है, और तुझसे ज्यादा मुझे दिखाई पड़ता है कि वह है! एक दफा मैं कह सकता हूं कि तू झूठ, लेकिन उसे नहीं कह सकता झूठ! तो फिर विवेकानंद ऐसा नहीं कि ठीक महाराज, उत्तर बहुत अच्छा लगा, परीक्षा में दे देंगे जाकर। फिर वापस नहीं लौट गया था। फिर विवेकानंद के लिए उत्तर ले डूबा। फिर वह लड़का वापस लौटा ही नहीं।

उत्तर तो मिल सकता है; मुझे कोई कठिनाई नहीं है उत्तर देने में; आप दिक्कत में पड़ जाएंगे। तो जिस दिन पूछने का मन हो, आ जाना। और आउटलैंडिश ही ठीक रहेगा, किसी अंधेरी रात में आकर मेरी गर्दन पकड़कर पूछ लेना। लेकिन ध्यान रखना गर्दन मेरी पकड़ेंगे, पकड़ा जाएगी आपकी, फिर भाग न सकेंगे।

स्कॉलरली बातें नहीं हैं ये, ये कोई शास्त्रीय और पांडित्य की बातें नहीं हैं कि पूछ लिया, समझ लिया, चले गए, कुछ भी न हुआ। सारी जिंदगी को दांव पर लगाने की बात है।

परमात्मा एक छलांग है:

एक दूसरे मित्र पूछते हैं कि ओशो बीज बोते हैं तो अंकुर आने में समय लगता है। और आप तो कहते हैं कि इसी क्षण हो सकती है सब बात और आदमी को परमात्मा का बीज कहते हैं।

रूर कहता हूं। बीज बोते हैं, समय लगता है। समय बीज के टूटने में लगता है, अंकुर के निकलने में नहीं। अंकुर तो एक क्षण में ही निकल आता है, विस्फोट होता है अंकुर का तो। लेकिन बीज के टूटने में वक्त लग जाता है। आपके टूटने में वक्त लग सकता है, वह मैं नहीं कहता। लेकिन परमात्मा के आने में वक्त नहीं लगता, वह एक क्षण में ही आ जाता है।

जैसे हम पानी को गरम करते हैं। तो गरम करने में वक्त लग सकता है। सौ डिग्री तक गरम होगा तो वक्त लगेगा। लेकिन भाप बनने में वक्त नहीं लगता— छलांग! पानी सौ डिग्री गरम हुआ—दि जंप—कूद गया, भाप हो गया। ऐसा नहीं है कि भाप बनने में वक्त लगे—कि पानी थोड़ा अभी भाप बना आधा, अभी आधा भाप नहीं बना; अभी बूंद थोड़ी सी भाप बन गई एक कोने से, दूसरे कोने से भाप नहीं बनी— ऐसा नहीं, भाप तो बनेगी तो छलांग में। हां, लेकिन भाप तक पहुंचने में वक्त लगता है। लेकिन जब तक भाप नहीं बनी तब तक वह पानी ही है—चाहे सौ डिग्री गरम हो, चाहे निन्यानबे डिग्री गरम हो, चाहे अट्ठानबे डिग्री गरम हो।

परमात्मा एक विस्फोट है, एक छलांग है। उसके पहले आप आदमी ही हैं, चाहे अट्ठानबे डिग्री पर गरम हों, चाहे निन्यानबे डिग्री पर गरम हों। सौ डिग्री पर गरम होंगे कि भाप बन जाएंगे—परमात्मा शुरू होगा, आप मिट जाएंगे।

तो मैं कहता हूं वह इसी क्षण भी हो सकता है। इसी क्षण होने का मतलब? इसी क्षण होने का मतलब यह है कि अगर हम उत्तप्त होने को तैयार हों… और क्या काफी समय नहीं बीत गया उत्तप्त होने के लिए? कढ़ाई कब से चढ़ी है चूल्हे पर, कितने जन्मों से! कितने जन्मों से गरम हो रहे हैं, और सौ डिग्री तक नहीं पहुंच पाए अभी तक! जनम—जनम जनम—जनम गरम होते रहे हैं, और सौ डिग्री पर नहीं पहुंच पाए अब तक! और कितना समय चाहिए? इतना समय कम है?

नहीं, समय तो बहुत लग गया है, गरम होने की कला ही हमें नहीं आती। तो हम अगर निन्यानबे पर भी पहुंच जाएं तो जल्दी से वापस हो जाते हैं, कूलडाउन हो जाते हैं, फिर ठंडे होकर वापस लौट आते हैं, सौ डिग्री से बहुत डरते हैं। अब इधर मैं देखता था, ध्यान में कितने लोग निन्यानबे डिग्री से वापस लौट जाते हैं। और कैसी—कैसी व्यर्थ की बातें उनको वापस लौटा लेती हैं कि ऐसी हैरानी होती है कि वे जरूर वापस लौटना ही चाहते होंगे। अन्यथा यह कारण कोई वापस लौटने का था?

एक आदमी को बंबई जाना हो, वह ट्रेन पर बैठे, और रास्ते में दो लोग जोर से बात करते मिल जाएं, और वह घर वापस लौट आए कि दो आदमियों ने हमें डिस्टर्ब कर दिया, वे रास्ते में जोर से बातें कर रहे थे, तो हम बंबई नहीं जा पाए। तो आप कहेंगे, बंबई जाना ही न होगा, अन्यथा रास्ते पर तो डिस्टरबेंस है ही। कौन लौटता है? जिसको बंबई जाना है वह चला जाता है। बल्कि रास्ते पर डिस्टरबेंस है तो जरा तेजी से चला जाता है कि बीच में व्यर्थ की बातें न सुननी पड़े।

लेकिन ध्यान से बड़े—बड़े आसान कारणों से आदमी वापस लौटता है। वह लौट आता है कि हमें किसी का धक्का लग गया, किसी का हाथ लग गया, कोई पड़ोस में गिर पड़ा, कोई रोने लगा, तो हम वापस लौट आए। नहीं, ऐसा लगता है कि वापस लौटना चाहते थे, सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे थे कि कोई कारण मिल जाए और हम कूलडाउन हो जाएं। बस बहाना भर मिल जाए कि फलां आदमी जोर से चिल्लाने लगा इसलिए हमको वापस लौटना पड़ा।

आपको फलां आदमी के जोर से चिल्लाने से आपका संबंध? आपको प्रयोजन? और आप क्या खो रहे हैं इस बहाने, आपको पता ही नहीं है, आप क्या कह रहे हैं, आपको पता ही नहीं है।

अब अभी एक मित्र मिले रास्ते में, उन्होंने कहा कि जरा लोगों को समझा दें, थोड़ा उनको ठंडा कर दें, कूलडाउन करें, क्योंकि दो लोग नग्न खड़े हो गए हैं, उससे बड़ी एक्सप्लोसिव स्थिति बन गई है। उन्होंने बड़े प्रेम से कहा कि जरा लोगों को समझा दें; कुछ लोग बड़े बेचैन हो गए हैं कि दो लोग नग्न हो गए।

 

ध्यान में वस्त्रों का गिर जाना:

ब लोग कपड़ों के भीतर नग्न हैं और कोई बेचैन नहीं होता! कपड़ों के भीतर सभी लोग नग्न हैं, कोई बेचैन नहीं है। दो आदमियों ने कपड़े छोड़ दिए, सब बेचैन हो गए! बड़ा मजा है, आपके कपड़े भी किसी ने छुडाए होते तो बेचैन होते तो भी समझ में आता। अपने ही कपड़े कोई छोड़ रहा है और बेचैन आप हो रहे हैं! अगर कोई आपके कपड़े छीनता, तो बेचैनी कुछ समझ में भी आ सकती थी। हालांकि वह भी बेमानी थी। जीसस ने कहा है कि कोई तुम्हारा कोट छीने तो अपनी कमीज भी उसको दे देना, कहीं बेचारा संकोचवश कम न छीन रहा हो। कोई आपका कोट छीनता तो समझ में भी आता। कोई अपना ही कोट उतारकर रख रहा है, आप बेचैन हो गए हैं। ऐसा लगता है कि आप प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि कोई कोट उतारे और हम कूलडाउन हो जाएं, और हम कहें, हमारा सारा ध्यान खराब कर दिया।

अब बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई आदमी नग्न हो गया है, इससे आपके ध्यान के खराब होने का क्या संबंध है? और आप किसी के नग्न होने को बैठकर देख रहे थे? तो आप ध्यान कर रहे थे या क्या कर रहे थे? आपको तो पता ही नहीं होना चाहिए था कि कौन ने कपड़े छोड़ दिए, कौन ने क्या किया। आप अपने में होने चाहिए थे। कौन क्या कर रहा है…….. आप कोई धोबी हैं, कोई टेलर हैं, कौन हैं? आप कपड़ों के लिए चिंतित क्यों हैं? आपकी परेशानी बेवजूद है, अर्थहीन है।

और जिसने कपड़े छोड़े हैं… थोड़ा सोचते नहीं हैं, आपसे कोई कहे कि आप कपड़े छोड़ दें, तब आपको पता चलेगा कि जिसने कपड़े छोड़े हैं उसके भीतर कोई बड़ा कारण ही उपस्थित हो गया होगा इसलिए उसने कपड़े छोड़े हैं। आपसे कोई कहे कि लाख रुपया देते हैं। आप कहेंगे, छोड़ते हैं लाख रुपया, लेकिन कपड़े न छोड़ेंगे। उस बेचारे को किसी ने कुछ भी नहीं दिया है और उसने कपड़े छोड़े! आप क्यों परेशान हैं? उसके भीतर कोई कारण उपस्थित हो गया होगा।

लेकिन जिंदगी को समझने की, सहानुभूति से देखने की हमारी आदत ही नहीं है।

जब महावीर पहली दफे नग्न हुए तो पत्थर पड़े। अब पूजा हो रही है! और जितने लोग पूजा कर रहे हैं वे सब कपड़े बेच रहे हैं। महावीर के माननेवाले सब कपड़े बेचनेवाले हैं। यह बड़ा आश्चर्यजनक है! और इस आदमी को इन्हीं लोगों ने पत्थर मारे होंगे। और उसी के बदले में कपड़ा बेच रहे हैं कि कोई नंगा न हो जाए, कपड़े बेचते चले जा रहे हैं। महावीर नग्न हुए तो लोगों ने गांव—गांव से निकाला। एक गांव में न टिकने दिया। जिस गांव में ठहर जाते, लोग उनको गांव के बाहर करते कि यह आदमी नग्न हो गया। अब पूजा चल रही है, लेकिन महावीर को तो हमने टिकने नहीं दिया गांव में, धर्मशाला में न रुकने दिया, गांव के बाहर मरघट में न ठहरने दिया। कहीं गांव के आसपास न आ जाएं तो लोग जंगली कुत्ते उनके पीछे लगा देते जो उनको दूर गांव के बाहर निकाल आएं। क्या तकलीफ हो गई थी महावीर से लोगों को? एक तकलीफ हो गई थी कि उस आदमी ने कपड़े छोड़ दिए थे। लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है! किसी के कपड़े छोड़ देने से… क्या, कारण क्या है?

डर कुछ दूसरे हैं, डर कुछ बहुत भयंकर हैं। हम इतने नंगे हैं भीतर कि नग्न आदमी को देखकर हम घबड़ा जाते हैं कि बडी मुश्किल हो गई; हमें अपने नंगेपन का खयाल आ जाता है। और कोई कारण नहीं है।

और ध्यान रहे, नग्नता और बात है, नंगापन बिलकुल दूसरी बात है। महावीर को देखकर कोई कह नहीं सकता कि वे नंगे खड़े हैं, और हमको कपड़ों में भी देखकर कोई कहेगा कि कितने ही कपड़े पहनें, हैं तो नंगे ही, फर्क नहीं पड़ता है।

गौर से देखा है? जो लोग नग्न खड़े हो गए उनको गौर से देखा है? हिम्मत ही न पड़ी होगी उस तरफ देखने की। हालांकि बीच—बीच में आंख बचाकर देखते रहे होंगे, नहीं तो बेचैन कैसे होते? एक्सप्लोसिव स्थिति कैसे पैदा होती?

अब उन मित्र ने लिखा है कि स्त्रियां बहुत परेशान हो गईं।

स्त्रियों को मतलब? स्त्रियां इसलिए आई हैं कि कोई नग्न हो तो उसको देखती रहें? उनको अपना ध्यान करना था।

नहीं लेकिन, देखते रहे होंगे आंख बचाकर। फिर सब छोड्कर, वह आत्म— ध्यान वगैरह छोड्कर, अपने को देखना वगैरह छोड्कर वही देखते रहे होंगे। तो एक्सप्लोसिव हो ही जाएगा। आपसे कौन कह रहा था कि आप देखें? आप आंख बंद किए हुए थे, कोई नग्न खड़ा था वह खड़ा रहता। वह आपको बिलकुल नहीं देख रहा था। वह नग्न आदमी आकर मुझसे कहता कि स्त्रियों की वजह से मेरे लिए बड़ी एक्सप्लोसिव स्थिति हो गई, तो कुछ समझ में आता। और स्त्रियों की एक्सप्लोसिव स्थिति हो गई उस आदमी की वजह से!

उसको जरा गौर से देखते तो मन प्रसन्न होता। उसको नग्न खड़ा देखते तो लगता कि कितना सादा, सीधा, निर्दोष। हलका होता मन—फर्क होता, लाभ होता। लेकिन लाभ को तो हम खोने की जिद्द किए बैठे हैं। हम तो हानि को पकड़ने के लिए बड़े आतुर हैं। और हमने ऐसी विक्षिप्त धारणाएं बना रखी हैं जिनका कोई हिसाब नहीं।

नग्नता : एक निर्दोष चित्त—दशा:

क स्थिति आती है ध्यान की— कुछ लोगों को अनिवार्य रूप से आती है—कि वस्त्र छोड़ देने की हालत हो जाती है। वे मुझसे पूछकर नग्न हुए हैं। इसलिए उन पर एक्सप्लोसिव मत होना, होना हो तो मुझ पर होना। जो लोग भी यहां नग्न हुए हैं वे मुझसे आज्ञा लेकर नग्न हुए हैं। मैंने उनसे कह दिया कि ठीक है। वे मुझसे पूछ गए हैं आकर कि हमारी हालत ऐसी है कि हमें ऐसा लगता है एक क्षण में कि अगर हमने वस्त्र न छोड़े तो कोई चीज अटक जाएगी। तो मैंने उनको कहा है कि छोड़ दें।

यह उनकी बात है, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? इसलिए उनसे किसी ने भी कुछ कहा हो तो बहुत गलत किया है। आपको हक नहीं है वह, किसी को कुछ कहने का। थोड़ा समझना चाहिए कि एक निर्दोष चित्त……. .एक घड़ी है जब कई चीजें बाधाएं बन सकती हैं। कपड़े आदमी का गहरा से गहरा इनहिबिशन है। कपड़ा जो है वह आदमी का सबसे गहरा टैबू है, वह सबसे गहरी रूढ़ि है जो आदमी को पकड़े हुए है। और एक क्षण आता है कि कपड़े करीब—करीब प्रतीक हो जाते हैं हमारी सारी सभ्यता के। और एक क्षण आता है मन का कभी.. .किसी को आता है, सबको जरूरी नहीं..।

बुद्ध कपड़े पहने हुए जीए, जीसस कपड़े पहने हुए जीए, महावीर ने कपड़े छोड़े। एक औरत ने भी हिम्मत की। महावीर के वक्त में औरतें हिम्मत न कर सकी। महावीर की शिष्याएं कम न थीं, ज्यादा थीं शिष्यों से। दस हजार शिष्य थे और चालीस हजार शिष्याएं थीं। लेकिन शिष्याएं हिम्मत न जुटा सकी कपड़े छोड़ने की। तो महावीर को तो इसी वजह से यह कहना पड़ा कि इन स्त्रियों को दुबारा जन्म लेना पड़ेगा। जब तक ये एक बार पुरुष न हों तब तक इनकी कोई मुक्ति नहीं। क्योंकि जो कपडा छोड़ने से डरती हैं, वे शरीर छोड़ने से कैसे न डरेंगी। तो महावीर को इसलिए एक नियम बनाना पड़ा कि स्त्री—योनि से मुक्ति नहीं हो सकती, उसे एक दफे पुरुष—योनि में आना पड़ेगा। और कोई कारण न था।

लेकिन हिम्मतवर औरतें हुईं। अगर कश्मीर की लल्ला महावीर को मिल जाती, तो उनको यह सिद्धांत न बनाना पड़ता। महावीर की तरह एक औरत हुई कश्मीर में—लल्ला। और अगर कश्मीरी से जाकर पूछेंगे तो वह कहेगा हम दो ही शब्द जानते हैं— अल्ला और लल्ला। दो ही शब्द जानते हैं। एक औरत हुई जो नग्न रही। और सारे कश्मीर ने उसको आदर दिया। क्योंकि उसकी नग्नता में उन्हें पहली दफा दिखाई पड़ा— और तरह का सौंदर्य, और तरह की निर्दोषता, और तरह का आनंद, एक बच्चे जैसा भाव। अगर लल्ला महावीर को मिल जाती, तो महावीर के ऊपर एक कलंक लग गया, वह बच जाता। महावीर के ऊपर एक कलंक है, और वह कलंक यह है कि स्त्री—योनि से मुक्ति न हो सकेगी। और उसका कारण महावीर नहीं हैं, उसका कारण जो स्त्रियां उनके आसपास इकट्ठी हुई होंगी वे हैं। क्योंकि उन्होंने कहा, यह तो असंभव है। तो फिर महावीर ने कहा, वस्त्र न छोड़ सकोगी तो शरीर कैसे छूटेगा? इतनी ऊपरी पकड़ है, तो भीतर की पकड़ कैसे जाएगी?

शिविर साधकों के लिए है, दर्शकों के लिए नहीं:

हीं मैं कहता हूं कि आप नग्न हो जाएं, लेकिन कोई होता हो तो उसे रोकने की तो कोई बात नहीं है। और एक साधना— शिविर में भी हम इतनी स्वतंत्रता न दे पाएं कि कोई अगर इतना मुक्त होना चाहे तो हो सके, तो फिर यह स्वतंत्रता कहां मिल पाएगी? साधना—शिविर साधकों के लिए है, दर्शकों के लिए नहीं। वहां जब तक कोई दूसरे को कोई छेड़खानी नहीं कर रहा है तब तक उसकी परम स्वतंत्रता है। दूसरे पर जब कोई ट्रेसपास करता है तब बाधा शुरू होती है। अगर कोई नंगा होकर आपको धक्का देने लगे, तो बात ठीक है; कोई अगर आपको आकर चोट पहुंचाने लगे, तो बात ठीक है कि रोका जाए। लेकिन जब तक एक आदमी अपने साथ कुछ कर रहा है, आप कुछ भी नहीं हैं बीच में, आपको कोई कारण नहीं है।

अब अजीब बातें हमें बाधा बनती हैं। कोई नग्न हो गया है इसलिए कई लोगों का ध्यान खराब हो गया। ऐसा सस्ता ध्यान बच भी जाता तो किसी काम का नहीं है। उसका मूल्य कितना है? इतना ही था कि कोई आदमी नग्न नहीं हुआ, इसलिए आपको ध्यान हो गया। कैसे हो जाएगा?

नहीं, ये छोटी बातें, अत्यंत ओछी बातें छोड़नी पड़ेगी। साधना बड़ी हिम्मत की बात है; वहां पर्त—पर्त अपने को उखाड़ना पड़ता है। साधना बहुत गहरे में आंतरिक नग्नता है। जरूरी नहीं है कि कपड़े कोई छोड़े, लेकिन किसी मोमेंट में किसी की स्थिति यह हो सकती है कि वह कपड़ा छोड़े। और इस बात को ध्यान रखें सदा कि जब किसी को होती है तो आप बाहर से सोच नहीं सकते, न आपको कोई हक है कि आप सोचें कि ठीक हुआ कि गलत हुआ, कि क्यों छोड़ा कि नहीं छोड़ा। आप कौन हैं? आप कहां आते हैं? और आपको कैसे पता चलेगा? नहीं तो महावीर को जिन्होंने गांव के बाहर निकाला वे कोई गलत लोग रहे होंगे? आप ही जैसे शिष्ट, समझदार, गांव के सब सज्जनों ने उनको बाहर किया कि यह आदमी नग्न खड़ा है, हम न टिकने देंगे इसे। लेकिन हम बार—बार वही भूलें दोहराते हैं।

तो मेरे मित्र अभी रास्ते में मिले, उन्होंने बड़े प्रेम से कहा, समझपूर्वक कहा, उन्होंने कहा कि आप ठीक से समझा दें, नहीं तो बंबई में ध्यान में आनेवाली संख्या कम हो जाएगी।

बिलकुल कम हो जाए, एक आदमी न आए। लेकिन गलत आदमियों की कोई जरूरत नहीं। एक आदमी न आए, इससे क्या प्रयोजन है?

उन्होंने कहा कि महिलाएं बिलकुल अब शिविर में न आएंगी।

बिलकुल न आएं। किसने कहा कि वे आएं? उनको लगा तो आएं। आएं तो मेरी शर्त पर आना होगा। उनकी शर्त पर शिविर नहीं हो सकता। और जिस दिन मैं आपकी शर्त पर शिविर करूं, उस दिन आप आना ही मत; उस दिन मैं आदमी दो कौड़ी का हूं उस दिन फिर मुझसे कोई मतलब नहीं।

मेरी शर्त पर ही होगा। मैं आपके लिए नहीं आता हूं। और आपके हिसाब से नहीं आऊंगा। और आपके हिसाब से नहीं चलूंगा। इसीलिए तो मुर्दा गुरु बहुत प्रीतिकर होते हैं, क्योंकि वह आपके हिसाब से उनको आप चला लेते हैं। जिंदा को तो बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए महावीर मर जाएं तो पूजे जा सकते हैं, जिंदा को पत्थर मारने पड़ते हैं। बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए दुनिया भर में मुर्दों को पूजा जाता है। जिंदा से बड़ी तकलीफ है, क्योंकि जिंदे को आप बांध नहीं सकते। और कोई दूसरे कारण मेरे लिए मूल्य के नहीं हैं। कौन आता है, कौन नहीं आता है— यह बिलकुल बेमूल्य है। जो आता है अगर वह आता है तो समझपूर्वक आए कि किसलिए आ रहा है और क्या करने आ रहा है।

सहज योग कठिनतम:

एक मित्र पूछ रहे हैं कि ओशो सहज योग के विषय में कुछ खुला करके समझाइए।

हज योग सबसे कठिन योग है, क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन और कोई बात नहीं। सहज का मतलब क्या होता है? सहज का मतलब होता है जो हो रहा है उसे होने दें, आप बाधा न बनें। अब एक आदमी नग्न हो गया, वह उसके लिए सहज हो सकता है, लेकिन बड़ा कठिन हो गया। सहज का अर्थ होता है हवा—पानी की तरह हो जाएं, बीच में बुद्धि से बाधा न डालें, जो हो रहा है उसे होने दें।

बुद्धि बाधा डालती है, असहज होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हम तय करते हैं, क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, बस हम असहज होना शुरू हो जाते हैं। जब हम उसी के लिए राजी हैं जो होता है, उसके लिए राजी हैं, तभी हम सहज हो पाते हैं।

तो इसलिए पहली बात समझ लें कि सहज योग सबसे ज्यादा कठिन है। ऐसा मत सोचना कि सहज योग बहुत सरल है। ऐसी भ्रांति है कि सहज योग बड़ी सरल साधना है। तो कबीर का लोग वचन दोहराते रहते हैं. साधो, सहज समाधि भली। भली तो है, पर बड़ी कठिन है। क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन आदमी के लिए कोई दूसरी बात ही नहीं है। क्योंकि आदमी इतना असहज हो चुका है, इतना दूर जा चुका है सहज होने से कि उसे असहज होना ही आसान, सहज होना मुश्किल हो गया है। पर फिर कुछ बातें समझ लेनी चाहिए, क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह सहज योग ही है।

जीवन में सिद्धात थोपना जीवन को विकृत करना है। लेकिन हम सारे लोग सिद्धात थोपते हैं। कोई हिंसक है और अहिंसक होने की कोशिश कर रहा है; कोई क्रोधी है, शांत होने की कोशिश कर रहा है, कोई दुष्ट है, वह दयालु होने की कोशिश कर रहा है, कोई चोर है, वह दानी होने की कोशिश कर रहा है। यह हमारे सारे जीवन की व्यवस्था है जो हम हैं, उस पर हम कुछ थोपने की कोशिश में लगे हैं। हम सफल हों तो भी असफल, हम असफल हों तो भी असफल। क्योंकि चोर लाख उपाय करे तो दानी नहीं हो सकता। ही, दान कर सकता है। दानी नहीं हो सकता। दान करने से भ्रम पैदा हो सकता है कि चोर दानी हो गया। लेकिन चोर का चित्त दान में भी चोरी की तरकीबें निकाल लेगा।

मैंने सुना है कि एकनाथ यात्रा पर जा रहे थे। तो गांव में एक चोर था, उसने एकनाथ से कहा कि मैं भी चलूं तीर्थयात्रा पर आपके साथ? बहुत पाप हो गए, गंगा—स्नान मैं भी कर आऊं। एकनाथ ने कहा, चलने में तो कोई हर्ज नहीं, बाकी भी सब तरह— तरह के चोर जा रहे हैं, तू भी चल सकता है। लेकिन एक बात है बाकी जो चोर मेरे साथ जा रहे हैं, वे कहते हैं कि उस चोर को मत ले चलना, नहीं तो हमारी सब चीजें रास्ते में गड़बड़ करेगा। तो तू एक पक्की शर्त बांध ले कि रास्ते में तीर्थयात्रियों के साथ चोरी नहीं करना। उसने कहा, कसम खाता हूं! जाने से लेकर आने तक चोरी नहीं करूंगा।

फिर तीर्थयात्रा शुरू हुई, वह चोर भी साथ हो गया। बाकी भी चोर थे, भिन्न—भिन्न तरह के चोर हैं। कोई एक तरह के चोर हैं? कई तरह के चोर हैं। कोई चोर मजिस्ट्रेट बनकर बैठा है, कोई चोर कुछ और बनकर बैठा है। सब तरह के चोर गए, वह चोर भी साथ गया। लेकिन चोरी की आदत! दिन भर तो गुजार दे, रात बड़ी मुश्किल में पड़ जाए; सब यात्री तो सो जाएं, उसकी बड़ी बेचैनी हो जाए, उसके धंधे का वक्त आ जाए। एक दिन, दो दिन.. .उसने कहा, मर जाएंगे, न मालूम तीन—चार महीने की यात्रा है, ऐसे कैसे चलेगा? और सबसे बड़ा खतरा यह है कि किसी तरह यात्रा भी गुजार दी और कहीं चोरी करना भूल गए तो और मुसीबत, लौटकर क्या करेंगे? कोई तीर्थ जिंदगी भर होता है?

तीसरी रात गड़बड़ शुरू हो गई। पर गड़बड़ व्यवस्थित हुई, धार्मिक ढंग की हुई। चोरी तो उसने की, लेकिन तरकीब से की। एक बिस्तर में से सामान निकाला और दूसरे में डाल दिया, अपने पास न रखा। सुबह यात्री बड़े परेशान होने लगे किसी का सामान किसी की संदूक में मिले, और किसी का सामान किसी के बिस्तर में। सौ—पचास यात्री थे, बड़ी खोजबीन में मुश्किल हो गई। सबने कहा, यह मामला क्या है? यह हो क्या रहा है? चीजें जाती तो नहीं हैं, लेकिन इधर—उधर चली जाती हैं।

फिर एकनाथ को शक हुआ कि वही चोर होना चाहिए जो तीर्थयात्री बन गया है। तो वे रात जगते रहे। देखा कोई दो बजे रात वह चोर उठा और उसने एक की चीज दूसरे के पास करनी शुरू कर दी। एकनाथ ने उसे पकड़ा और कहा, यह क्या कर रहा है? उसने कहा कि मैंने कसम खा ली है कि चोरी न करूंगा। चोरी मैं बिलकुल नहीं कर रहा। लेकिन कम से कम चीजें इधर— उधर तो करने दें! मैं कोई चीज रखता नहीं, अपने लिए छूता नहीं, बस इधर से उधर कर देता हूं। यह तो मैंने आपसे कहा भी नहीं था कि ऐसा मैं नहीं करूंगा।

एकनाथ बाद में कहते थे, चोर अगर बदलने की भी कोशिश करे तो भी फर्क नहीं पड़ता।

जो हैं, उसी को जीएं:

मारे सारे जीवन में जो हमारी असहजता है, वह इसमें है कि जो हम हैं, उससे हम भिन्न होने की पूरे समय कोशिश में लगे हैं। नहीं, सहज योग कहेगा जो हैं, उससे भिन्न होने की कोशिश मत करें, जो हैं, उसी को जानें और उसी को जीएं। अगर चोर हैं तो जानें कि मैं चोर हूं और अगर चोर हैं तो पूरी तरह से चोर होकर जीएं।

बड़ी कठिन बात है। क्योंकि चोर को भी इससे तृप्ति मिलती है कि मैं चोरी छोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। छूटती नहीं, लेकिन एक राहत रहती है कि मैं चोर हूं आज भला, लेकिन कल न रह जाऊंगा। तो चोर के अहंकार को भी एक तृप्ति है कि कोई बात नहीं आज चोरी करनी पड़ी, लेकिन जल्द ही वह वक्त आएगा जब हम भी दानी हो जानेवाले हैं, कोई चोर न रहेंगे। तो कल की आशा में चोर आज सुविधा से चोरी कर पाता है।

सहज योग कहता है ‘ अगर तुम चोर हो तो तुम जानो कि तुम चोर हो—जानते हुए चोरी करो, लेकिन इस आशा में नहीं कि कल अचोर हो जाओगे।

और जो हम हैं, अगर हम उसको ठीक से जान लें और उसी के साथ जीने को राजी हो जाएं, तो क्रांति आज ही घटित हो सकती है। चोर अगर यह जान ले कि मैं चोर हूं तो ज्यादा दिन चोर नहीं रह सकता। यह तरकीब है उसकी चोर बने रहने के लिए कि वह कहता है, भला चोर हूं मुश्किल है आज इसलिए चोरी कर रहा हूं कल सुविधा हो जाएगी फिर चोरी नहीं करूंगा। असल में मैं चोर नहीं हूं परिस्थितियों ने मुझे चोर बना दिया है। इसलिए वह चोरी करने में उसको सुविधा बन जाती है, वह अचोर बना रहता है। वह कहता है मैं हिंसक नहीं हूं परिस्थितियों ने मुझे हिंसक बना दिया है, मैं क्रोधी नहीं हूं वह तो दूसरे आदमी ने मुझे गाली दी इसलिए क्रोध आ गया। और फिर क्रोधी जाकर क्षमा मांग आता है; वह कहता है, माफ कर देना भाई! न मालूम कैसे मेरे मुंह से वह गाली निकल गई, मैं तो क्रोधी आदमी नहीं हूं। उसने अहंकार को वापस रख लिया अपनी जगह। सब पश्चात्ताप अहंकार को पुनर्स्थापित करने का उपाय है। उसने रख लिया, क्षमा मांग ली।

नहीं, सहज योग यह कहता है कि तुम जो हो, जानना कि वही हो, और इंच भर यहां—वहां हटने की कोशिश मत करना, बचने की कोशिश मत करना। तो उस पीड़ा से, उस दंश से, उस दुख से, उस पाप से, उस आग से, उस नरक से—जो तुम हो— अगर उसका पूरा तुम्हें बोध हो जाए, तो तुम छलांग लगाकर तत्काल बाहर हो जाओगे, बाहर होना नहीं पड़ेगा।

अगर कोई चोर है और पूरी तरह चोर होने को जान ले, और अपने मन में कहीं भी गुंजाइश न रखे कि कभी मैं चोर नहीं रहूंगा; मैं चोर हूं तो मैं चोर ही रहूंगा, और अगर आज चोर हूं तो कल और बड़ा चोर हो जाऊंगा, क्योंकि चौबीस घंटे का अभ्यास और बढ़ जाएगा। अगर कोई अपनी इस चोरी के भाव को पूरी तरह पकड ले और ग्रहण कर ले, और समझे कि ठीक है, यही मेरा होना है, तो आप समझते हैं कि आप चोर रह सकेंगे? यह इतने जोर से छाती में तलवार की तरह चुभ जाएगी कि मैं चोर हूं कि इसमें जीना असंभव हो जाएगा एक क्षण भी। क्रांति अभी हो जाएगी, यहीं हो जाएगी।

सिद्धांतों के शॉक—एज्जार्बर:

हीं, लेकिन हम होशियार हैं, हमने तरकीबें बना ली हैं—चोर हम हैं, और अचोर होने के सपने देखते रहते हैं। वे सपने हमें चोर बनाए रखने में सहयोगी होते हैं, बफर का काम करते हैं। जैसे ट्रेन है, रेलगाड़ी के डब्बों के बीच में बफर लगे हैं। धक्के लगते हैं, बफर पी जाते हैं धक्के। डब्बे के भीतर के यात्री को पता नहीं चलता। कार में सिग लगे हुए हैं, शॉक—एब्‍जार्वर लगे हुए हैं। कार चलती है, रास्ते पर गड्डे हैं, शॉक—एज्जार्बर पी जाता है। भीतर के सज्जन को पता नहीं चलता कि धक्का लगा। ऐसे हमने सिद्धांतों के बफर और शॉक—एज्जार्बर लगाए हुए हैं।

चोर हूं मैं, और सिद्धांत है मेरा अचौर्य, हिंसक हूं मैं, अहिंसा परम धर्म की तख्ती लगाए हुए हूं— यह बफर है; यह मुझे हिंसक रहने में सहयोगी बनेगा। क्योंकि जब भी मुझे खयाल आएगा कि मैं हिंसक हूं मैं कहूंगा कि क्या हिंसक! अहिंसा परम धर्म! मैं अहिंसा को धर्म मानता हूं। आज नहीं सध रहा, कमजोर हूं कल सध जाएगा; इस जनम में नहीं सधता, अगले जनम में सध जाएगा; लेकिन सिद्धांत मेरा अहिंसा है। तो मैं झंडा लेकर अहिंसा का सिद्धांत सारी दुनिया में गाड़ता फिरूंगा, और भीतर हिंसक रहूंगा। वह झंडा सहयोगी हो जाएगा। जहां अहिंसा परम धर्म लिखा हुआ दिखाई पड़े, समझ लेना आसपास हिंसक निवास करते होंगे। और कोई कारण नहीं है। आसपास हिंसक बैठे होंगे, जिन्होंने वह तख्ती लगाई है अहिंसा परम धर्म! वह हिंसक की तरकीब है। और आदमी ने इतनी तरकीबें ईजाद की हैं कि तरकीबें—तरकीबें ही रह गई हैं, आदमी खो गया है।

सहज होने का मतलब है जो है, दैट व्हिच इज इज; जो है, वह है। अब उस होने के बाहर कोई उपाय नहीं है। उस होने में रहना है। उसमें ही रहूंगा। लेकिन वह होना इतना दुखद है कि उसमें रहा नहीं जा सकता। नरक में आपको डाल दिया जाए तो आप हैरान होंगे कि नरक में रहने में आपके सपने ही सहयोगी बनेंगे। तो आप आंख बंद करके सपना देखते रहेंगे। उपवास किया है किसी दिन आपने? तो आप आंख बंद करके भोजन के सपने देखते रहेंगे। उपवास के दिन भी भोजन का सपना ही सहयोगी बनता है उपवास पार करने में; भोजन का सपना चलता रहता है भीतर। अगर भोजन का सपना बंद कर दें तो उपवास उसी वक्त टूट जाए। लेकिन कल कर लेंगे सुबह।

एक प्रोफेसर मेरे साथ थे यूनिवर्सिटी में। बहुत दिन साथ रहने पर मैंने.. .पहले तो मुझे पता नहीं चला, कभी—कभी अचानक एकदम वे मिठाइयों और इन सब की बात करने लगते। मैंने कहा कि बात क्या है? कभी—कभी करते हैं! फिर मैंने पकड़ा तो अंदाज लगाया तो पता चला कि हर शनिवार को करते हैं। तो मैंने उनसे पूछा एक दिन— शनिवार था और वे आए— और मैंने कहा कि अब तो आप जरूर मिठाई की बात करेंगे। उन्होंने कहा, क्यों, आप क्यों यह बात कहते हैं? तो मैंने कहा कि मैं इधर दो महीने से रिकार्ड रख रहा हूं आपका, शनिवार को जरूर मिठाई की बात करते हैं। आप शनिवार को उपवास तो नहीं करते? उन्होंने कहा, आपको किसने कहा? मैंने कहा, कोई कहने का सवाल ही नहीं है, मैंने हिसाब लगाया है। उन्होंने कहा, करता हूं। आपने कैसे पकड़ा? मैंने कहा, पकड़ा क्या, मैं देखता हूं कि कोई भी स्वस्थ आदमी जो ठीक से खाता—पीता हो, मिठाई की क्यों बात करे? पर आप ठीक खाते—पीते आदमी हैं।

शनिवार को जरूर वे बात करते, कोई न कोई बहाना फौरन वे कोई बहाने से भी निकाल लेते और वे मिठाई की बात शुरू करते। उन्होंने कहा कि मैं शनिवार— आपने अच्छा पकड़ा— लेकिन शनिवार को मैं दिन भर सोचता रहता हूं कि कल यह खाऊं वह खाऊं, यह करूं, वह करूं। उसी के सहारे तो गुजार पाता हूं; शनिवार मैं उपवास करता हूं। तो मैंने उनसे कहा कि एक दिन ऐसा करो कि ये सपने मत देखो, उपवास करो। उन्होंने कहा, फिर उपवास टूट जाएगा; इसी के सहारे मैं दिन भर खींच पाता हूं। कल की आशा आज को गुजार देती है। कल की आशा आज को बिता देती है।

हिंसक अपनी हिंसा गुजार रहा है, अहिंसा की आशा में, क्रोधी अपने क्रोध को गुजार रहा है, दया की आशा में; चोर अपनी चोरी को गुजार रहा है, दान की आशा में; पापी अपने पाप को गुजार रहा है, पुण्यात्मा होने की आशा में। ये आशाएं बड़ी अधार्मिक हैं। नहीं, तोड़ दें इनको। जो हैं, हैं— उसे जान लें और उसके साथ जीएं। वह जो फैक्ट है, उसके साथ जीएं। वह कठिन है, कठोर है, बहुत दुखद है, बहुत मन को पीड़ा देगा कि मैं ऐसा आदमी हूं!

अब एक आदमी है सेक्सुअलिटी से भरा है, ब्रह्मचर्य की किताब पढ़कर गुजार रहा है! काम से भरा है, किताब ब्रह्मचर्य की पढ़ता है, तो वह सोचता है कि हम बड़े ब्रह्मचर्य के साधक हैं। काम से भरा है। अब वह किताब ब्रह्मचर्य की बड़ा सहारा बन रही है उसको कामुक रहने में; वह कह रहा है, आज कोई हर्ज नहीं, आज तो गुजर जाए, आज और भोग लो, कल से तो पक्का ही कर लेना।

मैं एक घर में मेहमान था। एक के ने मुझसे कहा कि एक संन्यासी ने मुझे तीन दफे ब्रह्मचर्य का व्रत दिलवाया!

तीन दफा? मैंने कहा। ब्रह्मचर्य का व्रत एक दफा काफी है। दूसरी दफे कैसे लिया? क्योंकि ब्रह्मचर्य का व्रत तीन दफे कैसे लेना पड़ेगा? तो उन्होंने कहा, मैं तो कई लोगों से कह चुका, लेकिन किसी ने मुझे पकड़ा नहीं। वे कहते हैं, अच्छा, आपने तीन दफे व्रत लिया! और कोई कहता नहीं। आप…। मैंने कहा कि ब्रह्मचर्य का व्रत तो एक ही दफे हो सकता है; दुबारा कैसे लिया? उन्होंने कहा, वह टूट गया। फिर तिबारा लिया। तो फिर मैंने कहा, चौथी बार नहीं लिया? तो उन्होंने कहा कि नहीं, फिर मेरी हिम्मत ही टूट गई लेने की। लेकिन तीन दफे लेते—लेते वे साठ साल के हो गए। गुजार दी कामुकता— ब्रह्मचर्य का व्रत ले— लेकर गुजार दी कामुकता।

हम बड़े अदभुत हैं। यह हमारा असहज योग है जो चल रहा है। असहज योग! रहेंगे कामुक, पढ़ेंगे ब्रह्मचर्य की किताब। वह ब्रह्मचर्य की किताब हमारी सेक्सुअलिटी के लिए बड़ा बफर का काम कर रही है। उसे पढ़े जाएंगे, तो मन में समझाए जाएंगे कि कौन कहता है मैं कामुक हूं! किताब ब्रह्मचर्य की पढ़ता हूं। अभी जरा कमजोर हूं पिछले जन्मों के कर्म बाधा दे रहे हैं; अभी समय नहीं आया है, इसलिए थोड़ा चल रहा है, लेकिन बाकी हूं मैं ब्रह्मचारी। ब्रह्मचारी की ही धारणा मेरी है।

इधर सेक्स चलेगा, इधर ब्रह्मचर्य— दोनों साथ। ब्रह्मचर्य बफर बन जाएगा, शॉक—एज्जार्बर बन जाएगा। सेक्स की गद्दी लगी रहेगी भीतर, वहां कोई धक्के न पहुंचेंगे, यात्रा ठीक से हो जाएगी। यह असहज स्थिति है।

सहज स्थिति का मतलब है कि बफर हटा दो, सड़क पर गड्डे हैं तो जानो; गाड़ी बिना बफर की, बिना शॉक—एज्जार्बर की चलाओ। पहले ही गड्डे पर प्राण निकल जाएंगे, कमर टूट जाएगी, गाड़ी के बाहर निकल आओगे कि नमस्कार, इस गाड़ी में अब नहीं चलते। गाड़ी के सिग निकालकर चलेंगे रास्ते पर, पहले ही गड्डे में प्राण निकल जाएंगे, हड्डी टूट जाएंगी; गाड़ी के बाहर हो जाएंगे, कहेंगे, नमस्कार! अब इस गाड़ी में हम कदम न रखेंगे। लेकिन वे नीचे लगे शॉक—एज्जार्बर गड्डों को पी जाते हैं।

सहज योग का मतलब है. जो है, वह है। असहज होने की चेष्टा न करें; जो है उसे जानें, स्वीकार करें, पहचानें और उसके साथ रहने को राजी हो जाएं। और फिर क्रांति सुनिश्चित है। जो है, उसके साथ जो भी रहेगा, बदलेगा। क्योंकि साठ साल फिर उपाय नहीं है कामुकता में गुजारने का। कितने दफे व्रत लेंगे? व्रत लेंगे तो उपाय हो जाएगा।

अगर मैंने आप पर क्रोध किया और क्षमा मांगने न जाऊं, और जाकर कल कह आऊं कि मैं आदमी गलत हूं और अब मुझसे दोस्ती रखनी हो तो ध्यान रखना, मैं फिर—फिर क्रोध करूंगा, क्षमा मैं क्या मांग! मैं आदमी ऐसा हूं कि मैं क्रोध करता हूं। सब दोस्त टूट जाएंगे। सब संबंध छिन्न—भिन्न हो जाएंगे। अकेले क्रोध को लेकर जीना पड़ेगा फिर। फिर क्रोध ही मित्र रह जाएगा। क्रोध करनेवाला भी कोई, क्रोध सहनेवाला भी कोई, क्रोध उठानेवाला भी कोई पास न होगा। तब उस क्रोध के साथ जीना पड़ेगा। जी सकेंगे उस क्रोध के साथ? छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। कहेंगे, यह क्या पागलपन है?

नहीं, लेकिन तरकीब हमने निकाल ली है। सुबह पत्नी पर नाराज हो रहा है पति, घंटे भर बाद मना—समझा रहा है, साड़ी खरीदकर ले आ रहा है। वह पत्नी समझ रही है कि बड़े प्रेम से भर गया है। वह बेचारा अपने क्रोध का पश्चात्ताप करके फिर पुनर्स्थापित, पुराने स्थान पर पहुंच रहा है—पुरानी सीमा पर जहां से झगड़ा शुरू हुआ था, उस लाइन पर फिर पहुंच रहा है। साड़ी—वाड़ी आ जाएगी, पत्नी वापस लौट आएगी, पुरानी रेखा फिर खड़ी हो जाएगी। सांझ फिर वही होना है। उसी रेखा पर सुबह हुआ था, वही रेखा फिर स्थापित हो गई। फिर सांझ वही होना है। फिर रात वही समझाना है, फिर सुबह वही होना है। पूरी जिंदगी वही दोहरना है। लेकिन दोनों में से कोई भी इस सत्य को न समझेगा कि सत्य क्या है? यह हो क्या रहा है? यह क्या जाल है? बेईमानी क्या है यह? दोनों एक—दूसरे को धोखा दिए चले जाएंगे। हम सब एक—दूसरे को धोखा दिए चले जाते हैं। और दूसरे को धोखा देना तो ठीक, अपने को ही धोखा दिए चले जाते हैं।

सहज योग का मतलब है अपने को धोखा मत देना। जो हैं, जान लेना, यही हूं ऐसा ही हूं। और अगर ऐसा जान लेंगे तो बदलाहट तत्काल हो जाएगी—युगपत, उसके लिए रुकना न पड़ेगा कल के लिए। किसी के घर में आग लगी हो और उसे पता चल जाए कि घर में आग लगी है, तो रुकेगा कल तक? अभी छलांग लगाकर बाहर हो जाएगा। जिस दिन जिंदगी जैसी हमारी है हम उसे पूरा देख लेते हैं, उसी दिन छलांग की नौबत आ जाती है।

लेकिन घर में आग लगी है, हमने अंदर फूल सजा रखे हैं। हम आग को देखते ही नहीं, हम फूल को देखते हैं। जंजीरें हाथ में बंधी हैं, हमने सोने का पालिश चढ़ा रखा है। हम जंजीरें देखते ही नहीं, हम आभूषण देखते हैं। बीमारियों से सब घाव हो गए हैं, हमने पट्टियां बांध रखी हैं, पट्टियों पर रंग पोत दिए हैं। हम रंगों को देखते हैं, भीतर के घावों को नहीं देखते।

असत्य बांधता है, सत्य मुक्त करता है:

धोखा लंबा है और पूरी जिंदगी बीत जाती है और परिवर्तन का क्षण नहीं आ पाता है। उसे हम पोस्टपोन करते चले जाते हैं। मौत पहले आ जाती है, वह पोस्टपोनमेंट किया हुआ क्षण नहीं आता। मर पहले जाते हैं, बदल नहीं पाते हैं।

बदलाहट कभी भी हो सकती है। सहज योग बदलाहट की बहुत अदभुत प्रक्रिया है। सहज योग का मतलब यह है कि जो है उसके साथ जीओ, बदल जाओगे। बदलने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है। सत्य बदल देता है।

जीसस का वचन है टुथ लिबरेट्स। वह जो सत्य है वह मुक्त करता है।

लेकिन सत्य को हम जानते ही नहीं। हम असत्य को लीप—पोत कर खड़ा कर लेते हैं। असत्य बांधता है, सत्य मुक्त करता है। दुखद से दुखद सत्य भी सुखद से सुखद असत्य से बेहतर है, क्योंकि सुखद असत्य बहुत खतरनाक है, वह बांधेगा। दुखद सत्य भी मुक्त करेगा। उसका दुख भी मुक्तिदायी है। इसलिए दुखद सत्य के साथ जीना, सुखद असत्य को मत पालना। सहज योग इतना ही है। और फिर तो समाधि आ जाएगी। फिर समाधि को खोजने न जाना पड़ेगा, वह आ जाएगी।

जब रोना आए तो रोना, रोकना मत, और जब हंसना आए तो हंसना, रोकना मत। जब जो हो उसे होने देना और कहना, यह हो रहा है।

मैंने सुना है, जापान में एक फकीर मरा। उसके मरते समय लाखों लोग इकट्ठे हुए। उसकी बड़ी कीर्ति थी। लेकिन उससे भी ज्यादा कीर्ति उसके एक शिष्य की थी। उस शिष्य के कारण ही गुरु प्रसिद्ध हो गया था। लेकिन जब लोग आए तो उन्होंने देखा वह जो शिष्य है, वह बाहर बैठकर छाती पीटकर रो रहा है। तो लोगों ने कहा कि आप और रो रहे हैं? हम तो समझते थे आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए! और आप रोते हैं? तो उस शिष्य ने कहा कि पागलो, तुम्हारे ज्ञान के पीछे मैं रोना न छोडूंगा। रोने की बात ही और। रखो अपने ज्ञान को, सम्हालो, मुझे नहीं चाहिए। पर उन्होंने कहा कि अरे, लोग क्या कहेंगे? अंदर जाओ! बदनामी फैल जाएगी। हम तो समझे तुम स्थितप्रज्ञ हो गए; हम तो समझे थे कि तुम परम तानी हो गए; और हम तो समझे थे कि अब तुम्हें कुछ भी नहीं छुएगा। उसने कहा, तुम गलत समझे थे। बल्कि पहले मुझे बहुत कम छूता था, संवेदनशीलता मेरी कम थी, मैं कठोर था। अब तो सब मुझे छूता है और आर—पार निकल जाता है। मैं तो रोऊंगा, मैं तो दिल भरकर रोऊंगा। तुम्हारे ज्ञान को फेंको। पर वे लोग, जैसा कि भक्तगण होते हैं, उन्होंने कहा कि सब में बदनामी फैल जाएगी। भीड़ करके, घेरा करके रोको, किसी को देखने मत दो। बदनामी हो जाएगी कि परम शानी. .किसी एक ने कहा कि तुम तो सदा समझाते थे कि आत्मा अमर है, अब क्यों रो रहे हो? तो उस फकीर ने कहा, आत्मा के लिए कौन रो रहा है? मैं तो उस शरीर के लिए रो रहा हूं। वह शरीर भी बहुत प्यारा था, और वह शरीर अब दुबारा इस पृथ्वी पर कभी नहीं होगा। आत्मा के लिए कौन रो रहा है! वह तो सदा रहेगी। उसके लिए रो कौन रहा है? लेकिन वह शरीर भी बहुत प्यारा था जो टूट गया। और वह मंदिर भी बहुत प्यारा था जिसमें उस आत्मा ने वास किया। अब वह दुबारा नहीं होगा। मैं उसके लिए रो रहा हूं। अरे, उन्होंने कहा, पागल शरीर के लिए रोते हो? उस फकीर ने कहा कि रोने में भी शर्तें लगाओगे क्या? मुझे रोने भी नहीं दोगे?

प्रामाणिकता से रूपांतरण:

मुक्त चित्त वही हो सकता है जो सत्यचित्त हो गया। सत्यचित्त का मतलब, जो हो रहा है—रोना है तो रोएं, हंसना है तो हंसे, क्रोध करना है तो बी आथेंटिक, क्रोध में भी पूरे प्रामाणिक हों। और जब क्रोध करें तो पूरे क्रोध ही हो जाएं—कि आपको भी पता चल जाए कि क्रोध क्या है और आपके आसपास को भी पता चल जाए कि क्रोध क्या है। वह मुक्तिदायी होगा। बजाय इंच—इंच क्रोध जिंदगी भर करने के, पूरा क्रोध एक ही दफे कर लें और जान लें। तो उससे आप भी झुलस जाएं और आपके आसपास भी झुलस जाए और पता चल जाए कि क्रोध क्या है।

क्रोध का पता ही नहीं चलता। आधा—आधा चल रहा है। वह भी अनआथेंटिक चल रहा है। इंच भर करते हैं और इंच भर……. हमारी यात्रा ऐसी है, एक कदम चलते हैं, एक कदम वापस लौटते हैं, न कहीं जाते, न कहीं लौटते, बस जगह पर खड़े नाचते रहते हैं। कहीं जाना—आना नहीं है।

सहज योग का इतना ही मतलब है कि जो है जीवन में, उसको स्वीकार कर लें, उसे जानें और जीएं। और इस जीने, जानने और स्वीकृति से आएगा परिवर्तन, म्यूटेशन, बदलाहट। और वह बदलाहट आपको वहां पहुंचा देगी जहां परमात्मा है।

यह जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं यह सहज योग की ही प्रक्रिया है। इसमें आप स्वीकार कर रहे हैं जो हो रहा है; अपने को छोड़ रहे हैं पूरा और स्वीकार कर रहे हैं जो हो रहा है। नहीं तो आप सोच सकते हैं, पढ़े—लिखे आदमी, सुशिक्षित, संपन्न, सोफिस्टिकेटेड, सुसंस्कृत—से रहे हैं खड़े होकर, चिल्ला रहे हैं, हाथ—पैर पटक रहे हैं, विक्षिप्त की तरह नाच रहे हैं! यह सामान्य नहीं है। कीमती है लेकिन, असामान्य है। इसलिए जो देख रहा है उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि यह क्या हो रहा है। उसे हंसी आ रही है कि यह क्या हो रहा है! उसे पता नहीं कि वह भी इस जगह खड़े होकर प्रामाणिक रूप से जो कहा जा रहा है, करेगा, तो उसे भी यही होगा। और हो सकता है उसकी हंसी सिर्फ डिफेंस—मेजर हो, वह सिर्फ हंसकर अपनी रक्षा कर रहा है। वह कह रहा है, हम ऐसा नहीं कर सकते। वह हंसकर यह बता रहा है, हम ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन उसकी हंसी कह रही है कि उसका कुछ संबंध है। उसकी हंसी कह रही है कि वह इस मामले से कुछ न कुछ संबंध उसका है। अगर वह भी इस जगह इसी तरह खड़ा होगा, यही करेगा। उसने भी अपने को रोका है, दबाया है; रोया नहीं, हंसा नहीं, नाचा नहीं।

बर्ट्रेड रसेल ने पीछे एक बार कहा कि मनुष्य की सभ्यता ने आदमी से कुछ कीमती चीजें छीन लीं—उसमें नाचना एक है। बर्ट्रेड रसेल ने कहा, आज मैं ट्रैफलगर स्कायर पर खड़े होकर लंदन में नाच नहीं सकता। कहते हैं हम स्वतंत्र हो गए हैं, कहते हैं कि दुनिया में स्वतंत्रता आ गई है, लेकिन मैं चौरस्ते पर खड़े होकर नाच नहीं सकता। ट्रैफिक का आदमी फौरन मुझे पकड़कर थाने भेज देगा कि आप ट्रैफिक में बाधा डाल रहे हैं। और आप आदमी पागल मालूम होते हैं, चौरस्ता नाचने की जगह नहीं। बर्ट्रेंड रसेल ने कहा कि कई दफे आदिवासियों में जाकर देखता हूं और जब उन्हें नाचते देखता हूं रात, आकाश के तारों की छाया में, तब मुझे ऐसा लगता है सभ्यता ने कुछ पाया या खोया?

बहुत कुछ खोया है। बहुत कुछ खोया है। कुछ पाया है, बहुत कुछ खोया है। सरलता खोई है, सहजता खोई है, प्रकृति खोई है, और बहुत तरह की विकृति पकड़ ली है। ध्यान आपको सहज अवस्था में ले जाने की प्रक्रिया है।

साधक के लिए पाथेय:

सलिए अंतिम बात जो आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि यहां तीन दिन में जो हुआ, वह महत्वपूर्ण है। कुछ लोगों ने बड़ी अदभुत प्रतीति पाई, कुछ लोग प्रतीति की झलक तक पहुंचे, कुछ लोग प्रयास तो किए लेकिन पूरा नहीं कर पाए, फिर भी प्रयास किए और निकट थे, प्रवेश हो सकता था। लेकिन सभी ने कुछ किया, सिर्फ दो—चार—दस मित्रों को छोड्कर। उनको, जिन्हें बुद्धिमान होने का भ्रम है, उनको छोड्कर। जिनके पास बुद्धि कम, किताबें ज्यादा हैं, उनको छोड्कर बाकी सारे लोग संलग्न हुए। और सारा वातावरण, बहुत सी बाधाओं के बावजूद भी, एक विशेष प्रकार की शक्ति से निर्मित हुआ। और बहुत कुछ घटा। लेकिन वह सिर्फ प्रारंभ है।

घर जाकर ध्यान का प्रयोग जारी रखें:

प घर जाकर घंटे भर इस प्रयोग को चौबीस घंटे में से देते रहना, तो आपकी जिंदगी में कोई द्वार खुल सकता है। और घर के लिए—कमरा बंद कर लें, और घर के लोगों को कह दें कि घंटे भर इस कमरे में कुछ भी हो, इस संबंध में चिंतित होने का कारण नहीं है। कमरे के भीतर नग्न हो जाएं, सब वस्त्र फेंक दें। और खड़े होकर प्रयोग करें। गद्दी बिछा लें, ताकि गिर जाएं तो कोई चोट न लग जाए। खड़े होकर प्रयोग करें। और घर के लोगों को पहले जता दें कि बहुत कुछ हो सकता है— आवाजें आ सकती हैं, रोना निकल सकता है—कुछ भी हो सकता है भीतर, लेकिन घर के लोगों को बाधा नहीं देनी है। यह पहले बता दें।

और इस प्रयोग को घंटे भर दोहराते रहें, दुबारा शिविर में मिलने के पहले। और अगर जो मित्र यहां प्रयोग किए हैं वे अगर सारे मित्र घर जाकर दोहराते हैं, तो उनके लिए मैं फिर अलग शिविर ले सकूंगा। तब उन्हें और गति दी जा सकती है।

बहुत संभावना है, अनंत संभावनाएं हैं, लेकिन आप कुछ करें। आप एक कदम चलें तो परमात्मा आपकी तरफ सौ कदम चलने को सदा तैयार है। लेकिन आप एक कदम भी न चलें, तब फिर कोई उपाय नहीं है।

जाकर इस प्रयोग को जारी रखें। संकोच बहुत घेरेंगे। क्योंकि घर में छोटे बच्चे क्या कहेंगे कि पिता को क्या हो गया! वे तो कभी ऐसे न थे, सदा गुरु—गंभीर थे। ऐसा नाचते हैं, कूदते हैं, चिल्लाते हैं! हम नाचते—कूदते थे बच्चे घर में तो वे डांटते— डपटते थे कि गलत है यह, अब खुद को क्या हो गया है? जरूर बच्चे हंसेंगे। लेकिन उन बच्चों से माफी मांग लेना, और उन बच्चों से कह देना कि भूल हो गई। तुम अभी भी नाचो और कूदो और आगे भी नाचने—कूदने की क्षमता को बचाए रखना, वह काम पड़ेगी।

बच्चों को जल्दी हम का बना देते हैं।

घर में सबको जता देना कि यह घंटे भर कुछ भी हो, उसके संबंध में कोई व्याख्या नहीं करनी है, कोई पूछताछ नहीं करनी है। एक दिन कह देने से बात हल हो जाती है, दो या तीन दिन चलने पर घर के लोग समझ लेते हैं कि ठीक है, ऐसा होता है। और न केवल आप बल्कि आपके पूरे घर में परिणाम होने शुरू हो जाएंगे।

ऊर्जावान ध्यान कक्ष:

जिस कमरे में आप करें इस प्रयोग को, अगर उस कमरे को संभव हो सके आपके लिए, तो फिर इसी प्रयोग के लिए रखें, उसमें कुछ दूसरा काम न करें। छोटी कोठरी हो, ताला बंद कर दें, उसमें सिर्फ यही प्रयोग करें। और अगर घर के दूसरे लोग भी उसमें आना चाहें तो वह प्रयोग करने के लिए आएं तो ही आ सकें, अन्यथा उसे बंद कर दें। नहीं संभव हो सके तो बात अलग है। संभव हो सके तो इसके बहुत फायदे होंगे। वह कमरा चार्ब्द हो जाएगा।

वह रोज आप जब उसके भीतर जाएंगे तो आपको पता चलेगा कि साधारण कमरा नहीं है। क्योंकि हम पूरे समय अपने चारों तरफ रेडिएशन फैला रहे हैं। हमारे चारों तरफ हमारी चित्त—दशा की किरणें फिंक रही हैं। और कमरे और जगहें भी किरणों को पी जाती हैं।

और इसीलिए हजारों—हजारों साल तक भी कोई जगह पवित्र बनी रहती है। उसके कारण हैं। अगर वहां कभी कोई महावीर या बुद्ध या कृष्ण जैसा व्यक्ति बैठा हो, तो वह जगह हजारों साल के लिए और तरह का इम्पैक्ट ले लेती है, उस जगह पर खड़े होकर आपको दूसरी दुनिया में प्रवेश करना बहुत आसान हो जाता है।

तो जो संपन्न हैं……. और संपन्न का मैं तो एक ही लक्षण मानता हूं कि उसके घर में मंदिर हो सके, बस वही संपन्न है, बाकी सब दरिद्र ही हैं। घर में एक कमरा तो मंदिर का हो सके, जो एक दूसरी दुनिया की यात्रा का द्वार हो। वहां कुछ और न करें। वहां जब जाएं, मौन जाएं; और वहां ध्यान को ही करें। और घर के लोगों को भी धीरे— धीरे उत्सुकता बढ़ जाएगी, क्योंकि आप में जो फर्क होने शुरू होंगे वे दिखाई पड़ने लगेंगे।

अब यहां जिन दो—चार लोगों को कीमती फर्क हुए हैं, दूसरे लोगों ने उनसे जाकर पूछना शुरू कर दिया कि आपको क्या हो गया है! उन्होंने मुझसे भी आकर कहा कि हम क्या जवाब दें? हमसे लोग पूछ रहे हैं कि क्या हो गया है!

तो वे आपके घर के बच्चे, आपकी पत्नी, पति, पिता, बेटे, वे सब पूछने लगेंगे, मित्र पूछने लगेंगे कि क्या हो रहा है! वे भी उत्सुक होंगे। और अगर इस प्रयोग को जारी रखते हैं तो दूर नहीं वह क्षण जब आपके जीवन में घटना घट सकती है—जिस घटना के लिए अनंत जन्मों की यात्रा करनी होती है, और जिस घटना के लिए अनंत जन्मों तक हम चूक सकते हैं।

विराट ध्यान आंदोलन की आवश्यकता:

मनुष्य—जाति के इतिहास में आनेवाले कुछ वर्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं। और अगर एक बहुत बड़ी स्‍प्रिचुएलिटी का जन्म नहीं हो सकता— अब आध्यात्मिक लोगों से काम नहीं चलेगा— अगर आध्यात्मिक आंदोलन नहीं हो सकता, कि लाखों—करोड़ों लोग उससे प्रभावित हो जाएं, तो दुनिया को भौतिकवाद के गर्त से बचाना असंभव है। और बहुत मोमेंटस क्षण हैं कि पचास साल में भाग्य का निपटारा होगा—या तो धर्म बचेगा, या निपट अधर्म बचेगा। इन पचास साल में बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मोहम्मद, राम, जीसस, सबका निपटारा होने को है। इन पचास सालों में एक तराजू पर ये सारे लोग हैं और दूसरे तराजू पर सारी दुनिया के विक्षिप्त राजनीतिज्ञ, सारी दुनिया के विक्षिप्त भौतिकवादी, सारी दुनिया के भ्रांत और अज्ञान में स्वयं और दूसरों को भी धक्का देनेवाले लोगों की बड़ी भीड़ है। और एक तरफ तराजू पर बहुत थोड़े से लोग हैं। पचास सालों में निपटारा होगा। वह जो संघर्ष चल रहा है सदा से, वह बहुत निपटारे के मौके पर आ गया है। और अभी तो जैसी स्थिति है उसे देखकर आशा नहीं बंधती। लेकिन मैं निराश नहीं हूं क्योंकि मुझे लगता है कि बहुत शीघ्र बहुत सरल—सहज मार्ग खोजा जा सकता है जो करोड़ों लोगों के जीवन में क्रांति की किरण बन जाए।

और अब इक्का—दुक्का आदमियों से नहीं चलेगा। जैसा पुराने जमाने में चल जाता था कि एक आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया। अब ऐसा नहीं चलेगा। ऐसा नहीं हो सकता। अब एक आदमी इतना कमजोर है, क्योंकि इतनी बड़ी भीड़ पैदा हुई है, इतना बड़ा एक्सप्लोजन हुआ है जनसंख्या का कि अब इक्का—दुक्का आदमियों से चलनेवाली बात नहीं है। अब तो उतने ही बड़े व्यापक पैमाने पर लाखों लोग अगर प्रभावित हों, तो ही कुछ किया जा सकता है।

लेकिन मुझे दिखाई पड़ता है कि लाखों लोग प्रभावित हो सकते हैं। और थोड़े से लोग अगर न्युक्लियस बनकर काम करना शुरू करें तो यह हिंदुस्तान उस मोमेंटस फाइट में, उस निर्णायक युद्ध में बहुत कीमती हिस्सा अदा कर सकता है। कितना ही दीन हो, कितना ही दरिद्र हो, कितना ही गुलाम रहा हो, कितना ही भटका हो, लेकिन इस भूमि के पास कुछ संरक्षित संपत्तियां हैं। इस जमीन पर कुछ ऐसे लोग चले हैं, उनकी किरणें हैं, हवा में उनकी ज्योति, उनकी आकांक्षाएं सब पत्तों—पत्तों पर खुद गई हैं। आदमी गलत हो गया है, लेकिन अभी जमीन के कणों को बुद्ध के चरणों का स्मरण है। आदमी गलत हो गया है, लेकिन वृक्ष पहचानते हैं कि कभी महावीर उनके नीचे खड़े थे। आदमी गलत हो गया है, लेकिन सागर ने सुनी हैं और तरह की आवाजें भी। आदमी गलत हो गया है, लेकिन आकाश अभी भी आशा बांधे है। आदमी भर वापस लौटे तो बाकी सारा इंतजाम है।

तो इधर मैं इस आशा में निरंतर प्रार्थना करता रहता हूं कि कैसे लाखों लोगों कै जीवन में एक साथ विस्फोट हो सके। आप उसमें सहयोगी बन सकते हैं। आपका अपना विस्फोट बहुत कीमती हो सकता है— आपके लिए भी, पूरी मनुष्य—जाति के लिए भी। इस आशा और प्रार्थना से ही इस शिविर से आपको विदा देता हूं कि आप अपनी ज्योति तो जलाएंगे ही, आपकी ज्योति दूसरे बुझे दीयों के लिए भी ज्योति बन सकेगी।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, उससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–192

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भोजन की कीमिया—(प्रवचन—पांचवां)

अध्‍याय—17

सूत्र:–

आयु:सत्त्वब्रलारौग्यसुख्तीतिविवर्थना:।

रस्‍या: स्निग्‍धा: स्थिरा हद्या आहारा: सात्‍विकप्रिया:।। 8।।

कट्वब्ललवणात्युष्यातीक्श्रणीरूक्षधिदाहिन:।

आहारा राजसस्येष्टा दु:खशस्कोमयप्रदा:।। 9।।

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।

उच्‍छिष्‍टमपि चामेध्यं भोजन तामसप्रियम्।। 10।।

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढाने वाले एवं रसयुक्‍त, चिकने स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय, ऐसे आहार सात्‍विक पुरूष को प्रिय होते हैं। और कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त और अति गरम तथा तीक्ष्‍ण, रूखे और दाहकारक एवं दुख, चिंता और रोगों को उत्पन्‍न करने वाले आहार राजस पुरूष को प्रिय होते हैं।

और जो भोजन अधपका, रसरहित और दुर्गंधयुक्त एवं बासा और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र है, वह भोजन तामस पुरूष को प्रिय होता है।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न :

 

सुना है, नारद को कृष्ण से मिलने की बहुत प्यास थी। और उन्हें जहां भी कृष्ण के होने का समाचार मिलता, वहां पहुंचते; लेकिन कृष्ण वहां से गुजर गए होते। ऐसे मृत्यु तक वे कृष्ण से न मिल पाए। एक है अनंत प्यास से भरे नारद की स्थिति और एक मैं हूं? जिसकी अभी प्यास ही नहीं जगी। तो क्या परमात्मा को पाने की मेरी चेष्टा निरर्थक ही नहीं है?

 

रमात्मा से वंचित रह जाने वाले दो तरह के लोग हैं। एक, जिनकी प्यास तो है ठीक, लेकिन खोज की दिशा गलत है। दूसरे, जिनकी प्यास ही नहीं है, इसलिए दिशा का सवाल ही नहीं उठता।

नारद की प्यास तो थी, लेकिन यात्रा वे गलत दिशा में कर रहे थे। जो भी कृष्ण को खोजने बाहर जाएगा, वह भटकेगा। कृष्ण को खोजना हो, तो भीतर जाना पड़ेगा। कृष्ण कोई बाहर की सत्ता नहीं है, कृष्ण तो भीतर की अवस्था है।

नारद चूके, क्योंकि कृष्ण को बाहर समझा। जिसने भी परमात्मा को बाहर समझा, वह चूकता चला जाएगा। तुम जब पहुंचोगे, पाओगे, वहां से परमात्मा हट चुका। हर बार यही होगा। क्योंकि परमात्मा वहां था ही नहीं। वह दूर से दिखाई पड़ता था। पास से जाकर पता चलता है, हट गया। मृग—मरीचिका थी। मरुस्थल में दूर से दिखाई पड़ता था, सरोवर है।

और मरुस्थल में जब सरोवर दिखाई पड़ता है, तो पक्का भरोसा आ जाता है। भरोसे के दो कारण होते हैं, एक तो कारण होता है भीतर की प्यास। प्यासा आदमी पानी पर भरोसा करना चाहता है। प्यासा आदमी पानी पर संदेह नहीं करना चाहता। क्योंकि संदेह तो मौत बनेगी। तो प्यासा तो श्रद्धालु होता है। जितनी बड़ी प्यास होती है, उतनी ही बड़ी श्रद्धा हो जाती है।

तो प्यासा यह मानना नहीं चाहता कि वह जो दूर दिखाई पड रहा सरोवर है, वह है नहीं। क्योंकि उसके न होने का मतलब तो मौत होगी। यहां प्यास से कंठ जल रहा है, तो बुद्धि सारे संदेह छोड देती है, बुद्धि अपनी बुद्धिमानी छोड़ देती है।

प्यासा भरोसा करता है। भरोसे के सहारे ही जी सकता है। प्यासा आशा से भरा होता है। क्योंकि आशा के बिना तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। तो जो नहीं है, उसे भी मानने की तत्परता होती है।

भयभीत आदमी भय के कारण बुद्धि को खो देता है। जो नहीं है, वह दिखाई पड़ने लगता है। तुम कभी भयभीत हालत में अंधेरी रात से गुजरे? न मालूम कितने भूत—प्रेत सब तरफ मौजूद हो जाते हैं। चोर, हत्यारे सब तरफ सरकने लगते हैं। पत्ता सरकता है और लगता है कि कोई आ गया। हवा का झोंका टकराता है वृक्षों से और लगता है, कोई आ गया। खुद की ही पदचाप सुनाई पड़ती है सुनसान रात में और लगता है, कोई पीछा कर रहा है। खुद के ही हृदय की धड़कन तेज मालूम पड़ने लगती है। भीतर उत्तेजना होती है, तुम बाहर उत्तेजना का कारण खोज लेते हो। भयभीत आदमी भूत—प्रेत पैदा कर लेता है। जैसा भयभीत आदती भूत—प्रेत पैदा कर लेता है, वैसा ही प्यासा आदमी जल को पैदा कर लेता है।

मरुस्थल में प्यास लगी हो और सरोवर दिखाई पड़े, तो इतनी हिम्मत तुम न जुटा सकोगे कि सोच सकी, यह मृग—मरीचिका है, सपना है। कठिन है। घर में बैठे होते छाया में, जल पीए बैठे होते, तो शायद तुम भी दो बार सोचते कि यह जो दिखाई पड़ रहा है, यह कहीं मृग—मरीचिका तो नहीं है! कहीं मरुस्थल का धोखा तो नहीं है! मरुस्थल में धोखा पैदा होता है प्रकाश के एक नियम के अनुसार। जब प्रकाश की किरणें तप्त रेत पर पड़ती हैं, तो तप्त रेत से वापस लौटती हैं। ये जो वापस लौटती किरणें हैं, ये कंपती हुई गरम होकर वापस लौटती हैं। इनके कंपन के कारण तुम्हें कभी—कभी यहां भी, मरुस्थल में जाने की जरूरत भी नहीं, भरी दुपहरी में किसी के छप्पर पर गौर से देखना, तो तुम्हें किरणों की लहरें कंपित होती मालूम होंगी।

ये कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि मरुस्थल तो भयंकर अग्नि है, रेत ही रेत है; लहरें कंपती हुई मालूम पड़ती हैं किरणों की। लेकिन वह कंपन इतना साफ मालूम पड़ता है कि लगता है, पानी में लहरें उठ रही हों। और भरोसा और भी गहरा आ जाता है। आस—पास खड़े हुए वृक्षों की छाया बनने लगती है किरणों की कंपती हुई लहरों में। और वह तो पक्का हो गया कि जल है, नहीं तो छाया कैसे बनेगी! जल के बिना कहीं छाया बन सकती है? रेत में कहीं वृक्ष की छाया बन सकती है? लेकिन कंपती लहरों में वृक्ष की छाया बन जाती है किरणों में।

और फिर लगी भीतर प्यास! भीतर की प्यास और बाहर प्रकाश का जाल, भरोसा आ जाता है। लेकिन जैसे ही तुम पास पहुंचते हो, जैसे—जैसे पास पहुंचते हो, तुम बड़े चकित होते हो। जैसे—जैसे पास पहुंचते हो, ऐसे—ऐसे सरोवर पीछे हटने लगता है। तुम्हारी और सरोवर की दूरी उतनी ही रहती है, चाहे तुम कितने ही पास आ जाओ। क्योंकि अब तुम्हें दूर किरणों के जाल पर पानी दिखाई पड़ता है। प्यासा आदमी फिर भी भरोसा करता है। प्यासा तो अंधा हो जाता है।

तो जहां—जहां नारद गए होंगे, वहीं—वहीं से कृष्ण हट गए; यह कहानी बड़ी प्रीतिकर है। ऐसा हुआ हो, न हुआ हो, लेकिन खोजी के जीवन में यह घटना आती है।

तुम अपनी प्यास के कारण परमात्मा को बाहर देखते हो। क्योंकि तुमने जितनी चीजों की प्यास की है, सभी को बाहर पाया है। जल की प्यास लगी, जल बाहर पाया। भूख लगी, क्षुधा लगी, भोजन बाहर पाया। प्रेम उठा, भीतर तो प्रेमी नहीं मिला, बाहर पाया। महत्वाकांक्षा उठी, बाहर पद पाए धन पाया। जो भी भीतर जगा, उसको तृप्त करने वाला सदा तुमने बाहर पाया।

तो जब परमात्मा की प्यास जगेगी, तब भी तुम्हारे पूरे जीवन का अनुभव कहेगा, बाहर होना चाहिए। जब भी उठी प्यास, बाहर ही तृप्ति पाई। जब भी उठी अतृप्ति, बाहर ही संतोष पाया। सारे जन्मों का सार निचोड़ है, गणित है, कि भीतर होती है प्यास, जल बाहर होता है। जब परमात्मा की प्यास उठेगी, तब भी तुम बाहर खोजोगे—मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में—बाहर खोजोगे। ! आकाश में, पाताल में, सब जगह खोजोगे। वहां न खोजोगे, जहां तुम्हारी प्यास है।

संसार में प्यास तो भीतर होती है, जल बाहर होता है। परमात्मा की खोज में जहां प्यास है, वहीं सरोवर है। वे भिन्न आयाम हैं; तुम्हारे अनुभव से उसका कोई संबंध नहीं।

तो जहां—जहां नारद को खबर मिली, जहां—जहां मृग—मरीचिका बनी, जहां—जहां धोखा खड़ा हुआ, वहां—वहा नारद भागे। पता लगा, कृष्ण पूना में हैं, नारद पूना आए। पता लगा, कृष्ण कलकत्ते में हैं, नारद कलकत्ता गए। लेकिन जब तक कलकत्ता पहुंचे, तब तक कृष्ण कहीं और जा चुके। ऐसे वे भटकते रहे।

यह थोड़ा विचारने जैसी बात है कि नारद जैसा बुद्धिमान आदमी जीवनभर भटकता रहा और न खोज पाया! सबको मिल गए कृष्ण, नारद को क्यों न मिले?

नारद प्यासा है, गहरी प्यास है। प्यास अंधा कर देती है। और बाहर खोज रहा है। बाहर की खोज में जहां—जहां पाया, जहां—जहां खबर मिली, गए; लेकिन कृष्ण वहां से हट गए। पूरा जीवन ऐसे ही गया।

ऐसे ही तो तुम्हारे बहुत—से जीवन गए। न नारद को समझ आई, न तुम्हें अभी समझ आई है कि परमात्मा की प्यास और परमात्मा दो चीजें नहीं हैं। वहां द्वैत है ही नहीं। वहा प्यास ही सरोवर है। वहां भूख ही भोजन है। वहां अद्वैत है। वहां खोजी और खोजने वाला दो नहीं हैं। वहा खोजने वाला और जिसको खोज रहा है, वे दोनों एक हैं।

वहा तुम और तुम्हारा भगवान दो नहीं हैं। वहां भक्त और भगवान अन्य—अन्य नहीं हैं; वहां अनन्य है, अभिन्न है। वहां एक है। वहां तुम्हीं हो। चाहो तो भक्त बन जाओ और चाहो तो भगवान बन जाओ। अगर तुम भक्त बने, तो तुम भगवान को बाहर खोजते रहोगे।

वही तो नारद की मुसीबत है। नारद भक्त हैं। भक्त बाहर खोजता रहेगा और भटकता रहेगा। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है, तुम भगवान बन जाओ।

भगवान बनने का क्या मतलब होता है? इतना ही मतलब होता है कि प्यास और सरोवर एक। जिसे मैं खोज रहा हूं? वही मैं हूं। जो खोज रहा है, वही मंजिल है। मार्ग और मंजिल अलग नहीं। साधन और साध्य दो नहीं। एक ही है। और जो एक की तलाश करेगा, उसे तो भीतर ही खोजना पड़ेगा।

काश! नारद आंख बंद कर लेते और भीतर देखते। तो जिस क्या को बाहर चूकते रहे थे, उसे भीतर हंसता हुआ पाते। वह वहां विराजमान है, भीतर प्रतीक्षा कर रहा है। बुला भी रहा है कि नारद, बाहर क्यों भटकता है? मैं तेरे भीतर हूं!

लेकिन जो बाहर भटकता है, वह भीतर की आवाज नहीं सुनता। नारद प्यासे थे। लेकिन प्यास ने उन्हें मृग—मरीचिका सुझा दी। तो एक तो वह आदमी है, जो प्यासा भी होता है, फिर भी चूकता है। एक वह आदमी है, जो प्यासा ही नहीं होता, इसलिए मिलने का सवाल ही नहीं है। नारद तो कभी न कभी मिल जाएंगे, एक जन्म में न मिल पाए हों, दूसरे जन्म में मिल जाएंगे, तीसरे जन्म में मिल जाएंगे। ऐसी कोई जल्दी भी नहीं है। अनंत काल है। शेष बहुत समय है। कथा चलती ही रही है। इसलिए कुछ अंत नहीं होता एक जीवन पर। एक जीवन तो एक कण है। समय का तो विस्तीर्ण सागर है 1 कोई जल्दी नहीं है। नारद कहीं न कहीं मिल ही जाएंगे। लेकिन जिसकी प्यास ही नहीं जगी, वह कैसे मिलेगा?

प्यास जगने का पहला कदम है, बाहर खोजना। और बाहर खोजकर जब असफल होते हैं, बार—बार असफल होते हैं; तब सुरति आती है, स्मृति आती है कि अब भीतर और खोज लें।

इसलिए नारद बनो। खाली बैठे रहने से कुछ भी न होगा। बाहर खोजना ही पड़ेगा, तभी तो भीतर खोजने का भान आएगा। बाहर हारोगे, तो भीतर जागोगे। बाहर गिरोगे बार—बार, तो भीतर उठोगे। बाहर टकरा—टकराकर असफलता—असफलता— असफलता हाथ लगेगी, तो एक दिन तुम्हें भी याद आ जाएगी कि बहुत खोजा बाहर, अब थोड़ा भीतर भी नजर कर लें, थोड़ा भीतर भी देख लें। पता नहीं, कहीं भीतर छिपा हो!

जब बाहर चूक ही जाता है हर बार, मिलते—मिलते चूक जाता है, पहुंचते —पहुंचते चूक जाता है, तो कितनी देर तुम बाहर खोजते रहोगे! मूढ़ से मूड आदमी को भी एक दिन समझ आ जाएगी कि दो ही तो दिशाएं हैं, बाहर और भीतर। बाहर खोज लिया, अब जरा भीतर और देख लें।

तो खोज का पहला पड़ाव नारद हैं। अगर प्यास ही न लगी, तो यह तो पक्का है कि मृग—मरीचिका पैदा न होगी। कृष्ण तुम्हारे पास से भी गुजरते होंगे, तो तुम आंख उठाकर न देखोगे। देख भी लोगे, तो भी दिखाई न पड़ेंगे। देख भी लोगे, तो कुछ और समझोगे।

कृष्ण मौजूद हैं, बहुत कम लोग ही तो देख पाते हैं। अर्जुन को भी बड़ी देर लगती है देख पाने में। अर्जुन भी पूछता चला जाता है। वह कृष्ण को टटोलने की कोशिश कर रहा है, जांचने की कोशिश कर रहा है। उसे भी पक्का भरोसा नहीं है। इसीलिए तो इतनी लंबी गीता चलती है। नहीं तो कृष्ण कह देते, लड़। भरोसा पूरा होता, वह लड़ता।

संदेह था, शक था। और शक बिलकुल स्वाभाविक मालूम होता है। क्योंकि कृष्ण मित्र थे। मित्र में भगवान देखना बहुत मुश्किल है। जो बहुत दूर है, उसमें भगवान देखना आसान है। जो बहुत पास है, उसमें देखना बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह तुम्हीं जैसा है। तुम्हें उसकी भूल—चूके भी पता हैं। तुम उसे परम पुरुष कैसे मान सकते हो! तुमने उसे प्यासा देखा है, भूखा देखा है, थका—मादा देखा है, सोते देखा है, उठते देखा है। गरमी में पसीना बहते देखा है, सर्दी में कंपते देखा है। ठीक तुम जैसा है। किसी ने गाली दी है, तो नाराज होते देखा है। किसी ने प्रेम किया है, तो प्रसन्न होते देखा है। ठीक तुम जैसा है। कैसे तुम भगवान को मान सकोगे कि वह भगवान है?

कृष्ण को अर्जुन कैसे माने कि वे भगवान हैं? दुर्योधन भी नहीं मानता, पर उसका न मानना पक्का है। उसकी अश्रद्धा पूर्ण है। हा, अर्जुन की श्रद्धा पूरी नहीं है। अश्रद्धा भी पूरी नहीं है, डांवाडोल है।

अर्जुन शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। वह बनता है ऋजु से। ऋजु का अर्थ होता है, सीधा। जैसे ज्योति जलती हो दीए की, कंपती न हो। अऋजु का अर्थ होता है, कंपता हुआ, डावाडोल, चंचल, क्षणभर श्रद्धा, क्षणभर अश्रद्धा।

देखता है मित्र को, तो मित्र दिखाई पड़ता है। जरा गौर से देखता है, तो मित्र खो जाता है, भगवान की झलक मिलती है। भरोसा आता भी है, नहीं भी आता। इसलिए इतनी लंबी गीता चलती है। यह भरोसे की खोज है, श्रद्धा की खोज है।

अर्जुन टटोल रहा है। वह यह कह रहा है कि सच में ही, सच में ही तुम विराट पुरुष हो? सच में ही तुम वह हो, जिसका तुम दावा करते हो? सच में तुम ही हो, जिसने सब बनाया? तुम्हीं हो, जो सब में छिपे हो? भरोसा नहीं आता। मेरे सारथी होकर बैठे हो! मेरा रथ चला रहे हो! मेरे घोड़ों को पानी पिलाते हो, खुजलाते हो! शरीर तो तुम्हारा मुझ जैसा ही मालूम पड़ता है। शब्द भी तुम्हारे मुझ जैसे मालूम पड़ते हैं।

लेकिन थोड़ा—सा कुछ पार भी झलकता हुआ आता है, कुछ अतिक्रमण भी करता है। कुछ विराट भी है, छोटे—से आंगन में ही सही, आकाश भी है। उसकी भी झलक मिलती है।

दुर्योधन पक्का है, दृढ़ निश्चय है। उसकी अश्रद्धा पूरी है। उसने कभी भूलकर भी नहीं सोचा कि इस आदमी में कोई परमात्मा है। अर्जुन की श्रद्धा—अश्रद्धा के बीच दौड़ है।

जिसकी प्यास ही नहीं है, वह तो खोजता ही नहीं। उसे तो दूर भी नहीं दिखाई पड़ता परमात्मा, बाहर भी नहीं दिखाई पड़ता। उसके लिए परमात्मा शब्द व्यर्थ है। उसमें कोई अर्थ नहीं है। वह कामचलाऊ है।

अगर वह कभी परमात्मा शब्द का उपयोग भी करता है, तो तुम यह मत सोचना कि उसकी कोई सार्थकता है। उसकी कोई सार्थकता नहीं है। ऐसा आदमी कभी—कभी कहता है, कोई बात उसे मालूम नहीं, तुम उससे पूछो, वह कहता है, परमात्मा जाने। तुम यह मत समझना कि वह यह कह रहा है कि परमात्मा जानता है। जब वह कहता है, परमात्मा जाने, तो वह यह कहता है कि कोई भी नहीं जानता। उसका मतलब यह होता है कि कोई भी नहीं जानता। परमात्मा यानी कोई भी नहीं। वह उपयोग करता है।

मुल्ला नसरुद्दीन नास्तिक है। ईश्वर को मानता नहीं, पूजा—प्रार्थना को मानता नहीं। कभी मस्जिद नहीं गया; कभी कुरान उठाकर नहीं पढ़ी।

एक यात्रा में एक मौलवी का साथ हो गया। सर्द ठंडे दिन थे और मौलवी पांच बजे सुबह प्रार्थना करने को उठा कंपकंपाता हुआ; दात कैप रहे, हाथ कैप रहे। बड़ी सर्द रात। मुल्ला अपने बिस्तर में दबा है। मौलवी को उठता देखकर उसने भी जरा—सा रजाई से झांककर देखा और कहा कि धन्यवाद भगवान का कि हम आस्तिक नहीं हैं।

इसके भगवान शब्द का क्या अर्थ होगा? धन्यवाद भगवान का कि हम आस्तिक नहीं हैं! नहीं तो पांच बजे रात, इस सर्द सुबह में उठकर प्रार्थना करनी पड़ती। यह भी भगवान शब्द का उपयोग करता है, लेकिन इसका कोई प्रयोजन नहीं है। यह अर्थहीन शब्द है।

भगवान जैसे शब्द में अर्थ तो तभी आता है, जब तुम्हें थोड़ी—सी प्रतीति, थोड़ी सी झलक, थोड़ा झरोखा खुलना शुरू होता है। भगवान शब्द का अर्थ शब्दकोशों में नहीं लिखा है। वह जीवन की अनुभूति में है।

जिसकी प्यास ही नहीं है, उसे बाहर की दौड़ तो नहीं होगी, वह नारद जैसा भटकेगा नहीं। लेकिन इससे प्रसन्न मत होना कि हम भटक नहीं रहे हैं। क्योंकि जो भटकता है, वह कभी ठीक राह पर भी आ जाता है। जो भटकता ही नहीं, वह कभी ठीक राह पर नहीं आता। जो भूल करता है, वह कभी भूल सुधार भी लेता है। जो भूल करता ही नहीं, वह सुधारेगा कैसे?

इसलिए भूल करने से मत डरना और भटकने से भयभीत मत होना। जो पहुंचे हैं, सभी भटककर पहुंचे हैं। और जिन्होंने पाया है, बहुत भूलें करके पाया है। इसलिए भूल करने से मत डरना। वह कायर का लक्षण है। और भटकने से मत डरना, वह कमजोर की परिभाषा है।

हिम्मतवर आदमी भूल करने को राजी होता है, हजार भूलें करने को राजी होता है। एक बात के लिए भर राजी नहीं होता; एक ही भूल को दुबारा करने को राजी नहीं होता। नई—नई भूलें करता है। क्योंकि भूल न करोगे, तो जानोगे कैसे? पहचानोगे कैसे? टटोलोगे न, तो द्वार कैसे मिलेगा?

दीवार को टटोलने से बचना मत। क्योंकि जहां हम खड़े हैं, अंधकार में, वहां टटोला जा सकता है और कुछ किया नहीं जा सकता। लेकिन टटोलने वालों ने धीरे— धीरे द्वार पा लिया है। तुम इससे मत डरना कि टटोलने में हंसी होगी, लोग मखौल करेंगे, क्या दीवार टटोल रहे हो! अंधे हो?

तो अकड़े हुए मत बैठे रहना अंधेरे में कि टटोलने से अंधेपन का पता चलता है। ये देखो नारद, कितना टटोल रहा है। जहां पाता है, वहीं जाता है। लेकिन द्वार नहीं मिलता, दीवार ही मिलती है। खोजता है कृष्ण को, जहां खबर मिलती है, वहीं जाता है। पाता है, वे आगे चले गए, कहीं और चले गए। मिलन नहीं हो पाता। हम ही भले; अपनी जगह तो बैठे हैं! न कहीं जाते, न भटकते। कम से कम इतना तो साफ है कि हमें कोई अज्ञानी नहीं कहेगा। भूल की ही नहीं, तो अज्ञानी कोई कैसे कहेगा!

यह कमजोर का लक्षण है। ऐसे लोग बैठे—बैठे सड़ते हैं।

दुनिया में एक ही भूल है मेरे लेखे और वह भूल यह है कि तुम उठो ही न, टटोलो ही न, चलो ही न। वही एक भूल है, बस। क्योंकि टटोलोगे, तो किसी न किसी दिन द्वार मिल जाएगा। द्वार है। टटोलना कितना ही लंबा चले, लेकिन द्वार है। नारद ने कहीं न कहीं पा लिया होगा।

प्यास को जगाओ, प्यास को उभासे। मेरे पास इतना ही हो सकता है कि मैं तुम्हें प्यास दे दूं। परमात्मा को तो कोई भी नहीं दे सकता। प्यास दी जा सकती है, प्यास उकसाई जा सकती है।

एक दफा प्यास तुम्हें पकड़ ले, प्यास का ज्वर तुम्हें पकड़ ले, एक बेचैनी तुममें आ जाए एक असंतोष तुम्हें घेर ले, तुम चल पड़ो, टटोलने लगो, भटकने लगो। कोई हर्जा नहीं, कृष्ण को पहले बाहर ही खोज लेना। मंदिर—मस्जिदों में जाना, द्वार—द्वार ठकठकाना। यह करना ही पड़ता है।

इजिप्त में फकीरों का एक पुराना वचन है कि जिसे अपने घर आना हो, उसे बहुत दूसरों के घरों पर दस्तक देनी पड़ती है। अपने ही घर लौटने के लिए न मालूम कितने—कितने मार्गों पर भटकना पड़ता है।

आस्कर वाइल्ड, पश्चिम के एक बहुत विचारशील लेखक ने लिखा है कि जब मैं सारी दुनिया में भटका, तभी अपने देश को पहचान पाया। तब अपने गांव आया, तब मेरा गांव और ही हो गया। क्योंकि अब मैं और था, सारी दुनिया देखकर लौटा था। गांव के वृक्ष शानदार मालूम होने लगे, और गांव के पक्षी, पहली दफा मैंने उनके गीत सुने। क्योंकि दुनिया ने मेरी आंखें खोल दीं। अपने ही गांव में था, तो सोया—सोया था। पता ही न था।

जब तक तुम बहुत न भटक लो, तब तक तुम्हें पहचान ही न आ सकेगी कि मंदिर तुम्हारे भीतर था। वह बहुत भटकने के बाद मिला हुआ अनुभव है। वह कीमत चुकानी ही पड़ती है। उस कीमत चुकाने से मत डरना।

मैं तुम्हें परमात्मा नहीं दे सकता; कोई नहीं दे सकता, किसी ने कभी दिया नहीं। क्या दिया है बुद्ध पुरुषों ने? महावीर ने क्या दिया है लोगों को? एक पागलपन दिया, एक प्यास दी। जगा दी सोई हुई प्यास।

वह भी देना कहना ठीक नहीं है। वह है तुम्हारे भीतर, दबी पड़ी है। या तुम उस प्यास की गलत व्याख्या कर रहे हो। कोई धन खोज रहा है, लेकिन वस्तुत: परमात्मा खोजना चाहता है। कोई पत्नी खोज रहा है, पति खोज रहा है; लेकिन वस्तुत: परमात्मा खोजना चाहता है। और इसलिए तो तुम्हारे जीवन में इतनी पीड़ा है। धन न मिलेगा, तो पीड़ा रहेगी। धन मिल जाएगा, तो पीड़ा रहेगी। क्योंकि धन मिलकर भी तो वह न मिलेगा, जो तुम खोज रहे थे। तुम परमात्मा खोज रहे हो।

मेरे देखे हर आदमी परमात्मा खोज रहा है। नाम उसने अलग—अलग रखे हैं। कोई कहता है, पद खोज रहा हूं, राष्ट्रपति होना है! राष्ट्रपति होकर अचानक तुमको पता चलेगा, यह तो कुछ भी न मिला। मरोगे अब भी। इस पद का मूल्य क्या? यह कल छीन लिया जा सकता है। जो छीनी जा सकती है, वह कोई प्रतिष्ठा है?

प्रतिष्ठा का तो अर्थ ही यह है कि जो छीनी न जा सके, जो मिली, तो मिली; जो शाश्वत है, सनातन है। पद भी क्या, जिस पर चढ़ाए जाओगे और उतारे जाओगे। वह तो अपमान है। राष्ट्रपति बने, फिर भूतपूर्व राष्ट्रपति होना पड़ेगा। फिर जिंदा—जिंदा भूत हो जाओगे, जीते—जी मरे हो जाओगे।

जो छिन जाएगा, उसका मूल्य क्या? समझदार उसे खोजता ही नहीं। समझदार उसी को खोजता है, जो मिला, तो मिला, जिसको छीनने की फिर कोई जगह नहीं। लेकिन वह तो परमात्मा है, जो मिलता है, तो फिर छीना नहीं जा सकता। तुम उसी को खोज रहे हो। तुम भी ऐसा धन खोजते हो, जो छीना न जा सके। इसलिए कितना इंतजाम करते हो! तिजोरियों में बंद करते हो, बैंक लाकर्स में रखते हो, स्विटजरलैंड के बैंकों में जमा करते हो। बचाते हो सब तरफ से कि किसी तरह से कोई उपद्रव न आ जाए।

यहां तिजोरी चोरी जा सकती है। यहां सरकार का कोई भरोसा नहीं है। कुछ पक्का नहीं। क्योंकि इंदिरा गांधी के गुरु रूस में रहते हैं। कब गुरु आदेश देंगे और कब यह मुल्क कम्युनिस्ट हो जाएगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। तिजोरियां उठ जाएंगी, खुल जाएंगी, बैंक के लाकर्स काम न आएंगे। तो स्विटजरलैंड में बचाते हो। मगर कहीं भी बचाओ, धन बाहर का बच नहीं सकता, जाएगा। और धन बच भी जाए, तुम चले जाओगे। तो धन का क्या करोगे! उसे तुम ले जा न सकोगे।

खोज तुम ऐसे ही धन की कर रहे हो, जो छीना न जा सके, जो सदा—सदा हो, जिसमें शाश्वतता छिपी हो। तुम परम धन को खोज रहे हो, परमात्मा को खोज रहे हो।

तुम्हारी सारी खोज में भनक उसी खोज की है। मैं इतना ही कर सकता हूं कि तुम्हें जगाऊं और तुम्हें बताऊं कि तुम्हारी प्यास क्या है। तुम दौड़ तो रहे हो, लेकिन तुम कहां दौड़ रहे हो? किसलिए दौड़ रहे हो? तुम मंजिल क्या चाहते हो?

कोई भी व्यक्ति अगर शांत होकर थोड़ा—सा सोचेगा, तो वह पाएगा, परमात्मा के बिना तृप्ति हो नहीं सकती। कितना ही स्त्री पति में परमात्मा देखे, कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह आदमी तो दिखाई पड़ता ही रहता है। कहती रहती है कि तुम मेरे परमात्मा हो, वक्त—बेवक्त पैर भी छू लेती है; लेकिन परमात्मा दिखाई तो पड़ता नहीं। जब तक परमात्मा ही तुम्हारा प्रेमी न होगा, तब तक तृप्ति हो नहीं सकती।

पति कितना ही प्रेम करे पत्नी को, प्रेम कभी पूरा नहीं हो पाता।

क्योंकि पूरा तो प्रेम उसी के साथ हो सकता है, जो पूरा हो। अधूरे के साथ पूरा प्रेम कैसे हो सकता है? अधूरे को तुम पूरा कैसे चाह सकते हो?

और यहां तो सभी अधूरे हैं। अधूरे की चाह अधूरी ही बनी रहेगी। पूरा कभी न होगा। एक अतृप्ति जलती रहेगी। इसलिए तो एक स्त्री से चूक जाते हो, तो दूसरी में खोजते हो, तीसरी में खोजते हो। शायद कहीं पूरा मिल जाए।

वह पूरा सिर्फ परमात्मा में मिलता है। उससे कम में मनुष्य की प्यास बुझने वाली नहीं है। और यह तुम्हारा धन्यभाग है कि नहीं बुझती। अगर बुझ जाती, तो तुम न मालूम किस कूड़े के ढेर पर बैठे होते। वहीं बुझ गई होती, तो खतम यात्रा हो जाती। धन पर बैठे रहते। नहीं बुझती। परमात्मा तुम्हें यह मौका नहीं देगा कि बुझ जाए। वह तुम्हें बुला ही लेगा अपनी तरफ।

दौड़ो! प्यासे बनो! और अपनी हर प्यास में खोजो उस एक प्यास को। जिस दिन तुम्हारी प्यास घनी होने लगेगी, पहले तो तुम नारद ही बनोगे।

नारद परम भक्त हैं। भक्त पहले भगवान को बाहर खोजता है। और बाहर खोज—खोजकर भी नहीं पाता। रोता है, चीखता है, गाता है, नाचता है, लेकिन कमी बनी रहती है, फासला बना रहता है, दूरी बनी रहती है। और जैसे—जैसे करीब आता है, वैसे—वैसे लगता है कि इतनी—सी दूरी भी खलती है। इतनी दूरी भी बर्दाश्त नहीं, लेकिन दूरी मिटती नहीं। चूक—चूक जाता है। तब भक्त एक दिन भीतर आंख ले जाता है।

भक्त पहले तो प्रार्थना करता है। प्रार्थना यानी परमात्मा बाहर है। फिर भक्त ध्यान में उतरता है। ध्यान यानी परमात्मा भीतर है। प्रार्थना पहली अवस्था है प्यास की, और ध्यान दूसरी अवस्था है प्यास की।

ध्यान का अर्थ है, अब हम भीतर जाते हैं। ध्यान का अर्थ है, अब हम शब्द भी न बोलेंगे, अब हम पूजा भी न करेंगे, अब हम आरती उठाकर आरती भी न फिराके। कोई बाहर नहीं है। अब हम भीतर की यात्रा पर जाते हैं। अंतर्यात्रा ध्यान है।

नारद ने जरूर पा लिया होगा।

प्यास को जगाओ। नारद बनो। फिर दूसरा कदम अपने से उठ जाता है। अगर प्यास प्रगाढ़ हुई, तो तुम कितनी देर मृग—मरीचिकाओ में भटकोगे? एक न एक दिन समझ गोगी, दीया जलेगा। एक न एक दिन आंख खुलेगी, नींद टूटेगी, तुम जागोगे और पाओगे कि परमात्मा भीतर बैठा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

दूसरा प्रश्न :

क्या नास्तिक आस्तिक हुए बिना प्रबुद्ध हो सकता है?

स्तिकता के अर्थ पर निर्भर करेगा। आस्तिकता से तुम्हारा क्या अर्थ है? क्या तुम्हारा आस्तिकता से अर्थ है कि जो किसी ईश्वर में भरोसा करता है, विश्वास करता है? या तुम्हारी आस्तिकता से अर्थ है कि जो स्वयं भगवतस्वरूप हो जाता है, जो स्वयं भगवान हो जाता है?

दो तरह की आस्तिकताए हैं। एक आस्तिकता है भक्त की, नारद की, जो बाहर खोज रहा है परमात्मा को। वह आस्तिकता बड़ी लचर है। वह कोई आखिरी आस्तिकता नहीं है। एक आस्तिकता है महावीर की, बुद्ध की, जिन्होंने परमात्मा को भीतर पा लिया है। तो बुद्ध ने तो कह दिया कि कोई भगवान है ही नहीं। जब बुद्ध ने कहा, कोई भगवान नहीं है, तो वे यही कह रहे हैं कि सभी कुछ भगवान है, इसलिए कोई भगवान हो, इसका उपाय नहीं।

तभी तक सार्थक है यह बात कहनी कि राम भगवान हैं, जब तक कि लक्ष्मण भगवान न हों। कम से कम रावण भगवान न हो, तभी तक इस बात की कोई सार्थकता है कहने की कि राम भगवान हैं। लेकिन अगर लक्ष्मण भी भगवान हैं और रावण भी भगवान हैं, तो राम को भगवान कहने का क्या अर्थ रह जाता है? कोई अर्थ नहीं रह जाता।

महावीर और बुद्ध परम आस्तिक हैं; उनकी आस्तिकता साधारण आस्तिकता से बहुत गहरी है। वे कहते हैं, सभी कुछ भगवत्ता है। यहां पेडू—पौधे भी भगवान हैं। उनकी नींद थोड़ी गहरी लगी होगी तुमसे। यहां चट्टान, पहाड़ भी भगवान हैं। वे शायद और भी ज्यादा मूर्च्छा में पड़े हैं, कोमा में सो रहे हैं। लेकिन हैं भगवान ही, कितनी ही गहरी नींद हो।

चट्टान खूब गहरी सो रही है, आधी रात की नींद है। पौधे उतने गहरे नहीं हैं, यह ब्रह्ममुहूर्त करीब आने लगा। पशु—पक्षी—भोर हो गई; आदमी—सुबह हो गई। बुद्ध—महावीर, भरी दुपहरी में जी रहे हैं, सूरज आकाश के मध्य में आ गया। लेकिन ये सब सोने की ही और जागने की ही तारतम्यताएं हैं, ग्रेडेशंस हैं। महावीर में, बुद्ध में और हिमालय की चट्टानों में जो अंतर है, वह गुण का नहीं है, मात्रा का है, होश की मात्रा का है।

इसलिए महावीर ने पहाड़ों को भी एकेंद्रिय जीव कहा है। उनकी एक ही इंद्रिय है, सिर्फ शरीर है। न आंख है, न हाथ है, न पैर है। न वे चल सकते, न उठ सकते, न देख सकते, न सुन सकते, लेकिन शरीर है। वे स्पर्श अनुभव कर सकते हैं। बहुत गहरे सोए हैं।

महावीर ने बड़ी गहरी व्याख्या की है, पहाड़ों को कहा, एकेंद्रिय। फिर इसी मात्रा से वे उठाते आते हैं। दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय; जिनकी तीन इंद्रियां जगी हैं, ऐसे पशु—पक्षी हैं। चार इंद्रिय वाले पशु—पक्षी हैं। मनुष्य पंचेंद्रिय है। और जो मनुष्य से ऊपर उठना शुरू होता है, उसकी छठवीं इंद्रिय कानी शुरू होती है। और जो मनुष्य के बिलकुल पार चला जाता है, वह अतींद्रिय में जाग जाता है। लेकिन सारा भेद मात्रा का है।

भगवान से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? आस्तिकता से क्या अर्थ है? क्या आस्तिकता का अर्थ है कि कोई व्यक्ति आकाश में बैठा हुआ सारे संसार को चला रहा है?

तो तुम्हारी आस्तिकता बचकानी है, बच्चों की है, कहानी है। समझाने के लिए ठीक है। तुम्हारी आस्तिकता ऐसी है, जैसे ग गणेश का। गणेश से कुछ लेना—देना नहीं है ग का। ग गधे का भी उतना ही है।

बच्चे को समझाते हैं, ग गणेश का। अब नहीं समझाते ऐसा, अब नई किताबों में लिखा है, ग गधे का। क्योंकि राज्य अब सेकुलर है। उसमें धार्मिक शब्दों का उपयोग नहीं हो सकता। मैं जब पढ़ता था, तब ग गणेश का था। अभी मैं एक दिन देखा बच्चों की किताब, ग गधे का हो गया! इसको लोग विकास कह रहे हैं। गणेश पर संदेह उठ गया, गधे पर भरोसा आ गया।

लेकिन जब हम कहते हैं, परमात्मा सारे संसार को चला रहा है, तो हम बच्चे को समझा रहे हैं, एक कहानी गढ़ रहे हैं। जिन्होंने जाना है, उन्होंने तो जाना कि परमात्मा ही संसार है; चलाने वाला और चलाए जाने वाले दो नहीं हैं, एक ही है।

इसलिए तो हिंदुओं ने परमात्मा को नटराज कहा। नटराज का अर्थ होता है, नाचने वाला। नाचने वाले की बड़ी खूबी है एक। वह खूबी यह है कि तुम नाचने वाले से नाच को अलग नहीं कर सकते। कोई चित्रकार है, तो चित्र अलग हो जाता है, बनाने वाला अलग हो जाता है। कोई मूर्तिकार है, मूर्ति अलग हो जाती है, मूर्तिकार अलग हो जाता है। मूर्तिकार मर जाए, तो भी मूर्ति बनी रहेगी हजारों साल तक। चित्रकार के चित्र को जला दो, तो चित्रकार न जलेगा।

इसलिए हिंदुओं ने परमात्मा को चित्रकार नहीं कहा, मूर्तिकार नहीं कहा। उन्होंने कहा, नटराज। नटराज का मतलब यह है कि तुम उसकी प्रकृति को और उसे अलग—अलग नहीं कर सकते, जैसे नर्तक के नृत्य को अलग नहीं कर सकते। नर्तक मर गया, नृत्य मर गया। और अगर तुम नृत्य बंद कर दो, तो उस आदमी को नर्तक कहने का अब क्या अर्थ है! वह तो नर्तक तभी तक था, जब तक नाचता था।

सृष्टि और स्रष्टा के बीच नाचने वाले और नाच का संबंध है। उन्हें तुम अलग नहीं कर सकते। इसलिए कोई परमात्मा चला रहा है, ऐसा नहीं। जब कोई नर्तक नाचता है—सिक्सडू की छोड़ दो, क्योंकि उसको तो नर्तक कहना ठीक नहीं—जब कोई कुशल नर्तक नाचता है, तो नाचने वाला और नाच दो नहीं होते।

पश्चिम में एक बहुत बड़ा नर्तक हुआ इस सदी के प्रारंभ में, उसका नाम था, निजिंस्की। मनुष्य जाति के इतिहास में थोड़े से लोग ऐसे नर्तक हुए हैं, जैसा निजिंस्की था। निजिंस्की के साथ बड़ी मुश्किल थी। नाच शुरू तो वह करता था, लेकिन फिर उस पर कोई नियंत्रण नहीं रखा जा सकता था, कि थियेटर का मैनेजर कहे कि अब घंटी बजे तो बंद। क्योंकि वह कहेगा, बंद करने वाला कौन? एक दफे शुरू हो गया, फिर जब होगा बंद, तब होगा।

तो कभी तीन घंटे नाचता, चार घंटे नाचता, कभी पंद्रह मिनट में पूरा हो जाता। मैनेजर्स बहुत परेशान थे, व्यवस्था करने वाले थियेटर के, कि किस तरह लोगों को टिकट बेचे! क्योंकि कभी वह खड़ा ही रह जाता और नाचता ही नहीं, और कभी नाचता, तो पूरी रात नाचता।

और उस जैसा नाचने वाला नहीं हुआ है। वैज्ञानिक भी चकित थे उसके नाच से, क्योंकि नाचते—नाचते ऐसी घड़ी आती थी कि वैज्ञानिकों ने भी यह निर्णय दिया कि ग्रेविटेशन का असर उस पर खतम हो जाता है। जमीन में जो कशिश है, जिससे हम जमीन से बंधे हैं, पत्थर को फेंको, वह नीचे आ जाता है। निजिंस्की नाचते—नाचते एक ऐसी घड़ी में पहुंच जाता था, जहां योगी पहुंचते हैं। उस घड़ी में वह इतनी ऊंची छलांगें भरने लगता था, जो कोई मनुष्य कभी भर ही नहीं सकता, क्योंकि जमीन में इतनी कशिश है। और वह ऐसा हलका हो जाता था, जैसे पंख लग गए।

अनेक अध्ययन किए गए हैं निजिंस्की के कि घटना क्या घटती थी! जिसको योग में लेविटेशन कहते हैं, कि कभी—कभी योगी जमीन से ऊपर उठ जाता है। तुमने ऐसी कहानियां सुनी होंगी। कभी—कभी यह घटता है।

अभी पश्चिम में एक महिला है चेकोस्लोवाकिया में, वह चार फीट ऊपर उठ जाती है ध्यान की अवस्था में। उसके बहुत अध्ययन किए गए हैं, चित्र लिए गए हैं, फिल्म ली गई है। नीचे से लकड़ियां निकाली गईं, नीचे से आदमी सरककर निकले कि पता नहीं कोई धोखा तो नहीं है! लेकिन वह चार फीट ऊपर उठ जाती है। जैसे ही वह ध्यान करती है, पंद्रह मिनट के बाद चार फीट ऊपर उठ जाती है। अब यह एक वैज्ञानिक रूप से प्रामाणिक तथ्य है।

निजिंस्की के साथ भी यही होता था। कोई पंद्रह मिनट के बाद एक ट्रांसफामेंशन हो जाता था, एक रूपांतरण हो जाता। निजिंस्की फिर था ही नहीं वहां, उसके चेहरे पर कोई आविर्भाव हो जाता था, वह एक ऊर्जा हो जाता, एक शक्ति मात्र, जो नाचती। और नाचते—नाचते इतनी ऊंची छलागें लेने लगता और हवा में तिरने लगता कि जैसे थोड़ी देर को रुक गया है, न ऊपर जा रहा है, न नीचे गिर रहा है, इतना हलका हो जाता।

निजिंस्की से जब पूछा जाता कि तुम यह कैसे करते हो? तो वह कहता, करने वाला तो कोई होता ही नहीं। बस, यह होता है। कृत्य और कर्ता में फर्क नहीं रह जाता, तभी यह होता है।

हमने परमात्मा को नटराज कहा है, क्योंकि उसका यह नाच है। यह पक्षियों के कंठ में उसी का गीत है, जो तुम सुन रहे हो। वृक्षों से निकलती हवाओं में वही निकलता है। और वृक्षों के फूलों में भी वही खिला है। झरनों में उसी का कल—कल नाद है। मुझसे वही बोल रहा है, तुमसे वही सुन रहा है। वही कहीं चोर है, वही कहीं साधु है। वही कहीं बेईमान है, कहीं परम संत है। वही कहीं रावण है, कहीं राम है। सारी लीला एक की है। और वह एक जो भी कर रहा है, सब उसके भीतर है, बाहर नहीं है।

इसलिए आस्तिक का क्या अर्थ होगा? दो अर्थ होंगे। एक तो बच्चों को सिखाई जाने वाली आस्तिकता, जिसमें हम कहते हैं, परमात्मा ऊपर है। ऐसा लगता है, कोई बड़ा इंजीनियर है, जो सब चीजों को सम्हाल रहा है। या कोई बड़ा न्यायाधीश है और वहा से कानून चला रहा है। और लोगों को दंड दे रहा है; अच्छों को बचा रहा है, बुरों को मार रहा है। या लगता है कि कोई तानाशाह है, कोई स्टैलिन, हिटलर की महाप्रतिमा, कि जो उसकी मौज में आ

रहा है, कर रहा है। जब पत्तों को हिलाना है, हिला देता है। जब नहीं हिलाना, नहीं हिलाता। नियम उसके हाथ में है, चाहे बचाए, चाहे मारे। सब उसके हाथ में है। तुम स्तुति करो, इसके अतिरिक्त तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है।

यह बच्चों का भगवान है। बच्चों को भी चाहिए। और यह मत सोचना कि सिर्फ छोटे—छोटे बच्चे बच्चे होते हैं। सौ में से नब्बे प्रतिशत लोग तो मरते समय तक बचकाने होते है, उनकी बुद्धि में कोई प्रौढ़ता नहीं आ पाती।

फिर एक प्रौढ़ आस्तिकता है। उस आस्तिकता का कोई संबंध ही इस तरह की धारणा से नहीं है। ध्यान रखना, बच्चों की आस्तिकता में भगवान है। भगवान एक व्यक्ति की तरह, एक पर्सनल व्यक्तिवाची शब्द है। प्रौढ़ व्यक्तियों की भाषा में भगवान है ही नहीं, भगवत्ता है एक गुण, एक क्वालिटी, एक चैतन्य का विस्तार—कोई व्यक्ति नहीं है भगवान कि जिसे तुम मिलोगे। वह तुम्हारे ही होने की आत्यंतिक अवस्था है। अस्तित्व है भगवान। इसलिए बुद्ध और महावीर जैसे परम आस्तिकों ने भगवान शब्द का उपयोग ही नहीं किया। बच्चों की आस्तिकता वाले लोगों ने उनको नास्तिक कहा है, कि ये नास्तिक हैं, क्योंकि ये भगवान को नहीं मानते हैं।

अब इस प्रश्न को समझा जा सकता है।

क्या नास्तिक आस्तिक हुए बिना प्रबुद्ध हो सकता है?

अगर बचकानी आस्तिकता तुम्हारी धारणा में हो, तो नास्तिक उस तरह का आस्तिक हुए बिना प्रबुद्ध हो सकता है। उस तरह की आस्तिकता का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन अगर बुद्ध जैसी आस्तिकता का खयाल हो, मैं जिस आस्तिकता की बात करता हूं अगर उसका तुम्हें खयाल हो, तो कैसे कोई नास्तिक बिना आस्तिक हुए प्रबुद्ध हो सकेगा?

प्रबुद्ध होना और आस्तिकता एक ही घटना के दो नाम हैं। बुद्ध होना और भगवान होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

नहीं, आस्तिक हुए बिना कोई उपाय नहीं है। आस्तिक होना ही पड़ेगा। आस्तिकता एक क्रांति है, वह इस जगत की सबसे बड़ी क्रांति है। वह ऐसा क्षण है समाधि का, जहां तुम्हें अपने अमृत होने का पता चलता है, शाश्वत होने का पता चलता है। जहां तुम्हें पता चलता है कि तुम अलग नहीं हो अस्तित्व से, तुम उसी की तरंग हो। तुम विराट हो। बहुत बार तुम मरे और मरे नहीं। और बहुत बार तुम जन्मे और जन्मे नहीं। तुम सदा थे और सदा रहोगे।

लहर की तरह तुम्हारी धारणा मिट जाती है और सागर की तरह तुम्हें अपना अनुभव होता है। ऐसी आस्तिकता को पाए बिना कोई नास्तिक कैसे प्रबुद्ध हो सकता है!

आखिरी प्रश्न :

 

शास्त्र संकेत देते हैं, उपदेश नहीं। आप संकेत भी दे रहे हैं, उपदेश भी। पर मैं अपने को कहीं पहुंचता हुआ नहीं देख या रहा हूं। मुझसे रोज—रोज क्या भूल हो रही है? क्या छूट जाता है?

भूल बिलकुल साफ है। कहीं पहुंचने की आकांक्षा में भूल है। यह महत्वाकांक्षा कि तुम्हें कहीं पहुंचना है। तुम्हें! मैं! अहंकार को कुछ पाना है! वहीं भूल हो रही है। अहंकार को मिटना है, पाना नहीं है। अहंकार को जाना है, होना नहीं है। अहंकार को खोना है। और वहीं भूल हो रही है।

तुम मुझे सुनते हो और तुम मुझे सुनकर अपने अहंकार में चार चांद लगा लेना चाहते हो। तुम चाहते हो, समाधि उपलब्ध हो जाए। तुम समाधि की संपत्ति को भी अपने अहंकार के साथ जोड़ लेना चाहते हो! तुम चाहते हो, भगवान तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए। तुम चाहते हो, तुम जैसे हो वैसे ही रहते कुछ उपलब्ध हो जाए। वहीं भूल हो रही है।

तुम्हें एक बात तो करनी ही पड़ेगी, तुम्हें मिटना होगा। तुम्हारे रहते कोई उपलब्धि होने वाली नहीं है। तुम ही बाधा हो। जिस क्षण तुम मिट जाओगे, सब उपलब्ध है। उसे कभी खोया ही नहीं था। उसे खोने का उपाय नहीं है।

तुम जब तक अपने को पकड़े हो, तब तक तुम उससे चूक रहो हो। फिर तुम लाख ध्यान करो, पूजा—प्रार्थना करो, समाधि लगाओ, आंख बंद करो, खोलो, आसन लगाओ, शीर्षासन करो, कुछ न होगा। तुम वहां मौजूद हो। तुम्हारे रहते परमात्मा नहीं हो सकता। क्योंकि तुम एक भांति हो। तुम हो नहीं, और लगता है कि तुम हो। और जो तुम्हारे भीतर है, वह तुम्हारी इस भांति के कारण प्रकट नहीं हो पाता।

कौन हो तुम? तुम्हारा नाम तुम हो? पैदा हुए थे, कोई नाम लेकर न आए थे। आज उस नाम को कोई गाली दे दे, तो तलवारें निकल आती हैं। वह नाम तुम्हारा है नहीं। दिया हुआ, उधार है। दूसरों ने लेबल लगा दिया। और तुम भी अदभुत हो कि तुम उस लेबल से इतने जोर से चिपक गए! लेबल तुमसे चिपका है, ऐसा नहीं मालूम पड़ता अब, अब तुम लेबल से चिपके हो। तुम कहते हो, यह मेरा नाम है। तुमने गाली दे दी!

बुद्ध का एक शिष्य हुआ, उसका नाम था पूर्ण काश्यप। वह एक गांव से गुजरता था। लोगों ने गालियां दीं, अपमान किया। वह वैसे ही चलता रहा जैसे चल रहा था। जैसे कुछ भी न हुआ, जैसे हवा का एक झोंका भी न आया, जिसमें उसका बाल भी हिल जाता। उसके साथ के एक भिक्षु को क्रोध आ गया कि हद्द हो गई। ये लोग गाली दिए जा रहे हैं। उसने पूर्ण को कहा कि आप सुन रहे हैं और ये गाली दे रहे हैं! मेरी बरदाश्त के बाहर हुआ जा रहा है। हालांकि मुझे ये कोई गाली नहीं दे रहे हैं।

पूर्ण ने कहा, इस पर सोचो। तुम्हें गाली नहीं दे रहे हैं और तुम्हारे बरदाश्त के बाहर हुआ जा रहा है! तुम क्यों बीच में आ रहे हो? जिस तरह तुम्हें ये गाली नहीं दे रहे हैं, उसी तरह मुझे भी नहीं दे रहे हैं। ये तो पूर्ण काश्यप को दे रहे हैं। मेरा क्या लेना—देना! मेरा नाम पूर्ण रख दिया मां—बाप ने, तो पूर्ण हो गया, अपूर्ण रख देते, तो अपूर्ण हो जाता। कुछ इसमें लेना—देना है नहीं।

हिंदू घर में पैदा होते हैं, हिंदू नाम, मुसलमान घर में पैदा हो जाओ, तो मुसलमान नाम। हिंदू घर में राम हो जाते हो, मुसलमान घर में रहीम हो जाते हो। दोनों नाम का मतलब भी एक ही है। मगर राम और रहीम तलवार खींचकर लड़ जाते हैं, क्योंकि हिंदू—मुस्लिम दंगा हो गया। उसमें राम रहीम को मारता है, रहीम राम को मारते हैं। और दोनों नाम थे। नाम का झगड़ा है।

तुम नाम हो? या तुम रूप हो?

दो शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं भारत के, नाम—रूप। नाम वह सब है, जो दूसरों ने तुम्हें समझा दिया कि तुम हो। नाम का अर्थ सिर्फ तुम्हारा नाम नहीं है। दूसरों ने जो समझा दिया कि तुम हो, तुम्हारा नाम राम, रहीम। तुम हिंदू तुम मुसलमान। तुम जैन, तुम शूद्र, तुम ब्राह्मण। जो दूसरों ने तुम्हें समझा दिया, वह सब नाम के अंतर्गत आ जाता है। अगर दूसरे तुम्हें न समझाते, तो जिसका तुम्हें कभी पता न चलता, वह सब नाम के अंतर्गत आ जाता है।

थोड़ी देर को सोचो; अगर तुम हिंदू घर में पैदा न होते या हिंदू घर में पैदा होते ही तुम्हें मुसलमान घर में छोड़ दिया जाता; क्या तुम किसी तरह से खोज सकते थे अपने आप कि तुम हिंदू हो? और कौन जाने, यही हुआ हो तुम्हारे साथ। तुम्हें अपने पिता का पक्का भरोसा है कि तुम उन्हीं से पैदा हुए हो? सिर्फ खयाल है। कोई पक्का तो है नहीं।

तुम हिंदू हो कि मुसलमान हो? तुम्हें अगर छोड़ दिया जाए तुम्हीं पर, तुम्हें कोई न बताए कि तुम हिंदू हो या मुसलमान हो, तो क्या तुम अपने आप जान लोगे कभी कि तुम कौन हो? कैसे जानोगे? वह सब नाम है, दूसरों ने सिखाया है, दूसरों ने पट्टी पढ़ाई है। वह सब कंडीशनिंग है, संस्कार है।

तो नाम के अंतर्गत दूसरों ने जो सिखाया है, सब आ जाता है। और रूप के अंतर्गत तुम्हारी अपनी जो प्राकृतिक भ्रांतियां हैं, वे सब आ जाती हैं। जैसे कि तुम समझते हो, मैं पुरुष हूं। निश्चित ही, यह किसी दूसरे ने तुम्हें नहीं समझाया है कि तुम पुरुष हो। तुम पुरुष हो। क्योंकि तुम्हारे शरीर का रूप—रंग पुरुष का है। अंग पुरुष के हैं। तुम स्त्री हो, क्योंकि अंग स्त्री के हैं। यह कोई किसी ने तुम्हें समझाया नहीं। अगर तुम्हें कोई भी न बताए कि तुम पुरुष हो, तो भी तुम एक दिन खोज लोगे कि तुम पुरुष हो। यह रूप है। इसकी तुम खुद खोज कर सकते हो।

लेकिन तुमने कभी आंख बंद करके भीतर खोजकर देखा कि चेतना क्या पुरुष हो सकती है या स्त्री? तुम्हारा बोध स्त्री है या पुरुष? तुम्हारी कांशसनेस स्त्री है या पुरुष? कभी तुम बच्चे हो, कभी जवान, कभी के। कभी तुमने भीतर गौर किया कि तुम्हारी चेतना जवान से बूढ़ी होती है? कब होती है? बच्चे से जवान होती है? कब होती है?

शरीर पर तो सीमा बनाई जा सकती है, कि यह बच्चा, यह जवान, यह बूढ़ा; चेतना पर तो कोई सीमा नहीं बनती। अगर बूढ़े आदमी को पता न चलने दिया जाए कि वह बूढ़ा है, अंधेरे में रखा जाए, और कोई उसे बताए न कि कब वह जवान से का हो गया, कोई ऐसा उपाय न करने दिया जाए, जिससे उसे पता चल सके। कोई काम न हो उसके ऊपर, बिस्तर पर आराम करता रहे, भोजन वक्त पर मिल जाए शांति से पड़ा रहे, जवान से का हो जाए—अंधेरे में। क्या उसकी चेतना को कभी भी पता चलेगा कि मैं जवान से बूढ़ी हो गई?

सच तो यह है कि तुम जब भी आंख बंद करते हो, तभी तुम संदिग्ध हो जाते हो कि तुम जवान हो, के हो, बच्चे हो, क्या हो? हा, ऊपर दर्पण में जब देखते हो रूप अपना, तो लगता है, के हो गए। बाल सफेद हो गए, हाथ—पैर कमजोर हो गए।

नाम है समाज के द्वारा दी गई भांति और रूप है प्रकृति के द्वारा दी गई भ्रांति। तुम दोनों के पार हो। न तुम नाम हो, न तुम रूप हो। जब तक नाम—रूप का संगठन कुछ पाने की कोशिश करता रहेगा, तब तक तुम चूकते चले जाओगे। इन दो से छूट जाओ—नाम से, रूप से—और भीतर खोजो उसे, जो न तो नाम है और न रूप है। तत्‍क्षण जिसकी तुम तलाश कर रहे हो सदा—सदा से, तुम पाओगे, वह मिला ही हुआ है।

चैतन्य तुम्हारा स्वभाव है, न तो नाम, न रूप। वह चैतन्य ही परमात्मा है।

तो भूल इतनी ही हो रही है कि मुझे सुनकर तुम महत्वाकांक्षा से भर रहे हो। तुमने एक दौड़ बना ली है कि समाधि को पाकर रहेंगे। समाधि कोई पाने जैसी चीज थोड़े ही है। समाधि कोई वस्तु थोड़े ही है कि तुम कहीं से खरीद लाओगे, कि झपट्टा मार दोगे, कि आक्रमण कर दोगे, कि हमला करके उठा लाओगे! समाधि तो ऐसी चित्त—दशा का नाम है, जहां नाम—रूप खो जाते हैं। और नाम—रूप ही समाधि खोज रहा है, तो फिर भूल हो जाएगी।

इसलिए नाम को छोड़ो, रूप को छोड़ो। पहचानो कि न तो तुम शरीर हो और न तुम मन हो। शरीर प्रकृति का दिया हुआ है, मन समाज का दिया हुआ है। मन है नाम, शरीर है रूप, और तुम दोनों के पार हो। तुम सदा ही पार हो। वह जो पीछे खड़ा साक्षी है, जो दोनों को देख रहा है, वही तुम हो। तत्वमसि श्वेतकेतु!

वह जो साक्षी है, उसमें तुम जितने गहरे जग जाओगे, उतनी ही मंजिल पास आ जाएगी। तुम्हें चलकर जाना नहीं है, मंजिल खुद पास आती है। तुम जागे कि मंजिल पास आने लगती है। तुम जैसे—जैसे जागते हो, मंजिल पास आने लगती है। एक दिन तुम परिपूर्ण होश से भर जाते हो, पाते हो कि मंजिल तुम ही हो।

तुम्हीं हो गंतव्य, तुम्हीं हो गति, तुम्हीं हो यात्री, तुम्हीं हो पड़ाव, तुम्हीं हो यात्रा और तुम्हीं हो तीर्थ। तुमसे अन्य कुछ भी नहीं है। लेकिन नाम—रूप बाधा हैं। और तुमने उन्हें जकड़कर पकड़ा है। तुम उन्हें छोड़ते नहीं। और उनके कारण तुम सपने में जीते हो। एक सूत्र रूप से सारी बात कही जा सकती है. नाम—रूप अर्थात माया, नाम—रूप से मुक्ति अर्थात ब्रह्म।

अब हम सूत्र को लें।

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले एवं रसयुक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय, ऐसे आहार सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।

कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अति गरम तथा तीक्ष्ण, रूखे, दाहकारक, दुख, चिंता और रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।

और जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासा और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी, वह तामस पुरुष को प्रिय होता है।

कृष्ण जीवन को तीन गुणों के अनुसार सभी दिशाओं में बांट रहे हैं। उस विभाजन का बोध साधक के लिए बड़ा उपयोगी है। उससे अपनी परीक्षा करने में और अपने को कसौटी पर कसने में सुविधा होगी, एक मापदंड मिल जाएगा।

कैसा भोजन तुम्हें प्रिय है? क्योंकि जो भी तुम्हें प्रिय है, वह अकारण प्रिय नहीं हो सकता। वह तुम्हें प्रिय है, तुम्हारे संबंध में खबर देता है। तुम जो भोजन करते हो, वह खबर देता है कि तुम कौन हो। तुम कैसे उठते हो, कैसे बैठते हो, कैसे चलते हो, उससे तुम्हारे भीतर की चेतना की खबर मिलती है। तुम कैसा व्यवहार करते हो, कैसे सोते हो, उस सबसे तुम्हारे संबंध में संकेत मिलते रहते हैं।

एक सूक्ष्म शास्त्र विकसित हुआ है पश्चिम में, मनुष्य के व्यवहार को ठीक से जांच लेकर मनुष्य के भीतरी अंतःकरण के संबंध में सभी कुछ पता चल जाता है। और अनजाने भी बहुत बार तुम ऐसे काम करते हो, जिनका तुम्हें भी खयाल नहीं है।

समझो, दो आदमी खड़े बात कर रहे हैं। अगर तुम दूर से खड़े होकर चुपचाप गौर से देखो, तो कई बातें, जो उन दो को पता न होंगी, तुम्हें पता चल सकती हैं। जो आदमी ऊब गया है और बातचीत को आगे नहीं बढ़ाना चाहता, तुम उसके चेहरे पर ऊब के लक्षण देखोगे। भला वह ऊपर से बता रहा हो कि मैं बड़े रस से तुम्हारी बातें सुन रहा हूं; क्योंकि हो सकता है, सुनाने वाला मालिक हो, पैसे वाला हो, राजनेता हो, ताकत हाथ में हो, कुछ नुकसान कर सकता हो।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दफ्तर में काम करता है। दफ्तर का जो मालिक है, वह कभी—कभी लोगों को इकट्ठा करके पिटीपिटाई मजाके सुनाता है, जिनको वह कई दफे सुना चुका है। और लोग खिलखिलाकर हंसते हैं। हंसना पड़ता है। जब मालिक जोक सुनाए, तो हंसना पड़ेगा। मालिक मालिक है, न हंसे तो मुश्किल में पड़ोगे। हालांकि वह दस—पचास दफे सुना चुका है वही कहानी। फिर भी लोग हंसते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन भी हंसता था सदा, सबसे ज्यादा हंसता था, ऐसा खिलखिलाकर कि जैसे कभी यह बात सुनी ही न हो।

लेकिन एक दिन मालिक ने एक मजाक सुनाया, जो वह कई दफा सुना चुका है। सब तो हंसे, मुल्ला नसरुद्दीन चुप बैठा रहा। मालिक चौंका। उसने कहा कि तुमने सुनी नहीं कहानी? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, सुनी और बहुत दफे सुन ली। तो उन्होंने कहा, तुम हंसे नहीं? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, कल हम नौकरी छोड़ रहे हैं। हंसना क्या खाक! हंसते थे, जब तक नौकरी थी। अब नौकरी ही छोड़ रहे हैं, तो हंसना किसलिए!

अगर दो आदमी बात कर रहे हैं, तो तुम गौर से देख सकते हो कि कौन आदमी सिर्फ दिखला रहा है कि हम बड़े रस से सुन रहे हैं, लेकिन उसके चेहरे पर उबासी आ रही है। दो आदमी खड़े हैं, उनमें जो आदमी जाना चाहता है, तुम पाओगे, उसका शरीर जाने को तैयार है। भला वह उत्सुकता दिखला रहा हो। लेकिन शरीर खबर दे रहा है कि जैसे ही छूटे कि वह तीर की तरह निकल जाए। उसका तीर प्रत्यंचा पर चढ़ा हुआ है। जो आदमी उत्सुक नहीं है बात करने में, उसकी गरदन पीछे को खिंची रहेगी। जो आदमी उत्सुक है, वह आगे को झुका रहेगा।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिस स्त्री से तुम बात कर रहे हो, अगर वह तुमसे प्रेम में पड़ने को राजी है, तो वह आगे की तरफ झुकी होकर तुमसे बात करेगी। अगर वह तुमसे राजी नहीं है, तो तुम्हें समझ जाना चाहिए, वह हमेशा पीछे की तरफ झुकी होगी। वह दीवाल खोजेगी; दीवाल से टिककर खड़ी हो जाएगी। वह यह कह रही है कि यहां दीवाल है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो स्त्री तुमसे संभोग करने को उत्सुक होगी, वह हमेशा पैर खुले रखकर बैठेगी तुमसे बात करते वक्त। वह स्त्री को भी पता नहीं होगा। अगर वह संभोग करने को उत्सुक नहीं है, तो वह पैरों को एक—दूसरे के ऊपर रखकर बैठेगी। वह खबर दे रही है कि वह बंद है, तुम्हारे लिए खुली नहीं है। इस पर हजारों प्रयोग हुए हैं और यह हर बार सही बात साबित हुई है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, तुम एक होटल में प्रवेश करते हो; एक स्त्री बैठी है, वह तुम्हें देखती है। अगर वह एक बार देखती है, तो तुममें उत्सुक नहीं है। एक बार तो आदमी औपचारिक रूप से देखते हैं, कोई भी घुसा, तो आदमी देखते हैं। लेकिन अगर स्त्री तुम्हें दुबारा देखे, तो वह उत्सुक है।

और धीरे— धीरे जो डान जुआन तरह के लोग होते हैं, जो स्त्रियों के पीछे दौड़ते रहते हैं, वे कुशल हो जाते हैं इस भाषा को समझने में। वह स्त्री को पता ही नहीं कि उसने खुद उनको निमंत्रण दे दिया।

दुबारा अगर स्त्री देखे, तो वह तभी देखती है। पुरुष तो पचीस दफे देख सकता है स्त्री को। उसके देखने का कोई बहुत मूल्य नहीं है। वह तो ऐसे ही देख सकता है। कोई कारण भी न हो, तो भी, खाली बैठा हो, तो भी। लेकिन स्त्री बहुत सुनियोजित है, वह तभी दुबारा देखती है, जब उसका रस हो। अन्यथा वह नहीं देखती। क्योंकि स्त्री को देखने में बहुत रस ही नहीं है।

स्त्रियां पुरुषों के शरीर को देखने में उत्सुक नहीं होती हैं। वह स्त्रियों का गुण नहीं है। स्त्रियों का रस अपने को दिखाने में है, देखने में नहीं है। पुरुषों का रस देखने में है, दिखाने में नहीं है। यह बिलकुल ठीक है, तभी तो दोनों का मेल बैठ जाता है। आधी—आधी बीमारियां हैं उनके पास, दोनों मिलकर पूर्ण बीमारी बन जाते हैं।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, स्त्रियां एक्झीबीशनिस्ट हैं, प्रदर्शनवादी हैं। पुरुष वोयूर हैं, वे देखने में रस लेते हैं। इसलिए स्त्री दुबारा जब देखती है, तो इसका मतलब है कि वह इंगित कर रही है, संकेत दे रही है कि वह तैयार है, वह उत्सुक है, वह आगे बढ़ने को राजी है। तुम अगर तीन सेकेंड तक, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, किसी स्त्री की तरफ देखो, तो वह नाराज नहीं होगी। तीन सेकेंड! इससे ज्यादा देखा, तो बस वह नाराज हो जाएगी। तीन सेकेंड तक सीमा है, उस समय तक औपचारिक देखना चलता है। लेकिन तीन सेकेंड से ज्यादा देखा कि तुमने उन्हें घूरना शुरू कर दिया, लुच्चापन शुरू हो गया।

लुच्चे का मतलब होता है, घूरकर देखने वाला। लुच्चा शब्द बनता है लोचन से, आंख से। जो आंख गड़ाकर देखता है, वह लुच्चा। लुच्चे का और कोई बुरा मतलब नहीं होता। जरा आंख उनकी संयम में नहीं है, बस, इतना ही और कुछ नहीं।

शब्द का तो वही मतलब होता है, जो आलोचक का होता है। लुच्चे शब्द का वही अर्थ होता है, जो आलोचक का होता है। आलोचक भी घूरकर देखता है चीजों को। कवि कविता लिखता है, आलोचक कविता को घूरकर देखता है। वह लुच्चापन कर रहा है कविता के साथ।

छोटी—छोटी बातें तुम्हारे भीतर की खबर देती हैं। कृष्ण कहते हैं, भोजन तो छोटी बात नहीं, बहुत बड़ी बात है। तुम कैसा भोजन पसंद करते हो?

जो राजस व्यक्ति है, वह ऐसा भोजन पसंद करेगा, जिससे जीवन में उत्तेजना आए त्वरा पैदा हो, दौड़ पैदा हो, धक्का लगे।

इसलिए उसका भोजन उत्तेजक आहार होगा। जो तामसी वृत्ति का व्यक्ति है, वह ऐसा भोजन करेगा, जिससे नींद आए, उत्तेजना न पैदा हों—बासा, उच्छिष्ट, ठंडा—जिससे कोई उत्तेजना पैदा न हो, सिर्फ बोझ पैदा हो और वह सो जाए।

तमसपूर्ण व्यक्ति हमेशा नींद को खोज रहा है। उसे अगर लेटने का मौका मिले, तो वह बैठेगा नहीं। अगर उसे बैठने का मौका मिले, तो वह खड़ा न होगा। अगर खड़े होने का मौका मिले, तो वह चलेगा नहीं। अगर चलने का मौका मिले, तो वह दौड़ेगा नहीं। वह हमेशा उसको चुनेगा, जिसमें ज्यादा नींद की सुविधा हो, तंद्रा! और तंद्रा के लिए बासा भोजन बहुत उपयोगी है।

क्यों बासा भोजन तंद्रा के लिए उपयोगी है? क्योंकि जितना गरम भोजन होता है, उतने जल्दी पच जाता है। जितना बासा भोजन होता है, उतना पचने में देर लेता है। क्योंकि पचने के लिए अग्नि चाहिए। अगर भोजन गरम हो, तत्‍क्षण तैयार किया गया हो, तो भोजन की गरमी और पेट की गरमी मिलकर उसे जल्दी पचा देती है। तो जठराग्नि कहते हैं इसलिए हम पेट की अग्नि को।

लेकिन अगर भोजन बासा हो, ठंडा हो, बहुत देर का रखा हुआ हो, तो पेट की अकेली गरमी के आधार पर ही उसे पचना होता है। तो जो भोजन छ: घंटे में पच जाता, वह बारह घंटे में पचेगा। और पचने में जितनी देर लगती है, उतनी ज्यादा देर तक नींद आएगी। क्योंकि जब तक भोजन न पच जाए, तब तक मस्तिष्क को ऊर्जा नहीं मिलती। क्योंकि मस्तिष्क जो है, वह लक्जरी है। इसे थोड़ा समझ लो।

जीवन में एक इकॉनामिक्स है शरीर की, एक अर्थशास्त्र है। वहां बुनियादी जरूरतें हैं, वे पहले पूरी की जाती हैं। फिर उनके ऊपर कम बुनियादी जरूरतें हैं, वे पूरी की जाती हैं। फिर उसके बाद सबसे गैर—बुनियादी जरूरतें हैं, वे पूरी की जाती हैं।

जैसे घर में पहले तो तुम भोजन की फिक्र करोगे। भूखे रहकर तुम रेडियो नहीं खरीद लाओगे, कि भूखे तो मर रहे हैं और टेलीविजन खरीद लाए! कौन देखेगा टेलीविजन? भूखे भजन न होई गुपाला! भजन भी नहीं होता भूखे को, तो टेलीविजन कौन देखेगा! टेलीविजन बिलकुल नहीं दिखाई पड़ेगा। रोटियां तैरती हुई दिखाई पड़ेगी टेलीविजन पर। कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। भूखा आदमी पहले रोटी चाहता है, छाया चाहता है।

जब जरूरतें पूरी हो जाती हैं शरीर की, तब मन की जरूरतें शुरू होती हैं। तब वह उपन्यास भी पढ़ता है, तब वह गीता भी पढ़ता है।

तब वह भजन भी सुनता है, फिल्म भी देखता है। फिर जैसे—जैसे जरूरतें उसकी ये भी पूरी हो जाती हैं मन की, तब आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं। तब वह ध्यान की सोचता है, तब वह समाधि का विचार करता है।

तो तीन तल हैं शरीर, मन और आत्मा। शरीर पहले है, क्योंकि उसके बिना न तो मन हो सकता, न आत्मा टिक सकती यहां। वह आधार है, वह जड़ है। अगर किसी वृक्ष को ऐसा खतरा आ जाए कि फूल मरें या जडें मरें, तो फूलों को वृक्ष पहले छोड़ देगा। क्योंकि वे तो विलास हैं, उनके बिना जीया जा सकता है। और अगर जीना रहा, तो वे फिर कभी आ सकते हैं। लेकिन जड़ें नहीं छोड़ी जा सकतीं। क्योंकि जड़ें तो जीवन हैं। जड़ें गईं, तो फूल कभी न आ सकेंगे। जड़ें रहीं, तो फूल कभी फिर आ सकते हैं।

अगर वृक्ष से पूछा जाए कि पीड़ को काट दें या जड़ों को? तो वृक्ष कहेगा, पीड़ काट दो—अगर यही विकल्प है। क्योंकि पीड़ फिर पैदा हो सकती है, शाखाएं फिर निकल आएंगी; जड़ें होनी चाहिए। ऐसा ही अर्थशास्त्र शरीर के भीतर है। जब तुम भोजन करते हो, तो सारी शक्ति भोजन को पचाने में लगती है। इसलिए भोजन के बाद नींद मालूम होती है, क्योंकि मस्तिष्क को जो शक्ति का कोटा मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता।

मस्तिष्क लक्जरी है, उसके बिना जीया जा सकता है। पशु—पक्षी जी रहे हैं, पौधे जी रहे हैं; लाखों—करोडों जीव हैं, जो बिना बुद्धि के जी रहे हैं। मनुष्य हैं, वे भी बिना बुद्धि के जी रहे हैं। बुद्धि कोई अनिवार्य चीज नहीं है। ही, जब शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं और ऊर्जा बचे, तो फिर बुद्धि को मिलती है। और जब बुद्धि भी भर जाए और ऊर्जा बचे, तब आत्मा को मिलती है।

तो जो आदमी तामसी है, वह इस तरह का भोजन करता है कि मस्तिष्क तक ऊर्जा कभी पहुंचती ही नहीं। इसलिए तामसी व्यक्ति बुद्धिहीन हो जाता है। जिसको बुद्धिमान होना हो, उसे तमस छोड़ना पड़ेगा।

बस वह शरीर में ही जीने लगता है। तामसी व्यक्ति यानी सिर्फ शरीर। उसमें नाम—मात्र को बुद्धि है। इतनी ही बुद्धि है, जिससे वह भोजन जुटा ले और शरीर का काम चला दे, बस। और आत्मा की तो उसे कोई खबर ही नहीं है। आत्मा का उसे सपना भी नहीं आता। आत्मा की बातें लोगों को करते देखकर वह हैरान होता है कि इन दिमागफिरो को क्या हो गया है! इनका दिमाग ठीक है कि पगला गए? कैसा परमात्मा, कैसी आत्मा?

वह एक ही चीज जानता है, एक ही रस जानता है, वह पेट का है। वह पेट ही है। अगर उसका तुम्हें ठीक चित्र बनाना हो, तो पेट ही बनाना चाहिए और पेट में उसका चेहरा बना देना चाहिए। वह बड़ा पेट है। और बाकी सब चीजें छोटी—छोटी उसमें जुड़ी हैं। तामसी व्यक्ति एक असंतुलन है, अपंग है वह, उसमें और कुछ महत्वपूर्ण नहीं है।

राजसी व्यक्ति का भोजन कडुवा, खट्टा, नमकयुक्त, अति गरम, तीक्षा, रूखा, दाहकारक होगा। महत्वाकांक्षियों का भोजन इस तरह का होगा। उनको दौड़ना है, नींद नहीं चाहिए। नींद जिसको चाहिए, वह ठंडा भोजन करता है, बासा करता है। जिसको दौड़ना है, वह अति गरम भोजन करता है।

वह भी खतरनाक है। क्योंकि अति गरम भोजन दूसरी अति पर ले जाता है, वह तुम्हें दौड़ाता है, भगाता है। धन पाना है, पद पाना है, कोई महत्वाकांक्षा पूरी करनी है। सिकंदर बनना है। वह तुम्हें दौड़ाता है। तुम ज्वरग्रस्त हो जाते हो।

अब यह बडे मजे की बात है, तामसी व्यक्ति गहरी नींद सोते हैं। उन्हें कभी ट्रैंक्येलाइजर की जरूरत नहीं पड़ती। और राजसी व्यक्तियों को हमेशा ट्रैंक्येलाइजर की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि वे इतना दौड़ते हैं कि रात जब सोने का वक्त आता है, तब भी भीतर की दौड़ बंद नहीं होती, वह चलती ही चली जाती है।

राजसी व्यक्ति कुर्सी पर भी बैठेगा, तो पैर चलाता रहेगा। अब यह पैर चलाने की कोई जरूरत नहीं। वह पैर ही हिलाता रहेगा। शरीर रुक गया है, लेकिन भीतर एक बेचैनी सरक रही है, दौड़ रही है।

राजसी व्यक्ति रात भी सोएगा, तो करवटें बदलता रहेगा; हाथ—पैर तड़फड़ाएगा, फेंकेगा। तामसी व्यक्ति मिट्टी के लोंदे की तरह पड़ा रहता है। वह हिलता—डुलता नहीं। तामसी व्यक्ति भयंकर रूप से घुर्राता है।

एक बार एक यात्रा में मैं एक बड़ी मुसीबत में पड़ गया। आज भी नहीं भरोसा होता कि यह हुआ कैसे! जिस कंपार्टमेंट में मैं था, तीन सज्जन और थे। रात जैसे ही हम चारों सोने गए अपने—अपने बिस्तर पर, एक ने घुर्राना शुरू किया। कोई विशेष बात न थी। लेकिन हैरान तो तब मैं हुआ कि जब उसकी थोड़ी देर बाद दूसरे ने उससे ज्यादा जोर से घुर्राना शुरू किया। यह भी संयोग मैंने समझा कि होगा। मगर जब तीसरे ने दोनों को हरा दिया, तब मैं थोड़ा मुश्किल में पड़ा कि यह हो कैसे रहा है। और एक के बाद एक!

कुछ ऐसा लगा—तीनों को मैं बहुत देर तक सुनता रहा, कोई उपाय न था—कुछ ऐसा लगा कि नींद अपनी रक्षा कर रही है। वे तीनों ही भयंकर सोने वाले हैं। और पहले का घुर्राना दूसरे की नींद में थोड़ी बाधा डाल रहा है। इसलिए दूसरे की नींद और जोर से घुर्रा रही है, ताकि उसको दबा दे। और तब तीसरा……! और थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि पहले ने भी गति बढ़ानी शुरू कर दी।

यह संगीत पूरी रात चला। और वे एक—दूसरे को हराने की कोशिश करते रहे, नींद में भी। शायद अपने घरों में वे इतने जोर से न घुर्राते हों। लेकिन प्रतियोगी को पाकर……! क्योंकि प्रतियोगी बाधा डाल रहा है। और शरीर अपनी रक्षा करता है बहुत रूपों में। तामसी वृत्ति का व्यक्ति घुर्राएगा। उसको अगर बीमारी होगी, तो निद्रा की होगी, वह ज्यादा निद्रा के लिए बीमार होगा।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि दिनभर उबाई आती रहती है। दिनभर, सोते भी हैं ठीक से, फिर भी ऐसा लगता है, नींद कम, नींद कम।

आठ घंटे से ज्यादा नींद की आकांक्षा पैदा हो जवान आदमी को, तो समझना चाहिए तमस। बूढ़े आदमी को तीन—चार घंटे से ज्यादा नींद की आकांक्षा पैदा हो, तो समझना चाहिए, तमस।

ध्यान रखना, उम्र के साथ नींद का अनुपात घटता जाएगा। बच्चा पैदा होता है, तो बाईस घंटे सोता है। वह तमस में नहीं है। वह उसकी जरूरत है। अगर चौबीस घंटे सोए, तो तमस है, बाईस घंटे उसकी जरूरत है। फिर जैसे—जैसे बड़ा होगा, बीस घंटे, अठारह घंटे, कम होता जाएगा। सात साल का होते—होते उसकी नींद आठ घंटे पर आ जानी चाहिए, तो संतुलित है। फिर यह आठ घंटे पर टिकेगी जीवन के बड़े हिस्से पर। लेकिन मरने के सात वर्ष पहले फिर घटना शुरू होगी। छ: घंटे रह जाएगी, पाच घंटे रह जाएगी, चार घंटे रह जाएगी।

जिस दिन नींद आठ घंटे से नीचे कम होनी शुरू हो, उस दिन समझना चाहिए, अब मौत के पहले चरण सुनाई पड़ने लगे। क्योंकि नींद आती है शरीर के निर्माण के लिए।

मां के पेट में बच्चा चौबीस घंटे सोता है। सिर्फ थोड़े—से राजसी बच्चों को छोड्कर, जो मां के पेट में पैर वगैरह चलाते हैं। नहीं तो चौबीस घंटे सोता है। जरूरत है, शरीर बन रहा है, बड़ा काम चल रहा है शरीर में। नींद से सहयोग मिलता है; नींद टूटने से बाधा पड़ती है।

फिर तुम चौबीस घंटे काम करते हो, तो आठ घंटा काफी है। उतनी देर में शरीर अपना पुनर्निर्माण कर लेता है। मरे हुए सेल फिर से बन जाते हैं। रक्त शुद्ध हो जाता है। शक्ति पुनरुज्जीवित हो जाती है। सुबह तुम फिर ताजे हो जाते हो।

लेकिन के आदमी के शरीर में बनने का काम बंद हो गया। अब मरे सेल मर जाते हैं, बनते नहीं। अब विदाई का क्षण आने लगा, नींद कम होने लगी।

मेरे पास बूढ़े आदमी आ जाते हैं। कभी सत्तर साल का आदमी, और वह कहता है, कुछ नींद का उपाय बताएं। बस, दों—तीन घंटे आती है।

क्या चाहते हो तुम? नींद की अब कोई जरूरत ही न रही। नींद तुम्हारी थोड़े ही जरूरत है! वह प्रकृति की व्यवस्था है। बूढ़ा आदमी तीन घंटे सो लेता है, बहुत है, पर्याप्त है। इससे ज्यादा की जरूरत नहीं है। मरने के एक दिन पहले नींद बिलकुल ही खो जाएगी। क्योंकि अब मौत करीब आ गई। सब टूटने का दिन आ गया। अब बनना कुछ भी नहीं है। तो अब नींद कैसे आ सकती है! नींद तो बनने के लिए आती है।

इसलिए तामसी वृत्ति का व्यक्ति भयंकर वजन इकट्ठा करने लगेगा शरीर में। क्योंकि वह सोए जाएगा, सोए जाएगा, और शरीर बनता जाएगा। और शरीर का उपयोग वह कभी न करेगा। तो शरीर पर वजन बढ़ने लगेगा, चर्बी इकट्ठी होने लगेगी। वह सिर्फ बोझ की तरह हो जाएगा।

रजस की आकांक्षा से भरा हुआ व्यक्ति हमेशा जो भी करेगा, उसमें दौड़ खोजना चाहेगा, उत्तेजना। क्योंकि उत्तेजना के बल पर ही वह जी सकता है। यह जो उत्तेजित व्यक्ति है, रात सो भी न सकेगा। उत्तेजना इतनी है कि बिस्तर पर भी पड़ जाता है, लेकिन मस्तिष्क में उत्तेजना चलती रहती है।

तमस से भरा हुआ व्यक्ति शरीर में जीता है, वह शरीर ही है। बाकी चीजें नाम—मात्र को हैं। रजस से भरा व्यक्ति मन में जीता है, वह मन ही है। बाकी चीजें नाम—मात्र को हैं। वह शरीर की कुर्बानी दे देता है मन की आकांक्षा के लिए। वह आत्मा की भी कुर्बानी दे देता है मन की आकांक्षा के लिए। वह मन में ही जीता है। वह मन का सिकंदर है। सारा साम्राज्य फैलाना है दुनिया पर।

जो व्यक्ति सत्य से भरा है, वह इन दोनों से भिन्न है। वह संतुलित है। न तो वह अति ठंडा भोजन करता है, न वह अति गरम भोजन करता है। वह उतना ही गरम भोजन करता है, जितना शरीर की जठराग्नि से मेल खाता है। उतना ही ताप वाला भोजन करता है, जितना पेट का ताप है। वह थोड़ा—सा उष्ण—एकदम गरम नहीं, एकदम ठंडा नहीं—वैसा भोजन करता है, जिससे उसका शरीर तालमेल पाता है। वह शरीर के ताप के अनुसार भोजन करता है।

उसकी आयु स्वभावत: ज्यादा होगी, क्योंकि वह प्रकृति के अनुसार जीता है, प्रकृति के समस्वरता में जीता है। उसकी बुद्धि स्वभावत: शुद्ध होगी, तीक्ष्ण होगी, स्वच्छ होगी, निर्मल दर्पण की तरह होगी, क्योंकि वह शुद्ध आहार कर रहा है; शाकाहारी होगा आमतौर से। इस तरह का भोजन लेगा, जो लेते समय उत्तेजना नहीं देता, शांति देता है, एक स्निग्धता देता है। और प्रीति को बढ़ाता है। रजस व्यक्ति का भोजन क्रोध को बढ़ाता है। तमस व्यक्ति का भोजन आलस्य को बढ़ाता है। सत्व व्यक्ति का भोजन प्रीति को बढ़ाता है। तुम उसके पास प्रीति की गंध पाओगे। तुम उसके पास हमेशा मधुमास पाओगे। उसके पास एक मधुरिमा होगी, एक मिठास होगी। उसके बोलने में, उसके उठने—बैठने में एक संगीत होगा, एक लयबद्धता होगी। क्योंकि उसका शरीर भीतर भोजन के साथ लयबद्ध है।

शरीर भोजन से ही बना है। इसलिए बहुत कुछ भोजन पर निर्भर है। भोजन न करोगे, तो तीन महीने में शरीर विदा हो जाएगा। शरीर भोजन है। शरीर भोजन का ही रूपांतरण है। इसलिए कैसा तुम भोजन करते हो, उससे शरीर निर्मित होगा।

उसके जीवन में प्रीति होगी। आलसी व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता। आलसी व्यक्ति प्रेम मांगता है। इस फर्क को ठीक से समझ लेना।

आलसी व्यक्ति प्रेम मांगता है, मुझे प्रेम करो। वह सारी दुनिया के सामने इश्तहार लगाए बैठा है, सब मुझे प्रेम करो। चारों खाने बिस्तर पर पड़ा है, सारी दुनिया उसको प्रेम करे। और शिकायत उसकी है कि कोई प्रेम नहीं करता।

राजसी व्यक्ति न तो प्रेम करता है और न मांगता है। उसे फुरसत नहीं इस धंधे में पड़ने की। उसके लिए प्रेम के सिवाय और भी बहुत काम हैं। प्रेम सब कुछ नहीं है, प्रेम गौण है।

सिकंदर को प्रेम करने की फुरसत नहीं मिल पाती। कैसे मिले? अभी बड़े युद्ध जीतने हैं। सारी पृथ्वी पर राज्य निर्मित करना है। नेपोलियन यद्यपि रोज युद्ध के मैदान से अपनी पत्नी को पत्र लिखता है, लेकिन लिखता युद्ध के मैदान से ही है, घर कभी नहीं आता। रोज लिखता है पत्र। ऐसा एक दिन नहीं छोड़ता। वह भी मुझे लगता है कि किसी अपराध— भाव के कारण करता होगा।

धीरे— धीरे पत्नी किसी और के प्रेम में पड़ जाती है। वह अपना पत्र ही लिखते रहते हैं। वह उनके पत्र पढ़ती भी नहीं फिर। जोसेफाइन के संबंध में कहा जाता है कि वह धीरे— धीरे नेपोलियन का पत्र खोलती भी नहीं, कचरे में डाल देती। क्योंकि स्त्री कब तक प्रतीक्षा करे! वह किसी और सैनिक को प्रेम करने लगी।

नेपोलियन सदा युद्धों में है। वहां से पत्र लिखता है रोज कि आज एक नगर और जीता, तेरे चरणों में समर्पित जोसेफाइन! मगर नगरों को समर्पित करने से जोसेफाइन को कोई खुशी नहीं होती। वह चाहती है, नेपोलियन आए। नगरों का क्या करेगी? नक्‍शा बड़ा होता जाता है, इससे क्या होगा? उसके हृदय में कहीं तृप्ति इससे नहीं होती।

आकांक्षी लोग न तो प्रेम चाहते हैं, न देते हैं। उन्हें फुरसत नहीं। अभी बड़े काम करने हैं। इलेक्शन लड़ना है, करीब आ रहा है इलेक्शन। उनको लड़ना है इलेक्शन, पद पर पहुंचना है, दिल्ली जाना है। पत्नी वगैरह गौण है, बच्चे गौण हैं। इसलिए राजनीतिज्ञों के, बड़े से बड़े राजनीतिज्ञों के बच्चे भी आवारा और बरबाद हो जाते हैं। हो ही जाएंगे।

धनियों के बच्चे सत्य की तरफ नहीं बढ़ पाते; बाप को फुरसत नहीं है। वह धन इकट्ठा कर रहा है। हालांकि वह कहता यही है कि इन्हीं के लिए इकट्ठा कर रहा हूं! लेकिन इनसे कभी मिलना ही नहीं होता। जब वह आता है घर वापस, तब तक बच्चे सो गए होते हैं। जब सुबह वह भागता है बाजार की तरफ, तब तक बच्चे उठे नहीं होते हैं। वह भाग—दौड़ में है। कभी रास्ते पर सीढ़ियां चलते मिल जाते हैं, तो जरा पीठ थपथपा देता है। वह भी उसे ऐसा लगता है कि बेकार का काम है। इतनी शक्ति बचती, तो और धन कमा लेते! इतना ही किसी और को थपथपाते बाजार में, तिजोरी भर जाती। यह नाहक बीच में आ गया।

धनियों के बच्चों का बाप से मिलना ही नहीं होता। और बहुत धनियों के बच्चों को उनकी मां से भी मिलना नहीं होता। क्योंकि मां को भी कहां फुरसत है! क्लब है, सोसाइटी है, पच्चीस जाल हैं। पति के साथ जाना है भोजनों में। क्योंकि उस पर पति का धंधा निर्भर करता है। पति के साथ जाकर हंसना है, बात करना है लोगों से। क्योंकि यह धंधे के लिए जरूरी है।

जब कभी कोई मुल्क किसी को एम्बेसेडर बनाकर भेजता है, तो पहले उसकी पत्नी को गौर से देखता है, कि पत्नी कुछ खूबसूरत ढंग की है? क्योंकि राजदूत का सारा काम पत्नी की खूबसूरती पर निर्भर करता है। पत्नी के सहारे राजदूत काम कर पाता है।

पत्नियों के सहारे लोग राष्ट्रपति हो जाते हैं। पत्नियों के सहारे लोग बड़े धनी हो जाते हैं। पत्नी पर यात्रा करते हैं। यह कोई प्रेम हो सकता है! पत्नी भी साधन है!

बहुत धनी के घर में न तो पत्नी का पता चलता है, न पति का पता चलता है। बच्चे आवारा होते हैं। नौकरों के द्वारा पाले जाते हैं। फिर जो परिणाम होता है, वह जाहिर है।

बड़े से बड़े लोगों के, महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति के बच्चे भी सब व्यर्थ हो जाते हैं। एक बच्चा काम का साबित नहीं होता।

इसलिए महात्मा गांधी को मैं दूसरी कोटि से ऊपर नहीं ले जा सकता। वे सत्व के व्यक्ति नहीं हैं। वे बात कितनी ही सत्य की करते हों, लेकिन वे व्यक्ति रजस के हैं। महत्वाकांक्षा भारी है। वह चाहे अपने से न जुड़ी हो। इसे ध्यान रखना।

राष्ट्र को स्वतंत्र करना है, तो सीधा नहीं लगता कि मेरी कोई महत्वाकांक्षा है। कि गरीबों का उद्धार करना है, कि हरिजनों का उद्धार करना है, मेरी कोई आकांक्षा पता नहीं चलती। लेकिन यह भी आकांक्षा है। इससे भी मुझे तृप्ति मिलेगी। जब राष्ट्र का उद्धार होगा, तब मैं कहूंगा, देखो, कर दिया उद्धार! हरिजनों को जगा दिया! स्वतंत्रता ला दी! लेकिन यह भी महत्वाकांक्षा है। इस महत्वाकांक्षा के कारण कहा फुरसत।

गांधी को फुरसत बिलकुल नहीं है। नहाने की फुरसत नहीं है। टब में बैठकर नहाते हैं और सेक्रेटरी बाहर से अखबार पढ़कर सुनाता है। वे अंदर जाकर शौच—किया कर रहे हैं और बाहर दरवाजे पर खड़ा सेक्रेटरी अखबार से खबरें पढ़कर सुना रहा है। क्योंकि फुरसत नहीं है! पत्र पढ़कर सुना रहा है। वे भीतर से जवाब दे रहे हैं कि ये—ये जवाब लिख देना।

ऐसी भाग—दौड़ की जिंदगी में प्रेम की कहां सुविधा है! कस्तुरबा दुखी मरी। कोई कहता नहीं इसको, लेकिन कस्तुरबा दुखी मरी। कस्तुरबा सुखी नहीं थी। हो नहीं सकती। क्योंकि गांधी को फुरसत ही नहीं है। कस्तुरबा की तरफ देखने की फुरसत नहीं है। बड़ा जाल है काम का।

महत्वाकांक्षी व्यक्ति मन की दौड़ में जीता है। न वह प्रेम करता है, न वह मांगता है।

सत्व को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में प्रेम का दान है। वह मांगता नहीं, वह सिर्फ देता है।

तमस मांगता है। सत्व देता है। रजस को फुरसत नहीं है। सत्य इतने प्रेम से भर देता है तुम्हारी जीवन—ऊर्जा को, ऐसे परितोष से, ऐसे संतोष से, ऐसी गहन तृप्ति से कि तुम बांटने में उत्सुक हो जाते हो। तुम बांटते हो, क्योंकि तुम्हारे पास इतना है, तुम करोगे क्या! और जितना तुम बांटते हो, उतना बढ़ता है।

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले एवं रसयुक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय आहार सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।

जो स्वभाव से ही प्रिय हैं! सात्विक गुणों का व्यक्ति स्वाद के कारण भोजन नहीं करता, यद्यपि बहुत स्वाद भोजन में लेता है, जैसा कोई भी नहीं लेता। लेकिन स्वाद निर्धारक नहीं है। निर्धारक तत्व तो है शरीर की प्रकृति, स्वभाव की अनुकूलता, तारतम्य, संगीत। यद्यपि सात्विक व्यक्ति परम स्वाद को उपलब्ध होता है। सात्विक व्यक्ति के आहार को अगर तुम तामसी को दो, तो वह कहेगा, क्या घास—पात! इसमें कुछ भी नहीं है, यह क्या खाना है! अगर राजसी को दो, वह कहेगा, कोई इसमें स्वाद नहीं है, तेजी नहीं है, उत्तेजना नहीं है। मिर्च नहीं है, नमक नहीं है ज्यादा।

ध्यान रखना, जो लोग मिर्च—मसाले पर जीते हैं, वे यह न समझें कि वे स्वाद ले रहे हैं। मिर्च—मसाले की जरूरत ही इसलिए है कि उनका स्वाद मर गया है। उनकी जीभ इतनी मुरदा हो गई है कि जब तक वे जहर न रखें उस पर, तब तक उसे कुछ पता नहीं चलता, इसलिए मिर्च रखनी पड़ती है। मिर्च रखने से थोड़ी—सी तड़फन जीभ में होती है। वह मरी—मराई जीभ थोड़ी कंपती है। उन्हें लगता है, स्वाद आया!

लेकिन जिसकी जीभ जीवित है, उसे मिर्च की जरूरत नहीं है। वह मिर्च को बरदाश्त न कर सकेगा। जिसका स्वाद जीवित है, वह तो साधारण फलों से, सब्जियों से इतने अनूठे स्वाद को ले सकेगा कि वह सोच ही नहीं सकता कि तुम क्यों मिर्च डालकर सब्जियों के स्वाद को नष्ट कर रहे हो! यह स्वाद को नष्ट करना है। मसाला नष्ट करने का उपाय है। स्वाद बढ़ता नहीं मसाले से।

लेकिन तुम्हें तकलीफ होगी। अगर आज तुम अचानक मसाला छोड़ दो, तो सब बेस्वाद मालूम पडेगा। क्योंकि स्वाद का अभ्यास करना होगा।

यह तो ऐसे ही है, मेरे एक मित्र हैं, वे ट्रैवेलिंग एजेंट का काम करते हैं। तो महीने में कोई बीस—चौबीस दिन बाहर; सप्ताह के लिए, पांच—सात दिन के लिए कभी घर लौटते हैं। वे मेरे पास आकर कहने लगे कि बड़ी मुसीबत है। ट्रेन में तो नींद आती है, घर नींद नहीं आती।

अब जिंदगी हो गई उनको ट्रैवेलिंग एजेंट का काम करते, ट्रेन में उनको नींद आती है। उपद्रव, शोरगुल, आवाज, स्टेशनों का आना—जाना, भीड़— भड़क्का, उसमें उन्हें नींद आती है। घर वे कहते हैं, ऐसा सन्नाटा मालूम पड़ता है कि नींद ही नहीं लगती! आदत हो गई, अभ्यास हो गया। अब इनको फिर से अभ्यास करना पड़ेगा सन्नाटे का।

तुम्हें अगर बाजार की आदत हो जाए तो हिमालय तुम्हें सूना मालूम पड़ेगा। अगर तुम्हें झगड़े और उपद्रव की आदत हो जाए तो किसी दिन तुम मौन से बैठो तो ऐसा लगेगा कि समय कटता ही नहीं। तुम्हारी जीभ अगर मसालों से भर गई हो, तो स्वाद खो दिया है। जीभ बड़ा कोमल तत्व है। और स्वाद के जो छोटे—से हिस्से हैं जीभ पर, उनसे ज्यादा कोमल कोई चीज नहीं है तुम्हारे पास। उनको अगर तुमने बहुत तेज चीजें दी हैं, तो वे मर गए उनकी अनुभव करने की शक्ति चली गई। अब और तेज चाहिए, और तेज चाहिए, तभी थोड़ी—बहुत तडूफन होती है, तो मालूम पड़ता है कुछ स्वाद आ रहा है।

सात्विक व्यक्ति स्वाद के लिए भोजन नहीं करता, लेकिन जितना स्वाद वह लेता है, दुनिया में कोई भी नहीं लेता। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि सात्विक को तुम अस्वाद लेने वाला मत समझ लेना। वही परम स्वाद लेता है। न तो वैसा स्वाद तमस को मिलता, न वैसा स्वाद रजस को मिलता। स्वाद मिलता ही उसे है, जो प्रकृति के अनुकूल चलता है। उसे पूरे जीवन का पूरा स्वाद मिलता है। सभी दिशाओं में सात्विक व्यक्ति की संवेदना खुल जाती है। वह ज्यादा सुनता है, ज्यादा देखता है, ज्यादा छूता है, ज्यादा स्वाद लेता है, ज्यादा गंध पाता है।

सात्विक व्यक्ति गुलाब के फूल के पास से निकलता है, तो उसे गंध आती है। राजसी निकलेगा, तो उसने बाजार के कचरा इत्र लगा रखे हैं, उन इत्रों की गंध की तेजी में गुलाब के फूल से गंध ही नहीं आती। उसे सस्ते बाजार में बिकने वाले इत्र चाहिए, दो कौड़ी के। लेकिन उनसे ही उसको थोड़ी गंध आती है। उसके नासापुट मर गए। अगर कहीं कोई शास्त्रीय संगीत हो रहा हो, तो उसे मजा नहीं आता। वह कहता है, यह क्या हो रहा है!

मुल्ला नसरुद्दीन गया था एक शास्त्रीय संगीत की सभा में। और जब संगीतज्ञ आलाप भरने लगा, तो उसकी आंख से आंसू गिरने लगे। पड़ोसी ने पूछा कि नसरुद्दीन! हमने कभी सोचा भी नहीं कि तुम शास्त्रीय संगीत के इतने प्रेमी हो। तुम्हारी आंख से आंसू टपक रहे हैं!

उसने कहा, ही, टपक रहे हैं। क्योंकि यह आदमी खतरे में है। यही हालत मेरे बकरे की हो गई थी जब वह मरा। ऐसे ही भरता था आलाप। यह मरेगा। इसको बचाने का उपाय करो। ऐसे ही चिल्ला—चिल्लाकर मेरा बकरा मरा।

शास्त्रीय संगीत के लिए तुम्हें एक भीतरी सौमनस्य चाहिए। तुम्हें तो कोई फिल्मी हुड़दंग, जिसमें प्रेमनाथ बंदरों की तरह उछल—कूद रहा हो, उसमें तुम्हें रस आएगा। तुम्हारी रीढ़ सीधी हो जाएगी; ध्यान तन्मय हो जाएगा। तुम कहोगे, कुछ हो रहा है।

तुम्हारे जीवन की सभी संवेदनाएं क्षीण हो गई हैं। या तो तमस में सो गई हैं, या रजस में उत्तेजना के कारण मर गई हैं। सत्य को उपलब्ध व्यक्ति परम संवेदनशील है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं बुद्ध पुरुष जितना जीते हैं, तुम नहीं जी सकते। तुम तो जीने का सिर्फ बहाना कर रहे हो। बुद्ध पुरुष प्रगाढ़ता से जीते हैं। फूल उनके लिए ज्यादा गंध देते हैं। हवाएं उन्हें ज्यादा शीतलता देती हैं। नदी का कल—कल नाद उन्हें ओंकार के नाद से भर देता है। वे सन्नाटे को सुनने में समर्थ हो जाते हैं। साधारण भोजन भी उन्हें परम स्वाद देता है। और साधारण मनुष्य भी उन्हें परम सुंदर की प्रतिमाएं मालूम होने लगते हैं। उन्हें सारा जगत सुंदर हो जाता है। वे सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् को उपलब्ध हो जाते हैं।

आज इतना ही।



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जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–7)

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कुंडलिनी जागरण व शक्तिपात—(प्रवचन—सातवां)

पहली प्रश्नोत्तर चर्चा:

ताओ—मूल स्वभाव:

प्रश्न:

 ओशो ताओ को आज तक सही तौर से समझाया नहीं गया है। या तो विनोबा भावे ने ट्राई किया या फारेनर्स ने ट्राई किया या हमारे एक बहुत बड़े विद्वान मनोहरलाल जी ने ट्राई किया लेकिन ताओ को या तो वे समझा नहीं पाए या मैं नहीं समझ पाया। क्योंकि यह एक बहुत बड़ा गंभीर विषय है।

ताओ का पहले तो अर्थ समझ लेना चाहिए। ताओ का मूल रूप से यही अर्थ होता है, जो धर्म का होता है। धर्म का मतलब है स्वभाव। जैसे आग जलाती है, यह उसका धर्म हुआ। हवा दिखाई नहीं पड़ती है, अदृश्य है, यह उसका स्वभाव है, यह उसका धर्म है। मनुष्य को छोड्कर सारा जगत धर्म के भीतर है। अपने स्वभाव के बाहर नहीं जाता। मनुष्य को छोड्कर जगत में, सभी कुछ स्वभाव के भीतर गति करता है। स्वभाव के बाहर कुछ भी गति नहीं करता। अगर हम मनुष्य को हटा दें तो स्वभाव ही शेष रह जाता है। पानी बरसेगा, धूप पड़ेगी, पानी भाप बनेगा, बादल बनेंगे, ठंडक होगी, गिरेंगे। आग जलाती रहेगी, हवाएं उड़ती रहेंगी, बीज टूटेंगे, वृक्ष बनेंगे। पक्षी अंडे देते रहेंगे। सब स्वभाव से होता रहेगा। स्वभाव में कहीं कोई विपरीतता पैदा न होगी।

स्वतंत्रता—मनुष्य की गरिमा भी, दुर्भाग्य भी:

मनुष्य के आने के साथ ही एक अदभुत घटना जीवन में घटी। सबसे बड़ी घटना है जो इस जगत में घटी। और वह यह है कि मनुष्य के पास शक्ति और क्षमता है कि वह स्वभाव के प्रतिकूल जा सके, स्वभाव से उलटा जा सके। यह मनुष्य की गरिमा भी है और दुर्भाग्य भी। यह उसका गौरव भी है, इसीलिए वह श्रेष्ठतम प्राणी भी है। इसीलिए कि वह चाहे तो स्वभाव में जीए और चाहे तो स्वभाव के प्रतिकूल चला जाए। यानी स्वभाव की जो अनिवार्य परतंत्रता थी, वह मनुष्य पर नहीं है। मनुष्य स्वतंत्र प्राणी है।

इस ज्ञात जगत में मनुष्य अकेला स्वतंत्र है। स्वतंत्र का मतलब यह कि वह वह भी कर सकता है जो कि प्रकृति में नहीं होता। वह आग को ठंडी कर सकता है। हवा को दृश्य बना सकता है। वह पानी को नीचे न बहाकर ऊपर की तरफ बहाए। और इस सबका कारण यह है कि मनुष्य सोच सकता है। उसके पास बुद्धि है। तो बुद्धि निर्णायक है उसकी—क्या करें, क्या न करें! ऐसा करें या वैसा करें! यह करना ठीक होगा कि नहीं ठीक होगा! तो बुद्धि जो है वह मनुष्य के भीतर स्वतंत्रता का सूत्र है। और प्रकृति के ऊपर उठने की संभावना है। वह ट्रांसेनडेंस है उसमें।

स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं है:

लेकिन मनुष्य स्वभाव के प्रतिकूल तो जा सकता है, लेकिन स्वभाव के प्रतिकूल जाने से जो दुख होते हैं वे उसे झेलने ही पडेंगे।

प्रश्न: झेलने ही पड़ते हैं?

वे झेलने ही पड़ते हैं। तो उसकी स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं है। उस पर एक गहरी रुकावट है। स्वतंत्र है वह कि वह प्रकृति से प्रतिकूल काम करे। लेकिन प्रतिकूल काम करने से जो भी परिणाम होंगे दुखद, वे उसे झेलने ही पड़ेंगे।

अधर्म का मतलब इतना ही है। अधर्म का मतलब यह है कि जो स्वभाव में नहीं है वैसा करना। जो नहीं करना चाहिए था वैसा करना। जिसे करने से दुख उत्पन्न होता है ऐसा करना। यह सब एक ही बात हुई। जिसे भी करने से दुखद परिणाम आते हैं वह अधर्म है। क्योंकि स्वभाव में दुख की गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए मनुष्य को छोड्कर इस जगत में और कोई दुखी भी नहीं है, चिंतित भी नहीं है, तनावग्रस्त भी नहीं है। मनुष्य को छोड्कर और कोई प्राणी पागल होने की क्षमता नहीं रखता, विक्षिप्त नहीं हो सकता, क्योंकि वह अपने स्वभाव में ही जीता है। स्वभाव में सुख है, स्वभाव के प्रतिकूल जाने में दुख है।

लेकिन और कोई प्राणी जा ही नहीं सकता। स्वभाव में जीना उसका चुनाव नहीं है। स्वभाव में जीना उसकी मजबूरी है। इसलिए गौरवपूर्ण नहीं है वह बात। मनुष्य स्वभाव के प्रतिकूल जा सकता है। यह गौरवपूर्ण है। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि इससे सौभाग्य आए, इससे दुर्भाग्य आ सकता है। अगर वह प्रतिकूल जाएगा तो दुख उठाएगा।

सुख + स्वतंत्रता = आनंद:

यहीं एक बात और समझ लेनी जरूरी है स्वभाव में रहने की अगर मजबूरी हो तो सुख तो होता है, लेकिन आनंद कभी नहीं होता। मनुष्य के जीवन में एक नया सूत्र खुलता है आनंद का। आनंद का मतलब यह है : स्वभाव के प्रतिकूल जा सकता था और नहीं गया। जाता तो दुख उठाता; अगर जा ही न सकता और स्वभाव में रहता तो सुख पाता; लेकिन जा सकता था, नहीं गया, तब जो सुख उपलब्ध होता है वह आनंद है। सुख के साथ स्वतंत्रता जब जुड़ जाती है तो आनंद बन जाता है। सुख फ़ स्वतंत्रता आनंद बन जाता है।

ताओ का अर्थ है जैसा सारा जगत जीता है मजबूरी में, वैसे हम अपनी स्वतंत्रता में जीएं। स्वतंत्रतापूर्वक हम अपने स्वभाव में जीएं, तो ताओ उपलब्ध हो जाता है। तो ताओ के लिए या तो धर्म शब्द बहुत अदभुत है। लेकिन धर्म चूकि हमारे बीच बहुत पिट गया, इसलिए हमारे खयाल में नहीं पड़ता। और धर्म के हमने बड़े गलत उपयोग किए, इसलिए भी कहीं हिंदू और मुसलमान को धर्म बना दिया इससे भी कठिनाई हो गई। नहीं तो एक दूसरा वैदिक शब्द है : ऋत। ऋत का अर्थ होता है दि ली। नियम। तो ताओ का भी मतलब ऋत है जो नियम है।

लेकिन नियम दो तरह से हो सकता है, जैसा मैंने कहा। मजबूरी! तब फिर प्रकृति रह जाती है। जहां सब सुखद है, लेकिन जहां चुनाव नहीं है। और नियम को तोड्ने की संभावना मनुष्य के साथ शुरू होती है। यानी मनुष्य जो है वह प्रकृति को पार कर गया और परमात्मा में प्रविष्ट नहीं हुआ ऐसा प्राणी है। वह द्वार पर खड़ा है परमात्मा के, चाहे तो प्रवेश करे, चाहे तो लौट जाए। इस पर कोई मजबूरी नहीं है। लौटने से जो दुख होगा वह झेलना पड़ेगा। प्रवेश से जो आनंद होगा वह मिलेगा। चुनावपूर्वक, स्वतंत्रतापूर्वक जो व्यक्ति स्वभाव में जीने को राजी हो जाता है, वह ताओ को उपलब्ध होता है।

प्रकृति में न कुछ शुभ है, न कुछ अशुभ:

इसलिए अब ताओ में और भी कुछ बातें इस आधार पर समझनी जरूरी हैं। जैसे स्वभाव में कुछ अच्छा और बुरा नहीं होता। जो होता है होता है। हम यह नहीं कह सकते कि पानी नीचे की तरफ बहता है तो पाप करता है। हम ऐसा नहीं कह सकते। पानी नीचे की तरफ बहता ही है, उसका स्वभाव है। इसमें पाप—पुण्य कुछ भी नहीं है। अच्छा—बुरा भी कुछ नहीं है। आग जलाती है तो हम यह नहीं कह सकते कि आग बहुत पाप करती है। जलने से कोई कितना ही दुख पाता हो, लेकिन आग की तरफ से कोई पाप नहीं है, यह उसका स्वभाव है। यह उसकी मजबूरी है। वह आग है इसलिए जलाती है। इसमें कोई……. आग होना और जलाना, एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं। इसलिए प्रकृति में कोई पाप—पुण्य नहीं हैं।

आदमी थोपने की कोशिश करता है। जैसे कि हम शेर को पापी समझते हैं, क्योंकि वह गाय को खा जाता है। इसलिए पुण्यात्मा लोग ऐसी तस्वीरें बनाते हैं कि गाय और शेर एक ही साथ पानी पी रहे हैं। इसमें गाय के साथ तो बहुत भला हो गया, लेकिन शेर का क्या होगा? इन पुण्यात्माओं ने भी कभी गाय को और घास को एक साथ खड़े नहीं बताया। नहीं तो गाय के साथ भी वही हो जाएगा जो शेर के साथ हो रहा है। क्योंकि घास भी तो मरा जा रहा है गाय के हाथ में। गाय मजे से घास चर रही है और शेर को गाय के बगल में बिठा दिया और वह गाय को नहीं चर रहा है।

हम अपनी धारणाएं थोपते हैं। प्रकृति में न कुछ शुभ है, न कुछ अशुभ है। कोई अच्छे और बुरे की बात प्रकृति में नहीं है, क्योंकि वहां विकल्प नहीं है, वहां चुनाव ही नहीं है। ऐसा शेर कोई जानकर गाय को नहीं खाता और गाय कोई जानकर घास को नहीं खाती। किसी का किसी को दुख पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है। बस ऐसा होता है।

आदमी के साथ अनंत संभावनाएं:

आदमी के साथ पहली दफा सवाल उठता है—क्या अच्छा और क्या बुरा। क्योंकि आदमी चुन सकता है। ऐसा कुछ भी नहीं है आदमी के साथ जो होता ही है। कुछ भी हो सकता है, अनंत संभावनाएं हैं। आदमी गाय भी खा सकता है, घास भी खा सकता है। गाय को भी छोड़ सकता है, घास को भी छोड़ सकता है। बिना खाए उपवासा भी मर सकता है। आदमी के साथ अनंत संभावनाएं खुल जाती हैं। इसलिए सवाल उठता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है।

कहानी है कि कनफ्यूशियस लाओत्से के पास गया। और लाओत्से से उसने कहा कि लोगों को बताना पड़ेगा क्या ठीक है, क्या गलत है। तो लाओत्से ने कहा कि यह तभी बताना पड़ता है जब ठीक खो जाता है। जब ठीक खो जाता है तभी बताना पड़ता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है। जब ठीक खो जाता है, तभी बताना पड़ता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है। तो कनफ्यूशियस ने कहा, लोगों को धर्म तो समझाना ही पड़ेगा। तो लाओत्से ने कहा, तभी समझाना पड़ता है जब धर्म का कुछ पता नहीं चलता कि क्या धर्म है। जब धर्म खो जाता है।

आदमी के साथ खो ही गया है। उसके पास कोई साफ सूत्र जन्म के साथ नहीं हैं जिन पर वह चले। उसे अपने चलने के सूत्र भी खोजने पड़ते हैं—जीने के साथ ही साथ।

इससे स्वतंत्रता तो बहुत है, लेकिन स्वभाव के प्रतिकूल चले जाने की भी संभावना उतनी ही है। तो हम ऐसा भी कर सकते हैं जो करना हमें दुख में ले जाए। और ऐसा हम रोज कर रहे हैं।

ताओ का मतलब है कि फिर उस जगह खड़े हो जाना, उस बिंदु पर, जहां से चीजें साफ दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं। जहां हमें तय नहीं करना पड़ता कि क्या ठीक है और क्या गलत है, बल्कि जहां से हमें दिखाई ही पड़ता है कि यह ठीक है और वह गलत है। जहां हमें विचार नहीं करना पड़ता, बल्कि दिखाई पड़ता है।

ताओ की साधना—निर्विचार दृष्टि:

तो पहली तो मैंने ताओ की परिभाषा की कि ताओ का मतलब क्या है। अब दूसरी बात मैं कह रहा हूं कि ताओ की साधना क्या है। ताओ की साधना, यह ऐसे बिंदु पर खड़े हो जाने का उपाय है जहां से हमें दिखाई पड़े कि क्या ठीक है और क्या गलत है। जहां हमें सोचना न पड़े कि क्या ठीक है और क्या गलत है।

क्योंकि सोचेगा कौन? सोचूंगा मैं। और अगर मैं सोच ही सकता, तब तो कहना ही क्या था। मुझे पता नहीं है इसलिए तो मैं सोच रहा हूं। और जो मुझे पता नहीं है उसे मैं सोचकर पता लगा नहीं सकता हूं। यानी सोच हम उसी को सकते हैं जो हम जानते ही हों। अनजान को, अननोन को हम सोच नहीं सकते।

इतना तो साफ है कि मुझे पता नहीं कि क्या ठीक है और क्या गलत है। क्या स्वभाव है, क्या विभाव है, मुझे कुछ पता नहीं। अब हम कहते हैं हम सोचेंगे। जहां से सोचना शुरू होता है वहां से फिलॉसफी शुरू होती है। और इसलिए कहूंगा कि ताओ की कोई फिलॉसफी नहीं है। ताओ कोई फिलॉसफी नहीं है। जहां से सोचना शुरू होता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है; क्या करें, क्या न करें, क्या करना पुण्य है, क्या करना पाप है, क्या करेंगे तो सुख होगा, क्या करेंगे तो दुख होगा—जहां यह सोचना है वहां फिलॉसफी है। न, ताओ बिलकुल एंटी—फिलॉसफी है। वह बिलकुल अदर्शन है। ताओ यह कह रहा है, सोचकर तुम पाओगे कैसे? अगर तुम्हें पता ही होता तो तुम सोचते ही न। और अगर तुम्हें पता नहीं है तो तुम सोचोगे कैसे? सोचकर तुम वही जुगाली कर लोगे जो तुम जानते हो। सोचने से नया कभी उपलब्ध नहीं होता। न कभी उपलब्ध हुआ है, न हो सकता है। सोचने से सिर्फ पुराने के नये संयोग बनते हैं। कभी कोई नया उपलब्ध नहीं होता।

चाहे विज्ञान की कोई नई प्रतीति हो, चाहे धर्म की कोई नई अनुभूति हो, सब सोचने के बाहर घटती है, सोचने के भीतर नहीं घटती। वितान की भी नहीं घटती। जब भी कुछ नया आता है, वह तब आता है जब आप सोचने के बाहर होते हैं। भला यह हो सकता है कि आप सोच—सोचकर थककर बाहर हो गए हों। यह हो सकता है कि एक आदमी अपनी प्रयोगशाला में सोच— सोचकर थक गया है दिन भर। और दिन भर सब तरह के प्रयोग किए हैं और कोई फल नहीं पाया। थक गया, थक गया, थक गया। वह रात सो गया है। और अचानक उसे सपने में खयाल आ गया या सुबह उठा है और उसे खयाल आया। तो वह यही कहेगा कि मैंने जो सोचा था उससे ही यह आया।

यह उससे नहीं आया। यह तो जब सोचना थक गया, ठहर गया, तब वह ताओ में पहुंच गया। जब कोई सोचने से छूट जाता है, तत्काल स्वभाव में आ जाता है। क्योंकि और कहीं जाने का उपाय नहीं है। विचार एकमात्र व्यवस्था है जिसमें हम स्वभाव के बाहर चले जाते हैं।

जैसे मैं इस कमरे में सोऊ और रात सपना देखूं तो मैं इस कमरे के बाहर जा सकता हूं सपने में। लेकिन सपना टूट जाए तो मैं इसी कमरे में खड़ा हो जाऊं। फिर मैं यह नहीं पूछूंगा कि मैं इस कमरे में आया कैसे? क्योंकि मैं तो सपने में बाहर चला गया था! तब मैं तत्काल जानूंगा कि सपने में बाहर गया था अर्थात मैं बाहर गया नहीं था सिर्फ खयाल था मुझे कि मैं बाहर गया हूं। था मैं यहीं, जब मैं बाहर गया था ऐसा देख रहा था तब भी मैं यहीं था।

तो ताओ यह कहता है कि तुम कितना ही सोच रहे हो कि यहां चले गए, वहां चले गए, तुम ताओ से जा नहीं सकते। रहोगे तो तुम वहीं, क्योंकि स्वभाव के बाहर जाओगे कैसे? स्वभाव का मतलब ही यह है कि जिसके बाहर न जा सकोगे। जो तुम्हारा होना है, जो तुम्हारी बीइंग है, उससे बाहर जाओगे कैसे? लेकिन सोच सकते हो बाहर जाने की बात।

इसलिए यह दूसरी बात खयाल में ले लेने जैसी है कि मनुष्य की जो स्वतंत्रता है वह भी सोचने की स्वतंत्रता है। सोचने में वह बाहर चला गया है। विचार में वह भटक रहा है। अगर सारा विचार ठहर जाए तो वह ताओ पर खड़ा हो जाएगा। जिसको हम ध्यान कहते हैं, या जिसको जापान में वे झेन कहते हैं, उसको लाओत्से ताओ कहता है। उस जगह खड़े हो जाना है जहां कोई विचार नहीं है। वहां से तुम्हें वह दिखाई पड़ेगा जो है। जैसा होना चाहिए, जैसा होना सुख देगा, आनंद देगा, वह दिखाई पड़ेगा। और यह अब चुनना नहीं पड़ेगा कि इसको मैं करूं। बस यह होना शुरू हो जाएगा।

तो ताओ की स्थिति को जहां कि पशु है ही, जहां पौधे हैं ही, जहां हम भी हैं, लेकिन हम विचार में भटक गए हैं। और ताओ हमारी वास्तविक स्थिति का हमें पता नहीं, और सब कुछ हमें पता होता है।

विचार है स्वभाव के बाहर छलांग:

तो ताओ की जो मौलिक प्रक्रिया है साधना, वह तो ध्यान ही है। वहां आ जाना है जहां कोई सोच—विचार नहीं है। और लाओत्से कहता है, तुमने सोचा, रत्ती भर विचार, और स्वर्ग और नरक अलग, इतना बड़ा फासला हो जाएगा।

लाओत्से के पास कोई आया है और उससे कुछ पूछता है और लाओत्से उसे जवाब देता है। और जब वह जवाब देता है तो वह आदमी सोचने लगता है। अब लाओत्से कहता है कि बस, बस! सोचना मत। क्योंकि सोचा, कि जो मैंने कहा उसे तुम कभी न समझ पाओगे। सोचना ही मत। जो मैंने कहा उसे सुनो। सोचो मत। अगर सुन सके तो बात हो जाएगी और अगर सोचे तो गए। सोचना ही था तो मुझसे पूछा क्यों? तुम्हीं सोच लेते! तुम सोच ही लेते, कौन तुम्हें मना करता है!

सोचते ही हम तत्काल स्वभाव के बाहर हो जाते हैं। तो विचार जो है वह स्वभाव के बाहर छलांग है— लेकिन विचार में ही! इसलिए मूलत: हम कहीं नहीं गए होते, गए हुए मालूम पड़ते हैं।

तो ताओ की साधना का अर्थ हुआ सोच—विचार छोड्कर खड़े हो जाना। जहां कोई विचार न हो, सिर्फ चेतना रह जाए, सिर्फ होश रह जाए। तो वहां से जो ठीक है वह न केवल दिखाई पड़ेगा बल्कि होना शुरू हो जाएगा।

इसलिए ताओ को जीनेवाला आदमी न नैतिक होता, न अनैतिक होता; न पापी होता, न पुण्यात्मा होता। क्योंकि वह कहता है कि जो हो सकता है वही हो रहा है। मैं कुछ करता नहीं।

एक ताओ फकीर से कोई जाकर पूछता है कि आपकी साधना क्या है? तो वह कहता है, जब मेरी नींद टूटती है तब मैं उठ जाता हूं; और जब नींद आ जाती है तो मैं सो जाता हूं; और जब भूख लगती है तो खाना खा लेता हूं।

तो वह कहता है, यह तो हम सभी करते हैं।

तो वह कहता है, यह तुम सब नहीं करते। जब नींद आई तब तुम कब सोए? तुमने और हजार काम किए। और जब नींद नहीं आ रही थी तब तुमने नींद लाने की कोशिश भी की। और तुम कब उठे जब नींद टूटी हो? तुमने सदा नींद तोड़कर तुम उठ आए हो। या नींद टूट गई है और तुम नहीं उठे हो। तुमने कब खाना खाया जब भूख लगी हो?

एक एस्कीमो साइबेरिया का पहली दफा इंग्लैंड आया। तो वह बहुत हैरान हुआ। और सबसे बड़ी हैरानी उसे यह हुई कि लोग घड़ी देखकर कैसे सो जाते हैं! और लोग घड़ी देखकर खाना कैसे खा लेते हैं! और जिस घर में वह मेहमान था वह इतना परेशान हुआ कि सारे लोग एक साथ खाना कैसे खा लेते हैं घर भर के! क्योंकि उसने कहा यह हो ही नहीं सकता कि सबको एक साथ भूख लगती हो। क्योंकि हमें तो……. जब हमारे यहां जिसको भूख लगती है वह खाता है। किसी को कभी लगती है, किसी को कभी लगती है, किसी को कभी लगती है। यह बड़ा मिरेकल है कि घर भर के लोग एक साथ टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं! क्योंकि सबको एक साथ भूख लगना बड़ी असंभव घटना है। और लोग कहते हैं कि बारह बज गए और सो जाते हैं। उसने कहा कि.. .उसकी यह बिलकुल समझ के बाहर पड़ा उसे। स्वाभाविक, क्योंकि साइबेरिया से आनेवाला आदमी अभी भी ताओ के ज्यादा करीब है। अभी भी जब भूख लगती है तब खाता है, जब नहीं लगती तो नहीं खाता है। जब नींद आती है तो सोता है, जब नींद टूटती है तो उठता है।

ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए, ऐसा ताओ नहीं कहेगा। ताओ कहेगा कि जब तुम उठ जाते हो वही ब्रह्ममुहूर्त है। ऐसा नहीं कहेगा ताओ……। वह फकीर ठीक कह रहा है कि जो होता है हम वह होने देते हैं। हम कुछ भी नहीं करते, जो होता है हम होने देते हैं। तो मनुष्य एकबारगी फिर से अगर प्रकृति की तरह जीने लगे तो ताओ को उपलब्ध होता है। जब उसे जो होता है होने देता है। और यह बहुत गहरे तल तक! यह खाने और पीने की बात ही नहीं है। अगर उसे क्रोध आता है तो वह क्रोध को भी आने देता है। अगर उसे काम उठता है तो वह काम को भी उठने देता है। क्योंकि वह कहता है, मैं कौन हूं जो बीच में आऊं? असल में जो होता है, ताओ कहता है, उसे होने देना है। तुम कौन हो जो तुम बीच में आते हो? हर चीज पर तुम कौन हो जो बीच में आते हो?

ताओ की अंतिम घटना—साक्षी:

और अगर कोई व्यक्ति सब होने दे जो होता है, तो साक्षी ही रह जाएगा, और तो कुछ बचेगा नहीं उसके भीतर। देखेगा कि क्रोध आया। देखेगा कि भूख आई। देखेगा कि नींद आई। वह साक्षी हो जाएगा। तो ताओ की जो गहरी से गहरी पकड़ है वह साक्षी में है। वह साक्षी रह जाएगा। वह देखता रहेगा, देखता रहेगा, एक दिन वह यह भी देखेगा कि मौत आई और देखता रहेगा। क्योंकि जिसने सब देखा हो जीवन, वह फिर मौत को भी देख पाता है। क्योंकि हम जीवन को ही नहीं देख पाते, हम सदा बीच में आ जाते हैं, तो मौत के वक्त भी हम बीच में आ जाते हैं और नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है।

वह मौत को भी देखेगा। जिसने नींद को आते देखा और जाते देखा, जिसने बीमारी को आते देखा और जाते देखा, क्रोध को आते देखा जाते देखा, वह एक दिन मौत को भी आते देखेगा। वह जन्म को भी आते देखेगा। वह सब का देखनेवाला हो जाएगा। और जिस दिन हम सबके देखनेवाले हो जाते हैं उसी क्षण हम पर कोई भी कर्म का कोई बंधन नहीं रह जाता। क्योंकि कर्म का सारा बंधन हमारे कर्ता होने में है कि मैं कर रहा हूं। चाहे क्रोध कर रहे हों और चाहे ब्रह्मचर्य साध रहे हों, लेकिन मैं करनेवाला हूं मौजूद है। चाहे पूजा कर रहे हों और चाहे भोजन कर रहे हों, मैं करनेवाला मौजूद है।

तो ताओ की जो अंतिम घटना है उसमें मैं तो खो जाएगा, कर्ता खो जाएगा, साक्षी रह जाएगा। अब जो होता है होता है। अब इसमें कुछ भी करनेवाला नहीं है। डुअर जो है वह अब नहीं है। तो ऐसी जो चेतना की अवस्था है—जहां न कोई शुभ है, न कोई अशुभ है; न अच्छा है, न बुरा है; जहां सिर्फ स्वभाव है; और स्वभाव के साथ पूरे भाव से रहने का राजीपन है; जहां कोई संघर्ष नहीं, कोई झगड़ा नहीं; ऐसा हो, वैसा हो, ऐसा कोई विकल्प नहीं; जो होता है उसे होने देने की तैयारी है—तो विस्फोट, एक्सप्लोज़न जिसको मैं कहता हूं वह तत्काल घटित हो जाएगा।

ताओ में समस्त अध्यात्म समाहित है:

और इसलिए ताओ जैसे छोटे शब्द में सब आ गया है। सब जो भी श्रेष्ठतम है साधना में। और जो भी महानतम है मनुष्य की अध्यात्म की खोज में। ध्यान में, समाधि में जो भी पाया गया है, वह सब इस छोटे से शब्द में सब समाया हुआ है। यह शब्द बहुत कीमती है। और इसीलिए अनट्रांसलेटेबल है। इसलिए ताओ का अनुवाद नहीं हो सकता। धर्म से हो सकता था। लेकिन धर्म विकृत हुआ, उसके एसोसिएशस गलत हो गए। ऋत से हो सकता था। लेकिन वह अव्यवहत है, उसका कभी प्रयोग नहीं हुआ। व्यापक मन तक गया नहीं। लेकिन अर्थ वही है। अर्थ वही है। मूल स्वभाव में जीने की सामर्थ्य सबसे बड़ी सामर्थ्य है। क्योंकि तब न निंदा का उपाय है, न प्रशंसा का उपाय है। तब कोई उपाय ही नहीं है।

लाओत्से ने कुछ भी होना बंद कर दिया है:

लाओत्से एक नदी के किनारे बैठा हुआ है। सम्राट ने किसी को भेजा है कि लाओत्से को खोज लाओ! सुनते हैं बहुत बुद्धिमान आदमी है। तो हम उसे अपना वजीर बना लें। वह आदमी गया है। बामुश्किल तो लाओत्से को खोज पाया। क्योंकि जहां—जहां लोगों से पूछा, उन्होंने कहा कि लाओत्से को खुद ही पता नहीं होता कि कहां जा रहा है। जहां पैर ले जाते हैं चला जाता है। तो पहले से तो वह खुद भी नहीं बता सकता कि कहां जाएगा। इसलिए बताना मुश्किल है। लेकिन फिर भी खोजो, कहीं न कहीं होगा। क्योंकि सुबह यहां दिखाई पड़ा है। इस गांव में वह था। कहीं बहुत दूर नहीं निकल गया होगा। दूर इसलिए भी नहीं निकल गया होगा, क्योंकि तेजी से वह चलता ही नहीं है। क्योंकि जाना ही नहीं है कहीं, पहुंचना ही नहीं है कहीं। तो कहीं दूर नहीं गया होगा, मिलेगा आसपास।

खोजा है तो वह नदी के किनारे बैठा हुआ है। तो उन्होंने जाकर उसको कहा कि मिल गए, हम बडी मुश्किल गांव—गांव खोजते फिर रहे हैं। सम्राट ने बुलाया है। कहा है कि वजीर का पद लाओत्से सम्हाल ले। तो लाओत्से चुपचाप बैठा रहा। फिर उसने कहा, देखते हो उस कछुए को! एक कछुआ वहां कीचड़ में मजा कर रहा है। उन्होंने कहा, देखते हैं। तो लाओत्से ने कहा, हमने सुना है कि तुम्हारे सम्राट के घर एक सोने का कछुआ है। उसकी पूजा होती है। कभी कोई कछुआ कई पीढ़ियों पहले किसी कारणवश उस परिवार में पूज्य हो गया था। उस पर सोने की खोल चढ़ाकर उसको बड़े उससे रखा गया है। क्या यह सच है? तो उन्होंने कहा, यह सच है। सोने की खोल मढ़ा हुआ वह कछुआ परम आदरणीय है। सम्राट स्वयं उसके सामने सिर झुकाते हैं। तो लाओत्से ने कहा, बस मैं यह तुमसे पूछता हूं— अगर तुम इस कछुए से कहो कि हम तुझे सोने से मढ़कर और सुंदर बहुमूल्य पेटी में बंद करके पूजा करेंगे, तो यह कछुआ सोने से मढ़ा जाना पसंद करेगा कि यहीं कीचड़ में लोटना पसंद करेगा? उन्होंने कहा, कछुआ तो कीचड में लोटना ही पसंद करेगा। तो लाओत्से ने कहा, हम भी पसंद करेंगे। नमस्कार! तुम जाओ। जब कछुआ तक इतना बुद्धिमान है, तो तुम लाओत्से को ज्यादा बुद्धिहीन समझे हो कछुए से! तुम जाओ। तुम्हारा वजीर होना हमारे काम का नहीं है। असल में, लाओत्से ने कुछ भी होना बंद कर दिया अब। लाओत्से जो है वह है।

यह जो आदमी है, यह साधारणत: जिनको हम साधक कहते हैं, वैसा आदमी नहीं है। हम जिसे साधक कहते हैं वह आमतौर से, हम जिसे साधारण आदमी कहते हैं, उससे विपरीत होता है। अगर यह आदमी दुकान करता है तो वह आदमी दुकान नहीं करता। अगर यह आदमी धन कमाता है तो वह आदमी धन छोड़ देता है। अगर यह आदमी विवाह करता है तो वह आदमी विवाह नहीं करता। लेकिन उसके करने का जितना भी नियम है वह इसी गृहस्थ से मिलता है। वह सिर्फ इसका रिएक्शन होता है।

लाओत्से कहता है कि हम किसी के रिएक्शन नहीं हैं, हम किसी की प्रतिक्रिया नहीं हैं। कौन क्या करता है, इससे प्रयोजन नहीं है। न हम किसी के पीछे जाते कि वैसा करें जैसा वह करता है, न हम किसी के प्रतिकूल जाते हैं कि वैसा करें जैसा वह नहीं करता है। हम तो वही होने देते हैं जो हमारे भीतर से होता है।

स्वभाव को होने देने का मतलब यह है कि हम किसी का अनुकरण न करें, किसी की नकल न करें, किसी के विरोध में आयोजन न करें अपने व्यक्तित्व का। जो हो सकता है भीतर से, जो होना चाहता है, वह हम होने दें। उस पर कहीं कोई रुकावट न हो, कोई निंदा न हो, कोई विरोध न हो, कोई संघर्ष न हो, कोई द्वंद्व न हो, जो होता है उसे होने दें। तब उसका मतलब यह कि बुरे—भले का खयाल तत्काल छोड़ देना पड़ेगा। क्योंकि बुरा—भला ही हमें निंदा करवाता है, रुकवाता है—यह करो और यह मत करो। यह सारे बुरे— भले का, शुभ—अशुभ का खयाल छोड्कर और उस बिंदु पर हमें खड़े होकर देखना पड़े कि जीवन अब कहां जाए, जिस बिंदु पर कोई विचार नहीं है।

सोच—विचार से श्वास में फर्क:

अगर आपके मस्तिष्क से सोचने की सारी शक्ति छीन ली जाए, फिर भी आप श्वास लोगे। अभी भी श्वास ले रहे हो। लेकिन श्वास तक के लेने में फर्क पड़ जाएगा। रात को आप दूसरी तरह से श्वास लेते हो दिन की बजाय। श्वास पर हम आमतौर से कोई खयाल नहीं दिए हैं। लेकिन फिर भी हमारी विचार की प्रक्रिया श्वास पर कोई तरह की बाधा डालती रहती है। रात में हम दूसरी तरह की श्वास लेते हैं। अगर कोई बीमार रात सोना बंद कर दे तो उसकी बीमारी ठीक होना मुश्किल हो जाती है; क्योंकि जागते में बीमारी का खयाल बीमारी को बढ़ावा देने लगता है। तो पहले जरूरी होता है कि कोई बीमार हो तो पहले उसको नींद आए। इलाज नंबर दो बाद है, पहले तो नींद आए। क्योंकि नींद में वह बीमारी का खयाल छोड़ पाए और उसका स्वभाव जो कर सकता है वह कर सके। यह आदमी बाधा न दे।

ताओ का सौंदर्य:

इसलिए बच्चे हमें इतने प्रीतिकर लगते हैं। बहुत मजे की बात है! आमतौर से कुरूप बच्चा खोजना बहुत मुश्किल है। सभी बच्चे सुंदर होते हैं असल में, बच्चा कुरूप होता ही नहीं। यानी कभी खयाल में नहीं आया होगा किसी बच्चे को देखकर कि यह कुरूप है। लेकिन यही बच्चे बड़े होकर इनमें बहुत से लोग कुरूप हो जाते हैं अधिक लोग कुरूप हो जाते हैं, सुंदर आदमी खोजना मुश्किल हो जाता है। बात क्या हो जाती है? यह बच्चे का सौंदर्य कहां से आता है?

ताओ से। वह वैसा ही जी रहा है जैसा है। यानी बड़े से बड़ी जो कुरूपता है, बड़े से बड़ी अग्लीनेस जो है वह सुंदर होने की चेष्टा से पैदा होती है। वह सुंदर होने की चेष्टा से पैदा होती है। तब जो हम हैं वह नहीं रह जाता महत्वपूर्ण। जो हम दिखना चाहिए उसको हम थोपना शुरू कर देते हैं। इसलिए स्त्रियां मुश्किल से ही सुंदर हो पाती हैं। सुंदर होने का जो अति विचार है वह बहुत गहरी और छिपी कुरूपताएं भीतर भरता है। इसलिए बहुत कम स्त्रियां हैं जिनमें कोई गहराई होती है सौंदर्य की। इसलिए एक या दो दिन के बाद अगर एक स्त्री आपके साथ रह जाए, कितनी ही सुंदर हो, दो दिन के बाद उसका सौंदर्य दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। क्योंकि बहुत सफेंस पर था, बहुत ऊपर था, गया। वह गहरे दिखाई नहीं पड़ता।

बच्चे सभी सुंदर मालूम होते हैं, क्योंकि वे जैसे हैं वैसे हैं। कुरूप हैं तो कुरूप होने को भी राजी हैं, उसमें भी कोई बाधा नहीं है। और तब एक और तरह का सौंदर्य उनमें प्रकट होता है जिसको ताओ का सौंदर्य कहेंगे।

ताओ की अपनी एक बुद्धिमत्ता है:

इसी तरह जीवन के सारे पहलुओं पर। एक बहुत बुद्धिमान आदमी है। वह सब प्रश्नों के उत्तर जानता है। लेकिन जरूर ऐसे प्रश्न होंगे जिनके उत्तर उसको पता नहीं हैं। जब तक उसके जाने हुए प्रश्न आप पूछते हैं तब तक वह उत्तर देता है। और एक प्रश्न आप ऐसा खड़ा कर दें जो उसे पता नहीं, वह तत्काल अज्ञानी हो जाता है। क्योंकि जो बुद्धिमत्ता थी वह साधी गई थी। वह साधी गई बुद्धिमत्ता थी। इसलिए बुद्धिमान आदमी नये प्रश्नों को स्वीकार नहीं करना चाहता, नये सवाल नहीं उठाना चाहता। वह कहता है, पुराने सवाल ठीक हैं। इसलिए वह कहता है, पुराने जवाब ठीक हैं। क्योंकि पुराने जवाब तभी तक ठीक हैं जब तक कि नया सवाल नहीं उठता। नया सवाल उठता है तो बुद्धिमान आदमी गया।

नहीं लेकिन, ताओ के पास कोई जवाब नहीं है। इसलिए ताओ की बुद्धिमत्ता जिसको उपलब्ध हो जाए, उसके लिए कोई सवाल न नया है, न कोई पुराना है। इधर सवाल खड़ा होता है, इधर वह उस सवाल से जूझ जाता है। उसके पास कुछ रेडीमेड नहीं है। उसके पास कुछ तैयार नहीं है।

कनफ्यूशियस जब लाओत्से से मिला है.. तो कनफ्यूशियस बहुत से लोगों से मिलने गया था। और जब लौटकर उसके मित्रों ने पूछा कि क्या हुआ? तो उसने कहा, आदमी की जगह तुमने मुझे अजगर के पास भेज दिया। वह आदमी ही नहीं है, वह तो खा जाएगा। मेरी सारी बुद्धिमत्ता चकनाचूर हो गई। बल्कि उस आदमी के सामने मुझे पता चला कि मेरी बुद्धिमत्ता एक तरह की कनिगनेस है, और कुछ भी नहीं, सिर्फ एक चालाकी है, जिसमें मैंने कुछ सवालों के जवाब तय कर रखे हैं जिनके मैं जवाब दे देता हूं। लेकिन उस आदमी ने ऐसे सवाल पूछे जिनके जवाब मुझे पता ही नहीं थे। मुझे यह भी पता नहीं था कि यह भी सवाल है। और तब वह बहुत हंसने लगा। और अब उस आदमी के सामने मैं दुबारा न जा सकूंगा। क्योंकि उस आदमी के पास मेरी सारी बुद्धिमत्ता चालाकी से ज्यादा साबित नहीं हुई जो मैंने तैयार कर रखी थी।

ताओ की अपनी एक बुद्धिमत्ता है। जिस बुद्धिमत्ता में कुछ तैयार नहीं है। चीजें आती हैं और स्वीकार कर ली जाती हैं। पर जो भी होता है उसे होने दिया जाता है।

ताओ का व्यवहार तय करना कठिन है:

इसलिए बहुत, ताओ का व्यवहार तय करना बहुत कठिन है। हो सकता है कि आप किसी ताओ में स्थिर आदमी से कोई सवाल पूछें और वह जवाब न देकर आपको चांटा मार दे। क्योंकि वह यह कहेगा, यही हुआ! वह यह नहीं कहता कि आप न मारें, आप जवाब में मार सकते हैं और जो करना हो कर सकते हैं। लेकिन वह यह कहेगा, जो हो सकता था वह हुआ। और अगर उसके चांटे को समझा जाए तो शायद आपके लिए वही जवाब था।

सभी प्रश्न ऐसे नहीं कि उनके उत्तर दिए जाएं। बहुत प्रश्न ऐसे ही हैं जिनका चांटा ही अच्छा होगा। हमारे खयाल में नहीं आएगा एकदम से कि चांटा कैसे अच्छा हो सकता है।

एक ताओ फकीर के पास एक युवक पूछने गया है। वह उससे पूछता है कि ईश्वर क्या है? धर्म क्या है?

तो वह उसे उठाकर एक चांटा लगाता है और दरवाजा बंद करके बाहर कर देता है। तो वह बहुत परेशान होता है। वह बड़ी दूर से बड़ी पहाड़ी चढ़कर इसके पास आया। तो सामने ही एक दूसरे फकीर का झोपड़ा है, वह उसमें जाता है। और वह कहता है कि किस तरह का आदमी है यह! तो वह डंडा उठाता है वह फकीर। वह कहता है, यह आप क्या कर रहे हैं? तो उसने कहा कि तू बहुत दयालु आदमी के पास गया था। अगर हमारे पास तू आता तो हम डंडा ही मारते। वह आदमी सदा का दयालु है। तू वापस वहीं जा! उसकी बड़ी करुणा है। उसने इतना भी किया, यह कुछ कम नहीं है।

वह आदमी वापस लौटता है। वह कुछ समझ नहीं पाता कि क्या मामला है। दरवाजा खटखटाता है। वह आदमी फिर भीतर बुलाकर बड़े प्रेम से बिठा लेता है। उससे कहता है, पूछ! वह कहता है कि अभी मैं आया था तो आपने मुझे मारा और आप अब इतने प्रेम से बिठा रहे हैं! तो वह उससे कहता है, जो मार न सह सके, वह प्रेम तो सह ही न सकेगा। वह कहता है, जो मार न सह सके, वह प्रेम तो सह ही न सकेगा। क्योंकि प्रेम की मार तो बहुत कठिन है। मगर तू लौट आया, तो अब आगे बात चल सकती है। तो उसने कहा कि मैं तो डरकर भाग भी जा सकता था, वह तो सामनेवाले की करुणा है। तो उसने कहा, वह बड़ा कृपालु है। वह मुझसे ज्यादा कृपालु है। अगर तू उसके पास गया होता तो वह डंडा ही मार देता।

अब यह जो, यह जब बात सारी की सारी सारे जगत में पहुंची तो समझना बहुत मुश्किल हो गया कि यह सारा मामला क्या है! लेकिन चीजों के अपने आंतरिक नियम हैं, आंतरिक ताओ है चीजों का।

अब यह जरूरी नहीं है कि आप जब मुझसे प्रश्न पूछने आए हैं तो सच में प्रश्न ही पूछने आए हों। यह जरूरी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं है कि आपको उत्तर की ही जरूरत है। यह भी जरूरी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं है कि जो आपने पूछा है वही आप पूछने आए थे। यह भी जरूरी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं है कि जो आपने पूछा है यह आप पूछना ही चाहते हैं। यह भी जरूरी नहीं है। क्योंकि आपके पास भी बहुत चेहरे हैं। आप कुछ पूछना तय करके चलते हैं, कुछ रास्ते में हो जाता है, कुछ आप आकर पूछते हैं।

अब मेरे पास कई लोग आते हैं कि अगर मैं उनका दो मिनट प्रश्न छोड़ जाऊं, दूसरी बात करूं, फिर दुबारा वे घंटे भर बैठे रहेंगे, वे कभी वह नहीं पूछेंगे। जो आदमी एक प्रश्न पूछने आया था—मैंने उससे इतना ही पूछा. कैसे हो? ठीक हो? अच्छे हो? फिर मैंने पूछा कि कहो क्या है? वह गया। तो यह प्रश्न कितना गहरा हो सकता है? इसकी कितनी रूट्स हो सकती हैं? इस आदमी के व्यक्तित्व को कितनी इसकी जरूरत हो सकती है? उसको कोई जरूरत नहीं है। लेकिन आया यह ऐसे ही था जैसे कि बहुत जरूरी था इसको पूछना। जैसे इसके बिना पूछे यह जी न सकेगा।

ताओ की बुद्धिमत्ता—दर्पण की तरह:

तो ताओ की अपनी एक बुद्धिमत्ता है जो सीधा डायरेक्ट एक्‍शन में है। कुछ कहा नहीं जा सकता कि ताओ में थिर आदमी क्या करेगा। हो सकता है चुप रह जाए।

लाओत्से रोज घूमने जाता है। एक मित्र उसके साथ जाता है। वे दो घंटे तक घूमते हैं पहाड़ों पर, फिर लौट आते हैं। फिर एक मेहमान आया हुआ है। तो वह मित्र उसे लाता है और कहता है कि हमारे मेहमान हैं, आज ये भी चलेंगे। वे दोनों चुप हैं। लाओत्से चुप है, साथी चुप है, वह मेहमान भी चुप है। रास्ते में जब सूरज ऊगा तब वह इतना ही कहता है मेहमान कि कितनी अच्छी सुबह है! तब लाओत्से बहुत गुस्से से उस अपने मित्र की तरफ देखता है जो इस मेहमान को ले आया है। वह मित्र भी घबड़ा जाता है, वह मेहमान तो और भी घबड़ा जाता है कि ऐसी भी कोई मैंने बुरी बात भी नहीं कह दी। और घंटा भर हो गया चुप रहते, सिर्फ इतना ही कहा है कि कितनी अच्छी सुबह है।

फिर वे लौट आते हैं, घंटा और बीत जाता है, दरवाजे पर लाओत्से उस मित्र से कहता है, इस आदमी को दुबारा मत लाना। यह बहुत बकवासी मालूम होता है। वह मेहमान कहता है कि मैंने कोई बकवास नहीं की, दो घंटे में सिर्फ इतना कहा कि कितनी अच्छी सुबह है। लाओत्से कहता है, वह हमको भी दिखाई पड़ रही थी। वह निपट बकवास थी। सुबह हमको भी दिखाई पड़ रही थी। जो बात सभी को दिखाई पड़ रही थी, उसको कहने की क्या जरूरत है! और जो बात नहीं कहनी, तुम वह कह सकते हो, तुम आदमी ठीक नहीं हो। तुम कल से मत आना।

अब यह बात जरा सोचने जैसी है। असल में, जब आप सुबह देखकर कहते हैं कि कितनी अच्छी सुबह है, तब सच में आपको सुबह से कोई मतलब नहीं होता। आप सिर्फ एक चर्चा शुरू करना चाहते हैं। सुबह तो हम सबको दिखाई पड़ रही है। सुबह सुंदर है तो चुप रहिए। नहीं, सिर्फ आदमी खूंटी खोजता है। तो वह जो पूरा कासिकेंस है, लाओत्से पूरा पकड़ लेता है। वह कहता है, यह आदमी बकवासी है। इसने शुरुआत की थी, वह तो हम जरा ठीक आदमी नहीं थे, नहीं तो यह शुरू हो गया था। इसने ट्रेन तो चला दी थी। वह तो दो आदमियों ने सहयोग नहीं दिया इसलिए यह बेचारा चुप रह गया। इसने शुरुआत तो कर दी थी, इसने खूंटी गाड़ दी थी, अभी यह और सामान भी गाड़ता उसके ऊपर। यह आदमी बकवासी है।

अब यह इतनी सी बात कि सुबह सुंदर है, एक बकवासी आदमी के चित्त की सबूत हो सकती है। इससे ज्यादा उसने कुछ कहा ही नहीं। हमको भी लगता है कि लाओत्से ज्यादती कर रहा है। लेकिन मुझे नहीं लगता। वह ठीक ही कह रहा है। वह आदमी पकड़ लिया उसने। क्योंकि ताओ जो है उसकी अपनी बुद्धिमत्ता है, वह दर्पण की तरह है। वह चीजें जैसी हैं वैसी दिख जाती हैं। उसने पकड़ ली इस आदमी की तरकीब कि यह आदमी घंटे भर से बेचैन था, इसने कई तरकीबें लगाई होंगी, लेकिन दो आदमी बिलकुल चुप थे, वे कुछ बोल ही नहीं रहे थे! इसने कहा, क्या करें, क्या न करें! इसने कहा सुबह हो गई, अब इसने कहा कि सुबह बहुत सुंदर है। अब इसने चाहा था कि इनमें से कोई कुछ तो कहेगा कि ही, सुंदर है। अब इसमें तो कोई इनकार नहीं करेगा। तो बात शुरू हो जाएगी। फिर जो बात शुरू हो जाती है उसका कोई अंत नहीं है। तो लाओत्से ने कहा, यह है बकवासी, इसको तुम कल से लाना ही मत। इसने बीज तो बो दिया था, फसल तो हमने बचाई।

तो ताओ का एक अपना दर्पण है। जिसमें चीजें कैसी दिखाई पड़ेगी, यह सीधी चीजों को देखकर हम नहीं जानते। और चूंकि उसके पास अपना कोई बंधा हुआ उत्तर नहीं है, इसलिए बड़ी मुक्ति है। चूंकि कोई रेडीमेड बात नहीं है, इसलिए चीजें सरल और सीधी हैं और जाल कुछ भी नहीं है। लेकिन यह स्थिति पर खड़े होने की सारी बात है।

लाओत्से मेरे निकटतम है:

तो जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं उसे ताओ कहें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, ताओ से मेरे बड़े निकट लेन—देन हैं। और अगर किसी भी व्यक्ति के निकट मैं मालूम अपने को करता हूं तो वह लाओत्से के। वह शुद्धतम! उसने कभी जिंदगी में किताब नहीं लिखी। कितने लोगों ने कहा कि लिखें, लिखें, लिखें। फिर आखिरी उम्र में वह देश छोड्कर जा रहा है। और तब उसे चौकी पर, चुंगी चौकी पर पकड़वा लिया है राजा ने। और उसने कहा कि कर्ज चुका जाओ, ऐसे न जाने दूंगा। उसने कहा कि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। चुंगी देने के लिए तो मेरे पास कुछ है ही नहीं। टैक्स मैं किस बात का दूं! तो वह जो टैक्स कलेक्टर है, उसने कहा कि तुम्हारे सिर में जो है वह हम जाने न देंगे। उसे लिख जाओ। तुम भागे जा रहे हो, तुम्हारे पास बहुत संपदा है। तो उसने एक छोटी सी किताब लिखी है। यह ताओ तेह किंग। और यह भी अदभुत किताब है। क्योंकि कम ही ऐसे लोग हैं जो लिखते वक्त यह कहें कि जो मैं कहने जा रहा हूं वह कहा न जा सकेगा; और जो मैं कहूंगा वह सत्य हो ही नहीं सकता, क्योंकि कहते ही असत्य हो जाता है। सत्य न कहा जा सकेगा और जो मैं कहूंगा वह असत्य हो जाएगा, क्योंकि कहते ही चीजें असत्य हो जाती हैं।

तो इस आदमी के पास कुछ है, और इस आदमी ने कुछ जाना है, और यह आदमी कहीं पहुंचा है।

ध्यान + ताओ = झेन:

झेन की जो पैदाइश है, झेन जो है, वह ताओ और बुद्ध, लाओत्से और बुद्ध दोनों की क्रासब्रीड है, झेन जो है। इसलिए झेन का कोई मुकाबला नहीं है। झेन अकेला बुद्धिज्य नहीं है। हिंदुस्तान से बौद्ध भिक्षु लेकर गए ध्यान की प्रक्रिया को। लेकिन हिंदुस्तान के पास ताओ की पूरी दृष्टि न थी, पूरा फैलाव न था। ध्यान की प्रक्रिया थी, जो स्वभाव में घिर कर देती है। लेकिन स्वभाव में थिर होने की पूरी की पूरी व्यापक कल्पना हिंदुस्तान के पास नहीं थी। वह लाओत्से के पास थी। और जब हिंदुस्तान से बौद्ध भिक्षु ध्यान को लेकर चीन गए, और वहां जाकर ताओ की पूरी फिलॉसफी और पूरी दृष्टि उनके खयाल में आई, तो ध्यान और ताओ एक हो गए। इनसे जो पैदाइश हुई वह झेन है। इसलिए झेन न तो बुद्ध है, न झेन लाओत्से है। झेन बहुत ही अलग बात है। और इसलिए आज झेन की जो खूबी है जगत में वह किसी और बात की नहीं है। उसका कारण है कि दुनिया की दो अदभुत कीमती बातें—बुद्ध और लाओत्से—दोनों से पैदा हुई बात है। इतनी बड़ी दो हस्तियों के मिलन से कोई दूसरी बात पैदा नहीं हुई। तो उसमें ताओ का पूरा फैलाव है और ध्यान की पूरी गहराई है।

कठिन तो है जैसा आप कहते हैं, और सरल भी है। कठिन इसीलिए है कि हमारे सोचने के जो ढांचे हैं उनसे बिलकुल प्रतिकूल है। और सरल इसीलिए है कि स्वभाव सरल ही हो सकता है। उसमें कुछ कठिन होने की बात नहीं है।

तीव्र श्वास और कुंडलिनी का संबंध:

प्रश्न : ओशो तीव्र श्वास—प्रश्वास लेना और ‘ मैं कौन हूं ‘ पूछना इसका कुंडलिनी जागरण और चक्र— भेदन की प्रक्रिया से किस प्रकार का संबंध है?

 

संबंध है और बहुत गहरा संबंध है। असल में, श्वास से ही हमारी आत्मा और शरीर का जोड़ है, श्वास सेतु है। इसलिए श्वास गई कि प्राण गए। मस्तिष्क चला जाए तो चलेगा, आंखें चली जाएं तो चलेगा, हाथ—पैर कट जाएं तो चलेगा। श्वास कट गई कि गए; श्वास से जोड़ है हमारी आत्मा और शरीर का। और आत्मा और शरीर के मिलन का जो बिंदु है, वहीं कुंडलिनी है—उसी बिंदु पर! वहीं वह शक्ति है जिसको कुंडलिनी कहते हैं। नाम कुछ भी दिया जा सकता है। वह ऊर्जा वहीं है।

कुंडलिनी ऊर्जा के दो रूप:

और इसलिए उस ऊर्जा के दो रूप हैं। अगर वह कुंडलिनी की ऊर्जा शरीर की तरफ बहे, तो काम—शक्ति बन जाती है, सेक्स बन जाती है, और अगर वह ऊर्जा आत्मा की तरफ बहे, तो वह कुंडलिनी बन जाती है, या कोई और नाम दें। शरीर की तरफ बहने से वह अधोगामी हो जाती है और आत्मा की तरफ बहने से ऊर्ध्वगामी हो जाती है। पर जिस जगह वह है, उस जगह पर चोट श्वास से पड़ती है।

इसलिए तुम हैरान होओगे संभोग करते समय शांत श्वास को नहीं रखा जा सकता, संभोग करते वक्त श्वास की गति में तत्काल अंतर पड़ जाएगा। इसलिए कामातुर होते ही चित्त श्वास को तेज कर लेगा, क्योंकि उस बिंदु पर चोट श्वास करेगी तभी वहां से काम—शक्ति बहनी शुरू होगी। श्वास की चोट के बिना संभोग भी असंभव है और श्वास की चोट के बिना समाधि भी असंभव है। समाधि उसके ऊर्ध्वगामी बिंदु का नाम है और संभोग उसके अधोगामी बिंदु का नाम है। पर श्वास की चोट तो दोनों पर पडेगी।

श्वास और वासना का घनिष्ठ संबंध:

तो अगर चित्त काम से भरा हो, तब श्वास को धीमा करना, श्वास को शिथिल करना। जब चित्त में कामवासना घेरे, या क्रोध घेरे, या और कोई वासना घेरे, तो श्वास को शिथिल करना और कम करना और धीमी लेना। तो काम और क्रोध दोनों विदा हो जाएंगे, टिक नहीं सकते; क्योंकि जो ऊर्जा उनको चाहिए वह श्वास की बिना चोट पड़े नहीं मिल सकती।

इसलिए कोई आदमी क्रोध नहीं कर सकता, श्वास को धीमे लेकर। और करे तो वह चमत्कार है। करे तो बिलकुल चमत्कार है, साधारण घटना नहीं है। हो नहीं सकता, श्वास धीमी हुई कि क्रोध गया। कामोत्तेजित भी नहीं हो सकता श्वास को शांत रखकर, क्योंकि श्वास शांत हुई कि कामोत्तेजना गई।

तो जब कामोत्तेजित हो मन, क्रोध से भरे मन, तब श्वास को धीमी रखना, और जब ध्यान की अभीप्सा से भरे मन, तो श्वास की तीव्र चोट करना। क्योंकि जब ध्यान की अभीप्सा भीतर हो और श्वास की चोट पड़े, तो जो ऊर्जा है वह ध्यान की यात्रा पर निकलनी शुरू हो जाती है।

तीव्र श्वास की चोट से शक्ति जागरण:

तो कुंडलिनी पर गहरी श्वास का बहुत परिणाम है। प्राणायाम अकारण ही नहीं खोज लिया गया था। वह बहुत लंबे प्रयोग और अनुभवों से शात होना शुरू हुआ कि श्वास की चोट से बहुत कुछ किया जा सकता है; श्वास का आघात बहुत कुछ कर सकता है। और यह आघात जितना तीव्र हो, उतनी त्वरित गति होगी। और हम सब साधारणजनों में, जिनकी कुंडलिनी जन्मों—जन्मों से सोई है, उसको बड़े तीव्र आघात की जरूरत है; घने आघात की जरूरत है; सारी शक्ति इकट्ठी करके आघात करने की जरूरत है।

तो श्वास से तो कुंडलिनी पर चोट पड़नी शुरू होती है, मूल केंद्र पर चोट पड़नी शुरू होती है। और जैसे—जैसे तुम्हें अनुभव होना शुरू होगा, तुम बिलकुल आख बंद करके देख पाओगे कि श्वास की चोट कहां पड़ रही है। इसलिए अक्सर ऐसा हो जाएगा कि जब श्वास की तेज चोट पड़ेगी तो बहुत बार कामोत्तेजना भी हो सकती है। वह इसलिए हो सकती है कि तुम्हारे शरीर का एक ही अनुभव है, श्वास तेज पड़ने का और उस ऊर्जा पर चोट पड़ने का एक ही अनुभव है— सेक्स का। तो जो अनुभव है उस लीक पर शरीर फौरन काम करना शुरू कर देता है। इसलिए बहुत साधकों को, साधिकाओं को एकदम तत्काल यौन केंद्र पर चोट पड़नी शुरू हो जाती है।

गुरजिएफ के पास अनेक लोगों को ऐसा खयाल हुआ— और होना बिलकुल स्वाभाविक है— अनेक स्त्रियों को ऐसा खयाल हुआ कि उसके पास जाते ही से उनके यौन केंद्र पर चोट होती है। अब यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसकी वजह से गुरजिएफ को बहुत बदनामी मिली। इसमें उसका कोई कसूर न था। इसमें उसका कोई कसूर न था। असल में, ऐसे व्यक्ति के पास, जिसकी अपनी कुंडलिनी जाग्रत हो, तुम्हारी कुंडलिनी पर चोट होनी शुरू होती है, उसकी चारों तरफ की तरंगों से। लेकिन तुम्हारी कुंडलिनी तो अभी बिलकुल सेक्स सेंटर के पास सोई हुई होती है, इसलिए चोट वहीं पड़ती है, पहली चोट वहीं पडती है।

जागी हुई कुंडलिनी से चक्र सक्रिय:

श्वास तो गहरा परिणाम लानेवाली है, कुंडलिनी के लिए।

और सारे चक्र जिन्हें तुम कहते हो, वे सब कुंडलिनी के यात्रा—पथ के स्टेशन समझो; जहां—जहां से कुंडलिनी होकर गुजरेगी, वे स्थान। ऐसे तो बहुत स्थान हैं, इसलिए कोई कितने ही चक्र गिन सकता है, लेकिन बहुत मोटे विभाजन करें तो जहां कुंडलिनी थोड़ी देर ठहरेगी, विश्राम करेगी, वे स्थान हैं।

तो सब चक्रों पर परिणाम होगा। और जिस व्यक्ति का जो चक्र सर्वाधिक सक्रिय है, उस पर सबसे पहले परिणाम होगा। जैसे कि अगर कोई व्यक्ति मस्तिष्क से ही दिन—रात काम करता है, तो तेज श्वास के बाद उसका सिर एकदम भारी हो जाएगा। क्योंकि उसका जो मस्तिष्क का चक्र है, वह सक्रिय चक्र है। श्वास का पहला आघात सक्रिय चक्र पर पड़ेगा। उसका सिर एकदम भारी हो जाएगा। कामुक व्यक्ति है तो उसकी कामोत्तेजना बढ़ जाएगी; बहुत प्रेमी व्यक्ति है तो उसका प्रेम बढ़ जाएगा; भावुक व्यक्ति है तो भावना बढ़ जाएगी। उसका जो अपने व्यक्तित्व का केंद्र बहुत सक्रिय है, पहले उस पर चोट होनी शुरू हो जाएगी।

लेकिन तत्काल दूसरे केंद्रों पर भी चोट शुरू होगी। और इसलिए व्यक्तित्व में रूपांतरण भी तत्काल अनुभव होना शुरू हो जाएगा कि मैं बदल रहा हूं यह मैं वही आदमी नहीं हूं जो कल तक था। क्योंकि हमें आदमी का पता ही नहीं है कि हम कितने हैं; हमें तो पता है उसी चक्र का जिस पर हम जीते हैं। जब दूसरा चक्र हमारे भीतर खुलता है तो हमें लगता है कि हमारा व्यक्तित्व गया, यह तो हम दूसरे आदमी हुए; यह हम अब वह आदमी नहीं हैं जो कल तक थे। यह ऐसे ही है, जैसे कि इस मकान में हमें इसी कमरे का पता हो, यही कमरे का नक्‍शा हो हमारे दिमाग में। अचानक एक दरवाजा खुले और एक और कमरा हमें दिखाई पड़े, तो हमारा पूरा नक्‍शा बदलेगा। अब जिसको हमने अपना मकान समझा था, अब वह दूसरा हो गया। अब एक नई व्यवस्था उसमें हमें देनी पडे।

सक्रिय केंद्रों से नये व्यक्तित्व का आविर्भाव:

तो तुम्हारे जिन—जिन केंद्रों पर चोट होगी, वहां—वहां से व्यक्तित्व का नया आविर्भाव होगा। और जब सारे केंद्र सक्रिय होते हैं एक साथ, उसका मतलब है कि जब सबके भीतर से ऊर्जा एक सी प्रवाहित होती है, तब पहली दफे तुम अपने पूरे व्यक्तित्व में जीते हो। हममें से कोई भी अपने पूर व्यक्तित्व में साधारणत: नहीं जीता। और हमारे ऊपर के केंद्र तो अछूते रह जाते हैं। तो श्वास से इन केंद्रों पर भी चोट पड़ेगी।

और ‘ मैं कौन हूं’ का जो प्रश्न है, वह भी चोट करनेवाला है, वह दूसरी दिशा से चोट करनेवाला है। इसे थोड़ा समझो। श्वास से तो खयाल में आया। अब ‘ मैं कौन हूं ‘, इससे कुंडलिनी पर कैसे चोट होगी?

यह कभी हमारे खयाल में नहीं है। तुम आख बंद कर लो, और एक नग्न स्त्री का चित्र सोचो। तुम्हारा सेक्स सेंटर फौरन सक्रिय हो जाएगा। क्यों? तुम सिर्फ एक कल्पना कर रहे हो, तुम्हारा सेक्स सेंटर क्यों सक्रिय हो गया?

असल में, प्रत्येक सेंटर की अपनी कल्पना है। समझे न? प्रत्येक सेंटर की अपनी इमेजिनेशन है। और अगर उसकी इमेजिनेशन के करीब तुमने इमेजिनेशन करनी शुरू की तो वह सेंटर तत्काल सक्रिय हो जाएगा। इसलिए कामवासना का विचार करते ही तुम्हारा सेक्स सेंटर वर्क करना शुरू कर देगा।

और तुम हैरान होओगे नग्न स्त्री हो सकता है इतनी प्रभावी न हो, जितना नग्न स्त्री का विचार प्रभावी होगा। उसका कारण है कि नग्न स्त्री का विचार तो तुम्हें कल्पना में ले जाएगा और कल्पना चोट करेगी। और नग्न स्त्री तुम्हें कल्पना में नहीं ले जाएगी, वह तो प्रत्यक्ष खड़ी है। इसलिए प्रत्यक्ष जितनी चोट कर सकती है, करेगी। कल्पना भीतर से चोट करती है तुम्हारे सेंटर पर, प्रत्यक्ष स्त्री सामने से चोट करती है। सामने की चोट उतनी गहरी नहीं है, जितनी भीतर की चोट गहरी है।

इसलिए बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि स्त्री के सामने तो इंपोटेंट सिद्ध होंगे, लेकिन कल्पना में बहुत पोर्टेट हैं वे। कल्पना में उनकी पोटेंसी का कोई हिसाब नहीं है। क्योंकि कल्पना की जो चोट है वह तुम्हारे भीतर से जाकर सेंटर को छूती है। प्रत्यक्ष की जो चोट है वह भीतर से जाकर नहीं छूती, बाहर से तुम्हें सीधा छूती है। और मनुष्य चूकि मन में जीता है, इसलिए मन से ही गहरी चोटें कर पाता है।

‘मैं कौन हूं?’ एक अस्तित्वगत सवाल:

तो जब तुम पूछते हो ‘ मैं कौन हूं?’ तो तुम एक जिज्ञासा कर रहे हो, एक जानने की कल्पना कर रहे हो; एक प्रश्न उठा रहे हो। यह प्रश्न तुम्हारे किस सेंटर को छुएगा? यह प्रश्न तुम्हारे किसी सेंटर को छुएगा। जब तुम यह प्रश्न पूछते हो, जब तुम इसकी जिज्ञासा करते हो, इसकी अभीप्सा से भरते हो, और तुम्हारा रोआं—रोआं पूछने लगता है ‘ मैं कौन हूं?’ तब तुम भीतर जा रहे हो, और भीतर किसी केंद्र पर चोट होनी शुरू होगी। ‘ मैं कौन हूं’, ऐसा प्रश्न जो पूछा ही नहीं तुमने कभी। इसलिए तुम्हारे किसी ज्ञात सक्रिय केंद्र पर उसकी चोट नहीं होनेवाली है। समझे न? तुमने कभी पूछा ही नहीं है उसे, उसकी अभीप्सा ही कभी तुमने नहीं की। तुमने अक्सर पूछा है वह कौन है? यह कौन है? तुमने ये सारे प्रश्न पूछे हैं। लेकिन ‘ मैं कौन हूं’, यह अनपूछा प्रश्न है। यह तुम्हारे बिलकुल अज्ञात केंद्र को चोट करेगा, जिस पर तुमने कभी चोट नहीं की है। और वह अज्ञात केंद्र, जहां ‘ मैं कौन हूं’, चोट करेगा, बहुत बेसिक है, क्योंकि यह प्रश्न बहुत बेसिक है, बहुत आधारभूत प्रश्न है कि ‘ मैं कौन हूं?’ बहुत एक्सिस्टेंशियल है यह सवाल। यह पूरे अस्तित्व की गहराई का सवाल है कि मैं हूं कौन?

यह मुझे वहां ले जाएगा जहां मैं जन्मों के पहले था; यह मुझे वहां ले जाएगा जहां जन्मों—जन्मों के पहले था। यह मुझे वहां ले जा सकता है जहां कि मैं आदि में था। इस प्रश्न की गहराई का कोई हिसाब नहीं है। इसकी यात्रा बहुत गहरी है। इसलिए तुम्हारा जो मूल, गहरे से गहरा केंद्र है कुंडलिनी का, वहा इसकी तत्काल चोट होनी शुरू होगी।

चोट करने के विभिन्न उपाय:

श्वास फिजियोलाजिकल चोट है, और ‘ मैं कौन हूं यह मेंटल चोट है। यह तुम्हारी माइंड एनर्जी से चोट पहुंचाना है, और वह तुम्हारी बॉडी एनर्जी से चोट पहुंचाना है। और अगर ये दोनों चोट पूरे जोर से पड़ जाएं.. तो दो ही रास्ते हैं वहां तक चोट पहुंचाने के तुम्हारे पास सामान्यतया। और तरकीबें भी हैं, लेकिन वे जरा उलझी हुई हैं। दूसरा आदमी तुम्हें सहयोगी हो सकता है। इसलिए तुम अगर मेरे सामने करोगे तो तुम्हें चोट जल्दी पहुंच जाती है, क्योंकि तीसरी दिशा से भी चोट पहुंचनी शुरू होती है, जिसका तुम्हें खयाल नहीं है, वह एस्ट्रल है। यह बॉडिली है, जब तुम श्वास गहरी लेते हो; और जब तुम पूछते हो, ‘ मैं कौन हूं?’ तब यह मेंटल है। और अगर तुम एक ऐसे व्यक्ति के पास बैठे हो, जिससे कि तुम्हारे एस्ट्रल को चोट पहुंच सके, तुम्हारे सूक्ष्म शरीर को चोट पहुंच सके, तो एक तीसरी यात्रा शुरू हो जाती है। इसलिए अगर यहां पचास लोग ध्यान करेंगे तो तीव्रता से होगा बजाय एक के, क्योंकि पचास लोगों की तीव्र आकांक्षाएं और पचास लोगों की तीव्र श्वासों का संवेदन इस कमरे को एस्ट्रल एटमास्फियर से भर देगा; यहां नई तरह की विद्युत किरणें चारों तरफ घूमने लगेंगी। और वे भी तुम्हें चोट पहुंचाने लगेंगी।

पर तुम्हारे पास साधारणत: दो सीधे उपाय हैं शरीर का और मन का। तो ‘ मैं कौन हूं ‘ गहरी चोट करेगा, श्वास से भी गहरी करेगा। श्वास से इसलिए हम शुरू करते हैं कि वह शरीर की है; उसे करने में ज्यादा कठिनाई नहीं है। समझे न? ‘मैं कौन हूं’ थोड़ा कठिन है, क्योंकि मन का है। शरीर से शुरू करते हैं। और जब शरीर पूरी तरह से वाइब्रेट होने लगता है, तब तुम्हारा मन भी इस योग्य हो जाता है कि पूछने लगे। फिर पूछने की एक ठीक सिचुएशन चाहिए।

हर कभी तुम ‘ मैं कौन हूं, पूछोगे तो नहीं बनेगा काम। सब सवालों के लिए भी ठीक स्थितियां चाहिए, जब वे पूछे जा सकते हैं। जैसे कि जब तुम्हारा पूरा शरीर कंपने लगता है और डोलने लगता है, तब तुम्हें खुद ही सवाल उठता है कि यह हो क्या रहा है? यह मैं कर रहा हूं? यह मैं तो नहीं कर रहा हूं—यह सिर मैं नहीं घुमा रहा हूं; यह पैर मैं नहीं उठा रहा हूं यह नाचना मैं नहीं कर रहा हूं— लेकिन यह हो रहा है। और अगर यह हो रहा है तो तुम्हारी जो आइडेंटिटी है सदा की कि यह शरीर मैं हूं वह ढीली पड़ गई। अब तुम्हारे सामने एक नया सवाल उठ रहा है कि फिर मैं कौन हूं? अगर यह शरीर कर रहा है और मैं नहीं कर रहा, तो अब एक नया सवाल है कि कर कौन रहा है? फिर तुम कौन हो अब?

तो यह ठीक सिचुएशन है जब इस छेद में से तुम्हारा ‘ मैं कौन हूं’ का प्रश्न गहरा उतर सकता है। तो उस ठीक मौके पर उसे पूछना जरूरी है। असल में, हर प्रश्न का भी ठीक वक्त है। और ठीक वक्त खोजना बड़ी कीमती बात है। हर कभी पूछ लेने का सवाल नहीं है उतना बड़ा। तुम अगर अभी बैठकर पूछ लो कि मैं कौन हूं? तो यह हवा में घूम जाएगा, इसकी चोट कहीं नहीं होगी। क्योंकि तुम्हारे भीतर जगह चाहिए न जहां से यह प्रवेश कर जाए! रंध्र चाहिए!

कुंडलिनी जागरण पर अतींद्रिय अनुभव:

इन दोनों की चोट से कुंडलिनी जगेंगी। और उसका जागरण जब होगा तो अनूठे अनुभव शुरू हो जाएंगे। क्योंकि उस कुंडलिनी के साथ तुम्हारे समस्त जन्मों के अनुभव जुड़े हुए हैं— जब तुम वृक्ष थे, तब के भी, और जब तुम मछली थे, तब के भी, और जब तुम पक्षी थे, तब के भी। तुम्हारे अनंत—अनंत योनियों के अनुभव उस पूरे यात्रा—पथ पर पड़े हैं। तुम्हारी उस कुंडल शक्ति ने उन सब को आत्मसात किया है।

इसलिए बहुत तरह की घटनाएं घट सकती हैं। उन अनुभवों के साथ तादात्म्य जुड़ सकता है। और किसी भी तरह की घटना घट सकती है। और इतने सूक्ष्म अनुभव तुममें जुड़े हैं….. .क्योंकि तुम्हें खयाल नहीं है. एक वृक्ष खड़ा हुआ है बाहर। अभी हवा चली जोर से, वर्षा हुई। वृक्ष ने जैसा वर्षा को जाना, वैसा हम कभी न जान सकेंगे। कैसे जान सकेंगे? वृक्ष ने जैसा जाना वर्षा को, वैसा हम कभी न जान सकेंगे! हम वृक्ष के पास भी खड़े हो जाएं तो हम न जान सकेंगे। हम वैसा ही जानेंगे जैसा हम जान सकते हैं। लेकिन कभी तुम वृक्ष भी रहे हो अपनी किसी जीवन—यात्रा में। और अगर कुंडलिनी उस जगह पहुंचेगी, उस अनुभूति के पास जहां वह संगृहीत है वृक्ष की अनुभूति, तो तुम अचानक पाओगे कि वर्षा हो रही है और तुम वह जान रहे हो जो वृक्ष जान रहा है। तब तुम बहुत घबड़ा जाओगे। तब तुम बहुत घबड़ा जाओगे कि यह क्या हो रहा है! तब तुम समझ पाओगे कि जो सागर अनुभव कर रहा है वह तुम अनुभव कर पाओगे, जो हवाएं अनुभव कर रही हैं वह तुम अनुभव कर पाओगे। इसलिए तुम्हारी एस्थेटिक न मालूम कितनी संभावनाएं खुल जाएंगी जो तुम्हें कभी भी नहीं थीं खयाल में।

जैसे कि गोगा का एक चित्र है : एक वृक्ष है और आकाश को छू रहा है! तारे नीचे रह गए हैं और वृक्ष बढ़ता ही चला जा रहा है! चांद नीचे पड़ गया है, सूरज नीचे पड़ गया है, छोटे—छोटे रह गए हैं, और वृक्ष ऊपर चलता जा रहा है। तो किसी ने कहा कि तुम पागल हो गए हो! वृक्ष कहीं ऐसे होते हैं? चांद—तारे नीचे पड़ गए हैं और वृक्ष ऊपर चला जा रहा है! तो गोगा ने कहा कि तुमने कभी वृक्ष को जाना ही नहीं, तुमने कभी वृक्ष के भीतर नहीं देखा। मैं उसको भीतर से जानता हूं। नहीं बढ़ पाता चांद—तारों के पार, यह बात दूसरी है, बढ़ना तो चाहता है। नहीं बढ़ पाता, यह बात दूसरी है, अभीप्सा तो यही है। उसने कहा, मैं तो कभी सोच ही नहीं सकता। मजबूरी है, नहीं बहू पाता, लेकिन भीतर प्राण तो सब चांद—तारे पार करते चले जाते हैं।

तो गोगा कहता था कि वृक्ष जो है वह पृथ्वी की आकांक्षा है आकाश को छूने की; पृथ्वी की डिजायर है, पृथ्वी अपने हाथ—पैर बढ़ा रही है आकाश को छूने के लिए। पर वैसा जब देख पाएंगे। मगर वह वृक्ष.. .फिर भी वृक्ष जैसा देखेगा, वैसा फिर भी हम नहीं देख पाएंगे।

पर ये सब हम रहे हैं, इसलिए कुछ भी होगा। और जो हम हो सकते हैं, उसकी भी संभावनाएं अनुभव में आनी शुरू हो जाएंगी। जो हम रहे हैं, वह तो अनुभव में आएगा; जो हम हो सकते हैं कल, उसकी संभावनाएं भी आनी शुरू हो जाएंगी।

और तब कुंडलिनी के यात्रा—पथ पर प्रवेश करने के बाद हमारी कहानी व्यक्ति की कहानी नहीं है, समस्त चेतना की कहानी हो जाती है। अरविंद इसी भाषा में बोलते थे, इसलिए बहुत साफ नहीं हो पाया मामला। तब फिर एक व्यक्ति की कहानी नहीं है वह, तब फिर कांशसनेस की कहानी है। तब तुम अकेले नहीं हो। तुममें अनंत हैं भीतर जो बीत गए, और तुममें अनंत हैं आगे जो प्रकट होंगे। एक बीज जो खुलता ही जा रहा है और मेनिफेस्ट होता चला जा रहा है, और जिसका कोई अंत नहीं दिखाई पड़ता। और जब इस तरह ओर—छोर हीन तुम अपने विस्तार को देखोगे—पीछे अनंत और आगे अनंत—तब स्थिति और हो जाएगी; तब सब बदल जाता है। और वे सब के सब कुंडलिनी पर छिपे हैं।

बहुत से रंग खुल जाएंगे जो तुमने कभी नहीं देखे। असल में, इतने रंग बाहर नहीं हैं जितने रंग तुम्हारे भीतर तुम्हें अनुभव में आ सकते हैं। क्योंकि वे रंग तुमने कभी जाने हैं, और—और तरह से जाने हैं। जब एक चील आकाश के ऊपर मंडराती है तो रंगों को और ढंग से देखती है; हम और ढंग से देखते हैं। अभी तुम जाओगे वृक्षों के पास से तो तुम्हें सिर्फ हरा रंग दिखाई पड़ता है; लेकिन जब एक चित्रकार जाता है तो उसे हजार तरह के हरे रंग दिखाई पड़ते हैं। हरा रंग एक रंग नहीं है, उसमें हजार शेड हैं; और कोई दो शेड एक से नहीं हैं, उनका अपना—अपना व्यक्तित्व है। हमको तो सिर्फ हरा रंग दिखाई पड़ता है। हरा रंग, बात खतम हो गई। एक मोटी धारणा है हमारी, बात खतम हो गई। हरा रंग एक रंग नहीं है, हरा रंग हजार रंग हैं—हर रंग में हजार रंग हैं। और जितनी उसकी बारीक से.. ….जब तुम भीतर प्रवेश करोगे तो वहां तुमने हजारों बारीक अनुभव किए हैं।

सूक्ष्म अनुभवों का लोक:

मनुष्य जो है, इंद्रियों की दृष्टि से बहुत कमजोर प्राणी है, सारे पशु—पक्षी बहुत शक्तिशाली हैं; उनकी अनुभूति और उनके अनुभव की गहराइयां—ऊंचाइयां बहुत हैं। कमी है कि उनको सबको पकड़कर वे चेतन में विचार नहीं कर पाते। लेकिन उनकी अनुभूतियां बहुत गहरी हैं; उनके संवेदन बहुत गहरे हैं।

अब जापान में एक चिड़िया है— आम चिड़िया— जो भूकंप के चौबीस घंटे पहले गांव छोड़ देगी। बस वह चिड़िया नहीं दिखाई पड़ेगी गांव में, समझो कि चौबीस घंटे के भीतर भूकंप आया। अभी हमारे पास जो यंत्र हैं, वे भी छह घंटे के पहले नहीं खबर दे पाते। और फिर भी बहुत सुनिश्चित नहीं है वह खबर। लेकिन उस चिड़िया का मामला तो सुनिश्चित है। और इतनी आम चिड़िया है कि गांव भर को पता चल जाए कि चिड़िया आज दिखाई नहीं पड़ रही, तो चौबीस घंटे के भीतर भूकंप पड़नेवाला है। उसका मतलब है कि भूकंप से पैदा होनेवाले अतिसूक्ष्म वाइब्रेशंस उस चिड़िया को किसी न किसी तल पर अनुभव होते हैं; वह गांव छोड़ देती है।

अब तुम कभी अगर यह चिड़िया रहे हो, तो तुम्हारी कुंडलिनी के यात्रा—पथ पर तुम्हें ऐसे वाइब्रेशंस होने लगेंगे जो तुम्हें कभी नहीं हुए। मगर तुम्हें कभी हुए हैं, तुम्हें पता नहीं, खयाल में नहीं। तभी हो सकते हैं।

तुम्हें ऐसे रंग दिखाई पड़ने लगेंगे जो तुमने कभी नहीं देखे हैं; तुम्हें ऐसी ध्वनियां सुनाई पड़ने लगेंगी, जिसको कबीर कहते हैं नाद। कबीर कहते हैं, अमृत बरस रहा है, साधुओं, नाचो! तो वे साधु पूछते हैं, कहां अमृत बरस रहा है? और वह अमृत कहीं बाहर नहीं बरस रहा है। और कबीर कहते हैं, सुना? नाद बज रहे हैं, बड़े नगाड़े बज रहे हैं। पर साधु पूछते हैं, कहां बज रहे हैं? और कबीर कहते हैं, तुम्हें सुनाई नहीं पड़ रहे?

अब वह कबीर को जो सुनाई पड़ रहा है, वे नाद तुम्हें सुनाई पड़ेंगे, ध्वनियां सुनाई पड़ेगी। ऐसे स्वाद आने शुरू होंगे जो तुम्हें कभी कल्पना में नहीं कि ये स्वाद हो सकते हैं।

तो सूक्ष्म अनुभूतियों का बड़ा लोक कुंडलिनी के साथ जुड़ा है, वह सब जग जाएगा, और सब तरफ से तुम पर हमला बोल देगा। और इसलिए अक्सर ऐसी स्थिति में आदमी पागल मालूम पड़ने लगता है। क्योंकि जब हम सब बैठे थे गंभीर तब वह हंसने लगता है, क्योंकि उसे कुछ दिखाई पड़ रहा है जो हमें दिखाई नहीं पड़ रहा; कि जब हम सब हंस रहे थे तब वह रोने लगता है, क्योंकि कुछ उसे हो रहा है जो हमें नहीं हो रहा।

शक्तिपात से ऊर्जा का नियंत्रित अवतरण:

इन सबकी सामान्य मनुष्य के पास चोट करने के दो उपाय हैं, और असामान्य रूप से जिसको शक्तिपात कहें, वह तीसरा उपाय है; वह एस्ट्रल है। उसमें कोई माध्यम चाहिए। उसमें दूसरा व्यक्ति सहयोगी हो, तो तुम्हारे भीतर तीव्रता बढ़ जा सकती है। और उस स्थिति में दूसरा व्यक्ति कुछ करता नहीं, सिर्फ उसकी मौजूदगी काफी है। वह सिर्फ एक मीडियम बन जाता है। अनंत शक्ति चारों तरफ पड़ी हुई है। अब जैसे कि हम घर के ऊपर लोहे की सलाख लगाए हुए हैं कि बिजली गिरे तो घर के नीचे चली जाए। सलाख न हो तब भी बिजली गिर सकती है, तब पूरे घर को तोड़ जाएगी। सलाख से पार हो जाएगी। लेकिन सलाख अभी हमको खयाल में आई है, बिजली बहुत पहले से गिरती रही है; बिजली का शक्तिपात बहुत दिनों से हो रहा है, सलाख हमें अब खयाल आई है।

तो अनंत शक्तियां हैं चारों तरफ मनुष्य के, उनका भी उपयोग किया जा सकता है उसके आध्यात्मिक विकास में। उन सबका उपयोग किया जा सकता है। लेकिन कोई माध्यम हो। तुम खुद भी माध्यम बन सकते हो। लेकिन प्राथमिक रूप से माध्यम बनना खतरनाक हो सकता है। क्योंकि इतना बड़ा शक्तिपात हो सकता है कि तुम उसे न झेल पाओ, बल्कि तुम्हारे कुछ तंतु जाम हो जाएं या टूट ही जाएं। क्योंकि शक्ति का एक वोल्टेज है, और वह तुम्हारे सहने की क्षमता के अनुकूल होना चाहिए। तो दूसरे व्यक्ति के माध्यम से तुम्हारे अनुकूल बनाने की सुविधा हो जाती है कि अगर एक दूसरा व्यक्ति उन शक्तियों का तुम्हारे ऊपर अवतरण कराना चाहता है, तो उस पर अवतरण हो चुका है, तभी। तब वह उतनी धारा में तुम तक पहुंचा सकता है जितनी धारा में तुम्हें जरूरत है।

और इसके लिए कुछ भी नहीं करना होता है; इसके लिए सिर्फ मौजूदगी जरूरी है बस। तब वह एक कैटेलेटिक एजेंट की तरह काम करता है। वह कुछ करता नहीं है। इसलिए कोई अगर कहता हो कि मैं शक्तिपात करता हूं तो वह गलत कहता है, कोई शक्तिपात करता नहीं। लेकिन हां, किसी की मौजूदगी में शक्तिपात हो सकता है।

शक्ति जागरण और शक्तिपात में अंतर:

और इधर मैं सोचता हूं जरा इधर साधक थोड़ी गहराई लें, तो वह यहां होने लगेगा बड़े जोर से। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। किसी को करने की कोई जरूरत नहीं है, वह होने लगेगा। बस तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारे भीतर कुछ और तरह की शक्ति प्रवेश कर गई है जो कहीं बाहर से आ गई है, जिसका कि तुम.. .तुम्हारे भीतर से नहीं आई।

तुम्हें कुंडलिनी का जब भी अनुभव होगा, तो तुम्हारे भीतर से उठता हुआ मालूम होगा; और जब तुम्हें शक्तिपात का अनुभव होगा, तो तुम्हारे बाहर से, ऊपर से आता हुआ मालूम होगा। यह इतना ही साफ होगा, जैसा कि ऊपर से आपके पानी गिरे और नीचे से पानी बढ़े—नदी में खड़े हैं और पानी बढ़ता जा रहा है, और नीचे से पानी ऊपर की तरफ आता जा रहा है, और आप डूब रहे हो।

तो कुंडलिनी का अनुभव सदा डूबने का होगा—नीचे से कुछ बढ़ रहा है और तुम उसमें डूबे जा रहे हो, कुछ तुम्हें घेरे ले रहा है। लेकिन शक्तिपात का जब भी तुम्हें अनुभव होगा तो वर्षा का होगा। वह जो कबीर कह रहे हैं कि अमृत बरस रहा है, साधुओ! पर वे साधु पूछते हैं, कहां बरस रहा है? वह ऊपर से गिरने का होगा। और तुम उसमें भीगे जा रहे हो। और ये दोनों अगर एक साथ हो सकें तो गति बहुत तीव्र हो जाती है— ऊपर से वर्षा हो रही है और नीचे से नदी बढ़ी जा रही है। इधर नदी का पूर आता है, इधर वर्षा बढ़ती जा रही है— और दोनों तरफ से तुम डूबे जा रहे हो और मिटे जा रहे हो। यह दोनों तरफ से हो सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

शक्तिपात निजी संपदा नहीं है:

प्रश्न: ओशो शक्तिपात का प्रभाव अल्पकालीन होता है या दीर्घकालीन होता है? वह अंतिम यात्रा तक ले जाता है या अनेक बार शक्तिपात की आवश्यकता होती है?

सल बात यह है कि दीर्घकालीन तो तुम्हारे भीतर जो उठ रहा है उसका ही होगा; शक्तिपात जो है, वह सिर्फ सहयोगी हो सकता है, मूल नहीं बन सकता कभी भी। मूल नहीं बन सकता। तुम्हारे भीतर जो रहा है वही मूल बनेगा। संपत्ति तो तुम्हारी वही है। असली संपत्ति तुम्हारी वही है। शक्तिपात से तुम्हारी संपत्ति नहीं बढ़ेगी, शक्तिपात से तुम्हारी संपत्ति के बढ़ने की क्षमता बढ़ेगी। इस फर्क को ठीक से समझ लेना। शक्तिपात से तुम्हारी संपदा नहीं बढ़ेगी, लेकिन तुम्हारी संपदा के बढ़ने की जो गति है, तुम्हारी संपदा के फैलाव की जो गति है, वह तीव्र हो जाएगी।

इसलिए शक्तिपात तुम्हारी संपदा नहीं है। यानी ऐसे ही जैसे तुम दौड़ रहे हो, और मैं एक बंदूक लेकर तुम्हारे पीछे लग गया। बंदूक लेकर लगने से मेरी बंदूक तुम्हारे दौड़ने की संपत्ति नहीं बननेवाली, लेकिन मेरी बंदूक की वजह से तुम तेजी से दौड़ोगे। दौड़ोगे तुम ही, शक्ति तुम्हारी ही लगेगी, लेकिन जो नहीं लग रही थी तुम्हारे भीतर वह भी अब लग जाएगी। बंदूक का इसमें कोई भी हाथ नहीं है। बंदूक में से इंच भर शक्ति नहीं खोएगी इसमें। बंदूक की नाप—तौल पीछे करोगे तो वह उतनी की उतनी ही रहेगी। उसमें से कुछ जाने— आनेवाला नहीं है। लेकिन तुम उस बंदूक के प्रभाव में तीव्र हो जाओगे, जहां चल रहे थे धीमे, वहां दौडने लगोगे।

शक्तिपात से अंतर्यात्रा में प्रोत्साहन:

तो शक्तिपात से तुम्हारी संपत्ति नहीं बढ़ती, लेकिन तुम्हारी संपत्ति की बढ़ने की क्षमता एकदम गतिमान हो जाती है। क्योंकि एक दफा तुम्हें.. .एक दफा तुम्हें अनुभव हो जाए, बिजली चमक जाए एक.. .बिजली चमकने से तुम्हें कोई रास्ता प्रकाशित नहीं हो जाता; हाथ में दीया नहीं बन जाता है बिजली का चमकना, सिर्फ एक झलक। लेकिन झलक बड़ी कीमत की हो जाती है—तुम्हारे पैर मजबूत हो जाते हैं, इच्छा प्रबल हो जाती है, पहुंचने की कामना तय हो जाती है, रास्ता दिखाई पड़ जाता हैं—रास्ता है, तुम यूं ही अंधेरे में नहीं भटक रहे हो। यह सब साफ एक बिजली की झलक में तुम्हें रास्ता दिख जाता है, दूर तुम्हें मंदिर दिख जाता है तुम्हारी मंजिल का।

फिर बिजली खो गई, फिर घुप्प अंधेरा हो गया, लेकिन अब तुम दूसरे आदमी हो। वहीं खड़े हो जहां थे, लेकिन दौड़ तुम्हारी बढ़ जाएगी। मंजिल पास है, रास्ता साफ है—न भी दिखाई पड़ता हो अंधेरे में, तो भी है। अब तुम आश्वस्त हो। तुम्हारा आश्वासन बढ़ जाता है। और तुम्हारे आश्वासन का बढ़ना तुम्हारे संकल्प को बढ़ा देता है।

तो इनडायरेक्ट परिणाम हैं। और इसलिए बार—बार जरूरत पड़ती है, एक बार से हल नहीं होता। बिजली दुबारा चमक जाए तो और फायदा होगा, तिबारा चमक जाए तो और फायदा होगा। पहली बार कुछ चूक गया होगा, न दिखाई पड़ा होगा, दूसरी बार दिख जाए, तीसरी बार दिख जाए! और इतना तो है कि आश्वासन गहरा होता जाएगा।

तो शक्तिपात से अंतिम परिणाम हल नहीं होता, अंतिम परिणाम तक तुम्हें पहुंचना है। और शक्तिपात के बिना भी पहुंच सकोगे। थोड़ी देर—अबेर होगी, इससे ज्यादा कुछ होना नहीं है। थोड़ी देर—अबेर होगी, अंधेरे में आश्वासन कम होगा, चलने में ज्यादा हिम्मत जुटानी पड़ेगी, ज्यादा बल लगाना पड़ेगा— भय पकड़ेगा, संकल्प—विकल्प पकड़ेंगे; पता नहीं, रास्ता है या नहीं— यह सब होगा, लेकिन फिर भी पहुंच जाओगे।

लेकिन शक्तिपात सहयोगी बन सकता है।

सामूहिक शक्तिपात भी संभव:

तो इधर मैं चाहता ही हूं तुम्हारी जरा गति बढ़े, तो एकाध—दो पर क्या, इकट्ठा, सामूहिक! एक—दो पर क्या करने का काम करना, इकट्ठा दस हजार लोगों को खड़ा करके शक्तिपात हो, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। क्योंकि जितना एक पर होने में वक्त लगता है, उतना ही दस हजार पर। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

शक्तिपात स्थायी नहीं है:

प्रश्न: ओशो यदि संबंध न रहे मीडियम से तो इसका प्रभाव धीरे— धीरे घटते— घटते मिट भी जाता होगा?

म तो होगा ही। सब प्रभाव क्षीण होनेवाले होते हैं। असल में, प्रभाव का मतलब ही यह है जो बाहर से आया है, वह क्षीण हो जाएगा। जो भीतर से आया, वह क्षीण नहीं होगा; वह तुम्हारा अपना है। प्रभाव तो सब घटनेवाले हैं, वे घट जाते हैं; लेकिन जो तुम्हारे भीतर से आता है वह नहीं घटता। उस प्रभाव में भी जो आ जाता है वह भी नहीं घटता; वह तो बना रह जाता है। तुम्हारी मूल संपत्ति नहीं घटती, प्रभाव तो घट जाता है।

विकास—क्रम में पीछे लौटना असंभव:

प्रश्न: ओशो क्या दूसरों के असर से जो थोड़ा— बहुत ऊपर उठा हो वह नीचे भी गिर सकता है?

नहीं, नीचे की तरफ जाने का उपाय नहीं है। असल में, इस बात को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। यह बड़े मजे की बात है, यह बहुत मजे की बात है कि नीचे की तरफ जाने का उपाय नहीं है। तुम जहां तक गई हो, तुम्हें उससे ऊंचा ले जाने में तो सहायता पहुंचाई जा सकती है; तुम्हें वहीं तक ठहराने में भी बाधा डाली जा सकती है; तुम्हें उससे नीचे नहीं ले जाया जा सकता। उसका कारण है कि उसके ऊंचे जाने में तुम बदल गई हो तत्काल।

(प्रश्न का ध्वनि— मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

, न, न। कोई सवाल ही नहीं उठता है। एक इंच भी कोई व्यक्तित्व में ऊपर गया, तो पीछे नहीं लौट सकता; पीछे लौटना असंभव है। यह मामला ऐसा ही है कि किसी बच्चे को हम पहली कक्षा से दूसरी में प्रवेश करवा सकते हैं। एक टयूटर रख सकते हैं जो उसको पहली में पढ़ाने में सहायता दे दे और दूसरी में पहुंचा दे। लेकिन ऐसा टयूटर खोजना बहुत मुश्किल है कि उसने पहली में जो पढ़ा है, उसको भुला दे—कि भई अब फिर इसको हमको पहली भुला देना है। और एक बच्चा दूसरी क्लास में जाकर नासमझ लड़कों की सोहबत करे, तो इतना ही हो सकता है कि दूसरी में फेल होता रहे। बाकी पहली में उतार देंगे नासमझ लड़के, ऐसा नहीं है उपाय। मेरा मतलब समझी न तुम? यह हो सकता है कि वह दूसरी ही में रुक जाए, और जनम भर दूसरी में रुका रहे, और तीसरी में न जा सके। लेकिन दूसरी से नीचे उतारने का कोई उपाय नहीं है। वह वहां अटक जाएगा।

तो आध्यात्मिक जीवन में कोई पीछे लौटना नहीं है; सदा आगे जाना है या रुक जाना है। बस रुक जाना ही पीछे लौट जाने का मतलब रखता है। तो रोक तो सकते हैं साथी, हटा नहीं सकते पीछे। हटाने का कोई उपाय नहीं है।

शक्तिपात व प्रसाद में फर्क है:

प्रश्न: ओशो क्या शक्तिपात और ग्रेस में फर्क है?

हुत फर्क है; बहुत फर्क है। शक्तिपात और प्रसाद में बहुत फर्क है। शक्तिपात जो है वह एक टेक्‍नीक है, और आयोजित है। उसकी आयोजना करनी पड़ेगी। हर कभी हर कहीं नहीं हो जाएगा। समझे न? साधक इस स्थिति में होना चाहिए कि उस पर हो सके, मीडियम इस स्थिति में होना चाहिए कि वह माध्यम बन सके। जब ये दोनों बातें व्यवस्थित हों, तालमेल खा जाएं, एक क्षण के बिंदु पर दोनों का मेल हो जाए, तो हो जाएगा। यह टेक्‍नीक की बात है। ग्रेस जो है वह अनकाल्ड फाल है; उसके लिए कभी बुलावा नहीं है, उसके लिए कभी कोई इंतजाम नहीं है। वह कभी होती है।

यानी फर्क उतना ही है जैसा कि हम बटन दबाकर बिजली जलाते हैं और आकाश की बिजली चमकती है, वैसा ही फर्क है। समझे न? यह टेक्‍नीक है। यह वही बिजली है जो आकाश में चमकती है, लेकिन यह टेक्‍नीक से बंधी हुई है। हम बटन दबाते हैं, जलती है; बुझाते हैं, बुझती है। आकाश की बिजली हमारे हाथ में नहीं है।

तो ग्रेस जो है वह आकाश की बिजली है, कभी किसी क्षण में चमकती है। और तुम भी अगर उस मौके पर उस हालत में हुए, तो घटना घट जाती है। लेकिन वह शक्तिपात नहीं है फिर। है वही घटना, लेकिन वह ग्रेस है। उसमें मीडियम भी नहीं होता। उसमें कोई मीडिएटर भी नहीं है बीच में; वह सीधी तुम पर होती है। और आकस्मिक है; और सदा सडन है, आयोजना नहीं की जा सकती। शक्तिपात तो आयोजित किया जा सकता है कि कल पांच बजे आ जाओ, इतनी तैयारी करके आना, इतनी व्यवस्था करके आ जाना, हो जाएगा। लेकिन ग्रेस के लिए पांच बजे आकर बैठने से कुछ मतलब नहीं है। हो जाए हो जाए, न हो जाए न हो जाए; उसे कोई हम अपने हाथ में नहीं ले सकते। घटना वही है, लेकिन इतना फर्क है। इतना फर्क है।

अहंशून्य स्थिति में ही शक्तिपात संभव:

प्रश्न : ओशो आपने कहा था कि शक्तिपात ईगोलेस स्थिति में होता है तो आयोजना कैसे हो सकती है?

गोलेस स्थिति में आयोजना हो सकती है। ईगो का आयोजना से कोई संबंध नहीं है, उससे कोई संबंध नहीं है।

प्रश्न. ओशो ईगोलेस आयोजना हो सकती है?

हां, बिलकुल हो सकती है, उससे कोई संबंध ही नहीं है। ईगो तो बात ही और है। ईगो तो बात ही और है। जैसे हमने तय किया कि पांच बजे इस—इस तैयारी में बैठेंगे हम सब। इसमें साधक की तरफ ईगोलेस होने का सवाल नहीं है, इसमें सिर्फ मीडियम जो बननेवाला है उसके ईगोलेस होने का सवाल है। और ईगोलेस मामला ऐसा नहीं है कि तुम कभी हो सकते हो और कभी न हो जाओ। हो गए तो हो गए, नहीं हुए तो नहीं हुए—ऐसा मामला नहीं है न! अगर मैं ईगोलेस हूं तो हूं और नहीं हूं तो नहीं हूं। ऐसा नहीं है कि कल सुबह पांच बजे ईगोलेस हो जाऊंगा। मेरी बात समझ रहे हो न तुम? कैसे हो जाऊंगा? कोई उपाय नहीं है। अगर मैं अभी हूं तो पांच बजे भी रहूंगा—चाहे कोई आयोजन करूं और चाहे न करूं; चाहे तुम पांच बजे आओ तो और न आओ तो; मैं जाग तो और सोऊ तो—अगर हूं तो हूं नहीं हूं तो नहीं हूं।

अहंशून्यता क्रमिक नहीं होती:

प्रश्न: ओशो ईगो की जो जनरल भावना है न उससे ऐसा लगता है कि ईगोइस्ट है कि ईगोलेस है। एक क्षण लगता है कि ईगो है: दूसरे क्षण में लगता है कि ईगोलेस है।

हां—हां, ऐसा ही चल रहा है। ऐसा ही चल रहा है। असल में, हमारा तो सारा जो सोचना—विचारना है, वह डिग्रीज का होता है। वह ऐसा होता है : अट्ठानबे डिग्री पर बुखार है तो हम कहते हैं, बिलकुल ठीक है यह आदमी; और निन्यानबे डिग्री पर बुखार होता है तो हम कहते हैं, बुखार है। अट्ठानबे डिग्री भी बुखार है, लेकिन वह नॉर्मल बुखार है। निन्यानबे डिग्री में वह एबनॉर्मल हो जाता है। फिर अट्ठानबे हो जाता है तो हम कहते हैं, बिलकुल ठीक है, नॉर्मल हो गया। अभी भी बुखार है, मतलब उतना बुखार है जितना सबको है। सबसे जरा इधर—उधर होता है तो गड़बड़ हो जाता है। वैसा ही हमारा ईगो को मामला है। वह हमारा बुखार है, उतनी ही डिग्री में जितना हम सबको है, तब तक हम कहते हैं आदमी बिलकुल विनम्र है, अच्छा आदमी है। जरा हमसे डिग्री उसकी निन्यानबे हुई और हमने कहा कि बहुत ईगोइस्ट आदमी मालूम होता है। जरा सत्तानबे हुआ कि हमने कहा कि बिलकुल महात्मा, विनम्र हो गया है। इसके पैर छू लो।

बाकी ईगो और नो—ईगो बिलकुल ही अलग बातें हैं; उनका कोई डिग्री से संबंध नहीं है। बुखार और बुखार का न होना, यह अट्ठानबे और निन्यानबे डिग्री का मामला नहीं है। सिर्फ मरे हुए आदमी को हम कह सकते हैं कि इसको बुखार नहीं है। क्योंकि जब तक भी गर्मी है, बुखार है ही; नॉर्मल और एबनॉर्मल का फर्क है। इसलिए तकलीफ हमें होती है। इसलिए तकलीफ हमें होती है।

और फिर ऐसा है न कि अगर किसी आदमी की ईगो हमारी ईगो को चोट पहुंचाती है तो वह ईगोइस्ट है, अगर किसी की ईगो हमारी ईगो को रस पहुंचाती है तो वह आदमी ईगोलेस है। हम नापे कैसे? पता कैसे चले? एक आदमी मेरे पास आए और वह अकड़ मेरे ऊपर दिखलाए, हम कहते हैं, ईगोइस्ट है। आए और मेरे पैर छुए, हम कहते हैं, बहुत विनम्र है। और क्या, उपाय क्या है जांच का? हमारी ईगो जांच का उपाय है, उससे हम जांचते हैं कि यह आदमी हमारी ईगो को गड़बड़ तो नहीं कर रहा है? गड़बड़ कर रहा है तो ईगोइस्ट है। और अगर फुसला रहा है और कह रहा है, आप बहुत बड़े महात्मा हैं, तो यह आदमी विनम्र है, इसमें अहंकार बिलकुल भी नहीं है। मगर यह सब अहंकार है या नहीं, यह हमारा अहंकार ही इन सबका तौल है। इनके पीछे जो मेजरमेंट है हमारा, वह हमारा अहंकार है।

इसलिए जो नॉन—ईगो की स्थिति है उसको तो हम पहचान ही नहीं पाते। क्योंकि हम उसे कैसे पहचानें? हम डिग्री तक पहचान पाते हैं कि भई कितनी डिग्री है, इतना कहो। वे कहते हैं कि है ही नहीं, तब हमें बहुत कठिनाई हो जाती है। मगर वह जो घटना है शक्तिपात की, वह मीडियम तो ईगोलेस चाहिए ही। ईगोलेस कहना ठीक नहीं है, नो—ईगोवाला मीडियम चाहिए।

अहंशून्य व्यक्ति पर प्रसाद की सतत वर्षा:

र ऐसे आदमी पर चौबीस घंटे ग्रेस बरसती रहती है, यह खयाल में रख लेना। वह तो तुम्हारे लिए आयोजन कर देगा, लेकिन उस पर तो चौबीस घंटा अमृत बरस रहा है। इसीलिए तुम्हारे लिए भी आयोजन कर देगा कि तुम जरा एक क्षण के लिए द्वार खोलकर खड़े रह जाना। उस पर तो बरसता ही है, शायद दो—चार बूंद तुम्हारे द्वार के भीतर भी पड़ जाएं।

प्रश्न : ओशो, यह जो डायरेक्ट ग्रेस मिलता है इसका प्रभाव क्या स्थायी होता है? और क्या उपलब्धि तक ले जाता है?

डायरेक्ट ग्रेस तो मिलता ही उपलब्धि पर है न! इसके पहले तो मिलता नहीं! इसके पहले नहीं मिलता। इसके पहले नहीं मिलता। वह तो जब तुम्हारा अहंकार जाएगा तभी ग्रेस उतर पाएगी। अहंकार ही बाधा है।

प्रश्न: तो उपलब्धि की स्थिति कौन सी है?

जिसके आगे फिर उपलब्ध करने को कुछ शेष न रह जाए।

प्रश्न: ग्रेस अंतिम है?

हां, अंतिम चीज है।

कुंडलिनी है मनोगत ऊर्जा:

प्रश्न: ओशो अच्छा यह कुंडलिनी साधना जो है? वह साइकिक है कि स्प्रिचुअल है?

तुम यह जानते हो कि खाना शारीरिक है, लेकिन न खाने पर आत्मा का बहुत जल्दी विलोप हो जाएगा। यद्यपि खाना शरीर को जाता है, लेकिन शरीर एक स्थिति में हो तो आत्मा उसमें बनी रहती है।

तो कुंडलिनी जो है वह मानसिक है। लेकिन कुंडलिनी एक स्थिति में हो तो आत्मा तक गति होती है, कुंडलिनी एक दूसरी स्थिति में हो तो आत्मा तक गति नहीं होती। तो साइकिक है, लेकिन स्टेप बनती है स्मिचुअल के लिए। स्मिचुअल नहीं है खुद। अगर कोई कहता हो कि कुंडलिनी म्प्रिचुअल है, तो गलत कहता है।

कोई अगर कहे कि खाना स्त्रिचुअल है, तो गलत कहता है। खाना तो फिजिकल ही है। लेकिन फिर भी आधार बनता है आध्यात्मिक के लिए। श्वास भी भौतिक है और विचार भी भौतिक है, सब भौतिक है। इनका जो सूक्ष्मतम रूप है वह साइकिक हम उसे कह रहे हैं। वह भूत का सूक्ष्मतम रूप है। लेकिन ये सब आधार बनते हैं उस अभौतिक में छलांग लगाने के लिए। ये, जिसको कहना चाहिए, जंपिंग बोर्ड्स बनते हैं।

जैसे कोई आदमी नदी में छलांग लगा रहा है, तो किनारे पर एक बोर्ड पर खड़े होकर छलांग लगा रहा है। बोर्ड नदी नहीं है। और कोई तर्क कर सकता है कि क्यों बोर्ड पर खड़े हो? जब बोर्ड तो नदी है ही नहीं, और तुम्हें नदी में छलांग लगानी है, तो बोर्ड पर किसलिए खड़े हो? नदी में छलांग लगानी है तो नदी में खड़े हो जाओ! लेकिन नदी में कहीं कोई खड़ा हुआ है? खड़ा तो बोर्ड पर ही होना पड़ता है, छलांग नदी में लगती है। समझे न? और बोर्ड बिलकुल अलग चीज है, वह नदी नहीं है।

तो तुम्हें जो छलांग लगानी है वह शरीर से लगानी है, मन से लगानी है। लगानी है जिसमें वह आत्मा है। वह तो जब लग जाएगी जब मिलेगी। अभी तो तुम जहां खड़े हो वहीं से तैयारी करनी पड़ेगी। तो शरीर से और मन से ही कूदना पड़ेगा। और इसलिए यहीं काम करना पड़ेगा। हां, जब छलांग लग जाएगी, तब तुम जहां पहुंचोगे, वह होगा स्‍प्रिचुअल, वह होगा आध्यात्मिक।

प्रश्न: ओशो आपने दो प्रकार की विधि बताई हैं। पहले आप जिस साधना की बातें करते थे उसमें आप साधक को शांत शिथिल मौन सजग और साक्षी होने के लिए कहते थे। अब आप तीव्र श्वास और ‘ मैं कौन हूं ‘ पूछने के अंतर्गत साधक को पूरी शक्ति लगाकर प्रयत्न करने के लिए कहते हैं। पहली साधना करनेवाला साधक जब दूसरे ढंग के प्रयोग में जाता है तो थोड़ी देर के बाद उससे प्रयास करना छूट जाता है? कंट्रोल छूट जाता है। तो अच्छी व्यवस्था वह थी कि यह है?

च्छे और बुरे का सवाल नहीं है यहां।

प्रश्न: ओशो मेरा मतलब कंट्रोल छूट जाता है। तो अच्छी व्यवस्था वह थी कि यह है?

मैं समझ गया, मैं समझ गया। अच्छे—बुरे का सवाल नहीं है। तुम्हें जिससे ज्यादा शांति और गति मिलती हो, उसकी फिकर करो; क्योंकि सबके लिए अलग—अलग होगा। सबके लिए अलग—अलग होगा। कुछ लोग हैं जो दौड़कर गिर जाएं तो ही विश्राम कर सकते हैं। कुछ लोग हैं जो कि अभी विश्राम कर सकते हैं। लेकिन बहुत कम लोग हैं। बहुत कम लोग हैं। एकदम सीधा मौन में जाना, कठिन है मामला, थोड़े से लोगों के लिए संभव है। अधिक लोगों के लिए तो पहले दौड़ जरूरी है, तनाव जरूरी है। मतलब एक ही है अंत में, प्रयोजन एक ही है।

शक्ति साधना से तनाव:

प्रश्न: ओशो आपने यह भी कहा था कि यह अतियों से परिवर्तन की विधि है। तो तनाव की चरम सीमा में ले जाता हूं ताकि विश्राम की चरम सीमा उपलब्ध हो सके। तो क्या कुंडलिनी साधना तनाव की साधना है?

बिलकुल तनाव की साधना है। बिलकुल तनाव की साधना है। असल में, शक्ति की कोई भी साधना तनाव की ही साधना होगी। शक्ति का मतलब ही तनाव है। जहां तनाव है वहीं शक्ति पैदा होती है। जैसे हमने एटम से इतनी बड़ी शक्ति पैदा कर ली, क्योंकि हमने सूक्ष्मतम अणु को भी तनाव में डाल दिया; दो हिस्से तोड़ दिए और दोनों को टेंशन में डाल दिया। तो शक्ति की तो समस्त साधना जो है वह तनाव की है। अगर ठीक से समझो तो तनाव ही शक्ति है; टेंशन जो है वही शक्ति है।

प्रश्न : ओशो साधना की दो पद्धतियां आप कहते हैं: पाजिटिव और निगेटिव तो क्तुंलिनी साधना निगेटिव है कि पाजिटिव?

 

पाजिटिव है। बिलकुल पाजिटिव है।

प्रश्न: बहुत तनावग्रस्त होते हैं तो जल्दी शांत हो जाता है न।

हां, जल्दी।

प्रश्न: तो मैं जो बोलती थी न आपको कि बिना श्वास—प्रश्वास के भी शांत हो जाती हूं।

हीं, तू तो डरती है। तू अपनी बात न बता। ये शांत होने से डरती है कि कहीं शांत हो गए तो फिर क्या होगा! यह डर है, इसलिए ये ऐसी तरकीबें निकालती है जिसमें जरा कम ही शांति रहे, ज्यादा शांति न हो जाए। न, तेरा मामला अलग है।

प्रश्न: ओशो बुद्ध ने चक्र और कुंडलिनी की बात क्यों नहीं की?

ये पूछते हैं कि बुद्ध ने चक्र और कुंडलिनी की बात क्यों नहीं की?

असल में, बुद्ध ने जितनी बातें की हैं, वे सब रिकार्डेड नहीं हैं। समझ रहे हो न? बड़ा प्राब्लम जो है वह यह है। और बुद्ध ने जो भी कहा है, उसमें से बहुत सा जानकर रिकार्डेड नहीं है। और बुद्ध ने जो कहा है, उनके मरने के पांच सौ वर्ष बाद रिकार्ड हुआ, उस वक्त तो रिकार्ड नहीं हुआ। पांच सौ वर्ष तक तो जिन भिक्षुओं के पास वह ज्ञान था, उन्होंने उसे रिकार्ड करने से इनकार किया। पांच सौ वर्ष बाद एक ऐसी घड़ी आ गई कि वे भिक्षु लोप होने लगे जिनको बातें पता थीं। और तब एक बड़ा संघ बुलाया गया और उसने यह तय किया कि अब तो यह मुश्किल है, अगर ये दस—पांच भिक्षु हमारे और खो गए, तो वह जान की सारी संपदा खो जाएगी। इसलिए उसे रिकार्ड कर लेना चाहिए। जब तक वह स्मरण रखा जा सकता था तब तक जिद्दपूर्वक उसे नहीं लिखा गया।

ऐसा जीसस के साथ भी हुआ, महावीर के साथ भी हुआ। और जरूरी था। उसके कारण हैं बहुत। क्योंकि ये लोग बोल रहे थे सिर्फ। इस बोलने में बहुत सी बातें थीं, जो बहुत तल के साधकों के लिए कही गई थीं। और पहले तल के साधक के लिए वे सारी बातें जरूरी रूप से सहयोगी नहीं हैं, नुकसान भी पहुंचा दें। अक्सर ऐसा होता है कि जिस सीढ़ी पर हम खड़े नहीं हैं उसकी बातचीत हमें उस सीढ़ी पर भी ठीक से खड़ा नहीं रहने देती जहां हमें खड़े होना है, जहां हम खड़े हैं। आगे की सीढ़ियां अक्सर हमें आगे की सीढ़ियों पर जाने का खयाल दे देती हैं, और हम पहली सीडी पर खड़े ही नहीं हैं।

और भी कठिनाई यह है कि पहली सीडी पर बहुत सी ऐसी बातें हैं जो दूसरी सीढ़ी पर जाकर गलत हो जाती हैं। अगर आपको दूसरी सीढ़ी की बात पहले ही पता चल जाए तो आपको पहली सीढ़ी पर ही वे गलत मालूम होने लगेंगी। तब आप पहली सीढ़ी से कभी पार न हो सकेंगे। पहली सीढ़ी पर तो उनका सही होना जरूरी है, तभी आप पहली सीढी पार कर सकेंगे।

हम छोटे बच्चे को पढ़ाते हैं ग गणेश का। अब इसका कोई मतलब नहीं है। ग गधे का भी होता है। और गधा और गणेश में कोई संबंध नहीं है; कोई भाईचारा नहीं है; कोई जोड़ नहीं है, कुछ भी नहीं है। ग का कोई संबंध ही नहीं है किसी से। लेकिन यह पहली क्लास के लड़के को बताना खतरनाक होगा। जब वह पढ़ रहा है ग गणेश का, तब उससे उसका बाप कहे, नालायक, ग से गणेश का क्या संबंध? कोई संबंध नहीं है। ग तो और हजार चीजों का भी है, गणेश से क्या लेना—देना है? तो यह लड़का ग को ही नहीं पकड़ पाएगा।

अभी इसको ग गणेश का, इतना ही पकड़ लेना उचित है। अभी और हजार चीजें भी ग में सम्मिलित हैं, यह शान रहने ही दो। अभी तो इसको गणेश भी ग में आ जाए तो काफी है। कल और हजार चीजें भी आ जाएंगी। जब हजार आएंगी तब यह खुद भी जान लेगा कि ठीक है, ग की गणेश से कोई अनिवार्यता नहीं थी, वह भी एक संबंध था, और भी बहुत संबंध हैं। और फिर जब यह ग पड़ेगा हमेशा तो ग गणेश का, ऐसा नहीं पड़ेगा; वह गणेश छूट जाएंगे, ग रह जाएगा।

गुह्य साधनों की गोपनीयता:

तो हजार बातें हैं, हजार तल की हैं। और फिर कुछ बातें तो बिलकुल निजी और सीक्रेट हैं। जैसे मैं भी जिस ध्यान की बात कर रहा हूं यह बिलकुल ऐसी बात है जो सग्रिहक की जा सकती है। बहुत बातें हैं जो मैं समूह में नहीं कर सकता हूं नहीं करूंगा। वह तो तभी करूंगा जब मुझे समूह में से कुछ लोग मिल जाएंगे जिनको कि वे बातें कही जा सकती हैं।

तो बुद्ध ने तो कहा है बहुत, वह सब रिकार्डेड नहीं है। मैं भी जो कहूंगा वह सब रिकार्डेड नहीं हो सकता। वह सब रिकार्डेड नहीं हो सकता, क्योंकि मैं वही कहूंगा जो रिकार्ड हो सकता है। सामने तो वही कहूंगा। जो रिकार्ड नहीं हो सकता, वह सामने नहीं कहूंगा; उसे तो स्मृति में ही रखना पड़ेगा।

प्रश्न: ओशो तो क्या कुंडलिनी और चक्रों की बात को रिकार्ड नहीं करना चाहिए? क्या उन्हें गुप्त रखना चाहिए?

हीं, नहीं, नहीं। न, इसमें और बहुत सी बातें हैं न! जो मैंने कहा है, इसमें तो कोई कठिनाई नहीं है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। पर इसमें और बहुत बातें हैं।

लेकिन कठिनाई यह है न कि बुद्ध और आज में पच्चीस सौ साल का फर्क पड़ा है, मनुष्य की चेतना में बहुत फर्क पड़ा है। जिस चीज को बुद्ध समझते थे कि न बताया जाए; मैं समझता हूं बताया जा सकता है। पच्चीस सौ साल में बहुत बुनियादी फर्क पड़ गए हैं। बुद्ध ने जितनी चीजों को कहा कि नहीं बताया जाए, उनको मैं कहता हूं कि उनमें से बहुत कुछ बताया जा सकता है आज। और जो मैं कहता हूं कि नहीं बताया जाए, पच्चीस सौ साल बाद बताया जा सकेगा। बताया जा सकना चाहिए, विकास अगर होता है तो। समझ रहे हैं न मेरी बात को?

तो बुद्ध भी लौट आएं तो बहुत सी बातें.. .बुद्ध तो बहुत ही समझ का काम किए थे। उन्होंने ग्यारह तो प्रश्न तय कर रखे थे, कोई पूछ न सकेगा। क्योंकि पूछो तो उनको कुछ न कुछ तो उत्तर देना पड़े। गलत दें उत्तर तो उचित नहीं मालूम होता, ठीक उत्तर दें तो देना नहीं चाहिए। तो ग्‍यारह प्रश्न उन्होंने अव्याख्य करके तय कर रखे थे। वह जाहिर घोषणा थी सारे गांव में कि कोई बुद्ध से ये ग्यारह प्रश्नों में से न पूछे; क्योंकि बुद्ध को अड़चन में नहीं डालना है, क्योंकि वे इनका उत्तर नहीं देंगे। न देने का कारण है : अगर दें तो नुकसान होगा और न दें तो उन्हें ऐसा लगता है कि मैं सत्य को छिपाता हूं। यह पूछना ही मत। इसलिए गांव—गांव में भिक्षु ढिंढोरा पीट देते थे कि बुद्ध आते हैं, ये ग्यारह प्रश्न मत पूछना। उससे उनको बहुत परेशानी होती है। तो वे अव्याख्य मान लिए गए, वे प्रश्न नहीं पूछे जाते थे। वे नहीं पूछे जाते थे।

कभी कोई विरोधी आ जाता और पूछ लेता था, तो बुद्ध उससे कहते कि रुको, कुछ दिन ठहरो। कुछ दिन ठहरो, कुछ दिन साधना करो; जब इस योग्य हो जाओगे, मैं उत्तर दूंगा। लेकिन कभी उनके उत्तर दिए नहीं।

इसलिए उन पर बड़ा आरोप तो यही था—जैनों का, हिंदुओं का यही आरोप था कि उनको पता नहीं है। उन पर बड़ा आरोप यही था कि ये ग्यारह प्रश्नों के उत्तर नहीं देते, हमारे शास्त्रों में तो हम सब उत्तर देते हैं। इनको मालूम होता है पता नहीं है। लेकिन उनके शास्त्रों में जो लिखा हुआ है, उतना उत्तर तो वे भी दे सकते थे! असल में, असली उत्तर शास्त्र में भी नहीं लिखा हुआ है। और असली दिया नहीं जा सकता था।

तो इसलिए, इसलिए नहीं यह सवाल है, यह सवाल नहीं है कि क्या हो जाए।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–193

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तीन प्रकार के यज्ञ—(प्रवचन—छठवां)

अध्‍याय—17

सूत्र—

अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विभिदृष्टो य हज्यते।

यष्टध्यमेवेति मन: समाधाय अ सात्‍विक।। 11।।

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।

इज्‍यते भरतश्रेष्ठं तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।। 12।।

विधिहीनमसृष्‍टान्‍नं मंत्रहीनमदक्षईणम् ।

श्रद्धाविरहितं यज्ञ तामसं परिचक्षते ।। 13।।

और हे अर्जुन, जो यज्ञ शास्त्र— विधि से नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरूषों द्वारा किया जाता है, यह यज्ञ तो सात्‍विक है।

और हे अर्जुन, जो यज्ञ केवल दंभाचरण के ही लिए अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।

तथा शास्त्र— विधि से हीन और अन्न— दान से रहित एवं बिना मंत्रों के बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : गीता में क्या सुनकर अर्जुन भीतर मुड़ गया था?

कृष्ण को! जो वह कह रहे थे, उसे सुनकर नहीं, वरन कृष्ण को, जो वे थे, उसे सुनकर। इसीलिए तो गीता तुम पढ़ सकते हो और जैसे उलटे घड़े पर पानी बह जाए, ऐसी गीता तुम पर बह जाएगी; तुम अछूते रह जाओगे। वैसी क्रांति, जैसी अर्जुन को घटी, तुम्हें न घटेगी। क्योंकि एक बात तुम भूल गए हो, कृष्ण मौजूद नहीं हैं।

अर्जुन कृष्ण को सुनकर रूपांतरित हुआ। कृष्ण ने जो कहा, उसको सुनकर अगर रूपांतरित होता, तो गीता पढ़कर तुम भी रूपांतरित हो जाते। क्रांति घटती है कृष्ण जैसे व्यक्ति की मौजूदगी में। एक जलता हुआ दीया बुझे हुए दीए को जला देता है। गीता में तो वही संगृहीत है, जो कृष्ण ने कहा। लेकिन जो कृष्ण थे, उसे तो गीता में संगृहीत करने का कोई उपाय नहीं। उसे तो किसी भी किताब में रखने का कोई उपाय नहीं।

इसीलिए जब शास्ता मौजूद होता है, तब उसके वचन जीवंत होते हैं, वचनों की किसी खूबी के कारण नहीं, उसकी जीवंतता के कारण। शास्ता अपने वचनों में मौजूद होता है। क्योंकि वे वचन आते हैं उसके अंतर—मंदिर से, उसके प्राणों को छूकर, उसके भीतर की सुगंध को लेकर। उसके भीतर का नृत्य थोड़ा—सा उन शब्दों में भी झनकता हुआ तुम्हारे पास तक पहुंच जाता है। उसकी मौजूदगी रूपांतरित करती है।

इसलिए सदगुरु न मिले, तो ही शास्त्र का उपयोग है। सदगुरु मिल जाए, तो शास्त्र को नासमझ पकड़ता है। उसका कोई मूल्य ही नहीं है। जब तुम्हें जीवंत शास्त्र मिल गया, तो शास्त्र का कोई अर्थ नहीं है। शास्त्र तो जब जीवंत शास्त्र मौजूद न हो, तब उसकी उपादेयता है। और उसकी उपादेयता बड़ी संदिग्ध है। क्योंकि तुम उसकी क्या व्याख्या करोगे, वह तो तुम पर निर्भर करेगा।

जब कृष्ण मौजूद होते हैं, तब कृष्ण ही अपनी व्याख्या कर रहे हैं। उनकी मौजूदगी ही उनकी व्याख्या बन रही है। जब कृष्ण मौजूद नहीं हैं, तुम गीता पढ़ोगे, गीता से जो अर्थ निकालोगे, वह तुम्हारा अपना होगा।

ऐसा समझो कि गुरु को तो मैं कहता हूं जला हुआ दीया। तुम उसके पास भर सरकते जाओ, एक न एक दिन तुम्हारी बुझी हुई बाती में लौ पकड़ जाएगी। तुम बस पास आते चले जाओ। पास आने से ज्यादा तुम्हें कुछ भी नहीं करना है।

हम अपने परम शास्त्रों को उपनिषद कहे हैं। उपनिषद शब्द का अर्थ होता है, गुरु के पास आते जाना, उसके पास बैठना। जितना तुम पास आते जाओगे, बस उतना ही तुम्हें करना है। शेष अपने से हो जाएगा। तुम दूर भर मत रहना; तुम फासला बनाकर मत खड़े रहना; तुम अपने को बचाना मत। तुम अपने को उंडेल देना बिना हिसाब के, बिना डर के; बिना सुरक्षा का इंतजाम किए पास आ जाना। तुम अपने चारों तरफ कवच मत ओढ़ना। बस, तुम्हारा पास आना काफी है, लपट पकड़ लेगी।

शास्त्र कैसे हैं? गुरु तो जलते हुए दीए जैसा है। शास्त्र तो दियासलाई हैं। उनमें आग तो छिपी है, लेकिन उसे प्रकट तो तुम्हें करना पड़ेगा।

और तुम ऐसे अज्ञानी हो कि दियासलाई लिए बैठे रहोगे और दियासलाई की ऐसी—ऐसी व्याख्याएं कर लोगे कि तुम्हें यह कभी याद ही न आएगी कि उसमें छिपी हुई सलाई में आग है; रगड़ने की जरूरत है और आग पैदा हो जाएगी।

वचनों में आग है, लेकिन उसे निकालना पड़ेगा। वह प्रकट नहीं है, वह छिपी है। निकालेगा कौन? तुम्हीं निकालोगे। और तुम्हारे अंधकार में भरोसा नहीं किया जा सकता कि तुम निकाल पाओगे। तुम दियासलाई की पूजा करोगे, यह मुझे पक्का पता है। तुम दियासलाई पर चंदन—तिलक लगाओगे; फूल चढाओगे। धीरे—धीरे तुम इतनी चीजें चढ़ा दोगे कि उन्हीं में दियासलाई ढंक जाएगी और तुम भूल ही जाओगे कि पीछे दियासलाई भी थी।

तुम उस दियासलाई के चरणों में सिर झुकाओगे। कोई तुम्हारी दियासलाई के खिलाफ कुछ कहेगा, तो लड़ने—मरने को उतारू हो जाओगे। तुम दियासलाई के लिए मरने को तो राजी रहोगे, लेकिन दियासलाई के अनुसार जी न सकोगे। वह आग बंद ही पड़ी रहेगी। शास्त्र तो दियासलाई जैसे हैं। सदगुरु जलती हुई आग है। उसके तुम्हें सिर्फ पास आना है, कुछ करना नहीं है। निकट होने की क्षमता, बस पर्याप्त पात्रता है। पास आते—आते बुझी लौ जली लौ के साथ एक हो जाती है।

कृष्ण को सुनकर नहीं अर्जुन बदला, नहीं तो कोई भी बदल लेगा, गीता मौजूद है। कृष्ण की उपस्थिति, कृष्ण का व्यक्तित्व, कृष्ण के भीतर जो घटा है, जो ज्योति जली है।

कृष्ण ने इतनी बातें कहीं अर्जुन को, क्या तुम सोचते हो, इसलिए कहीं कि कृष्ण को यह पता नहीं कि बातों से कुछ भी न होगा। कृष्ण को भलीभांति पता है कि बातों से कुछ भी न होगा। सिर्फ एक बात घटेगी कि बातों से भरोसा बढ़ेगा; अर्जुन करीब आने की हिम्मत जुटा लेगा।

तुमसे मैं रोज बातें किए चला जाता हूं। क्या मैं समझता हूं कि तुम सुन—सुनकर ज्ञानी हो जाओगे? या तुम मेरी बातों को समझ लोगे, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति आ जाएगी?

नहीं, बातें तो सिर्फ भुलावा हैं। वह चर्चा तो तुम्हें उलझाने की है। वह तो थोड़ी देर को तुम अपनी सुरक्षा को भूल जाओ, और मेरे पास आ जाओ। बस, इतना ही। बातचीत तो खेल—खिलौनों जैसी है। जिसमें तुम उलझ जाओ और तुम्हारे अहंकार को घडीभर को भूल जाओ, और पास सरक आओ।

मेरी बात को पकड़ने से कुछ न होगा। मेरी बात में अगर तुम डूब गए, लीन हो गए और पास आ गए उस लीनता में, तो क्रांति घट जाएगी। तब तुम भी हसोगे कि इतनी बातें करने की क्या जरूरत थी। पास ही क्यों न ले लिया!

लेकिन वह संभव न था। अगर तुम्हें पास लेने की कोशिश की जाए, तुम दूर भागोगे। तुम्हें बुलाया जाए, तुम डरोगे। तुम समझोगे कि कोई फंदा है, कोई जाल है।

तुम्हें सीधे बुलाया नहीं जा सकता, तुम ऐसी उलटी दशा में हो। तुम्हें बुलाना भी हो, तो परोक्ष; तुम्हें निमंत्रण भी भेजना हो, तो सीधा नहीं भेजा जा सकता कि आ जाओ। क्योंकि तुम हजार बहाने करोगे। और तुम डरोगे भी, कि बुलावा क्यों है? जरूर कोई स्वार्थ होगा। बुलाया है, तो जरूर कोई मतलब होगा। बिना मतलब कोई किसी को बुलाता है? तुम किसी को नहीं बुलाते बिना मतलब। तो तुम अपनी सुरक्षा करके आओगे, कवच बांधकर आओगे, मन को बंद करके आओगे। तब, तब जलता हुआ दीया भी कुछ न कर सकेगा। तुम्हारी बाती अगर छिपी हो अस्त्र—शस्त्रों में, तो कोई उपाय नहीं।

सब चर्चा फुसलाने की है। पूरी गीता सिर्फ जाल है अर्जुन को पास आने के लिए, कि तू पास आ जा, तुझे भरोसा आ जाए। और तुम सिवाय शब्दों के और किसी चीज से भरोसा नहीं करते। जीवन से तो तुम्हारा संबंध टूट गया है। अस्तित्व से तुम्हारा कोई नाता नहीं रहा है। तुम सिर्फ शब्दों में जीते हो। सब शब्दों का जाल है। प्रेम तुम्हारे लिए एक शब्द है। परमात्मा तुम्हारे लिए एक शब्द है। सत्य तुम्हारे लिए एक शब्द है। प्रार्थना तुम्हारे लिए एक शब्द है।

तो तुम्हें अगर खींचना हो, तो शब्दों का ही व्यूह रचना पड़ेगा। कृष्ण ने गीता कहकर शब्दों का व्यूह रचा। जैसे मकड़ी जाला रचती है। मकड़ी का जाला तो दिखाई भी पड़ता है, शब्दों का जाला तो उतना भी दिखाई नहीं पड़ता।

शब्दों से बंधे तुम खिंचे चले आते हो; शब्दों से सम्मोहित तुम पास चले आते हो। और एक घड़ी जब तुम इतने पास आ जाते हो, जहां ज्योति छलांग ले सकती है और तुम्हारी बुझी बाती को पकड़ सकती है, वहा घटना घट जाती है।

कृष्ण अर्जुन को सुनाने—समझाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। कृष्ण अर्जुन को पास बुलाने की कोशिश कर रहे हैं कि तू मत घबड़ा अर्जुन, पास आ जा, मामेकं शरणं वज, सब छोड़ मेरी शरण आ जा। उसके लिए सारा उपाय है।

जिस क्षण वह पास सरक आया होगा, उसी क्षण भीतर मुड़ गया। जिस क्षण पास आ गया होगा, उसी क्षण अर्जुन कृष्ण हो गया। पास आकर दूरी मिट जाती है, द्वैत मिट जाता है, एकता सध जाती है।

दूसरा प्रश्न : आपने कल कहा कि भक्त भगवान को बाहर खोजता है। क्या ज्ञानी भगवान को भीतर खोजता है?

ज्ञानी खोजता ही नहीं, क्योंकि सब खोज बाहर है। खोज का मतलब ही बाहर है।

इसे थोड़ा समझो, यह थोड़ा जटिल है। क्योंकि हम सोचते हैं कि बाहर खोज होती है, ऐसे ही भीतर खोज होती है। भीतर तो तुम अकेले हो, खोजोगे क्या? किसको खोजोगे? वहां तो गली बहुत संकरी है, ता में दो न समाय। वहां तो दो समा नहीं सकते। खोजेगा कौन किसको?

सब खोज बाहर है। जब तक खोजते हो, बाहर रहोगे। जब बाहर की खोज व्यर्थ हो जाएगी, खोज—खोजकर थक जाओगे, हार जाओगे, पराजित हो जाओगे, जब देख लोगे कि सब तरफ खोज लिया, कहीं पाया नहीं, थककर बैठ जाओगे, उसी क्षण भीतर की खोज घट गई। जैसे ही बाहर की खोज बंद होती है, तुम भीतर पहुंच जाते हो। भीतर की कोई खोज थोड़े ही है। बाहर उलझे हो, इससे भीतर नहीं पहुंच पाते। बाहर अटके हो, इससे भीतर आना नहीं हो पाता।

बाहर कोई खोज न रही। जब बुद्ध को ज्ञान हुआ बोधि—वृक्ष के नीचे, तो क्या तुम सोचते हो, भीतर वे कुछ खोज रहे थे? कुछ भी नहीं। खोज बंद हो गई थी। खोज—खोजकर देख लिया, कुछ न पाया; राख हाथ लगी, सब खोज व्यर्थ हो गई। उस रात उन्होंने सब खोज छोड़ दी, खोजना ही छोड़ दिया।

अब यह बहुत रहस्य की बात है, जैसे ही तुम खोज छोड़ते हो, वैसे ही खोजने वाला मिट जाता है। क्योंकि खोज के बिना खोजने वाला कहां बचेगा? वह तो खोज में ही जीता है; खोज से ही बनता है। इसलिए जितना बड़ा खोजी, उतना बड़ा अहंकार। जब खोज ही न रही, अहंकार भी गिर जाता है। जब पाने को ही न रहा कुछ, तो पाने वाला कौन?

जब खोज न रही, तो भविष्य मिट जाता है। क्योंकि खोज के लिए भविष्य चाहिए, समय चाहिए नहीं तो खोजोगे कैसे? जब तक फल की आकांक्षा है, तब तक भविष्य रहेगा, समय रहेगा। जब खोज मिट जाती है, फल का सवाल ही न रहा। भविष्य विसर्जित हो गया, समय टूट गया, समय की धारा विलीन हो गई। खोजी मिट गया, समय मिट गया।

और जब खोज मिट जाती है, तो अतीत को किसलिए सम्हालोगे? आदमी पिछले साल के खाते—बही सम्हालकर रखता है, क्योंकि अगले साल भी धंधा करना है। अभी भविष्य कायम है, इसलिए अतीत की हम व्यवस्था रखते हैं, स्मृति रखते हैं, कहां है, क्या है, कैसा है? हम क्या थे? इसको हम सम्हालकर रखते हैं, क्योंकि हमें कुछ होना है। अपना पता—ठिकाना तो होना चाहिए। अतीत और भविष्य संयुक्त हैं। भविष्य जब तक है, तब तक तुम अतीत को बचाओगे; क्योंकि उसी के आधार पर तो भविष्य का भवन खड़ा होगा। अतीत है बुनियाद, भविष्य है शिखर। जब भविष्य ही न रहा, जब दुकान ही बंद कर दी, तो खाते—बही तुम सम्हाले फिरोगे? आग लगा दोगे, फेंक दोगे सड़क पर, कूड़ा—कर्कट है, अब क्या करना है? जब कुछ मिलने को ही न रहा आगे, जब भवन बनाना ही नहीं, तो बुनियाद की अब तुम क्या रक्षा करोगे?

जब खोज बंद होती है बाहर की, खोजी खो जाता है, भविष्य खो जाता है, अतीत खो जाता है। रह जाता है यह वर्तमान का निपट क्षण, निष्कलुष, अतीत से गंदा नहीं, भविष्य से बेचैन नहीं, शांत, निर्मल, निस्तरंग। सब खोज खो गई, रह जाता है वर्तमान का क्षण और तुम्हारे भीतर की गहन शांति, क्योंकि खोज के साथ सब वासना चली गई, सब लहरें चली गईं। अब कुछ पाना नहीं है। इस क्षण में शाश्वत के द्वार खुल जाते हैं, इस क्षण में वह जो अनादि—अनंत है, कालातीत है, वह तुममें झांकता है। पहली दफे तुम्हारी इस शून्यता में परमात्मा की छवि उभरती है; पहली दफा तुम्हारे मंदिर में उसका पदार्पण होता है।

ज्ञानी खोजता नहीं, जो खोज छोड़ देता है, वही ज्ञानी है। और खोज का छोड़ देना ही अंतखोंज है। अंतखोंज कोई नई खोज नहीं है। खोज का बंद हो जाना है, रुक जाना है।

सब दौड़ बाहर है। भीतर भी तुम दौड़ सकते हो? कैसे दौड़ोगे? स्थान कहां? अवकाश कहा जहां भीतर तुम दौड़ोगे? जब सब दौड़ बंद हो जाती है, तुम बैठ गए वृक्ष के तले, कोई दौड़ न रही, निदौड़। उस दशा में कोई भी वृक्ष के नीचे बैठो, वही बोधि—वृक्ष हो जाएगा, वहीं बुद्धत्व फलित हो जाएगा।

तुम बुद्ध हो, लेकिन बाहर हो। कभी धन खोज रहे हो, कभी पद खोज रहे हो। कभी परमात्मा भी खोजते हो, उसको भी बाहर खोजते हो।

अगर तुम मुझसे पूछो, तो मैं तुमसे कहूंगा, खोजना संसार है, न खोजना मोक्ष है।

लेकिन शायद तब तुममें जो तामसी हैं, वे कहेंगे, तब हम भले। हम खोज ही नहीं रहे।

नहीं, तामसी उसे न पा सकेगा। क्योंकि तामसी ने तो अभी बाहर भी नहीं खोजा। खोज के रुकने का तो सवाल ही तब उठता है, जब बाहर खोज हुई हो। तामसी तो बाहर भी नहीं गया, भीतर क्या जाएगा! भीतर जाने के लिए बाहर जाना कदम है। अपने घर आने के लिए बड़ी यात्रा करनी पड़ती है। अभी तामसी यात्रा पर ही नहीं गया, अपने घर कैसे लौटेगा?

तो तामसी यह न सोचे कि हम जहां बैठे हैं, वहीं बुद्धत्व है। वहां तो अभी यात्रा ही शुरू नहीं हुई है।

इसे ध्यान रखो। बाहर की यात्रा भीतर की यात्रा का प्रशिक्षण है; वह पाठशाला है। वह बिलकुल अनिवार्य है। अन्यथा लोग पड़े—पड़े मोक्ष को उपलब्ध हो जाते।

इसलिए तामसी को पहले राजसी बनना होता है, दौड़ना पड़ता है बाहर की दुनिया में। तब राजसी सात्विक बनता है, बाहर की दुनिया में दौड़—दौड़कर थक जाता है। शूद्र को क्षत्रिय बनना पड़ता है, क्षत्रिय को ब्राह्मण। और समाज ऐसा तरल होना चाहिए, जिसमें तामसी को राजसी बनने की सुविधा हो, राजसी को सात्विक बनने की सुविधा हो।

हिंदुओं ने बड़ी गहरी बातें खोजी, लेकिन समाज जड़ बना लिया। उस जड़ समाज के कारण सब गडबड़ हो गया। यहां शूद्र को क्षत्रिय बनने का उपाय न रहा। तो तामसी कैसे राजसी बनेगा? यहां क्षत्रिय को ब्राह्मण बनने का उपाय न रहा। तो कैसे राजसी सात्विक बनेगा?

वस्तुत: प्रत्येक को यात्रा शूद्र के तल से करनी पडेगी। इसलिए जो गहन शास्त्र हैं, वे कहते हैं, हर आदमी शूद्र पैदा होता है। और हर आदमी शूद्र ही मर जाए, तो जीवन व्यर्थ गया। हर आदमी शूद्र पैदा होता है और हर आदमी को ब्राह्मण मरना चाहिए। तो यात्रा संगत रही, तो यात्रा व्यवस्थित हुई, तो बीज फल तक पहुंच गया, तो मार्ग मंजिल बना।

समाज तरल होना चाहिए, जिसमें सबको सब होने की सुविधा हो, उठने की, चलने की। शूद्र को रोक दिया हिंदुओं ने कि वह आ नहीं सकता दूसरे मार्ग पर। तो यह पूरा जीवन उसे शूद्र ही रहना है। तो करोड़ों लोग शूद्र रह गए। उनके लिए जिम्मेवार कौन है फिर?

हिंदू व्यवस्था ने बड़ा पाप किया है। हिंदुओं ने बड़े गहरे सूत्र खोजे, लेकिन सूत्रों का ठीक उपयोग नहीं हो पाया। जैसे आइंस्टीन ने एटम का सूत्र खोज दिया, लेकिन उपयोग यह हुआ कि हिरोशिमा—नागासाकी जले। और सारी दुनिया भयभीत है कि कभी भी तीसरा महायुद्ध हो जाए।

ऐसे ही हिंदू मनीषियों ने बड़ा गहरा सूत्र खोजा त्रिगुणों का। उसके आधार पर वर्ण—व्यवस्था बना ली लोगों ने। ज्ञान का सूत्र अज्ञानियों के हाथ में पड़ गया। अन्यथा सारी समझ इस कोशिश में लगनी चाहिए थी कि शूद्र तो सभी पैदा हुए हैं, वह सबकी स्वाभाविक दशा है, आलस्य। रजस की तरफ उठना है। तमस से उठना है ऊपर रजस की तरफ। दौड़ शुरू करनी है।

अपने में बंद पड़ा है तामसी। राजसी दौड़ रहा है संसार में, बडी महत्वाकांक्षाएं हैं। सात्विक फिर घर लौट आया। लेकिन इस लौट आने में और तामसी के घर ही पड़े रहने में बड़ा अंतर है।

तामसी का कोई अनुभव नहीं है बाहर का। बिना बाहर के अनुभव के भीतर का अनुभव नहीं हो सकता। तामसी ऐसा ही है, जैसे सफेद दीवार पर किसी ने सफेद लकीर खींच दी। या काले ब्लैकबोर्ड पर किसी ने काली लकीर खींच. दी, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। विपरीत नहीं है, तो अनुभव नहीं बनता। विपरीत न हो, तो ज्ञान का जन्म नहीं होता। काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद रेखा खींचनी चाहिए, तब दिखाई पड़ती है।

सात्विक ऐसा व्यक्ति है, जिसने संसार के काले ब्लैकबोर्ड पर अपने जीवन की, अपनी चेतना की सफेद रेखा खींच दी। अब उसे आत्मा उभरकर दिखाई पड़ती है, कंट्रास्ट।

बाहर की यात्रा तुम्हारे जीवन में कंट्रास्ट, विपरीत को पैदा कर देती। है। उसमें आत्मा उभरकर दिखाई पड़ती है।

तामसी को आत्मा दिखाई ही नहीं पड़ती। वह शरीर की तरह ही पड़ा रहता है। अभी उसने शरीर की दौड़ ही नहीं की। पहले तो शरीर दिखाई पड़ेगा। शरीर के अनुभव से गुजर—गुजरकर, छन—छनकर, निखर—निखरकर आत्मा दिखाई पड़ेगी।

तो तुम ऐसा समझो, तामसी व्यक्ति शरीर में जीता, राजसी मन में जीता, सात्विक आत्मा में जीना शुरू करता है। और तीनों के जो पार हो गया, वह परमात्मा हो जाता है।

बाहर खोजना जरूरी है, लेकिन सदा खोजते रहना जरूरी नहीं है। बाहर खोजो भी और छोड़ो भी फिर। पकड़ो भी, त्यागो भी। पकड़कर जब तुम त्यागोगे, तब तुम्हें हाथ में जो स्वतंत्रता अनुभव

होगी, वह उसको नहीं हो सकती अनुभव, जिसने कभी पकड़ा नहीं।

तुम कभी कारागृह गए हो? अगर नहीं गए हो, तो जाने जैसा है। कारागृह के बाहर जब तुम आओगे, हथकड़ियां खुलेंगी, द्वार के सींकचे खुलेंगे, संतरी तुम्हें बाहर जाने की आज्ञा देगा, जब तुम खुले आकाश के नीचे खड़े होओगे, तो तुम्हारे पूरे प्राणों से आवाज निकलेगी, अहा!

यहां तुम पहले भी थे, जाने के पहले यहीं थे तुम, लेकिन कभी अहा की आवाज नहीं उठी थी, कभी आकाश इतना विराट उन्मुक्त न मालूम हुआ था। कभी खुले हाथों में ऐसी गति न मालूम हुई थी। दीवारों के बाहर आकर तुम्हें पहली दफा पता चलता है कि कैसी स्वतंत्रता है जीवन में।

विपरीत जीवन को समृद्ध करता है। इसीलिए तो परमात्मा द्वंद्व में तुम्हें डालता है।

लोग मुझसे पूछते हैं कि अगर निर्द्वंद्व ही होना है, तो परमात्मा हमें निर्द्वद्व ही क्यों नहीं बनाता?

बना सकता है। लेकिन तब तुम बिलकुल बेकार रहोगे। तुममें धार ही न होगी। तुम बिना धार की तलवार रहोगे। साग—सब्जी काटने के काम आ जाओ तो बहुत। युद्ध के काम के न रह जाओगे। तुम ऐसा इस्पात रहोगे, जो अग्नि से नहीं गुजरा। क्योंकि इस्पात जब अग्नि से गुजरता है, जितनी बड़ी अग्नि से गुजरता है, उतना ही टेंपर, उतनी ही त्वरा और शक्ति इस्पात में पैदा होती है। बड़ी भट्टियां चाहिए। कच्चे लोहे में क्या रखा है? ऐसा हाथ से तोड़ दो। पका लोहा क्या है? आग से गुजरा हुआ लोहा है। उसमें शक्ति है। आग शक्ति देती है, अनुभव देती है।

संसार आग है, संसार यज्ञ है; उससे अगर तुम होशपूर्वक गुजरी, तुम इस्पात होकर बाहर निकलोगे। कच्चे लोहे की तरह भीतर गए थे, इस्पात होकर बाहर आओगे। कच्चे सोने की तरह भीतर गए थे, जिसमें मिट्टी और कूड़ा—कर्कट सब मिला था। सोना दिखाई ही न पड़ता था, केवल पारखी को दिखाई पड़ सकता था। साधारण तो उसे ऐसा ही मिट्टी—पत्थर जानकर गुजर जाता। किसी जौहरी को दिखाई पड़ सकता था।

तुम्हारा सोना तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, मुझे दिखाई पड़ता है। तुम तो कहते हो, मुझमें और सोना? सिवाय कूड़ा—कर्कट के और कुछ भी नहीं है! तुम आग से नहीं गुजरे हो। आग कूड़ा—कर्कट को जला देगी। तब तुम लौटोगे घर, खालिस सोना। तब तुम्हारी बात और होगी, तुम्हारी सुगंध, तुम्हारा रस और होगा।

ज्ञानी खोजता है, खोज को छोड़ता है। अज्ञानी या तो खोजता ही नहीं या खोज को ही पकड़कर अटक जाता है।

भीतर की कोई खोज नहीं है। बाहर खोजो और बाहर की खोज की व्यर्थता को समझ जाओ। और जल्दी मत करना; क्योंकि कच्चे घर न लौट सकोगे। कच्चे की कोई स्वाकृति परमात्मा के पास नहीं है। पकोगे तो ही लौट सकोगे।

बहुत—से लोगों को मैं कच्चा घर लौटते देखता हूं। वे ऐसे ही हैं, जैसे स्कूल से फेल होकर घर चेले आ रहे हैं। स्कूल गए थे माना, लेकिन उत्तीर्ण नहीं हुए। कोई प्रमाणपत्र लेकर नहीं आ रहे हैं। परमात्मा का घर इनके लिए बंद रहेगा।

संसार में भेजा इसलिए कि उत्तीर्ण हो जाओ। संसार को जान लेना जरूरी है, इसके पहले कि तुम परमत्‍मा को समझ सको। व्यर्थ को पहचान लेना जरूरी है, इसके पहले कि सार्थक का आविर्भाव हो। असार को समझ लेना जरूरी है, इसके पहले कि सार से तुम्हारा मिलन हो। असत्य को असत्य की तरह जानने वाला ही सत्य को सत्य की तरह जान पाता है।

तीसरा प्रश्न : हम अधूरे हैं। हम बाहर या भीतर कितनी ही खोज करें, हमें पूरा कैसे दिखेगा? पूरा कैसे मिलेगा?

ठीक बात है। अधूरे हो तुम, तुम्हारी सब खोज अधूरी रहेगी। लेकिन अखोज पूरी हो सकती है।

तुम जो भी खोजोगे, तुम्हीं खोजोगे, —तुम्हारे हाथ की ही खोज होगी, तुम्हारे जैसी ही रहेगी। तुम जो भी बनाओगे, उसमें तुम्हारी ही छाप होगी। तुम जो भी निर्मित करोगे, सृजन करोगे, वह अधूरा ही होगा। क्योंकि अधूरा बनाने वाला है, तो कृति कैसे पूरी हो सकती है? बिलकुल ठीक बात है।

तुम जो भी सोचोगे, वह अधूरा होगा। तुम जो भी विचार करोगे, वह खंडित होगा। तुम जो भी निष्कर्ष लोगे, वह कभी संपूर्ण और समग्र नहीं हो सकता। तुम श्रद्धा करोगे, तो अधूरी, तुम संदेह करोगे, तो अधूरा। तुम संसार में जाओगे, तो आधे—आधे, तुम मंदिर में प्रवेश करोगे, तो आधे— आधे। क्योंकि तुम अधूरे हो। बात ठीक है।

तो क्या फिर कोई उपाय नहीं है? क्योंकि परमात्मा तो पूरा है और तुम अधूरे हो। और तुम जो भी करोगे, वह सब अधूरा होगा—प्रार्थना भी अधूरी, साधना भी अधूरी, समाधि भी अधूरी। तो तुम पूरे परमात्मा को कैसे पाओगे?

पा सकते हो। क्योंकि एक उपाय है। विचार तो तुम करोगे, अधूरा होगा। लेकिन निर्विचार कैसे अधूरा होगा! क्योंकि वह कोई कृत्य तो नहीं है। विचार अधूरा होगा। इसलिए तो विचार से कोई परमात्मा को नहीं पा सकता। अधूरे से पूरे को पाओगे कैसे? लेकिन निर्विचार? निर्विचार तो अधूरा नहीं होगा, क्योंकि वह तुम्हारा कोई कृत्य नहीं है। निर्विचार तो तुम्हारे कर्ता के हट जाने का नाम है, वह तो अभाव है। अभाव तो पूरा हो सकता है।

तुम मौजूद हो, तो अधूरे रहोगे। लेकिन तुम गैर—मौजूद हो, तब तो पूरे हो सकते हो। अहंकार अधूरा होगा; निरअहंकार पूरा हो सकता है। विचार अधूरा, शून्य पूरा हो सकता है। खोजोगे, तो अधूरा रहेगा; नहीं खोजोगे, तो? खोज छोड्कर वृक्ष के नीचे बैठे हो, कुछ नहीं खोज रहे, उस क्षण में तो तुम पूरे हो जाओगे। तुम्हारी दौड़ .तो अधूरी रहेगी, लेकिन तुम बैठे हो, दौड़ ही नहीं रहे, तो तुम्हारा बैठना कैसे अधूरा होगा? वह तो पूरा हो सकता है।

इसलिए अक्रिया पर इतना जोर है, शून्य पर इतना जोर है, ध्यान का इतना आग्रह है। क्योंकि वही एक संभावना है तुम्हारे भीतर, जिससे पूरा तुम्हारे भीतर उतर सकता है।

तुम शून्य हो जाओ। शून्‍य अधूरा होता ही नहीं। या तो होता है या नहीं होता। या तो तुम शून्य हो ही न पाओगे, तब शून्य है नहीं। या शून्य होगा, तो पूरा होगा। शून्य अधूरा कभी नहीं होता।

तुमने आधा वर्तुल सुना है, हाफ सर्किल? होता ही नहीं। वर्तुल का मतलब ही पूरा होता है। आधा हुआ, तो वह सर्किल है ही नहीं। उसको वर्तुल कैसे कहोगे?

तुमने आधे जिंदे आदमी देखे होंगे, तुमने आधा मरा हुआ आदमी देखा है? तुम्हें लगेगा कि यह बात तो एक ही है। चाहे इसको आधा जिंदा कहो, चाहे आधा मरा!

नहीं, बात एक नहीं है। आधा जिंदा आदमी होता है। सच में सभी लोग आधे जिंदा हैं। लेकिन आधा मुरदा तुमने देखा है? आधा मुरदा कोई कैसे हो सकता है? आधा मुरदे का तो मतलब हुआ, अभी जिंदा है, अभी आशा है, अभी फिर उठ सकता है। आधे मुरदे को अस्पताल से डाक्टर तुम्हें ले जाने न देंगे। वे कहेंगे, रुको। अभी आक्सीजन लगाते हैं, अभी इंजेक्शन देते हैं; अभी तो यह आदमी आधा ही मरा है। आधा मरा है, मर नहीं गया है।

जब कोई मरता है, तो पूरा मरता है। आधे तुम जी सकते हो, क्योंकि जीना तुम्हारे हाथ में है। आधे तुम मर नहीं सकते, क्योंकि मरना परमात्मा के हाथ में है।

इसे थोड़ा समझो।

ध्यान एक मृत्यु है। वहा तुम मर जाते हो। तुम सब परमात्मा पर छोड़ देते हो। वहा तुम मिट जाते हो। एक खाली जगह रह जाती है हृदय में। वह खाली जगह सदा पूरी है। वहा कुछ भी नहीं है। उस खाली में ही उतरता है प्रीतम, उस खाली मंदिर में ही प्यारा आता है। जब तक तुम हो, तब तक वह आ न सकेगा। तुम भरे हो जगह को। तुम नही होओगे, वह आ जाएगा। तुम्हारा न होना परमात्मा के होने की विधि है।

चौथा प्रश्न : आपने बताया कि परमात्मा उनको ही स्वीकार करता है, जो अखंड उसके पास पहुंचते हैं। लेकिन कुब्जा, जिसके सब अंग विकृत हैं, वह भी कृष्ण की प्रिय गोपी है। वह किस गुण के कारण कृष्ण को पाने में सफल हुई?

 

सका प्रेम पूरा है। और प्रेम भी जब होता है ., तो पूरा होता है; आधा नहीं होता। इसलिए तो मैं कहता हूं? प्रेम प्रार्थना है। जीसस ने तो कहा, प्रेम परमात्मा है। अप्रेमी शरीर देखता है, प्रेमी शरीर को देखता ही नहीं। अगर शरीर दिखता रहे, तो समझना कि कामवासना है, प्रेम नहीं। तो फिर कृष्ण ने भी देखा होता, यह कुब्जा, यह तो सब तरफ से विकृत है, अपंग है, आड़ी—तिरछी है। यह तो बहुत कुरूप लगी होती।

लेकिन कृष्ण तो शरीर को देख ही नहीं रहे हैं। शरीर तो ऊपर की खोल है। जैसे तुम्हारे वस्त्रों को देखकर कोई तुम्हें इनकार कर दे। वस्त्र तो तुम नहीं हो, शरीर भी तुम नहीं हो। जिसने तुम्हारे शरीर को देखकर इनकार किया है या शरीर को देखकर अंगीकार किया है, उसने तुम्हें तो अभी देखा ही नहीं।

यही तो संसार में प्रेमियों का कष्ट है। प्रेमी एक—दूसरे से कहते ही रहते हैं कि तुम मुझे अभी समझे नहीं, निरंतर कहते हैं। वर्षों साथ रहते हैं और यही कहते हैं कि तुम मुझे समझे नहीं। क्या

अड़चन है? समझने में ऐसी मुश्किल क्या है?

मुश्किल यही है कि प्रेमी चाहता है कि तुम मेरे शरीर को मत देखो, मुझे देखो। शरीर मैं नहीं हूं। प्रेयसी भी यही चाहती है कि तुम मुझे मत देखो, मेरे शरीर को मत देखो। यह मैं नहीं हूं। मुझसे जरा पार उठो, जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है, उससे जरा भीतर आओ। वही मेरा असली होना है। तुम बाहर मत अटको।

लेकिन वह देखती है, पति का प्रेम शरीर से है। पति देखता है, पत्नी का प्रेम भी शरीर से है, मोह भी शरीर से है, लगाव भी शरीर से है। भीतर को तो कोई देखता नहीं है, इसलिए तड़फ पैदा होती है। और जब तक तुमने भीतर को नहीं देखा, तब तक बिलकुल स्वाभाविक पीड़ा है, क्योंकि तब तक प्रेम तो पैदा होता ही नहीं। शरीर का संबंध है, काम। मन का संबंध है, मोह। आत्मा का संबंध है, प्रेम। और परमात्मा का संबंध है, प्रार्थना।

तो कुब्जा पूरी ही आई थी। तुम्हें दिखाई पड़ती है कि उसके सब अंग विकृत हैं, क्योंकि तुम्हारे पास और गहरे देखने की आंख नहीं है।

बड़ी मीठी कथा है, कि जनक ने एक बड़ी शास्त्रार्थ—सभा बुलाई थी। बड़े—बड़े पंडितों को निमंत्रण दिया था। वे सब विवाद के लिए आ गए थे। एक ब्राह्मण को निमंत्रण नहीं दिया गया था, क्योंकि वह सभा के योग्य न था।

हमारे पास शब्द है, सभ्य या सभ्यता। वह सभा से ही बना है। सभ्य का मतलब होता है, सभा में बैठने योग्य। और सभ्यता का मतलब होता है, जो सभा में बैठने योग्य है, वह सभ्यता को उपलब्ध हो गया।

एक ब्राह्मण भर को राजधानी में छोड़ दिया था, निमंत्रण न दिया था। वह था अष्टावक्र। उसका शरीर आठ जगह से तिरछा था। अब आठ जगह से तिरछे आदमी को सभा में बुलाकर क्या और हंसी करवानी? वह चलता, तो लोग हंसने लगते। उसका सारा व्यक्तित्व एक व्यंग्य था। वह कार्टून ज्यादा रहा होगा, बजाय आदमी के। आठ जगह से तिरछा! एकाध जगह से तिरछा होना ही काफी उपद्रव कर देता है, आठ स्थानों से तिरछा था। कैसे चलता था, वह भी एक चमत्कार रहा होगा। उसकी चाल ऊंट जैसी रही होगी। उस पर अगर तुम सवारी करते, तो मुश्किल में पड़ जाते। जैसा ऊंट पर बैठना मुश्किल हो जाता है। बड़े अभ्यास की जरूरत हैं।

लेकिन उसे तो कुछ पता ही नहीं था कि यह सभा हो रही है और विवाद हो रहा है। उसे तो कुछ काम आ गया और पिता को कुछ बात कहनी थी। खोजा, तो पिता घर में न मिले। पूछा, तो पता चला, वे राज—दरबार गए हैं। तो वह पिता को मिलने राज—दरबार पहुंच गया। ऐन वक्त पर उसको छोड़ दिया था, वह ऐन वक्त पर हाजिर हो गया। संयोग की बात।

बड़ा विवाद चल रहा था, ब्रह्मज्ञान की चर्चा चल रही थी। सब रुक गई। लोग हंसने लगे। जैसे ही वह राज—दरबार में प्रविष्ट हुआ, जनक तक को हंसी आ गई। और लोग तो मुंह रोक लिए। उस अष्टावक्र ने चारों तरफ देखा और वह भी खिलखिलाकर हंसा। वह आदमी गजब का था। उस जैसे गजब के आदमी जमीन पर बहुत थोडे हुए हैं, अंगुलियों पर गिने जा सकें।

उसके हंसने से सन्नाटा छा गया दरबार में। क्योंकि किसी ने यह न सोचा था कि वह हंसेगा। जनक ने पूछा, हम क्यों हंसते हैं, वह तो साफ है। तुम क्यों हंस रहे हो? उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि मैंने घर में सुना, मां ने कहा कि पंडितों की बड़ी सभा है, ब्राह्मणों की, ब्रह्मज्ञानियों की। यहां सब चमार इकट्ठे हैं। क्योंकि जिनको चमडी दिखाई पड़ती है, वे चमार हैं। इनमें से आत्मा किसी को दिखाई नहीं पडती। मेरा शरीर आठ जगह से झुका है, यह सच है। लेकिन इनमें एक भी ब्रह्मज्ञानी नहीं है। इन मूढ़ों के साथ क्यों समय खराब कर रहे हो! अगर इनमें एक भी ब्रह्मज्ञानी होता, तो वह मुझे देखता, मेरे शरीर को नहीं।

जनक चरणों पर गिर पड़े अष्टावक्र के। और बात सच थी। ज्ञानी कहीं शास्त्रार्थ के लिए सभाओं में इकट्ठे होते हैं? कि विवाद करने आते हैं? कि प्रतियोगिता जीतने आते हैं? ज्ञानी को अब जीतने को कुछ बचा? और ज्ञानी को कोई पुरस्कार शेष रहा जो जनक दे सकते हैं? जनक के पास क्या रखा है? जिनको दिखाई पड़ता है जनक के पास कुछ है, वे अज्ञानी हैं, तभी दिखाई पड़ता है।

अष्टावक्र तो चला गया, लेकिन जनक के मन में एक आग की लपट छोड़ गया। अष्टावक्र का पीछा किया जनक ने। और जनक की जिज्ञासाओं से इस पृथ्वी पर एक श्रेष्ठतम ग्रंथ का जन्म हुआ, वह है अष्टावक्र—गीता। कृष्ण की गीता भी फीकी है। उसको मैं महागीता कहता हूं। तुम जैसे—जैसे तैयार हो जाओगे, वैसे—वैसे उस पर मैं तुमसे बात करूंगा।

कृष्ण की गीता फीकी है। अष्टावक्र की गीता का कोई मुकाबला। ही नहीं। कारण है, क्योंकि कृष्ण तो एक अज्ञानी से बात कर रहे हैं, अर्जुन से। लेकिन अष्टावक्र ने जो बात की है, वह जनक से है। वह अर्जुन से बहुत ऊंची अवस्था का व्यक्ति है। तभी तो पंडितों की सभा छोड्कर अष्टावक्र के चरणों का दास हो गया। बात समझ में आ गई, एक क्षण में समझ में’ आ गई। एक बिजली कौंधी और दृश्य दिखाई पड़ गया कि बात सच है। सब चमार इकट्ठे हैं। फिजूल इनके साथ समय गंवा रहा हूं। बोध जग गया।

अर्जुन ने तो वहा से पूछा है, जहां से राजसी व्यक्ति पूछ सकता है। और अर्जुन ने वहा से पूछा है, जहां से राजसी व्यक्ति तमस में गिरना चाहता है। इसे तुम ठीक से समझ लो।

अर्जुन कहता है, मैं संन्यस्त हो जाऊं। उसके संन्यास का मतलब इतना ही है कि इस भाग—दौड़ की अब मेरी हिम्मत नहीं। वह यह कह रहा है, मैं आलस्य में गिर जाऊं। अर्जुन अगर संन्यास लेगा, तो सत्य में नहीं उठेगा। क्योंकि उसके संन्यास का कारण वीतरागता नहीं है। उसके संन्यास का कारण अपनों से मोह है। ये अपने ही प्रियजन खड़े हैं, जिनको काटना पड़ेगा। यह मोहग्रस्त आदमी है। यह अगर संन्यासी होगा, तो तमस में गिरेगा। इसका संन्यास तामसी का होगा।

जनक भी राजसी व्यक्ति थे। लेकिन अष्टावक्र की मौजूदगी ने और अष्टावक्र के इस उदघोष ने कि क्या चमारों के साथ समय खराब कर रहे हो; एक बिजली कौंधा दी। एक क्षण में जनक का राजसी व्यक्तित्व खो गया और सत्व का जन्म हुआ।

दोनों ही राजसी थे, क्योंकि दोनों ही क्षत्रिय थे। दोनों ही सम्राट थे, अर्जुन और जनक। पर फर्क कहां था? जनक नीचे की तरफ नहीं जा रहा है, ऊपर की तरफ जा रहा है। दोनों रजस में खड़े हैं, एक ही सीढ़ी पर खड़े हैं। लेकिन जनक का पैर ऊपर की सीढ़ी पर पड़ रहा है, सत्व की तरफ; और अर्जुन का पैर नीचे की सीढ़ी की तरफ पड़ रहा है, तमस की तरफ।

इसलिए कृष्ण गीता को उतना ऊंचा नहीं ले जा सके, जितना अष्टावक्र ले जा सका। अष्टावक्र की गीता का कोई मुकाबला ही नहीं। वह बेजोड़ है। भारत में अगर एक शुास्त्र बचाना हो और सबको नष्ट करना हो, तो अष्टावक्र की गीता बचा लेनी चाहिए। बाकी सब जला दो, कुछ हर्जा न होगा। लेकिन अष्टावक्र की गीता खो जाए, तो भारत का मूलधन खो जाएगा।

ऐसी ही स्त्री है कुब्जा, अष्टावक्र जैसी।’ वैसी ही आड़ी—तिरछी। कृष्ण को तो दिखाई पड़ेगा, कृष्ण कोई चमार तो नहीं हैं। कृष्ण तो ब्रह्मज्ञानी हैं, ब्रह्म हैं। उनको तो आड़ा—तिरछापन कुछ अर्थ नहीं रखता। और शरीर आड़ा हो, कि तिरछा हो, कि सुडौल हो, क्या फर्क पडता है! भीतर कौन है? भीतर अखंड प्रेम जल रहा है।

परमात्मा के पास अखंड ही होकर पहुंच सकते हो। क्योंकि वह अखंड है। उससे मिलने का उपाय अखंडता है। खंड—खंड तुम रहोगे, तो अखंड से कैसे मिलोगे? समान ही समान से मिल सकता है।

पांचवां प्रश्न : जम्हाई, यानिंग का शरीर के लिए क्या उपयोग है? क्या वह तमस की शरीरगत प्रक्रिया ही है? या हमेशा मन के ऊबने का सूचक है?

मझना पड़े।

जम्हाई, यानिंग पैदा होती है, उसकी एक विशेष यात्रिक व्यवस्था है शरीर में, उसे पहले समझ लें। वह व्यवस्था यह है कि जब भी तुम सोने को तैयार होते हो, तुम्हारा शरीर सोने को तैयार होता है, जब भी नींद आने लगती है, शरीर थक गया है काम से, जागने से, और नींद आसन्न है, आने के करीब है, तो तुम्हारी श्वास की प्रक्रिया में परिवर्तन होता है।

साधारणत: जब तुम जागे हो, तब तुम ज्यादा आक्सीजन लेते हो; उसकी जरूरत है जागने के लिए। तुम दौड़ रहे हो अगर, बहुत काम में लगे हो, तो बहुत जोर से श्वास लेनी पड़ती है। क्योंकि शरीर बहुत—सी आक्सीजन जलाता है। तो और आक्सीजन की जरूरत है। तो दौड़ने में तुम्हें जोर से श्वास लेनी पड़ती है। खाली बैठे हो, तो उतनी श्वास नहीं लेनी पड़ती, क्योंकि शरीर कोई जलाता नहीं। श्वास का कोई उपयोग ज्यादा नहीं है।

जब सोने जा रहे हो, तब तो आक्सीजन बहुत कम चाहिए शरीर में। इसलिए श्वास धीमी हो जाती है और शरीर के भीतर कार्बन डाय आक्साइड इकट्ठा होने लगता है। जितनी मात्रा कार्बन डाय आक्साइड की भीतर इकट्ठी होगी, उतनी ही गहरी नींद आएगी। जितनी कम मात्रा इकट्ठी होगी, उतनी ही उथली नींद आएगी। और अगर मात्रा इकट्ठी ही न हो, तो नींद आना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए तो रात में सारी प्रकृति सोती है, दिन में नहीं। क्योंकि जैसे ही सूरज ढल जाता है, हवाओं में कार्बन डाय आक्साइड की मात्रा बहुत बल्लू जाती है, वृक्ष सो जाते हैं, पशु—पक्षी सो जाते हैं, आदमी सोने लगता है। जैसे ही सूरज उगता है, सूरज के साथ ही आक्सीजन की मात्रा बढ़ती है। सारे वृक्ष, पशु—पक्षी उठने लगते हैं। नींद यानी कार्बन डाय आक्साइड की एक खास मात्रा जरूरी है। और जागना यानी आक्सीजन की एक खास मात्रा जरूरी है।

इसीलिए कभी—कभी तुमने खबर अखबारों में देखी होगी कि एक ही कमरे में सर्दी के दिनों में किसी पहाड़ी इलाके में बहुत—से लोग सो गए और मर गए। क्योंकि बहुत—से लोगों के सोने से इतनी कार्बन डाय आक्साइड इकट्ठी हो गई, और द्वार—दरवाजे बंद थे, कि नींद तो नींद, मौत आ गई। या कमरे में अगर तुम सब तरफ से दरवाजा बंद कर लो और आग जलाकर सो जाओ, तो भी मौत हो सकती है। क्योंकि आग आक्सीजन को जला डालती है और कार्बन डाय आक्साइड को पैदा कर देती है।

अगर कार्बन डाय आक्साइड की मात्रा ज्यादा हो जाए, तो उसमें नींद इतनी गहरी लग जाएगी कि फिर खुलेगी ही नहीं। अगर आक्सीजन की मात्रा बहुत ज्यादा हो जाए, तो तुम सो न सकोगे। इसलिए रजस गुण का व्यक्ति सो नहीं पाता। क्योंकि वह इतना दौड़ता है जीवन में, इतना भागा, इतनी आपा— धापी करता है कि उसकी श्वास की प्रक्रिया आक्सीजन के साथ एक निश्चित अनुपात बना लेती है। वह जब सोने भी जाता है, तब भी श्वास की प्रक्रिया वही बनी रहती है, उसका वह अभ्यासी हो गया, वह शिथिल नहीं हो पाता।

बौद्ध भिक्षु विपश्यना नाम का ध्यान करते हैं। उस ध्यान में श्वास पर ध्यान रखना पड़ता है चौबीस घंटे, जब तक होश रहे। बौद्ध भिक्षुओं की नींद बहुत कम हो जाती है।

एक भिक्षु को सीलोन से मेरे पास लाया गया; वह तीन साल से सो ही न सका था। वह बिलकुल पागल हुआ जा रहा था। वह पागल हो ही चुका था। चिकित्सक हार गए। लेकिन किसी चिकित्सक ने यह तो पूछा ही नहीं कि तू भीतर क्या करता है? उन्होंने ट्रैंक्येलाइजर दिए और बड़े डोज दिए, सब किया, लेकिन उसको नींद न आए।

उसको मेरे पास लाया गया। मैंने पूछा कि तू विपश्यना तो नहीं कर रहा है? उसने कहा, विपश्यना तो कर ही रहा हूं। क्योंकि बौद्ध भिक्षु हूं।

विपश्यना ऐसा ध्यान है कि जब तुम श्वास पर ध्यान रखते हो कि श्वास भीतर गई, तुम भी भीतर जाते हो। श्वास बाहर गई, तुम उसके साथ बाहर जाते हो। चेतना श्वास के साथ ही डोलती है। इस चेतना के जोड़ के कारण श्वास बहुत गहरी हो जाती है। और इसका अभ्यास अगर गहरा हो जाए, तो नींद खो जाएगी। इतनी भी खो जा सकती है कि बिलकुल ही नष्ट हो जाए।

वह आदमी बिलकुल पागल अवस्था में था। मैंने कहा, तीन महीने के लिए तू विपश्यना छोड़ दे। फिर धीरे— धीरे शुरू करेंगे, लेकिन अभी तो छोड़ ही दे।

तीन महीने विपश्यना छोड़ देने से कोई चौथे—पांचवें सप्ताह नींद का आगमन शुरू हो गया। तीन महीने पर वह पूरी तरह सो रहा था। तो जब तुम नींद के करीब पहुंच रहे हो, थक गए दिनभर की दौड़ से, तो शरीर इकट्ठी करता है कार्बन डाय आक्साइड। तुम्हें बिस्तर पर चले जाना चाहिए। अगर तुम नहीं जाते किन्हीं कारणों से, जैसा कि मनुष्य नहीं जाता.।

कोई जानवर यानिंग नहीं करता, क्योंकि जब उसे नींद आती है, तब वह सो जाता है। सिर्फ आदमी जम्हाई लेता है या आदमी के द्वारा पाले गए जानवर कभी—कभी लेते हैं। लेकिन जंगल में कोई जानवर नहीं लेता, कोई सवाल ही नहीं है।

नींद आने को है, लेकिन तुम बैठे फिल्म देख रहे हो। शरीर तैयार है नींद के लिए, क्योंकि शरीर को फिल्म से कोई लेना—देना नहीं है। कार्बन डाय आक्साइड इकट्ठा हो गया और तुम जबरदस्ती अपने को जगा रहे हो। तो कार्बन डाय आक्साइड झटके के साथ बाहर निकलता है। वही जम्हाई है। इसलिए तुम पूरा मुंह बा देते हो। और उस पूरे मुंह से पूरी कार्बन डाय आक्साइड बाहर निकल जाती है और आक्सीजन भीतर चली जाती है।

वह शरीर का इमरजेंसी, संकटकालीन कृत्य है। क्योंकि इतनी कार्बन डाय आक्साइड है और तुम जगने की कोशिश कर रहे हो। तुम धर्मसभा में बैठे हो, या तुम भजन कर रहे हो, या तुम ध्यान कर रहे हो, लेकिन शरीर सोना चाहता है। शरीर के खिलाफ जब तुम कुछ करोगे, तो शरीर तो तैयारी कर रहा है सोने की और तुम सोने नहीं जा रहे हो, तो शरीर क्या करे? उसने कार्बन डाय आक्साइड इकट्ठी कर ली। वह उसे फेंकेगा बाहर। कार्बन डाय आक्साइड को फेंकने से यानिंग पैदा होती है, जम्हाई पैदा होती है।

ऐसी जम्हाई बिना नींद के भी कभी—कभी पैदा होती है, जब तुम उबे होते हो। लेकिन प्रक्रिया वही है। जैसे कि तुम किसी को सुन रहे हो और ऊब गए हो सुनते—सुनते। तुम धर्मसभा में बैठे हो, कोई समझाए जा रहा है। और तुम सुनना भी नहीं चाहते हो और छोड़ने की भी हिम्मत नहीं कर सकते, क्योंकि लोग क्या कहेंगे। हट भी नहीं सकते, जा भी नहीं सकते, तो तुम क्या करोगे?

ऐसी हालत में, जब तुम ऐसी कोई चीज सुन रहे हो, जो तुम नहीं सुनना चाहते, या तुम थक गए हो, या तुम्हारी समझ के बाहर है, तुम्हारी बुद्धि से ऊपर है, वह तुम्हारी पकड़ में नहीं आ रही—जब भी ऐसा होता है, तब भी तुम्हारी श्वास धीमी हो जाती है। उसके पीछे कारण है।

किसी छोटे बच्चे को गौर से देखो। अगर तुम बच्चे को कोई चीज समझाना चाहते हो और वह नहीं समझना चाहता, तो वह दो काम करेगा। वह एक तो अपनी पीठ पीछे की तरफ अकड़ा लेगा और श्वास धीमी कर लेगा, अगर वह नहीं मानना चाहता तो। तुम उसकी श्वास और उसके शरीर के खड़े होने का ढंग देखकर समझ सकते हो, वह मानने को राजी नहीं है। हो सकता है, वह तुम्हारे डर से सुन रहा है, लेकिन मानने को राजी नहीं है।

जब भी तुम किसी चीज को भीतर नहीं जाने देना चाहते, तब तुम श्वास को धीमा कर देते हो, क्योंकि श्वास से चीजें भीतर जाती हैं। जब तुम किसी चीज को भीतर ले जाना चाहते हो, तब तुम गहरी श्वास लेते हो। क्योंकि श्वास से चीजें भीतर जाती हैं। जब तुम किसी चीज को भीतर ले जाना चाहते हो, तब तुम्हारी रीढ़ सीधी हो जाती है। जब तुम किसी चीज को भीतर नहीं ले जाना चाहते, तब तुम्हारी रीढ़ पीछे की तरफ झुक जाती है। जब तुम किसी चीज को बहुत ही आग्रहपूर्वक भीतर ले जाना चाहते हो, तुम आगे झुक जाते हो।

श्वास की प्रक्रियाएं तुम्हारे मनोभाव पर निर्भर होती हैं। अगर तुम अपने प्रेमी के पास बैठे हो, तो तुम गहरी श्वासें लोगे। अगर तुम दुश्मन के पास बैठे हो, तो तुम श्वास सधी हुई लोगे, धीमी लोगे। क्योंकि दुश्मन तुम्हारे चारों तरफ जो तरंगें फेंक रहा है, वह तुम्हारी श्वास .से भीतर जा सकती हैं।

जब तुम बगीचे में आते हो, तुम गहरी श्वास लेते हो। जब तुम किसी दुर्गंध से भरी गली में से निकलते हो, तब तुम श्वास रोक लेते हो, तुम नाक पर हाथ रख लेते हो। क्योंकि श्वास के साथ दुर्गंध भीतर जाती है, सुगंध भीतर जाती है। श्वास के साथ तमस भी भीतर जाता है, सत्व भी भीतर जाता है। श्वास के साथ साधु भी भीतर जाता है, असाधु भी भीतर जाता है। श्वास सेतु है तुम्हारे भीतर लाने ले जाने का।

इसलिए जब तुम किसी दुश्मन के पास खड़े हो, तुम्हारी श्वास अकड़ जाती है। जब तुम कोई ऐसी बात सुन रहे हो, जो तुम्हारी समझ में नहीं आती या तुम सुनना नहीं चाहते या जबरदस्ती आ गए हो, तब तुम्हारी श्वास धीमी हो जाती है और कार्बन डाय आक्साइड इकट्ठा होने लगता है। जब बहुत कार्बन डाय आक्साइड इकट्ठा हो जाता है, तब शरीर को उसे बाहर फेंकना पड़ता है। क्योंकि उसे शरीर अगर न उलीचे, तो तुम यहीं सो जाओगे। वह घबड़ाहट है। तो शरीर उसे उलीच देता है।

इसलिए सभाओं मैं या किसी उबाने वाले आदमी की बातचीत सुन—सुनकर तुम जम्हाई लेने लगते हो। या पत्नी कुछ सुना रही है, अपना राग रो रही है, तो पति जम्हाई लेता है। वह यह कह रहा है, कृपा करो। उसका पूरा शरीर कहता है कि नहीं सुनना है। लेकिन वह यह कह भी नहीं सकता। लेकिन शरीर से प्रकट कर रहा है। या कोई मित्र आ गया; बकवासी है, और तुम्हारा सिर खा रहा है। शरीर जम्हाई लेने लगता है। शरीर उसे खबर दे रहा है कि अब जाओ भी।

मैंने सुना है, अल्वर्ट आइंस्टीन एक मित्र के घर भोजन के लिए गया था। वह भुलक्कड़ था, जैसा कि बहुत बड़े विचारक अक्सर हो जाते हैं। जितना बड़ा विचारक हो, उतना भुलक्कडू हो जाता है। और जितना बड़ा ध्यानी हो, उतनी ही उसकी स्मृति सध जाती है। विचारक भुलक्कड़ हो जाता है, क्योंकि इतना कूड़ा—कर्कट सम्हालना पड़ता है उसको। ध्यानी की स्मृति सम्यक हो जाती है, वह भूलता ही नहीं। वह याद नहीं रखता किसी को, फिर भी भूलता नहीं। और विचारक याद रखने की कोशिश करता है, तो भी भूल— भूल जाता है, क्योंकि इतनी चीजें सम्हालता है। ध्यानी कुछ सम्हालता ही नहीं, वह खाली ही रहता है। सब अपने से सम्हला रहता है।

आइंस्टीन मित्र के घर बैठकर खाना खाया, पीना चला, गपशप हुई। आइंस्टीन बार—बार अपनी घड़ी देखता है। और परेशान है और जम्हाई ले रहा है। और मित्र भी अपनी घड़ी बार—बार देखता है और जम्हाई ले रहा है। बारह बज गए रात के। अब मित्र घबड़ा भी गया कि अब यह जाए, तो हम सोए। पत्नी भी बेचैन है, बार—बार बाहर— भीतर जाती है कि अब क्या करना। और आइंस्टीन जैसे बड़े आदमी को यह कहा भी नहीं जा सकता कि अब आप जाइए। यह तो सौभाग्य है कि वह आया, अब उसे जाने को कैसे कहें!

आखिर आइंस्टीन ने ही मित्र से कहा कि जम्हाई देखकर ऐसा लगता है, आपको नींद आ रही है। अब जाइए भी, सोइए भी। तो उसने कहा, अब जाएं कैसे! आप जाएं, सोए, तो मैं सोऊ। मेहमान जाए, तो मेजबान……।

आइंस्टीन घबड़ाकर खड़ा हो गया। उसने कहा, हद हो गई, मैं समझ रहा था, अपने घर में हूं और तुम कब जाओ कि मैं सो जाऊं।

और मैं बड़ा सोच रहा हूं कि घड़ी देखता हूं फिर भी तुम्हारी समझ में नहीं आता! जम्हाई लेता हूं फिर भी तुम्हारी समझ में नहीं आता! और इसे देखकर और भी चकित हूं कि तुम भी घड़ी देखते हो और तुम भी जम्हाई लेते हो, फिर भी उठते क्यों नहीं? क्या कहते नहीं बनता कि अब जाऊं!

जम्हाई भाषा है, वह यह कह रही है कि या तो यह बात तुम्हारे लिए नहीं है, बहुत कठिन है। या बहुत उबाने वाली है, रसपूर्ण नहीं है। या तुम इस बात को जानते ही हो पहले से, फिर दुबारा सुन रहे हो, इसमें कुछ सार नहीं है। जम्हाई भाषा है।

लेकिन कारण एक ही है; चाहे नींद की वजह से आए, चाहे ऊब की वजह से आए, दोनों ही हालत में फेफड़ों में कार्बन डाय आक्साइड की मात्रा जरूरत से ज्यादा हो जाती है, जो घातक है। अगर सो जाओ, तब तो ठीक है। अगर न सोओ, तो शरीर को उसे बाहर फेंक देना पड़ता है। इसलिए जम्हाई आती है।

जम्हाई का कोई संबंध तमस से नहीं है। हालांकि तामसी आदमी को ज्यादा आएगी। राजसी आदमी को कम आएगी। सात्विक को शून्यवत हो जाएगी। बहुत मुश्किल से कभी आएगी। जब कि कोई असम्यक स्थिति हो जाए; क्योंकि कभी सात्विक को भी जागना पड़ सकता है। कितने ही सात्विक तुम हो, घर में आग लग गई, तो भी तुम्हें जागना पड़ेगा। तुम सात्विक हो और पत्नी मर रही है, तो उसके बिस्तर के पास बैठना पड़ेगा। ऐसी स्थितियों में ही। अन्यथा सात्विक को साधारणतया जम्हाई नहीं आती।

तमस में बहुत ज्यादा आएगी, क्योंकि वह आदमी चौबीस घंटे सोयी हालत में ही है। उसको जागना कष्टपूर्ण है। राजस को बहुत बार आएगी, क्योंकि वह सोने को तैयार नहीं है, बहुत काम करने हैं; नींद का दुश्मन है; जितना कम सो सके, उतना अच्छा है। क्योंकि उतने काम को, उतने समय को बचाना हो जाएगा, उतने समय में कुछ महत्वाकांक्षा पूरी कर लेगा।

सात्विक की न तो कोई महत्वाकांक्षा है, जिसके पीछे दौड़ना है। इसलिए जब नींद आती है, वह सो जाता है; जब भूख लगती है, वह खाना खा लेता है।

रिंझाई से किसी ने पूछा कि क्या है तुम्हारी साधना? उसने कहा, जब भूख लगती है, तब खाना खा लेते; जब नींद आती, तब सो जाते। बस यही।

सत्य को उपलब्ध व्यक्ति ऐसा ही जीता है। दुर्घटना स्वरूप कभी जम्हाई आ सकती है, अन्यथा कोई कारण नहीं है।

आखिरी प्रश्न : गीता में साधकों के लिए सात्विक भोजन पर बल अवश्य दिया गया है लेकिन उसमें कहीं मांसाहार का स्पष्ट निषेध नहीं है,। और आपने मांसाहार को सुपच बताया और यही डाक्टरों का मत भी है। फिर मांसाहार से क्या बाधा आती है? धर्म—साधना के लिए आपने निरामिष भोजन की उपादेयता पर बहुत बल दिया। लेकिन पुस्तकों से पता चलता है कि प्राय: ही सूफी, झेन और तंत्र मार्ग से सिद्ध हुए संतों का भोजन निरामिष नहीं रहा। और अपने ही देश में परमहंस रामकृष्ण सदा आमिष भोजन लेते रहे। इस विरोध का क्या कारण है?

हली बात, मांसाहार में अपने आप में कोई भी बुराई नहीं है। ध्यान रखना, कह रहा हूं अपने आप में। मेरा मतलब है, अगर वैज्ञानिक सिंथेटिक मांस बना सकें—जो कि जल्दी ही बन सकेगा—कृत्रिम मांस बना सकें, तो वह शाकाहार से भी ज्यादा शाकाहारी होगा। क्योंकि जब तुम फल को वृक्ष से तोड़ते हो, तब भी चोट पहुंचती है। तुम सब्जी काटते हो, तब भी चोट पहुंचती है। कम पहुंचती है।

वृक्षों, सब्जियों के पास उतना ज्यादा विकसित स्नायु—संस्थान नहीं है, जितना पशुओं के पास है। पशुओं के पास उतना विकसित संस्थान नहीं है, जितना मनुष्यों के पास है। इसलिए जो व्यक्ति नर—मांस का आहार करे, उसको तो दुनिया में कोई भी धार्मिक व्यक्ति स्वीकार करने को राजी न होगा, कि यह आदमी का मांस खा रहा है। क्योंकि मनुष्य को मारना बहुत पीड़ादायी है।

जितनी पीड़ा मनुष्य अनुभव करता है मृत्यु में, उतनी पशु नहीं अनुभव करते। क्योंकि मनुष्य के पास सोच—विचार है, मृत्यु का बोध है; मर रहा हूं इसकी समझ है; मारा जा रहा हूं? इसकी समझ है। और चेतना बहुत प्रगाढ़ है। इसलिए मनुष्य को तो कोई धर्म राजी नहीं होगा।

ऐसा लगता है कि हिंदू अतीत में यज्ञ में मनुष्य की बलि चढ़ाते रहे; नरमेध यज्ञ होते रहे। लेकिन धीरे— धीरे उन यज्ञों को करने वालों को भी पता चला कि यह तो अतिशय है। और इस तरह का धर्म तो ज्यादा दिन तक धर्म नहीं समझा जा सकता। इसलिए उन्होंने भी व्याख्या बदल दी। तो उन्होंने भी कहा कि नरमेध सिर्फ नाम के लिए है। मनुष्य का पुतला बना लिया, उसका वध कर दिया।

नरमेध के लिए तो कोई राजी नहीं है। क्यों? क्योंकि मनुष्य से स्वादिष्ट मांस तो और कहीं मिल नहीं सकता। अगर स्वाद ही सवाल है, तो छोटे बच्चों का जैसा मांस स्वादिष्ट होता है, वैसा किसी का भी नहीं होता। और जितना सुपाच्य होता है, वैसा दूसरा मांस नहीं हो सकता। क्योंकि मनुष्य से तालमेल है। तुम्हारे जैसा ही है; जल्दी पच जाता है; समान— धर्मा है।

आदमी वह भी करता है, बच्चे चुराए जाते हैं; होटलों में काटे भी जाते हैं। सारी दुनिया में पता है कि बच्चों का मांस बड़ी होटलों में बिकता है; और लोग बड़े स्वाद से उसका भोजन लेते हैं।

लेकिन इसके लिए तो कोई भी राजी न होगा। क्यों राजी नहीं होते? क्योंकि मनुष्य बहुत ज्यादा संवेदनशील है। उसको मारने में सवाल है। मारना भयंकर हिंसा है। और उस हिंसा को करने को जो राजी है, वह व्यक्ति बहुत तामसी है। भोजन के लिए दूसरे का जीवन छीनने को जो राजी है, उसके तमस का क्या कहना!

नहीं, वह तो कोई नहीं करता। या कभी लोग करते थे, तो बंद हो चुका है। पशुओं का मास चलता है।

लेकिन वे भी काफी संवेदनशील हैं। इसलिए जिनकी धार्मिक संवेदना और भी गहरी है, बुद्ध, महावीर, उन्होंने सिर्फ शाकाहार के लिए कहा। उन्होंने कहा, पशुओं को भी छोड़ दो। क्योंकि तुम मारते’ हो, काटते हो। भला तुम न काटो, कोई और तुम्हारे लिए काटे और मारे; लेकिन किया तो तुम्हारे लिए जा रहा है। तुम जानते तो हो कि भोजन के साधारण से स्वाद के लिए तुम जीवन की इतनी हिंसा कर रहे हो, तो तुम्हारे भीतर तमस बहुत गहरा है, तुम अंधे हो। तुम्हारी संवेदना समुचित नहीं है। तुम मनुष्य होने के योग्य नहीं हो।

इसलिए महावीर ने तो बिलकुल वर्जित किया। बुद्ध ने थोड़ी—सी शर्त रखी। वह शर्त भी बहुत कीमती है। बुद्ध ने कहा कि मरे हुए जानवर का मांस खा लेने में कोई हर्ज नहीं है।

बात तर्कयुक्त है। क्योंकि अगर मारने के कारण ही आदमी तामसी हो जाता है, तो मरे—मराए जानवर का मांस खाने में तो कोई हर्ज नहीं है। इसलिए बौद्ध मरे हुए जानवर का मांस खाने में मांसाहार नहीं मानते। गाय मर ही गई अपने से, हमने मारी ही नहीं, तब इसके मांस को खा लेने में क्या हर्ज है!

लेकिन कृष्ण इससे राजी नहीं हैं। यह मांसाहार बासा है। और बासा भोजन तामसी का है। और मरे हुए जानवर से ज्यादा बासी चीज तो तुम पा ही नहीं सकते दुनिया में। और बासी चीज क्या हो सकती है? जैसे ही जानवर मरता है, उसके सारे मांस और खून का गुणधर्म बदल जाता है। खून तो विलीन ही हो जाता है तत्‍क्षण। और मांस में सड़ने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। क्योंकि मांस तभी तक जीवित था, जब तक प्राण थे। प्राण के हटते ही मास सड़ने लगा; उसमें से दुर्गंध अभी आएगी जल्दी ही। तो वह तो बिलकुल ही बासा भोजन है।

इसलिए सिर्फ शूद्रों ने उसे स्वीकार कर लिया, भारत में चमार ही खाते हैं मरे हुए जानवर का। इसी वजह से जब डाक्टर अंबेदकर ने शूद्रों को आह्वान दिया बौद्ध होने का, तो उन्होंने इसको भी एक दलील बना लिया, कि चमार बौद्ध होने ही चाहिए। क्योंकि बुद्ध भगवान ने आज्ञा दी है मरे हुए जानवर का मांस खाने की और सिर्फ चमार खाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि हो न हो, चमार प्राचीन समय में बौद्ध रहे होंगे। वे भूल गए हैं अपना बौद्ध होना।

तर्क बहुत दूर का मालूम पड़ता है। लेकिन सार उसमें हो सकता है। इसकी संभावना हो सकती है कि मांसाहार मरे हुए जानवर का करने के कारण हिंदुओं ने उस पूरे वर्ग को, जिसने ऐसा मांसाहार किया, शूद्र मान लिया हो। क्योंकि शूद्र की और तमस की कृष्ण की व्याख्या यही है।

बुद्ध ने एक कारण से आज्ञा दी, दूसरे कारण का उन्हें खयाल नहीं है। एक कारण से आज्ञा दी कि मरे हुए को मारा नहीं जाता, इसलिए कोई हिंसा नहीं है। लेकिन मरे हुए जानवर का मांस अति बासा हो गया, मुरदा हो गया, उसको खाने से गहन तमस पैदा होगा। उस तरफ बुद्ध की नजर चूक गई।

इसलिए मैं कहता हूं कि मांसाहार खुद में तो कोई पाप नहीं है, न बुरा है, न तमस है। सुपाच्य है; क्योंकि पचा—पचाया भोजन है। इसलिए तो सिंह एक बार भोजन करता है और फिर चौबीस घंटे की चिंता छोड़ देता है; उतना काफी है। काफी कनसनट्रेटेड भोजन है। थोड़ा—सा कर लिया, बहुत है।

किसी दिन अगर वैज्ञानिक सिंथेटिक मांस बना लेंगे—जों कि उन्हें बना लेना चाहिए जल्दी से जल्दी, जैसे शाकाहारी अंडा उपलब्ध है, ऐसे शाकाहारी मांस जल्दी ही उपलब्ध हो जाएगा—तब मांसाहार, मैं तुमसे कहता हूं शाकाहार से भी ज्यादा शाकाहारी होगा। क्योंकि न तो उसमें हिंसा होगी, न वह बासा होगा। इतनी भी हिंसा न होगी, जितनी फल को तोड्ने से होती है। महावीर ने तो अपने लिए यही नियम बना रखा था कि जो फल पककर गिर जाए, वही खाना है। या जो गेहूं पककर गिर जाए बाल से, वही खाना है।

एक बहुत बड़ा प्राचीन ऋषि हुआ, कणाद। उसका नाम ही कणाद इसलिए पड़ गया कि वह खेतों में जो कण अपने आप गिर जाएं पककर, और वह भी जब खेत की फसल काट ली जाए और किसान सब चीजें हटा ले, तो जो कण पीछे पड़े रह जाएं थोड़े—से गेहूं के, उन्हीं को बीनकर खाता था।

परम अहिंसक रहा होगा कणाद। पका हुआ गेहूं, जो अपने से गिर गया। और वह भी किसान से मांगकर नहीं; क्योंकि किसान पर भी क्यों बोझ बनना! जब पक्षी दाने बीनकर जी लेते हैं, तो आदमी भी ऐसे ही जी ले। तो कणाद का असली नाम क्या था, यही लोग भूल गए हैं। उसका नाम ही कणाद हो गया, कण बीनकर जीने वाला।

अगर कृत्रिम मांस बने, तो वह शाकाहार से भी शुद्ध शाकाहार होगा। लेकिन अभी जैसी स्थिति है, ये दो ही उपाय हैं। या तो जिंदा जानवर को मारकर खाया जाए; उस हालत में कृष्ण के साथ वह आहार राजसी होगा। कम से कम ताजा होगा। बुद्ध और महावीर के अनुसार हिंसात्मक होगा और तमस में ले जाएगा। और दोनों ठीक हैं। आधे—आधे ठीक हैं। दोनों एक—एक पहलू से ठीक हैं।

अगर मरे हुए जानवर को खाया जाए, तो कृष्ण के हिसाब से तामसी होगा, क्योंकि बासा और मुरदा हो गया। तंद्रा बढ़ाएगा, निद्रा लाएगा, मूर्च्छा बढ़ाएगा, शद्रता पैदा करेगा जीवन में। ब्राह्मणत्व का सत्व पैदा नहीं हो सकेगा। लेकिन बुद्ध के हिसाब से, कम से कम हिंसा नहीं होगी। तुम किसी को मारोगे नहीं, इतनी सदवृत्ति रहेगी। इतना तो कम से कम सत की तरफ आगमन होगा, सत्य की तरफ ऊर्ध्वगमन होगा।

मेरे हिसाब से, मांसाहार चाहे मुरदे का हो, चाहे मारे गए जानवर का हो, तमस में गिराएगा नब्बे प्रतिशत मौकों पर। दस प्रतिशत या नौ प्रतिशत मौकों पर रजस में दौड़ाएगा। एक ही प्रतिशत मौका है कि उससे कोई सत्व में उठ सके।

इसे थोड़ा समझना होगा। यह साफ है कि रामकृष्ण मांसाहारी थे; विवेकानंद भी। और फिर भी रामकृष्ण परम ज्ञान को उपलब्ध हुए। जैनों के लिए या सभी सांप्रदायिक लोगों के लिए तो बड़ी सुविधा है इन चीजों का उत्तर देने में। असुविधा मुझे है। जैन कह देंगे कि यह हो ही नहीं सकता कि वे ज्ञान को उपलब्ध हुए, बात खत्म हो गई। रामकृष्ण ज्ञान को उपलब्ध हो ही नहीं सकते। क्योंकि मछली खा रहे हैं; मांस खा रहे हैं; और ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं?

यह बात ही खत्म हो गई। इसलिए जैनों के लिए कोई उत्तर देने का सवाल नहीं है। इसलिए जहां—जहां मांसाहार है, वहां—वहा ज्ञान की संभावना समाप्त हो गई।

हिंदुओं को भी कोई कष्ट नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, आत्मा मरती थोड़े ही है, काटने से भी थोड़े ही मरती है। तुमने मछली को मार दिया, सिर्फ आत्मा को देह से मुक्त कर दिया। दूसरा शरीर धारण कर लेगी। इसलिए कोई अड़चन नहीं है। रामकृष्ण ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं।

अड़चन मुझे है, क्योंकि मैं मानता हूं कि रामकृष्ण ज्ञान को उपलब्ध हुए और वे मांसाहारी हैं। होना नहीं चाहिए वह हुआ। साधारण नियम के हिसाब से जो नहीं होना था, वह हुआ है। वे मांसाहार करते हुए परम ज्ञान को उपलब्ध हुए। इसलिए अड़चन मेरी है, तुम्हें समझ में नहीं आएगी।

मेरी अड़चनें बहुत गहरी हैं। सीधे उत्तर मेरे पास नहीं हैं, क्योंकि उत्तर मैं किसी सिद्धात को देखकर नहीं चलता। मैं स्थिति को देखता हूं। देखता हूं रामकृष्ण ज्ञान को उपलब्ध हुए और यह होना तो नहीं चाहिए; लेकिन हुआ है। इसलिए जाल थोड़ा जटिल है।

तब मुझे मेरी जो दृष्टि है, वह यह है कि रामकृष्ण अत्यंत शुद्ध पुरुष हैं। इसलिए इतनी थोड़ी—सी अशुद्धि उन्हें बाधा न डाल पाई। यह तुम्हारे खयाल में न आ सकेगा। अत्यंत शुद्ध पुरुष हैं। अगर तुम मुझे आज्ञा दो, तो मैं कहना चाहूंगा, महावीर से ज्यादा शुद्ध पुरुष हैं। महावीर अगर मांसाहार करते या मछली खाते, परम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकते थे। लेकिन रामकृष्ण हुए हैं।

इसका अर्थ केवल इतना ही है कि यह व्यक्ति इतना शुद्ध है कि इतनी—सी अशुद्धि इस पर कुछ बाधा नहीं डाल पाई। यह उस अशुद्धि के बावजूद भी पार हो गया।

ऐसा ही समझो कि पहाड़ पर तुम चढ़ते हो। तो पहाड़ पर चढ़ने का नियम तो यही है कि जितना कम बोझ हो, उतना ठीक। और अगर तुम मनों बोझ सिर पर लेकर चढ़ रहे हो, तो चढ़ना मुश्किल हो जाएगा। शायद तुम चढ़ने का खयाल ही छोड़ दोगे, या बीच के किसी पड़ाव पर रुक जाओगे।

लेकिन फिर एक बहुत शक्तिशाली मनुष्य, कोई हरक्यूलिस भारी वजन लेकर पहाड़ पर चढ़ रहा है और चढ़ जाता है। यह नियम नहीं है यह आदमी। यह हरक्यूलिस नियम नहीं है। यह इतना ही बता रहा है कि यह इतना शक्तिशाली पुरुष है कि उतना—सा वजन इसे चढ़ने में बाधा नहीं डालता। यह उस वजन के साथ चढ़ जाता है। तुम कमजोर हो, तुम उस वजन के साथ न चढ़ सकोगे। रामकृष्ण अपवाद हैं, नियम मत बनाना। निन्यानबे आदमियों को मांसाहार छोड्कर ही जाना पड़ेगा। महावीर, बुद्ध को जाना पड़ा है मांसाहार छोड्कर, तो तुम अपनी तो फिक्र ही छोड़ देना। तुम अपना तो हिसाब ही मत लगाना। अपनी तो गणना ही मत करना। तुम महावीर और बुद्ध से ज्यादा पवित्र आदमियों की कल्पना भी कैसे कर सकते हो! उनको भी छोड़ देना पडा। उनको भी लगा कि यह बोझ है। और यह बोझ अटकाएगा, यात्रा पूरी न होने देगा। यह गौरीशंकर तक नहीं पहुंचने देगा, बीच में कहीं पड़ाव बनाना पड़ेगा; थककर बैठ जाना पड़ेगा।

गौरीशंकर तक चढ़ते—चढ़ते तो सभी बोझ छोड़ देना होता है। सत्य की आखिरी ऊंचाई पर तो सब चला जाना चाहिए। यह नियम है। लेकिन कभी कोई जीसस, कभी कोई मोहम्मद और कभी कोई रामकृष्ण मांसाहार करते हुए भी वहा पहुंचे हैं। वे हरक्यूलिस हैं। उनका तुम ज्यादा विचार मत करो। उनसे तुम्हें कोई लाभ न होगा। तुम उनको अपवाद समझो।

और अपवाद सिर्फ नियम को सिद्ध करते हैं। अपवाद से अपवाद सिद्ध नहीं होता, सिर्फ नियम सिद्ध होता है। उससे केवल इतना ही पता चलता है कि यह भी संभव है अपवाद क्षणों में, कि कोई व्यक्ति इतना परम शुद्ध हो जाए कि मांसाहार कोई अशुद्धि पैदा न करता हो।

ऐसे शुद्ध पुरुष हुए हैं। जैसे कृष्ण हैं, कृष्ण ने ब्रह्मचर्य साधा, इसकी कोई खबर नहीं है। नहीं साधा, ऐसा लगता है। हजारों स्त्रियों के साथ राग—रंग चलता रहा। और कृष्ण फिर भी खंडित न हुए, नीचे न गिरे। उनके ऊर्ध्वगमन में कोई बाधा न आई। वे गौरीशंकर के शिखर पर पहुंच गए।

लेकिन इससे तुम मत सोचना कि यह नियम है। यह अपवाद है। तुम्हारे लिए तो ब्रह्मचर्य उपयोगी होगा। तुम्हारे पास तो शक्ति इतनी कम है कि तुम उसे ब्रह्मचर्य में न बचाओगे, तो तुम्हारे पास ऊर्ध्वगमन के लिए ऊर्जा न बचेगी।

कृष्ण के पास रही होगी बहुत ऊर्जा। कोई अड़चन न आई। सोलह हजार रानियों के साथ नाचते रहे। हजार—हजार प्रेम चलते रहे, कोई अड़चन न आई। यह सिर्फ अपवाद है।

और मेरी अड़चन तुम खयाल में रखो। क्योंकि मैं इन सब विपरीत लोगों में देखता हूं कि ये सब पहुंच गए। इसलिए मैं कहता हूं सिद्धात आदमियों से बड़ा नहीं है। और सिद्धात से आदमियों को कभी मत कसना। पहले आदमी को सीधा—सीधा देखना और फिर सिद्धात को उस पर कसना।

महावीर जो कहते हैं, वह निन्यानबे के लिए सही है। और निन्यानबे प्रतिशत लोग ही असली लोग हैं। रामकृष्ण अनुकरणीय नहीं हैं। उनका अनुकरण करोगे, तो तुम भटकोगे। अनुकरणीय तो बुद्ध और महावीर हैं। वे तुम्हें ज्यादा निकट तक गौरीशंकर के पहुंचा देंगे।

रामकृष्ण को मानकर तुम चलोगे, तो तुम मछली तो खाते रहोगे, मांसाहार तो करते रहोगे, रामकृष्ण कभी न हो पाओगे। और रामकृष्ण के मानने वाले वहीं भटक रहे हैं। रामकृष्ण के बाद एक भी रामकृष्ण की स्थिति में उपलब्ध नहीं हुआ, विवेकानंद भी नहीं। और सैकड़ों संन्यासी हैं रामकृष्ण के—कचरा, कूड़ा—कर्कट। क्योंकि वह रामकृष्ण अपवाद हैं। वह झंझट की बात है।

रामकृष्ण जैसे लोगों का धर्म नहीं बन सकता, बनना नहीं चाहिए। ये धर्म के बाहर हैं। ये सीमा के बाहर हैं। ये ट्रेसपासर्स हैं। ये ऐसे लोग हैं, जो पीछे के दरवाजे से बागुड़ तोड़कर न मालूम कहां—कहां से घुसते हैं, सीधे दरवाजे से नहीं। तुम्हें तो सीधे दरवाजे से ही जाना पड़ेगा।

इसलिए रामकृष्ण जैसे लोगों का कोई धर्म नहीं बनना चाहिए, कोई संघ नहीं बनना चाहिए। इनके पीछे रामकृष्ण मिशन जैसा कोई प्रचार नहीं होना चाहिए। क्योंकि ये आदमी अपवाद हैं, इनको अनूठा रहने दो। ये कोहिनूर हीरे जैसे हैं। इनकी भीड़ मत लगाओ। धर्म तो बनना चाहिए बुद्ध और महावीर जैसे लोगों का। उनका !, महासंघ होना चाहिए। करोड़—करोड़ उनके अनुयायी हों। जितने हों, उतने कम। क्योंकि उनसे निन्यानबे प्रतिशत को मार्ग मिलेगा। जीसस से लाभ नहीं हुआ ईसाइयों को। हो नहीं सकता। क्योंकि जीसस सभी कुछ स्वीकार करके जीते हैं। शराब भी पीते हैं; न केवल पीते हैं, बल्कि उसे उत्सव मानते हैं, धार्मिक उत्सव मानते हैं। जीसस जिस घर में मेहमान होते हैं, वहा बोतलें खुलती हैं, खाना—पीना चलता है। क्योंकि यह महोत्सव है जीवन का।

तो जीसस ने रास्ता खोल दिया जैसे सबको शराब पीने का। तो पश्चिम में किसी को समझाओ कि शराब गलत है, लोग हसेंगे कि पागल हो गए हैं! जीसस को गलत नहीं, तो हमें कैसे गलत? और कुछ न मानें जीसस में, कम से कम इतना तो मानते ही हैं। और बातें कठिन हों, मगर यह तो सरल है। इसका तो हम अनुगमन कर लेते हैं।

जीसस जैसे लोगों के पीछे धर्म नहीं होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य कि जीसस के पीछे दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है। दुनिया में सबसे ज्यादा संख्या ईसाइयों की है। और सबसे कम संख्या जैनियों की है, महावीर के पीछे। कारण है इसमें भी। क्योंकि महावीर तुम्हारी कमजोरियों को जरा भी मौका नहीं देते। उनके साथ तुम्हें यात्रा ऊपर की करनी ही पड़ेगी। करनी हो, तो ही साथ चल सकते हो; न करनी हो, तो बहाना नहीं खोज सकते महावीर में। लेकिन जीसस के साथ न भी यात्रा करनी हो, तो भी तुम ईसाई रह सकते हो। मांसाहार करो, शराब पीओ, सब कर सकते हो और ईसाई भी हो सकते हो। सुविधा है। इसलिए ईसाइयत फैलकर बड़ा वृक्ष बन गई। महावीर तो खजूर के वृक्ष हैं; उनके नीचे छाया भी, छाया भी मुश्किल है।

मेरी कठिनाई यह है कि मैं पाता हूं इन सभी लोगों ने पा लिया। इसलिए तुम बड़ा सोच—समझकर चलना। तुम अपने पर ध्यान रखना। इसकी फिक्र छोड़ देना कि रामकृष्ण ने मछली खाकर पा लिया, तो हम भी पा लेंगे, मछली क्यों त्यागें? मछली और मोक्ष अगर साथ—साथ सधता हो, तो साथ ही साथ साध लें।

मछली ही सधेगी, मोक्ष न सधेगा। कभी—कभी अपवाद घटित होते हैं। वे इसलिए घटित होते हैं कि व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर होता है, कैसी उसकी क्षमता है। कोई वेश्याघर में रहकर भी परम ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। तुम्हें तो मंदिर में रहकर भी उपलब्ध होगा, यह भी संदिग्ध है।

तुम अपना ही सोचना और अपने को ही देखकर विचार करना। और ध्यान रखना; क्योंकि मन बहुत चालाक है। वह रास्ते खोजता है गलत को करने के, और सही को करने से बचने के उपाय, तर्क खोजता है। उसी मन के कारण तो तुम भटक रहे हो जन्मों—जन्मों से। खूब भटक लिए; अब वक्त है और जाग जाना चाहिए।

अब सूत्र :

और हे अर्जुन, जो यज्ञ शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ है तथा करना कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्विक है।

और हे अर्जुन, जो केवल दंभाचरण के लिए ही अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उसे तू राजस जान।

तथा शास्त्र—विधि से हीन, अन्न—दान से रहित, बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ को तामस कहते हैं।

 

ज्ञ का अर्थ है, धर्म की समस्त प्रक्रियाएं। यज्ञ तो प्रतीक है। धर्म की समस्त प्रक्रियाएं तीन ढंग से की जा सकती हैं।

एक ढंग है सात्विक का। वह किसी फल की आकांक्षा से नहीं करता। उसकी कोई मांग नहीं है। वह यश करता है, तो कुछ मांगने के लिए नहीं, कुछ पाने के लिए नहीं। उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं। रजस शांत हो गया है। वह इसलिए भी यज्ञ नहीं करता कि जो मेरे पास है, वह बचा रहे। उसकी सुरक्षा रहे, उसे चोर चुरा न ले जाएं। उसे राज्य न छीन ले। वह मुझसे खो न जाए। नहीं, उसका तमस भी शांत हो गया है।

फिर यज्ञ वह करता क्यों है! सात्विक व्यक्ति क्यों यज्ञ करता है! तामसी मंदिर जाता है, समझ में आता है। राजसी भी जाता है, समझ में आता है। सात्विक क्यों जाता है? और वस्तुत: केवल सात्विक ही जाता है। बाकी कोई नहीं जाते। सात्विक सिर्फ अहोभाव प्रकट करने जाता है, आनंद भाव प्रकट करने जाता है, धन्यवाद देने जाता है, अनुग्रह के कारण जाता है।

वह अगर यश करता है, तो शास्त्र कहते हैं। शास्त्र का अर्थ है, शास्ताओं के वचन। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है। वह अपनी बुद्धि को नहीं लगाता। निरअहंकार भाव से जानने वालों ने कहा है, ठीक कहा होगा। जानने वाले कहते हैं, ऐसा करने से लाभ है, ऐसा करना आनंद है, ऐसा करना कर्तव्य है, वह करता है। उसकी अपनी कोई मांग नहीं है। वह समर्पण भाव से करता है।

सदगुरु कहते हैं, इसलिए करता है। श्रद्धा से करता है। उसका अपना कुछ लेना—देना नहीं है। लेकिन जब जानने वाले कहते हैं, तो जरूर कोई राज होगा। जब जानने वाले कहते हैं, तो जरूर कोई रहस्य होगा। जो मुझे दिखाई नहीं पड़ता, उन्हें दिखाई पड़ता है। वे दूर तक देख सकते हैं, उनके पास दूरगामी दृष्टि है। वे ऊंचाई पर खड़े हैं, वहां से उन्हें सब दिखाई पड़ता है। मैं जमीन पर खड़ा हूं वहां से मुझे इतने दूर की चीजें दिखाई नहीं पड़ती। उनकी दृष्टि विहंगम है। वे पक्षी की तरह हैं। वे ऊपर से उड़कर देखते हैं। मैं तो जमीन पर खड़ा हूं मुझे विस्तार दिखाई नहीं पड़ता। थोड़ा—सा अपने आस—पास दिखाई पड़ता है। वे कहते हैं, ठीक कहते होंगे। वे कहते हैं, तो जरूर करने योग्य है, ऐसी श्रद्धा से करता है, वासना से नहीं, कामना से नहीं।

जो यज्ञ शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ है.।

वह बिलकुल शास्त्र के अनुसार करता है। वह कोई जबरदस्ती नहीं कर लेता कि किसी तरह निपटा दो।

तुम भी प्रार्थना करते हो, जल्दी निपटा देते हो। अगर अदालत जाना है, तो पांच मिनट में पूरी हो जाती है। ट्रेन पकड़ना है, तो एक ही मिनट में पूरी हो जाती है। और कोई काम नहीं है, रविवार का दिन है, तो एक घंटा चलती है; घंटी हिलाते रहते हो बैठकर।

तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी श्रद्धा और शास्त्र से नहीं निकलती। तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारे हिसाब से निकलती है। जब जैसी जरूरत पड़ी! कभी जरूरत पड़ी, तो एक दिन तुम दो दिन की भी कर लेते हो।

मैंने सुना है कि एक इफिशिएंसी एक्सपर्ट, जो लोगों को कैसे कम समय में ज्यादा काम करना, रोज अपने प्रार्थना के कमरे में जाकर कहता, डिट्टो! जस्ट एज लाइक दि अदर डे, वही जैसा कल। और बाहर निकल आता। परमात्मा इतना तो समझता ही है कि डिट्टो। अब इसमें रोज—रोज क्या दोहराना, घंटी बजाना, प्रार्थना, पूजा, चंदन—तिलक—घंटा खराब करना! भगवान क्या कोई नासमझ है?

शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ, शास्त्रोक्त, शास्ताओं द्वारा कहा हुआ, कर्तव्य है, करने जैसा है…….।

इसे समझ लो। तुम्हें बहुत बातें पता नहीं हैं। अगर तुम जिद करो कि जब हमें पता होंगी, तभी हम करेंगे, तो तुम कर ही न पाओगे। मैं तुम्हें कहता हूं ध्यान करो। तुम कहते हो, क्यों करें? इससे क्या लाभ? हमें कभी लाभ नहीं हुआ।

तुमने कभी किया नहीं; लाभ कैसे होगा? तुम कहते हो, बिना लाभ का पक्का हुए, हम करें क्यों? होगा, इसका आश्वासन क्या है? अगर न हुआ तो? अगर समय खराब गया तो? गारंटी है कोई।

तुम कैसे ध्यान कर सकते हो? तुम भरोसे से ध्यान करते हो। एक छोटा बेटा चलना शुरू करता है। अगर वह भरोसा न करे बाप पर…। बाप उससे कहता है कि तू भी मेरे जैसा चल सकेगा। मान तो नहीं सकता। क्योंकि बाप है छ: फीट का और वह इतना—सा। कैसे बाप जैसा हो सकता है? बाप को देखता है, तो टोपी गिर जाती है उसकी। बाप जैसा मैं कैसे हो सकता हूं? तुम इतने शक्तिशाली, लोग तुमसे डरते हैं। घर में आते हो, तो नौकर—चाकर घबड़ा जाते हैं। मुझसे कोई डरता ही नहीं। बल्कि जहां भी मैं जाता हूं नौकर—चाकर भी डरवाते हैं। यह हो नहीं सकता कि मैं तुम्हारे जैसा हूं। तुम चल सकते हो। मैं तो चार हाथ—पैर घुटनों पर ही घिसटूंगा।

नहीं, लेकिन बाप कहता है, भरोसा कर, तेरे पास मेरे जैसे पैर हैं। वह खड़ा भी होता है, गिर भी जाता है, चोट भी खाता है। फिर भी भरोसा नहीं छोड़ता।

अगर बच्चे जरा ज्यादा कुशल हों, चालाक हों, तर्क कर सकें, तो वे कहेंगे, गिर गए बस अब हो गया, घुटने छिल गए। क्षमा करो, देख लिया। एक दफे देख लिया, जांच लिया। अब, अब ये बहाने मत बनाओ, घुटने मत तुड़वा दो। हम ठीक चल रहे हैं। सुविधापूर्ण है सब। तो बच्चे सदा ही घिसटते रहें।

धर्म के जीवन में फिर एक नया बचपन है तुम्हारा। तुम्हें पता नहीं, तुम जब देखते हो बुद्ध—महावीर की तरफ, तो वे आकाश छूते मालूम पडते हैं. टोपी गिरती है। तुम्हें भरोसा नहीं आता कि तुम भी उन जैसे हो। वे लाख कहें तुमसे, कैसे भरोसा आए?

अंडे में छिपा हुआ है मुर्गी का चूजा और मुर्गा अकड़कर खड़ा है बाहर। उसकी शान देखो, उसकी बांग देखो। उसकी कलगी की रौनक देखो सूरज की रोशनी में। और वह चिल्लाकर कह रहा है, घबड़ा मत, निकल आ बाहर अंडे के। तू भी मेरे जैसा है। चूजा और घबड़ाकर सरक जाता है भीतर। इस तरह का मैं कैसे हो सकता हूं! इतना—सा द्या, अंडे में छिपा, अंडा तक तोड़ना मुश्किल है। न ऐसी बाग दे सकता हूं।

बुद्ध के वचनों को बुद्ध के भिक्षुओं ने सिंहनाद कहा है। कि उनकी गर्जना सुनकर सोए हुए सिंह जाग जाते हैं।

लेकिन तुम्हें पहले तो यही लगेगा कि चारों घुटने—पैर से ही चलने दो। मत झंझट में डालो। यह हमसे न हो सकेगा। लेकिन भरोसा तुम करते हो, तो आगे उठते हो।

सत्य को मानने वाला व्यक्ति श्रद्धापूर्ण होता है। और ऐसा नहीं है कि एक बार श्रद्धा टूट जाती है, तो श्रद्धा खो देता है। कई बार बच्चे को गिरना पड़ता है। कई बार तुम्हारा ध्यान चूकेगा, नहीं लगेगा। कई बार समाधि लगते—लगते चूक जाएगी, खड़े होते—होते गिर जाओगे। लेकिन फिर भी श्रद्धावान श्रद्धा को कायम रखता है। कोई चीज उसकी श्रद्धा को नहीं तोड़ पाती, विपरीत अनुभव भी नहीं तोड़ पाते। उसकी श्रद्धा सबसे बड़ी है। विपरीत अनुभवों से बड़ी है। वह भरोसा किए जाता है।

शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ, कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके…।

क्योंकि अभी समाधि तो उपलब्ध नहीं हुई, अभी तो समाधान करना पड़ेगा। अभी तो मन को समझाना पड़ेगा कि मन, थोड़ा चल, देख, शायद कुछ हो। निर्णय मत ले; विरोध में पहले से मत सोच; निषेध को पक्का मत कर; शायद कुछ हो। द्वार खुला रख; निष्कर्ष मत बना; चलकर देख। शायद कुछ अनुभव में आए तो आगे की यात्रा सुगम हो जाए।

अभी समाधि तो मिली नहीं। जिसको समाधि मिली, उसे समाधान की कोई जरूरत नहीं। साधक को तो समाधान करके चलना पड़ता है। ऐसा मन को समाधान करके, फल की आकांक्षा न करते हुए, वह यज्ञ करता है। वह धार्मिक पूजा, प्रार्थना, अर्चना, यश, साधना करता है। ऐसा व्यक्ति सात्विक है।

इसको जरा अपने भीतर खोजना। तुम्हारा ध्यान भी ऐसा ही हो, सत्व से अनुप्राणित हो, तब तुम्हें बहुत मिलेगा। यही तो अड़चन है। मांगते हो, मिलता नहीं, न मांगोगे, मिलेगा। वर्षा होगी तुम्हारे ऊपर रत्नों की। लेकिन तुम मांगोगे, तो कंकड़—पत्थर भी न मिलेंगे।

और हे अर्जुन, जो यश केवल दंभाचरण के लिए है.।

सिर्फ अहंकार के लिए है कि लोगों को दिखा दूं कि मैंने अश्वमेध यश किया! दंभाचरण के लिए है, कि देखो मैंने कितना बड़ा यश किया, हजारों ब्राह्मणों ने पूजा—पाठ की, लाखों ने भोजन किया। सिर्फ दंभ के लिए है।

सम्राट किया करते थे अश्वमेध यश, वह दंभाचरण था। भेजते थे घोड़े को, वह सारे राज्य में घूमता था। कोई उस घोड़े को छेड़ दे, तौ युद्ध छिड़ जाता। वह घोड़ा इस बात की खबर थी, जैसे कि पहलवान लंगोट घुमाते हैं अखाड़े में कि अगर कोई बीच में बोल दे कि ठहरो, रुक जाओ, मैं लड़ने को तैयार हूं। ऐसा घोड़ा घुमाते थे पूरे राज्य में। वह खबर थी कि घोड़ा छुआ न जाए, रोका न जाए। अगर कहीं भी रोका गया, तो तुम झगड़ा मोल ले रहे हो सम्राट से। वह चक्रवर्ती होने की घोषणा थी। जब घोड़ा वापस लौट आता, कोई रोकने वाला न होता, तो वह सम्राट चक्रवर्ती हो जाता।

वह राजस है, वह महत्वाकांक्षा का है। उसमें कुछ पाने की कामना है। दभाचरण के लिए अथवा फल को उद्देश्य में रखकर किया जाता है। कि कुछ फल मिल जाए; राज्य और बड़ा हो, धन और बढ़े; यश, पद, प्रतिष्ठा हो।

और फिर तामसी का यश भी है, तामसी की धर्म—साधना भी है। शास्त्र—विधि से हीन..।

वह मनगढंत होती है। वह खुद ही बना लेता है अपनी। क्योंकि अगर वह शास्त्र को मानकर चले, तो चलना पड़ेगा, उठना पड़ेगा। वह अपनी खुद ही बना लेता है; अपने तमस के हिसाब से बना लेता है। तमस निर्धारक होता है। तमस से भरा हुआ चित्त अपना ही शास्त्र बन जाता है, अपना ही गुरु हो जाता है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि क्यों समर्पण किया जाए? क्या हम खुद ही नहीं पा. सकते?

अब खुद ही पा सकते हो, तो मेरे पास इतना बताने भी किसलिए आए? खुद ही पा सकते हो, मजे से पा लो। इसके लिए भी मेरे पास आने की क्या जरूरत है? नहीं, वे कहते हैं, आपसे जरा सलाह लें। सलाह का क्या काम? सलाह भी मेरी होगी, उसको भी छोड़ो। तुम अपना ही कर डालो।

तमस अपना ही कर लेना चाहता है। क्योंकि तब वह अपने लिए सुविधा बनाकर करता है। अगर शास्त्र में विधि है कि पद्यासन लगाकर बैठो, अब तामसी को पद्यासन लगाना मुश्किल होता है। तो वह कहता है, क्या हर्जा है अगर लेटकर करें? हर्जा तो कुछ भी नहीं है। लेटने का जो लाभ होगा, वही लाभ होगा।

तामसी अपनी व्यवस्था बना लेना चाहता है, ताकि तमस न टूटे। इसलिए शास्त्र—विधि से हीन, दान से रहित।

तामसी मांगता है, दे नहीं सकता। राजसी देता है, ताकि पा सके। तामसी तो दे ही नहीं सकता। इतने के लिए भी नहीं दे सकता कि पाने के लिए भी दे सके। वह बिना दिए मांगता है। तामसी भिखारी है। वह सिर्फ भिक्षापात्र सामने करता है। वह कुछ देना नहीं चाहता। दान से रहित, बिना मंत्रों के..।

क्योंकि मंत्र तो जिन्होंने तय किए हैं, वे बड़ी मेहनत से तय किए गए हैं। उनमें सत्य को पैदा करने की क्षमता है, मंत्रों में। उनके अनुच्चार में, उनकी गज में, उनसे पैदा होने वाले वातावरण में सत्व फलित होता है।

तुमने कभी ख्याल किया होगा, पश्चिमी संगीत को सुनकर तुममें कामवासना जोगी। पूर्वीय शास्त्रीय संगीत को सुनकर तुम थोड़ी देर को कामवासना को बिलकुल भूल जाओगे। खयाल ही न आएगा। पश्चिमी संगीत को सुनकर तुम्हारे भीतर कुछ करने का भाव जगेगा। वह राजस से भरा है। पूरब के संगीत को सुनकर तुम ध्यानस्थ हो जाओगे। वीणा बजती रहेगी, तुम्हारे भीतर के शब्द, विचार खो जाएंगे.। तुम पाओगे, एक धुन बंध गई।

एक वेश्या को नाचते देखकर तुम्हारे भीतर कामवासना जोगी। लेकिन कृष्ण को नाचते देखकर तुम्हारे भीतर, वह जो पारलौकिक है, उसका आविर्भाव होगा। शरीर एक ही है। अंग वही हैं। उनका कंपन भी वही है। लेकिन फिर भी रूपांतर हो जाता है। शब्द वही हैं, ध्वनि वही है, संगीत के वाद्य वही हैं, अंगुलियां वही हैं, लेकिन सब बदल जाता हैं।

मंत्र बड़ी लंबी यात्रा में खोजे गए हैं। उन्हें बड़ी मेहनत से निर्णीत किया गया है। अगर तुम ओंकार की ध्वनि ही करते रहो बैठकर, तो तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर रूपांतरण शुरू हो गया। क्योंकि ध्वनि को मात्र ध्वनि मत समझना; क्योंकि ध्वनि तो तुम्हारे प्राणों का सार है। तुम जो भी ध्वनि अपने भीतर करोगे, उस जैसे ही होने लगोगे। इसलिए मंत्र का बड़ा मूल्य है। मंत्र जीवन को बदलने की एक कीमिया है। वह ध्वनिशास्त्र है। उसके भीतर बड़ा विज्ञान छिपा है। तुमने कभी सोचा, एक नग्न स्त्री का चित्र देखकर तुम्हारे भीतर सारे शरीर में कामवासना दौड़ जाती है। कुछ भी नहीं है कागज में, सिर्फ लकीरें खिंची हैं। हो सकता है, सिर्फ स्केच हो एक नग्न स्त्री का। लेकिन बस, तुम्हारे भीतर सपना जग जाता है, वासना उठ आती है, विचार वासना के दौड़ने लगते हैं।

बुद्ध का भी क्या है? एक कागज पर बुद्ध का चित्र बना है। लकीरें खिंची हैं। उसको भी तुम गौर से देखो। कुछ और पैदा होता है। लकीरें वही, कागज वही, स्याही वही, खींचने वाला भी हो वही। लेकिन जरा—सा फर्क लकीरों का, कागज का, स्याही का, और तुम्हारे भीतर बुद्धत्व की थोड़ी—सी प्रतिमा निर्मित होती है। ऐसे ही ध्वनि के द्वारा हमने ऐसे मंत्रों को चुना है, जिन मंत्रों का उपयोग तुम्हारे भीतर एक वातावरण पैदा करता है, एक परिवेश पैदा करता है। और वह परिवेश तुम्हें बचाता है, बदलता है, नया कर्ता है, पुनरुज्जीवित करता है।

तामसी बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के……।

दक्षिणा बड़ी अनूठी चीज है; भारत ने खोजी। दुनिया में कहीं दक्षिणा जैसा कोई शब्द नहीं है। दक्षिणा का अनुवाद करना हो, तो दुनिया की भाषाओं में शब्द नहीं है, कि इसका अनुवाद कैसे करो? दक्षिणा का मतलब बड़ा अजीब है।

एक आदमी को तुम दान देते हो, तो स्वभावत: तुम्हारी आकांक्षा होती है कि वह तुम्हें धन्यवाद दे। तुमने दान दिया और वह आदमी चल पड़े और धन्यवाद भी न दे। तो तुम कहोगे, गलत आदमी को दे दिया, अपात्र को दे दिया। इसको कम से कम धन्यवाद तो देना चाहिए।

दक्षिणा का अर्थ है, जिसने दान दिया, वह लेने वाले को धन्यवाद भी दे। क्योंकि उसने लेने की कृपा की। न लेता तो? दान दो, और फिर उसने लिया, इसके लिए जो धन्यवाद दिया जाता है, वह दक्षिणा। कि आपने दान स्वीकार किया, राजी हुए मुझे दानी होने का मौका दिया, मुझ ना—कुछ को देने की सुविधा दी, इसके लिए दक्षिणा। इतना और लो। यह धन्यवाद।

तो शूद्र तो कैसे धन्यवाद दे सकता है! शूद्र पहले तो दान ही नहीं दे सकता। राजस दान दे सकता है। सात्विक दक्षिणा भी दे सकता है। यह फर्क है। शूद्र दान नहीं दे सकता, सिर्फ ले सकता है। राजस व्यक्ति लेने में जरा कठिनाई पाता है, वह उसके अहंकार के विपरीत है। वह दे सकता है। लेकिन वह चाहेगा कि जिसको दिया है, वह धन्यवाद दे। उतना सौदा कायम है।

सात्विक व्यक्ति देता भी है और देने के पीछे दक्षिणा भी देता है कि धन्यवाद, आपने स्वीकार किया। ऐसा दान पूर्ण हो जाता है, जो दक्षिणा से संयुक्त है। अन्यथा दान अधूरा रह जाता है।

यह बात भारत की अनूठी है कि दान दो और दक्षिण। दो। यह दुनिया में कोई न समझ पाएगा। यह तो व्यवसाय के बिलकुल बाहर मामला हो गया। यह तो बाजार को बिलकुल तोड़ ही दिया। बाजार के नियम और अर्थशास्त्र को, इकॉनामिक्स को किनारे रख दिया। दान भी और दक्षिणा भी?

लेकिन सात्विक पुरुष धन्यभागी मानता है कि किसी ने स्वीकार किया, कोई राजी हुआ, किसी ने मौका दिया, तो दक्षिणा देनी जरूरी है। दान तभी पूरा है, जब दक्षिणा से संयुक्त हो; अन्यथा अधूरा दान है। राजस का रह जाता है, सात्विक का नहीं।

बिना दक्षिणा के, बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ को तामस कहते हैं।

वह करता भी है, लेकिन उसकी श्रद्धा बिलकुल नहीं है। वह करता है कि शायद फल मिल जाए, करता है कि शायद कोई सुरक्षा मिल जाए। लेकिन श्रद्धा नहीं है, भीतर अश्रद्धा है।

तामस व्यक्ति अश्रद्धा से करता है। राजस व्यक्ति अधूरी श्रद्धा से करता है। सात्विक व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा से करता है। लेकिन श्रद्धा पूर्ण तभी होती है, जब तुम बिलकुल मिट गए, जब तुम हो ही नहीं। गुरु कहता है, इसलिए करता है; अपना कोई होना न रहा। शास्त्र कहते हैं, इसलिए करता है ० अपना कोई होना न रहा। आदेश है, इसलिए पूरा करता है, अपनी कोई आकांक्षा नहीं, अपनी कोई वासना नहीं। ऐसे सत्व में ही परमात्मा का आविर्भाव होता है। सत्व के मंदिर में ही परमात्मा का सिंहासन है। वहीं उसकी प्रतिमा विराजमान है।

आज इतना ही।


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जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–8)

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यात्रा: दृश्य से अदृश्य की और—(प्रवचन—आठवां)

दूसरी प्रश्नोत्तर चर्चा:

प्रश्न : ओशो आपने नारगोल शिविर में कहा है कि कुंडलिनी साधना शरीर की तैयारी है। कृपया इसका अर्थ स्पष्ट समझाएं।

 हली बात तो यह शरीर और आत्मा बहुत गहरे में दो नहीं हैं; उनका भेद भी बहुत ऊपर है। और जिस दिन दिखाई पड़ता है पूरा सत्य, उस दिन ऐसा दिखाई नहीं पड़ता कि शरीर और आत्मा अलग—अलग हैं, उस दिन ऐसा ही दिखाई पड़ता है कि शरीर आत्मा का वह हिस्सा है जो इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है और आत्मा शरीर का वह हिस्सा है जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर रह जाता है।

शरीर और आत्मा—एक ही सत्य के दो छोर:

शरीर का ही अदृश्य छोर आत्मा है और आत्मा का ही दृश्य छोर शरीर है, यह तो बहुत आखिरी अनुभव में शात होगा। अब यह बड़े मजे की बात है. साधारणत: हम सब यही मानकर चलते हैं कि शरीर और आत्मा एक ही हैं। लेकिन यह भ्रांति है, हमें आत्मा का कोई पता ही नहीं है; हम शरीर को ही आत्मा मानकर चलते हैं। लेकिन इस भ्रांति के पीछे भी वही सत्य काम कर रहा है। इस भ्रांति के पीछे भी कहीं अदृश्य हमारे प्राणों के कोने में वही प्रतीति है कि एक है।

उस एक की प्रतीति ने दो तरह की भूलें पैदा की हैं। एक अध्यात्मवादी है, वह कहता है : शरीर है ही नहीं, आत्मा ही है। एक भौतिकवादी है, चार्वाक है, एपीकुरस है, वह कहता है कि शरीर ही है, आत्मा है ही नहीं। यह उसी गहरी प्रतीति की भ्रांतियां हैं; और प्रत्येक साधारणजन भी, जिसको हम अज्ञानी कहते हैं, वह भी यह एहसास करता है कि शरीर ही मैं हूं। लेकिन जैसे ही भीतर की यात्रा शुरू होगी, पहले तो यह टूटेगी बात और पता चलेगा कि शरीर अलग है और आत्मा अलग है। क्योंकि जैसे ही पता चलेगा आत्मा है, वैसे ही पता चलेगा कि शरीर अलग है और आत्मा अलग है। लेकिन यह मध्य की बात है। और गहरे जब उतरोगे, और गहरे जब उतरोगे, और चरम अनुभूति जब होगी, तब पता चलेगा कि कहां! दूसरा तो कोई है नहीं! फिर आत्मा और शरीर दो नहीं हैं; फिर एक ही है; उसके ही दो रूप हैं।

जैसे मैं एक हूं और मेरा बायां हाथ है और दायां हाथ है। बाहर से जो देखने आएगा, अगर वह कहे कि बायां और दायां हाथ एक ही हैं, तो गलत कहता है; क्योंकि बायां बिलकुल अलग है, दायां बिलकुल अलग है। जब मेरे करीब आकर समझेगा तो पाएगा बायां अलग है, दायां अलग है; दायां दुखता है, बायां नहीं दुखता; दायां कट जाए तो बायां बच जाता है; एक तो नहीं हैं। लेकिन मेरे भीतर और प्रवेश करे तो पाएगा कि मैं तो एक ही हूं जिसका बायां है और जिसका दायां है। और जब बायां टूटता है तब भी मैं ही दुखता हूं और जब दायां टूटता है तब भी मैं ही दुखता हूं; और जब बायां उठता है तब मैं ही उठता हूं और जब दायां उठता है तब मैं ही उठता हूं।

तो बहुत अंतिम अनुभूति में तो शरीर और आत्मा दो नहीं हैं, वे एक ही सत्य के दो पहलू हैं, दो हाथ हैं। इसका यह मतलब है इसलिए मैंने यह बात कही कि इससे यह तुम्हें समझ में आ सके कि तब यात्रा कहीं से भी शुरू हो सकती है।

अगर कोई शरीर से यात्रा शुरू करे, और गहरा, और गहरा, और गहरा उतरता चला जाए, तो आत्मा पर पहुंच जाएगा। अगर कोई मेरा बायां हाथ पकड़ना शुरू करे, और पकड़ता जाए, पकड़ता जाए, और बढ़ता जाए, बढ़ता जाए, तो आज नहीं कल मेरा दायां हाथ उसकी पकड़ में आ जाएगा। या कोई चाहे तो दूसरी तरफ से भी यात्रा शुरू कर सकता है कि सीधी आत्मा से यात्रा शुरू करे, तो शरीर पकड़ में आ जाएगा।

लेकिन आत्मा से यात्रा शुरू करनी बहुत कठिन है। कठिन इसलिए है कि उसका हमें पता ही नहीं है। हम खड़े हैं शरीर पर, तो हमारी यात्रा तो शरीर से शुरू होगी। ऐसी विधियां भी हैं जिनमें यात्रा सीधी आत्मा से ही शुरू होती है। लेकिन साधारणत: वैसी विधियां बहुत थोड़े से लोगों के काम की हैं। कभी लाख में एक आदमी मिलेगा जो उस यात्रा को कर सके। अधिकतम लोगों को तो यात्रा शरीर से ही शुरू करनी पड़ेगी, क्योंकि वहां हम खड़े हैं। जहां हम खड़े हैं, वहीं से यात्रा शुरू होगी। और शरीर की जो यात्रा है उसकी तैयारी कुंडलिनी है। शरीर के भीतर में जो गहरे से गहरे अनुभव हैं, उन गहरे अनुभवों का जो मूल केंद्र है वह कुंडलिनी है। असल में, जैसा हम शरीर को जानते हैं और जैसा शरीर—शास्त्री जानता है, शरीर उतना ही नहीं है, शरीर उससे बहुत ज्यादा है।

यह पंखा चल रहा है। इस पंखे को हम उतार लें और तोड़कर सारा जांच कर डालें, तो भी बिजली हमें कहीं भी नहीं मिलेगी। और यह हो सकता है कि एक बहुत बुद्धिमान आदमी भी यह कहे कि पंखे में बिजली जैसी कोई भी चीज नहीं है। एक— एक अंग को काट डाले, कभी बिजली नहीं मिले। फिर भी पंखा बिजली से चल रहा था। और पंखा उसी क्षण बंद हो जाएगा जिस क्षण बिजली की धारा बंद होगी।

तो शरीर—शास्त्री ने एक तरह शरीर का अध्ययन किया है, काट—काट कर, तो उसे कुंडलिनी कहीं भी नहीं मिलती। मिलेगी भी नहीं। फिर भी कुंडलिनी की ही विद्युत शक्ति से सारा शरीर चल रहा है। यह जो कुंडलिनी की विद्युत शक्ति है, इसको बाहर से शरीर के विश्लेषण से कभी नहीं जाना जा सकता। क्योंकि विश्लेषण में वह तत्काल छिन्न—भिन्न होकर विदा हो जाती है, विलीन हो जाती है। उसे तो जानना हो तो भीतरी अनुभव से जाना जा सकता है। यानी शरीर को भी जानने के दो ढंग हैं। बाहर से शरीर को जानना, जैसा कि एक फिजियोलाजिस्ट, शरीर—शास्त्री, डाक्टर टेबल पर आदमी के शरीर को रखकर काट रहा है, पीट रहा है, जांच रहा है। और एक शरीर को भीतर से जानना है। जो व्यक्ति शरीर के भीतर बैठा है, वह अपने शरीर को भीतर से जान रहा है।

तो स्वयं के शरीर को जब कोई भीतर से जानना शुरू करता है……. और यह खयाल रखना कि हम अपने शरीर को भी बाहर से ही जानते हैं— अपने शरीर को भी! अगर मुझे मेरे बाएं हाथ का पता है, तो वह भी मेरी आंखें जो मेरे हाथ को देख रही हैं उसका पता है। यह बाएं हाथ का जो अनुभव है, यह शरीर—शास्त्री का अनुभव है। लेकिन आख बंद करके इस बाएं हाथ की आंतरिक जो प्रतीति है, भीतर से जो इसका अनुभव है, वह मेरा अनुभव है।

तो अपने ही शरीर को भीतर से जानने अगर कोई जाएगा, तो बहुत शीघ्र वह उस कुंड पर पहुंच जाएगा जहां से शरीर की सारी शक्तियां उठ रही हैं। उस कुंड में सोई हुई शक्ति का नाम ही कुंडलिनी है। और तब वह अनुभव करेगा कि सब कुछ वहीं से फैल रहा है पूरे शरीर में। जैसे कि एक दीया जल रहा हो, पूरे कमरे में प्रकाश हो, लेकिन हम खोजबीन करते, करते, करते दीये पर पहुंच जाएं और पाएं कि इस ज्योति से ही सारी प्रकाश की किरणें फैल रही हैं। वे दूर तक फैल गई हैं, लेकिन वे जा रही हैं यहां से।

जीवन—ऊर्जा का कुंड:

तो कुंड से मतलब है शरीर के भीतर उस बिंदु की खोज, जहां से जीवन की ऊर्जा पूरे शरीर में फैल रही है। निश्चित ही, उसका कोई सेंटर होगा। असल में, ऐसी कोई ऊर्जा नहीं होती जिसका कोई केंद्र न हो। चाहे दस करोड़ मील दूर हो सूरज, लेकिन किरण है हमारे हाथ में तो हम कह सकते हैं कि कहीं केंद्र होगा, जहां से वह यात्रा कर रही है और जहां से वह चल रही है। असल में, कोई भी शक्ति केंद्र—शून्य नहीं हो सकती। शक्ति होगी तो केंद्र होगा। ऐसे ही, जैसे परिधि होगी तो केंद्र होगा; कोई परिधि बिना केंद्र के नहीं हो सकती।

तो तुम्हारा शरीर एक शक्ति का पुंज है, इसे तो सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं। वह शक्ति का पुंज है—उठ रहा है, बैठ रहा है, चल रहा है, सो रहा है। फिर ऐसा भी नहीं है कि उसकी शक्ति हमेशा एक सी ही काम करती हो! कभी ज्यादा भी शक्ति उसमें होती है, कभी कम भी होती है। जब तुम क्रोध में होते हो तो इतना बड़ा पत्थर उठाकर फेंक देते हो, जो तुम क्रोध में नहीं हो तो हिला भी न सकोगे। जब तुम भय में होते हो तो इतनी तेजी से दौड़ लेते हो, जितना कि तुम किसी ओलंपिक के खेल में भी दौड़ रहे हो तो भी नहीं दौड़ सकोगे।

तो ऐसा भी नहीं है कि शक्ति तुम्हारे भीतर एक सी है, उसमें तारतम्यताएं है—वह कभी ज्यादा हो रही है, कभी कम हो रही है। इससे यह भी साफ होता है कि तुम्हारे पास कुछ रिजर्वायर भी है, जिसमें से कभी शक्ति आ जाती है, कभी नहीं आती, जरूरत होती है तो आ जाती है, नहीं जरूरत होती तो छिपी रहती है। तुम्हारे पास एक केंद्र है, जिससे शक्ति तुम्हें मिलती हैं—सामान्यतया भी, असामान्यतया भी; रोजमर्रा के काम के लिए भी तुम्हें शक्ति मिलती है और असाधारण काम के लिए भी शक्ति मिलती है। फिर भी उस केंद्र को कभी तुम रिक्त नहीं कर पाते हो। वह केंद्र कभी रिक्त नहीं होता। और कभी तुम उस केंद्र का पूरा उपयोग भी नहीं कर पाते हो।

यानी इस संबंध में जिन्होंने खोज की है उनका खयाल है कि पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा अपनी ऊर्जा का असाधारण से असाधारण आदमी भी उपयोग नहीं करता है। यानी हमारा महापुरुष भी जिसको हम कहते हैं, वह भी पंद्रह प्रतिशत से ऊपर नहीं जाता है। और जिसको हम साधारणजन कहते हैं वह तो दो—ढाई प्रतिशत से काम चलाता है। उसकी अट्ठानबे प्रतिशत शक्ति यों ही पड़ी—पड़ी विदा हो जाती है। और इसलिए बड़े आदमी में और छोटे आदमी में कोई पोटेंशियल भेद नहीं होता, बीज शक्ति का कोई भेद नहीं होता; उपयोग का ही भेद होता है। महान से महान प्रतिभा का व्यक्ति भी जिस शक्ति का उपयोग कर रहा है, वह साधारण से साधारण बुद्धि के आदमी के पास भी है—बस अनुपयोग में है, उसे कभी पुकारा नहीं गया, उसे कभी चुनौती नहीं दी गई; उसे कभी जगाया नहीं गया, वह पड़ी रह गई है; और वह राजी हो गया है जितना है उससे ही, और उसको अपना उसने मैक्विमम समझ लिया है जो उसका मिनिमम है।

हमारी जो न्यूनतम सीमा रेखा है उसको हम अपनी परम सीमा रेखा मानकर जी रहे हैं। और इसलिए कई क्षणों में, जब कि संकट का क्षण हो, साधारण से साधारण आदमी भी असाधारण क्षमता प्रकट कर पाता है। तो कई बार क्राइसिस और संकट में अचानक हमें ही पता चलता है कि हमारे भीतर क्या था।

एक केंद्र है, जिस पर यह सारी शक्ति ठहरी हुई है, छिपी हुई है, सोई हुई है—कहना चाहिए एक बीज की तरह, जिसमें सब कुछ अभी बंद है; मेनिफेस्ट हो सकती है, प्रकट हो सकती है। इसको कुंड……..

 

अचेतन में सोई शक्ति:

कुंड शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, उसके कई अर्थ हैं। उसके कई अर्थ हैं। पहला तो अर्थ यह है कि जहां जरा सी लहर भी नहीं उठ रही; क्योंकि जरा सी भी लहर उठे तो सक्रिय हो गई शक्ति। कुंड का मतलब है जहां जरा सी भी लहर नहीं उठ रही—सब सोया हुआ, जरा सा कंपन नहीं, सब प्रसुप्त है।

दूसरा अर्थ यह है कि प्रसुप्त तो है, लेकिन किसी भी क्षण सक्रिय हो सकता है; मृत नहीं है। सूखा नहीं है कुंड, भरा है। किसी भी क्षण सक्रिय हो सकता है, लेकिन सब सोया हुआ है।

और इसलिए हो सकता है कि हमें पता भी न चले कि हमारे भीतर क्या सोया हुआ था। क्योंकि हमें उतना ही पता चलेगा जितना हम जगाएंगे। इसे समझ लेना! क्योंकि जगाने के पहले हमें पता ही नहीं चल सकता कि हमारे भीतर क्या सोया हुआ है। उतना ही पता चलेगा जितना जगेगा। जितना जगेगा उतना ही पता चलेगा। यानी तुम्हारे भीतर जितनी शक्ति सक्रिय होगी उतनी ही तुम्हारे चेतन में आएगी। और जो निष्कि्रय शक्ति है वह तुम्हारे अचेतन और अनकांशस में सोई रहेगी।

इसलिए महान से महान व्यक्ति को भी, जब तक वह महान हो नहीं जाता, पता नहीं चलता। न महावीर को पता है, न बुद्ध को पता है, न जीसस को, न कृष्ण को; वे जिस दिन हो जाते हैं उसी दिन पता चलता है। और इसलिए अनायास जिस दिन यह घटना घटती है उनके भीतर, उस दिन उनको अनुकंपा मालूम पड़ती है कि पता नहीं कहां से यह दान मिला! पता नहीं कहां से यह आया! कौन दे गया!

तो जो भी निकटतम होता है— अगर गुरु हो, तो वे सोचेंगे कि गुरु से मिल गया; अगर गुरु न हो, मूर्ति हो भगवान की तो वे सोचेंगे उससे मिल गया। जो भी पूर्वगामी होगा। आया उनके ही भीतर से है सदा—तीर्थंकर होगा, आसमान में बैठा हुआ भगवान होगा— कुछ भी होगा; जो पूर्वगामी होगा, उसे वे कारण समझ लेंगे।

असल में, हम तो उसी को कारण समझ लेते हैं जो पहले गया।

अभी मैं एक कहानी पढ़ रहा था कि दो किसान पहली दफा ट्रेन में सवार हुए। उन दोनों का जन्मदिन था और पहाड़ी गांव में वे रहते थे। और दोनों का एक ही जन्मदिन था, और गांव के लोगों ने उनको कुछ भेंट करना चाही, नई—नई ट्रेन चली थी, तो उन्होंने कहा कि हम तुम्हें टिकट भेंट करते हैं, तुम ट्रेन में घूम आओ दोनों। और इससे बढ़िया क्या हो सकता था उनको!

तो वे दोनों ट्रेन में गए। अब वे हर चीज के लिए उत्सुक थे कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। तो कोई शर्बत की बोतल बेचता हुआ आदमी आया, तो उन्होंने सोचा कि हमें भी चखनी चाहिए। तो उन्होंने कहा, एक बोतल ले लें और आधी— आधी चख लें। और फिर अच्छी लगे तो दूसरी भी ले सकते हैं। तो पहले आदमी ने आधी बोतल चखी, जब वह आधी बोतल चख रहा था तभी एक टनल में, एक बोगदे में गाड़ी प्रवेश कर गई। दूसरे आदमी ने उसके हाथ से बोतल छीनी कि भई, तुम पूरी मत पी जाना, आधी मुझे भी दो। उसने कहा, छूना ही मत! आई हैव बीन स्ट्रक ब्लाइंड! इसको तुम छूना ही मत; क्योंकि इसने मुझे अंधा कर दिया है। टनल में गाड़ी चली गई थी। जो पूर्वगामी था, तो उसने उस बोतल को पीया था, तो उसने उसको कहा छूना ही मत; भूल के मत छूना, मैं अंधा हो गया हूं।

स्वाभाविक है, जो पूर्वगामी है वह हमें कारण मालूम पड़ता है। लेकिन शक्ति जहां से आ रही है, उसका हमें पता ही नहीं; और जब तक न आ जाए तब तक पता नहीं। और भी आ सकती है वहां से, उसका भी हमें पता नहीं; और कितनी आ सकती है, इसका भी हमें पता नहीं।

कुंड में उठी एक लहर:

यह जो सोया हुआ कुंड है, अचेतन, इसमें से जितनी शक्ति जग जाती है, वह कुंडलिनी है। कुंड तो अचेतन है, कुंडलिनी चेतन है। कुंड तो सोई हुई शक्ति का नाम है, कुंडलिनी जागी हुई शक्ति का नाम है। उसमें से जितना हिस्सा जागकर ऊपर आ गया, उस कुंड से जितना बाहर आ गया, उतनी कुंडलिनी है। कुंडलिनी पूरा कुंड नहीं है, कुंडलिनी उसमें से बहुत छोटी सी एक लहर है जो उठ गई है। इसकी दोहरी खोज है इस यात्रा में। तुम्हारे भीतर जो कुंडलिनी जगी है वह तो सिर्फ खबर है तुम्हारे भीतर एक स्रोत की, जहां और भी बहुत कुछ सोया होगा। जब एक किरण आई है, तो अनंत किरणों की वहां संभावना है।

तो एक रास्ता तो कुंडलिनी को जगाने का है, जिसमें से तुम्हारी शक्ति.. .शरीर की शक्ति का तुम्हें पूरा बोध हो सकेगा। और इस शक्ति को जगाकर तुम शरीर के उन बिंदुओं पर पहुंच जाओगे, जहां से शरीर के अदृश्य रूपों में— आत्मा में—प्रवेश आसान है; उन द्वारों पर पहुंच जाओगे इस शक्ति को जगाकर, जहां से अदृश्य द्वार पर तुम जा सकते हो।

और इसको भी समझ लेना जरूरी है, क्योंकि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, वह हमारी शक्ति किन्हीं द्वारों के द्वारा कर रही है। अगर तुम्हारे कान खराब हो जाएं, तो शक्ति वहां तक आकर लौट जाएगी, लेकिन तुम सुन न सकोगे। फिर धीरे— धीरे शक्ति वहां आनी बंद हो जाएगी; क्योंकि शक्ति वहीं आती है जहां उसको सक्रिय होने का कोई मौका हो। वह वहां नहीं आएगी। इससे उलटा भी हो सकता है। इससे उलटा भी हो सकता है कि कोई आदमी बहरा है, और अगर वह अपनी अंगुली से बहुत ज्यादा संकल्प करे सुनने का, तो अंगुली भी सुन सकती है। ऐसे लोग हैं जमीन पर आज भी जो शरीर के दूसरे हिस्सों से सुनने लगे हैं, ऐसे लोग भी हैं जो शरीर के दूसरे हिस्सों से देखने लगे हैं।

असल में, जिसको तुम आख कहते हो, वह है क्या? तुम्हारी चमड़ी का ही हिस्सा है। लेकिन अनंत काल से मनुष्य उस हिस्से से देखता रहा है, इतना ही। लेकिन पहले दिन जिस दिन मनुष्य के पहले प्राणी ने उस अंग से देखा होगा, वह बिलकुल ही संयोग की बात थी, वह कहीं और से भी देख सकता था। दूसरे प्राणियों ने और हिस्सों से देखा है। तो दूसरी तरफ उनकी आंखें आ गई हैं। ऐसे भी पशु—पक्षी हैं, कीड़े—मकोड़े हैं, जिनके पास असली आख भी है और फाल्स आख भी है। असली आख, जिससे वे देखते हैं; और झूठी आख, जिससे वे दूसरों को धोखा देते हैं, कि अगर कोई हमला करे तो झूठी आख पर हमला करे, असली आख पर हमला न करे। साधारण सी मक्खी तुम्हारे घर में जो है, उसकी हजार आख हैं; उसकी एक आख हजार आंखों का जोड़ है। उसकी देखने की क्षमता बहुत ज्यादा है उसके पास। मछलियां हैं जो पूंछ से देखती हैं, क्योंकि उनको पीछे से दुश्मन का डर होता है।

अगर हम सारी दुनिया के प्राणियों की आंखों का अध्ययन करें तो हमको पता चलेगा कि आख का कोई इसी जगह होना कोई मतलब नहीं है। कान का इसी जगह होना कोई मतलब नहीं है। ये कहीं भी हो सकते हैं। इस जगह हैं, क्योंकि अनंत बार मनुष्य—जाति ने वहीं—वहीं उन्हें पुनरुक्त किया है, वे वहां स्थिर हो गए हैं। और हमारे भीतर उनकी जो स्मृति है, वह गहरी हो गई है हमारी चेतना में, इसलिए वहां पुनरुक्त हो जाते हैं।

यहां जो—जो अंग हमारे पास हैं, उन अंगों में से एक अंग भी खो जाए, तो उस दुनिया का दरवाजा बंद हो जाएगा। जैसे आख खो जाए, तो फिर हमें प्रकाश का कोई अनुभव न हो सकेगा। फिर कितने ही अच्छे कान हों हमारे पास, और कितने ही अच्छे हाथ हों, प्रकाश का अनुभव नहीं हो सकेगा।

नये द्वारों पर दस्तक:

तो जब कुंडलिनी तुम्हारी जागनी शुरू होती है तो वह कुछ ऐसे नये द्वारों पर भी चोट करती है जो सामान्य नहीं हैं; जिनसे तुम्हें कुछ और चीजों का पता चलना शुरू होता है—जो कि इन आंखों से पता नहीं चलता था; इन हाथों से पता नहीं चलता था। अगर ठीक से कहें तो ऐसा कह सकते हैं कि तुम्हारी अंतर—इंद्रियों पर चोट होनी शुरू हो जाती है। अभी भी तुम्हारी कुंडलिनी की शक्ति ही इन आंखों को और कानों को चला रही है, लेकिन ये बहिर—इंद्रिया हैं। और बहुत छोटी सी मात्रा कुंडलिनी की इनको चला लेती है। अगर तुम उस मात्रा में थोड़ी सी भी बढ़ती कर दो, तो तुम्हारे पास अतिरिक्त शक्ति होगी जो नये द्वारों पर चोट कर सके।

जैसे कि हम यहां से पानी बहा दें। अगर पानी की एक छोटी सी मात्रा हो, तो पानी की एक लीक बन जाएगी और फिर पानी उसी में से बहता हुआ चला जाएगा। लेकिन पानी की मात्रा एकदम से बढ़ जाए तो तत्काल नई धाराएं शुरू हो जाएंगी; क्योंकि उतने पानी को पुरानी धारा न ले जा सकेगी।

तो कुंडलिनी को जगाने का जो गहरा शारीरिक अर्थ है, वह यह है कि इतनी ऊर्जा तुम्हारे पास हो कि तुम्हारे पुराने द्वार उसको बहाने में समर्थ न रह जाएं। तब अनिवार्यरूपेण उस ऊर्जा को नये द्वारों पर चोट करनी पड़ेगी और तुम्हारी नई इंद्रियां कानी शुरू हो जाएंगी। उन इंद्रियों में बहुत तरह की इंद्रियां हैं—उनसे टेलीपैथी होगी, क्लेअरवायन्स होगा। तुम्हें कुछ चीजें दिखाई पड़ने लगेंगी, कुछ सुनाई पड़ने लगेंगी, जो कि कान की नहीं हैं, आख की नहीं हैं। तुम कुछ चीजें अनुभव करने लगोगे जिनमें तुम्हारी किसी इंद्रिय का कोई योगदान नहीं है। तुम्हारे भीतर नई इंद्रियां सक्रिय हो जाएंगी। और इन्हीं इंद्रियों की सक्रियता का जो गहरे से गहरा फल होगा, वह तुम्हारे शरीर के भीतर जो अदृश्य लोक है—जिसको आत्मा हम कह रहे हैं—तुम्हारे शरीर का जो सूक्ष्मतम अदृश्य छोर है, उसकी प्रतीति उसे पकड़नी शुरू हो जाएगी। तो यह कुंडलिनी के जागने से तुम्हारे भीतर संभावनाएं बढ़ेगी। शरीर से काम शुरू होगा।

चेतना को कुंड में डुबोने का अनूठा प्रयोग:

दूसरी बात मैंने छोड़ दी। यह साधारणत: प्रयोग हुआ है—कुंडलिनी को जगाने का। पर फिर भी कुंडलिनी पूरा कुंड नहीं है। एक दूसरा प्रयोग भी है जिस पर मैं फिर कभी तुमसे उसकी अलग ही पूरी बात करनी पड़े। बहुत थोड़े से लोगों ने पृथ्वी पर उस पर काम किया है। वह कुंडलिनी जगाने का नहीं है, बल्कि कुंड में डूब जाने का है। उसमें से कोई एक छोटी—मोटी शक्ति को उठाकर काम कर लेना नहीं, बल्कि समग्र चेतना को अपने उस कुंड में डुबा देना। तब कोई इंद्रिय नहीं जागेगी नई, कोई अतींद्रिय अनुभव नहीं होंगे, और आत्मा का अनुभव एकदम खो जाएगा, और सीधा परमात्मा का अनुभव होगा।

कुंडलिनी की शक्ति जगाकर जो अनुभव होंगे, वह तुम्हें पहले आत्मा का अनुभव होगा; और उसके साथ एक प्रतीति होगी कि दूसरे की आत्मा अलग है, मेरी आत्मा अलग है। जिन लोगों ने कुंडलिनी की शक्ति जगाकर अनुभव किए हैं, वे अनेक— आत्मवादी हैं; वे कहेंगे कि अनेक आत्माएं हैं, हर एक के भीतर अलग आत्मा है। लेकिन जिन लोगों ने कुंड में डुबकी लगाई है, वे कहेंगे आत्मा है ही नहीं, परमात्मा ही है; अनेक नहीं हैं, एक ही है। क्योंकि उस कुंड में डुबकी लगाते से ही तुम अपने ही कुंड में डुबकी नहीं लगाते—तुम, सबका जो सम्मिलित कुंड है, उसमें प्रवेश कर जाते हो तत्काल।

तुम्हारा कुंड और मेरा कुंड और उनका कुंड अलग—अलग नहीं हैं। इसीलिए तो कुंड अनंत शक्तिवान है। तुम उसमें से कितना ही उठाओ, तो भी कुछ नहीं उठता। तुम उसमें से कितनी बालटी पानी भर लाए हो अपने घर के काम के लिए, उससे कुछ वहां फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तुम अपना मटका भर लाए हो, मैं अपना मटका भर लाया हूं; मेरे मटके का पानी अलग है, तुम्हारे मटके का पानी अलग है। हम सागर से कुछ ले आए हैं। लेकिन एक आदमी सागर में डूब गया! तब वह कहता है कि मटके— वटके की कोई बात नहीं है, और किसी का पानी अलग नहीं है, सागर एक है, वह जिसे तुम घर ले गए हो, वह भी इसी का हिस्सा है, और कुछ दूर नहीं हो गया है, और तुम दूर रख न पाओगे, वह लौट आएगा। अभी धूप पड़ेगी और भाप बनेगी और बादल बनेंगे, वह सब लौट आएगा। वह कहीं दूर नहीं गया है, वह दूर जा नहीं सकता, वह सब यहीं लौट आएगा।

तो जिन लोगों ने कुंडलिनी को जगाने के प्रयोग किए, उन लोगों को अतींद्रिय अनुभव हुए। जो कि साइकिक, जो कि मनस की बड़ी अदभुत अनुभूतियां हैं। और उन्हें आत्म—अनुभव हुआ। जो कि परमात्मा का सिर्फ एक अंश है; जहां से तुम परमात्मा को पकड़ रहे हो।

जैसे एक सागर के किनारे से मैं सागर को छू रहा हूं। मैं उसी सागर को छू रहा हूं जो कि करोड़ों मील दूर तुम भी छू रहे होओगे। लेकिन मैं कैसे मानूं कि तुम भी उसी सागर को छू रहे हो? तुम अपने किनारे छू रहे हो, मैं अपने किनारे छू रहा हूं। तो मेरा सागर अलग होगा। मेरा सागर हिंद महासागर होगा, तुम्हारा सागर अटलांटिक महासागर होगा, उनका सागर पैसिफिक महासागर होगा। महासागर नहीं छुने हम, अपने—अपने सागर भी हो जाएंगे, अपना—अपना तट भी हो जाएगा, हम कहीं विभाजन रेखा खींच लेंगे— जो मैंने छुआ।

तो आत्मा जो है वह परमात्मा को एक कोने से छूना है। और कोने से छूने का रास्ता है कि एक छोटी सी शक्ति जग जाए तो तुम छू लोगे। और इसलिए इस मार्ग से चलने पर एक दिन आत्मा को भी खोना पड़ता है, नहीं तो रुकावट हो जाती है, वह पूरा नहीं है मामला। फिर आत्मा को भी खोना पड़ता है, फिर छलांग लगानी पड़ती है कुंड में। लेकिन यह आसान है। यह आसान है। कई बार ऐसा होता है कि लंबा रास्ता आसान रास्ता होता है, और निकटतम रास्ता कठिन रास्ता होता है। उसके कारण हैं। उसके कारण हैं। लंबा रास्ता सदा आसान रास्ता होता है।

अब जैसे, मुझे अगर मेरे ही पास आना हो, तो भी मुझे दूसरे के माध्यम से आना पड़े। और अगर मुझे अपनी ही शक्ल देखनी हो, तो भी मुझे एक आईना रखना पड़े। अब यह फिजूल की लंबी यात्रा है कि आईने में मेरी शक्ल जाएगी और आईने से वापस लौटेगी, तब मैं देख पाऊंगा। यह इतनी यात्रा करनी पड़ेगी। लेकिन अपनी शक्ल को सीधा देखना, निकटतम तो है, लेकिन कठिनतम भी है। मेरा मतलब समझे न तुम?

स्वयं को जानने व खोने का आनंद:

तो यह जो कुंडलिनी की छोटी सी शक्ति को उठाकर थोड़ी लंबी यात्रा तो होती है, क्योंकि इंद्रियों का सारा का सारा, अंतर—इंद्रियों का जगत खुलता है और आत्मा पर पहुंचते हैं, और फिर वहां से छलांग तो लेनी ही है, लेकिन बड़ी सरल हो जाती है। क्योंकि जिसको आत्म—अनुभव हुआ, जिसने अपने को जाना और आनंद पाया, वह आनंद उसे पुकारने लगता है कि अब अपने को भी खो दो तो और परम आनंद पा लोगे।

अपने को जानने का एक आनंद है, अपने को पाने का एक आनंद है, और अपने को खोने का एक परम आनंद है। क्योंकि जब तुम अपने को जान लोगे तब तुम्हें सिर्फ एक ही पीड़ा रह जाएगी कि मैं हूं; बस इतनी पीड़ा और रह जाएगी; सब पीड़ाएं मिट जाएंगी, एक ही पीड़ा रह जाएगी कि मेरा होना भी क्यों है। यह भी अनावश्यक है। यह मेरा होना भी व्यर्थ, अनावश्यक है। इसलिए इससे भी तुम छलांग लगाओगे ही। एक दिन तुम कहोगे कि अब मैंने होना जान लिया, अब मैं न होना भी जानना चाहता हूं; मैंने बीइंग भी जान लिया, अब मैं नॉन—बीइंग भी जानना चाहता हूं; मैंने जान लिया प्रकाश, अब मैं अंधकार भी जानना चाहता हूं। और प्रकाश कितना ही बड़ा हो, उसकी सीमा है; और अंधकार असीम है। और बीइंग कितना ही महत्वपूर्ण हो, फिर भी सीमा है। अस्तित्व की सीमा होगी, अनस्तित्व की कोई सीमा नहीं।

इसलिए बुद्ध को लोग नहीं समझ पाए। क्योंकि बुद्ध से जब लोगों ने जाकर पूछा कि हम बचेंगे कि नहीं वहां? तो उन्होंने कहा कि तुम कैसे बचोगे? तुमसे ही तो छूटना है! तो उन्होंने पूछा कि मोक्ष में फिर कम से कम हम तो होंगे? और सब मिट जाए— वासना मिटे, दुख मिटे, पाप मिटे—हम तो बचेंगे? बुद्ध ने कहा कि तुम कैसे बचोगे? जब वासना मिट जाएगी, पाप मिट जाएगा, दुख मिट जाएगा, तो एक दुख बचेगा तुम्हारा—होने का दुख। होना भी खलने लगेगा।

यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि जब तक वासना है तब तक होना नहीं खलता तुम्हें, क्योंकि तुम होने को काम में लगाए रखते हो। धन कमाना है, तो होने को तुमने धन कमाने में लगाया है; यश कमाना है, तो यश कमाने में लगाया है। जब यश की कामना न होगी, धन की कामना न होगी, काम की वासना न होगी, जब कुछ भी न होगा करने को, जब डूइंग बिलकुल न बचेगी, तो बीइंग का करोगे क्या? तब बीइंग सीधा गड़ने लगेगा, होना ही घबराने लगेगा कि अब यह होना भी नहीं चाहिए।

तो बुद्ध कहते हैं कि नहीं, वहां कुछ भी नहीं होगा। जैसे दीया बुझ जाता है, फिर तुम पूछते हो कहां गया?

मरते समय तक बुद्ध से लोग पूछ रहे हैं कि तथागत का मरने के बाद क्या होता है? जब आप मर जाएंगे तो फिर क्या होगा? तो बुद्ध कहते हैं, जब मर ही गए तो फिर होने को बचा क्या? फिर कुछ बचेगा ही नहीं, जैसे दीया बुझ गया ऐसे सब बुझ जाएगा। तुम कब पूछते हो कि दीया बुझ गया, अब क्या हुआ? बुझ गया, बुझ गया।

तो आत्मा की उपलब्धि चरण ही है एक आत्मा को खोने की तैयारी का। लेकिन ऐसे ही आसान है। क्योंकि जो अभी वासना ही नहीं खो सका, उससे अगर सीधा कहो कि कुंड में डूब जाओ, अपने को ही खो दो। असंभव है! क्योंकि वह कहेगा, अभी मुझे बहुत काम हैं।

आखिर हम अपने को खोने से डरते क्यों हैं? हम अपने को खोने से इसलिए डरते हैं कि काम तो बहुत करने को हैं, मैं खो दूंगा तो फिर ये काम कौन करेगा? एक मकान बनाया, वह अधूरा है। तो उसे मैं पूरा बना लूं फिर तैयार हो जाऊंगा। लेकिन तब तक दूसरे काम अधूरे रह जाएंगे।

असल में, काम की वासना, कुछ पूरा करना है, उसकी वजह से ही तो मैं अपने को चला रहा हूं। तो जब तक वासना है तब तक अगर कोई कहे कि आत्मा को खो दो, तो तब तक बिलकुल संभव नहीं है। यह निकट का तो है, लेकिन संभव नहीं है। क्योंकि वह आदमी जिसकी अभी वासना नहीं खोई, वह आत्मा को कैसे खोएगा? हां, वासना खो जाए तो फिर एक दिन वह आत्मा को खोने को राजी हो सकता है, क्योंकि अब आत्मा का भी करना क्या है!

मेरा मतलब समझ रहे हो? मेरा मतलब यह है कि जिसने अभी दुख नहीं खोया, उससे कहो कि आनंद को खो दो! वह कहेगा, पागल हैं आप? लेकिन जिस दिन दुख खो जाए, आनंद ही रह जाए, फिर आनंद का भी क्या करोगे? फिर आनंद को भी खोने के लिए तुम तैयार हो जाओगे। और जिस दिन कोई आनंद को भी खोने को तैयार है, उसी दिन कोई घटना घटती है। दुख खोने को तो कोई भी तैयार हो जाता है, लेकिन एक घड़ी आती है जब हम आनंद को भी खोने को तैयार हो जाते हैं। वह परम अस्तित्व में लीनता उपलब्ध उससे होती है।

यह सीधा भी हो सकता है; सीधा कुंड में जाया जा सकता है। लेकिन राजी होना मुश्किल होता है। धीरे— धीरे राजी होना आसान हो जाता है। वासना खोती है, वृत्तियां खोती हैं, क्रिया खोती है, वह सब खो जाता है जिनके सहारे तुम हो; फिर आखिर में तुम्हीं बचते हो जिसमें न नींव बची, न सहारे बचे। अब तुम कहते हो, इसको भी क्या बचाना! अब इसको भी जाने दे सकते हैं। तब तुम कुंड में डूब जाते हो। कुंड में डूबना निर्वाण है।

अगर सीधा कोई डूबना चाहे तो कुंडलिनी नहीं मार्ग में आती। इसलिए कुछ मार्गों ने उसकी बात नहीं की, जिन्होंने सीधे ही डूबने की बात की, उन्होंने उसकी बात नहीं की; उसकी कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन मेरा अपना अनुभव यह है कि वह नहीं संभव हो सका। वह कभी एकाध—दों लोगों के लिए संभव हो सकता है, लेकिन एकाध—दों लोगों से कुछ हल नहीं होता। लंबे रास्ते ही जाना पड़ेगा। बहुत बार अपने घर पहुंचने के लिए दूसरों के घर के द्वार खटखटाने ही पड़ते हैं— अपने ही घर पहुंचने के लिए! और अपनी ही शक्ल पहचानने के लिए न मालूम कितनी शक्लों को पहचानना पड़ता है। और खुद को प्रेम करने के लिए न मालूम कितने लोगों को प्रेम करना पड़ता है। सीधा तो यही था कि अपने को प्रेम कर लेते। इसमें कौन कठिनाई थी? इसमें कौन बाधा डालता था? उचित तो यही था कि अपने घर में सीधे आ जाते। लेकिन ऐसा नहीं है।

असल में, जब तक हम दूसरों के घरों में न भटक लें, तब तक अपने घर को पहचानना ही मुश्किल होता है। और जब तक हम दूसरों से प्रेम न मांग लें और दूसरों को प्रेम न कर लें, तब तक यह पता ही नहीं चलता कि असली सवाल अपने को प्रेम करने का है। यह पता ही नहीं चलता। इसका पता चलता है तभी।

तो यह कुंडलिनी को मैंने जो कहा कि शरीर की तैयारी है; तैयारी है अशरीर में प्रवेश की, आत्मा में प्रवेश की। और तुम्हारी जितनी ऊर्जा अभी जगी है उससे तुम आत्मा में प्रवेश न कर सकोगे। क्योंकि तुम्हारी वह ऊर्जा तुम्हारे रोजमर्रा के काम में पूरी चुक जाती है। बल्कि करीब—करीब उसमें भी पूरी नहीं पड़ती, उसमें भी हम थक जाते हैं। वह उसमें भी पूरी नहीं पड़ रही है। बहुत मंदी—मंदी जल रही है लौ। इतने से इसको नहीं ले जाया जा सकता।

ऊर्जा अनंत है, उसे जगाओ:

और इसीलिए संन्यास की वृत्ति पैदा हुई, ताकि रोजमर्रा का काम बंद कर दिया जाए। क्योंकि शक्ति तो इतनी सी ही है हमारे पास, अब इसको लगाना है किसी और यात्रा पर, तो फिर यह काम बंद कर दो, दुकान मत करो, बाजार मत जाओ, नौकरी मत करो।

लेकिन मेरा मानना है कि वे भांति में हैं। क्योंकि यह जो दो पैसे की शक्ति उसकी इस काम में लग रही है, यह अगर वह किसी तरह बचा भी ले, तो बचाने में यह उतनी व्यय हो जाएगी। क्योंकि बचाने में भी बड़ी ताकत लग जाती है। बचाने में बड़ी ताकत लगती है; बहुत बार तो क्रोध करने में उतनी ताकत व्यय नहीं होती जितना क्रोध रोकने में व्यय हो जाती है; बहुत बार लड़ने में उतनी व्यय नहीं होती जितना लड़ने से बचने में व्यय हो जाती है।

तो मैं इसको उचित नहीं मानता, यह कंजूस का रास्ता है। यह जो संन्यास है, यह कंजूस का रास्ता है। वह यह कह रहा है कि इतने में ही हम उधर से बचा लेते हैं, इधर से बचा लेते हैं। मेरा मानना है कि कंजूस के रास्ते से नहीं चलेगा। और जगा लो! बहुत है, अनंत है; बचाते क्यों हो, और जगा लो! और खर्च करनी है? और जगा लो! और तुम खर्च कर नहीं सकते इतनी तुम्हारे पास है, तो तुम उसे बचाने की फिक्र क्यों करते हो!

अब वह आदमी डर रहा है कि अगर मैंने अपनी पत्नी को प्रेम किया तो मैं परमात्मा को कैसे प्रेम करूंगा? क्योंकि उसके पास प्रेम की इतनी छोटी सी तो ऊर्जा है कि इसी में चुक जाएगी। तो वह कह रहा है, इससे बचा लें। लेकिन अगर इसको बचा भी लिया, तो इस बचाने में उसको लड़ना पड़ेगा; लड़ने में व्यय होगी। और इतनी छोटी सी ऊर्जा से, जिससे तुमने पत्नी को प्रेम किया था, उससे तुम परमात्मा को प्रेम कर पाओगे? उतनी सी ऊर्जा से पत्नी तक नहीं पहुंच पाए पूरी तरह, परमात्मा तक कैसे पहुंच पाओगे? यानी उतना छोटा सा जो ब्रिज तुमने बनाया था, वह पत्नी तक भी तो पूरा नहीं पहुंचता था। उसमें भी बीच में ही सीढ़ियां चुक जाती थीं। वह वहां तक भी सेतु पूरा नहीं बनता था कि तुम उसके हृदय तक भी पहुंच गए होओ ठीक; वह भी नहीं हो पाता था। उतनी सी ऊर्जा बचाकर तुम अनंत तक सेतु बनाने की सोचने बैठे हो, तो पागलपन में पड़ गए हो।

उसे बचाने का सवाल नहीं है; और ऊर्जा है, उसे जगाने का सवाल है। और इतनी अनंत ऊर्जा है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। और एक बार वह कानी शुरू हो जाए, तो वह जितनी जगती है, उतनी ही और जगने की संभावना प्रकट होने लगती है। उसका झरना फूटना शुरू हो जाए तो अनंत है। उसे तुम चुकता नहीं कर सकते कभी। यानी ऐसा कोई क्षण नहीं आ सकता जब तुम कह दो कि अब मेरे भीतर जगने को और कुछ भी शेष नहीं रहा।

जगने की, अवेकनिंग की अनंत संभावना है, कितना भी तुम जगा सकते हो। और जितना तुम जगाते हो, उतना और जगाने के लिए तुम शक्तिशाली होते चले जाते हो। और जब तुम्हारे पास अतिरिक्त होती है, एफ्लुएंस होता है तुम्हारे पास अंतर— ऊर्जा का, तभी तुम उसे उन रास्तों पर खर्च कर सकते हो जो अनजान हैं। समझ रहे हो न मेरा मतलब?

बाहर की दुनिया में भी एफ्लुएंस होता है। एक आदमी के पास अतिरिक्त धन है, अब वह सोचता है कि चलो, चांद की यात्रा कर आएं। हालांकि बेमानी है, और चांद पर कुछ मिलने को नहीं है। लेकिन हर्ज भी कुछ नहीं है, क्योंकि उसका खोने को भी क्या है! उसके पास अतिरिक्त है, वह खो सकता है। जब तक तुम्हारे पास अतिरिक्त नहीं है, उतना ही है जितनी तुम्हें जरूरत है— उससे भी कम है—तब तक तुम इंच—इंच जांच—पड़ताल करके खर्च करोगे। इसलिए तुम ज्ञात की दुनिया से कभी बाहर न हटोगे। अज्ञात में जाने के लिए तुम्हारे पास अतिरेक चाहिए।

तो कुंडलिनी की शक्ति तुम्हें अतिरेक से भर देती है। और तुम्हारे पास इतनी शक्ति होती है कि तुम्हारे सामने सवाल होता है कि इसको कहां खर्च करें? और ध्यान रहे, जिनके पास अतिरिक्त शक्ति होती है, अचानक वे पाते हैं कि उनके जो पुराने द्वार थे, वे एकदम बंद हो गए; क्योंकि उस अतिरिक्त शक्ति को बहाने में वे समर्थ नहीं होते। जैसे एक छोटी नदी हो और उसमें पूरा सागर आ गया है। वह नदी मिट जाएगी फौरन। उसका कहीं पता ही नहीं चलेगा कि वह कहां गई।

तो तुम्हारा क्रोध का एक मार्ग था, तुम्हारे सेक्स का एक मार्ग था, वे अचानक खो जाएंगे। जिस दिन अतिरिक्त ऊर्जा आएगी, वह सब घाट, तट, सब तोड़—फोड़ कर उनको खतम कर देगी। तुम अचानक पाओगे कि कुछ और ही हो गया! वह सब कहां गया जो कल मैं छोटा—छोटा बचा—बचा कर कंजूस की तरह चल रहा था, और ब्रह्मचर्य साध रहा था, और क्रोध दबा रहा था, और यह कर रहा था, और वह कर रहा था; वह सब अब कहां है? क्योंकि वे नदियां न रहीं, वे नहरें न रहीं; अब तो यह पूरा सागर आ गया है! अब इसको खर्च करने का तुम्हारे पास जब उपाय नहीं है, तब अनायास तुम पाते हो कि इसकी दूसरी यात्रा शुरू हो गई। यात्रा तो होगी ही, वह तो रुक सकती नहीं। ऊर्जा बहेगी ही, वह रुक सकती नहीं। होनी चाहिए।

तो एक बार जगा लेने की बात है। और तब तुम्हारे दैनंदिन के द्वार बेमानी हो जाते हैं, और अनजान—अपरिचित द्वार, जो बंद पड़े हैं, उनमें पहली दफे दरारें पड़ती हैं और उनसे ऊर्जा धक्के देकर बहने लगती है। तो वहां तुम्हें अतींद्रिय अनुभव शुरू हो जाते हैं। और जैसे ही अतींद्रिय द्वार खुलते हैं वैसे ही तुम्हें अपने शरीर का अशरीरी छोर, जिसको आत्मा कहें, उसकी तुम्हें प्रतीति शुरू हो जाती है।

तो कुंडलिनी तुम्हारे शरीर की तैयारी है अशरीर में प्रवेश के लिए। उस अर्थ में मैंने वह बात कही।

कुंडलिनी का आरोहण— अवरोहण:

प्रश्न: ओशो कुंडलिनी साधना में कुंडलिनी के एसेडं और डिसेडं की बात आती है— आरोहण और उसके बाद अवरोहण। तो यह जो डिसेडं है? वह क्या कुंड में डूबना है या और कोई दूसरी बात है?

सल में, कुंड में डूबना जो है, वह न तो उतरना है, न वह चढ़ना है। कुंड में डूबने में तो ये दोनों बातें ही नहीं हैं। वह उतरना—चढ़ना नहीं है, मिट जाना है, समाप्त हो जाना है। बूंद जब सागर में गिरती है, न तो उतरती, न चढ़ती। हां, बूंद जब सूरज की किरणों में सूखती है, तब चढ़ती है आकाश की तरफ; और जब बादल में ठंडक पाकर गिरती है जमीन की तरफ, तब उतरती है। लेकिन जब सागर में जाती है तो फिर उतरना—चढ़ना नहीं है—डूबना है, मिटना है, मरना है।

तो यह जो उतरने—चढ़ने की जो बात है, अवरोहण की, अवतरण की, यह बहुत दूसरे अर्थों में है। यह इस अर्थ में है कि कुंड से जिस शक्ति को हम उठाते हैं, इसे बहुत बार वापस कुंड में भी भेज देना पड़ता है। इस शक्ति को हम उठाते भी हैं, इसे हमें वापस भी भेज देना पड़ता है बहुत बार। कई कारण हो सकते हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह होता है कि बहुत बार ऐसा होता है कि जितनी शक्ति के लिए तुम तैयार नहीं होते, उतनी शक्ति जग जाती है; उसे वापस लौटाना पड़ता है, अन्यथा खतरे हो सकते हैं। तो कुछ शक्ति जितनी तुम झेल सको. हमारे झेलने की भी क्षमताएं हैं न! हमारे झेलने की भी क्षमताएं हैं—सुख झेलने की भी क्षमता है, दुख झेलने की भी क्षमता है, शक्ति झेलने की भी क्षमता है। अगर हमारी क्षमता से बहुत बड़ा आघात हमारे ऊपर हो जाए, तो हमारा जो संस्थान है व्यक्तित्व का वह टूट सकता है। वह हितकर नहीं होगा। इसलिए बहुत बार ऐसी शक्ति उठ आती है जिसको वापस भेज देना पड़ता है।

लेकिन जिस प्रयोग की मैं बात कर रहा हूं उस प्रयोग में इसकी कोई जरूरत कभी नहीं पड़ेगी। यह प्रयोग पर निर्भर बात है। ऐसे प्रयोग हैं जो तुम्हारे भीतर आकस्मिक रूप से, जिनको सडन एनलाइटेनमेंट के प्रयोग कहते हैं, जो तात्कालिक, इंस्टैंट शक्ति को जगा सकते हैं। ऐसे प्रयोग में सदा खतरा है, क्योंकि शक्ति इतनी आ सकती है जितनी कि तुम तैयार न थे। वोल्टेज इतना हो सकता है कि तुम्हारा बल्व बुझ जाए, फ्यूज उड़ जाए, तुम्हारा पंखा जल जाए, तुम्हारी मोटर में आग लग जाए। जिस प्रयोग की मैं बात कर रहा हूं वह प्रयोग तुम्हारे भीतर पहले पात्रता पैदा करता है, पहले शक्ति को नहीं जगाता। पहले पात्रता पैदा करता है।

साधना में दूसरों की सहायता:

इसे ऐसे भी समझें कि यदि एक बड़ा बांध अचानक टूट जाए तो उसके पानी से बड़ा भारी नुकसान हो जाएगा, लेकिन उससे नहरें निकालकर उसी पानी को सुविधानुसार नियंत्रित रूप से प्रवाहित किया जा सकता है।

एक अदभुत घटना है कि किशोरावस्था में कृष्णमूर्ति को थियोसाफी के कुछ विशेष लोगों द्वारा कुंडलिनी की सारी साधनाओं से गुजारा गया। उन पर अनेक प्रयोग किए गए, जिनकी स्पष्ट स्मृति उन्हें न रही; उन्हें बोध नहीं है कि क्या हुआ। उनको तो बोध तभी आया जब उस नहर में सागर उतर आया। इसलिए उन्हें तैयारी का कोई भी पता नहीं है। इसलिए किसी प्रिप्रेशन को वे स्वीकार नहीं करेंगे कि किसी तैयारी की जरूरत है। लेकिन उन पर बड़ी तैयारी की गई, जैसा कि संभवत: पृथ्वी पर पहले किसी आदमी के साथ नहीं की गई। तैयारियां तो बहुत लोगों ने की, लेकिन अपने साथ की। यह पहली दफा कुछ दूसरे लोगों ने उनके साथ तैयारी की।

प्रश्न: दूसरे भी कर सकते हैं?

बिलकुल कर सकते हैं। क्योंकि दूसरे बहुत गहरे में दूसरे नहीं हैं। इधर से जो हमें दूसरे दिखाई पड़ रहे हैं वे इतने दूसरे नहीं हैं।

तो वह तैयारी दूसरों ने की और किसी एक बहुत बड़ी घटना के लिए की थी। वह घटना भी चूक गई। वह घटना थी किसी और बड़ी आत्मा को प्रवेश कराने के लिए। कृष्‍णमूर्ति को तो सिर्फ एक वीहिकल की तरह उपयोग करना था, इसलिए उन्हें तैयार किया था; इसलिए नहर खोदी थी, इसलिए शक्ति को, ऊर्जा को जगाया था। लेकिन यह प्रारंभिक काम था। कृष्णमूर्ति जो थे वे खुद लक्ष्य नहीं थे उसमें। एक बड़े लक्ष्य के लिए साधन की तरह प्रयोग करना था उनका। किसी और आत्मा को उनके भीतर जगह देने की बात थी। वह नहीं हो सका। वह नहीं हो सका इसलिए कि जब पानी आ गया तो कृष्णमूर्ति ने साधन बनने से इनकार कर दिया; वह किसी और के लिए साधन बनने से इनकार कर दिया।

इसका डर था, इसका डर सदा है। इसलिए इसका प्रयोग नहीं किया गया था। इसका डर सदा है। क्योंकि जब व्यक्ति उस हालत में आ जाए जब कि वह खुद ही साध्य बन सके तो वह दूसरे के लिए क्यों साधन बनेगा? वह इनकार कर दे ऐन वक्त पर। यानी मैं तुम्हें अपने मकान की चाबी दूं इसलिए कि कल कोई मेहमान आ रहा है, उसके लिए तुम मकान तैयार करके रखना। लेकिन जब मैं चाबी तुम्हें देकर जाऊं और तुम मालिक हो जाओ, तो कल जब मेहमान आने की बात हो तो तुम इनकार ही कर दो, कि मालिक तो मैं हूं चाबी मेरे पास है। और यह चाबी किन्हीं और ने तैयार की थी और यह मकान भी किन्हीं और ने बनाया था। इसलिए न तुम्हें बनाने का पता है, न तुम्हें यह चाबी कब ढाली गई, कैसे ढाली गई, इसका पता है। लेकिन इस चाबी के तुम मालिक हो और मकान तुम खोलना जानते हो, बात खत्म हो गई।

पहले तैयारी, पीछे उपलब्धि:

ऐसी घटना घटी है। कुछ लोगों को तैयार किया जा सकता है। कुछ लोग पिछले जन्मों में तैयार होकर आते हैं। लेकिन यह साधारण मामला नहीं है। साधारणत: तो प्रत्येक को अपने को तैयार करना होता है। और उचित यही है कि ऐसा प्रयोग हो, जिसमें तैयारी पहले चलती हो और घटना पीछे घटती हो। तुम्हारी जितनी क्षमता बनती जाती हो उतना जल आता जाता हो। तुम्हारी क्षमता से ज्यादा शक्ति कभी न जग पाए। ऐसे बहुत से प्रयोग थे जिनमें ऐसा हुआ। इसलिए बहुत से लोग उन्मादग्रस्त होंगे, पागल हो जाएंगे। धर्म से बहुत बड़ा भय पैदा हो गया था। इस तरह के प्रयोगों की वजह से पैदा हुआ था।

तो प्रयोग दो तरह के हो सकते हैं, इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है।

अमेरिका में उन्होंने बिजली की जो व्यवस्था की है, उसमें उन्होंने एक जो काम किया है, उसके कई दफे क्या परिणाम हो सकते हैं, वह मैं कहता हूं। इस तरह की स्थिति भीतर भी हो सकती है। उन्होंने जो व्यवस्था की है वह यह व्यवस्था की है कि इस गांव को जितनी बिजली की जरूरत है उससे अगर ज्यादा कोटा इसके पास है आज, और आज रात गांव में कम बिजली का उपयोग किया जा रहा है, तो जितनी बिजली बचे वह दूसरे गांवों की तरफ आटोमेटिकली प्रवाहित हो जाए; यानी इस गांव के पास कुछ भी अतिरिक्त बिजली न पड़ी रह जाए व्यर्थ, वह दूसरे गांव के काम आ जाए। आज एक फैक्टरी बंद है जो कल शाम तक चल रही थी, आज बंद है, उसकी हड़ताल हो गई। तो जितनी बिजली उसको चाहिए थी वह आज इस गांव में बेकार पड़ी रहेगी, जब कि दूसरे गांव में हो सकता है बिजली की जरूरत हो और एक फैक्टरी को बिजली न दी जा सके। तो पूरा आटोमेटिक इंतजाम किया है कि सारे जोन की बिजली पूरे वक्त प्रवाहित होती रहेगी दूसरी तरफ—जहां भी अतिरिक्त है वह तत्काल दूसरी तरफ बह जाएगी।

पीछे तीन—चार वर्ष पहले कोई आठ—दस—बारह घंटे के लिए पूरी बिजली चली गई अमेरिका की। वह इस इंतजाम में चली गई। एक गांव की बिजली गई तो उलटा प्रवाह शुरू हो गया। वह जो प्रवाह अतिरिक्त बिजली को ले जाता था, जब एक गांव की बिजली चली गई तो सारी बिजली उस तरफ दौड़ी, वहां वैक्यूम हो गया। उसकी कैपेसिटी थी उस गांव की, उतनी बिजली उसको मिलनी चाहिए थी; और वे सारे के सारे गांव संबंधित थे, वह सारी बिजली उस तरफ दौडी। वह इतने जोर से दौड़ी कि उस गांव के सारे फ्यूज चले गए और दूसरे गांव की मुसीबत हो गई। और पूरा का पूरा जितना जोन का इंतजाम था, वह सब का सब एकदम से खत्म हो गया। एक बारह घंटे के लिए अमेरिका बिलकुल कोई दो हजार साल पहले लौट गया; एकदम अंधेरा हो गया। जो जहां था वहां अंधकार में हो गया और सब काम ठप्प हो गया। और उस वक्त पहली दफा उनको पता चला कि हम जिस लिए इंतजाम करते हैं, उससे उलटा भी हो सकता है। हमारा इंतजाम जो हम करते हैं, उससे उलटा हुआ। अगर एक—एक गांव का अलग—अलग इंतजाम था तो ऐसा कभी नहीं हो सकता था। हिंदुस्तान में ऐसा कभी नहीं हो सकता कि पूरे हिंदुस्तान की बिजली चली जाए। अमेरिका में हो सकता है, क्योंकि वह सब इंटरकनेक्टेड है पूरा का पूरा। और पूरे वक्त धाराएं एक गांव से दूसरे गांव शिफ्ट होती रहेंगी। और कभी भी खतरा हो सकता है।

मनुष्य के भीतर भी ठीक विद्युतधारा की तरह इंतजाम हैं। और ये विद्युतधाराएं जो हैं, ये अगर तुम्हारी क्षमता से ज्यादा तुम्हारी तरफ प्रवाहित हो जाएं……. और ऐसे इंतजाम हैं जिनसे प्रवाहित हो सकती हैं। यानी तुम यहां बैठे हुए हो, और यहां पचास लोग बैठे हुए हैं, तो ऐसे मेथड्स हैं कि तुम चाहो तो इन पचास लोगों की सारी विद्युतधारा तुम्हारी तरफ प्रवाहित हो जाए; ये सब पचास लोग यहां बिलकुल ही फेंट हालत में हो जाएं और तुम एकदम ऊर्जा के केंद्र बन जाओ। लेकिन खतरे भी हैं उसमें। उसमें खतरे हैं; क्योंकि वह इतनी ज्यादा भी हो सकती है कि तुम उसे न झेल पाओ। और इससे उलटा भी हो सकता है कि जिस मार्ग से विद्युतधारा तुम तक आई, उसी मार्ग से तुम्हारी भी सारी विद्युत को लेकर दूसरी तरफ बह जाए। इन सबके प्रयोग हुए हैं।

तो वह जो उतरना है, वह तुम्हारे भीतर अगर कभी कोई अतिरिक्त मात्रा में शक्ति—तुम्हारी ही शक्ति—ऊपर चली जाए, तो उसे वापस लौटाने की विधियां हैं। लेकिन जिस विधि की मैं बात कर रहा हूं उसमें उनकी भी कोई जरूरत नहीं है; उसमें कोई प्रयोजन ही नहीं है। तुम्हारे भीतर जितनी पात्रता बनती जाएगी उतनी ही तुम्हारे भीतर शक्ति जगती जाएगी। पहले जगह बनेगी, फिर शक्ति आएगी। और इसलिए कभी तुम्हारे पास ऐसा नहीं होगा कि तुम्हें कुछ भी वापस लौटाना पड़े। हां, एक दिन तुम खुद ही वापस लौटोगे, वह दूसरी बात है। एक दिन तुम खुद ही सब जानकर छलांग लगा जाओगे कुंड में, वह दूसरी बात है।

और इन शब्दों का और अर्थों में भी प्रयोग हुआ है। जैसे कि श्री अरविंद जिस अर्थ में प्रयोग करते हैं, वह बहुत दूसरा है। दो तरह से हम परमात्म शक्ति को सोच सकते हैं. या तो अपने से ऊपर, या तो अपने से ऊपर कहीं आकाश में—किसी भी ऊपर के भाव में; या अपने से गहरे, पाताल के भाव में। और जहां तक जगत की व्यवस्था का संबंध है, ऊपर और नीचे शब्द बेमानी हैं, इनका कोई अर्थ नहीं है; ये सिर्फ हमारे सोचने की धारणाएं हैं कि हम कैसा सोचते हैं। इस छत को तुम ऊपर कह रहे हो, कुछ ऊपर नहीं है, क्योंकि हम यहां एक छेद करें और वह जाकर अमेरिका में निकल जाएगा छेद जमीन में। और वहां से अगर कोई झांककर देखे तो यह छत हमारे नीचे मालूम पड़ेगी—हमारे सिर के नीचे—उस छेद से झांकने पर। हम उलटे मालूम पड़ेंगे, सब शीर्षासन करते हुए, और यह छत हमारे सिर के नीचे मालूम पड़ेगी। अभी भी वहीं है वह—हम कहां से देखते हैं, इस पर सब निर्भर करता है।

जैसे हमारा पूरब—पश्चिम सब झूठा है। क्या पूरब? क्या पश्चिम? और पूरब चलते जाओ, चलते जाओ, तो पश्चिम पहुंच जाओगे। और पश्चिम चलते जाओ, चलते जाओ, तो पूरब पहुंच जाओगे। जिस पश्चिम में चलते—चलते पूरब पहुंच जाते हैं उसको पश्चिम कहने का क्या मतलब है? कोई मतलब नहीं है; रिलेटिव है। रिलेटिव का मतलब यह कि बेमानी है। इसका मतलब यह है कि कोई मतलब नहीं है उसका; हमारी कामचलाऊ सीमा—रेखा है कि यह रहा पूरब, यह रहा पश्चिम, नहीं तो हम कैसे हिसाब बांटेंगे! लेकिन कहां पूरब है? किस जगह से शुरू होता है? कलकत्ते से? रंगून से? टोकियो से? कहां से पूरब शुरू होता है? पश्चिम कहां से शुरू होता है और कहां खतम होता है? न कहीं शुरू होता है, न कहीं खत्म होता है। वे कामचलाऊ खयाल हैं जिनसे हमें सुविधा बनती है कि हम एक—दूसरे को बांट लेते हैं।

ठीक ऐसे ही, ऊपर—नीचे दूसरे डायमेंशन में कामचलाऊ हैं। पूरब—पश्चिम हॉरिजेंटल कामचलाऊ बातें हैं और ऊपर— नीचे वर्टिकल कामचलाऊ बातें हैं। न कुछ ऊपर है, न कुछ नीचे है; क्योंकि इस जगत की कोई छत नहीं है और इस जगत का कोई बाटम नहीं है। इसलिए ऊपर—नीचे की सब बातें बेमानी हैं। लेकिन हमारी ये कामचलाऊ धारणाएं हमारे धर्म की धारणाओं में भी घुस जाती हैं।

तो कुछ लोग ईश्वर को अनुभव करते हैं अबव, ऊपर। तो जब शक्ति उतरेगी तो उतरेगी, डिसेंड करेगी, हम तक आएगी। कुछ लोग अनुभव करते हैं ईश्वर को नीचे, रूट्स में। तो जब शक्ति आएगी तो चढेगी, उठेगी, हम तक आएगी। लेकिन कोई मतलब नहीं है। कहां हम रखते हैं ईश्वर को, यह सिर्फ कामचलाऊ बात है। लेकिन इस कामचलाऊ बात में भी अगर चुनाव करना हो, तो मैं मानता हूं बजाय उतरने के, उठना ही ज्यादा सहयोगी होगा; बजाय उतरने के, शक्ति का तुम्हारे भीतर से उठना ही ज्यादा सहयोगी होगा। उसके कारण हैं। क्योंकि जब शक्ति के उठने की धारणा तुम पकड़ोगे, तो उठाने का सवाल उठेगा। तब तुम्हें कुछ करना पड़ेगा। और जब उतरने की बात है तो सिर्फ प्रार्थना रह जाएगी, और तुम कुछ भी न कर सकोगे। जब ऊपर से नीचे आना है तो हम हाथ जोडकर प्रार्थना कर सकते हैं।

धर्म के दो आयाम— ध्यान और प्रार्थना:

इसलिए दो तरह के धर्म दुनिया में बने— ध्यान करनेवाले और प्रार्थना करनेवाले। प्रार्थना करनेवाले वे धर्म हैं जिन्होंने ईश्वर को ऊपर अनुभव किया कहीं। अब हम कर भी क्या सकते हैं? उसको ला तो सकते नहीं! क्योंकि अगर लाएं तो उतने ऊपर हमको जाना पड़े! और उतने ऊपर हम जाएंगे कैसे? उतने ऊपर जाएंगे तो परमात्मा ही हो जाएंगे हम। वहां हम जा नहीं सकते, जहां हम खड़े हैं वहां हम खड़े रहेंगे। हम चिल्लाकर प्रार्थना कर सकते हैं कि हे परमात्मा, उतर!

लेकिन जिन धर्मों ने और जिन धारणाओं ने इस तरह सोचा कि उठाना है नीचे से, कहीं हमारी ही जड़ों में सोया हुआ है कुछ और हम ही कुछ करेंगे तो वह उठेगा, तो वे प्रार्थना के धर्म न बनकर फिर ध्यान के धर्म बने। तो मेडिटेशन और प्रेयर में इस ऊपर—नीचे की धारणा का फर्क है। प्रार्थना करनेवाला धर्म ईश्वर को ऊपर मानता है, ध्यान करनेवाला धर्म ईश्वर को जड़ों में मानता है, और वहां से उसको उठा लेता है।

और ध्यान रहे, प्रार्थना करनेवाले धर्म धीरे— धीरे हारते जा रहे हैं, खत्म होते जा रहे हैं; उनका कोई भविष्य नहीं है। उनका कोई भविष्य नहीं है। ध्यान करनेवाले धर्म की संभावना रोज प्रगाढ़ होती जा रही है। उसका बहुत भविष्य है।

तो मैं पसंद करूंगा कि हम समझें कि नीचे से ऊपर…। इसके और भी अर्थ होंगे। धारणा तो सापेक्ष है, इसलिए मुझे कोई दिक्कत नहीं है, किसी को ऊपर मानना हो तो मुझे कोई अड़चन नहीं आती। लेकिन मैं मानता हूं कि आपको अड़चन आएगी काम करने में। जैसे मैंने कहा कि अगर हम पूरब चलते जाएं तो पश्चिम पहुंच जाते हैं। फिर भी हमें पश्चिम जाना हो तो हम पूरब की तरफ नहीं चलते, हम पश्चिम की तरफ ही चलते हैं। धारणा बेमानी है, लेकिन फिर भी हमें पश्चिम जाना हो तो हम पश्चिम की तरफ चलना शुरू करते हैं। हालांकि पूरब की तरफ चलें तो चलते—चलते पश्चिम पहुंच जाएंगे, लेकिन वह नाहक लंबा रास्ता हो जाएगा। मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम?

तो साधक के लिए और भक्त के लिए फर्क पड़ेगा। भक्त ऊपर मानेगा, इसलिए हाथ जोड़कर प्रतीक्षा करेगा, साधक नीचे मानेगा, इसलिए कमर कसकर जगाने की कोशिश करेगा।

और भी अर्थ हैं, जो खयाल में आ जाने चाहिए। असल में, जब हम नीचे मानते हैं परमात्मा को, तो हमारी जिनको हम निम्न वृत्तियां कहते हैं, उनमें भी वह मौजूद हो जाता है। इसलिए हमारे चित्त में कुछ निम्न नहीं रह जाता। क्योंकि जब परमात्मा ही नीचे है, तो जिसको हम निम्नतम कहते हैं, वहां भी वह मौजूद है। और वहां से भी जगेगा; अगर सेक्स है, तो वहां से भी जगेगा। यानी ऐसी कोई जगह ही नहीं हो सकती जहां वह न हो। नीचे से नीचे, नीचे से नीचे नरक में भी कहीं अगर कुछ है कोई, तो वहां भी वह मौजूद है।

लेकिन जैसे ही हम उसे ऊपर मानते हैं, तो कडेमनेशन शुरू हो जाता है, कि जो नीचे है वह कंडेम्‍ड हो जाता है, उसकी निंदा शुरू हो जाती है, क्योंकि वहां परमात्मा नहीं है। वहां परमात्मा नहीं है। और अनजाने स्वयं की भी हीनता शुरू हो जाती है कि हम नीचे हैं और वह ऊपर है। तो उसके घातक परिणाम हैं, मनोवैज्ञानिक घातक परिणाम हैं।

ध्यान—केंद्रित धर्म अधिक प्रभावकारी:

और फिर जितनी शक्ति से खड़े होना हो, उतना उचित है कि शक्ति नीचे से आए। क्योंकि तुम्हारे पैरों को मजबूत करेगी। शक्ति ऊपर से आए तो तुम्हारे सिर को स्पर्श करेगी। और तुम्हारी जड़ों तक जाना चाहिए मामला। और जब ऊपर से आएगी तो तुम्हें हमेशा विजातीय और फारेन मालूम पड़ेगी।

इसलिए जिन लोगों ने प्रार्थना की, वे कभी नहीं मान पाते कि भगवान और हम एक हैं। वे कभी नहीं मान पाते। इसलिए मुसलमानों का निरंतर सख्त विरोध रहा कि कोई कहे कि मैं भगवान हूं। क्योंकि कहां वह ऊपर और कहां हम नीचे! इसलिए वे मंसूर का गला काट देंगे, सरमद को मार डालेंगे। क्योंकि यह सबसे बड़ा कुफ्र एक ही है उनकी नजर में न कि तुम कह रहे हो कि हम भगवान! इससे बड़ा कुफ्र नहीं हो सकता। क्योंकि कहां वह ऊपर और कहां तुम नीचे जमीन पर सरकते कीड़े—मकोड़े! और कहां वह परम, तुम उसके साथ अपनी आइडेंटिटी नहीं जोड़ सकते।

तो उसका कारण था; क्योंकि जब हम उसे ऊपर मानेंगे और अपने को नीचे मानेंगे, तो हम दो हो जाएंगे तत्काल। इसलिए सूफी कभी पसंद नहीं पड़ सके इस्लाम को, क्योंकि सूफी दावा कर रहे हैं इस बात का कि हम और वह एक हैं।

लेकिन हम और वह एक तभी हो सकते हैं जब वह नीचे से आता हो, क्योंकि हम नीचे हैं। जब वह जमीन से ही आता हो, आकाश से नहीं, तभी हम और वह एक हो सकते हैं। जैसे ही हम परमात्मा को ऊपर रखेंगे, पृथ्वी का जीवन निंदित हो जाएगा, पाप हो जाएगा; और जन्म लेना पाप का फल हो जाएगा। जैसे ही हम उसे नीचे रखेंगे, वैसे ही पृथ्वी का जीवन एक आनंद हो जाएगा; वह पाप का फल नहीं, वह परमात्मा की अनुकंपा हो जाएगा। और प्रत्येक चीज, चाहे वह कितनी ही अंधेरी हो, उसमें भी उसकी प्रकाश की किरण मौजूद अनुभव होगी। और कैसा ही बुरा से बुरा आदमी हो, कितना ही शैतान हो, फिर भी उसके अंतरतम कोर पर वह मौजूद रहेगा।

इसलिए मैं पसंद करूंगा कि हम उसे नीचे से ऊपर की तरफ उठना मानें। फर्क नहीं है, फर्क नहीं है धारणाओं में। जो जानता है उसके लिए कोई फर्क नहीं है, वह कहेगा, ऊपर—नीचे दोनों बेकार की बातें हैं। लेकिन जब हम नहीं जानते हैं और यात्रा करनी है, तो उचित होगा कि हम वही मानें जिससे यात्रा आसान हो सके।

तो इसलिए मेरे मन में तो साधक के लिए उचित यही है कि वह समझे कि नीचे से शक्ति उठेगी और ऊपर की तरफ जाएगी; ऊपर की तरफ यात्रा है। इसलिए जिन्होंने ऊपर की तरफ की यात्रा को स्वीकार किया उन्होंने अग्नि को प्रतीक माना, क्योंकि वह निरंतर ऊपर की तरफ जा रही है। दीया है, आग है, वे निरंतर ऊपर की तरफ जा रहे हैं, तो उन्होंने इसको प्रतीक माना परमात्मा का। इसलिए अग्नि जो है वह बहुत गहनतम मन में हमारे परमात्मा का प्रतीक बन गई। उसका कुल कारण इतना था कि कुछ भी करो, वह ऊपर की तरफ ही जाती है। और जितना ऊपर बढ़ती है, उतनी ही थोड़ी देर में खो जाती है, थोड़ी दूर तक दिखाई पड़ती है, फिर अदृश्य हो जाती है। ऐसा ही साधक भी ऊपर की तरफ जाएगा, थोड़ी देर तक दिखाई पड़ेगा और अदृश्य हो जाएगा। इसलिए मैं आरोहण— अवतरण नहीं—उस पर जोर देना पसंद करूंगा।

बस एक और पूछ लो, बस फिर उठेंगे।

शक्ति का जागरण:

प्रश्न : ओशो नारगोल शिविर में आपने कहा है कि तीव्र श्वास—प्रश्वास और ‘मैं कौन हूं’ पूछने के प्रयत्न से अपने को पूरी तरह से थका डालना है ताकि गहरे ध्यान में प्रवेश संभव हो सके लेकिन ध्यान में प्रवेश के लिए अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए तो थकान की ऊर्जा— क्षीणता से ध्यान में प्रवेश कैसे संभव होगा?

हीं—नहीं, थकान का मतलब ऊर्जाहीनता नहीं है। असल में, जब तुम अपने को थका डालते हो…’अपने’ से मतलब क्या? ‘अपने ‘ से मतलब तुम्हारे वे द्वार—दरवाजे, तुम्हारी वे इंद्रियां, जिनसे तुम्हारी ऊर्जा के बहने का दैनिक क्रम है—तुम्हारा जो संस्थान है, तुम अभी जो हो। उस तुम की बात नहीं कर रहा जो तुम हो सकते हो। जो तुम हो।

तो जब तुम अपने को थका डालते हो, तो दोहरी घटनाएं घटती हैं। इधर तुम अपने को थका डालते हो, तो तुम्हारी सारी इंद्रियां, तुम्हारा मन, तुम्हारा शरीर थक जाता है। और किसी तरह की ऊर्जा को वहन करने के लिए तैयार नहीं होता, इनकार कर देता है। थकान में तुम किसी तरह की ऊर्जा को वहन करने की तैयारी नहीं दिखलाते, तुम कहते हो, अभी मैं थका हूं।

तो एक तरफ तो यह प्रयोग तुम्हारे शरीर को, तुम्हारे मन को, तुम्हारी इंद्रियों को थकाता है, और दूसरी तरफ तुम्हारी कुंडलिनी पर चोट करता है; वहां से ऊर्जा जगती है और यहां से तुम थकते हो—यह दोनों एक साथ चलता है। समझे न! यह एक साथ चलता है—इधर तुम थकते हो, उधर से शक्ति जगती है। और उस शक्ति को वहन करने के योग्य भी तुम नहीं रहते, कि तुम्हारी आख देखना चाहे तो कहती है— थकी हूं देखने का मन नहीं, तुम्हारा मन सोचना चाहे तो मन कहता है— थका हूं सोचने का मेरा मन नहीं, तुम्हारे पैर चलना चाहें तो पैर कहते हैं—हम थके हैं, हम चल नहीं सकते। तो अब अगर चलना है तो बिना पैरों की कोई यात्रा तुम्हारे भीतर करनी पड़ेगी; और अगर देखना है तो बिना आंखों के देखना पड़ेगा; क्योंकि आख थकी है। समझ रहे हैं मेरा मतलब?

तो तुम्हारा संस्थान, तुम्हारा व्यक्तित्व थक जाता है, तो वह इनकार करता है कि हमें अभी कुछ करना नहीं है। और शक्ति जग गई है, जो कुछ करना चाहती है। तो तत्काल वह उन दरवाजों पर चोट करेगी जो अनथके पड़े हैं, जो थके हुए नहीं हैं, जो तुम्हारे भीतर सदा वहन करने के लिए तैयार हैं, लेकिन कभी उनको मौका ही नहीं मिला था कि तुम उनको भी मौका देते, तुम ही खुद इतने सशक्त थे कि तुम सारी शक्ति को लगा डालते थे। वह इधर से शक्ति तुम्हारी…

ये दरवाजे इनकार करेंगे कि क्षमा करो, इधर नहीं। वह जो शक्ति जग रही है, ये दरवाजे कहेंगे कि नहीं, हमारी कोई इच्छा देखने की नहीं है। तो जब देखने के लिए आख इनकार कर दे और मन देखने की इच्छा से इनकार कर दे, तब भी जो शक्ति जग गई है देखने की, उसका क्या होगा? तो तुम किसी और आयाम में देखना शुरू कर दोगे, वह तुम्हारा बिलकुल नया हिस्सा होगा। वही साइकिक सेंटर तुम्हारे देखने के खुलने शुरू हो जाएंगे। तुम कुछ ऐसी चीजें देखने लगोगे जो तुमने कभी नहीं देखीं, और ऐसी जगह से देखने लगोगे जहां से तुमने कभी नहीं देखीं। लेकिन उसको तो कभी मौका नहीं मिला था। उसको कभी मौका ही नहीं मिला था तुम्हारे भीतर से। तो उसके लिए मौका बनेगा।

अतींद्रिय केंद्रों का सक्रिय होना:

तो थकाने का मेरा जोर है। इधर शरीर को थका डालना है, मन को थका डालना है—तुम जो हो, उसको थका डालना है—ताकि तुम जो अभी हो, लेकिन तुम्हें पता नहीं, वह सक्रिय हो सके तुम्हारे भीतर। और ऊर्जा जगेंगी, वह तो फौरन कहेगी हमें…… .ऊर्जा जगेंगी तो वह कहेगी काम चाहिए। और काम तुम्हारे अस्तित्व को देना पड़ेगा उसे। वह खुद काम खोज लेगी। तुम्हारे कान थके हैं, तो भी वह ऊर्जा जग गई है, तो वह सुनना चाहेगी तो नाद सुनेगी। उन नादों के लिए तुम्हारे कान की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी आंखों की कोई जरूरत नहीं है, ऐसा प्रकाश देखेगी। ऐसी सुगंध आने लगेगी जिसके लिए तुम्हारी नाक की कोई जरूरत नहीं है।

तो तुम्हारे भीतर सूक्ष्मतर इंद्रियां, या अतींद्रिया, जो भी हम नाम देना पसंद करें, वे सक्रिय हो जाएंगी। और हमारी सब इंद्रियों के साथ एक—एक अतींद्रिय का जोड़ है। यानी एक कान तो वह है जो बाहर से सुनता है, और एक कान और है तुम्हारे भीतर जो भीतर सुनता है। लेकिन उसको तो कभी मौका नहीं मिला। तो जब तुम्हारा बाहर का कान थका है और ऊर्जा जगकर कान के पास आ गई है, और कान कहता है, मुझे सुनना नहीं, सुनने की कोई इच्छा ही नहीं, तब वह ऊर्जा क्या करेगी? वह तुम्हारे उस दूसरे कान को सक्रिय कर देगी जो सुन सकेगा, जिसने कभी नहीं सुना।

इसलिए ऐसी चीजें तुम सुनोगे, ऐसी चीजें देखोगे, कि तुम किसी से कहोगे तो वह कहेगा, पागल हो! ऐसा कहीं होता है! किसी वहम में पड़ गए होओगे, कोई सपना देख लिया होगा! लेकिन तुम्हें तो वह इतना स्पष्ट मालूम पडेगा जितना कि बाहर की वीणा कभी मालूम नहीं पड़ी। वह भीतर की वीणा इतनी स्पष्ट होगी कि तुम कहोगे, हम कैसे मानें? अगर यह झूठ है तो फिर बाहर की वीणा का क्या होगा, वह तो बिलकुल ही झूठ हो जाएगी!

तो तुम्हारी इंद्रियों का थकना तुम्हारे अस्तित्व के नये द्वारों के खुलने के लिए प्रारंभिक रूप से जरूरी है। एक दफा खुल जाए, फिर तो कोई बात नहीं। क्योंकि फिर तो तुम्हारे पास तुलना भी होती है कि अगर देखना ही है तो फिर भीतर ही देखो, क्योंकि इतना आनदपूर्ण है कि क्यों फिजूल बाहर देखता रहूं! लेकिन अभी तुलना नहीं है तुम्हारे पास; अभी तो देखना है तो बाहर ही देखना है। एक ही विकल्प है। एक बार तुम्हारी भीतर की आख भी देखने लगे, तब तुम्हारे सामने विकल्प साफ है। तो जब भी देखने का मन होगा, तुम भीतर देखना चाहोगे। क्यों मौका चूकना! बाहर देखने से क्या मतलब है!

राबिया के जीवन में उल्लेख है कि सांझ को सूरज ढल रहा है और वह अंदर अपने झोपड़े में बैठी है। हसन नाम का फकीर उससे मिलने आया है। सूरज ढल रहा है और बड़ी सुंदर सांझ है। तो हसन उससे चिल्लाकर कहता है कि राबिया, तू क्या कर रही है भीतर? बहुत सुंदर सांझ है, इतना सुंदर सूर्यास्त मैंने कभी देखा नहीं, ऐसा सूर्य दोबारा देखने नहीं मिलेगा, बाहर आ! तो राबिया उससे कहती है कि पागल, कब तक बाहर के सूर्य को देखता रहेगा! मैं तुझसे कहती हूं तू भीतर आ! क्योंकि हम उसे देख रहे हैं जिसने सूर्य को बनाया; और हम ऐसे सूर्य देख रहे हैं जो अभी अनबने हैं और कभी बनेंगे। तो अच्छा हो कि तू भीतर आ!

अब वह हसन नहीं समझ पाया कि वह क्या कह रही है। पर यह औरत बहुत अदभुत हुई। दुनिया में जिन स्त्रियों ने कुछ किया है, उन दों—चार स्त्रियों में एक है वह राबिया। पर वह हसन नहीं समझ पाया। वह उससे फिर कह रहा है कि देख, सांझ चूकी जा रही है! और वह राबिया कह रही है कि पागल, तू सांझ में ही चूक जाएगा; इधर भीतर बहुत कुछ चूका जा रहा है। वह बिलकुल दो तल पर बात हो रही है, क्योंकि वह दो अलग इंद्रियों की बात हो रही है। लेकिन अगर दूसरी इंद्रिय का तुम्हें पता नहीं, तो भीतर का कोई मतलब ही नहीं होता, बाहर का ही सब मतलब होता है। इस अर्थ में मैंने कहा कि वे थक जाएं तो शुभ है।

थकाने का अर्थ ऊर्जाहीनता नहीं है:

प्रश्न: ओशो तो इस प्रयोग में थकाने का अर्थ ऊर्जाहीनता नहीं है।

हीं, बिलकुल नहीं। ऊर्जा तो जग रही है, ऊर्जा तो जग रही है; ऊर्जा को जगाने के लिए ही सारा काम चल रहा है। हां, इंद्रियां थक रही हैं। इंद्रियां ऊर्जा नहीं हैं, सिर्फ ऊर्जा के बहने के द्वार हैं। यह दरवाजा मैं नहीं हूं मैं तो और हूं। इस दरवाजे से बाहर— भीतर आता—जाता हूं। दरवाजा थक रहा है, और दरवाजा कह रहा है—कृपा करके हमसे बाहर मत जाओ, बहुत थके हुए हैं। लेकिन कहां जाओगे, फिर रहना तो भीतर पड़ेगा। दरवाजा कह रहा है— हम बहुत थके हुए हैं, अब कृपा करो कि मत जाओ बाहर; क्योंकि जाओगे तो हमें फिर काम में लगना पड़ेगा। आख कह रही है कि हम थक गए हैं, अब इधर से यात्रा मत करो। इंद्रियां थक रही हैं। और इनका थकना प्राथमिक रूप से बडा सहयोगी है। उस अर्थ में।

तादास्थ्य के कारण थकान:

प्रश्न: ओशो यह ऊर्जा यदि अधिक है तो टायर्डनेस नहीं लगनी चाहिए फ्रेशनेस लगनी चाहिए।

हीं, शुरू में लगेगी। धीरे— धीरे तो तुम्हें बहुत ताजगी लगेगी, जैसी ताजगी तुमने कभी नहीं जानी। लेकिन शुरू में थकान लगेगी। शुरू में थकान इसलिए लगेगी कि तुम्हारी आइडेंटिटी इन इंद्रियों से है। इन्हीं को तुम समझते हो ‘ मैं’। तो जब इंद्रियां थकती हैं, तुम कहते हो, मैं थक गया। इससे तुम्हारी आइडेंटिटी टूटनी चाहिए न! जिस दिन…….

ऐसा मामला है कि तुम्हारा घोड़ा थक गया, तुम घोड़े पर बैठे हो। लेकिन तुम सदा से समझते थे कि मैं घोड़ा हूं। अब घोड़ा थक गया, अब तुमने कहा, हम मरे, हम थक गए। वह हमारे थकने का जो मतलब है, हमारी आइडेंटिटी जिससे है, वही हम कहते हैं। मैं घोड़ा हूं तो मैं थक गया।

जिस दिन तुम जानोगे कि मैं घोड़ा नहीं हूं उस दिन तुम्हारी फ्रेशनेस बहुत और तरह से आनी शुरू होगी। और तब तुम जानोगे कि इंद्रियां थक गई हैं, लेकिन मैं कहां थका! बल्कि इंद्रियां चूंकि थक गई हैं और काम नहीं कर रही हैं, इसलिए बहुत सी ऊर्जा जो उनसे विकीर्ण होकर व्यर्थ हो जाती थी, वह तुम्हारे भीतर संरक्षित हो गई है और पुंज बन गई है। और तुम ज्यादा, जिसको कहना चाहिए कंजर्वेशन ऑफ एनर्जी अनुभव करोगे कि तुमने बहुत ऊर्जा बचाई जो तुम्हारी संपत्ति बन गई है। और चूंकि बाहर नहीं गई, इसलिए तुम्हारे रोएं—रोएं पोर—पोर में भीतर फैल गई है। लेकिन इससे तुम एक हो, यह तुम्हें जब खयाल आना शुरू होगा, तभी तुम्हें फर्क लगेगा।

ध्यान से ताजगी:

तो धीरे— धीरे तो ध्यान के बाद बहुत ही ताजगी मालूम होगी। ताजगी कहना ही गलत है, तुम ताजगी हो जाओगे। यानी ऐसा नहीं कि ऐसा लगेगा कि ताजगी मालूम हो रही है। तुम ताजगी हो जाओगे—यू विल बी दि फ्रेशनेस। लेकिन वह तो आइडेंटिटी बदलेगी तब। अभी तो घोड़े पर बैठे हो, बहुत मुश्किल से, जिंदगी भर यही समझा है कि मैं घोड़ा हूं। सवार हूं इसको समझने में वक्त लगेगा। और शायद घोड़ा थककर गिर पड़े, तो आसानी हो जाए तुम्हें। अपने पैर से चलना पड़े थोड़ा, तो पता चले कि मैं तो अलग हूं।

लेकिन घोड़े पर ही चलते—चलते यह खयाल ही भूल गया है कि मैं भी चल सकता हूं।

ऐसा है! इसलिए थकेगा घोडा तो अच्छा होगा।

आज इतना ही।



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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–तैहरवां)

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सूक्ष्‍म शरीर, ध्यान—साधना एवं तंत्र—साधना के कुछ गुप्‍त आयाम—(प्रवचन—तैरहवां)

(दो शरीर के मिलने से तो सिर्फ हम एक शरीर को जन्मने की सुविधा देते हैं। लेकिन जब दो आत्माएं भी मिलती है, तब हम एक विराट आत्‍मा को उतरने की सुविधा देते है।)

 भगवान श्री आपने एक प्रवचन में कहा है कि समाधि के प्रयोग में अगर तेजस शरीर अर्थात सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर के बाहर चला गया तो पुरुष के तेजस शरीर को बिना स्त्री की सहायता के वापस नहीं लौटाया जा सकता या स्त्री के तेजस शरीर को बिना पुरुष की सहायता के वापस नहीं लौटाया जा सकता। क्योंकि दोनों के स्पर्श से एक विद्युत— वृत्त पूरा होता है और बाहर गई चेतना तीव्रता से भीतर लौट आती है आपने अपना एक अनुभव भी कहा है कि वृक्ष पर बैठकर ध्यान करते थे और स्थूल शरीर नीचे गिर गया और सूक्ष्म शरीर ऊपर से देखता रहा। फिर एक स्त्री का छूना और सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर में वापस लौट जाना। तो प्रश्न है कि पुरुष को स्त्री की और स्त्री को पुरुष की आवश्यकता इस प्रयोग में क्यों है? कब तक है? क्या दूसरे के बिना लौटना संभव नहीं है? क्या कठिनाई है?

दो—तीन बातें समझना उपयोगी है। एक तो यह कि इस सारे जगत की व्यवस्था ऋण और धन के विरोध पर निर्भर है, निगेटिव और पाजिटिव के विरोध पर निर्भर है। इस जीवन में जहां भी आकर्षण है, इस जीवन में जहां भी खिचाव है, वहां सभी जगह ऋण और धन के बंटे हुए हिस्से काम करते हैं। स्त्री—पुरुष का विभाजन भी उस बड़े विभाजन का एक हिस्सा है, सेक्स का विभाजन भी उस बड़े विभाजन का एक हिस्सा है। विद्युत की भाषा में ऋण और धन के ध्रुव एक—दूसरे को तीव्रता से खींचते हैं।

साधारणत: स्त्री —पुरुष अपने बीच जो आकर्षण अनुभव करते हैं, उसका कारण भी यही है। इस आकर्षण में और एक चुंबक की तरफ खिंचते हुए लोहे के टुकड़े के आकर्षण में बुनियादी रूप से कोई फर्क नहीं है। अगर लोहे का टुकड़ा भी बोल सकता होता, तो वह कहता कि मैं इस चुंबक के प्रेम में पड़ गया हूं। अगर लोहे का टुकड़ा भी बोल सकता होता, तो वह कहता कि इस चुंबक के बिना अब मैं जी न सकूंगा। या तो इसके साथ जीऊंगा या मर जाऊंगा। अगर लोहे का टुकड़ा भी बोल सकता होता, तो जितनी कविताएं आदमियों ने लिखी हैं प्रेम की, उतनी ही कविताएं वह भी लिख लेता। वह चूंकि बोलता नहीं है, इतना ही फर्क है, अन्यथा आकर्षण वही है। इस आकर्षण की बात अगर हमारे खयाल में आ जाए, तो और दो —तीन बातें खयाल में आ जाएंगी।

सामान्य रूप से इस आकर्षण को अनुभव किया जाता है। लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में इस आकर्षण का भी उपयोग हो सकता है और किन्हीं स्थितियों में अनिवार्य हो जाता है। जैसे अगर किसी पुरुष का सूक्ष्म शरीर आकस्मिक रूप से बाहर निकल जाए—आकस्मिक रूप से! जिसके लिए उसने पूर्व इंतजाम न किया हो, पूर्व व्यवस्था न की हो, जिसे बाहर ले जाने के लिए कोई साधना और आयोजन न किया हो—अगर आकस्मिक रूप से बाहर निकल जाए तो लौटना बहुत मुश्किल हो जाता है। या स्त्री का सूक्ष्म शरीर अगर अनायास बाहर निकल जाए—किसी बीमारी में, किसी दुर्घटना में, किसी चोट के लगने से, या किसी साधना की प्रक्रिया में, लेकिन स्वयं के द्वारा अन— आयोजित—तो उस हालत में लौटना बहुत कठिन हो जाता है। क्योंकि न तो हमें पता होता है जाने के रास्ते का, न पता होता है लौटने के रास्ते का। ऐसी अवस्थाओं में विपरीत आकर्षण के बिंदु की मौजूदगी सहयोगी हो सकती है।

अगर पुरुष का सूक्ष्म शरीर बाहर है और स्त्री उसके शरीर को स्पर्श करे, तो उसके सूक्ष्म शरीर को अपने शरीर में वापस लौटने में सुविधा हो जाती है। यह सुविधा वैसी ही है जैसे कि हम एक चुंबक को बाहर रख दें और बीच में एक ग्लास की दीवाल हो और उस तरफ लोहे का एक टुकड़ा, फिर भी ग्लास की दीवाल की बिना फिक्र किए चुंबक के पास खिंच आए। शरीर तो बीच में होगा पुरुष का, स्थूल शरीर, लेकिन स्त्री का स्पर्श उसके बाहर गए सूक्ष्म शरीर को वापस ले आने में सहयोगी हो

जाएगा। वह चुंबकीय, मैग्नेटिक फोर्स ही उसका कारण बनेगी। ऐसा ही स्त्री के भी आकस्मिक रूप से गए सूक्ष्म शरीर को भीतर लाने में सहयोग मिल सकता है। लेकिन यह आकस्मिक रूप से जरूरी है। अगर व्यवस्थित रूप से प्रयोग किया गया हो, तो जरूरी नहीं है। क्यों जरूरी नहीं है?

क्योंकि मेरी पिछली चर्चाएं अगर आप सुन रहे थे, तो आपको खयाल होगा, मैंने कहा कि प्रत्येक पुरुष का पहला शरीर पुरुष का है, दूसरा शरीर स्त्री का है। स्त्री का पहला शरीर स्त्री का है दूसरा शरीर पुरुष का है। अगर किसी ने आयोजित रूप से अपने शरीर को बाहर भेजा हो, तो उसे दूसरी स्त्री के शरीर की जरूरत नहीं है। वह अपने ही भीतर की स्त्री शरीर का उपयोग करके उसे वापस लौटा सकता है। तब दूसरे की आवश्यकता नहीं रह जाती।

लेकिन यह तब होगा, जब कि सुनियोजित प्रयोग किया गया हो। घटना आकस्मिक न हो। आकस्मिक घटना में तो तुम्हें पता ही नहीं होता है कि तुम्हारे भीतर और शरीर भी हैं। और न ही उन शरीरों की प्रक्रिया का तुम्हें पता होता है, न उन शरीरों का उपयोग करने का तुम्हें पता होता है। इसलिए यह हो भी सकता है कि बिना स्त्री के भी पुरुष का बाहर गया शरीर भीतर आ जाए, लेकिन वह भी आकस्मिक ही घटना होगी जैसे बाहर जाना आकस्मिक था। इसलिए उसके लिए पक्का नहीं कहा जा सकता।

इसलिए प्रत्येक तंत्र प्रयोगशाला में जहां कि मनुष्य के अंतस शरीरों पर सर्वाधिक काम किया गया है मनुष्य के इतिहास में —मनुष्य के आंतरिक जीवन के संबंध में जितना तांत्रिकों ने प्रयोग किया उतना किसी और ने नहीं किया है—इसलिए उन प्रयोशालाओ में स्त्री की मौजूदगी अनिवार्य हो गई थी। और साधारण स्त्री की मौजूदगी भी अनिवार्य नहीं थी, असाधारण स्त्री की मौजूदगी अनिवार्य हो गई थी। क्योंकि अगर एक स्त्री बहुत पुरुषों से संसर्ग कर चुकी हो, तो उसकी मैग्नेटिक फोर्स कम हो जाती है। इसलिए कुंवारी लड़कियों का तंत्र में बड़ा मूल्य हो गया था। उसके कारण और कुछ भी नहीं थे। अगर एक स्त्री बहुत पुरुषों के संबंध में आ चुकी है या एक ही पुरुष के बहुत संबंध में आ चुकी है, तो उसकी मैग्नेटिक, चुंबकीय शक्ति क्षीण होती चली जाती है।

वृद्ध स्त्री के आकर्षण के कम हो जाने का कारण सिर्फ वृद्धावस्था नहीं होती। वृद्ध पुरुष के आकर्षण के कम हो जाने का कारण सिर्फ वृद्धावस्था नहीं होती। बहुत बुनियादी कारण तो यह होता है कि उनकी जो पोलेरिटी है, वह क्षीण हो गई होती है। पुरुष कम पुरुष हो गया होता है और स्त्री कम स्त्री हो गई होती है। अगर कोई वृद्धावस्था तक भी अपने पुरुष या अपनी स्त्री को बचा सके —इसे बचाने की प्रक्रिया का नाम ही ब्रह्मचर्य है —तो उसका आकर्षण अंत तक नहीं खोता।

एक स्त्री है अमेरिका में। अभी जीवित है। जिसकी उम्र सत्तर पार कर गई है। लेकिन अमेरिका में उस सत्तर वर्ष की बूढी स्त्री के मुकाबले कोई जवान स्त्री भी आकर्षण का केंद्र नहीं है। और आज सत्तर वर्ष की उम्र में भी वह स्त्री जहां से गुजरती है वहां पुलिस का विशेष इंतजाम करना जरूरी हो जाता है। यह स्त्री सत्तर वर्ष तक अपने चुंबकीय तत्वों को बचा सकी है। पुरुष भी बचा सकता है। श्री पृथ्वीचंद जी यहां बैठे हुए हैं पास में। उनकी उम्र काफी है और उनमें युवा होने का तत्व एकदम नष्ट नहीं हो गया। उन्होंने अपनी चुंबकीय शक्ति को बहुत दूर तक बचाया है। वे आज भी आकर्षण रखते हैं, वृद्ध होकर भी किसी भी भांति!

इसलिए तंत्र में कुंवारी युवतियों का मूल्य सर्वाधिक हो गया। और उन कुंवारी युवतियों का

उपयोग साधक की बाहर गई चेतना को भीतर लौटाने के लिए किया जाता रहा। और कुंवारी लड़कियों को इतनी सेंकटिटी, इतनी पवित्रता दी कि किसी भी द्वार से उनकी जो चुंबकीय शक्ति है वह बाहर न हो जाए।

इस चुंबकीय शक्ति को बढ़ाने के भी उपाय हैं; इसे क्षीण करने के भी उपाय हैं। हमें साधारणत: खयाल में नहीं है। जिसको हम सिद्धासन कहते हैं, पद्यासन कहते हैं, ये सारे के सारे आसन मनुष्य की चुंबकीय शक्ति बाहर न झरे, उसको ध्यान में रखकर निर्मित किए गए हैं।

हमारी चुंबकीय शक्ति के बहने के कुछ निश्चित मार्ग हैं। जैसे हाथ की उंगलियों से चुंबकीय शक्ति बहती है। असल में कहीं से भी शक्ति को बहना हो, तो उसे कोई लंबी नुकीली चीज बहने के लिए चाहिए। गोल चीज से शक्ति नहीं बह सकती। वह उसी में गोल घूम जाती है। पैर की उंगलियों से बहती। हाथ और पैर दो खास जगह हैं जहां से चुंबकीय शक्ति बहती है।

तो पद्यासन या सिद्धासन में दोनों हाथों को और दोनों पैरों को जोड़ लेने का उपाय है। जिससे शक्ति बहे तो एक हाथ से बही हुई शक्ति दूसरे हाथ में प्रवेश कर जाए। शक्ति बाहर न गिर सके। दूसरा जो बहुत बड़ा द्वार है शक्ति के प्रवाहित होने का, वह आख है। लेकिन अगर आख को आधी खुला रखा जा सके, तो उससे शक्ति का बहना बंद हो जाता है।

यह जानकर आप हैरान होंगे कि पूरी खुली आख से भी शक्ति बहती है और पूरी बंद आख से भी बहती है। सिर्फ आधी खुली आख से नहीं बहती। पूरी आख बंद हो तो भी बह सकती है, पूरी आख खुली हो तब तो बहती ही है। लेकिन अगर आधी आख बंद हो और आधी खुली हो, तो आख के भीतर जो वर्तुल बनता है, उसे तोड़ देने की व्यवस्था हो जाती है। आधी आख खुली, आधी बंद, तो शक्ति बहना भी चाहती है, रुकना भी चाहती है। शक्ति के भीतर दो खंड हो जाते हैं। और दोनों खंड, आधा खंड बाहर निकलना चाहता है आधा खंड भीतर जाना चाहता है। ये एक—दूसरे के विरोधी हो जाते हैं और एक —दूसरे को निगेट कर देते हैं। इसलिए आधी खुली आख बड़े मूल्य की हो गई। तंत्र में, योग में, सभी तरफ आधी खुली आख का भारी मूल्य हो गया।

अगर सब भांति शक्ति सुरक्षित की गई हो और व्यक्ति को अपने भीतर के विपरीत शरीर का बोध हो, पता हो, तो दूसरे की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन कभी—कभी प्रयोग करते हुए आकस्मिक घटनाएं घटती हैं। ध्यान कोई कर रहा है, उसे पता ही नहीं है, और ध्यान करते —करते वह घड़ी आ जाती है कि जहां घटना घट जाती है। और तब बाहरी सहयोग उपयोग में लाए जा सकते हैं। अनिवार्य नहीं हैं, सिर्फ आकस्मिक अवस्थाओं में अनिवार्य हैं।

इसलिए मेरी अपनी समझ में अगर पति—पत्नी एक—दूसरे का सहयोग कर सकें, तो वे आध्यात्मिक रूप में भी साथी हो सकते हैं। अगर वे एक—दूसरे की पूरी की पूरी आध्यात्मिक स्थिति, चुंबकीय शक्ति और विद्युत के प्रवाहों को पूरी तरह समझ सकें और एक—दूसरे को सहयोग दे सकें, तो पति—पत्नी जितनी आसानी से अंतर— अनुभूति को उपलब्ध हो सकते हैं, उतनी अकेले संन्यासियों या सन्यासिनों के लिए उपलब्ध करना बहुत कठिन है। और पति—पत्नी के लिए और भी सुविधा है कि न केवल वे एक—दूसरे से परिचित हो पाते हैं, बल्कि एक—दूसरे की चुंबकीय शक्ति एक गहरे एडजेस्टमेंट को उपलब्ध हो जाती है।

इसलिए एक बहुत अजीब अनुभव होता है कि अगर एक स्त्री और पुरुष में बहुत प्रेम हो, बहुत निकटता हो, बहुत आत्मीयता हो, कलह न हो, तो धीरे — धीरे एक—दूसरे के गुण—दोष एक—दूसरे में प्रवेश कर जाते हैं। यहां तक कि अगर स्त्री—पुरुष एक—दूसरे को बहुत प्रेम करते हैं, तो उनकी आवाज एक—सी होने लगती है, उनके चेहरे के ढंग एक—से होने लगते हैं, उनके व्यक्तित्व में एक तारतम्यता आनी शुरू हो जाती है। असल में एक—दूसरे की विद्युत एक—दूसरे में प्रवेश कर जाती है और धीरे— धीरे वे सम होते चले जाते हैं। लेकिन उनके बीच अगर कलह का वातावरण हो, तो यह संभव नहीं हो पाता।

तो इस बात को भी ध्यान में रखना उपयोगी है कि स्त्री—पुरुष सहयोगी हो सकते हैं। पति—पत्नी उनका दा्ंपत्य सिर्फ संभोग का दांपत्य नहीं, समाधि का दांपत्य भी बन सकता है।

और इसी संबंध में यह भी खयाल रखना जरूरी है कि साधारणत: संन्यासी इतना जो आकर्षक हो जाता है—साधारणत: संन्यासी जितना स्त्रियों को आकर्षित करता है, उतना साधारण आदमी आकर्षित नहीं करता—उसका और कोई कारण नहीं है। संन्यासी के पास मैग्नेटिक फोर्सेस की बड़ी शक्ति इकट्ठी हो जाती है। एक साधारण स्त्री के मुकाबले एक संन्यासिनी स्त्री जितना पुरुष को आकर्षित करती है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। उसके पास शक्ति इकट्ठी हो जाती है।

और अगर पति—पत्नी भी शक्ति को इकट्ठी करने और खोने की व्यवस्था को ठीक से समझ लें तो वे एक—दूसरे की शक्ति के खोने में कम और एक—दूसरे की शक्ति को बचाने में बहुत सहयोगी हो सकते हैं। जैसा कि मैंने पिछली बातों में कहा है, तुम्हें खयाल होगा कि अगर संभोग भी बहुत योग की प्रक्रियाओं और तंत्र की व्यवस्था को जानकर किया जाए, तो शक्ति—संरक्षक हो सकता है।

पर यह ध्यान रहे कि यह आकस्मिक घटना में अनिवार्यता है। यह अनिवार्यता ऐसी नहीं है कि हर स्थिति में जरूरी हो। और बहुत दफे आकस्मिक रूप से भी घटना घटती है। तब भी सूक्ष्म शरीर वापस लौट आता है। लेकिन वह तब भीतर की स्त्री काम कर रही होती है। स्त्री जरूर काम कर रही होती है। पुरुष जरूर काम कर रहा होता है।

क्या वापस लौट आने की स्पष्ट विधि है? कृपया इस पर कुछ प्रकाश डालें।

स संबंध में भी कुछ समझने जैसी बात है। क्योंकि हमें साधारणत: कोई अनुमान नहीं है कि हमारा प्रत्येक स्पर्श चुंबकीय स्पर्श है। जब हम प्रेम से भर कर किसी को छूते हैं, तो स्पर्श का भेद जिसको स्पर्श किया है उसे पता चलता है। जब हम घृणा से भरकर किसी को छूते हैं, तब भी पता चलता है। जब हम उपेक्षा से छूते हैं, तब भी पता चलता है। तीनों स्थितियों में हमारा चुंबकीय तत्व अलग—अलग धाराओं में प्रवाहित होता है। फिर अगर पूरे मन से और पूरे संकल्प से हाथ पर ही स्वयं को पूरा केंद्रित किया गया हो, तो चुंबकीय धाराएं बड़ी तीव्र हो जाती हैं, जिनको मैसमर ने मैग्नेटिक पासेज कहा है।

अगर एक व्यक्ति को हम नग्न सुला दें, उसके शरीर को न छुए, चार इंच दूर अपने दोनों हाथों को उसके सिर पर लें। चार इंच फासला रहे और चार इंच फासले पर उस नग्न शरीर पर अगर हम दोनों हाथों को जोर से कंपित करते हुए उसके पैरों तक ले जाएं और यह पंद्रह मिनट तक करें, तो वह व्यक्ति इतनी अपरिसीम शाति में और इतनी अपरिसीम निद्रा में चला जाएगा जितनी निद्रा में वह कभी भी नहीं गया है। छुए मत। सिर्फ चार इंच की दूरी पर, चार अंगुल की दूरी पर, हाथों से सिर्फ विद्युत— धाराएं हवा में पैदा करें। दोनों हाथों से सिर्फ समझें कि विद्युत की धाराएं बह रही हैं और दोनों हाथों को फैलाते हुए पैर तक ले जाएँ ऊपर से नीचे तक।

एक बहुत अदभुत घटना एल्डुअस हक्सले की पत्नी ने लिखी है अपने जीवन—स्मरण में। एल्डुअस हक्सले की पहली पत्नी जिंदा थी और इस स्त्री से मुलाकात हुई। यह स्त्री एक साइकियाट्रिस्ट थी और हक्सले अपने इलाज के लिए इससे बातचीत करने आया था। तो वह उसके मनोविश्लेषण के लिए उसके घर गई। हक्सले को कोच पर लिटा दिया और उससे कोई दो घंटे तक बातें करती रही। लेकिन इसे समझ में आया कि हक्सले खुद इतना बुद्धिमान है कि उससे कुछ निकलवाना बहुत मुश्किल है। बहुत बुद्धिमानों के साथ कठिनाई हो ही जाती है। जो भी वह कह रही थी, हक्सले उससे ज्यादा जानता था। जिन किताबों की वह बात कर रही थी, हक्सले ने उनसे भी ज्यादा पढ़ा था। जिन शब्दों और टर्मिनोलाजी का वह उपयोग कर रही थी, हक्सले उसको भी उनका मतलब समझा रहा था। बहुत मुश्किल मामला हो गया। वह जो बीमार था, वह ज्यादा होशियार था, ज्यादा पढ़ा—लिखा था, ज्यादा बुद्धिमान था। हक्सले इस जमाने के कुछ ज्यादा से ज्यादा समझदार लोगों में से एक था। वह स्त्री साधारण डाक्टर थी, मनोचिकित्सक थी, लेकिन हक्सले की तो बात ही असाधारण थी। वह कोई घंटे —डेढ़ घंटे में घबड़ा गई। उसने देखा कि बात कहीं जाती नहीं। जब भी वैशानिक शब्दावली बीच में आ जाए, तो बात कहीं नहीं जाती। और जिन लोगों को शब्दों के अर्थों का ठीक—ठीक पता है, अक्सर वे अर्थों तक कभी नहीं पहुंच पाते, शब्दों तक ही रुक जाते हैं।

वह बहुत हैरान हो गई। तब उसे अचानक खयाल आया कि इस तरह नहीं हो सकेगा। उसने सुन रखा था कि एल्डुअस हक्सले को कुछ मैग्नेटिक पासेज का पता है। तो उसने कहा कि मैंने सुना है कि आप मैग्नेटिक पासेज के संबंध में कुछ जानते हैं। हक्सले फौरन उठकर बैठ गया। अभी तक वह जबर्दस्ती जवाब दे रहा था, अब उसने बड़ी उत्सुकता दिखाई। उसने कहा, फिर लेटो तुम कोच पर। हक्सले ने उस स्त्री से कहा कि लेट जाओ तुम कोच पर। वह स्त्री कोच पर लेट गई। वह सिर्फ इसलिए कि हक्सले को कुछ करने का मौका मिले, तो वह थोड़ा रसपूर्ण हो सके। डेढ घंटे से पड़ा हुआ हक्सले बेचैन हुआ जा रहा था। वह स्त्री कोच पर लेट गई। हक्सले ने उसके शरीर पर चार इंच की दूरी पर पासेज दिए।

सरल—सी प्रक्रिया है। चेहरे पर दोनों हाथ चार इंच की दूरी पर रख कर जोर से उंगलियों को हिलाना शुरू करें और मन में कामना करें कि शरीर से विद्युत की किरणें पांचों —दसों उंगलियों से बहती हुई नीचे गिर रही हैं और नीचे तक ले जाएं।

दस मिनट में वह स्त्री बहुत गहरी शाति में चली गई। वह तो सिर्फ एक तरकीब थी कि हक्सले को थोड़ा सक्रिय और उत्सुक किया जा सके। फिर वह उठकर बैठ गई और उसने कहा कि अब आप लेट जाइए।

फिर वह घर चली आई। लेकिन दो दिन बीत गए, उसकी तंद्रा टूटनी मुश्किल हो गई। वह चले, उठे, बैठे, लेकिन जैसे सोया—सोयापन बना रहे पूरे वक्त। वह बड़ी हैरान हुई। उसने हक्सले की पत्नी को फोन किया कि मैं कुछ अजीब—सी हालत में हूं जबसे आपके घर से आई हूं। तो उसकी पत्नी ने कहा कि हक्सले ने तुझे उठाया भी था? उसने कहा, मुझे उठाया नहीं, मैं तो उठकर बैठ गई थी। तो वह फोन पर चिल्लाई हक्सले को कि तुम भूल गए हो लारा को उठाने के लिए। वह अभी तक सोई हुई हालत में है। तो हक्सले ने कहा, मैं उठाता, इसके पहले ही वह उठ गई और दूसरी बातों में लग गई, फिर मैं भूल गया।

वह जो शक्ति उसको दी गई थी मैग्नेटिक पासेज से, वह वापस नहीं निकाली गई, तो डेढ़ दिन तक उसका पीछा करती रही। अगर शक्ति देनी हो तो ऊपर से नीचे की तरफ, अगर लेनी हो तो नीचे से ऊपर की तरफ। अगर शक्ति देनी हो तो ऊपर से नीचे की तरफ। अगर लेनी हो तो नीचे से ऊपर की तरफ, वापिस लौटानी हो तो।

फिर शरीर के कुछ बिंदु हैं जो बहुत सेंसिटिव हैं, जहां से शक्ति शीघ्रता से प्रवेश करती है। जैसे सबसे ज्यादा संवेदनशील जो बिंदु है, वह हमारी दोनों आंखों के बीच में है। जिसको आज्ञाचक्र कहते हैं या जिसको तीसरी आख कहते हैं। वह सर्वाधिक संवेदनशील बिंदु है। आप आख बंद करके बैठ जाएं और दूसरा आदमी आपकी दोनों आंखों के बीच में चार इंच की दूरी पर अपनी अंगुली रखकर बैठ जाए, आपको अंगुली दिखाई नहीं पड़ेगी, लेकिन भीतर दिखाई पड़ने लगेगी। अंगुली आपको छू नहीं रही है, लेकिन भीतर स्पर्श शुरू हो जाएगा और आपके भीतर चक्र चलना शुरू हो जाएगा। सोए हुए आदमी को भी अगर चार इंच की दूरी पर अंगुली उसके माथे के ठीक बीच में रखकर कोई बैठ जाए, तो नींद में उसका चक्र शुरू हो जाएगा। यह बहुत सक्रिय बिंदु है।

दूसरा सक्रिय बिंदु हमारे ठीक गरदन के पीछे है। इसका कभी छोटा—मोटा प्रयोग करके देखना तो बहुत आंनदपूर्ण होगा। कोई रास्ते पर जा रहा है अपरिचित आदमी। आप उसके पीछे जा रहे हैं। कोई चार फुट की दूरी पर आप उसकी गरदन पर दोनों आंखों को गड़ा कर उसको सुझाव दें कि पीछे लौट कर देखो! तो आप दो —तीन मिनट के भीतर पाएंगे कि वह आदमी घबड़ा कर पीछे लौट कर देखेगा। या उसको आप यह भी सुझाव दे सकते हैं कि बाएं से लौटकर देखो या दाएं से लौटकर देखो। तो जो आप सुझाव देंगे, वह वैसे ही लौटकर देखेगा। आप यह भी कर सकते हैं कि अब तुम सीधे मत जाओ, बगल के रास्ते से मुड़ो। दस—पांच प्रयोग करने के बाद जब आप बहुत आश्वस्त हो जाएं और समझ लें कि यह हो सकता है, तब किसी आदमी को आप उसके रास्ते से भटका सकते हैं। जहां वह नहीं जा रहा था, वहां ले जा सकते हैं।

जिन बच्चों को चुराया जाता है, उनको चुराने के लिए हाथ—पैर नहीं बांधे जाते। उनके गले के केंद्र पर ही काम किया जाता है। हाथ—पैर बांधेंगे, तो सड़क पर कोई भी पकड़ लेगा। बच्चे चिल्ला सकते हैं। सारी दुनिया चारों तरफ मौजूद है। लेकिन अगर कोई आदमी गरदन के केंद्र पर ठीक सुझाव देना सीख गया हो, तो वह किसी को भी अपने साथ ले जा सकता है जहां जाना है। और मजा यह है कि वह आपके पीछे होगा और आप उसके आगे होंगे। इसलिए कोई यह भी नहीं कह सकता कि वह आपको अपने पीछे ले जा रहा है। आप आगे ही होंगे, लेकिन सब सुझाव उसके काम करेंगे। वह जहां मोड़ना चाहता है मोड़ सकता है, जहां चलाना चाहता है वहां चला सकता है, जहां ले जाना चाहता है वहां ले जा सकता है।

ये दो बिंदु सिर के पास बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। ऐसे और बिंदु भी हैं शरीर में, लेकिन अच्छा होगा कि उनकी बात न की जाए। ये दो बिंदु सरलतम हैं, सीधे —साफ हैं। जैसा मैंने पिछली चर्चा में कहा है कि गुरजिएफ के पास कोई भी स्त्री जाए, तो उसे फौरन लगता था कि उसके सेक्स—सेंटर पर कुछ काम शुरू हो गया है। दुनिया की बहुत बुद्धिमान स्त्रियां भी जार्ज गुरजिएफ से मिलने गईं, उनका भी अनुभव यही था कि उसके पास गए कि उनके सेक्स—सेंटर पर फौरन काम शुरू हो जाएगा, कोई सेंसेशन तीव्रता से वहां वर्तुल बनाने लगेगा। वह बहुत संवेदनशील बिंदु है। नाभि भी एक बिंदु है। ऐसे और बिंदु भी हैं।

अगर किसी व्यक्ति की चेतना बाहर चली गई हो, तो उसे कहां स्पर्श करना है? साधारणत: उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के संबंध में हमें पता होना चाहिए कि वह किस बिंदु पर जीता है। अगर वह कामुक है, सेक्यूअल है, तो उसके सेक्स—सेंटर पर स्पर्श करने से वह शीघ्रता से वापस लौटेगा। अगर वह इंटेलेरूअल है, बुद्धि में जीता है, तो उसके आज्ञाचक्र को छूने से वह वापस लौटेगा। अगर भावुक है, सेंटीमेंटल है, इम्मोशनल है, तो उसके हृदय को छूने से वह वापस लौटेगा। अब यह उस व्यक्ति के ऊपर निर्भर करेगा कि वह जीता किस बिंदु पर है।

ध्यान रहे, जब कोई व्यक्ति मरता है, तो उसके उसी बिंदु से प्राण निकलते हैं, जहां वह जीता है। और उस व्यक्ति का जो बिंदु प्राण निकलने का है, वही बिंदु उसके सूक्ष्म शरीर के भीतर प्रवेश करने का होता है। जैसे कामुक व्यक्ति मरता है, तो उसके प्राण उसकी जननेंद्रिय से ही निकलते हैं। इसका पूरा शास्त्र था, और है। कि मरे हुए आदमी को देखकर कहा जा सकता है कि वह किस बिंदु पर जीवन भर जीया, क्योंकि उसका वह सेंटर टूट जाएगा।

हम जानते हैं कि अभी भी हम मरघट पर एक प्रक्रिया किए चले जा रहे हैं, जो बिलकुल नासमझी की है, लेकिन किसी बड़ी समझदारी के क्षण में तय की गई थी। मरघट पर ले जाकर हम मरे हुए आदमी का कपाल फोड़ते हैं, लकडी से उसका सिर फोड़ते हैं। वह उस जगह फोड़ते हैं जहां सहस्रार है। असल में जो व्यक्ति सहस्रार को उपलब्ध हो जाता है, उसका कपाल फूट जाता है मरते वक्त। उसके प्राण वहीं से निकलते हैं। इस आशा में कि जो हमारा प्रियजन मर गया है, उसके प्राण भी सहस्रार से निकलें, हम उसका कपाल फोड़ते जा रहे हैं। वह पहले ही निकल चुका है, अब कपाल फोड़ने से कुछ अर्थ नहीं। लेकिन जो परम स्थिति को उपलब्ध हुए हैं, उनके कपाल पर छिद्र हो जाता है, मरते वक्त वहीं से प्राण निकलते हैं। यह अनुभव में आ गया। तो इस आशा और इस प्रेम में हम अपने प्रियजन का भी कपाल फोड़ते जा रहे हैं मरघट पर जा कर कि उसका भी प्राण वहीं से निकल जाए। अब वह मर चुका है, प्राण निकल चुका है।

जहां से हमारा प्राण निकलता है, वही सेंटर हमारे जीवन का सेंटर है। इसलिए उसी सेंटर को स्पर्श करने से तत्काल सूक्ष्म शरीर वापस लौट सकता है। यह हर व्यक्ति का अलग— अलग होगा। लेकिन सौ में से नब्बे लोगों का सेक्स—सेंटर होगा, क्योंकि सारी दुनिया कामुकता से ग्रसित है। इसलिए अगर कुछ भी समझ में न पड़ता हो, तो सेक्स—सेंटर को ही प्रयोग का केंद्र समझ लेना चाहिए। दूसरा अगर सेक्स—सेंटर न हो, तो बहुत संभावना आज्ञाचक्र के होने की है। क्योंकि जो लोग बहुत बुद्धिमान हैं या बहुत बुद्धि का प्रयोग करते हैं, उनकी सेक्स—ऊर्जा धीरे — धीरे उनकी इंटेलीजेंस में बदल जाती है। अगर ये दोनों न हों, तो हृदय का केंद्र छूना जरूरी है। जो लोग न बहुत कामुक हैं, न बहुत बौद्धिक हैं, वे लोग भावुक होते हैं। ये तीन सामान्य केंद्र हैं। फिर असामान्य केंद्र भी हैं। लेकिन उस तरह के असामान्य लोग बहुत कम होते हैं। इन सामान्य केंद्रों को स्पर्श देने से सक्रिय……।

ये स्पर्श भी दो —तीन और बातें ध्यान में रखकर देने की बात है। अगर स्पर्श देने वाला व्यक्ति स्वयं भी किसी विशेष केंद्र से बंधा हुआ है, तो बहुत सोचने जैसा मामला हो जाता है। समझ लें कि एक ऐसा व्यक्ति जिसका कि आज्ञाचक्र सक्रिय है, अगर किसी के हृदयचक्र को छुए, तो बहुत कम

प्रभावित कर पाएगा। इसलिए सारी बातें ध्यान में……. इसलिए पूरे विज्ञान की बात है। और इन सारे प्रयोगों के लिए, सात शरीरों के अनुभव के लिए, शरीरों की बहिर्यात्रा के लिए व्यक्तिगत प्रयोग सदा खतरनाक हैं। ये स्कूल में, आश्रम में करने योग्य हैं। जहां कि और लोग हैं जो इन सारी व्यवस्थाओं को समझ सकते हैं, सहयोगी हो सकते हैं।

इसलिए जिन संन्यासियों ने परिव्राजक होना तय किया, उन संन्यासियों की परंपराओं में सात चक्र, सात शरीर सब खो गए, क्योंकि परिव्राजक संन्यासी इनका प्रयोग नहीं कर सकता। जो संन्यासी घूमते ही रहते हैं, रुकते नहीं, ठहरते नहीं, वे इन सब संबंधों में बहुत प्रयोग नहीं कर सकते। इसलिए जहां मोनास्ट्रीज थीं, आश्रम थे, वहां इन पर बड़े प्रयोग किए गए।

अब जैसे उदाहरण के लिए यूरोप में एक मोनास्ट्री है, जिसमें किसी पुरुष ने कभी भी प्रवेश नहीं किया, आज भी नहीं किया। उस मोनास्ट्री को बने कोई चौदह सौ वर्ष हो गए। उसमें सिर्फ स्त्रियां हैं, नन्स हैं, साध्वियां हैं। और जो स्त्री एक बार प्रवेश होती है, वह फिर दोबारा बाहर नहीं निकल सकती। उसका नाम नागरिकता के रजिस्टर से काट दिया जाता है, क्योंकि वह मरने के बराबर हो गई। उसका कोई मतलब नहीं अब जगत से। जगत के लिए अब वह नहीं है। ऐसी एक मोनास्ट्री पुरुषों की भी है। और जिस इजोटेरिक क्रिश्चियनिटी ने यह मोनास्ट्री बनाई थी, उसने बहुत गजब का काम किया है। उस पुरुषों की मोनास्ट्री में किसी स्त्री ने कभी प्रवेश नहीं किया है। और जो पुरुष उसके भीतर गया, फिर वह कभी बाहर नहीं निकला।

ये दोनों मोनास्ट्री पास—पास हैं। और अगर कभी किसी साधक की आत्मा बाहर चली जाए, तो उसे स्त्री के स्पर्श की जरूरत नहीं। सिर्फ स्त्रियों की मोनास्ट्री की दीवाल के पास लिटा देना काफी है। वह पूरी की पूरी चार्ल्ड है मोनास्ट्री। वहां पुरुष कभी गया नहीं। उसके भीतर हजारों स्त्रियां हैं। पुरुषों की मोनास्ट्री के भतिर हजारों पुरुष हैं। और साधारण संकल्प नहीं है यह। यह असाधारण संकल्प है। यह जीते जी मर जाने का संकल्प है। लौटने का अब उपाय नहीं है।

अब ऐसी मोनास्ट्रीज में जो गुप्ततम विज्ञान थे, वे विकसित हो सके। क्योंकि यहां प्रयोग की बड़ी सुविधा थी। तांत्रिकों ने भी ऐसी व्यवस्थाएं की थीं, लेकिन तांत्रिक धीरे — धीरे नष्ट हो गए। नष्ट हो जाने में हम जिम्मेवार हैं। क्योंकि इस मुल्क में जो नैतिकता की नासमझी भरी बहुत—सी बातें हैं, उन्होंने तांत्रिकों को अनैतिक सिद्ध कर दिया।

स्वभावत:, अगर एक नग्न स्त्री की किसी मोनास्ट्री में पूजा होती है, तो बाहर का वह जो नैतिक आदमी है, वह इससे विचलित हो जाएगा। अगर किसी मोनास्ट्री में यह पता चल जाता है कि वहां एक कुंवारी कन्या नग्न बैठती है और बाकी साधक उसकी पूजा करते हैं, तो यह जरूर बहुत खतरनाक बात है। और बाहर का आदमी जो बैठा है, वह जो सोच सकता है नग्न स्त्री के बाबत, वही सोच सकता है। वह जो सोच सकता है कि जहां नग्न स्त्री बैठी हो और पुरुष मौजूद हों, वहा हो क्या रहा होगा। वह जो करता है, वही सोच सकता है।

स्वभावत:, हमने इस मुल्क में बहुत—सी मोनास्ट्रीज नष्ट कर दीं, बहुत —से शास्त्र नष्ट कर दिए। अकेले राजा भोज ने एक लाख तांत्रिकों की हत्या की। सामूहिक रूप से पूरे मुल्क में हत्या की गई। उनकी एक—एक जगह नष्ट कर दी गई। क्योंकि वे कुछ प्रयोग कर रहे थे, जिससे इस मुल्क का सारा पौरोहित्य, इस मुल्क का सारा का सारा पांडित्य, इस मुल्क की सारी तथाकथित नैतिकता, वह जो प्यूरिटन माइंड है, वह पूरे का पूरा मर जाता। उनके प्रयोग अगर सही थे, तो हमारी सारी नैतिकता गलत है।

क्योंकि तांत्रिकों का अनुभव यह था कि अगर नग्न स्त्री के सामने कोई पूजा के भाव से विशेष प्रक्रियाएं कर ले, तो वह स्त्री से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। अगर नग्न पुरुष के सामने स्त्री विशेष प्रक्रियाओं से कोई पूजा कर ले, तो वह सदा के लिए पुरुष से मुक्त हो जाए।

असल में स्त्री और पुरुष के भीतर जो मैग्नेटिक फोर्सेस’ हैं, उनको बांधने की व्यवस्थाएं हैं। अगर एक नग्न स्त्री को सामने रखकर कोई पुरुष उसको पूजा के भाव से देखने में समर्थ हो जाए, तो यह साधारण घटना नहीं है। उसको भोगने के भाव से समर्थ होना हमें प्रकृति ने बनाया है। लेकिन उसे पूजा के भाव से देखने में अगर कोई पुरुष समर्थ हो जाए, तो उसकी जो विद्युत — धारा अब तक बाहर की स्त्री की तरफ बहती थी, वह विद्युत — धारा भीतर की स्त्री की तरफ बहने लगती है, और कोई उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि जो स्त्री का आकर्षण था, वह विलीन हो गया। अब वह मां हो गई, देवी हो गई, कुछ हो गई, जो पूज्य हो गई। उसकी तरफ जो बहाव था ऊर्जा का, वह लौट गया। वह जाएगा कहां!

ऊर्जा नष्ट नहीं होती, सिर्फ उसका बहाव बदलता है। कोई शक्ति नष्ट नहीं होती, सिर्फ उसका मार्गातरीकरण होता है। तो अगर बाहर स्त्री पूज्य हो गई, तो ऊर्जा भीतर की तरफ बहनी शुरू हो जाती है और भीतर की स्त्री से मिलन हो जाता है। उस मिलन के बाद बाहर की स्त्री से मिलन का कोई अर्थ नहीं, कोई प्रयोजन नहीं।

अब यह नग्न स्त्री को पूजा के भाव से देखने की विशेष प्रक्रियाएं थीं, विशेष मनोदशाए थीं, विशेष ध्यान के प्रयोग थे, विशेष मंत्र थे, विशेष शब्द थे, विशेष तंत्र थे। और उन सबके बीच प्रयोग करने पर यह घटित हो जाता था। यह ठीक वैसी ही वैज्ञानिक व्यवस्था थी, जैसा आज विज्ञान लेबोरेटरी में कर रहा है।

हम सबने सुना है कि हाइड्रोजन और आक्सीजन अगर मिल जाएं, तो पानी बन जाता है। लेकिन आप अपने घर में हाइड्रोजन और आक्सीजन दोनों को भर दें अपने कमरे में, तो भी पानी नहीं बनेगा। हाइड्रोजन और आक्सीजन दोनों मौजूद हों कमरे में तो भी पानी नहीं बन जायेगा। हाइड्रोजन और आक्सीजन के पानी बनने के लिए बहुत बड़े वोल्टेज में विद्युत की वहां प्रवाहना होनी चाहिए। वर्षा में जो आपको पानी दिखाई पड़ता है वह आकाश में चमकी हुई बिजली की वजह से बनता है। हाइड्रोजन और आक्सीजन दोनों मौजूद होते हैं लेकिन उतने जोर से विद्युत जब चमकती है, तो उतनी गर्मी की विद्युत की व्यवस्था में ही हाइड्रोजन और आक्सीजन एक दूसरे से मिल पाते हैं और पानी बन जाते हैं।

अगर आपकी किताब में सिर्फ इतना लिखा रह जाए—कभी ऐसा दुर्भाग्य का दिन आ जाए और आ सकता है, और वैज्ञानिकों की ही कृपा से आ सकता है—कि हमारे पास सिर्फ इतना लिखा रह जाए कि हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलने से पानी बनता है, तो हम पानी न बना सकेंगे। अब हमारे पास तंत्र की किताब में सिर्फ इतना ही लिखा रह गया है कि नग्न स्त्रियों को पूजा के भाव से पूजने से व्यक्ति की ऊर्जा भीतर बह जाती है। लेकिन हमें और कुछ पता नहीं कि और भी कोई विद्युत की तड़क, और भी कोई इंतजाम है जो बीच में घटना चाहिए। इसे थोड़ा ऐसे देखें।

तिब्बत के मंत्र को आपने सुना होगा, ओंम मणि पद्ये हुम्। अगर इस पूरे मंत्र को आप दोहराएं. ओंम, तो आप पाएंगे कि इसमें शरीर के कोई और हिस्से भाग ले रहे हैं। मणि, तो शरीर के और नीचे के हिस्से भाग ले रहे हैं। ओंम जैसे गले के ऊपर ही घूम कर रह जाता है। मणि हृदय तक चला जाता है। पद्ये नाभि तक चला जाता है। हुम् सेक्स—सेंटर तक चला जाता है। अगर इस शब्द का ही उपयोग करें, तो फौरन पता चलेगा कि शरीर के अलग— अलग हिस्से तक इसका प्रवेश है। अब ओं मणि पचे हुम्, अगर इस हुम् का बहुत प्रयोग किया जाए, तो सेक्स का सेंटर जो है, वह बाहर की तरफ प्रवाहित होना बंद हो जाता है। इतनी बड़ी चोट लगती है हुम् की। अगर इस हुम् का बार—बार उपयोग किया जाए, तो आदमी की सेक्यूअलिटी नष्ट हो जाती है, उसकी कामुकता विदा हो जाती है।

ऐसी बहुत—सी प्रक्रियाएं थीं जो उस नग्न स्त्री के सामने करनी पड़ती थीं। और पुरुष भी अगर नग्न खड़ा हो और बाकी साधक भी यह सब देख रहे हों, तो बहुत आसानी से पहचाना जा सकता है कि परिणाम हो रहा है कि नहीं हो रहा है। स्त्री की कामयंत्र की व्यवस्था तो शरीर के भीतर छिपी है, इसलिए नग्न स्त्री को ऊपर से देखकर पक्का पता नहीं चलता कि वह कामुक है या नहीं। लेकिन नग्न पुरुष को देखकर फौरन पता चल जाता है। महावीर ने जिन साधुओं को नग्न होने की आज्ञा दी थी, वे सिर्फ वे ही साधु थे जो हुम् का गहरा प्रयोग कर चुके थे। अब उनको नग्न रहने के लिए आशा दी जा सकती थी। सोते समय में भी उनकी जननेंद्रिय प्रभावित नहीं हो सकती थी।

यह जानकर आपको हैरानी होगी कि ऐसा पुरुष खोजना साधारणत: मुश्किल है जिसको रात सोते में दो—चार बार इरेक्शन न होता हो। पता उसे चलता हो कि न चलता हो। अभी तो अमरीका में जहां नींद में बहुत प्रयोग हो रहे हैं, वहां एक बहुत हैरानी की बात अनुभव में आई है। कि हर पुरुष की जननेंद्रिय रात के सोने में दो —चार बार प्रभावित होती ही है। जब भी स्वप्नों का धरातल कहीं काम के केंद्र के आसपास आता है, तो प्रभावित हो जाती है।

स्वप्न जब प्रभावित कर सकते हैं, तो शब्द भी प्रभावित कर सकते हैं। और जब स्वप्न प्रभावित कर सकते हैं, तो चित्र भी प्रभावित कर सकते हैं। स्वप्न है क्या?

तो सारा इंतजाम है। उस पूरे इंतजाम में रूपांतरण की व्यवस्था है। ऊर्जा अंतर्मुखी हो सकती है। यह ऊर्जा अंतर्मुखी हो अगर.।

पूछा जा सकता है कि लेकिन इस तरह की कोई तांत्रिक व्यवस्था नहीं थी जिसमें पुरुष नग्न खड़ा हो और स्त्रियां पूजा कर रही हों?

यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है। ऐसो कोई तांत्रिक व्यवस्था नहीं रही, जहां पुरुष को नग्न खड़ा किया गया हो और स्त्री पूजा कर रही हो। इसके भी कारण हैं। यह अनावश्यक है। इसके दो —तीन कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि पुरुष के मन में जब भी किसी स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, तो वह उसे नग्न करना —चाहता— है। स्त्री ऐसा नहीं करना चाहती। पुरुष वोयूर है, वह स्त्री को नग्न देखना चाहता है। स्त्री नहीं देखना चाहती।

इसलिए संभोग के क्षण ‘में सौ में से निन्यानबे स्त्रियां आख बंद कर लेंगी। पुरुष आख खुली रखेगा। अगर एक स्त्री को आप चुंबन भी ले रहे हों, तो वह आख बंद कर लेगी। उसके आख बंद करने का कारण है। वह इस क्षण को बाहर नहीं जीना चाहती। इस क्षण का बाहर से उसे कोई प्रयोजन नहीं है। इस क्षण को वह अपने भीतर रख लेना चाहती है।

यही वजह है कि पुरुषों ने तो नग्न स्त्रियों की इतनी मूर्तियां, इतनी फिल्में, इतनी कहानियां, इतने चित्र बनाए। लेकिन स्त्रियों ने नग्न पुरुषों में कोई उत्सुकता नहीं ली अब तक। न वह नग्न पुरुषों के चित्र रखती हैं पास में, न उनकी तस्वीरें बनाती हैं, न घर में उनके कैलेंडर लटकाती हैं, बिलकुल उत्सुकता नहीं है। नग्न पुरुष में आज तक स्त्रियों ने कभी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। नग्न स्त्री में पुरुष की उत्सुकता बड़ी गहरी है। इसलिए नग्न स्त्री तो पुरुष के भीतर रूपांतरण का कारण बन सकती है। नग्न पुरुष स्त्री को सिर्फ आख बंद करने का कारण बनेगा और कुछ इससे ज्यादा नहीं। इसलिए वह बेमानी है। लेकिन स्त्री का रूपांतरण दूसरी तरह से होता है।

यह खयाल में ले लेना जरूरी है कि स्त्री जो है चूंकि वह पैसिव सेक्स है, निष्किय सेक्स है, आक्रामक नहीं है, ग्राहक है। कोई स्त्री आक्रमण नहीं कर सकती। दूसरे आक्रमण नहीं, एक स्त्री इतना भी कभी अपनी तरफ से कहने नहीं जाती किसी को कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं, यह भी आक्रमण है। अगर कोई स्त्री किसी को प्रेम भी करती है, तो ऐसा इंतजाम करती है कि वह पुरुष ही उससे कहे कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। स्त्री नहीं जाती अपनी तरफ से कहने। इतना ऐग्रेसन भी नहीं कर सकती। यह भी हमला है। और जब कोई पुरुष किसी स्त्री को भी कहेगा कि मैं तुझे प्रेम करता हूं और अगर उसे हौ भी भरनी है, तो भी वह ना ही भरेंगी। यानी इतनी दूर भी वह आक्रमण में सहयोगी न होगी। वह ना ही कहेगी, वह इनकार ही करेगी। उसके इनकार से पता चलेगा कि वह स्वीकार कर रही है, वह दूसरी बात है। उसका इनकार स्वीकारात्मक होगा। उसकी नहीं में उसके पीछे खड़ी हुई ही और उसकी खुशी प्रकट होगी, लेकिन वह ही भी कहने की व्यवस्था नहीं कर सकती।

एक स्त्री को कामुकता के जगत में ले जाने के लिए पुरुष को दीक्षा देनी पड़ती है, स्त्री को इनीसियेट करना पड़ता है। और अगर एक पुरुष नग्न स्त्री को देखकर कामुक न हो, और एक पुरुष एक नग्न स्‍त्री को देखकर अपने भीतर की ऊर्जा में विलीन हो जाए, यह घटना उस स्त्री के लिए बड़ी कीमती सिद्ध होती है। यह घटना उस स्त्री के लिए बड़ी कीमती सिद्ध होती है। इस पुरुष की भीतर जाती ऊर्जा उसकी ऊर्जा को भीतर जाने में सहयोगी हो जाती है। यानी इनीसिएशन बन जाती है। जैसे पुरुष स्त्री को राजी करता है कामुकता के रास्ते पर, ऐसे ही पुरुष अगर स्त्री के समक्ष अकाम की ‘तरफ गतिमान हो जाए तो भी वह दीक्षा देता है अकाम की तरफ। इसलिए दूसरी व्यवस्था कभी नहीं खोजी गई। उसकी कोई जरूरत न थी।

कुछ स्त्रियां पुरुष— स्वभाव वाली होती हैं उनकी क्या स्थिति होगी?

ह बात संभव है और उसके कारण हैं। थोड़ी —सी बात उस संबंध में करनी उपयोगी होगी। असल में जब हम कहते हैं कि कोई पुरुष है और कोई स्त्री है, तो यह हम बहुत ठीक नहीं कहते। असल में कोई भी सिर्फ पुरुष नहीं है और कोई भी सिर्फ स्त्री नहीं। पुरुष स्त्री होना मात्रा की बात डिग्रीज की बात है।

एक बच्चा जब मां के पेट में होता है, तो थोड़े समय तक तो वह दोनों होता है, न वह स्त्री

है, न वह पुरुष होता है। फिर धीरे — धीरे वह स्त्री या पुरुष होने की यात्रा पर गतिमान होता है। यह गतिमान होना भी सिर्फ मात्रा का ही फर्क है। जब हम कहते हैं किसी को पुरुष तो उसका मतलब होता है कि वह साठ प्रतिशत पुरुष है और चालीस प्रतिशत स्त्री है, सत्तर प्रतिशत पुरुष है, तीस प्रतिशत स्त्री, नब्बे प्रतिशत पुरुष है, दस प्रतिशत स्त्री। जब हम कहते हैं किसी को स्त्री, तो उसका मतलब यह है कि उसका स्त्री होना पुरुष के होने से प्रबल है।

कभी—कभी ऐसा होता है कि इक्यावन प्रतिशत कोई आदमी पुरुष है, और उनचास प्रतिशत स्त्री। बड़ा कम फासला है। ऐसा पुरुष स्त्रैण मालूम पड़ेगा। अगर किसी स्त्री में सिर्फ इक्यावन प्रतिशत स्त्री है और उनचास प्रतिशत पुरुष है तो ऐसी स्त्री बहुत पौरुषिक मालूम पड़ेगी। अगर ऐसी स्त्री को कोई स्त्रैण पुरुष मिल जाए, तो वह डोमिनेट रोल अख्तियार कर लेगी।

असल में, उस हालत में सिर्फ हमें भाषा की भूल हो रही है। उस हालत में पुरुष को पत्नी कहना चाहिए और स्त्री को पति कहना चाहिए। अगर हम ठीक से उपयोग करें, क्योंकि जो डोमिनेंट है, वह मालिक है। उस हालत में हमें पति—पत्नी का स्त्री और पुरुषवाची पर्याय छोड़ देना चाहिए। असल में पति होना एक फंक्शन है, पति होना एक पद है। इसमें स्त्री भी हो सकती है, इसमें पुरुष भी हो सकता है। पत्नी होना भी एक फंक्शन है। इसमें पुरुष भी हो सकता है, स्त्री भी हो सकती है। बहुत से पुरुष पत्नी की हैसियत से जीते हैं। बहुत—सी स्त्रियां पति की हैसियत से जीती हैं।

यह जो जीने का कारण है, यह परसेंटेज है उनके व्यक्तित्व की। और इसलिए कभी ऐसा हो जाता है कि कोई पुरुष अचानक किसी बीमारी में, किसी कारण से, स्त्री हो जाता है; कोई स्त्री पुरुष हो जाती है।

पिछली दफा लंदन में एक बड़ा मुकदमा चलता रहा। और मुकदमा यह था कि एक लड़की ने विवाह किया और विवाह करने के बाद वह पुरुष हो गई। मुकदमा यह चला कि उसने धोखा दिया है, वह पुरुष थी और जिस पुरुष के साथ उसने विवाह किया है, उसके साथ धोखा हुआ है। और उस लड़की के लिए बहुत मुश्किल पड़ गया यह सिद्ध करना कि वह लड़की थी और अब पुरुष हो गई है। लेकिन मेडिकल साइंस ने उसको सहायता दी और प्रमाणित हो गया कि वह लड़की थी, लेकिन आन दी वर्ज—मार्जिनल लड़की थी वह—बिलकुल बाउंड्री पर खडी थी, जहां से एक कदम बढ़ाया, तो वह लड़का हो जाती। वह एक कदम बढ़ गया।

अब भविष्य में बहुत दिक्कत नहीं रह जाएगी कि कोई पुरुष अगर जिंदगी में स्त्री होना चाहे और कोई स्त्री पुरुष होना चाहे तो इसका वैज्ञानिक इंतजाम हो सकेगा। यह सुखद भी है, क्योंकि एक ही रोल करते —करते आदमी ऊब भी जाता है। इसमें बदलाहट हो जानी चाहिए।

इसलिए जिन स्त्रियों में पुरुष—तत्व ज्यादा है, वे स्त्रियां डोमिनेंट हो जाएंगी। और ऐसी स्त्रियां सदा दुखी रहेंगी। उसका कारण है कि उनका डोमिनेट होना उनके स्त्रैण होने के विपरीत है, इसलिए उनके दुख का अंत नहीं रहेगा। असल में स्त्री उसी पुरुष को पसंद करती है जो उसको दबा ले। कोई स्त्री उस पुरुष को पसंद नहीं करती जो उससे दब जाए। अब जिस स्त्री में पुरुष का तत्व ज्यादा है, वह दबाकी भी और दुखी भी होगी, क्योंकि उसको दबाने वाला पुरुष नहीं मिला। उसके दुख का अंत नहीं रहेगा। और पुरुष का सुख इसमें होता है कि स्त्री उसके प्रति समर्पित हो। और अगर पुरुष खुद स्त्री के प्रति समर्पित हो जाए, तो वह परेशानी में पड़ जाएगा, उसकी तृप्ति न हो पाएगी।

असल में स्त्री—पुरुष होना मार्जिनल नहीं होना चाहिए। लेकिन हमने जो व्यवस्था विकसित की है, वह धीरे — धीरे मार्जिनल होती जा रही है। बहुत—से लोग मार्जिन पर खड़े हो गए हैं। सभ्यता ने ऐसा किया है। असल में सभ्यता ने स्त्री और पुरुष के रोल को करीब —करीब एक जैसा कर दिया है। इससे नुकसान हुआ है। इससे स्त्री की स्त्रैणता कम हुई है, पुरुष का पुरुष होना कम हुआ है। जब कि उन दोनों का एक्सट्रीम पोल्स पर होना जरूरी है। पुरुष को चाहिए कि वह निन्यानबे प्रतिशत पुरुष और एक प्रतिशत स्त्री हो। एक प्रतिशत तो रहेगा वह, बच नहीं सकता। स्त्री को चाहिए कि वह निन्यानबे प्रतिशत स्त्री हो और एक प्रतिशत पुरुष हो। इसके लिए जरूरी है कि उनके शरीर के लिए अलग व्यायाम हों, इसके लिए यह जरूरी है कि उनके भोजन में थोडा फर्क हो, इसके लिए जरूरी है कि उनकी शिक्षा भिन्न हो, इसके लिए जरूरी है कि उनके जीवन का सारा अनुशासन भिन्न हो। तब हम उन दोनों को पोलेरिटीज की तरह खड़ा कर पाएंगे।

और जिस दिन आदमी की समझ बढे—गी, उस दिन हम नहीं चाहेंगे कि स्त्री पुरुष जैसी हो और पुरुष स्त्री जैसा हो। उस दिन हम चाहेंगे, स्त्री स्त्री जैसी हो और पुरुष पुरुष जैसा हो और इन दोनों के बीच बड़ा फासला हो। क्योंकि जितना फासला, उतना आकर्षण है। जितना फासला, उतना रस है। जितना फासला, उतना मिलन का सुख है। जितना फासला कम, उतना रस कम। जितना फासला कम, उतना मिलने में कोई सुख नहीं।

पर यह हुआ है। पुरुष सभ्य होते —होते कमनीय हो गया। क्योंकि न वह युद्ध में लड़ने जाता है, न वह खेत में मेहनत करता है, न वह जंगली जानवर से जूझता है, न वह पत्थर तोड़ता है। तो उसका स्त्रैण व्यक्तित्व होना शुरू हो गया है। वह कमनीय हो गया। उसने मसल्स खो दिए, उसके पुरुष होने का एक बहुत बुनियादी हिस्सा खो गया।

स्त्री पुरुष के करीब आती जाती है। पुरुष जैसी शिक्षा मिलती है उसे, पुरुष जैसे समाज ने जो ढाचा बनाया है उसमें अगर उसे सफल होना है, तो उसे पुरुष के साथ होड़ करनी पड़ती है। उसे पुरुष जैसे काम करने पड़ते हैं। अगर उसे फैक्ट्री में काम करना है, तो उसे पुरुष जैसा जीना पड़ता है। दफ्तर में काम करना है तो पुरुष जैसा जीना पड़ता है। वह नाम मात्र को स्त्री होती है। उसका वह जो बायोलाजिकल स्त्री होना है, बेमानी हो जाता है। और सब अर्थों में वह पुरुष होती है। सारा पुरुष का काम वह करती है। और पुरुष के साथ कापीट करती है। इधर पुरुष कमनीय होता जाता है, उधर स्त्री पुरुष जैसी होती चली जाती है।

इसके घातक परिणाम हुए हैं। इसका सबसे बड़ा घातक परिणाम यह हुआ कि कोई स्त्री किसी पुरुष से तृप्त नहीं हो पाती और कोई पुरुष किसी स्त्री से तृप्त नहीं हो पाता। और इसलिए अतृप्ति की आग चौबीस घंटे पकड़े रहती है। वह पकड़े ही रहेगी। जब तक हम स्त्री और पुरुष के व्यक्तित्व को ठीक—ठीक एक दूसरे के विपरीत और विभिन्नता में अंतिम छोरों पर न खड़ा कर सकें, तब तक वह पकड़े ही रहेगी। इस कारण से ऐसा हो जाता है, होना नहीं चाहिए। रुग्ण है वह बात।

यह जो पुरुष का स्त्री में या स्त्री का पुरुष में चेजं है इसके लिए किसी को हम परवर्ट नहीं कह सकते इक हट इज नैचरल अब सोशल कंडीशंस बदल कर जो स्त्री पुरुष हो रही है या पुरुष स्त्रैण हो रहा है उसके लिए मैं कुछ नहीं कह रही लेकिन मेडिकली उसके अंदर जो संरचना काम करती है उसमें जो एक प्रतिशत के अंतर से बदलाहट आती है उसके लिए हम परवर्टेड शब्द का इस्तेमाल नहीं कर सकते……..।

नहीं, नहीं, नहीं करना चाहिए। बिलकुल ही नहीं करना चाहिए।

लेकिन बहुत से लोग यही कहते हैं कि यह परवर्ट है

नहीं, नहीं, परवर्ट कहने का सवाल ही नहीं है। नहीं, यह परवर्ट नहीं, ऐक्सीडेंट है। परवर्ट नहीं ऐक्सीडेंट है।

यह अभी आप कह रहे हैं लेकिन आमतौर से लोग..

नहीं, परवर्सन की कोई बात नहीं है। यह सिर्फ दुर्घटना है और इस दुर्घटना से बचने के उपाय किये जाने चाहिए। और जिसके साथ यह दुर्घटना घट रही है, वह दया का पात्र है। परवर्ट जैसी गाली का पात्र नहीं है। न, वह गलती है और उसको सुधारने की सब कोशिश हमारी नासमझी की कोशिश है, जब तक कि हम उसके पूरे व्यक्तित्व को गुणात्मक रूप से स्त्रैण बनाने की फिक्र नहीं करते। जो कि की जा सकती है, जिसमें कोई कठिनाई नहीं है। थोड़े —से हारमोन्स के इंजेक्शन देने से वह स्त्रैण हो सकता है, पुरुष हो सकता है। लेकिन हम उस तरफ सोच नहीं रहे हैं।

अगर एक पत्नी एक पति को डांटती —डपटती है, दबाती है, सताती है, मालकियत करती है, तो वह यह कभी नहीं सोचता है कि इसे डाक्टर को दिखाने की बात है। वह सोचता है कि जाकर किसी साधु महाराज से समझवाने की बात है। इसका कोई संबंध नहीं है। साधु महाराज का इसमें कोई कसूर नहीं है, न कोई हाथ है। इसको किसी से समझवाने का सवाल नहीं है। इसको हारमोन्स की जरूरत है, जो इसको और स्त्रैण बनाए। और वे हारमोन्स डाले जा सकते हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। अगर कोई पुरुष स्त्रैण जैसा व्यवहार कर रहा है, और पत्नी उससे रस नहीं ले पाती तो उसमें नाराज और दुखी होने की जरूरत नहीं है। उसे वैसे ही चिकित्सा की जरूरत है, जैसे और सब चीजों के लिए चिकित्सा की जरूरत है।

भगवान श्री एक बार तेजस शरीर बाहर हुआ तो वह कभी भी ठीक से पूरी तरह भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाता और उनके बीच तालमेल और सामंजस्य बिगड़ जाता है इसलिए योगी लोग हमेशा रुग्ण रहे हैं कम उम्र में मरते रहे हैं असामंजस्य न हो इसके लिए क्या— क्या तैयारियां आवश्यक हैं? क्या रूग्‍णता की संभावनाएं नहीं घटायी जा सकती हैं? यह कैसे संभव है?

स संबंध में भी पहली बात तो यह है कि शरीर की जो प्राकृतिक व्यवस्था है, जैसे ही हमारा सूक्ष्म शरीर शरीर के बाहर जाता है, उसकी प्राकृतिक व्यवस्था में व्यवधान पड़ेगा ही। घटना वह प्राकृतिक नहीं है, घटना वह प्रकृति के पार की है। कहना चाहिए अप्राकृतिक है, बियांड नेचर है अतीत है प्रकृति के। तो जब भी कोई प्रकृति से विभिन्न, प्रकृति के ऊपर कोई घटना घटेगी, तो प्रकृति का जो व्यवस्थित तालमेल था, वह अस्तव्यस्त हो जाएगा।

इस अस्तव्यस्तता से अगर बचना हो, तो बहुत तैयारियों की जरूरत है। योगासन उस तैयारी में बड़े सहयोगी हैं। मुद्राएं उस दिशा में बड़ी सहयोगी हैं। असल में हठयोग की सारी प्रक्रियाएं उस दिशा में सहयोगी हैं। तो शरीर को फिर उतनी बड़ी अप्राकृतिक घटना को झेलने के योग्य लोह—तत्व देना जरूरी है। साधारण शरीर नहीं चाहिए, फिर असाधारण शरीर चाहिए।

अब जैसे राममूर्ति के पास एक शरीर था। इस शरीर में और हमारे शरीर में कोई बुनियादी भेद नहीं है। लेकिन राममूर्ति को एक शरीर की ट्रिक का बोध हो गया। वह साध ली गई। वह हम रोज होते देखते हैं, लेकिन हमारे खयाल में नहीं आता। आप रोज देखते हैं कि एक मोटर का टायर हवा को भरे हुए इतना वजन ढो लेता है। उस टायर में से हवा कम कर दें, तो वह वजन नहीं ढो पाएगा। एक विशेष अनुपात चाहिए उस वजन को ढोने के लिए हवा का।

तो प्राणायाम की एक विशेष प्रक्रिया में सीने में इतनी हवा भरी जा सकती है कि ऊपर हाथी खड़ा हो जाए। तब सीना जो है टायर की तरह काम कर रहा है, टभूब की तरह काम कर रहा है। हवा का एक विशेष अनुपात…। एक हाथी के वजन को झेलने के लिए हवा का कितना आयतन फेफड़े के भीतर चाहिए अगर इसका ठीक पता हो, तो कोई कठिनाई नहीं है। राममूर्ति के पास भी फेफड़ा वही है जो हमारे पास है। वह जो टायर के भीतर रबर का टभूब पड़ा हुआ है, वह कोई बहुत मजबूत लोहे की चीज नहीं है। उसमें कोई ताकत नहीं है। उसका तो सिर्फ इतना ही उपयोग है कि इतनी हवा को वह आयतन में समा लेता है, बस। इतनी हवा वहां रह जाए तो काम पूरा हो जाए।

अब अभी एक नई कार का खयाल है जो जमीन से चार फुट ऊपर चल सके। उसमें किसी टायर—टचूब की जरूरत नहीं होगी। असल में उस कार के लिए जो इंतजाम है वह सिर्फ इतना ही है.. ट्रिक वही है। उसमें इंतजाम इतना है कि वह इतनी तेज गति से चलेगी कि नीचे हवा की जो परत गुजरेगी, वह परत इतना आयतन ले लेगी कि उसके ऊपर वह संभल जाएगी। अगर बहुत स्पीड से वह गाड़ी गुजरी, तो नीचे की हवा और ऊपर की हवा कट जाएगी और नीचे हवा की एक परत चार फुट की बन जाएगी, उसकी तेजी की वजह से।

जैसे जब तुम नाव चलाते हो तेजी से पानी में, तो नाव के पीछे एक गड्डा बन जाता है। वह गड्डा ही असल में चलने में सहयोगी होता है। अगर पानी तरकीब सीख ले और गड्डा न बनाए, तो नाव नहीं चल सकती। उस गड्डे की वजह से आसपास का पानी उस गड्डे को भरने को भागता है। पानी के भागने की वजह से नाव को धक्का लगता है, नाव आगे चली जाती है। बस, पूरे वक्त यही ट्रिक है। वह पीछे नाव की जगह खाली होती है पानी की। पानी भरने को भागता है। जब पानी भागता है, तो नाव को गति आगे मिल जाती है।

अगर एक विशेष गति पर कार को दौड़ाया जा सका, तो चार फुट नीचे हवा की परत को सड़क बनाया जा सकेगा। बनाने की जरूरत नहीं, बस बन जाएगी तत्काल, इतनी तीव्रता से, और वह कार उसके ऊपर से निकल जाएगी। तब व्हील्स की कोई जरूरत न रह जाएगी। तब कार सरकेगी। उस पर कोई धचके और चोट और वर्षा का कोई असर नहीं पड़ने वाला है। हवा भर होनी चाहिए। बस, इतना काफी होगा।

हठयोग ने बहुत सी प्रक्रियाएं खोजी हैं जो शरीर को एक विशेष इंतजाम दे देती हैं। अगर वह इंतजाम दे दिया गया है तब तो फर्क पड़ जाएगा। इसलिए हठयोगी कभी कम उम्र में नहीं मरता। साधारण राजयोगी मरता है। विवेकानंद मरते हैं, शंकराचार्य मरते हैं, हठयोगी नहीं मरता। उसका कारण है। उसने शरीर को पूरा इंतजाम दिया है। इसके पहले कि घटना घटे, उसने शरीर के लिए तैयारी कर ली है। अब शरीर तैयार है। अब शरीर अप्राकृतिक स्थिति को झेलने के लिए तैयार है।

इसलिए हठयोगी बहुत—सी अप्राकृतिक प्रक्रियाएं करता है। जैसे जब धूप पड़ रही होगी, तब वह कंबल ओढ़ कर बैठ जाएगा। सूफी फकीर कंबल ओढ़े रहते हैं। सूफ का मतलब होता है ऊन। और जो आदमी ऊन ओढे रहता है हमेशा, उसको कहते हैं सूफी। और तो कुछ मतलब नहीं है सूफी का। तो सारे सूफी फकीर अरब में, जहां कि आग बरस रही है, कंबल ही ओढ़ कर जीते हैं। आग बरस रही है और वह कंबल ओढ़े हैं। अब बड़ी अप्राकृतिक स्थिति वे खड़ी कर रहे हैं। ऐसे ही आग बरस रही है, ऐसे ही जला जा रहा है सब कुछ। चारों तरफ आग दिखाई पड़ती है, कहीं कोई हरियाली नहीं दिखाई पड़ती। वहां एक आदमी कंबल ओढ़े बैठा है। वह अपने शरीर को राजी कर रहा है अप्राकृतिक स्थितियों के लिए। तिब्बत में एक लामा नंगा बैठा हुआ है बर्फ पर। और तुम हैरान होंगे देखकर, उसके शरीर से पसीना चू रहा है। अब यह लामा एक तैयारी कर रहा है कि गिरती हुई बर्फ में शरीर से पसीना चुआया जा सके। यह बडी अप्राकृतिक तैयारी कर रहा है।

ऐसी बहुत सी अप्राकृतिक तैयारियां हैं। इन तैयारियों से अगर शरीर गुजर गया हो, तो उस अप्राकृतिक घटना को झेलने में समर्थ हो जाता है। फिर तो शरीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। कोई नुकसान नहीं पहुंचता।

लेकिन साधारणत: ये तैयारियां वर्षों का काम है। और बाद में राजयोग ने तय किया कि आखिर इतनी उम्र को बचाने की जरूरत भी क्या है। यह वर्षों का काम है। कोई एक आदमी हठयोग की तैयारी करे तो बीस और तीस साल से कम में तो कुछ भी नहीं हो सकता। तीस साल कम से कम समझना चाहिए। अब एक आदमी अगर पंद्रह साल की उम्र में काम शुरू करे, तो पचास साल की उम्र तक तो वह तैयारी कर पाएगा। तो राजयोग ने यह तय किया कि शरीर की इतनी फिक्र की जरूरत भी क्या है। अगर स्थिति उपलब्ध हो गई और शरीर छूट गया, तो करना क्या है बचा कर। इसलिए वे तैयारियां छोड़ दी गईं।

इसलिए शंकराचार्य तैंतीस साल में मर गए। उसका कारण यह है कि इतनी बड़ी घटना घटी, उसके लिए शरीर तो तैयार नहीं था। मगर तैयारी की कोई जरूरत भी न थी। अगर जरूरत मालूम पड़े, तब तो ठीक है। नहीं जरूरत मालूम पड़े, तो कोई कारण नहीं है। और फिर पैंतीस साल जिसको बचाने के लिए मेहनत करनी पड़े, अगर उससे पैंतीस साल और बच सकते हों तो हिसाब बहुत ज्यादा फायदे का न रहा।

समझ लें कि मैं पंद्रह साल से मेहनत करूं पचास साल तक, तो मेरे पैंतीस साल तो खराब हो ही गये। और अब मैं पैंतीस साल और बच जाऊं, पचासी साल तक। तो ऐसे हिसाब—किताब बराबर हो गया। कुछ उसका अर्थ नहीं है।

तो अगर शंकराचार्य से कोई कहे कि आप हठयोग करके बच सकते थे सत्तर साल तक, तो वे कहेंगे कि बच सकता था, लेकिन चालीस साल मुझे उसमें मेहनत लगानी पड़ती। वह मेहनत अकारण है। मैं तैंतीस साल में मरना पसंद करता हूं। इसमें कोई हर्जा नहीं है।

इसलिए धीरे — धीरे हठयोग पिछड़ गया। उसके पिछड़ जाने का कारण हुआ कि उसकी इतनी लंबी प्रक्रियाएं थीं। लेकिन मुझे लगता है कि भविष्य में अगर विज्ञान का सहारा लेकर प्रक्रियाएं की गईं, तो हठयोग वापस लौट आएगा। क्योंकि अब पैंतीस साल लगाने की जरूरत नहीं है। मैं समझता हूं कि पांच साल में भी हो सकती है बात। और अगर विज्ञान का पूरा उपयोग किया जाए, तो इतना समय खोने की जरूरत नहीं है। और समय बचाया जा सकता है। लेकिन वैज्ञानिक हठयोग के पैदा होने में अभी समय है। अभी वक्त लग सकता है। और मैं मानता हूं कि वैज्ञानिक हठयोग हिंदुस्तान में पैदा नहीं होगा, पश्चिम में ही पैदा होगा। क्योंकि हमारी कोई वैज्ञानिक स्थिति ही नहीं है।

समय बचाया जा सकता है, लेकिन बचाए जाने का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। किन्हीं खास स्थितियों में समय बचाये जाने का प्रयोजन हो सकता है, तो वह घटना भी स्कूल के भीतर ही घटेगी। जैसे यह हो सकता है कि शंकाराचार्य का अब शंकराचार्य के लिए तो कोई उपयोग नहीं है बचने का, लेकिन दूसरों के लिए उपयोग हो सकता है। इसलिए हठयोग की बात में कहीं कोने पर एक जान है। और वह यह है कि शंकराचार्य को यह कहा जा सकता है कि माना कि आपके लिए कोई उपयोग नहीं है, लेकिन अगर आप पैंतीस साल और बच जाते हैं, तो और बहुत लोगों के लिए उपयोग है। इसी रास्ते से हठयोग वापस आ सकता है, अन्यथा नहीं आ सकता।

और शरीर का जो ऐडजेस्टमेंट टूट जाता है। वह करीब—करीब मामला ऐसे ही है जैसे कि कार का इंजन एक बार खोल लो, फिर दोबारा भी कस जाता है, लेकिन कार की लाइफ तो कम हो ही जाती है। इसलिए कार खरीदने वाला पहले पूछता है कि इंजन खोला तो नहीं गया। क्योंकि इंजन बिलकुल ठीक जुड़ गया हो, फिर भी लाइफ तो कम हो ही जाती है, जिंदगी कम हो ही जाती है। क्योंकि वह ठीक वही नहीं हो सकता, जो था। उसमें किंचित अंतर भी फर्क ले आता है।

फिर हमारे शरीर में कुछ तत्व ऐसे हैं, जो बहुत शीघ्रता से मर जाते हैं, कुछ तत्व ऐसे हैं, जो मरने में देर लेते हैं। कुछ तत्व ऐसे हैं, जो आदमी मर जाता है उसके बाद भी नहीं मरते। मरघट में भी नाखून बढ़ते रहते हैं आदमी के, कब्र में भी बाल बढ़ते रहते हैं। कब्र में गड़ाए हुए आदमी के बालों का बढ़ना जारी रहता है, नाखून का बढ़ना जारी रहता है। वह आदमी मर गया, लेकिन नाखून और बाल मरने से इतनी जल्दी राजी नहीं होते। वे अपना काम जारी रखते हैं। उनको मरने में बहुत वक्त लगता है।

तो शरीर जब मरता है, तो उसमें मरने में कई तलों पर मृत्यु घटित होती है। असल में शरीर में बहुत तरह के संस्थान आटोमेटिक हैं जिनके लिए आपकी आत्मा की मौजूदगी भी जरूरी नहीं है। जैसे मैं यहां बैठा हूं। मैं बोल रहा हूं। अगर मैं इस कमरे के बाहर चला जाऊं, तो बोलना तो बंद हो जाएगा लेकिन पंखा चलता रहेगा। क्योंकि पंखे का अपना आटोमेटिक इंतजाम है। उसका मेरी मौजूदगी से कुछ लेना—देना न था।

तो हमारे शरीर में दो तरह के इंतजाम हैं। एक तो इंतजाम है जो हमारी चेतना के हटते से ही खतम हो जाएगा। एक इंतजाम ऐसा है जो कि हमारी चेतना के हटने पर भी थोड़ी देर काम करता रहेगा। कुछ इंतजाम इतने आटोमेटिक और बिल्ट—इन हैं कि वह देर तक काम करता रहेगा। चेतना हट जाएगी, वह अपना काम……. उसको पता ही नहीं चलेगा, बाल को कि क्रियानंद चल बसे, वह अपना काम करता रहेगा। पता लगते —लगते उसको बहुत देर हो जाएगी, बहुत वक्त लग जाएगा। जब उसको पता चलेगा, तब वह मरेगा कि यह आदमी तो गया। अब हम बंद हो जाएं, अब बढ़ना नहीं चाहिए। और हमारे भीतर कुछ तत्व हैं जो बड़ी जल्दी मरते हैं, कुछ तत्व हैं जो छह सेकेंड में मर जाते हैं।

जैसे हार्ट— अटैक होता है एक आदमी को। हृदय के दौरे से जो आदमी मरता है, अगर छह सेकेंड के भीतर उसको सहायता पहुंचाई जा सके, तो वह बच भी सकता है। क्योंकि असल में हार्ट— अटैक कोई मृत्यु नहीं है, सिर्फ स्ट्रक्चरल भूल है। तो पिछले महायुद्ध में रूस में कोई पचास आदमी बचाए गए। युद्ध के मैदान में जो हृदय के दौरे से गिर कर मर गए, ‘उनको छह सेकेंड के भीतर

अगर सहायता पहुंचाई जा सकी, तो वे बच गए। लेकिन छह सेकेंड से अगर ज्यादा देर लग जाए, तो कुछ तत्व तब तक खतम हो जाएंगे, उनको फिर दोबारा जिंदा करना मुश्किल हो जाएगा। जैसे हमारे मस्तिष्क के जितने भी डेलीकेट हिस्से हैं, वे बहुत जल्दी मरते हैं, एकदम मर जाते हैं।

तो अगर तेजस शरीर बहुत देर बाहर रह जाए, तो इस शरीर की सुरक्षा करनी बहुत जरूरी है, नहीं तो इसमें से कुछ हिस्से मर जाएंगे। हालांकि तुम अंदाज नहीं लगा सकते कि कितनी देर तेजस शरीर बाहर रहा, क्योंकि दोनों का टाइम—स्केल अलग है। यानी जैसे कि मेरा तेजस शरीर बाहर निकल जाए, सूक्ष्म शरीर, तो मुझे लगेगा कि मैं सालों बाहर रहा और लौट कर जब आऊं, तब देखूं कि घड़ी में सिर्फ एक सेकेंड ही बीता है। टाइम—स्केल भिन्न है।

जैसे एक आदमी को झपकी लग जाए। और झपकी में वह एक सपना देखे। और सपने में उसकी शादी हो रही है, बारात निकल रही है और बच्चे हो गए और बच्चों की शादी हो रही है। और नींद खुले और वह हमसे कहे, मैंने इतना लंबा सपना देखा कि मेरी शादी हो गई, फिर मेरे बच्चे हो गए, फिर बच्चों की शादी हो रही थी। और हम उससे कहें कि अभी तो केवल एक मिनट हुआ तुम्हें झपकी लिये। एक मिनट में इतना लंबा सपना कैसे हो सकता है?

टाइम—स्केल अलग है। एक मिनट में इतना लंबा सपना हो सकता है। क्योंकि सपने का जो समय—माप है, वह हमारे जागरण के समय—माप से बहुत भिन्न है, बहुत त्वरित है, बहुत स्पीडी है। तो तेजस शरीर एक सेकेंड को बाहर रहे तो तुम्हें लग सकता है कि तुम सालों बाहर घूमे। इससे अंदाज नहीं लगता कि तुम कितनी देर बाहर रहे।

इस शरीर को सुरक्षित रखना बहुत जरूरी है। इसकी सुरक्षा की बड़ी कठिनाइयां हैं। और इसको अगर सुरक्षित रखने का इंतजाम पूरा हो, तो बहुत देर तक बाहर रहा जा सकता है।

शंकराचार्य के जीवन की एक घटना है जो समझने जैसी है। वे छह महीने बाहर रहे, हमारे टाइम—स्केल से। तेजस शरीर के टाइम—स्केल से कितनी देर बाहर रहे, उसकी कोई बात करनी बेकार है। हमारे समय के माप से वे छह महीने शरीर के बाहर रहे।

एक स्त्री ने उनको झंझट में डाल दिया। मंडन से उनका विवाद हुआ। मंडन हार गए। लेकिन उनकी पत्नी ने एक बड़ा स्त्रैण तर्क दिया जो सिर्फ स्त्रियां ही दे सकती हैं। उसने कहा, अभी सिर्फ आधे मंडन मिश्र हारे, आधी तो मैं अभी जिंदा हूं, अर्धांगिनी। तो जब तक मैं भी न हार जाऊं, तब तक पूरे मंडन मिश्र हार गए, ऐसा आप नहीं कह सकेंगे।

शंकर भी मुसीबत में पड़ गए। बात तो ठीक ही थी, हालांकि बेमानी थी। मंडन मिश्र पूरे हार गए थे। स्त्री के अर्धांगिनी होने का यह मतलब नहीं होता कि गामा पहले उसके पति को हराए और फिर उसको पत्नी को भी हराए तब वह विजेता घोषित हो। यह मतलब नहीं होता। लेकिन वह जो भारती थी मंडन मिश्र की पत्नी, वह भी विवाद के योग्य थी। बहुत कम विदुषी स्त्रियां उस हैसियत की हुईं। और शंकर ने सोचा कि चलो यह भी ठीक है, एक आनंद रहेगा। और जब मंडन ही हार गए, तो भारती कितनी देर टिकेगी। लेकिन भूल हो गई।

पुरुष को हराना बहुत आसान है, स्त्री को हराना बहुत मुश्किल है। क्योंकि पुरुष के हारने और जीतने के तर्क भिन्न होते हैं और स्त्री के तर्क भिन्न होते हैं। असल में उनका लाजिक ही भिन्न होता है। इसलिए अक्सर पति—पत्नी एक दूसरे की बात ही नहीं समझ पाते कि कौन क्या कह रहा है। क्योंकि

उनके तर्क करने के ढंग ही अलग— अलग होते हैं। उनमें कोई तालमेल नहीं होता। अक्सर वे पैरेलल होते हैं, लेकिन मिलते कहीं नहीं।

शंकर ने सोचा कि ब्रह्म वगैरह की बात होगी, लेकिन उस भारती ने ब्रह्म —बह्म की कोई बात नहीं की, क्योंकि वह तो देख ही चुकी थी कि मंडन मिश्र दिक्कत में पड़ गए। ब्रह्म और माया नहीं चलेगी! उसने शंकर से कहा कि मुझे कामशास्त्र के संबंध में कुछ बताइए। शंकर मुश्किल में पड़ गए। शंकर ने कहा कि मैं निष्णात ब्रह्मचारी हूं। कृपा करके कामशास्त्र के संबंध में मुझसे कुछ मत पूछिये। पर उसने कहा कि अगर कामशास्त्र के संबंध में आप कुछ भी नहीं जानते, तो और क्या जान सकते हैं। जब इतना—सा पता नहीं, तो ब्रह्म, माया वगैरह क्या जानते होंगे! और जिसको आप माया कह रहे हैं, जिस जगत को, उसकी उत्पत्ति जहां से है, उसके संबंध में कुछ बात करनी पड़ेगी। मैं तो उसी पर विवाद करूंगी। तो शंकर ने कहा, छह महीने की मुहलत मुझे दे दो। मैं सीखकर आऊं। क्योंकि इसे मैंने कभी सीखा नहीं, यह मैंने कभी जाना नहीं, यह राज मुझे पता नहीं।

तो शंकर को अपना शरीर छोड्कर दूसरे शरीर में प्रवेश करना पड़ा। इस शरीर से भी वे जान सकते थे, कोई पूछ सकता है। इस शरीर से भी वे जान सकते थे, लेकिन इस शरीर की पूरी धारा अंतर्प्रवाहित हो चुकी थी। उसका बाहर लौटाना मुश्किल था। वे किसी स्त्री से इस शरीर से भी संबंधित हो सकते थे। आखिर अगर जानने ही गए थे, तो इसी शरीर से ही किसी स्त्री को जान सकते थे। लेकिन इस शरीर की सारी धारा अंतर्प्रवाहित हो गई थी। इस शरीर की धारा को बाहर प्रवाहित करना छह महीने से भी लंबा काम था। वह आसान घटना न थी, वह बहुत मुश्किल मामला था। एक दफा बाहर से भीतर ले जाना बहुत आसान है, भीतर से बाहर लाना बहुत ही मुश्किल है। कंकड़ छोड्कर हीरे उठा लेना बहुत आसान है, लेकिन हीरे छोड्कर कंकड़ उठाना बहुत मुश्किल है।

वे मुश्किल में पड गए। इस शरीर से कुछ भी न हो सकता था। तो उन्होंने मित्रों को भेजा कि पता लगाओ कि कोई शरीर तत्काल मरा हो, तो मैं उसमें प्रवेश कर जाऊं। लेकिन जब तक मैं लौटू तब तक मेरे शरीर को सुरक्षित रखना। छह महीने तक वे एक राजा के शरीर में प्रवेश करके जीए और वापस लौटे।

यह छह महीने शंकर का शरीर सुरक्षित रखा गया। यह सुरक्षा बड़ी कठिन है। इसमें जरा—सी भूल—चूक हुई कि वापस लौटना मुश्किल हो जाए। इसको सुरक्षित रखने में बड़े डिवोटेड आदमियों ने काम किया, जिनके समर्पण का कोई हिसाब लगाना मुश्किल है, जिनके समर्पण का हम अंदाज भी नहीं कर सकते कि उन्होंने क्या किया होगा।

जैसे मैंने तुमसे कहा कि तिब्बत का साधक प्रयोग करता है, कि बैठा है सर्दी में और पसीना चू रहा है। यह सिर्फ संकल्प से होता है। संकल्प से वह इस तथ्य को झुठलाता है कि सर्दी पड़ रही है। संकल्प से वह इस तथ्य को खड़ा करता है कि धूप पड़ रही है और गर्मी है। परिस्थिति को वह मनस्थिति के नीचे लाता है। परिस्थिति तो बर्फ पड़ने की है। वह आख बंद करके इस परिस्थिति को इनकार कर देता है। वह कहता है, झूठ है यह बात कि बर्फ पड़ रही है। मैं तो मानता हूं कि सूरज निकला है और धूप पड़ रही है। और इस मान्यता को वह गहरे से गहरे संकल्प में प्रवेश कराता है। एक घड़ी आती है कि उसकी श्वास —श्वास, उसका रोआं—रोआं, उसके प्राण का कण—कण जानता है कि धूप पड़ रही है। फिर पसीना कैसे नहीं निकलेगा? पसीना निकलना शुरू हो जाता है। परिस्थिति

दबा दी गई, मनस्थिति प्रभावी हो गई।

सब योग एक अर्थ में परिस्थिति को दबा कर मनस्थिति को ऊपर लाने का है। और सब सांसारिकता एक अर्थ में परिस्थिति के नीचे मनस्थिति को दबाकर जीने का नाम है।

तो शंकर के जिन मित्रों को उस शरीर को रखना पड़ा सुरक्षित, यह बात कभी कही नहीं गई यह बात कभी ठीक से लिखी भी नहीं गई कि उन्होंने किया क्या। इस आदमी के प्राण चले गए, इसको छह महीने तक क्या किया। छह महीने तक एक वर्ग मित्रों का इस शरीर को घेरे ही बैठा रहा। वह अखंड था घेरा। उसमें एक निश्चित संख्या पूरे वक्त मौजूद रहनी चाहिए। उसमें से कोई बीच में बदलता था, लेकिन चौबीस घंटे सजग। एक विशेष स्थिति में वह वातावरण उस गुफा का रहना चाहिए। और निश्चित तरंगें वहां पहुंचती रहनी चाहिए। ये सारे लोग—करीब सात लोग—वहां बैठकर इस भाव में होने चाहिए कि हम श्वास नहीं ले रहे हैं, श्वास शंकर का शरीर ले रहा है। हम नहीं जी रहे हैं, जी शंकर का शरीर रहा है। और इन सबों के शरीर की विद्युत धाराएं शंकर के शरीर में दौड़ती रहनी चाहिए। इन सारे सातों व्यक्तियों के हाथ शंकर के सातों चक्रों पर होने चाहिए। उनके सारे शरीर की विद्युत धाराएं सातों चक्रों में उडेली जानी चाहिए, तो यह शरीर छह महीने तक……।

और यह सतत होगा। इसमें एक क्षण की भी चूक और धारा टूट जाएगी। और धारा टूटने पर शरीर की उष्णता खो जाएगी। वह शरीर उष्ण रहना चाहिए जैसा जीवित आदमी का है। यह विशेष तापमान उसका वही बना रहना चाहिए जो जीवित आदमी का है। उसमें तापमान का जरा—सा भी फर्क न पड़ जाए। और यह तापमान किसी आग से नहीं पैदा किया जा सकता है। और यह तापमान किसी और तरकीब से पैदा नहीं किया जा सकता सिवाय इसके कि सात लोग अपनी पूरी जीवन—ऊर्जा को अपनी पूरी मैग्नेटिक फोर्स को उसके सातों चक्रों से भीतर डालते रहें। और उसके शरीर को कभी पता न चल पाए कि वह आदमी जो मौजूद था अब नहीं है। क्योंकि उस आदमी से जो मिलता था वह ये सात आदमी उसको दे रहे हैं।

मेरा मतलब समझ रहे हैं न! जो उस आदमी की चेतना उसके सातों चक्रों को देती थी, इस शरीर को कभी भी पता नहीं चलता है। इसको पता चलने का एक ही उपाय है कि इसके सातों चक्र से सातों शरीरों की ऊर्जा इसको मिलती रहती है। वह ट्रांसमीशन सेंटर्स इसको देते रहते हैं। यह जिंदा रहता है। वहां से चूक जाती है, तो यह मरने की तैयारी कर लेता है। इसको कुछ और पता नहीं है। इसको अगर दूसरे भी व्यक्ति ऊर्जा दे सकें, तो भी यह जिंदा रखा जा सकता है।

तो शंकर को छह महीने बचाकर रखना एक बहुत अदभुत प्रयोग था। और छह महीने निरंतर किन्हीं व्यक्तियों का सतत—एक आदमी बदले, तो दूसरा तत्काल रिप्लेस हो—सात वहां मौजूद रहने ही चाहिए। शंकर की वापसी छह महीने के बाद हुई और शंकर उत्तर दे सके। वे जो नहीं जानते थे, वह जान सके।

इसे एक तरकीब से और जाना जा सकता था, लेकिन शंकर को उस तरकीब का पता नहीं था। अगर यह घटना महावीर की जिंदगी में घटती तो महावीर दूसरे के शरीर में प्रवेश नहीं करते, महावीर अपने पिछले जन्मों की स्मृति में प्रवेश कर जाते। एक दूसरा स्रोत था, लेकिन जाति—स्मरण का प्रयोग जैनों और बौद्धों में ही सीमित रहा, वह हिंदुओं तक कभी नहीं पहुंच सका। तो अगर महावीर से कोई ऐसा सवाल करता, तो महावीर किसी के शरीर में घुसने की कोशिश न करते। इससे कोई मतलब न था। वे अपने ही पिछले शरीरों की याद में चले जाते। और अपने ही पिछले स्त्रियों से संबंधों को स्मरण कर लेते और जान लेते। और तब छह महीने न लगते। लेकिन शंकर के पास इसकी कोई साइंस न थी। लेकिन शंकर के पास एक और साइंस थी, जो एक दूसरा वर्ग साधकों का विकसित करता रहा था। वह साइंस थी दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की।

अध्यात्म की भी बहुत—सी साइंसेज हैं। और अभी तक किसी धर्म के पास सारे साइंसेज के पूरे सूत्र नहीं हैं। किसी एक धर्म ने एक विशेष प्रक्रिया को विकसित कर लिया है, वह उससे तृप्त है। किसी दूसरे धर्म ने किसी दूसरी प्रक्रिया को विकसित कर लिया है और उससे वह तृप्त है। लेकिन अब तक दुनिया में कोई भी ऐसा धर्म नहीं निर्मित हो पाया है, जिसके पास सारे धर्मों की समस्त संपदा हो। और वह तब तक नहीं हो पाएगा, जब तक हम सारे धर्मों को दुश्मन की तरह देखते हैं। तब तक वह हो भी नहीं पाएगा। ये सारे धर्म मित्र की तरह एक—दूसरे के निकट आ जाएं और ये सारे धर्म अपनी संपदा को दूसरी संपदा के लिए खोल दें और अपनी संपदा और दूसरी संपदा की मालकियत को साझीदार बना लें, तो एक विज्ञान विकसित हो पाए जिसमें सारे अनंत— अनंत स्रोतों से।

अब किसी ने इजिप्त में कुछ विकसित किया था, जो हिंदुस्तान के पास नहीं है। जिन्होंने पिरामिड्स बनाए थे, उनके पास कुछ था, जो हिंदुस्तान में किसी के पास नहीं है। जिन्होंने तिब्बत की मोनास्ट्रीज में काम किया है, उनके पास कुछ था, वह हिंदुस्तान में नहीं है। जो हिंदुस्तान के पास है, वह तिब्बत के पास नहीं है। और जो इनके पास है वह उनके पास नहीं है। और सब को यह खयाल है कि अपने — अपने फ्रैगमेंट को, अपने — अपने टुकड़े को पूर्ण समझकर बैठ गए हैं। इससे बड़ी कठिनाई हो गई।

अब जाति—स्मरण बहुत आसान प्रयोग है, दूसरे के शरीर में प्रवेश बहुत कठिन प्रयोग है। खतरों से खाली नहीं है। जाति—स्मरण का प्रयोग बहुत सरल प्रयोग है बिना किसी खतरे के। लेकिन उसका शंकर को कोई स्मरण नहीं था। और चूंकि अपनी पूरी जिंदगी शंकर ने जैनों और बौद्धों से विवाद करने में बिताई, इसलिए उनका द्वार भी बद था कि वह जैनों और बौद्धों के पास जो था, उनको मिल जाए। वह उनको नहीं मिल सकता था, क्योंकि उनसे उनका कोई संबंध नहीं हो सकता था। वह दुश्मन की तरह सारी प्रक्रियाएं चलती रहीं, इसलिए दरवाजे कुछ बंद थे। उस तरफ से सूरज की किरणें आएं, तो शंकर राजी न होते। वे अपने दरवाजे से ही सूरज की किरण को लेने को राजी होते हैं।

हमें यह पता नहीं चलता, लेकिन किसी भी दरवाजे से जो किरण आती है, वह एक ही सूरज की है। लेकिन हम अपने — अपने दरवाजे के दावेदार हैं, अपने — अपने दरवाजे पर बैठे हैं। अब यह हमें दिखाई नहीं पड़ता कि अरब में जो आदमी ऊन का कंबल ओढ़कर जो काम कर रहा है, वही तिब्बत में नंगा होकर काम कर रहा है। उन दोनों के काम बिलकुल एक—से हैं, इनमें फर्क नहीं है जरा भी। इनमें कोई फर्क नहीं है, ये दोनों प्रयोग बिलकुल उलटे हैं, लेकिन बिलकुल एक —से हैं। काम वही हो रहा है, सूत्र वही हैं।

जो मीडियम होते हैं उनमें कैसे प्रवेश होता है?

आप पूछते हैं कि जो माध्यम होते हैं, जो मीडियम होते हैं, उनमें किस तरह प्रवेश होता है। असल में इस प्रवेश में और उस प्रवेश में विपरीतता है। इस प्रवेश में प्रवेश करनेवाला किसी के शरीर में प्रवेश कर रहा है। मीडियम के मामले में, मीडियम किसी को प्रवेश करवा रहा है।

इन दोनों में फर्क है। अगर मैं अपने शरीर को छोड्कर किसी के शरीर में प्रवेश करूं, इसकी प्रक्रिया अलग है। कहना चाहिए, यह पुरुष प्रक्रिया है। इसमें किसी शरीर में प्रवेश करना पड़ेगा। मीडियम की जो प्रक्रिया है, कहना चाहिए, वह स्त्रैण प्रक्रिया है। इसमें मीडियम सिर्फ रिसेप्टिव होगा और किसी को अपने भीतर बुला लेगा, आमंत्रित कर लेगा। मीडियम का मामला बहुत सरल है। मीडियम का मामला बहुत कठिन नहीं है। और मीडियम जिनको बुलायेगा, आमतौर से अशरीरी आत्माएं होंगी, सशरीरी आत्माएं मुश्किल से होंगी।

और आत्माएं बिना शरीर के हमारे चारों तरफ घूम रही हैं। अभी यहां हम इतने ही लोग नहीं बैठे हुए हैं, और लोग भी बैठे हुए हैं। मगर उनके पास शरीर नहीं है, इसलिए हम उनसे बिलकुल निश्चित हैं। हमें उनकी मौजूदगी से कोई मतलब नहीं होता। वह वैसे ही मौजूद हैं जैसे अभी यहां एक रेडियो रखा हुआ है, इसको हम आन कर दें और दिल्ली पकड़ जाए। जब हमने आन नहीं किया था, तो आप समझते हैं, दिल्ली नहीं बोल रहा था? जब आपने रेडियो नहीं चलाया था, तब दिल्ली से निकलने वाली धाराएं यहां से नहीं गुजर रही थीं? तब भी गुजर रही थीं, लेकिन हमें कोई पता नहीं था। क्योंकि हमारे और उनके बीच कोई माध्यम नहीं था जो जोड़ बना दे। रेडियो एक माध्यम का काम कर रहा है। जो गुजर रहा है यहां से, उसे वह हमसे संबंधित कर देगा।

जो मृत आत्माओं के लिए माध्यम का काम कर सकते हैं व्यक्ति, वे भी रेडियो का ही काम कर रहे हैं। एक तरह की टधूनिंग का काम कर रहे हैं। उनकी मौजूदगी के कारण जो आत्माएं हमारे चारों तरफ सदा मौजूद हैं, उनमें से कोई आत्मा प्रवेश कर सकती है।

लेकिन ये अशरीरी आत्माएं हैं। और अशरीरी आत्मा सदा ही शरीर में प्रवेश करने को आतुर होती है। उसके कारण होते हैं। बड़ा कारण तो यह होता है कि अशरीरी आत्मा—जिसको हम प्रेत कहें—अशरीरी आत्मा की इच्छाएं तो वही होती हैं जो शरीरधारी की होती हैं, लेकिन शरीर उसके पास नहीं होता। इच्छाएं वही होती हैं, वासनाएं वही होती हैं, जो शरीरधारी की हैं, लेकिन शरीर नहीं होता। और अशरीरधारी की कोई भी वासना बिना शरीर के पूरी नहीं होती।

अगर समझ लें कि एक प्रेतात्मा को किसी से प्रेम करना है, तो उसके लिए शरीर चाहिए। प्रेम की वासना तो भीतर रह जाती है, लेकिन शरीर उसके पास नहीं है। अगर वह किसी शरीर के पास आए, तो आर—पार निकल जाता है। वह कहीं रुकता नहीं। हमारा शरीर उसके शरीर को व्यवधान नहीं बनता, वह हमारे शरीर से निकल जाता है इस तरफ से उस तरफ। शरीर चाहिए उसको। तो वह तो आकांक्षा से भरा हुआ है शरीर मिलने की। कभी कोई भयभीत व्यक्ति अगर अपने भीतर सिकुड़ जाए, तो वह प्रवेश कर जाता है।

भय में आदमी सिकुड़ जाता है। आपका अपना शरीर जितना आपको घेरना चाहिए उतना आप भय में नहीं घेरते, सिकुड़ कर छोटे हो जाते हैं। शरीर में बहुत—सी जगह खाली रह जाती है। वैक्यूम बन जाता है। उस वैक्यूम में, भय ‘में वह घुस जाता है। लोग समझते हैं कि भय की वजह से भूत पैदा हो जाते हैं, वह पैदा नहीं हो जाते। लोग समझते हैं कि भय ही भूत है, वह भी ठीक बात नहीं है। भूत का अपना अस्तित्व है। भय में सिर्फ उसे प्रकट होने की सुविधा मिल जाती है। तो भय में तो कोई भी आदमी मीडियम बन सकता है, लेकिन उस मीडियम में प्रेतात्मा ही प्रवेश कर रही है, इसलिए परेशानी ही खड़ी होगी।

जिस मीडियम की आप बात कर रहे हैं, यह स्वेच्छा से निमंत्रण दी गई आत्मा है। स्वेच्छा से किसी ने अपने भीतर की जगह खाली की है और निमंत्रण दिया है। तो मीडियम की कला कुल इतनी ही है कि आप अपने भीतर की जगह खाली कर सकें और आसपास कोई आत्मा हो, तो उसको निमंत्रण दे सकें कि तुम आ जाओ। लेकिन चूंकि यह जान—बूझ कर किया जाता है, इसलिए कोई भय नहीं है। और चूंकि यह स्वेच्छा से किया जाता है, इसलिए इसमें उतना खतरा नहीं है। और चूंकि यह जान—बूझ कर किया जाता है, इसके आने का रास्ता पता है और इसके वापस भेजने के रास्ते का भी पता है। लेकिन यह रिसेप्टीविटी से होगा। और सिर्फ साधारण अशरीरी आत्माओं पर ही हो पाएगा।

अगर शरीरधारी आत्मा को बुलाना हो, तो खतरे बढ़ जाते हैं। क्योंकि अगर मैं किसी शरीरधारी आत्मा को किसी माध्यम पर बुलाऊं, तो उस आदमी का शरीर वहां मूर्च्छित होकर गिर जाएगा। बहुत बार जब लोग मूर्च्छित होकर गिरते हैं, तो हम समझते हैं वह साधारण मूर्च्छा है। कई बार वह साधारण मूर्च्छा नहीं होती और उस व्यक्ति की आत्मा कहीं बुला ली गई होती है। और इसलिए उस वक्त उसका इलाज करना खतरे से खाली नहीं है। उस वक्त उसके साथ कुछ न किया जाये, यही हितकर है। मगर उसका हमें कोई पता नहीं होता। अभी तक साइंस उसके लिए साफ पता नहीं कर पाई कि कब मूर्च्छा साधारण मूर्च्छा है और कब उसकी मूर्च्छा आत्मा का बाहर चला जाना है। घटना वही है, लेकिन बहुत दूसरे प्रकार की है। यहां हम बुलाते हैं, वहां हम जाते हैं।

अब कल! अच्छा, एक और पूछ लें।

भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस को अपने शरीर को जिलाए रखने के लिए अन— रस की तृष्णा का आधार लेना पड़ा था। क्या ऐसे किसी रस के आधार के बिना भी उच्च शरीर का टिकना संभव नहीं है? किस शरीर में ऐसे आधार की आवश्यकता पड़ती है? क्या पांचवें या छठवें या सातवें शरीर की उच्च भूमिकाओं में भी शरीर को टिकाए रखने के लिए किसी रस के आधार की आवश्यकता पड़ती है?

रामकृष्ण को भोजन का बहुत शौक था। जरूरत से ज्यादा, कहना चाहिए, दीवाने थे। ब्रह्म —चर्चा भी चलती रहती और बीच —बीच में उठकर वे चौके में जाकर शारदा को पूछ भी आते कि क्या बना है? फिर लौटकर ब्रह्म —चर्चा शुरू कर देते। इससे शारदा तो परेशान थी ही, जो भक्त उनके निकट थे, वे भी परेशान थे कि किसी को पता चले तो बड़ी बदनामी हो। असल में गुरुओं की चिंता शिष्यों को बहुत ज्यादा होती है। भारी चिंता उनको होती है कि गुरु की कहीं बदनामी न हो जाए, कि कहीं गुरु को कोई ऐसा न कह दे, कि कहीं वैसा न कह दे। आखिर रामकृष्ण से पूछा ही गया कि यह जरा शोभादायक नहीं है कि आप बीच में ब्रह्म—चर्चा छोड्कर और भोजन—चर्चा में पड़े। यह उचित नहीं मालूम होता और आप जैसी भूमिका के आदमी को क्या भोजन? तो रामकृष्ण ने जो कहा, वह बहुत हैरानी का था।

रामकृष्ण ने कहा कि शायद तुम्हें पता नहीं और तुम्हें पता भी कैसे होगा! मेरी नाव के सभी लंगर खुल चुके हैं। और मेरी नाव ने सारी खूंटियां उखाड़ ली हैं। और मेरी नाव के पाल हवाओं से भर गए हैं। और मैं जाने को खडा हूं। एक खूंटी मैंने संभाल कर गाड़ रखी है ताकि नाव अभी छूट न जाए। और जिस दिन मैं भोजन में रस न लूं? तुम समझ लेना कि मेरी मौत को अब तीन दिन बाकी रह गए। उस दिन मैं मर जाऊंगा, क्योंकि मेरा और कोई कारण नहीं रह गया है। लेकिन तुमसे मुझे कुछ कहना है और तुम तक मुझे कुछ पहुंचाना है और कुछ है मेरे पास जो तुम्हें मैं देने के लिए आतुर हूं? इसलिए मेरा रुकना जरूरी है। नाव तो मेरी जाने के लिए तैयार है लेकिन मेरी नाव में कुछ संपदा है, जो मैं किनारे के लोगों को दे जाना चाहता हूं। लेकिन किनारे के लोग सोए हुए हैं। उनको जगाऊं और उनको संपदा लेने को राजी करूं। और उनको यह भी समझाने के लिए राजी करूं कि यह संपदा है। क्योंकि वे किनारे के लोग नहीं जानते हैं कि संपदा है, वे समझते हैं कि यह कचरा है। वे कहते हैं कि कहां की बातों में हमें उलझा रहे हैं, हमें सोने दें, हमें अपने बिस्तर पर बहुत आनंद आ रहा है। तो मैं किनारे के लोगों को राजी कर लूं और यह संपदा जो मेरी नाव में भरी है उनको बांट दूं, क्योंकि मेरा तो जाने का वक्त आ गया है। इसलिए एक खूंटी ठोंक कर रखी है। इसलिए मैं भोजन में रस लिये ही चला जा रहा हूं। यह भोजन मेरी खूंटी है। और जिस दिन मैं भोजन में रस न लूं, तुम समझ लेना कि तीन दिन बाद मैं मर जाऊंगा।

उस दिन किसी ने बहुत गंभीरता से यह बात नहीं ली। अक्सर ऐसा होता है। अक्सर ऐसा होता है कि बहुत —सी बातें गंभीरता से नहीं ली जातीं। रामकृष्ण, बुद्ध या महावीर, इनकी जिंदगी में, सभी की जिंदगी में ऐसे मामले हैं जो कि गंभीरता से लिये गए होते, तो दुनिया का बहुत लाभ हो सकता था। लेकिन वे कभी गंभीरता से नहीं लिये गए। शायद समझा गया कि रामकृष्ण एक एक्सप्लेनेशन दे रहे हैं, एक व्याख्या दे रहे हैं, कोई बात समझाने के लिए कर दी। भक्तों के मन में शक तो रहा ही होगा कि ये सिर्फ भोजन करना चाहते हैं और एक तरकीब निकाल ली है कि हमको समझा भी दें और कोई दिक्कत भी नहीं रही और कठिनाई भी नहीं रही। लेकिन यही हुआ।

एक दिन शारदा भोजन की थाली लेकर गई, रामकृष्ण लेटे थे कमरे में, उन्होंने करवट ले ली। रोज थाली आती थी, तो वे उठकर खड़े हो जाते थे। थाली देखने लगते थे कि क्या—क्या है। उनका करवट लेना और शारदा को खयाल आई वह बात कि उन्होंने कभी कहा था कि तीन दिन बाद फिर मैं नहीं बचूंगा। उसके हाथ से थाली छूटकर गिर पड़ी। वह चिल्लाने, रोने लगी। लेकिन रामकृष्ण ने कहा, अब क्या होगा? अब खूंटी उखाड़ ली। आखिर कब तक मैं खूंटी को गड़ाये पड़ा रहूंगा। ठीक तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई।

तुम पूछ रहे हो कि क्या बिना रस के ऐसी कोई आत्मा इस पृथ्वी पर रुक सकती है?

पांचवें शरीर तक इस पृथ्वी का ही कोई रस चाहिए, नहीं तो नहीं रुक सकती। पांचवें शरीर तक इस पृथ्वी पर कोई खूंटी चाहिए, नहीं तो नहीं रुक सकती। पांचवें शरीर तक पांच इंद्रियों में से किसी एक रस को पकड़ कर, उसे ठोंक कर रखना पड़ेगा। लेकिन पांचवें शरीर के बाद रुक सकती है। उस रुकने की हालत में कुछ दूसरी बातें काम करेंगी। तब शरीर के किसी रस को बचाए रखने की कोई जरूरत नहीं है। उस हालत में अब यह जरा दूसरी बात है, जो थोड़ी लंबी करनी पड़ेगी। लेकिन थोड़े में इसे समझ लें।

पांचवें शरीर के बाद अगर किसी आदमी को रुकना हो। जैसे महावीर रुकते हैं या बुद्ध रुकते हैं या कृष्ण रुकते हैं, तो उनके लिए इस जगत से मुक्त हुई आत्माओं का दबाव काम करता है, इस जगत से मुक्त हुई चेतनाओं का दवाब काम करता है। इन पर ऊपर से आग्रह और दबाव है। थियॉसोफी ने इस संबंध में बड़ी खोज की थी और बड़ी महत्वपूर्ण खोज की थी। वह खोज यह है कि बहुत आत्माएं जो मुक्त हो गई हैं, जो लीन हो गई हैं, जो पहुंच गई हैं जहां पहुंचना होता है, उनका दबाव किसी ऐसे आदमी को थोड़ी देर रोकने के लिए काम करता है।

उदाहरण के लिए ऐसा समझें—एक नाव छूटने के करीब है। अब इसमें कोई खूंटी नहीं रह गई है, लेकिन उस किनारे के लोग चिल्ला रहे हैं कि थोड़ी देर और रुक जाओ। उस किनारे के लोग कह रहे हैं कि थोड़ी देर और रुक जाओ, इतनी जल्दी मत करो। उस किनारे की आवाजें रोकने का कारण बन सकती हैं। लेकिन महावीर और बुद्ध और कृष्ण को इस तरह की आवाजें काम कर सकीं। रामकृष्ण के समय तक आते— आते हालतें बहुत बदल गईं और बहुत मुश्किल भी हो गई। असल में उस किनारे के लोग इतने दूर पड़ गए हैं हमारी सदी से, जिसका कोई हिसाब नहीं। उनकी आवाजें पहुंचना मुश्किल हो गया है। किनारे फैलते चले गए हैं, और फासला बड़ा होता चला गया है, एक सातत्य नहीं रहा।

जैसे समझें कि महावीर की जिंदगी में एक सातत्य है। उनके पहले तेईस तीर्थंकर हो गए उस परंपरा के, उस व्यवस्था के, जिसके महावीर चौबीसवें हैं। उनके पास तेईस कड़ियां हैं आगे। और जो तेईसवा आदमी है, वह बहुत करीब है। महावीर से ढाई सौ वर्ष पहले गुजरा है। जो पहला आदमी है वह तो बहुत दूर है, लेकिन तेईस आदमी हैं बीच में, और वे सब एक—दूसरे के पास हैं। और महावीर के पहले जो आदमी गया है उस किनारे..।

अब तुम्हें यह जानकर हैरानी होगी कि तीर्थंकर का क्या मतलब होता है। तीर्थ का मतलब होता है घाट। और तीर्थंकर का मतलब होता है जो इसी घाट से पहले उतरा, और कोई मतलब नहीं होता। तीर्थ का मतलब होता है घाट। इसी घाट से जो इसके पहले उतरा है.. इस घाट से तेईस तीर्थंकर पहले उतर चुके। उनकी एक सुसंबद्ध व्यवस्था है। उस लोक में बोली जाने वाली भाषा और प्रतीक और सूचनाएं और संकेत सब सुरक्षित हैं। यह चौबीसवा आदमी किनारे पर खडे होकर उन तेईस के द्वारा आए हुए संदेश को सुन पाता है, समझ पाता है, पकड़ पाता है।

आज जैनों में एक आदमी भी नहीं है जो उस परंपरा के एक शब्द को भी पकड़ ले। आज महावीर को मरे हुए पच्चीस सौ साल हो गए। इन पच्चीस सौ साल में एक गैप है भारी कि अगर महावीर चिल्लाएं वहां से, तो भी इस किनारे पर कोई आदमी उस भाषा को समझने को नहीं है। पच्चीस सौ साल में सारी भाषा बदल गई, संकेत बदल गए। और उस जगत के संकेतों का कोई सिलसिला नहीं रहा। किताबें हैं, जिनको जैन साधु बैठकर पढ़ते रहते हैं और उन्हें कुछ पता नहीं कि और क्या हो सकता है। और उनकी पच्चीस सौवीं जन्म—तिथि मनाने की तैयारी करेंगे, शोरगुल मचाएंगे, झंडे निकालेंगे, जय महावीर करेंगे। तो महावीर की आवाज को पकडने की उनके पास अब कोई व्यवस्था नहीं रह गई है। और एक भी आदमी तैयार नहीं है जो पकड़ ले। जैनों के पास नहीं है, इतर जैनियों के पास हो भी सकता है।

ठीक ऐसे ही हिंदुओं के पास एक व्यवस्था थी, ठीक ऐसे ही बौद्धों के पास भी एक व्यवस्था थी। लेकिन रामकृष्ण के वक्त तक कोई व्यवस्था नहीं रही। और रामकृष्ण के पास कोई सूत्र नहीं था कि उस पार की आवाज के कारण किनारे पर वे रुके। इसलिए एक ही उपाय था कि इसी किनारे पर खीली ठोंककर रुक जाएं, और तो कोई उपाय नहीं था। उस तरफ से किसी दबाव का पता नहीं चलता था।

इस दुनिया में दो तरह के लोगों ने काम किया है अध्यात्म का। एक तो वे लोग हैं जिन्होंने श्रृंखलाबद्ध काम किया। वह हजारों साल तक उनकी श्रृंखला काम करती रही। जैसे बुद्ध का चौबीसवा व्यक्ति अभी भी पैदा होने को है। अभी बुद्ध का एक व्यक्तित्व और पैदा होने को है। अभी भी बौद्ध भिक्षु सारी दुनिया में उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, अनंत— अनंत रूपों में उसकी आकांक्षा और प्रतीक्षा की जा रही है कि एक बार और पकड़ा जा सके। लेकिन जैनों के पास नहीं है।

हिंदुओं के पास भी एक खयाल है कल्कि का। वह अभी उतरने को है एक व्यक्ति। मगर फिर भी साफ—सूत्र नहीं हैं कि उसे कैसे बुलाया जाए, कैसे पकड़ा जाए, कैसे पहचाना जाए। उसके पहचानने का भी उपाय नहीं है।

अब यह जानकर तुम हैरान होगे कि जैनों के तेईस तीर्थंकर सारे सूत्र छोड़ गए थे कि जब चौबीसवा आए, तो तुम कैसे पहचानोगे। सब सूत्र थे उपलब्ध। उस चौबीसवें में क्या—क्या लक्षण होंगे, उसके हाथ की रेखाएं कैसी होंगी, उसके पैर का चक्र क्या होगा, उसकी आंखें कैसी होंगी, उसके हृदय पर क्या चिह्न होगा, उसकी ऊंचाई कितनी होगी, उसकी उम्र कितनी होगी। चुकता बातें तय थीं। उस आदमी को पहचानने में दिक्कत नहीं लगी।

महावीर के वक्त में आठ आदमियों ने दावा किया था कि हम तीर्थंकर हैं, क्योंकि वक्त आ गया था, घड़ी आ गई थी और दावेदार आठ हैं। अंततः महावीर स्वीकृत हो गए, वे सात लोग छोड़ दिए गए। क्योंकि प्रतीक सिर्फ इस आदमी पर पूरे हुए। लेकिन रामकृष्ण तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी, न कोई पहचानने का उपाय था।

अब बडी कनफ्यूज्‍ड हालत है। आध्यात्मिक अर्थों में आज दुनिया की हालत बहुत अजीब है। और इस अजीब हालत में अब इसके सिवा कोई उपाय नहीं है आज कि इसी किनारे पर कोई खूंटी ठोंक कर रुका रहे। उस तरफ से कोई आवाज नहीं आती, आती भी है तो समझ में नहीं पड़ती, समझ में भी पड़ जाती है तो भी उसका राज खोजना मुश्किल हो जाता है कि उसका राज क्या है। अब सारी कठिनाई क्या है कि उस लोक से इस लोक तक खबर पहुंचाना सिबालिक ही हो सकता है, सांकेतिक ही हो सकता है।

अब शायद तुम्हें पता न हो कि पिछले सौ वर्षों से इस बात का वैज्ञानिकों को पता है कि कम से कम पचास हजार पृथ्वियां होनी चाहिए सारे विश्व में जहां जीवन होगा, और जहां मनुष्य या मनुष्य से भी ज्यादा विकसित चेतना के प्राणी होंगे। लेकिन उनसे चर्चा कैसे की जाए? उनको संकेत कैसे भेजे जाएं? और कौन—सा संकेत वे समझ सकेंगे। बड़ी कठिन बात है न! कैसे समझेंगे। तिरंगा झंडा देखकर हिंदुस्तानी समझ लेता है कि अपना झंडा फहराया जा रहा है। लेकिन तिरंगा झंडा देखकर वे तो कुछ न समझेंगे। और तिरंगा झंडा भी उन तक कैसे फहराया जाए कि उन्हें दिखाई पड़ जाए। तो इस संबंध में इतने अजीब— अजीब प्रयोग किए गए, जो कि कल्पना के भी बाहर हैं।

एक आदमी ने कई मील लंबा त्रिकोण बनाया साइबेरिया में, ट्रायंगल बनाया। और उसमें पीले फूल बोए मीलों लंबे। और उसको विशेष प्रकाशों से प्रकाशित किया। क्योंकि ट्रायंगल किसी भी पृथ्वी पर होगा, तो ट्रायंगल ही होगा। ट्रायंगल के तीन ही कोण होंगे। कहीं भी आदमी हो या आदमी से ऊंचा प्राणी हो, कुछ भी हो, ज्यामेट्री के जो फिगर हैं, उनमें भेद नहीं पड़ेगा। इसलिए ज्यामेट्री के द्वारा शायद हमारा कोई संबंध बन जाए। शायद इतने बड़े ट्रायंगल को देख सके किसी ग्रह से कोई और सोच सके कि जरूर इतना बड़ा ट्रायंगल अपने आप नहीं बन सकता—स्व। और ट्रायंगल है, तो ज्यामेट्री का पता करने वाले लोग होंगे—दो। ऐसा अंदाज करके बड़ी मेहनत की गई बहुत दिनों तक। पर कोई सूचना न मिल सकी, कोई खबर न आई कि कोई समझा कि नहीं समझा। फिर अब बहुत—से राडार लगाकर रखे गए हैं कि शायद वे कोई संकेत भेजते हों, तो हम संकेत पकड़ लें। कुछ संकेत कभी—कभी पकड़ में भी आते हैं, लेकिन उनका राज नहीं खुलता।

जैसे, फ्लाइंग साँसर की बात सुनी होगी। पृथ्वी पर बहुत जगह, बहुत लोगों ने उसे देखा है कि कोई चीज विद्युत की चमक की तरह घूमती हुई, छोटी तश्तरी की भांति चक्कर लेती हुई दिखाई पड़ती है और विदा हो जाती है। वह बहुत जगह, बहुत क्षणों में देखी गई है। और कभी—कभी तो एक ही रात में पृथ्वी पर बहुत जगह देखी गई है। लेकिन अभी तक उसका राज नहीं खुल पाया कि वह क्या है? कौन उसे भेजता है? क्यों वह आती है? क्यों विदा हो जाती है?

इस बात की बहुत संभावना है कि किसी दूसरे ग्रह के लोग भी पृथ्वी तक संकेत भेजने की कोशिश कर रहे हैं जिनको हम नहीं समझ पा रहे हैं। जब नहीं समझ पाते, तो हममें से कुछ हैं जो कहते हैं कि झूठी है यह बात। यह फ्लाइंग सॉसर वगैरह सब गप—शप है। कुछ हैं, जो कहते हैं कि आंखों का भ्रम हो गया होगा। कुछ हैं, जो कहते हैं कि कुछ और नहीं हुआ होगा, कुछ प्राकृतिक घटना होगी। लेकिन अभी क्या होगा, यह कुछ साफ नहीं हो पाता। बहुत थोड़े लोग हैं, जिनको इतना भी खयाल है, जो कहते हैं कि किसी दूसरे ग्रह के वासियों का निमंत्रण है, कोई सूचना, कोई खबर होगी।

मगर यह तो फिर भी आसान है। क्योंकि दूसरे ग्रह पर जो जीवन है और इस ग्रह का जो जीवन है, इन जीवन के बीच उतना फासला नहीं है, जितना फासला उस लोक में गई आत्मा और इस लोक की आत्माओं के बीच हो जाता है। वह फासला और भी बड़ा है। वहां से भेजे गए संकेत पकड़ में नहीं आते। आ जाएं तो समझ में नहीं आते, राज नहीं खुलता।

तो रामकृष्ण जैसे व्यक्तियों को इस सदी में.. इस सदी में पूरी पृथ्वी पर इन पिछले दो सौ वर्षों में, दो सौ वर्ष भी कहना ठीक नहीं, असल में मुहम्मद के बाद बड़ी कठिनाई हो गई है। बड़ी कठिनाई हो गई है चौदह सौ वर्षों से। नानक ने इस कठिनाई को देखकर एक नया ही इंतजाम किया फिर से। बात ही छोड़ दी पिछली परंपराओं की और एक नई दस आदमियों की परंपरा खडी की। लेकिन वह भी खो गई। और बहुत जल्दी खो गई, वह ज्यादा देर चल नहीं पाई।

अब तो व्यक्तिगत साधक रह गए हैं जगत में, जिनके पास श्रृंखलाबद्ध व्यवस्था नहीं है। तो व्यक्तिगत साधक को तो शरीर की ही खूंटी से उपाय करना पडे। और पांचवें शरीर के पहले तो शरीर की खूंटी के सिवाय कोई उपाय नहीं होता। पांचवें शरीर के बाद बाहर के संकेत काम कर सकते हैं, बाहर का दबाव काम कर सकता है। लेकिन अगर बाहर से संकेत न मिलता हो, तो सातवें शरीर के व्यक्ति को भी पांच शरीर के नीचे की खूंटी का ही काम करना पड़ेगा, उसका ही उपयोग करना पड़ेगा, उसके सिवाय कोई उपाय नहीं रह जाता।

शेष फिर कल।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–194

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शरीर, वाणी और मन के तप—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—7

सूत्र:–

देवद्धिजगुरूप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्‍यते।। 14।।

अनुद्वेगकरं वाक्‍यं सत्यं प्रियहितं च यत्।

स्वाध्यायाभ्‍यमनं चैव वाङ्मय तय उच्यते।। 15।।

मन:प्रमाद सौम्यत्‍वं मौनमात्मीवनिग्रह:।

भावसंशुद्धिरित्‍येतत्तपो मानसमुच्‍यते।। 16।।

तथा हे अर्जुन, देवता, द्विज अर्थात ब्रह्मण, गुरू और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्राह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तय कहा जाता है।

तथा जो उद्वेग को न करने वाला प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो स्वाध्याय का अभ्यास है, वह नि:संदेह वाणी संबंधी तय कहा जाता है।

तथा मन की प्रसन्नता, शांत भाव, मौन, मन का निष्ठ और भाव की पवित्रता, ऐसे यह मन संबंधीं तय कहा जाता है।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : अर्जुन सामने था, कृष्ण की गीता ने जन्म लिया; जनक के कारण अष्टावक्र की महागीता साकार हुई। और आप हैं कि किसी अर्जुन या जनक के बिना ही परम गीता कहे जा रहे हैं। कैसे?

र्जुन को तुम पहचान न पाते कृष्ण की गीता के पूर्व; और न ही तुम जनक को पहचान पाते। अर्जुन अर्जुन हुआ कृष्ण से गुजरकर; वह था नहीं। था तो वह तुम्हारे जैसा ही। जनक जनक हुए अष्टावक्र की महागीता से गुजरकर; अन्यथा वे तुम जैसे ही थे।

आज तुम्हें अर्जुन की जो महिमा दिखाई पड़ती है, वह महिमा कृष्ण की अग्नि से गुजरने के कारण है। जब कृष्ण ने गीता कही थी, तो वह महिमा कहीं भी न थी। तब अर्जुन एक बीज था। कृष्ण ने उस बीज को सम्हाला, उस बीज में छिपी हुई संभावना को पुकारा। उस बीज में छिपी संभावनाओं को समझाया, फुसलाया, राजी किया—कि तू डर मत, अंकुर को तोड़; फूट; घबड़ा मत, युद्ध में उतर, ‘भाग मत, पलायन मत कर—भूमि संवारी, बीज को बोया। आज तुम जो फूल लगे देखते हो अर्जुन में, वे सदा नहीं थे।

कृष्ण की गीता के पहले तो बिलकुल नहीं थे। मात्र एक संभावना थी, जो पूरी हो भी सकती थी, खो भी जा सकती थी। आज तुम्हें जो दिखाई पड़ता है विराट रूप अर्जुन की भव्यता का, वह कृष्ण के सान्निध्य का परिणाम है। कृष्ण तो बीज से ही बोले थे, लेकिन बोलने से बीज वृक्ष हुआ।

इसलिए तुम्हें यह खयाल उठ सकता है कि मैं किस अर्जुन से बोल रहा हूं? आज तुम्हें अर्जुन दिखाई न पड़ेंगे। अर्जुनों से ही बोल रहा हूं, क्योंकि किसी और से बोलने का उपाय ही नहीं है। लेकिन अभी बीज हैं, बीज में तुम वृक्ष को न पहचान सकोगे।

अभी यह बगिया बोने की बिलकुल शुरुआत है। इसमें तुम्हारे भीतर जो छिपा है, उसे पुकार रहा हूं। तुम्हें राजी कर रहा हूं कि डरो मत, छोड़ दो खोल, छोड़ दो सुरक्षा, ले लो छलांग।

तुम हिचकते हो, डरते हो; स्वाभाविक है। अर्जुन भी डरा था, तभी तो इतनी बड़ी गीता चली। वह डरता रहा और मानने को राजी न हुआ और कृष्ण अनेक—अनेक मार्गों से उसे समझाने लगे। वह सब तरफ से बचने का उपाय करने लगा, लेकिन बच न सका। तुम भी बच न सकोगे। उपाय तुम भी कर रहे हो।

और कृष्ण ने तो एक अर्जुन से कही थी, मैं बहुत अर्जुनों के साथ एक साथ मेहनत कर रहा हूं। उसके पीछे कारण हैं।

मनुष्य का इतिहास प्रतिपल सघन होता जाता है, वह किसी महाघटना की ओर गतिमान है। इसलिए जैसे—जैसे वह महाघटना करीब आती है, वैसे—वैसे और भी अधिक अर्जुनों के जागने की संभावना प्रगाढ़ होती जाती है।

एक बहुत बड़ा रूपांतरण करीब है, जब बहुत—से बीज एक साथ टूटेंगे। और जब बहुत—से वृक्ष एक साथ फूलों से लद जाएंगे। वसंत आने को है। और जैसे सुबह आने के पहले अंधकार बहुत गहन हो जाता है, ऐसे ही वसंत आने के पहले भी ऐसा लगता है कि सब खो गया। बड़ी अराजकता हो जाती है।

मनुष्यता एक खास घड़ी के करीब पहुंच गई है। जैसा मैंने पहले तुम्हें कहा कि हर पच्चीस सौ वर्ष में मनुष्यता एक बड़ी घड़ी के करीब आती है। कृष्ण के समय में आई। फिर पच्चीस सौ साल बाद बुद्ध और महावीर के समय में आई। अब फिर पच्चीस सौ साल पूरे हो रहे हैं, अब फिर वह घड़ी करीब आ रही है।

ये आने वाले पच्चीस वर्ष मनुष्यता के जीवन में बड़े चिरस्मरणीय रहेंगे। इन पच्चीस वर्षों में हजारों बीज फूटेंगे और हजारों व्यक्ति जो साधारण थे, अचानक अर्जुन और जनक हो जाएंगे। तुम अगर चूके, तो अपने ही कारण चूकोगे। फिर तुम पच्चीस सौ वर्ष तक पछताओगे। क्योंकि वैसी घड़ी, पच्चीस सौ वर्ष में एक वर्तुल पूरा होता है।

जैसे पृथ्वी एक वर्ष में चक्कर लगाती है सूर्य का, ऐसे सूर्य पच्चीस सौ वर्षों में किसी महासूर्य का एक चक्कर पूरा करता है, उसका एक वर्ष पूरा होता है। वह एक वर्ष जब पूरा होता है, तो सारे जीवन में बड़ी उथल—पुथल होती है, सब अतीत व्यर्थ हो जाता है। सब मूल्य टूट जाते हैं।

वैसी ही घड़ी कृष्ण के समय में थी।

सब मूल्य टूट गए थे। अधर्मी जीतता मालूम पड़ रहा था। अर्जुन के पास था क्या? फकीर ही था, सब खो चुका था। युधिष्ठिर भीख मांगते फिर रहे थे। धर्म भीख मांग रहा था, अधर्म सिंहासन पर था। और कृष्ण के वचन बड़े महत्वपूर्ण हैं कि जब—जब अधर्म बढ़ जाता है और धर्म की हानि होती है, मैं लौट आता हूं—असाधु को विनष्ट करने, साधु को बचाने।

कोई कृष्ण लौट आते हैं, ऐसा नहीं है। तब तुम भूल गए, तुम समझे न बात। हर पच्चीस सौ वर्ष में वैसी अराजक घड़ी आती है और क्या—चेतना का जन्म होता है। कृष्ण नहीं लौटते, कृष्ण—चेतना! कभी क्राइस्ट के रूप में, कभी बुद्ध के रूप में—वही चेतना। क्योंकि चेतना में तो कोई गुण— भेद नहीं है। वही सागर फिर से बूँदों को पुकारता है, नदियों, तालाबों को पुकारता है कि आ जाओ।

तो आज तो तुम्हें आसान दिखाई पड़ता है कि महाखोजी था अर्जुन, जिज्ञासु था, तो कृष्ण बोले। ठीक हजार साल बाद जब मेरे अर्जुन पक जाएंगे, तब लोग यही फिर भी कहेंगे कि मैं जिनसे बोला, कैसे महापुरुष थे! अभी तुम्हें वे महापुरुष दिखाई नहीं पड़ सकते। जब कृष्ण अर्जुन से बोल रहे थे, तब भी किसी को नहीं दिखाई पड़ रहा था कि अर्जुन कुछ खास है। ऐसे कई योद्धा थे वहा। अर्जुन जैसी सामर्थ्य के बहुत लोग थे।

अर्जुन की खूबी यह है कि वह कृष्ण से राजी हो गया। उस राजी होने में क्रांति घटी, रूपांतरण हुआ। पुराना गया, नए का जन्म हुआ। मृत्यु घटी अर्जुन की। अर्जुन कृष्ण में मरा और कृष्ण से पुनरुज्जीवित हुआ। कृष्ण गर्भ बन गए अर्जुन के लिए। पुराना तो खो गया, एक नए व्यक्तित्व का जन्म हुआ।

पुराना तो डरा हुआ व्यक्ति था; कितना ही बहादुर हो, लेकिन भय था भीतर। पुराना तो मोहग्रस्त था, अपने—पराए का भेद करता था। यह जो नया अर्जुन जन्मा, इसके लिए अपना—पराया कोई न रहा। या सभी अपने हो गए या सभी पराए हो गए। एक वीतराग दशा का जन्म हुआ।

कृष्ण में मरा अर्जुन और कृष्ण से पुनरुज्जीवन पाया। कृष्ण गर्भ बने। कृष्ण अर्जुन के इस नए जन्म की माता हैं। ऐसे ही अष्टावक्र से जनक गुजरा; शरीर से ऊपर उठ गया उसी गुजरने में।

मैं भी अर्जुनों से, जनकों से ही बोल रहा हूं। आज तुम्हें वे दिखाई नहीं पड़ते। आज वे दिखाई नहीं पड़ सकते। वे कल दिखाई पड़ेंगे। लेकिन तब तुम देखने वाले न रहोगे, दूसरे देखने वाले रहेंगे।

अभी तुम इस ऊहापोह में समय व्यर्थ मत करो कि मैं किससे बोल रहा हूं। मैं तुमसे बोल रहा हूं तुम्हारी संभावना से बोल रहा हूं; तुम्हारे भविष्य से बोल रहा हूं; तुम्हारी नियति से बोल रहा हूं। तुम जो हो सकते हो, उससे बोल रहा हूं।

तुम जो हो, वह कुछ खास नहीं है। उस पर ध्यान ही मत दो। तुम जो हो सकते हो, वह महिमापूर्ण है। उस पर ध्यान दो। तुम जो हो, अभी तो बीज हो, खोल में बंद। मैं तुम्हारे कल से बोल रहा हूं; जब ऋतुराज आ जाएगा, और तुम्हारे फूल लग जाएंगे, और पक्षी तुम पर गीत गाएंगे, और राहगीर तुम्हारे नीचे छाया को उपलब्ध होंगे, और तुम अपनी महिमा में नाचोगे।

वह सबकी संभावना है। यहां हर व्यक्ति अर्जुन होने को पैदा हुआ है। उससे कम परमात्मा पैदा ही नहीं करता। जानो, न जानो, पहचानो, न पहचानो, देर— अबेर कितनी ही करो, मगर परमात्मा अर्जुन से कम आदमी पैदा करता ही नहीं।

इसका मतलब केवल इतना है कि परमात्मा परमात्मा को ही पैदा करता है। कितना ही छिपाकर रहो तुम अपने हीरे को मिट्टी में, लेकिन हीरा मिट्टी नहीं हो जाता। अभी ऊपर से तुम बिलकुल मिट्टी मालूम पड़ते हो। मैं तुम्हारे हीरे से बोल रहा हूं।

कबीर ने कहा है. हीरा हेरायल कीचड़ में।

जो हीरा है, कीचड़ में खो गया है। सदगुरु उसे पुकारता है, कि तू कितना ही कीचड़ में खो गया हो, तू कीचड़ नहीं हो सकता। हीरा हीरा ही रहेगा। कीचड़ की पर्त—पर्त जम जाए, सारी पृथ्वी हीरे को दबा ले, तो भी हीरा हीरा रहेगा।

मैं तुम्हारे हीरे से बोल रहा हूं। अभी तुम्हें भी अपने हीरे का पता नहीं है, इसलिए तुम मुझसे पूछते हो कि मैं किससे बोल रहा हूं! जिससे मैं बोल रहा हूं वही मुझसे पूछता है, मैं किससे बोल रहा हूं! अर्जुन को भी लगा होगा कि ये कृष्ण किससे बोल रहे हैं?

अर्जुन की तो कुछ समझ में आता नहीं, जो ये बोल रहे हैं। यह तो उसके सिर पर से निकल जाता है। इसलिए तो बार—बार फिर वह संदेह करता है, बार—बार प्रश्न उठाता है। पकड़ बैठती नहीं, हाथ कुछ आता नहीं, छूट—छूट जाता है। इसलिए तो बार—बार पूछता है। फिर जिज्ञासा खड़ी करता है। क्योंकि कृष्ण ने जो उत्तर दिया, उसने चोट नहीं की, वह खाली निकल गया।

अर्जुन का बार—बार पूछना यही तो कह रहा है कि तुम किससे बोल रहे हो? मुझसे बोलो। लेकिन कृष्ण उस अर्जुन से नहीं बोल सकते, जो है। कृष्ण तो उसी अर्जुन से बोल सकते हैं, जो हो सकता है। कृष्ण तो भविष्य से ही बोल सकते हैं। क्योंकि कृष्ण का वह भविष्य अब वर्तमान हो गया है। इसे तुम ठीक से समझ लो।

जो अर्जुन के लिए भविष्य है, वह कृष्ण का वर्तमान है। इतना ही तो फर्क है। जो अर्जुन का भविष्य है, वह कृष्ण का वर्तमान है। और जो कृष्ण का अतीत है, वह अर्जुन का वर्तमान है।

कभी कृष्ण भी अर्जुन थे, वे भी बीज थे। हर एक को बीज से गुजरना पड़ेगा; हर वृक्ष को बीज से गुजरना पड़ेगा। तो हर वृक्ष बीज रहा है, यह तो पक्का है। और हर बीज से वृक्ष हो सकता है, यह भी पक्का है। लेकिन बीज बहुत दिन तक प्रतीक्षा भी कर सकता है, हजारों—लाखों साल तक। किसी पत्थर की आडू में दबा पड़ा रहे, भूमि न मिले, तो लाखों वर्ष पड़ा रह सकता है।

मगर फिर भी जैसे हर वृक्ष बीज से हुआ है, यह पूर्णरूपेण सत्य है; वैसे ही हर बीज से वृक्ष हो सकता है, यह भी पूर्णरूपेण सत्य है। देर हो सकती है, समय व्यतीत हो सकता है, अनेक अवसर चूक सकते हैं; लेकिन नियति पूरी होकर रहती है।

कृष्ण तो निमित्त मात्र हैं। गुरु तो निमित्त मात्र है। वह तुम्हें बनाता थोड़े ही है। तुम जो बनने को थे, वही तुम्हें बता देता है। तुम जो बन ही रहे थे, उसके प्रति तुम्हें जगा देता है। तुम जहां जा ही रहे थे अंधे की तरह, वहीं तुम्हें वह आख खोलकर चला देता है। अंधे की तरह चलते, तो बहुत गिरते, भटकते, टटोलते, देर लगती पहुंचने में। आख खोलकर जल्दी पहुंच जाते हो। अगर आख ठीक से खोल लो, तो क्षणभर में पहुंच जाते हो। क्षणभर की भी देर नहीं होती। इसी क्षण पहुंच सकते हो।

लेकिन मनुष्य की आदत है, अतीत को पकड़ना, ज्ञात को पकड़ना, अज्ञात से डरना। और इतना ही काम है कृष्ण का कि वे तुम्हें ज्ञात को छोड़ने की क्षमता दें और अज्ञात में उतरने का अभियान, साहस, दुस्साहस।

मैं भी अर्जुनों से ही बोल रहा हूं। अर्जुन के अतिरिक्त मुझे और कोई सुनने ही क्यों आएगा? कोई कारण ही नहीं है। भूल—चूक से एक दफा आ जाएगा, तो दुबारा नहीं आएगा। मुझे वही सुन सकता है, जिसको धीरे— धीरे अपने भीतर के अंकुर के फूटने का एहसास होने लगा। पहली पगध्वनियां जिसे सुनाई पड़ने लगीं। जिसके भीतर सरसराहट शुरू हो गई। जिसके भीतर खोज ने पहला कदम ले लिया है। वही मुझे सुन सकता है। वही सुनने को राजी हो सकता है। वही समझ भी सकता है।

समझ आज पूरी नहीं हो सकती है। लेकिन समझ की झलकें भी आ जाएं, सिर्फ झरोखा भी खुल जाए, तो भी काफी है।

एक सूफी फकीर के जीवन में उल्लेख है। सूफी फकीर का दरबार लगा था। और सूफी फकीर की बैठक का नाम दरबार है, क्योंकि सूफी फकीर सम्राट हैं। सभी फकीर सम्राट हैं। वहा जो लोग बैठे हैं, वह दरबार है।

तो फकीर का दरबार लगा था। दस—पंद्रह लोग बैठे थे। और दरबारी भी क्या सम्राट का आदर करेंगे, जैसा शिष्य सूफी फकीरों का आदर करते हैं, जिस श्रद्धा से बैठते हैं।

फकीर घड़ी, दो घड़ी शात बैठा रहा, तब उसने एक शिष्य को इशारा किया; उसे लेकर खिड़की पर गया। और कहा कि देख, बाहर देख! उस युवक ने बाहर खिड़की के झांका; नाचने लगा। बाकी लोगों ने पूछा, ऐसा क्या देखा तुमने, जो नाच रहे हो?

उस शिष्य ने कहा, मैंने तो नहीं देखा; क्योंकि मैं तो इस खिड़की पर कई बार खड़ा हुआ। गुरु ने दिखाया। क्योंकि मैं तो जो देखता था, वह बिलकुल साधारण था। लेकिन गुरु ने जो दिखाया, वह असाधारण है। गुरु की आख से देखा।

मालूम है मुझे कि सैकड़ों जन्म लग जाएंगे शायद वहां तक पहुंचते—पहुंचते, जो मैंने देखा है। लेकिन झलक मिल गई। अब मेरी श्रद्धा को कोई तोड़ न सकेगा। अब इतना मैं जानता हूं कि है, मंजिल है। स्वर्ण—शिखर बहुत दूर से दिखाई पड़े हैं। यात्रा दूभर होगी, शायद पहुंचूं र न पहुंचूं। राह में कहीं खो जाऊं, भटक जाऊं। ऐसी घड़ियां आएं, जब स्वर्ण—शिखर दिखाई पड़ने बंद हो जाएं। आज जो गुरु की आख से देखा है, अपनी आख से शायद दुबारा देख भी न पाऊं। लेकिन एक बात पक्की है कि वह है। और उसके होने का भरोसा राहगीर के कदमों की सामर्थ्य है।

कृष्ण से श्रद्धा मिली अर्जुन को, भरोसा मिला, अपने होने का विश्वास मिला। संदेह मिटा। अर्जुन अंत में कहता है, मेरे सब संशय गिर गए। मैं श्रद्धा को उपलब्ध हुआ हूं।

जिस दिन तुम भी कह सकोगे कि तुम्हारे सब संशय गिर गए और तुम श्रद्धा को उपलब्ध हुए हो, उसी दिन तुम्हारे भीतर का अर्जुन सक्रिय हो जाएगा।

लेकिन इसे तो हजारों वर्ष लगेंगे, जब लोग पहचान पाएंगे कि मैं किन अर्जुनों से बोल रहा था। उसमें तुम्हारी भी गिनती रहे, इसका खयाल रखना।

दूसरा प्रश्न : भक्त भक्त ही बना रहेगा, भगवान कभी नहीं हो सकता। जैसा कि इस्लाम, ईसाइयत और हिंदुओं में भी माधवाचार्य मानते रहे हैं। इस मत—प्रणाली की आधारभूमि क्या है? क्या इसका भी एक विधि, टेक्ष्मीक की तरह उपयोग किया जा सकता है?

 

निश्चय ही! यह एक विधि है, सिद्धांत नहीं। सिद्धांत तो कहे नहीं जा सकते। सिद्धांत तो शब्दों में बंधते नहीं, अटते नहीं। सिद्धांत तो सदा भाषा के पार रह जाते हैं। जो भी कहा जाता है, वे विधिया हैं। और विधियों को अगर तुमने सत्य समझ लिया, तो तुम बड़े भटक जाओगे।

यह एक विधि है कि भक्त कभी भगवान नहीं हो सकता। इस विधि का राज क्या है? यह कोई सिद्धांत नहीं है, यह कोई अंतिम दशा नहीं है। भक्त निश्चित भगवान होता है। हो सकता है का सवाल ही नहीं; भक्त भगवान है। सिर्फ उसे पता नहीं है।

लेकिन वह भी एक विधि है कि भक्त भगवान है, और उसे उसका पता नहीं। और यह भी एक विधि है कि भक्त भगवान नहीं हो सकता। दोनों के लाभ हैं, दोनों की हानियां हैं। वह ठीक से समझ लो। फिर तुम्हें जो जंच जाए।

इस्लाम, ईसाइयत और हिंदुओं के भी बहुत—से संप्रदाय, भक्ति संप्रदाय, मानते हैं कि भक्त कभी भगवान नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि अभी तुम अज्ञानी हो। अभी तो तुम भक्त भी नहीं हो, भगवान होना तो दूर। इस अज्ञान में मत तुम्हें यह भांति पकड़ जाए कि तुम भगवान हो सकते हो……।

और यह भांति पकड सकती है। क्योंकि जो विधि यह कहती है कि तुम भगवान हो सकते हो, वह यह भी कहती है कि तुम भगवान हो सकते हो, क्योंकि तुम भगवान हो। अन्यथा तुम जो नहीं हो, कैसे हो सकोगे! नहीं से तो कुछ पैदा नहीं होता, शून्य से तो कुछ जन्मता नहीं।

बीज वृक्ष हो सकता है, क्योंकि मूलत: बीज वृक्ष है। कंकड़ को बो दो, खूब साज—सम्हाल करो, तो भी तो कंकड़ वृक्ष नहीं होगा। कंकड़ में है ही नहीं वृक्ष, तो कैसे होगा? आम का बीज बोओ, तो आम होता है, नीम का बीज बोओ, तो नीम होती है। नीम के बीज से आम पैदा तो नहीं होता। तो बात जाहिर है कि बीज में वृक्ष छिपा हुआ है, उसका चू प्रिंट मौजूद है।

तो जो लोग कहते हैं, भक्त भगवान हो सकता है, वे यह भी कहेंगे कि भक्त भगवान है, तभी तो हो सकता है। जो तुम हो, वही हो सकते हो। अन्यथा तुम कैसे होओगे? छिपे हो, प्रकट हो जाओगे। बस, इतना ही फर्क होगा। अभी अव्यक्त हो, तब व्यक्त हो जाओगे। अभी भूमि के नीचे थे, तब भूमि के ऊपर आ जाओगे। बस इतना ही। अभी खोल में दबे थे, खोल टूट जाएगी। बस इतना ही। अभी सोए थे, तब जग जाओगे। बस इतना ही। अभी स्मरण न था, तब स्मरण आ जाएगा। लेकिन तुम हो।

इस विधि को मानने वाला एक खतरनाक मार्ग सुझा रहा है। दूसरी विधि को मानने वाले कहते हैं कि भक्त भगवान नहीं हो सकता। क्योंकि अज्ञानियों को यह खयाल भी दे देना, कि तुम भगवान हो सकते हो या तुम भगवान हो, खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि अज्ञानी अगर इस बात को पकड़ ले, तो इससे केवल अहंकार निर्मित होगा। इससे न तो वह भक्त बनेगा और न भगवान बनेगा।

यह डर है। शान के खतरे हैं। ऐसे जैसे छोटे बच्चे को हम हाथ में तलवार दे दें। माना कि रक्षा के लिए दी है कि तू इससे अपनी रक्षा करना, कि कोई तुझ पर हमला करे, तो तू अपनी रक्षा कर लेना। लेकिन जिसको तुमने दी है, उसे अभी इतनी अक्ल भी नहीं है कि रक्षा क्या है! किससे करनी है!

और नंगी तलवार खतरनाक है। डर तो यही है कि इसके पहले कि कोई उस पर हमला करे, वह अपनी ही तलवार से खुद को नुकसान पहुंचा लेगा; हाथ—पैर काट लेगा। या हो सकता है, किसी पागलपन के क्षण में गरदन पर रखकर देखे .कि कैसे गरदन कटती है। कटती भी है या नहीं, जरा जांच कर लें! बच्चे के हाथ में तलवार देना खतरनाक है।

तो भक्ति संप्रदाय कहते हैं कि यह बात कहना लोगों से कि तुम परमात्मा हो, खतरनाक है। वैसे ही तो वे अकड़े हुए हैं! वैसे ही तो अकड़ उनका प्राण ले रही है। कुछ नहीं है उनके पास, तब तो देखो उनकी अकड़ कितनी है! आकाश छू रही है। और तुम उसको कह रहे हो कि तुम भगवान हो। दो कौड़ी पास होती है, तो उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। जरा तिजोरी में वजन आ जाता है, तो उनकी चाल बदल जाती है। जरा कपड़े—लत्ते धुले पहन लिए, तो सड़क पर उनको देखो, कैसे चलने लगते हैं! जरा खीसे में पैसे बजने लगे, आवाज होने लगी, तो वे सुनते हैं परम नाद, ओंकार सुनाई पड रहा है।

ऐसे मूढ़ों से यह कहना कि तुम परमात्मा हो, खतरे से खाली नहीं है। शायद बच्चा तो तलवार से बच जाए, ये मूढ़ न बच सकेंगे। और यह डर है। यह डर बिलकुल निश्चित है। फिर बचा ही क्या?

इसलिए इस मुल्क को, जहां वेदांत ने बड़ी ऊंचाइयां लीं…..। वेदांत का सार ही यही है कि तुम ब्रह्म हो। अहं ब्रह्मास्मि! तुम परम हो। तुमसे पार कुछ भी नहीं। परिणाम क्या हुआ?

ये अहं ब्रह्मास्मि को कहने वाले लोग रूपांतरित तो नहीं हुए, पतित हुए। भयंकर पतन हुआ। जो संन्यासी कहते हैं अहं ब्रह्मास्मि, तुम उनकी अकड़ देखो। विनम्रता तो नहीं दिखाई पड़ती। ब्रह्म की विनम्रता तो नहीं दिखाई पड़ती, अहंकार की अकड़ दिखाई पड़ती है।

ब्रह्म भी अहंकार का आभूषण हो गया है। वह मैं ही कह रहा है कि मैं ब्रह्म हूं। और ब्रह्म होने की शर्त ही यह है कि जब मैं मिट जाए, तभी कोई ब्रह्म होता है।

भक्त भगवान नहीं होता। जब भक्त मिट जाता है, तब भगवान होता है। जब मैं खो जाता है, तभी संभावना उठती है इस नाद की, अहं ब्रह्मास्मि! इसके पहले नहीं।

लेकिन मुश्किल है। अहं ब्रह्मास्मि की अकड़ तो आ जाती है, अहंकार तो जाता नहीं। उलटा अहंकार और सुरक्षित हो जाता है। इस विधि के खतरे हैं, इस विधि के लाभ भी हैं। खतरा तो यह है कि अहंकार पकड़ ले। और लाभ यह है कि अगर यह भाव तुम्हें पूरी तरह से पकड़ ले कि मैं ब्रह्म हूं तो अहंकार इतनी छोटी चीज है और ब्रह्म इतना विराट भाव है, तो वैसी ही घड़ी आ जाएगी अहंकार के लिए, जैसे छोटा बच्चा रबर के गुब्बारे में हवा भरता जाता है, भरता जाता है, भरता जाता है। तुम पूरा आकाश थोड़े ही गुब्बारे में भर सकते हो। गुब्बारा फूट जाएगा।

जब ब्रह्म का भाव तुममें भरेगा, तो अहंकार का पतला—सा छोटा—सा रबर का गुब्बारा, उस की ताकत कितनी! सीमा कितनी! आंगन भी तो उसमें समा नहीं सकता, इतना बड़ा आकाश! तुम भरते गए और कहते गए, अहं ब्रह्मास्मि, अहं ब्रह्मास्मि.। एक घड़ी आएगी कि यह फुग्गा फूट जाएगा। यह फुग्गा ऐसे फूट जाएगा जैसे कि पानी का बबूला फूट जाता है।

वह तो प्रक्रिया है। वह विधि है। अगर ठीक चले, तो यह होगा। अगर जरा ही चूक गए, तो तुम अपने पानी के बबूले को ही ब्रह्म— भाव समझ लोगे। वह खतरा है।

इसलिए भक्त कहते हैं, ज्ञान की चर्चा में मत पड़ो। वे कहते हैं, भक्त कभी भगवान नहीं होगा। यह अहंकार से बचाने की विधि है, कि भक्त भक्त ही रहेगा। परमात्मा के चरण तक पहुंच जाए, काफी है।

क्यों चरण तक काफी है? क्योंकि चरण तक तुम रहोगे, तो अहंकार के उठने का उपाय न रहेगा। इसलिए तो हम भारत में चरण छूते हैं। गुरु का चरण छूते हैं; पिता का, मां का चरण छूते हैं; वृद्धजनों का चरण छूते हैं। ताकि तुम्हें झुकने का अभ्यास हो। ये सब अभ्यास हैं परमात्मा के चरण छूने का।

जो तुमसे उम्र में ज्यादा है, वह तुमसे थोड़ा सीनियर परमात्मा है। थोड़ा—सा ज्यादा रह चुका है, अनुभवी है : पैर छुओ। जो तुमसे थोड़ा ज्यादा जानता है, उसके पैर छुओ। जिसने तुम्हें जन्म दिया है, उस पिता के पैर छुओ, मां के पैर छुओ। बड़े भाई के पैर छुओ, ज्ञानी के पैर छुओ, गुरुजनों के पैर छुओ।

यह सिर्फ अभ्यास है, ताकि तुम पैर छूने में कुशल हो जाओ, ताकि तुम झुकने में निष्णात हो जाओ, ताकि अहंकार को हटाने में तुम्हारी योग्यता बढ़ जाए। तभी तो एक दिन तुम परमात्मा के चरण छुओगे और अपने को बिलकुल चरणों में रख दोगे।

बस, चरणों तक पहुंच गए, इतनी ही भक्त की आकांक्षा है। भक्त कहता है, इससे पार की हमें चाह नहीं। हम तेरा सिर नहीं होना चाहते, क्योंकि सिर से तो हम वैसे ही परेशान हैं। छोटे सिर से इतने परेशान हैं, तेरा बड़ा सिर और मुश्किल में डाल देगा। हम चरण तक! चरण काफी हैं। बहुत मिल गया, चरण मिल गए। और क्या चाहिए!

तो भक्त कहते हैं, न तेरा वैकुंठ चाहिए न तेरा ब्रह्मज्ञान चाहिए, न मोक्ष, न निर्वाण, नहीं कुछ। बस, तेरी याद हृदय में बनी रहे और तेरे चरण न छूटें। और कोई मांग नहीं है। कुछ नहीं चाहिए। बस, तेरे चरण हाथ से न छूटें, इतना चाहिए।

क्या कह रहा है भक्त? भक्त यह कह रहा है, बस मेरा विनम्र भाव न छूटे; अहंकार भाव न पकड़े। क्योंकि वैकुंठ में अकड़ जाऊंगा, मुझे वैकुंठ मिल गया, मोक्ष मिल गया।

जिनको तुम संन्यासी कहते हो—शिवानद, अखंडानंद, इत्यादि—इत्यादि—अगर ये सब मोक्ष में पहुंचते हैं, तो बड़ा उपद्रव मचता होगा वहा। अखंड अखाड़ा खड़ा हो जाता होगा उपद्रवियों का। अहंकार से भरे हुए लोग, अकड़े हुए लोग। और यहां तो इनको शिष्य भी मिल जाते हैं, वहां शिष्य भी न मिलेंगे। वहां सभी स्वामीजन हैं। वहां कौन किसको झुकेगा? वहां लोग झुकना ही भूल गए होंगे। मोक्ष में तो सब उपद्रवी इकट्ठे हो गए होंगे।

भक्त कहता है, तुम्हारा मोक्ष तुम्हीं सम्हालो। ज्ञानियों को दे दो। हमें तुम्हारे चरण काफी हैं। बस, हम चरणों में पड़े रहें। चरणों से च्‍यूत मत करना, इतनी भक्त की आकांक्षा है।

मगर इसी आकांक्षा में भक्त को वैकुंठ उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि विनम्र के लिए मोक्ष है। इसलिए यह विधि है। निरहंकारी के लिए वैकुंठ है, यह विधि है। नहीं जिसने मांगा चरणों से ज्यादा, उसे पूरा परमात्मा मिल जाता है। भक्त भगवान हो जाता है। बिना मांगे, बिना कहे, वह घटना घटती है आखिरी में।

इस विधि से भी, भक्ति से भी भक्त भगवान हो होता है। क्योंकि पैर में तो फासला बना रहेगा। फासले में तो विरह रहेगा, आग जलेगी। प्रेमी तब तक तृप्त नहीं हो सकता, जब तक एक न हो जाए। जरा—सा भी फासला काफी फासला मालूम होगा। या तो भक्त भगवान में गिर जाए या भगवान भक्त में गिर जाए, तब तक बेचैनी रहेगी। पर यह घटना घटती है।

भक्त कहते हैं, इसकी चर्चा मत करो। रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, वे कहते हैं, इसकी बात मत करो। यह तो अपने से हो जाता है, तुम इसकी चर्चा ही मत करो। तुम सौ डिग्री तक पानी गरम करो, भाप की चर्चा मत करो। वह तो अपने से हो जाता है। उसकी कोई चर्चा करनी है? बात ही मत उठाओ। क्योंकि उसकी चर्चा अज्ञानी सुन ले, तो खतरा है। वह पहले ही से अकड़ जाएगा। अकड़ गया, तो पहुंचने से रुक जाएगा।

तो इस विधि का लाभ है एक कि विनम्रता को जन्माती है। लेकिन खतरा भी है। और खतरा यह है कि यह सत्य नहीं है। यह विधि है, डिवाइस है, लेकिन सत्य के अनुकूल नहीं है। और जो सत्य के अनुकूल नहीं है, कहीं वह तुम्हें जोर से न पकड़ ले। नहीं तो तुम वंचित रह जाओगे। कहीं यह बात तुम्हारा आधार न हो जाए कि भक्त भगवान को पा ही नहीं सकता, भक्त भक्त ही रहेगा, भगवान हो ही नहीं सकता। अगर यह बात तुम्हें बहुत आग्रहपूर्ण रूप से पकड़ ले, तो यही कारागृह हो जाएगी। तो तुम चरणों में ही पड़े रह जाओगे। तुम उससे आगे न जा सकोगे।

तो यह विधि कहीं तुम्हारा कारागृह न बन जाए, इसलिए ज्ञानी कहता है, यह स्मरण रखना कि यों तो तुम भगवान ही हो; थोड़े भटक गए हो, राह से च्‍यूत हो गए, इधर—उधर हो गए हो। लेकिन हो तो भगवान ही। इसलिए आखिरी बात तो खयाल में रखना। अन्यथा तुम पूजा—पत्री में ही अटक जाओगे। तुम मंदिर—मस्जिद में ही उलझ जाओगे। और तुम वहीं बस वही गुणगान करते रहोगे भक्ति का कि तेरे चरण काफी हैं।

उतने से राजी मत होना। क्योंकि उसमें तुम्हारी नियति पूर्ण नहीं हो रही है। और परमात्मा भी उससे राजी नहीं होगा। परमात्मा भी तभी राजी होगा, जब तुम्हारा परमात्म— भाव प्रकट हौ, जब तुम मूल—स्रोत में गिर जाओ।

तो कहीं यह सिद्धांत, यह शास्त्र तुम्हें पकड़ न ले जोर से।

वह पकड़ लेगा। वह भक्तों को इतने जोर से पकड़ लेता है कि वे ज्ञानियों की बात सुनने से डरते हैं।

इस्लाम ने तो मैसूर की हत्या कर दी, क्योंकि उसने कहा, अनलहक! मैं परमात्मा हूं! वह भक्त था। चरणों को ही पकड़—पकड़कर चला था। लेकिन जब पहुंचा, तो उसके मुंह से निकल गया, अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं!

बस, मुसलमानों ने कत्‍ल कर दिया उसका कि यह आदमी कुफ्र बोल रहा है, काफिर हैं। यह बात तो सच हो ही नहीं सकती, क्योंकि शास्त्र में लिखा है कि चरणों के पार जाने का कोई उपाय नहीं है। और यह कह रहा है कि मैं खुद ही हो गया। यह अहंकारी है।

अब यह दूसरा खतरा है कि तुम ज्ञानी को अहंकारी समझ लो, उसकी हत्या कर डालों। और इस्लाम ने जिस दिन मैसूर को मारा, उसी दिन इस्लाम मर गया, इस्लाम की जान चली गई; प्राण चला गया; कचरा हो गया; क्योंकि मैसूर पैदा होने की हिम्मत खो गई। फिर कोई दूसरा मंसूर पैदा होने का साहस खो दिया। और मंसूर, वही तो नमक है धर्म का। उसके बिना तो सब बेस्वाद हो जाता है। कोई चंदन, तिलक, टीका लगाकर घूमने वाले लोगों से थोड़े ही धर्म बनता है। धर्म तो उनसे ही बनता है, जिनमें परमात्मा आविर्भूत हुआ है। और जिनके भीतर से अहर्निश उदघोष उठ रहा है कि मैं ब्रह्म हूं। बस, उन्हीं से धर्म में जान है, उन्हीं से प्राण है। भीड़— भड़क्का उनका नहीं है। वे पताका की तरह हैं, जो आकाश में उठी है। स्वर्ण—शिखरों की तरह हैं, जो मंदिर पर चढ़े हैं। माना कि बुनियाद में जो पत्थर पड़े हैं, वे भी मंदिर को सहारा देते हैं। शिखर उनके बिना भी नहीं हो सकता। लेकिन शिखर के बिना मंदिर कैसा बुरा लगेगा! कैसा अधूरा लगेगा!

इस्लाम बिना शिखर का मंदिर है। जिस दिन मंसूर को मारा, उसी दिन शिखर गिर गया। मंसूर को मारने का मतलब यह हुआ कि तुम भूल ही गए कि यह विधि विधि थी, सिद्धांत न था। सिद्धांत तो मंसूर ही था। आखिरी घड़ी में सभी भक्तों को ऐसा ही लगेगा। ईसाइयत ने भी बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। तो ईसाइयत में संत होना बंद ही हो गए। आधी दुनिया ईसाई है, लेकिन संत होना बंद हो गए। पादरी—पुरोहित पैदा होते हैं, संत पैदा होते ही नहीं। हो नहीं सकता, होने नहीं देंगे वे।

इकहार्ट हुआ जर्मनी में एक फकीर, मैसूर जैसा फकीर ईसाइयत में पैदा हुआ। उसको ईसाइयत अंगीकार न कर पाई। पोप ने संदेशा भेजा कि यह बातचीत बंद कर दो, अन्यथा खतरा होगा। क्योंकि वह ईश्वर की बातचीत ऐसे करने लगा, जैसे वह ईश्वर हो गया हो। वह वही भाषा बोलने लगा, जो उपनिषदों की है। वह कहने लगा, मैंने ही बनाया संसार को। ये सब चांद—तारे मेरा ही खेल है। सृष्टि के पहले दिन मैंने ही गति दी थी। सृष्टि के अंतिम दिन मैं ही सब को सिकोड़ लूंगा।

वह ठीक कह रहा था। यह भक्त की आखिरी दशा है। वह प्रार्थना कर—करके इस घड़ी में पहुंचा था। जब तक प्रार्थना करता था चर्च में, ठीक था, फिर उसने प्रार्थना बंद कर दी। क्योंकि वह उसी घड़ी में आ गया, जिसको कबीर कहते हैं कि कौन किसको पूजे? दोनों एक हो गए, दुई मिट गई।

जब उसने घोषणा कर दी कि दुई मिट गई, कोई चर्च नहीं है, कोई पूजा नहीं है, किसकी पूजा करनी? तब खतरा शुरू हो गया। यह आदमी खतरनाक बातें कह रहा है। यह आदमी या तो भ्रष्ट हो गया या परम शान को उपलब्ध हो गया। और साधारणजन इसको भ्रष्ट ही समझेंगे।

पोप ने संदेश भेजा कि तुम यह बात बंद कर दो। यह चर्चा नहीं चलेगी। और इकहार्ट जैसे परम संत को चर्च के बाहर निकाल दिया गया, एक्सपेल कर दिया गया। वह ईसाई न रहा, जो परम ईसाई था, जो जीसस जैसा ईसाई था!

इसलिए मैं कहता हूं कि अगर क्राइस्ट फिर से पैदा हों, तो ईसाई न हो पाएंगे। उनको ईसाई धर्म बाहर कर देगा। इकहार्ट को कर दिया।

और इकहार्ट के वचन ऐसे कीमती हैं, जैसे कबीर के। अगर ईसाइयत में कोई आदमी हुआ कबीर के मुकाबले, तो इकहार्ट।

फिर एक आदमी हुआ जैकब बोहमे। चमार था, कुछ पढ़ा—लिखा न था। कई बार ऐसा हुआ है कि पढ़े—लिखे चूक जाते हैं, क्योंकि पांडित्य जरा जरूरत से ज्यादा बोझिल हो जाता है। गैर पढ़े—लिखे पा लेते हैं। जैकब बोहमे भी कबीर जैसा गैर पढ़ा—लिखा था, कुछ नहीं पढा—लिखा था। मगर वह ऐसी बातें बोलने लगा कि पंडित झेंप जाएं। उससे ऐसे शब्दों का उच्चार होने लगा। तत्क्षण ईसाइयत ने उसे बाहर किया, निकाल बाहर किया कि वह ईसाई नहीं है। भ्रष्ट हो गया।

ईसाइयत ने जिनको संत घोषित किया है, उनमें से कोई संत नहीं है। और जिनको उसने बाहर किया, उनमें संत हैं। विधि ने गरदन पर फंदा बना लिया, तो खतरा है।

ध्यान रखना, हर विधि का लाभ है, हर विधि का खतरा है। कोई विधि बिना खतरे के नहीं है। क्यों? क्योंकि जिससे भी लाभ हो सकता है, उससे हानि हो ही सकती है।

कोई विधि होम्योपैथी की दवा नहीं है। होम्योपैथी की दवा में हानि नहीं होती, वे कहते हैं; लाभ होता है, हानि नहीं होती। यह बात फिजूल है। क्योंकि जिस चीज से भी लाभ होगा, उससे हानि हो ही सकती है। नहीं तो लाभ भी नहीं होगा।

जिस तलवार से तुम रक्षा कर सकते हो, उसी तलवार से मारे भी जा सकते हो। जिस ध्यान से तुम पहुंच सकते हो, उसी ध्यान से अटक भी सकते हो। जिस सीढ़ी से तुम ऊपर जाते हो, वही सीढ़ी तुम्हें रोकने के लिए जंजीर हो सकती है। गुरु सहारा बन सकता है, गुरु बाधा बन सकता है। शास्त्र पहुंचा सकते हैं, शास्त्र अटका सकते हैं।

इसलिए बड़ी खुली आंखें, बड़ा सजग हृदय चाहिए। तो तुम सभी विधियों से पार हो सकते हो, कोई भी विधि काम देगी।

इसलिए तो मैं सभी विधियों पर बोले चला जाता हूं। मेरा कोई आग्रह नहीं है। तुम्हें मैं बता देता हूं कि यह इसका खतरा है, यह इसका लाभ है। खतरे से बचना। कोई भी विधि चुन लो।

अगर तुम्हें ज्ञान का मार्ग ठीक लगता है, तो तुम ईश्वर हो। और भक्त भगवान होता है, क्योंकि भक्त भगवान है।

अगर तुम्हें डर लगता है अपने अहंकार से कि यह तो हमें दिक्कत में डाल देगा, तो छोड़ो। कोई अनिवार्यता नहीं है। भक्त भगवान नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान भगवान है, भक्त भक्त है। भगवान स्रष्टा है, भक्त तो सृजन है, किया हुआ है, उसके हाथ का खेल है। कैसे भक्त भगवान हो सकता है? पूजा करो, अर्चना करो, चरणों तक जाओ, बस, इससे आगे जाने का कोई उपाय नहीं है।

लेकिन विधि को पकड़ मत लेना। क्योंकि जब तुम चरणों तक पहुंच जाओगे, तो परमात्मा उठाकर तुम्हें आलिंगन करने लगे, तब तुम मत कहना कि रुको, यह हो ही नहीं सकता। हम पहले से ही मानते हैं कि भक्त कभी भगवान नहीं हो सकता। यह तुम क्या कुफ्र कर रहे हो? काफिर कहीं के! पड़ा रहने दो मुझे चरणों में। मुझे तुम्हारे हृदय का आलिंगन नहीं चाहिए। न मुझे वैकुंठ चाहिए। क्योंकि मेरे गुरु ने यही सिखाया है।

तब तुम्हारी विधि परमात्मा से बड़ी हो गई। कोई विधि परमात्मा से बड़ी न हो, इसका खयाल रखना। जीवन बड़ा है, सभी विधियां छोटे—छोटी हैं। विधियां तो रास्ते हैं, जीवन तो पूरा आकाश है। किसी शास्त्र से जीवन छोटा नहीं है, इसे याद रखना।

और सब सिद्धांत तुम्हारे लिए हैं, तुम किसी सिद्धांत के लिए नहीं हो। सब सिद्धांतों का उपयोग कर लेना और फेंक देना। सार निकाल लेना, असार को छोड़ देना। अन्यथा तुम पाओगे कि जिसको तुमने गले का हार समझकर पहना था, वही आखिरी में फांसी हो गई। बहुत लोगों को मैं ऐसी फांसी में अटके देखता हूं।

अब सूत्र:

तथा हे अर्जुन, देवता, द्विज, गुरु .और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।

तथा जो उद्वेग को न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो स्वाध्याय का अभ्यास है, वह निःसंदेह वाणी संबंधी तप कहा जाता है।

तथा मन की प्रसन्नता, शात भाव, मौन, मन का निग्रह और भाव की पवित्रता, ऐसे यह मन संबंधी तप कहा जाता है।

कृष्ण कहते हैं, तप तीन प्रकार के हैं। क्योंकि तुम्हारा व्यक्तित्व तीन परतों में बंटा है। और उन तीनों परतों के तप हैं। और ठीक से समझ लेना चाहिए तपश्चर्या को। क्योंकि बहुतों ने बड़े गलत ढंग से समझा है।

अगर आलसी व्यक्ति, तमस से भरा व्यक्ति तप में उतरता है, तो उसके तप के ढंग बड़े अनूठे होते हैं। वह तप भी करता है, तो तप में उसके प्रमाद की ही छाया होती है, उसके आलस्य की और तमस की ही। वह तप कर सकता है। जैसे कि वह एक ही जगह बैठा रह सकता है, जो कि राजसी को करना मुश्किल होगा।

एक गांव में मैं मेहमान था। लोग मेरे पास आए, उन्होंने कहा, गांव में एक परम योगी हैं। उनका नाम है, खडेश्री बाबा। वे खड़े ही रहते हैं। बैठते ही नहीं, सोते ही नहीं। रात सोते भी हैं, तो दोनों हाथ बैसाखियों पर रखकर और छप्पर से लटकती एक रस्सी को पकड़कर सो जाते हैं। उनके पैर—क्योंकि दस साल हो गए उनको वैसा करते—पैर हाथी—पांव की बीमारी में जैसे हो जाते हैं, वैसे हो गए हैं। अब तो वे बैठना भी चाहें, तो बैठ नहीं सकते। वे तो अकड़ गए। सारे शरीर से खून और मांस पैरों में इकट्ठा हो गया है। वे चलना भी चाहें, तो अब चल नहीं सकते। मगर लोगों में उनका भारी प्रभाव है।

मैंने लोगों से पूछा, माना कि खड़े हैं दस साल से। लेकिन और क्या मामला है? उन्होंने कहा, और क्या? यही तो तप है। और चाहिए भी क्या?

ऐसे ही बाजार से निकलते वक्त मैंने भी उन्हें देखा झाडू के नीचे, जहां वे खड़े हैं। मुंह पर मक्खियां उड़ रही हैं, एक घिनौना व्यक्तित्व, गंदा, तमस से भरा हुआ। लेकिन यह तपश्चर्या है! यह आदमी कुछ भी नहीं कर रहा है। लेकिन हजारों रुपए पूजा में चढ़ते हैं; मंदिर बनाया जा रहा है; हजारों लोग आते हैं ‘ जाते हैं। यह आदमी अपना सिर्फ खड़ा है। प्रशंसा के गीत चल रहे हैं, पूजा—पत्री हो रही है इसकी।

इस आदमी के चेहरे को भी तो देखो! इस पर सत्य की कोई भी तो छाप नहीं दिखाई पड़ती। फूल जैसी प्रफुल्लता होनी चाहिए सत्व में। पक्षियों जैसे उड़ने का हलकापन होना चाहिए सत्व में। गंगोत्री से उतरती गंगा की धारा जैसी निर्दोष दशा होनी चाहिए। एक कुंवारापन होना चाहिए आंखों में, कि तुम पास जाओ, तो तुम्हें लगे कि तुम हलके हो गए, स्नान हो गया।

इस आदमी के पास जाकर तुम्हें लगेगा कि घर से तो स्वच्छ आए थे, गंदे हो गए। यह आदमी एक रोग की तरह वहां खड़ा है। और सब तरह की गंदगी फैला रहा है। क्योंकि वहीं खड़े होकर पेशाब करता है, उसको भक्तगण झेल रहे हैं। वहीं खड़े होकर पाखाना करता है, मक्खियां न होंगी इकट्ठी, तो क्या होगा? वहीं खाना खाता है। सब वहीं चल रहा है; क्‍योंकि वह जगह छोड़ते ही नहीं। यह भयंकर तमस की अवस्था है। यह तप नहीं है।

फिर राजसी तपस्वी हैं, जिनके तप का कुल जोड़ रजस है। भागते फिरते हैं, दौड़ते फिरते हैं।

एक सज्जन मेरे पास आए; संन्यासी हैं। मैंने पूछा कि क्या कर रहे हैं? पदयात्रा! पदयात्रा किसलिए कर रहे हैं? कुछ मतलब? उन्होंने कहा, नहीं, यही मेरी तपश्चर्या है।

एक खड़े हैं, वे खडेश्री बाबा। एक ये पदयात्री बाबा, ये पदयात्रा कर रहे हैं! इनको खड़े होने में चैन नहीं है। बैठ नहीं सकते। आज यहां हैं, कल वहां हैं। वे कहने लगे कि मैं तो कोई पच्चीस साल से चल ही रहा हूं। यही मेरी तपश्चर्या है, रुकना नहीं है।

जाओगे कहां? चल भी लोगे तो क्या होगा? कहां पहुंच जाओगे चलकर? नाहक क्यों जमीन को नाप रहे हो?

लेकिन उनके भी मानने वाले हैं। वे कहते हैं, साधु हो तो ऐसा। तीन रात से ज्यादा नहीं रुकता कहीं भी। वर्षा हो, सर्दी हो, धूप हो, वह भागा चला जा रहा है।

यह भी तो पूछो कि यह जा कहा रहा है? ऐसे ही चलते—चलते मर जाएगा, गिर जाएगा। यह रुक नहीं सकता।

रजस गति है, तमस अगति है। तामसी चल नहीं सकता, रुका रहता है। धक्का—मुक्की करो, तो थोड़ा—बहुत ले जाओ। बाकी वह जा नहीं सकता अपने से। उसने खड़े होने का रास्ता खोज लिया है; वह भी तपस्वी हो गया!

यह रुक नहीं सकता। यह दौड़ने वाला, बचकानी बुद्धि का, रजस से भरा हुआ व्यक्ति है, इसको ठहरना नहीं आता। यह भाग रहा है। अगर इसको तुम रोक दो, तो मन में भाग—दौड़ जारी रखेगा।

पूरब में लोग आलसी हैं, पश्चिम में लोग राजसी हैं। मेरे पास पश्चिम से जो लोग आते हैं, आज आए, कल गोवा जा रहे हैं। फिर दो—चार दिन में गोवा से लौट आए, अब काठमांडू जा रहे हैं। फिर दो—चार दिन में काठमांडू से लौट आए, अब मनाली जा रहे हैं। काहे के लिए जा रहे हो? काठमांडू किसलिए? बस, एक खयाल है। बहुत दिन से खयाल है, काठमांडू जाना है।

करोगे क्या काठमांडू जाकर? जो काठमांडू में हैं, वे कहां पहुंच गए हैं? कोई गोवा कोई मोक्ष है? लेकिन गोवा काबा बन गया है, काशी बन गया है। चले जा रहे हैं, और लोग जा रहे हैं, और रुक नहीं सकते हैं।

एक भाग—दौड़ होती है राजसी के मन में। वह भाग—दौड़ को ही अपनी यात्रा बना लेता है।

हिंदू संन्यासियों में मुझे नब्बे प्रतिशत संन्यासी तामसी मालूम पड़े। और जैन संन्यासियों में नब्बे प्रतिशत राजसी मालूम पड़े। इसलिए जैन संन्यासी रुकेगा नहीं, यात्रा ही करता रहता है, पदयात्रा! चार महीने बरसात में रुकना पड़ता है, वह भी कष्ट हो जाता है। भागता रहता है। हिंदू संन्यासी जमकर बैठ जाते हैं। इसलिए जैन संन्यासियों ने आश्रम नहीं बनाए। क्योंकि आश्रम राजसी बनाए कैसे रम उसको फुरसत कहां है एक जगह बैठने की? वह परिव्राजक है।

इसका कारण है। क्योंकि जैन और बौद्ध, दोनों धर्म क्षत्रियों से आए। क्षत्रिय यानी राजस। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। तो राजस सूत्र है उनका। न तो बुद्ध ने आश्रम बनाए, न जिनों ने आश्रम बनाए। दोनों ने परिव्राजक पैदा किए, चलते रहो.।

बुद्ध ने तो अपने शिष्यों से कहा, चरैवेति! चरैवेति! चलते रहो, चलते रहो, जाओ, विहार करो। विहार का मतलब, जाओ, चलो, घूमो। एक पूरे प्रांत का नाम बिहार हो गया, बुद्ध के भिक्षुओं के घूमने के कारण। उन्होंने इतनी परिक्रमा की इस जगह की कि पूरा प्रांत बिहार कहलाने लगा। बिहार का मतलब, परिक्रमा कर रहे हैं लोग, घूम रहे हैं। किसलिए? अब भी जारी है।

हिंदू संन्यासियों ने आश्रम बनाए, विहार नहीं किया। तो उन आश्रमों में खूब संपदा इकट्ठी हो गई और खूब तमस चलता है, चलेगा।

जैन संन्यासी चलते रहे। चलते—चलते उन्होंने ऐसी स्थिति बना ली कि सब साधना खो गई, चलना ही साधना रह गई। क्योंकि रुकोगे नहीं, साधना करोगे कैसे?

अगर मैं किसी जैन संन्यासी को कहता हूं कि भई, एक सालभर रुककर ध्यान कर लो। वे कहते हैं, रुक नहीं सकते।

अब यात्रा में कैसे ध्यान करोगे? आज यह गांव, कल दूसरा गांव, परसों तीसरा गांव; ज्यादा समय पैदल चलने में जाता है। फिर जो थोड़ा—बहुत समय मिलता है, वह विश्राम भी करना पड़ता है; क्योंकि कल उठकर फिर चल देना है। फुरसत नहीं है ध्यान की। तो जैन धर्म से ध्यान और योग खो गए। क्योंकि उसके लिए तो थोड़ी सुविधा चाहिए कि तुम घड़ी, दो घड़ी बैठ सको विश्राम से, आख बंद कर सको। उसकी सुविधा ही न रही।

तो जैन संन्यासी क्या कर रहा है? न तो वह योग साधता, न वह ध्यान साधता। बस, वह एक गांव से दूसरे गांव जाता है। और लोगों को समझाता है कि ध्यान करो, योग करो, जो उसने खुद कभी नहीं किए। क्योंकि उसको फुरसत ही नहीं करने की। जो उसकी मान लेंगे, वे भी उसी जैसे किसी दिन पदयात्री हो जाएंगे, जब उनको जोश चढ़ जाएगा। वे भी नहीं करेंगे। क्योंकि गृहस्थी क्या ध्यान करे! क्या योग करे! संन्यासी करता है। और संन्यासी को फुरसत नहीं रुकने की। एक पागलपन है, होश नहीं है।

सत्व को उपलब्ध व्यक्ति रजस और तमस के बीच एक संतुलन निर्धारित कर लेता है। जब जरूरी होता है, वह विश्राम करता है। जब जरूरी होता है, तब आश्रम बनाता है। जब जरूरी होता है, तब परिव्राजक होता है।

उचित होगा कि संन्यासी जब जवान हो, तब परिव्राजक हो, तब रजस महत्वपूर्ण होता है। लेकिन जैसे—जैसे वृद्ध होने लगे, आश्रम में थिर हो जाए। खबर पहुंचानी हो लोगों तक, तो चले। जब खबर पहुच जाए और लोग आने लगें, तब न चलता रहे, तब बैठ जाए। क्योंकि अब लोग आने लगे, अब उनको कुछ करवाना है। खबर ही तो नहीं पहुंचाते रहना है जिंदगीभर। उनको कुछ करवाना है। पंद्रह साल तक मैं दौड़ता रहा। पैदल नहीं चला। क्योंकि पैदल चलता, तो डेढ़ सौ साल चलता, तब इतना काम हो पाता। उसकी संभावना नहीं है। क्योंकि चलना ही अगर लक्ष्य हो, —तब तो ठीक है। पैदल ही चलना ठीक है। लेकिन चलना तो कोई लक्ष्य नहीं है। खबर पडुचानी थी लोगों तक, पहुंच गई खबर।

अब मैं बैठ गया। अब जरूरी है कि वे मेरे पास आ जाएं; बैठें। और जो मैं चाहता हूं वह कर लें। उसके लिए तो बैठना जरूरी है, शात हो जाना जरूरी है, गति को रोक लेना जरूरी है।

यह कृष्ण अब तप की व्याख्या कर रहे हैं। यह व्याख्या सत्व के हिसाब से है। इसका रजस रूप भी होगा, इसका तमस रूप भी होगा। पहले सत्व के हिसाब से व्याख्या समझ लें, क्योंकि वह तपश्चर्या का शुद्धतम रूप है, वह निखरा सोना है, कंचन है।

हे अर्जुन, देवता……।

जहां—जहां दिव्यता का अनुभव हो, वहीं—वहीं देवता। देवता तो प्रतीक शब्द है। ठीक अगर समझना हो, तो दिव्यता। वह गुण है। जहां—जहां दिव्यता का अनुभव हो!

कहां —कहां हो सकता है? अगर आख हो, तो सब जगह होगा। आख न हो, तो मुश्किल पड़ेगी। अन्यथा सुबह तुम उठे, रात का अंधेरा टूटा। तमस गया। सूर्य उगने लगा। क्या तुमने कभी सूर्य में देवता देखा? तुम्हें पता ही नहीं है। रात को जिसने तोड़ दिया, अंधेरे को जिसने मिटा दिया, वह दिव्य है। इसलिए हिंदू उसे देवता कहते हैं। और सूर्य को नमस्कार करते हैं।

यह तो प्रतीक है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर भी किसी दिन रात टूटेगी, सूरज उगेगा। लेकिन इस प्रतीक को तो थोडा नमस्कार करो। ताकि भीतर के नमस्कार के लिए द्वार खुले। इस बाहर के सूरज को झुको, ताकि भीतर के सूरज की भी हिम्मत बढ़े कि अगर पैदा हो जाऊं तो तुम इनकार न कर दोगे, कि पैदा हो जाऊं तो तुम राजी हो, कि तुम्हें बोध है। इसलिए सूर्य देवता है।

ये तो प्रतीक हैं काव्य के। कोई सूर्य देवता है, ऐसा नहीं। कुछ उसकी पूजा करने से तुम्हें मिल जाएगा, ऐसा नहीं है; कि उसको तुम राजी कर लोगे, तो वह तुम पर कुछ ज्यादा किरणें बरसाएगा और दूसरों पर कुछ कम, ऐसा नहीं है, कि पापी की तरफ अंधेरा कर देगा और पुण्यात्मा पर रोशनी कर देगा, ऐसा भी नहीं है। सूरज कोई व्यक्ति थोड़े ही है। अगर तुम ठीक से समझो, तो दिव्यता तुम्हारी समझ है, सूरज का होना नहीं। और तुम्हें जो लाभ होगा, वह तुम्हारी समझ के कारण होगा, सूरज के कारण नहीं।

जब तुम सुबह सूरज को उगते देखकर नमस्कार के भाव से भर जाते हो, नमन करते हो, वह नमन इस बात की घोषणा है कि अंधकार को तोड़ना है, प्रकाश को लाना है। वह इस बात का तुम्हारा अंतर्भाव है, तमसो मा ज्योतिर्गमय! कि मुझे अंधकार से प्रकाश की तरफ ले चल, हे परमात्मा! मैं प्रकाश को नमस्कार करता हूं प्रकाश के स्रोत को नमस्कार करता हूं। यह देवता है, इसने बाहर की रात मिटाई। मुझे भीतर का कुछ पता नहीं। जैसे बाहर की रात मिट गई, वैसे मेरी भीतर की रात को भी मिटा। तमसो मा ज्योतिर्गमय! मुझे ले चल अंधेरे से प्रकाश की तरफ।

यह तुम्हारा भाव है। तुम्हारे भाव से तुम्हें लाभ है। सूरज तुम्हें कोई लाभ नहीं पहुंचा देगा। न सूरज तुम्हें कोई हानि पहुंचाता है। लेकिन तुम्हारी भाव—दशा तुम्हें लाभ पहुंचाएगी, हानि पहुंचाएगी। जिन्होंने सूर्य को नमस्कार किया, बड़े कुशल लोग हैं। उन्होंने अपने भीतर एक परिवेश पैदा कर लिया, एक बीजारोपण किया। तुमने वृक्ष में फूल खिले देखे और तुम्हारे भीतर एक नमन आया, तुम झुके। वह भी देवता हो गया। इसलिए हिंदुओं के सभी देवता हैं, वृक्ष, नदियां, पहाड़, सूरज। हिंदू समझ पाए कला को। उन्होंने देवता का राज पकड़ लिया। वह देवता में नहीं है, वह तुम्हारे भाव में है।

तो जितनी जगह तुम्हें देवता मिल जाए, उतना अच्छा; क्योंकि उतनी बार भाव का बार—बार जन्म होगा, पुनरुक्ति होगी, भाव सघन होगा, प्रगाढ़ होगा, बैठेगा।

तो हिंदुओं ने सारे जगत को देवता से भर दिया। चांद भी देवता है, सूरज भी देवता है, वृक्ष भी देवता हैं, गंगा भी, हिमालय भी, कैलाश भी। जहां आख उठाओ, वहां देवताओं का वास है। तुम देवताओं से भाग न सकोगे। सब तरफ से तुम्हें दिव्यता घेर लेगी। इस घिराव में तुम्हारे भीतर के देवता का जन्म होगा।

तो लक्षण पहला कहते हैं कृष्ण अर्जुन से, देवता, द्विज, गुरु, ज्ञानीजनों का पूजन।

पहला देवता, क्योंकि उससे ही तुम्हारे भीतर की चेतना रूपांतरित होगी। सारी दुनिया हंसती है, लेकिन समझ नहीं पाती। सारी दुनिया हंसती है कि हिंदू कैसे पागल हैं, गंगा की पूजा कर रहे हैं! नदी में क्या रखा है? हमें भी पता है। रात दीया जला घर में और हिंदू नमस्कार कर रहे हैं। हमें भी पता है कि दीए में क्या रखा है! केरोसिन तेल है, वह भी शुद्ध नहीं। उसमें भी पानी मिला है। वह हमें भी पता है। नमस्कार करने जैसा कुछ नहीं है। घासलेट के तेल में क्या हो सकता है नमस्कार करने जैसा? फिर भी हम नमस्कार कर रहे हैं।

असली सवाल दीया नहीं है। असली सवाल नमस्कार करना है। वह तो बहाना है। जहां मिल जाए, वहीं हम बहाना खोज लेते हैं। वह बहाना तत्‍क्षण तुम्हें बदलता है।

समझो कि तुम क्रोध से भरे बैठे थे और किसी ने दीया जलाया……।

दीया क्या, हिंदू तो अब बिजली भी जलाओ, तो भी नमस्कार करते हैं। थोड़े डरते हैं, झिझकते हैं, पढ़े—लिखे हुए तो जरा देख लेते हैं कि कोई देख तो नहीं रहा। ज्यादा ही डरपोक हुए तो भीतर— भीतर कर लेते हैं, ऊपर से नहीं प्रकट करते। तरु लता करती है, मगर डरती नहीं है।

बिजली जलती है; तुम क्रोध से भरे थे, नाराज थे, अचानक बिजली जली, सांझ हो गई। तुमने हाथ जोड़े; नमस्कार किया। क्रोध विसर्जित हो गया; भाव—दशा बदल गई। क्योंकि कैसे तुम क्रोध से भरे नमस्कार कर सकोगे! क्षण में रूपांतरण हो गया। हवा दूसरी आ गई। झोंका और आ गया बाहर का, ले गया क्रोध को; श्रृंखला टूट गई। भीतर की विचारधारा क्रोध की तरफ जा रही थी, वह टूट गई, वह नमन में बदल गई।

पति घर में आता है, पत्नी पैर छू लेती है। बेटा घर लौटता है, मां के पैर छूता है। यह चलता रहता है क्रम। यह नमन तुम्हारे जीवन को दिव्यता की तरफ ले जाता है।

देवताओं से मतलब नहीं है। तुम्हें दिव्यता की तरफ जाना है, तो तुम जितने देवता अनुभव कर सको, उतना सुगम हो जाएगा। देवताओं का नमस्कार तुम्हें दिव्य बनाएगा। वह तो तरकीब है, एक विधि है।

द्विज,…..।

द्विज का अर्थ है, ब्राह्मण। द्विज का अर्थ है, जिसका दुबारा जन्म हुआ। यह द्विज शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। ऐसा दुनिया की किसी भाषा में शब्द नहीं है, द्विज। क्योंकि जन्म तो एक ही दफा होता है। दुबारा जन्म का क्या मतलब?

लेकिन हम कहते हैं, पहला जन्म तो शरीर का है। वह तो मा—बाप से होता है। दूसरा जन्म असली है; जिसमें तुम अपनी चेतना को जन्म देते हो। उसे हम द्विज कहते हैं।

द्विज वह है, जिसने ब्रह्म को जाना, जिसका दूसरा जन्म हो गया—शरीर का नहीं, आत्मा का, चैतन्य का। मृण्मय का नहीं, चिन्मय का जिसके भीतर आविर्भाव हुआ। दीए को तो भूल गया जो, ज्योति हो गया। उसको हम कहते हैं द्विज। ध्यानस्थ हुए को, समाधिस्थ हुए को, उसे हम कहते हैं ब्राह्मण।

ब्राह्मण कोई किसी ब्राह्मण के घर में पैदा होने से नहीं होता। ब्राह्मण तो द्विज होने से होता है। पैदा तो सभी शूद्र होते हैं। फिर उनमें से कुछ ब्राह्मण हो जाते हैं, अधिक शूद्र ही रह जाते हैं।

द्विज का मतलब है, समाधि से आविर्भाव हुआ नए जीवन का। पुराना गया, नया आया। पुराना मरा, नए का जन्म हुआ। फिर से तुम बालक हुए परमात्मा के।

द्विज को नमस्कार। जिसके भीतर क्रांति घट गई है, उसको नमस्कार। क्योंकि उससे तुम्हारे भीतर क्रांति के घटने का सूत्रपात मिलेगा, संबंध जुड़ेगा। वैसे नमस्कार करते—करते द्विज को कितनी देर तक तुम अपने शरीर से चिपके रहोगे? वह नमस्कार तुम्हें तोड़ेगा अपने ही शरीर से।

द्विज को नमस्कार करते—करते कभी—कभी तो तुम्हें द्विज की क्षमता दिखाई पड़ेगी। उसकी गरिमा, उसका गौरव, उसकी आंखें, उसका होना, उसका ढंग, कभी तो तुम पहचानोगे। हो सकता है, पहले नमस्कार औपचारिक ही हो; शास्त्र कहते हैं, इसलिए हो।

लेकिन अगर तुम द्विज को नमस्कार करते ही रहे, तो किसी न किसी क्षण में—जब तुम्हारा मन शात होगा, आनंदित होगा, क्रोध न होगा, दुख न होगा, एक भीतर सन्नाटा होगा—किसी दिन संयोग बैठ जाएगा, उस क्षण तुम्हें द्विज का दर्शन हो जाएगा। उस क्षण तुम जिसको नमस्कार करते थे, वह शरीर नहीं रह जाएगा; भीतर की ज्योति तुम्हें दिखाई पड़ जाएगी।

और ध्यान रखो कि जब तुम्हें किसी में वह ज्योति दिखाई पड़ेगी, तभी तुम अपने में खोजना शुरू करोगे। अन्यथा तुम कैसे खोजोगे अपने में? किसी में खजाना देख लोगे, तो तुम अपने घर आकर खोदने लगोगे। खजाना कहीं दिखाई ही न पड़ेगा, तो तुम सोच भी न पाओगे कि घर में खजाना हो सकता है। कहीं खोजोगे तो ही, किसी में देख लोगे तो ही, किन्हीं आंखों में तुम्हें सागर दिखाई पड़ जाएगा, किसी हृदय में तुम्हें विराट की थोड़ी—सी झलक मिलेगी। द्विज का अर्थ है, कोई जो जाग गया। शायद उसके पास क्षणभर को तुम्हारी नींद टूट जाए, तुम करवट बदल लो, एक क्षण को आख खोलकर देख लो। एक क्षण भी फिर क्रांति हो जाती है। एक चिनगारी आग बन जाती है। जरा—सी चिनगारी, और तुम फिर वही न हो सकोगे।

द्विज के पास होने का मतलब है, बारूद के पास होना। तुम तो घास—पात हो। एक चिनगारी पड़ गई कि लपटें लग जाएंगी, सब राख हो जाएगा। फिर वही बचेगा, जो जल नहीं सकता। न हन्यते हन्यमाने शरीरे! फिर वही बचेगा, जो शरीर के मरने से मरता नहीं। फिर वही बचेगा, जिसे शस्त्र छेद नहीं सकते।

पर द्विज के पास ही पहली दफा स्वाद लगेगा। और एक दफा स्वाद लग जाए, तब कठिनाई नहीं।

मैं जब स्कूल में पढ़ता था, तो पहली या दूसरी कक्षा में एक शिकारी की कहानी थी। वह क्यों वहां रखी थी, पता नहीं। किसने रख दी थी, वह भी पता नहीं। कोई प्रयोजन उस वक्त मालूम नहीं पड़ता था।

कहानी थी कि एक शिकारी ने एक सिंह को मारा, एक सिंहनी को मारा; जोड़े को मार डाला। तब उसे पता चला कि जोड़े के बच्चे भी थे। तो सिंह शावकों को, दो बच्चों को वह घर ले आया। एक तो उनमें से मर गया, एक बड़ा हो गया। उसे उसने शाक—सज्जी—दूध पर ही पाला।

वह सिंह शावक बड़ा हुआ, शाकाहारी। वह उसके पास बैठा रहता, जैसे बिल्ली बैठती या कुत्ता बैठता। बच्चे उसके साथ खेलते, वह बड़ा होता गया। नए लोग तो भयभीत हो जाते, लेकिन पूरा गांव जानता था, वह गांव में घूम आता। लोग उसे मिठाई खिलाते और उसको प्रेम करते।

एक दिन शिकारी बैठा था, वह भी बैठा था, उसका सिंह भी उसके पास बैठा था। शिकारी के पैर में चोट लग गई थी, और थोड़ा—सा खून बह रहा था। और उस सिंह ने उसे चाट लिया। बस, फिर खतरा हो गया। स्वाद लग गया। खून का स्वाद। उसी वक्त शिकारी खतरे में पड़ गया। क्योंकि उसने सिंह की गर्जना कर दी, वह शाकाहारी न रहा।

शिकारी को अपने प्राण बचाने मुश्किल हो गए, क्योंकि सिंह ने झपट्टा मार दिया। कभी उसने किसी पर झपट्टा न मारा था। उसे पता ही न था कि खून का स्वाद क्या है। अब स्वाद लग गया, तो उसके रोएं—रोएं में सोई हुई प्रकृति जाग गई।

उसके कण—कण में सिंह सोया था। सिंह शाकाहारी हो गया था। उसको पता ही नहीं था, इसलिए कोई उपाय ही न था। वह भूल ही चुका होगा कि सिंह है। अचानक गर्जना हौ गई। सारा घर खतरे में पड़ गया। सारा गांव खतरे में पड़ गया।

यह जब मैंने कहानी पढ़ी थी, तब तो मुझे लगा कि किसलिए है? इसका क्या मतलब है? क्या प्रयोजन है? लेकिन अब मैं सोचता हूं यह कहानी जरूर किन्हीं ज्ञान के स्रोतों से आई होगी। कहानी इतना ही कह रही है कि जब स्वाद लग जाए, तब क्रांति घट जाती है।

द्विज के पास तुम्हें स्वाद लगेगा। क्योंकि द्विज से बह रहा है परमात्मा, जैसे शिकारी से बह रहा था खून। एक दफा तुमने चख लिया, जरा—सा तुमने चख लिया, फिर तुम वही न हो सकोगे जो तुम थे। कल तक तुम अर्जुन थे, अब एकदम कृष्ण हो जाओगे। एक क्षण में सब बदल जाता है।

लेकिन कृष्ण का स्वाद कैसे लगेगा? कृष्ण के पास आने की व्यवस्था बनी रहनी चाहिए। उस व्यवस्था को हिंदुओं ने जमाया है द्विज से। तो वे कहते हैं द्विज को, ब्राह्मण को नमस्कार करो, नमन करो, उसका पूजन करो, उसके प्रति श्रद्धा का भाव रखो, तो कभी न कभी, अनायास, बिना तुम्हारे प्रयास के भी द्वार खुल जाएगा। बस एक बार स्वाद लगने की बात है।

गुरु और ज्ञानीजन……..।

जिनसे तुमने कुछ भी सीखा हो। कुछ भी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या। यहां कोइ सदगुरु की बात नहीं हो रही है, क्योंकि द्विज में वह बात हो गई। द्विज के बाद गुरु का नाम लेना अब फिर व्यर्थ पुनरुक्ति है। कृष्ण पुनरुक्ति नहीं करेंगे। वे एक शब्द ज्यादा न बोलेंगे, जो जरूरी है उससे।

द्विज, देवता में गुरु, सदगुरु आ गया। यहां तो गुरु से मतलब है, जिससे तुमने कुछ भी सीखा हो, कुछ भी, उसके प्रति नमन। जिससे तुमने क ख ग घ सीखा, गणित सीखा, भूगोल सीखी, उसमें कुछ भी नहीं है नमन जैसा। क्या है नमन जैसा?

पश्चिम में विद्यार्थी कहता है कि तुम तनख्वाह लेते हो, हम फीस देते हैं, बात खतम हो गई। वही बात अब हिंदुस्तान में भी विद्यार्थी कह रहा है कि तुम नौकर हो। बात खतम हो गई। तुम्हें नमन क्या करना? तुम्हारे पैर क्या छूना?

हम चूके जा रहे हैं एक बड़ी महत्वपूर्ण बात से। वह महत्वपूर्ण बात यह है कि जिससे तुमने कुछ भी सीखा हो, उसके चरणों में झुकना। क्यों? क्योंकि जो आखिरी सीखना होने वाला है, वह चरणों में बिना झुके न होगा। यह गणित है।

यहां तो तुमने जो सीखा है, वह दो कौड़ी का है। कोई हर्जा नहीं, न झुके तो भी कोई गुरु बिगाड़ नहीं लेगा कुछ। लेकिन झुकने की कला कहां सीखोगे? झुकने का अभ्यास कहां करोगे?

उथले पानी में तैरना सीखना पड़ता है। तो गुरु कितना ही उथला हो। उथले ही हैं, क्योंकि क्या है बेचारा वह। प्राइमरी स्कूल का एक मास्टर है, वह कोई सत्तर रुपया, अस्सी रुपया, सौ रुपया महीना पाता है। उसकी क्या हैसियत है! और तुम कभी के उससे आगे जा चुके। वह मैट्रिक पास है या पुराना मिडिलची होगा, तुम एम. ए. हो गए, पी.एच. डी हो गए, या डी. लिट हो गए। अब क्या है उस गुरु में? तुम उसके लिए क्यों झुको? तुम उससे ज्यादा जानते हो, उसे तुम्हारे लिए झुकना चाहिए।

नहीं लेकिन, जिससे तुमने कभी भी कुछ सीखा, उसके प्रति झुकना। वह तुम झुकते ही रहना। क्योंकि आखिरी दिन ऐसी घड़ी आएगी, जब तुम झुकोगे, तब सीखना होगा। अभी सिखाने वाले के प्रति झुकते रहना, ताकि झुकने का अभ्यास गहन हो जाए और उस परम सिखावन के पहले ऐसा न हो कि तुम अकड़े खड़े रह जाओ। हिंदुओं ने पूरे जीवन का शास्त्र बना लिया है। हिंदुओं से ज्यादा कुशल जाति खोजनी असंभव है। मगर उनके सब मूल्य टूटे जा रहे हैं। और उनके मूल्यों को समझाने वाला भी कोई नहीं है। और उनके मूल्यों के जो रखवाले हैं, वे बिलकुल निर्बुद्धि लोग मालूम पड़ते हैं। पुरी के शंकराचार्य जैसे लोग हैं, जिनमें साधारण बुद्धि भी नहीं है।

जब भी कोई जाति मरती है, तो ऐसा हो जाता है। उसमें बुद्धओं के हाथ में शक्ति पहुंच जाती है, फिर उसका मरना निश्चित हो जाता है।

गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन……।

गुरु तो वह है, जिससे तुमने सीखा हो। और ज्ञानीजन वे हैं, जिनसे दूसरों ने भी सीखा हो, तुमने न भी सीखा हो, तो भी झुकना। जिनसे दूसरों ने भी सीखा हो, जो दूसरों के गुरु हों, उनके प्रति भी झुकना। क्योंकि यह बड़ा सवाल नहीं है कि तुमने जिससे सीखा हो, उसी के प्रति झुको। क्योंकि अगर तुमने ऐसा अभ्यास किया कि तुम उसी के प्रति झुकोगे, जिससे तुमने सीखा है, तो इसमें भी अहंकार है। मैंने सीखा इसलिए झुकता हूं; एक लेन—देन है। झुकना शुद्ध नहीं है। झुकने में थोड़ी अशुद्धि है, थोड़ा व्यवसाय है।

न, उनके प्रति भी झुकना, जिनकी तुम्हें खबर है कि वे ज्ञानीजन हैं। वे न भी हों—इसको खयाल रखना—वें ज्ञानीजन न भी हों, अफवाह तुमने सुनी हो। तुम्हारे ऊपर कोई यह जिम्मा नहीं है कि तुम पहले पक्का प्रमाण खोजो, अदालत से सर्टिफिकेट लाओ कि यह आदमी असली में गुरु है कि नही, योग्य है कि नहीं, ज्ञानी है कि नहीं, फिर मैं झुकूंगा। नहीं, यह सवाल ही नहीं है। हो सकता है, वह ज्ञानी न भी हो, अज्ञानी हो। हर्जा कुछ नहीं है। झुकने से लाभ ही लाभ है।

और मेरा अनुभव यह है कि अगर तुम अज्ञानी के प्रति भी झुको, तो दोनों को लाभ होता है। अज्ञानी भी तुम्हारे झुकने से थोड़ा ज्ञानी होता है। उसको भी अपने अज्ञान से थोड़ी घबड़ाहट होती है। कभी तुम अज्ञानी के प्रति झुको, तो उसको भी लगता है, कुछ करना पड़ेगा। लोग झुक रहे हैं, कुछ बदलाहट करनी पड़ेगी।

तुम करके देखो। एक आदमी को तुम तय कर लो, उसको पता न चलने दो, सब उसके पैर छूने लगो। तुम पाओगे, महीनेभर में तुमने उस आदमी को बदल डाला है। क्योंकि अब वह चोरी नहीं कर सकता, शराब नहीं पी सकता, सिगरेट पीए, तो डर लगता है कि कोई पैर छू ले उसी वक्त, तो कैसा बेहूदा लगेगा!

इसलिए मैं कहता हूं हिंदू जाति बहुत कुशल है। झुकने से तुम्हें लाभ है। और जिसके प्रति तुम झुके, उसे भी लाभ है। क्योंकि तुम जब भी किसी के प्रति आदर देते हो, तब तुम उसके भीतर एक आकांक्षा पैदा करते हो कि यह आदर के योग्य तो बनाना चाहिए। इसलिए हमने इस गणित का बड़ा गहरा उपयोग किया था। हमने गुरुओं को और गुरु की गहराई में जाने में सहयोग दिया था, और शिष्य को और शिष्यत्व की गहराई में जाने में। और एक ही तरकीब का। इसको कहते हैं, एक पत्थर से दो पक्षी मार लेना।

अगर स्कूल के बच्चे स्कूल के गुरुओं को आदर दें, तो गुरुओं को बदल डालते हैं।

मेरे एक शिक्षक थे। कोई खास भले आदमी न थे। उनके बाबत बहुत बातें मैं सुनता था। मेरे घर के लोग भी मुझसे कहे कि तुम और सबके पैर छुओ, ठीक, लेकिन इस आदमी के मत छूना। मैंने कहा कि मेरा कोई यह हिसाब नहीं है। लेकिन यह आदमी मुझे भूगोल पढ़ाता है। उतने से मेरा संबंध है। भूगोल यह अच्छे ढंग से पढ़ाता है।

यह आदमी जुआ खेलता है, ऐसी मैंने खबर सुनी है। यह शराब पीता है, यह भी मैंने सुना है। यह वेश्यागामी है, यह भी मैंने सुना है। न केवल सुना है, बल्कि मैंने इसे वेश्याओं के इलाके में जाते भी देखा है और शराबघर में भी बैठे देखा है। मगर इससे मेरा कोई प्रयोजन नहीं। क्योंकि भूगोल यह ठीक पढ़ाता है। और इसके भूगोल पढ़ाने में न तो यह शराब पीकर आता है, और न वेश्या को लेकर आता है। इसलिए उससे मेरा कोई लेना—देना नहीं है। इसकी जिंदगी बड़ी है। अपना तो संबंध भूगोल से है। तो मैं तो इसके पैर छूता रहूंगा।

मैं पहला ही विद्यार्थी था, जो उसके पैर छूता। क्योंकि कोई उसके पैर छूता नहीं। कुछ दिनों बाद उस आदमी ने कहा कि देखो भई, तुम भी मेरे पैर मत छुओ। मैंने कहा, क्यों? उसने कहा कि तुम्हें पता नहीं कि मैं आदमी बुरा हूं। शिक्षक होने की मेरी योग्यता ही नहीं। यह तो मजबूरी में नौकरी करनी पड़ती है। और तुमसे मैं सच—सच कहे देता हूं मैं आदमी बिलकुल बुरा हूं। सब बुरे कृत्य मेरे जीवन में हैं। और तुम जब मेरे पैर छूते हो, तो मुझे बड़ा कष्ट होता है।

तो मैंने कहा, वह आपकी चिंता है। मैं पैर छूना जारी रखूंगा। उसने कहा कि तुम मुझे मुश्किल में डाले दे रहे हो। क्योंकि कल मैं शराबघर में बैठा था। तुम वहा से निकले, तो मुझे छिपना पड़ा। मैं कभी नहीं छिपा अपनी जिंदगी में। मुझे डर लगा कि यह लड़का कहीं देख न ले, नहीं तो यह क्या सोचेगा! और यह इतने भाव से पैर छूता है।

मैंने उस आदमी को बदल ही डाला। मैंने उस आदमी का पीछा जारी रखा।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजनों का भी पूजन…..।

जो तुम्हारे गुरु न भी हों, उनका भी पूजन।

पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा…..।

पवित्रता का अर्थ होता है, प्रामाणिकता। अपवित्र तुम उसी क्षण हो जाते हो, जब तुम होते कुछ हो और दिखाते कुछ हो। कोई आदमी चोरी करने से अपवित्र नहीं होता। चोरी करता है और दिखलाता है कि अचोर हूं तब अपवित्र होता है।

इसे तुम ठीक से समझ लो। कोई आदमी झूठ बोलने से अपवित्र नहीं होता। लेकिन बोलता झूठ है और दिखाता यह है कि मैं सच बोलता हूं तब अपवित्र होता है। जो आदमी झूठ बोलता है और कहता है, मैं झूठ बोलने वाला हूं वह पवित्र है। उसमें अपवित्रता नहीं है। उसमें विपरीत का मिश्रण नहीं है। वह सीधा, सरल है। तो अगर तुम्हें पवित्रता पानी हो जीवन में, तो तुम जैसे हो, वैसा ही प्रकट कर देना—बुरे हो तो बुरे, चोर हो तो चोर, झूठे हो तो झूठे, कामी हो तो कामी—उसे तुम छिपाना मत। बस, छिपाने से आदमी अपवित्र होता है।

और यह बड़े रहस्य की बात है कि जितना तुम प्रकट कर दोगे, उतने ही जल्दी तुम बदलना शुरू हो जाओगे। क्योंकि पवित्र व्यक्ति कितने दिन तक चोर रह सकता है? पवित्रता इतनी बड़ी अग्नि है कि चोरी को जला डालेगी। प्रामाणिकता इतनी बड़ी बात है कि जो आदमी झूठ बोलता है और कहता है कि मैं झूठ बोलता हूं वह कितने दिन तक झूठ बोल सकेगा? उसने पहला कदम सच की तरफ उठा ही लिया। सबसे बड़ा कदम उसने उठा लिया कि उसने स्वीकार कर लिया कि मैं झूठ बोलता हूं मैं झूठा आदमी हूं। इससे बड़ा सत्य की तरफ कोई भी कदम नहीं है। और यह कदम इतना बड़ा है कि सब झूठ इस कदम में दब जाएंगे और मर जाएंगे।

जिस आदमी ने स्वीकार कर लिया कि मैं कामवासना से भरा हूं उसने ब्रह्मचर्य की तरफ पहला कदम उठा लिया। इसीलिए तो तुम्हारे साधु—संन्यासी ब्रह्मचारी नहीं हो पाते। क्योंकि उन्होंने पहला कदम ही नहीं उठाया। उन्होंने कभी यह स्वीकार ही नहीं किया कि हम कामवासना से भरे हैं। वे पहले ही से दावा कर रहे हैं कि हम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हैं।

और ब्रह्मचर्य को उपलब्ध करोड़ों में कभी एक आदमी होता है। क्योंकि कामवासना शरीर के रोएं—रोएं में भरी है। और हिंदुस्तान में लाखों संन्यासी दावा कर रहे हैं कि वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हैं। इससे भयंकर झूठ दुनिया में कहीं चल ही नहीं सकता।

हिंदुस्तान जैसा पाखंड तुम कहीं भी न पा सकोगे। और लोग मान भी रहे हैं! बड़ा खेल चल रहा है।

जिसने स्वीकार कर लिया कि मुझमें कामवासना है, यह आदमी प्रामाणिक है। यह कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होकर रहेगा। जिसने कहा, कामवासना मुझमें है ही नहीं, इसने पहला झूठ स्थापित कर लिया। अब यह कामवासना नहीं है, इसको ही छिपाने में, इसको ही दबाने में इसकी सारी जिंदगी लग जाएगी।

प्रामाणिक, आथेंटिक बनो।

तो कृष्ण कहते हैं, पवित्रता। फिर कहते हैं, सरलता। जो पवित्र होगा, वह सरल हो जाता है। सरल का अर्थ है, जिसमें दाव—पेंच न हों, चालाकी न हो, एक निर्दोषता हो। बच्चे जैसा।

क्या मतलब है बच्चे जैसा होने का? बच्चे पर तुम नाराज हो जाओ, तो वह क्रोध से भर जाता है, आग में जलने लगता है। लगता है कि मकान को मिटा देगा, कि दुनिया को मिटा देगा, अगर उसके हाथ में ताकत होती। कूदता—फांदता है। चीजें तोड़ देता है। तुम सोचोगे कि यह बच्चा तो महान भयंकर उपद्रव है। यह किसी न किसी दिन हत्यारा बनेगा।

और पांच मिनट बाद वह शाति से तुम्हारे पास बैठा है। बड़ा आनंदित है, गीत गुनगुना रहा है। तुम भरोसा ही नहीं कर सकते कि क्षणभर पहले यह इतना क्रोध से भरा था और अब इतना सुंदर और शात मालूम हो रहा है! क्या हो गया इसको?

बच्चा सरल है, उसके पास गणित नहीं है। जब क्रोध होता है, तब वह क्रोध प्रकट करता है। बच्चा जिस भाव—दशा में होता है, वही भाव—दशा प्रकट करता है। तुम कभी क्रोध में होते हो, लेकिन मुस्कुराते हो। क्योंकि अभी मुस्कुराना लाभपूर्ण है, क्रोध करना खतरा है; महंगा पड़ जाएगा।

मालिक से दफ्तर में तुम नाराज हो, लेकिन हंस—हंसकर बातें करते हो, पूंछ हिलाते हो। तबीयत हो रही है कि गरदन दबा दें इसकी। तुम हिसाब बिठाते हो कि इसमें तो नुकसान होगा, नौकरी हाथ से चली जाएगी।

घर आते हो, पत्नी से कलह होती है। कोई सदभाव नहीं भीतर पैदा होता, क्रोध पैदा होता है। उसको भी छिपाते हो। क्योंकि पत्नी से झंझट लेने का मतलब है, दिन, दो दिन मुसीबत चलेगी। उतना महंगा सौदा नहीं करना चाहते।

सब तरफ से झूठ इकट्ठा कर लेते हो, धीरे— धीरे अप्रामाणिक हो जाते हो। तुम्हारी हंसी से पक्का पता नहीं चलता कि तुम भीतर हंस रहे हो। तुम्हारे रोने से पक्का पता नहीं चलता कि तुम भीतर रो रहे हो। भीतर कुछ, बाहर कुछ। यह जटिलता है।

और फिर यह जटिलता घनी होती जाती है। जैसे—जैसे अनुभव जीवन का बढ़ता है, सब चीजें जटिल हो जाती हैं, उलझाव हो जाता है। जैसे रस्सी का धागा उलझ गया हो, कई उलझन में पड़ गया हो, ऐसा तुम्हारा व्यक्तित्व हो जाता है।

इसलिए मैं कहता हूं धार्मिक होना बड़ी हिम्मत की बात है। क्योंकि उसमें तुम्हें कई खतरनाक सौदे करने पड़ेंगे। जब तुम क्रोध से भरो, तो क्रोध को ही प्रकट करना, चाहे कोई भी परिणाम हो, चाहे कितना ही उसका फल भोगना पड़े।

फल का हिसाब जिसने लगाया, वह चालाक है। असल में फल का हिसाब ही चालाकी है। वह सोच रहा है कि इसका क्या परिणाम होगा। बच्चा नहीं सोचता कि क्या परिणाम होगा।

और मैं तुमसे कहता हूं कि अगर तुम सरल रहे, तो तुम धीरे— धीरे पाओगे, क्रोध विलीन हो गया। अगर तुम जटिल रहे, तो क्रोध सदा मौजूद रहेगा। घृणा गहन होती जाएगी, प्राणों के प्राण में समा जाएगी। नासूर की तरह तुम्हारा व्यक्तित्व हो जाएगा। उसमें से परमात्मा की सुगंध कैसे उठ सकती है? उसमें समाधि का दीया कैसे जलेगा? नहीं, उसमें कमल नहीं खिल सकते। वहा भूमि ही नहीं रही। वहा तुमने सब जटिल कर लिया।

कृष्ण कहते हैं, सरलता, पवित्रता…..।

पहले पवित्रता, फिर सरलता। सरलता का अर्थ है, जीवन के सभी संवेगों को बच्चे की तरह जीना। धीरे— धीरे तुम पाओगे कि कोई हानि नहीं होती। तुम्हारे क्रोध को भी लोग समझते हैं कि यह आदमी क्रोध भला कर लेता हो, लेकिन क्रोधी नहीं है। तुम्हारे क्रोध को लोग क्षमा कर देंगे; क्योंकि लोग जानते हैं, तुम सरल हो। तुम किसी क्षण में उबल पड़ते हो, यह बात ठीक है। लेकिन तुम जटिल नहीं हो।

जो आदमी कभी क्रोध नहीं करता और सदा क्रोध को ढोता है, उसका कोई भरोसा नहीं करता। वह आदमी जटिल है। उसकी बात का पक्का भरोसा नहीं है। वह पाखंडी है। वह कहेगा कुछ, करेगा कुछ। उस पर तुम भरोसा नहीं कर सकते। धीरे— धीरे वह जितनी चालाकी करता है, जितना हिसाब लगाता है, उतने ही नुकसान में पड़ता है।

सरल व्यक्ति अंततः ,चाहे शुरू में थोड़ी कठिनाई हो, बाद में हमेशा परम धन को उपलब्ध होता है, परम लाभ को उपलब्ध होता है।

ब्रह्मचर्य…….।

इनमें एक क्रम है। अगर तुम पवित्र हो, तो सरल होना आसान होगा। अगर सरल हो, तो ब्रह्मचर्य आसान होगा। पहले कामवासना को स्वीकार करो। फिर कामवासना को दबाओ मत, प्रकट होने दो; उसे जीओ। जीवन में सभी कुछ जीने के लिए है, ताकि तुम उसके पार जा सको। तब ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है।

ब्रह्मचर्य कामवासना के विपरीत नहीं है। कामवासना के द्वारा पाए गए अनुभव का नाम है। कामवासना से गुजरे हुए आदमी की संपदा है। कामवासना को जीया है जिसने, जीकर देखा है जिसने, पीड़ा जानी, व्यर्थता जानी, वही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। तब ब्रह्मचर्य कोई जबरदस्ती थोपा गया नियम नहीं होता, अनुशासन नहीं होता; तुम्हारे जीवन के अनुभव से आया हुआ सीधा—सीधा भाव होता है। नहीं कि तुम अब लड़ते हो अपनी कामवासना से। नहीं, कामवासना जा चुकी; तुमने उसे जी लिया, वह बात खतम हो गई।

इसे तुम सूत्र की तरह याद रखो, जिस चीज को भी समाप्त करना हो, उसे ठीक से जी लो। अधूरी जीयी गई चीज हमेशा कायम रहती है, सरकती है, सिर के आस—पास घूमती रहती है। अधूरे अनुभव से कोई मुक्त नहीं हो सकता।

कच्चा फल कैसे वृक्ष से गिरेगा? पत्थर मारकर गिरा सकते हो। लेकिन फल में भी घाव रह जाएगा; वृक्ष में भी घाव रह जाएगा। और कच्चा फल खाया भी नहीं जा सकता। और कच्चे फल में जो बीज हैं, वे भी व्यर्थ हैं। उनसे नये पौधे पैदा नहीं हो सकते। कच्चा फल बिलकुल बेकार है।

कच्चा ब्रह्मचर्य बिलकुल बेकार है। उससे ब्रह्म का कोई अनुभव पैदा न होगा। तुम भटक— भटककर शरीर में आओगे। जो अधूरा है, वह तुम्हें वापस ले आएगा।

अधूरा अनुभव संसार में लौटने का द्वार है। अनुभव की पूर्णता पार ले जाती है, अतिक्रमण करा देती है। जान ही लो, परमात्मा ने जो भी अवसर दिया है। दुख—पीड़ा झेल ही लो, ताकि तुम पक जाओ। उस पकने का ही नाम अनुभव है।

जिसका काम पक गया, वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है। जिसका क्रोध पक गया, वह करुणा को उपलब्ध हो जाता है। जिसकी घृणा पक गई, वह प्रेम को उपलब्ध हो जाता है। जिसका भोग पक गया, वह त्याग को उपलब्ध हो जाता है।

उपनिषद कहते हैं, त्येन त्यक्तेन भुंजीथा। उन्होंने ही जाना त्याग, जिन्होंने भोग जाना। उपनिषद हिम्मतवर हैं; कमजोरों का धर्म नहीं है वहा। कूड़ा—कर्कट नहीं है वहां व्यर्थ का। सीधी साफ बात है, विज्ञान की बात है। जानो, क्योंकि जानना ही मुक्ति है।

और जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है, वह अहिंसा को उपलब्ध होता है। क्यों? क्योंकि जब तक तुम्हारी कामवासना है, तुम हिंसक रहोगे। कामवासना हिंसा है। कामवासना का अर्थ है, दूसरे का शोषण। कामवासना का अर्थ है, दूसरे का उपयोग। कामवासना का अर्थ है, दूसरे के शरीर की वस्तु की भांति उपयोगिता है। दूसरे पर कब्जा करो।

इसलिए तुम ध्यान रखो, कामवासना ही तुम्हारे मन में हिंसा पैदा करती है। इसलिए पति और पत्नी लड़ते रहते हैं। जैसा पति—पत्नी लड़ते हैं, ऐसा दुनिया में कोई नहीं लड़ता। लड़ते ही रहते हैं चौबीस घंटे; क्योंकि एक—दूसरे का संबंध ही कामवासना का है।

जहां कामवासना है, वहां कलह, वहा हिंसा जारी रहेगी। और जो तुम्हारी कामवासना में बाधा डालेगा, उसे तुम समाप्त कर देना चाहोगे। जो भी बीच में आड़े आएगा, उसे तुम मिटा देना चाहोगे। जब कामवासना ही चली जाती है, तो अचानक अहिंसा का आविर्भाव होता है। अहिंसा का अर्थ है, अब मुझे दूसरे से कोई प्रयोजन न रहा; अब मेरा आनंद मुझमें है, दूसरे में नहीं है। तो न तो दूसरा उसे छीन सकता है, न दे सकता है। जब दूसरा मुझे आनंद नहीं दे सकता और न छीन सकता है, तो दूसरे को मैं क्यों दुख पहुंचाने जाऊंगा!

जैसे—जैसे आनंद अपने भीतर गहन होता है, वैसे—वैसे तुम्हारे दूसरों के प्रति जो भी हिंसा के, लगाव के, विरोध के, मित्रता के, शत्रुता के संबंध थे, वे सब गिर जाते हैं। अहिंसक का न तो कोई मित्र है, न कोई शत्रु। अहिंसक अकेला है। अहिंसक अपने में जीता है। उसे भीतर का स्वर्ग मिल गया। अब दूसरे से उसका कोई संबंध न रहा।

कामवासना से भरा आदमी हिंसक रहेगा ही। क्योंकि कामवासना की बहुत जरूरतें हैं। एक तो सुंदर स्त्री चाहिए, वह तुम्हें खोजनी पड़ेगी, छीननी पड़ेगी; क्योंकि बड़ा बाजार है। गरीब को सुंदर स्त्री तो नहीं मिल पाती। जितना धन हो, उसको उतनी सुंदर स्त्री मिल पाती है। अगर तुम्हें अब जेकलिन केनेडी से विवाह करना हो, तो ओनासिस होना चाहिए; धन होना चाहिए। सुंदर स्त्री को तुम बिना धन के तो न पा सकोगे। वहां बाजार है। तो गरीब को गई गुजरी स्त्री मिलती है। ऐसी मिल जाती है, जिसको कामचलाऊ स्त्री कह सकते हो।

तो दौड़ है धन की। कामवासना है, तो धन चाहिए। नहीं तो बिना धन के कैसे रहोगे? और धन है, तो एक स्त्री नहीं पचास स्त्रियां मिल सकती हैं। सम्राट हजारों स्त्रियों को रखते थे; कोई अड़चन न थी। गरीब तो एक स्त्री को भी नहीं रख पाता! गरीब को एक स्त्री का भी विचार उठता है, तो सोचता है हजार दफे कि विवाह करना कि नहीं; सम्हाल पाएंगे कि नहीं। अमीर सैकड़ों स्त्रियों से संबंध बना लेता है।

और तुम यह मत सोचना कि जिन अमीरों की एक पत्नियां हैं, उनके और स्त्रियों से संबंध नहीं हैं। नहीं तो अमीर होने का फायदा ही क्या है? सार क्या है? अमीर होने का मतलब यह है कि जितना ज्यादा भोगा जा सके, उसकी भोग की सुविधा धन है। धन तो केवल सुविधा है। तो तुम जितनी स्त्रियां चाहो, उतनी स्त्रियां मिल सकती हैं।

पद चाहिए! जिसके पास पद है, उसे स्त्रियों को पाना आसान हो जाता है। तो वही आदमी कल बाजार में घूमता रहता था तुम्हारे पूना के, कोई नहीं मिलता था। वही अब मिनिस्टर हो जाए, तो फिल्म अभिनेत्रियां उसके पैर दबाने लगती हैं।

पद हो, धन हो, तो कामवासना को पूरा करना आसान होता है। पद न हो, धन न हो, तो तुम कैसे कामवासना पूरी करोगे? फिर धन और पद के लिए हिंसा करनी पड़ती है, शोषण करना पड़ता है। युद्ध होते हैं, स्त्रियों के लिए, धन के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा के लिए।

हिंसा तभी मिटती है, जब कामवासना चली जाती है। इसे शरीर संबंधी तप कृष्ण ने कहा।

जो उद्वेग को न करने वाला, प्रिय और हितकारी यथार्थ भाषण है, स्वाध्याय का अभ्यास है, वह निःसंदेह वाणी का तप है।

वाणी ऐसी हो जो प्रिय हो, हितकारक हो। दूसरे से तभी बोलो, जब उसका कुछ हित होने वाला हो तुम्हारे बोलने से, अन्यथा मत बोलो।

तुम बोले चले जाते हो, तुम्हें दूसरे से कोई प्रयोजन ही नहीं है। यह हिंसा है। वह भागना चाहता है, उसे दफ्तर जाना है। तुम रास्ते पर पकड़ लिए हो और तुम अपना बोले चले जा रहे हो। तुम्हें इसकी फिक्र ही नहीं कि वह सुनने वाले को सुनना है कि नहीं सुनना है। वह क्या कह रहा है? क्यों कह रहा है? उसका चेहरा देखो, वह भागने को तैयार खड़ा है। लेकिन तुम कहे चले जा रहे हो। तुम हिंसा कर रहे हो। वाणी की हिंसा है।

वही कहो, जिससे दूसरे का कोई हित होता हो, अन्यथा चुप रहो। क्या जरूरत है! और जिस ढंग से कहो, वह ढंग प्रीतिकर हो। क्योंकि सत्य भी तुम इस तरह बोल सकते हो, जैसे गाली फेंके कोई किसी की तरफ। तुम काने आदमी को काना कह सकते हो, असत्य वह नहीं है। इसलिए दुनिया का कोई भी संत तुमसे यह नहीं कह सकता कि तुम असत्य बोले। सत्य तुम बिलकुल बोले, अंधे को तुमने अंधा कहा।

लेकिन सूरदास भी कह सकते थे। और सूरदास में एक माधुर्य है। तुमने अंधे को अंधा कहकर चोट पहुंचाई सत्य से भी। तुमने सत्य का ऐसा उपयोग किया, जैसा लोग असत्य का करते हैं। तुमने सत्य को पत्थर की तरह फेंका। उससे तुम्हारे भीतर का बोध बढ़ेगा नहीं। संवेदनशील बनो, वही कहो, जो दूसरे के लिए प्रीतिकर हो। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम प्रीतिकर करने के लिए झूठ बोलो। इसलिए कृष्ण उसमें शर्त देते हैं, उद्वेग को न पैदा करे, प्रिय हो, हितकारक हो, यथार्थ हो, सत्य हो।

कोई यह नहीं कहते कि तुम लोगों की झूठी प्रशंसा करो कि उनको खूब आनंद आए। कि वे खुद अपना चेहरा आईने में देखने में डरते हैं और तुम कह रहे हो कि तुम परम सुंदर हो, कि आप जैसा पुरुष कहीं देखा नहीं। धन्य हैं कि दर्शन हो गए!

झूठ बोलने का भी कोई प्रयोजन नहीं है। क्योंकि वह भी हानिकर है। वह भी इस आदमी में अहंकार जन्मा सकता है। तुमने विष डाल दिया।

और जिससे स्वाध्याय का अभ्यास हो। वही बात बोलो, जिसके बोलने से तुम्हारे स्वयं के अध्ययन में, स्वयं के निरीक्षण में गति आए। खयाल करो, किसी से तुम कुछ भी बोल रहे हो, तो बोले मत जाओ मूर्च्छित। ठीक भीतर जागकर बोलो कि जो मैं बोल रहा हूं वह मैं क्यों बोल रहा हूं? अपने कारण बोल रहा हूं या दूसरे के कारण बोल रहा हूं? बोलना मेरा पागलपन है, इसलिए बोल रहा हूं? कि मेरे मन में कचरा भरा है, उसे खाली करने के लिए बोल रहा हूं? रेचन कर रहा हूं? भीतर अध्ययन करते रहो, क्यों बोल रहा हूं? यह बात मैंने क्यों कही? क्या कारण था? क्यों मेरे भीतर उठी?

तो वाणी मधुर हो, यथार्थ हो, तुममें या दूसरे में व्यर्थ के उद्वेग और तनाव को पैदा न करती हो, और साथ ही साथ तुम्हारा स्वाध्याय चलता रहे, तो यह वाणी का तप है।

मन की प्रसन्नता, शात भाव, मौन, मन का निग्रह और भाव की पवित्रता, ऐसे यह मन संबंधी तप है।

और तीसरा तप है मन संबंधी।

मन की प्रसन्नता……।

तुम आमतौर से पाओगे कि धार्मिक जो लोग बन जाते हैं या सोचते हैं कि धार्मिक बन गए, वे प्रसन्नता छोड़ देते हैं। वे उदास होकर बैठ जाते हैं, लंबे चेहरे बना लेते हैं। जैसे लगता है कि धार्मिक होने का उदासी से कोई संबंध है।

नहीं, कृष्ण तो बड़ी उलटी बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, मन की प्रसन्नता तप है।

उदास होना तो सांसारिक आदमी का लक्षण होना चाहिए, साधु का नहीं। सांसारिक उदास हो, समझ में आता है, क्योंकि इतने दुख में जी रहा है, नरक में पड़ा है। लेकिन मंदिरों में बैठे साधु ऐसा चेहरा बनाए बैठे हैं, कि जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है। इनका दिल भी वहीं होने का है, जहां नरक है, बाजार है। दुर्घटनावश ये मंदिर में फंस गए हैं, इसलिए उदास बैठे हैं। अन्यथा मंदिर में तो नाच होगा, गीत होगा, प्रसन्नता होगी।

मन की प्रसन्नता को साधो। जितने तुम मन को प्रसन्न कर सकोगे, तुम पाओगे कि तुम उतने ही मन के पार जाने लगे। मन की प्रसन्नता मन के पार ले जाने का उपाय है।

मन की प्रसन्नता ऐसे है, जैसे फूल की गंध। फूल तो पीछे पड़ा रह जाता है, गंध ऊपर उठ जाती है। जब तुम्हारा मन प्रसन्न होता है, मन तो नीचे पड़ा रह जाता है, प्रसन्नता की गंध ऊपर उठ जाती है। सिर्फ प्रसन्नचित्त लोगों ने ही परमात्मा को जाना है, वह नाचते हुए लोगों का अनुभव है। उदास, बीमार, रुग्णचित्तों का अनुभव नहीं है। क्योंकि परमात्मा यानी परम उत्सव।

प्रसन्न होकर तैयारी करो। नाचने का थोड़ा अभ्यास करो; थोड़े पैरों में अर बांधो, कंठ को मधुर करो, गीत को गुंजने दो। क्योंकि उस परम उत्सव में तुम तभी सम्मिलित किए जा सकोगे, जब तुम्हारी थोड़ी तैयारी होगी।

मन की प्रसन्नता और शात भाव…….।

क्योंकि मन की प्रसन्नता उथली भी हो सकती है। जैसे बाजार में खड़े सड्कों पर लोग हंसते हैं। वह हंसना उथला है। उसमें कोई गहराई नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे छिछली नदी में शोरगुल होता है, कंकड़—पत्थरों में आवाज होती है। और गहरी नदी में सब शात हो जाता है। गहरी नदी भी प्रसन्न होती है, लेकिन शात होती है। तुम गहरी नदी की तरह शात भी रहो और प्रसन्न भी। तुम्हारी प्रसन्नता खिलखिलाहट की तरह नहीं होगी, स्मित की तरह होगी, मुस्कुराहट की तरह होगी। और भीतर एक शात पृष्ठभूमि हो, मौन। और तुम्हारी प्रसन्नता, तुम्हारी हंसी कुछ कहे न। सिर्फ तुम्हें प्रकट करे, कुछ कहे न।

कोई गिर गया छिलके पर फिसलकर, तुम हंस दिए। यह मौन नहीं है हंसना। तुम व्यंग्य कर रहे हो। तुम गाली से भी गहन चोट पहुंचा रहे हो उस आदमी को, जो गिर पड़ा है। तुम्हारी हंसी कुछ न कहे, सिर्फ तुम्हें कहे। तुम्हारे मौन को प्रकट करे तुम्हारी प्रसन्नता। मन का निग्रह..।

मन के निग्रह का अर्थ है कि तुम मन के प्रति सदा जागे रहो; मन के साथ तादात्म्य न हो जाए। क्रोध आए, तो भी तुम जागकर जानते रहो कि क्रोध ने मुझे घेरा है, लेकिन मैं क्रोध नहीं हूं। मैं क्रोध से अलग हूं। मैं साक्षी हूं। साक्षी— भाव है मन का निग्रह।

भाव की पवित्रता।

कुछ भी हो, तुम भाव को अपवित्र मत करो। एक आदमी तुम्हें धोखा दे दे, तो दो उपाय हैं। एक तो यह है कि तुम भाव को अपवित्र कर लो कि यह आदमी बुरा है और अब कभी किसी का भरोसा न करूंगा। और इस आदमी का तो अब कभी भरोसा नहीं करूंगा। और यह आदमी चोर है, बेईमान है। और तुमने अपने भाव को कलुषित कर लिया।

बड़े मजे की बात यह है कि उसने तुम्हें चोरी करके जितना नुकसान पहुंचाया, उससे ज्यादा नुकसान तुम अपने भाव को अपवित्र करके पहुंचा रहे हो। यह भी हो सकता था कि तुम कहते कि बेचारा आदमी, शायद तकलीफ में होगा, गरीबी में होगा, मुसीबत में होगा। उपाय नहीं खोज सका कोई, इसलिए चोरी की है। और मुझे अगर समझ आ जाती कि इसको चोरी करनी पड़ेगी, तो मैं ऐसे ही दे देता।

तुम अपने भाव को बचाओ; क्योंकि अंतिम रूप से भाव ही तुम्हारी संपदा है। इस संसार में किसने तुम्हें धोखा दिया, किसने नहीं दिया, इसका कोई हिसाब आखिरी में नहीं बचेगा। तुम्हारा भाव क्या रहा; बस, वही बचेगा।

भाव की पवित्रता, ऐसे यह मन संबंधी तप कहा जाता है।

ये तीन तप अगर तुम साध सको, तो तुम्हारे भीतर सत्व का उदय होगा। तुम सात्विक हो सकते हो।

आज इतना ही।


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जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–9)

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श्वास की कीमिया—(प्रवचन—नौवां)

तीसरी प्रश्नोत्तर चर्चा

प्रश्न : ओशो रूस के बहुत बड़े अध्यात्मविद् और मिस्टिक जॉर्ज गुरजिएफ ने अपनी आध्यात्मिक खोज— यात्रा के संस्मरण ‘मीटिंग्स विद दि रिमार्केबल मेन’ नामक पुस्तक में लिखे हैं। एक दरवेश फकीर से उनकी काफी चर्चा भोजन को चबाने के संबंध में तथा योग के प्राणायाम व आसनों के संबंध में हुई जिससे वे बड़े प्रभावित भी हुए। दरवेश ने उन्हें कहा कि भोजन को कम चबाना चाहिए कभी— कभी थी सहित भी निगल जाना चाहिए; इससे पेट शक्तिशाली होता है। इसके साथ ही दरवेश ने उन्हें किसी भी प्रकार के श्वास के अभ्यास को न करने का सुझाव दिया। दरवेश का कहना था कि प्राकृतिक श्वास—प्रणाली में कुछ भी परिवर्तन करने से सारा व्यक्तित्व अस्तव्यस्त हो जाता है और उसके घातक परिणाम होते हैं इस संबंध में आपका क्या मत है?

 समें पहली बात तो यह है कि यह तो ठीक है कि अगर भोजन चबाया न जाए, तो पेट शक्तिशाली हो जाएगा। और जो काम मुंह से कर रहे हैं वह काम भी पेट करने लगेगा। लेकिन इसके परिणाम बहुत घातक होंगे।

पहली तो बात यह है कि मुंह जो है वह पेट का हिस्सा है। वह पेट से अलग चीज नहीं है। वह पेट की शुरुआत है। पेट और मुंह दो चीजें नहीं हैं, दो अलग चीजें नहीं हैं; मुंह पेट की शुरुआत है। तो कहां से पेट शुरू होता है, यह जिस आदमी से गुरजिएफ की बात हुई उस दरवेश को कुछ पता नहीं है। पेट कहां से शुरू होता है? पेट मुंह से शुरू होता है। और अगर मुंह का काम आपने नहीं किया.. .उसका काम है और अनिवार्य काम है। अगर उसे आप छोड़ दें तो पेट उस काम को करने लगेगा। लेकिन उस करने में दोहरे नुकसान होंगे।

मुंह के साथ मस्तिष्क के आंतरिक संबंध:

एक नुकसान तो यह होगा कि शरीर का सारा काम बंटा हुआ है। एक तरह का डिवीजन ऑफ लेबर है, श्रम विभाजित है शरीर में। अगर हम इस श्रम—विभाजन को तोड़ दें और एक ही अंग से और काम भी लेने लगें, तो वह अंग तो शक्तिशाली हो जाएगा, लेकिन जिस अंग से हम काम लेना बंद कर देंगे वह एकदम शक्तिहीन हो जाएगा। और पेट अगर बहुत शक्तिशाली हो तो आप एक पशु तो हो जाएंगे बड़े शक्तिशाली, लेकिन अगर मुंह कमजोर हो जाए तो आप मनुष्य नहीं रह जाएंगे। क्योंकि मुंह की कमजोरी के बहुत घातक परिणाम हैं। क्योंकि मुंह के साथ हमारे मस्तिष्क के बहुत आंतरिक संबंध हैं, जैसे पेट के संबंध हैं, वैसे मस्तिष्क के संबंध हैं। और हमारे मुंह के शक्तिशाली होने पर निर्भर करता है कि हमारे मस्तिष्क के स्नायु शक्तिशाली हों।

तो जैसे एक आदमी अगर गूंगा है, बोल नहीं सकता, तो उसके मस्तिष्क के बहुत से हिस्से सदा के लिए बेकार रह जाएंगे। गूंगा आदमी बुद्धिमान नहीं हो सकता। अंधा आदमी बहुत बुद्धिमान हो जाएगा। गूंगा आदमी ईडियट हो जाएगा, उसमें बुद्धि विकसित नहीं होगी। क्योंकि उसके मुंह के साथ बहुत से उसके मस्तिष्क के जोड़ हैं। और मुंह के चलाने के साथ आपके पेट का चलना शुरू हो जाता है। अगर आप मुंह न चलाएं, तो पेट का जो चलना शुरू होना है वह भी बहुत कठिन बात है। और हमारे मुंह के पास कुछ चीजें हैं, जो पेट के पास नहीं हैं।

प्रश्न: सलाइवा?

हां, सलाइवा; जो कि नहीं है पेट के पास और उसके लिए उसे अतिरिक्त श्रम करना पड़े। और यह बात सच है कि कोई अंग अगर काम करे तो शक्तिशाली होता है। लेकिन अगर उसे ऐसा काम करना पड़े जो कि उसका नहीं है, तो क्षीण होता है; क्योंकि उस पर अतिरिक्त भार है।

और भी बड़े मजे की बात है कि पेट के बहुत से काम को जब हम विभाजित कर देते हैं— कुछ मुंह कर लेता है, कुछ पेट कर लेता है—तो हमारी जो ऊर्जा है, हमारी जो एनर्जी है, वह पेट पर केंद्रित नहीं हो पाती। वह पेट से मुक्त होना शुरू होती है। इसलिए जैसे ही आप खाना खाते हैं, नींद आनी शुरू हो जाती है। क्योंकि आपके मस्तिष्क में जो शक्ति थी वह भी पेट अपने भीतर बुला लेता है। वह कहता है कि अब उसे भी काम में लगा देना है। क्योंकि खाना बहुत बुनियादी तत्व है जीवन के लिए। सोचना वगैरह गौण बातें हैं, इनमें पीछे लगेंगे, अभी पेट को पचा लेने दें। तो जैसे ही आप खाना खाते हैं, वैसे ही मन सोने का होने लगता है। उसका कारण यह है कि मस्तिष्क से सारी ऊर्जा वापस बुला ली गई।

पेट पर जितना काम बढ़ेगा, मस्तिष्क उतना कमजोर होता चला जाएगा। क्योंकि उसको उतनी ऊर्जा की जरूरत पड़ेगी। और जो नॉन—एसेंशियल हिस्से हैं जीवन में, वह उनसे खींच लेगा। मस्तिष्क जो है वह लग्जूरियस हिस्सा है। उसके बिना जानवर काम चला रहे हैं। वह कोई जीवित होने के लिए जरूरी हिस्सा नहीं है। लेकिन पेट जीवित होने के लिए जरूरी हिस्सा है। उसके बिना कोई काम नहीं चला रहा, वृक्ष भी काम नहीं चला सकता उसके बिना। तो वह बहुत एसेंशियल केंद्रीय तत्व है।

तो हमारे मस्तिष्क वगैरह को शक्ति तभी मिलती है, जब वह पेट से बचती है। अगर वह पेट में लग जाए तो वह मस्तिष्क को नहीं मिलती। इसलिए गरीब कौम के पास मस्तिष्क धीरे— धीरे क्षीण होने लगता है, विकसित नहीं होता। क्योंकि उसकी पेट पर सारी की सारी शक्ति लग जाती है। और उसके पेट से ही कुछ नहीं बचता कि वह कहीं और जा सके, शरीर के और हिस्सों में फैलाव हो सके।

रिफाइंड फूड से मस्तिष्क का विकास:

तो जितना हम पेट का काम कम कर दें, उतना ही मस्तिष्क विकसित होता है। इसलिए जितना रिफाइंड फूड है, जिसको कि पेट को पचाने में कम से कम ताकत लगती है, उतना मस्तिष्क विकसित होता चला जाता है। इसलिए जिस दिन हम सिंथेटिक फूड ले सकेंगे, सिर्फ गोली आपने ली और आपका काम पूरा हो गया, उस दिन मस्तिष्क को इतनी ऊर्जा मिलेगी जितनी कभी भी नहीं मिली। और उस ऊर्जा के अनंत परिणाम होंगे।

असल में, पेट का काम नहीं बढ़ाना है, पेट का काम रोज कम करना है। अगर गौर से देखें तो जैसे—जैसे नीचे उतरेंगे उतना पेट का काम ज्यादा पाएंगे पशु में। जैसे एक भैंस है, वह चौबीस घंटे ही चबा रही है, चौबीस घंटे ही खा रही है। उसका पेट का ही काम पूरा नहीं हो पाता। इसलिए मस्तिष्क जैसी चीज की उसमें झलक नहीं मिल पाती। मनुष्य उतना ही विकसित होता चेला जाएगा जितनी पेट से ऊर्जा उसकी मुक्त होने लगेगी। अगर बहुत ठीक से समझें तो जिस दिन मनुष्य पेट से मुक्त होगा उसी दिन पशुता से मुक्त हो जाएगा। उस दिन के बाद उसको पशु होने का कोई अर्थ नहीं है। और इसलिए पेट का काम बढ़ाना नहीं है, पेट का काम निरंतर कम करना है।

उपवास का यही प्रयोजन है। क्योंकि पेट का काम कुछ देर के लिए बिलकुल बंद हो जाए, तो मस्तिष्क के लिए पूरी शक्ति मिल जाती है। इसलिए उपवास के क्षण में मस्तिष्क में शक्ति का बड़ा तीव्र प्रवाह होता है। ज्यादा खाना खा लें तो मस्तिष्क की शक्ति सब पेट में चली जाती है तत्काल। इसलिए बहुत खाना खा लें तो फिर तो मस्तिष्क काम कर ही नहीं सकता। तो इसलिए पेट का काम निरंतर कम करना है। मुंह उसमें हाथ बंटाता है। इसलिए जितना आप चबा लें उतना हितकर है। यानी इतना चबा लें कि पेट को काम ही न बचे तो और भी ज्यादा हितकर है। और बड़े मजे की बात यह है, बड़े मजे की बात यह है, इसको थोड़ा सा देखने जैसा है, क्योंकि आदमी का सारा विकास पेट से मुक्त होने का विकास है। वह धीरे— धीरे पेट से मुक्त होने की कोशिश में लगा हुआ है। ठीक से ठीक भोजन खोज रहा है कि उसको डाइजेशन का उपद्रव कम हो जाए।

तो एक तो मैं तो इसमें गवाही नहीं दूंगा।

अच्छा दूसरी बात यह है कि हमारे मस्तिष्क का जो हिस्सा है.. .मुंह दो चीजों से जुड़ा है—इधर पेट से और इधर मस्तिष्क से। मुंह दोनों के बीच में पड़ता है। अगर हम आदमी का सारा विकास देखें तो वह, ठीक समझें हम तो, मुंह का ही विकास है। बाकी सारा शरीर इस छोटे से सिर का ही काम कर रहा है। बाकी सब जो है वह फैक्ट्री इस छोटे से सिर के लिए चल रही है। चाहे हमारा प्रेम हो, चाहे हमारी बुद्धि हो, चाहे हमारी प्रतिभा हो, वह बहुत गहरे में हमारे मुंह से संबंधित है। और इसका हम कैसे उपयोग करते हैं, कितना ज्यादा उपयोग करते हैं, यह कितना मजबूत होता है, उतनी ही ऊर्जा नीचे की तरफ जाने की बजाय ऊपर की तरफ जानी शुरू होती है। तो इसका तो ज्यादा से ज्यादा उपयोग होना चाहिए।

और अगर ठीक से चबाया हो किसी ने तो उसके दांत ही नहीं गिरेंगे। अगर ठीक से चबाया हो, तो वह जो बात कह रहा है दरवेश, वह कभी नहीं घटेगी। अगर किसी ने जिंदगी भर ठीक से चबाया तो दांत तो गिरेंगे ही नहीं। वह मरते दम तक अपने ठीक वही दांत लेकर जाएगा जो दांत लेकर आया था। शायद उससे भी ज्यादा मजबूत, क्योंकि वे इतना काम कर चुके होंगे। और जितना उसका मुंह मजबूत हो, उतना ही उसका पेट मजबूत होगा। क्योंकि मुंह शुरुआत है उसके पेट की। यानी मुंह जो है वह पेट का द्वार ही है। वह पेट से अलग कोई चीज नहीं। उसको अलग मानकर चलना गलत है। और अगर हड्डी, जैसा वह कह रहा है कि हड्डी भी ऐसे ही गटक जाओ, गटक सकते हैं आप, और पेट उसकी भी चेष्टा करेगा, लेकिन वह इनझूमन चेष्टा होगी। और तब पेट को इतनी शक्ति की जरूरत पड़ेगी कि आप कुछ और काम ही नहीं कर पाएंगे, बस हड्डी पचा ली तो बहुत काम हो गया। और आप पेट केंद्रित हो जाएंगे। आपका व्यक्तित्व जो है वह पेट पर केंद्रित हो जाएगा।

जीवन के महत्वपूर्ण काम— अंधेरे में:

और दूसरी और जो बात है वह यह है कि पेट जितने अचेतन में हो उतना अच्छा। आपको उसका पता न चले, उतना उसकी वर्किंग जो है, स्मूथ और अच्छी होगी। अगर आपको पेट का पता चले तो आप रूग्‍ण हो जाएंगे। असल में, हमारे व्यक्तित्व में कुछ चीजें हैं, जो हमारी चेतना में नहीं होनी चाहिए। चेतना में होंगी तो आप नुकसान पाएंगे। तो पेट का काम जितना हलका हो, उतना ही अचेतन होगा, अनकांशस होगा। आपको पता नहीं चलेगा पेट का।

और जितना पेट का कम पता चलेगा उतने आप स्वस्थ और वेल बीइंग अनुभव करेंगे। अगर ठीक से समझें तो आपकी जो इलनेस का जो बोध है बीमारी का वह पेट के बोध से शुरू होता है। जैसे ही आपको पता चला कि पेट भी है शरीर में कि आप बीमार हुए। अगर आपको पता न चले कि पेट है तो आप स्वस्थ हैं। और पेट का जो काम है वह जो है आपकी अचेतना का काम है। जीवन के जितने महत्वपूर्ण काम हैं, वे अंधेरे में होते हैं और उनके लिए चेतना की जरूरत नहीं है। जड़ें अंधेरे में, जमीन में बड़ी होती हैं। बच्चा मां के पेट में अंधेरे में बड़ा होता है। हमारे पेट का सारा का सारा काम हमारे ज्ञान के बाहर होता है। आपके ज्ञान के भीतर उसको लाने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर पेट पर बहुत काम आपने डाला तो वह आपके ज्ञान के भीतर आ जाएगा तत्काल, क्योंकि उस पर अतिरिक्त श्रम पड़ेगा। और पेट शान में आया तो आप चौबीस घंटे रुग्ण हैं।

तो गुरजिएफ को कुछ तो बहुत अदभुत बातों का खयाल था। लेकिन एक खतरा उसके साथ हुआ और वह यह कि वह बहुत सी परंपराओं से संबंधित था। इसलिए कई अर्थों में वह भानुमति का पिटारा है। और वह कभी भी तय नहीं कर पाया कि इनके बीच तालमेल क्या है। अब यह बात जंचती है, दरवेश ने जब कही तो उसे यह बात जंच गई। अगर उसे जो मैं कह रहा हूं यह भी कहता, यह बात भी जंच सकती थी। और इन दोनों का तालमेल बिठालना बहुत मुश्किल हो जाता।

प्राणायाम और कृत्रिम श्वास से हानि का खतरा:

दूसरी जो बात कह रहा है वह प्राणायाम और कृत्रिम श्वास के लिए, उसमें भी कुछ बातें सच हैं। असल में, ऐसा कोई असत्य नहीं होता जिसमें कि कुछ सत्य न हो; होता ही नहीं; होता ही नहीं। अच्छा वह जो उसमें सत्य होता है वही प्रभाव लाता है; और उसके साथ वह जो असत्य है वह भी सरक जाता है, हमें कभी पता नहीं चलता कि क्या हो गया। अब इसमें बहुत सच्चाई है कि जहां तक बने, साधारणत:, जीवन का जो सहज क्रम है, उसमें बाधा नहीं डालनी चाहिए। उपद्रव होने का डर है। तो जो व्यवस्था चल रही है सहज— आपकी श्वास की, उठने की, बैठने की, चलने की—जहा तक बने उसमें बाधा नहीं डालना उचित है। क्योंकि बाधा डालने से ही परिवर्तन शुरू होंगे।

यह ध्यान रहे कि हानि भी एक परिवर्तन है और लाभ भी एक परिवर्तन है; दोनों ही परिवर्तन हैं। तो आप जैसे हैं, अगर ऐसे ही रहना है, तब तो कुछ भी छेड़छाड़ करनी उचित नहीं है; लेकिन अगर कुछ भी इससे जाना है कहीं भी, कोई भी परिवर्तन करना है, कोई भी ट्रांसफामेंशन, तो हानि का खतरा लेना पड़ेगा। वह जो.. .हानि का खतरा तो है ही, कि आपकी जो श्वास चल रही है अभी, अगर इसको और व्यवस्था दी जाए तो आपके पूरे व्यक्तित्व में अंतर पड़ेंगे। लेकिन अगर आप अपने व्यक्तित्व से राजी हैं, और सोचते हैं कि जैसा है ठीक है, तब तो उचित है। लेकिन अगर आप सोचते हैं कि यह व्यक्तित्व पर्याप्त नहीं मालूम होता, तो अंतर करने पड़ेंगे।

श्वास परिवर्तन से व्यक्तित्व में रूपांतरण:

और तब श्वास पर अंतर सबसे कीमती बात है। और ये जो…….जैसे ही श्वास पर आप अंतर करेंगे वैसे ही आपके भीतर बहुत सी चीजें टूटनी और बहुत सी नई चीजें बननी शुरू हो जाएंगी। अब हजारों प्रयोग के बाद यह तय किया गया है कि वह श्वास के किस प्रयोग से कौन सी चीजें बनेंगी, कौन सी टूटेंगी। और अब करीब—करीब सुनिश्चित बात हो गई है।

जैसे कुछ तो हम सबके भी अनुभव में होता है। जैसे जब आप क्रोध में होते हैं तो श्वास बदल जाती है; वह वैसी नहीं रहती जैसी थी। अगर कभी बहुत ही साइलेंस अनुभव होगी तो भी श्वास बदल जाएगी; वह वैसी नहीं रहेगी जैसी थी। अगर आपको पता चल गया है कि साइलेंस में श्वास कैसी हो जाती है, तो आप अगर वैसी श्वास कर सकें तो साइलेंस पैदा हो जाएगी। ये जो दोनों हैं, ये दोनों इंटर—कनेक्टेड हैं। जब मन कामातुर होगा तो श्वास बदल जाएगी। अगर मन कामातुर हो और आप श्वास को न बदलने दें, तो आप फौरन पाएंगे कि कामातुरता विदा हो गई। वह काम विलीन हो जाएगा, वह टिक नहीं सकता; क्योंकि बॉडी के मेकेनिज्य में सारी चीजों में तारतम्य होना चाहिए तभी कुछ हो सकता है। अगर क्रोध जोर से आ रहा है और उस वक्त आप श्वास धीमी लेने लगें, तो क्रोध टिक नहीं सकता; क्योंकि श्वास में उसको टिकने की जगह नहीं मिलेगी।

श्वास और मन के वैज्ञानिक नियम:

तो श्वास के जो अंतर हैं, वे बड़े कीमती हैं। और श्वास के अंतर से आपके मन का अंतर पड़ना शुरू होगा। और जब साफ हो चुका है और बहुत वैज्ञानिक रूप से साफ हो चुका है श्वास की कौन सी गति पर मन की क्या गति होगी, तब खतरे नहीं हैं। खतरे थे उनको जिन्होंने प्रारंभिक प्रयोग किए हैं; खतरा आज भी है उसको जो जीवन की किसी भी दिशा में प्रारंभिक प्रयोग करता है। लेकिन जब प्रयोग साफ हो जाते हैं तो वे बहुत साइंटिफिक हैं। यानी यह असंभव है कि एक आदमी श्वास को शांत रखे और क्रोध कर ले। यह असंभव है, ये दोनों बातें एक साथ नहीं घट सकतीं। इससे उलटा भी संभव है कि अगर आप उसी तरह की श्वास लेने लगें जैसी आप क्रोध में लेते हैं, तो आप थोड़ी देर में पाएं कि आपके भीतर क्रोध जग गया। तो प्राणायाम ने आपके चित्त के परिवर्तन के लिए बहुत से उपाय खोजे हैं।

प्राकृतिक और अप्राकृतिक श्वास:

और दूसरी बात यह है कि जिसको हम कह रहे हैं आर्टिफीशियल ब्रीदिंग और जिसको हम नेचरल कह रहे हैं, यह फासला भी समझने जैसा है। जिसको आप नेचरल कह रहे हैं, वह भी नेचरल नहीं है; वह ब्रीदिंग नेचरल नहीं है। बल्कि बहुत ठीक से समझा जाए तो वह ऐसी आर्टिफीशियल ब्रीदिंग है जिसके आप आदी हो गए हैं, जिसको आप बहुत दिन से कर रहे हैं इसलिए आदी हो गए हैं; बचपन से कर रहे हैं इसलिए आदी हो गए हैं। आपको पता नहीं है कि नेचरल ब्रीदिंग क्या है। इसलिए दिन भर आप एक तरह से लेते हैं श्वास, रात में आप दूसरी तरह से लेते हैं। क्योंकि दिन में जो ली थी वह आर्टिफीशियल थी, और इसलिए रात में नेचरल शुरू होती है जो कि आपकी हैबिट के बाहर है।

तो रात की ही श्वास की प्रक्रिया ज्यादा स्वाभाविक है बजाय दिन के। दिन में तो हमने आदत डाली है ब्रीदिंग की, और आदत के हमारे कई कारण हैं। जब आप भीड़ में चलते हैं तब आप एहसास करें, जब आप अकेले में बैठते हैं तब एहसास करें, तो आप पाएंगे आपकी ब्रीदिंग बदल गई। भीड़ में आप और तरह से श्वास लेते हैं, अकेले में और तरह से। क्योंकि भीड में आप टेंस होते हैं। चारों तरफ लोग हैं, तो आपकी ब्रीदिंग छोटी हो जाएगी; ऊपर से ही जल्दी लौट जाएगी; पूरी गहरी नहीं होगी। जब आप आराम से बैठे हैं, अकेले हैं, तो वह पूरी गहरी होगी। इसलिए जब रात आप सो गए हैं तो वह पूरी गहरी होगी।…….वह आपने दिन में कभी नहीं ली है, क्योंकि वह इतनी कभी गहरी नहीं गई कि आवाज भी कर सके।

पेट से श्वास लेना निर्दोषता का लक्षण:

तो जिसको हम कह रहे हैं नेचरल वह नेचरल नहीं है, सिर्फ कंडीशंड आर्टिफीशियल है; निश्चित हो गई है, आदत हो गई है। इसलिए बच्चे एक तरह से ब्रीदिंग ले रहे हैं। अगर बच्चे को सुलाएं, तो आप पाएंगे उसका पेट हिल रहा है, और आप ब्रीदिंग ले रहे हैं तो छाती हिल रही है।

बच्चा नेचरल ब्रीदिंग ले रहा है। अगर बच्चा जिस ढंग से श्वास ले रहा है, आप लें, तो आपके मन में वही स्थितियां पैदा होनी शुरू हो जाएंगी जो बच्चे की हैं। उतनी इनोसेंस आनी शुरू हो जाएगी जितनी बच्चे की है। या अगर आप इनोसेंट हो जाएंगे तो आपकी ब्रीदिंग पेट से शुरू हो जाएगी।

इसलिए जापान में और चीन में बुद्ध की जो मूर्तियां हैं, वे उन्होंने भिन्न बनाई हैं; वे हिंदुस्तानी शइर्तयों से भिन्न हैं। हिंदुस्तान में बुद्ध का पेट छोटा है; जापानी और चीनी मुल्कों में बुद्ध का पेट बड़ा है, छाती छोटी है। हमें बेहूदी लगती है। हमें बेहूदी लगती है कि यह बेडौल कर दिया। लेकिन वही ठीक है। क्योंकि बुद्ध जैसा शांत आदमी जब श्वास लेगा तो वह पेट से ही लेगा। उतना इनोसेंट आदमी छाती से श्वास नहीं ले सकता, इसलिए पेट बड़ा हो जाएगा। वह पेट जो बड़ा है, वह प्रतीक है।

प्रश्न झेन संत का?

हां, वह प्रतीक है। सब झेन मास्टर्स का पेट बड़ा है। वह प्रतीक है। उतना बड़ा न भी रहा हो, लेकिन वह बड़ा ही डिपिक्ट किया जाएगा। उसका कारण है कि वह श्वास जो है, वह पेट से ले रहा है; वह छोटे बच्चे की तरह हो गया है।

तो जब हमें यह खयाल में साफ हो गया हो, तो नेचरल ब्रीदिंग की तरफ हमें कदम उठाने चाहिए। हमारी ब्रीदिंग आर्टिफीशियल है। वह दरवेश गलत कह रहा है कि आप आर्टिफीशियल ब्रीदिंग मत करो। आर्टिफीशियल ब्रीदिंग हम कर रहे हैं। तो जैसे ही हमें समझ बढ़ेगी, हम नेचरल ब्रीदिंग की तरफ कदम उठाएंगे। और जितनी नेचरल ब्रीदिंग हो जाएगी, उतने ही जीवन की अधिकतम संभावना हमारे भीतर से प्रकट होनी शुरू होगी।

और यह भी समझने जैसा है कि कभी—कभी एकदम आकस्मिक रूप से अप्राकृतिक ब्रीदिंग करने के भी बहुत फायदे हैं। और एक बात तो साफ ही है कि जहां बहुत फायदे हैं वहीं बहुत हानियां हैं। एक आदमी दुकानदारी कर रहा है, तो जितनी हानियां हैं उतने फायदे हैं। एक आदमी जुआ खेल रहा है, तो जितने फायदे हैं उतनी हानियां हैं। क्योंकि फायदा और हानि का अनुपात तो वही होनेवाला है। तो वह बात तो ठीक कह रहा है कि बहुत खतरे हैं, लेकिन आधी बात कह रहा है। बहुत संभावनाएं भी हैं वहां। वह जुआरी का दांव है।

तो अगर हम कभी किसी क्षण में थोड़ी देर के लिए बिलकुल ही अस्वाभाविक— अस्वाभाविक इस अर्थों में कि जिसको हमने नहीं की है अभी तक—इस तरह की ब्रीदिंग करें, तो हमें अपने ही भीतर नई स्थितियों का पता चलना शुरू होता है। उन स्थितियों में हम पागल भी हो सकते हैं और उन स्थितियों में हम मुक्त भी हो सकते हैं—विक्षिप्त भी हो सकते हैं, विमुक्त भी हो सकते हैं। और चूंकि उस स्थिति को हम ही पैदा कर रहे हैं, इसलिए किसी भी क्षण उसे रोका जा सकता है। इसलिए खतरा नहीं है। खतरे का डर तब है, जब कि आप रोक न सकें। जब आपने ही पैदा किया है तो आप तत्काल रोक सकते हैं। और आपको प्रतिपल अनुभव होता है कि आप किस तरफ जा रहे हैं। आप आनंद की तरफ जा रहे हैं, कि दुख की तरफ जा रहे हैं, कि खतरे में जा रहे हैं, कि शांति में जा रहे हैं, वह आपको बहुत साफ एक—एक कदम पर मालूम होने लगता है।

अजनबी स्थिति के कारण मूर्च्छा पर चोट:

और जब बिलकुल ही आकस्मिक रूप से, तेजी से ब्रीदिंग बदली जाए, तो आपके भीतर की पूरी की पूरी स्थिति बदलती है एकदम से। जो हमारी सुनिश्चित आदत हो गई है श्वास लेने की, उसमें हमें कभी पता नहीं चल सकता कि मैं शरीर से अलग हूं। उसमें सेतु बन गया है, ब्रिज बन गया है। शरीर और आत्मा के बीच श्वास की एक निश्चित आदत ने एक ब्रिज बना दिया है। उसके हम आदी हो गए हैं।

यानी वह मामला ऐसा ही है कि जैसे आप रोज अपने घर जाते हैं और कार का आप व्हील घुमा लेते हैं और आपको कभी न सोचना पड़ता है, न विचार करना पड़ता है, आप अपने घर पर जाकर खड़े हो जाते हैं। लेकिन अचानक ऐसा हो कि व्हील आप दाएं मुडाएं और व्हील बाएं मुड़ जाए, कि जो रास्ता रोज आपका था, अचानक आप पाएं कि वह रास्ता आज पूरा का पूरा घूम गया है और दूसरा रास्ता उसकी जगह आ गया है, तब एक स्ट्रेजनेस की हालत में आप पहुंचेंगे, और पहली दफा आप होश से भर जाएंगे। वह जो होश से भर जाएंगे आप…… स्ट्रेजनेस जो है न, किसी भी चीज का अजनबीपन, वह आपकी मूर्च्छा को तोड़ देता है तत्काल। व्यवस्थित दुनिया, जहां सब रोज वही हुआ है, वहां आपकी मूर्च्छा कभी नहीं टूटती; आपकी मूर्च्छा टूटती है वहां, जहां अचानक कुछ हो जाता है।

जैसे कि मैं बोल रहा हूं इसमें आपकी मूर्च्छा न टूटेगी। अचानक आप पाएं कि यह टेबल बोलने लगी, तो यहां एक आदमी भी बेहोश नहीं रह जाएगा। उपाय नहीं है बेहोश रहने का। यह टेबल अचानक बोल उठे, एक शब्द बोले—मैं हजार शब्द बोल रहा हूं तो भी आप मूर्च्छित सुनेंगे—लेकिन यह टेबल एक शब्द बोल दे तो आप सब इतनी अवेयरनेस में पहुंच जाएंगे जिसमें आप कभी नहीं गए; क्योंकि वह स्ट्रेज है, और स्ट्रेंज आपके भीतर की सब स्थिति तोड़ देता है।

तो श्वास के अनूठे अनुभव जब स्ट्रेजनेस में ले जाते हैं, तो आपके भीतर बड़ी नई संभावनाएं होती हैं और आप होश उपलब्ध कर पाते हैं और कुछ देख पाते हैं। और अगर कोई आदमी होशपूर्वक पागल हो सके, तो इससे बड़ा कीमती अनुभव नहीं है—होशपूर्वक अगर पागल हो सके।

प्रश्न: इंपासिबल है!

हां, यह इंपासिबल है, इसीलिए तो इससे कीमती अनुभव नहीं है।

ध्यान—प्रयोग में अजनबी, अज्ञात स्थितियों का बनना:

तो यह जो मैं प्रयोग कह रहा हूं यह प्रयोग जो है ऐसा है कि भीतर आपका पूरा होश है और बाहर आप बिलकुल पागल हो गए हैं। जो कि आप कोई भी आदमी अगर कर रहा होता तो आप कहते, पागल है। भीतर तो आपको पूरा होश है और आप देख रहे हैं कि मैं नाच रहा हूं। और आप जानते हैं कि अगर यह कोई भी दूसरा आदमी कर रहा होता तो मैं कहता कि यह पागल है। अब आप अपने को पागल कह सकते हैं। लेकिन दोनों बातें एक साथ हो रही हैं— आप यह जान भी रहे हैं कि यह हो रहा है। इसलिए आप पागल भी नहीं हैं; क्योंकि आप होश में पूरे हैं और फिर भी वही हो रहा है जो पागल को होता है।

इस हालत में आपके भीतर एक ऐसा स्ट्रेज मोमेंट आता है कि आप अपने को अपने शरीर से अलग कर पाते हैं। कर नहीं पाते, हो ही जाता है। अचानक आप पाते हैं कि सब तालमेल टूट गया। जहां कल रास्ता जुड़ता था वहां नहीं जुड़ता और जहां कल आपका ब्रिज जोड़ता था वहां नहीं जुड़ता; जहां व्हील घूमता था वहां नहीं घूमता। सब विसंगत हो गया है। वह जो रेलेवेंसी थी रोज—रोज की, वह टूट गई है; कहीं कुछ और हो रहा है। आप हाथ को नहीं घुमाना चाह रहे हैं, और वह घूम रहा है; आप नहीं रोना चाह रहे हैं, और आंसू बहे जा रहे हैं; आप चाहते हैं कि यह हंसी रुक जाए, लेकिन यह नहीं रुक रही है।

तो ऐसे स्ट्रेंज मोमेंट्स पैदा करना अवेयरनेस के लिए बड़े अदभुत हैं। और श्वास से जितने जल्दी ये हो जाते हैं, और किसी प्रयोग से नहीं होते। और प्रयोग में वर्षों लगाने पड़े, श्वास में दस मिनट में भी हो सकता है। क्योंकि श्वास का इतना गहरा संबंध है हमारे व्यक्तित्व में कि उस पर जरा सी लगी चोट सब तरफ प्रतिध्वनित हो जाती है।

अव्यवस्थित श्वास का प्रयोग कीमती:

तो श्वास के जो प्रयोग थे, वे बड़े कीमती थे। लेकिन प्राणायाम के जो व्यवस्थित प्रयोग हैं उन पर मेरा बहुत आग्रह नहीं है। क्योंकि जैसे ही वे व्यवस्थित हो जाते हैं, वैसे ही उनकी स्ट्रेजनेस चली जाती है। जैसे एक आदमी एक—दो श्वास इस नाक से लेता है, फिर दो इससे लेता है। फिर इतनी देर रोकता है, फिर इतनी देर निकालता है। इसका अभ्यास कर लेता है। तो यह भी उसका अभ्यास का हिस्सा हो जाने के कारण सेतु बन जाता है। एमेथॉडिकल हो जाता है।

तो मैं जिस श्वास को कह रहा हूं वह बिलकुल नॉन—मेथॉडिकल है, एब्सर्ड है। उसमें न कोई रोकने का सवाल है, न छोड़ने का सवाल है। वह एकदम से स्ट्रेंज फीलिंग पैदा करने की बात है कि आप एकदम से ऐसी झंझट में पड़ जाएं कि इस झंझट को आप व्यवस्था न दे पाएं। अगर व्यवस्था दे दी, तो आपका मन बहुत होशियार है, वह उसमें भी राजी हो जाएगा कि ठीक है। वह इस नाक को दबा रहा है, इसको खोल रहा है; इतनी निकाल रहा है, उतनी बंद कर रहा है; तो उसका कोई मतलब नहीं है, वह एक नया सिस्टम हो जाएगा, लेकिन स्ट्रेजनेस, अजनबीपन उसमें नहीं आएगा।

और आपको मैं चाहता हूं कि किसी क्षण में आपकी जो भी रूट्स हैं, जितनी भी जड़ें हैं और जितना भी आपका अपना परिचय है, वह सब का सब किसी क्षण में एकदम उखड़ जाए। एक दिन आप अचानक पाएं कि न कोई जड़ है मेरी, न मेरी कोई पहचान है, न मेरी कोई मां है, न मेरा कोई पिता है, न कोई भाई है, न यह शरीर मेरा है। आप एकदम ऐसी एब्सर्ड हालत में पहुंच जाएं जहां कि आदमी पागल होता है। लेकिन अगर आप इस हालत में अचानक पहुंच जाएं आपकी बिना किसी कोशिश के, तो आप पागल हो जाएंगे। और अगर आप अपनी ही कोशिश से इसमें पहुंचें तो आप कभी पागल नहीं हो सकते, क्योंकि यह आपके हाथ में है, अभी आप इसी सेकेंड वापस लौट सकते हैं।

ध्यान प्रयोग द्वारा पागलपन से मुक्ति:

तो मेरा तो मानना है कि अगर हम पागल को भी इतनी श्वास— और मैं यहां चाहूंगा कि यह प्रयोग करने जैसा है— अगर हम पागल को भी यह श्वास का प्रयोग करवाएं तो उसके स्वस्थ हो जाने की पूरी संभावना है। क्योंकि अगर वह पागलपन को भी देख सके कि मैं पैदा कर लेता हूं तो वह यह भी जान पाएगा कि मैं मिटा भी सकता हूं। अभी पागलपन उसके ऊपर उतर आया है, वह उसके हाथ की बात नहीं है।

इसलिए यह जो प्रयोग है, इसके खतरे हैं, लेकिन खतरे के भीतर उतनी ही संभावनाएं हैं। और पागल भी अगर इसको करे तो ठीक हो सकता है। और इधर मेरा खयाल है पीछे कि इसको पागल के लिए भी इस प्रयोग को करवाने जैसा है। और जो आदमी इस प्रयोग को करता है उसकी गारंटी है कि वह कभी पागल नहीं हो सकता। वह इसलिए पागल नहीं हो सकता कि पागलपन को पैदा करने की उसके पास खुद ही कला है। जिस चीज को वह ऑन करता है उसको ऑफ भी कर लेता है। इसलिए आप उसको कभी पागल नहीं बना सकते। यानी किसी दिन ऐसा नहीं हो सकता कि वह अपने वश के बाहर हो जाए। क्योंकि उसने, जो वश के बाहर था, उसको भी वश में करके देख लिया है।

जिस श्वास की बात मैं कह रहा हूं वह श्वास बिलकुल ही नॉन—रिदमिक नॉन—मेथॉडिकल है। और कल जैसा किया था, वैसा भी आज नहीं कर सकते आप, क्योंकि उसका कोई मेथड ही नहीं है। कल जैसा किया था, वैसा भी आज नहीं कर सकते; अभी शुरू जैसा किया था, अंत करते तक भी वैसा नहीं कर सकते। वह जैसी होगी! और खयाल सिर्फ इतना है कि आपकी सब जो कंडीशनिंग है माइंड की वह ढीली पड़ जाए।

वह जो दरवेश कह रहा है, वह ठीक कह रहा है कि कई नट और कई बोल्ट ढीले पड जाएंगे। वे करने हैं ढीले। वे नट— बोल्ट बहुत सख्ती से पकड़े हुए हैं और आत्मा और शरीर के बीच फासला नहीं हो पाता उनकी वजह से। वे एकदम से ढीले पड़ जाएं तो ही आपको पता चले कि कुछ और भी है भीतर, जो जुड़ा था और अलग हो गया है। लेकिन चूंकि वे श्वास की चोट से ही ढीले हुए हैं, वे श्वास की चोट जाते ही से अपने आप कस जाते हैं; उनको अलग से कसने के लिए कोई इंतजाम नहीं करना पड़ता। उनको इंतजाम करने की कोई जरूरत नहीं है।

हां, अगर श्वास पागलपन की हो जाए आपके भीतर, कि आपके वश के बाहर हो, आब्सेशन बन जाए और चौबीस घंटे उस ढंग से चलने लगे, तो फिर वह स्थिति खराब हो जा सकती है। लेकिन कोई घंटे भर के लिए अगर यह प्रयोग कर रहा है, और प्रयोग शुरू करता है और प्रयोग बंद कर देता है, तो जैसे ही वह प्रयोग बंद करता है, वैसे ही वे सब के सब अपनी जगह वापस सेट हो जाते हैं। आपको अनुभव भर रह जाता है पीछे कि एक अनुभव हुआ था जब मैं अलग था और अब सब चीजें फिर अपनी जगह सेट हो गई हैं। लेकिन अब सेट हो जाने के बाद भी आप जानते हैं कि मैं अलग हूं—जुड़ गया हूं संयुक्त हूं लेकिन फिर भी अलग हूं।

श्वास के बिना तो काम ही नहीं हो सकता है। ही, यह बात वह ठीक कह रहा है कि खतरे हैं। तो खतरे तो हैं ही, और जितने बड़े जीवन की हमारी खोज है उतने बड़े खतरे के लेने की हमें तैयारी होनी चाहिए। फर्क मैं इतना ही करता हूं कि एक तो वह खतरा है जो हम पर अचानक आ जाता है, उससे हम बच नहीं सकते; और एक वह खतरा है जो हम पैदा करते हैं, उससे हम कभी भी बच सकते हैं। यानी अब इतना मूवमेंट होता है शरीर का—इतना—रो रहा है कोई, चिल्ला रहा है, नाच रहा है, और एक सेकेंड उसको कि नहीं, तो वह सब गया। चूकि यह क्रिएटेड है, यह उसने ही पैदा किया है सब, यह एक बात है। और यह अपने आप हो जाता है जब—कि एक आदमी सड़क पर खड़े होकर नाच रहा है—खुद नहीं उसने कुछ किया है, अब वह रोक भी नहीं सकता, क्योंकि कहां से यह आया, कैसे यह हुआ, उसे कुछ पता नहीं।

तो मेरी तो अपनी समझ यह है कि यह आज नहीं कल, जो मैं कह रहा हूं यह एक बहुत बड़ी थैरेपी सिद्ध होगी। और आज नहीं कल, पागल को स्वस्थ करने के लिए यह अनिवार्य रास्ता बन जाएगा। और अगर हम प्रत्येक बच्चे को स्कूल में इसे करा सकें तो हम उस बच्चे के पागल नहीं होने की व्यवस्था किए दे रहे हैं, वह कभी पागल नहीं हो सकता। वह इम्यून हो जाएगा—स्प। और वह मालिक हो जाएगा—इन सारी स्थितियों का मालिक हो जाएगा।

विभिन्न सूफी विधियां:

लेकिन जिस दरवेश से उसकी बात हुई है, गुरजिएफ की, वे दूसरे पथ के राही हैं। उन्होंने श्वास का कोई प्रयोग नहीं किया। उन्होंने स्ट्रेजनेस दूसरी तरह से पैदा की। और यही तकलीफ है। तकलीफ क्या है कि एक रास्ते को जाननेवाला आदमी तत्काल दूसरे रास्ते को गलत कह देगा। लेकिन कोई भी चीज किसी रास्ते के संदर्भ में गलत और सही होती है।

एक बैलगाड़ी में चके में एक डंडी लगी हुई है, कील लगी हुई है। एक कारवाला कह सकता है कि बिलकुल बेकार! लेकिन कार के संदर्भ में बेकार होगी, वह बैलगाड़ी में उतनी ही सार्थक है जितनी कार में कोई चीज सार्थक हो।

तो किसी चीज का गलत और सही होना एब्लोल्युट अर्थ नहीं रखता। लेकिन हमेशा यह भूल होती है।

रात्रि—जागरण:

अब जैसे कि सूफी दरवेश है, वह दूसरे ढंग से इस तरफ पहुंचा है; उसके ढंग और हैं। जैसे सूफी जो है, वह निद्रा पर चोट करेगा, श्वास पर नहीं। तो नाइट विजिल्स की बड़ी कीमत है दरवेश के लिए। महीनों जागता रहेगा! लेकिन जागने से भी वही स्ट्रेजनेस पैदा हो जाती है जो श्वास से पैदा होती है। अगर महीने भर जाग जाएं तो आप उसी तरह पागल हालत में पहुंच जाते हैं जिस हालत में श्वास से पहुंचेंगे।

तो एक तो नींद पर वह चोट करेगा, क्योंकि नींद बड़ी स्वाभाविक व्यवस्था है। उस पर चोट करने से फौरन आपके भीतर विचित्रताए शुरू हो जाती हैं। लेकिन उसमें भी खतरे इतने ही हैं, बल्कि इससे ज्यादा हैं, क्योंकि लंबा प्रयोग करना पड़े। एक दिन की नींद के तोड्ने से नहीं होता वह। महीने भर, दो महीने की नींद तोड देनी पड़े।

लेकिन दो महीने की नींद तोड़कर अगर कुछ हो जाए तो एक सेकेंड में आप बंद नहीं कर सकते उसको। लेकिन दस मिनट की श्वास से कुछ भी हो जाए तो एक सेकेंड में बंद हो जाता है। दो महीने की नींद अगर नहीं ली है, तो आप अगर आज सो भी जाओ तो भी दो महीने की नींद आज पूरी नहीं होनेवाली। और दो महीने जो नहीं सोया है, वह आज शायद सो भी न पाए; क्योंकि वह जरा खतरनाक जगह से उसने काम शुरू किया है।

तो नाइट विजिल का बड़ा उपयोग है, फकीर रात—रात भर जागकर प्रतीक्षा करेंगे कि क्या होता है। तो उन्होंने उससे शुरू किया है। दूसरा उन्होंने नृत्य से भी शुरू किया है।

नृत्य का उपयोग:

नृत्य को भी उपयोग किया जा सकता है शरीर से अलग होने के लिए। लेकिन वे भी उनके प्रयोग ऐसे ही हैं कि अगर नृत्य सीखकर किया आपने तो नहीं हो सकेगा। जैसा कि मैंने कहा कि प्राणायाम से नहीं होगा, क्योंकि वह व्यवस्थित है। अब एक आदमी ने अगर नृत्य सीख लिया, तो वह शरीर के साथ एक हो जाता है। नहीं, आप—जो कि नाच जानते नहीं— आप से मैं कहूं—नाचिए! और आप एकदम नाचना शुरू कर दें, कूदना—फांदना, तो हो जाएगा। हो जाएगा इसलिए कि यह इतना स्ट्रेज मामला है कि आप इसके साथ अपने को एक न कर पाएंगे कि यह मैं नाच रहा हूं! यह आप एक न कर पाएंगे। तो नाच से उन्होंने प्रयोग शुरू किए हैं, रात की नींद से शुरू किए हैं।

ऊन के वस्त्र, उपवास, कांटे की शय्या:

और तरह की उपद्रव की चीजें, जैसे कि ऊन के वस्त्र हैं। अब ठेठ रेगिस्तान की गरम हालत में ऊन पहने हुए हैं! तो शरीर के विपरीत चल रहे हैं। कोई उपवास कर रहा है, वह भी शरीर के विपरीत चल रहा है। कोई कांटे पर पैर रखे बैठा है, कोई कांटे की शय्या बिछाकर उस पर लेट गया है, वे सब स्ट्रेजनेस पैदा करने की तरकीबें हैं।

लेकिन एक पथ के राही को कभी खयाल में नहीं आता, और स्वभावत: नहीं भी आता है, कि दूसरे पथ से भी ठीक यही स्थिति पैदा हो सकती है।

तो वह दरवेश को तो कुछ पता नहीं प्राणायाम के बाबत। हां, अगर वह कुछ करेगा तो नुकसान उठा सकता है। वह कुछ करेगा तो नुकसान उठा सकता है और खतरे ज्यादा हो सकते हैं। खतरे ऐसे हो सकते हैं, जैसे कि एक बैलगाड़ी की कील को आपने कार के चाक में लगा दिया हो। तो वह कहेगा कि भई, यह कील बड़ी खतरनाक है, कभी मत लगाना, क्योंकि इससे तो हमारी गाड़ी खराब हो गई।

अब जो आदमी रात भर जग रहा है, अगर वह प्राणायाम का प्रयोग करे तो पागल हो जाएगा—फौरन पागल हो जाएगा। उसके कारण हैं; क्योंकि ये दोनों चोटें एक साथ व्यक्तित्व नहीं सह सकता।

लंबे उपवास में आसन और प्राणायाम हानिप्रद:

इसलिए जैनों ने प्राणायाम का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि उपवास से वे स्ट्रेजनेस पैदा कर रहे हैं। अगर उपवास के साथ प्राणायाम करें तो बहुत खतरे में पड़ जाएंगे। एकदम खतरे में पड़ जाएंगे। इसलिए जैन के लिए कोई प्राणायाम का उपयोग नहीं रहा; बल्कि वह जैन साधु कहेगा कि कोई जरूरत नहीं है। मगर उसे पता नहीं है कि वह प्राणायाम को इनकार नहीं कर रहा है, वह सिर्फ इतना ही कह रहा है कि उसकी व्यवस्था में उसके लिए कोई जगह नहीं है, वह दूसरी चीज से वही काम पैदा कर ले रहा है।

इसलिए जैनों ने कोई योगासन वगैरह के लिए फिकर नहीं की। क्योंकि उपवास की हालत में, लंबे उपवास की हालत में, योगासन वगैरह बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। तो उनके लिए बहुत मृदु आहार चाहिए, घी चाहिए, दूध चाहिए, अत्यंत तृप्तिदायी आहार चाहिए। उपवास कर देता है रूखा भीतर बिलकुल, और जठराग्नि इतनी बढ़ जाती है, क्योंकि उपवास से बिलकुल पेट आग हो जाता है। इस आग की हालत में कोई भी आसन खतरनाक हो सकते हैं। यह आग मस्तिष्क तक चढ़ सकती है और पागल कर सकती है। तो जैन संन्यासी कह देगा कि नहीं—नहीं, आसन वगैरह में कुछ सार नहीं है, सब बेकार है।

लेकिन जिस रास्ते पर उनका उपयोग है, उस रास्ते पर उनकी कीमत बड़ी अदभुत है। अगर ठीक आहार लिया जाए, तो आसन अदभुत काम कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए शरीर का बड़ा स्निग्ध होना जरूरी है। बिलकुल ऐसा ही मामला है जैसे कि लुब्रीकेटिंग हालत होनी चाहिए बॉडी की, क्योंकि एक—एक हड्डी और एक—एक नस और एक—एक स्नायु को फिसलना है, बदलना है। उसमें जरा भी रूखापन हुआ तो टूट जाएगी। अत्यंत लोचपूर्ण चाहिए। और उस लोचपूर्ण हालत में अगर शरीर को ये सारी की सारी जो……..

आसन : अनोखी देह—स्थितियां:

अब ये जो आसन हैं, ये भी स्ट्रेंज पोजीशस हैं, जिनमें आप कभी नहीं होते। और हमें खयाल नहीं है कि हमारी सब पोजीशन हमारे चित्त से बंधी हुई है। अब एक आदमी चिंतित होता है और सिर खुजाने लगता है। कोई पूछे कि तुम सिर किसलिए खुजा रहे हो? चिंता से सिर खुजाने का क्या संबंध है? लेकिन अगर आप उसका हाथ पकड़ लें तो आप पाएगे—वह चिंतित नहीं हो सकता। उसके चिंतित होने के लिए अनिवार्य है कि वह अपने सिर पर हाथ ले जाए। अगर उसका हाथ पकड़ लिया जाए तो वह चिंता नहीं कर सकता। क्योंकि उस चिंता के लिए उतना एसोसिएशन जरूरी है कि वह हाथ की मसल्‍स इस जगह पहुंचें, अंगुलियां इस स्थान को छुए, इस स्नायु को छुए, इस पोजीशन में जब वह हो जाएगा तो बस तत्काल उसकी चिंता सक्रिय हो जाएगी। अब इसी तरह की सारी की सारी मुद्राएं हैं, आसन हैं।

तो वे बहुत अनुभव से…… .जैसा मैं अभी सुबह ही कह रहा था कि अब यह ध्यान का जो प्रयोग हुआ इसमें अपने—आप आसन बनेंगे, अपने—आप मुद्राएं आएंगी। निरंतर हजारों प्रयोग के बाद यह पता चल गया कि चित्त की कौन सी दशा में कौन सी मुद्रा बन जाती है। तब फिर उलटा काम भी शुरू हो सका—वह मुद्रा बनाओ तो चित्त की वैसी दशा के बनने की संभावना बढ़ जाती है। जैसे कि बुद्ध बैठे हुए हैं, अगर आप ठीक उसी हालत में बैठें, तो आपको बुद्ध की चित्त—दशा में जाने में आसानी होगी। क्योंकि चित्त—दशा भी शरीर की दशाओं से बंधी हुई है। बुद्ध जैसे चलते हैं, अगर आप वैसे ही चलो, बुद्ध जैसी श्वास लेते हैं, अगर वैसी श्वास लो, बुद्ध जैसे लेटते हैं, वैसे लेटो; तो बुद्ध की जो चित्त की दशा है उसको पाना आपके लिए सुगमतर होगा। और या आप बुद्ध की चित्त—दशा को पा लो तो आप पाओगे कि आपके चलने, उठने, बैठने में बुद्ध से तालमेल होने लगा। ये दोनों चीजें पैरलल हैं।

गुरजिएफ की अधूरी जानकारी:

अब जैसे कि गुरजिएफ जैसे लोगों को, जो कि एक अर्थ में अपरूटेड हैं, इनके पीछे कोई हजारों वर्ष का काम नहीं है, तो इनको पता नहीं है। इनको पता नहीं है, हजारों वर्ष का काम नहीं है। और फिर इस आदमी ने दस—पच्चीस अलग—अलग तरह के लोगों से मिलकर कुछ इकट्ठा किया है। उसमें कई यंत्रों के सामान यह ले आया है। वे सब अपनी—अपनी जगह ठीक थे, लेकिन सब इकट्ठे होकर बड़े अजीब हो गए हैं। उनमें से कभी कोई किसी पर काम कर जाता है, लेकिन पूरा किसी पर काम नहीं कर पाता। इसलिए गुरजिएफ के पास जितने लोगों ने काम किया, पूर्णता पर उनमें से कोई भी नहीं पहुंच सका। वह पहुंच नहीं सकता। क्योंकि जब वह आता है तो कोई चीज एक काम कर जाती है उस पर, तो वह उत्सुक तो हो जाता है और प्रवेश कर जाता है, लेकिन दूसरी चीजें उलटा काम करने लगती हैं। क्योंकि सिस्टम जो है, पूरी की पूरी सिस्टम नहीं है एक। कहना चाहिए कि मल्टी—सिस्टम्स का बहुत कुछ उसमें ले लिया है उसने।

अच्छा और कुछ सिस्टम्स का उसे बिलकुल पता नहीं है। उसके पास उनकी जानकारी नहीं है। उसकी ज्यादा जानकारी सूफी दरवेशों से है। उसे तिबेतन योग का कोई विशेष पता नहीं है; उसे हठयोग का भी कोई बहुत विशेष पता नहीं है। जो उसने सुना है, वह भी विरोधियों के मुंह से सुना है; वह भी दरवेशों से सुना है। वह हठयोगी नहीं है। तो उसकी जो जानकारी हठयोग के बाबत या कुंडलिनी के बाबत जो भी जानकारी है, वह दुश्मन के मुंह से सुनी गई जानकारी है, विपरीत पथगामियों के द्वारा सुनी गई जानकारी है। उस जानकारी के आधार पर वह जो कह रहा है वह बहुत अर्थों में तो कभी असंगत ही हो जाता है।

जैसे कुंडलिनी के बाबत तो उसने निपट नासमझी की बात कही; उसका उसे कुछ पता ही नहीं है। वह उसको कुंडा—बफर ही कहे चला जा रहा है। और बफर अच्छा शब्द नहीं है। वह यह कह रहा है कि कुंडलिनी एक ऐसी चीज है, जिसके कारण आप ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो पाते, वह बफर की तरह काम कर रही है। और उसको पार करना जरूरी है। उसे मिटाकर पार कर जाना जरूरी है। इसलिए उसको जगाने की तो चिंता में ही मत पड़ना।

अब उसे पता ही नहीं है कि वह क्या कह रहा है। बफर्स हैं व्यक्तित्व में, ऐसी चीजें हैं जिनकी वजह से हम कई तरह के शॉक्स झेल जाते हैं। कुंडलिनी वह नहीं है; कुंडलिनी तो शॉक है। मगर उसे पता नहीं है। कुंडलिनी तो खुद बड़े से बड़ा शॉक है। जब कुंडलिनी जगती है तो आपको बड़े से बड़ा शॉक लगता है आपके व्यक्तित्व में। बफर और हैं दूसरे आपके भीतर, जिनसे वह शॉक एज्जार्बर्स की तरह वे काम करते हैं, वे पी जाते हैं उसे। उन बफर्स को तोड्ने की जरूरत है। लेकिन वह उसको ही बफर समझ रहा है। और उसका कारण है कि उसे कुछ पता नहीं है। अनुभव तो है ही नहीं उसे उसका, जिनको अनुभव है उनके पास बैठकर उसने कोई बात भी नहीं सुनी।

और इसलिए कई दफे बड़ी अजीब हालतें हो जाती हैं। गुरजिएफ, कृष्णमूर्ति, इन सब के साथ बहुत अजीब हालत हो गई है। इनके साथ अजीब हालत यह है कि वे जो सीक्रेट्स हैं उन शब्दों के पीछे और उन शक्तियों के पीछे, उनका कभी भी उन्हें कोई व्यवस्थित ज्ञान नहीं हो सका। और कठिन भी बहुत है। असल में, एक जन्म में संभव भी नहीं है। अगर एक आदमी दस— बीस जन्मों में दस—बीस व्यवस्थाओं के बीच बड़ा हो, तभी संभव है, नहीं तो संभव नहीं है। दस—बीस जन्मों में दस—बीस व्यवस्थाओं के बीच बड़ा हो, तब कहीं किसी अंतिम जन्म में वह उन सब के बीच कोई सिंथीसिस खोज सकता है, नहीं तो नहीं खोज सकता।

लेकिन आमतौर से ऐसा होता है कि एक आदमी एक व्यवस्था से पहुंच जाता है तो दूसरा जन्म ही क्यों ले? बात ही खत्म हो गई। इसलिए सिंथीसिस नहीं हो पाती। और इधर मैं सोचता हूं इस पर, इस पर कभी काम करने जैसा है कि सारी दुनिया की व्यवस्थाओं के बीच एक सिंथीसिस संभव है। अलग—अलग छोर से पकड़ना पड़ेगा; घटनाएं वही घटती हैं, लेकिन अलग— अलग तरकीबें हैं उनको घटाने की।

झेन फकीरों के अनोखे उपाय:

अब जैसे झेन फकीर है, वह एक आदमी को खिड़की से उठाकर फेंक देगा। सिर्फ स्ट्रेजनेस पैदा होती है, और कुछ नहीं। लेकिन वह कह देगा, प्राणायाम की कोई जरूरत नहीं है; यह भस्त्रिका से क्या होगा? उसका कारण है। लेकिन भस्त्रिका से नहीं होगा तो एक आदमी को खिड़की से फेंकने से क्या होगा? बुद्ध से, महावीर से जाकर कहो, किसी को खिड़की से फेंकने से ज्ञान हो गया। तो वे कहेंगे, पागल! आदमी रोज गिर जाते हैं मकानों से, कहीं ज्ञान होता है!

लेकिन गिरना एक बात है, फेंका जाना बिलकुल दूसरी बात है। जब एक आदमी मकान से गिरता है तो यह वैसा ही है जैसे एक आदमी पागल हो गया। लेकिन जब हम चार आदमी उठाकर काकू भाई को बाहर फेंक दें खिड़की के, और काकू भाई जानते हैं कि ये फेंके जा रहे हैं, तो एक स्ट्रेजनेस अनुभव होगी। जब वे गिरते हैं जमीन पर और जाते हैं फिंके हुए, तब पूरे वक्त अवेयर होते हैं कि यह क्या हो रहा है। उस वक्त फौरन वे अलग हो जाते हैं, बॉडी से अलग हो जाते हैं।

अब एक झेन गुरु के पास गए, उसने एक डंडा उठाकर खोपड़ी पर मार दिया आपके। स्ट्रेंज है! आप गए थे कि भाई, मुझे आत्म—शांति चाहिए, उसने एक डंडा मार दिया। एकदम स्ट्रेजनेस पैदा हो गई। लेकिन हिंदुस्तान में नहीं पैदा होगी। अगर आप यहां डंडा मारेंगे तो वह आदमी भी आपको डंडा मार देगा; वह लड़ने के लिए तैयार हो जाएगा। जापान में सिर्फ होगी, क्योंकि जापान में उसकी व्यवस्था खयाल में आ गई लोगों को कि झेन फकीर डंडा मारकर भी कुछ कर सकता है।

अब एक फकीर है, और आप गए हैं और वह आपको मां—बहन की गाली देने लगा! वह स्ट्रेजनेस पैदा कर देगा उससे। कहां आप गए थे ब्रह्मज्ञानी के पास, और वह मां—बहन की गाली दे रहा है खुले आम आपको। लेकिन आपको पता हो तो। पता न हो तो आपको दिक्कत पड़ जाएगी। आप दोबारा जाएंगे नहीं, कि यह आदमी गलत है, गाली बकता है। लेकिन उस व्यवस्था के भीतर उसका भी उपयोग किया गया है। वह गाली बककर भी स्ट्रेजनेस पैदा कर देगा।

एक फकीर थे, गाडरवाड़ा के पास एक जगह है साईखेड़ा। तो वे कुछ भी कर सकते थे। वे गाली भी बकते थे, और आप सब बैठे हैं, खड़े होकर सब के सामने पेशाब करने लगें! मगर बड़ा स्ट्रेंज हो जाता। एकदम स्ट्रेंज हो जाता था कि वे खड़े होकर यहीं पेशाब करने लगें— और आप एकदम चौंककर खड़े हो जाएं। एकदम स्ट्रेंज हो जाएगी इस कमरे की हालत—यह क्या हो गया! वे गाली तो देते ही थे, मारने भी दौड़ते थे। और मारेंगे तो मीलों तक दौड़ते चले जाएंगे उस आदमी के पीछे। लेकिन जो उनके पास जाते थे और जो समझने लगे थे, उनको बहुत लाभ हो गया। जो नहीं समझते थे, वे समझे पागल आदमी है। पर नहीं जो समझते उनसे कोई लेना—देना भी क्या है! जो समझते थे उनको फायदा हो गया। क्योंकि जिस आदमी के पीछे वे दो मील दौड़ते चले गए, उसको बहुत स्ट्रेंज हालत में खड़ा कर दिया। और हजारों की भीड़ दौड़ रही है, और वे उसको मारने दौड़ रहे हैं, और वह आदमी भागा जा रहा है। अब यह पूरा स्ट्रेंज एटमास्फियर हो गया!

बहुत सी व्यवस्थाओं से वही किया जा सकता है। दूसरी व्यवस्थावाले को कभी पता नहीं चलता। और कठिनाई एक और है अगर पता भी हो, कई बार पता भी हो, जैसे मेरे को कुछ पता है अगर, तब भी जब मैं एक व्यवस्था की बात कर रहा हूं तो मुझे एक्सट्रीम पर बात करनी पड़ती है, नहीं तो उसका परिणाम नहीं होगा। अगर मुझे पता भी है कि दूसरी बात से भी हो सकता है, लेकिन जब मैं एक बात कह रहा हूं तो मैं कहूंगा कि किसी से नहीं हो सकता, इसी से होगा। कारण है वह भी। कारण है, क्योंकि आपके पास दिमाग नहीं कि आप इतना सब.. .सबसे होगा, ऐसा समझकर आपको ऐसा ही लगेगा कि किसी से नहीं होगा। और वे सब इतनी विपरीत व्यवस्थाएं हैं कि सबसे कैसे होगा, आप इसी झंझट में पड़ जाएंगे। इसलिए बहुत बार तो ज्ञानियों को भी, जो जानते भी हैं, उनको भी अज्ञानी की भाषा बोलनी पड़ती है। उनको कहना पड़ता है. सिर्फ इसी से होगा, और किसी से नहीं हो सकता!

इसलिए मैं तो बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं क्योंकि मैं जानता हूं : उससे भी हो सकता है। उससे भी यह हो सकता है।

आज इतना ही।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–195

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पूरब और पश्‍चिम का अभिनव संतुलन—(प्रवचन—आठवां)

अध्‍याय—17

सूत्र:

श्रद्धया परया तप्तं तयस्तन्त्रिविधं नरै ।

अफलाकंक्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं पश्चिक्षते।। 17।।

सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत्।

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमब्रुवम्।। 18।।

मूढग्राहेणात्मनार्थं यत्पीडया क्रियते तय: ।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदहतम्।। 19।।

है अर्जुन, कल को न चाहने वाले निष्कामी योगी परूषों द्वारा परम आ से किए हुए उस पूर्वोक्‍त तीन प्रकार के तय को तो सात्‍विक कहते हैं।

और जो तय सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखंड से ही किया जाता है वह अनिशचय और क्षणिक कल वाला तय का राजस कहा गया है।

और जो तय मूढतापूर्वक हठ से मन, वाणी और शरीर की बढ़ी के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है वह तय तामस कहा गया है।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : आपने कहा कि हिंदू मनीषा कभी आत्यंतिक रूप से बुद्धिमान थी और धर्म की परम ऊंचाइयों को छूने में वह सफल हुई। उसके ही परिणाम में देवता, द्विज, गुरु और ज्ञानी हुए; उपनिषद, गीता, धम्मपद और जिन—वाणी हुई। फिर क्या कारण है कि वही जाति हजार वर्षों से पतन के महागर्त में गिरी और उसके उठने के कोई आसार नजर नहीं आते?

रमात्मा बाहर भी है और भीतर भी। वस्तुत: बाहर और भीतर का भेद अज्ञान—आधारित है। बाहर भी उसी का है, भीतर भी उसी का है, एक ही आकाश व्याप्त है। लेकिन मन के लिए सदा आसान है चुनाव करना। मन चुनने की कला है। तो या तो मन बाहर देखता है या भीतर। अगर मन दोनों को देख ले, तो मन मिट जाता है। दोनों को एक साथ देख लेने वाला व्यक्ति न तो अंतर्मुखी होता है, न बहिर्मुखी।

कार्ल गुस्ताव जुग ने आदमियों के दो विभाजन किए हैं, अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट और बहिर्मुखी, एक्सट्रोवर्ट।

अंतर्मुखी धीरे— धीरे बाहर से संबंध छोड़ देता है; बहिर्मुखी धीरे— धीरे अंतर से संबंध छोड़ देता है। दोनों के जीवन एकांगी हो जाते हैं। जैसे तराजू का एक ही पलड़ा भारी हो जाता है, तो एक जमीन छूने लगता है, एक आकाश में अटक जाता है। चाहिए ऐसा जीवन का तराजू कि काटा मध्य में सधा रहे, बाहर और भीतर दोनों समान अनुपात में सधे।

यह अब तक नहीं हो पाया। पूरब ने भीतर को साधने में बाहर की उपेक्षा कर दी। वहीं पूरब का पतन हुआ। वहीं भारत गिरा और अब तक नहीं उठ पाया। पश्चिम ने बाहर को सम्हालने में भीतर खो दिया। दोनों के आकर्षण हैं। दोनों के लाभ हैं। दोनों की हानियां हैं। अंतर्मुखी व्यक्ति शांत हो जाता है, जीवन में तनाव कम हो जाता है, भाग—दौड़ रुक जाती है। लेकिन अंतर्मुखी व्यक्ति अगर अतिशय से अंतर्मुखता से भर जाए, तो धीरे— धीरे दीन हो जाएगा। शांति तो रहेगी, लेकिन दरिद्र हो जाएगा। भीतर तनाव न रहेगा, लेकिन बाहर जीवन की सुख—सुविधा खो जाएगी।

बहिर्मुखी व्यक्ति बाहर तो बड़ा आयोजन कर लेता है, भीतर चिंता से भर जाता है। तो बाहर तो बहुत सुख हो जाएगा, भीतर उसी मात्रा में दुख संगृहीत हो जाएगा।

भारत की मनीषा ने बड़े ऊंचे शिखर छुए, लेकिन वे शिखर अंतर्मुखता के थे, अधूरे थे। परमात्मा पूरा न था उनमें।

पश्चिम ने बड़े शिखर छू लिए हैं। पश्चिम के भवन पहली दफा गगनचुंबी हुए हैं, आकाश को छू रहे हैं। बड़ा फैलाव है विज्ञान का। शक्ति बढ़ी है विनाश की, सृजन की। लेकिन भीतर आदमी बिलकुल ही पीड़ा, ग्लानि, पाप, अंधकार से भरा है। बाहर तो खूब रोशनी हो गई है, बाहर की रात तो करीब—करीब मिट गई है। भीतर की रात अमावस हो गई है। वहां चांद का कोई दर्शन ही नहीं होता, वहां तारे भी छिप गए हैं।

और ध्यान रखना कि मन को हमेशा सुविधा है दो में से एक को चुनना, क्योंकि मन द्वंद्व है। एक को चुनो, द्वंद्व जारी रहता है, संघर्ष जारी रहता है। दोनों को एक साथ चुन लो, द्वंद्व मिट जाता है, अद्वैत फलित हो जाता है।

न तो पश्चिम अद्वैतवादी है और न पूरब। कभी—कभी इक्के—दुक्के लोग अद्वैतवादी हुए हैं; कोई समाज, कोई राष्ट्र अभी तक अद्वैतवादी नहीं हो पाया। जो कहता है कि ब्रह्म ही है और माया नहीं है, वह भी अद्वैतवादी नहीं है। क्योंकि वह माया को इनकार कर रहा है, एक को इनकार कर रहा है। उसका एक का स्वीकार दूसरे के इनकार पर निर्भर है। और जिसे तुमने इनकार किया है, उसकी कमी खलती रहेगी। कितने ही जोर से इनकार करो, तुम्हारे इनकार करने में भी पता चलता है कि तुम उसे स्वीकार करते हो, अन्यथा क्या जरूरत है कहने की?

सुबह जागकर तुम दुनिया को थोड़े ही समझाते हो कि रात जो देखा, वह सपना था, झूठा था। लेकिन ब्रह्मज्ञानी समझाए फिरता है, सब संसार माया है। अगर है ही नहीं, तो कृपा करके बंद करो बकवास। किसके संबंध में बता रहे हो? अगर संसार माया है, तो किसको समझा रहे हो? क्योंकि जिसको तुम समझा रहे हो, वही तो संसार है। अगर संसार माया है, तो किसको छोड्कर जा रहे हो? माया को कोई छोड्कर जा सकता है? जो है ही नहीं, उसे छोड़ोगे कैसे? सपनों का किसी ने कभी त्याग किया? सपने जाने जा सकते हैं; त्याग क्या होगा? त्याग कैसे करोगे? कुछ भी तो नहीं है हाथ में, जिसको छोड़ दोगे; सपना है।

लेकिन जिनको तुम ब्रह्मज्ञानी कहते हो, वे माया का त्याग करते हैं, संसार को छोड़ते हैं, और समझाए चले जाते हैं कि सब माया है, सब सपना है। किसको समझाते हो? लगता है, खुद को समझाते हैं। आधे को छोड़ दिया है, उस की पीड़ा खलती है। वही दुख प्रवचन बन जाता है। वही दुख समझाना बन जाता है। वे तुम्हें नहीं समझा रहे हैं, वे अपने को ही समझा रहे हैं, क्योंकि वह आधा माग कर रहा है कि मुझे स्वीकार करो। उसे उन्हें सतत इनकार करना होता है।

पश्चिम में ठीक उलटी बात चलती है। वह यह है कि पश्चिम के विचारक कहे जाते हैं कि ईश्वर नहीं है। इसमें तुम थोड़ा समझो। वे कहते हैं, ईश्वर है ही नहीं; आत्मा है ही नहीं।

जो नहीं है, उसके पीछे क्यों पड़े हो? एक दफा कह दिया, बात खतम हो गई, शात हो जाओ। और जो नहीं है, उसके न होने को सिद्ध करने के लिए बड़े—बड़े शास्त्र क्यों लिखते हो?

ऐसे लोग हैं, जिनका पूरा जीवन. इसी में लग जाता है, सिद्ध करने में, कि ईश्वर नहीं है। और वे कोई छोटे—मोटे लोग नहीं, बर्ट्रेंड रसेल जैसे विचारशील लोग, वे भी इसमें लगा देते हैं समय को कि ईश्वर नहीं है। जैसे यह कोई बहुत महत्वपूर्ण बात है। जो है ही नहीं, उसको सिद्ध क्या करना है? उसका मूल्य ही क्या है? इसे तुम समझोगे, तो तुम्हें रहस्य समझ में आ जाएगा। पश्चिम सिद्ध करता है, आत्मा नहीं है, ईश्वर नहीं है। पूरब सिद्ध करता है, संसार नहीं है, बाहर सब माया है। दोनों की तरकीब यह है कि एक बच जाए, तो सुविधा हो जाए।

पश्चिम कहता है, भीतर नहीं है, बाहर है।

लेकिन बाहर कैसे हो सकता है बिना भीतर के? तुमने कोई ऐसी चीज देखी, जिसमें बाहर ही हो और भीतर न हो? बाहर के साथ भीतर जुड़ा है, नहीं तो तुम उसे बाहर भी कैसे कहोगे?

हम मकान के बाहर बैठे हैं, क्योंकि मकान का भीतर भी है। अगर भीतर हो ही न, तो इस जगह को तुम मकान के बाहर कहोगे? किस कारण से कहोगे? किस अपेक्षा से कहोगे? भीतर के आधार पर ही कुछ बाहर होता है। अगर सच में ही भीतर कुछ नहीं है, तो बाहर भी कुछ नहीं है। अगर सिद्ध हो जाए कि आत्मा नहीं है, तो सिद्ध हो गया कि संसार भी नहीं है।

और पूरब में, भारत में लोग सिद्ध किए जाते हैं कि बाहर नहीं है, झूठा है सब।

लेकिन भीतर हो कैसे सकता है बिना बाहर के? ये तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये तो एक ही सचाई के दो रूप हैं। और ये दोनों रूप अनिवार्य हैं। भीतर मिट जाएगा, अगर बाहर नहीं है।

इसलिए अगर तुम ठीक—ठीक तार्किकों में विचरण करोगे, तो भारत में एक बहुत प्रगाढ़ तार्किक हुआ, नागार्जुन। उसने दोनों तर्कों का एक साथ उपयोग किया है। वह कहता है कि बाहर नहीं है, यह

तो वेदांतियों ने सिद्ध कर दिया, इसलिए भीतर हो नहीं सकता। क्योंकि भीतर शब्द ही व्यर्थ हो गया, उसमें कोई सार ही न रहा। उसमें सब सार बाहर शब्द से आता था। तो वह कहता है, न बाहर है, न भीतर है, कुछ है ही नहीं।

यही बात नास्तिक की तरफ से भी कही जा सकती है कि तुमने सिद्ध कर दिया, भीतर नहीं है, सिद्ध हो गया, बाहर भी नहीं है। लेकिन यह निष्पत्ति कि न बाहर है न भीतर है, बड़ी व्यर्थ मालूम पड़ती है। तुम कौन हो फिर? कहा हो? किससे बोल रहे हो? कौन बोल रहा है? किसको समझा रहे हो? नींद में बड़बड़ा रहे हो? लेकिन एक बात तो पक्की है कि नींद में बड़बड़ाता हुआ आदमी तो है। नागार्जुन तो है, जो कहता है, कुछ भी नहीं है। यह नागार्जुन बाहर है या भीतर? निश्चित ही भीतर है, और बाहर के लोगों को समझा रहा है।

दोनों हैं। लेकिन दोनों को कोई कभी स्वीकार नहीं कर पाया। क्योंकि मन दो को साथ स्वीकार करने में बड़ी अड़चन अनुभव करता है। क्योंकि तब तो एक संतुलन जमाना होगा। उसी संतुलन को मैं संन्यास कहता हूं।

पूरब का संन्यास डूब गया। ऊंचाइयां छुई उसने। कभी—कभी कोई बुद्ध, महावीर पैदा हुआ। लेकिन यह पूरा समाज तो बुद्ध, महावीर नहीं हो सका। एक बुद्ध के लिए करोड़ों लोग बुद्ध रह गए। यह कोई सौदा करने जैसा नहीं मालूम पड़ता। और कभी कोई एकाध छू ले, तो वह अपवाद है। और उस एक के छूने की वजह से तुम्हें ऐसा लगा कि बिलकुल ठीक है, बस, भीतर को पकड लो; आत्मा को पकड़ लो, बाहर को जाने दो। बाहर चला गया। अब तुम रो रहे हो, अब तुम परेशान हो। गुलामी, दरिद्रता, दीनता, बीमारी, सब भारत को घेर लीं।

पश्चिम भी कोई एकाध आइंस्टीन पैदा कर देता है कभी—कभी बाहर का जानने वाला। लेकिन उससे भी कोई हल नहीं होता। बहुजन समाज तो तनाव, चिंता से भरा रह जाता है।

क्या यह नहीं हो सकता कि तुम बाहर— भीतर को एक साथ स्वीकार कर लो? दोनों हैं, तुम्हारे स्वीकार, अस्वीकार करने से कोई भी फर्क नहीं पड़ता; सिर्फ तुम झंझट में पड़ते हो।

ऐसा समझो कि तुम श्वास लेते हो; वह बाहर आती है, भीतर जाती है। तुम अगर जिद्द कर लो कि हम तो भीतर ही ले जाएंगे, बाहर न जाने देंगे, तो भी तुम मरोगे। या दूसरा आदमी जिद्द कर ले कि हम भीतर न जाने देंगे, बाहर ही रोककर रखेंगे, वह भी मरेगा। पूरब भी मरा, पश्चिम भी मरा, क्योंकि दोनों ने आधे को अंगीकार किया। मैं उसी को साहसी कहता हूं, जो दोनों को एक साथ स्वीकार कर ले। जो कहे, हम तराजू के दोनों पलड़ों को बराबर रखेंगे। पूरब ने भी गंवाया, पश्चिम ने भी गंवाया। और डर यह है कि जब एक चीज को तुम खो देते हो, तो दूसरी अति पर जाने की आकांक्षा पैदा होती है।

जैसे भारत है अब। अब भारत में किसी को धर्म में बहुत उत्सुकता नहीं है। काफी दुख झेल लिया धर्म का। और काफी परेशानी उठा ली इस परमात्मा के साथ। और इस आत्मा की खोज में खूब गंवाया। और ध्यान, समाधि बहुत लगाई; न तो रोटी बरसी। उससे, न धन उगा, न खेत भरे, न वर्षा हुई। कुछ भी न हुआ।

तो अब तो भारत की मनीषा इंजीनियर होना चाहती है, गणितश होना चाहती है, वैज्ञानिक होना चाहती है। तो भारत के बेटे पश्चिम। जाते हैं, बड़े इंजीनियर, बड़े वैज्ञानिक होने के लिए। पश्चिम के बेटे भारत आते हैं, संन्यास की तलाश में, ध्यान की खोज में। क्योंकि पश्चिम भी थक गया। बहुत धन हुआ, बहुत विज्ञान हुआ, कुछ सार न पाया; सब व्यर्थ लगता है।

बड़ी अनूठी घटना घट रही है। पश्चिम पूरब जैसा होता जा रहा है, पूरब पश्चिम जैसा होता जा रहा है। धीरे— धीरे पूरब तो कम्युनिस्ट होता जा रहा है; करीब—करीब हो चुका है। एशिया करीब—करीब कम्युनिस्ट हो चुका है। जो नहीं हैं कम्युनिस्ट, वे भी अधूरे हैं। उनका भी ज्यादा देर भरोसा नहीं है। कब सांस टूट जाएगी, कुछ पक्का नहीं है। पूरब तो कम्युनिस्ट हो रहा है।

कम्युनिस्ट है बहिर्वाद, आत्यंतिक बहिर्वाद। न कोई आत्मा है, न कोई ईश्वर है, सिर्फ पदार्थ है और पदार्थ का भोग है। इस पदार्थ को हम सामूहिक रूप से भोग लें, साथ—साथ भोग लें; समाप्ति है। जन्म के साथ शुरुआत है, मृत्यु के साथ अंत है। बीच के थोड़े से दिन हैं; उनको चाहे दुख में बिता लो, चाहे सुख में। थोड़ी सुविधा हम बना लें, ठीक से भोजन मिल जाए, कपड़े हों, छप्पर हों, बात समाप्त है।

पूरब कम्युनिस्ट हो रहा है और पश्चिम में व्यापक रूप से ध्यान की महिमा बढ़ती जाती है। क्या कारण होगा? जब तुम एक चीज से काफी परेशान हो जाते हो, तो तुम दूसरी अति पर जाने लगते हो। जो आदमी ज्यादा भोजन कर लेता है, वह उपवास करता है। थक गया। जो आदमी ज्यादा भोग लेता है, वह ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेता है। थक गया।

लेकिन मध्य में रुकना कला है। थकने से कोई निर्णय मत लेना। क्योंकि फिर तुम वही भूल करोगे, जो तुमने पहले की थी। पहली भी भूल यही थी कि आधे को चुना था। अब आधे से घबड़ा गए, तो दूसरा आधा तुम्हें बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ रहा है। इतना। महत्वपूर्ण मालूम पड़ रहा है कि यह खतरा है कि तुम पहले आधे को छोड्कर दूसरे को पकड़ लोगे।

ऐसी है तुम्हारी हालत, जैसे एक पैर से चलने की कोशिश की [,! है और न चल पाए; गिरे, लंगडाए, चोट खाई, तो धीरे— धीरे दूसरे ‘ पैर की जरूरत मालूम होने लगी। वह जरूरत इतनी ज्यादा मालूम।!? होने लगी, इतने ज्यादा तुम आविष्ट हो गए उस जरूरत से, कि तुमने पहले पैर को छोड़ ही दिया कि यह तो फिजूल है। वह दूसरा पैर ही असली है। अब तुम दूसरे से चलने की कोशिश करोगे। फिर तुम लंगड़ाओगे; फिर तुम गिरोगे।

दोनों पैर चाहिए। दोनों पंख चाहिए। दोनों आंख चाहिए। दोनों कान चाहिए। द्वंद्व पूरा का पूरा तुम अंगीकार कर लो, तो निर्द्वंद्व हो जाते हो।

अगर तुम बाहर भी जीओ, भीतर भी जीओ, बाहर— भीतर का भेद ही छोड़ दो, तो तुम न पूरब के रह जाते, न पश्चिम के। ठीक अर्थों में तुम पहली दफा समग्र मनुष्यता के अंग बनते हो। पहली बार तुम समग्र बनते हो। और समग्रता सबसे बड़ी मनीषा है।

पूरब भी चूका है, पश्चिम भी चूका है। और अभी मौका है; क्योंकि बदलाहट हो रही है। इस बदलाहट के क्षण में अगर समझ आ जाए.।

बड़ा कठिन दिखता है। पश्चिम को समझाना मुश्किल है कि विज्ञान को नष्ट मत करो, अन्यथा तुम पछताओगे, हम पछता रहे हैं। नहीं समझ में आता।

पश्चिम के जवान लड़के विज्ञान में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। विज्ञान दुश्मन मालूम पड़ता है। विज्ञान का अर्थ मालूम पड़ता है, हिरोशिमा, नागासाकी। विज्ञान का अर्थ मालूम पड़ता है, मरती हुई प्रकृति, मरते हुए पक्षी, मरती हुई झीलें, मरता हुआ सागर। विज्ञान का अर्थ मालूम होता है, एक भयंकर दानव है टेक्‍नालाजी का, वह आदमी को कसे जा रहा है।

बर्कले विश्वविद्यालय में पिछले वर्ष लड़कों ने, जैसे तुम होली जलाते हो, होलिका को जलाते हो, वैसे उन्होंने रॉल्स रॉयस कार को जलाया। नई गाड़ी को चंदा करके खरीदा और बर्कले विश्वविद्यालय के प्रांगण में रखकर नई गाड़ी की होली की, प्रतीक की तरह जलाया कि यह प्रतीक है टेक्‍नालाजी का। हम टेक्‍नालाजी के दुश्मन हैं।

इसलिए हिप्पी पैदा हो रहा है पश्चिम में। हिप्पी का मतलब है, जो विज्ञान के विरोध में है। जो साबुन का उपयोग नहीं करता, क्योंकि वह अप्राकृतिक है। जो तेल नहीं डालता, क्योंकि वह तो सब बाहर का रंग—रोगन है। जो नियम—नीति नहीं मानता, क्योंकि बहुत मान लिया, कुछ सार न पाया। जो विश्वविद्यालय पढ़ने नहीं जाता, क्योंकि जो पढ़ लिए, उन्होंने क्या किया? बरबाद कर दिया’। विज्ञान में उसकी उत्सुकता नहीं है। बिजली में उसको रस नहीं है। वह चाहता है, कहीं किसी जंगल के एक झोपड़े में रात के अंधेरे में सोए, दीया भी जलाए न।

पश्चिम में हिप्पी पैदा हो रहा है। हिप्पी का अर्थ है, बाहर से बगांवत, भीतर की खोज।

पूरब में ठीक उलटी घटना घट रही है। पूरब का लड़का इंजीनियर, डाक्टर बनना चाहता है। और पूरब के हर लड़के की आकांक्षा है कि पश्चिम जाकर बड़ी डिग्रियां लेकर लौटे, और टेक्‍नालाजी सीखकर लौटे, और यंत्रों को जान ले, और नए यंत्र बनाए। खेती को वैज्ञानिक ढंग से किया जाए। हर चीज वैज्ञानिक हो, ताकि प्रचुरता से उपलब्ध हो सके। हम काफी दीन रह लिए, दुखी हो लिए।

पर मैं तुमसे कहता हूं… जैसा मैं पश्चिम से कहता हूं कि विज्ञान को छोड़ा कि तुम हजार, दो हजार साल में भारत जैसी दीनता को पहुंच जाओगे, भूखे मरोगे। आज तुम्हें जो संपन्नता दिखाई पड़ रही है पश्चिम में, वह प्रकृति से आई हुई संपन्नता नहीं है, वह विज्ञान ने दी है, वह बाहर जीने की कला से आई है।

आज तुम्हें पूरब में जो दिखता दिखाई पड़ती है, वह उसी भूल से आई है, जो तुम पश्चिम में कर सकते हो, कि हमने कह दिया, सब बेकार है, बाहर तो कुछ सार नहीं। जब माया ही है, तो कौन फिक्र करे? कौन प्रयोगशाला बनाए? कौन खोज करे? क्या लेना—देना है? सपने में कोई ज्यादा रस ही नहीं है। भीतर जाओ, अंतर्मुखी हो जाओ। हम होकर देख लिए हैं।

और मैं पूरब के लोगों से भी कहना चाहता हूं कि पश्चिम के लोगों को समझो। उन्होंने विज्ञान का खूब विस्तार करके देख लिया है और वे थक गए हैं, घबड़ा गए हैं। जिंदगी नष्ट हो गई। टेक्‍नालाजी बड़ी हो गई, आदमी छोटा हो गया। टेक्‍नालाजी इतनी बड़ी होती जा रही है कि आदमी उसमें सिकुड़ता ही जाता है, खोता जाता है। यंत्र ही चला रहे हैं। यंत्र ही मालिक हो गए हैं। हर चीज यंत्र से पूछी जा रही है।

अब तो कंप्यूटर पैदा हो गए हैं। तो अब तो तुम्हें कोई जरूरी सवाल भी पूछना है, निर्णय भी करना है, तो वह भी आदमी से पूछना ठीक नहीं है, कंप्यूटर से पूछना ठीक है। क्योंकि आदमी से भूल हो सकती है, कंप्यूटर से भूल नहीं होती।

कंप्यूटर तुम्हें बता देगा कि इस स्त्री से विवाह करना उचित है या नहीं। तुम दोनों अपने—अपने जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा कंप्यूटर को दे दो, वह हिसाब लगाकर बता देगा कि इस स्त्री के साथ तुम्हारी कैसी जिंदगी रहेगी। साथ रहोगे, तो कितना झगड़ा होगा, कितना मेल होगा, कितनी कलह रहेगी।

जो ज्योतिषी कभी नहीं कर पाए, वह कंप्यूटर आसानी से कर देता है। क्योंकि दोनों के गुणों को वह पहले समझ लेता है, फिर दोनों के गुणों का पूरा गणित लगा देता है। वह कह देता है कि साठ प्रतिशत सफलता होगी, चालीस प्रतिशत असफलता होगी। अगर चालीस प्रतिशत असफल होने को राजी हो, कर लो। अन्यथा दूसरी स्त्री खोजो।

सभी चीजें धीरे— धीरे यंत्र के हाथ में चली गई हैं।

पश्चिम ने करके देख लिया, थक गया, तुम भी करके देख लिए, तुम भी थक गए। अब डर यह है कि तुम वह चुन लो, जो भूल पश्चिम ने की थी। और पश्चिम वह चुन ले, जो भूल तुमने की थी। और फिर वही चक्कर शुरू जाए। ‘ इसलिए मेरा एक अभिनव प्रयास है; वह सभी संभावनाओं के ऊपर देखने की चेष्टा है; बड़ा आशावादी भाव है वह। वह भाव यह है कि मनुष्य दोनों में एक साथ जी सकता है; क्योंकि दोनों दो नहीं है। अगर वे दो होते, तब तो जी ही नहीं सकता था।

कहां बाहर शुरू होता है, कहां भीतर शुरू होता है? भोजन तुम करते हो, बाहर से भीतर डालते हो, फिर भोजन पचता है, खून—मांस—मज्जा बनता है, भीतर हो गया। न केवल भोजन पचकर भीतर बन जाता है, फिर भोजन की ही सूक्ष्म ऊर्जा उठती है और विचार बनती है, सपने बनती है, कविता का जन्म होता है। कविता को तो बाहर न कहोगे। प्रेम को तो बाहर न कहोगे। जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो, तो तुम कहोगे, यह भीतर से आ रहा है कि बाहर से! इसे तो भीतर कहोगे!

लेकिन भूखे भजन न होईं गुपाला! भजन भी पैदा नहीं होता भूखे को तो, प्रेम कैसे पैदा होगा। वह भी भोजन की ही सूक्ष्मतम ऊर्जा है, जो प्रेम बनती है, भजन बनती है।

इसलिए तो उपनिषदों ने कहा, अन्न ब्रह्म है। बड़े गहरे लोग रहे होंगे। अन्न और ब्रह्म को जोड़ दिया। बाहर और भीतर को एक कर दिया। क्या बचा? अन्न तो छोटी से छोटी चीज है। और ब्रह्म बड़ी से बड़ी चीज है। लेकिन उपनिषदों ने कहा, अन्न ब्रह्म! अन्न ब्रह्म है। छोटे से छोटा बड़े से बड़ा है। बाहर से बाहर भी भीतर से भीतर! है। भीतर से भीतर भी बाहर से बाहर है।

जब तुम क्रोध से भरते हो, उठाकर एक पत्थर किसी के सिर में मार देते हो। पत्थर बाहर है, क्रोध भीतर है। जिस आदमी का सिर टूट जाता है, वह भी बाहर है। खून बहता है, वह भीतर से आता है। उसके भीतर भी क्रोध पैदा होता है, वह भीतर है।

सब संयुक्त है। बाहर और भीतर विभाजित नहीं हैं। जिस दिन तुम्हें यह खयाल आ जाए, उस दिन तुम्हारे जीवन में बड़ी समझ पैदा होगी। तब तुम एक को पकड़कर जीने की कोशिश छोड़ दोगे। वह एकागी चेष्टा से ही गृहस्थ पैदा होता है और पुराना संन्यासी पैदा होता है। वे दोनों एकांगी हैं। लेकिन तुमने कभी खयाल नहीं किया कि वह संन्यासी भी गृहस्थ को छोड्कर जा नहीं सकता।

भोजन के लिए, वस्त्र के लिए गृहस्थ पर निर्भर रहना पड़ता है। और गृहस्थ भी संन्यासी को छोड्कर नहीं जा सकता। प्रवचन सुनने के लिए, जब पत्नी से झगड़ा हो जाए तो थोड़ी सात्वना के लिए, जब घर में बहुत उपद्रव मचे तो थोड़ी शांति के लिए, वह संन्यासी के द्वार पर खड़ा रहता है।

बाहर के लिए संन्यासी गृहस्थ के द्वार पर खड़ा रहता है; भीतर के लिए गृहस्थ संन्यासी के द्वार पर खड़ा रहता है। शांति चाहिए, तो जाओ संन्यासी को खोजो। ध्यान चाहिए, तो संन्यासी को खोजो। और संन्यासी को भूख लगती है, तो चला गृहस्थ की खोज में। फिर भी तुम्हें दिखाई न पड़ा कि संन्यासी और गृहस्थ आधे— आधे हैं! ये पूरे नहीं हैं। और पूरा मनुष्य ही तृप्त होता है। पूर्णता ही तृप्ति है।

और पूर्णता का एक ही उपाय मैं जानता हूं दूसरा उपाय है भी नहीं। और वह पूर्णता यह है कि तुम संन्यासी और गृहस्थ एक साथ हो जाओ। तुम रोटी अपने ही गृहस्थ से मांग लो, दूसरे गृहस्थ से मांगने की क्या जरूरत है! जो तुम ही कर सकते हो, उसके लिए दूसरे के द्वार पर जाने की क्या जरूरत है! और शांति भी तुम अपनी ही साध लो, किसी से क्या मांगना है! दोनों तुम्हारे भीतर उपलब्ध हैं, तुम व्यर्थ ही भिखारी बन जाते हो।

बंटे हुए संन्यासी भी भिखारी हो जाते हैं। गृहस्थ भी भिखारी हो जाता है। अनबंटे, अखंड, तुम दोनों हो जाते हो। दोनों जो एक साथ है, वही अद्वैत को उपलब्ध है।

भारत की गरिमा ने बहुत कुछ पाया, लेकिन वह एकांगी था; इसलिए दुख उत्पन्न हुआ। पश्चिम ने भी बहुत पाया है, वह भी एकागी है। और मेरे लिए सवाल न तो बाहर की खोज का है, न भीतर का। मेरे लिए एकांगी होना रोग है। तो तुम किस ढंग से फैली हो, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता; तुम दीन रहोगे। दोनों को साध लो। और अड़चन जरा भी नहीं है।

कई लोग मुझसे आकर पूछते हैं कि दोनों को कैसे साधें? तुम कभी मुझसे नहीं पूछते कि दोनों श्वास कैसे चलती हैं? दोनों पैर कैसे चलते हैं? दोनों हाथ कैसे चलते हैं? सिर्फ इसी के लिए तुम क्यों पूछते हो! क्योंकि हजारों साल से तुम को यही सिखाया गया है कि दोनों में द्वंद्व है।

दोनों में द्वंद्व है ही नहीं। साधना है ही नहीं। वे दोनों सधे ही हुए हैं, कृपा करके इतना समझ लो। सधे ही हुए हैं, नहीं तो तुम जी ही नहीं सकते। प्रतिपल बाहर से भीतर जा रही है ऊर्जा, भीतर से बाहर आ रही है। तुम तो बाहर और भीतर के मिलन हो, द्वार हो। जहां से आकाश भीतर बन रहा है, और पुराना आकाश, जो जराजीर्ण हो गया, बाहर जा रहा है। नया आकाश भीतर आ रहा है, पुराना आकाश बाहर जा रहा है।

नया भोजन तुम भीतर ले रहे हो, पुराना मल—मूत्र होकर बाहर जा रहा है। कल उसे बाहर से ही लिया था, अब फिर वापस जा रहा है। नया बच्चा पैदा हो रहा है, का आदमी मर रहा है। नया बच्चा बाहर आ रहा है, का आदमी कब में जा रहा है। कुछ भी नहीं है, सिर्फ बाहर और भीतर का संतुलन है। का चुक गया, उसने बाहर से जो—जो लेना था, ले लिया, अब सब वापस लौटना है। प्रतिपल ऐसा हो रहा है।

श्वास भीतर आ रही है, बाहर जा रही है। भीतर आती है, तब आक्सीजन से भरी हुई आती है। भीतर आक्सीजन तो तुम्हारे खून में मिल जाती है, तुम्हारा प्राण बन जाती है। कार्बन डाय आक्साइड शेष रह जाता है, वह बाहर जा रहा है। उसकी बाहर को जरूरत है। ये जो वृक्ष खड़े हैं, ये कार्बन डाय आक्साइड पीने के लिए तुम्हारे पास खडे हैं। ये वृक्ष कार्बन डाय आक्साइड को पीये जाते हैं। इसलिए तो तुम जब वृक्ष को जलाते हो, तो कोयला पैदा होता है। कोयला यानी कार्बन। और वृक्ष आक्सीजन को छोड़ रहे हैं। उनकी श्वास का ढंग भिन्न है। वे कार्बन को पीते हैं और आक्सीजन को छोडते हैं। तुम आक्सीजन पीते हो और कार्बन को छोड़ते हो। बिना वृक्षों के तुम जिंदा न रह सकोगे।

इसलिए पश्चिम में बड़ा आंदोलन इकॉलाजी का चल रहा है कि वृक्ष मत काटो, नए वृक्ष लगाओ। क्योंकि वृक्ष अगर सब कट गए, आदमी मर जाएगा।

तुमने कभी सोचा ही नहीं कि वृक्ष से तुम्हारी जिंदगी जुड़ी थी। वह बाहर है, लेकिन एक क्षण को बिना वृक्ष के तुम नहीं रह सकते। वृक्ष तो चाहिए ही। वह शुद्ध कर रहा है हवा को तुम्हारे लिए। तुम उसके लिए तैयार कर रहे हो। तुम एक ही बड़े यंत्र के दो हिस्से हो। तुम्हारे बिना वृक्ष भी मुश्किल में पड़ेगा। अगर सारे पशु—पक्षी और मनुष्य मर जाएं, वृक्ष सूख जाएंगे। क्योंकि कौन उन्हें कार्बन डाय आक्साइड देगा? अगर सब वृक्ष काट डाले जाएं, आदमी, पशु —पक्षी, सब मर जाएंगे। कौन उन्हें आक्सीजन देगा? जीवन संयुक्त खेल है। यहां सब जुड़ा है। किस घड़ी तुम बाहर कहते हो, किस घड़ी तुम भीतर कहते हो? कैसे तुम बांटते हो?

इसलिए मुझसे जब कोई पूछता है, तो मैं बड़ी अड़चन में पड़ता हूं। मुझसे कोई पूछता है, कैसे साधें? मैं उससे पूछता हूं इसकी फिक्र ही छोड़ो। तुम देखो कि कैसा सधा हुआ है। तुम कृपा करके अड़चन न डालो। तराजू बिलकुल सधा हुआ है। अगर तुमने कृपा की और समझपूर्वक बाधा न डाली, हस्तक्षेप न किए, तो सब सधा ही हुआ है।

इसलिए सम्यक बोध जीवन का संन्यास है। वहा तुम पाओगे, दोनों जुड़े हैं।

भोजन लेते हो। भोजन बाहर है, भूख भीतर है। दोनों के बीच बड़ा संतुलन है। दोनों के बीच गहरा संतुलन है। भूख का अर्थ है, भोजन की मांग, बाहर की मांग भीतर से। फिर जब तुमने भोजन कर लिया, भूख विदा हो गई। जब भोजन मिल गया. तो भूख की कोई जरूरत न रही, मांग न रही। अब भोजन भीतर बनने लगा। अब भोजन तुम्हारे भीतर का हिस्सा होने लगा।

अगर तुम चाहो तो महीने, दो महीने भूखे रह सकते हो। वह भी तुम इसीलिए भूखे रह सकते हो कि अतीत में तुमने जो भोजन किया था। उपवास भी भोजन पर निर्भर है। अगर तुम अतीत में भी भूखे रहे हो, तो उपवास न कर सकोगे।

कुछ आश्चर्य नहीं है कि महावीर महीनों उपवास कर सके। राजपुत्र थे। शुद्धतम र श्रेष्ठतम, शक्तिशाली भोजन जीवनभर उपलब्ध हुआ था।

अगर महावीर की नकल कोई गरीब आदमी करेगा, तो मरेगा। वह जो जीवनभर पौष्टिक आहार उपलब्ध हुआ था, उसके आधार पर उपवास हो रहा है। क्योंकि उपवास के लिए जरूरी है कि तुम्हारे शरीर में चर्बी इकट्ठी हो। चर्बी का मतलब है, संगृहीत भोजन, जो तुमने वक्त—बेवक्त के लिए इकट्ठा कर रखा है।

तो हर आदमी, अगर ठीक स्वस्थ हो, तो तीन महीने तक के लिए भोजन इकट्ठा रखता है शरीर में वक्त—बेवक्त के लिए। कभी जंगल में भटक गए, और भोजन न मिला; कोई मुसीबत आ गई, भोजन न मिला, कोई बीमारी हो गई, भोजन न कर सके, तो तीन महीने तक इमरजेंसी, संकटकालीन व्यवस्था है कि तीन महीने तक तुम्हें शरीर ही भोजन देता रहेगा। लेकिन वह भोजन भी बाहर से आया है। अब यह बड़े मजे की बात है। लोग समझते हैं, उपवास भीतर है और भोजन बाहर है। लेकिन बिना भोजन के उपवास नहीं हो सकता। और उलटी बात भी सच है, बिना उपवास के भोजन नहीं हो सकता।

इसलिए हर दो भोजन के बीच में आठ घंटे का उपवास करना पड़ता है। वह जो आठ घंटे का उपवास है, वह फिर भोजन की तैयारी पैदा कर देता है।

इसलिए अगर तुम दिनभर खाते रहोगे, तो भूख भी मर जाएगी, भोजन का मजा भी चला जाएगा। भोजन का मजा भूख में है। यह तो बड़ी उलटी बात हुई! भोजन का मजा भूख में है। जितनी प्रगाढ़ भूख लगती है, उतना ही भोजन का रस आता है।

इसका तो यह अर्थ हुआ कि ध्यान का रस विचार में है। तुमने जितना विचार कर लिया होता, उतनी ही ध्यान की आकांक्षा पैदा होती। इसका तो अर्थ हुआ कि ब्रह्मचर्य की जड़ें कामवासना में हैं; कि तुमने जितना काम भोग लिया होता, उतने ब्रह्मचर्य के फूल तुम्हारे जीवन में खिलते।

ये मेरी बातें तुम्हें उलटबासिया लगेंगी, क्योंकि जिन्होंने तुम्हें समझाया है अब तक, उन्होंने खंड करके समझाया है। उन्होंने कहा, कामवासना ब्रह्मचर्य के विपरीत है। उन्होंने कहा, संसार संन्यास के विपरीत है। उन्होंने हर चीज के बीच द्वंद्व और संघर्ष और कलह पैदा कर दी है। ये जो कलह पैदा करने वाले लोग हैं, इनको तुम गुरु समझ रहे हो। यही तुम्हें भटकाए हैं।

मैं चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में अकलह हो जाए, एक संवाद छिड़ जाए, संगीत बजने लगे। अलग—अलग स्वर न रह जाएं, सब एक संगीत में समवेत हो जाएं। तुम्हारे भीतर एक कोरस का जन्म हो, जिसमें सभी जीवन की तरंगें संयुक्त हों, बाहर और भीतर मिले, शरीर और आत्मा मिले, परमात्मा और प्रकृति मिले।

इसलिए कबीर कह सके कि वे ही विरले योगी हैं, जे धरनी महारस चाखा। विरले योगी वे ही हैं। परमात्मा का जिन्होंने अकेले रस चखा, वे कोई बहुत विरले योगी नहीं हैं। अधूरे हैं, आधे हैं। पूरे तो वे ही हैं, जे धरनी महारस चाखा। जिन्होंने धरती के महारस को भी चखा। परमात्मा को तो पीया ही, धरती को भी पीया। आत्मा को तो जाना ही, पदार्थ को भी जाना। भीतर तो मुड़े ही, बाहर के विपरीत नहीं; बाहर के सहारे मुड़े। भीतर गए और बाहर की नाव पर गए। उनको कबीर ने कहा विरले योगी।

उन्हीं विरले योगियों से संसार उस शांति को उपलब्ध होगा, जो पूरब जानता है; और उस सुख को उपलब्ध होगा, जो पश्चिम जानता है। और जहां सुख और शांति के पलड़े बराबर हो जाते हैं, वहीं जीवन में संयम पैदा होता है। संयम यानी संतुलन।

पूरब भी असंयमी है और पश्चिम भी असंयमी है। इसलिए दोनों दुखी हैं। असंयम दुख है। संयम महासुख है।

दूसरा प्रश्न : आपने कहा है कि झुकना एक महाघटना का सूत्रपात है। क्या खड़े रहना, अकड़े रहना, किसी महाअनुभव पर नहीं ले जाता?

जाता है। वही झुकने पर ले जाता है। अकड़े रहो, खड़े रहो। झुकोगे, जब अकड़ से थक जाओगे, परेशान हो जाओगे। कितनी देर अकड़े खड़े रह सकते हो? विश्राम तो करोगे? अकडू की पीड़ा, संताप, दुख आत्यंतिक रूप से झुकने की तरफ ले जाता है, विनम्रता की तरफ ले जाता है। अहंकार का आखिरी कदम निरअंहकारिता है। कब तक अहंकारी बने रहोगे? जब पत्थर की तरह सिर पर अहंकार बोझिल हो जाएगा, छाती में हृदय को धड़कने न देगा, प्रेम को मार डालेगा, ध्यान का उपाय न छोडेगा, शांति का सुराग भी न मिलने देगा, अंशांति का दावानल जलेगा, भीतर तुम लपटें ही लपटें हो जाओगे, जलोगे ही, दग्ध ही होओगे और कभी कोई वर्षा न होगी, तब क्या करोगे? तब एक क्षण में छोड्कर इस अहंकार को तुम झुक जाओगे।

इसलिए कुनकुने अहंकारी खतरनाक हैं। थोड़े— थोड़े अहंकारी, थोड़े— थोड़े विनम्र, ये खतरनाक लोग हैं। ये कभी धर्म को उपलब्ध नहीं होते। ये कुनकुने पानी की तरह हैं; कभी भाप नहीं बनते। ये सौ डिग्री पर ही नहीं पहुंचते, तो भाप कैसे बनेंगे? न तो शीतल हो पाते हैं, क्योंकि वह अहंकार इनको गरमाए रखता है। और न इतने गरम हो पाते, क्योंकि झूठी सज्जनता, विनम्रता, आचरण, व्यवहार, कुशलता, वह इनको शीतल बनाए रखती है। न गरम हो पाते, न ठीक शीतल हो पाते। दोनों के बीच सड़ते हैं।

अगर तुम अहंकार के ही पीछे लगे रहो, तो आज नहीं कल निरअहंकार घटेगा। इसलिए मेरी दृष्टि में हर बच्चे को अहंकार की शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि कहीं वह कुनकुना न रह जाए। उसे अहंकार की खूब प्रगाढ़ शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि आज नहीं कल अहंकार का दंश इतना भयंकर हो उठे कि वह अपने अनुभव से ही अहंकार छोड़ दे और निरअंहकारिता की तरफ यात्रा करे। किसी बच्चे को मत सिखाओ कि विनम्र हो जाओ। विनम्रता कोई सिखा नहीं सकता, स्वानुभव से आती है। तुम तो यही सिखाओ कि अहंकार! अहंकार को इतना प्रगाढ़ और निखरा हुआ कर दो बच्चे में कि वह तलवार की धार हो जाए; खुद को ही काटने लगे। और तब तुम पाओगे, बच्चा एक दिन खुद ही अपने अनुभव से प्रौढ़ हो गया है।

इधर मेरे अनुभव में रोज यह बात आती है। पश्चिम का मनोविज्ञान अहंकार पर जोर देता है। वह कहता है, स्वस्थ आदमी को सघनीभूत अहंकार चाहिए। और पूरब का धर्म जोर देता है कि परम स्वास्थ्य के लिए निरअंहकारिता चाहिए। ये विपरीत मालूम पड़ते हैं, ये विपरीत नहीं हैं। और मेरे अनुभव में बड़ी अनूठी बात आती है।

पूरब के आदमी मेरे पास आते हैं, पश्चिम से आदमी मेरे पास आते हैं। जब कोई भारतीय आता है, तो वह पैर ऐसे ही छू लेता है। उसमें कोई विनम्रता नहीं होती, आदतवश छू लेता है। और उसके चेहरे पर कुछ नहीं दिखाई पड़ता। छू रहा है, सदा से छूता रहा है, एक औपचारिक नियम है, एक कर्तव्य है। छूने में कोई भाव नहीं है, कोई श्रद्धा नहीं है, न कोई निरअंहकारिता है।

पश्चिम का आदमी आता है, छूने में बड़ी कठिनाई पाता है, पैर छूना उसे बड़ा मुश्किल मालूम पड़ता है। वह उसकी शिक्षा का अंग नहीं है। उसे बड़ी कठिनाई होती है। ध्यान करता है, सोचता है, विचार करता है, अनुभव करता है, तब किसी दिन पैर छूने आता है। लेकिन तब पैर छूने में अर्थ होता है।

पूरब का आदमी पैर छू लेता है सरलता से, लेकिन उस सरलता में गहराई नहीं है, उथलापन है। पश्चिम के आदमी के लिए बड़ा कठिन है पैर छूना, लेकिन जब छूता है, तो उसमें अर्थ है। क्या कारण है?

पश्चिम में विनम्रता सिखाई नहीं जाती, स्वस्थ अहंकार सिखाया जाता है। और मेरी अपनी धारणा है कि दोनों सही हैं। पहले कदम पर स्वस्थ अहंकार सिखाया जाना चाहिए, ताकि दूसरे कदम पर विनम्रता की शिक्षा संभव हो सके। पश्चिम यात्रा की शुरुआत करता है और पूरब में यात्रा का अंत है।

और यही सब चीजों के संबंध में सही है। पहले विज्ञान सिखाया जाना चाहिए, क्योंकि वह यात्रा का प्रारंभ है। फिर धर्म, क्योंकि वह यात्रा का अंत है। पहले विचार करना सिखाया जाना चाहिए, प्रशिक्षण विचार का। फिर ध्यान। क्योंकि वह निर्विचार है। वह अंतिम बात है।

पश्चिम में जो हो रहा है, वह प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के प्राथमिक चरण में होना ही चाहिए। और जो पूरब की आकांक्षा है, वह प्रत्येक व्यक्ति के अंतिम चरण में होना चाहिए। पैंतीस वर्ष का

जीवन पश्चिम जैसा और पैंतीस वर्ष का आखिरी जीवन पूरब जैसा, तो तुम्हारे भीतर सम्यक संयोग फलित होगा।

तीसरा प्रश्न: सदगुस्थ्यों की लीलाएं अलग—अलग क्यों हैं?

क्‍योंकि प्रत्येक व्यक्ति अलग—अलग है। और प्रत्येक व्यक्ति अनूठा, अद्वितीय है, बेजोड़ है। तुम भी बेजोड़ हो, तो सदगुरुओं का तो कहना ही क्या! तुम भी दूसरे जैसे नहीं हो; तुम्हारे जैसा कोई आदमी कहीं नहीं है। जैसे तुम्हारे अंगूठे का चिह्न अलग है और दुनिया में किसी दूसरे का वैसा चिह्न नहीं है—न मौजूद किसी का; न अतीत में कोई हुआ, उसका, न भविष्य में कोई होगा, उसका। जब अनूठा तक इतना अलग है, तो आत्मा का तो क्या कहना! तुम्हारी आत्मा का हस्ताक्षर बिलकुल अलग है, कभी किसी ने नहीं किया, कभी कोई नहीं करेगा।

यह तो साधारणजन की बात है, जो जमीन पर जीते हैं, भीड़ में जीते हैं, अनुकरण में जीते हैं, वे भी भिन्न—भिन्न हैं। तुमने कभी एक जैसे दो आदमी देखे? दो जुड़वां भाई भी एक जैसे नहीं होते। अगर तुम निरीक्षण करो, तो फर्क पाओगे।

शरीरशास्त्री कहते हैं कि यह कोई बाद में फर्क हो जाता है, ऐसा भी नहीं। दो बच्चे भी मां के पेट में एक जैसे नहीं रहते। कोई टलें फटकारता है, कोई बिलकुल शात रहता है, कोई उपद्रव मचाता है। वह पहले ही से कोई क्रांतिकारी है, वह पैदा होते ही से कोई विप्लव खड़ा करने की तैयारी कर रहा है। कोई बिलकुल शात रहता है, मां के पेट को पता ही नहीं चलता, हलन—चलन भी नहीं होती। वह कभी—कभी चौंकती भी है कि बच्चा जिंदा है या मरा। वह पहले ही से साधु है।

डाक्टरों का अनुभव है। जो बच्चों को जन्म दिलवाते हैं कि बच्चे पैदा होते से ही अलग—अलग होते हैं। कोई बच्चा पैदा होते से ही बड़ी शांति का भाव प्रकट करता है। कोई बच्चा पैदा होते ही से भयंकर चीख—पुकार मचाता है। कोई बच्चा पैदा होते से ही आंख खोलता है, लोगों को गौर से देखता है। कोई बच्चा आंख बंद किए पड़ा रहता है। एक उदासी; कोई उत्सुकता नहीं। कोई बच्चा पहले ही से गोबर—गणेश होता है, पड़ जाता है। कोई बच्चा पहले ही से चारों तरफ सजग होकर सारी दुनिया को जानने को उत्सुक हो जाता है। यात्रा शुरू हो गई।

दो बच्चे एक जैसे जन्म के क्षण में भी नहीं होते। मां के गर्भ में भी नहीं होते।

यह तो भीड़ में रहने वाले लोगों का जीवन है, जहां अनुकरण नियम है, जहां वैसे ही कपड़े पहनो, जैसे दूसरे पहनते हैं; वैसे ही बाल कटाओ, जैसे दूसरे कटाते हैं। नहीं तो तुम कुछ विचित्र समझे जाओगे और लोग उसको अच्छा न मानेंगे। लोग समझेंगे कि तुम उनकी आलोचना कर रहे हो या उनके कपड़ों की या उनके बालों की। लोग चाहते हैं कि लोग एक—दूसरे के जैसे हों। वहां भी इतना भेद है कि वहां भी कोई एक जैसा नहीं है।

लेकिन सदगुरु का तो अर्थ है, वह जमीन पर नहीं है अब, शिखर की तरह हो गया, गौरीशंकर। तो दो शिखर पहाड़ों के, आकाश में अलग—अलग उठे, तो बिलकुल अलग हो जाते हैं। जमीन पर इतना भेद है, तो शिखरों में तो बहुत भेद हो जाता है।

इसलिए दो गुरु एक जैसे नहीं होते। इससे बड़ी अड़चन पैदा हुई है। अड़चन पैदा यह हुई है कि जो एक गुरु के प्रेम में पड़ जाता है, वह यह समझ ही नहीं पाता कि दूसरे गुरु कैसे गुरु हैं? क्योंकि उसके पास एक मापदंड हो जाता है।

जिसने महावीर को प्रेम किया, वह मोहम्मद को कैसे प्रेम करे? उसकी एक कसौटी है। वह देखता है कि नग्न खडे हैं या नहीं? अभी वस्त्र का त्याग किया या नहीं? और मोहम्मद वस्त्र पहने खड़े हैं, तो मुश्किल हो गई।

और मोहम्मद तो ठीक ही हैं, रामचंद्र धनुष लिए खड़े हैं। और कृष्ण का तो कहना ही क्या? वे मोर—मुकुट बांधे खड़े हैं। वस्त्र तो छोड़े ही नहीं हैं, मोर—मुकुट और बांध लिया। बांसुरी बजा रहे हैं। स्त्रियां आस—पास नाच रही हैं।

तो जिसने महावीर को कसौटी बना लिया, उसके लिए कृष्ण कोई हालत में ज्ञानी नहीं हो सकते।

और जिसने कृष्ण को बना लिया मापदंड, वह महावीर को कैसे बरदाश्त करेगा। कृष्ण में ऐसा रस उसे मालूम होगा कि महावीर बिलकुल सूखे रेगिस्तान मालूम पड़ेंगे। मोर—मुकुट कैसा सोहता है कृष्ण पर! बांसुरी की कैसी धुन है! नाच का कैसा मजा! कैसा उत्सव! और ये महावीर खड़े हैं नग्न, भूत—प्रेत मालूम होते हैं। ये क्या कर रहे हैं नग्न वृक्ष के नीचे खडे? कुछ गाओ। अरे, नाचो।

बांसुरी बजाओ; मोर—मुकुट बांधो। लेकिन महावीर महावीर हैं। महावीर का मानने वाला कृष्ण को देखता है कि ये तो कुछ नाटकीय हैं। ड्रामैटिक मालूम होते हैं, कोई अभिनेता हैं, कि किसी नौटंकी में काम करते हैं। ये मोर—मुकुट बांधे किस लिए खड़े हो? ज्ञानी को इसमें क्या रस! और यह बांसुरी किस लिए बजा रहे हो? यह तो अज्ञानी काफी हैं बजाने के लिए। तुम तो फेंको इसे। यह कैसा राग—रंग हो रहा है? वीतराग बनो। ये स्त्रियां किसलिए नाच रही हैं? यह द्वंद्व कब तक चलेगा? तो अभी कामवासना शात नहीं हुई? नहीं, एक का भक्त दूसरे के प्रति अंधा हो जाता है। और कठिनाई यह है कि दो सदगुरु एक से होते ही नहीं।

बड़ी खुली आंख चाहिए, जब तुम पहचान पाओगे कि ये तो आवरण हैं। हर गुरु के अलग हैं। हर गुरु की लीला अलग है, होगी ही। क्योंकि वह अपने स्वभाव से जीता है। कोई कृष्ण महावीर का अनुकरण नहीं करते, न कोई महावीर किसी कृष्ण का अनुकरण करते हैं। परम ज्ञानी अनुकरण करता ही नहीं। वह तो अपने शुद्ध स्वभाव में जीता है। जो घटता है, घटता है।

कृष्ण कोई बांसुरी बजा थोड़े ही रहे हैं, बांसुरी बज रही है। महावीर कोई नग्न होकर खड़े थोड़े ही हो गए हैं, इसका कोई अभ्यास थोड़े ही किया है। नग्नता फलित हुई है। यह घटी है। यह कोई अभ्यास नहीं है, आयोजन नहीं है। इसके लिए कोई चेष्टा नहीं की है; कपड़े उतारकर, झाडू के नीचे आंख बंद करके अभ्यास नहीं किया है। यह घटी है।

महावीर ने घर छोड़ा। जब घर छोडा, तो एक ही वस्त्र था। जब वे घर से छोड्कर गए, तो राह में एक भिखारी मिला और उसने कहा कि कुछ मुझे भी दे जाएं।

वह सब लुटा दिया था; उनके पास जो संपत्ति थी, वह तो शहर में लुटा आए। जो धन था, वह सब उन्होंने बांट दिया, जो—जो उनकी निजी चीजें थीं, वे सब उन्होंने बांट दीं। कुछ भी न बचा। एक वस्त्र, एक चादर को लपेटे आए हैं। और अब यह भिखारी मिल गया गांव के बाहर। उसने कहा कि मुझे भी कुछ देते जाएं! मैं वहां तो आ न पाया; लूला—लंगड़ा हूं। और उस भीड़ में मेरी कौन सुनता?

अब इसको कैसे मना करें! तो आधा कपड़ा फाड़कर उसे दे दिया। अब वह आधा ही बचा।

फिर जंगल में जा रहे हैं कि एक झाड़ी में वह आधा कपड़ा उलझ गया। कीटों वाली झाड़ी थी। वह इस बुरी तरह उलझ गया कि बिना झाड़ी को नुकसान पहुंचाए उस कपड़े को बाहर नहीं निकाला जा सकता था। तो महावीर ने सोचा, इतनी मुझे जरूरत भी है कि इस झाड़ी को नुकसान पहुंचाऊं? कि इसके कांटे तोडू और इसके पत्ते गिराऊं? तो आधा उस भिखारी ने ले लिया, आधा इस झाड़ी की इच्छा है; तो आधा उसको दे दिया। ऐसी सरलता से नग्न हो गए। वह कोई अभ्यास न था। नग्नता फलित हुई।

कृष्ण का राग भीतर बड़ी वीतरागता को छिपाए है। महावीर की वीतरागता के भीतर बजती हुई राग की बडी गहरी बांसुरी है। महावीर की वीतरागता बाहर है और वह जो धुन बज रही है आनंद की, वह भीतर है। उसे उतारा भी कैसे जा सकता है बांसुरी में। कृष्ण की धुन बांसुरी पर बज रही है, हृदय में वीतरागता है, वीतरागता को कपडों से या कपड़ों के अभाव से कैसे प्रकट किया जा सकता है?

जिसके पास दृष्टि है, वह दोनों के भीतर वही देख लेगा। वह दृष्टि चाहिए, आंख चाहिए। और अनुयायियों के पास तो आंख होती नहीं। वे तो अंधे ही होते हैं, तभी तो अनुयायी होते हैं। वे एक को पकड़ लेते हैं जड़ की तरह और इस कारण वंचित रह जाते हैं।

तुम्हारी हालत ऐसी है, जैसे आकाश में हजारों—हजारों तारे हैं और तुम एक तारे को पकड़कर बैठे हो। और तुम कहते हो, हम दूसरा तारा तो देखेंगे नहीं; क्योंकि यह देखो, हमारा तारा, इसमें लाल चमक है, दूसरे तारे में कहां है! वह तारा है ही नहीं। यह देखो हमारा तारा, इसकी यह खूबी है। जब तक यह खूबी सभी तारों में न होगी, तब तक हम किसी को तारा भी स्वीकार नहीं कर सकते। ऐसे तुम अपने हाथ से दीन हो जाते हो। तारों को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचता; तारे तो बने रहते हैं; रात का पूरा आकाश तारों से भरा है, लेकिन तुम व्यर्थ दीन हो जाते हो।

तुम पूरे आकाश का आनंद ले सकते थे। तुम समग्र चेतना के आनंद के वंशधर हो सकते थे। तुम महावीर, बुद्ध, कृष्ण, मोहम्मद, क्राइस्ट, जरथुस्त्र, लाओत्से, सभी के वसीयतदार हो सकते थे। तुम सभी के बेटे हो सकते थे; कोई अड़चन न थी। सबका खुला आकाश तुम्हें छाया देता, विश्राम देता, रोशनी देता, लेकिन तुम अपने हाथ से दीन—दरिद्र बने हो। तुम एक को पकड़ लेते हो, उसको कसौटी बना लेते हो। और उस कारण तुम गरीब रह जाते हो। और आकाश तैयार था पूरा का पूरा उंडल पड़ने को।

ऐसा मैं जानकर तुमसे कहता हूं। जितना ही मैंने गौर से देखा और पाया, उतना ही पाया कि रूप कितने ही अलग हों, भीतर एक ही अरूप का वास है। ढंग कितने ही भिन्न हों, भीतर एक ही बोध सतत प्रवाहित है। गीत कितने ही भिन्न हों, वाद्य कितने ही भिन्न हों, एक ही संगीत बज रहा है।

लेकिन तुम ऊपर के साज—सामान को देखते हो। कोई वीणा बजा रहा है, कोई सितार बजा रहा है, किसी ने इकतारा उठा लिया है। तुम यह नहीं देख पाते कि वह जो संगीत पैदा हो रहा है, उसका गुणधर्म एक है। वह इकतारे से भी पैदा होता है। वह वीणा से भी पैदा होता है। वह सारंगी से भी पैदा होता है।

कोई बुद्ध सारंगी हैं, कोई महावीर इकतारा हैं, कोई कृष्ण कुछ और हैं। अनेक हैं वाद्य, संगीत एक है। अनेक हैं रूप, अरूप एक है। अनेक हैं लीलाएं, लीला करने वाला एक है।

अब सूत्र:

हे अर्जुन, फल को न चाहने वाले निष्कामी योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस तीन प्रकार के तप को सात्विक कहते हैं। और जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखंड से ही किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक फल वाला तप यहां राजस कहा गया है।

और जो तप मूढ़तापूर्वक, हठ से मन, वाणी और शरीर की पीड़ा। के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।

फल को न चाहना सत्य का शुद्धतम लक्षण है। जीवन में तुम जो भी करते हो, फल की चाह से ही करते हो, अन्यथा करोगे ही क्यों? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि यह संभव ही कैसे है कि फल की हम आकांक्षा न करें? क्योंकि अगर आकांक्षा ही न करें, तो हम कृत्य ही क्यों करेंगे? अगर मैं उनको कहता हूं, ध्यान तो तुम करो, लेकिन फल का कोई विचार मत करो। तो वे कहते हैं, तो हम आपके पास आएंगे ही क्यों? हम आए ही इसलिए हैं कि शांति चाहिए। आप कहते हो, ध्यान से शांति मिलेगी, तो हम ध्यान करते हैं; क्योंकि शांति चाहिए।

अब एक बड़ी जटिल समस्या खड़ी होती है। क्योंकि जब तक तुम कुछ चाहोगे, ध्यान न लगेगा। ध्यान से शांति मिलती है, इसमें कोई शक—शुबहा नहीं है। इसमें सारी दुनिया के ध्यानी एक मत हैं। ध्यान से शांति मिलती है, इसमें एक मत हैं; और एक और अजीब शर्त से भी एक मत हैं कि जब तक तुम चाहते हो, तब तक नहीं मिलती। क्योंकि चाह अंशांति है।

चाहने में ही तो सारी अंशांति है। चाहने के कारण ही तो तुम तने हो, चाहने के कारण ही तो भीतर एक बेचैनी है। तुम ध्यान कैसे कर पाओगे!

ध्यान का अर्थ है, सिर्फ हो जाना। चाह के कारण तुम कभी भी सिर्फ नहीं हो पाते। आगे कुछ खींचता रहता है। ध्यान का अर्थ है, अभी और यहीं हो जाना। और चाह तो भविष्य में खींचती रहती है—कल।

जब तुम चाह से भरे होते हो, तब तुम ध्यान थोड़े ही करते हो, तुम किनारे खड़े ध्यान के देखते हो, कब मिलेगी शांति? अभी तक नहीं मिली? घंटा बीतने के करीब आ गया और शांति का कोई पता नहीं है।

तो ध्यान तुम्हें और अशांत कर देगा। तुम वैसे ही अशांत थे। अशांत थे, धन चाहते थे, नहीं मिला। अशांत थे, सुंदर स्त्री चाहते थे, नहीं मिली। और मिल भी जाए, तो बहुत फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि मिलते से ही सुंदर स्त्री सुंदर नहीं रह जाती। मिलते से ही जितना धन मिले, वह काफी नहीं रह जाता। मिले न मिले, कोई फर्क नहीं पड़ता। सफलता चाहते थे, वह न मिली। पद चाहते थे, वह न मिला। कभी मिलता ही नहीं, क्योंकि जो भी पद मिल जाए, वही छोटा पड़ जाता है। पद की आकांक्षा बड़ी है, विराट है, उसका कोई अंत नहीं है।

हर जगह तुम पाओगे, कुछ अड़चन खड़ी हो जाती है। जब तक चाह है, तब तक अड़चन खड़ी होती ही रहेगी।

तुम भटके, संसार से थके—मांदे मेरे पास आए। अब तुम कहते हो, शांति चाहिए। अब तुम शांति को चाह बना रहे हो। धन नहीं मिला, उससे तुम काफी अशांत हो गए। पद नहीं मिला, उससे अशांत हो गए। अब तुम कहते हो, शांति चाहिए। तुम समझे नहीं, तुम जागे नहीं।

धन की खोज के कारण थोड़ी अंशांति थी। और तुम्हारे धर्मगुरु भी ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें तुम्हें समझा रहे हैं कि धन की चाह छोड़ो, तो अंशांति मिट जाएगी। गलती कह रहे हैं। चाह छोड़ने से अंशांति मिटती है, धन की चाह से कुछ लेना—देना नहीं है। मोक्ष की चाह भी उतनी ही अंशांति ले आएगी।

चाह अंशांति है। चाह की विषय—वस्तु का कोई अर्थ नहीं है। मोक्ष, धन, परमात्मा, शांति, कुछ भी चाहो, अंशांति पैदा होगी। न चाहो, शांति मौजूद है। चाह के पीछे अंशांति छाया की तरह आती है। और जहां चाह नहीं रह जाती, वहा शांति आती थोड़े ही है। तुम अचानक जागकर पाते हो, शांति सदा थी, चाह के कारण चूकते थे।

शांति स्वभाव है, उसे मांगना नहीं है, चाहना नहीं है। वह बाहर नहीं है। उसे तुमने कभी खोया नहीं है। वह तुम्हारा होने का भीतरी ढंग है। लेकिन चाह के कारण तुम भीतरी को देख नहीं पाते। दौड़ते हो, भागते हो; भाग—दौड़ में अपने को ही भूल जाते हो।

तो उनसे अगर मैं कहता हूं कि शांति तो मिलेगी, वह पक्का है। लेकिन तुम कृपा करके चाहो मत।

उनकी अड़चन भी मैं समझता हूं। उनका गणित भी साफ है। वे कहते हैं, अगर हम चाहें ही न, तो हम आपके पास क्यों आएं? हम चाहते हैं, इसीलिए तो आए हैं।

मैं उनसे कहता हूं कि मेरे पास तक आ गए, चाह इतना कर दी, यही काफी है। अब कृपा करके सिर्फ ध्यान करो, चाहो मत कुछ। समझाता हूं तो अधूरे मन से वे सिर भी हिलाते हैं। ही भी भरते हैं। बात तो उनको भी कहीं समझ में पड़ती है। एकदम पकड़ में तो नहीं आती। पकड़ में आ जाए, तो ध्यान की जरूरत ही नहीं रह जाती। बात ही खतम हो गई। यह बात दिख गई कि चाह ही तो मुझे अशांत किए है……..।

थोड़ी देर को सोचो, अगर तुम्हारी कोई चाह न हो, तो तुम कैसे अशांत हो पाओगे? क्या कोई उपाय कर सकते हो तुम बिना चाह के अशांत होने का? क्या कोई ढंग है तुम्हारे पास? उछलोगे,

कूदोगे, मगर अशांत हो सकोगे अगर चाह न हो?

चाह न हो, तो अंशांति का उपाय ही न रहा, मूल बीज ही खो गया। ध्यान की भी कोई जरूरत नहीं है।

लेकिन अधूरे मन से, उनको भी बात जंचती तो है। बुद्धि को समझ में भी आती है कि शायद ऐसा ही हो। फिर आप कहते हैं, तो होगा ही। तो हम कोशिश करेंगे। अच्छा हम चाह छोड़ देते हैं। लेकिन भीतर गहरे में वह चाह इसीलिए छोड़ते हैं कि शांति मिल जाए।

तीन दिन बाद वे फिर हाजिर हैं, कि तीन दिन हो गए छोड़े हुए, अभी तक मिली नहीं।

क्या खाक छोड़ी होगी! छोड़ने का मतलब ही यह होता है कि अब इसको उठाना ही मत, अब इसकी बात ही मत करना। यह बात ही व्यर्थ हो गई। तीन दिन बाद फिर तुम आकर कहते हो कि चाह छोड़ दी, तीन दिन हो गए, अभी तक शांति मिली नहीं। तो तुम किनारे खड़े देखते रहे। ध्यान तुमने किया नहीं। तुम्हारा ध्यान चाह पर लगा रहा। ध्यान हो न पाया; मांग कायम रही। थोड़ा सरका दी होगी भीतर को, थोड़ी हटा दी होगी अंधेरे में, थोड़ा उस तरफ से पीठ कर ली होगी। लेकिन तुम जानते हो, वह खड़ी है। और जब तक वह खड़ी है, तब तक सत्व का उदय नहीं होता।

इसलिए सात्विक साधना का पहला सूत्र कृष्ण कहते हैं, फल को न चाहने वाले.।

यही निष्काम दशा है। काम की दशा है, जब तुम्हारा रस सदा फल में होता है, कृत्य में नहीं। वह काम की दशा है। और जब तुम्हारा रस कृत्य में होता है, फल में नहीं, तब वह निष्काम दशा है। जैसे सुबह—सुबह तुम घूमने निकले हो। सूरज उगा। पक्षी गीत गाते हैं। वसंत आ गया है। सब तरफ बहार है। तुम मस्ती में गीत गुनगुनाते चले जा रहे हो। कोई अगर तुमसे पूछे, कहां जा रहे हो, तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे, बस, घूमने निकले हैं। कहीं जा नहीं रहे हैं।

यही रास्ता है, यही वृक्ष होंगे, यही सूरज होगा, यही वसंत होगा; दोपहर तुम दफ्तर की तरफ चले जा रहे हो या दुकान की तरफ, लेकिन अब वह गुनगुनाहट नहीं है। सब वही है; तुम भी वही हो, हवाएं वही, कुछ बदला नहीं, मधुमास अभी चला नहीं गया। फूल अब भी खिले हैं, पक्षी अब भी गीत गा रहे हैं। लेकिन अब तुम्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ता। सूरज रोशनी देता नहीं मालूम पड़ता अब, सिर्फ ताप पैदा करता है। पक्षियों के गीत बाजार के शोरगुल को सिर्फ बढ़ा रहे हैं। वृक्षों की हरियाली, वृक्षों के फूल, अब तुम्हें सुख नहीं देते, बल्कि एक पीड़ा देते हैं कि तुम्हें दफ्तर जाना पड रहा है। सब कुछ वही है, लेकिन अब तुमसे कोई पूछे, कहा जा रहे हो? तुम दफ्तर जा रहे हो। तुम्हारे चेहरे का ढंग बदल गया, बड़ा तनाव है। लक्ष्य है अब; सुबह लक्ष्य न था। फल है अब, सुबह फल न था।

संन्यासी का जीवन सुबह घूमने जैसा है। गृहस्थ का जीवन दोपहर दफ्तर जाने जैसा है। बस, इतना ही फर्क है। कोई पहाड़ नहीं जाना है। दफ्तर ऐसे ही जाना है, जैसे तुम सुबह घूमने निकले। दुकान पर ऐसे ही जाकर बैठ जाना है, जैसे क्लब में आकर मित्रों से गपशप करने चले आए हो। काम ऐसे ही करना है, जैसे खेल हो। बस, निष्काम सध जाता है।

अर्जुन भागना चाहता है युद्ध से। वह कहता है कि यह करने योग्य नहीं है। हिंसा होगी बहुत। पाप लगेगा बहुत। जन्मों—जन्मों तक सडूगा नरकों में और मिलने को कुछ भी नहीं है। राज्य मिल भी गया अगर, तो इतने हिंसा—पात के बाद, इतने लोगों का जीवन लेने के बाद, अपने ही लोग! और उस तरफ भी मेरे ही सगे—संबंधी हैं, इस तरफ भी। दोनों तरफ कोई भी मरेगा, मेरे ही लोग मरेंगे, अपने ही संबंधी मरेंगे। मित्र, प्रियजन बंटे खड़े हैं। नहीं, यह इस योग्य नहीं मालूम पड़ता।

कृष्ण का जोर क्या है अर्जुन से? जोर है कि तू फल की क्यों सोचता है! अगर अर्जुन कृष्ण से कहता—अचानक उतर गया होता नीचे रथ से और कहता—कि जाता हूं। बात खतम हो गई। तो कृष्ण रोक न पाते। रोकने की जरूरत भी न थी। कृष्ण प्रसन्नता से कहते कि इस क्षण की मैं प्रतीक्षा करता था। भला हुआ। बात खतम हो गई।

लेकिन अर्जुन यह नहीं कहता है कि मैं जाता हूं। अर्जुन फल की बातें कर रहा है। वह कह रहा है, क्या फल मिलेगा? सार क्या है? कृत्य का सवाल नहीं है।

अर्जुन राजी है, अगर हिंसा करनी पड़े, कोई अड़चन नहीं है। लेकिन अगर अपने लोग न होते, पराए होते, तो काट देता घास—पात की तरह। सदा काटता ही रहा था, कोई नया न था यह मामला। योद्धा था, क्षत्रिय था। लोगों को काट—पीट दे, तो हाथ भी धोने की आदत न थी। अचानक कैसे यह संन्यास उठा है? यह संन्यास नहीं है। यह मोह— भाव है। और अचानक कैसे फल की चर्चा चली कि नर्क जाना पड़े, पाप लगे! जन्मों—जन्मों तक यह मेरे ऊपर कलंक बना रह जाएगा!

यह भविष्य की छाया उठी है मोह के कारण, ज्ञान के कारण नहीं। ज्ञान सदा वर्तमान में है। मोह सदा भविष्य में है। मोह सदा अज्ञान में है। फल की सोच रहा है। और यह भी देख रहा है कि अगर धन मैंने पा भी लिया।

धन पाना चाहता है, नहीं तो युद्ध तक आने की जरूरत क्या थी? यह तो आखिरी घड़ी में आकर उनको बुद्धि आ रही है। अब तक क्या करते थे? यह तो पहले ही सोच सकते थे कि इतने लोग मरेंगे, मिलेगा क्या? सार क्या है?

सिंहासन पर बैठ ही जाऊंगा, तो अर्जुन कहता है, क्या फायदा? क्योंकि जिनके लिए सिंहासन पर बैठा जाता है, वे तो सब कब्रों में होंगे। बच्चे मर जाएंगे, जो प्रसन्न होते कि पिता सिंहासन पर बैठे। मित्र मर जाएंगे, जो भेंट लाते कि अर्जुन, तो अंततः तुम सम्राट हो गए। प्रियजन मर जाएंगे, जो उत्सव मनाते। बैठ जाऊंगा, मरघट पर रखा होगा मेरा सिंहासन।

उस सिंहासन पर बैठने में रस नहीं मालूम होता। नहीं कि उसको त्याग आ गया है। नहीं कि संन्यास का भाव उदय हुआ है। बस, देखकर कि फल कुछ सार का नहीं मालूम पड़ता; सौदा महंगा लग रहा है उसको। करने योग्य नहीं लगता। जाएगा ज्यादा, मिलेगा कम। यह उसकी काम की दशा है।

और कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि लड़, न लड, यह बहुत बड़ा सवाल नहीं है। लेकिन निष्काम हो जा। लड, न लड़, यह बहुत सवाल नहीं है। तू बस, फल की आकांक्षा छोड़ दे।

फल की आकांक्षा छोडते ही एक अपूर्व घटना घटती है कि तुम परमात्मा के उपकरण हो जाते हो। फिर वह जो कराता है, तुम करते हो। नहीं कराता, नहीं करते।

अगर परमात्मा नहीं चाहता है युद्ध कराना, तो नहीं होगा। अर्जुन बैठा हंसता रहेगा। कृष्ण कहते रहें गीता। वे लाख समझाएं, वह कहेगा कि चुप रहो। बेकार की बातें मत करो। बात ही नहीं उठ रही है। यह होने को ही नहीं है। परमात्मा उपकरण नहीं बना रहा है। बनाए, तो लड़ने को तैयार हूं। न बनाए तो मैं क्या कर सकता हूं! लेकिन कर्ता— भाव मेरा नहीं है अब। लड़ाएगा, तो लडूंगा। अर्थात लड़ाएगा, तो वही लडेगा; मैं नहीं लडूंगा। नहीं लड़ाका, तो वही भागेगा; मैं नहीं भाग्ता। संन्यास उसका, गृहस्थी उसकी, अब मेरा कुछ भी नहीं है।

यह सोचने जैसा है। जब तक फल की आकांक्षा है, तब तक तुम अड़े रहते हो। जैसे ही फल की आकांक्षा गई, तुम हट जाते हो। तुम फल की आकांक्षा हो। अहंकार फल की आकांक्षा है। अहंकार को हटाना हो, तो फल की आकांक्षा छोड़ देनी पड़े। तब कृत्य ही पर्याप्त है।

फिर कल का भरोसा क्या? कल होगा ही, यह किसे मालूम है? और अर्जुन ऐसा क्यों सोचता है कि ये ही लोग मरेंगे और वह न मर जाएगा? और सिंहासन मिलेगा ही?

मुल्ला नसरुद्दीन फ्रांस गया था घूमने। पत्नी को साथ ले गया था। एक तो पेरिस जाना और पत्नी के साथ जाना, वैसे ही अड़चन की बात है। पेरिस और पत्नी के साथ जमता ही नहीं। पत्नी को साथ ले जाना हो, काशी, मक्का, मदीना ठीक है, तीर्थयात्रा! पत्नी मानी नहीं, पेरिस ले गया। पेरिस में देखी सुंदर स्त्रियां उपलब्ध; बड़ी बेचैनी होने लगी। और यह पत्नी पीछे लगी है। यह तो बोझ हो गई। आए, न आए, बराबर हो गया।

तो मुल्ला ने बीच सड़क पर रुककर कहा कि अगर हम दो में से किसी को कुछ हो जाए, तो फिर मैं पेरिस में ही रहूंगा।

उसका मतलब समझ रहे हो? अगर हम दो में से किसी को कुछ हो जाए, तो मैं पेरिस में ही रहूंगा।

यह अर्जुन क्या कह रहा है कृष्ण से? कल पक्का है सिंहासन मिल ही जाएगा तुझे? ये मर जाएंगे दुश्मन, तू नहीं मरेगा? तू बचा रहेगा? लाशें इन्हीं की बिछेगी, तू सिंहासन पर होगा? कल का इतना पक्का भरोसा क्या है? कोई कारण तो दिखाई नहीं पड़ता। कोई योद्धा उस तरफ कमजोर नहीं हैं। बल करीब—करीब संतुलित है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, यह बस जरा—सी बारीक रेखा है हार और जीत में। अर्जुन को इतना पक्का क्या है?

लेकिन हर अहंकार अपने को केंद्र मानकर सोचता है। फलाकांक्षी अपने को केंद्र मानकर सोचता है।

कृष्ण कहते हैं, सत्व का लक्षण है, फलाकांक्षा का छूट जाना। तू निष्काम— भाव से हो जा। आज इस क्षण जो कर्तव्य है कर, कल की मत सोच। कर्तव्य का क्या फल होगा, यह परमात्मा पर छोड़, हमारे हाथ में नहीं है।

तुम भी जानते हो, कई बार तुम अच्छा करते हो और बुरा हो जाता है। और कई बार बुरा करना चाहते थे और अच्छा हो जाता है।

ऐसा हुआ चीन में कि एक आदमी—उससे चीन में आक्‍यूपक्चर नाम के चिकित्सा—शास्त्र का जन्म हुआ—स्प आदमी के पैर में लंगड़ापन था सदा, बचपन से था। और किसी दुश्मन ने छिपकर उसको तीर मार दिया। वह उसे मार डालना चाहता था। लेकिन तीर उसको कुछ ऐसी जगह लगा कि उसका लंगड़ापन ठीक हो गया। उससे आक्यूपंक्चर का पूरा चिकित्सा—शास्त्र पैदा हुआ।

तो चीन में यह पता चल गया कि कुछ ऐसे हिस्से हैं शरीर में कि अगर वहा कोई तीखा औजार चुभाया जाए, तो शरीर—ऊर्जा की गति बदल जाती है।

तो वह जो लंगड़ा था आदमी, वह इसीलिए लंगड़ा था कि ऊर्जा ठीक धारा में नहीं बह रही थी। विद्युत शरीर की ठीक धारा में नहीं बह रही थी, थोड़ी तिरछी थी। धारा तिरछी थी, तो पैर तिरछा था। क्योंकि पैर तो ऊर्जा का अनुसरण करता है। तीर लगने से धारा झटककर सीधी बहने लगी; पैर सीधा हो गया। फिर तो आक्यूपंक्वर का पूरा शास्त्र पैदा हुआ।

जिसने मारा था, उसने सोचा भी न होगा कि तीर मारने से यह आदमी मरेगा तो नही, उलटा, लंगड़ा था, ठीक हो जाएगा। न केवल यह ठीक होगा, बल्कि इसके आधार पर एक शास्त्र का जन्म होगा, जिससे हजारों साल तक लाखों लोग ठीक होंगे।

फिर तो धीरे— धीरे उन्होंने सात सौ बिंदु खोज लिए, आक्‍यूपक्चर ने, आदमी के शरीर में। और हर बिंदु से संबंधित बीमारियां हैं। आक्यूपंक्चर कुछ भी नहीं करता है—बडी अनूठी कला है—सिर्फ सुई चुभोता है। अब तो तीर भी नहीं चुभोता। क्योंकि उतने बड़े की भी जरूरत नहीं है। इतनी छोटी—सी सुई चुभोता है कि तुम्हें पता ही नहीं चलता। सिर में दर्द है और हाथ में सुई चुभाके वे, और अचानक तुम्हारा दर्द तिरोहित हो जाता है। पेट में तकलीफ है, कहीं पीठ में सुई चुभोएंगे। उनके हिसाब हैं कि कहां सुई चुभाने से कहा की धारा में रूपांतरण होता है। एक शास्त्र, एक विज्ञान का जन्म हो गया।

बुरा करने जाओ, भला हो जाता है। कभी तुम भला करने जाते हो और बुरा हो जाता है। कहना बिलकुल मुश्किल है।

समझो, हिटलर छोटा था, और कुएं में गिर पड़ता, तो तुम बचाते कि नहीं? बचाते, भागते, छोटा बच्चा गिर पड़ा! अब इस छोटे बच्चे का कोई पता तो नहीं है कि कितना जहरीला सांप होने वाला है। तुम इसको बचा लेते।

फिर हिटलर ने कोई एक करोड़ आदमी मारे। तुम्हारा कुछ हाथ होता इसकी हिंसा में कि नहीं? अगर तुमने न बचाया होता इसे, कुएं में डूब जाने दिया होता, तो दुनिया कहती कि तुमने पाप किया। बचा लिया, तो दुनिया कहती कि तुमने बड़ा पुण्य किया। लेकिन आसान नहीं है मामला इतना। वह जो करोड़ आदमी इसने मारे, उसमें तुम्हारा भी हाथ है। तुम न बचाते तो। यह तो बड़ी झंझट की बात है।

तुम अच्छा करते हो, बुरा हो जाता है। बुरा करते हो, अच्छा हो जाता है।

तुम्हारे हाथ में करना मात्र है, कृष्ण कहते हैं। क्या होगा, यह तुम समष्टि के हाथ में छोड़ दो। तुम इसकी जिद में ही मत पड़ो, तुम यह सोचो ही मत कि क्या होगा। तुम इतना ही सोचो कि जो हो रहा है, उसको मैं कैसे पूरी तरह, पूरे कर्तव्य— भाव से कर पाऊं। हे अर्जुन, फल को न चाहने वाले निष्कामी योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस तीन प्रकार के तप को सात्विक कहते हैं। कल जो हमने तीन प्रकार के तप समझे, वे सात्विक हैं, यदि किसी ने निष्काम— भाव से किए हैं। कुछ चाहा नहीं। खुद निमित्त होकर किए हैं। कुछ मांगा नहीं। और परम श्रद्धा से किए हैं।

स्वभावत:, निष्काम— भाव तभी हो सकता है, जब तुम्हारी श्रद्धा परम हो। तुम फल की आकांक्षा क्यों करते हो? क्योंकि तुम्हें पक्का भरोसा नहीं है कि फल आएगा। अन्यथा आकांक्षा क्यों करोगे?

तुम बीज बोते हो, फिर तुम बैठकर आकांक्षा करते हो कि पौधे अंकुरित हों। अगर तुम बिलकुल सिक्खड किसान हो, नए—नए खेती में उतरे हो या बागवानी में, तो तुम बड़ी चिंता करोगे, रात सो न सकोगे, सुबह उठ—उठकर बार—बार जाओगे, दिन में कई दफा देखोगे, अभी तक अंकुर आए या नहीं आए?

छोटे बच्चे आम की गोई बो देते हैं। कम से कम मेरे गांव में वैसा होता था। तो बचपन में मैंने भी आम की गोई लाकर अपने आयन में बो दी। लेकिन बच्चों की धीरज कितनी? घडीभर बाद फिर जाकर उखाड़कर देखते, अभी तक आया कि नहीं आया? इतनी जल्दी आम नहीं आते, वह भी पक्का है। कभी बड़ों ने कहा भी कि क्या कर रहे हो? इस तरह तो कभी नहीं आएंगे। लेकिन उत्सुकता मानती नहीं, कि शायद आ गया हो। रात सो नहीं पाते, नींद में आम की गोई अभी फूटी या नहीं, अंकुर लगे या नहीं। पता नहीं, फल लग गए हों। रात भी बच्चा उठकर जाता है, एक नजर डाल आता है आंगन में, अभी भी आया नहीं?

यह सारी चिंता इसलिए हो रही है कि बच्चे को कुछ पता नहीं है, कुछ बोध नहीं है। माली भी बोता है आम की गोई, लेकिन चिंता। नहीं करता। क्योंकि वह जानता है, आएंगे। आम की गोई बो दी है, कृत्य पूरा कर दिया है, जरूरत जैसी थी, वैसा खाद दे दिया है, पानी था, पानी दे दिया है, सुविधा जुटा दी सब, बात खतम हो गई। करना पूरा हो गया। फल हमारे हाथ में थोड़े ही है। और फिर श्रद्धा होती है, आएगा।

जो जानता है, उसकी श्रद्धा होती है। अज्ञानी अश्रद्धालु होता है। शानी श्रद्धालु होता है। और इस सूत्र का उलटा भी सच है। जितने तुम श्रद्धालु हो जाओगे, उतने ज्ञानी हो जाओगे। जितने अश्रद्धालु हो जाओगे, उतने अज्ञानी हो जाओगे। वे दोनों जुड़ी हैं बातें। श्रद्धा ज्ञान का एक पहलू है, अश्रद्धा, अज्ञान का एक पहलू है।

परम श्रद्धालु का अर्थ है, जो जानता है, करने योग्य कर दिया, होने योग्य होता रहेगा। अगर करने योग्य ठीक से कर दिया है, तो होने योग्य होगा ही। उस पर क्या सोचना?

अगर तुमने ध्यान कर लिया, शांति होगी ही। तुम ध्यान की फिक्र करो, तुम शांति की फिक्र मत करो। अगर तुमने प्रार्थना कर ली, तुम प्रकाश से भर ही जाओगे। तुम प्रकाश का विचार ही मत करो। तुम सिर्फ प्रार्थना कर लो। अगर तुम ठीक से जी लिए हो, तो तुम मुक्त हो ही जाओगे। तुम मुक्ति की चिंता मत करो। ठीक से जीने वाला सदा मुक्त हो गया है।

जीवन में फल तो आते ही हैं, कृत्य भर पूरा हो जाए। क्योंकि कृत्य में ही छिपा है फल। कृत्य है बीज, उसी में छिपा है फल। यह शब्द फल अच्छा है। बीज में छिपा है फल। फल का अर्थ सिर्फ परिणाम ही नहीं होता। फल को हम फल इसीलिए कहते हैं, परिणाम को हम इसीलिए फल कहते हैं, क्योंकि वह बीज में छिपा है।

तुम बीज की फिक्र कर लो, फल तो अपने से आ जाता है। कोई बीज निष्फल नहीं जाता। और अगर गया, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि तुमने कर्तव्य न किया। जो करने योग्य था, उसमें कमी की, और जो होने योग्य था, उसमें समय बिताया। तुम सोचते रहे फल की और कृत्य उपेक्षित पड़ा रहा। कर्तव्य पूरा न हुआ, तो ही फल चूकता है।

इसलिए परम श्रद्धा से……….।

परम श्रद्धा का अर्थ है, जहां रत्ती—मात्र भी संदेह नहीं। और अगर तुम जीवन को गौर से देखोगे, तो संदेह मिट जाएगा। संदेह का कोई कारण नहीं है।

मेरे पास एक सज्जन आए और उन्होंने कहा कि मैं अच्छा करता हूं.। कैसे भरोसा आए? आप कहते हैं, भरोसा आ जाए। करता हूं अच्छा। जिनके साथ अच्छा करता हूं वे भी बुराई लौटाते हैं। तो श्रद्धा बढ़े कैसे? घटती है। मैं करता हूं अच्छा, लौटता है बुरा। मैं करता हूं नेकी, लौटती है बदी। तो वे कहते हैं कि श्रद्धा कैसे करें? उनकी बात ठीक है। कि अगर तुम भला करो लोगों के साथ और लोग तुम्हारे साथ बुरा करें, तो साफ है कि श्रद्धा उठ जाती है। क्या भरोसा कि मैं जीवनभर अच्छा जीऊं और मोक्ष मिले? क्योंकि यहां तो यही दिखाई पड़ रहा है कि बुरा करने वाले मजा ले रहे हैं, भला करने वाले दुख पा रहे हैं। साधु सड़ रहे हैं, असाधु सिंहासनों पर विराजमान हैं।

और कृष्ण कहते हैं, साधुओं के उद्धार के लिए ओर असाधुओं के विनाश के लिए युगों—युगों में आऊंगा। बात उलटी दिखती है। या तो उन्होंने अपना बदल दिया वचन। ऐसा दिखता है कि साधुओं का विनाश हो रहा है और असाधु सिंहासनों पर बैठे हैं। कैसे श्रद्धा हो?

उन मित्र को मैंने कहा कि तुम्हें बिलकुल पक्का है कि तुमने भला किया? अगर अश्रद्धा ही करनी है, तो वहा से शुरू करो। शुरुआत से शुरू करो। क्योंकि तुमने कुछ किया, वह शुरुआत है। दूसरे ने कुछ किया, वह तो प्रतिक्रिया है, वह तो अंत है। पहले वहीं से शुरू करो। तुमने सच में ही भला करना चाहा था?

दिखावा हो सकता है भले का हो। यह हो सकता है कि तुम एक आदमी को पांच रुपया दान दे दो। लेकिन तुम्हारा इरादा उसकी गरीबी में सहायता करने का न हो। तुम्हारा इरादा यह हो कि अब यह तुम पर निर्भर हो जाए। तुम्हारा इरादा यह हो कि अब तुम जहां मिलो, वहीं यह नमस्कार करे और चरण छुए। तुम्हारा इरादा यह हो कि पांच रुपए में तुम इसे गुलाम बना लो।

और मजा यह है कि यह इरादा तुम्हें भी साफ न हो। और जीवन बड़ा जटिल है। यहां तुम जो करते हो, उसका फल नहीं मिलता। यहां वस्तुत: करने के पीछे जो छिपा हुआ राज है, उसी के फल मिलते हैं।

तुमने बुरा ही किया होगा, अनजाने किया होगा, तभी बुरा लौट आया है। क्योंकि नीम के बीज जो बोता है, तभी नीम के फल लगते हैं। तुम कहते हो, हमने आम के बीज बोए थे और नीम के फल लग रहे हैं।

यह मैं कैसे मानूं? कहीं भूल हो गई। तुम्हारे पैकेट पर लिखा रहा होगा, आम के बीज। पैकेट के भीतर नीम के बीज ही रहे होंगे। कहीं कुछ चूक हो गई। यह तो संभव ही नहीं है कि आम के बीज बोओ और नीम के फल लग जाएं। शक ही करना है, तो अपने पर करो। बस, यही फर्क है।

धार्मिक व्यक्ति अगर शक भी करता है, तो अपने पर। और अधार्मिक अगर शक करता है, तो दूसरे पर। दूसरे का ही शक बढ़ते—बढ़ते परमात्मा के प्रति संदेह बन जाता है। और अपने पर शक करते—करते अहंकार गिर जाता है। क्योंकि अहंकार संदिग्ध हो जाता है। स्वयं पर जिसने संदेह किया, वह परमात्मा पर श्रद्धा करने लगेगा। और स्वयं पर जिसने कभी संदेह न किया, वह परमात्मा पर संदेह करेगा।

परम श्रद्धा का अर्थ है, जिसने जीवन के अनुभव से जाना कि बीओ, जो बोओगे, वही काटोगे। इसलिए अब काटने की चिंता क्या? अब उसकी बात ही क्या उठानी? अब उसकी चर्चा ही क्या करनी?

ध्यान रखना, फल की बहुत चर्चा करने वाले जितनी ऊर्जा फल की चर्चा में लगाते हैं, उतनी ही ऊर्जा कृत्य में चूक जाती है और उतना ही फल विकृत हो जाता है। फिर जब फल विकृत होता है, तो एक दुष्टचक्र शुरू हो गया। दुबारा वे और भी घबड़ा जाते हैं, और भी फल विकृत हो जाता है। तीसरी बार संदेह पूरा हो जाता है, फल नष्ट हो जाते हैं।

संदेह से कभी किसी ने सत्य के फल नहीं काटे; श्रद्धा से काटे हे

श्रद्धा और निष्काम भाव से जो किया जाए वह सात्विक तप है।

इसलिए तपस्वी कुछ मांगता नहीं। वह यह नहीं कहता कि परमात्मा वैकुंठ देना, कि मोक्ष देना, कि स्वर्ग में मकान बिलकुल बगल में देना। वह कुछ भी नहीं मांगता। वह कहता है, वह बात ही क्या उठानी! वह तेरी चिंता। वह हम क्यों फिक्र करें? तूने जन्म दिया, तूने जीवन दिया, तू श्वास देता है। तूने बिना मांगे इतना दिया, बिना पूछे दिया। हम क्यों चिंता करें कि तू और देगा या नहीं देगा? जितना दिया है, उसे जरा गौर से देखो, श्रद्धा का आविर्भाव होगा। जो नहीं दिया है, उस पर ध्यान लगाओ, संदेह का आविर्भाव होगा।

श्रद्धा से भरा हुआ कृत्य सात्विक है।

और जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखंड से किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक फल वाला तप यहां राजस कहा गया है।

तुम ऐसी भी तपश्चर्या कर सकते हो, जो केवल सत्कार के लिए हो। तुम प्रतीक्षा कर रहे हो, कब बैंड—बाजे बजे! कब जुलूस निकले! कब शोभा—यात्रा हो! तो तुम उपवास कर सकते हो लंबे। लेकिन प्रतीक्षा बैंड—बाजों पर लगी है।

बच्चे हो। जिससे स्वर्ग का आनंद मिल सकता था, उससे तुम बैंड—बाजे का शोरगुल सुनोगे। तुम कुछ बहुत होशियार नहीं हो। तुम भला कितना ही अपने को समझदार समझ रहे हो, मगर चूक रहे हो। जिससे वर्षा हो सकती थी आनंद की, उससे सिर्फ थोड़े से खुशामदी मिलकर तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। खतम हो गई बात। तुम चूक गए। इतना मिल सकता था, न मांगते तो। मांगा कि क्षुद्र मिलता है। जिसका कोई भी सार नहीं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, क्षणिक फल वाला तप……..।

क्षणभर को शोरगुल होगा, लोग चर्चा करेंगे, बात खतम हो जाएगी। लहर उठेगी पानी पर, मिट जाएगी। बस इतना ही सुख पाएगा राजसी व्यक्ति।

राष्ट्रपति हो गए तुम; क्या करोगे? लोग आकर भेंट कर जाएंगे, प्रसन्नता हो जाएगी। और दूसरे दिन ये ही लोग गालियां देने लगेंगे और पत्थर फेंकने लगेंगे। फूलमालाएं पहना देंगे। क्या, होगा क्या? राष्ट्रपति होकर तुम पाओगे क्या? सिंहासन पर बैठ जाओगे। तो अपने घर की छत पर ही एक कुर्सी रखकर बैठ गए ऊंचाई पर। सारा संसार नीचा कर दिया। पाओगे क्या? मिलने को क्या है? मिलने को कुछ भी नहीं।

क्षणिक फल वाला……..।

थोड़ा—सा कुछ लहर उठेगी चारों तरफ, खो जाएगी।

तप, सत्कार के लिए किया जाए, मान के लिए किया जाए, पूजा के लिए किया जाए, या केवल पाखंड से किया जाए……।

पाखंड का मतलब ही यह है कि तुम करना भी नहीं चाहते थे, करने का कोई भाव भी नहीं था, कोई श्रद्धा भी नहीं थी कि इससे कोई सार होगा। लोकोपचार के लिए, लोग धार्मिक समझते हैं, कर देते हो। मंदिर भी हो आते हो, कभी उपवास भी रख लेते हो, कभी व्रत भी कर लेते हो। लोगों को दिखाने के लिए; एक पाखंड बना रहता है।

उससे भी लाभ हैं। पाखंड के लाभ हैं, इसलिए तुम करते हो। क्योंकि अगर तुम धार्मिक आदमी हो……..।

मैंने सुना है कि एक दुकान थी सोने—जवाहरातों की। उसके मालिक ने अपने नौकरों को बड़ी कला सिखा रखी थी। जैसे ही कोई आदमी प्रविष्ट होता, उसने पहले ही एक मनोवैज्ञानिक बिठा रखा था, जो जांच—पड़ताल करे कि है भी इसके पास कुछ या नहीं! खीसे में कुछ वजन है, गर्मी है? फिर अगर दिखती गर्मी, तो वह उस आदमी को देखकर कहता, हरि—हरि।

वह भीतर हरि—हरि कहता; वह कहता कि है, लूटने योग्य है। हरि—हरि। हरि का मतलब होता है, चोर, चुराया जा सकता है, हरण किया जा सकता है। हरि का मतलब होता है, हरण किया जा सकता है।

लेकिन वह आदमी बड़ा प्रभावित होता कि कैसी दुकान है साधुओं की। तो दूसरे आदमी के पास आता काउंटर पर, वह भी जांच—पड़ताल करता, दिखाता चीजें। कहता, केशव—केशव। वे सब संकेत थे। उनकी लिपि थी। जो हिसाब लगाता, बिल बनाता, वह कहता, राम—राम। वह यह कह रहा है कि मरा, मरा। वह सब कोड है उनका।

मगर वह आदमी यह सोचकर कि कैसे सात्विक पुरुष लोग हैं, न तो मोल— भाव करता; क्योंकि इनसे क्या मोल— भाव करना! न ठीक से देखता कि ये हिसाब में क्या लगा रहे हैं। न यह देखता कि ये हीरे दिखा रहे हैं और पत्थर दे रहे हैं। दिखा कुछ रहे हैं, रख कुछ रहे हैं। मगर वहां अहर्निश परमात्मा के नामों की गंज चलती रहती।

पाखंड का उपयोग है। अगर तुम मंदिर जाते हो, तो तुम्हारी दुकान में सहायता मिलती है। लोग सोचते हैं, साधु पुरुष है। झूठ थोड़े ही बोलेगा! जेब थोड़े ही काटेगा!

राम चदरिया ओढ़े बैठे हो तुम। तो तुम चाहे कसाई भी क्यों न होओ, दूसरा आदमी सोचेगा, बेचारा राम चदरिया ओढ़े बैठा है। साधु पुरुष है। धन्यभाग जो दर्शन हुए। और वह छुरी छिपाए है। मुंह में राम बगल में छुरी। छुरी को छिपाना हो, तो मुंह में राम बड़ा उपयोगी है।

तो कुछ हैं, जो पाखंड के लिए कर रहे हैं। कुछ हैं, जो तप सत्कार के लिए कर रहे हैं, जिनकी आकांक्षा है कुछ पाने की, फल की। उन्हें थोड़ा—सा फल भी मिलेगा। लेकिन वह फल पानी पर बनी हुई लकीर जैसा होगा। इस तरह के तप को राजस कहा है। और फिर ऐसे भी हैं, जो मूढ़तापूर्वक, हठ से, मन, वाणी और शरीर को पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए कर रहे हैं, वह तप तामस कहा गया है।

ऐसे लोग भी हैं, जो मूढ़तापूर्वक.।

जिद्दी हैं, हठी हैं, अकड़े हैं, दंभी हैं। वे यह करके दिखा रहे हैं कि जो कोई नहीं कर सकता, वह हम करके दिखा रहे हैं। कीटों पर लेट जाते हैं। वे तुमसे यह कह रहे हैं कि तुम सब कायर हो, हमको देखो!

वैसे वे मूढ़ हैं, क्योंकि इससे कुछ मिलने वाला नहीं है। इससे उतना भी नहीं मिलने वाला है, जितना राजस को मिल जाता है। क्योंकि क्षणभंगुर प्रतिष्ठा भी मिल जाती है, क्षणभंगुर मान—सम्मान भी मिल जाता है। वह भी मिलने वाला नहीं है। ज्यादा से ज्यादा राहगीर खड़े हो जाएंगे और चले जाएंगे कि ठीक है। मदारीगिरी से ज्यादा क्या इसका मूल्य हो सकता है? लेकिन मूढ़ व्यक्ति भी तप कर सकते हैं।

मेरे अनुभव में ऐसा आया कि मूड व्यक्ति जिद्दी होते हैं। और जिद्दी होने के कारण कोई चीज करना हो, तो जिसको सात्विक वृत्ति का व्यक्ति मुश्किल पाए, राजस व्यक्ति भी थोड़ा कठिन पाए, मूढ़ बिलकुल कठिन नहीं पाता। मूढ़ को कोई ऐसी चीज करने को कह दो, जिसमें कोई सार भी न हो, सिर्फ उसके अहंकार को पकड़ जाए, तो वह कर लेता है। तो इस तरह मैंने अनुभव किया है कि अधिक तपस्वी तीसरी कोटि के होते हैं।

अब एक आदमी दो महीने तक उपवास करता है। इसे न तो उपवास से पहले कभी कुछ मिला, क्योंकि यह बहुत बार कर चुका है। न इसके जीवन में कोई ऊर्जा का आविर्भाव हुआ, न कोई ज्योति जगी, न कोई धुन बजी, न कोई वीणा छिड़ी। कुछ भी नहीं हुआ है। लेकिन फिर कर रहा है, फिर कर रहा है। यह जिद्दी है, हठी है। यह दुष्ट प्रकृति का है। यह दूसरे को नहीं सता रहा है, अपने को ही सता रहा है।

दुनिया में दो तरह के दुष्ट हैं। एक, जो दूसरों को सताते हैं। और एक, जो अपने को सताते हैं। और ध्यान रखना, पहले तरह के दुष्ट उतने खतरनाक नहीं हैं। क्योंकि दूसरा कम से कम अपनी रक्षा तो कर सकता है। दूसरे प्रकार के दुष्ट बहुत खतरनाक हैं, जो अपने को सताते हैं। वहां कोई रक्षा करने वाला भी नहीं है।

अब अगर तुम अपने ही शरीर में कांटे चुभाओ, तो कौन रक्षा करेगा? खुद को ही भूखा मारो, कौन रक्षा करेगा? अंग काट डालो, आंखें फोड़ लो, कान फोड़ दो, कौन रक्षा करेगा? सडाओ अपने को, कौन रक्षा करेगा?

लेकिन ये दूसरे तरह के दुष्ट बड़े तपस्वी हो जाते हैं। इनके जीवन में सिवाय मूढ़ता के कुछ भी नहीं होता। तुम कोई लपट न देखोगे इनके जीवन में प्रतिभा की।

जाओ, काशी की सड्कों पर बैठे लोगों को देखो। तीर्थों में तुम्हें इस तरह के मूढ़ मिल जाएंगे। तुम उनके चेहरे पर सिर्फ जघन्य अंधकार पाओगे, घनीभूत अंधकार पाओगे। उनकी आंखों में तुम्हें कोई ज्योति न मिलेगी। तुम उन्हें दुष्ट पाओगे।

तुमने कभी नागा संन्यासी देखे कुंभ के मेले पर! ये उसी तरह के लोग हैं, जिस तरह के लोग अपराधी होते हैं। इनमें—उनमें कोई फर्क नहीं है। और बड़े मजे की बात है, अपने अखाड़े में तो वे

कपड़ा पहनते हैं और जब वे जुलूस निकालते हैं, तब वे नंगे हो जाते हैं। और भाला और छुरे और तलवारें लेकर चलते हैं। तुम उनकी आंखों में पाओगे, महापाप, घृणित भाव, हिंसा, मूढ़ता। और खतरनाक हैं वे। वे किसी भी वक्त झगड़े के लिए तैयार हैं।

कोई बीस वर्ष पहले कुंभ में जो भयंकर उत्पात हुआ, वह उन्हीं के कारण हुआ। क्योंकि वे किसी को पहले स्नान नहीं करने देते। अहंकारी की वही तो दौड़ है। वे पहले स्नान करेंगे। फिर दूसरे कोई व्यक्ति प्रवेश कर सकते हैं। और दूसरे लोगों ने प्रवेश करने की कोशिश की, तो उपद्रव मच गया। उसी उपद्रव में सैकड़ों लोग मरे। साधुओं को जरा गौर से देखना, क्योंकि उनमें तीन तरह के साधु हैं। नब्बे प्रतिशत तो उसमें सिर्फ हठी हैं। हठ ही उनका गुणधर्म है। इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं, यह खयाल रखना। क्योंकि हठी व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। उसमें से नौ प्रतिशत तुम पाओगे कि राजसी हैं, जो मान—प्रतिष्ठा के लिए कर रहे हैं। कभी भूल से तुम्हें वह एक आदमी मिलेगा, जो सात्विक है। जो उपवास कुछ पाने के लिए नहीं कर रहा है, जिसका उपवास आनंद है। जिसका उपवास परमात्मा के निकट होने की सिर्फ एक दशा है।

फर्क समझ लो। सात्विक व्यक्ति उपवास करता है। उपवास का अर्थ है, उसके पास होना, आत्मा के पास होना या परमात्मा के पास होना। शब्द का भी वही अर्थ है। उसका भूखे मरने से कोई लेना—देना नहीं है सीधा। लेकिन जब सात्विक व्यक्ति उसके निकट होता है, तो शरीर को भूल जाता है। कुछ घड़ियों के लिए न भूख लगती है, न प्यास लगती है। भीतर ऐसी धुन बजने लगती है। जैसे तुम भी कभी—कभी नृत्य देखने बैठे हो, कोई सुंदर नर्तक नाच रहा है; या कोई गीत गा रहा है, और गीत ऐसा प्यारा है कि धुन बंध गई, तारी लग गई; तो तीन घंटे तुम्हें न भूख लगती है, न प्यास लगती है। तुम सब भूल ही जाते हो। जब संगीत बंद होता है, अचानक तुम्हें पता चलता है कि पेट में तो हाहाकार मचा है, भूख लगी है, कंठ सूख रहा है। इतनी देर तक पता क्यों न चला! ध्यान लीन था।

सात्विक व्यक्ति का उपवास ऐसा है कि उसका ध्यान इतना भीतर परमात्मा में लीन होता है कि वह भूल ही जाता है, प्यास लगी है, भूख लगी है। जब लौटता है अपने ध्यान से, तब भूख और प्यास का पता चलता है। इसलिए उसका नाम उपवास है, परमात्मा के निकट वास।

राजस व्यक्ति अनशन करता है, उपवास नहीं। अनशन का मतलब है, उसकी कोई चेष्टा है। जैसे कि मोरारजी देसाई ने किया। वह उपवास नहीं है, वह अनशन है। उसको उपवास कहना गलत है। उसके पीछे आकांक्षा है।

अब मोरारजी देसाई सात्विक उपवास कर भी कैसे सकते हैं। सारी चेष्टा यह है कि अब यह जिंदगी जा रही है हाथ से और प्रधानमंत्री वे हो नहीं पाए। डिप्टी कलेक्टर से शुरू हुए और डिप्टी प्राइम मिनिस्टर पर अंत हो गए। वह डिप्टी पीछा कर रहा है उनका। वे डिप्टी से अब घबडाए हुए हैं। मरते वक्त तक डिप्टी लिखा रह जाएगा। प्रमुख नहीं हो पा रहे हैं। और मरता क्या न करता! अब वे दाव पर लगा देते हैं, कोई भी क्षुद्र बात हो।

अब यह इतनी फिजूल बात थी, जिसका कोई अर्थ ही नहीं है। गुजरात में चुनाव दो महीने पहले होते कि दो महीने बाद, इसका कोई भी अर्थ नहीं है। कुछ लेना—देना नहीं है। लेकिन राजसी हैं, राज की आकांक्षा है। कोई महत्वाकांक्षा है भारी। दौड़ लगी है। मोरारजी का उपवास उपवास नहीं कहा जाना चाहिए। वह भाषा के साथ व्यभिचार है। गांधी के उपवास भी उपवास नहीं हैं। क्योंकि उसमें भी आकांक्षा है। कभी उपवास है अंबेदकर को झुकाने के लिए। कैसे उपवास हो सकता है? हिंसा है सीधी। अब एक आदमी मरने लगे, छोटी—सी बातों पर मरने लगे, तो किसी को भी लगता है कि चलो।

इंदिरा कोई झुकी नहीं है मामले में, झुकने का कोई कारण न था। सिर्फ एक मूढ़तापूर्ण बात थी, जिसमें एक आदमी नाहक मरे और उलझन पैदा हो, जिसमें कोई सार नहीं। ठीक है।

वही अंबेदकर ने किया, जब देखा कि गांधी मरने को ही उतारू हैं, तो अंबेदकर झुक गया। मैं मानता हूं कि उसके झुकने में ज्यादा अहिंसा है। उतनी अहिंसा गांधी के उपवास में नहीं। क्योंकि वह चाहता तो अड़ा रह जाता कि नहीं झुकते, मरो, मर जाना है तो। क्या फर्क पड़ता है!

अड़ा रह सकता था अंबेदकर। और उससे संभावना थी कि अड़ा रहे, क्योंकि वह भी जिद्दी आदमी था। लेकिन वह झुक गया। देखा कि इतने मूल्य की बात ही नहीं है कि गांधी की हत्या अपने सिर पर ली जाए। ठीक है।

गांधी के उपवास भी आकांक्षा से प्रेरित हैं, उनके पीछे परिणाम हैं, वे आग्रह हैं।

और ध्यान रहे, जहां आग्रह है, वहां सत्याग्रह तो हो ही नहीं सकता। सत्याग्रह शब्द ही गलत है, क्योंकि सत्य का कोई आग्रह नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा निवेदन हो सकता है, आग्रह क्या होगा? आग्रह का तो मतलब ही यह है कि ऐसा करना पड़ेगा। नहीं करोगे, तो हम मरने को तैयार हैं।

कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, नहीं करोगे, तो हम मार डालेंगे तुम्हें। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, नहीं करोगे, तो हम मार डालेंगे हमें। मगर मारने की जिद्द है। हिंसा की हवा पैदा करना है।

नहीं, राजसी व्यक्ति कभी भी उपवास नहीं कर सकता। गांधी इस बात को समझते थे। वे आदमी ईमानदार थे। मोरारजी तो समझते होंगे कि उपवास ही है। न तो उतनी समझ है गांधी जैसी, न उतना ईमान है। वे आदमी ईमानदार थे।

इसलिए लुई फिशर ने गांधी के संबंध में एक लेख लिखा और उसमें लिखा कि गांधी एक ऐसे धार्मिक पुरुष हैं, जो राजनीतिक होने की जीवनभर चेष्टा करते रहे हैं। तो गांधी ने उत्तर दिया कि गलती है बात। मैं पुरुष तो राजनीतिक हूं धार्मिक होने की चेष्टा करता रहा हूं।

वे ईमानदार हैं। वे जानते हैं कि सत्व नहीं है उनका लक्षण; रजस है। रजस यानी राजनीति, सत्व यानी धर्म। वे जो भी कर रहे हैं, वह निष्काम नहीं है, उसमें कामना है। भला कामना दूसरों के हित के लिए हो।

लेकिन तुम कौन हो तय करने वाले कि दूसरे का हित क्या है? और जब तुम आग्रह करो और कहो कि तुम्हारे हित में हम मरने को खड़े हैं, अगर न मानी हमारी तो हम मर जाएंगे, तो तुम दूसरे के गले में फांसी लगा रहे हो। यह फांसी ठीक नहीं है।

मैंने सुना है, एक लफंगे ने एक सुंदर स्त्री के घर पर धरना दे दिया और उपवास कर दिया। और उसने कहा, जब तक तुम विवाह करने के लिए राजी न होओगी, आमरण उपवास!

बड़ी मुसीबत हो गई। वह स्त्री भी घबडाई, घर के लोग भी घबडाए। और वह बोरिया—बिस्तर बांधे सामने बैठा है। और कहीं भी बैठ जाओ बोरिया—बिस्तर बांधकर, फोटोग्राफर आ गए और अखबार वाले आ गए। वे तो इस उपद्रव की तलाश में हैं। समाचार की सुर्खी मिल गई। नेतागण आ गए ट्रेड यूनियनिस्ट आ गए। उन्होंने कहा, हड़ताल करवा देंगे। तुम बिलकुल जमे रहो। सरकार को डांवाडोल कर देंगे। यह तो प्रेम का मामला है; इसमें तो आदमी……..।

घबड़ा गए घर के लोग। दो दिन हड़ताल चली। बड़ी मुसीबत हो गई। किसी समझदार से, किसी के से जाकर पूछने गए, अब क्या करें? उसने कहा, तुम घबड़ाओ मत। मैं रास्ता बताता हूं। एक बूढ़ी वेश्या है, जिसकी तरफ अब कोई देखता भी नहीं। तुम उसको दस—पच्चीस रुपया दे दो। वह हड़ताल कर दे इसके खिलाफ आमरण, कि जब तक तुम हमसे विवाह न करेगा, तब तक..। उसका भी बोरिया—बिस्तर लगा दो।

तब तो पूरे गांव में तहलका मच गया। उसने भी बोरिया—बिस्तर लगा दिया। लफंगे ने देखा कि यह तो मुसीबत हो गई। वह उसी रात भाग गया।

तो मोरारजी का अनशन तुड़वाने के लिए और कोई उनसे भी ज्यादा मरा हुआ का आदमी खोज लेना था, वह ज्यादा सरल बात थी कि वह कहता कि हम मर जाएंगे, अगर तुमने अनशन न तोड़ा। फिजूल की बकवास है। लेकिन राजस चित्त कुछ पाने के लिए, आकांक्षा के लिए, फल के लिए उत्सुक है।

और तीसरा जो है, वह तो सिर्फ मूढ़तावश करता है। उसके मन में तो सिर्फ हिंसा और अज्ञान है।

हठ से, मन, वाणी और शरीर को पीड़ा पहुंचाकर……..।

वह अपने को कष्ट पहुंचाता है। या ज्यादा से ज्यादा उसकी आकांक्षा होती है, तो दूसरे का अनिष्ट करने की होती है।

मैंने सुना है, एक बड़ी पुरानी कहानी है पंचतंत्र में, कि एक आदमी को निरंतर भक्ति करने से कोई देवता प्रसन्न हो गया। और उसने कहा, माग ले, तू जो भी मांगता हो। तो उसने कहा, जो भी मैं मांगूं कभी भी वह मुझे मिले, यही मैं मांगता हूं। होशियार आदमी रहा होगा, गणितज्ञ रहा होगा, एक मांग में खतम हो जाएगी बात, तो उसने कहा कि मैं यही मांगता हूं कि जो भी कभी मांगूं वह मुझे मिल जाए।

देवता ने देखा कि यह तो चालाकी कर रहा है। वरदान एक दिया था, इसने तो करोड़ मांग लिए, अनंत मांग लिए। देवता ने कहा, वही देता हूं लेकिन सिर्फ एक शर्त है, कि जो तुझे मिलेगा, वह तेरे पड़ोसियों को दुगना होकर मिलेगा।

बस, बात खतम हो गई। अब वह आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ गया। यही तो मूढ़ आदमी की दिक्कत है। उसको खुद से कोई मतलब नहीं है। खुद को चाहे दुख भी मिले तो चलेगा, किसी को सुख न मिल जाए।

अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसने मांगा महल। महल तो बन गया। लेकिन दुगने बड़े महल पड़ोसियों के बन गए। वह फिर नीचे के नीचे रह गया। उसने कहा, यह तो कोई सार न रहा। इससे तो झोपड़ा ही बेहतर था। फल क्या है इसका! उसने मांगा धन, दुगना धन पड़ोसियों के घर में बरस गया। उसने कहा, ऐसे नहीं चलेगा। यह देवता तो चालाकी कर गया।

तो उसने कहा, मेरी एक आंख फोड़। उसकी एक फूटी; पड़ोसियों की दोनों फूट गईं। उसने कहा, अब मेरे घर के सामने एक बड़ा कुआं बना दे। उसके घर के सामने एक कुआं बना, पड़ोसियों के घर के सामने दो बन गए।

अब उसको तृप्ति हुई। खुद की आंख गई, उसकी कोई चिंता नहीं। अब तृप्ति हो गई कि अंधे कुओं में गिरेंगे। जाएंगे कहां? सारा पड़ोस अंधा हो गया, दो—दो कुएं हर घर के सामने हो गए। अब उसको शांति हुई।

वह जो मूढ़ चित्त का व्यक्ति है, उसको अपने सुख में रस नहीं होता। उसका एक ही सुख होता है कि दूसरों को वह कितना दुखी करे।

और बहुत बार तुम्हारे भीतर भी वह स्वर होता है। तुम्हें इसकी फिक्र नहीं होती कि तुम्हें कितना मिल रहा है, तुम्हें इसकी फिक्र होती है कि पड़ोसी को कितना मिल रहा है। अगर उसको कम मिल जाए, तो तुम्हें जितना मिल रहा है, उतने में भी सुख मालूम पड़ता है। उसको ज्यादा मिल जाए और तुम्हें भी ज्यादा मिल जाए, तो भी रस नहीं मालूम होता, क्योंकि उसको भी ज्यादा मिल गया।

मूढ़ चित्त दूसरे को दुख देने में अपना सुख मानता है। यह तमस का लक्षण है। राजस व्यक्ति अपने को सुख देने में सुख मानता है। सत्व का व्यक्ति दूसरे को सुख देने में सुख मानता है।

और तुम्हारे जीवन की सारी गतिविधियां इन तीन हिस्सों में बंटी हैं। और अपनी हर गतिविधि का गौर से निरीक्षण करना। वह सत्य है, रजस है या तमस है? और चेष्टा करना तमस से रजस में उठने की, रजस से सत्व में उठने की।

अगर कोई स्वाध्यायपूर्वक अपनी वृत्तियों का, अपनी दृष्टियों का, धारणाओं का, मनोभावों का ठीक—ठीक अध्ययन करता रहे, तो उस अध्ययन से ही तुम्हारे भीतर सीढ़ियां लग जाएंगी। और जैसे—जैसे तुम सत्य के करीब आते हो, वैसे—वैसे श्रद्धा के करीब आते हो। जैसे—जैसे सत्य के करीब आते हो, वैसे—वैसे भगवत्ता के करीब आते हो।

भगवान दूर नहीं है। उतना ही दूर है, जितनी तुम्हारे जीवन की दूरी सत्व से है। वह दूरी तुम पूरी कर लो, भगवान बरस जाता है। कबीर ने कहा है, गगन घटा घहरानी साधो!

साधुओ! आकाश में परमात्मा की घटा गहन हो गई। क्योंकि श्रद्धा का जन्म हुआ है, क्योंकि सत्व की उपलब्धि हुई है।

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--8 (ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, मनसा स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–10)

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आंतरिक रूपांतरण के तथ्य—(प्रवचन—दसवां)

चौथी प्रश्नोत्तर चर्चा

प्रश्न : ओशो कल की चर्चा में आपने कहा कि शक्ति का कुंड प्रत्येक व्यक्ति का अलग— अलग नहीं है लेकिन कुंडलिनी जागरण में तो साधक के शरीर में स्थित कुंड से ही शक्ति ऊपर उठती है। तो क्या कुंड अलग— अलग हैं या कुंड एक ही है इस इस स्थिति को कृपया समझाएं।

सा है, जैसे एक कुएं से तुम पानी भरो। तो तुम्हारे घर का कुआं अलग है, मेरे घर का कुआं अलग है, लेकिन फिर भी कुएं के भीतर के जो झरने हैं वे सब एक ही सागर से जुड़े हैं। तो अगर तुम अपने कुएं के ही झरने की धारा को पकड़कर खोदते ही चले जाओ, तो उस मार्ग में मेरे घर का कुआं भी पड़ेगा, औरों के घर के कुएं भी पड़ेंगे, और एक दिन तुम वहां पहुंच जाओगे जहां कुआं नहीं, सागर ही होगा। जहां से शुरू होती है यात्रा वहां तो व्यक्ति है, और जहां समाप्त होती है यात्रा वहां व्यक्ति बिलकुल नहीं है, वहां समष्टि है; इंडिविजुअल से शुरू होती है और एकोल्युट पर खतम होती है।

तो अगर यात्रा का प्रारंभिक बिंदु पकड़ोगे, तब तो तुम अलग हो, मैं अलग हूं; और अगर इस यात्रा का चरम बिंदु पकड़ोगे, तो न तुम हो, न मैं हूं। और जो है, हम दोनों उसके ही हिस्से और टुकड़े हैं। तो जब तुम्हारे भीतर कुंडलिनी का आविर्भाव होगा तो वह पहले तो तुम्हें व्यक्ति की ही मालूम पड़ेगी, तुम्हारी अपनी मालूम पड़ेगी। स्वभावत:, कुएं पर तुम खड़े हो गए हो। लेकिन जब कुंडलिनी का आविर्भाव बढ़ता चला जाएगा, तब तुम धीरे— धीरे पाओगे कि तुम्हारा कुआं तुम्हारा ही नहीं है, वह औरों से भी जुड़ा है। और जितनी तुम्हारी यह गहराई बढ़ती जाएगी उतना ही तुम्हारा कुआं मिटता जाएगा और सागर होता जाएगा। अंतिम अनुभव में तुम कह सकोगे कि यह कुंड सबका था। तो इसी अर्थ में मैंने कहा कि…… .इसी भांति हम व्यक्ति की तरह अलग—अलग मालूम हो रहे हैं।

आत्मा से परमात्मा में छलांग:

ऐसा समझो कि एक वृक्ष का एक पत्ता होश में आ जाए, तो उसे पडोस का जो पत्ता लटका हुआ दिखाई पड़ रहा है, वह दूसरा मालूम पड़ेगा। उसी वृक्ष की दूसरी शाखा पर लटका हुआ पत्ता उसे स्वयं कैसे मालूम पड़ सकता है कि यह मैं ही हूं! दूसरी शाखा भी छोड़ दें, उसी शाखा पर लगा हुआ दूसरा पत्ता भी उस वृक्ष के पत्ते को कैसे लग सकता है कि मैं ही हूं! उतनी दूरी भी छोड़ दें, उसी के बगल में, पड़ोस में लटका हुआ जो पता है, वह भी दूसरा ही मालूम पड़ेगा; क्योंकि पत्ते का भी जो होश है, वह व्यक्ति का है।

फिर पत्ता अपने भीतर प्रवेश करे, तो बहुत शीघ्र वह पाएगा कि मैं जिस डंठल से लगा हूं उसी डंठल से मेरे पड़ोस का पत्ता भी लगा है, और हम दोनों की प्राणधारा एक ही डंठल से आ रही है। वह और थोड़ा प्रवेश करे, तो वह पाएगा कि मेरी शाखा ही नहीं, पड़ोस की शाखा भी एक ही वृक्ष के दो हिस्से हैं और हमारी जीवनधारा एक है। वह और थोड़ा नीचे प्रवेश करे और वृक्ष की रूट्स पर पहुंच जाए, तो उसे लगेगा कि सारी शाखाएं और सारे पत्ते और मैं, एक ही के हिस्से हैं। वह और वृक्ष के नीचे प्रवेश करे और उस भूमि में पहुंच जाए जिस भूमि से पड़ोस का वृक्ष भी निकला हुआ है, तो वह अनुभव करेगा कि मैं, मेरा यह वृक्ष, मेरे ये पत्ते, और यह पडोस का वृक्ष, ये हम एक ही भूमि के पुत्र हैं, और एक ही भूमि की शाखाएं हैं। और अगर वह प्रवेश करता ही जाए, तो यह पूरा जगत अंततः उस छोटे से पत्ते के अस्तित्व का अंतिम छोर होगा। वह पत्ता इस बड़े अस्तित्व का एक छोर था! लेकिन छोर की तरह होश में आ गया था तो व्यक्ति था, और समग्र की तरह होश में आ जाए तो व्यक्ति नहीं है।

तो कुंडलिनी के पहले जागरण का अनुभव तुम्हें आत्मा की तरह होगा और अंतिम अनुभव तुम्हें परमात्मा की तरह होगा। अगर तुम पहले जागरण पर ही रुक गए, और तुमने घेराबंदी कर ली अपने कुएं की, और तुमने भीतर खोज न की, तो तुम आत्मा पर ही रुक जाओगे।

इसलिए बहुत से धर्म आत्मा पर ही रुक गए हैं। वह परम अनुभव नहीं है; वह अनुभव की आधी ही यात्रा है। और थोड़ा आगे जाएंगे तो आत्मा भी विलीन हो जाएगी और तब परमात्मा ही शेष रह जाएगा। और जैसा मैंने तुमसे कहा कि और अगर आगे गए तो परमात्मा भी विलीन हो जाएगा, और तब निर्वाण और शून्य ही शेष रह जाएगा—या कहना चाहिए, कुछ भी शेष नहीं रह जाएगा।

तो परमात्मा से भी जो एक कदम आगे जाने की जिनकी संभावना थी, वे निर्वाण पर पहुंच गए हैं; वे परम शून्य की बात कहेंगे। वे कहेंगे वहां जहां कुछ भी नहीं रह जाता। असल में, सब कुछ का अनुभव जब तुम्हें होगा, तो साथ ही कुछ नहीं का अनुभव भी होगा। जो एबसोल्युट है, वह नथिंगनेस भी है।

शून्य और पूर्ण : एक के ही दो नाम:

इसे ऐसा हम समझें……. .शून्य और पूर्ण एक ही चीज के दो नाम हैं, इसलिए दोनों कनवटेंबल हैं। शून्य पूर्ण है। तुमने अधूरा शून्य न देखा होगा। आधा शून्य तुम नहीं कर सकते हो। अगर तुमसे हम कहें कि शून्य को आधा कर दो, दो टुकड़े कर दो! तो तुम कहोगे, यह कैसे हो सकता है? एक के दो टुकड़े हो सकते हैं, दो के दो टुकड़े हो सकते हैं, शून्य के दो टुकड़े नहीं हो सकते। शून्य के टुकड़े ही नहीं हो सकते। और जब तुम कागज पर एक शून्य बनाते हो तो वह सिर्फ प्रतीक है; वह तुम्हारे बनाते ही शून्य नहीं रह जाता, क्योंकि तुम रेखा बांध देते हो।

इसलिए यूक्लिड से पूछोगे तो वह कहेगा कि शून्य हम उसे कहते हैं, जिसमें न लंबाई है, न चौड़ाई है। लेकिन तुम तो कितना ही छोटा सा बिंदु भी बनाओगे, तो उसमें भी लंबाई—चौड़ाई होगी। इसलिए वह सिर्फ सिबालिक है, वह असली बिंदु नहीं है, क्योंकि असली बिंदु में तो लंबाई—चौड़ाई नहीं हो सकती। लंबाई—चौड़ाई होगी तो फिर बिंदु नहीं रह जाएगा।

इसलिए उपनिषद कह सके कि शून्य से तुम निकाल लो शून्य भी, तो भी पीछे शून्य ही शेष रह जाता है। उसका मतलब यह है कि तुम निकाल नहीं सकते उसमें से कुछ। तुम अगर पूरे शून्य को भी लेकर भाग जाओ तब भी पीछे पूरा शून्य ही शेष रह जाएगा। तुम आखिर में पाओगे, चोरी बेकार गई; तुम उसे लेकर भाग नहीं सके, वह वहीं शेष रह गया। लेकिन जो शून्य के संबंध में सही है, वही पूर्ण के संबंध में भी सही है। असल में, पूर्ण की कोई कल्पना सिवाय शून्य के और नहीं हो सकती।

पूर्ण का मतलब है जिसमें अब और आगे विकास नहीं हो सकता। शून्य का मतलब है जिसमें अब और नीचे पतन नहीं हो सकता। शून्य के और नीचे उतरने का उपाय नहीं, पूर्ण के और आगे जाने का उपाय नहीं। तुम पूर्ण के भी खंड नहीं कर सकते; तुम शून्य के भी खंड नहीं कर सकते। पूर्ण की भी कोई सीमा नहीं हो सकती; क्योंकि जब भी किसी चीज की सीमा होगी तब वह पूर्ण नहीं हो सकेगा। क्योंकि उसका मतलब हुआ कि सीमा के बाहर फिर कुछ शेष रह जाएगा। और अगर कुछ बाहर शेष रह गया तो पूर्णता कैसी? फिर यह अपूर्णता हो जाएगी।

जहां मेरा घर खतम होता है, तुम्हारा घर शुरू हो जाता है। मेरे घर की सीमा पर मेरा घर समाप्त होता है और तुम्हारा शुरू होता है। अगर मेरा घर पूर्ण है, तो तुम्हारा घर मेरे घर के बाहर नहीं हो सकता। तो पूर्ण की कोई सीमा नहीं हो सकती, क्योंकि कौन उसकी सीमा बनाएगा? सीमा बनाने के लिए हमेशा नेबर चाहिए; सीमा बनाने के लिए कोई पड़ोसी चाहिए। और पूर्ण है अकेला, उसका कोई पड़ोसी नहीं है, जिससे उसकी सीमा इंगित हो सके।

सीमा दो बनाते हैं, एक नहीं—यह खयाल रखना; सीमा बनाने के लिए दो चाहिए। जहां मैं समाप्त होऊं और कोई शुरू हो, वहां सीमा बनेगी। अगर कोई शुरू ही न हो तो मैं समाप्त भी न हो सकूंगा। और अगर मैं समाप्त ही न हो सकूं, हो ही न सकूं समाप्त, तो फिर मेरी कोई सीमा न बनेगी। पूर्ण की कोई सीमा नहीं है, क्योंकि कौन उसकी सीमा बनाए? शून्य की कोई सीमा नहीं है, क्योंकि जिसकी सीमा हो जाती है, वह कुछ हो गया, वह शून्य कैसे रहा? तो अगर इसे बहुत ठीक से समझोगे तो शून्य और पूर्ण जो हैं, वे एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं।

ब्रह्म और शून्य : दो ओर से यात्रा:

तो धर्म भी दो तरफ से यात्रा कर सकता है या तो तुम पूर्ण हो जाओ, या तुम शून्य हो जाओ। दोनों स्थितियों में तुम वही हो जाओगे जो होने की बात है। तो जो पूर्ण की यात्रा करनेवाला है, या पूर्ण शब्द को प्रेम करता है, पाजिटिव को प्रेम करता है, वह कहेगा—अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं! वह यह कह रहा है कि मैं ही ब्रह्म हूं। यह सब जो है, यह मैं ही हूं। और मेरे अतिरिक्त कोई तू नहीं है; सब तू मैंने अपने मैं में घेर लिए हैं। अगर यह हो सके तो यह बात हो जाएगी।

लेकिन अंतिम चरण में मैं को भी खोना पड़ेगा, क्योंकि जब कोई तू नहीं है तो तुम कैसे कहोगे कि मैं ही ब्रह्म हूं? क्योंकि मैं की उदघोषणा तू की मौजूदगी पर ही सार्थक है। और जब तुम ही ब्रह्म हो, तो यह कहना भी बहुत अर्थ का नहीं रह जाएगा कि मैं ब्रह्म हूं। क्योंकि इसमें भी दो की स्वीकृति है—ब्रह्म की और मेरी। तो अंत में मैं भी व्यर्थ हो जाएगा, ब्रह्म भी व्यर्थ हो जाएगा और चुप हो जाना पड़ेगा।

दूसरा एक मार्ग है कि तुम कहो…… .इतने मिट जाओ तुम कि तुम कह सको, मैं हूं ही नहीं। एक जगह तुम कह सके, मैं ब्रह्म हूं अर्थात मैं सब हूं। दूसरी यात्रा है जिसमें तुम कह सको कि मैं हूं ही नहीं, कुछ भी नहीं है; सब परम शून्य है। लेकिन इससे भी तुम वहीं पहुंच जाओगे। और पहुंचकर तुम यह भी न कह सकोगे कि मैं नहीं हूं। क्योंकि मैं नहीं हूं यह कहने के लिए भी मैं का होना जरूरी है। तो मैं खो जाएगा। तुम यह भी न कह सकोगे कि सब शून्य है; क्योंकि यह कहने के लिए भी सब भी होना चाहिए और शून्य भी होना चाहिए। तब तुम फिर चुप हो जाओगे।

तो यात्रा चाहे कहीं से हो—चाहे वह पूर्णता की तरफ से हो, चाहे शून्यता की तरफ से हों—लेकिन वह परम मौन में ले जाएगी, जहां बोलने को कुछ भी नहीं बचेगा। इसलिए कहां से कोई जाता है, यह बड़ा सवाल नहीं है; कहां पहुंचता है, यह जांचने की बात है। उसकी अंतिम मंजिल पकड़ी जा सकती है, पहचानी जा सकती है। अगर वह यहां पहुंच गया तो वह जहां से भी गया हो, ठीक ही रास्ते से गया है। कोई रास्ता गलत नहीं है, कोई रास्ता ठीक नहीं है—इस अर्थ में कि जो पहुंचा दे वह ठीक है। और पहुंचना यहां है। लेकिन प्राथमिक अनुभव कहीं से भी मैं से ही शुरू होगा, क्योंकि हमारी वह स्थिति है; वह गिवेन सिचुएशन है, जहां से हमको चलना है।

तो चाहे हम कुंडलिनी को जगाए, तो भी वह व्यक्तिगत मालूम पड़ेगी; चाहे ध्यान में जाएं, तो भी वह व्यक्ति—गत मालूम पड़ेगा; चाहे शांत हों तो व्यक्तिगत होगा, जो कुछ भी होगा वह व्यक्तिगत होगा, क्योंकि अभी हम व्यक्ति हैं। लेकिन जैसे—जैसे इसमें प्रवेश करोगे, भीतर जितने गहरे उतरोगे, व्यक्ति मिटता जाएगा। और अगर बाहर गए, तो व्यक्ति बढ़ता चला जाएगा।

व्यक्ति का अंतिम छोर:

जैसे समझ लो कि एक आदमी कुएं पर खड़ा है। अगर वह कुएं में भीतर जाए, तो एक दिन सागर में पहुंच जाएगा। और अनुभव करे कि कुआं तो नहीं था… असल में कुआं है क्या? जस्ट ए होल सागर को झांकने के लिए। और क्या है? कुएं का और अर्थ क्या है? एक छेद है जिससे तुम सागर को झांक लेते हो। अगर तुम पानी को कुआं समझते हो तो गलती समझते हो, पानी तो सागर ही है। हां, वह छेद जिससे तुमने झांका है, वह है कुआं। तो वह जो छेद है, वह जितना बड़ा होता जाए, सागर उतना बड़ा दिखाई पड़ने लगेगा।

लेकिन अगर तुम कुएं के भीतर प्रवेश न किए और कुएं से दूर हटते चले गए, तो तुम्हें कुएं का पानी भी दिखाई पड़ना थोड़ी देर में बंद हो जाएगा। फिर तो वह जो कुएं का छेद है और पाट है, वही दिखाई पड़ेगा। और उसका सागर से कभी तुम तालमेल न कर पाओगे। एकदम तुम सागर के किनारे भी पहुंच जाओ, तो भी तुम यह तालमेल न बिठा पाओगे कि वह जो कुएं में झांका था वह और यह सागर एक हो सकता है।

अंतर्यात्रा तो तुम्हें एकता पर ले जाएगी, बहिर्यात्रा तुम्हें अनेकता पर ले जाएगी। लेकिन सभी अनुभव का प्रारंभिक छोर व्यक्ति होगा, कुआं होगा; अंतिम छोर अव्यक्ति होगा—या परमेश्वर कहो— सागर होगा। इस अर्थ में मैंने कहा अगर तुम गहरे जाओगे तो कुंड जो है तुम्हारा नहीं रह जाएगा; कुछ भी तुम्हारा नहीं रह जाएगा। कुछ भी नहीं रह जा सकता है।

पीड़ा कुएं की, आनंद सागर का:

प्रश्न: ओशो अगर शून्य को ही उपलब्ध होना है तो कड़ंलिनी जगाने की जरूरत क्या है? और साधना की जरूरत क्या है?

ह जो बात है न, क्योंकि तुम्हें समझ में आ रहा है कि शून्य यानी कुछ भी नहीं, इसलिए साधना की क्या जरूरत? कुछ हो तो जरूरत है। तुम्हें खयाल में आ रहा है कि शून्य यानी ना—कुछ हो गए। तो साधना की क्या जरूरत? साधना की जरूरत तो तब लगती है, जब कुछ हम हो जाएं। लेकिन तुम्हें यह पता नहीं कि शून्य का मतलब है पूर्ण; शून्य का मतलब है सब कुछ। शून्य का मतलब कुछ नहीं नहीं, सब कुछ।

लेकिन अभी तुम्हारे खयाल में नहीं आ सकता कि शून्य यानी सब कुछ का क्या मतलब होता है। एक कुआं भी कह सकता है कि अगर सागर की तरफ जाने का मतलब इसी बात का पता चलना है कि मैं हूं ही नहीं, तो मैं जाऊं ही क्यों? यह ठीक कह रहा है कुआं। यह कहे कि अगर मैं सागर की तरफ जाऊं और आखिर में यही पता चलना है कि मैं हूं ही नहीं, तो मैं जाऊं क्यों? लेकिन तुम्हारे न जाने से फर्क नहीं पड़ता है। तुम नहीं हो, एक बात; तुम्हारे जाने, न जाने का सवाल नहीं। न जाओ, कुएं पर ही रुके रहो, कुएं ही बने रहो, लेकिन तुम हो नहीं कुआं। यह झूठ है सरासर। यह झूठ तुम्हें दुख देता रहेगा। यह झूठ तुम्हें पीड़ा देता रहेगा। यह झूठ तुम्हें बांधे रहेगा। इस झूठ में आनंद की कोई संभावना नहीं है।

कुआं मिटेगा जरूर सागर तक जाकर, लेकिन मिटते ही उसकी सारी चिंता, दुख, सब मिट जाएगा; क्योंकि वह उसके कुएं और व्यक्ति होने से बंधा था, उसकी ईगो और अहंकार से बंधा था। और हमें तो ऐसा लगेगा कि कुआं जाकर सागर में मिट गया, कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन कुएं को थोड़े ही ऐसा लगेगा। कुआं तो कहेगा कि मैं सागर हो गया। कौन कहता है, मैं मिट गया! यह तो जो नहीं गया कुआं, पड़ोस का जो कुआं नहीं गया वह उससे कहेगा, पागल! कहां जाता है? वहां तो मिट ही जाना है, तो जाना क्यों? लेकिन जो गया है, वह कहेगा : कौन कहता है, मिट जाना है! मैं तो मिटूगा एक अर्थ में—कुएं के अर्थ में, लेकिन सागर के अर्थ में हो भी जाऊंगा।

इसलिए चुनाव कुआं बने रहने का या सागर होने का है सदा, क्षुद्र से बंधे रहने का या विराट के साथ एक हो जाने का है। लेकिन वह अनुभव की बात है। और अगर कुएं ने कहा कि मैं मिटने से डरता हूं तो फिर तो उसको सागर से सब संबंध छोड़ लेने पड़ेंगे; क्योंकि उन संबंधों में सदा भय है कि कभी भी पता न चल जाए कि मैं सागर हूं। तो उसको सब अपने झरने तोड़ लेने पड़ेंगे, क्योंकि वे झरने सब सागर तक जाते हैं। या उसे झरने की तरफ से आख मोड़ लेनी पड़ेगी। वह सदा बाहर देखता रहे, भीतर न देखे भूलकर; क्योंकि भीतर देखने से कभी भी संभावना है कि उसे पता चल जाए कि अरे, मैं नहीं हूं सागर ही है। तो फिर वह बाहर देखे। और झरने जितने छोटे हों, उतने अच्छे; क्योंकि उनसे भीतर जाना कम आसान रह जाएगा। जितने सूखे हों, उतने अच्छे; बिलकुल सूख जाएं तो और भी अच्छे।

लेकिन तब कुआं मरेगा। समझेगा कि मैं बचा रहा हूं अपने को, लेकिन मरेगा।

मिटना बहुत आनदपूर्ण है:

जीसस का वचन है कि जो अपने को बचाएगा, वह मिटेगा, और जो मिटाएगा, वही केवल बच सकता है।

तो यह तो हमारे मन में सवाल उठता ही है कि मिट जाएंगे, वहां जाएं क्यों? वहां जाएं क्यों, मिट जाएंगे! तो अगर यह… अगर मिटना ही हमारा सत्य है, तो ठीक है। और बचाने से कैसे बचेंगे? अगर सागर में पहुंचकर मिटना होता है तो कुएं बने रहकर कितने दिन बच सकोगे? इतना बड़ा सागर होकर भी मिटना हो जाता है तो इतने से कुएं को कैसे बचाओगे? कितने दिन बचाओगे? जल्दी इसकी ईटं गिर जाएंगी, जल्दी इस पर मिट्टी गिरेगी, जल्दी इसका पानी सूख जाएगा। जब सागर में भी न बच सकोगे, तो कुएं में कैसे बचोगे? और कितनी देर बचोगे?

इसी से मृत्यु का भय पैदा होता है। वह कुएं का भय है। सागर से मिलना नहीं चाहता, क्योंकि उसमें डर है मिटने का, इसलिए सागर से अपने को दूर कर लेता है और कुआं बन जाता है। और फिर मौत का भय सताने लगता है, क्योंकि सागर से जैसे ही टूटा कि मरने की स्थिति करीब आने लगी, क्योंकि सागर से जुड़कर जीवन है।

तो इसलिए हम सब मृत्यु से भयभीत हैं, डरे हुए हैं कि कहीं मर न जाएं। मरना पड़ेगा। और दो ही तरह के मरने हैं या तो तुम सागर में कूदकर मर जाओ। वह मरना बहुत आनंदपूर्ण है; क्योंकि मरोगे नहीं, सागर हो जाओगे। और एक यह कि तुम कुएं को जोर से पकड़े बैठे रहो—सूखोगे, सडोगे, मिट जाओगे। हमारा मन कहता है कोई प्रलोभन चाहिए—क्या, मिलेगा क्या जिसकी वजह से हम सागर में जाएं? क्या मिलेगा जिससे हम समाधि को खोजें, शून्य को खोजें? मिलेगा क्या? हम पहले पूछते हैं, मिलेगा क्या? हम इसको पूछते ही नहीं कि इस मिलने की दौड़ में हमने अपने को खो दिया है। सब तो मिल गया है—मकान मिल गया है, धन मिल गया है—वह सब मिल गया है और हम खो गए हैं; हम बिलकुल नहीं हैं वहां।

तो अगर मिलने की भाषा में पूछते हो तो मैं कहूंगा कि अगर खोने को तैयार हो जाओ तो तुम तुमको मिल जाओगे। अगर खोने को तैयार नहीं हो, बचाने की कोशिश की, तो तुम खो जाओगे और सब बच जाएगा; और बहुत सी चीजें बच जाएंगी, बस तुम खो जाओगे।

तीव्र श्वास से प्राण—ऊर्जा में वृद्धि:

प्रश्न: ओशो आपने कहा था कि डीप ब्रीदिंग लेने से आक्सीजन और कार्बन डाइआक्साइड का अनुपात बदल जाता है तो इस अनुपात के बदलने का कुंडलिनी जागरण के साथ कैसे संबंध है?

हुत संबंध है। एक तो हमारे भीतर जीवन और मृत्यु दोनों की संभावनाएं हैं। उसमें जो आक्सीजन है वह हमारे जीवन की संभावना है, और जो कार्बन है वह हमारी मृत्यु की संभावना है। जब आक्सीजन क्षीण होते—होते—होते—होते समाप्त हो जाएगी और सिर्फ कार्बन रह जाएगी तुम्हारे भीतर, तो तुम लाश हो जाओगे। ऐसे ही, जैसे कि हम एक लकड़ी को जलाते हैं। जब तक आक्सीजन मिलती है, जलती चली जाती है। आग होती है, जीवन होता है। फिर आक्सीजन चुक गई, आग चुक गई, फिर कोयला, कार्बन पड़ा रह जाता है पीछे। वह मरी हुई आग है। वह जो कोयला पड़ा है पीछे, वह मरी हुई आग है।

तो हमारे भीतर दोनों का काम चल रहा है पूरे समय। भीतर हमारे जितनी ज्यादा कार्बन होगी, उतनी ही लिथार्जी होगी, उतनी सुस्ती होगी। इसलिए दिन में नींद लेना मुश्किल पड़ता है, रात में आसान पड़ता है; क्योंकि रात में आक्सीजन की मात्रा कम हो गई है और कार्बन की मात्रा बढ़ गई है। इसलिए रात में हम सरलता से सो जाते हैं और दिन में सोना इतना सरल नहीं पड़ता, क्योंकि आक्सीजन बहुत मात्रा में है। आक्सीजन हवा में बहुत मात्रा में है। सूरज के आ जाने के बाद आक्सीजन का अनुपात पूरी हवा में बदल जाता है। सूरज के हटते ही से आक्सीजन का अनुपात नीचे गिर जाता है।

इसलिए अंधेरा जो है, रात्रि जो है, वह प्रतीक बन गया है सुस्ती का, आलस्य का, तमस का। सूर्य जो है वह तेजस का प्रतीक बन गया है, क्योंकि उसके साथ ही जीवन आता है। रात सब कुम्हला जाता है—फूल बंद हो जाते, पत्ते झुक जाते, आदमी सो जाता—सारी पृथ्वी एक अर्थों में टेम्प्रेरी डेथ में चली जाती है, एक अस्थायी मृत्यु में समा जाती है। सुबह होते ही से फिर फूल खिलने लगते, फिर पत्ते जीवित हो जाते, फिर वृक्ष हिलने लगते, फिर आदमी जगता, पक्षी गीत गाते— सब तरफ फिर पृथ्वी जागती है, वह जो टेम्प्रेरी डेथ थी, वह जो अस्थायी मृत्यु थी रात के आठ—दस घंटे की, वह गई; अब जीवन फिर लौट आया है।

तो तुम्हारे भीतर भी ऐसी घटना घटती है कि जब तुम्हारे भीतर आक्सीजन की मात्रा तीव्रता से बढ़ती है, तो तुम्हारे भीतर जो सोई हुई शक्तियां हैं वे जगती हैं, क्योंकि सोई हुई शक्तियां को जगने के लिए सदा ही आक्सीजन चाहिए—किसी भी तरह की सोई हुई शक्तियों को जगने के लिए। अब एक आदमी मर रहा है, मरने के बिलकुल करीब है, हम उसकी नाक में आक्सीजन का सिलिंडर लगाए हुए हैं। उसे हम दस—बीस घंटे जिंदा रख लेंगे। उसकी मृत्यु घट गई होती दस—बीस घंटे पहले, लेकिन हम उसे दस—बीस घंटे खींच लेंगे। वर्ष, दो वर्ष भी खींच सकते हैं, क्योंकि उसकी बिलकुल क्षीण होती शक्तियों को भी हम आक्सीजन दे रहे हैं तो वे सो नहीं पा रहीं। उसकी सब शक्तियां मौत के करीब जा रही हैं, डूब रही हैं, डूब रही हैं, लेकिन हम फिर भी आक्सीजन दिए जा रहे हैं।

तो आज यूरोप और अमेरिका में तो हजारों आदमी आक्सीजन पर अटके हुए हैं। और सारे अमेरिका और यूरोप में एक बड़े से बड़ा सवाल है अथनासिया का—कि आदमी को स्वेच्छा—मरण का हक होना चाहिए। क्योंकि डाक्टर अब उसको लटका सकता है बहुत दिन तक। बड़ा भारी सवाल है, क्योंकि अब डाक्टर चाहे तो कितने ही दिन तक एक आदमी को न मरने दे। अच्छा, डाक्टर की तकलीफ यह है कि अगर वह उसे जानकर मरने दे तो वह हत्या का आरोपण उस पर हो सकता है; वह मर्डर हो गया। यानी वह अभी आक्सीजन देकर इस अस्सी साल के मरते हुए बूढ़े को बचा सकता है। अगर न दे, तो यह हत्या के बराबर जुर्म है। तो वह तो इसे देगा; वह इसे आक्सीजन देकर लटका देगा। अब उसकी जो सोती हुई शक्तियां हैं वे कार्बन की कमी के कारण नहीं सो पाएंगी। समझ रहे हो न मेरा मतलब?

अधिक प्राण से अधिक जागृति:

ठीक इससे उलटा प्राणायाम और भस्त्रिका और जिसे मैं श्वास की तीव्र प्रक्रिया कह रहा हूं उसमें होता है। तुम्हारे भीतर तुम इतनी ज्यादा जीवनवायु ले जाते हो, प्राणवायु ले जाते हो कि तुम्हारे भीतर जो सोए हुए तत्व हैं वह तो जगने की क्षमता उनकी बढ़ जाती है, तत्काल वे जगने शुरू हो जाते हैं; और तुम्हारे भीतर जो सोने की प्रवृत्ति है, भीतर वह भी टूटती है।

तुम तो हैरान होओगे, अभी मेरे पास कोई चार वर्ष पहले सीलोन से एक बौद्ध भिक्षु आया। वह तीन साल से सो नहीं सका। सब तरह के इलाज किए, वे काम नहीं किए। वे काम कर नहीं सकते थे, क्योंकि वह एक अनापानसती योग का प्रयोग कर रहा था श्वास का—चौबीस घंटे गहरी श्वास पर ध्यान रख रहा था। अब जिसने उसे बता दिया था उसे कुछ पता नहीं होगा कि चौबीस घंटे गहरी श्वास पर अगर ध्यान रखा जाएगा तो नींद बिलकुल विदा हो जाएगी; नींद को लाया ही नहीं जा सकता।

तो इधर तो वह चौबीस घंटे श्वास पर ध्यान रख रहा है और उधर उसको दवाइयां दिलवाए जा रहे हैं। तो उसकी बड़ी तकलीफ खड़ी हो गई; क्योंकि उसके शरीर में कांफ्लिक्ट पैदा हो गई। दवाइयां उसको सुला रही हैं, और वह गहरी श्वास का जो प्रयोग चौबीस घंटे जारी रखे हुए है, वह उसकी शक्तियों को जगा रहा है। तो उसके भीतर ऐसी जिच पैदा हो गई, जैसे कि कोई कार में एक्सीलरेटर और ब्रेक दोनों एक साथ दबाता हो। समझे न? तो वह तो बहुत परेशानी में था। किसी ने मेरा उसको कहा तो वह मेरे पास आया।

मैं उसको देखकर समझा कि वह तो पागलपन में पड़ा है, यह तो कभी हो ही नहीं सकता। तो मैंने उससे कहा कि अनापानसती योग बंद करो। तो उसने कहा, इससे क्या संबंध है? तो उसे खयाल ही नहीं है कि अगर श्वास का इतना ज्यादा प्रयोग करोगे कि आक्सीजन इतनी मात्रा में हो जाए कि शरीर सो ही न सके, तो फिर कैसे सोओगे! और या फिर, मैंने उससे कहा कि सोने का खयाल छोड़ दो और ये दवाइयां लेना बंद कर दो। और तुम्हें कोई जरूरत नहीं है नींद की। नींद नहीं आएगी तो हर्ज नहीं है। अगर यह प्रयोग जारी रखते हो तो नींद नहीं आने से कोई हर्ज नहीं होगा।

एक आठ दिन उसने प्रयोग बंद किया है कि उसे नींद आनी शुरू हो गई, कोई दवा की जरूरत न रही।

अधिक कार्बन से अधिक मूर्च्छा:

तो हमारे भीतर सोने की संभावना बढ़ती है कार्बन के बढ़ने से। इसलिए जिन—जिन चीजों से हमारे भीतर कार्बन बढ़ती है, वे सभी चीजें हमारे भीतर सोई हुई शक्तियों को और सुलाती हैं। उतनी हमारी मूर्च्छा बढ़ती चली जाती है।

जैसे दुनिया में जितनी संख्या आदमी की बढ़ रही है उतनी मूर्च्छा का तत्व ज्यादा होता चला जाएगा; क्योंकि जमीन पर आक्सीजन कम और आदमी ज्यादा होते चले जाएंगे। कल एक ऐसी हालत हो सकती है कि हमारे भीतर जागने की क्षमता कम से कम रह जाए। इसलिए तुम सुबह ताजा अनुभव करते हो; एक जंगल में जाते हो, ताजा अनुभव करते हो, समुद्र के तट पर तुम ताजा अनुभव करते हो। बाजार की भीड़ में सुस्ती छा जाती है, सब तमस हो जाता है; वहां बहुत कार्बन है।

प्रश्न: क्या नया आक्सीजन नहीं बनता है?

निरंतर बन रहा है। लेकिन हमारी भीड़, हमारी भीड़ में रहने की आदतें, वे सारी आक्सीजन को पीए चली जाती हैं। तो इसलिए जहां भी आक्सीजन ज्यादा है वहां तुम प्रफुल्ल अनुभव करोगे—वह चाहे बगीचा हो, चाहे नदी का किनारा हो, चाहे पहाड़ हो—जहां भी आक्सीजन ज्यादा है, वहां तुम एकदम प्रफुल्लित हो जाओगे, स्वस्थ हो जाओगे। जहां भीड़ है, भड़क्का है, सिनेमागृह हैं—चाहे मंदिर हो— वहां तुम एकदम से सुस्त हो जाओगे; वहां मूर्च्छा पकड़ेगी।

तीव्र परिवर्तन से देखना सुगम:

तो तुम्हारे भीतर आक्सीजन को बढाने का प्रयोजन है। उससे तुम्हारे भीतर का संतुलन बदलता है—तुम सोने की तरफ उन्मुख न रहकर जागने की तरफ उन्मुख होते हो। और अगर यह मात्रा तेजी से और एकदम बढ़ाई जा सके, तो तुम्हारे भीतर संतुलन में एकदम से इतना फर्क होता है जैसे तराजू का एक पल्ला जो नीचे लगा था, एकदम ऊपर चला गया; ऊपर का तराजू का पल्ला बिलकुल नीचे आ गया। अगर झटके के साथ तुम्हारे भीतर का संतुलन बदला जा सके, तो उसका तुम्हें अनुभव भी जल्दी होगा। अगर पल्ला बहुत धीरे— धीरे— धीरे— धीरे आए, तुम्हें पता नहीं चलेगा कि कब बदलाहट हो गई। इसलिए मैं तीव्र श्वास के प्रयोग के लिए कह रहा हूं—कि इतने जोर से परिवर्तन करो कि दस मिनट में तुम एक स्थिति से ठीक दूसरी स्थिति में प्रवेश कर जाओ, और तुम साफ देख सको। क्योंकि जितने जल्दी चीज बदलती है, तभी देखी जा सकती है।

जैसे कि हम सब जवान से के होते हैं, बच्चे से जवान होते हैं, लेकिन हम कभी पता नहीं लगा पाते कि कब हम बच्चे थे और कब जवान हो गए; और कब हम जवान थे और कब हम बूढ़े हो गए। अगर कोई तारीख हमसे पूछे कि किस तारीख को आप जवानी से के हुए हैं, तो हम तारीख न बता सकेंगे। बल्कि बड़ी भ्रांति चलती रहती है : का मन में समझ ही नहीं पाता कि बूढ़ा हो गया; क्योंकि उसकी जवानी और उसके बुढ़ापे के बीच कोई गैप नहीं है, कोई तीव्रता नहीं है।

बच्चा कभी नहीं समझ पाता कि अब वह जवान हो गया, वह अपने बचपन के ही ढंग अख्तियार किए चला जाता है। दूसरों को वह जवान दिखने लगता है, उसको पता नहीं चला कि वह जवान हो गया है। मां—बाप समझते हैं जिम्मेवार होना चाहिए, यह होना चाहिए, वह होना चाहिए। वह अपने को बच्चा समझे जा रहा है! क्योंकि कभी ऐसी तीव्रता से कोई घटना नहीं घटी जिसमें उसको पता चले कि अब वह बच्चा नहीं रहा, अब जवान हो गया है।

का आदमी जवान की तरह व्यवहार किए चला जाता है। उसे पता नहीं चल पा रहा है कि वह का हो गया। पता कैसे चले? क्योंकि पता चलने के लिए तीव्र संक्रमण चाहिए।

अगर ऐसा हो कि एक आदमी फलां तारीख को घंटे भर में जवान से बूढ़ा हो जाए, तो किसी को कहने की जरूरत न होगी कि तुम बूढ़े हो गए हो। एक बच्चा एक घंटे में फलां तारीख को बीस साल का पूरा हो और एकदम जवान हो जाए, तो किसी को, बाप को कहना न पड़ेगा कि अब तुम्हारी उम्र बड़ी हो गई है, अब जरा यह बचपना छोड़ो। यह किसी को कहने की जरूरत नहीं, वह खुद ही जान लेगा कि बात घट गई है; अब मैं दूसरा आदमी हूं।

तो मैं इतना ही तीव्र संक्रमण चाहता हूं कि तुम पहचान सको इन दो स्थितियों का फर्क कि तुम्हारा सोया हुआ चित्त, तुम्हारा सोया हुआ व्यक्तित्व, वह तुम्हारी स्लीपिंग कांशसनेस; और यह तुम्हारी अवेकंड, जागी हुई, प्रबुद्ध चेतना। यह इतनी तीव्रता से, झटके से होना चाहिए—जंप की तरह, छलांग की तरह—कि तुम पहचान पाओ कि फर्क हो गया। यह पहचान काम पड़ेगी। यह पहचान बहुत कीमत की है।

इसलिए मैं ऐसे प्रयोगों का पक्षपाती हूं जो तुम्हें तीव्रता से रूपांतरित करते हों। अगर बहुत वक्त ले लें, तो तुम कभी समझ न पाओगे कि क्या हो रहा है। और खतरा क्या है कि अगर तुम समझ न पाओ, तो हो सकता है थोड़ा—बहुत रूपांतरण भी हो जाए, लेकिन उससे तुम्हारी समझ गहरी न हो पाए। कई बार ऐसा हो जाता है; कई मौकों पर ऐसा होता है कि एक आदमी बहुत बार ऐसा होता है कि आत्मिक अनुभव के बहुत निकट पहुंच जाता है अनायास, चलते—चलते कहीं से, लेकिन झटके से नहीं, तीव्रता से नहीं, तो वह पकड़ नहीं पाता कि क्या हुआ। और उसकी वह जो व्याख्या करता है वह कभी भी ठीक नहीं होती; क्योंकि उसकी व्याख्या के लिए उतना फासला नहीं होता। बहुत मौकों पर ऐसी घटना घटती है जब कि तुम करीब होते हो एक नये अनुभव के, लेकिन तुम उसको टाल जाओगे; तुम उसकी व्याख्या अपने पुराने हिसाब में ही कर लोगे, क्योंकि वह इतने धीरे— धीरे हुआ है कि उसका कभी पता नहीं चलेगा।

एक आदमी को मैं जानता हूं कि वह भैंस को उठा लेता है। उसके घर भैंसें हैं। और वह बचपन से, जब भैंस उसके घर में पैदा हुई होगी तब से उसे उठाता रहा है रोज; उसे उठाकर घूमता रहा है। भैंस रोज धीरे— धीरे बड़ी होती गई है और रोज उसका भी उठाने का बल थोड़ा— थोड़ा बढ़ता चला गया। अब वह पूरी भैंस को उठा लेता है। अब वह चमत्कार मालूम होता है। हालांकि उसको भी नहीं लगता कि यह कोई चमत्कार है। दूसरों को लगता है कि बड़ा मुश्किल का मामला है, भैंस को उठा ले एक आदमी! मगर वह इतना क्रमिक हुआ है कि उसे भी पता नहीं है। और हमें यह चमत्कार दिखता है, क्योंकि हमारे लिए बड़ा फासला मालूम हो रहा है दोनों में, उसमें कहीं तालमेल नहीं दिखता है—हम उठा नहीं सकते, वह उठा रहा है!

कुंडलिनी का ईंधन है प्राण—ऊर्जा:

तो तीव्रता का प्रयोग इसलिए कहता हूं। और प्राणवायु का तो बहुत मूल्य है। उसका तो बहुत मूल्य है। असल में, जितनी मात्रा में तुम अपने शरीर को प्राणवायु से, आक्सीजन से भर लोगे, उतनी ही त्वरा से, स्पीड से तुम शरीर के अनुभव से आत्म— अनुभव की तरफ झुक जाओगे। क्योंकि अगर बहुत ठीक से समझो तो शरीर तुम्हारा डेड एंड हैं—यानी तुम्हारा वह हिस्सा, जो मर चुका है। इसलिए वह दिखाई पड़ रहा है। तुम्हारा वह हिस्सा जो सख्त हो चुका है। इसलिए दिखाई पड रहा है। तुम्हारा वह हिस्सा जो अब तरल नहीं है, ठोस हो गया है। और आत्मा तुम्हारा वह हिस्सा है जो तरल है, ठोस नहीं है; हवाई है, पकड़ में नहीं आता है।

तो जितनी ज्यादा तुम्हारे भीतर ऊर्जा होगी प्राण की, और जागरण और जीवन होगा, उतना ही तुम इन दोनों के बीच साफ फासला कर पाओगे। ये दो बहुत भिन्नतम तुम्हें मालूम पड़ेंगे, तुम्हारे ही—एक हिस्सा यह, एक हिस्सा वह— बिलकुल अलग मालूम पड़ेंगे। इसलिए बहुत गहरा उपयोग है।

प्रश्न: कुंडलिनी जागरण के लिए?

हां, कुंडलिनी जागरण के लिए। इसलिए कि कुंडलिनी जो है, वह तुम्हारी सोई हुई शक्ति है। उसको तुम कार्बन के साथ न जगा सकोगे; कार्बन उसे और सुला देगी। उसको जगाने के लिए आक्सीजन बहुत सहयोगी है। इसलिए जिस तरह से भी हो सके. .इसलिए सुबह का ध्यान निरंतर समझा गया है कि सुबह का ध्यान उपयोगी है। उसका कोई और ज्यादा मूल्य नहीं है। उसका मूल्य इतना ही है कि सुबह तुम थोड़ी भी श्वास लो तो भी ज्यादा आक्सीजन तुम्हारे भीतर पहुंच जाती है। तो उधर सूर्य उगने के साथ घंटे भर पृथ्वी बहुत ही अनोखी स्थिति में होती है। तो उस स्थिति का उपयोग करने के लिए सुबह सारी दुनिया में ध्यान का वक्त चुन लिया गया। तुम्हारे भीतर जो सोई हुई शक्ति है उस पर जितने जोर से प्राणवायु की चोट होगी, उतनी ही शीघ्रता से

हमें दिखाई नहीं पड़ता न! एक दीया जल रहा है, तो हमें तो तेल दिखाई पड़ता है, बाती दिखाई पड़ती है, माचिस से आग लगाई, वह दिखाई पड़ती है; लेकिन जो जल रही है आक्सीजन, वह भर नहीं दिखाई पड़ती। न तेल मूल्य का है उतना, न बाती उतने मूल्य की है, न माचिस उतने मूल्य की है। लेकिन यह दृश्य हिस्सा है; यह शरीर है उसका; यह दिखाई पड़ता है। और आक्सीजन जो जल रही है, वह दिखाई नहीं पड़ती।

मैंने सुना है कि एक घर में बच्चे को छोड़ गए हैं, और भगवान का मंदिर है उस घर में, और दीया जलाकर रख गए हैं, और जोर की तूफान की हवा आई है, तो उस बच्चे ने सोचा बाप कह गया है, दीया बुझ न जाए। उसे चौबीस घंटे घर में वे जलाते हैं। अब जोर की हवा है, बच्चा क्या करे? तो उसने लाकर एक कांच का बड़ा बर्तन उस दीये पर ढांक दिया। जोर की हवा से तो सुरक्षा हो गई, लेकिन थोड़ी देर में दीया बुझ गया। अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। शायद उतनी तेज हवा को भी दीया झेल जाता, लेकिन हवा के न होने को कैसे झेलेगा? वह मर ही गया। पर वह दिखाई नहीं पड़ता न!

हमारे भीतर भी जिसको हम जीवन कह रहे हैं, वह आक्सीडाइजेशन ही है—उसी तरह, जैसे दीये के। असल में, अगर जीवन को हम वैज्ञानिक अर्थों में लें, तो वह प्राणवायु के जलने का नाम है। चाहे वह वृक्ष में हो, चाहे आदमी में, चाहे दीये में, चाहे सूरज में—कहीं भी हो— जहां भी प्राणवायु जल रही है, वहां जीवन है। तो जितना तुम प्राणवायु को जला सको, उतनी तुम्हारी जीवन की ज्योति प्रगाढ़ हो जाएगी। और तुम्हारी जीवन की ज्योति ही है कुंडलिनी। वह उतनी ही प्रगाढ़ होकर बहने लगेगी, उतनी ही तीव्र हो जाएगी। तो उस पर प्राणवायु का तीव्र आघात परिणामकारी है।

गुफा में साधना करने के सूक्ष्म कारण:

प्रश्न : ओशो समाधि के प्रयोग के लिए गुफाओं का उपयोग किया जाता था। वहां तो प्राणवायु कम रहती है।

सल में, बहुत सी बातों का आधार है समाधि में—बहुत सी बातों का। और जो लोग भी गुफाओं का प्रयोग करते हैं समाधि के लिए, उसमें अगर और बातें नहीं हैं, तो समाधि में न जाकर वे मूर्च्छा में चले जाएंगे। और जिसे वे समाधि समझेंगे, वह केवल प्रगाढ़ तंद्रा होगी और मूर्च्छा की अवस्था होगी।

गुफा का उपयोग सिर्फ वही कर सकता है, जिसने बहुत प्राणायाम के द्वारा अपने को आक्सीडाइज किया हुआ है कि गुफा उसके लिए बेमानी है। इसलिए एक आदमी अगर बहुत गहरा प्राणायाम किया है, और उसके खून का कण—कण, रोआं—रोआं, रेशा—रेशा आक्सीडाइज हो गया है, तो वह आठ दिन जमीन के नीचे भी दब जाए तो मर नहीं जाएगा। और कोई कारण नहीं है। उसके शरीर को जितनी आक्सीजन की जरूरत है, उसके पास उतना अतिरिक्त संचय है। हमारे पास कोई अतिरिक्त संचय नहीं है। तो अगर तुम बिना प्राणायाम को समझे और उस आदमी की बगल में सो गए, तो तुम मरे हुए निकलोगे, वह आदमी आठ दिन के बाद जिंदा निकल आएगा। असल में, आठ दिन के लिए जो न्यूनतम, मिनिमम आक्सीजन की जरूरत है, उतना उसके पास संचय है, उतना वह पी गया है।

तो गुफा में जा सकता है एक आदमी, और तब गुफा में उसको फायदे हो जाएंगे। आक्सीजन को तो इस तरह पूरा कर लेगा, उसका उसे डर नहीं है ज्यादा। और गुफा जो सुरक्षा देती है और बहुत सी चीजों से, वह उसके लिए गुफा का उपयोग कर रहा है। गुफा बहुत तरह की सुरक्षा देती है। बाहर के शोरगुल से ही नहीं, बाहर की बहुत सी तरंगों से, बाहर की बहुत सी वेब्स से। और पत्थर की, और खास तरह के पत्थर की गुफा के खास अर्थ हैं।

कुछ पत्थर, कुछ विशेष पत्थर, जैसे संगमरमर, कुछ तरंगों को भीतर प्रविष्ट नहीं होने देता। इसलिए संगमरमर का मंदिरों में विशेष प्रयोग किया गया। कुछ तरंगें उस मंदिर के भीतर प्रवेश नहीं कर सकतीं उस पत्थर की वजह से। वह कारीगरी का उतना नहीं है मामला, उसके पीछे बहुत गहरे अनुभव हैं कि कुछ पत्थर किसी खास तरह की तरंगों को पी जाते हैं, भीतर नहीं जाने देते हैं। कुछ पत्थरों पर से कुछ खास तरह की तरंगें वापस लौट जाती हैं; कुछ पत्थर कुछ खास तरह की तरंगों को आकर्षित करते हैं। तो विशेष तरह की गुफाएं विशेष आकार में काटी गईं; क्योंकि आकार का भी बड़ा मूल्य है। और वह आकार भी विशेष तरंगों को हटाने में सहयोगी होता है।

पर हमें खयाल में नहीं होता है। जब एक साइंस खो जाती है तो बड़ी मुश्किल हो जाती है।

हम एक कार बनाते हैं। कार को हम एक खास आकार में बनाते हैं। अगर खास आकार में न बनाएं तो उसकी गति कम हो जाएगी। कार का आकार ऐसा होना चाहिए कि वह हवा को चीर सके, हवा से लड़ने न लगे। अगर आकार उसका चपटा हो सामने से और हवा से लड़ने लगे तो वह गति को तोड़ेगा। अगर हवा को चीर सके— लड़े न, सिर्फ तीर की तरह चीरे, तो वह हवा के रेसिस्टेंस से जो उसकी गति को बाधा पड़ती है, वह तो पड़ेगी नहीं, बल्कि चीरने की वजह से पीछे जो वैक्यूम पैदा होगा, वह भी उसकी गति को बढ़ाने में सहयोगी हो जाएगा।

तुम इलाहाबाद का ब्रिज अगर कभी देखोगे, तो इलाहाबाद का ब्रिज बहुत मुश्किल से बना। क्योंकि वह गंगा उसके पिलर्स को खड़ा न होने दे; वे पिलर्स गिरते ही चले गए। और एक पिलर तो बनाना असंभव ही हो गया! सारे पिलर्स बन गए, लेकिन एक पिलर नहीं बना। तो तुम वहां देखोगे कि एक जूते के आकार का पिलर है। लेकिन जिसने बनाया, उसे बड़ी मुश्किल हुई। उसने जूते के आकार का पिलर बनाया। तो वह गंगा का जो धक्का है, पी जाता है। जूते का आकार भी तुम्हें चलने में सहयोगी है; वह हवा को काटता है, रोकता नहीं। तो उस खयाल से जूते के आकार का पिलर है। वह गंगा का जो धक्का था जो दुश्मनी का, वह उसको एज्जार्ब कर गया।

गुफाओं के विशेष आकार, आयतन व पत्थरों का रहस्य:

तो गुफाओं के विशेष आकार हैं, विशेष आयतन हैं। तो विशेष आकार, विशेष पत्थर और विशेष आयतन। एक व्यक्ति एक खास सीमा तक अपने व्यक्तित्व को आरोपित कर सकता है। और वे अनुभव में आ जाते हैं; उसके सारे रास्ते हैं कि वे खयाल में आ जाते हैं; कि अगर मैं आठ फीट चौड़े और आठ फीट लंबे चौकोर कमरे को अपने से आपूरित कर सकता हूं यानी मैं तो एक ही जगह बैठा रहूंगा लेकिन मेरे व्यक्तित्व से निकलनेवाली सारी किरणें इतने हिस्से को घेरा बांधकर भर सकती हैं, तो यह जगह बड़ी सुरक्षित हो जाती है। इसलिए इसमें कम से कम रंध्र होने चाहिए, कम से कम द्वार—प्ल ही द्वार होगा। और इसके अपने आकार होंगे, और उन आकारों की अपनी विशेषता होगी। तो बाहर के संवेदनों को भीतर न आने देंगे, और भीतर जो पैदा हो रहा है उसको बाहर न जाने देंगे। फिर अगर एक ही गुफा पर बहुत साधकों ने प्रयोग किया हो तब तो अदभुत फायदा होता है; उसका मूल्य ही बहुत बढ़ जाता है। वह विशेष तरह की सारी की सारी तरंगें वह गुफा पी जाती है और नये साधक के लिए सहयोगी हो जाती है। इसलिए हजारों—हजार साल तक एक—एक गुफा का प्रयोग चला है।

अब अजंता जब पहली दफा खोजा गया, तो वे सब मिट्टी से बंद कर दी गई थीं गुफाएं। उसके मिट्टी से बंद करने के लिए कारण था। खयाल में नहीं है कि क्यों बंद कर दी गईं। पर सब गुफाएं मिट्टी में ढंकी हुई मिलीं। सब मिट्टी से बंद थीं पूरी की पूरी। सैकड़ों साल तक उनका कोई पता नहीं रहा था, वह पहाड़ ही रह गया था, क्योंकि मिट्टी भर दी गई थी और उस मिट्टी पर वृक्ष पैदा हो गए थे। और वे इसलिए भर दी गई थीं कि जब साधक उपलब्ध नहीं हो सके, तो उन गुफाओं में जो विशेषता थी, उसको बचाने के लिए और कोई रास्ता नहीं रहा, तो उसे बंद कर दिया गया। कभी भी कोई साधक खोजेगा तो फिर काम में लाई जा सकती हैं। लेकिन वे विजिटर्स के लिए नहीं थीं; वे दर्शकों के लिए नहीं हैं। दर्शकों ने सब नष्ट कर दिया, अब वहां कुछ भी नहीं है, दर्शकों ने सब नष्ट कर दिया।

तो इन गुफाओं में आक्सीजन का तो फायदा नहीं मिलेगा तुम्हें। फायदे दूसरे हैं। लेकिन साधना तो बहुत जटिल मामला है। उसके बहुत हिस्से हैं। पर उनके लिए गुफा फायदे की हो सकती है, जिन्होंने काफी प्रयोग किया है।

फिर जो गुफा में बैठता था, वह गुफा में ही नहीं बैठा रहता था। समय—समय पर गुफा में था, समय—समय गुफा के बाहर था। जो बाहर करने योग्य था वह बाहर कर रहा था, जो भीतर करने योग्य था वह भीतर कर रहा था।

मंदिर हैं, मस्जिद हैं, वे कभी इसी अर्थ में खोजे गए थे कि वहां एक विशेष तरह की तरंगों और कंपनों का संग्रह है; और उन तरंगों और कंपनों का उपयोग किया जा सकता है। कहीं अचानक किसी स्थान पर तुम पाओगे कि तुम्हारे विचार एकदम से बदल गए। हालांकि तुम पहचान न पाओगे; तुम यही समझोगे कि अपने भीतर ही कोई फर्क हो गया। तुम अचानक किसी आदमी के पास जाकर पाओगे कि तुम दूसरे आदमी हो गए हो थोड़ी देर के लिए; तुम्हारा कोई दूसरा पहलू ही ऊपर आ गया। तुम यही समझोगे कि अपने भीतर ही कुछ हो गया है, मूड की बात है। ऐसा नहीं है; इतना आसान नहीं है।

महापुरुषों के मृत शरीर भी मूल्यवान:

और उसके लिए बड़ी अदभुत……. अब जैसे कि पिरामिड्स हैं। अब कितनी खोजबीन चलती है! उससे कोई संबंध नहीं है। अभी खोजबीन चलती है कि पिरामिड्स किसलिए बनाए गए? क्या है? इतने—इतने बड़े पिरामिड्स उस रेगिस्तान में बनाने का क्या प्रयोजन है? कितना श्रम व्यय हुआ है! कितनी शक्ति लगी है! और सिर्फ आदमियों की लाशें गड़ाने के लिए इतनी बड़ी कब्रें बनाना बिलकुल बेकार है।

वे सब के सब साधना के लिए विशेष अर्थ में बनाए गए स्थान हैं। और साधना के उपयोग के लिए ही विशेष लोगों की लाशें भी वहां रखी गईं।

अभी तिब्बत में हजार—हजार, दो—दो हजार साल पुराने साधकों की ममीज़ हैं, जिनको बहुत गहरे में सुरक्षित रखा हुआ है। जो शरीर बुद्ध के पास रहा हो, वह शरीर साधारण नहीं रह जाता। जिस शरीर के साथ अस्सी साल तक बुद्ध जैसी आत्मा संबंधित रही हो, वह शरीर भी साधारण नहीं रह जाता; वह काया भी कुछ ऐसी चीजें पी जाती है और ऐसी तरंगें पकड़ लेती है जो कि अनूठी हैं—जिनका कि अब दोबारा शायद जगत में वैसा होगा कि नहीं होगा, कहना कठिन हो जाता है।

जीसस के मरने के बाद उनकी लाश को एक गुफा में रख दिया गया था कि सुबह दफना दिया जाएगा। लेकिन वह लाश फिर मिली नहीं। और यह बड़ी मिस्ट्री है ईसाई के लिए कि वह क्या हुआ? वह कहां गई? फिर कहानी है कि वे कहीं देखे गए, दिखाई पड़े। तो रिसरेक्यान हुआ; वे पुनरुज्जीवित हो गए। लेकिन फिर कब मरे? पुनरुज्जीवित होकर फिर उनका जीवन क्या है? ईसाइयों के पास उनकी कोई कथा नहीं है। असल में, जीसस की लाश इतनी कीमती है कि उसे तत्काल उन जगहों में पहुंचा दिया गया जहां वह सुरक्षित की जा सके बहुत लंबे समय के लिए। और इसकी कोई खबर सामान्य नहीं बनाई जा सकती थी। क्योंकि इस लाश को बचाना बहुत जरूरी था। ऐसा आदमी मुश्किल से कभी होता है।

तो जो ममीज़ हैं पिरामिड्स में, और ये जो पिरामिड्स हैं, इनका जो आकार है, इनके जो कोण हैं…

प्रश्न. वह लाश कौन ले गया?

ह अलग बात करनी पड़े। वह तो अलग बात है न! जब जीसस पर पूरी बात कभी करेंगे, तब पूरी बात होगी तो खयाल में आएगा।

गहरे ध्यान में कम श्वास की जरूरत

प्रश्न: ओशो जब हमारा गहरे ध्यान में प्रवेश होता है तब शरीर क्रमश: जड़ होता जाता है और श्वास बिलकुल क्षीण होने लगती है मिटने लगती है श्वास के इस धीमे होने के कारण शरीर में आक्सीजन तो घटता है। तो आक्सीजन की इस कमी का और शरीर के जड़ होने का ध्यान व समाधि से क्या संबंध है?

हां, हां। असल में… असल में, जब श्वास पूरी तीव्रता से जग जाएगी, और तुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच एक गैप पैदा हो जाएगा उसकी तीव्रता के कारण, तुम्हारा सोया हिस्सा और तुम्हारा जागा हिस्सा भिन्न मालूम होने लगेगा, तो जैसे ही तुम इस जागे हुए हिस्से की तरफ यात्रा शुरू करोगे, शरीर को फिर आक्सीजन की कोई जरूरत नहीं है—शरीर को। अब तो उचित है कि बिलकुल सो जाए वह, अब तो उचित है कि वह बिलकुल जड़ हो जाए, मुर्दे की तरह पड़ा रह जाए। क्योंकि तुम्हारी जीवन— ऊर्जा अब शरीर की तरफ नहीं बह रही है, अब तुम्हारी जीवन—ऊर्जा तो आत्मा की तरफ बहनी शुरू हो गई है।

आक्सीजन की जो जरूरत है वह है शरीर की; वह जरूरत आत्मा की नहीं है। समझ रहे हो न तुम? वह है जरूरत शरीर की। इसलिए जब तुम्हारी आत्मा की तरफ तुम्हारी जीवन—ऊर्जा बहने लगी, तो अब शरीर के लिए बहुत मिनिमम आक्सीजन की जरूरत है, जितने से कि वह सिर्फ जीवित रह पाए बस। इससे ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है। इससे ज्यादा अगर उसको मिलेगी, तो वह बाधा बनेगा। इसलिए क्षीण होती जाएगी श्वास पीछे तुम्हारी। उसका जगाने के लिए उपयोग है कि तुम्हारे भीतर कोई चीज जग गई; जब वह जग गई, तब उसका कोई उपयोग नहीं है। अब तुम्हारे शरीर को बहुत कम से कम श्वास की जरूरत है। कुछ क्षण तो ऐसे आ जाएंगे जब श्वास बिलकुल बंद हो जाएगी। होगी ही नहीं।

समाधि में श्वास का खो जाना:

असल में, जब तुम ठीक संतुलन पर पहुंचोगे, बैलेंस पर पहुंचोगे—जिसको हम समाधि कहें, उस पर पहुचोगे—तो श्वास बंद हो जाएगी। लेकिन हमें श्वास बंद होने का कोई खयाल नहीं है कि उसका मतलब क्या होता है? अगर अभी हम अनुभव भी करें तो हम बंद करेंगे। वह अनुभव वह नहीं है। श्वास चल रही है, हमने रोक ली, यह एक बात है। श्वास बाहर जा रही है, श्वास भीतर आ रही है, ये दो अनुभव हमारे हैं—बाहर जाना, भीतर आना; बाहर जाना, भीतर आना। लेकिन एक बिंदु ऐसा आता है कि श्वास आधी बाहर है और आधी भीतर है और सब ठहर गया है।

तो कुछ क्षण ऐसे आएंगे ध्यान में जब कि तुम्हें लगेगा कि श्वास ठहर तो नहीं गई! कहीं बंद तो नहीं हो गई! कहीं मर तो नहीं जाऊंगा! बिलकुल ऐसे क्षण आएंगे। जितना तुम गहरे जाओगे, उतना इधर श्वास के कंपन कम होते चले जाएंगे; क्योंकि उस गहराई पर तुम्हें आक्सीजन की कोई जरूरत नहीं है, उसकी जरूरत थी बिलकुल पहली चोट पर।

यह ऐसा ही है, जैसे कि मैंने चाबी लगाई ताले में। लेकिन ताला खुल गया; अब मैं चाबी लगाए ही थोड़ा चला जाऊंगा। चाबी बेकार हो गई; वह ताले में अटकी रह गई, मैं भीतर चला गया। तुम कहोगे कि आपने पहले चाबी लगाई थी, अब आप भीतर चाबी क्यों नहीं लगा रहे हैं? वह चाबी लगाई ही इसलिए थी कि वह द्वार पर ही उसकी जरूरत थी।

जब तक तुम्हारे भीतर जगी नहीं है कुंडलिनी, तब तक तो तुम्हें श्वास की चाबी का जोर से प्रयोग करना पड़ेगा। लेकिन जैसे ही वह जग गई, यह बात बेकार हो गई, अब तुम भीतर की यात्रा पर चल पड़े हो। और अब तुम्हारा शरीर बहुत कम श्वास मांगेगा। यह तुम्हें बंद नहीं करनी है, यह अपने से होने लगेगी धीमी, धीमी, धीमी, धीमी… और ऐसे क्षण आएंगे बीच—बीच में, झलक आएगी ऐसी कि जैसे सब बंद हो गया, सब ठहर गया।

समाधि जीवन का नहीं, अस्तित्व का अनुभव:

असल में, वह जो क्षण है जब श्वास बिलकुल ठहरी हुई है—न बाहर जाती; न भीतर जाती—वह परम संतुलन के जो क्षण हैं, वही समाधि का क्षण है। उस क्षण में तुम अस्तित्व को जानोगे, जीवन को नहीं। इस फर्क को ठीक से समझ लेना! लाइफ को नहीं, एब्सिस्टेंस को। जीवन की जानकारी तो श्वास से ही बंधी है; जीवन तो आक्सीडाइजेशन ही है; वह तो श्वास का ही हिस्सा है। लेकिन उस क्षण तुम उस अस्तित्व को जानोगे जहां श्वास भी अनावश्यक है, जहां सिर्फ होना है; जहां पत्थर हैं, पहाड़ हैं, चांद हैं, तारे हैं—जहां सब ठहरा हुआ है, जहां कोई कंपन भी नहीं है। उस क्षण तुम्हारे श्वास का कंपन भी रुक जाएगा। वहां श्वास का भी प्रवेश नहीं है, क्योंकि वहां जीवन का भी प्रवेश नहीं है। वह जो है—बियांड! जीवन के भी पार!

और ध्यान रहे, जो चीज मृत्यु के पार है वह जीवन के भी पार होगी।

इसलिए परमात्मा को हम जीवित नहीं कह सकते; क्योंकि जिसके मरने की कोई संभावना नहीं है उसे जीवित कहना फिजूल है; कोई अर्थ नहीं है। परमात्मा का कोई जीवन नहीं है, अस्तित्व है। हमारा जीवन है, अस्तित्व के बाहर जब हम आते हैं तो हमारा जीवन है; जब हम अस्तित्व में वापस लौटते हैं तो हमारी मौत है। जैसे एक लहर उठी सागर में, यह इसका जीवन है— लहर का। इसके पहले लहर तो नहीं थी, सागर था। उसमें कोई कंपन न था, उसमें लहर थी नहीं। लहर उठी, यह जीवन शुरू हुआ; फिर लहर गिरी, यह लहर की मौत हुई। उठना लहर का जीवन है; गिरना मर जाना है। लेकिन सागर का जो अस्तित्व है, लहरहीन; जब लहर नहीं उठी थी जो तब भी था, और जब लहर गिर जाएगी तब भी होगा, उस अस्तित्व का, उस ट्रैकिलिटी का जो अनुभव है वह समाधि है।

तो समाधि जीवन का अनुभव नहीं है, अस्तित्व का अनुभव है; एक्सिस्टेंशियल है वह। वहां श्वास की कोई जरूरत नहीं है। वहां श्वास का कोई अर्थ नहीं है। वहां नहीं श्वास का कोई सवाल नहीं है, श्वास का कोई सवाल नहीं है। वहां कभी—कभी सब ठहर जाएगा।

समाधिस्थ व्यक्ति के वापस लौटने की समस्या:

इसलिए जब गहरी साधक की स्थिति हो, तो अनेक बार उसे जीवित रखने के लिए और लोगों की जरूरत पड़ती है, अन्यथा वह खो जा सकता है। अन्यथा वह खो जा सकता है; वह अस्तित्व से वापस ही न लौटे।

रामकृष्ण बहुत बार ऐसी हालत में पहुंच जाते। तो छह—छह दिन लग जाते, वे नहीं लौटने की हालत में हो जाते। रामकृष्‍ण को इतना सम्मान है, लेकिन जिस आदमी ने रामकृष्ण को दुनिया को दिया, उसका हमें पता भी नहीं है। उनका एक भतीजा उनके पास था। उसने उनको बचाया निरंतर। वह रात—रात भर जागता, जबरदस्ती मुंह में पानी डालता, जबरदस्ती दूध पिलाता; श्वास घुटने लगती तो वह मालिश करता। वह उनको वापस लाता रहा। रामकृष्ण को, विवेकानंद ने तो उनकी चर्चा की दुनिया से, लेकिन जिस आदमी ने बचाया, उसका तो हमें पता भी नहीं चलता। उस आदमी ने सारी मेहनत की। वर्षों की मेहनत थी उसकी। और रामकृष्ण तो कभी भी जा सकते थे, क्योंकि वह इतना आनंदपूर्ण है कि लौटना कहां?

तो अस्तित्व के उस क्षण में खोना संभव है बिलकुल। वह बहुत बारीक रेखा है जहां से तुम उस पार चले जा सकते हो। तो उसके बचाने के लिए स्कूल पैदा हुए, उसको बचाने के लिए आश्रम पैदा हुए। इसलिए जिन संन्यासियों ने आश्रम नहीं बनाए, वे संन्यासी समाधि में बहुत गहरे नहीं जा सके। जिनका संन्यास परिव्राजक का है, सिर्फ घूमते रहने का, वे ज्यादा गहरे नहीं जा सके, क्योंकि उस गहरे जाने के लिए ग्रुप चाहिए, स्कूल चाहिए; उस गहरे जाने के लिए और बचाव के लिए और लोग भी चाहिए जो जानते हों, नहीं तो आदमी कभी भी खो जा सकता है।

तो उन्होंने छोटी सी व्यवस्था कर ली कि भई, कहीं ज्यादा देर रुकेंगे तो मोह हो जाएगा। लेकिन जिसको ज्यादा देर रुकने से मोह पैदा हो जाता है, उसको कम देर से भी होता होगा— थोड़ा कम होता होगा, और क्या फर्क पड़ेगा! तीन महीने से ज्यादा होता होगा, तीन दिन में जरा कम होता होगा। मात्रा का ही फर्क पड़ेगा, और तो कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है।

तो जिन—जिन लोगों के संन्यासी सिर्फ घूम रहे हैं, उनमें योग खो जाएगा, उनमें समाधि खो जाएगी, उनमें समाधि नहीं बच सकती, क्योंकि समाधि के लिए ग्रुप चाहिए। व्यक्ति तो समाधि में जा सकता है, लेकिन उसका लौटना बहुत मामला और है। तो ध्यान तक तो व्यक्ति को कोई कठिनाई नहीं है, समाधि के क्षणों के बाद बहुत सुरक्षा की जरूरत है। और वही क्षण है जब वह बचाया जा सके तो उस लोक की खबरें ला सकता है—जहां उसने पीप किया, जहां उसने झांक लिया जरा सा। उसको अगर हम लौटा सकें तो वहां की थोड़ी खबरें ला सकता है। जितनी खबरें हमें मिली हैं, वे उन थोड़े से लोगों की वजह से मिली हैं जो वहां से थोड़ा सा लौट आए। नहीं तो उस लोक की हमें कोई खबर नहीं मिल सकती। उसके बाबत सोचा तो जा ही नहीं सकता; उसके सोचने का तो कोई उपाय नहीं है। और अक्सर यह है कि वहां जो जाए उसके लौटने की कठिनाई हो जाती है, वह वहां से खो सकता है। वह प्याइंट ऑफ नो रिटर्न है। वह वह जगह है जहां से छलांग हो जाती है और खड्ड मिल जाता है, जहां से रास्ता टूट जाता है और पीछे लौटने के लिए रास्ता नहीं दिखाई पड़ता। उस वक्त बड़े काम की जरूरत है।

इधर मैं निरंतर चाहता हूं कि जिस दिन भी तुम्हें मैं समाधि की तरफ उन्मुख करूं, उस दिन व्यक्ति कीमती नहीं रह जाता उस दिन फौरन स्कूल चाहिए जो तुम्हारी फिकर ले सके— अन्यथा तुम तो गए— और तुम्हें लौटा सके, और तुम्हें जो अनुभव मिला है वह सुरक्षित करवा सके। नहीं तो वह अनुभव खो जाएगा।

सहज समाधिस्थ व्यक्ति की लयबद्ध श्वास:

प्रश्न: ओशो सहज समाधि की अवस्था में जो व्यक्ति जीता है? उसकी श्वास की अवस्था कैसी होती है?

हुत ही रिदमिक हो जाती है, बहुत लयबद्ध हो जाती है, संगीतपूर्ण हो जाती है। और बहुत सी बातें होती हैं। जो आदमी चौबीस घंटे ही सहज समाधि में है, वह जिसका मन डोलता नहीं, इधर—उधर नहीं होता, जैसा है वैसा ही बना रहता है, जो जीता नहीं अस्तित्व में होता है, ऐसा जो आदमी है, उसकी श्वास एक बहुत ही अपने तरह की लयबद्धता ले लेती है। और जब वह कुछ भी नहीं कर रहा है— बोल नहीं रहा है, खाना नहीं खा रहा है, चल नहीं रहा है— तब श्वास उसके लिए बड़ी आनदपूर्ण स्थिति हो जाती है; तब सिर्फ होना, सिर्फ श्वास का चलना इतना रस देता है जितनी और कोई चीज नहीं देती। और बहुत संगीतपूर्ण हो जाती है, बहुत नादपूर्ण हो जाती है।

उस अनुभव को थोड़ा—बहुत श्वास की व्यवस्था से भी अनुभव किया जा सकता है। इसलिए श्वास की व्यवस्थाएं पैदा हुईं कि जैसा सहज समाधिस्थ व्यक्ति की श्वास होती है, जिस रिदम, जिस छंद में चलती है, उसी छंद में दूसरा आदमी भी अपनी श्वास चलाए, तो उसे शांति का अनुभव होगा। इसलिए सब प्राणायाम इत्यादि की अनेक व्यवस्थाएं पैदा हुईं। ये अनेक समाधिस्थ लोगों के पास उनकी श्वास की लयबद्धता को देखकर पैदा की गई हैं। थोड़ा परिणाम होगा, और सहायता मिलेगी। और यह जो श्वास है, सहज समाधिस्थ व्यक्ति की, यह अत्यंत मिनिमम हो जाती है, न्यूनतम हो जाती है। क्योंकि जीवन अब जो है उतना अर्थपूर्ण नहीं रह जाता, जितना अस्तित्व अर्थपूर्ण हो जाता है। यानी इस व्यक्ति के भीतर एक और दिशा खुल गई है जो अस्तित्व की है, जहां श्वास वगैरह की कोई जरूरत नहीं है। वह जीता तो वहीं है, वह रहता तो वहीं है, वह हमसे जब संबंधित होता है तभी वह शरीर का उपयोग कर रहा है, अन्यथा वह शरीर का उपयोग नहीं कर रहा है। और हमसे संबंधित होने के लिए उसे जो—जो करना पड़ता है— वह खाना खा रहा है, कपड़े पहन रहा है, सो रहा है, स्थान कर रहा है, वह हमसे संबंधित होने की व्यवस्था है; अब उसके लिए कोई अर्थ नहीं है। और इस सबके लिए जितनी जीवन—ऊर्जा चाहिए, उतनी उसकी श्वास चल रही है। वह बहुत न्यून हो जाती है।

इसलिए वह बहुत कम आक्सीजन की जगह में भी जी सकता है। बहुत कम आक्सीजन की जगह में जी सकता है।

निर्वात स्थानों में साधकों का रहना:

इसलिए पुराने मंदिरों या पुरानी गुफाओं में द्वार—दरवाजे नहीं हैं। जिसको हम आज की दुनिया में कहें तो बहुत हैरानी की बात है। क्योंकि वे सब के सब हमें बिलकुल ही स्वास्थ्य वितान के विपरीत मालूम पड़ेंगे—सारे पुराने मंदिर। न खिड़की है, न दरवाजा है, न कुछ है। गुफाएं हैं, कुछ उपाय नहीं है, वायु के आने—जाने का कोई खास उपाय नहीं दिखाई पड़ता।

जो उनके भीतर रह रहा था, उसे बहुत उपयोग नहीं था। और वायु को, वह चाहता नहीं था कि वह ज्यादा भीतर आए— जाए। क्योंकि वायु के जो कंपन भीतर आते हैं, वह भीतर के जो और एस्ट्रल कंपन हैं, जो सूक्ष्म कंपन हैं, उनको सबको नष्ट कर डालते हैं, उनके धक्के से उनको जला जाते हैं। इसलिए वह उनकी सुरक्षा कर रहा था। वह आने देने के लिए उत्सुक नहीं था उनको बहुत। लेकिन आज नहीं हो सकता, क्योंकि आज.. .उसके लिए पहले पूरी श्वास की लंबी साधना चाहिए, तब! या समाधिस्थ स्थिति चाहिए, तब।

अनापानसती : कीमती प्रयोग है:

प्रश्न: ओशो बुद्धिस्ट साधना में जो अनापानसती है उसमें श्वास पर ध्यान करने से आक्सीजन की मात्रा पर क्या असर पड़ता है?

बहुत असर पड़ता है। असल में—यह बहुत मजे की बात है और समझने जैसी है—जीवन की जो भी क्रियाएं हैं, इन में किसी पर भी अगर तुम ध्यान ले जाओ, तो उनकी गति बढ़ जाती है। जीवन की जो क्रियाएं हैं वे ध्यान के बाहर चल रही हैं। जैसे तुम्हारी नाड़ी चल रही है। तो जब तुम्हारा डाक्टर तुम्हारी नाड़ी जांचता है, तो वह उतनी ही नहीं होती जितनी जांचने के पहले थी, थोड़ी सी बढ़ जाती है, क्योंकि तुम्हारा ध्यान और डाक्टर—दोनों का ध्यान उस पर चला जाता है। और अगर लेडी डाक्टर जांच रही है तो और ज्यादा बढ़ जाएगी; क्योंकि ध्यान और ज्यादा चला जाएगा। समझ रहे हैं न? उतनी ही नहीं होती, जितनी थी; थोड़ा सा अंतर पड़ जाता है। इसको तुम ऐसा भी प्रयोग करो अपनी नाड़ी ही जांचो पहले; और फिर दस मिनट नाड़ी पर ध्यान रखो कि वह ख्वा चल रही है, और इसके बाद जांचो; तो तुम पाओगे उसके कंपन बढ़ गए।

असल में, शरीर के भीतर जो भी क्रियाएं चल रही हैं, वे हमारे ध्यान के बाहर चल रही हैं। ध्यान के जाते ही उनकी गति बढ़ जाएगी। ध्यान की मौजूदगी उनकी गति को बढ़ाने के लिए कैटेलिटिक एजेंट का काम करती है।

तो अनापानसती जो है, वह जो प्रयोग है, वह बहुत कीमती प्रयोग है। वह श्वास पर ध्यान देने का प्रयोग है। श्वास को घटाना—बढ़ाना नहीं है, श्वास जैसी चल रही है, उसे तुम्हें देखना है। लेकिन तुम्हारे देखते से ही वह बढ़ जाती है। तुमने देखा, तुम आब्जर्वर हुए कि श्वास की गति बढ़ी। वह अनिवार्य है उसका बढ़ना। तो उसके बढ़ जाने से परिणाम होंगे। और उसको देखने के भी परिणाम होंगे। लेकिन अनापानसती का मूल लक्ष्य उसको बढ़ाना नहीं है, उसका मूल लक्ष्य तो उसे देखना है। क्योंकि जब तुम अपनी श्वास को देख पाते हो, धीरे— धीरे— धीरे, निरंतर—निरंतर देखने से श्वास तुमसे अलग होती जाती है। क्योंकि जिस चीज को भी तुम दृश्य बना लेते हो, तुम बहुत गहरे में उससे भिन्न हो जाते हो।

असल में, दृश्य से द्रष्टा एक हो ही नहीं सकता; उससे वह तत्काल भिन्न होने लगता है। जिस चीज को भी तुम दृश्य बना लोगे, उससे तुम भिन्न होने लगोगे। तो श्वास को अगर तुमने दृश्य बना लिया अपना, और चौबीस घंटे, चलते, उठते, बैठते, तुम उसको देखने लगे—जा रही, आ रही; जा रही, आ रही— तो तुम देखते रहे, देखते रहे, तुम्हारा फासला अलग होता जाएगा। एक दिन तुम अचानक पाओगे कि तुम अलग खड़े हो और श्वास वह चल रही है; बहुत दूर तुमसे उसका आना—जाना हो रहा है। तो इससे वह घटना घट जाएगी, तुम्हारे शरीर से पृथक होने का अनुभव उससे हो जाएगा।

इसलिए किसी भी चीज को…… अगर तुम शरीर की गतियों को देखने लगो—रास्ते पर चलते वक्त खयाल रखो कि बायां पैर उठा, दायां पैर उठा। बस तुम अपने दोनों पैर ही देखते रहो एक पंद्रह दिन, तुम अचानक पाओगे कि तुम पैर से अलग हो गए; अब तुम्हें पैर अलग से उठते हुए मालूम पड़ने लगेंगे और तुम बिलकुल देखनेवाले रह जाओगे। तुम्हारे ही पैर तुम्हें बिलकुल ही मैकेनिकल मालूम होने लगेंगे कि उठ रहे हैं, चल रहे हैं, और तुम बिलकुल अलग हो गए।

इसलिए ऐसा आदमी कह सकता है कि चलता हुआ चलता नहीं, बोलता हुआ बोलता नहीं, सोता हुआ सोता नहीं, खाता हुआ खाता नहीं, ऐसा आदमी कह सकता है। उसका दावा गलत नहीं है, मगर उसका दावा समझना बहुत मुश्किल है। अगर वह खाने में साक्षी है तो वह खाते हुए खाता नहीं, ऐसा उसे पता चलता है; अगर वह चलने में साक्षी है तो वह चलते हुए चलता नहीं, क्योंकि वह उसका साक्षी है।

तो अनापानसती का तो उपयोग है, पर दूसरी दिशा से वह यात्रा है।

पूर्ण श्वास से पूर्ण जीवन:

प्रश्न : ओशो तीव्र व गहरी श्वास से क्या आवश्यकता से अधिक आक्सीजन फेफड़े में नहीं चली जाएगी और उससे क्या कोई हानि नहीं होगी?

सल में, कोई भी आदमी ऐसा नहीं है जिसके पूरे फेफड़े में आक्सीजन जाती हो। कोई छह हजार छिद्र अगर हैं फेफड़े में, तो हजार, डेढ़ हजार छिद्रों तक स्वस्थ आदमी की जाती है, जिसको पूर्ण स्वस्थ कहें।

प्रश्न: बाकी में क्या होता है?

बाकी में कार्बन डाइआक्साइड भरी रहती है। वे सब गंदी हवा से भरे रहते हैं। तो इसलिए ऐसा तो आदमी मिलना मुश्किल है जो जरूरत से ज्यादा ले ले। जरूरत में ही लेनेवाला आदमी मिलना मुश्किल है। बहुत बड़ा हिस्सा बेकार पड़ा रहता है। उस तक, पूरे तक आप पहुंचा दें तो बड़े परिणाम होंगे। बड़े अदभुत परिणाम होंगे। आप की कांशसनेस का एक्सपैंशन एकदम से हो जाएगा। क्योंकि जितनी मात्रा में आपके फेफड़े में आक्सीजन पहुंचती है, उतना ही जीवन का आपको विस्तार मालूम पड़ता है, उतनी ही आपके जीवन की सीमा होती है। जैसे—जैसे फेफड़े में ज्यादा पहुंचती है, आपके जीवन का विस्तार बड़ा होता है। तो अगर हम पूरे फेफडे तक आक्सीजन पहुंचा सकें, तो मैक्जमम जिंदगी का हमें अनुभव होगा।

और स्वस्थ और बीमार आदमी में वही फर्क है कि बीमार आदमी और भी कम पहुंचा पाता है, और भी कम पहुंचा पाता है। बहुत बीमार को हमें आक्सीजन ऊपर से देनी पड़ती है, वह पहुंचा ही नहीं पाता। उस पर ही छोड़ देंगे तो वह मर जाएगा। बीमार और स्वस्थ को भी हम अगर चाहें तो आक्सीजन की मात्रा से भी नाप सकते हैं कि उसके भीतर कितनी आक्सीजन जा रही है। इसलिए आप दौड़ेंगे तो स्वस्थ हो जाएंगे, क्योंकि आक्सीजन की मात्रा बढ़ जाएगी; व्यायाम करेंगे तो स्वस्थ हो जाएंगे, क्योंकि आक्सीजन की मात्रा बढ़ जाएगी। आप कुछ भी ऐसा करेंगे जिससे आक्सीजन की मात्रा बढ़ती हो, वह आपके स्वास्थ्य में वर्द्धक हो जाएगी। और आप कुछ भी ऐसा करेंगे जिससे आक्सीजन की मात्रा कम होती है, वह आपकी बीमारी के लाने में सहयोगी हो जाएगी।

लेकिन जितनी आप ले सकते हैं उतनी ही कभी नहीं ले रहे हैं; और जितनी आप पूरी ले सकते हैं उससे ज्यादा लेने का सवाल ही नहीं उठता, आप ले नहीं सकते। आपका पूरा फेफड़ा भर जाए, उससे ज्यादा आप ले नहीं सकते। उतनी भी नहीं ले पाएंगे, उतना भी बहुत मुश्किल मामला है। उतनी भी नहीं ले पाएंगे।

प्रश्न. ओशो हम श्वास में जो वायु लेते हैं उसमें केवल आक्सीजन ही नहीं होती उसमें नाइट्रोजन हाइड्रोजन आदि अनेक प्रकार की हवाएं भी हैं। क्या उन सब का ध्यान के लिए सहयोग हैं?

 

बिलकुल ही ध्यान के लिए सहयोगी होगी। क्योंकि हवा में जो कुछ भी है— और बहुत कुछ है, आक्सीजन ही नहीं है, और बहुत कुछ है—वह सब का सब आपके लिए, जीवन के लिए सार्थक है, इसीलिए आप जिंदा हैं। जिस ग्रह पर, जिस उपग्रह पर हवा में उतनी मात्रा में वे सब चीजें नहीं हैं, वहां जीवन नहीं हो सकेगा। वह जीवन की पासिबिलिटी है सब का सब। इसलिए उसमें चिंता लेने की जरूरत नहीं है। उसमें चिंता लेने की जरूरत नहीं है। और जितनी तीव्रता से आप लेंगे उतना हितकर है, क्योंकि उतनी तीव्रता में आक्सीजन ही ज्यादा से ज्यादा प्रवेश कर पाएगी और आपका हिस्सा बन पाएगी। बाकी चीजें फेंक दी जाएंगी। और वह जिस अनुपात में जो चीजें हैं, वे सब की सब आपके जीवन के लिए उपयोगी हैं; उससे कोई हानि नहीं है। उससे कोई हानि नहीं है।

हलकेपन का अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति:

प्रश्न. इससे शरीर हलका सा महसूस होता है!

हां, हलका महसूस होगा। हलका महसूस होगा, क्योंकि हमारे शरीर का जो बोध है, शरीर का बोध ही हमारा भारीपन है। जिसको हम भारीपन कहते हैं, वह हमारे शरीर का बोध है। इसलिए बीमार दुबला—पतला हो तो भी उसको बोझ मालूम पड़ता है और स्वस्थ आदमी कितना ही वजनी हो तो भी उसे हलका मालूम पड़ेगा। शरीर की जो कांशसनेस है हमारी, वही हमारा बोझ है। और शरीर की कांशसनेस, शरीर का जो बोध है उसी मात्रा में होता है जिस मात्रा में शरीर में तकलीफ हो। अगर पैर में दर्द है तो पैर का पता चलता है, सिर में दर्द है तो सिर का पता चलता है; अगर कहीं कोई तकलीफ नहीं है, तो शरीर का पता ही नहीं चलता।

इसलिए स्वस्थ आदमी की परिभाषा ही है जो विदेह अनुभव करे, जिसको ऐसा न लगे कि मैं शरीर हूं। तो समझना चाहिए वह आदमी स्वस्थ है। अगर उसको कोई भी हिस्सा लगता हो कि यह मैं हूं तो समझ लेना चाहिए वह हिस्सा बीमार है। तो जिस मात्रा में आक्सीजन बढ़ेगी और कुंडलिनी जगेगी, तो कुंडलिनी के गाते ही आपको आत्मिक प्रतीतियां शुरू हो जाएंगी जो कि शरीर की नहीं हैं। और सब बोझ शरीर का है। तो उनकी वजह से तत्काल हलकापन लगना शुरू हो जाएगा। बहुत हलकापन लगेगा। यानी बहुत लोगों को लगेगा कि जैसे हम जमीन से ऊपर उठ गए हैं। सभी उठ नहीं जाते, कभी ऐसी घटती है सौ में एकाध दफे घटना कि कभी शरीर थोड़ा ऊपर उठता है, आमतौर से उठता नहीं है, लेकिन अनुभव बहुत लोगों को होगा। जब आख खोलकर देखेंगे तो पाएंगे, बैठे तो वहीं हैं।

लेकिन यह क्यों अनुभव हुआ था कि उठ गए?

असल में, इतनी वेटलेसनेस मालूम हुई, इतना हलकापन मालूम हुआ कि हलकेपन को जब हम चित्रों की भाषा में कहेंगे तो कैसे कहेंगे? और हमारा जो गहरा मन है वह भाषा नहीं जानता, वह चित्र जानता है। तो वह यह नहीं कह सकता कि हलके हो गए, वह चित्र बना लेता है कि जमीन से उठ गए।

अचेतन मन की चित्रमय भाषा:

हमारा जो गहरा मन है अचेतन, वह चित्र ही जानता है। इसलिए रात सपने में भाषा नहीं होती आपके, चित्र ही चित्र होते हैं। और सपने को सारी बातों को चित्रों में बदलना पड़ता है। इसलिए हमारे सपने समझ में नहीं आते सुबह; क्योंकि हम जो सुबह जागकर भाषा बोलते हैं, वह सपने में नहीं होती; और जो भाषा हम सपने में अनुभव करते हैं, वह सुबह नहीं होती। तो इतना बड़ा ट्रांसलेशन है सपने से जिंदगी में कि उसके लिए बड़े भारी व्याख्याकार चाहिए, नहीं तो वह ट्रांसलेट नहीं होता।

अब एक आदमी बहुत महत्वाकांक्षी है, बहुत एंबीशस है, तो सपने में अब वह एंबीशन को कैसे अनुभव करे? वह पक्षी हो जाएगा। वह आकाश में ऊपर से ऊपर उड़ता जाएगा; सब उसके नीचे आ जाएंगे। अब महत्वाकांक्षा सपने में जब प्रकट होगी तो उड़ान की तरह प्रकट होगी—उड़ रहा है एक आदमी। कुछ आदमी उड़ने—उड़ने के ही सपने देखेंगे। वह महत्वाकांक्षा का सपना है। लेकिन महत्वाकांक्षा शब्द वहां होगा ही नहीं। सुबह वह आदमी कहेगा, क्या बात है कि मुझे उडने—उड़ने के सपने आते हैं! पर उसकी जो महत्वाकांक्षा है वह सपने में उड़ना बन जाती है।

ऐसे ही ध्यान की गहराई में पिक्टोरिअल लैंग्वेज होगी। हलकापन अनुभव होगा तो ऐसा लगेगा शरीर उठ गया। क्योंकि शरीर उठ गया है, यही हलकेपन का पिक्चर बन सकता है, और तो कोई पिक्चर बन नहीं सकता। और कभी बहुत ही हलकेपन की हालत में शरीर उठ भी जाता है।

शारीरिक रूपांतरण की प्रक्रिया:

प्रश्न: कभी— कभी टूटने का डर लगता है कि जैसे कुछ भी टूट जाएगा।

हां, लग सकता है, बिलकुल लग सकता है।….. .बिलकुल लग सकता है।

प्रश्न: वह डर नहीं रखना चाहिए बिलकुल?

खने की तो कोई जरूरत नहीं है, लेकिन वह लगता है; वह स्वाभाविक है।

प्रश्न: गरमी भी बहुत पैदा होती है!

ह भी हो सकता है; क्योंकि हमारे भीतर सारी की सारी व्यवस्था बदलती है। यानी जो—जो हमारा इंतजाम है, वह सब बदलता है; जहां—जहां से हम शरीर से जुड़े हैं वहां—वहां ढिलाई होनी शुरू होती है; जहां हम नहीं जुड़े हैं वहां नये जोड़ बनने शुरू होते हैं; पुराने ब्रिज गिरते हैं, नये ब्रिज बनते हैं, पुराने दरवाजे बंद होते हैं, नये दरवाजे खुलते हैं। वह पूरा मकान आलट्रेशन में होता है, तो इसलिए बहुत सी चीजें टूटती मालूम पड़ती हैं, बहुत से डर मालूम पड़ते हैं, सब व्यवस्था अव्यवस्था हो जाती है। तो ट्रांजीशन के वक्त में यह चलेगा। लेकिन जैसे ही नई व्यवस्था आ जाएगी, वह पुरानी व्यवस्था से अदभुत है, उसका फिर कोई मुकाबला नहीं। फिर कभी खयाल भी नहीं आएगा कि पुरानी व्यवस्था टूट गई, या थी! बल्कि ऐसा लगेगा कि इतने दिनों उसको कैसे खींचा? तो वह होगा।

अंत तक प्रयत्न जारी रखो:

प्रश्न: ओशो शक्तिपात के बाद भी क्या तीव्र श्वास और ‘ मैं कौन हूं ‘ पूछने का प्रयत्न करना पड़ेगा या वह सहज ही होने लगता है?

ब सहज होने लगे तब तो सवाल नहीं है। तब तो सवाल नहीं है; तब कोई सवाल नहीं है। तब तो सवाल भी असहज है। होने लगे वह, तब तो कोई बात ही नहीं है।

लेकिन जब तक नहीं हुआ है, तब तक कई बार मन मानने का होता है कि अब छोड़ो, अब तो हो गया! अब क्या बार— बार पूछते चले जा रहे हैं! अब कितने दिन से तो पूछ रहे हैं! जब तक मन तुमसे कहे कि छोड़ो, अब क्या फायदा है, तब तक तो करते ही चले जाना; क्योंकि मन अभी है। जिस दिन अचानक तुम पाओ कि अब तो करने का कोई सवाल ही नहीं, करना भी चाहो तो नहीं कर सकते; क्योंकि ‘मैं कौन हूं तुम तभी तक पूछ सकते हो जब तक पता नहीं है; जिस दिन पता चल जाएगा उस दिन तुम पूछोगे कैसे? वह तो एकर्डिटी है, उसको तुम पूछ ही कैसे सकते हो जब तुम्हें पता ही चल गया?

मैं पूछता हूं कि दरवाजा कहां है? दरवाजा कहां है? अब मुझे पता चल गया कि यह रहा दरवाजा। अब मैं पूछूंगा दरवाजा कहां है? यह भी नहीं पूछूंगा कि क्या मैं पूछूं अब कि दरवाजा कहां है। इसका कोई मतलब नहीं है। जो हमें पता नहीं है, वहीं तक हम पूछ सकते हैं; जैसे ही हमें पता हुआ वैसे ही बात खत्म हो गई।

तो जैसे ही ‘मैं कौन हूं’ इसकी अनुभूति तुम पर बरस जाए, वैसे ही तुम्हारे प्रश्न की दुनिया गई। और जैसे ही तुम छलांग लगा जाओ उस लोक में, फिर करने का कोई सवाल नहीं है; फिर तो तुम जो करोगे, वह सभी वही होगा। तुम चलोगे तो ध्यान होगा, तुम बैठोगे तो ध्यान होगा, तुम चुप रहोगे तो ध्यान होगा, तुम बोलोगे तो ध्यान रहेगा। ऐसा भी कि तुम लड़ने भी चले जाओगे तो भी ध्यान होगा। यानी, तुम्हारा क्या करना है, इससे फिर कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

दांव पूरा ही लगाना:

प्रश्न: ओशो शक्तिपात का प्रभाव जब क्रियाशील होता है तो श्वास तो तेज होती है आप ही आप लेकिन बीच— बीच में श्वास की गति बिलकुल रुक जाती है। तो क्या उस स्थिति में प्रयास करना चाहिए श्वास का?

रोगे तो फायदा होगा। सवाल यह नहीं है कि श्वास चले कि नहीं; वह न चले तो कोई हर्जा नहीं। तुमने प्रयास किया कि नहीं! यह सवाल नहीं है; वह नहीं चलेगी तो नहीं चलेगी, तुम क्या करोगे? लेकिन तुम मत छोड़ देना प्रयास। तुम्हारा प्रयास ही सार्थक है। बड़ा सवाल इतना नहीं है कि वह हुआ कि नहीं हुआ। तुमने किया! तुमने अपने को पूरा दांव पर लगाया; तुमने कहीं बचा नहीं लिया अपने को। नहीं तो मन बहुत बचाव करता है। वह कहता है : अब तो हो ही नहीं रहा, अब छोड़ो। हमारे मन के साथ कठिनाई ऐसी है कि वह रोज हजार रास्ते खोजता है कि अब तो यह हो ही नहीं रहा, अब बिलकुल दम घुटी जा रही है अब बिलकुल मर ही जाओगे, अब छोड़ो।

तो तुम यह मत सुनना। तुम कहना, घुट जाए तो बड़ा आनंद! नहीं आ सकेगी तो वह दूसरी बात है, उसमें तुम्हारा कोई वश नहीं है। लेकिन अपनी तरफ से तुम पूरी कोशिश करना; तुम अपने को पूरा दांव पर लगाना। उसमें रत्ती भर अपने को बचाना मत। क्योंकि कभी—कभी रत्ती भर बचाना ही सब रोक देता है—रत्ती भर बचाना! कोई नहीं जानता कि ऊंट आखिरी तिनके से बैठ जाए। तुमने बहुत वजन लादा है ऊंट पर, लेकिन अभी इतना वजन नहीं हुआ है कि ऊंट बैठे। और हो सकता है सिर्फ आखिरी तिनका—घास का एक छोटा सा टुकड़ा— और ऊंट बैठ जाए। क्योंकि संतुलन तो एक छोटे से तिनके से ही आखिर में तय होता है।

प्रश्न: पहले नहीं होता।

हले नहीं होता तय। पहले तुमने दो मन लादा और उससे कुछ नहीं हुआ, ऊंट चलता ही चला गया। तुमने एक हथौड़े से ताला तोड़ा। तुम पचास हथौड़े मार चुके पूरी ताकत से— और इक्यावनवां तुमने बहुत धीमी ताकत से मारा और टूट गया।

संतुलन तो अंत में बड़ी छोटी बात से तय होता है, कभी—कभी इंच भर से तय होता है, तिनके से तय होता है। इसलिए ऐसा न हो कि तुम सारी मेहनत करो और एक तिनके से चूक जाओ। और चूक गए तो तुम पूरे चूक गए।

अभी ऐसा हुआ एक मित्र अमृतसर में तीन दिन से ध्यान कर रहे थे। पढ़े—लिखे डाक्टर हैं। पर नहीं कुछ हो रहा था। आखिरी दिन—मुझे तो पता ही नहीं था कि वे क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं, जानता भी नहीं था उनको— आखिरी दिन मैंने यह कहा कि हम पानी को गरम करते हैं, तो वह सौ डिग्री पर भाप बनता है। और अगर निन्यानबे डिग्री से भी वापस लौट गए, तो यह मत सोचना कि हमने निन्यानबे तक बनाया था तो एक डिग्री की क्या बात थी! वह पानी रह जाएगा। साढ़े निन्यानबे तक भी पानी रह जाएगा; रत्ती भर फासला रह जाएगा तो भी पानी रह जाएगा। वह तो आखिरी रत्ती भी, जब सौ को पार करेगा, क्रास करेगा, तभी भाप बनेगा। और इसमें कोई शिकायत नहीं की जा सकती है।

तो वे उसी दिन सांझ को मेरे पास आए कि आपने यह अच्छा कहा, मैं तो कर रहा था कि भई, चलो धीरे— धीरे कर रहे हैं, बहुत नहीं होगा तो थोड़ा तो होगा! हमारे क्या खयाल में होते हैं! तो आपने जब कहा तब मुझे खयाल में आया कि यह बात तो ठीक है। अट्ठानबे डिग्री पर गर्म किया तो ऐसा नहीं कि थोड़ा पानी भाप बनेगा और थोड़ा नहीं बनेगा; बनेगा ही नहीं। बनना तो शुरू होगा, एक भी बिंदु अगर बना हो तो वह सौ डिग्री पर ही उड़ेगा; उसकी उड़ान तो सौ डिग्री पर ही होगी। उसके पहले वह पानी होना नहीं छोड़ सकता। पानी होना छोड़ने के लिए उतनी यात्रा उसे करनी ही पड़ेगी, आखिरी इंच तक।

तो उन्होंने मुझसे कहा कि आपने अच्छा कह दिया यह; आज मैंने पूरी ताकत लगाई। तो मैं तो हैरान हूं कि मैं तीन दिन से मेहनत फिजूल कर रहा था; थक भी जाता था, कुछ होता भी नहीं था, आज थका भी नहीं हूं और कुछ हो भी गया। पर उन्होंने कहा कि मुझे सौ डिग्री की बात खयाल रही पूरे वक्त, और मैंने इंच भर भी नहीं छोड़ा, मैंने कहा कि अपनी तरफ से नहीं छोड़ना है, पूरी ताकत लगा देनी है।

जिनको नहीं हो रहा है और जिनको हो रहा है, उनमें और कोई फर्क नहीं है, सिर्फ इतना ही फर्क है। सिर्फ इतना ही फर्क है। और एक बात और ध्यान रखना कि कई दफे ऐसा लगता है कि तुम्हारा पड़ोसी तुमसे ज्यादा ताकत लगा रहा है और उसको नहीं हो रहा। लेकिन उसकी सौ डिग्री और तुम्हारी सौ डिग्री में फर्क है। अगर उसके पास ताकत ज्यादा है…….

एक आदमी के पास पांच सौ रुपए हैं और वह तीन सौ रुपए लगा रहा है दांव पर, और तुम्हारे पास पांच रुपए हैं और तुम चार रुपए दांव पर लगा रहे हो—तुम आगे निकल जाओगे। यह तीन सौ और चार से तय नहीं होगा, पूरे अनुपात से तय होगा। तुमने अपना पूरा लगाया तो सौ डिग्री पर हो। और सबकी सौ डिग्री अलग होंगी। उसका कितना पूरा लगाने का सवाल है। अगर तुमने पांच रुपए लगा दिए तो तुम जीत जाओगे, और वह तीन सौ और चार सौ भी लगा दे तो नहीं जीतेगा। उसके पास पांच सौ थे; जब तक वह पांच सौ न लगा दे, तब तक वह जीतनेवाला नहीं है।

चरम—बिंदु पर ही सावधानी:

इसलिए अंतिम अर्थों में एक बात ध्यान रखना सदा जरूरी है कि तुम अपने को बचाना मत; कहीं भी यह मत सोचना कि अब ठीक है, इतने से हो जाएगा। ऐसा तुमने सोचा कि तुम लौटना शुरू हो जाओगे।

और अक्सर ऐसा होगा कि जिस बिंदु से घटना घटती है उसी बिंदु से ऐसा होगा; क्योंकि मन उसी बिंदु पर घबडाना शुरू होता है कि अब तो भाप बनी, अब भाप बनी। अब वह कहता है कि अब बस काफी हो गया, उबल चुके, पानी आग हुआ जा रहा है, अब क्या फायदा; अब लौट आओ।

वही क्षण बहुत कीमती है जब तुम्हारा मन कहे कि अब लौट चलो। अब मन को लगने लगा कि अब मामला खतरे का है, अब टूटने का वक्त करीब आता है, अब मिटे, अब मरे। तो जैसे ही उसको लगा कि अब खतरा आता है…….जब तक खतरा नहीं है, तब तक वह कहेगा कि खूब मजे से करो, जैसे ही खतरे के करीब पहुंचोगे, ब्बाइलिंग प्वाइंट के पहले ही वह तुमसे कहेगा कि अब बस, अब तो सारी ताकत लगा दी, अब तो होता ही नहीं है। उसी वक्त सावधान रहना। वही क्षण है जब तुम्हें पूरा लगा देना है। उस एक क्षण में चूकने से कभी वर्ष चूकना हो जाता है। और निन्यानबे डिग्री तक पहुंचने में भी वर्षों लग जाते हैं कभी तो। और कभी पहुंच पाते हैं और तत्काल चूक जाते हैं। जरा सी बात और चुका सकती है। इसलिए तुम मत बचाव करना। वह नहीं होगा, नहीं होगा।

प्रश्न : जोर से करने से नाडियों पर कुछ असर नहीं हो सकता?

ये सारी की सारी जो बातें हैं, सारी की सारी जो बातें हैं, हमारे सारे भय जो हैं… असर तो होगा ही, असर क्यों नहीं होगा? असर तो होगा ही। असर होने के लिए ही तो सारी बात है।

प्रश्न: टूट जाएं नाड़ी तो?

 

हां, तो देखो भी न! टूट जाने दो, बचाकर भी क्या करना है! टूट ही जाएगी, बचाकर भी क्या करोगी।

प्रश्न : इग्नोरेंस में तो मरना नहीं चाहते।

तो मरोगी इग्नोरेंस में अगर नाड़ी बचाओगी। करोगी क्या? हमारी तकलीफ यह है कि हम जिन चीजों को बचाने के लिए चिंतित रहते हैं उनको बचाने से होना क्या है?

प्रश्न : हमारे पास इतना ही अल्प सा तो है; उसे भी खो दें?

हां, अगर वह भी होता तब भी कुछ था; तब तुम्हें डर न होता उसके खोने का। वह भी नहीं है। अक्सर नंगे आदमी कपड़े चोरी जाने के डर से भयभीत रहते हैं, क्योंकि इससे एक मजा आता है कि अपने पास भी कपड़े हैं। उसका जो रस है भीतर वह यह रहता है कि अरे, अपन कोई नंगे थोड़े ही हैं, कपड़े चोरी न चले जाएं। कपड़े हैं तो चोरी जाने की इतनी फिकर नहीं रहती है। कपड़े ही हैं न, चोरी चले जाएंगे तो चले जाएंगे। यह भय छोड़ना।

इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारी नाडिया टूट जाएंगी। भय से टूट सकती हैं, ध्यान से नहीं टूट सकतीं। भय से टूट ही जाती हैं। लेकिन भय से हम भयभीत नहीं होते। भय से टूट जाएंगी, चिंता से टूट जाएंगी, उससे हम भयभीत नहीं हैं। तनाव से टूट जाएंगी, उससे हम भयभीत नहीं हैं। ध्यान से हम भयभीत हैं, जहां कि टूटने का कोई सवाल नहीं है, जहां टूटी भी होंगी तो जुड़ सकती हैं।

लेकिन हम अपने भय पालते हैं। और वे भय हमें सुविधा बना देते हैं कि ऐसा न हो जाए, ऐसा न हो जाए, ऐसा न हो जाए। लौट आने का हम सारा इंतजाम कर लेते हैं।

तो मैं यह कहता हूं जाओ ही क्यों? यह दुविधा खतरनाक है। मैं कहता हूं जाओ ही मत; बात ही छोड़ो; उसकी चिंता ही मत लो।

दुविधा साधक की एकमात्र शत्रु:

लेकिन हम दोनों काम करना चाहते हैं। हम जाना भी चाहते हैं और नहीं भी जाना चाहते हैं। तब दुविधा हमारे प्राण ले लेती है। और तब हम अकारण परेशान होते हैं। सैकड़ों—लाखों लोग अकारण परेशान होते हैं। उनको परमात्मा को खोजना भी है और बचना भी है कि कहीं मिल न जाए।

अब ये दोहरी दिक्कतें हैं। हमारी सारी तकलीफ जो है न वह ऐसी है कि हम जो करना चाहते हैं उसको किसी दूसरे तल पर मन के नहीं भी करना चाहते। दुविधा हमारा प्राण है। हम ऐसा कर ही नहीं पाते कि कुछ हम करना चाहते हैं तो करना चाहते हैं। जिस दिन ऐसा हो उस दिन तुम्हें कोई रुकावट नहीं होगी। उस दिन जिंदगी गति बन जाती है। लेकिन हमारी हालतें ऐसी हैं कि एक पैर उठाते हैं और एक वापस लौटा लेते हैं; एक ईंट मकान की रखते हैं और दूसरी उतार लेते हैं। रखने का भी मजा लेते रहते हैं और रोने का भी मजा लेते रहते हैं कि मकान बन नहीं रहा। दिन भर मकान जमाते हैं, रात भर उतार देते हैं। दूसरे दिन फिर दीवालें वहीं की वहीं हो जाती हैं, फिर हम रोने लगते हैं कि बड़ी मुश्किल है कि मकान बन नहीं रहा।

यह जो कठिनाई है, यह समझनी चाहिए अपने भीतर। और इसको ऐसे ही समझ सकोगी जब तुम यह समझो कि ठीक है, टूटेंगी न, तो टूट ही जाएंगी। तीस—चालीस साल नहीं भी टूटी तो करोगी क्या? एक दफ्तर में नौकरी करोगी, रोज खाना खाओगी, दों—चार बच्चे पैदा करोगी, नहीं पैदा करोगी, पति होगा; यह होगा, वह होगा; यही सब होगा। और इनको छोड़ जाओगी तो ये बेचारे अपनी नाडिया न टूट जाएं उसके लिए डरते रहेंगे। यही करती रहोगी। करोगी क्या?

अगर हमको थोड़ा सा भी यह खयाल में आ जाए कि जिंदगी जिसको हम बचाने की कोशिश में हैं, इसमें बचाने योग्य भी क्या है! तो दांव पर लगा सकते हैं, नहीं तो नहीं लगा सकते। और यह बहुत ही जिसको कहना चाहिए स्पष्ट, हमारे मन में साफ हो जाना चाहिए कि जिस—जिस चीज को हम बचाना चाहते हैं, उसमें बचाने जैसा भी क्या है? क्या है बचाने जैसा? और बचाकर भी कहां बचता है? यह स्पष्ट हो तो फिर तुम्हें कठिनाई नहीं होगी। टूटेगी तो टूट जाएगी। टूटती नहीं है, अभी तक टूटी नहीं है। अगर तोड़ दो तो तुम एक नई घटना होगी।

प्रश्न. रिकॉर्ड टूट जाएगा?

हां, रिकॉर्ड टूट जाएगा।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–14)

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धर्म की महायात्रा में स्वयं को दांव पर लगाने का साहस—(प्रवचन—चौहदवां)

(प्रतीक्षा बना देती है दर्पण चेतना को। और जिस दिन हम दर्पण बन जाते हैं उसी दिन सब मिल जाता है। क्योंकि सब तो सदा ही था सिर्फ हम नहीं थे। दर्पण होकर हम हो जाते है।)

भगवान श्री जाति— स्मरण अर्थात पिछले जन्मों की स्मृतियों में प्रवेश की विधि पर आपने द्वारका शिविर में चर्चा की है। आपने कहा है कि चित्त को भविष्य की दिशा से पूर्णत: तोड़ कर ध्यान की शक्ति को अतीत की ओर फोकस करके बहाना चाहिए। प्रक्रिया का क्रम आपने बताया पहले पांच वर्ष की उम्र की स्मृति में लौटना फिर तीन वर्ष की फिर जन्म की स्मृति में फिर गर्भाधान की स्मृति में फिर पिछले जन्मों की स्मृति में प्रवेश होता है। आपने आगे कहा है कि मैं जाति— स्मरण के प्रयोग के पूरे सूत्र नहीं कह रहा हूं। पूरे सूत्र क्या हैं? क्या आगे के सूत्र का कुछ स्पष्टीकरण करने की कृपा कीजिएगा?

पिछले जन्म की स्मृतियां प्रकृति की ओर से रोकी गई हैं। प्रयोजन है उनके रोकने का। जीवन की व्यवस्था में जिसे हम रोज—रोज जानते हैं, जीते हैं, उसका भी अधिकतम हिस्सा भूल जाए, यह जरूरी है। इसलिए आप इस जीवन की भी जितनी स्मृतियां बनाते हैं उतनी स्मृतियां याद नहीं रखते। जो आपको याद नहीं है, वह भी आपकी स्मृति से मिट नहीं जाता, सिर्फ आपकी चेतना और उस स्मृति का संबंध छूट जाता है।

जैसे अगर कोई व्यक्ति पचास साल का है —पचास साल में अरबों —खरबों स्मृतियां बनती हैं। यदि वे सभी याद रखनी पड़े, तो विक्षिप्त हो जाने के सिवाय कोई रास्ता न रहे। जो बहुत सारभूत है, वह याद रह जाता है, जो असार है, वह धीरे— धीरे विस्मरण हो जाता है। लेकिन विस्मरण से आप यह मत अर्थ लेना कि वह आपके भीतर से मिट जाता है। सिर्फ आपकी चेतना के बिंदु से सरक कर आपके मन के किसी कोने में संगृहीत हो जाता है। बुद्ध ने उस संगृहीत स्थान के लिए बहुत कीमती नाम दिया है। उसे कहा है, आलय—विज्ञान, द स्टोर हाउस आफ कांशसनेस। जैसे हमारे घर में, सब घरों में, कबाड़खाने के लिए फिजूल की चीजों को इकट्ठा करने का कमरा होता है। जहां जो बेकार हो जाता है, हम इकट्ठा करते जाते हैं। वह हमारी नजर से हट जाता है, लेकिन घर में मौजूद होता है। ऐसे ही हमारी स्मृतियां, हमारी नजर से हट जाती हैं और हमारे मन के कोनों में इकट्ठी हो जाती हैं। अगर इस जीवन की भी सारी स्मृतियां याद रहें, तो आपका जीना कठिन हो जाएगा। आगे के लिए चेतना मुक्त होनी चाहिए। इसके लिए पीछे को भूलना पड़ता है। आप कल को भूल जाते हैं, इसलिए आनेवाले कल को जीने में समर्थ हो जाते हैं। फिर मन खाली हो जाता है और आगे देखने लगता है।

आगे देखने के लिए जरूरी है कि पीछे का भूल जाए। अगर पीछे का न भूले, तो आगे देखने के लिए क्षमता न बचेगी। और रोज आपके मन का एक हिस्सा खाली हो जाना चाहिए जिसमें नए संस्कार, नए इंप्रेसंस ग्रहण किए जा सकें, अन्यथा ग्रहण कौन करेगा। तो अतीत रोज मिटता है, भविष्य रोज आता है। और जैसे ही भविष्य अतीत बना, वह भी मिट जाता है ताकि हम आगे के लिए फिर मुक्त हो जाएं। ऐसी मन की व्यवस्था है।

एक जन्म की भी पूरी स्मृति हमें नहीं होती। अगर मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ साठ में एक जनवरी को आपने क्या किया, तो आप कुछ भी न बता सकेंगे। यद्यपि एक जनवरी उन्नीस सौ साठ में आप थे और एक जनवरी उन्नीस सौ साठ में आपने जरूर सुबह से सांझ तक कुछ किया होगा। लेकिन आपको कोई स्मरण नहीं है। लेकिन सम्मोहन की छोटी—सी प्रक्रिया उन्नीस सौ साठ की एक जनवरी को पुनरुज्जीवित कर देगी। अगर आपको सम्मोहित किया जाए और आपकी चेतना का जो हिस्सा जागा हुआ है, वह सुला दिया जाए; और फिर आपसे कहा जाए कि एक जनवरी उन्नीस सौ साठ को आपने क्या किया? तो आप सुबह से लेकर सांझ तक सब बता देंगे।

एक युवक पर मैं बहुत दिनों तक प्रयोग करता था। लेकिन यह बड़ी मुश्किल बात थी कि मैं कैसे पक्का करूं कि वह जो कह रहा है, वह सच में ही एक जनवरी उन्नीस सौ साठ को हुआ होगा। सम्मोहित अवस्था में वह सब बोल देता था कि मैंने यह—यह किया। जागने पर तो वह सब भूला हुआ होता था। अब मेरे लिए बड़ी कठिनाई थी कि यह कैसे तय किया जाए कि उसने सच में ही एक जनवरी उन्नीस सौ साठ में सुबह नौ बजे स्थान किया था।

तब फिर एक ही रास्ता था कि मैंने एक दिन सुबह से सांझ तक उसने जो भी किया, वह सब लिखकर रख लिया। तीन—चार महीने बीत जाने के बाद उससे पूछा। उसने कहा, मुझे कुछ याद नहीं। फिर उसे सम्मोहित किया और जब वह गहरी सम्मोहन की अवस्था में चला गया, तब उससे पूछा कि फलां तारीख को तुमने क्या किया। तो जो मैंने नोट किया था वह तो उसने बताया ही, बहुत—कुछ जो मैंने नोट नहीं किया था वह भी उसने बताया। पर जो मैंने नोट किया था, उसमें से तो एक भी बात नहीं छूटी। और उसने सैकड़ों बातें बताईं। स्वभावत: मैं पूरी बातें नोट नहीं कर सकता था। जो मेरे खयाल में था और दिखाई पड़ा था, उसे नोट कर लिया था।

सम्मोहन की अवस्था में कितने ही गहरे में व्यक्ति को उतारा जा सकता है। सम्मोहन की अवस्था में लेकिन दूसरा उतारेगा और आप बेहोश होंगे। आपको खुद कुछ पता नहीं चलेगा। सम्मोहन की अवस्था में आपको पिछले जन्मों में भी ले जाया जा सकता है। लेकिन वह आपकी मूर्च्छा की ही हालत होगी। जाति—स्मरण और सम्मोहन की प्रक्रिया में इतना ही फर्क है कि जाति—स्मरण में आप होशपूर्वक अपने पिछले जन्मों में जाते हैं और सम्मोहन की प्रक्रिया में आप बेहोशी में पिछले जन्मों में ले जाए जाते हैं। लेकिन इन दोनों प्रक्रियाओं का अगर प्रयोग किया जाए, तो वैलिडिटी बहुत बढ़ जाती है। एक व्यक्ति को हम बेहोश करके सम्मोहन की अवस्था में उससे पूछें उसके पिछले जन्मों के संबंध में और उसे लिख डालें। फिर होशपूर्वक उसे ध्यान में ले जाएं और अगर वही वह ध्यान से भी कह सके, तो हमारे पास ज्यादा प्रमाण हो जाता है इकट्ठा।

दो मार्गों से एक ही स्मृति को उठाया जा सकता है। उठाने की जो प्रक्रिया है, ऐसे सरल है, लेकिन उसके अपने खतरे हैं। इसलिए पूरे सूत्र मैंने नहीं कहे थे। पूरे सूत्र नहीं कहे जा सकते हैं। कोई प्रयोग करना चाहे, तो उससे कहे जा सकते हैं। सामान्यरूपेण पूरे सूत्र नहीं कहे जा सकते। लेकिन फिर भी पूरी प्रक्रिया कही जा सकती है, एक सूत्र बचाकर। तो उसको किया नहीं जा सकता।

हमारी चेतना, जैसा मैंने कल कहा, हमारे संकल्प से गतिमान होती है। जब आप ध्यान में बैठें और जब गहरे ध्यान में जाने लगें, तब एक संकल्प करके बैठ जाएं कि मैं ध्यान की अवस्था में पांच साल का हो जाऊं और वह जान सकूं जो पांच साल में हुआ था। तो आप अचानक पाएंगे गहरे ध्यान में जाकर कि आपकी उम्र पांच साल हो गई है और पांच साल में जो हुआ था उसे आप जान रहे हैं। अभी पहले ही जन्म में इस प्रयोग को करें। जैसे—जैसे यह प्रयोग साफ और गहरा होने लगे और पीछे लौटना संभव होता चला जाए जो कि कठिन नहीं है, तो मां के गर्भ की स्मृतियां भी जगाई जा सकती हैं। अगर आप गर्भ में थे और मां गिर पड़ी हो, तो उसकी चोट की स्मृति भी आपकी स्मृति है। आप गर्भ में थे और मां दुखी हुई हो, तो उसके दुख की स्मृति भी आपकी स्मृति है। क्योंकि मां के गर्भ में आपकी और मां की दो स्थितियां नहीं हैं। संयुक्त स्थितियां हैं। तो जो मां को अनुभव हुआ है गहरे में, वह आपका भी अनुभव बन गया है। वह आपको भी ट्रासफर हो जाता है।

इसलिए मां के चित्त की दशा नौ महीने के गर्भकाल में बच्चे को निर्माण करने में बडा भारी काम करती है। और ठीक अर्थों में मां वह नहीं है जिसने सिर्फ बच्चे को पेट में रखा है, मां वह भी है जिसने उसे चेतना की भी विशेष दिशा दी है। सिर्फ पेट में रखना तो जानवर की मां को भी संभव हो जाता है। वह तो पशु भी कर लेते हैं। और आज नहीं कल मशीन भी कर लेगी। कोई बहुत कठिन बात नहीं है कि बच्चे मशीन में बड़े हो सकें। आर्टिफीशियल—बूंब बनाया ही जा सकता है। क्योंकि मां के पेट में जो इंतजाम है, वह ए_क बिजली के यंत्र में भी दिया जा सकता है। उतनी गर्मी, उतना पानी, वह सब दिया जा सकता है। आज नहीं कल, बच्चे मां के पेट से हटाकर मशीन के पेट में रख ही दिए जाएंगे। लेकिन इससे मां होने का काम पूरा नहीं होता।

शायद मां होने का काम पृथ्वी पर बहुत कम माताओं ने किया है। मां होने का काम बहुत बड़ा काम है। वह है नौ महीने तक उस बच्चे की चेतना को एक विशेष दिशा देना। अगर मां क्रोधित है उन नौ महीनों में और फिर कल बच्चा जब क्रोधी पैदा हो, तो दिन—रात उसको डाटेगी, डपटेगी कि किसने बिगाड़ दिया। पता नहीं किस कुसंग में पड़ गया है। मेरे पास कितनी ही माताएं आती हैं। सबकी शिकायत है। किसी का बेटा कुसंग में पड़ गया है, किसी की बेटी कुसंग में पड़ गई है। और सारे बीज उन्होंने ही बोए हैं। उनकी सारी चेतना की व्यवस्था उन्होंने ही की है। बच्चे तो सिर्फ उसको प्रकट कर रहे हैं। ही, प्रकट करने में और बोने में फर्क है। इसलिए हमें पता नहीं चलता, बीच का अंतराल काफी बड़ा है।

इमायल कुवे ने एक छोटा—सा संस्मरण लिखा। उसने लिखा है कि एक मिलिट्री का मेजर जो उसका परिचित है वह कुछ सम्मोहन पर किताबें पढ़ रहा था। और जो किताब पढ़ रहा था उसमें कहीं लिखा हुआ था कि मां के मन में जो सुझाव हों, वे बच्चे तक संप्रेषित हो जाते हैं जब वह पेट में होता है। उसकी पत्नी को बच्चा था पेट में। उसने अपनी पत्नी को कहा कि मैं इस किताब को पढ़ रहा हूं और इस किताब के लिखने वाले का कहना है कि मा जो सोचती है, जो जीती है, जो भाव करती है, वह बच्चे तक संप्रेषित हो जाते हैं। दोनों ने हंसकर ही बात ली। कोई उसको गंभीरता से खयाल नहीं किया।

उसी सांझ को वे एक पार्टी में गए। और वह मेजर की पत्नी, जिस जनरल के सम्मान में पार्टी दी जा रही थी, उसके बगल में ही बैठी। उस जनरल का अंगूठा युद्ध में बिलकुल पिचल गया था। उसके अंगूठे को बार—बार देखकर उसे खयाल आया कि मैं इस अंगूठे को न देखूं। कहीं मेरे बच्चे का अंगूठा खराब न हो जाए। दोपहर में उसने बात पढ़ी थी, इसलिए उसने अंगूठे से बचने की पार्टी में पूरी कोशिश की। स्वभावत: जिससे बचने की कोशिश की, वह बार—बार दिखाई पड़ा। उसको जनरल भी भूल गया, उसको पार्टी भी भूल गई, वह अंगूठा ही रह गया। अब जनरल खाना खाका, तो अंगूठा दिखेगा। किसी से हाथ मिलाएगा, तो अंगूठा दिखेगा। और वह पड़ोस में बैठी थी। उसने अपनी आंखें भी बंद कर लीं। लेकिन जितनी आख बंद की, अंगूठा उतना साफ दिखाई पड़ने लगा। आंखें बंद करके कोई चीज साफ देखनी हो, तो बडी सुविधा होती है। वह बहुत घबड़ा गई, वह बेचैन हो गई। उस पार्टी में दो —तीन घंटे अनूठा ही उसका सत्संग रहा।

रात में वह दों—चार दफे चौंक कर उठी। और सुबह उसने अपने पति को कहा कि तुमने वह किताब कहां से पढ़ी, मैं बड़ी मुसीबत में पड़ गई हूं। मुझे यह भय सवार हो गया है कि कहीं मेरे बच्चे का अंगूठा वैसा न हो जाए। उसके पति ने कहा, पागल हो गई हो? इन किताबों में क्या रखा हुआ है! ऐसा किसी ने लिख दिया, तो हो जाएगा? छोड़ो इस बात को। लेकिन वह पत्नी नहीं छोड़ पाई। असल में जिस चीज को भी हमें छोड़ने के लिए कहा जाए, उसको छोड़ना मुश्किल हो जाता है। पति ने जितना उसको कहा कि छोडो इस बात को, भूलो इस बात को..। जानते हैं आप, जिसको भूलना हो, उसे कभी नहीं भूल सकते। असल में भूलने की कोशिश में भी तो बार—बार याद करना पड़ता है— भूलने के लिए। वह याद होता चला जाता है। अगर किसी को भूलना है, तो कम से कम याद तो करना ही पड़ेगा भूलने के लिए। और जितनी बार भूलने के लिए याद करना पड़ेगा, उतना ही मजबूत होता चला जाएगा।

जैसे —जैसे दिन उसके बढ़ने लगे और बच्चे का जन्म करीब आने लगा, अंगूठा भारी पड़ने लगा। वह उसे भूलने की कोशिश में लग गई, लेकिन भूलना मुश्किल हो गया। जब उसे प्रसव की पीडा हो रही थी, और बच्चे का जन्म हो रहा था, तब बच्चा उसके खयाल में नहीं था, अंगूठा ही था। और इतनी अदभुत घटना घटी कि बच्चा ठीक पिचले अंगूठे का ही पैदा हुआ। और जब बच्चे के और जनरल के अंगूठे के फोटो मिलाए गए, तो वे एक दूसरे की कापी थे।

यह मां ने इस बच्चे को अंगूठा दे दिया। सब माताएं अपने बच्चों को अंगूठा दे रही हैं। सबके पास अलग— अलग ढंग के अंगूठे हैं, वह उनको मिल जाते हैं।

तो पहले तो स्मरण करना पड़ेगा जन्म तक, जन्म के दिन तक। लेकिन वह असली जन्म—दिन नहीं है। असली जन्म—दिन तो उस दिन है जिस दिन गर्भाधान शूरू होता। जिसको हम जन्म—दिन कहते हैं, वह जन्म के नौ महीने बाद का दिन है। वह ठीक जन्म —दिन नहीं है। ठीक जन्म —दिन तो उस दिन है, जिस दिन गर्भ में आत्मा प्रवेश करती है। उस समय तक स्मृति को ले जाना बहुत कठिन नहीं है और बहुत खतरे का भी नहीं है। क्योंकि वह इसी जीवन की स्मृति है। और उसे ले जाने के लिए जैसा मैंने कहा, भविष्य से मन को मोड़ लें। और जो थोड़ा भी ध्यान कर पाते हैं, उन्हें कोई कठिनाई नहीं कि भविष्य को भूल जाएं। भविष्य में याद करने को है भी क्या। भविष्य है ही नहीं। उन्‍मूखता बदलनी है। भविष्य की तरफ न देखें, पीछे की तरफ देखें। और अपने मन में धीरे — धीरे क्रमश: संकल्प करते जाएं। एक साल लौटें, दो साल लौटें, दस साल लौटें, बीस साल लौटें। पीछे लौटते जाएं। और यह बड़ा अजीब अनुभव होगा।

साधारणत: अगर होश में हम पीछे लौटें बिना ध्यान किए, तो जितने हम पीछे लौटेंगे उतनी स्मृति धुंधली होगी। कोई कहेगा कि मैं पांच साल के आगे नहीं जा सकता। पांच साल तक मुझे याद आता है कि ऐसा हुआ था। वह भी एकाध घटना याद आएगी। जैसे —जैसे हम करीब आएंगे अपनी उम्र के, वैसे—वैसे स्मृति और साफ होगी। कल की स्मृति और साफ होगी, आज की और साफ होगी, परसों की और कम होगी, वर्ष भर की और कम होगी, पच्चीस साल की और कम होगी। पचास साल की और कम होगी।

लेकिन जब ध्यान में आप प्रयोग करेंगे, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे। स्थिति बिलकुल उलटी हो जाएगी। जितनी बचपन की स्मृति होगी उतनी साफ होगी। क्योंकि बच्चे के पास जितनी साफ स्लेट होती है, उतनी फिर कभी नहीं होती। उस पर जितनी साफ लिखावट उभरती है उतनी कभी नहीं उभरती। जब आप ध्यान में स्मृति पर जाएंगे, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे, स्मृति उलटी हो जाएगी! जितने पीछे जाएंगे, जितने बचपन में जाएंगे, उतना साफ मालूम होगा। जितने बड़े होने लगेंगे स्मृति में, उतना धुंधला होने लगेगा। आज का दिन सबसे ज्यादा धुंधला होगा ध्यान में और आज से पचास साल पहले का दिन, जन्म का पहला दिन, सबसे स्पष्ट होगा। क्योंकि ध्यान में हम स्मरण नहीं कर रहे हैं।

अगर पिछली स्मृतियों को हम देखें, तो दो बातें होंगी। एक तो यह होगी कि जिसको हमने बहुत गंभीरता से लिया था, वह कुछ गंभीर सिद्ध नहीं हुआ। हम उसे भूल गए। इतना गंभीर भी नहीं सिद्ध हुआ कि उसे याद रखें। जिसके लिए हम जीवन दांव पर लगा देते हैं, आज वह कहीं भी नहीं है। तो आज आपका जीवन भिन्न हो जाएगा। क्योंकि तब आपको दिखाई पड़ेगा कि जिस चीज पर आज आप मरने —मारने को उतारू हैं, वह कल ऐसे ही कचरे के ढेर पर पड़ी रह जाने वाली है। एक—दो क्षण रूक जाओ और सब बेकार हो जाएगा। एक—दो क्षण प्रतीक्षा करो और सब स्मृति बन जाएगी।

 

इस फर्क को समझ लेना। जब हम होश में स्मरण करते हैं, तो स्मरण कर रहे हैं। होश के स्मरण में क्या फर्क है? अगर मैं याद कर रहा हूं अपने बचपन को, तो मैं हूं तो पचास साल का, पचास साल का हूं, आज हूं, अभी हूं और आज खड़े होकर स्मरण कर रहा हूं स्मृति को, पांच साल की, दो साल की, एक साल की। यह पचास साल का मेरा मन बीच में खड़ा है। इसलिए वह धुंधला हो जाएगा। क्योंकि पचास साल की परतें बीच में हैं और उनके पार मैं झांक रहा हूं।

ध्यान की प्रक्रिया में तुम पचास साल के नहीं हो, पांच ही साल के हो गए। जब तुम ध्यान में स्मरण कर रहे हो, तो तुम पांच साल के हो गए हो। पचास साल के होकर पांच साल की स्मृति नहीं कर रहे हो। तुम पांच साल की स्मृति में वापस लौट गए हो। इसलिए होश में—उसको हम रिमेंबरिग कहें स्मरण; और ध्यान में उसे री—लिविग कहें। वह पुनर्जीवन है, पुनर्स्म्रण नहीं। और इन दोनों में फर्क है। पुनर्स्मरण में बीच में स्मृतियों की बड़ी परत होगी जो धुंधला कर जाती है। पुनर्जीवन, तुम वापस पांच साल के हो गए हो ध्यान की अवस्था में।

अब आज ही शोभना बैठी है तुम्हारे पीछे। वह कहती है कि ध्यान में उसे अचानक अजीब— अजीब खयाल आ रहे हैं। उसे खयाल आ रहा है कि वह छोटी हो गई है और गुड्डे —गुड्डियों से खेल रही है। और वह खयाल इतना मजबूत हो जाता है कि एकदम वह डर जाती है। कि कहीं कोई आकर देख न ले, नहीं तो कहेगा कि इस उम्र में और गुड्डे —गुड्डी से खेल रही है! वह आख खोल कर देख लेती है कि कोई आ तो नहीं गया। उसकी उम्र मिट गई। उसे यही खयाल है कि यह स्मृति है, यह री—लिविंग है। यानी वह पांच साल की हो गई है। अब वह एक युवक है, जो ध्यान करेगा तो अंगूठा मुंह में चला जाएगा। वह छह महीने का हो जा रहा है। वह जैसे ही ध्यान में गया कि उसका अनूठा मुंह में गया। वह जब छह महीने का रहा होगा, तब की स्थिति में पहुंच गया।

तो स्मरण और पुनर्जीवन, फिर से जीना, इनके फर्क को समझ लेना जरूरी है। तो एक जन्म का पुनर्जीवन तो बहुत कठिन नहीं है। थोड़ी कठिनाई तो होगी। थोड़ी कठिनाई होगी, क्योंकि हम सबने अपनी उम्र की एक आइडेंटिटी बना रखी है। जो आदमी पचास साल का हो गया है, वह पांच साल पीछे हटने को राजी नहीं होता। वह पचास साल का सख्ती से रहना चाहता है। इसलिए जिन लोगों को पुनर्जीवन में लौटना है, थोड़ी याद करनी है, उन्हें थोड़े अपने जो बिलकुल फिक्स्‍ड आइडेंटिटीज हैं, उन्हें थोड़ा ढीला करना चाहिए।

अब जैसे उदाहरण के लिए एक आदमी अपने बचपन को याद करना चाहता है। अच्छा होगा कि वह बच्चों के साथ खेले। दिन में घंटा भर निकालS ले और बच्चों के साथ खेले। उसके पचास साल होने का जो फिक्सेशन है, वह जो गंभीर होने की आदत है, वह थोड़ी छूट जाए। अच्छा होगा कि वह दौड़े, तैरे, नाचे। अच्छा होगा कि घंटे भर के लिए वह बचपन में जीए होशपूर्वक, तो ध्यान में भी उसका लौटना आसान हो जाएगा। और नहीं तो वह पचास साल का सख्ती से..।

और ध्यान रहे, चेतना की कोई उम्र नहीं होती। चेतना पर सिर्फ फिक्सेशन होते हैं। चेतना की कोई उम्र नहीं होती कि पांच साल की चेतना और दस साल की चेतना और पचास साल की चेतना। सिर्फ खयाल हैं। आख बंद करके आप बताएं अपनी चेतना का पता लगाकर कि कितनी उम्र है? तो आख बंद करके आप कुछ भी नहीं बता पाएंगे। आप कहेंगे कि मुझे डायरी देखनी पड़ेगी। कैलेंडर का पता लगाना पड़ेगा। जन्म—पत्री देखनी पड़ेगी। असल में जब तक दुनिया में जन्म—पत्री नहीं थी कैलेंडर नहीं था, सालों की गणना नहीं थी, आंकड़े कम थे, दुनिया में किसी को अपनी उम्र का कोई पता नहीं होता था। आज भी आदिवासी हैं, जिनसे आप जाकर पूछें कि कितनी उम्र है? तो वे बडी मुश्किल में पड़ जाएंगे। क्योंकि किसी की संख्या पंद्रह पर खतम हो जाती है, किसी की दस पर खतम हो जाती है, किसी की पांच पर खतम हो जाती है।

एक आदमी को मैं जानता हूं जिससे किसी ने पूछा कि कितनी उम्र है? वह घर में नौकर का काम करता है। उसने कहा, होगी यही कोई पच्चीस साल। उसकी उम्र होगी कम—से—कम साठ साल। तो घर के लोग हैरान हुए। उन्होंने पूछा, तुम्हारे लड़के की कितनी उम्र है? तो उसने कहा, होगी कोई पच्चीस साल। क्योंकि पच्चीस जो था वह आखिरी आकड़ा था। उसके आगे तो कुछ था ही नहीं। उन्होंने कहा, तुम्हारे लड़के की उम्र पच्चीस साल है और तुम्हारी भी उम्र पच्चीस साल है, ऐसा कैसे हो सकता है? हमें कठिनाई हो सकती है, क्योंकि हमारे लिए पच्चीस के बाद भी संख्या है। उसके लिए पच्चीस के बाद कोई संख्या नहीं है। पच्चीस के बाद असंख्य शुरू हो जाता है। उसकी कोई संख्या ही नहीं होती।

उम्र तो हमारे बाहर के कैलेंडर, तारीखें, दिनों का हमें हिसाब है। इसलिए उम्र है। अगर भीतर हम झांक कर देखें तो वहां कोई उम्र नहीं है। अगर कोई भीतर से ही पता लगाना चाहे कि मेरी उम्र कितनी है, तो नहीं पता लगा पाएगा। क्योंकि उम्र बिलकुल बाहरी माप—जोख है। लेकिन बाहरी माप—जोख भीतर के चित्त पर फिक्सेशन बन जाती है। वहां जाकर कील की तरह ठुक जाती है।

और हम कीलें ठोंकते चले जाते हैं कि अब मैं पचास साल का हो गया, अब इक्यावन साल का हो गया, अब बावन साल का हो गया। यह हम चेतना पर ठोंकते चले जाते हैं। अगर ये बहुत सख्त हैं, तो कठिनाई होगी पीछे लौटने में। इसलिए बहुत गंभीर आदमी बचपन की स्मृति में नहीं लौट सकता। जिनको हम सीरियस कहते हैं, इस तरह के लोग रुग्ण होते हैं। असल में सीरियसनेस एक बीमारी है, मानसिक बीमारी है। जो बहुत गंभीर हैं, वे सदा बीमार होते हैं। उनका पीछे लौट आना बहुत मुश्किल है। थोड़ा—सा जिनका चित्त हलका है, निर्भार है, जो बच्चों के साथ खेल सकते हैं, जो बच्चों के साथ हंस सकते हैं, उनका लौटना बहुत आसान हो जाएगा।

तो बाहर की जिंदगी में फिक्सेशन को तोड्ने की फिक्र करें। चौबीस घंटे अपनी उम्र को याद मत रखें। और जब भी अपने बेटे से कहें, तो यह मत कहें कि मैं जानता हूं क्योंकि मेरी उम्र इतनी है। उम्र से जानने का कोई संबंध नहीं है। अपने छोटे बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार मत करें कि आपके और उसके बीच पचास साल का फासला है। दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाए।

एक स्त्री ने एक छोटी—सी किताब लिखी है—एक छोटे बच्चे के साथ बच्चा होकर रहने की। उस स्त्री की उम्र तो सत्तर साल है। सत्तर साल की स्त्री ने एक छोटा—सा प्रयोग किया है, एक पांच साल के बच्चे के साथ दोस्ती करने का। मुश्किल है बहुत, आसान मामला नहीं है। पांच साल के बच्चे का बाप होना आसान है, मां होना आसान है, भाई होना आसान है, गुरु होना आसान है, दोस्त होना बहुत मुश्किल है। कोई मां, कोई बाप दोस्त नहीं हो पाता। जिस दिन दुनिया में मां —बाप बच्चों के दोस्त हो सकेंगे, उस दिन हम दुनिया को आमूल बदल देंगे। यह दुनिया बिलकुल दूसरी हो जाएगी। यह दुनिया इतनी कुरूप, इतनी बदशक्ल नहीं रह जाएगी। लेकिन दोस्ती का हाथ ही नहीं बढ़ पाता।

उस स्त्री ने सच में एक अदभुत प्रयोग किया। उसने वर्षों तक वह प्रयोग किया। एक तीन साल के बच्चे से दोस्ती करनी शुरू की और पांच साल के बच्चे तक, दो साल की उम्र तक निरंतर दो साल उससे सब तरह की दोस्ती निभाई। उसकी दोस्ती का खयाल थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। वैसी स्त्री को पीछे लौट जाना बहुत आसान हो जाएगा।

वह सत्तर साल की बूढ़ी स्त्री उस बच्चे के साथ, जो उसका दोस्त है, समुद्र के तट पर गई है। तो बच्चा दौड रहा है, कंकड़—पत्थर बीन रहा है, तो वह भी दौड़ रही है, कंकड़—पत्थर बीन रही है। क्योंकि बच्चे और उसके बीच जो एज बैरियर है, जो आयु का बड़ा भारी व्यवधान है, वह टूटेगा कैसे! फिर वह कंकड़—पत्थर ऐसे नहीं बीन रही है कि सिर्फ दोस्ती बढ़ाने के लिए है। वह सच में उन कंकड़ों—पत्थरों को उस आनंद से देखने की कोशिश कर रही है, जिस से बच्चा देख रहा है। वह बच्चे की भी आंखें देखती है, अपनी आंखें भी देखती है, कंकड़ को भी देखती है, बच्चे का हाथ भी देखती है, अपना हाथ भी देखती है। बच्चा जिस पुलक से भरा है, वह क्या देख रहा है उन पत्थरों में, फिर वह बच्चा होकर देखने की कोशिश कर रही है। बच्चा जाकर समुद्र की झाग को पकड़ रहा है, फेन को पकड़ रहा है, तो वह भी पकड़ रही है। बच्चा तितलियों के पीछे दौड़ रहा है, तो वह भी दौड़ रही है। रात दो बजे बच्चा उठ आया और उसने उससे कहा कि चलें बाहर, झींगुरों की आवाज बहुत अच्छी आ रही है। तो उसने यह नहीं कहा कि सो जाओ। यह रात उठने की नहीं है। वह बच्चे के साथ हो ली है। और कहीं झींगुरों की आवाज न टूट जाए, इसलिए बच्चा संभलकर चल रहा है एक—एक कदम, तो वह भी संभलकर उसके पीछे चल रही है।

दो साल की यह दोस्ती अनूठे परिणाम लाई। और उस स्त्री ने लिखा है कि मैं भूल गई कि मैं सत्तर साल की हूं। और मैंने जो पांच साल का होकर कभी नहीं जाना था, वह सत्तर साल में पांच साल का होकर जाना। सारी दुनिया एक वंडर लैंड बन गई, सारा जगत परियों का जगत हो गया। मैं सच में दौडने लगी और पत्थर बीनने लगी और तितलियां पकड़ने लगी। उस बच्चे और मेरे बीच सारे आयु के फासले चले गए। वह बच्चा मुझसे ऐसी ही बातें करने लगा जैसे कि एक बच्चे से करता है। मैं उस बच्चे से ऐसी बातें करने लगी जैसे एक बच्चा बच्चे से करता है।

उसने पूरी किताब लिखी है अपने दो साल के अनुभवों की, सेंस आफ वंडर। और उसमें उसने लिखा है कि मैंने फिर से पा लिया आश्चर्य का भाव। अब मैं कह सकती हूं कि कहीं भी बड़े से बड़े संत ने अगर कुछ भी पाया होगा, तो इससे ज्यादा नहीं हो सकता, जो मुझे दिखाई पड़ रहा है।

जब जीसस से किसी ने पूछा कि कौन होंगे वे लोग जो तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे। तो जीसस ने कहा कि वे जो बच्चों की भांति हैं।

बच्चे शायद किसी एक बड़े स्वर्ग में रहते ही हैं। हम सब सिखा—पढ़ाकर उनका स्वर्ग छीन लेते हैं। लेकिन जरूरी है कि यह स्वर्ग छिने, क्योंकि छीना गया स्वर्ग जब वापस मिलता है, तो उसका अनूठापन और है। लेकिन वापस बहुत कम लोगों को मिल पाता है। पैराडाइज लास्ट की हालत तो बहुत लोगों की जिंदगी में होती है, पैराडाइज रिगेंड की हालत बहुत कम लोगों की जिंदगी में आती है। खोते तो हम सब हैं स्वर्ग को, लेकिन उस स्वर्ग की वापसी नहीं हो पाती। अगर मरते—मरते तक कोई फिर बच्चा हो जाए, तो स्वर्ग वापस लौट आता है। और अगर बूढ़ा आदमी बच्चे की आंखों से दुनिया को देख सके, तो उसकी जिंदगी में जैसी शाति और जैसा आनंद और जैसे ब्लिस की वर्षा हो जाती है, उसका अनुमान लगाना मुश्किल है।

तो बाहर की जिंदगी में जिन्हें पीछे जाति—स्मरण में लौटना है, उन्हें अपने एज के फिक्सेशन को तोड़ना पड़ेगा। कभी राह चलते किसी बच्चे का हाथ पकड़ कर उसके साथ दौड़ने लगें, भूल जाएं कि आपकी उम्र कितनी है। और मजा यह है कि उम्र सिर्फ याद है और कुछ भी नहीं है। उम्र सिर्फ याद है, सिर्फ खयाल है। एक विचार जो मजबूती से पकड़ गया है। बाहर की जिंदगी में उम्र के फिक्सेशन को तोड़े और भीतर की जिंदगी में जब ध्यान को बैठें, तो एक—एक साल पीछे खिसकने लगें। एक—एक जन्म—दिन वापस पीछे लौट आने लगें। धीरे — धीरे लौटें, तो इस जन्म के आखिरी तक लौटने में कोई कठिनाई नहीं है। पिछले जन्म में भी लौटने की प्रक्रिया यही होगी। सिर्फ इस जन्म से दूसरे जन्म में जाने का जो’ सूत्र है, वह मैं नहीं कह सकता हूं। उसको न कहने का कारण है। क्योंकि अगर कोई सिर्फ कुतूहलवश उसका प्रयोग करे, तो पागल हो सकता है। क्योंकि अगर पिछले जन्म की स्मृतियां एकदम से टूट पड़े, तो उन्हें संभालना मुश्किल है।

मेरे पास एक लड़की को लाया गया। जिसकी उम्र जब उसे मेरे पास लाये थे तो शायद म्यारह साल की थी। उसे तीन जन्मों की स्मृति है। किसी कारण से नहीं, आकस्मिक, प्रकृति की किसी भूल से। उसे तीन जन्म स्मरण हैं। प्रकृति बहुत इंतजाम करती है कि आपके पिछले जन्म की पूरी की पूरी परत को दबा देती है और इस जन्म की स्मृतियां उस परत के पार बननी शुरू होती हैं। वह परत गहरे रूप से आपके पिछले जन्म को आपसे तोड़े रखती है।

इसलिए जिन मुल्कों में यह खयाल है—जैसे मुसलमान मुल्कों में या ईसाई मुल्कों में—कि पिछला जन्म नहीं होता है, जिन मुल्कों में यह खयाल है कि पिछला जन्म नहीं होता है, उन मुल्कों में पिछले जन्म की स्मृति के बच्चे पैदा नहीं होते, क्योंकि उस तरफ ध्यान ही नहीं जाता। जैसे हमने पक्का मान रखा है कि इस दीवाल के पार कुछ भी नहीं है, तो हम धीरे — धीरे इस दीवाल की तरफ देखना ही बंद कर देते हैं। लेकिन इस देश में जैनों में, बौद्धों में, हिंदुओं में कितना ही मतभेद हो, एक बात में मतभेद नहीं है, वह है पिछले जन्मों का अस्तित्व। वह पुनर्जन्म की यात्रा में कोई भी भेद नहीं है। इसलिए इस देश का चित्त हजारों साल से पिछले जन्म के होने की संभावना से भरा हुआ है।

तो कई बार अचानक यह संभावना होती है कि अगर पिछले जन्म में मरते वक्त कोई व्यक्ति बहुत गहरा भाव लेकर मर गया हो कि मुझे याद रह जाए, तो याद रह जाएगा। एक मरता हुआ व्यक्ति अगर यह बहुत गहरा भाव रख ले कि जो मैं इस जिंदगी में था वह मुझे याद रह जाए, तो बिना किसी यौगिक प्रक्रिया के, बिना किसी ध्यान के प्रयोग के, उसे अगले जन्म में याद रह जाएगा। लेकिन तब वह दिक्कत में पड़ जाएगा।

उस लड़की को जब मेरे पास लाए, उसे तीन जन्मों की घटनाएं याद थीं। पहला जन्म उसका आसाम में हुआ जहां वह सात साल की लडकी होकर मर गई। तो सात साल की लड़की जितनी आसामी बोल सकती है, उतनी वह बोलती है। सात साल की लड़की जितने आसामी—नाच नाच सकती है, उतना वह नाचती है। हालाकि वह तो पैदा हुई मध्यप्रदेश में अभी, आसाम कभी गयी नहीं, आसामी भाषा से कोई संबंध नहीं है। दूसरा जन्म उसका मध्यप्रदेश में ही हुआ, कटनी में। और वहां वह कोई साठ साल की होकर मरी। सढ़सठ वर्ष। और अभी उसकी ग्यारह साल उम्र है, तो अट्ठत्तर। उसकी ग्यारह साल की उम्र तब थी जब मेरे पास लाए थे। उसकी आंखें आप देखें तो अट्ठत्तर साल की की स्त्री की जैसी आंखें हों, चेहरा जैसा अट्ठत्तर साल की बूढ़ी स्त्री का हो। है तो वह ग्यारह साल की लड़की का, लेकिन उतना ही पीला, जर्द, चिंतित, परेशान, जैसे मौत करीब हो। क्योंकि उसकी स्मृतियों की श्रृंखला अट्ठत्तर वर्ष की है। उसके भीतर उसे अट्ठत्तर साल के स्वीकेंस, श्रृंखला का बोध है।

और उसकी कठिनाई बहुत बढ गई, क्योंकि उसके पिछले जन्म के जो लोग हैं, उसके संबंधी, वे सब जबलपुर में मेरे पड़ोस में रहते थे। इसीलिए वे उसे मेरे पास ले आए। उसने अपने पिछले जन्म के सारे संबंधियों को हजारों की भीड़ में पहचाना। कोई उसका लड़का है, कोई उसकी बहू है, कोई उसकी लड़की का लड़का है, कोई कोई है। हजारों की भीड़ में छिपा कर खड़ा किया गया और उस लड़की ने उन सबको पहचाना। जिस घर में वह थी अब तो वह घर उन्होंने छोड़ दिया, वह तो कोई गांव में घर है। अब तो वे जबलपुर में रहते हैं। उसने उस घर में गड़ा हुआ धन भी बताया जो खोद लिया गया और मिल गया।

जो पड़ोस में मेरे सज्जन रहते हैं जिनकी वह पिछले जन्म में बहन थी, बड़ी बहन थी, उनके सिर पर एक चोट है। तो उस लड़की ने जैसे ही उनको पहचाना, पहली बात यह पूछी कि अरे यह चोट अभी तक मिटी नहीं। तो उन्होंने कहा कि यह चोट मुझे कब लगी पता नहीं, क्या तुम बता सकती हो कि यह चोट कब लगी? उसने कहा कि यह चोट जब तेरी शादी हुई तू घोड़े पर बैठा तो गिर पड़ा, घोडा बिचक गया और तू गिर पड़ा। लेकिन तब उसकी उम्र कोई आठ या नौ साल की थी, जब उसकी शादी हुई थी। तो उसे भी याद नहीं है। तब इस बात का पता लगवाया गया उनके गांव में कि किसी को भी क्या इस बात की याद है! और एक की औरत ने इस बात की गवाही दी कि ही, यह लड़का गिरा था। और इसको चोट लग गयी थी, और यह घोड़े से ही गिरने की इसकी चोट है। हालाकि उसको खुद याद नहीं है।

इस लड़की के पिता को मैंने कहा कि इसकी स्मृतियां भुला देने का उपाय करें। मैं इसमें थोड़ा सहयोगी हो सकता हूं। इसे ले आएं तो इसकी स्मृति सात दिन में भुला दी जाए। अन्यथा यह लड़की मुश्किल में पड़ जाएगी। उसकी कठिनाई बहुत थी। क्योंकि न तो वह स्कूल में पढ़ सकती थी, क्योंकि अट्ठत्तर साल की बूढ़ी स्त्री को आप स्कूल में भरती कर सकते हैं? वह कुछ सीख नहीं सकती, क्योंकि वह सीखी ही हुई है। वह खेल नहीं सकती लड़की। उसका बचपन जैसी कोई चीज ही नहीं है। क्योंकि खेले कैसे? अट्ठत्तर साल की बूढ़ी औरत कैसे खेल सकती है! वह गंभीर है, वह घर में हर एक की आलोचना करती है। वह उतनी ही कलह से भरी हुई है जितना अट्ठत्तर साल की स्त्री या पुरुष भर जाते हैं। वह घर—घर में सबकी आलोचना, निंदा और सबका कौन क्या गडबड़ कर रहा है उस सबका हिसाब रखती है, अभी इस उम्र में। तो मैंने कहा कि यह लड़की पागल हो जाएगी, इसकी स्मृति भुलवा दें।

लेकिन उसके घर के लोगों को तो आनंद आ रहा था। क्योंकि भीड़ लगती थी, लोग देखने आते थे। कोई पैसे भी चढ़ाने लगा, नारियल, फल और मिठाई भी आने लगी। राष्‍ट्रपति ने दिल्‍ली भी बुलवाया। अमरिका से भी एक निमंत्रण आ गया कि उसको अमेरिका ले आओ। तो वे बड़े खुश थे। उन्‍होंने मेरे पास लाना बंद कर दिया। उन्‍होंने कहा कि नहीं, हम भुलाना नहीं चाहते। यह तो बड़ी अच्‍छी बात है।

आज इस बात कोई सात साल हो गये। आज वह लड़की पागल है। अब वे मुझसे कहते है आकर कि अब आप कुछ करिये। मैंने कहा कि अब बहुत मुश्‍किल मामला हो गया है। जब कुछ हो सकता तब आप आप राजी नहीं हुए। अब तो होश ही नहीं है उसको। अब तो अनर्गल हालत में कनफ्यूज हो गयी है। अब तो उसको यह भी पता नहीं चलता कि कौन सी स्मृति किस जन्म की है। यह भाई इस जन्म का है कि पिछले जन्म का है, यह पिता इस जन्म का है कि पिछले जन्म का, वह सब कनफ्यूज हो गया।

प्रकृति की व्यवस्था ऐसी है कि आप जितना झेल सकते हैं, उतनी ही आपको स्मृति रह जाती है। इसलिए दूसरे जन्म की स्मृतियों के पहले विशेष साधना से गुजरना जरूरी होता है, जो आपको इस योग्य बना दे कि अब आपको कोई चीज कनक्यूज नहीं कर सकती।

असल में दूसरे जन्म की स्मृति में जाने के लिए सबसे जरूरी जो शर्त है, वह यह है कि जब तक आपको यह जगत एक सपने की भांति मालूम न होने लगे—स्व लीला, एक खेल—तब तक आपको पिछले जन्म की स्मृति में ले जाना उचित नहीं है। क्योंकि अगर आपको यह जगत एक खेल मालूम होने लगे, तो फिर कोई डर नहीं है। फिर आपके चित्त पर कोई चोट पड़ने वाली नहीं है। खेल की और स्मृतियां हैं, उनसे कोई हर्जा होने वाला नहीं है।

लेकिन अगर आपको यह जगत बहुत वास्तविक मालूम हो रहा है, और आप अगर अपनी पत्नी को बहुत वास्तविक मान रहे हों, और कल आपको स्मरण आ जाए कि पिछले जन्म में वह आपकी मां थी, तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। कि अब क्या करें! इसको पत्नी मानें कि मां मानें।

एक महिला ने मेरे पास प्रयोग करना शुरू किया। उसको मैं मना करता रहा कि इसमें कोई कुतूहल की जरूरत नहीं है। लेकिन कुतूहल था, पर वह नहीं मानती थी। मैंने कहा, इस प्रयोग को करें। और जब प्रयोग हुआ, तो भुलाने में बड़ी मेहनत लेनी पड़ी। क्योंकि उनको स्मरण आया कि वह पिछले जन्म में वेश्या थी। यह उसके आज के नीतिवान, सती—साध्वी चित्त को भारी पड़ा। उसने कहा मुझे ऐसा याद ही नहीं करना है। लेकिन अब इसे भुलाना बहुत मुश्किल है। किसी चीज को याद करना तो बहुत आसान है, किसी चीज को भुलाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जो तथ्य एक दफा हमारे ज्ञान में हिस्सा बन जाए, उसको ज्ञान के बाहर करने में बड़ा कठिन मामला हो जाता है।

तो इसलिए जान कर ही मैंने एक सूत्र उसमें नहीं कहा है। वह यह कि इस जन्म से पिछले जन्म में कैसे प्रवेश करें। लेकिन अगर इस जन्म की स्मृतियां आपको आ जाएं, तो जिसको भी इस जन्म की पूरी स्मृतियां आ जाएं, उसे वह सूत्र बताया जा सकता है। लेकिन वह व्यक्तिगत बात है। उसकी सामूहिक चर्चा नहीं हो सकती है। और न ही उसकी सामूहिक चर्चा करना उचित है। क्योंकि हमारा मन कुतूहल से न मालूम कितने काम करता है। अधिकतर हम में से लोग कुतूहल में ही जीते हैं, एक क्यूरिआसिटी होती है कि जरा झांक कर देख लें, क्या होता है। लेकिन झांककर देखना कभी खतरनाक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि ऐसी कोई बात उठ जाए जो कि पीछे से दबायी न जा सके। लेकिन इस जन्म का जरूर प्रयोग करें। इस जन्म का प्रयोग जब आपके लिए आनंदपूर्ण हो जाए, और इस जन्म की सारी स्थिति जब आपको क्यों…..।

जैसे ही आप अपनी पिछली स्मृतियों को फिर से री—लिबड कर सकेंगे, वैसे ही आपको पता चलेगा कि यह सब सपने से ज्यादा नहीं है। तब आप यह भी जानते हैं कि जिसको आज आप बहुत गंभीरता से ले रहे है—कि दुकान पर नुकसान है कि लाभ है, कि पत्नी आज झगड़ी है, कि पिता आज नाराज हुआ है, कि बेटा घर छोड्कर चला गया है, कि बेटी ने किसी अनचाहे आदमी से शादी कर ली है —जिसको आज आप बहुत गंभीरता से ले रहे हैं, कल यह आपकी स्मृति के कबाड़खाने में पड़ जाने वाला है। जब आपको पिछली स्मृतियां याद आएंगी, तो आप हैरान हो जाएंगे कि आपने कितने क्षणों को कितना गंभीर समझा था, आज वह कहीं भी नहीं है। एक क्षण में उन क्षणों ने आपको ऐसा पकड़ लिया था कि जीने और मरने का सवाल हो गया था। आज उनका कोई मूल्य नहीं है। राख की तरह रास्ते पर कहीं वे पड़े रह गए हैं, कहीं कचरे के ढेर पर इकट्ठे हो गए हैं। आज उनका कोई मतलब नहीं है।

अगर पिछली स्मृतियों को हम देखें, तो दो बातें होंगी। एक तो यह होगी कि जिसको हमने बहुत गंभीरता से लिया था, वह कुछ गंभीर सिद्ध नहीं हुआ। हम उसे भूल गए। इतना गंभीर भी नहीं सिद्ध हुआ कि उसे याद रखें। जिसके लिए हम जीवन दाव पर लगा देते हैं, आज वह कहीं भी नहीं है। तो आज आपका जीवन भिन्न हो जाएगा। क्योंकि तब आपको दिखाई पडेगा कि जिस चीज पर आज आप मरने —मारने को उतारू हैं, वह कल ऐसे ही कचरे के ढेर पर पड़ी रह जाने वाली है। एक—दो क्षण रुक जाओ, और सब बेकार हो जाएगा। एक—दो क्षण प्रतीक्षा करो और सब स्मृति बन जाएगी। और इस जगत में जहां हमारे सारे जीवन का कुल फल स्मृति का बनना होता है, तो हमारी आम जिंदगी और एक अभिनेता की जिंदगी में फर्क क्या है? आखिर अभिनेता जो जीता है, आखिरी कुल परिणाम में एक फिल्म बनती है, जिसको पर्दे पर देखा जा सकता है। और हम जिसको जीते हैं, कुल अर्थों में एक स्मृति की फिल्म बनती है, जिसको फिर से देखा जा सकता है।

हम जिसको जिंदगी कह रहे हैं, वह कैमरे की फोकसिंग से ज्यादा कहां है! और जिन क्षणों को हम कहते थे, बड़े महत्वपूर्ण हैं, वे सब एक पर्दे पर टंग गए हैं। आज उनका मूल्य एक फिल्म से ज्यादा क्या है! ही, फर्क इतना है कि एक फिल्म आप अपनी पेटी में बंद कर सकते हैं, इस फिल्म को आपको स्मृति की पेटी में बंद करना पड़ा है। इससे ज्यादा कुछ फर्क नहीं है।

और यह जो हमारी स्मृति की पेटी है, यह उतनी ही फिल्म है। आज नहीं कल, बहुत कठिन नहीं है कि विज्ञान ऐसे साधन खोज लेगा कि यह स्मृति को निकाल कर पर्दे पर दिखा दे। इसमें कोई बहुत अड़चन नहीं है। क्योंकि आखिर हम भी जब आख बंद करके देखते हैं तो आख के पर्दे पर उसी फिल्म को वापस प्रोजेक्ट करते हैं। जब आप सपना देखते हैं, तब आपकी आख ऐसे ही चलती रहती है, जैसे फिल्म को देखते वक्त चलती है। अगर कोई सपना देख रहा है, तो उसके दोनों पलकों पर उंगली रखकर पता लगाया जा सकता है कि वह सपना देख रहा है कि नहीं देख रहा है। क्योंकि उसकी पुतली भीतर अगर चलती है, तो समझो कि सपना देख रहा है, अगर नहीं चलती, तो समझो सपना नहीं देख रहा है। पलक के ऊपर से ही पता चल जाएगा कि पुतलियां अंदर नीचे —ऊपर हो रही हैं। वह पूरे वक्त देख रहा है कुछ। वह जो देख रहा है, क्या देख रहा है? एक फिल्म देख रहा है।

जब ध्यान में आप पिछले जन्मों का भी स्मरण कर सकें और जाति —स्मरण का प्रयोग इसीलिए था। असल में महावीर और बुद्ध तो किसी व्यक्ति को दीक्षा ही नहीं देते थे जब तक उसको जाति—स्मरण न करवा लें। और इसलिए आज का जो दीक्षित साधु है, न तो वह दीक्षित है, न साधु है। वह दोनों ही बातें नहीं हैं। उसको कुछ पता ही नहीं है।

अब एक जैन मुनि मेरे पास आए कुछ दिन हुए और उन्होंने मुझे आकर कहा कि मुझे ध्यान सिखाइए। मैं आचार्य तुलसी का साधु हूं। उनसे मैंने दीक्षा ली है। तो मैंने उनसे पूछा कि जब आचार्य तुलसी से दीक्षा ली और ध्यान नहीं सीखा, तो और क्या सीखा? दीक्षा किस लिए ली? दीक्षा का मतलब क्या होता है? ध्यान मुझसे पूछने आए हो, तो दीक्षा किसलिए ली? जब ध्यान ही नहीं सिखाया जा सका, तो और क्या सिखाया गया वहां? आचार्य तुलसी कौन—सा व्यवसाय करते हैं दूसरा? दीक्षा का मतलब यह होता है कि ध्यान में प्रवेश करवाया हो, तब दीक्षा हो सकती है।

महावीर और बुद्ध तो दीक्षा तब देते जब जाति—स्मरण हो जाए। जाति—स्मरण अर्थात पिछले जन्म का स्मरण हो जाए। क्योंकि महावीर का कहना यह था कि जब तक तुम्हें पिछले जन्मों का स्मरण न आ जाए, तब तक तुम जिंदगी के प्रति गंभीरता का भाव छोड़ ही नहीं सकते।

एक दफा एक आदमी को याद आ जाए कि मैंने पिछले वक्त भी एक स्त्री को प्रेम किया था और उससे भी कहा था कि तेरे बिना एक क्षण भी जी नहीं सकता। उसके पहले भी एक स्त्री को प्रेम किया था, उसको भी यही कहा था। उसके पहले भी एक स्त्री को प्रेम किया था और उसको भी यही कहा था। आदमी होने के पहले जानवर था, तब मादाओं से कहा था कि तेरे बिना किसी दिन जी नहीं सकता। पक्षी था, तब किसी और से यही कहा था। यही कहता रहा हूं। यह कोई आज नहीं कह रहा हूं। तो जब आज ऐसा आदमी किसी स्त्री से कहने जाएगा कि तेरे बिना नहीं जी सकता हूं, तब उसे हंसी आ जाएगी। क्योंकि वह मजे से जी सकता है। वह बहुत जन्मों से जी रहा है।

एक आदमी ने पिछले जन्म में भी पद पाना चाहा था और सम्राट हो गया था। और सोचा था कि पद पा लूंगा, तो सब हो जाएगा। फिर कुछ भी नहीं हुआ, मर गया फिर। उसके पहले भी पद पाना चाहा था, पद पा लिया था। उसके पहले भी पद पा लिया था। आज वह आदमी फिर पद की दौड़ में दिल्ली जा रहा था। अगर उसको दिल्ली के बीच के स्टेशन में पिछले जन्म का स्मरण आ जाए, तो वह वापस लौट आएगा और कहेगा, यह तो बेकार है। अब हम फिर दिल्ली चले! हम कई दफे दिल्ली जा चुके हैं। और आखिर मरने के सिवाय कुछ भी नहीं होता।

एक आदमी ने जन्मों —जन्मों में जो किया है, वही वह फिर करना चाह रहा है, लेकिन उसे स्मरण नहीं है। उसे स्मरण आ जाए, तो फिर उसी को करना असंभव है। तब तक कोई आदमी संन्यासी नहीं हो सकता, जब तक यह जगत उसको स्वप्न न हो जाए। और यह जगत स्वप्न कैसे होगा? यह जगत स्वप्न हो सके, इसके लिए जाति — स्मरण है।

इस जन्म के स्मरण में जाओ। और जब इस जन्म के स्मरण में जाने लगो और किसी दिन कुतूहलवश नहीं, लेकिन ऐसा लगे कि अब मन निर्भार हुआ है, इस जन्म को तो देख ही लिया है एक सपने की तरह, अब पीछे जन्मों को भी सपने की तरह देखने की क्षमता आ गई है, तो सूत्र बताया जा सकता है। लेकिन वह व्यक्तिगत है।

जो भी मैं प्रयोग सामूहिक करवा रहा हूं, वे ऐसे प्रयोग हैं जिनसे आपको कोई भी नुकसान न हो सके। जो बातें मैं सामूहिक रूप से कह रहा हूं, वे ऐसी बातें हैं जिनसे आप वहीं तक जा सकते हैं जहां तक खतरा नहीं है। वहां तक आप चले जाएं, तो आगे के सूत्र तो व्यक्तिगत —होंगे। इसलिए जो लोग शीघ्रता से गति करेंगे, उनसे मैं वे बातें कहना शुरू करूंगा जो सबके सामने नहीं कही जा सकतीं। जैसे ही ऐसे लोग तैयार हो जाएंगे, वैसे ही वे बातें कही जा सकती हैं। लेकिन वे निपट व्यक्तिगत हैं, निजी हैं। उनको सबके सामने कहने का कोई प्रयोजन नहीं है।

भगवान श्री क्या— क्या बिंदु हैं जो गर्भ को श्रेष्ठ जीवात्मा के आने योग्य या निकृष्ट जीवात्मा के आने योग्य बनाते हैं? श्रेष्ठ आत्मा गर्भ में उतर सके इसके लिए क्या— क्या तैयारियां करनी पड़ती हैं? कैसे करनी पड़ती हैं? और बुद्ध महावीर कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग जिस गर्भ में आए उसकी क्या— क्या विशेषताएं थी सामान्य गर्भों की तुलना में?

हुत—सी बातें विचार करनी पड़े। एक तो संभोग का क्षण जितनी पवित्रता का क्षण हो, उतनी पवित्र आत्मा को आकर्षित कर सकता है। लेकिन काम की इतनी निंदा की गई है कि संभोग का क्षण मुश्किल से ही पवित्रता का हो पाता है। काम को, यौन को अपवित्र सिद्ध ही कर दिया गया है। वह हमारे चित्त में अपवित्र होकर बैठ ही गया है। पति—पत्नी का जो मिलन है, वह एक पाप की अंधेरी छाया के बीच घटित होता है। वह एक आनंद, एक पवित्रता, एक प्रार्थना के बीच घटित नहीं होता। स्वभावत:, इस छाया के आसपास पवित्र आत्मा का प्रवेश संभव नहीं है। तो पवित्र आत्मा के प्रवेश की पहली तो शर्त है कि पवित्र क्षण हो।

मेरी दृष्टि में, संभोग का क्षण प्रार्थना का क्षण है। और प्रार्थना के बाद ही पति—पत्नी को संभोग में जाना चाहिए। ध्यान के बाद ही जाना चाहिए। इसके दोहरे परिणाम होंगे। इसका एक परिणाम तो यह होगा कि ध्यान के बाद वर्षों तक वे संभोग में जा न सकेंगे। पहला तो परिणाम यह होगा। अगर ध्यान के बाद संभोग में जाने की चेष्टा की, तो ध्यान के बाद पहली तो बात है कि जा न सकेंगे। क्योंकि ध्यान में जैसे ही जाएंगे कि वासना तिरोहित हो जाएगी। तो ध्यान उनके जीवन में ब्रह्मचर्य का मार्ग बन जाएगा। वर्षों बीत जाएंगे।

यह वर्षों की जो पवित्रता है, अनसप्रेस्ट, यह दमन नहीं है। यह कोई लिया हुआ व्रत नहीं है कि पति और पत्नी ताले लगाकर अलग— अलग कमरों में सो रहे हैं, या पति मंदिर में गए हैं सोने कि वे ब्रह्मचर्य का व्रत साध रहे हैं। यह कोई ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं है, यह सहज फलित ब्रह्मचर्य है। जो ध्यान के बाद संभव नहीं होता कि संभोग में जाया जा सके। क्योंकि इतने रस, इतने आनंद में चित्त डूब जाता है कि संभोग के लिए कौन उतरे।

तो पति—पत्नी अगर दोनों नियमित रूप से ध्यान कर सकें, तो वर्षों तक संभोग न कर सकेंगे। इसके दोहरे परिणाम होंगे। एक तो ऊर्जा बहुत सक्रिय और सघन हो जाएगी। पवित्र आत्माओं को जन्म देने के लिए अत्यंत शक्तिशाली बिंदु चाहिए। निर्बल बिंदु काम नहीं कर सकते। तो जिस संभोग के पहले वर्षों का ब्रह्मचर्य है, वही संभोग शक्तिशाली आत्मा के लिए प्रवेश देने में समर्थ हो सकता है।

फिर जब वर्षों के ध्यान के बाद किसी दिन कोई संभोग में जा सकेगा, यानी ध्यान आज्ञा देगा कि जा सको, तब स्वभावत: वह क्षण पवित्रता का क्षण होगा। क्योंकि अगर वह अपवित्रता का थोड़ा भी रह गया होता, तो अभी ध्यान ने आशा न दी होती। ध्यान जब आशा देता है कि ध्यान के बाद भी संभोग में जाने की संभावना बनती है, तब उसका अर्थ ही यही है कि अब संभोग ने भी एक पवित्रता ले ली है। उसकी अपनी एक डिवाइननेस, अपनी भगवत्ता हो गई। अब इस भगवत्ता के क्षण में वे दो व्यक्ति जब जाते हैं संभोग में, उचित होगा कि हम कहें कि अब वे शारीरिक तल पर नहीं मिल रहे हैं, अब यह मिलन बहुत आत्मिक है। शरीर भी बीच में है, लेकिन मिलन शारीरिक नहीं है। शरीर भी मिल रहे हैं, लेकिन मिलन गहरा है और आत्मिक है।

तो पवित्र आत्मा को अगर जन्म देना हो, तो वह सिर्फ बायोलाजिकल घटना नहीं है, सिर्फ जैविक घटना नहीं है। दो शरीर के मिलने से तो सिर्फ हम एक शरीर को जन्मने की सुविधा देते हैं। लेकिन जब दो आत्माएं भी मिलती हैं, तब हम एक विराट आत्मा को उतरने की सुविधा देते हैं।

महावीर या बुद्ध के जन्म इसी तरह के जन्म हैं। जीसस का जन्म तो और भी अदभुत है। इनके संबंध में थोड़ी बात समझनी उचित है। महावीर या बुद्ध के जन्म पूर्व घोषित जन्म हैं, जिनकी प्रतीक्षा वर्षों से की जा रही थी। और पूर्व घोषणाओं ने सब सूचनाएं दी हैं। यहां तक सूचना है कि महावीर के जन्म के पहले उनकी मां को कितने स्वप्न आएंगे। पहला स्वप्न क्या होगा, दूसरा क्या होगा, तीसरा क्या होगा, चौथा क्या होगा। यह महावीर का पिछला जन्म घोषित करके गया है। महावीर अपने पिछले जन्म में यह घोषणा करके गए हैं कि मेरा अगला जन्म इतने स्वप्नों के साथ होगा। जहां इतने स्वप्न घटित हों, समझना कि मैं प्रविष्ट हुआ हूं। तो पूरे प्रतीक दे गए हैं। सफेद हाथी दिखाई पड़ेगा या कमल दिखाई पड़ेगा या और कुछ, ये सारे प्रतीक हैं। वे सारे प्रतीक दे दिए गए हैं। उनकी प्रतीक्षा की जा रही थी कि कौन स्त्री कब घोषणा करे कि उसके ये —ये स्वप्न पूरे हो गए।

बुद्ध के लिए भी प्रतीक दिए गए हैं। और जब बुद्ध का जन्म हुआ, तो दूर हिमालय से एक संन्यासी आया। जो कि प्रतीक्षा कर रहा है और बड़ा चिंतित है कि मैं मर न जाऊं। ऐसा न हो कहीं कि बुद्ध पैदा न हो पाएं और मैं मर जाऊं। और जब वह भिक्षा मांगने आया, तो उसने बुद्ध के पिता को कहा कि घर में नया बच्चा आया है, मैं उसके दर्शन करना चाहता हूं। तो पिता तो बहुत हैरान हुए, क्योंकि वह संन्यासी बहुत ख्यातिनाम था। उसकी बड़ी प्रसिद्धि थी, उसके हजारों भक्त थे। उसकी बड़ी ख्याति थी, उसकी बड़ी कीर्ति थी, वह बड़ा दिव्य पुरुष था। उसने कहा, मैं दर्शन करना चाहता हूं। तो पिता तो बहुत हैरान हुए, लेकिन फिर खुश भी हुए। क्योंकि पत्नी ने भी स्वप्न कहे थे कि ये स्वप्न आए हैं और फिर दूसरे दिन यह संन्यासी उपस्थिति हुआ पहले दिन के बच्चे को देखने के लिए।

और पहले दिन का बच्चा संन्यासी के सामने लाया गया, तो संन्यासी छाती पीटकर रोने लगा। तो बुद्ध के पिता तो बहुत घबड़ा गए। उन्होंने कहा कि क्या कोई अपशकुन है? आप रोते हैं? संन्यासी ने कहा, तुम्हारे बेटे के लिए कोई अपशकुन नहीँ है। रोता हूं अपने लिए कि वह आदमी पैदा हो गया जिसके चरणों में बैठने से कल्पों—कल्पों का आनंद मिल सकता था। लेकिन मेरे तो मरने का वक्त आ गया है और अभी तो इसे देर है कि यह बड़ा हो, प्रकट हो। इतनी देर मैं न रुक सकूंगा। मेरे जाने का क्षण आ गया।

जब जीसस का जन्म हुआ, तो सारी दुनिया में प्रतीक्षा की जा रही थी। विशेषकर सारे मध्य एशिया में प्रतीक्षा की जा रही थी। और सूचना थी कि विशेष रूप से चार तारे प्रकट होंगे जब जीसस का जन्म होगा। और जिन लोगों को भी उस सीक्रेट का पता था.. न्। हिंदुस्तान से भी एक आदमी जीसस के जन्म पर बधाई देने गया था। एक आदमी इजिप्ट से गया था। दो आदमी और दूसरे देशों से गए थे। ये चारों आदमी जब इनको चार तारे दिखाई पड़े आकाश में, जिनको इसकी सूचना थी कि इन चार तारों के साथ जीसस का जन्म होने वाला है, तो ये भागे उस बच्चे की तलाश में कि वह बच्चा कहां है। और पहले से यह प्रतीक शइचत किया गया था कि जो इन तारों को पहचान लेंगे, तारे मार्ग दिखाएंगे। तारे आगे भागते गए और यात्री पीछे गए।

हेरोथ को, जो सम्राट था जीसस के वक्त में,,. इजिप्ट से जो ज्ञानी उन तारों की खोज में गया था, वह पहले हेरोथ के पास गया और उसने जाकर सम्राट हेरोथ को कहा कि तुम्हें पता नहीं, सम्राट पैदा हो गया! पर हेरोथ तो समझ ही नहीं सकता था कि यह सम्राट का क्या मतलब है। उसने तो समझा कि उसका कोई दुश्मन पैदा हो गया, उसे कोई समाप्त कर देगा। इसलिए उसने जेरूशलम में जितने बच्चे पैदा हुए थे सब कटवा दिए। लेकिन यह खबर मरियम तक पहुंच गई और वह लेकर भाग गई बच्चे को। यह खबर पहले ही पहुंच गई थी, वह पहले ही भाग गई थी। जीसस का जन्म एक अस्तबल में हुआ, जहां घोड़े बंधे थे और गंदगी पड़ी थी और जहां कोई रोशनी नहीं थी। वहां छिपकर एक अस्तबल में जीसस का जन्म हुआ।

जीसस के जन्म की कथा बुद्ध और महावीर के जन्म की कथा से भी एक अर्थ में विशेष है। और वह विशेषता यह है, जैसे तुम पूछ रहे हो कि ऐसे महान पुरुषों को जन्म देना हो तो क्या करना पड़े। जीसस की आत्मा को जन्म लेना था। मां तो उपलब्ध थी, लेकिन बाप उपलब्ध नहीं था। और बड़ी जिच पैदा हो गई थी। मरियम तो इस योग्य थी कि जीसस को जन्म दे सके, लेकिन मरियम का पति इस योग्य नहीं था कि जीसस को जन्म दे सके। इसलिए आज तक कहा जाता है कि जीसस कुंवारी मरियम से पैदा हुए। उसे कहने का कारण है। बाप बेमानी था, वर्जिन से पैदा हुए, कुंवारी से पैदा हुए। उसे कहने का कारण है।

इसलिए एक अशरीरी आत्मा को जीसस के पिता में प्रवेश करना पड़ा, जिसको वे होली घोस्ट कहते हैं। और जीसस के पिता के माध्यम से एक दूसरी आत्मा जीसस के पिता की जगह मौजूद रही। जीसस के पिता मौजूद नहीं थे, शरीर मौजूद था। जैसा मैंने कहा कि शंकर ने किसी शरीर में प्रवेश किया, ऐसे ही एक आत्मा ने जीसस के पिता में प्रवेश किया और जीसस का जन्म हुआ। इसलिए जीसस का पिता कह सका कि मेरा तो कोई हाथ ही नहीं। उसे तो कोई पता भी नहीं है। कब क्या हुआ, उसे कुछ मालूम नहीं। मरियम कुंवारी ही है उसकी दृष्टि में और कुंवारी को बेटा हुआ है। वह बेहोश था पूरा। उसके शरीर का सिर्फ एक माध्यम की तरह उपयोग किया गया है।

लेकिन क्रिश्चियनिटी को यह सूत्र साफ नहीं है। इसलिए क्रिश्चियन पुरोहित बेचारा किसी तरह सिद्ध करता रहता है कि नहीं, वह वर्जिन से पैदा हुए। लेकिन उसे कुछ पता नहीं कि वर्जिन से पैदा होने का मतलब क्या है। वह सिद्ध कर भी नहीं पाता।

और जीसस के खिलाफ पश्चिम में जो सबसे बड़ी बात कही जाती रही है और जिसका उत्तर

जीसस को माननेवाला नहीं दे पाया, वह यह है कि कुंवारी लड़की से बेटा पैदा कैसे हो सकता है? यह अवैज्ञानिक है। यह बात ठीक है, कुंवारी लड़की से बेटा पैदा नहीं हो सकता, लेकिन यह बेटा कुंवारी लड़की से इस अर्थ में पैदा हुआ था कि इसका पिता गैर मौजूद था, सिर्फ माध्यम था। इसके पिता का कांशसली पिता होना नहीं था इस घटना में। उसे कुछ भी पता नहीं था, उससे सिर्फ एक इंन्यूमेंट का काम लिया गया है और घटना को जुटाना पड़ा है।

बहुत बार ऐसा हुआ है कि बहुत—सी श्रेष्ठ आत्माएं पैदा होना चाहती हैं, लेकिन श्रेष्ठ गर्भ हम नहीं जुटा पाते। और आज तो बहुत मुश्किल हो गया है, श्रेष्ठ गर्भ जुटाना करीब—करीब असंभव हो गया है। क्योंकि गर्भ का विज्ञान ही खो गया है। आज जिसको हम गर्भाधान कह रहे हैं, वह बिलकुल ही पशुओं जैसा है। उस गर्भाधान में कोई विज्ञान नहीं है। अब जिन्होंने इसका सारा खयाल किया था, उन्होंने सारी बात तय की थी। जैसे, घड़ी और पल—पल का हिसाब रखा था। विशेष घड़ियों में, विशेष क्षणों में……. जैसा हमको अंदाज नहीं होता साधारणत:।

आपको शायद पता नहीं होगा कि पूर्णिमा के दिन अधिकतम लोग पागल होते हैं। अमावस के दिन सबसे’ कम लोग पागल होते हैं। अभी तक विज्ञान साफ नहीं कर पाता कि बात क्या है। जरूर पूरा चांद हमारे भीतर विक्षिप्तता को लाता है। जैसे वह समुद्र में उठाव लाता है, ऐसे ही कुछ हमारी चित्त की वृत्तियों में भी विक्षिप्तता की तरफ उठाव लाता है। अंग्रेजी में एक शब्द है लूनाटिक, उसका मतलब होता है चांदमारा। कार यानी चांद, और लूनाटिक यानी चांदमारा। चांद का हमला हुआ है, जो आदमी पागल हो गया है उस पर।

प्रत्येक चौबीस घंटे की प्रत्येक घड़ी और पल का हिसाब है कि प्रत्येक घड़ी और पल के बीच इस पृथ्वी पर किस तरह के प्रभाव उपलब्ध हैं। उन विशेष प्रभावों में अगर गर्भाधान होगा, तो परिणाम बहुत भिन्न होंगे। अगर उन विशेष घड़ियों में गर्भाधान नहीं होगा, तो परिणाम बहुत विपरीत हो सकते हैं। सारा ज्योतिष इसी खयाल से निकला कि कब गर्भाधान हुआ है! वह ठीक घड़ी—पल क्या है! क्योंकि उस घड़ी—पल के प्रभाव कुछ खबर दे सकेंगे। कम से कम मोटी—मोटी सूचनाएं मिल सकेंगी कि उस घड़ी—पल में क्या हो सकता है।

तो घड़ी और पल का भी, समय का बोध। संभोग के पहले ध्यान की सामर्थ्य। संभोग के पूर्व वर्षों का ब्रह्मचर्य—मेरी ब्रह्मचर्य की धारणा का खयाल रखना, दबाया हुआ नहीं, रोका हुआ नहीं; आया हुआ, घटा हुआ—फिर प्रार्थनापूर्ण हृदय से संभोग में गति और पवित्र आत्माओं के लिए आमंत्रण। क्योंकि बहुत आत्माएं उपलब्ध हैं और आत्माओं के बीच भी निरंतर गर्भ में प्रवेश के लिए पूरी होड़ है। उसमें आप अगर विशेष आत्माओं को निमंत्रण दे सकते हैं, तो परिणाम ज्यादा सुस्पष्ट हो जाएंगे। फिर नौ महीने तक उस बच्चे को पेट में एक विशेष मानसिक और आध्यात्मिक वातावरण चाहिए।

जैसे महावीर की मां बहुत विशेष हालतों में रखी गयीं। बुद्ध की मां बहुत विशेष हालतों में रखी गयीं। बुद्ध के जन्म के पहले तो यह भी सूचना थी कि वह खड़ी हुई स्त्री से ही पैदा होंगे। घर के भीतर पैदा नहीं होंगे, घर के बाहर पैदा होंगे। यह अजीब—सी बात थी। तो एक साल वृक्ष के नीचे मायके जाती हुई बुद्ध की मा वृक्ष के नीचे खड़ी हैं और बुद्ध का जन्म हुआ, खुले आकाश के नीचे।

आमतौर से बच्चे अंधेरे में पैदा हो रहे हैं। और आमतौर से संभोग जो है वह अंधेरे कक्षों में चोरी से, घबडाए हुए, अपराधपूर्ण भाव से घटित हो रहा है। उसके परिणाम दुखद होने वाले हैं। यानी वह कुछ पाप है, कोई अपराध है, जो चोरी—छिपे कहीं घटित हो रहा है, जिसका किसी को पता न चले। उसके लिए मुक्ति, सरलता, पवित्रता अनिवार्य है।

छोटी —छोटी चीजें परिणाम लाएंगी। कमरे के रंग परिणाम लाएंगे, कमरे की आभा परिणाम लाएगी। कमरे की गंध परिणाम लाएगी। उस सबके लिए पूरा का पूरा विज्ञान है। और गर्भाधान के पूरे विज्ञान का प्रयोग किया जाए, तो मनुष्य की संतति को आमूल रूप से रूपांतरित किया जा सकता है। छोटी—छोटी बातें फर्क लाएंगी।

अभी एक वैज्ञानिक छोटा—सा प्रयोग कर रहा है जो आमूल परिवर्तन ला देगा। उसने एक छोटा —सा बेल्ट बनाया है जो कि गर्भवती स्त्री के पेट पर बांध दिया जाएगा। आकस्मिक, कोई बीमार स्त्री के लिए बेल्ट बांधा गया था किसी कारण से, लेकिन बच्चे पर अभूतपूर्व परिणाम हुआ। उस बेल्ट की वजह से बच्चे का जहां सिर था, उस पर दबाव पड़ा और बच्चे का जो बुद्धि— अंक है, आई. क्यू. है, बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ पैदा हुआ। उसका बुद्धि — अंक बहुत बढ़ गया। यह आकस्मिक घटना हो गई थी, मस्तिष्क के किसी खास चक्र पर दबाव पड़ गया। फिर तो अब व्यवस्थित रूप से उसने बहुत—से प्रयोग किए हैं। क्योंकि एक तो सहज भी हो सकता है कि वह बच्चा उतनी बुद्धि का पैदा होने वाला था। लेकिन अब उसने सैकड़ों प्रयोग करके सिद्ध किया है कि मां की गर्भ की अवस्था में पेट के विशेष स्थान पर डाले गए दबाव बच्चे की बुद्धि में परिवर्तन ले आते हैं।

तो बहुत—से आसन हैं जो विशेष दबाव के लिए हैं। बहुत—सी श्वास की प्रक्रियाएं हैं जो विशेष दबाव के लिए हैं। बहुत —से शब्दों के उच्चारण हैं जो विशेष दबाव के लिए हैं। वे सब बच्चे की प्रतिभा को, स्वास्थ्य को, उसकी सामर्थ्य को, उसकी संभावनाओं को पूरा का पूरा प्रकट होने में सहयोगी बनते हैं।

अभी तक आदमी और न जाने कितने उपद्रव की चीजें खोज रहा है, लेकिन जो बहुत जरूरी है कि मनुष्य अपना भविष्य खोजे, वह बहुत कम खोज रहा है। लेकिन यह सब एकदम संभव है। और जैसे ही एक बच्चा मां के भीतर प्रवेश करता है, तो उस बच्चे की क्या—क्या संभावनाएं हो सकती हैं, उसका परिदर्शन मां में भी होना शुरू हो जाता है। यह दोहरी प्रक्रिया है। अगर मां क्रोध करती है इन दिनों में, तो बच्चा क्रोधी होगा। और अगर एक क्रोधी आत्मा भीतर आई हो, तो मां जो कभी क्रोध नहीं करती थी, क्रोध करती मालूम पड़ने लगेगी। यह भी बहुत सूचक है। और इस सूचना को देखकर भी प्रयोग किए जा सकते हैं कि उस बच्चे के क्रोध को अभी से बीज से बदला जाए।

आज भी पृथ्वी पर बहुत —सी आत्माएं जन्म ले सकती हैं जो अजन्मी हैं। बड़ी अजीब हालत हो गई है। कुछ ऐसी हालत हो गई है जैसे कोई युनिवर्सिटी हो और वह कुछ लोगों को बी. ए. तक पढ़ा कर छोड़ देती हो और फिर एम. ए. का कोई कोर्स न हो उस युनिवर्सिटी में और रिसर्च करने के लिए कोई सुविधा न हो। और बहुत से बी ए. हो गए विद्यार्थी घूमते हों कि कहां वे एम. ए. करें, कहां वे रिसर्च करें।

यह हमारी पृथ्वी एक सीमा तक कुछ लोगों की प्रतिभा और आत्मा को विकसित करके छोड़ देती है और उसके बाद के लिए हमारे पास कोई इंतजाम नहीं है। उसके बाद के लिए इंतजाम सुनियोजित रूप से जुटाया जा सकता है। बिलकुल ऐसी संभावनाएं और स्थितियां पैदा की जा सकती हैं जिनमें श्रेष्ठतम आत्माएं प्रवेश पा सकें। दो —चार बुनियादी शब्द दोहरा दूं।

पहली बात, यौन के संबंध में हमारा दृष्टिकोण रुग्ण, बीमार और खतरनाक है। यौन की पवित्रता जब तक स्वीकृत नहीं होगी पृथ्वी पर, तब तक हम बहुत नुकसान पहुंचाते रहेंगे। यौन के पूर्व जब तक ध्यान संयुक्त नहीं होगा, तब तक यौन पाशविक रहेगा, मानवीय नहीं बन सकता। और संभोग के पूर्व जब तक लंबा ब्रह्मचर्य न होगा, तब तक शक्तिशाली वीर्याणु निर्मित नहीं होता, इसलिए शक्तिशाली आत्माओं को जन्म नहीं दिया जा सकता।

एक आखिरी प्रश्न और पूछ लें।

भगवान श्री आपने एक बार कहा है कि पचास साल के भीतर पृथ्वी पर यदि कृष्ण क्राइस्ट बुद्ध और महावीर जैसे लोग न हुए तो सारी मनुष्यता मृत हो सकती है और विवेकानंद की तरह यह भी कहा कि मैं सौ व्यक्तियों की खोज में हूं जो साहसपूर्वक प्रयोग कर आत्मा की उच्चतम ऊंचाइयों पर जा सके तो इस मुल्क को और पूरी मनुष्यता को बचाना संभव हो सकेगा। और इसके लिए मैं गांव— गांव जाकर खोजता हूं ऐसी आंखों को जो ज्योति बन सकती हैं मैं तो पूरा श्रम करने को तैयार हूं? मेरी तरफ से पूरी तैयारी है भीतर ले जाने की देखना है कि मरते वक्त मैं भी कहीं यह न कहूं कि सौ आदमी खोजता था वे मुझे नहीं मिले तुम्हारी तैयारी है तो आ जाओ

कृपया ‘मेरी तैयारी’ और ‘तुम्हारी तैयारी’ का अर्थ स्पष्ट करें क्या— क्या तैयारियां करनी चाहिए? कैसी करनी है तैयारी? कृपया इसे समझाएं।

तुम्हारी ही तैयारी का अर्थ समझाऊं, क्योंकि मेरी तैयारी मुझे करनी है। उससे तो तुम्हें कोई प्रयोजन नहीं। और मुझे कोई तैयारी नहीं करनी है, तैयारी है! तुम्हारी तैयारी क्या है? तीन बातें हैं। एक तो हजारों साल ने हमें विश्वासी बना दिया है, खोजी नहीं। एक बिलीविंग माइंड पैदा हो गया, एक इक्वायरिंग माइंड नहीं। तो हम विश्वास कर लेते हैं, लेकिन खोजते नहीं हैं। और इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है मिलने को, वह बिना खोजे कभी भी नहीं मिलता है। और सब मिल भी जाए, कम से कम स्वयं का होना तो बिना खोजे नहीं मिलता। तो एक तो जिज्ञासा से भरा हुआ चित्त चाहिए। जिज्ञासा से भरा हुआ चित्त पहली तैयारी है।

शायद तुम कहोगे कि जिज्ञासा है। हम पूछते हैं, सवाल पूछते हैं। लेकिन ध्यान रहे ऐसी जिज्ञासाए हैं जो सिर्फ उत्तर की तलाश में हैं। इनको मैं जिज्ञासा नहीं कहता हूं। जिज्ञासा ऐसी चाहिए जो सिर्फ उत्तर की तलाश में नहीं है, जो अनुभव की तलाश में है। उत्तर तो कोई दूसरा दे देगा, अनुभव तो कोई दूसरा नहीं दे सकता। तो लोग हैं, जो पूछते हुए मालूम पड़ते हैं —और ऐसा लगता है कि उनका पूछना धार्मिक है—पूछते हुए मालूम पड़ते हैं कि ईश्वर है या नहीं? मोक्ष है या नहीं? लेकिन ऐसा लगता है कि वे उत्तर खोज रहे हैं। कोई उन्हें उत्तर दे दे। और अगर उत्तर की कोई खोज में है, तो आज नहीं कल विश्वास कर लेगा। क्योंकि उत्तर खोजने वाला ज्यादा कठिनाई उठाने के लिए तैयार नहीं है। वह कहता है, कोई मिल जाए, जिसमें मैं विश्वास कर लूं, तो बस मुझे उत्तर मिल जाए, मैं तृप्त हो जाऊं।

मेरे पास कोई भी उत्तर नहीं है किसी को देने को। और उत्तर में मेरी उत्सुकता नहीं है। और अगर मैं थोड़े —बहुत उत्तर की भाषा में बोलता भी हूं तो वह इसीलिए कि कहीं उत्तर को खोजने वाले बिलकुल भाग ही न जाएं। थोड़ी देर रुके रहें। उनको थोड़ी देर रोक लूं ताकि शायद उनके प्रश्न की और उत्तर पाने की आकांक्षा को तोड़कर उनमें अनुभव पाने की आकांक्षा का बीज भी जगाया जा सके।

लोग तो हैं जो पूछते हैं, लेकिन ऐसे लोग नहीं हैं जो जानना चाहते हैं। उत्तर बड़ी सस्ती चीज है। किताबों में मिल जाता है। गुरुओं के पास लिखा हुआ है। उत्तर बिलकुल बौद्धिक बात है। पूरे जीवन से, टोटल लिविंग से उसका कोई वास्ता नहीं है। अनुभव की तलाश, अनुभव की जिज्ञासा चाहिए। उदाहरण के लिए मैं तुम्हें एक घटना बताऊं।

तिब्बत में एक फकीर हुआ मिलारेपा। जब मिलारेपा अपने गुरु के पास गया, तो नियम था तिब्बत में कि पहले गुरु की तीन परिक्रमा करो, फिर सात बार झुककर नमस्कार करो, फिर शिष्टतापूर्वक एक कोने में बैठो और जब समय आए और गुरु पूछे कि क्या पूछना है, तब पूछो। जब मिलारेपा अपने गुरु के पास गया, तो जाकर उसने सीधे गुरु की गरदन पकड़ ली—न तो तीन चक्कर लगाए, न सात बार झुका, न शिष्टतापूर्वक किसी कोने में बैठा—उसने जाकर गुरू की गरदन पकड़ ली और कहा कि जल्दी बोलो, क्या तुम्हें बोलना है? क्योंकि मुझे तो यह भी पता नहीं है कि मैं क्या पूछूं! कहा कि मुझे तो यह भी पता नहीं है कि मैं क्या पूछूं? लेकिन इतना मुझे पता है कि मुझे कुछ भी पता नहीं है। तुम्हें कुछ बोलना हो, तो बोलो। तो गुरु ने कहा कि थोड़ी शिष्टता का व्यवहार करो। तुम्हें भलीभाति मालूम होगा कि तीन परिक्रमाएं करो, सात बार सिर झुकाओ, कोने में शिष्टतापूर्वक बैठकर पूछो। उसने कहा, वह मैं पीछे करूंगा। अगर मैं सात बार झुकने में और तीन बार चक्कर लगाने में और शिष्टतापूर्वक बैठने में मर गया, तो कौन जिम्मेवार होगा? अगर मैं मर गया, तो तुम जिम्मेवार रहोगे कि मैं जिम्मेवार रहूंगा? अगर तुम वायदा करते हो कि इस बीच मैं नहीं मरूंगा, तो मैं सात नहीं, सात सौ चक्कर लगा सकता हूं। पहले उत्तर दे दो, फिर फुर्सत से यह काम कर लेंगे, शिष्टता पीछे भी निभाई जा सकती है। उसके गुरु ने कहा कि बैठो। तुम ऐसे आदमी आए जिसको उत्तर की खोज नहीं, अनुभव की खोज है। और अच्छा हुआ कि तुमने चक्कर नहीं लगाए। क्योंकि वह चक्कर हमने उन्हीं के लिए रखे हैं, जो लगा सकते हैं। वह उन्हीं के लिए इंतजाम है। जब वे लगाते हैं तभी हम समझ जाते हैं कि बेकार आदमी आ गया, जिसके पास चक्कर लगाने की फुर्सत है।

तो पहला तत्व जो मैं अपेक्षा करता हूं वह है जिज्ञासा अनुभव की—उत्तर की नहीं, फिलासफी की नहीं, दर्शन की नहीं—प्राणों की। सिर्फ जानने की नहीं, पाने की। सिर्फ पाने की भी नहीं, होने की। तो यह तो पहली बात है।

दूसरी बात, जब हम कुछ पाने चले हैं, जब भी हम कुछ पाने को निकलते हैं, तब हमें कुछ खोना पड़ता है। इस जगत में बिना खोए कुछ भी नहीं मिलता है। लेकिन धन खोने से सत्य नहीं मिलेगा, कितना ही धन खो दो। न तो धन के होने से सत्य खरीदा जा सकता है न धन के खोने से खरीदा जा सकता है। कुछ लोग हैं, जो समझते हैं, धन बहुत होगा तो खरीद लेंगे। कुछ लोग हैं, जो समझते हैं, धन का त्याग कर देंगे तो मिल जाएगा। लेकिन दोनों ही सोचते हैं कि धन से खरीद लेंगे। धन से सत्य नहीं मिल सकता। असल में हमारे पास क्या है उसे खोने से सत्य नहीं मिल सकता, जब तक कि हम अपने को खोने को तैयार न हो—हैविग को खोने से नहीं, बीइंग को खोने से मिल सकता है। क्या हमारे पास है, उसको खोने से नहीं मिलेगा। क्या हम हैं, उसको खोने की हिम्मत चाहिए।

तो दूसरा तत्व है कि क्या हम अपने को खोने को, देने को तैयार हैं? और ऐसा नहीं है कि देना पड़ता है, क्योंकि सत्य आपको किसलिए मांगेगा! सिर्फ देने की तैयारी काफी होती है। सिर्फ तैयारी, देना बन जाती है। आप तैयार हैं कि बात खतम हो जाती है। पर आपकी तैयारी पूरी होनी चाहिए कि हम अपने को खो सकें। और जो अपने को नहीं खो सकता है, वह इस महायात्रा पर नहीं निकल सकता।

दूसरा तत्व…… हम और कुछ खोने को सदा तैयार हैं। एक आदमी कहता है कि मैं घर छोड़ दूंगा, एक आदमी कहता है कि मैं मां —बाप को छोड़ दूंगा, पत्नी छोड़ दूंगा, बेटा छोड़ दूंगा, धन छोड़ दूंगा, लेकिन कोई आदमी आकर यह नहीं कहता कि मैं अपने को छोड़ दूंगा। और जब तक कोई नहीं आकर कहता है कि मैं अपने को छोड़ दूंगा, तब तक सत्य के जगत में कोई गति नहीं है। क्योंकि क्या पत्नी आपकी है जिसको आप छोड़ रहे हैं? कोई पति नहीं कह सकता कि पत्नी मेरी है। चौबीस घंटे में चौबीस बार पता चलता है कि मेरी नहीं है। जो मेरा नहीं है, उसे हम छोड़ रहे हैं, हम धोखा दे रहे हैं। किसको धोखा दे रहे हैं? धन आपका है? जो आप कहते हैं, हम छोड़ देंगे। आपके सिवाय आपके पास और है क्या? तो जो है, उसे तो छोड़ने की बात नहीं करते, जो है ही नहीं, उसे छोड़ने की बात करते हैं। उससे नहीं कुछ हो सकता।

दूसरी अपेक्षा है, स्वयं को छोड़ने का साहस। और तीसरी अपेक्षा, तीसरी तैयारी है—प्रतीक्षा, अनंत प्रतीक्षा और धैर्य। असल में यह यात्रा ऐसी है कि यहां जो कोई कहे कि अभी चाहिए, वह जरा बचकानी बात कर रहा है। ऐसा नहीं है कि अभी नहीं मिल सकता। अभी मिल सकता है, लेकिन वह उसी को मिलता है जो अभी नहीं मांगता, जो कहता है कभी मिले, हम राजी हैं। अभी भी मिल जाता है, लेकिन उसको, जो कहता है कभी भी मिला तो हम प्रतीक्षा के लिए राजी हैं। धैर्य चाहिए। और धैर्य बिलकुल नहीं रह गया है।

दुनिया में धर्म के कम होने का और कोई कारण नहीं है, धैर्य का कम हो जाना है। क्योंकि धैर्य धर्म की आधारभूत जड़ है। सिर्फ धैर्यवान ही धार्मिक हो सकता है। क्योंकि इस जगत में और सब चीजें नगद हैं। धर्म बिलकुल ही दिखाई नहीं पड़ता, हाथ से स्पर्श में नहीं आता, तिजोरी में बंद नहीं किया जा सकता, बैंक—बैलेंस में नहीं रखा जा सकता, कोई सेफ डिपाजिट में बंद करके ताला लगाकर घर में आराम से सोया नहीं जा सकता। धर्म एकमात्र ऐसी चीज है कि जिसके पास धैर्य हो, वही उसकी खोज के लिए राजी हो सकता है।

और धर्म के साथ बडी कठिनाई यह है कि वह टुकड़ों में नहीं मिलता है कि अभी एक इंच मिल गया, कल दो इंच मिल गया, तो थोड़ी आशा बंधी रहती है। अधैर्यवान को भी बंधी रहती है कि कोई फिक्र नहीं, आज एक रुपया मिला, तो कल दो भी मिल सकते हैं। कल दो मिले, तो परसों चार भी मिल सकते हैं। जब चार मिलते हैं, तो अरब भी मिल सकते हैं। नहीं, धर्म या तो मिलता है तो मिलता है, नहीं मिलता है तो नहीं मिलता है। दोनों के बीच कोई बंटवारा नहीं होता। जिस दिन मिलता है, एकदम मिल जाता है, विस्फोट हो जाता है उसका। और जब तक नहीं मिला, तब तक कुछ भी नहीं होता। घनघोर अंधकार ही बना रहता है।

उस अंधकार के क्षण में जिनके पास धैर्य नहीं है, वे कुछ और खोजने लगते हैं जो अभी मिल सकता है। वे कंकड़—पत्थर बीनने लगते हैं, जो अभी मिल सकते हैं, यहीं पड़े हैं। धन खोजने लगते हैं, यश खोजने लगते हैं, जो मिल सकता है, जिसकी ज्यादा दूरी नहीं मालूम पड़ती, यह रहा….। और एक सुविधा है जगत की सब चीजों में कि आप उनको फ्रैगमेंट्स में, इंसटालमेंट्स में, हिस्सों में हैं।

पा सकते हैं। धर्म को आप इसटालमेंट्स में नहीं पा सकते।

तो प्रतीक्षा तीसरा तत्व है — अनंत प्रतीक्षा, इनफिनिट पेसेंस, अवेटिंग। कठिन है बहुत, क्योंकि हमारा मन कहता है कि पता नहीं, मिलेगा कि नहीं मिलेगा। पता नहीं, हम व्यर्थ तो नहीं बैठे हैं। पता नहीं, अब तो काफी देर हो गई, अब उठ जाएं। पता नहीं, इतनी देर में हम और क्या कमा लेते, इतनी देर में और क्या कर लेते। वह चूक गया और यहां कुछ मिला नहीं। ऐसा जो अधैर्य से भरा हुआ चित्त है, यह थिर ही नहीं हो पाता। असल में अधैर्य के साथ शांति का कोई संबंध नहीं है। अधैर्य के साथ संतुलन का कोई संबंध नहीं है। अधैर्य का अर्थ है अशांति, अधैर्य का अर्थ है चहल—पहल। अधैर्य का अर्थ है चंचलता, अधैर्य का अर्थ है भाग —दौड़। तो ऐसा चित्त चूक जाएगा।

धैर्य का अर्थ है जैसे सागर ठहर गया है, एक लहर भी नहीं है, दर्पण बन गया है। और मजा यह है कि चांद तो सदा ऊपर है, अगर सागर जरा दर्पण बन जाए तो अभी पकड़ ले। लेकिन सागर है लहरों से भरा, तो चांद को नहीं पकड़ पाता। सत्य तो सदा मौजूद है, परमात्मा चारों तरफ निकट है, अभी और यहीं।

लेकिन हमारा वह जो अधैर्य से भरा हुआ चित्त है —डावांडोल, डोलता हुआ, कापता हुआ वेवरिंग, उसमें कोई पकड़ नहीं बैठ पाती। उसमें प्रतिफलन नहीं बन पाता, वह दर्पण नहीं बन पाता। प्रतीक्षा बना देती है दर्पण चेतना को। और जिस दिन हम दर्पण बन जाते हैं, उसी दिन सब मिल जाता है। क्योंकि सब तो सदा ही मौजूद था, सिर्फ हम मौजूद नहीं थे। दर्पण होकर हम मौजूद हो जाते हैं। और जैसे ही हम दर्पण बने, तो जो मौजूद है वह दिखाई पड़ जाता है।

ये तीन शर्तें आप पूरी करें। ये तीन शर्तें पूरी हों तो बात पूरी हो गई। बाकी जो होना है, वह तो बड़ी सरलता से हो जाएगा। असल में कठिनाई कुछ ऐसी है कि मैं पानी लिये आपके सामने खड़ा हूं और आपसे कह रहा हूं कि जरा आप हाथ दोनों बांध लें कि मैं पानी डालूं तो आपके हाथ में चुल्ल बन सके। आप दोनों हाथ खोले हुए खड़े हैं। थोड़े हाथ बंध जाएं, थोड़े आप ठहर जाएं, खड़े हो जाएं बंधकर एक क्षण को भी, तो वह डाला जा सकता है। और कोई मैं उसे डाल रहा हूं ऐसी भ्रांति में न पड़े। जैसे ही आपका हाथ बंध जाता है, वह उतर आता है। मैं भी उसका एक गवाह ही हो सकता हूं? इससे ज्यादा कुछ नहीं हो सकता। एक साक्षी हो सकता हूं, गवाही दे सकता हूं कि ही, ठीक है, इस आदमी ने हाथ बांधे और घटना घट गई।

सच में इनीसिएशन का इतना ही अर्थ है, दीक्षा का इतना ही अर्थ है। आदमी कैसे किसी दूसरे आदमी को दीक्षा देगा? दीक्षा तो सदा परमात्मा से ही मिलती है। ही, इतना ही हो सकता है कि जो थोड़ा आगे गया है, वह गवाह बन सकता है। वह कह सकता है कि ही, ठीक है, हाथ ठीक से बंध गए हैं, दीक्षा हो जाएगी।

मेरी तरफ किसी खास तैयारी की जरूरत नहीं है। तुम्हारी तैयारी पूरी है, तो मैं गवाह बन सकता हूं। और तुम्हारी तैयारी के तीन सूत्र मैंने कहे। इनको सोचो मत, इनको जीने की कोशिश से ये तीनों सूत्र तत्काल पकड़ लिये जा सकते हैं। सोचा तो खोया, सोचा कि चूके। जरा—सा विचार और हम चूक जाते हैं। सोचो मत। इन तीन सूत्रों को समझ लो कि उत्तर की तलाश तो नहीं है भीतर। अनुभव की तलाश पर ध्यान दो कि मैं सिर्फ कोई बौद्धिक सिद्धात खोजने तो नहीं निकला हूं कि परमात्मा ने दुनिया बनाई या नहीं बनाई! बनाई भी हो तो क्या फर्क पड़ता है, नहीं भी बनाई हो तो क्या फर्क पड़ता है। मैं सच में कोई अनुभव खोजने निकला हूं? इसको साफ कर लो अपने भीतर।

अच्छा होगा, अगर अनुभव खोजने न निकले हो, तो यह भी साफ हो जाना अच्छा होगा कि मुझे सिर्फ उत्तर की ही खोज है, तब भी एक बात साफ होगी और एक आनेस्टी पैदा होगी। तब कम से कम अनुभव की झंझट में हम नहीं पड़ेंगे, उत्तरों को समझ लेंगे, मामला खतम करेंगे।

और ध्यान रहे, जिसको यह भी पता चल जाए कि मैं सिर्फ उत्तर की खोज में निकला हूं, उसको फौरन यह पता चल जाएगा कि मैं बेकार की खोज में निकला हूं। शब्दों में दिए गए उत्तर का करूंगा क्या? शब्दों से न पेट भरता है, न भूख मिटती है, न प्यास बुझती है। शब्दों से कुछ भी नहीं होता। नदी पार करनी है तो नाव चाहिए, शब्दकोश की नाव काम नहीं करेगी। और अगर किताब लेकर नदी के किनारे पहुंच गए, जिसमें लिखा है, नाव और नाव यानी नदी को पार करने वाली चीज, तो किताब भी डूबेगी, आप भी डूबेंगे और नदी हसेगी कि कैसा पागल आदमी है। अगर किताब की नाव से ही पार करना था, तो किताब की नदी में ही कर लेना था। असली नदी में किताब की नाव लेकर नहीं आना चाहिए। तो किताब में नाव भी बना ली होती और किताब में नदी भी बना ली होती, तो काम चल जाता।

तो अगर उत्तर की ही खोज है, तो फिर किताब ही काफी है। फिर जिंदगी में कुछ करने की कोई जरूरत नहीं है। मगर यह अगर साफ हो जाए, तो आज नहीं कल किताब से ऊब पैदा हो जाएगी, आज नहीं कल शब्द बेकार मालूम पड़ने लगेगा, सब सिद्धात कचरा मालूम पड़ने लगेंगे, सब शास्त्र उतारने जैसे लगने लगेंगे कि अब इनको कंधों से नीचे उतारो, और अनुभव की खोज शुरू हो जाएगी। लेकिन ईमानदारी से अपने भीतर साफ कर लेना जरूरी है कि मैं क्या खोज रहा हूं। यह कोई कौतूहल है या जिज्ञासा है? यह सिर्फ जिज्ञासा है या मुमुक्षा है? मुमुक्षा का मतलब, अनुभव की जिज्ञासा।

दूसरी बात कि मैं क्या देने को तैयार हूं। यह अपने भीतर निर्णय करने की बात है। अगर परमात्मा आज सामने खड़ा हो जाए और मुझसे मांगे कि तू क्या—क्या दे सकता है मेरे बदले में, मैं तुझे खुद देने को तैयार हूं। परमात्मा कहे कि मैं तैयार हूं तेरे पास आने को, तू मुझे क्या देने को तैयार है? आप अपने खीसे में से रुपए निकालकर गिनेंगे! अधिक लोग गिनेगे। सोचेंगे, पांच का दें, दस का दें। या आप क्या देना चाहेंगे? क्या ऐसे क्षण में आप अपने को दे सकेंगे और परमात्मा को कह सकेंगे, मेरे पास मेरे सिवाय और क्या है?

अगर यह आपको साफ हो जाए, तौ दूसरा सूत्र आपकी जिंदगी को बदलने वाला हो जाएगा कि मैं अपने को देने को तैयार हूं। यह सिर्फ आपकी सफाई होनी चाहिए, बस काफी है। आपको यह साफ हो जाना चाहिए कि वक्त आए तो मैं अपने को दे सकता हूं। इसमें मैं चूक न जाऊंगा। यह न कहूंगा कि थोड़ी देर ठहरो। मैं घर पूछ आऊं, कि मैं जरा मित्रों से बात कर लूं कि अभी कैसे दे सकता हूं। अभी दो —चार दिन और रुक जाएं। लडके की? शादी हो जाने दें। यह स्पष्ट हो जाए कि मैं अपने को दाव पर लगा सकता हूं!

धर्म से बड़ा कोई जुआ नहीं है। बाकी सब जुए बड़े छोटे हैं। कुछ आप लगाते हैं और हारते हैं, कुछ लगाते हैं, कुछ जीतते हैं। आप सदा बाहर रहते हैं। धर्म के दाव पर आप ही लग जाते हैं। और हार —जीत नहीं होती, क्योंकि जब आप ही लग गए, तो कौन हारेगा, कौन जीतेगा! दाव पर आप हैं। अब कोई जीत—हार का उपाय नहीं है। अब तो गए। तो यह साफ कर लें।

और तीसरा यह साफ कर लें कि इतनी अनंत की खोज पर जब हम निकले हों, तो इसमें बच्चों जैसा अधैर्य काम नहीं करेगा। इसमें अनंत धैर्य चाहिए। और जो अनंत धैर्य के लिए राजी है, उसे

अभी मिल जाता, यहीं मिल जाता।

इन तीन बातों को थोड़ा मन में साफ करें, तो तैयारी होती चली जाएगी।


Filed under: मैं मृत्‍यु सिखाता हूं--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–11)

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मुक्ति सोपान की सीढियां—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

पांचवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

शक्तिपात और प्रसाद:

प्रश्न: ओशो आपने नारगोल शिविर में कहा कि शक्तिपात का अर्थ है— परमात्मा की शक्ति आप में उतर गई। बाद की चर्चा में आपने कहा कि शक्तिपात और ग्रेस में फर्क है। इन दोनों बातों में विरोधाभास सा लगता है। कृपया इसे समझाएं।

दोनों में थोड़ा फर्क है, और दोनों में थोड़ी समानता भी है। असल में, दोनों के क्षेत्र एक—दूसरे पर प्रवेश कर जाते हैं। शक्तिपात परमात्मा की ही शक्ति है। असल बात तो यह है कि उसके अलावा और किसी की शक्ति ही नहीं है। लेकिन शक्तिपात में कोई व्यक्ति माध्यम की तरह काम करता है। अंततः तो वह भी परमात्मा है। लेकिन प्रारंभिक रूप से कोई व्यक्ति माध्यम की तरह काम करता है।

जैसे आकाश में बिजली कौंधी; घर में भी बिजली जल रही है; वे दोनों एक ही चीज हैं। लेकिन घर में जो बिजली जल रही है, वह एक माध्यम से प्रवेश की है घर में—नियोजित है। आदमी का हाथ उसमें साफ और सीधा है। वह भी परमात्मा की है। वर्षा में जो बिजली कौंध रही है वह भी परमात्मा की है। लेकिन इसमें बीच में आदमी भी है, उसमें बीच में आदमी नहीं है। अगर दुनिया से आदमी मिट जाए तो आकाश की बिजली तो कौंधती रहेगी, लेकिन घर की बिजली बुझ जाएगी।

शक्तिपात घर की बिजली जैसा है, जिसमें आदमी माध्यम है; और प्रसाद, ग्रेस आकाश की बिजली जैसा है, जिसमें आदमी माध्यम नहीं है।

व्यक्ति : परमात्म शक्ति का माध्यम:

तो जिस व्यक्ति को ऐसी शक्ति उपलब्ध हुई है, जो परमात्मा से किसी अर्थों में संयुक्त हुआ है, वह तुम्हारे लिए माध्यम बन सकता है; क्योंकि वह ज्यादा अच्छा वीहिकल है, तुमसे ज्यादा अच्छा वाहन है। उस शक्ति के लिए वह आदमी परिचित है, उसके रास्ते परिचित हैं, वह शक्ति उस आदमी से बहुत शीघ्रता से प्रवेश कर सकती है। तुम बिलकुल अपरिचित हो, अनगढ़ हो।

वह आदमी गढ़ा हुआ है। और उसके माध्यम से तुम में प्रवेश करे, तो एक तो वह गढ़ा हुआ वाहन है, इसलिए बड़ी सरलता है, और दूसरा वह तुम्हारे लिए बहुत संकीर्ण द्वार है जहां से तुम्हारी पात्रता के योग्य शक्ति तुम्हें मिल जाएगी। तो घर की बिजली में बैठकर तुम पढ़ सकते हो, आकाश की बिजली के नीचे बैठकर पढ़ नहीं सकते। घर की बिजली एक नियंत्रण में है, आकाश की बिजली किसी नियंत्रण में नहीं है।

तो कभी अगर किसी व्यक्ति के ऊपर आकस्मिक प्रसाद की स्थिति बन जाए, अनायास ऐसे संयोग इकट्ठे हो जाएं कि उसके ऊपर शक्तिपात हो जाए, तो बहुत संभावना है वह व्यक्ति पागल हो जाए, विक्षिप्त हो जाए, उन्मादग्रस्त हो जाए। क्योंकि वह शक्ति इतनी बड़ी हो और उसकी पात्रता सब अस्तव्यस्त हो जाए।

फिर अनजान, अपरिचित सुखद अनुभव भी दुखद हो जाते हैं। जो आदमी वर्षों तक अंधेरे में रहा हो, उसके सामने अचानक सूरज आ जाए, तो उसे प्रकाश दिखाई नहीं पड़ेगा। और भी ज्यादा अंधेरा दिखाई पड़ेगा—जितना अंधेरे में भी दिखाई नहीं पड़ता था। अंधेरे में तो वह थोड़ा देखने का आदी हो गया था; रोशनी में तो उसकी आंख ही बंद हो जाएगी।

तो कभी ऐसा हो जाता है कि ऐसी स्थितियां बन सकती हैं भीतर कि अनायास तुम पर विराट शक्ति का आगमन हो जाए। लेकिन उससे तुम्हें सांघातिक नुकसान पहुंच सकते हैं, क्योंकि तुम तो तैयार नहीं हो; तुम तो चौंककर पकड़ लिए गए हो। तो दुर्घटना हो जाए। ग्रेस भी दुर्घटना बन सकती है।

शक्ति का नियंत्रित संचार:

दूसरी जो शक्तिपात की स्थिति है, उसमें दुर्घटना की संभावना बहुत कम है—नहीं के बराबर है; क्योंकि कोई व्यक्ति माध्यम है। और संकीर्ण माध्यम से एक तो शक्ति का मार्ग बहुत संकरा हो जाता है, फिर वह व्यक्ति नियंत्रण भी कर सकता है, वह तुम तक उतना ही पहुंचने दे सकता है, जितना तुम झेल सको। लेकिन ध्यान रहे कि फिर भी वह व्यक्ति स्वयं शक्ति का मालिक नहीं है, सिर्फ वाहक है। इसलिए कोई कहता हो मैंने शक्तिपात किया, तो वह गलत कहता है।

वह ऐसे ही होगा, जैसे बल्व कहने लगे कि मैं प्रकाश दे रहा हूं। तो वह गलत कहता है। हालांकि बल्व को यह भांति हो सकती है। इतने दिन से रोज—रोज प्रकाश देता है, यह भ्रांति हो सकती है कि प्रकाश मैं दे रहा हूं। बल्व से प्रकाश प्रकट तो हो रहा है, लेकिन बल्व से प्रकाश पैदा नहीं हो रहा; वह उदगम का स्रोत नहीं है, अभिव्यक्ति का माध्यम है। तो जो कोई दावा करता हो कि मैं शक्तिपात करता हूं वह भ्रांति में पड़ गया है, वह बल्व की भ्रांति में पड़ गया है।

शक्तिपात तो सदा परमात्मा का ही है। लेकिन कोई व्यक्ति माध्यम बने तो उसको शक्तिपात कहेंगे, कोई व्यक्ति माध्यम न हो, तो यह आकस्मिक हो सकता है कभी, तो नुकसान पहुंच सकता है। लेकिन किसी व्यक्ति ने बड़ी अनंत प्रतीक्षा की हो, और किसी व्यक्ति ने अनंत धैर्य से ध्यान किया हो, तो भी प्रसाद के रूप में शक्तिपात हो जाएगा। तब कोई माध्यम भी नहीं होगा, लेकिन तब दुर्घटना नहीं होगी। क्योंकि उसकी अनंत प्रतीक्षा, उसका अनंत धैर्य, उसकी अनंत लगन, उसका अनंत संकल्प, उसमें अनंतता को झेलने की सामर्थ्य पैदा करता है। तो दुर्घटना नहीं होगी।

इसलिए दोनों तरह से घटना घटती है। लेकिन तब उसे शक्तिपात मालूम नहीं पड़ेगा, उसको प्रसाद ही मालूम पड़ेगा; क्योंकि कोई माध्यम तो नहीं है; कोई बीच में दूसरा व्यक्ति नहीं है।

अहंशून्य व्यक्ति ही माध्यम:

तो दोनों बातों में समानता है, दोनों बातों में भेद है। मैं इसी पक्ष में हूं कि जहां तक हो सके प्रसाद उपलब्ध हो, जहां तक हो सके ग्रेस उपलब्ध हो, जहां तक हो सके कोई व्यक्ति बीच में माध्यम न बने। लेकिन कई स्थितियों में यह असंभव है; कई लोगों के लिए असंभव है। तो बजाय इसके कि वे अनंत काल तक भटकते रहें, किसी व्यक्ति को माध्यम भी बनाया जा सकता है। लेकिन वही व्यक्ति माध्यम बन सकता है जो व्यक्ति न रह गया हो। तब खतरा बहुत कम हो जाता है। वही व्यक्ति माध्यम बन सकता है जिसमें अब कोई अस्मिता, कोई ईगो शेष न रह गई हो। तब खतरा न के बराबर हो जाता है। खतरा इसलिए न के बराबर हो जाता है कि ऐसा व्यक्ति माध्यम भी बन जाएगा और फिर भी गुरु नहीं बनेगा; क्योंकि गुरु बननेवाला तो अब कोई नहीं रहा।

सदगुरु वही, जो गुरु नहीं बनता:

इस फर्क को ठीक से समझ लेना। जब कोई व्यक्ति गुरु बनता है तो तुम्हारे संबंध में बनता है, और जब माध्यम बनता है तब परमात्मा के संबंध में बनता है; तुमसे कुछ लेना—देना फिर नहीं रह जाता। समझ रहे हो न मेरा फर्क? और परमात्मा के संबंध में कोई भी स्थिति बने, वहां अहंकार नहीं टिक सकता। लेकिन तुम्हारे संबंध में कोई भी स्थिति बने, तो अहंकार टिक जाएगा। तो जिसको ठीक गुरु कहें वह वही है जो गुरु नहीं बनता है। सदगुरु की परिभाषा अगर करनी हो तो यही है सदगुरु की परिभाषा कि जो गुरु नहीं बनता है। इसका मतलब हुआ कि समस्त गुरु बननेवाले लोग गुरु नहीं होने की योग्यता रखते हैं। गुरु बनने के दावे से बड़ी अयोग्यता और कोई नहीं है। यानी वही डिसकालिफिकेशन है; क्योंकि तुम्हारे संबंध में वह एक अहंकार की स्थिति ले रहा है। और खतरनाक हो जाएगा।

अगर अनायास कोई व्यक्ति शून्य हो गया है, अहंकार विलीन हो गया है, और वाहन बन सकता है—बन सकता है, कहना भी शायद गलत है; कहना चाहिए, वाहन बन गया है—तो उसके निकट भी शक्तिपात की घटना घट सकती है। लेकिन तब उसमें दुर्घटना की कोई संभावना नहीं रहती। न तो तुम्हारे व्यक्तित्व को दुर्घटना की संभावना है, और न जिस वाहन से शक्ति तुम तक आई है उसके व्यक्तित्व को दुर्घटना की संभावना है।

फिर भी मौलिक रूप से मैं ग्रेस के पक्ष में हूं। और जब इतनी शर्तें पूरी हो जाएं कि व्यक्ति न हो, अहंकार न हो, तो फिर शक्तिपात ग्रेस के करीब पहुंच गया, बहुत करीब पहुंच गया। और अगर उस व्यक्ति को कोई पता ही नहीं हो, तब फिर वह बहुत ही करीब पहुंच गया। तब उसके पास होने से घटना घट जाए। तो अब यह जो व्यक्ति है, तुम्हें व्यक्ति की तरह दिखाई पड़ रहा है, लेकिन अब यह परमात्मा के साथ एकाकार ही हो गया। कहना चाहिए, परमात्मा का फैला हुआ हाथ हो गया जो तुम्हारे करीब है। अब यह बिलकुल इंस्टूमेंटल है, साधन मात्र है। और ऐसी स्थिति में अगर यह व्यक्ति मैं की भाषा भी बोले, तो भूल हमें हो जाती है बहुत बार; क्योंकि ऐसी अवस्था में जब यह व्यक्ति मैं बोलता है, तो उसका मतलब होता है परमात्मा। लेकिन हमें बड़ी कठिनाई.. .क्योंकि हम तो……

इसलिए कृष्ण कह सकते हैं अर्जुन से—मामेक शरणं ब्रज। मेरी शरण में आ जा तू। और हजारों साल तक हम सोचेंगे कि यह आदमी कैसा रहा होगा, जो कहता है मेरी शरण में आ जा। तब तो अहंकार पक्का है।

लेकिन यह आदमी कह ही इसलिए पाया है कि यह बिलकुल नहीं है। अब यह तो किसी का फैला हुआ हाथ है, और वही बोल रहा है मेरी शरण आ जा—मुझ एक की शरण आ जा। यह शब्द बड़ा कीमती है, मामेकं! मुझ एक की शरण आ जा। ‘मैं’ तो एक कभी नहीं होता, ‘ मैं’ तो अनेक है। यह किसी ऐसी जगह से बोल रहा है जहां ‘ मैं ‘ एक ही होता है। लेकिन अब यह कोई अहंकार की भाषा नहीं है।

लेकिन हम तो अहंकार की भाषा ही समझते हैं। इसलिए हम समझेंगे कि कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं मेरी शरण में आ जा। तब भूल हो जाएगी। इसलिए हमारे प्रत्येक शब्द को देखने के दो मार्ग हैं : एक हमारी तरफ से, जहां से भ्रांति सदा होगी; और एक परमात्मा की तरफ से, जहां कोई भ्रांति का सवाल नहीं है। तो कृष्ण जैसे व्यक्ति से घटना घट सकती है; और उसमें कृष्ण के व्यक्तित्व का कोई लेना—देना नहीं है।

इतने करीब आ जाना चाहिए शक्तिपात प्रसाद के कि तुम जो कहते हो कि आपकी दोनों बातों में विरोध दिखाई पड़ता है…… .दोनों घटनाएं अपनी अति पर बहुत विरुद्ध हैं, लेकिन दोनों घटनाएं अपने केंद्र पर अति निकट हैं। और मैं उसी पक्ष में हूं जहां कि प्रसाद में और शक्तिपात में किंचित फर्क करना मुश्किल हो जाए। वहीं सार्थक है बात, वहीं कीमती है।

चीन में एक संन्यासी बड़ा समारोह मना रहा है। वह अपने गुरु का जन्मदिन मना रहा है। और उस तरह का त्योहार गुरु के जन्मदिन पर ही मनाया जाता है। लेकिन लोग उससे पूछते हैं कि तुम तो कहते थे कि मेरा कोई गुरु नहीं है, तो तुम जन्मदिन किसका मना रहे हो? और तुम तो सदा कहते थे कि गुरु की कोई जरूरत ही नहीं है, तो तुम आज यह उत्सव किसका मना रहे हो? तो वह आदमी कहता है कि मुझे मुश्किल में मत डालो; अच्छा हो कि मैं चुप रहूं। लेकिन जितना वह चुप रहता है उतना लोग और पूछते हैं कि बात क्या है, तुम यह मना क्या रहे हो? क्योंकि यह दिन तो गुरु पर्व है; इस दिन तो गुरु का उत्सव ही मनाया जाता है। तो तुम्हारा कोई गुरु है क्या? तो वह आदमी कहता है, तुम नहीं मानोगे तो मुझे कहना पड़ेगा। मैं आज उस आदमी का स्मरण कर रहा हूं जिसने मेरा गुरु बनने से इनकार कर दिया था; क्योंकि अगर वह मेरा गुरु बन जाता तो मैं सदा के लिए भटक जाता। उस दिन तो मैं बहुत नाराज हुआ था, आज लेकिन उसे धन्यवाद देने का मन होता है.. .कि वह चाहता तो गुरु तत्काल बन सकता था, मैं तो खुद गया था उसको मनाने, लेकिन वह गुरु बनने को राजी नहीं हुआ था।

तो वे लोग पूछते हैं कि फिर धन्यवाद क्या दे रहे हो, जब वह गुरु बनने को राजी नहीं हुआ?

तो वह संन्यासी कहता है, तुम मुझे ज्यादा मुश्किल में मत डालो; अब इतना मैंने कह दिया, यह काफी है। क्योंकि वह आदमी गुरु तो नहीं बना था, लेकिन जो कोई गुरु नहीं कर सकता है, वह आदमी कर गया है। इसलिए ऋण दोहरा हो गया। एक तो वह आदमी गुरु भी बन जाता तो भी लेन—देन हो जाता न दोनों तरफ से! कुछ उसने भी हमें दिया था, हमने भी कुछ उसे दिया था— आदर दिया था, श्रद्धा दी थी, पैर छू लिए थे—निपटारा हो गया था, कुछ हमने भी कर लिया था। लेकिन वह आदमी गुरु भी नहीं बना, उसने आदर भी नहीं मांगा, श्रद्धा भी नहीं मांगी, तो ऋण दोहरा हो गया— बिलकुल इकतरफा हो गया, वह दे गया और हम कुछ धन्यवाद भी नहीं दे पाए; क्योंकि धन्यवाद देने का भी उसने स्थान नहीं छोड़ा था।

शुद्धतम शक्तिपात प्रसाद के निकट:

तो यहां शक्तिपात—ऐसी स्थिति में— और प्रसाद में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। और जितना फर्क हो उतना ही शक्तिपात से बचना, और जितना फर्क कम हो उतना ही ठीक है। इसलिए मैं जोर देता हूं प्रसाद पर, ग्रेस पर। और जिस दिन शक्तिपात भी प्रसाद के करीब आ जाए— इतने करीब आ जाए कि तुम डिस्टिग्विश न कर सको, फर्क न कर सको कि दोनों में क्या फर्क है—उस दिन समझ लेना कि बात ठीक हो गई।

तुम्हारे घर की बिजली जिस दिन आकाश की बिजली की तरह स्वच्छंद, सहज और विराट शक्ति का हिस्सा हो जाए, और जिस दिन तुम्हारे घर का बल्व दावा करना छोड़ दे कि मैं हूं शक्ति का स्रोत, उस दिन तुम समझना कि अब शक्तिपात भी हो तो वह प्रसाद ही है। मेरी बात खयाल किए!

विस्फोट : दो शक्तियों का मिलन:

प्रश्न: ओशो आपने समझाया कि आप से शक्ति उठे और परमात्मा से मिल जाए या परमात्मा की शक्ति आए और आप में मिल जाए। प्रथम तो कुंडलिनी का उठना है और दूसरी बात ईश्वर की ग्रेस मिलने की है आगे आपने कहा है कि आपके भीतर सोई हुई ऊर्जा जब विराट की ऊर्जा से मिलती है तब एक्सप्लोजन विस्फोट होता है। तो एक्सप्लोजन या समाधि के लिए कुंडलिनी जागरण और ग्रेस का मिलन आवश्यक है या कुंडलिनी का सहस्रार तक विकास और ग्रेस की उपलब्धि एक बात है?

सल में, विस्फोट एक शक्ति से कभी नहीं होता, विस्फोट सदा दो शक्तियों का मिलन है। एक्सप्लोजन जो है, वह एक शक्ति से कभी नहीं होता। अगर एक शक्ति से होता होता तो कभी का हो जाता।

तुम्हारी माचिस भी रखी है, तुम्हारी माचिस की काड़ी भी रखी है, वह रखी रहे अनंत जन्मों तक— एक इंच के फासले पर, आधा इंच के फासले पर वह रखी है, रखी रहे, तो आग पैदा नहीं होगी। उस विस्फोट के लिए उन दोनों की रगड़ जरूरी है, तो आग पैदा होगी। वह छिपी है दोनों में, लेकिन किसी एक में भी अकेले पैदा होने का उपाय नहीं है। जो विस्फोट है, वह दो शक्तियों के मिलने पर पैदा हुई संभावना है।

तो व्यक्ति के भीतर जो सोई हुई है शक्ति, वह उठे और उस बिंदु तक आ जाए। सहस्रार वह बिंदु है जिसके पहले मिलन बहुत असंभव है। जैसे कि तुम्हारे दरवाजे बंद हैं और सूरज बाहर खड़ा है। रोशनी तुम्हारे दरवाजे पर आकर रुक गई है। तुम अपने घर से चलो, चलो; भीतर से बाहर की तरफ आओ, आओ, दरवाजे तक आकर भी खड़े हो जाओ, तो भी तुम्हारा सूरज की रोशनी से मिलन न हो। दरवाजा खुले और मिलन हो जाए।

सहस्रार पर प्रतीक्षारत परमात्मा:

तो जो हमारा अंतिम चरम बिंदु है कुंडलिनी का, सहस्रार, वह हमारा द्वार है, जहां ग्रेस सदा ही खड़ी हुई है, जिस द्वार पर परमात्मा निरंतर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन तुम ही अपने द्वार पर नहीं हो, तुम ही अपने द्वार से बहुत भीतर कहीं और हो। तो तुम्हें अपने द्वार तक आना है, वहां मिलन हो जाएगा। और वह मिलन विस्फोट होगा।

विस्फोट इसलिए कह रहे हैं उसे कि उस मिलन में तुम तत्काल विलीन हो जाओगे, एक्सप्लोजन इसलिए है कि उस मिलन के बाद तुम बचोगे नहीं। वह जो काड़ी है वह बचेगी नहीं माचिस की उस विस्फोट के बाद। माचिस तो बचेगी, काड़ी नहीं बचेगी। काड़ी तो जलकर राख हो जाएगी, काड़ी तो निराकार में विलीन हो जाएगी। तो उस घटना में तुम चूंकि मिट जाओगे, टूट जाओगे, बिखर जाओगे, खो जाओगे, तुम बचोगे नहीं, तुम जैसे थे द्वार तक आने के पहले, वैसे तुम नहीं बचोगे। तुम्हारा सब खो जाएगा, तुम मिट जाओगे। जो द्वार पर खड़ा था वही बचेगा, तुम उसी के हिस्से हो जाओगे।

यह घटना तुमसे अकेले नहीं हो सकती। इस विस्फोट के लिए उस विराट शक्ति के पास तुम्हारा जाना जरूरी है। उस शक्ति के पास जाने के लिए, तुम्हारी शक्ति जहां सोई है वहां से उसे उठकर वहां तक जाना पड़ेगा जहां वह शक्ति तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तो कुंडलिनी की जो यात्रा है, वह तुम्हारे सोए हुए केंद्र से उस स्थान तक है, उस सीमांत तक, जहां तुम समाप्त होते हो, तुम्हारी जो सीमा है।

मनुष्य की दो सीमाएं:

तो एक सीमा तो हमारे शरीर की है जो हमने मान रखी है। यह बड़ी सीमा नहीं है; क्योंकि मेरा हाथ कट जाए, तो भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ता; मेरे पैर कट जाएं, तो भी कुछ खास फर्क नहीं पड़ता; फिर भी मैं रहता हूं। यानी इन सीमाओं के घटने—बढ़ने से मैं मिटता नहीं। मेरी आंखें चली जाएं, मेरे कान चले जाएं, तो भी मैं हूं। तुम्हारी असली सीमा तुम्हारे शरीर की सीमा नहीं है, तुम्हारी असली सीमा सहस्रार का बिंदु है, जिसके बाद तुम नहीं बच सकते। उस सीमा पर एनक्रोचमेंट हुआ कि तुम गए, फिर तुम नहीं बच सकते।

तुम्हारी कुंडलिनी तुम्हारी सोई हुई शक्ति है। तो वह तुम्हारे यौन के केंद्र के निकट और तुम्हारे मस्तिष्क के केंद्र के निकट तुम्हारी सीमा है। इसीलिए हमें निरंतर यह खयाल होता है कि हम अपने पूरे शरीर से चाहे अपनी आइडेंटिटी छोड़ दें, लेकिन अपने सिर से, अपने चेहरे से आइडेंटिटी नहीं छोड़ पाते। यानी मुझे यह मानने में बहुत कठिनाई नहीं लगती कि हो सकता है यह हाथ मैं न होऊं, लेकिन अगर दर्पण में अपना चेहरा देखकर यह सोचूं कि यह चेहरा मैं नहीं हूं तो बहुत मुश्किल हो जाती है; वह सीमांत है। इसलिए आदमी सब खोने को तैयार हो सकता है, बुद्धि खोने को तैयार नहीं होता।

सुकरात से किसी ने पूछा है कि तुम एक असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करोगे कि एक संतुष्ट सुअर होना पसंद करोगे? क्योंकि सुकरात संतोष की बात कर रहा था, वह कह रहा था संतोष परम धन है। तो कोई उससे पूछ रहा है कि तुम एक संतुष्ट सुअर होना पसंद करोगे कि एक असंतुष्ट सुकरात होना? तो वह सुकरात कहता है कि संतुष्ट सुअर होने से तो मैं एक असंतुष्ट सुकरात होना ही पसंद करूंगा, क्योंकि संतुष्ट सुअर को संतोष का पता भी तो नहीं हो सकता, असंतुष्ट सुकरात को कम से कम असंतोष का पता तो होगा।

अब यह जो कह रहा है असंतुष्ट सुकरात, वह हम यह कह रहे हैं कि हम सब खोने को तैयार हैं लेकिन बुद्धि को न खोके, चाहे बुद्धि असंतुष्ट ही क्यों न हो। बुद्धि भी हमारे उस केंद्र के बहुत निकट है।

अगर हम ठीक से समझें तो हमारे सीमांत दो हैं। एक यौन हमारी सीमा रेखा है, जिसके पार प्रकृति शुरू होती है; जिसके नीचे, बिलो दैट प्रकृति की दुनिया शुरू होती है। तो जहां हम सेक्स के बिंदु पर होते हैं, वहां हम में, पशु में, पौधे में कोई फर्क नहीं होता; क्योंकि पशु की, पौधे की वह अंतिम सीमा है जो हमारी प्रथम सीमा है; वहां उनकी सीमा खतम होती है। इसलिए सेक्स के बिंदु पर पशु में और हम में कोई फर्क नहीं होता। वह पशु की अंतिम सीमा है और हमारी पहली सीमा है। उस बिंदु पर जब हम खड़े होते हैं तो हम पशु ही होते हैं।

हमारी दूसरी सीमा है बुद्धि; वह हमारे दूसरे सीमांत के निकट है, जिसके पार परमात्मा है। उस बिंदु पर होकर भी फिर हम नहीं होते, फिर हम परमात्मा ही होते हैं। और ये हमारी दो सीमा रेखाएं हैं, और इनके बीच हमारी शक्ति का आंदोलन है। अभी हमारी सारी शक्ति जिस कुंड पर सोई है, वह यौन के पास है। इसलिए आदमी का निन्यानबे प्रतिशत चिंतन, निन्यानबे प्रतिशत स्वप्न, निन्यानबे प्रतिशत क्रिया—कलाप, निन्यानबे प्रतिशत जीवन उसी कुंड के आसपास व्यतीत होता है। सभ्यता कितना ही झुठलाए, समाज कितना ही और कुछ कहे, आदमी जीता वहीं है, वह काम के पास ही जीता है। वह धन कमाता है तो इसलिए, मकान बनाता है तो इसलिए, यश कमाता है तो इसलिए—वह जो भी कर रहा है, उसके बहुत मूल में खोजने पर उसका काम मिल जाएगा।

दो लश, दो साधन:

इसलिए जिनको समझ थी, उन्होंने दो ही लक्ष्य बताए काम और मोक्ष। ये दो लक्ष्य हैं। और अर्थ और धर्म, दो साधन हैं। अर्थ यानी धन, वह काम का साधन है। इसलिए जितना कामुक युग होगा, उतना धनपिपासु होगा; जितना मोक्ष की आकांक्षा करनेवाला युग होगा, उतना धर्मपिपासु होगा। धर्म साधन है, जैसे धन साधन है। अगर मोक्ष पाना है तो धर्म साधन बन जाता है, और अगर काम—तृप्ति पानी है तो धन साधन बन जाता है।

तो दो हैं लक्ष्य और दो हैं साधन, क्योंकि दो हमारी सीमाएं हैं। और उन सीमाओं पर हम…… और यह बड़े मजे की बात है कि उन दो सीमाओं के बीच में तुम कहीं भी नहीं टिक सकते; उनके बीच में तुम कहीं नहीं ठहर सकते, क्योंकि उनके बीच में तुम ऐसे मालूम पड़ोगे कि जैसा गधा घर का न घाट का हो जाता है। कुछ लोग उस हालत में पड़कर बड़ी मुसीबत में पड जाते हैं। बहुत लोग पड़ जाते हैं उस मुसीबत में तो बहुत मुश्किल में पड जाते हैं। उनको मोक्ष की अभीप्सा नहीं होती और काम का विरोध अगर किसी वजह से पैदा हो गया, तो वे कठिनाई में पड़ जाएंगे; वे काम के बिंदु से दूर हटने लगेंगे और मोक्ष के बिंदु के पास नहीं जाएंगे। तब वे एक ऐसी दुविधा में पड़ जाएंगे जो बहुत ही कठिन है, बहुत दुखद है, बहुत नारकीय है। और उनका जीवन सारा का सारा अंतर्द्वंद्व से भर जाएगा।

बीच के बिंदु पर टिकना न उचित है, न स्वाभाविक है, न अर्थपूर्ण है। इसे हम ऐसा समझ लें कि जैसे कोई सीढ़ी पर चढ़े और बीच में रुक जाए। तो हम उससे कहेंगे कुछ भी करो, या तो वापस लौट आओ या ऊपर चले जाओ! क्योंकि सीढ़ी कोई मकान नहीं है, सीढ़ी कोई निवास नहीं है; उसमें बीच में रुक जाना किसी भी अर्थ का नहीं है। यानी एक आदमी अगर सीडी पर रुक जाए तो समझो उससे ज्यादा व्यर्थ आदमी खोजना बहुत मुश्किल होगा; क्योंकि उसे कुछ भी करना है तो उसे सीडी के या तो नीचे के बिंदु पर आना पड़े या ऊपर के बिंदु पर जाना पड़े।

तो हमारी जो रीढ़ है, समझ लो कि सीडी है। है भी सीढ़ी। और रीढ़ का एक—एक गुरिया समझो कि एक—एक स्टेप है। और वह जो हमारी कुंडलिनी है, वह नीचे के केंद्र से यात्रा शुरू करती है और ऊपर के अंतिम केंद्र तक जाती है। ऊपर के केंद्र पर वह पहुंच जाए तो विस्फोट निश्चित है; वहां फिर विस्फोट नहीं बच सकता। और नीचे के केंद्र पर पहुंच जाए तो स्खलन निश्चित है, वहां स्खलन नहीं बच सकता।

इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना।

निम्न बिंदु पर स्खलन और उच्चतम पर विस्फोट:

कुंडलिनी नीचे के बिंदु पर है तो स्खलन निश्चित है, ऊपर के बिंदु पर पहुंच जाए तो विस्फोट निश्चित है। दोनों ही विस्फोट हैं, और दोनों के लिए ही दूसरे की जरूरत है। वह जो यौन का स्खलन है, उसमें भी दूसरा अपेक्षित है—चाहे कल्पना में ही सही, लेकिन दूसरा अपेक्षित है। तो उस जगह से भी तुम्हारी ऊर्जा विकीर्ण होगी।

पर उस जगह से तुम्हारी पूरी ऊर्जा विकीर्ण नहीं हो सकती। नहीं हो सकती इसलिए कि वह बिंदु तुम्हारा प्राथमिक बिंदु है; तुम उससे बहुत ज्यादा हो; उस बिंदु से तुम आगे जा चुके हो। पशु तो वहां पूरा तृप्त हो जाता है। इसलिए पशु मोक्ष नहीं खोजता। अगर पशु कोई शास्त्र लिखे तो वहां दो ही पुरुषार्थ होंगे—काम और धन, अर्थ और काम।

धन भी पशु की दुनिया का धन होगा। अब जिस पशु के पास ज्यादा मांस है, ज्यादा शक्ति है, उसके पास ज्यादा धन है, वह दूसरे पशुओं से काम की प्रतियोगिता में जीत जाएगा; वह अपने आसपास दस मादाएं इकट्ठी कर लेगा। वह भी एक तरह का धन इकट्ठा किया है। उसके पास चर्बी ज्यादा है, वह धन है। एक के पास तिजोरी ज्यादा है, वह भी चर्बी है, जो कभी भी चर्बी में कनवर्ट हो सकती है।

तो एक राजा है, वह हजार रानियां इकट्ठी कर लेगा। एक जमाना था कि आदमी के पास कितनी संपदा है, वह उसकी स्त्रियों से नापा जाता था कि उसके पास कितनी स्त्रियां हैं। गरीब आदमी है तो वह कैसे चार स्त्री रख सकता है! तो जैसे आज हम शिक्षा से नापते हैं कि कौन आदमी कितना शिक्षित है, या कौन आदमी के पास कितना बैंक बैलेंस है। ये सब बहुत बाद के मेजरमेंट हैं, पहला मेजरमेंट तो एक ही था कि उसके पास कितनी स्त्रियां हैं।

इसलिए बहुत बार हमें अपने महापुरुषों को बड़ा बताने के लिए बहुत स्त्रियां गिनानी पड़ी, जो झूठी हैं। जैसे कृष्ण की सोलह हजार! अब यह कृष्ण को बड़ा बताने का उस वक्त और कोई उपाय नहीं था—कि अगर कृष्ण बड़े आदमी हैं तो औरतें कितनी हैं? वह एकमात्र मेजरमेंट होने की वजह से हमको फिर गिनती करानी पड़ी कि भई बहुत हैं। और सोलह हजार अब बहुत कम मालूम पड़ती हैं, क्योंकि अब हमारे पास बहुत बडी संख्याएं हैं। उन दिनों संख्याएं बहुत बड़ी नहीं थीं।

अगर अफ्रीका में जाएं तो अब भी ऐसी कौमें हैं कि जिनकी कुल संख्या तीन पर खतम हो जाती है। तो अगर किसी के पास चार औरतें हैं तो वह यह कहेगा, बहुत! क्योंकि तीन के बाद संख्या खतम हो जाती है। तो वह कहेगा, मेरे पास बहुत, असंख्य औरतें हैं। असंख्य! क्योंकि तीन के बाद तो संख्या खतम हो जाती है उसकी, तो तीन के बाद जितनी हैं उनको वह गिन तो सकता नहीं, तो वह कहता है, असंख्य औरतें हैं।

दोनों के लिए दूसरा अपेक्षित:

उस तल पर भी दूसरा अपेक्षित है। अगर दूसरा वस्तुत: मौजूद न हो, तो भी कल्पना में अपेक्षित है। बाकी दूसरा अपेक्षित है। दूसरे के बिना स्खलन भी नहीं हो सकता ऊर्जा का। लेकिन कल्पना में भी दूसरा उपस्थित हो तो स्‍खलन हो सकता है। इसी वजह से यह खयाल पैदा हुआ कि अगर कल्पना में भी परमात्मा उपस्थित हो तो विस्फोट हो सकता है। इसलिए भक्ति की लंबी धारा चली जिसने कि कल्पना को ही विस्फोट का आधार बनाने की कोशिश की। क्योंकि जब कल्पना में वीर्य—स्‍खलन हो सकता है, तो सहस्रार से ऊर्जा का विस्फोट क्यों नहीं हो सकता? इस खयाल ने काल्पनिक ईश्वर को भी जोर से मन में बिठा लेने की संभावनाओं को प्रगाढ़ कर दिया। उसका कारण यही था।

लेकिन यह नहीं हो सकता। स्खलन इसलिए हो सकता है कल्पना में, क्योंकि वस्तुत: स्‍खलन हुआ है, इसलिए उसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन परमात्मा से तो कभी मिलन नहीं हुआ, इसलिए कोई कल्पना नहीं की जा सकती उसकी। कल्पना हम उसकी ही कर सकते हैं जो हुआ है। तो फिर उसकी कल्पना से भी काम लिया जा सकता है। यानी एक आदमी ने कोई एक तरह का सुख लिया है तो फिर वह आंख बंद करके उसका सपना भी देख सकता है, लेकिन अगर लिया ही नहीं है तो फिर सपना नहीं देख सकता।

जैसे बहरा आदमी लाख कोशिश करे, सपने में भी शब्द नहीं सुन सकता, उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। अंधा आदमी हजार उपाय करे तो भी सपने में भी प्रकाश नहीं देख सकता। ही, यह हो सकता है कि एक आदमी की आंखें चली गईं, अब वह सपने में बराबर प्रकाश देख सकता है। बल्कि अब सपने में ही देख सकता है! क्योंकि अब तो आंख तो नहीं है, इसलिए असलियत में तो नहीं देख सकता।

तो जो हमारा अनुभव हुआ है, उसकी हम कल्पना भी कर सकते हैं; लेकिन जो अनुभव नहीं हुआ है, उसकी तो कल्पना का भी उपाय नहीं। और विस्फोट हमारा अनुभव नहीं है, इसलिए वहां कल्पना काम नहीं कर सकती है। वहां वस्तुत: जाना होगा और वस्तुत: ही घटना घट सकती है।

मनुष्य : पशु और परमात्मा के बीच का सेतु:

तो जो सहस्र चक्र है, वह तुम्हारी अंतिम सीमा है, जहां से तुम समाप्त होते हो। जैसा मैंने कहा कि सीढ़ी। और आदमी एक सीढ़ी ही है। इसलिए नीत्शे के वचन बहुत कीमती हैं। वह कहता है कि आदमी सिर्फ एक सेतु है—मैन इज ए ब्रिज बिट्वीन टू इटरनिटीज— दो अनंतताओं के बीच में एक सेतु।

एक अनंतता है प्रकृति की, उसकी भी कोई सीमा नहीं है, और एक अनंतता है परमात्मा की, उसकी भी कोई सीमा नहीं है। और आदमी दोनों के बीच में झूलता हुआ एक सेतु है। इसलिए आदमी पडाव नहीं है। या तो पीछे जाओ या आगे जाओ, इस सेतु पर मकान बनाने की जगह नहीं है। और जो भी इस पर मकान बनाएगा वह पछताएगा; क्योंकि सेतु कोई मकान बनाने की जगह नहीं है, सिर्फ पार होने के लिए है।

फतेहपुर सीकरी में अकबर ने जो एक सर्व धर्म मंदिर बनाने की कल्पना की थी, उसमें जो एक दीन—ए—इलाही का खयाल था कि सब धर्मों का सारभूत हो, तो उसने उस दरवाजे पर जो वचन खुदवाया है वह जीसस का वचन है। जीसस का वचन उसने खुदवाया है उस दरवाजे पर, वह वचन यह है कि यह जगत मुकाम नहीं, सिर्फ पड़ाव है। यहां थोड़ी देर ठहर सकते हो, लेकिन रुक ही मत जाना; यह कोई यात्रा का अंत नहीं है, यह सिर्फ थकान मिटाने के लिए एक पड़ाव है, एक सराय है—जहां हम रात भर रुकते हैं और सुबह फिर चल पड़ते हैं। और रुकते सिर्फ इसीलिए हैं कि सुबह चल सकें, और रुकने का कोई प्रयोजन नहीं है; रुकने के लिए नहीं रुकते।

पशु—वृत्तियों का सुख हमेशा क्षणिक:

तो आदमी एक सीढ़ी है जिस पर यात्रा है। इसलिए आदमी सदा तनावग्रस्त है। अगर हम ठीक से कहें तो तनावग्रस्त है आदमी, यह कहना शायद ठीक नहीं; यही कहना ठीक है कि मनुष्य एक तनाव है। क्योंकि ब्रिज जो है तनाव ही है, तना हुआ है; तना हुआ होकर ही ब्रिज हो सकता है। वह दो छोरों पर— और बीच में बेसहारा— तना हुआ है। इसलिए मनुष्य एक अनिवार्य तनाव है। इसलिए मनुष्य कभी शांत नहीं हो सकता। या तो वह पशु होता है तो थोड़ी सी शांति मिलती है, और या फिर वह परमात्मा होता है तो फिर पूरी शांति मिलती है। पशु होकर भी तनाव उतर जाता है, क्योंकि वह वापस लौट आया सीढ़ी से, नीचे जमीन पर खड़ा हो गया— परिचित जमीन पर, पहचानी हुई जमीन पर, जिसमें वह अनंत—अनंत जन्मों रहा है, वहां वापस आ गया; झंझट के बाहर हो गया। अभी कोई तनाव नहीं है। इसलिए या तो आदमी सेक्स में खोजता है तनाव की मुक्ति, या सेक्स से संबंधित और अनुभवों में खोजता है— शराब में, नशे में—जहां भी मूर्च्छा है, वहां वह खोज लेता है।

लेकिन वहां तुम थोड़ी देर ही रुक सकते हो; क्योंकि तुम अब कुछ भी चाहो तो स्थायी रूप से पशु नहीं हो सकते। बुरे से बुरा आदमी भी क्षण काल को ही पशु हो सकता है। वह जो आदमी किसी की हत्या कर देता है, वह भी क्षण भर में ही कर पाता है। अगर क्षण भर और रुक गया होता तो शायद नहीं कर पाता। यानी हमारा पशु होना करीब—करीब ऐसा है जैसे एक आदमी जमीन पर छलांग लगाता है, तो एक सेकेंड को हवा में रह पाता है, फिर वापस जमीन पर लौट आता है। तो बुरे से बुरा आदमी भी स्थायी बुरा नहीं होता, न हो सकता है। बुरे से बुरा आदमी भी किन्हीं क्षणों में बुरा होता है। और उन क्षणों के बाहर वह ऐसा ही आदमी होता है जैसे सारे आदमी हैं। पर उस एक क्षण को उसे राहत मिल सकती है, क्योंकि वह परिचित भूमि पर पहुंच गया, जहां कोई तनाव नहीं था।

इसलिए पशु के मन में तुम्हें कोई तनाव नहीं दिखेगा, उसकी आंख में झाकोगे तो कोई तनाव नहीं दिखेगा। पशु पागल नहीं होता, आत्महत्या नहीं करता, उसे हृदय का दौरा नहीं पड़ता। उसे ये सब बातें नहीं होतीं। हां, आदमी के चक्कर में पड़ जाए तो हो सकती हैं; आदमी की बैलगाड़ी में जुट जाए तो हृदय का दौरा हो सकता है, आदमी का घोड़ा बन जाए तो मुश्किल में पड़ सकता है, आदमी का कुत्ता हो तो पागल भी हो सकता है। वह दूसरी बात है। वह भी इसीलिए है कि वह आदमी अपने ब्रिज पर उसको खींच लेता है, इसलिए वह झंझट में डाल देता है उसे।

अब जैसे एक कुत्ता इस कमरे में आए तो अपनी मौज से घूमेगा। लेकिन अगर किसी आदमी का पाला हुआ कुत्ता हो तो वह उससे कहेगा—बैठ जाओ उस कोने में! तो वह कुत्ता उस कोने में बैठेगा। वह आदमी की दुनिया में प्रवेश कर गया। वह पशु की दुनिया के बाहर हो गया। अब वह झंझट में पड़नेवाला है कुत्ता। वह बैठा है। है तो वह कुत्ता, लेकिन बैठा है आदमी की तरह। अब तुमने उसको तनाव में डाल दिया है। अब वह बड़ी झंझट में है कि कब आशा हटे और वह यहां से बाहर हो जाए।

आदमी कुछ देर के लिए, क्षण, दो क्षण के लिए वहां पहुंच सकता है। इसीलिए जो हम निरंतर कहते हैं कि हमारे सब सुख क्षणिक हैं, उसका और कोई कारण नहीं है। सुख शाश्वत हो सकता है। लेकिन जहां हम सुख खोजते हैं वह स्थिति क्षणिक है, सुख क्षणिक नहीं है। हम खोजते हैं पशु होने में, तो वह क्षणिक ही हो सकता है, क्योंकि हम पशु क्षण भर को मुश्किल से हो पाते हैं। वह ऐसा ही है कि जैसे हम…… किसी स्थिति में वापस लौटना सदा मुश्किल है। अगर तुम कल में वापस लौटना चाहो, बीते कल में, तो तुम आंख बंद करके एकाध क्षण को ऐसी कल्पना में हो सकते हो कि लौट गए। लेकिन कितनी देर? आंख खोलोगे और पाओगे कि नहीं, वापस खड़े हो—जहां थे वहीं आ गए हो।

पीछे लौटा नहीं जा सकता; क्षण भर की कोई जबरदस्ती की जा सकती है। फिर पछतावा होगा। इसलिए जितने भी क्षणिक सुख हैं, सबके पीछे पछतावा है, सबके पीछे रिपेंटेंस है, सबके पीछे एक दुख—बोध है—कि बेकार मेहनत की, वह सब व्यर्थ गया। लेकिन फिर चार दिन बाद तुम भूल जाओगे और फिर छलांग लगा लोगे।

पशु के तल पर जाकर क्षण भर को सुख पाया जा सकता है, प्रभु के तल पर जाकर शाश्वत सुख में डूबा जा सकता है। लेकिन यह यात्रा तुम्हारे भीतर पहले पूरी होगी; तुम्हें अपने सेतु के एक कोने से दूसरे कोने पर पहुंचना होगा, तब दूसरी घटना घटेगी।

संभोग और समाधि में समानता:

इसलिए मैं संभोग और समाधि को बड़ी समतुल बातें मानता हूं। समतुल मानने का कारण है। असल में, वे ही दो समतुल घटनाएं हैं, और कोई घटना समतुल नहीं है। संभोग की स्थिति में हम ब्रिज के इस छोर पर होते हैं, सीढ़ी के नीचेवाले हिस्से पर होते हैं, जहां से हम प्रकृति से मिलते हैं। और समाधि में हम सीढ़ी के दूसरे छोर पर होते हैं, जहां हम परमात्मा से मिलते हैं। दोनों मिलन हैं, दोनों विस्फोट हैं एक अर्थों में, दोनों में किसी खास अर्थ में तुम खोते हो। ही, किसी में क्षण भर के लिए, सेक्स में और संभोग में क्षण भर के लिए और समाधि में सदा के लिए। वह दूसरी बात है। लेकिन दोनों स्थितियों में तुम मिटते हो। यह बड़ा क्षणिक विस्फोट है जो वापस लौट आता है; तुम रिक्रिस्टलाइज हो जाते हो; क्योंकि तुम जहां गए थे वह तुमसे पीछे की अवस्था थी, उसमें तुम लौट नहीं सकते। लेकिन परमात्मा में जाकर तुम रिक्रिस्टलाइज नहीं हो सकते, वापस तुम सुसंगठित नहीं हो सकते। क्योंकि जिसमें तुम गए हो, उसमें जाते ही, फिर तुम्हारा वापस लौटना उतना ही असंभव है जैसे कि पहले तुम पीछे वापस लौटने में असंभव थे। अब तो और भी असंभव है। अब तो इतना असंभव है, ऐसे ही जैसे कि एक आदमी बड़ा हो गया और उसके बचपन के पाजामे में उसे वापस लौट आना पड़े। पर वह भी संभव है; यह संभव नहीं है। क्योंकि तुम विराट के साथ एक हो गए, अब तुम व्यक्ति में नहीं लौट सकते। अब वह व्यक्ति इतनी क्षुद्र, संकीर्ण जगह है कि जहां तुम्हारे प्रवेश का कोई उपाय नहीं है। अब तुम सोच ही नहीं सकते कि इसमें जाना कैसे हो सकता है! तुम यह भी नहीं सोच सकते कि मैं इसमें कभी था तो कैसे था, इतने छोटे होने में कैसे हो सकता हूं। वह बात खत्म हो जाती है।

उस विस्फोट के लिए दोनों बातें जरूरी हैं; तुम्हारे भीतर की यात्रा तुम्हारे अंतिम बिंदु सहस्रार तक आनी चाहिए।

सहस—दल कमल का खिलना:

और क्यों उसे हम सहस्र कहते हैं, वह भी थोड़ा खयाल में लेना जरूरी है। ये सारे शब्द आकस्मिक नहीं हैं।

हमारी भाषा आमतौर से आकस्मिक है, उपयोग से पैदा हुई है। जैसे किसी चीज को हम दरवाजा कहते हैं। दरवाजा न कहें, कुछ और कहें, तो कुछ हर्ज नहीं होता। दुनिया में हजार भाषाएं हैं तो हजार शब्द होंगे दरवाजे के लिए, और सभी शब्द काम कर जाते हैं। लेकिन फिर भी कोई एक बात जो सांयोगिक नहीं है, वह शायद सभी में मेल खाएगी। तो दरवाजा या डोर या द्वार का जो भाव है जिसके द्वारा हम बाहर— भीतर जाते हैं, वह सभी भाषाओं में मेल खाएगा; क्योंकि वह अनुभव का हिस्सा है, वह सांयोगिक नहीं है। जिससे हम बाहर— भीतर आते—जाते हैं; जिससे जगह मिलती है बाहर— भीतर आने—जाने की; स्पेस का एक खयाल जो उसमें है, वह सबमें होगा।

तो सहस्र शब्द बड़ा अनुभव का है, सांयोगिक नहीं है। जैसे ही तुम उस अनुभूति को उपलब्ध होते हो, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे भीतर जैसे हजार—हजार फूल एकदम से खिल गए—सब बंद हजार फूल एकदम से खिल गए। हजार भी इसी अर्थ में कि संख्या के बाहर जैसी घटना घटती है। और फूल इस अर्थ में कि फ्लावरिग होती है, कोई चीज जो बंद थी कली की तरह वह खुलती है। फूल का मतलब है खिलना। फूल का मतलब वही होता है जो प्रफुल्ल होने का होता है—खुल जाना। फ्लावरिग का भी वही मतलब होता है—खुल जाना। कोई चीज जो बंद थी वह खुल गई है। तो कली की तरह कोई चीज थी वह फूल की तरह हो गई है। और फिर एकाध चीज नहीं खुल गई, अनंत चीजें जैसे पूरे तरफ से खुल गई हैं।

तो इसलिए इसको सहस्र कमल, हजार कमल खिल गए हैं, यह खयाल आना बिलकुल स्वाभाविक था। अगर तुमने कभी सुबह कमल को खिलते देखा है—नहीं देखा तो गौर से देखना चाहिए, बहुत निकटता से, बहुत चुपचाप बैठकर उसके पूरे, धीरे— धीरे पूरे खिलने को देखना चाहिए—तो तुम्हें खयाल आ सकेगा कि अगर हजार मस्तिष्क के कमल एकदम से खिल जाएंगे तो कैसी प्रतीति, उसकी तुम थोड़ी सी रूप—रेखा कल्पना में ले सकोगे।

और भी एक अदभुत अनुभव हुआ है। जिन लोगों को संभोग का बहुत गहरा अनुभव होगा, उन्हें भी खिलने का एक अनुभव होता है क्षण भर को; उनके भीतर भी कोई चीज खिलती है— बस क्षण भर को, फिर बंद हो जाती है। लेकिन उस खिलने में और इस खिलने में एक और अनुभव होगा कि जैसे कि फूल नीचे की तरफ लटका हुआ खिले और फूल ऊपर की तरफ खिले। पर वह तुलना तभी हो सकती है जब दूसरा अनुभव तुम्हारे खयाल में आ जाए; तब तुम्हें पता चलेगा कि नीचे की तरफ फूल खिल रहे थे और अब ऊपर की तरफ फूल खिल रहे हैं। नीचे की तरफ जो फूल खिलते थे, स्वभावत: वे नीचे के जगत से जोड़ देते थे, ऊपर की तरफ जो फूल खिलते हैं, स्वभावत: वे ऊपर के जगत से जोड़ देते हैं। असल में, उनका खिलना और उनकी ओपनिंग तुम्हें वलनरेबल बना देती है, तुम्हें खोल देती है; दूसरी दुनिया के लिए दरवाजा बन जाते हो, वहां से कुछ तुममें प्रवेश करता है। और उस प्रवेश से तुम्हारे भीतर विस्फोट घटित होता है।

इसलिए दोनों बातें जरूरी हैं तुम जाओगे वहां तक और वहां कोई प्रतीक्षा ही कर रहा है। आना कहना ठीक नहीं है कि वहां से कोई आएगा; तुम जाओगे वहां तक, कोई वहां प्रतीक्षा कर रहा है, घटना घट जाएगी।

शक्तिपात दोहरी घटना:

प्रश्न: ओशो क्या केवल शक्तिपात के माध्यम से कुंडलिनी सहकार तक विकसित हो सकती है? उसके सहस्रार पर छंचने पर क्या समाधि का एक्सप्लोजन हो जाता है? यदि शक्तिपात के माध्यम से कुंडलिनी सहस्रार तक विकसित हो सकती है? तो इसका अर्थ यह हो जाएगा कि दूसरे से समाधि उपलब्ध हो सकती है।

 

से थोड़ा समझना पड़े। असल बात यह है, इस जगत में, इस जीवन में कोई भी घटना इतनी सरल नहीं है जिसको तुम एक ही तरफ से देखो और समझ लो, उसे बहुत तरफ से देखना पड़े। अब जैसे मैं इस दरवाजे पर आऊं और जोर से एक हथौड़ा मारूं और दरवाजा खुल जाए, तो मैं यह कह सकता हूं कि मेरे हथौड़े से दरवाजा खुला। और यह कहना एक अर्थ में सच भी है, क्योंकि मैं अगर हथौड़ा नहीं मारता तो दरवाजा अभी खुलता नहीं था। लेकिन इसी हथौड़े को मैं दूसरे दरवाजे पर मारूं और दरवाजा न खुले, हथौड़ा ही टूट जाए—तब? तब तुम्हें दूसरा पहलू भी खयाल में आएगा कि जब एक दरवाजे पर मैंने हथौड़ा मारा और दरवाजा खुला, तो सिर्फ हथौड़े के मारने से नहीं खुला, दरवाजा भी खुलने के लिए पूरी तरह तैयार था; क्योंकि दूसरा दरवाजा नहीं खुला। किसी भी कारण से तैयार था—कमजोर था, जराजीर्ण था, पर उसकी तैयारी थी। यानी खुलने में सिर्फ हथौड़ा ही नहीं खोल दिया है उसे, दरवाजा भी खुला; क्योंकि और दूसरे दरवाजों पर हथौड़े की चोट करके देखी है तो हथौड़ा ही टूट गया है कहीं; कहीं हथौड़ा नहीं टूटा, न दरवाजा खुला; कहीं हम थक गए चोट कर—कर के, वह नहीं खुला।

तो इस घटना में जहां शक्तिपात से कुछ घटना घटती है, वहां शक्तिपात से ही घटती है, इस भ्रांति में नहीं पड़ने की जरूरत है। वहां वह दूसरा व्यक्ति भी किसी बहुत आतरिक तैयारी के एक छोर पर पहुंच गया है, जहां जरा सी चोट सहयोगी हो जाती है। नहीं यह चोट लगती तो शायद थोड़ी देर लग सकती थी। तो इस शक्तिपात से जो हो रहा है वह कुंडलिनी सहस्रार तक नहीं पहुंच रही, इस शक्तिपात से इतना ही हो रहा है कि टाइम एलिमेंट जो है, समय का जो थोड़ा व्यवधान था, वह कम हो रहा है; और कुछ भी नहीं हो रहा। यह आदमी पहुंच तो जाता ही।

समझ लो कि मैं इस हथौड़े से चोट नहीं मारता इस दरवाजे पर, और यह जराजीर्ण दरवाजा, यह बिलकुल गिरने को हो रहा है; कल हवा के थपेड़े से गिर जाता। हवा का थपेड़ा भी न आता, क्योंकि दरवाजे का भाग्य— न आए, हवा का थपेड़ा ही न आए उस तरफ—तो क्या तुम सोचते हो, यह दरवाजा खड़ा ही रहता? यह दरवाजा जो एक ही चोट से गिर गया, जो हवा के थपेड़े से डरता था कि गिर जाएगा, यह बिना हवा के थपेड़े के भी एक दिन गिर जाएगा। जब तुम्हें कारण भी बताना मुश्किल हो जाएगा कि किसने गिराया, तब यह अपने से भी गिर जाएगा, यह गिरने की तैयारी इकट्ठी करता जा रहा है।

तो ज्यादा से ज्यादा जो फर्क लाया जा सकता है, वह सिर्फ समय की परिधि का, टाइम गैप का। जो घटना रामकृष्ण के पास अगर विवेकानंद को घटी, उसमें अगर अकेले रामकृष्ण ही जिम्मेवार हैं, तो फिर और किसी को भी घट जाती, बहुत लोग उनके करीब गए। सैकड़ों उनके शिष्य हैं। तो और किसी को नहीं घट गई है। और अगर विवेकानंद ही जिम्मेवार थे अकेले, तो वे रामकृष्ण के पहले और बहुत लोगों के पास गए थे, उनके पास वह नहीं घटी थी।

समझ रहे हो न? तो विवेकानंद की अपनी एक तैयारी थी, रामकृष्ण की अपनी एक सामर्थ्य थी, यह तैयारी और यह सामर्थ्य किसी बिंदु पर अगर मिल जाएं, तो टाइम गैप कम हो सकता है। विवेकानंद, हो सकता है अगले जन्म में यह घटना घटती—वर्ष भर बाद घटती, दो वर्ष बाद घटती, दस जन्मों बाद घटती—यह सवाल नहीं है; इस व्यक्ति की अपनी भीतरी तैयारी अगर हो रही थी तो घटना घटती।

टाइम गैप कम हो सकता है। और समझने की बात यह है कि टाइम बड़ी ही फिक्टीशस, बड़ी मायिक घटना है, इसलिए उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। असल में, समय इतनी ज्यादा स्वप्निल घटना है कि उसका कोई बड़ा मूल्य नहीं है। अभी तुम एक झपकी लो और हो सकता है कि घड़ी में एक ही मिनट गुजरे और तुम जागकर कहो कि मैंने इतना लंबा स्वप्न देखा कि मैं बच्चा था, जवान था, का हुआ, मेरे लड़के थे, शादी हुई, धन कमाया, सट्टे में हार गया—यह सब हो गया! और यहां बाहर हम कहें कि यह तुम कैसी बातें कर रहे हो, इतना लंबा सपना देखने के लिए भी वक्त लगेगा। क्योंकि अभी तुम एक सेकेंड तुम्हारी आंख बंद हुई है सिर्फ, तुमने झपकी भर ली है।

असल में ड्रीम टाइम जो है, स्वप्न का जो समय है, उसकी यात्रा बहुत अलग है। वह बहुत छोटे से समय में बहुत घटनाएं घटाने की उसकी संभावना है, इसलिए हमें बड़ी भांति होती है।

अब ये कुछ कीड़े हैं जो कि पैदा होते हैं सुबह और सांझ मर जाते हैं। हम कहते हैं, बेचारे! लेकिन हमें यह पता नहीं कि उनका टाइम का जो अनुभव है, वह उतना ही है जितना हमें सत्तर साल में होता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। वे इस बारह घंटे में वह सब काम कर लेते हैं—घर बना लेते हैं, पत्नी खोज लेते हैं, शादी—विवाह रचा लेते हैं, लड़ाई—झगडा कर लेते हैं—जो भी करना है, सब कर—करा के सांझ मर जाते हैं। इसमें कुछ कमी नहीं छोड़ते; इसमें सब हो जाता है। इसमें शादी—विवाह, तलाक, लड़ाई— झगड़ा, सब घटना घट—घटा कर वे संन्यास वगैरह भी सब कर डालते हैं—सुबह से सांझ तक! पर वह जो समय का उनका जो बोध है, उसमें फर्क है। इसलिए हमें लगता है, बेचारे! और वे अगर सोचते होंगे तो हमारे बाबत सोचते होंगे कि जो हम बारह घंटे में कर लेते हैं, तुमको सत्तर साल लग जाते हैं—बेचारे! इतना काम तो हम बहुत जल्दी निपटा लेते हैं, इन लोगों को क्या हो गया! कैसी मंद बुद्धि के हैं, सत्तर साल लगा देते हैं!

समय जो है, वह बिलकुल ही मनोनिर्भर, मेंटल एनटाइटी है। इसलिए हम भी हमारे मन के अनुसार समय का अनुपात छोटा—बड़ा होता रहता है। जब तुम सुख में होते हो, समय एकदम छोटा हो जाता है; जब तुम दुख में होते हो, समय एकदम लंबा हो जाता है। घर में कोई मर रहा है और तुम उसकी खाट के पास बैठे हो, तब रात बहुत लंबी हो जाती है, कटती ही नहीं। ऐसा लगता है कि अब यह रात कभी खत्म होगी कि नहीं होगी! सूरज उगेगा कि नहीं उगेगा! रात इतनी लंबी होती जाती है कि लगता है कि अब नहीं, यह आखिरी रात है! अब यह कभी होगा नहीं, सूरज उगेगा नहीं! दुख समय को बहुत लंबा कर देता है; क्योंकि दुख में तुम जल्दी से समय को बिताना चाहते हो; तुम्हारी अपेक्षा जल्दी की हो जाती है। तुम्हारा एक्सपेक्टेशन है—जल्दी बीत जाए। जितनी तुम्हारी अपेक्षा तीव्र हो जाती है, समय उतना मंदा मालूम पड़ने लगता है, क्योंकि उसका अनुभव रिलेटिव है। जब तुम्हारी अपेक्षा बहुत तीव्र होती है, वह तो अपनी गति से चला जा रहा है, पर तुम्हें ऐसा लगता है कि बहुत धीमे जा रहा है। जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलने बैठा है और वह चली आ रही है। वह तो चाहता है कि बिलकुल दौड़ती हुई जेट की रफ्तार से आओ, लेकिन वह आदमी की रफ्तार से आ रही है। तो उसे लगता है, कैसी मंद गति चल रही है!

तो दुख में तुम्हारा समय का बोध एकदम लंबा हो जाता है। सुख आता है, तुम्हारा मित्र मिलता है, प्रियजन मिलता है, रात भर जागकर तुम गपशप करते रहते हो, सुबह विदा होने का वक्त आता है; तुम कहते हो, रात कैसे बीत गई क्षण भर में! यह तो आई न आई बराबर हो गई! ऐसा लगता ही नहीं कि आई भी।

सुख में तुम्हारे समय का बोध एकदम भिन्न हो जाता है, दुख में भिन्न हो जाता है।

तो तुम्हारी मनोनिर्भर इकाई है समय। इसलिए इसमें तो फर्क पैदा ही किए जा सकते हैं, क्योंकि तुम्हारे मन तक तो चोट की जा सकती है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। अगर मैं तुम्हारे सिर पर लट्ठ मार दूं तो तुम्हारा सिर खुल जाता है। तो अब तुम क्या कहोगे कि तुम्हारा सिर एक आदमी ने खोल दिया, उस पर निर्भर हो गए तुम! हो ही गए निर्भर। तुम्हारे शरीर को चोट की जा सकती है; तुम्हारे मन को भी चोट की जा सकती है। हां, तुमको चोट नहीं की जा सकती; क्योंकि तुम न शरीर हो, न तुम मन हो। लेकिन अभी तुम मन पर ठहरे हुए अपने को मन मान रहे हो, या अपने को शरीर मान रहे हो, तो इन सबको तो चोट की जा सकती है। और इनकी चोट से तुम्हारे समय के अंतर को बहुत कम किया जा सकता है—कल्पों को क्षणों में बदला जा सकता है; क्षणों को कल्पों में बदला जा सकता है।

मुक्ति समयातीत है:

लेकिन जिस दिन तुम जागोगे, यह बहुत मजे की बात है कि बुद्ध जिस दिन जागे, उनको तो पच्चीस सौ साल हो गए, जीसस को दो हजार साल हो गए, कृष्ण को शायद पांच हजार साल हो गए, जरथुस्त्र को बहुत समय हुआ, मूसा को बहुत समय हुआ—लेकिन जिस दिन तुम जागोगे, तुम अचानक पाओगे कि अरे, वे भी अभी ही जागे हैं! क्योंकि वह जो टाइम गैप है, एकदम खतम हो जाएगा। ये पच्चीस सौ साल, और दो हजार, और पांच हजार साल एकदम सपने के मालूम पड़ेंगे।

इसलिए जब कोई जागता है, तो एक ही क्षण में सब जागते हैं, कोई क्षण में फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यह बड़ा कठिन है खयाल में लेना। यह बड़ा कठिन है कि जिस दिन तुम जाओगे, उस दिन तुम एकदम कंटेमेरी हो जाओगे—बुद्ध के, महावीर के, कृष्ण के। वे सब तुम्हें चारों तरफ खड़े हुए मालूम पड़ेंगे; सब अभी—अभी जागे— अभी! तुम्हारे साथ ही! एक क्षण का भी फासला वहां नहीं है। वहां नहीं हो सकता।

असल में, ऐसा समझो कि हम एक बड़ा वृत्त खींचें, एक बड़ा सर्किल बनाएं; और सर्किल के सेंटर पर हम वृत्त से बहुत सी रेखाएं खींचें, हजार रेखाएं परिधि से खींचें और केंद्र पर जोड़ दें। परिधि पर तो बहुत फासला होगा दो रेखाओं के बीच में। फिर तुम केंद्र की तरफ बढ़ने लगे, फासला कम होने लगा। फिर तुम जब केंद्र पर पहुंचोगे, तुम पाओगे—फासला खतम हो गया, दोनों रेखाएं एक हो गईं।

तो जिस दिन अनुभुति की उस प्रगाढ़ता के केंद्र पर कोई पहुंचता है, तो वे जो परिधि पर फासले थे, ढाई हजार साल का, दो हजार साल का, वे सब खत्म हो जाते हैं। इसलिए बहुत दिक्कत होती है, बड़ी कठिनाई होती है, क्योंकि उस जगह से बोलने से कई बार भूल हो जाती है। क्योंकि जिनसे हम बोल रहे हैं, वे परिधि की भाषा समझते हैं। इसलिए बहुत भूल की संभावना है वहां।

एक आदमी मेरे पास आया। भक्त है, जीसस का भक्त। तो उसने मुझसे पूछा कि आपका जीसस के बाबत क्या खयाल है? तो मैंने उससे कहा कि अपने ही बाबत खयाल बनाना अच्छा नहीं होता। मुझे थोड़ा उसने चौंककर देखा, उसने कहा कि नहीं, शायद आप सुने नहीं; मैं पूछ रहा हूं : जीसस के बाबत आपका क्या खयाल है? तो मैंने उससे कहा कि मैं भी समझता हूं कि तुमने शायद सुना नहीं! मैं कहता हूं कि अपने ही बाबत खयाल बनाना ठीक नहीं होता। उसने कुछ परेशानी से मुझे देखा। मैंने उससे कहा कि जीसस के बाबत खयाल तभी तक बनाया जा सकता है जब तक जीसस को नहीं जानते। जिस दिन जानोगे उस दिन तुममें और जीसस में क्या फर्क है? कैसे खयाल बनाओगे?

ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास कभी कोई चित्रकार आया और उनका एक चित्र बनाकर लाया। और वह रामकृष्ण को लाकर उसने बताया कि देखिए, आपका चित्र बनाया है, कैसा बना है? रामकृष्ण उस चित्र के पैरों में सिर लगाकर नमस्कार करने लगे। तो वहां जितने लोग बैठे थे उन सबने सोचा कि कुछ भूल हो गई, क्योंकि अपने ही चित्र के पैर पड़ रहे हैं! क्या, गड़बड़ क्या है? शायद समझे नहीं, चित्र उन्हीं का है।

तो उस चित्रकार ने कहा, माफ करिए, यह चित्र आपका ही है और आप ही इसके……

तो उन्होंने कहा कि अरे, मैं भूल गया। असल में, उन्होंने कहा कि यह चित्र इतना समाधिस्थ है कि मेरा कैसे हो सकता है! रामकृष्ण ने कहा, यह चित्र इतना समाधि का है कि मेरा कैसे हो सकता है! क्योंकि समाधि में कहां मैं और कहां तू। तो मैं तो समाधि के पैर पड़ने लगा; तुमने ठीक याद दिला दी, और वक्त पर याद दिला दी, नहीं तो लोग बहुत हंसते।…… .पर लोग तो हंस ही चुके थे।

परिधि की और केंद्र की भाषाएं अलग हैं। इसलिए अगर कृष्ण कहते हैं कि मैं ही था राम, और अगर जीसस कहते हैं कि मैं ही पहले भी आया था और तुम्हें कह गया था, और अगर बुद्ध कहते हैं कि मैं फिर आऊंगा, तो इस सब में वे सब केंद्र की भाषा बोल रहे हैं जिससे हमको बड़ी कठिनाई होती है। अब बौद्ध भिक्षु प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वे कब आएंगे!

वे बहुत बार आ चुके। वे रोज खड़े होंगे तो भी नहीं पहचान में आएंगे, क्योंकि अब उसी शक्ल में तो आने का कोई उपाय नहीं है, वह शक्ल तो सपने की शक्ल थी, वह खो गई।

तो वहां कोई समय का अंतराल नहीं है। और इसीलिए तुम्हारे समय की स्थिति में तो तीव्रता और कमी की जा सकती है, बहुत कमी की जा सकती है। उतना शक्तिपात से हो सकता है।

कोई दूसरा नहीं है:

और दूसरी बात जो तुम उसमें पूछते हो कि इसमें तो दूसरा……

वह दूसरा भी तभी तक दिखाई पड़ रहा है न! वह दूसरे का जो दूसरा होना है, वह भी हमारी अपनी सीमा को जोर से पकड़े होने की वजह से मालूम पड़ रहा है। तो विवेकानंद को लगेगा कि रामकृष्ण की वजह से मुझे हो गया। रामकृष्ण को लगे तो बड़ी नासमझी हो जाएगी। रामकृष्ण के लिए तो ऐसे ही घटना घटी है, जैसे कि मेरे हाथ पर कोई चोट लगी हो और मैंने मलहम लगा दी। तो मेरा यह हाथ, बायां हाथ समझेगा कि कोई और मेरी सेवा कर रहा है। दाएं हाथ से मैं लगाऊंगा न! तो कोई और कर रहा है। हो सकता है धन्यवाद भी दे, हो सकता है इनकार भी कर दे कि भई, रहने दो, मैं स्वावलंबी हूं मैं दूसरे की सहायता नहीं लेता। लेकिन उसे पता नहीं कि जो उसमें प्रवेश किया हुआ है, बाएं में, वही दाएं में भी प्रवेश किया हुआ है; वह एक ही है।

तो जब कभी कोई किसी दूसरे के लिए दूसरे की तरफ से सहायता पहुंचती है, तो सच में कोई दूसरा नहीं है; तुम्हारी तैयारी ही उस सहायता को तुम्हारे ही दूसरे हिस्से से बुलाती और पुकारती है।

इजिप्त में एक बहुत पुरानी किताब है जो यह कहती है कि तुम गुरु को कभी मत खोजना, क्योंकि जिस दिन तुम तैयार हो, गुरु तुम्हारे दरवाजे पर हाजिर हो जाएगा। तुम खोजने जाना ही मत। और वह यह भी कहती है कि अगर तुम खोजने भी जाओगे तो खोज कैसे सकोगे? तुम पहचानोगे कैसे? क्योंकि अगर तुम इस योग्य ही हो गए कि गुरु को भी पहचान लो, तब फिर और क्या कमी रह गई! इसलिए सदा ही गुरु शिष्य को पहचानता है, शिष्य कभी गुरु को नहीं पहचान सकता। उसका कोई उपाय नहीं है। मेरा मतलब समझे न? उसका उपाय कहां है? अभी तुम अपने को नहीं पहचानोगे तो तुम गुरु को कैसे पहचानोगे कि यह आदमी है! तुम नहीं पहचान सकते। हां, लेकिन जिस दिन तुम तैयार हो, उस दिन तुम्हारा ही कोई हाथ तुम्हारी सहायता के लिए मौजूद हो जाता है। वह दूसरे का हाथ तभी तक है जब तक तुम्हें पता नहीं चला है। जिस दिन तुम्हें पता चलेगा उस दिन तुम धन्यवाद देने को भी नहीं रुकोगे।

जापान में झेन मॉनेस्ट्री का एक हिसाब है कि जब कोई मॉनेस्ट्री में, आश्रम में आता है ध्यान सीखने, तो अपनी चटाई आकर बिछाता है। चटाई दबाकर लाता है, बिछा देता है, बैठ जाता है, समझ लेता है, ध्यान करके चला जाता है, चटाई वहीं छोड़ जाता है। फिर वह रोज आता रहता है और अपनी चटाई पर बैठता है, चला जाता है। जिस दिन हो जाता है उस दिन अपनी चटाई गोल करके चला जाता है, गुरु समझ जाता है, हो गया। इसमें धन्यवाद देने की भी क्या जरूरत है? वह जिस दिन चटाई गोल करता है, उस दिन गुरु कहता है कि अच्छा, जा रहे हो! क्योंकि किसको धन्यवाद देना है। वह यह भी नहीं कहता कि हो गया, वह अपनी चटाई लपेटने लगता है, तो गुरु समझता है कि चलो ठीक है, बस चटाई लपेटने का वक्त आ गया, अच्छी बात है। इतनी औपचारिकता की भी कहां जरूरत है कि धन्यवाद दो। और किसको धन्यवाद दो! और अगर कोई धन्यवाद देने जाएगा तो गुरु डंडा भी मार सकता है उसको—कि खोल चटाई वापस, अभी तेरा नहीं हुआ! किसको धन्यवाद दोगे?

तो वह जो दूसरे का खयाल है वह हमारे अज्ञान की ही धारणा है, अन्यथा कौन है दूसरा! हम ही हैं बहुत रूपों में, हम ही हैं बहुत यात्राओं पर, हम ही हैं बहुत दर्पणों में। निश्चित ही, सभी दर्पणों में लेकिन दिखाई तो कोई और ही पड़ रहा है।

एक सूफी कहानी है कि एक कुत्ता एक राजमहल में घुस गया। और उस राजमहल में सारी दीवालें दर्पण की बनाई गई थीं। वह कुत्ता बहुत मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि उसे चारों तरफ कुत्ते ही कुत्ते दिखाई पड़ने लगे। वह बहुत घबड़ाया। इतने कुत्ते चारों तरफ! अकेला घिर गया इतने कुत्तों में! निकलने का भी रास्ता नहीं रहा। द्वार—दरवाजों पर भी आईने थे। सब तरफ आईने ही आईने थे। फिर वह भौंका। लेकिन उसके भौंकने के साथ सारे कुत्ते भौंके और उसकी आवाज सारी दीवालों से टकराकर वापस लौटी, तब तो बिलकुल पक्का हो गया कि खतरे में जान है और बहुत दूसरे कुत्ते मौजूद हैं। और वह चिल्लाता रहा! और जितना चिल्लाया, उतने जोर से बाकी कुत्ते भी चिल्लाए; और जितना वह लड़ा और भौंका और दौड़ा, उतने ही सारे कुत्ते भी दौड़े और भौंके। और उस कमरे में वह अकेला कुत्ता था। रात भर वह भौंकता रहा, भौंकता रहा। सुबह जब पहरेदार आया तो वह कुत्ता मरा हुआ पाया गया, क्योंकि वह दीवालों से लड़कर और भौंककर थक गया और मर गया। हालांकि वहां कोई भी नहीं था। जब वह मर गया तो वे दीवालें भी शांत हो गईं, वे दर्पण चुप हो गए।

बहुत दर्पण हैं, और हम सब एक—दूसरे को जो देख रहे हैं, वे बहुत तरह के मिरर्स, बहुत तरह के दर्पणों में अपनी ही तस्वीरें हैं। इसलिए दूसरा कोई है, यह भ्रांति है, इसलिए दूसरे की हम सहायता कर रहे हैं, यह भी भ्रांति है, और दूसरे से हमें सहायता मिल रही है, यह भी भ्रांति है। असल में, दूसरा ही भ्रांति है। और तब जीवन में एक सरलता आती है, जहां तुम दूसरे को दूसरा मानकर कुछ नहीं करते हो— कुछ भी नहीं करते हो, न दूसरे को दूसरा मानकर अपने लिए कुछ करवाते हो; तब तुम ही रह जाते हो। और अगर रास्ते पर किसी गिरते आदमी को तुमने सहारा दिया है तो वह तुमने अपने को ही दिया है; और अगर रास्ते पर किसी और ने तुम्हें सहारा दिया है तो वह भी उसने अपने को ही दिया है। मगर यह परम अनुभव के बाद खयाल में आना शुरू होगा, उसके पहले तो निश्चित ही दूसरा है।

अनुभूति और अभिव्यक्ति:

प्रश्न : ओशो विवेकानंद को शक्तिपात से नुकसान हुआ शु ऐसा आपने एक बार कहा है।

सल में, विवेकानंद को शक्तिपात से तो नुकसान नहीं हुआ, लेकिन शक्तिपात के पीछे जो हुआ उससे नुकसान हुआ; जो और चीजें चलीं। पर नुकसान और हानि की बात भी सपने के भीतर की बात है, बाहर की नहीं। तो जिस भांति रामकृष्‍ण की सहायता से उनको एक झलक मिली—जो झलक शायद उनको अपने ही पैरों पर कभी मिलती, वक्त लग जाता—लेकिन उस झलक के बाद, चूंकि वह झलक दूसरे से मिली थी, दूसरे के द्वारा मिली थी…। जैसे मैंने हथौड़ा मारा दरवाजे पर, दरवाजा टूट गया। लेकिन मैं दरवाजे को फिर खड़ा कर गया, उसी हथौड़े से खीलें ठोंक गया और वापस ठीक कर गया। जो हथौड़ा दरवाजा गिरा सकता है, वह कीलें भी ठोंक सकता है। हालांकि दोनों हालत में एक ही बात हो रही है, पहले भी समय ही थोड़ा कम हुआ था, अब समय ही फिर थोड़ा हो जाएगा।

रामकृष्ण की कुछ कठिनाइयां थीं जिनके लिए उन्हें विवेकानंद का उपयोग करना पड़ा। रामकृष्ण निपट देहाती, अपढ़, अशिक्षित आदमी थे, अनुभव उनको गहरा हुआ था, लेकिन अभिव्यक्ति उनके पास नहीं थी। और जरूरी था कि वे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी आदमी को साधन बनाएं, वाहन बनाएं। नहीं तो रामकृष्ण का आपको पता ही न चलता। और रामकृष्ण को जो मिला था, यह उनकी करुणा का हिस्सा ही है कि वह किसी आदमी के द्वारा आप तक पहुंचा दें।

मेरे घर में खजाना मिल जाए मुझे, और मेरे पैर टूटे हों, और मैं किसी आदमी के कंधे पर खजाना रखकर आपके घर तक पहुंचा दूं। तो उस आदमी के कंधे का तो मैंने उपयोग किया, उसे थोड़ी तकलीफ भी दी; क्योंकि इतनी दूर वजन तो उसे ढोना ही पड़ेगा। लेकिन उस आदमी को तकलीफ देने का इरादा नहीं है, इरादा वह जो खजाना मुझे मिला है, आप तक पहुंचाने का है। क्योंकि मैं हूं लंगड़ा, और यह खजाना यहीं पड़ा रह जाएगा, और मैं घर के बाहर खबर भी नहीं ले जा सकूंगा।

तो रामकृष्ण को एक कठिनाई थी। बुद्ध को ऐसी कठिनाई नहीं थी। बुद्ध के व्यक्तित्व में रामकृष्ण और विवेकानंद एक साथ मौजूद थे। तो बुद्ध जो जानते थे, वह कह भी सकते थे; रामकृष्ण जो जानते थे, वह कह नहीं सकते थे। कहने के लिए उन्हें एक आदमी चाहिए था जो उनका मुंह बन जाए। तो विवेकानंद को उन्होंने झलक तो दिखा दी, लेकिन तत्काल विवेकानंद से कहा कि अब चाबी मैं रखे लेता हूं अपने हाथ, अब मरने के तीन दिन पहले लौटा दूंगा। अब विवेकानंद बहुत चिल्लाने लगे कि आप यह क्या कर रहे हैं! अब जो मुझे मिला है, छीनिए मत! रामकृष्ण ने कहा, लेकिन अभी तुझे और दूसरा काम करना है; अगर यह तू इसमें डूबा, तो गया। तो अभी मैं तेरी चाबी रखे लेता हूं इतनी तू कृपा कर। और मरने के तीन दिन पहले तुझे लौटा दूंगा। और अब मरने के तीन दिन पहले तक तुझे समाधि उपलब्ध न हो, क्योंकि तुझे कुछ और काम करना है जो समाधि के पहले ही तू कर पाएगा।

और इसका भी कारण यही था कि रामकृष्ण को पता नहीं था कि समाधि के बाद भी लोगों ने यह काम किया है। लेकिन रामकृष्ण को पता हो भी नहीं सकता था, क्योंकि वे समाधि के बाद कुछ भी नहीं कर पाए थे। स्वभावत: हम अपनी ही अनुभूति से चलते हैं। रामकृष्ण की अनुभूति के बाद रामकृष्ण कुछ भी नहीं कह पाते थे, बोल नहीं पाते थे। बोलना तो बहुत मुश्किल था, वे तो इतने.. .कोई कह देता राम— और वे बेहोश हो जाते। यह तो दूसरा कह दे! कोई चला आया है और उसने कहा कि जय राम जी— और वे बेहोश होकर गिर गए! उनके लिए तो राम शब्द भी सुनाई पड़ जाए तो मुश्किल मामला था—उनको याद आ गई उसी जगत की। किसी ने कह दिया अल्लाह, तो वे गए। मस्जिद दिखाई पड़ गई, तो वे वहीं खड़े होकर बेहोश हो गए। कहीं भजन—कीर्तन हो रहा है, वे चले जा रहे हैं अपने रास्ते से—वे गए, वहीं सड़क पर गिर गए। उनकी कठिनाई यह हो गई थी : कहीं से भी जरा सी स्मृति आ जाए उनको उस रस की, कि वे गए। तो अब उनको तो बहुत कठिनाई थी। और उनका अनुभव उनके लिहाज से ठीक ही था कि विवेकानंद को अगर यह अनुभूति हो गई तो फिर क्या होगा! तो उन्होंने विवेकानंद से कहा कि तुझे तो मैं कुछ, एक बड़ा काम है, वह तू कर ले, उसके बाद…

इसलिए विवेकानंद की पूरी जिंदगी समाधि—रहित बीती, और इसलिए बहुत तकलीफ में बीती। तकलीफ लेकिन सपने की! इस बात को खयाल में रखना कि तकलीफ सपने की है; एक आदमी सोया है और बड़ी तकलीफ का सपना देख रहा है। मरने के तीन दिन पहले चाबी वापस मिल गई, लेकिन मरने तक बहुत पीड़ा थी। मरने के पांच—सात दिन पहले तक भी जो पत्र उन्होंने लिखे, वे बहुत दुख के है—कि मेरा क्या होगा, मैं तड़प रहा हूं। और तड़प और भी बढ़ गई, क्योंकि जो देख लिया है एक दफा, उसकी दुबारा झलक नहीं मिली।

अभी उतनी तड़प नहीं है आपको, क्योंकि कुछ पता ही नहीं है कि क्या हो सकता है। उसकी एक झलक मिल जाए……. आप खड़े थे अंधेरे में, कोई तकलीफ न थी, हाथ में कंकड़—पत्थर थे, तो भी बड़ा आनंद था, क्योंकि संपत्ति थी। फिर चमक गई बिजली और दिखाई पड़ा कि हाथ में कंकड़—पत्थर हैं— और सामने दिखाई पड़ा कि रास्ता भी है, और सामने दिखाई पड़ा कि हीरों की खदान भी है। लेकिन बिजली खो गई। और बिजली कह गई कि अभी दूसरा काम तुम्हें करना है वे जो और पत्थर बीन रहे हैं उनसे कहना है कि यहां आगे खदान है। इसलिए अभी तुम्हारे लिए वापस बिजली नहीं चमकेगी। अब तुम ये जो बाकी पत्थर इकट्ठे कर रहे हैं इनको समझाओ।

तो विवेकानंद से एक काम लिया गया है जो रामकृष्ण के लिए सप्लीमेंट्री था, जरूरी था, जो उनके व्यक्तित्व में नहीं था वह दूसरे व्यक्ति से लेना पड़ा। ऐसा बहुत बार हो गया है, बहुत बार हो जाता है, कुछ बात जो नहीं संभव हो पाए एक व्यक्ति से, उसके लिए दो—चार व्यक्ति भी खोजने पड़ते हैं। कई बार तो एक ही काम के लिए दस—पांच व्यक्ति भी खोजने पडते हैं। उन सबके सहारे से वह बात पहुंचाई जा सकती है। उसमें है तो करुणा, लेकिन विवेकानंद के साथ तो…

इसलिए मेरा कहना यह है कि जहां तक बने शक्तिपात से बचना, जहां तक बने वहां तक प्रसाद की फिक्र करना। और शक्तिपात भी वही उपयोगी है जो प्रसाद जैसा हो। जिसकी कोई कंडीशनिंग न हो, जिसके साथ कोई शर्त न हो, जो यह न कहे कि अब हम चाबी रखे लेते हैं। मेरा मतलब समझे न? जो यह न कहे कि अब कोई शर्त है इसके साथ, जो बेशर्त, अनकडीशनल हो; जो आपको हो जाए और वह आदमी कभी आपसे पूछने भी न आए कि क्या हुआ; जो गया तो आपको अगर धन्यवाद भी देना हो तो उसको खोजना मुश्किल हो जाए कि उसे कहां जाकर धन्यवाद दें। उतना ही आपके लिए आसान पड़ेगा। लेकिन कभी रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को जरूरत पड़ती है। तो उसके सिवाय कोई रास्ता नहीं था। नहीं तो रामकृष्ण का जानना खो जाता; वे कह नहीं पाते। उनके लिए जबान चाहिए थी जो उनके पास नहीं थी। वह जबान उन्हें विवेकानंद से मिल गई।

इसलिए विवेकानंद निरंतर कहते थे कि जो भी मैं कह रहा हूं वह मेरा नहीं है। और अमेरिका में जब उन्हें बहुत सम्मान मिला, तो उन्होंने कहा कि मुझे बड़ा दुख हो रहा है और मुझे बड़ी मुश्किल पड़ती है, क्योंकि जो सम्मान मुझे दिया जा रहा है वह उस एक और दूसरे ही आदमी को मिलना चाहिए था जिसका आपको पता ही नहीं। और जब उन्हें कोई महापुरुष कहता, तो वे कहते कि जिस महापुरुष के पास मैं बैठकर आया हूं मैं उसके चरणों की धूल भी नहीं हूं।

लेकिन रामकृष्ण अगर अमेरिका में जाते, तो वे किसी पागलखाने में भर्ती किए जाते, और उनकी चिकित्सा की जाती। उनकी कोई नहीं सुनता; वे बिलकुल पागल सिद्ध होते। वे पागल थे। अभी तक हम यह नहीं साफ कर पाए कि एक सेक्युलर पागलपन होता है और एक नॉन—सेक्युलर पागलपन भी होता है। अभी हम फर्क नहीं कर पाए कि एक पागलपन सांसारिक पागलपन, और एक और पागलपन भी है—डिवाइन भी है। वह हमें फर्क तो नहीं हो पाया।

तो अमेरिका में कभी दोनों पागल एक साथ एक से पागलखाने में बंद कर दिए जाते हैं; दोनों की एक चिकित्सा हो जाती है। रामकृष्ण की चिकित्सा हो जाती, विवेकानंद को सम्मान मिला। क्योंकि विवेकानंद जो कह रहे हैं, वह कहने की बात है, वे खुद कोई दीवाने नहीं हैं; वे एक संदेशवाहक हैं, एक डाकिया। चिट्ठी ले गए हैं किसी की, वह जाकर पढ़कर सुना दी है। लेकिन वे अच्छी तरह पढ़कर सुना सकते हैं।

नसरुद्दीन के जीवन में एक बहुत अदभुत घटना है। नसरुद्दीन अपने गांव में अकेला पढ़ा—लिखा आदमी है। और जिस गांव में एक ही अकेला पढा—लिखा हो, वह भी बहुत पढ़ा—लिखा तो होता नहीं! तो चिट्ठी किसी को लिखवानी हो, तो उसी से लिखवानी पड़ती है। तो एक आदमी उससे चिट्ठी लिखवाने आया है। और वह नसरुद्दीन उससे कहता है कि मैं न लिखूंगा, मेरे पैर में बड़ी तकलीफ है।

उस आदमी ने कहा, भई पैर से चिट्ठी लिखने को कहता कौन है! आप हाथ से चिट्ठी लिखिए।

नसरुद्दीन ने कहा कि तुम समझे नहीं, असल में हम चिट्ठी लिखते हैं तो हम ही पढ़ते हैं; हमें दूसरे गांव में जाकर पढ़नी भी पड़ती है। पैर में बहुत तकलीफ है, अभी हमें चिट्ठी लिखने की झंझट में नहीं पड़ना। लिख तो देंगे, पड़ेगा कौन? वह दूसरे गांव में हमीं को जाना पड़ता है न! तो अभी जब तक पैर में तकलीफ है, हम चिट्ठी लिखना बंद ही रखेंगे।

तो रामकृष्‍ण जैसे जो लोग हैं, ये जो चिट्ठी भी लिखेंगे, ये खुद ही पढ़ सकते हैं। ये आपकी भाषा भूल ही गए; आपकी भाषा का इनको कोई पता ही नहीं है। और ये एक और ही तरह की भाषा बोल रहे हैं जो आपके लिए बिलकुल मीनिंगलेस, अर्थहीन हो गई है। हम इनको पागल कहेंगे कि यह आदमी पागल है। तो हमारे बीच में से इन्हें कोई डाकिया पकड़ना पड़े जो हमारी भाषा में लिख सके। निश्चित ही, वह डाकिया ही होगा। इसलिए विवेकानंद से जरा सावधान रहना। उनका कोई अपना अनुभव बहुत गहरा नहीं है। जो वे कह रहे हैं, वह किसी और का है। हां, कहने में वे कुशल हैं, होशियार हैं। जिसका था, वह इतनी कुशलता से नहीं कह सकता था। लेकिन फिर भी वह विवेकानंद का अपना नहीं है।

ज्ञानियों की झिझक और अज्ञानियों का अति आत्मविश्वास:

इसलिए विवेकानंद की बातचीत में ओवरकाफिडेंस मालूम पड़ेगा। जरूरत से ज्यादा वे बल दे रहे हैं। वह बल कमी की पूर्ति के लिए है। उन्हें खुद भी पता है कि वे जो कह रहे हैं, वह उनका अपना अनुभव नहीं है। इसलिए ज्ञानी तो थोड़ा—बहुत हेज़िटेट करता है; वह थोड़ा—बहुत डरता है। उसके मन में पचास बातें होती हैं कि यह कहूं ऐसा कहूं वैसा कहूं गलत न हो जाए। जिसको कुछ पता नहीं है वह बेधड़क जो उसे कहना है, कह देता है; क्योंकि उसे कोई कठिनाई नहीं होती, हेज़िटेशन कभी नहीं होता; वह कह देता है कि ठीक है।

बुद्ध जैसे ज्ञानी को तो बड़ी कठिनाई थी। तो वे तो बहुत सी बातों का जवाब ही नहीं देते थे। वे कहते थे कि मैं जवाब ही नहीं दूंगा, क्योंकि कहने में बड़ी कठिनाई है। कुछ लोग तो कहते, इससे तो हमारे गांव में अच्छे आदमी हैं, वे जवाब तो देते हैं, वे ज्यादा ज्ञानी हैं आपसे! कोई भी चीज पूछो, जवाब दे देते हैं। भगवान है कि नहीं? तो वे कहते तो हैं कि है या नहीं। उनको पता तो है। आपको पता नहीं है क्या? आप क्यों नहीं कहते कि है या नहीं?

अब बुद्ध की बड़ी मुश्किल है। है कहें तो मुश्किल है, नहीं कहें तो मुश्किल है। तो वे हेज़िटेट करेंगे, वे कहेंगे कि नहीं भई, इस संबंध में बात ही मत करो, कुछ और बातें करते हैं। स्वभावत: हम कहेंगे कि फिर पता नहीं है आपको, यही कह दो। यह भी बुद्ध नहीं कह सकते, क्योंकि पता तो है। और हमारी कोई भाषा काम नहीं करती।

इसलिए बहुत बार ऐसा हुआ है कि रामकृष्ण जैसे बहुत लोग पृथ्वी पर अपनी बात को बिना कहे खो गए हैं। वे नहीं कह पाते, क्योंकि यह बहुत रेअर कांबिनेशन है कि एक आदमी जाने भी और कह भी सके। और जब यह घटना घटती है तो ऐसे ही व्यक्ति को हम तीर्थंकर, अवतार, पैगंबर, इस तरह के शब्दों का उपयोग करने लगते हैं। उसका कारण यह नहीं है कि इस तरह के और लोग नहीं होते, इस तरह के और भी लोग हुए हैं, लेकिन कह नहीं सके।

बुद्ध से किसी ने पूछा कि आपके पास ये दस हजार भिक्षु हैं, चालीस साल से आप लोगों को समझा रहे हैं, इनमें से कितने लोग आपकी स्थिति को उपलब्ध हुए? बुद्ध ने कहा, बहुत लोग हैं इनमें। तो उस आदमी ने कहा, आप जैसा कोई पता तो नहीं चलता हमें। बुद्ध ने कहा, फर्क इतना ही है कि मैं कह सकता हूं वे कह नहीं सकते, और कोई फर्क नहीं है। मैं भी न कहूं तो तुम मुझको भी नहीं पहचान सकोगे, बुद्ध ने कहा, क्योंकि तुम बोलना पहचानते हो, तुम जानना थोड़े ही पहचानते हो। यह संयोग की बात है कि मैं बोल भी सकता हूं जानता भी हूं; यह बिलकुल संयोग की बात है।

तो इसलिए वह थोड़ी सी कठिनाई विवेकानंद के लिए हुई जो उनको अगले जन्मों में पूरी करनी पड़े, लेकिन वह कठिनाई जरूरी थी। इसलिए रामकृष्‍ण को लेनी मजबूरी थी। लेनी पड़ी। और नुकसान लेकिन सपने का है। फिर भी मैं कहता हूं सपने में भी क्यों नुकसान उठाना? सपना ही देखना है तो अच्छा क्यों नहीं देखना, क्यों बुरा देखना?

मैंने सुना है कि— ईसप की एक फेबल है—कि एक बिल्ली एक वृक्ष के नीचे बैठी है और सपना देख रही है। एक कुत्ता भी उधर आकर विश्राम कर रहा है। और बिल्ली बड़ा आनंद ले रही है, बहुत ही आनंद ले रही है सपने में। उसकी प्रसन्नता देखकर कुत्ता भी बहुत हैरान है कि क्या देख रही है! क्या कर रही है! जब उसकी आंख खुली तो उसने पूछा कि जाने से पहले जरा बता दे कि क्या मामला था कि इतनी प्रसन्न हो रही थी? उसने कहा कि बड़ा ही आनंद आ रहा था, एकदम चूहे बरस रहे थे आकाश से। तो उस कुत्ते ने कहा, नासमझ! चूहे कभी बरसते ही नहीं। हम भी सपने देखते हैं, हमेशा हड्डियां बरसती हैं। और हमारे शास्त्रों में भी लिखा हुआ है कि चूहे कभी नहीं बरसते, जब बरसती हैं, हड्डियां बरसती हैं। मूरख बिल्ली, अगर सपना ही देखना था तो हड्डी बरसने का देखना था।

कुत्ते के लिए हड्डी अर्थपूर्ण है। कुत्ते काहे के लिए चूहे बरसाए। लेकिन बिल्ली के लिए हड्डी बिलकुल बेकार है। तो वह कुत्ता उससे कहता है, सपना ही देखना था तो कम से कम हड्डी का देखती। यानी एक तो सपना देख रही है, यही बेकार की बात है, फिर वह भी चूहे का देख रही है, और भी बेकार बात है।

तो मैं आपसे कहता हूं सपना ही देखना हो तो दुख का क्यों देखना? और जागना ही है, तो जहां तक बने—जहां तक बने— अपनी सामर्थ्य, अपनी शक्ति, अपने संकल्प का पूरे से पूरा जितना प्रयोग आप कर सकें, वह करें, और रत्ती भर दूसरे की प्रतीक्षा न करें कि वह सहायता पहुंचाएगा। सहायता मिलेगी, वह दूसरी बात है; आप प्रतीक्षा न करें कि सहायता मिलेगी। क्योंकि जितनी आप प्रतीक्षा करेंगे उतना ही आपका संकल्प क्षीण हो जाएगा। आप तो फिकर ही छोड़ दें कि कोई सहायता करनेवाला है, आप तो अपनी पूरी ताकत अकेला समझकर लगाएं कि मैं अकेला हूं। हां, सहायता बहुत तरह से मिल जाएगी, लेकिन वह बिलकुल दूसरी बात है।

साधना में स्वावलंबी बनना सदा उपादेय:

इसलिए मेरा जोर जो है वह निरंतर आपकी पूरी संकल्प शक्ति पर है, ताकि कोई और जरा सी भी बाधा आपके लिए न हो। और जब दूसरे से मिले तो वह आपकी मांगी हुई न हो, और न आपकी अपेक्षा हो, वह ऐसे ही आ जाए जैसे हवा आती है और चली जाए।

इस वजह से मैंने कहा कि नुकसान पहुंचा। और जितने दिन वे जिंदा रहे, उतने दिन बहुत तकलीफ में रहे; क्योंकि जो वे कह रहे थे, उस कही हुई बात की दूसरे की आंखों में तो झलक मालूम पड़ती थी, क्योंकि वह चौंक गया है, खुश हुआ है, लेकिन खुद उन्हें पता था कि यह मुझे नहीं हो रहा है। अब यह बड़ी कठिनाई की बात है न कि मैं आपको मिठाई की खबर लेकर आऊं और मुझे स्वाद भी न हो! बस एक दफे सपने में थोड़ा सा दिखाई पड़ा हो, फिर सपना टूट गया हो, और उसने कहा कि अब सपना ही नहीं आएगा दुबारा तुम्हें। बस अब तुम लोगों तक खबर ले जाओ।

तो विवेकानंद का अपना कष्ट है। लेकिन वे सबल व्यक्ति थे, इस कष्ट को उन्होंने झेला। यह भी करुणा का हिस्सा है। लेकिन इसलिए आपको झेलना चाहिए, यह प्रयोजन नहीं है।

विवेकानंद को समाधि की मानसिक झलक:

प्रश्न : ओशो विवेकानंद को जो समाधि का अनुभव हुआ था रामकृष्ण के संपर्क मे वह प्रामाणिक अनुभव था समाधि का?

प्राथमिक कहो। प्रामाणिक तो उतना बड़ा सवाल नहीं है—प्राथमिक, अत्यंत प्राथमिक, जिसमें एक झलक उपलब्ध हो जाती है। और वह झलक, निश्चित ही, बहुत गहरी नहीं हो सकती और आत्मिक भी नहीं हो सकती; बहुत गहरी नहीं हो सकती। बिलकुल ही जहां हमारा मन समाप्त होता है और आत्मा शुरू होती है, उस परिधि पर घटेगी वह घटना। साइकिक ही होगी गहरे में, और इसलिए खो गई। और उसको उससे गहरा होने नहीं दिया गया। उससे गहरा हो जाए तो रामकृष्ण डरे हुए थे। उससे गहरा हो जाए तो यह आदमी काम का न रह जाए। और उनको इतनी चिंता थी काम की कि उन्हें यह खयाल ही नहीं था कि यह कोई जरूरी नहीं है कि यह आदमी काम का न रह जाए! बुद्ध चालीस साल तक बोलते रहे हैं, जीसस बोलते रहे हैं, महावीर बोलते रहे हैं, कोई इससे कठिनाई नहीं आ जाती। मगर रामकृष्‍ण का भय स्वाभाविक था, उनको कठिनाई थी। तो जिसको जो कठिनाई होती है, वही उनके खयाल में थी। इसलिए बहुत ही छोटी सी झलक उनको मिली। प्रामाणिक तो है; जितने दूर तक जाती है उतने दूर तक प्रामाणिक है। लेकिन प्राथमिक है, बहुत गहरी नहीं है। नहीं तो लौटना मुश्किल हो जाए।

प्रश्न: ओशो समाधि का आंशिक अनुभव भी हो सकता है?

आंशिक नहीं है, प्राथमिक है। इन दोनों में फर्क है। आंशिक अनुभव नहीं है यह। और समाधि का अनुभव आंशिक हो ही नहीं सकता। लेकिन समाधि की मानसिक झलक हो सकती है। अनुभव तो आध्यात्मिक होगा, झलक मानसिक हो सकती है। जैसे, मैं एक पहाड पर चढ़कर सागर को देख लूं। निश्चित ही मैंने सागर देखा, लेकिन सागर बहुत फासले पर है। मैं सागर के तट पर नहीं पहुंचा; मैंने सागर को छुआ भी नहीं, मैंने सागर का जल चखा भी नहीं; मैं सागर में उतरा भी नहीं; मैं नहाया भी नहीं, डूबा भी नहीं, मैंने एक पहाड़ की चोटी पर से सागर देखा और वापस चोटी से खींच लिया गया।

तो मेरे अनुभव को सागर का आंशिक अनुभव कहोगे?

नहीं, आंशिक भी नहीं कह सकते, क्योंकि मैंने छुआ भी नहीं—जरा भी नहीं छुआ, एक इंच भी नहीं छुआ, एक बूंद भी नहीं छुई, एक बूंद चखी भी नहीं।

लेकिन फिर भी क्या मेरे अनुभव को अप्रामाणिक कहोगे?

नहीं, देखा तो है! मेरे देखने में तो कोई कमी नहीं है, सागर मैंने देखा। सागर होकर नहीं देखा, डूबकर नहीं देखा, दूर किसी पीक से, किसी दूर शिखर से दिखाई पड़ गया!

तो तुम अपनी आत्मा को कभी अपने शरीर की ऊंचाई पर खड़े होकर भी देख लेते हो। शरीर की भी ऊंचाइयां हैं, शरीर के भी पीक एक्सपीरिएंसेस हैं। शरीर की भी कोई अनुभुति अगर बहुत गहरी हो तो तुम्हें आत्मा की झलक मिलती है। जैसे अगर बहुत वेल—बीइंग का अनुभव हो शरीर में, तुम परिपूर्ण स्वस्थ हो, और तुम्हारा शरीर स्वास्थ्य से लबालब भरा है, तो तुम शरीर की एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंचते हो जहां से तुम्हें आत्मा की झलक दिखाई पड़ेगी। और तब तुम अनुभव कर पाओगे कि नहीं, मैं शरीर नहीं हूं मैं कुछ और भी हूं। लेकिन तुम आत्मा को जान नहीं लिए। लेकिन शरीर की एक ऊंचाई पर चढ़ गए।

मन की भी ऊंचाइयां हैं। जैसे कि कोई बहुत गहरे प्रेम में—सेक्स में नहीं, सेक्स शरीर की ही संभावना है। और सेक्स भी अगर बहुत गहरा और पीक पर हो, तो वहां से भी तुम्हें आत्मा की एक झलक मिल सकेगी। लेकिन बहुत दूर की झलक, बिलकुल दूसरे छोर से।

लेकिन प्रेम की अगर बहुत गहराई का अनुभव हो तुम्हें, और किसी को जिसे तुम प्रेम करते हो उसके पास तुम क्षण भर को चुप बैठे हो, सब सन्नाटा है, सिर्फ प्रेम रह गया है तुम्हारे दोनों के बीच डोलता हुआ, और कुछ शब्द नहीं, कोई भाषा नहीं, कुछ लेन—देन नहीं, कुछ आकांक्षा नहीं, सिर्फ प्रेम की तरंगें यहां से वहां पार होने लगी हैं, तो उस प्रेम के क्षण में भी तुम एक ऐसे शिखर पर चढ़ जाओगे जहां से तुम्हें आत्मा की झलक मिल जाए। प्रेमियों को भी आत्मा की झलक मिली है।

एक चित्रकार एक चित्र बना रहा है, और इतना डूब जाए उस चित्र को बनाने में कि एक क्षण में परमात्मा हो जाए, स्रष्टा हो जाए। जब एक चित्रकार चित्र को बनाता है तो वह उसी अनुभूति को पहुंच जाता है कि अगर भगवान ने कभी दुनिया बनाई होगी तो पहुंचा होगा, उस क्षण में। तो उस पीक पर…… .लेकिन वह मन की है ऊंचाई। उस जगह से वह एक क्षण को स्रष्टा है, क्रिएटर है; एक झलक मिलती है उसको आत्मा की। इसलिए कई बार वह उसे समझ लेता है कि पर्याप्त हो गई। वह भूल हो जाती है।

संगीत में मिल सकती है कभी, काव्य में मिल सकती है कभी, प्रकृति के सौंदर्य में मिल सकती है कभी, और बहुत जगह से मिल सकती है, लेकिन हैं सब दूर की चोटियां। समाधि में डूबकर मिलती है। बाहर से तो बहुत शिखर हैं जिन पर चढ़कर तुम झांक ले सकते हो।

तो यह जो अनुभुति है विवेकानंद की, यह भी मन के ही तल की है; क्योंकि मैंने तुमसे कहा कि दूसरा तुम्हारे मन तक आंदोलन कर सकता है। तो एक पीक पर चढ़ा दिया है!

समाधि की मानसिक झलक भी बहुत महत्वपूर्ण:

यानी ऐसा समझो कि एक छोटा बच्चा है, मैंने उसे कंधे पर बिठा लिया, और उसने देखा, और मैंने उसे कंधे से नीचे उतार दिया। क्योंकि मेरा शरीर उसका शरीर नहीं हो सकता। उसके पैर तो जितने बड़े हैं उतने ही बड़े हैं। अपने पैर से तो जब वह खुद बड़ा होगा, तब देखेगा। लेकिन मैंने कंधे पर बिठाकर उसको कुछ दिखा दिया। वह कह सकता है जाकर कि मैंने देखा। फिर भी शायद लोग उसका भरोसा भी न करें। वे कहें, तूने देखा कैसे होगा? क्योंकि तेरी तो ऊंचाई नहीं है इतनी कि तू देख सके! लेकिन किसी के कंधे पर क्षण भर बैठकर देखा जा सकता है।

पर वह है संभावना सब मन की, इसलिए वह आध्यात्मिक नहीं है। इसलिए अप्रामाणिक नहीं कहता हूं लेकिन प्राथमिक कहता हूं। और प्राथमिक अनुभूति शरीर पर भी हो सकती है, मन पर भी हो सकती है। आंशिक नहीं है वह, है तो पूरी, पर मन की पूरी अनुभुति है वह। आत्मा की पूरी अनुभूति नहीं है। आत्मा की पूरी होगी तो वहां से लौटना नहीं है, वहां से कोई चाबी नहीं रख सकता तुम्हारी। और वहां से कोई यह नहीं कह सकता कि जब हम चाबी लौटाएंगे तब होगा। वहां से फिर कोई वश नहीं है। इसलिए वहां अगर किसी को काम लेना हो तो उसके पहले ही उसे रोक लेना पड़ता है। उसे उस तक नहीं जाने देना पड़ता है, नहीं तो फिर कठिनाई हो जाएगी।

है तो प्रामाणिक, लेकिन प्रामाणिकता जो है वह साइकिक है, स्प्रिचुअल नहीं है। वह भी छोटी घटना नहीं है, क्योंकि सभी को वह नहीं हो सकती, उसके लिए भी मन का बड़ा प्रबल होना जरूरी है। वह भी सबको नहीं हो सकती।

प्रश्न: ओशो विवेकानंद का शोषण किया उन्होंने ऐसा कहा जा सकता है?

कहने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन शब्द जो है वह बहुत ज्यादा, जिसको कहें सिर्फ शब्द सूचक नहीं है वह, उसमें निंदा भी है। इसलिए नहीं कहना चाहिए। शोषण शब्द में निंदा है, गहरे में उसमें कडेमनेशन है। शोषण नहीं किया; क्योंकि रामकृष्‍ण को कुछ भी नहीं लेना—देना है विवेकानंद से। लेकिन विवेकानंद के द्वारा किसी को कुछ मिल सकेगा, यह खयाल है। इस अर्थ में शोषण किया कि उपयोग तो किया, उपयोग तो किया ही। लेकिन उपयोग और शोषण में बहुत फर्क है। और शोषण शब्द, जहां मैं अहंकेंद्रित, अपने अहंकार के लिए कुछ खींच रहा हूं और उपयोग कर रहा हूं वहां तो शोषण हो जाता है; लेकिन जहां मैं जगत, विश्व, सबके लिए कुछ कर रहा हूं वहां शोषण का कोई कारण नहीं है।

और फिर यह भी तो खयाल में नहीं है तुम्हें कि अगर रामकृष्ण वह झलक न दिखाते तो विवेकानंद को वह भी हो जाती, यह भी थोड़े ही पक्का है। इसी जन्म में हो जाती, यह भी थोड़े ही पक्का है। और इस बात को जो जानते हैं, वे तय कर सकते हैं। जैसे, हो सकता है— जैसी मेरी समझ है, यही है! लेकिन अब इसके लिए कोई प्रमाण नहीं जुटाए जा सकते हैं। रामकृष्ण का यह कहना कि मृत्यु के तीन दिन पहले तुझे चाबी वापस लौटा दूंगा, कुल इसका कारण इतना भी हो सकता है कि रामकृष्ण की समझ में विवेकानंद अपने ही आप प्रयास करते तो मरने के तीन दिन पहले समाधि को उपलब्ध हो सकते थे। रामकृष्ण का ऐसा खयाल है कि अगर यह आदमी अपने आप ही चलता है तो मरने के तीन दिन पहले इस जगह पहुंच जाता। तो उस दिन चाबी लौटा देंगे। वे भी चाबी कैसे लौटाएंगे, क्योंकि रामकृष्ण तो मर गए! रामकृष्‍ण तो मर गए, चाबी लौटानेवाला भी मर गया, लेकिन चाबी लौट गई तीन दिन पहले। तो इसकी बहुत संभावना है। क्योंकि तुम्हारे व्यक्तित्व को जितना तुम नहीं जानते, उतना जो जितनी गहराइयों में गया है उतनी गहराइयों में तुम्हें जान सकता है; और यह भी जान सकता है कि तुम अगर अपने ही मार्ग से चलते रहो…।

स्वभावत:, अगर मैं एक यात्रा पर गया और एक पहाड़ चढ़ गया। पहाड़ का रास्ता मुझे मालूम है, सीढ़ियां मुझे मालूम हैं, समय कितना लगता है वह मुझे मालूम है, कठिनाइयां कितनी हैं वे मुझे मालूम हैं। मैं तुम्हें पहाड़ चढ़ते देख रहा हूं; मैं जानता हूं कि तीन महीने लग जाएंगे; समझ रहे हो न? मैं जानता हूं कि तुम जिस रफ्तार से चल रहे हो, जिस ढंग से चल रहे हो, जिस ढंग से भटक रहे हो, डोल रहे हो, उसमें इतना समय लग जाएगा। तो बहुत गहरे में तो इतना भी शोषण नहीं है। पर मैंने तुम्हें वहीं बीच में आकर, ऊपर उठाकर, पहाड़ के ऊपर जो है उसकी झलक दिखा दी है और तुम्हें उसी जगह छोड़ दिया और कहा कि तीन महीने बाद रास्ता मिल जाएगा; अभी तीन महीने तक रास्ता नहीं मिलेगा।

तो इतना, भीतर इतना सूक्ष्म है बहुत सा और इतना कांप्लेक्स है कि तुम्हें एकदम से ऊपर से नहीं दिखाई पड़ता, खयाल में नहीं आता। अब जैसे अभी कल निर्मल गई वहां वापस, तो उसको किसी ने कहा हुआ है कि त्रेपन वर्ष की उम्र में मर जाएगी; तो मैंने उसकी गारंटी ले ली कि त्रेपन वर्ष में नहीं मरेगी। अब यह गारंटी पूरी मैं नहीं करूंगा, पर यह गारंटी पूरी हो जाएगी। लेकिन अगर वह बच गई त्रेपन वर्ष के बाद, तो वह कहेगी कि मैंने गारंटी पूरी की।

विवेकानंद कहेंगे कि चाबी तीन दिन पहले लौटा दी। बाकी किसको चाबी लौटानी है!

प्रश्न: ओशो ऐसा भी हो सकता है कि रामकृष्ण जानते रहे हों कि विवेकानंद को साधना की लंबी यात्रा बिना सफलता के करनी है जिसमें उन्हें बहुत दुख भी होगा। इसलिए उन्होंने दुख दूर करने के लिए पहले ही विवेकानंद को समाधि की एक झलक बता दी?

सा भी हो सकता है’, ऐसा करके कभी सोचना ही मत, क्योंकि इसका कोई अंत नहीं है। ‘ ऐसा भी हो सकता है ‘, ऐसा करके सोचने का कोई मतलब नहीं होता। इसलिए मतलब नहीं होता कि फिर तुम कुछ भी सोचती रहोगी, और उसका कोई अर्थ नहीं है। इसलिए ऐसा कभी मत सोचना कि ऐसा भी हो सकता है, ऐसा भी हो सकता है, ऐसा भी हो सकता है। जितना हो सकता है पता हो, उतना ही सोचना। ऐज इफ करके नहीं सोचा चाहिए। जहां तक बने नहीं सोचना चाहिए। उससे कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वे बिलकुल ही अर्थहीन रास्ते हैं, जिन पर हम कुछ भी सोचते रहें, उससे कुछ होगा नहीं। और उससे एक नुकसान होगा। वह नुकसान यह होगा कि ‘ जैसा है’, उसका पता चलने में बहुत देर लग जाएगी।

इसलिए हमेशा इसकी फिक्र करना कि कैसा है? और जैसा है, उसको जानना हो, तो ऐसा हो सकता है, ऐसा हो सकता है, ऐसा हो सकता है, यह अपने मन से काट डालना बिलकुल। इनको जगह ही मत देना। न मालूम हो तो समझना कि मुझे मालूम नहीं कि कैसा है। लेकिन यह अज्ञान की जो स्थिति है कि मुझे मालूम नहीं है, इसे इस ज्ञान से मत ढांक लेना कि ऐसा भी हो सकता है। क्योंकि हम ऐसे ढांके हुए हैं बहुत सी बातें। हम सब लोग इस तरह सोचते रहते हैं। इससे बची तो हितकर है।

अब कल बात करेंगे।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–196

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दान—सात्‍विक, राजस, तामस—(प्रवचन—नौवां)

अध्‍याय—17

सूत्र-

दातव्‍यमिप्ति यद्दानं दींयतेउनुपकारिणे।

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्‍विक स्मृतम्।। 20।।

यत्तु प्रत्यक्कारार्थं फलमुद्दिश्‍य वा पन:।

दीयते च परिक्‍लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।। 21।।

अदेशकाले यद्दानमयात्रेभ्यश्च दीयते।

असत्‍कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदष्ठतम्।। 22।।

है अर्जुन, दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह दान तो सात्‍विक कहा गया है। और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उद्देश्य रखकर फिर हिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।

और जो दान बिना सत्कार किए अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश—काल में कुपात्रों के लिए दिया जाता है वह दान तामस कहा गया है।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : सदगुरु अलग— अलग होते हैं और किसी एक सदगुरु को मानने वाला दूसरे सदगुरु को स्वीकार नहीं कर सकता। लेकिन हम बुद्ध, महावीर, लाओत्से, जीसस, कृष्ण, सभी के प्रति झुक जाते हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि आपने ही हमें उनके उन्मूख किया। जीवित गुरु कृष्णमूर्ति को देखकर भी हमारा हृदय आनंदविभोर हो उठा है, पैर थिरक उठे हैं। क्यों? और समझ में नहीं आता कि कृष्णमूर्ति के प्रेमी आपको क्यों स्वीकार नहीं कर सकते?

दगुरु निश्चित ही भिन्न—भिन्न हैं। विशेषकर तीन वर्ग किए जा सकते हैं। एक वर्ग है कृष्णमूर्ति जैसे सदगुरुओं का, महावीर, बुद्ध उसी पंक्ति में आते हैं। इस प्रकार के सदगुरु का एक ही उपदेश है कि तुम परिपूर्ण रूप से स्वतंत्र हो जाओ, निर्भर न रहो। तुम्हारी स्वतंत्रता में ही तुम्हारा मोक्ष है। मोक्ष कोई अंतिम घटना नहीं है। पहले कदम से ही मुक्त होना सीखना पड़ेगा, तो ही अंतिम कदम पर मुक्ति फलित होगी।

कृष्णमूर्ति की प्रसिद्ध किताब है, दि फर्स्ट एंड दि लास्ट फ्रीडम—पहली और अंतिम मुक्ति। पहली मुक्ति ही अंतिम मुक्ति है और पहला कदम ही, स्वतंत्रता का, अंतिम कदम है।

तो न तो किसी की शरण जाना, न कहीं समर्पण करना, न किसी विचार से बंधना, श्रद्धा से बचना। महावीर ने इसी बात को अशरण— भाव कहा हैं, किसी की शरण मत जाना।

बुद्ध ने मरते समय जो आखिरी संदेश दिया.। आनंद ने पूछा कि कुछ आखिरी बात हमें कह दें, जिसे हम सदा संजोकर रख सकें। तो बुद्ध ने कहा, अप्प दीपो भव! अपने दीए खुद बनना। किसी का दीया उधार मत मांगना और किसी दूसरे की रोशनी मत लेना, तो ही तुम परम मुक्ति को उपलब्ध हो सकोगे।

स्वभावत:, जिसने ऐसे गुरु के वचन सुने हों, वह किसी दूसरे गुरु के पास नहीं आ सकता। उसे तो कठिन है कृष्णमूर्ति के पास भी रहना। क्योंकि अगर उसने ठीक से सुना है, तो वह उनसे भी भाग खड़ा होगा। उसने अधूरा सुना है, इसलिए वह उनके पास खड़ा है। लेकिन इतना तो उसने सुन ही लिया है कि अब वह किसी और के पास नहीं जाएगा, कहीं और नहीं झुकेगा। ज्यादा से ज्यादा वह कृष्णमूर्ति के प्रति झुकेगा।

वह भी ठीक नहीं सुनी बात उसने, अन्यथा वह भी रुक जाना चाहिए। क्योंकि कृष्णमूर्ति हों, कि कृष्ण हों, कि बुद्ध हों, क्या फर्क पड़ता है? तुम झुके, कि चूक हो गई। वहां झुकने का ही विरोध है। लेकिन फिर भक्त तो समझौते बनाता है। वह कहता है, इतना चलेगा, एक के प्रति झुकेंगे, और किसी के प्रति न झुकेंगे। और इस आदमी के प्रति तो झुकेंगे, क्योंकि इसने ही सिखाया कि किसी के प्रति मत झुको। लेकिन दूसरे सब द्वार बंद हो जाते हैं। ऐसा आदमी संकीर्ण हो जाता है।

अब यह बड़े सोचने जैसी बात है। कृष्णमूर्ति, बुद्ध और महावीर किसी को संकीर्ण नहीं बनाना चाहते; चाहते हैं, तुम मुक्त आकाश जैसे हो जाओ। इसीलिए कहते हैं, किसी से बंधना मत। जोर इसीलिए है, ताकि तुम बंधी न, कोई कारागृह खड़ा न हो। तो तुम मुक्त खुले आकाश जैसे रहोगे, तुम्हारी कोई सीमा न होगी, कोई संप्रदाय न होगा, कोई शास्त्र न होगा।

लेकिन जो कृष्णमूति कहते हैं, वही थोड़े ही सुनने वाला सुनता है। ही, कोई कृष्णमूर्ति ही सुन रहा हो, तो वही सुनेगा जो कृष्णमूर्ति कहते हैं। लेकिन कृष्णमूर्ति को सुनने कृष्णमूर्ति क्यों जाएगा? सुनने वाला अपने तल से सुनता है। वह कहता है, बिलकुल ठीक, कहीं नहीं झुकना है, यह तो हम पहले से ही जानते थे। वह उसका अहंकार बोल रहा है, मोक्ष नहीं, स्वतंत्रता नहीं।

जब कृष्णमूर्ति कहते हैं, मत झुको कहीं, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि अकड़े खड़े रही। वे यह कह रहे हैं कि झुकने से तो गुलामी बन जाएगी। तो किसी के प्रति मत झुको, सिर्फ झुको। किसी के प्रति नहीं, प्रति न हो; सिर्फ झुकना हो। समस्त के प्रति झुको, यह संदेश है। मुक्त आकाश के प्रति झुको; क्या छोटे—छोटे आंगन के प्रति झुकना? जब बड़ा मौजूद हो तो क्यों छोटे के लिए झुकना? जब विराट मौजूद हो तो क्यों क्षुद्र के लिए झुकना? जब असीम मौजूद हो तो सीमा को क्यों झुकना? वे यह कह रहे हैं कि झुको पूरे के लिए। सुनने वाला समझ रहा है, झुको ही मत, अकड़े रहो।

कृष्णमूर्ति डरते हैं कि कहीं तुम किसी के सामने झुके, चाहे वह कोई कृष्ण ही क्यों न हो, तो भी तुम बंध जाओगे। उतना भी उनको लगता है कि बंधन न हो, अड़चन हो जाएगी। लेकिन तुम समझ रहे हो कि अपने से ही बंधे रहो, झुको ही मत। इससे तो बेहतर था, तुम कृष्ण के प्रति ही झुक जाते। तुमसे तो वे बड़े ही थे। तुम तो बिलकुल क्षुद्र हो, क्षुद्रतम हो।

लेकिन सुनने वाला वही सुन सकता है, जो वह है। उसकी अपनी व्याख्या है। उसकी अपनी टीका है। तो कृष्णमूर्ति के पास सुनने वाले निन्यानबे तो चूक जाते हैं, वे क्या कह रहे हैं। मुश्किल से एक समझ पाता है। उस एक को मेरे पास आने में कोई अड़चन न होगी। वह मेरे इतने पास आ जाएगा, जितने पास आया जा सकता है; कोई अड़चन न होगी। क्योंकि उसने समझ लिया, झुकना नहीं है, बंधना नहीं है, वह मुक्त हो गया; सब द्वार खुले हैं। अब उसकी गंगा कहीं भी बह सकती है। सब मार्ग अपने हैं। लेकिन वह एक को होगा, निन्यानबे तो कृष्णमूर्ति से बंध जाएंगे। इसी ने सिखाया न झुकना, इसने ही अहंकार को पुष्टि दी। अब इसको छोड़कर वे नहीं जा सकते। क्योंकि जहां भी जाओ, लोग कहते हैं, झुको।

तो एक तो कृष्णमूर्ति के ढंग के सदगुरु हैं, बुद्ध, महावीर। दूसरे मेहरबाबा के ढंग के सदगुरु हैं। वह दूसरा ढंग है। वह ठीक कृष्णमूर्ति से उलटा है। वहां झुकना ही कला है। वे कहते हैं, बिलकुल झुक जाओ, बचो ही मत। गुरु परमात्मा है। वही परम है। तुम बिलकुल झुक जाओ। तुम अपने को खो ही दो।

मेहरबाबा जैसे गुरु हैं कृष्ण, जो अर्जुन को कहते हैं, मामेकं शरणम् वज। सब छोड़, सब धर्म छोड़, मेरी शरण आ। चैतन्य महाप्रभु! सारे भक्ति के मार्ग से उपलब्ध हुए जितने भी लोग हैं, वे सब कहेंगे, छोड़ दो, सब छोड़ दो। जीसस कहते हैं, सब छोड़ो। कम, फालो मी! आओ, मेरे पीछे चलो।

यह दूसरा वर्ग है। इस वर्ग को भी समझ लेना चाहिए। यह वर्ग यह कह रहा है कि तुम इतने झुक जाओ कि तुम बचो ही नहीं। दूसरा थोड़े ही बांधता है; तुम्हारी वह जो क्षुद्र अस्मिता है, वही बंधती है। दूसरा क्या बांधेगा! अगर अहंकार न हो तुम्हारे पास, संसार में तुम्हें कोई भी नहीं बांध सकता। बांधने को ही कुछ न बचा। अहंकार जब तुम्हारे भीतर नहीं रह जाता, तुम खुले आकाश हो गए। इसको कोई मुट्ठी में बांधना चाहे, कोई भी नहीं बांध सकता।

तो वे कहते हैं, झुकने से डरो मत, अन्यथा बंध जाओगे। जरा तुम बचे, कि अकड़ थोड़ी बची रही.। वही अकड़ तो बंधती है जगह—जगह। उसी अकड़ पर तो जंजीरें पड़ जाती हैं। वही अहंकार तो तुम्हारी सारी उपाधियों, सारे रोगों की जड़ है। वही तो तुम्हें संसार में भटकाता है। वही तो तुम्हें धन से बांध देता है, पद से बांध देता है। तुम धन से बंधोगे, पद से बंधोगे, पत्नी से बंधोगे, पति से बंधोगे; सिर्फ गुरु से बचना चाहते हो? जब कि गुरु एकमात्र ऐसा बंधन है, जो मुक्ति बन सकता है। तो मेहरबाबा की कोटि के सदगुरु कहते हैं, छोड़ दो अपने को बिलकुल, भूल ही जाओ कि तुम हो। परतंत्र होने को कोई है ही नहीं, इस तरह मिट जाओ। फिर तुम्हें कौन परतंत्र करेगा? इसलिए समर्पण पूरा कर दो।

ध्यान रखना, दुनिया में सौ में से एक प्रतिशत लोग कृष्‍णमूर्ति, बुद्ध महावीर के मार्ग से पहुंच सकते हैं, इससे ज्यादा नहीं। क्योंकि अहंकार बड़ी भयंकर व्याधि है। वह स्वतंत्रता के नाम पर अहंकार को ही पुष्टि मिलेगी।

मेहरबाबा जैसे व्यक्तियों के साथ जितने लोग पहुंचते हैं, वह संख्या निन्यानबे प्रतिशत है। क्योंकि अगर तुम छोड़ दो अहंकार, तो न कुछ बंधने को रहा, न कुछ मुक्त होने को रहा। अगर तुम बचे रहे तुम्हारे मोक्ष में भी, तो तुम्हारा मोक्ष भी संसार होगा। मोक्ष कोई स्थान थोड़े ही है, जहां तुम्हें जाना है; मोक्ष तो एक अवस्था है, जहां तुम्हें नहीं बचना है।

तो कृष्णमूर्ति के मानने वाले को एक तो मोक्ष बहुत दूर। क्योंकि वह उस मानने में से अपने अहंकार को बचाएगा। लेकिन कोई एक उससे भी उपलब्ध होता है।

इसलिए कृष्णमूर्ति, बुद्ध और महावीर के मार्ग को मैं हीनयान

कहता हूं; वह छोटी डोंगी है। वह कोई बडा जहाज नहीं है, महायान नहीं है। उसमें थोड़े—बहुत लोग बैठकर नदी पार हो जाते हैं। पार होते हैं। डोंगी में कुछ हर्जा नहीं है, उससे भी पार हो सकते हैं। और डोंगी में एक तरह की स्वतंत्रता है। जब खेना हो खेओ, न खेना हो मत खेओ, रुकना हो किसी किनारे पर थोड़ी देर, तो रुको, न रुकना हो, मत रुको।

लेकिन खतरा भी है। क्योंकि डोंगी अक्सर डूबती है, पहुंचती कम है। स्वतंत्रता थोड़ी ज्यादा है, लेकिन खतरा भी उतना ही ज्यादा है। और अक्सर तो यह होता है कि तुम पहुंच ही नहीं पाते। अक्सर तो थोड़ा भटक— भटकाकर अपने किनारे वापस आ जाते हो।

मैंने सुना है, एच .जी वेल्स ने एक कहानी लिखी है। एक आदमी था। वह उसी ढंग का आदमी रहा होगा, जिसको हम शेखचिल्ली कहते हैं; या स्पेन में जिसके ऊपर एक बड़ी प्रसिद्ध किताब लिखी गई है, डान कुईजोट। शेखचिल्ली ढंग का आदमी रहा होगा। उसने एक किताब पढ़ी। और किताब में वर्णन था कि प्राचीन समय में लोग छोटी—छोटी डोंगियों से समुद्र पार कर जाते थे।

जहाज तो थे नहीं, लेकिन समुद्र तो लोगों ने पार किया ही है। अर्जुन की एक पत्नी मैक्सिको से आई थी। तो जहाज तो बड़े नहीं थे, डोंगियों में ही आई होगी, डोंगियों में ही लाई गई होगी। लोग तो यात्रा कर रहे थे। और अब तो मैक्सिको की पत्नी की बात करीब—करीब ऐतिहासिक हो गई है, क्योंकि मैक्सिको में बहुत—से हिंदू चित्र मिले हैं, मूर्तियां मिली हैं, मंदिर मिले हैं। मैक्सिको कभी हिंदू देश रहा, इसके सब प्रमाण जुट गए हैं। महाभारत में उसका नाम मक्षिका है। मैक्सिको मक्षिका का ही अपभ्रंश मालूम होता है।

तो लोग चलते रहे होंगे बिना बडे जहाजों के। उसने ये सब कहानियां पढ़ी, वह बहुत उत्तेजित हो गया। उसने भी एक डोंगी खरीदी। तीन महीने का भोजन, सामान तैयार करके रखा, हलके से हलका, क्योंकि ज्यादा वजन ले जा नहीं सकता था। विटामिन की गोलियां रख लीं और सब इंतजाम कर लिया और चल पड़ा। बड़ा संघर्ष था, भयंकर तूफान थे। लेकिन हिम्मतवर आदमी था, जूझता रहा। तीन महीने पूरे होने को करीब आए, तब उसे थोड़ी घबराहट भी होने लगी। कहीं पहुंचता हुआ नहीं मालूम पड़ता। रात थी, सुबह हुई; देखा कि जमीन करीब है। बहुत आनंदित हो गया। भगवान को धन्यवाद दिया कि पहुंच गए। बड़ी प्रसन्नता से किनारे पहुंचा।

देखकर चकित हुआ। चकित यह हुआ कि कहानियों में उसने यही सुना था कि जब तुम पहुंचोगे दूसरे देश, तो वहां के लोग दूसरी भाषा बोलेंगे। ये लोग अंग्रेजी ही बोलते हैं यहां भी! तीन महीने की यात्रा के बाद! जब वह और थोड़े पास गया और लोगों को देखा, तो पता चला, यह तो उसी का गांव है। अपने ही गांव तीन महीने उपद्रव में उलझकर वापस डोंगी लग गई।

यह भी बहुत कि कम से कम अपने गांव ही लग गई। सागरों में डोंगियां लेकर यात्रा करना कठिन काम है। कहीं पहुंचोगे, इसकी संभावना कम है।

तो जो समझ सकता है—और कितने लोग समझ सकते हैं? वह कृष्णमूर्ति की डोंगी में भी पहुंच जाएगा। जो नहीं समझ सकता—और बहुत लोग हैं, जो नहीं समझ सकते—उसके लिए तो मेहरबाबा का बड़ा जहाज चाहिए। जहां तुम्हें कुछ करना ही नहीं पड़ता; तुम सब छोड़ देते हो गुरु पर, तुम अशेष भाव से छोड़ देते हो, तुम कुछ बचाते ही नहीं। गुरु कहे, कूद जाओ, तो कूद जाते हो, गुरु कहे, रुको, तो रुक जाते हो। तुम्हारा अपना कोई अब निर्णय न रहा। तुम न रहे।

एक मार्ग यह है। जो पहुंचे हैं, उनमें से निन्यानबे प्रतिशत इससे पहुंचे हैं।

तीसरा और एक मार्ग है, जिसके बाबत मैं तुमसे चर्चा कर रहा हूं। वह मार्ग इन दो को अलग— अलग नहीं तोड़ता। इन दो मार्गों की, जिनकी मैंने तुमसे बात की—कृष्णमूर्ति और मेहरबाबा—ये दो अति मालूम होते हैं, दो छोर। मैं जिस मार्ग की तुमसे बात कर रहा हूं वह इन दोनों का सम्मिलन है, और इन दोनों का ऐक्य है। क्योंकि मैं कहता हूं कि सौ ही आदमी पार होने चाहिए। क्यों निन्यानबे पार हों? एक क्यों चूके? या क्यों एक पार हो और निन्यानबे क्यों चूके?

तो मैंने कुछ ऐसा इंतजाम किया है कि बड़े जहाज के आस—पास छोटी—छोटी डोंगियां भी बांध दी हैं। तो जिनका शौक डोंगी में ही बैठने का है, डोंगी में बैठ जाएं, लेकिन जहाज से बंधे रहें। कुछ लोग हैं, जिनको डोंगी में बैठने का आनंद है। उनको चैन ही न मिलेगी, जब तक तकलीफ न हो, कुछ घबड़ाहट—बेचैनी न हो। वे बैठ जाएं डोंगी में, लेकिन डोंगी जहाज से बंधी है।

तो मैं दोनों के लिए बोल रहा हूं एक प्रतिशत के लिए भी, निन्यानबे प्रतिशत के लिए भी। इसलिए तुम्हें जहां भी कोई ज्ञानी मिल जाए, तुम मजे से झुको। तुम पूरी तरह झुको। मेरे शिष्य को किसी भी ज्ञानी में मुझे ही देखना चाहिए, इससे कम नहीं। तुम झुको पूरी तरह। कोई तुम्हें बाध न पाएगा।

बांधने का, बंध जाने का डर भी थोड़ी कमजोरी का लक्षण है। क्या बंधना है? कौन बांध लेगा? यह भी भय है कि कहीं बंध न जाएं। ऐसे छोटे भय लेकर क्यों जीते हो? भयभीत न रहो।

तुम्हें जहां कोई सदगुरु दिखे, पूरी तरह झुक जाओ। चाहे वह सदगुरु यही कह रहा हो कि झुकना ठीक नहीं है, तब भी झुको। इतना भी सिखाया उसने, तो भी अनुग्रह! यह भी बड़ी बात कही उसने। तो भी धन्यवाद!

तो मेरे पास जो हैं, उनके लिए मेहरबाबा हों कि कृष्णमूर्ति हों, बुद्ध हों कि कृष्ण हों, राम हों कि मोहम्मद हों, कोई फर्क नहीं है। क्योंकि मैं तुम्हें ऊपर की खोलों के फर्क नहीं सिखा रहा हूं तुम्हें भीतर की चेतना का राज बता रहा हूं।

तुम सब जगह झुकी। कोई तुम्हें बांध न पाएगा। समर्पण में तुम्हारी मुक्ति है। तुम वहां भी जाओ, जो कहता है कि सब समर्पण गलत है। उसकी भी सुनो। क्योंकि एक प्रतिशत उससे भी मुक्त होते हैं। कौन जाने, तुम उस एक प्रतिशत में होओ।

तुम्हारे लिए मैंने सब द्वार खुले छोड़ दिए हैं, कोई द्वार बंद नहीं रखा है। मैं तुम्हें कोशिश कर रहा हूं इतना विराट बनाने की कि तुम्हें अगर कोई बांधकर भी ले जाए, तो तुम तो न बंधो, बांधकर ले जाने वाले को तुम्हारे साथ मुक्त होना पड़े।

ऐसा भी हुआ है।

डायोजनीज, यूनान में एक फकीर हुआ। महावीर की तरह फकीर था, नग्न रहता था। अलमस्त आदमी था, कोई चिंता—फिक्र न थी, तो मस्त था, शरीर स्वस्थ था, शक्तिशाली था। कुछ लोग निकल रहे थे जंगल से और वह एक झाडू के नीचे विश्राम कर रहा था। आठ आदमी थे वे। उनका धंधा गुलामों को बेचना था।

उन्होंने इस मस्त आदमी को सोए देखा। उन्होंने कहा कि अगर यह पकड में आ जाए! लेकिन इसको पकड़ो कैसे? हालांकि यह सो रहा है, हम आठ हैं; मगर अगर यह जाग गया, तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी। अगर यह हाथ आ जाए, तो खूब दाम मिल सकते हैं। हमने बहुत गुलाम बेचे हैं। मगर इस गुलाम को तो बाजार में ले जाएंगे, तो ऐसा हीरा कभी आया ही नहीं, इसके तो बड़े दाम मिल जाएंगे।

क्या करें, वे विचार ही कर रहे थे। उनकी बातचीत सुनकर डायोजनीज की नींद खुल गई। तो उसने आंखें बंद ही किए कहा कि तुम परेशान मत होओ, बांध लो। चलूंगा साथ, घबड़ाओ मत।

वे और भी घबडाए कि यह आदमी किस तरह का है! आदमी को गुलाम बनाना हो, तो वह हजार झंझटें खड़ी करता है, कमजोर आदमी भी करता है। वह भी उछलकूद मचाता है, शोरगुल मचाता है, मार—पीट करेगा, उसमें भी ताकत आ जाती है। और यह आदमी ऐसे ही पड़ा है, और आंखें ही बंद किए! आंख खोलकर भी नहीं देखा कि कौन हो, क्या हो?

उसने कहा कि ज्यादा चिंता—फिक्र मत करो; चिंता—फिक्र का मैं दुश्मन हूं। यही मेरी शिक्षा है कि चिंता—फिक्र छोड़ो। तुम बांध ही लो। मैं चलने को राजी हूं। मैं कोई अड़चन खड़ी न करूंगा।

डरते—डरते उन्होंने उसके हाथ बांधे। उसने हाथ आगे कर दिए। बांध तो लिया उसे, लेकिन भीतर कुछ टूट गया उनके। यह आदमी बांधने जैसा है नहीं। इतना स्वतंत्र आदमी उन्होंने देखा ही न था, जो बंधने को इतनी आसानी से राजी हो।

सिर्फ परम स्वतंत्र आदमी ही बंधने को राजी हो सकता है। उसको अपने पर इतना भरोसा है, अपनी स्वतंत्रता की इतनी श्रद्धा है कि क्या तुम उसे मिटाओगे! और जिसको आठ आदमी मिलकर मिटा दें, वह भी कोई मोक्ष है? वह भी कोई स्वतंत्रता है, मुक्ति है? जिसको कोई गुरु मिटा दे, वह भी कोई मोक्ष है?

कृष्णमूर्ति के पास कमजोर आदमी इकट्ठे हो गए हैं, अहंकारी और कमजोर। अपने को बचाने में लगे हैं, डर रहे हैं। इसलिए वे मेरे पास कैसे आएंगे! यहां खतरा हो सकता है।

डायोजनीज बंध गया। उसने फिर पूछा कि किस तरफ चलें? तुम बता दो, क्योंकि मैं जरा तगड़ा आदमी हूं। अगर मैं पूरब जाऊं, तो तुम को पूरब जाना पड़ेगा। तुम आठ कुछ कर न पाओगे। इसलिए तुम मुझे राह बता दो। और एक आदमी आगे हो जाए; कहां चलना है!

एक आदमी आगे हो गया। लेकिन रास्ते में उन लोगों पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ने लगा। उसकी मस्ती, उसकी चाल! वह गीत गुनगुनाए! वह जैसे कि जंगल से लाया शेर हो! और इतना निर्भीक कि तुम उसे बांध भी न सको, बंधने को भी खुद ही राजी हो!

आखिर वै पूछने लगे, तुम आदमी किस तरह के हो? ऐसा आदमी हमने देखा नहीं, जिंदगी हमें गुलामों का धंधा करते हो गई। उसने कहा, तुम भी गुलाम हो। गुलामों का धंधा करने वाले गुलामों से बेहतर नहीं हो सकते।

जो तुम्हें बांधते हैं, याद रखना, वे भी बंधे हुए ही लोग हो सकते हैं। कौन मुक्त आदमी तुम्हें बांधेगा? क्योंकि मुक्त भलीभांति जानता है, जिसको तुम बाधोगे, उससे तुम बंध जाओगे। बंधन एकतरफा नहीं होता। बंधन दोधारी धार है। जब मैं तुम्हें बांका, तब मैं भी बंधा तुम्हारे साथ। तुम जहां घसिटोगे, मुझे भी घसिटना पड़ेगा।

डायोजनीज ने कहा, हम इस राज को समझ गए कि गुलाम ही !? गुलामों को बाधते हैं, परतंत्र लोग ही परतंत्रों को परतंत्र करते हैं। हम स्वतंत्र हैं। तुम हमें क्या बाधोगे? हम खुद ही बंधे हैं! ?,, उससे बड़े प्रभावित हो गए। उन्होंने धीरे— धीरे अपनी जंजीरें भी निकाल लीं। उन्होंने कहा कि तुम पर जंजीरें! तुम तो वैसे ही चल रहे हो साथ।

वह साथ रहा। बाजार आ गया। भीड़ लग गई उसके आस—पास। लेकिन लोगों को तय करना मुश्किल हुआ कि मालिक कौन है,। गुलाम कौन है! उन मालिकों ने, तथाकथित मालिकों ने आवाज भी दी, बताया भी कि हम एक गुलाम को ले आए हैं। लोगों ने गुलाम को देखा, बहुत शक्तिशाली, बिना जंजीरों के!

डायोजनीज ने कहा कि रुको, तुमसे न चलेगा काम। वह खड़ा हो गया टिकटी पर, जिस पर खड़े होकर नीलाम किए जाते थे गुलाम, और उसने खड़े होकर जो बात कही, वह बड़ी अनूठी है। उसने कहा, एक मालिक बिकने आया है, कोई गुलाम खरीदने को तैयार है?

एक मालिक बिकने आया है, कोई गुलाम खरीदने को तैयार है! मालिक तो मालिक है, कारागृह में भी। और गुलाम तो गुलाम ही रहेगा, खुले आकाश के नीचे भी। क्योंकि गुलामी या स्वतंत्रता बाहर की घटनाएं नहीं, जंजीरों से उनका कुछ लेना—देना नहीं;, भीतर की गुणवत्ता है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं झुको! जहां तुम्हारी मौज आए, वहां झुको। .कृष्णमूर्ति मिलें, तो नाचो, झुको, नमस्कार करो। वहां भी दीया जला है। वह दीया तो एक ही सूरज की रोशनी है। तुम्हें मेहरबाबा मिल जाएं रास्ते पर, उनके साथ भी हो लो, उनके साथ भी नाचो।

अगर तुम ठीक से समझो, तो यही मेरा तुम्हें मुक्त करने का उपाय है। इसलिए मैं कृष्ण पर बोलता हूं? बुद्ध पर बोलता हूं ! महावीर पर बोलता हूं, ताकि तुम कहीं बंध न जाओ; सबसे मुक्त हो जाओ। तुम सबको प्रेम कर सको, और सबसे मुक्त हो जाओ। और यह बड़े मजे की बात है और बड़ी जटिल है, विरोधाभासी है, अगर तुम सबसे मुक्त होना चाहते हो, तो सबके प्रति समर्पित हो जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं। तब तुम्हें कोई भी न बाँध पाएगा। तब न महावीर, न बुद्ध, न कृष्ण, तुम्हें कोई भी न बांध पाएगा। तुम परमात्मा हो, अगर तुम समर्पित हो। कौन तुम्हें बांध पाएगा?

?? फिर उस समर्पण के बाद तुम चाहे अकेले खड़े रहो, चाहे किसी के पीछे चलो, कोई भी फर्क नहीं पड़ता। चाहे तुम डोंगी में यात्रा करो, चाहे एक बड़े जहाज में बैठ जाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता है। भीतर से तुम कहीं जकड़ न जाओ, इसलिए मैं विपरीत मार्गों की बात भी तुमसे करता हूं। तुम उलझन में भी पड़ जाते हो। जब मैं महावीर पर बोलता हूं, तो तुम महावीर से प्रभावित हो जाते हो। लेकिन जल्दी ही मैं कृष्ण पर बोलूंगा, और दूसरी धारा आ जाएगी। और तुम चकित होओगे, और तुम मुश्किल में पड़ोगे, कि अब क्या करें!

तुम्हारी अड़चन यह है कि तुम चाहते थे, कुछ एक बता दो, जहां हम बंध जाएं। .अब झंझट और न करो! एक मकान बन नहीं पाता कि आप दूसरा मकान शुरू कर देते हैं। हमारा उसमें अभी गृह—प्रवेश भी न हुआ था। अभी बैंड—बाजे हम इकट्ठे ही कर रहे थे, निमंत्रण भेजा ही था, कि उसको गिराने का वक्त आ गया, और आप दूसरा मकान बना रहे हो! और दूसरा और भी शोभायुक्त मालूम होता है।

लेकिन दूसरे के साथ भी यही होगा; मैं तीसरा मकान बनाऊंगा। मैं असल में तुम्हें मकानों से मुक्त करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं तुम्हारा गृह—प्रवेश तो हो, लेकिन आकाश में हो, मकानों में न हो। और एक ही उपाय है कि मैं तुम्हें सारे मकान दिखला दूं र जहां—जहां तुम कारागृह में पड़ सकते हो। और उन सारे मकानों के भीतर छिपा हुआ आकाश भी दिखला दूं र जो कि भीतर भी है और बाहर भी है। तो मेरा मार्ग बड़ा अन्य है। कृष्णमूर्ति तुम्हें स्वतंत्र करना चाहते हैं; एकाध व्यक्ति को कर पाते हैं, निन्यानबे अहंकार से बंधे रह जाते हैं। उससे तो बेहतर था गुरु से बंध जाना, थोड़ी आशा थी, थोड़ी किरण थी, शायद कोई मार्ग मिल जाता! किसी दीए से बंध जाते, तो कुछ मार्ग मिल जाता। अपने अंधेरे से ही बंधे हो, क्या मार्ग मिलेगा!

मेहरबाबा बंधने को कहते हैं। कहते हैं, सब छोड़ दो, अनन्य भाव से छोड़ दो; श्रद्धा पूरी रखो। वह कृष्णमूर्ति से ज्यादा कारगर हैं। लेकिन बहुत—से लोग उसमें भी चूक जाएंगे। क्योंकि बहुत तरह के लोग हैं। आलसी हैं, जो सदा से चाहते थे कि अच्छा ही हुआ, झंझट मिटी; अब हमें कुछ करना नहीं है।

कृष्णमूर्ति के पास अहंकारी इकट्ठे हो जाएंगे और मेहरबाबा के पास आलसी इकट्ठे हो जाएंगे। कृष्णमूर्ति के पास वे लोग इकट्ठे हो जाएंगे, जिनमें रजस की मात्रा ज्यादा है। और मेहरबाबा के पास वे। लोग इकट्ठे हो जाएंगे जिनमें तमस की मात्रा ज्यादा है, जो कहते हैं कि चलो अच्छा ही हुआ, अब तुम करोगे सब, सम्हालों! अब हम निश्चित हुए; अब हमें कुछ करना ही नहीं है।

इसका यह मतलब नहीं है कि वे कुछ न करेंगे, वे सब जारी रखेंगे, जो कर रहे थे, वह तो जारी रखेंगे—दुकान पर काम जारी रखेंगे, चोरी जारी रखेंगे, बेईमानी जारी रखेंगे—और कहेंगे कि अब सब बाबा पर छोड़ दिया, अब अपना करने से क्या होगा! तो जो भगवान करवाए। भगवान लगता है, चोरी और बेईमानी ही। करवाता है! वे कुशल लोग हैं, चालाक लोग हैं। सब बाबा पर छोड़ दिया है!

एक आदमी को मैं जानता हूं जिसने तीस साल तक मेहरबाबा के सत्संग में बिताया है। और तीस साल बाद मेरी उनसे बात हुई, तो उन्होंने कहा कि हमें तो कुछ करने की जरूरत नहीं है। ध्यान भी हमें करने की कोई जरूरत नहीं है। प्रार्थना—पूजा की भी कोई जरूरत नहीं। हमने तो सब बाबा पर छोड़ दिया, अब वे जानें।

मैंने कहा, तीस साल हो गए छोड़े हुए, कुछ हुआ?

उन्होंने कहा, यह भी हम क्यों सोचें?

एक तरह से तो दिखता है कि श्रद्धा बडी गहरी है। मगर बड़ा चालाक है आदमी का मन। चोरी, बेईमानी सब जारी है! सब बाबा पर छोड़ दिया, इसका यह मतलब नहीं है कि बाबा अगर कहे कि चोरी मत करो, तो ये चोरी बंद करेंगे, या बाबा अगर कहे कि शराब मत पीओ, तो ये शराब पीना बंद करेंगे! ये तो बाबा से भी कहेंगे, सब आप पर ही छोड़ दिया, अब हमको करना क्या है?

मेरे पास ऐसे लोग आ जाते हैं। वे मुझसे कहते हैं, अब जब सब आप पर ही छोड़ दिया, तो अब हमको क्यों ध्यान वगैरह में उलझाते हैं? अब आप ही करो! मैं उनसे कहता हूं, मुझ पर छोड़ दिया, तो मैं तुमसे कहता हूं कि ध्यान करो। वे कहते हैं, अब आपकी अनुकंपा चाहिए, और क्या! वे मेरी सुनते ही नहीं कि मैं उनसे क्या कह रहा हूं! मेरी सुनने का सवाल भी नहीं है। वे तो अपनी एक धुन लगाए हुए हैं कि सब आप पर छोड़ दिया।

सब आप पर छोड़ने का मतलब क्या होता है? मतलब यह होता है, अगर तुमने ठीक समझा, तो मैं जो कहूं, वह करो। लेकिन अगर गलत समझा, तो मतलब यह होता है कि अब मैं जो कहूं, उसको भी मत सुनो, और तुम यही कहे चले जाओ कि सब आप पर छोड़ दिया। अब हमको करना क्या है? अब आप जो करेंगे, ठीक है! और तुम जो करते थे, वह तुम करते चले जाते हो।

तो आलसी इकट्ठे हो जाते हैं, समर्पण की जहां धारणा होती है। और जहां अशरण की धारणा होती है, वहां अहंकारी इकट्ठे हो जाते हैं।

सत्व का व्यक्ति तो हर जगह से लाभ ले लेता है। वह कृष्णमूर्ति के पास भी पार हो जाएगा, वह मेहरबाबा के पास भी पार हो जाएगा। क्योंकि वस्तुत: न तो कृष्णमूर्ति पार करते हैं, न मेहरबाबा पार करते हैं, न मैं पार करता हूं; सत्व पार करता है।

तो तुम अपने भीतर देखना कि तुम जो कर रहे हो, वह तमस से तो नहीं आ रहा है! रजस से तो नहीं आ रहा है! वह सत्व से आना चाहिए।

तो तुम मेहरबाबा के पास लोग पाओगे, बहुत तार्किक नहीं, बहुत बौद्धिक नहीं; ज्यादा हृदयपूर्ण, प्रेमी, उनकी आंख से तुम आंसू बहते हुए पाओगे, उन्हें तुम भजन गाते पाओगे। कृष्णमूर्ति के पास तुम पाओगे अधिक बौद्धिक लोग, जिनकी आंखों के आंसू सदा के लिए सूख चुके हैं, जिनके हृदय में कोई पुलक नहीं उठती, जो तर्क करने में कुशल हो गए हैं।

रजस तर्क है। तमस इतना आलस्य है कि तर्क भी कौन करे! सत्व, तर्क के बाद उपलब्ध हुई श्रद्धा है। सत्व, रजस और तमस का संतुलन है। सत्व वाला व्यक्ति हर कहीं लाभ उठा लेता है। वह

जहां भी जाएगा, लाभ उठा लेगा। उसे कोई नुकसान नहीं है।

मैं कोशिश कर रहा हूं कि तुम यह संतुलन सीख जाओ। फिर कृष्ण मिल जाएं तो उनसे भी तुम्हें लाभ होगा, बुद्ध मिल जाएं तो भी, कृष्‍णमूर्ति राह पर मिल जाएं तो उनसे भी लाभ होगा। और अगर तुम इस सत्य की अवस्था में नहीं उठते हो, तो चाहे बुद्ध मिलें तो भी नुकसान होगा, कृष्णमूर्ति मिलें तो भी नुकसान होगा। मेरे पास जिंदगी रहो तो भी नुकसान होगा, लाभ न हो पाएगा। लाभ और हानि किसी के कारण नहीं होती है, तुम्हारी चेतना की क्षमता से होती है, तुम्हारी पात्रता से होती है।

पर मैं सबके संबंध में बात किए जाता हूं ताकि तुम झुकने की कला सीख लो। और तुम इस तरह झुकने की कला सीख लो कि तुम्हारे भीतर वह जो न झुकने वाला तत्व है अहंकार, वह विसर्जित हो जाए। तब तुम सब जगह से संपदा बटोर लाओगे।

तो अगर कृष्णमूर्ति के मार्ग को हम स्वतंत्रता का मार्ग कहें, अशरण का, और मेहरबाबा के मार्ग को परतंत्रता का मार्ग कहें, समर्पण का, तो मेरे मार्ग को तुम क्या कहोगे?

मेरा मार्ग है परस्पर—तंत्रता का, इंटर—डिपेंडेंस का। और मेरे हिसाब से न तो कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वतंत्र है इस अस्तित्व में; हो भी नहीं सकता, क्योंकि तुम अकेले नहीं हो सकते। और न कोई पूर्ण रूप सै परतंत्र है इस जगत में, क्योंकि वह भी संभव नहीं है। न तो पूरी परतंत्रता संभव है, न पूरी स्वतंत्रता संभव है; अस्तित्व का स्वभाव परस्पर—तंत्रता है, इटर—डिपेंडेंस है। सब चीजें एक—दूसरे पर निर्भर हैं।

इसलिए परम ज्ञानी परस्पर—तंत्रता में जीता है। न तो वह परतंत्र होता है, न वह स्वतंत्र होता है। क्योंकि स्वतंत्रता भी अहंकार की घोषणा है और परतंत्रता भी अहंकार का बंधन है। जहां निरहकार फलित होता है, वहा दिखाई पड़ता है, सभी चीजें जुडी हैं, एक—दूसरे से श्रृंखला में बंधी हैं। कुछ भी अलग नहीं है। कोई आदमी अलग खंड नहीं है, भूखँड अलग नहीं है। सब जुड़ा है।

तुम चांद—तारों से जुड़े हो। तुम अपने आस—पास मनुष्यों से जुड़े हो, पक्षियों से जुड़े हो, पौधों से जुड़े हो, पत्थरों से जुड़े हो। तुम्हें लगी चोट, और सारे अस्तित्व में झंकार होता। तुम नाचते हो प्रसन्नता से, पूरा अस्तित्व तुम्हारे साथ प्रसन्न होता है।

अखंड है, एक है, तो कैसी स्वतंत्रता और कैसी परतंत्रता? अद्वैत अगर है, तो स्वतंत्रता भी झूठी बात है; क्योंकि स्वतंत्रता का कोई अर्थ ही नहीं, जब दूसरा है ही नहीं, जो परतंत्र कर सके। और अगर एक ही है, तो कैसी परतंत्रता? किसकी परतंत्रता? उस एक पर ही अगर तुमने ध्यान दिया, तो तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाएगी। तो मैं कहता हूं किए ये बांसुरिया अलग— अलग होगी—कृष्ण की, बुद्ध की, महावीर की, कृष्णमूर्ति की, मेहरबाबा की—मगर संगीत एक है। बासुरियों पर बहुत ध्यान मत दो। इनके राग भी भिन्न—भिन्न हैं, इनके ढंग भी भिन्न—भिन्न हैं। तुम सिर्फ संगीत पर ध्यान दो। संगीत एक का ही है।

संगीत एक है, अगर यह तुम्हें दिखाई पड़ने लगे, तो तुम सब जगह से समृद्ध होकर लौटोगे। बड़ी संपदा तुम्हारे लिए राह देख रही है। सब खजाने तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। तुम सभी खजानों के मालिक हो सकते हो।

इसलिए मैं तुम्हें नहीं रोकता। मैं तुम्हें बढ़ावा देता हूं कि तुम जाओ, जहां तुम्हें कोई दीया जला हुआ मिले, उसके निकट बैठो। उस रोशनी से थोड़ा संग करो। सत्संग का वही अर्थ है। उस रोशनी

को थोड़ा पीओ। उस रोशनी से थोड़े भरो। और डरो मत। वह क्या कहता है, इसकी भी फिक्र मत करो। वह उसका ढंग है कहने का। तुम चिंता ही मत करो।

तुम तो सिर्फ एक बात खयाल रखो कि घाट अलग—अलग, गंगा एक है। तुम सभी घाटों से अपनी प्यास को बुझा लो। और जितने—जितने तुम घाटों पर जाओगे, उतनी—उतनी तुम्हें समझ आएगी कि घाट का कोई सवाल नहीं है, सवाल गंगा का है।

इसलिए बुद्ध एक घाट हैं। हमने तो पुराने दिनों में उनको जो नाम दिया है ‘ वही साफ है। जैन अपने बुद्धों को तीर्थंकर कहते हैं। तीर्थ। का अर्थ होता है, घाट। तीर्थंकर का अर्थ होता है, घाट बनाने वाला। गंगा एक है, घाट अनेक हैं, घाट बनाने वाले अनेक हैं। यह तीर्थंकर शब्द बड़ा मधुर है। यह खूबी पैगंबर शब्द में नहीं है और न अवतार शब्द में है, जो तीर्थंकर शब्द में है। इसका मतलब है, सिर्फ घाट बनाने वाले हैं महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट। गंगा बहुत बड़ी है, पूरी गंगा पर तो कोई घाट नहीं बना सकता।

मेरी चेष्टा है कि तुम्हें बहुत घाट दिखा दिए जाएं। क्यों? क्योंकि बहुत घाटों को देखकर ही तुम्हें समझ में आएगा कि गंगा एक है, घाट अलग हैं। घाटों के ढंग से कुछ फर्क नहीं पड़ता। कहीं संगमरमर का घाट है और कहीं संगेमूसा का। बड़े विपरीत हैं। एक काले पत्थर का है, एक सफेद पत्थर का, एक कृष्णमूर्ति, एक मेहरबाबा! घाट पर नजर जाएगी, तो बड़े फर्क हैं; लेकिन अगर गंगा पर नजर गई जो घाटों के पास से बह रही है।

और गंगा का क्या लेना है घाट से? घाट न हो तो भी गंगा बहती है, गैर—घाट भी बहती है, बिना घाट भी बहती है, घाट पर भी बहती है। अमीर के घाट से भी बहती है, गरीब के घाट से भी बहती है। मरघट के पास भी उसके नाद में कोई फर्क नहीं पड़ता और बस्ती के पास भी कोई फर्क नहीं पड़ता।

तुम्हें गंगा दिखाई पड़ जाए एक की, इसलिए सब पर बोलता हूं। ; और कठिनाई खड़ी होती है तुम्हें, क्योंकि जब मैं कृष्ण पर बोलता हूं, तो कृष्ण के घाट की चर्चा में ऐसा लीन हो जाता हूं कि मैं खुद ही भूल जाता हूं कि और घाट भी हैं। तो जो कृष्ण को मानने वाला है, बड़ा आह्लादित होता है कि यही तो हम मानते थे।

जल्दी मत करो; थोड़ा धैर्य रखो! क्यौंकि जब मैं अष्टावक्र पर बोलूंगा, तो इस तरह कृष्ण को भूल जाऊंगा, जैसे वह घाट ही नहीं है। तब अष्टावक्र का घाट ही मेरे लिए सब कुछ हो जाएगा।

और यही मेरी मान्यता है। क्षण— क्षण जीने की कला यही है कि तुम जिस क्षण को जीयो, उसे पूरी तरह जीयो। इसलिए तुम्हें मेरे वचनों में विरोधाभास दिखाई पड़ेंगे। कभी मैं कहता हूं कि महावीर का कोई मुकाबला नहीं, तो तुम सोचते हो, बात खतम हो गई। और तब मैं कहता हूं, कृष्ण का कोई मुकाबला नहीं, तुम कहते हो, यह तो अड़चन हो गई। पहले कहा, महावीर का कोई मुकाबला नहीं, अद्वितीय हैं, फिर कहते हैं, कृष्ण का कोई मुकाबला नहीं, अद्वितीय हैं!

और जब मैं कृष्ण से भरा हूं अगर तुमने महावीर की बात छेड़ी, तो महावीर मुझे तुलना में कुछ भी न जंचेंगे। और जब मैं महावीर से भरा हूं तब तुम कृष्ण की बात ही मत उठाना, नहीं तो नाहक कृष्ण की उपेक्षा होगी। जिस क्षण में मैं जो बोल रहा हूं उसके साथ मेरा पूरा तादात्म्य है। उस क्षण वही घाट सब कुछ है; सारे घाट भूल गए, उतनी ही गंगा सब कुछ है। लेकिन यह तुम्हें तीर्थयात्रा करा रहा हूं।

तीर्थयात्री निकलते हैं। स्वामी अखंडानंद एक यात्रा लेकर निकलते हैं, स्पेशल ट्रेन, उसमें वे सभी तीर्थों की यात्रा कराते हैं। मैं भी निकला हूं तुम्हें तीर्थयात्रा पर लेकर। वे तीर्थ बहुत दृश्य के तीर्थ नहीं हैं, अदृश्य के तीर्थ हैं। वे ही असली तीर्थ हैं। वहां कोई स्पेशल ट्रेन नहीं जा सकती। वहा तो एक विशेष मनोदशा और भाव—दशा जाती है। उसको ही पैदा करने की कोशिश में लगा हूं।

प्रश्न : आपने कहा है कि मांगो तो क्षुद्र मिलता। पर हम तो भगवान मांगते हैं। क्या भगवान मांगने से भी क्षुद्र ही मिलेगा?

मांगोगे तो क्षुद्र ही मिलेगा, क्योंकि मांग का अर्थ ही क्षुद्र है। भगवान भी मांगो, तो भगवान के कारण क्षुद्र नहीं, तुम्हारी मांग के कारण वह भी क्षुद्र हो जाता है।

मांग क्षुद्र करती है। बिना मांगे जो मिले, वह संपदा, मांगकर जो मिले, वह उच्छिष्ट! बिना मांगे जो मिले, वह विराट; भिक्षापात्र फैलाकर जो मिले, वह कैसे विराट होगा? वह तुम्हारे भिक्षापात्र में ही है। सीमा विराट के लिए नहीं है। मांग भिक्षापात्र है। मांगना यानी भिखारी होना।

तुमने अगर भगवान को भी मांगा, मांगोगे तो तुम! तुम्हारी मांग तो तुम्हारे ही जीवन से ओत—प्रोत होगी।

थोडा सोचो इसे। क्योंकि ऊपर से ऐसा लगता है कि भगवान ?’ को मांगा, यह कोई छोटी मांग तो नहीं। लेकिन तुम बाजार में खड़े धन मांग रहे थे, फिर किसी स्त्री के सामने हाथ जोड़कर शरीर माग रहे थे, फिर किसी पद वाले व्यक्ति के सामने सुरक्षा मांग रहे थे, ऐसी तुमने हजारों मांगें की हैं हजार—हजार ढंग से। इन सब मांगों ने तुम्हें बनाया है। और इन सब मांगों ने तुम्हारी मांग को बनाया है, तुम्हारे मांगने का ढंग बनाया है, तुम्हारा भिक्षापात्र निर्मित किया है। अब अचानक तुम्हें भगवान का खयाल आया।

क्यों खयाल आता है तुम्हें भगवान का? भगवान का इसीलिए खयाल आता है कि ये मांगें पूरी नहीं हो पाईं। पूरी हो जातीं, तो शायद तुम भगवान की बात ही न उठाते। सुख में कौन स्मरण करता है भगवान का? दुख में लोग —स्मरण करते हैं, विफलता में, विषाद में। तुमने मांगा बहुत, मिला कुछ भी नहीं; दिनभर भिक्षापात्र लिए खड़े रहे, जन्मों भर खड़े रहे, सांझ आए तो ठीकरे! इतने ही ठीकरे पड़ते हैं भिक्षापात्र में कि तुम कल भी जिंदा रह सकते हो और मांग सकते हो, बस। मांगने लायक जिंदगी बाकी बच जाती है, इतना मायने से मिल जाता है कि .कल भी तुम घिसटोगे, कल फिर भिक्षापात्र फैलाओगे, फिर मागोगे।

तुम्हारी निरंतर मांग ने क्षुद्र की, तुम्हारी मांग पर भी अपनी छाप छोड़ दी है। अचानक तुम खड़े हो गए, परमात्मा को मांगने लगे! तुम तो वही हो! तुम्हारा मन वही है! तुम्हारा अनुभव वही है!

और परमात्मा का तुम्हें पता ही क्या है? परमात्मा तुम्हारे लिए, अगर ठीक से तुम विचार करो, तो तुम्हारी सब मांगों का जोड है। तुम्हें ऐसा खयाल है कि शायद परमात्मा के मिलने से सब मिल जाए जो मांगने से नहीं मिला, धन मिल जाए, पद मिल जाए।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान करेंगे तो व्यवसाय में सफलता मिलेगी कि नहीं? आदमी की मूढ्ता की कोई सीमा नहीं मालूम पड़ती! अब ध्यान करने से व्यवसाय की सफलता का क्या लेना—देना है! बीमारी जाएगी कि नहीं?

एक सज्जन ने मुझसे पूछा कि ध्यान करेंगे तो चिंता मिटेगी कि नहीं? मैंने कहा, चिंता जरूर मिटेगी, लेकिन पहले तुम मुझे बता दो कि चिता क्या है?

उन्होंने कहा कि मुझ पर एक मुकदमा चल रहा है।

मुकदमा थोड़े ही हट जाएगा ध्यान करने से! हॉ, तुम चिंतित न रहोगे इतने; मुकदमा चलता रहेगा, तुम निश्चित रहोगे, यह मैं तुमसे कह सकता हूं। लेकिन वे बोले, मुकदमा चलता रहे, तो कोई आदमी निश्चित कैसे रह सकता है?

व्यवसाय में सफलता मिलेगी कि नहीं? व्यवसाय में तो सफलता नहीं मिल सकती; लेकिन असफलता भी मिले तो तुम्हें असफलता न लगेगी, यह ध्यान से मिल सकता है। पत्नी बीमार है, बचेगी कि मरेगी? नहीं, ध्यान से कुछ लेना—देना नहीं है। ध्यान कोई दवाई नहीं है तुम्हारी पत्नी के लिए। ही, इतना पक्का है कि बचे तो ठीक, न बचे तो भी ठीक, ऐसी दशा मिल जाएगी।

तुम जब ध्यान करने आते हो, तब भी तुम्हारे ध्यान के नीचे पर्त दर पर्त मागें छिपी हैं। तुम जब परमात्मा भी मांगते हो, तो परमात्मा समूहवाची नाम है तुम्हारी सब वासनाओं का! भगवान का क्या अर्थ है अगर तुमसे हम पूछें? भगवान के ढक्कन को जरा उठाओ, तो नीचे तुम पाओगे, धन! क्योंकि ज्ञानियों ने कहा, परम धन परमात्मा है। पद! क्योंकि ज्ञानियों ने कहा, परम पद परमात्मा है। ऐश्वर्य! क्योंकि भगवान का नाम ही ईश्वर इसीलिए है, ऐश्वर्य वाला!

किन पागलों ने ईश्वर नाम दिया है भगवान को, पता नहीं। वह ऐश्वर्य से बना हुआ शब्द है। वह तुम्हारी मांग की खबर दे रहा है कि तुम चाहते क्या हो? ईश्वर को थोड़े ही चाहते हो, तुम तो ऐश्वर्य चाहते हो। और तुमने नाम में भी छिपा रखा है।

पूछो भक्तों से, तथाकथित भगवान के मानने वालों से, कि क्या? तो वैकुंठ, परम सुख, आनंद ही आनंद!

तुम सपने देख रहे हो। तुम सत्य नहीं मांग रहे हो। तुम्हारे सत्य में भी सपने ही छिपे हुए है। तुम संसार से हारे नहीं हो अभी। तुम्हारा परमात्मा भी तुम्हारे संसार का आखिरी पड़ाव है।

तो मैं तुमसे कहता हूं, तुम जब तक मांगोगे, जो भी मांगोगे क्षुद्र होगा। तुम परमात्मा मांगोगे तो क्षुद्र होगा, तुम मोक्ष मांगोगे तो क्षुद्र होगा, तुम समाधि मांगोगे तो क्षुद्र होगी। तुम्हारे मांगने से हर चीज क्षुद्र हो जाएगी, क्योंकि तुम क्षुद्र हो। और मांग क्षुद्र है, तो फिर कैसे विराट होगी? क्या ऐसी भी कोई मांग हो सकती है, जो विराट हो जाए?

नहीं, मांग तो विराट नहीं हो सकती। थोड़ा सोचो! तुम कोई ऐसी मांग सोच सकते हो, जिसकी कोई सीमा न हो? तो वह मांग ही न रह जाएगी। असीम को कैसे मांगोगे? सीमित मांगी जा सकती है बात। असीम तो शब्द में भी नहीं समाएगा, भाव में भी नहीं समाएगा। असीम में तो तुम समा जाओगे, असीम थोड़े ही तुममें समाएगा। तो तुम कैसे विराट को मांगोगे?

मांग ही क्षुद्र कर देती है। जो मांगा, क्षुद्र हुआ। मलना मत। इसलिए परम ज्ञानी क्या कहते हैं? वे कहते हैं, अचाह परमात्मा को पाने का उपाय है। निर्वासना, न मांगना। राजी हो जाना, जो है, उससे; मांग छोड़ देना। तृप्ति, संतोष; ऐसा परितोष कि जो है, वह काफी है, काफी से ज्यादा है, मांग कुछ भी नहीं है। तत्‍क्षण तुम पाओगे, विराट तुममें उतरने लगा; बिन मांगे!

मांगने से खो जाता है। बिना मांगे मिलता है। इस गणित को तुम खूब याद रख लो।

अगर तुम्हें परमात्मा नहीं मिल रहा है, तो तुम्हारी मांग ही बाधा बनी है। छोड़ो मांगना! बात ही शोभा नहीं देती। परमात्मा को, और मांगना? परमात्मा का मिलना तो सम्राटों से होता है, भिखारियों से नहीं होता। तुम सम्राट बनो थोड़ा।

और मजा ऐसा है कि तुम्हारे सम्राट भी भिखारी हैं, तो तुम तो सम्राट कैसे बनो? थोड़े मालिक बनो। थोड़ा धन्यवाद देना सीखो, मांगना कम करो। थोड़ा अनुग्रह से भरो, मांग क्षीण करो। थोड़ा उसके प्रसाद को, जो मिला है, उसको अनुभव करो, ताकि तुम अहोभाव से कह सको कि मेरी योग्यता से ज्यादा तूने मुझे दिया, धन्यवाद!

मैंने सुना है, सूफी फकीर बायजीद के जीवन में उल्लेख है कि बायजीद प्रार्थना करता रहा, पूजा करता रहा, स्मरण करता रहा; लेकिन उसने कभी मांगा नहीं। कहते हैं, परमात्मा मुश्किल में पड़ गया। क्योंकि जो मांगे न, अब इसके साथ क्या करो! और परमात्मा तक को बेचैनी लगने लगी। कहानी बड़ी मीठी है। परमात्मा को बेचैनी लगने लगी कि इस बायजीद के साथ क्या करो! इसका कोई निपटारा करना पड़े। नहीं तो वह ऋणी हुआ जा रहा है। यह आदमी ध्यान करता है, पूजा करता है, प्रार्थना करता है, मांगता कभी भी नहीं। कुछ मांगा ही नहीं कि इसको दे दो और छुटकारा हो।

तो कहते हैं, देवता भेजे। कहानी है, प्रतीक है। और देवताओं ने बायजीद को कहा कि परमात्मा बड़ा प्रसन्न है, तुम कुछ मांग लो। उसने कहा, अब और मांगने को क्या बचा? जब वह प्रसन्न है, तो सब मिल गया। कह देना, धन्यवाद!

देवताओं ने कहा, इतने सस्ते में हम न जाएंगे। क्योंकि तुमने अड़चन खड़ी कर दी है। तुम उसे बेचैन किए दे रहे हो, कुछ मांग लो, तो निपटारा हो जाए। तुम्हारी प्रार्थनाएं उसके सिर पर घूम रही हैं। तुम्हारा ध्यान उसके चारों तरफ वर्तुल मार रहा है। और तुम किए जा रहे हो, किए जा रहे हो, मांगते तुम कुछ नहीं, तो काम कैसे समाप्त हो!

बायजीद ने कहा, जब वह प्रसन्न है, तो और अब क्या चाहिए? और अगर उसको मेरे न मिलने से बेचैनी हो रही है, तो एक बात मांगे लेता हूं। देवता प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि बस, क्या है, जल्दी कहो। उसने कहा, एक ही बात मांगनी है कि कभी कुछ मीरा न। उसने हरा दिया परमात्मा को। एक वरदान, कि कोई चाह कभी न आए! कभी भिखारी होकर उसके द्वार पर न आऊं! कभी मांग न! जिस दिन तुम न मांगोगे, उस दिन परमात्मा देने को व्याकुल हो जाता है।

और तुमसे मैं कहता हूं कि यह परमात्मा और तुम्हारे बीच का संबंध ही नहीं है, सारे जीवन का संबंध यही है। जिससे भी तुम मांगोगे, वही डर जाता है। पत्नी पति से प्रेम मांगती है, पति डर जाता है, देने में कंजूस हो जाता है, देता है, तो परेशानी से देता है। पति पत्नी से प्रेम मांगता है, बस, कुछ बात सिकुड़ जाती है।

कुछ जीवन—चेतना का लक्षण ऐसा है कि जब भी कोई कुछ मांगता है, तो सिकुड़न पैदा हो जाती है। और जब कोई नहीं मांगता, तो देने का फैलाव आता है।

तो जब पत्नी नहीं मांगती, देने का मन होता है। जब पति नहीं मांगता, देने का मन होता है। जब मित्र नहीं मांगता, देने का मन होता है। क्योंकि तब तुम देने में मालिक होते हो। और जब कोई मांगता है, तब तुम्हें ऐसा लगता है, तुम्हारा शोषण किया जा रहा है, छीना जा रहा है, तुम्हारे ऊपर जबरदस्ती की जा रही है।

जीवन—चेतना का लक्षण यही है कि जब अचाह होती है, तब तुम्हारे द्वार पर वर्षा हो जाती है। और जब तुम चाह से भरे होते हो, तब सब द्वार बंद हो जाते हैं।

नहीं, परमात्मा को तो भूलकर मत मांगना। वह मांग ही तुम्हारे और उसके बीच दीवार है। तुम उसके पास ऐसे जाना, मांगने नहीं, धन्यवाद देने, जो उसने दिया ही हुआ है, उसके लिए अनुग्रह का भाव प्रकट करने।

मंदिर की प्रार्थनाएं तुम्हारी मांगें न हों, तुम्हारे धन्यवाद हों।

आखिरी प्रश्न : आपने कहा कि स्वयं पर संदेह श्रद्धा पर ले जाता है, तो बताएं कि श्रद्धा पर संदेह कहां ले जाएगा?

कुछ बातें समझे।

एक, संदेह साधारणत: संदेह पर संदेह नहीं करता’, कर ?ई ले, तो संदेह मर जाता है। संदेह की पूर्णता तभी है, जब संदेह पर संदेह आ जाए। तभी तुम ढंग के विचारक हो, तभी तुममें कोई प्रतिभा है। सब चीजों पर संदेह करो और संदेह पर संदेह न करो, तो तुम्हारे विचार की पूर्णता नहीं है; तुम शिखर तक नहीं पहुंचे, तुम्हारा संदेह अधूरा है, तुम्हारी नास्तिकता प्रगाढ नहीं है। जब तुम संदेह करते—करते उस क्षण में आ जाओगे कि तुम्हें संदेह उठेगा संदेह पर, कि मैं जिसकी मानकर अब तक चल रहा हूं, वह मानने योग्य भी है? जिसके पीछे मैं चल रहा हूं छाया की तरह, वह चलने योग्य भी है? वह मुझे कहीं ले जाएगा? संदेह को मैंने गुरु बनाया है, वह गुरु बनने योग्य है? जिस दिन तुम संदेह पर संदिग्ध हो गए, उसी दिन संदेह की मृत्यु हो जाती है। संदेह की मृत्यु पर श्रद्धा का जन्म होता है। फिर एक नई यात्रा शुरू होती है।

तुम परमात्मा पर श्रद्धा करोगे, गुरु पर श्रद्धा करोगे, शास्त्र पर श्रद्धा करोगे, लेकिन यह श्रद्धा वैसी हो अधूरी है, जैसे संदेह पहले अधूरा था। श्रद्धा तो तभी पूरी होती है, जब न परमात्मा पर, न गुरु पर, न शास्त्र पर, वरन श्रद्धा पर ही श्रद्धा आ जाती है, तब श्रद्धा पूरी होती है।

संदेह पर संदेह आ जाए, संदेह पूरा हो जाता है और संदेह समाप्त हो जाता है। जब श्रद्धा पर श्रद्धा आ जाती है, तो श्रद्धा पूरी हो जाती है और श्रद्धा भी समाप्त हो जाती है।

संदेह में रहोगे, तो नास्तिक, श्रद्धा में रहोगे, तो आस्तिक, और जब संदेह और श्रद्धा दोनों के पार हो जाते हो, तब न तुम नास्तिक, न आस्तिक, तभी धर्म का जन्म हुआ, तब तुम धार्मिक! धार्मिक व्यक्ति द्वंद्व के पार है। श्रद्धा और संदेह का संघर्ष तो द्वंद्व है।

तो ध्यान रखना, जो संदेह करता है, उसमें भी थोड़ी श्रद्धा होती है; श्रद्धा संदेह पर होती है। और जो श्रद्धा करता है, उसमें भी थोड़ा संदेह होता है, संदेह अश्रद्धा पर होता है। संदेह करने वाले की श्रद्धा होती है संदेह पर, श्रद्धा करने वाले की श्रद्धा होती है अश्रद्धा के विपरीत, संदेह के विपरीत, लेकिन दूसरा मौजूद रहता है थोड़े परिमाण में। जब हम कहते हैं, फलां आदमी श्रद्धालु है, तो इसका मतलब है, अभी कहीं न कहीं कोने में संदेह भी छिपा होगा। नहीं तो श्रद्धा का क्या अर्थ?

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमारी दृढ़ श्रद्धा है। मैं कहता हूं दृढ़ क्यों कहते हो? क्या श्रद्धा कहना काफी नहीं है?

दृढ क्यों कह रहे हो? दृढ़ का मतलब है कि भीतर संदेह छिपा है, उसको दृढ़ से दबा रहे हो। नहीं तो श्रद्धा काफी है।

जब कोई कहे कि मेरा प्रेम बहुत दृढ़ है, तब खतरा है। प्रेम पर्याप्त है। प्रेम में कमी क्या रही? और दृढ़ क्या कर रहे हो उसको? प्रेम काफी नहीं था, भीतर घृणा छिपी है, दृढ़ता से उसको दबा रहे हो। आस्तिक में नास्तिक छिपा रहता है थोड़ी मात्रा में। नास्तिक में आस्तिक छिपा रहता है थोड़ी मात्रा में। जब दोनों विदा हो जाते हैं, तब परम धर्म का जन्म होता है।

तो पहले संदेह पर संदेह करो, ताकि नास्तिक मरे। फिर श्रद्धा पर श्रद्धा करना, ताकि आस्तिक भी मर जाए। और जहां न संदेह बचा, न श्रद्धा बची, वहां अकेले तुम बचे। तुम यानी सब। तुम यानी सर्वस्व। तुम यानी सर्व अस्तित्व। फिर वहां कोई मन न रहा। ध्यान रखना, संदेह में भी मन मौजूद रहता है, श्रद्धा में भी मौजूद रहता है। संदेह में समझो कि शीर्षासन करता है, श्रद्धा में पैर के बल खड़ा हो जाता है, बाकी मन जाता नहीं। जब दोनों चले जाते हैं, तभी मन जाता है। जहां तक द्वंद्व है, वहां तक मन है। जहां अद्वंद्व पैदा होता है, वहीं मन से छुटकारा होता है।

मन से मुक्ति मोक्ष है। मन से मुक्ति परमात्मा की उपलब्धि है। और इसलिए फिर दोहराता हूं मन ही मांग है। जब तक माग है, तब तक परमात्मा न मिलेगा।

मन गया, मांग गई, चाह गई। परमात्मा मिला ही हुआ है। ऐसा नहीं कि मिलता है। जब चाह गिर जाती है, अचानक तुम जागते हो कि वह सदा से भीतर मौजूद था। वह मंदिर में बैठा ही था, तुम कहां—कहां भटकते थे! तुम कहा—कहा खोजते थे! सिर्फ अपने भीतर छोड्कर, तुमने सारी पृथ्वी छान डाली, चांद—तारे छान डाले। एक जगह छोड़ गए थे। जिस दिन मन समाप्त होता है, उसी जगह प्रवेश होता है। तुम अपने भीतर के आकाश में आते हो। जिसे तुम खोजते थे, वह कभी खोया ही न था। वह तो सदा से वहां था। वह सदा से ही मौजूद है।

अब हम सूत्र को लें।

हे अर्जुन! दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह दान सात्विक।

और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उद्देश्य रखकर दिया जाता, वह दान राजस।

और जो दान बिना सत्कार किए अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश, काल में कुपात्रों को दिया जाता है, वह तामस कहा गया है।

कृष्ण तीनों गुणों को जीवन की सब विधाओं में समझाने की कोशिश कर रहे हैं।

दान देना कर्तव्य है……..।

कर्तव्य शब्द को थोड़ा समझना चाहिए। क्योंकि जो अर्थ कृष्ण के समय में कर्तव्य का होता था, अब वह अर्थ रहा नहीं, विक़त हो गया है। शब्द पर बड़ी धूल जम गई है। शब्द खराब हो गया है। तुम तो कर्तव्य तभी कहते हो किसी चीज को, जब तुम करना नहीं चाहते और करना पड़ता है। जैसे कि बाप बीमार है और तुम पैर दबा रहे हो; और तुम मित्रों से कहते हो, कर्तव्य है। तुम यह कह रहे हो कि करना तो नहीं था, लेकिन लोक—लाज करवाती है। तुम्हारे मन में कर्तव्य का अर्थ ही यह हो गया है कि जो जबरदस्ती करना पड़ता है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, दुकान करनी पड़ रही है। अब कोई प्रेम नहीं मालूम पड़ता। बच्चों को बड़ा करना है, इसमें कोई अहोभाव नहीं मालूम पड़ता। बच्चों को शिक्षा देनी है, उनको जीवन की दिशाओं में यात्रा पर भेजना है, इसमें कोई रस नहीं मालूम पड़ता। कर्तव्य है! जैसे बच्चे खुद जबरदस्ती घर में घुस गए हों। जैसे बच्चों ने खुद ही आकर कब्जा कर लिया हो और घोषणा कर दी हो कि हम तुम्हारे बच्चे हैं; अब तुम दुकान करो और कर्तव्य करो!

कर्तव्य शब्द की गरिमा खो गई। कृष्ण के समय में कर्तव्य शब्द बड़ा दूसरा अर्थ रखता था। कर्तव्य का अर्थ यह नहीं था कि जो नहीं करने की इच्छा है, और करना पड़ता है। नहीं, कर्तव्य का अर्थ था—बडा सात्विक भाव था उसमें छिपा—वह अर्थ था, जो करने योग्य है, जो ही करने योग्य है, जिसके अतिरिक्त करने योग्य कुछ भी नहीं है।

तुम पिता के पैर दबा रहे हो……।

महाराष्ट्र में विठोबा की कथा है कि एक भक्त…….। महाराष्ट्र में ही कृष्ण का नाम विठोबा। विठोबा यानी कृष्ण। पर कैसे विठोबा हो गए कृष्ण! एक भक्त अपनी मां के पैर दबा रहा था। और कृष्ण उस पर बड़े प्रसन्न थे। वे आकर पीछे खड़े हो गए। और यह भक्त वर्षों से रोता था, विरहलीन रहता था, गीत गाता था, नाचता था। और इससे मिलने आ गए। और उन्होंने कहा कि देख, तू क्या उस तरफ मुंह किए हुए है? मैं तेरा भगवान, जिसकी तूने इतने दिन पूजा—प्रार्थना— अर्चना की, धूप—दीप जलाए। मैं मौजूद हूं! लौट, मेरी तरफ देख।

उस भक्त ने कहा, अभी—एक ईंट पास में पड़ी थी, पीछे सरका दी और कहा—इस पर बैठ रहो। इसलिए विठोबा! बिठा दिया ईंट पर। इस पर बैठ रहो, अभी मैं मां के पैर दबा रहा हूं। तुम ठीक वक्त नहीं आए।

भगवान को जिसने छोड़ दिया मां के पैर दबाने के लिए, तब कर्तव्य! जो करने योग्य है! अभी भगवान भी बीच में आ जाए, तो कोई अर्थ नहीं रखता।

कहा, बेवक्त आए! समय से आना। और अगर रुकना ही हो, तुम्हारी मरजी है। यह ईंट है, बैठ रहो।

किसी भक्त ने कृष्ण को ऐसा नहीं बिठाया। इसलिए पंढरपुर के विठोबा का मंदिर अनूठा है। उसका कोई सानी नहीं। बहुत मंदिर हैं, जहां भगवान अपनी ही मरजी से खडे हैं; यहं। भक्त की मरजी से बैठे हैं! और ईंट पर बैठे हैं; कुछ खास बड़ा सिंहासन नहीं है। लेकिन जब तक उसने अपनी मां को सुला न दिया, जब उसकी मां सो गई—घटों लगे होंगे—तभी उसने मुंह किया। लेकिन कृष्ण को वह बडा प्यारा हो गया। क्योंकि जहां ऐसा प्रेम है, वहीं तो प्रार्थना का फूल खिलता है।

कर्तव्य का अर्थ है, जो करने योग्य है। तुम्हारे लिए कर्तव्य का अर्थ है, जो करना नहीं चाहते, करने योग्य मालूम भी नहीं पड़ता; मगर क्या करें, संसार करवा रहा है! लोक—लाज है, मर्यादा है, नियम हैं, संस्कार है, करना पड़ेगा। तुम बेमन से जो करते हो, उसी को तुम कर्तव्य कहते हो।

कृष्ण जब कहते हैं कि सात्विक व्यक्ति के लिए दान देना कर्तव्य है, तो वे यह कह रहे हैं कि वह देता है, क्योंकि देने से बड़ा और कुछ भी नहीं है। वह देता है, क्योंकि देने में ही उसका आनंद प्रगाढ़ होता है। देना अपने आप में आनंद है।

दान देना कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान दे। देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर.।

निश्चित ही, सात्विक व्यक्ति हमेशा इस बात को ध्यान में रखेगा कि वह जो कर रहा है, उस करने के व्यापक, परिणाम क्या होंगे? क्योंकि तुम तुम्हारा कृत्य जब करते हो, तुम तो चाहे समाप्त भी हो जाओगे कभी—हो ही जाओगे—लेकिन तुम्हारा कृत्य जीवित रहेगा अनंत— अनंत काल तक।

ऐसे ही जैसे किसी ने एक कंकड़ फेंक दिया झील में। वह तो झील में कंकड़ फेंककर चला गया, कंकड़ भी जाकर झील की तलहटी में बैठ गया; लेकिन जो लहरें उठीं, वे चलती जाती हैं, चलती जाती हैं। वह आदमी मर जाए, रास्ते में एक्सीडेंट हो जाए कार का; लेकिन वे लहरें चलती रहेंगी। वे लहरें तो दूर तटों तक जाएंगी, जहां तक फैलाव होगा झील का। और जीवन की झील का कहीं कोई तट है? कहीं कोई तट नहीं। इसका अर्थ है कि तुम जो भी कृत्य करोगे, वह शाश्वत है, उसकी तरंग चलती ही रहेगी।

तुमने एक आदमी को दान दिया। तुम समाप्त हो जाओगे, जिसे दान दिया, वह समाप्त हो जाएगा; लेकिन दान का कृत्य चलता ही रहेगा। तो इसका अर्थ यह हुआ कि सात्विक व्यक्ति सोचेगा, अत्यंत समाधिस्थ भाव से सोचेगा देश, काल और पात्र को। क्योंकि यह हो सकता है, तुम अपात्र को दान दे दो। दिया तो तुमने सही, लेकिन वह दान न रहा और अधर्म हो गया।

तुमने एक हत्यारे को दान दे दिया।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने पड़ोस में एक दानी के घर गया। और उसने कहा कि हालत बहुत खराब है और बच्चे भूखे मर रहे हैं; आज तो रोटी का भी इंतजाम नहीं, आटा भी नहीं खरीद सके, तो कुछ दान मिल जाए! तो उस आदमी ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, गांव में सर्कस आया है, और तुम जरूर ही, जो पैसे मैं तुम्हें दूंगा, उससे सर्कस देखोगे। उसने कहा, नहीं, आप उसकी फिक्र ही मत करो, उसके लिए तो हमने पैसे पहले ही बचा रखे हैं। सर्कस की तो कोई चिंता ही न करो आप।

तुम अगर एक आदमी को दान देते हो, और वह हत्यारा है और उससे जाकर बंदूक खरीदकर दस आदमियों को मार डालता है, तो क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारा इसमें हाथ नहीं?

जानकर तो नहीं है, अनजाने तो हाथ है। और यह संभव था कि तुम अगर थोड़े सात्विक होते, तो इस आदमी की चित्त—दशा को पहचान पाते। जब यह तुमसे मांगने आया था, तब भी यह हत्यारा था, छिपा हत्यारा था, बीज में छिपी थी हत्या। तुममें अगर जरा—सी भी समझ होती, जितनी माली में होती है समझ, तो वह देख लेता है कि इस बीज में कौन—सा वृक्ष छिपा है, कडुवा वृक्ष छिपा है कि मीठा। तुम अगर सात्विक होते हो, तो दूसरे लोग तुम्हारे सामने दर्पण की तरह साफ हो जाते हैं।

इसलिए सात्विक व्यक्ति को कृष्ण कहते हैं, देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर ही वह देता है।

हर किसी को नहीं बांटता फिरता। वह भैंस के सामने बैठकर बीन नहीं बजाता। क्योंकि भैंस क्या करेगी? भैंस पड़ी पगुराय! तुम बीन बजाते रहो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता भैंस को। वह सुअरों के सामने मोती नहीं फेंकता, क्योंकि वे व्यर्थ चले जाएंगे। वह हंस की खोज करता है। हंसा तो मोती के!

लेकिन सात्विक व्यक्ति ही यह खोज कर सकता है कि किसको देना, कब देना। क्योंकि यह भी जरूरी नहीं है कि जो आदमी सुबह ठीक है, वह सांझ ठीक हो, या जो आदमी एक दिन ठीक है, वह दूसरे दिन ठीक हो।

तो देश, काल……..।

और जो आदमी यहां ठीक है, वह वहा ठीक न हो! जो इस गांव में ठीक है, वह दूसरे गांव में ठीक न हो! क्योंकि आदमी का होना तो परिस्थिति पर निर्भर है, जब तक कि आदमी जाग न जाए। और बुद्ध तो तुम्हें मिलते नहीं है, जिनको तुम दान दोगे। तो तुम्हारा दान एक कृत्य है, जिसके परिणाम अनंत काल तक गूंजते रहेंगे।

तो सोचकर, होशपूर्वक देना। सिर्फ देना काफी नहीं है, देखकर देना, समझकर देना। देश, काल, पात्र को पूरा जब तुम देख लो, कि यह तुम्हारा कृत्य सदा के लिए शुभ रहेगा, तुम्हारा यह कृत्य सदा के लिए शुभ के फल लाएगा, फूल लाएगा, तो ही देना।

और प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है।

क्योंकि दान का अर्थ ही है कि सौदा नहीं। उसी को देता है सात्विक व्यक्ति, जिससे लेने की कोई आकांक्षा नहीं। नहीं तो वह दान न .रहा। अगर तुमने कुछ भी प्रत्युत्तर मला, तो वह सौदा हो गया। तुमने अगर धन्यवाद भी मागा, तो वह सौदा हो गया। इसलिए गहरा दानी ऐसे देता है कि किसी को पता न चले।

मैंने सुना है कि एक गांव में अज्ञात दान की वर्ष में एक घड़ी आती थी, जहां गांव के सारे लोग अज्ञात दान करते थे, अनानिमस, कोई नाम नहीं लेता था। एक पेटी रखी रहती थी। पेटी के पास एक रीजेस्टर रखा रहता था। लोग पेटी में दान डाल देते, रजिस्टर में संख्या लिख देते, और लिख देते, अज्ञात व्यक्ति द्वारा, अनानिमस। मुल्ला नसरुद्दीन भी उस गांव में था और दान देने गया। किसी ने हजार दिए थे, किसी ने पांच हजार दिए थे, किसी ने दस हजार दिए थे। उसने भी पांच रुपए दिए। उसने डाल दिए पांच रुपए पेटी में। जिन्होंने पांच हजार दिए थे, उन्होंने भी छोटे—छोटे अक्षरों में लिखा था, उसने पांच रुपया इतने बड़े अक्षरों में लिखा कि पचास हजार भी देता, तो उतनी जगह में लिखे जा सकते थे। पांच रुपया! फिर उसने लिखा, मुल्ला नसरुद्दीन, इकतीस नंबर का मकान, फला—फलां मोहल्ला, सब पता—ठिकाना, और नीचे बड़े—बड़े अक्षरों में लिखा, अनानिमस, अज्ञात व्यक्ति के द्वारा।

आदमी दिखाना चाहता है। धन्यवाद पाना चाहता है। दो पैसा देता है, तो हजार गुना करके बताना चाहता है। उसकी चर्चा करता है, उसकी बात उठाता है। उसका प्रचार करता है कि मैंने इतना दान दे दिया।

अगर जरा—सी भी आकांक्षा प्रत्युत्तर की है कि कोई धन्यवाद दे, कोई कहे, वाह! वाह! खूब किया! बड़ी ऊंची बात की! तो कृष्ण कहते हैं, दान सात्विक न रहा; सात्विक की कोटि से नीचे गिर गया। फिर वह राजस हो गया।

जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उद्देश्य में रखकर दिया गया, वह दान राजस है।

और जब तुम कुछ प्रत्युत्तर चाहते हो, तो तुम दान आनदभाव से देते ही नहीं। क्योंकि तुम्हारा आनंद तो तब होगा, जब फल मिलेगा, जब उत्तर आएगा। तो देने में तो तुम क्लेशपूर्वक ही दोगे, क्योंकि फल का क्या पक्का पता है? तुम दे रहे हो, यह आदमी लौटाएगा, इसका कुछ पक्का पता है? इसका कोई पक्का पता नहीं है। इसलिए क्लेश रहेगा कि दे तो रहे हैं, लौटेगा कि नहीं? कहीं व्यर्थ तो न चला जाएगा?

क्लेश रहेगा। और फल को उद्देश्य में रखकर दिया जाएगा, तौ सौदा हो गया, दान न रहा। तुम खो ही दिए वह अदभुत क्षण, जो शुद्ध दान का है, जो सिर्फ कर्तव्य से किया जाता है।

और जो दान बिना सत्कार किए.।

लेकिन राजस व्यक्ति कम से कम सत्कार करेगा देने वाले का। क्यों? क्योंकि पीछे उससे उत्तर पाना है। भीतर चाहे कितना ही क्लेश से भरा हो, ऊपर मुस्कुराकर देगा, ताकि इस आदमी को क्लेश की खबर न मिल जाए। यह तो यही समझे कि बड़े आनंद से दिया गया है, ताकि इतने ही आनंद से यह वापस भी कर सके। जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक।

फिर कुछ दानी ऐसे भी हैं, जो न तो सत्कार करते, न सत्कार से कोई प्रयोजन है उनका; वस्तुत: दान देकर वे अपमान करते हैं, तिरस्कार करते हैं। दान देने का उनका मजा ही यह है कि हमारा हाथ ऊपर और तुम्हारा हाथ नीचे! दान देने का मजा ही यह है कि देखो, हम दान देने की स्थिति में हैं और तुम दान लेने की स्थिति में!

एक मेरे परिचित हैं, बडे धनी हैं। मध्य प्रदेश में उनसे बडा कोई धनी नहीं। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं जीवनभर से दान दे रहा हूं? अपने सब सगे—संबंधियों को मैंने बड़ा अमीर बना दिया, जो मेरे पास आया, उसको मैंने दिया, लेकिन लोग मुझसे खुश नहीं हैं। और जो एक दफा मुझसे ले लेता है, वह फिर मुझसे दूर हट जाता है। नमस्कार करने तक से लोग बचते हैं। क्या कारण है?

मैंने कहा, कारण बिलकुल साफ है। देते वक्त तिरस्कार रहा होगा। तो ले तो लिया है उस आदमी ने मजबूरी में, लेकिन वह तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता।

अब यह बड़े मजे की बात है कि जिसको तुम दान देते हो, वह भी तुम्हें क्षमा नहीं कर पाएगा, अगर तिरस्कार रहा। क्योंकि दान तो दो दिन में चुक जाएगा, लेकिन तिरस्कार सदा बना रहेगा। तो मैंने कहा, वे आपसे बचते हैं, डरते हैं।

फिर मैंने उनसे पूछा कि एक बात मैं पूछता हूं; कभी आप उनको भी कोई मौका देते हैं कि वे आपकी थोडी सहायता कर सकें? वे कहते हैं, जरूरत ही नहीं। तो फिर, मैंने कहा, बहुत कठिन है। उनको आप कोई मौका नहीं देते कि वे आपकी थोड़ी सहायता करने का मजा ले सकें और आप उनको दान दिए जाते हैं, आप दबाए जाते हैं, उनकी छाती पर पत्थर की तरह चढ़ते जाते हैं। मजबूरी है तो आपसे दान लेना पडता है; लेकिन अगर मौका लगे तो वे आपको गोली मार दें।

उनको भी थोड़ा मौका दो। कभी—कभार, छोटा—मोटा, कि तुम बीमार पड़े हो, किसी को बुला लो, ताकि तुम्हारे पास बैठकर सांत्वना प्रकट कर सके। उसमें भी उसको राहत मिलेगी कि हमने भी कुछ दिया। नहीं धन दे सकते, कोई बात नहीं, गरीब हैं; लेकिन सांत्वना दी। जब तुम मर रहे थे, तब हम ही ने तुमको सांत्वना दी और बचाया! उसको थोड़ा मौका दो कोई छोटे—मोटे काम का, जो जरूरी भी न हो, लेकिन उसे सिर्फ यह एहसास दो कि उसने भी तुम्हारे लिए कुछ किया। कभी उसे भी ऊपर होने का मौका दो, तो वह तुम्हें क्षमा कर पाएगा, अन्यथा क्षमा न कर पाएगा।

जो दान बिना सत्कार किए अथवा तिरस्कारपूर्वक दिया जाता.।

स्वभावत:, तामसी दान न तो देश का विचार कर सकता है, न काल का, न पात्र का। वह दान दान ही नहीं है, नाम—मात्र को दान है। तामसी व्यक्ति खोज भी कैसे सकता है, कौन है पात्र? अभी खुद की पात्रता नहीं। तुम दूसरे को वहीं तक पहचान सकते हो, जहां तक तुम्हारी जीवन—ऊर्जा का विकास हुआ है।

अक्सर तामसी व्यक्ति तामसी को खोज लेगा दान देने के लिए, क्योंकि समान समान में बड़ा तालमेल है। तामसी व्यक्ति किसी ऐसे आदमी को दान देगा, जो उस दान से नुकसान ही करेगा, लाभ नहीं पहुंचा सकेगा। वह खोजेगा अपने जैसों को। और हमेशा ऐसे समय में देगा, जब कि योग्य न तो काल था, न स्थान था, न पात्र था। और फिर सोचेगा कि कोई धन्यवाद तक नहीं देता!

तामसी धन्यवाद देना जानते ही नहीं। धन्यवाद तो सिर्फ सात्विक देना जानते हैं। लेकिन सात्विक को खोजना कठिन बात है।

बुद्ध ने कहा है, ध्यानी को, संन्यासी को, सात्विक को अगर तुम खोज लो भोजन देने के लिए, तो तुम धन्यभागी हो। तुम्हारा अहोभाग्य है। तुम्हारा पूरा जीवन सार्थक हुआ।

बुद्ध के पचास हजार भिक्षु थे। सुबह से कतार लग जाती थी लोगों की, निमंत्रण देने वालों की। और भिक्षु जहां जाता, वहीं उसका सम्मान था। भिखारी नहीं था भिक्षु।

इसलिए हमने अलग शब्द उसके लिए गढा है। भिखारी नहीं है वह; वह हमसे कहीं ज्यादा बड़ा सम्राट है। वह ज्यादा सात्विक है।। उसके जीवन की सारी ऊर्जा शांति और ध्यान और मोक्ष की तलाश में लगी है। उसने अपने को सब भांति मौन किया है। उसके उठने, चलने में है तुम्हारे भोजन सब तरफ सत्व का आभास। वह घर ले ले, तो तुम धन्यभागी हो। इसलिए भिक्षु धन्यवाद नहीं देता था, धन्यवाद तुम देते थे कि तुमने भोजन लिया, हम धन्यभागी!

इसलिए दान, जब तक दक्षिणा न दी जाए, तो पूरा नहीं है। आए। तुम, स्वीकार किया हमारा भोजन, हम अपात्र को मौका दिया कि हम सुपात्र को कुछ दे सकें, ऐसी घड़ी हमारे जीवन में आ सकी कि जो करने योग्य था, हम कर सके, ऐसा अवसर तुमने जुटाया, उसके लिए दक्षिणा है।

सात्विक दान सात्विक पात्र की खोज, सात्विक क्षण की खोज, सात्विक स्थान की खोज से होगा; प्रत्युत्तर की बिना आकांक्षा के, चुपचाप होगा; देने वाला जैसे है ही नहीं। और देने वाला अनुगृहीत होगा कि तुमने लिया, स्वीकार किया, तुम इनकार भी कर सकते थे। वह दान के बाद दक्षिणा भी देगा।

राजस दान क्लेशपूर्वक दिया जाएगा, आकांक्षापूर्वक, कि उत्तर ज्यादा आना चाहिए, पाच दे रहा हूं, तो दस लौटने चाहिए।

गंगा के किनारे मै बैठा था एक कुंभ के मेले में। और एक पडित वहा कुछ लोगों को समझा रहा था कि अगर तुम यहां एक पैसा दान करोगे, तो एक करोड़ गुना तुम्हें स्वर्ग में मिलेगा। लोग कर भी रहे थे एक पैसा, दो पैसा दान, एक करोड़ गुने की आकांक्षा में! धंधा भी कुछ छोटा नहीं कर रहे हैं वे। जुआरी भी इतने जुआरी नहीं हैं। वे भी एक पैसा लगाकर एक करोड़ गुना नहीं पाने की आकांक्षा रखते। सटोरिए भी क्या सटोरिए होंगे, जैसे स्वर्ग के सटोरिए हैं! दे रहे हैं एक पैसा, दो पैसा, करोड़ गुने की आकांक्षा कर रहे हैं। यह दान है? एक पैसा देकर भी कलपेंगे, तड़फेंगे, वह स्वर्ग कब आएगा, जब एक करोड़ पा लेंगे? तब इनको शांति मिलेगी!

ऐसा स्वर्ग कभी नहीं आता। स्वर्ग तो उसके ही पास है, जो देता है और मांगता नहीं। ये तो नरक में गिरेंगे। और जितना क्लेश इन्होंने एक पैसा देकर पाया है, उससे एक करोड़ गुना पाएंगे। क्लेश क्लेश बढ़ाएगा। आनंद आनंद बढाता है। तुम जो बनते जाते हो, उसी के और होने की संभावना बढ़ती जाती है।

जीसस का बडा अनूठा वचन है, जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा, और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छीन लिया जाएगा। अगर तुम आनंदित हो, तो और आनंद मिलेगा। अगर तुम दुखी हो, और दुखी हो जाओगे, आनंद थोडा—बहुत होगा, वह भी छीन लिया जाएगा। जीवन का गणित जीसस के वचन में पूरी तरह है। और फिर तामस दान है, जो दान नहीं है, जो सिर्फ अपमान के लिए दिया जाता है, जो अहंकार की तृप्ति के लिए दिया जाता है। वह निश्चित ही कुपात्रों के हाथ में पड़ेगा और उसके दुष्परिणाम .होंगे।

आज इतना ही।


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जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–12)

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सतत साधना : न कहीं रुकना, न कहीं बंधना—(प्रवचन—बाहरवां)

छठवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

प्रश्न: ओशो आपने पिछली एक चर्चा में कहा कि सीधे अचानक प्रसाद के उपलब्ध होने पर कभी— कभी दुर्घटना भी घटित हो सकती है और व्यक्ति क्षतिग्रस्त तथा पागल भी हो सकता है या उसकी मृत्यु भी हो सकती है। तो सहज ही प्रश्न उठता है कि क्या प्रसाद हमेशा ही कल्याणकारी नहीं होता है? और क्या वह स्व— संतुलन नहीं रखता है? दुर्घटना का यह भी अर्थ होता है कि व्यक्ति अपात्र था। तो अपात्र पर कृपा कैसे हो सकती है?

दो—तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो प्रभु कोई व्यक्ति नहीं है, शक्ति है। और शक्ति का अर्थ हुआ कि एक—एक व्यक्ति का विचार करके कोई घटना वहां से नहीं घटती है। जैसे नदी बह रही है। किनारे जो दरख्त होंगे, उनकी जड़ें मजबूत हो जाएंगी; उनमें फूल लगेंगे, फल आएंगे। नदी की धार में जो पड़ जाएंगे, उनकी जड़ें उखड़ जाएंगी, बह जाएंगे, टूट जाएंगे। नदी को न तो प्रयोजन है कि किसी वृक्ष की जड़ें मजबूत हों, और न प्रयोजन है कि कोई वृक्ष उखाड़ दे। नदी बह रही है। नदी एक शक्ति है, नदी एक व्यक्ति नहीं है।

परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, शक्ति है:

लेकिन निरंतर यह भूल हुई है कि हमने परमात्मा को एक व्यक्ति समझ रखा है। इसलिए हम सोचते हैं, जैसे हम व्यक्ति के संबंध में सोचते हैं। हम कहते हैं, वह बड़ा दयालु है, हम कहते हैं, वह बड़ा कृपालु है; हम कहते हैं, वह सदा कल्याण ही करता है। ये हमारी आकांक्षाएं हैं जो हम उस पर थोप रहे हैं।

व्यक्ति पर तो ये आकांक्षाएं थोपी जा सकती हैं; और अगर वह इनको पूरा न करे तो उसको उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। शक्ति पर ये आकांक्षाएं नहीं थोपी जा सकतीं। और शक्ति के साथ जब भी हम व्यक्ति मानकर व्यवहार करते हैं तब हम बड़े नुकसान में पड़ते हैं; क्योंकि हम बड़े सपनों में खो जाते हैं। शक्ति के साथ शक्ति मानकर व्यवहार करेंगे तो बहुत दूसरे परिणाम होंगे।

जैसे कि जमीन में ग्रेविटेशन है, कशिश है, गुरुत्वाकर्षण है। आप जमीन पर चलते हैं तो उसी की वजह से चलते हैं। लेकिन वह इसलिए नहीं है कि आप चल सकें। आप न चलेंगे तो गुरुत्वाकर्षण नहीं रहेगा, इस भूल में मत पड़ जाना। आप नहीं थे जमीन पर, तो भी था, एक दिन हम नहीं भी होंगे, तो भी होगा। और अगर आप गलत ढंग से चलेंगे, तो गिर पड़ेंगे, टांग भी टूट जाएगी; वह भी गुरुत्वाकर्षण के कारण ही होगा। लेकिन आप किसी अदालत में मुकदमा न चला सकेंगे, क्योंकि वहां कोई व्यक्ति नहीं है। गुरुत्वाकर्षण एक शक्ति की धारा है। अगर उसके साथ व्यवहार करना है तो आपको सोच—समझकर करना होगा। वह आपके साथ सोच—समझकर व्यवहार नहीं कर रही है।

परमात्मा की शक्ति आपके साथ सोच—समझकर व्यवहार नहीं करती है। परमात्मा की शक्ति कहना ठीक नहीं है, परमात्मा शक्ति ही है। वह आपके साथ सोच—समझकर व्यवहार नहीं है उसका, उसका अपना शाश्वत नियम है। उस शाश्वत नियम का नाम ही धर्म है। धर्म का अर्थ है, उस परमात्मा नाम की शक्ति के व्यवहार का नियम। अगर आप उसके अनुकूल करते हैं, समझपूर्वक करते हैं, विवेकपूर्वक करते हैं, तो वह शक्ति आपके लिए कृपा बन जाएगी— उसकी तरफ से नहीं, आपके ही कारण। अगर आप उलटा करते हैं, नियम के प्रतिकूल करते हैं, तो वह शक्ति आपके लिए अकृपा बन जाएगी। परमात्मा अकृपा नहीं है, आपके ही कारण।

तो परमात्मा को व्यक्ति मानेंगे तो भूल होगी। परमात्मा व्यक्ति नहीं है, शक्ति है। और इसलिए परमात्मा के साथ न प्रार्थना का कोई अर्थ है, न पूजा का कोई अर्थ है; परमात्मा के साथ अपेक्षाओं का कोई भी अर्थ नहीं है। यदि चाहते हैं कि परमात्मा, वह शक्ति आपके लिए कृपा बन जाए, तो आपको जो भी करना है वह अपने साथ करना है। इसलिए साधना का अर्थ है, प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं है। ध्यान का अर्थ है, पूजा का कोई अर्थ नहीं है।

इस फर्क को ठीक से समझ लें।

प्रार्थना में आप परमात्मा के साथ कुछ कर रहे हैं— अपेक्षा, आग्रह, निवेदन, मांग, ध्यान में आप अपने साथ कुछ कर रहे हैं। पूजा में आप परमात्मा से कुछ कर रहे हैं; साधना में आप अपने से कुछ कर रहे हैं। साधना का अर्थ है, अपने को ऐसा बना लेना कि धर्म के प्रतिकूल आप न रह जाएं; और जब नदी की धारा बहे तो आप बीच में न पड़ जाएं—तट पर हों कि नदी की धारा का पानी आपकी जड़ों को मजबूत कर जाए, उखाड़ न जाए। जैसे ही हम परमात्मा को शक्ति के रूप में समझेंगे, हमारे धर्म की पूरी व्यवस्था बदल जाती है।

तो जो मैंने कहा कि यदि आकस्मिक घटना घट जाए, तो दुर्घटना बन सकती है।

प्रसाद से दुर्घटना भी हो सकती है:

दूसरी बात पूछी है कि क्या अपात्र को भी वह घटना घट सकती है?

न, अपात्र को कभी नहीं घटती, घटती तो है पात्र को ही, लेकिन अपात्र कभी आकस्मिक रूप से पात्र बन जाता है, जिसका उसे खुद भी पता नहीं चलता। घटना तो सदा ही पात्र को घटती है। जैसे प्रकाश आंख को ही दिखाई पड़ता है, आंखवाले को ही दिखाई पड़ता है, अंधे को नहीं दिखाई पड़ता; न दिखाई पड़ सकता है। लेकिन अगर अंधे की आंख का इलाज किया गया हो, और वह आज ही अस्पताल से बाहर निकलकर सूरज को देख ले, तो दुर्घटना घट जाएगी। उसे महीने, दो महीने हरा चश्मा लगाकर प्रतीक्षा करनी चाहिए। अपात्र एकदम से पात्र बन जाए तो दुर्घटना ही घटेगी, इसमें सूरज कसूरवार नहीं होगा। उसको दो महीने आंखों को सूर्य के प्रकाश के झेलने की क्षमता भी विकसित करने देनी चाहिए। नहीं तो वह पहले जितना अंधा था उससे भी ज्यादा खतरनाक अंधा हो जाएगा; क्योंकि पहलेवाले अंधेपन का इलाज भी हो सकता था, अब इलाज भी मुश्किल होगा; क्योंकि यह दुबारा अंधा हुआ है वह।

तो इसको ठीक से समझ लेना : पात्र को ही अनुभूति आती है, लेकिन अपात्र कभी शीघ्रता से पात्र बन सकता है; कभी ऐसे कारणों से पात्र बन सकता है जिसका उसे पता भी न चले। और तब.. .तब दुर्घटना के सदा डर हैं; क्योंकि शक्ति अनायास उतर आए तो आप झेलने की स्थिति में नहीं होते।

ऐसा समझ लें, एक आदमी को अनायास कुछ भी मिल जाए— धन मिल जाए। तो धन के मिलने से दुर्घटना नहीं होनी चाहिए, लेकिन अनायास मिलने से दुर्घटना हो जाएगी। अनायास बहुत बड़ा सुख भी मिल जाए तो भी दुर्घटना हो जाएगी; क्योंकि उस सुख को भी झेलने के लिए क्षमता चाहिए। सुख भी धीरे— धीरे ही मिले तो हम तैयार हो पाते हैं; आनंद भी धीरे— धीरे ही मिले तो हम तैयार हो पाते हैं। क्योंकि तैयारी बहुत सी बातों पर निर्भर है; और हमारे भीतर झेलने की क्षमता भी बहुत सी बातों पर निर्भर है। हमारे मस्तिष्क के स्नायु, हमारे शरीर की क्षमता, हमारे मन की क्षमता, सब की सीमा है। और जिस शक्ति की हम बात कर रहे हैं, वह असीम है। वह ऐसा ही है, जैसे बूंद के ऊपर सागर गिर जाए। तो बूंद के पास कुछ पात्रता चाहिए सागर को पी जाने की, नहीं तो अनायास तो सिर्फ बूंद मरेगी ही, मिटेगी ही, पा नहीं सकेगी कुछ।

इसलिए, अगर इसे ठीक से समझें तो साधना में दोहरा काम है. उस शक्ति के मार्ग पर अपने को लाना है, उसके अनुकूल लाना है, और अनुकूल लाने के पहले अपने को सहने की क्षमता भी बढ़ानी है। ये दोहरे काम साधना के हैं। एक तरफ से द्वार खोलना है, आंख ठीक करनी है; और दूसरी तरफ से आंख ठीक हो जाए, तो भी प्रतीक्षा करनी है और आंख को भी इस योग्य बनाना है कि वह प्रकाश को देख सके। अन्यथा बहुत प्रकाश अंधेरे से भी ज्यादा अंधेरा सिद्ध होता है। इसमें प्रकाश का कोई भी कसूर नहीं है, इसमें प्रकाश का कोई लेना—देना नहीं है, यह बिलकुल एकतरफा मामला है; यह हमारे ऊपर ही निर्भर है। इसमें हम जिम्मेवारी कभी दूसरे पर न दे पाएंगे।

अब जैसे, आदमी की तो जन्मों—जन्मों की यात्रा है। उस जन्मों—जन्मों की यात्रा में उसने बहुत कुछ किया है। और कई बार ऐसा होता है कि वह बिलकुल पात्र होने के इंच भर पहले छूट गया। वे पिछले जन्मों की सारी स्मृतियां उसकी खो गईं; उसे कुछ पता नहीं है। यदि आप पिछले जन्म में किसी साधना में लगे थे और निन्यानबे डिग्री तक पहुंच गए थे, सौवीं डिग्री तक नहीं पहुंचे थे, अब वह साधना भूल गई, वह जीवन भूल गया, वह सारी बात भूल गई, लेकिन निन्यानबे डिग्री तक की जो आपकी स्थिति थी, वह आपके साथ है। एक दूसरा आदमी आपके पास में बैठा हुआ है, वह एक ही डिग्री पर रुक गया है; उसको भी कोई पता नहीं है। आप दोनों एक ही दिन ध्यान करने बैठे हैं, तो भी आप दोनों अलग—अलग तरह के आदमी हैं। उसकी एक डिग्री बढ़ेगी तो अभी कोई घटना घटनेवाली नहीं है, वह दो ही डिग्री पर पहुंचेगा। आपकी एक डिग्री बढ़ेगी तो घटना घट जानेवाली है। यह आकस्मिक ही होगी आपके लिए घटना, क्योंकि आपको कोई अंदाज भी नहीं है कि निन्यानबे डिग्री पर आप थे। आप कहां हैं, इसका अंदाज नहीं है। और इसलिए एकदम से पहाड़ टूट पड़ सकता है। उसकी तैयारी चाहिए।

और जब मैं कहता हूं दुर्घटना, तो मेरा मतलब इतना ही है कि जिसकी हमारे लिए तैयारी नहीं थी। अनिवार्य रूप से दुर्घटना का मतलब दुख नहीं होता; दुर्घटना का इतना ही मतलब होता है कि जिसके घटने के लिए हम अभी तैयार न थे। दुर्घटना का मतलब अनिवार्य रूप से बुरा नहीं होता। अब एक आदमी को एक लाख रुपये की लाटरी मिल गई हो, तो कुछ बुरा नहीं हो गया है, लेकिन मृत्यु घटित हो जाएगी; वह मर सकता है। एक लाख! ये उसके हृदय की गति को बंद कर जा सकते हैं। दुर्घटना का मतलब इतना है कि जिस घटना के लिए हम अभी तैयार न थे।

और इससे उलटा भी हो सकता है कि अगर कोई आदमी तैयार हो और उसकी मृत्यु आ जाए, तो जरूरी नहीं है कि मृत्यु दुर्घटना ही हो। अगर कोई आदमी तैयार हो, सुकरात जैसी हालत में हो, तो वह मृत्यु को भी आलिंगन करके स्वागत कर लेगा, और उसके लिए मृत्यु तत्काल समाधि बन जाएगी, दुर्घटना नहीं; क्योंकि उस मरते क्षण को वह इतने प्रेम और आनंद से स्वीकार करेगा कि वह उस तत्व को भी देख लेगा जो नहीं मरता है।

हम तो मरने को इतनी घबड़ाहट से स्वीकार करते हैं कि मरने के पहले बेहोश हो जाते हैं; मरने की प्रक्रिया हम होशपूर्वक नहीं अनुभव कर पाते, मरने के पहले बेहोश हो जाते हैं। इसलिए हम बहुत बार मरे हैं, लेकिन मरने की प्रक्रिया का हमें कोई पता नहीं। एक बार भी हमें पता चल जाए कि मरना क्या है, तो फिर हमें कभी भी यह खयाल नहीं उठेगा कि मैं और मर सकता हूं; क्योंकि मौत की घटना घट जाएगी और आप पार खड़े रह जाएंगे। लेकिन यह होश में होना चाहिए।

तो मृत्यु भी किसी के लिए सौभाग्य हो सकती है; और प्रसाद, ग्रेस भी किसी के लिए दुर्भाग्य हो सकती है। इसलिए साधना दोहरी है पुकारना है, बुलाना है, खोजना है, जाना है; और साथ—साथ तैयार भी होते चलना है कि जब आ जाए द्वार पर प्रकाश, तो ऐसा न हो कि प्रकाश भी हमें अंधेरा ही सिद्ध हो, और अंधा कर जाए। इसमें एक बात अगर खयाल रखेंगे जो मैंने पहले कही, तो अड़चन न होगी। अगर परमात्मा को व्यक्ति मान लेंगे तो फिर बहुत अड़चन हो जाती है, अगर शक्ति मानेंगे तब कोई अड़चन नहीं।

व्यक्ति मानकर बहुत कठिनाई हो गई। और हमारे मन की इच्छा ऐसी होती है कि व्यक्ति हो; क्योंकि व्यक्ति बनाकर हम उसको रिस्पासिबल बना देते हैं; तो जिम्मेवारी अपनी पूरी नहीं रह जाती, उसकी भी कुछ हो जाती है।

और हम तो छोटी—छोटी चीजों के लिए उसकी उत्तरदायी बनाते हैं, बड़ी चीजों की तो बात अलग है। एक आदमी को नौकरी मिल जाए तो परमात्मा को धन्यवाद देता है, नौकरी छूट जाए तो परमात्मा पर नाराज होता है; किसी को फोड़ा—फुसी हो जाए तो परमात्मा को कहता है उसने कर दिया; किसी का फोड़ा—फुसी ठीक हो जाए तो वह कहता है, भगवान की कृपा से ठीक हो गया। लेकिन हम कभी खयाल नहीं करते कि हम कैसे काम भगवान से ले रहे हैं! और कभी यह खयाल नहीं करते कि बड़ी ईगोसेंट्रिक धारणा है यह कि मेरे फोड़े—फुसी की फिकर भी भगवान कर रहा है! कि हमारा एक रुपया गिर गया और सड़क पर लौटकर मिल गया तो हम कहते हैं, भगवान की कृपा से!

मेरे एक रुपये का भी हिसाब—किताब जो है वह भगवान रख रहा है, यह सोचकर भी मन को बड़ी तृप्ति मिलती है, क्योंकि मैं तब इस सारे जगत के केंद्र पर खड़ा हो गया। और परमात्मा से भी जो मैं व्यवहार कर रहा हूं वह एक नौकर का व्यवहार है। उससे भी हम एक पुलिसवाले का उपयोग ले रहे है—कि वह तैयार खड़ा है, हमारे रुपये को बचा रहा है।

व्यक्ति बनाने से यह सुविधा है कि जिम्मेवारी उस पर टाल सकते हैं। लेकिन साधक जिम्मेवारी अपने ऊपर लेता है। असल में, साधक होने का एक ही अर्थ है कि अब इस जगत में वह किसी बात के लिए किसी और को जिम्मेवार ठहराने नहीं जाएगा। अब दुख है तो अपना है, सुख है तो अपना है, शांति है तो अपनी है, अशांति है तो अपनी है—कोई उत्तरदायी नहीं, कोई रिस्पासिबल नहीं, मैं ही उत्तरदायी हूं। अगर टांग टूट जाती है गिरकर, तो ग्रेविटेशन जिम्मेवार नहीं, मैं ही जिम्मेवार हूं। ऐसी मनोदशा हो तो फिर बात समझ में आ जाएगी। और तब, तब दुर्घटना का अर्थ और होगा। और इसलिए मैंने कहा कि प्रसाद भी तैयार व्यक्तित्व को उपलब्ध होता है, तो कल्याणकारी, मंगलदायी हो जाता है। असल में, हर चीज की एक घड़ी है, हर चीज का एक ठीक क्षण है, और ठीक क्षण और ठीक घड़ी को चूक जाना बड़ी दुर्घटना है। इस खयाल से।

गुरु और शिष्य का गलत संबंध:

प्रश्न: ओशो आपने पिछली एक चर्चा में कहा कि शक्तिपात का प्रभाव धीरे— धीरे कम हो जाता है इसलिए माध्यम से बार— बार संबंध होना चाहिए तो यह क्या गुरुरूपी किसी व्यक्ति पर परावलंबन नहीं हुआ?

ह हो सकता है परावलंबन। अगर कोई गुरु बनने को उत्सुक हो, कोई बनाने को उत्सुक हो, तो यह परावलंबन हो जाएगा। इसलिए भूलकर भी शिष्य मत बनना और भूलकर भी गुरु मत बनना, यह परावलंबन हो जाएगा। लेकिन, यदि शिष्य और गुरु बनने का कोई सवाल नहीं है, तब कोई परावलंबन नहीं है; तब जिससे आप सहायता ले रहे हैं, वह अपना ही आगे गया रूप है। अपना ही आगे गया रूप है—कौन बने गुरु, कौन बने शिष्य?

मैं निरंतर कहता रहा हूं कि बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों के स्मरण में एक बात कही है। कहा है कि मैं तब अज्ञानी था और एक बुद्ध पुरुष परमात्मा को उपलब्ध हो गए थे, तो मैं उनके दर्शन करने गया था। बुद्ध पिछले जन्म में, जब वे बुद्ध नहीं हुए थे, किसी बुद्ध पुरुष के दर्शन करने गए थे। झुककर उन्होंने प्रणाम किया था, और वे प्रणाम करके खड़े भी नहीं हो पाए थे कि बहुत मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि वह बुद्ध पुरुष उनके चरणों में झुके और उन्हें प्रणाम किया। तो उन्होंने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? मैं आपके पैर छुऊं, यह ठीक। आप मेरे पैर छूते हैं! तो उन्होंने कहा था कि तू मेरे पैर छुए और मैं तेरे पैर न छुऊं तो बड़ी गलती हो जाएगी; गलती इसलिए हो जाएगी कि मैं तेरा ही दो कदम आगे गया एक रूप हूं। और जब मैं तेरे पैर में झुक रहा हूं तो तुझे याद दिला रहा हूं कि तू मेरे पैरों पर झुका, वह ठीक किया, लेकिन इस भूल में मत पड़ जाना कि तू अलग और मैं अलग, और इस भूल में मत पड़ जाना कि तू अज्ञानी और मैं जानी। घड़ी भर की बात है कि तू भी शानी हो जाएगा। यानी ऐसे ही कि जब मेरा दायां पैर आगे जाता है तो बायां पीछे छूट जाता है। असल में, दायां आगे जाए, इसके लिए भी बाएं को पीछे थोड़ी देर छूटना पड़ता है।

गुरु और शिष्य का संबंध घातक है। गुरु और शिष्य का असंबंधित रूप बड़ा सार्थक है। असंबंधित रूप का मतलब ही यह होता है कि जहां अब दो नहीं हैं। जहां दो हैं, वहीं संबंध हो सकता है। तो यह तो समझ में भी आ सकता है कि शिष्य को यह खयाल हो कि गुरु है, क्योंकि शिष्य अज्ञानी है, लेकिन जब गुरु को भी यह खयाल होता है कि गुरु है, तब फिर हद हो जाती है; तब उसका मतलब हुआ कि अंधा अंधे को मार्गदर्शन कर रहा है! और इसमें आगे जानेवाला अंधा ही ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि वह एक दूसरे अंधे को यह भरोसा दिलवा रहा है कि बेफिकर रहो।

गुरु और शिष्य के संबंध का कोई आध्यात्मिक अर्थ नहीं है। असल में, इस जगत में हमारे सारे संबंध शक्ति के संबंध हैं, पावर पालिटिक्स के संबंध हैं। कोई बाप है, कोई बेटा है। बाप और बेटा, अगर प्रेम का संबंध हो तो बात और होगी। तब बाप को बाप होने का पता नहीं होगा, बेटे को बेटे होने का पता नहीं होगा। तब बेटा बाप का ही बाद में आया हुआ रूप होगा, और बाप बेटे का पहले आ गया रूप होगा। स्वभावत: बात भी यही है।

एक बीज हमने बोया है और वृक्ष आया, और फिर उस वृक्ष में हजार बीज लग गए। वह पहला बीज और इन बीजों के बीच क्या संबंध है? वे पहले आ गए थे, ये पीछे आए हैं, उसी की यात्रा हैं—उसी बीज की यात्रा है जो वृक्ष के नीचे टूटकर बिखर गया है। बाप पहली कड़ी थी, यह दूसरी कड़ी है उसी श्रृंखला में।

लेकिन तब श्रृंखला है और दो व्यक्ति नहीं हैं। तब अगर बेटा अपने बाप के पैर दबा रहा है तो सिर्फ बीती हुई कड़ी को—स्वभावत बीती हुई कड़ी को वह सम्मान दे रहा है, बीती हुई कड़ी की सेवा कर रहा है, जो जा रहा है उसको वह आदर दे रहा है। क्योंकि उसके बिना वह आ भी नहीं सकता था; वह उससे आया है। और अगर बाप अपने बेटे को बड़ा कर रहा है, पाल रहा है, पोस रहा है, भोजन—कपड़े की चिंता कर रहा है, तो यह किसी दूसरे की चिंता नहीं है, वह अपने ही एक रूप को सम्हाल रहा है। और अपने जाने के पहले उसे.. अगर इसे हम ऐसा कहें कि बाप अपने बेटे में फिर से जवान हो रहा है, तो कठिनाई नहीं है। तब संबंध की बात नहीं है, तब एक और बात है। तब एक प्रेम है जहां संबंध नहीं है।

लेकिन आमतौर से जो बाप और बेटे के बीच संबंध है, वह राजनीति का संबंध है। बाप ताकतवर है, बेटा कमजोर है; बाप बेटे को दबा रहा है; बाप बेटे को कह रहा है कि तू अभी कुछ भी नहीं, मैं सब कुछ हूं। तो उसे पता नहीं कि आज नहीं कल बेटा ताकतवर हो जाएगा, बाप कमजोर हो जाएगा; और तब बेटा उसे दबाना शुरू करेगा कि मैं सब कुछ हूं और तू कुछ भी नहीं है।

यह जो गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है, पति और पत्नी के बीच जो संबंध है, ये सब परवरशंस हैं, विकृतियां हैं। नहीं तो पति और पत्नी के बीच संबंध की क्या बात है! दो व्यक्तियों ने ऐसा अनुभव किया है कि वे एक हैं, इसलिए वे साथ हैं। लेकिन नहीं, ऐसा मामला नहीं है। पति पत्नी को दबा रहा है— अपने ढंगों से, पत्नी पति को दबा रही है— अपने ढंगों से, और वे एक—दूसरे के ऊपर पूरी की पूरी ताकत और पावर पालिटिक्स का पूरा प्रयोग कर रहे हैं।

गुरु—शिष्य घूमकर फिर ऐसी की ऐसी बात है। गुरु शिष्य को दबा रहा है, और शिष्य गुरु के मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वे कब गुरु बन जाएं। या अगर गुरु ज्यादा देर टिक जाए तो बगावत शुरू हो जाएगी। इसलिए ऐसा गुरु खोजना बहुत मुश्किल है जिसके शिष्य उससे बगावत न करते हों। ऐसा गुरु खोजना मुश्किल है जिसके शिष्य उसके दुश्मन न हो जाते हों। जो भी चीफ डिसाइपल है वह दुश्मन होनेवाला है। तो चीफ डिसाइपल जरा सोचकर बनाना चाहिए। कहीं भी, वह अनिवार्य है; क्योंकि वह जो शक्ति का दबाव है, उसकी बगावत, रिबेलियन भी होती है। अध्यात्म का इससे कोई लेना—देना नहीं।

तो मेरी समझ में आता है कि बाप बेटे को दबाए, क्योंकि दो अज्ञानियों की बात है, माफ की जा सकती है, अच्छी तो नहीं है, सही जा सकती है। पति पत्नी को दबाए, पत्नी पति को दबाए, चल सकता है; शुभ तो नहीं है, चलना तो नहीं चाहिए, लेकिन फिर भी छोड़ा जा सकता है। लेकिन गुरु भी शिष्य को दबा रहा है, तब फिर बड़ा मुश्किल हो जाता है। कम से कम यह तो जगह ऐसी है जहां कोई दावेदार नहीं होना चाहिए—कि मैं जानता हूं और तुम नहीं जानते।

अब गुरु और शिष्य के बीच क्या संबंध है? दावेदार है एक, वह कहता है, मैं जानता हूं और तुम नहीं जानते; तुम अज्ञानी हो और मैं ज्ञानी हूं इसलिए अज्ञानी को ज्ञानी के चरणों में झुकना चाहिए।

मगर हमें यह पता ही नहीं है कि यह कैसा ज्ञानी है जो किसी से कह रहा है कि चरणों में झुकना चाहिए! यह महाअज्ञानी हो गया। हां, इसे कुछ थोड़ी बातें पता चल गई हैं, शायद उसने कुछ किताबें पढ़ ली हैं, शायद परंपरा से कुछ सूत्र उसको उपलब्ध हो गए हैं, वह उनको दोहराना जान गया है। इससे ज्यादा कुछ और मामला नहीं है।

दावेदार गुरु अज्ञानी:

शायद तुमने एक कहानी न सुनी हो। मैंने सुना है कि एक बिल्ली थी जो सर्वज्ञ हो गई थी। बिल्लियों में उसकी बड़ी ख्याति हो गई, क्योंकि वह तीर्थंकर की हैसियत पा गई थी। और उसके सर्वज्ञ होने का, आलनोइंग होने का कारण यह था कि वह एक पुस्तकालय में प्रवेश कर जाती थी, और उस पुस्तकालय के बाबत सभी कुछ जानती थी। सभी कुछ का मतलब—कहां से प्रवेश करना, कहां से निकलना, किस किताब की आडू में बैठने से ज्यादा आराम होता है, और कौन सी किताब ठंड में भी गर्मी देती है। तो बिल्लियों में यह खबर हो गई थी कि अगर पुस्तकालय के संबंध में कुछ भी जानना हो, तो वह बिल्ली आलनोइंग है, वह सर्वज्ञ है।

और निश्चित ही, जो बिल्ली पुस्तकालय के बाबत सब जानती है— जो भी पुस्तकालय में है, सब जानती है—उसके ज्ञानी होने में क्या कमी थी! उस बिल्ली को शिष्य भी मिल गए थे। लेकिन उसको कुछ भी पता नहीं था; किताब का पता उसे इतना ही था कि उसकी आडू में बैठकर छिपने की सुविधा है। उस किताब के बाबत उसे इतना ही पता था कि उसकी जिल्द जो है वह ऊनी कपड़े की है, उसमें ठंड में भी गर्मी मिलती है। यही जानकारी थी उसकी किताब के बाबत, और उसे कुछ भी पता नहीं था कि भीतर क्या है। और भीतर का बिल्ली को पता हो भी कैसे सकता था!

आदमियों में भी ऐसी आलनोइंग बिल्लियां हैं, जिनको किताबों की आड़ में छिपने का पता है, जिन पर आप हमला करो तो फौरन रामायण बीच में कर लेंगे— और कहेंगे रामायण में ऐसा लिखा है! और आपकी गर्दन को रामायण से दबा देंगे। गीता में ऐसा लिखा है! अब गीता से कौन झगड़ा करेगा? अगर मैं सीधा कहूं कि मैं ऐसा कहता हूं तो मुझसे झगड़ा हो सकता है।

लेकिन मैं कहता हूं गीता ऐसा कहती है! मैं गीता को बीच में ले लेता हूं गीता की आडू में मुझे सुरक्षा है। गीता गर्मी भी देती है ठंड में, व्यवसाय भी देती है, दुश्मन से बचाव के लिए शस्त्र भी बन जाती है; आभूषण भी बन जाती है; और गीता के साथ खेल खेला जा सकता है।

लेकिन गीता में जो है, ऐसे आदमी को उतना ही पता है, जितना कि उस बिल्ली को जो पुस्तकालय में आराम करती थी; उससे भिन्न कुछ पता नहीं है। और यह तो हो सकता है कि उस पुस्तकालय में रहते—रहते बिल्ली किसी दिन जान जाए कि किताब में क्या है, लेकिन ये किताब जाननेवाले गुरु बिलकुल भी नहीं जान पाएंगे। क्योंकि जितनी इनको किताब कंठस्थ हो जाएगी, उतना ही इनको जानने की कोई जरूरत न रह जाएगी; इनको भ्रम पैदा होगा कि हमने जान लिया है।

जब भी कोई आदमी दावा करे कि जान लिया है, तब समझना कि अज्ञान मुखर हो गया। दावेदार अज्ञान है। लेकिन जब कोई आदमी जानने के दावे से भी झिझक जाए, तब समझना कि कहीं कोई झलक और किरण मिलनी शुरू हुई। लेकिन ऐसा आदमी गुरु न बन सकेगा। ऐसा आदमी गुरु बनने की कल्पना भी नहीं कर सकता, क्योंकि गुरु के साथ अथॉरिटी है; गुरु के साथ दावा जरूरी है। गुरु का मतलब ही यह है कि मैं जानता हूं पक्का जानता हूं तुम्हें अब जानने की कोई जरूरत नहीं, मुझसे जान लो।

तो जहां अथॉरिटी है, जहां आप्तता है और जहां दावा है कि मैं जानता हूं वहां दूसरे की अन्वेषण और खोज की वृत्ति की हत्या भी है, क्योंकि अथॉरिटी बिना हत्या किए नहीं रह सकती; दावेदार दूसरे की गर्दन काटे बिना नहीं रह सकता; क्योंकि यह भी डर है कि कहीं तुम पता न लगा लो, अन्यथा मेरे अधिकार का क्या होगा, मेरी अथॉरिटी का क्या होगा! तो मैं तुम्हें रोकूंगा। अनुयायी बनाऊंगा, शिष्य बनाऊंगा। शिष्यों में भी हायरेरकी बनाई जाएगी— कौन प्रधान है, कौन कम प्रधान है। और सब वही जाल खड़ा हो जाएगा जो राजनीति का जाल है, जिससे अध्यात्म का कोई भी संबंध नहीं है।

शक्तिपात प्रोत्साहन बने, गुलामी नहीं:

तो जब मैं कहता हूं कि शक्तिपात जैसी घटना, परमात्मा के प्रकाश और उसकी विद्युत को, ऊर्जा को उपलब्ध करने की घटना किन्हीं व्यक्तियों के करीब सुगमता से घट सकती है, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम उन व्यक्तियों को पकड़कर रुक जाना, न यह कह रहा हूं कि तुम परतंत्र हो जाना, न यह कह रहा हूं कि तुम उन्हें गुरु बना लेना, न यह कह रहा हूं कि तुम अपनी खोज बंद कर देना। बल्कि सच तो यह है कि जब भी तुम्हें किसी व्यक्ति के करीब वह घटना घटेगी, तो तुम्हें तत्काल ऐसा लगेगा कि जब दूसरे व्यक्ति के माध्यम से आकर भी इस घटना ने इतना आनंद दिया तो जब सीधी अपने माध्यम से आती होगी तो बात ही और हो जाएगी। आखिर दूसरे से आकर थोडी तो जूठी हो ही जाती है, थोड़ी तो बासी हो ही जाती है। मैं बगीचे में गया और वहां के फूलों की सुगंध से भर गया, और फिर तुम मेरे पास आए, और मेरे पास से तुम्हें फूलों की सुगंध आई; लेकिन मेरे पसीने की बदबू भी उसमें थोड़ी मिल ही जाएगी; और तब तक फीकी भी बहुत हो जाएगी।

तो जब मैं कह रहा हूं कि यह प्राथमिक रूप से बड़ी उपयोगी है कि तुम्हें खबर तो लग जाए कि बगीचा भी है, फूल भी हैं, तब तुम अपनी यात्रा पर जा सकोगे। अगर गुरु बनाओगे तो रुकोगे।

मील के पत्थरों के पास हम रुकते नहीं हैं। हालांकि मील के पत्थर, जिनको हम गुरु कहते हैं, उनसे बहुत ज्यादा बताते हैं, पक्की खबर देते हैं. कितने मील चल चुके और कितने मील मंजिल की यात्रा बाकी है। अभी कोई गुरु इतनी पक्की खबर नहीं देता। लेकिन फिर भी मील के पत्थर की न हम पूजा करते हैं, न उसके पास बैठ जाते हैं। और अगर मील के पत्थर के पास हम बैठ जाएंगे तो हम पत्थर से बदतर सिद्ध होंगे। क्योंकि वह पत्थर सिर्फ बताने को था कि आगे! वह रोकनेवाला नहीं है, न रोकनेवाले का कोई अर्थ है। लेकिन अगर पत्थर बोल सकता होता तो वह कहता, कहां जा रहे हो? मैंने तुम्हें इतना बताया और तुम मुझे छोड्कर जा रहे हो! बैठो, तुम मेरे शिष्य हो गए, क्योंकि मैंने ही तुम्हें बताया कि दस मील चल चुके और बीस मील अभी बाकी है। अब तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है, मेरे पीछे रहो।

तो पत्थर बोल नहीं सकता, इसलिए गुरु नहीं बनता है; आदमी बोल सकता है, इसलिए गुरु बन जाता है, क्योंकि वह कहता है मेरे प्रति कृतज्ञ रहो, अनुगृहीत रहो, ग्रेटिटयूड प्रकट करो, मैंने तुम्हें इतना बताया। और ध्यान रहे, जो ऐसा आग्रह करता हो, अनुग्रह मांगता हो, समझना कि उसके पास बताने को कुछ भी न था, कोई सूचना थी। जैसे मील के पत्थर के पास सूचना है। उसे कुछ पता थोड़े ही है कि कितनी मंजिल है और कितनी नहीं है, उसे कुछ पता नहीं है, सिर्फ एक सूचना उसके ऊपर खुदी है। वह उस सूचना को दोहराए चला जा रहा है—कोई भी निकलता है, उसी को दोहराए चला जा रहा है।

ऐसे ही, अनुग्रह जब तुमसे मांगा जाए तो सावधान हो जाना। और व्यक्तियों के पास नहीं रुकना है, जाना तो है अव्यक्ति के पास, जाना तो है उसके पास जहां कोई आकार और सीमा नहीं। लेकिन व्यक्तियों से भी उसकी झलक मिल सकती है, क्योंकि अंततः व्यक्ति हैं तो उसी के। जैसा मैंने कल कहा कि कुएं से भी सागर का पता चलता है, ऐसे ही किसी व्यक्ति से भी उस अनंत का पता चलता है, अगर तुम झांक सको, तो तुम्हें पता चल सकता है। लेकिन कहीं निर्भर नहीं होना है, और किसी चीज को परतंत्रता नहीं बना लेना है। लेकिन सभी तरह के संबंध परतंत्रता बनते हैं—चाहे वह पति—पत्नी का हो, चाहे बाप—बेटे का हो, चाहे गुरु—शिष्य का हो; जहां संबंध है वहां परतंत्रता शुरू हो जाएगी।

तो आध्यात्मिक खोजी को संबंध ही नहीं बनाने हैं। और पति—पत्नी के बनाए रखे तो कोई बहुत हर्जा नहीं है, क्योंकि उनसे कोई बाधा नहीं है, वे इररेलेवेंट हैं। लेकिन मजा यह है कि वह पति—पत्नी के, बाप—बेटे के संबंध तोड़कर एक नया संबंध बनाता है जो बहुत खतरनाक है, वह गुरु—शिष्य का संबंध बनाता है। आध्यात्मिक संबंध का कोई मतलब ही नहीं होता। सब संबंध सांसारिक हैं। संबंध मात्र सांसारिक हैं। अगर हम ऐसा कहें कि संबंध ही संसार है, तो कोई कठिनाई नहीं होगी। असंग, अकेले हो तुम!

लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अहंकार। क्योंकि तुम्हीं अकेले हो, ऐसा नहीं है, और भी अकेले हैं। और तुमसे कोई दो कदम आगे है। उसकी अगर तुम्हें पैरों की ध्वनि भी मिल जाती है कि कोई दो कदम आगे है, तो दो कदम आगे के रास्ते की भी खबर मिल जाती है। कोई तुमसे दो कदम पीछे है, कोई तुम्हारे साथ है, कोई दूर है—ये सब चारों तरफ हजार—हजार, अनंत— अनंत आत्माएं यात्रा कर रही हैं। इस यात्रा में सब संगी—साथी हैं, फासला आगे—पीछे का है। इससे जितना फायदा ले सको वह लेना, लेकिन इसको गुलामी मत बनाना। यह गुलामी संबंध बनाने से शुरू हो जाती है।

इसलिए परतंत्रता से बचना, संबंध से बचना; आध्यात्मिक संबंध से सदा बचना। सांसारिक संबंध उतना खतरनाक नहीं है, क्योंकि संसार का मतलब ही संबंध है; वहां कोई इतनी अड़चन की बात नहीं है। और जहां से तुम्हें खबर मिले, वहां से खबर ले लेना। और यह नहीं कह रहा हूं मैं कि तुम धन्यवाद मत देना। यह नहीं कह रहा हूं। इसलिए कठिनाई होती है; इसलिए जटिलता हो जाती है। कोई अनुग्रह मांगे, यह गलत है, लेकिन तुम धन्यवाद न दो तो उतना ही गलत है। मील के पत्थर को भी धन्यवाद तो दे ही देना जाते वक्त— कि तेरी बड़ी कृपा! वह सुने या न सुने।

तो इससे बड़ी भांति होती है। जब हम कहते हैं कि गुरु अनुग्रह न मांगे, तो आमतौर से आदमी के अहंकार को एक रस मिलता है, वह सोचता है. बिलकुल ठीक है, किसी को धन्यवाद भी देने की जरूरत नहीं। तब भूल हो रही है, यह बिलकुल दूसरे पहलू से बात को पकड़ा जा रहा है। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि तुम धन्यवाद मत दे देना। मैं यह कह रहा हूं कि कोई अनुग्रह मांगे, यह गलत है। लेकिन तुम अनुगृहीत न होओ तो उतना ही गलत हो जाएगा। तुम तो अनुगृहीत होना ही। लेकिन वह अनुग्रह बांधेगा नहीं, क्योंकि जो मांगा नहीं जाता, वह कभी नहीं बांधता है, जो दान है, वह कभी नहीं बांधता है। अगर मैंने तुम्हें धन्यवाद दिया है, तो वह कभी नहीं बांधता; और अगर तुमने मांगा है, फिर मैं दूं या न दूं उपद्रव शुरू हो जाता है।

और जहां से तुम्हें झलक मिले उसकी, वहां से झलक को ले लेना। और वह झलक चूंकि दूसरे से आई है, इसलिए बहुत स्थायी नहीं होगी, वह खोएगी बार—बार। स्थायी तो वही होगी जो तुम्हारी है। इसलिए उसे तुम्हें बार—बार, बार—बार लेना पड़ेगा। और अगर डरते हो परतंत्रता से तो अपनी खोजना।

परतंत्रता से डरने से कुछ भी न होगा, दूसरे पर निर्भर होने का भय भी लेने की जरूरत नहीं है। क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता मैं तुम पर परतंत्र हो जाऊं तो भी संबंधित हो गया, और तुमसे डरकर भाग जाऊं तो भी संबंधित हो गया और परतंत्र हो गया। इसलिए चुपचाप लेना, धन्यवाद देना, बढ़ जाना।

और अगर लगे कि कुछ है जो आता है और खो जाता है, तो फिर अपना स्रोत खोजना, जहां से वह कभी न खोए, जहां से खोने का कोई उपाय न रह जाए। अपनी संपदा ही अनंत हो सकती है। दूसरे से मिला हुआ दान चुक ही जाता है। भिखारी मत बन जाना कि दूसरे से ही मांगते चले जाओ। वह दूसरे से मिला हुआ भी तुम्हें अपनी ही खोज पर ले जाए। और यह तभी होगा जब तुम दूसरे से कोई संबंध नहीं बनाते हो, धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाते हो।

शक्ति है निष्पक्ष:

प्रश्न : ओशो आपने कहा कि परमात्मा एक शक्ति है और उसको मनुष्य के जीवन में कोई दिलचस्पी नहीं है? कोई सरोकार नहीं है। कठोपनिषद में एक श्लोक है जिसका मतलब है कि वह परमात्मा जिसको पसंद करता है उसको ही मिलता है। तो उसकी पसंदगी का कारण व आधार क्या है?

 

सल में, मैंने यह नहीं कहा कि उसकी आपमें कोई रुचि नहीं है। यह मैंने नहीं कहा। मैंने यह नहीं कहा कि परमात्मा की आपमें कोई रुचि नहीं है। उसकी रुचि न हो तो आप हो ही नहीं सकते हैं। यह मैंने नहीं कहा। यह मैंने नहीं कहा। और यह भी मैंने नहीं कहा कि वह आपके प्रति तटस्थ है; यह भी मैंने नहीं कहा। और हो भी नहीं सकता तटस्थ, क्योंकि आप उससे कुछ अलग नहीं हो; आप उसके ही फैले हुए विस्तार हो।

जो कहा, वह मैंने यह कहा कि आपमें उसकी कोई विशेष रुचि नहीं है। यह दोनों बातों में फर्क है। आपमें उसकी कोई विशेष रुचि नहीं है। आपके लिए वह नियम से बाहर नहीं जाएगी शक्ति। और अगर आप अपने सिर पर पत्थर मारेंगे, तो लहू बहेगा, और प्रकृति आपमें विशेष रुचि न लेगी। रुचि तो पूरी ले रही है, क्योंकि खून जब बह रहा है, वह भी रुचि है, वह भी उसके ही द्वारा बह रहा है। आपने जो किया है, उसमें पूरी रुचि ली गई है। आप अगर नदी में बहकर डूब रहे हैं, तब भी प्रकृति पूरी रुचि ले रही है—डुबाने में ले रही है। लेकिन विशेष रुचि नहीं है। कोई स्पेशल, कोई अतिरिक्त, आपमें कोई रुचि नहीं है कि नियम तो था डुबाने का और बचाया जाए; नियम तो था कि आप जब छत पर से गिरे तो सिर टूट जाए, लेकिन छत पर से गिरे और सिर न टूटे, ऐसी विशेष रुचि नहीं है।

जिन्होंने ईश्वर को व्यक्ति माना, उन्होंने इस तरह की विशेष रुचियों का फिक्शन खड़ा किया है कि प्रह्लाद को वह जलाएगा नहीं आग में, पहाड़ से गिराओ तो चोट नहीं लगेगी। ये जो कहानियां हैं, ये हमारी आकांक्षाएं हैं—ऐसा हम चाहते हैं कि ऐसा हो, इतनी विशेष रुचि हममें हो, हम उसके केंद्र बन जाएं।

यह मैं नहीं कह रहा हूं कि रुचि नहीं है, मैं यह कह रहा हूं कि उसकी रुचि नियम में है। शक्ति की रुचि सदा नियम में होती है। व्यक्ति की रुचि विशेष बन सकती है। व्यक्ति पक्षपाती हो सकता है। शक्ति सदा निष्पक्ष है। निष्पक्षता ही उसकी रुचि है। इसलिए जो नियम में होगा, वह होगा, जो नियम में नहीं होगा, वह नहीं होगा। परमात्मा की तरफ से मिरेकल नहीं हो सकते, चमत्कार नहीं हो सकते।

जाननेवालों की विनम्रता:

र वह जो दूसरा सूत्र आप कह रहे हैं, कठोपनिषद का, उसके मतलब बहुत और हैं। उसमें कहा गया है उसकी जिसके प्रति पसंद होती, वह जिस पर प्रसन्न होता, वह जिस पर आनंदित होता, उसे ही मिलता है। स्वभावत:, आप कहेंगे, यह तो वही बात हो गई कि उसकी विशेष रुचि जिसमें होती है।

नहीं, यह बात नहीं है। असल में, आदमी की बड़ी तकलीफ है। और जब हमें किसी सत्य को कहना होता है तो उसके बहुत पहलू हैं। असल में, जिनको वह मिला है, उनका यह कहना है। जिनको वह मिला है, उनका यह कहना है कि हमारे प्रयास से क्या हो सकता था! हम क्या थे! हम तो ना—कुछ थे, हम तो धूल के कण भी न थे, फिर भी हमें वह मिल गया! और अगर हमने दो घड़ी ध्यान किया था, तो उसका भी क्या मूल्य था कि हम दो घड़ी चुप बैठ गए थे! जो मिला है, वह अमूल्य है। तो जो हमने किया था और जो मिला है, इसमें कोई तालमेल ही नहीं है। तो जिनको मिला है, वे कहते हैं कि नहीं, यह अपने प्रयास का फल नहीं है, यह उसकी कृपा है। उसने पसंद किया तो मिल गया, अन्यथा हम क्या खोज पाते! यह निरहंकार व्यक्ति का कहना है, जिसको पाकर पता चला है कि अपने से क्या हो सकता था!

लेकिन, यह जिनको नहीं मिला है, अगर उनकी धारणा बन जाए तो बहुत खतरनाक है। जिनको मिला है, उनकी तरफ से तो यह कहना बडा सुरुचिपूर्ण है, और बहुत, इसमें बड़ा ही सुसंस्कृत भाव है। यानी वे यह कह रहे हैं कि हम कौन थे कि वह हमें मिलता! हमारी क्या ताकत थी, हमारी क्या सामर्थ्य थी, हमारा क्या अधिकार था, हम कहां दावेदार थे! हम तो कुछ भी न थे, फिर भी वह हमें मिल गया; उसकी ही कृपा है, हमारा कोई प्रयास नहीं है। यह उनका कहना तो उचित है। उनके कहने का मतलब सिर्फ यह है कि यह किसी प्रयास भर से नहीं मिल गया; यह कोई हमारी अहंकार की उपलब्धि नहीं है; यह कोई अचीवमेंट नहीं है; यह प्रसाद है।

यह उनका कहना तो बिलकुल ठीक है, लेकिन कठोपनिषद पढ़कर आप दिक्कत में पड़ जाओगे। सभी शास्त्रों को पढ़कर आदमी दिक्कत में पड़ा है। क्योंकि वह कहना है जाननेवालों का और पढ़ रहे हैं न जाननेवाले— और वे उसको अपना कहना बना रहे हैं। तो न जाननेवाला कहता है कि ठीक है, फिर हमें क्या करना है! जब वह उसकी पसंद से ही मिलता है, तो हम परेशान क्यों हों! जिस पर उसकी इच्छा होती है, उसी को मिलता है, तो जब उसकी इच्छा होगी तब मिल जाएगा। तो हम क्यों परेशान हों? हम क्यों कुछ करें?

तो जो निरहंकार का दावा था, वह हमारे लिए आलस्य की रक्षा बन जाता है। यह इतना बड़ा परिवर्तन है इन दोनों में कि जमीन—आसमान का फर्क है। जो शून्यता का भाव था, वह हमारे लिए प्रमाद बन जाता है। हम कहते हैं, वह तो जिसको मिलना है उसको मिलेगा; जिसको नहीं मिलना है, नहीं मिलेगा।

ज्ञानियों के शास्त्र, अज्ञानियों के हाथ:

ब आस्तीन का एक वचन है इससे मिलता—जुलता, जिसमें वह कहता है कि जिसको उसने चाहा, अच्छा बनाना, जिसको उसने चाहा, बुरा बनाया।

बड़ा खतरनाक मालूम होता है! क्योंकि अगर यह उसकी चाह से हो गया कि जिसको उसने अच्छा बनाया था, अच्छा बनाया; और जिसको बुरा बनाना था, उसको बुरा बनाया; तो बात खत्म हो गई। और हइ पागल परमात्मा है कि किसी को बुरा बनाना चाहता है और किसी को अच्छा बनाना चाहता है! न जाननेवाला जब इसको पड़ेगा, तो इसके अर्थ बड़े खतरनाक हैं। लेकिन अगस्तीन जो कह रहा है, वह कुछ और ही बात कह रहा है। वह अच्छे आदमी से कह रहा है कि तू अहंकार मत कर कि तू अच्छा है; क्योंकि जिसको उसने चाहा, अच्छा बनाया। वह बुरे आदमी से कह रहा है. परेशान मत हो, चिंता से मत घिर; उसने जिसको बुरा बनाया, बुरा बनाया। वह बुरे आदमी का भी दंश खींच रहा है, वह अच्छे आदमी का भी दंश खींच रहा है। लेकिन वह जाननेवाले की तरफ से है।

लेकिन बुरा आदमी सुन रहा है, वह कह रहा है तो फिर ठीक है, तो फिर मैं बुराई करूं। क्योंकि अपना तो कोई सवाल ही नहीं है; जिससे उसने बुरा करवाया, वह बुरा कर रहा है। और अच्छे आदमी की भी यात्रा शिथिल पड़ गई, क्योंकि वह कह रहा है कि अब क्या होना है! वह जिसको अच्छा बनाता है, बना देता है, जिसको नहीं बनाता, नहीं बनाता। तब जिंदगी बड़ी बेमानी हो जाती है।

सारी दुनिया में शास्त्रों से ऐसा हुआ। क्योंकि शास्त्र हैं उनके कहे हुए वचन जो जानते हैं। और निश्चित ही, जो जानता है वह शास्त्र—वास्त्र पढने काहे के लिए जाएगा! जो नहीं जानता वह शास्त्र पढ़ने चला जाता है। फिर दोनों के बीच उतना ही फर्क है जितना जमीन और आसमान के बीच फर्क है; और जो व्याख्या हम करते हैं वह हमारी है।

वह (शास्त्र) हमारी व्याख्या नहीं है। इसलिए मेरे इधर खयाल में आता है कि दो तरह के शास्त्र रचे जाने चाहिए— ज्ञानियों के कहे हुए अलग, अज्ञानियों के पढ़ने के लिए अलग। ज्ञानियों के कहे हुए बिलकुल छिपा देने चाहिए; अज्ञानियों के हाथ में नहीं पड़ने चाहिए। क्योंकि अशानी उनसे अर्थ तो अपना ही निकालेगा। और तब सब विकृत हो जाता है, सब विकृत हो गया है। मेरी बात खयाल में आती है?

आध्यात्मिक अनुभवों के नकली प्रतिरूप:

प्रश्न: ओशो आपने कहा है कि शक्तिपात अहंशन्य व्यक्ति के माध्यम से होता है; और जो कहता है कि मैं तुम पर शक्तिपात करूंगा तो जानना कि वह शक्तिपात नहीं कर सकता। लेकिन इस प्रकार शक्तिपात देनेवाले कत से व्यक्तियों से मैं परिचित हूं। उनके शक्तिपात से लोगों को ठीक शास्त्रोक्त ढंग से कुंडलिनी की प्रक्रियाएं होती हैं। क्या वे प्रामाणिक नहीं हैं? क्या वे झूठी स्युडो प्रक्रियाएं हैं?……. क्यों और कैसे?

हां, यह भी समझने की बात है। असल में, दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिसका नकली सिक्का न हो सके दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिसका फाल्स कॉइन न बनाया जा सके। सभी चीजों के नकली हिस्से भी हैं और नकली पहलू भी हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि नकली सिक्का ज्यादा चमकदार होता है— उसे होना पड़ता है; क्योंकि चमक से ही वह चलेगा; असलीपन से तो चलता नहीं। असली सिक्का बेचमक का हो, तो भी चलता है। नकली सिक्का दावेदार भी होता है; क्योंकि असलीपन की जो कमी है, वह दावे से पूरी करनी पड़ती है। और नकली सिक्का एकदम आसान होता है, क्योंकि उसका कोई मूल्य तो होता नहीं।

तो जितनी आध्यात्मिक उपलब्धियां हैं, सबका काउंटर पार्ट भी है। ऐसी कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है, जिसका फाल्स, झूठा काउंटर पार्ट नहीं है। अगर असली कुंडलिनी है, तो नकली कुंडलिनी भी है। नकली कुंडलिनी का क्या मतलब है? और अगर असली चक्र हैं, तो नकली चक्र भी हैं। और अगर असली योग की प्रक्रियाएं हैं, तो नकली प्रक्रियाएं भी हैं। फर्क एक ही है, और वह फर्क यह है कि सब असली आध्यात्मिक तल में घटित होता है, और सब नकली साइकिक, मनस के तल में घटित होता है।

अब जैसे, उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति को चित्त की गहराइयों में प्रवेश मिले, तो उसे बहुत से अनुभव होने शुरू होंगे। जैसे उसे सुगंध आ सकती हैं, बहुत अनूठी, जो उसने कभी नहीं जानी, संगीत सुनाई पड़ सकता है, बहुत अलौकिक, जो उसने कभी नहीं सुना; रंग दिखाई पड़ सकते हैं, ऐसे, जैसे कि पृथ्वी पर होते ही नहीं।

लेकिन ये सब की सब बातें हिप्नोसिस से तत्काल पैदा की जा सकती हैं बिना कठिनाई के—रंग पैदा किए जा सकते हैं, ध्वनियां पैदा की जा सकती हैं, स्वाद पैदा किया जा सकता है, सुगंध पैदा की जा सकती है। और इसके लिए किसी साधना से गुजरने की जरूरत नहीं है, इसके लिए सिर्फ बेहोश होने की जरूरत है। और तब जो भी सजेस्ट किया जाए बाहर से, वह भीतर घटित हो जाएगा।

अब यह फाल्स कॉइन है। ध्यान में जो—जो घटित होता है, वह सब का सब हिप्नोसिस से भी घटित हो सकता है। लेकिन वह आध्यात्मिक नहीं है, वह सिर्फ डाला गया है, और ड्रीम है, स्वप्न जैसा है। अब जैसे, तुम एक स्त्री को प्रेम कर सकते हो जागते हुए भी, स्वप्न में भी कर सकते हो। और आवश्यक नहीं है कि स्वप्न की जो स्त्री है, वह जागनेवाली स्त्री से कम सुंदर हो। अक्सर ज्यादा होगी। और समझ लो कि एक आदमी अगर सोए और फिर उठे न, सपना ही देखता रहे, तो उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि जो वह देख रहा है वह असली स्त्री है, कि जो वह देख रहा है वह सपना है। कैसे पता चलेगा? वह तो नींद टूटे तभी वह जांच कर सकता है कि अरे, जो मैं देख रहा था वह सपना था!

तो इस तरह की प्रक्रियाएं हैं जिनसे तुम्हारे भीतर सभी तरह के सपने पैदा किए जा सकते हैं—कुंडलिनी का सपना पैदा किया जा सकता है, चक्रों के सपने पैदा किए जा सकते हैं, अनुभूतियों के सपने पैदा किए जा सकते हैं। और अगर तुम उन सपनों में लीन रहो— और वे इतने सुखद हैं कि तोड्ने का मन न होगा; और ऐसे सपने हैं जिनको कि सपना कहना मुश्किल है, क्योंकि वे जागते में चलते हैं, दिवा—स्वप्न हैं, डे—ड्रीम्स हैं, और उनको साधा जा सकता है— तो तुम उनको जिंदगी भर साधकर गुजार सकते हो। और तुम आखिर में पाओगे तुम कहीं भी नहीं पहुंचे हो; तुम सिर्फ एक लंबा सपना देखे हो।

इन सपनों को पैदा करने की भी तरकीबें हैं, व्यवस्थाएं हैं। और दूसरा व्यक्ति तुममें इनको पैदा कर सकता है। और तुम्हें तय करना मुश्किल हो जाएगा कि इन दोनों में फर्क क्या है, क्योंकि दूसरे का तुम्हें पता नहीं है। अगर एक आदमी को कभी असली सिक्का न मिला हो और नकली सिक्का ही हाथ में मिला हो, तो वह कैसे तय करेगा कि यह नकली है? नकली के लिए असली भी मिल जाना जरूरी है। तो जिस दिन व्यक्ति को कुंडलिनी का आविर्भाव होगा, उस दिन वह फर्क कर पाएगा कि इन दोनों में तो जमीन—आसमान का फर्क है! यह तो बात ही और है!

अनुभवों की जांच का रहस्य—सूत्र:

र ध्यान रहे, शास्त्रोक्त कुंडलिनी जो है, वह फाल्स होगी। उसके कारण हैं। अब यह तुम्हें मैं एक सीक्रेट की बात कहता हूं। उसके कारण हैं और बड़ा राज है। असल में, जो भी बुद्धिमान लोग इस पृथ्वी पर हुए हैं, उन सबने प्रत्येक शास्त्र में कुछ बुनियादी भूल छोड़ दी है, जो कि पहचान के लिए है। कुछ बुनियादी भूल छोड़ दी है। जैसे मैंने तुमसे कहा कि इस मकान में—मैंने तुम्हें खबर दी इस मकान के बाहर—कि इस मकान में पांच कमरे हैं। छह कमरे हैं, यह मैं जानता हूं मैंने तुमसे कहा, पांच कमरे हैं। एक दिन तुम आए और तुमने कहा कि वह मैं मकान देख आया, आपने बिलकुल ठीक कहा था, बिलकुल पांच ही कमरे हैं। तो मैं जानता हूं कि तुम किसी झूठे मकान में हो आए, तुमने कोई सपना देखा, क्योंकि कमरे तो वहां छह हैं।

वह एक कमरा बचाया गया है हमेशा के लिए। वह तुम्हें खबर देता है कि तुम्हें हुआ कि नहीं हुआ। अगर बिलकुल शास्त्रोक्त हो, तो समझना कि नहीं हुआ, फाल्स कॉइन है, क्योंकि शास्त्र में एक कमरा सदा बचाया गया है। उसे बचाना बहुत जरूरी है। उसे बचाना बहुत जरूरी है। तो अगर तुमको बिलकुल किताब में लिखे ढंग से सब हो रहा हो, तो समझना कि किताब प्रोजेक्ट हो रही है। लेकिन जिस दिन तुमको किताब में लिखे हुए ढंग से नहीं, किसी और ढंग से कुछ हो, जिसमें कि कहीं किताब से मेल भी खाता हो और कहीं नहीं भी मेल खाता हो उस दिन तुम जानना कि तुम किसी असली ट्रैक पर चल रहे हो, जहां चीजें अब तुम्हें साफ हो रही हैं; जहां तुम शास्त्र को ही सिर्फ कल्पना में पिरोए—पिरोए नहीं चले जा रहे हो।

तो जब कुंडलिनी तुम्हें ठीक से जगेगी, तब तुम जांच पाओगे कि अरे, शास्त्र में कहां—कहां, कुछ—कुछ तरकीब है। लेकिन वह तुम्हें उसके पहले पता नहीं चल सकती। और प्रत्येक शास्त्र को अनिवार्य रूप से कुछ चीजें छोड़ देनी पड़ी हैं, नहीं तो कभी भी तय करना मुश्किल हो जाए।

मेरे एक शिक्षक थे; यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर थे। कभी भी मैं किसी किताब का नाम लूं तो वे कहें, हां, मैंने पढ़ी है। एक दिन मैंने झूठी ही किताब का नाम लिया, जो है ही नहीं, न वह लेखक है, न वह किताब है। मैंने उनसे कहा, आपने फलां लेखक की किताब पढ़ी है? बड़ी अदभुत किताब है! उन्होंने कहा, हां, मैंने पढ़ी है। तो मैंने उनसे कहा कि अब जो पहले पढ़े हुए दावे थे, वे भी गड़बड़ हो गए; क्योंकि न यह कोई लेखक है और न यह कोई किताब है। मैंने कहा, अब इस किताब को आप मुझे मौजूद करवाकर बता दें, तो बाकी दावों के संबंध में बात होगी, बाकी अब खत्म हो गई बात। वे कहने लगे, क्या मतलब, यह किताब नहीं है? तो मैंने कहा, आपकी जांच के लिए अब इसके सिवाय कोई और रास्ता नहीं था।

जो जानते हैं, वे तुम्हें फौरन पकड़ लेंगे। अगर तुम्हें बिलकुल शास्त्रोक्त हो रहा है, तुम फंस जाओगे। क्योंकि वहां कुछ गैप छोड़ा गया है; कुछ गलत जोड़ा गया है, कुछ सही छोड़ दिया गया है। जो कि अनिवार्य था; नहीं तो पहचान बहुत मुश्किल है कि किसको क्या हो रहा है।

पर यह जो शास्त्रोक्त है, यह पैदा किया जा सकता है। सभी चीजें पैदा की जा सकती हैं। आदमी के मन की क्षमता कम नहीं है। और इसके पहले कि वह आत्मा में प्रवेश करे, मन बहुत तरह के धोखे दे सकता है। और धोखा अगर वह खुद देना चाहे, तब तो बहुत ही आसान है।

तो मैं यह कहता हूं कि व्यवस्था से, दावे से, शास्त्र से, नियम से, उतना नहीं है सवाल। और सवाल बहुत दूसरा है। फिर इसके पहचान के और भी रास्ते हैं। इसके पहचान के और भी रास्ते हैं कि तुम्हें जो हो रहा है, वह असली है या झूठ।

प्रामाणिक अनुभवों से आमूल रूपांतरण:

एक आदमी दिन में पानी पीता है तो उसकी प्यास बुझती है, सपने में भी पानी पीता है, लेकिन प्यास नहीं बुझती और सुबह जागकर वह पाता है कि ओंठ सूख रहे हैं और गला तड़प रहा है। क्योंकि सपने का पानी प्यास नहीं बुझा सकता, असली पानी प्यास बुझा सकता है। तो तुमने पानी जो पीया था, वह असली था या नकली, यह तुम्हारी प्यास बताएगी कि प्यास बुझी कि नहीं बुझी।

तो जिन कुंडलिनी जागरण करनेवालों की—या जिनकी जाग्रत हो गई—तुम बात कर रहे हो, वे अभी भी तलाश कर रहे हैं, अभी भी खोज रहे हैं। वे यह भी कह रहे हैं कि हमें यह हो गया, और वह खोज भी उनकी जारी है। वे कहते हैं, हमें पानी भी मिल गया। और अभी भी कह रहे हैं, सरोवर का पता क्या है?

परसों ही एक मित्र आए थे। और वे कहते हैं, मुझे निर्विचार स्थिति उपलब्ध हो गई; और मुझसे पूछने आए हैं कि ध्यान कैसे करें! तो अब क्या किया जाए? अब मैं कैसे कहूं उनसे कि यह क्या.. तुम्हारे साथ क्या.. .किया क्या जाए! तुम कह रहे हो, निर्विचार स्थिति उपलब्ध हो गई है; विचार शांत हो गए हैं; और ध्यान का रास्ता बता दें। क्या मतलब होता है इसका?

एक आदमी कह रहा है, कुंडलिनी जग गई है, और कहता है, मन शांत नहीं होता! एक आदमी कहता है, कुंडलिनी तो जग गई, लेकिन यह सेक्स से कैसे छुटकारा मिले!

तो अवांतर उपाय भी हैं— कि जो हुआ है, वह सच में हुआ है?

अगर सच में हुआ है तो खोज खत्म हो गई। अगर भगवान भी उससे आकर कहे कि थोड़ी शांति हम देने आए हैं, तो वह कहेगा अपने पास रखो, हमें कोई जरूरत नहीं है। अगर भगवान भी आए और कहे कि हम कुछ आनंद तुम्हें देना चाहते हैं, बड़े प्रसन्न हैं, तो वह कहेगा. आप उसको बचा लो, और थोड़े ज्यादा प्रसन्न हो जाओ, और हमसे कुछ लेना हो तो ले जाओ। तो उसको जांचने के लिए तुम उस व्यक्तित्व में भी देखना कि और क्या हुआ है?

झूठी समाधि का धोखा:

ब एक आदमी कहता है कि उसे समाधि लग जाती है, वह छह दिन मिट्टी के नीचे पड़ा रह जाता है। और वह बिलकुल ठीक पड़ा रह जाता है, गड्डे से वह जिंदा निकल आता है। लेकिन घर में अगर रुपये छोड़ दो तो वह चोरी कर सकता है; मौका मिल जाए तो शराब पी सकता है। और उस आदमी का अगर तुम्हें पता न हो कि इसको समाधि लग गई है, तो तुम उसमें कुछ भी न पाओगे; उसमें कुछ भी नहीं है—कोई सुगंध नहीं है, कोई व्यक्तित्व नहीं है, कोई चमक नहीं है—कुछ भी नहीं है; एक साधारण आदमी है।

नहीं, तो उसको समाधि नहीं लग गई है, वह समाधि की ट्रिक सीख गया है; वह छह दिन जमीन के अंदर जो रह रहा है, वह समाधि नहीं है। वह समाधि नहीं है, वह छह दिन जमीन के नीचे रहने की अपनी ट्रिक है, अपनी व्यवस्था है। वह उतना सीख गया है। वह प्राणायाम सीख गया है, वह श्वास को शिथिल करना सीख गया है; वह छह दिन, जितनी छोटी सी जमीन का घेरा उसने अंदर बनाया है, जिस आयतन का, वह जानता है कि उतनी आक्सीजन से वह छह दिन काम चला लेता है। वह इतनी धीमी श्वास लेता है कि जो मिनिमम, जिससे ज्यादा लेने में ज्यादा आक्सीजन खर्च होगी, उतनी श्वास लेकर वह छह दिन गुजार देता है। वह करीब—करीब उस हालत में होता है, जिस हालत में साइबेरिया का भालू छह महीने के लिए बर्फ में दबा पड़ा रह जाता है। उसको कोई समाधि नहीं लग गई है। बरसात के बाद मेंढक जमीन में पड़ा रह जाता है। आठ महीने पड़ा रहता है। उसे कोई समाधि नहीं लग गई है। वही इसने सीख लिया है; और कुछ भी नहीं हो गया।

लेकिन जिसको समाधि उपलब्ध हो गई है, उसको अगर तुम छह दिन के लिए बंद कर दो, तो वह हो सकता है मर जाए और यह निकल आए। क्योंकि समाधि से छह दिन जमीन के नीचे रहने का कोई संबंध नहीं है। महावीर स्वामी या बुद्ध कहीं मिल जाएं, और उनको जमीन के भीतर छह दिन रख दो, बचकर लौटने की आशा नहीं है। यह बचकर लौट आएगा। क्योंकि इससे कोई संबंध ही नहीं है। उससे कोई वास्ता ही नहीं है; वह बात ही और है। लेकिन यह जंचेगा। और अगर महावीर न निकल पाएं और यह निकल पाए, तो तीर्थंकर यह असली मालूम पड़ेगा, वे नकली सिद्ध हो जाएंगे।

तो ये सारे के सारे जो साइकिक फाल्स कॉइन्स पैदा किए गए हैं, जो मनस ने झूठे—झूठे सिक्के पैदा किए हैं, उन्होंने अपने झूठे दावे भी पैदा किए हैं, उन दावों को सिद्ध करने की पूरी व्यवस्था भी पैदा की है। और उन्होंने एक अलग ही दुनिया खड़ी कर रखी है। जिसका कोई लेना—देना नहीं है, जिससे कोई संबंध नहीं है। और असली चीजें उन्होंने छोड दी हैं; जो असली रूपांतरण थे, उनके छह दिन जमीन के नीचे रहने या छह महीने रहने से कोई संबंध नहीं है। लेकिन इस व्यक्ति का चरित्र क्या है? इस व्यक्ति के मनस की शांति कितनी है? इसके आनंद का क्या हुआ? इसका एक पैसा खो जाता है तो यह रात भर सो नहीं पाता, और छह दिन जमीन के भीतर रह जाता है! यह सोचना पड़ेगा कि इसके असली संबंध क्या हैं?

झूठे शक्तिपात के लिए सम्मोहन का उपयोग:

तो जो भी दावेदार हैं कि हम शक्तिपात करते हैं, वे कर सकते हैं, लेकिन वह शक्तिपात नहीं है, वह बहुत गहरे में किसी तरह का सम्मोहन है, हिप्नोसिस है; बहुत गहरे में कुछ मैग्नेटिक फोर्सेस का उपयोग है, जिनको वे सीख गए हैं। और जरूरी नहीं है कि वे भी जानते हों। उसके पूरे विज्ञान को जानते हों, यह भी जरूरी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं है कि वह दावा जो है जानकर कर रहे हों कि झूठा है। इतने जाल हैं!

अब एक मदारी को तुम सड़क पर देखते हो कि वह एक लड़के को लिटाए हुए है, चादर बिछा दी है, उसकी छाती पर एक ताबीज रख दी है। अब उस लड़के से वह पूछ रहा है कि फलां आदमी के नोट का नंबर क्या है? वह नोट का नंबर बता रहा है। फलां आदमी की घड़ी में कितना बजा है? वह घड़ी बता रहा है। पूछ रहा है कान में, इस आदमी का नाम क्या है? वह लड़का नाम बता रहा है। और वह सब देखनेवालों को सिद्ध हुआ जा रहा है कि ताबीज में कुछ खूबी है। वह ताबीज उठा लेता है और पूछता है, इस आदमी की घड़ी में क्या है? वह लड़का पड़ा रह जाता है, वह जवाब नहीं दे पाता। ताबीज वह बेच लेता है—छह आने, आठ आने में वह ताबीज बेच लेता है। तुम ताबीज घर पर ले जाकर छाती पर रखकर जिंदगी भर बैठे रहो, उससे कुछ नहीं होगा। अच्छा ऐसा नहीं है.. .नहीं, ऐसा नहीं है कि वह लड़के को सिखाया हुआ है उसने; ऐसा नहीं है कि वह कहता है कि जब ताबीज उठा लूं तो मत बोलना। नहीं, ऐसा नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि ताबीज में कुछ गुण है। लेकिन तरकीब और गहरी है। और वह खयाल में आए तो बहुत हैरानी होती है।

इसको कहते हैं पोस्ट हिप्‍नोटिक सजेशन। अगर एक व्यक्ति को हम बेहोश करें, और बेहोश करके उसको कहें कि आंख खोलकर इस ताबीज को ठीक से देख लो! और जब भी यह ताबीज मैं तुम्हारी छाती पर रखूंगा और कहूंगा—एक…… दो….. तीन….. .तुम तत्काल फिर से बेहोश हो जाओगे। यह बेहोशी में कहा गया सजेशन— जब भी इस ताबीज को मैं तुम्हारी छाती पर रखूंगा, तुम पुन: बेहोश हो जाओगे। और उस बेहोशी की हालत में इसकी बहुत संभावना है कि वह नोट का नंबर पढ़ा जा सकता है, घड़ी देखी जा सकती है। इसमें कुछ झूठ नहीं है। जैसे ही वह चादर रखता है और लड़के के ऊपर ताबीज रखता है, वह लड़का हिप्नोटिक ट्रांस में चला गया, वह सम्मोहित स्थिति में चला गया। अब वह तुम्हारे नोट का नंबर बता पाता है। यह कुछ सिखाया हुआ नहीं है वह। उस लड़के को भी पता नहीं है कि क्या हो रहा है।

इस आदमी को भी पता नहीं है कि भीतर क्या हो रहा है। इस आदमी को एक ट्रिक मालूम है कि एक आदमी को बेहोश करके अगर कोई भी चीज बताकर कह दिया जाए कि पुन: जब भी यह चीज तुम्हारे ऊपर रखी जाएगी, तुम बेहोश हो जाओगे, तो वह बेहोश हो जाता है, इतना इसको भी पता है। इसके क्या भीतर मैकेनिज्म है, इसका डाइनामिक्स क्या है, इन दोनों को किसी को कोई पता नहीं है। क्योंकि जिसको उतना डाइनामिक्स पता हो, वह सड़क पर मदारी का काम नहीं करता है। उतना डाइनामिक्स बहुत बड़ी बात है। मन का ही है, लेकिन वह भी बहुत बड़ी बात है। उतना डाइनामिक्स किसी फ्रायड को भी पूरा पता नहीं है, उतना डाइनामिक्स किसी कं को भी पूरा पता नहीं है, उतना डाइनामिक्स बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक को भी अभी पूरा पता नहीं है कि हो क्या रहा है। लेकिन इसको एक ट्रिक पता है, उतनी ट्रिक से यह काम कर लेता है।

तुम्हें बटन दबाने के लिए यह जानना थोड़े ही जरूरी है कि बिजली क्या है! और बटन दबाने के लिए यह भी जानना जरूरी नहीं है कि बिजली कैसे पैदा होती है। और यह भी जानना जरूरी नहीं है कि बिजली की पूरी इंजीनियरिग क्या है। तुम बटन दबाते हो, बिजली जल जाती है। तुम्हें एक ट्रिक पता है, हर आदमी दबाकर बिजली जला लेता है।

ऐसे ही ट्रिक उसको पता है कि यह ताबीज रखने से और यह—यह करने से यह हो जाता है, वह उतना कर ले रहा है। आप ताबीज खरीदकर ले जाओगे, वह ताबीज बिलकुल बेमानी है। क्योंकि वह सिर्फ उसी के लिए सार्थक है जिसके ऊपर पहले उसका प्रयोग किया गया हो सम्मोहित अवस्था में। आप अपनी छाती पर रखकर बैठे रहो, कुछ भी नहीं होगा। तब लगेगा कि हम ही कुछ गलत हैं, ताबीज तो ठीक; क्योंकि ताबीज को तो काम करते देखा है।

तो बहुत तरह की मिथ्या, झूठी…….मिथ्या और झूठी इस अर्थों में नहीं कि वे कुछ भी नहीं हैं। मिथ्या और झूठी इस अर्थों में कि वे स्‍प्रिचुअल नहीं हैं, आध्यात्मिक नहीं हैं, सिर्फ मानसिक घटनाएं हैं। और सब चीजों की मानसिक पैरेलल घटनाएं संभव हैं—सभी चीजों की। तो वे पैदा की जा सकती हैं; दूसरा आदमी पैदा कर सकता है। और दावेदार उतना ही कर सकता है। हां, गैर—दावेदार ज्यादा कर सकता है।

मात्र उपस्थिति से घटनेवाला शक्तिपात:

पर गैर—दावेदार का मतलब है. वह कहकर नहीं जाता कि मैं शक्तिपात कर रहा हूं! मैं तुममें ऐसा कर दूंगा, मैं तुममें ऐसा कर दूंगा! यह हो जाएगा तुममें, मैं करनेवाला हूं! और जब हो जाएगा तो तुम मुझसे बंधे रह जाओगे! वह इस सबका कोई सवाल नहीं है। वह एक शून्य की भांति हो गया है वैसा आदमी। तुम उसके पास भी जाते हो तो कुछ होना शुरू हो जाता है। यह उसको खयाल ही नहीं है कि यह हो रहा है।

एक बहुत पुरानी रोमन कहानी है कि एक बड़ा संत हुआ। और उसके चरित्र की सुगंध और उसके ज्ञान की किरणें देवताओं तक पहुंच गईं। और देवताओं ने आकर उससे कहा कि तुम कुछ वरदान मांग लो, तुम जो कहो, हम करने को तैयार हैं। लेकिन उस फकीर ने कहा कि जो होना था वह हो चुका है, और तुम मुझे मुश्किल में मत डालो। क्योंकि तुम कहते हो, मांगो! अगर मैं न मांगूं तो अशिष्टता होती है। और मांगने को मुझे कुछ बचा नहीं है; बल्कि जो मैंने कभी नहीं मांगा था, वह सब हो गया है। तो तुम मुझे क्षमा करो, इस झंझट में मुझे मत डालों, इस मांगने की कठिनाई मुझ पर पैदा मत करो। लेकिन वे देवता तो और भी……. क्योंकि अब तो यह सुगंध और भी जोर से उठी इस आदमी की, कि जो मांगने के ही बाहर हो गया है। उन्होंने कहा कि तब तो तुम कुछ मांग ही लो, और हम बिना दिए अब न जाएंगे।

उस आदमी ने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई! तो तुम्हीं कुछ दे दो; क्योंकि मैं क्या मांगूं मुझे सूझता नहीं; क्योंकि मेरी कोई मांग न रही, तुम्हीं कुछ दे दो, मैं ले लूंगा। तो उन देवताओं ने कहा कि हम तुम्हें ऐसी शक्ति दिए देते हैं कि तुम जिसे छुओगे, वह मुर्दा भी होगा तो जिंदा हो जाएगा; बीमार होगा तो बीमारी ठीक हो जाएगी। उसने कहा कि यह तो बड़ा काम हो जाएगा। यह बड़ा काम हो जाएगा। और इससे जो ठीक होगा वह तो ठीक है, मेरा क्या होगा? मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाऊंगा। क्योंकि मुझको यह लगने लगेगा—मैं ठीक कर रहा हूं। तो यह जो बीमार ठीक हो जाएगा, वह तो ठीक है, लेकिन मैं बीमार हो जाऊंगा। उसने कहा कि मेरे बाबत क्या खयाल है? क्योंकि एक मुर्दे को मैं छुऊंगा, वह जिंदा हो जाएगा, तो मुझे लगेगा—मैं जिंदा कर रहा हूं। तो वह तो जिंदा हो जाएगा, मैं मर जाऊंगा। मुझे मत मारो, मुझ पर कृपा करो! ऐसा कुछ करो कि मुझे पता न चले।

तो उन देवताओं ने कहा, अच्छा हम ऐसा कुछ करते हैं तुम्हारी छाया जहां पड़ेगी, वहां कोई बीमार होगा तो ठीक हो जाएगा, कोई मुर्दा होगा तो जिंदा हो जाएगा। उसने कहा, यह ठीक है। और इतनी और कृपा करो कि मेरी गर्दन पीछे की तरफ न मुड़ सके। नहीं तो छाया से भी दिक्कत हो जाएगी— अपनी छाया! तो मेरी गर्दन अब पीछे न मुड़े।

वह वरदान पूरा हो गया, उस फकीर की गर्दन मुड़नी बंद हो गई। वह गांव—गांव चलता रहता। अगर कुम्हलाए हुए फूल पर उसकी छाया पड़ जाती तो वह खिल जाता, लेकिन तब तक वह जा चुका होता। क्योंकि उसकी गर्दन पीछे मुड़ सकती नहीं थी; उसे कभी पता नहीं चला। और जब वह मरा तो उसने देवताओं से पूछा कि तुमने जो दिया था, वह हुआ भी कि नहीं? क्योंकि हमको पता नहीं चल पाया।

तो मुझे लगता है—यह कहानी प्रीतिकर है—तो घटना तो घटती है, ऐसी ही घटती है, पर वह छाया से घटती है और गर्दन भी नहीं मुड़ती। पर शून्य होना चाहिए उसकी शर्त, नहीं तो गर्दन मुड़ जाएगी। अगर जरा सा भी अहंकार शेष रहा तो पीछे लौटकर देखने का मन होगा, कि हुआ कि नहीं हुआ! और अगर हो गया तो फिर मैंने किया है। उसे बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। तो शून्य जहां घटता है वहां आसपास शक्तिपात जैसी बहुत साधारण बातें हैं, बहुत बड़ी बातें नहीं हैं, वे ऐसे ही घटने लगती हैं जैसे सूरज निकलता है, फूल खिलने लगते है—बस ऐसे ही; नदी बहती है, जड़ों को पानी मिल जाता है—बस ऐसे ही। न नदी दावा करती है, न बड़े बोर्ड लगाती है रास्ते पर कि मैंने इतने झाड़ों को पानी दे दिया, इतनो में फूल खिल रहे हैं। यह सब कुछ.. .कोई सवाल नहीं है। यह नदी को इसका पता ही नहीं चलता। जब तक फूल खिलते हैं, तब तक नदी सागर पहुंच गई होती है। तो कहां फुर्सत? रुककर देखने की भी सुविधा कहां? पीछे लौटकर मुड़ने का उपाय कहां?

तो ऐसी स्थिति में जो घटता है, उसका तो आध्यात्मिक मूल्य है। लेकिन जहां अहंकार है, कर्ता है; जहां कोई कह रहा है मैं कर रहा हूं; वहां फिर साइकिक फिनामिनन है, फिर मनस की घटनाएं हैं, और वह सम्मोहन से ज्यादा नहीं है।

मेरे ध्यान में सम्मोहन का प्रयोग:

प्रश्न: ओशो आपकी जो ध्यान की नयी विधि है? उसमें भी क्या सम्मोहन व भ्रम की संभावना नहीं है? कत से लोगों को कुछ भी नहीं हो रहा है? तो क्या ऐसा है कि वे सच्चे रास्ते पर नहीं हैं? और जिनको कत सी प्रक्रियाएं चल रही है? क्या वे सच्चे रास्ते पर ही हैं? या उनमें भी कोई जान— बूझकर ही कर रहे है?ं ऐसी बात नहीं है क्या?

 

समें दो—तीन बातें समझनी चाहिए। असल में, सम्मोहन एक विज्ञान है। और अगर सम्मोहन का तुम्हें धोखा देने के लिए उपयोग किया जाए, तो किया जा सकता है। लेकिन सम्मोहन का उपयोग तुम्हारी सहायता के लिए भी किया जा सकता है। और सभी विज्ञान दोधारी तलवार हैं। अणु की शक्ति है, वह खेत में गेहूं भी पैदा कर सकती है, और गेहूं खानेवाले को भी दुनिया से मिटा सकती है—वे दोनों काम हो सकते हैं, दोनों ही अणु की शक्ति हैं। यह बिजली घर में हवा भी दे रही है, और इसका तुम्हें शॉक लगे तो तुम्हारे प्राण भी ले सकती है। लेकिन इससे तुम बिजली को कभी जिम्मेवार न ठहरा पाओगे।

तो सम्मोहन, अगर कोई अहंकार सम्मोहन का उपयोग करे— और दूसरे को दबाने, और दूसरे को मिटाने, और दूसरे में कुछ इल्‍यूजंस और सपने पैदा करने के लिए—तो किया जा सकता है। लेकिन इससे उलटा भी किया जा सकता है। सम्मोहन तो सिर्फ तटस्थ शक्ति है, वह तो एक साइंस है। उससे तुम्हारे भीतर जो सपने चल रहे हैं, उनको तोड्ने का भी काम किया जा सकता है; और तुम्हारे जो इल्‍यूजंस डीप रूटेड हैं, उनको भी उखाड़ा जा सकता है।

तो मेरी जो प्रक्रिया है, उसके प्राथमिक चरण सम्मोहन के ही हैं। लेकिन उसके साथ एक बुनियादी तत्व और जुड़ा हुआ है जो तुम्हारी रक्षा करेगा और जो तुम्हें सम्मोहित न होने देगा— और वह है साक्षी— भाव। बस सम्मोहन में और ध्यान में उतना ही फर्क है। लेकिन वह बहुत बड़ा फर्क है। जब तुम्हें कोई सम्मोहित करता है तो वह तुम्हें मूर्च्छित करना चाहता है, क्योंकि तुम मूर्च्छित हो जाओ तो ही फिर तुम्हारे साथ कुछ किया जा सकता है। जब मैं कह रहा हूं कि ध्यान में सम्मोहन का उपयोग है लेकिन तुम साक्षी रहो पीछे, तुम पूरे समय जागे रहो, जो हो रहा है उसे जानते रहो, तब तुम्हारे साथ कुछ भी तुम्हारे विपरीत नहीं किया जा सकता; तुम सदा मौजूद हो। सम्मोहन के वही सुझाव तुम्हें बेहोश करने के काम में लाए जा सकते हैं, वही सुझाव तुम्हारी बेहोशी तोड्ने के भी काम में लाए जा सकते हैं।

तो जिसे मैं ध्यान कहता हूं उसके प्राथमिक चरण सब के सब सम्मोहन के हैं। और होंगे ही, क्योंकि तुम्हारी कोई भी यात्रा आत्मा की तरफ तुम्हारे मन से ही शुरू होगी। क्योंकि तुम मन में हो, वह तुम्हारी जगह है जहां तुम हो। वहीं से तो यात्रा शुरू होगी। लेकिन वह यात्रा दो तरह की हो सकती है या तो तुम्हें मन के भीतर एक चकरीले पथ पर डाल दे कि तुम मन के भीतर चक्कर लगाने लगो, कोल्हू के बैल की तरह चलने लगो। तब यात्रा तो बहुत होगी, लेकिन मन के बाहर तुम न निकल पाओगे। वह यात्रा ऐसी भी हो सकती है. तुम्हें मन के किनारे पर ले जाए और मन के बाहर छलांग लगाने की जगह पर पहुंचा दे। दोनों हालत में तुम्हारे प्राथमिक चरण मन के भीतर ही पड़ेंगे।

तो सम्मोहन का भी प्राथमिक रूप वही है जो ध्यान का है, लेकिन अंतिम रूप भिन्न है, और दोनों का लक्ष्य भिन्न है। और दोनों की प्रक्रिया में एक बुनियादी तत्व भिन्न है। सम्मोहन चाहता है तत्काल मूर्च्छा—नींद, सो जाओ। इसलिए सम्मोहन का सारा सुझाव नींद से शुरू होगा, तंद्रा से शुरू होगा—सोओ, स्लीप, फिर बाकी कुछ होगा। ध्यान का सारा सुझाव— जागो, अवेक, वहां से होगा और पीछे साक्षी पर जोर रहेगा। क्योंकि तुम्हारा साक्षी जगा हुआ है तो तुम पर कोई भी बाहरी प्रभाव नहीं डाले जा सकते। और अगर तुम्हारे भीतर जो भी हो रहा है, वह भी तुम्हारे जानते हुए हो रहा है…….तो एक तो यह खयाल में लेना जरूरी है।

ध्यान—प्रयोग से बचने की तरकीबें:

और दूसरी बात यह खयाल में लेना जरूरी है कि जिनको हो रहा है और जिनको नहीं हो रहा, उनमें जो फर्क है, वह इतना ही है कि जिनको नहीं हो रहा है उनका संकल्प थोड़ा क्षीण है— भयभीत, डरे हुए; कहीं हो न जाए, इससे भी डरे हुए। अब यह आदमी कितना अजीब है! करने आए हैं, आए इसीलिए हैं कि ध्यान हो जाए। लेकिन अब डर भी रहे हैं कि कहीं हो न जाए! और जिनको हो रहा है उनको देखकर, जिनको नहीं हो रहा है उनके मन में ऐसा लगेगा कहीं ये ऐसे ही तो नहीं कर रहे हैं! कहीं बनावटी तो नहीं कर रहे हैं!

ये डिफेंस मेजर हैं; ये उनके सुरक्षा के उपाय हैं। इस भांति वे कह रहे हैं कि अरे, हम कोई इतने कमजोर नहीं कि हमको हो जाए! ये कमजोर लोग हैं जिनको हो रहा है। इससे वे अपने अहंकार को तृप्ति भी दे रहे हैं। और यह नहीं जान पा रहे हैं कि यह कमजोरों को नहीं होता, यह शक्तिशाली को होता है; और यह भी नहीं जान पा रहे हैं कि यह बुद्धिहीनों को नहीं होता बुद्धिमानों को होता है। एक ईडियट को न तो सम्मोहित किया जा सकता है, न ध्यान में ले जाया जा सकता है, दोनों ही नहीं किया जा सकता। एक जड़बुद्धि आदमी को सम्मोहित भी नहीं किया जा सकता। एक पागल आदमी को कोई सम्मोहित कर दे तब तुम्हें पता चलेगा कि नहीं कर सकता। जितनी प्रतिभा का आदमी हो, उतनी जल्दी सम्मोहित हो जाएगा; और जितना प्रतिभाहीन हो, उतनी देर लग जाएगी। लेकिन वह प्रतिभाहीन अपनी सुरक्षा क्या करे? वह संकल्पहीन अपनी सुरक्षा क्या करे? वह कहेगा कि अरे, ऐसा मालूम होता है कि इसमें कुछ लोग तो बनकर कर रहे हैं, और कुछ जिनको हो रहा है, ये कमजोर शक्ति के लोग हैं, तो इनकी कोई अपनी शक्ति नहीं है; इन पर प्रभाव दूसरे का पड़ गया है; ये करने लगे हैं।

अभी एक आदमी अमृतसर में मुझे मिलने आए। डाक्टर हैं, पढ़े—लिखे आदमी हैं, के आदमी हैं, रिटायर्ड हैं। वे मुझसे तीसरे दिन माफी मांगने आए। उन्होंने मुझसे कहा, मैं सिर्फ आपसे माफी मांगने आया हूं क्योंकि मेरे मन में एक पाप उठा था उसकी मुझे क्षमा चाहिए। क्या हुआ, मैंने उनसे पूछा। उन्होंने कहा, पहले दिन जब मैं ध्यान करने आया तो मुझे लगा कि आपने दस—पांच आदमी अपने खड़े कर दिए हैं, जो बन—ठनकर कुछ भी कर रहे हैं। और कुछ कमजोर लोग हैं, वह उनकी देखा—देखी वे भी करने लगे हैं। तो ऐसा मुझे पहले दिन लगा। पर मैंने कहा, दूसरे दिन भी मैं देखूं तो जाकर कि अब क्या हुआ! लेकिन दूसरे दिन मैंने अपने दो—चार मित्र देखे, जिनको हो रहा था, वे सब डाक्टर हैं। तो मैं उनके घर गया। मैंने कहा कि भई, अब मैं यह नहीं मान सकता कि तुमको कोई उन्होंने तैयार किया होगा, लेकिन तुम बनकर कर रहे थे कि तुमको हो रहा था? तो उन्होंने कहा कि बनकर करने का क्या कारण है? कल तो हमको भी शक था कि कुछ लोग बनकर तो नहीं कर रहे! लेकिन आज तो हमें हुआ।

तो वह डाक्टर, तीसरे दिन उसको हुआ, तो वह तीसरे दिन मुझसे क्षमा मांगने आया। उसने कहा, जब आज मुझे हुआ तभी मेरी पूरी भ्रांति गई। नहीं तो मैं मान ही नहीं सकता था, मुझे यह भी शक हुआ कि पता नहीं, ये डाक्टर भी मिल गए हों! आजकल कुछ पक्का तो है ही नहीं कि कौन क्या करने लगे! पता नहीं, ये भी मिल गए हों! अपने पहचान के तो हैं, लेकिन क्या कहा जा सकता है? या किसी प्रभाव में आ गए हों, हिम्मोटाइब्द हो गए हों, या कुछ हो गया हो! लेकिन आज मुझे हुआ है; और आज जब मैं घर गया—तो उसका छोटा भाई भी डाक्टर है—तो उसने कहा कि देख आए आप वह खेल, वहां आपको कुछ हुआ कि नहीं? तो मैंने उससे कहा कि माफ कर भाई, अब मैं न कह सकूंगा खेल; दो दिन मैंने भी मजाक उड़ाई, लेकिन आज मुझे भी हुआ है। लेकिन मैं तुझ पर नाराज भी नहीं होऊंगा; क्योंकि यही तो मैं भी सोच रहा था, जो तू सोच रहा है। और उस आदमी ने कहा कि मैं माफी मांगने आया हूं क्योंकि मेरे मन में ऐसा खयाल उठा।

ये हमारे सुरक्षा के उपाय हैं। जिनको नहीं होगा वे सुरक्षा का इंतजाम करेंगे। लेकिन जिनको नहीं हो रहा है उनमें और होनेवालों में बहुत इंच भर का ही फासला है, सिर्फ संकल्प की थोड़ी सी कमी है। अगर वे थोड़ी सी हिम्मत जुटाएं और संकल्प करें और संकोच थोड़ा छोड़ सकें

अब आज ही एक महिला ने मुझे आकर कहा कि किसी महिला ने उनको फोन किया है कि रजनीश जी के इस प्रयोग में तो कोई नंगा हो जाता है, कुछ हो जाता है। तो भले घर की महिलाएं तो फिर आ नहीं सकेगी! तो भले घर की महिलाओं का क्या होगा?

अब किसी को यह भी वहम होता है कि हम भले घर की महिला हैं, और कोई बुरे घर की महिला है! तो बुरे घर की महिला तो जा सकेगी, भले घर की महिला का क्या होगा? अब ये सब डिफेंस मेजर हैं। और वह भले घर की महिला अपने को भला मानकर घर रोक लेगी। और भले घर की महिला कैसी है? अगर एक आदमी नग्न हो रहा है तो जिस महिला को भी अड़चन हो रही है, वह बुरे घर की महिला है। उसे प्रयोजन क्या है?

बिना किए निर्णय मत लो:

तो हमारा मन बहुत अजीब—अजीब इंतजाम करता है, वह कहता है कि ये सब गड़बड़ बातें हो रही हैं, यह अपने को नहीं होनेवाला, हम कोई कमजोर थोड़े ही हैं, हम ताकतवर हैं। लेकिन ताकतवर होते तो हो गया होता; बुद्धिमान होते तो हो गया होता। क्योंकि बुद्धिमान आदमी का पहला लक्षण तो यह है कि जब तक वह खुद न कर ले तब तक वह कोई निर्णय न लेगा। वह यह भी न कहेगा कि दूसरा झूठा कर रहा है। क्योंकि मैं कौन हूं यह निर्णय लेनेवाला? और दूसरे के संबंध में झूठे होने का निर्णय बहुत ग्लानिपूर्ण है। दूसरे के संबंध में कि वह झूठा कर रहा है…… .हम कौन हैं? और मैं कैसे निर्णय करूं कि दूसरा झूठा कर रहा है? ये इसी तरह के गलत निर्णय ने तो बड़ी दिक्कत डाली है।

जीसस को लोगों ने थोड़े ही माना कि इसको कुछ हुआ है, नहीं तो सूली पर न लटकाएं। वे समझे कि सब…… आदमी गड़बड़ है, और कुछ भी कह रहा है। महावीर को पत्थर न मारें लोग। उनको लग रहा है कि यह गड़बड़ आदमी है, नंगा खड़ा हो गया है, इसको कुछ हुआ थोड़े ही है।

दूसरे आदमी को भीतर क्या हो रहा है, हम निर्णायक कहां हैं? कैसे हैं? तो जब तक मैं न करके देख लूं तब तक निर्णय न लेना बुद्धिमत्ता का लक्षण है। और अगर मुझे नहीं हो रहा है, तो जो प्रयोग कहा जा रहा है, उसको मैं पूरा कर रहा हूं न, इसकी थोड़ी जांच कर लू—कि मैं उसे पूरा कर रहा हूं? अगर मैं पूरा नहीं कर रहा हूं तो होगा कैसे?

इधर पोरबंदर….. .मैं कह रहा था तो एक… आखिरी दिन मैंने कहा कि अगर किसी ने सौ डिग्री ताकत नहीं लगाई निन्यानबे डिग्री लगाई, तो भी चूक जाएगा। तो एक मित्र ने आकर मुझे कहा कि मैं तो धीरे— धीरे कर रहा था, मैंने कहा थोड़ी देर में होगा। लेकिन मुझे खयाल में आया कि वह तो कभी नहीं होगा, सौ डिग्री होनी ही चाहिए। तो आज मैंने पूरी ताकत लगाई तो हो गया है। मैं तो सोचता था कि मैं धीरे— धीरे करता रहूंगा, होगा।

धीरे— धीरे क्यों कर रहे थे? नहीं करो, ठीक है। धीरे— धीरे क्यों कर रहे हो?

वह धीरे— धीरे करने में हम दोनों नाव पर सवार रहना चाहते हैं। और दो नावों पर सवार यात्री बहुत कठिनाई में पड़ जाता है। एक ही नाव अच्छी—नरक जाए तो भी एक तो हो। लेकिन स्वर्ग की नाव पर भी एक पैर रखे हैं, नरक की नाव पर भी एक पैर रखे हैं। असल में, संदिग्ध है मन कि कहां जाना है। और डर है कि पता नहीं नरक में सुख मिलेगा कि स्वर्ग में सुख मिलेगा। दोनों पर पैर रखे खड़े हैं। इसमें दोनों जगह चूक सकती हैं, और नदी में प्राणांत हो सकते हैं। ऐसा हमारा मन है पूरे वक्त—जाएंगे भी, फिर वहां रोक भी लेंगे। और नुकसान होता है।

पूरा प्रयोग करो! और दूसरे के बाबत निर्णय मत लो। और पूरा प्रयोग जो भी करेगा उसे होना सुनिश्चित है, क्योंकि यह विज्ञान की बात कह रहा हूं मैं, अब मैं कोई धर्म की बात नहीं कह रहा हूं। और यह बिलकुल ही साइंस का मामला है कि अगर इसमें पूरा हुआ तो होना निश्चित है, इसमें कोई और उपाय नहीं है। क्योंकि परमात्मा को मैं शक्ति कह रहा हूं। उधर कोई पक्षपात, और कोई प्रार्थना—व्रार्थना करने से, कि अच्छे कुल में पैदा हुए हैं, और फलां घर में पैदा हुए हैं, यह सब कुछ चलेगा नहीं, कि भारत भूमि में पैदा हो गए हैं तो ऐसे ही पार हो जाएंगे, ऐसे नहीं चलेगा।

बिलकुल विज्ञान की बात है। उसको जो पूरा करेगा, उसको परमात्मा भी अगर खिलाफ हो जाए, तो रोक नहीं सकता। और न भी हो परमात्मा, तो कोई सवाल नहीं है। पूरा कर रहे हो कि नहीं, इसकी फिकर करो। और सदा निर्णय भीतर के अनुभव से लो, बाहर से मत लो। अन्यथा भूल हो सकती है।


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–197

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क्रांति की कीमिया: स्‍वीकार—(प्रवचन—दसवां)

अध्‍याय—17

सूत्र—

ओंम तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा ।। 23।।

तस्मादोमित्युदह्रत्य यज्ञदानतप:क्रिया:।

प्रवर्तन्ते विधानोक्‍ता: सततं ब्रह्मवादिनाम् ।। 24।।

तदित्यनीभसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया:।

दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्तेमोक्षकांक्षिभि:।। 25।।

और हे अर्जुन, ओम तत् सत— ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए हैं। इसलिए ब्रह्मवादिन पुरुषों की शास्त्र— विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तय— रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे हम

परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं। और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ तय— रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की इच्‍छा वाले पुरूषों द्वारा की जाती हैं।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : क्या क्षण— क्षण जीने से परस्पर—तंत्रता का बोध शुरू होता है?

क्षण— क्षण जीने का अर्थ है, अतीत से मुक्त होकर जीना, भविष्य से भी मुक्त होकर जीना, जैसे न तो कोई अतीत था, न कोई भविष्य है। बस, यही क्षण सब कुछ है। इस क्षण के न तो पीछे की तरफ मन जाए, न आगे की तरफ, इस क्षण में ही जागकर जीए; इस क्षण से ज्यादा कुछ भी नहीं है; यही क्षण सारा आकाश, यही क्षण सारा जीवन। तो निश्चित ही परस्पर—तंत्रता का बोध होगा। क्योंकि अतीत जहां नहीं है, वहां अहंकार के खड़े होने का उपाय नहीं।

अतीत का जोड़ ही तो अहंकार है, जो तुम्हें तोड़ता है, जो तुम्हें कहता है, तुम अलग हो। और जहां भविष्य नहीं, कामना नहीं, आकांक्षा नहीं, जहां कोई दौड़ नहीं, कोई महत्वाकांक्षा नहीं, वहा तुम चाहो सपने में भी, तो भी तो अहंकार को खड़ा नहीं कर सकते। तो अहंकार दो सहारों पर खड़ा है, उसकी दो टांगें हैं। एक तो है अतीत, जो तुम थे, जो तुमने किया, जो हुआ। उस सब का संग्रह है तुम्हारी स्मृति; वह एक पैर। और एक, जो तुम होना चाहते हो, जो तुम्हारी योजना है होने की, जो तुम चाहोगे कि हो— भविष्य, कल्पना, सपना—वह दूसरा पैर है अहंकार का।

वर्तमान में तो अहंकार को खड़े होने की जगह भी नहीं है। वर्तमान तो इतना भरा है जीवन से कि वहां अहंकार कहां पैर जमा पाएगा! वर्तमान तो इतना प्रकाशित है जीवन से कि वहां अहंकार। के अंधेरे के लिए जगह खोजनी मुश्किल है।

और वर्तमान की गली कितनी संकरी है, एक पल! पल का भी लाखवां हिस्सा तुम्हारे हाथ में पड़ता है। जब वह चला जाता है, तब दूसरा हिस्सा हाथ में आता है। अगर तुम उस पल में जीने की . कला सीख जाओ। सारे धर्म वही सिखाते हैं। इसलिए अचाह। कृष्ण कहते हैं, चाहो मत, मांगा मत। क्योंकि माग और चाह भविष्य को पैदा करती है। इसलिए अकर्ता भाव। क्योंकि तुमने क्या किया अतीत में, तुम कौन हो, तुम्हारा तादात्म्य फिर अहंकार को पैदा करता है। ऐसे ही तो तुम च्युत हो जाते हो इस क्षण से, जो मौजूद है अपनी विराटता में।

जैसे ही अहंकार नहीं होता, वैसे ही तुम्हें पता चलता है, तुम अलग और पृथक नहीं हो, जुड़े हो, जीवन एक संयुक्त घटना है। दूसरा तुम से कितना ही भिन्न मालूम होता हो, उसी सागर की लहर है, जिसकी लहर तुम हो। तुम छोटी लहर हो या बड़ी लहर हो, दूसरा छोटी लहर है य’ बड़ी लहर है, तुम पूरब की तरफ जा रहे हो, दूसरी लहर पश्चिम की तरफ जा रही है, कोई फर्क नहीं पडता। सब एक ही सागर का खेल है।

वर्तमान के क्षण मैं जागे हुए व्यक्ति को मैं तो दिखाई नहीं। पड़ता; यह विराट एक ही दिखाई पड़ता है। उस एक को ही हम ब्रह्म कहते हैं।

ब्रह्म का अर्थ है, जिसका विस्तार है, जो फैला हुआ है, जो सब में विस्तीर्ण है, जो सब में फैला है। पत्थर—पहाड़ से लेकर परम चैतन्य की घटना तक जिस एक का ही विस्तार है। क्षुद्र में भी, विराट में भी, सब में जो मौजूद है।

उस एक के दिखाई पड़ते ही अहंकार तो मिट जाता है। तो कौन होगा स्वतंत्र, कौन होगा परतंत्र! इसलिए एक अनूठी अनुभूति पैदा। होती है, परस्पर—तंत्रता, इटर—डिपेंडेंस।

यह शब्द भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस शब्द को भी हमें उन्हीं दो शब्दों के आधार पर बनाना पड़ रहा है, जो गलत हो गए हैं। लेकिन इससे थोड़ा एहसास होगा कि क्या मतलब है।

परस्पर—तंत्रता का इतना ही अर्थ है कि सब जुड़ा हुआ है, खंड—खंड नहीं है, सब अखंड है। दो नहीं है, अनेक नहीं है, एक है। नाम—रूप के भेद हैं, वस्तुत: कोई भी भेद नहीं है। परिधि पर भेद है, भीतर केंद्र पर कोई भेद नहीं है, अभेद है।

क्या इससे यह अर्थ हुआ कि तुम्हारी निजता मिट जाएगी? यहीं धर्म का सबसे बड़ा विरोधाभास, सबसे बडा पैराडाक्स है।

जब तक तुम अहंकार से भरे हो, तुम्हारी निजता पैदा ही नहीं होती। जब अहंकार शून्य हो जाता है, तब तुम्हारी निजता पैदा होती है। लेकिन यह निजता अस्मिता नहीं है। यह निजता बड़ी अनूठी है। इस निजता में मेरे होने का कोई भी भाव नहीं है। है तो वही, लेकिन एक खास ढंग से मुझ में है। और एक खास ढंग से तुम में है। और एक खास ढंग से वृक्ष में है। और एक और खास ढंग से आकाश में है। सब ढंग उसके हैं। लेकिन ढंगों में भेद है और हर ढंग अद्वितीय है, हर ढंग बेजोड़ है।

ब्रह्म पुनरुक्ति जानता ही नहीं। उसने वही गीत की कड़ी फिर कभी नहीं गुनगुनाई, जो एक दफा गुनगुना ली। वह एक—सी दो शक्लें पैदा नहीं करता, एक से दो पत्ते नहीं बनाता, एक से दो कंकड़ नहीं बनाता।

सब बेजोड़ है, हर चीज अद्वितीय है। निजता का अर्थ है, यह अद्वितीयता। लेकिन यह अद्वितीयता तुम्हारी नहीं है। अगर तुम्हारी है, तो अहंकार है। यह अद्वितीयता ब्रह्म की है, उसकी है। इसलिए तुम्हारा इसमें क्या लेना—देना!

अब यही समझ लेने जैसा है, निजता तुम्हारी नहीं है। क्योंकि निजता शब्द से तो ऐसा लगता है कि तुम्हारी। तुम से प्रकट हो रही है, तुम्हारी बांसुरी से गाया जा रहा है यह गीत, लेकिन गीत तुम्हारा नहीं है। यद्यपि किसी दूसरी बांसुरी से यह गीत नहीं गाया जा सकता, यह भी सच है। इसलिए तुम्हारा भी इसमें कुछ है—बांसुरी का ढंग।

यह बांस की जो पोगरी है, यह तुम्हारी है। लेकिन इसमें गीत उसका है। इसलिए अहंकार का कोई प्रयोजन नहीं है। वह गीत बंद कर दे, बांसुरी समाप्त, बांस की पोंगरी पड़ी रह जाएगी। बांसुरी समाप्त, पोगरी तो बांसुरी तभी होती है, जब उसका गीत बहता रहता है।

वही तुम से बह रहा है। बहने वाला एक है। कंठ अनेक हैं, वही गा रहा है। बांसुरियां बहुत हैं। कृष्ण के होंठ पर ही रखी हैं सब बांसुरियां। गाने वाला एक, पर गीत बड़े—बडे अनेक भिन्न रूपों में पैदा हो रहा है। हर गीत की निजता है, खूबी है, अद्वितीयता है। पर उस अद्वितीयता में भी उसी का गुणगान है।

जब हम कहते हैं निजता, तो उस निजता में भी उसकी ही महिमा का स्मरण है, तुम्हारी महिमा का नहीं। अगर तुम्हें अपनी महिमा खयाल आ गई, तो तुम टूट गए, तो तुम्हारा संबंध गीत से टूट गया; तुम बांस की पोंगरी रह गए। और तुमने अगर यह अकड़ समझ ली कि यह गीत चूंकि किसी और से नहीं गाया जा सकता, क्योंकि ऐसी कोई बांसुरी नहीं है, इसलिए यह गीत मेरा है, तब तुम भटक गए।

अगर तुमने यह जाना कि खूबी बांस की पोंगरी की विशेषता में है, लेकिन वह पोगरी भी उसकी ही बनाई हुई है, वह पोंगरी भी उसी की और गीत गाने वाला भी वही, मैं बीच में कौन हूं? जिस दिन तुम अपने और परमात्मा के बीच से हट जाते हो, निजता का आविर्भाव होता है, तुम बड़े अद्वितीय हो जाते हो।

कहां खोजोगे बुद्ध जैसा पुरुष? कहां खोजोगे महावीर? कहां खोजोगे कृष्ण? कोई मुकाबला नहीं है। एकदम अनूठे हैं। कोई मार्ग नहीं है इन जैसा व्यक्ति दुबारा खोज लेने का। इसलिए तो सदियों तक हम इन्हें भूल नहीं पाते, क्योंकि अगर दूसरा कृष्ण पैदा हो जाता, तो पहले कृष्ण को हम कभी का भूल गए होते। क्या जरूरत थी? नए संस्करण को याद रखते, पुराने को भूल गए होते। लेकिन कोई दूसरा संस्करण पैदा ही नहीं होता। बस, पहला ही संस्करण है, वही आखिरी भी है। पुनरुक्ति होती नहीं, वही निजता है।

तुम दोहराए न जाओगे, यह निजता है, लेकिन तुम्हारी नहीं, यह भी ब्रह्म की ही निजता है। बस, एंफेसिस, जोर का फर्क है। अगर कहा मेरी—चूक गए। अगर कहा उसकी—पा गए।

और ऐसी निजता स्वतंत्रता से भरी हुई है। इसलिए यह भी ध्यान रखना कि जब मैं कहता हूं परस्पर—तंत्रता, तो उसका मतलब तुम गुलामी मत समझ लेना, परतंत्रता मत समझ लेना। परस्पर—तंत्रता में सिर्फ स्वच्छंदता छूट जाती है, स्वतंत्रता नहीं। वस्तुत: तुम और स्वतंत्र हो जाते हो। क्योंकि जितने ही तुम नियम के करीब आते हो, उतनी ही स्वतंत्रता प्रकट होने लगती है।

जितना ही तुम्हारा जीवन ब्रह्म से अनुशासित होता है, तुम उतना ही पाते हो, तुम मुक्त हो गए। इसलिए हम ब्रह्मज्ञानियों को मुक्त कहते हैं। कहने का क्या कारण है? क्या ब्रह्मज्ञानी मुक्त हो गया? अब उस पर कोई परतंत्रता न रही, कोई नियम न रहे?

नहीं, उलटी ही घटना घटी है। वह नियम के साथ इतना एकरूप हो गया कि अब नियम में और अपने में कोई फर्क न रहा। परतंत्र कौन करेगा?

तुम्हें परतंत्रता का पता चलता है, क्योंकि तुम नियम के विपरीत चलते हो। तुम रास्ते पर शराब पीकर चल रहे हो। आड़े—टेढ़े चलते हो, संतुलन खो गया है, गिर पड़ते हो; टांग टूट जाती है। तुम कहते हो, यह ग्रेविटेशन का नियम, यह जमीन में जो गुरुत्वाकर्षण है, इसने टांग तोड़ दी। न होता गुरुत्वाकर्षण, न हम गिरते।

ठीक है, अगर तुम चांद पर गिरो, तो टांग इतनी बुरी तरह से नहीं टूटेगी। अगर जमीन पर गिरो और आठ फ्रैक्चर होंगे, तो चांद पर एक होगा, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण आठ गुना कम है। लेकिन ध्यान रखना, आठ गुनी ऊंची छलांग भी लगती है वहां।

तो मूढ़ चाहे जमीन पर हो, चाहे चांद पर, आठ ही फ्रैस्वर होंगे। क्योंकि वहां शराब पीकर वह आठ गुना ऊंची छलांग से चलने लगेगा। चांद पर तुम किसी के मकान पर सीधी छलांग लगाकर निकल सकते हो। क्योंकि चांद छोटा है, उसका खिंचाव कम है।

जमीन पर तुम गिरते हो, तो तुम्हारे कहने में सच्चाई है कि गुरुत्वाकर्षण ने टांग तोड़ दी। लेकिन कितने लोग चल रहे हैं बिना शराब पीए, गुरुत्वाकर्षण उनकी टांग नहीं तोड़ रहा है। और जो लोग सदा सम्हलकर और होश से चलते हैं, उनकी तो कभी नहीं टांग तोडता। उनको पता ही नहीं चलता कि जमीन में कोई दुश्मनी है।

जो व्यक्ति नियम के साथ एक हो जाता है, उसकी परतंत्रता समाप्त हो जाती है। क्योंकि परतंत्रता का पता ही चलता था इसलिए कि नियम के विपरीत तुम जाना चाहते थे, वहीं अड़चन आ जाती थी, वहीं सीमा आ जाती थी। तुम्हें लगता था, यह तो परतंत्रता है।

ज्ञानपूर्ण व्यक्ति जीवन के नियम के साथ एक हो जाता है, तब कोई परतंत्रता नहीं बचती। वह स्वयं ही नियम हो गया, अब कोई विपरीत बचा नहीं। वह परिपूर्ण स्वतंत्र हो जाता है।

यह बात तुम्हें विरोधाभासी लगेगी, अनुशासित व्यक्ति ही मुक्त होता है। जितना बडा अनुशासन होता है जीवन में, उतनी बड़ी मुक्ति होती है। और जितना स्वच्छंद व्यक्ति होता है, उतना ही परतंत्र होता है। क्योंकि उतना ही नियम को तोड्ने जाता है।

नियम बहुत बडा है, तुमसे बड़ा है। तुम नहीं थे, तब भी था; तुम नहीं होओगे, तब भी होगा। नियम ही से तुम हो, उसकी ही एक तरंग। तुम नियम को कैसे तोड़ पाओगे? तुम ही टूटोगे। जब भी तुम पहाड़ से सिर टकराओगे, पहाड़ नहीं टूटेगा, तुम ही टूटोगे।

लेकिन सिर टकराने की जरूरत क्या थी? टकराकर तुम्हें अनुभव होगा कि यह तो बात परतंत्रता की हो गई। आदमी स्वतंत्र नहीं है। क्योंकि हम सिर टकराते हैं पहाड़ से और सिर टूट जाता है।

आदमी बिलकुल स्वतंत्र है। स्वतंत्रता को जरा और कहीं खोजो। स्वतंत्रता इसमें है कि तुम चाहो तो सिर टकरा लो और चाहो तो मत टकराओ। वहां तुम्हारी स्वतंत्रता है। अगर तुम न टकराओ सिर, तो सिर न टूटेगा। पहाड़ आकर तुमसे नहीं टकरा सकता। इसे थोड़ा खयाल रखो।

नियम आकर तुमसे कभी नहीं टकराता। तुम ही नियम के विपरीत जाकर टकराते हो। नियम तुम्हारा दुश्मन नहीं है। जब तुम नियम की दुश्मनी करते हो, तब तुम्हें फल भोगना पड़ता है।

सारे कर्म का सिद्धांत इस छोटी—सी बात पर खड़ा है कि नियम के विपरीत मत जाना, अन्यथा फल भोगना पड़ेगा। फिर तुम बच न सकोगे। और जो नियम के विपरीत नहीं जाते, उनका कर्मजाल समाप्त हो जाता है। वे नियम के अनुसार ही चलते हैं।

अब यह भी थोड़ा सोचो। जब मैं कहता हूं नियम के अनुसार चलते हैं, तो हमारे मन में होता है कि यह तो परतंत्रता हो गई। नियम के अनुसार! हमें लगता है कि किसी की मानकर चलना पड़ रहा है, किसी नियम का बोझ ढोना पड़ रहा है, तो स्वतंत्रता कहां रही?

कठिनाई तुम्हारे अहंकार में है। तुम यह नहीं समझ पाते कि तुम भी नियम की ही एक व्यवस्था हो। नियम तुम से भिन्न नहीं है। उसी ने तुम्हें पैदा किया है, उसी से तुम श्वास ले रहे हो; उसी से तुम जीवित हो, हृदय धड़क रहा है, उसी से तुम सोच रहे हो, मुझे सुन रहे हो, उसी से मैं बोल रहा हूं; उसी से तुम ध्यान करोगे, उसी से तुम शांत होओगे, मौन होओगे, समाधि को उपलब्ध होओगे।

तुम नियम हो; तुम नियम का एक ढंग हो। नियम अगर तुम से भिन्न होता, तो परतंत्रता हो सकती थी, तुम ही नियम हो। यही तो अर्थ है, जब हम कहते हैं कि तुम ब्रह्म हो। कोई और अर्थ नहीं है। इसलिए बुद्ध ने ब्रह्म शब्द को टाल ही दिया। कोई जरूरत न पाई। क्योंकि उन्होंने ब्रह्म की जगह धम्म शब्द का उपयोग कर लिया। धर्म का मतलब होता है, नियम।

लाओत्से ने धर्म का भी उपयोग नहीं किया। उसने ताओ का उपयोग किया। ताओ का अर्थ होता है, नियम। जिसको वेदों ने ऋत कहा है। वह मधुरतम शब्द है परमात्मा के लिए। क्योंकि उसमें मनुष्य की कोई भी धारणा प्रविष्ट नहीं होती। ऋत!

साइंस उसी की तो खोज कर रही है, नियम की। और जैसे—जैसे साइंस खोज करती जाती है, वैसे—वैसे आदमी नियम से मुक्त होता जाता है। यह बड़े मजे की बात है।

हजारों साल तक आदमी ने सोचा, आकाश में उड़े। नहीं उड़ सका। बड़ी परतंत्रता अनुभव हुई होगी! उड़ना चाहते हैं, नहीं उड़ सकते।

कितने सपने देखता है आदमी? तुम में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसने आकाश में उड़ने का सपना न देखा हो। उसका अर्थ है कि मन में उड़ने की बड़ी आकांक्षा है। पुराने से पुराने सपने की खोजें की गई हैं। एक सपना सदा से आदमी को आता रहा है कि पंख लग गए, आकाश में उड़ रहा है। वह उड़ना स्वतंत्रता की आकांक्षा है।

लेकिन आदमी उड़ नहीं सका। उड़ा कब? जब हमने नियम समझ लिया। अब हम आकाश में उड़ रहे हैं, हवाई जहाज आकाश में उड़ रहे हैं, अंतरिक्ष यान चांद पर पहुंच रहे हैं। अब हमें लगता है, हम स्वतंत्र हैं उड़ने को।

लेकिन तुम्हारी स्वतंत्रता कैसे आई, इसका पता है? नियम को जानकर, नियम के अनुसार चलने से। हमने कोई प्रकृति को जीत लिया है, इस खयाल में मत पड़ना। वैज्ञानिक कहे चले जाते हैं कि हमने प्रकृति को जीत लिया। गलत बात है। हमने सिर्फ प्रकृति के नियम को जाना और उसके अनुसार चल पड़े। प्रकृति ने ही हम को जीता है। प्रकृति को तुम कैसे जीतोगे? हमने सिर्फ जान लिया कि नियम यह है प्रकृति का। अब तक न जानते थे, तो न उड़ सकते थे। अब जान लिया और जानकर हम उसका अनुसरण कर रहे हैं जो प्रकृति का नियम है। अब हम उड़ सकते हैं; कोई अड़चन न रही।

इस बात की संभावना है—अभी तो केवल जो वैज्ञानिक उपन्यास लिखे जाते हैं, उनमें ये कथाएं हैं—लेकिन कभी इस बात की संभावना है कि यान की भी जरूरत न रह जाए। हम आदमी के शरीर में ही कुछ व्यवस्था खोज लें, जिससे व्यक्तिगत रूप से आदमी उड़ सके। उसके हाथ ही पंख का काम करें या उसके भीतर कोई प्रक्रिया हम खोज लें, जो जमीन के गुरुत्वाकर्षण को काट देती हो।

इसकी संभावना है। योगियों ने सदा से कहा है कि उन्हें कभी—कभी अनुभव होते हैं जमीन के ऊपर उठ जाने के। और अब इसके वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि कुछ लोग ध्यान की खास अवस्था में जमीन से ऊपर उठ जाते हैं।

यूरोप में एक महिला है, जिस पर हजारों प्रयोग किए गए हैं, जो चार फीट ऊपर उठ जाती है ध्यान की अवस्था में। और अब यह एक वैज्ञानिक सिद्ध बात हो गई कि कभी—कभी भाव की ऐसी शांत अवस्था होती है, जब शरीर बिलकुल निर्भार हो जाता है।

तो अगर यह संभव है चार फीट, तो चार सौ फीट भी संभव है, चार हजार फीट भी संभव है। फिर तो गणित का विस्तार है। फिर इसकी जरा ठीक से खोज करने की जरूरत है कि कैसी भाव—दशा में गुरुत्वाकर्षण काम नहीं करता, कोई दूसरा आकर्षण काम करने लगता है।

जैसे जमीन खींचती है आदमी को, शायद एक और नियम है, जिसमें हम कहें कि आकाश खींचता है। होना ही चाहिए क्योंकि नियम कभी अकेला नहीं होता; उससे विपरीत नियम भी होता है। तभी तो दोनों में तालमेल रहता है, नहीं तो तालमेल टूट जाए।

नदी दो किनारों से बहती है। अगर एक किनारे का पता चल गया, तो पक्का ही समझो, चाहे दूसरा दिखाई भी न पड़ता हो, धुंध में छिपा हो, होगा। कितने ही दूर हो, होगा। एक किनारे की कहीं नदी हो सकती है?

एक किनारा हमें ग्रेविटेशन का पता चल गया कि जमीन खींचती है। दूसरा किनारा भी है। तुम्हें भी अनुभव होता है, कभी जब तुम पानी में तैरते हो, तो हलके हो जाते हो। निश्चित, पानी पर कोई नियम काम कर रहा है आकाश का।

इसलिए अगर पानी में तुमसे भी बड़ा आदमी डूब रहा हो, तो तुम बचा सकते हो, क्योंकि वजन कम हो जाता है। इसलिए तैराने वाला किसी मोटे से मोटे आदमी को भी तैरना सिखा सकता है, दुबले से दुबला आदमी भी। क्योंकि वजन कम हो जाता है।

शायद जल आकाश के किसी नियम से अनुप्राणित है। आकाश ऊपर की तरफ खींच रहा है, जमीन नीचे की तरफ खींच रही है। जब तुम जमीन पर होते हो, तुम्हारा वजन बढ़ जाता है, पानी में कम हो जाता है। इसलिए तो पानी में तुम हलके लगते हो। इसलिए तो तैरने में इतना मजा आता है। वह मजा ध्यान का ही है। क्योंकि हलकापन हो जाता है। जैसे तुम उड़ सकते हो।

जरूर कोई नियम है आकाश का, जो ऊपर खींचता है। ध्यान की किसी घड़ियों में वह नियम काम करता है; किसी ठीक टयूनिंग में, जब तुम्हारा ध्यान उस अवस्था में आता है, जहां सूई मिल जाती है आकाश के नियम से।

निश्चित ही, आकाश का नियम पृथ्वी के नियम से बड़ा होगा; क्योंकि पृथ्वी बड़ी छोटी है, आकाश बहुत बड़ा है। अगर तुमने वह सूत्र खोज लिया, तो पृथ्वी के पार तुम हो जाते हो।

किसी न किसी दिन आदमी .निजी रूप से भी उड़ सकेगा। आखिर पक्षी उड़ ही रहे हैं, बड़े—बड़े पक्षी उड़ रहे हैं जिनका वजन आदमी के बराबर है। तुमने चीलों को आकाश में उड़ते देखा होगा, जब वे पंख भी नहीं हिलाती, सिर्फ तिरती हैं। किसी नियम का अनुसरण चल रहा है।

विज्ञान जीतता नहीं प्रकृति को। विज्ञान केवल जानता है जानकर अनुसरण करता है। अनुसरण में ही उसकी सारी शक्ति है। इसी अनुसरण का नाम योग है; इसी अनुसरण का नाम अनुशासन है, डिसिप्लिन है, साधना है।

साधना नियम के पार नहीं ले जाएगी; साधना केवल नियम को साफ कर देगी, तुम नियम के अनुकूल हो जाओगे। नियम से दुश्मनी टूट गई; अब तुम मालिक हो, अब तुम स्वतंत्र हो पहली दफा।

इसलिए मैं कहता हूं यह उलटा दिखाई पड़ने वाला वचन बहुत महत्वपूर्ण है, जब तुम परिपूर्ण रूप से नियम के अनुकूल होते हो, तभी तुम परिपूर्ण स्वतंत्र होते हो, तुम्हारी निजता पैदा होती है। अपनी ढपली पीटते—पीटते तुम रोज—रोज गुलाम ही होते जाओगे। स्वच्छंद होने की चेष्टा में तुम परतंत्र हो जाओगे। समर्पण स्वतंत्रता ले आता है।

इसलिए ज्ञानियों ने जो सबसे बड़ी स्वतंत्रता जानी है वह समर्पण है। छोड़ दो अपने को चरणों में उसके, जिसका सब है। तुम अपने को मत ढोए फिरा। अचानक सब बोझ खो जाता है। एक क्षण में क्रांति हो जाती है।

जागकर क्षण में जीने की जरूरत है, तुम्हें परस्पर—तंत्रता का बोध अनुभव होगा। सीमाएं टूट जाएगी, पिघल जाएंगी। तुम कहा शुरू होते हो, कहां अंत होते हो, मिट जाएगा खयाल।

न तुम कहीं शुरू होते, न कहीं तुम अंत होते। तुम्हारी शुरुआत वहीं है, जहां इस पूरे अस्तित्व की है। और तुम्हारा अंत भी वहीं है, जहां इस पूरे अस्तित्व का है। तुम्हारी और इस अस्तित्व की सीमाएं एक ही हैं, अगर कहीं कोई सीमाएं हैं। अन्यथा तुम उतने ही असीम हो, जितना यह अस्तित्व है।

इसको थोड़ा गणित की तरह भी समझ लो। दुनिया में दो तरह के गणित हैं। एक साधारण गणित है जिसे हम स्कूल में पढ़ते हैं, वह इस संसार में काम आता है। एक असाधारण गणित है; या तो बहुत पहुंचे हुए गणितज्ञ उसका अनुभव कर पाते हैं या ब्रह्मज्ञानियों को उसकी प्रतीति होती है। आइंस्टीन जैसे गणितज्ञ को उसका खयाल आना शुरू हो जाता है। आस्पेंस्की जैसे गणितज्ञ को उसके सूत्र दिखाई पडने लगते हैं। और ब्रह्मज्ञानियों ने तो उसी गणित की बात की है, चाहे उनकी भाषा गणित की न हो। क्योंकि गणित का उनसे कोई परिचय नहीं है।

उपनिषद में वचन है कि पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। यह उस परम गणित का सूत्र है। साधारण गणित में तो यह ठीक नहीं आता। क्योंकि अगर तुम किसी। चीज में से कुछ भी निकाल लो, तो पीछे चीज उतनी ही शेष नहीं रह। जाएगी, जितनी निकालने के पहले थी। उतना तो कम हो जाएगा, ; जितना निकाल लिया। और उपनिषद तो कहता है, अगर हम पूर्ण से पूर्ण भी निकाल लें, तो भी पूर्ण ही पीछे शेष रहता है। थोड़ा—बहुत नहीं, पूरा ही निकाल लें, तो भी पीछे उतना ही शेष रहता है।

यह तो किसी और गणित की बात है। यह उस गणित की बात है, जिससे असीमा का संबंध है, सीमित का नहीं।

पहली तो बात यह है कि पूर्ण से पूर्ण तुम निकाल न सकोगे। निकालकर कहां ले जाओगे? रखोगे कहां निकालकर? और कहीं कोई जगह नहीं है।

कल्पना कर लो कि अगर निकाल लो पूर्ण से पूर्ण को, तो पूर्ण का अर्थ होता है, जो असीम है। असीम में से तुम कितना भी निकाल लौ, असीम सीमित नहीं हो सकता। वह उसका स्वभाव नहीं है। इसलिए उसमें से घट न सकेगा।

सागर में से भी तुम एक बूंद निकालते हो, तो भी घट जाता है, क्योंकि सागर की सीमा है। लेकिन परमात्मा से तुम कुछ भी निकाल लो, घट नहीं सकता, क्योंकि उसकी सीमा नहीं है।

इस अस्तित्व की कोई सीमा नहीं है। पहले तो तुम निकाल ही न सकोगे, निकालकर ले कहां जाओगे? रखोगे कहा? और जगह कहां है? परमात्मा के अतिरिक्त और स्थान कहां है? लेकिन अगर निकाल लो, तो उपनिषद कहते हैं, तुम पूरा भी निकाल लो, तो भी पीछे पूरा ही शेष रहेगा। क्योंकि वह जो पीछे है, वह असीम है।

आस्पेंस्की ने दूसरा सूत्र अपनी एक बड़ी बहुमूल्य किताब टर्शियम आर्गानम में लिखा है कि साधारणत: किसी भी चीज का अगर हम कोई टुकड़ा निकालें, तो टुकड़ा पूरी चीज से छोटा होता है। होगा ही; यह साधारण गणित है। अगर मेरा हाथ तुम मुझसे निकाल लो, तो हाथ मुझसे बड़ा थोड़े ही हो सकता है, मुझसे छोटा। ही होगा। हाथ मेरा अंग है। तुमने सागर से चुल्लभर पानी ले लिया, तो चुल्लभर पानी सागर से तो छोटा ही होगा।

आस्पेंस्की ने लिखा है कि उस बड़े गणित में खंड भी पूर्ण के बराबर होता है। तुम चुल्लभर पानी निकाल लो, वह भी पूरे समुद्र के बराबर होता है।

यह बात जरा अजीब लगती है, तर्क के बाहर लगती है। लेकिन इसे थोड़ा समझ लेने जैसा है।

अगर यह पूरा अस्तित्व असीम है, तो इसका कोई भी खंड सीमित नहीं हो सकता। क्योंकि अगर खंड सीमित हो, तो कितने ही सीमित खंडों को जोड़ो, तो भी असीम नहीं बन सकता।

तुम करोड़ों ईंटें जोड़ते जाओ, लेकिन हर ईंट की सीमा है। तो तुम कितना ही बड़ा भवन बना लो, हजार मंजिल का भवन बना लो, तो भी सीमित ही होगा। क्योंकि हर ईंट सीमित थी, दो सीमित मिलकर, तीन सीमित मिलकर, करोड़ सीमित मिलकर भी सीमित को ही बनाएंगे। सीमा बड़ी होती जाएगी, लेकिन असीमा नहीं हो सकती।

अगर यह अस्तित्व असीम है, तो इसका हर खंड असीम होना चाहिए, नहीं तो कोई उपाय ही नहीं है इसके असीम होने का। इसका यह अर्थ हुआ कि यहां बूंद में भी सागर छिपा है। और एक छोटे—से कण में भी विराट छिपा है। और तुम में परमात्मा छिपा है। उतना ही पूरा का पूरा जितना पूरे में फैला है, इससे कम नहीं। क्योंकि अखंड अगर यह असीम है, तो इसका हर खंड असीम होना ही चाहिए, कोई दूसरा उपाय नहीं है।

इसलिए तुम्हारी सीमा वही है, जो परमात्मा की है, अगर उसकी कोई सीमा हो।

इसलिए हम परस्पर—तंत्रता को गहनतम खोज मानते हैं। उससे बड़ी कोई खोज नहीं है। उस खोज के लिए दो ही सूत्र ध्यान में रखने जरूरी हैं, एक तो सजगता और मौन। क्योंकि सजग तुम रहोगे, तो यहां और अभी जो मौजूद है, उसका तुम्हें अनुभव होगा। अगर मौन तुम रहोगे, तो ही तुम सजग रह सकोगे। नहीं तो विचार तुम्हें या तो अतीत में ले जाते हैं या भविष्य में।

एक बड़ी प्राचीन कथा है। शायद तुमने कभी पढ़ी हो। पढ़ी हो,। तो भी तुम समझ न पाए होओगे। क्योंकि वह कहानी इस ढंग से कही गई है कि उसे अज्ञानी पढ़ें, तो मनोरंजन समझें, ज्ञानी पढ़ें, तो जीवन का परम रहस्य बन जाए।

तुमने बैताल पचीसी का नाम सुना होगा। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि वह भी कोई ज्ञानियों की बात हो सकती है, बैताल पचीसी। पर इस देश ने बड़े अनूठे प्रयोग किए हैं। इस देश ने ऐसी किताबें लिखी हैं, जिनको बहुत तलों पर पढ़ा जा सकता है, जिनमें पर्त दर पर्त अलग— अलग अर्थ हैं। जिनमें एक साथ दो, तीन, चार और पांच अर्थ दौड़ते रहते हैं। जैसे एक साथ पांच रास्ते चल रहे हों, पैरेलल, समानांतर।

तो जिसकी जो सुविधा हो। एक छोटा बच्चा भी बैताल पचीसी पढ़कर प्रसन्न होगा और परम जानी भी पढ़कर प्रसन्न होगा। खोजी को मार्ग मिल जाएगा, पहुंचे हुए को मंजिल की प्रत्यभिज्ञा होगी।

जो नहीं खोजी है, नहीं पहुंचा हुआ है, उसके लिए सिर्फ चित्त का मनोरंजन होगा। वह भी क्या कम है! थोड़ी देर को मन बहलाव हो जाएगा।

बैताल पचीसी की पहली कथा है…….। पच्चीसों ही कथाएं बड़ी अदभुत हैं, लेकिन पहली तुम से कहता हूं। पहली कथा है कि सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में एक फकीर आया। सुबह का वक्त था। रिवाज के अनुसार लोग सम्राट को भेंट चढ़ाने सुबह—सुबह आते थे। उस फकीर ने भी एक जंगली—सा दिखाई पड़ने वाला फल सम्राट को भेंट किया। सम्राट थोड़ा मुस्कुराया भी। इस फल को भेंट करने के लिए इतने दूर आने की जरूरत भी क्या थी? लेकिन फकीर है, फकीर के पास कुछ और हो भी नहीं सकता, तो उसने स्वीकार कर लिया। पास में बैठे वजीर को वह देता जाता था, जो भी भेंट आती थी, उसने उसे दे दिया।

यह कम दस वर्षों तक चला। वह फकीर रोज सुबह आता। और रोज वही, उसी तरह का फिर एक जंगली फल ले आता। दस वर्ष! और रोज सम्राट वजीर को फल दे देता। न तो उसने कभी पूछा, क्योंकि सुबह सैकड़ों भेंट देने वाले लोग थे। फुरसत भी न थी, समय भी न था। और इस फकीर से पूछने जैसा भी कुछ नहीं लगा।

पर एक दिन पास ही सम्राट का पाला हुआ बंदर भी बैठा हुआ था, और सम्राट ने वजीर को फल न देकर बंदर को दे दिया। बंदर ने फल खाया और उसके मुंह से एक बहुत बड़ा हीरा, जो फल में छिपा था नीचे गिर गया। सम्राट तो चौंका। इतना बड़ा हीरा तो उसने देखा भी नहीं था। वजीर से कहा कि बाकी फल कहां हैं?

वजीर ने भी यह सोचा था कि जंगली फल हैं। पर फिर भी उसने सोचा कि सम्राटों के पास सम्हलकर रहना पड़ता है, तो एक तलघरे में वह फेंकता जाता था। क्योंकि फलों का करोगे क्या? जंगली थे, खाने योग्य भी नहीं लगते थे। स्वाद भी ठीक नहीं था।

तलघरा खोला गया। भयंकर बदबू से भरा था, क्योंकि सारे फल सड़ गए थे। लेकिन उन सड़े हुए फलों के बीच हीरे चमक रहे थे। ऐसे हीरे कभी सम्राट ने देखे नहीं थे।

फकीर को कहा कि यह क्या राज है? तुम क्या चाहते हो? किस लिए तुम दस साल से यह भेंट ला रहे हो? और मैं कैसा अज्ञानी कि मैंने कभी देखा भी नहीं! मैंने समझा, जंगली फल है। उस फकीर ने कहा, होश न हो तो जिंदगी ऐसे ही चूक जाती है।

दूसरी समानंतर अर्थ की धारा शुरू होती है।

उस फकीर ने कहा, रोज ही जिंदगी लाती है। लेकिन जंगली फल समझकर तुम फेंकते चले जाते हो। और हर फल के भीतर हीरा छिपा है, जैसा तुमने कभी देखा नहीं। खैर, जो हुआ हुआ। अब पीछे की तरफ मत जाओ, अन्यथा फिर तुम चूक जाओगे। और आगे की तरफ भी मत दौड़ो। क्योंकि मैं देखता हूं, सपने दौड़ रहे हैं। क्योंकि इतने हीरे! दुनिया के तुम सबसे बड़े सम्राट हो गए। आगे भी मत जाओ, पीछे भी मत जाओ। मैं कुछ और तुमसे कहना चाहता हूं वह सुन लो।

सम्राट सजग होकर बैठा, यह आदमी कोई साधारण नहीं है। अब तक समझे कि फकीर है।

जिंदगी साधारण नहीं है। और जिंदगी ने तुम्हें जो दिया है, वह बिलकुल असाधारण है। लेकिन तुम्हें होश नहीं है। तुम हंसोगे कि दस साल तक यह आदमी क्यों बेहोश रहा? तुम कई जन्मों से हो। राजा वीर विक्रमादित्य तुम भी हो। हजारों साल से तुम ऐसे ही बैठे हो और जिंदगी रोज फल दिए जा रही है। हर पल, छिपा हुआ जीवन का हीरा तुम्हारे पास आता है।

अब यह कोई साधारण आदमी न था। राजा सम्हलकर बैठ गया। उसने कहा कि कहो, तुम्हारी एक—एक बात सुनने जैसी है। उसने कहा कि मैं दस वर्ष से आ रहा हूं इसी प्रतीक्षा में कि किसी दिन तुम जागोगे। क्योंकि मैं एक ऐसा आदमी चाहता हूं जो वीर हो, वह तुम हो।

इसलिए विक्रमादित्य का नाम है, वीर विक्रमादित्य। सिर्फ दो आदमियों को भारत ने वीर कहा है, एक महावीर को और एक विक्रमादित्य को।

निश्चित तुम वीर हो, इसमें कोई शक—शुबहा नहीं; लेकिन काफी नहीं है वीर होना। इसलिए मैं चाहता था कि जब तुम जाग जाओ वर्तमान के प्रति, तब मेरे काम के हो सकते हो। अब दोनों बातें घट गईं। अब तुम महावीर हो, होश और साहस। मैं एक बड़े महान तंत्र के कार्य में लगा हूं। उसमें मुझे एक ऐसे आदमी की जरूरत है, जो बहुत वीर हो, जिसे कोई चीज भयभीत न कर सके, और जो होशपूर्ण हो। अगर तुम तैयार हो, तो आज अमावस की रात है। तुम सांझ मरघट पर पहुंच जाओ। मैं तुम्हें वहीं मिलूंगा।

वह फकीर तो चला गया। सम्राट ने कई बार सोचा भी कि इस झंझट में पड़ना कि नहीं! लेकिन फिर यह तो कायरता होगी। और यह आदमी ऐसा है कि इसके साथ थोड़े दूर जाने जैसा है। पता नहीं जैसे हम जंगली फल को फेंकते रहे, पता नहीं मरघट में कौन से स्वर्ग का या मोक्ष का द्वार खुल जाए!

तो समझा—बुझाकर……। डर भी लगता था।

बहादुर से बहादुर आदमी भी डरता है। तुम यह मत सोचना कि सिर्फ कायर डरते हैं। डरते तो बहादुर भी हैं। फर्क क्या है बहादुर और कायर में? बहादुर डरता है, तो भी करता है। कायर डरता है, भाग खड़ा होता है। डरते दोनों ही हैं! डरने के संबंध में कोई फर्क नहीं है। क्योंकि जो डरे ही नहीं, वह तो बहादुर भी क्या उसको कहना! वह तो लोहे, लकड़ी, पत्थर का बना हुआ आदमी है। वह बहादुर भी नहीं है, जो डरे ही न। डर तो स्वाभाविक है। लेकिन बहादुर डर को किनारे पर रख देता है और घुस जाता है। और भयभीत डर को सिर पर रख लेता है, भाग खड़ा होता है।

खैर, आधी रात विक्रमादित्य पहुंच गया मरघट पर। बड़ा डर लगता था। बड़ी भयंकर रात थी। और साधारण रात नहीं मालूम होती थी। कभी मरघट आया भी नहीं था। महलों में ही सदा रहा था। मरघट सिर्फ शब्द ही था।

तुम भी कभी रात, अमावस की आधी रात मरघट जाओ, तब तुम्हें इस शब्द का अर्थ पता चलेगा। शब्दकोश में इसका अर्थ नहीं लिखा है।

मरघट एक बड़ी अनूठी घटना है। चारों तरफ रहस्य, भय, खतरा, भूत—प्रेत, चीख—पुकार। और वह तांत्रिक फकीर अपना मंडल रचकर बैठा है नग्न। खोपडिया! एक जिंदा लाश! लाश को काट रहा है। उसने सब इंतजाम अपना कर रखा है, जो उसे करना है।

सम्राट से उसने कहा, आ गए; ठीक। यहां से थोड़ी दूर? वह दूर दिखाई पड़ने वाला जो वृक्ष है, वहां एक लाश लटकी हुई है। तुम्हें उस लाश को वृक्ष से उतारकर ले आना है। लेकिन ध्यान रखना, सजग रहना और शांत रहना। क्योंकि जरा चूके, तो यह कृपाण की धार पर चलना है। जरा चूके कि गए। फिर मैं भी सहायता न कर सकूंगा।

धड़कती छाती से विक्रमादित्य उस वृक्ष के पास पहुंचा। वहां बड़ा भय लगने लगा उसे। क्योंकि वहां कोई भी न था। बिलकुल अकेला था। और उस वट—वृक्ष में लाशें लटकी हुई थीं। एक नहीं,

पच्चीस। बड़ी बदबू आ रही थी।

किसी तरह नाक को अवरुद्ध करके वृक्ष पर चढ़ा। हाथ—पैर कैप रहे थे। वृक्ष पर चढ़ना मुश्किल था। किसी तरह उस लाश की डोरी काटी। वह लाश जमीन पर धम्म से नीचे गिरी! न केवल गिरी, खिलखिलाकर हंसी! विक्रमादित्य के प्राण छूट गए होंगे। सोचा था, मुरदा है। यह तो जिंदा मालूम होता है। और जिंदा भी अजीब हालत में है। घबड़ाया हुआ नीचे आया और उससे पूछा, क्यों हंसे? क्या मामला है?

बस, इतना कहना था, कि लाश उड़ी, वापस जाकर वृक्ष से लटक गई। और लाश ने कहा कि शांत होना, तो ही तुम मुझे उस फकीर तक ले जा सकोगे। तुम बोले, चूक गए।

दोबारा लाश को काटकर नीचे लाया। बड़ा मुश्किल था चुप रहना। क्योंकि जब आदमी को भय लगता है, तब वह कुछ बोलना चाहता है। बोलने से भी थोड़ी राहत मिलती है। गीत गुनगुनाने लगता है, थोड़ी हिम्मत बढ़ती है। मंत्र पढ़ने लगता है; राम—राम जपने लगता है। कोई सहारा चाहिए। अब बोलना भी नहीं है, शांत भी रहना है। भयंकर सन्नाटा; और चारों तरफ मौत!

शायद आदमी इसीलिए अतीत की सोचता है, भविष्य की सोचता है, क्योंकि डरता है। वर्तमान के क्षण में जीवन भी है और मौत भी, दोनों। क्योंकि वर्तमान में ही तुम मरोगे और वर्तमान में ही जीते हो। न तो कोई भविष्य में मर सकता है और न भविष्य में जी सकता है।

तुम भविष्य में मर सकते हो? जब मरोगे, तब अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में मरोगे। आज मरोगे। कल तो कोई भी नहीं मरता। कल तो मरोगे कैसे? कल तो आता ही नहीं। जब मर नहीं सकते कल में, तो जीओगे कैसे? कल का कोई आगमन ही नहीं होता। कल है ही नहीं। जो है, वह अभी और यहां। बोले, कि चूक जाते हो। सोचे, कि चूक जाते हो।

बड़ा कसकर उसने अपने को रोका। आदमी बहादुर था। मुरदा नीचे फिर से काटकर गिराया। भयंकर खिलखिलाहट की आवाज आई। छाती कैप गई। नीचे उतरा। मुरदे को कंधे पर रखा। चलने लगा। मुरदे ने कहा कि सुनो, राह लंबी है, रात अंधेरी है, और तुम्हारा बोझ हलका करने के लिए एक कहानी कहता हूं। ऐसी पहली कहानी।

उसने कहा कि तीन युवक थे ब्राह्मण…….।

यह विक्रमादित्य सुनना भी नहीं चाहता था, पड़ना भी नहीं चाहता था चक्कर में। क्योंकि जब तुम सुनो, तो पता नहीं, बीच में बोल उठो। या कुछ हो जाए। या कम से कम सुनने में ही लग जाओ और जो तुमने सम्हाल रखा है अपने को, वह चूक जाए। क्षण में चूक सकती है बात। मगर इससे नहीं कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि नहीं कहते ही यह लाश उड़ जाएगी और फिर वृक्ष पर चढ़ना पड़ेगा। फिर काटो। तो वह चुप ही रहा। और वह मुरदा कहानी कहने लगा।

उसने कहा, एक गुरु के आश्रम में तीन युवक थे। तीनों ही गुरु की लड़की के प्रेम में पड़ गए…।

कहानी में रस आने लगा। प्रेम की कहानी में किस को रस नहीं आता? विक्रमादित्य थोड़ा बेहोश होने लगा। सम्हाल रहा है, लेकिन उत्सुकता जग गई; जिज्ञासा, कि फिर क्या हुआ?

तीनों एक से थे, योग्य थे, अप्रतिम थे, प्रतिभाशाली थे। गुरु मुश्किल में था कि किस को चुने। युवती भी मुश्किल में थी कि किस को चुने। कोई उपाय न देखकर युवती ने आत्महत्या कर ली। कोई रास्ता ही न मिला। और इन तीन के बीच वह बड़े द्वंद्व में घिर गई। और तीनों चुनने योग्य थे और मुश्किल था किस को छोड़े। और जानती थी, जिसको छोड़ेगी, वही जीवनभर पछतावे का कारण रहेगा। दो को छोड़ना ही पड़ेगा। तीन से तो विवाह हो नहीं सकता। बड़ी अड़चन थी। हल कोई था न। हल न देखकर आत्महत्या कर ली। लाश जलाई गई।

एक युवक उन तीन में से तो मरघट पर ही उसी राख के पास रहने लगा। उसी राख की धूनी रमा लेता और वहीं बैठा रहता। दूसरा युवक इतने दुख से भर गया कि यात्रा पर निकल गया, अपना दुख भुलाने को। घूमता रहेगा संसार में। अब बसना नहीं है, क्योंकि जिसके साथ बसना था, वही न रही। अब घर नहीं बसाना है। वह परिव्राजक हो गया, एक फकीर, भटकता हुआ आवारा। और तीसरा युवक किसी आशा से भरा हुआ, क्योंकि उसने सुन रखा था कि ऐसे मंत्र भी हैं कि अस्थिपंजर को पुनरुज्जीवित कर दें, तो उसने सारी अस्थियां इकट्ठी कर लीं। रोज उनको गंगा ले जाता, धोकर साफ करता। फिर ले आकर रख लेता। उनकी रक्षा करता कि कभी कोई मंत्र का जानने वाला मिल जाए।

वर्षों बीत गए। जो घूमने निकल गया था यात्रा पर, उसे एक आदमी मिल गया, जो मंत्र जानता था। उससे उसने मंत्र सीख लिया। मंत्र का शास्त्र ले लिया। भागा। अब डरा वह, घबड़ाया, कि पता नहीं अब अस्थिपंजर बचे भी होंगे। क्योंकि वे तो कभी के फेंक दिए गए होंगे। लेकिन आकर आश्वस्त हुआ। अस्थिपंजर बचाए गए थे। उनको संजोकर रखा था उसके साथी ने।

उसने मंत्र पढ़ा; वह युवती पुनरुज्जीवित हो गई। पहले से भी ज्यादा सुंदर, मंत्र—सिक्त। उसकी देह स्वर्ण जैसी ताजी, जैसे कमल का फूल अभी—अभी खिला हो। फिर कलह शुरू हो गई कि अब वह किसकी?

अब तक सम्राट भी भूल चुका था कि वह क्या कर रहा है और यह सुनने में लग गया था, जैसा तुम सुनने में लग गए।

उस मुरदे ने पूछा कि सम्राट, गौर से सुनो। क्योंकि फिर झगड़ा खड़ा हो गया। अब सवाल है कि इन तीन में से युवती किसकी? तुम्हारा क्या खयाल है? और अगर तुम्हारे भीतर उत्तर आ जाए और तुमने अगर उत्तर न दिया, तो तुम इसी क्षण मर जाओगे। ही, उत्तर न आए, कोई हरजा नहीं।

बड़ा मुश्किल है उत्तर का न आना। आदमी का इतना वश थोड़े ही है अपने मन पर। कोई बुद्ध पुरुष हो, तो न आए। ठीक है, सुन लिया प्रश्न; उत्तर न आया। कोई हरजा नहीं।

विक्रमादित्य बड़ी मुश्किल में पड़ा। उत्तर तो आ रहा है। बुद्धिमान आदमी था, तर्क—निष्ठ था, समझदार था, शास्त्र पढ़े थे, तर्क साफ था। अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मुरदे ने कहा कि बोल, अगर उत्तर आ रहा है, तो बोल अन्यथा इसी वक्त मर जाएगा।

तो उसने कहा, उत्तर तो आ रहा है, इसलिए बोलना ही पड़ेगा। उत्तर मुझे यह आ रहा है कि जिसने मंत्र पढकर युवती को जगाया, वह तो पितातुल्य है; उसने जन्म दिया। इसलिए वह विवाह नहीं कर सकता। वह तो कट गया। जिसने अस्थियां सम्हाली और रोज गंगा में स्नान कराया, वह पुत्रतुल्य है, कर्तव्य, सेवा, उससे शादी नहीं हो सकती। प्रेमी तो वही है, जो धूनी रमाए, राख लपेटे, भूखा—प्यासा मरघट पर ही बैठा रहा, न कहीं गया, न कहीं आया। विवाह तो उसी से……।

लाश छूटी, जाकर वृक्ष से फिर लटक गई; क्योंकि यह आदमी बोल गया।

ऐसी पच्चीस कहानियां चलती हैं।

जीवन में तुम चूकते हो, जब भी मूर्च्छा पकड़ लेती है। जब भी तुम होश खो देते हो, जब भी जागे हुए नहीं होते, तत्‍क्षण जीवन का सूत्र हाथ से छूट जाता है। जब भी तुम जरा से अशांत हो जाते हो, विचार की तरंगें चल जाती हैं, तभी जीवन का सूत्र हाथ से छूट जाता है। क्योंकि विचार की तरंग, और तुम वर्तमान से च्युत। इधर उठी तरंग, उधर तुम हटे वर्तमान से।

वह विक्रमादित्य हार गया। वह फिर ……। ऐसी पच्चीस कहानियां चलती हैं पूरी रात। और हर बार चूकता जाता है, हर बार चूकता जाता है। पच्चीसवीं कहानी पर सम्हल पाता है। हर कहानी में ज्यादा हिम्मत बढ़ती है, साहस बढ़ता है, ज्यादा देर तक रोकता है; ज्यादा देर तक विचार की तरंगें नहीं अनुकंपित करतीं। पच्चीसवीं कहानी आते—आते कहानी चलती रहती है, विक्रमादित्य सुनता रहता है, भीतर कुछ भी नहीं होता।

जीवन एक तैयारी है। यहां बहुत कुछ है तुम्हें उलझा लेने को। बाजार है पूरा, मीना बाजार! वहां सब तरफ बुलावा है—उत्सुकता को, जिज्ञासा को, मनोरंजन को। प्रश्न हैं, विचार की सुविधा है, सोच—विचार का उपाय है, चिंता का कारण है। सब तरह के उलझाव हैं।

अगर तुम इस सारे संसार से ऐसे गुजर जाओ, जैसे विक्रमादित्य उस मरघट से बिना बोले, चुप और जागा हुआ पच्चीसवीं कहानी पर गुजर सका, तो ही तुम वर्तमान क्षण की अनुभूति को उपलब्ध होओगे। अन्यथा तुमने वर्तमान जाना ही नहीं है।

तुम वर्तमान से गुजरे जरूर हो, क्योंकि और कोई जगह नहीं है जहां से तुम गुजरो, लेकिन बेहोश, सोए हुए गुजरे हो। या तो अतीत में खोए हुए गुजरे हो, या भविष्य में डूबे हुए गुजरे हो। वर्तमान से तुम्हारा कभी तालमेल नहीं बैठा है। वर्तमान से संगीत नहीं छिड़ा है। वर्तमान के साथ स्वर नहीं मिले।

वर्तमान से स्वर मिल जाए, तुम पाओगे, एक ही है, अनेक उसके रूप हैं। एक है सागर, अनेक हैं लहरें।

प्रश्न : अचाह होने का अर्थ है कि मैं जो भी हूं? भी हूं? उसे यथावत स्वीकार करूं। इस संबंध में विचार करते हुए बार—बार प्रश्न उठता है कि क्या यह संभव है? क्योंकि अभी जो मैं हूं, वह सर्वाधिक रुग्ण और गलत है। दूसरी ओर सिर पर आदर्शों की बड़ी गठरी है। उसे उतार फेंकना भी सरल नहीं दिखता!

निश्चित ही, अचाह होने का यही अर्थ है कि तुम जो हो, जैसे हो, वैसे ही अपने को स्वीकार कर लो। क्योंकि किया अस्वीकार, और चाह उठी। तुमने कहा, ऐसा नहीं होना चाहिए, तो स्वभावत: दूसरे पहलू से तुम कैसे बचोगे, जो कहता है, कैसा होना चाहिए।

अगर अभी तुम अतृप्त हुए, तो भविष्य में तुम तृप्ति खोजोगे। वही तो चाह है। लगा कि धन कम है, तो चाह उठेगी। लगा कि शांति कम है, तो भी चाह उठेगी कि और शांति चाहिए। लगा कि परमात्मा नहीं मिल रहा है, तो भी चाह उठेगी कि परमात्मा मिलना चाहिए। चाह उठती कहा है? चाह उठती है तुम्हारी अतृप्ति से। कुछ कम है, कुछ नहीं है, जो होना चाहिए; कुछ खोया—खोया है; कोई श्रृंखला की कड़ी मिल नहीं रही है, तो चाह उठती है। और जिसकी चाह उठती है, वह कभी भी उस परम आनंद को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि एक चाह उठती है और हजार चाहो के बीज पड़ जाते हैं। तुम उस चाह को पूरा भी कर लोगे, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि जिस मन ने अतृप्ति उठाई थी, वह मन फिर अतृप्ति उठाएगा।

अभी तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं। चाह उठती है कि अगर दस लाख होते, तो. सब ठीक हो जाता, फिर कोई अड़चन न थी। लेकिन तुम, दस लाख जिनके पास हैं, उन्हें देखते हो? उनका सब ठीक हो गया है? वे भी उतनी ही अड़चन में हैं, जितनी में तुम हो।

अड़चन का अनुपात बदलता ही नहीं। हो सकता है, तुम्हारे पास। दस हजार हैं, इसलिए तुम एक बड़ा मकान नहीं खरीद पा रहे हो। जिसके पास दस लाख हैं, वह भी बड़ा मकान नहीं खरीद पा रहा है। तुम्हें उसका मकान बड़ा लगता है, क्योंकि तुम्हें अभी दूर है। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं। उसे तो वह भी छोटा लगता है।

ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बड़े मकान में रहता हो। कितने ही बड़े में रहता हो, हमेशा और बड़ा मकान हो सकता है। कल्पना तो कर ही सकते हो और बड़े मकान की। वही कष्ट देगी।

जो भी है, वह तुम्हारी कल्पना के बराबर तो कभी भी नहीं हो सकता। तुम्हारी कल्पना तो विस्तीर्ण है, अनंत है। तुम कल्पना तो कर ही सकते हो इससे बेहतर हालत की।

मनुष्य को कल्पना ही जलाए डालती है। क्या तुम ऐसी कोई स्थिति सोच सकते हो कि जिसके आगे बेहतर की कल्पना न उठे। स्वर्ग में भी तुम पहुंच जाओगे, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारे पास अगर कल्पना होगी, तो तुम बेहतर स्वर्ग की कल्पना कर सकते हो।

कल्पना ही तो मनुष्य की पीड़ा है। पशु—पक्षी जो इतने आनंदित दिखाई पड़ रहे हैं, उसका कुल एक कारण है कि उनमें कल्पना नहीं है। इसलिए जो है, ठीक है। इससे भिन्न होने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता।

ध्यान रखो कि ऐसी तो घड़ी कभी भी न आएगी, जब तुम अनुभव करो कि जो है, वह बिलकुल कल्पना के अनुकूल है, अब कुछ नहीं चाहिए। ऐसी घड़ी कभी न आएगी। तब तो एक ही उपाय है कि तुम जलते ही रहो, सड़ते ही रहो, नरक में चलते ही रहो। तब तो कोई बचती नहीं है सुविधा इससे ऊपर उठने की।

सुविधा है। वही तो सारे धर्म का निचोड़ है। वह सुविधा यह है कि तुम जैसे हो, जो भी हो, यह देखकर कि ऐसी तो कोई घड़ी न होगी जिस दिन कि तुम बिलकुल तृप्त हो जाओ अपने होने से, तुम अभी ही तृप्त क्यों नहीं हो जाते! कोई फर्क नहीं है, अभी होओ या दस हजार साल बाद होओ। जब भी तुम होओगे, तुम्हारी कल्पना तो पीड़ा देती ही रहेगी। दस हजार पर रुको, कि दस लाख पर, कि दस करोड़ पर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रुकना तो कभी पड़ेगा, तो अभी क्या हर्जा है?

तो मैं तुम से कहता हूं, कल्पना ही मनुष्य की पीड़ा है और कल्पना ही मनुष्य की सीढ़ी बन सकती है। अगर तुम समझदार हो, तो तुम यह कल्पना भी क्यों नहीं कर पाते कि जब कहीं भी रुकूंगा और यही अड़चन होगी, तो अभी क्यों न रुक जाऊं?

तो मैं तुमसे कहता हूं कि अधूरा कल्पना का आदमी सड्ता है नरक में, पूरी कल्पना का आदमी इसी वक्त मुक्त हो जाता है। इतना भी देख नहीं पाते तुम! इतना परिप्रेक्ष्य नहीं कर पाते कि यह तो कभी हल होने वाला नहीं है! तो क्या करना? तो जैसे हो, राजी हो जाओ।

तुम कहते हो, यह असंभव है। तुम पूछते हो, क्या यह संभव है अपने से राजी हो जाना?

इसके अतिरिक्त और कुछ संभव ही नहीं है। तुम अभी असंभव कोशिश कर रहे हो। इसीलिए तो परेशान हों। जो नहीं हो सकता, उसको करने की कोशिश में ही तो दुख होता है। क्योंकि वह हो ही नहीं सकता, विषाद आता है, असफलता मिलती है। जो हो सकता है, वह तुम कर नहीं रहे।

क्या अड़चन है इसमें? राजी होने में क्या अड़चन है? तुम जैसे हो, उससे ही राजी हो जाने में क्या अड़चन है?

मैं नहीं कह रहा कि तुम्हारे मकान से तुम राजी हो जाओ, तुम्हारी दुकान से तुम राजी हो जाओ। उस कूड़े—कचरे की मैं बात ही नहीं करता। उससे तुम न भी राजी हुए तो चलेगा। मैं तो कह रहा हूं कि तुम अपने से राजी हो जाओ।

मां—बाप बदल नहीं सकते। बदल भी लो जाकर, रजिस्ट्री भी करवा लो अदालत में, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वह घटना घट गई। तुम्हें कोष्ठ मिल गए तुम्हारे मां—बाप के, उसके बदलने का कोई उपाय नहीं है।

और तुम अगर सोचते हो कि यह तो हो सकता था कि मैं किसी और मां—बाप के घर जन्म ले लेता, तो तुम तुम न होते, कोई और होता। तुम तो इन्हीं मां—बाप से जन्म ले सकते थे। इसको समझ लो। तुम होते ही नहीं तुम। फिर कोई और होता। इतने तो लोग हैं दुनिया में दूसरे मां—बाप से पैदा हुए। इनमें से कोई भी तुम जैसा दिखता है? तुम जैसे हो, वैसे ही हो, वैसे ही हो सकते थे और कोई उपाय ही न था।

इसी को हिंदुओं ने भाग्य कहा। बड़ी गहरी खोज है भाग्य की। भाग्य बड़ा परम सूत्र है। उन्होंने कहा कि जो हो गया, वह हो गया। अब इसको अनकिया तो किया नहीं जा सकता! इसे स्वीकार कर लो। यही संभव है। और करोगे क्या? एक तरह की शक्ल है, एक तरह का मन है, एक तरह की शरीर की स्थिति है, एक तरह की चेतना है। नहीं तुम बहुत प्रतिभाशाली हो, नहीं तुम बहुत मूढ़ हो, मध्य में खड़े हो; या बहुत मूढ़ हो या बहुत प्रतिभाशाली हो; कोई भी स्थिति है, करोगे क्या?

तुमने कभी किसी को बदलते देखा? तुमने कभी मूढ़ को ज्ञानी होते देख? तुमने कभी ज्ञानी को मूढ़ होते देखा? तुमने कभी किसी को बदलते देखा है? तुम जरा अपने पर ही विचार करो कि तुम अगर तीस साल जी लिए हो, चालीस साल जी लिए, पचास साल जी लिए, तुममें कुछ बदला है?

अगर तुम जरा ईमानदारी से खोज करोगे, तुम पाओगे, कुछ नहीं बदला। तुम वही के वही हो। अब भी क्रोध वैसे ही आता है। अब भी वासना वैसे ही उठती है। अब भी लोभ वैसे ही पकड़ता है!

अगर तुम गौर करोगे, तो तुम पाओगे, तुम्हारा बचकानापन तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व पर छाया हुआ है। कहीं कोई फर्क नहीं हुआ है। अब भी खेल—खिलौनों में रस है। खेल—खिलौन जरा बदल गए हैं। छोटा बच्चा छोटी—सी मोटर चलाता है, जिसको चाबी भर दी। तुम जरा बड़ी मोटर चलाते हो। बाकी छोटा बच्चा जैसा पागल होता है मोटर के लिए, वैसे ही तुम भी पागल हो। छोटा बच्चा रातभर सो नहीं सकता, जब नई मोटर उसको मिलती है। बार—बार उठकर देख लेता है। तुम जब नई मोटर घर लाते हो, तो रात सो सके हो? क्‍या फर्क पड़ गया है?

छोटा बच्चा कंकड़—पत्थर बीन लाता है नदी के किनारे से। तुम कहते हो, नालायक। तुम क्या बीन रहे हो? तुमने हीरे—जवाहरात बीने हैं। वे कंकड़—पत्थर से ज्यादा हैं?

अगर जमीन पर किसी दिन आदमी न रहे, तो कंकड़—पत्थर में और हीरे—जवाहरात में कोई फर्क रहेगा? पशु—पक्षी कोई भेद करेंगे कि उसको मत खराब कर देना, वह कोहिनूर है। कोई भेद न करेगा। कोहिनूर पड़ा सडता रहेगा पत्थरों के बीच में। कोई फिक्र न करेगा। कोहिनूर की चिंता करने के लिए कोई पागल आदमी चाहिए।

क्या फर्क पड़ा है? छोटा बच्चा स्कूल में चेष्टा करता था कि प्रथम आ जाऊं क्लास में। तुम क्या कर रहे हो? मोरारजी, इंदिरा गुजरात में क्या कर रहे हैं? वही प्रथम आने की दौड़ है सब जगह। क्या फर्क है? नाम बदल जाते हैं, कहानी वही की वही है। दौड़ लगी है, प्रतिस्पर्धा लगी है।

अगर गौर से देखोगे, तो तुम पाओगे, तुम बदले नहीं हो। और बदलने की तुमने लाख कोशिश की है। ऐसा नहीं है कि कोशिश नहीं की है। कौन ऐसा आदमी होगा, जो बदलने की कोशिश नहीं करता! ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। मुझे तो नहीं मिला अब तक। और मैं हजारों—लाखों लोगों के करीब आया हूं। निकट से उन्हें देखा है। उनके मन में झांका है।

ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बदलने की कोशिश नहीं करता। बुरे से बुरा आदमी भी बदलने की आकांक्षा करता है। चोर भी साधु होना चाहता है। बेईमान ईमानदार होना चाहता है। क्रोधी शांत होना चाहता है। भोगी त्यागी होना चाहता है। मुश्किल है।

और इससे उलटा भी चल रहा है। जो त्यागी हैं, उनके भीतर भोगी होने की आकांक्षा चल रही है। वे समझते हैं कि फंस गए। वे हैं तो तुम में ही से। बस, उनको ऐसा लग रहा है कि उलझ गए। अब किसी को कह भी नहीं सकते; पूंछ कटा बैठे, तो वे दूसरों को भी समझा रहे हैं कि तुम भी कटवा लो। क्योंकि अगर सब की कट जाए, तो अपने को भी हानि न मालूम पड़े। अपनी भी कटी, कोई हर्जा नहीं। मगर दूसरे लोग पूंछ घुमा रहे हैं; मजे से नाच रहे हैं पूंछ के साथ। और जिनकी कटी है, उनको पीड़ा दे रहे हैं।

मुझसे साधुओं ने कहा है निकटता में कि हमें लगता है कि कहीं हमने भूल तो नहीं की संसार छोड्कर! क्योंकि अगर हम सच हैं, तो सभी लोग क्यों नहीं छोड़ देते! और हम कितना समझाते हैं, कोई नहीं समझता। तो भीतर शक पैदा होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम ही भूलकर रहे हैं।

और फिर वासनाएं भी उठती है; कि क्‍या पाया? बैठे रहते है पद्यासन लगाए, भीतर कुछ मिलता तो नहीं; पैर दुखते हैं, परेशानी होती है। उपवास कर लेते हैं, भूखे मरते हैं, कुछ फल तो होता दिखाई नहीं पड़ता। और अगर इससे थोड़ी प्रतिष्ठा ही मिलती है, तो प्रतिष्ठा तो बाजार में भी मिल सकती थी। बड़ा मकान बना लेते, तो भी मिल जाती, कुछ भूखा मरने की जरूरत न थी। प्रतिष्ठा के तो हजार उपाय थे।

ऐसा आदमी मैं नहीं देख पाता, जो बदलना न चाहता हो, जो जहां है, वहीं बदलना चाहता है। और मेरा अनुभव यह है कि आदमी ऐसे बदलता नहीं।

सिर्फ एक ढंग का आदमी बदलता है। और उस ढंग के आदमी न्यून हैं, इसीलिए बदलाहट नहीं होती। वह वह आदमी है, जो अपने को स्वीकार कर लेता है। तत्‍क्षण क्रांति घटित हो जाती है। तुम पूछोगे, यह क्रांति कैसे घटती है? क्योंकि कोशिश से नहीं घटती, और स्वीकार से घटती है! यह क्रांति कैसे घटती है जब तुम स्वीकार कर लेते हो?

इसका गहरा सूत्र है, इसका शास्त्र है।

जब कोई व्यक्ति अपने क्रोध को बदलने की चेष्टा छोड़ देता है। उदाहरण के लिए, तुम क्रोधी हो और तुम क्रोध छोड़ने की कोशिश में लगे हो। क्या करोगे तुम? तुम तीन बातें करोगे।

एक, तुम अक्रोध का आदर्श बनाओगे। तुम महावीर की फोटो लटकाओगे अपने घर में। और कहोगे कि ऐसा आदमी होना चाहिए कि कान में खीलें ठोंक दिए और क्रोध न आया! एक आदर्श तुमने बना लिया।

आदर्श बनाकर, महावीर की फोटो लटकाकर तुम बड़े प्रसन्न हुए कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, आदर्शवादी हूं। आज नहीं हूं महावीर जैसा, लेकिन कल तो हो जाऊंगा। तुमने भविष्य पैदा कर लिया। अगर इस जन्म में न हो पाया, अगले जन्म में हो जाऊगा। अगर जिन नहीं हो पाया, तो जैन तो कम से कम हो ही गया हूं। इतना क्या कम है! दूसरे तो अभी तक असदगुरुओं के चक्कर में पडे हैं। मैं देखो सदगुरु के चक्कर में पड़ा हूं।

इस आदर्श से तुम्हारा क्रोध नहीं मिटेगा। इस आदर्श के कारण तुम्हारे क्रोध के मिटने की संभावना ही समाप्त हो गई। क्योंकि तुमने अपने अहंकार को इस आदर्श से भर लिया। जो क्रोध से टूटता था और क्रोध कर—करके तुम्हें लगता था, मैं क्षुद्र, गया—बीता आदमी हूं नारकीय हूं पापी हूं वह भी गया।

अब तो तुम धर्मिक आदमी हो गये हो। रोज महावीर की पूजा करते हो, फूल चढाते हो। अब तुमने क्रोध में आभूषण लगा लिए। क्रोध तुम्हारा वहीं के वहीं है। कोई महावीर की फोटो टांगने से क्रोध जाता होता, तो इससे सस्ता क्या था करना! तो दुनिया से क्रोध चला गया होता कभी का। इससे तो कोई क्रोध जाता नहीं, इससे क्रोध की रक्षा होती है।

आदर्श, तुम जो हो, तुम्हें वैसा ही बनाए रखने में सहयोगी है। क्योंकि आदर्श तुम्हें अहंकार की तृप्ति देते हैं, भविष्य में। वर्तमान में तो कोई तृप्ति का कारण नहीं है, तुम रुग्ण हो, दुखी हो, पीड़ित हो, नरक हो। लेकिन भविष्य का मोक्ष तुम्हें आशा देता है। आशा के सहारे तुम अपनी तस्वीर बना लेते हो, भविष्य में, सुंदर प्रतिमा, महावीर जैसी, तुम भी खड़े हो नग्न, सब त्याग कर दिया है संसार का। यह सपना तुम्हारी असलियत के चारों तरफ एक झूठा व्यामोह। पैदा कर देता है। तुम आदर्शवादी हो गए।

आदर्शवादी से ज्यादा बुरा आदमी खोजना मुश्किल है। वह कहता है कि आज तो क्रोध है, ठीक है। इसमें कुछ हर्जा नहीं है। कल सब ठीक कर लूंगा। और कोई एक दिन में थोड़े ही बदलाहट होती है। धीरे— धीरे साका, क्रम—क्रम से जाऊंगा। पहले व्रत लूंगा एक, फिर दूसरा, फिर तीसरा। पहले अणु—व्रत लूंगा, फिर महाव्रत। धीरे— धीरे साफा।। पहले एक प्रतिमा साधूंगा, फिर दो प्रतिमा, फिर तीन प्रतिमा। ऐसे धीरे— धीरे साधते—साधते परम अवस्था को उपलब्ध हो जाऊंगा।

यह तरकीब है तुम्हारे मन की। यह मन यह कह रहा है कि भविष्य में सुंदर प्रतिमा बना लो, तो अभी तुम्हारी जो रुग्ण देह है, वह दिखाई पड्नी बंद हो जाएगी। यह सांत्वना है।

सब आदर्श जहर है। तुम जहर खा रहे हो। लेकिन जहर पर बड़ी मिठास लगी है। जहर की गोली पर शक्कर चढ़ी है। आदर्श किसी को बदलता नहीं है; आदर्श बदलाहट को रोकता है।

तो एक तो यह तुम करोगे। और दूसरा तुम यह करोगे कि आदर्श की तरफ चलने की थोड़ी चेष्टा शुरू करोगे। तुम नियम लोगे, कसम खाओगे कि मैं क्रोध न करूंगा। लेकिन अगर तुम क्रोध को रोकोगे, तो तुम हैरान होओगे, क्रोध रोको तो कामवासना बढ़ती है। क्योंकि ऊर्जा कहीं से बाहर जानी चाहिए।

तुमने खयाल भी किया होगा, अगर तुम कामवासना को रोको, तो क्रोध बढ़ जाएगा। थोडा प्रयोग करके देखो। एक महीने का ब्रह्मचर्य ले लो। तुम पाओगे, उस महीने में तुम ज्यादा चिड़चिड़े, क्रोधी हो गए।

ब्रह्मचारी चिड़चिड़े और क्रोधी हो जाते हैं। इसलिए तुम्हारे साधु दुर्वासा मालूम पड़ते हैं। तैयार ही खड़े हैं कि तुम कुछ कहो, वे अभिशाप दे दें। जन्म—जन्म बिगाड़ दें तुम्हारे।

तुमने देखा है, नाथ—पंथी साधु दरवाजे पर खड़े हो जाते हैं, अपना चमीटा हिलाते हैं, आगे—पीछे जाते हैं और घबड़ाहट पैदा कर देते हैं तुममें कि भैया दे ही दो कुछ। पता नहीं, क्या करे यह आदमी। तुम्हारी तरफ देखते ही नहीं, मांगते भी नहीं; बस, आगे—पीछे चलते रहते हैं और अपना चमीटा आगे करके बजाते रहते हैं कि सम्हल जाओ। वे तुमको डरवा रहे हैं।

तुम अगर ब्रह्मचर्य साधोगे, क्रोध बढ़ जाएगा। इसको तुम करके देखो। यह तो सीधा गणित है, केमिस्ट्री है शरीर की। जो ऊर्जा क्रोध से बाहर निकल रही थी, वह कहीं से तो निकलेगी!

भोजन तो तुम करते जा रहे हो, और मल—मूत्र का त्याग बंद कर दिया है, तो क्या होगा? क्रोध की जिन चीजों से निर्मिति होती हैं, वह तो जारी है। और क्रोध तुमने करना बंद कर दिया है। थोड़ी—सी केमिस्ट्री समझो, शरीर का रसायन समझो। यह कहीं से तो निकलेगा। या तो यह लोभ बन जाएगा या यह काम बन जाएगा। यह कोई न कोई रास्ता, या यह अहंकार बन जाएगा, लेकिन कुछ न कुछ बनेगा।

तुम एक दरवाजे से रोकोगे, दूसरा दरवाजा खोलेगा। तुम दूसरे दरवाजे से रोकोगे, तीसरा खोलेगा। यह कुछ बचना नहीं है। यह तुम व्यर्थ ही जीवन को उलझा रहे हो।

और ध्यान रहे, अगर कामवासना शुद्ध कामवासना हो, तो ब्रह्मचर्य तक जाना आसान है। जब कामवासना क्रोध बन जाती है, तो ब्रह्मचर्य तक जाना मुश्किल है, क्योंकि क्रोध असली बीमारी नहीं है। और तुम समझोगे कि क्रोध मेरी बीमारी है। तुम क्रोध को सम्हालने के उपाय करोगे। और असली बीमारी दूसरी है।

ठीक बीमारी हो, तो ठीक निदान किया जा सकता है। ठीक निदान हो, तो इलाज हो सकता है। अगर बीमारी ही झूठी हो, असली बीमारी ही न हो? किसी दमन से पैदा हुई हो, तो सब निदान के सूत्र खो जाते हैं, डायग्नोसिस खो जाती है, औषधि का उपाय नहीं बनता।

तो तुम यह करोगें कि तुम कसमें लोगे। इसलिए तुम पाओगे तुम्हारे साधुओं को, क्रोधी, दंभी, अकड़े हुए, झुक नहीं सकते!

साधु तो विनम्र होना चाहिए। यह अकड़ साधु में? तो फिर संसारी में अकड़ है, उसमें क्या हर्जा है? संसारी में कम अकडू है, क्योंकि संसारी साधु के चरण छूता है। जैन साधुओं के संप्रदाय हैं,। जौ हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं करते। क्योंकि साधु कैसे संसारी को नमस्कार कर सकता है?

यह बात बिलकुल बेहूदी है। क्योंकि तुम संसारी को देखते ही क्यों हो? तुमको आत्मा नहीं दिखाई पड़ती भीतर! परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता! तुम कपड़े देखते हो? तुम्हें प्राण नहीं दिखाई पड़ते? लेकिन जैन साधु किसी को नमस्कार नहीं कर सकता। क्योंकि नमस्कार और साधु और गृहस्थ को करे? असंभव!

इससे तो सूफी फकीर बेहतर, जो किसी के भी पैर छू लेते हैं—किसी के भी। सूफी फकीर से कोई मिलने जाएगा और वह पैर छू लेगा। क्योंकि वह कहता है कि विनम्रता तो साधु का लक्षण होना चाहिए। सभी पैर परमात्मा के हैं। किस बहाने आए, तुम जानो, हम तो पैर छुए लेते हैं। किस शक्ल में आए, यह तुम फिक्र करो, हम क्यों चिंता करें! जैसे आए, राजी हैं हम।

इसलिए सूफी फकीर में जो विनम्रता दिखाई पड़ेगी, वह जैन साधु में नहीं दिखाई पड़ेगी।

दबाओगे, रोग कहीं न कहीं से उभरेगा। फिर तुम क्या करोगे? क्या उपाय है तुम्हारे पास? तीसरा उपाय यह है—ये तीन चीजें तुम करोगे, आदर्श पैदा करोगे, व्रत लेकर दमन पैदा करोगे—और तीसरा उपाय है कि जीवन की ऊर्जा को क्षीण करोगे। क्योंकि उससे तुम्हें भय पैदा हो जाएगा।

अगर तुम ठीक से भोजन करोगे, तो कामवासना पैदा होगी, तो तुम डरने लगोगे भोजन से। तो तुम उपवास करने लगोगे। ही, यह बात सच है कि अगर ठीक भोजन न किया जाए, जरूरत की ताकत शरीर को भोजन से न मिले, तो कामवासना पैदा नहीं होती है। लेकिन कामवासना मिटती नहीं है। वह ऐसी हो जाती है, जैसे तुमने कभी वर्षा के दिनों में किसी बाढ़ आई नदी को देखा हो, और फिर गर्मी के तप्त दिनों में उसी नदी को देखो, तो रूखा—सूखा घाट रह जाता है! रेत रह जाती है, पानी खो जाता है। लेकिन फिर वर्षा आएगी, फिर नदी आपूर होकर बहेगी।

तो जिस व्यक्ति ने भोजन कम कर लिया, नींद कम कर ली—क्योंकि वह डरने लगता है; ज्यादा नींद ले, तो भय आता है, ज्यादा भोजन करे, तो भय आता है, ठीक से जीए, तो भय आता है—तो जिसने अपनी जीवन—ऊर्जा कम कर ली, वह सूखी हुई नदी हो जाएगा। नदी मिटती नहीं; नदी मौजूद है। सिर्फ वर्षा की प्रतीक्षा है, सब मौजूद है। पानी आया और बहने लगेगा।

तुम अपने साधुओं को एक महीना ठीक से भोजन दो, ठीक से विश्राम दो, आराम से बिस्तर पर सोने दो, और तुम पाओगे कि वै तुम जैसे हो गए। तो फर्क क्या था, जो महीनेभर में मिट गया? कोई फर्क नहीं है। सिर्फ वे दीन—ऊर्जा से जी रहे हैं।

पश्चिम में बड़े प्रयोग किए गए हैं। इक्कीस दिन के उपवास के बाद कामवासना क्षीण हो जाती है। क्योंकि शरीर के पास शक्ति नहीं रहती। शक्ति हो, तभी तो कामवासना पैदा हो सकती है। लेकिन तीन दिन के भोजन के बाद फिर कामवासना लौट आती है। तो क्या फर्क पड़ा? यह तो धोखा हुआ, प्रवंचना हुई।

ये तीनों बातें व्यर्थ हैं। फिर क्या करना? और तुम कहते हो, क्या यह संभव है कि हम अपने को स्वीकार कर लें?

यही केवल संभव है, बाकी सब असंभव है। असंभव तुम बहुत कर चुके, संभव करके देख लो। संभव यह है कि तुम स्वीकार कर लो अपने क्रोध को, अपने काम को। वे हैं; प्रकृति के हिस्से हैं; तुम्हारे हिस्से हैं। क्या फर्क होगा?

जैसे ही तुम स्वीकार करोगे, तुम्हारा अहंकार नीचे गिरेगा, जो कि आदर्शों से सम्हाला गया है, वह तत्‍क्षण गिर जाएगा। जब तुम देखोगे अपना क्रोध, और नरक, और देखोगे अपना अज्ञान और मूर्च्छा, और देखोगे अपने भीतर की वासनाएं, सांप—बिच्छुओं, जहरीले जानवरों की तरह घूमती हुई, और देखोगे भीतर का अंधकार और दुर्गंध, और नर्क, तो तुम्हारा अहंकार कैसे टिकेगा? तो पहली क्रांति घटती है, अपने को ठीक से देखने वाले व्यक्ति का अहंकार गिर जाता है। और अहंकार के गिरते ही क्रांति शुरू होती है।

दूसरी घटना घटती है, जब तुम अपने क्रोध को गौर से देखते हो, और स्वीकार करते हो, और कहते हो, मैं क्या कर सकूंगा, मेरी क्या सामर्थ्य है? न मैंने क्रोध पैदा किया है, न मैं मिटा सकूंगा। जब तुम अपने क्रोध को स्वीकार कर लेते हो, न केवल अपने भीतर बल्कि अपने आस—पास, मित्र—प्रियजनों को भी कह देते हो कि मैं क्रोधी आदमी हूं; तुम ज्यादा मुझ पर भरोसा मत करना। मैं किसी भी वक्त उपद्रव खड़ा कर सकता हूं। मैं एक जलती हुई आग हूं? जिसमें कभी भी विस्फोट हो जाए। मैं एक छिपा हुआ ज्वालामुखी हूं। जब तुम अपने प्रियजनों को ये सारी बातें कह दोगे, जब तुम अपने को उघाड़कर रख दोगे, तुम अचानक पाओगे कि इस उघाड़ने में ही क्रोध के प्राण निकल गए। और यह कहते—कहते ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक शांति आनी शुरू हो गई, जो तुमने कभी नहीं जानी थी।

जब बेईमान स्वीकार कर लेता है कि मैं बेईमान हूं; तो ईमानदारी की शुरुआत हो गई। क्योंकि इससे बड़ा कोई ईमान नहीं है दुनिया में, यह स्वीकार कर लेने से बड़ा कि मैं बेईमान हूं। बेईमान कोशिश करता है कि मैं बेईमान नहीं हूं।

क्रोधी कोशिश करता है कि मैं और क्रोधी? सारी दुनिया क्रोधी है। मुझे तो अगर क्रोध करना भी पड़ता है, तो लोगों को सुधारने के लिए। अन्यथा मैं कभी क्रोध करता ही नहीं। या मैं तो सिर्फ दिखावा करता हूं। वह कोई क्रोध थोड़े ही है।

झूठ बोलने वाला कोशिश करता है समझाने की कि वह कभी झूठ नहीं बोलता। लेकिन अगर तुम घोषणा कर दो कि मैं झूठा आदमी हूं बेईमान हूं छिपाओ मत, तुमने सच्चा होना शुरू कर दिया।

यह तुम्हें बड़ा उलटा दिखाई पड़ेगा। झूठ को स्वीकार करके कि मैं झूठा आदमी हूं तुमने सचाई की तरफ पहला कदम उठा लिया। इससे बड़ी कोई सचाई है? और जो आदमी कहता है, मैं झूठा हूं? क्रोधी हूं कामी हूं, यह साधु होना शुरू हो गया। जैसे—जैसे इसकी प्रतीति गहरी होगी और यह अपने को प्रकट करेगा, जैसा यह है, वैसा ही प्रकट करेगा, न छिपाएगा, न दबाएगा……!

क्या फायदा है? किसके सामने प्रतिमा खड़ी करनी है? अहंकार के गिरते ही अपनी अच्छी प्रतिमा बनाने का मोह भी गिर जाता है। किसके सामने? किसको समझाना है? और दुनिया मुझे बहुत बड़ा साधु समझे, इससे लाभ क्या है? जो मैं हूं मैं हूं। मेरा नर्क भीतर है। सारी दुनिया समझे कि मैं स्वर्ग में जी रहा हूं इससे क्या फर्क पड़ता है!

जिस व्यक्ति ने अपने को स्वीकार कर लिया प्रामाणिकता से, राजी हो गया, क्रांति शुरू हो जाती है। क्रांति तुम्हारे करने से नहीं होती। क्रांति तो तुम्हारी स्वीकृति से होती है।

भाग्य बड़ी क्रांति का सूत्र है। वह शब्द बिगड़ गया। हमने खराब कर दिया। उसका राज चला गया। अन्यथा उसका मतलब केवल इतना है कि तुम अपने को स्वीकार करो। और तुम जैसे हो, वैसे ही रहो। और वैसे ही अपने को प्रकट करो। धीरे— धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में एक क्रांति उतर रही है, जो तुम्हारे द्वारा नहीं लाई गई है, जो तुम्हारी स्वीकृति से अपने आप आई है।

मैंने केवल उन्हीं लोगों को बदलते देखा है, जिन्होंने बदलने का प्रयास छोड़ दिया और अपने को अंगीकार कर लिया। स्वीकार, संतोष, सहजता, ये क्रांति के सूत्र हैं।

अब सूत्र:

हे अर्जून, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है। उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए हैं।

इसलिए ब्रह्मवादिन श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र—विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप—रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं।

और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही सब है, ऐसे इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तप—रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं।

समझें।

हे अर्जुन, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन रूप ब्रह्म का नाम कहा है..।

तत् का अर्थ होता है, वह, दैट। भक्त भगवान को कहता है तू वह नहीं। क्योंकि भक्त कहता है, वह तो बड़ा बेजान शब्द है। इसमें कुछ रस नहीं मालूम होता। बड़ी दूरी मालूम पड़ती है। तू में निकटता है, आत्मीयता है, अपनापन है, सामीप्य है। वह, रेगिस्तान जैसा सूखा है। जहां जल की जरा भी धार नहीं मालूम होती, जहां कोई मरूद्यान दिखाई नहीं पड़ता; जहां हरियाली का कोई पता नहीं चलता।

वह शब्द बड़ा तटस्थ शब्द है, तत्, इसमें कोई भाव नहीं है, बड़ा अनासक्त, रूखा—सूखा, संगीत—शून्य। जैसे हमारा कोई संबंध नहीं है, कोई निकटता नहीं है। इसलिए भक्त तो तू का उपयोग करते रहे हैं, लेकिन ज्ञानी तत् का उपयोग करते हैं।

पश्चिम में एक बहुत बड़ा यहूदी विचारक हुआ, मार्टिन बूबर। इस सदी की कुछ महत्वपूर्ण किताबों में उसकी एक किताब है, आई एंड दाऊ, मैं और तू। उसमें बूबर ने सिद्ध करने की कोशिश की है कि हिंदुओं का वह, तत्? यहूदियों के तू से ऊपर नहीं जाता।

बूबर गलत है। किताब बड़ी कीमती है। उसका भाव भी ठीक है, लेकिन उसकी धारणा सही नहीं है।

तू तो कितना ही निकट मालूम पड़े, उसमें मैं थोड़ा—सा मौजूद रहता है। क्योंकि बिना मैं के तू कैसे अर्थपूर्ण होगा? जब हम कहते हैं तू तो मैं भी हूं। कौन कहेगा तू? मैं तो बना ही रहेगा। कितनी ही फीकी हो जाए रेखा, कितना ही छिप जाए, लेकिन छिपा हुआ भी तो होगा। अन्यथा कौन कहेगा तू? तू में तो मैं मिला ही हुआ है।

तू बहुत सामीप्य है, सुंदर है प्रेमपूर्ण है, भक्त के भाव को प्रकट करता है, निकटता की सूचना देता है, आर्द्र है, हृदय से भरा है, धड़कता है। वह, निर्जीव लगता है। लेकिन वह की अपनी खूबी है। वह तू से आगे जाता है। और वह में भी रस है। लेकिन वह तभी तुम्हें दिखाई पड़ेगा, जब तुम मैं और तू से आगे गए। उसके। पहले नहीं दिखाई पड़ेगा।

उसके पहले तो हम वृक्षों को कहते हैं वह। तुम वृक्ष को तो तू नहीं कहते? पत्थर को कहते हैं वह। पत्थर को तो तुम तू नहीं कहते? तुम्हें पता ही नहीं है।

इसीलिए तुम जब ब्रह्म को भी वह कहोगे, तत्, तब तुम्हें लगेगा कि यह तो ज्ञानियों की बड़ी सूखी बात हो गई। इसमें हृदय में कहीं धड़कन नहीं होती, वीणा कहीं बजती नहीं भीतर की। यह तो कुछ बुद्धिगत, बौद्धिक मालूम होती है बात। भक्त को आप्लावित नहीं करती, नचाती नहीं।

वह के आस—पास नाचना बड़ा मुश्किल है। कृष्ण की गोपियां तू के आस—पास नाच रही हैं। वह के आस—पास कैसे नाचोगे? नाच बंद हो जाएगा। तार हाथ से छूट जाएंगे। गीत अवरुद्ध हो जाएगा। तो सारे भक्तों ने—यहूदी, इस्लाम, हिंदू जहां—जहां भक्ति पैदा हुई—उन्होंने ओम तत् सत् को इनकार किया है। उन्होंने वह परमात्मा है, ऐसी बात नहीं कही। तू परमात्मा है, ऐसी बात कही है।। लेकिन कृष्ण कहते हैं, ओम तत् सत्। वह ओंकार—स्वरूप है, वह—स्वरूप है और सत्य है।

इसे ठीक से समझ लें। इसका अनुभव तुम्हें नहीं है, वह के आनंद का, इसलिए सूखा लगता है। अन्यथा वह जैसे बादल कभी घिरते ही नहीं। और जैसी वर्षा उनसे होती है, तू से क्या खाक होगी! क्योंकि तू में तुम तो रहोगे मौजूद। मैं भी मौजूद रहेगा। और उतनी ही अड़चन रहेगी। तुम परमात्मा के निकट भला पहुंच जाओ, परमात्मा न हो सकोगे।

और जितनी निकटता बढ़ती है, उतनी ही दूरी खलती है। जितने—जितने पास आते हो, उतना ही लगता है, कब एक हो जाएं! छलांग हो जाए! उतना ही विरह का ज्वार पैदा होता है। सिर्फ वह की घड़ी ही तुम्हें एक कर पाएगी।

वह के दो हिस्से हैं, एक है, ओम तत् सत्। परमात्मा वह—स्वरूप है, दैटनेस। और दूसरा सूत्र है उपनिषदों का, जो इसे पूरा करता है, तत्वमसि श्वेतकेतु—वह तू ही है श्वेतकेतु, वह कोई अलग नहीं है। तो इसे कैसे तुम अनुभव करोगे?। वह की थोड़ी साधना करनी पड़ेगी। वृक्ष के पास बैठो, शांत होकर बैठो। कोई शब्द, विचार न उठे मन में। सिर्फ बैठो। वृक्ष को छुओ भला, बोलो मत, सोचो मत; वृक्ष को आलिंगन कर लो, इस बात की प्रतीति करो तुम्हारे और वृक्ष के बीच में कोई शब्द न रह जाए।

अचानक तुम पाओगे, तुम वृक्ष हो गए, वृक्ष तुम हो गया। अचानक सीमा टूट गई। बीच में कुछ बहने लगा। दोनों के बीच कोई सेतु बन गया, कोई सागर लहराने लगा। वृक्ष तुम्हारे पास आने लगा। तुम वृक्ष के भीतर, वृक्ष तुम्हारे भीतर। वृक्ष की हरियाली तुम्हें हरा करने लगी। तुम्हारा चैतन्य वृक्ष को चेतन बनाने लगा। तब तुम्हें थोड़ी—सी प्रतीति वह की होगी। न तुम रहे, न वृक्ष रहा।

वृक्ष के साथ शायद कठिन हो। जिसे तुम प्रेम करते हो—पत्नी को, प्रेयसी को, मित्र को—कभी उसका हाथ हाथ में लेकर बैठ जाओ। और एक ही प्रयोग करो कि दोनों के चित्त में कोई विचार न हो। वहां जरा थोड़ी कठिनाई है वृक्ष से, क्योंकि वहा दूसरे के भी विचार बाधा बनेंगे। इसलिए मैंने पहले वृक्ष को कहा।

दोनों शांत बैठ जाओ। देखते रहो आकाश में उगे चांद को पूर्णिमा की रात में। शांत बैठे रहो, मौन। प्रेम को ध्यान बनाओ। थोड़ी ही देर में तुम कभी—कभी झलक पाओगे, एकाध क्षण को तुम दोनों के विचार जब बंद हो जाएंगे, ऐसा मेल जब बैठ जाएगा संयोग से, तो तुम अचानक पाओगे, किसी विराट ऊर्जा ने तुम्हें घेर लिया, वह ने तुम्हें घेर लिया। तुम दोनों एक हो गए। और उस एकता के क्षण में न तो मैं था, और न तू था।

ऐसी ही अनुभूति की अंतिम सीमा है, ओम तत् सत्। जब कोई व्यक्ति इस पूरे अस्तित्व के साथ एकता का अनुभव करता है, कोई भेद नहीं रह जाता; अंश अंशी के साथ मिल जाता है, लहर सागर में खो जाती है।

हे अर्जुन, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है…..।

इसलिए हिंदुओं की जो परम प्रज्ञा है, उसने परमात्मा को वह कहा है। वह कोरा शब्द नहीं है, न रूखा शब्द है। ही, तुम्हें रूखा मालूम पड़ता है, क्योंकि तुमने उसका स्वाद कभी लिया नहीं। जिन्होंने उसका स्वाद लिया, उनके लिए मैं और तू शब्द बिलकुल फीके हो गए। उन्होंने असली को जान लिया, तो मैं और तू छायाएं मालूम पड़ने लगे।

कितनी ही सुंदर हो छाया, चित्र कितना ही प्यारा हो, मूल के साथ एक—सा तो नहीं हो सकता। और कितना ही प्यारा हो, मूल तो नहीं हो सकता। वह मूल है। वह दो में टूट गया है, मैं और तू। और जब तक मैं और तू न मिल जाएं, तब तक तुम्हें उसका कोई अनुभव न होगा। ‘और ओम उसका नाम है।

ओम तीन मात्राओं से बना है, अ उ म, ए यू एम। यहां कृष्ण त्रिगुण की ही चर्चा किए चले जा रहे हैं। वे सब दिशाओं से अर्जुन को कह रहे हैं, सारा अस्तित्व तीन से बना है। ओम भी तीन से बना है।

ओम कोई शब्द नहीं है। उसका कोई भाषाकोशगत अर्थ नहीं है। वह ध्वनि है। और बड़ी अदभुत ध्वनि है। और वह ध्वनि मनुष्य निर्मित नहीं है। वह ध्वनि तब उपलब्ध होती है, जब तुम्हारे सब विचार शून्य हो जाते हैं। जब तुम्हारी मनुष्यता खो जाती है, सभ्यता, संस्कृति सब खो जाती है। जब तुम कोरे आकाश जैसे खाली रह जाते हो, कोरे कागज जैसे, तब तुम्हारे भीतर एक नाद का आविर्भाव होता है।

आविर्भाव होता है, कहना ठीक नहीं। नाद तो बज ही रहा था, तुम खाली न थे, इसलिए सुन न पाते थे। अब तुम सुन रहे हो। खाली हो गए हो, अब बाजार का कोलाहल बंद हो गया, अब मन की बकवास बंद हो गई, अब तुम सुन पाते हो।

तुम्हारे भीतर जो नाद अहर्निश चल रहा था, उस अहर्निश नाद का ढंग ओम है। वह ओंकार जैसा मालूम होता है, जैसे भीतर कोई ओम, ओम, ओम की अहर्निश ध्वनि किए जा रहा है। तुम नहीं कर रहे हो, तुम तो चुप हो, तुम तो हो ही नहीं; तुम तो खो गए हो, ओंकार गंज रहा है।

इसलिए मैं कहता हूं अपने साधकों को कि तुम ओंकार को साधना मत। नहीं तो तुम्हारा सधा हुआ ओंकार तुम्हें कभी उस ओंकार को न जानने देगा, उस ओंकार से तुम्हें वंचित रखेगा, जो अनाहत है।

अनाहत का अर्थ ही होता है कि जो तुम्हारे द्वारा पैदा नहीं हुआ; जो किसी से पैदा नहीं हुआ।

अब इसे थोड़ा समझ लो।

तुम ओंकार से पैदा हुए हो; ओंकार तुमसे पैदा नहीं हुआ। ओंकार तुमसे पूर्व है। तुम ओंकार का ही सघन रूप हो। ओंकार मूल तत्व है। ओंकार का मतलब है, वह नाद, जो सारे अस्तित्व में

चल रहा है। उस नाद के अलग— अलग रूप अलग—अलग ढंग हैं। तुम जब बिलकुल शांत हो जाओगे, तुम उसे बजता हुआ पाओगे। बड़ी कठिनाई है। अगर तुमने ओम का रटन शुरू कर दिया, और तुमने इसका मंत्र बना लिया, और तुम ओम— ओम जपते रहे, तो तुम जो ओम सुनोगे, वह मन का ही नाद होगा। वह तुम्हारा ही ओम है। तुमसे पैदा हुआ है, झूठा है। वह वह ओंकार नहीं है, जिसकी कृष्ण अर्जुन से बात कर रहे हैं।

ओम तत् सत्, ऐसे तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है।

यह सच्चिदानंद भी तीन शब्दों से बना है, सत् चित् आनंद। अ उ म, अ सत् का प्रतीक है, उ चित् का, म आनंद का। ओम प्रतीक है सच्चिदानंद का।

जब उस ओंकार की ध्वनि तुम्हारे भीतर बजेगी, तब तुम तीन चीजें अपने भीतर पाओगे। पाओगे कि तुम हो, तुम्हारा होना। तुम नहीं, होना। मैं नहीं, अस्तित्व। हम कहते हैं, मैं हूं। उसमें से मैं तो कट जाएगा, हूं बचेगा। हूं — भाव सत् है।

और दूसरी चीज तुम पाओगे चित्, चैतन्य, कि तुम परम चैतन्य से भरे हो, होश, जागृति। दिन हो गया, रात कट गई। मूर्च्छा गई, प्रमाद टूटा। दीया जल रहा है, अकंप उसकी लौ है।

और आनंद। और तुम अपने को आनंद से घिरे हुए पाओगे; जैसे आनंद के बादल तुम पर बरस रहे हों।

ये तीन उसके लक्षण हैं, उसके मंदिर के करीब पहुंचने के। और ओंकार उसका नाद है।

उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए……।

फिर तीन ब्राह्मण, वेद और यज्ञ। यह बड़ा सारपूर्ण वचन है। उसी ओंकार से, उसी वह से सब जन्मा है। जन्म को तीन हिस्सों में बांट रहे हैं कृष्ण।

ब्राह्मण। ब्राह्मण का अर्थ है वह, जिसने उसे जान लिया। ब्राह्मण का अर्थ है, ज्ञानी। ब्राह्मण का अर्थ है, ब्रह्म को उपलब्ध। ब्राह्मण का अर्थ है, जो ब्रह्म—स्वरूप हो गया, जिसने अपने भीतर अहर्निश अनाहत नाद को सुन लिया। जो सच्चिदानंदघन रूप हो गया, वह ब्राह्मण।

इसका क्या मतलब हुआ कि आदि में उससे ही ब्राह्मण पैदा होते हैं? इसका अर्थ हुआ कि जब भी कोई ब्रह्म को जानता है ‘ तो अपने द्वारा नहीं जानता, ब्रह्म के द्वारा ही जानता है। खुद को तो मिटा लेता है। बस, इतना ही तुम्हें करना है कि तुम मिट जाओ, खाली जगह हो जाओ, सिंहासन से उतर जाओ। और ब्रह्म सिंहासन पर उतर आता है। ब्राह्मण तुम अपनी चेष्टा से नहीं हो सकते।

बड़ी पुरानी कथा है कि विश्वामित्र क्षत्रिय घर में पैदा हुए और ब्राह्मण होना चाहते थे। लेकिन कोई कैसे अपनी चेष्टा से ब्राह्मण हो सकता है? उन्होंने बड़ी चेष्टा की, बड़ा तप किया।

वशिष्ठ उन दिनों ब्रह्मज्ञानी थे। और जब तक वशिष्ठ न कह दें कि तुम ब्राह्मण हो गए, तब तक स्वीकृति न थी। बड़ी तपश्चर्या की, बड़ी कोशिश की। लेकिन वशिष्ठ ने न कहा, न कहा।

यह कथा कोई वर्ण—व्यवस्था की कथा नहीं है। यह चेष्टा और प्रसाद की कथा है। लोगों ने यही समझा है कि वर्ण—व्यवस्था की कथा है कि क्षत्रिय कैसे ब्राह्मण हो सकता है! क्योंकि वर्ण तो जन्म से है।

नहीं, इस कथा से वर्ण का कोई संबंध नहीं है। कथा चेष्टा और प्रसाद की है। कोई चेष्टा से कैसे ब्राह्मण हो सकता है? परमात्मा के प्रसाद से होता है। और विश्वामित्र तो क्षत्रिय थे। क्षत्रिय तो चेष्टा से जीता है। वही तो फर्क है।

राजस व्यक्ति चेष्टा से जीता है। सात्विक व्यक्ति प्रसाद से जीता है। आलसी व्यक्ति न तो चेष्टा से जीता है, न प्रसाद से जीता है, वह तो मुरदे की तरह पड़ा रहता है। ऐसे ही घसिटता है, जीता ही नहीं।

क्षत्रिय ने बड़ी चेष्टा की। महान तप किया। वर्षों बीत गए। लेकिन वशिष्ठ के मुंह से न निकली यह बात कि विश्वामित्र ब्राह्मण हैं। क्षत्रिय तो क्षत्रिय। और वशिष्ठ के मुंह से न निकली, कारण भी यही था कि अभी भी क्षत्रिय मौजूद था, अभी भी चेष्टा मौजूद थी। अहंकार मौजूद था कि मैं ब्राह्मण होकर रहूंगा! क्योंकि अगर ब्राह्मण जो कर सकता है, सब मैं कर रहा हूं। ब्राह्मण को जो शुद्धि चाहिए, सब मुझ में हो गई है। मंदिर पूरा तैयार है।

लेकिन मंदिर के पूरे तैयार होने से कोई परमात्मा की प्रतिष्ठा थोड़े ही हो जाती है। मंदिर बिलकुल तैयार है। सब ठीक है। लेकिन मंदिर में मूर्ति नहीं है। मूर्ति तुम न ला सकोगे। तुम तो मंदिर तैयार कर सकते हो। प्रार्थना कर सकते हो कि आओ, उतरी। आह्वान कर सकते हो। उतर आए परमात्मा, उतर आए। न उतरे, तुम क्या करोगे!

हमेशा उतर आता है, जब तुम खाली होते हो, जब मंदिर तैयार होता है। लेकिन थोड़ी अड़चन थी, विश्वामित्र खाली न थे, अहंकार से भरे थे, चेष्टा से भरे थे।

वर्षों बीत गए, बुढ़ापा करीब आने लगा। और विश्वामित्र……। एक दिन शिष्यों ने कहा कि हम फिर गए थे पूछने। और वशिष्ठ को पूछा; उन्होंने कहा कि विश्वामित्र और ब्राह्मण? कभी नहीं। क्षत्रिय है और क्षत्रिय ही है।

क्रोध आ गया; उठा ली तलवार। क्षत्रिय ही थे, भूल गए वे तप, तपश्चर्या, सब तंत्र—मंत्र। सब बंद। खींच ली तलवार, एक क्षण में वर्षों की तपश्चर्या खो गई। वर्षों का ब्राह्मण का जो रूप था, खो गया।

रूप का कोई मूल्य नहीं है, अंतरात्मा चाहिए। अंतसात्मा क्षत्रिय की थी, चेष्टा, संकल्प। ब्राह्मण है समर्पण। क्षत्रिय है संकल्प, विल पावर। खींच ली तलवार, भागे।

पूरे चांद की रात थी। वशिष्ठ अपने झोपड़े के बाहर अपने शिष्यों से कुछ ब्रह्मचर्चा करते थे। मौका ठीक नहीं था, इस समय बीच में कूद पड़ना उचित न था। बहुत लोग थे। तो विश्वामित्र छिप गए एक झाड़ी के पीछे कि जब लोग विदा हो जाएंगे और वशिष्ठ अकेले रह जाएंगे, तो आज इसको खतम ही कर देना है। मैं और ब्राह्मण नहीं?

झाड़ी के पीछे छिपे बैठे सुनते रहे। चर्चा चलती थी, किसी शिष्य ने वशिष्ठ को पूछा कि आप विश्वामित्र को कब ब्राह्मण कहेंगे? उसकी पीड़ा को समझें! उसकी तपश्चर्या को देखें!

वशिष्ठ ने कहा, सब पूरा हो गया है। किसी भी क्षण कहने को मैं राजी हूं अब। जरा—सी कमी क गई है। अहंकार शुद्ध हो गया है, लेकिन मौजूद है अभी। मैं ब्राह्मण कहने को तैयार हूं किसी भी क्षण। जरा—सी कमी है; एक बारीक रेखा अहंकार की रह गई है,। बस। जिस क्षण पूरी हो जाए। विश्वामित्र करीब—करीब ब्राह्मण हैं। तुम से ज्यादा ब्राह्मण हैं।

वे जन्मजात ब्राह्मण थे, जो पूछ रहे थे। कहा, तुमसे ज्यादा ब्राह्मण हैं। लेकिन अगर इसी तरह का ब्राह्मण उनको बनना हो, तो मैं कहने को राजी हूं, इसमें क्या अड़चन है! मगर विश्वामित्र से बड़ी आशा है। बड़ी संभावना छिपी है उस आदमी के भीतर। और इसलिए मैं रोक रहा हूं रोक रहा हूं, रोक रहा हूं। मैं उसी दिन कहूंगा, जिस दिन बात बिलकुल पूरी हो जाए। उसके पहले कहने से रुकावट पड़ेगी।

सुना विश्वामित्र ने छिपे हुए झाड़ी में। फेंक दी तलवार, भागे। वशिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े। वशिष्ठ ने कहा, ब्राह्मण, उठो!

ब्राह्मण हो गए, एक क्षण में। हाथ में तलवार थी, क्षत्रिय था, राजस था। एक क्षण में तलवार गिरी, संकल्प गिरा, समर्पण हुआ, पैर छू लिए, विनम्र हो गए। ब्राह्मण हो गए। ब्रह्म उतर आया। ब्राह्मण का अर्थ है, जिसमें ब्रह्म उतर आया।

कृष्ण कहते हैं, पहली चीज ब्राह्मण परमात्मा ने बनाई। फिर ब्राह्मण ने जो कहा, ब्रह्म को जानकर जो कहा, उससे वेद निर्मित हुए। वे परमात्मा से जरा दूर हैं; जरा—सी दूरी है। ब्राह्मण बीच में खड़ा है, ब्रह्मज्ञानी ‘

ब्रह्मज्ञानी परमात्मा के निकटतम है। फिर ब्रह्मज्ञानी ने जो कहा। वह भी परमात्मा ही बोल रहा है, क्योंकि अब ब्रह्मज्ञानी है नहीं, अब तो ब्रह्म ही है, वही बोल रहा है। लेकिन एक सीढ़ी का फासला है। बीच में गुरु खड़ा है, ब्रह्मज्ञानी खड़ा है, ब्राह्मण खड़ा है।

ब्राह्मण ने जो बोला, वे वेद। और वेद को मानकर जो किया जा सकता है, वह यज्ञादि।

और एक कदम का फासला हो गया। वेद को मानकर जो कृत्य किए जा सकते हैं, कर्म—काड, वह यज्ञ इत्यादि। परमात्मा, ब्राह्मण, वेद, यज्ञ।

जो तमस प्रकृति का व्यक्ति है, वह यज्ञादिको को चुनेगा। जो रजस प्रकृति का व्यक्ति है, वह वेद आदि को चुनेगा। जो सत्व प्रकृति का व्यक्ति है, वह गुरु, ब्राह्मण, सदगुरु को चुनेगा।

अगर ब्राह्मण उपलब्ध हो, तो वेद को मत चुनना। क्योंकि क्या फायदा सेकेंड हैंड, बासे शब्दों में! जब ब्राह्मण उपलब्ध हो, जहां से कि ताजी सरिता अभी वेद की पैदा हो रही हो, तो वेद को मत चुनना। अगर गुरु उपलब्ध हो, तो शास्त्र व्यर्थ। अगर गुरु उपलब्ध न हो, तो शास्त्र को चुनना, क्रिया—काड को मत चुनना। शास्त्र को समझना। शास्त्र समझने के लिए है, करने के लिए नहीं। समझ से मुक्ति होती है। समझ पर्याप्त है।

जो शास्त्र के रहते क्रिया—कांड चुन लेता है, वह निपट मूढ़ है। लेकिन अगर शास्त्र भी उपलब्ध न हो, तब किया—काड ही शेष रह। जाता है। किया—काड आखिरी प्रतिध्वनि है परमात्मा की।

एक आदमी मंदिर में थाली लेकर पूजा कर रहा है। यह आखिरी ध्वनि है परमात्मा की। फिर एक आदमी गीता का अध्ययन कर रहा है, स्वाध्याय कर रहा है, समझने की कोशिश कर रहा है। यह जरा निकट है। यह मंदिर में आरती उतारने से ज्यादा निकट है। यह आग जलाकर, उसमें घी फेंकने से ज्यादा निकट है। यह क्रिया—काड से ज्यादा गहरी है, क्योंकि यह चैतन्य में प्रवेश करेगी।

फिर एक आदमी गुरु के पास बैठा है, कुछ भी नहीं कर रहा है।

न क्रिया—कांड है गुरु के पास, न शास्त्र का अध्ययन है। सामीप्य है, सत्संग है। गुरु के पास बैठा है। सिर्फ पास होना है, निकटता है, कुछ घट रहा है।

तीन ही तरह के व्यक्ति हैं और तीन हो परमात्मा के कदम हैं। यज्ञदिकों से बचा जा सकता है, तो बचना। शास्त्रों से बचा जा सके, बचना। अगर गुरु खोज सको जीवित, ब्राह्मण खोज सको जीवित, तो वहां से ब्रह्म का सीधा, निकटतम द्वार है।

यह भी संभव है कि बिना गुरु के भी ब्रह्म मिल जाए। अगर वह भी संभव हो सके, तो गुरु से भी बचना। लेकिन वह अति कठिन है। कठिन तो है यज्ञ से ही बचना। फिर और कठिन है शास्त्र से बचना। फिर अति कठिन है गुरु से बचना। अपनी जीवन—स्थिति को सोचकर अपने कदम को चुनना।

ब्राह्मण, वेद तथा यज्ञादिक रचे……।

ब्रह्मवादिन श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र—विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप—रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं।

सारे शास्त्र भारत के ओंकार से शुरू होते हैं, ओंकार पर पूर्ण होते हैं। यह प्रतीक है। यह प्रतीक है कि परमात्मा ही प्रारंभ है और परमात्मा ही अंत है। वहीं से तुम आते हो, वहीं लौट जाते हो। वहां वर्तुल पूरा होता है। वही पहला कदम, वही आखिरी कदम। वही जन्म, वही मृत्यु। इसलिए ओम से शुरू होते हैं, ओम पर पूर्ण होते हैं।

और ऐसा ही तुम्हारा जीवन होना चाहिए; ओम से शुरू हुआ है, ओम पर ही पूर्ण हो। शुरू तो ओम से ही हुआ है, तुम्हें चाहे पता भी न हो। तुम्हें पता भी नहीं हो सकता, जब तक ओम पर पूर्ण न हो। जिस दिन ओम पर पूर्ण होगा, उस दिन तुम जानोगे कि ओम से ही शुरू हुआ, ओम में ही चला, ओम में ही पूरा हुआ।

जैसे मछली सागर में पैदा होती है, सागर में ही जीती, सागर में ही लीन हो जाती। ऐसे ही, शास्त्रों में प्रतीक है, कि ओम से शुरू होता, ओम पर पूर्ण होता। ऐसा ही तुम्हारा जीवन भी हो। तुम्हारा प्रत्येक कृत्य ओम से शुरू हो और ओम पर पूरा हो।

थोड़ा खयाल करो। तुम दुकान पर बैठो, ओम से ही दुकान खोलो। यह ओम कई तरह का हो सकता है। यह ओम सिर्फ यज्ञादिक हो सकता है। तब करीब—करीब व्यर्थ है। तुमने कह दिया, लेकिन कुछ प्रयोजन नहीं है। आदत है, एक औपचारिकता है, पूरा कर दिया।

लेकिन यह भाव का भी हो सकता है। यह गहरा भी हो सकता है। तुमने पूरे हृदय से कहा, तो तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया में अंतर पड़ जाएंगे। तो तुम दुकान पर बैठोगे, लेकिन तुम वही न हो पाओगे, जो कल तक थे। और जब ग्राहक आएगा और तुम कुछ बेचना शुरू करोगे, अगर ओम से ही शुरू किया, तो तुम ग्राहक को उस आसानी से न लूट पाओगे, जिस आसानी से तुम लूट लेते। थोड़ी करुणा होगी, थोड़ी दया होगी, थोड़ा सदभाव होगा।

प्रत्येक कृत्य को ओम से शुरू करने की अगर दृष्टि आ जाए भाव से, तो तुम पाओगे, एक छोटी—सी घटना तुम्हारे पूरे जीवन को बदल देती है। लेकिन उपचार हो, तो कोई सार नहीं।

ऐसा हुआ, मैं एक घर में मेहमान था आगरा में। और घर के जो मालिक थे, एक बड़े फोटोग्राफर थे और बड़े भक्त थे। पहली ही दफा उनके घर मेहमान था, तो उन्होंने कहा कि आपको स्टूडियो चलना पड़ेगा। घर से ही लगा हुआ स्ट्रडियो था। और कुछ चित्र आपके मैं बिना लिए नहीं जाने दूंगा। तो मैंने कहा कि ठीक है। मैं गया।

देखा तो बड़े धार्मिक आदमी थे। धार्मिक अतिशय थे, जितनी कि अपेक्षा भी नहीं कर सकते। मुझे कुर्सी पर बिठाएं, तो ओम, प्लग लगाएं बिजली का, तो ओम, पंखा चलाएं, तो ओम। अदभुत आदमी हैं! और मैं तो पहली दफे ही, तो उनको जानता भी नहीं था। कुर्सी उठाएं, तो ओम। हर काम करें, तो ओम। बटन दबाएं कैमरे की, तो ओम।

और मेरे साथ एक मेरे मित्र थे, जो मिलने मुझे आए थे। आगरा ही रहते हैं। वे मेरे पास ही बैठे थे एक कुर्सी पर। एक नौकरानी निकली और उन्होंने कहा कि मुझे जरा प्यास लगी है; एक गिलास पानी ले आओ।

वे फोटोग्राफर सज्जन एकदम नाराज हो गए, बोले, ओम। शर्म नहीं आती, मर्द होकर और स्त्री को आज्ञा देते हो!

मैं थोड़ा हैरान हुआ कि मामला क्या है। इसमें ऐसी कोई नाराज होने की बात न थी। लेकिन इसके पहले भी उन्होंने ओम जरूर कहा। ओम, शर्म नहीं आती, मर्द होकर स्त्री को आशा देते हो? खुद जाते नहीं बनता?

तो वे आदमी उठकर बाहर चले गए। मैं थोड़ा चौंका। जब वे बाहर चले गए, तब उन्होंने कहा, यह आदमी कम्युनिस्ट है। मगर इसके पहले भी उन्होंने कहा, ओम। यह आदमी कम्युनिस्ट है और नास्तिक को मैं पानी भी नहीं पिलाना चाहता। आप कुछ और मत सोचना। इसलिए आप यह मत सोचना कि मैं कोई. मगर। नास्तिक को मैं पानी भी नहीं पिलाना चाहता।

मगर यह आदमी ओम कहे जा रहा है, कोई प्यासा हो, उसको पानी नहीं पिला सकता। इसके पहले भी ओम कहता है। यह ओम यात्रिक हो गया। अब इसको पता ही नहीं कि यह क्या कर रहा है; यह ओम पागलपन हो गया। इस ओम से इसका कोई संबंध भी न रहा। यह ओम अब अपने आप ही चल रहा है। यह किसी की हत्या भी करेगा, तो कहेगा, ओम, फिर छुरा मारेगा। निकालेगा छुरा, तो कहेगा, ओम! इसको कुछ पता नहीं रहा कि यह क्या कर रहा है। आrधेक लोगों का जीवन धर्म के नाम पर ऐसा ही यांत्रिक हो जाता है।

नहीं, ओम के भी तीन रूप हैं। एक—यज्ञादिक, कर रहे हैं। दूसरा—वेद से, बोध से, अध्ययन से, स्वाध्याय से, मनन से, चिंतन से। और तीसरा—ब्राह्मण जैसा, भाव से, अंतर्भाव से!

और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, ऐसे भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यश, तप—रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं।

इस वचन में एक बड़ा गहरा विरोधाभास है। तुम्हें अड़चन मालूम होगी! क्योंकि यह कहता है कि ऐसा यह सब उसी का है, ऐसे भाव से फल को न चाहकर मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा.।

तो मोक्ष की आकांक्षा तो फल की चाह है। तो यह सूत्र तो बडी उलझन में डालने वाला है। मगर कोई उलझन है नहीं, अगर समझ लो, तो बात सीधी—सीधी है।

मोक्ष की आकांक्षा पहले पैदा होती है। तुमने संसार की आकांक्षा की है। स्वभावत:, तुम आकांक्षा करने में कुशल हो गए हो। तुम कुछ और कर भी नहीं सकते। तुम अचानक अनाकांक्षा कैसे करोगे? अचाह कैसे करोगे? तुम्हें पहले तो संसार की आकांक्षा की जगह मोक्ष की आकांक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन जैसे ही तुमने मोक्ष की आकांक्षा की, तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि संसार की आकांक्षा से संसार मिल जाता है, मोक्ष की आकांक्षा से मोक्ष नहीं मिलता। इसे तुम थोड़ा ठीक से समझ लो। संसार की आकांक्षा से संसार मिल जाता है। अगर तुम ठीक से दौड— धूप करोगे, तो धन कमा ही लोगे, इसमें ऐसी क्या अड़चन है? अगर न कमा पाओ, तो दौड़— धूप ठीक से नहीं की, इतना ही सिद्ध होता है।

अगर तुम पद पर पहुंचना चाहते हो, तो पहुंच ही जाओगे। गधे पहुंच गए हैं, तो तुम्हें क्या अड़चन है! कोई भी पहुंच सकता है। सिर्फ एक पागलपन चाहिए दौड़ने का। और फिर किसी की सुनने की बुद्धि नहीं चाहिए, बुद्धि चाहिए ही नहीं पद पर पहुंचने के लिए। बुद्धि अड़चन बन जाती है। तुमने किसी की सुनी, तो दूसरा निकल जाएगा आगे उतनी देर में! तुम सुनना ही मत!

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बाजार गया था, और एक दुकान पर साड़ियां खरीदने गया था। साडियां सस्ते में बिक रही थीं। दुकान बंद होने को थी। और सस्ते में साड़ियां नीलाम हो रही थीं। तो बहुत स्त्रियां पहुंच गई थीं। वह बेचारा सज्जनता के वश पीछे—पीछे खड़ा था। स्त्रियां कोई सज्जन तो होती नहीं! सज्जनता का स्त्रियों से क्या लेना—देना! स्त्री स्त्री है। सज्जनता तो पुरुषों के लिए है। वह पीछे खड़ा था। स्त्रियां तो धूम— धड़ाका मचाकर भीतर घुस रही थीं। वह कोई क्यू नहीं, कोई हिसाब नहीं।

वह कोई घंटेभर खड़ा रहा, पीछे ही पीछे रहे, आगे जाने का कोई उपाय ही न था। और पत्नी जान खा लेगी कि साड़ी बिना लिए आ गए। आखिर उसने भी एकदम से धक्का दिया। सिर झुकाकर नीचे, जैसे कि बैल घुस जाए भीड़ में, ऐसा वह स्त्रियों की भीड़ में घुस गया जोर से!

आखिर कई स्त्रियां चौकी और उन्होंने कहा कि शर्म नहीं आती, मर्द होकर और सभ्य आदमी होकर असभ्य व्यवहार कर रहे हो? पुरुषोचित व्यवहार करो!

उसने कहा, चुप रहो! पुरुषोचित व्यवहार घंटेभर से कर रहा हूं। अब स्त्रियोचित व्यवहार करता हूं।

तो अगर पद चाहिए और तुम चूक जाओ, तो उसका कुल मतलब इतना ही है कि तुम जरा सज्जनता का व्यवहार कर रहे थे, और कुछ मामला नहीं है। तुम्हें पागल बैल की तरह सिर झुकाकर घुस जाना चाहिए था। तुम दिल्ली पहुंचकर ही रुकते। कोई बीच में रोकने वाला तुम्हें मिलने वाला नहीं था। एक दफा भीड़ में घुसने की हिम्मत हो, तो फिर भीड़ ही तुम्हें लिए चली जाती है। फिर तुम्हें पता ही नहीं चलता कि कैसे दिल्ली पहुंचे! पहुंच ही जाते हो।

संसार में तो आकांक्षा पूरी हो जाती है। आकांक्षा और संसार का कोई विरोध नहीं है। क्योंकि क्षुद्र की आकांक्षा है। क्षुद्र तो आकांक्षा से मिल जाता है, विराट नहीं मिलता।

अब यहां तुम बड़ी अड़चन पाओगे। तुम्हें धर्मगुरु समझाते हैं कि आकांक्षा से संसार में कुछ न मिलेगा। मैं तुमसे कहता हूं आकांक्षा से सब मिल जाता है। जिनको नहीं मिलता, उन्होंने ठीक से नहीं की। या की, तो कुनकुनी! पूरी उबली नहीं; पूरे प्राण न लगाए। या प्राण भी लगाए, तो मोक्ष को भी बचाने की चेष्टा साथ में जारी रखी कि धन भी कमा लें और ईमानदारी भी बची रहे।

अब ऐसा कहीं हो सकता है! धन कमाना है, तो बेईमानी रास्ता है। वह तो उसका गणित है। धन कमाना है, तो बेईमान होने को राजी हो जाओ। फिर मोक्ष की फिक्र छोड़ दो। फिर धर्म और धन दोनों को सम्हाला, तो दो नावों पर सवार रहे; कहीं न पहुंचोगे।

तो जिसको जाना है संसार में, वह निश्चित पहुंच जाता है। धर्मगुरु तुमसे ठीक नहीं कहते। वे तुमसे कहते हैं, परमात्मा की आकांक्षा करो; क्या संसार की आकांक्षा कर रहे हो! और मैं तुमसे कहता हूं, यह बात ही उलटी है। संसार की आकांक्षा करने वाला तो संसार को पा ही लेता है। सिकंदर सिकंदर हो जाते हैं। नेपोलियन नेपोलियन हो जाते हैं। मिल जाता है।

परमात्मा की आकांक्षा असंभव आकांक्षा है। वह आकांक्षा से मिलता ही नहीं। लेकिन पहला कदम यही होगा कि संसार को चाह—चाहकर तुमने कुछ सार न पाया……।

दो तरह के लोग हैं संसार में। एक, जिन्होंने पा लिया सब कुछ जो चाहते थे, लेकिन पाकर भी सार न पाया। क्योंकि सार तो यहां है नहीं। सार तो परमात्मा है। और दूसरे, जिन्होंने पाने की ठीक से कोशिश न की, इसलिए आकांक्षा में जले पड़े रहे।

पहले लोग ही ठीक अर्थों में धार्मिक हो सकते हैं। दूसरे तरह के लोग ठीक अर्थों में धार्मिक नहीं हो सकते। धार्मिक होने के लिए संसार की दौड़ असार सिद्ध हो जानी चाहिए; तब नई दौड़ शुरू होती है। तब तुम पूरे प्राणपण से नई दौड़ में लगते हो। तब तुम परमात्मा को चाहते हो, मोक्ष चाहते हो, सत्य चाहते हो। एक आकांक्षा पैदा होती है, मोक्ष की आकांक्षा!

लेकिन जब मोक्ष की आकांक्षा में तुम दौड़ोगे, तब तुम्हें धीरे— धीरे पता चलेगा कि मोक्ष की आकांक्षा करना मोक्ष से बचने का उपाय है। यहां तो आकांक्षा गिर जाए, तो मोक्ष मिलता है। क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही आकांक्षा से मुक्त हो जाना है; कोई और अर्थ नहीं है। परमात्मा को पाने का अर्थ ही यह है कि जहां पाने की कोई चाह न रही, वहीं परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।

इसलिए विपरीत शब्दों का उपयोग कृष्ण ने किया है।

वे कहते हैं, फल को न चाहकर मोक्ष की आकांक्षा करने वाले

पुरुषों द्वारा…….।

मोक्ष की आकांक्षा पैराडाक्सिकल है, विरोधाभासी है। वहा आकांक्षा बाधा है।

शुरू आकांक्षा से करोगे, अंत निराकांक्षा पर होगा। चढ़ोगे चाह से; धीरे— धीरे अनुभव बताएगा कि चाह पहुंचाती नहीं, भटकाती है। तब एक दिन चाह गिर जाएगी। और जहां तुम अचाह हुए, वहीं उपलब्धि है।

आज इतना ही।


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जिन खोजा तिन पाइयां–(प्रवचन–13)

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सात शरीरों से गुजरती कुंडलिनी—(प्रवचन—तैहरवां)

सातवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

 मनुष्य के सात शरीर:

प्रश्न: ओशो कल की चर्चा में आपने कहा कि कुंडलिनी के झूठे अनुभव भी प्रोजेक्ट किए जा सकते हैं— जिन्हें आप आध्यात्मिक अनुभव नहीं मानते हैं मानसिक मानते हैं। लेकिन प्रारंभिक चर्चा में आपने कहा था कि कुंडलिनी मात्र साइकिक है। इसका ऐसा अर्थ हुआ कि आप कुंडलिनी की दो प्रकार की स्थितियां मानते हैं— मानसिक और आध्यात्मिक। कृपया इस स्थिति को स्‍पष्‍ट करें।

सल में, आदमी के पास सात प्रकार के शरीर हैं। एक शरीर तो जो हमें दिखाई पड़ता है—फिजिकल बॉडी, भौतिक शरीर। दूसरा शरीर जो उसके पीछे है और जिसे ईथरिक बॉडी कहें— आकाश शरीर। और तीसरा शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे एस्ट्रल बॉडी कहें—सूक्ष्म शरीर। और चौथा शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे मेंटल बॉडी कहें— मनस शरीर। और पांचवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे म्प्रिचुअल बॉडी कहें— आत्मिक शरीर। छठवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे हम कास्मिक बॉडी कहें—ब्रह्म शरीर। और सातवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे हम निर्वाण शरीर, बॉडीलेस बॉडी कहें— अंतिम।

इन सात शरीरों के संबंध में थोड़ा समझेंगे तो फिर कुंडलिनी की बात पूरी तरह समझ में आ सकेगी।

भौतिक शरीर, भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर:

पहले सात वर्ष में भौतिक शरीर ही निर्मित होता है। जीवन के पहले सात वर्ष में भौतिक शरीर ही निर्मित होता है, बाकी सारे शरीर बीजरूप होते हैं; उनके विकास की संभावना होती है, लेकिन वे विकसित उपलब्ध नहीं होते। पहले सात वर्ष, इसलिए इमिटेशन, अनुकरण के ही वर्ष हैं। पहले सात वर्षों में कोई बुद्धि, कोई भावना, कोई कामना विकसित नहीं होती, विकसित होता है सिर्फ भौतिक शरीर।

कुछ लोग सात वर्ष से ज्यादा कभी आगे नहीं बढ़ पाते; कुछ लोग सिर्फ भौतिक शरीर ही रह जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों में और पशु में कोई अंतर नहीं होगा। पशु के पास भी सिर्फ भौतिक शरीर ही होता है, दूसरे शरीर अविकसित होते हैं।

दूसरे सात वर्ष में भाव शरीर का विकास होता है, या आकाश शरीर का। इसलिए दूसरे सात वर्ष व्यक्ति के भाव जगत के विकास के वर्ष हैं। चौदह वर्ष की उम्र में इसीलिए सेक्स मैच्योरिटी उपलब्ध होती है; वह भाव का बहुत प्रगाढ़ रूप है। कुछ लोग चौदह वर्ष के होकर ही रह जाते हैं, शरीर की उम्र बढ़ती जाती है, लेकिन उनके पास दो ही शरीर होते हैं।

तीसरे सात वर्षों में सूक्ष्म शरीर विकसित होता है— इक्कीस वर्ष की उम्र तक। दूसरे शरीर में भाव का विकास होता है; तीसरे शरीर में तर्क, विचार और बुद्धि का विकास होता है।

इसलिए सात वर्ष के पहले दुनिया की कोई अदालत किसी बच्चे को सजा नहीं देगी, क्योंकि उसके पास सिर्फ भौतिक शरीर है; और बच्चे के साथ वही व्यवहार किया जाएगा जो एक पशु के साथ किया जाता है। उसको जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। और अगर बच्चे ने कोई पाप भी किया है, अपराध भी किया है, तो यही माना जाएगा कि किसी के अनुकरण में किया है, मूल अपराधी कोई और होगा।

तीसरे शरीर में विचार का विकास:

दूसरे शरीर के विकास के बाद— चौदह वर्ष—एक तरह की प्रौढ़ता मिलती है; लेकिन वह प्रौढ़ता यौन—प्रौढ़ता है। प्रकृति का काम उतने से पूरा हो जाता है। इसलिए पहले शरीर और दूसरे शरीर के विकास में प्रकृति पूरी सहायता देती है, लेकिन दूसरे शरीर के विकास से मनुष्य मनुष्य नहीं बन पाता। तीसरा शरीर—जहां विचार, तर्क और बुद्धि विकसित होती है—वह शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता का फल है। इसलिए दुनिया के सभी मुल्क इक्कीस वर्ष के व्यक्ति को मताधिकार देते हैं।

अभी कुछ मुल्कों में संघर्ष है अठारह वर्ष के बच्चों को मताधिकार मिलने का। वह संघर्ष स्वाभाविक है; क्योंकि जैसे— जैसे मनुष्य विकसित हो रहा है, सात वर्ष की सीमा कम होती जा रही है। अब तक तेरह और चौदह वर्ष में दुनिया में लड़कियां मासिक धर्म को उपलब्ध होती थीं। अमेरिका में पिछले तीस वर्षों में यह उम्र कम होती चली गई है; ग्यारह वर्ष की लड़की भी मासिक धर्म को उपलब्ध हो जाती है। अठारह वर्ष का मताधिकार इसी बात की सूचना है कि मनुष्य, जो काम इक्कीस वर्ष में पूरा हो रहा था, उसे अब और जल्दी पूरा करने लगा है, वह अठारह वर्ष में भी पूरा कर ले रहा है।

लेकिन साधारणत: इक्कीस वर्ष लगते हैं तीसरे शरीर के विकास के लिए। और अधिकतम लोग तीसरे शरीर पर रुक जाते हैं; मरते दम तक उसी पर रुके रहते हैं; चौथा शरीर, मनस शरीर भी विकसित नहीं हो पाता।

जिसको मैं साइकिक कह रहा हूं वह चौथे शरीर की दुनिया की बात है—मनस शरीर की। उसके बड़े अदभुत और अनूठे अनुभव हैं। जैसे जिस व्यक्ति की बुद्धि विकसित न हुई हो, वह गणित में कोई आनंद नहीं ले सकता। वैसे गणित का अपना आनंद है। कोई आइंस्टीन उसमें उतना ही रसमुग्ध होता है, जितना कोई संगीतज्ञ वीणा में होता हो, कोई चित्रकार रंग में होता हो। आइंस्टीन के लिए गणित कोई काम नहीं है, खेल है। पर उसके लिए बुद्धि का उतना विकास चाहिए कि वह गणित को खेल बना सके।

प्रत्येक शरीर के अनंत आयाम:

जो शरीर हमारा विकसित होता है, उस शरीर के अनंत—अनंत आयाम हमारे लिए खुल जाते हैं। जिसका भाव शरीर विकसित नहीं हुआ, जो सात वर्ष पर ही रुक गया है, उसके जीवन का रस खाने—पीने पर समाप्त हो जाएगा। जिस कौम में पहले शरीर के लोग ज्यादा मात्रा में हैं, उसकी जीभ के अतिरिक्त कोई संस्कृति नहीं होगी।

जिस कौम में अधिक लोग दूसरे शरीर के हैं, वह कौम सेक्स सेंटर्ड हो जाएगी; उसका सारा व्यक्तित्व—उसकी कविता, उसका संगीत, उसकी फिल्म, उसका नाटक, उसके चित्र, उसके मकान, उसकी गाडिया—सब किसी अर्थों में सेक्स सेंट्रिक हो जाएंगी; वे सब वासना से भर जाएंगी।

जिस सभ्यता में तीसरे शरीर का विकास हो पाएगा ठीक से, वह सभ्यता अत्यंत बौद्धिक चिंतन और विचार से भर जाएगी। जब भी किसी कौम या समाज की जिंदगी में तीसरे शरीर का विकास महत्वपूर्ण हो जाता है, तो बड़ी वैचारिक क्रांतियां घटित होती हैं। बुद्ध और महावीर के वक्त में बिहार ऐसी ही हालत में था कि उसके पास तीसरी क्षमता को उपलब्ध बहुत बड़ा समूह था। इसलिए बुद्ध और महावीर की हैसियत के आठ आदमी बिहार के छोटे से देश में पैदा हुए, छोटे से इलाके में। और हजारों प्रतिभाशाली लोग पैदा हुए।

सुकरात और प्लेटो के वक्त यूनान की ऐसी ही हालत थी। कनफ्यूशियस और लाओत्से के समय चीन की ऐसी ही हालत थी। और बड़े मजे की बात है कि ये सारे महान व्यक्ति पांच सौ साल के भीतर सारी दुनिया में हुए। उस पांच सौ साल में मनुष्य के तीसरे शरीर ने बड़ी ऊंचाइयां छुई।

लेकिन आमतौर से तीसरे शरीर पर मनुष्य रुक जाता है, अधिक लोग इक्कीस वर्ष के बाद कोई विकास नहीं करते।

चौथे मनस शरीर की अतींद्रिय क्रियाएं:

लेकिन ध्यान रहे, चौथा जो शरीर है उसके अपने अनूठे अनुभव हैं—जैसे तीसरे शरीर के हैं, दूसरे शरीर के हैं, पहले शरीर के हैं। चौथे शरीर के बड़े अनूठे अनुभव हैं। जैसे सम्मोहन, टेलीपैथी, क्लेअरवायंस— ये सब चौथे शरीर की संभावनाएं हैं। आदमी बिना समय और स्थान की बाधा के दूसरे से संबंधित हो सकता है; बिना बोले दूसरे के विचार पढ़ सकता है या अपने विचार दूसरे तक पहुंचा सकता है; बिना कहे, बिना समझाए, कोई बात दूसरे में प्रवेश कर सकता है और उसका बीज बना सकता है, शरीर के बाहर यात्रा कर सकता है—एस्ट्रल प्रोजेक्शन—शरीर के बाहर घूम सकता है, अपने इस शरीर से अपने को अलग जान सकता है।

इस चौथे शरीर की, मनस शरीर की, साइकिक बॉडी की बड़ी संभावनाएं हैं, जो हम बिलकुल ही विकसित नहीं कर पाते हैं, क्योंकि इस दिशा में खतरे बहुत हैं—एक; और इस दिशा में मिथ्या की बहुत संभावना है— दो। क्योंकि जितनी चीजें सूक्ष्म होती चली जाती हैं, उतनी ही मिथ्या और फाल्स संभावनाएं बढ़ती चली जाती हैं।

अब एक आदमी अपने शरीर के बाहर गया या नहीं—वह सपना भी देख सकता है अपने शरीर के बाहर जाने का, जा भी सकता है। और उसके अतिरिक्त, स्वयं के अतिरिक्त और कोई गवाह नहीं होगा। इसलिए धोखे में पड़ जाने की बहुत गुंजाइश है; क्योंकि दुनिया जो शुरू होती है इस शरीर से, वह सब्जेक्टिव है; इसके पहले की दुनिया ऑब्जेक्टिव है।

अगर मेरे हाथ में रुपया है, तो आप भी देख सकते हैं, मैं भी देख सकता हूं पचास लोग देख सकते हैं। यह कॉमन रियलिटी है, जिसमें हम सब सहभागी हो सकते हैं और जांच हो सकती है—रुपया है या नहीं? लेकिन मेरे विचारों की दुनिया में आप सहभागी नहीं हो सकते, मैं आपके विचारों की दुनिया में सहभागी नहीं हो सकता, वह निजी दुनिया शुरू हो गई। जहां से निजी दुनिया शुरू होती है, वहां से खतरा शुरू होता है; क्योंकि किसी चीज की वैलिडिटी, किसी चीज की सच्चाई के सारे बाह्य नियम खतम हो जाते हैं।

इसलिए असली डिसेपान का जो जगत है, वह चौथे शरीर से शुरू होता है। उसके पहले के सब डिसेपान पकड़े जा सकते हैं, उसके पहले के सब धोखे पकड़े जा सकते हैं। और ऐसा नहीं है कि चौथे शरीर में जो धोखा दे रहा है, वह जरूरी रूप से जानकर दे रहा हो। बड़ा खतरा यह है! वह अनजाने दे सकता है; खुद को दे सकता है, दूसरों को दे सकता है। उसे कुछ पता ही न हो, क्योंकि चीजें इतनी बारीक और निजी हो गई हैं कि उसके खुद के पास भी कोई कसौटी नहीं है कि वह जाकर जांच करे कि सच में जो हो रहा है वह हो रहा है? कि वह कल्पना कर रहा है?

चौथे शरीर के लाभ और खतरे:

तो यह जो चौथा शरीर है, इससे हमने मनुष्यता को बचाने की कोशिश की। और अक्सर ऐसा हुआ कि इस शरीर का जो लोग उपयोग करनेवाले थे, उनकी बहुत तरह की बदनामी और कडेमनेशन हुई। योरोप में हजारों स्त्रियों को जला डाला गया विचेज़ कहकर, डाकिनी कहकर; क्योंकि उनके पास यह चौथे शरीर का काम था। हिंदुस्तान में सैकड़ों तांत्रिक मार डाले गए इस चौथे शरीर की वजह से, क्योंकि वे कुछ सीक्रेट्स जानते थे जो कि हमें खतरनाक मालूम पड़े। आपके मन में क्या चल रहा है, वे जान सकते हैं; आपके घर में कहां क्या रखा है, यह उन्हें घर के बाहर से पता हो सकता है। तो सारी दुनिया में इस चौथे शरीर को एक तरह का ब्लैक आर्ट समझ लिया गया कि एक काले जादू की दुनिया है जहां कि कोई भरोसा नहीं कि क्या हो जाए! और एकबारगी हमने मनुष्य को तीसरे शरीर पर रोकने की भरसक चेष्टा की कि चौथे शरीर पर खतरे हैं।

खतरे थे, लेकिन खतरों के साथ उतने ही अदभुत लाभ भी थे। तो बजाय इसके कि रोकते, जांच—पड़ताल जरूरी थी कि वहां भी हम रास्ते खोज सकते हैं जांचने के। और अब विज्ञानिक उपकरण भी हैं और समझ भी बढ़ी है, रास्ते खोजे जा सकते हैं। जैसे कुछ चीजों के रास्ते अभी खोजे गए। कल ही मैं देख रहा था।

अभी तक यह पक्का नहीं हो पाता था कि जानवर सपने देखते हैं कि नहीं देखते। क्योंकि जब तक जानवर कहे न, तब तक कैसे पता चले? हमारा भी पता इसीलिए चलता है कि हम सुबह कह सकते हैं कि हमने सपना देखा। चूंकि जानवर नहीं कह सकता, तो कैसे पता चले कि जानवर सपना देखता है या नहीं देखता! बहुत तकलीफ से लेकिन रास्ता खोज लिया गया। एक आदमी ने बंदरों पर वर्षों मेहनत की यह बात जांचने के लिए कि वे सपने देखते हैं कि नहीं।

अब अपना बहुत निजी, चौथी बॉडी की बात है; बहुत निजी बात है। पर उसकी जांच की उसने जो व्यवस्था की, वह समझने बसा है। उसने बंदरों को फिल्म दिखानी शुरू की—पदें पर फिल्म दिखानी शुरू की। और जैसे ही फिल्म चलनी शुरू हो, नीचे से बंदर को शॉक देने शुरू किए बिजली के। और उसकी कुर्सी पर एक बटन लगा रखी, जो उसको सिखा दी कि जब भी उसको शॉक लगे तो वह बटन बंद कर दे, तो शॉक लगना बंद हो जाए। फिल्म शुरू हो और शॉक लगे और वह बटन बंद करे, ऐसा उसका अभ्यास कराया। फिर उस कुर्सी पर उसको सो जाने दिया। जब उसका सपना चला, तो उसको घबराहट हुई कि शॉक न लग जाए—नींद में उसको घबराहट हुई; क्योंकि वह सपना और पर्दे पर फिल्म एक ही चीज है उसके लिए—उसने तत्काल बटन दबाई। इस बटन के दबाने का बार—बार प्रयोग करने पर खयाल में आया कि उसको जब भी सपना चलता, तब वह बटन दबा देता फौरन। अब सपने जैसी गहरी भीतर की दुनिया के, वह भी बंदर की, जो कह न सके, बाहर से जांच का कोई उपाय खोजा जा सका।

साधकों ने चौथे शरीर के भी बाहर से जांचने के उपाय खोज लिए हैं। और अब तय किया जा सकता है कि जो हुआ, वह सच है या गलत, वह मिथ्या है या सही; जिस कुंडलिनी का तुमने चौथे शरीर पर अनुभव किया, वह वास्तविक है या झूठ। सिर्फ साइकिक होने से झूठ नहीं होती, फाल्स साइकिक स्थितियां भी हैं और टू साइकिक स्थितियां भी हैं। यानी जब मैं कहता हूं कि वह मनस की है बात, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि झूठ हो गई; मनस में भी झूठ हो सकती है और मनस में भी सही हो सकती है।

तुमने एक सपना देखा रात। यह सपना एक सत्य है, क्योंकि यह घटा। लेकिन सुबह उठकर तुम ऐसे सपने को भी याद कर सकते हो जो तुमने देखा नहीं, लेकिन तुम कह रहे हो कि मैंने देखा; तब यह झूठ है। एक आदमी सुबह उठकर कहता है कि मैं सपना देखता ही नहीं। हजारों लोग हैं जिनको खयाल है कि वे सपने नहीं देखते। वे सपने देखते हैं; क्योंकि सपने जांचने के अब बहुत उपाय हैं जिनसे पता चलता है कि वे रात भर सपने देखते हैं; लेकिन सुबह वे कहते हैं कि हमने सपने देखे ही नहीं। तो वे जो कह रहे हैं, बिलकुल झूठ कह रहे हैं, हालांकि उन्हें पता नहीं है। असल में, उनको स्मृति नहीं बचती सपने की। इससे उलटा भी हो रहा है जो सपना तुमने कभी नहीं देखा, उसकी भी तुम सुबह कल्पना कर सकते हो कि तुमने देखा। वह झूठ होगा।

सपना कहने से ही कुछ झूठ नहीं हो जाता, सपने के अपने यथार्थ हैं। झूठा सपना भी हो सकता है, सच्चा सपना भी। मेरा मतलब समझे? सच्चे का मतलब यह है कि जो— हुआ है, सच में हुआ है। और ठीक—ठीक तो सपने को तुम बता ही नहीं पाते सुबह। मुश्किल से कोई आदमी है जो सपने की ठीक रिपोर्ट कर सके।

इसलिए पुरानी दुनिया में जो आदमी अपने सपने की ठीक—ठीक रिपोर्ट कर सकता था, उसकी बड़ी कीमत हो जाती थी। उसकी बड़ी कठिनाइयां हैं, सपने की रिपोर्ट ठीक से देने की। बड़ी कठिनाई तो यह है कि जब तुम सपना देखते हो तब उसका सीकेंस अलग होता है और जब याद करते हो तब उलटा होता है, फिल्म की तरह। जब हम फिल्म देखते हैं तो शुरू से देखते हैं, पीछे की तरफ। सपना जब आप देखते हैं नींद में तो जो घटना पहले घटी, वह स्मृति में सबसे बाद में घटेगी, क्योंकि वह सबसे पीछे दबी रह गई। जब तुम सुबह उठते हो तो सपने का आखिरी हिस्सा तुम्हारे हाथ में होता है और उससे तुम पीछे की तरफ याद करना शुरू करते हो। यह ऐसे उपद्रव का काम है, जैसे कोई किताब को उलटी तरफ से पढ़ना शुरू करे, और सब शब्द उलटे हो जाएं, और वह डगमगा जाए। इसलिए थोड़ी दूर तक ही जा पाते हो सपने में, बाकी सब गड़बड़ हो जाता है। उसे याद रखना और उसको ठीक से रिपोर्ट कर देना बड़ी कला की बात है। इसलिए हम आमतौर से गलत रिपोर्ट करते हैं; जो हमें नहीं हुआ होता, वह रिपोर्ट करते हैं। उसमें बहुत कुछ खो जाता है, बहुत कुछ बदल जाता है, बहुत कुछ जुड़ जाता है।

यह जो चौथा शरीर है, सपना इसकी ही घटना है।

योग—सिद्धियां, कुंडलिनी, चक्र इत्यादि:

इस चौथे शरीर की बड़ी संभावनाएं हैं। जितनी भी योग में सिद्धियों का वर्णन है, वह इस सारे चौथे शरीर की ही व्यवस्था है। और निरंतर योग ने सचेत किया है कि उनमें मत जाना। और सबसे बड़ा डर यही है कि उसमें मिथ्या में जाने के बहुत उपाय हैं और भटक जाने की बड़ी संभावनाएं हैं। और अगर वास्तविक में भी चले जाओ तो भी उसका आध्यात्मिक मूल्य नहीं है।

तो जब मैंने कहा कि कुंडलिनी साइकिक है, तो मेरा मतलब यह था कि वह इस चौथे शरीर की घटना है, वस्तुत:। इसलिए फिजियोलाजिस्ट तुम्हारे इस शरीर को जब खोजने जाएगा तो उसमें कोई कुंडलिनी नहीं पाएगा। तो तुम, सारी दुनिया के सर्जन, डाक्टर कहेंगे कि कहां की फिजूल की बातें कर रहे हो! कुंडलिनी जैसी कोई चीज इस शरीर में नहीं है; तुम्हारे चक्र इस शरीर में कहीं भी नहीं हैं।

वह चौथे शरीर की व्यवस्था है। वह चौथा शरीर लेकिन सूक्ष्म है, उसे पकड़ा नहीं जा सकता, पकड़ में तो यही शरीर आता है। लेकिन उस शरीर और इस शरीर के तालमेल पडते हुए स्थान हैं। जैसे कि हम सात कागज रख लें, और एक आलपीन सातों कागज में डाल दें, और एक छेद सातों कागज में एक जगह पर हो जाए। अब समझ लो कि पहले कागज पर छेद विदा हो गया, नहीं है। फिर भी, दूसरे कागज पर, तीसरे कागज पर जहां छेद है उससे कॉरस्पांड करनेवाला स्थान पहले कागज पर भी है; छेद तो नहीं है, इसलिए पहले कागज की जांच पर वह छेद नहीं मिलेगा, लेकिन पहले कागज पर भी कॉरस्पाडिंग कोई बिंदु है, जिसको अगर हाथ रखा जाए तो वह तीसरे—चौथे कागज पर जो बिंदु है, उसी जगह पर होगा।

तो इस शरीर में जो चक्र हैं, कुंडलिनी है, जो बात है, वह इस शरीर की नहीं है, वह इस शरीर में सिर्फ कॉरस्पाडिंग बिंदुओं की है। और इसलिए कोई शरीर—शास्त्री इनकार करे तो गलत नहीं कह रहा है— वहां कोई कुंडलिनी नहीं मिलती, कोई चक्र नहीं मिलता। वह किसी और शरीर पर है। लेकिन इस शरीर से संबंधित बिंदुओं का पता लगाया जा सकता है।

कुंडलिनी : मनस शरीर की घटना:

तो कुंडलिनी चौथे शरीर की घटना है; इसलिए मैंने कहा, साइकिक है। और जब मैं कह रहा हूं कि यह साइकिक होना यह मानसिक होना भी दो तरह का हो सकता है— गलत और सही, तो मेरी बात तुम्हारे खयाल में जा आएगी। गलत तब होगा जब तुमने कल्पना की; क्योंकि कल्पना भी चौथे शरीर की ही स्थिति है।

जानवर कल्पना नहीं कर पाते। तो जानवर का अतीत थोड़ा—बहुत होता है, भविष्य बिलकुल नहीं होता। इसलिए जानवर निश्चिंत हैं, क्योंकि चिंता सब भविष्य के बोध से पैदा होती है। जानवर रोज अपने आसपास किसी को मरते देखते हैं, लेकिन यह कल्पना नहीं कर पाते कि मैं मरूंगा। इसलिए मृत्यु का कोई भय जानवर को नहीं है। आदमी में भी बहुत आदमी हैं जिनको यह खयाल नहीं आता है कि मैं मरूंगा; उनको भी खयाल आता है— कोई और मरता है, कोई और मरता है, कोई और मरता है। मैं मरूंगा, इसका खयाल नहीं आता। उसका कारण सिर्फ यह है कि चौथे शरीर में कल्पना जितनी विस्तीर्ण होनी चाहिए कि दूर तक देख पाए, वह नहीं हो रहा।

अब इसका मतलब यह हुआ कि कल्पना भी सही होती है और मिथ्या होती है। सही का मतलब सिर्फ यह है कि हमारी संभावना दूर तक देखने की है। जो अभी नहीं है, उसको देखने की संभावना कल्पना की बात है। लेकिन जो होगा ही नहीं, जो है ही नहीं, उसको भी मान लेना कि हो गया है और है, वह मिथ्या कल्पना होगी।

तो कल्पना का अगर ठीक उपयोग हो तो विज्ञान पैदा हो जाता है, क्योंकि विज्ञान सिर्फ एक कल्पना है—प्राथमिक रूप से। हजारों साल से आदमी सोचता है कि आकाश में उड़ेंगे। जिस आदमी ने यह सोचा है आकाश में उड़ेंगे, बड़ा कल्पनाशील रहा होगा। लेकिन अगर किसी आदमी ने यह न सोचा होता तो राइट ब्रदर्स हवाई जहाज नहीं बना सकते थे। हजारों लोगों ने कल्पना की है और सोचा है कि हवाई जहाज में उड़ेंगे, इसकी संभावना को जाहिर किया है। फिर धीरे— धीरे, धीरे— धीरे संभावना प्रकट होती चली गई—खोज हो गई और बात हो गई। फिर हम सोच रहे हैं हजारों वर्षों से कि चांद पर पहुंचेंगे। वह कल्पना थी उस कल्पना को जगह मिल गई। लेकिन वह कल्पना आथेंटिक थी। यानी वह कल्पना मिथ्या के मार्ग पर नहीं थी। वह कल्पना भी उस सत्य के मार्ग पर थी जो कल आविष्कृत हो सकता है।

तो वैज्ञानिक भी कल्पना कर रहा है, एक पागल भी कल्पना कर रहा है। तो अगर मैं कहूं कि पागलपन भी कल्पना है और विज्ञान भी कल्पना है, तो तुम यह मत समझ लेना कि दोनों एक ही चीज हैं। पागल भी कल्पना कर रहा है, लेकिन वह ऐसी कल्पनाएं कर रहा है जिनका वस्तु जगत से कभी कोई तालमेल न है, न हो सकता है। वैज्ञानिक भी कल्पना कर रहा है, लेकिन ऐसी कल्पना कर रहा है जो वस्तु जगत से तालमेल रखती है। और अगर कहीं तालमेल नहीं रखती है तो तालमेल होने की संभावना है पूरी की पूरी।

तो इस चौथे शरीर की जो भी संभावनाएं हैं उनमें सदा डर है कि हम कहीं भी चूक जाएं और मिथ्या का जगत शुरू हो जाता है। तो इसलिए इस चौथे शरीर में जाने के पहले सदा अच्छा है कि हम कोई अपेक्षाएं लेकर न जाएं, एक्सपेक्टेशंस न हों। क्योंकि यह चौथा शरीर मनस शरीर है।

जैसे कि मुझे अगर इस मकान से नीचे उतरना है—वस्तुत, तो मुझे सीढ़ियां खोजनी पड़ेगी, लिफ्ट खोजनी पड़ेगी। लेकिन मुझे अगर विचार में उतरना है, तो लिफ्ट और सीढ़ी की कोई जरूरत नहीं, मैं यहीं बैठकर उतर जाऊंगा।

तो विचार और कल्पना में खतरा यह है कि चूंकि कुछ नहीं करना पड़ता, सिर्फ विचार करना पड़ता है, कोई भी उतर सकता है। और अगर अपेक्षाएं लेकर कोई गया, तो जो अपेक्षाएं लेकर जाता है उन्हीं में उतर जाएगा। क्योंकि मन कहेगा कि ठीक है, कुंडलिनी जगानी है? यह जाग गई! और तुम कल्पना करने लगोगे कि जाग रही, जाग रही, जाग रही। और तुम्हारा मन कहेगा कि बिलकुल जाग गई और बात खत्म हो गई, कुंडलिनी उपलब्ध हो गई है; चक्र खुल गए हैं; ऐसा हो गया।

लेकिन इसको जांचने की कोई कसौटी है। और वह कसौटी यह है कि प्रत्येक चक्र के साथ तुम्हारे व्यक्तित्व में आमूल परिवर्तन होगा। उस परिवर्तन की तुम कल्पना नहीं कर सकते, क्योंकि वह परिवर्तन वस्तु जगत का हिस्सा है।

कुंडलिनी जागरण से व्यक्तित्व में आमूल रूपांतरण:

जैसे, कुंडलिनी जागे तो शराब नहीं पी जा सकती है। असंभव है! क्योंकि वह जो मनस शरीर है, वह सबसे पहले शराब से प्रभावित होता है; वह बहुत डेलिकेट है। इसलिए बड़ी हैरानी की बात जानकर होगी कि अगर स्त्री शराब पी ले और पुरुष शराब पी ले, तो पुरुष शराब पीकर इतना खतरनाक कभी नहीं होता, जितनी स्त्री शराब पीकर खतरनाक हो जाती है। उसका मनस शरीर और भी डेलिकेट है। अगर एक पुरुष और एक स्त्री को शराब पिलाई जाए, तो पुरुष शराब पीकर इतना खतरनाक कभी नहीं होता, जितना स्त्री हो जाए। स्त्री तो इतनी खतरनाक सिद्ध होगी शराब पीकर जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। उसके पास और भी डेलिकेट मेंटल बॉडी है, जो इतनी शीघ्रता से प्रभावित होती है कि फिर उसके वश के बाहर हो जाती है।

इसलिए स्त्रियों ने आमतौर से नशे से बचने की व्यवस्था कर रखी है, पुरुषों की बजाय ज्यादा। इस मामले में उन्होंने समानता का दावा अब तक नहीं किया था। लेकिन अब वे कर रही हैं, वह खतरनाक होगा। जिस दिन भी वे इस मामले में समानता का दावा करेंगी, उस दिन पुरुष के नशे करने से जो नुकसान नहीं हुआ, वह स्त्री के नशे करने से होगा।

यह जो चौथा शरीर है, इसमें सच में ही कुंडलिनी जगी है, यह तुम्हारे कहने और अनुभव करने से सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह तो झूठ में भी तुम्हें अनुभव होगा और तुम कहोगे। नहीं, वह तो तुम्हारा जो वस्तु जगत का व्यक्तित्व है, उससे तय हो जाएगा कि वह घटना घटी है या नहीं घटी है; क्योंकि उसमें तत्काल फर्क पड़ने शुरू हो जाएंगे।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि आचरण जो है वह कसौटी है—साधन नहीं है, भीतर कुछ घटा है, उसकी कसौटी है। और प्रत्येक प्रयोग के साथ कुछ बातें अनिवार्य रूप से घटना शुरू होंगी। जैसे चौथे शरीर की शक्ति के जगने के बाद किसी भी तरह का मादक द्रव्य नहीं लिया जा सकता। अगर लिया जाता है, और उसमें रस है, तो जानना चाहिए कि किसी मिथ्या कुंडलिनी के खयाल में पड़ गए हो। वह नहीं संभव है।

जैसे कुंडलिनी जागने के बाद हिंसा करने की वृत्ति सब तरफ से विदा हो जाएगी—हिंसा करना ही नहीं, हिंसा करने की वृत्ति! क्योंकि हिंसा करने की जो वृत्ति है, हिंसा करने का जो भाव है, दूसरे को नुकसान पहुंचाने की जो भावना और कामना है वह तभी तक हो सकती है जब तक कि तुम्हारी कुंडलिनी शक्ति नहीं जगी है। जिस दिन वह जगती है, उसी दिन से तुम्हें दूसरा दूसरा नहीं दिखाई पड़ता, कि उसको तुम नुकसान पहुंचा सको, उसको तुम नुकसान नहीं पहुंचा सकते। और तब तुम्हें हिंसा रोकनी नहीं पड़ेगी, तुम हिंसा नहीं कर पाओगे। और अगर तब भी रोकनी पड़ रही हो, तो जानना चाहिए कि अभी वह जगी नहीं है। अगर तुम्हें अब भी संयम रखना पड़ता हो हिंसा पर, तो समझना चाहिए कि अभी कुंडलिनी नहीं जगी है।

अगर आंख खुल जाने पर भी तुम लकड़ी से टटोल—टटोलकर चलते हो, तो समझ लेना चाहिए आंख नहीं खुली है— भला तुम कितना ही कहते हो कि आंख खुल गई है। क्योंकि तुम अभी लकड़ी नहीं छोड़ते और तुम टटोलना अभी जारी रखे हुए हो, टटोलना भी बंद नहीं करते। तो साफ समझा जा सकता है। हमें पता नहीं है कि तुम्हारी आंख खुली है कि नहीं खुली लेकिन तुम्हारी लकड़ी और तुम्हारा टटोलना और डर—डरकर तुम्हारा चलना बताता है कि आंख नहीं खुली है।

चरित्र में आमूल परिवर्तन होगा। और सारे नियम, जो कहे गए हैं महाव्रत, वे सहज हो जाएंगे। तो समझना कि सच में ही आथेंटिक है—साइकिक ही है, लेकिन आथेंटिक है। और अब आगे जा सकते हो, क्योंकि आथेंटिक से आगे जा सकते हो; अगर झूठी है तो आगे नहीं जा सकते। और चौथा शरीर मुकाम नहीं है, अभी और शरीर हैं।

चौथे शरीर में चमत्कारों का प्रारंभ:

तो मैंने कहा कि चौथा शरीर कम लोगों का विकसित होता है। इसीलिए दुनिया में मिरेकल्स हो रहे हैं। अगर चौथा शरीर हम सबका विकसित हो तो दुनिया में चमत्कार तत्काल बंद हो जाएंगे। यह ऐसे ही है, जैसे कि चौदह साल तक हमारा शरीर विकसित हो, और हमारी बुद्धि विकसित न हो पाए, तो एक आदमी जो हिसाब—किताब लगा सकता हो बुद्धि से, गणित का हिसाब कर सकता हो, वह चमत्कार मालूम हो।

ऐसा था। आज से हजार साल पहले जब कोई कह देता था कि फलां दिन सूर्य—ग्रहण पड़ेगा, तो वह बड़ी चमत्कार की बात थी, वह परम ज्ञानी ही बता सकता था। अब आज हम जानते हैं कि यह मशीन बता सकती है, यह सिर्फ गणित का हिसाब है। इसमें कोई ज्योतिष और कोई प्रोफेसी और कोई बड़े भारी ज्ञानी की जरूरत नहीं है, एक कंप्यूटर बता सकता है— और एक साल का नहीं, आनेवाले करोड़ों साल का बता सकता है कि कब—कब सूर्य—ग्रहण पड़ेगा। और अब तो कंप्यूटर यह भी बता सकता है कि सूरज कब ठंडा हो जाएगा। क्योंकि अब तो सारा हिसाब है! वह जितनी गर्मी फेंक रहा है, उससे उसकी कितनी गर्मी रोज कम होती जा रही है, उसमें कितना गर्मी का भंडार है, वह इतने हजार वर्ष में ठंडा हो जाएगा, एक मशीन बता देगी। लेकिन यह अब हमको चमत्कार नहीं मालूम पड़ेगा, क्योंकि हम सब तीसरे शरीर को विकसित कर लिए हैं। आज से हजार साल पहले यह बात चमत्कार की थी कि कोई आदमी बता दे कि अगले साल, फलां रात को, ऐसा होगा कि चांद पर ग्रहण हो जाएगा। तो जब साल भर बाद ग्रहण हो जाता, तो हमें मानना पड़ता कि यह आदमी अलौकिक है।

अभी जो चमत्कार घट रहे हैं, कि कोई आदमी ताबीज निकाल देता है, किसी आदमी की तस्वीर से राख गिर जाती है, ये सब चौथे शरीर के लिए बड़ी साधारण सी बातें हैं। लेकिन वह हमारे पास नहीं है, तो हमारे लिए बड़ा भारी चमत्कार है।

यह सारी बात ऐसी है जैसे कि एक झाड़ के नीचे तुम खड़े हो और मैं झाड़ के ऊपर बैठा हूं। मैं तुमसे कहता हूं कि घंटे भर बाद एक बैलगाड़ी इस रास्ते पर आएगी। वह मुझे दिखाई पड़ रही है—मैं झाडू के ऊपर बैठा हूं तुम झाडू के नीचे बैठे हो, हम दोनों में बातें हो रही हैं। मैं कहता हूं एक घंटे बाद एक बैलगाड़ी इस झाड़ के नीचे आएगी।

तुम कहते हो, बड़े चमत्कार की बातें कर रहे हो! बैलगाड़ी कहीं दिखाई नहीं पड़ती। क्या आप कोई भविष्यवक्ता हैं? मैं नहीं मान सकता।

लेकिन घंटे भर बाद बैलगाड़ी आ जाती है, और तब आपको मेरे चरण छूने पड़ते हैं कि गुरुदेव, मैं नमस्कार करता हूं आप बड़े भविष्यवक्ता हैं। लेकिन फर्क कुल इतना है कि मैं थोड़ी ऊंचाई पर एक झाड़ पर बैठा हूं जहां से मुझे बैलगाड़ी घंटे भर पहले वर्तमान हो गई थी। भविष्य की बात मैं नहीं कह रहा हूं मैं भी वर्तमान की ही बात कह रहा हूं। लेकिन आपके वर्तमान में, मेरे वर्तमान में घंटे भर का फासला है, क्योंकि मैं एक ऊंचाई पर बैठा हूं। आपके लिए घंटे भर बाद वह वर्तमान बनेगा, मेरे लिए अभी वर्तमान हो गया है।

तो जितने गहरे शरीर पर व्यक्ति खड़ा हो जाएगा, उतना ही पीछे के शरीर के लोगों के लिए चमत्कार हो जाएगा। और उसकी सब चीजें मिरेकुलस मालूम पड़ने लगेंगी कि यह हो रहा है, यह हो रहा है, यह हो रहा है। और हमारे पास कोई उपाय न होगा कि कैसे हो रहा है; क्योंकि उस चौथे शरीर के नियम का हमें कोई पता नहीं है। इसलिए दुनिया में जादू चलता है, चमत्कार घटित होते हैं; वे सब चौथे शरीर के थोड़े से विकास से हैं।

इसलिए दुनिया से अगर चमत्कार खतम करने हों, तो लोगों को समझाने से खतम नहीं होंगे; चमत्कार खतम करने हों तो जैसे हम तीसरे शरीर की शिक्षा देकर प्रत्येक व्यक्ति को गणित और भाषा समझने के योग्य बना देते हैं, उसी तरह हमें चौथे शरीर की शिक्षा भी देनी पड़ेगी और प्रत्येक व्यक्ति को इस तरह की चीजों के योग्य बना देना होगा। तब दुनिया से चमत्कार मिटेंगे, उसके पहले नहीं मिट सकते। कोई न कोई आदमी इसका फायदा लेता रहेगा।

चौथा शरीर अट्ठाइस वर्ष तक विकसित होता है—यानी सात वर्ष फिर और। लेकिन मैंने कहा कि कम ही लोग इसको विकसित करते हैं।

पांचवां आत्म शरीर:

पांचवां शरीर बहुत कीमती है, जिसको अध्यात्म शरीर या स्वपिचुअल बॉडी कहें। वह पैंतीस वर्ष की उम्र तक, अगर ठीक से जीवन का विकास हो, तो उसको विकसित हो जाना चाहिए।

लेकिन वह तो बहुत दूर की बात है, चौथा शरीर ही नहीं विकसित हो पाता। इसलिए आत्मा वगैरह हमारे लिए बातचीत है, सिर्फ चर्चा है; उस शब्द के पीछे कोई कंटेंट नहीं है। जब हम कहते हैं ‘ आत्मा ‘, तो उसके पीछे कुछ नहीं होता, सिर्फ शब्द होता है, जब हम कहते हैं ‘ दीवाल’, तो सिर्फ शब्द नहीं होता, पीछे कंटेंट होता है। हम जानते हैं, दीवाल यानी क्या। ‘ आत्मा’ के पीछे कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि आत्मा हमारा अनुभव नहीं है। वह पांचवां शरीर है। और चौथे शरीर में कुंडलिनी जगे तो ही पांचवें शरीर में प्रवेश हो सकता है, अन्यथा पांचवें शरीर में प्रवेश नहीं हो सकता। चौथे का पता नहीं है, इसलिए पांचवें का पता नहीं हो पाता। और पांचवां भी बहुत थोड़े से लोगों को पता हो पाता है। जिसको हम आत्मवादी कहते हैं, कुछ लोग उस पर रुक जाते हैं, और वे कहते हैं बस यात्रा पूरी हो गई; आत्मा पा ली और सब पा लिया।

यात्रा अभी भी पूरी नहीं हो गई।

इसलिए जो लोग इस पांचवें शरोर पर रुकेंगे, वे परमात्मा को इनकार कर देंगे, वे कहेंगे, कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा वगैरह नहीं है। जैसे जो पहले शरीर पर रुकेगा, वह कह देगा कि कोई आत्मा वगैरह नहीं है। तो एक शरीरवादी है, एक मैटीरियलिस्ट है, वह कहता है. शरीर सब कुछ है; शरीर मर जाता है, सब मर जाता है। ऐसा ही आत्मवादी है, वह कहता है. आत्मा ही सब कुछ है, इसके आगे कुछ भी नहीं; बस परम स्थिति आत्मा है। लेकिन वह पांचवां शरीर ही है।

छठवां ब्रह्म शरीर और सातवां निर्वाण काया:

छठवां शरीर ब्रह्म शरीर है, वह कास्मिक बॉडी है। जब कोई आत्मा को विकसित कर ले और उसको खोने को राजी हो, तब वह छठवें शरीर में प्रवेश करता है। वह बयालीस वर्ष की उम्र तक सहज हो जाना चाहिए— अगर दुनिया में मनुष्य—जाति वैज्ञानिक ढंग से विकास करे, तो बयालीस वर्ष तक हो जाना चाहिए।

और सातवां शरीर उनचास वर्ष तक हो जाना चाहिए। वह सातवां शरीर निर्वाण काया है, वह कोई शरीर नहीं है, वह बॉडीलेसनेस की हालत है। वह परम है। वहां शून्य ही शेष रह जाएगा। वहां ब्रह्म भी शेष नहीं है। वहां कुछ भी शेष नहीं है। वहां सब समाप्त हो गया है।

इसलिए बुद्ध से जब भी कोई पूछता है, वहां क्या होगा? तो वे कहते हैं जैसे दीया बुझ जाता है, फिर क्या होता है? खो जाती है ज्योति, फिर तुम नहीं पूछते, कहां गई? फिर तुम नहीं पूछते, अब कहां रहती होगी? बस खो गई।

निर्वाण शब्द का मतलब होता है, दीये का बुझ जाना। इसलिए बुद्ध कहते हैं, निर्वाण हो जाता है। पांचवें शरीर तक मोक्ष की प्रतीति होगी, क्योंकि परम मुक्ति हो जाएगी; ये चार शरीरों के बंधन गिर जाएंगे और आत्मा परम मुक्त होगी।

तो मोक्ष जो है, वह पांचवें शरीर की अवस्था का अनुभव है।

अगर चौथे शरीर पर कोई रुक जाए, तो स्वर्ग का या नरक का अनुभव होगा; वे चौथे शरीर की संभावनाएं हैं।

अगर पहले, दूसरे और तीसरे शरीर पर कोई रुक जाए, तो यही जीवन सब कुछ है—जन्म और मृत्यु के बीच; इसके बाद कोई जीवन नहीं है।

अगर चौथे शरीर पर चला जाए, तो इस जीवन के बाद नरक और स्वर्ग का जीवन है, दुख और सुख की अनंत संभावनाएं हैं वहां।

अगर पांचवें शरीर पर पहुंच जाए, तो मोक्ष का द्वार है।

अगर छठवें पर पहुंच जाए, तो मोक्ष के भी पार ब्रह्म की संभावना है; वहां न मुक्त है, न अमुक्त है, वहां जो भी है उसके साथ वह एक हो गया। अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा इस छठवें शरीर की संभावना है।

लेकिन अभी एक कदम और, जो लास्ट जंप है—जहां न अहं है, न ब्रह्म है, जहां मैं और तू दोनों नहीं हैं; जहां कुछ है ही नहीं, जहां परम शून्य है— टोटल, एब्सोल्युट वॉयड—वह निर्वाण है।

हर सात साल में एक शरीर का विकास:

ये सात शरीर हैं। इसलिए पचास वर्ष की……. .उनचास वर्ष में यह पूरा होता है, इसलिए औसतन पचास वर्ष को क्रांति का बिंदु समझा जाता था। पच्चीस वर्ष तक एक जीवन—व्यवस्था थी। इस पच्चीस वर्ष में कोशिश की जाती थी कि हमारे जो भी जरूरी शरीर हैं वे विकसित हो जाएं—यानी चौथे शरीर तक आदमी पहुंच जाए; मनस शरीर तक आदमी पहुंच जाए, तो उसकी शिक्षा पूरी हुई। फिर वह पांचवें शरीर को जीवन में खोजे। और पचास वर्ष तक—शेष पच्चीस वर्षों में—वह सातवें शरीर को उपलब्ध हो जाए। इसलिए पचास वर्ष में दूसरा क्रांति का बिंदु आएगा कि अब वह वानप्रस्थ हो जाए। वानप्रस्थ का मतलब केवल इतना ही है कि उसका मुख अब जंगल की तरफ हो जाए; अब आदमी की तरफ से, समाज की तरफ से, भीड़ की तरफ से वह मुंह को फेर ले। और पचहत्तर वर्ष फिर एक क्रांति का बिंदु है जहां से वह संन्यस्त हो जाए। वन की तरफ मुंह फेर ले— यह भीड़ और आदमी से बचे। और संन्यस्त का मतलब है— अपने से भी बचे, अब अपने से भी मुंह फेर ले। मतलब समझ रहे हो न तुम? यानी जंगल में अब मैं तो बच ही जाऊंगा! फिर इसको भी छोड़ने का वक्त है कि पचहत्तर वर्ष में फिर इसको भी छोड़ दे।

लेकिन गृहस्थ जीवन में उसके सातों शरीर का अनुभव और विकास हो जाना चाहिए, तो यह सब आगे बड़ा सहज और आनंदपूर्ण हो जाएगा; और अगर यह न हो पाए, तो यह बड़ा कठिन हो जाएगा। क्योंकि प्रत्येक उम्र के साथ विकास की एक स्थिति जुड़ी है। अगर एक बच्चे का शरीर सात वर्ष में स्वस्थ न हो पाए, तो फिर जिंदगी भर वह किसी न किसी अर्थों में बीमार रहेगा। ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही इंतजाम कर सकते हैं कि वह बीमार न रहे, लेकिन स्वस्थ कभी न हो सकेगा। क्योंकि उसकी बेसिक फाउंडेशन जो सात साल में पड़नी थी, वह डगमगा गई; वह उसी वक्त पड़नी थी। जैसे कि हमने मकान की नींव भरी, अगर नींव कमजोर रह गई, तो शिखर पर पहुंचकर उसको ठीक करना बहुत मुश्किल मामला है; वह जब नींव भरी थी तभी मजबूत हो जानी चाहिए थी।

तो वे जो पहले सात वर्ष हैं, वह अगर भौतिक शरीर के लिए पूरी व्यवस्था मिल जाए, तो बात बनेगी। दूसरे सात वर्ष में अगर भाव शरीर का ठीक विकास न हो पाए, तो पच्चीस सेक्सुअल परवर्शन पैदा हो जाएंगे; फिर उनको सुधारना बहुत मुश्किल हो जाएगा। वह वही वक्त है, जब कि तैयारी उसकी हो जानी चाहिए। यानी जीवन की प्रत्येक सीडी पर प्रत्येक शरीर की साधना का सुनिश्चित समय है। उसमें इंच, दो इंच का फेर—फासला और बात है। लेकिन एक सुनिश्चित समय है।

हर शरीर का समय पर विकसित हो जाना जरूरी:

अगर किसी बच्चे में चौदह साल तक सेक्स का विकास न हो पाए, तो अब उसकी पूरी जिंदगी किसी तरह की मुसीबत में बीतेगी। अगर इक्कीस वर्ष तक उसकी बुद्धि विकसित न हो पाए, तो फिर अब बहुत कम उपाय हैं कि इक्कीस वर्ष के बाद हम उसकी बुद्धि को विकसित करवा पाएं।

लेकिन इस संबंध में हम सब राजी हो जाते हैं कि यह ठीक बात है। इसलिए हम पहले शरीर की भी फिकर कर लेते हैं, स्कूल में भी पढ़ा देते हैं, सब कर देते हैं। लेकिन बाद के शरीरों का विकास भी उस सुनिश्चित उम्र से बंधा हुआ है, और वह चूक जाने की वजह से बहुत कठिनाई होती है। एक आदमी पचास साल की उम्र में उस शरीर को विकसित करने में लगता है जो उसे इक्कीस वर्ष में लगना चाहिए था। तो इक्कीस वर्ष में जितनी ताकत उसके पास थी उतनी पचास वर्ष में उसके पास नहीं है। इसलिए अकारण कठिनाई पड़ती है और उसे बहुत ज्यादा श्रम उठाना पड़ता है जो कि इक्कीस वर्ष में आसान हुआ होता। वह अब एक लंबा पथ और कठिन पथ हो जाता है। और एक कठिनाई हो जाती है कि इक्कीस वर्ष में उस द्वार पर खड़ा था, और इक्कीस वर्ष और पचास वर्ष के बीच तीस वर्ष में वह इतने बाजारों में भटका है कि वह दरवाजे पर भी नहीं है अब, जहां इक्कीस वर्ष में अपने आप खड़ा हो गया था, जहां से जरा सी चोट और दरवाजा खुलता, अब उसको वह दरवाजा फिर से खोजना है। और वह इस बीच इतना भटक चुका है और इतने दरवाजे देख चुका है कि उसे पता लगाना भी मुश्किल है कि वह दरवाजा कौन सा है, जिस पर मैं इक्कीस वर्ष में खड़ा हो गया था।

इसलिए पच्चीस वर्ष तक बड़ी सुनियोजित व्यवस्था की जरूरत है बच्चों के लिए। वह इतनी सुनियोजित होनी चाहिए कि उनको चौथे पर तो पहुंचा दे। चौथे के बाद बहुत आसान है मामला। फाउंडेशन सब भर दी गई हैं, अब तो सिर्फ फल आने की बात है। पांचवें से फल आने शुरू हो जाते हैं। चौथे तक वृक्ष निर्मित होता है, पांचवें से फल आने शुरू होते हैं, सातवें पर पूरे हो जाते हैं। इसमें थोड़ी देर—अबेर हो सकती है, लेकिन यह बुनियाद पूरी की पूरी मजबूत हो जाए।

इस संबंध में एक—दो बातें और खयाल में ले लेनी चाहिए।

स्त्री और पुरुष के चार विद्युतीय शरीर:

चार शरीर तक स्त्री और पुरुष का फासला है। जैसे कोई व्यक्ति पुरुष है, तो उसकी फिजिकल बॉडी मेल बॉडी होती है, वह पुरुष शरीर होता है उसका भौतिक शरीर। लेकिन उसके पीछे की, नंबर दो की ईथरिक बॉडी, भाव शरीर स्त्रैण होती है; वह फीमेल बॉडी होती है। क्योंकि कोई निगेटिव या कोई पाजिटिव अकेला नहीं रह सकता। स्त्री का शरीर और पुरुष का शरीर, इसको अगर हम विद्युत की भाषा में कहें, तो निगेटिव और पाजिटिव बॉडीज़ हैं।

स्त्री के पास निगेटिव बॉडी है— स्थूल। इसीलिए स्त्री कभी भी सेक्स के संबंध में आक्रामक नहीं हो सकती, वह पुरुष पर बलात्कार नहीं कर सकती; उसके पास निगेटिव बॉडी है। वह बलात्कार झेल सकती है, कर नहीं सकती। पुरुष की बिना इच्छा के स्त्री उसके साथ कुछ भी नहीं कर सकती। लेकिन पुरुष के पास पाजिटिव बॉडी है, वह स्त्री की बिना इच्छा के भी कुछ कर सकता है, आक्रामक शरीर है उसके पास। निगेटिव का मतलब ऐसा नहीं कि शून्य, और ऐसा नहीं कि ऋणात्मक। निगेटिव का मतलब विद्युत की भाषा में इतना ही होता है—रिजर्वायर। स्त्री के पास एक ऐसा शरीर है जिसमें शक्ति संरक्षित है—बडी शक्ति संरक्षित है। लेकिन सक्रिय नहीं है, है वह निष्किय शक्ति।

इसलिए स्त्रियां कुछ सृजन नहीं कर पातीं— न कोई बड़ी कविता का जन्म कर पाती हैं, न कोई बड़ी पेंटिंग बना पाती हैं, न कोई विज्ञान की खोज कर पाती हैं। उनके ऊपर कोई बड़ी खोज नहीं है, उनके ऊपर कोई सृजन नहीं है। क्योंकि सृजन के लिए आक्रामक होना जरूरी है, वे सिर्फ प्रतीक्षा करती रहती हैं। इसलिए सिर्फ बच्चे पैदा कर पाती हैं।

पुरुष के पास एक पाजिटिव बॉडी है— भौतिक शरीर। लेकिन जहां भी पाजिटिव है, उसके पीछे निगेटिव को होना चाहिए, नहीं तो वह टिक नहीं सकता। वे दोनों इकट्ठे ही मौजूद होते हैं, तब उनका पूरा सर्किल बनता है। तो पुरुष का जो नंबर दो का शरीर है, वह स्त्रैण है; स्त्री के पास जो नंबर दो का शरीर है, वह पुरुष का है।

इसलिए एक और मजे की बात है कि पुरुष दिखता बहुत ताकतवर है—जहां तक उसके भौतिक शरीर का संबंध है, वह बहुत ताकतवर है; लेकिन उसके पीछे एक कमजोर शरीर खड़ा हुआ है, स्त्रैण। इसलिए उसकी ताकत क्षणों में प्रकट होगी, लंबे अरसे में वह स्त्री से हार जाएगा; क्योंकि स्त्री के पीछे जो शरीर है, वह पाजिटिव है।

इसलिए रेसिस्टेंस की, सहने की क्षमता पुरुष से स्त्री में सदा ज्यादा होगी। अगर एक बीमारी पुरुष और स्त्री पर हो, तो स्त्री उसे लंबे समय तक झेल सकती है, पुरुष उतने लंबे समय तक नहीं झेल सकता। बच्चे स्त्रियां पैदा करती हैं, अगर पुरुष को पैदा करना पड़े तब उसे पता चले। शायद दुनिया में फिर संतति—नियमन की कोई जरूरत न रह जाए, वह बंद ही कर दे। वह इतना कष्ट नहीं झेल सकता— और इतना लंबा! क्षण, दो क्षण को क्रोध में वह पत्थर फेंक सकता है, लेकिन नौ महीने एक बच्चे को पेट में नहीं झेल सकता और वर्षों तक उसे बड़ा नहीं कर सकता। और रात भर वह रोए तो उसकी गर्दन दबा देगा, उसको झेल नहीं सकता। ताकत तो उसके पास ज्यादा है, लेकिन पीछे उसके पास एक डेलिकेट और कमजोर शरीर है जिसकी वजह से वह उसको झेल नहीं पाता। इसलिए स्त्रियां कम बीमार पडती हैं।

स्त्रियों की उम्र पुरुष से ज्यादा है। इसलिए हम पांच साल का फासला रखते हैं शादी करते वक्त। नहीं तो दुनिया विधवाओं से भर जाए। इसलिए हम लड़का बीस साल का चुनते हैं तो लडकी पंद्रह साल की चुनते हैं, सोलह साल की चुनते हैं। क्योंकि चार और पांच साल का फासला है, नहीं तो सारी दुनिया विधवाओं से भर जाए। क्योंकि पुरुष की उम्र चार—पांच साल कम है। वह जब सत्तर साल में मरेगा तो कठिनाई खड़ी हो जाएगी। तो उसका, दोनों के बीच तालमेल बैठ जाए और वे बराबर जगह आ जाएं।

एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं और एक सौ लड़कियां पैदा होती हैं; पैदा होते वक्त सोलह का फर्क होता है, सोलह लड़के ज्यादा पैदा होते हैं। लेकिन दुनिया में स्त्री—पुरुष की संख्या बराबर हो जाती है पीछे। सोलह लड़के चौदह साल के होने के पहले मर जाते हैं और करीब—करीब बराबर अनुपात हो जाता है। लड़के ज्यादा मरते हैं, लड़कियां कम मरती हैं, उनके पास रेसिस्टेंस की क्षमता, प्रतिरोध की क्षमता प्रबल है। वह उनके पीछे के शरीर से आती है।

दूसरी बात : तीसरा शरीर जो है पुरुष का, वह फिर पुरुष का होगा—यानी सूक्ष्म शरीर। और चौथा शरीर, मनस शरीर फिर स्त्री का होगा। और ठीक इससे उलटा स्त्री में होगा।

चार शरीरों तक स्त्री—पुरुष का विभाजन है, पांचवां शरीर बियांड सेक्स है।

इसलिए आत्म—उपलब्धि होते ही इस जगत में फिर कोई स्त्री और पुरुष नहीं है। लेकिन तब तक स्त्री—पुरुष है।

और इस संबंध में एक बात और खयाल आती है, वह मैं आपसे कहूं कि चूंकि प्रत्येक पुरुष के पास स्त्री का शरीर है भीतर और प्रत्येक स्त्री के पास पुरुष का शरीर है, अगर संयोग से स्त्री को ऐसा पति मिल जाए जो उसके भीतर के पुरुष शरीर से मेल खाता हो, तभी विवाह सफल होता है, नहीं तो नहीं हो पाता; या पुरुष को ऐसी स्त्री मिल जाए तो उसके भीतर की स्त्री से मेल खाती है, तो ही सफल होता है, नहीं तो नहीं हो पाता।

प्रथम चार शरीरों के विकास के बिना विवाह असफल:

इसलिए सारी दुनिया में सौ में निन्यानबे विवाह असफल होते हैं, क्योंकि उनकी गहरी सफलता का सूत्र अभी तक साफ नहीं हो सका है। और उसको हम कैसे खोजबीन करें कि उनके भीतरी शरीरों से मेल खा जाए, तब तक दुनिया में विवाह असफल ही होता रहेगा। उसके लिए हम कुछ भी इंतजाम कर लें, वह सफल नहीं हो सकता। और उसको हम तभी खोज पाएंगे जब यह सारी की सारी शरीरों की पूरी वैज्ञानिक व्यवस्था अत्यंत स्पष्ट हो जाए।

और इसलिए अगर एक युवक विवाह के पहले, एक युवती विवाह के पहले, अपनी कुंडलिनी जागरण तक पहुंच गए हों, तो उन्हें ठीक साथी चुनना सदा आसान है। उसके पहले ठीक साथी चुनना कभी भी आसान नहीं है। क्योंकि वे अपने भीतर के शरीरों की पहचान से बाहर के ठीक शरीर को चुन पा सकते हैं।

इसलिए हमारी कोशिश थी, जो लोग जानते थे, वे पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य वास में और इन चार शरीरों के विकास तक ले जाने के बाद…… .तभी विवाह, उसके पहले विवाह नहीं! क्योंकि किससे विवाह करना है? किसके साथ तुम्हें रहना है? खोज किसकी है? हम किसको खोज रहे हैं? एक पुरुष एक स्त्री को……. .कौन सी स्त्री को खोज रहा है जिससे वह तृप्त हो सकेगा?

वह अपने ही भीतर की स्त्री को खोज रहा है; एक स्त्री अपने ही भीतर के पुरुष को खोज रही है। अगर कहीं तालमेल बैठ जाता है संयोग से, तब तो वह तृप्त हो जाता है, अन्यथा वह अतृप्ति बनी रहती है। फिर हजार तरह की विकृति पैदा होती है—कि वह वेश्या को खोज रहा है, वह पड़ोस की स्त्री को खोज रहा है, वह यहां जा रहा है, वह वहां जा रहा है। वह परेशानी बढ़ती चली जाती है।

और जितनी मनुष्य की बुद्धि विकसित होगी उतनी यह परेशानी बढ़ेगी। अगर चौदह वर्ष तक ही आदमी रुक जाए तो यह परेशानी नहीं होगी। क्योंकि यह सारी परेशानी तीसरे शरीर के विकास से शुरू होगी, बुद्धि के। अगर सिर्फ दूसरा शरीर विकसित हो, भाव शरीर, तो वह सेक्स से तृप्त हो जाएगा।

इसलिए दो रास्ते थे या तो हम पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य के काल में उसको चार शरीरों तक पहुंचा दें, और या फिर बाल—विवाह कर दें। क्योंकि बाल—विवाह का मतलब है कि बुद्धि का शरीर विकसित होने के पहले। ताकि वह सेक्स पर ही रुक जाए और कभी झंझट में न पड़े। तब उसका जो संबंध है स्त्री—पुरुष का, वह बिलकुल पाशविक संबंध है। बाल—विवाह का जो संबंध है, वह सिर्फ सेक्स का संबंध है; प्रेम जैसी संभावना वहां नहीं है।

इसलिए अमेरिका जैसे मुल्कों में, जहां शिक्षा बहुत बढ़ गई, और जहां तीसरा शरीर पूरी तरह विकसित हो गया, वहां विवाह टूटेगा, वह नहीं बच सकता। क्योंकि तीसरा शरीर कहता है मेल नहीं खाता। इसलिए तलाक फौरन तैयार हो जाएगा, क्योंकि मेल नहीं खाता तो इसको खींचना कैसे संभव है।

सम्यक शिक्षा में चार शरीरों का विकास:

ये चार शरीर अगर विकसित हों, तो ही मैं कहता हूं शिक्षा ठीक है, सम्यक है। राइट एजुकेशन का मतलब है. चार शरीर तक तुम्हें ले जाए। क्योंकि पांचवें शरीर तक कोई शिक्षा नहीं ले जा सकती, वहां तो तुम्हें जाना पड़ेगा। लेकिन चार शरीर तक शिक्षा ले जा सकती है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

पांचवां कीमती शरीर है, उसके बाद यात्रा निजी शुरू हो जाती है। फिर छठवां और सातवां तुम्हारी निजी यात्रा है।

कुंडलिनी जो है वह चौथे शरीर की संभावना है। मेरी बात खयाल में आई न?

प्रश्न : ओशो शक्तिपात में कंडक्टर का काम करनेवाले व्यक्ति के साथ क्या साधक की साइकिक बाइंडिंग हो जाती है? उससे क्या— क्या हानियां साधक को हो सकती हैं? क्या उसके अच्छे उपयोग भी हैं?

बंधन का तो कोई अच्छा उपयोग नहीं है, क्योंकि बंधन ही बुरी बात है; और जितना गहरा बंधन हो उतनी ही बुरी बात है। तो साइकिक बाइंडिंग तो बहुत बुरी बात है। अगर मेरे हाथ में कोई जंजीर डाल दे तो चलेगा; क्योंकि वह मेरे भौतिक शरीर को ही पकड़ पाती है। लेकिन कोई मेरे ऊपर प्रेम की जंजीर डाल दे तो ज्यादा झंझट शुरू हुई; क्योंकि वह जंजीर गहरे चली गई। वह जंजीर गहरे चली गई और उसको तोड़ना उतना आसान नहीं रह गया। कोई श्रद्धा की जंजीर डाल दे तो और गहरी चली गई, उसको तोड़ना और अनहोली काम हो गया न! अपवित्र काम हो गया। वह और मुश्किल बात हो गई।

तो बंधन तो सभी बुरे हैं, और मनस बंधन तो और भी बुरे हैं।

शक्तिपात का सही माध्यम:

जो व्यक्ति शक्तिपात में वाहन का काम करे, वह व्यक्ति तो तुम्हें बांधना ही न चाहेगा। अगर शक्तिपात हो रहा है, तो वह व्यक्ति तो तुम्हें बांधना न चाहेगा; क्योंकि अगर वह बांधना चाहता हो तो वह पात्र ही नहीं है कि वह वाहन बन सके। हां, लेकिन तुम बंध सकते हो। तुम बंध सकते हो, तुम उसके पैर पकड़ ले सकते हो कि मैं अब आपको न छोडूंगा, आपने मेरे ऊपर इतना उपकार किया। उस समय सजग होने की जरूरत है। उस समय बहुत सजग होने की जरूरत है कि साधक, जिस पर शक्तिपात हो, वह अपने को बंधन से बचा सके।

लेकिन अगर यह खयाल हो, और अगर यह बात साफ हो कि बंधन मात्र आध्यात्मिक यात्रा में भारी पड़ जाते हैं, तो अनुग्रह बांधेगा नहीं, बल्कि अनुग्रह भी खोलेगा। यानी मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हो जाऊं, तो यह बंधन क्यों बने? इसमें बंधन होने की क्या बात है? बल्कि अगर मैं कृतशता शापन न कर पाऊं तो शायद भीतर एक बंधन रह जाए कि मैं धन्यवाद भी नहीं दे पाया। लेकिन धन्यवाद देने का मतलब यह है कि बात समाप्त हो गई।

सुरक्षा— भयभीत की खोज:

अनुग्रह बंधन नहीं है, बल्कि अनुग्रह का भाव परम स्वतंत्रता का भाव है। लेकिन हम कोशिश करते हैं बंधने की क्योंकि हमारे भीतर भय है। और हम सोचते हैं अकेले खड़े रह पाएंगे, नहीं खड़े रह पाएंगे? किसी से बंध जाएं। दूसरे की तो बात छोड़ दें, अंधेरी गली में से आदमी निकलता है तो खुद ही जोर—जोर से गाना गाने लगता है; अपनी ही आवाज जोर से सुनकर भी भय कम होता है। अपनी ही आवाज! दूसरे की आवाज भी होती तब भी ठीक था कि कोई दूसरा भी मौजूद है! लेकिन अपनी ही आवाज जोर से सुनकर काफिडेंस बढ़ता मालूम पड़ता है कि कोई डर नहीं।

तो आदमी भयभीत है और वह कुछ भी पकड़ने लगता है। और अगर डूबते को तिनका भी मिल जाए, तो वह आंख बंद करके उसको भी पकड़ लेता है। हालांकि इस तिनके से डूबने से नहीं बचता, सिर्फ डूबनेवाले के साथ तिनका भी डूब जाता है। लेकिन भय में हमारा चित्त पकड़ लेना चाहता है। सारी बाइंडिंग फियर की है। तो गुरु हो—यह हो, वह हो—कोई भी, उसको पकड़ लेंगे हम। पकड़कर हम सुरक्षित होना चाहते हैं। एक तरह की सिक्योरिटी है।

असुरक्षा में ही आत्मा का विकास:

और साधक को सुरक्षा से बचना चाहिए। साधक के लिए सुरक्षा सबसे बड़ा मोहजाल है। अगर उसने एक दिन भी सुरक्षा चाही, और उसने कहा कि अब मैं किसी की शरण में सुरक्षित हो जाऊंगा, और किसी की आडू में अब कोई भय नहीं है अब मैं भटक नहीं सकता, अब मैंने ठीक मुकाम पा लिया, अब मैं कहीं जाऊंगा नहीं, अब मैं यहीं बैठा रहूंगा, तो वह भटक गया; क्योंकि साधक के लिए सुरक्षा नहीं है। साधक के लिए असुरक्षा वरदान है; क्योंकि जितनी असुरक्षा है, उतना ही साधक की आत्मा को फैलने, बलवान होने, अभय होने का मौका है; जितनी सुरक्षा है, उतना साधक के निर्बल होने की व्यवस्था है; वह उतना निर्बल हो जाएगा।

बेसहारा होने के लिए ही सहारे का उपयोग:

सहारा लेना एक बात है, सहारा लिए ही चले जाना बिलकुल दूसरी बात है। सहारा दिया ही इसलिए गया है कि तुम बेसहारे हो सको; सहारा दिया ही इसलिए गया है कि अब तुम्हें सहारे की जरूरत न रहे।

एक बाप अपने बेटे को चलना सिखा रहा है। कभी खयाल किया है कि जब बाप अपने बेटे को चलना सिखाता है, तो बाप बेटे का हाथ पकड़ता है; बेटा नहीं पकड़ता। लेकिन थोड़े दिन बाद जब बेटा थोड़ा चलना सीख जाता है, तो बाप का हाथ बाप तो छोड़ देता है, लेकिन बेटा पकड़ लेता है। कभी बाप को चलाते देखें, तो अगर बेटा हाथ पकड़े हो तो समझो कि वह चलना सीख गया है, लेकिन फिर भी हाथ नहीं छोड़ रहा है; और अगर बाप हाथ पकड़े हो तो समझना कि अभी चलना सिखाया जा रहा है, अभी छोड़ने में खतरा है, अभी छोड़ा नहीं जा सकता। और बाप तो चाहेगा ही यह कि कितनी जल्दी हाथ छूट जाए; क्योंकि इसीलिए तो सिखा रहा है।

और अगर कोई बाप इस मोह से भर जाए कि उसे मजा आने लगे कि बेटा उसका हाथ पकड़े ही रहे, तो वह बाप दुश्मन हो गया। बहुत बाप हो जाते हैं। बहुत गुरु हो जाते हैं। लेकिन चूक गए वे। जिस बात के लिए उन्होंने सहारा दिया था, वही खत्म हो गई। वह तो उन्होंने क्रिपिल्ड पैदा कर दिए जो अब उनकी बैसाखी लेकर चलेंगे। हालांकि उनको मजा आता है कि मेरी बैसाखी के बिना तुम नहीं चल सकते। अहंकार की तृप्ति मिलती है। लेकिन जिस गुरु को अहंकार की तृप्ति मिल रही हो, वह तो गुरु ही नहीं है।

लेकिन बेटा पकड़े रह सकता है पीछे भी, क्योंकि बेटा डर जाए कि कहीं गिर न जाऊं! क्योंकि बिना बाप के मैं कैसे चल सकूंगा? तो गुरु का काम है कि उसके हाथ को झिड्के और कहे कि अब तुम चलो। और कोई फिकर नहीं, दों—चार बार गिरो तो ठीक है, उठ आना। आखिर उठने के लिए गिरना जरूरी है। और, गिरने का डर मिटाने के लिए भी कुछ बार गिरना जरूरी है कि अब नहीं गिरेंगे।

हमारे मन में यह हो सकता है कि किसी का सहारा पकड़ लें, तो फिर बाइंडिंग पैदा हो जाती है। वह पैदा नहीं करना है। किसी साधक को ध्यान लेकर चलना है कि वह कोई सुरक्षा की तलाश में नहीं है; वह सत्य की खोज में है, सुरक्षा की खोज में नहीं है। और अगर सत्य की खोज करनी है तो सुरक्षा का खयाल छोड़ना पड़ेगा। नहीं तो असत्य बहुत बार बड़ी सुरक्षा देता है— और जल्दी से दे देता है। तो फिर सुरक्षा का खोजी असत्य को पकड़ लेता है। कनवीनिएंस का खोजी सत्य तक नहीं पहुंचता, क्योंकि लंबी यात्रा है। फिर वह यहीं असत्य को गढ़ लेता है और यहीं बैठे हुए पा लेता है। और बात समाप्त हो जाती है।

अंधश्रद्धा क्यों:

इसलिए किसी भी तरह का बंधन…… और गुरु का बंधन तो बहुत ही खतरनाक है, क्योंकि वह आध्यात्मिक बंधन है। और आध्यात्मिक बंधन शब्द ही कट्राडिक्टरी है; क्योंकि आध्यात्मिक स्वतंत्रता तो अर्थ रखती है, आध्यात्मिक गुलामी का कोई अर्थ नहीं होता। लेकिन इस दुनिया में आध्यात्मिक रूप से जितने लोग गुलाम हैं, उतने लोग और किसी रूप से गुलाम नहीं हैं। उसका कारण है; क्योंकि जिस चौथे शरीर के विकास से आध्यात्मिक स्वतंत्रता की संभावना पैदा होगी, वह चौथा शरीर नहीं है। उसके कारण हैं—वें तीसरे शरीर तक विकसित हैं।

इसलिए अक्सर देखा जाएगा कि एक आदमी हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस है, किसी युनिवर्सिटी का वाइसचांसलर है, और किसी निपट गंवार आदमी के पैर पकड़े बैठा हुआ है। और उसको देखकर हजार गंवार उसके पीछे बैठे हुए है—कि जब हाईकोर्ट का जस्टिस बैठा है, वाइसचांसलर बैठा है युनिवर्सिटी का, तो हम क्या हैं! लेकिन उसे पता नहीं कि यह जो आदमी है, इसका तीसरा शरीर तो बहुत विकसित हुआ है, इसने बुद्धि का तो बहुत विकास किया था, लेकिन चौथे शरीर के मामले में यह बिलकुल गंवार है; उसके पास वह शरीर नहीं है। और इसके पास चूंकि तीसरा शरीर है केवल, बुद्धि और तर्क का विचार करते—करते यह थक गया और अब विश्राम कर रहा है। और जब बुद्धि थककर विश्राम करती है तो बड़े अबुद्धिपूर्ण काम करती है। कोई भी चीज जब थककर विश्राम करती है तो उलटी हो जाती है। इसलिए यह बड़ा खतरा है।

इसलिए आश्रमों में आपको मिल जाएंगे, हाईकोर्ट के जजेज़ वहां निश्चित मिलेंगे। वे थक गए हैं, वे बुद्धि से परेशान हो गए हैं, वे इससे छुटकारा चाहते हैं। वे कोई भी अबुद्धिपूर्ण, इररेशनल, किसी भी चीज में विश्वास करके आंख बंद करके बैठ जाते हैं। वे कहते हैं सोच लिया बहुत, विवाद कर लिया बहुत, तर्क कर लिया बहुत, कुछ नहीं मिला; अब इसको हम छोड़ते हैं। तो वे किसी को भी पकड़ लेते हैं। और उनको देखकर, पीछे जो बुद्धिहीन वर्ग है, वह कहता है जब इतने बुद्धिमान लोग हैं, तो फिर हमको भी पकड़ लेना चाहिए। लेकिन वे जहां तक चौथे शरीर का संबंध है, निपट ना—कुछ हैं।

इसलिए चौथे शरीर का किसी व्यक्तित्व में थोड़ा सा भी विकास हुआ हो, तो बडे से बड़ा बुद्धिमान उसके चरणों को पकड़कर बैठ जाएगा; क्योंकि उसके पास कुछ है, जिसके मामले में यह बिलकुल निर्धन है।

तो चूंकि चौथा शरीर विकसित नहीं है, इसलिए बाइंडिंग पैदा होती है। ऐसा मन होता है कि किसी को पकड़ लो; जिसका विकसित है, उसको पकड़ लो। लेकिन उसको पकड़ने से विकसित नहीं हो जाएगा; उसको समझने से विकसित हो सकता है। और पकड़ना समझने से बचने का उपाय है—कि समझने की क्या जरूरत है? समझने की क्या जरूरत है, हम आपके ही चरण पकड़े रहते हैं! तो जब आप वैतरणी पार होओगे, हम भी हो जाएंगे। हम आपको ही नाव बनाए लेते हैं; हम उसी में सवार रहेंगे जब आप पहुंचोगे, हम भी पहुंच जाएंगे।

 

साधना के श्रम से बचने के लिए अंधानुकरण:

समझने में कष्ट है। समझने में अपने को बदलना पड़ेगा। समझना एक प्रयास, एक साधना है। समझना एक श्रम है, समझना एक क्रांति है। समझने में एक रूपांतरण होगा, सब बदलेगा पुराना; नया करना पड़ेगा। इतनी झंझट क्यों करनी! जो आदमी जानता है, हम उसको पकड़ लेते हैं; हम उसके पीछे चले जाएंगे।

लेकिन इस जगत में सत्य तक कोई किसी के पीछे नहीं जा सकता, वहां अकेले ही पहुंचना पड़ता है। वह रास्ता ही निर्जन है। वह रास्ता ही अकेले का है। इसलिए किसी तरह का बंधन वहां बाधा है।

तो सीखना, समझना, जहां से जो झलक मिले उसे लेना, लेकिन रुकना कहीं भी मत, किसी भी जगह को तुम मुकाम मत बना लेना और उसका हाथ पकड़ मत लेना कि बस अब ठीक, आ गए। हालांकि बहुत लोग मिलेंगे, जो कहेंगे. कहां जाते हो? रुक जाओ मेरे पास! बहुत लोग मिलेंगे जिनको

यह दूसरा हिस्सा है। जैसा कि मैंने कहा, भयभीत आदमी बंधना चाहता है किसी से, तो कुछ भयभीत आदमी बांधना भी चाहते हैं किसी को; उनको उससे भी अभय हो जाता है। जिस आदमी को लगता है, मेरे साथ हजार अनुयायी हैं, उसको लगता है— मैं ज्ञानी हो गया, नहीं तो हजार अनुयायी कैसे होते! जब हजार आदमी मुझे माननेवाले हैं, तो जरूर मैं कुछ जानता हूं नहीं तो मानेंगे कैसे!

यह बड़े मजे की बात है कि गुरु बनना कई बार तो सिर्फ इसी मानसिक हीनता के कारण होता है— कि दस हजार मेरे शिष्य हैं, बीस हजार! तो गुरु लगे हैं शिष्य बढ़ाने में— कि मेरे सात सौ संन्यासी हैं, मेरे हजार संन्यासी हैं, मेरे इतने शिष्य हैं—वे फैलाने में लगे हैं। क्योंकि जितना यह विस्तार फैलता है, वे आश्वस्त होते हैं कि जरूर मैं जानता हूं नहीं तो हजार आदमी मुझे क्यों मानते! यह तर्क लौटकर उनको विश्वास दिलाता है कि मैं जानता हूं। अगर ये हजार शिष्य खो जाएं, तो उनको लगेगा कि गया। इसका मतलब कि मैं नहीं जानता।

जहां बंधन है, वहां संबंध नहीं है:

बड़े मानसिक खेल चलते हैं। बड़े मानसिक खेल चलते हैं। उन मानसिक खेलों से सावधान होने की जरूरत है—दोनों तरफ से, क्योंकि दोनों तरफ से खेल हो सकता है। शिष्य भी बांध सकता है, और जो शिष्य आज किसी से बंधेका, वह कल किसी को बांधेगा, क्योंकि यह सब श्रृंखलाबद्ध काम है। वह आज शिष्य बनेगा तो कल गुरु भी बनेगा। क्योंकि शिष्य कब तक बना रहेगा! अभी एक को पकड़ेगा, तो कल फिर किसी को खुद को भी पकड़ाएगा। श्रृंखलाबद्ध गुलामिया हैं।

मगर उसका बहुत गहरे में कारण वह चौथे शरीर का विकसित न होना है। उसको विकसित करने की चिंता चले तो तुम स्वतंत्र हो सकोगे। फिर बंधन नहीं होगा।

इसका यह मतलब नहीं है कि तुम अमानवीय हो जाओगे, कि तुम्हारा मनुष्यों से कोई संबंध न रह जाएगा; बल्कि इसका मतलब ही उलटा है। असल में, जहां बंधन है, वहां संबंध होता ही नहीं। अगर एक पति और पत्नी के बीच बंधन है.. .हम कहते हैं न कि विवाह—बंधन में बंध रहे हैं! निमंत्रण पत्रिकाएं भेजते हैं कि मेरा बेटा और मेरी बेटी प्रणय—सूत्र के बंधन में बंध रहे हैं! जहां बंधन है, वहां संबंध नहीं हो सकता। क्योंकि गुलामी में कैसा संबंध?

कभी भविष्य में जरूर कोई बाप निमंत्रण पत्र भेजेगा कि मेरी बेटी किसी के प्रेम में स्वतंत्र हो रही है। वह तो समझ में आती है बात कि अब किसी का प्रेम उसको स्वतंत्र कर रहा है जीवन में; अब उसके ऊपर कोई बंधन नहीं रहेगा, वह मुक्त हो रही है प्रेम में। और प्रेम मुक्त करना चाहिए। अगर प्रेम भी बांध लेता है तो फिर इस जगत में मुक्त क्या करेगा? कौन करेगा?

संबंध वही, जो मुक्त करे:

और जहां बंधन है, वहां सब कष्ट हो जाता है, सब नरक हो जाता है। ऊपर से चेहरे और रह जाते हैं, भीतर सब गंदगी हो जाती है। वह चाहे गुरु—शिष्य का हो, चाहे बाप—बेटे का हो, चाहे पति—पत्नी का हो, चाहे दो मित्रों का हो—जहां बंधन है, वहां संबंध नहीं होता। और अगर संबंध है तो बंधन बेमानी है। लगता तो ऐसा ही है कि जिससे हम बंधे हैं, उसी से संबंध है; लेकिन सिर्फ उसी से हमारा संबंध होता है, जिससे हमारा कोई भी बंधन नहीं।

इसलिए कई बार ऐसा हो जाता है कि आप अपने बेटे से वह बात नहीं कह सकते जो एक अजनबी से कह सकते हैं। मैं इधर हैरान हुआ हूं जानकर कि पत्नी अपने पति से नहीं कह सकती और ट्रेन में एक अजनबी आदमी से कह सकती है, जिसको वह बिलकुल नहीं जानती, घंटे भर पहले मिला है।

असल में, कोई बंधन नहीं है, तो संबंध के लिए सरलता मिल जाती है। इसलिए तुम एक अजनबी से जितने भले ढंग से पेश आते हो, उतना परिचित से नहीं आते। वहां कोई भी तो बंधन नहीं है, तो सिर्फ संबंध ही हो सकता है। लेकिन परिचित के साथ तुम उतने भले ढंग से कभी पेश नहीं आते, क्योंकि वहां तो बंधन है। वहां नमस्कार भी करते हो तो ऐसा मालूम पड़ता है, एक काम है।

इसलिए गुरु—शिष्य का एक संबंध तो हो सकता है। और संबंध सब मधुर हैं। लेकिन बंधन नहीं हो सकता। और संबंध का मतलब ही है कि वह मुक्त करता है।

न बाधनेवाले अदभुत हेन फकीर:

झेन फकीरों की एक बात बड़ी कीमती है कि अगर किसी भी झेन फकीर के पास कोई सीखने आएगा, तो जब वह सीख चुका होगा, तब वह उससे कहेगा कि अब मेरे विरोधी के पास चले जाओ, अब कुछ दिन वहां सीखो। क्योंकि एक पहलू तुमने जाना, अब तुम दूसरे पहलू को समझो।

और फिर साधक अलग—अलग आश्रमों में वर्षों घूमता रहेगा। उनके पास जाकर बैठेगा जो उसके गुरु के विरोधी हैं; उनके चरणों में बैठेगा और उनसे भी सीखेगा। क्योंकि उसका गुरु कहेगा कि हो सकता है वह ठीक हो; तुम उधर भी जाकर सारी बात समझ लो। और कौन ठीक है, इसका क्या पता? हो सकता है, हम दोनों से मिलकर जो बनता हो, वही ठीक हो; या यह भी हो सकता है कि हम दोनों को काटकर जो बचता हो, वही ठीक हो। इसलिए जाओ, उसे खोजो।

जब कोई देश में आध्यात्मिक प्रतिभा विकसित होती है, तो ऐसा होता है, तब बंधन नहीं बनतीं चीजें।

अब यह मैं चाहता हूं ऐसा इस मुल्क में जिस दिन हो सकेगा, उस दिन बहुत परिणाम होंगे—कि कोई किसी को बांधता न हो, भेजता हो लंबी यात्रा पर, कि वह जाए। और कौन जानता है कि क्या होगा अंतिम! लेकिन जो इस भांति भेज देगा, अगर कल तुम्हें उसकी सब बातें भी गलत मालूम पड़े, तब भी वह आदमी गलत मालूम नहीं पड़ेगा। जो इस भांति तुम्हें भेज देगा कि जाओ कहीं और खोजो—हो सकता है मैं गलत होऊं। तो यह हो भी सकता है कि किसी दिन उसकी सारी बातें भी तुम्हें गलत मालूम पड़े, तब भी तुम अनुगृहीत रहोगे; वह आदमी कभी गलत नहीं हो पाएगा। क्योंकि उस आदमी ने ही तो भेजा था तुम्हें। अभी हालतें ऐसी हैं कि सब रोक रहे हैं। एक गुरु रोकता है, किसी दूसरे की बात मत सुन लेना! शास्त्रों में लिखता है कि दूसरे के मंदिर में मत चले जाना! चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना, मगर दूसरे के मंदिर में शरण भी मत लेना; कहीं ऐसा न हो कि वहां कोई चीज कान में पड़ जाए!

तो भला ऐसे आदमी की सब बातें भी सही हों, तब भी यह आदमी तो गलत ही है। और इसके प्रति अनुग्रह कभी नहीं हो सकता, क्योंकि इसने तुम्हें गुलाम बनाया, कुचल डाला और मार डाला है।

यह अगर खयाल में आ जाए तो बंधन का कोई सवाल नहीं है।

प्रश्न: आपने कहा कि अगर शक्तिपात प्रामाणिक व शुद्धतम हो तो बंधन नहीं होगा।

हां, नहीं होगा।

शक्तिपात के नाम पर शोषण:

प्रश्न : ओशो शक्तिपात के नाम पर साइकिक एक्सप्लायटेशन संभव है क्या? कैसे संभव है और उससे साधक बचे कैसे?

संभव है, शक्तिपात के नाम पर बहुत आध्यात्मिक शोषण संभव है। असल में, जहां भी दावा है, वहां शोषण होगा। और जहां कोई कहता है, मैं कुछ दूंगा, वह लेगा भी कुछ। क्योंकि देना जो है, वह बिना लेने के नहीं हो सकता। जहां कोई कहेगा, मैं कुछ देता हूं वह तुमसे वापस भी कुछ लेगा। कॉइन कोई भी हो—वह धन के रूप में ले, आदर के रूप में ले, श्रद्धा के रूप में ले—किसी भी रूप में ले, वह लेगा जरूर। जहां देना है— आग्रहपूर्वक, दावेपूर्वक—वहां लेना है। और जो देने का दावा कर रहा है, वह जो देगा, उससे ज्यादा लेगा। नहीं तो बाजार में चिल्लाने की उसे कोई जरूरत न थी।

असल में, वह दे इसी तरह रहा है, जैसे कोई मछली मारनेवाला कांटे पर आटा लगाता है; क्योंकि मछली कांटे नहीं खाती। हो सकता है, किसी दिन मछलियों को समझाया—बुझाया जा सके, वे सीधा कांटा खा लें। अभी तक कोई मछली सीधा कांटा नहीं खाती। उसके ऊपर आटा लगाना पड़ता है। हां, मछली आटा खा लेती है। और आटे के दावे की वजह से कांटे के पास आ जाती है। आटा मिलेगा, इस आशय में कांटे को भी गटक जाती है। गटकने पर पता चलता है कि आटा तो व्यर्थ था कांटा असली था। लेकिन तब तक कांटा छिद गया होता है।

दावेदार गुञ्चों से बचो:

तो जहां दावा है—कोई कहे कि मैं शक्तिपात करूंगा, मैं ज्ञान दिलवा दूंगा, मैं समाधि में पहुंचा दूंगा, मैं ऐसा करूंगा, मैं वैसा करूंगा—जहां ये दावे हों, वहां सावधान हो जाना। क्योंकि उस जगत का आदमी दावेदार नहीं होता। उस जगत के आदमी से अगर तुम कहोगे भी जाकर कि आपकी वजह से मुझ पर शक्तिपात हो गया, तो वह कहेगा, तुम किसी भूल में पड़ गए; मुझे तो पता ही नहीं, मेरी वजह से कैसे हो सकता है! उस परमात्मा की वजह से ही हुआ होगा। वहां तो तुम धन्यवाद देने जाओगे तो भी स्वीकृति नहीं होगी कि मेरी वजह से हुआ है। वह तो कहेगा, तुम्हारी अपनी ही वजह से हो गया होगा। तुम किस भूल में पड़ गए हो, वह परमात्मा की कृपा से हो गया होगा। मैं कहां हूं! मैं किस कीमत में हूं! मैं कहां आता हूं!

जीसस निकल रहे हैं एक गांव से, और एक बीमार आदमी को लोग उनके पास लाए हैं। उन्होंने उसे गले से लगा लिया और वह ठीक हो गया। और वह आदमी कहता है कि मैं आपको कैसे धन्यवाद दूं क्योंकि आपने मुझे ठीक कर दिया है। जीसस ने कहा कि ऐसी बातें मत कर; जिसे धन्यवाद देना है उसे धन्यवाद दे! मैं कौन हूं? मैं कहां आता हूं?

उस आदमी ने कहा, आपके सिवाय तो यहां कोई भी नहीं है।

तो जीसस ने कहा, हम—तुम दोनों नहीं हैं; जो है, वह तुझे दिखाई ही नहीं पड़ रहा; उससे ही सब हो रहा है। ही हैज हील्ड यू! उसी ने तुझे स्वस्थ कर दिया है!

अब यह जो आदमी है, यह कैसे शोषण करेगा? शोषण करने के लिए आटा लगाना पड़ता है कांटे पर। यह तो, कांटा तो दूर, आटा भी मेरा है, यह भी मानने को राजी नहीं है। इसका कोई उपाय नहीं है।

तो जहां तुम्हें दावा दिखे—साधक को—वहीं सम्हल जाना। जहां कोई कहे कि ऐसा मैं कर दूंगा, ऐसा हो जाएगा, वहां वह तुम्हारे लिए तैयार कर रहा है; वह तुम्हारी मांग को जगा रहा है; वह तुम्हारी अपेक्षा को उकसा रहा है; वह तुम्हारी वासना को त्वरित कर रहा है। और जब तुम वासनाग्रस्त हो जाओगे, कहोगे कि दो महाराज! तब वह तुमसे मांगना शुरू कर देगा। बहुत शीघ्र तुम्हें पता चलेगा कि आटा ऊपर था, कांटा भीतर है।

इसलिए जहां दावा हो, वहां सम्हलकर कदम रखना, वह खतरनाक जमीन है। जहां कोई गुरु बनने को बैठा हो, उस रास्ते से मत निकलना; क्योंकि वहां उलझ जाने का डर है। इसलिए साधक कैसे बचे? बस वह दावे से बचे तो सबसे बच जाएगा। वह दावे को न खोजे, वह उस आदमी की तलाश न करे जो दे सकता है। नहीं तो झंझट में पड़ेगा। क्योंकि वह आदमी भी तुम्हारी तलाश कर रहा है—जो फंस सकता है। वे सब घूम रहे हैं। वह भी घूम रहा है कि कौन आदमी को चाहिए। तुम मांगना ही मत, तुम दावे को स्वीकार ही मत करना। और तब..

पात्र बनो, गुरु मत खोजो:

तुम्हें जो करना है, वह और बात है। तुम्हें जो तैयारी करनी है, वह तुम्हारे भीतर तुम्हें करनी है। और जिस दिन तुम तैयार होओगे, उस दिन वह घटना घट जाएगी; उस दिन किसी भी माध्यम से घट जाएगी। माध्यम गौण है; खूंटी की तरह है। जिस दिन तुम्हारे पास कोट होगा, क्या तकलीफ पड़ेगी खूंटी खोजने में? कहीं भी टल दोगे। नहीं भी खूंटी होगी तो दरवाजे पर टांग दोगे। दरवाजा नहीं होगा, झाड़ की शाखा पर टांग दोगे। कोई भी खूंटी का काम कर देगा। असली सवाल कोट का है।

लेकिन कोट नहीं है हमारे पास, खूंटी दावा कर रही है कि इधर आओ, मैं खूंटी यहां हूं! तुम फंसोगे। कोट तो तुम्हारे पास नहीं है, खूंटी के पास जाकर भी क्या करोगे? खतरा यही है कि खूंटी में तुम्हीं न टैग जाओ। क्योंकि कोट तो नहीं है तुम्हारे पास। इसलिए अपनी पात्रता खोजनी है, अपनी योग्यता खोजनी है, अपने को उस योग्य बनाना है कि मैं किसी दिन प्रसाद को ग्रहण करने योग्य बन सकूं। फिर तुम्हें चिंता नहीं लेनी है, वह तुम्हारी चिंता नहीं है।

इसलिए कृष्ण जो कहते हैं अर्जुन को, वह ठीक ही कहते हैं। उसका मतलब ही इतना है। वे कहते हैं तू कर्म कर और फल परमात्मा पर छोड़ दे; उसकी तुझे फिकर नहीं करनी है। उसकी तूने फिकर की तो कर्म में बाधा पड़ती है। क्योंकि उसकी फिकर की वजह से ऐसा लगता है कर्म क्या करना, फल की पहले चिंता करो! उसकी वजह से ऐसा लगता है कि क्या करना है मुझे! फल क्या होगा, इसको देखूं! और तब गलती सुनिश्चित हो जानेवाली है। इसलिए कर्म की फिकर ही अकेली फिकर है हमारी; हम अपने को पात्र बनाने योग्य करते रहें। जिस दिन क्षमता हमारी पूरी होगी—ऐसे ही, जैसे जिस दिन बीज की क्षमता फूटने की पूरी होती है, उस दिन सब मिल जाता है। जिस दिन फूल खिलने को पूरा तैयार होता है, कली टूटने को तैयार होती है, सूरज तो निकल ही आता है। उसमें कोई अड़चन नहीं है। सूरज सदा तैयार है। लेकिन हमारे पास कली नहीं है खिलने को, सूरज निकल गया है, होगा क्या? इसलिए सूरज की तलाश मत करो, अपनी कली को गहरा करने की फिकर करो, सूरज सदा निकला हुआ है, वह तत्काल उपलब्ध हो जाता है।

खाली पात्र भर दिया जाता है:

इस जगत में पात्र एक क्षण को भी खाली नहीं रह जाता है; जिस तरह की भी पात्रता हो, वह तत्काल भर दी जाती है। असल में, पात्रता का हो जाना और भर जाना दो घटनाएं नहीं, एक ही घटना के दो पहलू हैं। जैसे हम इस कमरे की हवा बाहर निकाल दें, दूसरी हवा इस कमरे की खाली जगह को तत्काल भर देगी। ये दो हिस्से नहीं हैं। इधर हम निकाल नहीं पाए कि उधर नई हवा ने दौड़ना शुरू कर दिया। ऐसे ही अंतर—जगत के नियम हैं हम इधर तैयार नहीं हुए कि वहां से जो हमारी तैयारी की मांग है, वह उतरनी शुरू हो जाती है।

लेकिन कठिनाई हमारी है कि हम तैयार नहीं होते और मांग हमारी शुरू हो जाती है; तब झूठी मांग के लिए झूठी सप्लाई भी हो जाती है। अब इधर मैं बहुत हैरान होता हूं ऐसे लोग हैरानी में डालते हैं। एक आदमी आता है, वह कहता है, मेरा मन बड़ा अशांत है, मुझे शांति चाहिए। उससे आधा घंटा मैं बात करता हूं मैं कहता हूं कि सच में ही तुम्हें शांति चाहिए? तो वह कहता है, शांति तो अभी क्या है कि मेरे लड़के को पहले नौकरी चाहिए, उसी की वजह से अशांति है, नौकरी मिल जाए तो सब ठीक हो जाए। तो अब यह आदमी कहता हुआ आया था कि मुझे शांति चाहिए, वह इसकी जरूरत नहीं है, इसकी असली जरूरत दूसरी है, जिसका शांति से कुछ लेना—देना नहीं है; इसकी जरूरत है कि इसके लड़के को नौकरी चाहिए। अब यह मेरे पास, गलत आदमी के पास आ गया।

धर्म के दुकानदारों का रहस्य:

अब वह जो बाजार में दुकान लेकर बैठा है, वह कहता है, नौकरी चाहिए? इधर आओ! हम नौकरी भी दिलवा देंगे और शांति भी मिल जाएगी। इधर जो भी आते हैं, उनको नौकरी मिल जाती है; इधर जो आते हैं, उनका धन बढ़ जाता है; इधर जो आते हैं, उनकी दुकान चलने लगती है। और उस दुकान के आसपास दस—पांच आदमी आपको मिल जाएंगे, जो कहेंगे, मेरे लड़के को नौकरी मिल गई, मेरी पत्नी मरते से बच गई, मेरा मुकदमा हारते से जीत गया, धन के अंबार लग गए; वे दस आदमी उस दुकान के आसपास मिल जाएंगे।

ऐसा नहीं कि वे झूठ बोल रहे हैं! ऐसा नहीं कि वे झूठ बोल रहे हैं, ऐसा भी नहीं कि वे किराए के आदमी हैं, ऐसा भी नहीं कि वे दुकान के दलाल हैं। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। जब हजार आदमी किसी दुकान पर नौकरी खोजने आते हैं, दस को मिल ही जाती है। जिनको मिल जाती है वे रुक जाते हैं, नौ सौ निन्यानबे चले जाते हैं। वे जो रुक जाते हैं, वे खबर करते रहते हैं; धीरे— धीरे उनकी भीड़ बड़ी होती जाती है।

इसलिए हर दुकान के पास आथेंटिक हैं वे दावेदार। वे जो कह रहे हैं कि मेरे लड़के को नौकरी मिली, इसमें झूठ नहीं है कोई; यह कोई खरीदा हुआ आदमी नहीं है। यह भी आया था, इसके लड़के को मिली है; जिनको नहीं मिली है, वे जा चुके हैं, वे दूसरे गुरु को खोज रहे हैं कि कहां मिले; जहां मिले वहां चले गए हैं। यहां वे ही रह गए हैं जिनको मिल गई है। वे हर साल लौट आते हैं, हर त्योहार पर लौट आते हैं; उनकी भीड़ बढ़ती चली जाती है। और इस आदमी के आसपास एक वर्ग खड़ा हो जाता है, जो सुनिश्चित प्रमाण बन जाता है कि भई मिली है इतने लोगों को, तो मुझे क्यों न मिलेगी! यह आटा बन जाता है, और कांटा बीच में है। और ये सारे लोग आटे बन जाते हैं। और आदमी फंस जाता है।

मांगना ही मत; नहीं तो फंसना निश्चित है। मांगना ही मत; अपने को तैयार करना। और भगवान पर छोड़ देना कि जिस दिन होता होगा, होगा; नहीं होगा तो हम समझेंगे हम पात्र नहीं थे।

प्रामाणिक शक्तिपात के बाद भटकना समाप्त:

प्रश्न: ओशो एक साधक का कई व्यक्तियों के माध्यम से शक्तिपात लेना उचित है या हानिप्रद है? कंडक्टर बदलने में क्या— क्या हानियां संभव हैं और क्यों?

 

सल बात तो यह है कि बहुत बार लेने की जरूरत तभी पड़ेगी जब कि शक्तिपात न हुआ हो। बहुत लोगों से लेने की भी जरूरत तभी पड़ेगी जब कि पहले जिनसे लिया हो वह बेकार गया हो, न हुआ हो। अगर हो गया, तो बात खतम है। बहुत बार लेने की जरूरत इसीलिए पड़ती है कि दवा काम नहीं कर पाई, बीमारी अपनी जगह खड़ी है। स्वभावत:, फिर डाक्टर बदलने पड़ते हैं। लेकिन जो बीमार ठीक हो गया, वह नहीं पूछता कि डाक्टर बदलू या न बदलू। वह जो ठीक नहीं हुआ है, वह कहता है कि मैं दूसरे डाक्टर से दवा लूं या क्या करूं! दस—बीस डाक्टर बदल लेता है।

तो एक तो अगर शक्तिपात की किरण उपलब्ध हुई जरा भी, तो बदलने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। वह प्रश्न ही नहीं है फिर उसका। नहीं उपलब्ध हुई, तो बदलना ही पड़ता है, और बदलते ही रहते हैं आदमी। और अगर उपलब्ध हुई है कभी एक से, तो फिर किसी से भी उपलब्ध होती रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सब एक ही स्रोत से आनेवाले माध्यम ही अलग हैं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। रोशनी सूरज से आती, कि दीये से आती, कि बिजली के बल्व से आती, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; प्रकाश एक का ही है। उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अगर घटना घटी है तो कोई अंतर नहीं पड़ता, और कोई हानि नहीं है।

लेकिन इसको खोजते मत फिरना, वही मैं कह रहा हूं इसे खोजते मत फिरना। यह मिल जाए रास्ते पर चलते, तो धन्यवाद दे देना और आगे बढ़ जाना। इसे खोजना मत। खोजोगे तो खतरा है। क्योंकि फिर वे जो दावेदार हैं, वे ही तो तुम्हें मिलेंगे न! वह नहीं मिलेगा जो दे सकता था; वह मिलेगा, जो कहता है, देते हैं। जो दे सकता है वह तो तुम्हें उसी दिन मिलेगा, जिस दिन तुम खोज ही नहीं रहे हो, लेकिन तैयार हो गए हो। वह उसी दिन मिलेगा।

इसलिए खोजना गलत है, मांगना गलत है। होती रहे घटना, होती रहे। और हजार रास्तों से प्रकाश मिले तो हर्ज नहीं है। सब रास्ते एक ही प्रकाश के मूल स्रोत को प्रमाणित करते चले जाएंगे। सब तरफ से मिलकर वही…….

मूल स्रोत परमात्मा है:

कल मुझसे कोई कह रहा था.. .किसी साधु के पास जाकर कहा होगा कि ज्ञान अपना होना चाहिए। तो उन साधु ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है! ज्ञान तो सदा पराए का होता है—फलां मुनि ने फलां मुनि को दिया, उन मुनि ने उन मुनि को दिया। खुद कृष्ण गीता में कहते हैं कि उससे उसको मिला, उससे उसको मिला, उससे उसको मिला। तो कृष्ण के पास भी अपना नहीं है।

तो मैंने उसको कहा कि कृष्ण के पास अपना है। लेकिन जब वे कह रहे हैं कि उससे उसको मिला, उससे उसको मिला, तो वे यह कह रहे हैं कि यह जो ज्ञान मेरा है, यह जो मुझे घटित हुआ है, यह मुझे ही घटित नहीं हुआ है, यह पहले फलां आदमी को भी घटित हुआ था; और प्रमाण है कि उसको घटित हुआ था, उसने फलां आदमी को बताया भी था; और फलां आदमी को भी घटित हुआ था, उसने उसको भी बताया था। लेकिन बताने से घटित नहीं हुआ था, घटने से बताया था। तो मुझको भी घटित हुआ है, और अब मैं तुम्हें बता रहा हूं—वे अर्जुन से कह रहे हैं। लेकिन मेरे बताने से तुम्हें घटित हो जाएगा, ऐसा नहीं है; तुम्हें घटित होगा तो तुम भी किसी को बता सकोगे, ऐसा है।

उसे दूसरे से मांगते ही मत फिरना, वह दूसरे से मिलनेवाली बात नहीं है। उसकी तो तैयारी करना। फिर वह बहुत जगह से मिलेगी, सब जगह से मिलेगी। और एक दिन जिस दिन घटना घटती है, उस दिन ऐसा लगता है कि मैं कैसा अंधा हूं जो चीज सब तरफ से मिल रही थी, वह मुझे दिखाई क्यों नहीं पड़ती थी!

एक अंधा आदमी है, वह दीये के पास से भी निकलता है, वह सूरज के पास से भी निकलता है, बिजली के पास से भी निकलता है, लेकिन प्रकाश नहीं मिलता। और एक दिन, जब उसकी आंख खुलती है, तब वह कहता है मैं कैसा अंधा था, कितनी जगह से निकला, सब जगह प्रकाश था और मुझे दिखाई नहीं पड़ा! और अब मुझे सब जगह दिखाई पड़ रहा है।

तो जिस दिन घटना घटेगी, उस दिन तो तुम्हें सब तरफ वही दिखाई पड़ेगा; और जब तक नहीं घटी है, तब तक जहां भी दिखाई पड़े, वहां उसको प्रणाम कर लेना; जहां भी दिखाई पड़े, वहां उसे पी लेना। लेकिन मांगते मत जाना, भिखारी की तरह मत जाना; क्योंकि सत्य भिखारी को नहीं मिल सकता। उसे मांगना मत। नहीं तो कोई दुकानदार बीच में मिल जाएगा, जो कहेगा, हम देते हैं। और तब एक आध्यात्मिक शोषण शुरू हो जाएगा। तुम चलना अपनी राह— अपने को तैयार करते, अपने को तैयार करते— जहां मिल जाए, ले लेना, धन्यवाद देकर आगे बढ जाना।

फिर जिस दिन तुम्हें पूरा उपलब्ध होगा, उस दिन तुम ऐसा न कह पाओगे. मुझे फलाने से मिला। उस दिन तुम यही कहोगे कि आश्चर्य है! मुझे सबसे मिला; जिनके करीब मैं गया, सभी से मिला! और तब अंतिम धन्यवाद जो है वह समस्त के प्रति हो जाता है, वह किसी एक के प्रति नहीं रह जाता।

दूसरे से आए प्रभाव की सीमा:

प्रश्न: ओशो यह प्रश्न इसलिए आया था कि शक्तिपात का प्रभाव धीरे— धीरे कम भी तो हो सकता है।

हां—हां, वह कम होगा ही। असल में, दूसरे से कुछ भी मिलेगा तो वह कम होता चला जाएगा; वह सिर्फ झलक है। उस पर तुम्हें निर्भर भी नहीं होना है। उसे तो तुम्हें अपने भीतर ही जगाना है किसी दिन, तभी वह कम नहीं होगा। असल में, सब प्रभाव क्षीण हो जाएंगे, क्योंकि प्रभाव जो हैं वे फारेन हैं, वे विजातीय हैं, वे बाहरी हैं।

मैंने एक पत्थर फेंका। तो पत्थर की कोई अपनी ताकत नहीं है। मैंने फेंका, मेरे हाथ की ताकत है। तो मेरे हाथ की ताकत जितनी लगी है, पत्थर उतनी दूर जाकर गिर जाएगा। लेकिन बीच में जब पत्थर हवा चीरेगा, तो पत्थर को खयाल हो सकता है कि अब तो मैं हवा चीरने लगा, अब तो मुझे गिरानेवाला कोई भी नहीं है। लेकिन उसे पता नहीं कि वह प्रभाव से गया है, किसी के धक्के से गया है, दूसरे का हाथ पीछे है। वह एक पचास फीट दूर जाकर गिर जाएगा। गिरेगा ही! असल में, दूसरे से आए प्रभाव की सदा सीमा होगी। वह गिर जाएगा।

दूसरे से आए प्रभाव का एक ही फायदा हो सकता है, और वह यह है कि उस प्रभाव की क्षीण झलक में तुम अपने मूल स्रोत को खोज सको, तब तो ठीक। यानी मैंने एक माचिस जलाई, प्रकाश हुआ। पर मेरी माचिस कितनी देर जलेगी? अब तुम दो काम कर सकते हो. तुम यहीं अंधेरे में खड़े रहो और मेरी माचिस पर निर्भर हो जाओ— कि हम इस रोशनी में जीएंगे अब। एक घड़ी, क्षण भर भी नहीं बीतेगा, माचिस बुझ जाएगी, फिर घुप्प अंधेरा हो जाएगा। यह एक बात हुई। मैंने माचिस जलाई, घुप्प अंधेरे में थोड़ी सी रोशनी हुई, तुम एकदम दरवाजा दिखाई पड़ा और बाहर भाग गए। तुम मेरी माचिस पर निर्भर न रहे, तुम बाहर निकल गए; मेरी माचिस बुझे या जले, अब तुम्हें कोई मतलब न रहा; लेकिन तुम वहां पहुंच गए जहां सूरज है। अब कोई चीज थिर हो पाएगी।

तो ये जितनी घटनाएं हैं, इनका एक ही उपयोग है कि इससे तुम समझकर कुछ कर लेना अपने भीतर, इसके लिए मत रुक जाना। इसकी प्रतीक्षा करते रहोगे तो यह तो बार—बार माचिस जलेगी, बुझेगी। फिर धीरे— धीरे कंडीशनिंग हो जाएगी। फिर तुम इसी माचिस के मोहताज हो जाओगे। फिर तुम अंधेरे में प्रतीक्षा करते रहोगे— कब जले! फिर जलेगी तो तुम प्रतीक्षा करोगे— अब बुझनेवाली है, अब बुझनेवाली है, अब गए, अब गए, अब फिर अंधेरा हो जाएगा। बस यह एक चक्कर पैदा हो जाएगा। नहीं, जब माचिस जले, तब माचिस पर मत रुकना; क्योंकि माचिस इसलिए जली है कि तुम रास्ता देखो और भागो—निकल जाओ, जितने दूर अंधेरे के बाहर जा सकते हो।

झलक पाकर अपनी राह चल देना:

दूसरे से हम इतना ही लाभ ले सकते हैं। लेकिन दूसरे से हम स्थायी लाभ नहीं ले सकते। पर यह कोई कम लाभ नहीं है। यह कोई थोड़ा लाभ नहीं है, बहुत बड़ा लाभ है; दूसरे से इतना भी मिल जाता है, यह भी आश्चर्य है। इसलिए जो दूसरा अगर समझदार होगा तो तुमसे नहीं कहेगा कि रुको। तुमसे कहेगा—माचिस चल गई, अब तुम भागो! अब तुम यहां ठहरना मत, नहीं तो माचिस तो अभी बुझ जाएगी।

लेकिन अगर दूसरा तुमसे कहे कि अब रुको, देखो मैंने माचिस जलाई अंधेरे में! और किसी ने तो नहीं जलाई न, मैंने जलाई! अब तुम मुझसे दीक्षा लो; अब तुम यहीं ठहरो, अब तुम कहीं छोड्कर मत जाना, खाओ कसम! अब यह संबंध रहेगा, अब यह टूट नहीं सकता। मैंने ही माचिस जलाई! मैंने ही तुम्हें अंधेरे में दिखाया! अब तुम किसी और की माचिस के पास तो न जाओगे? अब तुम कोई और प्रकाश तो न खोजोगे? अब तुम किसी और गुरु के पास मत रुकना, सुनना भी मत, अब तुम मेरे हुए! तो फिर, तो फिर खतरा हो गया।

झलक दिखाकर बाधनेवाले तथाकथित गुरु:

इससे अच्छा था यह आदमी माचिस न जलाता। इसने बड़ा नुकसान किया। अंधेरे में तुम खोज भी लेते; किसी तरह टकराते, धक्के खाते, किसी दिन प्रकाश में पहुंच जाते; अब इस माचिस को पकडने की वजह से बड़ी मुश्किल हो गई, अब कहां जाओगे?

और तब इतना भी पक्का है कि यह माचिस इस आदमी की अपनी नहीं है, यह किसी से चुरा लाया है। यह कहीं से चुराई गई माचिस है। नहीं तो इसको अब तक पता होता कि बाहर भेजने के लिए है यह, किसी को रोकने के लिए नहीं है, यहां बिठा रखने के लिए नहीं है। यह चोरी की गई माचिस है। इसलिए अब यह माचिस की दुकान कर रहा है; अब यह कह रहा है : जिन— जिनको हम झलक दिखा देंगे, उनको यहीं रुका रहना पड़ेगा; अब वे कहीं जा नहीं सकते।

तब तो हइ हो गई! अंधेरा रोकता था, अब यह गुरु रोकने लगा। इससे अंधेरा अच्छा था कि कम से कम अंधेरा हाथ फैलाकर तो नहीं रोक सकता था। अंधेरे का जो रोकना था वह बिलकुल ही पैसिव था। लेकिन यह गुरु तो एक्टिव रोकेगा; यह तो हाथ पकड़कर रोकेगा, छाती अड़ा देगा बीच में, और कहेगा कि धोखा दे रहे हो! दगा कर रहे हो!

अभी एक लड़की ने मुझे आकर कहा कि उसके गुरु ने उससे कहा कि तुम उनके पास क्यों गई? यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई पत्नी अपने पति को छोड्कर चली जाए! गुरु कह रहा है उससे कि यह तो जैसे पत्नीव्रत और पतिव्रत एक के साथ होता है, ऐसा गुरु को छोड्कर चला जाए कोई दूसरे के पास, तो यह महान पाप है!

यह चुराई हुई माचिसवाला अब माचिस से काम चलाएगा। और चुराई जा सकती हैं माचिसें, इसमें कोई कठिनाई नहीं है, शास्त्रों में बहुत माचिसें उपलब्ध हैं, उनको कोई चुरा सकता है।

प्रश्न: ओशो क्या चुराई हुई माचिस जल सकती है?

ल सकने का मतलब यह है कि……. असल में, अंधेरे में मजा ऐसा है…… अंधेरे में मजा ऐसा है, जिसने प्रकाश देखा ही नहीं, उसको कौन सी चीज जलती हुई बताई जा रही है, यह भी तय करना मुश्किल है। समझे न? जिसने प्रकाश देखा ही नहीं, उसे कौन सी चीज जली हुई बताई जा रही है, यह पक्का करना बहुत मुश्किल है। यह तो प्रकाश के बाद उसको पता चलेगा कि तुम क्या जला रहे थे, क्या नहीं जला रहे थे! वह जल भी रही थी कि नहीं जल रही थी! कि आंख बंद करके समझा रहे थे कि जल गई! वह सब तो तुम्हें प्रकाश दिखाई पड़ेगा, तब तुम्हें पता चलेगा। जिस दिन प्रकाश दिखाई पड़ेगा, उस दिन सौ में से निन्यानबे गुरु अंधेरे के साथी और प्रकाश के दुश्मन सिद्ध होते हैं! पता चलता है कि ये तो बहुत दुश्मन थे, ये सब शैतान के एजेंसीज थे।

आज इतना ही।


Filed under: जिन खोजा तिन पाइयां--ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–198

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मन का महाभारत—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

अध्‍याय—17

सूत्र:

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतगयुज्यते।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्‍छब्द: पार्थ युज्यते।। 26।।

यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सीदति चौच्‍यते।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिप्रीयते ।। 27।।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्‍प्रेत्य नौ इह ।। 28।।

और सत्— ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्य— भाव में और श्रेष्ठ— भाव में प्रयोग किया जाता है। तथा हे पार्थ, उत्तम कर्म में भी सत् शब्द प्रयोग किया जाता है।

तथा यज्ञ तय और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है। और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसे कहा जाता है।

और हे अर्जुन, बिना श्रद्धा के होम। हुआ हवन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है वह समस्त असत् है ऐसे कहा जाता है। इसीलिए वह न तो हम लोक में लाभदायक है और न मरने के पीछे ही।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : कहा जाता है कि कृष्ण द्वारा अठारहवां अध्याय पूरा करते ही महाभारत का युद्ध प्रारंभ हो गया था। क्या आपके द्वारा भी अठारहवां अध्याय पूरा होने पर किसी महाभारत की संभावना है? ज्योतिषी भी कहते हैं कि बाईस जुलाई को आठ ग्रह एक ही स्थान पर इकट्ठे हो रहे हैं।

हाभारत न तो कभी शुरू होता और न कभी अंत, वह मनुष्य के अज्ञान के साथ चलता ही रहता है। कृष्ण ने गीता कही, उसके पहले भी वह चल रहा था; कृष्ण ने गीता पूरी की, तब भी वह चलता रहा।

अज्ञान ही महाभारत है। कभी शीत, कभी गर्म, कभी प्रकट, कभी अप्रकट, लेकिन मूर्च्छा में तुम लड़ते ही रहोगे। मूर्च्छा में लड़ना ही जीवन मालूम होता है।

हजार रूपों में युद्ध चल रहा है, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। युद्ध के लिए कोई आकाश से बम—वर्षा होनी आवश्यक नहीं है। वह तो आखिरी परिणति है। वह तो युद्ध का आखिरी रूप है। लेकिन तैयारी तो घर—घर में चलती है; तैयारी तो हृदय—हृदय में चलती है। युद्ध युद्ध के मैदानों पर नहीं लडे जाते, मनुष्य के अंधकार में लड़े जाते हैं।

इसे ठीक से समझ लो, अन्यथा धोखा खड़ा होता है। पहला तो धोखा यह खड़ा हो जाता है कि हम सोचने लगते हैं, महाभारत कोई बाहर का युद्ध है।

महाभारत बाहर का युद्ध नहीं है। अगर युद्ध बाहर का होता, तो गीता के जन्म का उपाय ही न था। युद्ध तो भीतर का है। बाहर भी उसकी प्रतिध्वनि सुनी जाती है, बाहर भी परिणाम होते हैं। लेकिन युद्ध सदा भीतर है।

तुम चौबीस घंटे बंटे हुए हो, लड़ रहे हो। किसी दूसरे से तो बाद में लड़ोगे, पहले तुम अपने से लड़ रहे हो।

एक भी ऐसी तुम्हारे जीवन की पल—दशा नहीं है, जब तुम्हारा किसी न किसी अर्थों में संघर्ष न चल रहा हो। और जहां संघर्ष है, वहां कैसे शांति होगी? और जहां संघर्ष है, वहा कैसे समाधि फलित होगी? फिर तुम्हारा संघर्ष, तुम जिनसे जुड़े हो, उनमें फैल जाता है— क्षुद्र बातों पर!

तुमने कभी ध्यान दिया, कितनी छोटी बातों पर तुम लड़ते हो। जैसे बातें तो बहाना हैं; लड़ना तुम चाहते हो, इसलिए कोई भी बहाना काम दे देता है।

एक बड़ी प्रसिद्ध हंगेरियन कहानी है कि एक आदमी का विवाह हुआ। झगडैल प्रकृति का था, जैसे कि आदमी सामान्यत: होते हैं। मां—बाप ने यह सोचकर कि शायद शादी हो जाए तो यह थोड़ा कम क्रोधी हो जाए, थोड़ा प्रेम में लग जाए, जीवन में उलझ जाए तो इतना उपद्रव न करे, शादी कर दी।

शादी तो हो गई। और आदमी झगडैल होते हैं, उससे ज्यादा झगडैल स्त्रियां होती हैं। झगडैल होना ही स्त्री का पूरा शास्त्र है, जिससे वह जीती है। मां—बाप लड़की के भी यही सोचते थे कि विवाह हो जाए, घर—गृहस्थी बने, बच्चा पैदा हो, सुविधा हो जाएगी। उलझ जाएगी, तो झगड़ा कम हो जाएगा।

लेकिन जहां दो झगडैल व्यक्ति मिल जाएं, वहां झगड़ा कम नहीं होता; दो गुना भी नहीं होता; अनंत गुना हो जाता है। जब दो झगड़ैल व्यक्ति मिलते हैं, तो जोड़ नहीं होता गणित का; दो और दो चार, ऐसा नहीं होता, गुणनफल हो जाता है।

पहली ही रात, सुहागरात, पहला ही—भेंट में जो चीजें आई थीं, उनको खोलने को दोनों उत्सुक थे—पहला डब्बा हाथ में लिया; बड़े ढंग से पैक किया गया था। पति ने कहा कि रुको, यह रस्सी ऐसे न खुलेगी। मैं अभी चाकू ले आता हूं। पत्नी ने कहा कि ठहरो, मेरे घर में भी बहुत भेंटें आती रहीं। हम भी बहुत भेंटें देते रहे हैं। तुमने मुझे कोई नंगे—लुच्चो के घर से आया हुआ समझा है? ऐसे सुंदर फीते चाकुओं से नहीं काटे जाते, कैंची से काटे जाते हैं।

झगड़ा भयंकर हो गया कि फीता चाकू से कटे कि कैंची से कटे। दोनों की इज्जत का सवाल था। बात इतनी बढ़ गई कि डब्बा उस रात तो काटा ही न जा सका, सुहागरात भी नष्ट हो गई उसी झगड़े में। और विवाद, क्योंकि प्रतिष्ठा का सवाल था, दोनों के परिवार दाव पर लगे थे कि कौन सुसंस्कृत है!

वह बात इतनी बढ़ गई कि वर्षों तक झगड़ा चलता रहा। फिर तो बात ऐसी सुनिश्चित हो गई कि जब भी झगडे की हालत आए, तो पति को इतना ही कह देना काफी था, चाकू! और पत्नी उसी वक्त चिल्लाकर कहती, कैंची! वे प्रतीक हो गए।

वर्षों खराब हो गए। आखिर पति के बरदाश्त के बाहर हो गया। और डब्बा अनखुला रखा है। क्योंकि जब तक यही तय न हो कि कैंची या चाकु तब तक वह खोला कैसे जाए। कौन खोलने की हिम्मत करे?

एक दिन बात बहुत बढ़ गई, तो पति समझा—बुझाकर झील के किनारे ले गया पत्नी को। नाव में बैठा, दूर जहां गहरा पानी था, वहा ले गया, और वहा जाकर बोला कि अब तय हो जाए। यह पतवार देखती है, इसको तेरी खोपड़ी में मारकर पानी में गिरा दूंगा। तैरना तू जानती नहीं है, मरेगी। अब क्या बोलती है? चाकू या कैंची? पत्नी ने कहा, कैंची।

जान चली जाए, लेकिन आन थोड़े ही छोड़ी जा सकती है! रघुकुल रीत सदा चली आई, जान जाय पर वचन न जाई।

पति भी उस दिन तय ही कर लिया था कि कुछ निपटारा कर ही लेना है। यह तो जिंदगी बरबाद हो गई। और चाकू—कैंची पर बरबाद हो गई!

लेकिन वह यही देखता है कि पत्नी बरबाद करवा रही है। यह नहीं देखता कि मैं भी चाकू पर ही अटका हुआ हूं अगर वह कैंची पर अटकी है। तो दोनों कुछ बहुत भिन्न नहीं हैं। पर खुद का दोष तो युद्ध के क्षण में, विरोध के क्षण में, क्रोध के क्षण में दिखाई नहीं पड़ता। उसने पतवार जोर से मारी, पत्नी नीचे गिर गई। उसने कहा, अभी भी बोल दे! तो भी उसने डूबते हुए आवाज दी, कैंची। एक डुबकी खाई, मुंह—नाक में पानी चला गया। फिर ऊपर आई। फिर भी पति ने कहा, अभी भी जिंदा है। अभी भी मैं तुझे बचा सकता हूं? बोल! उसने कहा, कैंची। अब पूरी आवाज भी नहीं निकली, क्योंकि मुंह में पानी भर गया। तीसरी डुबकी खाई, ऊपर आई। पति ने कहा, अभी भी कह दे, क्योंकि यह आखिरी मौका है! अब वह बोल भी नहीं सकती थी। डूब गई। लेकिन उसका एक हाथ उठा रहा और दोनों अंगुलियों से कैंची चलती रही। दोनों अंगुलियों से वह कैंची बताती रही—डूबते—डूबते, आखिरी क्षण में।

महाभारत के लिए कोई कुरुक्षेत्र नहीं चाहिए; महाभारत तुम्हारे मन में है। क्षुद्र पर तुम लड़ रहे हो। तुम्हें लड़ने के क्षण में दिखाई भी नहीं पड़ता कि किस क्षुद्रता के लिए तुमने आग्रह खड़ा कर लिया है। और जब तक तुम्हारा अज्ञान गहन है, अंधकार गहन है, अहंकार सघन है, तब तक तुम देख भी न पाओगे कि तुम्हारा पूरा जीवन एक कलह है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, तुम जीते नहीं, सिर्फ लड़ते हो। कभी—कभी तुम दिखलाई पड़ते हो कि लड़ नहीं रहे हो, वे लड़ने की तैयारी के क्षण होते हैं; जब तुम तैयारी करते हो।

गीता के शुरू और अंत होने से कोई संबंध नहीं है। न ही आठ ग्रहों के इकट्ठे होने से कुछ लेना—देना है।

आदमी हमेशा दोष दूसरे पर देने में बड़ा कुशल है। युद्ध तुम करोगे, आठ ग्रहों का मिलना जिम्मेवार होगा। वह भी तरकीब है, बेईमानी है। युद्ध तुम करोगे, लड़ोगे तुम, युद्ध तुम्हारे भीतर से आएगा, आठ निर्दोष ग्रहों के मिलने से युद्ध का क्या लेना—देना? लेकिन हम हमेशा ही दोष किसी को देकर अपने को बचा लेना चाहते हैं। जब कोई भी नहीं मिलता, तो निर्दोष ग्रह मिल जाते हैं, कि ग्रह मिल रहे हैं, कि सूर्यग्रहण हो गया, कि चंद्रग्रहण हो गया। आदमी क्या—क्या तरकीबें निकालता है, सिर्फ एक बात को देखने से बचने के लिए कि तुम्हारे भीतर शांति नहीं है। तुम अशांत हो। तुम जो भी करोगे, तुम जो भी छुओगे, वहीं तुम अंशांति का रोग फैलाओगे। तुम जिसके पास जाओगे, वहीं कलह खड़ी हो जाएगी। तुम प्रेम करने जाओगे और सिर्फ घृणा पैदा होगी। तुम सोना छुओगे और मिट्टी हो जाएगा।

रोग तुम्हारे भीतर है, आठ ग्रह तुम्हारे भीतर मिले हुए हैं। और तब पंडित हैं, पुजारी हैं, वे मिल जाएंगे कि युद्ध आने के करीब है, आठ ग्रह मिल रहे हैं; शांति के लिए महायज्ञ होने चाहिए। करोडों रुपये महायज्ञों पर फूंके जाएंगे।

महायज्ञ की जरूरत तुम्हारे भीतर है। और वहां किसी अग्नि में घी डालने से काम न चलेगा, वहां तो परमात्मा की अग्नि में तुम्हें स्वयं को ही डालना पड़ेगा। वही एक मात्र यश है, जीवन—यज्ञ, जहां तुम अपनी आहुति दे देते हो और अपने अहंकार को जल जाने देते हो। अहंकार के बाद जो बच रहता है, फिर कोई युद्ध नहीं है, फिर कोई उपाय ही नहीं है युद्ध का।

तुम्हारे भीतर सूत्र टूटना चाहिए।

आदमी जैसा है, वैसा तो लड़ता ही रहेगा। कितना ही बचाओ, कितना ही समझाओ, अहिंसा का पाठ पढ़ाओ, कोई फर्क न पड़ेगा। वह अहिंसा के लिए लड़ेगा। कोई फर्क नहीं पड़ता। तलवारें उठ जाएंगी, अहिंसा की रक्षा करनी है। कितना ही धर्म सिखाओ, वह धर्म के लिए लड़ेगा, इस्लाम खतरे में है, हिंदू धर्म खतरे में है।

कोई भी मूढ़ जोर से शोरगुल मचा दे, हिंदू धर्म खतरे में है, फिर कोई नहीं पूछता कि हिंदू धर्म है कहां, जो खतरे में है? कहीं धर्म भी खतरे में होते हैं? लेकिन लड़ने के लिए बहाने हैं। कोई भी बहाने काम दे जाते हैं।

आदमी ऐसी—ऐसी चीजों पर लड़ा है कि भरोसा नहीं आता अब। बड़ी क्षुद्र बातों पर लड़ा है। इससे एक बात सिद्ध होती है कि बातों से कोई संबंध ही नहीं है; आदमी लड़ना चाहता है। बातें तो बहाने हैं; वे तो खूंटियां हैं जिन पर हम अपने भीतर की घृणा, विद्वेष, ईर्ष्या, जलन टांग देते हैं। खूंटियों का क्या लेना—देना? कोट तुम खूंटी न मिलेगी, तो दरवाजे के कोने पर टांग दोगे। कहीं न कहीं जगह खोज लोगे टांगने के लिए।

असली सवाल युद्ध नहीं है, असली सवाल मनुष्य की युद्ध से भरी चित्त—दशा है। और इस चित्त—दशा को तुम थोड़ा गहराई से समझने की कोशिश करो। क्योंकि इस चित्त—दशा का जो पहला आधार—बिंदु है, वह अपने से लड़ना है।

दूसरे से लड़ने तो तुम बाद में जाते हो, पहले तुम अपने से लड़ते हो। और तुम्हारे तथाकथित आदर्शवादियों ने तुम्हें वह लड़ाई सिखाई है। वे कहते हैं, तुम्हारे भीतर क्रोध है, लड़ो क्रोध से। युद्ध शुरू हुआ। तुम्हारे भीतर कामवासना है, लड़ो कामवासना से। युद्ध शुरू हुआ। और जब तुम अपने से लड़ोगे, तो तुम दुनिया में किसी के भी साथ बिना लड़े नहीं रह सकते। जो अपने से बिना लड़े नहीं रह सका, वह किस से बिना लड़े रह जाएगा!

इसलिए समस्त युद्धों के पीछे शैतानों का हाथ नहीं है, तुम्हारे तथाकथित महात्माओं का हाथ है। उन्होंने तुम्हें विभाजित कर दिया, तोड़ दिया दो हिस्सों में। वे कहते हैं, तुम्हारे नीचे का हिस्सा बुरा, ऊपर का हिस्सा अच्छा। लड़ो! तुम्हारे भीतर शैतान छिपा है, उससे लड़ो। वे तुम्हें खंडित करते हैं। और तुम्हें एक युद्धस्थल में बदल देते हैं।

फिर तुम अपने से ही लड़ते हो। जैसे कोई अपने ही दाएं—बाएं हाथ को लड़ाए। जीत कभी नहीं होती; सिर्फ मिटते हो, नष्ट होते हो, समाप्त होते हो, सड़ते हो।

और जितना ही जीवन खोता जाता है लड़ाई में, उतना ही क्रोध बढ़ता जाता है। क्योंकि तुम जीवन के आनंद को अनुभव नहीं कर पाए। आए और गए; अवसर ऐसे ही खो गया। मंदिर के द्वार तक पहुंच गए थे और द्वार के भीतर प्रवेश न हुआ। अधूरे, अपूर्ण, अतृप्त विदा हो गए। मौत करीब आ जाती है।

तुम्हारे आदर्शवादियों ने तुम्हें अपने से लड़ना सिखाया है। कृष्ण की सारी शिक्षा यही है अर्जुन से कि तू अपने से मत लड़, तू अपने को स्वीकार कर। तू क्षत्रिय है, तू ब्राह्मण होने की नाहक चेष्टा मत कर। वह तेरा गुणधर्म नहीं है; वह तेरा स्वभाव नहीं है।

कृष्ण सभी महात्माओं के विपरीत हैं। इसलिए महात्मा कृष्ण का नाम लेने में भी जरा डरते हैं। और अगर लेते हैं, तो कृष्ण के ऊपर अपनी धारणाएं थोप देते हैं, अपनी व्याख्या थोप देते हैं।

कृष्ण का मूल संदेश क्या है अर्जुन को? एक छोटी—सी बात कृष्ण उसे समझा रहे हैं कि जो तेरा स्वधर्म है, जो तेरा होने का ढंग है, जैसा तू आदमी है, तू क्षत्रिय है, तू लड़ाका है। तेरे जीवन की सारी कला, तेरी सारी कुशलता तेरी वीरता में है, तेरे क्षत्रियत्व में है। आज अचानक तू ब्राह्मण होने के खयाल से भर रहा है; आज अचानक तू अपने क्षत्रिय से लड़ने जा रहा है.।

अर्जुन सोचता है कि वह एक बड़े युद्ध से बच रहा है। और कृष्ण देख रहे है कि वह एक बड़े युद्ध की शुरुआत कर रहा है। यह बड़ा बुनियादी और बारीक मामला है।

अर्जुन तो ऊपर से ऐसे ही दिखाई पड़ता है, यह कह रहा है कि मुझे जाने दें; संन्यस्त हो जाऊंगा। वानप्रस्थ दशा पैदा हो गई। अब तो विराग आ गया। अब क्या मारना इन लोगों को! इस युद्ध में मुझे कोई रस नहीं मालूम होता।

हे कृष्ण, मेरा गांडीव शिथिल हो गया है, मेरे गात शिथिल हो गए हैं। लड़ने का कोई उन्मेष नहीं है, लड़ने की कोई ऊर्जा नहीं है, लड़ने का कोई भाव नहीं है। इन अपनों को मारकर मैं क्या करूंगा।

इससे तो अच्छा है, मैं संन्यस्त हो जाऊं। क्या सार है धन को पा लेने में? पद—प्रतिष्ठा, राज, सिंहासन, करूंगा क्या? अपने ही न बचेंगे, भोगने वाले न बचेंगे, उत्सव मनाने वाले न बचेंगे, फायदा क्या है? मैं हट जाता हूं। सम्हालने दो कौरवों को, भोगने दो उन्हें। मैं युद्ध से अपने को अलग कर लेता हूं।

जो भी ऊपर से देखेगा, उसे लगेगा कि अर्जुन युद्ध से हटना चाह रहा है, शांतिवादी है। बर्ट्रेंड रसेल, महात्मा गांधी, विनोबा का अनुयायी है; पेसिफिस्ट है। पहला पेसिफिस्ट, शांतिवादी है। और जो ऊपर से देखता है, उसको लगेगा, कृष्ण युद्धवादी हैं; क्योंकि कृष्ण कहते हैं, तू लड़।

और मैं तुमसे कहता हूं बात बिलकुल उलटी है। कृष्ण अर्जुन को युद्ध से बचा रहे हैं, क्योंकि अर्जुन एक भीतरी युद्ध में पड़ने की कोशिश कर रहा है। और बाहर के युद्ध तो सिर्फ प्रतिध्वनियां हैं; असली युद्ध तो भीतर है।

अर्जुन अपने क्षत्रियत्व को इनकार कर रहा है, जिसका कि उसके खून—खून में, रोएं—रोएं में वास है। बूंद—बूंद में जो छिपा है, उसके कण—कण में जो बना है, उसके भीतर सब तरफ क्षत्रिय है। वह स्वभाव से क्षत्रिय है।

कृष्ण का वचन बड़ा अदभुत है, स्वधर्मे निधन श्रेय:। अपने स्वभाव में, स्वधर्म में, अपने ढंग में, अपनी शैली में मर जाना बेहतर है। पर धर्मो भयावह:। और दूसरे के धर्म में, दूसरों की शैली में जाना बड़ा भयावह है अर्जुन। तू चूक जाएगा। ब्राह्मण होना तेरी नियति नहीं। क्षत्रिय होना तेरी नियति है। उसके लिए ही तू निर्मित हुआ है। वही तेरी मास—मज्जा में समाया है; वह तेरी आत्मा है। कृष्ण यह कह रहे हैं, तू अपनी निजता को मत झुठला। तू अगर जंगल में भी भाग जाएगा और संन्यासी होकर झाडू के नीचे बैठ जाएगा और तुझे एक हरिण दिख जाएगा, तो हरिण को देखकर तुझे सौंदर्य का खयाल न आएगा, तू आस—पास टटोलेगा कि मेरा धनुष—बाण कहां है! हरिण को देखकर कविता पैदा न होगी तेरे मन में, धनुष—बाण की खोज शुरू हो जाएगी। अगर सिंह तुझे दिख जाएगा और धनुष—बाण भी न हुआ, तो तू छलांग लगाकर कूद पड़ेगा और युद्ध में उतर जाएगा। तेरा रोआं—रोआं क्षत्रिय का है। वह तेरा गुणधर्म है; वह तेरा स्वधर्म है।

मैं भी तुमसे यही कहता हूं स्वधर्मे निधन श्रेय:। तुम अगर गृहस्थ हो, और वही तुम्हारा सुख और शांति है, और अगर तुमने वहीं पाया है अपनी नियति को, तो तुम संन्यासियों की मत सुनना।

होगा उनका स्वधर्म संन्यास, तुम्हारा नहीं है। जहां तुम्हें शांति मिल रही हो, जहां तुम्हें जीवन की ऊर्जा सहजता से प्रवाहित होती मालूम होती हो, जहां ऊर्जा में कोई स्खलन न होता हो, जीवन एक प्रवाह हो—अगर दुकान पर हो, तो दुकान; दफ्तर में हो, तो दफ्तर, पहाड़ पर हो, तो पहाड़।

मैं तुमसे यह नहीं कहता कि कोई स्थान चुनने योग्य है। तुम्हारे जीवन की सहजता चुनने योग्य है।

एक बड़ी अनूठी कहानी है, अशोक के जीवन में घटी। कहना मुश्किल है कि कहा तक सच है। लेकिन बड़ी गहरी सचाई की खबर देती है।

एक संध्या, वर्षा के दिन हैं, पाटलीपुत्र में, पटना में अशोक गंगा के किनारे खड़ा है। भयंकर बाढ़ आई है गंगा में। सीमाएं तोड़कर गंगा बह रही है। बड़ा विराट उसका रूप है; भयंकर ताडव करता उसका रूप है। न मालूम कितने गांव बहा ले गई। न मालूम कितने खेतों को विनष्ट कर दिया, कितने पशु—पक्षी बहते चले जा रहे हैं। अशोक खड़ा है अपने आमात्यों, अपने मंत्रियों के साथ। और उसने कहा कि क्या यह संभव है, क्या कोई ऐसा उपाय है कि गंगा उलटी बह सके? ऐसा अचानक उसको खयाल उठ आया कि क्या कोई रास्ता है कि गंगा उलटी बह सके स्रोत की तरफ? आमात्यों ने कहा, असंभव। और अगर चेष्टा भी की जाए तो अति कठिन है। एक वेश्या भी अशोक के साथ गंगा के किनारे आ गई है। वह नगर की सब से बड़ी वेश्या है। उन दिनों में वेश्याएं भी बड़ी सम्मानित होती थीं। वह नगरवधू है। उस वेश्या का नाम था, बिंदुमति। वह हंसने लगी और उसने कहा कि अगर आप आशा दें, तो मैं इसे उलटा बहा सकती हूं।

अशोक चौंका। उसने कहा कि क्या ढंग है? क्या मार्ग है इसको उलटा बहाने का? तेरे पास ऐसी कौन—सी कला है? तो उस वेश्या ने कहा, मेरी निजता का सत्य।

बड़ी अनूठी कहानी है। उसने कहा, मेरी निजता का सत्य, मेरे जीवन का सत्य मेरी सामर्थ्य है। मैंने उसका कभी उपयोग नहीं किया। बड़ी ऊर्जा मेरे जीवन के सत्य की मेरे भीतर पड़ी है। अगर आप कहें, तो यह गंगा उलटी बहेगी, मेरे कहने से बहेगी। इसका मुझे पक्का भरोसा है। क्योंकि मैं अपने सत्य से कभी भी नहीं डिगी। सम्राट को भरोसा न आया, पर उसने कहा, देखें। वेश्या ने आंखें बंद कीं; और कहानी कहती है कि गंगा उलटी बहने लगी। सम्राट तो चरणों पर गिर पड़ा वेश्या के। और उसने कहा, बिंदुमति, हमें तो कभी पता ही न चला कि तू वेश्या के अतिरिक्त भी कुछ और है। यह राज, यह रहस्य तूने कहां सीखा? यह तो बड़े सिद्ध पुरुष भी नहीं कर सकते हैं।

वेश्या ने कहा, मुझे सिद्ध पुरुषों का कोई पता नहीं। मैं तो सिर्फ एक सिद्ध वेश्या हूं। और वही मेरे जीवन का सत्य है।

क्या है तेरे जीवन का सत्य, तू खोलकर कह, अशोक ने कहा। उसने कहा, मेरे जीवन का सत्य इतना है कि मैं जानती हूं, वेश्या होना ही मेरे जीवन की शैली है, वही मेरी नियति है। अन्यथा मैंने कभी कुछ और होना नहीं चाहा। अन्यथा की चाह ही मैंने कभी अपने भीतर नहीं आने दी। मैं समग्र हूं मैं सिर से लेकर पैर तक वेश्या हूं। मेरा रोआं —रोआं वेश्या है। और मैंने वेश्या के धर्म से कभी अपने को च्युत नहीं किया।

अशोक ने पूछा, क्या है वेश्या का धर्म? पागल, मैंने कभी सुना। नहीं कि वेश्या का भी कोई धर्म होता है। हम तो वेश्या को अधार्मिक समझते हैं। और यही मैं मानता था कि तू कितनी ही सुंदर हो, लेकिन तेरे भीतर एक गहरी कुरूपता है। क्योंकि तू शरीर को बेच रही है, सौंदर्य को बेच रही है। इससे क्षुद्र तो कोई व्यवसाय नहीं!

वेश्या ने कहा, व्यवसाय क्षुद्र और बड़े नहीं होते, व्यवसायी पर सब निर्भर करता है। मेरे जीवन का सत्य यह है कि मेरे गुरु ने, जिसने मुझे वेश्या होने की शिक्षा और दीक्षा दी, उसने मुझे कहा कि एक सूत्र भर को सम्हाले रखना, तो तेरा मोक्ष कभी तुझसे छिन नहीं सकता। और वह सूत्र यह है कि चाहे धनी आए चाहे गरीब आए; चाहे शूद्र आए, चाहे ब्राह्मणं आए; चाहे सुंदर पुरुष आए, चाहे कुरूप पुरुष आए; चाहे जवान, चाहे का; कोढ़ी आए रुग्ण आए; जो भी तुझे पैसे दे, तू पैसे पर ध्यान रखना और व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करना। न तो तू कोढी को और रोगी को घृणा करना, न सुंदर को प्रेम करना। वह वेश्या का काम नहीं है। तू तटस्थ रहना। तेरा काम है पैसा ले लेना। बस, बात खतम हो गई। तेरा ध्यान पैसे पर रहे। ब्राह्मण आए, तो तू अतिशय भाव से उसके पैर मत छूना। और शूद्र आए, तो तू उसे इनकार मत करना। तेरा काम है पैसा। वेश्या का ध्यान पैसे पर। बाकी कोई भी आए, तू सम— भाव रखना। वही तेरा सम्यकत्व है, वही तेरा सत्य है।

और मैंने उसे सम्हाला है। मैंने न तो कभी किसी के प्रति प्रेम किया, लगांव दिखाया, आसक्ति बनाई, मोह किया, नहीं। न मैंने कभी किसी को घृणा की, जुगुप्सा की, नहीं। मैं दूर तटस्थ खड़ी रही हूं।

तब तो वेश्या भी संन्यस्त हो जाती है। कृष्ण ठीक कहते हैं, स्वधर्मे निधन श्रेय:।

वह अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि तू ठीक से पहचान ले, तेरा स्वधर्म क्या है। अगर तू कहता है, संन्यासी होना तेरा स्वधर्म है, अगर तू मानता है, समझता है कि संन्यासी होना तेरा स्वधर्म है, तो तू जा। लेकिन आज तक तुझमे संन्यास की कोई झलक दिखाई नहीं पड़ी। काफी जीवन तेरा बीत गया। हम पुराने संगी—साथी हैं। कभी तुझमे मैंने ब्राह्मण की कोई झलक नहीं देखी; संन्यासी का कोई भाव नहीं देखा। तू शुद्ध क्षत्रिय है। अर्जुन से ज्यादा शुद्ध क्षत्रिय खोजना भी मुश्किल है। तो तू इससे भिन्न हो न सकेगा। तो एक ही उपाय है कि तू अपने ही धर्म के सत्य को उपलब्ध हो, निजता को मत छोड़। कृष्ण यह कह रहे हैं कि तू अपने भीतर .अगर निजता को छोड्कर किसी और के पीछे चलेगा, किसी और की सुनेगा, किसी और आदर्श से प्रलोभित होगा, तो तेरे भीतर द्वंद्व पैदा हो जाएगा।

और जिस व्यक्ति के भीतर द्वंद्व पैदा हो गया, वही, असली युद्ध है। फिर एक संघर्ष शुरू होता है, जिसका कोई अंत नहीं है। क्योंकि तुम अपने से ही लड़ते हो, अंत हो कैसे सकता है!

और तुम सभी लड़ रहे हो। कोई क्रोध से लड़ रहा है, कोई काम से लड़ रहा है, कोई लोभ से लड़ रहा है। लोभ भी तुम्हारा है, क्रोध भी तुम्हारा है, लड़ने वाले भी तुम हो, करोगे क्या? तुम अपने को ही बांट लोगे दो हिस्सों में और अपने से ही लड़ोगे। कोई जीत सकता है? जीत संभव है? तुम व्यर्थ ही खो जाओगे।

अपने को स्वीकार कर लो, स्वधर्मे निधन श्रेय:। अपने को परिपूर्ण भाव से स्वीकार कर लो। तुम जो हो, उससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हारे जीवन में क्रांति न होगी। जिस दिन तुम स्वीकार कर लोगे कि तुम जो हो, उससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है, तुम्हें तुम्हारे धर्म का सत्य उपलब्ध हो जाएगा। तुम गंगा को उलटी बहा सकते हो। बड़ी ऊर्जा है तुममें, अगर तुम अखंड हो।

वह वेश्या अखंड रही होगी। और उसने बड़ी निष्णात कुशलता से सम्यकत्व को साध लिया था। वेश्या का सवाल नहीं है, न संन्यासी होने का सवाल है। क्योंकि यह हो सकता है, संन्यासी जंगल में बैठा हो और वेश्या का विचार करे; तब उसके भीतर द्वंद्व है, संघर्ष है, कुरुक्षेत्र है। और वेश्या वेश्यालय में बैठी हो और संन्यास की धारणा करे; उसके भीतर भी द्वंद्व है।

तुम जहां हो, वहा पूरे रही। तुम्हारी समग्रता ही तुम्हें मोक्ष की तरफ ले जाएगी, मुक्ति की तरफ ले जाएगी।

और बड़ी अनूठी बात यह है कि जिस दिन तुम अपने को परिपूर्ण स्वीकार कर लेते हो, उसी दिन तुम्हारे भीतर क्रांति शुरू हो जाती है। जिसने स्वीकार कर लिया अपने क्रोध को, उसके स्वीकार में ही अतिक्रमण है। वह क्रोध से ऊपर उठ गया, वह क्रोध के पार हो गया। उस स्वीकार में ही वह अलग हो गया, साक्षी हो गया।

वह वेश्या अपने वेश्यापन को स्वीकार करके साक्षी हो गई, अलग हो गई, भिन्न हो गई। अब सब खेल रह गया, लीला रह गई। इसलिए तो कोढ़ी आए, स्वस्थ आए, बीमार आए, युवा आए, बूढ़ा आए, कोई अंतर न रहा, सब खेल हो गया, सब नाटक हो गया। वेश्या दूर खड़ी हो गई।

अर्जुन को कृष्ण यही कह रहे हैं कि तू बीच में मत आ, दूर खड़ा हो जा—तटस्थ भाव से, फलाकांक्षाशून्य, अनासक्त। जो तेरी निजता है, उसको प्रकट होने दे। इस क्षण से भाग मत, और अपने से भाग मत।। अपने से कोई कहीं भाग नहीं पाया कभी। कहा जाओगे भागकर अपने से? जहां जाओगे, तुम तो तुम्हीं रहोगे। जिसने अपने को समग्ररूपेण स्वीकार कर लिया—इसे लाओत्से ने तथाता कहा है—उसके जीवन में परितोष आ जाता है, संतोष बरस जाता है। उसी संतोष में क्रांति घटित होती है।

तुम जरा कोशिश करके देखो। लड़कर तो तुमने बहुत कोशिश करके देख ली जन्मों —जन्मों से। पिछले जन्म तुम्हें याद भी न हों, तो इस जन्म में भी तुमने लड़कर कोशिश कर ली। तुम एक सालभर के लिए मेरी मान लो कि तुम लड़ी मत, तुम अपनी निजता में बहो।

संसार कुछ भी कहे, लोग कितना ही समझाएं कि तुम्हें बुद्ध होना है, महावीर होना है, राम होना है, कृष्ण होना है, तुम किसी की मत सुनना। क्योंकि तुम्हें तुम ही होना है; न राम होना है, न बुद्ध होना है, न कृष्ण होना है। वे सब विजातीय हैं तुम्हारे लिए।

तुम चेष्टा करके राम अगर हो भी गए, तो झूठे, रामलीला के राम हो पाओगे। उसका कोई मूल्य नहीं है, दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है। यह भी हो सकता है कि रामलीला के राम के भी लोग पैर छूते हैं, तुम्हारे भी छुए। पर इससे तुम कुछ प्रसन्न मत होना। इसमें कुछ सार नहीं है। तुम तुम ही होने को पैदा हुए हो।

कृष्ण के वचनों से बडी संसार में कोई दूसरी व्यवस्था नहीं है अनुशासन की, जिसने व्यक्ति को उसके निजता के परम स्वीकार के लिए आग्रह किया हो।

अर्जुन जैसे ही राजी हो जाएगा, समझ लेगा कि मैं क्षत्रिय हूं और इससे अन्यथा मैं कैसे हो सकता हूं कौन होगा इससे अन्यथा, मेरा सारा होना यही है, उसी क्षण क्षत्रिय के बाहर एक सूत्र खड़ा हो गया जो साक्षी का है। फिर युद्ध में उतर सकता है। फिर यह युद्ध एक नाटक है।

यदि चाहते हो कि महाभारत न हो, तो तुम्हारे हाथ में केवल इतना ही है कि भीतर जो युद्ध चलता है, उसे तुम रोक दो। और नकल में मत पड़ो। कोई और होने की कोशिश मत करो।

तुम्हारी कोशिश ऐसी ही है, जैसे गुलाब का फूल कमल होना चाहे। पागल हो जाएगा। कमल तो क्या होगा, गुलाब भी न हो पाएगा। शक्ति लग जाएगी कमल होने में, गुलाब होने से वंचित रह जाएगा।

तुम वही हो सकते हो, जो तुम हो। तुम्हें पूरा ही बनाया गया है; कुछ अधूरा नहीं है, कुछ कमी नहीं है। तुम जरा एक वर्ष के लिए अपने को स्वीकार करके देख लो, और देखो, कैसी शांति तुम्हारे चारों तरफ घनी हो जाती है!

बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि सैकड़ों वर्षों की शिक्षा तुम्हें सदा, जैसे बैल को कोई पीछे से कोंचे चला जाता है, ऐसे तुम्हें कोच रही है, कोड़े लगा रही है। कुछ बनो! दौड़ो! ऐसे खड़े—खड़े जीवन गंवा दोगे। बुद्ध बनो, महावीर बनो, कृष्ण बनो। जैसे परमात्मा तुम्हें स्वीकार नहीं करता, सिर्फ बुद्धों को स्वीकार करता है।

और कभी तुम यह भी तो देखो, बुद्ध बुद्ध कैसे बने! उन्होंने कोई और बनने की कोशिश नहीं की, इसलिए बुद्ध बने।

मैंने सुना है, एक सूफी फकीर अपने गुरु के आसन पर विराजमान हुआ गुरु की मृत्यु के बाद। लोगों में बड़ी अफवाहें चलीं। लोगों में बड़े शक—संदेह उठे। आखिर गांव के लोग इकट्ठे हो गए। कहना जरूरी था। क्योंकि बात जरा गलत थी। क्योंकि इस शिष्य का व्यवहार गुरु से बिलकुल भिन्न था। यह गुरु के पद का अधिकारी न था।

लोगों ने कहा कि क्षमा करें, नाराज न हों, लेकिन आप गुरु के पद के अधिकारी नहीं हैं। क्योंकि आप ऐसी कोई भी बात हमें नहीं दिखाई पड़ती, जो गुरु की मानते हों।

वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, इसीलिए। मेरे गुरु भी अपने गुरु की नहीं मानते थे। इसीलिए मैं उनका शिष्य हूं। मेरे गुरु अपने ढंग के आदमी थे। उनके गुरु अपने ढंग के आदमी थे। मैं अपनेढंग का आदमी हूं। और मेरे गुरु ने स्वयं को मेरे ऊपर नहीं थोपा। सिर्फ मुझे सहारा दिया कि मैं वही हो स्कंध जो मैं हो सकता हूं। सदगुरु और असदगुरु का यही फर्क है। सदगुरु तुमसे कहेगा, स्वधर्मे निधन श्रेय:। अपने धर्म में, अपनी निजता में मर जाना भी ठीक ‘ दूसरे की निजता को ओढ़कर जीना भी गलत। सफलता भी मिल जाए दूसरे के पाखंड को ओढ़कर, दूसरे के वस्त्रों में छिपकर, तो सफलता दो कौड़ी की है। असफल भी होना पड़े अपनी निजता को बचाते हुए, तो असफल होना भी श्रेयस्कर। क्योंकि उस असफलता में भी तृप्ति होगी कि तुम तुम ही रहे।

तुम्हारे कंठ पर ही जब पानी की बूंद पड़ेगी, तभी तृप्ति आएगी। दूसरे के कंठों पर पडने से कुछ हल न होगा। तुम्हारी आंख जब देखेगी प्रकाश को, तभी सूर्योदय होगा। दूसरों की आंखों से देखने से कुछ भी न होगा। तुम उधार मत बनना।

अर्जुन के मन में बड़े उधार बनने की चेष्टा पैदा हो गई थी। कृष्ण की सारी व्यवस्था यही है कि वह उधार न बने। नगद, स्वयं रहे। वहीं से युद्ध शुरू होता है, फिर युद्ध फैलता चला जाता है। फिर तुम घर में लड़ते हो, परिवार में लड़ते हो, समाज में लड़ते हो, राज्य। फिर युद्ध फैलता चला जाता है, फिर पूरी पृथ्वी एक युद्ध है।

चांद—तारों को दोष मत दो। थोड़ा भीतर देखो। आदमी के अतिरिक्त और कोई दोषी नहीं है।

दूसरा प्रश्न : इस अत्यंत आक्रमणशील युग में —चित्त वाले लोगों को कोई भी जगह जीना कठिन लगता है; क्योंकि शिक्षा ही आक्रामक होकर जीने की दी जाती है। लोग अपने जैसा ही करके छोड़ेंगे, ऐसा लगता है। तो क्या करें?

तुम्हें एक पुरानी कहानी कहता हूं। यहूदियों में कथा है कि छत्तीस छिपे हुए संत सदा पृथ्वी पर घूमते रहते हैं। ?ई वे लोगों को जगाने की कोशिश करते हैं, गिरतो को सम्हालने की कोशिश करते हैं, भटकों को बुलाने की कोशिश करते हैं, दुखियों को सांत्वना बंधाते हैं। और छिपे हैं, उनकी कोई घोषणा नहीं होती। वे चुपचाप अदृश्य हाथों से इन सारे कामों को करते रहते हैं। यद्यपि—कहानी का जो असली सूत्र है, वह यह है—उनके करने से कुछ परिणाम नहीं होता। न तो वे गिरीं को उठा पाते हैं, न वे सोयों को जगा पाते हैं, न वे दुखियों को सुखी कर पाते हैं। लेकिन उनकी चेष्टा के कारण परमात्मा संसार को बनाए रखता है।

यह बड़ी मीठी कथा है यहूदियों में। जिस दिन वे छत्तीस आदमी निराश हो जाएंगे, उस दिन पृथ्वी विलीन हो जाएगी। यद्यपि उन छत्तीस से कुछ भी नहीं होता; हो नहीं सकता। क्योंकि जो आदमी गिरा है, वह अपनी मरजी से गिरा है, उसकी मरजी के बिना तुम उसे उठा नहीं सकते। और तुम्हारी सब उठाने की चेष्टाएं उसे और गिरने का आमंत्रण बन जाएंगी।

और जो सोया है, वह जानकर सोया है। तुम उसे जगा नहीं सकते। और जो दुखी है, उसने दुख में कुछ नियोजित कर रखा है, उसका इनवेस्टमेंट है, तुम उसे सुखी नहीं कर सकते। क्योंकि उसे तुम सुखी करोगे, तो उसके इनवेस्टमेंट का क्या होगा?

समझो कि एक पत्नी बीमार पड़ी है घर में। रोती रहती है; अपनी हजार झूठी—सच्ची बीमारियों की चर्चा करती रहती है। और तुम उसे सुखी करना चाहते हो। वह तुम उसे न कर पाओगे, क्योंकि उसकी इस बीमारी के पीछे एक राज है। यह बीमारी पति को नियंत्रित करने का उपाय है। वह उसका इनवेस्टमेंट है। इसी ढंग से वह पति.। क्योंकि जब पत्नी बीमार होती है, तो पति क्या कर सकता है। मानना पड़ता है जो भी पत्नी कहती है। स्वस्थ पत्नी का इनकार भी कर दो। अब मर रही है, बिस्तर पर पड़ी है, उसको क्या कहो! झुकना पड़ता है।

एक दफा स्त्रियों को पता चल जाता है कि तानाशाही करने का सुगम उपाय बीमारी है, फिर बहुत मुश्किल है। तब ऐसा भी होता है कि पति जब बाहर जाता है, तब पत्नी बिलकुल ठीक रहती है, पास—पड़ोस में जाती है, बातचीत करती है, रस लेती है; अखबार पढ़ती है, रेडियो चलाती है। जैसे ही पति के आने का वक्त होता है, रेडियो बंद, अखबार हट जाते हैं, बिस्तर पर लेट जाती है। और जितनी बीमारी होती है, उससे हजार गुना करके बताती है।

डाक्टरों को पता है कि स्त्रियों की बीमारियों पर एकदम से भरोसा नहीं किया जा सकता, पचास प्रतिशत झूठी होती हैं। और बाकी जो पचास प्रतिशत हैं, जितना बड़ा पहाड़ बनाकर बताया जाता है, उतना नहीं होतीं। छोटा—सा राई, तिल और पर्वत जैसा बताया जाता है। कारण हैं।

इसलिए इस स्त्री को तुम सुखी नहीं कर सकते, क्योंकि वह सुखी होना नहीं चाहती। वह दुखी जानकर है। दुख उसका व्यवसाय है। उसने दुख में से रास्ता बना लिया है।

छोटे—छोटे बच्चे भी समझ लेते हैं। जब बच्चा बीमार होता है, तो बाप भी आकर पास बैठता है, पैर दबाता है। जब बच्चा बीमार होता है, पड़ोसी देखने आते हैं। जब बच्चा स्वस्थ होता है, कोई फिक्र नहीं करता, कोई देखता ही नहीं; कोई ध्यान ही नहीं देता। बच्चे ने एक गणित सीख लिया, कि जब तक तुम दुखी न होओ, तुम पर ध्यान नहीं दिया जा सकता। और ध्यान की बड़ी गहरी आकांक्षा है सब में कि लोग ध्यान दें। लोग ध्यान दें, उससे तुम्हारे अहंकार की पुष्टि होती है।

तो बच्चा बीमार है। वह बाहर जाकर टांग तोड़कर आ जाता है, हाथ में चोट मारकर आ जाता है। ध्यान मांग रहा है। वह यह कह रहा है, ध्यान दो मेरी तरफ।

तुमने कभी खयाल किया है, छोटे बच्चों को जब तुम्हारे घर में मेहमान आते हैं तब तुम कह देते हो, शांत बैठना। ऐसे वे शांत ही बैठे रहते हैं, लेकिन जब मेहमान आ जाएं, फिर वे हजार उपद्रव खड़े करने लगते हैं। क्योंकि वे देखते हैं कि मेहमानों की सारी नजर और सारा ध्यान तुम ही लिए ले रहे हो। उन पर भी ध्यान जाना चाहिए। वे भी ध्यान का केंद्र होना चाहते हैं। और अड़चन नहीं है, बच्चे हैं छोटे। बड़े—बड़े राजनीतिज्ञ, बड़े नेता भी ध्यान पर सारा जोर लगाए रखते हैं।

अभी मोरारजी ने अनशन किया। उस अनशन में उन्होंने एक पत्थर से दो चिड़िया मारने की कोशिश की। एक तो इंदिरा को झुका लें और दूसरा जयप्रकाश को जगह पर बिठा दें। क्योंकि जयप्रकाश का नाम जोर से बढ़ता जाता है। और ऐसा लगता है कि विरोध में वे अग्रणी हो गए हैं; वह भी पीड़ा है। तो अगर आमरण अनशन कर दो, तो अखबार में नाम अग्रणी हो जाएगा।

अब ये बड़े खेल चलते हैं। छोटे बच्चों से लेकर बड़े—बूढ़ों तक कोई अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि आकांक्षा अहंकार की तृप्ति की बनी रहती है।

तौ यहूदियों में यह कथा है कि वे छत्तीस छिपे हुए संत पृथ्वी पर घूमते रहते हैं। यद्यपि उनसे किसी को सहायता नहीं मिलती, वे किसी को जगा नहीं पाते, कोई उनकी सुनता नहीं, मगर वे अपने प्रेम से अपना काम जारी रखते हैं।

तुम क्या सोचते हो, मैं तुमसे बोल रहा हूं तो इस भरोसे से कि तुम सुन ही लोगे! वह सवाल बड़ा नहीं है। तुम सुनोगे, इसकी संभावना बहुत कम है। लेकिन मैं निराश नहीं हूं इससे। तुम सुनोगे या नहीं सुनोगे, यह तुम्हारे ऊपर है। मैं कहे चला जाऊंगा। मैं अपनी तरफ से तुम्हारी चिंता करता हूं यह बताए चला जाऊंगा। तुम न सुनोगे, वह तुम्हारी जिम्मेवारी।

तो ऐसा हुआ कि एक नगर था सोदोम, पुराना नगर था इजरायल का। अंग्रेजी में एक शब्द है, सोदोमी। वह उसी नगर से बना है, सोदोम से। सोदोम में लोग बिलकुल भ्रष्ट हो गए थे। वे इतने भ्रष्ट हो गए थे कि पुरुष पुरुषों से संभोग करते थे, स्त्रियां स्त्रियों से संभोग करती थीं। यहीं तक नहीं, लोग पशुओं के साथ संभोग करने लगे थे—कुत्ता, बिल्ली, जानवर..।

इसलिए अंग्रेजी में जो शब्द है सोदोमी, उसका मतलब है, पशुओं के साथ संभोग करना। वह उसी नगर से आया है, सोदोम से।

परमात्मा बहुत नाराज हो गया, क्रुद्ध हो गया, इस नगर को तो बिलकुल मिटा ही देना है, जला ही देना है।

जैसे ही उन छत्तीस में से एक को खबर मिली, जो कहीं पास ही सोदोम के घूम रहा था, वह भागा हुआ सोदोम आ गया। कहते हैं, उसके सोदोम में आ जाने के कारण परमात्मा को रुकना पड़ा। अब क्या करो! वह जलाने जा ही रहा था सोदोम को, मगर वह एक संत आ गया। और वह चिल्लाने लगा नगर के रास्तों पर; लोगों को समझाने लगा कि विनष्ट हो जाओगे। पाप से जागो! यह तुम क्या कर रहे हो? यह तो विकृति है। संस्कृति तो दूर, प्रकृति तक तुमने खो दी। धर्म तो दूर, तुमने जीवन का साधारण स्वास्थ्य भी खो दिया। यह तुम क्या कर रहे हो!

वह चिल्लाता फिरता, लोगों को जगाता फिरता, लेकिन कोई उसकी सुनता न। पहले तो लोगों ने समझा पागल है, हंसे। फिर धीरे—धीरे उपेक्षा करने लगे। फिर तो उन्होंने हंसना भी बंद कर दिया। फिर तो कोई उसकी बात पर ध्यान ही न देता। लोग बहरे हो गए। लेकिन वह चिल्लाता रहा।

परमात्मा बड़ी अड़चन में पड़ गया, क्योंकि वह रुके और गांव छोड़े, तो वह गांव को जला दे। तो इस एक आदमी की वजह से, जो इतनी फिक्र करता है, जो इतनी चिंता करता है, जिसके मन में ऐसी करुणा है! लेकिन उसकी कोई नहीं सुनता है, तो भी वह लगाए जा रहा है अपनी रट…….।

एक दिन एक बच्चे ने उसे रोका, क्योंकि वह बच्चा उसे देखता था। कभी—कभी संतों और बच्चों के बीच संवाद हो जाता है।

क्योंकि संत भी बच्चे हैं और बच्चे भी थोड़े—से संत हैं, इसलिए थोड़ा—सा सूत्र मिल जाता है। एक बच्चे ने कहा कि सुनो जी, कितने दफे तुम चिल्लाते हो, कोई सुनता नहीं। बंद क्यों नहीं हो जाते?

तो उसने कहा, पहले मैं चिल्लाता था कि लोग बदल जाएंगे, सुन लेंगे, राजी हो जाएंगे, और यह दुर्भाग्य जो आ रहा है, बच जाएगा। उस बच्चे ने कहा, ठीक है, पहले की छोड़ो; अब किसलिए चिल्लाते हो? कोई नहीं सुन रहा है। उसने कहा, अब इसलिए चिल्लाता हूं.। पहले चिल्लाता था कि लोग बदल जाएंगे इस आशा से, अब इस आशा से चिल्लाता हूं कि कहीं लोग मुझे न बदल दें। चिल्लाना तो जारी ही रखूंगा। ये लोग बड़े कठिन मालूम पड़ते हैं। इनको मैं तो न बदल पाया, लेकिन कहीं ये मुझे न बदल दें।

यह जो प्रश्न है कि आक्रामक शिक्षा है, दीक्षा है, सारा समाज आक्रामक है। इसमें सरल—चित्त लोग, अनाक्रामक लोग, अहिंसक लोग, हृदय से भरे लोग—जिनको स्त्रैण—चित्त कहता है लाओत्से—इनकी क्या जगह है? कहां ये खड़े हों? कहीं ऐसा तो न होगा कि लोग अपने जैसा ही करके छोड़ेंगे?

नहीं, ऐसा न होगा। अगर तुम लोगों को जगाने की, उठाने की चेष्टा में संलग्न रहे। अगर तुम लोगों की आक्रमणशीलता को क्षीण करने के उपाय करते रहे, यह जानते हुए भी कि शायद कोई भी न बदलेगा, निराश न हुए.।

करुणा कभी निराश नहीं होती। करुणा को कभी कोई निराश नहीं कर पाया है। करुणा कभी हताश नहीं होती। करुणा ने हताशा जानी ही नहीं है।

तो अगर तुम्हें लगता है कि लोग आक्रामक हैं, युद्धखोर हैं, हिंसक हैं, तो बैठे मत रहो, चुप मत रहो, जो तुम से बन सके उनकी आक्रमणशीलता को क्षीण करने के लिए, करो; यह जानते हुए कि शायद तुम कुछ भी न कर पाओगे।

लेकिन तुमसे मैं कहता हूं कि उन्हें बदलने की कोशिश में एक बात कम से कम होगी, वे तुम्हें न बदल पाएंगे। और वह भी कुछ कम नहीं है। वह भी काफी है।

इसलिए मुझसे जब कोई पूछते हैं मित्र कि हम क्या करें? आपकी बात हमारे हृदय को भर देती है। हम चाहते हैं कि जाकर लोगों को कहें, समझाएं। लेकिन फिर डर लगता है कि कोई सुनेगा तो नहीं।

सुनी कब किसकी है? बुद्ध की किसी ने सुनी है? कि महावीर की? या कि कृष्ण की किसी ने सुनी है? अगर सुन ही ली होती, तो दुनिया दूसरी होती; सुनाने को कोई बचता ही न। नहीं सुनी है किसी ने।

तुम क्यों फिक्र करते हो कि लोग सुनेंगे या नहीं! कम से कम तुम तो सुनोगे अपने को ही बोलते हुए। उससे तुम्हारा बल बढ़ेगा। उससे कम से कम एक बात पक्की है कि लोग तुम्हें न बदल पाएंगे। वह भी कुछ कम नहीं है।

जाओ! और इसकी भी फिक्र मत करो कि लोग हंसेंगे। लोग हंसेंगे ही। वे सदा से हंसते रहे हैं। लोग अपना स्वभाव नहीं बदलते, तुम अपना क्यों बदलते हो?

तुम्हारे मन में भाव उठा है कि लोगों को कुछ देना है, दे दो, बांट दो। इसकी चिंता मत करो कि वे हंसेंगे, फेंक देंगे। यह उनका काम है। यह तुम्हें विचार करने की जरूरत नहीं है। तुम अपने हृदय को उंडेल दो, उससे तुम हलके हो जाओगे।

जैसे कोई बादल आकाश में घिरता है जल से भरा हुआ; बरस जाता है। पहाड पर भी बरसता है, झील पर भी बरसता है। पहाड़ इनकार कर देते हैं, तो भी बादल पहाड़ पर बरसना बंद नहीं करते। झील स्वीकार कर लेती है, भर लेती है, तो भी झील—झील पर ही नहीं बरसते, बरसते रहते हैं।

तुम बरसो। तुम्हारे भीतर अगर कोई थोडी—सी भी प्रतीति आई है, तो तुम डरो मत, उस प्रतीति को बाटो। बांटने से वह तुम्हारे भीतर बढ़ेगी। कम से कम घटने की संभावना मिट जाएगी।

तुम इसकी चिंता मत करो कि दूसरों को वह प्रतीति हो पाएगी या नहीं। वह तुमने चिंता की, तो तुम डर जाओगे, सिकुड़ जाओगे। और डरा हुआ, सिकुड़ा हुआ आदमी दूसरों के द्वारा बदला जा सकता है।

और ध्यान रखना, हिंसक, अज्ञानी आक्रामक होते हैं। हिंसक अज्ञानी पहल लेते हैं। शांत आदमी संकोच करता है; दो दफा सोचता है, कहना कि नहीं कहना! अशांत फिक्र ही नहीं करता। वह एकदम हमला कर देता है तुम्हारे ऊपर।

तुम्हारी दया, तुम्हारी करुणा, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा ध्यान तुम अगर बाटोगे, तो तुम्हारे चारों तरफ उनसे एक परकोटा बन जाएगा, वह तुम्हें बचाएगा।

उस फकीर ने ठीक ही कहा कि पहले मैं इस आशा में चिल्लाता था कि लोग बदल जाएंगे। अब मैं इस आशा में चिल्लाए चला जाता हूं कि कहीं लोग मुझे न बदल लें।

लेकिन जब तक वह फकीर उस गांव में रहा, सोदोम जलाया न जा सका। कहते हैं, तब परमात्मा को कुछ उपाय करना पड़ा। और एक संदेशवाहक भेजना पड़ा कि तेरी दूसरे गांव में जरूरत है। दूसरा गांव था, गोमोरा। वहा जरूरत है, वहा लोग बड़े पाप से भरे हैं, यहां से भी ज्यादा।

संत वहां गया भाग। हुआ। जैसे ही वह गांव के बाहर हुआ, सोदोम पर अग्नि बरसी, सोदोम सदा के लिए नष्ट हो गया।

ये कहानियां बड़ी महत्वपूर्ण प्रतीक हैं, बड़ी सिबालिक हैं। यह हो सकता है कि संसार में आदमी जीता है सिर्फ इसीलिए कि कुछ लोग परमात्मा से जुड़े रहते हैं, अन्यथा तुम्हारा जीवन बिलकुल सड़ जाए। कोई एक भी उस स्रोत से जुड़ा रहता है, तो थोड़ी—सी जीवन की धारा आती—जाती है। तुम्हारे मरुस्थल में एक मरूद्यान बना रहता है। तुम्हारी तपती दुपहरी में कहीं कोई एक वृक्ष होता है, जिसके नीचे कभी तुम क्षणभर छाया ले लो, विश्राम कर लो।

आखिरी प्रश्न : सजगता से आत्म—स्वीकार फलित होगा या कि आत्म—स्वीकार से सजगता फलित होती है?

से प्रश्नों में मत पड़ो।

ये तो मुर्गी— अंडे जैसे प्रश्न हैं, कि मुर्गी पहले होती है कि अंडा पहले होता है। अंडा पास हो, आमलेट बना लो; मुर्गी पास हो, शोरबा बना लो।

इन सवालों में मत पडो। जहां से शुरू करना हो, अंडे से करना हो अंडे से, मुर्गी से करना हो मुर्गी से। दोनों तरह से शुरू हो सकता है। अंडा खरीद लाओ, मुर्गी बन जाएगी। मुर्गी खरीद लाओ, अंडा रख देगी। लेकिन दार्शनिक सवालों में मत पड़ो। क्योंकि उन्हें कभी कोई हल नहीं कर पाया—सिवाय मुल्ला नसरुद्दीन के लड़के के। मैं उसके घर था एक सुबह और मुल्ला नसरुद्दीन बड़े दार्शनिक भाव में था। और उसने मुझसे पूछा कि आप बडी—बड़ी बातें किया करते हैं, एक सवाल का जवाब दे दो, कि मुर्गी पहले या अंडा? इसके पहले कि मैं कुछ कहूं, उसके बेटे ने कहा, इसका जवाब तो मैं ही दे सकता हूं। मैं भी प्रसन्न हुआ; मैं भी थोड़ा हैरान हुआ लेकिन कि वह जवाब देगा कैसे! पर उसने जवाब दे दिया।

नसरुद्दीन ने कहा, तू? क्या जवाब है? उसने कहा, अंडा पहले, मुर्गी बाद में; अंडा नाश्ते में, मुर्गी भोजन में।

बस, यही मेरा जवाब भी है।

चीजें संयुक्त हैं। लोग पूछते हैं, ज्ञान पहले या आनंद पहले? संयुक्त हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इधर ज्ञान, उधर आनंद। इधर आनंद, उधर ज्ञान। या तो तुम आनंद पा लो, तो तुम ज्ञान को उपलब्ध हो जाओ। या तुम ज्ञान को पा लो, तो तुम आनंद को उपलब्ध हो जाओ।

सजगता से आत्म—स्वीकार फलित होता है। जैसे—जैसे तुम जागोगे, तुम अपने को स्वीकार कर लोगे। क्योंकि तुम तुम ही हो, और तुम सिर्फ तुम ही हो सकते हो। और कुछ होने का उपाय ही नहीं है। और सब असंभव है, व्यर्थ है। उस दौड़ में जो भटका, वह भटका, कभी नहीं पहुंचा। तुम ही तुम्हारी मंजिल हो।

जैसे—जैसे सजग होओगे, वैसे—वैसे तुम स्वीकार करने लगोगे। और जैसे—जैसे तुम अपने को स्वीकार करोगे, तुम पाओगे, तुम्हारी स्वीकृति सजगता को बढ़ाती है। वे एक—दूसरे के सहारे बढ़ जाते हैं। तुम बाएं पैर से चलते हो कि दाएं पैर से? कोई ऐसा सवाल नहीं पूछता; क्योंकि कोई सवाल का अर्थ ही नहीं है। तुम दोनों से चलते हो। जब तुम बायां उठाते हो, तब बायां उठता है, दायां सम्हाले रहता है तुमका। दाएं के सम्हालने के बिना बायां उठ न सकेगा। और जब बायां जमीन पर जम जाता है, तब दायां उठ आता है। दो पैर हैं, दो पंख हैं; वे अलग— अलग नहीं हैं, तुमने उनको अलग बांट लिया कि फिर उपद्रव शुरू हो जाता है। फिर सवाल खड़ा होता है, जिसका कोई हल नहीं हो सकता।

पश्चिम में एक बहुत बड़ा मनसविद हुआ, विलियम जेम्स। उसने एक बडी अनूठी किताब लिखी है, वैरायटीज आफ रिलिजस एक्सपीरिएंस, धार्मिक अनुभव के विविध रूप। फिर वैसी किताब दोबारा नहीं लिखी गई। बहुत लोगों ने कोशिश की, लेकिन विलियम जेम्स लाजवाब है।

बड़ी खोज की, सारी दुनिया में घूमा। वह भारत भी आया। यहां एक महात्मा से मिलने वह हिमालय गया। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने महात्मा से पूछा कि हिंदू शास्त्रों में कहा है कि परमात्मा ने पृथ्वी बनाई, फिर परमात्मा ने आठ श्वेत हाथी बनाए और आठों दिशाओं में हाथियों को खड़ा कर दिया, और पृथ्वी उन्हीं के ऊपर सम्हली है।

महात्मा ने कहा, बिलकुल ठीक पढ़ा और ठीक समझे। पर विलियम जेम्स ने कहा, तब सवाल उठता है कि हाथी किस पर खड़े हैं? किस पर सम्हले हैं? महात्मा ने कहा, और बड़े—बड़े सफेद हाथी हैं, वे उन पर खड़े हैं। विलियम जेम्स थोड़ा हैरान हुआ कि क्या महात्मा समझ नहीं पाया मेरे प्रश्न को! उसने कहा, फिर सवाल उठता है कि वे बड़े—बड़े हाथी किस पर खड़े हैं? महात्मा ने कहा, और भी बड़े—बड़े हाथी हैं, वे उन पर खड़े हैं।

विएलियम जेम्स ने कहा, आप समझ नहीं पा रहे हैं। महात्मा ने कहा, मैं समझ रहा हूं, पर मैं कर भी क्या सकता हूं! हाथी के ऊपर हाथी, हाथी के ऊपर हाथी; हाथी के नीचे हाथी, हाथी के नीचे हाथी। मैं कर भी क्या सकता हूं! जैसा है, वैसा कह रहा हूं। तुम पूछे चले जाओ जन्मों—जन्मों तक, मैं यही कहूंगा कि और हाथी नीचे खडे हैं; क्योंकि शास्त्र गलत हो ही नहीं सकते।

दार्शनिक सवाल चीजों को दो में तोड़ लेते हैं और उलझन हो जाती है। पृथ्वी कहां सम्हली है तुमने पूछा कि गड़बड़ शुरू हो गई। पृथ्वी स्वयं सम्हली है, कोई हाथी सम्हाले हुए नहीं हैं। और अगर हाथी सम्हाले हुए हैं, तो अड़चन आने ही वाली है, क्योंकि फिर हाथी को कौन सम्हाले हुए है।

यहां सभी चीजें स्वयं सम्हली हुई हैं, क्योंकि स्वयं का सत्य ही परमात्मा का सत्य है। यहां कोई किसी को सम्हाले हुए नहीं है। अन्यथा कोई अंत न होगा सम्हालने का। मुर्गी से हटोगे, तो अंडा मिलेगा। फिर सवाल उठेगा कि अंडा कहां से आया? वह फिर मुर्गी से आएगा। फिर मुर्गी पूछोगे कि कहा से आई? वह फिर अंडे से आएगी। इसका कोई अंत न होगा।

लेकिन जीवन में इसका अंत हो जाता है। कौन फिक्र करता है कि मुर्गी पहले या अंडा पहले? जब भूख लगी हो, तो मुर्गी—अंडे को सामने रखकर कोई विचार करता है? तब आदमी भोजन करता है। मैं तुमसे भी यही कहता हूं। तुम या चाहो तो सजगता से शुरू कर दो, तो भी तुम वहीं पहुंच जाओगे। सजगता से पैदा हो जाता है आत्म—स्वीकार। या आत्म—स्वीकार से शुरू कर दो, तो भी वहीं पहुंच जाओगे। बाएं पैर से यात्रा शुरू करो कि दाएं से, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि दोनों पैर तुम्हारे हैं। और दोनों पैर तुम्हें ले जाएंगे।

तुम दोनों पैर के ऊपर सम्हले हुए हो। दोनों पंख तुम्हारे हैं। लेकिन अलग—अलग लोगों को अलग— अलग सुविधा होती है। कुछ लोग हैं, जो दाएं पैर से शुरू करेंगे, कुछ लोग हैं, जो बाएं पैर से शुरू करेंगे। अपनी— अपनी सुविधा, अपना—अपना ढंग।

दो तरह के लोग हैं। एक तरह के लोग हैं, जो आत्म—स्वीकार से शुरू करेंगे। ये शांत तरह के लोग हैं। ये बहुत अशांत नहीं हैं। ये संतुष्ट प्रवृत्ति के लोग हैं। इनका ढंग जन्मों—जन्मों में संतोष का हो गया है, शांति का हो गया है। ये आत्म—स्वीकार से शुरू कर सकेंगे, और सजगता परिणाम में आएगी।

जो लोग अशांत हैं, परेशान हैं, वे कैसे स्वीकार कर सकेंगे अपने को? अंशांति को कौन स्वीकार कर पाएगा? बहुत कठिन होगा। उनके लिए सजगता से यात्रा शुरू होगी। पर फर्क कुछ भी नहीं पड़ता; क्योंकि कहीं से शुरू करो, चलते तुम हो र मंजिल पर तुम पहुंचते हो।

मंजिल पर पहुंचकर आदमी भूल ही जाता है कि बाएं से शुरू किया था कि दाएं से शुरू किया था।

गुठलियां मत गिनो। रामकृष्ण कहते थे, जब आम पक गए हों, तो आम चूस लो, गुठलियां मत गिनो।

और ये सब गुठलियां हैं। और दर्शनशास्त्र गुठलियां गिनता रहता है और धार्मिक व्यक्ति आम चूस लेता है। फिलासफी और धर्म, दर्शन और धर्म का यही भेद है। दार्शनिक सोचता ही रहता है और धार्मिक अनुभव कर लेता है।

यहां मैं तुम्हें दार्शनिक बनाने को नहीं हूं धार्मिक बनाने को हूं। अब सूत्र

और सत्, ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्य— भाव में और श्रेष्ठ— भाव में प्रयोग किया जाता है। तथा हे पार्थ, उत्तम कर्म में भी सत् शब्द प्रयोग किया जाता है।

तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है। और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसा कहा जाता है।

हे अर्जुन, बिना श्रद्धा के होमा हुआ हवन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह समस्त असत् है, ऐसा कहा जाता है इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के पीछे उस दूसरे लोक में।

ओम तत् सत्। इन तीन शब्दों में सभी कुछ आ जाता है।

ओम शब्द नहीं है, ध्वनि है। इसका कोई अर्थ नहीं है; क्योंकि सभी अर्थ मनुष्यों के दिए हुए हैं। यह अर्थातीत ध्वनि है। जैसे नदी में कल—कल नाद होता है। क्या अर्थ है कल—कल का? कोई अर्थ नहीं है। हवाएं वृक्षों से गुजरती हैं, सरसराहट होती है। क्या अर्थ है सरसराहट का? कोई अर्थ नहीं है। आकाश में मेघ गरजते हैं।

क्या अर्थ है उस गर्जना में? कोई भी अर्थ नहीं है। अर्थ तो आदमी के दिए हुए हैं।

ओंकार मौलिक ध्वनि है, जिससे सब विस्तार हुआ है। उस ध्वनि के ही अलग— अलग सघन रूप अलग—अलग ढंग से प्रकट हुए हैं।

उस ओंकार में कोई भी अर्थ नहीं है। तुम चाहो तो उसे अर्थहीन कह सकते हो, और चाहो तो अर्थातीत कह सकते हो। एक बात पक्की है कि वहा कोई अर्थ नहीं है। अर्थ हो नहीं सकता, क्योंकि उसके पूर्व कोई मनुष्य नहीं है।

इसलिए हमने ओंकार को परमात्मा का प्रतीक बना लिया, क्योंकि परमात्मा कोई तुम्हारा दिया हुआ अर्थ नहीं है। परमात्मा तुम से पहले है और तुम से बाद में है। तुम में भी है, तुम से पहले भी है, तुम से बाद में भी है।

परमात्मा तुम से विराट है। तुम छोटी तरंग की तरह हो, वह सागर है। तरंग कैसे सागर को अर्थ दे पाएगी? और तरंग का दिया हुआ अर्थ क्या अर्थ रखेगा?

इसलिए हमने ओम परमात्मा का प्रतीकवाची शब्द चुना है। इसका हिंदुओं से कुछ लेना—देना नहीं है। अर्थ होता, तो हिंदुओं से कुछ लेना—देना होता। इसलिए यह अकेला शब्द है.। भारत में तीन धर्म पैदा हुए, चार धर्म कहना चाहिए, जैन, बौद्ध, हिंदू और सिक्ख। इनमें बड़े मतभेद हैं, बडी दार्शनिक झंझटें हैं, झगडे हैं। लेकिन ओंकार के संबंध में कोई मतभेद नहीं है।

नानक कहते हैं, इक ओंकार सतनाम। ओम तत् सत्, इसका ही वह रूप है। जैन ओम का प्रयोग करते हैं बिना किसी अड़चन के। बौद्ध प्रयोग करते हैं बिना किसी अड़चन के।

यह एक शब्द गैर—सांप्रदायिक मालूम पड़ता है। बाकी सब पर झगड़ा है। ब्रह्म शब्द का उपयोग जैन न करेंगे। आत्मा शब्द का उपयोग बुद्ध न करेंगे। लेकिन ओम के साथ कोई झगड़ा नहीं है। और ईसाई, इस्लाम, यहूदी, तीन धर्म जो भारत के बाहर पैदा हुए, उनके पास भी ओंकार की ध्वनि है, उसे वे ठीक से पकड़ नहीं पाए। कहीं कुछ भूल हो गई। वे उसे कहते हैं, ओमीन, आमीन। हर प्रार्थना के बाद मुसलमान कहता है, आमीन। वह ओंकार की ही ध्वनि है : वह ओम का ही रूप है।

इसलिए यह एक ही अर्थहीन शब्द है, जो सारे धर्मों को अनुस्थूत किए हुए है। अगर दुनिया में हम कोई एक शब्द खोजना चाहें जो गैर—सांप्रदायिक है, जिसके लिए सभी धर्मों के लोग राजी हो जाएंगे, तो वह ओम है।

यह बड़ा अदभुत है। सभी ने इसकी प्रतिध्वनि सुनी है। जो भी भीतर गए हैं, उन्होंने ओंकार को सुना है। लेकिन ओंकार को सुनकर बाहर उसकी खबर देने में थोड़े— थोड़े भेद पड़ गए हैं, पड़ ही जाएंगे।

तुमने कभी गौर किया, ट्रेन में बैठे हो, ट्रेन चलती है। अब वह किस तरह की आवाज हो रही है? झक—झक, छक—छक, भक— भक? तुम जैसा सुनना चाहो, वैसा सुन ले सकते हो। और एक दफे तुम्हें पकड़ जाए एक बात कि यह झक—झक हो रहा है, या भक— भक हो रहा है, फिर मुश्किल है; फिर वह पैटर्न पकड़ गया, फिर वह ढाचा पकड़ गया, फिर तुम्हें वही सुनाई पड़ेगा। फिर लाख तुम्हें कोई दूसरा समझाए कि नहीं, यह ठीक नहीं है, तो भी तुम्हें वही सुनाई पड़ेगा, क्योंकि तुम्हारे मन ने एक ढाचा पकड़ लिया।

ओम की शुद्धतम ध्वनि अलग—अलग लोगों ने अलग— अलग तरह से सुन ली होगी। किसी ने आमीन की तरह सुन ली, वह संभव है। लेकिन इस संबंध में कोई विवाद नहीं है।

यह एकमात्र शब्द है, जो सारे धर्मों को जोड़े हुए है। यह शिखर शब्द है। जैसे मंदिर के खंभे अलग— अलग खड़े हैं, लेकिन मंदिर का शिखर एक है।

अगर हम धर्म का कोई मंदिर बनाएं और हर संप्रदाय के लिए एक—एक खंभा बना दें, तो शिखर पर हमें ओंकार को रखना पड़ेगा। ओम तत् सत्। ओम, तत् यानी वह, सत् यानी है। तत् के संबंध में हमने कल बात की कि हम क्यों उसे तत् कहते हैं, क्यों कहते हैं वह, दैट।

हम उसे तू नहीं कहते। तू कहने से हमारा मैं निर्मित होता है, बनता है। और तू कहने से हम परमात्मा को थोड़ा नीचे लाते हैं उसके तत् रूप से, उसकी दैटनेस से। वह इतना पार। उसे हम खींचकर अपने घर के पास ले आते हैं। तब वह हमारा प्रेमी हो जाता है, पिता हो जाता है, पत्नी हो जाता है, प्रेयसी हो जाता है। फिर हम उससे एक संबंध बना लेते हैं।

जैसे ही हमने परमात्मा को तू कहा, हम परमात्मा को खींचकर संसार में ले आते हैं। इसलिए भक्त तू के पार जाने में मुश्किल पाता है। क्योंकि फिर संबंध छूट जाएगा।

भक्ति संबंध है, ज्ञान असंबंध है। भक्ति तो संबंध है, ज्ञान असंबंध है। भक्ति में तुम कितने ही करीब आ जाओ, लेकिन फिर भी दूरी रहती है। ज्ञान में तुम एक ही हो जाते हो। इसलिए ज्ञानियों ने उसे तत् कहा है, वह। एक तटस्थ शब्द, जिसमें हमारा कोई भी राग—रंग नहीं जुड़ता।

और तीसरा शब्द है, सत्।

इन तीन में सारे भारत का वेदांत, सारा सार, सारी भारत की आत्मा समाई है। सब बुद्ध, सब महावीर, सब कृष्ण इन तीन शब्दों में समाए हैं।

सत् का अर्थ है, जो है। वृक्ष भी है, पहाड़ भी है, तुम भी हो, मैं भी हूं। लेकिन परमात्मा का होना, इस होने से भिन्न है। क्योंकि वृक्ष कल नहीं हो जाएगा; मैं आज हूं, कल नहीं होऊंगा, पहाड़ अभी है, कल मिट जाएगा। बड़े से बड़ा पहाड़ भी मिट जाएगा।

वैज्ञानिक कहते हैं, जब आर्य भारत आए, आज से कोई तीस—पैंतीस हजार वर्ष पूर्व, तो हिमालय था ही नहीं। हिमालय बाद में पैदा हुआ। और हिमालय है भी बचकाना अभी भी। वह बड़ा बहुत है, जैसे कोई छोटा बच्चा बाप से बड़ा हो जाए, लंबा हो जाए, ऐसा हिमालय बड़ा बहुत है, ऊंचाई उसकी कोई नहीं छू सकता, लेकिन वह बिलकुल नया है, बच्चा है। अभी भी बढ़ रहा है। हर वर्ष कोई चार इंच बढ़ जाता है। अभी भी बढ़ती जारी है। अभी भी प्रौढ़ नहीं हुआ है, बढ़ती रुकी नहीं।

विंध्याचल सब से पुराना पहाड़ है। उसकी कमर झुक गई है, का है। विंध्याचल के आस—पास की जो भूमि है, वह संसार की सबसे पुरानी भूमि है। नर्मदा की खूबी उस भूमि में बहना है, जो सर्वाधिक प्राचीन है, जो सबसे पहले सागर के बाहर आई।

हिमालय बच्चा है; कभी पैदा हुआ, कभी नहीं था और कभी एक दिन विलीन हो जाएगा। पहाड़ भी बनते हैं, समाप्त हो जाते हैं।

इसलिए परमात्मा के है—पन में एक फर्क ध्यान रखना। हमारा होना एक तथ्य है, फैक्ट, कभी था, कभी फिर नहीं हो जाएगा। दो तरफ न—होने की खाई और बीच में होने की छोटी—सी ऊंचाई। जैसे एक पक्षी कमरे में चला आए तुम्हारे, क्षणभर तड़फड़ाए; एक खिड़की से प्रवेश करे, दूसरी खिड़की से निकल जाए। ऐसा क्षणभर! को हमारा होना है, फिर गहन न—होना हो जाता है।

परमात्मा सदा है। सत् का अर्थ है, जो सदा है, जिसके न—होने का उपाय नहीं है। इसलिए तुम तो मिटोगे, तुम्हारे भीतर का परमात्मा कभी नहीं मिटता है। और जब तक तुमने अपने मिटने वाले स्वरूप के साथ अपने को एक समझा, तभी तक तुम भटकोगे, तब तक तुम दुखी रहोगे, तब तक मौत तुम्हें डराकी। लेकिन जिस दिन तुम्हारी नजर बदली और तुमने अपने भीतर उसको पहचान लिया, जो सत् है, जो न कभी मिटता, न कभी पैदा होता; जो बस है, जो शुद्ध है— पन है, इजनेस.।

इसलिए परमात्मा है, ऐसा कहना पुनरुक्ति है, गॉड इज, ऐसा कहना पुनरुक्ति है। वृक्ष है, यह कहना तो ठीक है। क्योंकि वृक्ष कभी नहीं भी हो जाएगा। परमात्मा है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि है का क्या मतलब? परमात्मा है, इसका तो मतलब हुआ कि जो है वह है; यह तो पुनरुक्ति है। इसलिए हमने परमात्मा को। सत् कहा है। हमने कहा कि वह है—पन है। उसको मत कहो कि परमात्मा है।

इसलिए उपनिषद को, वेदांत को नास्तिक भी इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि वेदांत दावा ही नहीं करता कि परमात्मा है। इसलिए तुम कैसे खंडन करोगे! कैसे सिद्ध करोगे कि वह नहीं है!

यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। वेदांत यह नहीं कहता कि परमात्मा है। वेदांत यह कहता है, जो है, वही परमात्मा है। है—पन, होना मात्र परमात्मा है।

इसलिए भारत में नास्तिक पनप नहीं सके, क्योंकि हमारा दावा ही बड़ा अनूठा है। पश्चिम में नास्तिक पनपे। और ईसाई धार्मिक गुरु नास्तिकों को कभी भी समझा नहीं पाया। क्योंकि तुम कहते हो, ईश्वर है, जैसे वृक्ष है, पहाड़ है। और नास्तिक कहते हैं कि नहीं है। जो है, उसे सिद्ध किया जा सकता है कि वह नहीं है।

इसलिए नीत्से का बहुत प्रसिद्ध वचन है, जिसमें उसने कहा, गॉड इज डेड। ईसाइयत से इसका कोई विरोध नहीं है। क्योंकि अगर तुम कहते हो कि परमात्मा भी वैसा ही है, जैसे और चीजें हैं, तो जैसे और चीजें मरती हैं, वैसे ईश्वर भी मर सकता है।

तो नीत्से ठीक कहता है कि ईश्वर मर गया है। अब तुम व्यर्थ पूजा कर रहे हो चर्चों में। बंद करो, ईश्वर मर चुका; तुम किस की पूजा कर रहे हो? अब वह नहीं है।

जो है, वह नहीं है हो सकता है। लेकिन हमारी घोषणा ही भिन्न है। हम कहते हैं, वह सत्। सत् उसका स्वरूप है, उसका गुण नहीं। यह थोड़ी सूक्ष्म बात है।

गुण कभी खो सकता है, स्वरूप कभी खोता नहीं। तुम्हारा होना गुण है, स्वरूप नहीं। परमात्मा का होना स्वरूप है, गुण नहीं। वह सदा है। उचित तो यही होगा कि हम कहें, जो सदा है, उसी का एक नाम परमात्मा है।

इसलिए ओम तत् सत्, इन तीन में सब आ जाता है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने ये तीन शब्द एक बार पढ़ लिए कहीं किसी शास्त्र में। और यह भी पढ़ लिया कि इन तीन शब्दों से जो भी तादात्म्य बना ले, जो भी इन तीन को समझ ले, इसकी गहराई में उतर जाए, वह मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है। वह बड़ा खुश और प्रसन्नचित्त घर लौटा। और उसने अपनी पत्नी से कहा कि सुनो, एक बड़ा हीरा हाथ लग गया है, राम रतन धन पायो।

पत्नी तो ऐसे कई हीरे उसके हाथ लगते पहले ही देख चुकी थी। पत्नी कहीं किसी पति को मानती है कि इनके हाथ और हीरा लग सकता है! हीरा भी लग जाए, तो समझेगी कि कहीं का कंकड़—पत्थर उठा लाए हैं। तुम्हारे हाथ और हीरा लग जाए! इतनी तुम्हारी योग्यता! कोई पत्नी पति की मानती ही नहीं। सारी दुनिया पति को मानने लगे, लेकिन पत्नी को संदेह बना रहता है कि यह आदमी इतना प्रसिद्ध कैसे होता जा रहा है? यह आदमी में है तो कुछ भी नहीं।

पत्नी ने कहा कि छोडो बकवास, कहां का हीरा? देखें! उसने कहा, यह हीरा बड़ा भीतरी है। पत्नी ने कहा, हम पहले ही समझ गए थे कि हीरा भीतरी ही होगा, जिसमें कि बताने की जरूरत ही न रहे। नसरुद्दीन ने कहा, मजाक की बात नहीं है। मैंने तीन शब्द पढ़े, और शास्त्र कहता है कि इन तीन शब्दों को जो जान ले, वह मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है।

पत्नी ने कहा कि तुम बेकार, व्यर्थ ही, नाहक ही मेहनत किए। हमसे पूछ लेते तीन शब्द। हम ही बता देते। नसरुद्दीन ने कहा, बोलो। उसने कहा, फांसी लगा लो। हैं तीन शब्द, मुक्ति हो जाएगी। लेकिन अगर बहुत गौर से देखो, तो इन तीन शब्दों से फांसी लगती है। इसे तुम मजाक मत समझना। ओम तत् सत् यानी फांसी लगा लो। मैं भी इनका यही अर्थ करता हूं।

तुम मिटोगे, तो ही ओम तत् सत् सत्य हो पाएगा। तुम मरोगे, तुम खो जाओगे, विलीन हो जाओगे, तो ही परमात्मा के होने की प्रगाढता का तुम्हें अनुभव होगा।

तुम ही बंधन हो। तुम बंधे हो, ऐसा नहीं, तुम ही बंधन हो। तुम मुक्त हो जाओगे, ऐसा भी नहीं; तुमसे ही मुक्ति चाहिए। जिस दिन तुम न रहोगे, उस दिन जो शेष रह जाता है, ओम तत् सत्।

कृष्ण कहते हैं, सत्, ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्य— भाव में और श्रेष्ठ— भाव में प्रयोग किया जाता है। तथा हे पार्थ, उत्तम कर्म में भी सत् शब्द प्रयोग किया जाता है।

और जहां—जहां अहंकारशून्य होकर कुछ भी होगा, वहीं सत् शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। उस कर्म को हम सत् कर्म कहते हैं, जो निरअहंकार भाव से किया जाए। इस परिभाषा को ठीक से याद रख लेना।

सत् कर्म का अर्थ है, जिसे तुमने न किया हो, तुम्हारे द्वारा परमात्मा से हुआ हो। सत् कर्म का कोई अर्थ नहीं है दूसरा, कि तुमने दक्षिणा दी, दान दिया, सेवा की। कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुमने अगर सेवा की और तुमने ही की, तो वह सत् कर्म नहीं है। तुम से अगर सेवा हुई और परमात्मा ने की, तो वह सत् कर्म है।

अगर दान देते वक्त अहंकार खड़ा हो गया, तो वह असत् कर्म हो गया। अगर दान देते वक्त तुमने अपना हाथ परमात्मा के हाथ में दे दिया और उसने ही दान दिया, तुम सिर्फ उपकरण रहे, निमित्त मात्र, तो सत् कर्म हो गया।

सत् कर्म की यह व्याख्या अनूठी है। इसमें कुछ संबंध नहीं है दूसरे से। इसमें अच्छे कर्म का सवाल नहीं है। इसमें सवाल है निरअंहकारिता का। परमात्मा से हो, तो सत् हो जाता है कृत्य। तुम से हो, तो असत् हो जाता है कृत्य।

तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है। और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसे कहा जाता है।

कृष्ण यह कह रहे हैं, अर्जुन, युद्ध न तो सत् है और न असत्। कैसे तू करता है, इस पर सब निर्भर है। तो तू यह मत कह कि युद्ध असत् है, हिंसक है, बुरा है, दुष्कर्म है; मैं न करूंगा; पाप है। कृष्ण पूरी व्याख्या को बड़ी गहराई पर ले जा रहे हैं। वे कह रहे हैं, सवाल युद्ध का नहीं है; सवाल करने वाले का है। अगर तू ऐसे युद्ध में उतरता, तू ही नहीं, परमात्मा ही तेरे द्वारा जो करवा रहा है, वह हो रहा है, तू बीच से हट जाए, तो सत् कर्म है। तो युद्ध भी धर्म—युद्ध हो जाता है। और अगर तू युद्ध कर रहा है और परमात्मा को तू पीछे हटा लेता है, खुद आगे आ जाता है, तो वह असत् हो जाता है।

इसका यह अर्थ हुआ कि कर्मों से कोई संबंध नहीं है सत् और असत् होने का। एक वेश्या भी सत् को उपलब्ध हो सकती है, एक चोर भी, एक हत्यारा भी, अगर उसने अपना अहंकार छोड दिया और परमात्मा ने जो करवाया वह निमित्त मात्र हो गया।

कबीर कहते हैं, मैं तो बांस की पोंगरी हूं। गीत तेरे।

बस, तब गीत जो भी हो, वह सत् हो जाएगा। और चाहे तुम दान करो, तप करो, यज्ञ करो, लेकिन अहंकार के ही आभूषण जोड़ रहे हो, तो कृत्य अच्छे दिखाई पड़ते हैं, लेकिन सत् नहीं हैं।

परमात्मा के हाथ की छाप जिस पर पड़ जाए, वही कृत्य सत् है, क्योंकि परमात्मा सत् है।

हे अर्जुन, बिना श्रद्धा के होमा हुआ हवन तथा दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया जाए, वह कर्म असत् है, ऐसा कहा जाता है।

श्रद्धा का अर्थ है, समर्पण। श्रद्धा का अर्थ है, निमित्त हो जाना। श्रद्धा का अर्थ है, मैं नहीं हूं तू है। श्रद्धा का अर्थ है, मैं हटा, तू आ और विराजमान हो जा। श्रद्धा का अर्थ है, मैं सिंहासन छोड़ता हूं तेरे लिए। श्रद्धा का अर्थ है, अब मैं ऐसे जीऊंगा, जैसे तू जिलाएगा; अब मेरी कोई मरजी नहीं, अब तेरी मरजी ही मेरी मरजी है। श्रद्धा का अर्थ है, फांसी। श्रद्धा का अर्थ है, मैं मरा, अब तू मुझसे जी। जिस क्षण तुम शववत हो जाते हो, उसी क्षण तुम शिववत हो जाते हो। जिस क्षण तुम मुरदे की भांति हो जाते हो, उसी क्षण परमात्मा का शिवत्व तुम्हारे भीतर से अहर्निश बहने लगता है। फिर तप करो, न करो, करने वाला न रहा, कोई फल की आकांक्षा न रही, तुम उसके हाथ की लकड़ी हो गए। फिर न तो तुम्हें पाप लगते, न पुण्य लगता। फिर कर्म के सारे जाल तुम्हें नहीं छूते। तुम फिर कमलवत इस संसार में रह सकते हो, अस्पर्शित।

और वह सब असत् है, जो बिना श्रद्धा के किया जाता है। इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के पीछे ही।

उसके धोखे में मत पड़ना।

सूत्र रूप में, सार रूप में एक आखिरी बात स्मरण रखना कि जो भी तुमसे हो, वह अधर्म है। जो तुम करो, वह अधर्म है। जो अहंकार से बहे, वह पवित्र गंगा नहीं है। उस किनारे तीर्थ न बनेंगे। जो निरअहंकार से आए!

एक ही यश है, तुम्हारा जल जाना। नाहक घी मत जलाओ; घी की वैसे ही कमी है। नाहक अनाज मत फेंको; अनाज वैसे ही बहुत कम है। मूढ़ताएं मत करो।

एक ही तप है। धूप में मत खड़े रहो, क्योंकि उस धूप में तुम्हारा अहंकार ही और अकड़ेगा, भरेगा। व्यर्थ अपने को भूखा मत मारो, क्योंकि उस भूखे मरने में तुम्हारा अहंकार और सघन होगा। एक ही तप है कि तुम मिटो। एक ही यज्ञ है कि तुम मिटो। एक ही दान है कि तुम अपने को दे डालो। फिर जो बच रहता है, लहर के खो जाने पर जो बच रहता है सागर, उसका ही नाम है, ओम तत् सत्।

आज इतना ही।


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जिन खोजा तिन पाईयां–(प्रवचन–14)

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सात शरीर और सात चक्र—(प्रवचन—चौहदवां)

आठवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

साधक की बाधाएं:

प्रश्न: ओशो कल की चर्चा में आपने कहा कि साधक को पात्र बनने की पहले फिकर करनी चाहिए जगह— जगह मांगने नहीं जाना चाहिए। लेकिन साधक अर्थात खोजी का अर्थ ही है कि उसे साधना में बाधाएं हैं। उसे पता नहीं है कि कैसे पात्र बने कैसे तैयारी करे। तो वह मांगने न जाए तो क्या करे? सही मार्गदर्शक से मिलना कितना मुश्किल से हो पाता है।

 लेकिन खोजना और मांगना दो अलग बातें हैं। असल में, जो खोजना नहीं चाहता वही मांगता है। खोजना और मांगना एक तो हैं ही नहीं, विपरीत बातें हैं। खोजने से जो बचना चाहता है वह मांगता है, खोजी कभी नहीं मांगता। और खोज और मांगने की प्रक्रिया बिलकुल अलग है। मांगने में दूसरे पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिससे मिलेगा। और खोजने में अपने पर ध्यान रखना पड़ेगा—जिसको मिलेगा।

यह तो ठीक है कि साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं। लेकिन साधक के मार्ग पर बाधाएं हैं, अगर हम ठीक से समझें तो इसका मतलब होता है कि साधक के भीतर बाधाएं हैं; मार्ग भी भीतर है। और अपनी बाधाओं को समझ लेना बहुत कठिन नहीं है। तो इस संबंध में थोड़ी सी विस्तीर्ण बात करनी पड़ेगी कि बाधाएं क्या हैं और साधक उन्हें कैसे दूर कर सकेगा।

जैसे मैंने कल सात शरीरों की बात कही, उस संबंध में कुछ और बात समझेंगे तो यह भी समझ में आ सकेगा।

मूलाधार चक्र की संभावनाएं:

जैसे सात शरीर हैं, ऐसे ही सात चक्र भी हैं। और प्रत्येक एक चक्र मनुष्य के एक शरीर से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। जैसे सात शरीर में जो हमने कहे— भौतिक शरीर, फिजिकल बॉडी, इस शरीर का जो चक्र है, वह मूलाधार है; वह पहला चक्र है। इस मूलाधार चक्र का भौतिक शरीर से केंद्रीय संबंध है; यह भौतिक शरीर का केंद्र है। इस मूलाधार चक्र की दो संभावनाएं हैं एक इसकी प्राकृतिक संभावना है, जो हमें जन्म से मिलती है; और एक साधना की संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होती है।

मूलाधार चक्र की प्राथमिक प्राकृतिक संभावना कामवासना है, जो हमें प्रकृति से मिलती है; वह भौतिक शरीर की केंद्रीय वासना है। अब साधक के सामने पहला ही सवाल यह उठेगा कि यह जो केंद्रीय तत्व है उसके भौतिक शरीर का, इसके लिए क्या करे? और इस चक्र की एक दूसरी संभावना है, जो साधना से उपलब्ध होगी, वह ब्रह्मचर्य है। सेक्स इसकी प्राकृतिक संभावना है और ब्रह्मचर्य इसका ट्रांसफामेंशन है, इसका रूपांतरण है। जितनी मात्रा में चित्त कामवासना से केंद्रित और ग्रसित होगा, उतना ही मूलाधार अपनी अंतिम संभावनाओं को उपलब्ध नहीं कर सकेगा। उसकी अंतिम संभावना ब्रह्मचर्य है। उस चक्र की दो संभावनाएं हैं एक जो हमें प्रकृति से मिली, और एक जो हमें साधना से मिलेगी।

न भोग, न दमन—वरन जागरण:

अब इसका मतलब यह हुआ कि जो हमें प्रकृति से मिली है उसके साथ हम दो काम कर सकते हैं या तो जो प्रकृति से मिला है हम उसमें जीते रहें, तब जीवन में साधना शुरू नहीं हो पाएगी; दूसरा काम जो संभव है वह यह कि हम इसे रूपांतरित करें। रूपांतरण के पथ पर जो बड़ा खतरा है, वह खतरा यही है कि कहीं हम प्राकृतिक केंद्र से लड़ने न लगें। साधक के मार्ग में खतरा क्या है? या तो जो प्राकृतिक व्यवस्था है वह उसको भागे, तब वह उठ नहीं पाता उस तक जो चरम संभावना है—जहां तक उठा जा सकता था; भौतिक शरीर जहां तक उसे पहुंचा सकता था वहां तक वह नहीं पहुंच पाता; जहां से शुरू होता है वहीं अटक जाता है। तो एक तो भोग है। दूसरा दमन है, कि उससे लड़े। दमन बाधा है साधक के मार्ग पर— पहले केंद्र की जो बाधा है। क्योंकि दमन के द्वारा कभी ट्रांसफामेंशन, रूपांतरण नहीं होता।

दमन बाधा है तो फिर साधक क्या बनेगा? साधन क्या होगा?

समझ साधन बनेगी, अंडरस्टैंडिंग साधन बनेगी। कामवासना को जो जितना समझ पाएगा उतना ही उसके भीतर रूपांतरण होने लगेगा। उसका कारण है. प्रकृति के सभी तत्व हमारे भीतर अंधे और मूर्च्छित हैं। अगर हम उन तत्वों के प्रति होशपूर्ण हो जाएं तो उनमें रूपांतरण होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हमारे भीतर कोई चीज जागनी शुरू होती है वैसे ही प्रकृति के तत्व बदलने शुरू हो जाते हैं। जागरण कीमिया है, अवेयरनेस केमिस्ट्री है उनके बदलने की, रूपांतरण की।

तो अगर कोई अपनी कामवासना के प्रति पूरे भाव और पूरे चित्त, पूरी समझ से जागे, तो उसके भीतर कामवासना की जगह ब्रह्मचर्य का जन्म शुरू हो जाएगा। और जब तक कोई पहले शरीर पर ब्रह्मचर्य पर न पहुंच जाए तब तक दूसरे शरीर की संभावनाओं के साथ काम करना बहुत कठिन है।

स्वाधिष्ठान चक्र की संभावनाएं:

दूसरा शरीर मैंने कहा था भाव शरीर या आकाश शरीर— ईथरिक बॉडी। दूसरा शरीर हमारे दूसरे चक्र से संबंधित है, स्वाधिष्ठान चक्र से। स्वाधिष्ठान चक्र की भी दो संभावनाएं हैं। मूलत: प्रकृति से जो संभावना मिलती है, वह है भय, घृणा, क्रोध, हिंसा। ये सब स्वाधिष्ठान चक्र की प्रकृति से मिली हुई स्थिति है। अगर इन पर ही कोई अटक जाता है, तो इसकी जो दूसरी, इससे बिलकुल प्रतिकूल ट्रांसफामेंशन की स्थिति है—प्रेम, करुणा, अभय, मैत्री, वह संभव नहीं हो पाता।

साधक के मार्ग पर, दूसरे चक्र पर जो बाधा है, वह घृणा, क्रोध, हिंसा, इनके रूपांतरण का सवाल है। यहां भी वही भूल होगी जो सब तत्वों पर होगी। कोई चाहे तो क्रोध कर सकता है और कोई चाहे तो क्रोध को दबा सकता है। हम दो ही काम करते हैं कोई भयभीत हो सकता है और कोई भय को दबाकर व्यर्थ ही बहादुरी दिखा सकता है। दोनों ही बातों से रूपांतरण नहीं होगा। भय है, इसे स्वीकार करना पड़ेगा; इसे दबाने, छिपाने से कोई प्रयोजन नहीं है। हिंसा है, इसे अहिंसा के बाने पहना लेने से कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है; अहिंसा परम धर्म है, ऐसा चिल्लाने से इसमें कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है। हिंसा है, वह हमारे दूसरे शरीर की प्रकृति से मिली हुई संभावना है। उसका भी उपयोग है, जैसे कि सेक्स का उपयोग है। वह प्रकृति से मिली हुई संभावना है, क्योंकि सेक्स के द्वारा ही दूसरे भौतिक शरीर को जन्म दिया जा सकेगा। यह भौतिक शरीर मिटे, इसके पहले दूसरे भौतिक शरीरों को जन्म मिल सके, इसलिए वह प्रकृति से दी हुई संभावना है। भय, हिंसा, क्रोध, ये सब भी दूसरे तल पर अनिवार्य हैं, अन्यथा मनुष्य बच नहीं सकता, सुरक्षित नहीं रह सकता। भय उसे बचाता है; क्रोध उसे संघर्ष में उतारता है; हिंसा उसे साधन देती है दूसरे की हिंसा से बचने का। वे उसके दूसरे शरीर की संभावनाएं हैं।

लेकिन साधारणत: हम वहीं रुक जाते हैं। इन्हें अगर समझा जा सके— अगर कोई भय को समझे, तो अभय को उपलब्ध हो जाता है, और अगर कोई हिंसा को समझे, तो अहिंसा को उपलब्ध हो जाता है, और अगर कोई क्रोध को समझे, तो क्षमा को उपलब्ध हो जाता है। असल में, क्रोध एक पहलू है और दूसरा पहलू क्षमा है, वह उसी के पीछे छिपा हुआ पहलू है, वह सिक्के का दूसरा हिस्सा है। लेकिन सिक्का उलटे तब। लेकिन सिक्का उलट जाता है। अगर हम सिक्के के एक पहलू को पूरा समझ लें, तो अपने आप हमारी जिज्ञासा उलटाकर देखने की हो जाती है दूसरी तरफ।

लेकिन हम उसे छिपा लें और कहें, हमारे पास है ही नहीं! भय तो हममें है ही नहीं! तो हम अभय को कभी भी न देख पाएंगे। जिसने भय को स्वीकार कर लिया और कहा, भय है; और जिसने भय को पूरा जांचा—पड़ताला, खोजा, वह जल्दी ही उस जगह पहुंच जाएगा जहां वह जानना चाहेगा भय के पीछे क्या है? जिज्ञासा उसे उलटाने को कहेगी कि सिक्के को उलटाकर भी देख लो। और जिस दिन वह उलटाएगा उस दिन वह अभय को उपलब्ध हो जाएगा। ऐसे ही हिंसा करुणा में बदल जाएगी। वे दूसरे शरीर की साधक के लिए संभावनाएं हैं।

इसलिए साधक को जो मिला है प्रकृति से, उसको रूपांतरण करना है। और इसके लिए किसी से बहुत पूछने जाने की जरूरत नहीं है, अपने ही भीतर निरंतर खोजने और पूछने की जरूरत है। हम सब जानते हैं कि क्रोध बाधा है, हम सब जानते हैं, भय बाधा है। क्योंकि जो भयभीत है वह सत्य को खोजने कैसे जाएगा? भयभीत मांगने चला जाएगा। वह चाहेगा कि बिना किसी अतात, अनजान रास्ते पर जाए, कोई दे दे तो अच्छा।

मणिपुर चक्र की संभावनाएं:

तीसरा शरीर मैंने कहा, एस्ट्रल बॉडी है, सूक्ष्म शरीर है। उस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्से हैं। प्राथमिक रूप से सूक्ष्म शरीर संदेह, विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर ये रूपांतरित हो जाएं—संदेह अगर रूपांतरित हो तो श्रद्धा बन जाता है; और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।

संदेह को किसी ने दबाया तो वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा। हालांकि सभी तरफ ऐसा समझाया जाता है कि संदेह को दबा डालो, विश्वास कर लो। जिसने संदेह को दबाया और विश्वास किया, वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होगा; उसके भीतर संदेह मौजूद ही रहेगा— दबा हुआ; भीतर कीड़े की तरह सरकता रहेगा और काम करता रहेगा। उसका विश्वास संदेह के भय से ही थोपा हुआ होगा।

न, संदेह को समझना पड़ेगा, संदेह को जीना पड़ेगा, संदेह के साथ चलना पड़ेगा। और संदेह एक दिन उस जगह पहुंचा देता है, जहां संदेह पर भी संदेह हो जाता है। और जिस दिन संदेह पर संदेह होता है उसी दिन श्रद्धा की शुरुआत हो जाती है। विचार को छोड्कर भी कोई विवेक को उपलब्ध नहीं हो सकता। विचार को छोड़नेवाले लोग हैं, छुड़ानेवाले लोग हैं; वे कहते हैं—विचार मत करो, विचार छोड़ ही दो। अगर कोई विचार छोड़ेगा, तो विश्वास और अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। वह विवेक नहीं है। विचार की सूक्ष्मतम प्रक्रिया से गुजरकर ही कोई विवेक को उपलब्ध होता है।

विवेक का क्या मतलब है?

विचार में सदा ही संदेह मौजूद है। विचार सदा इनडिसीसिव है। इसलिए बहुत विचार करनेवाले लोग कभी कुछ तय नहीं कर पाते। और जब भी कोई कुछ तय करता है, वह तभी तय कर पाता है जब विचार के चक्कर के बाहर होता है। डिसीजन जो है वह हमेशा विचार के बाहर से आता है। अगर कोई विचार में पड़ा रहे तो वह कभी निश्चय नहीं कर पाता। विचार के साथ निश्चय का कोई संबंध नहीं है।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि विचारहीन बड़े निश्चयात्मक होते हैं, और विचारवान बड़े निश्चयहीन होते हैं। दोनों से खतरा होता है। क्योंकि विचारहीन बहुत डिसीसिव होते हैं। वे जो करते हैं, पूरी ताकत से करते हैं। क्योंकि उनमें विचार होता ही नहीं जो जरा भी संदेह पैदा कर दे। दुनिया भर के डाग्मेटिक, अंधे जितने लोग हैं, फेनेटिक जितने लोग हैं, ये बड़े कर्मठ होते हैं; क्योंकि इनमें शक का तो सवाल ही नहीं है, ये कभी विचार तो करते नहीं। अगर इनको ऐसा लगता है कि एक हजार आदमी मारने से स्वर्ग मिलेगा, तो एक हजार एक मारकर ही फिर रुकते हैं, उसके पहले वे नहीं रुकते। एक दफा उनको खयाल नहीं आता कि यह ऐसा— ऐसा होगा? उनमें कोई इनडिसीजन नहीं है। विचारवान तो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है।

तो विचार के भय से अगर कोई विचार का द्वार ही बंद कर दे, तो सिर्फ अंधे विश्वास को उपलब्ध होगा। अंधा विश्वास खतरनाक है और साधक के मार्ग में बड़ी बाधा है। चाहिए आंखवाला विवेक, चाहिए ऐसा विचार जिसमें डिसीजन हो। विवेक का मतलब इतना ही होता है। विवेक का मतलब है कि विचार पूरा है, लेकिन विचार से हम इतने गुजरे हैं कि अब विचार की जो भी संदेह की, शक की बातें थीं, वे विदा हो गई हैं; अब धीरे— धीरे निष्कर्ष में शुद्ध निश्चय साथ रह गया है।

तो तीसरे शरीर का केंद्र है मणिपुर, चक्र है मणिपुर। उस मणिपुर चक्र के ये दो रूप हैं. संदेह और श्रद्धा। संदेह रूपांतरित होगा तो श्रद्धा बनेगी।

लेकिन ध्यान रखें श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं है, शत्रु नहीं है, श्रद्धा संदेह का ही शुद्धतम विकास है, चरम विकास है; वह आखिरी छोर है जहां संदेह का सब खो जाता है, क्योंकि संदेह स्वयं पर संदेह बन जाता है और स्युसाइडल हो जाता है, आत्मघात कर लेता है और श्रद्धा उपलब्ध होती है।

अनाहत चक्र की संभावनाएं:

चौथा शरीर है हमारा, मेंटल बॉडी, मनस शरीर, साइक। इस चौथे शरीर के साथ हमारे चौथे चक्र का संबंध है, अनाहत का। चौथा जो शरीर है, मनस, इस शरीर का जो प्राकृतिक रूप है, वह है कल्पना—इमेजिनेशन, स्वप्न— और ड्रीमिंग। हमारा मन स्वभावत: यह काम करता रहता हैं—कल्पना करता है और सपने देखता है। रात में भी सपने देखता है, दिन में भी सपने देखता है और कल्पना करता रहता है।

इसका जो चरम विकसित रूप है, अगर कल्पना पूरी तरह से, चरम रूप से विकसित हो, तो संकल्प बन जाती है, विल बन जाती है; और अगर ड्रीमिंग पूरी तरह से विकसित हो, तो विजन बन जाती है, तब वह साइकिक विजन हो जाती है।

अगर किसी व्यक्ति की स्वप्न देखने की क्षमता पूरी तरह से विकसित होकर रूपांतरित हो, तो वह आंख बंद करके भी चीजों को देखना शुरू कर देता है। सपना नहीं देखता तब वह, तब वह चीजों को ही देखना शुरू कर देता है। वह दीवाल के पार भी देख लेता है। अभी तो दीवाल के पार का सपना ही देख सकता है, लेकिन तब दीवाल के पार भी देख सकता है। अभी तो आप क्या सोच रहे होंगे, यह सोच सकता है; लेकिन तब आप क्या सोच रहे हैं, यह देख सकता है। विजन का मतलब यह है कि इंद्रियों के बिना अब उसे चीजें दिखाई पड़नी और सुनाई पड़नी शुरू हो जाती हैं। टाइम और स्पेस के, काल और स्थान के जो फासले हैं, उसके लिए मिट जाते हैं।

सपने में भी आप जाते हैं। सपने में आप बंबई में हैं, कलकत्ता जा सकते हैं। और विजन में भी जा सकते हैं। लेकिन दोनों में फर्क होगा। सपने में सिर्फ खयाल है कि आप कलकत्ता गए, विजन में आप चले ही जाएंगे। वह जो चौथी साइकिक बॉडी है, वह मौजूद हो सकती है।

इसलिए पुराने जगत में जो सपनों के संबंध में खयाल था—वह धीरे— धीरे छूट गया और नये समझदार लोगों ने उसे इनकार कर दिया; क्योंकि हमें चौथे शरीर की चरम संभावना का कोई पता नहीं रहा—सपने के संबंध में पुराना अनुभव यही था कि सपने में आदमी का कोई शरीर निकलकर बाहर चला जाता है यात्रा पर।

स्वीडनबर्ग एक आदमी था। उसे लोग सपना देखनेवाला आदमी ही समझते थे। क्योंकि वह स्वर्ग—नरक की बातें भी कहता था, और स्वर्ग—नरक की बातें सपना ही हो सकती हैं! लेकिन एक दिन दोपहर वह सोया था, और उसने दोपहर एकदम उठकर कहा कि बचाओ, आग लग गई है! बचाओ, आग लग गई है! घर के लोग आ गए, वहां कोई आग नहीं लगी थी। तो उसको उन्होंने जगाया और कहा कि तुम नींद में हो या सपना देख रहे हो? आग कहीं भी नहीं लगी है! उसने कहा, नहीं, मेरे घर में आग लग गई है। तीन सौ मील दूर था उसका घर, लेकिन उसके घर में उस वक्त आग लग गई थी। दूसरे—तीसरे दिन तक खबर आई कि उसका घर जलकर बिलकुल राख हो गया। और जब वह सपने में चिल्लाया था तभी आग लगी थी।

अब यह सपना न रहा, यह विजन हो गया। अब तीन सौ मील का जो फासला था वह गिर गया और इस आदमी ने तीन सौ मील दूर जो हो रहा था वह देखा।

विज्ञान के समक्ष अतींद्रिय घटनाएं:

अब तो वैज्ञानिक भी इस बात के लिए राजी हो गए हैं कि चौथे शरीर की बड़ी साइकिक संभावनाएं हैं। और चूंकि स्पेस ट्रेवेल की वजह से उन्हें बहुत समझकर काम करना पड़ रहा है; क्योंकि आज नहीं कल यह कठिनाई खड़ी हो जाने ही वाली है कि जिन यात्रियों को हम अंतरिक्ष की यात्रा पर भेजेंगे— मशीन कितने ही भरोसे की हो, फिर भी भरोसे की नहीं है— अगर उनके यंत्र जरा भी बिगड़ गए, उनके रेडियो यंत्र, तो हमसे उनका संबंध सदा के लिए टूट जाएगा; फिर वे हमें खबर भी न दे पाएंगे कि वे कहां गए और उनका क्या हुआ। इसलिए वैज्ञानिक इस समय बहुत उत्सुक हैं कि यह साइकिक, चौथे शरीर का अगर विजन का मामला संभव हो सके और टेलीपैथी का मामला संभव हो सके— वह भी चौथे शरीर की आखिरी संभावनाओं का एक हिस्सा है—कि अगर वे यात्री बिना रेडियो यंत्रों के हमें सीधी टेलिपैथक खबर दे सकें, तो कुछ बचाव हो सकता है।

इस पर काफी काम हुआ है। आज से कोई तीस साल पहले एक यात्री उत्तर ध्रुव की खोज पर गया था। तो रेडियो यंत्रों की व्यवस्था थी जिनसे वह खबर देता, लेकिन एक और व्यवस्था थी जो अभी— अभी प्रकट हुई है। और वह व्यवस्था यह थी कि एक साइकिक आदमी को, एक ऐसे आदमी को जिसके चौथे शरीर की दूसरी संभावनाएं काम करती थीं, उसको भी नियत किया गया था कि वह उसको भी खबरें दे।

और बड़े मजे की बात यह है कि जिस दिन पानी, हवा, मौसम खराब होता और रेडियो में खबरें न मिलती, उस दिन भी उसे तो खबरें मिलती। और जब पीछे सब डायरी मिलाई गईं, तो कम से कम अस्सी से पंचानबे प्रतिशत के बीच उसने जो साइकिक आदमी ने जो माध्यम की तरह ग्रहण की थीं, वे सही थीं। और मजा यह है कि रेडियो ने जो खबर की थीं, वह भी बहत्तर प्रतिशत से ज्यादा ऊपर नहीं गई थीं, क्योंकि इस बीच कभी कुछ गड़बड़ हुई, कभी कुछ हुई, तो बहुत सी चीजें छूट गई थीं।

और अभी तो रूस और अमेरिका दोनों अति उत्सुक हैं उस संबंध में। इसलिए टेलीपैथी और क्लेअरवायंस और थॉट रीडिंग और थॉट प्रोजेक्शन , इन पर बहुत काम चलता है। वे हमारे चौथे शरीर की संभावनाएं हैं। स्वप्न देखना उसकी प्राकृतिक संभावना है; सत्य देखना, यथार्थ देखना उसकी चरम संभावना है। यह अनाहत हमारा चौथा चक्र है।

विशुद्ध चक्र की संभावनाएं:

पांचवां चक्र है विशुद्ध; वह कंठ के पास है। और पांचवां शरीर है स्‍प्रिचुयूल बॉडी, आत्म शरीर। वह उसका चक्र है, वह उस शरीर से संबंधित है। अब तक जो चार शरीर की मैंने बात की और चार चक्रों की, वे द्वैत में बंटे हुए थे। पांचवें शरीर से द्वैत समाप्त हो जाता है। जैसा मैंने कल कहा था कि चार शरीर तक मेल और फीमेल का फर्क होता है बॉडी में; पांचवें शरीर से मेल और फीमेल का, स्त्री और पुरुष का फर्क समाप्त हो जाता है। अगर बहुत गौर से देखें तो सब द्वैत स्त्री और पुरुष का है; द्वैत मात्र, डुआलिटी मात्र स्त्री—पुरुष की है। और जिस जगह से स्त्री—पुरुष का फासला खत्म होता है, उसी जगह से सब द्वैत खत्म हो जाता है। पांचवां शरीर अद्वैत है। उसकी दो संभावनाएं नहीं हैं, उसकी एक ही संभावना है।

इसलिए चौथे के बाद साधक के लिए बड़ा काम नहीं है, सारा काम चौथे तक है। चौथे के बाद बड़ा काम नहीं है। बड़ा इस अर्थों में कि विपरीत कुछ भी नहीं है वहां। वहां प्रवेश ही करना है। और चौथे तक पहुंचते—पहुंचते इतनी सामर्थ्य इकट्ठी हो जाती है कि पांचवें में सहज प्रवेश हो जाता है।

लेकिन प्रवेश न हो और हो, तो क्या फर्क होगा? पांचवें शरीर में कोई द्वैत नहीं है। लेकिन कोई साधक जो…… .एक व्यक्ति अभी प्रवेश नहीं किया है, उसमें क्या फर्क है? और जो प्रवेश कर गया है, उसमें क्या फर्क है?

इनमें फर्क होगा। वह फर्क इतना होगा कि जो पांचवें शरीर में प्रवेश करेगा उसकी समस्त तरह की मूर्च्छा टूट जाएगी; वह रात भी नहीं सो सकेगा। सोएगा, शरीर ही सोया रहेगा; भीतर उसके कोई सतत जागता रहेगा। अगर उसने करवट भी बदली है तो वह जानता है, नहीं बदली है तो जानता है, अगर उसने कंबल ओढ़ा है तो जानता है, नहीं ओढ़ा है तो जानता है। उसका जानना निद्रा में भी शिथिल नहीं होगा; वह चौबीस घंटे जागरूक होगा।

जिनका नहीं पांचवें शरीर में प्रवेश हुआ, उनकी स्थिति बिलकुल उलटी होगी. वे नींद में तो सोए हुए होंगे ही, जिसको हम जागना कहते हैं, उसमें भी एक पर्त उनकी सोई ही रहेगी।

आदमी की मूर्च्छा और यांत्रिकता:

काम करते हुए दिखाई पड़ते हैं लोग। आप अपने घर आते हैं, कार का घूमना बाएं और आपके घर के सामने आकर ब्रेक का लग जाना, तो आप यह मत समझ लेना कि आप सब होश में कर रहे हैं! यह सब बिलकुल आदतन, बेहोशी में होता रहता है। कभी—कभी किन्हीं क्षणों में हम होश में आते हैं, बहुत खतरे के क्षणों में! जब खतरा इतना होता है कि नींद से नहीं चल सकता—कि एक आदमी आपकी छाती पर छुरा रख दे—तब आप एक सेकेंड को होश में आते हैं। एक सेकेंड को वह छुरे की धार आपको पांचवें शरीर तक पहुंचा देती है। लेकिन बस, ऐसे दो—चार क्षण जिंदगी में होते हैं, अन्यथा साधारणत: हम सोए—सोए ही जीते हैं।

न तो पति अपनी पत्नी का चेहरा देखा है ठीक से, कि अगर अभी आंख बंद करके सोचे तो खयाल कर पाए। नहीं कर पाएगा। रेखाएं थोड़ी देर में ही इधर—उधर हट जाएंगी और पक्का नहीं हो पाएगा कि यह मेरी पत्नी का चेहरा है जिसको तीस साल से मैं देखा हूं। देखा ही नहीं है कभी। क्योंकि देखने के लिए भीतर कोई जागा हुआ आदमी चाहिए।

सोया हुआ आदमी, दिखाई पड रहा है कि देख रहा है, लेकिन वह देख नहीं रहा है। उसके भीतर तो नींद चल रही है, और सपने भी चल रहे हैं। उस नींद में सब चल रहा है। आप क्रोध करते हैं और पीछे कहते हैं कि पता नहीं कैसे हो गया! मैं तो नहीं करना चाहता था। जैसे कि कोई और कर गया हो। आप कहते हैं, यह मुंह से मेरे गाली निकल गई, माफ करना, मैं तो नहीं देना चाहता था, कोई जबान खिसक गई होगी। आपने ही गाली दी, आप ही कहते हैं कि मैं नहीं देना चाहता था। हत्यारे हैं, जो कहते हैं कि पता नहीं, इंसपाइट ऑफ अस, हमारे बावजूद हत्या हो गई; हम तो करना ही नहीं चाहते थे, बस ऐसा हो गया।

तो हम कोई आटोमेटा हैं? यंत्रवत चल रहे हैं? जो नहीं बोलना है वह बोलते हैं, जो नहीं करना है वह करते हैं। सांझ को तय करते हैं : सुबह चार बजे उठेंगे! कसम खा लेते हैं। सुबह चार बजे हम खुद ही कहते हैं कि क्या रखा है! अभी सोओ, कल देखेंगे। सुबह छह बजे उठकर फिर पछताते हैं और हम ही कहते हैं कि बड़ी गलती हो गई। ऐसा कभी नहीं करेंगे, अब कल तो उठना ही है, जो कसम खाई थी उसको निभाना था।

आश्चर्य की बात है, शाम को जिस आदमी ने तय किया था, सुबह चार बजे वही आदमी बदल कैसे गया? फिर सुबह चार बजे तय किया था तो फिर छह बजे कैसे बदल गया? फिर सुबह छह बजे जो तय किया है, फिर सांझ तक बदल जाता है। सांझ बहुत दूर है, उस बीच पच्चीस दफे बदल जाता है।

न, ये निर्णय, ये खयाल, हमारी नींद में आए हुए खयाल हैं, सपनों की तरह। बहुत बबूलों की तरह बनते हैं और टूट जाते हैं। कोई जागा हुआ आदमी पीछे नहीं है, कोई होश से भरा हुआ आदमी पीछे नहीं है।

तो नींद आत्मिक शरीर में प्रवेश के पहले की सहज अवस्था है—नींद, सोया हुआ होना। और आत्म शरीर में प्रवेश के बाद की सहज अवस्था है जागृति। इसलिए चौथे शरीर के बाद हम व्यक्ति को बुद्ध कह सकते हैं। चौथे शरीर के बाद जागना आ गया। अब आदमी जागा हुआ है। बुद्ध, गौतम सिद्धार्थ का नाम नहीं है, पांचवें शरीर की उपलब्धि के बाद दिया गया विशेषण है—गौतम दि बुद्धा! गौतम जो जाग गया, यह मतलब है उसका। नाम तो गौतम ही है, लेकिन वह गौतम सोए हुए आदमी का नाम था। इसलिए फिर धीरे— धीरे उसको गिरा दिया और बुद्ध ही रह गया।

सोए हुए आदमियों की दुनिया:

यह हमारे पांचवें शरीर का फर्क, उसमें प्रवेश के पहले आदमी सोया—सोया है, वह स्लीपी है। वह जो भी कर रहा है, वे नींद में किए गए कृत्य हैं। उसकी बातों का कोई भरोसा नहीं, वह जो कह रहा है, वह विश्वास के योग्य नहीं, उसकी प्रामिस का कोई मूल्य नहीं, उसके दिए गए वचन को मानने का कोई अर्थ नहीं। वह कहता है कि मैं जीवन भर प्रेम करूंगा! और अभी दो क्षण बाद हो सकता है कि वह गला घोंट दे। वह कहता है, यह संबंध जन्मों—जन्मों तक रहेगा! यह दो क्षण न टिके। उसका कोई कसूर भी नहीं है, नींद में दिए गए वचन का क्या मूल्य है? रात सपने में मैं किसी को वचन दे दूं कि जीवन भर यह संबंध रहेगा, इसका क्या मूल्य है? सुबह मैं कहता हूं सपना था।

सोए हुए आदमी का कोई भी भरोसा नहीं है। और हमारी पूरी दुनिया सोए हुए आदमियों की दुनिया है। इसलिए इतना कनक्यूजन, इतनी कांफ्लिक्ट, इतना द्वंद्व, इतना झगड़ा, इतना उपद्रव, ये सोए हुए आदमी पैदा कर रहे हैं।

सोए हुए आदमी और जागे हुए आदमी में एक और फर्क पड़ेगा, वह भी हमें खयाल में ले लेना चाहिए। चूकि सोए हुए आदमी को यह कभी पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं इसलिए वह पूरे वक्त इस कोशिश में लगा रहता है कि मैं किसी को बता दूं कि मैं यह हूं! पूरे वक्त लगा रहता है। उसे खुद ही पता नहीं कि मैं कौन हूं इसलिए पूरे वक्त वह हजार—हजार रास्तों से…… कभी राजनीति के किसी पद पर सवार होकर लोगों को दिखाता है कि मैं यह हूं कभी एक बड़ा मकान बनाकर दिखाता है कि मैं यह हूं कभी पहाड़ पर चढ़कर दिखाता है कि मैं यह हूं वह सब तरफ से कोशिश कर रहा है कि लोगों को बता दे कि मैं यह हूं। और इस सब कोशिश से वह घूमकर अपने को जानने की कोशिश कर रहा है कि मैं हूं कौन? मैं हूं कौन, यह उसे पता नहीं है।

‘मैं कौन हूं’ का उत्तर:

चौथे शरीर के पहले इसका कोई पता नहीं चलेगा। पांचवें शरीर को आत्म शरीर इसीलिए कह रहे हैं कि वहां तुम्हें पता चलेगा कि तुम कौन हो। इसलिए पांचवें शरीर के बाद ‘मैं’ की आवाजें एकदम बंद हो जाएंगी। पांचवें शरीर के बाद वह समबडी होने का दावा एकदम समाप्त हो जाएगा। उसके बाद अगर तुम उससे कहोगे कि तुम यह हो, तो वह हंसेगा। और अपनी तरफ से उसके दावे खत्म हो जाएंगे; क्योंकि अब वह जानता है, अब दावे करने की कोई जरूरत नहीं। अब किसी के सामने सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं; अपने ही सामने सिद्ध हो गया है कि मैं कौन हूं।

इसलिए पांचवें शरीर के भीतर कोई द्वंद्व नहीं है; लेकिन पांचवें शरीर के बाहर और भीतर गए आदमी में बुनियादी फर्क है; द्वंद्व अगर है तो इस भांति है—बाहर और भीतर में। भीतर, पांचवें शरीर में गए आदमी में कोई द्वंद्व नहीं है।

पांचवां शरीर बहुत ही तृप्तिदायी:

लेकिन पांचवें शरीर का अपना खतरा है कि चाहो तो तुम वहां रुक सकते हो; क्योंकि तुमने अपने को जान लिया। और यह इतनी तृप्तिदायी स्थिति है और इतनी आनंदपूर्ण, कि शायद तुम आगे की गति न करो। अब तक जो खतरे थे वे दुख के थे, अब जो खतरा शुरू होता है वह आनंद का है। पांचवें शरीर के पहले जितने खतरे थे वे सब दुख के थे, अब जो खतरा शुरू होता है वह आनंद का है। यह इतना आनंदपूर्ण है कि अब शायद तुम आगे खोजो ही न।

इसलिए पांचवें शरीर में गए व्यक्ति के लिए अत्यंत सजगता जो रखनी है वह यह कि आनंद कहीं पकड़ न ले, रोकनेवाला न बन जाए। और आनंद परम है। यहां आनंद अपनी पूरी ऊंचाई पर प्रकट होगा; अपनी पूरी गहराई में प्रकट होगा। एक बड़ी क्रांति घटित हो गई है तुम अपने को जान लिए हो। लेकिन अपने को ही जाने हो। और तुम ही नहीं हो, और भी सब हैं। लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि दुख रोकनेवाले सिद्ध नहीं होते, सुख रोकनेवाले सिद्ध हो जाते हैं; और आनंद तो बहुत रोकनेवाला सिद्ध हो जाता है। बाजार की भीड़— भाड़ तक को छोड़ने में कठिनाई थी, अब इस मंदिर में बजती वीणा को छोड़ने में तो बहुत कठिनाई हो जाएगी। इसलिए बहुत से साधक आत्मज्ञान पर रुक जाते हैं और ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध नहीं हो पाते।

आनंद में लीन मत हो जाना:

तो इस आनंद के प्रति भी सजग होना पडेगा। यहां भी काम वही है कि आनंद में लीन मत हो जाना। आनंद लीन करता है, तल्लीन करता है, डुबा लेता है। आनंद में लीन मत हो जाना। आनंद के अनुभव को भी जानना कि वह भी एक अनुभव है—जैसे सुख के अनुभव थे, दुख के अनुभव थे, वैसा आनंद का भी अनुभव है। लेकिन तुम अभी भी बाहर खड़े रहना, तुम इसके भी साक्षी बन जाना। क्योंकि जब तक अनुभव है, तब तक उपाधि है; और जब तक अनुभव है, तब तक अंतिम छोर नहीं आया। अंतिम छोर पर सब अनुभव समाप्त हो जाएंगे। सुख और दुख तो समाप्त होते ही हैं, आनंद भी समाप्त हो जाता है। लेकिन हमारी भाषा इसके आगे फिर नहीं जा पाती। इसलिए हमने परमात्मा का रूप सच्चिदानंद कहा है। यह परमात्मा का रूप नहीं है, यह जहां तक भाषा जाती है वहां तक। आनंद हमारी आखिरी भाषा है।

असल में, पांचवें शरीर के आगे फिर भाषा नहीं जाती। तो पांचवें शरीर के संबंध में कुछ कहा जा सकता है— आनंद है वहां, पूर्ण जागृति है वहां, स्वबोध है वहां; यह सब कहा जा सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

आत्मवाद के बाद रहस्यवाद:

इसलिए जो आत्मवाद पर रुक जाते हैं उनकी बातों में मिस्टिसिज्म नहीं होगा। इसलिए आत्मवाद पर रुक गए लोगों में कोई रहस्य नहीं होगा; उनकी बातें बिलकुल साइंस जैसी मालूम पड़ेगी; क्योंकि मिस्ट्री की दुनिया तो इसके आगे है, रहस्य तो इसके आगे है। यहां तक तो चीजें साफ हो सकती हैं। और मेरी समझ है कि जो लोग आत्मवाद पर रुक जाते हैं, आज नहीं कल, उनके धर्म को विज्ञान आत्मसात कर लेगा; क्योंकि आत्म तक विज्ञान भी पहुंच सकेगा।

सत्य का खोजी आत्मा पर नहीं रूकेगा:

और आमतौर से साधक जब खोज पर निकलता है तो उसकी खोज सत्य की नहीं होती, आमतौर से आनंद की होती है। वह कहता है सत्य की खोज पर निकला हूं लेकिन खोज उसकी आनंद की होती है। दुख से परेशान है, अशांति से परेशान है, वह आनंद खोज रहा है। इसलिए जो आनंद खोजने निकला है, वह तो निश्चित ही इस पांचवें शरीर पर रुक जाएगा। इसलिए एक बात और कहता हूं कि खोज आनंद की नहीं, सत्य की करना। तब फिर रुकना नहीं होगा।

तब एक सवाल नया उठेगा कि आनंद है, यह ठीक, मैं अपने को जान रहा हूं यह भी ठीक; लेकिन ये वृक्ष के फूल हैं, वृक्ष के पत्ते हैं, जड़ें कहां हैं? मैं अपने को जान रहा हूं यह भी ठीक; मैं आनंदित हूं यह भी ठीक, लेकिन मैं कहां से हूं? फ्रॉम व्हेयर? मेरी जड़ें कहां हैं? मैं आया कहां से? मेरे अस्तित्व की गहराई कहां है? कहां से मैं आ रहा हूं। यह जो मेरी लहर है, यह किस सागर से उठी है?

सत्य की अगर जिज्ञासा है, तो पांचवें शरीर से आगे जा सकोगे। इसलिए बहुत प्राथमिक रूप से ही, प्रारंभ से ही जिज्ञासा सत्य की चाहिए, आनंद की नहीं। नहीं तो पांचवें तक तो बड़ी अच्छी यात्रा होगी, पांचवें पर एकदम रुक जाएगी बात। सत्य की अगर खोज है तो यहां रुकने का सवाल नहीं है।

तो पांचवें शरीर में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह उसका अपूर्व आनंद है। और हम एक ऐसी दुनिया से आते हैं, जहां दुख और पीड़ा और चिंता और तनाव के सिवाय कुछ भी नहीं जाना। और जब इस आनंद के मंदिर में प्रविष्ट होते हैं तो मन होता है कि अब बिलकुल डूब जाओ, अब खो ही जाओ, इस आनंद में नाचो और खो जाओ।

खो जाने की यह जगह नहीं है। खो जाने की जगह भी आएगी, लेकिन तब खोना न पड़ेगा, खो ही जाओगे। वह बहुत और है—खोना और खो ही जाना। यानी वह जगह आएगी जहां बचाना भी चाहोगे तो नहीं बच सकोगे। देखोगे खोते हुए अपने को, कोई उपाय न रह जाएगा। लेकिन यहां खोना हो सकता है, यहां भी खो सकते हैं हम। लेकिन वह उसमें भी हमारा प्रयास, हमारी चेष्टा… और बहुत गहरे में— अहंकार तो मिट जाएगा पांचवें शरीर में— अस्मिता नहीं मिटेगी। इसलिए अहंकार और अस्मिता का थोड़ा सा फर्क समझ लेना जरूरी है।

आत्म शरीर में अहंकार नहीं, अस्मिता रह जाएगी:

अहंकार तो मिट जाएगा, ‘ मैं ‘ का भाव तो मिट जाएगा। लेकिन ‘ हूं? का भाव नहीं मिटेगा। मैं हूं इसमें दो चीजें हैं— ‘ मैं’ तो अहंकार है, और ‘ हूं अस्मिता है—होने का बोध। ‘ मैं’ तो मिट जाएगा पांचवें शरीर में, सिर्फ होना रह जाएगा, ‘ हूं’ रह जाएगा; अस्मिता रह जाएगी।

इसलिए इस जगह पर खड़े होकर अगर कोई दुनिया के बाबत कुछ कहेगा तो वह कहेगा, अनंत आत्माएं हैं, सबकी आत्माएं अलग हैं; आत्मा एक नहीं है, प्रत्येक की आत्मा अलग है। इस जगह से आत्मवादी अनेक आत्माओं को अनुभव करेगा; क्योंकि अपने को वह अस्मिता में देख रहा है, अभी भी अलग है।

अगर सत्य की खोज मन में हो और आनंद में डूबने की बाधा से बचा जा सके.. .बचा जा सकता है; क्योंकि जब सतत आनंद रहता है तो उबानेवाला हो जाता है। आनंद भी उबानेवाला हो जाता है; एक ही स्वर बजता रहे आनंद का तो वह भी उबानेवाला हो जाता है।

बर्ट्रेड रसेल ने कहीं मजाक में यह कहा है कि मैं मोक्ष जाना पसंद नहीं करूंगा, क्योंकि मैं सुनता हूं कि वहां सिर्फ आनंद है, और कुछ भी नहीं। तो वह तो बहुत मोनोटोनस होगा, कि आनंद ही आनंद है, उसमें एक दुख की रेखा भी बीच में न होगी, उसमें कोई चिंता और तनाव न होगा। तो कितनी देर तक ऐसे आनंद को झेल पाएंगे?

आनंद की लीनता बाधा है पांचवें शरीर में। फिर, अगर आनंद की लीनता से बच सकते हो— जो कि कठिन है, और कई बार जन्म—जन्म लग जाते हैं। पहली चार सीढ़ियां पार करना इतना कठिन नहीं, पांचवीं सीढ़ी पार करना बहुत कठिन हो जाता है; बहुत जन्म लग सकते हैं— आनंद से ऊबने के लिए, और स्वयं से ऊबने के लिए, आत्म से ऊबने के लिए, वह जो सेल्फ है उससे ऊबने के लिए।

तो अभी पांचवें शरीर तक जो खोज है, वह दुख से छूटने की हैं—घृणा से छूटने की, हिंसा से छूटने की, वासना से छूटने की। पांचवें के बाद जो खोज है, वह स्वयं से छूटने की है। तो दो बातें हैं। फ्रीडम फ्रॉम समथिंग—किसी चीज से मुक्ति, यह एक बात है; यह पांचवें तक पूरी होगी। फिर दूसरी बात है—किसी से मुक्ति नहीं, अपने से ही मुक्ति। और इसलिए पांचवें शरीर से एक नया ही जगत शुरू होता है।

आज्ञा चक्र की संभावना:

छठवां शरीर ब्रह्म शरीर है, कास्मिक बॉडी है; और छठवां केंद्र आज्ञा है। अब यहां से कोई द्वैत नहीं है। आनंद का अनुभव पांचवें शरीर पर प्रगाढ़ होगा, अस्तित्व का अनुभव छठवें शरीर पर प्रगाढ़ होगा—एक्सिस्टेंस का, बीइंग का। अस्मिता खो जाएगी छठवें शरीर पर। ‘ हूं ‘, यह भी चला जाएगा— है! मैं हूं—तो ‘ मैं ‘ चला जाएगा पांचवें शरीर पर, ‘ हूं ‘ चला जाएगा पांचवें को पार करते ही। है! इज़नेस का बोध होगा, तथाता का बोध होगा— ऐसा है। उसमें मैं कहीं भी नहीं आऊंगा, उसमें अस्मिता कहीं नहीं आएगी। जो है, दैट व्हिच इज, बस वही हो जाएगा।

तो यहां सत् का बोध होगा, बीइंग का होगा, चित् का बोध होगा, कांशसनेस का बोध होगा। लेकिन यहां चित् मुझसे मुक्त हो गया। ऐसा नहीं कि मेरी चेतना। चेतना! मेरा अस्तित्व—ऐसा नहीं। अस्तित्व!

ब्रह्म का भी अतिक्रमण करने पर निर्वाण काया में प्रवेश:

और कुछ लोग छठवें पर रुक जाएंगे। क्योंकि कास्मिक बॉडी आ गई, ब्रह्म हो गया मैं, अहं ब्रह्मास्मि की हालत आ गई। अब मैं नहीं रहा, ब्रह्म ही रह गया है। अब और कहां खोज? अब कैसी खोज? अब किसको खोजना है? अब तो खोजने को भी कुछ नहीं बचा, अब तो सब पा लिया; क्योंकि ब्रह्म का मतलब है—दि टोटल; सब।

इस जगह से खड़े होकर जिन्होंने कहा है, वे कहेंगे कि ब्रह्म अंतिम सत्य है, वह एब्लोल्युट है, उसके आगे फिर कुछ भी नहीं। और इसलिए इस पर तो अनंत जन्म रुक सकता है कोई आदमी। आमतौर से रुक जाता है; क्योंकि इसके आगे तो सूझ में ही नहीं आता कि इसके आगे भी कुछ हो सकता है।

तो ब्रह्मज्ञानी इस पर अटक जाएगा, इसके आगे वह नहीं जाएगा। और यह इतना कठिन है इसको पार करना—इस जगह को पार करना—क्योंकि अब बचती ही नहीं कोई जगह जहां इसको पार करो। सब तो घेर लिया, जगह भी चाहिए न! अगर मैं इस कमरे के बाहर जाऊं, तो बाहर जगह भी तो चाहिए! अब यह कमरा इतना विराट हो गया— अंतहीन, अनंत हो गया; असीम, अनादि हो गया; अब जाने को भी कोई जगह नहीं, नो व्हेयर टु गो। तो अब खोजने भी कहां जाओगे? अब खोजने को भी कुछ नहीं बचा, सब आ गया। तो यहां अनंत जन्म तक रुकना हो सकता है।

परम खोज में आखिरी बाधा ब्रह्म:

तो ब्रह्म आखिरी बाधा है—दि लास्ट बैरियर। साधक की परम खोज में ब्रह्म आखिरी बाधा है। बीइंग रह गया है अब, लेकिन अभी भी नॉन—बीइंग भी है शेष; ‘ अस्ति’ तो जान ली, ‘ है’ तो जान लिया, लेकिन ‘ नहीं है’, अभी वह जानने को शेष रह गया। इसलिए सातवां शरीर है निर्वाण काया। उसका चक्र है सहस्रार। और उसके संबंध में कोई बात नहीं हो सकती। ब्रह्म तक बात जा सकती है— खींच—तानकर; गलत हो जाएगी बहुत।

छठवें शरीर में तीसरी आंख का खुलना:

पांचवें शरीर तक बात बड़ी वैज्ञानिक ढंग से चलती है; सारी बात साफ हो सकती है। छठवें शरीर पर बात की सीमाएं खोने लगती हैं, शब्द अर्थहीन होने लगता है, लेकिन फिर भी इशारे किए जा सकते हैं। लेकिन अब अंगुली भी टूट जाती है, अब इशारे गिर जाते हैं; क्योंकि अब खुद का होना ही गिर जाता है।

तो एकोल्युट बीइंग को छठवें शरीर तक और छठवें केंद्र से जाना जा सकता है।

इसलिए जो लोग ब्रह्म की तलाश में हैं, आशा चक्र पर ध्यान करेंगे। वह उसका चक्र है। इसलिए भृकुटी—मध्य में आशा चक्र पर वे ध्यान करेंगे; वह उससे संबंधित चक्र है उस शरीर का। और वहां जो उस चक्र पर पूरा काम करेंगे, तो वहां से उन्हें जो दिखाई पड़ना शुरू होगा विस्तार अनंत का, उसको वे तृतीय नेत्र और थर्ड आई कहना शुरू कर देंगे। वहां से वह तीसरी आंख उनके पास आई, जहां से वे अनंत को, कास्मिक को देखना शुरू कर देते हैं।

सहस्रार चक्र की संभावना:

लेकिन अभी एक और शेष रह गया—न होना, नॉन—बीइंग, नास्ति। अस्तित्व जो है वह आधी बात है, अनस्तित्व भी है; प्रकाश जो है वह आधी बात है, अंधकार भी है, जीवन जो है वह आधी बात है, मृत्यु भी है। इसलिए आखिरी अनस्तित्व को, शून्य को भी जानने की…..क्योंकि परम सत्य तभी पता चलेगा जब दोनों जान लिए— अस्ति भी और नास्ति भी; आस्तिकता भी जानी उसकी संपूर्णता में और नास्तिकता भी जानी उसकी संपूर्णता में; होना भी जाना उसकी संपूर्णता में और न होना भी जाना उसकी संपूर्णता में, तभी हम पूरे को जान पाए, अन्यथा यह भी अधूरा है। ब्रह्मज्ञान में एक अधूरापन है कि वह ‘ न होने ‘ को नहीं जान पाएगा। इसलिए ब्रह्मज्ञानी ‘ न होने’ को इनकार ही कर देता है; वह कहता है वह माया है, वह है ही नहीं। वह कहता है होना सत्य है, न होना झूठ है, मिथ्या है; वह है ही नहीं, उसको जानने का सवाल कहां है!

निर्वाण काया का मतलब है शून्य काया, जहां हम ‘ होने ‘ से ‘ न होने’ में छलांग लगा जाते हैं। क्योंकि वह और जानने को शेष रह गया, उसे भी जान लेना जरूरी है कि न होना क्या है? मिट जाना क्या है? इसलिए सातवां शरीर जो है, वह एक अर्थ में महामृत्यु है। और निर्वाण का, जैसा मैंने कल अर्थ कहा, वह दीये का बुझ जाना है। वह जो हमारा होना था, वह जो हमारा ‘ मैं’ था, मिट गया; वह जो हमारी अस्मिता थी, मिट गई। लेकिन अब हम सर्व के साथ एक होकर फिर हो गए हैं, अब हम ब्रह्म हो गए हैं, अब इसे भी छोड़ देना पड़ेगा। और इतनी जिसकी छलांग की तैयारी है, वह जो है, उसे तो जान ही लेता, जो नहीं है, उसे भी जान लेता है।

और ये सात शरीर और सात चक्र हैं हमारे। और इन सात चक्रों के भीतर ही हमारी सारी बाधाएं और साधन हैं। कहीं किसी बाहरी रास्ते पर कोई बाधा नहीं है। इसलिए किसी से पूछने जाने का उतना सवाल नहीं है।

खोजने निकलो, मांगने नहीं:

और अगर किसी से पूछने भी गए हो, और किसी के पास समझने भी गए हो, तो मांगने मत जाना। मांगना और बात है; समझना और बात है, पूछना और बात है। खोज अपनी जारी रखना। और जो समझकर आए हो, उसको भी अपनी खोज ही बनाना, उसको अपना विश्वास मत बनाना। नहीं तो वह मांगना हो जाएगा।

मुझसे एक बात तुमने की, और मैंने तुम्हें कुछ कहा। अगर तुम मांगने आए थे, तो तुमको जो मैंने कहा, तुम इसे अपनी थैली में बंद करके सम्हालकर रख लोगे, इसकी संपत्ति बना लोगे। तब तुम साधक नहीं, भिखारी ही रह जाते हो। नहीं, मैंने तुमसे कुछ कहा, यह तुम्हारी खोज बना, इसने तुम्हारी खोज को गतिमान किया, इसने तुम्हारी जिज्ञासा को दौड़ाया और जगाया, इससे तुम्हें और मुश्किल और बेचैनी हुई, इसने तुम्हें और नये सवाल खड़े किए, और नई दिशाएं खोलीं, और तुम नई खोज पर निकले, तब तुमने मुझसे मांगा नहीं, तब तुमने मुझसे समझा। और मुझसे तुमने जो समझा, वह अगर तुम्हें स्वयं को समझने में सहयोगी हो गया, तब मांगना नहीं है।

तो समझने निकलो, खोजने निकलो। तुम अकेले नहीं खोज रहे, और बहुत लोग खोज रहे हैं। बहुत लोगों ने खोजा है, बहुत लोगों ने पाया है। उन सबको क्या हुआ है, क्या नहीं हुआ है, उस सबको समझो। लेकिन उस सबको समझकर तुम अपने को समझना बंद मत कर देना; उसको समझकर तुम यह मत समझ लेना कि यह मेरा जान बन गया। उसको तुम विश्वास मत बनाना, उस पर तुम भरोसा मत करना, उस सबसे तुम प्रश्न बनाना, उस सबको तुम समस्या बनाना, उसको समाधान मत बनाना, तो फिर तुम्हारी यात्रा जारी रहेगी। और तब फिर मांगना नहीं है, तब तुम्हारी खोज है। और तुम्हारी खोज ही तुम्हें अंत तक ले जा सकती है। और जैसे—जैसे तुम भीतर खोजोगे, तो जो मैंने तुमसे बातें कही हैं, प्रत्येक केंद्र पर दो तत्व तुमको दिखाई पड़ेंगे— एक जो तुम्हें मिला है, और एक जो तुम्हें खोजना है। क्रोध तुम्हें मिला है, क्षमा तुम्हें खोजनी है; सेक्स तुम्हें मिला है, ब्रह्मचर्य तुम्हें खोजना है, स्वप्न तुम्हें मिला है, विजन तुम्हें खोजना है, दर्शन तुम्हें खोजना है।

चार शरीरों तक तुम्हारी द्वैत की खोज चलेगी, पांचवें शरीर से तुम्हारी अद्वैत की खोज शुरू होगी।

पांचवें शरीर में तुम्हें जो मिल जाए, उससे भिन्न को खोजना जारी रखना। आनंद मिल जाए तो तुम खोजना कि और आनंद के अतिरिक्त क्या है? छठवें शरीर पर तुम्हें ब्रह्म मिल जाए तो तुम खोज जारी रखना कि ब्रह्म के अतिरिक्त क्या है? तब एक दिन तुम उस सातवें शरीर पर पहुंचोगे, जहां होना और न होना, प्रकाश और अंधकार, जीवन और मृत्यु, दोनों एक साथ ही घटित हो जाते हैं। और तब परम, दि अल्टिमेट…… और उसके बाबत फिर कोई उपाय नहीं कहने का।

पांचवें शरीर के बाद रहस्य ही रहस्य है:

इसलिए हमारे सब शास्त्र या तो पांचवें पर पूरे हो जाते हैं। जो बहुत वैज्ञानिक बुद्धि के लोग हैं, वे पांचवें के आगे बात नहीं करते, क्योंकि उसके बाद कास्मिक शुरू होता है, जिसका कोई अंत नहीं है विस्तार का।

पर जो मिस्टिक किस्म के लोग हैं—जो रहस्यवादी हैं, सूफी हैं, इस तरह के लोग हैं—वे उसकी भी बात करते हैं। हालांकि उसकी बात करने में उन्हें बड़ी कठिनाई होती है, और उन्हें अपने को ही हर बार कंट्राडिक्ट करना पड़ता है, खुद को ही विरोध करना पड़ता है। और अगर एक सूफी फकीर की या एक मिस्टिक की पूरी बातें सुनो, तो तुम कहोगे कि यह आदमी पागल है! क्योंकि कभी यह यह कहता है, कभी यह यह कहता है! यह कहता है : ईश्वर है भी; और यह कहता है ईश्वर नहीं भी है। और यह यह कहता है कि मैंने उसे देखा। और दूसरे ही वाक्य में कहता है कि उसे तुम देख कैसे सकते हो! क्योंकि वह कोई आंखों का विषय है? यह ऐसे सवाल उठाता है कि तुम्हें हैरानी होगी कि किसी दूसरे से सवाल उठा रहा है कि अपने से उठा रहा है! छठवें शरीर से मिस्टिसिज्म

इसलिए जिस धर्म में मिस्टिसिज्म नहीं है, समझना वह पांचवें पर रुक गया। लेकिन मिस्टिसिज्य भी आखिरी बात नहीं है, रहस्य आखिरी बात नहीं है। आखिरी बात शून्य है, निहिलिज्म है आखिरी बात।

तो जो धर्म रहस्य पर रुक गया, समझना वह छठवें पर रुक गया। आखिरी बात तो आखिरी है। और उस शून्य के अतिरिक्त आखिरी कोई बात हो नहीं सकती।

राह के पत्थर को भी सीढी बना लेना:

तो पांचवें शरीर से अद्वैत की खोज शुरू होती है, चौथे शरीर तक द्वैत की खोज खत्म हो जाती है। और सब बाधाएं तुम्हारे भीतर हैं। और बाधाएं बड़ी अच्छी बात है कि तुम्हें उपलब्ध हैं। और प्रत्येक बाधा का रूपांतरण होकर वही तुम्हारा साधन बन जाती है। रास्ते पर एक पत्थर पड़ा है, वह, जब तक तुमने समझा नहीं है उसे, तब तक तुम्हें रोक रहा है। जिस दिन तुमने समझा उसी दिन तुम्हारी सीढ़ी बन जाता है। पत्थर वहीं पड़ा रहता है। जब तक तुम नहीं समझे थे, तुम चिल्ला रहे थे कि यह पत्थर मुझे रोक रहा है, मैं आगे कैसे जाऊं! जब तुम इस पत्थर को समझ लिए, तुम इस पर चढ़ गए और आगे चले गए। और अब तुम उस पत्थर को धन्यवाद दे रहे हो कि तेरी बड़ी कृपा है, क्योंकि जिस तल पर मैं चल रहा था, तुझ पर चढ़कर मेरा तल बदल गया, अब मैं दूसरे तल पर चल रहा हूं। तू साधन था, लेकिन मैं समझ रहा था बाधा है, मैं सोचता था रास्ता रुक गया, यह पत्थर बीच में आ गया, अब क्या होगा!

क्रोध बीच में आ गया। अगर क्रोध पर चढ़ गए तो क्षमा को उपलब्ध हो जाएंगे, जो कि बहुत दूसरा तल है। सेक्स बीच में आ गया। अगर सेक्स पर चढ़ गए तो ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो जाएगा, जो कि बिलकुल ही दूसरा तल है। और तब सेक्स को धन्यवाद दे सकोगे, और तब क्रोध को भी धन्यवाद दे सकोगे।

जिस वृत्ति से लड़ेंगे, उससे ही बंध जाएंगे:

प्रत्येक राह का पत्थर बाधा बन सकता है और साधन बन सकता है। वह तुम पर निर्भर है कि उस पत्थर के साथ क्या करते हो। हां, भूलकर भी पत्थर से लड़ना मत, नहीं तो सिर फूट सकता है और वह साधन नहीं बनेगा। और अगर कोई पत्थर से लड़ने लगा तो वह पत्थर रोक लेगा; क्योंकि जहां हम लड़ते हैं वहीं हम रुक जाते हैं। क्योंकि जिससे लड़ना है उसके पास रुकना पड़ता है; जिससे हम लड़ते हैं उससे दूर नहीं जा सकते हम कभी भी।

इसलिए अगर कोई सेक्स से लड़ने लगा, तो वह सेक्स के आसपास ही घूमता रहेगा। उतना ही आसपास घूमेगा जितना सेक्स में डूबनेवाला घूमता है। बल्कि कई बार उससे भी ज्यादा घूमेगा। क्योंकि डूबनेवाला ऊब भी जाता है, बाहर भी होता है, यह ऊब भी नहीं पाता, यह आसपास ही घूमता रहता है।

अगर तुम क्रोध से लड़े तो तुम क्रोध ही हो जाओगे, तुम्हारा सारा व्यक्तित्व क्रोध से भर जाएगा; और तुम्हारे रग—रग, रेशे—रेशे से क्रोध की ध्वनियां निकलने लगेंगी; और तुम्हारे चारों तरफ क्रोध की तरंगें प्रवाहित होने लगेंगी। इसलिए ऋषि—मुनियों की जो हम कहानियां पढ़ते हैं—महाक्रोधी, उसका कारण है; उसका कारण है वे क्रोध से लड़नेवाले लोग हैं। कोई दुर्वासा है, कोई कोई है। उनको सिवाय अभिशाप के कुछ सूझता ही नहीं है। उनका सारा व्यक्तित्व आग हो गया है। वे पत्थर से लड़ गए हैं, वे मुश्किल में पड़ गए हैं; वे जिससे लड़े हैं, वही हो गए हैं।

तुम ऐसे ऋषि—मुनियों की कहानियां पढ़ोगे जिन्हें कि स्वर्ग से कोई अप्सरा आकर बड़े तत्काल भ्रष्ट कर देती है। आश्चर्य की बात है! यह तभी संभव है जब वे सेक्स से लड़े हों, नहीं तो संभव नहीं है। वे इतना लड़े हैं, इतना लड़े हैं, इतना लड़े हैं, इतना लड़े हैं कि लड़—लड़कर खुद ही कमजोर हो गए हैं। और सेक्स अपनी जगह खड़ा है; अब वह प्रतीक्षा कर रहा है; वह किसी भी द्वार से फूट पड़ेगा। और कम संभावना है कि अप्सरा आई हो, संभावना तो यही है कि कोई साधारण स्त्री निकली हो, लेकिन इसको अप्सरा दिखाई पडी हो। क्योंकि अप्सराओं ने कोई ठेका ले रखा है कि ऋषि—मुनियों को सताने के लिए आती रहें। लेकिन अगर सेक्स को बहुत सप्रेस किया गया हो, तो साधारण स्त्री भी अप्सरा हो जाती है; क्योंकि हमारा चित्त प्रोजेक्ट करने लगता है। रात वही सपने देखता है, दिन वही विचार करता है, फिर हमारा चित्त पूरा का पूरा उसी से भर जाता है। फिर कोई भी चीज….. .कोई भी चीज अतिमोहक हो जाती है, जो कि नहीं थी।

लड़ना नहीं, समझना:

तो साधक के लिए लड़ने भर से सावधान रहना है, और समझने की कोशिश करनी है। और समझने की कोशिश का मतलब ही यह है कि तुम्हें जो मिला है प्रकृति से उसको समझना। तो तुम्हें जो नहीं मिला है, उसी मिले हुए के मार्ग से तुम्हें वह भी मिल जाएगा जो नहीं मिला है; वह पहला छोर है। अगर तुम उसी से भाग गए तो तुम दूसरे छोर पर कभी न पहुंच पाओगे। अगर सेक्स से ही घबराकर भाग गए तो ब्रह्मचर्य तक कैसे पहुंचोगे? सेक्स तो द्वार था जो प्रकृति से मिला था। ब्रह्मचर्य उसी द्वार से खोज थी जो अंत में तुम खोद पाओगे।

तो ऐसा अगर देखोगे तो मांगने जाने की कोई जरूरत नहीं, समझने जाने की तो बहुत जरूरत है; और पूरी जिंदगी समझने के लिए है—किसी से भी समझो, सब तरफ से समझो और अंततः अपने भीतर समझो।

व्यक्तियों को तौलने से बचना:

प्रश्न : ओशो अभी आप सात शरीरों की चर्चा करते हैं तो उसमें सातवें या छठवें या पांचवें शरीर— निर्वाण बॉडी कास्मिक बॉडी और स्त्रिचुअल बॉडी को क्रमश: उपलब्ध हुए कुछ प्राचीन और अर्वाचीन अर्थात एंशिएंट और माडर्न व्यक्तियों के नाम लेने की कृपा करें।

स झंझट में न पड़ो तो अच्छा है। इसका कोई सार नहीं है। इसका कोई अर्थ नहीं है। और अगर मैं कहूं भी, तो तुम्हारे पास उसकी जांच के लिए कोई प्रमाण नहीं होगा। और जहां तक बने व्यक्तियों को तौलने से बचना अच्छा है। उनसे कोई प्रयोजन भी नहीं है। उनसे कोई प्रयोजन नहीं है। उसका कोई अर्थ ही नहीं है। उनको जाने दो।

पांचवें या छठवें शरीर में मृत्यु के बाद देव योनियों में जन्म:

प्रश्न: ओशो पांचवें शरीर को या उसके बाद के शरीर को उपलब्ध हुए व्यक्ति को अगले जन्म में भी क्या स्थूल शरीर ग्रहण करना पडता है?

हां, यह बात ठीक है, पांचवें शरीर को उपलब्ध करने के बाद व्यक्ति का इस शरीर में जन्म नहीं होगा। पर और शरीर हैं। और शरीर हैं। असल में, जिनको हम देवता कहते रहे हैं, उस तरह के शरीर हैं। वे पांचवें के बाद उस तरह के शरीर उपलब्ध हो सकते हैं।

छठवें के बाद तो उस तरह के शरीर भी उपलब्ध नहीं होंगे। गॉड्स के नहीं, बल्कि जिसको हम गॉड कहते रहे हैं, ईश्वर कहते रहे हैं, उस तरह का शरीर उपलब्ध हो जाएगा।

लेकिन शरीर उपलब्ध होते रहेंगे; वे किस तरह के हैं, यह बहुत गौण बात है। सातवें के बाद ही शरीर उपलब्ध नहीं होंगे। सातवें के बाद ही अशरीरी स्थिति होगी। उसके पहले सूक्ष्म से सूक्ष्म शरीर उपलब्ध होते रहेंगे।

शक्तिपात से प्रसाद श्रेष्ठतर:

प्रश्न : ओशो पिछली एक चर्चा में कहा था आपने कि आप पसंद करते हैं कि शक्तिपात जितना ग्रेस के निकट हो सके उतना ही अच्छा है इसका क्या यह अर्थ न हुआ कि शक्तिपात की पद्धति में क्रमिक सुधार और विकास की संभावना है? अर्थात क्या शक्तिपात की प्रक्रिया में कालिटेटिव प्रोग्रेस भी संभव है?

बहुत संभव है, बहुत सी बातें संभव हैं। असल में, शक्तिपात की और प्रसाद की, ग्रेस की जो भिन्नता है, वह भिन्नता बड़ी है। मूल रूप से तो प्रसाद ही काम का है; बिना माध्यम के मिले, तो शुद्धतम होगा, क्योंकि उसको अशुद्ध करनेवाला बीच में कोई भी नहीं होता। जैसे कि मैं तुम्हें अपनी खुली आंखों से देखु तो जो मैं देखूंगा वह शुद्धतम होगा। फिर मैं एक चश्मा लगा लूं तो जो होगा वह उतना शुद्धतम नहीं होगा, एक माध्यम बीच में आ गया। लेकिन फिर इस माध्यम में भी शुद्ध और अशुद्ध के बहुत रूप हो सकते हैं। एक रंगीन चश्मा हो सकता है, एक साफ—सफेद चश्मा हो सकता है। और इस कांच की भी कालिटी में बहुत फर्क हो सकते हैं। समझ रहे हैं न?

तो जब हम माध्यम से लेंगे तब कुछ न कुछ अशुद्धि तो आने ही वाली है। वह माध्यम की होगी। और इसीलिए शुद्धतम प्रसाद तो सीधा ही मिलता है, शुद्धतम ग्रेस तो सीधी ही मिलती है, तब कोई माध्यम नहीं होता।

अब समझ लो कि अगर हम बिना आंख के भी देख सकें तो और भी शुद्धतम होगा, क्योंकि आंख भी माध्यम है। अगर आंख के बिना भी देख सकें तो और भी शुद्धतम होगा, क्योंकि फिर आंख भी उसमें बाधा नहीं डाल पाएगी। अब किसी की आंख में पीलिया है, और किसी की आंख कमजोर है, और किसी की कुछ है, तो कठिनाइयां हैं।

लेकिन अब जिसकी आंख में कमजोरी है, उसको एक चश्मे का माध्यम सहयोगी हो सकता है। यानी हो सकता है कि खाली आंख से वह जितना शुद्ध न देख पाए, उतना एक चश्मा लगाने से शुद्ध देख ले। ऐसे तो चश्मा एक और माध्यम हो गया, दो माध्यम हो गए, लेकिन पिछले माध्यम की कमी यह माध्यम पूरा कर सकता है।

ठीक ऐसी ही बात है। जिस व्यक्ति के माध्यम से प्रसाद किसी दूसरे तक पहुंचेगा, उस व्यक्ति का माध्यम कुछ तो अशुद्धि करेगा ही। लेकिन, अगर यह अशुद्धि ऐसी हो कि उस दूसरे व्यक्ति की आंख की अशुद्धि के प्रतिकूल पड़ती हो और दोनों कट जाती हों, तो प्रसाद के निकटतम पहुंच जाएगी बात। लेकिन यह एक—एक स्थिति में अलग—अलग तय करना होगा।

मेरी जो समझ है वह यह है कि इसलिए सीधा प्रसाद खोज जाए, व्यक्ति के माध्यम की फिकर ही छोड़ दी जाए। हां, कभी—कभी अगर जीवनधारा के लिए जरूरत पड़ेगी तो व्यक्ति के माध्यम से भी झलक दिखला देती है, उसकी तुम्हें चिंता, साधक को उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।

लेने नहीं जाना! क्योंकि लेने जाओगे, तो मैंने कल तुमसे जैसा कहा, देनेवाला कोई मिल जाएगा। और देनेवाला जितना सघन है, उतनी ही अशुद्ध हो जाएगी बात। तो देनेवाला ऐसा चाहिए जिसे देने का पता ही न चलता हो, तब शक्तिपात शुद्ध हो सकता है। फिर भी वह प्रसाद नहीं बन जाएगा। फिर भी एक दिन तो वह चाहिए जो हमें इमीजिएट मिलता हो, मीडियम के बिना मिलता हो, सीधा मिलता हो; परमात्मा और हमारे बीच कोई भी न हो, शक्ति और हमारे बीच कोई भी न हो। ध्यान में वही रहे, नजर में वही रहे, खोज उसकी रहे। बीच के मार्ग पर बहुत सी घटनाएं घट सकती हैं, लेकिन उन पर किसी पर रुकना नहीं है, इतना ही काफी है। और फर्क तो पड़ेंगे। कालिटी के भी फर्क पड़ेंगे, काटिटी के भी फर्क पड़ेंगे। और कई कारणों से पड़ेंगे। वह बहुत विस्तार की बात होगी, कई कारणों से पड़ेंगे।

शक्तिपात का शुद्धतम माध्यम:

असल में, पांचवां शरीर जिसको मिल गया है, किसी को भी शक्तिपात उसके द्वारा हो सकता है— पांचवें शरीर से। लेकिन पांचवें शरीरवाले का जो शक्तिपात है वह उतना शुद्ध नहीं होगा, जितना छठवेंवाले का होगा, क्योंकि उसकी अस्मिता कायम है। अहंकार तो मिट गया, अस्मिता कायम है; ‘मैं’ तो मिट गया, ‘ हूं ‘ कायम है। वह ‘ हूं? थोड़ा सा रस लेगा।

छठवें शरीरवाले से भी शक्तिपात हो जाएगा। वहां ‘ हूं भी नहीं है अब, वहां ब्रह्म ही है। वह और शुद्ध हो जाएगा। लेकिन अभी भी ब्रह्म है। अभी ‘ नहीं है’ की स्थिति नहीं आ गई है, ‘ है’ की स्थिति है। यह ‘ है’ भी बहुत बारीक पर्दा है—बहुत बारीक, बहुत नाजुक, पारदर्शी, ट्रांसपैरंट—लेकिन है। यह पर्दा है। तो छठवें शरीरवाले से भी शक्तिपात हो जाएगा। पांचवें से तो श्रेष्ठ होगा। प्रसाद के बिलकुल करीब पहुंच जाएगा। लेकिन कितने ही करीब हो, जरा सी भी दूरी दूरी है। और जितनी कीमती चीजें हों, उतनी छोटी सी दूरी बड़ी हो जाती है; जितनी कीमती चीजें हों, उतनी छोटी सी दूरी बड़ी हो जाती है। इतनी बहुमूल्य दुनिया है प्रसाद की कि वहां इतना सा पर्दा, कि उसको पता है कि है, बाधा बनेगा।

सातवें शरीर को उपलब्ध व्यक्ति से शक्तिपात शुद्धतम हो जाएगा। शुद्धतम हो जाएगा। ग्रेस फिर भी नहीं होगा। शक्तिपात की शुद्धतम स्थिति सातवें शरीर पर पहुंच जाएगी— शुद्धतम। जो, शक्तिपात जहां तक पहुंच सकता है, वहां तक पहुंच जाएगी। लेकिन उस तरफ से तो कोई पर्दा नहीं है अब, सातवें शरीर को उपलब्ध व्यक्ति की तरफ से कोई पर्दा नहीं है, उसकी तरफ से तो अब वह शून्य के साथ एक हो गया, लेकिन तुम्हारी तरफ से पर्दा है। तुम तो उसको व्यक्ति ही मानकर जीओगे। अब तुम्हारा पर्दा आखिरी बाधा डालेगा। अब उसकी तरफ से कोई पर्दा नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए तो वह व्यक्ति है।

माध्यम के प्रति व्यक्ति— भाव भी बाधा:

समझो कि मैं अगर सातवीं स्थिति को उपलब्ध हो जाऊं, तो यह मेरी बात है कि मैं जानूं कि मैं शून्य हूं लेकिन तुम? तुम तो मुझे जानोगे कि एक व्यक्ति हूं। और तुम्हारा यह खयाल कि मैं एक व्यक्ति हूं आखिरी पर्दा हो जाएगा। यह पर्दा तो तुम्हारा तभी गिरेगा जब निर्व्यक्ति से तुम पर घटना घटे। यानी तुम कहीं खोजकर पकड़ ही न पाओ कि किससे घटी, कैसे घटी! कोई सोर्स न मिले तुम्हें, तभी तुम्हारा यह खयाल गिर पाएगा; सोर्सलेस हो। अगर सूरज की किरण आ रही है तो तुम सूरज को पकड़ लोगे कि वह व्यक्ति है। लेकिन ऐसी किरण आए जो कहीं से नहीं आ रही और आ गई, और ऐसी वर्षा हो जो किसी बादल से नहीं हुई और हो गई, तभी तुम्हारे मन से वह आखिरी पर्दा जो दूसरे के व्यक्ति होने से पैदा होता है गिरेगा।

तो बारीक से बारीक फासले होते चले जाएंगे। अंतिम घटना तो प्रसाद की तभी घटेगी जब कोई भी बीच में नहीं है। तुम्हारा यह खयाल भी कि कोई है, काफी बाधा है— आखिरी। दो हैं, तब तक तो बहुत ज्यादा है—तुम भी हो और दूसरा भी है। हां, दूसरा मिट गया, लेकिन तुम हो। और तुम्हारे होने की वजह से दूसरा भी तुम्हें मालूम हो रहा है। सोर्सलेस प्रसाद जब घटित होगा, ग्रेस जब उतरेगी, जिसका कहीं कोई उदगम नहीं है, उस दिन वह शुद्धतम होगी। उस उदगम—शून्य की वजह से तुम्हारा व्यक्ति उसमें बह जाएगा, बच नहीं सकेगा। अगर दूसरा व्यक्ति मौजूद है तो वह तुम्हारे व्यक्ति को बचाने का काम करता है, तुम्हारे लिए ही सिर्फ मौजूद है तो भी काम करता है।

‘मैं’ और ‘तू’ से तनाव का जन्म:

असल में तुमको, अगर तुम समुद्र के किनारे चले जाते हो, तुम्हें ज्यादा शांति मिलती है, जंगल में चले जाते हो, ज्यादा शांति मिलती है, क्योंकि सामने दूसरा व्यक्ति नहीं है—दि अदर मौजूद नहीं है। इसलिए तुम्हारा खुद का भी मैं जो है, वह क्षीण हो जाता है। जब तक दूसरा मौजूद है, तुम्हारा मैं भी मजबूत होता है। जब तक दूसरा मौजूद है.. .एक कमरे में दो आदमी बैठे हैं, तो उस कमरे में तनाव की धाराएं बहती रहती हैं। कुछ नहीं कर रहे— लड़ नहीं रहे, झगड़ नहीं रहे, चुपचाप बैठे हैं—मगर उस कमरे में तनाव की धाराएं बहती रहती हैं। क्योंकि दो मैं मौजूद हैं और पूरे वक्त कार्य चल रहा है—सुरक्षा भी चल रही है, आक्रमण भी चल रहा है। चुप भी चलता है, कोई ऐसा नहीं है कि झगड़ने की सीधी जरूरत है, या कुछ कहने की जरूरत है—दो की मौजूदगी, कमरा टेंस है। और अगर.. .कभी मैं बात करूंगा कि अगर तुम्हें, सारी जो तरंगें हमारे व्यक्तित्व से निकलती हैं, उनका बोध हो जाए, तो उस कमरे में तुम बराबर देख सकते हो कि वह कमरा दो हिस्सों में विभाजित हो गया, और प्रत्येक व्यक्ति एक सेंटर बन गया, और दोनों की विद्युतधाराए और तरंगें आपस में दुश्मन की तरह खड़ी हुई हैं।

दूसरे की मौजूदगी तुम्हारे मैं को मजबूत करती है। दूसरा चला जाए तो कमरा बदल जाता है, तुम रिलैक्स हो जाते हो; तुम्हारा मैं जो तैयार था कि कब क्या हो जाए, वह ढीला हो जाता है; वह तकिए से टिककर आराम करने लगता है; वह श्वास लेता है कि अभी दूसरा मौजूद नहीं है।

इसीलिए एकांत का उपयोग है कि तुम्हारा मैं शिथिल हो सके वहां। एक वृक्ष के पास तुम ज्यादा आसानी से खड़े हो पाते हो बजाय एक आदमी के। इसलिए जिन मुल्कों में आदमी—आदमी के बीच तनाव बहुत गहरे हो जाते हैं, वहां आदमी कुत्ते और बिल्लियों को भी पालकर उनके साथ जीने लगता है। उनके साथ ज्यादा आसानी है, उनके पास कोई मैं नहीं है। एक कुत्ते के गले में पट्टा बांधे हम मजे से चले जा रहे हैं। ऐसा हम किसी आदमी के गले में पट्टा बांधकर नहीं चल सकते।

हालांकि कोशिश करते हैं! पति पत्नी के बांधे हुए है, पत्नी पति के पट्टा बांधे हुए है गले में, और चले जा रहे हैं! लेकिन जरा सूक्ष्म पट्टे हैं, दिखाई नहीं पड़ते। लेकिन दूसरा उसमें गड़बड़ करता रहता है, पूरे वक्त गर्दन हिलाता रहता है कि अलग करो, यह पट्टा नहीं चलेगा। लेकिन एक कुत्ते को बांधे हुए हैं, वह बिलकुल चला जा रहा है; वह पूंछ हिलाता हमारे पीछे आ रहा है। तो कुत्ता जितना सुख दे पाता है फिर, उतना आदमी नहीं दे पाता; क्योंकि वह जो आदमी है, वह हमारे मैं को फौरन खड़ा कर देता है और मुश्किल में डाल देता है।

धीरे— धीरे व्यक्तियों से संबंध तोड़कर आदमी वस्तुओं से संबंध बनाने लगता है, क्योंकि वस्तुओं के साथ सरलता है। तो वस्तुओं के ढेर बढ़ते जाते हैं। घरों में वस्तुएं बढ़ती जाती हैं, आदमी कम होते चले जाते हैं। आदमी घबड़ाहट लाते हैं, वस्तुएं झंझट नहीं देती हैं। कुर्सी जहां रखी है, वहां रखी है, मैं बैठा हूं तो कोई गड़बड़ नहीं करती।

वृक्ष है, नदी है, पहाड़ है, इनसे कोई झंझट नहीं आती, इसलिए हमको बड़ी शांति मिलती है इनके पास जाकर। कारण कुल इतना है कि दूसरी तरफ मैं मजबूती से खड़ा नहीं है, इसलिए हम भी रिलैक्स हो पाते हैं। हम कहते हैं—ठीक है, यहां कोई तू नहीं है तो मेरे होने की क्या जरूरत है! ठीक है, मैं भी नहीं हूं। लेकिन जरा सा भी इशारा दूसरे आदमी का मिल जाए कि वह है, कि हमारा मैं तत्काल तत्पर हो जाता है, वह सिक्योरिटी की फिकर करने लगता है कि पता नहीं क्या हो जाए, इसलिए तैयार होना जरूरी है।

शून्य व्यक्ति के सामने अहंकार की बेचैनी:

यह तैयारी आखिरी क्षण तक बनी रहती है। सातवें शरीरवाला व्यक्ति भी तुम्हें मिल जाए तो भी तुम्हारी तैयारी रहेगी। बल्कि कई बार ऐसे व्यक्ति से तुम्हारी तैयारी ज्यादा हो जाएगी। साधारण आदमी से तुम इतने भयभीत नहीं होते, क्योंकि वह तुम्हें चोट भी अगर पहुंचा सकता है तो बहुत गहरी नहीं पहुंचा सकता। लेकिन ऐसा व्यक्ति जो पांचवें शरीर के पार चला गया है, तुम्हें चोट भी गहरी पहुंचा सकता है—उसी शरीर तक पहुंचा सकता है, जहां तक वह पहुंच गया है। उससे भय भी तुम्हारा बढ़ जाता है; उससे डर भी तुम्हारा बढ़ जाता है कि पता नहीं क्या हो जाए! उसके भीतर से तुम्हें बहुत ही अज्ञात और अनजान शक्ति झांकती मालूम पड़ने लगती है। इसलिए तुम बहुत सम्हलकर खड़े हो जाते हो। उसके आसपास तुम्हें एबिस दिखाई पड़ने लगती है; अनुभव होने लगता है कि कोई गेंहु है इसके भीतर, अगर गए तो किसी गड्डे में न गिर जाएं।

इसलिए दुनिया में जीसस, कृष्ण या सुकरात जैसे आदमी जब भी पैदा होते हैं, तो हम उनकी हत्या कर देते हैं। उनकी वजह से हम में बहुत गड़बड़ पैदा हो जाती है। उनके पास जाना, खतरे के पास जाना है। फिर मर जाते हैं, तब हम उनकी पूजा करते हैं। अब हमारे लिए कोई डर नहीं रहा। अब हम उनकी मूर्ति बनाकर सोने की और हाथ—पैर जोड़कर खड़े हो जाते हैं; हम कहते हैं. तुम भगवान हो। लेकिन जब ये लोग होते हैं तब हम इनके साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते, तब हम इनसे बहुत डरे रहते हैं। और डर अनजान रहता है, क्योंकि हमें पक्का पता तो नहीं रहता कि बात क्या है। लेकिन एक आदमी जितना गहरा होता जाता है, उतना ही हमारे लिए एबिस बन जाता है, खाई बन जाता है। और जैसे खाई के नीचे झांकने से डर लगता है और सिर घूमता है, ऐसा ही ऐसे व्यक्ति की आंखों में झांकने से डर लगने लगेगा और सिर घूमने लगेगा।

मूसा के संबंध में बड़ी अदभुत कथा है कि हजरत मूसा को जब परमात्मा का दर्शन हुआ, तो इसके बाद उन्होंने फिर कभी अपना मुंह नहीं उघाड़ा; वे एक घूंघट डाले रखते थे। वे फिर घूंघट डालकर ही जीए, क्योंकि उनके चेहरे में झांकना खतरनाक हो गया। जो आदमी झांके वह भाग खड़ा हो; फिर वहां रुकेगा नहीं। उसमें से एबिस दिखाई पड़ने लगी। उनकी आंखों में अनंत खड्ड हो गया। तो मूसा लोगों के बीच जाते तो चेहरे पर एक घूंघट डाले रखते। वह घूंघट डालकर ही बात कर सकते फिर। क्योंकि लोग उनसे घबराने लगे और डरने लगे। ऐसा लगे कि कोई चीज चुंबक की तरह खींचती है किसी गडु में! और पता नहीं कहां ले जाएगी, क्या होगा! कुछ पता नहीं!

तो यह जो आखिरी, सातवीं स्थिति में पहुंचा हुआ आदमी है, वह भी है—तुम्हारे लिए। इसलिए तुम उससे अपनी सुरक्षा करोगे और एक पर्दा बना रह जाएगा; इसलिए ग्रेस शुद्ध नहीं हो सकती। ऐसे आदमी के पास हो सकती है शुद्ध, अगर तुम्हें यह खयाल मिट जाए कि वह है। लेकिन यह खयाल तुम्हें तभी मिट सकता है, जब कि तुम्हें यह खयाल मिट जाए कि मैं हूं। अगर तुम इस हालत में पहुंच जाओ कि तुम्हें खयाल न रहे कि मैं हूं तो फिर तुम्हें शुद्ध वहां से भी मिल सकती है। लेकिन फिर कोई मतलब ही न रहा उससे मिलने, न मिलने का; वह सोर्सलेस हो गई; वह प्रसाद ही हो गया।

जितनी बड़ी भीड़ में हम हैं, उतना ज्यादा मैं हमारा सख्त, सघन और कंडेस्ट हो जाता है। इसलिए भीड़ के बाहर, दूसरे से हटकर अपने मैं को गिराने की सदा कोशिश की गई है। लेकिन कहीं भी जाओ, अगर बहुत देर तुम एक वृक्ष के पास रहोगे, तुम उस वृक्ष से बातें करने लगोगे और वृक्ष को तू बना लोगे। अगर तुम बहुत देर सागर के पास रह जाओगे, दस—पांच वर्ष, तो तुम सागर से बोलने लगोगे और सागर को तू बना लोगे। वह हमारा मैं जो है, आखिरी उपाय करेगा, वह तू पैदा कर लेगा, अगर तुम बाहर भी भाग गए कहीं तो, और वह उनसे भी राग का संबंध बना लेगा, और उनको भी ऐसे देखने लगेगा जैसे कि आकार में।

भक्त और भगवान के द्वैत में अहंकार की सुरक्षा:

अगर कोई बिलकुल ही आखिरी स्थिति में भी पहुंच जाता है, तो फिर वह ईश्वर को तू बनाकर खड़ा कर लेता है, ताकि अपने मैं को बचा सके। और भक्त निरंतर कहता रहता है कि हम परमात्मा के साथ एक कैसे हो सकते हैं? वह वह है, हम हम हैं! कहां हम उसके चरणों में और कहां वह भगवान! वह कुछ और नहीं कह रहा, वह यह कह रहा है कि अगर उससे एक होना है तो इधर मैं खोना पड़ेगा। तो उसे वह दूर बनाकर रखता है कि वह तू है। और बातें वह रेशनलाइज करता है, वह कहता है कि हम उसके साथ एक कैसे हो सकते हैं! वह महान है, वह परम है; हम क्षुद्र हैं, हम पतित हैं; हम कहां एक हो सकते हैं! लेकिन वह उसके तू को बचाता है कि इधर मैं उसका बच जाए।

इसलिए भक्त जो है, वह चौथे शरीर के ऊपर नहीं जा पाता। वह पांचवें शरीर तक भी नहीं जा पाता, वह चौथे शरीर पर अटक जाता है। हां, चौथे शरीर की कल्पना की जगह विजन आ जाता है उसका। चौथे शरीर में जो श्रेष्ठतम संभावना है, वह खोज लेता है। तो भक्त के जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं होने लगती हैं जो मिरेकुलस हैं; लेकिन रह जाता है चौथे पर। व्यक्ति के नाम नहीं ले रहा, इसलिए मैं इस तरह कह रहा हूं। चौथे पर रह जाता है भक्त।

भक्त, हठयोगी और राजयोगी की यात्रा:

आत्मसाधक, हठयोगी, और बहुत तरह के योग की प्रक्रियाओं में लगनेवाला आदमी ज्यादा से ज्यादा पांचवें शरीर तक पहुंच पाता है; क्योंकि बहुत गहरे में वह यह कह रहा है कि मुझे आनंद चाहिए; बहुत गहरे में वह यह कह रहा है कि मुझे मुक्ति चाहिए; बहुत गहरे में वह यह कह रहा है कि मुझे दुख—निरोध चाहिए—लेकिन सब चाहिए के पीछे मैं मौजूद है। मुझे मुक्ति चाहिए! मैं से मुक्ति नहीं, मैं की मुक्ति! मुझे मुक्त होना है, मुझे मोक्ष चाहिए। वह मैं उसका सघन खड़ा रह जाता है। वह पांचवें शरीर तक पहुंच पाता है।

राजयोगी छठवें तक पहुंच जाता है। वह कहता है— मैं का क्या रखा है! मैं कुछ भी नहीं, वही है! मैं नहीं, वही है, ब्रह्म ही सब कुछ है। वह मैं को खोने की तैयारी दिखलाता है, लेकिन अस्मिता को खोने की तैयारी नहीं दिखलाता। वह कहता है—रहूंगा मैं, ब्रह्म के साथ एक उसका अंश होकर। रहूंगा मैं, ब्रह्म के साथ एक होकर; उसी के साथ मैं एक हूं; मैं ब्रह्म ही हूं; मैं तो छोड़ दूंगा, लेकिन जो असली है मेरे भीतर वह उसके साथ एक होकर रहेगा। वह छठवें तक पहुंच पाता है।

सातवें तक बुद्ध जैसा साधक पहुंच पाता है, क्योंकि वह खोने को तैयार है— ब्रह्म को भी खोने को तैयार है; अपने को भी खोने को तैयार है; वह सब खोने को तैयार है। वह यह कहता है कि जो है, वही रह जाए; मेरी कोई अपेक्षा नहीं कि यह बचे यह बचे, यह बचे—मेरी कोई अपेक्षा ही नहीं। सब खोने को तैयार है। और जो सब खोने को तैयार है, वह सब पाने का हकदार हो जाता है। तो निर्वाण शरीर तो ऐसी हालत में ही मिल सकता है जब शून्य और न हो जाने की भी हमारी तैयारी है, मृत्यु को भी जानने की तैयारी है। जीवन को जानने की तैयारियां तो बहुत हैं। इसलिए जीवन को जाननेवाला छठवें शरीर पर रुक जाएगा। मृत्यु को भी जानने की जिसकी तैयारी है, वह सातवें को जान पाएगा।

तुम चाहोगे तो नाम तुम खोज सकोगे, उसमें बहुत कठिनाई नहीं होगी।

चौथे शरीर की वैज्ञानिक संभावनाएं:

प्रश्न: ओशो आपने कहा कि चौथे शरीर में कल्पना और स्वप्न की क्षमता का जब रूपांतरण होता है तो आदमी को दिव्य— दृष्टि व दूर— दृष्टि उपलब्ध होती है। अभी तक पता नहीं कितने लोग इस चौथे शरीर तक पहुंच चुके हैं। जैसा आपने कहा कि चौथी स्टेज तक विज्ञान विकसित हो चुका है अगर ऐसी बात होती तो आज विज्ञान जिन चीजों की खोज कर रहा है उन चीजों के संबंध में उन लोगों ने जो चौथे शरीर तक गए है? क्यों उनकी प्राप्ति की सूचना नहीं दी? क्यों उनकी अभिव्यक्ति नहीं की? एक छोटी सी बात। आज चांद पर पहुंचा हुआ आदमी वहां की अभिव्यक्ति कर सकता है? लेकिन चौथी स्टेज पर पहुंचा हुआ कोई भी व्यक्ति किसी देश में कहीं भी उसकी सही— सही स्थिति का वर्णन नहीं कर सका। चांद तो कत दूर है हमारी पृथ्वी के बारे में भी यह नहीं बता सका कि पृथ्वी चक्कर लगा रही है या सूर्य इसका चक्कर लगा रहा है।

मझा! यह बिलकुल ठीक सवाल है। इसमें तीन—चार बातें समझने जैसी हैं। पहली बात तो समझने जैसी यह है कि बहुत सी बातें इस चौथे शरीर को उपलब्ध लोगों ने बताई हैं। बहुत सी बातें इस चौथे शरीर को उपलब्ध लोगों ने बताई हैं। और उनको गिना जा सकता है कि कितनी बातें उन्होंने बताई हैं। अब जैसे, पृथ्वी कब बनी, इसके संबंध में जो पृथ्वी की उम्र चौथे शरीर के लोगों ने बताई है, उसमें और विज्ञान की उम्र में थोड़ा सा ही फासला है। और अभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि विज्ञान जो कह रहा है वह सही है; अभी भी यह नहीं कहा जा सकता। अभी विज्ञान भी यह दावा नहीं कर सकता। फासला बहुत थोड़ा है, फासला बहुत ज्यादा नहीं है।

दूसरी बात, पृथ्वी के संबंध में, पृथ्वी की गोलाई और पृथ्वी की गोलाई के माप के संबंध में जो चौथे शरीर के लोगों ने खबर दी है, उसमें और विज्ञान की खबर में और भी कम फासला है। और यह जो फासला है, जरूरी नहीं है कि वह जो चौथे शरीर को उपलब्ध लोगों ने बताई है, वह गलत ही हो; क्योंकि पृथ्वी की गोलाई में निरंतर अंतर पड़ता रहा है। आज पृथ्वी जितनी सूरज से दूर है, उतनी दूर सदा नहीं थी; और आज पृथ्वी से चांद जितना दूर है, उतना सदा नहीं था। आज जहां अफ्रीका है, वहां पहले नहीं था। एक दिन अफ्रीका हिंदुस्तान से जुड़ा हुआ था। हजार घटनाएं बदल गई हैं, वे रोज बदल रही हैं। उन बदलती हुई सारी बातों को अगर खयाल में रखा जाए तो बड़ी आश्चर्यजनक बात मालूम पड़ेगी कि विज्ञान की बहुत सी खोजें चौथे शरीर के लोगों ने बहुत पहले खबर दी हैं।

अतींद्रिय अनुभवों की अभिव्यक्ति में कठिनाई:

यह भी समझने जैसा मामला है कि विज्ञान के और चौथे शरीर तक पहुंचे हुए लोगों की भाषा में बुनियादी फर्क है, इस वजह से बड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि चौथे शरीर को जो उपलब्ध है, उसके पास कोई मैथेमेटिकल लैंग्वेज नहीं होती। उसके पास तो विजन और पिक्चर और सिंबल की लैंग्वेज होती है, उसके पास तो प्रतीक की लैंग्वेज होती है।

सपने में कोई भाषा होती भी नहीं, विजन में भी कोई भाषा नहीं होती। अगर हम गौर से समझें, तो हम दिन में जो कुछ सोचते हैं, अगर रात हमें उसका ही सपना देखना पड़े, तो हमें प्रतीक भाषा चुननी पड़ती है, प्रतीक चुनना पड़ता है; क्योंकि भाषा तो होती नहीं। अगर मैं महत्वाकांक्षी आदमी हूं और दिन भर आशा करता हूं कि सबके ऊपर निकल जाऊं, तो रात में जो सपना देखूंगा उसमें मैं पक्षी हो जाऊंगा और आकाश में उड़ जाऊंगा, और सबके ऊपर हो जाऊंगा। लेकिन सपने में मैं यह नहीं कह सकता कि मैं महत्वाकांक्षी हूं। मैं इतना ही कर सकता हूं कि—सपने में सारी भाषा बदल जाएगी—मैं एक पक्षी बनकर आकाश में उडूंगा, सबके ऊपर उडूगा।

तो विजन की भी जो भाषा है, वह शब्दों की नहीं है, पिक्चर की है। और जिस तरह अभी ड्रीम इंटरप्रिटेशन फ्रायड और कै और एडलर के बाद विकसित हुआ कि स्वप्न की हम व्याख्या करें, तभी हम पता लगा पाएंगे कि मतलब क्या है; इसी तरह चौथे शरीर के लोगों ने जो कुछ कहा है, उसका इंटरप्रिटेशन, व्याख्या अभी भी होने को है, वह अभी हो नहीं गई है। अभी तो ड्रीम की व्याख्या भी पूरी नहीं हो पा रही है, अभी विजन की व्याख्या तो बहुत दूसरी बात है—कि विजन में जिन लोगों ने जो देखा है, उनका मतलब क्या है? वे क्या कह रहे हैं?

हिंदुओं के अवतार जैविक—विकास कम के प्रतीकात्मक रूप:

अब जैसे, उदाहरण के लिए, डार्विन ने जब कहा कि आदमी विकसित हुआ है जानवरों से, तो उसने एक विज्ञानिक भाषा में यह बात लिखी। लेकिन हिंदुस्तान में हिंदुओं के अवतारों की अगर हम कहानी पढ़ें, तो हमें पता चलेगा कि वह अवतारों की कहानी डार्विन के बहुत पहले बिलकुल ठीक प्रतीक कहानी है। पहला अवतार आदमी नहीं है, पहला अवतार मछली है। और डार्विन का भी पहला जो रूप है मनुष्य का, वह मछली है। अब यह सिबालिक लैंग्वेज हुई कि हम कहते हैं जो पहला अवतार पैदा हुआ, वह मछली था—मत्सावतार। लेकिन यह जो भाषा है, यह वैज्ञानिक नहीं है। अब कहां अवतार और कहां मत्‍स्‍य! हम इनकार करते रहे उसको। लेकिन जब डार्विन ने कहा कि मछली जो है जीवन का पहला तत्व है, पृथ्वी पर पहले मछली ही आई है, इसके बाद ही जीवन की दूसरी बातें आईं! लेकिन उसका जो ढंग है, उसकी जो खोज है, वह वैज्ञानिक है। अब जिन्होंने विजन में देखा होगा, उन्होंने यह देखा कि पहला जो भगवान है वह मछली में ही पैदा हुआ है। अब यह विजन जब भाषा बोलेगा, तो वह इस तरह की भाषा बोलेगा जो पैरेबल की होगी।

फिर कछुआ है। अब कछुआ जो है, वह जमीन और पानी दोनों का प्राणी है। निश्चित ही, मछली के बाद एकदम से कोई प्राणी पृथ्वी पर नहीं आ सकता; जो भी प्राणी आया होगा, वह अर्ध जल और अर्ध थल का रहा होगा। तो दूसरा जो विकास हुआ होगा, वह कछुए जैसे प्राणी का ही हो सकता है, जो जमीन पर भी रहता हो और पानी में भी रहता हो। और फिर धीरे— धीरे कछुओं के कुछ वंशज जमीन पर ही रहने लगे होंगे और कुछ पानी में ही रहने लगे होंगे, और तब विभाजन हुआ होगा।

अगर हम हिंदुओं के चौबीस अवतारों की कहानी पढ़ें, तो हमें इतनी हैरानी होगी इस बात को जानकर कि जिसको डार्विन हजारों साल बाद पकड़ पाया, ठीक वही विकास क्रम हमने पकड़ लिया! फिर जब मनुष्य अवतार पैदा हुआ उसके पहले आधा मनुष्य और आधा सिंह का नरसिंह अवतार है। आखिर जानवर भी एकदम से आदमी नहीं बन सकते, जानवरों को भी आदमी बनने में एक बीच की कड़ी पार करनी पड़ी होगी, जब कि कोई आदमी आधा आदमी और आधा जानवर रहा होगा। यह असंभव है कि छलांग सीधी लग गई हो—कि एक जानवर को एक बच्चा पैदा हुआ हो जो आदमी का हो। जानवर से आदमी के बीच की एक कड़ी खो गई है, जो नरसिंह की ही होगी—जिसमें आधा जानवर होगा और आधा आदमी होगा।

पुराणों में छिपी वैज्ञानिक संभावनाएं:

अगर हम यह सारी बात समझें तो हमें पता चलेगा कि जिसको डार्विन बहुत बाद में विज्ञान की भाषा में कह सका, चौथे शरीर को उपलब्ध लोगों ने उसे पुराण की भाषा में बहुत पहले कहा है। लेकिन आज भी, अभी भी पुराण की ठीक—ठीक व्याख्या नहीं हो पाती है, उसकी वजह यह है कि पुराण बिलकुल नासमझ लोगों के हाथ में पड़ गया है, वह वैज्ञानिक के हाथ में नहीं है।

पृथ्वी की आयु की पुराणों में घोषणा:

अच्छा दूसरी कठिनाई यह हो गई है कि पुराण को खोलने के जो कोड हैं, वे सब खो गए हैं, वे नहीं हैं हमारे पास। इसलिए बड़ी अड़चन हो गई है। बहुत बाद में विज्ञान यह कहता है कि आदमी ज्यादा से ज्यादा चार हजार वर्ष तक पृथ्वी पर और जी सकता है। अब विज्ञान ऐसा कहता है। लेकिन इसकी भविष्यवाणी बहुत से पुराणों में है। और यह वक्त करीब—करीब वही है जो पुराणों में है, कि चार हजार वर्ष से ज्यादा पृथ्वी नहीं टिक सकती।

हां, विज्ञान और भाषा बोलता है। वह बोलता है कि सूर्य ठंडा होता जा रहा है, उसकी किरणें क्षीण होती जा रही हैं, उसकी गर्मी की ऊर्जा बिखरती जा रही है, वह चार हजार वर्ष में ठंडा हो जाएगा। उसके ठंडे होते से ही पृथ्वी पर जीवन समाप्त हो जाएगा। पुराण और तरह की भाषा बोलते हैं। लेकिन… और अभी भी यह पक्का नहीं है, क्योंकि ये चार हजार वर्ष और अगर पुराण कहें पांच हजार वर्ष, तो अभी भी यह पक्का नहीं है कि विज्ञान जो कहता है वह बिलकुल ठीक ही कह रहा है, पांच हजार भी हो सकते हैं। और मेरा मानना है कि पांच हजार ही होंगे। क्योंकि विज्ञान के गणित में भूल—चूक हो सकती है, विजन में भूल— चूक नहीं होती। और इसीलिए विज्ञान रोज सुधरता है—कल कुछ कहता है, परसों कुछ कहता है, रोज हमें बदलना पड़ता है; न्यूटन कुछ कहता है, आइंस्टीन कुछ कहता है। हर पांच वर्ष में विज्ञान को अपनी धारणा बदलनी पड़ती है, क्योंकि और एग्जेक्ट उसको पता लगता है कि और भी ज्यादा ठीक यह होगा। और बहुत मुश्किल है यह बात तय करनी कि अंतिम जो हम तय करेंगे, वह चौथे शरीर में देखे गए लोगों से बहुत भिन्न होगा।

और अभी भी जो हम जानते हैं, उस जानने से अगर मेल न खाए, तो बहुत जल्दी निर्णय लेने की जरूरत नहीं है; क्योंकि जिंदगी इतनी गहरी है कि जल्दी निर्णय सिर्फ अवैज्ञानिक चित्त ही ले सकता है; जिंदगी इतनी गहरी है! अब अगर हम वैज्ञानिकों के ही सारे सत्यों को देखें, तो हम पाएंगे कि उनमें से सौ साल में सब विज्ञान के सत्य पुराण—कथाएं हो जाते हैं, उनको फिर कोई मानने को तैयार नहीं रह जाता, क्योंकि सौ साल में और बातें खोज में आ जाती हैं।

अब जैसे, पुराण के जो सत्य थे, उनका कोड खो गया है; उनको खोलने की जो कुंजी है, वह खो गई है। उदाहरण के लिए, समझ लें कि कल तीसरा महायुद्ध हो जाए। और तीसरा महायुद्ध अगर होगा, तो उसके जो परिणाम होंगे, पहला परिणाम तो यह होगा कि जितना शिक्षित, सुसंस्कृत जगत है वह मर जाएगा। यह बड़े आश्चर्य की बात है! अशिक्षित और असंस्कृत जगत बच जाएगा। कोई आदिवासी, कोई कोल, कोई भील जंगल—पहाड़ पर बच जाएगा। बंबई में नहीं बच सकेंगे आप, न्यूयार्क

में नहीं बच सकेंगे। जब भी कोई महान युद्ध होता है, तो जो उस समाज का श्रेष्ठतम वर्ग है, वह सबसे पहले मर जाता है, क्योंकि चोट उस पर होती है। बस्तर की रियासत का एक कोल और भील बच जाएगा। वह अपने बच्चों से कह सकेगा कि आकाश में हवाई जहाज उड़ते थे। लेकिन बता नहीं सकेगा, कैसे उड़ते थे। तो उसने उड़ते देखे हैं, वह झूठ नहीं बोल रहा। लेकिन उसके पास कोई कोड नहीं है; क्योंकि जिनके पास कोड था वे बंबई में थे, वे मर गए हैं। और बच्चे एकाध—दो पीढ़ी तक तो भरोसा करेंगे, इसके बाद बच्चे कहेंगे कि आपने देखा? तो उनके बाप कहेंगे—नहीं, हमने सुना; ऐसा हमारे पिता कहते थे। और उनके पिता से उन्होंने सुना था कि आकाश में हवाई जहाज उड़ते थे, फिर युद्ध हुआ और फिर सब खत्म हो गया। बच्चे धीरे— धीरे कहेंगे कि कहां हैं वे हवाई जहाज? कहां हैं उनके निशान? कहां हैं वे चीजें? दो हजार साल बाद वे बच्चे कहेंगे—सब कपोल— कल्पना है, कभी कोई नहीं उड़ा—करा।

महाभारत युद्ध तक विकसित श्रेष्ठ विज्ञान नष्ट हो गया:

ठीक ऐसी घटनाएं घट गई हैं। महाभारत ने इस देश के पास साइकिक माइंड से जो—जो उपलब्ध ज्ञान था, वह सब नष्ट कर दिया, सिर्फ कहानी रह गई। सिर्फ कहानी रह गई। अब हमें शक आता है कि राम जो हैं वे हवाई जहाज पर बैठकर लंका से आए हों, हमें शक आता है। यह शक की बात है, क्योंकि एक साइकिल भी तो नहीं छूट गई उस जमाने की, हवाई जहाज तो बहुत दूर की बात है। और किसी ग्रंथ में कोई एक सूत्र भी तो नहीं छूट गया।

असल में, महाभारत के बाद उसके पहले का समस्त ज्ञान नष्ट हो गया, स्मृति के द्वारा जो याद रखा जा सका, वह रखा गया। इसलिए पुराने ग्रंथ का नाम स्मृति है, वह मेमोरी है। सुनी हुई बात है, वह देखी हुई बात नहीं है। इसलिए पुराने ग्रंथ को हम कहते हैं—स्मृति, श्रुति—सुनी हुई और स्मरण रखी गई; वह देखी हुई बात नहीं है। किसी ने किसी को कही थी, किसी ने किसी को कही थी, किसी ने किसी को कही थी, वह हम बचाकर रख लिए हैं, ऐसा हुआ था। लेकिन अब हम कुछ भी नहीं कह सकते कि वह हुआ था, क्योंकि उस समाज का जो श्रेष्ठतम बुद्धिमान वर्ग था… और ध्यान रहे, दुनिया की जो बुद्धिमत्ता है, वह दस— पच्चीस लोगों के पास होती है। अगर एक आइंस्टीन मर जाए तो रिलेटिविटी की थियरी बतानेवाला दूसरा आदमी खोजना मुश्किल हो जाता है। आइंस्टीन खुद कहता था अपनी जिंदगी में कि दस—बारह आदमी ही हैं केवल जो मेरी बात समझ सकते हैं—पूरी पृथ्वी पर। अगर ये बारह आदमी मर जाएं तो हमारे पास किताब तो होगी जिसमें लिखा है कि रिलेटिविटी की एक थियरी होती है, लेकिन एक आदमी समझनेवाला, एक समझानेवाला नहीं होगा।

तो महाभारत ने श्रेष्ठतम व्यक्तियों को नष्ट कर दिया, उसके बाद जो बातें रह गईं वे कहानी की रह गईं। लेकिन अब प्रमाण खोजे जा रहे हैं, और अब खोजा जा सकता है। लेकिन हम तो अभागे हैं; क्योंकि हम तो कुछ भी नहीं खोज सकते।

पिरामिडों के निर्माण में मनस शक्ति का उपयोग:

ऐसी जगहें खोजी गई हैं, जो इस बात का सबूत देती हैं कि वे कम से कम तीन हजार या चार हजार या पांच हजार वर्ष पुरानी हैं, और किसी वक्त उन्होंने वायुयान को उतरने के लिए एयरपोर्ट का काम किया है। ऐसी जगह खोजी गई हैं। अच्छा, उतने बड़े स्थान को बनाने की और कोई जरूरत नहीं थी। ऐसी चीजें खोज ली गई हैं जो कि बहुत बड़ी यांत्रिक व्यवस्था के बिना नहीं बन सकती थीं। जैसे पिरामिड पर चढ़ाए गए पत्थर हैं। ये पिरामिड पर चढ़ाए गए पत्थर आज भी हमारे बड़े से बड़े क्रेन की सामर्थ्य के बाहर पड़ते हैं। लेकिन ये पत्थर चढ़ाए गए, यह तो साफ है, ये पत्थर चढ़ाकर और रखे गए, यह तो साफ है। और ये आदमी ने चढ़ाए हैं। इन आदमियों के पास कुछ चाहिए। तो या तो मशीन रही हो; और या फिर मैं कहता हूं चौथे शरीर की कोई शक्ति रही हो। वह मैं आपसे कहता हूं उसको आप कभी प्रयोग करके देखें।

एक आदमी को आप लिटा लें और चार आदमी चारों तरफ खड़े हो जाएं। दो आदमी उसके पैर के घुटने के नीचे दो अंगुलियां लगाएं दोनों तरफ और दो आदमी उसके दोनों कंधों के नीचे अंगुलियां लगाएं—एक—एक अंगुली ही लगाएं। और चारों संकल्प करें कि हम एक—एक अंगुली से इसे उठा लेंगे! और चारों श्वास को लें पांच मिनट तक जोर से, इसके बाद श्वास रोक लें और उठा लें। वह एक—एक अंगुली से आदमी उठ जाएगा।

तो पिरामिड पर जो पत्थर चढ़ाए गए, या तो क्रेन से चढ़ाए गए और या फिर साइकिक फोर्स से चढाए गए—कि चार आदमियों ने एक बड़े पत्थर को एक—एक अंगुली से उठा दिया। इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। लेकिन वे पत्थर चढे हैं, वे सामने हैं, और उनको इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे पत्थर चढ़े हुए हैं।

जीवन के अज्ञात रहस्यों की मनस शक्ति द्वारा खोज:

और दूसरी बात जो जानने की है वह यह जानने की है कि साइकिक फोर्स की इनफिनिट डायमेंशन हैं। एक आदमी जिसको चौथा शरीर उपलब्ध हुआ है, वह चांद के संबंध में ही जाने, यह जरूरी नहीं है। वह जानना ही न चाहे, चांद के संबंध में जानना ही न चाहे, जानने की उसे कोई जरूरत भी नहीं है। वे जो चौथे शरीर को विकसित करनेवाले लोग थे, वे कुछ और चीजें जानना चाहते थे, उनकी उत्सुकता किन्हीं और चीजों में थी, और ज्यादा कीमती चीजों में थी। उन्होंने वे जानी।

वे प्रेत को जानना चाहते थे कि प्रेतात्मा है या नहीं? वह उन्होंने जाना। और अब विज्ञान खबर दे रहा है कि प्रेतात्मा है। वे जानना चाहते थे कि लोग मरने के बाद कहां जाते हैं? कैसे जाते हैं? क्योंकि चौथे शरीर में जो पहुंच गया है उसकी पदार्थ के प्रति उत्सुकता कम हो जाती है; उसकी चिंता बहुत कम रह जाती है कि जमीन की गोलाई कितनी है। उसका कारण है कि वह जिस स्थिति में खड़ा होता है…

जैसे एक बड़ा आदमी है। छोटे बच्चे उससे कहें कि हम तुम्हें ज्ञानी नहीं मानते, क्योंकि तुम कभी नहीं बताते कि यह गुड्डा कैसे बनता है। हम तुम्हें ज्ञानी कैसे मानें! एक लड़का हमारे पड़ोस में है, वह बताता है कि गुड्डा कैसे बनता है, वह ज्यादा ज्ञानी है। उनका कहना ठीक है, उनकी उत्सुकता का भेद है। एक बड़े आदमी को कोई उत्सुकता नहीं है कि गुड्डे के भीतर क्या है, लेकिन छोटे बच्चे को है।

चौथे शरीर में पहुंचे हुए आदमी की इंक्वायरी बदल जाती है; वह कुछ और जानना चाहता है। वह जानना चाहता है कि मरने के बाद आदमी का यात्रापथ क्या है? वह कहां जाता है? वह किस यात्रापथ से यात्रा करता है? उसकी यात्रा के नियम क्या हैं? वह कैसे जन्मता है, वह कहां जन्मता है, कब जन्मता है? उसके जन्म को क्या सुनियोजित किया जा सकता है?

उसकी उत्सुकता इसमें नहीं थी कि चांद पर आदमी पहुंचे, क्योंकि यह बेमानी है, इसका कोई मतलब नहीं है। उसकी उत्सुकता इसमें थी कि आदमी मुक्ति में कैसे पहुंचे? और वह बहुत मीनिगफुल है। उसकी फिकर थी कि जब एक बच्चा गर्भ में आता है तो आत्मा कैसे प्रवेश करती है? क्या हम गर्भ चुनने में उसके लिए सहयोगी हो सकते हैं? कितनी देर लगती है?

तिब्बत में मृत आत्माओं पर प्रयोग:

अब तिब्बत में एक किताब है: तिबेतन बुक ऑफ दि डेड। तो अब तिब्बत का जो भी चौथे शरीर को उपलब्ध आदमी था, उसने सारी मेहनत इस बात पर की है कि मरने के बाद हम किसी आदमी को क्या सहायता पहुंचा सकते हैं। आप मर गए, मैं आपको प्रेम करता हूं लेकिन मरने के बाद मैं आपको कोई सहायता नहीं पहुंचा सकता। लेकिन तिब्बत में पूरी व्यवस्था है सात सप्ताह की, कि मरने के बाद सात सप्ताह तक उस आदमी को कैसे सहायता पहुंचाई जाए; और उसको कैसे गाइड किया जाए; और उसको कैसे विशेष जन्म लेने के लिए उत्पेरित किया जाए; और उसे कैसे विशेष गर्भ में प्रवेश करवा दिया जाए।

अभी विज्ञान को वक्त लगेगा कि वह इन सब बातों का पता लगाए; लेकिन यह लग जाएगा पता, इसमें अड़चन नहीं है। और फिर इसकी वैलिडिटी के भी सब उन्होंने उपाय खोजे थे कि इसकी जांच कैसे हो।

प्रधान लामा के चुनाव की विधि:

अभी फिलहाल जो लामा है…..तिब्बत में लामा जो है, पिछला लामा जो मरता है, वह बताकर जाता है कि अगला मैं किस घर में जन्म लूंगा; और तुम मुझे कैसे पहचान सकोगे, उसके सिंबल्स दे जाता है। फिर उसकी खोज होती है पूरे मुल्क में कि वह अब बच्चा कहां है। और जो बच्चा उस सिंबल का राज बता देता है, वह समझ लिया जाता है कि वह पुराना लामा है। और वह राज सिवाय उस आदमी के कोई बता नहीं सकता, जो बता गया था। तो यह जो लामा है, ऐसे ही खोजा गया। पिछला लामा कहकर गया था। इस बच्चे की खोज बहुत दिन करनी पड़ी। लेकिन आखिर वह बच्चा मिल गया। क्योंकि एक खास सूत्र था जो कि हर गांव में जाकर चिल्लाया जाएगा और जो बच्चा उसका अर्थ बता दे, वह समझ लिया जाएगा कि वह पुराने लामा की आत्मा उसमें प्रवेश कर गई। क्योंकि उसका अर्थ तो किसी और को पता ही नहीं था, वह तो बहुत सीक्रेट मामला है।

तो वह चौथे शरीर के आदमी की क्यूरिआसिटी अलग थी। वह अपनी उस जिज्ञासा… और अनंत है यह जगत, और अनंत हैं इसके राज, और अनंत हैं इसके रहस्य। अब ये जितनी साइंस को हमने जन्म दिया है, भविष्य में ये ही साइंस रहेंगी, यह मत सोचिए, और नई हजार साइंस पैदा हो जाएंगी, क्योंकि और हजार आयाम हैं जानने के। और जब वे नई साइंसेस पैदा होंगी, तब वे कहेंगी कि पुराने लोग विज्ञानिक न रहे, वे यह क्यों नहीं बता पाए?

नहीं, हम कहेंगे. पुराने लोग भी विज्ञानिक थे, उनकी जिज्ञासा और थी। जिज्ञासा का इतना फर्क है कि जिसका कोई हिसाब नहीं।

वनस्पतियों से बात करनेवाला वैद्य लुकमान:

अब जैसे कि हम कहेंगे कि आज बीमारियों का इलाज हो गया है, पुराने लोगों ने इन बीमारियों के इलाज क्यों न बता दिए! लेकिन आप हैरान होंगे जानकर कि आयुर्वेद में या यूनानी में इतनी जड़ी—बूटियों का हिसाब है, और इतना हैरानी का है कि जिनके पास कोई प्रयोगशालाएं न थीं वे कैसे जान सके कि यह जड़ी—बूटी फलां बीमारी पर इस मात्रा में काम करेगी?

तो लुकमान के बाबत कहानी है। क्योंकि कोई प्रयोगशाला तो नहीं थी, पर चौथे शरीर से काम हो सकता था। लुकमान के बाबत कहानी है कि वह एक—एक पौधे के पास जाकर पूछेगा कि तू किस काम में आ सकता है, यह बता दे। अब यह कहानी बिलकुल फिजूल हो गई है आज। आज कोई पौधे से.. .क्या मतलब है इस बात का? लेकिन अभी पचास साल पहले तक हम नहीं मानते थे कि पौधे में प्राण है। इधर पचास साल में विज्ञान ने स्वीकार किया कि पौधे में प्राण है। इधर तीस साल पहले तक हम नहीं मानते थे कि पौधा श्वास लेता है। इधर तीस साल में हमने स्वीकार किया कि पौधा श्वास लेता है। अभी पिछले पंद्रह साल तक हम नहीं मानते थे कि पौधा फील करता है। अभी पंद्रह साल में हमने स्वीकार किया कि पौधा अनुभूति भी करता है। और जब आप क्रोध से पौधे के पास जाते हैं तब पौधे की मनोदशा बदल जाती है, और जब आप प्रेम से जाते हैं तो मनोदशा बदल जाती है। कोई आश्चर्य नहीं कि आनेवाले पचास साल में हम कहें कि पौधे से बोला जा सकता है। यह तो क्रमिक विकास है। और लुकमान सिद्ध हो सही कि उसने पूछा हो पौधों से कि किस काम में आएगा, यह बता दे।

लेकिन यह ऐसी बात नहीं कि हम सामने बोल सकें, यह चौथे शरीर पर संभव है। यह चौथे शरीर पर संभव है कि पौधे को आत्मसात किया जा सके, उसी से पूछ लिया जाए। और मैं भी मानता हूं क्योंकि कोई लेबोरेटरी इतनी बडी नहीं मालूम पड़ती कि लुकमान लाख—लाख जडी—बूटियों का पता बता सके। यह इसका कोई उपाय नहीं है; क्योंकि एक—एक जड़ी—बूटी की खोज करने में एक—एक लुकमान की जिंदगी लग जाती है। वह एक लाख—करोड़ जड़ी—बूटियों के बाबत कह रहा है कि यह इस काम में आएगी। और अब विज्ञान सही कहता है कि ही, वह इस काम में आती है। वह आ रही है इस काम में।

यह जो सारी की सारी खोजबीन अतीत की है, वह सारी की सारी खोजबीन चौथे शरीर में उपलब्ध लोगों की ही है। और उन्होंने बहुत बातें खोजी थीं, जिनका हमें खयाल ही नहीं है।

अब जैसे कि हम हजारों बीमारियों का इलाज कर रहे हैं जो बिलकुल अवैज्ञानिक है। चौथे शरीरवाला आदमी कहेगा ये तो बीमारियां ही नहीं हैं, इनका तुम इलाज क्यों कर रहे हो?

लेकिन अब विज्ञान समझ रहा है। अभी एलोपैथी नये प्रयोग कर रही है। अभी अमेरिका के कुछ हास्पिटल्स में उन्होंने……. दस मरीज हैं एक ही बीमारी के, तो पांच मरीज को वे पानी का इंजेक्यान दे रहे हैं, पांच को दवा दे रहे हैं। बड़ी हैरानी की बात यह है कि दवावाले भी उसी अनुपात में ठीक होते हैं और पानीवाले भी उसी अनुपात में ठीक होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि पानी से ठीक होनेवाले रोगियों को वास्तव में कोई रोग नहीं था, बल्कि उन्हें बीमार होने का भ्रम भर था।

अगर ऐसे लोगों को, जिन्हें कि बीमार होने का भ्रम है, दवाइयां दी गईं तो उसका विषाक्त और विपरीत परिणाम होगा। उनका इलाज करने की कोई जरूरत नहीं है। इलाज करने से नुकसान हो रहा है, और बहुत सी बीमारियां इलाज करने से पैदा हो रही हैं, जिनको फिर ठीक करना मुश्किल होता चला जाता है। क्योंकि अगर आपको बीमारी नहीं है, और आपको फेंटम बीमारी है, और आपको असली दवाई दे दी गई, तो आप मुश्किल में पड़े। अब वह असली दवाई कुछ तो करेगी आपके भीतर जाकर; वह पायजन करेगी, वह आपको दिक्कत में डालेगी। अब उसका इलाज चलाना पड़ेगा। आखिर में फेंटम बीमारी मिट जाएगी और असली बीमारी पैदा हो जाएगी।

और सौ में से, पुराना विज्ञान तो कहता है, नब्बे प्रतिशत बीमारियां फेंटम हैं। अभी पचास साल पहले तक एलोपैथी नहीं मानती थी कि फेंटम बीमारी होती है। लेकिन अब एलोपैथी कहती है, पचास परसेंट तक हम राजी हैं। मैं कहता हूं नब्बे परसेंट तक चालीस वर्षों में, पचास वर्षों में राजी होना पड़ेगा; नब्बे परसेंट तक राजी होना पड़ेगा। क्योंकि असलियत वही है।

विज्ञान की भाषा अलग और पुराण की अलग:

यह जो……इस चौथे शरीर में जो आदमी ने जाना है, उसकी व्याख्या करनेवाला आदमी नहीं है, उसकी व्याख्या खोजनेवाला आदमी नहीं है। उसको ठीक जगह पर, ठीक आज के पर्सपेक्टिव में और आज के विज्ञान की भाषा में रख देनेवाला आदमी नहीं है। वह तकलीफ हो गई है। और कोई तकलीफ नहीं हो गई है। और जरा भी तकलीफ नहीं है। अब होता क्या है, जैसा मैंने कहा कि पैरेबल की जो भाषा है वह अलग है।

सूरज के सात घोड़े:

आज विज्ञान कहता है कि सूरज की हर किरण प्रिज्म में से निकलकर सात हिस्सों में टूट जाती है, सात रंगों में बंट जाती है। वेद का ऋषि कहता है कि सूरज के सात घोड़े हैं, सात रंग के घोड़े हैं। अब यह पैरेबल की भाषा है। सूरज की किरण सात रंगों में टूटती है, सूरज के सात घोड़े हैं, सात रंग के घोड़े हैं, उन पर सूरज सवार है। अब यह कहानी की भाषा है। इसको किसी दिन हमें समझना पड़े कि यह पुराण की भाषा है, यह विज्ञान की भाषा है। लेकिन इन दोनों में गलती क्या है? इसमें कठिनाई क्या है? यह ऐसे भी समझी जा सकती है। इसमें कोई अड़चन नहीं है।

विज्ञान बहुत पीछे समझ पाता है बहुत सी बातों को। असल में, साइकिक फोर्स के आदमी बहुत पहले प्रेडिक्ट कर जाते हैं। लेकिन जब वे प्रेडिक्ट करते हैं तब भाषा नहीं होती। भाषा तो बाद में जब विज्ञान खोजता है तब बनती है; पहले भाषा नहीं होती। अब जैसे कि आप हैरान होंगे, कोई भी गणित है, लैंग्वेज है, कोई भी दिशा में अगर आप खोजबीन करें, तो आप पाएंगे—विज्ञान तो आज आया है, भाषा तो बहुत पहले आई, गणित बहुत पहले आया। जिन लोगों ने यह सारी खोजबीन की, जिन्होंने यह सारा हिसाब लगाया, उन्होंने किस हिसाब से लगाया होगा? उनके पास क्या माध्यम रहे होंगे, उन्होंने कैसे नापा होगा? उन्होंने कैसे पता लगाया होगा कि एक वर्ष में पृथ्वी सूरज का एक चक्कर लगा लेती है? एक वर्ष में चक्कर लगाती है, उसी हिसाब से वर्ष है। वर्ष तो बहुत पुराना है, विज्ञान के बहुत पहले का है। वर्ष में तीन सौ पैंसठ दिन होते हैं, यह तो विज्ञान के बहुत पहले हमें पता हैं। जब तक किन्हीं ने यह देखा न हो.. .लेकिन देखने का कोई वैज्ञानिक साधन नहीं था। तो सिवाय साइकिक विजन के और कोई उपाय नहीं था।

मनस शक्ति द्वारा पृथ्वी को अंतरिक्ष से देखना:

एक बहुत अदभुत चीज मिली है। अरब में एक आदमी के पास सात सौ वर्ष पुराना दुनिया का नक्‍शा मिला है—सात सौ वर्ष पुराना दुनिया का नक्‍शा है। और वह नक्शा ऐसा है कि बिना हवाई जहाज के ऊपर से बनाया नहीं जा सकता; क्योंकि वह नक्‍शा जमीन पर देखकर बनाया हुआ नहीं है। बन नहीं सकता। आज भी पृथ्वी हवाई जहाज पर से जैसी दिखाई पड़ती है, वह नक्‍शा वैसा है। और वह सात सौ वर्ष पुराना है।

तो अब दो ही उपाय हैं. या तो सात सौ वर्ष पहले हवाई जहाज हो, जो कि नहीं था। दूसरा उपाय यही है कि कोई आदमी अपने चौथे शरीर से इतना ऊंचा उठकर जमीन को देख सके और नक्‍शा खींचे। सात सौ वर्ष पहले हवाई जहाज नहीं था, यह तो पक्का है। इसकी कोई कठिनाई नहीं है। यह तय है। सात सौ वर्ष पहले हवाई जहाज नहीं था, लेकिन यह सात सौ वर्ष पुराना नक्‍शा इस तरह है जैसे कि ऊपर से देखकर बनाया गया है। तो अब इसका क्या…….

शरीर की सूक्ष्मतम अंतस—रचना का ज्ञान:

अगर हम चरक और सुश्रुत को समझें तो हमें हैरानी हो जाएगी। आज हम आदमी के शरीर को काट—पीटकर जो जान पाते हैं, उसका वर्णन तो है। तो दो ही उपाय हैं या तो सर्जरी इतनी बारीक हो गई हो। जो कि नहीं दिखाई पड़ती; क्योंकि सर्जरी का एक इंसूमेंट नहीं मिलता, सर्जरी के विज्ञान की कोई किताब नहीं मिलती है। लेकिन आदमी के भीतर के बारीक से बारीक हिस्से का वर्णन है। और ऐसे हिस्सों का भी वर्णन है जो विज्ञान बहुत बाद में पकड़ पाया है; जो अभी पचास साल पहले इनकार करता था, उनका भी वर्णन है कि वे वहां भीतर हैं। तो एक ही उपाय है कि किसी व्यक्ति ने विजन की हालत में व्यक्ति के भीतर प्रवेश करके देखा हो।

असल में, आज हम जानते हैं कि एक्सरे की किरण आदमी के शरीर में पहुंच जाती है। सौ साल पहले अगर कोई आदमी कहता कि हम आपके भीतर की हड्डियों का चित्र उतार सकते हैं, हम मानने को राजी न होते। आज हमें मानना पड़ता है, क्योंकि वह उतार रहा है। लेकिन क्या आपको पता है कि चौथे शरीर की स्थिति में आदमी की आंख एक्सरे से ज्यादा गहरा देख पा सकती है, और आपके शरीर का पूरा—पूरा चित्र बनाया जा सकता है, जो कि कभी काट—पीटकर नहीं किया गया। और हिंदुस्तान जैसे मुल्क में, जहां कि हम मुर्दे को जला देते थे, काटने—पीटने का उपाय नहीं था।

सर्जरी पश्चिम में इसलिए विकसित हुई कि मुर्दे गड़ाए जाते थे, नहीं तो हो नहीं सकती थी। और आप जानकर यह हैरान होंगे कि यह अच्छे आदमियों की वजह से विकसित नहीं हुई, यह कुछ चोरों की वजह से विकसित हुई जो मुर्दों को चुरा लाते थे। हिंदुस्तान में तो विकसित हो नहीं सकती थी, क्योंकि हम जला देते हैं। और जलाने का हमारा खयाल था, कोई वजह थी, इसलिए जलाते थे।

यह साइकिक लोगों का ही खयाल था कि अगर शरीर बना रहे, तो आत्मा को नया जन्म लेने में बाधा पड़ती है; वह उसी के आसपास घूमती रहती है। उसको जला दो, ताकि इस झंझट से उसका छुटकारा हो जाए; वह इसके आसपास न घूमे; वह बात ही खत्म हो गई। और यह अपने सामने ही उस शरीर को जलता हुआ देख ले, जिस शरीर को इसने समझा था कि मैं हूं। ताकि दूसरे शरीर में भी इसको शायद स्मृति रह जाए कि यह शरीर तो जल जानेवाला है। तो हम उसको जलाते थे। इसलिए सर्जरी विकसित न हो सकी; क्योंकि आदमी को काटना पड़े, पीटना पड़े, टेबल पर रखना पड़े। यूरोप में भी चोरों ने लोगों की लाशें चुरा—चुराकर वैशानिकों के घर में पहुंचाईं, मुकदमे चले, अदालतों में दिक्कतें हुईं, क्योंकि वह लाश को लाना गैर—कानूनी था, और मरे हुए आदमी को काटना जुर्म है। लेकिन वे काट—काटकर जिन बातों पर पहुंचे हैं, उन्हें बिना काटे भी आज से तीन हजार वर्ष पुरानी किताबें पहुंच गईं उन बातों पर।

तो इसका मतलब सिर्फ इतना ही होता है कि बिना प्रयोग के भी किन्हीं और दिशाओं से भी चीजों को जाना जा सका है। कभी इस पर पूरी ही आपसे बात करना चाहूंगा। दस—पंद्रह दिन बात करनी पड़े, तब थोड़ा खयाल में आ सकता है।

आज इतना ही।


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मैं मृत्‍यु सिखाता हूं–(प्रवचन–15)

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संकल्प से साक्षी और साक्षी से आगे तथाता की परम उपलब्धि—(प्रवचन—पंद्रहवां)

(साक्षी की साधना करना बहुत बड़ा संकल्प है और तथाता की साधना करना तो साक्षी से भी बड़ा संकल्प है। यह महासंकल्प है। जब एक आदमी यह तय करता है कि मैं साक्षी बनकर जीऊंगा, तो इससे बड़ा संकल्प नहीं है दूसरा।)

भगवान श्री आपने कहा है कि यदि कोई साधक तीव्र संकल्प के साथ यह प्रयोग करे कि मैं मरना चाहता हूं मैं अपने केंद्र पर वापस लौटना चाहता हूं तो कुछ ही दिनों में उसके प्राण भीतर सिकुड़ने लगेंगे और साधक पहले भीतर से बाद में बाहर से अपने ही शरीर को मरा हुआ पड़ा देख सकता है तब उसका मृत्यु का भय सदा के लिए मिट जाता है। तो प्रश्न है कि क्या इस स्थिति में पुन: शरीर में सुरक्षापूर्वक वापस लौट सकें इसके लिए किसी विशेष तैयारी और सावधानी की आवश्यकता है? या वापस लौटना अपने आप हो जाता है? कृपया इस पर प्रकाश डालें।

नुष्य का जीवन बहुत अर्थों में उसके मन का ही जीवन है। जिसे हम शारीरिक घटना समझते हैं, वह भी गहरे में मानसिक घटना ही होती है। शरीर पर जो भी प्रकट होता है, उसका जन्म भी मन में ही होता है। इस संबंध में दो —चार बातें समझ लें, तो फिर जो प्रश्न पूछा है उसे समझना आसान होगा।

आज से पचास साल पहले तक सारी बीमारियां शारीरिक बीमारियां थीं। इन पचास सालों में बीमारी के संबंध में जितनी समझ बढ़ी है, उतना ही बीमारी का अनुपात शारीरिक कम होता गया और मानसिक ज्यादा होता गया। आज तो बड़े से बड़ा शरीरवादी भी यह स्वीकार करने को राजी है कि पचास प्रतिशत से ज्यादा बीमारियां मानसिक हैं। जो बीमारियां शारीरिक हैं, वे भी आधे से ज्यादा मन से ही प्रभावित होती हैं। मन ही हमारे व्यक्तित्व का आधार—बिंदु है। वहीं से हम जीते हैं, वहीं से हम बीमार पड़ते हैं, वहीं से हम मरते हैं। इसलिए संकल्प का बड़ा मूल्य है।

सम्मोहन का प्रयोग अगर आपने कभी देखा हो, तो सम्मोहन की दो —तीन छोटी —सी बातें इस संबंध में खयाल ले लेने जैसी हैं। अगर एक सम्मोहित व्यक्ति को जो मूच्‍छित है…..। और सम्मोहित व्यक्ति का अर्थ इतना ही होता है कि जिसका चेतन मन सो गया है और जिसका अचेतन मन जाग गया है। जिसका चेतन मन सो जाता है, वह संदेह करना बंद कर देता है, क्योंकि समस्त संदेह चेतन मन तक ही होते हैं। और हमारे मन के अगर हम दस खंड करें, तो एक खंड चेतन है और नौ खंड अचेतन हैं। हमारे मन के नौ हिस्से तो अंधेरे में अचेतन में हैं और एक सिर्फ छोटा—सा हिस्सा जागा है, चेतन है। यह चेतन मन ही संदेह करता है, विचार करता है, सोचता है। अगर यह चेतन मन सो जाए, तो फिर नीचे जो नौ खंड मन के रह जाते हैं, वे सिर्फ स्वीकार करते हैं। वहां कोई संदेह नहीं है।

तो सम्मोहित अवस्था का अर्थ है कि आपका संदेह करनेवाला मन सुला दिया गया और अब आपका निःसदिग्ध रूप से भाव करने वाला मन ही शेष रह गया। फिर हम इस सम्मोहित व्यक्ति के हाथ पर अगर कंकड़ रख दें और कहें कि हमने एक अंगारा रखा है, तो वह व्यक्ति चीख मारकर चिल्लाएगा। वह चीख ठीक वैसी ही होगी जैसे अंगारा रखने पर निकलती है। और हाथ से कंकड़ को वह ऐसे ही फेंक देगा, जैसे आपने उसके हाथ पर अंगारा रखा होता तो फेंकता। लेकिन यहां तक खात चल सकती है। उसके मन को खयाल हो गया। लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब उसका हाथ फफोला भी उठा देता है। उसके हाथ पर फफोला भी आ जाता है जैसा कि अंगारा रखने पर आया होता। रखा था आपने साधारण कंकड़, लेकिन उसके मन ने परिपूर्ण रूप से स्वीकार किया कि यह अंगारा है। तो शरीर के पास मन को इनकार करने का कोई उपाय नहीं है।

इस बात को ध्यान में ले लें। शरीर के पास मन को इनकार करने का कोई भी उपाय नहीं है। अगर मन ने किसी चीज को पूरी तरह स्वीकार कर लिया, तो शरीर को अनुगमन करना ही पड़ेगा। इससे उलटा भी हो जाता है। वह इससे भी ज्यादा चमत्कारपूर्ण है कि हाथ पर आप अंगारा रखें और

कहें कि ठंडा कंकड़ रखा है, तो वह आदमी अंगारे को पकड़े बैठा रहेगा और उसका हाथ अंगारे की वजह से फफोला नहीं उठाएगा। क्योंकि मन की स्वीकृति के बिना शरीर कुछ भी करने में असमर्थ है।

इसीलिए फकीर हैं जो नंगे पैरों से अंगारों पर नाच पाते हैं। उसमें कुछ चमत्कार नहीं है। मन के विज्ञान का छोटा —सा प्रयोग है। और अगर दस फकीर भरे हुए अंगारों के अलाव पर नाच रहे हैं, तो वे यह भी कह देते हैं कि किसी और को नाचना हो, तो वह भी आकर नाच ले। इसलिए धोखाधड़ी का उपाय नहीं है। आप भी नाच सकते हैं। लेकिन आप भी तभी नाचेंगे जब दस आदमियों को नाचते देखकर आपको पक्का भरोसा आ जाए कि वे जल नहीं रहे हैं। और जब आपको यह भरोसा आ गया कि दस नहीं जल रहे हैं तो मैं क्यों जलूंगा, बस आप भी उसी हालत में पहुंच गए, जिसमें सम्मोहित आदमी पहुंचता है। अब आपका एक हिस्सा मन संदेह नहीं कर रहा है, नौ हिस्सा मन विश्वास कर रहा है। अब आप कूद जाएं, आपके पैर भी नहीं जलेंगे। और जिसको थोड़ा —सा संदेह है, वह कूदेगा नहीं। जिसको संदेह नहीं है, वह कूद जाएगा। आग भी न जलाए, अगर मन स्वीकार करने को राजी नहीं है, और ठंडक भी जला दे, अगर मन जलने के लिए तैयार है।

सम्मोहन के प्रयोग मन के संबंध में बड़े गहरे सत्यों को प्रकट करते हैं। एक लड़की पर कुछ दिनों तक मैं प्रयोग कर रहा था। उसके घर ही ठहरा हुआ था। जब वह सम्मोहित थी, तो मैंने उससे कहा कि कमरे में तुम्हारी मां नहीं है। उसकी मा सामने ही बैठी हुई है और कोई आठ लोग बैठे हुए हैं। सब मिलाकर हम दस लोग उस कमरे में हैं। वह लड़की, मैं, और आठ लोग। दस लोग उस कमरे में हैं। मैंने उस लड़की से कहा कि तेरी मां इस कमरे के बाहर चली गई। अब तू आंख खोल और गिनती कर। उसने आंख खोली और गिनती की। गिनती उसने नौ तक की। क्योंकि मा जो सामने बैठी थी वह तो थी नहीं उसके लिए। मैंने उससे बहुत कहा कि सामने के सोफे पर कौन है! तो उसने कहा, आप भी कैसी बातें करते हैं। सोफा खाली है। उसकी मां ने उसको सोफे से आवाज दी, उस लड़की का नाम लेकर। उसने उस सोफे को छोड्कर पूरे कमरे में देखा कि मां की आवाज कहां से आ रही है। उस सोफे पर उसकी मां नहीं है।

फिर उसे दोबारा आंख बंद करने को कहा—और उसके पिता उस कमरे में मौजूद नहीं थे —और उससे कहा, अब तुम्हारे पिता आ गए हैं और सामने की कुर्सी पर आकर बैठे हुए हैं। आंख खोलो। उसने आंख खोली और उससे कहा, अब गिनती करो। उसने गिनती अब दस तक की। मां जो मौजूद थी उस कुर्सी पर, वह मौजूद नहीं है। उससे पूछा कि इस कुर्सी को तू पहले खाली कह रही थी, लेकिन अब गिनती क्यों कर रही है? उसने कहा कि पिता जी आकर बैठ गए हैं। पिता वहां नहीं हैं, लेकिन उसका मन अगर पूरी तरह स्वीकार कर ले, तो घटना घट जाएगी।

मन के संकल्प की बड़ी अदभुत संभावनाएं हैं। जो लोग जिंदगी में हारते हैं, उसमें परिस्थितियां कम होती हैं, उनके मन के हारने की स्वीकृति ज्यादा होती है। जो लोग जिंदगी में असफल ही होते चले जाते हैं, उनकी असफलता में संसार बहुत कम हाथ बंटाता है, सौ में से नब्बे हिस्से वे खुद ही जिम्मेवार होते हैं। और जब कोई आदमी नब्बे प्रतिशत हारने को तैयार है, तो दस प्रतिशत संसार उसका साथ न दे, तो ज्यादती होगी। दस प्रतिशत संसार उसका साथ देता है। इस दुनिया में जो लोग जीतते चले जाते हैं, उनका भी नियम वही है। जो लोग हारते चले जाते हैं, उनका भी नियम वही है। जो लोग स्वस्थ हैं, उनका भी नियम वही है। जो लोग बीमार हैं, उनका भी नियम वही है। इस जिंदगी में जो शांत हैं, उनका भी नियम वही है। जो अशांत हैं, उनका भी नियम वही है। आप क्या होना चाहते हैं, बहुत गहरे में वही हो जाते हैं। विचार वस्तुएं बन जाती हैं, विचार घटनाएं बन जाती हैं, विचार व्यक्तित्व बन जाता है। तो हम जहां जीते हैं, जैसे जीते हैं, उस जीने में हम ही बहुत गहरे में आधारभूत हैं। सारी बुनियादें हम रखते हैं। यह सत्य खयाल में आ जाए, तो जो पूछा है वह खयाल में आ सकता है।

मैंने कहा है कि व्यक्ति तब तक मृत्यु के भय से मुक्त नहीं हो सकता जब तक वह स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश न कर जाए, वालेंटरी। एक बार मृत्यु आएगी, लेकिन तब वह वालेंटरी नहीं होगी, स्वेच्छा से नहीं होगी, तब वह आएगी और आपको मजबूरी में प्रवेश करना पड़ेगा। और जिस स्थान पर आपको मजबूरी से जाना पड़ रहा है, वहा अगर आप जाते वक्त आंख बंद कर लें और बेहोश हो जाएं, तो आश्चर्य नहीं है। जहां आप घसीटे जा रहे हैं, वहां आप होशपूर्वक नहीं जा सकते। लेकिन यह अनिवार्यता का बंधन आवश्यक नहीं है। व्यक्ति जीते जी स्वेच्छा से मरकर देख सकता है। यह मृत्यु बहुत अदभुत है। साधारण जो मृत्यु होती है उससे बहुत ज्यादा अदभुत है। क्योंकि इसको स्वेच्छा से देखा गया है। आप कहेंगे, स्वेच्छा से कोई मर कर कैसे देख सकता है?

तो यह और समझ लें कि हमारे व्यक्तित्व में, हमारे शरीर में, हमारे पूरे यंत्र में दो हिस्से हैं—एक वालेंटरी और एक नान— वालेंटरी। कुछ हिस्से हैं, जो हमारी स्वेच्छा से चलते हैं। जैसे मैं इस हाथ को जब हिलाता हूं, तब हिलता है। अगर मैं न हिलाना चाहूं, तो नहीं हिलेगा। लेकिन इस हाथ के भीतर जो खून बह रहा है, वह मेरी स्वेच्छा से नहीं चलता कि मैं कहूं कि मत चलो तो न चले। वह नान—वालेंटरी है। मेरा हृदय धड़क रहा है। वह मेरी स्वेच्छा से नहीं धड़क रहा है कि मैं कहूं कि पांच मिनट जरा शात रहो, तो वह शांत हो जाए। मेरी नाड़ी चल रही है, वह स्वेच्छा से नहीं चल रही है। मेरे पेट में पाचन हो रहा है, वह स्वेच्छा से नहीं हो रहा है कि मैं कहूं आज पाचन मत करो, बंद रखो, तो पेट बंद रख दे।

हमारे व्यक्तित्व के संस्थान के दो हिस्से हैं—स्वेच्छा से चलने वाला और स्वेच्छा के अतीत चलने वाला। लेकिन अगर कोई व्यक्ति अपनी इच्छा की शक्ति को बढ़ाए, तो जो अभी स्वेच्छा के बाहर है, वह स्वेच्छा के भीतर आ जाएगा। अगर किसी व्यक्ति की स्वेच्छा की शक्ति कम हो जाए, तो जो इच्छा के भीतर है, वह इच्छा के बाहर हो जाएगा।

जैसे एक आदमी को लकवा लग गया। सौ में से सत्तर से ज्यादा लकवे मानसिक होते हैं। वस्तुत: लकवा लगा नहीं है, सिर्फ इस आदमी के स्वेच्छा के बाहर चले गए हैं पैर। अब यह कहता है चलो, वे नहीं चलते। असल में पैर बाहर नहीं चले गए, क्योंकि पैरों की क्या सामर्थ्य है बाहर जाने की। इसकी स्वेच्छा का वर्तुल छोटा हो गया है, इसकी इच्छा—शक्ति छोटी हो गई है, पैर बाहर पड़ गए हैं। जैसे चांदर छोटी हो गयी है, आप ओढ़े हैं तो पैर बाहर निकल गये हैं। पैर बाहर पड़ गये हैं, इसकी इच्छा—शक्ति की जो सीमा है, वह सिकुड़ गई है।

इसलिए ऐसा बहुत बार हुआ है कि आदमी को लकवा था, वर्षों से बीमार था, उठ नहीं सकता था, रात घर में आग लग गई, सारे लोग घर के बाहर पहुंच गए, तब उन्हें खयाल आया कि जिसको लकवा लगा है उसका क्या होगा। लेकिन वे देख रहे हैं कि वह तो उनके पीछे भागा चला आ रहा है। वह तो उठ नहीं सकता था! वे तो घबड़ा गए हैं, आग तो भूल गए हैं, इस आदमी को देखकर हैरान हैं कि तुम तो चल नहीं सकते थे, तुम चल कैसे रहे हो? और जब उन्होंने उसे टोका और पूछा कि आप चले रहे हैं? तो उसने कहा, मैं? मैं चल कैसे सकता हूं! वह वापिस गिर गया। आग की चोट और आग की घबड़ाहट में उसकी स्वेच्छा का वृत्त बड़ा हो गया। पैर भीतर आ गए चादर के। वह निकल आया। बाहर आकर उसे याद आया कि मैं चल कैसे सकता हूं! उसका स्वेच्छा का वृत्त फिर छोटा हो गया। पैर फिर बाहर पड़ गए।

नाड़ी की गति भी स्वेच्छा के भीतर आ जाती है। ऐसा नहीं कि बड़े —बड़े योगियों की आ जाती है। आपकी भी आ सकती है। कोई बहुत बड़े प्रयोग करने की जरूरत नहीं है। बैठकर एक मिनट भर नाड़ी की गति घड़ी रखकर नाप लें। फिर दस मिनट तक आंख बंद करके सिर्फ भाव करें कि नाड़ी की गति बढ़ रही है। फिर दस मिनट के बाद नापे, तो शायद ही एकाध आदमी ऐसा हो जिसकी गति न बढ़ जाए।

इसलिए डाक्टर जब आप की नाड़ी नापता है, तो वह उतनी कभी नहीं होती जितनी थी। डाक्टर के हाथ पकड़ने से ही घबराहट आपकी बढ़ गई होती है। और जैसे ही डाक्टर देखता है, आप अस्तव्यस्त हो गए होते हैं। नाड़ी की गति ज्यादा हो जाती है। और अगर लेडी डाक्टर है, तो और ज्यादा हो जाएगी, क्योंकि और घबराहट बढ़ गई।

हृदय की धड़कन भी स्वेच्छा के भीतर आ जाती है। करीब—करीब बंद होने की सीमा पर पहुंचाई जा सकती है। वैज्ञानिक प्रयोग हो चुके हैं और स्वीकृत हो गए हैं कि यह हो सकता है।

आज से कोई चालीस साल पहले बंबई मेडिकल कालेज में ही ब्रह्मयोगी नाम के एक व्यक्ति ने हृदय की सारी गति को बंद करके डाक्टरों को चकित कर दिया था। फिर आक्सफोर्ड में भी उसने प्रयोग किया था, फिर कलकत्ता युनिवर्सिटी में भी प्रयोग किया। वह तीन काम कर सकते थे। नाड़ी बिलकुल बंद कर लेते थे। न केवल नाड़ी बंद कर लेते थे, बल्कि अगर उनकी रक्तवाहिनी नस को काट दिया जाए, तो जब तक वह कहते तब तक खून गिरता और जब वह कहते रुक जाओ, तो खून वहीं ठहर जाता। फिर एक बूंद खून उनकी कटी हुई नस से बाहर नहीं निकल सकता था। तीसरा एक काम वे करते थे जिसमें उनकी मृत्यु हुई अंततः। वह किसी भी तरह का जहर ले लेते थे और आधे घंटे बाद उस जहर को शरीर के बाहर निकाल देते थे। जहर ली हुई हालत में उनके पेट के बहुत एक्सरे लिये गए। जब तक वे आशा न दें, तब तक उनके शरीर का कोई रस, कोई खून उस जहर से मिलता नहीं था। दोनों में फासला बना रहता था। बीच में गैप बना रहता था। रंगून में उनकी मृत्यु हुई। रंगून युनिवर्सिटी में उन्होंने प्रयोग किया और जिस कार में बैठ कर वे घर की तरफ चले—वह आधा घंटे से ज्यादा की उनकी सामर्थ्य नहीं थी—वह कार रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गई और घर पहुंचते —पहुंचते उन्हें पैंतालीस मिनट लग गए। वे घर बेहोश पहुंचे, क्योंकि तीस मिनट तक ही अपने संकल्प के वृत्त के बाहर रख सकते थे जहर को। तीस मिनट का अभ्यास था। तीस मिनट चूक गए। पंद्रह मिनट के लिए जहर को स्वेच्छा के भीतर पहुंचने का मौका मिल गया। वह प्रवेश कर गया।

लेकिन हमारे शरीर का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जो इच्छा के भीतर न लाया जा सके; और ऐसा भी कोई हिस्सा नहीं है, जो इच्छा के बाहर न जा सके। ये दोनों घटनाएं घट सकती हैं। स्वेच्छा से मृत्यु भी इसका गहरा प्रयोग है। वह इस बात का प्रयोग है कि हम संकल्पपूर्वक अपने प्राणों की ऊर्जा को सिकोड़ रहे हैं। ध्यान में रखने की बात यह है कि संकल्प अगर पूरा हो, तो ऊर्जा सिकुड़ेगी

ही। कोई उपाय नहीं है उसके पस। असल में हमारी जो जीवन—ऊर्जा फैली है, वह भी संकल्प का ही फल है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि जहां आप की आंखें हैं —आमतौर से हम सोचते हैं कि चूंकि यहां आंखें हैं इसलिए हम देख लेते हैं—लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि सचाई उलटी है। चूंकि हम यहां से देखना चाहते हैं, इसलिए यहां आंखें पैदा हो गई हैं। अन्यथा आंख की चमड़ी में और हाथ की चमड़ी में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। आंख पर भी जो है वह चमड़ी है। लेकिन वह चमड़ी देखनेवाली पारदर्शी हो गई है। वही चमड़ी नाक पर है, लेकिन वह चमड़ी सूंघने वाली है। उसका पारदर्शी होना सूंघने की दिशा में हो गया है। कान पर भी वही चमड़ी है, वही हड्डी है, वही तत्व है, लेकिन वे सुननेवाले हो गए हैं।

ये भी हमारे संकल्प के ही परिणाम हैं। करोड़ों वर्षों में, लाखों वर्षों में हमने जो संकल्प किया है, वह फलित हो गया। एक व्यक्ति का संकल्प नहीं है, कलेक्टिव विल है, समूह संकल्प है। पीढ़ी—दरपीढ़ी ऐसा होता रहा है। वह संकल्प फलित हो गया।

रूस में अभी एक स्त्री है जो अंगुलियों से पढ़ पाती है —बेल नहीं, अंधे की भाषा नहीं— साधारण किताब आंख बंद करके सिर्फ अंगुली अक्षरों पर रख कर पढ़ पाती है। अब ये अंगुलियां जीवन भर प्रयोग करने से इतनी संवेदनशील हो गई हैं कि जरा—सी काली रेखा के भेद को भी कोरे कागज से अलग कर पाती हैं। हमारी अंगुलिया इतना नहीं कर पाएंगी।

एक चित्रकार जब देखता है रंगों को, तो हमें सिर्फ हरे वृक्ष दिखाई पड़ते हैं, उसे हजार ढंग के हरे वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। हरे में भी हजार शेड होते हैं। साधारण आदमी के लिए हरा एक रंग है। चित्रकार के लिए जैसे रंगों की संवेदनशीलता है, उसके लिए हरा एक रंग नहीं है, हरा भी हजार रंग है। एक हरे और दूसरे हरे में उतना ही फर्क है जितना हरे और पीले में या हरे और लाल में फर्क है। लेकिन उतने बारीक शेड देखने के लिए आंखों की एक विशेष संवेदनशीलता चाहिए। वह हमें नहीं दिखाई पड़ती।

एक संगीतज्ञ को स्वरों की बहुत बारीक स्थितियां दिखाई पड़ती हैं, जो हमें कभी पकड़ में नहीं आतीं। संगीतज्ञ को न केवल स्वरों की बारीक स्थितियां दिखाई पड़ती हैं, बल्कि दो स्वरों के बीच में जो अंतराल होता है, जो शून्य होता है, वह भी अनुभव होने लगता है। असली संगीत वहीं से पैदा होता है। असली संगीत स्वरों से पैदा नहीं होता, स्वरों के बीच में जो साइलेंस के क्षण हैं, असली संगीत वहीं पैदा होता है। दो तरफ के स्वर उस शून्य को उभारने का काम भर करते हैं, और कुछ भी नहीं करते। लेकिन उस शून्य का हमें कोई पता नहीं है। संगीत हमारे लिए शोरगुल है, आवाजें है। संगीतज्ञ के लिए, जिसकी गहरी पैठ है, उसके लिए संगीत का शब्द से, स्वर से कोई संबंध नहीं है। दो स्वर तो सिर्फ बीच के निःस्वर स्थिति को उभारने के लिए हैं, इससे ज्यादा कुछ अर्थ नहीं है उनका। जिस चीज का हम प्रयोग करते हैं निरंतर, संकल्प करते हैं निरंतर, वह प्रकट होने लगती है।

मनुष्य का यह सारा व्यक्तित्व भी…… पक्षियों का, पौधों का, पशुओं का सारा व्यक्तित्व उनके संकल्प का ही फल है। हम जो गहरा संकल्प करते हैं, हम वही हो जाते हैं।

रामकृष्ण के जीवन में एक उल्लेख है, जो कीमती है। रामकृष्ण ने अपने जीवन में पांच —सात धर्मों की साधनाएं कीं। उनको यह खयाल आया कि सभी धर्म एक ही जगह पहुंचा देते हैं, तो मैं सभी

रास्तों पर चलकर देखूं कि वहां पहुंचा देते हैं कि नहीं पहुंचा देते हैं। तो उन्होंने ईसाइयत की साधना की, उन्होंने सूफियों की साधना की, उन्होंने वैष्णवों की साधना की, उन्होंने शैवों की साधना की तांत्रिकों की साधना की। जो भी उन्हें उपलब्ध हो सकी साधना, वह उन्होंने की। एक बहुत अदभुत घटना तो तब घटी….. क्योंकि ये सारी साधनाएं तो आंतरिक थीं, बाहर से पता नहीं चल सका। रामकृष्ण कहते थे तो ठीक था। जब रामकृष्ण सूफियों की साधना करते थे, तब हम कैसे बाहर से जानें कि उनके भीतर क्या हो रहा है। लेकिन फिर एक ऐसी साधना की पद्धति से वे गुजरे कि बाहर के लोगों को भी देखना पड़ा कि कुछ हो रहा है।

बंगाल में एक सखी—संप्रदाय है, जिसका साधक अपने को कृष्ण की प्रेयसी या पत्नी मानकर ही जीता है। सखी ही हो जाता है। वह पुरुष है या स्त्री, यह सवाल नहीं है। पुरुष एक ही रह जाते हैं कृष्ण और साधक उनकी प्रेयसी होकर, उनकी राधा बनकर, उनकी सखी बनकर जीता है। छह महीने तक रामकृष्ण ने सखी—संप्रदाय की साधना की। और आश्चर्य तो यह हुआ कि उनकी आवाज स्त्रैण हो गई। अगर वे दूर से बोलें, तो कोई भी न समझ पाए कि वे पुरुष हैं। उनकी चाल स्त्रैण हो गई। असल में स्त्री और पुरुष एक जैसा चल ही नहीं सकते, क्योंकि हड्डियों के कुछ बुनियादी फर्क हैं, चर्बी का कुछ बुनियादी फर्क है। स्त्री को चूंकि बच्चे को पेट में रखना है, इसलिए उसके पेट में एक विशेष जगह है, जो पुरुष के पास नहीं है। इसलिए उन दोनों की चाल में फर्क हो जाता है। उनके पैर अलग ढंग से पड़ते हैं। कोई स्त्री कितना ही संभल कर चले, उसका चलना कभी पुरुष जैसा नहीं हो सकता। स्त्री कभी पुरुष जैसा नहीं दौड़ सकती। कोई उपाय नहीं है। उसके ढांचे का भेद है।

लेकिन रामकृष्ण स्त्रियों जैसा दौड़ने लगे, स्त्रियों जैसा चलने लगे, स्त्रियों जैसी आवाज हो गई। यहां तक भी ठीक था कि कोई आदमी चाहे कोशिश करके स्त्रियों जैसा चलता हो, कोई आदमी कोशिश कर के स्त्रियों जैसा बोलता हो। लेकिन और भी हैरानी की बात हुई। रामकृष्ण के स्तन बड़े हो गए और स्त्रैण हो गए। यहां तक भी बहुत मामला नहीं था, क्योंकि बहुत लोगों को वृद्धावस्था में स्तन बड़े हो जाते हैं, पुरुषों को भी। लेकिन रामकृष्ण को मासिक धर्म शुरू हो गया, जो कि बहुत चमत्कार की घटना थी और नियमित स्त्रियों की भांति उसका वर्तुल चलने लगा। यह मेडिकल साइंस के लिए बहुत चिंतनीय घटना थी कि यह कैसे हो सकता है। और रामकृष्ण ने छह महीने के बाद जब साधना छोड़ दी, तब भी उनके ऊपर कोई डेढ़ साल तक उसके असर रहे। डेढ़ साल लग गया उसको वापस विदा होने में। संकल्प…… अगर रामकृष्ण ने पूरे मन से यह मान लिया कि मैं सखी हूं कृष्ण की तो व्यक्तित्व सखी का हो जाएगा।

यूरोप में बहुत—से ईसाई फकीर हैं जिनके हाथ पर स्टिगमैटा प्रकट होता है। स्टिगमैटा का मतलब है कि जीसस को जब सूली दी गई, तो उनके हाथों में खीले ठोंके गए। खीले ठोंकने से उनके हाथ से खून बहा। तो बहुत से फकीर हैं जो शुक्रवार को जिस दिन जीसस को सूली हुई उस दिन सुबह से ही जीसस के साथ अपने को आइडेटीफाई कर लेते हैं। वे जीसस हो जाते हैं। ठीक सूली का क्षण आते — आते हजारों लोगों की भीड़ देखती रहती है। वे हाथ फैलाए खड़े रहते हैं। फिर उनके हाथ फैल जाते हैं जैसे सूली पर लटक गए हों। और हाथों में, जिनमें खीलें नहीं ठुके हैं, उनसे खून की धाराएं बहनी शुरू हो जाती हैं। वे इतने संकल्प से जीसस हो गए हैं और सूली लग गई है। तो हाथ से छेद होकर खून बहने लगता है बिना किसी उपकरण के, बिना किसी छेद किए, बिना कोई खीला चुभाए।

मनुष्य के संकल्प की बड़ी संभावनाएं हैं। लेकिन हमें कुछ खयाल में नहीं है। यह जो मृत्यु का स्वेच्छा से प्रयोग है, यह संकल्प का गहरा से गहरा प्रयोग है। क्योंकि साधारणत: जीवन के पक्ष में संकल्प करना कठिन नहीं है। हम जीना ही चाहते हैं। मृत्यु के पक्ष में संकल्प करना बहुत कठिन बात है। लेकिन जिन्हें भी सच में ही जीने का पूरा अर्थ जानना हो, उन्हें एक बार मर कर जरूर देखना चाहिए। क्योंकि बिना मर कर देखे वे कभी नहीं जान सकेंगे कि उनके पास कैसा जीवन है, जो नहीं मर सकता। उनके पास कुछ जीवन है जो अमृत की धारा है। इसे जानने के लिए उन्हें मृत्यु के अनुभव से गुजरना जरूरी है। क्योंकि एक बार वे स्वेच्छा से मर कर देख लें, फिर दोबारा उन्हें मरने का भय नहीं रह जाएगा। फिर मृत्यु है ही नहीं।

तो सिर्फ पूर्ण संकल्प से कि मेरी चेतना सिकुड़ रही है, मैं अपने को चारों तरफ से सिकोड़ लेता हूं। आंख बंद करके मैं अपने को सिकोड़ता हूं कि मेरी चेतना सिकुड़ रही है, उसने पैरों से यात्रा भीतर की तरफ शुरू कर दी, हाथों से भीतर की तरफ शुरू कर दी, मस्तिष्क से भीतर की तरफ शुरू कर दी। उस केंद्र पर ऊर्जा इकट्ठी होने लगी, जहां से फैली थी। वापस सब किरणें लौटने लगीं। इसका सघन मन से किया गया प्रयोग एक क्षण में अचानक सारे शरीर को मृत कर देता है और एक बिंदु कोई भीतर जीवित बिंदु रह जाता है। सारा शरीर अलग मुर्दे की तरह पड़ा रह जाता है, सिर्फ शरीर के भीतर एक बिंदु जीवित हो जाता है। यह जीवित बिंदु अब भलीभांति देखा जा सकता है कि शरीर से भिन्न है। ऐसे ही जैसे बहुत अंधेरे में बहुत—सी किरणें फैली हों और पता न चलता हो कि क्या किरण है और क्या अंधेरा है। लेकिन सारी किरणें सिकुड़ कर एक जगह आ जाएं, तो अंधेरा और किरणों का कंट्रास्ट साफ हो जाए कि अलग हो गया।

जब हमारे भीतर प्राण की ऊर्जा इकट्ठी एक बिंदु पर आकर घनीभूत हो जाती है, कंडेन्स, इकट्ठी हो जाती है तो सारा शरीर अलग और वह बिंदु अलग मालूम होने लगता है। अब जरा —से संकल्प की जरूरत है कि आप शरीर के बाहर हो सकते हैं। सिर्फ सोचें कि मैं बाहर हूं, और आप बाहर हैं। और अब बाहर से खड़े होकर इस शरीर को पड़ा हुआ देख सकते हैं कि यह मुर्दे की तरफ पड़ा हुआ है। छोटा—सा एक धागे की तरह कोई चीज इस शरीर से अब भी जोड़े रहेगी। वही द्वार है आने —जाने का। एक सिलवर कार्ड, एक स्वर्ण धागा इस शरीर की नाभि से आपको जोड़े रहेगा।

जैसे ही यह बिंदु बाहर आएगा, वैसे ही एक और नई हैरानी का अनुभव होगा कि इस बिंदु ने फिर नए शरीर का रुख ले लिया। यह फिर फैलकर एक नया शरीर बन गया। यह शरीर सूक्ष्म शरीर है। यह शरीर बिलकुल इसकी ही प्रतिलिपि है जैसा यह शरीर है। लेकिन बहुत जिसको कहें धूमिल, फिल्मी, ट्रासपेरेंट, पारदर्शी। अगर हाथ को हिलाएं, तो उसके आर—पार निकल जाएगा, लेकिन उसका कुछ बिगड़ेगा नहीं।

तो पहला तत्व है इस संकल्प की साधना का, सारे प्राणों को एक बिंदु पर इकट्ठा कर लेना। और जब एक बिंदु पर वे इकट्ठे हो जाएं, तो यह ऐसे छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। सिर्फ इच्छा, कि बाहर यानी बाहर। और सिर्फ इच्छा, कि वापिस भीतर तो यानी भीतर। इसमें कुछ करने का नहीं है। बस करने का प्रयोग तो सिर्फ ऊर्जा को इकट्ठा करना है। एक दफा ऊर्जा इकट्ठी हो जाए, तो आप बाहर— भीतर हो सकते हैं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है।

और यह अनुभव एक बार साधक को हो जाए, तो उसकी जीवन—यात्रा तत्काल ही बदल जाती है, रूपांतरित हो जाती है। कल तक फिर जिसे वह जीवन कहता था, अब जीवन न कह सकेगा। और कल तक जिसे मृत्यु कहता था, उसे मृत्यु भी न कह सकेगा। और कल तक जिन चीजों के लिए दौड़ रहा था, अब दौड़ जरा मुश्किल हो जाएगी। और कल तक जिन चीजों के लिए लड़ रहा था, अब लड़ना मुश्किल हो जाएगा। और कल तक जिन चीजों की उपेक्षा की थी, अब उपेक्षा न कर सकेगा। जिंदगी बदलेगी, क्योंकि एक ऐसा अनुभव जिंदगी में आया है कि इसके बाद जिंदगी वही नहीं हो सकती जो इसके पहले थी। इसलिए प्रत्येक ध्यान के साधक को एक न एक दिन आउट बाडी एक्सपीरिएंस, यह शरीर के बाहर जाने का अनुभव अनिवार्य चरण है, जो उसके भविष्य के लिए बड़े अदभुत परिणाम ले आने लगता है।

कठिन नहीं है यह, संकल्प भर चाहिए। संकल्प कठिन है, यह प्रयोग कठिन नहीं है। संकल्प कठिन है। और इसलिए कोई सीधा चाहे कि इस प्रयोग को कर ले, तो जरा मुश्किल पड़ेगी। उसे छोटे —छोटे संकल्प के प्रयोग करने चाहिए। उसे छोटे —छोटे प्रयोग करने चाहिए। जब वह छोटे —छोटे प्रयोगों में सफल होता जाता है, तो उसकी संकल्प की सामर्थ्य बढ़ती चली जाती है।

इस सारे जगत में धर्म की साधनाएं वस्तुत: धर्म की साधनाएं नहीं हैं, संकल्प—पूर्व तैयारिया हैं। जैसे एक आदमी तीन दिन का उपवास कर लेता है, यह सिर्फ संकल्प की साधना है। उपवास से कोई फायदा नहीं होता, फायदा होता है संकल्प से। उपवास से कोई फायदा नहीं हो रहा है, फायदा हो रहा है संकल्प से। कि उसने तीन दिन का संकल्प किया तो उसको पूरा निभाता है। कि एक आदमी कहता है कि मैं बारह घंटे खड़ा रहूंगा एक ही जगह पर। खड़े रहने से कोई फायदा नहीं हो जाता, फायदा होता है खड़े रहने के संकल्प से, उसकी पूर्णता से। धीरे — धीरे क्या हुआ कि मूल बात खयाल से भूल गई है कि ये संकल्प के प्रयोग हैं। अब एक आदमी खड़े होने को ही समझ रहा है कि काफी है, वह खड़ा ही है। वह यह भूल ही गया है कि खड़ा होने से कोई प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन है उस भीतरी संकल्प का जो कि खड़े होने का निर्णय करता है, तो उसे पूरा करता है।

ये संकल्प किसी भी तरह से पूरे किए जा सकते हैं। ये बहुत छोटे —छोटे संकल्प हैं, ये कोई बहुत बड़े संकल्प नहीं हैं। कि एक आदमी इस गैलरी में खड़ा हो जाए और संकल्प कर ले कि छह घंटे तक खड़ा रहूंगा, लेकिन नीचे झांक कर न देखूंगा, तो भी काम हो जाएगा। सवाल यह नहीं है कि नीचे झांक कर नहीं देखने से कोई फायदा होने वाला है। सवाल यह है कि उसने तय किया, वह उसे पूरा कर रहा है। जब कोई आदमी जो तय करता है, उसे पूरा कर लेता है, तो उसके भीतर की ऊर्जा बलवान हो जाती है, वह आत्मवान होने लगता है। उसे लगता है कि मैं ऐसा हवा के झोंके पर डोलता हुआ कुछ नहीं हूं। उसके भीतर एक तरह का क्रिस्टलाइजेशन, उसके भीतर कुछ क्रिस्टल बनने शुरू हो जाते हैं। उसके व्यक्तित्व में पहली दफा कुछ बुनियादें पड़नी शुरू हो जाती हैं।

बहुत छोटे—छोटे संकल्पों का प्रयोग करना चाहिए और छोटे —छोटे संकल्पों से ऊर्जा इकट्ठी करनी चाहिए। और हमें जिंदगी में बहुत मौके हैं। आप कार में बैठे जा रहे हैं। आप इतना ही संकल्प कर ले सकते हैं कि आज मैं रास्ते के किनारे लगे बोर्ड नहीं पढूंगा। इसमें किसी का कोई हर्जा नहीं हुआ जा रहा है। इससे किसी का कोई नुकसान—फायदा कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन आपके संकल्प के लिए मौका मिल जाएगा और किसी को कहने की भी कोई जरूरत नहीं। यह आपकी भीतरी यात्रा है कि आप कहते हैं कि मैं यह नहीं पढूंगा आज, जो किनारे पर बोर्ड लगे हैं। और आप पाएंगे कि आधा घंटा कार में बैठना व्यर्थ नहीं गया। जितने आप कार में बैठे थे, उससे कुछ ज्यादा होकर कार के बाहर उतरे हैं। आपने कुछ उपलब्ध किया, जब कि आप ऐसे बैठकर कुछ भी खोते। यह सवाल बड़ा नहीं है कि आप कहां प्रयोग करते हैं। मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं। कुछ भी प्रयोग कर सकते हैं। जिस प्रयोग से भी आपके संकल्प को ठहरने की सामर्थ्य बढ़ती हो, उसे आप कर सकते हैं। ऐसे छोटे —छोटे प्रयोग करते रहें।

अब एक आदमी को हम कहते हैं कि ध्यान में चालीस मिनट’ आंख ही बंद रखो। तीन दफे वह आंख खोलकर देख लेता है बीच में। अब यह आदमी संकल्पहीन है, आत्महीन है। आंख बंद करने का बड़ा फायदा और नुकसान नहीं है। लेकिन चालीस मिनट तय किया तो यह आदमी चालीस मिनट आंख भी नहीं बंद रख सकता, तो और इससे बहुत आशा रखना कठिन है। इस आदमी से हम कह रहे हैं कि दस मिनट गहरी श्वास लो। वह दो मिनट के बाद ही धीमी श्वास लेने लगता है। फिर उससे कहो गहरी श्वास लो, फिर एकाध —दो गहरी श्वास लेता है, फिर धीमी लेने लगता है। वह आत्मवान नहीं है। दस मिनट गहरी श्वास लेना कोई बड़ी कठिन बात नहीं है। और सवाल यह नहीं है कि दस मिनट गहरी श्वास लेने से क्या मिलेगा कि नहीं मिलेगा। एक बात तय है कि दस मिनट गहरी श्वास के संकल्प करने से यह आदमी आत्मवान हो जाएगा। इसके भीतर कुछ सघन हो जाएगा। यह किसी चीज को जीतेगा, किसी रेसिस्टेंस को तोड़ेगा। और वह जो वैगरेंट माइंड है, वह जो आवारा मन है, वह आवारा मन कमजोर होगा। क्योंकि उस मन को पता चलेगा कि इस आदमी के साथ नहीं चल सकता। इस आदमी के साथ जीना है, तो इस आदमी की माननी पड़ेगी।

और आप रोज कार में बैठ कर निकलते हैं, हो सकता है, आप कभी पास के बोर्ड न पढ़ते हों, लेकिन जिस दिन आप तय करेंगे कि आज बोर्ड नहीं पढ़ना है, तो उस दिन मन पूरी कोशिश करेगा कि पढ़ो। क्योंकि मन की ताकत आपके संकल्पहीन होने में निर्भर है। इधर आपका संकल्पवान होना, उधर मन की मौत है। विल जितनी मजबूत हो, मन उतना मुर्दा है। मन जितना मजबूत है, संकल्प उतना क्षीण है। तो वह रोज कभी नहीं कहता था, क्योंकि रोज आपने उसको चुनौती न दी थी। आज यह भी उसके लिए चुनौती का सवाल है। वह हजार बहाने खोजेगा, वह कहेगा, यह तो देखना बिलकुल जरूरी था इसलिए देखा। वह कहेगा, इतने जोर की आवाज आ .रही है, दंगाफसाद हो गया, जरा तो बाहर देखो कि क्या हो रहा है! वह भुलाने की कोशिश करेगा, वह दूसरी बातों में लगा लेगा, ताकि आपको यह खयाल भूल जाए और आप एक दफे बाहर झांककर देख लें और बोर्ड पढ़ लें। सारा उपाय करेगा। यह ऐसा ही है।

हम मन के साथ ही जीते हैं। साधक संकल्प के साथ जीना शुरू करता है। जो मन के साथ जीता है, वह साधक नहीं है। जो संकल्प के साथ जीता है, वह साधक है। साधक का मतलब ही यह है कि मन जो है वह अब संकल्प में रूपांतरित हो रहा है।

तो बहुत छोटे —छोटे मुद्दे चुन लें। आप खुद ही चुन लेंगे, इसमें कोई कठिनाई नहीं है, बहुत छोटे —छोटे मुद्दे चुन लें। और चौबीस घंटे में दो—चार प्रयोग कर लें जिनका किसी को पता नहीं चलेगा। अलग बैठकर करने की कोई जरूरत नहीं है, किसी को खबर करने की जरूरत नहीं है, बस चुपचाप कर लें और गुजर जाएं। बहुत छोटे..।

छोटा—सा संकल्प कि जब कोई क्रोध करेगा, तब मैं हसूंगा। और आपके ऊपर किए गए प्रत्येक

क्रोध की इतनी अदभुत कीमत आपको मिल जाएगी कि आप जिसने क्रोध किया, उसको धन्यवाद देंगे। एक छोटा—सा संकल्प कि जब भी मुझ पर कोई क्रोध करेगा, मैं हसूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए। आप एक पंद्रह दिन के बाद पाएंगे कि आप दूसरे आदमी हो गए, आपकी क्वालिटी बदल गई। आप वही आदमी नहीं हैं जो पंद्रह दिन पहले थे। बहुत छोटे —से निर्णय करें और उनको जीने की कोशिश करें। और उस जीने की कोशिश से धीरे— धीरे जब आपको ऐसा भरोसा आने लगे कि अब मैं कोई बड़े संकल्प कर सकता हूं तो थोड़े बड़े संकल्प करें। और अंतिम संकल्प साधक को करने जैसा है स्वेच्छा से मरने का। किसी दिन जब आपको यह लगे कि अब मैं यह कर सकता हूं तो करें। जिस दिन आप उस संकल्प को करके शरीर को मुर्दे की तरह देख लेंगे, उस दिन से दुनिया का कोई धर्मशास्त्र आपके लिए कोई नई बात कहने वाला नहीं रह जाएगा। उस दिन से दुनिया का कोई गुरु आपको कोई नई बात न बता सकेगा।

भगवान श्री आत्म— हत्या करने वाला व्यक्ति भी स्वेच्छा से अपने आप को मार डालने की कोशिश करता है और जब तक वह पूरा मर नहीं जाता तब तक उसको मृत्यु की प्रक्रिया का पता चलता रहता है— कि शरीर क्रमश: ठंडा हो रहा है प्राण सिकुड़ रहे हैं आदि लेकिन अंतिम स्थिति से वह लौटकर नहीं आता तो क्या आत्म— हत्या स्वेच्छा से आयोजित मृत्यु के प्रयोग जैसा ही नहीं है?

त्म—हत्या का प्रयोग भी किया जा सकता है संकल्प के लिए, लेकिन साधारणत: आत्म—हत्या करने वाले लोग इसके लिए करते नहीं हैं। आमतौर से जो आदमी आत्म —हत्या करता है वह आदमी खुद आत्म —हत्या करता है, ऐसा नहीं है। अक्सर तो वह आदमी यह अनुभव करता है कि कुछ लोग मुझे आत्म—हत्या के लिए मजबूर कर रहे हैं। कुछ परिस्थितियां, कुछ घटनाएं उसे आत्म—हत्या करने के लिए मजबूर कर रही हैं। अगर परिस्थितिया ऐसी नहीं होतीं, तो वह आत्म—हत्या नहीं करता। किसी को उसने प्रेम से चाहा था और वह उसे नहीं मिल सका। अब वह मरने जा रहा है। अगर वह उसको मिल जाता, तो मरने न जाता। असल में आत्म—हत्या करने वाला मरने की तैयारी नहीं दिखा रहा है। उसकी जीने की एक शर्त के साथ तैयारी थी, वह शर्त पूरी नहीं हुई, इसलिए वह जीने से इनकार कर रहा है। मरने में उसका रस नहीं है। उसका जीवन में रस नहीं रह गया। तो एक तो उसकी आत्म—हत्या मजबूरी की है। इसलिए किसी भी आत्म—हत्या करनेवाले को अगर दो क्षण के लिए रोका जा सके तो फिर शायद दोबारा वह आत्म—हत्या न करे। दो क्षण की देरी काफी हो सकती है। क्योंकि दो क्षण में उसका मन फिर बिखर जाएगा। क्योंकि वह जबर्दस्ती इकट्ठा हुआ था।

और आत्म—हत्या करने वाला व्यक्ति संकल्प नहीं कर रहा है। सच तो यह है कि संकल्प से भाग रहा है। आत्म—हत्या करने वाला व्यक्ति आमतौर से बहादुर नहीं होता, कायर होता है। असल में जिंदगी उससे संकल्प करने की मांग कर रही थी। जिंदगी कह रही थी कि कल जिसे तूने प्रेम किया अब संकल्प कर, उसे भूल जा। यह उसकी सामर्थ्य नहीं है। जिंदगी कह रही है कि कल जिसे तूने प्रेम किया था अब उसे छोड़, अब किसी और को प्रेम कर। यह उसकी सामर्थ्य नहीं है। जिंदगी उससे कहती है कि कल तू धनी था, आज तू बैंक्रप्ट है, दिवालिया है, फिर भी जी। यह उसकी हिम्मत नहीं है। वह जिंदगी में संकल्प कहीं भी नहीं कर पा रहा है। अब उसको एक ही रास्ता दिखता है कि मौत में डूब जाए। यह वह संकल्पों से बचने के लिए कर रहा है। यह उसका संकल्प नहीं है, यह उसका पाजिटिव विल नहीं है। यह उसका निगेटिव विल है।

तो निगेटिव विल, नकारात्मक संकल्प का कोई फायदा नहीं है। यह आदमी और भी कमजोर आत्मा लेकर पैदा होगा। जितनी कमजोर आत्मा थी, उससे भी कमजोर आत्मा लेकर पैदा होगा। क्योंकि जहां इसे अवसर मिला था संकल्प को जगाने का, वहां से यह भाग खडा हुआ है। यह ऐसा ही है कि जैसे एक बच्चे की परीक्षा करीब आई हो और वह क्लास छोड्कर भाग गया है। ऐसे उसने भी संकल्प किया है, क्योंकि जब तीस लोग परीक्षा दे रहे थे, तब वह निकल भागा है। लेकिन यह संकल्प नकारात्मक है। संकल्प था परीक्षा का, वह विधायक था। वहां संघर्ष था। वह संघर्ष से भाग निकला है। एस्केपिस्ट भी संकल्प करता है। जब शेर को देखकर एक आदमी भागता है और झाडू पर चढ़ता है, तो वह भी संकल्प करता है। लेकिन हम यह नहीं कहेंगे कि उससे वह संकल्पवान हो जाएगा, क्योंकि आखिर भाग रहा है, पलायन कर रहा है। तो सुसाइडल वृत्ति जो है, वह पलायनवादी, एस्केपिस्ट है। उसमें संकल्प नहीं है।

लेकिन ही, मृत्यु का उपयोग संकल्प के लिए किया जा सकता है। वह दूसरी बात है। जैसे कि महावीर की परंपरा में मृत्यु का उपयोग भी संकल्प के लिए किया गया है। अगर कोई साधक मृत्यु का उपयोग करना चाहे संकल्प के लिए, तो सिर्फ महावीर अकेले व्यक्ति हैं सारी दुनिया में, जिन्होंने छूट दी है। बाकी किसी आदमी ने छूट नहीं दी। सिर्फ महावीर ने कहा है कि मृत्यु का उपयोग तुम कर सकते हो साधना के लिए। लेकिन मृत्यु ऐसी नहीं कि जहर खाकर मर जाओ। क्योंकि यह एक क्षण में हो जाएगा। एक क्षण में संकल्प का कभी पता नहीं चलता। संकल्प के लिए लंबी श्रृंखला चाहिए क्षणों की।

तो महावीर कहते हैं कि उपवास कर लो और भूखे मर जाओ। साधारण स्वस्थ आदमी हो तो भूखा मरने में नब्बे दिन लगते हैं। अगर जरा भी संकल्प कमजोर है, तो दूसरे ही दिन खाने की इच्छा होगी। तीसरे दिन सोचेगा कि अब कहां हम बचें, किस तरह भागें, यह क्या उपद्रव कर लिया! लेकिन नब्बे दिन तक सस्टेंड, मरने की इच्छा पर कायम रहना बड़ी कठिन बात है। इसलिए इसमें धोखे का डर नहीं है। महावीर ने कहा, भूखे रहो और मर जाओ। इसमें धोखे का डर इसलिए नहीं है कि जो नब्बे दिन में जरा भी संकल्पहीन आदमी होगा, वह कभी का भाग गया होगा। इसका उपाय नहीं है।

हां, जहर लेकर मरने को कहें, नदी में डूबकर मरने को कहें, पहाड़ से कूदकर मरने को कहें, तो एक क्षण की घटना है। एक क्षण के लायक संकल्प हम सभी जुटा लेते हैं। मगर एक क्षण का बहादुर युद्ध के मैदान में काम का नहीं है, क्योंकि दूसरे क्षण वह कायर हो जाएगा। और इतने ही संकल्पपूर्वक जितने संकल्पपूर्वक वह बहादुर हुआ था, उतने ही संकल्पपूर्वक कायर हो जाएगा।

तो महावीर ने संथारा के आत्म—मरण की स्वीकृति दी है साधना के लिए कि कोई व्यक्ति अगर चाहे कि वह अपनी आखिरी कसौटी मृत्यु में भी कसना चाहता है, तो कस ले। वैसे यह बड़ी कीमत की बात है और सोचने जैसी है। क्योंकि महावीर अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं सारी पृथ्वी पर, जिनकी आज्ञा है कि साधक ऐसा कर सकता है। इसके दो कारण हैं।

एक तो कारण यह है कि महावीर को पक्का भरोसा है कि कोई मरता नहीं है, इसलिए मरने के लिए कोई इतनी चिंता करने की जरूरत नहीं है। इसका पक्का भरोसा है कि कोई मरता नहीं है। इसलिए कोई हर्जा नहीं है। एक प्रयोग करते हो, करो। दूसरा, इसका भी अनुभव और पक्का भरोसा है कि कोई आदमी पचास दिन, साठ दिन, सत्तर दिन, अस्सी दिन, नब्बे दिन, सौ दिन तक निःसदिग्ध भाव से मृत्यु की कामना करे, यह इतनी महान घटना है कि साधारण घटना नहीं है।

एकाध क्षण के लिए मरने का खयाल तो हम सबको आता है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिसने जिंदगी में दो —चार दफे मरना न चाहा हो। नहीं मरा है, यह दूसरी बात है। ऐसे क्षण आ ही जाते हैं, जब आदमी मरना चाहता है। फिर एक चाय का प्याला पी लेता है और भूल जाता है। पत्नी सोचती है कि पति के खिलाफ अब फांसी लगा लो, लेकिन पति आकर कह देता है कि टिकट ले आया हूं पिक्चर की, तो वह छोड़ देती है कि छोड़ो भी, ऐसे मरने में क्या रखा हुआ है।

मैं एक जगह रहता था। और मेरे पड़ोस में एक बंगाली प्रोफेसर रहते थे। पहले दिन ही जब मैं वहां रुका, तो रात पति और पत्नी में बहुत जोर से झगड़ा हो गया। तो दीवाल से आरपार मुझे सुनाई पड़ता था। तो मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा कि मुझे जाना चाहिए, क्योंकि कोई है नहीं। क्योंकि पति बिलकुल मरने की धमकी दे रहा था कि मर जाऊंगा। अब अपरिचित लोग थे 1 मैंने उचित भी नहीं माना कि मैं एकदम जाऊं। पहले ही दिन रुका हूं इस कमरे में और पड़ोस में यह हो रहा है। फिर यह भी लगा कि परिचय— अपरिचय का मामला नहीं है यह, यह आदमी मर जाए तो मैं भी जिम्मेवार हूं। लेकिन फिर भी मैंने संयम रखा कि भई जब यह जाने ही लगें मरने के लिए, तब बाहर जाकर रोक लूंगा। थोड़ी देर बाद बातचीत बंद हो गई, तो मैंने समझा निपटारा हो गया। लेकिन फिर मैंने सोचा कि बाहर जाकर देखूं कि बात क्या है। जाकर देखा, दरवाजा खुला था और पत्नी दरवाजे के अंदर बैठी थी, वह सज्जन तो जा चुके थे।

तो मैंने उससे पूछा, कहा गए आपके पति जिनसे बात हो रही थी? उसने कहा, आप बेफिक्र रहिए, वे ऐसा कई दफे जा चुके हैं। अभी थोड़ी देर में लौट आएंगे। मैंने कहा, वे मरने गए हुए हैं! उसने कहा, वे बिलकुल लौट आएंगे, आप बेफिक्र रहिए। पंद्रह—बीस मिनट बाद सचमुच वे वापस लौट आए। मैं बाहर रुका हुआ था। मैंने उनसे पूछा कि आप वापस लौट आए! उन्होंने कहा, पानी गिरने के आसार हो रहे हैं। उनको क्या मालूम कि मुझे पता है कि वे मरने गए थे। उन्होंने कहा, पानी गिरने के आसार हो रहे हैं। देख नहीं रहे हैं आप, बादल घिर रहे हैं। इसलिए लौट आया। छाता नहीं ले गया था साथ में। घर में छाता न हो, तो भी मरनेवाला आदमी बाहर नहीं जाता।

हम सभी सोच लेते हैं बहुत बार मरने की। लेकिन जब हम मरने की सोचते हैं, तब वह मरने की बात नहीं होती, वह सिर्फ जीवन में थोड़ी—सी अड़चन होती है। संकल्प की कमी के कारण हम मरने की सोच लेते हैं। जीवन में अड़चन है, कहीं अटकाव आ गया है। जरा—सी जीवन में अड़चन है और चले मरने। जीवन की अड़चन से जो मरने जा रहा है, वह संकल्पवान नहीं है। लेकिन मृत्यु को सीधा पॉजिटिव अनुभव करने कोई जा रहा है, विधायक रूप से मृत्यु क्या है, इसे जानने जा रहा है—जीवन से भाग नहीं रहा है, जीवन से कोई विरोध नहीं है, जीवन का कोई निषेध नहीं है—तब तो यह आदमी मृत्यु में भी जीवन खोजने जा रहा है। यह बात और है।

और भी इसमें महत्वपूर्ण घटना है और वह यह है कि जन्म के लिए तो हम साधारणतया निर्णायक नहीं होते। जन्म भी अंततः तो हम निर्णय करते हैं। लेकिन वह भी अचेतन निर्णय होता है। हमें पता नहीं होता है कि हमने क्यों जन्म लिया, कहां जन्म लिया, किसलिए जन्म लिया। एक अर्थ में मृत्यु ऐसा मौका है, जिसके हम निर्णायक हो सकते हैं। इसलिए मृत्यु जिंदगी में बहुत अनूठी घटना है, जिसको कहना चाहिए, डिसीसिव। क्योंकि जन्म का तो हम पक्का निर्णय नहीं कर सकते, कि हमने से कहां जन्म लिया, क्यों जन्म लिया, कैसे जन्म लिया। लेकिन मृत्यु का तो हम निर्णय कर ही सकते हैं कि हम कैसे मरें, कहां मरें, क्यों मरें। मृत्यु का ढंग तो हम निश्चित कर ही सकते हैं।

महावीर ने इसलिए भी आशा दी मृत्यु के इस प्रयोग को करने की कि जो व्यक्ति मृत्यु का प्रयोग करके मरेगा, वह अपने अगले जन्म का भी निर्णायक हो जाएगा। क्योंकि जिसने मरने की स्वेच्छा से व्यवस्था कर ली, उसके लिए प्रकृति उसके जन्म को स्वेच्छा से चुनने का मौका भी दे देती है। वह उसका दूसरा हिस्सा है। जब वह इस दरवाजे से निकलते वक्त ज्ञान से निकला है, जानते हुए निकला है, तो दूसरे दरवाजे भी उसके लिए ज्ञान से ही स्वागत देंगे और भीतर आने के लिए स्वेच्छा से वरण करेंगे। अगले जन्म का जिन्हें निर्णय करना है, उन्हें इस मृत्यु को स्वेच्छा से गुजरना चाहिए। इसलिए भी आशा दी। लेकिन साधारण आत्म—हत्यारा, साधारणतया आत्मघात करनेवाला संकल्पवान व्यक्ति नहीं है।

भगवान श्री आपने संकल्प से सूक्ष्म शरीर से अलग होने की बात कही क्या जो साक्षी का साधक है या जो तथाता की साधना करता है उसका सूक्ष्म शरीर बिना संकल्प के अलग हो सकता है?

असल में साक्षी की साधना करना बहुत बड़ा संकल्प है और तथाता की साधना करना तो साक्षी से भी बड़ा संकल्प है। यह महासंकल्प है। जब एक आदमी यह तय करता है कि मैं साक्षी बनकर जीऊंगा, तो इससे बड़ा संकल्प नहीं है दूसरा।

उदाहरण के लिए, एक आदमी ने तय किया है कि आज मैं खाना न खाऊंगा। भूखे रहने का निर्णय किया है। एक आदमी ने तय किया कि मैं खाना तो खाऊंगा, लेकिन अपने को खाता हुआ नहीं देखूंगा, देखता हुआ देखूंगा। यह ज्यादा कठिन संकल्प है।

खाना नहीं खाना कोई बहुत बड़ी कठिनाई की बात नहीं है। सच तो यह है कि जिन लोगों को ठीक से खाना मिल रहा है, उनको महीने में एकाध—दों दिन खाना न खाना बड़ी सुगमता की बात है। इसलिए जब भी समाज में ठीक खाना मिलने लगता है, तो उपवास की कल्ट प्रचलित होना शुरू हो जाती है। जैसे अमरीका में इसई वक्त उपवास का सिद्धांत बडे जोरों से चल रहा है। नेचरोपैथी फौरन लोगों को पकड़ लेती है जब लोगों को ठीक से खाना मिलने लगता है। और जंचती भी है बात कि कभी उपवासे रहो। उपवास ज्यादा हल्का और ज्यादा आनदपूर्ण मालूम होने लगता है।

असल में गरीब समाज में हो भी सकता है कि भूखा रहना एक संकल्प हो, अमीर समाज में तो भूखा रहना एक सुविधा है, कनवीनिएंस है। असल में जब सारी दुनिया में ठीक से भोजन मिलने लगेगा, तो सभी लोगों के लिए उपवास जरूरी हो जाएगा। कभी—कभी खाली पेट रहना ही होगा। लेकिन साक्षी होना बड़ी कठिन बात है।

इसको ऐसा समझें कि मैं निर्णय कर लूं कि मैं नहीं चलूंगा, मैं इसी कुर्सी पर बैठा रहूंगा आठ घंटे, यह इतनी बड़ी बात नहीं है। क्योंकि नहीं चलना तो नहीं चल रहा। मैं निर्णय कर लूं कि आठ घंटा चलूंगा, वह भी उतनी बड़ी बात नहीं है। क्योंकि निर्णय कर लिया तो चल रहा हूं। साक्षी का मतलब यह है कि मैं चलूंगा भी और अपने को जानूंगा कि मैं नहीं चल रहा हूं। साक्षी का मतलब क्या है? कि मैं चलूंगा भी और जानूंगा भी कि मैं नहीं चल रहा हूं। मैं सिर्फ चलने को देख रहा हूं। यह ज्यादा सूक्ष्म संकल्प है, महासंकल्प है।

और तथाता तो और भी महासंकल्प है। वह आखिरी संकल्प है। उससे बड़ा कोई संकल्प नहीं

है। एक आदमी मरने का भी संकल्प करे, यह भी उतना बड़ा संकल्प नहीं है। लेकिन तथाता का मतलब होता है चीजें जैसी हैं वैसी ही स्वीकृत हैं। राह मरने का संकल्प भी तो कुछ अस्वीकृति से आ रहा है, यानी हम जानना चाहते हैं कि मृत्यु क्या है, हम जानना चाहते हैं कि मृत्यु होती है कि नहीं होती है।

नहीं, तथाता का मतलब यह है कि मृत्यु होगी तो मर जाएंगे और जिंदगी रहेगी तो जी जाएंगे। न हमें जिंदगी से मतलब है, न हमें मृत्यु से मतलब है। अंधेरा आएगा तो अंधेरे में बैठे रहेंगे, रोशनी आएगी तो रोशनी में बैठे रहेंगे। अच्छा होगा तो अच्छा झेल लेंगे, बुरा होगा तो बुरा झेल लेंगे। जो होगा, उसके लिए हम राजी हैं। हमारी नाराजी है ही नहीं।

एक उदाहरण से तुम्हें समझाऊं। डायोजनीज एक जंगल से गुजर रहा है। नंगा फकीर है और बड़ा सुंदर है। कुछ आश्चर्य न होगा कि हो सकता है आदमी ने अपने शरीर की कुरूपता को डाकने के लिए ही वस्त्र पहनने शुरू किए हों। बहुत संभावना इसी की है। शरीर के जो —जो कुरूप अंग हैं उनको हम ढांकने के लिए उत्सुक हैं। बहुत सुंदर आदमी है डायोजनीज। नंगा ही रहता है। गुजर रहा है एक जंगल से। चार आदमियों ने उसे पकड़ने का विचार कर लिया है। ये चारों आदमी गुलामों को पकड़ने का काम करते हैं। और उन्होंने सोचा कि इतना खूबसूरत आदमी अगर चक्कर में आ जाए, तो बिक्री अच्छी हो सकती है। और इसका कोई मालिक भी नहीं दिखाई पड़ता है, कोई धनी— धोरी इसका दिखाई नहीं पड़ता है। अकेला चला जा रहा है। कपड़े —लत्ते भी नहीं हैं। देखने में बड़ा सुंदर है। विशालकाय है, तेजस्वी है। मगर पकड़े कैसे? क्योंकि वे चारों डरे कि इतना तगडा आदमी, कहीं चारों को कठिनाई में न डाल दे। फिर उन्होंने कहा, एक कोशिश तो करो। बहुत से बहुत यही होगा कि थोड़ी मार खाएंगे, तो भाग जाएंगे।

वे चारों गए। उन्होंने बड़ी ताकत लगा करके उसको एकदम से घेरा। तो वह उनके बीच में एकदम शाति से खड़ा हो गया। उसने कहा, क्या इरादा है? अब वे लोग बड़े हैरान हुए। उन्होंने जंजीरें निकालीं, तो उसने हाथ आगे कर दिये। उनके हाथ कांप रहे हैं, डर रहे हैं वे कि यह पता नहीं मार दे या क्या करे। तो वह कहता है, कपों मत, हाथ क्यों कंपाते हो? लाओ, मैं जंजीर कस दूं। वह जंजीर बांधने में सहायता करता है। वे बड़े चकित हुए। जब जंजीरें—वजीरे कस गईं, तब उन्होंने उससे पूछा कि आप आदमी कैसे हो? हम आपके हाथ में जंजीरें डाल रहे हैं और आप सहायता कर रहे हैं। हम तो डरे थे कि झगड़ा होगा, मारपीट होगी, कुछ उपद्रव हो जाएगा। उसने कहा कि नहीं, जब तुम्हें मजा आ रहा है जंजीरें बांधने में, तो हमको भी मजा आ रहा है बंधवाने में। अब झगड़ा क्या करना है इसमें। बड़ा मजा रहा। अब बोलो, कहां चलना है? उन्होंने कहा, अब आपको बताने में हमें शर्म आती है। लेकिन हम तो गुलामों को पकड़ने वाले लोग हैं। तो हम तो बाजार आपको ले चलेंगे बेचने। उसने कहा, चलो। वह इतनी खुशी से चलने लगा कि उनकी चाल कम पड़ती है, वह तेजी से चलता है। वे उससे कहते हैं, जरा धीरे भी चलिए, इतनी जल्दी भी क्या है। तो वह कहता है, लेकिन बाजार चल हीं रहे हैं तो जल्दी ही चलें।

फिर वे बाजार में पहुंच गए हैं। बड़ी भीड़ लग गई है जो लोग गुलामों को खरीदने आए हैं—ऐसा गुलाम साधारणत: बिकने नहीं आया था, क्योंकि यह तो शाही सम्राट जैसा आदमी था—बडी भीड़ लग गई है। टिकटी पर उसको खड़ा किया गया, जहां गुलाम बेचे जाते हैं। और जो गुलाम बेचने वाला, नीलाम करने वाला था, उसने चिल्ला कर कहा कि एक गुलाम बिकने आया है, किसी को खरीदना हो……। तो उस डायोजनीज ने कहा, चुप नासमझ, उन लोगों से पूछ कि मैं आगे चल रहा था कि वे आगे चल रहे थे? और जंजीरें उन्होंने बांधी कि मैंने बंधवायीं?

उन लोगों ने कहा कि बात तो यह ठीक ही कह रहा है। अगर हम लोग जंजीरें बांधते, तो हमें अभी भी भरोसा नहीं है कि इसको बांध सकते थे। इसने बंधवायी हैं। और जहां तक आगे चलने का सवाल है, यह इतनी तेजी से चलता है कि हम लोग इसके पीछे दौड़ते चले आ रहे हैं। यानी हम इसे बाजार में लाए हैं, यह कहना गलत है। हम इसके पीछे आए हैं, यही ठीक है। और यह कहना भी ठीक नहीं है कि हमने इसको गुलाम बनाया। यही कहना ठीक है कि यह आदमी गुलाम बनने को तैयार हो गया। हमने इसको बनाया नहीं।

तो डायोजनीज ने कहा, नासमझ, इस तरह की बात मत कर। मैं खुद ही आवाज लगा देता हूं, तेरी आवाज भी कमजोर है, इतनी भीड़ में सुनाई नहीं पड़ेगी। तो डायोजनीज ने चिल्लाकर कहा कि आज एक मालिक इस बाजार में बिकने आया है, किसी को खरीदना हो तो खरीदे। तो किसी ने उससे पूछा कि आप अपने को मालिक कहते हैं? उसने कहा, मैं अपने को मालिक कहता हूं अपनी मर्जी से मैंने जंजीर बांधी, अपनी मर्जी से मैं आया हूं अपनी मर्जी से मैं बिक रहा हूं अपनी मर्जी से मैं जाऊंगा। मेरी मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं हो सकता, क्योंकि जो भी होता है उसको मैं अपनी मर्जी बना लेता हूं।

समझ रहे हैं न! वह यह कह रहा है कि जो भी होता है, उसे मैं अपनी मर्जी बना लेता हूं।

यह आदमी तथाता को उपलब्ध है। तथाता का यह मतलब है कि जिसमें सारी चीजें, जो भी हो रही हैं, उस के लिए वह राजी है, जिसका कोई विरोध ही नहीं है। जिसको तुम किसी भी हालत में हरा नहीं सकते, क्योंकि वह स्वयं हार जाएगा। जिसको तुम मार नहीं सकते, क्योंकि वह पिटने को राजी हो जाएगा। जिसको तुम दबा नहीं सकते, क्योंकि तुम दबाओगे उसके पहले वह दब जाएगा। जिसके साथ तुम कुछ भी नहीं कर सकते, क्योंकि तुम जो भी करोगे, उसका कोई विरोध नहीं है। यह तो बहुत महासंकल्प है। तथाता परम संकल्प है, वह अल्टीमेट विल है। तो जो तथाता को उपलब्ध है, वह तो परमात्मा को उपलब्ध हो गया है।

इसलिए इस प्रश्न को ऐसे मत पूछो कि साक्षी के साधक को या तथाता के साधक को संकल्प की साधना से जो मिलता है, वह मिलेगा या नहीं मिलेगा। वह तो मिला ही हुआ है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है उसे। संकल्प की साधना अति प्राथमिक है, साक्षी की साधना माध्यमिक है, तथाता की साधना चरम है। संकल्प से शुरू करो, साक्षी पर यात्रा करो, तथाता पर पहुंच जाओ। इन तीनों में विरोध नहीं है।

साक्षी और तथाता में भेद बताने की कृपा करें।

साक्षी में द्वैत मौजूद है। साक्षी अपने को अलग, और जिसे जान रहा है, उसे अलग मानता है। अगर उसके पैर में कांटा गड़ा है, तो साक्षी कहता है, मुझे नहीं गड़ा, मैं जानने वाला हूं। कांटा शरीर को गड़ा है। गड़ना कहीं और है, जानना कहीं और है। ‘जानने’ और ‘होने’ में द्वैत है साक्षी की साधना में। इसलिए साक्षी अद्वैत को नहीं उठ सकता।

इसलिए जो साधक साक्षी पर रुक जाएंगे, वे एक तरह के डुआलिज्म, एक तरह के द्वैत से घिर जाएंगे। अंतत: वे जगत को दो हिस्सों में तोड़ देंगे, चेतन और जड़। चेतन, वह जो जानता है। जड़, वह जो जाना जाता है। अंततः वे जगत को दो हिस्सों में तोड़े बिना नहीं मानेंगे, पुरुष और प्रकृति। यह शब्द बड़ा अच्छा है—पुरुष।

यह शब्द प्रकृति भी बड़ा अच्छा है। प्रकृति का मतलब शायद कभी खयाल में न आया हो। प्रकृति का मतलब नेचर नहीं होता। असल में अंग्रेजी के पास प्रकृति जैसा कोई शब्द ही नहीं है। प्रकृति का मतलब है, बनने के भी पहले से जो है—प्रकृति। बनने के पहले से भी जो है। प्रकृति का मतलब सृष्टि नहीं है। सृष्टि का मतलब है, जो बनने के बाद है। प्रकृति का मतलब है, जब कुछ भी नहीं बना था तब भी थी—प्रकृति। दैट व्हिच वाज बिफोर क्रिएशन। और पुरुष शब्द भी बड़ा अर्थपूर्ण है। पुरुष जैसा शब्द भी दुनिया की भाषा में खोजना बहुत मुश्किल है, क्योंकि ये सारे के सारे शब्द बहुत विशेष अनुभवों से पैदा हुए हैं। पुरुष का वही मतलब होता है…… ‘पुर’ तो हम जानते हैं। ‘पुर’ का मतलब होता है नगर। जैसे कानपुर, नागपुर। वह जो पुर है, वह है नगर। और उस नगर में जो रहने वाला है, वह है पुरुष। तो शरीर तो एक गांव है और उसमें एक निवास कर रहा है, कोई निवासी—वह है पुरुष। तो प्रकृति तो पुर है और प्रकृति में जो रह रहा है अलग— थलग, वह है पुरुष।

तो साक्षी प्रकृति और पुरुष तक जाएगा। वह तोड़ देगा, यह रही प्रकृति, यह रहा जड़ और यह रहा चेतन, जानने वाला। नोअर और नोन का फासला खड़ा हो जाएगा।

तथाता और भी बड़ी बात है। तथाता का मतलब है, कोई द्वैत नहीं है। न कोई जानने वाला है, न कुछ जानने को है। या जो जानने वाला है वही जाना भी जा रहा है। द नोअर इज द नोन। अब ऐसा नहीं है कि कांटा गड़ रहा है और मैं जान रहा हूं। अब ऐसा भी नहीं है कि कांटा अलग है और मैं अलग हूं। अब ऐसा भी नहीं है कि कांटा न गड़ता होता, तो अच्छा होता। अब ऐसा भी नहीं है कि कांटा निकल जाए, तो अच्छा हो। नहीं, अब ऐसा कुछ भी नहीं है। काटे का होना, गड़ने का होना, गड़ने का पता चलना, पीड़ा का होना, सब स्वीकृत है और सब एक ही चीज के छोर हैं। तो कांटा भी मैं हूं गड़ना भी मैं हूं जानना भी मैं हूं पहचानना भी मैं हूं सब मैं हूं। इसलिए इस मैं के बाहर कोई जाना नहीं है। न तो ऐसा सोच सकता हूं कि कांटा न गड़ता, क्योंकि कैसे सोच सकता हूं! क्योंकि कांटा भी मैं हूं गड़ना भी मैं हूं जानना भी मैं हूं। न मैं ऐसा सोच सकता हूं कि कांटा न गड़े तो अच्छा, क्योंकि अपने को ही कहां काट कर अलग करूंगा।

तथाता जो है, वह परम स्थिति है। वहा जो है, वह है। जो है, उसकी परम स्वीकृति। उसमें कोई भेद नहीं है। लेकिन साक्षी हुए बिना तथाता तक नहीं पहुंचा जा सकता। हालांकि कोई चाहे तो साक्षी पर रुक सकता है और तथाता पर न पहुंचे। संकल्प के बिना कोई साक्षी तक नहीं पहुंच सकता, हालांकि कोई चाहे तो संकल्प पर रुक जाए और साक्षी तक न पहुंचे।

जो आदमी संकल्प पर रुक जाएगा, वह आदमी शक्तिशाली तो बहुत हो जाएगा, लेकिन ज्ञानवान न हो पाएगा। इसलिए संकल्प के दुरुपयोग भी हो सकते हैं, क्योंकि वहां ज्ञान अनिवार्य नहीं है। शक्ति तो बहुत आ जाएगी, इसलिए उसके दुरुपयोग हो सकते हैं।

सारा ब्लैक मैजिक जो है, वह संकल्प की ही शक्ति से पैदा हुआ है। क्योंकि ज्ञान तो कुछ भी नहीं है, शक्ति बहुत आ गई है, अब उसका कुछ भी उपयोग हो सकता है। संकल्पवान व्यक्ति शक्ति से भर गया है। शक्ति का क्या उपयोग करेगा, यह कहना अभी मुश्किल है। वह बुरा उपयोग कर सकता है। शक्ति तटस्थ है। लेकिन शक्ति होनी तो चाहिए ही। बुरा करने के लिए भी होनी चाहिए, भला करने के लिए भी होनी चाहिए। और मेरा मानना है कि शक्तिहीन होने से चाहे बुरा भी करो, तो भी ठीक है। क्योँकि जो बुरा करता है, वह कभी अच्छा भी कर सकता है। लेकिन जो बुरा भी नहीं .कर सकता, वह तो अच्छा भी नहीं कर सकता।

इसलिए निर्वीर्य, शक्तिहीन होने से शक्तिवान होना बेहतर है। फिर शक्तिवान होने में भी शुभ और अशुभ की यात्राएं हैं। तो शक्तिवान होकर शुभ की यात्रा पर होना बेहतर है। लेकिन शक्ति की शुभ की यात्रा अगर ठीक से चले, तो साक्षी पर पहुंचा देगी। अगर अशुभ की यात्रा चले, तो साक्षी पर नही पहुंचोगे, संकल्प की शक्ति में ही भटक कर रह जाओगे। तो मेस्मरिज्म होगा, हिप्नोटिज्म होगा, तंत्र होगा, मंत्र होगा, जादू —टोना होगा। सब तरह की चीजें पैदा हो जाएंगी, लेकिन इससे कोई आत्मा की यात्रा नहीं होगी। यह भटकाव हो गया। शक्ति तो हुई, लेकिन भटक गई। अगर शक्ति शुभ की यात्रा पर चले, तो साक्षी का जन्म हौ जाएगा। क्योंकि अंततः जब शक्ति पैदा होगी, तो आदमी शक्ति का इसलिए उपयोग करेगा कि स्वयं को जान सके और पा सके। यह उसकी शुभ यात्रा होगी। दूसरे को दबा सके और दूसरे को पा सके, यह अशुभ यात्रा होगी। शक्ति की अशुभ यात्रा का मेरा मतलब है ‘कि दूसरे को दबाऊं, दूसरे का मालिक हो जाऊं, दूसरे को कस लूं? तो अशुभ यात्रा शुरू हो गई। वह ब्लैक मैजिक है। शक्ति से अपने को पाऊं, पहचानूं, जीऊं, जान लूं कि कौन हूं, क्या हूं, यह शुभ यात्रा हो गई। अगर शक्ति शुभ यात्रा पर होगी, तो साक्षी बन जाएगी।

अब अगर साक्षी का भाव, सिर्फ मैं स्वयं को जान लूं? इतने पर तृप्त हो जाए, तो पांचवें शरीर तक बात पहुंचेगी और खतम हो जाएगी। लेकिन साक्षी का भाव अगर और गहरा हो और इसका भी पता लगाए कि मैं अकेला तो नहीं हू, हूं तो सबके साथ। मेरे होने में चांद—तारे भी सम्मिलित हैं, सूरज भी सम्मिलित है, मेरे होने में पत्थर, मिट्टी, फूल, पौधे सब सम्मिलित हैं, मेरे होने में दूसरों का होना भी सम्मिलित है, मेरा होना सम्मिलित होना है। अगर इस खयाल से यात्रा शुरू हो, तो तथाता तक पहुंच पाएगा।

और तथाता धर्म की परम उपलब्धि है, जहां सब स्वीकार है, टोटल एक्सेप्टीबिलिटी है। जैसा हो रहा है, वह सबके लिए राजी है। और जो आदमी जैसा हो रहा है, उस सबके लिए पूरा राजी है, ऐसा आदमी ही पूर्ण शांत हो सकता है। क्योंकि जो जरा भी नाराज है, उसकी अशांति जारी रहेगी। अगर जो जरा भी शिकायत से भरा है, उसकी अशांति जारी रहेगी। अगर जिसके मन में जरा भी ऐसा है कि ऐसा होना था और ऐसा नहीं हुआ, तो उसके मन में तनाव जारी रहेगा।

परम शांति, परम तनावमुक्तता, परम मुक्ति तथाता में ही संभव है। पर संकल्प हो, तो साक्षी तक जाया जा सकता है। साक्षी भाव हो, तो तथाता तक जाया जा सकता है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने अभी साक्षी होना ही नहीं जाना, वह सर्व —स्वीकार नहीं जान सकता। जिसने अभी यही नहीं जाना कि मैं कांटे से अलग हूं, वह अभी यह नहीं जान सकता कि मैं कांटे से एक हूं। असल में काटे से अलग होना जो जान ले, वह दूसरा कदम भी उठा सकता है काटे से एक होने का।

तो तथाता सारभूत है। समस्त साधना में जो श्रेष्ठतम खोज हुई है, वह तथाता की है। इसलिए बुद्ध का एक नाम है तथागत। तथागत शब्द को समझना थोड़ा उपयोगी है, उससे तथाता को समझने में यह सहयोगी होगा।

बुद्ध खुद अपने लिए भी तथागत का उपयोग करते हैं। बुद्ध खुद कहते हैं कि तथागत ने ऐसा कहा। तथागत का मतलब है, दस केम, दस गान। ऐसे आए और ऐसे गए। जैसे हवा का झोंका आए और चला जाए; न कोई प्रयोजन, न कोई अर्थ। बस हवा का झोंका आए भीतर और चला जाए। जो ऐसे ही आए और गए। जिनका आना—जाना ऐसा निष्प्रयोजन, निष्काम है, जैसा हवा का झोंका है। ऐसे व्यक्तित्व को कहते हैं तथागत।

लेकिन हवा के झोंके की तरह कौन आएगा और कौन जाएगा? हवा के झोंके की तरह वही आ और जा सकता है, जो तथाता को उपलब्ध है। जिसको न आने से कोई फर्क पड़ता है, न जाने से कोई फर्क पड़ता है। आए तो आए, गए तो गए। वैसे ही जैसे डायोजनीज चला गया। न इससे फर्क पड़ता है कि जंजीर डालों, न इससे फर्क पड़ता है कि जंजीर मत डालों।

क्योंकि डायोजनीज ने बाद में कहा कि जो गुलाम हो सकता है, वही गुलामी से डरता है, हम तो गुलाम हो ही नहीं सकते, तो हम गुलामी से कैसे डरें। जिसको थोड़ा—सा भी डर है गुलाम होने का, वही तो गुलामी से डर सकता है। और जिसको डर है, वह गुलाम है। हम ठहरे मालिक। तुम हमें गुलाम बना नहीं सकते। हम तुम्हारी जंजीरों के भीतर भी मालिक हैं। हम तुम्हारे कारागृह में जाकर भी मालिक ही होंगे। हम मालिक हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम हमें कहा डाल देते हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारी मालकियत पूरी है।

संकल्प से साक्षी, साक्षी से तथाता, ऐसी यात्रा है।

साक्षी भाव और दृष्टा भाव में कोई अंतर है?

हीं, कोई अंतर नहीं।

साक्षी भाव और दृष्टा भाव एक ही हैं?

क ही बात है।

और उसके बाद तथाता है?

सके बाद ही तथाता है।

आपने कहा कि अंग्रेजी में प्रकृति के लिए कोई शब्द नहीं है क्या कांस्टीटयूशन प्रकृति जैसा शब्द नहीं है? जैसे कहते हैं कि ही इज कास्टीटयूशनली लाइक दैट तो इसका क्या यही अर्थ नहीं होता कि ही इज बॉर्न विद……

हीं, वह मतलब नहीं। कास्टीटयूशनली का मतलब होता है कि उसका विधान ऐसा है। कांस्टीटयूशन का मतलब होता है विधान। हा, जैसे एक आदमी है, कास्टीटयूशनली का मतलब होता है उस व्यक्ति की संरचना ऐसी है, उस व्यक्ति का विधान ऐसा है। प्रकृति शब्द बहुत और है। हम प्रयोग करते हैं ऐसा कि फलां आदमी की प्रकृति ऐसी है। वह ठीक नहीं है प्रयोग। प्रकृति का मतलब होता है कृति के पूर्व। प्रलय का मतलब होता है कृति के बाद। प्रकृति का मतलब होता है जब कुछ भी नहीं बना था, तब भी जो था। प्रकृति का मतलब होता है जिसे बनने की कोई जरूरत ही नहीं, जो अनादि है, जो है ही। सृष्टि का मतलब होता है वह जो बना।

योरोप की भाषाओं में प्रकृति के लिए शब्द नहीं है, क्योंकि योरोप की भाषाएं ईसाइयत से प्रभावित हैं। तो योरोप में तो क्रिएशन, सृष्टि और स्रष्टा शब्द हैं। इस देश की भाषाओं में प्रकृति का शब्द है। वह भी सबकी भाषाओं में नहीं है। सांख्य, वैशेषिक, जैन—प्रकृति उनकी भाषा है, प्रकृति

शब्द उनका है। क्योंकि वे क्रिएशन को नहीं मानते, वे किसी ईश्वर को भी नहीं मानते। वे कहते हैं, जो सदा से है और जिसको कभी नहीं बनाया गया, उसका नाम प्रकृति है। तुम बनाओ उसके पहले वह मौजूद है।

अब जैसे इस मकान को हमने बनाया। तो इस मकान का जो ढांचा है, यह तो कास्टीटचूशन है। लेकिन इस मकान के लिए जो मिट्टी हम लाए, वह प्रकृति है। इस मकान के लिए जो हवा हम उपयोग में लाए, वह प्रकृति है। इस मकान के लिए जो आग हम .उपयोग में लाए, वह प्रकृति है। जो बनकर तैयार हो गया, वह तो इसका ढांचा है। लेकिन इस ढांचे को बनाने के पहले भी जो मौजूद था जिसको हमने नहीं बनाया, जिसको किसी ने नहीं बनाया, जो अनक्रिएटेड है, जो था ही, उसका नाम प्रकृति है। योरोप की भाषा में प्रकृति के लिए कोई शब्द नहीं है।

एक छोटा सा प्रश्न है जस्ट अवेयरनेस केवल होश और तथाता क्या एक ही बात है?

असल में जब हम कहते हैं, जस्ट अवेयरनेस, बस होश मात्र, तो इसमें और तथाता में थोड़ा—सा फर्क है। और इसमें और साक्षी में भी थोड़ा—सा फर्क है। अगर ऐसा समझें कि साक्षी और तथाता के बीच की कड़ी है। जब तुम साक्षी से गुजरोगे तथाता तक, तब यह बीच की एक कड़ी होगी—जस्ट अवेयरनेस। साक्षी होने में मैं हूं और तू है, इसका भाव पक्का है। जस्ट अवेयरनेस में सिर्फ हूं, तू का भाव भूल गया है। सिर्फ होने का भाव है। तथाता में सिर्फ होने का भाव ही नहीं है। यह मेरा होना और तेरा होना एक ही होना है। क्योंकि जब तक जस्ट अवेयरनेस भी है, जब तक सिर्फ होने का भाव भी है, तब तक होने के भाव के बाहर एक सीमा होगी, जो कि मैं नहीं हूं, जहां से मैं अलग हूं। तथाता में कोई सीमा नहीं है। होना ही है। तो अगर कहें तथाता, तो जस्ट बीइंग, जस्ट अवेयरनेस नहीं। बीइंग बड़ा शब्द है।

जस्ट अवेयरनेस सब को नहीं झेल लेगा?

जैसे ही तुम कहते हो जस्ट अवेयरनेस उसमें कुछ को छोड़ दिया। जस्ट शब्द जो है, वह छोड़ने वाला है। जब हम कहते हैं, बस चेतना, तो बस के बाहर हमने कुछ छोड़ दिया, नहीं तो बस क्यों लगाते हो। जब हम कहते हैं सिर्फ चेतना, तो हमने सिर्फ के बाहर कुछ को इनकार कर दिया, नहीं तो सिर्फ क्यों लगाते हो।

केवल अवेयरनेस कहें तो?

हां, केवल अवेयरनेस कहो, तो बात चल जाए। लेकिन ‘केवल’ मत लगाओ। ‘अवेयरनेस’ कहा, तो चल जाएगा। फिर कठनाई की कोई बात नहीं है।

आखिरी प्रश्न है आपने कहा है कि भीतर लौटने के संकल्प से या मृत्यु के समय सारी जीवन ऊर्जा सिकुड़ती है पुन: बीज बनने के लिए केंद्र पर वापस लौटती है तो किस केंद्र पर सिकुड़ती है आज्ञा— चक्र पर या नाभि पर या अन्यत्र? कौन— सा केंद्र सर्वाधिक प्रमुख है और क्यों?

यह थोड़ी सोचने जैसी बात है। मरने के पहले सारी चेतना सिकुड़ेगी। नई यात्रा पर निकलने के पहले इस शरीर में जो—जो बिखराव है, वह वापस लौट जाएगा। जैसे कोई आदमी इस घर से विदा होता हो और फिर इस घर में कभी लौटने को न हो, तो जो भी महत्वपूर्ण है, वह उसको अपनी पोटली में बांध ले। इस घर में फैलाव था जब रह रहा था। एक—एक कमरे में चीजें फैली थीं। बाथरूम से लेकर बैठकखाने तक फैलाव था। फिर जब वह विदा होने लगा इस घर से, तो छांट लेगा, सब इकट्ठा कर लेगा। जो व्यर्थ होगा, छोड़ देगा। जो सार्थक होगा, उसे ले लेगा और यात्रा पर निकलेगा।

यह यात्रा….. जैसे ही हम एक जीवन को छोड़ते हैं, एक शरीर को छोड़ते हैं और दूसरे जीवन में प्रवेश करते हैं और दूसरे शरीर की यात्रा पर निकलते हैं, वैसे ही हमारी चेतना ने जो —जो इस शरीर में फैलाकर रखा था, उसको वापस लौटाकी, बीज बनेगी फिर से। ऐरूअल बन गई थी, अब फिर पोटेंशियल बनेगी। क्योंकि अब नए शरीर में बीज की तरह प्रवेश होगा। जैसे कोई वृक्ष मरता है, तो फिर बीज छोड़ जाता है। ऐसे ही जब एक शरीर मरता है, तो भी बीज छोड़ जाता है। जिनको हम वीर्यकण कहते हैं या रजकण कहते हैं, वह शरीर के मरते वक्त छोड़े गए बीज हैं, मरने के पहले छोड़े गए बीज हैं, मरने की अपेक्षा में छोड़े गए बीज हैं। एक शरीर अपने बीज छोड़ जाता है। वीर्यकण जो है, उस कण में, तुम्हारे शरीर की पूरी प्रतिमूर्ति है। तुम्हारे शरीर का पूरा का पूरा बिल्ट इन प्रोग्राम है। उस छोटे —से बीज को वह छोड़ जाता है, क्योंकि यह शरीर तो अब विदा होने के करीब है। शरीर भी बीज छोड़ता है। यह एक स्तर पर होता है। चेतना अपने बीज को इकट्ठा करती है और किसी शरीर के बीज में प्रवेश करेगी।

सब यात्रा बीज से शुरू होती है और सब यात्रा बीज पर अंत होती है। ध्यान रहे, जो प्रारंभ है, वही अंत है। जो बिगनिंग है, वही ऐंड है। जहां से यात्रा शुरू होगी, वहीं यात्रा का वृत्त पूरा होगा। एक बीज से हम शुरू होते हैं और एक बीज पर हम पन: अंत हो जाते हैं।

सब यात्रा बीज से शुरू होती है और सब यात्रा बीज पर अंत होती है। ध्यान रहे, जो प्रारंभ है, वही अंत है। जो बिगनिंग है, वही ऐंड है। जहां से यात्रा शुरू होगी, वहीं यात्रा का वृत्त पूरा होगा। एक बीज से हम शुरू होते हैं और एक बीज पर हम पुन: अंत हो जाते हैं।

वह जो चेतना मरते वक्त अपने को सिकोड़ लेगी, बीज बनेगी, वह किस केंद्र पर इकट्ठी होगी? जिस केंद्र पर आप जीए थे! जो आपके जीने का सर्वाधिक मूल्यवान केंद्र था, वहीं इकट्ठी हो जाएगी। क्योंकि जहां आप जीए थे, वही केंद्र सक्रिय है। जहां आप जीए थे, कहना चाहिए, वहीं आपके जीवन का प्राण है।

अगर एक आदमी का सारा जीवन सेक्स से ही भरा हुआ जीवन था, उसके पार उसने कुछ भी नहीं जाना, कुछ भी नहीं जीया, अगर धन भी इकट्ठा किया तो भी काम के लिए, यौन के लिए, अगर पद भी पाना चाहा तो काम और यौन के लिए, स्वास्थ्य भी पाना चाहा तो काम के लिए और यौन के लिए, अगर उसकी जिंदगी का वह सबसे बहुत एमफैटिक केंद्र सेक्स था, तो सेक्स के केंद्र पर ही ऊर्जा इकट्ठी हो जाएगी और उसकी यात्रा फिर वहीं से होगी। क्यों? क्योंकि अगला जन्म भी उसकी सेक्स की केंद्र की ही यात्रा की कंटीन्यूटि होगा, उसका सातत्य होगा। तो वह व्यक्ति सेक्स के केंद्र पर इकट्ठा हो जाएगा। और उसके प्राण का जो अंत है, वह सेक्स के केंद्र से ही होगा। उसके प्राण जननेंद्रिय से ही बाहर निकलेंगे।

अगर वह व्यक्ति दूसरे किसी केंद्र पर जीया था, तो उस केंद्र पर इकट्ठा होगा। यानी जिस केंद्र पर हमारा जीवन घूमा था, उसी केंद्र से हम विदा होंगे। जहां हम जीए थे, वहीं से हम मरेंगे। इसलिए कोई योगी आज्ञा—चक्र से विदा हो सकता है। कोई प्रेमी हृदय—चक्र से विदा हो सकता है। कोई परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति सहस्रार से विदा होगा। उसका कपाल फूट जाएगा, वह वहां से विदा होगा। हम कहां से विदा होंगे, यह हमारे जीवन का पूरा सारभूत सबूत होगा।

और इन सबके सूत्र खोज लिये गए थे कि मरे हुए आदमी को देखकर कहा जा सकता है कि वह कहां से विदा हुआ। इस सबके सूत्र खोज लिए गये थे। मरे हुए आदमी को देखकर, उसकी लाश को देखकर कहा जा सकता है कि वह कहां से निकला है, किस द्वार का उपयोग किया उसने बहिर्गमन के लिए। ये सब चक्र द्वार भी हैं। ये प्रवेश के द्वार भी हैं, ये विदा होने के द्वार भी हैं। और जो जिस द्वार से निकलेगा, उसी द्वार से प्रवेश करेगा। एक मां के पेट में वह जो नया अणु बनेगा, उस अणु में आत्मा उसी द्वार से प्रवेश करेगी जिस द्वार से वह पिछली मृत्यु में निकली थी। वह उसी द्वार को पहचानती है।

और इसीलिए मां—बाप का चित्त और उनकी चेतना की दशा संभोग के क्षण में निर्णायक होगी कि कौन —सी आत्मा वहां प्रवेश करेगी। क्योंकि मां —बाप की चेतना संभोग के क्षण में जिस केंद्र के निकट होगी, उसी केंद्र को प्रवेश करने वाली चेतना उस गर्भ को ग्रहण कर सकेगी, नहीं तो नहीं कर सकेगी। अगर दो योगस्थ व्यक्ति बिना किसी संभोग की कामना के सिर्फ किसी आत्मा को जन्म देने के लिए प्रयोग कर रहे हैं, तो वे ऊंचे से ऊंचे चक्रों का प्रयोग कर सकते हैं।

इसलिए अच्छी आत्माओं को जन्म लेने के लिए बहुत दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, क्योंकि अच्छा गर्भ मिलना चाहिए। बहुत कठिनाई हो जाती है कि उन्हें ठीक गर्भ मिल सके। इसलिए बहुत सी अच्छी आत्माएं सैकड़ों —सैकड़ों वर्षों तक दोबारा जन्म नहीं ले पातीं। बहुत सी बुरी आत्माओं को भी बड़ी कठिनाई हो जाती है, क्योंकि उनके लिए भी सामान्य गर्भ काम नहीं करता। साधारण आत्माएं तत्काल जन्म ले लेती हैं। इधर मरी, उधर जन्म हुआ, उसमें ज्यादा देर नहीं लगती। क्योंकि उनके योग्य बहुत गर्भ उपलब्ध होते हैं सारी पृथ्वी पर। प्रतिदिन उनके लिए हजारों—लाखों मौके हैं। बहुत मौके हैं इस वक्त। कोई एक लाख अस्सी हजार लोग रोज पैदा होते हैं। मरने वालों की संख्या काटकर इतने लोग बढते हैं। कोई दो लाख आत्माओं के लिए रोज प्रवेश की सुविधा है। लेकिन ये बिलकुल सामान्य तल पर यह सुविधा है।

असामान्य आत्माओं को अगर हम पैदा न कर पाएं तो यह भी हो सकता है, और बहुत बार हुआ है……। इसकी थोड़ी बात खयाल में लेनी अच्छी होगी। बहुत—सी आत्माएं जो इस पृथ्वी ने बड़ी मुश्किल से पैदा कीं, उनको जन्म किसी दूसरी पृथ्वियों पर लेने पड़े हैं। यह पृथ्वी उनके लिए वापिस जन्म देने में असमर्थ हो गई। ऐसा ही समझो तुम कि जैसे हिंदुस्तान में एक वैज्ञानिक को हम पैदा कर लें, लेकिन नौकरी उसको अमरीका में ही मिले। पैदा हम करें; मिट्टी, भोजन, पानी हम दें; जिंदगी हम दें; लेकिन हम उसे कोई जगह न दे पाएं उसके जीवन के लिए। उसको जगह लेनी पड़े अमरीका में। आज सारी दुनिया के अधिकतम वैज्ञानिक अमरीका में इकट्ठे हो गए हैं। हो ही जाएंगे। ऐसे ही इस पृथ्वी पर जिन आत्माओं को हम तैयार तो कर लेते हैं, लेकिन दोबारा जन्म देने के लिए गर्भ नहीं दे पाते, उनको स्वभावत: दूसरे ग्रहों पर खोज करनी पड़ती है।

यदि हमारे में प्रतिभा है कि वैज्ञानिक पैदा कर सके तब तो फिर उसे नौकरी देने की भी प्रतिभा होगी ही।

हीं, यह जरूरी नहीं है। कठिनाई क्या है कि एक वैज्ञानिक पैदा करना बहुत—सी बातों पर निर्भर है। और एक वैज्ञानिक को नौकरी देना और दूसरी बहुत—सी बातों पर निर्भर है। एक वैज्ञानिक को पैदा करना तो एक वैज्ञानिक आत्मा की पिछली यात्राओं पर निर्भर है। और दो व्यक्तियों के बीच जो संभोग का क्षण है अगर वह क्षण ऐसा है कि उस व्यक्ति को बुद्धि के द्वार से प्रवेश मिल जाए, तो उसे वह प्रवेश मिल जाएगा। वह पैदा भी हो जाएगा। लेकिन एक वैज्ञानिक को नौकरी देना पूरे समाज की व्यवस्था पर निर्भर है। इस वैज्ञानिक को अमरीका में दस हजार रुपए मिल सकते हैं, हिंदुस्तान में हजार मिलेंगे। और फिर इस वैज्ञानिक को अमरीका में एक लेबोरेटरी मिल सकती है जिसके लिए हिंदुस्तान में अभी हजार वर्ष रुकना पड़ेगा तब मिलेगी। और अमरीका में इसका शोध होगा तो वह सरकारी दफ्तरों में पड़ा हुआ सड़ नहीं जाएगा, उसको नोबल प्राइज मिल जाएगी। यहां अगर वह शोध करेगा तो उसका ऊपर का आफिसर ही उसको दबाकर बैठ जाएगा, उसको कभी निकलने नहीं देगा। और निकले भी कभी तो हो सकता है वह नेता के नाम से निकले, आफिसर के नाम से निकले। उसके नाम से कभी उसके शोध का पता ही न चलेगा। यह हजार बातों पर निर्भर: करेगा।

तो जिन व्यक्तियों को हम इस पृथ्वी पर पैदा करते हैं, उनमें बहुत—से व्यक्तियों को दूसरे ग्रहों पर जन्म लेना पड़ता है। असल में इस पृथ्वी तक दूसरे ग्रहों की खबर लाने वाले लोग भी मूलत: किन्हीं दूसरे ग्रहों से आए थे। यह तो आज वैज्ञानिक को खयाल आया है कि कोई पचास हजार ग्रह हैं जिन पर जीवन होगा। लेकिन योगी को यह खयाल बहुत प्राचीन है। योगी के पास कोई उपाय नहीं था कि वह पता लगाए कि और ग्रहों पर कोई होगा। एक ही उपाय था कि ऐसी कुछ आत्माए जो दूसरे ग्रहों से यहां पैदा हुईं, वे खबर ले आई थीं। या इस ग्रह की खबरें भी दूसरे ग्रहों पर ले जाने वाली दूसरी ही आत्माएं हैं।

मनुष्य की चेतना मरते क्षण मै पूरी की पूरी इकट्ठी होगी। अपने सारे संस्कार, अपनी सारी प्रवृत्ति, अपनी सारी वासना, अपने जीवन का सारा सारभूत, एसेंशियल, जिसको कहें परफ्यूम, सारे जीवन की सुगंध या दुर्गंध, उसको इकट्ठी लेकर खड़ी हो जाएगी और यात्रा पर निकल जाएगी।

यह यात्रा साधारणत: अ—चुनी होगी। इसमें कोई चुनाव नहीं होगा, आटोमेटिक होगी। यह वैसे ही होगी जैसे कि हम पानी गिराएं और वह गड्डे की तरफ —बह जाए और गड्ढे में भर जाए। साधारणत: यह ऐसे ही होगा कि एक गर्भ एक गड्डे का काम करेगा और एक चेतना उपलब्ध होगी निकट और वह प्रवेश कर जाएगी।

इसलिए आम तौर से एक आदमी ज्यादातर अपने ही समाज, अपने ही देश में पैदा होता रहता है। बहुत कम परिवर्तन होते है। परिवर्तन तभी होते हैं जब कि गर्भ नहीं मिलता। इसलिए बहुत हैरानी की बात है कि पिछले दो सौ वर्षों में हिंदुस्‍तान—में पैदा हुई बहुत—सी कीमती आत्माओं को योरोप में पैदा होना पड़ा। जैसे एनी बीसेंट हो या. बलावट्सकी हों या लीड बीटर हों या अल्काट हों, ये सारी की सारी भारत की आत्माएँ हैं, लेकिन इनको पैदा होना पड़ा योरोप में। जैसे लोबसांग राम्पा है, वह तिब्बतन आत्मा है, लेकिन पैदा —हुई योरोप में। इसके कारण हो गए। क्योंकि वे पैदा जहां हुई थीं वहा फिर गर्भ नहीं मिल सका और गभें?इ ५मुइrऐंइ कहीं और खोजना पड़ा।

अन्यथा साधारण व्‍यक्‍ति तो तत्काल पैदा हो जाता है। वह ऐसे ही जैसे कि इस मुहल्ले से आप यह घर छोड़े, तो पहले आप इसी मुहल्ले में घर खोजें स्वभावत:। और यहां न मिले तब कहीं आप दूसरे मुहल्ले में घर खोजने जाएं। और बंबई में न मिले तब आप सबर्ब में जाएं। और सबर्ब में भी न मिले तब कहीं आगे निकलें। लेकिन अगर मिल जाए तो बात खतम हो गई।

इसका बड़ा अदभुत उपयोग किया गया था। उस उपयोग के संबंध में भी दो बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं और इस समय और भी जरूरी हो गई हैं। इसका एक जो सबसे अदभुत उपयोग किया गया था वह हिंदुस्तान में किया गया था वर्ण बनाकर। उसका उपयोग बड़ा कीमती था।

हिंदुस्तान ने चार वर्णों में तोड़ दिया था पूरे समाज को। और यह कोशिश की थी कि ब्राह्मण की आत्मा मरे तो वह ब्राह्मण के वर्ण में प्रवेश कर जाए, क्षत्रिय की आत्मा मरे तो वह क्षत्रिय के वर्ण में प्रवेश कर जाए। स्वभावत: अगर एक समाज में वर्ण सुनिश्चित हो, तो क्षत्रिय जब मरेगा तो बहुत संभावना नेबरहुड में ही खोजने की है। वह क्षत्रिय में ही प्रवेश कर जाएगा। और अगर एक व्यक्ति की आत्मा दस —पांच जन्मों तक क्षत्रिय रह जाए, तो जैसी क्षत्रिय होगी वैसा क्षत्रिय आप एक दिन मिलिट्री की ट्रेनिंग देकर पैदा नहीं कर सकते हैं। और अगर एक व्यक्ति की आत्मा दस—बीस जन्मों में ब्राह्मण के घर में पैदा होती चली जाए, तो जैसा शुद्धतम ब्राह्मणत्व पैदा होगा, वैसा आप कोई गुरुकुल बनाकर और आदमी को शिक्षा देकर तैयार नहीं कर सकते।

यह तुम जानकर हैरान होगे कि एक जिंदगी में हमने शिक्षा का उपाय सोचा है, कुछ लोगों ने अनंत जिंदगियों में भी शिक्षा की व्यवस्था खोजी है। और इसलिए बड़ा अदभुत प्रयोग था, लेकिन वह सड़ गया। सड़ा इसलिए नहीं कि गलत था, सड़ा इसलिए कि उसके मूल सूत्र खो गए। और जो उसके दावेदार हैं, उनके पास कोई भी सूत्र नहीं है। जो दावेदार हैं, उनके पास कोई सूत्र नहीं है। ब्राह्मण के पास कोई सूत्र नहीं है, शंकराचार्य के पास कोई सूत्र नहीं है कि वे दावा कर सकें। बस दावा इतना ही है कि हमारे शास्त्र में लिखा हुआ है कि ब्राह्मण ब्राह्मण है, शूद्र शूद्र है। शास्त्र नहीं चल सकते, वैज्ञानिक सूत्र चलते हैं।

इसलिए एक अदभुत घटना है कि इस मुल्क ने एक बड़ा भारी प्रयोग किया था जन्मांतर का। यानी एक जन्म में ही हम आदमी को तैयार नहीं कर रहे हैं, हम आगे जन्मों के लिए भी उसे सुनियोजित चैनलाइजेशन दे रहे हैं, उसे. ठीक नहरें दे रहे हैं कि वह अगली यात्रा पर भी फिर एक वर्ग विशेष को पकड़कर यात्रा कर सके। क्योंकि हो सकता है कि एक ब्राह्मण को शूद्र के घर में पैदा होना पड़े और पिछले जन्मों में जो उसने कमाया था, पिछले जन्मों में उसने जो पाया था, वह अगले जन्मों में उसके अनुकूल व्यवस्था पूरी न मिलने से उसे बड़ी अड़चन हो जाए। और यह भी हो सकता है कि जो काम ब्राह्मण के घर में ही पैदा होकर दस दिन में ही हो जाता, वह शूद्र के घर में दस साल में न हो पाए। तो इतनी दूर तक विकास की धारणा की जो दृष्टि थी, उसने मुल्क को सीधे हिस्सों में तोड़ दिया था। और व्यवस्था की थी नेबरहुड्स की, ताकि इनके भीतर जन्मों—जन्मों तक….।

अब जैसे कि महावीर या बुद्ध के चौबीस जन्म सब क्षत्रिय परंपरा में हैं। वह सारा का सारा व्यवस्थित एक धारा में चल रहा है। तो एक आदमी की पूरी की पूरी तैयारी चल रही है। जहां से तैयारी छूटी थी, दूसरी तैयारी होने में बीच में कोई गैप नहीं हो पाता, कोई अंतराल नहीं हो पाता—एक सातत्य है।

इसलिए हम बहुत अनूठे आदमी पैदा कर पाए। ऐसे अनूठे आदमियों को पैदा करना अब बहुत कठिनाई की बात है। सांयोगिक है कि ऐसे आदमी पैदा हो जाएं, लेकिन व्यवस्थित रूप से ऐसे आदमियों को पैदा करना बहुत ही कठिनाई की बात हो गई है।

समाप्‍त


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गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–199

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अंतिम जिज्ञासा: क्‍या है मोक्ष, क्‍या है संन्‍यास—(प्रवचन—पहला)

अध्‍याय—18

सूत्र—

श्री मद्भगवद्गीता (अथ अष्‍टादशोउध्‍ण्‍याय)

अर्जुन उवाच:

संन्यामस्य महाबाहो तत्त्वीमच्छामि वेदितुम्।

त्यागस्य च हषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।। 1।।

भगवानवाच:

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।

सर्व कर्मफलत्यागं प्राहुस्मागं विचक्षणा:।। 2।।

त्याज्यं दोश्वदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण:।

यज्ञदानतयकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।। 3।।

अर्जुन बोला, हे महाबाहो, हे हषीकेश, हे वासुदेव, मैं संन्यास और त्याग के तत्‍व को पृथक— पृथक जानना चाहता हूं।

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री भगवान बोले, हे अर्जुन, कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्याम जानते हैं और कितने ही विचक्षण अर्थात विचार कुशल पुरुष सब क्रमों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं।

तथा कई एक मनीषी ऐसा कहते हैं कि कर्म सभी दोषयुक्त है, इसलिए त्यागने के योग्य हैं। और दूसरे विद्वन ऐसा कहते हैं कई यज्ञ, दान और तप लय कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।

कृष्‍ण की गीता का अंतिम अध्याय आ गया। जो शुरू होता है, वह समाप्त भी होता है। कृष्ण जैसे अनूठे पुरुषों के वचन भी अंत पर आ जाते हैं। उनके द्वारा भी जिन शब्दों का उच्चार होता है, वे भी पानी पर खींची गई लकीरें सिद्ध होते हैं। कृष्ण भी उसे नहीं बोल पाते, जो कभी समाप्त न होगा। बोलने में वह आता ही नहीं।

जो भी बोला जाएगा, शुरू होगा, अंत होगा, उसकी सुबह होगी, सांझ होगी, जन्म होगा, मृत्यु होगी। सभी शास्त्र जन्मते हैं और मर जाते हैं। और सत्य तो वह है, जो कभी जन्मता नहीं और कभी मरता नहीं। सत्य तो शाश्वत है, शब्द क्षणभंगुर हैं।

शब्दों के क्षणभंगुर बबूलों पर सत्य का प्रतिफलन पड़ जाए, इतना काफी है। तुम्हारे शब्द भी बबूले हैं; कृष्ण के शब्द भी बबूले हैं। दोनों ही मिटेंगे। दोनों ही क्षणभंगुर हैं। फर्क इतना है कि तुम्हारे

शब्द पर सत्य की कोई प्रतिच्छाया नहीं पड़ती। कृष्ण के शब्द पर सत्य की प्रतिच्छाया पड़ती है। जैसे पानी के बबूले पर सूरज झलकता हो; इंद्रधनुष खिंच गया हो बबूले के आस—पास, सातों रंग प्रकट हो गए हों। तुम्हारा बबूला, बस बबूला है खाली। बबूला तो कृष्ण का भी बबूला ही है; पर सत्य की छाया है।

तुम्हारी झील में चांद का कोई प्रतिबिंब नहीं है। कृष्ण की झील में चांद का प्रतिबिंब है। यद्यपि झील में बने चांद को चांद मत समझ लेना। झील में खोजने मत लग जाना। नहीं तो खोजोगे तो बहुत, पाओगे कुछ भी नहीं। चांद झील में नहीं है, झील में दिखाई पड़ता है। झील से इशारा सीख लो। झील से समझ लो कि प्रतिबिंब कहां से आ रहा है। इसका मूल उत्स कहां है। फिर झील की तरफ पीठ कर लो और चांद की तरफ यात्रा शुरू कर दो।

कृष्‍ण ने जो कहा है गीता में, उसमें मत उलझ जाना। न मालूम कितने उस अरण्य में उलझे हैं और भटक गए हैं। कितनी टीकाएं हैं कृष्‍ण की गीता पर! मैं कोई टीका नहीं कर रहा हूं।

एक अरण्य खड़ा हो गया है कृष्ण के शब्दों के आस—पास। न मालूम कितने लोग जीवन उसी में बिता डालते हैं। वे गीता के पंडित ! हो जाते हैं; कृष्ण से वंचित रह जाते हैं।

गीता थोड़े ही सार है, वह तो झील में बना प्रतिबिंब है चांद का। समझ लेना इशारा और झील को छोड़ देना। यात्रा बिलकुल अलग—अलग है। अगर झील में छलांग लगा ली और चांद को खोजने के लिए डुबकियां मारने लगे, तो तुम टीकाएं ही पढ़ते रहोगे। तब तुम कृष्ण के शब्दों में ही उलझ जाओगे। शब्दों में तो कुछ सार नहीं है।

झील में उतरना ही मत। झील ने तो इशारा दे दिया है ठीक अपने से विपरीत। दिखाई तो पड़ता है प्रतिबिंब झील के भीतर, चांद होता है झील के ऊपर, ठीक उलटा।

शब्द को सुनकर निःशब्द की यात्रा पर निकल जाना। ठीक उलटी यात्रा है। कृष्ण को सुनकर गीता में मत फंसना; कृष्ण की खोज में निकल जाना।

जहां से उठती है गीता, उस चैतन्य का नाम कृष्ण है। गीता तो शब्द ही है; बड़ा बहुमूल्य शब्द है, पर शब्द ही है। हीरा बड़ा बहुमूल्य पत्थर है, पर पत्थर ही है। और इसीलिए गीता का अंत ‘ आ जाता है; कृष्ण का तो कोई अंत नहीं है।

जो है, उसका कभी कोई अंत नहीं है। सपने ही बनते और मिटते हैं। एक बड़ा प्यारा सपना है, गीता।

सपने में भी दो तरह के सपने होते हैं। एक तो बिलकुल ही सपना होता है, जिससे यथार्थ का कोई भी नाता नहीं होता। और एक ऐसा भी सपना होता है, जिसमें यथार्थ की थोड़ी भनक होती है। सपना तो वह भी है, लेकिन यथार्थ की थोड़ी भनक है। सपने को छोड़ देना, भनक को पकड़ लेना। वह जो यथार्थ का घूंघर बज रहा है धीमा— धीमा, सपने के शोरगुल में उसे ठीक से पकड़ लेना, ताकि शोरगुल में न उलझ जाओ।

कृष्ण ने यह गीता कही, इसलिए नहीं कि कहकर सत्य को कहा जा सकता है। कृष्ण से बेहतर कौन जानेगा कि सत्य को कहकर कहा नहीं जा सकता! फिर भी कहा, करुणा से कहा है।

सभी बुद्ध पुरुषों ने इसलिए नहीं बोला है कि बोलकर तुम्हें समझाया जा सकता है। बल्कि इसलिए बोला है कि बोलकर ही तुम्हें प्रतिबिंब दिखाया जा सकता है। प्रतिबिंब ही सही, चांद की थोड़ी खबर तो ले आएगा! शायद प्रतिबिंब से प्रेम पैदा हो जाए और तुम असली की तलाश करने लगो, असली की खोज करने लगो, असली की पूछताछ शुरू कर दो।

लेकिन अक्सर ऐसा हुआ है कि बुद्ध पुरुषों के वचन इतने महत्वपूर्ण हैं, इतने कीमती हैं, इतने सारगर्भित हैं कि लोग उनमें ही उलझ गए हैं। फिर सदियां बीत जाती हैं, लोग शास्त्रों का बोझ बढ़ाए चले जाते हैं! और बात ही उलटी हो गई। कहा किसी और कारण से था। कहने के लिए न कहा था, न कहने की तरफ इशारा उठाया था। शब्द से भी तुम्हारे भीतर निःशब्द को जगाने की चेष्टा है। बोलकर भी बुद्ध पुरुष चाहते हैं कि तुम न—बोलने की कला सीख लो।

तो पहली बात, कृष्ण की गीता तक का अंत आ जाता है, तो तुम्हारे गीतों का तो कहना ही क्या। वे अंत आ जाएंगे। और जिसका अंत ही आ जाना है, उसमें क्या उलझना! उसमें जितने उलझे, उतना ही समय गंवाया, उतना ही जीवन व्यर्थ खोया। खोजो उसे, जिसका कोई अंत नहीं आता।

शाश्वत है सत्य। सत्य को भी जो जान लेते हैं, वे भी समय की धार में उस सत्य को वैसा ही नहीं ला सकते, जैसा वह अपने में है। समय की धार में लाते ही प्रतिबिंब बन जाता है। समय दर्पण है। शाश्वत उसमें एक ही तरह से पकड़ा जा सकता है, वह प्रतिबिंब की तरह है। इसे थोड़ा समझ लेना।

इसलिए मैं कहता हूं गीता तो इतिहास की घटना है, कृष्ण इतिहास की घटना नहीं हैं। कृष्ण तो पुराण—पुरुष हैं। गीता कभी घटी है, कृष्ण कभी घटते हैं? कृष्ण सदा हैं।

यह गीता का फूल तो लगा एक दिन, सुबह खिला, उठा आकाश में; सुगंध फैली; सांझ मुरझाया और गिर गया। अब फिर बहुत नासमझ हैं, जो उसी फूल पर अटके बैठे हैं। जिन्होंने उसी फूल पर टीकाएं लिखी हैं। उसी फूल के आस—पास सिद्धांतों का जाल बुना है। वे भूल ही गए। यह फूल असली बात न थी। यह तो एक चेष्टा थी शाश्वत की, समय की धारा में प्रवेश की, ताकि तुम तक आवाज पहुंच सके।

बस, यह एक आवाज थी, यह अनंत की पुकार थी कि तुम सुन लो और चल पडो। यह कोई घर बनाकर बैठ जाने का मामला न था। यह तो एक आवाहन था। एक आह्वान था।

लेकिन इस आह्वान को मानकर जाने के लिए तो बड़ी हिम्मत चाहिए। अर्जुन जैसा क्षत्रिय भी बामुश्किल जुटा पाया। जुटाता, बिखर जाता। सम्हालता अपने को, चूक जाता। सब तरफ से उसने भागने की कोशिश की।

लेकिन कृष्ण मिल जाएं, तो उनसे कभी कोई भाग पाया है? भागने का उपाय नहीं है। इसलिए अर्जुन न भाग पाया, अन्यथा अपनी तरफ से उसने सब चेष्टा की थी, सब तर्क लाया।

मनुष्य जाति के इतिहास में उस परम निगूढ़ तत्व के संबंध में जितने भी तर्क हो सकते हैं, सब अर्जुन ने उठाए। और शाश्वत में लीन हो गए व्यक्ति से जितने उत्तर आ सकते हैं, वे सभी कृष्ण ने दिए। इसलिए गीता अनूठी है। वह सार—संचय है, वह सारी मनुष्य की जिज्ञासा, खोज, उपलब्धि, सभी का नवनीत है। उसमें सारे खोजियो का सार अर्जुन है। और सारे खोज लेने वालों का सार कृष्ण हैं।

कृष्ण कभी घटे समय में, इस बात में पड़ना ही मत। ऐसे व्यक्ति सदा हैं। कभी—कभी उनकी किरण उतर आती है; कहीं से संधू मिल जाती है। अर्जुन संध बन गया। प्रेमपूर्ण हृदय ही संध बन सकता है। अर्जुन शिष्य ही नहीं है। वस्तुत: तो शिष्य वह था ही नहीं। क्षत्रिय और शिष्य हो, जरा कठिन है! वह एक ही भाषा जानता है, मित्र की या शत्रु की। और कोई भाषा नहीं जानता। या तो तुम उसके मित्र हो या उसके शत्रु हो। उसका गणित सीधा साफ है, जो मित्र नहीं, वह शत्रु है।

कृष्ण से भी अर्जुन का प्राथमिक नाता मित्र का है। शिष्य तो वह फंस गया। शिष्य होने में तो जैसे उसकी चेष्टा न थी, अनजाने उलझ गया। बात तो उसने ऐसी ही शुरू की थी, जैसे मित्र से पूछ रहा हो।

इसमें थोड़ा समझ लेने जैसा है।

सत्य की खोज की दिशा में एक गहन मैत्री का भाव तो चाहिए ही। का भाव तो तुम्हारे बस के भीतर नहीं है। वह गुरु पैदा करेगा। वह तो तुम्हारा अहंकार कैसे शिष्य हो सकता है प्रथम से! वह इतना भी राजी हो जाए मित्र होने को, तो भी काफी है। इतनी सुविधा दे दे तुम्हें, तो भी बहुत है।

अर्जुन बात तो शुरू किया था मित्र की तरह से, अंत होते—होते शिष्य हो गया। जैसे—जैसे पूछा, वैसे—वैसे मुश्किल में पड़ा। जैसे —जैसे पूछा, वैसे—वैसे कृष्ण का विराट रूप प्रकट होने लगा। जिसको सदा मित्र की तरह जाना था, जिसमें और किन्हीं गहराइयों की खबर ही न थी, जिसमें कभी झांका ही न था, जिसे स्वीकार ही कर लिया था कि अपना मित्र है।

यह भी थोड़ा समझ लेना।

तुमने जिन्हें मित्र ही समझ लिया है, उनके भीतर भी विराट छिपा है। जिनके ऊपरी व्यवहार से ही तुम समाप्त हो गए हो कि तुमने समझ लिया कि परिचित हो गए; गलती मत करना। अगर तुम थोड़े मित्र को संधि दोगे, तो तुम वहीं से विराट को पाओगे, वहीं से कृष्ण की किरण उतर आएगी।

इसलिए गहन मैत्री में धर्म की शुरुआत होती है। प्रेम में प्रार्थना का प्रारंभ है। प्रेम में ही बीज बोए जाते हैं, जो किसी दिन परमात्मा बनते हैं।

यह भी समझ लेने जैसा है कि एक गहन सहानुभूति चाहिए, तो ही समझ पैदा हो सकती है। एक तरह की विवादग्रस्त मनोदशा से समझ पैदा नहीं हो सकती।

अर्जुन ने तर्क तो सब उठाए, पर बड़ा संवादपूर्ण हृदय था। उन तर्कों में कृष्ण को गलत करने की चेष्टा न थी, सिर्फ अपने संशयों की अभिव्यक्ति थी, अभिव्यंजना थी। जब तुम तर्क उठाते हो, तो दो तरह से उठा सकते हो। एक तो कि दूसरे को गलत करने की चेष्टा हो, तब तुमने शत्रुता खड़ी कर ली। संवाद बिखर गया। गीता पैदा न हो सकेगी।

गीत कहीं पैदा होता है, जहां संवाद ही पैदा न हो सके? संवाद का स्वर गीत है। संवाद का समस्वर हो जाना गीत है। जहां दो व्यक्ति एक ऐसी समस्वरता में बंध जाते हैं समाधि की, संगीत की, वहा गीत पैदा होता है।

भगवद्गीता पैदा हुई, उसमें अर्जुन का हाथ उतना ही है जितना कृष्ण का। न तो अकेले कृष्ण से वह हो सकती थी, न अकेले अर्जुन से हो सकती थी। उन दोनों का समतुल हाथ है, वहीं से गीत जन्मा है।

अगर विवाद की दृष्टि हो, तो जिज्ञासा सुंदर नहीं रह जाती, कुरूप हो जाती है। जिज्ञासा जिज्ञासा ही नहीं रह जाती, एक तरा: की शत्रुता हो जाती है। तुम पूछते ही हो गलत सिद्ध करने को। तुम पूछते हो मानकर कि तुम पहले से जानते ही हो।

मित्र भी पूछ सकता है। प्रश्न की शब्दावली एक ही जैसी भी हो, तो भी कोई भूल नहीं होने वाली है। मित्र जब पूछता है, तो वत इसलिए नहीं पूछता कि तुम गलत हो। वह इसलिए पूछता है कि मेरे मन में संदेह है। तुम तो ठीक ही होओगे, मैं ही कहीं गलत हूं। पर यह संदेह मेरे भीतर है, इसका भी मैं क्या करूं?

कल एक संन्यासी मेरे पास आए। उनकी आख में आंसू आ गए और उन्होंने कहा कि कभी—कभी आपके संबंध में भी विरोध के विचार पैदा हो जाते हैं। पर आख में आंसू हैं; पीड़ा है, तब तो यह विरोध का विचार भी अत्यंत प्रेम से भरा है।

मैंने उनसे कहा, फिर होने दो। फिर कोई चिंता नहीं है। आने दो विरोध के विचार को। वह तुम्हें घेर न पाएगा; तुम उसे जीत लोगे। क्योंकि तुम विरोध में नहीं हो, फिर कोई विरोधी विचार कुछ फर्क नहीं ला सकता। लेकिन तुम अगर विरोध में हो, तो विरोधी विचार न भी हो तो भी क्या फर्क पड़ेगा! विवाद तो खड़ा ही है।

अर्जुन के मन में बडे संदेह थे। कृष्ण गुरु हैं, ऐसी भी कोई धारणा न थी। हो भी कैसे सकती है?

बड़ी पुरानी तिब्बती कहावत है कि शिष्य गुरु को नहीं खोज सकता, गुरु ही शिष्य को खोजता है।

बात कुछ जंचती है, बेबूझ होती हुई भी जंचती है। बेक तो इसलिए कि गुरु क्यों खोजने निकलेगा शिष्य को? उसे क्या जरूरत पड़ी है?

उसकी भी जरूरत है। वह जरूरत ऐसे ही है, जैसे मेघ जब जल से भर जाता है, तो बरसना चाहता है, भूमि खोजता है, उत्तप्त भूमि खोजता है।

वह जरूरत ऐसी ही है, जैसे जब फूल गंध से भर जाता है, तो किन्हीं नासापुटों की प्रतीक्षा करता है। हवा के पंखों पर सवार होकर यात्रा पर निकलता है खोजने नासापुट। वह जरूरत वैसी ही है जैसे जब रोशनी जलती है, दीया प्रकाश से भरता है, तो बरसता है चारों तरफ, बटता है।

मोहम्मद ने कहा है कि अगर पहाड़ मोहम्मद के पास न आएगा, तो मोहम्मद पहाड़ के पास जाएगा। जल से भर गया मेघ खोजता है उत्तप्त हृदय को।

बेबूझ इसलिए कि हम सोचते हैं, गुरु को क्या पड़ी है! और बेबूझ इसलिए भी कि शिष्य की ही तलाश है, तो शिष्य को ही खोजना चाहिए। लेकिन फिर भी कहावत सही है।

शिष्य खोजेगा कैसे? उसके पास मापदंड कहां? उसके पास क्या है निकष? कैसे कसेगा? क्या है कसौटी? कैसे करेगा स्वीकार कौन गुरु है? किन चरणों में झुकेगा? किस सहारे झुकेगा? कौन—सा हिसाब है उसके पास? गुरु को जानता तो नहीं, पहचान तो कोई भी नहीं। इस अज्ञात मार्ग पर कैसे निर्णय करेगा कि यहीं छोड़ दूर कर दूं समर्पण इन्हीं चरणों में, हो जाऊं यहीं निछावर। बस, अब आगे कोई मंजिल नहीं, आ गया घर। ऐसी कैसे प्रतीति होगी उसे?

गुरु एक दूसरे जगत में रहता है। वह यहां दिखाई पड़ता है, यहां होता नहीं। उसका शरीर यहां होता है, उसका स्वयं का होना तो बहुत दूर होता है। वह तो ऐसे वृक्ष की तरह है, जिसकी जड़ें जमीन में गड़ी हैं और शाखाएं—प्रशाखाएं आकाश को छू रही हैं। उसके पैर ही यहां हैं। इसलिए तो हम गुरु के पैर छूते हैं, क्योंकि उससे ज्यादा हम पहचान कैसे पाएंगे!

गुरु के पैर छूना बड़ा प्रतीकात्मक है। हम यह कह रहे हैं कि तुम्हारे पैर ही इस संसार में हमें मिल सकते हैं, इससे ज्यादा तो हम तुम्हें यहां न पा सकेंगे। इन पैरों के पार तो तुम किसी और लोक में हो। बस, तुम्हारे हम टटोलकर पैर भी पा लें, तो मार्ग मिल गया, राह मिल गई। फिर हम तुम्हें खोज ही लेंगे। सहारा मिल गया। एक सूत्र हाथ में आ गया, फिर होओ तुम कितनी ही दूर, यात्रा हो कितनी ही लंबी, लेकिन अब भरोसे से हम इस धागे के सहारे चल लेंगे।

लेकिन कैसे पहचानोगे चरणों को? कैसे पहचानोगे गुरु की उपस्थिति को? इसलिए कहावत बेबूझ होती हुई भी ठीक है कि गुरु ही खोजता है।

इसके पहले कि तुम गुरु को चुनो, गुरु तुम्हें चुन लेता है। इसके पहले कि तुम उसकी तरफ चलो, उसकी पुकार तुम्हारे हृदय को खींचने लगती है। इसके पहले कि तुम होश से भरो कि तुम बुला लिए गए हो, तुम आ चुके होते हो।

अर्जुन को पता ही नहीं, कैसे सारा खेल हो गया है! कैसे उसने कृष्ण को अपना सारथी चुन लिया है। कैसे कृष्ण सारथी होकर उसके रथ पर सवार होकर इस महाभारत के युद्ध में आ गए हैं!

कैसे अनायास किसी और को पास न पाकर कृष्ण से वह पूछ बैठा है! कोई और था भी नहीं जिससे पूछे। मजबूरी थी, जैसे वह अपने से ही बोला हो। सारथी भी था मौजूद, इसलिए सारथी को पूछ लिया है। और एक अनंत यात्रा शुरू हो गई। अनजाने में, अंधेरे में उसकी शुरुआत है, जैसे बीज अंधकार में जमीन के फूटता है। उसे पता भी नहीं होता, कहां जा रहा है।

अंकुर को पता भी कैसे होगा, कहां जा रहा हूं! उसने पहले तो कभी आकाश देखा नहीं। उसने पहले तो कभी हवाओं में झोंके नहीं लिए। उसने पहले तो कभी सुबह की धूप में झपकी नहीं ली। वह जागा ही नहीं, बाहर आया ही नहीं; बीज में बंद था।

यह तो पहली ही बार यात्रा हो रही है। तोड़ता है जमीन की परतों को। बिलकुल नाजुक कोमल अंकुर कठोर पृथ्वी को तोड़कर बाहर आ जाता है। कोई अज्ञात पुकार है, जैसे सूरज ही उसे खींचता हो जमीन के बाहर, कि आओ! कि जैसे हवाएं उसे बुलाती हों और वह रुक न पाता हो, अवश खिंचा हुआ चला आया है। धीरे— धीरे चीजें साफ होती हैं। धीरे— धीरे आकाश में उठता है और आश्वस्त होता है।

अर्जुन को पता नहीं, वह क्यों पूछने लगा है! अर्जुन को पता नहीं, क्यों उसने सारथी बना लिया है कृष्ण को! क्यों सारथी से पूछ रहा है! यह सब हुआ है। अर्जुन की तरफ से यह सब अंधकारपूर्ण है, कृष्ण की तरफ से यह सब साफ—साफ है।

अर्जुन को खयाल ही है कि उसने चुन लिया है कृष्ण को, कृष्ण ने ही उसे चुना है। अर्जुन को खयाल है कि उसने प्रश्न उठाए हैं, कृष्ण ने ही उसे उकसाया है। अर्जुन को खयाल है कि वह जिज्ञासा कर रहा है; क्या ने ही उसे अतृप्त किया है।

अगर तुम मेरी बात समझो, तो यह भी हो सकता था कि कृष्ण की जगह अगर और कोई सारथी होता, तो अर्जुन को ये प्रश्न भी न उठे होते, यह जिज्ञासा भी न जगी होती। यह कृष्ण की मौजूदगी में फूटता हुआ अंकुर है। संभावना भीतर थी, अन्यथा पत्थर को थोड़े ही सूरज तोड़ लेगा, बीज को ही तोड़ सकता है। भीतर संभावना थी, इसलिए कृष्ण की पुकार सुनी जा सक़ी। लेकिन अर्जुन के जो कदम हैं प्राथमिक, वे बिलकुल अज्ञात में हैं।

तुम भी मेरे पास चले आए हो, तुम्हारे पहले कदम बिलकुल अंधकारपूर्ण हैं। अनेक. व्यक्ति मेरे पास आकर कहते हैं कि हम क्यों आ गए हैं, हमें कुछ पता नहीं। हम यहां क्यों हैं? किसलिए यहां हम आपके पास रुक गए हैं, कुछ पता नहीं! कभी—कभी वे घबड़ा भी जाते हैं कि यहां क्या कर रहे हैं!

कोई दूर स्वीडन से आया है, डेनमार्क से आया है। उसे कभी सपना भी नहीं हो सकता था पूना का। पूना है भी कहीं, इससे भी कोई उसका लेना—देना न था। और तब अचानक किसी दिन उसे यह बात यहां भी पकड़ लेती है कि मैं यहां क्या कर रहा हूं! छ: महीने हो गए आए हुए। घर से पुकार आ रही है, वापस लौट आओ। किसी की पत्नी है, बच्चे हैं; किसी के पिता हैं, मां है। मैं यहां क्या कर रहा हूं?

मेरे पास लोग आकर बार—बार कहते हैं कि आप हमें बताएं, हम यहां क्या कर रहे हैं? हम यहां क्यों हैं?

उनकी बात ठीक है। प्राथमिक क्षण अंधकार में ही हैं उनके लिए। मैं जानता हूं वे यहां क्यों हैं; वे नहीं जानते हैं। गुरु ही खोज लेता है।

जीसस ने कहा है, जैसे मछुआ जाल फेंकता है पानी में, मछलियों को पकड़ लेता है।

ऐसा ही एक जाल है, जो बड़ा अदृश्य है और चैतन्य के सागर में फेंका जाता है। और जब अर्जुन जैसी कोई मछली फंस जाती है, तो गीता का जन्म होता है।

अर्जुन कोई छोटी—मोटी मछली नहीं है। बड़ा बहुमूल्य व्यक्ति है, बड़ी मूल्यवान संभावनाएं हैं, बड़ा उसका भविष्य है। धीरे— धीरे एक—एक उत्तर कृष्ण का उसके भीतर और अनेक प्रश्नों को उठाता गया। लेकिन यह संवाद है, वह विवाद नहीं कर रहा है। वह कृष्ण को गलत सिद्ध नहीं करना चाहता है। बहुत गहरे में तो वह यही चाहता है कि कृष्ण ही सही हों और मैं गलत होऊं। लेकिन करूं क्या, मजबूरी है! प्रश्न उठते हैं, संदेह है, संशय है, तो कहूंगा न तो क्या करूंगा! कहना ही पड़ेगा।

वह बड़ी दुविधा में है। हृदय प्रेम करना चाहता है, मस्तिष्क संदेह उठाता है। हृदय चाहता है, हटाओ सब संदेह; डूब जाओ इस गहरी मैत्री में। लेकिन मन संदेह उठाए चला जाता है।

मन के संदेह हल करने ही होंगे। मन को निरस्त करना ही होगा। मन की शंकाएं काटनी ही होंगी। लेकिन अर्जुन का हृदय मन के साथ नहीं खड़ा है, इसलिए हल हो सका। अगर अर्जुन का ह्रदय भी मन के साथ खड़ा हो, फिर कोई हल नहीं है, फिर कोई समाधान नहीं है। फिर तुम हल करना ही नहीं चाहते।

इस बात को तुम अपने भीतर ठीक से पहचान लेना। क्योंकि मुझे क्या लेना—देना कृष्ण से और अर्जुन से! सवाल मेरे और तुम्हारे होने का है। ये सब तो मेरे लिए बहाने हैं। जिनके बहाने ‘ 1 तुमसे कुछ कह रहा हूं। तुम अपने भीतर गौर से देख लेना।

अगर तुम पाओ कि तुम मुझे गलत सिद्ध करना चाहते हो, या: तुम्हारे हृदय में है, तो तुम व्यर्थ ही अपना समय खराब कर रहे हो। अगर तुम चाहते हो कि अंतत: मैं सही सिद्ध हो जाऊं और तुम गलत हो जाओ, फिर भी तुम्हारा मन संदेह उठा रहा है, फिर कोई अड़चन नहीं है। फिर तुम उठाए जाओ, सब संदेह काटे जा सकेंगे। लेकिन अगर तुम्हारा हृदय ही उनसे जुड़ा हो, तो तुम्हारे विपरीत मैं तुम्हें मुक्त न कर पाऊंगा। हा, तुम मुक्त होना चाहो, तो कितनी ही बाधाएं हैं, सब काट डाली जाएंगी। कोई बाधा बाधा न बन सकेगी। तुम होना ही न चाहो, तो फिर कोई उपाय नहीं है। फिर मेरे दिए हुए सब उपाय भी नई जंजीरें बन जाएंगे। तुम उनसे भी बंधोगे, छूटोगे नहीं।

आ गया यह आखिरी अध्याय अर्जुन की जिज्ञासा का, कृष्ण के समाधानों का। इस आखिरी अध्याय का नाम है, मोक्ष—संन्यास—योग।

भारत के लिए मोक्ष अंतिम बात है। वह अठारहवा अध्याय है। उसके पार फिर कुछ नहीं है।

दुनिया में कहीं भी मोक्ष आखिरी बात नहीं है। दुनिया में मनुष्य के चैतन्य की इतनी गहराई से खोज ही नहीं हुई। भारत ने चार पुरुषार्थ कहे हैं. अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। अधिक संस्कृतियां बहुत अगर ऊंची उठीं, तो धर्म तक जाती हैं।

अब यह बड़े मजे की बात है, मोक्ष धर्म के भी पार है। मुक्त तो कोई तभी होता है, जब धर्म भी छूट जाता है। वह आखिरी बंधन है; बड़ा प्रीतिकर, बड़ा मधुर, मगर वह भी बंधन है। अगर तुम हिंदू हो, मोक्ष दूर है अभी। अगर मुसलमान हो, तो मोक्ष अभी दूर है। धर्म तक आ जाओगे। हमने उसे तीसरा ही पड़ाव कहा है, मंजिल नहीं। मोक्ष तो तब है, जब धर्म भी छूट गया, शास्त्र भी छूट गए, शब्द भी छूट गए। तुम्हें पता ही न रहा कि तुम कौन हो। कोई आइडेंटिटी, कोई तादात्म्य न रहा। कोई तुमसे पूछे, तो तुम हंसोगे; कुछ भी न कह पाओगे—हिंदू कि मुसलमान, कि जैन, कि बौद्ध।

और एक गहरे अर्थ में तुम सभी हो गए। मंदिर भी तुम्हारा, मस्जिद भी तुम्हारी, गुरुद्वारा भी तुम्हारा; और न कोई गुरुद्वारा रहा तुम्हारे लिए, न कोई मस्जिद रही, न कोई……। कुरान भी गई, गीता भी गई, वेद भी गए, बाइबिल भी गई। और एक अर्थ में सब घर आ गया, वेद भी तुम्हारा, बाइबिल भी तुम्हारी, गीता भी तुम्हारी।

तुम अब बंधे न रहे। तुम पार हो गए, एक अतिक्रमण हुआ।

मोक्ष बड़ी अनूठी बात है। वह पूर्वीय धारणा है। दुनिया की कोई जाति उतनी ऊंची नहीं गई। ज्यादा से ज्यादा जातियां धर्म तक ऊंची गईं। जो उतने भी नहीं जा सके, वे काम तक गए—अर्थ, काम। काम यानी वासना, सेक्स। अधिक लोग काम तक ही जा पाते हैं। जो उनसे भी नीचे हैं—वैसे भी बहुत लोग हैं; बड़ी संख्या है उनकी—जिनके लिए अर्थ ही सब कुछ है, धन।

अब यह थोडा सोचने जैसा है। जिसके जीवन में धन ही सब कुछ है, वह कामवासना वाले व्यक्ति से भी निम्न चेतना दशा का है। क्योंकि धन तो मुर्दा है। कामवासना कम से कम प्राकृतिक तो है, जीवंत तो है। धन तो जोड़ता नहीं, तोड़ता है। धन तो शोषण है, धन तो हिंसा है। प्रेम कम से कम जोड़ता तो है। किसी से भी जोड़ता है—एक स्त्री से, एक पुरुष से, परिवार से—कोई संबंध तो बनाता है। कामवासना में कुछ सेतु तो है! धन में तो कोई सेतु नहीं है। इसलिए धन का दीवाना किसी से भी नहीं जुड़ता। उसके आस—पास कोई जगह नहीं होती जहां से तुम संबंध बना लो। वह संबंधों से डरता है। क्योंकि संबंध बने कि झंझट आई। कहीं उसका धन न मांगने लगो! संबंध बने, तो कुछ खर्च भी करना पडेगा। संबंध बने, तो तुम्हें उसने निकट लिया। निकट डर है, क्योंकि तिजोरी के पास आ रहे हो। तुम्हारा हाथ उसकी जेब में जा रहा है। इतने पास वह किसी को भी न लेगा।

सबसे निम्नतम चेतना है, जिसका लक्ष्य जीवन में अर्थ है। धन, मकान, वस्तुएं, वह निम्नतम चेतना है। और वह संस्कृति निम्नतम है, जो अर्थ पर पूर्ण हो जाती है।

उसके ऊपर काम है। कम से कम दूसरे से जुड्ने की थोडी संभावना है, द्वार खुला है। कोई बहुत बड़ा द्वार नहीं है, बड़ा क्षुद्र द्वार है, लेकिन है। कोई बहुत विराट द्वार नहीं है, संकीर्ण है, उसमें से घसिटकर आना और जाना भी कष्टपूर्ण है। और उससे दूसरे से तुम जुड़ते भी हो और नहीं भी जुड़ते। क्योंकि जिससे भी तुम्हारा कामवासना का संबंध है, उससे गहरा संबंध हो ही नहीं पाता। यह बड़े मजे की बात है। अगर तुम पति हो और तुम्हारी पत्नी से तुम्हारा केवल कामवासना का संबंध है, तो संबंध ही नहीं है। नाममात्र को है। एक ने दूसरे के हृदय को जाना .नहीं, पहचाना नहीं। एक ने दूसरे के जीवन में न तो कोई गहराई छुई; एक ने दूसरे की गहराई को पुकारा ही नहीं। बस, शरीर के ऊपर परिधि पर थोड़ा—सा मिलन है। और वह भी मिलन क्षणभंगुर है। फिर फासला है, फिर मिलन है, फिर फासला है। मिलना और बिछुड़ना, मिलना और बिछुडना। और बिछुडना चौबीस घंटे है, मिलना क्षणभर को है। इसलिए कोई बड़ा संबंध नहीं है।

और जिससे भी तुम्हारा कामवासना का संबंध है, उससे तुम्हारा संघर्ष जारी रहेगा, द्वंद्व जारी रहेगा, विरोध जारी रहेगा। क्योंकि तुम्हें भीतर गहराई में ऐसा लगता ही रहेगा कि मैं निर्भर हूं; अपनी वासना की तृप्ति पर निर्भर हूं।

इसलिए पति पत्नियों से लड़ते ही रहेंगे, पत्नियां पतियों से लड़ती ही रहेंगी। जब तक उनके बीच से कामवासना तिरोहित न हो जाए, तब तक संघर्ष जारी रहेगा। जब तक पति—पत्नी उस जगह न आ जाएं, जहां उनके भीतर तीसरा चरण उठ जाए, धर्म का, तब तक कलह जारी रहेगी; तब तक उन दोनों के बीच शाति का राज्य स्थापित नहीं हो सकता। और ऐसा संबंध भी क्या, जो सिर्फ कलह का संबंध है!

तो माना, रुपए—पैसे के बीच अगर तुलना करनी हो, अगर मुझसे कोई पूछे कि कामवासना या धन की दौड़? तो मैं कहूंगा, कामवासना। कम से कम थोड़े तो बाहर आओगे। बहुत सुंदर रूप से न आओगे, मगर आओगे तो! मुख्य द्वार से न आओगे, सरकते हुए, सेंध लगाकर आओगे किसी दीवाल में, आओगे तो! ठीक है, चलो, इतना ही सही। जुडोगे तो। जुड़ना कोई गहरा न होगा, परिधि—परिधि का मिलन होगा, हृदय हृदय से फासले पर रहेंगे। पर चलो, कुछ शुरुआत तो हुई।

जो संस्कृतियां अर्थ और काम, दो पर ही समाप्त हो जाती हैं, वही अधार्मिक संस्कृतियां हैं।

फिर तीसरा है द्वार धर्म का। धर्म तुम्हें खोलता है। तुम्हें तुम्हारे शरीर के ऊपर उठाता है। और कहता है, तुम शरीर ही नहीं हो। तुम्हें चैतन्य बनाता है। तुम्हें चैतन्य की पहली गंध देता है; चैतन्य का पहला स्वाद देता है। फिर तुम धर्म से जुड़ते हो जब, तब बड़ी और ही बात हो जाती है। जब पति—पत्नी ऐसी जगह आ जाते हैं, जहां उनके बीच नाता वासना का नहीं, काम का नहीं, धर्म का हो जाता है, तभी प्रेम पैदा होता है।

प्रेम धर्म की छाया है। धार्मिक व्यक्ति के आस—पास प्रेम बरसता है। तुम फर्क समझ सकते हो। कामवासना से भरे व्यक्ति के पास तुम एक तरह की दुर्गंध पाओगे। धर्म से भरे व्यक्ति के पास तुम एक तरह की सुगंध, एक ताजगी, सुबह की ओस की ताजगी, नए ताजे फूलों की गंध पाओगे।

जब धार्मिक व्यक्ति तुम्हारी आंखों में देखेगा, तो तुम्हारे भीतर आश्वासन का जन्म होगा, भय का नहीं। कामवासना से भरा हुआ व्यक्ति तुम्हारी आंखों में देखेगा, तो तुम भयभीत होओगे, तुम कंप जाओगे। वह तुम्हारे शरीर के पीछे है, तुमसे उसे कोई प्रयोजन नहीं है। तुम हो या नहीं, इससे कोई अर्थ भी नहीं है। उसका रस तुम्हारी देह में है। बस, देह से ज्यादा उसकी गहराई नहीं है।

धर्म प्रेम तक ले जाएगा। और धर्म तुम्हें एक से नहीं जोड़ेगा, बहुतों से जोड़ देगा। काम तुम्हें एक से जोड़ेगा और बहुतों से तोड़ देगा। काम का संबंध ईर्ष्या का, वैमनस्य का, प्रतिस्पर्धा का संबंध है।

तुम्हारी पत्नी चौबीस घंटे डरी रहेगी कि तुम किसी और स्त्री की तरफ तो नहीं देख रहे! तुम्हारा पति सदा भयभीत रहेगा कि पत्नी किसी और पुरुष में उत्सुक तो नहीं है! वह बड़ा संकीर्ण है और ओछा है; इतनी संकीर्णता में हृदय का कमल खिल ही नहीं सकता। फिर एक धर्म का जगत है। वहां तुम्हारे जीवन में प्रतिस्पर्धा गिरती है, ईर्ष्या गिरती है, परिग्रह गिरता है। तुम धीरे — धीरे शाति की तरफ उत्सुक होते हो, मौन की तरफ उत्सुक होते हो। मंदिर की तरफ तुम्हारी यात्रा शुरू होती है।

धर्म के जगत में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, पूजागृह महत्वपूर्ण हो जाते हैं। गीता, कुरान, बाइबिल महत्वपूर्ण हो जाते हैं। सत्संग, सदवचनों का सुनना, सज्जनों का साथ रस देने लगता है। एक नई ही वीणा बजने लगती है। तुम पहली दफा अनुभव करते हो कि पदार्थ पदार्थ ही नहीं है, इसमें परमात्मा छिपा है। कण—कण में तुम्हें उसकी प्रतीति की थोड़ी—सी झलकें आनी शुरू हो जाती हैं। कभी—कभी अचानक वातायन खुल जाता है और तुम पाते हो कि लोग साधारण नहीं हैं, असाधारण हैं। यहां प्रत्येक वस्तु में, वह कितनी ही साधारण हो, बड़ी असाधारण गरिमा छिपी है। प्रत्येक वस्तु एक आभा से मंडित हो जाती है, एक गरिमा व्याप्त हो जाती है। यह जगत तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि तुम किसी अजनबी जगह हो, यह तुम्हारा घर है। विरोध छूटता है, संघर्ष मिटता है, सहयोग शुरू होता है।

धार्मिक व्यक्ति के जीवन का स्वर सहयोग है। उसकी भाषा संघर्ष की नहीं रह जाती।

कुछ संस्कृतियां धर्म तक जाती हैं। लेकिन पूरब वहां नहीं रुकता। वह कहता है, अभी एक कदम और। और वह है, मोक्ष। मोक्ष का अर्थ है, अब तुम इससे भी मुक्त हो जाओ।

मोक्ष बड़ी अनूठी धारणा है। क्योंकि सहयोग का भी मतलब है। कि कहीं न कहीं संघर्ष की धुन मौजूद होगी, नहीं तो सहयोग। किससे? किस बात का? मित्रता का अर्थ यह है कि कुछ शत्रुता। शेष होगी, नहीं तो मित्रता की क्या जरूरत? प्रेम का अर्थ यह है कि घृणा कहीं छिपी होगी, मौजूद होगी, अन्यथा प्रेम का भी का सवाल? और तुम्हें कण—कण में परमात्मा दिखाई पड़ता है, इससे बात साफ है कि अभी पदार्थ और परमात्मा दो हैं, एक नहीं हुए। अभी कण भी है और उसमें परमात्मा दिखाई पड़ रहा है।

एक फकीर मेरे पास मेहमान थे, कोई पांच वर्ष पहले। वे मुझसे कहने लगे, मुझे तो कण—कण में परमात्मा दिखाई पड़ता है। मैंने पूछा कि कण—कण भी दिखाई पड़ता है और परमात्मा भी? दोनों! वे थोड़े चौंके। उन्होंने कहा कि दिखाई तो दोनों ही पड़ते हैं। तो फिर, मैंने कहा, परमात्मा अभी पूरा नहीं हुआ। नहीं तो कण खो ही जाएगा।

मोक्ष की दशा में परमात्मा ही है। फिर ऐसा नहीं है कि दिखाई पड़ता है वृक्ष में। वृक्ष है ही नहीं, परमात्मा ही है। वृक्ष परमात्मा का एक रूप है। परमात्मा कहीं छिपा है, ऐसा नहीं; परमात्मा प्रकट है।

धर्म के जगत में परमात्मा छिपा है, अप्रकट है। प्रतीति होती है। थोड़ी झलकें आती हैं। थोड़ा खयाल आना शुरू होता है। चेतना जग रही है।

धर्म का जगत ऐसे है, जैसे सुबह तुम बिस्तर पर पड़े हो, उठना चाहते हो, थोड़ी नींद टूट भी गई है, नहीं भी टूटी है, अलसाए हुए हो। सड़क पर कोई दूध बेच रहा है, आवाज सुनाई पड़ती है। पत्नी उठ गई और बरतन साफ कर रही है, और आवाज सुनाई पड़ती है। और बच्चा स्कूल नहीं जाना चाहता, रो रहा है, और थोड़ा—सा खयाल आता है। ऐसी झलक आ रही है कि दुनिया जाग गई; उठो।

धर्म अलसाई हुई दशा है। न तो आदमी सोया हुआ है, न अभी जागा हुआ है; मध्य में है। मोक्ष परिपूर्ण जाग्रत चैतन्य का नाम है। मोक्ष शब्द का ही अर्थ है, मुक्ति, जहां कोई परतंत्रता न रही।

और इसे तुम ठीक से समझ लो। क्योंकि पूरब में जिन्होंने बहुत गहन खोज की है, उन्होंने कहा, जब तक दूसरा है, तब तक परतंत्रता रहेगी। दूसरे की मौजूदगी ही परतंत्रता है। जब तक दो हैं, तब तक अड़चन रहेगी। अद्वैत चाहिए, तभी स्वतंत्र हो पाओगे। जब स्व ही बचे और कुछ न बचे, तभी स्वतंत्र हो पाओगे। जब तक दूसरा है, तब तक दूसरा तुम्हारी सीमा बनाएगा।

तुमने कभी खयाल किया, तुम अकेले अपने बाथरूम में होते हो, तब एक तरह की स्वतंत्रता होती है। तुम मुस्कुराते हो, गीत गाते हो, गुनगुनाते हो। जिनको लाख समझाओ कि जरा गुनगुना दो लोगों के सामने, वे भी बाथरूम में बड़े मधुर गीत गाते हैं।

दूसरे की मौजूदगी में परतंत्रता है। दूसरा मौजूद है, तो तुम सिकुड़े। अगर तुमको पता चल जाए कि कोई चाबी के छेद से झांक रहा है, तो तुम वहां भी सिकुड़ जाओगे, वहां भी डर जाओगे। वहां भी तुम्हारी स्वतंत्रता छिन जाएगी। तुम परतंत्र हो गए। दूसरे की नजर आई कि तुम परतंत्र हुए।

रास्ते पर तुम अकेले जा रहे हो, तुम्हारी चाल और होती है। फिर अचानक कोई रास्ते पर निकल आया, तुम्हारी चाल तत्थण बदल जाती है। तुम्हें होश नहीं है, इसलिए तुम्हें पता नहीं चलता; लेकिन सब बदल जाता है। अकेले में तुम और ही होते हो; दूसरे के सामने तुम और ही हो जाते हो, एकदम तुम्हारा चेहरा झूठा हो जाता है। जिन्होंने खोजा, उन्होंने पाया है कि जब तक हम अकेले ही न बचें, तब तक कुछ पूरी स्वतंत्रता नहीं उपलब्ध हो सकती।

मोक्ष का अर्थ है, तुम डूब गए सर्व में और सर्व डूब गया तुममें। बूंद गिरी सागर में, सागर गिरा बूंद में। अब कोई दूसरा न रहा, दुई मिट गई। अब ऐसा नहीं है कि परमात्मा दिखाई पड़ता है कहीं, अब परमात्मा ही है, देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला।

इसलिए कुछ ज्ञानियों ने तो परमात्मा को भी इनकार कर दिया, क्योंकि उससे दुई पता चलती है। महावीर ने कहा, कौन परमात्मा? कैसा परमात्मा? आत्मा ही परमात्मा है।

इसे तुम ठीक से समझना। यह महाज्ञान का शब्द है। नासमझ समझे कि महावीर नास्तिक हैं। बुद्ध ने इनकार ही कर दिया; परमात्मा से ही नहीं, आत्मा से भी, कि कौन? क्योंकि जब भी तुम कुछ कहो, कोई भी शब्द उपयोग करो, हर शब्द दूसरे की मौजूदगी को पैदा करता है।

अगर तुम कहो आत्मा है, तो उसका अर्थ यह हुआ कि तुम आत्मा को भिन्न कैसे करोगे? अनात्मा भी होगी। जब तुम कहते हो प्रकाश है, तुमने अंधकार स्वीकार कर लिया। जब तुम कहते हो परमात्मा है, तब तुमने संसार स्वीकार कर लिया। जब तुम कहते हो मोक्ष है, तो तुमने बंधन स्वीकार कर लिया।

इसलिए बुद्ध ने कहा कि न तो कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है, न कोई मोक्ष है। यह परम मोक्ष की अवस्था है; यह परम मुक्ति है, यह निर्वाण है। और यही लक्ष्य है।

ठीक ही है कि अठारहवा अध्याय मोक्ष—संन्यास—योग है। मोक्ष है परम लक्ष्य। संन्यास है मार्ग उस परम लक्ष्य को पाने का। मोक्ष को पाना है, संन्यास से पाया जाता है। और कोई पाने का उपाय नहीं है। अकेले होना है, इतने अकेले हो जाना है कि सब तुममें समाहित हो जाए, तो इसकी यात्रा का प्रस्थान बिंदु संन्यास है। पूरब की दो ही खोजें हैं, मोक्ष—गंतव्य, संन्यास—मार्ग।

सिकंदर शिष्य था प्लेटो का। प्लेटो की धारणाएं धर्म तक पहुंच जाती हैं। लेकिन मोक्ष की उसे भी कोई समझ नहीं है। जब सिकंदर भारत आने लगा, तो उसने कहा, भारत से लौटते वक्त तुम बहुत चीजें लूटकर लाओगे, एक चीज मेरे लिए ले लाना, एक संन्यासी ले आना। मैं एक संन्यासी को देखना चाहता हूं। यह संन्यास क्या है!

यह अनूठा फूल भारत में ही खिला है। यह खिल ही नहीं सकता था दूसरी संस्कृति में, क्योंकि मोक्ष की धारणा ही न थी तो संन्यास का सवाल कहा उठता है! जब मोक्ष का गंतव्य होता है सामने, तो फिर संन्यास का विज्ञान उठता है।

अर्जुन आखिरी जिज्ञासा कर रहा है। उसके पार फिर कोई जिज्ञासा नहीं होती। वह आखिरी जिज्ञासा कर रहा है, संन्यास की और मोक्ष की। इसे तुम समझो।

अर्जुन बोला, हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे वासुदेव, मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक—पृथक जानना चाहता हूं। मुझे साफ—साफ समझा दें, क्या है संन्यास और क्या है मोक्ष!

यह आखिरी जिज्ञासा है, इसके पार कोई जिज्ञासा हो नहीं सकती। और जो पूछना था, पूछ लिया। अब आखिरी बात पूछने को आ गई है।

मुझे अलग—अलग करके समझा दें……।

क्योंकि धारणाएं संन्यास की, मोक्ष की, त्याग की बड़ी सूक्ष्म हैं और बहुत नाजुक हैं। और ज्ञानियों ने बहुत तरह के वक्तव्य दिए हैं, इसलिए बड़ी उलझन वहां भी है।

पहले कहता है, हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे वासुदेव…..!

यह सिर्फ वह अपने हृदय की बात कह रहा है। हृदय थकता नहीं प्यारे को पुकारने से। तीन—तीन बार दोहराता है! वह यह कह रहा है कि हृदय तो आश्वस्त है कि तुम जो कहोगे, ठीक ही होगा; बुद्धि आश्वस्त नहीं है। पहले हृदय को रख देता है सामने।

पुरानी परंपरा थी कि जब तुम गुरु के पास जाओ, तो पहले चरण छुओ, फिर पूछो। वह केवल इतना ही कहना था कि ऐसे तो चरणों में झुका हूं; आप जो कहेंगे, वह ठीक ही होगा; उसमें गलत होने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन मैं अबुद्धि हूं। और मेरी बुद्धि में अभी बहुत—सी चिंतनाएं चलती हैं……।

तो चरण में झुकना प्रतीक है कि संवाद की तैयारी है, सुनने को राजी हूं, श्रावक बनने को आया हूं र विवाद की उत्सुकता नहीं है। तब पूछता है शिष्य।

हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे वासुदेव, मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक —पृथक जानना चाहता हूं। कृष्ण बोले, हे अर्जुन, कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास जानते हैं। और कितने ही विचक्षण पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। तथा कई मनीषी ऐसा कहते हैं कि कर्म सभी दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं। और दूसरे विद्वान ऐसा भी कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।

पंडित का अर्थ उस दिन कुछ और था, आज कुछ और है। पंडित का अर्थ उन दिनों प्रज्ञावान पुरुष था, जिसने जाना है। आज पंडित का अर्थ होता है शास्त्रज्ञ, जो शास्त्र को जानता है। इन दोनों में बड़ा फर्क हो गया है। आज पंडित शब्द तो निंदित है। किसी को पंडित कहने का अर्थ ही यह है कि वह कुछ नहीं जानता, कोरा पंडित है! शब्दों की भरमार है। अनुभव से खाली है।

उन दिनों पंडित का अर्थ था, जो प्रज्ञा को उपलब्ध हो गया है, जिसने अंतर्ज्योति को जला लिया है।

कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, कितने ही पंडितजन, कितने ही प्रज्ञावान पुरुष काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास जानते हैं।

काम्य कर्म क्या है? अगर तुम गीता की टीकाएं पढ़ोगे, तो काम्य कर्म के संबंध में गीता के टीकाकार जो कहते हैं, वह बिलकुल ही गलत कहते हैं। गीता के सभी टीकाकार यह मानकर चलते हैं कि काम्य कर्म वे कर्म हैं, जो वेद—विहित हैं, करने योग्य हैं, जिनको करना ही चाहिए।

अगर यह बात ठीक हो.। यह बात भी ठीक हो सकती है, क्योंकि प्रज्ञावान पुरुष सदा ही शास्त्र, वेद से मुक्ति की तरफ ले जाना चाहते हैं।

लेकिन यह बात मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ती। मेरी दृष्टि में काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहने का अर्थ यह नहीं हो सकता कि जो कर्म वेद—विहित हैं, उनका त्याग।

काम्य कर्मों का त्याग एक ही अर्थ रख सकता है कि कर्म दो तरह के हैं। एक, जो आवश्यक हैं; और दूसरे, जो काम्य हैं। आवश्यक कर्म तो ऐसा है, जैसे भूख लगेगी, तो भोजन जुटाना पड़ेगा। कैसे तुम जुटाते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बुद्ध को भी जुटाना पड़ता है। वे भी भिक्षा के लिए गांव में निकलते हैं।

यह तो जरूरत है, यह तो आवश्यकता है। प्यास लगेगी, तो शरीर के लिए पानी देना पड़ेगा। न दोगे, तो आत्महत्या का पाप लगेगा। वर्षा है, छप्पर खोजोगे। धूप घनी है, तो बुद्ध भी छायापूर्ण वृक्ष के नीचे बैठते हैं। ये काम्य कर्म नहीं हैं, ये अनिवार्य कर्म हैं। इनका तो त्याग कोई प्रज्ञावान पुरुष नहीं कहता।

काम्य कर्म वे हैं, जो वासनाजन्य हैं। जैसे, बड़ा मकान चाहिए। जरूरत शायद न भी हो, सिर्फ अहंकार की आकांक्षा हो। क्योंकि छोटे मकान में छोटा अहंकार लग सकता है। बड़े मकान में बड़ा अहंकार लग सकता है। शायद सोने के लिए तो जितनी जगह तुम छोटे मकान में लेते हो, उतनी ही बड़े मकान में लोगे। लेकिन बड़ा मकान चाहिए।

लोग बड़ा मकान जिंदा में ही नहीं चाहते, मरकर भी चाहते हैं। सम्राट तो अपनी कब भी पहले से बनवा रखते हैं। क्योंकि पीछे क्या भरोसा, लोग बड़ी कब बनाएं न बनाएं! तो अपनी कब पहले ही बना रखते हैं। बड़ी—बड़ी कब्रें बनाई गई हैं। और आदमी मरकर उतनी ही जगह लेता है, जितना गरीब लेता है, उतना ही अमीर लेता है।

अगर जिंदगी में भी काम्य कर्म छूट जाएं, तो तुम्हारी जरूरतें भी वही हैं, जो गरीब की हैं। अमीर की भी वही हैं, गरीब की भी वही हैं। प्यास लगती है, पानी चाहिए। भूख लगती है, भोजन चाहिए। त्याग का अर्थ होगा, संन्यास का अर्थ होगा, जरूरत ही शेष रह जाए, गैर—जरूरत हट जाए। जो गैर—जरूरी है, जो किसी कामना के कारण पैदा हुआ है, जो किसी पागलपन से पैदा हुआ है, वह हट जाए। अगर तुम इसे ठीक से समझ लो, तो तुम पाओगे, जीवन बड़ा सरल हो जाता है। चाहिए ही कितना कम है!

सुखी होने के लिए बहुत कम चाहिए; दुखी होने के लिए बहुत ज्यादा चाहिए। दुख छोटे से नहीं होता। दुख के लिए बड़ा विराट आयोजन चाहिए। अगर निश्चित रहना हो, बड़े थोड़े में हो जाता है। लेकिन चिंता चाहिए हो, तो थोड़े में नहीं होता, उसके लिए सिकंदर बनना जरूरी है।

इसलिए तुम जितना इकट्ठा करते जाओगे, उतना ही पाओगे कि दुखी और चिंतित होते जाते हो। फिर भी गणित तुम्हारी समझ में नहीं आता। तुम सोचते हो, शायद थोड़ा और ज्यादा हो जाए, तो फिर सुखी हो जाऊंगा। और ज्यादा हो जाता है, और दुखी हो जाते हो। वही मन जो तुम्हें यहां तक ले आया, कहता है, अब और थोड़ा कर लो, तो बिलकुल सुखी हो जाओगे। और ऐसे वह तुम्हें लेता चलता है। अगर तुम गौर से देखोगे, तो तुम पाओगे, जब तुम्हारे पास कम था तब तुम सुखी थे।

सभी को ऐसा लगता है कि बचपन में सुख था, उसका कुल कारण इतना है कि बचपन में तुम्हारे पास कुछ भी नहीं था, कोई परिग्रह नहीं था। कुल कारण इतना है कि तुम्हारी जरूरतें भर जरूरतें थीं। भूख लगती थी, भोजन कर लेते थे। प्यास लगती थी, पानी पी लेते थे, फिर खेलने बाहर निकल जाते थे। थक गए, तो घर आकर सो जाते थे। कुछ भी न था, मालकियत कोई भी न थी।

छोटे बच्चों को गौर से देखो। रंगीन कंकड़—पत्थर उन्हें इतना आनंदित कर देते हैं, जितने हीरे—जवाहरात भी तुम्हें न कर सकेंगे। तितलियों के पंख बीन लाते हैं और घर ऐसे आते हैं, जैसे कि सम्राट होकर चले आ रहे हैं। उनके खीसों में हाथ डालो, कंकड़, पत्थर, सीप, न मालूम क्या—क्या तुम पाओगे! रात भी उनसे उन्हें निकालो तो उनका मन नहीं होता, वे कहते हैं कि रहने दो। वह उनका धन है, तुम्हें पता नहीं; तुम उनका धन ले रहे हो। बड़े सरल हैं, छोटा—सा सब कुछ है, बहुत है, पर्याप्त है।

फिर जैसे—जैसे तुम्हारे पास चीजें आनी शुरू होती हैं। जिस दिन बच्चे के मन में मालकियत का स्वर उठता है, उसी दिन चिंता शुरू हो जाती है, उसी दिन बचपन समाप्त हो गया, बच्चा मर गया। अब कोई और दूसरा प्रविष्ट हो गया। अब यह दौड़ चलेगी मरते दम तक। और जिंदगी भर बार—बार तुम्हें याद आएगी कि बचपन बड़ा सुख। था।

ज्ञानी पुरुष कहते हैं, बच्चे जैसे ही जीओ। जरूरत की चीज चाहिए, निश्चित चाहिए। उसके लिए जो कर्म करना पड़े, उसके त्याग को कोई भी नहीं कहता। लेकिन जो व्यर्थ की कामनाएं हैं, उनकी पूर्ति के लिए जो कर्म किए जाते हैं, वे छोड़ दो।

मुझसे लोग कहते हैं, समय नहीं है ध्यान के लिए। कर क्या रहे हो चौबीस घंटे? बहुत काम का जाल है। ध्यान ही आखिर में काम आता है; शेष सब किया हुआ व्यर्थ हो जाता है। जिसने जीवन में थोड़े से क्षण ध्यान के पा लिए, वही बचाए हुए सिद्ध होते हैं। बाकी सब, बाकी सब नाली में बह गया, कुछ काम का नहीं आता। लेकिन व्यर्थ को हम करने में संलग्न हैं; सार्थक को करने के लिए समय नहीं है!

कृष्ण कहते हैं, कितने ही पंडितजन काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं….।

यह एक दृष्टि है, यह एक मार्ग हुआ संन्यास तक पहुंचने का। और कितने ही विचक्षण पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं.।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, ऐसे भी विचक्षण पुरुष हैं..।

जीवन सुंदर है इसीलिए कि यहां बड़े भिन्न होने के उपाय हैं। यहां अगर गुलाब ही गुलाब के फूल होते, तो बड़ी ऊब पैदा कर देते। यहां हजार—हजार तरह के फूल हैं।

तो कृष्ण कहते हैं, वे जो कहते हैं—प्रज्ञावान पुरुष हैं वे भी—कि काम्य कर्म छोड़ दो, पर ऐसे विचक्षण पुरुष भी हैं, जो कहते हैं, कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है, केवल फल का त्याग कर दो।

इनको विचक्षण कहते हैं। वे कहते हैं कि इनको बड़ी अनूठी दृष्टि उपलब्ध हुई है। इनकी दृष्टि अनूठी है, साधारणत: समझ में न आएगी।

पहली तरह के जो पुरुष हैं, उनकी बात साधारणत: समझ में आ जाती है; अड़चन नहीं है। जरूरत का काम करो, गैर—जरूरत का छोड़ दो। सीधा गणित है। इसलिए पहले तरह के पुरुषों का भारी प्रभाव पड़ा है। महावीर, बुद्ध सभी पहली तरह के पुरुष हैं।

दूसरी तरह के पुरुष तो कृष्ण हैं, जनक हैं। वे बड़े विचक्षण लोग हैं। वे कहते हैं, कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है। छोड़ना, पकड़ना क्या है? सिर्फ फल त्याग कर दो। वे कहते हैं, फल की भर आकांक्षा न हो। फिर तुम्हें राज्य भी बनाना हो, तो बनाए चले जाओ। कोई हर्जा नहीं है। फल की आकांक्षा न हो। पाने का कोई खयाल न हो।

बहुत कठिन है लेकिन। तुम्हें भी लगेगा कि बात तो दूसरी ही ठीक है, इसलिए नहीं कि दूसरी ठीक लगती है। दूसरी ठीक लगेगी कि उसमें कामना को बचा लेने का उपाय लगता है। उसमें लगता है, तो फिर कोई हर्जा ही नहीं है। जब जनक भी ज्ञान को उपलब्ध हो गए राजमहलों में रहकर, तो हम भी हो जाएंगे।

मगर तब तुम चूक जाते हो। तुम अगर कामवासना के कारण सोच रहे हो कि दूसरी बात सरल है, तो तुम गलती में पड़ रहे हो। दूसरी बात पहली से ज्यादा कठिन है।

जिस काम की वासना चली गई हो, उसको न करना बहुत आसान है; सिर्फ फल त्याग करना बहुत कठिन है। उसका मतलब है, आधे का त्याग और आधे का जारी रखना। उसका अर्थ यह हुआ कि काम तो वैसा ही करना, जैसे सांसारिक लोग कर रहे हैं, लेकिन बिलकुल विभिन्न दृष्टि से करना। दुकान, चलाना, लेकिन लाभ की भावना न रखना। इससे सरल है दुकान छोड्कर पहाड़ भाग जाना। क्योंकि उसमें मामला बिलकुल साफ है। दुकान करनी है, तो दुकान करो; पहाड़ जाना है, पहाड़ चले जाओ।

लेकिन दूसरे जो विचक्षण पुरुष हैं, वे कहते हैं, दुकान पर ऐसे बैठो, जैसे पहाड़ पर बैठोगे।

यह जरा सूक्ष्म है, ज्यादा नाजुक है। इसमें खतरा है। खतरा यह है कि कहीं तुम दुकान पर ऐसे ही न बैठे रहो, जैसे दुकान पर दूसरे लोग बैठे हैं; और यह भांति बना लो कि हम पहाड़ पर हैं। हमारी कोई फलेच्छा थोड़े ही है! हमारी कोई फल की आकांक्षा थोड़े ही है! हम तो यह कर्तव्यवश किए चले जा रहे हैं। और भीतर फल की इच्छा है।

तुम सारी दुनिया को धोखा दे सकते हो, लेकिन अपने को कैसे दोगे? और असली सवाल अपना है। अपने भीतर तुम जरा भी देखोगे, तो साफ पाओगे कि धोखा दे रहे हो। क्योंकि काम, फल तुम्हारे भीतर गूंजता ही रहेगा।

वस्तुत: दुकान पर बैठे लोग दुकान पर बैठना नहीं चाहते हैं, मजबूरी है, फल पाने के लिए बैठना पड़ता है। अगर उन्हें भी कोई मिल जाए, कि दुकान पर न बैठो, यह ताबीज ले लो—कोई सत्य साईं बाबा—इससे बिना कुछ किए फल की प्राप्ति होगी, तो वे भी पहाड़ जाने को तैयार हैं। कौन नासमझ दुकान पर बैठने का रस ले रहा है! लेकिन बिना दुकान पर बैठे फल नहीं मिलता। बड़ा मकान बनाना है, वह नहीं बनता। पहाड़ पर बैठने से नहीं बनेगा। इसलिए मजबूरी में वे काम में लगे हैं।

अगर तुम बाजार में इस तरह हो सको, जैसे तुम एकांत में होओ; तुम काम ऐसे कर सको, जैसा कि फलाकांक्षी करता है, बिना फलाकांक्षा के, तो तुमने बड़ी विचक्षण दृष्टि पा ली। तब कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है। तब तो इतना ही समझना काफी है कि फल उसके हाथ में है, कर्म मेरे हाथ में है। करना मुझे है; फल देना न देना उसकी मर्जी। फिर जो वह तुम्हें दे दे, तुम उससे ही तृप्त हो। न दे, तो न देने से तृप्त हो। छीन ले, छिन जाने से तृप्त हो। फिर तुम्हारी तृप्ति को कोई नहीं तोड़ सकता।

इसको तुम कसौटी समझ लो। अगर तुम्हारी तृप्ति में अंतर पड़ता हो; दुकान में लाभ होता हो, तो तुम्हारे पैर जरा तेजी से और प्रसन्नता।। चलते हों, तुम तृप्त मालूम होते हो; हानि होती हो, तो तुम उदास हा जाते हो, दीन—हीन हो जाते हो, पैर लथडाने लगते हैं; तो फिर मत समझना कि तुमने फलाकांक्षा का त्याग कर दिया है।

बुद्ध और महावीर का मार्ग सरल है, जनक और कृष्ण का बहुत कठिन है। इसलिए वे कहते हैं, कोई विचक्षण पुरुष! कभी—कभी कोई ऐसा अदभुत, बहुत अनूठा व्यक्ति ही इसको साध पाता है; कि महल में बैठा है और उसे पता ही नहीं है कि यह महल है; कि हीरे—जवाहरातों से घिरा है, लेकिन घिरा हो न घिरा हो, सब बराबर है।

हे अर्जुन, कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास जानते हैं और कितने ही विचक्षण पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। तथा कई मनीषी ऐसा कहते हैं कि कर्म सभी दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं.।

ऐसा भी एक वर्ग है मनीषियों का, जानने वालों का, जो कहता है, सभी कर्म त्यागने योग्य हैं। कर्म मात्र दोषयुक्त है। तुम जो भी करोगे, उसमें ही दोष लगेगा। श्वास भी लोगे, तो भी हिंसा होती है। पानी भी पीओगे, तो पानी के कीटाणु मरेंगे। भोजन करोगे, हिंसा होगी। चलोगे, पैर रखोगे, छोटे जीवाणु दबेंगे और हत्या होगी। तो ऐसे भी मनीषी हैं, जो कहते हैं कि कोई भी कर्म करोगे, दोष लगेगा ही। इसलिए अकर्म को उपलब्ध हो जाओ; कर्म करो ही मत। और धीरे— धीरे कर्म त्याग करते जाओ। और अंतिम लक्ष्य वह है, जहां तुम ऐसी घड़ी में पहुंच जाओ, जहां कोई भी कर्म न होता हो। तभी तुम मुक्त हो सकोगे।

वे भी ठीक कहते हैं।

कृष्ण एक गहन समन्वय हैं। उन्होंने भारत ने जो भी जाना था तब तक, उस सभी को गीता में समाविष्ट कर लिया है। उनका किसी से कोई विरोध नहीं है। वे सभी के भीतर सत्य को खोज लेते हैं।

इसलिए गीता सार—ग्रंथ है। वेद को अगर भूल जाओ, तो चलेगा। क्योंकि जो भी वेद में सार है, वह गीता में आ गया। महावीर विस्मृत हो जाएं, चलेगा। क्योंकि महावीर का जो भी सार है, वह गीता में आ गया। सांख्य शास्त्र न बचे, चलेगा। गीता में सारी बात महत्व की आ गई है।

अगर भारत के सब शास्त्र खो जाएं, तो गीता पर्याप्त है। कोई भी प्रज्ञावान पुरुष गीता से फिर से सारे शास्त्रों को निर्मित कर सकता है। गीता में सारे सूत्र हैं। तो गीता निचोड़ है।

गीता अकारण ही करोड़ों लोगों के हृदय का हार नहीं हो गई है; अकारण ही नहीं हो गई है।

जब पहली दफा जर्मनी के एक बहुत बड़े विचारक शापेनहार ने गीता पढ़ी, तो उसने सिर पर रखी और नाचने लगा। शापेनहार को किसी ने कभी नाचते नहीं देखा था। वह बहुत गंभीर चित्त आदमी था, नाचना जंचता ही नहीं था उसको। उसका पूरा दर्शन ही उदासी, दुखवाद है। वह कहता है, हंसी की तो कोई सुविधा ही नहीं है जगत में। वह नाचने लगा।

उसके पास बैठे मित्रों ने कहा, तुम पागल हो गए शापेनहार! क्या कर रहे हो? उसने कहा कि ऐसा ग्रंथ कभी देखा नहीं, जिसमें सब आ गया। ऐसा ग्रंथ कभी देखा नहीं, जिसमें सभी विरोधों के बीच सामंजस्य हो गया; जिसमें किसी का खंडन नहीं किया गया है और सभी को स्वीकार कर लिया गया है!

हिंदुओं ने ऐसे ही कृष्ण को पूर्ण अवतार नहीं कहा है। महावीर थोड़े अधूरे लगते हैं; एकांगी मालूम होते हैं। और अगर सभी महावीर हो जाएं, तो संसार को बड़ा धक्का लगेगा, भारी नुकसान होगा। फिर आगे महावीर होने की भी संभावना खतम हो जाएगी। नहीं, महावीर इक्के—दुक्के ठीक, नमूने की तरह अच्छे हैं। लेकिन सभी जगह वे ही खड़े हो जाएं, जहां निकलो, वहीं वे ही खड़े हैं, बहुत घबड़ाने वाला हो जाएगा। नमक की तरह ठीक। पूरा भोजन महावीर का नहीं हो सकता।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं जैन कोई संस्कृति पैदा नहीं कर पाए। वे कर नहीं सकते, क्योंकि नमक से कहीं पूरा भोजन बना है! जैन केवल एक वैचारिक समाज रह गया, एक विचार का समूह रह गया। संस्कृति नहीं है जैनों के पास। अगर तुम जैनियों से कहो—जैसा मैंने कहा, लेकिन कोई जवाब नहीं देता—अगर तुम उनसे कहा कि पच्चीस सौ वर्ष महावीर के पूरे हो गए तुम बड़ा शोरगुल मचा रहे हो, जगह—जगह आयोजन, सभा, समारंभ! तुम एक काम करके दिखा दो, एक जैन बस्ती बसाकर दिखा दो, जिसमें सब जैन हों, तो हम मान लेंगे कि तुम्हारे पास कोई संस्कृति है। तुम नहीं बसा सकते, क्योंकि चमार कौन होगा? भंगी कौन होगा? खेती कौन करेगा?

इसलिए जैन कभी समाज भी नहीं बन पाए, संस्कृति भी नहीं बन पाए; वे हिंदुओं की छाती पर बैठे रह गए। उनका अपना कोई आधार नहीं है जमीन में। इसलिए जैन समाज को अलग कहने का कोई अर्थ ही नहीं है; वह हिंदुओं का एक अंग है। उसको अलग कहने का अर्थ तभी हो सकता है, जब वे बता दें कि हम एक प्रयोग भी करके बता सकते हैं कि यह छोटी बस्ती है हजार लोगों की, इसमें सब जैन हैं। अगर तुम सब मिलकर एक बस्ती भी नहीं बसा सकते, तो तुम सर्वांग नहीं हो, अधूरे हो।

पूरा नमक भोजन नहीं बन सकता। नमक बिलकुल जरूरी है; उसके बिना भोजन बड़ा बेस्वाद हो जाएगा।

तो कभी—कभी इक्का—दुक्का महावीर प्रीतिकर हैं, मगर उनका समूह नहीं। अन्यथा वे जान ले लेंगे। इसलिए महावीर अधूरे हैं। बुद्ध अधूरे हैं।

यद्यपि महावीर से ज्यादा क्षमता है बौद्धों की। उन्होंने समाज बनाकर बता दिए हैं, उन्होंने संस्कृति सम्हालकर बता दी। लेकिन उनको समझौते करने पड़े। इसलिए अगर बुद्ध वापस लौटें, तो जापान, चीन, बर्मा या श्याम आदि बौद्धों के जो मुल्क हैं, वे किसी को बौद्ध नहीं कहेंगे। क्योंकि उन्होंने इतने समझौते कर लिए हैं, जिसका हिसाब नहीं है। वह बुद्ध की पूरी शुद्धता ही खो गई है। बुद्ध ने खुद ही कहा है कि मेरा धर्म पांच सौ साल से ज्यादा नहीं चलेगा। क्या कारण होगा? जब तुम बहुत शुद्ध बात कहोगे, तो ज्यादा देर नहीं टिक सकती इस अशुद्ध दुनिया में। पांच सौ साल भी टिक जाए तो बहुत। वह भी आशा है।

मेरे देखे तो जब तक बुद्ध रहते हैं, तभी तक बुद्धत्व टिकता है, उससे ज्यादा नहीं टिक सकता। क्योंकि वह बात ही इतनी शुद्ध है, उसमें जड़ें नहीं हैं जमीन में प्रवेश करने की। वह आकाश में मंडराता हुआ बादल है। वह ज्यादा देर नहीं टिक सकता। कभी—कभार आएगा, चला जाएगा।

कृष्ण संपूर्ण हैं। कृष्ण पूरी सीढ़ी हैं। बुद्ध, महावीर बस सीढ़ी का आखिरी हिस्सा हैं, अधर में लटके हुए। उनका दूसरा हिस्सा जमीन से नहीं टिका है। वे शुद्ध हैं; अशुद्धि से बहुत भयभीत हैं। कृष्ण समाहित कर लेते हैं सभी को, अशुद्धि को भी।

और मेरे माने वही शुद्धि वास्तविक है, जो अशुद्धि को भी समाहित कर लेती हो। नहीं तो शुद्धि ही क्या? जो अशुद्धि को भी न पी जाए, वह शुद्धि क्या? वह अमृत अमृत नहीं है, जो जहर को न पी जाए। अगर जहर से अमृत नष्ट होता हो, तो जहर से कमजोर है, उसकी क्या कीमत! वह जहर को पी ले और अमृत बना दे। कृष्ण ने सारी दृष्टियों को समाहित कर लिया है, और बिना किसी अड़चन के!

जो कहते हैं कि काम्य कर्मों का त्याग संन्यास है, वे भी पंडितजन हैं, वे भी जानने वाले लोग हैं। मगर उनका जानना भी एक दृष्टि है, एक अंग है, एक ढंग है; वह भी अधूरा है। फिर ऐसे विचक्षण पुरुष हैं, जो कहते हैं, कर्मफल का त्याग ही त्याग है। वे भी ठीक ही कहते है। फिर ऐसे मनीषी हैं, जो कहते हैं, सभी कर्म दोषयुक्‍त है।

महावीर यही कहते हैं, कर्म मात्र दोषयुक्त है, इसलिए त्यागने योग्‍य हे। वे भी ठीक कहते हैं। वे भी मनीषी हैं; उन्होंने भी बड़ा जाना है, ऐसे ही नहीं कह दिया है।

और दूसरे विद्वान भी हैं, जो कहते हैं, यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं।

एक और वर्ग है चौथा, वह भी बुद्धिमानों का है, वह भी नासमझों का नहीं है। वे कहते हैं कि तीन तरह के कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं यज्ञ, दान और तप।

तपरूप कर्म वे हैं, तुमने जो—जो गलत किया है, उसे काटने के लिए किए जाते हैं। कांटा लग गया है, तो एक और कांटा खोजना पड़ता है उसे निकालने को, नहीं तो लगे काटे को कैसे निकालोगे? गलत कर्म तुमने किए हैं, तो उनको निकालने के लिए तुम्हें दूसरे शुभ कर्म करने पड़ेंगे। वे भी कर्म हैं। मगर करने पड़ेंगे, क्योंकि गलत कर्म तुम कर चुके हो।

तुमने किसी को गाली दे दी, अब माफी मांगनी पड़ेगी, ताकि सब संतुलित हो जाए। गाली से जो असंतुलन पैदा हुआ था, वह भी कर्म था। माफी मांगना भी उसी तरह कर्म है। दोनों में वाणी का उपयोग हुआ है, दोनों में मुंह का उपयोग हुआ। लेकिन माफी मांगनी पड़ेगी, ताकि संतुलन आ जाए।

तपरूप कर्म का अर्थ है, संतुलन लाने वाले कर्म; जिनसे जीवन संतुलित होता है। तुमने बहुत अपराध किए हैं, थोड़ी सेवा भी करो। तुमने बहुत चूसा है, विसर्जित भी करो। तुमने बहुत छीना है, बांटों भी।

नहीं तो यह होगा कि अब तक तो काफी छीना, लूटा, दुख दिया, और अब अचानक तुमको यह दर्शनशास्त्र समझ में आ गया कि सब कर्म त्याज्य हैं। अब तुम कुछ भी नहीं करते, अब तुम बैठ गए। तो वे जो कांटे लगे हैं, वे लगे रह जाएंगे, वे छिदे रह जाएंगे। उन्हें काटो, उन्हें निकालो। उनके लिए तपरूप कर्म।

तुमने जो—जो छीना है, जहां—जहां हिंसा हुई है, जहां—जहां शोषण हुआ है—और निरंतर हुआ है, सारे जीवन की यात्रा शोषण, हिंसा की है—दान करो, बांट दो। जहां से लिया है, वहां लौट जाने दो। ताकि संतुलन आ जाए।

और यज्ञ……।

यज्ञ उस कर्म का नाम है, जो तुम अपने लिए नहीं करते, जो तुम समष्टि के लिए करते हो। जो तुम अपने लिए नहीं करते, सबके लिए करते हो। यज्ञ वैसा विराट कर्म है, जिसमें तुम्हारी अपनी कोई स्वयं की आकांक्षा नहीं है। जो स्वयं की आकांक्षा से किया जाए, वह यज्ञ नहीं है। सबके लिए करते हो।

समझो, तुम एक अस्पताल बनाते हो, वह यज्ञरूप हो जाता है। तुम अकेले ही थोड़े उसमें बीमार पड़कर इलाज करवाओगे, सभी के काम आएगा। तुम एक विद्यापीठ बनाते हो। तुम्हारे बच्चे ही थोड़े उसमें पढ़ेंगे; सबके बच्चे उसमें पढ़ेंगे।

जो—जो कर्म सिर्फ स्वार्थ के लिए नहीं किए जाते, वे सभी यज्ञरूप हैं। स्वार्थ के लिए तुमने बहुत कर्म किए हैं, अब तुम थोड़े परार्थ के कर्म करो।

कृष्ण कहते हैं, ऐसे भी विद्वान हैं, जो कहते हैं, यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं। बाकी सब कर्म त्यागने योग्य हे।

ये चार दृष्टियां हैं। चारों सही हैं और चारों तरह के लोग मिल जाएंगे जिनके लिए ये सही हैं। इसलिए तुम इसकी बहुत फिक्र मत करना कि कौन सही है, तुम ज्यादा इसकी फिक्र करना कि मेरे साथ किस विचार का तालमेल बैठता है।

गीता तो ऐसे है, जैसे केमिस्ट की दुकान होती है। उसमें लाखों दवाइयां हैं; वे सभी काम की हैं, इसीलिए हैं। तुम कोई भी दवाई उठाकर मत ले आना! तुम अपने प्रिस्किपान को ले जाना, वह जो डाक्टर ने लिखकर दिया है। तुम्हारे योग्य कोई दवा होगी; सभी दवाएं तुम्हारे योग्य न होंगी।

गीता भारत की खोजी गई सभी औषधियों का संग्रह है। उसमें से तुम चुन लेना; उसमें तुम्हें जो मौजूं लगे, उसमें तुम्हें जो सत्यरूप लगे। सभी सत्यरूप है, पर तुम्हें जो सत्यरूप लगे, तुम उसे आत्मसात कर लेना। तुम उससे यात्रा पर निकल जाना। और सभी मार्ग वहीं पहुंचा देते हैं।

मंजिल तो एक है, मार्ग अनेक हैं। दृष्टि साफ हो, तो किन्हीं भी मार्गों से चलकर आदमी वहीं पहुंच जाता है। तुम बैलगाड़ी से चलो, थोडी देर ज्यादा लगेगी। तुम ट्रेन से चलो, थोड़े जल्दी आ जाओगे। कुछ लाभ ट्रेन के हैं, कुछ लाभ बैलगाड़ी के हैं; कुछ हानियां बैलगाड़ी की हैं, कुछ हानियां ट्रेन की हैं।

बैलगाड़ी से चलोगे, तो गति तो नहीं होगी, लेकिन अनुभव ज्यादा होगा। गति तो बहुत धीमी होगी, लेकिन पहाड़—पर्वत, नदी—नाले सभी को तुम देखते, जीते हुए आओगे। ट्रेन से चलोगे, जल्दी पहुंच जाओगे। लेकिन इतनी तेजी से निकलती रहेगी ट्रेन कि बस झलक मिलेगी पहाड़ की, नदी की, नालों की।

हवाई जहाज से आओगे, कोई झलक भी नहीं मिलेगी। यहां बैठे नहीं कि उतरने का समय आ जाएगा। चाय पी पाओगे ज्यादा से ज्यादा। और अब और हुत वेग के यान बनते जा रहे हैं, जिनमें तुम पट्टी बांध पाओगे और खोल पाओगे। और पहुंच जाओगे। अनुभव से वंचित हो जाओगे।

राह का भी बड़ा आनंद है।

मेरे एक मित्र हैं, वह हमेशा पैसेंजर गाड़ी से ही चलते हैं। धनी हैं, पर बड़े समझदार हैं। दिल्ली पहुंच सकते हैं घंटे भर में; जहां रहते हैं, वहा से हवाई जहाज की भी सुविधा है। मगर वे जाते हैं ट्रेन में और पैसेंजर! कई जगह बदलते हैं। तीन दिन लग जाते हैं दिल्ली पहुंचने में।

एक दफा मुझे अपने साथ ले लिए। मैंने कहा, यह मामला क्या है? चलो मैं भी चलूं! निश्चित, वे आनंद लेते हैं राह का। उनको एक—एक स्टेशन की गतिविधि पता है। कहां रसगुल्ले अच्छे बनते हैं! कहां भेजिए अच्छे बनते हैं! बड़ा भोगते हैं मार्ग को। वे दुख पाते ही नहीं पैसेंजर में। हर स्टेशन पर उतरते हैं; स्टेशन मास्टर से मिल आते हैं; कुलियों से पहचान…..। जिंदगी भर वे उसी रास्ते पर तीन—तीन दिन यात्रा करते रहे हैं अनेक बार। वे कहते हैं, यह तो अपना…… इतनी जल्दी क्या है? जाना कहां है?

वे भी ठीक कहते हैं। राह भी अपना आनंद लिए है। फिर राहें भी अलग—अलग हैं। मंजिल एक है।

तुम अपना रस पहचानना, अपना भाव समझना और राह चुन लेना।

कृष्ण सभी राहें बता देते हैं। फिर वे अपना भाव भी बता देंगे कि उनका भाव क्या है? उनकी क्या दृष्टि है? ऐसे तो उन्होंने अपनी दृष्टि कह ही दी। जैसे ही उन्होंने कहा कि कुछ विचक्षण पुरुष, वहीं उन्होंने अपना रस भी बता दिया। जब उन्होंने कहा कि कुछ विचक्षण पुरुष, कुछ अदभुत पुरुष। बस, उन्होंने चुनाव भी कर दिया। बाकी को कहा, पंडित हैं, ज्ञानी हैं, समझदार हैं, विद्वान हैं; पर एक को कहा, विचक्षण, अनूठी दृष्टि वाले लोग। वहीं उन्होंने अपना झुकाव दिखा दिया।

कृष्ण स्वयं ही वे विचक्षण दृष्टि वाले पुरुष हैं। अगर उनकी बात तुम्हें जंच जाए तो बड़ी अनूठी है। क्योंकि कुछ छोड़ना नहीं पड़ता और सब छूट जाता है; कुछ करना नहीं पड़ता और सब हो जाता है।

सार में उस विचक्षण दृष्टि की बात इतनी ही है कि तुम परमात्मा के उपकरण हो जाते हो, निमित्त मात्र। वह कराता है, तुम करते हो। वह देता है, तुम लेते हो। वह छीनता है, तुम छिन जाने देते हो। तुम बीच से हट जाते हो।

तुम कहते हो, जो तेरी मर्जी। बाजार में रखेगा, बाजार में रहेंगे। मगर वहां भी तेरा ही आनंद है; तूने ही रखा है। और तुझसे हम ज्यादा समझदार नहीं हैं। पहाड़ भेज देगा, पहाड़ चले जाएंगे। तू जहां भेज देगा, वहीं चले जाएंगे। तेरे ही कारण जा रहे हैं, यह हमारी खुशी है। तेरे काम से जा रहे है, यह हमारा आनंद है। तू हमसे कुछ उपयोग ले रहा है, हम धन्यभागी हैं।

आज इतना ही।


Filed under: गीता दर्शन--भाग--8 (ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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