गहरे पानी पैठ—(प्रवचन—छठवां)
(समापन प्रवचन)
मेरे प्रिय आत्मन्!
तीन दिनों में बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं और इसलिए आज बहुत संक्षिप्त में जितने ज्यादा प्रश्नों पर बात हो सके, मैं करना चाहूंगा।
कितनी प्यास?
एक मित्र ने पूछा है कि ओशो विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा कि क्या आपने ईश्वर देखा है? तो रामकृष्ण ने कहा लूं जैसा मैं तुम्हें देख रहा हूं ऐसा ही मैने परमात्मा को भी देखा है। तो वे मित्र पूछते हैं कि जैसा विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा क्या हम भी वैसा आपसे पूछ सकते हैं?
पहली तो बात यह, विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछते समय यह नहीं पूछा कि हम आपसे पूछ सकते हैं या नहीं पूछ सकते हैं। विवेकानंद ने पूछ ही लिया। और आप पूछ नहीं रहे हैं, पूछ सकते हैं या नहीं पूछ सकते हैं, यह पूछ रहे हैं। विवेकानंद चाहिए वैसा प्रश्न पूछनेवाला। और वैसा उत्तर रामकृष्ण किसी दूसरे को न देते। यह ध्यान रहे, रामकृष्ण ने जो उत्तर दिया है वह विवेकानंद को दिया है, वह किसी दूसरे को न दिया जाता।
अध्यात्म के जगत में सब उत्तर नितांत वैयक्तिक हैं, पर्सनल हैं। उसमें देनेवाला तो महत्वपूर्ण है ही, उससे कम महत्वपूर्ण नहीं है जिसको कि दिया गया है, उसमें समझनेवाला उतना ही महत्वपूर्ण है। न मालूम कितने लोग मुझसे आकर पूछते हैं कि विवेकानंद को रामकृष्ण के छूने से अनुभूति हो गई, तो आप हमें छू दें, और हमें अनुभूति हो जाए! वे यह नहीं पूछते कि विवेकानंद के सिवाय रामकृष्ण ने हजारों लोगों को छुआ है, उनको अनुभूत नहीं हुई। उस छूने में जो अनुभूति हुई है उसमें रामकृष्ण पचास प्रतिशत महत्वपूर्ण हैं, पचास प्रतिशत विवेकानंद हैं। वह अनुभुति आधी—आधी है। और ऐसा भी जरूरी नहीं है कि विवेकानंद को भी किसी दूसरे दिन छुआ होता तो बात हो जाती। एक खास क्षण में वह घटना घटी।
आप चौबीस घंटे भी वही आदमी नहीं होते हैं; चौबीस घंटे में आप न मालूम कितने आदमी होते हैं। किसी खास क्षण में अब विवेकानंद पूछ रहे हैं, ‘ ईश्वर को देखा है?’ ये शब्द बड़े सरल हैं। हमें भी लगता है कि हमारी समझ में आ रहे हैं कि विवेकानंद क्या पूछ रहे हैं।
नहीं समझ में आ रहे हैं। ईश्वर को देखा है? ये शब्द इतने सरल नहीं हैं। ऐसे तो पहली कक्षा भी जो नहीं पढ़ा, वह भी समझ लेगा। सरल शब्द हैं ‘ ईश्वर को देखा है?’ बहुत कठिन हैं शब्द! और विवेकानंद के प्रश्न का उत्तर नहीं दे रहे हैं रामकृष्ण, विवेकानंद की प्यास का उत्तर दे रहे हैं। उत्तर प्रश्नों के नहीं होते, प्यास के होते हैं। इस प्रश्न के पीछे वह जो आदमी खड़ा है प्रश्न बनकर, उसका उत्तर दिया जा रहा है।
बुद्ध एक गांव में गए हैं। और एक आदमी ने पूछा, ईश्वर है? बुद्ध ने कहा, नहीं। और दोपहर दूसरे आदमी ने पूछा कि मैं समझता हूं ईश्वर नहीं है, आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहा, है। और सांझ एक तीसरे आदमी ने पूछा कि मुझे कुछ पता नहीं, ईश्वर है या नहीं? बुद्ध ने कहा कि चुप ही रहो तो अच्छा है— न हां, न ना।
जो साथ में था भिक्षु वह बहुत घबड़ा गया, उसने तीनों उत्तर सुन लिए। रात उसने बुद्ध से कहा, मैं पागल हो जाऊंगा! सुबह आपने कहा, हां; दोपहर आपने कहा, नहीं; सांझ आपने कहा, न ही, न नहीं, मैं क्या समझूं? बुद्ध ने कहा, तुझे तो मैंने एक भी उत्तर नहीं दिया, जिनको दिए थे उनसे बात है; तुझसे कोई संबंध नहीं। तूने सुना क्यों? तूने जब पूछा ही नहीं था, तो तुझे उत्तर कैसे दिया जा सकता है? जिस दिन तू पूछेगा उस दिन तुझे उत्तर मिल जाएगा। पर उस आदमी ने कहा, मैंने सुन तो लिया! बुद्ध ने कहा, वे उत्तर दूसरों को दिए गए थे, और दूसरों की जरूरतों के अनुसार दिए गए थे। सुबह जिस आदमी ने कहा था कि ईश्वर है? वह आस्तिक था और चाहता था कि मैं भी उसकी ही में हां भर दूं। उसे कुछ पता नहीं ईश्वर के होने का, लेकिन सिर्फ अपने अहंकार को तृप्त करने आया था कि बुद्ध भी वही मानते हैं जो मैं मानता हूं। वह बुद्ध से भी अपनी स्वीकृति लेने, कनफमेंशन लेने आया था। तो मैंने उससे कहा, नहीं। मैंने उसकी जड़ों को हिला दिया। और उसे कुछ पता नहीं था, अन्यथा मुझसे पूछने क्यों आता? जिसे पता हो गया है वह कनफमेंशन नहीं खोजता। सारी दुनिया भी इनकार करे तो वह कहता है, इनकार करो, वह है; इनकार का कोई सवाल नहीं है। अभी वह पूछ रहा है, अभी वह पता लगा रहा है कि है? तो मुझे कहना पड़ा कि नहीं है। उसकी खोज रुक गई थी, वह मुझे शुरू कर देनी पड़ी। दोपहर जो आदमी आया था, वह नास्तिक था। वह मानता था कि नहीं है, उसे मुझे कहना पड़ा कि है। उसकी भी खोज रुक गई थी; वह भी मुझसे स्वीकृति लेने आया था अपनी नास्तिकता में। सांझ जो आदमी आया था, वह न आस्तिक था, न नास्तिक, उसे किसी भी बंधन में डालना ठीक न था, क्योंकि हां भी बांध लेता है, नहीं भी बांध लेता है। तो उससे कहा कि तू चुप रह जाना— न हां, न ना; तो पहुंच जाएगा। और तेरा तो सवाल ही नहीं है, उस भिक्षु से कहा, क्योंकि तूने अभी पूछा नहीं है।
धर्म बड़ी निजी बात है— जैसे प्रेम। और प्रेम में अगर कोई अपनी प्रेयसी को कुछ कहता है तो वह बाजार में चिल्लाने की बात नहीं है, वह नितांत वैयक्तिक है; और बाजार में कहते ही अर्थ उसका बेकार हो जाएगा। ठीक, धर्म के संबंध में कहे गए सत्य भी इतने ही पर्सनल, एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति से कहे गए हैं, हवा में फेंके गए नहीं हैं।
इसलिए विवेकानंद बन जाएं तो जरूर पूछने आ जाना। लेकिन विवेकानंद पूछने नहीं आते कि पूछें या न पूछें।
मैं अभी एक गांव में गया, एक युवक आया और उसने कहा कि मैं आपसे पूछने आया हूं मैं संन्यास ले लूं? तो मैंने उससे कहा, जब तक तुझे पूछने जैसा लगे तब तक मत लेना, नहीं तो पछताएगा। और मुझे क्यों झंझट में डालता है? तुझे लेना हो ले, न लेना हो न ले। जिस दिन तुझे ऐसा लगे कि अब सारी दुनिया रोकेगी तो भी तू नहीं रुक सकता, उस दिन ले लेना, उसी दिन संन्यास आनंद बन सकता है, उसके पहले नहीं।
तो उसने कहा, और आप?
मैंने कहा, मैं किसी से कभी पूछने नहीं गया। अपनी इस जिंदगी में तो किसी से पूछने नहीं गया। क्योंकि पूछना ही है तो अपने ही भीतर पूछ लेंगे, किसी से पूछने क्यों जाएंगे? और कोई कुछ भी कहे, उस पर भरोसा कैसे आएगा? दूसरे पर कभी भरोसा नहीं आ सकता। लाख उपाय करें, दूसरे पर भरोसा नहीं आ सकता।
अगर मैं कह भी दूं कि हां, ईश्वर है, क्या फर्क पड़ेगा? जैसा आपने किताब में पढ़ लिया कि रामकृष्ण ने कहा कि हां, है! और जैसा मैं तुझे देखता हूं उससे भी ज्यादा साफ उसे देखता हूं। क्या फर्क पड़ गया आपको? एक किताब और लिख लेना आप कि आपने पूछा था और मैंने कहा, हां है! और जैसा मैं आपको देखता हूं उससे भी ज्यादा साफ उसे देखता हूं। क्या फर्क पड़ेगा? एक किताब, दो किताब, हजार किताब में लिखा हो कि है, बेकार है, जब तक कि भीतर से न उठे कि है, तब तक कोई उत्तर दूसरे का काम नहीं दे सकता। ईश्वर के संबंध में उधारी न चलेगी। और सब संबंध में उधारी चल सकती है, ईश्वर के संबंध में उधारी नहीं चल सकती।
इसलिए मुझसे क्यों पूछते हैं? और मेरे हां और न का क्या मूल्य? अपने से ही पूछें। और अगर कोई उत्तर न आए तो समझ लें कि यही भाग्य है कि कोई उत्तर नहीं; फिर चुप होकर प्रतीक्षा करें, उसके साथ ही जीएं; अनुत्तर के साथ जीएं। किसी दिन आ जाएगा; किसी दिन उतर आएगा। और अगर पूछना ही आ जाए— ठीक पूछना आ जाए, राइट क्रेश्चनिंग आ जाए—तो सब उत्तर हमारे भीतर हैं; और ठीक पूछना न आए, तो हम सारे जगत में पूछते फिरे, कोई उत्तर काम का नहीं है।
और जब विवेकानंद जैसा आदमी रामकृष्ण से पूछता है, तो रामकृष्ण जो उत्तर देते हैं, वह रामकृष्ण का उत्तर थोडे ही विवेकानंद के काम पड़ता है। विवेकानंद इतनी प्यास से पूछते हैं कि जब वह रामकृष्ण का उत्तर आता है तो वह रामकृष्ण का नहीं मालूम पड़ता, वह अपने ही भीतर से आया हुआ मालूम पड़ता है। इसीलिए काम पड़ता है, नहीं तो काम नहीं पड़ सकता। जब हम बहुत गहरे में किसी से पूछते हैं, इतने गहरे में कि हमारा पूरा प्राण लग जाए दांव पर, तो जो उत्तर आता है, फिर वह हमारा अपना ही हो जाता है, वह दूसरे का नहीं होता; दूसरा फिर सिर्फ एक दर्पण हो जाता है। अगर रामकृष्ण ने यह कहा कि हां है, तो यह उत्तर रामकृष्ण का नहीं है। यह आथेंटिक बन गया, विवेकानंद को प्रामाणिक लगा, क्योंकि रामकृष्ण एक दर्पण से ज्यादा न मालूम पड़े; अपनी ही प्रतिध्वनि, बहुत गहरे अपने ही प्राणों का स्वर वहां सुनाई पड़ा।
विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछने के पहले एक आदमी से और पूछा था। रवींद्रनाथ के दादा थे देवेंद्रनाथ। वे महर्षि देवेंद्रनाथ कहे जाते थे। वे बजरे पर रहते थे रात। बजरे पर एकांत में साधना करते थे। आधी रात अमावस की, विवेकानंद पानी में कूदकर, गंगा पार करके बजरे पर चढ़ गए। बजरा कंप गया। अंदर गए, धक्का देकर दरवाजा खोल दिया। अटका था दरवाजा। भीतर घुस गए। अंधेरा है। देवेंद्रनाथ आंख बंद किए कुछ मनन में बैठे हैं। जाकर झकझोर दिया उनका कालर पकड़कर कोट का। आंखें खुलीं तो वे घबड़ा गए कि इतनी रात, पानी से तरबतर, कौन नदी में तैरकर आ गया है! सारा बजरा कैप गया है। जैसे ही उन्होंने आंख खोलीं, विवेकानंद ने कहा, मैं पूछने आया हूं—ईश्वर है? देवेंद्रनाथ ने कहा, जरा बैठो भी। झिझके। ऐसी आधी रात, अंधेरे में गंगा पार करके, कोई ऐसा छाती पर छुरा लगाकर पूछे, ईश्वर है? तो उन्होंने कहा, जरा रुको भी, बैठो भी, कौन हो भाई? क्या बात है? कैसे आए? बस विवेकानंद ने कालर छोड़ दिया, वापस नदी में कूद पड़े। उन्होंने चिल्लाया कि युवक, रुको! विवेकानंद ने कहा, झिझक ने सब कुछ कह दिया, अब मैं जाता हूं।
झिझक ने सब कुछ कह दिया! इतने झिझक गए कि असली सवाल ही छोड़ दिया! कहते, है या नहीं।
फिर देवेंद्रनाथ बाद में कहे कि मैं सच में ही घबड़ा गया था, क्योंकि मुझसे कभी ऐसा आउट ऑफ दि वे, आउटलैंडिश, ऐसा कोई अचानक गर्दन पकड़कर कभी पूछा नहीं था। सभा में, मीटिंग में, मंदिर में, मस्जिद में देवेंद्रनाथ से लोग पूछते थे, ईश्वर है? तो वे समझाते थे उपनिषद, गीता, वेद। ऐसा किसी ने पूछा ही न था। तो जरूर घबड़ा गए। उन्होंने कहा, मैं जरूर घबड़ा गया था और मुझे कुछ भी नहीं सूझा था। और वह युवक कूदकर चला गया था और मुझे भी मेरी झिझक से पहली दफा पता चला— अभी मुझे भी मालूम नहीं है।
पूछें जरूर। जिस दिन पूछने की तैयारी हो उस दिन जरूर पूछें। पर पूछने की तैयारी लेकर आ जाएं। क्योंकि फिर उत्तर पर बात खतम न हो गई। रामकृष्ण का उत्तर, फिर वह विवेकानंद नहीं था जो पूछने आया था, वह था नरेंद्रनाथ, रामकृष्ण के उत्तर के बाद हो गया विवेकानंद। पूछें जरूर, लेकिन फिर जिंदगी पूरी बदलने की तैयारी चाहिए। उत्तर तो मिल सकता है। फिर वह नरेंद्रनाथ नरेंद्रनाथ की तरह घर वापस नहीं लौटा। क्योंकि वह जो रामकृष्ण ने कहा—है, और तुझसे ज्यादा मुझे दिखाई पड़ता है कि वह है! एक दफा मैं कह सकता हूं कि तू झूठ, लेकिन उसे नहीं कह सकता झूठ! तो फिर विवेकानंद ऐसा नहीं कि ठीक महाराज, उत्तर बहुत अच्छा लगा, परीक्षा में दे देंगे जाकर। फिर वापस नहीं लौट गया था। फिर विवेकानंद के लिए उत्तर ले डूबा। फिर वह लड़का वापस लौटा ही नहीं।
उत्तर तो मिल सकता है; मुझे कोई कठिनाई नहीं है उत्तर देने में; आप दिक्कत में पड़ जाएंगे। तो जिस दिन पूछने का मन हो, आ जाना। और आउटलैंडिश ही ठीक रहेगा, किसी अंधेरी रात में आकर मेरी गर्दन पकड़कर पूछ लेना। लेकिन ध्यान रखना गर्दन मेरी पकड़ेंगे, पकड़ा जाएगी आपकी, फिर भाग न सकेंगे।
स्कॉलरली बातें नहीं हैं ये, ये कोई शास्त्रीय और पांडित्य की बातें नहीं हैं कि पूछ लिया, समझ लिया, चले गए, कुछ भी न हुआ। सारी जिंदगी को दांव पर लगाने की बात है।
परमात्मा एक छलांग है:
एक दूसरे मित्र पूछते हैं कि ओशो बीज बोते हैं तो अंकुर आने में समय लगता है। और आप तो कहते हैं कि इसी क्षण हो सकती है सब बात और आदमी को परमात्मा का बीज कहते हैं।
जरूर कहता हूं। बीज बोते हैं, समय लगता है। समय बीज के टूटने में लगता है, अंकुर के निकलने में नहीं। अंकुर तो एक क्षण में ही निकल आता है, विस्फोट होता है अंकुर का तो। लेकिन बीज के टूटने में वक्त लग जाता है। आपके टूटने में वक्त लग सकता है, वह मैं नहीं कहता। लेकिन परमात्मा के आने में वक्त नहीं लगता, वह एक क्षण में ही आ जाता है।
जैसे हम पानी को गरम करते हैं। तो गरम करने में वक्त लग सकता है। सौ डिग्री तक गरम होगा तो वक्त लगेगा। लेकिन भाप बनने में वक्त नहीं लगता— छलांग! पानी सौ डिग्री गरम हुआ—दि जंप—कूद गया, भाप हो गया। ऐसा नहीं है कि भाप बनने में वक्त लगे—कि पानी थोड़ा अभी भाप बना आधा, अभी आधा भाप नहीं बना; अभी बूंद थोड़ी सी भाप बन गई एक कोने से, दूसरे कोने से भाप नहीं बनी— ऐसा नहीं, भाप तो बनेगी तो छलांग में। हां, लेकिन भाप तक पहुंचने में वक्त लगता है। लेकिन जब तक भाप नहीं बनी तब तक वह पानी ही है—चाहे सौ डिग्री गरम हो, चाहे निन्यानबे डिग्री गरम हो, चाहे अट्ठानबे डिग्री गरम हो।
परमात्मा एक विस्फोट है, एक छलांग है। उसके पहले आप आदमी ही हैं, चाहे अट्ठानबे डिग्री पर गरम हों, चाहे निन्यानबे डिग्री पर गरम हों। सौ डिग्री पर गरम होंगे कि भाप बन जाएंगे—परमात्मा शुरू होगा, आप मिट जाएंगे।
तो मैं कहता हूं वह इसी क्षण भी हो सकता है। इसी क्षण होने का मतलब? इसी क्षण होने का मतलब यह है कि अगर हम उत्तप्त होने को तैयार हों… और क्या काफी समय नहीं बीत गया उत्तप्त होने के लिए? कढ़ाई कब से चढ़ी है चूल्हे पर, कितने जन्मों से! कितने जन्मों से गरम हो रहे हैं, और सौ डिग्री तक नहीं पहुंच पाए अभी तक! जनम—जनम जनम—जनम गरम होते रहे हैं, और सौ डिग्री पर नहीं पहुंच पाए अब तक! और कितना समय चाहिए? इतना समय कम है?
नहीं, समय तो बहुत लग गया है, गरम होने की कला ही हमें नहीं आती। तो हम अगर निन्यानबे पर भी पहुंच जाएं तो जल्दी से वापस हो जाते हैं, कूलडाउन हो जाते हैं, फिर ठंडे होकर वापस लौट आते हैं, सौ डिग्री से बहुत डरते हैं। अब इधर मैं देखता था, ध्यान में कितने लोग निन्यानबे डिग्री से वापस लौट जाते हैं। और कैसी—कैसी व्यर्थ की बातें उनको वापस लौटा लेती हैं कि ऐसी हैरानी होती है कि वे जरूर वापस लौटना ही चाहते होंगे। अन्यथा यह कारण कोई वापस लौटने का था?
एक आदमी को बंबई जाना हो, वह ट्रेन पर बैठे, और रास्ते में दो लोग जोर से बात करते मिल जाएं, और वह घर वापस लौट आए कि दो आदमियों ने हमें डिस्टर्ब कर दिया, वे रास्ते में जोर से बातें कर रहे थे, तो हम बंबई नहीं जा पाए। तो आप कहेंगे, बंबई जाना ही न होगा, अन्यथा रास्ते पर तो डिस्टरबेंस है ही। कौन लौटता है? जिसको बंबई जाना है वह चला जाता है। बल्कि रास्ते पर डिस्टरबेंस है तो जरा तेजी से चला जाता है कि बीच में व्यर्थ की बातें न सुननी पड़े।
लेकिन ध्यान से बड़े—बड़े आसान कारणों से आदमी वापस लौटता है। वह लौट आता है कि हमें किसी का धक्का लग गया, किसी का हाथ लग गया, कोई पड़ोस में गिर पड़ा, कोई रोने लगा, तो हम वापस लौट आए। नहीं, ऐसा लगता है कि वापस लौटना चाहते थे, सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे थे कि कोई कारण मिल जाए और हम कूलडाउन हो जाएं। बस बहाना भर मिल जाए कि फलां आदमी जोर से चिल्लाने लगा इसलिए हमको वापस लौटना पड़ा।
आपको फलां आदमी के जोर से चिल्लाने से आपका संबंध? आपको प्रयोजन? और आप क्या खो रहे हैं इस बहाने, आपको पता ही नहीं है, आप क्या कह रहे हैं, आपको पता ही नहीं है।
अब अभी एक मित्र मिले रास्ते में, उन्होंने कहा कि जरा लोगों को समझा दें, थोड़ा उनको ठंडा कर दें, कूलडाउन करें, क्योंकि दो लोग नग्न खड़े हो गए हैं, उससे बड़ी एक्सप्लोसिव स्थिति बन गई है। उन्होंने बड़े प्रेम से कहा कि जरा लोगों को समझा दें; कुछ लोग बड़े बेचैन हो गए हैं कि दो लोग नग्न हो गए।
ध्यान में वस्त्रों का गिर जाना:
सब लोग कपड़ों के भीतर नग्न हैं और कोई बेचैन नहीं होता! कपड़ों के भीतर सभी लोग नग्न हैं, कोई बेचैन नहीं है। दो आदमियों ने कपड़े छोड़ दिए, सब बेचैन हो गए! बड़ा मजा है, आपके कपड़े भी किसी ने छुडाए होते तो बेचैन होते तो भी समझ में आता। अपने ही कपड़े कोई छोड़ रहा है और बेचैन आप हो रहे हैं! अगर कोई आपके कपड़े छीनता, तो बेचैनी कुछ समझ में भी आ सकती थी। हालांकि वह भी बेमानी थी। जीसस ने कहा है कि कोई तुम्हारा कोट छीने तो अपनी कमीज भी उसको दे देना, कहीं बेचारा संकोचवश कम न छीन रहा हो। कोई आपका कोट छीनता तो समझ में भी आता। कोई अपना ही कोट उतारकर रख रहा है, आप बेचैन हो गए हैं। ऐसा लगता है कि आप प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि कोई कोट उतारे और हम कूलडाउन हो जाएं, और हम कहें, हमारा सारा ध्यान खराब कर दिया।
अब बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई आदमी नग्न हो गया है, इससे आपके ध्यान के खराब होने का क्या संबंध है? और आप किसी के नग्न होने को बैठकर देख रहे थे? तो आप ध्यान कर रहे थे या क्या कर रहे थे? आपको तो पता ही नहीं होना चाहिए था कि कौन ने कपड़े छोड़ दिए, कौन ने क्या किया। आप अपने में होने चाहिए थे। कौन क्या कर रहा है…….. आप कोई धोबी हैं, कोई टेलर हैं, कौन हैं? आप कपड़ों के लिए चिंतित क्यों हैं? आपकी परेशानी बेवजूद है, अर्थहीन है।
और जिसने कपड़े छोड़े हैं… थोड़ा सोचते नहीं हैं, आपसे कोई कहे कि आप कपड़े छोड़ दें, तब आपको पता चलेगा कि जिसने कपड़े छोड़े हैं उसके भीतर कोई बड़ा कारण ही उपस्थित हो गया होगा इसलिए उसने कपड़े छोड़े हैं। आपसे कोई कहे कि लाख रुपया देते हैं। आप कहेंगे, छोड़ते हैं लाख रुपया, लेकिन कपड़े न छोड़ेंगे। उस बेचारे को किसी ने कुछ भी नहीं दिया है और उसने कपड़े छोड़े! आप क्यों परेशान हैं? उसके भीतर कोई कारण उपस्थित हो गया होगा।
लेकिन जिंदगी को समझने की, सहानुभूति से देखने की हमारी आदत ही नहीं है।
जब महावीर पहली दफे नग्न हुए तो पत्थर पड़े। अब पूजा हो रही है! और जितने लोग पूजा कर रहे हैं वे सब कपड़े बेच रहे हैं। महावीर के माननेवाले सब कपड़े बेचनेवाले हैं। यह बड़ा आश्चर्यजनक है! और इस आदमी को इन्हीं लोगों ने पत्थर मारे होंगे। और उसी के बदले में कपड़ा बेच रहे हैं कि कोई नंगा न हो जाए, कपड़े बेचते चले जा रहे हैं। महावीर नग्न हुए तो लोगों ने गांव—गांव से निकाला। एक गांव में न टिकने दिया। जिस गांव में ठहर जाते, लोग उनको गांव के बाहर करते कि यह आदमी नग्न हो गया। अब पूजा चल रही है, लेकिन महावीर को तो हमने टिकने नहीं दिया गांव में, धर्मशाला में न रुकने दिया, गांव के बाहर मरघट में न ठहरने दिया। कहीं गांव के आसपास न आ जाएं तो लोग जंगली कुत्ते उनके पीछे लगा देते जो उनको दूर गांव के बाहर निकाल आएं। क्या तकलीफ हो गई थी महावीर से लोगों को? एक तकलीफ हो गई थी कि उस आदमी ने कपड़े छोड़ दिए थे। लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है! किसी के कपड़े छोड़ देने से… क्या, कारण क्या है?
डर कुछ दूसरे हैं, डर कुछ बहुत भयंकर हैं। हम इतने नंगे हैं भीतर कि नग्न आदमी को देखकर हम घबड़ा जाते हैं कि बडी मुश्किल हो गई; हमें अपने नंगेपन का खयाल आ जाता है। और कोई कारण नहीं है।
और ध्यान रहे, नग्नता और बात है, नंगापन बिलकुल दूसरी बात है। महावीर को देखकर कोई कह नहीं सकता कि वे नंगे खड़े हैं, और हमको कपड़ों में भी देखकर कोई कहेगा कि कितने ही कपड़े पहनें, हैं तो नंगे ही, फर्क नहीं पड़ता है।
गौर से देखा है? जो लोग नग्न खड़े हो गए उनको गौर से देखा है? हिम्मत ही न पड़ी होगी उस तरफ देखने की। हालांकि बीच—बीच में आंख बचाकर देखते रहे होंगे, नहीं तो बेचैन कैसे होते? एक्सप्लोसिव स्थिति कैसे पैदा होती?
अब उन मित्र ने लिखा है कि स्त्रियां बहुत परेशान हो गईं।
स्त्रियों को मतलब? स्त्रियां इसलिए आई हैं कि कोई नग्न हो तो उसको देखती रहें? उनको अपना ध्यान करना था।
नहीं लेकिन, देखते रहे होंगे आंख बचाकर। फिर सब छोड्कर, वह आत्म— ध्यान वगैरह छोड्कर, अपने को देखना वगैरह छोड्कर वही देखते रहे होंगे। तो एक्सप्लोसिव हो ही जाएगा। आपसे कौन कह रहा था कि आप देखें? आप आंख बंद किए हुए थे, कोई नग्न खड़ा था वह खड़ा रहता। वह आपको बिलकुल नहीं देख रहा था। वह नग्न आदमी आकर मुझसे कहता कि स्त्रियों की वजह से मेरे लिए बड़ी एक्सप्लोसिव स्थिति हो गई, तो कुछ समझ में आता। और स्त्रियों की एक्सप्लोसिव स्थिति हो गई उस आदमी की वजह से!
उसको जरा गौर से देखते तो मन प्रसन्न होता। उसको नग्न खड़ा देखते तो लगता कि कितना सादा, सीधा, निर्दोष। हलका होता मन—फर्क होता, लाभ होता। लेकिन लाभ को तो हम खोने की जिद्द किए बैठे हैं। हम तो हानि को पकड़ने के लिए बड़े आतुर हैं। और हमने ऐसी विक्षिप्त धारणाएं बना रखी हैं जिनका कोई हिसाब नहीं।
नग्नता : एक निर्दोष चित्त—दशा:
एक स्थिति आती है ध्यान की— कुछ लोगों को अनिवार्य रूप से आती है—कि वस्त्र छोड़ देने की हालत हो जाती है। वे मुझसे पूछकर नग्न हुए हैं। इसलिए उन पर एक्सप्लोसिव मत होना, होना हो तो मुझ पर होना। जो लोग भी यहां नग्न हुए हैं वे मुझसे आज्ञा लेकर नग्न हुए हैं। मैंने उनसे कह दिया कि ठीक है। वे मुझसे पूछ गए हैं आकर कि हमारी हालत ऐसी है कि हमें ऐसा लगता है एक क्षण में कि अगर हमने वस्त्र न छोड़े तो कोई चीज अटक जाएगी। तो मैंने उनको कहा है कि छोड़ दें।
यह उनकी बात है, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? इसलिए उनसे किसी ने भी कुछ कहा हो तो बहुत गलत किया है। आपको हक नहीं है वह, किसी को कुछ कहने का। थोड़ा समझना चाहिए कि एक निर्दोष चित्त……. .एक घड़ी है जब कई चीजें बाधाएं बन सकती हैं। कपड़े आदमी का गहरा से गहरा इनहिबिशन है। कपड़ा जो है वह आदमी का सबसे गहरा टैबू है, वह सबसे गहरी रूढ़ि है जो आदमी को पकड़े हुए है। और एक क्षण आता है कि कपड़े करीब—करीब प्रतीक हो जाते हैं हमारी सारी सभ्यता के। और एक क्षण आता है मन का कभी.. .किसी को आता है, सबको जरूरी नहीं..।
बुद्ध कपड़े पहने हुए जीए, जीसस कपड़े पहने हुए जीए, महावीर ने कपड़े छोड़े। एक औरत ने भी हिम्मत की। महावीर के वक्त में औरतें हिम्मत न कर सकी। महावीर की शिष्याएं कम न थीं, ज्यादा थीं शिष्यों से। दस हजार शिष्य थे और चालीस हजार शिष्याएं थीं। लेकिन शिष्याएं हिम्मत न जुटा सकी कपड़े छोड़ने की। तो महावीर को तो इसी वजह से यह कहना पड़ा कि इन स्त्रियों को दुबारा जन्म लेना पड़ेगा। जब तक ये एक बार पुरुष न हों तब तक इनकी कोई मुक्ति नहीं। क्योंकि जो कपडा छोड़ने से डरती हैं, वे शरीर छोड़ने से कैसे न डरेंगी। तो महावीर को इसलिए एक नियम बनाना पड़ा कि स्त्री—योनि से मुक्ति नहीं हो सकती, उसे एक दफे पुरुष—योनि में आना पड़ेगा। और कोई कारण न था।
लेकिन हिम्मतवर औरतें हुईं। अगर कश्मीर की लल्ला महावीर को मिल जाती, तो उनको यह सिद्धांत न बनाना पड़ता। महावीर की तरह एक औरत हुई कश्मीर में—लल्ला। और अगर कश्मीरी से जाकर पूछेंगे तो वह कहेगा हम दो ही शब्द जानते हैं— अल्ला और लल्ला। दो ही शब्द जानते हैं। एक औरत हुई जो नग्न रही। और सारे कश्मीर ने उसको आदर दिया। क्योंकि उसकी नग्नता में उन्हें पहली दफा दिखाई पड़ा— और तरह का सौंदर्य, और तरह की निर्दोषता, और तरह का आनंद, एक बच्चे जैसा भाव। अगर लल्ला महावीर को मिल जाती, तो महावीर के ऊपर एक कलंक लग गया, वह बच जाता। महावीर के ऊपर एक कलंक है, और वह कलंक यह है कि स्त्री—योनि से मुक्ति न हो सकेगी। और उसका कारण महावीर नहीं हैं, उसका कारण जो स्त्रियां उनके आसपास इकट्ठी हुई होंगी वे हैं। क्योंकि उन्होंने कहा, यह तो असंभव है। तो फिर महावीर ने कहा, वस्त्र न छोड़ सकोगी तो शरीर कैसे छूटेगा? इतनी ऊपरी पकड़ है, तो भीतर की पकड़ कैसे जाएगी?
शिविर साधकों के लिए है, दर्शकों के लिए नहीं:
नहीं मैं कहता हूं कि आप नग्न हो जाएं, लेकिन कोई होता हो तो उसे रोकने की तो कोई बात नहीं है। और एक साधना— शिविर में भी हम इतनी स्वतंत्रता न दे पाएं कि कोई अगर इतना मुक्त होना चाहे तो हो सके, तो फिर यह स्वतंत्रता कहां मिल पाएगी? साधना—शिविर साधकों के लिए है, दर्शकों के लिए नहीं। वहां जब तक कोई दूसरे को कोई छेड़खानी नहीं कर रहा है तब तक उसकी परम स्वतंत्रता है। दूसरे पर जब कोई ट्रेसपास करता है तब बाधा शुरू होती है। अगर कोई नंगा होकर आपको धक्का देने लगे, तो बात ठीक है; कोई अगर आपको आकर चोट पहुंचाने लगे, तो बात ठीक है कि रोका जाए। लेकिन जब तक एक आदमी अपने साथ कुछ कर रहा है, आप कुछ भी नहीं हैं बीच में, आपको कोई कारण नहीं है।
अब अजीब बातें हमें बाधा बनती हैं। कोई नग्न हो गया है इसलिए कई लोगों का ध्यान खराब हो गया। ऐसा सस्ता ध्यान बच भी जाता तो किसी काम का नहीं है। उसका मूल्य कितना है? इतना ही था कि कोई आदमी नग्न नहीं हुआ, इसलिए आपको ध्यान हो गया। कैसे हो जाएगा?
नहीं, ये छोटी बातें, अत्यंत ओछी बातें छोड़नी पड़ेगी। साधना बड़ी हिम्मत की बात है; वहां पर्त—पर्त अपने को उखाड़ना पड़ता है। साधना बहुत गहरे में आंतरिक नग्नता है। जरूरी नहीं है कि कपड़े कोई छोड़े, लेकिन किसी मोमेंट में किसी की स्थिति यह हो सकती है कि वह कपड़ा छोड़े। और इस बात को ध्यान रखें सदा कि जब किसी को होती है तो आप बाहर से सोच नहीं सकते, न आपको कोई हक है कि आप सोचें कि ठीक हुआ कि गलत हुआ, कि क्यों छोड़ा कि नहीं छोड़ा। आप कौन हैं? आप कहां आते हैं? और आपको कैसे पता चलेगा? नहीं तो महावीर को जिन्होंने गांव के बाहर निकाला वे कोई गलत लोग रहे होंगे? आप ही जैसे शिष्ट, समझदार, गांव के सब सज्जनों ने उनको बाहर किया कि यह आदमी नग्न खड़ा है, हम न टिकने देंगे इसे। लेकिन हम बार—बार वही भूलें दोहराते हैं।
तो मेरे मित्र अभी रास्ते में मिले, उन्होंने बड़े प्रेम से कहा, समझपूर्वक कहा, उन्होंने कहा कि आप ठीक से समझा दें, नहीं तो बंबई में ध्यान में आनेवाली संख्या कम हो जाएगी।
बिलकुल कम हो जाए, एक आदमी न आए। लेकिन गलत आदमियों की कोई जरूरत नहीं। एक आदमी न आए, इससे क्या प्रयोजन है?
उन्होंने कहा कि महिलाएं बिलकुल अब शिविर में न आएंगी।
बिलकुल न आएं। किसने कहा कि वे आएं? उनको लगा तो आएं। आएं तो मेरी शर्त पर आना होगा। उनकी शर्त पर शिविर नहीं हो सकता। और जिस दिन मैं आपकी शर्त पर शिविर करूं, उस दिन आप आना ही मत; उस दिन मैं आदमी दो कौड़ी का हूं उस दिन फिर मुझसे कोई मतलब नहीं।
मेरी शर्त पर ही होगा। मैं आपके लिए नहीं आता हूं। और आपके हिसाब से नहीं आऊंगा। और आपके हिसाब से नहीं चलूंगा। इसीलिए तो मुर्दा गुरु बहुत प्रीतिकर होते हैं, क्योंकि वह आपके हिसाब से उनको आप चला लेते हैं। जिंदा को तो बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए महावीर मर जाएं तो पूजे जा सकते हैं, जिंदा को पत्थर मारने पड़ते हैं। बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए दुनिया भर में मुर्दों को पूजा जाता है। जिंदा से बड़ी तकलीफ है, क्योंकि जिंदे को आप बांध नहीं सकते। और कोई दूसरे कारण मेरे लिए मूल्य के नहीं हैं। कौन आता है, कौन नहीं आता है— यह बिलकुल बेमूल्य है। जो आता है अगर वह आता है तो समझपूर्वक आए कि किसलिए आ रहा है और क्या करने आ रहा है।
सहज योग कठिनतम:
एक मित्र पूछ रहे हैं कि ओशो सहज योग के विषय में कुछ खुला करके समझाइए।
सहज योग सबसे कठिन योग है, क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन और कोई बात नहीं। सहज का मतलब क्या होता है? सहज का मतलब होता है जो हो रहा है उसे होने दें, आप बाधा न बनें। अब एक आदमी नग्न हो गया, वह उसके लिए सहज हो सकता है, लेकिन बड़ा कठिन हो गया। सहज का अर्थ होता है हवा—पानी की तरह हो जाएं, बीच में बुद्धि से बाधा न डालें, जो हो रहा है उसे होने दें।
बुद्धि बाधा डालती है, असहज होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हम तय करते हैं, क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, बस हम असहज होना शुरू हो जाते हैं। जब हम उसी के लिए राजी हैं जो होता है, उसके लिए राजी हैं, तभी हम सहज हो पाते हैं।
तो इसलिए पहली बात समझ लें कि सहज योग सबसे ज्यादा कठिन है। ऐसा मत सोचना कि सहज योग बहुत सरल है। ऐसी भ्रांति है कि सहज योग बड़ी सरल साधना है। तो कबीर का लोग वचन दोहराते रहते हैं. साधो, सहज समाधि भली। भली तो है, पर बड़ी कठिन है। क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन आदमी के लिए कोई दूसरी बात ही नहीं है। क्योंकि आदमी इतना असहज हो चुका है, इतना दूर जा चुका है सहज होने से कि उसे असहज होना ही आसान, सहज होना मुश्किल हो गया है। पर फिर कुछ बातें समझ लेनी चाहिए, क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह सहज योग ही है।
जीवन में सिद्धात थोपना जीवन को विकृत करना है। लेकिन हम सारे लोग सिद्धात थोपते हैं। कोई हिंसक है और अहिंसक होने की कोशिश कर रहा है; कोई क्रोधी है, शांत होने की कोशिश कर रहा है, कोई दुष्ट है, वह दयालु होने की कोशिश कर रहा है, कोई चोर है, वह दानी होने की कोशिश कर रहा है। यह हमारे सारे जीवन की व्यवस्था है जो हम हैं, उस पर हम कुछ थोपने की कोशिश में लगे हैं। हम सफल हों तो भी असफल, हम असफल हों तो भी असफल। क्योंकि चोर लाख उपाय करे तो दानी नहीं हो सकता। ही, दान कर सकता है। दानी नहीं हो सकता। दान करने से भ्रम पैदा हो सकता है कि चोर दानी हो गया। लेकिन चोर का चित्त दान में भी चोरी की तरकीबें निकाल लेगा।
मैंने सुना है कि एकनाथ यात्रा पर जा रहे थे। तो गांव में एक चोर था, उसने एकनाथ से कहा कि मैं भी चलूं तीर्थयात्रा पर आपके साथ? बहुत पाप हो गए, गंगा—स्नान मैं भी कर आऊं। एकनाथ ने कहा, चलने में तो कोई हर्ज नहीं, बाकी भी सब तरह— तरह के चोर जा रहे हैं, तू भी चल सकता है। लेकिन एक बात है बाकी जो चोर मेरे साथ जा रहे हैं, वे कहते हैं कि उस चोर को मत ले चलना, नहीं तो हमारी सब चीजें रास्ते में गड़बड़ करेगा। तो तू एक पक्की शर्त बांध ले कि रास्ते में तीर्थयात्रियों के साथ चोरी नहीं करना। उसने कहा, कसम खाता हूं! जाने से लेकर आने तक चोरी नहीं करूंगा।
फिर तीर्थयात्रा शुरू हुई, वह चोर भी साथ हो गया। बाकी भी चोर थे, भिन्न—भिन्न तरह के चोर हैं। कोई एक तरह के चोर हैं? कई तरह के चोर हैं। कोई चोर मजिस्ट्रेट बनकर बैठा है, कोई चोर कुछ और बनकर बैठा है। सब तरह के चोर गए, वह चोर भी साथ गया। लेकिन चोरी की आदत! दिन भर तो गुजार दे, रात बड़ी मुश्किल में पड़ जाए; सब यात्री तो सो जाएं, उसकी बड़ी बेचैनी हो जाए, उसके धंधे का वक्त आ जाए। एक दिन, दो दिन.. .उसने कहा, मर जाएंगे, न मालूम तीन—चार महीने की यात्रा है, ऐसे कैसे चलेगा? और सबसे बड़ा खतरा यह है कि किसी तरह यात्रा भी गुजार दी और कहीं चोरी करना भूल गए तो और मुसीबत, लौटकर क्या करेंगे? कोई तीर्थ जिंदगी भर होता है?
तीसरी रात गड़बड़ शुरू हो गई। पर गड़बड़ व्यवस्थित हुई, धार्मिक ढंग की हुई। चोरी तो उसने की, लेकिन तरकीब से की। एक बिस्तर में से सामान निकाला और दूसरे में डाल दिया, अपने पास न रखा। सुबह यात्री बड़े परेशान होने लगे किसी का सामान किसी की संदूक में मिले, और किसी का सामान किसी के बिस्तर में। सौ—पचास यात्री थे, बड़ी खोजबीन में मुश्किल हो गई। सबने कहा, यह मामला क्या है? यह हो क्या रहा है? चीजें जाती तो नहीं हैं, लेकिन इधर—उधर चली जाती हैं।
फिर एकनाथ को शक हुआ कि वही चोर होना चाहिए जो तीर्थयात्री बन गया है। तो वे रात जगते रहे। देखा कोई दो बजे रात वह चोर उठा और उसने एक की चीज दूसरे के पास करनी शुरू कर दी। एकनाथ ने उसे पकड़ा और कहा, यह क्या कर रहा है? उसने कहा कि मैंने कसम खा ली है कि चोरी न करूंगा। चोरी मैं बिलकुल नहीं कर रहा। लेकिन कम से कम चीजें इधर— उधर तो करने दें! मैं कोई चीज रखता नहीं, अपने लिए छूता नहीं, बस इधर से उधर कर देता हूं। यह तो मैंने आपसे कहा भी नहीं था कि ऐसा मैं नहीं करूंगा।
एकनाथ बाद में कहते थे, चोर अगर बदलने की भी कोशिश करे तो भी फर्क नहीं पड़ता।
जो हैं, उसी को जीएं:
हमारे सारे जीवन में जो हमारी असहजता है, वह इसमें है कि जो हम हैं, उससे हम भिन्न होने की पूरे समय कोशिश में लगे हैं। नहीं, सहज योग कहेगा जो हैं, उससे भिन्न होने की कोशिश मत करें, जो हैं, उसी को जानें और उसी को जीएं। अगर चोर हैं तो जानें कि मैं चोर हूं और अगर चोर हैं तो पूरी तरह से चोर होकर जीएं।
बड़ी कठिन बात है। क्योंकि चोर को भी इससे तृप्ति मिलती है कि मैं चोरी छोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। छूटती नहीं, लेकिन एक राहत रहती है कि मैं चोर हूं आज भला, लेकिन कल न रह जाऊंगा। तो चोर के अहंकार को भी एक तृप्ति है कि कोई बात नहीं आज चोरी करनी पड़ी, लेकिन जल्द ही वह वक्त आएगा जब हम भी दानी हो जानेवाले हैं, कोई चोर न रहेंगे। तो कल की आशा में चोर आज सुविधा से चोरी कर पाता है।
सहज योग कहता है ‘ अगर तुम चोर हो तो तुम जानो कि तुम चोर हो—जानते हुए चोरी करो, लेकिन इस आशा में नहीं कि कल अचोर हो जाओगे।
और जो हम हैं, अगर हम उसको ठीक से जान लें और उसी के साथ जीने को राजी हो जाएं, तो क्रांति आज ही घटित हो सकती है। चोर अगर यह जान ले कि मैं चोर हूं तो ज्यादा दिन चोर नहीं रह सकता। यह तरकीब है उसकी चोर बने रहने के लिए कि वह कहता है, भला चोर हूं मुश्किल है आज इसलिए चोरी कर रहा हूं कल सुविधा हो जाएगी फिर चोरी नहीं करूंगा। असल में मैं चोर नहीं हूं परिस्थितियों ने मुझे चोर बना दिया है। इसलिए वह चोरी करने में उसको सुविधा बन जाती है, वह अचोर बना रहता है। वह कहता है मैं हिंसक नहीं हूं परिस्थितियों ने मुझे हिंसक बना दिया है, मैं क्रोधी नहीं हूं वह तो दूसरे आदमी ने मुझे गाली दी इसलिए क्रोध आ गया। और फिर क्रोधी जाकर क्षमा मांग आता है; वह कहता है, माफ कर देना भाई! न मालूम कैसे मेरे मुंह से वह गाली निकल गई, मैं तो क्रोधी आदमी नहीं हूं। उसने अहंकार को वापस रख लिया अपनी जगह। सब पश्चात्ताप अहंकार को पुनर्स्थापित करने का उपाय है। उसने रख लिया, क्षमा मांग ली।
नहीं, सहज योग यह कहता है कि तुम जो हो, जानना कि वही हो, और इंच भर यहां—वहां हटने की कोशिश मत करना, बचने की कोशिश मत करना। तो उस पीड़ा से, उस दंश से, उस दुख से, उस पाप से, उस आग से, उस नरक से—जो तुम हो— अगर उसका पूरा तुम्हें बोध हो जाए, तो तुम छलांग लगाकर तत्काल बाहर हो जाओगे, बाहर होना नहीं पड़ेगा।
अगर कोई चोर है और पूरी तरह चोर होने को जान ले, और अपने मन में कहीं भी गुंजाइश न रखे कि कभी मैं चोर नहीं रहूंगा; मैं चोर हूं तो मैं चोर ही रहूंगा, और अगर आज चोर हूं तो कल और बड़ा चोर हो जाऊंगा, क्योंकि चौबीस घंटे का अभ्यास और बढ़ जाएगा। अगर कोई अपनी इस चोरी के भाव को पूरी तरह पकड ले और ग्रहण कर ले, और समझे कि ठीक है, यही मेरा होना है, तो आप समझते हैं कि आप चोर रह सकेंगे? यह इतने जोर से छाती में तलवार की तरह चुभ जाएगी कि मैं चोर हूं कि इसमें जीना असंभव हो जाएगा एक क्षण भी। क्रांति अभी हो जाएगी, यहीं हो जाएगी।
सिद्धांतों के शॉक—एज्जार्बर:
नहीं, लेकिन हम होशियार हैं, हमने तरकीबें बना ली हैं—चोर हम हैं, और अचोर होने के सपने देखते रहते हैं। वे सपने हमें चोर बनाए रखने में सहयोगी होते हैं, बफर का काम करते हैं। जैसे ट्रेन है, रेलगाड़ी के डब्बों के बीच में बफर लगे हैं। धक्के लगते हैं, बफर पी जाते हैं धक्के। डब्बे के भीतर के यात्री को पता नहीं चलता। कार में सिग लगे हुए हैं, शॉक—एब्जार्वर लगे हुए हैं। कार चलती है, रास्ते पर गड्डे हैं, शॉक—एज्जार्बर पी जाता है। भीतर के सज्जन को पता नहीं चलता कि धक्का लगा। ऐसे हमने सिद्धांतों के बफर और शॉक—एज्जार्बर लगाए हुए हैं।
चोर हूं मैं, और सिद्धांत है मेरा अचौर्य, हिंसक हूं मैं, अहिंसा परम धर्म की तख्ती लगाए हुए हूं— यह बफर है; यह मुझे हिंसक रहने में सहयोगी बनेगा। क्योंकि जब भी मुझे खयाल आएगा कि मैं हिंसक हूं मैं कहूंगा कि क्या हिंसक! अहिंसा परम धर्म! मैं अहिंसा को धर्म मानता हूं। आज नहीं सध रहा, कमजोर हूं कल सध जाएगा; इस जनम में नहीं सधता, अगले जनम में सध जाएगा; लेकिन सिद्धांत मेरा अहिंसा है। तो मैं झंडा लेकर अहिंसा का सिद्धांत सारी दुनिया में गाड़ता फिरूंगा, और भीतर हिंसक रहूंगा। वह झंडा सहयोगी हो जाएगा। जहां अहिंसा परम धर्म लिखा हुआ दिखाई पड़े, समझ लेना आसपास हिंसक निवास करते होंगे। और कोई कारण नहीं है। आसपास हिंसक बैठे होंगे, जिन्होंने वह तख्ती लगाई है अहिंसा परम धर्म! वह हिंसक की तरकीब है। और आदमी ने इतनी तरकीबें ईजाद की हैं कि तरकीबें—तरकीबें ही रह गई हैं, आदमी खो गया है।
सहज होने का मतलब है जो है, दैट व्हिच इज इज; जो है, वह है। अब उस होने के बाहर कोई उपाय नहीं है। उस होने में रहना है। उसमें ही रहूंगा। लेकिन वह होना इतना दुखद है कि उसमें रहा नहीं जा सकता। नरक में आपको डाल दिया जाए तो आप हैरान होंगे कि नरक में रहने में आपके सपने ही सहयोगी बनेंगे। तो आप आंख बंद करके सपना देखते रहेंगे। उपवास किया है किसी दिन आपने? तो आप आंख बंद करके भोजन के सपने देखते रहेंगे। उपवास के दिन भी भोजन का सपना ही सहयोगी बनता है उपवास पार करने में; भोजन का सपना चलता रहता है भीतर। अगर भोजन का सपना बंद कर दें तो उपवास उसी वक्त टूट जाए। लेकिन कल कर लेंगे सुबह।
एक प्रोफेसर मेरे साथ थे यूनिवर्सिटी में। बहुत दिन साथ रहने पर मैंने.. .पहले तो मुझे पता नहीं चला, कभी—कभी अचानक एकदम वे मिठाइयों और इन सब की बात करने लगते। मैंने कहा कि बात क्या है? कभी—कभी करते हैं! फिर मैंने पकड़ा तो अंदाज लगाया तो पता चला कि हर शनिवार को करते हैं। तो मैंने उनसे पूछा एक दिन— शनिवार था और वे आए— और मैंने कहा कि अब तो आप जरूर मिठाई की बात करेंगे। उन्होंने कहा, क्यों, आप क्यों यह बात कहते हैं? तो मैंने कहा कि मैं इधर दो महीने से रिकार्ड रख रहा हूं आपका, शनिवार को जरूर मिठाई की बात करते हैं। आप शनिवार को उपवास तो नहीं करते? उन्होंने कहा, आपको किसने कहा? मैंने कहा, कोई कहने का सवाल ही नहीं है, मैंने हिसाब लगाया है। उन्होंने कहा, करता हूं। आपने कैसे पकड़ा? मैंने कहा, पकड़ा क्या, मैं देखता हूं कि कोई भी स्वस्थ आदमी जो ठीक से खाता—पीता हो, मिठाई की क्यों बात करे? पर आप ठीक खाते—पीते आदमी हैं।
शनिवार को जरूर वे बात करते, कोई न कोई बहाना फौरन वे कोई बहाने से भी निकाल लेते और वे मिठाई की बात शुरू करते। उन्होंने कहा कि मैं शनिवार— आपने अच्छा पकड़ा— लेकिन शनिवार को मैं दिन भर सोचता रहता हूं कि कल यह खाऊं वह खाऊं, यह करूं, वह करूं। उसी के सहारे तो गुजार पाता हूं; शनिवार मैं उपवास करता हूं। तो मैंने उनसे कहा कि एक दिन ऐसा करो कि ये सपने मत देखो, उपवास करो। उन्होंने कहा, फिर उपवास टूट जाएगा; इसी के सहारे मैं दिन भर खींच पाता हूं। कल की आशा आज को गुजार देती है। कल की आशा आज को बिता देती है।
हिंसक अपनी हिंसा गुजार रहा है, अहिंसा की आशा में, क्रोधी अपने क्रोध को गुजार रहा है, दया की आशा में; चोर अपनी चोरी को गुजार रहा है, दान की आशा में; पापी अपने पाप को गुजार रहा है, पुण्यात्मा होने की आशा में। ये आशाएं बड़ी अधार्मिक हैं। नहीं, तोड़ दें इनको। जो हैं, हैं— उसे जान लें और उसके साथ जीएं। वह जो फैक्ट है, उसके साथ जीएं। वह कठिन है, कठोर है, बहुत दुखद है, बहुत मन को पीड़ा देगा कि मैं ऐसा आदमी हूं!
अब एक आदमी है सेक्सुअलिटी से भरा है, ब्रह्मचर्य की किताब पढ़कर गुजार रहा है! काम से भरा है, किताब ब्रह्मचर्य की पढ़ता है, तो वह सोचता है कि हम बड़े ब्रह्मचर्य के साधक हैं। काम से भरा है। अब वह किताब ब्रह्मचर्य की बड़ा सहारा बन रही है उसको कामुक रहने में; वह कह रहा है, आज कोई हर्ज नहीं, आज तो गुजर जाए, आज और भोग लो, कल से तो पक्का ही कर लेना।
मैं एक घर में मेहमान था। एक के ने मुझसे कहा कि एक संन्यासी ने मुझे तीन दफे ब्रह्मचर्य का व्रत दिलवाया!
तीन दफा? मैंने कहा। ब्रह्मचर्य का व्रत एक दफा काफी है। दूसरी दफे कैसे लिया? क्योंकि ब्रह्मचर्य का व्रत तीन दफे कैसे लेना पड़ेगा? तो उन्होंने कहा, मैं तो कई लोगों से कह चुका, लेकिन किसी ने मुझे पकड़ा नहीं। वे कहते हैं, अच्छा, आपने तीन दफे व्रत लिया! और कोई कहता नहीं। आप…। मैंने कहा कि ब्रह्मचर्य का व्रत तो एक ही दफे हो सकता है; दुबारा कैसे लिया? उन्होंने कहा, वह टूट गया। फिर तिबारा लिया। तो फिर मैंने कहा, चौथी बार नहीं लिया? तो उन्होंने कहा कि नहीं, फिर मेरी हिम्मत ही टूट गई लेने की। लेकिन तीन दफे लेते—लेते वे साठ साल के हो गए। गुजार दी कामुकता— ब्रह्मचर्य का व्रत ले— लेकर गुजार दी कामुकता।
हम बड़े अदभुत हैं। यह हमारा असहज योग है जो चल रहा है। असहज योग! रहेंगे कामुक, पढ़ेंगे ब्रह्मचर्य की किताब। वह ब्रह्मचर्य की किताब हमारी सेक्सुअलिटी के लिए बड़ा बफर का काम कर रही है। उसे पढ़े जाएंगे, तो मन में समझाए जाएंगे कि कौन कहता है मैं कामुक हूं! किताब ब्रह्मचर्य की पढ़ता हूं। अभी जरा कमजोर हूं पिछले जन्मों के कर्म बाधा दे रहे हैं; अभी समय नहीं आया है, इसलिए थोड़ा चल रहा है, लेकिन बाकी हूं मैं ब्रह्मचारी। ब्रह्मचारी की ही धारणा मेरी है।
इधर सेक्स चलेगा, इधर ब्रह्मचर्य— दोनों साथ। ब्रह्मचर्य बफर बन जाएगा, शॉक—एज्जार्बर बन जाएगा। सेक्स की गद्दी लगी रहेगी भीतर, वहां कोई धक्के न पहुंचेंगे, यात्रा ठीक से हो जाएगी। यह असहज स्थिति है।
सहज स्थिति का मतलब है कि बफर हटा दो, सड़क पर गड्डे हैं तो जानो; गाड़ी बिना बफर की, बिना शॉक—एज्जार्बर की चलाओ। पहले ही गड्डे पर प्राण निकल जाएंगे, कमर टूट जाएगी, गाड़ी के बाहर निकल आओगे कि नमस्कार, इस गाड़ी में अब नहीं चलते। गाड़ी के सिग निकालकर चलेंगे रास्ते पर, पहले ही गड्डे में प्राण निकल जाएंगे, हड्डी टूट जाएंगी; गाड़ी के बाहर हो जाएंगे, कहेंगे, नमस्कार! अब इस गाड़ी में हम कदम न रखेंगे। लेकिन वे नीचे लगे शॉक—एज्जार्बर गड्डों को पी जाते हैं।
सहज योग का मतलब है. जो है, वह है। असहज होने की चेष्टा न करें; जो है उसे जानें, स्वीकार करें, पहचानें और उसके साथ रहने को राजी हो जाएं। और फिर क्रांति सुनिश्चित है। जो है, उसके साथ जो भी रहेगा, बदलेगा। क्योंकि साठ साल फिर उपाय नहीं है कामुकता में गुजारने का। कितने दफे व्रत लेंगे? व्रत लेंगे तो उपाय हो जाएगा।
अगर मैंने आप पर क्रोध किया और क्षमा मांगने न जाऊं, और जाकर कल कह आऊं कि मैं आदमी गलत हूं और अब मुझसे दोस्ती रखनी हो तो ध्यान रखना, मैं फिर—फिर क्रोध करूंगा, क्षमा मैं क्या मांग! मैं आदमी ऐसा हूं कि मैं क्रोध करता हूं। सब दोस्त टूट जाएंगे। सब संबंध छिन्न—भिन्न हो जाएंगे। अकेले क्रोध को लेकर जीना पड़ेगा फिर। फिर क्रोध ही मित्र रह जाएगा। क्रोध करनेवाला भी कोई, क्रोध सहनेवाला भी कोई, क्रोध उठानेवाला भी कोई पास न होगा। तब उस क्रोध के साथ जीना पड़ेगा। जी सकेंगे उस क्रोध के साथ? छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। कहेंगे, यह क्या पागलपन है?
नहीं, लेकिन तरकीब हमने निकाल ली है। सुबह पत्नी पर नाराज हो रहा है पति, घंटे भर बाद मना—समझा रहा है, साड़ी खरीदकर ले आ रहा है। वह पत्नी समझ रही है कि बड़े प्रेम से भर गया है। वह बेचारा अपने क्रोध का पश्चात्ताप करके फिर पुनर्स्थापित, पुराने स्थान पर पहुंच रहा है—पुरानी सीमा पर जहां से झगड़ा शुरू हुआ था, उस लाइन पर फिर पहुंच रहा है। साड़ी—वाड़ी आ जाएगी, पत्नी वापस लौट आएगी, पुरानी रेखा फिर खड़ी हो जाएगी। सांझ फिर वही होना है। उसी रेखा पर सुबह हुआ था, वही रेखा फिर स्थापित हो गई। फिर सांझ वही होना है। फिर रात वही समझाना है, फिर सुबह वही होना है। पूरी जिंदगी वही दोहरना है। लेकिन दोनों में से कोई भी इस सत्य को न समझेगा कि सत्य क्या है? यह हो क्या रहा है? यह क्या जाल है? बेईमानी क्या है यह? दोनों एक—दूसरे को धोखा दिए चले जाएंगे। हम सब एक—दूसरे को धोखा दिए चले जाते हैं। और दूसरे को धोखा देना तो ठीक, अपने को ही धोखा दिए चले जाते हैं।
सहज योग का मतलब है अपने को धोखा मत देना। जो हैं, जान लेना, यही हूं ऐसा ही हूं। और अगर ऐसा जान लेंगे तो बदलाहट तत्काल हो जाएगी—युगपत, उसके लिए रुकना न पड़ेगा कल के लिए। किसी के घर में आग लगी हो और उसे पता चल जाए कि घर में आग लगी है, तो रुकेगा कल तक? अभी छलांग लगाकर बाहर हो जाएगा। जिस दिन जिंदगी जैसी हमारी है हम उसे पूरा देख लेते हैं, उसी दिन छलांग की नौबत आ जाती है।
लेकिन घर में आग लगी है, हमने अंदर फूल सजा रखे हैं। हम आग को देखते ही नहीं, हम फूल को देखते हैं। जंजीरें हाथ में बंधी हैं, हमने सोने का पालिश चढ़ा रखा है। हम जंजीरें देखते ही नहीं, हम आभूषण देखते हैं। बीमारियों से सब घाव हो गए हैं, हमने पट्टियां बांध रखी हैं, पट्टियों पर रंग पोत दिए हैं। हम रंगों को देखते हैं, भीतर के घावों को नहीं देखते।
असत्य बांधता है, सत्य मुक्त करता है:
धोखा लंबा है और पूरी जिंदगी बीत जाती है और परिवर्तन का क्षण नहीं आ पाता है। उसे हम पोस्टपोन करते चले जाते हैं। मौत पहले आ जाती है, वह पोस्टपोनमेंट किया हुआ क्षण नहीं आता। मर पहले जाते हैं, बदल नहीं पाते हैं।
बदलाहट कभी भी हो सकती है। सहज योग बदलाहट की बहुत अदभुत प्रक्रिया है। सहज योग का मतलब यह है कि जो है उसके साथ जीओ, बदल जाओगे। बदलने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है। सत्य बदल देता है।
जीसस का वचन है टुथ लिबरेट्स। वह जो सत्य है वह मुक्त करता है।
लेकिन सत्य को हम जानते ही नहीं। हम असत्य को लीप—पोत कर खड़ा कर लेते हैं। असत्य बांधता है, सत्य मुक्त करता है। दुखद से दुखद सत्य भी सुखद से सुखद असत्य से बेहतर है, क्योंकि सुखद असत्य बहुत खतरनाक है, वह बांधेगा। दुखद सत्य भी मुक्त करेगा। उसका दुख भी मुक्तिदायी है। इसलिए दुखद सत्य के साथ जीना, सुखद असत्य को मत पालना। सहज योग इतना ही है। और फिर तो समाधि आ जाएगी। फिर समाधि को खोजने न जाना पड़ेगा, वह आ जाएगी।
जब रोना आए तो रोना, रोकना मत, और जब हंसना आए तो हंसना, रोकना मत। जब जो हो उसे होने देना और कहना, यह हो रहा है।
मैंने सुना है, जापान में एक फकीर मरा। उसके मरते समय लाखों लोग इकट्ठे हुए। उसकी बड़ी कीर्ति थी। लेकिन उससे भी ज्यादा कीर्ति उसके एक शिष्य की थी। उस शिष्य के कारण ही गुरु प्रसिद्ध हो गया था। लेकिन जब लोग आए तो उन्होंने देखा वह जो शिष्य है, वह बाहर बैठकर छाती पीटकर रो रहा है। तो लोगों ने कहा कि आप और रो रहे हैं? हम तो समझते थे आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए! और आप रोते हैं? तो उस शिष्य ने कहा कि पागलो, तुम्हारे ज्ञान के पीछे मैं रोना न छोडूंगा। रोने की बात ही और। रखो अपने ज्ञान को, सम्हालो, मुझे नहीं चाहिए। पर उन्होंने कहा कि अरे, लोग क्या कहेंगे? अंदर जाओ! बदनामी फैल जाएगी। हम तो समझे तुम स्थितप्रज्ञ हो गए; हम तो समझे थे कि तुम परम तानी हो गए; और हम तो समझे थे कि अब तुम्हें कुछ भी नहीं छुएगा। उसने कहा, तुम गलत समझे थे। बल्कि पहले मुझे बहुत कम छूता था, संवेदनशीलता मेरी कम थी, मैं कठोर था। अब तो सब मुझे छूता है और आर—पार निकल जाता है। मैं तो रोऊंगा, मैं तो दिल भरकर रोऊंगा। तुम्हारे ज्ञान को फेंको। पर वे लोग, जैसा कि भक्तगण होते हैं, उन्होंने कहा कि सब में बदनामी फैल जाएगी। भीड़ करके, घेरा करके रोको, किसी को देखने मत दो। बदनामी हो जाएगी कि परम शानी. .किसी एक ने कहा कि तुम तो सदा समझाते थे कि आत्मा अमर है, अब क्यों रो रहे हो? तो उस फकीर ने कहा, आत्मा के लिए कौन रो रहा है? मैं तो उस शरीर के लिए रो रहा हूं। वह शरीर भी बहुत प्यारा था, और वह शरीर अब दुबारा इस पृथ्वी पर कभी नहीं होगा। आत्मा के लिए कौन रो रहा है! वह तो सदा रहेगी। उसके लिए रो कौन रहा है? लेकिन वह शरीर भी बहुत प्यारा था जो टूट गया। और वह मंदिर भी बहुत प्यारा था जिसमें उस आत्मा ने वास किया। अब वह दुबारा नहीं होगा। मैं उसके लिए रो रहा हूं। अरे, उन्होंने कहा, पागल शरीर के लिए रोते हो? उस फकीर ने कहा कि रोने में भी शर्तें लगाओगे क्या? मुझे रोने भी नहीं दोगे?
प्रामाणिकता से रूपांतरण:
मुक्त चित्त वही हो सकता है जो सत्यचित्त हो गया। सत्यचित्त का मतलब, जो हो रहा है—रोना है तो रोएं, हंसना है तो हंसे, क्रोध करना है तो बी आथेंटिक, क्रोध में भी पूरे प्रामाणिक हों। और जब क्रोध करें तो पूरे क्रोध ही हो जाएं—कि आपको भी पता चल जाए कि क्रोध क्या है और आपके आसपास को भी पता चल जाए कि क्रोध क्या है। वह मुक्तिदायी होगा। बजाय इंच—इंच क्रोध जिंदगी भर करने के, पूरा क्रोध एक ही दफे कर लें और जान लें। तो उससे आप भी झुलस जाएं और आपके आसपास भी झुलस जाए और पता चल जाए कि क्रोध क्या है।
क्रोध का पता ही नहीं चलता। आधा—आधा चल रहा है। वह भी अनआथेंटिक चल रहा है। इंच भर करते हैं और इंच भर……. हमारी यात्रा ऐसी है, एक कदम चलते हैं, एक कदम वापस लौटते हैं, न कहीं जाते, न कहीं लौटते, बस जगह पर खड़े नाचते रहते हैं। कहीं जाना—आना नहीं है।
सहज योग का इतना ही मतलब है कि जो है जीवन में, उसको स्वीकार कर लें, उसे जानें और जीएं। और इस जीने, जानने और स्वीकृति से आएगा परिवर्तन, म्यूटेशन, बदलाहट। और वह बदलाहट आपको वहां पहुंचा देगी जहां परमात्मा है।
यह जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं यह सहज योग की ही प्रक्रिया है। इसमें आप स्वीकार कर रहे हैं जो हो रहा है; अपने को छोड़ रहे हैं पूरा और स्वीकार कर रहे हैं जो हो रहा है। नहीं तो आप सोच सकते हैं, पढ़े—लिखे आदमी, सुशिक्षित, संपन्न, सोफिस्टिकेटेड, सुसंस्कृत—से रहे हैं खड़े होकर, चिल्ला रहे हैं, हाथ—पैर पटक रहे हैं, विक्षिप्त की तरह नाच रहे हैं! यह सामान्य नहीं है। कीमती है लेकिन, असामान्य है। इसलिए जो देख रहा है उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि यह क्या हो रहा है। उसे हंसी आ रही है कि यह क्या हो रहा है! उसे पता नहीं कि वह भी इस जगह खड़े होकर प्रामाणिक रूप से जो कहा जा रहा है, करेगा, तो उसे भी यही होगा। और हो सकता है उसकी हंसी सिर्फ डिफेंस—मेजर हो, वह सिर्फ हंसकर अपनी रक्षा कर रहा है। वह कह रहा है, हम ऐसा नहीं कर सकते। वह हंसकर यह बता रहा है, हम ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन उसकी हंसी कह रही है कि उसका कुछ संबंध है। उसकी हंसी कह रही है कि वह इस मामले से कुछ न कुछ संबंध उसका है। अगर वह भी इस जगह इसी तरह खड़ा होगा, यही करेगा। उसने भी अपने को रोका है, दबाया है; रोया नहीं, हंसा नहीं, नाचा नहीं।
बर्ट्रेड रसेल ने पीछे एक बार कहा कि मनुष्य की सभ्यता ने आदमी से कुछ कीमती चीजें छीन लीं—उसमें नाचना एक है। बर्ट्रेड रसेल ने कहा, आज मैं ट्रैफलगर स्कायर पर खड़े होकर लंदन में नाच नहीं सकता। कहते हैं हम स्वतंत्र हो गए हैं, कहते हैं कि दुनिया में स्वतंत्रता आ गई है, लेकिन मैं चौरस्ते पर खड़े होकर नाच नहीं सकता। ट्रैफिक का आदमी फौरन मुझे पकड़कर थाने भेज देगा कि आप ट्रैफिक में बाधा डाल रहे हैं। और आप आदमी पागल मालूम होते हैं, चौरस्ता नाचने की जगह नहीं। बर्ट्रेंड रसेल ने कहा कि कई दफे आदिवासियों में जाकर देखता हूं और जब उन्हें नाचते देखता हूं रात, आकाश के तारों की छाया में, तब मुझे ऐसा लगता है सभ्यता ने कुछ पाया या खोया?
बहुत कुछ खोया है। बहुत कुछ खोया है। कुछ पाया है, बहुत कुछ खोया है। सरलता खोई है, सहजता खोई है, प्रकृति खोई है, और बहुत तरह की विकृति पकड़ ली है। ध्यान आपको सहज अवस्था में ले जाने की प्रक्रिया है।
साधक के लिए पाथेय:
इसलिए अंतिम बात जो आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि यहां तीन दिन में जो हुआ, वह महत्वपूर्ण है। कुछ लोगों ने बड़ी अदभुत प्रतीति पाई, कुछ लोग प्रतीति की झलक तक पहुंचे, कुछ लोग प्रयास तो किए लेकिन पूरा नहीं कर पाए, फिर भी प्रयास किए और निकट थे, प्रवेश हो सकता था। लेकिन सभी ने कुछ किया, सिर्फ दो—चार—दस मित्रों को छोड्कर। उनको, जिन्हें बुद्धिमान होने का भ्रम है, उनको छोड्कर। जिनके पास बुद्धि कम, किताबें ज्यादा हैं, उनको छोड्कर बाकी सारे लोग संलग्न हुए। और सारा वातावरण, बहुत सी बाधाओं के बावजूद भी, एक विशेष प्रकार की शक्ति से निर्मित हुआ। और बहुत कुछ घटा। लेकिन वह सिर्फ प्रारंभ है।
घर जाकर ध्यान का प्रयोग जारी रखें:
आप घर जाकर घंटे भर इस प्रयोग को चौबीस घंटे में से देते रहना, तो आपकी जिंदगी में कोई द्वार खुल सकता है। और घर के लिए—कमरा बंद कर लें, और घर के लोगों को कह दें कि घंटे भर इस कमरे में कुछ भी हो, इस संबंध में चिंतित होने का कारण नहीं है। कमरे के भीतर नग्न हो जाएं, सब वस्त्र फेंक दें। और खड़े होकर प्रयोग करें। गद्दी बिछा लें, ताकि गिर जाएं तो कोई चोट न लग जाए। खड़े होकर प्रयोग करें। और घर के लोगों को पहले जता दें कि बहुत कुछ हो सकता है— आवाजें आ सकती हैं, रोना निकल सकता है—कुछ भी हो सकता है भीतर, लेकिन घर के लोगों को बाधा नहीं देनी है। यह पहले बता दें।
और इस प्रयोग को घंटे भर दोहराते रहें, दुबारा शिविर में मिलने के पहले। और अगर जो मित्र यहां प्रयोग किए हैं वे अगर सारे मित्र घर जाकर दोहराते हैं, तो उनके लिए मैं फिर अलग शिविर ले सकूंगा। तब उन्हें और गति दी जा सकती है।
बहुत संभावना है, अनंत संभावनाएं हैं, लेकिन आप कुछ करें। आप एक कदम चलें तो परमात्मा आपकी तरफ सौ कदम चलने को सदा तैयार है। लेकिन आप एक कदम भी न चलें, तब फिर कोई उपाय नहीं है।
जाकर इस प्रयोग को जारी रखें। संकोच बहुत घेरेंगे। क्योंकि घर में छोटे बच्चे क्या कहेंगे कि पिता को क्या हो गया! वे तो कभी ऐसे न थे, सदा गुरु—गंभीर थे। ऐसा नाचते हैं, कूदते हैं, चिल्लाते हैं! हम नाचते—कूदते थे बच्चे घर में तो वे डांटते— डपटते थे कि गलत है यह, अब खुद को क्या हो गया है? जरूर बच्चे हंसेंगे। लेकिन उन बच्चों से माफी मांग लेना, और उन बच्चों से कह देना कि भूल हो गई। तुम अभी भी नाचो और कूदो और आगे भी नाचने—कूदने की क्षमता को बचाए रखना, वह काम पड़ेगी।
बच्चों को जल्दी हम का बना देते हैं।
घर में सबको जता देना कि यह घंटे भर कुछ भी हो, उसके संबंध में कोई व्याख्या नहीं करनी है, कोई पूछताछ नहीं करनी है। एक दिन कह देने से बात हल हो जाती है, दो या तीन दिन चलने पर घर के लोग समझ लेते हैं कि ठीक है, ऐसा होता है। और न केवल आप बल्कि आपके पूरे घर में परिणाम होने शुरू हो जाएंगे।
ऊर्जावान ध्यान कक्ष:
जिस कमरे में आप करें इस प्रयोग को, अगर उस कमरे को संभव हो सके आपके लिए, तो फिर इसी प्रयोग के लिए रखें, उसमें कुछ दूसरा काम न करें। छोटी कोठरी हो, ताला बंद कर दें, उसमें सिर्फ यही प्रयोग करें। और अगर घर के दूसरे लोग भी उसमें आना चाहें तो वह प्रयोग करने के लिए आएं तो ही आ सकें, अन्यथा उसे बंद कर दें। नहीं संभव हो सके तो बात अलग है। संभव हो सके तो इसके बहुत फायदे होंगे। वह कमरा चार्ब्द हो जाएगा।
वह रोज आप जब उसके भीतर जाएंगे तो आपको पता चलेगा कि साधारण कमरा नहीं है। क्योंकि हम पूरे समय अपने चारों तरफ रेडिएशन फैला रहे हैं। हमारे चारों तरफ हमारी चित्त—दशा की किरणें फिंक रही हैं। और कमरे और जगहें भी किरणों को पी जाती हैं।
और इसीलिए हजारों—हजारों साल तक भी कोई जगह पवित्र बनी रहती है। उसके कारण हैं। अगर वहां कभी कोई महावीर या बुद्ध या कृष्ण जैसा व्यक्ति बैठा हो, तो वह जगह हजारों साल के लिए और तरह का इम्पैक्ट ले लेती है, उस जगह पर खड़े होकर आपको दूसरी दुनिया में प्रवेश करना बहुत आसान हो जाता है।
तो जो संपन्न हैं……. और संपन्न का मैं तो एक ही लक्षण मानता हूं कि उसके घर में मंदिर हो सके, बस वही संपन्न है, बाकी सब दरिद्र ही हैं। घर में एक कमरा तो मंदिर का हो सके, जो एक दूसरी दुनिया की यात्रा का द्वार हो। वहां कुछ और न करें। वहां जब जाएं, मौन जाएं; और वहां ध्यान को ही करें। और घर के लोगों को भी धीरे— धीरे उत्सुकता बढ़ जाएगी, क्योंकि आप में जो फर्क होने शुरू होंगे वे दिखाई पड़ने लगेंगे।
अब यहां जिन दो—चार लोगों को कीमती फर्क हुए हैं, दूसरे लोगों ने उनसे जाकर पूछना शुरू कर दिया कि आपको क्या हो गया है! उन्होंने मुझसे भी आकर कहा कि हम क्या जवाब दें? हमसे लोग पूछ रहे हैं कि क्या हो गया है!
तो वे आपके घर के बच्चे, आपकी पत्नी, पति, पिता, बेटे, वे सब पूछने लगेंगे, मित्र पूछने लगेंगे कि क्या हो रहा है! वे भी उत्सुक होंगे। और अगर इस प्रयोग को जारी रखते हैं तो दूर नहीं वह क्षण जब आपके जीवन में घटना घट सकती है—जिस घटना के लिए अनंत जन्मों की यात्रा करनी होती है, और जिस घटना के लिए अनंत जन्मों तक हम चूक सकते हैं।
विराट ध्यान आंदोलन की आवश्यकता:
मनुष्य—जाति के इतिहास में आनेवाले कुछ वर्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं। और अगर एक बहुत बड़ी स्प्रिचुएलिटी का जन्म नहीं हो सकता— अब आध्यात्मिक लोगों से काम नहीं चलेगा— अगर आध्यात्मिक आंदोलन नहीं हो सकता, कि लाखों—करोड़ों लोग उससे प्रभावित हो जाएं, तो दुनिया को भौतिकवाद के गर्त से बचाना असंभव है। और बहुत मोमेंटस क्षण हैं कि पचास साल में भाग्य का निपटारा होगा—या तो धर्म बचेगा, या निपट अधर्म बचेगा। इन पचास साल में बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मोहम्मद, राम, जीसस, सबका निपटारा होने को है। इन पचास सालों में एक तराजू पर ये सारे लोग हैं और दूसरे तराजू पर सारी दुनिया के विक्षिप्त राजनीतिज्ञ, सारी दुनिया के विक्षिप्त भौतिकवादी, सारी दुनिया के भ्रांत और अज्ञान में स्वयं और दूसरों को भी धक्का देनेवाले लोगों की बड़ी भीड़ है। और एक तरफ तराजू पर बहुत थोड़े से लोग हैं। पचास सालों में निपटारा होगा। वह जो संघर्ष चल रहा है सदा से, वह बहुत निपटारे के मौके पर आ गया है। और अभी तो जैसी स्थिति है उसे देखकर आशा नहीं बंधती। लेकिन मैं निराश नहीं हूं क्योंकि मुझे लगता है कि बहुत शीघ्र बहुत सरल—सहज मार्ग खोजा जा सकता है जो करोड़ों लोगों के जीवन में क्रांति की किरण बन जाए।
और अब इक्का—दुक्का आदमियों से नहीं चलेगा। जैसा पुराने जमाने में चल जाता था कि एक आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया। अब ऐसा नहीं चलेगा। ऐसा नहीं हो सकता। अब एक आदमी इतना कमजोर है, क्योंकि इतनी बड़ी भीड़ पैदा हुई है, इतना बड़ा एक्सप्लोजन हुआ है जनसंख्या का कि अब इक्का—दुक्का आदमियों से चलनेवाली बात नहीं है। अब तो उतने ही बड़े व्यापक पैमाने पर लाखों लोग अगर प्रभावित हों, तो ही कुछ किया जा सकता है।
लेकिन मुझे दिखाई पड़ता है कि लाखों लोग प्रभावित हो सकते हैं। और थोड़े से लोग अगर न्युक्लियस बनकर काम करना शुरू करें तो यह हिंदुस्तान उस मोमेंटस फाइट में, उस निर्णायक युद्ध में बहुत कीमती हिस्सा अदा कर सकता है। कितना ही दीन हो, कितना ही दरिद्र हो, कितना ही गुलाम रहा हो, कितना ही भटका हो, लेकिन इस भूमि के पास कुछ संरक्षित संपत्तियां हैं। इस जमीन पर कुछ ऐसे लोग चले हैं, उनकी किरणें हैं, हवा में उनकी ज्योति, उनकी आकांक्षाएं सब पत्तों—पत्तों पर खुद गई हैं। आदमी गलत हो गया है, लेकिन अभी जमीन के कणों को बुद्ध के चरणों का स्मरण है। आदमी गलत हो गया है, लेकिन वृक्ष पहचानते हैं कि कभी महावीर उनके नीचे खड़े थे। आदमी गलत हो गया है, लेकिन सागर ने सुनी हैं और तरह की आवाजें भी। आदमी गलत हो गया है, लेकिन आकाश अभी भी आशा बांधे है। आदमी भर वापस लौटे तो बाकी सारा इंतजाम है।
तो इधर मैं इस आशा में निरंतर प्रार्थना करता रहता हूं कि कैसे लाखों लोगों कै जीवन में एक साथ विस्फोट हो सके। आप उसमें सहयोगी बन सकते हैं। आपका अपना विस्फोट बहुत कीमती हो सकता है— आपके लिए भी, पूरी मनुष्य—जाति के लिए भी। इस आशा और प्रार्थना से ही इस शिविर से आपको विदा देता हूं कि आप अपनी ज्योति तो जलाएंगे ही, आपकी ज्योति दूसरे बुझे दीयों के लिए भी ज्योति बन सकेगी।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, उससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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